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________________ मूलाराधना आवासः १८५८ तेरा ऐसा प्रभाव है कि उसका मैं वचनों के द्वारा वर्णन करने में असमर्थ है.हे जननि जो तेरा आराधन करते हैं. उनको अचल अनन्त-विनाशरहित ऐसा पुरुषपद प्राप्त होता है. अर्थात उनको मोक्ष मिलता है. ७ हे आत्मम् ! तूं इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानोंको छोडकर निर्मल चैतन्यरूप शरीर धारण करने वाला आत्माकी प्राप्ति होने के लिये उसको स्वानुभव के द्वारा देख ले जिससे तुझको असीम-अमार्याद आनंद प्राप्त होगा. यह आत्मा आनंदरूप हैं ऐसी तृ श्रद्धा कर. हे जननी आराधने 'तुझको निश्चल तेजास्वरूप अपनी आस्मामें देख लेता हूं. मैं तेरको स्वस्वरूपमें सर्व तरफ फैलाता हूं जिससे मेरा संसारमें पुनरागमन न होगा और मैं कृतार्थ होउंगा. ८ हे मातः! तेरी भक्ति करनेत साधुगण का चैतन्य स्वरूप पुष्ट हो जाता है. इंद्रादिक श्रेष्ठ देवोने दक्षिणीय, आवहनीय व गाईपत्य ऐसे तीन अग्नि साधुओंके शरीरस्पर्शसे पवित्र किये हैं. गर्भाधानादिक कार्यके समय ये तीनो अग्नि गृहस्थाचायोंके द्वारा पूजे जाते हैं. इसमें आश्चर्य क्या है ? ९हे आराधना माता, पंडितपंडित अर्थात केवल ज्ञानी मुनि तेरी प्राप्ति कर लेते हैं. तूं भवका-संसारका नाश करने वाली है. जो नेरी भक्ति करता है उसको निजस्वरूपकी प्राप्ति होती है. हे मातः! मैं भी तेरी सेवा करूंगा जिससे संसारमें जब तक मैं रहूंगा तबतक बीजांकरन्यायसे मेरे साथमें रहनेवाले इन प्राणोंसे मैं स्वस्वरूपकी प्राप्ति होने के अनन्तर रहित होऊंगा. १. जिसमें सम्पूर्ण दु:खों का अन्त हुआ है ऐस। मुक्तिपद अर्पण करने वाली इस आराधना जननीकी जो स्तुति करता है उसके प्राणोंका त्याग होने से वह मुक्त हो जाता है. उसके चरण कमलोंको मोक्षेच्छु भव्य पूजते हैं और वे भी अचल ज्ञानरूपी आनंद जिसमें भरा हुआ है ऐसे मोक्षपदमें सदा ही निवास करते हैं. इस प्रकार आराधनाकी स्तुति समाप्त हुई.(इस स्तुतीके शोकोंका अर्थ ठीक हम नहीं लगा सके जैसा हमको जंचा पैसा लिखा है.) __ अथ परममुख्यावसानमंगलं सिद्धस्तवः ॥ यस्यानुग्रह्तो दुराग्रहपरित्यक्तात्मरूपात्मनः । सद्रव्य चिचित्रिकालविषय स्पैःस्वैरभीक्ष्ण गुणैः ॥ सार्थव्यंजनपर्यवैः सनियर्जानाति बोधः समं । तत्सम्यकत्वमशेयकर्मभिदुर सिद्धाः परं नौमि वः || १ ॥ १८५८
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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