Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 05
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय कल्पप्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर, पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर, साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर, व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः / सकल-आगम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञ कल्प विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. निर्मित श्री अभिधानराजेन्द्रः (सकल आगमों के समस्त संकलित शब्दों का ससंदर्भ ज्ञानमय कोष अर्थात् जिनागम कुञ्जी) पंचमो भागः ('प' से 'भोल') मुनिराज दीपविजय-यतीन्द्रविजयाभ्यां प्रथमा आवृति संशोधिता संपादिता च प्रस्तुत तृतीय संस्करण प्रकाशन के प्रेरणादाता सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती -राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर-अनेकांत के जगप्रस्तोता-श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत के अक्षय अभयारण्यश्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब प्रकाशक श्री राजेन्द्रसूरि शताब्दि शोध संस्थान, उज्जैन (M.P.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: राजेन्द्रसूरी शताब्दि शोध संस्थान 87/2 विक्रम मार्ग, टावर चोक, एस.एम.कॉम्पलेक्ष, फीगंज, उज्जैन (M.P.) / प्राप्ति स्थान: श्री अभिधानराजेन्द्र प्रकाशन संस्था श्री राजेन्द्रसूरी जैन ज्ञान मन्दिर, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट : शेखनो पाडो, रीलीफ रोड, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र जयंतसेन म्युजियम : मोहनखेडा तीर्थ मार्ग, राजगढ़, (M.P.) पार्श्व पब्लिकेशन: 102, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाम, अहमदाबाद-३८०००६ विक्रम संवत् - 2071 वीर संवत - 2540 राजेन्द्रसूरि संवत - 108 तृतीय आवृत्ति इस्वीसन - 2014 सुकृत् सहयोगी श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताबर संघ | सुभाष चोक, गोपीपुरा, सुरत टाईप सेटिंग : श्रीमद् जयन्तसेनसूरि सत्साहित्य कृते श्री देवचन्द सुखराम डोलिया इन्दौर (M.P.) मुद्रण व्यवस्था : खुश्बू प्रकाशन 103, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाँव, अहमदाबाद-६ मूल्यः संपूर्ण 7 भाग रु : 6000-00 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरुदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी - राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुतः / / सधस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान ? // 1 // Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधानराजेन्द्रः 2014 अनुक्रमणिका 4-5 7-11 प्रस्तावना-तृतीय आवृत्ति 2. सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली 3. प्रस्तावना-द्वितीय आवृत्ति आभार प्रदर्शन 5. प्रशांत-वपुषं श्रीराजेन्द्रसूरिं नुमः श्रीअभिधानराजेन्द्रः-पंचमो भागः 12-13 14 01-1627 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (तृतीय आवृत्ति) कलिकाल सर्वज्ञ कल्प-प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में तब हुए जब मुगल साम्राज्य डाँवाडोल हो चुका था, मराठा परास्त हो चुके थे और इनके साथ ही राजपूत और नवाब सभी अंग्रेजों की कूटनीतिज्ञ चाल के सामने समर्पित हो चुके थे। भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात अपनी चरम सीमा पर था। अंग्रेज अपनी योजित शैली में भारत की अन्तरात्मा कुचलने में सफल हो रहा था। भारत के सभी धर्मावलम्बियों में शिथिलाचार जोर पकड़े हुए था। ऐसे असमंजस भरे काल में विविध जीवनदर्शक साठ ग्रंथों के साथ अभिधान राजेन्द्रः (ज्ञान कोश) लेकर एक देदीप्यमान सूर्य के समान प्रकट हुए। इस ग्रंथ के निर्माण के साथ ही वे एक महान साधक, तपोनिष्ठ, क्रान्तिकारी युगदृष्टा के रूप में समाज और जगत् के असर कारक अप्रतिम पथप्रदर्शक के रूप में अवतरित हुए। आचार्य प्रवर का यह ग्रन्थराज भगवान् महावीर की वाणी का गणधरों द्वारा प्रश्रुत आर्षपुरुषों की अर्धमागधी भाषा, जिसमें सभी आगमों का संकलन हुआ है, शताब्दी का शिरमोर व विश्ववन्द्य ग्रन्थ है। यह विश्वकोश आगम साहित्य के संदर्भ ग्रन्थ के रूप में अत्यन्त मूल्यवान है। इस ग्रन्थराज की सुसमृद्ध संदर्भ-सामग्री ने, जिससे संसार सर्वथा अनभिज्ञ था, भारतीय विद्वता का मस्तक ऊँचा किया है और यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थराज की मुक्तकंठ से भरपूर प्रशंसा की है। यह सत्यान्वेषक तथा अनुसन्धानकर्ताओं के लिए मूल्यवान पोषक रहा है। इस ग्रन्थराज के विशद ज्ञान गाम्भीर्य और विद्योदधि श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजी की चमत्कारपूर्ण अद्वितीय सृजन-शक्ति के प्रति हर कोई नतमस्तक हुए बिना नहीं रहता / इस ग्रंथराज के अवलोकन करनेवालों को जैन धर्म तथा दर्शन के अपरिहार्य तथ्यों की जानकारी मंत्रमुग्ध किये बिना नहीं रहती। सूरिजी ने अंधकार युग में अपना मार्ग स्वयं ही प्रशस्त किया और वे जगत के लिए पथ-प्रदर्शक बने / उनका चारित्रिक बल, उनकी विद्वता और निर्भीकता प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि समस्त विद्वज्जगत पर महान अनुग्रह हुआ है। इस महर्द्धिक ग्रन्थराज के निर्माण ने विद्वत्संसार को चमत्कृत ढंग से प्रभावित किया। इसके अनुकरण और इसकी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायता तथा मार्गदर्शन पाकर अनेक विद्वानों ने पूरी शताब्दी भर अपने-अपने कोश-निर्माण की भावना में इस ग्रंथराज के बीजरूप में ही रखी है। यह ग्रन्थराज बीसवीं शताब्दी की एक असाधारण घटना ही है। इसने जैन-जैनेतर सभी विद्वन्मण्डल को निरन्तरउपकृत किया है और करता रहेगा। इस ग्रन्थराज में तमाम जैनागमों के अर्धमागधी भाषा के प्रत्येक शब्द का संकलन किया गया है और प्रत्येक शब्द का संस्कृत अनुवाद, लिंग,व्युपत्ति, अर्थ तथा सूत्रानुसार विवेचन और संदर्भ सहित ज्ञान सुविधापूर्वक दिया है, जो सुगम और अवबोध्य है। इस ग्रन्थराज ने लुप्तप्राय अर्धमागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने के साथ ही इसे अमरत्व प्रदान किया है। आगम शास्त्र जिज्ञासुओं के लिए उनकी तमाम शंकाओं के समाधान के लिए यह अक्षय भंडार है। इस ग्रंथराज के प्रथम खण्ड के अनेकांतवाद, अस्तित्ववाद, अदत्तादान, आत्मा (अप्पा), अभय, अभयारण्य, अर्हन्त जैसे विषयों पर संदर्भ सहित विशद व्याख्या के साथ प्रत्येक पाठक को आश्चर्यचकित करे, इतना ज्ञान आकर्षक रूप से व्याख्यायित है, जिनके अर्थबोध को पाकर हर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस ग्रंथराज के निर्माण के समय कुछ अक्षरों की अनुपलब्धता के कारण उनके स्थान पर वैकल्पिक अक्षर का उपयोग किया गया था जिससे पाठक-वृंद को पठन करने में जो असुविधा होती रही है उसका इस आवृत्ति में जिन वैकल्पिक अक्षरों का उपयोग किया गया था, उन्हें दूर कर दिया गया है तथा सर्वबोध्य अक्षरों का उपयोग कर लिया गया है। जिनके लिए वैकल्पिक अक्षर उपयोग में लिये गये थे वे हैं- अ, इ,उ, ऊ, ऋ, छ, झ, ठ, ड, ड्ड, द,द्भ, द्ग, द्व्य, भ, ल, ट्ठ, क्ष, ज्ञ, त्र, द्ध, द्व, क्व, क्त, ह्र। अब इस प्रथम भाग की तृतीय आवृत्ति में वैकल्पिक रूप हटाकरप्रवर्त्तमान प्रचलित अक्षरों का यथास्थान उपयोग कर लिया गया है। प्रज्ञा–पुरुष के इस ग्रन्थराज के विषय में, इसकी ज्ञान-गरिमा और आध्यात्मिक साधना की अभिव्यक्ति के विषय में कुछ कहना दैदीप्यमान सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अन्त में इतना ही कि यह चिर प्रतिक्षित संशोधित आवृत्ति आपके हाथों में रखते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है। आचार्य जयन्तसेनसूरि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली श्रीमहावीरस्वामीशासननायक 1 श्रीसुधर्मास्वामी 2 श्रीजम्बूस्वामी 3 श्रीप्रभवस्वामी 4 श्रीसय्यंभवस्वामी श्रीयशोभद्रसूरि श्रीसंभूतविजयजी श्रीभद्रबाहुस्वामी 7 श्रीस्थूलभद्रस्वामी श्रीआर्यसुहस्तीसूरि श्रीआर्यमहागिरि श्रीसुस्थितसूरि श्रीसुप्रतिबद्धसूरि 10 श्रीइन्द्रदिन्नसूरि 11 श्रीदिन्नसूरि 12 श्रीसिंहगिरिसूरि 13 श्रीवजस्वामीजी 14 श्रीवज्रसेनसूरिजी 15 श्रीचन्द्रसूरिजी 16 श्रीसामन्तभद्रसूरि 17 श्रीवृद्धदेवसूरि 18 श्रीप्रद्योतनसूरि 16 श्रीमानदेवसूरि 20 श्रीमानतुङ्गसूरि 21 श्रीवीरसूरि 22 श्रीजयदेवसूरि 23 श्रीदेवानन्दसूरि 24 श्रीविक्रमसूरि 25 श्रीनरसिंहसूरि 26 श्रीसमुद्रसूरि 27 श्रीमानदेवसूरि 28 श्रीविवुधप्रभसूरि 26 श्रीजयानन्दसूरि 30 श्रीरविप्रभूसरि 31 श्रीयशोदेवसूरि 32 श्रीप्रद्युम्नसूरि 33 श्रीमानदेवसूरि 34 श्रीविमलचन्द्रसूरि 35 श्रीउद्योतनसूरि 36 श्रीसर्वदेवसूरि 37 श्रीदेवसूरि 38 श्रीसर्वदेवसूरि श्रीयशोभद्रसूरि श्रीनेमिचन्द्रसूरि 40 श्रीमुनिचन्द्रसूरि 41 श्रीअजितदेवसूरि 42 श्रीविजयसिंहसूरि श्रीसोमप्रभसूरि श्रीमणिरत्नसूरि 44 श्रीजगञ्चन्द्रसूरि श्रीदेवेन्द्रसूरि श्रीविद्यानन्दसूरि 46 श्रीधर्मघोषसूरि 47 श्रीसोमप्रभसूरि 48 श्रीसोमतिलकसूरि 46 श्रीदेवसुन्दरसूरि 50 श्रीसोमसुन्दरसूरि 51 श्रीमुनिसुन्दरसूरि 52 श्रीरत्नशेखरसूरि 53 श्रीलक्ष्मीसागरसूरि 54 श्रीसुमतिसाधुसूरि 55 श्रीहेमविमलसूरि 56 श्रीआनन्दविमलसूरि 57 श्रीविजयदानसूरि 58 श्रीहीरविजयसूरि श्रीविजयसेनसूरि श्रीविजयदेवसूरि श्रीविजयसिंहसूरि 61 श्रीविजयप्रभसूरि 62 श्रीविजयरत्नसूरि 63 श्रीविजयक्षमासूरि 64 श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि 65 श्रीविजयकल्याणसूरि 66 श्रीविजयप्रमोदसूरि 67 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि 68 श्री विजयधनचन्द्रसूरि श्री विजयभूपेन्द्रसूरि 70 श्री विजययतीन्द्रसूरि 71 श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि 72 प्रवर्तमान आचार्य श्री विजयजयन्तसेनसूरि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 SODERNA राजेन्द्र कोश धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. मोहनविजयजी म.सा. भूपेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्री गुलाबविजयजी म.सा. विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (द्वितीयावृत्ति) अनादि से प्रवमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त होकर आत्मां जब सम्यक्त्वगुण प्राप्त करती आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान में होता है, परन्तु अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान लज्ञान आत्म ग्राह्य हैं ; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व का घना अंधेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होती है। यही सम्यक्त्व आत्मा रोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रेसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिएयह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो लोकोतर भावों की चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ।' संसार परिभ्रमण का प्रमुख कारण है आश्रव और बन्ध। दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और सभी अवश्यक है। बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वंय को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा निर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, +नुशीलन आदि करते रहें। कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है, अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है, जैसे खदान में रहे हुए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है। मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब दोनों अलग अलग होते हैं तब भेट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को कोई मिट्टी कहता है। ठीक इसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्व ल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने में से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्व लता प्रकट कर देती है। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म के फल भुगतने के लिए प्रेरित करती रहती है। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में है, ऐसे संसारी जीवों की कर्म प्रकृतियाँ विभाव परिणमन करा लेती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आँखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत कर लेता है। इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है। दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को राजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीवको प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है, अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है। मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म। यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है। साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटने वाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है, पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन करता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करने वाला मनुष्य अपने होश-हवास खो बैठता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अपने आत्म-स्वरूपको भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्मस्वरूपमानलेता है।यही एकमात्र कारण है जीवके संसार परिभ्रमणका। 'मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकुंभरमत बादि। यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रा के मार्ग में रुकावट डालता है। जो मनुष्य इसमोहनीय कर्म के स्वरूपसे अनभिज्ञ रहता है और जोइसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता, वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममत्व जब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हम मोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और ममत्व जितना जितनाघटता जाता है, उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोह राजा के निर्देशन में ही कर्मसेना आगे कूच करती है। जीवको भेद विज्ञानसे वंचित रखनेवालायही कर्म है।इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में भटकाये रखा है। और बेड़ी के समान है आयुष्य कर्म। इसने जीव को शरीर रूपी बेड़ी लगा दी है, जो अनादिसे आज तक चली आ रही है। एक बेड़ी टूटती है, तो दूसरी पुनः तुरंत लग जाती है। सजा की अवधि पूरी हुए बिना कैदीमुक्तनहीं होता, इसी प्रकार जब तक जीव की जन्मजन्म की कैद की अवधि पूरी नहीं होती, तब तक जीव मुक्ति का आनंद नहीं पा सकता। नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान। चित्रकार नाना प्रकार के चित्र चित्रापटपर अंकित करता है, ठीक इसी प्रकार नाम कर्मचर्तुगति में भ्रमण करने के लिए विविध जीवों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान करता है। इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नामधारण करके देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक गति में भ्रमण करता है। गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है। गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्रा में जन्म धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-राजा के खजाँची के समानाखजाने में माल तो बहुत होता है पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है, अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। यही कार्य अन्तरायकर्म करता है। इसके प्रभाव से जीवको इच्छित वस्तुउपलब्धनहीं हो पाती |दान,लोभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्म शक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। संक्षेप में ही है, जैन दर्शन का कर्मवाद। इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नवतत्व, मोक्ष मार्ग आदि ऐसे विषयों का समावेश है, जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है। आत्म कल्याण की कामना करने वालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन् अत्यंत आवश्यक है। संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्व-स्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म-दर्शनही देता है, अन्य कोई नहीं। सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरण व्रज।' बुद्धं शरणं गच्छामि ...........धम्मसरणं गच्छामि।' और केवलिपण्णत्तं धम्मसरणं पव्वज्जामि। इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीवस्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान, केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है। जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्मपद प्राप्त कर सकता है। अन्य समस्तधर्मदर्शनों में जीव को परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है, जबकि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरूप ही माना गया है। यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप,सप्तभंगी एवं स्याद्वादशैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न संदर्भ ग्रन्थों का अनुशीलन अत्यंत आवश्यक है। आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था। विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुंजी तलाशरहे थे, जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्धतपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया।वे दिव्य पुरुषथेउत्कृष्ट चारित्रा क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज। उन्होंने जिनागम की कुंजी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छत्रछाया में अपने हाथ में लिया। कुंजी निर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलती रही और सूरत में कुंजी बन कर तैयार हो गयी। यह कुंजी है 'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त अभिधान राजेन्द्र पास में होतो और कोईग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैनागमों में निर्दिष्ट वस्तुतत्त्वजो 'अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्र हो या न हो, परजो नहीं है; वह कहीं नहीं है। यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भारतीय संस्कृति में इतिहासपूर्व काल से कोश साहित्य की परम्परा आज तक चली आ रही है। निघंटु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यास्क' की रचना' निरुक्त' में और पाणिनी के अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्द संग्रह दृष्टिगोचर होता है ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआपद्य रचनाकाल। जो कोश पद्य में रचे गये, वेदो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है-अनेकार्थक कोश। कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का' शब्दार्णव' भागुरी का'त्रिकाण्ड' और धनवन्तरी का निघण्टु, इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्या उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का अमरकोश' अत्यधिक प्रचलित है। धनपाल का पाइयलच्छी नाम माला' 276 गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें 168 शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनञ्जय ने 'धनञ्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक शब्द बन जाते हैं -जैसे भूधर, कुधर इत्यादि।इस पद्धति से अनेक नये शब्दों का निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनञ्जय ने 'अनेकार्थनाममाला' की रचना भी की है। कलिकाल, सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि','अनेकार्थ संग्रह, निघण्टु संग्रह और देशी नाममाला' आदिकोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा 'शिलोंछ कोश' 'नाम कोश 'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', शब्दभेद नाममाला'' नाम संग्रह' ,शारदीय नाममाला',शब्द रत्नाकर', 'अव्ययैकाक्षर नाममाला' शेष नाममाला, 'शब्द सन्दोह संग्रह','शब्द रत्न प्रदीप','विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश'पंचवर्ग संग्रह नाम माला', 'अपवर्ग नाम माला', एकाक्षरी नानार्थ कोश,''एकाक्षर नाममलिका', एकाक्षर कोश','एकाक्षरनाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सद्दमहण्णव','अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', 'जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' इत्यादि अनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश ग्रन्थ'अभिधान राजेन्द्र के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त कोश ग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दीया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार इस महाग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है, फिर भी इसकी कुछ विशेषताएं प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। 'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमी को धर्म का मर्म समझाया। यही कारण है कि जैन आगमों की रचना अर्धमगामी प्राकृत में की गई। इस महाकोष में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म 'अकारादिक्रम से समझाया है, यह इस महाग्रंथ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अर्थ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रूप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है, इसके अलावा उन शब्दों के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैन धर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद, सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है। सत्तानवे सन्दर्भ ग्रंथ इसमें समाविष्ट हैं। वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ-साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजों में विस्तारित है। इसमें धर्म-संस्कृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थव्यख्यायित हुए हैं। उनकी पुष्टि-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इसके सात भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे, तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा। इस महाग्रंथ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महाग्रंथ लिखा गया, उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी भी नहीं किया। कहते हैं वे कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे। एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा। चार्तुमास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे। मालवा, मारवाड़, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दीर्घ विहार किये , प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . कार्य सम्पन्न किये, जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक संताप भी सहन किये।साथ-साथध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही। ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ, यह एक महान आश्चर्य है। इस महान ग्रंथ के प्रणयन ने उन्हें विश्वपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है। श्रीमद् विजय यशोदेव सूरिजी महाराज अभिधान राजेन्द्र और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं-आज भी यह (अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है, इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न होता है, क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश की रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और इस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने पालन भी किया। यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्रा में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौन सी है,तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा, जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है। प्रस्तुत बृहद् विश्वकोशको पुनः प्रकाशित करने की हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बंबईचार्तुमास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ।जो भी मिलाउसने यही कहा कि अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुलर्भ होगया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजनसुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो, तो हमें इनके प्रकाशन का अधिकार दीजिये। हमने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है।'अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा। __ श्रीमद्पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये।तामिलनाडू राज्य की राजधानी है यह मद्रास / दक्षिण में बसे हुए दूर-दूर के हजारों श्रद्धालुओंने इस चार्तुमास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चार्तुमास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चार्तुमास समाप्ति के पश्चात् पौष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमीप्रातः स्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेव श्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करतेहुएउनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में 'अभिधान राजेन्द्र का उचित मूल्यांकन करते हुए इसके पुर्नमुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया। इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैंने मद्रास संघको किया। आह्वान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ। ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई,पर 'श्रेयांसि बहुविध्नानि की उक्ति के अनुसार हमें यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशनको स्थगित करना सबके लिए दुःखदथा, पर मैं मजबूरथा आंतरिक विरोध को जन्म देकर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है। हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओं ने............ ................. / उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया। श्रीमद् गुरुदेव ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा, व्यवसायियों के लिए नहीं। यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया कि इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघको है। 'त्रिस्तुतिकसमाज की इस अनमोलधरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिकसमाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था। ऐसान करके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है। श्रीभाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मवृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने-कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए उपस्थित हुए। पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभावकीस्वर लहरियों से गूंज उठा। अधिवेशन प्रारंभ हुआ। संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व की असाधारण कृत्ति इस 'अभिधान राजेन्द्र' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा / श्री संघ ने हार्दिक प्रसन्नता व हार्दिक व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसीजाजम पर श्रीसंघने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी। परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघकी यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है। और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्रीजैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ केद्वारा यह कोशग्रन्थपुनर्मुद्रित होकर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है, यह हम सबके लिए परम आनंद का विषय है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्टप्रभाकर-चनाचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज तोतारमशमी विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरसवद्विलासम् / हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् // 1 // Page #16 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है, फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देने वाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अभा सौ बृ.त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं। इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है। प्रेसकार्य, प्रफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते। त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गई है। वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है / शुभम्। नेनावा (बनासकांठा) दिनांक 2-12-1955 - आचार्य जयन्तसेनसरि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार-प्रदर्शनम् / --0-- सुविहितसूरिकुलतिलकायमान-सकलजैनागमपारदृश्व-आबालब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराजक्रियाशुद्ध्यपकारक-श्रीसौधर्मबहत्तपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य गुरुदेव-भट्टारक श्री 1008 प्रभू श्रीमदविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'श्रीअभिधानराजेन्द्र' प्राकृतमागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्री सियाणा नगर में संवत् 1646 के आश्विनशुक्ल द्वितीया के दिन शुभ लग्न में आरम्भ किया। इस महान् संकलनकार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराज ने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् 1960 चैत्र-शुक्ला 13 बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर (सूरत गुजरात) में बनकर परिपूर्ण (तैयार) हुआ। __ गवालियर-रियासत के राजगढ (मालवा) में गुरुनिर्वाणोत्सव के समय संवत् 1663 पौष शुक्ला 13 के दिन महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय -छोटे बड़े ग्राम-नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक-मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि–मर्तुम-गुरुदेव के निर्माण किए हुए 'अभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लाभ प्राप्त कर सकें, इसलिए इसको अवश्य छपाना चाहिए, और इसके छपाने के लिए रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्भुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखबदासजीत-भागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्- प्यारचंदजी और गोमाजी गंभीरचंदजीत-निहालचंदजी, आदि प्रतिष्ठित सदगृहस्थों की देख-रेख में श्रीअभिधानराजेन्द्र- कार्यालय और 'श्रीजैनप्रभाकरप्रिन्टिगप्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिए / कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का समस्त-भार दिवंगत पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सौंपा जाए। बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० 1964 श्रावणसुदी 5 के दिन उक्त कोश को छपाने के लिए रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य– मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुआ, जो सं० 1681 चैत्रवदि 5 गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त हुआ। __ इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभञ्जनकेसरीकलिकालसिद्धान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-आचार्यश्रीमद्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय-श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सच्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्ण-- गुरुदेवसेवाहेवाक-मुनिश्रीहुकुमविजयजी महाराज, सत्क्रियावान्-महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज, साहित्यविशारद-विद्याभूषण-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी मुनिश्री-लक्ष्मीविजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री हर्षविजयजी, मुनिश्रीहंसविजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी, आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार में दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे देकर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहुँचाई, और स्वयं भी अनेक भाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आभारी है। जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन-कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाक्षरी नामावली इस प्रकार है श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा श्रीसंघ-रतलाम, वाँगरोद, राजगढ़,जावरा, वारोदा-बड़ा,झाबुवा,बड़नगर, सरसी, झकणावदा,खाचरोद,मुंजाखेड़ी, कूकसी, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर-अनेकांत के जगदर्शन श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि व प्रेरणा पुंज-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत् के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब Page #20 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दसोर, खरसोद-बड़ी, आलीराजपुर, सीतामऊ, चीरोला-बड़ा, रींगनोद, निम्बाहेड़ा, मकरावन, राणापुर, इन्दौर, बरडिया, पारा, उज्जैन, (भाट) पचलाना, टांडा, महेन्दपुर, पटलावदिया, बाग, नयागाम, पिपलोदा, खवासा, नीमच-सिटी, दशाई, रंभापुर, संजीत, बड़ी-कड़ोद, अमला, नारायणगढ़, धामणदा, बोरी, बरड़ाबदा, राजोद, नानपुर श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ–गुजरात श्रीसंघ-अहमदाबाद, थिरपुर (थराद्), ढीमा, वीरमगाम, वाव, दूधवा, सूरत, भोरोल, वात्यम, साणंद, धानेरा, पासण, बम्बई, धोराजी, जामनगर, पालनपुर, डुवा, खंभात, श्रीसौधर्मबहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर, भीनमाल, शिवगंज, आहोर, साचोर, कोरटा, जालोर, बागरा, फतापुरा, भेंसवाड़ा, धानपुर, जो गापुरा, रमणिया, आकोली, भारुंदा, मांकले सर, साथू, पोमावा, देवावस, सियाणा, बीजापुर, विशनगढ़, काणोदर, बाली, माडवला, देलंदर, खिमेल, गोल, मंडवारिया, सांडेराव, साहेला, बलदूट, खुडाला, आलासण, जावाल, राणी, रेवतड़ा, सिरोही, खिमाड़ा, धाणसा, सिरो ड़ी, कोशीलाव, बाकरा, हरजी, पावा, मोदरा, गुडाबालोतरा, एंदला का गुड़ा, थलवाड, भूति, चाँणोद, मेंगलवा, तखतगढ, डूडसी, सूराणा, सेदरिया, थॉवला, दाधाल, रोवाडा, जोयला, धनारी, भावरी, काचोली, इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों की ओर से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है। श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय, रतलाम (मालवा) // श्रीः / / मत्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितोविजयराजेन्द्रात्परोन्योस्तिकः // Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशान्त-वपुषं श्रीमद् राजेन्द्रसूरिं नुमः विद्यालङ्करणं सुधर्मशरणं मिथ्यात्विनां दूषणं, विद्वन्मण्डलमण्डनं सुजनता सद्रोधिबीजपदम् / सचरित्रनिधिं दयाभरविधि प्रज्ञावतामादिमम्, जैनानां नवजीवनं गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः // 1 // धुर्यो यो दशसंख्येकेऽपि यतिनां धर्मे दृढः संयमे, सत्वात्मा जनतोपकारनिरतो भव्यात्मनां बोधकः / शास्त्राणां परिशीलने दृढमतिानी क्षमावारिधि स्तं शान्तं करुणावतारमनिशं राजेन्द्रसूरिं नुमः / / 2 / / वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिमहाजञ्जुला, संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा / बुद्धिलॊकसुखानुचिंतनपरा कल्याणकों नृणां, लोके सुप्रथिपताऽस्ति तं गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः / / 3 / / य कर्ता जिनबिम्बकाञ्जनशलाका नामनेकाऽऽत्मनां, मूर्तिश्चापि जिनेश्वरस्य शतशः प्रातिष्ठिपन्मन्दिरे / जीर्णोद्धारमनेकजैननिलयस्याचीकरच्छ्रावकै स्तं सत्कार्यकरं मुदा गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः / / 4 / / लोके यो विहरन सदा स्ववचनैर्वरं मिथो देहिनां, दूरीकृत्य सहानुभूतिरुचिरा मैत्री समावर्धयत् / मुढाँश्चापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मनः संव्यधाद, देशोपद्रवनाशकं तमजित राजेन्दसूरि नुमः / / 5 // यो गङ्गाजलभिर्मलान् गुणगुणान् संधारयन् वर्णिराट्, यं यं देशमञ्चकार गरनैस्तं तं त्वपायीन्मुदा। सच्छास्त्रामृतवाक्यावर्षणवशाद् मेघव्रतं योऽधरन, तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्दसूरिं नुमः // 6 // तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताचलः, शास्त्रार्थेषु परान् विजित्य विविधैनिस्तथा युक्तिभिः / शिष्यांस्तानकरोत्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुः प्रभु स्ते सूरिप्रवरं प्रशान्त-वपुषं राजेन्द्रसूरिः नुमः / / 7 / / लोकान्मंदमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून वीक्ष्य यो, जैनाचार्यनिबद्धसर्वनिगमानालोङय बुद्धया चिरम् / मान् बोधियितुं सुखेन विशदान् धर्मान्महामागधीकोशं संव्यत्तनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरि नुमः // 8 // गुरुवरगुणराजिभ्राजितं सारभूतं, परिपठति मनुष्यो योऽष्टकं शुद्धमेत्तद् / अनुभवति स सवा सम्पदं मानावानामिति वदति मुनीशो वाचको मोहनाख्यः ||6|| -उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधानराजेन्द्रः पंचमो भागः Page #24 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्रीवर्द्धमानो जयति // श्रीअभिधानराजेन्द्रः वीरं नमेऊण सुरेसपुज्ज, सारं गहेऊण तयागमाओ। साहूण सड्डाण य बोहयं तं, बोच्छामि भागम्मि यं पंचमम्मि // 1 // पइट्ठाण . DODOOT पकार स्त्रिया एक एव पतिर्भवति / मृते पत्यो पत्नी ब्रह्मचर्ये चरतीति स्मृतिः। एतादृश आचारश्व परं प्राक्कस्मिश्चिद्देशे ए कस्याः स्त्रिया अनेके भर्तार आसन / तद्यथा- "थेरे मंडियपुत्ते वासिट्ठगुत्तेण अर्द्धवाइं समणसयाई वाएइ। थेरे मोरियपुत्ते कासवगुत्तेणं अद्भुट्ठाई समणसयाई।'' इत्यादि। पपु०(प) पत्० पा० वा डः। पवने, पातरि० पर्णे पाने च। वाच०। सूर्ये० मण्डिकमौर्यपुत्रयोरेकमातृकत्वेन भ्रात्रोरपिभिन्नगोत्राऽभिधानं पृथग् शाषणे, वह्नौ, पाताले, वरुणे च / परित्राणे, क्षमे, क्षत्रे, निपाने पडसइ जनकापेक्षया। तत्र मण्डिकस्य पिता धनदेवो, मौर्यपुत्रस्य तु मौर्य इति / कुले. उच्च देशे, स्थले च। 'पः सूर्ये शोषणे वह्नौ, पाताले वरुणेऽनिले। अनिसिद्ध च तत्र देशे एकस्मिन् पत्यौ मृते द्वितीयपतिवरणमिति वृद्धाः। पारेत्राणे ने क्षत्रे, निपाने पङ्कसंकुले / / 80 // '' एकाना०ा पर्वत, क्षणे, कल्प०२ अधि० 8 क्षण। 'पई भत्ता' पाई ना० 253 गाथा। प्रकारे, शुभलक्ष्ये च। 'पुंलिङ्गे तुपकारः स्यात् , पवने पर्वत क्षण।। 56 | पइअ (देशी) भत्सिते, रथचक्रे च / दे०ना०६वर्ग 64 गाथा। '! प्रकारे शुभलक्ष्ये च पात्रकौस्तुभयोरपि॥ (57)" एका०र० / 'पत्ति पइक्खण अव्य०(प्रतिक्षण) प्रतिसमयमित्यर्थे , स्था०२ ठा० 1 उ०। य पाववज्ञणे।'' प इति पापवर्जने, आ०म०१ अ०। कर्मधo। * प्र अव्य० / "सर्वत्र लवरामचन्द्रे" |276 / / इति रलोपः। / पइच्छन्न पुं०(प्रतिच्छन्न) भूतविशेषे, प्रज्ञा० 1 पद। आदिकर्मणि, ज० / प्रणमिताः, नमयितुमारब्धा इत्यर्थः / प्र- 1 पइट्ठ पुं० (प्रतिष्ठ) सुपार्श्वतीर्थकृतः सप्तमतीर्थकरस्य पितरि, प्रव०११ शब्दस्याऽऽदिकर्मार्थत्वात्। 01 बक्षा उत्त०। प्राथम्ये, सर्वतो भाये, द्वार। स०ा आव०। ज्ञातरसे, विरले, मार्गे च। दे० ना०६ वर्ग 66 गाथा। उत्पत्ती, ख्यातो, व्यवहारे च। वाच०। प्रकर्षे, सूत्र०२श्रु०१०। उत्त०। पइट्ठवण न० (प्रतिष्ठापन) प्रतिष्ठापने, जीवा०१ अधि०। आचा० रा०। नि०चू० / प्रज्ञा० / प्रश्रचणे, "विप्पोसहि' इत्यत्र पइट्ठा स्त्री०(प्रतिष्ठा)"प्रत्यादौ डः / / 8 / 1 / 206 / / इतितस्य डः प्राप्तो प्रशब्देन प्रश्रवणग्रहणात्। औ०। न, प्रायिकत्वात् / प्रा० 1 पाद / अवस्थाने, पञ्चा० 8 विव०। स्था० / पअन०(पयस्)। "स्नमदामशिरोनभः" // 8/1 / 32 / / इति पयसः संसारभ्रमणविरतौ, सूत्र० 1 श्रु०११ अ०। सर्वज्ञगुणाध्यारोपे, जी०१ प्राकृते पुस्त्वम्। प्रा०१पाद। जले, दुग्धे च। वाच०। प्रति०। (जिनबिम्बविधापनं, प्रतिष्ठाविधिश्च 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे पआगजल न० (प्रयागजल) "कगचज." ||8|11177|| इत्यस्य | 1266 पृष्ठे उक्तः) (तत्कल्पस्तुप्रतिष्ठाकल्पग्रन्थादवसेयः) प्रतिष्ठापनं प्रायिकत्वान्न गलुक् / प्रयागाऽऽख्यतीर्थराजस्थगङ्गायमुनोदके, प्रा०१ प्रतिष्ठा, अपायावधारितस्यैवार्थस्य हृदि प्रभेदेन प्रतिष्ठापने, नं० / पाद। प्रतिष्ठन्त्यस्यामिति प्रतिष्ठा। आश्रये, औ० पआर पुं० (प्रचार) प्रचार' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। पइट्ठाण न० (प्रतिष्ठान) प्रतिष्ठते प्रासादोऽस्मिन्निति प्रतिष्ठानम्। पीठे, * प्रकार पुं०, "घञ् बृद्धिर्वा " ||8/1 / 68 / / इति घनिमितस्य प्रव० 148 द्वार। ध०। आधारे, रा०। स्था०। सूत्र० / त्रिसोपानमूल वृशिपस्याऽऽकारस्याद् वा ‘पयार' शब्दे वक्ष्यमाणेऽर्थे , प्रा०१पाद। प्रदेशे, आ०म०१ अ० स्था०। जं० जी० / संसारगपितत्प्राणिपआवइ पुं० (प्रजापति) "कगचजतदपयवां प्रायो लुक् / ' वर्गस्याऽऽधारे, तं० / प्रतिष्ठान सम्यक्त्वम्, तस्य तथाकल्पत्वात्। ||8/11177 / / इत्यादिना जलुक् / प्रा०१ पाद। "अवर्णो यश्रुतिः" तथाहि-यथा पयःपर्यन्तं पृथ्वीतलगतगर्त्तापूरकरहितः प्रासादः 18/11180 // इति अवर्णस्थाने लघुप्रयत्नतरयकाराभावः। प्रा०१ पाद। सुदृढो न भवति, तथा धर्मदेवहर्म्यमपि सम्यक् त्वरूपप्रतिष्ठापइपुं० (पति) पाति रक्षति तामिति पतिः। भर्तरि, उत्त०१ अ०। एकस्याः नपरित्यक्त निश्चलं न भवेदिति / प्रव० 148 द्वार / आ०चू० / भावे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइट्ठाण 2- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइट्ठाणपट्टण ल्युट / अवस्थाने, स्था०६ ठा० स्थिती, आव०४ अ०। पुरभेदे, नागदत्तो नागवसुपुत्रो जिनकल्पं प्रतिपद्य भ्रष्टः / आ० क० / यत्र वा शालिवाहनो राजाऽऽसीत्। “पइट्टाणे नगरे सालिवाहणो राया। सो वरिसे वरिसे भरुयच्छेनयरेनरवाहणं रायाण रोहेइ।' विशेाकल्प०। आव०। आ०म०1 पइट्ठाणपट्टण न० (प्रतिष्ठानपतन) महाराष्ट्रविषयप्रधानपुरे, ती० "जीयाक्षेत्र पत्तनं पृतमेतद्गोदावर्याः श्रीप्रतिष्ठानसंज्ञम् / रत्नाऽऽपीड श्रीमहाराष्ट्रलक्ष्म्याः , रम्यैहय॑नेत्रशैत्यैश्च चैत्यैः।१। अष्टौ षष्टिलौकिका अत्र तीर्थाः, द्वापञ्चाशजज्ञिरे चात्र वीराः / पृथ्वीशानां न प्रवेशोऽत्र वीरक्षेत्रत्वेन प्रौढतेजोरवीणाम् / / 2 / / नश्यतीति पुटभेदनतोऽस्मात्, षधियोजनमितः किल वर्मा / बाधनाय भृगुकच्छमगच्छ द्वाजिनो जिनपतिः कमठाङ्कः (?)३।अन्वितात्रिनवते वशत्या, अन्त्यजेऽत्र शरदा जिनमोक्षात्। कालयोयंधित वार्षिकमार्याः, पर्वभाद्रपदशुक्लचतुर्थ्याम् // 4 // तत्तदायतनपक्तिवीक्षणादत्र मुश्चति जनो विचक्षणः। तत्क्षणात् सुरविमानधारणिश्रीविलोकविषयं कुतूहलम् / / 5 / / सातवाहनपुरस्सरा नृपाश्चित्रकारिचरिता इहाभवन्। दैवतैर्बहुविधैः प्रतिष्ठिते, चाऽत्र सत्रसदनान्यनेकशः।।६।। कपिलाऽऽत्रेयबृहस्पतिपशला इह महीभृदुपरोधात्। न्यस्तस्व (2) चतुर्लक्ष-ग्रन्थार्थ श्लोकमेकमकथयन् // 7 // " स चाय श्लोकः"जीर्ण भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनो दयाम्। बृहस्पतिरविश्वासः, पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् / / / " स्वसुः स्वरूपमप्रतिमरूपं निरूप्य स्मरपरवशोऽन्तहॅदवासी शेषा नाम नागराजो हृदान्निर्गत्य विहितमनुष्यवपुस्तया सह बलादपि संभोगकलिमकलया, भवितव्यताविलसितेन तस्याः सप्तधातुरहितस्याऽपि तस्य दिव्यशक्त्या शुक्रपुद्रलसञ्चारादर्भाऽऽधानमभवत्। स्वनामधेय प्रकाश्य व्यसनसंकटे मां स्मरेरित्यभिधाय च नागराजः पाताललोकमामत् , सा च रवगृह प्रत्यगच्छत्। व्रीडापीडिता च सा स्वभ्रात्रेतं वृत्तान्त न खलु न्यवेदयत्। कालक्रमेण सोदर्याभ्यां गर्भलिङ्गानि वीक्ष्य सा जातगर्भ त्यलक्ष्यत / ज्यायसस्तु मनसि शङ्का जातायदियं खलु कनीयसोपभुक्तेति, शङ्कनीयान्तराभावात्। यवीयसोऽपि चेतसि समजनि विकल्पः-नूनमेषा ज्यायसा सह विनष्टशीलत्येवं मिथः कलुषिताऽऽशयौ विहाय त मेकाकिनी पृथक् देशान्तरमयासिष्टाम् / साऽपि प्रवर्द्धमानगर्भा परमन्दिरेषु कर्माणि निर्माणा प्राणवृत्तिमकरोत् क्रमेण पूर्णेऽनेहसि सर्वलक्षणलक्षिताई प्रासूत तनयम् / स च क्रमाद्वपुषा गुणैश्व वर्द्धमानः सवयोभी रममाणो बालक्रीड या स्वयं भूपतीभूय तेभ्यो वाहनानि करितुरगरथाऽऽदीनि कृत्रिमानि दत्तवानिति, सनोतेर्दानार्थत्वाल्लोकैः सातवाहन इति व्यपदेश लम्भितः स्वजनन्या पाल्यमानः सुखमवास्थित। इतश्वोजयिन्यां श्रीविक्रमाऽऽदित्यस्यावन्तिनरेशितुः सदसि कश्चिन्नेमित्तिकः सातवाहनं प्रतिष्ठानपत्तने भाविनं नरेन्द्रमादिक्षत। अथैर स्यामेव पुर्यामकः स्थविरविप्रः स्वाऽऽयुर-वसानमवसाय चतुरः स्वतनयानाहूय प्रोक्तवान्-यथा वत्साः! मयि पराऽऽयुषि मदीयशय्योच्छीर्षकदक्षिणपादादारभ्य चतुर्णामपि पादानामधो वर्तमान कलशचतुष्टयं युष्माधिर्यथाज्येष्ठं विभज्य ग्राह्य, येन भवतां निर्वाहः संपनीपद्यते। पुत्रस्तुतर्थत्यादेशः स्वीचक्रे पितुः / तरिमन्नुपरते तस्यौर्द्धदैहिकं कृत्वा त्रयोदशेऽहनि भुवं खात्वा यथायथं चतुरोऽपि निधिकलशांस्ते जगृहिरे / यावदुद्धाठ्य निभालयन्ति तावत्प्रथमेन कुम्भस्य कनकम्. द्वैतीयीकरः कृष्णमृत्स्ना, तृतीयस्य वुशं, तुरीयस्य चाऽस्थीनि ददृशिरे०तदनु ज्यायसा साकं इतरे त्रयो विवदन्ते स्मयदस्मभ्यमपि विभज्य कनक तिरेति / तस्मिश्वावितरति सतितेऽवन्तिपतेः धर्माधिकरणमुपास्थिपत / तत्रापि न तेषां वादनिर्णयः समपादि। ततश्चत्वारोऽपि ते महाराष्ट्रजनपदमुपानंसिषुः / सातवाहनकुमारस्तु कुलालमृदा हस्त्यश्वरथसुटानन्यह विदधानः कुलालशालायां बालक्रीडादुर्ललितः कलितस्थितिरनयत्समयम् / ते च द्विजतनुजाः प्रतिष्ठानपत्तनमुपेत्य परितस्तस्यामेव चक्रजीवनशालायां तस्थिवांसः। सातवाहनकुमारस्तु तानवेक्ष्येगिताकारज्ञानकुशलः प्रोवाचभो विप्राः! किं भवन्तः चिन्तापन्ना इव वीक्ष्यन्ते। तैस्तु जगदे सुभगः कथमिव वयं चिन्ताऽऽकान्तचेत स्त्वयाऽज्ञासिष्महि? कुमारेण बभणेइङ्गितैः किमेवं नावगम्यते? तैरतयुक्तमेतत्। परं भक्तः पुरो निवेदितेन किं चिन्ताऽपहतिः? चिन्ताऽपगमो पापं वदिष्यामि, इति सोऽवोचत् / ततस्ते तद्वचनवैचित्रीहृतहृदयाः सकलमपि स्वस्वरूपं निधिनिर्णयादि मालवेशपरिषद्यपि विवादानिर्णयान्तं तस्मै निवेदितवन्तः। कुमारस्तु स्मितवत्स्फुरिताऽधरोऽवादीत् भो विप्राः अहं यौष्माकं झकटकं निर्णयामि, श्रूयतामवहितैः-यस्य तावद्धस्तमाप्तः कनककलशः स तेनैव निर्वृतोऽस्तु, यस्य कलशे कृष्णमृत्स्ना निरगात् स क्षेत्रकेदाराऽऽदीन गृण्हातु , यस्य तु वुशंस कोष्ठाऽगारगतधान्यानि सर्वाणएयपि स्वीकुरुताम। य जयति दृशोरमृतच्छटा सुदृग्बर्हिणां पयोदघटा। जीवितस्वामिप्रतिमा, श्रीमन्मुनिसुव्रतस्य लेप्यमयी / / 6 / / वर्षाणामेकादश, लक्षाण्यष्टौ युतानि सार्द्धानि। अष्टौ शतानि षट् पञ्चाशानीत्यजनि कालोऽस्याः / / 10 / / इह सुव्रतजिनचैत्ये, यात्रामासूत्र्य विहितविविधमहाम्। भव्यश्चैत्यात्यहिकपारत्रिकशर्मसंपत्तीः॥११॥ प्रासादेऽत्र श्रीजिनराजा, चारु चकासति लेप्यमयानि / अम्बा देवी क्षेत्राधिपतिर्यक्षाधिपतिश्चापि कपर्दी॥१२॥" बिम्बान्यप्रतिबिम्बप्रीतिस्फीति ददाति जिनानाम् / / ''श्रीप्रतिष्ठानतीर्थस्य, श्रीजिनप्रभसूरयः / कल्पमेतं विरचया-बभूवुर्भूतये सताम्॥१३॥' श्रीप्रतिष्ठानपत्तनकल्पः / ती. 22 कल्प। विरतरेण तु"श्रीसुव्रतजिन नत्वा, प्रतिष्ठा प्रापुषः क्षित्तौ। प्रतिष्ठानपुरस्याभिदध्मः कल्पं यथाश्रुतम्॥१॥" इह भारते वर्षे दक्षिणखण्डे महाराष्ट्रदेशावतसं श्रीमत् प्रतिष्ठान नाम पत्तनं विद्यते. तच निजभूत्याऽभिभूतपुरहूतपुरमपि कालान्तरेण क्षुल्लकग्रामग्रायमजनिष्ट / तत्र चैकदा द्वौ वैदेशिकद्विजौ सामागत्य विधवया स्वरा साकं कस्यचित् कुम्भकारस्य शालायां तस्थिवासी, कणवृत्ति विधाय कणान् स्वसरुपनीय तत्कृताऽऽहारपाकेन समयं यापयतः स्मा अन्येधुः सा तयोर्विप्रयोः स्वसा जलाऽऽहरणाय गोदावरी गता, तस्याः Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइट्टाणपट्टण 3- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइण्णग स्थ चास्थीनि निरगुः सोऽश्वगोमहिषीवृषभदासीदासाऽऽदिकमुपा - स्वपदनिवेशनेन प्रतिष्ठाकारके ज्ञा० 10 श्रु०१८ अ०। दलामिति युष्मज्जनकस्याऽऽशयः। इति क्षीरकण्ठोक्तं श्रुत्वा सूत्रकण्ठा- पइट्ठावण न०(प्रतिष्ठापन) व्यवस्थापने, पञ्चा०७विव० / संस्थापने, श्छिन्नविवादास्तद्ववन प्रतिश्रुत्य तमनुज्ञाप्य प्रत्याययुः स्वनगरीम्।। पञ्चा०८ विव०। प्रथिता सा तद्विवादनिर्णयकथा पुर्याम् / राज्ञाऽप्याकार्य पर्यनुयुक्त / पइट्ठिइ अव्य० (प्रतिस्थति) स्थितिं स्थिति प्रति प्रतिस्थितिः। वीप्साय किन भो भवतां वादनिर्णयो जातः?तैरुक्तश्वाऽऽम् स्वामिन् ! केन निर्णीत योग्यतावीप्सापदार्थानतिवृत्तिसादृश्येऽव्ययीभावः / एकै कस्मिन् इति नृपेदिते सातवाहनस्वरूपं सर्वमपि यथातथ्यमचकथयन् / स्थितिवन्धे, 'पइठिइमसंखलोगसमा।" कर्म०५ कर्म०। तदाकर्ण्य तस्य शिशोरपि बुध्दिवैभवं विभाव्य प्रागुक्तं दैवज्ञेन तस्य पइट्ठिय त्रि०(प्रतिष्ठित) व्यवस्थिते, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ० प्रतिष्ठाने राज्यं भविष्यतीत्यनुस्मृत्य त स्वप्रतिपन्थिनमाकलय्य 7 उ० / स्था० / आ०म० / ज्यो०। प्रतिबद्धे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ क्षुभितमनास्तन्मारणोपयिकमचिन्तयचिरं नरेश्वरः / अभिसराऽऽदि- अ०७ उ०1 प्रयोगरिने चास्मिन्नवश्यं क्षात्रवृत्तिक्षतिर्भवतादिति विचार्य सन्नद्धतुर पइणियय त्रि० (प्रतिनियत) अवश्य भाविनि, प्रतिनियतदिवसचभूसमूहोऽवन्तीपतिः प्रस्थाय प्रतिष्ठानपत्तन यथेष्ट मवेष्टयत, भाविनि, "इंदाइमहा पाय, पइनियया ऊसवा होति।" आ०म०१ अ० ! तदवलोक्य ते ग्राम्यास्त्रस्ताश्चिन्तयन्ति स्मकस्योपर्ययमेतावानाटोपः पइण्ण त्रि०(प्रकीर्ण) विक्षिप्ते, बृ० 1 उ०१ प्रक०। सकोपस्य मालवेशस्य, न तावदत्र राजा, राजन्यो वा वीर :, न च * प्रतीर्ण त्रि० प्रकर्षण तीर्णे, आचा० 1 श्रु०५ अ० 3 उ० / वैपुल्ये, त दृगदुगादि वेति चिन्तयत्सु तेषु मालवेशप्रहितो दूतः समेत्य देना०६वर्ग 7 गाथा। पइण्णंतर न० (प्रतिज्ञान्तर) प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव सातवाहनमवोचत्- भोः कुमारक! तुभ्यं नृपः क्रुध्द, प्रातस्त्वा मारयिष्य धर्मिणि धर्मोत्तर साधनीयमभिदधतो निग्रहस्थानभेदे, स्या०1 त्यतो युध्दाऽऽद्युपायचिन्तनावहितेन भवता भाव्यमिति। स च श्रुत्वाऽऽपि पइण्णकहा स्त्री० (प्रकीर्णकथा) उत्सर्गे, "उस्सग्गे पइण्णकहा भण्णान, दूतोक्तं निर्भयं निर्भर क्रीडन्नवाऽऽस्त, अत्रान्तरे विदितपरमार्था तो अववादो निच्छयकहा भण्णति।" नि००५ उ01 तन्मातुलावितरेतरं प्रतिविगतदुर्विकल्पो पुनः प्रतिष्ठानमागतो परचक्र पइण्णग त्रि० (प्रकीर्णक) अनावलिकाबद्धे, द्विविधा नरकाःदृष्ट्या भगिनी प्रोचतुः-हे स्वसः ! येन दिवौकसा तवायं तनयो दत्तस्वमेव आवलिकाप्रविष्टाः, प्रकीर्णकाश्च / स्था०६ ठा० / तीर्थकृत्सामान्यस्मर / यथा स एवास्य साहाय्यं विधत्ते / सोऽपि तद्वचसा प्राचीन साधुकृते ग्रन्थे, तं०।(प्रकीर्णकसंख्या 'तदुलवेयालिय' शब्देऽस्मिन्नेव नागपतेर्वरः स्मृत्वा शिरसि निवेशितघटा गोदावर्या नागहृदं गत्वा स्त्रात्वा भागे 2168 पृष्ठे गता) च तमेव नागनायकमाराधयत्। तत्क्षणान्नागराज : प्रत्यक्षीभूय वाचमुवाच तथा च प्रकीर्णकानिब्राह्मणीमको हेतुरहमनुस्मृतरत्वया ? तया च प्रणम्य यथास्थित एवमाइयाई चउरासीइं पइन्नगसहस्साई भगवओ अरहओ मभिहिते यभाष शेषराजः मयि प्रतिपातरि कस्तव तनयमभिथवितुं उसहसामिस्स आइतित्थयरस्स। तहा संखिज्जाइं पइन्नगसहस्साई क्षमः? इत्युदीर्य तद्घटमादाय हृदान्तर्निमज्य पीयूषकुण्डात् सुधया मज्झिमगजिणवसणं / चोदसपइन्नगसहस्साणि समणस्स भगवओ घटमापूर्याऽऽनीय तस्यै दत्तवान् , गदितवांश्चानेनऽमृतेन सातवाहनकृत वद्धमाणसामिस्स / अहवा-जस्स जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए मृन्मयाश्वरथगजपदातिजातमभिषिञ्चः, यथा तत् सजीव भूत्वा परवलं वेणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए चउविहाए बुद्धीए उववेया, तस्स भनक्ति, त्वत्पुत्रं च प्रतिष्ठानपत्तनरान्येऽयमेव पीयूषघटोऽभिषेक्ष्यति, तत्तियाई पइण्णगसहस्साइं, पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव। प्रान्ताचे पुनः स्मरणीयोऽहमित्युक्त्वा स्वाऽऽस्पदमगमद् भुजङ्गपुङ्गवः / (एवमाइयाइ इत्यादि) कियन्ति नाम नामग्राहमाख्यातुं शक्यन्ते साऽपि सुधाघटमादाय सभोपेत्य तेन तन्मयं सैन्यमदैन्यमभ्युक्षयामास। प्रकीर्णकानि, तत एवमादीनि चतुरशीतिप्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽर्हतः प्रातदिव्यानुभावतः, सचेतनीभूय तत्सैन्यं संमुख गत्वा युयुधे / श्रीऋषभस्वामिनः तीर्थकृतस्तथासंख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि मध्यभापरानीकिन्या सार्द्ध तया सातवाहनपृतनया भग्नमवन्तीशितुर्बलं , नामजिताऽऽदीनां जिनवरेन्द्राणाम्। एतानि च यस्य यावन्ति भवन्ति तस्य विक्रमनृपतिरपि पखाय्य ययाववन्ती, तदनु सातवाहनोऽपि क्रमेण तावन्ति प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि / तथा चतुर्दशप्रकीर्णकसहस्राणि दक्षिणापथमनृणं विधाय तापीतीरपर्यन्तं चोत्तरापथं साधयित्वा स्वकी- भगवतोऽर्हतो वर्द्धमानस्वामिनः / इयमत्र भावना- इह भगवतः ऋषभयसंवत्सरं प्रावीवृतत्, जैनश्च समजनि, अचीकरच जनितजननयनशै स्वामिनः चतुरशीतिसहस्त्रसंख्याः श्रमणाआसीरन्।ततः प्रकीर्णकरूपाणि त्यानि जिनचैत्यानि, पञ्चाशदीरा अपि प्रत्येकं स्वस्वनामानितान्यन्त- चाध्ययनानि कालिकोत्कालिकभेदभिन्नानि सर्वसंख्यया चतुरशीतिसहनगर कारयांबभूवुर्जिनभवनानि / इति प्रतिष्ठानपत्तनकल्पः / ती०३२ स्त्रसंख्यान्यभवन / कथमिति चेत् ? उच्यते- इह यद्भगवदर्हदुपदिष्ट कल्प। श्रुतमनुसृत्य भगवतः श्रमणा विरचयन्ति,तत्सर्व प्रकीर्णकमुच्यते / पइहाणपुर न०(प्रतिष्ठानपुर) महाराष्ट्रदेशप्रधाननगरे, ती०३२ कल्प। अथवा - श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचनकौशलेन धर्मदेशनाऽऽदिषु पइट्ठावग पुं० (प्रतिष्ठापक) व्यवस्थापके, औ० / राजाऽऽदिसमक्षं ग्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्तेतदपि सर्व प्रकीर्णक, भमवतश्च ऋषभस्वामि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइण्णग 4 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइण्णा न उत्कृष्टा श्रमणसंपदासीत् चतुरशीतिसहस्रप्रमाणा, ततो घटन्ते सूत्रे कल्पनीयतया कथ्यते, एष प्रकीर्णप्रज्ञः, प्रकीर्णप्रज्ञशब्दनेह-प्रकर्षण प्रकीर्णकान्यपि भगवतः चतुरशीतिसहससंख्यानि / एवं मध्यतीर्थ- ज्ञायते उत्सर्गापवादतत्त्वमनथेति व्युत्पत्त्या छेदश्रुतं गुप्तरहस्यवचनपकृतामपि संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्त्राणि भावनीयानि / भगवतस्तु द्धतिरुच्यते, सा प्रकीर्णा विक्षिप्ता येन स प्रकीर्णप्रज्ञः / प्रकी प्रश्न बर्द्धमानस्वामिनः चतुर्दशश्रमणसहस्त्राणि, तेन प्रकीर्णकान्यपि भगवत- इति वा पाठः / तत्र चापरिणतैः किमेतद् रहस्यभूतमत्राभिधीयते वतुर्दशसहस्राणि / अत्र द्वे मते / एके सूरयः प्रज्ञापयन्ति-इदं किल इत्युल्लेखेन पृच्छ्यत इति प्रश्नः छेदश्रुतान्तः पाती रहस्यार्थः, स प्रकीर्णो चतुरशीतिसहस्राऽऽदिकं वृषभाऽऽदितीर्थकृतां श्रमणपरिमाणं प्रधानसूत्र - येन राप्रकीर्णप्रश्रः। तथा प्रकीर्णविद्यस्तुसर्वमप्यादेरारभ्यः पर्यन्त यावत् विरचनसमर्थान् श्रमणानधिकृत्य वेदितव्यम्, इतरथा पुनः सामान्य- छेदश्रुतमुत्सर्गापवादसहितमपरिणतानां कथयति, विद्याशब्देन चात्राखश्रमणाः प्रभूततरा अपि तस्मिन् ऋषभाऽऽदिकाले आसीरन्। अपरे पुनरेवं ण्डच्छेदश्रुतगभिधीयते, प्रकीर्णा विद्या येन स प्रकीर्णविद्य इति। 763 / / प्रज्ञापयन्तिऋषभाऽऽदितीर्थकृतां जीवतामिदं चतुरशीतिसहस्राऽऽदिक अथ द्विविधस्यापि प्रकीर्णव्याकर्तुदोषानाहश्रमणपरिणाम्, प्रवाहतः पुनरे के कस्मिन् तीर्थे भूयांसः श्रमणा अप्पचओ अकित्ती, जिणाण ओहाव मइलणा चेय। वेदितव्याः / तत्र ये प्रधानसूत्रविरचनशक्तिसमन्विताः सुप्रसिद्धतद्ग्रन्था दुल्लहबोहीअत्तं, पावंति पइण्णवागरणा // 764|| अतत्कालिका अपि तीर्थेवर्तमानास्तेऽत्राधिकृता द्रष्टव्याः। एतदेव अपरिणताऽऽदीनां राहसिकेषु पदेषु ज्ञाप्यमानेषु अप्रत्ययोऽविश्वासो मतान्तरमुपदर्शयन्नाह- (अथवेत्यादि) अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने, भवति-पूर्वापरविरुद्धमिदं शास्त्रं, यतः पूर्व न कल्पते तालप्रलम्ब यस्य ऋषभाऽऽदेस्तीर्थकृतो यावन्तः शिष्याः तीर्थे त्यत्तिक्या प्रतिगृहीतुमिति प्ररूप्य पश्चात् कल्पते इत्यनुज्ञायाः प्रतिपादना / यथ वैनयिक्या कर्मजया पारिणामिक्या चतुर्विधया बुद्ध्या उपपेताः समन्विता चैतदलीक, तथा सर्वमपि जिनप्रवचनभीदृशमेवेति। ते चैवं विपरिणताः आसीरन, तस्य ऋषभाऽऽदेस्तीर्थकृतः तावन्ति प्रकीर्णकसहस्त्राणि सन्तो जिनानां -तीर्थवृलामकीर्ति कुर्युः-कुत एषां सर्वज्ञत्वं, यैरीदृश अभवन्, प्रत्येकबुद्धा अपि तावन्त एव / अत्रैके व्याचक्षते-इहेकैकस्य पूर्वा परव्याहतं भाषितमिति?। ततश्च (ओहाव त्ति ) अवधोपनमुत्तीर्थकृतस्तीर्थे अपरिमाणानि प्रकीर्णकानि भवन्ति, प्रकीर्णककारि- प्रव्रजनं कुर्वीरन्। अथ नोत्प्रव्रजेयुस्तथाऽपि (भइलण ति) तेषामद्याप्यणामपरिमाणत्वात्, केवलमिह प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानि परिणतत्वादपवादपदं श्रुत्वा अपरिणामकत्वेन वा शङ्काऽऽदिशेषतो द्रष्टव्यानि, प्रकीर्णकपरिमाणेन प्रत्येकबुद्धपरिमाणप्रतिपादनात्। ज्ञानाऽऽदीनां मलिनता मालिन्यं स्यादिति / ततश्चैवमप्रत्यया - ऽऽदिक स्यादेतत्-प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुद्धयते, तदेतद-समीचीनम, जनयन्तो दुर्लभबोधिकत्वं प्राप्नुवन्ति। क एते इत्याह-प्रकीर्णव्याकरण: यतःप्रव्राजकाऽऽचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावो निषिध्यते, न तुतीर्थक- प्रविस्तारिच्छेदश्रुतरहस्यार्थनिर्वचनाः, प्रकीर्णप्रश्नाः, प्रकीर्णविद्यारोपदिष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि; ततो न कश्चिद्दोषः / तथा च तेषां ग्रन्थः- श्वेत्यर्थः / व्याख्यातं प्रकीर्णद्वारम् // 764 || बृ०१ उ०१ प्रक०। "इह तित्थे अपरिमाणा पइण्णगा पइण्णगसामिअपरिमाणतणओ, कि | पइण्णपण्ह त्रि० (प्रकीर्णप्रश्न) विक्षिप्तच्छेदश्रुतान्तः पातिरहस्थार्थे ,बृ० तु इह सुते पत्तेयबुद्धपणीयं पइण्णगं भाणियव / कम्हा जम्हा?, / 1 उ०१ प्रक०। पइण्णगपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्धपरिमाणं करेंति। इय भणियंपत्तेयबुद्धा | पइण्णवागरण त्रि० (प्रकीर्णव्याकरण) प्रस्तारितच्छेदश्रुतरहरयार्थ - वितत्तिया चेवा चोयग आह-ननु पत्तेयबुद्धाणं सिस्सभावो विरुज्झए। निर्वचने,बृ०१ उ०१ प्रक०। आयरिय आह-तित्थगरपणीयसासण-पडिवन्नत्तेण उ ते तरसीसा | पइण्णविज त्रि० (प्रकीर्ण विद्य) विद्याशब्देन चात्राखण्ड छेदश्रुतमहवंतीति ।"अन्ये पुनरेवमाहुः- सामान्येन प्रकीर्णकैस्तुल्यत्वात् / भिधीयते, प्रकीर्णा विद्या येन स प्रकीर्णविद्यः / विक्षिप्तसमग्रच्छेदश्रुते, प्रत्येक-बुद्धानामत्राभिधानं, न तु नियोगतः प्रत्येकबुद्धरचितान्येव बृ०१ उ०१ प्रक०। प्रकीर्णकानीति। न०। प्रज्ञा०। प्रकीर्णककथोपयोगिज्ञानकपदे, दश०२ पइण्णा स्त्री० (प्रतिज्ञा) प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा। साध्यवचननिर्देशे, दश०। अ०। (प्रकीर्णकसंख्या 'उद्धेस' शब्दे द्वितीयभागे 76 6 पृष्टेऽपि गता) धम्मो मंगलमुक्किट्ठ ति पइन्नऽत्तवयणनिद्देसो / पइण्णगतव न० (प्रकीर्णकतपस्) व्यक्तितो भिक्षुप्रतिमावत्सूत्रेऽनिषिद्धे सो य इहेव जिणमए, नन्नत्थ पइन्नपविभत्ती / / 143 // उपोभेदे, पञ्चा० 16 विव० / ("तित्थयर०" (6) इत्यादिगाथा धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमिति पूर्ववत्, इयं प्रतिज्ञा। आह-केयं प्रतिज्ञेति ? 'तित्थयरणिग्गमतव' शब्दे चतुर्थभागे 2313 पृष्ठे व्याख्याता) उच्यते-आप्तवचननिर्देशः इति। तत्राऽऽप्तोऽप्रतारकः, अप्रतारकश्वाशेषपइण्णपण्ण त्रि० (प्रकीर्णप्रज्ञ) विक्षिप्तच्छेदश्रुतरहस्ये, वृ०। रागाऽऽदिक्षयादवतीति। उक्तं च ''आगमो ह्याप्तवचनमाप्त दोषक्षयाद्विदुः / अथ प्रकीर्णद्वारमाह वीतरागोऽनृत वाक्यं, न बूयाद्धत्वसंभवात्॥१॥" तस्य वचनमातवचनं, सोउं अणभिगताणं, कहेइ अमुगं कहिज्जई इत्थं / तस्य निर्देशः आप्तवचनर्निर्देशः / आह-अयमागम इत्युच्यते, 'वेप्रतिपन्नएस उपइण्णपण्णो, पइण्णविज्जो उसव्यं पि।।७६३|| संप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वेनैष एव प्रतिज्ञेति नैष दोषः / पातान्तरं वायोऽर्थमण्डल्या राहसिकग्रन्थार्थ श्रुत्वा उत्थितः सन्ननशिगतानाम- साध्यवचननिर्देश इति।साध्यत इति साध्यम, उच्यते इतिवचननर्थोयस्मात् परिणताना लेशोदेशतः कथयति / यथा-अमुकं प्रलम्बग्रहणादिकमत्र स एवोच्यते, साध्यंचतद्वचनंच साध्यवचनं, साध्यार्थइत्यर्थः। तस्य निर्देशः Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइण्णा 5 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइदिणकिरिया ततःतह चेईहरगमणं, सक्कारो वंदणं गुरुसगासे। पचक्खाणं सवणं, जइपुच्छा उचियकरणिज / / 43 / / तथा तेन प्रकारेण विधिपूर्वकलक्षणेन। चैत्यगृहगमनं जिनबिम्बभवने यानं, प्रवेशश्च / तत्र यानविधिः- "सव्वाए इड्डीए सव्वाए दित्तीए सव्वाए जुत्तीए सव्वसमुदएण।'' इत्यादि। एवं हि प्रवचनप्रभावना कृता भवति। प्रवेशविधिस्तु- "सचित्ताण दव्वाणं विवसरणाए, अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणाए, एगसाडिएणं उत्तरासंगेणं, चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीभावेणं त्ति / " तत्र च सत्कारो माल्याऽऽदिभिरभ्यर्चनम्, अर्हत्प्रतिमाया इति गम्यते। वन्दनं प्रसिद्धविधिना चैत्यवन्दनम्। ततो गुरुसकाशे गुरुसमीपे प्रत्याख्यानं स्वयं गृहाऽऽदिगृहीतप्रत्याख्यानस्य गुरुसाक्षिकत्वविधानमित्यर्थः। ततः श्रवणमाकर्णनं गुरुसकाश एवाऽऽगमस्येति गम्यते / एवं हिस-क्रियानिबन्धनं सद्बोधो भवति / ततो यतिपृच्छा साधुशरीर-संयमवार्ताप्रच्छनम् / एवं हि विनयः प्रयुक्तो भवति / तत्र चोचितकरणीय विहितकर्त्तव्यं, यतेग्लानत्वाऽऽदावौषधप्रदानोपदेशाऽऽदिविधेयम्। अन्यथा पृच्छाया नातिसार्थकता स्यादिति गाथाऽर्थः // 43 // प्रतिज्ञत्युक्तेः प्रथमाऽवयवः / इत्यादि।दश०१ अ०। आ० मा आव०। नियमे, सूत्र०२ श्रु०५ अ०। ('लज्जाम०" इत्यादिश्लोकः चतुर्थभागे 2000 पृष्टे गतः) पइण्णाविरोहपुं० (प्रतिज्ञाविरोध) निग्रहस्थानभेदे, स्या०। 'प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः प्रतिज्ञाविरोधः // 4 // " गौ० सू०५ अ०२ आ० / अत्र च प्रतिज्ञाहेतुपदे कथाकालीनवाक्यपरे, तथा च कथायां स्ववचनार्थविरोधः प्रतिज्ञाविरोधः, यद्यपि काञ्चनमयः पर्वतो वह्निमान् पर्वतः काञ्चनमयवतिमान ह्रदो वह्निमान् ह्रदत्वात् पर्वतो वह्निमान् काञ्चनमयधूमादित्यादी हेत्वाभासान्तरसाइये,तथाऽप्युपधेयसरेऽप्यपाधेरसाइयन्नि दोषः।। न चासडीणस्थलाभावः पर्वतो न वह्निमान् धूमात्, यो यो धूमवान् स निरग्निरित्युदाहरणे निरग्निश्चायमित्युपनये तत्सत्त्वात् एवं निगमनेऽपि बोध्यम्।ववृ०॥ वाचा। पइण्णाविलेस पुं० (प्रतिज्ञाविशेष) अभिग्रहविशेपे, पश्चा०१८ विव०।। पइण्णासण्णास पुं० (प्रतिज्ञासंन्यास) चतुर्थे निग्रहस्थानभेदे, स्या०। "पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातापिनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः / / 5 / / " गौ०सू० 5 अ०२ आठ पक्षस्य स्वाभिहितस्य परेण प्रतिषेधे कृते तत्परिजिहीर्षया प्रतिज्ञातस्यार्थस्यापनयनमफ्लाप इत्यर्थः / वाच०। पइण्णाहाणि स्त्री०(प्रतिज्ञाहानि) हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्युपगच्छतो निग्रहस्थानभेदे, स्या०। (अत्र 'निग्गहट्टाण' शब्दे चतुर्थ भागे पृष्ठे उदाहरणानि)। पइण्णेसणा स्त्री० (प्रकीर्णेषणा) अनभिगृहीतषणायाम, पं०चू०। पइदिअस अ०(प्रतिदिवस) अहर्निश, पञ्चा०२ दिव०। पइदिण अव्य०(प्रतिदिन) प्रत्यहमित्यर्थे, पं०व०१ द्वार। पइदिणकिरिया स्त्री० (प्रतिदिनक्रिया) प्रतिदिनं प्रत्यहं क्रिया चेष्टा प्रतिदिनक्रिया। प्रव्रजिताना चक्रवालसामाचार्याम्, पं०व०१ द्वार। अथ श्रावकस्य प्रतिदिनक्रिया। तत्रापि निवसतः प्रतिदिनकर्तव्यमाहणवकारेण विबोहो, अणुसरणं सावओ बयाई मे। जोगो चिइवंदणमो, पच्चक्खाणं च विहिपुव्वं / / 42 / / नमस्कारेण परमेष्टिपञ्चकनमस्क्रियया, आत्यन्तिकतबहुमानकार्यभूतया परमभङ्गलार्थया वा विबोधो जागरणं, कार्य इति शेषः। एवमुत्तरत्रापि / इह चाविशेषेणैक नमस्कारपाठ प्ररूपयन्ति / अन्ये आहुः''नवकारचिंतणं माणसम्मि सेज्जागरण कायव्वं / सुत्ताविणयपवित्ती, निवारिया होइ एवं तु॥१॥" तथाऽनुस्मरणमनुचिन्तनं सदसत्कर्तव्यप्रवृत्तिहेतुभुतम् / किं स्वरूपं तदित्याह-श्रावकः श्राद्धोऽहं, तथा व्रतान्यणुव्रताऽऽदिनियमाः, (मे) मम, सन्तीति शेषः / उपलक्षणं चैतत्। तेनादः-कुलोऽहमदः शिष्यश्चेत्यादिद्रव्यतः, अमुत्र ग्रामगृहाऽऽदाविति क्षेत्रतः, प्रभातमिदमित्यादि कालतः, मूत्राऽऽदिवाधानां का बाधेत्यादि भावतः / ततो योगः कायिकोत्सर्गशौचाऽऽदिरूपो व्यापारः। एवं हि देहबाधापरिहारतः समाधेश्चैत्यवन्दनाऽऽदीनां भावानुष्ठानता। ततश्चैत्यवन्दनं पूजापुरस्सरमर्हद्विम्बवन्दनम्। ओ इति निपातो गाथापूरणार्थः / ततः प्रत्याख्यानमागमप्रसिद्धं, चशब्दः समुच्चये। विधिपूर्वमागमिकविधानपुरस्सर, न तु यथाकथञ्चित् / एतच विशेषणं चैत्यवन्दने प्रत्याख्याने च संबन्धनीयम्। विधिश्च तयोस्तत्प्रकरणयोर्वक्ष्यमाण इति | गाथाऽर्थः ॥४स अविरुद्धो ववहारो, काले तह भोयणं च संवरणं / चेइहराऽऽगम सवणं, सक्कारो वंदणाई य॥४४|| अविरुद्धः प्रागुपदर्शितपञ्चदशकर्मोऽऽदानपरिहारतोऽनवद्यप्रायो व्यवहारो वृत्तिनिमित्तप्रवृत्तिः, कार्य इति शेषः / अन्यथा धर्मबाधा, प्रवचनहीला च स्यादिति। काले शरीराऽऽरोग्यानुगुणे, प्रत्याख्यानतीरितत्वसमयस्वरूपे वा। अकालभोजने हि धर्मकाययोबर्बाधा स्यादिति। तथा तेन भणितप्रकारेण। तद्यथा-"जिणपूयोचियदाण, परियरसंभालणा उचियकिच्चं / ठाणुववेसो य तहा, पचक्खाणस्स संभरणं / / 1 / / " इत्यादि। भोजनसाहाराभ्यवहारः, प्रकारान्तरभोजने ह्यधर्म एव। चशब्दः समुचये। संवरणं तदनन्तरं संभवतो ग्रन्थिसहिताऽऽदेः प्रत्याख्यानस्य ग्रहणं प्रमादपरिजिहीर्षार्हि प्रत्याख्यानं विना न युक्तं क्षणमप्यासितुम्। ततोऽवसरे चैत्यगृहाऽऽगमश्च प्रतीतः, श्रवणं च साधुसमीपे जिनाऽऽगमाऽऽकर्णनं, चैत्यगृहाऽऽगमश्रवणम्।अथवा-चैत्यगृहे आगमस्य श्रवणमिति विग्रहः / चैत्यगृहे हिप्रायः आगमव्याख्यानं भवतीत्यागमय्याख्यानस्थानान्तरोपलक्षणार्थ चैत्यगृहग्रहणम्। यदाह"जत्थ पुण अनिस्सकडं, पूरिति तहिं समोसरणं / पूरिति समोसरणं, अन्नासइ णिस्सचेइएसुं पि।।१।। इहरा लोगविरुद्धं, सड्डाभंगो सड्डाणं।"न च चैत्यगृहाऽऽगमपूर्वकमागमश्रवणं विधेयमितो ज्ञापकाच्चैत्यगृह एव साधवोऽवतिष्ठन्त इति निश्चेतव्यम्, यतो व्यवहारभाष्यवचनमेवं स्थितम् - जइ विन आहाकम्म, भत्तिकयं तह वि वजयं तेहिं (चेव) भत्ती खलु होइ कया, इहरा आसायणा परमा / / 1 / / दुव्विगंधिमलस्सावि, तणुरप्पेसऽण्हाणिया। उभओ वा उवहो चेव, तेण ठंतिन चेइए / / 2 / / तिण्णि वा कड्ढई जाव, थुईओ तिसिलोइया। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदिणकिरिया 6- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइदिणकिरिया ताव तत्थ अणुण्णायं, कारणेण परेण वि॥३॥" इत्यल प्रसंड्गेन / ततो विकाले सत्कारोऽर्हचैत्यानां पूजा, वन्दनाऽऽदि च: वन्दना प्रसिद्धाऽर्हचैत्यानामेवा आदिशब्दाच्चैत्यसंबन्धितत्कालोचितकृत्यान्तरं ग्राहां, साध्यालयगमनं,तद्वन्दनाऽऽदिवा, भूमिकौचित्येन षड्विधाऽऽवश्यकमवश्यं विधेयमिति सर्वत्र गम्यम् / चशब्दः समुच्चये। पञ्चा०१ विव०। जइविस्सामणमुचिओ, जोगो नवकारचिंतणाईओ। गिहगमणं विहिसयणं, सरणं गुरुदेवयाईणं / / 45|| यतीनां साधूना वैयावृत्याऽऽदिभिः श्रान्तानां पुष्टाऽऽलम्बनेन तथा / विधश्रावकाऽऽदेरपि देहखेदापनोदमिच्छता विश्रमणं खेदविनोदनं यतिविश्रमण, करणीयमिति गम्यते। एवं सर्वत्रोचितक्रियाऽध्याहार:कार्यः / प्राकृतत्वाच विश्राम्यतेरुपान्त्यदीर्घत्वम्, यदा-विश्राम्यतः करणमिति शतृडन्तस्य फारिते घुटि च विश्रामणमिति भवति / तथोचितः स्वभमिकायोग्यो योगो व्यापारः। तमेवाऽऽह-नमस्कारचिन्तनाऽऽदिकः परमेष्टिपञ्चकनमस्कृतिध्यानप्रभृतिकः। आदिशब्दात् परिपठितप्रकरणगुणनाऽऽदि परिग्रहः / ततो गृहगमनं निजवेश्मगभः / तत्र च विधिशयन विधिना शयनक्रिया। विधिश्च जिनार्चमवन्दनविशेषप्रत्याख्यानकरणाऽऽदिः। तमेव विशेषेणाऽऽह-स्मरण मनसि धारणम्, उपलक्षणत्वादस्य गुणवर्णनाऽऽदिच; गुरुदेवताऽऽदीनां धर्माऽऽचार्यजिननायकप्रभृतीनाम। आदिशब्दात्तदन्येषां च धर्मोपकारकाणां प्रत्याख्यानाऽऽदीनामिति गाथाऽर्थः / / 4 / / तत्रचअव्वंभे पुण विरई, मोहदुगुंछा सतत्तचिंताय / इत्यीकलेवराणं, तविरएसुं च बहुमाणो // 46 // अब्रहाणि स्त्रीपरिभोगलक्षणे, पुनःशब्दो विशेषणे / तद्भाधवा चैवम् - गुर्वादिषु स्मरणं कर्त्तव्यम्, अब्रहाणि पुनर्विरतिनिवृत्तिः कार्या / तथा मोहजुगुप्सा स्त्रीपरिभोगहेतुवेदाऽऽदिमोहनीयनिन्दा / यथा-'यलजनीयमतिगोप्यमदर्शनीयं, वीभत्समुल्वणमलाऽऽविलपूतिगन्धि / तद्याचतेऽङ्ग मिह कामिकृगिस्तदेवं, कंवा दुनोति नमनाभववागताहा? 11 / / " इत्यादि। तथा स्वतत्त्वचिन्ता स्वरूपचिन्तन, कपा? स्त्रीकलेवराणां योषिवेहानाम् / यथा-"शुक्रशोणितसंभूतं, नवच्छिन मलोल्यणम् / अस्थिशृङ्खलिकामात्र, हंत योषिचछरीरकम् // 1 // " तद्विरतेष्वब्रहानिवृत्तेषु मुनिधु! चशब्दः समुच्चये। बहुमानोऽन्तरङ्गप्रीतिरूपो विधेयः / यथा- "धन्यारते वन्दनीयास्ते, तैस्त्रैलोक्यं पवित्रितम / यरेष भुवनक्लेशी, काममल्लो निपातितः॥१॥" इत्यादीतिगाथाऽर्थः / / 46|| तथासुत्तविउद्धस्स पुणो, सुहुमपयत्थेसु चित्तविण्णासो। भवठिइण्णिरूवणे वा, अहिगरणोवसमचित्ते वा / / 47 / / सुप्तविबुद्धस्य निद्राऽपगमेन जाग्रतः श्रावकस्य, पुनःशब्दः पूर्ववाक्याथपिक्षयोत्तरवाक्यार्थस्य विलक्षणताद्योतकः, सूक्ष्मपदार्थेषु अरथूलवस्तुषु कर्माऽऽत्मपरिणामाऽऽदिषु, चित्तविन्यासो मानसाऽऽवेशनं, करणीयमिति गम्यते / भवस्थितिनिरूपणे संसाररयरूपपर्यालोचने, चित्तविन्यास इति प्रकृतम् / यथोक्तम्- "रड्डो राजा नृपो रक्षा, स्वसा जाया जनी स्वसा। दुःखी सुखी सुखी दुःखी, यत्राऽसौ निर्गुणो भवः / / 1 / / " | वाशब्दो विकल्पार्थः / अधिकरणानि कलहाः, कृष्याऽऽदीनि वा, तेषामुपशमाय निवर्तनाय यचित्तं मानसं तत्तथा, तत्राधि-करणोपशमचित्ते कथंकदा वा मेऽधिकरणोपशमचित्तं भविष्यतीत्येवं चित्तविन्यासः कार्य इति भावः / वाशब्दो विकल्पार्थः / इति गाथाऽर्थः।।४७। तथा - आउयपरिहाणीए, असमंजसचेट्ठियाण व विवागे। खणलाभदीवणाए, धम्मगुणेसुं च विविहेसु / / 48|| आयुःपरिहाणो प्रतिक्षणाऽऽयुष्कक्षयलक्षणायां, चित्तविन्यास इति प्रतिपद योज्यम्। अत्र चोक्तम् - "समस्तसत्त्वसताना, क्षयत्यायुरनुक्षणम् / आगमल्लकवारीव, किं तथाऽपि प्रमाद्यसि ?||1||' इत्यादि। असमवसचेष्टितानामसदाचारितानां प्राणिवधाऽऽदीनाम्। वाशब्दो विकल्पार्थः, विपाके नरकाऽऽद्यशुभफलदायकत्ये। यथा- "बहमारणाअब्भक्खाणदाणपरधणविलोवणाऽऽदीणं / सव्वजहण्णो उदा. दसगुणिओ एकसि कयास / / 1 // " इत्यादि। क्षणे कालविशेषे, स्तोककालेऽपीत्यर्थः, लाभोऽशुभाध्यवसायेन महतोऽशुभकर्मणः शुभाध्यवसायेन च महत इतरस्यार्जनं, तस्य दीपना प्रकाशना क्षणलाभदीपना, तस्याम् , यथा- "नरएसु सुरवरेसु य, जो बंधइ सागरोवमं एक / पलिओवभाण बंधइ, कोडिसहस्साण दिवसेणं / / 1 // " अथवाक्षणोऽवसरो मोक्षसाधनस्य, स च द्रव्याऽऽदिभेदाचतुर्विधः / नत्र द्रव्यतो मानुषत्वं, क्षेत्रत आर्यक्षेत्रं, कालतो दुःषमसुषमाऽऽदिः कालविशेषः, भावतो बोधिरिति / तस्य क्षणस्य यो लामो युगसमिलान्यायेनकष्टात्प्राप्तिः, तस्य या दीपना सा तथा, तस्याम्। यथोक्तम्-'माणुरससेतजाईकुलरूवाऽऽरोग्गआउयं बुद्धी। सवणोग्गहसद्धा संजमो यलोगम्मि दुलहाई॥१॥" अथवा-क्षणलाभश्च दीपज्ञातं, द्वीपज्ञात वा क्षणलाभदीपज्ञातं, क्षणलाभद्वीपज्ञातं वा / तत्र क्षणलाभज्ञातं प्राग्वदा दीपज्ञात पुनर्यथा-"अंधयारे महाघोरे, दीवो ताणं सरीरिणं। एवमण्णागतामिस्ते, भीसमम्मि जिणाऽऽनमो॥१॥" द्वीपज्ञातं तु-"दीवो तास सरीरीण, समुहे दुतरेजहा। धम्मो जिणिंदपणत्तो, तहा संसारसागरे।।।" तथाधर्मस्य श्रुतचारित्ररूपस्य, गुणा उपकाराः, फलानीति यावत, धर्मगुणाः, तेषु चशब्दः समुचये / विविधेषु च बहुविधेष्विहलोक परलोकाऽऽश्रितेषु। यथोक्तम्-''श्रुतिगग्य फलं तावत्, सधर्मस्य शिवाऽऽदिकम् / शमजन्यसौख्यरूपं तु. साक्षादेवानुभूयते॥१॥" तथा-"निर्जितमदमदनानां, वाकायमनोविकाररहितानाम् / विनिवृत्तपराशाना महेव मोक्षः सुविहितानाम् / / 115" अथवा-धर्मरूपा गुणा धर्मगुणाः क्षेमाऽऽदयस्तेषु विविधधर्मगुणानां कारणे स्वरूपे फले च, चित्तन्यास कार्य इति हृदयमिति गाथाऽर्थः / / 48 / / वाहगदोसविवक्खे, धम्मायरिए य उज्जयविहारे। एमाइचित्तणासो, संवेगरसायणं देइ||४६|| यैर्य दोषरर्थकामरागाऽऽदिभिः स धर्माधिकारी पुरषो बाध्यते कुशलानुष्ठानतश्च्याव्यते ते बाधकदोषाः, तेषां विपक्षः तत्प्रतिपक्षभावनास पो बाधक दोषविपक्षस्तत्र / यदुक्तम् - 'जो जेणं वाहिअति, दोसेणं चेयणाइविसएणं / सो खलु तस्ल विवक्ख, तव्विसयं चे व झाइना / / 1 / / " चेतन चात्र द्रव्यम् / 'अत्थम्भि रागभावे, तरसेव उवजणाइसंकासं / भावेज धम्महे उं. अभा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदिणकिरिया 7- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइदिणकिरिया वमो तह यतस्सेव / 1 / / ' इत्यादि। तथा धर्माऽऽचार्ये बोधिलाभहेतुभूते गुरौ, दुष्करपत्युपकारोऽसावित्यादिरूपश्चित्तन्यासो विधेयः / यथोक्तम् - "सम्मत्तदायमाण, दुप्पडियारं भवेसुबहुएसु। सव्वगुणमोलियाहि वि. / उक्यारसहरसकोडीहिं।।१।।" चशब्दः समुचये। तथोद्यतानां प्रयत्नवत्साधूनाम्, उद्यतो वा प्रयत्नवान् विहारो मासकल्पाऽऽदिचर्या उद्यतविहारः, तत्रा यथोक्तम् - "अनिएयवासो समुदाणचरिया, अन्नाय उंछ पइरिक्कया या अप्पोवहीं कलहविवजणा य, विहारचरिया इसिण पसत्था / / 1 / / " आत्मगले चोद्यते विहारे यथा “कइया होही सो वा-सरो उ / गीयस्थगुरु-समीवम्मि। सव्वविरय पवजिय, विहरिस्सामी अहं जम्मि 1.1 // " धर्माऽऽचार्य विशेषणं वो द्यतविहार इति / एवं चित्तविन्यास फ्लनिर्देशद्वारेण निगमथन्नाह-एवमनन्तरोक्तप्रकारं सूक्ष्मपदार्थाऽऽदिकं वस्त्वादियेपामात्मप्रगादनिन्दाऽऽदीनां त एवमादयः, तेषु, चित्तविन्यासो मनोनिक्षेप एवमादिचित्तन्यासः। अथवैवमादिरनन्तरोक्तसूक्ष्मपदार्थचित्तविन्यासप्रभृतिकः, स चासो चित्तन्यासश्चेत्येवमादिचित्तन्यासः। किमित्याह- संवेगः संसारनिर्वेदो, मोक्षानुरागोवा, स एव रसायनममृतमजरामरत्व-हेतुत्वात्संवेगरसायन, तद्ददाति प्रयच्छति / एवं हि चित्तविन्यास संवेग उत्पद्यत इति गाथाऽर्थः॥४६॥ ततःगोसे भणिओ य विही, इय अणवरयं तु चेट्ठमा णस्स / भवविरहबियभूओ, जायइ चारित्तपरिणामो // 50 / / (गोसे ) प्रत्युषसि / भणितः, चशब्दस्येवकारार्थत्वादणित एव प्राक् प्रतिपादित एव विधिः श्रावकानुष्ठानम् "नवकारेण विबाहो'' इत्यादिरूपः; अतः पुनरपि नोच्यत इति हृदयम् / एवं च प्रतिपादितानुष्ठान फलप्रदर्शनद्वारेण निगमयन्नाहइति प्राक्तनप्रकारेण नमस्कारविबोधाऽऽदिना, अनवरतं सततम् / तुशब्दः पुनःशब्दार्थ :, एवकारार्थो वा। चेष्टमानस्य प्रदर्शितानुष्ठानं विदधतः, श्रावकस्येति गम्यम् / किम् ? भवविरहः संसारवियोगस्तस्य बीजभूतो बीजकल्पो, हेतुरित्यर्थ, ससारविरहबीजभूतः, जायते संपद्यते, चारित्रपरिणामः सर्वविरतिपरिणतिः। एवं हि देशविरतिमभ्यस्यत उपायप्रवृत्तेरवश्य भवविरहवीजभूतश्चारित्रपरिणामः, तत्राऽन्यत्र वा भवेदिति हृदयम्। इह च विरह इति सिताम्बरश्रीहरिभद्राऽऽचार्यस्य कृतेरङ्ग इति गाथार्थः / पञ्चा०१ विव० / (साधोरतु दिनचर्या पोरिसी' शब्दे वक्ष्यते) रत्तिं पि चउरो भागे, कुजा भिक्खू वयिक्खणे / तत उत्तरगुणं कुजा, राइभागेसु चउसु वि।।१७।। पढमपोरिसि सज्झायं, विइए झाणं झियायइ / तइयाए निद्दमोक्खं तु, चउत्थी भुजो वि सज्झायं // 18 // स्पष्टमेय, नवर रात्रिमपि, न केवल दिनमित्यपिशब्दार्थः / द्वितीया पौरुषी ध्वावव इति ध्यानं सूक्ष्मसूत्रार्थलक्षणं क्षितिवलयद्वीपसागरभवनाऽऽदि वा / (झियायइत्ति ) ध्यायेचिन्तयेत्। तृतीयायां निद्रामोक्षःपूर्व निरुद्वाया मुत्कलना निद्रामोक्षः, स्याप इत्यर्थः। तं कुर्यादिति सर्वत्र प्रक्रमाद्योज्यम्। वृषभापेक्षं चैतत्, सामास्त्येन तुप्रथमचरमप्रहरजाग रणमेव। तथा चाऽऽगमः "सव्वे विपढमजामे, दोन्नि उ वसभाण आइमा जामा। तइओ होइ गुरूण, चउत्थओ होइ सव्वेसि / / 1 // ' शयनविधिश्वायम् - ''बहुपडिपुन्नाए पोरिसीए गुरुसगास गंतूण भण्णइइच्छामि खमासगुणो ! वंदिउं जावणिजाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि बहुपडिपुण्णा पोरिसी, अणुजाणहराइयं संथारय। ताहे पढभ काइयभूमि वचंति / ताहे जत्थ संथारभूमी तत्थ वचंति / ताहे उवहिम्मि उवआग करेत्ता पमन्जित्ता उवहीए दोरयं छोडति, ताहे संथारपट्टयं उत्तरपट्टयु च पडिलेहिता दो वि एगत्थ लायित्ता उरुमि ठवति / ताहे सथारभूमि पमज्जति / ताहे संथारय अत्थरंति सउत्तरपदृयं, तत्थ य लगाए मुहपोत्तियाए उवरिम कायं मजति, हेट्ठिल रयहरणेणं, कप्पे य वामपासे ठावंति, पुणो संथारं चडित्ता भणति जेडजाईपुरतोचिटुंताणं अणुजाणिज्जह, पुणो सामाइयं तिन्नि वारे कड्डिऊण सुय रिवंती सुप्तानां चायं विधिः "अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेणं वामपासेण। पायपसारणकुक्कुडिअतरतो पमज्जए भूमिं / / 1 / / संकोए संडास, उव्वदृतीऍ कायपडिलेहा। दव्वादी उवओग, उस्सासनिरंभणा लोयं / / " इति सूत्र गाथार्थः। संप्रति रात्रिभागचतुष्टयपरिज्ञानोपायमुपदर्शयन् समस्तयतिकृत्यमाहजं णेइ जया रत्तिं , नक्खत्तं तम्मि णहचउभागे। संपत्ते विरमेजा, सज्झाय पओसकालम्मि॥१६॥ तम्मेवय नक्खत्ते, गयणे चउभागसावसेसम्मि। वेरत्तियं पि कालं, पडिलेहित्ता मुणी कुजा / / 20 / / यद् नयति प्रापयति, परिसमाप्तिमिति गम्यते / यदा रात्रि नक्षत्र, तस्मिन्नभश्चतुर्थभागे संप्राप्ते विरमेन्निवर्त्तत। (सज्झाय त्ति) स्वाध्यायात् प्रदोषकाले रजनीमुखसमये, प्रारब्धादिति शेषः / तस्मिन्नेव नक्षत्रे प्रक्रमात्प्राप्ते / वेत्याह-(गयण त्ति) गगने, कीदृशि? चतुर्भागण गम्यते सावशेषं सोद्वरितं चतुर्भागसावशेष, तस्मिन्, वैरात्रिकं तृतीयम्, अपिशब्दात्रिजनिजसमये प्रादोषकाऽऽदि च काल (पडिलेहित्तु त्ति) प्रत्युपेक्ष्य प्रतिजागर्य, मुनिः कुर्यात् / करोतेः सर्वधात्वर्थाद् गृह्णीयात्। इह च काकोपलक्षणद्वारेण प्रथमाऽऽदिषु नभश्चतुभांगेषु संप्राप्ते नेतरि नक्षत्रे रात्रे : प्रथमाऽऽदयः प्रहराऽऽदय इत्युक्तं भवतीति सूत्रद्वयार्थः / / 20 / / इत्थं सामान्येन दिनरजनिकृत्यमुपदर्य पुनर्विशेषतस्तदेव दर्शयस्तावद्दिनकृत्यमाहपुविल्लम्मि चउब्भागे, पडिलेहित्ताण भंडयं / गुरुं वंदित्तु सज्झायं, कुज्जा मिक्खू वियक्खणे // 21 // पोरिसीए चउन्भागे, वंदित्ताणं तओ गुरुं। अपडिक्कमित्तु कालस्स, भाणं तु पडिलेहए / / 22 / / सूत्राणि सप्तदश सार्धानि, तत्र सूत्रद्वयं व्याख्यातप्रायमेव, नवरं पूर्वस्मिन् चतुर्थभागे प्रथमपौरुषीलक्षणे, प्रक्रमाद्दिनस्य; प्रत्युपेक्ष्य भण्डकं प्राग्वद् वर्षाकल्पाऽऽद्युपधिम्, आदित्योदयसमय इति शेषः / द्वितीयसूत्रे च पौरुष्याश्चतुर्थभागे, विशिष्यमाण इतिगम्यते। तातेऽयमर्थः- पादोनपौरुष्या भाजन प्रति लेखयेदिति संबन्धः। स्वाध्यायादुपरतश्चेत् कालस्य प्रतिक्र Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदिणकिरिया 8- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइदिणकिरिया म्यैव कृत्यान्तरमारब्धव्यमित्याशङ्कयेतात आह-अप्रतिक्रम्य कालस्य तत्प्रतिक्रमणार्थ कायोत्सर्गमविधाय चतुर्थपौरुष्यामपि स्वाध्यायस्य विधास्यमानत्वात् / / 21 // 22 // प्रतिलेखनाविधिमेवाऽऽहमुहपोत्तिं पडिले हित्ता, पडिले हिज्ज गोच्छग। गोच्छगलायंगुलिओ, वत्थाइं पडिलेहए॥