________________
धूलारावना
४९.३
देते हैं, अर्थात् बालाचार्य ही यहांसे उस गणका आचार्य समझा जाता है, उस समय पूर्वाचार्य उसको थोडास उपदेश भी देते हैं,
किमर्थमेवं प्रयतने सूरिः ?
अन्योच्छित्तिणिमित्तं सव्वगुणसमोयरं तयं णचा ||
अणुजादि दिसं सो एस दिसा बोति बोधित्ता ॥ २७५ ॥ अचिच्छेदाय तीर्थस्य तं विज्ञाय गुणाकरं ॥
अनुजानाति संबोध्य दिगयं भवतामिति ॥ २७५ ॥ इति दिक्सूत्रम् ।
विजयोदयाच्चच्छित्तिणिमितं धर्मतीर्थस्य ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य व्युच्छित्तिर्मा भूदित्येवमर्थं । स गुणसमोरं सर्वगुणसमन्वितं । तगं तर्क णच्या शास्या अणुजादि अनुहां करोति । दिसं आचार्य । सो सः एयः । दिसा आचार्थः । योति युग्माकमिति । बोधिसा योधयित्वा ॥ दिसा समत्ता ॥
किमथ कथं चोत्तमाश्रचित पलाचार्य गणं समर्पयतीत्याह---
मूलारा — अतिणिनिनं घर्मतीस्य अविच्छेदर्थं । समोगरं समन्वितं । स्थानं वा तर्गतं । अजायादि पालयतु भवानिभं गणं इत्यनुमन्यते । अधीच्छति वा । दिसं एलाचार्य एस दिसा कोत्ति बोधित्ता एप आचार्यो युष्माकमिति बोधयित्वा सानुकंप प्रतिपाद्य शिष्यानिति शेषः । दिक् सूत्रतः १२ अंकः ५ ।।
Į
अर्थ – धर्मतीर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र स्वरूपी हैं. इसका नाश नहीं होवे, इस की परिपाटी अखंडरूपसे चलनी चाहिये इसलिये बालाचार्यको सर्व गुणोंसे परिपूर्ण समझकर यह तुम्हारा आचार्य है ऐसा गणको समझाते हैं, यदि पूर्वाचार्य अपने स्थान में अपनी योग्यताके धारक शिष्यकी योजना न कर ही समाधिमरणके लिये संघको छोड़कर चले जायेंगे तो संपूर्ण गणके रत्नत्रयधर्मका नाश होनेसे धर्मवीर्थका ही विन्देछेद होगा अतः मेरे स्थानपर मैंने इस योग्य शिष्यको स्थापा है और यह अबसे तुम्हारा आचार्य है ऐसा कह कर वे गी क्षमा मांगते हैं. इसका वर्णन इस प्रकार हैं. ( दिशा नामक प्रकरण समाप्त हुआ है. )
आवासः
४
४९३