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मूसाराधना
आश्वासः
एतेष्यपि च विनयोऽभिधेय इत्यधुनाभिधत्ते---
मूलारा-रादिणिगऊमरादिणिगेसु । रादिणिमा आत्मनः सकाशाद्रत्नत्रयणाधिकाः समा वा साधवः । ऊमरादि-1 णिगा अपमराविकाः आत्मनः सकाशानन्यूनरत्नत्रयाः । रातिकाश्च अबमरातिकाश्च तेषु तपसैकरामादिना ज्येष्ठकनिवित्यन्ये।
फक्त गुरूका ही विनय करना चाहिये ऐसा नहीं समझना परंतु मुनि, आर्यिका, श्रावकवर्गका भी विनय यथायोग्य करना चाहिये ऐसा प्रतिपादन करते हैं
____ अर्थ-जैसे रत्न दुर्लभ होते हैं परंतु उनकी प्राप्ति होने पर उनसे अभिलषित पदार्थ मिलते हैं. वैसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र दुर्लभ है इसलिये इनको रत्नत्रय कहते हैं. यह रत्नत्रय जीवोंका अभिलषित पदार्थ जो मोक्ष वह देता है. रत्नत्रयरूप परिणाम जिसेक उत्कृष्ट है ऐसे मुनिको 'रायणिय' ऐमा नाम है, अपने से जिस मुनिका रत्नत्रय न्यून है वह मुनि 'अरायणीय' इस नामका धारक है. अथवा जिसके अपनसे श्रेष्ठबत है और जिनके अपनेसे न्यून व्रत है उनको भी उपर्युक्त शब्दोंका क्रमसे प्रयोग कर सकते हैं, अर्थात् उपर्युक्त मुनिओका उनके योग्यतानुसार आदर करना चाहिये. आर्यिकायें और गृहस्थवर्ग इनका भी यथायोग्य विनय करना चाहिये.
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विनयाभावे दोषमाच-दोपप्रकटनेन भयमुत्पाद्य विनये हप्तां कर्तुम्
विणएण विप्पट्टणस्त हयदि सिक्खा णिरस्थिया सव्वा ॥ विणओ सिक्खाए फलं निणयफलं सव्वकल्लाणं ॥ १२८ ॥ विनयेन विना शिक्षा निष्फला सकला यतेः ।।
विनयो हि फलं तस्याः कल्याणं तस्य चिन्तितम् ।। १२१॥ विजयोदया-विणरण विप्पाहुणस्स विनयरहितस्य यते। हवा-सिक्या णिरत्थिया सर्वशिक्षा निष्फला। किं शिक्षायाः फलं प्रत्यारेक्य भाइ-विणओ सिक्साए फलं व्यावर्णितः पंचप्रकारो विनयः शिक्षायाः फलं । तस्य बिनयस्य किं फल ? पुरुषार्थो हि फलमित्याशंक्याइ-विधायफलं संवकल्लाणं सर्वमभ्युदयनिःश्रेयसरूपं कल्याणस्थानमानैश्वर्यादिकं दियमुम्नं च।
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