२३।। मुखपोत्तिका प्रतीतामेव प्रतिलेख्य प्रतिलेखयेत् गोच्छकं पात्रकोपरिवयुपकरणम्। ततश्च (गोच्छगलायंगुलिय त्ति ) प्राकृतत्वादड्गुलिभिलॉतो गृहीतो गोच्छको येन सोऽयमङ्गु लिलातगोच्छको वस्त्राणि पटत्तकरूपाणि प्रतिलेखयेत्, प्रस्तावात् प्रमार्जयेदित्यर्थः / / 23 / / इत्थं तथाऽवस्थितान्येव पटलानि गोच्छकेन प्रमृज्य पुनर्यत् कुर्यात्तदाहउर्ल्ड थिरं अतुरियं, पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे। तो बिइयं पप्फोडे, तइयं च पुणो पडजिज्जा // 24 // ऊर्द्ध कायतो वस्त्रतश्च, तत्र कायत उत्कुटुकत्वेन स्थितत्वाद्वस्त्रतश्च तिर्यक् प्रसारितवस्त्रत्वात् / उक्तं हि - "उकुडुओ तिरिय पेहे जह विलित्तो।' स्थिरं दृढग्रहणेन, अत्वरितमद्रुतं स्तिमित यथा भवत्येवं, पूर्व प्रथम (ता इति ) तावद्द्वस्त्रं पटलकरूपं, जातावेकवचन, पटलकप्रक्रमेऽपि सामान्यवाचकवस्त्रशब्दाभिधानं वर्षाकल्पाऽऽदिप्रत्युपेक्षणायामप्ययमेव विधिरिति ख्यापनार्थम् / एवशब्दो भिन्नक्रमः / ततः (पडिलेह त्ति) प्रत्युपेक्षेतैव, आरतः परतश्च निरीक्षेतैव, नतु प्रस्फोटयेत्।। अथवा-बिन्दुलोपादेवममुना ऊर्धाऽऽदिप्रकारेण प्रत्युपेक्षत, न त्वन्यथेति भावः / तत्र च यदि जन्तून् पश्यति ततो यतनयाऽन्यत्र संक्रमयति, तददर्शने च (तो इति) ततः प्रत्युपेक्षणादनन्तरं द्वितीयभिदं कुर्यात-यदुत परिशुद्धं सत्प्रस्फोटयेत, तत्प्रस्फोटनां कुर्या-दित्यर्थः / तृतीयं च पुनरिदं कुर्यात, यदुत प्रमृज्यात् . कोऽर्थः? प्रत्युपेक्ष्य प्रस्फोटा च हस्तगतान प्राणिनः प्रमृज्यादित्यर्थः / / 24 / / कथं पुनः प्रस्फोटयेत्, प्रमृज्याद्वेत्याहअणच्चावियं अवलियं, अणाणुबंधिममोसलिं। छ प्पुरिमा नव खोडा, पाणीपाणिविसोद्दणं / / 25 / / अनर्तितं प्रस्फोटनं प्रमार्जनं कुर्वता वस्त्र, वपुर्वा यथा नर्तितं न भवति, अवलितं यथाऽऽत्मनो वस्त्रस्य च वलित मिति मोटनं न भवति / (अणाणुबंधित्ति) अननुबन्धि अननुबन्धनेन नैरन्तलक्षणेन युक्तमननुबन्धिनस्तथा कोऽर्थोऽलक्ष्यमाणविभाग यथा न भवति (अगोरालि त्ति) सूत्रत्वादमर्शवत्तिर्यगूर्द्धमधो वा कुड्याऽऽदिपरामर्शवद्यथा न भवति। उक्त हि "तिरिउड्ढघट्टणामुसलि ति।" तथा किमित्याह - (छ पुरिम त्ति) षट्पूर्वाः, पर्व क्रियमाणतया तिर्यक्कृतवस्त्रप्रस्फोटनाऽऽत्मिकाः क्रियाविशेषा येषु त षट्पूर्वाः (नवखोड त्ति) खोटकाः समयप्रसिद्धस्फोटनाऽऽत्मकाः, कर्तव्या इति शेषः / पाणी पाणितले, प्राणानां कुन्थ्वादिसत्त्वानां, विशोधनं, पाठान्तरतश्च प्रमार्जनं प्रस्फोटनं त्रिकत्रिकोत्तरकाल त्रिकत्रिसंख्य, पाणिप्राणविशाधन पाणिग्राणप्रमार्जन वा कर्तव्यम।।२५।। प्रतिलेखनादोषपरिहारार्थमाहआरभडा संमद्दा, वज्जेयव्वा य मोसली तइया। पप्फोडणे चउत्थी, विक्खित्ता वेइया छट्ठी॥२६॥ आरभटा विपरीतकरणमुच्यते, त्वरित वा अन्यान्यवस्त्रग्रहणेनासो भवति / उक्तं हि- ''वितहकरणमारभडा, तुरियं वा अन्नमन्नगहणेणं / ' संमर्दन संमर्दा रुढित्वात स्त्रीलिङ्गता, वस्त्रान्तः कोणासंवलनमुपधेवा उपरि निपदनम् / उक्त च- "अंतो वहोज्ज कोणा, निसीयण त थेव समदा।" वर्जयितव्येति सर्वत्र संबध्यते। चः पूरणे ।(मोसलि त्ति) तिर्यगूलमधो वा घट्टना तुतीया, प्रस्फोटना प्रकर्षेण रेणुगुण्डितस्यैव वस्त्रस्य झाटनाचतुर्थी, विक्षेपणं विक्षिप्ता, पञ्चमीतिगम्यते। रूढिा वाच स्त्रीलिङ्गता / उक्तं हि-लिङ्ग मशिष्यं लोकाऽऽश्रयत्वात्। 'सा च प्रत्युपेक्षितवस्त्राणामन्यत्राप्रत्युपेक्षिते क्षेपणं, प्रत्युपेक्ष्यमाणे वा वस्त्राञ्चल यदूर्द्ध क्षिपति। वेदिका (छटित्ति) षष्ठी। अत्र संप्रदायः- "वेइया पंचविहा पण्णता / तं जहा-उड्डवेइया, अहोवेइया,तिरियवेइया, दुहओ वेइया, एगओ वेइया। तत्थ उड्डवेश्या उवरि जुन्नगाणं हत्थे काऊण पडिले ति। अहोवेइया अहो जुण्णगाण हत्थे काऊण पडिलेहेइ। तिरियवइया संडासयाण मज्ड' ..थं घित्तूण पडिलेहेइ। दुहनो वेइया वाहणं अंतरे दौ वि जुन्नगा काऊ, पडिलेहेति। एगतो वेइया एगं जुण्णगं वाणमंतरे काऊण पडिलहेइ। एवमेते षट् दोषाः प्रतिलेखनायां परिहर्तव्याः / / 26 / / तथापसिदिलपलंबलोला, एगामोसा अणेगरूवधुणा / कुणइ पमाणि एमायं, संकियगणणोवगं कुज्जा / / 27|| प्रशिथिल नाम दोषो यद् दृढमत्वराऽऽयितं वा वस्त्रं गृह्यते, प्रलम्बो यद्विषमग्रहणेन प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रकोणानालम्बन, लोला यद भृमी करे वा प्रत्युपेक्ष्माणवस्त्रस्यलोलनम्। अमीषां द्वन्द्वः। ए-कामर्शनमेकामर्शा, प्राग्वत स्त्रीलिङ्गता / मध्ये गृहीत्वा ग्रहणदेशं गावदुभयतो वर त्रस्य यदेककालं संघर्षणभाकर्षणम्। उक्तं च 'पसिढिलमघणं अणिरा-यतंच विरामगहणं च कोणे था। भूमी करलोलणया, कखणगहणेगअ मोसा / / 1 / / " (अणेगरूवधुण त्ति) अनेकरूपा चाऽसौ संख्यात्रयातिक्रमणतो, युगपदनेकवस्त्रग्रहणतो वा धूनना कम्पनाऽऽत्मिका अनेकरूपध्नना। पठ्यते च-(अणेगरूवधूय त्ति) तत्र च धूत कम्पनम्, अन्यत् प्राग्वत्। तथा यत्करोति प्रमाणे प्रस्फोटाऽऽदिसंख्याओ लक्षणे प्रमादमनब्धानं, यच शङ्किते प्रमादतः प्रमाणं प्रति शड्कोत्पत्तौ गणना कराडगुलिरेखास्पर्शाऽऽदिनकद्वित्रिसंख्याऽऽत्मिकामुपगच्छत्युपयाति गणनोपगं यथा भवत्येवं गम्यमानत्वात प्रस्फोटनाऽऽदि कुर्यात्, संभावने लिट् / सोऽपि दोषः। सर्वत्र पूर्वसूत्रादनुवर्त्य वर्जनक्रिया योजनीया / उस च - "धूणण तिण्ह परेणं, बहूणि वा घित्तु एक्कतो धुणति। खोडणपमावणासु य, संकियगणण करे एमादी॥१॥" एवं चानन्तरोक्तदोपरन्विता नदोषा प्रत्युपेक्षणा, वियुक्ता तु निर्दोषेत्यर्थत उक्तं च / / 27 / / साम्प्रतं त्वेनामेव भङ्ग कनिदर्शनद्वारेण साक्षात्सदोषां च कि चिद्विशेषतो वक्तुमाहअणूणाइरित्त पडिलेहा, अविवचासा तहेव य। पढमं पयं पसत्थं, सेसाणि य अप्पसत्थाई।।२८|| (अणूणाइरित्त त्ति) ऊना चासावतिरिक्ता चोनातिरिक्ता, म तथा अनूनातिरिक्ता, प्रतिलेखना। इह च न्यूनताऽऽधिक्ये स्फोटना Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदिणकिरिया - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइदिणकिरिया प्रमार्जने वेला चाऽऽश्रित्य वाच्ये। यदुक्त - "खोडणपमज्जवेला - सुचेव ऊण हिया मुणेयवा।" (अविवचास त्ति) विविधो व्यत्यासो विपर्यासो यरया सान्यत्यासा, न तथा विव्यत्यासा पुरुषापधिविपर्यासरहिता, कर्तव्येति शेषः / अत्र च त्रिभिर्विशेषणपदैरप्टो भङ्गाः सूचिता भवन्ति / स्थापना चेयम्-एतषु च कः शुद्धः,को वा अशुद्धः? इत्याह-प्रथम पदमिहेवोपदर्शिताऽऽ-धभङ्ग रूपं प्रशस्तं निर्दोषतया श्लाध्य, शुद्धमिति यादत् / शेषाणि तु. प्रक्रमात्पदानि, द्वितीयाऽऽदिभङ्ग काऽऽत्मकानि अप्रशस्तानि, तेषु न्यूनताऽऽद्यन्यतमदोषसम्भवात्। ततः प्रथमभड़ानुपतिन्येव प्रतिलेखना विधेयेत्युक्तं भवति। एवंविधामयेनां कुर्वतां यत्परिहर्त्तव्यं, तत् काक्वोपदेष्टुमाहपडिलेहणं कुणतो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा। देइ व पचक्खाणं, वाएइ सयं पडिच्छइ वा / / 26 / / प्रद्धिलेखनां कुर्वन् मिथ : कथां परस्परसंभाषणाऽऽत्मिका, करोति, जनपदका बा, स्त्र्यादिकथोपलक्षणमेतत् / ददाति वा प्रत्याख्यानमन्यस्ने, वाचयत्यपेः श्रावयति, स्वयं प्रतीच्छति वा आलापकाऽऽदिकं गहाति, यति गम्यते // 26 // स किमित्याहपुडवीआउकाए, तेऊ-वाऊ-वणस्सइतसाणं। पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराइओ होइ॥३०॥ "युद्धवी' इत्यादि स्पष्ट, नवरं (पुढवीआउकाए त्ति) पृथिव्यप्काययोः प्रतिलेखनाप्रमत्तो मिथः कथाऽऽदिना तवानवहितः सन् वण्णामपि आस्तामे के काऽऽदीनामित्यपिशब्दार्थः / विराधक श्चैवं प्रमत्तो हि कुम्भकारशालाऽऽदौ स्थितो जलभृतघटाऽऽदिकमपि प्रलोठयेत्. ततस्तज्जलेन मृदाग्रिवीजकुथ्वादयः प्लाव्यन्ते.प प्लावनातश्च विध्यन्ते, यत्र चाग्निस्तत्राऽऽवश्यं वायुरिति षण्णामपि द्रव्यतो 'विराधकत्वम्। भावतस्तु प्रमत्ततयाऽन्यथापि विराधकत्यमेव। उक्तं हि"इह दव्वओ उ उपह, विराहओ भावओ य इहरा वि। उवउत्तो पुण साहू, सपत्तीए जुओ होइ॥१॥" पुढवीआउझाए, तेऊवाऊवणस्सइतसाणं। पडिलेहणआउत्तो, छण् संरक्खओ होइ॥३१।। तदनेन जीवरक्षाऽर्थत्वात्प्रतिलेखनायास्तत्काले च प्रमादजनकत्वेन हिंसाऽऽदिहेतुत्वान्मिथः कथाऽऽदीनां परिहार्यत्वमुक्तम् / इत्थं प्रथमपौरुषीकृत्यमुक्त, तदनन्तरं द्वितीयपौरुषीकृत्याभिधानावसरः / तर "बीए झाणं झियायइ। 'इति वचनेन ध्यानमुक्तम्, उभय चैतदवश्यकलव्यमतस्तृतीयपौरुषीकृत्यमप्येवम्, उत कारणे एवोत्पन्ने ? इत्याशङ्याऽऽहतइयाए पोरिसीए, भत्तं पाणं गवेसए। छण्हं अन्नयराए य, कारणम्मि उवट्ठिए।।३।। "तइयाए' इत्यादि सुगम, नवरमौत्सर्गिकमेतत, अन्यथा हि स्थविरकल्पिकानां यथा कालभक्ताऽऽदेर्गवषणं तथा चाऽऽह - 'सइ काले चरे भिक्खु ति। ' षण्णां कारणानां (अण्णयराए त्ति) अन्यतरस्मिन् कारणे समुत्थिते संजाते, न तु कारणोत्पत्तिं विनेति भावः / भोजनोपलक्षणं चेह भक्तपानगवेषणम्, भक्तपानगगवेषणं गुरुग्लानाऽऽद्यर्थमन्यथाऽपि तस्य संभवात्, तथा चान्यत्र भोजन एवैतानि कारणा न्युक्तानि // 32 // तान्येव षट् कारणान्याहवेयण-वेयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए, छटुं पुण धम्मचिंताए।३३।। (वेयणवेयावचे ति) सुप्यत्ययावेदनाशब्दस्य चोपलक्षणत्वात क्षुत्पिपासाजनितवेदनोपशमनाय, तथा क्षुत्पिपासायां न गुर्वादिवंयावृत्यकरणक्षम इति वैयावृत्याय / तथा इये ति इर्यारामितिः, सैव निर्जरार्थिभिरर्थ्यमानतयाऽर्थः, तस्मै,च : समुच्चये / कथं नामासी भवत्विति ? इतरथा हि क्षुत्पिपासाभ्यां पीडितस्य चक्षुभ्यामपश्यतः कथमिवासी स्यादिति / तथा संयमार्थाय, कथं नामाऽसौ पालयितु शक्यतामित्याकुलितस्य हि ताभ्यां सचित्ताऽऽहारे तद्विघात एवं स्यात्। तथा-(पाणवत्तियाए ति) प्राणप्रत्ययं जीवितनिमित्तमपि, विधिना ह्यात्मनोऽपि प्राणोत्क्रमणे हिंसा स्यात्। अत एवोक्तम्- ''भावियजिणवयणाण, समत्तरहियाण, नऽस्थि हु विसेसो। अप्पाणम्मि परम्मिय, तो वज्जे पीडमुभए वि" ||1|| षष्ठं पुनरिदं कारण यदुतधर्मचिन्तायै, भक्तपानं गवेषयेदिति सर्वत्रानुबय॑ते,अत्र च धर्मचिन्ताधर्मध्यानचिन्ता, श्रुतधर्मचिन्ता वा / इयं घुभयरूपा अपि तदाकुलितचेतसो न स्यादा-ध्यानसंभवात्, इह च यद्यपि वेदनोपशमाऽऽदीनां शाब्दया वृत्त्या तदुपलक्षितभोजनफलत्वेन प्रतीतिः, तथापि तैर्विना तन्निषेधसूचनादा• वृत्त्या कारणत्वमेवेषामुपदर्शितं भवत्यत एवषष्ठमित्यत्र कारणमेव संबन्धितम्। आहेततकारणोत्पत्तौ किमवश्यं भक्तपानगवेषणं कर्त्तव्यमुताल्यथेत्याहनिग्गंथो धिइमंतो, निग्गंथी सावि करेज छहिं चेव / धाणेहिं उ इमेहिं, अणतिक्कमणाइ से होइ // 34 // निर्गन्थो यति : धृतिमान् धर्मचरण प्रति, निर्ग्रन्थी तपस्विनी, साऽपि कुर्याद्. भक्तपानगवेषणमिति प्रक्रमः / षड्भिश्चैव स्थानः, तः पुनरर्थे, एभिरनन्तरं वक्ष्यमाणैः, किमित्येवमत आह(अणइक्कमणमिति) सूत्रत्वादनतिक्रमणं संयमयोगानामनुल्लङ्घनं, चशब्दौ यस्मादर्थ, यस्मात् (से त्ति) तस्य निर्ग्रन्थस्य तस्या वा निर्गन्थ्या भवति जायते, अन्यथा तदतिक्रमण संभवात् / / 34 / / षट्स्थानान्येवाहआयंके उवसग्गे, तितिक्खयाबम्भचेरगुत्तीसु। पाणिदया तवहेळं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए।।३।। आतको ज्वराऽऽदिरोगः, तस्मिन्, उपसर्गान् इति स्वजनाऽऽदिः कश्चिदुपसर्गास्तन्निष्क्रमणार्थ करोति, विमर्शाऽऽदिहेतो ततस्तस्मिन् सति उभयत्र तन्निवारणार्थमिति गम्यते / तथा तितिक्षा सहनं, तया हेतुभूततया, क्व विषये, इत्याह-ब्रह्मचर्यगुप्तिषु, ता हि नान्यथा सोहूँ शक्याः, तथा (पाणिदया तवहेउंति) प्राणिदयाहेतोर्वर्षाऽऽदौ निपतत्यप्कायाऽऽदिजीवरक्षायै, तपश्चतुर्थाऽऽदिरूपं तद्धेतोच, तथा शरीरस्य व्यवच्छेदः परिहारः, तदर्थ च, उचितकाले संलेखनामनशनं वा कुर्वन् भक्तपानगवेषणं कुर्यादिति सर्वत्र योज्यम् / कारणत्वभावना चामीषा प्राम्वत् // 35|| तद्गवेषणं च कुर्वन् केन विधिना कियत् क्षेत्रं पर्यटदित्याहअदसेसं भंडगं गिज्झ, चक्खुसा पडिलेहए। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदिणकिरिया 10- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइदिणकिरिया परमद्धजोयणाओ, विहारं विहरे मुणी॥३६|| अवशेष भिक्षाप्रक्रमात् पात्रनिर्योगोदरित, चशब्दस्य गम्यमानत्वात शेष च, न पात्रनियोगमेव / यद्वा-अपगतं शेषमपशेषम्, कोऽर्थः ? समस्त भाण्डकमुपकरणं (गिज्झ त्ति) गृहीत्वा, च-क्षुषा प्रत्युपेक्षेत, उपलक्षणत्वात् प्रतिलेखयेचा इह च विशेषत इतिगम्यते। सामान्यतो ह्यप्रत्युपेक्षितस्य ग्रहणमपि न युज्यत एव यतीनाम्,उपलक्षणत्वाचास्य तदादाय परमुत्कृष्टमर्द्धयोजनादड़योजनमाश्रित्य, ल्यब्लोपे पञ्चमी। परतो हि क्षेत्रातीतमशनाऽऽदिर्भवत्, विहरन्त्यस्मिन् प्रदेश इति विहारस्त (विहर त्ति) विहरेद्विचरेन्मुनिः // 36 // इत्थं विहत्योपाश्रयं चाऽऽगत्य गुर्वालोचनाऽऽदिकृत्वा यत् कुर्यात्तदाहचउत्थीए पोरिसीए, णिक्खिवित्ताण भायणं / सज्झाययं तओ कुजा, सव्वभावविभावयं // 37 // चतुर्थ्या पौरुष्या निक्षिप्य प्रत्युपेक्षणापूर्वकं वध्वा भाजन पात्रं स्वाध्यायं ततः कुर्यात्, सर्वभावा जीवाऽऽदयः, तेषा विभावकं प्रकाशकं सर्वभावविभावकम्। पठ्यते च- "सव्वदोक्खविमुक्खणं ति' प्राग्वत्। पोरिसीए चउडभाए, वंदित्ताण तओ गुरुं। पडिक्कमित्ता कालस्स, सेजंतु पडिलेहए॥३८|| पौरुष्याः प्रक्रमाच्चतुर्थ्याश्चतुर्भागे चतुर्थांश, शेष इति गम्यते। वन्दित्वा तत इति स्वाध्यायकरणादनन्तर गुरुमाचार्याऽऽदि प्रतिक्रम्य कालस्य शय्यां वसतिं, तुः पूरणे, प्रतिलेखयेत्॥३८|| पासवणुचारभूमि च, पडिले हिज्ज जयं जई। ततश्च (पासवणुचारभूमि च त्ति ) भूमिशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् प्रश्रवणभूमिमुच्चारभूमिं च प्रत्येक द्वादशस्थण्डिलाऽऽत्मिकां, चशब्दात् कालभूमिं च स्थण्डिलवयाऽऽत्मिकां प्रतिलेस्वयेत् (जयं ति ) यतमारम्भादुपरतं यथा भवति तथा यतमानो यतिः। एवं च सप्तविंशतिस्थण्डिलानां प्रत्युपेक्षणानन्तरमादित्योऽस्तमेति। तथा चोक्तम्"चउभागऽवसेसाए, चरिमाएँ पडिक्कमित्तु कालस्स। उचारे पासवणे, थंडिलचउवीसतिं पेहे||१|| अहियासियाओं अंतो, आसन्नो मज्झिदूरि तिन्नि भवे। तिन्नेव अणहियासिया, अंतो छ छच वाहिरओ।।२।। एमेव य पासवणे , बारस चउवीसइंतु पेहेत्ता। कालस्स य तिन्नि भवे, अह सुरो अत्थमुवयाइ / / 3 / / ' इति सार्द्धसप्तदशसूत्रार्थः इत्थं विशेषतो दिनकृत्यमभिधाय संप्रति तथैव रात्रिकर्त तत्र च स्थितो यत् कुर्यात्तदाह-(देसियं ति) प्राकृतत्वाद्वक रलोपे दैवसिकम् / चः पूरणे, अतिचारमतिक्रम, चिन्तयेद्ध्यायेत्। (अणुपुटवसो त्ति) आनुपूर्व्या क्रमेण, प्रभातभुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणातो यावदयमेव कायोत्सर्गः। उक्तं हि-"गोस मुहे ऽणंतगाई, आलोइऍ देसिएय अतियारे। सव्वेसमाणइत्ता, हियए दोसे ठविजाह / / 1 / / "किंविषयमनीचार चिन्तयेदित्याह-ज्ञाने ज्ञानविषयमेवं दर्शने चैव, चारित्रे तथैव च। पारियकाउस्सग्गो वंदित्ताण तओ गुरुं। देसियं तु अतीचारं, आलोएज जहक्कम // 41 // पारितः समापितः कायोत्सगों येन स तथा, वन्दित्वा प्रस्तावाद द्वादशाऽऽवर्त्तवन्दनेन, तत इत्यतीचारचिन्तनादनन्तरं गुरुमाचार्याऽऽदि (देसिय त्ति) प्राग्वदैवसिक, तुः पूरणे। अतीचारमालोचयेत् प्रकाशयेत् गुरूणामेव, यथाक्रममालोचनाऽऽसेवनाऽन्यतराऽनुलोम्यक्र मानतिक्रमेण। पडिक्कमित्तु निस्सल्लो, वंदित्ताण तओ गुरुं / काउस्सग्गं तओ कुजा, सव्वदुक्खविभोक्खणं / / 4 / / प्रतिक्रम्य प्रतीपमपराधस्थानेभ्यो निवृत्य, प्रतिक्रमणंच मनसा भावविशुद्धितो, वाचा तत्सूत्रपाठतः, कायेनोत्तमाङ्गेन नमनाऽऽतिः, निःशल्यो मायाऽऽदिशल्यरहितः, सूचकत्वात् सूत्रस्य वन्दनकपूर्व क्षमयित्वा च, वन्दित्वा द्वादशाऽऽव-वन्दनेन, तत इत्युक्तविधेरनन्तरं गुशमाचार्याऽऽदिक, कायोत्सर्ग दर्शनचारित्रश्रुतज्ञानशुद्धिनिमित्तव्युत्सर्गत्रयलक्षणं, जातौ चैकवचन, ततो गुरुवन्दनानन्तरं कुर्यात् सक्दुःखविमोक्षणम् // 42 // पारियकाउसग्गो, वंदित्ताण तओ गुरूं। थुइमंगलं च काऊण, कालं संपडिलेहए॥४३॥ 'पारिय' इत्यादि पूर्वार्द्व व्याख्यातमेव / स्तुतिमङ्गलंच सिद्धसूत्ररूपं च कृत्वा / पाठान्तरं वा- 'सिद्धाण संथवं किच ति'' सुगमम् / कालमागमप्रतीत (संपडिलेहए ति) संप्रत्युपेक्षताकोऽर्थः ? प्रति जागर्ति, उपलक्षणत्वाद् गृहाति च, एतद्गतश्च विधिरागमादवसेयः / / 43 / / पदमपोरिसि सज्झायं, वितिए झाणं झियायइ। तइयाए निद्दमोक्खं तु, सज्झायं तु चउत्थिए।।४४|| "पढम'' इत्यादि प्राग्व्याख्यातमेव, नवरं पुनरभिधानमस्य पुनः पुनरुपदेष्टव्यमेव गुरुभिर्न प्रयासो मन्तव्य इति ख्यापनार्थम् / / 44 / / कथं पुनश्चतुर्थपौरुष्या स्वाध्यायं कुर्यादित्याहपोरिसीए चउत्थीए, कालं तु पडिलेहिए। सज्झायं तु तओ कुजा, अबोहंतो असंजए॥४२॥ पौरूष्यां चतुर्थ्या. कालं वैरात्रिकं, तुः पूरणे। (पडिलेहिय त्ति) प्रत्युपेक्ष्य प्रतिजागर्य, प्राग्वद् गृहीत्वा च, स्वाध्यायं ततः कुर्यात्, अबोधयन्नव्युत्थापयन असंयतान् अगारिणः, तदुत्थापने तत्पापस्थानेषु तेषा प्रवर्तनसभवात् // 45 // पोरिसीए चउन्माए, वंदिऊण तओ गुरुं। पडिक्कमित्तु कालस्स, कालं तु पडिलेहए।।४६|| पौरुष्याः प्रक्रमाचतुर्थ्याश्चतुर्थभागे , अवशिष्यमाण इति शेषः / व्यमाह काउस्सग्गं ततो कुजा, सव्वदुक्खविमुक्खणं / / 36 / / देसियं च अईयारं, चिंतिज अणुपुटवसो। नाणम्मि दंसणे चेव, चरित्तम्मि तहेव य॥४०॥ सार्दानि त्रयोदश सुत्राणि कायोत्सर्ग, ततः प्रश्रवणाऽऽदिभूमिप्रतिलेखनादनन्तरं कुर्यात् सर्वदुःखविमोक्षणं, तथात्वं चास्य कर्मापचयहेतुत्वात्। उक्तंच- "काउस्सगे जह मुद्दियस्स भजंति अंगमगाई। तह भिंदंति सुविहिया, अट्टविहं कम्मसंधाया।१॥" | Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदिणकिरिया 11 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पइदिणकिरिया तत्र हि काले वेलायाः संभव इति कालः, तस्य ग्रहणं, वन्दित्वा ततो / गुरु, प्रतिक्रम्य कालस्य कालं प्राभातिक, तुशब्दो वक्ष्यमाण विशेषद्योतकः (पडिलेहए ति) प्रत्युपेक्षेत, प्राग्वद्, गृह्णीयात् च / इह च साक्षात्प्रत्युपेक्षणस्यैव पुनःपुनरभिधानं बहुतरविषयत्वात् / अत्र च संप्रदायः- "ताहे गुरु उद्देत्ता गुणति, जाव चरिमो जामो पत्तोत्ति। चरिमे जमे सब उद्वित्ता वेरत्तियं घेत्तुं सज्झायं करें ति। ताहे गुरु सुवति। पत्ते पाभाइए काले पाभाइयकालं पेच्छेइ, सो कालस्स पडिक्कमिउंपाभाइयकालं गिण्हति, सेसा कालवेलाएकालस्स पडिक्कमति, ततो आवस्सयं कुएंति।' मध्यमप्रक्रमापेक्षं च कालत्रयग्रहणमुक्तम्, अन्यथा हुत्सर्गत उत्कर्षेण चत्वारो, जघन्येन त्रयः कालाः, अपवादतश्चोत्कर्षण द्वौ, जयन्येनैकोऽप्यनुज्ञात एवं / यत उक्तम्- " कालं चउक्कउको-सएण उहण्णआ तिण्णि होति बोधव्वा / वीयपयम्मि दुगं तू, मायामयविप्पमुक्काणं // 1 // " अत्र च तुशब्दादेकस्याप्यनुज्ञा। तथा च चूर्णिकारः'एवं अ-याविणो तिण्णि वा अगिण्हतस्स एक्को भवति। पठन्तिच'पढमपोरिसि सज्झाय, वीए झाणं झियायइ। सहयाए निद्दमोक्खं तु, चउभाए चउत्थए।१।। कालं तु पडिलेहेत्ता, अवोहितो असंजए। कुज्जा मुगी सज्झाय, सव्वदुक्खविमुक्खणं // 2 // पोरिसीए चउब्भाए, से वंदित्तु ततो गुरु / पडिक्कमित्तु कालस्स, कालं तु पडिलेहए // 3 // " अत्रापि व्याख्या तथैव / पाठद्वयेऽपि च चतुर्थप्रहरविशेषल्याभिधानप्रसङ्गेन पुनः प्रहस्त्रयकृत्याभिधानमिति मन्तव्यम्। आगए कायवोस्सग्गे, सव्वदुक्खविमोक्खणे। काउस्सगं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं // 47|| आगते साप्ते, कायव्युत्सर्गे इति / उपचारात् कायव्युत्सर्गे समये, रर्वदुःखानां विमोक्षणमर्थात्कायोत्सर्गद्वारेण यस्मिन् स तथा तस्मिन्, 25 प्राग्वत् / यह सर्वदुःखविमोक्षणविशेषणं पुनःपुनराध्यते, तदस्थालान्तनिर्जराहेतुत्वख्यापनार्थम् / तथेह कायोत्सर्गग्रहणेन चारित्रदर्शने श्रुतज्ञानविशुद्ध्यर्थ कायोत्सर्गत्रय गृह्यते। तत्र च तृतीये रात्रिकोऽतीचारश्चिन्त्यते / यत उक्तम् - " जत्थ पढमो चरित्ते, दंसणसुखीर वीयओ होइ। सुयणाणस्सयतइओ, णवरं चिंतेइ तत्थ इमं / / 1 / / तर निसाइयार।" इति। रात्रिकोऽतिचारश्च यथा यद्विषयश्च चिन्तनीयः, तथाऽऽहराइयं च अईयारं, चिंतिज्ञ अणुपुव्यसो। नाणम्मि दंसणम्मिय, चरित्तम्मि तवम्मिय।।४८|| रात्री भवं रात्रिकम्। चः पूरणे / अतीचारं चिन्तयेत् (अणुपुव्वस त्ति) आनुण्या क्रमेण, ज्ञाने, दर्शने, चारित्रे, तपसि, चशब्दाद्वीर्ये च, शेषकायोत्सर्गेषु चतुर्विशतिस्तवः प्रतीतश्चिन्त्यतया साधारणश्चेति नोक्तः / ततश्चपारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तओ गुरुं। राइयं तु अतीचारं, आलोएज जहक्कम // 46 // पडिक्कमित्तु निस्सल्लो, वंदित्ताण तओ गुरुं। काउस्सग्गं तओ कुजा, सव्वदुक्खविमोक्खणं // 50 / / किं तवं पडिवजामि, एवं तत्थ विचिंतए। काउस्सग्गं तु पारित्ता, वंदई य तओ गुरुं / / 1 / / पारितेत्यादि सूत्रद्वयं व्याख्यातमेव / कायोत्सर्गस्थित श्च कि कुर्यादित्याह- किमिति किंरूपं तपो नमस्कारसहिताऽऽदि प्रतिपद्येऽहमेव तत्र विचिन्तयेत्। वर्द्धमानो हि भगवान् षण्मासं या-वन्निरसना विहृतवान, ततः किमहमपि निरसनः शक्नोम्येतावत्कालं स्थातुमुत नेति। एवं पञ्चमासाऽऽद्यपि यावन्नमस्कारसहितं यावत्परिभावयेत्। उक्त हि- "चिंते चरिमेउ किं तवं छम्मासादेकदिणादीहा णिजा पोरिसीनामा वा।" (?) उत्तरार्द्ध स्पष्टम्। एतदुक्तार्थानुवादतः सामाचारीशेषमाहपारियकाउस्सग्गो, वंदित्ताण तंओ गुरुं। तवं संपडिवजेजा, करिज सिद्धाण संथवं 1152|| "पारिय" इत्यादि प्राग्वत् / नवरं तपो यथाशक्ति चिन्तितमुपवासाऽऽदि, संप्रतिपद्याङ्गीकृत्य कुर्यात् सिद्धानां संस्तवं स्तुतित्रयरूप, तदनु यत्र चैत्यानि सन्ति तत्र तद्वन्दनं विधेयम्। तथा चाऽऽह भाष्यकार:"वंदित्तु निवेयंती, कालं तो चेइयाइ जइ अत्थिा तो वदंती कालं, जहा तुले पडिक्कमणं ||1||" इति सार्द्धत्रयोदशसूत्रार्थः / संप्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरन्नाहएसा सामायारी, समासेण वियाहिया! जं चरित्ता बहूजीवा, तिण्णा संसारसागरं / / 53 / / ति बेमि / / (एसा दसविहा साहुसामायारी पवेइया, जं चरित्ताण निग्गंथा तिण्णा संसारसागर ति बेमि) एषाऽनन्तरोक्ता सामाचारी दशविधौधरूपा च पदविभागाऽऽत्मिका चेह नोक्ता,धर्मकथानुयोगत्वादस्याः छेदसूत्रान्तर्गतत्वाच / तस्याः समासेन संक्षेपेण, (वियाहिय त्ति) व्याख्याता / अत्रैवाऽऽदरख्यापनार्थमस्याः फलमाहयां सामाचारी चरित्वा आसेव्य, बहवोऽनेके जीवास्तीर्णाः, संसारसागरं प्राग्वदिति सूत्रार्थः / इतिः परिसमाप्ती। ब्रवीमीति पूर्ववत्। उक्तोऽनुगमः। संप्रति नयास्तेऽपि तद्वदेव / उत्त०२६ अ०॥ से भयवं ! किंतं पइदिणकिरियं ? गोयमा ! पायच्छितस्स पयाइं संखाइयाई। से भयवं! तेसिणं संखाइयाणं पायच्छित्तपयाणं किंतं पढमं पायच्छित्तस्स णं पयं? गोयमा ! पइदिणकिरियं / भयवं ! किंतं पइदिण किरियं? गोयमा ! जमणुसमया अहन्निसमणोवरम० जाव अणुट्टेयव्वाणि संखेज्जाणि आवस्सगाणि। से भयवं! केणं अद्वेणं एवं वुचइ-जहाणं आवस्सगाणि? गोयमा ! असेसकसिणट्ठकम्मक्खयकारिउत्तमसम्मईसणचारित्त अचंतघोरवीरुग्गकट्ठसुदुक्करतवसाहणट्ठाए परूविजंति, नियमिय विभत्तु दि8 परिमिएणं कालसमएणं पयंपएणाहन्निसाणुसमयमाजम्मं अवस्समेव तिछराइसु कीरंति, अणुट्ठिजंति, उवइसिजंति, परूविजंति, पन्नविजंति सययं, एएणं अटेणं एवं वुचइ-गोयमा ! जहा णं आवस्सगाणि, तेसिं च णं गोयमा ! जे भिक्खू कालाइक्कमेणं वेलाइक्कमेणं समयाइकम्मेणं अलसायमाणे अणोवउत्तेपमत्ते अविहीए अन्नेसिंच असद्धं उप्पायमाणो अन्नयरमावस्संग पमाइय संतेणं बलवीरिएणं सातलेहडत्ताए आलंव Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइदिणकिरिया 12- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउत्तसंतसिद्धिजोग णं वा किं च घेतूणं विराइयं पउरियजणाणं जहुत्तयाल समणुढे ज्जा, झियाइ ? गोयमा ! नो पदीये झियाइ०जाव नो पदीवचपए से णं गोयमा ! महापायच्छित्ती भवेञ्जा महा० १चू० झियाइ, जोई झियाइ।। पइदिणपूयाविहाण न०(प्रतिदिनपूजाविधान) अनुदिवसार्चनकरणे, (पदीवस्सेत्यादि) (झियायमाणस्स ति) ध्यायतो ध्मायमानस्य था, पञ्चा०८ विव०॥ ज्वलत इत्यर्थः / (पदीवे ति) प्रदीयो दीपयट्यादिसमुदायः। (झियाइ पइदिद्धंगत्रि० (प्रतिदिग्धाङ्ग) क्षाराऽऽदिना प्रतिदिग्धशरीरे, सूत्र०१ त्ति) ध्यायति, ध्मायते वा ज्वलति। (लट्ठी ति ) दीर्घयष्टिः (वत्ती नि) श्रु०५ अ०१ उ01 दशा। (दीवचंपए त्ति) दीपस्थगनकम्। (जोइ त्ति) अग्रिः / भ०८ श०६ षइबिंब पुं०(प्रतिबिम्ब) प्रतिच्छायायाम, "पनमथ पनयपकुप्पित- उ०ाउद्दीप्तदीपे, नि० चू०१ उ०॥"तस्सलोगप्पईवस्स।" प्रकृष्टपदार्थगोलीचलनग्गपइबिंब / " प्रा०४ पाद। " प्रतिबिम्बाऽऽत्मको भागः, प्रकाशकारित्वात्प्रदीपः / स०१ सम०। उत्त०।"पईयो दीवो।' पाई० पुसि भेदागहादयम्। प्रतिबिम्ब्यमानच्छायासदृशच्छायान्तरोद्भवः॥ 1 // " ना०२४४ गाथा। तादृश एव प्रतिबिम्बशब्दे-नोच्यते। द्वा०११द्वा०। * प्रतीप त्रि० प्रत्यनीके, "पईवपञ्चस्थिणो वामा।" पाइन्ना० 154 पइभय पुं० (प्रतिभय) प्राणिनं प्राणिनं भयं यर गात्रा प्रतिभयः। | गाथा। प्रतिप्राणिन भयप्रदे, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। पईहर न० (पतिगृह) "दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ "||8 114 / / इति पइभास पुं०(प्रतिभास) शुक्तचादाविव रजताऽऽदिबुद्धी, अ- यथार्थज्ञाने, वृत्ताविकारस्येकारः। भर्तृभवने, प्रा० 1 पाद। सम्म०१ काण्ड। पउअन० (प्रयुत) चतुरशीतिलक्षगुणिते प्रयुताङ्गे, अनु० / स्था०ा दिने, पइमारिया स्त्री०(पतिमारिका) भर्तृघातिकायां स्त्रियाम्, 'य- थैका दे० ना०६ वर्ग 5 गाथा। नर्मदा तीर्वा, जारसङ्गता।" आव०४ अ०। आ०चू० पउअंग न० (प्रयुताडग) चतुरशीतिलक्षगुणिते अयुते, स्था०२ ठा०४ ('गरिहा' शब्दे तृतीयभागे 850 पृष्ठे उदाहृता) उ०। अनु० / स्था। पइरिक त्रि०(प्रतिरिक्त) स्यादिविरहितत्वे, उत्त०२ अ01 - पउच्छंत त्रि० (प्रोञ्छत्) अञ्जनेनाञ्जति,नि० चू०३ उ०। एकान्ते, मुत्कले, प्रचुरे, भक्तपाने, बृ०४ उ०। पउंजंत त्रि० (प्रयुञ्जत्)उचारयति, "हासिंता साविता पवेएता पइरिक या स्त्री०(प्रतिरिक्तता) अनेकान्तसेवितायाम् , दश० आलोयंता पउंजता।" औ०।। २चून पउंजिता त्रि० (प्रयोक्तृ) प्रवर्तनशीले, स्था० 5 ठा०२ उ० / पइरिक्कसुहविहार त्रि० (प्रतिरिक्तसुखविहार) प्रतिरिक्ते एकान्ते / __ अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद् वा प्रयोजयितरि, स्था०५ ठा०१ उ०। सुखविहारोऽवस्थानशयनाऽऽदिरूपो यत्र स प्रतिरिक्तसुखविहारः। स्त्रीत्वं पउट्टपरिहार पुं० (प्रवृत्तपरिहार) परिवृत्य परिवृत्य मृत्या तत्रैवोत्पादे, प्राकृतत्वात्। एकान्ते विहारयोग्ये,जी०३ प्रति० 4 अधि०।भ०।। आ० म०१ अ० / "वणस्सइकाइयाओ पउट्टपरिहारं परिहरति / " पइरित्तु अव्य० (प्रकीर्य) वाप्येत्यर्थे , "पइरितु छल्लियं पुणो।' नि०चू० / परिवृत्य परिवृत्य मृत्वा यस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहारः परिवर्तितः 10 परिवर्तवाद इत्यर्थः / भ०१५ श०। पइलाइया स्त्री० (प्रतिलादिका) भुजपरिसर्पभदे, प्रज्ञा०१ पद। पउट्ठपु० (प्रकोष्ठ) कूर्परागेतनभागे, भ०११श०११ उ०। कत्नाविव देशे, पइल्ल पुं० (पदिक) चतुःपञ्चाशत्तमे महाग्रहे, "दो पइल्ला / ' स्था० प्रश्न 0 4 आश्र० द्वार / तं० पहुँचा' इति लोक-प्रसिद्ध हस्तावयवे, 2 ठा०३ उ०। कल्प०१ अधि०२क्षण। पइव पुं०(प्रतिव) स्वनागख्याते यादवे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। * प्रवृष त्रि० "उदृत्वादौ" // 6/1 / 131 // इति ऋत उत्वम्। कृतवर्षे, पइव्वया स्त्री० (पतिव्रता) पति भर्तारं व्रतयति तमेवाभिगच्छामि इत्येव / प्रा०१ पाद। नियम करोतीति पतिव्रता / ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० / आ०चू०। पउढ (देशी) गृहे, देना०६वर्ग: गाथा। पइसमय अव्य०(प्रतिसमय) प्रतिक्षणे, द्रव्या०१ अध्याला पउण पुं० (प्रगुण) प्रकृतो गुणो येन, प्रकृष्टो गुणो यस्य वा। ऋजुतावति, पईइणिराकय त्रि० (प्रतीतिनिराकृत) प्रतीतेरेव विरुद्ध वस्तु-दोषभेदे, दक्षे चा वाच०। 'पउणीकयं होमकुंड।" दर्श०३तत्त्व। यथाऽचन्द्रः शशी। स्था० 10 ठा०। पउत्त त्रि० (प्रयोक्त) कर्तरि, प्रयोगकर्तरि, "उवयारसयबंधणपपईव पुं० (प्रदीप) प्रदीप्यते इति प्रदीपः / 'पो वः / 831 // उत्ताओ।'' का प्रयुक्ताः, प्रयोकत्र्यो वा कर्व्यः / तं०। 231 / / इति पस्यवः। प्रा०१पादादीपकलिकायाम्, पिं०।दीपयट्या- / * प्रयुक्त न० प्रयोगे, व्यापारे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। दिसमुदाय, भ०८ श०६ उ०1 तैलदशाभाजने, भ०७ श०८ उ०।। पउत्तसंतसिद्धिजोग पुं० (प्रयुक्तसत्सिद्धियोग) प्रयुक्तः प्रदर्तितः पईवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाइ, लट्ठी सत्सिद्धियोगः सत्साधनव्यापारो येन स तथा। सत्सिद्धियोगप्रवर्तके, झियाइ, वत्ती झियाइ, तेल्ले झियाइ, पदीवचंपए झियाइ, जोई। षो०६ विव०। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउत्ति 13 - अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 5 पउमचंद पउत्ति स्त्री० (प्रवृत्ति) प्रकृष्ट वर्तन, भ० 15 20 / 'वु तंतो य उयंतो, तहेव समणं भगवं आपुच्छित्ता विउलेजाव पाओवगते, वता य पउत्तिनामाई।' पाइ० ना०६ गाथा / समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए * प्रयुक्ति स्त्री० वार्तायाम्. ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाइं बहुपडिपुण्णाई पंच सयाई पउप्पय पुं० (प्रपौत्रिक) प्रशिष्ये शिष्यसन्ताने, भ० 11 श० 11 उ०। सामन्नपरियाए संलेहणाए सर्द्धि भत्ताई आणुपुटवीए कालगते थेरा पउम नं० (पद्य) "पद्मछद्ममुख्यद्वारे वा " ||8 / 2 / 113 / / इति उत्तिन्ना भगवं गोयमं पुच्छइ, सामी कहेइ०जाव सहिँ भत्ताई संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उकारः / 'पउमं / पोम्म / ' प्रा०२ पाद अणसणे छेदित्ता आलोइय उड्डे चंदिमसूरियाए सोहम्मे देवत्ताए "ओत्पने "||1|61 / / इति अत ओत्वम् / प्रा०१ पाद। उववन्ने दो सागराइं। से णं भंते ! पउमे देवे ताओ देवलोगाओ सूर-दिकाशिनि कमले, आ०म०१ अ० 1 खण्ड। जी०। आचा०। रा| आउक्खएणं० पुच्छा? गोयमा ! महाविदेहे वासे जहा रविबोध्ये कमले,ऑ०। कमले पद्मकाभिधाने गन्धद्रव्यविशेषे, जी०३ दढपइन्ने० जाव अंतं काहिति तं एवं खलु जंबू ! समणेणं० प्रति० 4 अधि०। औ० / तं० / ज्ञा० / प्रज्ञा०। आचा०। चतुरशीति- जाव संपत्तेणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। नि०१श्रु० लक्षगुणिते पद्माङ्गे, ज०२ वक्ष०ा स्था०। अनु० / भ०। अस्यामवसर्पिण्यां 2 वर्ग 1 अ०। भरतक्षेत्रे जातेऽष्टमे बलदेवे, यश्च सीताभर्ता राम इति प्रसिद्धः। प्रव० आर्य वय॑स्य गौतमगोत्रस्य प्रथमशिष्ये, कल्प० 2 अधिक 206 द्वारा स०। धाव०। ति०। आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्या भविष्यति 8 क्षण / अष्टमदेवलोकविमानभेदे, स०१८ सम० / दिवसस्य त्रिंशत्सु अष्ट में चक्रवर्तिनि, सं० / तिला ती०। आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां | मुहूर्तेषु नवमे मुहूर्ते, ज्यो०२ पाहु० / रम्यकवर्षवत्तवैताळ्यपर्वतस्य भविष्यति अष्टमे बलदेवे, स० ति०। ती०। पञ्चमतीर्थकृतः प्रथमभिक्षा- | पर्यायस्याधिपती देवे, स्था० 4 ठा०२ उ०। महापद्मतीर्थकरस्य सहप्रवदायके, सा स्वनामख्याते श्रेणिकपुत्रस्य कालस्य पुत्रे, लि०। जिष्यमाणे / स्था० 8 ठा० / हिमवतीप्रथमहदे, स्था० 2 ठा० 3 उ०। तद्वक्तव्यता द्वी०। सुधर्मायां सभायां पद्मावतंसके विमाने स्वनामख्याते सिंहासने, जहणं भंते ! सपणेणं 0 जाव संपत्तेणं कप्पवडिं सियाणं दस / ज्ञा०२ श्रु०१० वर्ग 1 अ०ा दक्षिणरुचकवरपर्वतस्य प्रथमकूटे. स्था० अज्झयणा पन्नत्ता। पढमस्सणं भंते! अज्झयणस्स कप्पवडिं-- ८ठा०। सियाणं भगवया०जाव के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं | पउमंग न० (पद्माङ्ग) चतुरशीतिमहानलिनशतसहस्रेषु, ज्यो०२ पाहु० / कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था / पुन्नभद्दे चेइए चतुरशीतिलक्षगुणिते कालविशेषे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। स्था० / कूणिए राया, पउमावई देवी। तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स भ० / जं० / अनु०। रन्नो भज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था | पउमकूडन० (पद्मकूट) पद्मकुटे, "दो पउमकूडा।" स्था०२ ठा०३ उ०। सुकुमाला। तीसे णं कालीए देवीए पुत्ते काले नाम कुमारे होत्था | पउमखंडन० (पद्मखण्ड) स्वनामख्याते पुरे, यद्राज्ञो ज्येष्ठपुत्रो गन्धसुकुमाला / तस्स णं कालस्स कुमारस्स पउमावई नामं देवी प्रियकुमार आसीत्। ठा०२ अधि०। होत्था सुकुमाला जाव विहरति / तते णं सा पउमावई देवी पउमगुम्म न० (पद्मगुल्म) नलिनगुल्मविमाने, स्था० 8 ठा० / उत्त०। अन्नया कयाइं तंसि तारिसगं मि व सघरंसि अभितरतो अष्टमदेवलोकरथे विमानभेदे, स०१८ सम० / श्रेणिकपुत्रवीरकृष्णासचित्तकम्मे०जाव सीहं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, एवं जम्म हजे, स च श्रेणिकपुत्रात् वीरकृष्णाजन्म लब्ध्वा वयः प्राप्तो वीरान्तिके णं जहा महाबलस्स,जाव नामधिज्जं, जम्हा अम्हाणं इमे दारए / प्रव्रत्य वर्षत्रय व्रतपर्यायं परिपाल्य महाशुक्रे सप्तमे कल्पे समुत्पद्य कालस्स कुमारस्स पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए, तं होऊणं सप्तदशसागरोपमाऽऽयुरनुपाल्य ततश्चयुतो महाविदेहे सेत्स्यतीति अम्हं इमस्स दारयस्स नामधिज्जं पउमे 2, सेसंजहा महाबलस्स सप्तममध्ययनं कल्पावतसि कायाः सूचयतीति / नि०१ श्रु०२ वर्ग 1 अट्ठओदातोन्जाव उप्पिं पासायवरगते विहरति। तेणं कालेणं अ०। महापद्मतीर्थकृता सह प्रव्रजिष्यमाणे पुरुषभेदे, स्था०८ ठा०। तेणं समएणं सामी समोसरिए, परिसा निग्गया, कूणिए निग्गते, | पउमगोर त्रि० (पद्मगौर) पद्मवणे , ''दो तित्थगरा पउमगोरा वण्णणं पउमे वि जहा महाबले निग्गते, तहेव अम्मापिति-आपुच्छणाo पण्णत्ता।" स्था० 2 ठा०४ उ०॥ जाव पव्वइए अणगारे जाए जाव गुत्तवंभयारी। तते णं से पउमे पउमचंद पुं०(पद्मचन्द्र) पद्मचन्द्रकुलाऽऽख्यकुलाऽऽदिपुरुष, यत्र अणगारे समणस्स भगवतो महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए | धनेश्वरसूर्याऽऽदयो दिगम्बरडम्वरा अभूवन् / बृहत्कल्पटीकाकृत्साभाइयमादियाई एक्कारस अंगाई अंहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं क्षेमकीर्ति सूरिपितृव्यगुरौ, बृ०६ उ० / त्रयः पद्मचन्द्राः-एक: चउत्थछट्ठम० जाव विहरति / तते णं से पउमे अणगारे तेणं चित्रसेनपद्मावतीचरित्रकर्तुः पाठकराजवल्लभस्य गुरुः कर्मप्रकृतिउरालेणं जहा मेहे तहेव धम्मजागरियाचिंता, एवं जहेव मेहो | विवरणनामक ग्रन्थस्य कर्ताऽऽसीत् / द्वितीयः श्रीकृष्णराज Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचंद 14 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउमलया र्षिगच्छीयः प्रभानन्दसूरिगुरुभ्राता उपाध्यायः / स च वैक्रमीये 1661 ८टा०। वर्षे विद्यमान आसीत् / तृतीयश्चन्द्रगच्छीयो जिनशेखरसूरिशिष्यः पउमपम्हगोर पुं० (पद्मपक्ष्मगौर) पद्मपक्षवद् गौरः / जी० 4 प्रतिक विजयेन्द्रसूरिगुरुः धन्नाऽभ्युदयमहाकाव्यरचयिता। जै० इ०। 2 उ० / कमलगर्भकान्ते पीते, औ० / पउमचरिय न० (पाचरित) दाशरथिरामचरित्रप्रतिबद्ध ग्रन्थभेदे, ध० | पउमपुर न० (पद्मपुर) नासिक्यपुरे, "तत्थ पउमासणेणं पउमपुरं ति 2 अधि०। निवेसिय।" ती०२६ कल्प। पउमजाल न० (पद्मजाल) पद्माऽऽत्मके दाससमूह, रा०। पउमप्पभा स्त्री० (पद्मप्रभा) जम्ब्वाः सुदर्शनाया उतरपौरस्त्ये दिग्भागे पउमणाभ पुं० (पद्मनाथ) विमलवाहने महापद्म भविष्यति प्रथम- प्रथमवनखण्डे दक्षिणस्यां नन्दापुष्करिण्याम्, जं० 4 वक्ष०ा जी०। तीर्थकरे, कल्प०१ अघि०७ क्षण। ती०। प्रव०॥ विष्णौ, अमरः। वाच01 पउमप्पहपुं० (पद्मप्रभ) निष्पड़ कतामङ्गीकृत्य पद्मस्येव प्रभा यस्यासौ पउमतिलग पुं० (पद्मतिलक) सोमप्रभसूरिशिष्ये स्वनामख्याते पद्मप्रभः / तथा पद्मशयनदोहदो मातुर्देवतया पूरित इति, पद्मवर्णश्च आचार्य , गच्छा० प्र० 4 अधि०। भगवानिति पद्मप्रभः।ध०२अधि० अवसर्पिण्यां भरतक्षेत्रजे षष्ठतीर्थपउमत्थल न० (पद्मस्थल) मथुरास्थे पद्यारण्ये, क० ती०८ कल्प। करे, स्था०५ ठा०१ उ०। प्रवास, पद्मप्रभस्य सामान्यतोऽभिधानपउमदह पुं० (पद्महृद) जम्यूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणे श्रीदेवताऽध्यासिते कारणमिदंम्-निष्पड़ कतया पद्मस्येव प्रभा यस्य स पद्मप्रभः / तत्र सर्व महादे, स्था० 3 ठा० 4 उ० / आव० / कल्प० / " दौपउमद्दहा दो एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपास्ततो विशेषकारणमाह- "पउमसयणम्मि पउमद्दहबासिणीओ देवीओ सिरीओ।" स्था०३ अ०२ ठा०३ उ०। जणणीऍ दोहलो तेण पउमाभो।" येन कारणेन तस्मिन् भगवति गर्भगते ('धायईसंडदीव' शब्दे चतुर्थभागे 2746 पृष्ठ व्याख्या) जनन्या देव्याः पद्मशयनीये दोहदमभूत, तच देवतया संपादितम्। भगवान् अथ पद्महदनामनिरुक्त पृच्छन्नाह स्वरूपतः पद्मवर्णस्तेन कारणेन पद्मप्रभ इतिनामविषयीकृतः। आ०म० से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइपउमद्दहे पउमबहे गोयमा! पउ- 2 अ०। आ०चू० / अनु०। स्था०। ('तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2247 मद्दहेणं तत्थ तत्थ देसे, तहिं तहिं बहवे उप्पलाइं. जाव सय- पृष्टादारभ्य वक्तव्यतोक्ता) सहस्सपत्ताई पउमद्दहवणाई पउमद्दहप्पभाई, सिरी अइत्थ देवी | पउमप्पहसूरि पुं० (पद्मप्रभसूरि) खरतरगच्छीये देवाऽऽनन्दसूरिशिष्ये, महिड्डिआ. जाव पलिओवमट्ठिईआ परिवसइ / से एएणऽटेणं. सच वैक्रमीये 1264 वर्षे विद्यमान आसीत्। तेन मुनिसुव्रतचरित्र नाम जाव अदुतरं च णं गोयमा ! पउमद्दहस्स सासए णामधिज्जे पुस्तक रचितम्। जै० इ०। पण्णत्ते, ण कयाइ णासि। पउमभद्द पुं० (पहाभद्र) श्रेणिकपुत्रसुकृष्णसत्कपुत्रे, स च वीरान्तिके (से केणडेणमित्यादि) अथ केनाऽर्थन भदन्त ! एवमुच्यते-पद्मद्रहः प्रव्रज्य वर्षचतुष्टयं व्रतपर्याय परिपाल्य ब्रह्मलोके पञ्चमलोके दशसागरोपपद्मद्रह इति ? गौतम ! पद्मद्रहे तत्र तत्र देशे तस्मिस्तस्मिन् देशे बहूनि मान्युत्कृष्टमायुरनुपाल्य ततश्च्युतो भहाविदेहे सेत्स्यतीति कल्पावतंसिउत्पलानि यावच्छतसहस्रपत्राणि पद्मद्रहप्रभाणिपद्मद्रहाऽऽकाराणि, कायाः पञ्जमाध्ययने सूचितम्। नि०१ श्रु०२ वर्ग 1 अ०। आयतचतुरस्राऽकाराणीत्यर्थः / एतेन तत्र वानस्पतानि पद्मद्रहाऽऽ- पउममेरु पुं० (पद्ममेरु) आनन्दमेरुसूरिशिष्ये राजमल्लाभ्युदयकाराणि पद्मानि बहूनि सन्ति, न तु केवलपार्थिवानि वृत्ताऽऽकाराणि महाकाव्यकृतः पद्मसुन्दरसूरिगुरौ, जै० इ०। महापद्याऽऽदीन्येव तत्र सन्तीति ज्ञापितम्। तथा पद्मद्रहवर्णस्येवाऽऽभा पउमरह पुं० (पद्मरथ) मिथिलापुर्या विजयसेनभूपतेः पुत्रे मदनरेखाप्रतिभासो येषां तानि तथा; ततस्तानि तदाकारत्वात् तद्वर्णत्वाच्च कुक्षिसम्भूतस्य युगबाहुपुत्रस्य नमेः रक्षके स्वनामख्याते राजनि. उत्त० पद्मद्रहाणीति प्रसिद्धानि / ततस्तद्योगादयं जलाशयोऽपि पद्मद्रहः। अ०। आव०। आ०चू० / दर्श। आम०। उभयेषामपि चनाम्नादिनाप्रवृत्तत्वेन नेतरेतराऽऽश्रयो दोषः। अथपार्थिव पउमराय पुं० (पद्मराज) धातकीखण्डभरतक्षेत्रापरकङ्कराजधानीनिपद्मतोऽप्यस्य नामप्रवृत्तिर्जाताऽस्तीतिज्ञापयितुं प्रकारान्तरेण नामनि- वासिनि द्रौपदीहारके स्वनामख्याते राजनि, स्था० 10 ठा० / पुण्यबन्धनमाह-श्रीश्च देवी पद्मयासाऽत्र परिवसति। ततश्च श्रीनिवासयोग्यप- सागरशिष्ये गौतमकुलकवृत्तिकृतो ज्ञानतिलकगणिनो गुरौ, जै० इ०। द्माऽऽश्रयत्वात् पद्मोपलक्षितो द्रह इति पद्मद्रह आख्यायते / मध्यम- पउमरुक्ख पुं० (पद्मवृक्ष) अतिविशालतया वृक्षकल्पेषु पद्मेषु जी०३ पदलोपी समासात् समाधानम्। शेषं प्राग्वत्। जं० प्र०७ वक्ष। प्रति० 4 अधि०। पुष्करवरद्वीपपूर्वार्द्ध तद्वीपनामनिबन्धनतद्द्वीपाधिपउमदेवसूरि पुं० (पद्मदेवसूरि) मानतुङ्ग सूरिशिष्ये लब्धिप्रपञ्च पदेवाऽऽवासशाश्चतपद्मवृक्षाऽऽकृतौ वस्तुनि, "दो पउमरुक्खे।' स्था० प्रबोधिकायोगरहस्यग्रन्थयो कारके स्वनामख्याते आचार्ये , २टा०३ उ०। अयमाचार्यः सं० 1240 वर्षाद् 1262 पर्यन्तमासीत्। द्वितीयोऽप्येत- पउमलया स्त्री० (पद्मलता) पद्मिन्याम्, स०१ सम०। रा०। जं०। नामा नाराचचन्द्रजम्बूद्वीपसूरिशिष्यः तिलकसूरिशिष्यगुरुः जै० इ०। जी०। पद्माऽऽकारलतासु, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० ज०। औ०। पउमद्धय पुं० (पाध्वज) महापद्मतीर्थकरेण सह प्रव्रजिष्यमाणे, स्था० 'पउमलयाभत्तिचित्तं " भ०११ श०११ उ०। पद्मानि च ल Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमलया 15 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउमरवेइया ताश्च पद्मलतास्तद्रूपाभिर्विच्छित्तिमिश्चित्रो यस्य स तथा / भ०१४ श० 6 उ०॥ पउमवडिंसय न० (पद्मावतंसक) पद्मावतीदेवीनिवासभूत सुधर्मायां सभायां स्वनामख्याते विभाने, ज्ञा०२ श्रु०५ वर्ग 1 अ०। पउमवरवेइया स्त्री० (पद्मवरवेदिका) देवभोगभूमौ, जं० 1 वक्षः। पावरवेदिकावर्णकःतीसे णं जगतीए उप्पिं बहुमज्झदेसभाए एत्थ ण एगा महं पउभवरवेदिका पण्णत्ता सा णं पउमवरवेदिया अद्धजोयणाई उड्डे उचत्तेणं, पंच धणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणामई जगतीसमिया परिक्खेवेणं। (तीसे णं जगतीए इत्यादि) तस्या यथोक्तस्वरूपाया जगत्या उपरि उपरितने तले यो बहुमध्यदेशभागः, सूत्रे एकारान्तता मागध-भाषालक्षणानुरोधात् / तथा "कयरे आगच्छइ दित्तरूवे" इत्यत्र / (एत्थ णमिति) अत्र एतस्मिन् बहुमध्यदेशभागे, णमिति पूर्ववत् / महती एका पद्मवरवेदिका प्रज्ञप्ता, मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः। सा च ऊर्द्धमुच्चस्त्वेना योजन द्रे गव्यूते पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भेण (जगती-समिया इति) जगत्या समा समाना जगतीसमा, सैव जगतीसमिका, परिक्षेपेण परिरयेज, थावान् जगत्या मध्यभागे परिरयस्तावान् तस्या अपि परिरय इति भावः। सर्वरत्नमयी सामस्त्येन रत्नाऽऽत्मिका।"अच्छा सण्हा" इत्यादि विशेषणकदम्बक पाठतोऽर्थतश्च प्राग्वत्। तीसे णं पउमवरवेदियाए अयमेतारूवे वण्णावासे पण्णत्ते / तं जहा-वयरामया नेमा, रिट्ठामया पतिट्ठाणा, वेरूलियामया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलगा, लोहितक्खमईओ सुईओ, वइरामया संधी, नाणामणिमया कलेवरा कलेवरसंघाडा, णाणामणिमया रूवा रूवसंधाडा, अंकामया पक्खा पक्खवाहओ, जोतीरसामया वंसा वंसक वेलुगाओ रययामयीओ पट्ठियाओ, जातरूवमयीओ ओहाडणीओ, वईरामयीओ उवरि पुंछणीओ, सव्वसेयरययामए छादणे। (तीसे णमित्यादि) तस्याः णमिति पूर्ववत् / पद्मवरवेदिकाया अयं वक्ष्यमाण एतद्रूपः स्वरूपा वर्णावासः वर्णः श्लायां यथाऽवस्थितस्वरूपकीर्तन, तस्याऽऽवासो निवासो ग्रन्थपद्धतिरूपो वर्णावासो वर्णकनिवेश इत्यर्थः / प्रज्ञप्तः प्ररूपितः / तदयथेत्यादिना तमेव दर्शयति(वइरामया नेमा इति) नेमा नाम पद्मवरवेदिकायां भूमिभागादूर्द्ध निष्क्रामन्तः प्रदेशाः, ते सर्व वज्रमया वज्ररत्नमयाः, वज्रशब्दस्य दीर्घत्व प्राकतत्वात् / एक्मन्यत्रापि द्रष्टव्यम् / रिष्टमयानि रिष्टरत्नभयानि प्रतिष्ठानानि मूलपादाः / (वेरुलियानया खंभा इति) वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्भाः। सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि। लोहिताऽऽख्यरत्नाऽऽत्मिकाः सूचयः फलकद्वयसंबन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः (वइरामया संधी) वज्रमयाः सन्धयः संन्धिमेलाः फलकानाम् / किमुक्तं भवति?पद्धरत्नाऽऽपूरिताः फलकाना सन्धयः। (नाणामणिमया कलेवरा इति) नानामणिमयानि कलेवराणि मनुष्यशरीराणि नानामणिमयाः कलेवरसङ्घाटाः मनुष्यशरीरयुग्मानि, नानामणिमयाणि रूपाणि रूपकाणि, | नानामणिमयाः रूपसबाटाः रूपयुग्मानि। (अंकामया पक्खा पवखबाहतो य इति) अङ्को रत्नविशेषस्तन्मयाः पक्षास्तदेकदेशाः पक्षबाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाकमयाः। आह च मूलटीकाकारः- अक्रमयाः पक्षास्तदेकदेशभूताः, एवं पक्षबाहवोऽपि द्रष्टय्या इति। (जोईरसामया बसा बंसकवेल्लुया य इति) ज्योतीरसं नाम रत्न, तन्मया वंशा महान्तः पृष्ठवंशाः (वंशकवेल्लुया य इति) महतां पृष्ठवंशानामुभयतस्तिर्यक् स्माप्यमाना वंशाः, कवेल्लुकानि प्रतीतानि। (रययामईओ पट्टियाओ इति) रजतमय्यः पट्टिकाः वंशाना मुपरिकम्बास्थानीयाः (जावरूवमईओ ओहाङणीओ) जातरूपं सुवर्णविशेषः, तन्मय्यः (ओहाडणीओ) अवधाटिम्यः आच्छादनहेतुकं चोपरि स्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिम्बस्थानीयाः। (वईरामईओ उवरिपुछणीओ इति) वज्रमय्यो वज्ररत्नाऽऽत्मिका अवधाटनीनामुपरिपुञ्छन्यो निविडतरछादनहेतुश्लक्ष्णतरतृणविशेषस्थानीयाः / उक्तं च मूलटीकाकारेण-"ओहाडणी हारग्रहण महत, क्षुल्लकं तु पुञ्छनी इति।" (सव्वसेयरययामए छादणे इति ) सर्वश्चत रजत रजतमयं पुञ्छनीनामुपरि कवेल्लुकानामध आच्छादनम्। सा णं पउमवरवे दिया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमे गेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं खिंखिणिजालेणं एवं घंटजालेणंजाव मणिजालेणं एगमेगेणं पउमवरजालेणं सव्वरय णामएणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता तेणं जालतबणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया नाणामणिरयणविविधहारद्धहारउबसोहियसमुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वावरदाहिणउत्तरागतेहिं वाएहिं मंदाय मंदायं एजिया वेपिया कंपिता खोभिया चालिया फंदिया घट्टिया उदीरिया, एतेसिं उरालेणं मणुन्नेणं कण्णमणनिव्वुतिकरणं सद्देणं सव्वतो समंता आपूरेमाणा आपूरेमाणा सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति। (सा णमित्यादि) सा एवंस्वरूपा, णमिति वाक्यालङ्कारे। पद्मवरवेदिका, तत्रतत्र प्रदेशे एकैकेन, हेमजालेन सर्वाऽऽत्मना हेममयेन लम्बमानेन दामसमूहेन, एकैकेन गवाक्षजालेन गवाक्षा ऽऽकृतिरत्नविशेषदामसमूहेन, एकेकेन किङ्किणीजालेन किङ्किण्यः क्षुद्रघण्टिकाः, एकैकेन घण्टाजालेन किङ्किण्यपेक्षया किञ्चिन्महत्यो धण्टाः, तथैकैकेन मुक्ताजालेन मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन, एकैकेन मणिजालेन मणिमयेन दामसमूहेन, एकैकेन कनकजालेन कनकं पीतरूपः सुवर्णविशेषः, तन्मयेत दामसमूहेन,एकैकेन रत्नजालेन एकैकेन पाजालेन सर्वत्र रत्नमयपदाऽऽत्मकेन दामसमूहेन, सर्वतः सर्वासु दिक्षु, समन्ततः सर्वासु विदिक्षु परिक्षिप्ता व्याप्ता / एतानि च दानसमूहरूपाणि हेमजालाऽऽदीनि जालानि लम्बमानानि वेदितव्यानि। तथा चाऽऽह(तेण जाला इत्यादि) तानि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि लिङ्गमनियतमिति। णमिति पूर्ववत्। हेमजालाऽऽदीनि, जालानि, क्वचित दामा इति पाठः / तत्र त हेमजालाऽऽदिरूपा दामान इति व्याख्येयम् / (तवणिज्ज लंबूसगा) तपनीयमारक्तं सुवर्ण तन्मयो लम्बूसगो दाम्नामग्निमभागे मण्डनविशेषो येषां तानि तपनीयलम्यूसकानि। (सुवण्णपयरगमंडिया इति) पाश्वतः सामस्त्येन सुवर्णप्रतर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमवखेइया 16- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउमवखेइया केण सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि (नानामणिरयणविविहहारशहारउवसोभिसमुदया इति) ईषत् नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधा विचित्रवर्णा हारा अष्टादशसरिका अर्द्धहारा नवसारिकाः, तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा। (ईसिमन्नमन्नमसंपत्ता इति ) ईषत् मनाक् अन्योऽन्यं परस्परमसंप्राप्तानि असंलगानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैतिर्मदायन्ते मन्दायन्ते इति मन्द मन्दम्, एजमानानि कम्पमानानि भृशा० / / 5 / 4142 / / इत्यविच्छेदे द्विः प्रोक्तमवादेः। इत्यविच्छेदे द्विर्वचनं, यथा पचति पचतीत्यत्र / एवमुत्तस्त्रापि / ईषत्कम्पनवशादेव प्रकर्षत इतस्ततो मनाक् चलनेन लम्बमानानि लम्बमानानि, ततः परस्परसंपर्कवशतः शब्दायमानानि, उदारण स्फारेण, शब्देनेति योगः। स च स्फारशब्दो मनःप्रतिकूलोऽपि भवति, तत आह- मनोज्ञेन मनोऽनुकूलेनातच मनोऽनुकूलं लेशतोऽपि स्यादत आह- मनोहरेण मनांसि श्रोतृणां हरति आत्मवशं नयतीति मनोहरः। लिहाऽऽदेराकृतिगणत्वा-दच्प्रत्ययः। तेन। तदपि मनोहरत्वं कुत्त इत्याह"कर्णमनोनिवृत्तिकरेण / 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीना प्रायोदर्शनम् / " इति वचनात् हेतौ तृतीया / ततोऽयमर्थः-प्रतिश्रोतृ कर्णयोर्मनसश्च निर्वृतिकरः सुखोत्पादकः, ततो मनोहरः, तेन इत्थं भूतेन शब्देन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् सर्वतो दिक्षु, समन्ततो त्रिदिक्षु आपूरयन्ति, शत्रन्तस्य शाविदं रूपम् / अत एव श्रिया शोभया अतीव शोभमानानि उपशोभमानानि तिष्ठन्तीति। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं पदेसे बहवे यसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किण्णरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधव्वसंघाडा उसभसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया निम्मला निप्पंका निकंकडुच्छाया सप्पभा सस्सिरीया स उजोया पासादीया दरिस णिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।। (तीसे णमित्यादि) तस्याः पद्मवरवेदिकायाः, तत्र तत्र देशे (तहिं तहिं इति) तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे। एतावता किमुक्तं भवति?-यत्र देशे एकस्तत्रान्येऽपि विद्यन्त इति / बहवो हयसंघाटा हययुग्मानि, सङ्घाटकशब्दो युग्मवाची, यथा साधु-संघाट इत्यत्र / एवं गजनरकिम्पुरुषमहारेगगन्धर्ववृषभसंघाटा अपि वाच्याः / एते च कथंभूता इत्याह- (सब्बरयणामया) सर्वाऽऽत्मना रत्नमयाः, अच्छा आकाशस्फटिक्कदातिस्वच्छाः। (जाव पडिरूवा इति) यावत्करणात् - "सण्हा लण्हा घडा महा" इत्यादि विशेषणकदम्बकपरिग्रहः, तच्च प्राग्वत्। एते सर्वेऽपिच रांघाटाः पुष्पावकीर्णका उक्ताः। संप्रत्येतेषामेव हयाऽऽदीना पड़ तथादिप्रतिपादनार्थमाहतीसेणं पउमवरवेदियाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं पदेसे बहवे हयपंतीओ तहेव०जाव पडिरूवाओ, एवं हयवीहीओ जाव पडिरूवाओ, एवं हयमिहुणाई०जाव पडिरूवाई।। (एवं पंतीओ वीहीओ एवं मिहुणगा इति ) यथा अमीषा हयाऽऽदीनामष्टाना संघाटा उक्तास्तथा पङ्क्तयोऽपि वक्तव्याः / वीथयोऽपि, मिथुनकानि च / तानि चैवम्-"तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं पएसे बहुयाओ हयपंतीओ गयपंतीओ'' इत्यादि, नवरमेकस्या | दिशिया श्रेणिः सा पक्तिरभिधीयते। उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रणिभावेन यत् श्रेणिद्वयं सा वीथी, पङ्क्तिसघाटा हयाऽऽदीनां पुरुषाणामुक्ताः। साम्प्रतमेतेषामेव हयाऽऽदीनां स्त्रीपुरुषयुग्मप्रतिपादनार्थं "मिहुणाई ''इत्युक्तम्। उक्तानेव प्रकारेण हयाऽऽदीनां मिथुनकानि स्त्रीपुरुषयुग्मरूपाणि वाच्यानि / यथा- 'तत्थ 2 देसे तहिं तहिं पएसे बहुहि हयमिहुणगाई गयमिहुणगाई।" इत्यादि। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ 2 देसे तहिं 2 पएसे बहवे पउमलयाओ नागलयाओ एवं असोगचंपगचूयवणवासंतियअतिमुत्तगकुंदलयाओ णिचं कुसुमियाओ०जाव सुविभत्तपडिमंजरीवडेंसकधराओ सव्वरयणामतीओ सण्हाओ लण्हाओ घट्ठाओ मट्ठाओ णीरयाओ निम्मलाओ निप्पंकाओ निकं कडछायाओ सप्पभाओ ससिरियाओ सउजायाओ पासादीयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ तीसे णं पउमवरवेदियाए तत्थ 2 देसे तहिं 2 पएसे बहवे अक्खया सोत्थिया पण्णत्ता सव्वरमणामया अच्छा०। (तीसे णमित्यादि) तस्या, णमिति पूर्ववत्। पद्मवरवेदिकायां तत्र तत्र (तहिं तहि इति) तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे, अत्रापि "तत्थर देसे तहिं 2" इति वदता यत्रैका लता तत्रत्या अपि बहयो लताः सन्तीति प्रतिपादितं द्रष्टव्यम्। (बहुयाओ पउमलयाओ इत्यादि) बह्नयः पदालताः पद्मिन्यःनागलताः नागा द्रुमविशेषाः, त एव लताः तिर्यवशाखाप्रसराभावात् नागलताः / एवमशोकलताः, वणलताः वणास्तविशेषाः, वासन्तिकालताः अतिमुक्तकलताः, कुन्दलताः, कथंभूताः ? नित्यं सर्वकालं, षट्वपि ऋतुषु इत्यर्थः / कुसुमानिः कुसुमिता पुष्पाणि संजातान्यास्थिति कुसुमिताः, तारकाऽऽदिदर्शनादितप्रत्यया यावत् करणात् एवं नित्यं मुकुलिता मुकुलानि नाम कुइमलानि, कलिका इत्यर्थः, नित्यं (पल्लवइयाओ इति) पल्लविताः, नित्यं (तवइयाओ इति) स्तवकिताः, नित्य (गुलुइयाओ) गुल्मिताः, स्तवक गुल्मी गुच्छकविशेषौ, नित्यं गुञ्छिताः, नित्यं यमलिता यमलं नामसमानजातीय योलतयोर्युग्मं तत् संयातमास्विति यमलिताः, नित्यं युगलिता युगलं सजातीयविजातीय-योलतयोर्द्वन्द्वम् / तथा नित्यं सर्वकालं फलभरेण नता ईषन्नता नित्यं प्रणता महता फलभारेण दूर नताः, तथा नित्यं (सुविभक्तेत्यादि) सुविभक्तिकः सुविच्छित्तिकः प्रतिविशिष्टो मञ्जरीरूपो योऽवतंसकस्तद्धरास्तद्धारिण्यः। एवं सर्वोऽपि कुसुमितत्वाऽऽदिको धर्म एकैकस्या लताया उक्तः। साम्प्रतं कासांचिल्लतानां सकलकुसुमितत्वाऽऽदिधर्मप्रतिपादनार्थमाह-(निचंकुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ) एताश्व सर्वा अपि लता एवं रूपा इत्याह(सत्वरयणामईओ) सर्वाऽऽत्मना रत्नमय्यः "अच्छा अण्हा'' इत्यादि विशेषण-कदम्बकं प्राग्वत्। अधुना पद्मवरवेदिकाशब्दप्रवृत्तिनिमित्त जिज्ञासु पृच्छति - से के णटे णं भंते ! एवं वुचइ-गोयमा ! पउमवर-वे दियाए तत्थ 2 देसे तहिं 2 पएसे वे दियासु वेतियवाहासु वेतियासीसफलएसु वेतियापुडं तरेसु खंभेसु खंभबाहासु खंभसीसेसु खंभपुडंतरेसु सूयीसु सूयीमुहेसु सूयीफलएसु Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमवखेइया 17 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउमवास सूयीपुडंतरेसु पक्खेसु पक्खवाहासु पक्खायरंतरेसु बहुयउ- शाश्वती, स्यादशाश्वती, कथञ्चिन्नित्या कथञ्चिदनित्या इत्यर्थः / प्पलाइं पउमाइं०जाव सयसहस्सवत्ताइं सव्वरयणामयाई रयात्शब्दा निपातः कथञ्चिदित्येतदर्थवाची (अयमेव स्याद् वाद शब्दे अच्छाई सहाई लण्हाई घट्ठाई मट्ठाई निरयाई निम्मलाई निर्देक्ष्यत)। " से कणट्टेणं भंते!" इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम्। भगवाहनिप्पकाई निकंकढच्छायाइं सप्पभाई ससिरियाई सउज्जोयाई गौतम! द्रव्यार्थतया द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती। द्रव्यास्तिकनयो हि पासादीयाई दरिसणिजाई अभिरूवाई पंडिरूवाई महया द्रव्यमेव तात्त्विकमभिमन्यते, न पर्यायान्, द्रव्यं चान्वयपरिणामित्वात् / वासिक्कछत्तसमाणाई पण्णत्ताईसमणाउसो! से तेणटेणं गोयमा! अन्यथा द्रव्यात्वायोगात्, अन्वयित्वाच्च सकलकालभावीति भवति / एवं वुचइ-पउसवरवे दिया 2 / अदुत्तरं च णं गोयमा ! द्रव्यार्थहया शाश्वती वर्णपययिस्तदन्यसमुत्पद्यमानवर्णविशेषरूपैः,एवं पउमवरवेतियाइंसासते नामधेजे पण्णत्ते, जंण कयाविणासि० गन्धपर्यायः रसपर्यायः स्पर्शपर्यायः,उपलक्षणमेतत् तत्तदन्यपुद्गजाव णिच्चे। लविचनोचटनैश्च अशाश्वती। किमुक्तं भवति? - पर्यायास्तिकनयमतेन (सेकेणतण मंते ! इत्यादि) 'से' शब्दोऽथशब्दार्थः / अथ केनार्थेन पर्यायप्राधान्यविवक्षायामशाश्वती; पर्यायाणां प्रतिक्षणभावितया, कन कारणेन भदन्तः एवमुच्यते-पद्मवरवेदिका पद्मवरवेदिकति? किमुक्तं कियत्कालभावितया वा विनाशित्वात्।" से तेणद्वेणं इत्याद्युपसहारभवति? पदावरवेदिकेत्येवरूपस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्तो किनिमित्तमिति ? वाक्यं सुगमम्। इह द्रव्यास्तिकनयवादाः स्वतत्त्वप्रतिष्ठापनार्थमवमाहएउमुक्त भगवानाह - गौतम ! पद्मवरवेदिकायां तत्र तत्र प्रदेशे तस्येव देशस्य "नात्यन्तासत उत्पादो, नापि सतो विद्यते विनाशो वा।" "नासतो तत्र तत्र वेदिकासु उपवेशनयोग्यमत्तवारणरूपासु वेदिकापावेषु विद्यते भावो , नाभावो विद्यते सतः // " इति वचनात् / यौ तु दृश्यते (देइयापुडारेसुइति) देवेदिके येदिकापुट, तेषामन्तराणि अपान्तरालानि प्रतिवस्तु उत्पादविनाशौ, तदाविर्भाषतिरोभावमात्र, यथा सर्पस्य वादेवापुटान्तराणि तेषु, तथा स्तम्भेषु सामान्यतः, तथा स्तम्भवाहासु उत्फणत्वविफणत्वे, तस्मात्सर्व वस्तु नित्यमिति। कियचिरम्स्तम्भपाश्चेषु। (खंभसीसेसु इति ) स्तम्भशीर्षेषु (खंभपुडतरेसु इति) द्वी स्तम्झी स्तम्भपुटं, तेषामन्तराणि तेषु, सूचीषु फलकद्वयसंबन्धविघट पउमवरवेइया णं भंते ! कालतो केव चिरं होइ ? गोयमा ! ण कयाति णासि, न कयाति णत्थि, न कदाति न भविस्सति, भूविं भावहेतुपादुकास्थानीयासु. तासमुपरि इति तात्पर्यार्थः। (सूईमुहेसु इति) च, भवति य, भविस्सति य, धुवा णियया सासता अक्खया या प्रदेशे सूची फलक भित्वामध्ये प्रविशति तत्प्रत्यासन्नो देशः सूचीमुख, अव्वया अवट्ठिया णिचा पउमवरवेदिया। तेषु, तथा सूचीफलकेषु सूचीभिरभिसंबन्धिता ये फलकप्रदेशारतेऽ एवं तन्मतचिन्तायां संशयः किं घटाऽऽदिवत् द्रव्यार्थतया शाश्वती, प्युपचारात् सूचीफलकानि, तेषु, सूचीनामधउपरिवर्तमानेषु, तथा उत सकलकालमेवंरूपेति। ततः संशयापनोदार्थभगवन्तं भूयः पृच्छति(सूईमुंडतरेसु इति) 2 रूच्यो सूचीपुट, तेषामन्तरेषु, पक्षाः पक्षवाहा (पउमवरवेदिया णमित्यादि) पद्मवरवेदिका, णमिति पूर्ववत्। भदन्त ! वेदिकैकदेशास्तेषु बहूनि उत्पलकानि गर्दभकानि, बहूनि पद्मानि परमकल्याणयोगिन् ! कि-यचिरं कियन्तं कालं यावत् भवतिएवंरूपा सूर्यविकाशीनि, बहूनि पद्मानि चन्द्रविकाशीनि। एवं नलिनसुभगसौग कियन्तं कालम वतिष्ठते इति। भगवनाह-गौतम ! न कदाचिन्नासीत्, न्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्राण्यपि वाच्यानि। एतेषां च सर्वदेवाऽऽसीदिति भावः। अनादित्वात्।तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदैव विशेषः प्रागेवोपदर्शितः। एतानि कथंभूतानीत्याह-सर्वरत्नमयानि वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः। सदैव भावात्। तथा न कदाचिन्न सर्वाऽऽत्मना रत्नमयानि। 'अच्छाई" इत्यादिविशेषणकदम्बक प्राग्वत् / भविष्यति , किंतु भविष्यचिन्तायां सर्वदैव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यम, (महया वासिकछत्तसमाणाई इति) महान्ति महाप्रमाणानि वार्षिकाणि अपर्यवसितत्वात् / तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय वर्षाकाले यानि पानी रक्षणार्थ कृतानि तानि वार्षिकाणि तानि च तानि संप्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-(भूविं च इत्यादि) अभूच, भवति च, छत्राणि च तत्समानानि प्रज्ञप्तानि / हे श्रमण ! हेआयुष्मन् ! (से भविष्यतिचेति। एवं त्रिकालावस्थायित्वात् ध्रुवा मेर्वादिवत्, ध्रुवत्वादेय तेणवणमित्यादि) तदेतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते पद्मवरवेदिका सदैव स्वस्वरूपे नियता, नियतत्वादेव शाश्वती शश्चद्भवनस्वभावा, पायरवेदिकेति। शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गा सिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पौण्डरीकहद - पउमवरवेदिया णं भंते ! किं सासता, असासता ? गोयमा ! इवानेकपुद्गलविचटनेऽपितावन्मात्रान्यपुद्र-लोच्चाटनसंभवात्, अक्षया सिय सासता, सिय असासता।से केणटेणं भंते ! एवं वुचइसिय न विद्यते क्षयो यथोक्तरूपाऽऽकारभंशो यस्याः सा अक्षया, अक्षयत्वासासता, सिय असासता? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, देवाव्यया अव्ययशब्दवाच्या, मनागपि स्वरूपाचलनस्य जातुचिदप्पवण्णपञ्जदेहिं गंधपञ्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं / असासता, संभवात् / अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थिता मानुषोत्तरपर्वताबहिः से तेणतुणं गोयमा ! एवं वुचतिसिय सासता, सिय असासता।। समुद्रवत / एवं च स्वप्रमाणे सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या, (पउमवरयेइया णं भंते ! किं सासया इत्यादि)पद्मवरवेदिका, णमिति धर्मास्ति-कायाऽऽदिवत् / जी०३ प्रति०४ अधि०। पूर्ववत् / किं शाश्वती, उताशाश्वती, आवन्ततया सूत्रे निर्देशः प्राकृ पउमवासपु०(पद्मवर्ष) पद्मानामाकाशोत्पाते, "पउमवासे य रयणवासे तत्वात् / किं नित्य, उतानित्येति भावः / भगवानाहगौतम स्यात् / यवासे वासिहिति।" पद्मवर्षः पद्मवर्षरूपः। भ०१४ श०६उ० स्था०। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमवूह 18- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउमसेहर पउमवूह पुं० (पद्मव्यूह) पद्माऽऽकारे परेषामनभिभवनीये सैन्य विन्यासविशेष, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। पउमसर न० (पद्मसरस्) पद्मभूषितं सरः पद्मसर इति समासः। आ०म० 1 अ०। पद्मयुक्ते सरसि, पद्यानियत्रोत्पद्यन्ते। स्था० 10 ठा० / कल्प। तीर्थकृन्मातरश्चतुर्दशसु स्वप्नेषु दशमस्वप्ने पासरः पश्यन्ति, तत्कि पद्मोपलक्षित सरोवरमात्रमुत मानसरोवत्पद्मसराऽपि द्वीपान्तरे कोऽप्यस्तीति प्रश्रे, उत्तरम्-पद्ममैरुपलक्षितंसरः पद्मसर इति व्याख्यातमस्ति, द्वीपान्तरे तु तन्नामक सरो नास्तीति। 106 प्र०। सेन०१ उल्ला०। पउमसागर पुं० (पासागर) तपागच्छीये धर्मसागरोपाध्यायशिष्य नयप्रकाशग्रन्थकारके सूरौ, स च वैक्रमीये 1673 वर्षे आसीत्। जै० इ०। पउमसिरी स्त्री० (पाश्री) दन्तपुरे नगरे धनमित्रवणिजो भार्यायां धनश्रीसपत्न्याम्, यया दन्तमयसौधेदोहदोयाचितः। आ०का आव०। आ०चू० / नि० चू०1 (णिरवलाव शब्दे चतुर्थभागे 2111 पृष्ठे कथा) मेघरथविद्याधरदुहितरि सुभौमस्य चक्रवर्तिनो भार्यायाम, आ०क०। ('माण' शब्देऽस्योदाहरणम्) सिंहपुरे नगरे कीर्तिधर्मस्य राज्ञो दुहितरि, दर्श०३ तत्त्व1) पउमसुंदर पुं० (पद्मसुंदर) नागपुरीयतपागच्छीये राजमल्लाभ्युदयमहाकाव्यधातुपाठपार्श्वनाथकाव्यजम्बूस्वामिकथानकाऽऽदिग्रन्थकृति स्वनामख्याते गणिनि, जै,इ०।। पउमसेण पुं० (पद्मसेन) श्रेणिकपुत्रस्य महाकृष्णसत्कपुत्रे, स च वीरान्तिके प्रव्रज्य लान्तके कल्पे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति कल्पावतंसिकानां षष्ठेऽध्ययने सूचितम्। नि०१ श्रु०२वर्ग 8 अ०। पर्वतविशेष कूटाधिपती नागकुमारे देवे, द्वी०। पउमसेहर पुं० (पद्मशेखर) पृथिवीपुरनरराजे, ध०२०। पद्मशेखरमहाराजकथा चैबम्"पुरिसुत्तमसयणं सुर-जणमहियं किं तु खारगुणरहियं / नीरनिहिनीरसरिसं, पुहइपुरं अस्थि इत्थ पुरं / / 1 / / सुनओ वसणविरहिओ, किंतु जडासंगवजिओ सययं। ससिसेहरुब्ब सिरिपउमसेहरो नरवरो तत्थाशा सो बालभावओ भाबिऊण भावेण गहियजिणधम्मो। राईसराइपुरओ, पत्तो पन्नवइ जिणधम्मं / / 3 / / वक्खाणइ जीवदयं, अपमायाओ परूवए मुक्ख। बहुसो बहुमाणेणं एवं वन्नइ, सया गुरुणो // 4 // खंता दंता संता, उवसंता रागरोसपरिचत्ता। परपरिवायविरत्ता, हुंति गुरू निचमपमत्ता // 5 // उवसमसीयलसलिलप्पबाहविज्झवियकोहजलणा वि। गाढप्परूढभववियडविडविनिट्लवणदवदहणा।६।। निजियमयणा वि पसिद्धसिद्धिबहुसंगसुक्खतल्लिच्छा। परिच त्तसयलसंगा, वि सुदिढ संगहियचरणधणा // 7 // नीसेसजंतुसंता- णपालणे फुरियगरुयकरुणा वि। निठुरपमायसिंधुर-कुंभत्थलदलणहरिसरिसा।।८।। तथाकसे संखे जीवे, गयणे बाऊय सारए सलिले। पुक्खलपत्ते कुम्मे, विहगे खग्गे य भारुडे // 6 // कुजरवसहे सीहे, नगराया चेव सागरक्खोहे। चंदे सूरे कणगे, वसुंधरा चेव सुहुयहुए॥१०॥ जिणसमए निद्दिट्टा, इचाइनिर्दसणेहि मुणिवसहा। भावेण तेसि गुणवन्नणं पिनासेइ दुरियभरं / / 11 / / किचमाणुसं उत्तम धम्मो, गुरुनाणाइसंजुओ। सामग्गी दुल्लहा, एसा जाणेहि हियमप्पणो / / 12 / / एयारिसो सुहगुरू, धन्नाणं दिट्टिगोयरमुवेइ। एयरस सवणसुहयं, पियति वयणामयं धन्ना // 13 // एयस्स महामुणिणो, उवएसरसायणं अकाऊण। होही पच्छायावो, चत्ते पत्ते निहाणे व्व // 14 // इय भणिएणं तेणं, जिणधम्मे ठाविओ बहू लोओ? एगो पुण सिट्ठिसुओ, विजओ नामेण इय भणइ॥१५॥ पवणुद्धयचेलचलं, चलं मण कह धरति मे मणिणो। कह नियनियविसए धा-विराइँ रुंधति करणाइं?|१६|| दुहियजियाणं च वहो, जुत्तो जं ते विणाया इहयं / वेइत्तु निययकम्म, सुगईए भायणं हुंति॥१७|| जं पुण अपमायाओ, मुक्खस्स परूवणं तयं मन्ने। जरहरणे तक्खगमउलिरयणउवएसदाणं व।।१८|| इय सो वायालत्तेण, धम्माभिमुहं पि मोहए लोए। नीओ निवेण तव्योहणत्थमेव तओ विहियं // 16 // जक्खु त्ति निययपुरिसो, भणिओ जह मह इमं अलंकारं। पक्खिवसु काउ मित्तं, रयणकरंडम्भि विजयस्स // 20 // तेण वि तहेव काउं, विन्नत्तं राइणो तओ इमिणा! पडहगपयाणपुव्वं, नयरे घोसावियं एवं / / 21 / / जो निवआहरणं कहवि लद्भपप्पह स दोसर्व गिरिह। पच्छा से तणुदंडो, इय घोसावित्तु वारतिग।।२२।। सह पउरेहि सपुरिसा, वुत्ता गिहसोहणम्मि अह तेहिं। विजयगिहे तं दिटुं, सो पुट्टो नणु किमेयं ति? // 23 / / स भणइ अहं न याणे, चोरियमवि न मुणसि त्ति भणिरेहिं। निवपासे नीओ ते-हिं तेण वज्झोस आणत्तो // 24 // न य ते को वि मुयावइ,पचक्खो तक्करु तितो विजओ। पाचत्तजीवियासो, जक्खं पइ जपइ सुदीणो / / 25 / / मित्त निवं विन्नविउ, दंडेणं दुक्करेण वि कह पि। दावेसु जीवियं मे तो जक्खो भणइ इय निवई // 26 // देव मह मुयसु मित्तं, केण विदंडेण तो भणइ राया। जइ जाइ हओ सुगई, मित्तोतुह किं न पडिहाइ ?||27|| स भणइ सुगईएँ अलं, जीवंतो पिच्छए नरो भई। ता देसु पाणभिक्खं, तो निवई भणइ कुविय व्व // 28 // जइ मम पासाओ तेल्लुपुन्नपत्तं गहित्तु बिंदु पि! अचयंतो सयलपुरे, भमिउपुण ठवइ मह पुरओ // 26 // ता तुह मुएमि मित्त, रायाए संतयं कहइ जक्खो / विजयरस तेण त पिहु, पडिवन्नं जीवियासाए॥३०।। तत्तो निरूवियाई. सयलपुरे पउमसेहरनिवेण। पहुपडहवेणवीणाइसद्दउद्दामहरिसाइं॥३१॥ अइलडहरूवलवणिमसुवेसवेसाविलासकलियाई। सव्विदियसुहयाई, पए पए पिच्छणसयाई॥३२।। सो किर विसेसरसिओ, तेसु अइमरणभीरुओ तह वि। तेल्लपडिपुत्रपत्ते, निहियमणो भमिय सयलपुरे // 33 // Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमसेहर 16 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउमावई पत्तो नरवरपासे, पुरओ जत्तेण मुत्तु तं पत्तं / पडिआ चलणेसु तओ, ईसि हसिउं निवो भणइ॥३४।। अचंतचलाई, मणकरणाई कहं तुमे विजय ! / अइबालहेसु वि भिसं, पिच्छणगाइसु निरुद्धाई।।३५।। तेणुत्तं सामिय ! मरणभीरुणा अह निवो भणइ जइ ते। एगभवभरणभीएण सविओ एवमपमाओ॥३६॥ ता कह सेवंति न तं, अणतभवमरणभीरुणो मुणिणो। इय साउंपडिबुद्धो, विजओ जाओ पवरसड्डो॥३७।। इस गुरुगुणगणवन्नण परायणो बोहिउं बहु लोय। सो पउमसेहरनिवो, सुगईए भायण जाओ॥३८॥ श्रुत्थेति कुगृहविनिग्रहणैकमन्त्रं, श्रीपदमशेखरनरेश्वरसचरित्रम। सज्ज्ञानदर्शनचरित्रभृता गुरुणां, भव्या जना गुणगण परिकीर्तयन्तु // 26 // " इति पाशखरमहाराजकथा। ध० 202 अधि०५ लक्ष०। पउमा स्त्री० (पद्मा) लक्षम्याम्, अमरभीमस्य राक्षसेन्द्रस्य प्रथमायामग्रमहिष्याम्, भ०१० श०५ उ०। स्था०। शक्रस्य प्रथमाग्रमहिष्याम्, ज्ञा० 1 श्रु० 6 वर्ग 1 अ० / भ० / स्वा०। (अनयोः पूर्वोत्तरभवकथा 'अम्गमडिसी' शब्दे प्रथमभागे 173 पृष्टे उक्ता) जम्ब्बाः सुदर्शनायाः प्रथमवनखण्डे पूर्वस्यां नन्दापुष्करिण्याम, ज०४ वक्ष० / जी० / मुनिसुव्रतस्य विंशतितमतीर्थकृतो मातरि, संoा ति०। चतुर्दशतीर्थकृतः प्रथमप्रवर्तिन्याम, प्रव० 10 द्वार / ब्रह्मणो भार्यायाम, द्वितीयबलदेववासुदेवमातरि, ति० / अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। लेश्याभेदे, स०। पउमाभ पुं० (पद्माभ) पद्मप्रभाऽऽख्ये तीर्थकरे, प्रव० 30 द्वार। पउमावई स्त्री० (पद्मावती) भीमस्य राक्षसेन्द्रस्य द्वितीयायामग्रमहिष्याम. भ० 10 श० 5 उ० / स्था० / (अस्याः पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 171 पृष्ठे उक्ता) शक्राग्रमहिष्यांच। ज्ञा० 2 श्रु०७ वर्ग 1 अ०। (अस्या अपि पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 173 पृष्ट उक्ता) चेटकमहाराजदुहितरि चम्पेश्वरमहाराजदधिवाहनभार्यायाम, आव० अ०। उत्त० / आ००। आ०चू० यस्या हस्त्या-रोहणदोहदोऽभूत्, ततो हस्त्याहतया वने करकण्डू नाम कुमारः सुषुवे / उत्त० 10 अ० / आ० चू० / बृ०। (करकंडू' शब्दे तृतीयभागे 357 पृष्ट कथा) हिरण्यनामनगरराजदुहितरि कृष्णवासुदेवपट्टराज्ञयाम्, प्रश्श् / पद्मावतीकृते संग्रामोऽभूत् / तत्र अरिष्टनगरे राममानुलस्य हिरण्यनाभाभिधाननगराधिपस्य दुहिता पद्मावती बभूव / तस्याश्व स्वयम्बरमुपश्रुत्य रामकेशवावन्ये च राजकुमारास्तत्राऽऽजग्मुः। ततश्च"पूएइ भाइणियो, विहीए सो तत्थ रामगुत्ती। रेवगनामो जेट्टी, भाया य हिरण्णनाभस्स॥११॥ पिउणा सह पव्वइओ, सो तित्थे नमिजिणस्स गयमोहो। तस्स घरे वयनामो, रामा सीमा य बंधुमई|२|| दुहियाओ पढभं चिय,दिन्नाओ आसि तेण रामस्स। तत्थ य सयंबरम्मी, सव्वेहिं नरबरिंदाणं / / 3 / / पुरउ चिय तं गेण्हइ, आह च कुरालाण कण्णग कण्हो। जायं च पत्थिवेहि. मज्झं सह जायवाण उल / / 4 / / सव्वत्तो विद्दविए, मुहुत्तभित्तेण सव्वनरनाहे। रामो कन्नचउक्वं, हरी विपउमावईकण्णं // 5 // गहिउ ताहिँ समेया, समागया निययपुरखरे सव्वे।" इति। प्रश्न०४ आश्र०द्वार। जति णं भंते ! पंचमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा / पढमस्स णं मंत्ते! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते ? / एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवती नगरी जहा पढमे० जाव कन्हे वासुदेवे आहेवचं०जाव विहरति / तस्स णं कन्हस्स वासुदेवस्स पउमावती नामं देवी होत्था, वण्णओ / तेणं कालेणं तेणं समरण अरहा अरिट्ठनेमी समोसढे जाव विहरति / कन्हे विनिग्गते, जाव पजुवासति। तते णं से पउमावती देवी इमीसे कहाए लद्धटे समाणे हहतुट्ठा जहा देवती देवी०जाव पञ्जुवासति। अन्त०५ वर्ग 1 अ० तते णं से कन्हे वासुदेवे अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म ओहय०जाव झियाति कण्हादी। अरहा अरिठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं बयासीमा णं तुमं देवाणुप्पिया! ओहयजाव झियाहि / एवं खलु तुमं देवाणुप्पिया ! तचाओ पुढवीओ जलियातो णरगाओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमेसाए ओसप्पिणीते पुंडेसु जणवएसु सयदुवारे णगरे वारसमो अममोनाम अरहा भविस्सति / तत्थ णं तुमे बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता सिज्झिहिति / वुज्झिहिति० जाव अंतं काहिति। तते णं से कण्हे वासुदेवे अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिआए एयमटुं सोचा णिसम्म हहतुट्ठा अप्फोडिति 2 / दुग्गतिं तिवतिं छिंदति, छिंदइत्ता, सीहनायं करेति, करेतित्ता अरहं अरिट्टनेमि वंदति, नमसति, नमंसित्ता तमेव अभिसेकं हत्थिरयणं दुरूहति, दुरूहइत्ता जेणेव वारवतीणयरी जेणेव रायगिहे तेणव उवागते, उवागतेत्ता अभिसेयहत्थिरयणाओ पचोरुहति, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, उवगच्छइत्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति, निसीयइत्ता को९विए पुरिसे सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुज्झे देवाणु प्पिया! वारवतीए णयरीए सिंघाड ग०जाव उग्धोसेमाणे एवं बयासी-एवं खलु देवाणु प्पिया! वारवतीए णयरीए नवजोयणा० जाव देवलोगभूयाओ सुरदीवएणं मूलाए वीणासे भविस्सति, तं जो णं देवाणुप्पिया ! इच्छति वारवतीए राया वा जुवराया वा तलवरे वा मडं विया कोडं विया इन्भे वा सेट्ठी वा देवी वा कुमारो वा कुमारी वा अरहा अरिट्ठनेमिस्स अंतिए मुंडे जाव पव्वइते, तं णं कण्हे वासुदेवे विसजेति। पच्छा तुरस्स विय अहापवित्तं वित्तं अणुजाणइ, महया इड्डीसक्कार-समुदएण य से निक्खमणं करेति, करेतित्ता दो पि तच्चं पि घोसणं घोसेह, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमावई 20 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउमासण ममं एयं पचप्पिणह / तते णं ते कोडंदिया पुरिसा०जाव पच- अरिट्ठनेमी पउमावतिं देविं जाव संजमेति, तते से पउमावती प्पिणंति / तते णं से पउमावती अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए अजा जाया इरियासमिया०जाव गुत्तबंभयारिणी तसा पउमावती धम्म सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठा०जाव हियया अरहं अरिट्ठनेमिं अजाजक्खिणीते अजाए अंतिए सामाइयमाइयाईएक्कारसअंगाई वंदति, नमसति, नमंसित्ता एवं बयासी-सदहामिणं भंते ! निग्गंथं अहिज्जित्ता बहूणि चउत्थछट्टविविहतव० अत्ताणं भावियमाणा पावयणं से जहेतं तुज्झे बदह जं णवरं देवाणुप्पिया ! कण्हं विहरति / तते णं सा पउमावती अञ्जा बहुपडि पुण्णाई वासुदेवं आपुच्छामि। तते णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिते मुंडा | वीसवासातिं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता मासियाए भवित्ताजाव पव्वयामि ? अहासुहं / तस्स पउमावती देवी | संलेहणाए अप्पाणं झूसेति, झूसेत्ता सहि भत्ताइं अणसणा धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहति, दरूहतित्ता जेणेव बारवती णयरी तच्छेदेति रत्ता जस्सट्टाए कीरति नग्गभावे०जाव तमटुं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता धम्मियातो आराहेति, चरिमुस्सासेहिं सिद्धा। अन्त०५ वर्ग०१ अास्था०। जाणाओ पच्चोरुहति, पचोरुहतित्ता जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव श्रेणिकपुत्रस्य कूणिकस्य स्नुषाया कालस्य भार्यायां पद्ममातरि, नि० उवागच्छति, उवागच्छइत्ता करयलकटु कण्हं वासुदेवं एवं 1 श्रु०१ वर्ग 2 अ०। कूणिकमहाराजभार्यायाम् , सा च स्वर्देवरयोहलविबयासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुडभेहिं अभणुण्णाया हल्लयोः सेचनकाभिधान हस्तिनमपजिहीर्षन्ती कूणिक प्रेरितवती, तेन समाणा अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए मुंडा०जाव पव्वइया। च तदर्थमहाशिलाकण्टकसङ्ग्रामः कारितः / भ०७ श०६ उ० ति०। तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुबिए पुरिसे सद्दावेति, सद्दावेइत्ता सेसलपुरराजसेलकभार्यायाम् ध०२०३ अधि०७लक्ष०। ('थावचापुत्त' एवं बयासी-खिप्पामेव पउमावतीए देवीए महत्थ 3 शब्दे चतुर्थभागे 2041 पृष्ठकथा गता) अयोध्याराज्ञो हरिसिंहस्य राज्ञया निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह, एतमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति०जाव पृथ्वीचन्द्रनरेन्द्रमातरि, ध० 20 2 अधि०६ लक्ष०। ज्ञा० / भरते वर्षे पञ्चप्पिणंतित्ता तमेव कण्हे वासुदेवे पउमावती देवी पट्टयं तेतलिपुरनगरराजकनककेतुभार्यायाम, तेतलिसुतेन पोहिलाया दुरूहेति, अट्टसंतेण सोवणजाव कलसाजाव महानिक्ख- जातस्य कनकध्वजस्य मातृत्वेन रक्षिकायाम्, दर्श, 1 तत्त्व ज्ञा०| मणाभिसेएणं अभिसिंचति, अभिसिंचतित्ता सव्वालंकार- आ०क०। ('तेतलिय' शब्दे चतुर्थभागे 5352 पृष्ठे कथा ) सिन्धुरसौवीरेषु विभूसियं करेइ, करे इत्ता पुरिससहस्सवाहणिं सिवियं वीतभयराजस्योदायानस्य भार्यायाम,भ०१श०७ उ०। कौशाम्बीराजदुरूहावेति, दुरूहावेइत्ता वारवतीए णयरीए मज्झं मज्झेणं शतानीकपुत्रोदायननुपभार्यायाम, विपा० 1 श्रु०५ अ०। (या बृहस्पतिनिग्गच्छति, निग्गच्छ इत्ता जेणे व रेवयते पटवए जेणे व दत्तेन संगतेति 'बहप्फइदत्त' शब्दे कथा) विंशतितमतीर्थकृतो सहस्संबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता सीयं मुनिसुव्रतस्य मातरि, प्रव० 11 द्वार। आव०ा ति० / पार्श्वजिनस्य ठवेति, पउमावती देवी सिवियातो पचोरुहति, पचोरुहइत्ता शासनदेव्याम्, सा च कनकवर्णा कुक्कुटसर्पवाहना चतुर्भुजा पद्मपाशाजेणेव अरहा अरिट्ठनेमी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता अरहं न्वितदक्षिणकरद्वया,फलाडकुशाधिष्ठितवामकरद्वयाचा प्रव० 27 द्वार। अरिट्ठनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, करेइत्ता वंदति ती / स्था० / पश्चिमदिग्भागवर्तिरुचकपर्वतस्य मन्दरकूटवासिन्या नमंसति, एस णं भंते ! सा मम अग्गमहिसी पउमावती णाम दिकुमार्याम, जं०५ वक्षस्था०। द्वी०। आ००।आ० चूारोहीडकदेवी इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणाभिरामा०जाव किमंग ! पुण | नगरराजमहावलभार्यायां वीरङ्गतमालरि, नि० 1 श्रु० 5 वर्ग 1 अ० / पासणया, एतेणं अहं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं दलयामि, ('निसद शब्दे चतुर्थभागे 2137 पृष्ठ कथोक्ता) पुष्कलावतीविजये पडि च्छंतु मं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं / अहासुहं / तओ पुण्डरीकिणीराजस्य महापद्मस्य पट्टराइयां पुण्डरीककण्डरीकमातरि, सा पउमावती उत्तरपच्छिमदिसिभायं अवक्कमति, अवक्कमइत्ता आ०चू० 1 अ०। रम्यविजयराजधान्यां रम्यो विजयः, पद्मावती राजपूः सयमेव आभरणालंकारं उम्मोयति, उम्मोयइत्ता सयमेव उन्मत्तजला महानदी / जं० 4 वक्ष०ा तथा पद्मावती किं धरणेन्द्रपत्नी, पंचमुट्ठियं लोयं करेति, करेइत्ता०जाव अरहा अरिट्ठनेमी तेणेव उताच्या परिगृहीतेति प्रश्ने, उत्तरम्-पद्मावती धरणेन्द्रस्याग्रमहिषी, न उवागच्छति, उवागच्छइत्ता अरहं अरिट्टनेमि वंदति, वंदइत्ता तु साधारणेति। 112 एवं आलित्तेणं०जाव धम्मातिक्खियं / तते णं अरहा अरिट्ठनेमी प्र०। सेन० 2 उल्ला। पउमावतिं देविं सयमेव पव्वावेति, सयमेव मुंडावेति, सयमेव पउमागिति त्रि०(पद्माऽऽकृति) पद्मसंस्थिते, "अहो णाभी पउमागिती जक्खणीए अज्जाए सिस्सिणिं दलयति, तते सा जक्खिणी अज्जा / वा।' नि०चू०१ उ०।। पउमावतिं देविं सयमेव पध्वजा०जाव संजमियव्वं-तते णं अरहा | पउमासण न० (पद्माऽऽसन) पद्माऽऽकारे आसने, जं०१ वक्ष०ा जी०। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमिणी 21 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउमुप्पल पउमिणी स्त्री० (पद्मिनी) पद्मलतायाम्, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। आचा। स्तुरगः प्रददे। जगदे चासौयदेनमधिरुह्य व्रजतु भवान्, यत्पत्रे लिखितकमलश्रेष्ठिसुतायाम्, तं०। तैलङ्ग जनपदे आमरकुण्डनगरे पूज्यमानायां मास्ते तत्सर्व त्वत्पृष्ठत एव समेष्यति, केवल गिरिवराध्वना त्वया गन्तव्यं, राहाता यांच्याम्, ती०। पृष्ठतश्च नाबलोक्यते इति तद्वचनं तथेत्युररीकृत्य तगिरिविवरमनु तत्कल्पः प्रावीविशदश्वम्, यावत् द्वादश योजनान्यव्राजीबाजी, ततः पश्चादा"आमरकुण्डकनगरे, तिलग जनपदविभूषणे रुमिरे। गच्छद तुच्छकरिघटाघण्टाटणत्कारतुमुलमतुलं कोलाहलं समाकर्ण्य गिरिशिखरभुवनमध्य-स्थिता जवति पद्मिनी देवी॥१॥" कुतूहलोत्तालतया स छात्रः सपदि पश्चाद्भाग सिंहावलोकितन्यायेन अस्।ि स्वस्तिकरसमस्तगुणगणगम्भीर रन्ध्रेष्वामरकुण्ड नाम न- निभालयांबभूव, यावदवैक्षिष्ट करितुरगाऽऽदिसमूहसंकुला सेना, तस्मिश्च गरम लहरय्यहHश्रणिविश्राणितनयनाऽऽनन्द स्निग्धनानाविधच्छा- विस्मयरसमयहृदयीभूते तत्रैव द्वादशयोजनान्ते स तदधिष्ठितस्तुरङ्गयात रिस्कृत मञ्जुगुञ्जन्मधुकरनिकरपरीतकुसुमसौरभसंरम्भसुर- मपुङ्गवोऽवास्थित। तदनु च स माधवराजः परमजैनस्तया पृतनया भीकृत'देवलयं विमलबहलसलिलकलितसरित्सरोवरशोभितं दुर्गम- परिवृतस्तत्रैव नगर निवेश्य तस्या देव्या भवनं च विधाप्य पुनरामरकुण्डदुर्गतयः विपक्षपक्षरक्षोभित, किं वा तस्य पुरपरस्य वर्णयाओ, यत्र नगरमागत्य राजलक्ष्मीं पर्यपालयद् भूपालमौलिलालितशासनः, करवीरसुमनसोऽपि मृगमदगन्धयः विशिष्टायष्टिविपुलकदलीफलयङ्ग- प्रासादं चाभ्रङ्कपशिखरं हिरण्मयदण्डकलशध्वजभ्राजिष्णुमचीकरत्। नारनकप्रकारसहकारसंपन्नरसपुन्नागनागवल्लीपूगस्वादशाखि- प्रत्यतिष्ठिपच तत्र चित्रीयमाणनमस्कुर्वाणमनुष्यचित्ता श्रीपद्मावती नालिये रफलप्रभूतीनि दृद्यस्वाद्यानि फलन्ति प्रतिऋतु सौरभ्यभरनि- देवीम् / पर्यपूपुजत् पर्याप्तिभक्तितरङ्गितमनास्त्रि सन्ध्यमष्टविधपूजया। रिवासितदिक्पालयः शालयःवीक्ष्यन्ते परिपक्षकैर्विपणिषु पट्टांशुक- विद्यते च तदद्यापि भवनोदरव्यापिमाहात्म्यं भगवत्या मन्दिरममन्दप्रमुखलनिचयमौक्तिकरत्नाऽऽदीन्यगण्यानि पञ्चानि, इत एव लक्ष्मीक भव्यजनतया पर्युपास्यमान, तस्य च गिरिविवरस्य द्वारे निष्पनमुरङ्गलव्यपदेशपेशलामेकशिलापत्तनसमीपा भूमिमलकरिष्णु- विपुलशिलापट्टमद्यापि दत्तभस्ति, यथा तेन पथा सर्वोऽपि न प्रविशति, विष्णु दशुम्बिशिखरपरम्पराशेखरितः सर्वतो रमणीयः पर्वतः पातयि- तत्र हि शिलामुद्घाट्य महतीं पूजां कृत्वा प्रविश्य प्रथमं लुटता गन्तव्यं तुमीवरः सौन्दर्यगर्वतः पर्वतराजमास्ते। तदुपरि परिणाहाऽऽरोहशालि- कियतीमपि कला, तदने चोपविष्टश्चलनीयम्, अग्रेतरां च महत्यवकाशे श्रीऋषभशान्तिनाथाऽऽदिजिनप्रतिमालवृत्ताः कृतजनमनः प्रसादाः- ऊर्द्धर्जुभिरेव देवीसदन किल गन्तव्यमिति प्रत्यूहव्यू हसंभावनया प्रासादाः शाभन्ते शुभयवः। तत्रैकत्र पवित्रतरे पुरे गतसद्मनिछानिर्मुक्त- कष्ट भयाच न कश्चित्प्रायस्तद्विवरद्वारमुद्घायितु पाटवमसाहसिकः मना मनागपि विषयसुखैरक्षुभितहृदयः सहृदयाऽऽल्हादितोदयः प्रति- कलयतीति शिलापिहितद्वारि विवरस्थान एव सर्वेऽपि श्रद्धालवः असति स्म जितस्मरोविस्मयकारिचरणाऽऽदर्शवशीकृतपद्मावतीदेवी- पद्मावत्याः पूजाकुर्वत, प्रानुवन्ति च विष्वद्रिचीरऽभिरुचितार्थसिद्धी / ताज्यातिष्ठो मेघचन्द्रनामा दिगम्बरो व्रतिपतिरेकोऽनेकनिमिपत्परि- माधवराजस्य कङ्कतीग्रामवास्तव्यत्वादशजाः पुरण्टिरित्तमराज यदुपा-सितपदः / स चैकदा श्रावकगोष्ठी मनुज्ञाप्य प्रतस्थे स्थानान्तर- पिडिकुण्डिमराज प्रोत्मराजरुद्रदेवगणपतिदेवाः पुत्री च रुद्रमहादेवी विदरगाय यावत्कियतीमपि भुवमगमत् स्वहस्ताऽऽभरणं नाद्राक्षीत पचत्रिंशद्वर्षकृतराज्यास्ततः श्रीप्रतापरुद्रः / एते काकतीया इति प्रसिद्धाः। पुस्तकम्। ततश्चाऽऽहाहो नःप्रमादोद्धुरता, येन स्वपुस्तकमपि ध्यस्मार्ष- "श्रीमदामरकुण्डाख्यपद्मावत्या यथाश्रुतम्। आजल्पि कल्पलेऽसोयं, दिति क्षणं विषद्य छात्रमेक क्षत्रियजातीय माधवराजनामधेय व्यावर्तयत् श्रीजिनप्रभसूरिभिः // 1 // " श्रीआमरकुण्डपद्मावतीदेवीकल्पः। ती०५६ पुस्तकाऽऽनयनाय / स च छात्रो बलित्वा मठमशठमतिर्यावत्प्रविशति कल्प। 