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मूलाराधना
गावासा
होनेपर मनमें जो अभिप्राय उत्पन्न होता है वह अर्थशब्दका भाव है. अर्थात् गणधरादिरचित सूत्रों के अर्थको यहां अर्थ समझना चाहिये. अश्रशद्धिका अर्थ इस मुजब सम्झना-विपरीतरूपसे म्बार्थके निरूपणा अर्थ ही ! आधार भूत है अतः ऐसी निरूपणा अर्थशुद्धि नहीं है. कितु यर्थार्थरूपसे जो सूत्रार्थका विवेचन होता है वही अर्थ शुद्धि हैं संशय, विपर्यय अनध्यवसायादि दीपोंस रहित सूत्राथनिरूपणको अशुद्धि कहते हैं,
शंका-सूत्रार्थनिरूपण भी शब्द श्रुत है इसलिये अविपरीतनिरूपण भी व्यंजनशुद्धि ही है. उसको अर्थशुद्धि समझना भूल है. इस शंकाका उत्तर --
शब्द श्रुतके वाक्योंका जो अविपरीन उच्चार किया जाता है वह व्यंजनशुद्धि है. और उन बाक्योंका जो अविपरीत रूपसे अर्थ समझाया जाता है वह अर्थधुद्धि है अर्थात् वाक्योंक शब्दोंका स्पष्ट उच्चार, दीर्घ-हस्त्रादिकको ध्यान में लाकर जो उच्चारण किया जाता है वह व्यंजनशद्धि है. और उनका अभिप्राय बतानेके लिये जो अविपरीत शब्दाचार किया जाता है वह अर्थशुद्धि है..
वानश्रुतमें जो अर्थकी सत्यताका अनुभव आता है वही अर्थशुद्धि है.
तदुमयशुद्धि- व्यंजनकी शुद्धि और उसके वाच्य अभिप्रायकी जो शुद्धि है वह उभयशुद्धि है. शंका-उपर व्यंजनशुद्धि और अर्थशुद्धि इन दोनोंका स्वरूप आप कह चुके हैं उनमें ही इसका भी अन्तर्भाव हो सकता है. इन दोनोंको छोटकर तदुभय शुद्धि नामकी तीसरी शुद्धि है नहीं. अतः ज्ञानविनयके आठ प्रकार सिद्ध नहीं होते है.
उतर-यहां गुरूपभेदोकी अपेक्षास निरूपण किया है
खुलासा-जस कोई पुरुष सत्रका अर्थ तो ठीक कहता है परंतु त्रको विपरीत पढता है टीक पढ़ना नहीं. श्रीगचार स्थानमें हम्बोच्चार इत्यादि दोपयुक्त बोलता है ऐसा दोपयुक्त, पहना नहीं चाहिय इस वास्ते व्यंजनशुद्धि कड़ी है. दमा कोई पुरुप सूत्रको टीक पहलेता है. परंतु मूत्रार्थ का विपरीत निरूपण करता है यह भी मान्य नहीं है इसका निराकरण करनेके लिये अर्थशुद्धि कही है, तीसरा अदमी मूत्रभी विपरीत पढ़ता है और उसका अर्थ भी अंटसंट कहता है. इन दोनो दोपोंको दूर करनेके लिये तदुभयशुद्धिको मिन्न मानना चाहिये. ज्ञानाभ्यासके ये आठ प्रकार आठ प्रकारके कर्मोको आत्मासे दूर करते हैं इसलिये इनको बिनयशब्दसे संबोधन करना सार्थक है ऐसा आचार्योका अभिप्राय है.
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