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________________ CARATHAARAranasDAct.at मुलाराधना अधि लीणो वि मट्टियाए उदीरदि जलासयेण जह गधो ॥ लीणो उदीरदि गरे मोहो तरुणासयेण तहा ॥ १०७४ ।। शांतोप्युदीयते मोहः पुंसस्तरुणसंगतः ॥ लीनः किं मृत्तिकागंधो नोदेति जलयोगतः ॥ १६५७ ।। विजयोक्या-लीणो विलीनोऽपि। मनियार मृतिकाया। गंधो गंधः । जघा जलासयेण जलाश्रयेण । उदीर दि उवयमुपैति । लीणो षि मोहो परेलीमोऽपि नरे मोहः । उदीरदि उदयमुपनीयते । तरूणासरण सरणाश्रयण तथा । मोहोदयभावाभावयोस्तरुणसंसर्गभावाभावानुविधायित्वं दृष्टान्तेन स्पष्टयितु गाथाद्वयमाहमूलारा--लीणो वि इनि-लीणो अनुभूनः 1 जलासएण नीरसंसर्गेण ।। अर्थ - जैसा मट्टीम गंध रहता है परंतु जलके आश्रयसे वह प्रगट होता है यमा नरुण के आश्रगम गुप्त भी मोह उमड पडता है. संतो वि मट्टियाए गंधो लीणो हयदि जलेण विणा ॥ जह तह गुठीए विणा गरस्स लीणो हवदि मोहो ॥ १.७५ ।। रहितो युवसंगत्या मोष्टः सम्मपि लीयते ।। जीवस्य जलसंगत्या पुष्पगंध इव स्फुट । ११८८ ॥ विजयोदया--सन्तो वि सनधि मृत्तिकाया गंधः । जलेन बिना लीनो भवति यथा तथा गोष्टयर बिना मोहो नरस्य लीनो भवति । मूलारा-भतो वि इति–हीणो हवइ नोदेतीत्यर्थः ॥ अर्ध-मट्टीका गंध मट्टी में रहता हुआ भी जलके संसर्गके बिना प्रगट होता नहीं है. वैसा संसर्ग के बिना मनुष्यका मोह प्रगट नही होता है. ११००
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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