'पउमिणिपत्तोवलग्गजलबिंदुविचयचितं। "पद्ममिन्यः कमलितावदपश्यदेकयाऽद्भुतरूपधेयश्रिया स्त्रिया तत् पुस्तकमूरूपरिन्यरतं, न्यस्तासां पत्राणि तेषाम् उपरिलन्ना से जलविन्दुनिचयास्तैः चित्रमामयावन्निर्भीककमक्षुब्धचेतास्तदूरोर्ग्रहीतुं प्रवृत्तस्तत् तावत् सा वरवर्णिनी ण्डितम्। अत्र इन्द्रनीलरत्नमयानि च पद्मिनीपत्राणि मुक्ताफलानुकारितत् पुस्तक स्वस्कन्धदेशस्थमदीदृशत्, तदनुसछात्रो मात्रोत्तीर्णवैयाव- भिर्जलविन्दुभिरतीव शोभन्ते, तैश्च पत्रैस्तत् सरः कृतं चित्रमिव भातीति त्यस्तदूरौ चरणं दत्त्वा स्कन्धादपि तद ग्रहीतुं प्रावृतत्। ततस्तयाऽऽरा- भाव / / कल्प०१ अधि०३ क्षण। ध्याहोऽयमिति विमृश्य विधृतः करेऽभिहितश्ववत्स! किमपि वृणु तत् पउमिणीसंड पुं० (पद्मिनीखण्ड) स्वनामख्याते उद्याने, यत्र धीरो तुभ्यमहं प्रयच्छामि, तुष्टाऽस्मि तव साहसिक्येन / तदनन्तरं शिष्येण / भगवान् निष्क्रान्तः / ति०। निजगदे-जगदेकवन्द्यो मद्गुरुः सर्व मह्यमभिरुचितमर्थ प्रदातुं समर्थ / पउमुत्तर पुं० (पद्मोत्तर) मन्दरस्य पर्वतस्य भद्रशालवने प्रथमदिग्धएवास्ति, तत्किमहशुभवती भवतीं प्रार्थये इत्यभिधाय छात्रः पुस्तकमा- स्तिकूटपर्वते, ज०४ वक्षः। द्वी० / स्था०। (भद्दसालवण 'शब्देऽस्य' दाय च आचार्यसविधमागच्छत् / तदखिलं स्वरूपं निवेद्य पुस्तकमाचा- वक्तव्यता) हस्तिनापुरराजनि ज्वालापतौ विष्णुकुमारमहापद्मयोः पीय समार्पिपत्। क्षपणकगणाधिपतिरवोचत्-भद्र! सा न स्त्रीमात्रं, किं पितरि, ती०२० कल्प। महापद्मो नवमचक्रवर्ती / स०। तु भगवती पद्मावती देवता सा, तदूच्छ लिखितहृद्यपद्यमिदं पत्रं तस्यै | पउमुत्तरा स्त्री० (पद्मोत्तरा) शर्कराभेदे, ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ०। दर्शयेति / गुर्वादशं तथेति प्रतिपद्य सद्य एव विनेयो व्याघुट्य तं मटं गत्वा / प्रज्ञा०। जी। तस्यै तत्पत्रं समर्प्य पुरस्तस्थौ। देव्यप्यवाचयत्। यथा- "अष्टो दन्ति- पउमुप्पल न० (पद्मोत्पल) पद्मोत्पलद्वन्द्वे, प्रश्न०१ आश्र० राहस्राणि, नवकोट्यः पदातयः / रथाश्च लक्षसंख्याश्च, कोशश्चास्मै | द्वार। 'पउमुप्पलसरिसणीसास सुरहिवयणा।'' पां कमलप्रदीयताम्॥१॥" भगवत्यपि पद्यार्थमवधार्य तस्मा अन्तेवासिने चतुरग- | मुत्पलं नीलोत्पलं, यद्वा-पद्म पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यम्, उत्पलं Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमुप्पल 22 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएस च उत्पलकृष्ट, तयोर्गन्धेन सौरभेण सदृशः सभो यो निश्वासस्तेन सुरभिगन्धिवदनं मुखं येषां ते पद्मोत्पलगन्धसदृशनिश्वाससुरभिवदनाः। तं०। जी०॥ पउय पु० (प्रयुत) चतुरशीतिलक्षगुणिते प्रयुताड़े, स्था० 2 ठा० 4 उ० / जी०। पउयंग न० (प्रयुताङ्ग) चतुरशीतिलक्षगुणिते अयुतशतसहस्त्रे, जी० 3 प्रति०४ अधिक। पउर त्रि० (प्रचुर) प्रभूते, आ०म०१ अ० / औ० / प्रश्न० / अतिप्रभूते. व्य०३ उ० / ज्ञा० / बहुले, स्था०२ ठा०४ उ०। *पौर- त्रि० "अउः पौराऽऽदौ च" ||8/1161 / / इत्यौतोऽउः / 'पउरो।' पुरोद्भवे, प्रा० 1 पाद / विशिष्टनगरनिवासिलोके, आ०म० 1 अ० / "पउरजणबालवुड्डपमुइयतुरियपहावियवियलाउलयोलबहुल नभं करते।" पौरजनाश्च, अथवा प्रचुरजनाश्च बाला वृद्धाश्च से प्रमुदितास्त्वरितप्रधाविताश्च शीघ्रं गच्छन्तः, तेषा व्याकुलाऽऽकुलानामतिव्याकुलाना, यो बोलः स बहुलो यत्र तत्तथा, तदेवंभूतं नमः कुर्वन्निति। भ० 6 श० 33 उ०। पउरगोयर पुं० (प्रचुरगोचर) प्रचुरचरणभूमौ भ०१२ श०७ उ०। पउरिस न० (पौरुष) पुरुषस्य भावे, "अउः पौराऽऽदौ च / " ||8/1 / 162 // इत्यौतोऽउः / प्रा०१ पाद। "पुरुषे रोः" / 1 / 111 / / इत्युकारस्येकारः / प्रा०१ पाद। पउरिंधण न० (प्रचुरेन्धन) बहुलकाष्ठे, उत्त०३२ अ०। पउरुस न० (पौरुष) 'पउरिस' शब्दार्थे प्रा० 1 पाद। पउ(औ)ल पुं० (पटोल) अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। पउ(त्त)लहि स्त्री० (प्रतोत्रयष्टि) प्राजनकदण्डे, दशा० 10 अ०। पउलण न० (प्रचोटन) पचनविशेषे, प्रश्न०१ आश्रद्वार। पउलिअ त्रि० (पक्व ) दग्धे, पुलुट्ठयं "पउलिअंदव। पाइ० ना० 200 गाथा। पउस्संत त्रि० (प्रद्विषत्) प्रद्वेषमुपयाति, प्रतिका पऊद न० देशी गृहे, दे०ना० 6 वर्ग 4 गाथा। पएस पुं० (प्रदेश) प्रकृष्टों देशः / उत्त० 4 अ०। निर्विभागे भागे, अनु०। आ०म० ! स्था० / विशेष धर्माधर्माऽऽकाशजीवपुद्गलानां निरवयवे (स्था० 3 ठा०२ उ०) निरंशे धर्माऽधर्माऽऽकाशजीवानां देशेऽवयवविशेषे, स्था०१ ठा०। विशेला जी० आ०म०ा निरशावयव परिमाणे, स०५अङ्ग। प्रमितपरिमाणे, स०। लघुतरभागे, भ०६ 2033 उ०। जनपदैकदेशे, स्था०३ ठा०३ उ० / कणिकाऽऽदिरूपे, (कर्म०१ कर्म०) दलसंचये, कर्म०५ कर्म० ज०। जीवाना सप्रदेशत्वाप्रदेशत्वम-- जीवे णं मंते ! कालादेसेणं किं सपएसे, अपएसे ? गोयमा ! नियमा सपएसे / नेरइए णं भंते ! कालादेसेणं किं सपएसे, अपएसे ? गोयमा! सिय सपएसे, सिय अपएसे, एवं०जाव सिद्धे। जीवा णं मंते ! कालादेसेणं किं सपएसा, अपएसा ? गोयमा ! नियमा सपएसा। नेरइया णं भंते ! कालादेसेणं किं सपएसा, अपएसा ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज सपएसा / अहवासपएसाय, अपएसेय / अहवासपएसा य, अपएसा य / एवं०जाव थणियकुमारा / पुढविकाइया णं भंते ! किं सपएसा, अपएसा ? गोयमा ! सपएसा वि, अपएसा वि / एवं.जाव वणस्सइकाइया, सेसा जहा नेरइया तहा सिद्धा, आहारगाणं जीवेगिंदियवजो तियभंगो, अणाहारगाणं जीवेगिंदियवज्जा छन्भंगा एवं भाणियव्वासपएसा वा 1, अपएसा वा 2 / अहवा सपएसे य, अपएसे य३ / अहवा सपएसे य, अपएसा य 4 / अहवा- सपएसा य, अपएसे य 5 / अहवा- सपएसा य, अपएसा य 6 / सिद्धेहिं तियभंगोभवसिद्धी य, अभव सिद्धी य,जहा ओहिया, नोभवसिद्धीय, नोअभवसिद्धीय जीवसिद्धेहिं तियभंगो, सन्नीहिं जीवादिओ तियमंगो, असन्निएहिं एगिदियवजो तियभंगो, नेरइयदेवमणुएहिं छब्भंगो, नोसन्निनोअसन्नि जीवे मणुयसिद्धेहिं तियभंगो, सलेसे जहा ओहिया कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा जहा आहारओ, णवरं जस्स अस्थियाओ तेउलेस्साए जीवाइओ तियभंगो, णदरं पुढविकाइएसु आउवणप्फईसु छन्भंगा, पम्हलेस्से सुकलेस्साए जीवाइओ तियभंगो, अलेस्सेहिं जीवसिद्धेहिं तियभंगो, मणुएसु छन्भंगा, सम्मट्ठिीहिं जीवादिओ तियमंगो, विगलिंदिएसु छडभंगा, मिच्छादिट्ठीहिं एगिदियवजो तियभंगो, सम्मामिच्छदिट्ठी,हिं छडभंगा, संजएहिं जीवादिओ तियभंगो, असंजएहिं एगिदियवञ्जो तियभंगो, संजयासंजएहिं जीवादिओ तियभंगो, नोसंजयनोअसंजयनोसंजयासंजयजीवसिद्धेहिं तियभंगो, सकसाइएहिं जीवादिओ तियभंगो, एगिदिएसु अंभगयं, कोहकसाईहिं जीवेगिंदियवञ्जो तियभंगो, देवेहिं छन्भंगा, माणकसाईमाइकसाईहिं जीवेगिंदियवो तियभंगो, नेरइयदेवेहिं छब्मंगा लोहकसाईहिं जीवेगिंदियवञ्जो तियभंगो, नेरइएसु छडभंगा, अकसाईजीवमणुएहिं सिद्धेहि तियभंगो, ओहियणाणे आमिणिबोहियणाणे सुयनाणे जीवादिओ तियभंगो, विगलिं दिएहिं छब्भंगा, ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे जीवादिओ तियभंगो, ओहिए अण्णाणे मतिअण्णाणे सुयअण्णाणे एगिदियवजो तियभंगो, विभंगणाणे जीवादिओं तियभंगो, सजोई जहा ओहिओ मणजोगिवइजोगिकायजोगिजीवादिओ तियमंगो, णवरं कायजोगी एगिदिया, तेसु अभंगकं. अजोगी जहा अ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएस 23 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएस लेसा, सागारोवउत्तअणागारोवउत्तेहिं जीवे गिं दियवज्जो तियभंगो,सवेयगा जहा सकसाई इत्थीवेयगपुरिसवेयगनपुंसगवेयगेसु जीवादिओ तियभंगो, णवरं नपुंसगवेदे एगिदिएसु अभंगयं, अवेयगा जहा अकसाई, ससरीरी जहा ओहिओ, ओरालियवेउटिवयसरीराणं जीवेगिं दियवज्जो तियभंगो, आहारगसरीरे जीवमणुएसु छन्भंगा, तेयगकम्मगाई जहा ओहिया, असरीरेहिं जीवसिद्धेहिं तियभंगो, आहारपज्जत्तीए सरीरपञ्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए आणापाणपज्जत्तीएजीवेगिदियवज्जो तियभंगो, भासामणपज्जत्ती जहा सन्नी, आहारअपज्जत्ती जहा अगाहारगा, सरीरअपजत्तीए इंदियअपज्जत्तीए आणापाणअपजत्तीए जीवे एगिदियवजो तियभंगो, नेरइयदेवमणुएहिं छन्भंगा, भासामण-अपज्जत्तीए जीवादिओ तियभंगो, णेरइयदेवमणुएहिं छन्भंगा। "सपएसाहारगभवियसयण्णिलेसदिविसंजयकसाए।नाणे जोगुवओगे, वेए यसरीरपज्जत्ती॥१॥" जीद णमित्यादि) (कालादेसेणं ति) कालप्रकारेण, कालमाश्रित्येत्यर्थः। (सपएस ति) सविभागः। (नियमा सपएसे ति) अनादित्वेन जीवस्यानन्त स्मयस्थितिकत्वात्सप्रदेशता, यो ह्येकसमयस्थितिः सोऽप्रदेशः / व्यादिसमयस्थितिस्तु सप्रदेशः। इह चानया गाथया भावना कार्या'जो जस्त पढमसमए, वट्टइ भावस्स सो उ अपएसो। अण्णम्मि वट्टमाणो, कालाएसेण सपएसो।।१।।''नारकस्तु यः प्रथमसमयोत्पन्नः सोऽप्रदेशो. द्वयादिसमयोत्पन्नः पुनः सप्रदेशः। अत उक्तम्- 'सिय सपएर सिब अपएसे।'' एष तावदेकत्वेन जीवाऽऽदिः-सिद्धावसानःषविंशतिदण्डकः कलसप्रदेशत्वाऽऽदिना चिन्तितोऽथायमेव तथैव पृथक्त्वेन चिन्त्यते- (सव्वे वि ताव होज सपएस त्ति) उपपातविरहकालेऽसङ्ख्यातानां पूर्वोत्पन्नानां भावात्सर्वेऽपि सप्रदेशा भवेयुः, तथा पूर्वोत्पन्नेषु मध्ये यदैकाऽन्यो नारक उत्पद्यते तदा तस्य प्रथमसमयोत्पन्नत्वेनाऽप्रदेशत्वाच्छेषाणां च द्वयादिसमयोत्पन्नत्वेन सप्रदेशत्वादुच्यते-(सपएसा रा अपएसे यत्ति) एवं यदा बहव उत्पद्यमाना भवन्तितदोच्यते-(सपएसा य अपएसा यत्ति) उत्पद्यन्ते चैकदैकाऽऽदयो नारकाः। यदाह- "एगोव दो वतिन्नि वि, संखमसंखा व एगसमएणं / उववजंतेवइया, उव्वद्धृता वि एमेव // 1 // ' (पुढविकाइयाणमित्यादि) एकेन्द्रियाणां पूर्वोत्पन्नानामुत्पधमानानां च बहूनां सम्भवात् "सपएसा वि अपएसा वि'' इत्युच्यते। (सेसा जहा णेरड्या इत्यादि) यथा नारका अभिलापत्रयेणोक्तास्तथा शेण द्वीन्द्रियाऽऽदयः सिद्धावसाना वाच्याः, सर्वेषामेषां विरहसम्भवादेकाऽऽद्युत्पत्तेश्चेति, एवमाहारकानाहारकशब्दविशेषितावेतावेबकत्वपृथक्त्वदण्डकावध्येयौ / अध्ययनक्रमश्चायम्- "आहारए ण भते ! जीचे कालाएसेणं किं सपएसे, अपएसे? गोयमा ! सिय सपएसे, सिय अपएसे।'' इत्यादि स्वधिया वाच्यः। तत्र यदा विग्रहे, केवलिसमुद्धाते वा अनाहारको भूत्वा पुनराहारकत्व प्रतिपद्यते, तदा तत्प्रथमसमयेऽप्रदेशो, द्वितीयाऽऽदिषु तुसप्रदेश इत्यत उच्यते-(सिय सपएसे. सिय अपएसे ति) एवमेकत्वे सर्वेष्वपि सादिभावेषु; अनादिभावेषु तु"नियमा सपएसे'' इति वाच्यम्। पृथक्त्वदण्डके त्वेवमभिलापो दृश्यः "आहारया णं भंते! जीवा कालाएसेणं तु नियमा सपएसे '' इति वाच्यम्। पृथक्त्वदण्डके त्वेवमभिलापो दृश्यः-"आहारया णं भंते ! जीवा कालाएरसेणं किं सपएसा, अपएसा ? गोयमा ! सपएसा वि, अपएसा वि' इति / तत्र बहूनामाहारकत्वेनावस्थितानां भावात्सप्रदेशत्वम्, तथा बहूनां विग्रहगतेरनन्तरं प्रथमसमये आहारकत्वसम्भवादप्रदेशत्वमप्याहारकाणां लभ्यत इति सप्रदेशा अपि अप्रदेशा अपीत्युक्तम् / एव पृथिव्यादयोऽप्यध्येयाः / नारकाऽऽदयः पुनर्विकल्पत्रयेण वाच्याः / तद्यथा 'आहारया ण भंते ! नेरइयाणं किं सपएसा, अपएसा ? गोयमा ! सव्वे विताव होज सपएसा। अहवा-सपएसा य, अपएसे य। अहवासपएसा य, अपएसा य। इति। एतदेवाऽऽह-(आहारगाणं) जीवेगिंदियवजो तियभंगो त्ति) जीवपदमेकेन्द्रियपदपञ्चकं च वर्जयित्वा त्रिकरूपो भङ्गस्त्रिकभङ्गो, भङ्ग कत्रयं वाच्यमित्यर्थः, सिद्धपदं त्विह न वाच्यं, तेषामनाहारकत्वात्, अनाहारकदण्डद्वयमप्येवमनुसरणीयम्। तत्रानाहारको विग्रहगत्यापन्नः समुद्घातगतकेवली अयोगी सिद्धो वा स्यात्स चानाहारकत्वप्रथमसमयेऽप्रदेशः, द्वितीयाऽऽदिषु तु सप्रदेशस्तेन स्यात्सप्रदेश इत्याधुच्यते / पृथक्त्वदण्डके विशेषमाह- (अणाहारगाणमित्यादि) जीवानेकेन्द्रियांश्च वर्जयन्तीति जीवैकेन्द्रियवस्तिानवर्जयित्वेत्यर्थः / जीवपदे, एकेन्द्रियपदे च- "सपएसाय, अपएसाया' इत्येवंरूप एक एव भङ्गको, बहूनां विग्रहगत्यापन्नाना सप्रदेशानामप्रदेशानां चलाभात्। नारकाऽऽदीना, द्वीन्द्रियाऽऽदीनां च स्तोकतराणामुत्पादः, तत्र चैकट्यादीनामनाहारकाणां भावात् षड्भङ्गिकासम्भवः, तत्र द्वौ बहुवचनान्तौ, अन्ये तु चत्वारः, एकवचनबहुवचनसंयोगात्, केवलैकवचनभङ्गकाविह न स्तः, पृथक्त्वस्याधिकृतत्वादिति। (सिद्धेहि ति यभंगो त्ति) सप्रदेशपदस्य बहुवचनान्तस्यैव सम्भवात्। (भवसिद्धीय अभवसिद्धी य जहा ओहिय त्ति ) अयमर्थः-औधिकदण्डकवदेषां प्रत्येक दण्डकद्वयं, तत्र च भव्योऽभव्योवाजीवो नियमात्सप्रदेशो, नारकाऽऽदिस्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा / बहवस्तु जीवाः सप्रदेशा एव, नारकाऽऽद्यास्तु विभगवन्तः, एकेन्द्रियाः पुनः प्रदेशा-श्वाप्रदेशाश्वेत्येक-भड़ा एवेति। सिद्धपदंतुन वाच्यं, सिद्धाना भव्याभव्यविशेषणानु-पपत्तेरिति। तथा - (नोभवसिद्धी य नोअभवसिद्धी यत्ति) एतद्विशेषणं जीवाऽऽदिदएडकद्वयमध्येयम्। तत्र चाभिलापः-(नो भवसिद्धी य नो अभवसिद्धी य णं भंते ! जीवे सपएसे अपएसे इत्यादि) एवं पृथक्त्वदण्डकोऽपि, केवलमिह जीवपदं सिद्धपदं चेति द्वयमेव, नारकाऽऽदिपदानां नोभव्यनोअभव्यविशेषणस्यानुपपत्तेरिति / इह च पृथक्त्वदण्डकं पूर्वोक्तं भङ्ग कत्रयमनुसतव्यम्, अतएवाऽऽह-(जीवसिद्धेहिं तियभंगो त्ति) संज्ञिषुयौ दण्डको तयेद्वितीयदण्डके जीवाऽऽदिपदेषु भगकत्रयं भवतीत्यत आह- (सन्नीहिं इत्यादि) तत्र संझिनो जीवाः कालतः सप्रदेशा भवन्ति। चिरोत्पन्नानपेक्ष्य उत्पादविरहानन्तरं चैकस्योत्पत्ती तत्प्राथम्ये सप्रदेशाचाऽप्रदेशश्चेचि स्यात् / बहूनामुत्पत्तिप्राथम्ये तु सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेति स्यात्तदेव भङ्ग त्रयमिति / एवं सर्वपदेषु केवलमेतयोर्दण्डकयोरेकेन्द्रियविक लेन्द्रियसिद्धपदानि न वाच्यानि, तेषु सज्ञिविशेषणस्यासम्वादिति / (असन्नीहिं इत्यादि) अयमर्थः- असज्ञिषु असज्ज्ञिविषये द्वितीयदण्डके Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएस 24 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएस पृथिव्यादिपदानि वर्जयित्वा भङ्गत्रयं प्रागदर्शितमेव वाच्यम्। पृथिव्यादि- वाच्यानि, असम्भवादिति। (संजएहिं इत्यादि) संयतेषु संयतशब्दाविशेपदेषु हि सप्रदेशाश्वाप्रदेशाश्च इत्येक एव, सदा बहूनामुत्पत्त्या तेषाम- षितेषु जीवाऽऽदिपदेषु त्रिकभङ्गः, संयम प्रतिपन्नाना बहूना प्रतिपद्यप्रदेशण्हुत्वस्यापि सम्भवात्। नैरयिकाऽऽदीना च व्यन्तरान्तानां संशिय- मानानां चैकाऽऽदीनां भावात्। इह च जीवपदमनुष्यपदे एव वाच्ये, अन्यत्र नामप्यसंज्ञित्वम्, असंज्ञित्वमसंज्ञिम्य उत्पादाभूतभावतयाऽवरोयम्। संयतत्वाभावादिति / असंयतद्वितीयदण्डके (असंजएहीन्यादि) तथा नैरयिकाऽऽदिष्वसंज्ञित्वस्य कादाचित्कत्येवेकत्वयहत्व सम्भवा- इहासंयतत्वं प्रतिपन्नाना बहूना संयतत्वादितिप्रतिपातेन तत्प्रतेपद्यत्वड भगा भवन्ति। ते च दर्शिता एव / एतदेवाऽऽह (नेरइयदेवमणुए मानाना चैकाऽऽदीना भावाद्भङ्ग कत्रयम् / एकेन्द्रियाणां तु पूर्वोत्तयुक्त्या इत्यादि)। ज्योतिष्कवैमानिकसिद्धास्त न वाच्याः, तेपामसंज्ञित्वा- सप्रदेशावाप्रदेशाश्वेत्येक एव भङ्ग इति / इह सिद्धपदं नाध्येयम्, ऽसम्भवात्। तथा नोसंज्ञिनोऽसंज्ञिविशेषणदण्डकयोर्द्वितीय-दण्डके असम्भवादिति। संयतासंयतबहुत्वदण्डके-(संजया-संजएहीत्यादि) इह जीवमनुजसिद्धपदेषुक्तरूप भङ्गकत्रयं भवति, तेषु बहूनामवस्थिताना देशविरति प्रतिपन्नानां बहूना संयमादसंयमाद्वा निवृत्त्य तां प्रतिपद्यढाभादुत्पद्यमानानांचेकाऽऽदीनां सम्भवादिति। एतयोशदण्डकयोर्जीव- मानानां चैकाऽऽदीनां भावाद्भङ्ग कत्रयसम्भवः / इह च जीवपद्येन्द्रियतिमनुजद्विपदान्येव भवन्ति, नारकाऽऽदिपदानां नोसंझिनो असंझीति र्यग्मनुष्यपदान्येवाध्येयानि तदन्यत्र संयतासंयतत्वस्य भावादिति / विशेषणस्याघटनादिति। सलेश्यदण्डकद्वये औधिवदण्डकतजीवनार- 'नोसंजए" इत्यादी सैव भावना, नवरमिह जीवसिद्धपदे एव वाच्ये, काऽऽदयोवाच्याः.सलेश्यताया जीवत्ववदनादित्वेन विशेषानुत्पादक- अत एवोक्तम-(जीवसिद्धेहिं तियभंगो ति) (सकसाइएहिं जीवाइओ त्वात्केवल सिद्धपदं नाधीयते. सिद्धानामलेश्यत्वादिति, कृष्णलेश्या- तियभंमो त्ति) अयमर्थः-सकषायाणां सदावस्थितत्वात्ते सप्रदेशा इत्येको नीललेश्याकापोतलेश्याश्च जीवनारकाऽऽदयः प्रत्येक दण्डकद्वयन भड़कः, तथोपशम श्रेणीतः प्रच्यवमानत्वे सकषायत्वं प्रतिपद्यमाना आहारकजीवऽऽदिवदुपयुज्य वाच्याः केवल यस्य जीवनारकाऽऽदेरेताः एकाऽऽदयो ल ते, ततश्च सप्रदेशश्चाप्रदेशाच, तथा सप्रदेशाचासन्ति स एव वाच्यः / एतदेवाऽऽह-(कण्ह-लेस्सेत्यादि) एताश्च ऽप्रदेशाश्चेत्रापरभाइकद्वयमिति,नारकाऽऽदिषु तु प्रतीयमेव भङ्गस्वयमा ज्योतिष्क-वैमानिकानां न भवन्ति, सिद्धानां तु सर्वा न गवन्तीति (एगिदिएसु अभमय त्ति) भङ्गकानामभावोऽभङ्गक, सप्रदेशाश्चाप्रदेशातेजोलेश्याद्वितीयदण्डके जीवाऽऽदिपदेषुत एव त्रयो भङ्गाः, पृथिव्यम्यु- श्वेत्येक एवं विकल्प इत्यर्थः, बनामवस्थितानामुत्पद्यमानानां च तेषु वनस्पतिषु पुनः षड्भगाः, यत एतेषु तेजोलेश्या एकाऽऽदयो देवाः लाभादिति / इह च सिद्धपदं नाध्येयम्, अकवायित्वात्। एवं क्रोधाऽ5पूर्वोत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च लभ्यन्त इति सप्रदेशानामप्रदेशानां चैकत्वबहु- दिदण्डकेष्वपि-(को हकसाईहिं जीवे गिदियवाओ तियभगे त्ति) त्वसभव इति। एतदेवाऽऽह-(तेउलेस्सा इत्यादि)। इह वारकतजोवा- अयमर्थः- क्रोधकषायिद्वितीयदण्डकेजीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेयुविकलेन्द्रियसिद्धपदानि न वाच्यानि, तेजोलेश्याया अभावादिति / शाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव भङ्गः / शेषेषु तु त्रयः / ननु सकषायिजीवपद्यलेश्याशुक्ललेश्ययोर्द्वितीयदण्डके जीवाऽऽदिषु पदेषु त एव त्रयो पदवर कथमिह भड़कत्रय व लभ्यते ? उच्यते-इह मानमायालोभेभ्यो भङ्गकाः। एतदेवाऽऽह-(पम्हलेसेत्यादि) इह च पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्य- निवृत्ताः क्रोधं प्रतिपद्यमाना लहव एव लभ्यन्ते, प्रत्येकं तदाशीनामवैमानिकपदान्येव वाच्यानि, अन्येष्वनयोरभावादिति / अलेश्यदण्ड- नन्तत्वान्न त्वेकाऽऽदयो,यथो-पशमश्रेणीतः प्रच्यवमानाःसकषायित्वकयोर्जी वमनुष्यसिद्धपदान्येवोच्यन्ते, अन्येषामलेश्यत्वस्याऽसम्भवात्। प्रतिवत्तार इति। (देवदि छन्भंग त्ति) देवपदेषु प्रचोदशस्वपि षड्भङ्गाः तत्र य जीवसिद्धयोभंग कत्रय तदेव, मनुष्येषु तुषड़ भड़ा: अलेश्यता- तेषु क्रोधोदयवतामल्पत्वेनैकत्वे बहुत्वे च सप्रदेशाप्रदेशत्वयोः सम्भवाप्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चैकाऽऽदीनां मनुष्याणां सम्भवेब राप्रदश- दिति। मानकषायिमाथाकषायिद्वितीयदण्ड़े-(नेरइयदेवेहिं छठभंग त्ति) त्वेऽप्रदेशत्वे चैकतवबहुत्वसम्भवा-दिति / इदमेवाऽऽह-(अलेसेहिं नारकाणां देवानां च मध्येऽल्पा एव मानमायोदयवन्तो भदन्तीति इत्यादि) सम्यग्दृष्टिदण्डकयोः सम्यग्दर्शनप्रतिपत्ति प्रथमसमये अप्रदेश- पूर्वोक्तन्यायात् षड् भङ्गा भवन्तीति। (लोहकसाईहिं / जीयेगिंधियवजो त्वं, द्वितीयाऽऽदिषु तु सप्रदेशत्वम्। तत्र द्वितीयदण्डके जीवाऽऽदिपदेषु लियभगो त्ति) एतस्य क्रोधसूत्रवद्भावना। (नेरइएहिं छब्भंग त्ति) नारकाणां त्रयो भङ्गास्तथै। विकलेन्द्रियेषुतुषट् / यतस्तेषु सासादनसम्यग्दृष्य लोभोदयवताभल्पत्वात्पूर्वोक्ताः षड् भङ्गा भवन्तीति। आह च- "कोहे एकाऽऽदयः पूर्वोत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च लभ्यन्ते, अतः सप्रदेशत्वाप्रदेश- माणे माया, बोधव्वां सुरगणेहिँ छन्भंगा। माणे माया लोभे, नेरइएहिं पि त्वयोरे-कत्वबहुत्वसम्भव इति। एतदेवाऽऽह-(सम्मट्टिीहिं इत्यादि) छन्भंगा / / 1 / / " देवा लोभप्रचुराः, नारकाः क्रोधप्रचुरा इति। अक्षायिइहैकेन्द्रियपदानि च वाच्यानि, तेषु सम्यग्दर्शनाभावादिति / (मि- द्वितीयदण्डकेजीवमनुष्यसिद्धपदेषु भङ्गत्रयम्, अन्येषामसम्भवात् / च्छदिट्टीहिं इत्यादि) मिथ्यादृष्टिद्वितीयदण्डके जीवाऽऽदिपदेषु त्रयो एतदेवाऽऽह-(अकसाई इत्यादि) (ओहियनाणे आभिनिबोहि-यनाणे भङ्गाः, मिथ्यात्वं प्रतिपन्नाः बहवः, सम्यक्त्वभ्रंशेतत्प्रति-पद्यमानाश्चै- सुयनाणे जीवाइओ तिथभंगो त्ति) औधिकज्ञानं मत्यादिभिरविशोषित, काऽऽदयः सम्भवन्तीति कृत्वा। एकेन्द्रियपदेषु पुनः सप्रदेशाश्वाप्रदेशा- तत्र मतिश्रुतज्ञानयोश्च बहुत्वदण्डके।जीवाऽऽदिपदेषु यो भङ्गाः पूर्वोक्ता २चेत्येक एव, तेष्ववस्थितानामुत्पद्यमानानां च बहूनामेव भावादिति। भवन्ति, तत्राधिकज्ञानिमतिश्रुतज्ञानिनां सदाऽवस्थितत्वेन सप्रदेशानां इह च सिद्धा न वाच्याः, तेषां मिथ्यात्वाभावादिति। सम्यमिथ्यावृधि- भावात सप्रदेदेशा इत्येकः, तथा मिथ्याज्ञानान्मत्यादिज्ञानमात्र, बहुत्वदण्डके-(सम्मामिच्छट्टिीहिं छभंगा) अयमर्थः-सम्यग्मिथ्या- मत्यज्ञानान्मतिज्ञानं, श्रुताज्ञानाच श्रुतज्ञानं प्रतिपद्यमानानामेकादृष्टित्वं प्रतिपन्नकाः प्रतिपद्यमानाश्च एकादयोऽपि लभ्यन्त इत्यतस्तेषु 5ऽदीना लाभात्सप्रदेशाश्वाप्रदेशश्च,तथा सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेति षड् भङ्गा भवन्तीति / इह च एकेन्द्रियविकलेन्द्रियसिद्धपदानि न / द्वावित्येवं त्रयमिति। (विगलिदिएहिं छभत्ति) द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएस 25 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएस सासादन सम्यक्त्वसम्भवेनाऽऽभिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानिनामेकाऽऽदीना। स-भवात्त एव षड् भङ्गाः / इह च यथायोगं पृथिव्यादयः, सिद्धाश्च न दाच्याः, असम्भवादिति / एवमवध्यादिष्वपि भङ्ग कत्रयभावना, केवलवयधिदण्डकयोरेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः सिद्धा पूच न वाच्याः मनःपर्यापदण्डकयोस्तु जीवा मनुष्याश्च वाच्याः, केवलदण्डकयोस्तु जीवमनुष्यसिद्धा वाच्याः। अत एव वाचनान्तरे दृश्यते- "विण्णेयं जस्स ॐ अश्वि ति।' (ओहिए अण्णाणे इत्यादि) सामान्ये अज्ञाने त्यज्ञानाऽऽदिभिरविशेषिते मत्यज्ञाने श्रुताज्ञानेच जीवाऽऽदिषु त्रिभड्गी भवति। ते हि सदाऽवस्थितत्वात्सप्रदेशा इत्येकः, यदातु तदन्ये ज्ञान विमुच्यमत्यऽज्ञानाऽऽदितया परिणमन्ति, तदैकाऽऽदिसम्भवेन सप्रदेशापूचा प्रदेशाश्चेत्यादिभड्गद्वयामित्येवं भङ्ग कत्रयमिति / वृथिव्यादिषु तु सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एवेत्यत आह- (एगिंदियवज्रो तियभंगो ति) इह च त्रयेऽपि सिद्धा न वाच्याः / विभङ्गे तु जीवाऽऽदिषु मात्रयं, तद्भावना च मत्यज्ञानाऽऽदिवत्केवलमिहैकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः सिद्धाश्नवाच्या इति। (सिजोई जहा ओहियो त्ति) सयोगिजीवाऽऽविदण्डकद्रयेऽपि तथा वाच्यो यथौधिको जीवाऽऽदिः। स चैवम्-सयोगी जीदो नियमात्सदेशो, नारकाऽऽदिस्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा / बहवस्तु जीवाःरप्रदेशांएवः नारकाऽऽद्यारतु त्रिभङ्गवन्त एकेन्द्रियाः पुनस्तृतीयभङ्गा इति / इह सिद्धपदं नाध्येयम्। (मणजोई इत्यादि) मनायोगिनो योगत्रयवन्तः संज्ञिन इत्यर्थः, वाग्योगिन एकेन्द्रियवर्जाः, काययोगिनस्तु सर्वेऽप्येकेन्द्रियाऽऽदयः / एतेषु च जीवाऽऽदिषु त्रिविधो भङ्गः। तद्भावना च मनोयोग्यादीनामवस्थितत्व प्रथमः, अमनोयोगित्वाऽऽदित्यागाच ननोय गित्वाऽऽद्युत्पादेनाप्रदेशत्वलाभेऽन्यद्भङ्ग कद्वयमिति, नवरं काययो गेनो ये एकेन्द्रियास्तेष्वभङ्गक, सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चे श्रेत्येक एव भड़क इत्यर्थः / एतेषु च योगत्रयदण्डकेषु जीवाऽऽदिपदानि यथासम्भवमध्येयानि, सिद्धपदं च न वाच्यमिति / (अजोगी जहा अलेस ति) दण्डकद्वयेऽप्यलेश्यसमवक्तव्यत्वात्तेषां ततो द्वितीयदण्डकेऽयोगिषु जीदसिद्धपदयोर्भङ्ग कत्रय, मनुष्येषु च षड्भङ्गीति / (सागारेत्यादि) साकारोपयुक्केष्वनाकारोपयुक्तेषु च नारकाऽऽदिषु त्रयो भङ्गाः। जीवपदे, पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्वाप्रदेशाश्वेत्येक एव। तत्र चान्यतरोपयोगादन्यतरगमने प्रथमेतरसमयेष्वप्रदेशत्वसप्रदेशत्वे भावनीये। सिद्धाना वेकसमयोपयोगत्वेऽपि साकारस्येतरस्यचोपयोगस्यासकृत्प्राप्त्या सप्रदेशत्व, सकृत्प्राप्त्या चाप्रदेशत्वमवसेयम्। एवं चासकृदवाप्तसाकारोपांगा बहूनाश्रित्य सप्रदेशा इत्येको भङ्गः। तानेव सकृदवाप्तसाकारोपयोग चैकमाश्रित्य द्वितीयः / तथा तानेव सकृदवाप्तसाकारोपयोगाश्च बहुनधिकृत्य तृतीयः / अनाकारोपयोगे त्वसकृत्प्राप्तानाकारोपयोगानाश्रित्य प्रथमः / तानेव सकृत्प्राप्तानाकारोपयोग चैकमाश्रित्य द्वितीयः / उभयेषामप्यनेकत्वे तृतीय इति / (सवेयगा जहा सकसाइ त्ति) सवेदानामपि जीवाऽऽदिपदेषु भङ्ग कत्रयभावात्, एके न्द्रियेषु चैक भङ्ग कसद्भावात् / इह च वेदप्रतिपन्नान्बहून् श्रेणिभंश च वेद प्रतिपद्यमानकानेकादीनपेक्ष्य भङ्गत्रयं भावनीयम्। (इत्थीयेय-गेत्यादि) इह वेदानेदान्तरसंक्रान्ती प्रथमसमये प्रदेशत्वमितरेषु च सप्रदेशत्वमवगम्य भङ्गकत्रयं पूर्ववद्वाव्य, नपुंसकवेददण्डकयोस्त्वेकेन्द्रियेचेको भङ्गकः / सप्रदेशाश्वाप्रदेशाश्वेत्येवरूपः, प्रागुक्तयुक्तरेवेति। स्त्रीदण्डकपुरूषदण्डकेषु देवपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यपदान्येव, नपुंसकदण्डकयोस्तु देववर्जा-नि वाच्यानि, सिद्धपदं च सर्वेष्वपिन वाच्यमिति। (अवेयगा जहा अकसाइ त्ति) जीवमनुष्यसिद्धपदेषु भङ्ग त्रयमकर्षायिवद्वाच्यमित्यर्थः / (ससरीरी जहा ओहिओ त्ति) औधिकदण्डकवत् सशरीरिदिण्डकयोर्जीवपदे सप्रदेशतैव वाच्याऽनादित्वात्सशरीरत्वस्य, नारकाऽऽदिषु तु बहुत्वे भगकत्रयम्, एकेन्द्रियेषु तु तृतीयभङ्ग इति / (ओरालियवेउव्वियसरीराणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो त्ति) औदारिकाऽऽदिशरीरिसत्त्वेषु जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च बहुत्वे तृतीयभङ्ग एव, बहूनां प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चानुक्षणं लाभात्।शेषेषु भङ्ग कत्रयं, बहूनां तेषु प्रतिपनानां तथौदारिकवैक्रियत्यागेनौदारिक वैक्रिय च प्रतिपद्यमानानामेकाऽऽदीनां लाभात् / इहौदारिकदण्डकयोनरिका देवाश्च न वाच्याः, वैक्रियदण्डकयोस्तु पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिविकलेन्द्रिया न वाच्याः, यश्व वैक्रियदण्डके एकेन्द्रियपदे तृतीयभङ्गोऽभिधीयते, सचान्यूनानामसङ्ख्यातानां प्रतिसमयं वैक्रियकरणमाश्रित्य तथा, यद्यपि पञ्चेन्द्रियतिर्यो मनुष्याश्च वैक्रियलब्धिमन्तोऽल्पे, तथाऽपि च भगवयवचनसामर्थ्याद्वहूनां वैक्रियावस्थानसंभवः / तथैकाऽऽदीनां तत्प्रतिपद्यमानता चावस्या / (आहारगेत्यादि) आहारकशरीरे जीवमनुष्ययोः षड् भङ्ग काः पूर्वोक्ता एवाऽऽहारकशरीरिणमल्पत्वात्, शेषजीवानां तु तन्न सम्भवतीति। (तेयगेत्यादि) तैजसकार्मणशरीरे समाश्रित्य जीवाऽऽदयस्तथा वाच्या यथौधिकास्त एव, तत्र च जीवाः सप्रदेशा एव वाच्याः, अनादित्वात्तेजसाऽऽदिसंयोगस्य। नारकाऽऽदयस्तु त्रिभङ्गाः, एकेन्द्रियास्तु तृतीयभङ्गाः, एतेषु च शरीराऽऽदिदण्डकेषु सिद्धपदं नाध्येयमिति। (असरीरेत्यादि) अशरीरेषु जीवाऽऽदिषु सप्रदेशताऽऽदित्वेन वक्तव्येषु जीवसिद्धपदयोः पूर्वोक्ता त्रिभङ्गी वाच्या, अन्यत्राऽशरीरत्वस्याभावादिति / (आहारपज्जत्तीए इत्यादि) इह च जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बहूनामाहाराऽऽदिपर्याप्तीः प्रतिपन्नानां तदपर्याप्तित्यागेनाऽऽहारपर्याप्त्यादिभिः पर्याप्तिभावं गच्छतां च बहूनामेव लाभात्सप्रदेशाश्वाप्रदेशाश्वेत्येक एव भङ्गः, शेषे तु त्रयो भगा इति / (भासामणेत्यादि) इह भाषामनसोः पर्याप्तिः भाषामनःपर्याप्तिः, भाषामनः पर्याप्त्योस्तु बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वं विवक्षितं, ततश्च तया पर्याप्तका यथा संज्ञिनस्तथा सप्रदेशाऽऽदितया वाच्याः, सर्वपदेषु भङ्गत्रयमित्यर्थः / पञ्चेन्द्रियपदान्येव चेह वाच्यानि। पर्याप्तीनां चेदं स्वरूपमाहुः-येन करणेन भुक्तमाद्दारं खलं रस च कर्तुं समर्थो भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिराहारपर्याप्तिः / करणं शक्तिरिति पर्यायौ / तथा शरीरपर्यापि मयेन करणेनौदारिकवैक्रियाऽऽहारकाणां शरीराणां योग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वादारिकाऽऽदिभावेन परिणमयति तस्य करणस्य निर्वृत्तिः शरीरपर्याप्तिरिति, तथा येन करणेनैकाऽऽदीनामिन्द्रियाणां प्रायोग्यानि द्रध्याणि गृहीत्वाऽऽत्मीयान् विषयान् ज्ञातुं समर्थो भवति तस्य करणस्य निर्वृत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः, तथा येन करणेनाऽऽनप्राणप्रायोग्यानि द्रव्याण्यवलम्ब्याऽऽनप्राणतया निस्स्रष्टुसमर्थो भवति तस्य करणस्य निर्वृत्तिरानप्राणपर्याप्तिरिति, तथा येन करणेन सत्याऽऽदिभाषायाः प्रायोग्यानि द्रव्याण्यवलम्व्य चतुर्विधभाषया परिणमय्य भाषानिसर्जनसमर्थो भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिभाषापर्याप्तिः / तथा येन करणेन चतुर्विध Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएस 26 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएस मनोयोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा मननसमर्थो भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिर्मनः पर्याप्तिरिति / (आहरअपज्जत्तीत्यादि) इह जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशा अप्रदेशाश्वेत्येक एव भङ्गकोऽनवरतं विग्रहगतिमतामाहारपर्याप्तिमतां बहूनां लाभात्, शेषेषु च षड् भङ्गाः पूर्वोक्ता एवाऽऽहारपर्याप्तिमतामल्पत्वात् / (सरीर-अपज्जत्तीए इत्यादि) इह जीवेष्वेकेन्द्रियेषु चैक एव भङ्गोऽन्यत्र तु त्रयं शरीराऽऽद्यपर्याप्तकानां कालतः सप्रदेशानां सदैव लाभादप्रदेशानां कदाचिदेकाऽऽदीनां ध लाभात नारकदेवमनुष्येषु च षडेवेति / (भासेत्यादि) भाषामनोऽपर्याप्त्याऽप्तिकास्तेयेषां जातितो भाषामनोयोग्यत्वे सति तदसिद्धिः, ते च पञ्चन्द्रिया एव, यदि पुनर्भाषामनसोरभावमात्रेण तदपर्याप्तका अभविष्यस्तदैकेन्द्रिया अपि तेऽभविष्यस्ततश्च जीवपदे तृतीय एव भङ्गः स्यात्। उच्यते च-(जीवाइओ तियभगो त्ति) तत्र जीवेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यक्ष च बहूनां तदपर्याप्तिप्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चैकाऽऽदीनां लाभात्पूर्वोक्तमेव भङ्गत्रयम्। (नेरइयदेवमणुएहिं छब्भंग त्ति) नैरयिकाऽऽदिषु मनोऽपर्याप्तकानामल्पतरत्वेन सप्रदेशाप्रदेशानामेकाऽऽदीना लाभात्त एव षड्भङ्गाः / एषु च पर्याप्त्यपर्याप्तिदण्डकेषु सिद्धपद नाध्येयमसम्भवादिति। पूर्वोक्तद्वाराणां संग्रहगाथा- (सपएसेत्यादि)। (सपएस त्ति) कालतो जीवाः सप्रदेशाः, इतरे च एकत्वबहुत्वाभ्यामुक्ताः / (आहारग त्ति) आहारका अनाहारकाश्च तथैव / (भविय ति) भव्या अभव्या उभयनिषेधाश्च तथैव। (सन्नित्ति) संज्ञिनोऽसंज्ञिनो द्वयनिषेधवन्तश्च तथैव। (लेस त्ति) सलेश्याः कृष्णाऽऽदिलेश्या अलेश्याश्च तथैव / (दिट्टि त्ति) दृग दृष्टिः सम्यग्दृष्ट्यादिकान् तद्वन्तस्तथैव / (संजय ति) संयता असंयताः मिश्रास्त्रयनिषेधिनश्च तथैव। (कसाय त्ति) कषायिणः क्रोधाऽऽदिमन्तः, अकषायाश्च तथैव / (नाण त्ति) ज्ञानिन आभिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानिनः 5, अज्ञानिनो मत्यज्ञानाऽऽदिमन्तश्च तथैव। (जोग त्ति) सयोगा मनआदियोगिनोऽयोगिनश्च तथैव। (उवओगे त्ति) साकाराऽनाकारोपयोगास्तथैव। (वेद त्ति) सवेदाः स्त्रीवेदाऽऽदिमन्तः 3, अवेदाश्चतथैव। (सरारीर त्ति) सशरीरा औदारिकाऽऽदिमन्तः 5, अशरीराश्च तथैव / (पज्जति त्ति) आहाराऽऽदिपर्याप्तिमन्तः 5, तदपर्याप्तकाश्च तथैवोक्ता इति / भ० 6 श०४ उ०। लोकाऽऽकाशप्रदेशाः - केवइया णं भंते ! लोयागासप्पएसा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा लोयागासप्पएसा पण्णत्ता। एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स केवइया जीवप्पएसा पण्णत्ता ? गोयमा ! जावइया लोयागासप्पएसा एवमेगस्स णं जीवस्स एवइया जीवप्पएसा पग्णत्ता। (केवइया णमित्यादि) असंखेज्ज त्ति) यस्मादसङ्ख्येयप्रदेशिको लोकस्तस्मात्तस्य प्रदेशा असङ्खयेया एवेति। प्रदेशाधिकारादेवेदमाह - (एगभगस्सेत्यादि) एकैकस्य जीवस्य तावन्तः प्रदेशायावन्तो लोकाऽऽकाशस्थय, कथम् ? यस्माजीवः केवलिसमुद्घातकाले सर्व लोकाऽऽ काशं व्याप्यावतिष्ठते, तरमालोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणास्त इति / 10 8 श०१० उ०! अलोए णं मंते ! किं जीवा एवं जहा अत्थिकायउद्देसए अलो गागासे तहेव णिरवसे सं०जाव अणंतभागणे / अहेलोयखेत्तलोयस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपदेसे किं जीवा जीवदेसा जीवप्पदेसा, अजीवा अजीवदेसा अजीवप्पदेसा? गोयमा ! णो जीवा जीवदेसा वि जीवप्पएसा वि,अजीवा वि अजीवा देसा वि अजीवप्पदेसा वि, जे जीवदेसा ते णियम एगिंदियदेसा, अहवा एगिंदियदेसा य वेइंदियस्स देसे, अहया एगिंदियस्स देसा य वेइंदियाण य देसा, एवं मज्झिदविरहिओ ०जाव अणिदिएसुजाव अहवा एगिदियदेसाय अणिंदियाण य देसा, ज जीवप्पएसा ते णियमं एगिं दियप्पदेसा, अहया एगिदियप्पएसा य वेइंदियस्स देसा, अहवा एगिंदियप्पदेसाय वेइंदियाण य पएसा, एवं आदिल्लविरहिओ०जाव पंचिंदिएसु य अणिंदिएसु य तियभंगो / जे अजीवा ते दुविहा पणणत्ता / तं जहा-रूवी अजीया य, अरूवी अजीवा य / रूवी तहेव / जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा-णो धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा / एवं धम्मत्थिकायस्स वि अद्धासमए / तिरियलोयखेत्तलोयस्स णं भंते ! एगम्मि आगासप्पदेसे किं जीवा, एवं जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स तहेव, एवं उड्डलोयखेत्तलोगस्स वि, णवरं अद्धासमओ नत्थि अरूवी चउदिबहा, लोगस्स जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि आगासप्पएसे। अलोगस्सणं भंते ! एगम्मि आगासप्पएसे पुच्छा? गोयमा। णो जीवा णो जीवदेसा तं चेव० जाव अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासस्स अणंतभागूणे, दव्वओ णं अहेलोयखेत्तलोए अणंता जीवदवा अणंता अजीवदव्या अणंता जीवाजीव दव्वा, एवं तिरियलोयखेत्तलोए वि, एवं उड्डलोयखेत्तलोए वि / दव्वओ णं अलोए णेवत्थि जीवदव्वा, णेवत्थि अजीवदव्वा, णेवत्थि जीवा जीवदव्वा,एगे अजीवदस्वदेस० जाव सव्वागासस्स अणंतभागणे / कालओ णं अहेलोयखेत्तलोए जाव ण कयायि णासि०जाव णिच्चे, एवं०जाव अलोए / भावओ णं अहेलोगखेत्तलोगे अणंता वण्णपज्जवा जहाखंदए०जाव अणंता अगुरुयलहुयपज्जवा एवं जाव लोए / भावओ णं अलोए णेवत्थि वण्णपज्जया०जाव णे वत्थि अगुरुलहुयपज्जवा एगे अजीवदवदे से जाव अणंतभागूणे // (अलोएणं भंते! इत्यादि) इदंच एवं जहेत्याद्यतिदेशादेवं दृश्यम्-"अलोए णंभंते ! किं जीवा जीवदेसाजीवप्पदेसा; अजीवा अजीवदेसा अजीवप्यएसा? गोयमा ! नो जीवाजाव नो अजीवप्पदेसा। एगे अजीवदबदेसे अगुरुयलहुए अणते हिं अगुरुयलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्यागासे अणतभागूणे ति / तत्र सर्वाऽऽकाशमनन्तभागोनमित्यस्थायमर्थ:-लोकवक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएस 27 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसाणे गया णन समस्ताः काशस्याऽनन्तभागेन न्यूनं सर्वाऽऽकाशमलोक इति / जीवप्रदेशा जीवप्रदेशा इति। यथा वीरो महावीर इति। एक एव चरमप्रदेशी (अहेलोगखेत्तलोगस्सण भंते ! एगम्मि आगासप्पएसे इत्यादि) नाजीवा जीव इत्यभ्युपगमपर जीवप्रदेशिकनिहवे, विशे० / प्रकृष्टः पुद्गलास्तिएकप्रदेशे तेष मनवगाहनात् बहूनां पुनर्जीवानां देशस्य प्रदेशस्याऽव- कायदेशः प्रदेशः। परमाणौ, अनु० / एकद्वित्र्यणुषु, अनु० / प्रतिवेश्मिके, गाहन्दुच्यते - (जीवदेसा वि जीवप्पएसा वि त्ति) यद्यपि धर्मास्ति- दे० ना०६ वर्ग 3 गाथा। कल्याऽऽधजीपद्रव्यं नैकत्राऽऽकाशप्रदेशेऽवगाहतेतथापि परमाणुद्वयणु- पएसकम्मन० (प्रदेशकर्मन्) प्रदेशा एव पुद्रला एव यस्य वेद्यन्ते त यथा काऽऽदिद्रव्यागां कालद्रव्यस्य चावगाहनादुच्यते-(अजीवावित्ति)व्य बद्धोऽसत्प्रदेशमात्रतया वेद्य कर्म प्रदेशकर्म 1 कर्मभेदे, स्था० गुकाऽऽदिस्कन्धदेशानां त्ववगाहनादुक्तम्-(अजीवदेसा वि ति) 3 ठा०३ उ०। धर्माधर्मास्तिकायप्रदेशयोः पुद्गलद्रव्यप्रदेशानां चाव-गाहनादुच्यते- पएसग्ग न० (प्रदेशाग्र) प्रदेशप्रमाणे, स्था० 4 ठा०३ उ०। अजीवप्पएमा वित्ति) (एवं मज्झिलविरहिओ त्ति) दशमशतप्रदर्शिते पएसघण त्रि० (प्रदेशधन) नीरन्भेन्द्र निविडप्रदेशे, औ०। त्रिक भद्र। ' अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा" इत्येवंरूपो पएसट्टया स्त्री०(प्रदेशार्थता) प्रकृष्टो देशः प्रदेशः निवयर्वो ऽशः स यो मध्यमभहस्तद्विरहितोऽसौ त्रिकभङ्ग एवमिति सूत्रप्रदर्शितभङ्गद्वय चासावर्थश्वति प्रदेशार्थस्तस्य भावः प्रदेशार्थता / गुणपर्यायाऽऽधारारूपाभ्येतो, मध्यमभङ्गस्येहाऽसम्भवात् / तथाहि-द्वीन्द्रियस्यैक वयवलक्षणार्थतायाम्, स्था० 1 ठा०। प्रकृष्टो निरंशो देशः प्रदेशः, स स्यकत्राऽऽकःशप्रदेशे बहवो देशा न सन्ति, देशस्येवाभावादेवम् (आइल चासावर्थश्व प्रदेशार्थस्तस्य भावः प्रदेशार्थता। परमाणुत्वे, अनु० / भ०। विरहिओ त्ति : ''अहवा-एगिदियदेसा य बेइदियस्सपएसे" इत्येवंऽऽ पएसणय न० (प्रवेशनक) उपदेशे० आ०चू०१ अ०। 'पए सणय णाम रुपाद्यभङ्गक विरहितस्त्रिकभङ्ग एवमितिसूत्रप्रदर्शितभङ्गद्वयरूपोऽ उवएसो, कइविहे ण भते! पएसणए पण्णत्ते। तंजहा।" (इति पवेसणग' ध्येटव्यः,आद्यभङ्गकस्येहाऽसम्भवात्। तथाहि- नास्त्येवेकत्राऽऽकाश शब्दे वक्ष्यते) प्रदेश केवलिसमुद्घात विनैक स्यजीवस्यैकप्रदेशसंभवोऽसंख्याता पएसणाम(ण) न० (प्रदेशनामन्) प्रदेशानामायुः कर्मद्रव्याणां नाम तथाविधा परिणतिः प्रदेशनाम प्रदेशरूपं वा नाम कर्मवि शेष इत्यर्थः / नामेव भावा दति। (अणिदिएसुवतियभंगोत्ति) अनिन्द्रियेषूक्तभङ्गकत्रय स्था०६ ठा० / प्रदेशाना प्रमितपरिमाणानामायुःकर्मदलिकानां नाम। मपि सम्भवतीति कृत्वा तेषुतद्वाच्यमिति (रूवी तहेव त्ति) स्कन्धा देशाः परिणामोदये आत्मप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानां सम्बन्धने जातिगत्यवगाहनाप्रदेशा अणववेत्यर्थः। (णो धम्मस्थिकाय त्ति) नोधर्मास्तिकाय कर्मणां प्रदेशरूपे नामकर्म णि च / स०। एकनाऽऽकाशप्रदेशे सम्भवत्यसंख्यातप्रदेशाव गाहित्वात्तस्येति / पएसणामणिहत्ताउ न०(प्रदेशनामनिधत्ताऽऽयुष) प्रदेशनामेन प्रदेश(धम्मतिथ कायस्स देसे त्ति) यद्यपि धर्मास्तिकायस्यै कत्राका नाम्ना च निधत्त आयुषि, स० भ० / स्था० / प्रदेशे प्रदेश एवास्ति तथाऽपि देशोऽवयव इत्यनर्थान्तरत्वेनाऽव पएसत्त न० (प्रदेशत्व) अविभागिपुदले. द्रव्या 11 अध्या०। यत्मात्री व विवक्षितत्वान्निरंशतायाश्च तत्र सत्या अप्यविवक्षि पएसबंध पुं० (प्रदेशबन्ध) जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामतत्वाद्धान्तिकायस्य देश इत्युक्तम्। प्रदेशस्तु निरुपचरित एवास्तीत्यत नन्तानन्तानां प्रति प्रकृतिप्रतिनियतपरिमाणानां सम्बन्धनरूपे बन्धभेदे, उच्यते- (धम्मत्थिकायस्स पदेस त्ति) (एवमहम्मत्थिकायस्स वित्ति) रा०४ सम०।कर्मपुद्गलानां पदग्रहणं स्थितिरसनिरपेक्षदलिकसंख्या"नो अहम्मत्थिकाए अहम्मत्थिकायस्स देसे अहम्मत्थिकायस्स पदेसे'' प्राधान्येनैव करोति स प्रदेशबन्ध इति। कर्म०५ कर्म०। क० प्र० / पं० इत्येवमधर्मास्तिकायसूत्र वाच्यमित्यर्थः। (अद्धासमओ नस्थि अरुवी सं० (प्रदेशवन्धस्य सर्वा वक्तव्यता 'बंध' शब्दे वक्ष्यते) चउदिह त्ति) ऊर्द्धलोके श्रद्धा समयोनास्तीत्यरूविणश्चतुर्विधा पएसय पुं० (प्रदेशक) प्रधाने प्रकृष्ट आदौ, वा देशके, विशेला "तिण्णे धानास्तिकायदेशाऽऽदय ऊर्द्धलोकस्यैकत्राऽऽकाशप्रदेशे भवन्तीति / सुगइगइगए, सिद्धिपहपएसए बंदे।" विशे०। (लोगस्स जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि आगासप्पएसे त्ति) पएससंकम पुं० (प्रदेशसंक्रम) "पउई नीया वन्नं नीता'' इति यत्कर्मअधोलोकक्षेत्रलोकस्यैकत्राऽऽकाशप्रदेशे यद्वक्तव्यं युक्तं तल्लोकस्या द्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणामेन परिणाम्यते स प्रदेशसंक्रमः। उक्तं प्यकत्राऽऽकाशप्रदेशे वाच्यमित्यर्थः। तचेदम्- "लोगस्सण भते! एगम्मि च"जं दलियमनप्पगई, निजइ सो संकमो पएसस्स।" स्था० 4 ठा०२ आगासरचएसे कि जीवपुच्छा? गोयमा! नो जीव." इत्यादि प्राग्वत। उ०प० सं०। ("सामान्यलक्षणं भेदः, साधनाऽऽदिप्ररूपणा। उत्कृष्ट(अहेलायखेत्तलोए अणंता वण्णपज्जव ति) अधोलोक-क्षेत्रलोकेऽनन्ता प्रदेशसक्रमस्वामीति प्रदेशसंक्रमस्य वक्तव्यता 'संकम शब्द वक्ष्यते) वर्णप्पय॑वाः, एकगुणकालकाऽऽदीनामनन्तगुणकालकाऽऽद्यवसा- पएससंतकम्म(ण) न० (प्रदेशसत्कर्मन्) सत्ताकर्मभेदे, क० प्र०१० नाना पुद्गलानां तत्र भावात्। अधोलोकसूत्रे (नेवत्थि अगरुयलहुयपजव प्रक०। पं०सं०। ('संतकम्म' शब्दे व्याख्या) ति)। अगुरुलधुपर्यवोपेतद्रव्याणां पुद्गलाऽऽदीनां / तप्राभावात् / भ० पएसाणंतय न० (प्रदेशानन्तक) आकाशप्रदेशानामानन्त्ये अनन्तकभेदे, 11 श० 10 उ०। प्रदेशशब्देन जीवप्रदेशानामष्टप्रकारकर्मपुद्गलैः सह स्था०१०टा०॥ संबन्धावबोधनात्, दर्श०४ तत्व। आवळा 'पएस ति" पूर्वपदलोपा- | पएसाणेगया स्त्री०(प्रदेशानेकता) बहुप्रदेशस्वभावे, द्रव्या०१२अध्या०। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 28 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) पएसि(ण) पुं० (प्रदेशिन्) स्वनामख्याते श्वेताम्बिकानगरीराजे प्राच्यभवे सूर्याभदेवे, रा०। तत्कथामहिड्डिए महज्जुतीए महाजसे महासोक्खे महाणुभागे सूरियाभे देथे। अहो णं भंते ! सूरियाभे देवे महिड्डिए० जाव महाणुभाये, सूरियाभेणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देवड्डी सा दिव्वा देवजुई / दिवे देवाणु भागे कि ण्णा लद्धे कि ण्णा पत्ते कि ण्णा अभिसमण्णागते, पुव्वभवे के आसि, किंणामए वा, किंगुत्तएणं वा कयरंसि वा गामंसि वा जाव सण्णिवेसंसि वा किं वा दचा किं वा भुचा किं वा समायरिता कस्स वा तहारूवस्स वा समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियसुवयणं सोचा णिस्सम्म तेण सूरियाभेणं देवेणं सा दिव्वा देवड्डी ०जाव देवाणुभागे अद्धे पत्ते अभिसमण्णागते? गोयमादिसमणं भगवं महावीरे भगवं गोयम त्ति आमंतेवा एवं बयासी एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे | वासे के कयद्धे णाम जणवए होत्था रिद्धिस्थिमियसमिद्धे तत्थ णं केकयद्धे जणवए सेयंबिया णाम णगरी होत्था रिद्धिस्थिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा। तीसे णं सेयंबियाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं मिगवणे णामं उज्जाणे होत्था रम्मे णंदणवणप्पगासे सव्वोउयपुप्फफ्लसमिद्धे सुहसुरभिसीयलाए छायाए सव्वतो चेव समणुबद्धे पासादीए० जाव पडिरूवे। तत्थ णं सेयंबियाए णगरीए पएसी णाम राया होत्था महंया हिमवंत जाव विहरति अधम्मिए अधमिढे अधम्मक्खाई अथम्माणुए अधम्मपलोई अधम्मपजणणे अधम्मसीलसमुयारे अधम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणे हण छिंद भिंद पवत्तएपावे कोपे चंडे रोडे खोद्दे लोहितपांणी साहसिए उक्कंचणवंचणमायाणिययडि कूड - कवडसंपओगबहुले णिस्सीले णिव्वते णिग्गुणे णिम्मेरे णिपचक्खाणपोसहोववासे बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसवाणं घाताए वहाए उच्छे यणाए अधम्मके ऊ समुट्ठिए गुरूणं णो अब्भुट्टेति णो विणयं पउंजइ, सयस्स विणं जणवयस्स णो सम्मं करं वा भरं वा वित्ति पव्वत्तेइ। तस्स णं | पदेसिस्स रणो सूरियकता णामं देवी होत्था सुकुमालपाणिपाया,धारिणीवण्णओ। पएसिणा रण्णा सद्धिं अपारत्ता जाव विहरति / तस्सणं पदेसिस्स रण्णो जेट्टे पुत्ते सूरियकंताए देवीए अत्तए सूरियकते णामं कुमारे होत्था सुकुमालपाणिपाए जाव पडिरूवे। सेणं सूरियकंते कुमारे युवराया वि होत्था। पएसिस्स रण्णो रगं च रटुं च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च पुरं च अंतेउरं च जणवयं च सयमेव पञ्चुवेक्खमाणे पञ्चुवेक्खमाणे विहरति / तस्स णं पदेसिस्स रण्णो जेट्ठभाउवयंसए चित्ते णाम सारही होत्था अड्डेजाव बहुजणस्स अपरिभूए सामभेयदंडउवप्पयाण अत्थसत्थ-ईहामइविसारए उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाम् पारिणामियाए चउविहाए बुद्धीए उववेते पएसिस्स रण्णो बहुसु कजेसु य कारणेसु य कुडुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसुय णिच्छएसु य ववहारेसु आपुच्छणि पडिपुच्छणिज्जे मेढीपमाणे आधारे आलंबणे चक्खूभूए सव्वट्टाणसव्वभूमियासु लद्धपचए विदिण्णवियार रज्जधुरचिंतए यावि होत्था। तेणं कालेणं तेणं समयेणं कुणाला णामं जणवए होत्था रिद्धिस्थिमियसमिद्धे / तत्थ णं कुणालाए जणवए सावत्थी णामं णयरी होत्था रिद्धिस्थिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा। तीसे णं सावत्थीए णगरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए कोट्ठए णाम चेइए होत्था पोराणे०जाव सुरम्मे पासादीए दरिसणिज्जे / तत्थ णं सावत्थीए णयरीए पएसिस्स रण्णो अंतेवासी जियसत्तू णामं राया होत्था, महया हिमवंतजाव विहरइ तए णं पदेसी राया अण्णया कयाइं महत्थं महग्धं महरिहं निउलं रायारिंह पाहुर्ड सुज्जावेइ सज्जावेइत्ता चित्तं सारहिं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-गच्छइ णं तुमं चित्ता ! सावत्थिं णगरिं, जियसत्तुस्स रण्णो इमं महर्थ जाव पाहुडं उवणेहि। जाइंतत्थ रायकजाणि यरायणिउत्ते य रायववहारे य ताई जियसत्तुणा सद्धिं सयमेव पचुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहराहि त्ति कट्ट विसञ्जिते / तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ०जाव पडिसुणित्ता तं महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ, पएसिस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सेयंविं णगरिं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव पाहुडं ठवेइ, कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सअत्थंजाव चाउग्घंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव पच्चप्पिणह / तते णं ते कोडुबियपुरिसा चित्तसारहिस्स एयमढे विणएणं पडिसुणे ति, पडिसुणेइत्ता हट्टतुट्ठ ०जाव हियया खिप्पामेव सअत्थं जाव जुद्धसजं चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवठ्ठये ति, तमाणत्तियं पच्चपिणंति। ततेणं से चित्ते सारही कोडुवियपुरिसेणं अंतिए एवमट्ठ सोचाणिसम्म हद्वतुट्ठ०जाव हियए हाए कयबलिकम्मे कयकोउय मंगलपायच्छिते संणद्धवद्धवम्मियकवयउप्पीलियसरास Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 26 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) णपट्टए पिणद्धगेविजविमलवरचिन्धपट्टेगहियाउहपहरणे महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ, गिण्हइत्ता जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहति, बहूहिं पुरिसेहिं सण्णद्ध जाव गहियाउह पहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे सकोरंटमलदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडगरहपहकरवंदपरिक्खित्ते सयातो गिहातो णिग्गच्छति, सेयंबियाए णगरीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता सुहेहिं वासेहिं पायरासएहिं णाइविकडेहिं अंतरावासेहिं बसमाणे केययऽद्धस्स जणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव कुणाला णाम जणवए जेणेव सावत्थी णगरी तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागंच्छित्ता सावत्थीए णगरीए मज्झं मझेणं अणुपविसति, जेणेव जियसत्तुस्स रण्णो गिहे जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता रहं ठवेति, रहं ठवेइत्ता रहातो पच्चोरुभति तं महत्थं जावपाहुडं गिण्हेइ, जेणेव अभिंतरिया उवट्ठाणसाला जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता जियसत्तुरायं करयलपरिग्गहियं जाय कट्ट जएणं विजएणं बद्धावेइ वद्धावेइत्ता तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेति / तते णं से जियसत्तू राया चित्तस्य सारहिस्स तं महत्थं जाव पाहुडं पडिच्छइ, चित्तं सारहिं सक्कारेति, सम्माणेति, पडिविसज्जेइ, रायमग्गमोगाढं आवासं दलयति / तते णं से चित्ते सारही विसज्जिए समाणे जियसत्तुस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्धंटे आसरहं दुरूइति, दुरूहत्ता सावत्थीए णयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेति, ठवेइत्ता रहातो पच्चोरुभति, पहाए कयबलिकम्मे कायकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइं मंगलाइंवत्थाई पवरपरिहिते अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे जिमियभुत्तुरागए यि य णं समाणे पुव्वावरण्ह कालसमयंसि गंधव्वेहिं णाडएहिं उवनचिजमाणे उवगाइजमाणे उवलालिज्जमाणे इठे सद्दफ रिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पचणुब्भवमाणे विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिजे * केसी णामं कु मारसमणे जाइसंपण्णे कुलसंपण्णे बलसंपण्णे रूवसंपण्णे विणयसंपण्णे झाणसंपण्णे दंसणसंपण्णे चरित्तसंपण्णे लज्जासंपण्णे लाघवसंपण्णे ओयंसी तेयंसी वचंसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोभे जियणिद्वे जितिदिए जियपरीसहे जीविया समरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे करणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे णिग्गहप्पहाणे णिच्छयप्पहाणे अज्जवप्पहाणे मद्दवप्पहाणे लाघवप्पहाणे संतिप्पहाणे मुत्तिप्पहाणे विज्ञप्पहाणे मंतप्पहाणे बंभप्पहाणे वेदप्पहाणे णयप्पहाणे णिगम्प्पहाणे सचप्पहाणे (मोयप्पहाणे) सोयप्पहाणे नाणप्पहाणे दंसणप्पहाणे चारित्तप्पहाणे चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगए पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव सावत्थी णगरी जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सावत्थीए णगरीए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। तएणं सावत्थीए णगरीए सिंघाडगतियचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहेसु महया जणसद्देइ वाजणकलकलेइ वा जाव परिसा पजुवासति। तते णं तस्स चित्तसारहिस्स महाजणसदं च जणकलकलंच सुणेत्ता पासेत्ता इमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्या-किं णं अज्ज सावत्थीएणयरीए इंदमहेइवा खंदमहेइ वा एवं रुद्दमहेइ वा मउंदमहेइ वा वेसमणमहेइ वा णागमहेइ वा भूयमहेइ वा जक्खमहेइ वा थूभमहेइ वा चेइयमहेइ वा रुक्खमहेइ वा गिरिमहेइ वा दरिमहेइ वा अवडमहेइ वा णदीमहेइ वा सागरमहेइ वा जेण इमे बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा राइण्णा खत्तिया इक्खागुकारव ०जाव इन्भा इन्भपुत्ता ण्हाया कयवलिकम्मा जहोववाइए तहेव अप्पेगइया हयगया जाव अप्पेगइया पादचारविहारेणं महया वंदा वंदएहि णिग्गच्छंति, एवं संपेहेइ, संपेहेइत्ता कंघुइपुरिसं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-किं णं देवाणुप्पिया ! अज्ज सावत्थीए णयरीए इंदमहेइ वा० जाव सागरमहेइ वा जेणं इमे बहवे उग्गा० णिग्गच्छंति? तते णं से कंचइपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्स आगमणोगहियं विणच्छियंति चित्तं सारहिं करयलपरिग्गहियं जाव बद्धावेत्ता एवं बयासीणो खलु देवाणु प्पिया ! अज्ज सावत्थीए णगरीए इंद महेइ वा जाव सागरमहेइ वा, जे णं इमे बहवे जाव वंदा वंदएहिं णिग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया! पासावचिजे के सी णामं कुमारसमणे जातिसंपण्णे जाव दूइज्जमाणे इहमागते०जाव विहरइ। तेणं अज्ज सावत्थीए बहवे उग्गा जाव इन्भा इन्भपुत्ता अप्पेगइया वंदणवत्तियाए जाव महया वंदा वंदएहिं णिग्गच्छति। तते णं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ ०जाव हियए कोडुं बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावे इत्ता एवं बयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 30- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) उवट्ठवेह जाव सत्थओ जाव उवठ्ठवेति। तते णं से चित्ते सारही पहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिते अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहति, दुरूहइत्ता सकोरिंटमल्ला दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भडचडगरहपहगरवंदपरिखित्ते सावत्थीएणयरीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता केसिस्स कुमारस्स समणस्स अदूरसामंते तुरए णिगिण्हति, रहं ठवेति, रहाओ पचोरुहति, जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता के सिं कुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदति, णमंसति, णमंसइत्ता णचासपणे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पञ्जुवासेइ / तते णं के सी कुमारसमणे चित्तस्स सारहिस्सतीसे महतिमहालयाए महचाए पारिसाए चाउज्जामं धर्म कहेइ / तं जहा-सव्वाओ पाणाइ वायाओ वेरमणं, सवाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणट्ठाणा ओ वेरमणं। तते णं सा महतिमहालया महच्चपरिसा केसिकुमारस्स समणस्स अंतिए धम्मं सोचा हट्ठतुट्ठ० जाव हियया वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। तते णं से चित्ते सारही के सिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्मं सोचा (णिसम्म हट्ठतुट्ठ ०जाव हियए उठाए उडेति, केसिं कुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदइ, णमंसति, णमंसित्ता एवं बयासी-सदहामि णं भंते ! णिग्गंथे पावयणे, पत्तियामिणं भंते ! णिग्गंथे पावयणे, रोएमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं अब्भुडेमि णं भंते ! एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! सव्वेणं एसमढे, से जहा तुब्भे वयह त्ति कट्टवंदई, णमंसति,एवं बयासी-जहाणं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव इब्भा इब्भपुत्ता चिचा हिरणं चिया सुवण्णं एवं धणधण्ण-बलवाहणकोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं चिचा विउलं धणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्प वालं संतसारसावतेयं विच्छडुइत्ता विगोवइत्ता दाणं दाइत्ता परिभाइत्ता मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वयंति, णो खलु अहं तहा संचाएमि चिचा हिरण्णं तं चेव जाव पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबधं करेहा तते णं से चित्ते सारही केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरति / तते णं चित्ते सारही के सिकुमारसमणस्स णं वंदति, णमंसति, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थगमणाए चाउरघंट आसरहं दुरूहति, जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए तिणं से चित्ते सारही समणोवासाए जाते अहिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्णपावे आसवसंवरणिज्जरणकिरियाहिगरणवंधमोक्खकुसले असाहेजे देवासुरणागजक्खरक्खसकिण्णरकिंपुरिसगरुलगंधव्यमहोरगाइएहिं देवगणेहिं णिग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जे णिग्गंथे पावयणे णिस्सं किए णिकं खिए णिव्वितिगिच्छे लढे गहियटे अहिगयढे पुच्छियटे विणिच्छियढे अट्ठिमिंजिपेम्माणुरागरत्ते अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अढे अयं परमहे, सेसे अणटे, चाउद्देसट्टमुट्ठिपुण्णिमासिणीसु पडिपुण्णपोसह सम्म अणुपालेमाणे ऊसियफलिहे अवगयदुवारे चियत्तंतेउरपरघरप्पवेसे समणे णिग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पीढफलगसेज्जासंथारएणं वत्थपडिग्गहकं बलपायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेण य पडिलाभेपाणे पडिलाभेमाणे बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपो सहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणे जाइं तत्थ रायकजाणि य जाव रायववहारे वि जियसत्तुणा सद्धिं सयमेव पचुवेक्खमाणे विहराते / तते णं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ महत्थंजाव पाहुडं सजेइ० चित्तंसारहिं सद्दावेइसद्दावेइत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुमं चित्ता सेयंवियं णगरिं पएसिस्स रण्णो इमं महत्थं जाव पाहुडं उवणेहि, मम पाउग्गहणं जहा भणियमवितहम-संदिद्धं दयणं विण्णवेहि त्ति कट्ट विसज्जिए / तते णं से चित्ते सारही जियसत्तुणा रण्णा विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाव गिण्हइ, जियसत्तुस्स रण्णो अंतियाओपडिणिक्खमति, सावत्थीएणगरीए मज्झं मज्झेण जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तं महत्थं जाव ठवेइ, हाए जाव सरीरे सकोरिंटछत्तेणं पायचारविहारेणं महया पुरिसपरि-सपरिक्खित्ते रायमग्गमोगाढाओ आवासाओ णिग्गच्छइ, जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, केसीकुमारसमणस्स अंतिए धम्मं सोचा जाव उठाए उठ्ठिए जाव एवं बयासी-एवं खलु अहं भंते ! जियसत्तुणा रण्णा पएसिस्स रण्णो इमं महत्थं जाव उवणेहि त्ति कट्ट विसजिए। तं गच्छामिणं अहं भंते! सेयंबियं गरिं, पासादी णं भंते ! सेयंबिया णगरी, एवं दरसणिज्जा णं Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 31 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) भंते ! सेयंविया णगरी, अभिरूवा णं भंते ! सेयंविया णगरी, समोसरह णं भंते ! तुब्भे सेयंवियं णगरिं / तते णं केसी कुमारसमणे चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ते समाणे चित्तस्स सारहिस्स एयमढे णो आढाति, णो परिजाणाति, तुसिणीए संचिट्ठति। तते णं से चित्ते सारही केसिं कुमारसमणं दोच्च पि एवं बयासी- एवं खलु अहं भंते! जियसत्तुणा पएसिस्स रण्णो इमं महत्थं जाव विसजिए, तं चेव०जाव समोसरह भंते ! तुब्भे सेयंबियं णगरिं! तएणं केसी कुमारसमणे चित्तेणं सारहिणा दोच्चं पि तच्चं पि एवं वृत्त समाणे चित्तं सारहिं एवं बयासीचित्ता! से जहाणामए वणसंडे सिया किण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे, से नूणं चित्ता ! वणसंडे, तेसिं बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसिवाणं अभिगमणिजे ? हंता अभिगमणिजे / तंसि च णं चित्ता ! वणसंडसि बहवे भिलुंगा णामपावसुमणा परिवसंति, जे णं तेसिं बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसिवाणं चेव मंससोणियं आहारें ति, रोणूणं चित्ता ! वणसंडे तेसिं बहूणं दुपयचउप्पयसरीसिवाणं अभिगमणि णेति (?) कम्हा? भंते ! सोवसग्गे। एवामेव चित्ता! तुज्झं पि सेयंवियाए णयरीए पदेसी णामं राया परिवसइ अधम्भिए ०जावणो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेति, णं कहं अहं चित्ता ! सेयंवियाए णयरीए समोरिस्सामि। तए णं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणं एवं बयासी-किं णं भंते ! तुभं पएसिणा कायव्वं ? अत्थि णं भंते! सेयंबियाए णगरीए अण्णे वहवे ईसरतलवर०जाव सत्थवाहप्पभितित्ता, जे णं देवाणुप्पिए! वंदिस्संति, णमंसिस्संति जाव पञ्जुवासिस्संति, विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभिस्संति, पडिहारिएणं पीढफलगसेजासंधारएणं उवणिमंतिस्संति / तते णं से केसी कुमारसमणे चित्ते सारही एवं बयासी-अचियाइं चित्ता ! | समोसरिस्सामो।तएणं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणं वंदइ, 1 णमंसइ, के सिस्स कुमारसमणस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, जेणेव सावत्थी णगरी जेणेव / रायमगमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ, कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भी देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह, जहा सेयंवियाए णगरीए | णिग्गच्छद, तहेव जाव समाणे कुणालाए जणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव के कयद्धे जणवए जेणेव संपविया णगरी जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवाकच्छइ, उवागच्छइत्ता उजाणपालए सद्दावेइ, सद्दावे इत्ता एवं बयासी-जया णं देवाणु प्पिया! पासावचिजे केसी णामं कुमारसमणं वंदिजाह, णमंसिज्जाह, | वंदित्ता णमंसित्ता अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणे जाह, अणुजाणित्ता पाडिहारिएणं पीढफलग जाव उवणिमंतिजाह, एयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणिज्जाइ। तते णं ते उज्जाणपालगे चित्तेणं सारहिणा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाब हियया करयलपरिग्गहियं जाव एवं बयासी-तह त्ति आणाए विणएणं चेव वयणं पडिसुणंति / तते णं चित्ते सारही जेणेव सेयंबिया णगरी तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छइत्ता सेयंबियाए णगरीए मज्झं मझेणं अणुपविसइ, अणुपविसइत्ता जेणेव पएसिस्स रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तुरए णिगिण्हइ, तुरए णिगिण्हित्ता रहं ठवेइ, ठवेइत्ता रहातो पच्चोरुभेइ, पचोरुभेइत्ता महत्थं जाव गिण्हइ, जेणेव पदेसी राया तेणेव उवागच्छा, उवागच्छइत्ता परसिं रायं करयल जाव बद्धावेत्ता महं जाव उवणेति। तते णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थंजावपडिच्छइ, पडिच्छइत्ता चित्तं सारहिं सकारेइ, सम्माणेइ, पडिविसजेह तए णं से चित्ते सारही पदेसिणा रण्णा विसज्जिते समाणे हट्ठतुट्ठ जाव हियए पएसिस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घटं आसरहं दुरूहति, दुरूहइत्ता सेयंबियाए णगरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गेहे तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहेइ, पहाए जाव उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसं विहवद्धएहिं णाडएहिं वरतरुणी संपउत्तेहिं उवगिज्झमाणे उवगिज्झमाणे इ8 सद्दे फरिसे जाव विहरति / तते णं केसी कुमारसमणे अण्णया कयाई पाडिहारियं पीढफ लगसेढजासंथारंग पचप्पिणे इ, सावत्थीतो कोट्ठयाओ चेतियाओ पडिणिक्खमइ, पंचहिं अणगारसएहिं० जाव विहरमाणे जेणेव के कयद्धे जणवए सेयंबिया णगरी जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तते णं सेयंवियाए णयरीए सिंघाडग ०जाव महया जणसद्देइ वा जाव परिसा णिग्गच्छइ। तते णं ते उजाणपालगे इमीसे ओसप्पिणीए लट्ठा समाणा हट्टतुट्ठ ०जाव हियए जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता के सीकु मारसमणं वंदइ, णमंसइ, अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणंति, पाडिहारिएणंजाव संथारएणं उवणिमंतेइ, णाम गोयं पुच्छंति, पुच्छइत्ता धारेंति, अण्णमण्णं एवं बयासीजस्स णं णामं देवाणुप्पिया ! चित्ते सारही दंसणं कंसइ, दंसणं पत्थेइ, दंसणं पीहेइ, दंसणं अमिलसइ, जस्स णं णामगो - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 32 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) यस्स वि सवणयाए हहतुट्ठ जाव हियए भवइ, से णं केसी कुमारसमणे पुव्वाणुपुच्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे इहेव सेयंबियाए णगरीए बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं जाव विहरइ / तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! चित्तस्स सारहिस्स एयमटुं पियं णिवेदेमो, पियं ते भवउ, अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढे पडिसुणंति, पडिसुणंतित्ता जेणेवे सेयंबिया णयरी जेणेव चित्तस्स सारहिस्स घरे जेणेव चित्ते सारही तेणेव उवागच्छइ, चित्तं सारहिं करयल जाव बद्धाति, बद्धावेइत्ता बयासीजस्स णं देवाणुप्पिया ! दंसणं कंखति जाव अभिलसति, जस्स णं णायगोयस्स वि सवणयाए हद्वतुट्ठ ०जाव भव ह, से णं अयं पासावचिजे के सी णामं कुमारसमणे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे जाव समोसढे जाव विहरति, तए णं से चित्ते सारही तेसिं उजाणपालगाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हद्वतुट्ठ जाव आसणाओ अब्भुट्टेइ, पायपीढाओ पचोरुहति, पाउयाओ मुयति, मुयइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करेइत्ता अंजलिमउलियहत्थे केसीकुमारसमणाभिमुहे सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छइत्ता करयलपरिग्गहियं एवं बयासी- णमोऽत्थु णं अरहताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं के सिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवएसिस्स, वंदामिणं भगवंतत्थ य इहगए ति कट्ट वंदति, णमंसति, उज्जाणपालए विउलेणं वत्थगधमल्लालंकारेणं सक्कारेति, सम्माणे ति, विउलेणं जीवितारिहं पीइदाणंदलयति, पडिविसजेति, कोडुबियपुरिसे सदावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवठ्ठवेह जाव पञ्चप्पिणह / तते णं ते कोडु बियपुरिसे खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं ०जाव उट्ठवेत्ता तुरए तमाणप्तियं पचप्पिणंति। से चित्ते सारही कोडुंबिय पुरिसाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियए पहाए कयवलिकम्मे० जाव सरीरे जेणेव चाउग्घंटे जाव दुरूहित्ता सकोरिट० महया भडचडकरेणं तं चेव पञ्जुवासइ, धम्मकहा जाव। तएणं से चित्ते सारही के सिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म हट्ठतुढे तहेव एवं बयासीएवं खलु भंते ! अम्हं पदेसी राया अधम्मिए जाव सइस्स वि जणवयस्स णो सम्मं करभरं पव्वत्तेति, तं जइ णं देवाणुप्पिया ! पदेसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणुत्तरं खलु होज्जा पदेसिस्स रण्णो, तेसिणं बहूण य दुपयचउप्पयमिगपसुपक्खिसरीसिवाणं, तंजइ णं देवाणुप्पिया! पदेसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणुत्तरं फलं होजा तेसि णं बहूणं समणमाहणभिक्खुयाणं, तं जइ णं देवाणुप्पिया ! पदेसिस्स बहुगुणतरं होत्था जणवयस्स।तएणं के सी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं बयासी एवं खलु चउहिं ठाणेहिं चित्ता! जीवा केवलिपण्णत्तं धम्मणोलभेजा सवणयाए, तं जहा आरामगयं वा उजाणगयं वा समणं वा माहणं वा णो अभिगच्छति, णो वंदति, णो णमंसति, णो सक्कारेति, णो संमाणेइ, णो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पि व पञ्जुवासति,णो अट्ठातिहेऊहिं पसिणाइवागरणाइं पुच्छइ, एएणं ठाणेणं चित्ता ! जीवे के वलिपण्णत्तं धम्म णो लभति सवणयाए / उवस्सयगयं समणं वा तं चेव जाव एएणं वीयहाणेणं चित्ता ! जाव केवलिपण्णत्तं धम्मं णो लभति सवणयाए। गोयरग्गगयं समणं वा० जाव णो पज्जुवासइ, णो विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेइ, णो अट्ठाइं० जावपुच्छति, एएणं विठाणेणं चित्ता। जीवे केवलिपण्णत्तं धम्म णो लभइ सवणयाए। जत्थ विणं समणेणं वा माहणेणं वा सद्धिं अभिसमण्णा गच्छइ, तत्थ विय णं हत्थेण वा वत्थेण वा अप्पाणं आवरित्ता चिट्ठइ, एएणं ठाणेणं केवलिपण्णत्तं धम्म णो लभइ सवणयाए / एएहिं चउहिं ठाणेहिं जीवे केवलिपण्णत्तं धम्मं णो लभइ / चित्ता ! चउहिं ठाणेहिं जीवे केवलिपण्णत्तं धम्म लभइ सवणयाए / तं जहाआरामगयं वा समणं वा माहणं वा वंदइ, णमंसइ, जाव पञ्जुवासति, अट्ठाइं०जाव पुच्छइ। एएणं ठाणेणं चित्ता। जाव लमति सवणयाए। एवं उवस्सयगयं गोयरग्गं यं समणं वा० जाव पछुवासंति विउलेणं० जाव पडिलाभेति अट्ठाइ० जाव पुच्छइ, एएण वि ठाणेणं जाव सवणयाए जत्थ विणं समणेणंवा माहणेणं वा अभिसमागच्छइ, तत्थ वि य णं णो हत्थेणं वा० जाव आवरेत्ता णं चिट्ठइ, एएण वि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपण्णत्तं धम्म लभइ सवणयाए। तुम्हंणं चित्ता ! पएसी राया आरामगयं वा तं चेव सव्वं भाणियव्यं आइल्लएणं गमएणं०जाव अप्पाणं आवरेत्ता गं चिट्ठति, तं कहं णु चित्ता ! पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खिस्सामो? तते णं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणं एवं बयासी- एवं खलु भंते ! अण्णया कयाइ कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उवणीया, ते मए पएसिस्स रण्णो अण्णया चेव विण्णइया तएणं खलु भंते ! कारणेणं अहं पएसिसण्णं रायं देवाणुप्पियाणं अंतियं हव्वमाणइस्सामो, तम्हा णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेजाह, वंदे णं भंते ! तुम्भे पएसिस्स रण्णो धम्माइक्खेज्जा / तते णं केसी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं बयासी- अवियाई चित्ता ! जाणिस्सामो। तते णं से चित्ते सारही केसीकुमारसमणं वंदइ, णमंसति, Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 33 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) वंदित्ता णमंसइत्ता जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छा, खलु भो निविणणाणं पजुवासंति, केसंति इमे, केस णं एस उवागच्छइत्ता चाउग्घंटं आसरहंदुरूहइ, दुरूहइत्ता जामेव दिसिं पुरिसे जडे मूढे मुंडे अपंडिते निविण्णाणे सिरीए हिरीए उवगए पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए तते णं से चित्ते सारही कल्लं उत्तप्पसरीरे ? एस णं पुरिसे किमाहारेति, किं खाइ, किंपिवति, पाउप्पभाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिल्लियम्मि अहे किं दलयति, किं पयच्छति, जेण एस पुरिसे महतिमहालियाए पंडुरे पभाए क यणियमाऽऽवस्सए सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे मणुस्सपरिसाए मज्झगते महया सद्देणं बूयाइ?, एवं संपेहेइ, तेयसा जलंते साओ गेहाओ णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता जेणेव संपेहेइत्ता चित्तं सारहिं एवं बयासी-चित्ता! जडाखलु भो जडं पएसी राया तेणेव उवागच्छति उवागच्छइत्ता पदेसिरायं करयल पजूवासंति जाव बूयाइ साए वियणं उजाणभूमीए णो संचाएमि जाव कट्ट जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेइत्ता एवं बयासी एवं सम्म पकामं पवियरित्तए / तए णं चित्ते सारही पएसिरायं एवं खलु देवाणुप्पिया ! णं कंबोएहिं चत्तारि आसाओ उवयणं | बयासी एस णं सामी! सव्वविजे केसी नाम कुमारसमणे जातिउवणीया, ते य मए देवाणुप्पियाणं णिवेइए एहि णं सामी ! | संपण्णे जाव चाउण्णाणोवगते अहोहिए अण्णजीवी। तए णं आसेआइड्डिया पासह / तएणं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं से पदेसी राया चित्तं सारहिं एवं बयासी-अहोहित्तं बयासी चित्ता!, बयासी गच्छाहि णं तुब्भे चित्ता ! तेहिं चउहिं चेव आसेहिं अण्णजीवियत्तं बयासी चित्ता? हंता! सामी! अहोहियत्तं वयामि, आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेहि, उवट्ठवेत्ता ०जाव पचप्पिणाहि।। अन्नजीवियत्तं वयामि। अभिगमणिज्जे णं चित्ता ! अ मे एस पुरिसे तते णं चित्ते सारही पएसिणा रण्णा एवं वुत्ते समाणा हट्टतुहियए हता? सामी ! अभिगमणिज्जे अभिगच्छामो णं चित्ता ! अम्हे जाव उवट्ठवेति, उवट्ठवेइत्ता एवमाणत्तियं पञ्चप्पिणति। तते णं एयं पुरिसं? हन्ता सामी ! अभिगच्छामो / तते णं से पएसी से पएसी राया चित्तस्य सारहिस्स अंतिए एयम8 सोच्चा निसम्म राया चित्तेणं सारहिणा सिद्धिं जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव हट्ठतुट्ठ जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता के सिस्स कुमारसमणस्स अदूरनिगच्छति, निग्गच्छइत्ता जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेव सामंते ठिच्चा एवं बयासीतुब्भे णं भंते! अहोहिया अन्नजीविया ? उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता चाउग्घंटे आसरहे दुरूहति, तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं बयासी-से जहानामए सेयंबियाए णगरीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छद, तते णं से चित्ते अंकवाणियाइ वा संखवाणियाइ वा दंतवाणियाइ वा सारही तं रहं अणेगाइं जोयणाई उन्भामेइ ! तते णं से पदेसी मणिवाणियाई वा सुक्कं भजेउं कामा नो सम्म पंथं पुच्छंति, राया उण्हेण य तण्हाए रहवाएणं परिकिलस्सति समाणे चित्तं / एवामेव पदेसी ! तुमं पुच्छेवि वणयं भजेउं कामे नो सम्म सारहिं एवं बयासी चित्ता! परिकिलंते मे सरीरे, तं परावत्तेहि पुच्छसि, से नूणं तव पदेसी ! मम पासित्ता अयमेयारूवे रह। तएणं से चित्ते सारही रहं परावत्तेति,जेणेव मियवणे उज्जाणे अब्भत्थिए ०जाव समुप्पजित्था-जडा भो जडं पजुवासंति तेणेव उवागच्छइ, परसिं रायं एवं बयासी एस णं सामी! मियवणे जाव पवियरित्तूणं / पदेसी ! एस अट्टे समढे? हंता अस्थि / उजाणे, एत्थ णं आसाणं समं किलामं सम्ममवणेमो। तए णं से तए णं से पदेसी राया के सी कुमारसमणं एवं बयासीपएसी राया चित्तं सारहिं एवं बयासी एवं होउ चित्ता ! तए णं से से केणं भंते ! तुम्भं णाणं वा दंसणं वा, जेणं तुन्भे मम एयारूवं चित्ते सारही जेणेव मियवणे उज्जाणे जेणेव के सिकुमारसमणस्स अब्भत्थियं 0 जाव संकप्पं समुप्पण्णं जाणह, पासह ? तते णं अदूरसामंते तेणेव उवागच्छइ, तुरए निगिण्हइ, रहं ठवेइ, से केसी कुमारसमणे परसिरायं एवं बयासी-एवं खलु पदेसी! रहातो पचोरुभइ, तुरए मोएति, मोएइत्ता पएसिं रायं एवं बयासी- अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे णाणे पण्णते।तं जहाआभिएहि णं सामी ! आसाणं समं किलामं सम्ममवणेमो। तते णं से णिबोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे, मणपजवणाणे / से किं पदेसी राया रहातो पचोरुभति, चित्तेणं सारहिणा सद्धिं आसाणं तं आमिणिबोहियणाणे ? आभिणिबोहियणाणे चउविहे पण्णत्ते। समं किलाम सम्ममवणीमाणे पासइ जत्थ केसी कुमारसमणे तं जहा- उग्गहे, इहा, अवाए, धारणा / से किं तं उग्गहे? महतिमहालियाए मणुसपरिसाए मज्झगए य महया महया सद्देणं उग्गहे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा नंदीए (नन्दीसूत्रे यथा कृता धम्ममाइक्खमाणं पासति, पासित्ता इमेयारूवे अब्मथिए तथाऽत्राणि कर्तव्या।) जाव सेत्तं धारणा। सेत्तं आभिणियोहिसंकप्पे समुप्पञ्जित्थाजडा खलु भो जडं पजुवासंति, मुंडाखलु / णाणं / से किं तं सुयनाणं? सुयनाणं दुविहं पण्णत्तं अंगपविटुं भो मुंडं पजुवासंति, मूढा खलु भो मूढं पञ्जुवासंति, अपंडिया च, अंगवाहिरं चसव्वं भाणियध्वं जाव दिहिवाओ। ओहिनाणं खलु भो अपंडियं पञ्जुवासंति, निविण्णो खलु भो निविण्णाण | से किं तं सुयं खयोवसमियं च जहा नंदीए / मणपज्जवनाणे Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 34 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- उज्जुमत्ती य विपुलमती य / तहेव कुमारसमणे पदेसीरायं एवं बयासी- अस्थि णं पदेसी ! तव केवलनाणं भाणियव्वं / एत्थ णं जे से आमिणिबोहियनाणे से सूरियकता नामा देवी? हंता अस्थि जया णं तुम्हं पदेसि तं णं मम अस्थि, एवं चेव सुयणाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे वि | सूरियकंतं देविं व्हायं कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायय, तत्थ णं जे से केवलनाणे से णं मम नत्थि। से णं अरहंताणं च्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं केणइ पुरिसेणं ण्हाएणं जाव भगवंताणं / इचेएणं पदेसी! अहं तव चउव्विहेणं छाउमत्थेणं सव्वालंकारविभूसिएणं सद्धिं इढे सद्दफ रिसरूवगंधे पंचविहे नाणेणं इमेयारूवं अब्भत्थियं जाव समुप्पन्नं जाणामि, माणुस्सए कामभोए पचणुब्भवमाणे पासिज्जासि, तस्स णं पदेसी! पासामि। तए णं पदेसी राया के सिकुमारसमणं एवं बयासी पुरिसस्स कं दंडं निव्वत्तेजेसि ? अहणं भंते ! पुरिसं हत्थच्छिअहं णं भंते ! इह उवविसामि? पदेसी ! साए उज्जाणभूमीए तुमंसि प्रणगं वा पायच्छिण्णगं वा सूलामिभग्गं वा एगाहचं कूडाहचं चेद जाणए / तते णं से पदेसी राया चित्तेणं सारहिणा सद्धि जीवियाओ ववगेवेजा। अहणं पदेसी! से पुरिसे तुमं एवं बएन्जा के सिकुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसति उवविसित्ता मा णं तुम्हे सामी ! सुमुहुत्तगं हत्थच्छिन्नगं वा० जाव जीविआओ के सिकुमारसमणं एव बयासी- तुम्भे णं भंते ! समणाणं ववरोदेहि जाव ताव अहं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणं एवं निग्गंथाणं एसा सण्णा एसा पतिण्णा एसा दिट्ठी एसा रुई एस वयामि-एवं खलु देवाणुप्पिया ! पावाई कम्माइं समायरित्ताई हेऊएस उवएसे एस संकप्पे एस तुला एस माणे एस पमाणे एस इमेयारूवं आवयं पाविज्जामि, तं मा णं देवाणुप्पिया ! तुम्भे समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं केइ पावाई कम्माइं समायरउ, मा णं से वि एवं चेव आवयं सरीरीतते ण केसी कुमारसमणे पदेसिं रायं एवं बयासी-पदेसि! पावेज्जासि य जहा णं अहं / तस्स णं तुमे पदेसी ! पुरिसस्स अम्हं समणाणं निग्गंथाणं एसा सण्णा जाव एस समोसरणेजहा खणमवि एयमढें पडिसुजासि? नो इणटे समढे कम्हा णं अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं / तते णं पदेसी भंते ! अवराहीणं से पुरिसे। एवामेव पएसी! तव अज्जए होत्था राया के सिकु मारसमणं एवं बयासी-जति णं भंते ! तुब्भे इहेव सेयंबियाए नयरीए अधम्मिए० जाव नो सम्मं करभरवितिं समणाणं निग्गंथाणं एसा सण्णा ०जाव एस समोसरणे, जहा पवत्तेति से णं अम्हं वत्तव्वयाए सुबहू० जाव उववण्णे तस्सणं अण्णो जीवो अणं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं, एवं खलु मम अजए होत्था इहेव जंबुद्दीवे दीवे स्यंबियाए नयरीए अधम्मिए अजगस्स तुमं नत्तुए होत्था इढे कंते 0 जाव पासणयाए से इच्छइ माणुस्सलोगं हव्वमागच्छति, नो चेव णं संचारएति० ०जाव समस्स वि य णं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्तिं पव्वत्तेति, से णं तुब्भं वत्तव्वयाए सुबहुपावं कम्मं कलिकलुसं हव्वमागच्छति / तते णं चउहिं ठाणेहिं पदेसी ! अहुणोववण्णे नरए ने रतिए इच्छइ माणुस्सलोगं हव्वमागच्छति तते समजिणित्ता कालमासे कालं किचा अन्नयरेसु नरएसु नेरइयत्ताए उववण्णे / तस्स णं अजगस्स अहं नत्तुए होत्था इट्टे कंते पिए अहुणोववण्णे नरए नेरइए समधूवेयणं वेयमाणे इच्छिइ माणुस्सं मणु ण्णे मणामे धिजे वेसासिए सम्मए बहुमते अणुमए लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेव णं संचाएति हव्यमागच्छित्तते, करंडगसमाणे जीविउस्सविए हिययणंदिजणणे दुंबरपुप्फंपिव अहुणो ववन्नए नरए निरतिए नगरपालगे हिं भुञ्जो भुञ्जो दुल्लभे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ? तं जइ णं से अज्जए समहिविजमाणे इच्छइ माणुमं लोग हव्दमागच्छित्तए नो घेवणं ममं आगंतु वएजाएवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जए होत्था इहेव संचाएति हव्वमागच्छित्तए अहुणोववन्नए नरएसु नेरइए निजंसि सेयंबियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्मं करभरवित्तिं कम्मंसि अक्खीणंसि अवेइयंसि अणिजिन्नंसि इच्छति माणुसं पवत्तेमि, तते णं अहं सुबहुपावं कम्मं कलिकलुसं समजिणित्ता लोगं हव्वमागच्छित्तए नो चेवणं संचाएति, एवं निरयाउयंसि जाव उववण्णे तं माणं णत्तुया ! तुम पि भवाहि अधम्मी०जाव कम्मंसि अक्खीणंसि अवेइयंसि अणिजिण्णंसि इच्छइ माणुसं नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेहि मा णं तुम वि एवं चेव सुबहुपावं लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेवणं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए। इचेहि कम्मं जाव उववजिहिसि, तं जया णं से अज्जए सम्मं आगंतु चउहिं ठाणेहिं पएसी ! अहुणोववण्णे नरएसु नेरइए इच्छइ एवं वएज्जा, तते णं अहं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा जहा अण्णो माणुमं लोगं नो चेवणं संचाएइ, हव्यमागच्छित्तए, तंसदहाहि णं जीवो अन्नं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं,जहा ण से अजए मम तुमं पदेसी ! जहा अन्नो जीवो अन्न सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं आगंतुंनो एवं बयासी, तओ सुपतिट्ठिया मे पण्णा समणाउसो! | 1 // तते णं से पदेसी राया केसीकुमारसमणं एवं बयासी अस्थि जहा तज्जीवो तं सरीरं, णो अन्नो जीवो अन्नं सरीरीतते णं केसी णं भंते ! एस पण्णत्ती उवमा इमेणं पुण कारणेणं णो उवाग Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 35 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) च्छइ। एवं खलु भंते ! मम अजिया होत्था इहेव सेयंवियानयरीए धम्मिया जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा समणोवासिया अहिगयजीवाजीवा सव्वो वण्णओ ०जाव अप्पाणं भावेमाणा विहरति। से णं तुभं वत्तव्वयाए सुबहु पुण्णोववयं समजिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ना। तीसे णं अज्जियाए अहं णत्तुए होत्था इट्टे कंते जीवपासणयाए, तं जइ णं अजिया ममं आगंतु एवं वइज्जा / एवं खलु नत्तुया ! अहं तव अज्जिया होत्था इहेव सेयंबियाए नगरीए धम्मियाजाव वित्तिं कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विहरामि, तए णं अहं पुण्णोववयं समजिणित्ता अन्नतरेसु देवलोएसु उववण्णा, तंतुमं पिणत्तुया ! