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मूलाराधना
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परिहृतघनधावनाविक्रियं प्रविलंबितभुजं निर्विकारमचपलं, असंभ्रान्तं, अनूव्वतिर्यक्प्रेक्षणं, हस्तमात्र परिहृत तरुणपल्लवं अकृत पशुपक्षिमृगोद्वेजनं, बिरुद्धयोनिसंक्रमभाषि जीव बाधापरिहारायासकृत्प्रतिलेखनं, वर्जितसम्मुखागच्छज्जनसंघहां, दुष्टधेनुवृषभसारमेयादिपरिहारचतुरं परितबुसतुपमसी भस्मागोग यतृणानिचय जलोपलफलकं दूरीकृतचोरीकल अनास्डरीक मेति ॥
समितिका व्याख्यान आचार्य करते हैं. प्रथमतः ईयसमितीका निरूपण करते हैंअर्थ---मार्गशुद्धि, उद्योतशुद्धि, उपयोगशुद्धि, और आलंबन ऐसी धार शुद्धिओं का आश्रय करके गमन करनेवाले मुनिकी सूत्रानुसार ईयसमिति पाली जाती है ऐसा आगममें कहा है. मार्गी शुचींटी अंकुर, शृष्ण हरे हरे पत्र, और कीचड वगैरइसे रहित
जो मार्ग है वह शुद्धमार्ग माना जाता है, उद्यशुद्धि- प्रकाश में अर्थात् प्रकाश में अधिक स्पष्टपना, और व्यापकता होना उद्योत शुद्धि है. चंद्र और नक्षत्रों का प्रकाश अस्पष्ट रहता है. प्रदीपक वगैरहका प्रकाश अध्यापक अर्थात् थोडीसी जगह घेरता है. उपयोग शुद्धि-पाँव उठाकर जिस स्थानपर रखना हो उस स्थानपर जीव जंतु है या नहीं इसका विचार कर पांच रखना चाहिए यह उपयोग शुद्धि है.
आलंबन शुद्धि-गुरुवंदना, तीर्थवंदना, चैत्यवंदना और यतिबंदनादिकोंका कारण, तथा अपूर्व शास्त्रार्थ का ग्रहण, संयमकि योग्य क्षेत्रको ढूंढना, वैयावृत्य करना. अनियत स्थान में रहना, स्वास्थ्यका संपादन करना, श्रमको दूर करना, अनेक देशोंकी भाषाओंका अध्ययन करना, भव्याँको उपदेश देना इत्यादि कार्यों की अपेक्षासे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाना इसको आलंबन शुद्धि कहते हैं.
आचार - शास्त्रमें वर्णन किंच प्रकार से गमन करना चाहिये. अर्थात वेगसे गमन नहीं करना, अतिशय मंद भी गमन नहीं करना चाहिये, आगे चार हाथ जमीन देखकर गमन करना चाहिये दूर अंतर पर पांच नहीं रखने चाहिये. भीति और विस्मय का त्यागकर चलना चाहिये. इधर उधर न देखकर गमन करना चाहिये. कूदना, भागना ये क्रिया छोडकर और बाहु नीचे छोडकर जाना चाहिये. निर्विकार, चपलता रहित, ऊपर तथा इधर उधर न देखकर जाना चाहिये. तृण, पल्लवादिकसे एक हाथ दूर रहकर गमन करना चाहिये. पशु, पक्षी और मृगको
आश्वास
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