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________________ HAAR मूलाराधना | आश्वासः ४१७ कुछ शुभोदयसे देवगतीमें मेरा जन्म हुआ. परंतु वहाँ भी, "यहांसे दूर हटो, शीघ्र चले जाव, प्रभुका आनेका समय है, उनके प्रस्थानकी सूचना देनेवाला नगारा बजाओ. अरे यह ध्वज हाथ पकड़कर खड़ा हो"। "अरे दीन इन देवांगनाओंका रक्षण कर, स्वामी की अभिलाषा के अनुसार वाहनका रूप धारण कर. विपुल पुण्य रूपी धन जिसके पास है ऐसे इंद्रकान दास है क्या तु या भूतया' को साखसा हुआ है ? इंद्रक आगं क्यों भागता नहीं " ऐसे अधिकारी देवोंके कठोर वचन सुनकर वह बहुत खेदयुक्त होता है. इंद्रकी अप्सराओका हावभाव देखकर ऐसी देवांगनायें मेरेको कर मिलेंगी यह अभिलापा मनमें होकर मैने देवपर्यायमें भी यहत दुःखोंका अनुभवन किया है. इसी तरह अनंत काल दुःश्वानुभव करने में मेरा चला गया है अतः इस समय परीपह उपसर्गादि दुःख आपड़ने पर विषाद करनेसे कुछ भी फायदा नहीं है, खिन्न हुये पुरुषको क्या दुःख छोड देना है ? यह तो अपने कारणमे उत्पन्न होना है ऐसा विचार कर सत्वभावनासे दुःखोंका हमला सहन करना चाहिये. यदि अशुभ, जुगुप्सा उत्पन्न करनेवाले शरीरको देखकर भय उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी युक्त नहीं है. क्यों कि खुद मैने अशुभ शरीर असंख्यात बार ग्रहण किये हैं. और देखे हैं. वे सब शरीर मेरे परिचयके हैं. पारीचितासे भय ही कैसा उत्पन्न होगा ऐसा विचार कर मनको स्थिर करना चाहिये. मनको स्थिर करना यही सत्वभावना है. जिसने बहुत बार युद्धका अभ्यास किया है. ऐसा वीरपुरुष युद्धमें मोहयुक्त नहीं होता है अर्थात धैर्य धारण करता है वैसे सत्वभावनाका आश्य लेकर मुनि भी उपसर्ग आनेपर मोहयुक्त होते नहीं प्रत्युत पे धैर्य धारण कर उपसर्ग सहन करते हैं. एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा ॥ सज्जइ धेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं ।। २०० ।। कामे भोगे गणे देहे विवृद्वैकत्वभाषनः ॥ करोति निःस्पृहीभूय साधुर्धर्ममनुत्तरम् ।। १०.८॥ ४१५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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