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि, तओ णं तुम वि एवं चेव सुबहुपुण्णोववयं समञ्जिणित्ता० जाव देवलोएसु उववजिहिसिा तं जइणं सा अज्जिया मम आगंतु एवं वएज्जा, तो णं अहं सद्दहेजा,पत्तिएज्जा, रोएजा, जहा अन्नो जीवो अण्णं सरीरं, नो तज्जीवो तं सरीरं, जम्हा अज्जिया ममं आगंतु नो एवं बयासी-तम्हा सुपइट्ठिया मे पइण्णा जहा तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं / तए णं केसी कुमारसमणे पदेसीरायं एवं बयासी-जया णं तुम पएसी! पहायं कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं उल्लपडसाडगभिंगारं कडुच्छयहत्यगयं देवकुलमणुप्पविसमाणं के इय पुरिसे वचघरंसि ठिच्चा एवं बएजाहि ताव सामी ! इह मुहुत्तगं आसयह वा, सयह वा, चिट्ठइ वा, निसीयह वा, तुयट्टह वा, तस्स तुमं पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयभट्ट पडिणेज्जासि ? | णो इणढे समढे / कम्हा णं भंते ! असुती तं सामंतो। एवामेव पएसी ! तव वि अज्जिया होत्था इहेव सेयंबियाए नयरीए धम्पिया ०जाव विहरति / सा पं अम्हं वत्तयाए सुबहू 0 जाव उववण्णा / तीसे णं अज्जियाए तुम्हं णत्तुए होत्था इच्छति माणुसं लोगं हव्वमागच्छिए, नो चेवणं संचारएति हव्वमागच्छिए। चउहिं च णं ठाणेहिं पदे सी! अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु इच्छेञ्जा माणुसं लोगं नो चेव णं संचाएति हव्यमागच्छित्ताए, अहुणोवण्णए देवे देवलोएसुइच्छेज्जा माणुसं लोगं नो चेवणं संचाएति हव्दमागच्छित्ताए, अहुणोववण्णे देवे देवलो एसु दिव्वे हिं कामभोगे हिं मुच्छिते गढिते अज्झोववणे, से णं माणुस्सए कामभोगे नो आढाति, नो परिजाणाति, से णं इच्छिज्जा माणुमं लोग नो चेव णं संचाएति अहुणोबवसो देवे देवलोएसु दिव्वेहिं कामभोगेहिं मुच्छिते० जाव अज्झोववन्ने / तस्सणं माणुस्सए पिम्मे वोच्छिण्णे भवति, दिव्ये पिम्मे संकंते भवति, से णं इच्छेज्जा माणुसं लोग, णो | चेव णं संचाएइ अहुणोववण्णए देवे दिवेहिं कामभोगेहिं मुच्छिते० जाव अज्झोववण्णए। तस्सणं एवं भवइ इयाणगत्थि मुहुत्तेण गच्छेतेणं कालेणं इहिं अप्पाउया कालधम्मुणा संजुत्ता 'भवंति, से णं इच्छेज्जा माणुसं लोग नो चेव णं संचाएइ अहुणोववण्णए देवे दिव्येहिं जाव अज्झोववण्णए / तस्स णं माणुस्सए उराले गंधे पडिकले पडिलोमे वि य भवति उठें पि य णं जाव चत्तारि पंचजोयणसयाइं असुभे माणुस्सए गंधए अभिसमागच्छइ, से णं इच्छेज्जा माणुसं लोगं णो चेव णं सं चाइजा, इच्चेहिं चउहिं ठाणेहिं पएसी ! अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएइहव्व मागच्छित्तएतं सद्दहाहि णं तुमं पएसी। जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तञ्जीवो तं सरीरं 2 // तए णं से पएसी राया के सिकुमारसमणं एवं बयासी-अत्थिणं भंते! एसा पन्नत्ती उवमा, इमेणं पुण कारणेणं ना उवागच्छइ, एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाइ बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए बहुहिं गणनायगदंड णायगईसरतलवरमाडंबियकोडं वियइभसेट्ठिमेणावइसत्थवाहमंतिमहागंतिगणगदोवारियअमच्चपीढमद्दलनगरनिगमवूयसंधिवाले हिं सद्धिं संपरिवुडे विहरामि। ममं नगरगुत्तिया ससक्खं सहोढं सगेवेचं अवाउड बधणबद्धं चोरं उवणेति; तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतं चेव अउकुंभीए पक्खिवावेमि, अओमएणं पिहाणेणं पिहावेमि, अएण य तउएण य कयावेमि, अयपचत्तिएहिं पुरिसेहिं रक्खावे मि, तए णं अहं अन्नया कयाइजेणेव सा अओकुंभी तेणेव उवागच्छामि, तेणेव उवागच्छित्ता तं अओकुंभिं उग्गलच्छावेमि, उग्गलच्छावेत्तातं पुरिसं सयमेव पासामि, नो चेव णं तीसे अयोकुं भीए केइ छिड्डेइ वा, विवरेइ वा,राई वा / जओ णं से जीवे अंतोहिंतो बहिया निग्गए / जइ णं भंते ! तीसे अयोकुंभीए होज्जा केइ छिड्वेइ वा जाव राई वा, जओ णं से जीवे अंतोहिंतो निग्गते, तो णं अहं सद्दहैजा, पत्तिएज्जा, जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, जम्हाणं भंते ! तीसे अयोकुंभीए नस्थि केइ छिड्डेइ वा जाव निग्गए, तम्हा सुप्पतिट्ठियामे पतिन्ना जहा-तजीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं। तते णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं बयासी-से जहानामए कूडागारसाला सियादुहओलित्ता गुत्ता गुत्ताद्वारा निवायगंभीरा, अहणं केइ पुरिसे भेरि चदंडं च गहाय कू डसालं अंतो 2 अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता तीसे कू डागारसालाए सव्व ओ समंता घणनिचयनिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिधेति, पिधेइत्ता तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरि दंडेणं महया महया सद्देणं ताडेजा,से नू Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 36 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) णं पदेसी! सद्दे अंतोहिंतो बहिया निग्गच्छइ? हंता निग्गच्छइ। जाव सिप्पोवगए नवएणं धगुणा नवियाएजीवाए नवएणं उसुणा अत्थि णं पदेसी ! तीसे कूडागारसालाए केइ छिड्डे० जाव राई पभू पंचकंडयं निसरित्तए? हंता पभू / सो चेव णं पुरिसे तरुणे वा / जहा णं से सद्दे अंतो बहिया निग्गतो, एवामेव पदेसी ! जाव निउणसिप्पोवगते कोरिल्लएणं धणुणा कोरिल्लायाए जीवाए जीवे वि अप्पडिहयगती पुढविं भिचा सिलं भिच्चा पव्वयं मिच्चा कोरिल्लएणं उसुणा पभू पंचकंडगं निसरित्तए? नो इण8 समढे अंतोहिंतो बहिया निग्गच्छद, तं सद्दहाहि णं तुमं पदेसी ! जहा कम्हा णं भंते ! तस्स पुरिसस्स अपज्जत्ताइं उवगरणाई भवंति, अन्नो जीवो अन्नं शरीरं,नो तज्जीवो तं सरीरं 3 // तएणं पदेसी एवामेव पएसी ! सो चेव पुरिसे बाले० जाव मंदविण्णाणे राया केसी कुमारसमणं एवं बयासी-अस्थि णं भंते ! एसा अपज्जत्तोवगरणे नो पभू पंचकंडगं निसरित्तए, तं सद्दहाहि णं पण्णत्ती उवमा, इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ / एवं खलु तुम्हं पएसी ! जहा अन्नो जीवो तं चेव 5 / / तए णं पएसी राया भंते ! अन्नया कयाइ बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए जाव केसीकुमारसमणं एवं बयासी-अत्थिणं भंते ! एसा पन्नत्ती उवमा विहरामि / तते णं मम नगरगुत्तिया ससक्खं जाव उवणेइ, इमेण पुण कारणेणं नो उवागच्छइ। भंते ! से जहाणामए केई तते णं, अहं तं पुरिसं जीविताओ ववरोवेमि, जीवियाओ पुरिसे तरुणे ०जाव सिप्पोवगए पभू एणं महं अयभारगं वा ववरो वित्ता अयोकुं भीए पक्खिवेमि,अयोमएणं पिहाणेणं तउयभारगं वा सीसभारगं वा खारभारगं वां परिवहित्तए, जइणं पिहावेमि जाव पचइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि / तए णं अहं भंते ! सो चेव णं पुरिसे जुण्णे जज्जरियदेहे सिढिलवलित्तयाए अन्नया कयाइ जेणेव अयोकुं भी तेणे व उवागच्छामि, विणट्ठगत्तए दंडपरिगयहत्थे पविरलपरिसडियदंतसेढी आउरिए उवागच्छित्ता तं अयोकुं भिं उग्गलच्छावेमि, तं अयोकुं भिं पिवासिए दुव्वले छुहापरिकिलंते पभू एगं महं अयभारं वा० मिउसंकुलं पिव पासासि, नो चेव णं तीसे अयोकुंभीए केइ जाव परिवहित्तए, तो णं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा तहेव, जम्हा णं छिड्डे वा० जाव राई वा० जओ णं ते जीवा बहियाहिं अंतो मंते ! सो चेव पुरिसे जुणे, जाव किलंते नो पभू एणं महं अयभारं अणुपविट्ठा / जति णं तीसे अयोकुंभीए होज्जा केइ छिड्डे वा० वा० जाव परिवहित्तए, तम्हा सुपइट्ठिया मे पतिण्णा तहेव। तए जाव अणुपविट्ठा, तो णं अहं सद्दहेज्जा जहा अन्नो जीवो तं चेव, णं केसी कुमारसमणे पदेसी रायं एवं बयासी-से जहानामए जम्हा णं तीसे अयोकुं भीए नत्थि के इ छिड्डेइ वा० जाव केइ पुरिसे तरुणे ०जाव सिप्पोवगए नवियाए बहंगियाए नवएहिं अणुप्पविट्ठा तम्हा सुपतिट्ठिया मे पइण्णा जहा तज्जीवो तं सरीरं सक्खएहिं नवएहिं पच्छियापिट्ठएहिं पभू एगं महं अयभारं वा० तं चेव / तते ण केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं बयासी- जाव परिवहित्तए ? हंता पभू / पएसी! सो चेव णं पुरिसे तरुणे अस्थि णं तुम्हे पएसी राया अयं धंतं पुटवे वा, धम्मावि पुव्ये जाव सिप्पोवगए जुण्णियादुवलित्ताए यूणीए खंतियाए वा ? हन्ता अत्थि / से नूणं पएसी ! अयो धंते समाणे सव्वे बहंगिआए जुण्णएहिं थूणाखइएहिं सिढिलवयापिणढे हिं अगणिपरिणते भवति ? हंता भवति / अत्थि णं पदेसी ! तस्स सक्खएहिं जुण्णेहिं थूणाखइएहिं पच्छियापिट्टएहिं पभू एगं महं अयस्स केई छिड्डे 0 जाव राई वा, जेणं से जीवा बहियाहिंतो अयभारं वा० जाव परिवहित्तए ? नो इणढे समढे कम्हा भंते ! अंतो अणुपविटे, एवामेव पएसी ! जीवे वि अप्पडिहयगई पुढविं तस्स णं पुरिसस्स जुण्णाई उवगरणाई भवंति, एवामेव से मिचा सिलं भिया पथ्वसं भिया बहियाहिं अणुपविसइ, तं पुरिसे जुण्णे० जाव किलंते जुन्नोवगरणे णो पभू एगं महं सदहाहि णं तुम्हें पएसी ! तहेव 4 / / तए णं से पदेसी राया अयभारं वा० जाव परिवहित्तए, सद्दहाहि णं तुम्हे पएसी ! केसिकुमारसमणं एवं बयासी-अत्थि णं भंते ! एसा पन्नत्ती उवमा, जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं 6 // तए णं से पदेसी राया इमेणं पुण कारणेणं नो उवागच्छइ भंते ! से जहानामए केइ के सीकुमारं समणं एवं बयासी-अस्थि णं भंते ! जाव नो पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए पभू पंचकडगं निसरित्तए हंता वा गच्छइ एवं खलु भंते ! जाव विहरामि / तते णं मम पभू जति णं भंते ! से चेव पुरिसे बाले० जाव मंदिविन्नाणे पभू नगरगुत्तिया चोरं उवणेति / तते णं अहं तं पुरिसं जीवंतगं होजा पंचकंडगं निसरित्तए, ततो णं अहं सद्दहेजा,पत्तिएजा, | चेव तुलेइ, तुलेइत्ता छविच्छे यं अकुव्वमाणो जीविताओ जहा अण्णो जीवो तं चेव, जम्हा णं भंते ! सो चेव बाले० जाव ववरोएमि, जीविताओ ववरोविया मयं तुलेमि,तुलेइत्ता नो चेव मंदविण्णाणे नो पभू पंचकंडगं निसरित्तए, तम्हा सुपइट्ठिया में णं तस्स पुरिसस्स जीवितस्स वा तुलियस्स मयस्स वा पतिण्णा जहा तज्जीवो तं चेव सरीरं / तते णं केसी कुमारसमणे तुलियस्म नत्थि केइ अण्णत्ते वा नाणत्ते वा उम्मत्ते वा गरुयत्ते पदेसिं रायं एवं बयासीपदेसी ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे०, वा लहुयते वा। जति णं भंते ! तम्म पुरिसमस नीवितसा कातुति Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 37 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) यस्स, मयस्स वा तुलियस्स होज्जा केइ अण्णत्ते वा० जाव तं कहूँ दुहा फालियं करेइ, करेइत्ता सव्वओ समंता समभिलोलहुयत्ते वा,तो णं अहं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा, तं चेव जम्हा णं एइ नो चेव णं जोइं पासति, एवं जाव संखेज्जफलियं करेइ, भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवियस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तु करेइत्ता सव्वओ समंता समभिलोएइ, नो चेवणं जोइं पासति, लियस्स नत्थि के इ अण्णत्ते वा लहुयत्ते वा, तम्हा सुपतिट्ठिया तते णं ते पुरिसे तंसि कटुंसि दुहा फालियंसि वा० जाव संखेज्जफ मे पतिण्णा जहा तजीवो तं चेव सरीरंतएणं केसी कुमारसमणे लियंसि वा जोति अपासमाणे संते तंते परितंते निविण्णे पएसीरायं एवं बयासी-अत्थि णं पदेसी ! तुम्हे कयाइ वत्थी समाणे परसुंएगते एडेति, एडेइत्ता परियरं मुयति, मुयइत्ता एवं धंतपुव्वे वा? हंता। अत्थि णं पदेसी! तस्स वत्थिस्स पुण्णस्स बयासी-अहो मए तेसिं पुरिसाणं असणे णो साहिए ति कट्ट वा तुलियस्स अपुन्नस्स वा तुलियस्स केइ अण्णत्ते वा० जाव ओहयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरं संपविढे करयलपल्हत्थमुहे लहुयते वा? नो तिणं / एवामेव पएसी ! जीविस्स वि अट्टज्झाणोवगए भूमीगयदिट्ठीए झियायइ / तते णं ते पुरिसा गुरुयलहुयत्तं परूवियव्वं जीवंतस्स वा तुलियस्स मयस्स वा कट्ठाई छिंदंति, छिदइत्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छइ, तुलियस्स जाव नत्थि केइ अण्णत्ते वा० जाव लहुयत्ते वा, तं | उवागच्छइत्ता तं पुरिसं ओहयमणसकप्पं जाव झियायमाणं सदहाहिणं पदेसी!तंचेव०७। तएणं पएसी राया केसीकुमार- पासंति, पासतित्ता एवं बयासी किं णं तुम्हं देवाणुप्पिया ! समणं एवं बयासी-अत्थि णं भंते ! एस जीव णो उवागच्छइ, ओहयमणसंकप्पे जाव झियायति ? तए णं से पुरिसे एवं एवं खलु भंते ! अन्नया जाव चोरं उवणेति, तए णं अहं तं बयासी-तुब्भे देवाणुप्पिया! कट्ठाणं अडविं अणुपविसमाणे मम पुरिसं सवओ समंतासमभिलोएमि,नो चेवणंच जीवं पासामि, एवं बयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं अडवि जाव तते णं अहं तं पुरिसं दुहा कालियं करेमि, सव्व तो समंता अणुपविट्ठा, तते णं अहं तओ मुहुत्तरस्स तुब्भं असणं सोहमि सममिलोएमि, नो चेव णं जीवं पासामि, एवं तिहा चउहा त्ति कट्ट जेणेव जोइयभायणे०जाव झियामि, तते णं तेसिं संखिजहा फालियं करेमि जाव नो चेव णं तं जीवं पासामि, | पुरिसाणं एगे पुरिसे णं छेए दक्खे पट्टे जाव उवएसलद्धे ते जति णं भंते ! अहं तंसि पुरिसंसि दुहा वा तिहा वा चउहा वा पुरिसे एवं बयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! पहाया संखेज्जहा वा फालियंसि वा जीवं पासामि, तो णं अहं सद्दहिज्जा कयबलिकम्मा ०जाव हव्वमागच्छह, जाणं अहं तुभं असणं तं चेव० जम्हा णं भंते ! अहं तंसि पूरिसंसि दहा वा तिहा वा | साहेमि त्ति कट्ठ परियरं वंथति, बंधइत्ता परसुं गिण्हइ, सरं चउहा वा संखेज्जहा वा फालियंसि वा जीवं नो पासामि तम्हा गिण्हेइ , अरणिं करेइ सरएणं अरणिं महेइ, महेइत्ता जोइं सुपइट्ठिया मे पइन्ना जहा तज्जीवो तं सरीरं तं चेव / तए णं पाडेइ, जोई संधुक्खेइ संधुक्खेइत्ता तेसिं पुरिसाणं असणं केसीकुमारसमणे परसिं रायं एवं बयासी-मूढतराए णं तुम साहेति, तते णं ते पुरिसा पहाया कयबलिकम्मा० जाव पदेसी! ताओ तुच्छतराओ के णं भंते ! तुच्छतराओ पदेसी? पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छइ, तते णं से पुरिसे से जहानामए केइ पुरिसावणत्थी वणोपजीवा वणगवेसणा तया तेसिं पुरिसाणं सुहासणावरगयाणं तं विउलं असणं पाणं खाइमं णं जोइं च जोइभायणं च गहाय कट्ठाणं अडविं अणुप्पविट्ठा, साइमं उवणेइ तते णं ते पुरिसा तं विउलं असणं पाणं खाइम तए णं ते पुरिसा तीसे अकामियाए नाव किंचि देसं अणुपत्ता साइमं आसाएमाणा वीसाएमाणा जाव विहरंति जिमियमुत्तुत्तसमाणा एग पुरिसं एवं बयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं रागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं पुरिसं अडविं अणुपविसामो, एत्तो णं तुमं जोइभायणाओ जोइंगहाय एवं बयासी-अहो णं तुमं देवाणुप्पिया ! जडे मूढे अपंडिते असणं साहेजासि अह तं जोइभायणे जोए विज्झाएइ एत्तो णं निम्विन्नाणे अणुवदेसलद्धे, जेणं तुम इच्छइ दुहा फालियंसि वा तुम कट्ठाओ जोतिं गहाय अम्हं असणं साहेजासित्ति कट्ट कट्ठाणं | जोई पासित्तए। से तेणटेणं पएसी! एवं वुच्चइ-मूढतराए णं तुम्हं अडविं अणुपविट्ठा। तते णं से पुरिसे तओ मुहुत्तंतरस्स तेसिं पएसी ! ताओ तुच्छत्तराउ। तए णं पदेसी राया केसीकुमारसमणं पुरिसाणं असणं साहेमि त्ति कट्ट जेणेव जोइभायणे तेणेव / एवं बयासी-जुत्तं णं तुम भंते ! अइच्छेयाणं दक्खाणं पतिट्ठाणं उवागच्छइ, जोइभायणे जोइं विज्झायमेव पासति / तए णं से कुसलाणं मेहावीणं विणीयाणं विण्णाणपन्नाणं उवदेसट्ठाणं अहं पुरिसे जेणेव से कट्टे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तं कहूँ | इमीसाए महलियाए महच्चए परिसाए मज्झे उव्वावरहि आउसेहिं सव्वतो समंता सममिलोए नो चेवणं जोई पासति, तते णं से आउसित्तए, उव्वावयाहिं उद्धंसणाई उद्धसित्तए, एवं निटभत्थणार्हि पुरिसे परियरं बंधइ, परियरं बंधइत्ता परसुं गेण्हइ, गेण्हइत्ता णिच्छोडणाहिं / तए णं केसी कुमारसमणे पदेसीरायं एवं Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 38 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) बयासी-जाणासि णं तुम्हें पएसी ! केइ परिसाओ पन्नत्ताओ? भंते! जाणामि चत्तारि परिसाओ पन्नत्ताओ। तं जहाखत्तियपरिसा, गाहावतिपरिसा, माहणपरिसा, इसिपरिसा ! जाणासि णं तुम्हें | पएसी ! रायासि चउण्हं परिसाणं कस्स का दंडनीती पन्नत्ता? हंता! जाणामि, जेणं खत्तियपरिसाए अवरज्झइसे णं हत्थछिपणए वा पायछिण्णए वा सीसछिण्णए वा सूलातिगए वा मूलभिन्नाए वा एगाहाचे कूडाहच्चे जीविताओ ववरोविज्जावे। जे गंगाहावइपरिसाए अवरज्झति से णं तंतेण वा वेढेण वा पलालेण वा वेढित्ता अगणिकाएणं झामिजइ / जे णं माहणपरिसाए अवरज्झइ मे णं अणिट्टाहिं अकंताहिं० जाव अमणामाहिं वगूहिं उवालंतित्ता कुं डिआलंछणए वा सुणगलंछणए वा कीरइ, निव्विसए वा आणविज्जइ / जे णं इसिपरिसाए अवरज्झइ से णं नाइअणिट्ठाहिं जाव नाइअमणामाहिं वग्गूहिं उवालभति / एवं च ताव पदेसी ! तुमं जाणासि तहा वि णं तुमं वामेणं दंडेणं पडिकूलेणं पडिलोमेणं विवचासं विवच्चासेणं वट्टसि? तते णं पदेसी केसीकुमारसमणं एवं बयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिएहिं पढमिल्लएणं चेव वागरणेणं ('जडा खलु भो जडंपज्जुपासंति' इत्यादिना पूर्वोक्तम्) से उवलद्धे, तेणं ममं इमेयारूवे अब्भत्थिए जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था-जहा जहा णं एयस्स पुरिसस्स वामं वामेणं ०जाव विवच्चासेणं वट्टिस्सामि तहा तहा णं अहं णाणं च नाणोवलंभं च चरणं चरणोवलंभं च दंसणं च दंसणोवलंभं च जीवं च जीवोवलंभं च उवलमिस्सामि, तं एएणं अहं कारणेणं वामं वामेणं जाव विवचासं विवच्चासेणं वट्टे / तते णं केसी कुमारसमणे पदेसिरायं एवं बयासी-जाणामि गं तुमं पएसी! कत्ति ववहारगा पन्नत्ता? हंता ! जाणामि चत्तारि ववहारया पन्नत्ता। देति णामेगे णो सण्णवेति 1, सण्णवेति नामेगे नो देति 2, एगे देति वि सण्णवेति वि 3, एगे नो देति नो सण्णवेइ 4 / जाणासि णं तुमं पएसी ! चउण्हं पुरिसाणं के ववहारी, के अववहारी? हंता! जाणामि, तत्थ णं जे से पुरिसे देति णो सण्णवेइ, से णं पुरिसे ववहारी। तत्थ णं जे से पुरिसे नो देइ सण्णवेइ, से णं ववहारी 2, तत्थ णंजे से पुरिसे देति वि सण्णवेइ वि से णं ववहारी 3, तत्थ णं जे से पुरिसे नो देति नो सण्णवेइ, से णं अववहारी // एवामेव पएसी ! तुम पि अववहारी 8 / तए णं पएसी रावा केसीकुमारसमणं एवं बयासी-तुब्भेणं भंते! अइच्छेया दक्खा जाव उवएसलद्धा, समत्था णं भंते ! मम करयलंसि वा आमलयं जीवं सरीराओ अभिनिव्वट्टित्ता णं दंसित्तए ? तेणं कालेणं तेणं समएणं पएसिस्स रण्णो अदूरसामंते वाउआयसंजुत्ते तणवणस्सइकायए एवं चलइ, फं दइ, घट्टइ, उदीरइ, तं भावं परिणमइ / तएणं केसी कुमारसमणे पएसीरायं एवं वयासी-पाससि णं तुमं पदेसी ! एतं तणवणस्सतिकार्य एयंत जाव तं भावं परिणमंतं ? हंता ! पासामि। जाणासि णं तुम पएसी ! एयं तणवणस्सतिकायं किं देवो चालेइ, असुरो वा देएइ, नागो वा किन्नरो वा चालेइ, किं पुरिसो वा महोरगो वा गंधव्वो वा चालेइ ? हंता ! जाणाभि णो देवो चालेइ० जाव गंधव्वो नो चालेइ। वाउकाइओ चालेइ। पाससि णं तुम्हं पएसी ! एयस्स वाउकाइयस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स समोइस्स सवेयस्स सलेसस्स सरीरस्स रूवं ? नो इणढे / जइ णं तुम्हे पदेसी ! एयस्स वाउकायस्स रूवं न पाससि, तं कहं णं पदेसी ! तव करयलंसि वा आमलगं जीवं उवदंसेस्सामि, एवं खलु पएसी ! दस हाणाइंछउमत्थे णं मणुस्से सव्वभावेणं न जाणइ, न पासइ। तं जहा-धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवं असरीरवद्धं, परमाणुपोग्गलं, सद, गंध, वायं, अयं जिणे भविस्सइ, अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्सइवा, नो वा / एयाणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ, पासइ,। तं जहाधम्मत्थिकायं ०जाव नो वा करिस्सइ, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा अन्नो जीवो तं चेवहातएणं से पदेसी राया केसीकुमारसमणं एवं बयासी-से नूणं भंते ! इत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ? हंता पएसी। हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे / से नूणं भंते ! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतरा चेव अप्पकिरियतरा चेव अप्पासवतरा चेव एवं आहारनीहारऊ सासनीसासइड्डी अप्पा जुती य अप्पतरा चेव; कुंथूओ हत्थी महाकम्मतरा चेव महाकिरिया० जाव महजूई अंतरा चेव?। हंता पदेसी ! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतरा चेव, कुंथूओ वा हत्थी महाकम्मतरा चेव तं चेव / कम्हा णं भंते ! इथिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे? पदेसी ! से जहानामए कूडागारसाला सिया० जाव गंभीरा, अहणं केइ पुरिसे जो इयं दीवचंपगं गहाय तं कूडागारसालं अंतो अंतो अणुपविसइ, तीसे कूडागारसालाए सव्वओ समंता घणनिचयनिरंतरं निच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेइ, पिहेत्ता नीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसमाए तं पदीवं पलीवेजा, तए णं से पदीवा तं कूडागारसालं अंतो अंतो ओभासति, उज्जोवेइ, तवति, पहासेइ, नो चेवणं बाहिं / अह णं से पुरिसे तं पईवं इदुरएणं पिहेजा, तते णं से पईये तं इदुरयं अंतो ओभासति, नो चेवणं इदुरगस्स वाहिं, नो चेवणं कूडागारसालं, नो चेव णं कूडागारसालाए वाहिं, एवं किल Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 36 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) जए णं गोकलिएणं गंडमाणियाए पिढएणं आढएणं अद्धाढएणं पत्थएणं चउन्भाइयाए सोलसियाए छत्तीसियाए चउसट्ठियाए, तए णं से पुरिसे तं पदीवं दीवचंपकं पत्ते णं; तते णं से पदीवे दीवचंपगं अंतो ओभासति 4 नो चेवणं दीवचंपगस्स बाहिं,नो चेवणं चउसट्ठियं, नो चेवणं कूडागारसालं नो चेवणं कूडागार लाए वाहिं, एवामेव पएसी ! जीवो जं जारिसयं पुव्वकम्मनिवबोंदि निव्वत्तेइ, तं असंखेजेहिं जाव पदेसेहिं सचित्ता करेइ खुड्डि यं वा महालयं वा, तं सद्दहाहि णं तुमं पदेसी! जहा अन्नो जीवो तं चेव 10 / तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं बयासी-एवं खलु भंते ! अजगस्स एसा सण्णा जाव समोसरणे जहा तज्जीवो तं सरीरं,नो अन्नो जीवो। तयाणंतरं च णं मम पिउणो पि एसा सपणा जाव तं सरीरं। तयाणंतरं च णं मम वि एसा सण्णा० जाव समोसरणं, तं नो खलु अहं बहुपुरिसपरंपरागयं कुलनिस्सयं दिट्टि छड्डेइस्सामि / तते णं केसी कुमारसमणे पदेसिरायं एवं बयासीमाणं तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भवेज्जासि जहा से पुरिसे अयहारए। के णं भंते ! अयहारए ? पएसी ! से जहानामए केइ पुरिसा अत्थत्थिया अत्थगवेसिया अत्थलुद्धगा अत्थकं खिया अत्थपिवासिया अत्थगवेसणया विउलंपणियभंडमायाय सुबहुं भत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अकामियं छिन्नावीयं दीहमद्धं अडविं अणुपविट्ठा, तते णं ते पुरिसा तीसे अकामियाए अडवीए किंचि देसं अणुपत्ता समाणा एणं महंतं अयआगरं पासति, अएणं सव्वओ समंता आइण्णं विणिच्छिन्नं संछंडं उवछंडं फुडं अनुगाढं पासति, पासित्ता हट्ठतुट्ठ०जाव हियया अण्णमण्णं सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-एसणं देवाणुप्पिया! अयंडे इढे कंते० जाव मणामे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं अयभारं बंधित्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिसुणेति, अयभारं बंधति, अहाणुपुव्दीए संपत्थिया, तेणं से पुरिसे अकामियाए ०जाव अडवीए किं वि देसभणुपत्ता समणा एगं महं तउआगरं पासति, तउएण आइण्णं तं चेव सद्दावेत्ता एवं बयासी-एसणं देवाणुप्पिया! तउए भंडे जाव मणामे अप्पेणं चेव तउएणं सुबहु अए लब्भति तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं अयभारए छड्डे त्ता तउयत्ते बंधित्तए ति कटु अन्नमन्नस्स अंतिए एयमढें पडिसुणिंति, पडिसुणेत्ता अयभारए छड्डेति, छड्डेइत्ता तउयभारए बंधेति / / तत्थ णं एगे पुरिसे नो संचाएति अयभारगं छड्डेत्ता तउयं भारं बंधित्तएतते णं पुरिसा तं पुरिसं एवं बयासीएस णं देवाणुप्पिया! तउए भंडे जाव सुबहु अएलब्भति, तंछड्डेहि णं देवाणुप्पिया! | अयभारगं, तउभारगं बंधाहि / तते णं से पुरिसे एवं बयासीदुराहडे मए देवाणुप्पिया! अए विराहडे मए देवाणुप्पिया! अए, गाढबंधणे बद्धे मए देवाणुप्पिया ! अए,धणियं बंधणबंधे मए देवाणुप्पिया! अए नो ति खलु देवाणुप्पिया! संचाएमि अयभारगं छड्डत्ता तउयभारे बंधित्तए। तते णं ते पुरिसा तं पुरिसं जहा नो संचाएति बहूहिं आघवणाहिं पण्णवणाहिं आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा ताहे अहाणुपुव्वाए संपत्थिया एवं 2 तंबागरं रुप्पागरं सुवण्णागरं रयणागरं वयारागरं / तते णं ते पुरिसा जेणेव सया सया जणवया जेणेव साइं साइं नगराई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छेत्ता वयरविक्कणयं करेंति, सुबहुं दासीदासगोमहिसगवेलगं गिण्हइ, अट्ठतल मुस्सियपासायवडेंसगे कारवेंति, बहाया कयबलिकम्मा उप्पि पासायवरगया फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसं बद्धएहिं नाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवनइमाणा उवगिजमाणा उवलालिजमाणा इट्ठसद्दफ रिस० जाव विहरंति / तते णं से पुरिसे अयभारयं जेणेव सए नगरे तेणेव उवागच्छइ,अयभारगंगहाय अयविक्किणयं कट्टेति। तंसिय अप्पमोल्लंसि निट्ठियंसि भिण्णपरिव्वए, ते पुरिसे उप्पि पासायवरगते जाव विहरमाणे पासति, पासइत्ता एवं बयासीअहो णं अहं अधण्णे अपुण्णे अकयत्थे अक्खयलक्खणे हिरिसिरिपरिवज्जिए हीणपुण्णे चाउद्दिसिए दुरंतपंतलक्खणे। जति णं अहं मित्ताण वा नाईण वा नियगाण वा वयणं सुणेज्जा, तो णं अहं पि चेव उप्पि पासायवरगते० जाव विहरंतो / से तेणतुणं पएसी ! एवं वुचइ-मा णं तुमं पएसी ! पच्छाणुतावि ए भवेजासि जहा च से पुरिसे अयभारए 11 / एत्थ णं से पदेसी राया सुबुद्ध केसीकुमारसमणं वंदइ०जाव एवं बयासी-नो खलु भंते ! अहं पच्छाणुताविए भविस्सामि जहा व से पुरिसे अयभारए, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! अंते केवलिपण्णतं धम्मं निसामित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह धम्मकहा जहा वित्तस्स तहेवजाव गिहिधम्म परिवजए जेणेव सेयं विया णगरी तेणेव पहारेत्थगमणाए / तते णं के सी कुमारसमणे पदेसिं रायं एवं बयासी-जाणासिणं तुम्हें पएसी! केइया आरिया पन्नत्ता ? हंता! जाणामि। तओ आयरिया पन्नत्ता। तं जहा-कलायरिए, सिप्पायरिए, धम्मायरिए / जाणासिणं तुम्हं पएसी! तेसिं तिण्हं आयरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ता पउंजियवा? हंता! जाणामि कलायरियस्स सिप्पायरियस्स उवलेवणं वा समजणं करेजा, पुप्फाणि वा आणावेजा, मंदुवेजावा, भोयावेजावा, विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलएडा, पुत्ताणं पुत्तियं वा वित्तिं कप्पेजा, जत्येव धम्मायरियं पा सेज्जा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 40- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) तत्थेव वंदिज्जा, पमंसेज्जा, सक्कारेज्जा, समाणेज्जा कल्लाणं मंगलं चेय पज्जुवासेज्जा फासुएसणिज्जेणं असण पाणखाइमसाइमेणं पडि लाभेजा, पाडि हारिएणं पीढफ लगसेज्जासंथारएणं उवनिमंतिज्जा / एवं च ताव तुमं पएसी ! एवं जाणासि तहावि णं तुमं मम वामं वामेणं जाव वट्टित्ता ममं एयमढे अखामेत्ता जेणेव सेयंबिया नयरी तेणेव पहारेत्थगमणाए। तते णं से पदेसी राया के सिकुमारसमणं एवं बयासीएवं खलु भंते ! मम इमेयारूदे अब्भत्थिए ०जाव समुप्पजित्था। एवं खलु अहं देवाणुप्पियाणं वामं वामेणं जाव दित्ते, तं सेयं खलु से कल्लं पाउप्पभाए रयणीए ०जाव तेजसा जलंते अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिखुडे देवाणुप्पिया! वंदित्ता नमंसित्ता एयम8 भुजो भुजो सम्मस्स विणएणं खामिज्जाए त्ति कट्ट नामेव दिसिं पाउन्भूपा तामेव दिसिं पडिगए। तए णं से पदेसी राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए० जाव तेयसा जलते हहतुट्ठ० जाव हियए जहेव कूणिए तहेव निग्गच्छति अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिबुडे पंचविहेणं अभिगमेणं वंदइ, नमसति, एयमटुं भुजो भुजो सम्मं विणएण खामेइ। तएणं केसी कुमारसमणे पदेसिस्स रण्णो सूरियकं तपमुहाणं देवीणं तीसे णं महइमहालियाए महच्चपरिसाए जाव धम्म सम्म देति / तते णं से पदेसी राया धम्म सोचा निसम्म उट्ठाए उढेइ, के सिकुमारसमणं वंदइ, नमंसति, जेणेव सेयंबिया नयरी तेणेव पहारेत्थगमणाए / तए णं केसी कुमारसमणे पदेसीरायं एवं बयासी-माणं तुमं पदेसी! पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिजे भवेज्जासि जहा से वणसंडेइ वा नट्टसालाइ वा उक्खुवाडे ति वा खलवाडेति वा / कहं णं भंते ! वणसंडे पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिजे भवति?पदेसी ! जहा णं वणसंडे पत्तिए पुप्फिते फलिते हरिते हरितजमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति तया णं वणसंडे रमणिज्जे भवति,जया णं वणसंडे नो पत्तिए नो पुप्फिए नो फलिए नो हरिते नो हरितज्जमाणे सिरीए नो अतीव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठइ, तया णं वणसंडे अरमणिज्जे भवति / जया णं नट्टसालाए गिज्जइ, वाइज्जइ, नचिजइ, / अभिणिज्जइ, हसिज्जइ, रमिज्जइ, तया णं नट्टसाला रमणिज्जा भवति, जया णं नट्टसालाए नो गिजइ० जाव नो रमिज्जइ तया णं नट्टसाला नो रमणिज्जा भवति / जया णं इक्खुवाडे छिज्जइ, भिजइ, पलिज्जइ, खज्जइ, पिज्जइ, तया णं इक्खुवाडे रमणिज्जे भवति, जयाणं इक्खुवाडे नो छिज्जइ०जाव तयाणं इक्खुवाडे अरमणिजे भवति / जया णं खलवाडे उच्छुडभइ, उदूइज्जइ, खज्जइ, पिञ्जइ, तया णं खलवाडे रमणिज्जे भवति, जया णं खलवाडे नो उच्छुब्मए जाव अरमणिज्जे भवति, से तेणट्टेणं पदेसी! एवं वुचति-मा णं तुमं पदेसी! पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि जहा वणसंडे इ वा० जाव खलवाडेइ वा। तएणं पएसी राया केसीकुमारसमणं एवं बयासीनो खलु भंते ! अहं पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविस्सामि जहा से वणसंडेइ वा० जाव खलवाडे वा। अहं णं सेयंवियापामोक्खाइं सत्तगामसहस्साइं चत्तारि भागे करेस्सामि, एगे भागे बलवाहणस्स दलइस्सामि, कोट्ठागारे दलइस्सामि, एगे भागे अंतेउरस्स दलइस्सामि, एगेणं भागेणं महइमहालियकू डागारसालं करिस्सामि / तत्थ णं बहू हिं पुरिसे हिं दिण्णभत्तिभत्तवेयणेहिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता बहूणं समणमाहण भिक्खुयाणं पंथियपहियाण य परिभोएमाणे परिभोएमाणे बहूहिं सीलपचक्खाणपोसहोववासेहिं० जाव विहरिस्सामित्ति कट्ट जामेव दिसंपाउन्भूए तामेव दिसं पडिगते / तते णं पदेसी राया कल्ल पाओ ०जाव तेजसा जलंते सेयं वियापामोक्खाई सत्तगामसहस्साइं चत्तारि भाए करेति, एग भागं वलवाहणस्स दलइति० जाव कूडागारसालं करेति, तत्थ णं बहूहिं पुरिसेहिं जाव उवक्खडावेसा बहूणं समणमाहणाणं 0 जाव परिभोएमाणे विहरति / तते णं से पदेसी राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरति / जप्पमिइं च णं पदेसी राया समणोवासए जाए तप्पमिई च णं रजं च रट्टं च वलं च बाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च पुरं च अंतेउरं च जणवथं च अणाढायमाणे विहरति / तते णं तीसे सूरियकंताए देवीए इमेयारूवे अब्भत्थिए समुप्पजिल्थाजप्पमिइं च णं पएसी राया समणोयासए जाए तप्पमिदं च णं रजं च रटुं च० जाव अंतेउरं च० जाव समं च जाणवयं च अनाढायमाणे यावि विहरइ, तंसेयं खलु मे पदेसीरायं केण य सत्थप्पओगेण वा अग्गिपओगेण वा मंतपओगेण वा उद्दावेत्ता सूरियकंतं कुमारं रज्जे ठवेत्ता सयमेव रजसिरिं करेमाणी विहरित्तए ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेतित्ता सूरियकंतं कुमार सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-जप्पमिइंच णं पदेसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई च णं रजं च रटुं च जाव अंतेउरं च जणवयं च माणुस्सए कामभोगे य अणाढायमाणे यावि विहरति, तं सेयं खलु तव पुत्ता ! पदेसिं रायं केणइ सत्थप्पओगेण वा० जाव उद्दावेत्ता सयमेव रज्जसिरिं करेमाणस्स पालेमाणस्स विहरित्तए। ततेणं सूरियकं ते कुमारे सूरियकताए देवीए एवं वुत्ते समाणे सूरियकताए देवीए एयमटुं ना Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएसि(ण) 41 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पएसि(ण) आढाइ, नो परियाणइ त्ति तुसिणीए संचिट्ठति / तते णं से पृष्ठे प्रोक्ता) (सूर्याभो देवः सूर्याभविमानात् च्युतः सन्कोत्पत्स्यतीति सूरियकंताए देवीए इमेयारूवे अब्भत्थिए समुप्पज्जित्था से णं 'सूरियाभ' शब्दे वक्ष्यते) सूरियकंते कुमारे पदेसिस्स रण्णो इमं रहस्यभेयं करिस्सतीति / पएसिणी स्त्री०(प्रदेशिनी) अड्गुष्ठपाडिल्याम् "पएसिणीए अंगुट्टकट्ट पएसिस्स रण्णो छिण्णाणि मम्माणि रहस्साणि विवराणि पोरहिताए जे घेप्पति।'' नि० चू०२ उ०। अंतराणि य पजागरेमाणी पजागरेमाणी विहरति / तते णं | पएसिय त्रि० (प्रदेशित) प्रणीते, आचा०१ श्रु०६अ० 3 उ०। सूरियकता देवी अण्णया कयाइ पदेसिस्स रण्णो अंतरं जणइ, पएसिराय पुं०(प्रदेशिराज) श्वेताम्बिकानगरीपतौ सूर्याभ-पूर्वभवजीवे, असणं जाव साइमं सव्ववत्थगंधमल्लालंकारेसु विसपओगं स्था०८ ठा०। (तद्वृत्तं सर्व 'पएसि (ण) शब्देऽनुपदमेव गतम्) पउंजइ, पदेसिस्स रण्णो ण्हायस्स जाव पायच्छित्तस्स पएसोगाढ पुं०(प्रदेशावगाढ) एकत्र प्रदेश क्षेत्रस्यांशविशेषे अवगाढा सुहासणवरगयस्स तं विससंजुत्तं असणं पाणं खाइमं साइमं वत्थं आश्रिता एकप्रदेशावगाढाः, ते च परमाणुरूपाः, स्कन्धरूपाश्च / स्था० जाव अलंकारं णिस्सरति / तते णं तस्स पदेसिस्स रण्णो तं 1 ठा०। विससंजुत्तं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारयस्स समाणस्स | पएसोदय पु० (प्रदेशोदय) कर्मणां प्रदेशेन उदयकरणे, पं०सं० सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विउला पगाढा कक्कसा कंडू 5 द्वार। क०प्र०। ('उदय' शब्दे द्वितीयभागे 777 पृष्ठे भेद उक्तः) य चंडा तिव्वा दुक्खा दुग्गा दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे पएसोदीरणा स्त्री०(प्रदेशोदीरणा) प्रदेशविषये उदीरणाकरणे, पं०सं०५ दाहवते यावि विहरति / तए णं से पएसी राया सूरियकंताए द्वार ('उदीरणा' शब्दे द्वितीयभागे 656 पृष्ठेऽस्या व्याख्या गता) देवीए मणसा वि अप्पदुस्समाणे जेणेव पोसहसाला तेणेव पओग पुं० (प्रयोग) प्रयोजनं प्रयोगः / जीवव्यापारे, स्था० ३ठा०३ उवागच्छति, अवागच्छितित्ता पोसहसालंपसमजइ, पोसहसालं उ०। ज्ञा० स० आ० चू०। पुरुषव्यापारे, भ०६श०३ उ०। चेतनावतो व्यापारे, विशे० आ०म०। पमज्जइत्ता उचारपासवणभूमि पडिलेहेति, दब्भसंथारगं तद्भेदाःसंथरेइ, दब्भसंथारगं दुरूहति, पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने कतिविहे णं भंते ! पओगे पण्णत्ते ? गोयमा ! पण्णरसविहे करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एव बयासीनमोऽत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं पण्णते। तं जहा-सच्चमणप्पओगे, असच्चमणप्पओगे, सचामोसमणप्पओगे, असचामोसमणप्पओगे वि। एवं वइप्पके सिकुमारस्स समणस्स धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स, ओगे वि चउहा। ओरालियसरीरकायप्पओगे, ओरालियमीवंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउ मे भगवं तत्थ गए ससरीरकायप्पओगे,वेउव्वियसरीरकायप्पओगे, वेउव्वियमीसइह गंय ति कट्ट वंदति, णमंसति, णमंसतित्ता पुटिव पिणं मए सरीरकायप्पओगे, आहारगसरीरकायप्पओगे, आहारगमीससके सिकुमारसमणस्स अंतिए थूलए पाणातिवाए पचक्खाए रीरकायप्पओगे, कम्मासरीरकायप्पओग। जाव परिग्गहे, इयाणिं पि णं तस्सैव भगवतो अंतिए कतिविधः कतिप्रकारो, णमिति वाक्यालकारे / भदन्त ! प्रयोगः सव्दपाणातिवायं पञ्चक्खामिजाव परिगह सव्वं कोहं०जाव प्रज्ञप्तः? प्रयोग इति प्रपूर्वस्य युजिर् योगे इत्यस्स घस्रन्तस्य प्रयोगः / मिच्छादसणसल्लं अकरणिज्जं जोगं पचक्खामि, सव्वं असणं परिस्पन्दः, क्रिया, आत्मव्यापार इत्यर्थः / अथवा प्रकर्षेण युज्यते चउव्दिहं पि आहारं जावजीवाए पचक्खामि, जंपिय मे सरीरं व्यापार्यत क्रियासु सम्ध्यते वा सापरायिकर्यापथकर्मणा सहाऽऽत्मा इटुं० जाव फुसंति, एयं पि य णं चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं अनेनेति प्रयोगः।" पुन्नाम्निघः / / 5 / 3 / 130 // इति करणे घप्रत्ययः। वोसिरामि त्ति कटु आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे भगवानाहपञ्चदशविधः प्रज्ञप्तः। तदेव पञ्चदशविधत्वं दर्शयति- (सच्चमकालं किचा सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे उववायसभाए णप्पओगे इत्यादि) सन्तो मुनयः, पदार्था वा, तेषु यथासंचयं मुक्तिप्रापजाव उववण्णे / तते णं सूरिया देवे अहुणोववण्णए चेव कत्वेन यथाऽवस्थितवस्तुस्वरूपचिन्तनेन च साधु सत्यमस्ति जीवः समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पञ्जत्तिभावं गच्छति / तं जहा सदसद्रूपो देहमात्रव्याप्येत्यादिरूपतया यथाऽवस्थितवस्तुचिन्त-नपरं, आहारपजत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए, आणपाण- सत्यं च तत् मनश्च सत्यमनः, तस्य प्रयोगो व्यापारः सत्यमनः प्रयोगः / पज्जत्तीए, भासामणपञ्जत्तीए ; त एव खलु गोयमा ! सूरियाभेणं (असच्चमणप्पओगे इति) सत्यविपरीतमसत्यंनाऽस्ति जीव एकान्तसदेवेणं सा दिव्वा देवड्डी दिव्वा देवजुती दिव्वे देवाणुभावे लद्धे / द्रुपश्चेत्यादिकुविकल्पनपरं, तश्च तन्मनश्च, तस्य प्रयोगोऽसत्यमनः प्रयोगः। पत्ते अमिसमण्णागए। (सचमोसमणप्पओगे इति) सत्यमृषा सत्यासत्ये,यथा धवखदिरपलाशा(रायपसेणीटीका पदमात्रार्थबोधिनीत्युपेक्षिता) रा० / आ०म० / ऽऽदिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति विकल्पनपरं,तत्र हि स्था० / आ० चू०। (सूर्याभदेवस्स स्थितिः 'ठिइ' शब्दे चतुर्थभागे 1726 / कतिपयाऽशोकवृक्षाणां सद्भावात्। तच तन्मनश्चेत्यादि प्राग्वत्। तथा-(अ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पओग 42 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पओग सथामोसमणप्पओग इति) यन्न सत्यं नापि मृषा तदसत्यामृषा।। इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्प्यते। यथा- अस्ति जीवः सदसद्रूप इत्यादि, तत्किल सत्यपरिभाषिकमाराधकत्वात् / यत्पुनर्विप्रतिपती सत्यां यद्वस्तु प्रतिधऽऽश्याऽपि सर्वज्ञम- | तोत्तीर्ण विकल्पते,यथा नास्ति जीवः, एकान्तनित्यो वा इत्यादि। तदसत्यम, विराधकत्वात्, यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशामन्तरेण स्वरूपमात्रपर्यालोचनपरं. तया देवदत्तात्घट आनेतव्यो, गौर्याचनीया इत्यादि चिन्तनपर, तत् असत्यमृषा / इदं हि स्वरुपमात्रपर्यालोचनपरत्वात् न यथोक्तलक्षणं सत्यं, नापि मृषा एतदपि व्यवहारनयमतापेक्षया द्रष्टव्यम्, अन्यथा विप्रतारणबुद्धि पूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति, अन्यत्र तु सत्ये, तच तन्मनश्च, तस्य प्रयोगोऽसत्यमृषामनःप्रयोगः। (एवंवइप्पओगो विचउहा इति ) यथा गनः प्रयोगश्चतुर्दा, तथा वाहमयोगोऽपि चतुर्दा तद्यथा सत्कप्रयोगो, मृषावाक्प्रयोगः, सत्यमृषावाक्प्रयोगः, असत्यामृषावाक्प्रयोगः। एताश्व सत्यवागादयः सत्यमनःप्रभृतिवद्भावनीयाः पूर्ववद् भाविता इति / (ओरालियसरीरकायप्पओगे इति) औदारिकाऽऽदिशब्दार्थमग्रे वक्षामः / औदारिकमेव शरीरम् औदारिकशरीरम्, तदेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वात्, उपचीयमानत्वात् च काय औदारिकशरीरकायः, तस्य प्रयोगः औदारिकशरीरकायप्रयोगः। अयं च तिरश्चो मनुष्यस्य च पर्याप्तस्य औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग इति। औदारिकं | च तन्मिनं च औदारिकमिश्र, केन सह मिश्रितमिति चेत् ? उच्यतेकार्मणेन / तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण शस्त्रपरिज्ञाऽध्ययने- ''जोएण कम्मएणं, हारे अणंतरं जीवो। तेणं परं मिस्सेण व, जाव सरीरस्म निष्फ ती॥११॥" न तुमिश्रत्वमुभयनिष्ठम्। तथाहि- यथा औदारिक कार्मणन मिश्र,तथा कार्मणमप्यौदारिकेण मिश्र, ततः कस्मादौदारिकमि श्रमेवा यदुच्यते-न कार्मणमिति?। उच्यते-इहव्यपदेशसप्रवर्तनीया येन विवक्षितार्थप्रतिपतिर्निषप्रतिपक्षी श्रोतृणामुपजायते, अन्यदा सन्देहाऽऽपत्तितो विवक्षितार्थाप्रतिपत्त्यान तथा तेषूपकारः कृतः स्यात्, कार्मण च शरीरमासंसारभविच्छेदनावस्थितत्वात्सकलेष्वपि शरीरेषु सम्भवति, ततः कार्मणमिश्रमित्युक्तं, न ज्ञायते किं तिर्यग्मनुष्याणामपर्याप्तावस्थायां तद्विवक्षितमुत देवनारकाणामिति? तत उत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रधानत्वात्, कादाचित्कत्वाच निष्प्रतिपक्षविवक्षि तार्थप्रतिपत्त्यर्थमौदारिकेण व्यपदिश्यते औदारिकमिश्रमिति / तथा यदौदारिकशरीरो वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यतिर्यकपञ्चेन्द्रियः पर्याप्तकबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदा किलौदारिकशरीरप्रयोग एव वर्तमानप्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान पुद्गलानुपादाय वैक्रियशरीरपर्याप्त्या यावन्न पर्याप्तिमुपगच्छति तावत् यद्यपि वैक्रियेण मिश्रतौदारिकस्योभयनिष्ठा तथाऽप्यौदारिकस्य प्रारम्पकतया प्रधानत्वात्तेनव्यपदेश औदारिकमिति न वैक्रियेणेति। तथा आहारकमपि शरीरं यदा कश्चिदाहारकलब्धिमान् पूर्वधरः करोति तदा यद्यप्याहारकेण मिश्रत्वमौदारिकस्योभयनिष्ठ, तथाप्यौदारिकमारम्भकतया प्राधान्यमिति, तेन व्यपदेशप्रवृत्तिरौदारिकमिश्रमिति, नत्वाहारफेणेति। औदारिकमिश्रं च तत् शरीरं चेत्यादि पूर्ववत् / वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य | वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगो देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां, मिश्रता च तदानीं कार्मणेन सह वेदितव्या। अत्राक्षेपपरिहारौ प्राग्यत् / तथा यदा मनुष्यस्तिर्यपञ्चेन्द्रियो, वायुकायिको वा वैक्रियशरीरीभूत्वा कृतकार्यो वैक्रियं परिजिहीर्घरौदारिके प्रवेष्टु यतते, तदा किल वैक्रियशरीरवलेन औदारिकोपादानाय प्रवर्वते इति वैक्रियस्य प्राधान्यात्तेन व्यपदेशो नौदारिकेणेति वैक्रियमिश्रितमिति / तथा आहरकशरीरकायप्रयोग आहारकशरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग आहारकादौदारिकं प्रविशतः। एतदुक्तं भवति-यदा आहारकशरीरीभूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदा यद्यपि मिश्रत्वमुभयनिष्ठ तथाऽप्यौदारिके प्रवेश आहारकवलनस्याहारकस्य प्रधानत्वात्तेन व्यपदेशो नौदारिकेणाऽऽहारकमिश्रमिति। एतच सिद्धान्ताभिप्रायेणोक्तं, कर्मग्रन्थिकाः पुनक्रियस्य प्रारम्भकाले, परित्यागकाले च वैक्रियमिश्रमाहारकशरीरस्य प्रारम्भकाले, परित्यागकाले च औदारिकमिश्र न त्वेकस्यामप्यवस्थायामौदारिकमिश्रमिति प्रतिपन्नाः / तैजसकार्मणशरीरप्रयोगो विग्रहगतौ समुद्र-घातावस्थायां वा सयोगिकेवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु इह तैजसकामणेन सहाव्यभिचारीति युगपत्तैजसकार्मणग्रहणम्। ___ अमूनेव पञ्चदश प्रयोगान्जीवाऽऽदिषु स्थानेषु चिन्तयन्नाहजीवाणं भंते ! कतिविहे पओगे पण्णत्ते ? गोयमा ! पन्नरसविहे पओगे पण्णत्ते / तं जहा-सच्चमणप्पओगे० जाव कम्मसरीरकायप्पओगे। "जीवाणं भंते! कतिविहे पओगे पण्णते" इत्यादि।तत्रजीवपदे पञ्चदशापि प्रयोगाः, नानाजीवापेक्षया सदैव पशदशानामपि योगानां लभ्यमानत्वात्। नेरइयाणं मंते ! कइविहे पओगे पण्णते? गोयमा ! एकारसविहे पओगे पण्णत्ते / तं जहा-सच्चमणप्पओगे जाव असचमणप्प ओगे। वइयप्पओगे चउहा / वे उव्वियसरीरकायप्पओगे, वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगे, कम्मासरीरकायप्पओगे। एवं असुरकुमाराण वि० जाव थणियकुमाराणं / पुढविकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! तिविहे पओगे पण्णत्ते / तं जहा ओरालियसरीरकायप्पओगे, ओरालियमीससरीरकायप्पओगे, कम्माससरीरकायप्पओगे / एवं० जाव वणस्सइकाइयाणं, नवरं वाउकाइयाणं पंचविहे पओगे पण्णत्ते / तं जहा-ओरालियकायप्पओगे, ओरालियमीससरीरकायप्पओगे, वेउव्विए दुविहे, कम्मासरीरकायप्पओगे। वेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! चउविहे पओगे पण्णत्ते / तं जहा असच्चामोसवइप्पओगे, ओरालियसरीरकायपपओगे, ओरालियमीसकायप्पओगे, कम्मासरीरकायप्पओगे / एवं जाव चउरिदियाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा?| गोयमा!तेरसविहेपओगेपण्णत्ते।तंजहा-सचमणप्पओगे० जाव अचामोसमणप्पओगे / एवं वइप्पओगे वि / ओरालियसरीरकायप्पओगे,ओरालियमीससरीरकायप्पओगे, वेउव्वियसरीरकायप्पओगे, वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगे, कम्मासरी Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पओग 43 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पओग रकायप्पओगे। मणुरसाणं पुच्छा ? गोयमा ! पन्नरसविहे पओगे पण्णत्ते / तं जहा- सचमणप्पओगे जाव कम्मासरीरकायप्पओगे। वाणमंतर- | जाइसियवेमाणियाण जहा नेरइयाणं। नैरयिकपदे एकादश औदारिकौदारिकमिश्राऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रयंगाणा तेषामसम्भवात् / एवं सर्वेष्वपि भावनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु भावनीयम् / पृथिव्यादिषु वायुकायवर्जेष्वेकेन्द्रियेषु प्रत्येक प्रत्येक त्रयस्त्रयः प्रयोगाः औदारिकौदारिकमिश्रकार्मण लक्षणा वायुकायिकेषु पञ्चवैक्रियवैक्रियमिश्रयोरपि तेषां सम्भवात्। द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पत्यक चत्वार औदारिककौदारिकमिश्रं कार्मणमसत्यामृषाभाषा च शवास्तु सत्याऽऽदयो भाषास्तेषां न सम्भवन्ति, "विकलेषु असच्चामोसं" इति वचनात् / पञ्चेन्द्रियतिर्यक्योनिकानां त्रयोदश आहारकाहारकमिश्रयोस्तेषामसम्भवश्चतुर्दशपूर्वाधिगमासम्भवात्। मनुष्येषु पशदशापि मनुष्याणां सर्वभावसम्भवात्। अधुना जीवाऽऽदिषु पदेषु नियतप्रयोगभावविन्तयिषुरिदमाहजीवाणं भंते ! किं सचमणप्पओगी०जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी?| गोयमा! जीवा सव्वेऽपिताव होजा सच्चमणप्पओगी विजाव वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगी वि, कम्मासरीरकायप्पओगी वि 1 / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, | अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगि य 2, अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पओगीय 3, अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य 4 चउभंगो / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य १।अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य 2, अहवेगे य आहार-गसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगीय 30 अहवेगे य आहारगसीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य 4 / एए जीवाणं अट्ठ अंगा। नेरइया णं भंते ! किं सचमणप्पओगी० जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा ! नेरझ्या सव्ये वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगी वि० जाव वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगी वि 1, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगीनो य 2, अहवेगे य कम्मासरीकायप्पओगिणो य। एवं असुरकुमारा वि० जाव थणियकुमारा / पुढविकाइया णं भंते ! किं ओरालियसरीरकायप्पओ गी, ओरालियमीससरीरकायप्पओगी, कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा ! पुढ विकाइया गं ओरालियसरीरकायप्पओगी वि, ओरालियमीससरीरकायप्पओगी वि, कम्मासरीरकायप्पओगी वि। एवं 0 जाव वणस्सइकाइयाणं, नवरं वाउकाइया वेउव्वियसरीर-कायप्पओगी वि, वेउब्वियनीससरीरकायप्पओगी वि / वेइंदिया णं भंते ! किं ओरालियसरीरकायप्पओगी० जाव कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा ! वेइंदिया सव्वे वि ताव होजा असचामोसवइप्पओगी वि, ओरालियसरीरकायप्पओगी वि, ओरालियमीससरीरकायप्पओगी वि / अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी वि? अहवेगे य कम्मासरीर-कायप्पओगिणो य / एवं 0 जाव चउरिंदिया पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया, नवरं ओरालियसरीरकायप्पओगी वि, ओरालियमीससरीरका-- यप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओ गिणो य / मणुस्सा णं भंते ! किं सच्चमणप्पओगी० जाव किं कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा ! मणुस्सा सव्वे वि ताव होज्जा सचमणप्पओगी वि० जाव ओरालियसरीरकायप्पओगी वि, वे उब्वियसरीरकायप्पओगी वि, वेउव्वियमीससरीरकायप्पओगी वि। अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य। अहवेगे य आहारगस-रीरकायप्पओगिणोय, अहवेगेय आहारगमीस-सरीरकायप्पओगीय। अहवेगे य आहारगमीससरीर-कायप्पओगिणो य, अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य / एते अट्ठ भंगा पत्तेयं / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय,आहारगसरीरकायप्पओगीय, अहवेगे य ओरालियमीस-सरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगीय, अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, अहवेगे य ओरालियसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहा रगमीससरीरकायप्पओगिणो य, अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य! अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य। एते चत्तारि भंगा। अहवेगेय ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगी या अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय! अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो या अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगी या अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य / एते चत्तारि भंगा। अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य। अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगीय, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीसरीरकायप्पओगी य / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्प Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पओग 44 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पओग ओगिणो य / एए चत्तारि भंगा। अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगीय, कम्मासरीरकायप्पओगी। अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगीय, कम्मासरीरकायप्पओगिणो या अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओ गिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य। कम्मासरीरकायप्पओगी या अहवेगेय आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगी या अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य। चउरो भंगा। अहवेगे य आहार-गमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगीय। अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य / अहवेगे य आहारगमीस-सरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगी य / अहवेगे य आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मगसरीर-कायप्पओगिणो य / चउरो भंगा / एवं चउवीस भंगा 24 / अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य , आहारगसरीरकायप्पओगीय, आहारगमीससरीरकायप्प-ओगी य१। अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य 2 अहयेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य 3 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य 4 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य 5 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगीय, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य 6 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य७। अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य 8 / एए अट्ठ भंगा। अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, कम्मगसरीरकायप्पओगीय 11 अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य 3 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य 4 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्प ओगी य, कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य 5 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 6 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओ गिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य७१ अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 8 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगी य १।अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगीय, कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य 2 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मगसरीरकायप्पओगी य 31 अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीर-कायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 4 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओ गिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगीय, कम्मगसरीरकायप्पओगीय 5 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओ गिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 6 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 7 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणोय / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 1 / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीर-कायप्पओगीय, कम्मगसरीरकायप्पओगिणो यशअहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीर-कायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 3 / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओ गिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 5 / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगीय, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 6 / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मगसरीरकायप्पओगी य 7 / अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओ गिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओ गिणो Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पओग 45 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पओग य, कम्मासरीरकायप्पओगियो य 8 / एवं एते वि तियसंजोएणं चत्तारि अट्ठ भंगा / सव्वे वि मिलिया वत्तीसं भंगा जाणियव्वा 32 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पाओगीय, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 1 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीरकायप्पओगीय आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 3 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य४ अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगीय५। अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीस-सरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 6 अहवेगेय ओरालियमीससरीरकायप्पओगीय, आहारग-सरीरकायपओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 7 / अहवेगे य ओरालिय-मीससरीरकायप्पओगी य, आहारगसरीरकाय-- प्पओ गिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओ गिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 8 1 अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगीय है। अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओ गिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीर-कायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 10 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओ गिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओ गिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 11 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगी य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 12 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओ गिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगी य 13 // अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगी य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 14 1 अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणोय, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मगसरीरकायप्प- | ओगी य 15 / अहवेगे य ओरालियमीससरीरकायप्पओगिणो य, आहारगसरीरकायप्पओगिणो य, आहारगमीससरीरकायप्पओगिणो य, कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 16 / एवं एते चउसंजोएणं सोलस भंगा भवति / सव्वेसि णं संपिडिया असीइं भंगा भवंति। "जीवा णं भंते!" इत्यादि प्रश्रसूत्र सुगम, निर्वचनसूत्रे सर्वेऽपि तावद्भवेयुः सत्यमनः प्रायोगिण इत्यादिरेको भङ्गः / किमुक्तं भवति?-सदैव जीवा बहव एव सत्यमनः प्रायोगिणोऽप्यसत्यमनः प्रायोगिणोऽपि यावद्वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रायोगिणोऽपि लभ्यन्ते; तत्र सदैव वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रायोगिणो नारकाऽऽदीनां सदैवोपपातोत्तरवैक्रियाऽऽरम्भसम्भवात्। सदैव कार्मणशरीर कायप्रायोगिणः सर्वदैव वनस्पत्यादीनां विग्रहेणावान्तरगतौ लभ्यमानत्वात्। आहारकशरीरी च कदाचित सर्वथा न लभ्यते, षण्मासान् यावदुत्कर्षतोऽन्तरभावात्, यदाऽपिलभ्यते तदाऽपि जघन्यपदे एको द्वौ वा, उत्कर्षतः सहस्त्रपृथक्त्वम्। उक्तं च - "आहारगई लोए, छम्मासे जा न होंति वि कयाई। उक्कोसेण नियमा, एक समयं जहन्नेणं / / 1 / / होताइँ जहन्नेणं, एक दो तिन्नि पंच य हबति। उकोसेण उ जुगवं, पुहुत्तमत्तं सहस्साणं '||2|| ततो यदा आहारकशरीरकायप्रयोगी, आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी चैकोऽपि न लभ्यते, तदा वचनविशिष्टत्रयोदशपदाऽऽत्मक एको भङ्गः, त्रयोदशपदानामपि सदैव बहुत्वेनावस्थितत्वात्। यदा त्वेक आहारकशरीरकायप्रयोगी लभ्यते तदा द्वितीयः / तेऽपि यदा बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयः / एवमेव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगिपदेनापिद्वौ भङ्गो लभ्येते, इत्येकयोगे चत्वारी भङ्गाः / द्विकसंयोगेऽपि प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वार इति सर्वसंख्यया जीवपदेनव भङ्गाः। नैरयिकपदे सत्यमनः प्रयोगप्रभृतीनि वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगेऽपि पर्यन्तानि सदैव बहुवचनेन दशपदान्यवस्थितानीत्येको भङ्गः। अथ वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिणः सदैव कथं लभ्यन्ते, द्वादशमौ हूर्तिकगत्युपपातविरहकालभावात् ? उच्यते-उत्तरवैक्रियापेक्षया / तथाहि-यद्यपि द्वादशमौहूर्तिको गत्युपपातविरहकालस्तथापि तदानीमपि उत्तरवैक्रियाऽऽरम्भिणः सम्भवन्ति, उत्तरवैक्रियाऽऽरम्भे च भवधारणाय वैक्रियमिथ तबलेनान्तरवैक्रियाऽऽराभात् भवधारणीयप्रदेशे चोत्तरवैक्रियं वैक्रियमिश्रमुत्तरक्रियबलेन भवधारणीय प्रवेशात्। तत एवमुत्तरवै क्रियापेक्षया भवधारणी योत्तर वैक्रियमिश्रसम्भवात्, तदानीमपि वैक्रियशरीर मिश्रकायप्रयोगिणो नैरयिका लभ्यन्ते, कार्मणशरीरकायप्रयोगी च नैरयिकः कदाचिदेकोऽपि न लभ्यते, द्वादशमौहूर्तिकगत्युपपातविरहकालभावात्!। यदाऽपिलभ्यतेतदाऽपि जघन्यतएको द्वौ वा, उत्कर्षतोऽसड़येयाः। ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगीन लभ्यते, तथा प्रथमो भङ्गो, यदा पुनरेकस्तदा द्वितीयो, यदा बहवस्तदा तृतीय इति / अत एव त्रयो भङ्गा भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु भावनीयाः। पृथिव्यपतेजोवायुवनस्पतिषुऔदारिकशरीरकायप्रयोगिणोऽपि, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पओग 46 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पओगपच्चयफडुयपरूवणा औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपि, कार्मणशरीरकायप्रयोगिणोऽपि सदा बहव एव लभ्यन्ते, इति पदत्रयबहुवचनाऽऽत्मकः प्रत्येकमेक एव भङ्गः, वायुकायिकेष्वौदारिकद्विकवैक्रियद्विककार्मणशरीरलक्षणपदपञ्चकबहुवचनाऽऽत्मक एको भङ्गः, तेषु वैक्रियशरीरिणा, वैक्रियमिश्रशरीरिणां च सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात्। द्वीन्द्रियेषु यद्यप्यन्तर्मुहूर्तकोपपातविरहकालः, तथाऽप्युपपातविरहकालोऽन्तर्मुहूर्त लघु, औदारिकमिश्रगतमन्तर्मुहूर्तमतिबृहत्प्रमाणमत औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपि तेषु सदैव लभ्यन्ते / कार्मणशरीरकायप्रयोगी तु कदाचिदेकोऽपि न लभ्यते आन्तमौहूर्तिकोपपातविरहकालभावात्। यदाऽपि लभ्यते तदाऽपि जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कर्षतोऽसंख्येयाः। ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगी न लभ्यते तदा प्रथमो भङ्गः / यदा पुनरेकः कार्मणशरीरी लभ्यते, तदा द्वितीयो, यदा बहवस्तदा तृतीय इति। एवं त्रिचतुरिन्द्रियेष्वपि भावनीयम्। (पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया इत्यादि) पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्याः नवरं वैक्रियनिश्रशरीरकायप्रोगिस्थाने आदारिक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणो वक्तव्याः / किमुक्तं भवति?-सत्यमनःप्रयोगिणोऽपीत्यादि तावद्वक्तव्यं यावदसत्यामृषावाक्-प्रयोगिणोऽपि, तत औदारिकशरीरकायप्रयोगिणोऽपि, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपीति वक्तव्यम् / एतानि दश पदानि बहुवचनेन सदाऽवस्थितानि / यद्यपि व तिर्यग्पश्चेन्द्रियाणामप्युपपातविरहकाल अन्तर्मुहूर्त्तकस्तथाऽप्युपपातविरह-कालान्तर्मुहूर्त लघु, औदारिकमिश्रान्तर्मुहूर्त्तमतिबृहदित्यत्राप्यौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणः सदा लभ्यन्ते / यद्वस्तु द्वादशमुहूर्त्तक उपपतिविरहकालः स गर्भव्युत्क्रन्तिकपञ्चेन्द्रियतिरश्वां, न सामान्यपञ्चेन्द्रियतिरश्चामिति / कार्मणशरीरकायप्रयोगी तु तेष्यपि कदाचिदेकोऽपिनलभ्यते, आन्तर्मुहूर्तकोपपातविरहकालभावात्। ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरी न लभ्यते तथा प्रथमो भङ्गः। यदा पुनरेको लभ्यते तदा द्वितीयः। यदा बहवस्तदा तृतीयः। मनुष्येषु मनश्चतुथ्यवाक्चतुष्टयौदारिकवैक्रियद्विरूपाण्येकादशपदानि सदैव बहुवचनेन लभ्यन्ते। वैक्रियमिश्रशरीरिणः कथं सदैव लभ्यन्ते?, इति चेदुच्यते-विद्याधराऽऽद्यपेक्षया / तथाहि विद्याधरा अन्येऽपि के चिन्मिथ्यादृष्ट्यादयो वेक्रियलब्धिसम्पन्ना अन्योन्यभावेन सदैव विकुर्वणायां लभ्यन्ते। आह च मूलटीकाकार:-मनुष्या वैक्रियमिश्रशरीरप्रयोगिणः, सदैव विद्याधराऽऽदीनां विकुर्वणाभावादिति। औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, कार्मणशरीरकायप्रयोगी च कदाचित्सर्वथा न लभ्यते, द्वादशमौहूर्त्तिकोपपात - विरहकालभावात् / आहारकशरीरी, आहारकमिश्रशरीरी वा कादाचित्कः प्रागेवोक्तः, तत औदारिकमिश्राऽऽद्यभावे पदैकदेशबहुवचनलक्षणे एको भङ्गगः / तत औदारिकमिश्रपदेन एकवचनबहुवचनाभ्यां द्वौ भङ्गो। एवमेव द्वौ भङ्गो आहारकपदेन, द्वौ चाऽऽहारकमिश्रपदेन, द्वौ कार्मणपदेनेत्येकैकसंयोगे अष्टौ भङ्गाः। द्विकसंयोगे प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यामौदारिकमिश्राऽऽहारकपदयोश्चत्वारः। एवमेव औदारिकमिश्राऽऽहारकमिश्रयोश्चत्वारः, औदारिकमिश्रकर्मणयोश्चत्वारः, आहारकाऽऽहारकमिश्रयोश्चत्वारः, आहारककार्मणयोश्चत्वारः, आहारकमिश्चवार्मणयोश्चत्वार इति सर्वसंख्यया द्विकसयागे चतुर्विशतिभङ्गाः, त्रिकसंयोगे औदारिकमिश्राऽऽहारकाऽऽहारकभिश्रपदानामेकवचनबहु वचनाभ्यामष्टौ भङ्गाः, औदारिकमिश्राऽऽहारककार्मणानामष्टी, औदारिकमिश्राऽऽहारकमिश्रकार्मणानामष्टौ वाऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रकार्मणानामिति सर्वसंख्यया त्रिकसंयोगे द्वात्रिंशद्भङ्गाः। औदारिकमिश्राऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रकार्मणरूपाणां तु चतुर्णा पदानामेकवचनबहुवचनाभ्यां षोडश भङ्गाः। सर्वसंकलनया भङ्गानामशीतिरिति उक्तप्रयोगः। एकसयोगे 8, द्विकसंयोगे 24, त्रिकसंयोगे ३२,चतुष्कसंयोगे 16 / एवं सर्वसंख्यया भङ्गाः 80 / प्रज्ञा०१६ पद। आचा०। (गतिप्रपातभेदाः 'गइप्पवाय'शब्दे तृ-तीयभागे 776 पुष्ठे द्रष्टव्याः) संक्लेशसंज्ञिते विशोधिसंज्ञिते वा वीर्यकसम्यमिथ्यासम्यमिथ्याप्रयोगः। "तिविहे पओगे प-प्रणत्ते। तं जहा-सम्मप्पओगे,मिच्छप्पओगे,सम्मामिच्छप्पओगे। "प्रयोगः सम्यक्त्वाऽऽदिपूर्वो मनः प्रभृतिव्यापार इति / अथवासम्यगादिप्रयोग उचितानुचितोभयाऽऽत्मक औषधाऽऽदिव्यापारवत् / स्था० 3 ठा० 3 उ० प्रश्न० / विसर्जनकुले , रा०नि० चू० / द्रव्योपार्जनीयविशेषे, स्था०३ ठा०१उ०। सूत्र०।"तिविहे पओगे पण्णत्ते / तं जहामणप्पओगे,वयप्पओगे, कायप्पओगे / जहा जोगो विगलेंदयवज्जाण० जाव वेमाणियाणं तहा पओगो वि।" स्था०६ ठा० / रा०। अधमर्णानां दाने, स्था०८ ठा० / उपाये, आ० चू० 1 अ० / ज्ञा० / प्रयुज्यते- इति प्रयोगः / व्यापारे, धर्मकथाप्रबन्धे, "जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा।'' सूत्र० 1 श्रु०१३ अ०। पओगकम्म न०(प्रयोगकर्मन्) पञ्चदशविधेनापि योगेनाऽऽत्माऽष्टी प्रदेशान् विहायोत्तप्तभोजनोदकवदुद्वर्तमानैः सर्वरवाऽऽत्मप्रदेशैर्वाssत्मप्रदेशावष्टब्धाऽऽकाशदेशस्थकार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिक बधाति तत्प्रयोगकर्मेति। कर्मभेद, आचा०१ श्रु०२ अ०१उ०॥ पओगकरण न० (प्रयोगकरण) पुरुषव्यापारनिष्पाद्ये, सूत्र, 1 श्रु०१ अ० 130 / कुसुम्भरागाऽऽदौ, आ० म०१ अ०१ ('करण' शब्दे तृतीयभागे 360 पुष्ट प्रयोगकरणं व्याख्यातम्) पओगकिरिया स्त्री० (प्रयोगक्रिया) वीर्यान्तरायक्षयोपशमाऽऽविर्भूतवीर्येणाऽऽत्मना प्रयुज्यते व्यापार्यत इति प्रयोगो मनोवाकायलक्षणः, तस्य क्रिया करण व्यापृतिरिति प्रयोगक्रिया। अथवा- प्रयोगैमनःप्रभृतिभिः क्रियते वध्यते इति प्रयोगक्रिया, कर्मेत्यर्थः / अक्रियाभेदे, दुष्टत्वेनास्या अक्रियत्वात् / स्था० 3 ठा०३ उ०। आ० चू०। कायाऽऽदिव्यापारे, स्था०५ ठा०२ उ०। "पओगाकिरिया तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-मणपओगाकिरिया, वइप्पओगकिरिया, कायप्पाओगकिरिया / तत्थ मणपओगकिरिया अट्टरुद्दज्झणाई, वइस्पओगो वायाजोगो. जोतित्थकरेहिं सावजादीगरहिओ। सेच्छाए भासइ। कायप्पओगकिरिया पभत्तस्स गमणादकुंचणपसारणादिचेट्टाकायस्स।"आव०४ अ०॥ पओगगइ स्त्री० ( प्रयोगगति) सत्यमनःप्रभृतिकस्य पच्चदशविधस्य प्रयोगस्य प्रवृत्ती. भ० 8 207 उ०। पओगपच्चयफड्डयपरूवणा स्त्री० (प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा) प्रकृष्टो योगः प्रयोगस्तेन प्रत्ययभूतेन कारणभूतेन येन गृहीताः पुद्गलास्तेषां स्नेहमधिकृत्य स्पर्धकप्ररूपणा प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररुपणा / प्रयोगजन्यस्पर्धकानां प्ररूपणायाम्, क० प्र०) तत्र प्रयोगो योगः, तत्स्थानवृद्ध्या यो रसः कर्मपरमाणुषु के Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पओगपञ्चयफडुयपरूवणा 47 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंकाययण वलयोगप्रत्ययतो वध्यमानेषु परिवर्धते स्पर्द्धकरूपतया तत्प्रयोगप्रत्य- मुपकाराय आवश्यकस्य व्याख्यानरूपामिमा नियुक्तिं कृतवन्तः, स्पर्द्धकम् / उक्त च- ''होउ पओगो जोगो, तट्ठाणविवक्षणाएँ जो उ अन्यथा सम्यकपरिज्ञानाभावतः शिष्याणां मोक्षपथप्रवृत्त्युच्छेदप्रसक्तेः, रसे / परिवऽई जीवे, पयोगफडु तयं वेति।।१।।" तस्य पञ्च अनुयोगद्धा- कारणादेव कार्यसिद्धिभावात्। आह च भाष्यकृत् - "नाणकिरियाहिँ राणि / तद्यथा- अविभागप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा, मोक्खो, तम्मयमावस्सय जतो तेण / पञ्चक्खाणारंभो, कारणतो अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा चेति / (23 गा०) क० प्र०१ प्रक०। कजसिद्धि त्ति // 3 // '' ततः श्रोतृणामपि परम्परया मुक्तिभावाद्भवति तेषां पओगपरिणय त्रि०(प्रयोगपरिणत) जीवव्यापारेण तथाविधपरिण- पर प्रयोजनं निश्रेयसावाप्तिरिति प्रयोजनवान् आवश्यकप्राराभप्रयासः / तिभुधनीतायां यथा पटाऽऽदिषु कर्माऽऽदिषु वा। त्रिविधपुद्गलभेदे, स्था० आ०म०१ अ०। प्रवर्तन, "जत्तत्थं गहणत्थं च,लोगे लिंगप्पओयणं।" ३टा०३ उ० . उत्त०२३ अ०। पओगबंध पुं० (प्रयोगबन्ध) जीवप्रयोगकृते बन्धभेदे, भ०८ श०८ उ०। पओत्तधर पुं० (प्रतोत्रधर) शकटखेटके, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। जीवव्यापारबन्ध, भाश० उ०ा जीवप्रयोगेण द्रव्याणां बन्धने, भ० पओली स्त्री० (प्रतोली) गृहाणां प्रकारस्य चान्तरेऽष्टहस्तविस्तारे 18 श०३ उ०। ('मागंदिय' शब्दे वक्तव्यता) हस्त्यादिसंचारमार्गचरिकायाम्, अनु० / ज्ञा०। ''गोउरं पओली य।" पओगमइस्त्री० (प्रयोगमति) वादविषयकपरिज्ञाने, "पत्तो पओगमत्ती, पाई० ना० 260 गाथा। चाउव्विहा होइ आणुपुवीए! आयपुरिसंचखेत, वत्थु चियपउंजए वायं | पओस पुं०(प्रद्वेष) प्रकृष्टो द्वेषः प्रद्वेषः / उत्त०३४ अ०। आव०। मत्सरे ||13|'' उत्त० 1 अ० / दशा० / स्था०। आव०४ अ०! स्था। साआतुअन्त०! रा०। प्रीती, कर्म०१कर्मः। पओगसंपया स्त्री०( प्रयोगसंपत्) गणिसंपतेंदे, स्था०८ ठा०। कषाये, "कोहाईओ कसाओ" स्था०१० ठा। (गणिसंपया' शब्दे तृतीयभागे 826 पृष्ठे व्याख्याता) * प्रदोष पुं० (प्रकृष्टदोषे), प्रदोषिके, आचा० 2 श्रु० 3 चू० "सेयं पओजग त्रि०( प्रयोजक) काऽर्थाऽऽदौभृत्याऽऽदीन् प्रयुक्तरि, प्रयुज- पओसं।'' पाइ० ना०२३४ गाथा। ग्बुल। निकृष्टस्य भृत्याऽऽदेः प्रेरके व्याकरणोक्ते हेतुसंज्ञे कर्तरि, पं०व० पओसंझाण न० (प्रद्वेषध्यान) प्रकृष्टो द्वेषः प्रद्वेषस्तस्य ध्यानमिन्द्रभूतिं १द्वार / अम01 प्रति कमठस्येव श्रीवीरं प्रति कर्णयोः कटशलाक्यं क्षिपतो गोपस्येव पओजण-न० (प्रयोजन) प्रयोज्यते येनतत्प्रयोजनम् कार्ये , तदर्थमव दुनि, आतु हि प्रयोज्यते। आ० चू०१ अ०। कारणे०नि० चू०१३उ०। येन प्रयुक्तः पओहर पुं०(पयोधर) स्तने, जं०१वक्ष. / प्रश्न० / 'पओहरा तह थणा प्रवर्तते / सूत्र० 1 श्रु०१२ अ० / विशे०। प्रव०। (णमोकार शब्दे सिहिणा।'' पाइ० ना० 106 गाथा। चतुर्थभागे 1844 पृष्ठे तत्प्रयोजनमुक्तम्) "पूर्वमेवेह सम्बन्धः, साभिधेयं पंक पुं० (पड्क) पयतीति पङ्कम् / पापे, सूत्र०२ श्रु० 2 अ०। प्रश्न / प्रयोजनम्। मङ्गलं चैव शास्त्रस्य, प्रयोक्तब्यं प्रवर्तकम्।।१।। ' दशा०१ ब०। कर्दमे, स्था० 8 ठा०। उत्त०/ आव०। ओध०। भातं०ा औ०। अ। जी० / तत्र प्रयोजनं द्विधापरम्, अपरं च। पुनरेकैकं द्विधा कर्तृगतम, चिक्खल्ले, बृ०६ उ० / श्वेदाऽऽर्द्रमले० उत्त०२ अ०॥ संथा० / भ० / श्रोतृगतं च। तत्र द्रव्यास्तिकनयमतपर्यालोचनायामागमस्य नित्यत्वा- / "पंको दव्वभावतो, दव्वओ चलणी, भाव-ओ असंजमए।' नि० चू०१ स्कर्तुरभाव एव / तथा चोक्तम् - एषा द्वादसाङ्गी न कदाचिन्नासीत्, न उ०। 'जंबालो खंजणो पंको।" पाई० ना० 126 गाथा। कदाचिन्न भविष्यति न कदाचिन्न भवति" इति वचनात्। पर्यायास्ति- पंकजलणिमज्जण न० (पङ्कजलनिमजन) कर्दमप्रायजले, बोलने, प्रश्न कनयमतपर्यालोचनायां चानित्यत्वादवश्यंभावी तत्सद्भावः, तत्वपर्या- 4 आश्र० द्वार। लोचनायां तु सूत्रा भयरूपत्वात् सूत्रापेक्षया त्वनित्यत्वात्कथञ्चित्कर्तृ- पंकप्पभा स्त्री० (पङ्क प्रभा) पङ्क स्य प्रभा यस्यां सा पङ्क प्रभा। सिद्धिः / तत्र च सूत्रकर्तुरनन्तर प्रयोजनं सत्वानुग्रहः परं त्वपवर्गप्राप्तिः। पड़ाभद्रव्योपलक्षितायां चतुर्थनरकपृथिव्याम्, अनु०। स्था०। प्रज्ञा०। "सर्वज्ञोक्तोपदेशेन, यः सत्वानामनुग्रहम् / करोति दुःखतप्तानां, स भ०। प्रव०। प्राप्नोत्यचिराच्छिवम् // 1 // " तदर्थप्रतिपादकस्य भगवतोऽहंतः किं पंकबहुल त्रि० (पङ्क कबहुल) पङ्क यतीति पडू पापं, तबहूलस्तथा। प्रयोजननिति चेत् ? उच्यते - न किञ्चित्. कृतकृत्यत्वात्। प्रयोजन- बहुलपापे, पापप्रचुरे, सूत्र०२ श्रु०२अादशा०। रत्नप्रभायाः पृथिव्याः मन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासो न समीचीन इति चत्। न / तस्य तीर्थकर- प्रथमकाण्डे, जी०३ प्रति०१ अधि०१ उ०। नामकर्मविपाकोदयप्रभवत्वात् / वक्ष्यति च- "तं च कहं वेइज्जइ. पंकय न० (पङ्कज) पङ्के जातं पङ्कजम्। विशे० / अरविन्दे, संथा० / अगिलाए धम्मदेखणादीहिं।" इति। श्रोतृणामनन्तरं प्रयोजनमावश्यक- विशे०। (अस्यैकार्थिकानिचतुर्थभागे नलिण' शब्दे 2772 पृष्ठे गतानि) श्रुतस्कन्धार्थपरिज्ञानं, परं निःश्रेयसावाप्तिः। कथमिति चेत् ? उच्यते- पंकरय न०(पङ्करजस्)पङ्कःकर्दमः,सएव रजः पद्मस्वरूपोपरइह ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः सम्यगवबोधपुरः सरसावद्यानवद्ययोगनिवृत्ति- जनात् लक्ष्णाऽवयवत्वेन वा रेणुतुल्यत्वात्। पङ्क रूपे रजसि,औ०। प्रवृत्तिभ्यां सवितुः खरकिरणैर्जलार्द्रशाटिकायाः सलिलकणानामिव पंकवई स्त्री० (पङ्क वती) मन्दरस्य पूर्वेण सीताया महानद्या उत्तरेण कर्मपरमाणूनानवश्यमुपशोषोपगमसंभवात्, ज्ञानक्रियाऽऽत्मकं चावश्य- वहन्त्यामन्तनद्याम्, स्था० 2 ठा० 4 उ० / वेगवत्याम्, 'दो पंकयई।'' कमुभयस्वभावत्वात् / तयोश्च ज्ञानक्रिययोरवाप्तिर्विवक्षिताऽऽवश्यक- | स्था०२ ठा०३ उ०। श्रुतस्कन्धश्रवणतो, जायतेनान्यथा, तत्कारणत्वात् तदवाप्तेः, अत एव पंकाययण न० (पङ्कायतन) पङ्क स्थाने, यत्र पङ्कि लप्रदेशे लोका भगवन्तो भद्र, बाहुस्वामिनः परमकरुणापरीतचेतस ऐदंयुगीनसाधूना- | धर्मार्थ लोटनाऽऽदिक्रियां कुर्वन्ति। आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंकावई 48 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंचकप्प पंकावई स्त्री०( पकावती)पोऽतिशयत्वेनास्त्यस्यामिति पनावती। शराऽऽदित्वाद् दीर्घत्वम् / महाविदेहे तृतीयान्तनद्याम, जं०। कहि ण भंते ! महाविदेहे वासे पंकावईकुंभे णामंकुडे पण्णत्ते ? गोअमा ! मंगलावत्तस्स पुरत्थिमेणं पुक्खल विजयस्स पञ्चच्छिमेणं णलवंतरस दाहिणे णितंबे एत्थ णं पंकावई०जाव कुंडे पण्णत्ते, तं चेव गाहावइकुंडप्पमाणं ०जाव मंगलावत्तपक्खलविजए दुहा विभयमाणी विभयमाणी, अवसेसं चेव गाहावई। ज०४ वक्ष। पंकिय त्रि०(पङ्कित) आर्द्रमलोपेते, भ०६श०३ उ०। जल्ल मलग्रस्ते, नि००१ उ०॥ पंख पुं० (पक्ष) पक्षिणामवयर्व उड्डयनसाधने, आ० म० 1 अ०। पञ्चदशस्वहोरात्रेषु, ज्यो०२ पाहु०। पंखासणन० (पक्षासन) येषामधोभागे नानास्वरूपाः पक्षिण उपविशन्ति तेषु, रा०। पंखुडी (देशी) पत्रे, दे०ना० 6 वर्ग 8 गाथा। पंगु त्रि० (पङ्गु) अनभिनिर्वृतपाण्याद्यवयवविभागे मृगापुत्रवत्पूर्वकृताशुभकर्मोदयाद्धिताहितप्राप्तिपरिहारविमुखेऽतिकरुणां दशां प्राप्त, आचा०१ श्रु०११०२ उ०। पाई० ना०।। पंगुरण न0 (प्रावरण) "प्रावरणे अंग्वाऊ" ||8 / 1 / 175 / / इति प्रावरणशब्दे आदेः स्वरेण सस्वरव्यजनेन सह अम्वा-देशः। उत्तरीयवस्त्रे, प्रा०१पाद। पंगुल त्रि० (पडल) चंङ्क मणाऽसमर्थे, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। पादगमन शक्तिविकले, प्रव०११० द्वार। ग०। गमनासमर्थे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / व्य०।पादजवाहीने, नि०चू०११०।"कम्मदोसेण पंगुलिया जाया समरिया नियजाती।" आ० म०१ अ० पंगुलअपुं० (पडलक) गमनाऽसमर्थे, पाई० ना० 235 गाथा। पंच त्रि०(पञ्चन) संख्याविशेषवत्सु दशार्दू नं० / नि० चू० / अनु०॥ उत्त०। आव०। पंचंग पुं० (पञ्चाङ्ग) पञ्चाङ्गान्यवयवा विवक्षितव्यापारवन्ति यत्र स पञ्चाङ्गः / पञ्चावयर्व जानुदायाऽऽदीनि भूस्पृष्टानि कृत्वा प्रणिपाते, पञ्चा० 4 बिव० / सङ्घा०। ("पंचंगो पणिवाओ'' इत्यादिगाथा 'पणिवाय' शब्दे व्याख्यास्ते) पंचंगमुद्दा स्त्री० (पञ्चाङ्गमुद्रा) पञ्चाङ्गान्यवयवाः करजानुद्वयोत्तमाङ्गलक्षणानि विवक्षितव्यापारवन्ति यस्याः सा तथा / पञ्चाङ्गे अङ्गविन्यासविशेषे, ध०२ अधि०। पंचंगुलि देशी- एरण्डवृक्षे, दे० ना०६ वर्ग 17 गाथा। पंचंगुलिय पुं० (पञ्चाङ्गुलीय) अङ्गुलिपञ्चकशालिनि हरते, अन्यत्र पञ्चाङ्गुलं दारु। 'गोसीससरसरंवंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितलं।" ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। रा०। स०। पंचंगुलिया स्त्री० (पञ्चाङ्गुलिका) वल्लीभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। पंचकत्तिय पुं० (पञ्चकृत्तिक) कृत्तिकासु जातपञ्चकल्याणे कुन्थुनाथे, स्था० 5 टा० 1 उ०। पंचकप्प पुं०(पञ्चकल्प) भद्रबाहुस्वामिना नवमपूर्वान्नियूंढ पञ्चविध कल्पप्रतिपादके ग्रन्थभेदे, संघदासगणिकृतभाष्यविभूषिते नियुक्तिग्रन्थभेदे, पं० भा०। बंदामि भद्दबाहुँ, पाईणं चरिम सगलसुयनाणिं / सुत्तस्स कारगमिसिं,दसाण कप्पे य ववहारे||१|| कप्पंति नामनिप्पन, महत्थं वत्थुकामओ। निजूहगस्स भत्तीए, मंगलट्ठाएँ संथुतिं / / 2 / / तित्थगरणमोकारो, सत्थस्स उ आइए समक्खाओ। इह पुण जेणऽज्झयणं, निजूढं तस्स कीरति तु / / 3 / / सत्थाणि मंगलपुर-स्सराणि सुहसवणगणधरगुणाणि। जम्हा भवंति जंति य, सिस्सपसिस्सेहिँ पचयं च // 4 // भत्तीय सत्थकत्तरि, ततों उवओगगोरवं सत्थे। एएण कारणेणं, कीरइ आदी णमोकारो॥५॥ वद्ग-अहिवाद-थूतीए, सुभसद्देणेगहातु परिगीतो। वंदण-पूयण-णमणं, थुणणं सक्कारमेगट्ठा // 6 / / भई सि सुंदरं ति य, तुलत्थो जस्स सुंदरा बाहू / सो होति भद्दबाहू, गोणं जेणं तु बालत्ते / / 7 / / पारण य लक्खिजइ, पेसलभावो तु बाहुजुयलस्स। उववण्णमतो नाम, तस्सेयं भद्दबाहु त्ति / / 8 / / अण्णे विभद्दबाहू-विसेसणा गोत्तगणहरपाइणं / अण्णेसिं पडिसिद्धे, विसेसणं चरमसगलसुतं / / 6 / / चरिमो अपच्छिमो खलु, चोद्दसपुव्वाउ होति सगलसुतं / सेसाण वुदासट्ठा, सुत्तकरज्झयणमेयस्स।।१०।। किं वेण कयं तं तू, जं भण्णेति तस्स कारओ सो तु। भण्णेति गणधरीहिं, सव्वसुयं चेव पुव्वकतं / / 11 / / तचो चिय निजूढ़, अणुग्गहटाए संपयजतीणं / तो सुत्तकारओ खलु, स भवति दसकप्पववहारे।१२। वंदे तं भगवंतं, बहुभहसुभद्दसव्वओभई / पवयणहियसुयकेतुं, सुयणाणपभावगं धीरं / / 13|| वदिसद्दो पुव्वभणिओ, तदतीतं चेर नामगोत्तेहिं / इस्सरियइगुण भगो, सो से अत्थि त्ति तो भगवं / 14] भदं कल्लाणं ति य, एग8 तं च सुबहुपं जस्से सो होती बहुभद्दो, सोभण भद्दो सुभद्दो त्ति॥१५॥ खीरासवमादीणि तु, सुभाणि भद्दाणि तस्स उ बहूणि। सव्वओ इहपरलोए, भदं वो सव्वतोभद्दो॥१६|| आमोसहादि इहए पसलोए होतऽणुत्तरसुरादी। सुकुलुप्पत्ती य तओ, ततो य पच्छा य णिध्वाणं / / 17 / / भाति त्ति भद्दमहवा, भादी णाणादिएहिं सो जम्हा। सो होति भद्दनामो, कुव्वइ भद्दाणि वो जम्हा / / 18 / / पवयण दुवालसंगं, तस्स हितो तं करे ति वोच्छित्तिं / संघो तु पवयणं तू, हितोपदेसं अतो तस्स / / 19 / / केतूसद्दी जसिए, ओसियगंतुं तस्स ओसुहं तु। इहलोगे परलोगे, सो भगवं होति परमसुही / / 20 / / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकप्प 46 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंचजाम वायणयपभावणया, सुतनाणगुणा य ते वदति लोए। अधुना पञ्चकल्याणकप्रायश्चित्तसाध्यातिचारस्थानानि विदुसपरिसाएँ मज्झे, सुतनाणपभावणा एसा / / 21 / / गाथायुगलेनाऽऽहकिं कारणं तस्स कओ, महया भत्तीऍतु एमोकारो / दप्पेणं पंचिंदिय-वरोवणे संकिलिट्ठकम्मे य। जन्हा ते णिजूढा, अम्ह हियट्ठा य सुत्त इमे / / 22 / / दीहद्धाणासेवी, गिलाण कप्पावसाणे य५७|| आयारदसाकप्पो, ववहारो नवमपुव्वणीसंदो। सव्वोवहिकप्पम्मिय,पुरि मत्ताऽपेहणे य चरिमाए। चारित्तरक्खणट्ठा, सूयकडस्सुवरि ठवियाई॥२३॥ चाउम्मासे वरिसे,य सोहणं पंचकल्लाणं / / 58|| अंगदसा अण्णा वि हु, उवासगादीण तेण तु विसेसो / दो धावनवल्गनडेपनाऽऽदि प्राग्व्याख्यातः,तं कुर्वता पञ्चेन्द्रिपं० भा०१ कल्प! यव्यपरोपणं विघातनं कृतं स्यात्तस्मिन् दर्पण पञ्चेन्द्रियव्यपरोपणे, गड़लाऽऽदीनि सत्थाणि, पूर्वाभिहितानि मङ्गलानि, पूर्वता चास्मिन् संक्लिष्टं कर्म यद् गाहनस्य लिङ्गस्य करपरिमर्दनेनशुक्रपुद्गलनिष्काशन अन्न कल्माऽऽख्रा ओघनिष्पन्ने निक्षेपे भगवन्तःतीर्थकरा ऋषभाऽऽद्याः करकर्मेति यदुच्यते / चकारात लिङ्गस्य स्नेहाऽऽदिना म्रक्षणाऽऽदिक कृतार्थाः कृतकृत्या इति कृत्वा तेषां नमस्कारः कृतः। अधुनाऽस्मिन्ना- च, तस्मिन् संक्लिष्कर्मणि (दी-हद्धाणासेवि त्ति) षष्ठीस्थाने प्रथमा। मनिष्पन्न निक्षेपे पञ्चकल्पसंज्ञकेयेनेदं दशाकल्पसूत्रं प्रवचनहितार्थाय ततो दीर्घाध्वनि यदाधाकर्म अध्वकल्पाऽऽदिकं यत् शुष्ककदलीफ्लापूर्वादाइत तस्य नमस्कारं करोमि प्रत्येकशः गाहासूत्रकर्तुः / तत्राऽऽद्या ऽऽदिधरणाऽऽत्मकं तदासेविनः, ग्लानकल्पावसाने च ग्लानकल्पो गाया-(पदागि भववाहु)वदि स्तुत्यभिवादनयोः। वन्दनमर्वनं, प्रणि पात ग्लानाऽऽचारः, आधाकर्मिकक्वाथपथ्याऽऽधुपजीवनसंनिधीभूतचूर्णइत्यर्थः : निर्देशं करोति-भद्रबाहु,प्राचीनमितिप्राचीनजनपदः चरमं यः स्याऽऽसेवनं वा तस्यग्लानकल्पस्यावसाने, नीरोगित्वे जातेसतीत्यर्थः / पश्चिम इत्यर्थः / नकलसुयनाणिं सकलं कृत्स्नं निरवशेषमित्यर्थः तानि वा समुच्चये। सर्वोपधिकल्पे च वर्षाऽऽरम्भं विनाऽपि सर्वोपधेः कल्पक्षालने च चतुर्दशपूर्वाणि ततस्तेन भगवता पूर्वधारकेननवमात्पूर्वात्प्रत्याख्या- कृते सति (पुरि मत्तापेहणे य चरिमाए) सूचकत्वात् सूत्रस्य (पुरि त्ति) नामधेयादाहृतं, ताणि य कप्पव्ववहाराणि य वयणउवग्गहकराणि पौरुष्या, (चरिमाएत्ति) चरमभागोनायां, प्रथमपादोनप्रहरे सतीत्यर्थः / भविस्संतीति कटु तेण भगवता निजूढाणि, तेन कारणेन कार्यवदु मात्राप्रेक्षणे मात्रकस्य भिक्षापात्रकस्य प्रमादेनाप्रतिलेखने तथा पचार इति कृत्वा स एव भगवान् प्रवचनोपग्रहकर्ता; तेण महता भत्तीए चातुर्मासिके वार्षिके च पर्युषणाऽऽख्ये पर्वणि शुद्धौ प्रक्रान्तायां सर्वेष्वभुजोति नमोकार तस्सेव करेमि-(वंदे तं भगवंत गाहा) भगवन्त इति प्येतेषु पदेषु शोधकं पशकल्याणकं प्रायश्चित्तम् / अत्राऽऽहदर्पतः यशस आख्या, भगवन्तः यशोवन्त इत्यर्थः। अथवा-भगवत इति / पशेन्द्रियवधाऽऽदौ दीयता नाम प्रायश्चित्तं, चातुर्मासिकवार्षिकेषु रास्मात् ससुरासुरनरोरगतिर्यग्योनौ जीवलोकः कम्मभोगारतितृषित- चातिचाराभावे कथं प्रायश्चित्तमिति? अत्रोच्यते प्रादोषिकार्द्धरात्रिकगर्द्धिमूञ्छिताध्यपपन्नस्तेन भगवता वान्त इतीत्यतो भगवन्त इति / वैरात्रिक प्राभातिकाऽऽख्यकालानां कदाचिदग्रहणं सूत्रार्थपौरुष्यौ बहुभद्र इति / भद्रि कल्याणे सुखे च / बहु सुखं साद्यपर्यवसितं निर्वाणं जात्वकरणमप्रतिलेखितदुःप्रतिलेखिताऽऽदि चेत्यादीन सूक्ष्मातिचारान् यस्यासौ साधनार्थमभ्युद्यत इत्यतो बहुभद्रः / बहु च सद्भद्रं च निर्वाणं, कृतानपि यतो न जानाति, न वा स्मरति, ततश्चातुर्मासिकवार्षिकेषु भद्रसंज्ञकः शोभनं च इत्यतःसुभद्रः। सर्वतोभद्र इति। सर्वतः सर्वावस्थं निरतिचारस्यापि प्रायश्चित्तं भवति। चकारद्वयं चात्र गाथायां समुच्चयार्थे / एष्य निरुपद्रवं चैतत् इत्यतः सर्वतोभद्रप्रवचनमितिद्वादशाङ्गम्। अथवा- "पुरि मत्तापेहणे य, चरिमाए।" इत्यत्र यश्चकारः सोऽनुक्तसमुयार्थः, श्रमणराडः, तस्य हितसुखकेतुके उच्छ्रये / कस्मादसौ केतुभूतः?- तेन यद्युपोषितः कश्चिचरमायां पाश्चात्यपौरुष्यामपि पात्रकाणि न यस्मात्तेन भूतज्ञानं दशाकल्पव्यवहारनिशीयमहाकल्पसूत्राऽऽद्याः / प्रतिलेखयति, आस्तां प्रथनायां, तदा तस्यैकं कल्याणक दीयत इति प्रवचनाभिहिता नियूंढा इत्यर्थः / श्रुतज्ञानप्रभावकाः ते इत्यभ्युपपत्तेः। समुचीयते। जीता श्रुश्रद / ज्ञा अवबोधने।भा दीप्तौ। धी बुद्धिरित्यर्थः। पं० चू०१ कल्प। पंचकोट्टग पुं० (पञ्चकोष्ठक) पञ्चभिः कोष्टकैयुक्तपुरुष, पुरुषस्य हिं पञ्च (पञ्चविक्षवल्पग्रन्थे पञ्चाधिकाराः-तथा च षड्विधकल्पः, सप्तविध- कोष्टका भवन्ति / तं०। कल्पः, दशविधकल्पःविंशतिविधकल्पः, द्वाचत्वारिंशद्विधकल्पश्चेति। | पंचखंध पुं० (पञ्चस्कन्ध) रूपाऽऽदिषु स्कन्धेषु. सूत्र० 1 श्रु०१० तेच स्वस्वस्थानदर्शिताः। तेषां नामनिर्देशस्सु 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे 1301 "पंचखंधे वयंतेगे।' पञ्चस्कन्धप्ररूपणपुरःसरं तन्निराकरण 226 पृष्ठे कृतः) महत्पशकल्पभाष्यं सङ्घदासक्षमाश्रमणविरचितं समाप्त- 'खणियवाइ शब्द तृतीयभागे 704 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) मिति : "नाहग्गेणं पंचवीससताइं चउहत्तराई 2574 / सिलोयग्गेणं / पंचचित्त पुं० (पञ्चचित्र) पञ्चसुच्यवनाऽऽदिदिनेषु चित्रा नक्षत्रविशेषो यस्य बत्तीससताणि दसअट्टसहियाई 3218 / पं० भा० 5 कल्प। स पशाचित्रः। चित्रासु जातपञ्चकल्याणे, पद्मप्रभस्य चित्रा नक्षत्रं पञ्चकल्पचूर्णिः सभाप्ता। ग्रन्थप्रमाणसहसत्रयं शतमेकं पञ्चविंशत्युत्तरम्। च्यवनाऽऽदिषु पञ्चसु स्थानेषु भवतीति। स्था० 5 ठा० 1 उ०। सत्त०। पं० चू०५ कल्प। पंचजण पुं०(पाञ्चजन्य) पञ्चजने दैव्ये भवः-यञ्। विष्णुशङ्ख, वाचा पंचकल्लाणय न० (पञ्चकल्याणक) काम्पिल्यनगरे तत्र हि भगवतो वासुदेवशङ्खे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। स्था०1तिका विमलनाथस्य च्यवनजननराज्याभिषेकदीक्षाकेवलज्ञानलक्षणानि पञ्च पंचजाम पु० (पञ्चयाम) हिंसासत्याऽस्तेयब्रह्मचर्याऽपरिग्रहविरतिरूपे कल्याणकानि जातानीति पञ्चकल्याणकमिति तत्प्रसिद्धमिति / ती प्रथमान्त्यतीर्थकरधर्मे , स्था०६ ठा०। (चातुर्यामो धर्मः 'चाउज्जाम' २४कल्प। तपोविशेषे, जीतः। शब्दे तृतीयभागे 116 8 पृष्ठे उक्तः) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचणद 50 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंचमासिय पंचणदए / सनमाली गन्द्रभागा मद्र चतुर्थभागे 1835 पृष्ठ विलोकनीयः। अस्य धिगयोपविधान परी विशेषः भारदरा ... .. स्मृतः / / 1 // इन्युक्त 'उदहाण' शब्दे द्वितीयभागे 1046 पृष्टं गतः ) अगुरुवरणविगिर या: साना नदीनां समाहारः। काशरिधारा विणयाऽऽदिबहुमाणपरिआसाणुक्कमोयलद्ध अणेगसोगरांताबु वेगवाहियेकिराया सायनुना था. नका गांधारदुवखदारिद्दकिलेसरोगसंजोगजरामरणगडनिवासाइदःकमाई.यानी सन्निहि उस पास सावयम्गहभीमभवादहितरंगभूय इणगो राइलागमम मासस मिच्छतदोसोबहराबुद्धिपरिकप्पियकुभणिय अघडमाण परोसह 3पंचणाम ( मन) प नामनि, अनु०। दिष्टंतजुनीविरुद्ध सणिकपचलस्स पचमंगलमहासुखंधार से किं तं पंचनामे?| पंचनामे पंचविह पण्णत्ते / तं जहा- नामिकम्, पंवमज्झयणेण चूलापरिक्खित्तरस पवरपवयणदेवया इहिअस्स नपातिकम्, आख्यातिकम् औपसर्गिकम्, मिश्रम् / अश्व शिपदमपरिछिन्नमालावगरात्तवखरपरिमाणा अणंतागमा अवाथरइतिनामिकम, खल्विति नैपातिकम्, धावतीत्याख्यातिकम्, साहग स-व्वमहामंतपसरविजाण परमपवियभूअं- 'नारिहता एरीत्यौपसर्गिकम्, संयत इति मिश्रम् / से तं पंचनामे // 126|| तिपदमज्झायण अहिजेयव्य, तद्दिअहे अ आयंबिलेण पारसव : तहद हा -नामिका परतुरावकाचा खजितिनपाति- वीयदिणे अणेगाइसयगुणपणक्खरपरिमाण- 'नो सिद्धा' ति काय - मामला / धावतीत्यारगातिकम, क्रियाप्रमानवार / अज्झयणं आहेजेयव्यं तद्दिअहे अ आयंबिलेण पारेयव्यातही तइ.अदित कोकम, उ पडितलान संगत इति मिश्रम, अणेगाइसयगुणपंउववेयं अणतभरियत्थपसाहगं अणतर ने एक कारण अरनियापिति पसरण पञ्च- लिण्यपरिछिन्ने मालावगसत्तक्खपरिमाणं-' नमो वज्झााण 'ते -ग-मानीयम्। 'ससे पंचनाम' इति निन|१२६ चोत्थमज्झयणं अहिलेयव्वं, तद्दिअहे अ आयंबिलेण पार अन्तं / 'नाम पंचतित्थी स्त्री०(माजमतीकी)ीक्षक, अर्धवगिरिधि / लोए सब्बसाहूणं, ति पंचममज्झयण पंचमणिं आयबिलेण र हेव तदिPा प्रारूपालन :02 अशिक च्छाणुगामिअएकाररुपयपरिछित्तंति आलावातिनीरावस्थरपरिमाण एचत्त न साना पूनियासिसानां गाय पालामा मरणे, "एसो पंवनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो / मंगलाण च राव्होरा, पदम अनभिभारा स्वारसय प्रशः इति तस्य हवा मंगलं / / 1 / / " इलि / चूलं ति छदुरात्तगदिनेणेव का विभाग ! सभा Cas आयविलहि अहिजेराव्वं / एवमेव पंचगंगलमहासुअखंध स 'वनपय. पंचदसीन पदमागम, सू००९पाह०१४ क्खरमनाविशुद्धगुरुणोववेयं गुरूवइट्ट कसिणमहिनित्ताण तहा कायन जहाऽऽणपुवीएपच्छाणुपुवीए अणाणुपुव्वीए जायाए (?) ताजात पंचदिव्य ..::शिवधि: 1. मेलो-क्षेपः 2, योनि तोवऽणतरभणिय लिहिकरणमुहुराणक्ख जोगलग्गस सिबल - सनादः, आका होलानमिशिधापणं 5 जंतुविरहिओ गोसे चेइआलावगाइकोण अहमभण समणुजणविर ए "राजमा कालसापक -401 अधिक गायमा ! महया पबंधेणं सुपरिहूण णिउठा असंदिवं सुत्तत्थं अणेगह सोऊण धारेयव्यं / एयाए विहीए पंचमंगलरस गोयमा! त्रिण अयहाणा पंचाला पञ्चपुल भरा- 20058/01 उ. कायव्यं इत्यादि, तदयगनेकसूत्रसिद्धो धर्मास्तिकायवदनादिरनन्तपंचपुव्वासाढ५० पासपूर्वापाटीप याला अपव्यवना तीर्थकरगणधरपूर्वधरैरुपदर्शितमहिमा पक्षमङ्गलमहाश्रुतस्कन्धा यैरपलप्यते तेषागन्युश्रुताभ्युपगमोऽपि गोलागुलगलोत्तरणनि-शितुल्य पंचपूस पुण) पृष्यास रांजायनादिन्याणपश्च- इति ध्येयम् / प्रति०। महा० पंचमय न० (पञ्चमक) पञ्चममेव पञ्चमकम् / प्राकृततत्या स्वार्शपंचभूयवाइ:( शानिन कमा प्रधान ड्रीया रणा- कप्रत्ययः / पञ्चसंख्यापूरणे, आ०म०१ अ०। प्रश्न जना मा जनिक नारि0१४० 1.10 / पंचमहव्वइय पुं० (पञ्चमहाव्रतिक) पञ्चयामेधर्म, सूर०२ श्रु०७ अ०; पंचम ...ना परम पार पडादस्वराणा पंचमहव्वयन० (पञ्चमहाव्रत) सर्वप्राणातिपातविरत्यादिरूपे पार ": :म: : यामसुनारादि पुरस्थान __ महाप्रतेषु, "पंचमहत्वयविसालसाले।' पञ्च महाद्रतानि एव विशाल 11 आय व नामकर शिरोमः। पिरतीः शालाः शाखा यस्य रातथा। प्रश्र०५ सम्बद्वारा APNE ..श्रीरशाtio! पंचमहाभूय न० (4महाभूत) पृथिव्यतेजोवाच्वाकाशलक्षणे भूतेषु, अनउपा दिश० सूत्रका प्रश्नः / स्था०॥ पंचमंगलमहासुयक्त्रं 5 . तस्व१५) पापर- पंचमासिय पुं० (पाञ्चमासिक) पञ्चसु मासेषु अतीतेषु भो, आधा०५ हमारक HERE U : मोकार 5010130 / आ०५०। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी 51 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंचवत्थुय पंचमी स्त्री०(पञ्चमी) प्रतिपदातः पञ्चसंख्यापरिमितायां तिथी, द० प० / ज्या० / डसिभ्यांभ्यसितिविभक्तिभेदे, "अवायाणे पंचमी।" अनु० स्था। पंचमुहिलो य पुं० (पञ्चमुष्टिलोच) पञ्चभिर्मुष्टिभिः शिरःके-शापनयने, (ऋषभः) 'सयमेव चउहि अट्ठाहिं मुट्टिहिं लोयं करे।' स्वयमेव चतसृभिः / अट्टाहिं ति) मुष्टिभिः करणभूताभिलुशनीयके शाना पक्षमभागलुचिकाभिरित्यर्थः / लोच करोति अपराङ्गालड़ाराऽऽदिमोचनपूर्वक मेद शिरोऽलड्वाराऽऽदिमोचन विधिक मायेति पर्यन्तं गस्तकालङ्कारकेशमोचन तीर्थकृता पञ्चमुष्टिकलोचसंभवेऽपि अस्य भगन्तश्चतुष्टिकालाचगोचरःश्रीहमाऽऽचार्यकृत ऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयम्-प्रथम कथा मुट्या श्मश्रुकूर्चयोर्लोचे, तिसृभिश्च शिरोलोचे कते , एका मुष्टिमवशिष्यमाणा पवनाऽऽन्दोलिनां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयारपरि लुठन्ती गरकतोपमानमाविभ्रती परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण भगवन! मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामेवमि-त्थमेवेति विज्ञाप्टे भगवताऽपि सा तथंव रक्षितेति / न ह्येकान्तभक्तानां यात्रामनुगृहीतारः खण्डयन्तीत्येवेदानीमपि श्रीऋषभमूर्ती स्कन्धोपरि वेलरिकाः क्रियन्ते इति लुचिताश्च केशाः शक्रेण हंसलक्षणपटे क्षीरोदधौ क्षिप्ता इति / ज०२वक्षः। पंचरत्त पुं० (पात्र) "रात्रंतु ज्ञानवचनं, ज्ञानं पक्षविध स्मृतम्।पशरानमिति ख्यातम् " इत्युक्ते पशज्ञानसाधने नारदाऽऽयुक्तेश्यों वे, आचा० 1 श्रु.१ अ०१ उ०। पंचरय त्रि० (पञ्चरत) पशमहाव्रतशक्ते, ''मुणी पंचर। तिगुत्तो चरकसायावयए स पुजो।" दश०६ अ०४ उ०। पंचरासियन० (पञ्चराशिक) पञ्चराशिगणिते, स्था० 4 ठा०३ उ०। पंचरुविय पु० (पञ्चरूपिक) पक्षानां रूपाणां गर्जिलविद्युजलवाताभलक्षणानां समाहारः पञ्चरूपं, तदन्ति येषां ते पशरुपिकाः / उदकगर्भभेदेषु, स्था० 4 ठा०४ उ०। पंचलिंगी स्त्री० (पञ्चलिङ्गी) ग्रन्थभेदे, स्था०। तथा च भगवान् पशलिङ्गीकारः।द्वा०१द्वा०। पंचलोइया स्त्री० (पञ्चलौकिका) भुजपरिसप्पिणीभेदे, जी०२ प्रति०। पंचवग्ग पुं० (पञ्चवर्ग) पशाना समुदाये, आचा० 1 श्रु० 2 अ० 170 / पंचवणि(य)तिपंचखरपुं० (पञ्चवणित्रिपञ्चखर) पञ्चानां वणिजां पञ्चदशसु गर्दभेषु, "पंचदणितिपंचखरअतुल्लमुल्ला य आहरणं।" व्य० 1 उ०। पंचवण्ण पुं०(पञ्चवर्ण) दशार्द्धवणे,“पञ्चवण्णसरससुर-भिमुक्कपुप्फ गुंजोवधारझलिए त्ति / ' पञ्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा च मुक्तंन क्षिप्तेन पुष्पाञ्जलक्षणेनोपचारेण पूजया कलितं यत्तत्तथा तत्र / भ०११२० 1170 / रा० / औ० 1 जी०। पंचवण्णा स्त्री० (पञ्चवर्णा ) चतुर्दशतीर्थकरस्य निष्क्रमणशि विकायाम्, स०। पंचवत्युय नं० (पञ्चवस्तुक) प्रव्रज्याविधानाऽऽदिवस्तुपशकाभिधायके आचार्यहरिभद्रसूरिकृते प्रकरणग्रन्थे, पं० 10 / "प्रणिपत्य जिन वीरं, नृसुरासुरपूजितम् / व्याख्या शिष्यहिता पशायर तुकस्य विधीयत / / 1 / / '' इह हि पलवस्तुकाऽऽरख्यं प्रकरणमारल्धुकाम आचार्य: शिष्टसमयप्रतिपालनाय विघ्नविनायकोपशान्तये प्रयाजनाऽ: दिप्रतिपादनार्थमादावेवेद गाथासूत्रमुपन्यस्तवान् - णमिऊण वद्धमाणं, सम्म म णवयणकायजोगेहिं / संघं च पंचवत्थुग-महक्कम कित्तइस्सामि / / 1 / / तत्र शिष्टानामयं समयः- यदुत शिष्टाः क्वचिदिष्ट वस्तुनि प्रवर्त्तमानाः रान्तः इष्टदेवतानमस्कारपूर्वकं प्रवर्त्तन्त इत्ययमप्याचार्यों न हि न शिष्ट इत्यतः तत्समयप्रतिपालनाय, तथा- श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्तीति। उक्तं च - "श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि। अश्रेयसि प्रवृत्ताना, क्वाऽपि यान्ति विनायकाः / / 1 // इदं च प्रकरणं सम्यग्ज्ञानहेतुत्वाच्छे योभूतमतो मा भूद्विष्न इति विघ्नविनायकोपशान्तये 'नमिऊण बद्धमाण, राम्म मणवयणकायजोगेहिं। संथंच।" इत्यनेनेष्टदेवतास्तवमाह। प्रेक्षापूर्वकारिणश्च प्रयोजनाऽऽदिशून्येन प्रवर्तन्त इति। उक्तं च - "सर्वस्यैव हि शास्त्रस्थ, कर्मणो वाऽपि कस्यचित्। यावत्प्रयोजनं नोक्तं, तावत्तत्केन गृहात? ||1 // " इत्यादि। अतः प्रयोजनाऽऽदिप्रतिपादनार्थ च - 'पञ्चवत्थुगमहक्कम कित्तइस्सामि'' इत्येतदाह। प्रकरणार्थकथनकालोपस्थित-परसंभाव्यमानोपन्यासहेतुनिराकरणार्थ च / तथाहिपशवरतुकाऽऽख्य प्रकरणमारभ्यत इत्युक्ते संभवत्येवं वादी परानारसायवेद प्रकरण, प्रयोजनरहितत्वा दुन्मत्तकविरुतवत् / तथा निरभिधेयत्वात्काकदन्तपरीक्षावत्, तथा- असंबद्धत्वाद्दश दाडिमानीत्यादि वाक्यं वदतोऽमीषा हेतूनामसिद्धतो-द्विभावयिषयेत्येतदाह'पंचवत्थुगमहम कित्ताइस्सागि।" एष तावद्गाथाप्रस्तावः, समुदायार्थश्च / अधुनाऽवयवार्थोऽभिधीयतेनत्वा प्रणम्य, कमित्याहवर्द्धमानं वर्तमानतीर्थाधिपति तीर्थकरं, तस्य हि भगवत एतन्नाम / यधोक्तम्- "अम्मापिएइ संतिए वद्धमाणे" इत्यादि / कथं नत्वेत्यत आह-सम्यग मनोवाकाययोगः, सम्यगिति प्रवचनोक्तेन विधिना मनोवाक्कायोगैर्मनोवाक्कायव्यापारः, अनेनैवंभूतमेव भाववन्दनं भवतीव्येतटाह। इह च मनोवाकाययोगैरसम्यगपि नमनं भवतीति सम्यग्ग्रहणम् / आह-एवमपि सम्यगित्येतदेवास्त्वलं मनोवाक्कायोगग्रहणेन, सभ्यग्नगनेऽस्य तदव्यभिचारित्वात्, तदेवमेकपदव्यभिचारेऽयव द्रव्यं पृथिवी द्रव्यमित्यादौ विशेषणविशेष्यभावदर्शनादिति। न केवलं वर्द्धमानं नत्वा किं तु सङ्घ च सम्यगदर्शनाऽऽदिसमन्वितप्राणिगणं चनत्वा। किमित्याहपञ्चवरतुकं यथाक्रम कीर्तयिष्यागि / प्रव्रज्याविधानाऽऽदीना पञ्च वस्तूनि यरिंगन प्रकरणे तत्पशवस्तु पञ्चवरत्वेव पञ्चवस्तुकं ग्रन्थ, यथाक्रममिति या यः क्रमो यथाक्रम यथा- परिपाटी कीर्तयिष्यामि संशब्दयिष्यामि / इति गाथार्थः / / 1 / / अधिकृतानि पञ्चवस्तून्युपदर्शयन्नादपवजाएँ बिहाणं, पइदिणकिरिया वएसु ठवणा य। अणुयोगगणाणुण्ण, संलेहण मो अ इइ पंच / / 2 / / प्रज्यायाः वक्ष्यमाणलक्षणाया विधानमिति विधिः / तथाप्रतिदिन क्रियेति, प्रतिदिन प्रत्यह क्रिया चेष्टा प्रतिदिनक्रिया, प्र Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचवत्थुय 52 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंचसंगह व्रजितानामेव चक्रबालसामाचारीति भावः। तथा-व्रतषु स्थापना चेति। कुशलमिह मया तेन। मात्सर्यदुःखविरहादुणानुरागी भवतु लोगः / / 1 / / '' हिंसाऽनृतस्तेयाबह्मपरिग्रहेभ्यो विरतयः ब्रतानि, तेषु स्थापना इति पञ्चवस्तुकटीका सपूर्णा / पं०व०५ द्वार। सामायिकसंयतस्य उपस्थापनेत्यर्थः / ननु कथं व्रतानां स्थापनेतियुक्तं, पंचवडी स्त्री० (पञ्चवटी) पञ्चानां वटानां समुदाये, नासिक्यमुरान्तिके तत्र तेषामारोप्यमाणत्वात्? उच्यते-सामान्येन व्रतानामनादित्वात्तेषु गोदावरीतीरे रामसीताभ्यामावासीकृते वटपञ्चके, ती० 27 कल्प। तस्योपस्थाप्यमानत्वादित्थमप्यदोष एव / तथा-अनुयोगगणानुजेति, पंचवरिस पुं०(पञ्चवर्ष) पञ्चवर्षपर्याये, व्य०३ उ०। अनुयोजनभनुयोगः सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन संबन्धनं, व्याख्यान पंचविह त्रि० (पञ्चविध) पञ्चेति संख्यावाचनः, विधानानि विधा भेदाः / मित्यर्थः। गणस्तु गच्छोऽभिधीयते,अनुयोगश्च गण श्वानुयोगगणी, पञ्च विधा अस्येति पञ्चविधम्। पञ्चप्रकारे, अनु० / प्रश्न० नं। तयोरनुज्ञा प्रवचनोक्तेन विधिना स्वातन्त्र्यानुज्ञानमिति / संलेखना पंचसंग्रह पुं० (पसङ्ग्रह) पञ्चानामर्थाधिकाराणां संग्रहो यत्र ग्रन्थे चेतिसंलिख्यते शरीरकषायाऽऽदियया तपःक्रियया सा संलेखना,यद्यपि स पञ्चसङ्ग्रहः / शतकाऽऽदिपञ्चग्रन्थानां सङ्ग्रहान्थे, पं००। सर्वैव तपःक्रियेयं तथाऽप्यत्र चरमकालभाविनी विशिष्टेव रालेखनोच्यत "अशेषकर्मद्रुमदाहदावं, समस्तविज्ञातजगत्स्वभावम्। इति। 'मो' इति पूरणाथों निपातः / इति पञ्चेति-इति एवमनेनैव क्रमण विधूतनिः शेषकुतीर्शिमानं, प्रणम्य देवं जिनवर्द्धमानम् / / 1 / / पञ्च वस्तूनि / तथाहि-प्रव्रज्याविधाने सति सामायिकसंयतो भवति, संसारकूपोदरमग्नजन्तु-स्तोमोद्धृतो हस्तमिवावल्म्ब्यम्। संयतस्य प्रतिदिनं क्रिया क्रियावतश्च ब्रतेषु स्थापना, व्रतस्यस्य जैनाऽऽगम वाहितशेषशास्त्र-न्यम्भावमापूर्णयथार्थवादम्।।२।। वाऽनुयोगपणानुज्ञे संभवतश्चरमकाले च संलेखनेति गाथाऽर्थः / / 2 / / विवृणोमि पञ्चसंग्रह-मतिनिपुणगभीरमल्पबुद्धिरपि। साम्प्रतममीषामेव वस्तुत्वप्रतिपादनार्थमाह शास्त्रान्तरटीकातो, गुरूपदेशाच्च सुखबोधम्॥३।" एए चेव य वत्थू, संती एएसु नाणमाईया। इह शिष्टाः कचिदिष्ट वस्तुनि प्रवर्तमानाः सब्त इष्टदेवतानमस्कार. जं परमगुणा एआ-णि हेउफलभावओ टुति / / 3 / / पुरस्सरमेव प्रवर्तन्ते, नचायमाचार्यो न शिष्ट इति शिष्टसमयपरिपालनाय। तथा-'श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति / उक्तं च- ''श्रेयांसि बहुविघ्नानि, एतान्येवप्रव्रज्याविधानाऽऽदीनि शिष्याऽऽचार्याऽऽदीनि जीवद्रव्याऽऽश्रयत्वात्ततस्तद्रूपत्वाद्वस्तूनि, एतेष्वेवे भावशब्दार्थोपपत्तेः।तथा भवन्ति महतामपि / अश्रेयसि प्रवृत्ताना, कापि यान्ति विनायकाः॥१॥" इदं च प्रकरण सम्यग्ज्ञानहेतुत्वात् श्रेयोभूतमतो मा शूदत्र विघ्न इति चाऽऽह-वसन्ति एतेषु प्रव्रज्याविधानाऽऽदिषु ज्ञानाऽऽदयःज्ञानदर्शन वि-प्रविनायकोपशान्तये चेष्टदेवतानमस्कारम् / तथा - न प्रेक्षापूर्वचारित्रलक्षणाः / यद्यस्मात्परमगुणा प्रधानगुणा एवमप्येतान्येवेत्यव कारिणः प्रयोजनाऽऽदिविरहे प्रवर्तन्ते, ततः प्रेक्षावतां प्रवृत्यर्थ प्रयोजधारणमयुक्तम्, अविरतसम्यग्दृष्ट्यादिविधानाऽऽदीनां विशिष्टस्वर्ग नाऽऽदिक च प्रतिपिपादयिषुरादाविमा गाथामाहगमनसुकुलप्रत्यायातिपुनर्वाधिलाभाऽऽदीनामपि च वस्तुत्वादित्येत नमिऊण जिणं वीरं, सम्म दुट्ठट्ठकम्मनिट्ठठगं / दाशङ क्याऽऽह-शिष्याण्यविरतसम्यगदृष्टयादिविधानाऽडीनि हेतुफ वोच्छामि पंचसंगह-मेय महत्थं जहत्थं च / / 1 / / लभावतो भवन्ति। अविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनि हेतुभावतः कारणभावेन, सम्यक् त्रिकरणयोगेन नत्वा नमस्कृत्य, शूर वीर विक्रान्तौ वीरयात विशिष्टस्वर्गगमनाऽऽदीनि तु फलभावतः कार्यभावेन वस्तूनि भवन्ति / स्म कषायोपसर्गपरीषहेन्द्रियाऽऽदिशत्रुगणजय प्रति विक्रामते स्मेति तथा- ह्यविरतसम्यगदृष्ट्यादिविधानाऽऽदिकार्याणि प्रव्रज्यावि वीरः / अथवा-ईर गतिप्रेरणयोः, विशेषेण ईरयति गमयति स्फेटयति धानाऽऽदीन्यतो वस्तुकारणत्वात्तेषामपि वस्तुत्वमेव। विशिष्टरव गंगम कर्म, प्रापयति वा शिवं, प्रेरयति शिवाभिमुखमिति वा वीरः / अथवानाऽऽदीनि तु प्रव्रज्याविधानाऽऽदिकार्यण्यतो वस्तुकार्यत्वादमीषामेव ईरिगतौ। विशेषेण अपुनविन ईर्ते स्म याति स्म शिवमिति वीरः,त. वस्तुतापत्तिः / व्यवहारनयदर्शनसूत्रतस्त्वधिकृतानाणेध वस्तुत्वमिति स च नामतोऽपि कश्चिद्भवति, ततस्तद्व्यवच्छेदर्थ विशेषणमाह-जिन गाथार्थः ।।१५०व०१ द्वार। रागाऽऽदि शत्रुजेतृत्वाग्जिनस्त, सोऽपि श्रुतावधिजिनाऽऽदिकोऽपि इय पंचवत्थुगमिणं, उद्धरिअंसुअसमुद्दाओ संभवति, तस्यापि यथासंभवं रागाऽऽदिशत्रुजयनात, ततस्तद्व्यवच्छेआयाणुसारणत्थं, भवविरह इच्छमाणेणं / / 1713|| दार्थं विशेषणान्तरमाह-दुष्टाऽष्टकर्मनिष्टापकं दुष्टानामष्टानां कर्मणा: (इय) एवमुक्तेन प्रकारेण पञ्चवस्तुकमिदमुक्तलक्षणमुद्धृत निष्टापको विनाशकः, तं, केवलिजिनमित्यर्थः / नन्वेतदेव विशेषणमास्ता पृथगवस्थापितं श्रुतसमुद्राद्विस्तीर्णात् श्रुतोदधेः / किमर्थमित्याह- पुष्टत्वादलं जिन ग्रहाणेन ? उच्यते- इह संसारमोचकाऽऽदयो आत्मानुस्मरणार्थमात्मानुस्मरणाय प्रव्रज्याऽऽदिविधानाऽऽदीनां हिंसामैथुनाऽऽदिभ्योऽपि दुष्टाष्टकर्मविनाशमिच्छन्ति, संसारमोचकस्याभवविरह संसारक्षयमिच्छतातस्य भगवद्वचनो पयोगाऽऽदिसाध्यत्वात्। ऽपि हिंसा यन्मुक्तिसाधनमित्यादिवचनश्रवणात् ततस्तद्व्यवच्छेदार्श इति गाथार्थः / / 1713 // जिनग्रहणम्। जिन एव रागद्वेषाज्ञानाऽऽदिशत्रूनजयन्नेव सन्यो दुष्टाष्टकसाहग्गं पुण इत्थं, णवरं गणिऊण ठाविअंए। भिविनाशको, बान्यथा, तनत्वा। किमित्याह-वक्ष्यामि (एयत्ति) विभक्तिदोष सीसाण हिअट्ठाए, सत्तरस सयाणि माणेणं / / 1714 / / आर्षत्वात्, एत मन्तस्तत्वनिष्पन्न पञ्चसंग्रह, संगृह्यलेऽने-नेति संग्रहः समाप्ता चेयं पञ्चवस्तुकसूत्रटीका शिष्यहिता नाम, कृतिर्धमतो "पुनाम्नि०" // 5 / 3 / 130 // इति करणे घप्रत्ययः, पंञ्चाना शतकसप्तति याकिनीमहत्तरासूनोरावार्यहरिभद्रस्य / "कृत्वा टीकामेना, यदवाप्तं | काकषायप्राभृतसत्कर्मप्रकृतिलक्षणानां ग्रन्थानाम्, अथवा पक्षा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंगह 53 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंचहत्थुत्तर नामर्थाधिकाराणां योगोपयोगविषयमार्गणाबन्धकबद्धव्यबन्धहेतु- | ना०७ गाथा। बन्धविधिलक्षणाना संग्रहः पञ्चसंग्रहः / यद्वा-पजना ग्रन्थानामधि- | पंचसिह पु०(पञ्चशिख) पञ्चसु स्थानेषु रक्षितशिखे कुमारे, सूत्र०१ काराणां वा संग्रहो यत्र ग्रन्थे स पञ्चसंग्रहस्तम्। कथंभूतमित्याह-महार्थ श्रु०७०। महान् गम्भीरोऽर्थो यरिंमन्तं, यथार्थ च, यथावस्थितः प्रवचनाविरोधी | पंचसीस न० (पञ्चशीर्ष) द्वीप समुद्रविशेषाधिपतौ, द्वी०।। अर्थो यस्मिन् तम् / यदा- अर्थस्य प्रवचनोक्तस्यानतिक्रमणेन, न पंचसुण्ण न० (पञ्चशून्य) पञ्चानां शूनानां समाहारः पञ्चशून्यम् / स्वमनीषिकया यथार्थ, चः समुचये, इह पञ्चसंग्रहोऽभिधेयः, तत्परिज्ञानं समाहारविवक्षया एकत्वम् / शूनापञ्चके, प्रव० 35 द्वारा गृहस्थाना श्रोतुरनन्तरं प्रयोजनं कर्तुः परानुग्रहः, परम्पराप्रयोजनं तूभयोरपि चुल्ल्यादिकाः पञ्च शूनाः प्राणिवधस्थानानि सूत्र०१ 01 अ०४ उ०। निःश्रेयसावाप्तिः, संबन्धस्तूपायोपेयलक्षणः / तथाहि-वचनरूपाऽऽपन्न पंचसुत्तग न० (पंचसूत्रक) पापप्रतिघातगुणवीजाऽऽधानसूत्राऽऽदीना प्रकरणमुणगस्तत्परिज्ञानं चोपेयमिति // 1 // पञ्चानां समूहे, पं०सू०। 'प्रणम्य परमाऽऽत्मानं, महावीरं जिनेश्वरम्। संग्रति प्रकरणस्य यथार्थाभिधानतामावेदयति सत्पञ्चसूत्रकव्याख्या, समासेन विधीयते॥१॥" आह-किमिदं पञ्चसयगाइपंच गंथा, जहारिहं जेण एत्थ संखित्ता। सूत्रकं नाम?। उच्यते-पापप्रति-घातगुणबीजाऽऽधानसूत्राऽऽदीनि पञ्च दाराणि पंच अहवा, तेण जहत्थाभिहाणमिणं // 2 // सूत्राण्येव। तद्यथा-पापप्रतिघातगुणबीजाऽऽधानसूत्रम्१, साधुधर्मपरिशतकाऽऽदयः पञ्च ग्रन्थाः पूर्वोक्ता यथार्ह यथायोग येन कारणेनाऽत्र भावनासूत्रम्, प्रव्रज्याग्रहणविधिसूत्रम् 3 प्रव्रज्यापरिपालनासूत्रम् 4 प्रकरणे संक्षिप्ताः संगृहीताः। अथवा-वक्ष्यमाणस्वरूपाणि पञ्च द्वाराणि प्रव्रज्या-फ्लसूत्रम्५,इति। आह-किमर्थमेवमेतेषामुपन्यासः? इत्यत्रोच्य यथाभित्र संक्षिप्तानि, तेन कारणेन इदमभिधानं पञ्चसंग्रहलक्षण यथार्थ ते-एतदर्थस्यैवमेव तत्त्वतो भाव इतिख्यापनार्थ , न हि प्रायः पापप्रतिसान्वयगिति / / 2 / / पं०सं०१द्वार घातेन गुणबीजाऽऽधानं विना तत्त्वतस्तच्छ्रद्धाभावप्ररोहः, नचासत्यसंप्रति यथेद प्रकरण समाप्तिमुपगत तथोपदर्शयन्नाह स्भिन्साधुधर्मपरिभावना, न चापरिभावितसाधुधर्मस्य; प्रव्रज्याग्रहणसुयदेविपसायाओ, पगरणमेयं समासओ भणियं / विधावधिकारः, न चा प्रतिपन्नस्तां तत्पालनाय यतते, न चापालनेएतत्फ समयाओ चंदरिसिणा, समईविभवाणुसारेणं // 151 / / लमाप्नोतीति प्रवचनसार एष सजज्ञानक्रियायोगात् / अन्यथाश्रुतं द्वादशाङ्ग, तद्रूपा देवी श्रुतदेवी, तस्याः प्रसादतस्तद्विषयभक्ति- अनादिमति संसारे यथाकथञ्चिदनेकश एतत्प्राप्त्यादेः स्यादेवत्सर्वबहुमानवशसमुच्छलितविशिष्टकर्मक्षयोपशमभावत एतत्पञ्चसंग्रहा- सत्त्वानामेव न चैतदेवं, सर्वसत्वानां सिद्ध धभावात् / सिद्धिश्च प्रधान ऽऽयं प्रकरणं मया चन्द्रर्षिनाम्ना साधुना, समयात सिद्धान्तात्, तत्र फलं प्रव्रज्यापरिपालनस्य, आनुषङ्गिकं तु सुदेवत्वाऽऽदि। यथाकथयहापि सिद्धान्तेऽनेकेऽर्थाः प्रपञ्चतः प्ररूपितास्तथापि न तेऽस्मादृशा शिदनेकश एतत्प्राप्त्यादिवचनप्रामाण्यात्, सर्वसत्त्वानामेव प्रायो साकल्येनोद्वर्तुं शक्यन्ते, इत्या- वेदनार्थमाह-स्वमतिविभवानुसारेण ग्रैवेयकेष्वनन्तश उपपातश्रुतेः, न च तेषु साधुक्रियामन्तरेणोपपातः, न समासतः राक्षेपतः संक्षि-तरुचिजनानुकम्पया भणिताः॥१५१॥ च सम्यग्दृष्टरपार्द्धपुद्गलपरावर्ताभ्यधिको भव इति भावनीयमेतत् / "जयति सकलकर्मक्लेशसंपर्कमुक्तः, तस्मान्नि/जस्यैव क्रियामात्रस्यसा प्राप्तिरिति प्रतिपत्तव्यम्। सबीजायां स्फुरितदिततशुद्धज्ञान संभारलक्ष्मीः / तुतस्यां न दीर्घदौर्गत्यम, अतएतदर्थस्यैवमेव तत्त्वतो भाव इति स्थितम् / प्रति निहतकुतीर्थाशेषमार्गप्रवादः, अयं चातिगम्भीरो न भवाभिनन्दिभिः क्षौद्रयाद्युपघातात्प्रतिपत्तुमपि शिवपदमधिरूढो बर्द्धमानो जिनेन्द्रः / / 1 / / शक्यते, आस्ता पुनः कर्तुमिति, न सर्वेषामेवैतत्प्राप्त्यादि, अतो गणधरदब्ध जिनभा-षितार्थभखिलाऽऽगमभङ्गनयकलितम्। यथोक्तदोषाभाव इति। अलविस्तरेण / पं० सू०१ सूत्र। सभाप्त पञ्चसूत्रक परतीर्थानुमतमा-दृतिमभिगन्तुं शासन जैनम् / / 2 / / व्याख्यानतोऽपि, नमः श्रुतदेवतायै भगवत्यै, सर्वनमस्काराभ्यो नमः बह्वर्थमल्पशब्द, प्रकरणमेतद् विवृण्वता त्वखिलम्। सर्ववन्दनानि वन्दे / सर्वोपकारिणामिच्छामो वैयावृत्यं सर्वानुभावारादवापि मलयांगेरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुतां लोकः / / 3 / / दौचित्येन मेधर्मे प्रवृत्तिर्भवतु. सर्वे सत्त्वाः सुखिनः सन्तु।पञ्चसूत्रकटीका अर्हन्तो मङ्गलं सिद्धाः, मङ्गलं मम साधवः। समाप्ता / 'कृति : सिताम्बराऽऽचार्यहरिभद्रस्य धर्मतो याकिनीममङ्गलं मङ्गलं धर्म-स्तन मङ्गलमशिश्रियम्॥४॥" हत्तरासूनोः।" पं० स०५ सूत्र। इति श्रीमलयगिरिविरचिता। पञ्चसंग्रहटीका समातेति। 50 सं०५ द्वार।। पचंसेलग पुं०(पञ्चशैलक) लवणोदधिमध्यस्थे व्यन्तराऽऽवासभूते पंचसंवरसंवुड त्रि०(पक्षसंवरसंवृत) प्राणातिपाताऽऽदिपशमहा शैलपञ्चकविभूषिते लघुद्वीपे, यत्र कुमारनन्दी स्वर्णकारः स्त्री लोलुपो व्रतोपेतत्वात् पञ्चप्रकारसम्वरसंवृते, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 4 उ०। व्यन्तर्यर्थं गतः। यत्र विद्युन्माली यक्ष आसीत्, येन देवाधिदेवप्रतिमा पंचसमिय त्रि० (पंञ्चसमित) ईसिमित्यादिभिः पञ्चभिः समितिभिः / वीतिभयनगर नीता। बृ० 4 उ०। नि० चूला आ० म० / उत्त० / समिते, आव० 3 अ० / पं० सू०।। पंचसोगंधिय त्रि० (पञ्चसौगन्धिक) पञ्चभिरेलालवङ्गकर्पूरकङ्कोलपंचसर पु० (पञ्चशर) कामदेवे, 'मयरद्धओ अणंगो, रइणाहो वम्महो जातीफललक्षणैः सुगन्धिभिर्द्रब्यरभियसंस्कृते, उपा० 1 अ० कुसुमवाणो / कंदप्पो पंचसरो,मयणो संकप्पजोणी य' // 7 // पाइ० | पंचहत्थुत्तर पुं०(पञ्चहस्तोत्तर) हस्त उत्तरो ग्रासामुत्तरफा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचहत्थुत्तर 54 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंचिंदिय ल्गुनीतां ता हस्तोत्तराः, ताश्च पञ्चसु स्थानेषु गर्भाऽऽधानसंहर- | सम्मत्ताई भावत्थसंगयं सुतणीईए / / 1 / / " पञ्चा० 1 विव० / णजन्मदीक्षाज्ञानोत्पत्तिरूपेणु संवृता अतः पञ्चहस्तोत्तरः / आचा०१ ('सावगधम्म' शब्दे अस्या व्याख्या) श्रु० 4 अ० ४उ०। भगवति वीरे तस्य हि गर्भाऽऽधानाऽऽदिषु पञ्चसु "यस्मिन्नतीते श्रुतसंयमश्रियास्थानेषु उत्तरफाल्गुन्याः सत्त्वात्। कल्प०१ अधि०१क्षण। स्था०। वप्राप्नुवत्यावपरं तथाविधम्। पंचाणण पुं०(पञ्चानन) सिंहे, "पंचाणणो मयारी, मयाहिवो केसरी स्वस्याऽऽश्रयं संवसतोऽतिदुस्थिते, सीहो।'' पाइ० ना०४३ गाथा। श्रीवर्द्धमानः स यतीश्वरोऽभवत्।।१।। पंचामे लियपरिमंडियामिराम त्रि०( पञ्चापीडिकपरिम-एिण्ताभि शिष्योऽभवत्तस्य जिनेश्वराऽऽख्यः, राम) पञ्चभिरापीडिकाभिश्चूडाभिः परिमण्डिते अभिरामे रम्ये च / भ० सूरिः कृतानिन्द्यविचित्रशास्त्रः। ७श०६ उ०। सदा निरालम्बविहारवर्ती, पंचायाम पुं०(पञ्चयाम) पञ्च यामा व्रतानियत्र सपञ्चायामः। "दीर्घ चन्द्रोपमश्चन्द्रकुलाम्बरस्य।।२।। हस्वौ मिथो वृत्तौ"||८|१४इति प्राकृतलक्षणवशाधकारस्य अन्योऽपि वित्तो भुवि बुद्धिसागरः, दीर्घत्वम् / पूर्वान्तिमतीर्थकरयोः पञ्चमहाव्रतिके धर्मे , "पंचायामो पाण्डित्यचारित्रगुणैरनूपमैः (?) धम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्स य जिणस्स।" बृ०६ उ०। शब्दाऽऽदिलक्ष्मप्रतिपादकानघपंचाल पुं०(पञ्चाल) काम्पिल्यपुरराजधानीप्रतिबद्धेषु आर्यजनपदेसु, | ग्रन्थप्रणेता प्रवरः क्षमावताम्॥३|| प्रज्ञा० 1 पद। पञ्चाला यत्र काम्पिल्यं नगरम् / ज्ञा०१ श्रु०८ अ०।। तयोरिमां शिष्यवरस्य वाक्याद्, आव०। सूत्र०। स्था०। पञ्चालदेशराजे, आव० 1 अ०। आ० चू०। वृत्तिं व्यधात् श्रीजिनचन्द्रसूरेः। ती० / प्रश्र० / स्वनामख्याते लौकिकपण्डिते, येन स्त्रीमार्दवार्थकं शिष्यस्तयोरेव विमुग्धबुद्धिश्लोकलक्ष रचितम्। "जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दयाम्। ग्रन्थार्थबोधेऽभयदेवसूरिः॥४॥ बृहस्पतिरविश्वासं, पञ्चालःस्त्रीषु मार्दवम् / / 1 / / " आ० चू०१ अ०। बोधो न शास्त्रार्थगतोऽस्ति तादृशो, आ० म०1 न तादृशी वाक्यटुताऽस्ति मे तथा। पंचालराय पुं० (पञ्चालराज) काम्पिल्यनगरनायके पञ्चालजनपद न चास्ति टीकेह न वृद्धनिर्मिता, राजे, स्था०७ ठा०। हेतुः परं मेऽत्र कृतौ विभोर्वचः / / 5 / / पंचावण स्त्री० (पञ्चाशत्) "गोणाऽऽदयः" चाश१७४।। इति यदिह किमपिदृब्धं बुद्धिमान्द्याविरुद्धं, तथारूपो निपातः / पञ्चाधिकपञ्चाशति, प्रा०२ पाद। दे० ना० मयि विहितकृपास्तद्धीधनाः शोधयन्तु। पंचासं स्त्री० (पञ्चाशत् ) पञ्चावृत्ततायां दशसंख्यायाम्, तत्संख्येये निपुणमतिमतोऽपि प्रावेशः सावृतेः स्याद्। च। "पंचासं अज्जियासाहस्सीओ।" स०४६ सम०। पंचासग न० (पञ्चाशक) पञ्चाशद्गाथापरिमाणतया स्वनामख्यातेषु न हि न मतिविमोहः किं पुनर्मादृशस्य ? ||6|| हरिभद्रसूरिरचितेषुग्रन्थेषु, तानि चैकोनविंशतिर्हरिभद्रसूरिरचितान्य चतुरधिकविंशतियुते, वर्षसहस्त्रेशतेच सिद्धेयम्। भयदंवसूरिटीकितानि। पञ्चा०। धवलकपुरे वसतौ, धनपत्योर्वकुलवन्दिकयोः / / 7 / / "सदृष्टीनां समस्तार्थाः, गोभिर्यस्य प्रकाशिताः। अणहिलपाटकनगरे, संघवरैर्वर्तमानबुधमुख्यैः। तं नत्वा श्रीमहावीरं, तिग्मरश्मि तमोऽपहम् / / 1 / / श्रीद्रोणाऽऽचार्याऽऽद्यैर्विद्वद्भिः शोधिता चेति // 5 // " वृद्धवाक्यानुसारेण, वृत्तिं वक्ष्ये समासतः। पश्चा०१६ विव०) पञ्चाशकाऽऽहशास्त्रस्य, धर्मशास्त्रशिरोमणेः / / 2 / / पंचासवपरिणाय त्रि०(पञ्चाऽऽश्रवपरिज्ञात) पञ्चाऽऽश्रवाहिंसाऽऽदयः इह हि विस्फु रन्निखिलातिशयतेजोधामनि दुःषमाकालविपुल परिज्ञाता द्विविधया परिज्ञया परि समन्ताच ज्ञाता यैस्ते पश्चाऽऽश्रवजलदपटलावलुप्यमानमहिमनि नितरामनुपलक्षीभूतपूर्वगताऽऽ परिज्ञाताः,आहिताभ्यादेराकृतिगणत्वाद् निष्ठायाः पूर्वनिपात इति दिबहुतमग्रन्थ सार्थतारकानिकरे पारङ्गतगिदिताऽऽगमाम्बरे प- समासो युक्तः। परिज्ञाताऽऽश्रवपञ्चकेषु, दश०३ अ०) टुतमबोधलोचनतया सुगृहितनामधेयो भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिस्तथा- पंचासीइ पुं०(पञ्चाशीति) पञ्चाधिकायामशीतौ, स०५ सम०। विधपुरुषार्थसिद्धयर्थिनामपटुदृष्टीनामुन्नमितजिज्ञासाबुद्धिकन्धराणा- पंचाहन०पञ्चाह- पञ्चानामहां समाहारे, आचा०१ श्रु०२ 103 उ०॥ मैदंयुगीनमानवानामात्मनोपलक्ष्यमाणान् विवक्षितार्थसार्थसाधव- पंचिंदिय पुं० (पञ्चेन्द्रिय) पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्रसमर्थान् कतिपयप्रवचनार्थतारतारकाविशेषानुपदिदर्शयिषुः पञ्चाशद्गा- रूपाणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः। जी०१ प्रति०। प्रश्न।पं० स०। थापरिमाणतया पञ्चाशकाभिधानानि प्रकरणानि चिकीर्षुरभ्यस्त- मत्स्यमकरकलभसारसहंसनरसुरनारकाऽऽदिषु जीवभेदेषु, कर्म०४ श्रावकधर्मो यतिधर्मयोग्यो भवतीति न्यायमाश्रित्य श्रावकधर्मप्रकरणं कर्म०विशे०। आव०॥ तं०।। तावदादितो विभणिषुर्मङ्गलसम्बन्धाभिधेयप्रयोजनाभिधायिकामिमां पञ्चेन्द्रियवक्तव्यतामाहगाथामाह.. "न मिऊण वद्धमाणं, सावगधम्म समासओ वोच्छं / पंचिंदिआ उजे जीवा, चउविहाते वियाहिया। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचिंदिय 55 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंचि दियतिरिक्खजोणिया नरेइय तिरिक्खा य, मणुया देवा य आहिया / / 50 / / 'मामा' 15:5:1|:: तादाता.. पन्द्रियामा य जीताश्चतुर्विधास्त साख्याताः / तटा"-(ोरइ" निरमामाजमारनी। तिरेक्खा इति / नरशिका निर्याश्च मनुजा देवाश्च ध्याख्याता कथिताः / पतालदरामामला सहकार ती कराऽऽदि मेः / इति सूगर्भः // 50 // उत्त० पाई०३६ अ० जी०। समाठः / यचापि पोन्द्रिय तिगरपालिकशन सहप्रज्ञाका स्था० आO! T0 म०। भला सूत्र०। ('इंद्रिय शब्द द्वितीयभाग रामाल: प्रा०पद। सत्रा स्था०। जोल 246 पट सर्वेया जीवानां पदन्द्रियत्वमुक्तम् ) 5. नायिकानभिप्राय तिर ? पंचिंदियउवसट्टपुं० (पञ्चन्द्रियोपवशात) पोन्द्रियाणां स्पर्शनाऽऽदि- पंचिंदिय तिरिक्खा य, विहा ते वियाहिया। हुषोत IIT मामी जोश आयत्तः वर्णलोपात पञ्चन्द्रियायतस्तेन संमुच्छिम तिरिक्खा उ, गडभववंतिया तहा / / 171 / / वादालभा- पानम / विहलसायाम, पा)। दुविहा ते भवे तिविहा, जलयरा थलयरा तहा। पंचिंदियजाइण मन) (पोन्द्रियजातिनामन्) नामकमले, यदुदया- खहयरा य बोधव्वा, तेसिं भेए सुणेह मे / / 172 / / त्प नट्रयजन भवति। 3-1033 अ०। मच्छा य कच्छभा यावि, गाहा य मगरा तहा। पंचिंदियणिग्गहन (कञ्चेन्द्रियनिग्रह) पशसंख्याना स्पनर सन- सुसुमारा य बोधव्वा. पंचहा जलयरा तहा / / 173 / / घण-क्षः श्रास पास्वविषयग्रहमप्रवृत्तावपि रागद्वेषाऽकरणे, द० 2 तत्व। लोएगदेसे ते सव्वे, न सम्वत्थ वियाहिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणिय पुं० (पञ्चेन्द्रियनिर्यग्योनिक) एकद्वित्रि- एत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउव्विहं / / 174 / / चतु:न्द्रियन्त्रि विद्यालयीनी०।) संतई पप्प णाईवा, अपज्जवसिया विय। (से किं तं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया? पंचिंदियतिरिक्खजो- ठिइं पडुच साईया, सपञ्जवसिया वि य / / 17 / / णिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्ख- एगाओ पुष्वकोडीओ, उक्कोसेणं वियाहिए। जोणिया य, गब्भवक्कं तियपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य / से किं / आउट्ठिई जलयराणं, अंतांमुहुत्तं जहणिया / / 176 // तं समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? संमुच्छिमपंचिं- (पुव्वको डिपुहुत्तं तु, उक्कोसेण वियाहिया। दियतिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-जलयरा, कायट्ठिई जलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नग / / 177 / / थलयरा, खहयरा या अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं / सकि तांगादि अल के तेन्द्रियतिथग्लोनिकाः ? सरि | विजढम्म सए काए, जलयराणं य अंतरं / / 17 / राइयेन्द्रिर तिरंग्यानिया द्विविधाः प्रक्षा:राद्यथा-समछि . चउप्पया य परिसप्पा, दुविहा थलयरा भवे / न्द्रियतिर्यग्य' नेकाः, गर्भव्युत्क्रान्तिक्पञ्चेन्द्रियतिरंग्योनिकाः। तर चउप्पया वउविहा, ते मे कित्तयतो सुण / / 176 / / समर्छन समग पपातर तिरेकेाणेवमेव प्राणिनामुत्पादः तेन निर्वताः एगखुरा दुखुरा चेव, गंडीपयसणहपया। संमछिमाः / भावादिमः" 6 / 4 / 21 / / इति इमप्रत्ययः / गत हयमाइ गोणमाई, गयमाई सीहमाइणो ||180 / / पञ्चन्द्रियतिर्यग्मोनिका श्व संगुर्छिमपञ्चेन्द्रियतिधयोनिकाः / / भूतोरगपरीसप्पा, उरपरिसप्पा दुहा भव: व्युत्क्रान्तिर पत्तियणाम / यदि वग- गर्भाव गर्भवासात व्यस्क्रान्तिनि: गोहाइ अहिमाई य,एक्के काउणेगहा भवे / / 181 / क्रमण येषा त गर्भव्यन्क्रान्तिकाः, ते च पञ्चेन्द्रियतिम्मानिकाचति। लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया। विशेषणसमाः चशब्दो स्वस्वगतानेकभेदसूचकी। (से किसमित्यादि) एत्तो कालविभागं तु, ते सिं वुच्छं चउव्विहं / / 182 / / अथ के ते सभूर्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः? सूरिराह.. पसन्द्रिय- संतई पप्प णादीया, अपज्जवसिया विय। तिर्थयोनिका स्त्रविधा प्रजाताः। तद्यथा- जलचराः, स्थलचराः, खचराः / ठिइं पडुच्च साईया, सपञ्जवसिया विय।।१८३।। तत्र जले चरन्तीति जलचरः। एवं स्थलचराः / खचरा अधिभावनीयाः / पलित्तोवमाइ तिण्णि उ, रक्कोसेण वियाहिया। जी 1 प्रति।। आउट्ठिई थलयराणं, अंतोमुहत्तं जहणिया / / 184 / / से किं तं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? पंचिंदियतिरि- पुवकोडीपुहत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहणिया। क्खजोणिया तिविहा पण्णत्ता / तं जहा- जलयरपंचिंदिति- कायट्ठिई थलयराणं, अंतरं तेसिम भवे / / 185 / / रिक्खजोणिया, थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, खइयर- कालं अणंतमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहण्णयं / पंचिंदियतिरिक्खजोणिया। विजढम्म सए काए, थलयराणं तु अंतरं / / 186 // पञ्चन्द्रियान् प्रतिपिपादयिषुराह - (से किं तमित्यादि) अथ के ते चम्मे उ लोमपक्खी य, तइया समुग्गपक्खी य। पञ्चन्द्रितर्षग्योनिकाः ? सृरिराह-पक्षन्द्रियतिथंग्यानिकारिचविधा: विततपक्खी य बोधव्वा, पक्खिणो य चउविहा।१८७। प्रज्ञप्ताः। तद्यथा - (जलयरेत्यादि) जले चरन्ति पर्यटन्तीति जलचराः लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचिंदियतिरिक्खजोणिया 56 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंजलि इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउव्विहं / / 158|| इति। तथा-रोमप्रधानाः पक्षा रोमपक्षास्तद्वन्तोरोमपक्षिणो राजहंसाऽऽसंतई पप्प णाईया, अपज्जवसिया विय। दयः। समुद्गपक्षिणःसमुद्रकाऽऽकारपक्षवन्तः, ते च मानुषा तराद् ठिइं पडुच साईया, सपज्जवसिया विय ||196 / / बहिदींपवर्तिनः। विततपक्षिणो ये सर्वदा विस्तारिताभ्यामेव प्रक्षाभ्यापलिओवमस्स भागो उ, असंखेज्ज इमो भवे। मासते, इह च यत् क्षेत्रस्थित्यन्तराऽऽदि प्रत्येक प्राक्तनसदृशमपि पुनः आउट्ठिई खहयराणं, अंतोमुहुत्तं जहणिया // 16 // पुनरुच्यते, न पुनरतिदिश्यते, तत् प्रपञ्चितज्ञविनेयाऽनुग्रहा-र्थम, असंखभागो पलियस्स, उक्कोसेण वियाहिया। एवं विधा अपि प्रज्ञापनीया एव, इतिख्यापनार्थं चेत्यदुध मिति पुव्वकोडी पुहुत्तेणं, अंतोमुहत्तं जहणिया॥१६१।। विभावनीयमिति पञ्चविंशति सूत्रार्थः। उत्त०६ अ०। कायट्ठिई खहयराणं, अंतरं तेसिमो भवे। पंचिंदियरयण न०(पञ्चेन्द्रियरत्न) चक्रवर्तिनां वीर्यतः स्वजात्युत्कृष्ट कालं अणंतमुक्कोस, अंतोमुहत्तं जहण्णयं / / 16 / / पञ्चेन्द्रिये एकैकस्यपञ्चेन्द्रियस्य सदा पञ्चेन्द्रियरत्नानिसेना यतिगृहएएसिं वण्णतो चेव, गंधतो रसफसतो। पतिवर्द्धकिः पुरोहितः स्त्री अश्वो हस्ती चेति। स्था०७ ठा० / संठाणदेसतो वावि, विहाणाइं सहस्सओ।।१८३।। पंचिंदियसंवरण न०(पञ्चेन्द्रियसंवरण) स्पर्शनाऽऽदीन्द्रियनिग्रहणे, सूत्राणि पञ्चविंशतिः व्याख्यातप्रायान्येव, नवरमाद्य सूत्रद्वयमुद्देशतो | ध० 3 अधिक भेदाननन्तरं ग्रन्थसम्बन्धं चाभिदधाति। अत्र संमूर्छन समूर्छा अतिशय पंचुंबरी स्त्री० (पञ्चोदुम्बरी) पञ्चानामुदुम्बराणां समाहारः मूढता, तया निर्वृत्ताः संमूर्छिमाः / यदि वा-समित्युत्पत्तिस्थनपुद्गलैः पञ्चोदुम्बरी / वटपिप्पलोदुम्बरप्लक्षकाकोदुम्बरीफलरूपे उदुम्बरासहकीभावेन मूर्च्छन्ति, तत्पुद्गलोपचयात् समुच्छ्रिता भवन्तीति ऽऽदिपञ्चके, सा मशकाऽऽकारसूक्ष्मबहुजीवभृतत्वावर्जनीया ! प्रव० औणादिके इमप्रत्यये संमृच्छिमाः,तेच ते तिर्यञ्चश्व संमूछिमतिर्यो ये 4 द्वार / पञ्चा०। मनः पर्याप्त्यभावतःसदा संमूञ्छिता इवावतिष्ठन्ते। तथा गर्भे व्युत्क्रा पंचोक्यारजुत्त त्रि० (पञ्चोपचारयुक्त) 'दो जाणू दोण्णि करा, पचमयं न्तिरुत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्यत्क्रान्तिकाः। जले चरन्ति गच्छन्ति, चरेर्भक्षण होइ उत्तिमंगं तु / ' एवमेभिः पञ्चभिरुपचारैः युक्ते पञ्चाङ्गप्रणिपाते, मप्यर्थ इति भक्षयन्ति चेति जलचराः / एवं स्थलं निर्जलो भूभा "सचित्ताणं दव्वाण विउसरणयाए।" इत्यादि-कैरागमोक्तः पक्षभिगस्तरिमचरन्तीति स्थलचराः। तथा-(खयर त्ति) सूत्रत्वात् खमाकाशं, विनयस्थानैर्युक्ते, पक्षा० 1 विव०। तस्मिश्चरन्तीति खचराः। "यथोद्देशः निर्देशः' इति जलचरभेदानाह पंजर न० (पञ्चर) लोहवंशशलाकाऽऽदिनिर्मिते पक्षिनियन्त्रणस्थाने उत्त० 22 अ०। सू० प्र०। ज्ञा० / प्रश्न / जी०। वंशाऽऽदिमयप्रच्छामत्स्या मीनाः, कच्छपाः कूर्माः गृह्णन्तीति ग्राहा जलचरविशेषाः, मकराः दनविशेषे, रा०। "नाह रमे पक्खिणि पंजरेवा, संताणछिन्ना चरिरसामि सुंसुमारा अपि तद्विशेषा एव / “लोएगदेसे'' इत्यादि सूत्राणि पट मोण।" उत्त०१४ अ०। आ०म०। क्षेत्रकालभावाभिधायीनि, तथेह पृथक्त्वं द्विप्रभृत्या नवान्त स्थलचर पंजरग्ग न०(पञ्चराग्र) पञ्चरमुखे, आ० म०१ अ०२ खण्ड। भेदानाहपरि समन्तात्सर्पन्ति गच्छन्तीति परिसाः। एकखुराऽऽदयश्व पंजरणिरोहण न० (पञ्जरनिरोधन) पञ्चरे रोधयित्वा ग्राणिनां दण्डने, हयाऽऽदिप्रभृतिभिर्यथाक्रम योज्यन्ते, तत एकः खुरश्चरणाधोवर्त्यस्थि प्रश्न०१ आश्र०। द्वार। विशेषो येषां ते एकखुरा हयाऽऽदयः, एवं द्विखुरा गवादयो, गण्डीपदा पंजरदीव पुं०(पञ्जरदीप) अभपटलाऽऽदिपञ्जरयुक्त दीपे , ज्ञा०१ कर्णिका, तद्वद् वृत्ततया पदानि येषां ते गण्डीपदा गजाऽऽदयः / (सणपय श्रु०१ अ० भ०। त्ति) सूत्रत्वात् राह नखै खरात्मकैर्वर्त्तन्त इति सनखारतथाविधानि पंजरभगा पुं० (पञ्चरभन) यथा पञ्जरे शकुनेः शलाकाऽऽदिभिः पदानि येषां ते सनखपदाः सिंहाऽऽदयः / (भूतोरगपरिसप्पा रा ति) स्वच्छन्दगमनं निवार्य्यत तथाऽऽचार्याऽऽदिपुरुषगच्छपञ्जरे सारणापरिसर्पशब्दः प्रत्येकमभिसम्बन्ध्ते। ततो भुजा इव भुजाः शरीरावय शलाकया सामान्यरूपोन्मार्गगमनं निवार्यत तद्रग्रं येन सः / यतमानवविशेषाः, तै, परिसर्पन्त इति भुजपरिसर्पाः, उरोवक्षस्तेन परिसर्पन्तीति | साधूनां मूलादागते, परिभवता वा मूलादागते, व्य० 1 उ०। उरःपरिसः तस्यैव तत्र प्राधान्यात गोधाऽऽदयः अहिः सर्पस्तदादय पंजरुम्मीलिय वि० (पञ्जरोन्मीलित) वंशाऽऽदिमयप्रच्छादनविशेषात् इति यथाक्रम योगः / एते चैकै क इति प्रत्येकमनेकधा अनेकदा पञ्जरा बहिष्कृते. जी०३ प्रति० 4 अधि० / सू०प्र०।"पंजरुम्मीलियं गोधेरकनकुलाऽऽदिभेदतो गोणसहावप्रलापाऽऽदिभेदतश्व, पल्योपमानि वा" पञ्जरादुन्मीलितमिव बहिःकृतमिव पञ्जरोन्मीलितमिया, यथाहि तु त्रीण्युत्कृष्टन तु साधिकानि पूर्वकोटीपृथक्त्वेनोक्तरूपेण पल्योपमा किल किमपि वस्तु पजराद वंशाऽऽदिमप्रच्छादनाविशेषाद् बहिः ऽऽयुपो हि न पुनस्तत्रैवोत्पद्यन्ते, ये तुपूर्वकोट्यायुषो मृत्वा तत्रैवोपजायन्ते कृतमत्यन्तमविनष्ट छायत्वात् शोभते, एवं तदपि विमानमिति भावः / तेऽपि सप्ताष्ट वा भवग्रहणानि यावत्पश्शेन्द्रियनरतिरश्वामधिकनिर च० प्र०१८ पाहु। न्तरभवान्तरासम्भवात्। उक्तं हि-"सत्तट्ट भवा उ तिरियमणुय नि।" | पंजल त्रि० (प्राञ्जल) समे, विशे०। अनु०। अत एतावत एवाधिकस्य सम्भव इति भावना / खेचरानाह-(चम्मे उ | पंजलि पुं० (प्राञ्जलि) प्रकृष्ट प्रधाने ललाटतटघटितत्वे - त्ति) प्रक्रमाचर्मपक्षिणः चर्मचटकाप्रभृतयः, चर्मरूपा एव हि तेषां पक्षा | नाजली. ज, 1 वक्षः। विनयरचितकरसंपुटे, ध०२ अधि०। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंजलि 57 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंडिय ज्ञा० / आय० / प्रकृताञ्जली, आ० चू०५ अ०। प्रवृद्धाञ्जली, येन हि मन्दरे पर्वत शिखरतले मौलिभागे पण्डकवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम्। चत्वारि प्रवृद्धोऽजलिः / व्य० 1 उ०। योजनशतानि चतुर्नवस्य धिकानि चक्रवालविष्कम्भेन। तदुपपत्तिस्तु पंजलिउड त्रि०( प्राञ्जलिकृत) प्रकृष्टः प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन सहस्रयोजनप्रमाणात् शिखरच्यासान्मध्यस्थितचूलिकामूलव्यासे अजलिईस्तव्याहसविशेषः कृतो विहितो येन सः / अग्न्याहिता- द्वादशयोजनप्रमाणे शोधितेऽवशिष्टेऽर्कीकृते यथोक्तं मानं, यत्पण्डकवनं दिदर्शनात्प्राञ्जलिकृतः। भ०१२०१ उ०। आ०म०। विनयरचित- मन्दरचूलिकां सर्वतः समन्तात् सपरिक्षिप्प तिष्ठति, यथा नन्दनवन मेरु करमुटे, ल० प्रोद्गताञ्जली, दश०६ अ०१ उ०। रा०ा बद्धाञ्जली, सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य स्थितं, तथेदं मेरुचूलिकामिति / त्रीणि उन०१अ०। च० प्र०ा ज्ञा० / प्रहाञ्चलिपुटे.पं० चू०१ कल्प। उत्त०। योजनसहस्त्राणि एक च द्वाषष्टि द्वाषष्ट्यधिक योजनशतं किञ्चिद्विसू० प्र० / “सुतत्थे गेण्हतो, कुण अंजलिं पंजलिउडो तु।'' पं० भा०१ शेषाधिक परिक्षेपेणेति। अथास्य वर्णकमहा-(सेणं इत्यादि) व्यक्तम्। कल्प ! प्रकर्षणान्तः प्रीत्यात्मकेन कृतो विहितोऽचलिरुभयक अथ प्रस्तुतवने भवनप्रासादाऽऽदिवक्तव्यगोचरसूत्रम्रनीलनाऽऽत्म कोऽनेनेति प्रकृताञ्जालिः प्राकृतयत्वाच कृतशब्दस्पर मंदरचूलियाए णं पुरच्छिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोअणाई निपातः। विनयरचितकरपुटे, उत्त०१ अ०॥ ओहित्ता एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते, एवं जं चेव सोप्राञ्जलिपुटत्रि (प्रकृष्टभावान्विततयऽञ्जलिपुटमस्येति) प्राञ्जलि मणसे पुत्ववण्णिओ गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायदुटः / बद्धाञ्जली, उत्त० 1 अ०। वंडेंसगाण य, सो चेव णेअव्वो० जाव सक्कीसाणवडेंसगा, पंडअ पुं० (पण्डक) पंडग' शब्दार्थे , पाइ० ना० 235 गाथा / तेणं चेव परिमाणेणं। पंडग० (पण्डक) नपुंसकभेदे, ध० 3 अधि०। स्था० / वृ० / विशे०। (मंदरचूलियाए इत्यादि) मन्दरचलिकायाः पूर्वतः पण्डकवनं पं०मा० / ग०। प्रव०। नि० चू०। "तहियं पंडो तिविहो, लक्खण दूसिय पञ्चाशद्योजनान्यवगाहा अत्रान्तरे महदेकं भवनं सिद्धाऽऽयतनं प्रज्ञप्तम्, एवमुक्ताभिंलापेन य एव सौमनसभवने पूर्ववर्णितो नन्दनवनप्रस्तावोक्तो दहोवधाओस। पं० भा०१ कल्प। (लक्षणपण्डकः लक्खणापंडग' गमः कूटवर्जः सिद्धाऽऽयतनाऽऽदिव्यवस्थाऽऽधायकः सदृशाऽऽलापक: शब्दे द्रष्टव्यः) (दूषितपण्डकः 'दूसियपंडग' शब्दे चतुर्थभागे 2606 पृष्ट पाठः, स एवात्रापि भवनाना पुष्करिणीनां प्रासादावतंसकानाच ज्ञातव्यः, गतः) (उपधातपण्डकः 'उवघायपंडग' शब्दे द्वितीयभागे 881 पृष्ठे यावच्छकेशानप्रसादावतंसकास्तेनैव प्रमाणेनेति ।अदानीं नामानि विस्तरेण प्रतिपादितः) (सर्वे ऽपि पण्डकाः प्रव्रज्याऽयोग्याः इति प्रागुक्तयुत्ता या सूत्रेऽदृष्टान्यपि ग्रन्थान्तरतो लिख्यन्ते। तद्यथा-ऐशानप्रा'पब्बला' शब्द वक्ष्यते) सादपूर्वाऽऽदिक्रमेण पुण्ड्रा 1 पुण्ड्रप्रभा 2 सुरक्ता 3 रक्तावती 4 / पंडगवण न० (पण्डकवन) पण्डते गच्छति जिनजन्माभिषेकस्थानत्वेन आगेयप्रासादेक्षीररसा 1 इक्षुरसा 2 अमृतरसा ३वारुणी 4 / नैर्ऋतसर्वतनेष्वति गायितामिति णकप्रत्यये पण्डकं, तच्च वनमिति / जं० 4 प्रासादेशडखोत्तरा १शखा २शखावर्ता 3 वलाहका 4 / वायव्यवक्ष० / सोमनसवनादूर्ध्व षट्त्रिंशद्योजनसहस्त्राणि उत्प्लुत्यात्रान्तरे प्रसादेपुष्पोत्तरा 1 पुष्पवती 2 सुपुष्पा 3 पुष्पमालिनी४ चेति / जं० मेरोरुपरितने तले योजनसहस्त्रविस्तारे चूलिकायाः सर्वासु दिक्षु मेरी 4 वक्ष०। चतुर्थे स्वनामख्याते वने, ज्यो०१० पाहु०। प्रज्ञा०। "दो पंडगवणा।" पंडगवेजयंत पुं०(पण्डकवैजयन्त) पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थित स्था २ठा०३ उ०। जंग वैजयन्तीकल्पं पताकाभूतं यस्य स तथा। पण्डकवनमण्डितशिरस्के, तचक्क 'सयं सहस्सा णउत्जोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयंते।'' सूत्र० 1 श्रु० कहि णं भंते ! मन्दरे वव्वए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते ? 6 अ०। गोयमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ पंडरंग (देशी) रुद्रे, दे० ना०६ वर्ग 23 गाथा। छत्तीसं जोअणसहस्साई उड्डे उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पव्वए पंडर पुं० (पण्डर) क्षीरवरद्वीपदेवे, सू० प्र०१६ पाहु०। चं०प्र०। सिहरतले पंडगवणे णांम वणे पण्णत्ते चत्तारि चउणउए पंडव पुं०(पाण्डव) 'मांसाऽऽदिष्वनुस्वारे" ||8/170 / / इति ह्रस्वः / जोअणसए चक्कवालविक्खंभेणं बट्टे बलयाकारसंठाणसंठिए, जे प्रा०१ पाद / पण्डोरपत्य पाण्डवः / पण्डराजक्षेत्रजायाः कुत्याः पुत्रेषु णं मंदरचूलिअंसटवओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ, तिण्णि युधिष्ठिराऽऽदिषु, स्था० 10 ठा० / अन्त। ज्ञा० / आव०। आ० म०। जो अणसहस्साई एगं च वावढेि जोअणसयं किंचि विसेसाहिअं ('दुवई शब्दे चतुर्थ भागे 2588 पुष्ठ कथोक्ता) परिक्खेयेणं, से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं० पंडविअ (देशी) जलाऽऽर्दे , दे ०ना 0 6 वर्ग 20 गाथा। जाव किण्हदेवा आसयंति। जं०। पंडिय पुं० (पण्डिम)पापाड्डीनः पण्डितः। संयते, भ०७श०२ उ०। सर्वविरते, (मन्दरचूलिकाश्च मंदरचूलिया' शब्दे वक्ष्यन्ते) वृ० 3 उ०। पापानुष्ठानाहवीयसि, सूत्र०१ श्रु० 2102 उ०ा सदसद्विवेकज्ञे, 'कहिण'' इत्यादि प्रश्नः प्रतीतः। उत्तरसूत्रे सौमनसवनस्य बहुसम- आचा० १श्रु०१अ०२ उ०। सूत्रापरमार्थज्ञे, सूत्र०२ श्रु०२ अ तत्त्वज्ञे, रमणीभाद् भूमिभागादूर्द्ध षट्त्रिंशद्योजनसहस्त्राणि उत्प्लुत्य तत्र देशे | उत्त०६ अ०। भावरिपुभिरनिहते, आचा० 1 श्रु० 4 अ० 3 उ०। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडिय 58 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंडियवीरिय उनका पापापादानपरिहारतया सम्यवपदार्थज्ञ० आचा०१ श्रु०६ अ. 4 उ० / सूब० ! सकलायद्यपरिवर्जके, भ० 104 उ०। बुद्धिमति, 01 श्रु० 8 अ० 8 उ० / विवेकिनि, सूत्र० 1 श्रु० 10 अ०। हेलोपादेयतत्रज्ञे, आचा०२ श्रु०१०३ आ०१ उपरमार्थादिान (दश०६ अ० 4 उ० ) साधी, अनु० / विदुषि, दश०१० पाना बुद्धिः संजाताऽस्येति पण्डितः / उत्त०१ अ०। शास्त्रार्थज्ञ, 6106 अ०५ उ० / दर्शनपरिणामवति, दश०२ अ०। “पटकः पाठकश्वव, ये चान्य सत्यचिन्तकाः। सर्वे व्यसनिनो राजन्! यः क्रियावान सपण्डितः / / 1 / / " | स्था० 4 ठा०४ उ० / पण्डितपदनन्दिभवनाभावे पण्डितपदस्थस्यपुरा न्यूनःधिकांयाणां साभान्ययतीनां संजातनन्दीना लघुपण्डितानां / कियन्ति कियन्ति क्रियाकार्याणि कृतानि शुद्धयन्तीति प्रश्ने, उत्तम्भ - पण्डितपदनन्दिभवनाभावेऽपि वृद्धपण्डितस्य पुरः प्रतिदिनाकरणानि राण्यपि धर्मकार्याणि सर्वेषां कृतानि शुद्भ्यान्त, शक्षारयापारा पनाचार्यप्रतिष्ठाप्रतिमाप्रतिष्टाऽऽदिकानि तु कृत्यानि मन्त्रसापेक्षत्वान शुद्ध यन्तीति पारम्पर्य, साम्प्रत तु केचन वृद्धगणयो लघुपगिद्धतरर दुरःक्षामणानुष्ठानराऽऽदिकं न कुर्वन्ति, तत्प्रवृतिस्तु प्रवाहमानोनित निवारयितुमशक्या, परं शास्त्राक्षरानुसारण लधारपि पण्डत- पुल घद्धानामपि गणीना तत्करण नानांचितीमञ्चतीति / 16,6 प्र०ा सेन०२ उल्ला पंडियजण पुं० (पण्डितजन) विज्ञजने, पञ्चा० 16 विवः / . पंडियप्पबाइ(ण) त्रि० (पण्डितप्रवादिन ) पण्डिताभिमानिनि, अचार, 1(025 उ०। पंडियमरण न० (पण्डितमरण) पण्डिताः सर्वविस्तार तथा भर पण्डितमरणम् / स०१७ सम० आतु०। सर्वविस्तमरा 1013 उ०। उत्तमार्थप्रतिपदा, संथा। "से किं तं पंडियमरणे? परियमरणः दुदिह पश्यते / तं जहा- पाओवगमण य, भत्तपत्रका " भ०२ श०१ उ० ! द०प० पडियमाणि(ण) त्रि० (पण्डितमानिन्) पण्डितमात्मान मन्यते इत्येवं. पीलः पण्डितमानी / उत्त० 40 / आत्मानं पण्डित म जानाहड़ कारधारिणि, उ०६०। ओघ०। सुत्र०ा आ०म०। दविदग्धबृ.) 1 उ०। पंडियवयण न० (पण्डितवचन) संक्षिप्ताभिधाने विज्ञोक्ती, सूत्र 1 श्रु० 1 अ०१ उ० पंडियदीरिय न० (मण्डितवीर्य) अनगाराणां वीर्ये , सूत्र०१ श्रु०८ अ०i इत्तो अकम्मविरियं, पंडियाणं सुणेह मे (E) दविए बंधणुम्मुक्के, सवओ च्छिन्नबंधणे। पणुल्ल पावकं कर्म, संल्लं कंतति अंतसो // 10 // अत ऊर्दुमकर्मणां पण्डिताना यद्वीर्य तत् में मम कथयतः शृणुत यूयमिति / / 8 / / यथाप्रतिज्ञातमेधाऽऽह- (दविए इत्यादि) द्रव्या भयो सुलिगमनयोग्यः / "द्रव्यं च भव्यः "इति वचनात् / रागद्वपावरहाता द्राभूताऽकषायीत्यर्थः / यदि वा वीतराग इति। वीतरागोऽल्पकपारा इत्यर्थः / तथा चोकम् - "कि सक्का वो युजे, सरागधम्मम्भि काई अकसायी सतविजो बसाए.निनिहाई साऽवितत्तुलो ॥१:"नच किता भवतीति दर्शयतिवन्धनात्कपायाऽऽत्मक 'न्मुक्तोबगधो मुक्तः। बन्धनं तु कपागाणां वस्थितिहेतुत्वात्। तथा पनि बढिई कसायवसा।'' इति। यदिवाबन्धनोन्मुक्त इव बन्धनान्मुकः / तपासतातः सर्वपकारण सूक्ष्मवादररूप छिन्नमपनीतं बन्धनं कराया सक धान र छिमबनधनः / तया-प्रणुद्य प्रर्य पाप कर्म कारणभूतान् वाऽ5417नपनीय शल्यवच्छल्यं शेषक कर्म तत् कृन्तत्यपनयत्यन्तशो निरवशे पतो विघटयति। पाटान्तरं वा - (सल्लं कतइ अप्पणो त्ति) शल्यभूतं यर - प्रकार कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कृन्तति छिनत्तीत्यर्थः / / 10 / / यदुधादाय शल्यभपनयति तद्दर्शयितुमाहनेयाउयं सुअक्खायं, उवादाय समीहए।। भुजो भुजो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा !!11 / / (नेयाउयमित्यादि) नयनशीला नेता, नयतेस्ताच्छोलिकस्तृन् रा चाऽत्र सम्यकदर्शनशानचारित्राऽऽत्मको मोक्षमार्गः, श्रुत चारित्ररूपा वा धों भाक्षनयनशीलवान गृह्यते / मार्ग धर्म वा मोक्ष प्रति नेतारं सुष्ट तीर्थकराऽऽदिभिराख्यात स्वाख्यातं, तमुपादाय गृहीत्वा सम्प्रक माक्षाय चपत ध्यानाध्ययनाऽऽदावुद्यम विधत्ते / धर्मध्यानाऽऽराहणालिम्बनायाऽभूया भराः पौनःपुन्येन यद्वालबीर्यं तदतोतानागताना तम.HEME समावासयतीति दुःखाऽऽवासं वर्तते / यथा राय च बालवीर्यवान नरकाऽऽदिषु दुःखवासेषु पर्यटति तथा तथा चास्यःशुभाध्यवसायित्वादशुभमेव प्रवर्धते इत्येवं संसारस्वरुपमनुपेक्ष्यमा स्य धर्मध्याम प्रवर्तत इति / / 11 / / साम्प्रतमनित्यभावनामधिकृत्याऽऽहठाणी विविहठाणाणि, चइस्संतिण संसओ। अणियंते अयं वासे, णायएहिं सुहीहि य / / 12 / / (टाणी विविहेन्यादि) स्थानानि विद्यन्ते येषां ते ग्थानिनः / द्यपादखला के इन्द्रःतत्समानानि त्रयस्त्रिंशत्या यादीनि, मनुष्यष्यपि चक्रवर्तिबलदेववासुदेवमहामण्डलिकाऽऽदोनि / तिर्थक्ष्वपि यानि कानिचिदिष्टानि भागभूम्यादौ स्थानानि, तानि सर्वाण्यपि विविधानि नानाप्रकारायुतमाधममध्यमानि, ते स्थानिनरत्यक्ष्यन्ति नात्र सायो विधेय इति / तथा चोक्तम्- "अशाश्वतानि स्थानानि, सर्वाणि दिवि चह च। देवासुरमनुष्याणामृद्धयश्च सुखानि च / / 1 / / ' तथाऽयं ज्ञातिभिः सबन्धुभिः सार्ध सहान्रो श्व मित्रैः सुहृद्धियः संवासः सोऽनित्योऽशाश्वत इति ! तथा चोक्तम-'' सुचिरतरमुषित्वा बान्धवैर्विप्रयोगः, सुचिरनधि हि रत्वा नास्ति मांगेषु तृषिः / सुचिरमपि हि पुष्ट याति नाश् शोर, सुचिरमपि विचिन्यो धर्म एक: सहायः॥११:" इति। चकारी धनधान्यद्विपटचतप्पदशरीरापनित्यत्वभाननार्थी, अशरणादाशेषभावनार्थ " चाऽनुक्तरामुचाग्नुपान विति / / 12 / / एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे। आरियं उपसंपजे, सव्वधम्ममकोवियं / / 13 / / (एवमादायेत्यादि) अनित्यानि सर्वाण्यपि स्थानानीत्येवमादायावधार्य मधावी मर्यादाव्यवस्थितः, सदसद्विव की वा आत्मनः सम्बनिधनी गृद्धि गायं ममत्वमुद्धरेदपनयेन्ममेद Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडियवीरिय 56 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंडियवीरिय महमस्य स्वागत्येवं ममत्वं क्वचिदपि न कुर्यात् / तथा-आराज्यातः सहयधर्मभ्य इत्यार्यो माक्षमार्गः, तमुपसम्पद्यताऽधितिष्टेत समाश्रयदिति : किंभूतं मार्गमित्याह- सर्वे : कुतीर्थिकधर्मरकोपितोऽदूषितः, न्य हिम्नैव दूरयितुमशक्वत्वात् प्रतिष्ठां गतः / यदि वा- सर्वधर्मः, तभावरनुष्ठान-पैरगोपितं कुत्सितकर्त्तव्याभावात् प्रकटमित्यर्थः / / 13 / / सुधर्मपरिज्ञानं च यथा भवति तद्दर्शयितुमाहसइ संमइए णच्चा, धम्मसारं सुणेतु वा। समुवट्ठिए उ अणगारे, पचक्खायकुपावए।॥१४|| (यह संगइए : त्यादि) धर्मस्य सारः परमार्थो धर्मसारस्तं, ज्ञात्वाऽ ध्य. कथमिनिदर्शयति- सहसम्मत्या स्वमत्या वा विशिष्टाऽऽभिनिबोधिज्ञानेन भूतज्ञानेनावधिज्ञानेन वा स्वपरावबोधकत्वात् ज्ञानस्य, तन नह धर्मस्य सार ज्ञात्वेत्यर्थः। अन्येभ्यो वा तीर्थकरगणधराऽऽचार्या कर इलाधु बवत (तत्कथा 'इलापुन शब्दे द्वितीयभाग 632 पृष्ट ल असा चिनाजपुत्रवधा (तत्कथा 'चिलाइपुत्त' शब्दे तृतीयभागे 1188 पृष्ट द्राच्या) धर्नसारमुपगच्छति / धर्मस्य वा सार चारित्रं, नप्रतिपाते, प्रतिपत्तौ च पूर्वोपात्तकर्मक्षयार्थ पण्डितवीर्यसम्पनी लगाइदिबन्धनविमुक्ता बालवीर्य रहित उत्तरोत्तरगुणसंपत्तये समुपस्थितोऽन्गार: प्रवर्द्धमानपरिणामः प्रत्याख्यातं निराकृतं कुपापक सावधनुष्ठानरूपं येनाऽसो प्रत्याख्यातपापको भवतीति / / 14 / / जं किंचुवक्कम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो। तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज पंडिए॥१५॥ (किंचुवक्कमित्यादि) उपक्रम्यते संवर्यंत क्षयमुपनीयले आयुयन स उपक्रमरता कक्षन जानीयात्। कस्य? आयुःोमस्य स्वायुष इति। इटमुत्तं भवति- स्वायुष्कस्य येन केनचित्प्रकारेणोपक्रमो भावी यस्मिन्या काले तत्परिज्ञाय, तस्यापक्रमरय कालस्यवा अन्तराले क्षिप्रमेदाऽनानुकूल' जीवितानाशंसी पण्डितो विवेकी संलेखनानुरूपां शिक्षा, भकपरिजड़ितम ISऽदिकां वा शिक्षेत / तत्र ग्रहणशिक्षया यथावन्म-- रगधि विज्ञाधाऽऽसेवनाशिक्षया सेवेते ति॥१५॥ किंचान्यतजहा कुम्मे अ संगाई, सए देहे समाहारे। एवं पावाइँ मेधावी, अज्झप्पेण समाहारे॥१६|| (जहा कुम्मे इत्यादि) यथत्युदाहरणप्रदर्शनार्थः / यथाकूर्मः कच्छपः स्वान्ट डानि शिराधराऽऽदीनि स्वके देहे समाहरेद्रोपयेदव्यापाराणि कुर्यात / एवमन्येव प्रक्रियया मेधावी मर्यादावान् सदसद्विवेकी धापापानि पायत्याग्यनुष्ठानान्यध्यात्मना सम्यक धर्मानाऽऽदिभावनया समाहरेदुपसंहरेन्मरणकालेचीपस्थिता सम्यक संलस नया संलिखितकायः पण्डितमरणेनाऽऽत्मानं समाहरेदिले // 16 // संहरणप्रकारमाहसाहरे हत्थपाए य, मणं पंचेंदियाणि य। पावकं च परीणाम, भासादोसं च तारिस।।१७।। (साहरेझायादि) पादपोपगमने, इजितमरणे, भक्तपरिज्ञायां, शेषकाले वाकूर्मवद्धस्तो पादौ च संहरेव्यापारान्निवर्तयत्। तथा मनोऽन्तःकरणं, तच्या कुशलव्यापारेभ्यो निवर्तयेत् / तथा-शब्दाऽऽदिविषयेभ्योऽनुकुलप्रतिकलभ्योऽरक्तद्रिष्टयता श्रोत्रन्द्रियाऽऽदीनि पञ्चाऽपोन्द्रियाणि / चशब्दः समुचये / तशा पापक परिणाममहिकाऽऽमुष्मिकाऽऽशसारूप सहरेदिति / एवं भापादोषं च तादृशपापरूपसंहरेत. मनोवाकायगृप्तः.. सनद्लभ संयममवाप्य पण्डितमरण वाऽशेषकर्मक्षयार्थ सम्यमनुपालयेदिति / 17|| त व संयमे पराक्रममा कश्चित् पूजासत्काराऽऽदिना निमन्त्रयेत् तत्रा:-गनोकपो न कार्य इति दर्शयितुमाहअणु माणं च मायं च, तं पडिन्नाय पंडिए। सातागारवणिहुए, उवसंतेऽणिहे चरे।।१८।। (अणु मा चेत्यादि) चक्रवादिना सत्काराऽऽदिना पूज्यमानेनाऽणुरपि स्तोकोऽपि मानोऽहङ्कारो न विधेयः, किमुत महान्? यदिया-उत्तमभापस्थितेनोग्रतपोनिष्टप्तदेहेन वा अहोऽह-मित्येवंरूपःस्तोकोऽपि गर्यो न विधयः। तथा - "पाण्ड्रार्यया" इवस्तीकाऽपि माया न विधया, किमुत महतीति? एवं क्रोधलोभावपिन विधेयाविति। एवं द्विविधयाऽपि परिज्ञया कषायाँस्तद्विपाकांश्च परिज्ञाय तेभ्यो निवृत्तिं कुर्यादिति। पाठान्तरं या"- अइमाण च माई च तं परिण्णाय पंडिए।' अतीव मानो लिमानः सुभूमाऽऽदीनामिव ( अत्र 'सुभूम' शब्दो मान प्रका) तं दरखावहमित्येव ज्ञात्वा परिहरेत्। इदमुक्त भवतियपि सरागस्य कदाविन्मानोदयः स्यात्तथाऽप्युदयप्राप्तस्य विफ लीकरण कुर्यादिति। एवं मायायामप्यायोज्यम्। पाठान्तरं वा-'' सुर्य मे हिमासि, एय वीरस्स वीरियं / '' येन बलेन संग्रामशिरसि महति सुभटे परानीक विजयते, लत्परमार्थतो वीर्य न भवति, अपितयेन कामक्रोधाऽऽदीन विजयते तद्वीरस्य महापुरुषस्य वीर्यमिहेवाऽस्मिन्नेव संसारे मनुष्ाज भनि चकेषां तीर्थकराऽऽदीना सम्बन्धि वाक्यं मया श्रुतम् / पाठान्तरं वा - "आयतह रामादाय, एयं वीररावीरियं।'' आयतो मो. सोऽवसिताबरम्यानत्वात, संचासावर्थश्च तदर्थो वा तत्प्रयोजनो वा सम्यगदर्शनज्ञान चारित्रमार्ग :, स आयतार्थः, तं दृष्ट्वाऽऽदाय गृहीत्वा यो धृतियलन कामक्रोधाऽऽदिविजयाय च पराक्रमते. एतद्वीररय दीर्य मिति वीरस्य वीरत्वमिति, तद्यथा भवति तत्तथाऽऽख्यातम् / किज्यान्यत- सातगौरवनाम सुखशीलता, तत्र निभृतः, तदर्थमनुद्युक्त इत्यर्थः। तथा-क्रोधाऽग्निजयादुपशान्तः शीतीभूतः शब्दाऽऽदिविषयेभ्योऽप्यनुकूलप्रतिकूलभ्योऽरक्तद्विष्टतयोपशान्तों जितेन्द्रियत्वात्तेभ्यो निवृत इति / तथा-निहन्यन्ते प्राणिनः संसारे यया सा निहा माया, न विद्यते सा यस्याऽसावनिहो, मायाप्रपञ्चरहित इत्यर्थः / तथागानरहितो लोभवर्जित इत्यपि द्रष्टव्यम्। रा चैवम्भूतः संयमानुष्ठानं यरेत कुयादिति। तदेवं भरणकाले अन्यदा या पण्डितो वीर्यवान् महाव्रतेषुद्यतः स्थान। तत्राऽपि प्राणातिपातविरतिरेव गरीयसीतिकृत्वा तत्प्रतिपादनार्थमाह " उड्डमहे तिरियं वा, जे पाणा तसथावरा। सत्वत्थ विरतिं कुछा, संति निव्वाणमाहियं / / 1 / / " अयं च श्लोको न सूत्राऽऽदशेषु दृष्टः, टीकायां तु दृष्ट इति कृत्वा लिखितः, उत्तानार्थ श्चेति // 18|| सूत्र०१ श्रु०८ अ०। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडियवीरिय 60- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंडियवीरिय - तथा किञ्चान्यत् कडं च कञ्जमाणं च, आगामिस्सं च पावगं / सव्वं तं गाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया।।२१।। (वड चेत्यादि) साधूद्देशेन यदपरैरनार्यकल्पैः कृतमनुष्ठितं पापकं कर्ग, तथा- वर्त्तमाने च काले क्रियमाणम्, तथा- आगामिनि च काले यत्करिष्यते, तत्सर्वं मनोवाकायकर्मभिर्नानुजानन्ति नाऽनुमोदन्ति, तदुपभोगपरिहोरणेति भावः। यद्यप्यात्मार्थं पापक कर्म परेः कृतं, क्रियते, करिष्यते च / तद्यथा- शत्रोः शिरश्छिन्नं, छिद्यते, छेत्स्यते वा / तथाचौरी, हतो हन्यते हनिष्यते वा इत्यादिक परानुष्ठानं नाऽनुजानन्ति, न च वह मन्वन्ते। तथाहि-यदि परः कश्चिदशुद्धेनाऽऽहारेणोपनिमन्त्रयेत्तमपि नानुमन्यन्त इति / क एवम्भूता भवन्तीति दर्शयति-आत्माऽकुशलमनोवाक्कायनिरोधेन गुप्तो येषां ते तथा / जितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि श्रोत्राऽऽदीनि येस्तेतथा, एवम्भूताः पापकर्म नाऽनुजानन्तीति स्थितम् // 21 // अन्यच्चजे अबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो। असुद्धं तेसि परकंतं, सफलं होइ सव्वसो।।२२।। (जे अबुद्धा इत्यादि) ये केचनाऽबुद्धा धर्म प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कतर्काऽऽदिपरिज्ञानेन जालाऽवलेपाः पण्डितमानिनाऽपि परमार्थवस्तुतत्वाऽनवबोधादबुद्धा इत्युक्तम्। न च व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्यक्त्वव्यतिरेकेण वस्तुतत्त्वावबोधो भवतीति। तथा चोक्तम - "शास्त्रावगाहपरिधट्टनतत्परोऽपि, नैवाऽबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् / नानाप्रकाररसभावगताऽपि दर्वी, स्वाद रसस्य सुचिरादपि नैव वेत्ति / / 6 / / '' यदि वा-अबुद्धा इव बालवीर्यवन्तः / तथा महान्तश्च ते भागाश्च महाभागाः। भागशब्दः पूजावचनः / ततश्च महापूज्या इत्यर्थः, लोकविश्रुता इति। तथा-वीराः परानीकर्भदिनः सुभटा इति / इदमुक्तं भवति-पण्डिता अपि त्यागाऽऽदिभिर्गुणैर्लोकपूज्याः / अपि च / तथासुभटवादं वहन्तोऽपि सम्यक्तत्त्वपरिज्ञानविकलाः केचन भवन्तीति दर्शयति-न सम्यगसम्यक् तद्भावोऽसम्यक्त्वं, तद्रष्टु शील येषां ते तथा, मिथ्यादृष्ट्य इत्यर्थः / तेषां च बालानां यत्किमपि तपोदानाध्ययनयमनियमाऽऽदिषु पराक्रान्तमुद्यमकृतस्तदशुद्धमविशुद्धकारि, प्रत्युत कर्मबन्धाय भावोपहतत्वात् सनिदात्वाद्वेति कुवैद्यचिकित्सावद्विपरीताःनुवन्धीति, तच तेषां पराक्रान्त, सह फलेन कर्मबन्धेन वर्तत इति सफलम्। सर्वश इति। सर्वाऽपितत्क्रिया तपोनुष्ठानाऽऽदिका कर्मबन्धायैवेति / / 22 // साम्प्रत पण्डितवीर्येणाधिकृत्याऽऽहजे य बुद्धा मद्दाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो। सुद्धं तेसिं परक्वंतं, अफलं होइ सध्वसो।।२३।। (जे य युद्धा इत्यादि) ये केचन स्वयंबुद्धास्तीर्थकराऽऽद्यास्तच्छिष्या | दा बुद्धबोधिता गणधराऽऽदयो महाभागा महापूजाभाजो वीराः कर्मविदारणसिहष्णवो ज्ञानाऽऽदिभिर्वा गुणैर्विराजन्त इति वीराः। तथा सम्यक्त्वादर्शिनः परमार्थतत्ववेदिनः / तेषां भगवतां यत्पराक्रान्त तपोऽध्ययनयमनियमाऽऽदावनुष्ठितं तच्छुद्धमवदात निरुपरोध सातगौरवशल्यकषायाऽऽदिदोषाऽकलङ्कित कर्मप्रतिबन्धमफलं भवति, तन्निरनुबन्धनिर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः / तथाहि- सम्यगदृष्टीनां सर्वमपि संयमतपः प्रधानमनुष्टानं भवति, संयमस्य चानाश्रयरूपत्वात् तपसञ्च निजराफलत्वादिति। तथा च पठ्यते-"संयमेणण्यफले तवे योदाणफ ले" इति // 23 // किञ्चान्यत् - तेसिं पि तवो असुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। जन्नेवऽन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेजए॥२४|| (तेसिं पीत्यादि) महत्कुलमिक्ष्वाक्वादिकं येषां ते महाकुला लोकधिश्रुताः शौर्याऽऽदिभिर्गुणौविस्तीर्णयशसस्तेपामपि पूजासत्काराऽऽहार्थमुत्कीर्तननवायत्तपस्तदशुद्ध भवति। यच क्रियमाणमपि तपो नैवाऽन्ये दानश्राद्धाऽऽदयो जानन्ति तत्तथाभूतमात्मार्थिना विधेयम. अतो नेवाऽऽत्मश्लाघां प्रवेदयेत् प्रकाशयेत् / तद्यथा- अहमुत्तमकुलीन इभ्यो वा साम्प्रतं पुनस्तपोनिष्ट प्तदेह इति, एवं स्वयमाविष्करणेन न स्वकीयमनुष्टानं फल्गुतामापादयेदिति // 24 // अपि चअप्पपिंडासि पाणासि, अप्पंभासेज सुव्वए। खंतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीतगिं -द्धी सदा जए॥२५॥ (अप्पपिंडा इत्यादि) अल्पं स्तोकं पिण्डमशितु शीलमस्थाऽसावल्ःपिण्डाशी, यत्किञ्चनाशीति भावः। तथा चाऽऽगमः - "हे जतव आसीय. जत्य व तत्थ व सुहोवगयनिहा। जेण व तेण व तुट्टा, वीर ! मुणिऊसि ते अप्पा / / 1 / / तथा- "अट्ठ-कुकुडिअंडगमत्तप्पमाणे कवले आहरेमाणे अप्पहारे. दुवालसकवलेहिं / अवड्ढोमोयरिया सोलसेहिं दुभागपते चउवीस गोमोदरियं संपमाणपत्ते, बत्तीस कवला संपुण्णहारे।'' अत एकैतकवलहान्यादिनानोदरता विधेया। एवं पाने उपकरणे। वचोनोदरता विदध्यादिति। तथा चोक्तम् - " थोवाहारो थोवभणिओ अ जो हाइ थोवनिदो अ। थोवोबहिउपकरणे, तरस हु देवा वि पणमंति / / 1 / / " सुव्रतः साधुरल्पंपरिमित हित च भाषेत, सदा विकथारहितो भवेदित्सर्थः। भावादौदर्यमधिकृत्याऽऽह-भावतः जोधाऽऽधुपशगा क्षान्तः क्षान्तिप्रधानः, तथाऽभिनिवृतो लोभाऽऽदिजयान्निरातुरः, तथा इन्द्रियनोइन्द्रियदमनाद्दान्तो जितेन्द्रियः। तथा चोक्तम्- "कषाया यस्य नच्छिन्नाः, यस्य नाऽऽत्मवशं मनः। इन्द्रियणि न गुप्तानि, प्रव्रज्या तस्य जीवनम्॥१॥"एवं विगता गृद्धिर्विषयेषु यस्य स विगतगृद्धिराशसादोषरहितः, सदा सर्वकालं संयमानष्ठाने, यतेत यत्नं कुर्यादिति॥२५॥ अपि चझाणजोगं समाहट्ट, कायं विउसेज सव्वसो। तितिक्खं परमं णचा, आमोक्खाय परिव्वए / / 26|| (झाणजोगमित्यादि) ध्यानं चित्तरोधलक्षणं धर्मध्यानाऽऽदिकं, तत्र योगो विशिष्टभनोवाकायव्यापारः, तं ध्यानयोग समाहृत्य सम्यगुपादारः, कायं देहमकुशलयोगप्रवृत्तं, व्युत्सृजेत् परित्यजेत् / सर्वतः सर्वेणाऽधि प्रकारेण, हस्तपादाऽऽदिकमपि परपीडाकारिन व्यापारयेत्। लथा तितिक्षा क्षान्ति परीषहोपसर्गसहनरूपा, परमां प्रधानां, ज्ञात्या, आमोक्षायाऽशेष Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडियवीरिय 61 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडुसिला कर्मक्षयं यावत्प रेव्रजेदिति संयमानुष्ठानं कुर्यास्त्वमिति। सूत्र० 1 श्रु० प्रसिद्धा, तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारात् पाण्डुमृत्तिकेति / पृथ्वीअल कायभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा० / पंडिया स्त्री० (पण्डिता) पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिण्या | पंडुमहुरा स्त्री० (पाण्डुमथुरा) कृष्णदेशात् पाण्डवैर्निवेशिते भारतवर्षस्य नगर्या वज्रसेनचक्रवर्तिनः सुतायाः श्रीमत्या अम्बाधात्र्याम, आ० म० दक्षिणा वेलातटे स्वनामख्याते सन्निवेशे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। आव०। 2 0 1 खण्ड आ०म० / अन्त०। आ० चू०। पंडु ए० पाण्डु) युधिष्ठिराऽऽदीनां कुन्तीमाद्रीसुतानां पितरि, स्था० 10 पंडुय पुं० (पाण्डुक) पंडुग' शब्दार्थे , स्था० 6 ठा०। ढ० / अन्त० / श्वेतवर्णे केतकीधूलिसन्निभे पीतवर्णावभेदे, तद्वति। पंडुर त्रि० (पाण्डुर) अकलङ्के जी० / "पंडुरससिसकलविमलनिम्मवि० नागभेदे, चेतहस्तिनि, रोगभेदे, पटोलवृक्षे च। पुं०। माषपाम्, लसंखगोरखीरफेणकुंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी।'' पाण्डुरमकलङ्क वाच० "सेअंसिअवलक्खं, श्रवदाय पंडुधवलं च / / " पाइ० ना०६२ यत् शशिशकलं चन्द्रखण्मं विमल आगन्तुकमलरहितो निर्मल: मथा। स्वभावोत्थमलरहितो यः शखगोक्षीरफेनः प्रतीतः, कुन्दं कुन्दकुसुम, पंडुकंबलसिला स्त्री० (पाण्डुकम्बलशिला) मेरुचूलिकाया दक्षिणतः दकरज उदककणाः, मृणालिका विशम् तद्वत् धवला दन्तश्रेणिर्येषां ते पण्डकवनदाक्षिणात्यपर्वतऽभिषेकशिलायाग, जं० / पाण्डुरशशिशकल विमलनिर्मलगोक्षीरफे रकुन्ददकरजोमृगाकहि णं भंते ! पंडगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता ? लिकाधवलदन्तश्रेणयः / जी०३ प्रति०४ अधि० / शुक्ले. ज्ञा० गोअमा! मंदरचूलिआए दक्खिणे णं पंडगवणदाहिणपेरंते एत्थ णं 1 श्रु०१ अ०। सुधाधवले, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ० / कल्पका पंडगवणे णं पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता, पाईणपडीणायया पंडुरंग पुं० (पाण्डुराङ्ग) भस्मोद्धूलितगात्रे पाखण्डिनि, ग०२ अधि०। उत्तरदाहिणवित्थिण्णा / एवं ते चेव पमाणं, वत्तव्वया य भाणिअव्वा. पंडुरज्जा स्त्री० (पाण्डुराऽऽा) स्वनामख्यातायामार्यायाम्, यया जाव तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए भक्तप्रत्याख्यानं कृतवत्या मायादोषेण किल्विषिकेषु जन्म लेभे। आ० एत्थ णं महं एगे सीहासणे पण्णत्ते, तं चेव सीहासणप्पमाणं / तत्थ म० 1 अ०२ खण्ड। ('माया' शब्दे उदाहृतम्) णं बहहिं भवणवइ जाव० भारहगा तित्थयरा अहिसिचंति / / पंडुरत्थिय पुं० (पाण्डुरास्थिक) बलीवर्दश्वेतास्थिप्राधान्यात्स्वनाम"कहिश' इत्यादि प्रश्नः प्रतीतः। उत्तरसूत्रे मेरुचूलिकाया दक्षिणतः ___ ख्याते ग्राम, यश्चाऽस्थिकग्रामेति संज्ञां भेजे / आ० चू०१ अ०। गण्डकवनदाक्षिणात्यपर्यन्ते पाण्डुकम्बला नाम्नी शिला प्रज्ञप्ता / प्राक् / पंडुरपडपाउरण पुं० (पाण्डुरपटमावरण) पाण्डरो धौतः पटः प्रावरणं पश्चिन्याऽऽयता उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा, आद्या तु प्राक् पश्चिमविस्तीर्णा येषां ते तथा / मलपरीषहासहिष्णुताऽऽदरीकृतत्वाद् निर्मलोपधौ, ग० उत्तरदक्षिणाऽऽयतेत्येतद्विशेषणद्वयं विहायान्यत् प्रागुक्तमतिदिशति / 2 अधि०। एवमेवोक्ताभिलापेन तदेव प्रमाणं शिलायाः पञ्चयोजनशताऽऽयामाऽ5- | | पंडुरय त्रि० (पाण्डुरक) श्वेते. "केसा पंडुरया हवंति ते।" उत्त० दिकं वक्तव्यं, सा चार्जुनस्वर्णवर्णाऽऽदिका भणितव्या यावत्तस्य 3 अ०। बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्रान्तरे महदेकं पंडुराय पुं० (पाण्डुराज) माद्रीकुन्तीपतौ युधिष्ठिराऽऽदीनां पितरि सिंहासन प्रज्ञा, तदेव पञ्चधनुःशताधिकं सिंहासनप्रमाणमुच्चत्वाऽऽदी हरितनापुरराजे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। ज्ञेयम्, तत्र बहुभिर्भवनपत्यादिभिर्देवैर्भारतका भरतक्षेत्रोत्पन्नारतीर्थ- पंडुरोग पुं० (पाण्डुरोग) ज्वरविशेषेण शरीरस्य पाण्डुवर्णतायाम्, जं० कृतोऽभिपिच्यन्ते। ननु पूर्वशिलायां सिंहासनद्वयम्, अत्र तु एक सिंहासनं | 1 वक्षः। प्रव०। किमिति ? उच्यते-एषा हि शिला दक्षिणदिगभिमुखा, तद्दिगंभिमुखं च पंडुल्लुगितमुही स्त्री० (पाण्डुकितमुखी) स्त्री० / आ०म० 1 अ० 1 क्षेत्र भारताऽख्यम्, तत्र चैककालमेक एव तीर्थ कृदुत्पद्यते इति खण्म / पाण्डुरीभूतवदनायाम्, विपा० 1 श्रु०२ अ०। तदभिषकानुराधनकत्वं सिंहासनस्येति। ज०४ वक्ष०। ज्ञा० / स्था०। पंडुसिला स्त्री०(पाण्डुशिला)नन्दनवने प्रथमाभिषेकशिलायाम, जं०। पंडुग पुं० (पाण्डुक) स्वनामख्याते महानिधी, स्था०६ ठा० / ति०। कहि णं भंते ! पंडगवणे पंडसिला णामं सिला पण्णत्ता ? ("गणियस्व" (3) इत्यादि गाथा 'णिहि' शब्दे चतुर्थभागे 2151 पृष्ठे | गोअमा ! मंदरचूलिआए पुरच्छिमे णं पंडगवणपुरच्छिमपेरंते व्याख्याता) पण्डुकापत्ये सर्पभेदे, आ०चू०१ अ० / प्रव०। दर्श०। एत्थ णं पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्ता, उत्तर पंडुपत्त न० (पाण्डुपत्र) पुराणत्वेन पाएडुवर्णपत्रे, अनु० / ध०। / दाहिणायया पाईणपडीण-वित्थिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिआ पंडुभद्द मुं० पाण्डुभद्र) आर्यसंभूतिविजयस्त द्वादशे शिष्ये, "धेरे तह | पंचजोअणसयाई आयामेणं अड्डाइज्जाई जोअणसयाई विक्खंपंडुभद्दे य'' कल्प०१ अधि०४ क्षण। भेणं चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं सव्वकणगामई अच्छा वेइआ पंडुमट्टिया स्त्री०(पाण्डुमृत्तिका) देशविशेषे या धूलिरूपा सती पाण्डुरिति वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खिता, वण्णओ। तीसे णं पं Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडु सित्ता 62 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंताहार डुसिल्लाए चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता जाव यते, तस्या एवं दक्षिणदिवर्तिविजयजातो जगदगुरुदक्षिणदिग्वर्तिनीति / तोरणा / वण्णओ। तीसे णं पंडुसिलाए उप्पिं बहुसमरमणिज्जे | जं०४०। भूमिभागे पण्णत्ते जाव देवा आसयंति, सयंति / तस्स णं | पंडुसेण पुं० (पाण्डुसेन) पञ्चानां पाण्डवानां द्रौपद्यां जाते पुत्रे, ज्ञ०१ बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्य बहूमज्झदेसभाए उत्तरदाहिणे शु०१६ अ०। स च द्रौपद्या सह प्रव्रजितेषु पाण्डवेषु राजा जातः / आ० णं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता / पंचधणुसयाई आयाम- क०४ अ०। आ०चून विक्खंभेणं अड्डाइजाइं धणुसयाई बाहल्लेणं सीहासणवण्णओ पंत पुं० (प्रान्त) प्रकृष्टोऽन्तः / शेषसीमायाम्, वाच० / प्रकृष्टमन्तं प्रान्तं भाणिअव्वो, विजयदूसवजो। तत्थ णं जे से उत्तरिले सीहासणे भुक्तानशेषत्वेन, पर्युषितत्वेन वा प्रकर्षणान्तवर्तित्वात् प्रान्तम् / भ०६ तत्थ णं बहूहिं भवणवइबाणमंतरजोइसिअवेमाणिएहिं देवेहिं श०३३ उ०। रवाभाविकरसरहिते अल्पे पर्युषिते वा बल्लचणकाऽऽदौ, देवीहिअ कच्छाइआ तित्थयरा अभिसिचंति / तत्थ णं जे से आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०॥ पञ्चा० प्रति०। ज्ञा०। स्था०। 'गिफ दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहहिं भवण ०जाव वेमाणिएहिं विचणकभाई, अंत पंतं तु होइ वावन्न।' निष्पावा बल्लाः, चकाः देवेहिं देवीहि अवच्छाईआ तित्थयरा अभिसिचंति। प्रतीमाः, आदिशब्दात कुल्माषाऽऽदिकं चान्तभित्युच्यते, प्रान्त 'कहिणं" इत्यादि प्रश्नः प्रतीतः। उत्तरसूत्रे मन्दरचूलिकायाः पूर्वतः पुनस्तदेव व्यापन्न विनष्टम आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। "पंताणि चेव पडकवनपूर्वपर्यन्त पाण्डुशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता। उ दक्षिणतश्चाऽऽयता संवेज्जा सीयपिंड पुराणकुम्मास / " साधुर्यापनार्थ शरीरनिर्वाहार्थ पूर्वतोऽपरतश्च विस्तृता, अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता पञ्चयोजनशता- प्रान्तानि नीरसानि अन्नपानीयानि सेवेत, च पुन रन्यान्यपि सेवेत उत्त० न्यायामेन मुखविभागेन, अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भन 8 3701 अपसदे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०।"मा एयं साहुं पत देवया छलेहि।" मध्यभागेन, अर्द्धचन्द्राऽऽकारक्षेत्राणामेव परमव्याससंभवात, अल नि०च०१ उ०। 'पत सेज सेवितु।" प्रान्तां शय्या वसतिं शून्यगृहाएवास्याः परमव्यासः शरत्वेन लम्बो, जीवात्वेन परिक्षेपो, धनुःपृष्ठत्वेन ऽदिकामन्तकोपद्रवोपद्रुताम। "आसणगाई च पताई।" आसनानि उत्करणरीत्या आनतव्या / तथा चत्वारि योजनानि बाहल्यन परितः यान्यु-त्करशर्करालोटाऽऽद्युपचितानि काष्ठानि दुर्घटितान्यासेवितवान् / सर्वाऽऽत्मना कनकमया प्रस्तावादर्जनस्वर्णमयी अच्छाचे दिका आचा०१ श्रु० 6 03 उ०। वनखण्डन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ता / वक्रता व चूलिकाऽऽसन्ना, पंतकुल न०(प्रान्तकुल) चाण्डालाऽऽदीनामपसदकुले, स्था०८ दा०। सरलता तु स्वस्वदिक क्षेत्राभिमुखा, वर्णकश्च वेदिकावन - आ० म०॥ खण्डयोवक्तव्यः, चतुर्योजनोन्छिता व शिला दुरा रोहा रोहकाणा- पंगग्गाम पुं० (प्रान्तग्राम आर्यदेशसीमानामे, "प्रान्तप्रामेऽत्यादैमित्याह-(तीसे णमित्यादि) तस्यां शिलायां चतुर्दिशि चत्वारि कस्मिन, आगच्छन्ति स्म साधवः।" आ०का० 1 अ०। त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि तेषा च वर्णको वाच्यो यावत्तोरणानि / पंतचरग पु० (प्रान्तचरग) प्रान्तं चरति तदूगवेपणाय गच्छतीति अशास्या भूमिसौभाग्यमावेदयन्नाह -(तीसे णमित्यादि) तस्याः प्रान्तचरकः / अभिग्रहविशेषात् प्रान्तमात्रहिण्डके, स्था०५ डा० पाण्डुशिलाया उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तो यावद्देवा आसते, 1301 सूत्र०। शरते इत्यादि। अथात्राभिषेकाऽऽसनवर्णनायाऽऽह-(रास्स णमित्यादि) पंतजीवि(ण) पुं० (प्रान्राजीविन्) प्रान्तेन जीवितुशीलमाजन्मापियस्य तस्स बहुसमरमणीयस्य भूमिभामस्य बहुमध्यदेशभागे उत्तरतो स प्रान्तजीवी। स्था०५ टा०१ उ०। अन्तप्रान्तवल्लचणकाऽऽदिजीविनि, दक्षिणतश्च अत्रान्तरे द्वे अभिषेकसिंहासने जिनजन्माभिषेकाय पीठ प्रज्ञप्त, सूत्र० 2 श्रु० 2 अ०। पशधनुः शतान्यायामविष्कम्भाभ्याम्, अर्द्धतृतीयानि धनुः शतानि पंतभूपण्णा स्त्री० (प्रान्तभूमज्ञा) सकलसालम्वनसमाधिपर्यन्तभूमिबाहल्येन, उच्चत्वेनेत्यर्थः / अत्र च सिंहाऽऽसनवर्ण को भणितव्यः स च चियाम् द्रा० 25 द्वा०। विजयदूप्यवर्जः। उपरि भागे विजयनामकं चन्द्रोदयवणनारहित इत्यर्थः / पंतवत्थ न० (प्रान्तवस्त्र) परिजीर्णचीवरे, वृ०२ उ०। शिला सिंहाऽऽसनानामताच्छादितदेशे स्थितत्वात। अत्र च सिंहाऽऽस- पंतविवेग पु० (प्रान्तविवेक) देहादात्मनामात्मनो वा सर्वसंयोगाना बुद्ध नानामायामविष्कम्भयोमतुल्यत्वे समं चतुरस्त्रतोता। नन्वत्रके नेव या विवेचने, ग०१ अधि०। सिंहाऽऽसनेनाभिषेकसिद्धेः किमर्थं सिंहाऽऽसनद्वयमित्याह (तत्थ | पंतावण न० (प्रान्तापन) प्रहारदाने, निगडाऽऽदिभिर्बन्धने, ग० णमित्यादि) तत्र तयोः सिंहाऽऽसनयामध्ये, "से" इति भाषालकारे / | 1 अधि०। पिट्टने, व्य०१3०। यष्टिमुष्टिकशाऽऽदिना ताडने, ओघ०। यदोत्तराह सिंहारानं तत्र बहुभिर्भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिये- नि०चू० / वृ०॥ देवबीभिश्व कच्छाऽऽदिविजयाष्टकजातास्तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते पंतावणसंकप्प पुं० (प्रान्तापनसंकल्प) यष्टिमुष्टिकूर्परप्रहारैहनीति जन्मोत्सवार्थ स्नप्यते / यत्तु दाक्षिणात्य सिंहासनं, तत्र वच्छाऽऽदिका चिन्तायाम, नि००१ उ०।। इति / अत्रायमर्थः- एषा हि शिला पूर्वदिग्मुखा, एतहिगभिमुखं च क्षेत्र पंताहार पुं० (प्रान्ताऽऽहार) प्रकर्षणान्त वल्लाद्येव भुक्तावशेष पर्युषित पूर्वमहाविदेहाऽऽख्यम्, तत्र च युगपज्जग द्गुरुयुगं जन्मभागं भवति, तत्र वाऽऽहारो यस्य सः। औ०। प्रान्तमाहारयति, प्रान्तं वाऽऽहारो यस्य स शीतोत्तरदिग्वतिविजयजातो जगद्गुरुरुतरदिग्वर्तिनि सिंहासनेऽभिषि- प्रान्ताऽऽहारः। अभिग्रहविशेषात्प्रान्ताशिनि, स्था०५ ठा०१ उ०। सूत्र० Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंताहार 63 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंथग नत्योपमालिका साधवर्णनाधिकारे 'पंताहारे' इत्य१२-११ यती पर्यपि बल्लवासाद तिच्या या मारिता तथा चपर्यापितप पिकामक्षाणा राह खाच टोना सद्धिपम्दापदिघन करा युक्तिमाति? अत्र निय यथानसमाई. अतं तं च होई वावण।" इति वृहाच्य मिलियकारिकारे / तदवृत्तीच-बावन्न" शब्देन विनसमिति याला मनसि लय तु तत्वविद्वद्यम्, आत्मनापयुषितस्याग्रहमजिनपदपर-प-राऽऽराधन, संसकिसदादतटोपवर्जनं च गुणार्थवति टायर ही०. प्रका। आ००। पंति स्त्रो० (नडेक्स) "डञणनो व्यञ्जने" ||1 / 25 / / इति इत्यानानुन्धारा प्रा०१ पाद: पद्धता, ज्ञा० 1 श्रु०१० / 'ओली माला गई, रिजाली जयली पती।" पाइ० ना०६३ गाथा रिया० / अनु० जी०। ज्यातिकाणां पडियः 'जोइसिय' शब्दचतुर्थभागे २५३७उत्ता: पंती (दशी) येशम, दे० ना० 6 वर्ग 2 गाया। पंथ पुं० (पथिन) गार्गे, भ०१० 202 उ०। स्या०। उन०। नि००। अध्यन, आरम्। 'दुविहाय हाइपंथी, छिन्नहाणत अछिन्नं च। छिन्नम्भि नचिकिची, अछिन्नपल्लीहि वइगाहिं 6013 / / " इति "विहार'' शध्ये व्याख्यार मले०१३०३ प्रकाव्या भावतः सम्यवावे. सूत्र० 15.11%3 / 'मम्मी पंथा सरणी, अद्धाणं वगिणी पहा पसी!" पाइ ना०५: गाथा। पान्थ 90 पथिके, 'सा तेसिं पंथ गुण कहेइ, एगो पंथो उजुगो, एमः बंका "आम०१०खण्ड। पंथकोहुन० (पन्थकोष्ठ) सार्थघाते, विपा०१ श्रु०१ अ०! पंथग मुं० (पान्थक) ब्रह्मदत्तचक्रिभार्याया नागयशसो जनके. (उरा० 13 अ) स्थ पत्यापुत्रराहप्रवजिते, झा०१ श्रु०५ अ०। "बच्छवालीपुनरस पंथगन्स भत्त नेऊ!" आव०४ अ०। धन्यस्य सार्थवाहरय स्वनामख्या दासचेटक,जा०१श्रु०५ अ०। पत्तो सुसीससद्दो, एवं कुणतेण पंथगेणाऽवि! गाढप्पमाइणो वि हु, सेलगसूरिस्स सीसेण // 132 / / प्रानो गन्ध: "सुशिष्यः" इति शब्दो विशेषणम्, एवं गुरोर्भूयोऽपि चारित्रे प्रकृति कारयता पन्थकमय-थकनाम्ना सचिवपङ्ग वसाधुना, अपिशव्दादम्परपि तथाविधः। यतोऽभाणि"सील कयावि गुरू तपसुसीसा सुनिउणमहुरे हैं। मार लिघुणरवि,जह से लगभगो नायं / / 1 / " तमेव चिमिनसिाटप्रमादिनोऽप्यतिशयशथिल्यवतोऽपि, शैलकसूरेः शिष्येणेति व्यक्तमेवेति गाथाक्षरार्थः / भावार्थः कथानकादवरोयः। कथानकाचेदम'कविकुलकलाविकलिग, सेलगपुरमत्थि सल सिहरं का तस्थप्पावसियकित्ति, सेलउच्व सेलओ राया / / 1 / / सम्मकामवज्जिय-छउमा पउभावई पिया तस्स! सन्नीइनागवल्ली-इ मंडवा मडगो पुत्ता / / 2 / / चउसुद्धबुद्धिसंसिद्धपंथगा पंथगाइणो आसि। रचभरधरणलक्षा, सुगंतिणां पंचसरासंरखा / / 3 / / थावचासुधगणहर..समीवपडिवन्नसुद्ध गिहिधम्मो। सेलगराया रज, तिबग्गसार चिरं कुणइ // 4 // अणियान-सुगपहुपयवत्तिसुयगुरुसमीये। पति मतिसहि, पथगपमुहेहि परियरिओ।।५।। ममप लाऊण निराहए वयं राया। कारस अंगाई, अहिझिओवाया बो॥६॥ खमपमुहाग राओ, पंचमुणिसाण नायगो ठविओ। शुभिवरोग से नग- रामरिसी जिणसमयविहिणा / / 7 / / सुयी उगहप्पा, समए आहारवण काउं। सिरिजमलसिंहरिसिहरे, सहस्ससहिओ सिवं पत्तो / / 8 / / हरालगराय रिसी, अणुचियभत्ताइभोगदोसेणं / दास्राइतविआ, सभागओ सेलगपुरम्मि।।६।। उम्मि पसता सुभभिभागम्मितं समोसरियं / सोऊण पाहिदमणा, विणिमओ मङ्गो राया // 10 // करवंदामाइकियो, सरीरवतं वियाणिउं गुरुणो। विन्नवइ एह भंते ! मम गेहे जाणसालासु // 11 // भत्तासहाइएहि, अहापवत्तेहिं तत्थ तुम्हाणं। कारमिजेण किरिय, धम्मसरीरस्स रक्खट्टा // 1 // " तथा चोक्तम्शरीरं धर्मरायुक्ती, रक्षणीयं प्रयत्नतः। शरी पछुनो धर्मः, पर्वता-सलिलं यथा / / 13 / / ' "पडिबन्नमिण गुरुणा, पारद्धा तत्थ उत्तमा किरिया। निमहुराइंएहि, आहारहिं सुविजेहिं // 14 // विज़ाण कुसलवाए, पत्थोराहपाणगाइधुवलाभां / थोबदियहहिँ एसो, जाओ निरुओ य बलवं च / / 15 / / नवरं सिणिर्पेसल-आहाराईसु मुच्छिओ धणियं। सुहसीलयं पवन्नो, नेच्छइ गामंतरविहारं / / 16 / / बहुगा वि भणिज्जता, विरमइ नो जाव सो पमायाओ। साह पशगवला, मुणिणो मतति एगत्थ / / 17 / / कामाई नण घणचि-मणाई कुडिलाइँ वजसाराई। नागड्डयं पिरिसं, पंथाओ उप्पहं निति // 18 // नाऊण सुयवलेणं, करयलमुत्ताहलं व भुवणयलं। अहह निवडति केवि हु. पिच्छह कम्मरस बलियत्तं // 16 // मुत्तण रायरिद्धि, मुक्खत्थी ताव एस पव्वइओ। संपइ अइप्पभाया. विम्हरियपओयणो जाओ // 20 // कालेनदेह सुतं, अत्थं न कहेइ पुच्छमाणाणं / आवरसगाइभत्ति, मुत्तुं बह मन्नए निई // 21 // सारणवारणपडिचोयणाइन मणं पिदेइ गच्छस्स। नय सारणाइरहिए, गच्छे वासो खणं पि खगो।।२२।।" तथा चाऽऽगमः"जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा गच्छम्मि। साउ अगच्छो गच्छो, संजमकामीहिँ मुत्तव्यो / // 23 // "उदगारी यदढमिमो, अम्हाणं धम्मचरणहेउत्ता। मुनु धित्तुं च इग, जुत त्ति फुडं न याणामा / / 24 / / अहला कि अम्हाण, कारणरहिएण नीयवासेण / गुरुणा वेयावच्चे, पंथगसाहुं निउंजित्ता / / 25 / / एय चिय पुच्छित्ता, विहरागो उज्जया वयं सव्ये। कालहरण पि कीरइ, जो वेयइ एस अप्पाणं / / 26 / / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंथग 64 - अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 5 पकप्प सामस्थिऊण एवं, पंथगसाहु ठवित्तु गुरुपासे। ध्यानम्। सनत्कुमारं गवेषयतो महेन्द्रसिंहस्येव ब्रह्मदत्तं वा घरधनस्व ते सव्वे विहु मुणिणो, अन्नत्थ सुहं पबिहरंसु॥२७।। दुनि, आतु०॥ पंथगमुणी वि गुराणो, वेयावचं जहोचियं कुणइ। पंथिय पुं०(पान्थिक) पन्धानं नित्यं गच्छत्तीति पान्थिकः / नित्यपथिके, असवत्तजोगजुत्तो, सया अणूण च नियकिरियं // 28 // ज्ञा०१ श्रु०८अ01 कत्तियचाउम्मासे, सूरी भुत्तूण निद्धमहुराई। पंथुच्छु हणी (देशी) श्वशुरकु ले प्रथमाऽऽनीतायांवध्वाम्, दे० ना० परिहरियसयलकिचो, सुत्तो नीसकसव्वंगो।।२६॥ ६वर्ग 35 गाथा। आवस्सग कुणतो, पथगसाहू वि खामणनिमित्तं / पंपुअ (देशी) दीर्घ,दे० ना०६ वर्ग 12 गाथा। सीसेण तस्स पाए. आघट्टइ विणयनयनिउणो // 30 // पंफुल्लिअ (देशी) गवेषिते, दे० ना० 5 वर्ग 17 गाथा। तो कुविओ रायरिसी, जंपइ को एस अज्ज निल्लजो। पंसण त्रि०(पांसन) पसि-ल्युट्-पृषो०।"मांसाऽऽदिष्वानुस्वारे" पाए आघट्टतो, निहाविग्घे मह पयट्टो ?||31|| // 170 / / इत्यालोऽत्। प्रा०१ पादादूपके, "कुलपासनः।" वाचा रुढ दटुं सूरि, महुरगिरं पंथगो इय भणेइ। पंसु पुं० (पाशु) "मांसाऽऽदेर्वा " 8/1 / 26 / / इति अनुस्वारस्यलुग्वा / चाउम्मासियखामणकए मए हम्मिया तुडभे // 32 // पासू। पंसू। प्रा०१ पाद। रेणौ, जं०३ वक्षाधूमाऽऽकारे अचित्तरजसि, ता एग अवराह, खमह न काहामि एरिस बीयं / आ०चू० 4 अ० ज०। आव०नि० चू०।'पंसू अचित्तरओ।" पांशवो हुति खमासील चिय, उत्तमपुरिसा जओ लोए / / 33 / / नाम धूमाऽऽकारमापाण्डुरमचित्तं रजः / व्य०७ उ०। पाइ० ना०। इय पंथगमुणिवयणं, आयनंतस्स तस्स सूरिस्स। पंसुपिसायभूय त्रि० (पांशुपिशाचभूत) धूल्यवगुण्डितशरीरत्वेन सूरुग्गमे तमं पिव, अन्नाणं दूरमोसरियं // 34 // मलिनवस्त्रत्वेन भूततुल्ये, उत्त० 12 अ०। बहुसो निदिय अप्पं, सविसेस जायसंजमुजोओ। पंसुमूलिय पुं० (पांशुमूलिक) पांशुमूलिकापत्ये वैताढ चपर्वर वासिविद्याधरमनुष्ये, आ०चू०१ अ01 खामेइ पंथगमुणिं, पुणोपुणो सुद्धपरिणामो // 35 // पंसुलिया स्त्री० (पांशुलिका) पाश्र्वास्नि, अणु० 3 वर्ग 1 अ० तः। बीयदिणे मडुगनिवमापुच्छिय दो वि रोलगपुराओ। "वारस पसुलिया करंडया इह'' इह शरीरे द्वादश पांशुलिकारूपाः निक्खंता पारद्धा, उग्गविहारेण विहरेउं // 36 // करण्डका वंशको भवति / प्रव० 253 द्वार / वारस पंसुलिया करडे श्रवगयतव्युत्तता, संपत्ता सेसमंतिमुणिणो वि। छप्पसुलिए कडाहे विहत्थियाकुच्छी।" तं० / विहरिय चिर सुविहिणा, आरुढा पुंडरीयगिरि // 37 / / पंसुलियाकड पुं० (पांशुलिकाकट) पावस्थ्निां कटके, अगु० 3 वर्ग दोमासकयाणसणो, सेलेसि काउ सेलगमहेसिं। १अ01 पंचसयसभणसहिओ, लोयग्गठियं पयं पत्तो // 38 // ' पंसुली स्त्री० (पांशुली) व्यभिचारिण्याम्, 'अहिसारिआ अडयणा य "एवं पन्थगसाधुवृत्तममलं श्रुत्वा चरित्रोज्ज्वलं, पंसुली टिंछई य दुरुसीला।" पाइन्ना०५६ गाथा। सज्झानाऽऽदिगुणान्वितं गुरुकुल रोवध्वमुच्चैस्तथा। पंसुवुट्ठि स्त्री० (पांशुवृष्टि) धूलिवर्षे , जी०३ अति०४ अधि०] भो भोः साधुजनाः ! गुरोरपि यथा सत्संयमे सीदतो, पांशुवृष्टि म यदवित्तं रजो निपतति। व्य०७ उ०। प्रव०। पांशुवृष्टरनिष्टफ निस्ताराय कदाचन प्रभवत स्फूर्जद्गुणश्रेणयः / / 36 / / " लदत्वचिन्तके शास्त्र, सूत्र०२ श्रु०२ अ० / पकं (ग) थप्रकथ-धा०' इति पन्थकसाधुकथानकम्। ध० 203 अधि०७ लक्ष० / चुरा० / निन्दायाम, "पलिय पकथे अदुवा पकथे।" प्रकथ्येज्जुगुप्स्येत। पंथघायग त्रि० (पन्थघातक) पथि लोकानां मारके, प्रश्न ३आश्र० द्वार। तद्यथा- भोःकौलिक प्रव्रजित! त्वमपि मया सार्द्धमेवं जल्पसि। अथवापंयच्छेयण न० (पथिच्छेदन) मार्गच्छेदने, मार्गातिक्रमणे, स्था०५ जकारचकाराऽऽदिभिरपरैः प्रकथ्य निन्दाप्रकारैर्विधत्ते। आचा०।१ श्रु० ठा०३ उ०। 6 अ०२ उ० / “पलियं पगथे अदुवा पगथे' प्रकथयेदेवभूतस्त्वपंथजाइ पुं०(पथियायिन) स्वसमयबोधविशिष्ट युग्याऽऽचार्ये स्था०४ मित्यन्यथा वा कुण्ठमण्ठाऽऽदिभिर्गुणैर्मुखविकाराऽऽदिभिर्वा प्रकथयेठा०३ उ०। दिति। आचा०१श्रु०६ अ०२ उ०। पंथज्झाणन०(पथिध्यान) अल्पकालगम्योऽध्या पन्थाः, तस्य तस्मिन् / पकंथय पुं०(प्रकन्थक) अश्वविशेषे, स्था०४ ठा०३ उ०। वा ध्यानं पथिध्यानम् / पोतनापुरमार्ग गवेषयतो वल्कलचारिण इव | पकंप पुं०(प्रकम्प) क्षोभे, आव० 4 अ01 विक्षेपे, आय० 4 अ०। दुध्यनि, आतु०। पंकपिय त्रि०(प्रकम्पित) विधूते, आव०२ अ०। पंथणिज्झाइ(ण) पु०(पथिणिया॑यिन) गुरोः क्वचिद् गतस्य पन्थान पकडण न० (प्रकर्षण) आकर्षणे, नि०चू० 20 उ०। निध्यातु शीलमस्येति पन्थनिायी। गुरुमार्गप्रतीच्छके, आचा० 1 | पकत्थन न० (प्रकत्थन) आत्मनः श्लाघायाम, सूत्र०१श्रु०४ अ०१ उ०। श्रु०५ अ०२ उ०। पकप्प पुं० (प्रकल्प) प्रकृष्टः कल्प आचारः / स्था० 4 ठा० पंथाग पुं० (पन्थान) महति विषमे चाध्वनि, आतु०। 3 उ० आचा०णि नि० चू० / निशीथाध्ययने, व्य०३ पंथाणंझाण न० (पन्थानध्यान) महान् विषमश्चाध्वा पन्थानस्तस्य | उ० / "इदार्णि पकप्पे ति दारं / प्रकर्षण कल्पः प्रक Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकप्प 65 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पकामनिकरण ल्पः, प्रलपणेत्यर्थः / प्रकर्षे कल्पो वा प्रकल्पः, प्रधान इत्यर्थः। प्रकर्षण पण्णवणं पणत्ती, पण्णवणं बहुत्ते विसेसणं कज्जति / जंबूद्दीवपण्णत्ती, वा कल्पनं प्रकल्पः, छेदन इत्यर्थः / प्रकर्षाद्वा कल्पनं प्रकल्पः / नवम- तस्स जं वक्खाणं सो खेत्तपकप्पो / दीवा जंबुद्दीवा धातइसंडाइणो, पूर्वात् तृतीयवस्जुन आचारप्राभृतान्, एवं प्रशब्दार्थबाहुल्याद्यथासंभवं उदही समुद्दा, ते य लवणाइणो, तेसिं जेण अज्झयणेण पण्णत्ती योज्यम्। तमज्झयणं दवसागरपण्णती। तह व त्ति।जहाजंबुद्दीवपण्णत्ती खेत्तकप्पो तस्स णिक्खेवो भवति तहा दीवसागरपण्णत्ती वि। एसो खेत्तपकप्पो णि सवयणं / अहवा णामं ठवणा कप्पो, दव्वे खेत्ते य काले भावे य। जत्थति क्खेते, वगारो विकप्पदंसणं करेति। कहणं व्याख्या पकप्पज्झएसो उपकप्पस्स, णिक्खेवो छविहो होति // 56 / / णस्सेति वक्कसेसं / खेत्तपकप्पो गतो। णामपकप्पो, ठवणापकप्पो, दव्वपकप्पो, खेत्तपकप्पो, कालपकप्पो, इयाणि कालपकप्पो - भावपकप्पो, चसद्दो समुचये। एसो पकप्पस्स णिक्खेवो छव्विहो भणिओ। पण्णत्ति चंदसूरे, पालियमादीहिं जम्मि वा काले। तुसद्दो अवधारणार्थे। मूलुत्तरा य भावे, परूवणा कप्पणेगट्ठा / / 6 / / जामट्टवणाओगतातो। दव्वपकप्पस्सिमेण विहिणा पण्णवणं पण्णत्ती, विसेसेण चंदपन्नत्ती, सूरपण्णत्तीपण्णत्तिसद्दो पत्तेयं पकप्पणा कायव्वा तेसिं, जं वक्खाणं सो कालपकप्पो। अहवा णलिंगमादीहिं णालिंग त्ति सामित्त करण अधिकर-ण ते य एगत्त तध पुहत्ते य / घडिआ।आदिसघातो छायालग्गेहिं जिणकप्पियादयो वा सुतजियकरणे दव्दपकप्पविभासा, खेत्तं कुलिसादि किद्वं तु // 60 / / गतागतं कालं जाणंति। अहवा-जम्मि काले आयारपकप्पो वक्खाणिसामित्तं नाम- आत्मलाभः, यथा घटस्य घटत्वेन। करणं नामक्रिया, जति, जहा वितियपोरिसीए, सो कालपकप्पो / गतो कालपकप्पो। येन वा क्रियते, यथा प्रयत्नचक्राऽऽदिभिर्घटः / अधिकरण नाम, इयाणि भावपकप्पो / भावपकप्पो दुविहोआगमओ, णोआगमओ य। आधारः, यथा चक्रमस्तके घटः / जे सामित्तादिविभागास्त्रयः तै आगमओ जाणए उवउत्ते। णो आगमओ इमं चेव आयारपकप्पज्झयणं, एगत्तपुहत्तेहिं जेया। एगत्तं णाम एगत्तं, पुहत्तं णाम पुहत्तं, एतेहिं छहिं जेणेत्थ मूलुत्तरभावपकप्पणा कज्जति।मूलगुणा अहिंसादिमहव्वया पंचा विभागेहिं दव्वपकप्पस्स विभासागुणपर्यायान् द्रवतीति द्रव्यम्।दु द्रुगतौ / उत्तरगुणा इमे "पिंडस्स जा विसोही, समितीओ भावणातओ दुविहो। दूवते वा द्रव्यमंद्रुः सत्ता, तस्या अवयवो वा द्रव्यम्, उत्पन्नाऽऽदि- पडिमा अभिग्गहा वि य, उत्तरगुणमो वियाणाहि / / 1 / / " एते चेव विकारयुक्तं वा द्रव्यं, गुणसंद्रावो वा द्रव्यं, समूह इत्यर्थ : / भावयोग्य वा मूलुत्तरगुणा भावे भण्णति। परूवण त्ति वा पकप्पणे त्ति वा एगट्ठा। पकप्पे द्रव्यम्। अतीतपर्यायव्यपदेशागा द्रव्यम्। कप्पणं कप्पो, प्ररूपणेकत्यर्थः त्ति दारंगत। नि० चू०१ उ०।अध्यवसाये, स०२८ सम० / स्थविरकल्पे, विविधमणेगपगारा भासा विभासा, अर्थव्याख्या इत्यर्थः / दव्वस्स पं० भा०३ कल्प। पं० चू० / अष्टाशीतिमहाग्रहाणां द्वापञ्चाशत्तमे, सू० पकप्यो दव्वपकप्यो। दध्वपकप्पस्स विभासा दव्वपकप्पविभासा। साय प्र०२० पाहु० / कल्प०। भेदे, नि०चू० 1 उ० 1 पिण्डविशुद्ध्यादिके सामित्ताइविसेसेण कथ्यते। इमो दव्यकप्पो दुविहोजीवदव्वपकप्पोय, प्रकल्पनीये, स्था०५ ठा० 1 उ०। अजीवदव्यपकप्यो य / तत्थ जीवदव्वस्स जहा देवदत्तस्स अग्गकेस- पकप्पगंथ पुं० (प्रकल्पग्रन्थ) निशीथेजी०१ प्रति०। हत्थाण कप्पं करेंति, अजीवदव्वस्स पडस्स दसाण कप्यणं / एवं एगत्ते पकप्पजइ पुं० (प्रकल्पयति) अधीतनिशीथाऽध्ययने पराऽशेषतीर्थापुहत्ते जहा देवदत्तजण्णदत्तविण्हुमित्ताण अग्गकेसहत्थाण कप्पणं / न्तरीयधर्मातिशायिनि साधौ, “धम्मो जिणपन्नत्तो, पकप्पजइणा अजीवदव्वाण बहूण पडाण दसाणं कप्पणं / एवं एगत्ते पुइत्ते जहा कहेयव्वो" ध०१ अधि०। देवदत्तजण्णदत्तविण्हमित्ताण अग्गकेसह त्थाण कप्पणं / अजीवदव्वाण पकप्पट्ठिय त्रि० (प्रकल्पस्थित) प्रकल्पनं प्रकल्पः, भेद इत्यर्थः, तं बहूण पडाण दसाणं कप्पणं / गयं सामित्तं / इदाणिं करणे। एमत्ते-जहा / स्थितः प्रकल्पस्थितः। अपवादसहिते कल्प स्थिते, नि०चू०१ उ०। दात्रेण लुणाति, पिप्पलकेण वा दसाकप्पणं करेति वा, पुहत्ते दात्रैलुनति, पकप्पणा स्त्री० (प्रकल्पना) प्रकर्षण कल्पना प्रकल्पना। सप्रभेद, परसुहि वा रुक्खे कप्यति। गयं त्ति। इदाणि अहिकरणे-एगत्ते जहा गंठी प्ररूपणायाम्, नि०चू० 1 उ०। टवेक तत्थ तणादीण कप्पणा कजति, फलगे वा दसाण कप्पणा बहुत्ते पकप्पधर पुं० (प्रकल्पधर) शोधिकरे निशीथाध्ययनोक्तप्रायश्चित्तदातिमादिगंठीओ ठवेत्ता तेंसि तणाण दसाण वा कप्पणा कजति / एसा तरि, नि० चू०२० उ०। दव्वपकप्पविभासा गता। इयाणि खेत्तपकप्पोखेत्तं ति इक्खुखेत्तादि। पकप्पमाण न० (प्रकल्पमान) निशीथाऽध्ययने, “एवं पकप्पणामो, कुलिसणामसुरट्ठाविसएदुहत्थप्पमाणं कट्टे, तस्स अंते अयखीलया, तेसु पकप्पमाणस्स विवरणं वच्छे। पुव्वायरियकयं चिअ, अहं पितं चेव उ एगायओ एगहारो य लोहपुट्टो अडिज्जति। सो जावतियं दोच्चादि तणं तं विसेसे॥१॥" नि० चू०१ उ०।। सव्यं छिंदतो गच्छति। एव कुलिसं / आदिसट्टा इलदंतालाघेप्पंति। किट्ठ पकाम न० (प्रकाम) अत्यर्थे, "पकामं दाउं।" भ०६ श०३३ उ० गाम वाहितं वातियं वा / अहवा यथेच्छे,उत्त०१४ अ०। पग्णत्ति जंबुदीवे, दीवसमुद्दाण तह य पण्णत्ती। पकामनिकरण न० (प्रकामनिकरण) प्रकाम ईप्सितार्थाsएसो खेत्तपकप्पो, जत्थ व कहणा पकप्पस्स॥६१॥ / प्राप्तितः प्रवर्धमान्तया प्रकृष्टोऽभिलाषः, स एव निकरणमिष्टार्थसा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकामनिकरण 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पक्कम धकं क्रियाणामभावो यत्र तत्प्रकामनिकरणं तद्यथा भवतीति। प्रकाम- नामपक्क, स्थापनापर्क द्रव्यपक्कं, भावपक्कं, वा भवति ज्ञातव्यम्। तत्र निकरणवत्या वेदनायाम्, भ०७ श०७ उ०। (समर्थोऽपि किं प्रकामनि- नामस्थापने गतार्थे / द्रव्यपक्कं तदेवोत्स्वेदिमाऽऽदिकं यदामं भणितम् / करणवेदना वेदयतीति अकामणिगरण' शब्दे प्रथमभागे 124 पृष्ठे उक्तम्) किमुक्तं भवति?-यद्रव्यामम् उत्स्वेदिमसंस्वेढि मोपस्कृतपर्यायाऽ5 - पकामरसभोगि(ण) त्रि० (प्रकामरसभोगिन्) प्रकाममत्यर्था रसानां मभेदाचतुर्दा भणितं तदेव यदा इन्धनसंयोगात्पक्कमुपजायते तदा द्रव्यपवं मधुराऽऽदिभेदानां भोगी भोक्ता प्रकामरसभोगीति। मधुराऽऽदिभेदरसा- मन्तव्यम् / गतं द्रव्यपकवम्। नामत्यर्थ भोक्तरि, भ०७०२ उ०। भावपक्रमाहपकिट्ठत्रि०(प्रकृष्ट) प्रधाने, विशे० / आ०क०। संजमचरित्तजोगा, उग्गमसोही य भावपक्कं तु / पकिण्ण त्रि० (प्रकीर्ण) उप्ते, "जहिं पकिण्णा विरुहंति पुन्ना।'' उत्त० अन्नो वि य आएसो, निरुवकमजीवमरणं तु॥ 12 अ०।दत्ते० उत्त० पाई०१२ अ०॥वाच०।०। प्र-कृ-भावे-क्तः। संयमयोगाः प्रत्युपेक्षणाऽऽदयश्चारित्रं च मूलोत्तरगुणरूपं सुविशुद्धभावचामरे, भिन्नजातीयानां मिश्रणे च / पूतिकरज्जे, पुं०। कर्मणिक्तः। विक्षिप्ते, पक्वमुच्यते, गाथायां बन्धाऽऽनुलोभ्येन चारित्रशब्दस्य व्यत्यासेन विस्तृते, भिन्नजातीयैः मिश्रितेच। त्रि०ा स्वार्थे कन् अत्र। चामरे, न०। निर्देशः / यद्वा-या उद्रमाऽऽदीनां दोषाणां शुद्धिस्तद्भावपक्वम् / अश्वे, पुं०। वाच०। अन्योऽप्यादेशो वर्तते, येन यदायुष्क निर्वत्तितं तत्सर्वमनुपाल्य नियमापकिण्णतव (प्रकीर्णतपस्) श्रेण्याऽऽदिनियतरचनादिरचिते स्वशक्त्यपेक्षे णस्य निरुपक्रमाऽऽयुर्जीवस्य यन्मरण तद्भावपक्वम्। अत्र च द्रव्यपक्केतपरिस, यत् कथञ्चित् विधीयते, तच्च नमस्कारसहिताऽऽदिपूर्वपुरुष- नाधिकारः, तत्रापि पर्यायपक्केण, तत्रापि वृक्षपर्यायपक्केण / निर्गत वरितं यवमध्यव (जे) ज्र प्रतिमाऽऽदि च। उत्त० 30 अ०। पक्कापदम् / वृ०१ उ०२ प्रक०। दुर्व्यवहारिभेदे,व्य०। पकित्तिय त्रि० (प्रकीर्तित) तीर्थकरैः कथिते, उत्त०२ अ०। फलमिव पक्कं पडए, पक्कस्सऽहवा न गच्छए पागं / पकिरिया स्त्री० (प्रक्रिया) प्र-कृ-शः। अधिकारे, प्रकरणार्थे , राज्ञा ववहारो तोगा, ससिगुत्तसिरी वसंगासे / / छत्रचामरधूननाऽऽदिव्यापारे च / "अतादिनिधनं ब्रह्म, शब्दतत्त्व पक्कुल्लावभया वा,कजं पिन सेसया उदीरंति। यदक्षरम् / विवततेऽर्थभावेन, प्रक्रिया जगतो यतः॥१॥" वाच०। पक्वस्य व्यवहारः फलमिव पक्वं पतति, नपुनः स्थिरोऽवतिष्ठते। अथवापकुव्वंत त्रि० (प्रकुर्वत्) खण्डशः कृत्वाऽऽत्मनः सुखमुत्पादयति, सूत्र० तद्योगाद् व्यवहारः पाकं न गच्छति। यथा चाणक्यस्य सकाशे शशिगुप्तश्री: १श्रु० 10 अ०। चन्दगुप्तस्य लक्ष्मीः। अत एव एतेन पाको गमनेन वा पक्कफलसदृशव्यपकुव्वमाण त्रि० (प्रकुर्वाण) प्रकर्षेण कुर्वाणे, सूत्र० 1 श्रु०१० अ०। वहारकरणात् स पक इति व्यवह्रियते। अथवा- यस्य पक्कोल्लापभयात् आचा० / विदधाने, आचा० १श्रु० 2 अ०२ उ०। कार्यमपि न शेषका उदीरयन्ति बुवते स पक्वम् / किमुक्तं भवति ? पकुय्वय पुं० (प्रकुर्वक) आलोचितेष्वपराधेषु प्रायश्चित्तदानतो विशुद्धि पक्वपक्कानि तादृशानि स भाषते, यैः भाषिठाः सन्तोऽन्ये सदादिनस्तुकारयितुं समर्थे, भ० 25 श०७ उ०। ष्णीका आसते, ततः पक्कोल्लाएयोगात्स पक्व इति। व्य०३ उ०। पकुटिव(ण)त्रि० (प्रकुर्विन) आलोचितातिचाराणां प्रायश्चित्तप्रदानेन पवंत न० (प्रक्रान्त) प्रकृते प्रस्तुते, आव० 4 अ०।" पक्वं पिक शुद्धिप्रकर्षेण व्यापारयतीत्येवं शीलः / आचारवत्यादिगुणयुक्तोऽपि परिणयं / " पाइ० ना०१४३ गाथा। कश्विच्छुद्धदानं नाभ्युपगच्छतीत्ये-तव्यवच्छेदार्थ प्रकुर्वीत्युक्तम्। ध० पक्कघय न० (पकधृत)औषधेः पक्के सिद्धार्थक आमलकाऽऽदि-संबन्धिनि २अधि०। आलोचिते शुद्धिकरणस्यैव समर्थे आलोचनागाहके, स्था० पाकावस्थां प्राषिते घृते, ध०२ अधि०। 8 ठा० / आलोचकेनालोचितेष्वपराधेषु यः सम्यक् प्रायश्चित्तप्रदानत / पक्कण पुं० (पक्षण) अनार्यदेशभेदे, अनार्यदेशोत्पन्ने मनुष्यभेदे च। ज्ञा० आलोचकस्य विशुद्धिमुपजनयति सः। व्य०१ उ०। 1 श्रु०१ अ०। आ०म०। प्रव०। प्रश्र०। सूत्र। पकोट्ठपुं०(प्रकोष्ठ) प्रगतः कोष्ठम् / कूर्परस्याधोभागस्थे मणिबन्धपर्यन्ते पकणउलन०(पक्कणकुल) मातङ्गगृहे. बृ०३ उ०। गर्हितकुले, "पक्कणहस्तावयवे, गृहद्वारपिण्डे च / वाच० / कलाविकायाम्, औ०। कुले वसंतो, सउणी इयरो विगरिहिओ होइ।" आव०३ अ०। पक त्रि० (पक्व )"पक्काङ्गारललाटे वा" ||1147 / / इति आदेरत पक्कण न० (पक्वान्न) अग्निसंस्कृतान्ने, पक्वान्नग्रहणकालः कुत्र अन्थेऽम्तीति इत्वम्। पिक्कं / पक्का प्रा०१ पाद। पाकप्राप्ते, आचा०१ श्रु०२ अ०६ प्रवे० उत्तरम्-पक्वान्नग्रहणकालः श्राद्धविधौ कधितोऽस्तीति ।२०प्र०। उ०। राद्धे, जी०३ प्रति० 4 अधि०।"पळणाम-जं अग्गिणा पओलियं।" सेन०४ उल्ला०। नि०यू० 15 उ० / प्रव०। पक्कतिल्ल न० (पक्कतैल) लाक्षाऽदिद्रव्यपक्वतैले, ध०२ अधिक निक्षेपः पक्कम पुं० (प्रक्रम) प्र-क्रम-घ, न वृद्धिः / क्रमे, अवसरे, उपक्रमे, नाम ठवणा पक्कं, रब्वे भावे य होइ नायव्वं / वाच०। चरणे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१अ०१ उ०। प्रकर्षेण प्रभवने, सा० उस्सेइमाइ तं चिय, पक्किंधणजोगतो पक्कं / / १०टा०1 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्कमहुर 67 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पक्खाभास पक्कमहुर त्रि० (पक्कमधुर) पक्व इव मधुरे, पक्वे सति मधुरे च / स्था०४ पक्खग त्रि० (पक्षग) मासार्द्धभाविनि, 'पक्खगा संजलणा कसाया।" ठा०१ उ०। कर्म०१ कर्म०। पक्कल कि० (समर्थ) गोणाऽऽदित्वात् समर्थस्थाने पक्कलाऽऽदेशः / शक्ते, पक्खज्जमाण त्रि० (प्रखाद्यमान) भक्ष्यमाणे, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२ उ०। प्रा०२ पाद / ''पक्का सहा समत्था, य पक्कला पंचला पोढा" / पाइ० / पक्खर्पिड पुं० (पक्षपिण्ड) बाहुद्वयकायपिण्डे, उत्त०१ अ०। ना० 36 गाथा। जानुजसोपरिवस्त्रवेष्टनाऽऽत्मके योगपट्टाऽऽश्रयके, बाहुद्वयेनैव कायबन्धापक्कीलिय त्रि० (प्रक्रीडित) वसन्तोत्सवाऽऽदिना प्रक्रीडितुमारब्धे, ऽऽत्मके वाऽऽसनभेदे, 'नेव पल्हथिए कुज्जा, पक्खपिंडं च संचए।'' कल्प०१ अधि०५ क्षण। जं०। विपा० / अन्त० / ज्ञा० उत्त०१अ०। पक्केजघर न० (पक्वगृह) पक्वेष्टकागृहे, व्य०४ उ०। पक्खर पुं०(पक्षर) अश्वाऽऽदीनां तनुत्राणविशेषे, विपा०१ श्रु०२ अ०। पक्केल्लव त्रि० (पक्च) स्वार्थे इलप्रत्ययः। अग्निना कृतपाके, उत्त० 4 अ०। | पक्खरा (देशी) तुरगसंनाहे, दे० ना०६ वर्ग १०गा। पक्ख पुं० (पक्ष) पतत्यनेन पक्षः। उत्त० 4 अ०।तनूरुडे, "जायपक्खा पक्खलंत त्रि० (प्रस्खलत्) श्रवपाताऽऽदौ प्रपतति, " पवडते य से जहा हंसा।" उत्त० 11 अ० / पार्वे, स्था०४ वा० 3 उ० / तत्थ, पक्खलते वसंजए।" दश०५ अ०१ उ०। दक्षिणवामाऽऽदिपाश्चे, स्था०२ ठा०४ उ०। कस्यचिदेकदेशभूते, रा०। पक्खलण न० (प्रस्खलन) गत्या भूमिसंप्राप्तौ, "भूमिए असंपत्तं पत्तं वा ज०। पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणे (स्था० 2 ठा०४ उ०। विशे०) मासार्द्ध, हत्थजाणुमादीहिं पक्खलणं णायव्यं / " भूमावसंप्राप्त हस्तजानुकाऽऽ दिभिः प्राप्तं वा प्रस्खलनं ज्ञातव्यम् / वृ०६ उ० / स्था०। ज०१ वक्षः / पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणे, स्था०२ ठा०४ उ०। विपा०। पक्खलमाणी स्त्री० (प्रस्खलन्ती) प्रकर्षेण स्खलन्त्याम्, गत्या कर्म०। "पण्णरस अंहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो।" भ०६ श०७ गच्छन्त्यां भूमावसंप्राप्तायाम, बृ०६ उ० / स्था०। उ० / त० अनु० / आ०म० / मंगा "एगमेगस्सणं भंते! कतिपक्खा ? / पक्खवंत त्रि० (पक्षवत्) नृपवर्गीयपक्षसमन्विते, व्य०१ उ०) गोयमा ! दो पक्खा पण्णत्ता। तं जहाबहुलपक्खे, सुक्कपक्खे य।" जी० पक्खवाइ त्रि० (पक्षपातिन्) पक्षमेकपक्षाभिनिवेशं पातयति तिरस्करो२ प्रति० : दर्श० / 'सिलाधयिषया शून्या, सिद्धिर्यत्र न विद्यते / तीति पक्षपाती। क्वचिद् द्विष्ट क्वचिदनुरक्तेनैकपक्षानुरागिणि, स्या०। सपक्षस्तत्र युत्तित्वज्ञानादनुमतिर्भवेत्।।१।।" इत्युक्तलक्षणे हेतुसाध्या पक्खवाय पुं० (पक्षपात) अनुमोदनधर्मे आचारे, "जइ वि भणामि न धिकरणे अनुमानवाक्ये पक्षप्रयोगः / रत्ना० 3 परि० / "ज्ञातव्ये भत्ती, न पक्खवाओ अमग्गअगुणेसु / ' ध०२ अधिo। न ''श्रद्धयैव पक्षधर्मत्वे पक्षो धर्म्यभिधीयते / व्याप्तिकाले भवेद्धर्मः, साध्यसिद्धौ त्वयि पक्षपातः, न द्वेषमात्रदरुचिः परेषु / यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु, त्वामेव पुनर्द्वयम् // " रत्ना० 3 परि० / 'अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे 402 पृष्ठे वीरं प्रभुमाश्रयामः।।१।।" अष्ट 17 अष्ट। पक्षस्वरूपमुक्तम् ) पक्खवाह पुं० (पक्षवाह) वेदिकैकदेशविशेषे, जं०१ यक्ष० / जी०। पक्खआ अव्य० (पक्षतस्) दक्षिणाऽऽदिपक्षमाश्रित्येत्यर्थे, उत्त०१अ०। पक्षकदेशविशेषे, रा०। जी०। दशः / पार्श्वत इत्यर्थे, दश०८ अ०। पक्खाइपुं० (पक्षादि) अर्द्धमासप्रभृतौ, आदिशब्दाचतुर्मासाऽऽदिग्रहः / पक्खंत न० (पक्षान्त) अन्यतरस्मिन्निन्द्रियजाते, "अन्नतरं इदियजायं पञ्चा०१५ विव०। पक्खत भण्णइ।' नि० चू०६ उ०। प्रख्याति स्त्री०। यशसि, औ०। पक्खंतर न० (पक्षान्तर) पक्षविशेषे, आ० म०१ अ०२ खण्ड। पक्खाभास पुं० (पक्षाऽऽभास) पक्षदोषविशिष्टे, रत्ना०। पक्खंद शा०(प्रस्कन्द) प्र-स्कन्द आक्रमणे, "अगणिं व पक्खंद पक्षाऽऽभासांस्तावदाहुःपयंगसेणा।" अग्निं प्रस्कन्दथ वाऽऽक्रमथा उत्त०११ अ०। "पक्खंदे तत्र प्रतीतनिराकृ तानभीप्सितसाध्यधर्मविशेषणास्त्रयः जलिय जोई, धूमकेदुरासय।' प्रस्कन्दन्ति अध्यवस्यन्तिप्रस्कन्देत, पक्षाऽऽभासाः॥३५॥ प्राकृत्तवात् प्रस्कन्देयुः / उत्त०१२ अ०। दश०। प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणः, निराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, अनभीप्सितपक्खंदण न० (प्रस्कन्दन) धावित्वा पतने, “पडणं तु उप्पतित्ता, साध्यधर्मविशेषणश्चेति त्रयः पक्षाऽऽभासा भवन्ति। अप्रतीतानिराकृतापक्रखंदण धाविऊण जं पडति, जं पुण अदूरओ आधाविता पडइ तं भीप्सितसाध्यधर्मविशिष्टधर्मिणां सम्यक्पक्षत्वेन प्रागुपवर्णितत्वादे तेषां पक्खदण / अहवा-उप्पाइय पक्खंदणं, तं पुण गिरिम्मि जुजइ, च तद्विपरीतत्वात् // 38 // रुखवियस्स जं उप्पइत्ता पडणं तं पक्खंदणं, हत्थेहिं वा लंविउ जं तत्राऽऽयं पक्षाऽऽभासमुदाहरन्तिअंदोलइत्ता पडइ. तं वा पक्खंदणं मरणं।'' नि०पू०११ उ० / प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणो यथा-आर्हतान् प्रत्यवधारणवर्ज पक्खंदोलग पुं० (पक्षयान्दोलक) यत्र पक्षिण आगत्याऽऽत्मानमान्दो- परेण प्रयुज्यमानः समस्ति जीव इत्यादिः॥३६। लयन्ति तस्मिन्, जी०३ प्रति० 4 अधि०। अवधारण वर्जयित्वा परोपन्यस्तः समस्तोऽपि वाक् प्रयोग Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खाभास 68 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पक्खाभास आर्हतानां प्रतीतमेवार्थ प्रकाशयति। ते हि सर्दी जीवाऽऽदिवस्त्वनेकान्ताऽऽत्मकं प्रतिपन्नाः, ततस्तेषामवधारणरहितं प्रमाणवाक्यं, सुनयवाक्यं वा प्रयुज्यमानं प्रसिद्धमेवार्थमुद्भावयतीति व्यर्थस्तत्प्रयोगः / सिद्धसाधनः, प्रसिद्धसंबन्ध इत्यपि संज्ञाद्वयमस्याविरुद्धम्॥३६॥ द्वितीयपक्षाऽऽभासं भेदतो नियमयन्ति - निराकृतसाध्यधर्मविशेषणः प्रत्यक्षानुमानाऽऽगमलोकस्ववचनाऽऽदिभिः साध्यधर्मस्य निराकरणा-दनेकप्रकारः।।४।। प्रत्यक्षनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, अनुमाननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः आगमनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, लोकनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः,स्ववचननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः।आदि-शब्दात् स्मरणनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, प्रत्यभिज्ञाननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, तर्कनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणश्चेति॥४०॥ एंषु प्रथम प्रकारं प्रकाशयन्तिप्रत्यक्षनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा-नास्ति भूतविलक्षण आत्मा।॥४१॥ स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण हि पृथिव्यप्तेजोवायुभ्यः शरीरत्वेन परिणतेभ्यो भूतेभ्यो विलक्षणोऽन्य आत्मापरिच्छिद्यत इति। तद्विलक्षणाऽऽत्मनिराकरणप्रतिज्ञाऽनेन बाध्यते / यथाऽनुष्णोऽग्निः, इति प्रतिज्ञा बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षेण // 41 // द्वितीयप्रकारं प्रकाशयन्तिअनुमाननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणों यथा-नास्ति सर्वज्ञो, वीतरागो वा।।४।। अत्र हि यः कश्चिन्निर्हासातिशयवान्,स क्वचित्स्वकारणजनितनिर्मूलक्षयो यथा-कनकाऽऽदिमलो, निह सातिशयचती च दोषाऽऽवरणे इत्यनेनानुमानेन सुव्यक्तयैव,बाधा एतस्मात्खल्वनुमानाद्यत्र क्वचन पुरुषधौरेये दोषाऽऽवरणयोः सर्वथा प्रक्षयप्रसिद्धिः, स एव सर्वज्ञो वीतरागश्चेति / एवमपरिणामी शब्द इत्यादिरपि प्रतिज्ञा परिणामी शब्दः कृतकत्वान्यथानुपपत्तेरित्याद्यनुमानेन बाध्यमानाऽत्रोदाहरणीया।।४।। अथ तृतीय भेदमाहुःआगमनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा-जैनेन रजनिभोजनं भजनीयम्।।४३|| 'अत्थं गयम्मि आइचे, पुरत्था य अणुग्गए / आहारमाइयं सव्वं, मणसाऽवि, न पत्थए।।१।।" इत्यादिना हि प्रसिद्धप्रामाण्येन परमागमवाक्येन क्षपाभक्षणपक्षः प्रतिक्षिप्यमाणत्वान्न साधुत्वमास्कन्दति / एवं जैनेन परकलत्रमभिलषणीयामित्याधुदाहरणीयम् // 43 / / चतुर्थ प्रकार प्रथयन्तिलोकनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा-न पारमार्थिक: प्रमाणप्रमेयव्यवहारः॥४४॥ लोकशब्देनात्र लोकप्रतीतिरुच्यते / ततो लोकप्रतीतिनिराकृतसाध्यधर्मविशेषण इत्यर्थः। सर्वाऽपि हि लोकस्य प्रतीतिरीदृशी यत्पारमार्थिक प्रमाणं, तेन च तत्वातत्त्व विवेकः पारमार्थिक एवं क्रियते / ननु लोकप्रतीतिरप्रमाणं, प्रमाणं वा? अप्रमाणं चेत्, कथं तया बाधः कस्याऽपि कर्तुं शक्यः? प्रमाणं चेत्, प्रत्यक्षाऽऽद्यतिरिक्त, तदन्यतरद्वा। न तावदाद्यः पक्षः, प्रत्यक्षाऽऽद्यतिरिक्तप्रमाणस्यासंभवात। अन्यथा"प्रत्यक्षं च परोक्षं च / " इत्यादिविभागस्याऽऽसमञ्जस्याऽऽपत्तेः / द्वितीयपक्षे तु प्रत्यक्षनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणाऽऽदिपक्षाभासेष्वेवास्यान्तर्भूतत्वात् नवाच्यः प्रकृतः पक्षाभास इति चेत्। सत्यमेतत, किंतु लोकप्रतीतिरत्रोत्कलितत्वेन प्रतिभातीति विनेयमनीषोन्मीलनार्थमस्य पार्थक्येन निर्देशः। एवं शुचि नरशिरःकपालप्रमुखं, प्राण्यङ्गत्वात्, शङ्खशुक्तिवदित्याद्यपि दृश्यम्॥४४॥ पञ्चमप्रकार कीर्तयन्तिस्ववचननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा- नास्ति प्रमेयपरिच्छेदकं प्रमाणम् // 45 // सर्वप्रमाणाभावमभ्युपगच्छतः स्वमपि वचनं स्वाभिप्रयप्र-तिपादनपरं नास्तीतिवाचंयमत्वमेव तस्य श्रेयः;ब्रवाणस्तु नास्ति प्रमाणं प्रमेयपरिच्छेदकमितिस्ववचनं प्रमाणीकुर्वन् ब्रूत इति स्ववचनेनैवासौ व्याहन्यते, एवं निरन्तरमहं मौनीत्याद्यपि दृश्यमा ननु स्ववचनस्य शब्दरूपत्वातन्निराकृतसाध्यधर्मविशेषणः पक्षाभासः प्राग्गदिताऽऽगमनिराकृतसाध्यधर्मविशेषण एव पक्षाभासेऽन्तर्भवतीति किमर्थमस्य भेदेन कथनमिति चेत् / एवमेतत्. तथापि शिष्यशेमुषीविकाशार्थमस्यापि पार्थक्येन कथनमिति न दोषः। आदिशब्दसूचितास्तु पक्षाभासास्त्रयः स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कनिराकृतसाध्यधर्माविशेषणाः। तत्र स्मरणनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा, स सहकारतरुः फलशून्य इति, अयं पक्षः कस्यचित्सहकारतरुंफलभरभ्राजिष्णुं सम्यक् स्मर्तुः स्मरणेन बाध्यते। प्रत्यभिज्ञाननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणो यथा, सदृशेऽपि क्वचन वस्तुनि कश्चन कानाधिकृत्योर्ध्वतासामान्यभ्रान्त्या पक्षीकुरुते, तदेवेदमिति। तस्यास्यं पक्षस्तिर्यक् सामान्यावलम्बिना तेन सदृशमिदमिति प्रत्यभिज्ञानेन निराक्रियते। तर्कनिराकृते साध्यधर्मविशेषणो यथा, यो यस्तत्पुत्रः, स श्याम इति ब्याप्तिः समीचीनेति / अस्याऽयं पक्षो यो जनन्युपभुक्तशाकाऽऽद्याहार-परिणामपूर्वकस्तत्पुत्रः, स श्याम इति व्याप्तिग्राहिणा सम्यक् तर्केण निरक्रियते // 4 // द्वितीय पक्षाभासं सभेदमुपदी तृतीयमुपदर्शयन्तिअनभीप्सितसाध्यधर्मविशेषणो यथा-स्याद्रादिनःशाश्वतिक एव कलशाऽऽदिरशाश्वतिक एव वेति बदतः॥४६|| स्याद्वादिनो हि सर्वत्रापि वस्तुनि नित्यत्वैकान्तः, अनित्यत्वैकान्तो वा नाभीप्सितः, तथाऽपि कदाचिदसौ सभाक्षोभाऽऽदिनैवमपि वदेत् / एवं नित्यः शब्द इति ताथागतस्य वदतः प्रकृतः पक्षाभासः / ये त्वप्रसिद्धविशेषणाप्रसिद्धविशेष्याप्रसिद्धोभयाः पक्षाभासाः परैः प्रोचिरे, नामी समीचीचीनाः / अप्रसिद्धस्यैव विशेषवस्य साध्यमानत्वात्, अस्यथा सिद्धसाध्यताऽवतारात् / अथाऽत्र सार्वत्रिकः प्रसिद्ध यभावो विवक्षितो न तु तत्रैव धर्मिणि, यथा सा ख्यस्य विनाशित्वं क्वागि धर्मिणि न प्रसिद्ध, तिरोभावमात्रस्यैव सर्वत्र तेनाभिधानात्। तदयुक्तम्। एवं सति क्षणिकतां साधयतो भवतः कथं नाप्रसिद्धविशेषणत्वं दोषा भवेत् ? क्षणिकतायाः सपक्षेक्वाप्यप्रसिद्धेः 1 विशेष्यस्य तु धर्मिणः सिद्धिर्विकल्पादपि प्रतिपादितेति कथमप्रसिद्धताऽस्य ? एतेनाप्रसिद्धोभयोऽपि परास्तः / / 46|| रत्ना०६ परि०। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खारिण 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पक्खियपोसहिय पक्खारि पुं० (पक्षारिण) अनार्यदेशविशेषे, तद्देशजा दासी पक्षारिणी। 'पक्सारणी।' रा०। पक्खालण न० (प्रक्षालन) धावने, आचा०१ श्रु०५ अ० 5 उ०। सूत्र०। औ०। पक्खावडिअत्रि० (पक्षाऽऽपतित) अन्यतरस्य पार्श्वे पतिते, "पक्खा वडिय तासु!" प्रा० 4 पाद। पक्खासण न० (पक्ष्यासन) येषामधोभागे नानारूपाः पक्षिणस्तेषु आसनभेदेषु, जी०३ प्रति० 4 अधि०।०। पक्खि(प) स्त्री० (पक्षिन) पतत्यनेन पक्षः, सोऽस्यास्तीति पक्षी। उत्त० 1 अ०1 गृद्धाऽऽदिषु, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ० / अनु०॥ चउव्विहा पक्खी पण्णत्ता / तं जहा- चम्मपक्खी,लोमपक्खी, समुग्गपंक्खी, विययपक्खी। (स्था० 4 ठा०४ उ०) तिविहा पक्खी पण्णत्ता। तं जहा- अंडया, पोयया, सम्मुच्छिमा। अंडया पक्खी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-इत्थी, पुरिसा. नपुंसगा। पोयया पक्खी तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा वि / एवमेएणं अभिलावेणं उरपरिसप्पा वि भाणियव्वा, भुयपरिसप्पा विभाणियव्वा। पक्षिणोऽण्डजा; हंसाऽऽदयः पोतजा वल्गुलीप्रभृतयः, सम्मूच्छिमाः खञ्जनकाऽऽदयः, उद्भिजत्वेऽपि तेषां सम्मूच्छिमत्वव्यपदेशो भवत्येव, उद्भिल्लाऽऽदीनां सम्भूफ़नजविशेषत्वादिति / स्था० 3 ठा० 1 उ० / (खहयर शब्दे तृतीयभागे 734 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता) पक्खिजाय न० (पक्षिजात) गृध्राऽऽदौ पक्षिणि, स्था० 5 टा०२ उ०। नि००। एक्खिणिसेविय त्रि० (पक्षिनिषवित) विविधविहङ्गै रतिशयेनाऽऽश्रिते. उत्त० 20 अ०॥ पक्खिपह पुं० (पक्षिपथ) पक्षिमार्गे, यत्र भारुण्डाऽऽदिपक्षिभि देशान्तरमवाप्यते। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। पक्खिप्प अव्य० (प्रक्षिप्य) निष्काश्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। पक्खिय न० (पाक्षिक) पक्षेऽर्द्धमासे भवं पाक्षिकम् / पञ्चा० 15 विव०। मायक्षेपक्षे भवे, कल्प०३ अधि०६क्षण। पक्षस्यान्तिक पाक्षिकम्। प्रक० 4 द्वर। पक्षातिचारनिर्वृत्ते प्रतिक्रमणे, आव० 4 अ०। (तच्च पाक्षिकप्रतिक्रमणं कदा कथं कर्तव्यमिति 'पडिक्कमण' शब्दे वक्ष्यते) अथ बप्पसङ्घकृतप्रास्तदुत्तराणि च यथा- श्राद्धाः पाक्षिकदिने अतीचारान् कथयन्ति, तत्र षष्ठं दिव्रतं, दशमं च देशावकाशिक, तदन्ये नाङ्गीकर्वन्ति, यद् व्रतद्वयं कथितमस्ति तदात्मश्राद्धः कथितं, यत्षष्ठव्रत यावञ्जीवप्रत्ययिक दशमं तु दिनप्रत्ययिकमित्यपि नाङ्गीकुर्वन्ति तत्र का युक्तिः?. इति प्रश्ने, उत्तरम्-श्रीआवश्यके श्रावकव्रताधिकारे देशावकाशिकव्रताऽऽलापकः कथितोऽस्ति, स लिख्यते / यथा- "दिसिव्वयगहीयस्स दिसापरिणामस्स पइदिणं परिमाणकरणं देसावगासिअं, देसावगासियरस समणोवासएक इमे पंच अईआरा जाणियव्वा, न समायरियव्या / तं जहा- आणवणप्पओगे 1, पेसवणप्पओगे 2, सद्दाणुवाए 3, रूवाणुवाए 4, बहिआपुक्खलक्खेवे 5" एतदालापकानुसारेण षष्ठदिगव्रतस्य संक्षेपदेशावकाशिकं स्पष्टतया ज्ञायते, तथा योगशास्त्राऽऽद्यनेकाग्रन्थेषु षष्ठदिगवसंक्षेपरूपदेशावकाशिकं कथितमस्ति।तथा श्रीउपासकदशाङ्गे आनन्दव्रतोचाराधिकारे सामायिकाऽऽदिचतुष्कव्रताऽऽलापकविस्तारोन कथितः, तस्मात्केचन नाङ्गीकुर्वन्ति, तत्तुतदज्ञानमेव, यतोव्रतोचाराऽऽदौ एवं पाठोऽस्ति-"अहंण देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइ दुवालसविहं सावयधम्म पडिवजिस्सामि?। अहासुहं देवाणुप्पिआ!मा पडिबंधं करेहि।" तथाव्रतोचारानन्तरमेवं पाठोऽस्ति- "तए णं आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिएपंचाणुव्वइअंसत्तसिक्खावइयंदुवालसविहं सावयधम्म पडिवाइ, पडिवजइत्तासमण भगवं महावीरं वंदइनमसइ।" एतदालापकद्वये द्वादशव्रतोच्वा-रागीकारः कथं घटते? यदि देशावकासिकव्रतं न भवति तर्हि पञ्चातीचाराः कथं कथिताः? तस्मादानन्देन चत्वारि व्रतानि सविस्तराणि नोचरितानि, यत्प्रतिदिनं वारंवारमुच्चार्यन्ते पुनः संक्षेपतस्त दुचरितान्येवेति ज्ञेयम्।७३ प्र०। सेन०४ उल्ला०) पक्खियखवणा स्त्री० (पाक्षिकक्षामणा) "इच्छामिखमासमणो? पियं च मे जंभे हट्ठाणं तुट्ठाणं अप्पायंकाणं" इत्यादि भणनाऽऽत्मिकायां पाक्षिकप्रतिक्रमणस्यान्ते क्षामणायाम्, ('प-डिक्कमण' शब्दे व्याख्या) पाक्षिकक्षामणाऽवसरे श्राद्धाः प्रत्येकं नमस्कारान मनोमध्ये कथयेयुः, किं वा नेति प्रश्रे, उत्तरम् -क्षामणाऽवसरे यतिसद्भावे श्राद्धा नमस्कारान् नपठन्ति, किंतु यतिभिः पठ्यमानं क्षामणकपाठंशृण्वन्ति, यतीनामभावे तु नमस्कारं पाक्षिकसूत्रस्थाने प्रतिक्रमणसूत्रं च परम्परया पठन्तीत्यवसेयम्। 21 प्र०। सेन०१ उल्ला०। पक्खियपडिक्कमण न० (पाक्षिकप्रतिक्रमण) पक्षातिचारनिर्वृत्ते चतुर्दश्या क्रियमाणे प्रतिक्रमणे, ध०२ अधि०ा भुवनसुरीस्मृतिकायोत्सर्गादनुपाक्षिक प्रतिक्रमणे ज्ञानाऽऽदिगुणयुतानामिति स्तुतिः श्राविकाभिरपि पठ्यते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् पाक्षिकप्रतिक्रमणे ज्ञानाऽऽदिगुणयुतानामिति स्तुतिः श्राविकाभिः साध्वीभिरपि च कथ्यमानाऽस्तीति। 403 प्र०। सेन०३ उल्ला० अथमुलतानसङ्घकृतानुयोजनानि, तत्प्रतिवचांसि च। यथा-सर्वैः पाक्षिकप्रतिक्रमणे शान्तिरवश्यं कथ्यते, कैश्चित्पुनरन्यस्मिन् दिनेऽपि कथ्यते, तत्किमस्तीति प्रश्रे उत्तरम्- पाक्षिकप्रतिक्रमणे परम्परया शान्तिरवश्यं कथ्यतेऽन्यस्मिन् दिने तुकथनमाश्रित्य नियमो नास्तीति। 57 प्र०।सेन०४ उल्ला० पक्खियपोसह पुं० (पाक्षिकपोषध) पक्षे भवं पाक्षिकमर्द्धमासिकं पर्य, तत्र पोषधः पाक्षिकपोषधः / चतुर्दश्यष्टमीषु पोषधव्रते, दशा०५ अ०) पक्खियपो सहिय पुं० (पाक्षिकपौषधिक) पाक्षिकपोषधोऽस्ति येषां ते पाक्षिक पौषधिकाः। पर्यसु कृतपौषधोपवासेषु, दशा०। यतश्चूर्णि:- "पक्खियं पक्खियमेव, पक्खिए पोसहो पक्खिय पोसहो चाउसिअहमीसु वा।" अत्रापि स एवार्थः / यथा- पक्ष अर्द्ध मासे भवं पाक्षिकं , तत्र पाक्षिके पोषधः पाक्षिकपोषधः, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खियपोसहिय 70- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पगइभद्दग अत्र च निवतं पोषध उपवासरूपः / यतः श्रीउत्तराध्ययनबृहद्बतौ- एसा दुमगणाण।" दश०१ अ०भ०। औ०। ज्ञा० / स्था०। नि० चू० "सर्वेष्वपि तपोयोगः, प्रशस्तः कालपर्वसु। अष्टम्यां पञ्चदश्यां च, नियतः बृ०। काशे, कर्मभेदे ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदौ, भ०१श०१ उ० स०। पोषधं वसेत्॥१॥" तथा श्रीआवश्यकचूर्णी - 'सव्वेसुंकालपव्वेसुपसत्थो कर्मणामपि किञ्चित् ज्ञानमावृणोति किञ्चिद्दर्शनम्, किञ्चत्सुखदुःखेन जिणमए तवो जोगी। अहमिपन्नरसीसुं, नियमेण हविज पोसहिओ॥१॥" जनयति, किञ्चिन्मोहयतीत्येवंस्वरूपा प्रकृतिः / क० प्र०१ प्रक० / इति वचनात् पाक्षिकेऽवश्यं तपः कार्यम् / उपलक्षणं चैतचतुर्द- समुदाये, ('कम्म' शब्दे तृतीयभागे 258 पृष्ठे मोदकदृष्टान्तेन तत्स्वइयष्टम्योस्तत्रापि तपः कार्यमिति / अत ए वोक्तं चूर्णिकृता- " चा- रूपमुक्तम् ) भेदे, ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राऽऽख्याश्चनस्त्रः प्रकृतयः। उद्दसिअट्ठमीसु वा।'' अत्र वाशब्दः समुचयार्थे , अनुक्तपर्वसंग्राहको आचा०१ श्रु०१अ०१ उ०। कुम्भकाराऽऽदिश्रेणयः प्रकृतयः। औ०। व्यावर्णितश्चूर्णिकृता। तत्र तपोविशेषश्चतुर्थाऽऽादरूपस्तेण युक्तानां बलदेवस्य रेवत्यामुत्पन्ने पुत्रे, स चारिष्टनेमिस्वामिनोऽन्तिके प्रव्रज्य साधूनां मध्ये। दशा०५ अ०। सर्वार्थसिद्धे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यति। नि० 1 श्रु०५ वर्ग 1 अ०। पक्खियापक्खिय पुं० (पाक्षिकापाक्षिक) नपुंसकभेदे, यस्य पक्षे, पगइअंत पुं० (प्रकृत्यन्त) प्रकृतिविश्रान्ती, द्वा०११द्वा०। शुक्लपक्षे अतीव मोहोदयः स्यात्-अपक्षे च-कृष्णपक्षे स पाक्षिका पगइउदय पुं० (प्रकृत्युदय) कर्मभेदविषये उत्तरकरणे, पं० सं० पाक्षिकः / ध०३ अधि०। शुक्लपक्षे सवेदो, नो कृष्णपक्षे / अथवा 5 द्वार। क० प्र०। शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे वा पक्षं यावदतीवोदयः स्यात्तावत्तमेव कालम पगइउदीरणा स्त्री० (प्रकृत्युदीरणा) कर्मप्रकृतिविषये उर्दीरणाकरणे, ल्पोदयः स पाक्षिकापाक्षिकः / ग० 1 अधि०। बृ०। पं० भा०। पं० चू०। पं० सं०५ द्वार। क० प्र०। पक्खिविरालय पुं० (पक्षिविरालक) जीवविशेषे, "से जहा-णामए पगइउवसंत त्रि० (प्रकृत्युपशान्त) क्रोधोदयरहिते, भ० 1 श० 6 एक्खिविरालए सिया रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणं गच्छेजा।" भ०१३ उ०। औ०। श०६ उ०॥ पगइंतर न० (प्रकृत्यन्तर) पतद्ग्रहप्रकृतिरूपे कर्माशे, पं०सं०५ द्वार। पक्खिविराली स्त्री० (पक्षिविडाली) चर्मपक्षिभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा० / पगइंतरणयणसंकम पुं० (प्रकृत्यन्तरनयनसंक्रम) विवक्षितायाः प्रकृतेः पक्खुब्भतअत्रि० (प्रक्षुभ्यत्) "स्वार्थे कश्च वा" / / 2 / 164 // इति समाकृष्य प्रकृत्यन्तरे नीत्वा निवेशने, पं० सं०५ द्वार। कः प्रत्ययः स्वार्थिकः / प्रकर्षेण क्षोभं प्राप्नुवति, "धरणीहरपक्खु पगइट्ठाण न० (प्रकृतिस्थान) प्रकृतीनां स्थानानि / द्विव्यादिप्रकृति समुदाये, कर्म०५ कर्म०। भंत।" प्रा०२ पाद। पगइहाणपडिग्गह पुं० (प्रकृतिस्थानपतद्ग्रह) यदा सुप्रभूतासुप्रकृतिषु पक्खेव पुं० (प्रक्षेप) प्रक्षेपणे, एकदेशग्रहणात् प्रक्षेपाऽऽहारे। प्रव० एका संक्रामति यथा मिथ्यात्वं सम्यक्त्वमिथ्यात्वयोस्तदा संभवति। 205 द्वार। प्रकृतिसंक्रमे, पं० सं०५ द्वार। पक्खेवय पुं० (प्रक्षेपक) अर्द्धपथे त्रुटितशम्बलस्य शम्बलपूरणे द्रव्ये, पगइहाणसंकम पुं० (प्रकृतिस्थानसंक्रम) यदा प्रभूतासु प्रभूताः "अपक्खेवगस्स पक्खेवगं दलयति।" ज्ञा०१ श्रु०१४ अ०। प्रक्षेपणे, संक्रान्ति यथा ज्ञानाऽऽवरणस्य पञ्चापि प्रकृतयः पञ्चसु तदा सम्भबृ० 1 उ०। 'नाम्नि पुंसि वा" // 5 // 3121 / / इति भावे णक्प्रत्ययः। वन्ति / सम्भ्रमभेदे, पं० सं०५ द्वार। यथा अरोचनमरोचकः / हेम०। (वस्त्रप्रक्षेपकस्वरूपम् ‘वत्थ' शब्दे पगइपडिग्गह पुं० (प्रकृतिपतद्ग्रह) प्रकृतिस्थानानां यदैकप्रकृतिपवक्ष्यते) तद्ग्रहभावो विवक्ष्यते तदा संभवति। संक्रमभेदे, पं० सं०५ द्वार। पक्खेवाहार पुं० (प्रक्षेपाऽऽहार) प्रक्षेपणे कवलाऽऽदेराहारः प्रक्षेपाऽऽ पगइपतणुकोहमाणमायालोहपुं० (प्रकृतिप्रतनुक्रोधमा-नमायालोभ) हारः। कावलिके कवलप्रक्षेपनिष्पादिते आहारभेदे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। प्रकृत्यैव प्रतनवोऽतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा येषां ते तथा। त० / पक्खोडधा० (शद्) शातने, "शदो ज्झड-पक्खोडौ" ||8 / 4 / 130|| सत्यपि कषायोदये प्रतनुक्रोधाऽऽदिभावेषु, औ० जी०। इति शीयतेः पक्खोडाऽऽदेशः। 'पक्खोडइ' / शीयते। प्रा० 4 पाद। पगइपेलवसत्ता स्त्री० (प्रकृतपेलवसत्ता) स्वभावेनैव तुच्छधृतिबलायाम् पक्खोडिअ त्रि० (शदित) 'पप्फोडिअंच पक्खोडि।'' पाइ० ना० बृ०१ उ०। नि० चू०। 243 गाथा। पगइबंध पुं० (प्रकृतिबन्ध) कर्मणः प्रकृतोऽशाभेदा ज्ञानाऽऽवरणीपक्खोलण न० (शदन) शद-कर्तरिल्युट्ा प्रस्खलति, रुष्यति, नि०१ याऽऽदयोऽष्टौ तासां प्रकृतेर्वाऽविशेषितस्य कर्मणो बन्धः / स्था०४ ठा० श्रु०३ वर्ग 2 अ०॥ 2 उ० / कर्मपरमाणूनां (स० 4 सम० ) समुदायस्थित्यनुभागप्रदेशपगइ स्त्री०(प्रकृति) प्रीत्यप्रीतिविषादाऽऽत्मकानां लाघवोपष्टम्भगौर समुदाये, पं० सं०५ द्वार। कर्म० / (प्रकृतिबन्धस्वरूपस्य 'बन्ध' शब्दे वधर्माणां परस्परोपकारिणां त्रयाणां गुणानां सत्त्वरजम्तमसा साम्याव- सर्वा वक्तव्यता) स्थायाम, स्या०। आचा०। आ० म०। बुद्धिरेव प्रसुप्तस्वभावा साधिकार | पगइभद्दग त्रि० (प्रकृतिभद्रक) प्रकृत्या स्वभाव एव न परानुप्रकृतिरिति केचित्। द्वा०११ द्वा०ा स्वभावे, भ०१श०६उ०। "पगई / वृत्त्यादिना भद्रकः परोपकारकरणशीलः प्रकृतिभद्रकः / औ०। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पगरभद्दा 71 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पगरणसम स्वभावत एव परोपकरणशीले, भ०१श०६ उ०। स्वभावेनपरानुपहत, पगड त्रि० (प्रकट) सर्वजनदृश्ये, तं०। प्रकटयति प्रकाशयति, विशेष ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० जी०। त० * प्रकृत त्रि० (प्रकर्षण) विहिते, उत्त०१३ अ०। प्रकर्षण बढे, उत्त० पगइभद्दयया स्त्री० (प्रकृतिभद्रकता) स्वभावेन परानुपतापितायाम, 13 अ०। आचा०। स्था० 4 डा० 4 उ०। औ०। पगढण न० (प्रकटन) प्रकाशे, प्रकाशके च / नं०। पगइमउय त्रि० (प्रकृतिमृदुक) स्वभावत एव भावमार्दविके, भ०१श० पगमत्थ पुं० (प्रकटार्थ) उत्तानार्थे, चं० प्र०१६ पाहु०। 6.30 पगडिस्त्री० (प्रकृति) पर्याये, "पगडि त्ति वा, पज्जाय त्ति वा, भेद त्ति वा पगइमंद पुं० (प्रकृतिमन्द) स्वभावेन कर्मवैचित्र्यात् सद्गुद्धिरहिते, एगट्ठा।" आ० चू०१०। आचा०। सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थायाम्, "पगईए मंदा विभवंति एगे, डहरा वि य, जे सुअबुद्धोववेया (3)" दश० सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। उत्त०। आचा०। 'प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहड्कारः।' अ09301 प्रज्ञा०२२ पद / ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मप्रकृतिषु, आ० म०१ अ० पगइविजुत्त त्रि० (प्रकृतिवियुक्त) स्वतन्त्रपरिभाषया सकलज्ञानाऽऽ- १खण्ड। वरणीयाऽऽदिमूलोत्तरभेदप्रकृतिभेदवियुक्ते, परतन्त्रपरिभाषया सत्वरज- पगड्ढपुं० (प्रगर्त) महागर्ते,आचा०१श्रु०३ अ०३ उ०। स्तमसा साम्यावस्था प्रकृतिरित्यनया वियुक्ते, "नित्यप्रकृतिवियुक्तं, पगत त्रि० (प्रगत) अधिकार प्रयोजने, नि०चू०१ उ०। लोकालोकावलोकनाऽऽभोगम।" षो०१६ विव०।। पगप्प पुं० (प्रकल्प) प्रादुर्भूते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। पगइविणीय त्रि० (प्रकृतिविनीत) स्वभावेन, नतुपरोपदेशतः विनययुक्ते, पगप्पिता त्रि० (प्रकर्त्तयित) पृष्ठोदराऽऽदेः कर्त्तयितरि, 'हता छेत्ता तं0 10 पगप्पित्ता, आपसायाणुगामिणो" सूत्र०१ श्रु०८ अ०। पगइविसमा स्त्री० (प्रकृतिविषमा) आवश्यकोक्तपतिमारिकावत् | पगप्पिय त्रि० (प्रकल्पित) प्ररुपिते प्रख्यापिते, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। स्वभावेन वक्रभावयुक्तायां स्त्रियाम्, तं०। (पतिमारिकावृत्तम् 'गरिहा' पगब्म पुं० (प्रगल्भ) धाष्टिब्धे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। आचा०ा अतीव शब्दे तृतीयभागे 850 पृष्टे गतम् ) परिपुष्ट, जी०३ प्रति०४ अधि०। धृष्टतायाते. सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। पगइसकम पुं० (प्रकृतिसंक्रम) प्रकृतेः संक्रम्यमाणायाः सकाशात् दलिकं पगब्भणा स्त्री० (प्रगल्भना) धाटा, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० 2 उ० / परमाण्वात्मक समाकृष्यान्यां प्रकृति पतद्हप्रकृतिः स्वभावस्तत्संक्रमः पापकरणे, धृष्टतायाम, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। प्रकृतिसक्रम इत्युच्यते / पं० सं०५ द्वार। संक्रमभेदे, स्था० 4 ठा०२ पगब्मा स्त्री० (प्रगल्भा) स्वनामख्यातायां पार्श्वनाथान्तेवासिन्याम, उ०प० सं०। यथा कूपिकसंनिवेशे उपसृष्टो वीरस्वामी भावितः। आ०म०१ अ०२ पगइसंतकम्म न० (प्रकृतिसत्कर्मन्) मूलोत्तरप्रकृतीना सत्ताकर्मणि, खण्ड। न०। क० प्र० 10 प्रक० / पं० सं०। पगब्भिय त्रि० (प्रगल्भित) धृष्टतां गते, प्रमादवति च / “किवणेण सम पगइसोम्म पुं० (प्रकृतिसौम्य) प्रकृत्या स्वभावेन सौम्योऽभीषणाऽऽकृतिः। पगडिभया, न वि जाणंति समाहिमुत्तमं / ' सूत्र० 1 श्रु० 2 अ० 3 उ०। विश्वसनीयरूपे षष्ठे श्रावकगुणे, एवंविधश्च प्रायेण नपापव्यापारे व्याप्रियते, धाष्टयवति, सूत्र० 1 अ०१ अ०१ उ०। धाष्टोपगते, सूत्र०१ श्रु०१ सुखाऽऽश्रयणीयश्च भवति / प्रव० 236 द्वार / स्वभावतोऽपापकर्मणि, अ०२ उ०। ध०१ अधिका स्वभावेनैव शशधरवदानन्दकारिणि, दर्श०२ तत्त्व। पगय त्रि० (प्रकृत) अधिकृते, व्य०७ उ० / विशे० / प्रस्तुते, अनु०। अथ तृतीय प्रकृतिसौम्यत्वगुणमाह सूत्र० / विशे० / भावे क्तः। प्रस्तावे. सूत्र०१ श्रु०१५ अ० अधिकारे, पयईसोमसहावो, न पावकम्मे पवत्तए पायं / सूत्र०१श्रु०११ अ०। बृ०।आचा०। प्रयोजने, विशे०। श्रुतविशेषे, व्य० हवइ सुहसेवणिजो, पसमनिमित्तं परेसिं पि।।१०।। 6 उ०। (कल्पव्यवहारयोः प्रकृतानि, 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 26 प्रकृत्याऽकृत्रिमभावेन सौम्यस्वभावोऽभीषणाऽऽकृतिर्विश्वसनी-यरूप पृष्ठे दर्शितानि) इत्यर्थः। (न) नैव,पापकर्मण्याक्रोशबद्धाऽऽदौ हिंसाचौर्याऽऽदौ वा प्रवर्तते *प्रगत त्रि० प्राप्ते, स्था०४ ठा०१ उ०। व्याप्रियतं प्रायो बाहुल्येन निर्वाहाऽऽदिकरणमन्तरेण / अत एव भवति पगरण न० (प्रकरण) प्रक्रियन्तेऽर्था अस्मिन्निति प्रकरणम् / अनेकासुख सवनीयोऽक्लेशाराऽऽध्यः प्रशमनिमित्तसुपशमकारण च अपिश- धिकारवत् कायप्रकरणाऽऽदौ, दश० 4 अ०। आचा०। ब्दस्यह समुचायकस्य योगात्, परेषामन्येषामनीदृशानां भवेत् विजय- पगरणसम न० (प्रकरणसम) हेत्वाभासभेदे, रत्ना०६ परि० / अस्य हि श्रेष्ठिवत्। ध०२० 1 अधि०३ गुण। (विजयाठिकथा 'विजयसेट्टि' शब्दे) लक्षणम्- यस्मात्प्रकरणचिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसम इति। पगंठ पुं०(प्रकण्ठ) पीठविशेषे, आह च मूलटीकाकार:-"प्रकण्ठौ पीठ- यस्मात्प्रकरणस्य पक्षप्रतिपक्षयोश्चिन्ता विमर्शाऽऽत्मिका प्रवर्तते, विशेषो।" चूर्णिकारस्त्वेवमाह-आदर्शवृत्तौ पर्यन्तावनतप्रदेशौ / जी० कस्माचासौ प्रवर्तते ? विशेषानुपलम्भात्, स एव विशेषानुपलम्भो यदा 3 प्रति० 4 अधि० ज० / रा०। निर्णयार्थमपदिश्यते तदा प्रकरणमनतिवर्त्तमानत्वात् प्रकरणसमो पगंथ पुं० (प्रग्रन्थ) प्रगते ग्रन्थे, स्था० 6 ठा०।" पलियं पगंथे अदुवा भवति, प्रकरणे पक्षे प्रतिपक्षे च समस्तुल्य इति। यथा-अनित्यः शब्दो पगथे।" आचा० 1 श्रु०६ अ०२ उ०। नित्यधर्मानुपलब्धेरित्येकेनोक्ते, द्वितीयः प्राऽऽहयद्यनेन प्रकारेणा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पगरणसम 72 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पग्गहिया नित्यत्वं साध्यंते, तर्हि नित्यतासिद्धिरप्यस्तु,अन्यतरानुपलब्धे- रा०। औ०। "अयसीकुसुमप्पगासा,।" क्रोधे, "न य उमोसपगास्तत्रापि सद्भावात् / तथाहि- नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेरिति। समाहणे।'' सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। अयं चाऽनुपपन्नो, यतो यदि नित्यधर्मानुपलब्धिनिश्चिता तदा कथमतो पगासग त्रि० (प्रकाशक) प्रकाशयतीति प्रकाशकम् / ज्ञाने, आ०म०१ नानित्यत्वसिद्धिः? अथानिश्चिता, तर्हि संदिग्धासिद्धतैव दोषः / अथ अ० 1 खण्ड। अवबोधके, षो०१६ विव० / चन्द्रार्काऽऽदिके प्रकाशयोग्यायोग्यविशेषणमपास्य नित्यधर्माणमनुपलब्धिमात्र निश्चितमेव, कृद्द्वस्तुनि, विशे० / आचा०। तत्तर्हि व्यभिचार्येव / प्रतिवादिनचाऽसौ नित्यधर्मानुपलब्धिः स्वरूपा- पगासण न० (प्रकाशन) प्रकटने, प्रव०६ द्वार। सूत्र० / आ०चूना सिद्धैव नित्यधर्मोपलब्धेः तत्रास्य सिद्धेः / एवमनित्यधर्मानुपलब्धिरपि / पगासदीव पुं० (प्रकाशदीप) प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः। आदित्यपरीक्षणीया। इति सिद्ध त्रय एव हेत्वाभासाः। (57 सूत्र० टी०) रत्ना०६ __ चन्द्रमण्यादौ, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। परि०। (प्रकरणसमस्य विषयः अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे 433 पृष्ठे पगासिय त्रि० (प्रकाशित) प्रकटिते, संथा० / सम्यगाविभूते, सूत्र०१ द्रष्टव्यः) श्रु०१४ अ०1 पगरणसुत्त न०(प्रकरणसूत्र) स्वसमय एवाऽऽक्षेपनिर्णयप्रसिद्ध्यद्भावके पगिज्झिय अव्य० (प्रगृह्य) उत्क्षिप्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु० 5 अ०६ सूत्रभेदे, बृ०१ उ०। ('सुत्त' शब्दे इदंव्याख्यास्यते) उ०। विधायेत्यर्थे, भ०३श०१ उ०। औ०। धृत्वेत्यर्थे, भ०६ श० पगरणोवएस पुं० (प्रकरणोपदेश) कारणोपदेशे, आ० चू० 1 अ०॥ 31 उ०। (अस्यैकार्थिकावि 'कारणोवएस' शब्दे तृतीयभागे 466 पृष्ठे गतानि) *प्रगिट्ठत्रि०(प्रकृष्ट) प्रधाने, पं० सं०१द्वार। पगरिय त्रि० (प्रगलित) गलत्कुंष्ठ, पिं०। पगिट्ठभावज्जिय त्रि० (प्रकृष्टभावार्जित) शुभभावार्जिते, पं० सू०६ सूत्र०। पगलंत त्रि० (प्रगलत) निः म्यन्दमाने, नं०। विपा० / प्रश्र०।"पगलंत- पगीय त्रि० (प्रगीयत् ) गातुमारब्धवति, रा०। लोयणंसु जलदिट्ठो।" महा०२ अ०। पगुण त्रि० (प्रगुण) अकुटिले सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ० / आ०चा०। पगलिय त्रि० (प्रगलित) क्षरिते, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। नि० चू०। प्रश्र०।। अव्यभिचारिणि, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 4 उ०। ध०। आ० म०1 पगाढ त्रि० (प्रगाढ) प्रकर्षवत्ति, भ०५ श०६ उ० / प्रश्न० / प्रकर्षण | पगे अव्य (प्रगे) वाच०। प्रगीयतेऽत्र प्र-गै-कः / अतिप्रातः काले, आचा० व्यवस्थिते, सूत्र० 1 श्रु०१२ अ०१ प्रकर्षवृत्तौ, भ०६ श०३१ उ०। १श्रु०५ अ०४ उ०। ज्ञा० / स्था०। "पगाढा चंडा दुहा तिव्या दुरहियासा" इति एकार्थाः। | पग्गह पुं० (प्रग्रह)प्रगृह्यते उपादीयते आदेयवचनगत्वाधः स प्रग्रहः / विपा० 1 श्रु० 1 अ० / प्रगाढा प्रकर्षेण मर्मप्रदेशव्यापितयाऽतीव ग्राह्यवाक्ये नायके, स च लौकिको, लोकोत्तरश्चेति / तत्र लौकिको समवागाढा (वेदना) जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०।। राजयुवराजमहत्तरामात्यकुमाररूपो, लोकेत्तरश्वाऽऽचार्योपाध्याय - पगाम न०(प्रकाम) अत्यर्थे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। सूत्र०। उत्कटे, आव० प्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकरूप इति। स्था०१ ठा०। ('ठाण' शब्दे 4 अ०। अत्यन्ते, "रसा पगामं न निसेवियव्वा / " उत्त०३२ अ०।। चतुर्थेभागे 1666 पृष्ठ व्याख्यातः) प्रकर्षण गृह्णातीति प्रग्रहः / उपधौ, पगामभोयण न० (प्रकामभोजन) द्वात्रिंशदादिकवलेभ्यः परेण परतो ओघ० / रश्मौ, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। उपा०। भुजानस्य भोजने, पिं०। पग्गहिय त्रि० (प्रगृहीत) प्रकर्षणाभ्युपगते, अणु० 3 वर्ग 1 अol पगामसज्जास्त्री० (प्रकामशय्या) 'शीङ्' स्वप्रे। अस्य क्यप्रत्ययान्तस्य आदरप्रतिपन्नत्वात् / स्था० 4 ठा०३ उ०। प्रकर्षण गृहीते, बहुमान "कृत्यल्युटो बहुलम् // 3 / 3 / 113|| इति वचनात् शयनं शय्या प्रकार्म प्रकर्षाद् गृहीते, ज्ञा०१ श्रु०२ अ01 भोजनार्थमुत्पादिते, स्था०६ चातुर्यामं शयनं शेरतेऽस्यामिति वा शय्या संस्तारकाऽऽदिलक्षणा, | ठा०। सूत्र०। प्रकामा उत्कटा शय्या प्रकामशय्या संस्तारोत्तरपट्टकादतिरिक्तायां | पग्गहियतरय न० (प्रगृहीततरक) प्रकर्षण गृहीतं प्रगृहीततरं, तदेव प्रावरणमधिकृत्य कल्पत्रयातिरिक्तायां वा शय्यायाम, आव०४ अ०।। प्रगृहीततरकम्। प्रकर्षणातिशायित्वेन गृहीते, आचा०१ श्रु०२ अ०२ ध०। (प्रकामशय्याऽतिचारप्रतिक्रमणं पडिक्कमण' शब्दे) उ०। प्रगृहीततरां शय्यां यैवं काचिद्विषयसमाऽऽदिका वसतिः सम्पन्ना पगार पुं० (प्रकार) भेदे, आ०चू०१ अ०। विशे० स्था०।"भेद त्ति वा तामेवम्। आचा०१ श्रु०२ अ०२ उ०। पगारो त्ति या एगट्ठा।" आ० चू० 1 अ० / आद्यर्थे , सूत्र० 1 श्रु०१३ / पग्गहियतालियंट त्रि० (प्रगृहीततालवृन्त) प्रगृहीतं तालवृन्तं यं प्रति अ०। विधाने, आव०४ अ०। तस्मिन्, भ०६ श०३३ उ०। औ०। पगास पुं० (प्रकाश) प्रभायाम, औ०। ज्ञा०। अनु०। आविर्भाव, विशे०। पग्गहिया स्त्री०(प्रगृहीता) भोजनवेलायां दातुमभ्युत्थितेन दिनरात्रिविभागनिबन्धने तरणिप्रभारूपेऽर्थे, विशे० / नेत्रवत्राऽऽ- कराऽऽदिना प्रगृहीत्तं यद्भोजनजातं, भोक्ता वा स्वहस्ताऽऽदिना दिविकाशे, अनु०। प्रतिभायाम्, प्रज्ञा०२ पद। प्रकटे, नि० चू० 1 उ०।। तद् गृह्णाति इति षष्ठ्यां पिण्डैषणायाम, आव० 4 अ० / आचा० / प्रसिद्धौ, सूत्र० 1 श्रु०६ अ० / चकचिकायमानत्वे, विशे० / दीप्तौ, ('पिडेसणा' शब्दे सूत्रम्) भोजनसमयं भोक्तुमुपविष्टाय परिवेष्टितु Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग्गहिथा 73 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्ख परिवेषकेण स्थाल्यादेरुवृत्त्य वटुकाऽऽदिना उत्क्षिप्त परेण च नगृहीतं प्रद्रजिताच दापेतम् / यद्वा- भोक्त्रा स्वयं भोक्तुं स्वकरेण यद् गृहीतमशन दि तद गृहृतो भिक्षायाम, ध० 3 अधि०। पग्गिम्ब अव्य० (प्रायस्) "प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्ब-पगिम्बाः"।।८४४१४|| इतिप्रायसः "पग्गिम्बाऽऽदेशः 'पग्गिम्बअइ। मणोरहई, दुक्करु दइउ करेइ।" प्रा०४ पाद। पघंसण न० (प्रघर्षण) पुनः पुनर्घर्षणे, "एक्वं दिण आघसणं, दिणे दिणे पघसणं' नि० चू०३ उ०। जे भिक्खू णिग्गंथे दंते अण्णउत्थियस्स गारत्थियस्स वा आघंसेज वा, पघंसेज वा, आघंसावंतं वा पघंसावंतं वा साइजइ / / गन्धद्रव्येण ईषत्पुनः पुनर्वा घर्षयेत् / नि०चू०१७ उ०/ आचा०। पचंड त्रि० (प्रचण्ड) प्रकोपनशीले, व्य०८ उ०। पचत्तर (देशी) चाटौ, सुन्दरे, दे० ना०६ वर्ग 21 गाथा। पचलिय त्रि० (प्रचलित) कम्पिते, कल्प०। 'पचलिअवरक-डगतुडिअकेऊस्मउडकुडल त्ति।" तत्र प्रचलितानि भगवदर्शनेन अधिकसंभ्रमवत्त्वात् कम्पितानि (वरकडग ति) वराणि कटकानि कङ्कणानि त्रुटिताश्च बाहुरक्षकाः (बहिरखा इति लोके) केयूराणि चाङ्गदानि (वाजूबन्ध इति लोके) (मउड ति) मुकुट, कुण्डले च प्रसिद्धे, एतानि प्रचलितानि यस्य स तथा कल्प०१ अधि०१क्षण। पचालेमाण त्रि० (प्रचालयत्) प्रकर्षण चालयति, भ० 17 श० 1 उ०। पचोइय त्रि० (प्रचोदित) प्रेरिते, "अबले होइ गवं पचोइए।" सूत्र०१ ध्रु०२ अ०३ उ०। पचअपुं०(प्रत्यय)"त्योऽचैत्ये" ||8||13|| इति त्यस्य चः। प्रा०२ चाद। सर्वजनप्रतीतो, प्रश्न० 4 सम्ब० द्वार। पचइय पुं० (प्रात्ययिक) प्रत्ययादिन्द्रियानिन्द्रियलक्षणानिमित्ताजातः प्रात्ययिकः / व्यवसायभेदे, स्था०३ ठा०३ उ०। पंचगिरा स्त्री० (प्रत्यङ् गिरा) देवीभेदे, वाच० / अन्यत्र लगनीयस्य दोषस्याऽऽत्मनि लगने, 'पञ्चगिरलोगमुझहो।' अथासौ साधुहृतः सन् निहते अपलपति, न कथयतीत्यर्थः / बृ०१ उ०। नि००। पञ्चंत त्रि० (प्रत्यन्त) सीमासन्धिवर्तिनि, व्य०१ उ०। 'पचंता मिलक्यु बोहिया।" प्रत्यन्तदेशवासिनो म्लेच्छाः / बृ० 1 उ० / सीमाप्रान्तस्थं नगरं प्रत्यन्तनगरम् / आव० 4 अ०। पचंतय पुं० (प्रत्यन्तक) नीचके , आव० 4 अ०। पच्चंतर न० (प्रत्यन्तर) चतुर्थदेवलोकस्थे विमानभेदे, स०५ सम०। पञ्चंतराय पुं० (प्रत्यन्तराज) सीमाराजे, "अमुगो पच्चंतरायउव्वेहो अण्ण ज. तारिसा पुरिसा।'' आ०म०१ अ० 1 खण्ड। पचक्खन० (प्रत्यक्ष) अक्षमिन्द्रिय प्रतिगतम्-इन्द्रियाधीनतया यदुत्पद्यते तत्प्रत्यक्षमिति तत्पुरुषः / ननु-अक्षिशब्दादपि प्रतिपूर्वात्-"प्रतिपरसभनुभ्योऽक्षणः / (ग०)" इत्यव्ययीभावसमासान्ते टचि प्रत्यक्षमिति सिध्यति, तल्कि न कक्षीचकृवान्सः? न चैवं स्पार्शनाऽऽदिप्रत्यक्ष नैतच्छब्दवाच्यं स्यादिति वाच्यं, तत्प्रवृत्तिनिमित्तस्य स्पष्टत्वस्य तत्रापि / भावेन तच्छब्दवाच्यतोपपत्तेः व्युत्पत्तिनिमित्तमात्रतया ह्यत्राक्षिशब्दः शब्दयते, कशमन्यथाऽक्षशब्दोपादनेऽप्यनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य तच्छब्दवाच्यता चतुरस्त्रा स्यात् ? अथ कथमेवं प्रत्यक्षः प्रेक्षाक्षणः, प्रत्यक्षा पक्ष्मलाक्षीति स्त्रीपुंसभावः? अस्याय्ययीभावस्य सदा नपुंसकत्वात्। नैवं, प्रत्यक्षमस्यास्तीति अर्श आदित्वेनादन्तत्वात्तद्भावसिद्धेः / अत्रोच्यते एवमपि प्रत्यक्षो बोधः, प्रत्यक्षा बुद्धिरित्यत्र पौरनं स्त्रणं च न प्राप्नोति, न ह्यत्र मत्वर्थीयार्थों घटत्ते, प्रत्यक्षस्वरूपस्यैव वेदनस्य बोधबुद्धि-शब्दाभ्यामभिधानात् / रत्ना०२ परि०। विशे०। सूत्र० / साक्षाज्ज्ञाने, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ० / 'अशूड' व्याप्तौ, अश्नुते, ज्ञानाऽऽत्मना सर्वानान् व्याप्नोतीत्यक्षः / अथवा-अश् भोजन। अनाति सर्वान् यथायोगं भुक्ते पालयति चेति अक्षो जीवः / उभयताप्यौणाऽऽदिकः सक्प्रत्ययः / तमक्षं जीवं प्रति साक्षाद् वर्तते यत्तप्रत्यक्षम् / "अत्यादयः क्रान्ताऽऽद्यर्थे द्वितीयया (वा०)" इति समासः / अनु० / इन्द्रियमनोनिरपेक्षे आत्मनः साक्षात्प्रवृत्तिमति ज्ञानभेदे, न०। अनात्यश्नुते व्याप्नोति अर्थानित्यक्ष आत्मा, तं प्रति यद्वर्त्तते ज्ञानं तत्प्रत्यक्षं, निश्चयतोऽवधिमनः पर्यायकेवलानि अक्षाणि चेन्द्रियाणि प्रति यत्तत्प्रत्यक्षम्व्यवहारतस्तच चक्षुरादिप्रभबमिति / लक्षणमिदमस्य"अपरोक्षतयाऽर्थस्य, ग्राहकं ज्ञानमीदृशम्। प्रत्यक्षमितरद् ज्ञेयं, परोक्ष ग्रहणे तथा।।१।। स्था०४ ठा०३ उ०। भ० / जीवस्यार्थसाक्षात्कारित्वेन वर्तमाने ज्ञाने, अनु०। (1) तत्र प्रत्यक्षस्य लक्षणमाहजीवो अक्खो अत्थ-व्वावणभोयणगुणपिणओ जेण। तं पइ वट्टइ नाणं, जं पच्चक्खं तयं तिविहं / / 86|| अक्षस्तावजीव उच्यते। केन हेतुना? इत्याह- (अत्थव्वा वणेत्यादि) अर्थव्यापनभोजनगुणान्वितो येन, तेनाक्षो जीवः / इदमुक्तं भवति-अशू व्याप्तौ। अश्नुते ज्ञानाऽऽत्मना सर्वार्थान् व्याप्नोतीत्यौणाऽऽदिकनिपातनादक्षो जीवः / अथवा- अशूभोजने। अश्नाति समस्तत्रिभुवनान्तर्वर्तिनी देवलोकसमृ-यादीनान पालयति भुक्ते वेति निपातनादक्षो जीवः, अश्रातर्भोजनार्थत्वाद्भुजेश्च पालनाभ्यवहारार्थत्वादितिभावः। इत्येवमर्थध्यापनभोजनगुणयुक्तत्वेन जीवस्याक्षत्वं सिद्धं भवति। तमक्षं जीवं प्रति साक्षाद्गतमिन्द्रियनिरपेक्ष वर्तते यद्ज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् / तच्चावधिमनः पर्यायकेवलज्ञानभेदात्त्रिविधंत्रिप्राकरम्, तस्यैव साक्षादर्थपरिच्छेदकत्वेन जीवं प्रति साक्षाद्वर्तमानत्वादिति गाथार्थः / / 86 / / विशे० / बृ० / आ० चू० / दर्श०। सूत्र०। आ०म०। (अवधिज्ञानस्वरूपम् 'ओहिणाण' शब्दे तृतीयभागे 156 पृष्ठे गतम् ) (मनःपर्यायज्ञानस्वरुप 'मणपजवणाण' शब्दे वक्ष्यते)(केवलज्ञानविस्तरः केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे 642 पृष्ठ गतः) प्रत्यक्ष लक्षयन्ति स्पष्टं प्रत्यक्षम् // 2 // प्रबलतरज्ञानाऽऽवरणवीर्यान्तराययोः क्षयोपशमात् क्षयादा स्पष्टताविशिष्ट वैशद्याऽऽस्पदीभूतं यत् तत् प्रत्यक्ष प्रत्येयम्।।२।। स्पष्टत्वमेव स्पष्टयन्तिअनुमानाऽऽद्याधिक्येन विशेषप्रकाशनं स्पष्टत्वम्॥३॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्ख 74 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्ख अनुमानाऽऽदिभ्यो वक्ष्यमाणपरोक्षप्रकारेभ्योऽतिरेकेण यद्वि- शेषाणा नियतवर्णसंस्थानाऽऽद्यर्थाऽऽकाराणां प्रतिभासनं ज्ञानस्यतत् स्पष्टत्वमिति // 3 // रत्ना०२ परि०। (2) अत्र वैशेषिकाऽऽदय : प्राऽऽहुः-ननु ‘अक्षमिन्द्रियं श्रोतो हृषीकं करणं स्मृतं, ततोऽक्षाणामिद्रियाणां या साक्षादुपलब्धिः सा प्रत्यक्षा, अक्षमिन्द्रियं प्रतिवर्तते प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तेः। तथा चसलि सकललोके प्रसिद्ध साक्षादिन्द्रियाऽऽश्रितं घटाऽऽदिज्ञानं प्रत्यक्षमिति सिद्धम्। तदेतदयुक्तम्, इन्द्रियाणामुपलब्धत्वात्तदसंभवश्वाचेतनत्वात् / तथा चात्र प्रयोगःयदचेतनं तन्नोपलब्धं, यया घटोऽचेतनानिच द्रव्येन्द्रियाणि, न चायमसिद्धो हेतुर्यतो नाम द्रव्येन्द्रियाणि निवृत्त्युपकरणरूपाणि, निवृत्त्युपकरणे च पुद्गलगये, यथा चानयोः पुद्गलमयता तथाऽने वक्ष्यते / पुद्गलमयं च सर्वमचेतनं पुद्गलानां च काठिन्याबोधरूपतया चैतन्यं प्रतिधर्मीत्यायोगात् / धनुरुपो हि सर्वत्रापि धर्मी, यथा काठिन्यं प्रति पृथिवी, यदि पुनरनुरूपत्वाभावेऽपि धर्मधर्मिमभावो भवेत्ततः काठिन्यजलयोरपि स भवेत्, न च भवति, तस्मादचेनतः पुद्गलः / उक्तं च - "बोहसहावमुमुत्तं , विसयपरिच्छेयगं च चेयन्नं। विवरीयसहावाणि य, भूयाणि जगप्पसिद्धाणि / / 1 / / ता धम्मधम्मिभावो, कहमेसिं घडइ तहऽग्भुवगमे या श्रणुरूवत्ताभावे, काठिन्नजलाण किं न भवे ? ||2" इति। नापि संदिग्धानकान्तिकता हेतोःशड्नीया, अचेतनस्योपलम्भकत्वशक्त्यायोगात। उपलम्भकत्वं हिचेतनाया धर्मः, ततः स कथं सदभावे भवितुमर्हति ? आह-प्रत्यक्षवाधितेय प्रतिज्ञा, साक्षादिन्द्रियाणामुपलम्भकत्वेन प्रतीतेः / तथाहि-चक्षु रूपं गृह्यदुपलभ्यते, शब्दं कर्णी , नासिका गन्धमित्यादि / तदेतन्मोहावष्टडधान्तःकरणताविलसितम्। तथा हिआत्मा शरीरेन्द्रियैः सहान्योऽन्यानुवेधेन व्यवस्थितः, ततोऽयमात्माऽमूनिवेन्द्रियाणि इति विवेक्तुमशक्नुवन्तो बालिशजन्तवः, तत्रापि युष्मादृशा कुशास्त्रसंपर्कतः कुवासनासङ्गमः, ततः साक्षादुपलम्भकानीन्द्रियाणीति, मन्यन्ते, परमार्थतः पुनरूपलब्धातत्राऽऽत्मैव। कथमेतदवसीयते इति चेत् / उच्यते-तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्। तथाहि-कोऽपि पूर्व चक्षुषा विवक्षितमर्थ गृहीतवान्, ततः कालान्तरे देवविनियोगतश्चक्षुषोपगमेऽपि स तमर्थमनुस्मरति / तत्र यदि चक्षुरेव द्रष्टास्यात्ततश्चक्षुषोऽभावे तदुपलब्धार्थानुस्मरणं न भवेत् / न ह्यात्मना सोऽर्थोऽनुभूतः, किं तु चक्षुषा, वक्षुष एवं साक्षात् दृष्डरवेनोपगमात्, न चान्येनानुभूतेऽर्थेऽन्यस्य स्मरण मा प्रापदिति प्रसङ्गः / अपि च-मा भूचक्षुषोपगमस्तथापि यदि चक्षुरेव दृष्टा ततः स्मरणमात्मनो न भवेत, अन्येनानुभूतेऽर्थे अन्यस्य स्मरणायोगात्, भवति च स्मरणमात्मनः, चक्षुषः स्मर्तृत्वेनाप्रतीतेरनभ्युपगमाच्च, तस्मादात्मैवोपलब्धा। नेन्द्रियमिति तथा चात्र प्रयोगः-यो येषूपरतेष्वपि तदुलपलब्धानर्थान स्मरति स तत्रोपलब्धां तथा गवाक्षोपलब्धानामर्थानामनुस्मर्ता देवदत्तोऽनुस्मरति च द्रव्येन्द्रियोपलब्धानर्थान् द्रव्येन्द्रियोपगमेऽप्यात्मा, इह रमरणमनुभवपूर्वकतया व्याप्तः, व्याप्यव्यापक-भाववानयोः प्रत्यक्षेणैव प्रतिपन्नः / तथाहि- योऽर्थोऽनुभूतः स स्मर्यते, नशेषः। तथा स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण प्रतीतेर्विपक्षे चातिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणम्. अनुभूते विषये यदि स्मरणं भवेत्ततोऽनमुभूतत्वाविशेषात् खरविषाणाऽऽदेरपि स्मरण भवेदित्यतिप्रसङ्गः, तस्माद् द्रव्येन्द्रियापगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणादात्मोपलब्धेति स्थितम्।। उक्तंच"केसिं चि इंदियाई, अक्खाइं तदुवलद्धिपच्चक्खं / तन्नो ताई जमचे-यणाइँ जाणंति न घडो व्य / / 1 / / उवलद्धा तच्छाया, तव्विगमे तदुवलद्धसरणाओ। गेहगवक्खोपरमे, वितदुवलद्धाणुसरिया वा / / 2 / / " अत्र वाशब्द उपमार्थः / अपरे पुनराहुः न वयमिन्द्रियाणामुपलब्धत्वं प्रतिजानीमहे / किं चैतदेव ब्रूमो-यदिन्द्रियद्वारेण प्रवत्तंते ज्ञानमात्मनि तत्प्रत्यक्षं, न चेन्द्रियव्यापारव्यवहितत्वादात्मा साक्षान्नोपलब्ध इति वक्तव्यम्, इन्द्रियाणामुपलब्धिप्रतिकरणतया व्यवधायकत्यायोगात् न खलु देवदत्तो हस्तेन भुजानो हस्तव्यापारध्यवहितत्वात्साक्षान्न भोक्तेति व्यपदेष्टुं शक्यम्तदेत दसमीचीनम्, सम्यग् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् / इह हियदात्मा च-क्षुरादिकमपेक्ष्यबाह्यमर्थमवबुध्यते तदाऽऽवश्यं चक्षुरादेः सा-दगुण्याद्यपेक्ष्यते / तथाहि-यदा सद्गुणं चक्षुस्तदा बाहामर्थ स्पष्ट यथावस्थितं चोपलभते, यदा तु तिमिराश्रुअमणनौयानपित्ताऽऽदिसंक्षोभदेशदवीयस्त्वाऽऽद्यापादितविभ्रम, तदा विपरीतं संशयितं वा, ततोऽवश्यमात्मा अर्थोपलब्धौ पराधीनः, तथा च सति यथा राजा निजदीवारिकेनोपदर्शितं परराष्ट्रराजकीयं पुरुषं पश्यन्नपि समीचीनमसमीचीनं वा राजा निजदौवारिकवचनत एव प्रत्येति, न साक्षात्तद्वदात्माऽपिं चक्षुरादिनोपदर्शितं बाह्यमर्थ चक्षुरादिप्रत्ययत एव समीचीनमसमीचीनंवा वेत्ति, न साक्षात्। तथाहि-चतुरादिनोपदर्शितऽपि व होऽर्थे यदि संशयमधिरूढो भवति, तर्हि चक्षुरादिसाद्गुण्यमेव प्रतीत्य निश्चय विदधाति, यथा न मे चक्षुस्तिमिरोपप्लुतं नौयानाश्रुभ्रमणाऽऽद्यापादितविभ्रमं वा, ततोऽयमर्थः समीचीन इति। ततो यथा राज्ञो नाऽयं मम राजा दौवारिकोऽसत्यालापी कदाचनाप्यस्य व्यभिचारानुपलम्भादिति निजदौवारिकस्य साद्गुएयमवगम्य परराष्ट्रराजकीयपुरुषसमीचीनताऽवधारणं परमार्थतः परोक्षं तद्वदात्मनोऽपि चक्षुरादि-साद्गुएयाबधारणतो वस्तुयाथात्म्यावधारणं वस्तुतः परोक्षम्। नन्विदमिन्द्रियसादगुण्यावधारणतोवस्तुयाथात्म्यावधारणमनभ्यासदशामापन्नस्योपलभ्यते, नाभ्यासदशामुपगतस्य, अभ्यासदशामापन्नो ह्यभ्यासप्रकर्षसामादिन्द्रियसाद्गुण्यमनपेक्ष्यैव साक्षादवबुध्यते, ततस्तस्येन्द्रियाऽऽश्रितं ज्ञानं कथं प्रत्यक्ष न भवति? तदप्ययुक्तम्। अभ्यासदशामापन्नस्यापि साक्षादनवबोधस्यापीन्द्रियद्वारेणावबोधप्रवृत्तेरवश्यमिन्द्रियसादगुण्यपिक्षणात् केवलमभ्यासप्रकर्षवशात्तदिन्द्रियसादगुण्य झटित्येवायधारयति, पूर्वावधृतं च झटित्येय निश्चिनोति। ततः कालसौक्षम्यात्तन्नोपलभ्यते, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, यतोऽवश्यमवायज्ञानमवग्रहेहापूर्वम्, ईहा च विचारणाऽऽत्मिका, विचारश्चेन्द्रियसाद्गुण्यसद्भूतवस्तुधर्माश्रितः, अन्यथैकतरविचाराभावेऽवयवज्ञानस्य सम्यगज्ञानत्वायोगात, नखल्विन्द्रिय-वस्तुनि वा सम्यग्विचारितोवा यज्ज्ञानं समीचीनं भवति, ततोऽभ्यासदशाऽऽपन्नेऽपीन्द्रियसाद्गुण्वावधारणमवसेयम् / यदपि चोक्तम् “न खलु देवदत्तो हस्तेन भुञ्जानोक हस्तव्यापारव्यवहितत्वात् न साक्षाद्भोक्तेति व्यपदेष्टुशक्यमिति।" तदप्ययुक्तम् / दृष्टान्तदाान्तिकार्थवैषम्याद्। भोक्ता हि भक्तिक्रियानुभवभगी भण्यते, भुजिक्रियाऽनुभवश्च देवदत्तस्य न हस्तेन विधीयते, किं तु सा - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्ख 75 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्ख क्षात्, हस्तो हि कवलप्रक्षेप एव व्याप्रियते, न परिच्छेद क्रियायाम, इन्द्रियमिवाऽऽहारक्रियानुभवेऽपि येन व्यवधानं भवेत्, ततो देवदत्तः साभाद्रोक्तंति व्यवह्रियते। इह तु वस्तूनामुपलब्धिरुक्तनीत्या चक्षुरादीन्द्रियसागुण्यावगमानुसारेणोपजायते / ततो व्यवधानान्न साक्षादुपलम्भक आत्मेति। नन्विदं सर्वमप्युत्सूत्रप्ररूपणं, सूत्रे ह्यनन्तरमेवेन्द्रियातं ज्ञानं प्रत्यक्षमुपदेष्यते। नं०। आ० म०। स्था० / विशे०। (3) तथाहि- इन्द्रियनोइन्द्रियप्रत्यक्षम्से किं तं पचक्खं ? पचक्खं दुविहं पण्णत्तं / तं जहाइंदियपचक्खं, नोइंदियपचक्खं च / से किं तं इंदियपचक्खं ? इंदियपञ्चक्खं पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा--सोइंदियपचक्खं, चक्खिदयपचक्खं, घाणिं दियपञ्चक्खं,जिभिदियपचक्खं, फासिंदियपचक्खं / से तं इंदियपचक्खं / से किं तं नोइंदियपच्चक्खं? नोइंदियपच्चक्खं तिविहं पण्णत्तं ! तं जहा-ओहिनाणपचक्खं, मणपज्जवनाणपच्चक्खं, केवलनाणपच्चक्खं। प्रत्यक्ष द्विविधं प्रज्ञप्तम्। तद्यथा- इन्द्रियप्रत्यक्षं, नोइन्द्रियप्रत्यक्षं च। (न.) इह च द्विविधमपि द्रव्यभावरूपमिन्द्रियं गृह्यते, एकतरस्याप्यभावे इन्द्रिमप्रत्यक्षत्वानुपपत्तैः / तत्रेन्द्रियस्य प्रत्यक्षमिन्द्रियप्रत्यक्षं, नोइन्द्रियप्रत्यक्ष यत् इन्द्रियप्रत्यक्ष न भवति। नोशब्दः सर्वनिषेधवाची। तेन मनसोऽपि कथञ्चिदिन्द्रियत्वाभ्युपगमात्तदाश्रितं ज्ञानं प्रत्यक्ष न भवतीति सिद्धम्। (से किं तमित्यादि) अथ किं तदिन्द्रियप्रत्यक्षम् ? इन्द्रियप्रत्यक्ष पञ्चविध प्रज्ञप्तम्। तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षमित्यादि। तत्र श्रोत्रेन्द्रियस्य प्रत्यक्ष श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, श्रोत्रेन्द्रियं निमित्तीकृत्य यदुत्पन्नं ज्ञानं लत् श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षनिति भावः। एवं शेषेष्वपि भावनीयम् / एतच्च व्यवहारत उच्यते, न परमार्थत इत्यनन्तरमेव प्रागृतम्। आह-स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियाणीतिक्रमः। अयमेव चसमीचीनः, पूर्वपूर्वलाभ एवोत्तरोतरलाभसंभवात्। ततः किमर्थमुत्क्रमोपन्यासः कृतः। उच्यते - "अस्ति पूर्वानुपूर्वी, अस्ति पश्चानुपूर्वी।'' इति न्यायप्रदर्शनार्थः। अपि चशेषेन्द्रियापेक्षया श्रोत्रेन्द्रियपटु। ततःश्रोनेन्द्रियस्य यत्प्रत्यक्षं तच्छेषेन्द्रियप्रत्यक्षपेक्षया स्पष्टम् / संवेदनस्पष्ट संवेदनं चोपवर्ण्यमानं विनेयः सुखेनाऽवबुध्यते, ततः सुख प्रतिपत्तये श्रोत्रेद्रियाऽऽदिक्रम उक्तः। (से किं तं नोइदियपचक्खं इत्यादि) अथ किं-तत् नोइन्द्रियप्रत्यक्षम् ? नोइन्द्रियप्रत्यक्ष त्रिविधं प्रज्ञप्तम् / तद्यथा-अवधिज्ञान-प्रत्यक्षमित्यादि। नं / सत्यमेतद् वैशेषिकाऽऽदिसम्मतम्, किं तु इदं लोकव्यवहारम-- पेक्ष्योक्तं, न परमार्थतः। तथाहि-यदिन्द्रियाश्रितमपरव्यवधानरहितं ज्ञानमुदयते, तलाके प्रत्यक्षमिति व्यवस्थितम्, अपरधूमाऽऽदिलिङ्गनिरपेक्षतया साक्षादिन्द्रियमधिकृत्य प्रवर्त्तनात् / यत्पुनरिन्द्रियव्यापारे - ऽप्यपर धूमाऽऽदिकमपेक्षयाऽग्न्यादिविषयं ज्ञानमुदयते, तलोके परोक्षम्। तत्र साक्षादिन्द्रियव्यापारासम्भवात् / यत्पुनरात्मन इन्द्रियमप्यनपेक्ष्य साक्षादुपजायते, तत्परमार्थतः प्रत्यक्ष, तचावध्यादिकं त्रिप्रकारं, ततः संव्यवहारमधिकृत्येन्द्रियाऽऽश्रितंज्ञानं प्रत्यक्षमुक्तं, न परमार्थतः। अथ कथमेतदवसीयतसंव्यवहारमधिकृत्येन्द्रियाऽऽश्रितंज्ञानं प्रत्यक्षमुक्तं, न परमार्थतः? उच्यते- तत्रैवोत्तरसूत्रार्थपर्यालोचनात् / तथाहिप्रत्यक्षभेदाभिधानान्तरं तत्र सूत्रम्-'परोक्खं दुविहं पन्नत्तं / तं जहा आभिनिबोहियनाणं सुयनाणं / " इत्यादि / तत्राऽऽभिनिबोधिकमवग्रहाऽऽदिरूपम्, अवग्रहाऽऽदयश्च श्रोत्रेन्द्रियाऽऽद्याश्रितास्तत्र वर्णिताः, तद्यदि श्रोत्राऽऽदीन्द्रियाऽऽश्रित ज्ञानं परमार्थतः प्रत्यक्षं, तत्कथम् ? अवग्रहाऽऽदयः परोक्षत्वेनाग्रेऽभिहिताः, तस्मादुत्तरतेन्द्रियऽऽश्रितज्ञानस्य परोक्षत्वेनाभिधानादवसीयते प्रागिन्द्रियाऽऽश्रितं ज्ञानं संव्यवहारतः प्रत्यक्षमुक्तं , न परमार्थतः / आह च भाष्यकृत्- "एगतेण परोक्ख, लिंगियमोहाइयं च पचक्खं / इंदियमणो भवं जं, तं संबहारपच्चक्खं / / 65 / / " इति। आ०म०१ अ० 1 खण्ड। विशे०। अनु० / बृ० / आ० चू० / नि० चू० / 'दुविहे पचक्खनाणे पण्णत्ते / तं जहाकेवलणाणे चेव, नोकेवलनाणे चेव।" स्था०१ ठा०। (4) बौद्धाऽऽदिभिः सह प्रत्यक्षविषयकः शास्त्रार्थः यदपि सन्निहि तमर्थमवतरत्यध्यक्ष, नामाऽऽदिकं च विशेषणमसन्निहितमिति, न तद्योजनामवतरीतु क्षममिति, तत्त्वेऽगि यदि सन्निहितमध्यक्षमवतरेत् पक्ष्ममूलपरिष्वक्तमञ्जनाऽऽदिकं सन्निहितं किं नावतरेत्, अथ यत् प्रतिभासयोग्य वस्तु तदेवावतरेत् / न च स्तम्भाऽऽदिकं व्यवहितमपि योग्यमित्येतदेव कुतः? स्तम्भाऽऽदेः प्रतिभासनात्तद्योग्यता व्यवस्थाप्यते, तर्हि तत्प्रतिभासनं कुतो व्यवस्थाप्यम् स्वयं वेदनादिति चेन्न तत्प्रतिभासः संवेद्यते। तत्तत्र योग्यमितरत्त्वयोग्यवस्था या तत्सन्निधानासन्निधाने क्वोपयोगिनी। एवं यद्यसन्निहितस्यापि नामाऽऽदिविशेषणं तस्यापि मती प्रतिभासः को विरोधः ? अध्यक्षत्वेन विरोधे वा चिरातीतभविष्यदर्थराशेरसन्निहितस्य बुद्धसंवेदनप्रतिभासनादध्यक्षताविरोधस्तस्यापि भवेत् / अथ विशदत्वात् तज्ज्ञानस्य नाध्यक्षताविरोधः, तद्विशेषणविशिष्टार्थावभासिन्यप्यक्षज्ञाने समानम्। एतेनोपधीनामुपाधिमतः पूर्वकालत्वे उपाधिमद्ग्राहिणा ज्ञानेनासन्निहितत्वेनाग्रहणात्वतद्विशेषणविशिष्टर्थग्राहिण्यध्यक्षमतिर्विशदा संभवतीति प्रत्युक्तम् / बुद्धज्ञानेऽप्यानेतव्या येन वैशद्याभावतोऽनध्यक्षताऽऽपत्तेः / न चासन्निहितस्यापि विशेषणस्याध्यक्ष प्रतिभासे कस्याप्यसन्निहितस्य प्रशक्तिः, यतो यस्यैवासन्निहितस्यापि प्रतिभासः संविद्यते तदेव तत्र प्रतिभातीत्यभ्युपगन्तव्यम् / अन्यथा अनन्तरातीतार्थक्षण-साध्यकप्रतिभासे विस्तरातीतस्याप्यतीतया प्रतिभा शक्तिरित्यनाद्यता तज्जन्मपरम्पराप्रतिभासस्य वा / तदसङ्गतम्। न ह्यकस्य व्यवहितस्य प्रति तादगध्यक्ष भवेत, यच वाचो ध्यापिताऽपदार्थात्मतया च नार्थदेशे सन्निधिरिति तद्दर्शनेन सा प्रतिभातीति तत्सिद्धमेव साधितम् / यच्च व्यवहितायास्तु वाक्प्रतिभासे निखिलातीतार्थपरम्परप्रतिभासिनामिति / तदसङ्गतम्। नाकस्य व्यवहितस्य प्रतिभासे अतीतक्षणवत्सकलस्य व्यवहितस्य चिरातीतक्षणस्येव प्रतिभासः संभवीत्युक्तत्वात् / यच समनन्तरप्रत्यया च बोधरूपत्वे च वगृपताऽपि वाचकस्मृतिसन्निहितोदया भविष्यतीति। तद्युक्तमेवा यच हेतुविषयभेदादेकस्मृतिप्रभवसंवेदनस्मरणयोर्भेदप्रसक्तिरिति तदसङ्गतमेव / चक्षूरूपालोके मनस्कारप्रभवस्य यथा रूपज्ञानस्य हेतुभेदेऽप्येकसामग्रीप्रभवत्वादभेदस्तथा विशिष्टशब्दस्मरणमनस्कारसचिवसामग्रीप्रभवस्य रूपमित्युल्लेखवतो विशदस्यैकतया प्रतीयमानस्य किमिति भेदो भवेत् ? यथा हि चक्षुषो रूपग्रहणं प्रति नियमो बोधाचिद्रूपता आलोकाद्विशदूतोत्पाद्यनेकधर्माऽऽक्रान्तस्य रूपज्ञानस्यकरूपतया प्रतिभाना Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्ख 76 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पञ्चक्ख देकतया तथा विशिष्टार्थस्मरणमनस्कारादूपमितिविशिष्टोल्लेखाऽऽक्रान्तस्यैकतया प्रतीयमानस्य बोधविशेषस्यैकरूपता युक्तिसङ्ग तैव / सामग्रथन्तर्गतकारणाभेदेऽपि सामग्रीलक्षणस्य कारणस्याभिन्नत्वात् / यदपि तटस्थवागूपताविशिष्टा वा अर्थमात्रा गृह्यते, वाररूपतनापन्ना वा ? तत्पक्षद्वयमप्यनभ्युपगमान्निरस्तम्, विशिष्ट - शब्दवाच्यतया तु विशिष्टक्षयोपशमसव्यपेक्षेन्द्रियजप्रतिपत्त्याऽर्थमात्रा गृह्यत एव, तद्बाच्यत्वं वाऽर्थमात्राणां कथञ्चिदनभिभूतो निजो धर्म इति प्रतिपादितं शब्दप्रामाण्यं व्यवस्थापयद्भिः केवलं तद्वाच्यताप्रतिपत्तिस्तासा मतिः श्रुतं वेत्यत्र विचारः। स च यथास्थानं निरूपयिष्यते। अक्षं प्रभवानुरूपमिदमिति प्रतिपत्तिरूपशब्दवाच्यताविशिष्टाऽर्थग्राहिण्येकास्वसंवेदनाऽध्यक्षतोऽनभतएव, अस्या अपलापे स्वसंवेदनामात्रस्याप्यपलापप्रसक्तेः शून्यतामात्रमेव स्यात्। न च शब्दगोचरोऽर्थ इन्द्रियविषयः, सामान्यविशेषाऽऽत्मनस्तस्याक्षप्रभवप्रतिपत्तो प्रतिभासनात् न च प्रतिभासमानस्याविषयत्वम्, अतिप्रसङ्गात् / तच न संविदितरप्रतीतोऽर्थः संविदन्तरप्रतीतस्य विशेषणम्। तदयुक्तमेव। विशिष्टशब्दवाच्यताविशेषणस्य रूपस्य रूपमिदमित्येकप्रतीतिविषयत्वाभ्युपगमात्। अत एव केयं तदनुरक्ततेति विकल्पनये यद्दोषाभिधान, तदनभ्युपगमादेव निरस्तम्। यदपि यदि नामः परिणद्धा यस्य सकलमार्थस्य संवित्तदाऽर्थसंवेदमेव न भवेदिति दोषाभिधानम्, तदप्यनभ्युपगमान्निरस्तम्। न हि शब्दानुविद्धार्थप्रतिपत्तिरेव सविकल्पिका, तथाऽभ्युपगमे सविकल्पप्रतिपत्तिरेव न भवेदित्युक्तं प्राक् / अग्रहीतसंकेतस्य पुंसोऽर्थप्रतिपत्तिर्विकल्पिका, तथा च विकल्पयतो गोप्रतिपत्तिः गोशब्दोल्लेखविकलेत्यत्रापि प्रति विहितमेव / व्युत्क्रामेयदपि वपता चेदित्यादिदोषाऽभिधानं, तच सिद्धसाध्यतया निरस्तम्।यच समानकालयोर्वा भावयोः विशेषणविशेष्यभावमिन्द्रियप्रतिपत्तिरधिगच्छति, भिन्नकालयोर्वेति पक्षद्वयेऽपि दोषभिधानम्। तदप्यसङ्गतम् / यत्र हि समानासमानकालविशेषणविशिष्टोऽथेः अबाधिताकाराक्षजप्रतिपत्तौ प्रतिभाति, सा तदग्राहिकाऽभ्युपगम्यते नान्येति कुतोऽतिप्रसङ्गदोषावकाशः,यथा च स्तम्भाऽऽकारोत्पन्नैकपरमाणुग्रहणप्रवृत्तं संवेदनं भिन्नदेशं परमाण्वन्तरमवभासयति, अन्यथा प्रतिभाऽतिविरतिप्रसङ्गात्। तथाहि-विशेषग्रहणप्रवृत्तं विशेष्यावभासि तदभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा विशेषणविशेषार्थावभासाभावो भवेदित्युक्तं प्राक् / न च विशेषणविशेष्यभावस्यानवस्थानाद् न समानकालयोरपि तयोः सद्भावप्रतिपत्तिः, अनेकधर्मकलाऽऽक्रान्तस्य वस्तुनो विशिष्टसामग्रीप्रभवप्रतिपत्त्या प्रतिनियतधर्मविशिष्टतया ग्रहणात् / न चाऽगिदग्दर्शने अशेषधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपप्रतिभासः कस्यचित् कथञ्चित् कयाचित्प्रतिपत्त्या, यथा क्षयोपशमग्रहणात्। न च तत्प्रतिपत्याऽगामाणस्थाऽऽत्यन्तिकस्ततो भेदः, असत्त्वं चाऽऽदेरपि नीलप्रतिपत्त्याऽप्रतीयमानस्य तथात्वप्रशक्तेरिव्युक्तत्वात्। यदपि पुरोवर्तिनिरूपे प्रवृत्तमक्ष यद्यतीले विशेषणाऽऽदौ प्रतिपत्तिमुपजनयति, अतिविरतिमुपगतासु यदा परम्परास्वपि प्रतिपत्तिमुपजनयेत / तदप्ययुक्ताभिधानम्। यतो यदेव ह्यक्षमतो परिस्फुट प्रतिभाति तवाक्ष प्रतिपत्तिमुपरचयतीति व्यवस्थाप्यते, अन्यथैफ कस्तम्भपरिणत्यापन्नैकपरमाणुग्रहणज्ञानजननप्रवृत्तमक्षं तदपरपरमाणुग्रहणज्ञानजननवत् सकलपदार्थग्राहिज्ञा- | नजननेऽपि प्रवर्तते, भेदाविशेषाद् भवद् भ्युपगमेनानन्तरातीतक्षणग्रहणज्ञानजननप्रवृत्तं वा सकलातीतक्षणग्रहणज्ञानजनने वा प्रवर्तते, अतीतत्वाविशेषात् / अथ यदेव तज्ज्ञाने प्रतिभाति, जनन एव तस्य व्यापारः परिकल्प्यते, तदितरत्रापि समानम् / न च विशेषणाऽऽदयस्तदाऽसन्निहिता एवैकान्ततो येन तान् प्रति प्रत्यक्षबुद्धिनिरालम्बने भवेत् / निरन्वयक्षणक्षयस्य निषिद्धत्वात् कथञ्चिदनुगतस्य च प्रसाधितत्वात् / यदपि सुखाऽऽदिव्यतिरिक्तस्याक्षप्रभवसंवेदनस्या विभासकत्वं प्रतिपादितं, तदपि सिद्धसाधनमेव / यच्च सुखाऽऽदिवद्विकल्पोऽपि नार्थसाक्षात्करणस्वभाव इत्यत्र यद्यविशेषेण विकल्पमात्रं विधीयते तदा सिद्धसाध्यता / अथ प्रकृतो विकल्पस्तदाऽसिद्ध, तमन्तरेणापरस्यार्थसाक्षात्कारिणोऽविकल्पस्याभावात् / यदपि यदि नाम पुरोवर्तिनमर्थ विकल्पमतिरुद्योतयति / तथा क्रिया समर्थरूपा अपरिच्छेदान्न तत्र प्रवृत्तिमारचयितुंक्षमेति। तदप्ययुक्तम्। अर्थक्रियासमथरूपस्य तस्या एव परिच्छेदकत्वेन प्रवर्तकत्वादन्यथाप्रवृत्तेरभावप्रसङ्गात्। तामन्तरेण कस्यचित् प्रत्ययस्य तद्रूपयोगादपि प्रतिपादनात्। अतएव यदि नयनप्रसरमनुसरन्ती प्रथमा मतिर्न तत्त्वं प्रत्येति, पश्चादपि नैव प्रत्येष्यति, स्मरणसहायस्याऽपि लोचनस्य विषयतयेकत्वेन प्रतिपत्त्यजनकत्वादित्यादि सर्व प्रतिक्षिप्तम्, स्थिरस्थूरावभास्यक्षप्रभवसंवेदनाध्यक्षतः प्रसिद्धः / तथाऽपिः तत्त्वस्याक्षप्रतिपत्तिविषयत्वे संवेदनस्य स्वसंवेदनाध्यक्षविषयताऽपि न भवेत्। अवाधितप्रतिपत्तिविषत्वाऽऽदिकं च सर्वमन्यत्रापि समानम्। अथ स्वसंवेदनं वेदनाभावेन दृष्टमिति तत्तद्विषयं, संवेदनं तु विषर्ययान्न तद्विषयम। ननु? क्षकिनिरंशकपरमाण्याकारसंवेदनाभावे तन्न दृष्टमुत तद्विपरीतसंवेदनाभाये। यद्याद्यः पक्षः-सनयुक्तः सर्वदातद्भाव एव तस्य दृष्टः। अथ द्वितीयस्तदा विषर्ययसिद्धि यथा स्थिरस्थूराऽऽकारसंवेदनाभावे अभवत् स्वसंवेदनं तद्विषय सिद्ध्यति / स्थिरस्थूरार्थाभावे संवेदनं किं न तद्विषयं सिद्ध्यति, येन लोचनाविषयत्वंतत्त्वस्य भवेद।यथा पूर्वदिग्देशादर्शनाद्नामग्रहणेऽपीदानीतनदर्शनन खग्राह्यस्य तद्विवेकः प्रतीयते, तथाऽनेन तस्य तत्संपृशता किमिति नावगम्यत इति न युक्तम्, पूर्वदर्शनाद्यप्रतीतौ तदृष्टताऽऽदिक तस्य न प्रत्येतुं शक्यमित्याद्यभिधानम् / यदि प्राप्याप्रतीतावपि दृश्यदशनन स्वग्राह्यस्य तदेकत्व प्रतीयते, अन्यथा तस्याविसंवादकत्वा योगात प्रमाण्यं न स्यात्, किमित्यर्थक्रियादर्शने तत्समर्थरूपा प्रतिपत्तिर्येन प्रकृतिविकल्पात्प्रवृत्तिर्न भवेत्। यदपि स्मर्यमाणस्यार्थस्य सत्तासिद्धेस्तवृत्तिस्मृत्यनन्तरभाविनोऽध्यक्षस्य सत्यतेत्यादीतरेतराश्रयत्वं प्रेरितं, तत् खसंवेदनेऽपि समानम् / तथा हिसंवेदस्य सत्यत्वे तत्स्वसंवेदनस्य सत्यवेदिता, तस्याश्च तत्सत्येति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? यथा च लिङ्गनिश्चयाद्विशदतनोरनुमितिरविशदावभासा पृथगवसीयते, न तथा प्रकृतविकल्पात् प्रथमविकल्पिका मतिः कदाचिदप्यनुभूयत इति / तत्सत्यमेवा निरंशक्षणिकैकपरमाण्ववभासस्यासत्त्वप्रतिपादनात। यदपि चचाऽपि लिङ्गतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनमित्यादि प्रत्यर्थिगिरयोपन्यस्त तत्सर्वमयुक्ततया स्थितम्। यदपि जात्यादेरभावात्तद्विशिष्टाऽर्थप्रतिपत्तिः सविकल्यिका संभवतीति। तदपि प्रतिक्षितत्वान्न पुनः प्रतिसमाधानमर्हति / यच फलयोम्यता परोक्षेति नाध्यक्षप्रतिपत्तिर्निश्चयात्मिका प्रवर्तत इति / तदपि प्रतिविहितमेव / यच दर्शनपरिणत्यनवगतफल Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्ख 77- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्ख संबन्धित्वमवगच्छन्ति कथं तद् भिन्नविषयेति। तत्सिद्धमेव साधितम्। ततिरेकेण दर्शनपरिणतेरविकल्पिकाया अभावात्। यदपि रूपदर्शनाल्लिङ्गात्परोक्षार्थक्रियायोग्यताऽध्य वसायानुमानमुदयमासादयति, तद् व्यवहितमुफ्जनयतीति। तदप्ययुक्तम्। फलजननयोग्यतायाः परोक्षत्वासिद्धेः प्रतिभासमानरूपस्य वा निश्चितस्य लिङ्गत्वायोगादनुमानात्तविश्येऽनवस्थाप्रतिपादनात् / अध्यक्षतस्तन्निश्चये च सिद्धं निर्णयाऽऽत्मकमध्यक्षम् / यदप्यनिश्चयाऽऽत्मकमध्यक्षमभ्यासदशायां प्रवृत्ति सुपरचयत् दृष्ट, तदप्यसंगतम्। शब्दोल्लेखशून्यस्यापिसावयवैकरूपार्थाधिगतिस्वभावस्य सविकल्पकतया व्यवस्थापनात, तमन्तरेणाभ्यासदशायामपि प्रवृत्तेः / यत्पुनः सर्वदाऽनुमानात् प्रवृत्त्यभ्युपगभे लिङ्गग्रहणाभावतोऽध्यक्षणानवस्थादूषणभभ्यधायि, तद्युक्तमेव / यदपि पौर्वापर्य अप्रवृत्तमध्यक्ष कथं तादृगलिङ्गग्रहणे क्षममिति पूर्वपक्षस्तु स्थाप्यलोकाभिमनादेवाध्यक्ष, लिङ्गग्राहिव्यहारिकृत् च। तत्त्वतस्तुस्वसंविनाभावान्न प्रत्यक्षानुमानभेद इत्युत्तराभिधानम् / तदप्यसंगतम्, प्रत्यक्षानुमानभेदस्यापारमार्थिकत्वे स्वसंवेदनमात्रस्याप्यपारमार्थिक त्वप्रशक्तेः सर्वशन्यत्ताऽऽपत्तिरित निर्विकल्पकत्वाऽऽदिव्यवहारो दूरापास्त एव स्यात् / न च शून्यता चाऽस्त्वित्यभिधानं युक्तिसंगतम्, प्रमाणमन्तरण तदभ्युपगमस्याप्यघटमानत्वात् इत्युक्तत्वानदेव सकलबाधकाः सविकल्पकाः, प्रमाणविषयत्वात्, सविकल्पकमध्यक्ष सिद्धमिति व्यवस्थितप्रमाणं स्वार्थनिण्णीत स्वभावं ज्ञानमिति / अत्र च स्वत्य ग्रहणयोग्योऽर्थः स्वार्थ इत्यस्यापि समारसरयाऽऽश्रयणा व्यवहारिजनापेक्षयाऽस्य यथा यत्र ज्ञानस्याविसंवादस्तस्य तथा तत्र प्रामाण्यमित्यभिहितं भवति। तेन संशयाऽऽदेरपि धर्मिमात्रापेक्षया न प्रामाण्यव्याहतिः / एतेन ''प्रत्यक्ष कल्पनाऽपोढमभ्रान्तम्।'' इति प्रत्यक्षलक्षणं सौगतपरिकल्पितमयुक्ततया व्यवस्थापितम्। (५)तत्राऽऽहुर्नयायिकाः- मा भूत् सौगतपरिकल्पितं निर्विकल्पकमध्यक्ष प्रमाणम्, 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायाऽऽत्मकं प्रत्यक्षम्।" इत्येतल्लक्षणलक्षितं तु पत्यक्ष प्रमाणम्। अस्यार्थः इन्द्रियं द्रव्यत्वकरणत्वनियताधिष्ठानत्वातीन्द्रियत्व सत्योक्षोपलब्धिजनकत्वात् चक्षुरादिमनः -पर्यन्तः,तस्यार्थः परिच्छेद्य इन्द्रियार्थः पृथिव्यादिगुणा रूपाऽऽदयस्तदर्थाः।" इति तदर्थलक्षणत्वात्।तदर्थ इति लक्षणनिर्देशः, तदर्थत्वं लक्षणं, तदर्थत्वं पञ्चेन्द्रियार्थत्द, न तु तदर्था इत्येतावदेवास्तु तदर्थलक्षणम् / पृथिव्यादिगुणग्रहण तुनकर्तव्यं, ननुतदर्थत्वेन लक्षणेन संगृहीतास्तेषां विभागार्थ पृथिव्यादिगुणग्रहण-तथा चोद्योतकरः- पृथिव्यादिग्रहणेन त्रिविध द्रव्यमुपलब्धिलक्षणशासं गृह्यते। गुणग्रहणेन सर्वो गुणोऽस्मदाद्युपलब्धिलक्षणप्राप्त आश्रितत्यतिशेषणत्वाभ्यामेवं पृथिव्यादिगुणग्रहणं लक्षणविभागसूत्रोपलक्षणार्थम्। नन्वेवमपि रुपाऽऽदिग्रहणं व्यर्थ, गुणग्रहणेन संगृहीतत्वान्न विशेषलक्षणप्रतिपादनार्थत्वात्। तथा च प्रतिपादितम्-पृथिव्यादिगुणस्य सतश्चक्षुाह्यत्वमेव यस्य तद्रूपं चक्षुहां, यत्तद्रूपमित्यभिधीयमाने घटाऽऽदावतिप्रसक्तिन्तन्निवृत्यर्थमवधारणम्।तथाऽपि रूपत्वेऽतिप्रसङ् गः, निवृत्त्यर्थ पृथिव्या दिगुणग्रहणम्। एवं रसाऽऽदिष्वप्येकाऽऽदिव्यवहारहेतुः संख्येत्यादि विशेषलक्षणं वैशेषिकमतप्रसिद्ध सवंत्र दृष्टम्। नन्वेव रूपाऽऽदीनामपि विशेषणलक्षणं न वाच्यम् , तत्रैव प्रसिद्धत्वाभावप्रतिपत्तिज्ञापनार्थत्वात् / रूपाऽऽदयो हि बहुभिर्विषयत्वेन संप्रतिपन्ना इति पञ्चानामपि लक्षणाऽऽद्यभिधानम् / पुरुषस्य चैतेऽतिशयेन शक्तिहेतवः / एतावत्त्वत्रोपयुज्यतेइन्द्रियविषयभूतोऽर्थशब्देनाभिप्रेतः, नार्थमात्र, तेन सन्निकर्पप्रत्यासत्तेरिन्द्रियस्य प्राप्तिः, तस्य च व्यवहितार्थानुपलब्धया सद्भावः सूत्रकृता प्रतिपादितः, तत्सद्भावे सिद्धे पारिशेष्यात् तत्संयोगाsऽदिकल्पना, परिशेषश्चेन्द्रियेण सार्द्धद्रव्यस्य संयोग एव, अयुतसिद्धत्वात्। गुणाऽऽदीनां द्रव्यसमवेतानां संयुक्तसंमवायोद्रव्यत्वेसति अत्र समवायत्, तत्समवेतेषु संयुक्तसमवेतसमवाय एतान्यस्यासंभवाप्राप्तेश्च प्रस्राधितत्वात् शब्दे समवाय एवाऽऽकाशस्य श्रोत्रत्वेन व्यवस्थापितत्वात, शब्दस्य च गुणाभावात्, गुणत्वेनाथाऽऽकाशलिङ्गत्वादाकाशसमवायित्वं निश्चितमिति समवाय इत्युक्तं शब्दत्वे समवेतसमवाय एव परिशेषात् लक्षणस्य च तैर्विघातः कथमेतल्लक्षणं व्यवच्छिनत्तीत्यन्यव्यवच्छेदार्थमिन्द्रियार्थसन्निकर्षः कारणमित्यभिधीयते। कारणत्वेऽप्यसंभविदोषाऽऽकारपरिजिहीर्षयाऽत्याननुयायिकारणवचनं, न त्वन्याननुयायिकारणनिवृत्तिरेवभूतस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षस्यैव कारणत्वाभिधानं, नत्वन्तःकरणेन्द्रियसंवन्धस्य तस्य व्यापकत्वात्। अव्यापकत्वं तु सुखाऽऽदिज्ञानोत्पत्तावसंभवात्। अथ संनिकर्षग्रहणमेवास्तुसंग्रहणं व्यर्थ न संशयाऽऽदिज्ञाननिवृत्त्यर्थत्वात् संशब्दोपादानस्य / तथाहि-सम्यग निकर्षः संनिकर्षः / सम्यक्त्वं तु तस्य यथोक्त विशेषणविशिष्टफलजनकत्वेन नैतदतिचाराऽऽदिपदोपादानवैयर्थ्यप्रसक्तेः, तदर्थस्य संशब्दोपादानादेव लब्धत्वात् नाव्यभिचाराऽऽदिविशेषणोपादानमन्तरेण तत्सम्यक्त्वस्य ज्ञातुमशक्तेः, तदर्थस्य संशीतिकरणस्यातीन्द्रियस्य सम्यक्त्वं वा सम्यग कार्यद्वारेणैव निश्चीयत इति तत्फ लविशेषणार्थमव्यभिचाराऽऽदिपदोपादानं कारणं साधुत्वावगमनव्यापारः / नन्वेमपि संशब्दोपादानानर्थक्यम्, अव्यभिचाराऽऽदिपदोपादानात्। अथ तत्फलस्य विशेषितत्वान्न संग्रहणस्य सन्निकर्षषट्कप्रतिपादनार्थत्वादेतदेव सन्निकर्षषट्क ज्ञानोत्पादे समर्थकारणं, न संयुक्तसंयोगाऽऽदिकमिति संग्रहणाल्लभ्यते। नन्वेवमपीन्द्रियग्रहणानर्थक्यं नानुमानव्यच्छेदार्यत्वात् / तथा हिअर्थसन्निकर्षादुत्पन्नमित्यभिधीयमाने अनुमानेऽतिप्रसङ्ग इतीन्द्रियग्रहणम् / इन्द्रियविषयेऽर्थे संनिकर्षाऽऽद्यदुत्पद्यते ज्ञान तत्प्रत्यक्षमनुमानाऽऽदिभ्यो व्यवच्छेदेनेति / न चानुमानिकमिन्द्रियसंबन्धादिन्द्रियविषये समुत्पद्यत इति / तथाऽप्यर्थग्रहणमनर्थकमिति चेत्। न। स्मृतिफलसन्निकर्षनिवृत्त्यर्थत्वाद्। न ह्यात्मनः करणसंबन्धात् स्मृतिरुपजायत इति जनकस्यापि प्रत्यक्षत्वं स्यादसत्यर्थग्रहणे, तचेन्द्रियार्थग्रहणमनर्थसन्निकर्षजा स्मृतिः, अतीतेऽपि स्मर्यमाणत्वात्तस्य च तदा सत्त्वादुत्पत्तिग्रहणं कारकत्यज्ञापनार्थम, ज्ञानग्रहणं सुखाऽऽदिनिवृत्त्यर्थम् / नचतुल्य कारणजन्यत्वात् ज्ञानसुखा दीनामेकत्वमिति, तन्निवृत्त्यर्थ ज्ञानग्रहणं न कार्यम्। तुल्यकारणजन पस्या सिद्धत्वात् / वक्ष्यति च चतुर्थेऽध्याये-"एकयोनयश्च पाकजाः " च तेषामेकत्वमिति व्यभिचारः, प्रत्यक्षविरोधश्च सुप्रसिद्ध एव / तथा- आल्हादाऽऽदिस्वभावाः सुखाऽऽदयोऽनुभूयन्ते, ग्राह्यतया च, ज्ञानं वावगमस्वभावं ग्राहकतयाऽनुभूयत इति ज्ञानसुखाद्योर्भेदोऽध्यक्षरिद एव, विशिष्टादृष्टकारणजन्यत्वात् सुखाऽऽदेः / सुखाऽदिजोला' याच न भिन्नहेतुजत्वमसिद्ध, ज्ञानसुखाऽऽद्योरतो बोधजनकर ज्ञापना ज्ञानग्रहणम्, अव्यपदेशग्रहणमप्यतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थम्, व्यपदेशः शब्दस्तेनोन्द्रियार्थसन्निकर्षेण चोत्पादितमध्यक्ष शब्देऽनन्तर्भावात् स्यात् तन्नि Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्ख 75 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्ख - - वृत्त्यर्थमव्यपदेश्यपदोपादनम्, नन्विन्द्रियविषयशब्दस्य सामान्यविषयत्वेन व्यपारासंभवादिन्द्रियस्य च स्वलक्षणविषयत्वान्नोभयारेकविषयत्वमिति, न तज्जन्यमेक ज्ञानं संभवति / न च तयोभिन्नविषत्वस्य 'व्यवल्याकृतिजातयरतुः।' पदार्थ इत्यत्र निषेत्स्यमानत्वात्तद्धावभावित्वाचोभयजनत्वं ज्ञानरयावगतमेव। तथाहि-चक्षुर्गोशब्दव्यापारे सत्यय गौरितिविशिष्टकाले ज्ञानमुपजायमानमुपलभ्य एव, तद्भावभावित्वेन चाऽन्यत्रापि कार्यकारणभावो व्यवस्थाप्यते, तचात्रापि तुल्यमिति कथं नोभयज ज्ञानम्।नचान्तःकरणानधिष्ठितत्वदोषः, चक्षुषस्तेनाधिष्ठानात् शब्दस्य च प्रदीपवत्कारणत्वात् न च ग्राह्यत्वकाले शब्दस्य करणत्वमयुक्तम्, श्रोत्रस्यैव तदा करणभावात्, शब्दस्य तु तदा ग्राह्यत्वमेव, गृहीतस्य चोत्तरकालमन्तः-करणाधिष्ठितचक्षुः सहायस्यार्थप्रतिपत्ती व्यापार इति भवत्यु भयजं गौरिति ज्ञानम् / न चास्य प्रमाणान्तरत्वं युक्तम, उभयविलक्षणात् शाब्दे अव्यपदेश्यविशेषणस्याभावात्प्रत्यक्षेच सादृश्यशब्दत्वात् / न च शब्देनैव यजन्यते न शब्दमिति शाब्दलक्षणे नियमोऽपि शब्देन यजनित शब्दमस्ति च प्रकारान्तरे एतद्रूपमिति कथं न शाब्दम् / न चैतदत्रास्ति न चाप्रमाणव्यभिचारित्वाऽऽदिविशेषणायोगात्। न चानुमानक्षधर्मत्वाऽऽधभावात्प्रत्यक्षमप्येतन्न भवति, शब्देनाऽपि जन्यत्वान्नाप्युपमानं, तल्लक्षणविरहात् / पारिशेष्यात् शाब्दम्। ननु शाब्दमपि न युक्तम् / इन्द्रियेणापि जनितत्वात्, न शब्दस्यात्र प्राधान्यात्। प्राधान्यं च तस्य प्रभूतविषयापेक्षया यतोऽसौ न क्वचिद व्याहन्यते। तथाच प्रत्यापदि भाष्यकृतायात्रदा वैनामधेयशब्दा इति / नन्वेवमिन्द्रियं, तस्य स्वर्गाऽऽदै प्रतिहन्यमानत्वात्तस्मात्प्राधान्यात् शब्देनैव व्यपदेशः, व्यपदेशकर्मताऽऽपन्नज्ञाननिवृत्त्यर्थमव्यपदेश्यमिति विशेषणमिति केचित् प्रतिपन्नाः, ताथाहीन्द्रियार्थसन्निकर्षादुपजातस्य ज्ञानस्य शब्देनानभिधीयमानस्य प्रत्यक्षत्वमयुक्तम्, एतत्प्रदीपेन्द्रियसुवण्णाऽऽदीनामभिधीयमानत्वेऽपि प्रत्यक्षत्वानिवृत्तेः / नच ज्ञानस्यभिधीयमानत्वे करणत्वय्याहतिः / शक्तिनिमित्तत्वात्कारकशब्दस्य / न ह्यभिधीयमानार्थोऽन्यत्र लदैव परिच्छित्ति न विदधाति न चायं न्यायो नैयायिकै भ्युपगतः, प्रमेया च तुला प्रामाण्यवदित्यत्र प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्, फलविशेषगणपक्षेऽप्यभिधीयमानस्य स्वकारणव्यवच्छेदकत्वमस्त्येव शब्दवानिवृत्त्यर्थमेतदित्येतदप्ययुक्तम् / अप्रकृतत्वात् / शब्दप्रमेयत्वेऽपीनिद्रयार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वं ज्ञानस्य संभवति किमनेन विशेषणेन कृत्यम् / तथाहि इन्द्रियविषयभूतेन रूपेण शब्देन वा जातं ज्ञानमिति सर्वथा लक्षणं युक्तिमदेव विशेषणं वाऽतिव्याप्त्यादिदोषनिवृत्त्या लक्षण उपादेयम्, न परपक्षव्युदसार्थम्, इन्द्रियार्थसन्निकर्षादुपजातं शब्देन वा जनितं व्यभिचारि ज्ञानं न प्रत्यक्षव्यवच्छेदकमित्यव्यभिचारिपदोपादानम्, इन्द्रियजत्वं च मरीचिषूदकज्ञानस्य तदभावभावित्वेनावसीयते, मरीच्यालम्बनत्वमपि तत एवावसीयते, मरीचिदेश प्रति प्रवृत्तेश्व, पूर्वानुभूतोदकविषयत्वे तुतहे- व प्रवृत्तिर्भवेत्, न मरीचिदेशे, भ्रान्तत्वान्न तद्देशे प्रवर्तत इति चेद्य एवाभ्रान्तः स उदकस्मरणादुदकदेश एव प्रवर्त्तते, अयं तु भान्त इत्ययुक्तमेतत्, भ्रान्तिनिभित्ताभावदिन्द्रियव्यापार एव तन्निमित्त एव इति युक्तमेतत, तत एवेन्द्रियजत्वसिद्धः / न च स्मृति बाह्यन्द्रियजा दृष्टा, इदं तु बाह्यन्द्रियजमिति न स्मृतिः / ननु कथमुदकज्ञानस्याऽऽलम्बनं मरीचयोऽप्रति भासमाना उक्तमेतत्तेषु सत्सु भावादस्य। ननु यद्येतदनुदके उदकप्रतिभासनं भवत्यन्यत्र किमिति न भवेत्, न भवत्यन्यस्योदकेन सारूप्याभावात्, तस्मादुदकसरूपामरीचय एव देशकालाऽऽदिसव्यपेक्षउदकज्ञानं जनयन्ति / तथाहि-सामान्योपक्रम विशेषपर्यवसानमिदमुदकमित्येकं ज्ञानं तस्य सामात्यवावर्थः स्मृत्युपस्थापितविशेषापेक्षो जनकस्तिरस्कृतस्याऽऽकारस्यागृहीताऽऽकारान्तरस्य सामान्यविशिटस्य वस्तुनो विषर्ययजनकत्वे तथाविधस्येन्द्रियेण संबन्धोपपत्तेःकथं नेन्द्रियार्थसन्निकर्षजो विपर्ययः / नन्वस्य शब्दसहायेन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वेन नाव्यभिचारिपदव्यवच्छेद्यत्वम्, अव्यपदेश्यपदेनैव निरस्तत्वान्न प्रथमाक्षसन्निपातजस्य शब्दस्मरणनिमित्तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षप्रभवस्या-शब्दजन्यस्याह्यभिचारिपदापोह्यत्वाभ्युपगमात् अभ्युपगमनीयं चैतत्, अन्वथोदकशब्दस्मृतेरयोगात्। यत्सन्निधाने यो दृष्टस्तध्वनौ स्मृतिरिति न्यायात् / न च तरङ्गायमाणवस्तुसन्निधाने उदकशब्दस्य दृष्टिः, किंतूदकसन्निधौत एवातो मरुजङ्गलाऽऽदौ देशे क्वचिद् दूरस्थस्य निदाघसमये तरङ्गायमाणवस्तुनः सामान्यविशिष्टस्य दर्शनान्तरं तत्सहचरितोदकत्वानुस्मरणं, तस्मात्सामान्यवत्त्वाध्यारोपितोदकग्रहणम्, तत उदकशब्दानुस्मृतिस्ततोऽप्यनुस्मृतोऽप्युदकसहायादिन्द्रियार्थसन्निकर्षादुदकमिति ज्ञानमतो न पूर्वमुदकस्मृतेनिमित्तं तदिन्द्रियार्थसन्निकर्षत्वेनाव्यभिचारि यदापोह्यमिति केचित् संप्रतिपन्नाः / अपरे तु स्मर्यमाणशब्दसहायेन्द्रियार्थसन्निकर्षजमध्यव्यभिचारि-पदा पोह्यमेव मरीचिषूदकमितिशब्दोल्लेखवत् ज्ञानं मन्यन्ते, अव्यपदेश्यपदव्यवच्छेद्यं तु यत्र प्रथमत एवेन्द्रियसन्नि कृष्टार्थसंकेतानभिज्ञस्य श्रूयमाणात् शब्दात्पनसोऽयमिति ज्ञानमुत्पद्यते तत्र शब्दस्यैव तदवगतौ प्राधान्यात्, इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य तु विद्यमानस्याऽपि तदवगतावप्राधान्यात् तदेव व्यपदेश्यपदव्यवच्छेद्यं, न पुनरवगतसमयस्मर्यभाणशब्दसचिवेन्द्रियार्थसन्निकर्षप्रभवः, तत्र तत्सन्निकर्षस्यैव प्राधान्यावाचकस्य च तद्विपर्ययात् / ननु सामा यां कस्य व्यभिचार:- कर्तुमकरणस्य, कर्मणो वा ? तत्र स्वकारसंवरणेनाकारान्तरेण ज्ञानजननात् कर्मणो व्यभिचारः, कर्तृकरणयोस्तु तथाविधकर्मसहकारित्वादसाविति मन्यन्ते, भवत्वयं व्यभिचारो, न त्वेतन्निवृत्त्यर्थ मव्यभिचारपदोपादानमर्थवानिन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वादे तन्निवृत्तिसिद्धः, न हि ज्ञानरूपत्वेनेन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वे तत्र सिद्धे तस्माद्यदेतस्मिस्तदित्युत्पद्यते तद्व्यभिचारि ज्ञानं, तद्व्यवच्छेदेन तस्मिस्तदिति ज्ञानमयभिचारिपदसंग्राह्यम्। नन्वेवमपि ज्ञानपदमनर्थकमव्यभिवारिपदादेव ज्ञानसिद्धेः, व्यभिचारित्वं हि ज्ञानस्यैव तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारित्वमपि तस्यैवेति ज्ञानपदमनर्थकम्, इन्द्रियार्थसन्निकर्षो त्पन्नस्याज्ञान रूपस्यापि सुखस्य व्यभिचारातन्निवृत्त्यर्थ ज्ञानपदमर्थवत्, किं पुनः सुखं व्यभिचारि यत्परयोषिति। ननु कस्तस्य व्यभिचारो ज्ञानस्य क इति वाच्यम्। तस्मिस्तदिति भावात. ज्ञानत्वेऽपि तद्व्यभिचार्यसुखसाधनेपराङ्गनाऽऽदौ सुखस्य भावात् समानव्यभिचारित्वमिति सुखनिवृत्त्यर्थ ज्ञानपदमर्थवदेतच केचिद् दूषयन्ति / न हितापाऽऽदिस्वभावत्वं पराङ्गनायां सुखमुत्पद्यते, अपि त्वाहादस्वरूप, यथा स्वललनायां सुखसाधनत्वादेव वा शक्तिहेतुत्वादधर्मोत्पादकत्वेन तस्याभाविनिकाले दुःखसाधनत्वम्। न च यस्यैकदा दुःखजनकत्वन सर्वदा तद्रूयत्वमेव / अन्यथा पावकस्य निदाघसमये दुःखजनकत्वात् शिशिरेऽपि तजनकत्वमेव स्यात्। एवं देशाऽऽद्य Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्ख 76 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्ख पेक्ष्याऽपि न लेयतरूपता भावानाम् / उक्तं च भाष्यकृता-- "सोऽयं प्रमाणार्थोऽपरिसंख्येय इति / " ततो व्यभिचाराभावान्न सुखानवृत्त्या ज्ञानपदोपादानमथवत् / न चैवमनर्थक्व मेवैतत्, धर्मप्रतिपादनार्थत्वादस्य / ज्ञानपदोपा हि धर्मी इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वाऽऽदिभिविशिष्यते, अन्यथा धर्मभावे काव्यभिचाराऽऽदीन धमः तत्पदानि प्रतिपाटयेयुः। नच विशेषणसामर्थ्यात धर्मिणः प्रतिलम्भ इति वक्तव्यम तथाऽभ्युपगमे प्रत्यक्ष प्रत्यक्षमित्येव वक्तव्यं, शिष्यस्य सामर्थ्यलभ्यस्वात् यथोक्तविशेषणविशिष्ट संशयज्ञानं भवति, व्यभिचारिप्रतियोगि अव्यभिचारिकत्वा तत्रैतत्प्रत्यक्षव्यच्छेदकम्।नचास्येन्द्रियार्थसन्निभर्यजत्व नास्ति तद्भावितया तज्जन्यत्वस्य तत्र सिद्धे: / अतस्तावच्छेदाथ व्यवसायाऽऽत्मकपदोपादानम् -व्यवसीयतेऽनेनेतिव्यवसाया विशेष उच्यते / विशेषजनितं च व्यवसायाऽऽत्मकम्, संशयज्ञान तु सामान्यजनितत्वात् नैवम् / अथवानिश्चयाऽऽत्मकं व्यवसायाऽऽत्मक ज्ञानं त्वनिश्चयाऽऽत्मकम्, अत एव विपर्ययाभिन्नं, व्यवस्यतीति व्यवसायः, अन्यपदार्थव्यवच्छेदेनेक पदार्थाऽऽलम्बतत्वमस्य, तद्विपरीतस्तुसंशयः। ननु च विकल्परूपत्वात् तद्व्यवसायाऽऽत्मकस्येन्द्रियार्थजत्वं कथनस्य प्रत्यक्षफलता न व्यवसायाऽत्मकस्याप्यध्यक्षताऽनुसारेण व्यवस्थापतीया, तेनानैकान्ताऽऽत्मकस्यावस्तुनोऽभीकृतत्वाद, भवतस्त्वेकान्तवादिनस्तयुक्तितः तव्यवस्थापनासंभवात्, कुतः पुनर्विकल्पस्यानर्थजत्व, शब्दार्थप्रतिभासखभावत्वात्। न हि विकल्पोऽर्थसामयपिक्षः समुपजायते, निर्विकल्पक त्वर्थसन्निधानापेक्ष, तत्सामर्थ्य सद्भूतत्वात्प्रत्यक्ष प्रमाणम् / तदुक्तम्-यो ज्ञानप्रतिभासमन्वयव्यांतरेकावनुकारयतात्यादि / अथ शब्दार्थप्रतिनासित्वेऽपि किमिति विकल्पानां नार्धजत्व, रूपोऽऽदेरर्थस्य स्वलक्षणत्वेन ध्यातृत्तपत्वात् शब्दार्थानुपपत्तेविंकल्पप्रतिभासस्याऽऽकारस्यानु (2) तह्यतिरिक्तस्यार्थत्वानुपपत्तेः / सदसद्रूपस्य नित्यत्वानित्यत्वाभ्यां तस्य जनकत्वनिषेधात्, अननुगतस्य चार्थत्वात् स्वलक्षणस्य घसर्वतो व्यावृत्ततयाऽनुगतत्वासंभवादनथजाविकल्पा इतोऽप्यक्षार्थज्ञा न भवन्ति अक्षार्थसन्निपातवेलायां प्रथमत एव तेषामनुभूतेः / यदि हि तदुद्भवास्ते स्युः, स्मृति मन्तरेणानुभवत उत्पद्येरन् / नचार्थोपयोगेऽपि तामन्तरेण उत्पद्यन्ते। तदुक्तम्-"अर्थोपयोगेऽपि पुनः, स्मार्त शब्दानुयोजनम्।अक्षधीर्यद्यपेक्षेत, सोऽर्थो व्यवहितो भवेत्॥१॥'' यो हि यजनः स तदापात एवेत्यविकल्पवत्, न भवति च तदापातसमये विकल्प इति नार्थजन्मत्वं तेषां, समृतिव्यवहितत्त्वात्। नच अर्थस्य स्मृत्याऽव्यवधानं, तस्यास्तत्सहकारित्वादिति वाच्यम्, यतो यदर्थस्य ज्ञानजनकत्व तदा तजनने किमित्यसौ रमृत्यपेक्षः न च तया विज्ञानस्योत्पत्तिः, तन्नार्थस्तजनकः स पश्चादपि तेन स्यादर्थापायोपनेत्रधीः / अपि चजात्यादिविशेषणविशिष्टार्थवाहिविकल्पज्ञानं न च जात्यादीनां सद्भावः, तत्त्वेऽपि तादेशिष्टग्रहण, बहुप्रयाससाध्यमध्यक्षं न भवति। उक्तं च - 'विशेषणविशेष्य च, संबन्ध लौकिका स्थितिम्। गृहीत्वा संकलय्यैतत्, तथा प्रत्येति नान्यथा / / 1 / / संकेतस्मरणोपायं दृष्टसंकल्पनाऽऽत्मकम्। पूर्वापरपरामर्श-शून्ये तचाक्षुषे कथम् ? // 2 // " इति। अतोऽर्थसन्निधानाभावेऽपि भावान्नार्थप्रभवा विकल्पाः। अथ मा भूवन राज्याऽऽदिविकल्पा अर्थप्रभवाः इदन्ताविकल्पा स्त्वर्थमन्तरेणानुद्भवन्तः कथ नार्थप्रभवाः ? तदुक्तम्- "नान्यथेदन्तयेति चेत्।" न / इदन्ताविकल्पानामपि वस्तुप्रतिभासत्त्वासंभवात्। न हि शब्दससर्गयोग्यार्थप्रतिभासतो विकल्पा वस्तुनिश्चायकाः / अन्यथा शब्दप्रत्ययस्याध्यक्षप्रतीतितुल्यता भवेत। उक्त च - "शब्देनाव्यवृत्ताक्षस्य, बुद्धावप्रतिभासता। अर्थस्य दृष्टाविव तदनिर्देशस्य वेदकम् // 1 // " इति। तन्नाथांक्षप्रभवत्वं व्यवसायस्येति प्रत्यक्षत्वमयुक्तम। अत्र नैयायिकोऽभिदधतिकिमिदं विकल्पकत्व परस्याभिप्रेतम्-किं शब्द संसर्गयोग्यवस्तुप्रतिभासित्वम् / आहोस्विदनिन्धमानार्थग्राहित्वं, किं विशेषणविशिष्टार्थावभासित्वम्। उताऽऽकारान्तरानुषक्तवद्भासकत्वम्?, तत्रयद्याद्यः पक्षस्तदा वक्तव्यम्-किमिद शब्दससर्गयोग्यार्थप्रतिभासित्वं विकल्पित्वं पारिभाषिकमुत वास्तवम? यदि पारिभाषिकं तदा न युक्तम्, परिभाषाया अन्यानवतारात् अथ वास्तवं, तदपि प्रमाणाभावात् भवतु वा तस्य तद्रूपत्वं, तथापि कथमनध्यक्षत्वम् ? अथार्थसामोदभूतत्वात् तस्येत्युक्तं विकल्पानां च तदसंभवान्नाध्यक्षता। ननु नीलाऽऽदिज्ञानवत् शब्दार्थप्रतिभासित्वेऽपि कथं नार्थप्रभवक्त्वं, तेषां स्वलक्षणाभिरतिरिक्तशब्दार्थस्याभावांन्न तत्प्रभवत्वं तेषामिति चेत्, नन्वेवमसदर्थग्राहित्वं कल्पनाप्रसक्तम्, तच सामान्याऽऽदेस्सत्त्वप्रतिपादनानिरस्तजातिविशिष्टक्षयार्थस्य शब्दार्थत्वेन प्रतिपादनात्। तदवभासिनो ज्ञानस्य कथमसदर्थविषयत्वेन कलपनात्वं भवेत् / न चार्थाभावेऽपि विकल्पानामुत्पत्तेः नार्थजत्वम्, अविकल्पस्याप्यर्थाभावेऽपि भावादनर्थजत्वप्रसक्तः। अथ तदध्यक्ष प्रमाणमेव नाभ्युपगम्यते, तर्हि विकल्पानामप्यय न्यायः समानः,तेऽस्तिदर्थाऽध्यक्षप्रमाणतयाऽभ्युपगम्यन्ते। असदर्थत्वं च विकल्पाविकल्पयोर्बाधकप्रमाणावसेयं, तच्च यत्रनप्रवर्त्तते तस्मात् कथमस दर्थता / एतेन द्वितीयो विकल्पः प्रतिविहितः / अथ विशेषणविशिष्टार्थग्राहित्वं कल्पनात्वं, तदा किं तथा भूतार्थाभावात्तद् ग्राहिणो ज्ञानस्य विकल्पकत्वम्, आहोस्विद्विशेषणविशिष्टर्थग्राहित्वेनैवेति वक्तव्यः / आद्यविकल्पे सिद्धसाध्यता असदर्थग्राहिणः प्रत्यक्षप्रमाणत्वेनाभ्युपगमात्। न च द्वितीयपक्षादस्यपक्षान्तरत्वं द्वितीयपक्षस्थच प्रतिविधानं विहितमेव। अथ द्वितीयः पक्षोऽभ्युपगम्यते, सोऽपि न युक्तः, नीलाऽऽदिज्ञानस्यापि अप्रत्यक्षत्वप्रसक्तेः / अथास्य न विशेषणविशिष्टार्थग्राहिता, ननु विशेषणविशिष्टार्थग्राहकत्वेनाध्यक्षत्वस्य को विरोधः?, येन तदूग्राहिणोऽध्यवसायस्यानध्यक्षता? अथ विशेषणविशिष्टार्थग्राहित्वे विचारकत्वमध्यक्षविरूद्धम, अर्थसामोद्भूतस्य विचारकत्वायोगात् / असदेतत् / विशेषणाविशिष्टाविभासिनस्तस्याविकलापवत विचारकत्वायोगातारणाऽऽद्यनुसंवन्धात् समर्थस्य प्रभातुरविचारकत्वात्, कथं विशेषर गादिसामग्रीप्रभवस्य तस्याप्रत्यक्षताविशिष्टसामग्रीप्रभवस्यास्याप्रत्यक्षत्वे चक्षुरूपाऽऽलोकमनस्कारसापेक्षस्याविकल्पस्याप्रत्यक्षता प्रसमिः। न च विशेषणाऽऽदिसामायनपेक्षत्वादस्य प्रत्यक्षता, प्रतिनियतरच सामा यपेक्षस्य विशेषणविशिष्टावभासिनोऽपि प्रत्यक्षताविरोधात। अन्यथारूपज्ञानस्याऽऽलोकाऽऽद्यपेक्षस्याध्यक्षत्वे रसज्ञानं सामग्रर र सापेक्षमनध्यक्ष स्यात, विभिन्नम्बभावसामग्रीसा पेक्षत्वात् / न / विशेषणविशिष्टार्थग्रहणे विशेषणविशेषसंबन्धलौकिकस्थितीनां परामर्शदाम यतः- विशेषणविशेष्यतत्संबन्धानां न स्वतन्त्राणां विशिष्टार्थग्रहणात् प्रागवभासः, अपितु Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्ख 80- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्ख चक्षुरादिव्यापारे स्वतन्त्रनीलग्रहणवत् विशेषणविशिष्टार्थग्रहण सकृदेव, केवल तत्र त्रयमिति प्रतिभासो विशिष्टार्थग्रहणस्याऽन्यथाऽसंभवात् कथ्यते। नच यथाऽवस्थितवस्तुग्रहणं कल्पनाऽतीताऽऽदिग्रहणवत्। न च जात्यादित्रयस्याभिन्नभेदोऽध्यवसायः, दण्डशब्दयोर्भिन्नयोरभेदाध्यवसायो वा, कल्पनाद्वयस्याप्य संभवात्।तथाहिन जात्यादिवयस्य वस्तुनोऽव्यतिरेकादसत्त्वाद्वा भेदाभेदाध्यवसायो, द्वयोरप्यनुपपत्तेः / न हि जातेरभेदेऽसत्त्वे वा तद्व्यवच्छिन्ने वस्तुग्रहणसंभवः, असतो भिन्नस्य वाऽच्छेदकत्वानुपपत्तेः। न च तत्प्रतिभासेऽपि प्रतिभासविषयस्य द्विचन्द्राऽऽदेरर्थप्रमाणबाधितत्वात् प्रतिभासोऽप्रमाण, यतो न द्विचन्द्राऽऽदेरिव जात्यादेः किशिदाधकं वृत्तिविकल्पाऽऽदेस्तबाधक स्य निषेधात् / तन्न जात्यादित्रयस्याभिन्नस्याभेदप्रतिभासकल्पना, नापि दण्डशब्दयोरभेदाध्यवसायः / यदि तत्राप्रतिपत्तिस्तदैकप्रतिभासेऽवच्छेदकावच्छेद्यभाषेन ग्रहण न भवेत, किं तहि तदपेक्ष्यावच्छेदकमवच्छेद्यवा,अर्थान्तरापेक्षत्वात्तयोः।तथाहि- दण्डस्य दण्डिनं प्रति व्यवच्छेदकत्वेन प्रतिभासो, नैकत्वेन, एवं वाचकस्यापि वाच्यप्रतिपत्ती द्रष्टव्यम्। वाचकावच्छिन्नवाच्य-प्रतिभासाऽभ्युपगमवादिनामेतन्मतम्। येषां तु तटस्थ एव वाचकःवाच्यप्रतिपत्तौ वाचकत्वेन प्रतिभातीति मतं, तेषामभेदाध्यवसायो दुरापास्त एव। अपि चएवंवादिना तिरस्कृतस्वाकारस्याऽऽकारान्तरानुषक्तस्यार्थस्य ग्रहण कल्पेतेति चतुर्थपक्ष एवाभ्युपगलो भवेत्। न चायमभ्युपगमः सौगतानां युक्तः, स्वसिद्धान्तविकल्पकमेतद्विज्ञानं भ्रान्तमध्यक्षाऽऽभासमभ्रान्तपदव्यबच्छेद्यं सौगतसमये प्रसिद्धम् / तथाहि भ्रान्तिसंहातिसंज्ञानमनुमानानुमानिक, स्मार्ताभिलाषिकं चेति प्रत्यक्षाभ्रसतिमिरमित्यत्र रस्मार्ताभिलाषिकं चेतीतिशब्दपरिसमापिताद्विकल्पवर्गात्पृथक् सतैमिग्मित्यतो विकल्पस्यैवंजातीयकस्य प्रत्यक्षाभासत्यं प्रतिपादितंकल्पमात्वे वाऽस्याभान्तपदोपादानमेतद्व्यवच्छेदार्थ प्रत्यक्षलक्षणेन युक्तियुक्तं स्यात्। तन्न चतुर्थपक्षाभ्युपगमोऽपि न्योपपन्न इति नार्थसामर्थ्यानुभूतत्वादप्रत्यक्षता विकल्पानाम् / यथार्थोऽपीत्यादि दूषणमक्षजत्वे तेषा प्रतिपादितम् / तदप्यसङ्गतम, यतोऽर्था निर्विकल्पोद्घाटकसामर यन्तभूताश्चक्षुरादयः सहकारिणोऽन्योन्यसक्ष्यपेक्षा अपि सा विकल्पोत्पादनेनैव परस्परतो व्यवधीयते, तज्जननस्वभावत्वात् तेषाम्।तथा सविकल्पकोत्पादका अपिन चान्त्यावस्थाप्राप्त निर्विकल्पोत्पादकं चक्षुरादिकमब्यनिरपेक्षमेव स्वकार्यनिवृत्तिकम, अन्यसन्निधिस्तुतत्र हेतुनिबन्धनोपालम्भविषय इति वक्तव्यम्, न च किश्चिदेक जनकमित्यादिर्विरोधप्रसक्तेश्चक्षुरादिवन्न स्मृत्यर्थस्यावधानम् / न च क्षणिकत्वस्मृति काले अर्थस्यातीतत्वात् तया तस्य व्यवधानं क्षणिकत्वस्यास्मान् प्रत्यसिद्धत्वात स्फटिकसूत्रे निराकरिष्यमाणत्वात्। यदष्यर्थस्य स्मृतिसापेक्षत्वे दूषणमभ्यधायि- 'यः प्रागजनक इत्यदि" तदप्यसङ्गतम्। उपयोगविशेषस्यासिद्धत्वात्। तथाहित्भावानां द्विविधा शक्तिः-प्रतिनियतकार्यजनने एका स्वरुपशक्तिः। द्वितीया सहकारिस्वभावा तत्र प्राक् स्मरणात स्वरुपशक्तिः केवला न कार्य जनयति, यदा तु समासादितसहकारिशक्तिः स्वरुपशक्तिर्भवति तदा कार्यमाविर्भावयत्येवा नच स्वरुपशक्तेः सहकारिशक्त्या व्यतिरिक्तोऽव्यतिरिक्तो वा कश्चिदुपकारः क्रियते, किं तु संभूय ताभ्यामेकं कार्य - निष्पाद्यते / तथा हिअन्त्यावस्थाप्राप्तक्षणवत् सहकर्तृत्वमेव सर्वत्र सहकारार्थो, नत्वतिशयाऽऽधानमिति क्षणभङ्ग भने विस्तरेण प्रतिपाद यिष्यते। यदपि विशेषणं विशेष्यं च इत्यादिदूषणभभिहितम्। तथा सङ्के तस्मरणोपायमित्यादि च। तदपि प्रागेव निरस्तम् / यदपि किलाध्यक्षयोरेकविषत्वे प्रतिभासभेदो न स्यात्, दृश्यते च। तदुक्तम् 'शब्देनाव्यापृताक्षस्य / '' इत्यादि / तदप्यसङ्ग तम् शब्दाक्षप्रभवप्रतिभेदस्य प्रसाधितत्वात्। शब्दजप्रतिपत्तौ शब्दावच्छेदेन वाच्यस्यकैश्चित् प्रतिभासोपगमात् करणभेदादेकविषयत्वे प्रतिभासभेदस्य च कैश्चिदभ्युपगमात् नैकान्तेन तयोभिन्नविषयता तन्न व्यवसायात्मकं किञ्चदस्ति अरूपत्वात, अनक्षार्थ व्यवसायस्य ज्ञानरूपत्वात् ज्ञानग्रहणं न कार्यमिति चेत् / न / धर्मिदेशार्थ ज्ञानपदोपादानस्य दर्शितत्वाव्यत्, वसायाऽत्मकग्रहणं तु धर्मनिदेशार्थमिति न पुनरुक्तम्। ननु फलस्वरूपसामर या विशेषत्वेना संभवान्नेदं लक्षणम् / तथाहि प्रत्यक्षफ लविशेषणत्वे इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वाऽऽदिषु ज्ञानप्रत्यक्षशब्दयोः सामानाधिकरण्यानुपपत्तिः। फलप्रमाणविधायकत्वेन ज्ञानं हि फलं प्रत्यक्षं तत्साधकतमत्वात्प्रमाणमिति कथं तयोः सामानाधिकरण्यम् ? न चैवंभूतं फल, यतस्तत्प्रत्यक्ष यत इत्यस्याश्रुतस्वात्तत्र फलविशेषणपक्षः, अथैतदोषविपरिजिहीर्षया स्वरुपविशेषणपक्षः समाश्रीय ते, सोऽप्युक्तः। एतद्विशेषणविशिष्टस्य प्रत्यक्षनिर्णयस्याऽऽकारकस्य प्रत्यक्षत्वप्रसक्तेः / न चाकारकस्यासाधकतमस्वात प्रत्यक्षत्वंयुक्तम्। अथ कारकत्वविशेषणमुपादीयते तथाऽपि संस्कारजनके तिप्रसङ्गः / अथैवंविशिष्टमुपलहिंधसाधनं यत्तत्प्रत्यक्षम् / नन्वेवमप्यश्रुतपरिकल्पनाप्रसक्तिः / सामान्यलक्षणानुवादद्वारेण विशेषलक्षणविधानान्नाश्रुतकल्पनेति चेन्नैवमपि द्वितीयालङ्गदर्शनेविनाभावस्मृतिजनके गोत्वबदर्थदर्शने च संकेतस्मृतिजनकेऽति प्रसङ्गः, तन्निवृत्त्यर्थमर्थोपलब्धिजनकत्वाध्याहारे विपर्ययज्ञानजनकेऽति प्रसङ्ग। विपर्ययज्ञानं हिसारूप्यज्ञानादुपजायत यथोक्तविशेषणविशेषितात् तस्य चार्थोपलब्धित्वमिन्द्रियार्थ सन्निकर्षजत्वप्रतिपादनात् सूत्रकारस्याभीष्टमेव / अथ तद्व्यावुत्तये अव्यभिचरिविशिष्टोपलब्धिजनकत्वाध्याहारः, तथा संशयज्ञानजनके प्रत्यक्षत्वप्रसक्तिः। अथ तन्निवृत्तये व्यवसायाऽऽत्मकार्थो पलब्धिजनकत्वाध्याहारस्तथाऽप्यनुमानेऽतिप्रसङ्गः यस्मात्प्राक्प्रतिपादिताशेषविशेषणाध्यासित विशिष्टोपलब्धिजनकं च परामर्शज्ञानमध्ययनाऽऽदिभिरभ्युपगम्यते इति तस्यानुमितिफलजनकस्याध्यक्षताप्रसक्तिः। अथेन्द्रियार्थसंन्निकर्षजोपलब्धिजनकस्येत्यध्याहारः, तथाऽप्युभयज्ञानजनकस्य प्रत्यक्षताप्रसक्तिः। यस्मादिन्द्रियजस्वरुपज्ञानात् केनचिद् देवदत्तोऽयमितिशब्द उच्चारित इन्द्रियशब्दव्यापारादेवदत्तोऽयमिति संकेतग्रहणसमये ज्ञानमुत्पद्यते यथोक्तविशेषणविशिष्टमिति तज्जनकस्य स्वरुपज्ञानस्य प्रत्यक्षताप्रसक्तिः, तन्निवृत्यर्यमव्यपदेश्यपदाध्याहार इति चेत्, तोश्रुतस्य द्वितीयसूत्रस्य कल्पनाप्रसक्तिः। सत्यामपि सूत्रकल्पनायामव्याप्त्यतिव्याप्त्योरनिवृत्तिः, तुलासुवर्णाऽऽदीनामवोधरूपाणामप्रत्यक्षत्वप्राप्तेः सन्निकर्षेन्द्रियाऽऽदीनां च / न च सन्निकर्षस्य प्रामाण्यं सूत्रकृता नेष्ट, सन्निकर्षविशेषात्तदग्रहणमिति वचनात् ग्रहणहेतोर्न प्राप्ताण्यम् / न च कर्मकर्तृरूपता तस्येति कर्मकर्तृविलक्षणस्य ज्ञानजनकत्वात्कथं न तस्य प्रामाण्यम् / एवमिन्द्रियाणामपि प्रमाणत्वं सूत्रकृतोऽभिमतम्, "इन्द्रियाणि अतीन्द्रियाणि स्वविषयग्रहणलक्षणम्" इति वचनात्। न च प्रमाणसहकारित्वात्तेषां प्रमाणत्वम्, अन्यस्येन्द्रियात प्रागुपग्राहकस्यौपग्राहिणोऽभावात्, भावेऽप्यज्ञानरूपत्वात्तस्य न प्रमाणता भवेदित्यतिव्याप्तिः तदवस्थैव / प्रदीपाऽऽदीना वा ज्ञाना Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्ख 81- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्ख त्मकत्वेऽपि प्रमाणत्वं प्रसिद्ध लोके, तथा सुवर्णाऽऽदेः प्रमेया च तुला प्रामाण्यवदिति प्रामाण्य प्रतिपादितं सूत्रकृता / सूत्रस्य चार्थः यथा सुतपर्णाऽऽदिपरिच्छिद्यते तदा तुला प्रमाण, प्रमाण वाऽनुमानमागपूर्वक देशवलाऽऽदिज्ञानस्यानिन्द्रियार्थसन्निकर्षपूर्वकत्वात, तदभावश्च वस्त्राऽऽदिव्यवहितेऽपि भावात्। तथा प्रमेयं च यदा सुवर्णाऽऽदिना तुलाऽन्तरमितेनानुमीयते, तदा सुवर्णाऽऽदिद्रव्यं प्रत्यक्ष प्रमाणमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजज्ञानजनकत्वात्। इन्द्रियार्थसन्निकर्षजं च पञ्चपलरेखाऽऽदिज्ञानं सदाविभावित्वाऽऽदिनेन्द्रियाऽऽदिसहकारि तत्सुवर्णाऽऽदि पञ्चपलरेखाऽऽदिज्ञानभुत्पादयत् प्रत्यक्ष प्रमाणं सुवर्णवदिन्द्रियार्थजज्ञानमुत्पदान्तः सर्व एव भावाः प्रत्यक्षप्रमाणतामाविभ्रति / स्मृतिसंशयविपर्ययादीऽऽनां चेन्द्रियार्थसन्निकर्षेण सह व्यापारे विशिष्टफलजनकत्वेन प्रत्यक्षतोपेयति / तथाहि-संशयविपर्यययोरपि बाह्ये विषये स्वाऽऽलम्बने स्वावच्छेदकत्वेनेन्द्रियार्थसन्निकर्षेण सह व्यापारादात्मप्रत्यक्षवादिना चाऽऽत्मनो विशेषणत्वेन विशिष्ट प्रतीतिजनकत्वेन प्रत्यक्षत्वात्, न न च तयोः सूत्रोपात्तविशेषणयोभ्यतासंदिग्धविपर्ययस्वभावत्यादतिव्याप्तिरपि यदेन्द्रियार्थसन्निकर्षाद् लिङ्गादनुमितमिद्रियं प्रतिपाते, तदा सकलसूत्रोपात्तविशेषयोगात् सन्निकर्षलक्षणलिङ्गाऽऽलबनस्य ज्ञानस्य तथाविधफलजनक स्य प्रत्यक्षताप्रसङ्गाऽऽदेः, तच्चेन्द्रियस्यार्थ इति समासानाश्रयणे दूषणं द्रष्टव्यमिति / स्वरूपविशेषणपक्षे अनेकदोषाऽऽपत्तिः। अथ ज्ञानप्रामाण्यवादिभिर्निर्णयस्य प्रामाण्यमिष्यत एवेति नानिष्टप्रेरणाऽवकाशः / तथाहि-तत्सद्भावे विषयाधिगतिरिति लोकस्याभिमानो, यच्च तथाविधविषयाधिगमे करणं तत्प्रमाणं, निर्णये त्वसति तद्धिगतिरिति स एव प्रमाणम् / अत एव नाश्रुतसूत्रान्तरकल्पना-दोषानुषड्गोऽपि। नैतत्सारम्। यतो निर्णये सति योऽयं विषयाधिगत्यभिधानः स किं साधकतमत्वान्निर्णयस्याऽतिविषयाधिगतिस्वभावत्वादिति संदेहो, विशेषहेत्वभावात्, साधकतमत्वे च | सिद्ध तत्प्रामाण्यावगतिः / अथ विषयाधिगतिस्वभावत्वेनैव निर्णयस्य विषयाधिगत्यभिमानो, न साधकतमत्वेनेति भवतोऽपि विशेषतो - वनाबोध स्वभावानामप्यर्थोपलम्भनिमित्तानां भावे विषयाधिगतिसिद्धेः / तथा च धूमाज्जातोऽग्निरिति व्यपपदिशल्लोक उपलभ्यते, नाग्निज्ञानादित्येव चक्षुषः प्रदीपाऽऽदेश्वान्धकारे विषयाधिगतिसिद्धेः / तथा च धूमाज्जातोऽग्निरिति व्यपदिशलोकप्रसिद्धेभ्यो नानिज्ञानाऽऽदिरिति परच्छेदे अबाधस्वभावस्य तज्जनकस्य साधकतमत्वान्नार्थज्ञानस्य प्रमाणता / अथापि स्यात् साधकतमज्ञानजनकत्वेनापि धूमाऽऽदीना तथा व्यपदेशः संभवतीति तत्तेषां ततः साधकतमत्वसिद्धिः / तथा च धूमसद्भावे विषयाऽधिगतिरित्यभिमानाभावात् सति त्वर्थज्ञाने प्रत्येकशस्तेषामभावेऽपि भावाद्विषयाधिगत्यभिमानेऽनन्तरवृत्तमर्थज्ञानमेव साधकतम, न विषयाधिगतौ ज्ञानस्य साधकतमता, विषयाधिगतिस्वरूपत्वात् तस्य / न च किश्चिद्वस्तु स्वरूपे साधकतम, तद्विशेषस्यामिधानं च प्रमाणपदम् / अथ स्वविषये सव्यापारप्रतीततामुपादाय फलस्यैव प्रमाणोपचारः / उक्तं च- ''सव्यापारप्रतीतत्वात्, प्रमाण फलमेव सत। सव्यापारमिवाभाति, व्यापारेण स्वकर्मणि / / 1 / / " इति चेत् / न मुख्यसद्भावे उपचारपरिकल्पनात् / बौद्धपक्षे तु न मुख्यं साधकमत्वं क्वचिदपि सिद्धमिति नोपचारः / अस्मन्मते तु धूमाऽऽदीनां साधकतमत्वे प्रमाणफलयोर्भेदः प्रसज्यते, सव भवातोऽनिष्टः / यच्च धुमाऽऽदिभाव विषयाधिगतेरभावात् तद्भावे च भावादित्युक्तम्। तदसंगतम् यतो नैव सद्ज्ञानसद्भावे काचित् तज्जन्यविषया विषयाधिगतिः, धूमाऽऽदिसद्भावे तु तस्याः सद्भावोऽनन्तरमुपलभ्यत एव / अतो धूमाऽऽद्येव साधकतमम्, अभिमानस्तु ज्ञानानन्तर मुपजायमानो धूमाऽऽदिभावेऽप्यनुपजायमानो ज्ञानस्य न साधकतमत्वं प्रकाशयति, अपि त्वर्थाधिगमस्वरूपताम् / तथा हि-अर्थाधिगतावर्थोऽधिगत इत्यभिमतः प्रभवति / ननु धूमाऽऽदिभावतो विषयाधिगतस्याभिमानस्यानेन प्रकारेण भावान तदभावान्न तद्गती साधकतमत्वं ज्ञानस्येति निर्णये अध्यक्षताप्रसक्तिप्रेरणा तदवस्थैव। किंच-सुप्तावस्थोत्तरकालं घटाऽऽदिज्ञानोत्पत्तौ यद्यबोधरुपं तज्जनकं प्रमाण नेष्यते, तदा प्रागपरज्ञानस्याभावात् कस्य तत्फलं भवेत् / घटत्वसामान्यज्ञानस्य घटज्ञानं कफमिति चेत्। ननुघटत्वज्ञाने किं प्रमाणम्?, तदेवेति चेदेकस्य प्रमाणफलताप्रसक्तिरभ्युपगम्यत एवेति / अत्र विशेष्यज्ञानेऽपि तत्प्रसङ्गात् / न च विशेष्यज्ञानोत्पत्तौ विशेषणज्ञानस्य प्रमाणत्वमिति ततस्तभिन्नमभ्युपगम्यत इति वक्तव्यमिन्द्रियार्थसन्निकर्षानन्तरं घटत्वाऽऽदिसामान्यज्ञानस्य दर्शनात्तत्र सन्निकर्षस्य प्रमाणत्यप्रसक्तेः, अज्ञानत्वान्नेति चेन्न, विशेषणज्ञानं विशेष्यज्ञानोत्पतौ प्रामाण्यं, तथा सन्निकर्षस्याऽपि विशेषणज्ञानोत्पतौ तदभ्युगन्तव्यम् / तथाहिसन्निकर्षप्रमाणं विशिष्टज्ञानरात्ताकारणत्वाद्विशेषणज्ञानत्वात प्रमाणत्वाभ्युपगमे कारणनिर्णयाऽऽदीनां प्रमाणत्वं स्यात् न च स्वयं संवेद्यत्वेन तेषामजनकानामपि प्रमाणत्वम् ।अर्था तरफलवादित्वहानिप्रसङ्गात्। न च नैयायिकैरर्थान्तरभूतं बौद्धैरिव फलमभ्युपगम्यते / तदभ्युपगमे तत्पक्षे निरासादयमपि निरस्त एव / अतो ज्ञानप्रमाणवादिनः सुषुप्तावस्थोत्तरकालंघटत्वाऽऽदिज्ञानाभावप्रसक्तेर्घटाऽऽदिज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गात्यशेषस्य जगत आन्ध्याऽऽपत्तिः। न च सुषुप्तावस्थायां ज्ञानसद्भावान्नायं दोषः, असंवेद्यमानस्य तदवस्थायां तस्य सद्भावासिद्धेः। न व जाग्रत्प्रत्ययेन तत्सद्भावोऽवसीयते, तस्य तत्प्रतिबन्धासिद्धेः। तत्कार्यत्वान्न प्रतिबन्ध इति चेन्न / वैशेषिकैः सर्वस्य ज्ञानस्य ज्ञातपूर्वकत्वानभ्युपगमाद्विशेष्यज्ञानाऽऽदीनामेव विशेषणज्ञानाऽऽदिपूर्वत्वं नान्येषां, प्रतिबन्धाभावात् बोधरूपताप्रतिबन्ध इति चेन्न / अबोधस्वभावादपि बोधस्योत्पत्त्यविरोधात् / अन्यथा धूमस्वभावादग्रेधूमोत्पत्तिर्न भवेत्, तस्य तज्जननस्वभावत्वाददोष इति चेन्न / इतरत्राप्यस्य समानत्वात्। तथा ह्यबोधऽऽस्मिका कारणसामग्री बोधजननस्वभावत्वात्तं जनयिष्यतीतिन प्रतिबन्धः, तस्मादपि बोधाऽऽत्मकस्यापि प्रमाणत्वमभ्युपगन्तव्यमित्यव्यापकत्वंलक्षणदोषः, तन्न स्वरूपविशेषणपक्षोऽपियुक्तिसङ्गतः, नापि सामग्रीविशेषणपक्षः, तत्रास्यौपयचारिकत्वात् / तथाहि-सामग्रीविशेषणपक्षे इन्द्रियार्थसनिकर्षात्पन्नमित्युपपन्नमपि व्याख्येयम् / तचायुक्तम्। उत्पत्तिशब्दे स्वरूपनिष्पत्तौ प्रसिद्धत्वात्। तथा- ज्ञानशब्दोऽपि सामग्रीविशेषणपक्षे ज्ञानजनकत्वात्सामग्यां ज्ञानमिति व्याख्येयम्। एवमव्यभिचारि व्यवसायाऽऽत्मकच सामन्यं तथा-विधफलजनकत्वादव्यपदेश्यमिति, तच्छब्देन सहाव्यापारात्।तदेवंसुत्रोपादत्तविशेषणयोगित्वं सामा यस्य तथाविधफलस्य जनकेन न खत इति न युक्तिमत्पक्षोऽपि / तटवर्थक सूत्रम्, न / फलविशेषणपक्षस्योपपत्तेर्न तत्राऽपि यत इत्यध्याहारोऽस्त्येव दोषोनतावन्मात्रेण, सकलदोषविकलाभिमतपक्षसिद्धः। अतस्तथाविधंज्ञान यतो भवतितत्प्रत्यक्षमिति सकलदोषविकलं प्रत्यक्षलक्षणं Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्ख 52 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्ख सिद्धम नन्वेतस्मिन्नपि पक्षे ज्ञानस्य प्रामाण्यं न लभ्यते, इष्टं च तस्य प्रामाण्यम्, यदा ज्ञानं प्रमाणं तदाऽनादिबुद्धयः फलमिति वचनात् नैष दोषः। ज्ञानस्याप्येवंविधफलजनकत्वेन प्रमाणत्वानुभवज्ञानवंशजायाः / स्मृतेस्तथा चायमित्येतद्ज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षत्वात् प्रत्यक्ष फलम, तत्स्मृतेस्तु प्रत्यक्षप्रमाणता, सुखदुःखसंबन्धरमृतेस्त्विन्द्रियार्थसन्निकर्षसहकारित्वात्तथा ध्येयमिति / सारूप्यज्ञानजनकत्वेनाध्यक्षप्रमाणता सारूप्यज्ञानस्य च सुखसाधनोऽयमित्यानुमानिकफलजनकत्वेनानुमानप्रमाणता।नच सुखसाधनत्वज्ञानमिति केचित अपरे तु बह्येऽप्यर्थे विशेषाऽऽवृष्टमसन्निहिते विशेषणे मनः प्रवर्तत इति मनोलक्षणमिन्द्रियार्थसन्निकर्षजमध्यक्षप्रमाण फलमेतत् ज्ञानमिति संप्रतिपन्ना : / नन्येवमप्यव्यापकं लक्षणमात्मसुखाऽऽदिविषयज्ञानस्याप्रत्यक्षफलत्वात्। तच्च मनसोऽनिन्द्रियत्वं मनस इन्द्रियसूत्रेऽपरिपठितत्वात प्रत्यक्षफलं तावत्तद्विषयज्ञानस्याभ्युपगम्यते / असदेतत् / मनस इन्द्रियधर्मो पेतत्वेनेन्द्रियत्वादधिगतानाधिगतविषयग्राहकत्वमिन्द्रियधर्मः, स च मनसि विद्यत एव, तेनेन्द्रि यधर्मोपेतस्य सर्वस्यैव प्रत्यक्षसूत्रे इन्द्रियग्रहणेनाविरोधः। ततः प्रत्यक्षसूत्र एवेन्द्रियत्वं मनसः सिद्ध , तत्सिद्धौ च नाव्याप्तिर्लक्षणदोषः / इन्द्रियसूत्रे च मनसोऽपाठः, तत्सूत्रस्य नानात्वे इन्द्रियाणां लक्षणपरत्वात्सूत्रशब्देन हि जात्यपेक्षया सूत्र एवोच्यते। तेन लक्षणसूत्रसमूहोद्देशार्थं तत्सूत्र, तथा च जिघ्नत्यतेनेतिघ्राणं भूतं गन्धोपलब्धौ कारणं घ्राणमित्याभेधीयमाने सन्निकर्षप्रसङ्गः। तन्निवृत्त्यर्थ भूतमिति भूतखभाषत्वं विशेषणम् / एवं च अनेनेति चक्षरूपोपलब्धौ कारणं सन्निकर्षे प्रसङ्गः, तन्निवृत्त्यर्थ भूतग्रहण संबन्धनीय प्रदोपे प्रसङ्गस्तन्निवृत्त्यर्थमिन्द्रियाणामिति वाच्यम् / एवं त्वगादिष्वपि योज्यम्। एवं च सूत्रकपञ्चकमेतल्लक्षणार्थ प्रत्येकमिन्द्रियाणां न पुनर्विभागार्थम्, आदिसूत्रो विष्टस्य भेदवतो विभागाभ्युपगमात्, विभक्तिविभागे चानवस्थाविभागार्थे वा बाह्यानामित्यध्याहारः कार्यः, स्वलक्षणसामर्थ्यात् / मनसस्तु तदनन्तरं लक्षणानुपदेशो वैधात्। तच्च तस्या भूतस्वाभाव्यात्,भूतस्वाभाव्येनेन्द्रियाणि व्यवच्छिद्यन्ते भूतेभ्य इति वचनानि तु मनसं एतल्लक्षणमिति / अत एव सर्वविषयत्व मनसोन त्विन्द्रियाणि बाह्यानि सर्वविषयाणि तन्त्रयुक्त्या वा मनसोऽनभिधानं परमतमप्रतिषिद्धमनुमतमिति हि तत्र युक्तिः / न चैवं घ्राणाऽऽदीनामप्यनभिधानं प्रसज्यते, घ्राणाऽऽदेरप्यनभिधाने स्वमतस्यैवाभावात् परमतमिति व्यपदेशासंभवात्। “अस्ति युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम'' इति वचनात् / मनसोऽभिधानमिन्द्रियत्वेन, इन्द्रियान्तरं त्वनभिधानं वैधादित्युक्तम्, तन्नाव्याप्तिर्दोष इति स्थितम् / श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिकेति विन्ध्यवासिप्रत्यक्षलक्षणमनेनैव निरस्तम् तथा हि-अविकल्पिका शाक्यदृष्ट्याऽध्यक्षमतिः प्रमाण न भवति / तथा विन्ध्यवासिपरिकल्पिताऽपि सा प्रमाणं न युक्ता / न च सायदर्शनकल्पितस्य श्रोत्रादेः पदार्थस्य सिद्धिः सत्कार्यवादसिद्धान्तसदर्थव्यवस्थिते, तस्य च निषिद्धत्वात्। किं च श्रोत्रादीनां वृत्तिस्तेभ्यो यद्यव्यतिरिक्ता तदा श्रोत्रादिकमेव, तच सुप्तमत्ताऽऽद्यवस्थास्वपि विद्यत इति तदाऽप्यध्यक्षप्रमाण-प्रसक्तिरिति सुप्ताऽऽदिव्यवहारोच्छेदः / अथ व्यतिरिक्ता तेभ्यो वृत्तिस्तदा वक्तव्यम्-किमसी तेषां धर्ममात्रम्, आहोस्विदर्थान्तरम् / यदाद्यः पक्षस्तदा वत्तेस्तत् संबन्धो वक्तव्यः ? यदि तादात्म्यं, तदा श्रोत्रादिमात्रमेवासाविति पूर्वोक्तो दोषः / अथ समवायः, तदा पुनः सिद्धिप्रसक्तिरित्यपि श्रोत्रादिसद्भावे सति नियतदेशावृत्तिरभिव्यज्यत इति / प्लवते अथ संयोगः, तदाऽन्तिरप्रसक्तिरिति न तसर्मो वृत्तिर्भवत् / अथार्थान्तरं वृत्तिः, तदा नाऽसौ वृत्तिः, अर्थान्तरत्वात् पटाऽऽदिवत् / अथार्थान्तरत्वेऽपि प्रति नियतविशेषसद्भावात्तेषामसौ वृत्तिः / नन्वसौ विशेषो यदि श्रोत्रादिविषयप्राप्तिस्वरूपः, तदेन्द्रियार्थसन्निकर्षोऽभिधानान्तरेण प्रतिपादितो भवेत्। स च यद्यव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनकः प्रत्यक्ष प्रमाणमभिधीयते, तदा अस्मत्पक्ष एव समाश्रितो भवेत्। अथतथाभूतोपलब्ध्या जनको न तर्हि प्रमाणम्, असाधकतमत्वात् / अथार्थाकारा परणितिः श्रोत्रादीनां वृतिः, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किमसौ परिणतिः श्रोत्रादिस्वभावोऽनुतद्धर्म आहोस्विदन्तिरमिति पक्षत्ररोऽपि च पूर्ववहोषाभिधान विधेयम्। न च श्रोत्रादीनां विषयाऽऽकारापरिणतिः परपक्षेऽसंभविनी, परिणामस्य व्यतिरिक्तस्याऽव्यतिरिक्तस्य वा संभवादिति प्रतिपादितत्वात् / प्रतिनियताध्यवसायस्तु श्रोत्रादिसमुत्थोऽध्यक्षफलं, न पुनरध्यक्ष प्रमाणम्, असाधकतमत्वात्। विशिष्टोपलब्धिनिर्वर्तकत्वेनाध्यक्षत्वे अस्मन्मतमेव समाश्रितं भवेत्, तन्न साङ्ख्यमतानुसारि कल्पितमप्यध्यक्षलक्षमुपपन्नम् / जैमिनिपरिकल्पितमपि प्रत्यक्षलक्षणं सत्सङ्गप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां वुद्धिजन्मतत्प्रत्यक्षमिति। संशयाऽऽदिषु समानत्वाद्वार्त्तिककारप्रभृतिभिर्निरस्तमेव / यैरपि सम्यगर्थे च संशब्दोदुःप्रयोगः निवारण इत्यादिना तल्लक्षणं व्याख्यातं, तेषां प्रयोगस्यातीन्द्रियत्वात्सम्यक्त्वं न विशिष्टिफलमन्तरेण ज्ञातुं शक्यं, फलविशेषणत्वेन च न किश्चित्पदं श्रूयत इति न कार्यद्वारेणाऽपि तत्सम्यक्त्वावगतिः, बुद्धिजन्मनः प्रमाणत्वं तुन संभवात्येव / बुद्धेतिव्यापारलक्षणयोः पूर्वमेव प्रमाणत्वनिषेधात्। यैस्तु नेदं प्रत्यक्षलक्षणविधानं किंतु लोकप्रसिद्धप्रत्यक्षानुवादेन प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्य-निमित्तत्वविधानमिति व्याख्यातं, तैरपि वाच्यम्-कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते किमस्मदादिप्रत्यक्षस्य, उत योगिप्रत्यक्षस्येति? यत्र यद्यार्थः पक्षः, सन युक्तः। सिद्धसाध्यताप्रसक्तेः / द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः, योगिप्रत्यक्षस्य स्वमतेनासिद्धत्वात् न वा सिद्धयस्यानिमित्तत्वविधानम्। अन्यथा खरविषाणाऽऽदेरपि तं प्रत्यनिमित्तविधिभवेत् / न च योगिप्रत्यक्ष परेणाभ्युपगतमिति प्रतीतस्य तदनिमित्तत्वं साध्यत इति वक्तव्यम् / इति विषयग्राहिसं पात्यादे-राजस्य तु चक्षुष्टे वऽपि चक्षुः योजनशतावभासि श्रूयते रामायणाऽऽदौ / न च कादम्बर्याऽऽदेरिव काव्यत्वादस्याप्रमाणतेति न तन्निबन्धना वस्तुव्यवस्था, तारताऽपि प्रमाणभूतेऽस्यार्थस्य संसूचनात्स्वार्थप्रतिपादकत्वेऽपि च तारता, यदि प्रमाणतस्तदनेनाभ्युपगतं तदा प्रमाणप्रसिद्धस्य भवतोऽपि प्रसिद्धत्वात् कथं तदनिमित्तत्वसिद्धिः, अत एवातीन्द्रियं वस्तु नाङ्गीकुर्वतोऽपरप्रतिपन्ने वस्तुन्यतीन्द्रियेऽसौ प्रमाणं प्रष्टव्यं, चेत्, तत्र ब्रूते, तद्वस्त्वङ्गीकर्तव्यम् / अथ न ब्रते, तदा तस्य प्रमाणावभावादेवासिद्धिर्न तदुक्तप्रमाणप्रतिषेधात्। न ह्यतीन्द्रिये वस्तुनि प्रमाण प्रतिषेधविधायि प्रवर्त्तितुमत्सहत इति / धर्म्यसिद्धत्वादिदोषैराघ्रातत्वात् / अथाऽपिस्यात् भवेदेष दोषः स्वतन्त्रसाधनपक्ष। न त्विदं स्वतन्त्रसाधनमपि तु प्रसङ्ग साधनम् / तच्च स्वतोऽप्र सिद्धेऽपि वस्तुनि परप्रसिद्धेन परस्यानिष्टाऽऽपादनमिति पैररभ्युपगतं यथा सामान्याऽऽदिनिषेधे / एतदप्ययुक्तम् / दृष्टान्तस्याप्यसिद्धिः / यथा च सामान्यायऽऽदिनिषेधेन प्रसङ्गसाधनं प्रवर्तते तथा नैयायिकैः प्रतिपादितंसामान्याऽऽदिपरीक्षायाम्। किं च प्रसाधनानुपपत्तिरत्र / यतः प्रसङ्गः सर्वोऽपि विपर्ययफल इति पूर्व Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्ख 83 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्ख प्रसङ्गः प्रदर्शनीयः स च कथं प्रदर्शित इति वक्तव्यम्। अथ योगिप्रत्यक्ष धर्मग्राहक न भवति, विद्यमानोपलम्भनत्वात्, न हे तोरसिद्धत्वात्। अथ तस्मिन् सिद्ध्यर्थं हेत्वन्तरोपादानम्।तथा-हिविद्यमानोपलम्भनयोगिप्रत्यक्ष सत्संप्रयोगज्ञत्वात नास्याप्यसिद्धत्वात् / अर्थतत्सिद्धये हेत्वन्तरमुपदीयते / विवादास्पद सत्संयोगज, प्रत्यक्षत्वात्तच्छब्दवाच्यम्, अस्नदादिप्रत्यक्षवदिति दृष्टान्तः सर्वत्र वक्तव्यः / धर्माऽऽदिग्राहकत्वे वा धर्माऽऽदेरसत्वात्। न विद्यमानोपलम्भकत्वंमिति विपर्ययोऽविद्यमानोवाम्भनत्वेचन सत्संयोगजम्य। असत्संयोगजत्वे वान प्रत्यक्षताऽपि / तच्छन्दवाच्यम् / ननु भवत्येव प्रसङ्ग पूर्वको विपर्ययः, तस्य त्यनेन किं सद्भावो निषिध्यते, उत पक्षत्वम् / प्राच्ये विकल्प धयंसिद्धता हेतूनागित्युक्तम। द्वितीयेऽपि तस्य प्रमाणान्तरप्रसक्तिः, विशेषप्रतिपधस्य शेषाभ्यनुज्ञालक्षणत्वात्। स्यादेतद्विशेषप्रतिषेधधर्मिण एव प्रतिषेधस्थस्य तद्रूपतयैवाभ्युपगमात् / न च धर्मसिद्ध-त्वाऽऽदिहेतुर्दापः / यद्यर्थरयाभ्युपगमात्। असदेतत्।व्याप्तौ सत्यां प्रसङ्ग पूर्वकरय विपर्ययस्य प्रवृत्तेः / न च प्रत्यक्षत्वस्य तस्य तच्छब्दवाच्यत्वमन्यस्य वा सत्संप्रयोगजत्वेन व्याप्तिसिद्धिः क्वचित्संजाता। अथ प्रसङ्ग साधनवादिनि तत्सिद्धिरतथाऽपि दोषो, न हि यत्तेन न गृह्यते तदन्येनापि न गृह्यत इति व्यातिसिद्धिः। तथा हिन्यथा प्रसङ्गसाधनवादिचक्षु तिदूरस्थविषयग्राहि संपात्याद[ध्रराजस्य चक्षुष्टवऽपि चक्षुः योजनशतव्यवहितावभासि श्रूयते रामायणाऽऽदौ / न च कादम्बर्यादवि काव्यत्वादस्याप्रमाण तति न तन्निबन्धना वस्तुव्यवस्था। अतोऽपि प्रमाणभूतेऽस्यार्थस्य संसूचनात स्वरूपार्थप्रतिपादकत्वेऽपि च तारताऽऽदीनां प्रमाणता सिद्धैव। यद्यव्यामाप्रणीतल्दे निश्चयः, तथा वृषदंशचक्षुश्चक्षुष्ट्वेऽपि तच्छब्दवाच्यत्वेऽपिवा भिन्नाभिन्नस्वभाव दृष्ट तद्योगिप्रत्यक्षं भविष्यति / एवं प्रतिवादिप्रत्यशेऽपि साध्यसाधनयोर्व्याप्तिनिषेधो द्रष्टव्यः / अथ गृध्रवपदंशचक्षुषोरेतत्स्वभावत्येऽपि रूपग्रहणप्रतिनियमः, न हि ते रसाऽऽदौ कदाचित्प्रवर्तन्त तथा योगिप्रत्यक्षस्यापि स्वविषय एवातिशयो भविष्यति। तदुक्तम् "तत्राप्यतिशयो दृष्टः।" इत्यादि तथा "अपि सातिशया दृष्टाः, प्रज्ञामेधाऽऽटिभिर्नराः" इत्यादि च एवमेतत् किं तु द्विविधं प्रत्यक्षम् बाह्यन्द्रियजं, मानसं च। तत्र पूर्वस्यातीताऽऽदिग्राहकत्वनिषेधे रसाऽऽदिग्राहकाणामिवेतरतरविषयागृहणे सिद्धसाध्यता। मानसस्य त्वतीताऽऽदिरपि विषयः, तस्य सर्वविषयत्वात् / तथा हि-वादिप्रतिवादिनोर्मनस्पृष्टान्ट स्मार्तमतीतार्थग्राहिविज्ञानं सिद्धम् / एवमनागतार्थाध्यवसायिना न संवादिप्रतिवादिनोस्तथाविधंद्रष्टव्यम् तस्य वा भूतार्थस्यापि स्पष्टा मल भावनाप्रकर्षात्कामशोकलयादिज्ञाने प्रतिपादिता, यत्पनभूतार्थ प्रमाणद्वयपूर्वकं भावनाप्रकर्षसमुद्भूतं, तत्संवादात्प्रमाणं, विशदत्याच प्रत्यक्ष / संभाव्यते च तथाविधं प्रत्यक्षं योगिनां यथाsस्मदादीनां प्रातिभम्, वो मे भ्राता आगन्तेत्यनागतार्थाग्राहकम। नच संदिग्वस्टभावताऽस्था निश्चितत्वात्मत्वाद् बाधकाभावान्न विपर्ययः, ततोऽप्येतत्सर्वा प्रतिभासस्यार्था न सिद्धेति न प्रामाण प्रातिभम् / इन्द्रियजमपि सर्वं न सत्यार्थ सिद्धमिति। तदप्यप्रमाणं भवेत्। अथ मा भूत्प्रमाणं यद्वाध्यते, इतरं तु प्रमाणं प्रातिभेऽपि समानम्। एतदाभासप्रतिमाया न प्रमाणफलता, अर्थजत्वानुपपत्तेः / तथाहि- कर्मशक्तिः स्वकर्तृकरणसहकृता क्रियानिवतिका कर्तृकरणशक्तिरेव कर्मशक्तिसहकृता, न चासती स्वरूपेणानागबवर्तमानकालकर्तृकरणाभ्यां सह कर्मशक्तिः स्वकार्ये व्याप्रियते, नापि कर्तृकरणशक्तिर्वर्तमानसमय- | संबन्धिनी भाविकर्मशक्त्या तदोत्पद्यमानया सह स्वकार्ये व्याप्तियः / यत इति कथमगतार्थविषयार्थजा प्रतिभा, ततो न प्रमाणफलं सेत्ययुक्तमेतदसमानकालत्वेऽपि प्रतिभाविषयस्य कर्तृकरणव्यापारसमानकालतोपपत्तिः / तथाहि-करणं प्रतिभाजनक न वर्तमानसमयवस्तुपरिच्छेदकं, किं त्वनागतस्य, तेनाऽऽगते वस्तुनि करणस्य व्यापाराद्गस्तुनश्च तेन रूपेण रात्वात कशं प्रतिभा निर्विषया ? यदि च भावाभावविषयं ज्ञानं निर्विषयं तर्हि चोदनाजनितं ज्ञानं वाक्यप्रभवंवाक्यकाले कार्यस्यार्थस्यासत्वाद् निर्विषयमासज्येत। अथ वर्तमानर्थग्रहणस्वभावोऽध्यक्षस्यैव न शब्दाऽऽदेः, उक्त च-'संबद्धं वर्तमान च, गृह्यते चक्षुरादिना।" तथा एषा प्रत्यक्षधर्मतश्च वर्तमानार्थतैव, या सन्निकृष्टार्थवर्तित्वम् / ननु ज्ञानान्तरेष्वयमित्यसदेतत्, मनोविज्ञानस्यातीतानागतार्थग्रहणे व्याघाताभावात्। चक्षुरादिप्रभवप्रतिपत्तीनां तु युक्तवर्तमानार्थग्रहणलक्षणो धर्मः। ननुमानसस्यान्यथा चोदताजनितस्यास्मादित्युक्तं मत्वैवमपि भाविरूपता भावस्य सावधिः प्रागभाव / न च भिन्नकालत्वाद्वस्त्ववस्तुनोः संबन्ध इति कथं तस्य भाविरूपता। अत्र केचिदाहुः न तथारसंबन्धिता, विशेषणविशेष्यतया प्रतिपत्तेः / नैतत् न हि संबन्धपूर्वको विशेषणविशेष्यभावः, किं तर्हि भाविता भावस्योच्यते, वुद्धी प्रतिभासमानस्यायऽऽकारस्य कुतश्चिन्निमित्तत्वात् प्रागभावाविशेषणता, तच निमित्त भोजनाऽऽदिकार्य भ्रातृकृतं तद्भातुरनुगतस्य नोपपद्यत इत्यनागमनकाल एव कायेन बूझ्यस्थापितस्य भ्रातः श्वस्तनागमनविशिष्टता प्रतिपद्यते। सद्व्यवहारनिबन्धनं चव सत्त्वम्, तच विधिप्रतिभास एवातो विधिप्रतिभासस्वभावत्वान्न निर्विषया प्रतिभासमानता मा भुन्निर्विषयत्वं तस्यास्तेन त्वर्थेन सह सन्निकर्ष इन्द्रियस्य वाच्यः / इन्द्रियार्थासन्निकर्षजन्यस्य प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः। अत्र केचित्प्रतिभासमादधतिश्वो मे भ्राताऽत्र देशे आगन्तेति प्रतिभोत्पादैः श्वादे(7)श्चेन्द्रियेण संयोगात्तद्विशेषणत्वाच्च श्वस्तनाऽऽगमनविशिष्टस्य भ्रातुः संयुक्तविशेषणभावः सन्निकर्षः। एतत्परेणानुविशेषणविशेष्ययोरेकविषयत्वान्न भ्राता विशेषणे त्वचक्षुरादेः सन्निकर्षः, तदभावाद विशेषणाग्रहणे कथ विशेष्यबुद्धिः?| अपि चश्चस्तनागमनविशिष्टभ्रातृज्ञानं प्रतिभा न देशाऽऽदिज्ञानं, न वेन्द्रियत्वेन कश्चित्संबन्धः। अत एवार्थमपि ज्ञानं न प्रतिभा यतो रूपिणामपि यज्ज्ञाने तदप्यागमपूर्वम्, अनेनोपायजन्यमार्पस्य दर्शयति। उपायश्च सन्निकर्षलिङ्गशब्दस्वभावः, आगमग्रहणस्य प्रदर्शनार्थत्वात्। नाऽपि धर्मविशेषात्, सन्निकर्ष विनाऽपि प्रतिभायाः समुद्भवः, यतो धर्माधर्मयोः फलजनकत्वं साधनजनकत्वेनैव, यथा सुखाऽऽदिजन्ये शरीराऽऽदिर्जननमेवं प्रतिभाया अपि धर्मविशेषजन्यत्वे केनचिदिन्द्रियार्थसन्निकर्षाऽऽदिनासनेनधर्मविशेषजनितेन भाव्यम्। अत एव सिद्धदर्शनमपि न प्रतिभा, रथ्यापुरुषस्यापि भावात् / अनियतनिमित्तप्रभवत्वेन प्रमाण प्रतिभेति यत्कैश्विदभ्यधायि, तन्नैयायिकैर्निराक्रियते एवं मनसस्तन्निमित्तत्वेन तत्र तत्र प्रतिपादनात् / नाप्यस्यालिङ्गशब्दप्रभवत्वं, तदभावेऽपि भावादुपमानजत्वाश का दूरोत्सारिताऽतः प्रत्यक्ष प्रतिभा। यद्येवं तदुत्पत्तावपि वक्तव्यम्। किमत्रोच्यते-मनसः सन्निहितत्वात् तस्य विशिष्टार्थग्रहणे विशेषणविशेष्यभावः सन्निकर्षः नियमाकत्वेन पूर्व प्रदर्शितः, यथा प्रत्यभिज्ञानोत्पत्ते स्मर्यमाणप्रतीयमानानुभव विशेषणं वस्तुतस्तस्याविषयो, न चैतावति बाह्येन्द्रियव्यापार इति मानसं प्रत्यभिज्ञान, तद्वत्प्रातिभमपि। तथा हि- अभावो बाह्यार्थाभ्युपगमेम Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्ख 54 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खणाण नमः स्वातन्त्र्येण पूर्वं निराकृतः / एवं मानसस्य प्रत्यक्षस्याविद्यमानोपलम्भकस्य सद्भावान्न प्रसङ्गसाधने व्याप्तिसिद्धिः। तथा सर्वस्यैव स्थपत्यादेः क्रियमाणवरतुग्रहणं प्रत्यक्षसिद्धमेव। किं च-कथं जैमिनीयाः स्थिरग्रहणवादिनो वर्तमानविषयमेव प्रत्यक्ष संचक्षते, स्थिरग्रहणं हि वस्तुन एव भवति। यदि वर्तमानविशिष्टस्यैबातीतानागतकालविशिष्टग्रहणम्, अन्यथा स्थिरग्रहणाभावः। तथा चोक्तम्- "रजतं गृह्यमाणं हि, चिरस्थायीति गृह्यते।" ततः परस्परव्याहतार्थाभिधानाद्यत् किश्चित् तत्तदेव न प्रत्यक्षस्यातीन्द्रियार्थग्रहणनिषेधः, पूर्वोक्कनीत्या संभाव्यते चातीन्द्रियार्थग्रहणमध्यक्षस्य यथा संभवति तथा सर्वज्ञसिद्धौ प्रतिपादितमिति न पुनरूच्यते / किञ्च- सत्संयोगत्वाऽऽद्यविद्यमानोपलम्भत्वमुच्यते, तत्र सतासीत (?) साधुना सद्भिर्वेत्येतान् पक्षान व्युदस्याभिमतपक्षस्थापनं कृतम् / सति संप्रयोगे प्रयोगश्च श्विद्विता(?) प्रदर्शितोऽपीन्द्रियाणां व्यापारो, योग्यता वा। ननु नैयायिकाभ्युपगत एव योगाऽऽदिः, स द्विविधोऽप्यतीतानागताऽऽदिलवणेऽर्थतः करणवास्यादिना इव कार्येऽर्थेन वार्यते। अथाविद्यमाने कथं करणव्यापारः करणत्वेनाभ्युपगतायाः चोदनाथा अपि कथं कार्येऽर्थे, ततो नान्तः करणस्थ विशेषः, तत्प्रमेयस्य त्रिकालावच्छिन्नत्वात् भाविरूपस्यापि वा तद्रूपत्वेन सतो वर्तमानत्वाऽऽपत्तिः। तथा चोक्तं व्यासेन- 'अवश्यं भाविनं नाशं, विद्धि संप्रत्युपस्थितम्। अयमेव हि ते कालः पूर्वमासीदनागतः।।१।।" यत्पुनः कार्य कालत्रयापरामृष्टं शशशृङ्गाऽऽणयं तत्र कथं प्रेरणाऽऽख्यकरणव्यापारः / अथाबाधितप्रतीतिजनकत्वेन प्रेरणायास्तत्र व्यापारः, तन्तिः करणेऽप्येतत्तुल्यं, ततोऽविद्यमानोपलम्भस्य मानसाध्यक्षस्य सद्भावान्न प्रसङ्गामानसाध्यक्षस्य सद्भावान्न प्रसङ्गसाधने व्याप्तिसिद्धिरिति न प्रथमा व्याख्या। द्वितीयव्याख्याने तत्सतो व्यत्ययेऽपि च न संशयज्ञानव्युदासः / तत्र ह्ययमों व्यवतिष्ठतेयद्विषयं विज्ञानं तेनैव संप्रयोगे इन्द्रियाणां प्रत्यक्षं प्रत्वक्षाभासं त्वन्यसंप्रयोगजमिति / तत्र संशयज्ञानं सम्यगज्ञानवत् यत्प्रतिभासि तेनैव संयोगे भवति। ननूभयाऽऽलम्बनत्वादुभयप्रतिभासिसंशयज्ञानम्, न चोभयाऽऽत्मकेनेन्द्रियसंबन्धः / यद्यपि नोभयाऽऽत्मकेन तेनेन्द्रियसंबन्धस्तथापि तत्त्वतः सामान्यवान् पुरोऽवस्थितोऽधसि प्रतिभासमानाऽन्यतरविशेषाऽऽश्रयोऽतो यत्प्रतिभ्राति तेन सहेन्द्रियस्य संयोगे संशयज्ञानमुदेति / न चैतद्यवच्छेदाय किञ्चित्पदमुपात्तमिति नैतल्लक्षणात् तद्व्युदास इति न जैमिनीयमतेऽपि प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यम् न चाकिस्तु प्रत्यक्षमपि तत्त्वतः प्रमाणमप्युपगम्यत इति न तद्विचार प्रयासः सफल इत्यक्षपादविचारितमेव प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यमिति नैयायिकाः / असदेतत् / तदभ्युपगमेनेन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नत्वाऽऽदेरघटमानत्वात्। तथा हि- इन्द्रियं यदि चक्षुर्गोलकाऽऽ-दिकमवयविरूपमभ्युपगम्यते, तदा तस्य स्वविषयेण व्यवहित देशेन पर्वताऽऽदीना संनिककर्षोऽसिद्धः / न ह्यत्यन्तव्यवहितयोहिमवद्विन्ध्ययोरिव चक्षुर्गोलके तदर्थयोः सन्निकर्षसंयोगाऽऽदिलक्षणः सिद्धः / न चावयविलक्षण गोवालकाऽऽदिवस्तुसंबद्धं, तद् ग्राहकाभिमतप्रमाणस्य निषिद्धत्वात् / न च तदाधारः संयोगाऽऽदिकः संबन्धः समस्ति, पराभ्युपगतस्य तस्य निषिद्धत्वात्, निषेत्स्यमानत्वाच / योऽपि कथञ्चित्पदार्थाव्यतिरिक्तं संश्लेषणकाष्ठजतुनोरिव संबन्धः प्रसिद्धः, सोऽव्यवहितेन पर्वताऽऽदिना स्वविषयेण सह चक्षुर्गालकस्यानु- पपन्नः, तत्प्रसाधकप्रमाणाभावात् / अथास्ति तत्प्रसाधक प्रमाणम, ननु तत्किं प्रत्यक्षमुतानुमानम् ? न तावत् प्रत्यक्षमत्र विषये प्रवर्तितुमुत्सहते। न हि देवदत्तचक्षुस्तद्विषयेण पर्वताऽऽदिना सबद्धमित्यस्मदादेरक्षप्रभवा प्रतिपत्तिः / अथानुमानं तत्सन्निकर्षप्रसाधनाय प्रवर्तते / ननु किं तदनुमानमिति वक्तव्यम् ? चक्षुः प्राप्तर्थप्रकाशक बाह्यत्वात त्वगादिवदित्येतदनुमानं तत्सन्निकर्षप्रसाधनं न चक्षुर्गोलकतदर्थयोरध्यक्षेणैवासन्निकृष्टयोः प्रतिपत्तेरध्यक्षे बाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्त त्वेनास्य हेतोः कालात्ययायपदिष्टत्वात्। अवयविलक्षणस्य च चक्षुषोः सिद्धेराश्रयासिद्धश्च हेतुः / अत एव स्वरूपासिद्धश्च / नाविद्यमानस्यावयविनो बाहोन्द्रियत्वमुपपन्नम्, त्वगादिवदिति निदर्शनमपि साध्यसाधनविकलम्। अथचक्षुःशब्देनात्र तद्रश्मयोऽभिधीयन्त इति न प्रागुक्तदोषावकाशः / न / तेषाम-सिद्धेः / इतरथाऽस्यानुमानस्य वैफल्याऽऽपत्तेराश्रयासिद्धो हेतुः। अथात एवानुमानात् तत्सिद्देनीयं दोषः, न इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः / तथाहि-तद्रश्मिसिद्धावाश्रयासिद्धत्वदोषपरिहारः, तस्मिश्च सत्यतो हेतोस्तत्सिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् / अत एव स्वरूपासिद्धिरपि हेतोः, तेषामसिद्धौ तदाश्रयबाह्येन्द्रियत्वासिद्धेः / यदि पुनर्गोलकाद्वर्हिभूता रश्मयश्चक्षुःशब्दवाच्यार्थप्रकाशयकास्तर्हि गोलकस्याञ्जनाऽऽदिना संस्कार उन्मीलनाऽऽदिकश्व व्यापारो वैयर्थ्यमनुभवेत् / अथ गोलकाऽऽश्रयास्त इति तन्निमीलिने असंस्कारे वा तेषामपि स्थगनमसंस्कृतिश्चेति विषयं प्रति गमन तत्प्रकाशनं च न स्यादतस्तदर्थतदुन्मीलनं तत्संस्कारश्च / न च वैयर्थ्यमनुभवेत् तर्हि गोलकानुषक्तकामलाऽऽदेः प्रकाशकत्व तेषां स्यात् / न हि प्रदीपः स्वलन शलाकाऽऽदिकं न प्रकाशयतीति दृष्टम् / यैरपि गोलकान्तर्गतं तेजो द्रध्यमस्ति तदा (?) तास्त इत्यभ्युपगतं तेषामपदि दूषणं समानम् / न हि काचकूपिकान्तर्गताः प्रदीपाऽऽदिरश्मयस्ततो निर्गच्छंस्तद्योगिनमर्थन प्रकाशयन्ति / तदेवं रश्मीनामसिद्धेन ते चक्षुः शब्दाभिधेयाः / अथ रसनाऽऽदयो बाह्ययेन्द्रियत्वात्प्राप्तार्थप्रकाशका उपलब्धा बाह्येन्द्रियं च चक्षुः, ततस्तदपि प्राप्तार्थप्रकाशकं न च गोलकस्य बाह्यार्थप्राप्तिः संभविनीति पारिशेष्यात्तद्रश्मीना तप्तिप्तिरिति रश्मिसिद्धिः / नात्यासन्नमलाञ्जनशलाकाऽऽदिप्रकाशप्रसक्तेः / किं च - यदि गोलका निर्गत्य बाह्यार्थेनाभिसंबन्ध्य तद्रशमयोऽर्थ प्रकाशयन्ति, नार्थ प्रत्युपसर्पन्तस्त उपलभ्येरन्। रूपस्पर्शविशेषवतां तैससानां बयादिवत् सतामनुपलम्भे निमित्ताभावात्, नचोपलभ्यन्त इत्युपलब्धिलक्षणप्राप्तानामनुपलम्भादसत्त्वम् / अनुभूतरूपस्पर्शत्वाद उपलभ्यास्त इति चेत्, किं पुनरनुभूतरूपस्पर्शतजो द्रव्यमुपलब्धं येनैवं कल्पना भवेत्? अथ दृश्यते सतोरपि तैजसरूपस्पर्शयोनीरहेम्नोरनुभूतिः, न स्वर्णतप्तोदकयोस्तेजस्त्वासिद्धेः दृष्टानुसारेण चानुपलप्स्यमानभावः प्रकल्पनाः प्रभवन्ति। अन्यथाभास्करकराः सन्तोऽपि नोपलभ्यन्ते, अनुभूतरूपस्पर्शत्वान्नयनेन रश्मिवदित्यपि कल्पनाप्रसक्तेः / सम्भ०२ काण्ड। अवधिमनःकेवलाऽऽख्ये स्वयं दर्शनलक्षणेव व्यवसायभेद, स्था०३ ठा०३ उ० / स्वयं करणे, "पच्चक्खं संयमे च करेंति।" अहवाराज्ञा समक्ष प्रत्यक्षम्। नि०चू०४ उ० / प्रत्यक्षकरणचक्षुषे, आ०म०१ अ०। पञ्चक्खणाण न० (प्रत्यक्षज्ञान) अवधिमनःपर्यायके वलऽऽत्मके प्रत्यक्षस्वरूपे ज्ञानभेदे, नं०। ('णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1638 पृष्ठ विशेषः) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खणिराकय 85 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण पचक्खणिराकय पुं० (प्रत्यक्षनिराकृत) प्रत्यक्षाविषये, यथा-अश्रावणः शब्दः / स्था० 10 ठा०। पचक्खपच्चयकारी स्त्री० (प्रत्यक्षप्रत्ययकारी) प्रत्यक्षकेन ज्ञानेन, साक्षादित्यर्थः, यः प्रत्ययः सर्वातिशयनिधानमतीन्द्रियार्थोपदर्शनाव्यभिवारि चेद जिनप्रवचनमित्येवंरूपा प्रतिपत्तिः। अथवा- प्रत्यक्षेणैवावर्थाः बतीयन्ते इति प्रत्यक्षमेवेदमित्येवं प्रतीतिः प्रत्यक्षप्रत्ययस्तत्करणशीलः प्रत्यक्षप्रत्ययकार्यः, प्रत्यक्षताप्रत्ययकार्यो वा / प्रत्यक्ष प्रतिपन्नायाम, स.१० अड़। पञ्चक्खवयण न० (प्रत्यक्षवचन) एष देवदत्त इत्येवरूपे वचने, आचा०१ (82 अ०६ उ० प्रज्ञा०1 पचक्खसिद्ध त्रि० (प्रत्यक्षसिद्ध) प्रत्यक्षज्ञानविषये, न च सकललोक प्रत्यक्षसिद्धऽर्थेऽन्य प्रमाणान्तरं मृग्यते। आचा०१ श्रु०६ अ० 4 उ० / पचक्खाण न० (प्रत्याख्यान) परिहरणीयं वस्तु प्रति आख्यानं प्रत्याख्यानम् / गुरुसाक्षिके निवृत्तिकथने सामायिकपर्याये, आ०म० 1 अ० / (एतदुदाहरणं तेतलिसुय' शब्दे चतुर्थभागे 2352 पृष्ठे गतम्) पञ्चक्खे दट्टणं, जीवाजीवे य पुन्नपावे य। पञ्चक्खाया जोगा, सावजा तेयलिसुएणं / / प्रत्यक्षानीय दृष्ट्वा जीवाजीवान् पुण्यपापेचसम्यक् चतुर्दशपूर्वस्मरणात् प्रत्याख्यातः योगा: सावद्यास्तेतलिसुतेन / आ० म०१ अ०२ खण्ड। निवृत्तिद्वारण प्रतिज्ञाकरणे, स्था०३ ठा० 4 उ० / आ० म०। प्रति०। स्वेच्छाप्रवृत्तिप्रतिकूलतया मर्यादया विविक्षितकालाऽऽदिमानयाऽऽख्यान प्रकथन प्रत्याख्यानम्। मूलगुणोतरगुणरूपे स्टार्थविषयान्निवर्त्तने, प्रव० 1 द्वार ज्ञपरिज्ञया ज्ञाने प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरणे, आ० चू० 1 अध। 1) प्रत्याख्यानमधिकृत्य द्वारगाथामाह नियुक्तिकार:पञ्चक्खाणं पञ्च-क्खाओ पचक्खेयं च आणुपुव्वीए। परिसा कहणविही य, फलं च आईए छडभेआ||१|| 'ख्या' प्रकथने इत्यस्य प्रत्याङः पूर्वस्यल्युडन्तस्य प्रत्याख्यानं / भवति / तत्र प्रत्याख्यायते निषिध्यते मनोवाकायक्रियाजालेन किश्चिदनिष्टनिति प्रत्याख्यानम्, क्रिया क्रियावतोः कथसिदभेदात्प्रत्याख्यानशिव प्रत्याख्यानम् / प्रत्याख्यायले अस्मिन् सति प्रत्याख्यानम् / 'कृत्यल्युटो बहलम् // 313 / 133 / / इति वचनात्। अन्यथाऽप्यदोषः पत्याख्यानमित्यादी। तथा प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याता गुरुर्विनेयश्च / तथा प्रत्याख्यायत इति प्रत्याख्येय गोचरवस्तु। च शब्दात्त्रयाणामपि दुल्यकश्तो गावनार्थः / आनुपूया परिपाट्या, कथनीयमिति वावयशेषः / तथा परिषद्वक्तव्या-किंभूतायाः परिषदः कथनीयमिति / स्था कथनविधिश्च कथनप्रकारश्च वक्तव्यः तथा पलं चास्यैहिकाऽऽ-- मुष्मिकभेद कथनीयम, आदावेते षड्भेदा इतिगाथासमासार्थः / व्यासार्थतु यथाऽवसर भाष्यकार एव वक्षयति / / 1 / / आव०६ अ०। आ० चू० / ध०। (2) एकार्थाःनमिऊण बद्धमाणं, समासओ सुत्तजुत्तिओ वोच्छं। पचक्खाणस्स विहि, मंदमइविबोहणट्ठाए॥१॥ नत्वा प्रणम्य वर्द्धमान महावीरम्, समासतः संक्षेपेण वक्ष्ये इत्यनेन संबन्धः / तथा सूत्रयुक्तित आगमाऽऽश्रितामुपपत्तिमाश्रित्य, अथवासूत्रं च युक्तिं चाऽऽश्रित्य, वक्ष्ये भणिप्यामि, प्रत्याख्यानस्य, नमस्कारसहिताऽऽदिनियमस्य, विधि विधानम्। किमर्थमित्याह-मन्दमतीनामल्पमेधसा, विबोधनं प्रबोधनंतल्लक्षणोऽर्थः प्रयोजन मन्दमतिविबोधनार्थस्तस्मै मन्दमतिविबोधनार्थाय / यतः पूर्वाऽऽचार्यः प्रत्याख्यानविधिर्विस्तरेण महामतिसमधिगम्य एवोक्तः / इति माथार्थः / / 1 / / अथ प्रत्याख्यानमेव पर्यायतो भेदतश्च निरूपयन्नाहपचक्खाणं नियमो, चरित्तधम्मो य होंति एगट्ठा। मूलुत्तरगुणविसयं, चित्तमिणं वणियं समए।।२।। प्रति प्रवृत्तिप्रतिकूलतया, आ मर्यादया, ख्यानं प्रकथन प्रत्याख्यानम् / तथा नियमन नियमः हेयार्थेभ्य उपरमः। तथा चरति मोक्षं प्रति याति येनतचरित्रं, तच तद्धर्मश्चति चरित्रधर्मः। चरित्रशब्देन श्रुतस्य व्यवध्छेदः / चशब्दः समुच्चये। भवन्ति वर्तन्ते, एकार्थ। अभिन्नार्थाः। निवृत्त्यभिधायकत्वादेते शब्दा इति गम्यते / मूलानीव चारित्रकल्पद्रुमस्य मूलान्युत्तरे च तस्यैव शाखाऽऽद्यवयववत् ये गुणास्ते विषयो गोचरो यस्य तन्मूमलोत्तरगुणविषयम्। तव मूलगुणाः सर्वतो महाव्रतानि देशतवाणुव्रतानि / उत्तरगुणास्तु सर्वतः पिण्डविशुद्ध्यादयो, देशतश्च दिग्व्रताऽऽदयः / अय वोत्तरगुणा दशविधप्रत्याख्यानमनागतऽऽदि नमस्कारसहिताऽऽदि वाऽऽगमप्रसिद्धम्। अत एवं चित्रं बहुप्रकारम् इदं प्रत्याख्यानम्, वर्णित भणितम्, समये प्रत्याख्याननियुक्त्यादिसिद्धान्ते। इति गाथार्थः / / 1 / / पञ्चा०५ विव०। नाम ठवणा दविए, अ इच्छ पडिसेहमेव भावे अ। एए खलु छन्भेआ, पच्चक्खाणम्मि नायव्वा / / 2 / / नामप्रत्याख्यान, स्थापनाप्रत्याख्यानम्। (दविए त्ति) द्रव्य प्रत्याख्यानम् (अदिच्छ त्ति) दातुमिच्छा दित्सा न दित्सा अदित्सा सैव प्रत्याख्यानम् अदित्साप्रत्याख्यानम् (पडिसेहे त्ति) प्रतिषधप्रत्माख्यानम्। (एवं भवि अत्ति) एवं भावप्रत्याख्यानं च। एते खलु षड्भेदाः (पञ्चक्खाणम्मि नायव्वा।" इति गाथादलं नियदसिद्धम्। अयंगाथासमुदायार्थः / अवयवार्थ तु यथावसरं वक्ष्यामः। तत्र नामस्थापने गतार्थे / आव०६अ। (3) अधुना द्रव्यप्रत्याख्यानं प्रतिपादयन्नाहनाम ठवणा दविए, खित्तें अदिच्छा य भावओ तं च। नामाभिहाणमुत्तं, ठवणाऽऽगारत्थक्खेवो / / 66|| दव्वम्मि निन्हगाई, निदिवसयाई अ होइ खित्तम्मि। भिक्खाईणमदाणे, अदिच्छ भावे पुणो दुविहं / / 17 / / इह प्रत्याख्याभीति वा प्रत्याचक्षे इति वा उत्तमपुरुषैकवचने द्वौ शब्दो। तत्राऽऽद्यः प्रत्याख्यामीति प्रतिशब्दः प्रतिषेधे, आङ्आभिमुख्यै, 'ख्या' प्रकथने / प्रति किम् ? आभिमुख्यं ख्यापनसावद्ययोगस्य करोमि प्रत्याख्यामि। अथवा- 'चक्षिङ्' व्यक्तायां वाचि। प्रतिषेधस्याऽऽदरेणाऽभिधानं करोमि / प्रत्याचक्षे प्रतिषेधस्याऽऽख्यानम् / (निविसयाई य होइ खेत्त म्म) निर्विषयाऽऽदि च भवति क्षेत्र इति। तत्र निर्विषयः स्यादि Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 86 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण टस्य क्षेत्रप्रत्याख्यानम् आदिशब्दान्नगराऽऽदिप्रतिषेधपरिग्रहः / / भिक्षाऽऽदीनामदाने (अदिच्छ ति) भिक्षण भिक्षा प्रभृतिकोच्यते आदिशब्दावरबाऽऽदिपरिग्रहः / तेषाभदाने सति अदित्सेति वचने अदित्सति प्रत्याख्यानमा(भावे पुण दुविहं ति) भाव इति द्वारपरामर्शः। भावप्रत्याख्यानं पुनर्द्विविधम-तत्र भावप्रत्याख्यानमितिभावस्य सावधयोगस्य प्रत्याख्यान भावप्रत्याख्यानं, भावतो वा शुभात्परिणामोत्पादात भावहेतोर्निवाणार्थ वा भाव एव वा सावद्ययोगविरतिलक्षण प्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्यानम् / इति गाथार्थः / / 67|| साम्प्रतंद्वैविध्यमेव दर्शयन्नाहमुअ-नोसुअ सुअदुविहं, पुवमपुव्वं तु होइ नायव्वं / नोमुअपञ्चक्खाणं, मूले तह उत्तरगुण अ॥६८|| (सुअणोसुअतिश्रुतप्रात्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च (सुययदुविह ति) श्रुतप्रत्याख्यानं द्विविधम। द्वैविध्यमेव दर्शयति (पुत्वमपुव्वं तु होइ नायव्वं ति) पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानम्, अपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं च भवति ज्ञातव्यमिति / तत्र पूर्वश्रुतप्रत्यख्यानं प्रत्याख्यानसंज्ञितं पूर्वमवे / अपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं त्वातुरप्रत्याख्या नाऽऽदिकमिति तथा- (नोसुयपच्चक्खाणं ति) मोश्रुतप्रत्याख्यानं च, श्रुतप्रत्याख्यानादित्यार्थः / (मूले तह उत्तरगुणे य ति) मूलगुणप्रत्याख्यानम्, उत्तरगुणप्रत्याख्यान चतत्र मूलगुणप्रत्याख्यान च देशसर्वभेदम्, देशतः श्रावकाणा, सर्वतर तु संयतानामिति। इहाधिकृतं सर्वम, सामायिकानन्तरं सर्वशब्दोपादनादितिगाथार्थः / / 6 / इच च वृद्धसंप्रदायः- ''पचक्खाणे उदाहरणरायधूयाए वरिसे मंस न खयियं / पारणए अणेगाण जीवाणं घाओ कओ, स हहिं सवोहिया पव्वइया। पुष्वं दवपञ्चवखाणं, परछा भावपचारवाणं जातं / " इति कृतं प्रसङ्गेन / प्रत्याख्यामीति व्याख्यातः सूत्रावयवः / आव०६ अ०। आ०म० हा०। अब सूत्राणि कइविहे णं भंते ! पचक्खाणे पण्णत्ते ? / गोयमा! दुविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते / तं जहा- मूलगुणपच्चक्खाणे य उत्तरगुणपच्चक्खाणे या मूलगुणपचक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? / / गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- सव्वमूलगुणपच्चक्खाणे य, देसमूलगुण-पचक्खाणे य / सव्वूमलगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते?। गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं० जाव परिग्गहाओ वेरमणं / देसमूलगुणपचक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा- थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं०जाव थूलाओ परिग्गहाओ वेरमाणां उत्तरगुणपच्चगुणक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- सवुत्तरगुणपच्चक्खाणे य, देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणे य। सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते। तं जहा"अणागयमइक्कतं, कोडीसहियं नियठियं चेय। सागारमणागारं, परिमाणकडं निरवसेसं / / 1 / / संकेयं चेव अद्धाए, पच्चक्खाणं भवे दसहा।" देसुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कइविहं पण्णत्ते? गोयमा! सत्तविहे पण्णत्ते / तं जहा-दिसिव्वयं, उवभोगपरिभोगपरिमाणं, अणत्यदंडवे रमणं, सामाइयं देसादगासियं, पोसहोववामो अतिहिसंविभागो, अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूसणाराहणता / / भ०७श०२ उ०। द्रव्यप्रत्याख्यानम्दव्वनिमित्तं दव्य, दव्वभूओ उ तत्थ रायसूआ! द्रव्यनिमित्त प्रत्याख्यानं वस्त्राऽऽदिद्रव्यार्थमित्यर्थः / यथा केषाश्चित क्षपकाणां तथा प्रत्याख्यानं तथा भूम्यादौ व्यवस्थितं करोति तथा द्रव्यभूतमुपयुक्तः स न करोति, तदप्यभीष्टफलरहिततत्वाद्दव्यप्रत्याख्यानमुच्यते। तुशब्दाव्यस्य द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यैरिति / क्षुण्ण श्वायं गार्गः। (तत्थ रायसुयति) अत्रकथानकम् - "एगस्स रन्नाधूता अण्णस्स रण्णो दिण्णा, सो य मओ, ताहे सारण्णा पिउणा आणीया, धम्म पुत्ति ! करेहि त्ति भणिया, गपासंडीणं दाणं देइ, अण्णया कत्तिओ धम्ममासा त्ति मसं न खामि ति पच्चक्खायं / तत्थ पारणए दंडिएहि अणेगाणि सतसहस्साणि मसत्याए उवणीयाणि, ताहे भत्तं दिजइ, जो भुंजइ तस्स नाणाविहाणि मसाणि दिति, तत्थ साधू अदूरे बालेता निमंतिता, तेहिं भत्तं गहियं, मंस नेच्छंति। सा रायधूया भणइ-किं तुब्भं न ताव कत्तियमासो पूरइ? ते भणति-जावज्जीवाए कत्तिओ ति / किं वा, कह वा ? ताहे ते धम्मकह कहेंति, मंसदोसे परिकहेति, पच्छा संबुद्धका पव्वइया / एवं तीसे दव्वपच्चक्खाण पच्छाभावपच्चक्खाणं जायं।" आव०६ अ० / विशे०। (4) अधुना अदित्साप्रत्याख्यान प्रतिपाद्यते, तवेदं गाथार्द्धमअदिछापचक्खाणं, बंभणसमणाण अइछं ति / / 3 / / आदत्साप्रत्याख्यानम् - हे ब्राह्मण ! हे श्रमण ! अदित्सेति नाम दातुमिच्छा न तु नास्ति, यद्भवता याचित, तस्यादित्सैव वस्तुनः प्रतिषेधाऽऽत्मिकेति कृत्वा प्रत्याख्यानमिति गाथादलार्थः। अधुना प्रतिषेधप्रत्याख्यानव्याचिख्यासयेदं गाथाशकलमाह - अमुगं दिज्जन मज्झं, नस्थि ममं तं तु होइ पडिसेहो। अमुकं घृताऽऽदि दीयता मह्यम् / इतरस्त्वाह- नास्ति मम तदिति, न तु दातु नेच्छा, एष इत्थंभूतो भवति प्रतिषेधः, अयमपि वस्तुतः प्रत्याख्यानमेव प्रतिषेध एव प्रत्याख्यानम् / (5) इदानीं भावप्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते तत्रेद गाथार्द्धम्मेसपयाण य गाहा, पचक्खाणस्स भावम्मि। शेषपदानामागमनोगमेत्यादीनां साक्षादिहानुक्तानां प्रत्यायख्यानस्य सबन्धिना गाथा कार्येति वाक्यशेषः / इह गाथा प्रतिष्ठोच्यते निश्चितिरित्यर्थः / 'गा'' प्रतिष्ठालिप्सयोरितिधातुवचनात्। (भादम्मि ति) द्वारपरामर्शः / भावप्रत्याख्याने इत्यर्थः / आव०६ अ०। अपेक्षा चाविधिश्चैवा-परिणामस्तथैव च। प्रत्याख्यानस्य विघ्नास्तु, वीर्याभावस्तयाऽपरः।।२।। अपेक्षा ऐहिकाऽऽमुष्मिकाथकाऽऽत्मिका अविधिर्विधिव्यतिरेकः, Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाण 87- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण विधिश्वायम्- "गिण्हइ सय गिही य, काले विणएण सम्ममुवउत्तो। अणुभासनो पइवत्थुजाणनी जाणगसगासे॥१॥" चशब्दौ समुच्चयाथी, एवकारोऽवधारणार्थः / तस्य चैव प्रयोगःअविधिरेव च, न तु विधिरपीत्यर्थः, तथा अपरिणामः प्रत्याख्यानप्रतिपत्तौ निजश्रद्धारूपपरिणापाभावः। तथैवयथा अपेक्षाऽऽदयो भावप्रत्याख्यानविघ्नाः, तथैवायमपति : शरदः समुच्चये। प्रत्याख्यानस्य भावतो नियमस्स,विघनास्तु तिघाला एव, द्रव्यप्रत्याख्यानदेवत एते अपेक्षाऽऽदय इत्यर्थः / वीर्य नियन्तिरामदायोपशमाऽऽदिसमुत्थो जीवपरिणामः, तस्याभावो बीयर्याभावः, त्यति यत्प्रकारा अपेक्षाऽऽदयस्तत्प्रकार: प्रत्याख्यानविघ्नोऽपराऽना इति / अयं च परिणामे सत्यपि प्रत्याख्यानपरिपालनहेतुत्वन प्रत्याख्यानविघ्नो भवतीति / / 2 / / अपेक्षाकृतप्रत्याख्यानं निष्फलत्वेनाप्रधानत्वादद्रव्यप्रत्याख्यानमित्यस्यार्थस्य प्रतिपादनायापेक्षां निन्दन्नाहलब्ध्याद्यपेक्षया ह्येत-दभव्यानामपि क्वचित्। श्रूयते न च तत्किञ्चि-दित्यपेक्षाऽत्र निन्दिता / / 3 / / लस्बिोजनाऽऽदिलाभआदिर्येषा यशःपूजाऽऽदीना ते लब्ध्या-दयः, तषु तेषा वा अपेक्षा स्पृहा लब्ध्याद्यपेक्षा, तया, हिशब्दो यस्मादर्थः / एतत प्रत्याख्यानम, अभव्यानामपि सिद्धिगभनायोग्यानीमपि, आस्ता भव्य नामित्यपिशब्दार्थः। क्वचिदवस्यान्तरे,यथाप्रवृत्तिकरणेनग्रन्थिप्रदेशमागताना, श्रूयते आगम आकर्यत / तथाहि- ''असजेयभवियैदबदवाण नं ! देवलो एसु उववजमाणाणं कहिं उववाए पन्नते?। गायमा ! जहन्नण भवणवईसु, उक्कोसेणं उवरिमगेवेजेसु।'' इह चासंयतनविकद्रव्यदेवा अभव्याः सन्तोये देवत्वेन भाविनस्ते व्याख्याताः। तथा"एगभगस्सा भते ! मणूसरस गेवेजग, देवत्ते केवइया दग्विदिया अईसा | गोयमा ! अणत त्ति।" द्रव्येन्द्रियाणि चत्वगादीनि शरीराणीति तात्पर्यम् / मेवाकोपपातश्च साधुलिङ्गेनैव, तत्र च प्रत्याख्यानमवश्यंभवतीति। आइ च- "आणोहेणाणता, मुक्का गेवेजगेसु उ सरीरा। न य तस्थासंपुन्ना-ए साहुकिरियाएँ उववाओ।।१।।" ततश्च किमित्याह -नच न पुनः तदपेक्षाजनितप्रत्याख्यानं, किञ्चिद्वस्तु मुमुक्षुविवक्षितभोक्षलक्षणं स्वफल प्रसाधकत्वात् स्वफलसाधकं हि वस्तु वस्तुत्वामाप्नोति, न पुनरन्यद्वन्यासुतवदिति। इतिशब्दो हेत्वर्थः / ततश्च यतोऽपेक्षाकृतप्रत्याख्यानमफलमतोऽपेक्षा भावप्रत्याख्याने विघ्नभूता, अत्र प्रत्याख्यानविषये, जिनशासने वा, निन्दिता गर्हितेति / / 3 / / ___ अथ विधेभीवप्रत्याख्यानविघ्नतामाहयथैवाऽविधिना लोके, न विद्याग्रहणाऽऽदि यत्। विपर्यथफलत्वेन, तथेदमपि भाव्यताम् / / 4 / / यथैव येनैव प्रकारेण, अविधिना अविधानेन प्रसिद्धेन, लोकेसामान्यजने, विद्यारहागाऽऽदि विद्यामन्त्रोपादानाऽऽदि, यत् किमपि यच्छब्दस्येह दर्शनात्तदित्यस्य च गम्यमानत्वान्न नैव तद्विद्याग्रहणाऽऽदिकंभवति स्व स्वभाव न लभत इत्यर्थः / कथ-मित्याह-विपर्ययेण वाञ्छितफलविपर्यासेन, फल यस्य तद्विपर्ययफलं, तद्भावस्तत्त्व तेन, मरणादिफलत्वेनेत्यर्थः / दान्तिकयांजनामाह- तथा तेनैव प्रकाऽऽरेण , अप्रत्याख्यानत्वेनेत्यर्थः। इदमपि अविधिकृतप्रत्याख्यानमपि, भाव्यता निरूप्यतामिति / प्रयोगश्चैवम्- अविधिप्रत्यख्यानमप्रत्याख्यानमेव, विपर्ययफलत्वात्। यद्यद्विपर्ययफलं तत्तन्न भवति अविधिप्रत्याख्यानमतः प्रत्याख्यानं न भवतीति / / 4|| अपरिणामकृतप्रत्याख्यानस्य द्रव्यप्रत्याख्यानतामाहअक्षयोपशमात् त्याग-परिणामे तथा सति। जिनाऽऽज्ञाभक्तिसंवेग-वैकल्यादेतदप्यसत्।।५।। क्षय उदीर्णस्य विरत्यावारककर्मणो विनाशः तेन सहोपशमस्तस्यैवानुदीर्णस्य विपाकोदयापेक्षया विष्कम्भितोदयत्वं क्षयोपशमः, तन्निषेधादक्षयोपशमात्, त्यागपरिणामे प्रत्याख्येयवस्तुविवेकपरिणतो, तथा तेन प्रकारेण देशसर्वविरतिनमस्कारसहिताऽऽदिप्रत्याख्यानप्रतिपत्तिलक्षणेन, असति अविद्यमाने / अनेन देशसर्वविरतिप्रत्याख्यानयोस्तथा तद्वतोरेव गृहस्थश्रमणयोर्नमस्कारसहिताऽऽद्युत्तरगुणप्रत्याख्यानस्य च द्रव्यतोक्ता। अथवा-तथेति यथाविधक्षयोपशमे सति त्यागपरिणामो भवति, तथाविधे त्यागपरिणामे असति / एतेन चाविरतसम्यग्दृष्टीनां वासुदेवऽऽदीनामभव्याऽऽदीनां च प्रत्याख्यायनस्य द्रव्यतोक्ता / अथ कथञ्चित् प्रत्याख्ये यवस्तुत्यागपरिणामेऽपि सत्यगव्याऽऽदेः कथ द्रव्यप्रत्याख्यानतेत्याशङ्कयाऽऽह-जिनाऽऽज्ञायामामाऽऽगम भक्तिबहुमानो जिनाऽऽज्ञाभक्तिः, सा च संवेगश्च मोक्षभिलाषो जिनाऽऽज्ञाभक्तिसवपो जिनाऽऽज्ञाभक्तेर्वा सकाशात्संवेगो जिनाऽऽज्ञाभक्तिसंवेग, तयोस्तस्य वा वैकल्यं विरहितत्वं जिनाऽऽज्ञाभक्तिसंवेगवैकल्यम्, तस्मात्। एतदुक्तं भवति-अभव्याऽऽदीनां त्यागपरिणामस्य संवेगाऽऽदिविकल्पतया अपरिणामत्वात्तद्द्य्यप्रत्याख्यानमिति / एतदपि न केवलमवधि प्रत्याख्यानमपरिणामप्रत्याख्यानमपि, असत् अशोभन, भावप्रत्याख्यानापेक्षया अप्रधानं द्रव्यप्रत्याख्यानमित्यर्थः / / 5 / / अथ वीर्याभावस्य द्रव्यप्रत्याख्यानहेतुतामाहउदग्रवीर्यविरहात्, क्लिष्टकर्मोदयेन यत्। बाध्यते तदपि द्रव्य-प्रत्याख्यानं प्रकीर्तितम्।।६।। उदगमुत्कट यद्धीर्य वीर्यान्तरायक्षमोपशमसंपन्नाऽऽप्मपरिणामलक्षणं, तस्य विरहो विच्छेद उदग्रवीर्यविरहः, तस्मादवधेः, क्लिष्टकर्मोदयेन तीव्रवीर्यान्तरायाऽऽदिकर्मविपाकेन कर्तृभूतेन, यत् प्रत्याख्यानं प्रतिपन्नमपि सद् बाध्यतेऽभिभूयते, वीर्योल्लासेन हि जीवः क्लिष्ट कर्म शमयति तदभावे च क्लिष्ट कर्मोदयो भवति। तेन च प्रत्याख्यानं बाध्यत इति वीर्याभावः प्रत्याख्यानबाधने हेतुः। अथवा-क्लिष्टकर्मोदयेन यो वीर्याभावस्तस्मात् प्रत्याख्यानं यद्बाध्यते जीवेनेति, तदपि न केवलमविधिप्रत्याख्यानं वीर्याभावप्रत्याख्यानमपि. द्रव्यप्रत्याख्यानमुक्तलक्षण, प्रकीर्तितं तत्त्ववेदिभिः, अन्यैस्तु व्याख्यातं कालान्तरेण भावप्रत्याख्यानकारणत्वात् द्रव्यत्वम्, अस्य सकृत्संजातो हि भावान्तरं जनयति / यदाह- "सइसजाओ भावो, पायं भावतरं जओ कुणइ।" इति / इह च द्रव्यशब्दो योग्यतावाची द्रष्टव्य इति // 6|| उक्तं द्रव्यप्रत्याख्यानम्। अथ भावप्रत्याख्यानमाहएतद्विपर्ययाद्भाव-प्रत्याख्यानं जिनोदितम्। सम्यक् चारित्ररूपत्वा-न्नियमान्मुक्तिसाधनम् // 7 // एतद्विपर्ययादपेक्षाऽऽदिकृतप्रत्याख्यानविपर्यासात्, अनपेक्षा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 88 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पञ्चक्खाण ऽऽदिकृतमित्यर्थः,भावप्रत्याख्यानमुक्तशब्दार्थ, भवतीति गम्यम् / किंभूतम् ?- जिनोदतम्-आलाभिहितम् / इह च प्रयोगः-यद्यस्य विपर्ययभूतं तत्तस्याभावेऽवश्यं भवति। यथा- छायाया अभावे सत्यातपः, द्रव्यप्रत्याख्यानविपर्ययभूतं च भावप्रत्याख्यानमिति द्रव्यप्रत्याख्यानाभावेऽवश्यं भवति प्रत्याख्यानसामान्ये सतीति / तच्च भावप्रत्याख्यानं किंफलमित्याह-नियमाद-वइयंभावेन मुक्तिसाधनं मोक्षकारणं साक्षात पारम्पर्येण वा कुत इत्याह-सम्यक् चारित्ररूपत्वाच्छोभनधरणस्वभावत्वातथा-भूतध्यानाऽऽदियोगवदिति दृष्टान्त ऊहा इति ||7|| द्रव्यप्रत्याख्यानं किमनर्थकमेव? नेत्याहजिनोक्तमितिसद्भक्त्या, ग्रहणे द्रव्यतोऽप्पदः। बाध्यमानं भवेद्भाव-प्रत्याख्यानस्य कारणम् // 8|| इहैवमक्षरघटना-अदएतत् प्रत्याख्यानं, ग्रहणे उपादाने, द्रव्यतोऽपि नकवलं भावतः, अपेक्षाऽऽदियोगेन द्रव्यतो गृहीतमपीत्यर्थः, भवेद्भावप्रत्याख्यानस्य कारणमिति योगः / कथंभूतं सदित्याह-जिनोक्तमाप्तप्रणीतमिति। एवमुल्लेखवती या सती शोभना प्रशस्ता भक्तिबहुमानविशेषा सा जिनोक्तमितिसद्भक्तिः, तया / अथवा-जिनोक्तमिति है तोः, शेष तथैव / वाध्यमानं निराक्रियमाणं, भवेत स्यात् / भादप्रत्याख्यानस्य परमार्थप्रत्याख्यानस्य, कारणं निमित्तं, जिनोक्तमिति सद्भक्तिर्हि द्रव्यप्रत्याख्यानहेतूनामपेक्षाऽऽदिभावानां विरुद्धा, अतो यत्र सा स्यात तषां निवृत्तभविप्रत्याख्यांनी भवति, न सर्वमेवेति भावनेति / / 8 / / हा० 8 अट / सूत्र० / आव०। (6) तं दुविहं सुअ नोसुअ, सुअं दुहा पुव्वमेव नोपुव्वं / / पुव्वसुअ नवमपुव्वं, नोपुव्वस इमं चेव / / 5 / / तद्भावप्रत्याख्यानं द्विविधं द्वियकारम्-(सुयं नोसुयं ति) श्रुत प्रत्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च। श्रुतप्रत्याख्यानं द्विधा भवतिपूर्वश्रुतप्रत्याख्यान, नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं च। (पुध्वसुयं नवमपुव्वं) पूर्वश्रुतप्रत्याख्यान नवमपूर्वे, प्रत्याख्यानपूर्वमित्यर्थः / (नो पुव्वसुयं इभचेव) नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानाध्ययनमिति / एतचोपलक्षणमन्यसऽऽतप्रत्याख्यानाऽऽदि पूर्वबाह्यमिति गाथार्थः / / 5 / / अधुना नोश्रुतप्रत्याख्यानप्रतिपादनायाहनोसुअपचक्खाणं, मूलगुणा चेव उत्तरगुणे अ। सूले सव्वं देसं, इत्तरियं आवकहिअंच।।६।। मूलगुणा वि अदुविहा, समणाणं चेव सावयाणं च / ते पुण विभज्जमाणा, पंचविहा हुंति नायव्वा / / 7 / / (नोसुयपचक्खाणं ति) श्रुतप्रत्याख्यानं न भवति नोश्रुतप्रत्याख्यानम् (मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य) मूलगुणाश्चाधिकृत्योत्तरगुणाश्च मूलभूता गुणाः, त एव प्राणातिपानाऽऽदिनिवृत्तिरुपत्वात प्रत्याख्यानं वर्तते। उत्तरभूता गुणारत्र एवाऽशुद्धपिण्डनिवृत्तिरूपत्वात्प्रत्याख्यान, तद्विषयं वा अनागताऽऽदि वा दशविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानमा (मूले सव्वे देस त्ति) मूलगुणप्रत्याख्यानं द्विधासर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानं च। सर्वभूलगुणप्रत्याख्यानं पक्ष महावतानि, देशमूलगुणा:याख्यानं पञ्चाणुव्रतानि / इदं चोपलक्षण वर्त्तते, यत उत्तरगुणप्रत्याख्यानमपि द्विधैवसर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं च। तत्र सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं दशविधम् - " अणागयमइक्वंतं " इत्याद्युपरिटाद्वक्ष्यामः / देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं सप्तविधम् त्रीणि गुणव्रतानि, चत्वारि शिक्षाव्रतान्यप्युर्द्ध वक्ष्यामः / पुनरुत्तरगुणप्रत्याख्यानमोघवो द्विविधिम्''इत्तरियमावक हियं / ' यदित्वरं साधूनां किचिदभिग्रहाऽऽदि, श्रावकाणां तु चत्वारि शिक्षाव्रतानि / यावत्कथिकं तु नियन्त्रितं यत्कान्तारदुर्भिक्षाऽऽदिष्वपि न भज्यते, श्रावकाणां तु त्रीणि गुणव्रता" नीति गाथार्थः। साम्प्रतं स्वरूपतः सर्वभूलगुणप्रत्याख्यानमुपदर्शयन्नाहपाणवह मुसावाए, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव। समणाणं मूलगुणा, तिविहं तिविहेण नेयव्वा।।। प्राणा द्वीन्द्रियाऽऽदय / तथा चोक्तम्- पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छवासनिश्वासमथान्यदायुः / प्राणा दशैते भवद्भिरुक्तास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा // 1 // " तेषां वधः प्राणवधो जीवबधः, तस्मिन् मृषावदनं मृषावादस्तस्मिन्, असदभिधान इत्यर्थः / (अदत्त त्ति) उपलक्षणत्वाददत्ताऽऽदाने परस्वापहारे इत्यर्थः / (मेहुण ति) मैथुनमब्रहासेवने (परिगहे चेव त्ति) परिगृहे चैव / एतेषु विषयभूतेषु श्रमणानां साधूनां मूलगुणाः प्रथमगुणास्त्रिविधत्रिविधेन योगत्रयकरण येन नेतव्या अनुसरणीयाः / इयमत्र भावनाश्रमणः प्राणातिपाताऽऽदिविरतरित्रविधं त्रिविधेन "तत्थ तिविहे तिन करेइन कारवेइ न करेतं पि अन्नं समगुजाणइ, तिविहेणं ति मणेण,वायाए, कारणं।'' एवमन्यमपि योजनीयमिति गाथार्थः / / 8 / / इत्थं तावदुपदर्शितं सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानम्। अधुना देशमूलगुणप्रत्याख्यानावरसरः, तच श्रावकाणां भवतीतिकृत्वा विनेयानुग्रहाय तद्धर्मविधिरेवौधतः प्रतिपादनीयः / आव० 4 अ०। आ०चू० / श्रा०॥ तत प्रत्याख्यानद्वारे मूलगुणप्रत्याख्यानोदाहरणमाहकोडीवरिसे चिलाए, जिणदेवे रयणपुच्छ कहणा य। साएए सत्तुंजय-वीरे कहणा य संबोही।।१।। 'साकेतनगरे क्षीण-शत्रुः शत्रुनयों नृपः। जिनदेवः श्रावकोऽगा-त्कोटीवर्षपुरेऽर्जितुम् / / 1 / / तत्रानार्यश्चिलातो राट्, तस्ये रवान्यढोकयत्। विस्मितस्तैशिचलातोऽस, कैतानीति तमद्रवीत् // 2 // जिनदेवोऽभ्यधादस्म-द्राज्ये सन्ति बहून्यपि। सोऽभ्यधादहमप्यमि, तत्र रत्नानि वीक्षितुम् / / 3 / / परं विभमि ते राज्ञो, मा भैमीरिति सोऽवबीत्। तन विज्ञप्तिका प्रेषि, राज्ञस्तेनोक्तमत्वसौ॥४|| श्रावकेण स आनिन्ये, तदानीं च जिनेश्वरः। श्रीवीरः समवासार्षी-तत्र शत्रुञ्जयो नृपः / / 5 / / सर्वदा निर्ययौ नन्तुं, पौराश्च सपरिच्छदाः। जिनदेवं चिलातोऽथा-प्राक्षीत् कुत्रेत्ययं जनः? ||6|| द्रष्टु रत्नानि सोऽवादी-ततो द्वावपि तौ गतौ / दृष्ट्वा समवसरणं, चिलातोऽजीव विस्मितः॥७|| प्रभु प्रणम्य रत्नानि, पत्र.छाथ सविस्तरम्। तस्याऽऽख्यद्रव्यरत्नानि, भावरत्नानि च प्रभुः // 5 // आद्य सामायिक सार, सचतुर्विशतिस्तवम्। तार्तीयीकं वन्दनक, प्रतिक्रमणराङ्गतम् / / 6 / / कायोत्सर्गस्तथा प्रत्याख्यानं रत्नानि भावतः / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 86 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण तेजः प्रभावःक्तानि, गृहाणाऽऽत्मविभूषणम्।।१०।। चिलातः प्रतिबुद्धोऽथ, भावरत्नान्ययाचत। महावतानि रत्नानि, स्वामी तस्य ततो ददौ / / 11 / / " उतरगुणप्रत्याख्यानोदाहरणमाहवाणारसी अनयरी, अणगारे धम्मघोसयधम्मजसे / मासस्स य पारणए, गोउलगंगाइअणुकंपा।।१।। "वाराणस्यां चतुर्मासी, धर्मघोषमुनिः स्थितः। तथा धर्मयशास्तौ द्वौ, मासान्मासाच भोजिनौ / / 1 / / तुर्यपारणकस्याहि, मा भूव नित्यवासिनी। कृत्वा सूत्रार्थपौरुष्यौ, निरगातां महाऋषी / / 2 / / शारदेनाऽऽतनाथा-भ्याहतौ बाधितौ तृषा / साहवोमुत्तरन्तौ तौ, मनसाऽप्यम्बु नक्षताम् / / 3 / / र देव्यावृता तीरे, घोषान्निर्माय वैक्रियान्। आजूहात्ती भिक्षार्थ, दृष्ट्वा तामुपयुज्य च / / 4 / / ज्ञात्वा सूरी निराकृत्य, प्रस्थितावथ देवता। धनेऽनुकम्पवा वर्षा, वार्दलै भूमिरार्द्रिता / / 5 / / गीतो वातश्च तैराप्या-यितौ तौ ग्राममीयतुः / भिक्षा तत्राऽऽददे ताभ्यां नैवोत्तरगुणाःक्षताः // 6 // " आक०४ अ०। (७)श्रावकधर्मःसावगधम्मस्स विहिं, वुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं / जं चरिऊण सुविहिआ, गिहिणो वि सुहाइँ पावंति।।६।। स्त्राभ्युपेतसम्वतः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः साध्वासातन मनगारिणां सामाचारी शृणोतीति श्रापका इति / उक्तं च"यो ह्यभ्युपेतः सम्यक्त्वे, यतिभ्यः प्रत्यहं कथाम्। शृणोतिधर्मसंबद्धा सौ श्रावक उच्यते॥१॥ श्रावकाणां धर्मः श्रावकधर्गः, तस्य विधिः, त च वक्ष्येडिमिधारये, किंभूतम्?, धीरपुरुषप्रज्ञप्तं महासत्त्वमहाबुद्धितीथंडूरगणधरप्ररुपितमित्यर्थः, तं चरित्वा सुविहिता गृहिणोऽपि सुखान्यहिकाऽऽनुष्मिकानि प्राप्नुवन्तीति गाथार्थः / तत्रसामिग्गहा य निरभि-ग्गहा य ओहेण सावया दुविहा। ते पुण विभज्जमाणा, अट्ठाविहा हुंति नायव्वा।।१०।। अभिगृह्यन्त इत्यभिग्रहाः प्रतिज्ञाविशेषः, सह अभिग्रहैवर्तन्त इति साभिग्रहाः, ते पुनरनेकभेदा भवन्ति / तथाहि- देशमूलगुणोत्तरगुणेषु सर्वेष्वेकस्मिन भवन्त्येव तेषामभिग्रहाः, निर्गता अभिग्रहा येभ्यस्ते निरभिग्रहाः, ते च केवलसम्यग्दर्शनिन एव, यथा कृष्णशत्यकिश्रेणिकाऽऽदयः, इत्थमोघेन श्रावका द्विविधा भवन्ति, पुनर्द्विविधा अपि विभज्यमाना अभिग्रहग्रहणविशेषेण निरूप्यमाणा अष्टविधा भवन्ति ज्ञातव्या इति गाथार्थः। तत्र यथाऽष्टविधा भवन्ति तथोपदर्शयन्नाहदुविहतिविहेण पढमो, दुविहदुविहेण वीअओ होइ। दुविहं एगविहेणं, एगविहं चेव तिविहेणं / / 11 / / एगविहं दुविहेणं, इक्किक्कविहेण छट्ठओ होइ। उत्तरगुणसत्तमओ, अविरयओ चेव अट्ठमओ।।१२।। इह योऽसौ कक्षनाभिग्रहं गृह्णाति, स होवंविधं द्विविधमिति कृतकारी, तत्त्रिविधेनेति मनसा वाचा कायेनेति। एतदुक्तं भवति स्थूलप्राणातिपातं नकरोत्यात्मना, नकारयत्यन्यैर्मनसावाचा कायेनेति प्रथमः, अस्यानुमतिरप्रतिषिद्धा, अपत्यादिपरिग्रहसद्भावात्, तद्व्यापत्तिकरणे च तस्यानुमतिप्रसङ्गाद, इतरथा सपरिग्रहापरिग्रहयोरविशेषण प्रब्रजिताऽप्रव्रजितयोरभेदापत्ते रिति भावना / अत्राऽऽहननुभगवत्यादावागमे त्रिविधेनेत्यपि प्रत्याख्यानमुक्तमगारिणस्तच्च वस्तुनोक्तत्वादनवद्यमेव, तदिह करमान्नोक्तं नियुक्तिकारेणेति। अत्रोच्यतेतस्य विशेषविषयत्वात्। तथाहि-किल यः प्रविव्रजिषुरेव प्रतिमा प्रतिपद्यते पुत्राऽऽदिसंततिपालनाय, स एव त्रिविधत्रिविधेनेति करोति, तथा विशेष्यं वा किसिद्धस्तु स्वयंभूरमणप्रत्स्याऽऽदिकं, तथा स्थूलप्राणतिपाताऽऽदिक चेल्यादि, न तु सकलसावधव्यापारविरमणमधिकृत्ये ति। ननु च नियुक्तिकारण स्थूलप्राणातिपाताऽऽदावपि त्रिविधं त्रिविधेनेति नोक्तो विकल्पः, 'वीरवयणम्मि एते, वत्तीस सावया भणिया।" इति वचनाद्, अन्यथा पुनरधिकाः स्युरिति। अत्रोच्यते- सत्यमेतत् किं तु बाहुल्यपक्षमेवाङ्गीकृत्य नियुक्तिकारेणाभ्यधायि, तत्पुनरवस्थाविशेष कदाचिदेव समाचर्यते, न सुष्ठसाधुसामाचार्यनुपति, तत्रोक्तं बाहुल्येन तु द्विविधे (वीयओ इति) द्विविधमिति स्थूलप्राणातिपातं न करोति, न कारयति द्विविधेनेति मनसा वाचा। यद्वा मनसा कायेन। यद्वा-कायेन वाचा। इह च प्रपातोपरार्जनभावविवक्षायां चार्थो वाऽऽशयः, तत्र यदा मनसा वाचा त्रिविधनेत्यादिभिरवषभिर्विकल्पे सर्वस्यागारिणः सर्वमेव प्रत्याख्यानं भवतीति न कश्चिद्दोष इत्यलं प्रसङ्गेन। प्रकृतं प्रस्तुमः-(दुविध दुविधेणं) न करोति न कारयति, तनूमनसाऽभिसन्धिरहित एव, वाचाऽपि सहिंसकमबुधन्नेव कायेनेव कायेन दुश्चेष्टिताऽऽदिन करोत्य-संज्ञिवत्। यदा तु मनसा कायेन च न करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिमधिकृत्य करोत्यनुमतिश्रुतिभिरपि सर्वत्रैवा-स्तीति भावना। एवं शेषा विकल्पा अपि भावनीया इति / (दुविहमेगविहेणं ति) द्विविधमेकविधेन एकबिधं चैव त्रिविधेनेति गाथार्थः / (एगविहदुविहे त्ति) एकबिधद्विविधन (इक्के कविहेन छट्टओ होइ) एकविधमेविधेन षष्ठो भवति भेदः / (उत्तरगुणसत्तमओ) प्रतिपन्नोत्तरगुणः सप्तमः / इह च संपूर्णासंपूर्णोत्तरगुणभेदमनादृत्य सामान्येनैक एव भेदो विवक्षितः / (अविरयओ अट्ठमओ त्ति) अविरतश्चेवाष्टम इति अविरतसम्यग्दृष्टिरिति गाथार्थः। इत्थमेतेऽष्टौ भेदाः प्रदर्शिताः, एत्रे एव विभज्यमाना द्वात्रिंशद्भवन्ति ? कथमित्यत आहपणग चउक्कं वि तिगं, दुगं च एगं च गिण्हइ वयाई। अहवा वि उत्तरगुणे, अहवा वि न गिण्हई ते वि।।१३|| (पणग त्ति) पञ्चाणुव्रतानि समुदितान्येव गृह्णाति कश्चित्तत्रोक्तलक्षणाः षड् भेदा भवन्ति। (चउक्कं वित्ति) तथाऽणुव्रतचतुष्टयं गृह्णात्यपरस्तत्रापि षडेव, एवमणुव्रतत्रयं गृह्णयात्यत्रापिषडेव / (दुगं च त्ति) इत्थ मणुव्रतं व्दयं गृह्णाति तत्रापि षडेव. (एगं च त्ति) तथाऽन्य एकमेवाणुव्रतं गृह्णाति, तत्रापि षडेव। (गेण्हइ वयाई) इत्थमनेकधा गृह्णाति व्रतानि, विचित्र स्वाछावकधर्मस्य / एवमे ते पशषट्काः त्रिशद्भवन्ति / प्रतिपन्नोत्तरगुणेन सहकत्रिंशत्। तथा चाऽऽह (अहवा वि उत्तरगुणे त्ति) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 80- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण अथवोत्तरमुणाँश्च गुणव्रताऽऽदिलक्षणान गृह्णाति, केवलसम्यग्दर्शनिना सह द्वात्रिंशद्भवन्ति / तथा चाऽऽह- (अहवा विन गेण्हई ते वि) अथवान गृह्णाति तानप्युत्तरगुणानिति केवलसम्यग्दृष्टिरवेति गाथार्थः / ___ इह च पुनर्मूलगुणोत्तरगुणानामाधारसम्यक्त्वं वर्तते। तथा चाऽऽहनिस्संकिअनिकंखिअ, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ। वीरवयणम्मि एए, वत्तीसं सावया भणिआ॥१४॥ शङ्काऽऽदिस्वरूपमुदाहरणद्वारेणोपरिष्टाद्वक्षयामः। वीरवचने भगवन्महावीरवर्द्धमानस्वाभिप्रवचने, एतं अनन्तरोक्तद्वात्रिंशदुपासकाः श्रावकाः भणिता उक्ता इति गाथार्थः / “एए चेव बत्तीसं तिविहाकरणतियजोगतियकालतिएण य विसेसिज्जमाणा सीयालं समणोवासगस्स य भवंति / कहं ? पाणाइवायं न करेइ मणसा 1, अहवा-पाणातिवातं न करेइ वायाए 2, अहवा-पाणातिवाय न करेइ कारण 3, अहवापाणातिवायं न करेइ मणेण वायाए य 4, अहवा-पाणाति-पातंण करेति मणेणं कारण य५, अहवा-पाणातिवायं न करेइ वाया काएण य 6, अहवा-पाणातिपात न करेइ मणेण वायाएकाएण य 7 / एते रात्त भगा करणेण। एवं कारवणेण वि एते चेव सत्तभंगा 7 // 14 // अणुमोयणेण वि सत्त भंगा 21 / अहवा-न करेइ न कारवेइ मनसा १,अहवा-न करेइ न कारवेइ वयसा 2, अहवा-न करेइन कारवेइ कारण 3, अहवा-न करेइन कारवेइ मनसा वयसा 4, अहवा-न करेइन कारवेइ मनसा कायेन 5, अहवा-न करेइन कारवेइ वयसा कायेन 6 / अहवा-न करेइ न कारेइ मनरा वयसा कायेन 7 / एते करणकारणेहिं सत्त भंगा। एवं कारणाणुमोयणेहिं वि सत्तभंगा 7 / एवं कारवणअणुमोयणेहिं वि सत्त भंगा 7 एवं कारणाणुमोय-णेहिं वि सत्त भंगा 7 / एवमेते सत्त सत्त भंगा एणूणपण्णासविगप्पा भवंति। तत्थ इमो एगूणपण्णासमो विगप्पोपाणातिवायं न करेइ, न कारवेइ, करतं पि अण्णं न समणुजाणाति / मणेणं वायाए कारण ति, एस अंतिमविगप्पो 146 पडिमापडिवण्णस्स समणोवासगस्स तिविहं तिविहेण भवतीति। एवं अतीताएकाले पडिक्कमतरस एगूणपण्णासा भवंति। एवं पडुप्पण्णे विकाले एगूणपण्णासा भवंति। एवं अणागतेच काले पचक्खेय तस्स एगूणपण्णासाओ तिण्णि|१४|| सीआलं भंगसयं, पञ्चक्खाणम्मि जस्स उक्लद्धं / सो खलु पच्चक्खाणे, कुसलो सेसा अकुसला उ॥१५॥ तिन्नि तिआ तिन्नि दुआ, त्रिन्नि सिक्का य हुंति जोगेसु। ति दु एगं ति दु एगं, ति दु एगं चेव करणाइं / / 16 / / पढमे लब्भइ एगो, सेसेसुपएसु तिअतिअ तिअंति। दो नव तिअ दो नवगा, तिगुणिअसीआलभंगसयं / / 17 / / सीयालं सावयसय हवइसीयालभगसतगं जस्स विसोहीए होइ उवलद्ध, सो खलु पच्चक्खाणे अकुसलओ, एयं पुण पंचहिं अणुव्वयेहिं पुणिय सत्त सयाणि सावयाणि भवंति। अहवा-अणुव्वए चेव पडुच्च एकगादिसंजीगदुवारेण पभूततरा भेदा निदंसिजति।" तत्रेयमेकाऽऽदिसंयोगपरिमाणप्रदर्शनपराऽन्यकर्तृकीगाथार्य आव० 6 अ०। अथेदं प्रत्याख्यान यतिगृहस्थयोर्भेदेन व्यवस्थापयन्नाहकरणतिगेणेकेक, कालतिगे तिघणसंखियमिसीणं। सव्वं ति जओ गहियं, सीयालसयं पुण गिद्दीणं / / 3540 / / अत्र न करोमि न कारयामि इत्यादिकमकैकं योग मनःप्रभृतिना करणत्रयेण सह कालत्रिके चारयेत् / ततश्च त्रयाणां यो घनः सप्तिविंशतिलक्षणः, तत्संख्यक भङ्ग कसंख्यामाश्रित्य तत्संख्याप्रमाणमृषीणा साधूनाम, अवबुध्यते इति शेषः। करमाद् ? इत्याह-यतः सर्व सावा योग प्रत्याख्यामि, इति साधोः प्रत्याख्यानं गृहीत, ततस्तत्प्रत्याख्यानभङ्ग कानामेतत्संख्याप्रमाणता, असर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यायिना पुनर्गृहिणां प्रत्याख्यानस्य सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं विज्ञेयमिति / इयमत्र भावनात्रिविध त्रिविधेनेत्यनेन सर्वसावद्ययायेगप्रत्याख्यानादर्थतः साधुप्रत्याख्यानस्य सप्तविंशतिर्भङ्गाः सूचिताः। ते चैव भविन्तयन्न करोति तन्मनसा वाचा कायेन, एवं न कारयत्यपि मनसा वाचा कायेन, एवं न समनुजानीते च मनसा वाचा कायेन इत्येवं वर्तमानकाले नव भड़ा भवन्ति, एवमतीतेऽपि नव भविष्यन्ति, भविष्यत्यपि नव, इत्ययं सप्तविंशतिर्भङ्गाः साधुप्रत्यख्यायनस्य भवन्ति / गृहिणन्तर्हि कथं सप्तचत्वारिंशं भङ्ग कशतमिति चेद् ? उच्यते -गृही सावा योगं न करोति, न कारयति, नान्यं समनुजानीते, मनसा वाचा कायेन चेत्येको भङ्गः 1, अथवा-न करोतिनकारयति नानुजानीत मनसा वचसा च 2, अथवामनसा कायेन च 3, अथवा-वचसा कायेन च 4, अथवा-न करोति न कारयति नानुजानीते मनसा 5. अथवा-वचसा 6, अथवा-कायेन , अथवा न करोति न कारयति मनसा वाचा कायेन 8, अथवा न करोति नानुजानीते त्रिभिरपि करणैः 6, अथवा-न कारयति नानुजानते त्रिभिरपि करणैः 10, अथवा-न करोति नकारयति मनसा वचसा 11, अथवा मनसा कायेन च 12, अथवा-वचसा कायेन च 13, अथवा-न करोति नानुजानीत मनसा वचसा 14, अथवा-मनसा कायेन 15, अथवा-वचसा कायेन 16, अथवा-कारयति नानुजानीते मनसा वचसा 17, अथवा-मनसा कायेन 18, अथवा-वचसा कायेन 16, अथवा-न करोति न कारयति मनसा 20, अथवा-वचसा 21, अथवा-कायन २२,अथवा न करोति नानुजानाति मनसा 23, अथवा वचसा 27, अथवा-कायेन 25, अथवा -न कारयति मनसा 26, अथवा वचस्प 27, अथवा-कायेन 28, अथवा-नकरोति मनसा वचसा कायेन 26, अथवा न कारयति 30, अथवा नानुजानीते 31, अथवा-न करो ते मनसा वचसा 32, अथवा-मनसा कायेन 33, अथवा-वचसा कारान 34. अथवा-न कारयति मनसा वचसा ३५,अथवा मनसा-कायेन 36, अथवा-मनसा कायेन 37, अथवा-नानुजानीते मनसा वचसा 38, अथवा-मनसा कायेन 36, अथवा-वचसा कायेन 40, अथवा-न करोते मनसा 41, अथवा-वचसा ४२.अथवा-कायेन ४३,अथवा-नकारयति मनसा 44, अथवा-वचसा 45, अथवा-कायेन 46, अथवा-नानुजानीले मनसा 47, अथवा-वचसा 48, अथवा-कायेन 46, एवमेते वर्तमानकाले एकोनपञ्चाशद्भङ्गा दर्शिताः, एवमतीते भविष्यते च प्रत्येकमेते द्रष्टव्याः। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 61 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण ततः सर्वेऽपि सप्तचत्वारिंशं शतं भङ्गानां भवति। अत्र चायं भावार्थः "तिविह तिविह। पढ़मो, तिविहं दुविहेण वीअओ होइ। तिविह एकविहण दुविहं तिविहेण ति चउत्थो / / 1 / / दुधिह दुधिहण पंचम, दुविहेक्कविहेण छट्टओ होइ। एक (दु) विहं तिविहणं, दुविहेण य सत्तमट्टमओ। एकविहभाविहाग, नवमो पढमम्मि, एक्कभंगोय। मेसंसु तिन्नि तिनि य, तिन्नि य नव नव य तह तिन्नि॥३॥ ना नव व हों ति कमसो, एए सव्वे वि एगुणव्वन्ना। कालतिएण गुणिया. सीयालसयं तु भंगाणं / / 4 / / अह कह पुण मगसा, करणं कारावणं अणुमईय। तह वइतणुजोगेर्हि, करणाई तह भवे मणसा // 5 // तदहीणत्ता वयतणु-करणाईणमहव-मणकरणं। सवत्रजोगमणणं, पन्नत्तं वीयरागेहिं / / 6 / / कारवण पुण भणसा, चिंतेइ कारओ एस सावज्ज / चितेइ में च करओ, सुटु कयं अणुमई होइ॥७॥" इत्यलं विस्तरेण / तदर्थना तु प्रज्ञस्यादिग्रन्थाः समनुसरणीया इति। 3540 / / एते च नङ्गग यस्यार्थतोऽवगताः स एव सामायिकप्रत्याख्यानकुशल इति दर्शयन्नाहसीयालं भंगसयं, पचक्खाणम्मि जस्स उवलद्धं / सो सामाइयकुसलो, सेसा सव्वे अकुसला उ।।३५४१।। मताथां // 3541 // अत्रिविध त्रिविधेनेति गृहस्थप्रत्याख्यानस्य प्रथम भङ्गमाश्रित्याऽऽक्षेम्परिहारादाहकेई भणंति गिहिणो, तिविहं तिविहेण त्ति संवरणं / तं नाजओ निद्दिट्ट, पन्नत्तीए विसेसेउं // 3542 / / तो कह निप्फत्तीए-ऽणुमइनिसेहो त्ति सो सविसयम्मि। सामण्णे णऽन्नत्थ उ, तिविहं तिविहेण को दोसा ?!|3543 / / पुत्ताइसंतइनिमि-तमित्तमेकारसिं पवन्नस्स। जपंति केइ गिहिणो, दिक्खाभिमुहस्स तिविहं ति॥३५४४|| एताः तिस्त्रोऽपि पूर्वमुपोद्धाते "किं कइविहं" इत्यादिगाथाया करय सामायिक भवतीतिद्वारे विस्तरेण व्याख्याता एव, नवरं सामान्येन स्वविषयवहिगि चिन्ताभुत्सृज्य प्रत्याख्याने क्रियमाणे निर्युक्तावनुमतिनिषेध उक्तः, अन्यत्र तु विशेषतो विषयबहिर्भागे त्रिविध त्रिविधेनेति न दोष इति। अपरस्त्वाहजुत्तं संपयमिस्सं, संवरणं कहमतीयविसयं तु / कहमउणवन्नभेयं, कए व न कहं मुसावाओ? ||3545 // युक्त साम्प्रतष्यतोः कालयोः सावायोगस्य संवरणं प्रत्याख्यानं, तयोस्तस्या ऽद्याप्यनासेवितत्वात् / अतीतकालविषयं तु तत्कथ युक्तना? पूर्वमेव तस्याऽऽसेवितत्वात् / कथं च तदतीतसावद्ययोगप्रत्याख्या मेकोनपञ्चाशद्दं वक्तुं युज्यते, मूलत-एवासंभवात्? कृते वा तस्मिन्नतीतसावधप्रत्याख्याने कथं न मृषावादः, असद्भूतविषयत्वादिति ? / / 3545 // अत्र परिहारमाहनिंदणमईयविसयं, न करेमिच्चाइवयणओऽभिहियं / अणुमइसंवरणं वाऽ-तीतस्स करेमि जंभणियं / / 3546 / / अतीतसावद्ययोग न करोमि न कारयामीत्यादिवचनतोऽतीतकृतसावद्ययागविषय निन्दनमहीमदानी करोभीत्यभिहितं सुष्ठु तदा सावधयोगाऽऽसेवनं भया कृतम् इत्येवंरूपाया अनुमतेर्वा संवरणमतीतस्य सावद्ययोगाऽऽसेवतस्य इदानीं करोमीति यद्भणितं भवति-न करोमि इत्यादिना अतीतरय संवरणं रोमीत्येतदुक्तं भवतीत्यर्थः // 3546 / / परिहारान्तरमाहअहवा तयविरईओ, विरमे संपयमईयविसयाओ। संपइसावजा इव, पवज्जओ को मुसावाओ? ||3547 / / अथवा तस्मात् सावद्ययोगादविरतिस्तदविरतिः तस्यास्तदविरतेरतीतविषयायाः साम्प्रतसावद्यादिव विरमामि साम्पतमहमित्येवमतीतकालविषयप्रत्याख्यानं प्रपद्यमानस्य को मषावादः ? न कश्चिदिति // 3547 // आह. "ननु न करेमि न कारवेभि न समणुजाणामि'' इत्येतावतैव विवक्षितार्थसिद्धेः "करंत पि अन्नं" इत्येतत्किमर्थमुक्तम् ? इत्याशक्याऽऽहन समणुजाणंति गए, करेंतमन्नं पि यं सुएऽभिहियं / संभावणेऽविसद्दो, तदिहोभयसद्दपज्झत्थो।।३५४८।। "न करमि न कारयेमि न समणुजाणामि।" इत्येतावतैव गते सिद्धे यत्- 'कर्रेत पि अन्न'' इति प्रस्तुतसामायिकश्रुतेऽभिहितं, तदिह "करेंतमन्नं" इत्युभयशब्दयोर्मध्यस्थी मध्ये वर्तमानः, अपिशब्दः संभावने यथा स्यादित्येतदर्थभवगन्तव्यमिति / / 3548|| किं पुनरयनधिक संभावयतीत्याहन करेतं पित्ति न का- रवेंतमवि नावि याणुजाणंतं / न समणुजाणेमि न कारयामि अवि नाणुजाणामि ||3546 / / अन्नं पि अप्पयं पिव, सहसाकाराइणा पयत्तंतं / इह सव्वो संगहिओ, कत्ताकिरियापरंपरओ।।३५५०|| यथा-आत्मान सहसाऽऽकारादिना सावद्ययोगे प्रवर्तमानं सुष्टु कृतमित्येव न समनुजानामि, किंतु मिथ्यादुष्कृतदानाऽऽदिना ततो निवर्तयामि, इत्येवं कुर्वन्तमपिशब्दात्कारयन्त्रमपि अनुजानन्तमप्यन्य न रामनुजानामि, यथा चान्यं कुर्वन्तं न कारयामि, एवमपि शब्दात्कारयन्तमप्यन्यं न कारयामीत्याहयथा चान्यं नानुजानाम्येवमपिशब्दादनुजानन्तमप्यन्य नानुजानामि, इत्यादिप्रकारेण संभवन् सर्वोऽपिकर्तृक्रियापरम्परकोऽपिशब्देनेह संगृहीत इति॥३५५०।। अथवा त्रिकालोपसंग्रहार्थमपिशब्द इति दर्शयन्नाहन करितं वा भणिए, अविसदा न कयवंतमिचाई। समईयमागमिस्सं, तह न करिस्सं तमिच्चाई ||3551 / / अथवा कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामीति वर्तमानकालमाश्रित्य भणिते अपिशब्दात्समतीतमपि कालमनुसृत्य तद् द्रष्टव्य, कृतवन्तमप्यादिशब्दात्कारितवन्तमप्यनुज्ञातमप्यन्यं नानुजानामीति। तथा- आगमिष्यन्तमपि कालमगीकृत्याऽऽदिशब्दादेतद् दृश्यम्, करिष्यन्तम - प्यादिशब्दात् कारयिष्यन्तमप्यनुज्ञास्यन्तमप्यन्य नानुजानामीति / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 62 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण अथवा अन्यथा त्रिकालोपसंग्रह इत्याहसव्वं पञ्चक्खामि, त्ति वा तिकालोवसंगहोऽभिमओ। अभिसद्दांओ तस्से-व कत्तकिरियाऽभिहाणं ति।।३५५२।। अथवा-सर्व सावधं योग प्रत्याख्यामि इत्यनेन सामान्याभिधानेन त्रिकालसंग्रहोऽभिमतः, अस्मादेव सामान्याभिधानादतीते संप्रति भविष्यति च काले सर्व सावद्ययोग प्रत्याख्यामीति गम्यत इत्यर्थः। इदानीं तु "करेंतं पि अन्नं'' इत्यत्रापिशब्दात्तस्यैव कालत्रयस्य संबन्धे कर्तृक्रियाऽभिधानमभिहितं, यथा वर्तमानकाले अहं न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमन्यं न समनुजानामि तथा अपिशब्दादतीते भविष्यति च कालेन करोमिन कारयामि कुर्वन्तमन्यं न समनुजानामीति प्रत्यकमवगन्तव्यमिति / / 3552 / / अत्राऽऽक्षेपं परिहारं चाऽऽहएवं सव्वस्सासे-सविसयओऽतीयणागएसं पि। पावइ सव्वनिसेहो, भण्णइ तं नाववायाओ॥३५५३।। नन्वेवमुक्तप्रकारेणातीऽतेनागते च सर्वस्मिन्नपि काले आसेवितस्याऽऽसेविष्यमाणस्य च सर्वस्यापि सावधयोगस्य निषेधः प्राप्नोति / कुतः? इत्याह- (सव्वस्सेत्यादि) सर्वस्य सर्वशब्दस्याशेषविषयत्वादशेषविषयत्वेन पूर्वमिहैव व्याख्यातत्वादित्यर्थः / न चेतद्युक्तम्अतीतसावद्ययोगस्याऽऽसेवितत्वाद्, आसेवितस्य प्रत्याख्याने मृषावादाऽऽदिदोषप्रसङ्गाद् , भविष्यतश्च तस्य सर्वस्याऽपि प्रत्याख्यानदाषानुषङ्गादिति / भण्यतेऽत्रोत्तरम्-तदेतन्न प्राप्नोति / कुतः? इत्याहअपवादाद् अपवादबाधितत्वादिति / / 3553 / / तर्मेव चापवादं दर्शयतिभूयस्स पडिक्कमणाऽ-भिहाणओऽणुमइमेत्तमागहिया जावजीवग्गहणा, एस्सस्स य मरणमञ्जाया।।३५५४।। 'तस्स भंते ! पडिकमामि'' इत्यादिना प्रस्तुत एवं सामायिकसूत्रे प्रतिक्रमणस्याभिधानतो भूतस्यातीतसावद्ययोगरयानुमतिमात्रमेव प्रत्याख्येयत्वेनागृहीत नपुनः, सर्वोऽपि सावद्ययोगः, तदनुमतेश्य प्रत्याख्याने न कश्चिन्मृषावाद इत्यनन्तरमेव प्रागुक्त यावजीवग्रहणात्पुनरेष्यतोऽपि सर्वसावद्ययोगस्य प्रत्याख्याने मरणमर्यादाऽपवादः, यावज्जीवमेव तं प्रत्याचक्षे न परत इति / / 3554|| अथवाऽस्मिन्नेव सामायिकसूत्रे निरवशेषवचनोऽपि सर्वशब्दः प्रतिनियतविषयत्वेन व्यवस्थापित इति दर्शयत्राहअहवा जावजीव-ग्गहणाओऽणागयावरोहोऽयं। संपइ कालग्गहणं, न करोमिच्चाइगहणाओ॥३५५५|| भूयस्स पडिक्कमणा-इणा य तेणेह सव्वसद्दोऽयं / नेओ विसेसविंसओ, जओ य सुत्तंतरेऽभिहियं // 3556 / / अथवा सूत्र एव यावजीवग्रहणादनागतकालस्यायमवरोधः सुदीर्घोऽप्यनागतकालो यवज्जीवग्रहणाद् नैयत्यविधानेन विशेष व्यवस्थापित इत्यर्थः / "न करेभिन कारवेमि'' इत्यादिवचनात्तु साम्प्रतकालग्रहणमिति "तस्स भंते ! पडिवकमामि'' इत्यादि-सूत्रावयवे च भूतस्या- तीतस्य सावद्ययोगस्य प्रतिक्रमणाऽऽदिना, आदिशब्दान्निन्दागर्हाविधानेन च विशेषविषयतागर्भमतीतकालग्रहणमिति शेषः / येनैव, तेनेह निरवशेष वचनोऽप्ययं सर्वशब्दो विशेषविषयो ज्ञेयः / ततश्च भविष्यकालसावद्ययोग इह जीवितभवपर्यन्त एव निरवशेषसर्वशब्देन गृहीतः, अतीत-सावद्ययोगोऽप्यमुमतिमात्रक एव निरवशेषः तेन क्रीडीकृत इति भावः। पूर्वमुत्सर्गतः कालवयगतः समस्तसावद्ययोगविषयं सर्वशब्दं कृत्वा अपवादेन बाधा प्रोक्ता, इह तु सामायिकसूत्रे नियन्त्रणाद्वारेण प्रथमत एव देशतो निरवशेषविषयता सर्वशब्दस्य दर्शिता इत्येतावन्मात्रा व्याख्यादयस्य विशेषोऽवसेय इति॥३५५५।। / 3556 / / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्य, यतः सूत्रान्तरेऽप्यभिहितम्। किम् ? इत्याहसमईयं पडिक्कमए, पचुप्पन्नं च संवरेइ त्ति। पचक्खाइ अणागय-मेवं इहई पि वन्नेय।।३५५७|| सुबोधा, नवरमतीतप्रतिक्रमणेन तदनुमतिमात्रप्रत्याख्यानमुक्तम "पञ्चक्खाइ अणागयं'' इत्यत्र "यावज्जीवम्" इतिशेषः। ततश्च देशतो निरवशेषविषयः सवशब्दः सिद्ध इति। "तस्स भंते' इत्यादेव्याख्यानार्थमाहतस्स त्ति स संबज्झइ, जोगो सावज एव जोऽहिगओ। तमिति विइयाहिगारा-दभिधेये किमिह तस्स त्ति॥३५५८|| "तस्स'' इत्यत्रासावधिकृत एव सावद्यो योगः संबध्यते। अत्र परः प्राऽऽहननु प्रतिक्रमामीति क्रियायोगतो द्वितीयाधिकारात्तमित्यभिधेये वक्तव्ये किमिह षष्ठीनिर्देशात्तस्थान्यत्वम् ? इति॥३५५८।। गुरुराहसंबंधलक्खणाए, छट्ठीएऽवयवलक्खणाए वा। समतीयं सावजं, संबंज्झादेइन उ सेसं // 3556 / / इह संबन्धलक्षणया अवयवलक्षणया वा षष्ठ्या समतीतकालविषयमेव सावध योग संबन्धयति / इदमुक्तं भवतितस्य त्रिकालगतयोगस्य संबन्धिनं तद्वयवभूतं वा अतीत सावधयोग प्रतिक्रमामीति सामान्येन संबन्धलक्षणया अवयवलक्षणया वा षष्ट्या तस्येत्यत्रातीत सावद्ययोगं संबन्धयति सूत्रकारः। नतुशेष वर्तमानमेष्यन्तं वा, तस्य संन्नियमाणत्वात्प्रत्याख्यायमानत्वाच प्रतिक्रमणस्य चातीतविषयत्वादिति॥३५५६।। अत्र केषाञ्चिन्मतमुपन्यस्य दूषयन्नाहअविसिढ़ सावजं, संबज्झा ति केइ छट्ठीए। तन्नप्पओयणाभा-वओ तहा गंथगुरुयाओ॥३५६०।। पच्छित्तस्म पडिक्कम-णओ य पायं व भूयविसयाओ। तीयपडिक्कमणाओ, पुणरुत्ताइप्पसंगाओ॥३५६१।। इह केचनाप्यार्चार्यदेशीयास्तस्येत्यत्र षष्ठ्या अविशिष्टमेव कालिक सावद्ययोग संबन्धयन्ति / तदेतन्न युक्तं , अविशिष्टत्रैकालिकसावद्ययोगसंवन्धररोह प्रयोजनाभावात, तदभावश्चातीतस्यैव प्रतिक्रमणसंभवात् / अथ सामान्ययोग संबध्य पश्चाद् विशेषणातीतस्यैव तस्य प्रतिक्रमण व्याख्यास्यत इति आशङ्कयाऽऽह- तथा सति ग्रन्थगुरुत प्रसहादिति / किंच-(पच्छितेत्त्यादि) प्रायश्चित्तस्यैव प्रतिक्रमणरूपत्वात्प्राय Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 63 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण श्चितरुपमेव हि प्रतिक्रमणं, नान्यदित्यर्थः / ततः किमित्याहप्रायश्चितस्य च प्रायो भूतविषयत्वादासेवित सावद्ययोगविष-यत्वात्किमिह सामान्यसायद्ययोगसंबन्धेनेभि ? प्रायोग्रहणं चेह मिथ्यादुकृतदानाऽऽदेवर्तमानसावद्ययोगविषयत्वादपीति / तथा-"तीय पडिक्कमइ पहुप्पन्न संवरेइ अणागय पचक्खाइ' / इत्यादावतीतस्यैव प्रतिकमणोक्तर्नेह त्रैकाल्यसामान्यसावद्ययोगसंबन्धः, पौनरुक्त्यादिदोषप्रसङ्गाच / सामान्यसावद्ययोगो हि "सव्वं सावझं जो गं पञ्चक्खामि / ' इत्यनेनैव प्रत्याख्यातः किं तस्येत्यत्र पुनरपि ग्रहणेनेति भाव इति // 3560aa 3561 // उपसंहरन्नाहतम्हा पडिकमामि, त्ति तस्सावस्सं कम्मामिसहस्स। भव्वमिह कम्मणा तं, च भूयसावजओऽणन्नं / / 3562 / / तस्मात्तस्य प्रतिक्रमामीत्यस्य शब्दस्यावश्यं कर्मणा भाव्यम / ततः प्रकते किमित्याह-तच कर्म पूर्वोक्तविवक्षया तस्यातीतसामान्यसावद्ययोगस्यावयवभूताद भूतसावायोगादुक्तन्यायेनान्यन्न संभवति, तस्मादिहातीतस्यैव सावद्ययोगस्य संबन्धो, नेतरयोरिति गाथार्थः // 3562 / "अथ-तिविह तिविहेण'' इत्यत्राऽऽक्षेपपरिहारावाहतिविहेणं ति न जुत्तं, पइपयविहिणा समाहियं जेण। अत्थविगप्पणयाए, गुणभावणय त्ति को दोसो? ||3563 / / आह- ननु त्रिविधेनेति न युक्त, त्रिविधं त्रिविधेनेति यत्सूत्रे प्रथममुद्दिष्ट तन्त्र युक्तमित्यर्थः / कुतः? इत्याह- येन यस्मात्प्रति पदविधिनैवैतसमाहित समापितम् ‘‘मणेण वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करत पिअन्न न समजाणामि।' इत्यनेनैव प्रतिपदनिर्देशन सिद्धमेतदित्यर्थः / अत्र परिहारमाह-अर्थविकल्पनया अर्थभेदोपदर्शनाद् गुणभावनया वा गुणभावनातः को दोषो, न कश्चिदित्यर्थः / इयमत्र भावना-एवं ह्यक्ते सामान्यविशेषभेदरूपत्वं सर्वस्याप्यर्थस्य दर्शित भवाते, "तिविहं तिविहेणं।" इत्यनेनैव वस्तुनः सामान्यरुपतादर्शनात् "मणेणं वायाए'' इत्यादिना तु तस्य विशेषरुपताप्रकाशनादिति / अन्या-एवमिह पुनरभिहिते सामायिकलक्षणे यो गुणस्तस्य संबन्धिनी भावना निविडवासनाऽऽत्मन्यारोपिता भवतीति न कश्चिद्दोषः / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 3563 / / साधनान्तरमाहअहवा मणसा वाया, काएणं मा भवे जहासंखं / न करेमि न कारवेमि य, न याऽणुजाणे य पत्तेयं // 3564! अथवा- "मणेणं वायाए" इत्यादिमात्रक एवोक्ते मनसा न करोमि, वाचा न कारयामि, कायेन नानुजानामि, इत्येवंभूतमनिष्ट यथासंख्य मा भूदिति "तिविहं तिविहेण" इत्यभि हितं, यतश्च मनसा न करोमिन कारयाम नानुजानाभि इत्येवं वाचा कायेन सह योगत्रयस्य प्रत्येक संबधोऽभिमतः, स नाभविष्यदिति // 3564 / / ततः किमित्याह तो तिविहं तिविहेणं, भण्णइ पइपयसमापणाहेउं / न करेमि त्ति पडिपयं, जोगविभागेण वा सज्झं।।३५६५॥ ततसिविधं त्रिविधेनेति भएयते / किमर्थम् ?, इत्याहप्रतिपदसमापनहेतोः मनसा न करोमि, न कारयामि, नानुजानामि, एवं वाचा कायेन च राह योगत्रयरय प्रत्येकं संबन्धहेतोरित्यर्थः / त्रिविधं त्रिविधेनत्यस्याभावे दूषणान्तरमप्याह- (न करेमि इत्यादि)। अथवा-त्रिविधं त्रिविधन इत्यस्याभावे न करोमि इत्यादि प्रतिपदं योगानां करणकारणानुमतिलक्षणानां यो विभागो विच्छेदस्तेन प्रस्तुताऽभिमतं वस्तु साध्य स्यात् / तथा च सति प्रतिपत्तिगौरवं स्यादिति शेषः / इदमुक्तं भवतित्रिविधं त्रिविधेनेत्येतस्याभावे 'न करेमि मणेण वायाए कारण, ण कारवेमि मणेणं / वायाए काएणं, णानुजाणामि मणेणं वायाए कारणं / ' इत्येवमेकैकयोगविच्छेदेन करणत्रयसंबन्धे यंथासंख्यनिराकरणेन प्रस्तुताभिमतोऽर्थः साध्यो भदेत् / एवं च सति प्रतिपत्तिगौरवं स्यात्। अतः सुखप्रतिपत्त्यर्थ कर्तव्यं त्रिविधं त्रिविधेनेति॥३५६५॥ समाधानन्तरमाहअहवा करेंतमन्नं, न समणुजाणेऽविसद्दओ नेयं / अत्थविकप्पणयाए, विसेसओ तो समाजोजं // 35666|| अथवा 'करेंतं पि अन्नं न समणुजाणामि'' इत्यत्रापि शब्दात् यत पूर्व त्रिकालविषयं ज्ञेयमुक्तम् / (तो त्ति) विभक्तिव्यत्ययादिहानयाऽर्थविकल्पनया विशेषतः समायोज्यम्। कथमिति चेद् ? उच्यते-अतीते कृतस्य कारितस्यानुमतस्य च संबन्धिनी अनुमतिस्दानी प्रत्याख्यायते, न तु करणकारणे, तयोः कृतकारितत्वात्। इतरकालद्वये तु करणकारणानुमतयः प्रत्याख्येयत्वेन नवार्यन्ते, अविरुद्धत्वाद्, इत्यस्याप्यर्थस्य दर्शनार्थ त्रिविधम इत्यादि कर्तव्यमिति / / 3566 / विशे०। (8) समणोवासगस्स णं भंते ! पुव्वामेव थूलए पाणाइवाए अपचक्खाए भवइ / से णं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ? गोयमा ! तीयं पडिक्कमइ, पडुप्पण्णं संवरेइ, अणागंयं पञ्चक्खाइ। तीयं पडिक्कममाणे किं तिविहं तिविहेणं पडिक्कमई 1, तिविहं दुविहेणं पडिक्कमइ२,तिविहं एगविहेणं पडिक्कइ३, दुविहं तिविहेणं पडिक्कम, दुविहं दुविहेणं पडिक्कमइ 5, दुविहं एगविहेणं पडिक्कमइ 6, एगविहं तिविहेणं पडिक्कमइ 7, एगविहं दुविहेणं पडिक्कमइ, एगविहं एगविहेणं पडिक्कमइ,६। गोयमा! तिविहं तिविहेणं पडिक्कमइ तिविहं वा दुविहेणं पडिक्कमइ। तं चेव ०जाव एगविहं एगविहेणं पडिक्कमइ / तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेइ, करंतं नाणुजाणइमणसा वयसा कायसा 1 / तिविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेइ, करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा 2 / अहवा न करेइ, न कारवेइ, करतं नाणुजाणइ मणसा कायसा 3 / अहवा न करेइ 3 वयसा कायसा 4 / तिविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ 3 मणसा 5 अहवा न करेइ 3 वयसा 6 / अहवा न करेइ 3 कायसा 7 दुविहं तिविहेणंपडिक्कममाणेन करेइ, नकारवेइ, मणसा वयसा कायसाचा अ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 64 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण हवा न करेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा हा अहवा न कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा 10 // दुविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ,न कारवेइ, मणसा वयसा 11 / / अहवा न करेइ, न कारवेइ, मणसा कायसा 12 / अहवान करेइ, न कारवेइ, वयसा कायसा 13 / अहवा न करेइ,करतं नाणुजाणइमणसा वयसा 14 / अहवा न करेइ, करतं नाणुजाणइ मणसा कायसा 15 / अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा 16 / अहवान कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा 17 / अहवा न कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा 18 अहवान कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा 16 / दुविहं एक्कविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेइमणसा 20 / अहवा न करेइ, न कारवेइ वयसा 21 / अहवा न करेइ, न कारवेइ कायसा 22 / अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाणइ मणसा 23 / अहवा न करेइ, करंतं नाणुजाणइ वयसा 24 / अहवा न करेइ, करतं नाणुजाणइ कायसा 25 / अहवा न कारवेइ , करतं नाणुजाणइ मणसा 26 / अहवा न कारवेइ , करंतं नाणुजाणइ वयसा 27 / अहवान कारवेइ, करंतं नाणुजाणइ कायसा 28/ एगविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न रेइ मणसा वयसा कायसा 26 / अहवा न कारवेइ मणसा वयसा कायसा 30 / अहवा करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा 311 एक्कविहं दुविहेणं पडिकभमाणे न करेइमणसा वयसा 32 / अहवा न करेइ मणसा कायसा 331 अहवा न करेइ वयसा कायसा 34 // अहवा न कारवेइ मणसा वयसा 35 // अहवा न कारवेइ मणसा कायसा 36 // अहवा न कारवेइ वयसा कायसा 37 / अहवा करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा 38 / अहवा करंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा 36 / अहवा करंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा 40 एगविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ मणसा 41 / अहवा न करेइ वयसा 42 / अहवान करेइ कायसा 43 / अहवान कारवेइ मणसा 44 अहदा न कारवेइ वयसा 45| अहवा न कारवेइ कायसा 46 अहवा करंतं नाणुजाणइ मणसा 47 अहवा करतं नाणुजाणइ वयसा 48 / अहवा करतं नाणुजाणइ कायसा 46 / पडुप्पणं संवरेमाणे किं तिविहेणं संवरेइ, एवं जहा पडिक्कमणेणं एगूणवण्णं भंगा भणिया, संवरमाणे वि एगूणवण्णं भंगा भाणियव्वा। अणागयं पचक्खमाणे किं तिविहं तिविहेणं पचक्खाइ, एवं तं चेव भंगा एगूणवण्णं भाणियव्वा जाव अहवा करंतं नाणुजाणइ कायसा। समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव थूलए मुसावाए पचक्खाए भवइ / से णं भंते ! पच्छा पचाइक्खमाणे एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसयं भवियं तहा मुसावायस्स वि भाणियव्यं, एवं अदिण्णादाणस्स वि, एवं थूलगस्स मेहुणस्स वि परिग्गहस्स .जाव करतं नाणुजाणइ कायसा, एए खलु एरिसगा समणोदसगा भवंति, नो खलु एरिसगा आजीवियोवासगा भवंति। (रामणोवारायस्सणं ति) तृतीयार्थत्वात्षष्ट्याः, श्रमणोपास केनेत्यर्थः / सम्बन्धमात्रविवक्षया वा षष्ठीयम्। (पुत्वामेव त्ति) प्राक्कालमेव सम्यग्त्वप्रतिपतिसमनन्तरमेवेत्यर्थः / ( अपञ्चवखाए त्ति) प्रत्याख्यातो भवति, तदा देशविरतिपरिणाभरयाजातत्वात्। ततश्च- (से णं ति) स श्रमणोपासकः पश्चात्प्राणातिपातविरतिकाले (पच्चाइक्खमाणे त्ति) प्रत्याचक्षाणः प्राणातिपातमिति गम्यते, किं करोतीति प्रश्नः / वाचनान्तरे तु"अपच्चक्खाए'' इत्यस्य स्थाने- "पच्चक्खाए त्ति'' ''पचाइक्खमाणे" इत्यस्य च स्थाने- “पचक्खावेमाणे त्ति" दृश्यते।तत्र च प्रत्याख्यातः स्वयमेव, प्रत्याख्यापर्यैश्च गुरुणा हेतुका प्राणातिपातप्रत्याख्यानं गुरुणाऽऽत्मानं ग्राहयन्नित्यर्थ इति / (तीतमित्यादि) अतीतमतीतकालकृतं प्राणातिपातं प्रतिक्रामति, ततो निन्दाद्वारेण निवर्तत इत्यर्थः।(पडुप्पन्नं ति) / प्रत्युत्पन्नं वर्तमानकालीनं प्राणातिपात संवृणोति, न करोतीत्यर्थः। अनागतं भविष्यत्कालविषयं प्रत्याख्याति, न करिष्यामीत्यादि-प्रतिजागीते / (तिविहं तिविहेणमित्यादि) इह च नव विकल्पाः / तत्र गाथा- "तिनि तिया तिन्नि दुया, तिन्नि य एक हवति जोगेसु। ति दुएकति दु एकं, तिदु एक चेव करणाई।।१।।" एतेषु च विकल्पेष्वेकादश विकल्पा लभ्यन्ते। आह च-"एकोतिण्णि य तियगादी नवगा तह य तिण्णि नव य। भंगनवगस्स एवं, भंगा एगूणपन्नास // 1 // " स्थापना। तत्र - (तिविहं ति विहेणंति) त्रिविधं त्रिप्रकार करणकारणानुमतिभेदात प्राणातिपातयोगमिति गम्यते, त्रिविधेन मनोवचनकायलक्षणेन करणेन प्रतिक्रामति, ततो निन्दनेन विरमति। (तिविहं दुविहेणं ति) त्रिविधं करणाऽऽदिभेदात्, द्विविधन करणेन मनःप्रभृतीनामेकतरवर्जितद्वयेन। (तिविह एगविहेणं ति) त्रिविधतस्यैव एकविधेनमनःप्रभृतीनामेकतमेन करणेनेति / (दुविहं तिविहेणं ति) द्विविधं कृताऽऽदीनामन्यतमद्वयरुपं योग त्रिविधेन मनःप्रभृतिकरणेन / एवमन्येऽपि / (तिविह तिविहण पडिक्कममाणे इत्यादि) न करोति न स्वयं विद्धात्यतीकाले प्राणातिपात मनसा हा हतोऽहं, येन मया तदाऽसौ न, हत इत्येव मनुध्यानात, तथा न नैव कारयति मनसैव यथा-हान युक्तं कृतं यदसौ परेण न घातित इति चिन्तनात, तथा कुर्वन्तं विदधानमुपलक्षणत्वात्कारयन्तं वा समनुजानन्तं वा परमात्मानं व प्रोणातिपातं नानुजानाति नानुमोदयति, मनसैव वधानुरमरणेन तदनुमोदनात्। एवं न करोति, न कारयति, कुर्वन्त नानुजानाति वचसा, तथाविधवचनप्रवर्तनात् / एवं न करोति, न कारयति, कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन / तथाविधाङ्गविकारकरणादिति / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 65 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण न चेह यथासम्यन्यायो न करोति मनसा, नकारयति वचसा, नानुजा- खलु इत्यादि) एते खलु एत एव परिदृश्यमाना निर्ग्रन्थसत्का इत्यर्थः / नाति कायेन इत्येवंलक्षणानुसरणीयो, वक्तृविवक्षाधीनत्वात्सर्वन्या- (एरिसग त्ति) ईदृश्काः प्राणातिपाताऽऽदिष्वतीतप्रतिक्रमणाऽऽदिमन्तः थाना दक्ष्यमाणविकल्पायोगाचेति / एवं त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्र विकल्पं (नो खलु त्ति) नैव (एरिसग त्ति) उक्तरुपा उक्तार्थानामपरिज्ञानात् / एवा एक विल्पः, तदन्येषु पुनर्द्धितीयतृतीयचतुर्थेषु त्रयस्त्रयः, पञ्चमषष्ठ. (आजीविओवासय त्ति) गोशालकशिष्यश्रावकाः / / भ०८ श०५ उ०॥ सोर्नव न्व, सप्तमे त्रयोऽष्टमनवमयोर्नव नवेति, एवं सर्वेऽप्येकोसपञ्चाशत् / तत्रेयमेकादिसंजोगपरिमागप्रदर्शनपरान्यकर्तृकीगाथाएपमेवमतीतकालमाश्रित्य कृता करणाऽऽदियोजना। अथ चैवमेषाऽती पंचएहणुव्वयाणं, एकगदुगतिगचउक्कपणएहिं। तकाले मनः प्रभृतीनां कृतं कारितमनुज्ञातं वा वधं क्रमेण न करोति न पंच य तह दस पण इ-क्कगो य संजोगे नायव्वा / / 18|| कारयति, न चानुलानाति, तन्निन्दनेन तदनुमोदननिषेधतस्ततो निवर्तत घरातीए वक्खाणं पंचएहं अणुव्वयाण पुटवभणियाणं एकगदुगतिइयर्थः, जान्नन्दनस्याभावे हि तदनुमोदनानिवृत्तेः कृताऽऽदिरसौ गचउक्वपणएहिं वितिजमाणाणं पंच य दस पण एकगो य संजोगे नायव्वा। क्रियमाणाऽऽदिरिव स्यादिति, वर्तमानकालं त्वाश्रित्य सुगनव एकण वितिजमायाण पंच। संजोगा कह ? पंचघरएसुएगेण पंचेव हवंति, भविष्यत्वालापेक्षया त्वेवमसौ न करोति मनसा, तं हनिष्यामीत्यस्य दुर्गण वि तिजमाणाण दस चेव / कहं ? पढमवितीयघरेण एको। 1, चिन्तनात्, न कारयति, मनसैव तमहं घातयिष्यामीत्यस्य चिन्तनात्, पढमतइयघरेण 2, पढमचउत्थघरेण 3, पढमपंचमघरेण 4, वितियततिनानुजानाति मनसा भाविनं वधमनुश्रुत्य हर्षकरणात, एवं वाचा, कायेन यघरेण ५.वितियचउत्थघरेण ६.वितियपंचघरेण 7, ततियचउत्थघरेण धतयोस्तथाविधयोः करणादिति / अथ चैवमेषा भविष्यत्काले 8, ततियपंचमघरेण / चउत्थपंचमघरेण 10. तिगेण चिंतिजमाणाणं मनःप्रभतिना करिष्यमाण कारयिष्यमाणमनुमस्यमानं वा वधं क्रमेण न दस चेवा कह? पढमवितियतइयघरेण एको 1, पढमवितियचउत्थधरेण काति, न कारयति, न चानुजानाति। ततो निवृत्तिमभ्युपगच्छतीत्यर्थः, वितिओ 2, पढमवितियचउत्थ 3, पढमततियचउत्थधरेण 4, पढमतसर्वेषा भीलने सप्तचत्वारिंशदधिक भङ्गकशत भवति, इह च त्रिविधं तियपंचमघरेण 5, पदमचउत्थपंचमघरेण 6, वितियततियचउत्थघरेण त्रिविधेनेति विकल्पमाश्रित्याऽऽक्षेपपरिहारौ वृद्धोक्तावेवम् 7. वितियततियपंचमघरेण 8, वितियचउत्थपंचमघरेण 6, ततियचउ त्थपंचमघरेण 10, चउक्कगेणचिंतिज्जमाणाणं पंच हवंति। कथं ? "न बारेइचाइतियं, गिहिणो कह होइ देसविरयस्स।, पढमवितियततियचउत्थघरेण एको 1, पढमवितियततियपंचमघरेण 2, भण्णइ विसथरस वहि, पडिसेहो अणुमइए वि।।१।। पढमवितियततियचउत्थपंचमघरेण 3, पढमततिय-चउत्थपंचमघरेण 4, कई भणंति गिहिणो, तिविह तिविहेण नत्थि संवरणं / वितियततियचउत्थपंचमघरेण 5, पंचगेण चिंतिजमाणाणं एको चेव भङ्ग नजओ निद्दिटुं, इहेव सुत्ते विसेस उ॥२॥ इति गाथार्थः / / 18|| तो कह निजतीए-ऽणुमइनिसेहो त्ति सेसचिसयम्मि / एन्थ य एकगेण च जे पंचसंजोगा, दुगेण य जे दस इत्यादि एएसि सानपणे वऽणत्थओ, तिविह तिविहेण को दोसो ? // 3 // " चारणियापओएण अगयफलगा होति। इह च-(सविसयम्मित्ति) स्वविषये यथानुमतिरस्ति।(सामण्णे व त्ति) वयइक्कगसंजोगा-ण हुंति पंचएह तीसई भंगा। सामान्य वा, अविशेषे प्रत्याख्याने सति (अण्णत्थओ ति) विशेषे दुगसंजोगाण दस-एह तिन्नि सट्ठी सया हुँति / / 16 / / स्वयंभूरमणजलधिमत्स्यादौ ''पुत्ताइसंतईनिमित्तमेत्तमेगारसिं पवण्ण तिगसंजोगाण दस-न्हभंगसय एकवीस इकसठ्ठा। स्स। लपति केइ गिहिणो, दिवखाभिमुहस्स तिविहं पि।।१॥ यथा च चउसंजोगाणं पुण, चउसट्ठिसयाणि असियाणि // 20 // त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्राऽक्षेपपरिहारौ कृतौ, तथाऽऽन्यत्रापि कायौं / सत्तत्तरिं सयाई,छसत्तराइंतु पंचसंजोए। पानुमतेरनुप्रवेशोऽस्तीति / अथ कथं मनसा करणाऽऽदि? उच्यते उत्तरगुण अविरयमे-लियाण जाणाहि सव्वग्गं // 21 // यथा-बाकाययोरिति ।आह च सोलह चेव सहस्सा , अट्ठ सया चेव हों ति अट्ठऽहिया। 'आह कहं पुण मणसा, करण कारावणमणुमई य। एसो उसावगाणं, वयगहणविही समासेणं // 22 // जह वश्तणुजोगेहिं, करणाई तह भवे मणसा / / 1 / / एताश्चतस्त्रोऽप्यन्यकृताः सोपयोगा इत्युपन्यस्ताः। "एतासिंभावणात्यहीणता वइतणु-करणाईणं च अहव मणकरण / बिही इमा-तावदियं स्थापना-संपइ चारणिया कजतिथूलगपाणातिपातं सावजजीगमरण, पण्णत्तं वीयरागेहिं / / 2 / / दुविह तिविहेणं 1, दुविहदुविहेण 2, दुविह एक्कविहेणं 3, एकविहं तिविहेणं कारावण पुण मणसा, चिंतेइ करेउ एस सावजं / 4. एकविहं दुविहेणं 5. एकविहं एकविहेणं 6, एवं थूलगमुसावायादत्तचितई य कए उण, सुटु कयं अणुमई होइ / / 3 / / " इति। मेहुणपरिगहेसु एकछत्थ भेदा। एते सव्वे वि मिलिता तीसं हवंति। ततश्च इह च पश्चरवणुब्रतेषु प्रत्येकं सप्तचत्वारिंशदधिकस्य भगकशतस्य यदुक्तं प्राक्- 'वयएक्गसंजोगाणं पंचएहं तीसइ भंग त्ति'' तद्भावितं / भावासकानां सप्तशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्तीति यत् स्थविरा इदाणिं दुगचारणियाथूलगपाणातिपातं थूलगमुसावादं पचक्खाइ आजीविकैः श्रमणोपासकगतं वस्तु पृष्टा गौतमेन च भगवांस्तत्तावदुक्तम्, दुविहं तिविहेण 1, थूलंगपाणातिपातं दुविहं तिविहेणं, थूलगमुसावाद अथानन्तरोक्तशीलाः श्रमणोपासका एव भवन्ति / न पुनराजीविको- पुण दुविह दुविहेणं 2. थूलगपाणातिपात 2 थूलगमुसावादं पुण दुविह पासकाः / आजीविकानां गुणित्वेनाभिमता अपीति दर्शयन्नाह- (एए | एगविहेणं 3, थूलगपाणातिपातं 23, थूलगमुसावादं पुण एगविहं ति Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाण 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण विहेण 4, थूलगपाणातिपातं 23. थूलगमुसावाद पुण एगविहं दुविहेणं वीयादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं वावत्तरि, सव्व वि मेलिता चत्तारि सता वत्तीस ५.थूलगपाणातिपातं २३,थूलगमुसावायं पुण एगविहं एगविहेणं ६,फले / हवंति / एवं थूलगपाणाइवाओ तिगसंजोगेणं थूलगादशादाणेणं य एवं थूलगअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहेसु एक्कक्कवज्जगा सब्वे वि मेलिता सहचारिओ / इयाणि थूलगमेहुणेण सह चारतिथूलगपाणातिवाय चउवीस / एते य थूलगपाणातिपातपढमघरममुचमाणेण य लद्धा / एवं थूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं च पचक्खाइ दुविहं तिविहेणं 1, थूलगपाणावितियघरएसुपत्तेयं चउवीसं भवंति। एते यसव्वे वि मिलिता चउतालीसं तिवायं शूलगमेहुणं च २३,थूलगपरिगह पुण दुविहेण 2 // एवं पुव्यकर्मण सतं चारितो 144 थूलगमुसावादादि चिंतिजतितत्थ थूलगमुसावादं छन्भंगा एए थूलगमेहुणपढमघरयममुचमाणेण श्रद्धा बितियादिसु थूलगअदत्तादाणं च पचक्खाइ दुविहं तिविहेणं 1, थूलगमुसावादं 23 पत्तेयं पत्तेयं छ छ, सव्वे वि मेलिता छत्तीसं / एए थूलगपाणातिथूलगादत्तादाणं पुण दुविहं दुविहेणं / एवं पुवकमेण छ भंगा णायव्या, वातपढमघरयममुंचमाणेण लद्धा, वीयासु वि पत्तेयं पत्तेयं, छत्तीसं 2 एवं मेहुणपरिगहेसु विपत्तेयं पत्तेयं छच्छ, सव्वे वि मेलिता अट्ठारस। एते सव्वे वि मेलिता दोसता सोलसुत्तरा, एवं थूलगपाणातिवातो तिगसजोएणं य मुसावायपढमघरयममुंचमाणेण लद्धा / एवं वितियादिचरगेसु वि पत्तेय थूलगमेहुणेणं सहचारिओणपाय?) तिगसंजो एपाणातिवातो। इदानी पत्तेयं अट्ठारस अट्ठारस भवंति / एते सव्वे वि मेलिता अटुत्तरं सतंति मुसावादो चिंतिजतितत्थथूलगमुसावादंथूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च चारितो थूलगमुसावादो / इदाणिं थूलगादत्तादाणं चिंतिजतितत्थ पचक्खमति तिविहं तिविहेणं / थूलगमुसावादं थूलगादत्तादाणं च 23, थूलगादत्तादाण थूलगमेहुणं च पचक्खातिदुविहं तिविहेणं 1, थूलगमेहुणं पुण दुविहं दुविहेणं 2, एवं पुव्वकमेण छन्भंगा, एवं थूलगादत्तादाणं 23, थूलगमेहुणं च पुण दुविहं दुविहेणं 2. एवं पुष्वकर्मण थूलगपरिगहेण विय मेलितादुवालसा, एए यथूलगादत्तादाणपढमघरछन्भंगाणायव्या / एवं थूलगपरिगहेण बिछभंगा, मेलिता दुवालस। एते यममुंचमाणेण लद्धा वितियादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं दुवालस. सव्वे वि य थूलगादत्तादाणं पढमघरयममुचमाणेणं लद्धा वितियादिसु वि पत्तेयं मिलिता वावत्तरि / एए थूलममुसावादपढमघरं अमुचमाणेण लद्धा पत्तेयं दुवालस भवंति। एते सव्वे मिलिता वावत्तरि हवति चारियं थूलग- वितियादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं वावत्तरि, सबै वि मेलिता चनारि सया अदत्तादाणं / इदाणिं थूलगमेहुणाइ चिंतिज्जइतत्थ थूलग दुण थूलग- वत्तीसा / एवं थूलगमुसावाओ तिगसंजोगेण थूलगादतादाणेण परिग्गहं च पञ्चक्खाइ दुविहं तिविहेणं 1, थूलगमेहुणं 23, थूलपरिग्गह सहचारितो। इदाणिं थूलगमेहुणं सहचारिजंतितत्थ थूलगमुसावाद पुण दुविह दुविहेणं 2, एवं पुवकमेण छन्भंगा / एते य थूलगमेहुणपढ- थूलगमेहुणं थूलगपरिग्गह पच्चक्खातिदुविहं तिविहेणं 1, थूलगमुसावाद मघरभुचमाणेण लक्षा, एवं वीयादिसु वि पत्तेयं पत्तेय छ छ हवंति, सय्वे थूलगमेहुणं च 23, थूलगपरिग्गहं पुण दुविहं दुविहेणं 2 एवं पुत्वकमेण मेलिता छत्तीस। एते य मूलाओ आरब्भ सव्वे वि चोयालसयठुत्तरसयं छहभंगा, एते थूलगमेहुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा वितियादिसु विपत्तेय वावत्तरि छत्तीसं मेलिता तिन्नि सयाणि सट्ठाणि हवंति।" ततश्च यदुक्त पतेयं छछ हवंति। सव्वे वि मेलिता छत्तीस। एते विथूलगमुसावादपढप्राक्-"दुगसंजोगाण दसन्न, तिन्नि य सट्टी सया हुंति त्ति तदेतद् मघरममुंचमाणेण लद्धा वितियादिसु वि पत्तेयं छत्तीसं छत्तीसं हवंति, भावितम् / इदाणिं तिगचारणियाथूलगपाणातिबातं थूलगमुसावाद सव्वे मिलिया दो सया सोलसुत्तरा चारिओ, तिगसंजोगेण थूलगमुसावाओं: थूलगादत्तादाणं च पचक्खाइ ति तिविहं तिविहेणं थूलगपाणातिवातं इयाणि थूलगादत्तादाणादि चिंतिजतितत्थ थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुण थूलगमुसावादं 23, थूलगादत्तादाणं पुण दुविधं दुविधणं 2, थूलगपा- थूलगपरिग्गहं पचक्खाइ 23, थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च 23, णाइवायं थूलगमुसावायं च दुविहं तिविहेणं, थूलगादत्तादाण पुण थूलगपरिगहं पुण दुविहं दुविहेणं 2, एवं पुव्वकम्मेण छ भंगा। एए दुविहं एगविहण २.एवं पुव्वकमेण छब्भंगा, एवं मेहुणपरिग्गहेसु वि पत्तेयं थूलगमेहुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसुपत्तेयं पतेयं छछ, सव्वेदि पत्तेयं छ छ, सव्वे वि मिलिता अट्ठारस / एए य थूलगमुसावादपढम- मेलिया छत्तीस, एए थूलगादत्तादाणपढमघरमुचमाणे लद्धा वीयादिसु वि घरमुंचमाणेण य लद्धा / एवं वितियादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं अट्ठारस 2, पत्तेय छत्तीस छत्तीसं, सव्वे मेलिया दो सया सोलसुत्तरा। एए य मूलाओं हवंति 21 सये पि मिलिता अटुत्तरसयं, थूलगपाणातिवातं आरब्भ सव्वे वि अडयालं ठसया वत्तीसचउसया सोलसुत्तरा दोसग पढ़मघरमुंचमाणेण लद्धा। एवं वितियादिसु विपत्तेयं पत्तेयं अटुत्तरं सतं पबत्तीसुत्तरा चउसया सोलसुत्तरं दोसया ख मेलिया एगवीस-सयाईसहाई भवंति। एते सव्ये वि मिलिता छसताणि अडयालाणि। एवं थूलगपाणा- भगाणं हवंति। ततश्च यदुक्तं प्राग-"तिगसंयोगाण दसएहं भगसयाएकविसती तिवातो तिगसंजोएणं थूलगमुसावाएणं सहचारिओ। इयाणिं अदत्तादाणेणं सट्टा / ' तदतेदवितम् / इयणिं चउक्कचारणियातत्थ थूलगपाणाइवायं सहचारितत्थ थूलगपाणतिवातं थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च थूलगमुसावायं थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं च पचक्खाइ दुविहं तिविहेणं पचक्खाति दुविहतिविहेणं 1, थूलगपाणाइवाय-थूलगादत्तादाणा 23 ?थूलगपाणादिपातादि २३,थूलमेहुणं पुणदुविहंदुविरुण २,एवं पुथ्वकर्मण थूलगमेहुणं पुण दुविहं दुविहेण 2, एवं पुव्वकमेण छन्भंगा / एवं छन्भंगा थूलगपरिगहेण वि छ,एए य मेलिया दुवालस / एए य थूलगपरिगहे वि छम्मेलिता दुवालस। एए अदत्तादाणे पढमघरयममुच- थूलगादत्तादाणपढमघरगममुंचणेण लद्धा, वितियादिसु वि पत्तेयं पत्तेय माणेण लद्धा / एवं वीयादि पत्तेयं पत्तेयं दुवालस 2, सव्वे वि मेलिता दुवालस दुवालम, सव्वे विमेलिया वावत्तरि, एएथूलगमुसावायपढमघरवावत्तरि हवंति। एए पाणाइवायपढमघरयममुचमाणेण लद्धा, एवं ___मर्मुचमाणेण लद्धा 72. वीयादिसु विपत्तेयं यत्तेयं वावत्तरि वावत्तरि, सव्ये / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 67 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण मेलिया चत्तारि सया बत्तीसा, एए थूलगपाणाइवायपढमघरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारिसया वत्तीसा, सव्वे वि मेलिया दो सहरसा पंचसया बाणत्तया / इयणिं अन्नो विगप्पोथूलगपाणाइवायं थूलगमुसावाथं थूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं पचक्खाइ दुविहं तिविहेणं थूलगपाणातिपातं 23, थूलगपरिग्गहं पुण दुयिहं दुविहेणं 2 एवं कमेण छन्भंगा, एए य थूलगमेहुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु पत्तेयं पत्नय छ छ, सव्ये वि मेलिया छत्तीस / एए थूलगमुसावायं पढ़मघरममुचमाणेण लद्धा वितियादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं तीसं 2 / सव्ये वि मेलिया दी सया सोलसुत्तरा / एए थूलगपाणातिवायपढमघरममुचमाणेण लद्धा वीयादिनु वि पत्तेयं दो सया सीलसुत्तरा, सव्वे वि मेलिता दुवालससया कृण्णउया। इदाणिं अण्णो विगप्पोथूलगपाणातिवातं थूलगअदत्तादाणं मूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं च पच्चक्खाइ, दुविहं तिविहेणं थूलगपाणाइवार्य धूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणंच 23 थूलगपरिग्गहं पुण दुविहेणं / एवं युव्यकमेण छब्भंगा, एए य थूलगमेहुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु पत्तेयं पत्तेय छ छ मेलिया छत्तीस, एए य थूलगादत्तादाणपढमघरममँचमाणेण लद्धा वीयादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं छत्तीसं 2, सव्वे वि मेलिया दोसया सोलसुत्तरा। एए थूलगपाणाइवायपढमघरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं दो सया सोलसुत्तरा, सव्वे वि मेलिया दुवालसया छन्नउया / इयाणिं अन्नो विगप्पोथूलगमुसावाय थुलगादत्तादाण थूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं पचक्खाइ दुविहं तिविहेणं१, शूलगमुसावायादि २३,थूलगपरिग्गह पुणदुविहंदुविहेण २,एवं पुवकमेण छ भगा, एएय थूलगमेहुणपढमघरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु वि पत्तेयं पत्तेय छछमेलिया छत्तीसं / एए यथूलगादत्तादाणपढम-घरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु वि घरेसु पत्तेयं छत्तीसं छत्तीसं,मेलिया दो सया सोलसुतरा, एए यथूलगमुसावायपढम-घरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु विपत्तेयं दो दो सया सोलसुत्तरा, सव्वे विमेलिया दुवालससया छन्नउया, एए मूलाओ आरम्भ सय्वे विदो सहस्सा पंचसया वाणउया दुवालस सया छत्रग्याइ मेलिया छ सहस्सा चत्तारि सया असीया।" ततश्च यदुक्तं प्राक्"तछ संजोगाणं चउसट्ठिसयाणि असीयाणि त्ति।" तद्भावितम्। इयाणिं पचपचारणियातत्थ थूलगपाणाइवायं थूलगमुसावायं थूलगादत्तादाणं थूलगमेहुणं थूलगपरिग्गहं च पचक्खाइ दुविहं तिविहेणं 1, थूलगपाथाइवायादि 23, थूलगपरिग्गहं पुण दुविहं दुविहेणं / एवं पुष्वकमेण छहभंगा, एएथूलगमेहुणपढमघर-ममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु वि पत्तेयं पत्तेयं छ, मेलिया छत्तीसं, एएथूलगादत्तादाणं पढमघरममुचमाणेणं लद्धा वौयादिसु पत्तेय पत्तेयं छत्तीसं 2, मेलिया दो सया सोलसुत्तरा / एए थूलगनुसा-गयपढमघरममुंचमाणेण लद्धा वीयादिसु त्रि पत्तेयं पत्तेयं दुवालससया छन्नउया, सव्वे विमेलिया सत्त य सया छाहत्तरा।" ततश्च यदुक्तं प्राक्- " सत्तरिसया छहत्तराई तु पंचसंजोगे।" तद् भावितम्। उत्तरगुणअविरयमिलियाण जाणाहि सव्वग्गं ति। उत्तरगुणमादिएहि एगो चेव भेदोऽविरयसम्मदिट्ठी वीओ एएहि मेलियाणं सव्वेसिं पुटवभणियाण भेदाणं जाणाहि सव्वग इमं परुवणे पडुच्च, तं पुण इम सोलस चेव सहस्सेत्यादि गाथा भारितार्थेति। आव०६ अ० / दश०। अथाऽऽहारभेदप्ररुपणायां सत्यां यद् भवति तद्दर्शयन्नाहतिबिहाइभेयओ खलु, एत्थ इमं वएिणयं जिणिंदेहिं। एत्तो चिवय भेएसुवि, सुहुमं ति बुहाणमविरुद्धं // 32 // त्रिविधः पानकवर्जाऽऽहार आदिर्यस्य स तथा / आदिशब्दाचतुर्विधपरिग्रहः / स चासौ भेदश्च विशेषस्त्रिविधाऽऽदिभेदः, तस्माचमाश्रित्य। खलुक्यालङ्कारे। अत्र प्रवचने इदमाहार-प्रत्याख्यानं, वर्णितमुक्तम्, जिनेन्द्रर्जिननायकैः, पानकाऽऽहारं प्रत्याकारषट्कस्य वर्णितत्वादिति / (एत्तो चिय त्ति) इत एव त्रिविधस्य चतुर्विधस्य वाऽऽहारस्य प्रत्याख्यानानुज्ञानात् / भेदेष्वपि अशनाऽऽदिगतौदनाऽऽदिविशेषेष्वपि न केवलं त्रिविधाऽऽदिभेदत एवेदम, अविरुद्धमितियोगः। यथा-एतावन्त्येवौदनाऽऽदिद्रव्याएयेतत्परिमाणान्येव च ग्रहीष्यामीति। आह-च-" लेवडमलेवर्ड वा, अमुगं दव्यं च अज्ज घेत्थामि / अमुगेण व दव्वेण उ, अह दव्वाभिग्गहो नाम / / 1 / / '' इति / किमित्येवमित्याह-सूक्ष्ममिति निपुणमिति कृत्वा। बुधानां विवेकिनाम्, अविरुद्धमविरोधवद्विशेषतोऽप्रमादवृद्धिहेतुत्वादिति गाथार्थः // 32 // इहार्थे विप्रतिपत्तिं दर्शयन्नाहअण्णे मणंति जतिणो, तिविहाऽऽहारस्स ण खलु जुत्तमिणं। सव्वविरईउ एवं, भेयग्गहणे कहं सा उ॥३३॥ अन्ये जैनविशेषेभ्योऽपरे दिगम्बरा इत्यर्थः, भणन्ति ब्रुवते / किं तदित्याह-यतेः साधोः त्रिविधाऽऽहारस्य पानकवर्जस्य, न खलु नैव, युक्तं सङ्गतम्, इदं प्रत्याख्यानं, कुत एतदेवमित्याह-सर्वविरतेः समस्तवस्तुविनिवृत्तत्वात् / किं चात इत्याह-एवमुक्तन्यायेन त्रिभेदतोऽपि प्रत्याख्यानं स्यादित्यभ्युपगमलक्षणेन। भेदग्रहणे त्रिविधाऽऽहारस्येत्येवंविशेषप्रतिपत्तौ / कथं तु केन पुनः प्रकारेण ? कथञ्चिदित्यर्थः / सा सर्वविरतिः। तुशब्दः पुनरर्थः, तत्प्रयोगश्च दर्शित एव / एतदुक्तं भवतित्रिविधाऽऽहारस्य प्रत्याख्याने सर्वाऽऽहारस्याप्रत्याख्यानाद्सविरतित्व स्यात् / इति गाथार्थः // 33 // अत्रोत्तरमाहअपमायवुड्डिजणगं, एयं एत्थं ति दंसियं पुव्वं / तब्भोगमित्तकरणे, सेसचागा तओ अहिगो॥३४।। अप्रमादवृद्धिजनमप्रमत्ततोत्कर्षसंपादकम, एतदाहारप्रत्याख्यानम्, अत्र सर्वसावद्ययोगविरतिरुपे सामायिके सत्यमपीति, एतद्दर्शितमुक्तम्, पूर्व प्राक् / तद्यथा-"सामाइए वि सावज्जचागरुवे उ गुणकरं एयं / अपमायवुड्विजणगत्तणेण आणाउ विण्णेयं // 1 // " इति। ततश्च तद्भेग एव पानकाऽऽहार एवं तद्भोगमात्र, तस्य करणं विधानं तद्भोगमात्रकरणं, तत्र सति, शेषत्यागादशनाऽऽद्याहारत्रयपरिहारात्तकोऽसावप्रमादः, अधिकः सर्वविरतिसामायिकप्रतिपत्तिप्रभवाप्रमादापेक्षयाऽर्गलतरो भवति,अतः सर्वसावद्ययोगविरतेरबाधितत्वादप्रमादविशेषोत्पादकत्वाच सर्वविरतस्यापि त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्यानमसङ्गतं न भवति। इति गाथार्थः // 34 // इहाभ्युपगमे परवचनमाशड्क्य परिहरन्नाहएवं कहंचि कजे, दुविहस्स वितं ण होति चिंतमिणं / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण पच्चक्खाण सचं जइणो णवरं, पाएण ण अण्णपरिभोगो॥३५|| न्तराभावेऽपि नियमतः कर्तव्यमिति हृदयम्। साकारमाक्रियन्त एवमनेन प्रकारेणाप्रमादवृद्धिजनकतया त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्याना- इत्याकाराः, प्रत्याख्यानापवादहेतवोऽनाभोगाऽऽदयः सहकारैः ५।तथा भ्युपगमे, कथञ्चित्केनचित्प्रकारेण वाताभिभवाऽऽदिना, कार्ये प्रयोजने अविद्यमाना कारमनाकारम् 6 / परिमाणकृतमिति दत्त्यादिकृतपरिणाग्लानत्वाऽऽदौ। पाठान्तरेण क्वचित्कार्ये, द्विविधस्याप्यशनखादिमरुप- ममिति भावना / (निरविसेसमिति) समग्राशनाऽऽदिविषयम् का इति स्याप्याहारस्य, आस्तां त्रिविधस्य, तत्प्रत्याख्यानम्, न भवति न गाथार्थः // 2 // संकेतं चैवेति केतं चिह्नमष्ठाऽऽदि, सह केतेन संकेतं, जायते, चिन्त्यं चिन्तनीयम्। इदमे तद् भवन्मतं, भवत्येव द्विविधाऽऽ- चिहमित्यर्थः / (अखाए ति) कालाऽऽख्यमद्धामाश्रित्य पौरुष्यादिहारस्यापि तदिति पराभिप्रायः अत्रोत्तरमाह-सत्यमेवैतत्। एवं प्रसङ्गम कालमानमित्यर्थः 10 / प्रत्याख्यानं तु दशबिधं, प्रत्याख्यानशब्दः भ्युपगम्य तत्रैव विशेषमाहयतेः साधोः, नवरं केवलम्, प्रायेण बाहुल्येन, सर्वत्रानागताऽऽदौ संबध्यते / तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाह्यवहितोपविशिष्टालानाऽऽद्यवस्थां मुक्तवा (न) नैव, अन्यपरिभोगोऽशनपानका न्यासादृशविधमेव। इह चोपाधिमेदात्स्पष्ट एव भेद इति न पुनरुक्तमाश पेक्षयाऽपरस्य खादिमस्वादिमाऽऽहारस्य भोजनमस्ति, वेदना कनीयमिति / आह-इद प्रत्याखानं प्राणातिपाताऽऽदिप्रत्याख्यानवत् ऽऽदिष्वाहारग्रहणकारणेषु खादिमस्वादिमयोरात्यन्तिकतयाऽनुपयो किं तावत्स्वयमकरणाऽऽदिभेदभिन्नमनुपालनीयमाहोस्विदन्यथा ? गित्वात्। यतिग्रहणेन श्रावकस्य द्विविधाऽऽहारस्यापि प्रत्यारण्यानमभ्यु अन्यथेत्याह- स्वयमेवानुपालनीयं, न पुनरन्यकारापणे, अनुमतौ वा पगतम्। इति गाथाऽऽर्थः // 35 // पञ्चा०५ विव०। (सम्यक्त्वप्रतिक्रमणम् निषेध इत्याह (दाणुवएसे जह समाहि त्ति) अन्याऽऽहारदाने यतिप्रदानो'समणोवासओ पुव्वामेव मिच्छत्ताओ पडिक्कमइ।" इत्यादिना सूत्रेण पदेशे च यथा समाधिर्यथा समाधानमात्मनोऽप्यपीडया प्रवर्तितव्यमिति वाक्यशेषः / उक्तं च- "भावियजिणवयणाणं, ममत्तरहियाण नत्थि हु श्रावकस्य प्रत्याख्यानं 'सम्मत्त' शब्दे वक्षयते) (श्रावकव्रतानि स्वस्व विसेसो। अप्पाणम्मि परम्मि य, तो वजे पीडमुभओ वि / / 1 // इति स्थाने द्रष्टव्यानि) गाथार्थः / आव०६ अ०। (अनागताऽऽदीनां व्याख्या स्वस्थाने) अधुना सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानमुच्यते / अथवा-देशोत्तरगुण अद्धाप्रत्याख्यानम्प्रत्याख्यानं श्रावकाणामेव भवतीति तदधिकार एवोक्तम्, सर्वोत्तरगुण इह पुण अद्धारुवं, णवकाराऽऽदि पतिदिणोवओगि त्ति! प्रत्याख्यानं तु लेशत उभयासाधारणमित्यतस्तदभिधित्सयाह आहारगोयरं जइ-गिद्दीण भणिमो इमं चेव / / 3 / / पचक्खाएं उत्तर-गुणेसु खमणाइ अणेगविहं। इहास्मिन प्रकरणे, पुनःशब्दो विशेषद्योतनार्थः स चायम्-अद्धाकालः, तेण य इहयं पगयं, तं पि अ इणमो दसविहं तु / / 1 / / सैव रुपं स्वभावोयस्य तदद्धारुपम् / अद्धारुपता च प्रत्याख्यानस्य प्रत्याख्यानं प्राङ् निरूपितशब्दार्थम्, उत्तरगुणेसु उत्तरगुणवि-षयं, तत्परिमाणभूतकालादभिन्नत्वविवक्षयेति / किं तदित्याह-(नवकाराइ प्रकरणात साधूनां तावदिदमिति क्षपणाऽऽदि, क्षपणग्रहणं चतुर्थाऽऽदि त्ति) नमस्कार सहित प्रभृति दशधा / आह च "नवकार पोरिसीए, भक्तपरिग्रहः / आदिग्रहणाद्विचित्राभिग्रहग्रहः / अनेकविधमित्यनेकप्रकार, पुरिमड्डेक्कासणेकठाणे य / आयंबिल भत्तटे, चरिमे य अभिग्गहे विगई प्रकाराश्च वक्ष्यमाणाः, तेन चानेकविधेन, चशब्दादुक्तलक्षणेन च, अत्रेति // 1 // ' ननु नमस्काररसहिताऽऽद्यपि न सर्वमप्यद्धाप्रत्याख्यानम्, सामान्येनोत्तरगुणप्रत्याख्याननिरुपणाधिकारे / अथवा-चशब्दस्यैव एकाशनाऽऽचाम्लाऽऽदेः परिमाणकृताभिधानप्रत्याख्यानरूपत्वात् / कारार्थत्वात्तेनैव, अत्रेति सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानप्रक्रमे प्रकृतमुपयोगा यदाह 'दत्तीहिँ कवलेहि व, घेरहि भिक्खाहिँ अहव दव्वेहिं / जो धिकार इति पर्यायः। तदपि चेदं दशविधं तु मूलापेक्षया दशप्रकारमेव / भत्तपरिचाय, करेइ परिमाणकडमेयं / / 1 / / '' इति। तत्कथमुक्तभद्धारुप इति गाथार्थः // 1 // "नवकाराइ त्ति' ? / अत्रोच्यते अद्धाप्रत्याख्यानपूर्वकं प्राय एकाशना___अधुना दशविधमेवोपन्यस्यन्नाह ऽऽदि प्रतिपद्यते। तेन नमस्काराऽऽदिकं दशविधमप्यद्धारुपतयोक्तमिति अणागयमइकतं, कोडीसहिअंनिअंठिअंचेव। न दोषः / अथ शेषभेदत्यागेन नमस्कारसहिताऽऽदिकमेव करमाद् सागारमणागारं परिमाणकडं निरविसेसं // 2 // भएयते ? इत्याह-प्रतिदिनमनुदिवसमुपयोगि प्रयोजनवत् प्रतिदिनोसंकेअंचेव अद्धाए, पच्चक्खाणं तु दसविहं / एयोगि, इतिशब्दो हेत्वर्थः / प्रतिदिनोपयोगित्वमेवास्य कुतः ? इत्याहसयमेवऽणुपालणिअंदाणुवएसे जह समाही।।३।। आहारगोचरमशनाऽऽद्याहारविषयम् / यत आहारश्च प्रायः प्रतिदिनोपदारगाहादुगं। योगीति / अथ किं यतीनामेवेदम् ? नैवम्, अत आहयतिगृहीणामुभयभाविअजिणवयणाणं, ममत्तरहिआण नत्थि हु विसेसो। साधारणमित्यर्थः / अनेन च ये श्रावकाणां नमस्कारसहिता-ऽऽदिप्रत्या - अप्पामम्मि परस्मि अ, तो वजे पीडमुभओ वि॥४॥ ख्यानं न प्रतिपद्यन्ते, तन्मतमपास्तम् / तत्र चोपपत्तिः प्रागुपदर्शिता। अनागतकरणादनागतं, पर्युषणाऽऽदावाचार्याऽऽदिवैयावृत्त्यक- (भणिमोति) भणामः, इदमेवानन्तरगाथोक्ततया प्रत्याख्यानमेव। चैवशब्द रणान्तरायसदवादारत एव तत्तपः करणमित्यर्थः / एवमतिक्रान्तकरण- एवकारार्थः। एवकारश्च प्रत्याख्यानाद् व्यतिरिक्तस्य पदार्थान्तरस्य दतिक्रान्तम्। भावना प्राग्वत्। (कोडीसहियमिति कोटीभ्यांसहितम् / भणनीयतया व्यवच्छेदार्थः / इति गाथार्थः / / 3 / / पञ्चा०५ विव०ा स्था। मिलितोभयप्रत्याख्यानकोटिचतुर्थाऽऽदिश्चतुर्थाऽऽदिकरणमेवेत्यर्थः 3 नं०।और। उपा०। ध० / स० / रात्रौ भुक्तिमतां प्रातर्नमस्कारसहिताऽऽद्युनियन्त्रितं चैव नितरा यन्त्रित नियन्नित, प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानाऽऽध- / पोषणप्रमुखप्रत्याख्यानं शुद्ध्यति, नवा? इति प्रश्रे, उत्तरम्प्रत्याख्यानंशु Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण 9. - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण क्ष्यति, परं त्वजानतेति / ही०३ प्रका० / श्राद्धानामष्टमान्तप्रत्याख्यानेऽवश्रावणं कल्पते, न वा ? इति प्रश्ने उत्तरम् - श्राद्धानामष्टमान्ततपसि अवश्रावणं न कल्पते, आचारणाया अभावात्। ही०२ प्रका०। (E) श्राद्धाः प्रत्याख्यानं कदा गृह्णन्तिप्रतिक्रामकस्य च प्रत्याख्यानोचारात्पूर्व सचित्ताऽऽदिचतुदेशनियमग्रहा" स्यात्, अप्रतिक्रामकेणापि सूर्योदयात्प्राक् चतुर्दशनियमग्रहणं यथाशक्तिनमस्कारसहितग्रन्थिसहिताऽऽदिव्यासनैकाशनाऽऽदियथागृहीतसचित्तद्रव्यविकृतिनैयत्यादिनियमांच्चारणरुपं देशावकाशिकं च कार्यमिति श्राद्धविधिवृत्तिलिखितानुवादः। क्षोदक्षेमश्वायम्यतो नमस्कारसहितपौरुष्यादिकालप्रत्याख्यानं सूर्योदयात्प्रागेवोचारवितुं युक्तं, न तु तत्पश्चात्, कालप्रत्याख्यानस्य “सूरे उग्गए'' इति पाटबलात् सूर्योदयेनैव संबद्वत्वसिद्धेः, शेषाणि संकेताऽऽदीनि तुपश्चादपि कृतानि शुद्ध्यन्ति। यतः श्राद्धविधिवृत्तौ- 'नमस्कारसहितपौरुष्यादिकालप्रत्याख्यानं सूर्योदयाप्राक् याचार्यते तदा शुद्धयति, नान्यथा, शेषप्रत्याख्यानानि सूर्योदयात्पश्चादपि क्रियन्ते, नमस्कारसहितं यदि सूर्योदयात्त्रागुचारितं तदा तत्पूर्तेरन्वयिपौरुष्यादिकालप्रत्याख्यान क्रियते स्वस्वावधिमध्ये नमस्कारसहितोचारं विना सूर्योदयादनु कालप्रत्याख्यानं न शुद्ध्यति। यदि दिनोदयात्प्रागनमस्कारसहितं विना पौरुष्यादि कृतं तदा तत्पूर्वेरुद्धमपरं कालप्रत्याख्यानं न शुद्ध्यति, तन्मध्ये तु शुद्ध्यतीति वृद्धव्यवहारः। श्रावकदिनकृल्येऽपि- "पचक्खाणं तु ज तम्मि।" इति गाथार्थपर्यालोचनयेयमेव वेला प्रतिपादिता संभाव्यते / प्रवचन सारोद्धारवृत्तावपि-" उचिए काले विहिण त्ति।" गाथाव्याख्यायामुचित काले विधिना प्राप्तं यत् स्पृष्ट तद्भिणतम्। इदमुक्तं भवति-साधुः श्रावको वा प्रत्याख्यानसूत्रार्थ सम्यगवबुद्धयमानःसूर्येऽनुद्रत एव स्वसाक्षितया चैत्यस्थापनाऽऽचार्यसमक्षं वा स्वयं प्रतिपत्रविवक्षितप्रत्याख्यानः पश्चाच्चारित्रपवित्रगात्रस्य गीतार्थस्य गुरोः समीपे सूत्रोक्तविधिना कृतिकर्माऽऽदिविनयं विधाय रागाऽऽदिरहितः सत्रोपयुक्तः प्राजलिपुटो लघुतरशब्दो गुरुवचनमनुचरन् यदा प्रत्याख्यानं प्रतिपद्यते तदा स्पृष्ट भवतीति। तथा प्रत्याख्यानपञ्चाशकवृत्तावपि-"गिएहइ सयं गहीय काले" तिगाथा, गएहाति प्रतिपद्यते, प्रत्याख्यानमिति प्रकृतं, स्वयं गृहीतमात्मना प्रतिपन्नं, विकल्पमात्रेण स्वप्ताक्षितया वा चैत्यस्थापनाऽऽचार्यसमक्षं वा, कदा गएहातीत्याहकाले पौरुष्यादिके आगामिनि सति, न पुनस्तदातेक्रमे, अनागतकालस्यैव प्रत्याख्यानविषयत्वात्, अतीतवर्तमानयोस्तुनिन्दासंवरणविषयत्यादिति / इत्यं च बहुग्रन्थानुसारेण कालप्रत्याख्यानं सूर्योदयात्प्रागेयोचार्य, नान्यथेति तत्त्वम् / ध०२ अधि० / चैत्यपूजाऽनन्तरं जिनगृहे प्रत्याचक्षते। अथ गृहचैत्यपूजाऽनन्तरं यत्कर्तव्यं तदाह-तत इत्यादि। ततो देवपूजाऽनन्तरं स्वयमात्मना जिनानामग्रतः पुरतस्तत्साक्षिकमिति यावत्। प्रत्याख्यानस्य नमस्कारसहिताऽऽद्यद्धारुपस्य ग्रन्थिसहिताऽऽदेः संकेतस्पस्य च करणमुच्चारंण, विशेषतो गृहिधर्मो भवतीति पूर्वप्रतिज्ञातेन संबन्धः। ध०२ अधि०।नमस्कारपौरुष्यादि दिवसप्रत्याख्यानं न गृह्णाति, गृहीत्वा वा विराधयति, तर्हि प्रायश्चित्तं निर्विक तिकम्। व्य० 1 उ०। (अद्धाप्रत्याख्यानम् 'अद्धापचक्खाण' शब्दे प्रथमभागे 565 पृष्टे गतम्) इदानीमुपसंहरन्नाहभणिअंदसविहमेअं, पच्चक्खाणं गुरुवएसेणं / क यपचक्खाणविहिं, इत्तो वुच्छं समासेणं / / 16 / / भणितं दशविधमेतत्प्रत्याख्यानं गुरुपदेशेन कृतं प्रत्याखानं येन स तथाविधस्तम् / अत ऊर्द्ध वक्ष्ये समासेन संक्षेपेणेति गाथार्थः / / 16 / / आव०६ अ०(साकारद्वारम् 'सागारक' शब्दे) (10) प्रत्याख्यानविधौ दानविधिः / अथ प्रत्याख्यानविधि प्रतिपिपादयिषुस्तद्वाराएयाहगहणे आगारेसुं, सामइए चेव विहिसमाउत्तं / भेए भोगे सयपा-लणाएँ अणुबंधभावे य||४|| ग्रहणमङ्गीकरण तद्विषये / विधिप्तमायुक्तं प्रत्याख्यानं भणाम इति प्रकृतम् / एवमुप्तरपदेष्वपि योजना कार्या। तथा आकारेषु प्रत्याख्यानापवादेषु / (सामाइए चेव त्ति) सामायिक एव च सामायिकप्रत्याख्याने सत्यपि प्रतिपत्तव्यमेवेदमित्यादिलक्षणो विधिरितिगर्भः। (विहिसमाउतं ति) एतेषु ग्रहणाऽऽदिषु यो विधिविधानं, तेन समायुक्तं समन्वितं यत्त तथा,तथा भेदे अशनाऽऽदावाहारभेदे, तथा भोगे भोजने, तथा स्वयं पालनायामात्मनैवाऽऽसेवायां, तथाऽनुबन्धो भोजनोतरकालमपि स्वाध्यायाऽऽदिसव्यापाराभिष्वङ्गात्प्रत्याख्यानपरि-णामाविच्छेदः / प्रत्याख्याताऽऽहारस्य हि स्वाध्यायाऽऽदिन निर्वहति। ततो मुक्तदाऽपि यदि तमेव करोति तदा प्रत्याख्यानेऽनुबन्धोऽवसीयत इति / तदेवमनुबन्धस्य भावः सत्ताऽनुबन्धभावः, तत्र च विधिसमायुक्तमिति प्रकृतम्। चशब्दः समुच्चये। इति द्वारगाथासमासार्थः // 4 // एतामेव लेशतो व्याचिख्यासुर्ग्रहणविधिप्रतिपादनार्थ तावदाहगिएहति सयं गहीयं, काले विणएण सम्ममुवउत्तो। अणुभासंतो पइव-त्युजाणगो जाणगसगासे / / 5 / / गृएहाति प्रतिपद्यते, प्रत्याख्यानमिति प्रकृतम्। स्वयं ग्रहीतमात्मना प्रतिपन्नं, विकल्पमात्रेण स्वसाक्षितयावा चैत्यस्थापनाऽऽचार्यसमक्ष वा। कदा गृएहातीत्याहकाले पौरुष्यादिके आगामिनि सति, न पुनस्तदतिक्रमे, अनागतकालस्यैव प्रत्याख्यानविषयत्वात्, अतीतवर्त्तमानयोनिन्दासंवरणविषयत्वादिति। तथा विनयेन वन्दनकदानाऽऽदिना, अनेन प्रत्याख्यानस्य विनयतः शुद्धिरुपदर्शिता / / (पञ्चा) वस्तु वस्तु प्रति प्रतिवस्तु, वस्तु च पुरिमाशिनाऽऽदि / इदं चानुभाषमाण इत्यनेन ज्ञायक इत्यनेन वा संबन्धनीयम् / तथा ज्ञायको ज्ञाता. गृह्णातीति प्रकृतम् / अनेन च ज्ञानशुद्धिरस्योक्ता, ज्ञानस्य दर्शनपूर्वकत्वाद्दर्शनशुद्धिश्वा पञ्चा०५ विव०। ज्ञायको ज्ञायकसमीप इत्युक्तम्, इह च चत्वारो भगा भवन्तीति तदुपदर्शनायाऽऽहएत्थं पुण चउभंगो, विण्णेओ जाणगेयरगओ उ। सुद्धासुद्धा पढम-तिमा उ सेसेसु उ विभासा।।६।। अत्र ज्ञायको ज्ञायक समीप इत्यत्र ग्रहणविधेरवयवे, पुनः शब्दोऽस्यैव विशेषद्योतनार्थः। स चायम्-चतूरुपो भङ्गश्चतुर्भङ्गः, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 100- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण जातावेकवचनम् / चत्वारो भङ्गका भवन्तीत्यर्थः / विज्ञेयो ज्ञानव्यः / किंविषयोऽसावित्याह-ज्ञायकः प्रतिवस्तु ज्ञाता, श्तरश्चाज्ञायकः, तो, गत आश्रितो ज्ञायकेतरगतः। तुशब्दोऽव -धारणे। तेन ज्ञायकेतरगत | एवेति स्यात्। ते चामी-ज्ञायकसमीपे ज्ञायकः 1, ज्ञायकसमीपे अज्ञायकः 2, अज्ञायकसमीपे ज्ञायकः 3, अज्ञायकसमीपे अज्ञायकइति / एतेषां च शुद्धेतरविभागमाह-शुद्धशुद्धौ निर्दोषसदोषौ, क्रमेण प्रथमान्तिमावेवाऽऽद्यचरमावेव, आद्यस्य सम्यग्ज्ञानयोगात्शुद्धत्वम्। अन्तिमस्य | तु सर्वथा ज्ञानाभावादशुद्धत्वम् / विरतौ ज्ञानस्यैवम्, अशुद्धिहेतुत्वादिति / तुशब्द एवकारार्थः, तत्प्रयोगो दर्शित एव / शेषयोस्तु प्रथमान्तिमाभ्ययामन्ययोः पुनद्वितीयतृतीययोरित्यर्थः, किमित्याहविभाषाशुद्ध्यशुद्धिविषये विविध भाषणम्।कार्येति शेषः / इदमुक्तं भवतिकयञ्चिच्छुद्धाशुद्धौ च तौ स्यातामिति गाथार्थः / / 6 / / विभाषामेव स्पष्टयन्नाहविइए जाणावेउं, ओहेणं तइऍ जेट्ठगाइम्मि। कारणओ उण दोसो, इहरा हहित्ति गहणविही॥६॥ द्वितीये ज्ञायकसमीपे अज्ञायक इत्येवंलक्षणे भड़के, न दोष इति संबन्धः / कथम् ? ज्ञापयित्वा ओघेन सामान्येन , विशेषज्ञापनस्य | प्रत्याख्यानावसरे कर्तुमशक्यत्वात् / प्रत्याख्येयवस्त्वा-दिकमज्ञ प्रत्याख्यानाप्रतिपत्तारं, प्रत्याख्यायत इति गम्यम्।तथा तृतीये अज्ञायकसमीपे ज्ञायक इत्येवलक्षणे भड़के नदोष इति संबन्धः कथमित्याह- | ज्येष्ठक आचार्यऽऽदिसंबन्धी वृद्धभ्राता, आदिशब्दात्तन्मातुलपितृपितृव्याऽऽदिग्रहेंः। तत्र विषये, कारणत एव पुष्टाऽऽलम्बनेनैव गुरुणां पूज्योऽयमित्यस्य पूजा कृता भवतु, असन्तोषश्चास्य परिहतोऽस्त्वित्यादिलक्षणेन, न यथाकथञ्चित्। तुशब्द एवकारार्थः / प्रत्याख्यानं प्रतिपद्यमानस्येति शेषः / न दोषो नापराध, "अजाणगो अजाणगसगासे / ' इत्याज्ञाभङ्गरुपो भवति। अथोक्तविपर्ययमाह-इतरथाऽन्यथा अज्ञापयित्वा प्रत्यागवानं यच्छतः, तथाऽऽलम्बनाभावेऽप्यज्ञसमीपे तद् गृह्णत इत्यर्थः / भवति जायते दोषविशेष इत्येषोऽनन्तरोक्तः ग्रहणविधिः प्रत्याख्यानाऽऽदानविधानमिति / एवमाद्यद्वारं निगमितमिति गाथार्थः // 6 // पञ्चा०५ विव०। आह जह जीवधाए, पचक्खाए न कारए अन्नं। भंगभयाऽसणदाणे, धुक्कारवणं ति न तु दोसो // 20 // प्रत्याख्यानाधिकार एवाऽऽह परः। किमाह-यथा जीवधाते प्राणातिपाते प्रत्याख्याते सत्यसौ 1 प्रत्याख्यानं कारयत्यन्यमिति कारयात जीवघातमन्यप्राणिनमिति / कुतः? भङ्ग भयात्प्रत्याख्यानभङ्गभयादिति भावार्थः। अश्यत इत्यशनमोदनाऽऽदि, तस्य दानमशनदानं, तस्मिन्नशनदाने, अशनशब्दः पानाऽऽधुपलक्षणार्थः। ततश्चैतदुक्तं भवतिकृतप्रत्याख्यानस्य अन्यस्मै अशनाऽऽदिदाने ध्रुवं कारणमित्यवश्यं भुजिक्रियाकारणम्, अशनाऽऽदिलाने सति भोक्तुं भुजिक्रियासद्भावात् ततः किमिति चेन्न तु दोषः, प्रत्याख्यानभङ्गदोष इति गाथार्थः // 20 // आव०६अ। निजायकारणम्मी, महयरगा नो करंति आगारं। कंतारवित्तिदुडिभक्ख-याइएअं निरागाना१४|| निश्चयेन यातमपगतं कारणं प्रयोजनं यस्मिन्नसौ निर्यातकारणः, तस्मिन्साधौ, महत्तराः प्रयोजनविशेषः, तत्फलभावान्न कुर्वन्त्याकार, कार्याभावादित्यर्थः / कान्तारवृत्तौ, दुर्भिक्षतायां च दुर्भिक्षभावे चेति भावः / अत्र क्रियते एतदेवंभूतं प्रत्याख्यानं निराकारम्। इति गाथासमासार्थः / आव०६अ। 'नो कयपचक्खाणो, आयरिआईण दिज्ज असणाई। नय वियरइ पालणओ, वेआवच्चं पहाणयरं / / 21 / / यतश्चैवमतः न कृतप्रत्याख्यानः पुमानाचार्याऽऽदिभ्यः, आदिशब्दादुपाध्यायतपस्विशिष्यकग्लानवृद्धाऽऽदिपरिग्रहः / दद्यात्, किम् ? अशनाऽऽदि। स्थादेतहदतो वैयावृत्त्यलाभ इत्यत आह न च विरतिपालनाद्वैयावृत्यं प्रधानतरं, सत्यपि तल्लाभे किं तेन?। इति गाथार्थः / / 21 / / एवं विनेयजनहिताय पराभिप्रायमाशक्य गुरुराहनो तिविहं तिविहेणं, पञ्चक्खाइ अन्नदाण कारवणं / सुद्धस्स उ तं मुणिणो, न होइ तब्भंगहेउ त्ति // 22|| न त्रिविधं करणकारणानुमतिभेदभिन्न, त्रिविधेन मनोयाक्काययोगत्रयेण, प्रत्याख्यानात्प्रत्याचष्टे प्रक्रान्तमशनाऽऽदि, ततोऽनभ्युपगतोपालम्भश्चोदकमतं (?) यतश्चैवमन्यस्मैदानमन्यदानम्, अशनाऽऽदेरिति गम्यते, तेन हेतुभूतेन कारणं भुजिक्रियागोचरमन्यदानकरणं, तच्छुद्धस्याऽऽशंसाऽऽदिदोषरहितस्य, ततस्तस्मान्मुनेः साधोर्न भवति तदङ्गहेतुः प्रत्याख्यानभङ्गहेतुः, तथाऽनभ्युपगांदिति गाथार्थः / / 22 / / किं च - सयमेवऽणुपालणिअं, दाणुवएसा य नेह पडिसिद्धा। ता दिज उवइसिज्ज व, जहासमाहीइ अन्नेसिं|२३|| स्वयमेवाऽऽत्मनैवानुपालनीयं प्रत्याख्यानमित्युक्तं नियुक्तिकारेण, दानोपदेशौचनेह प्रतिषिद्धौ, तत्राऽऽत्मना आनयित्वा दानं धाद्धकाऽऽदिकुलाऽऽख्यानं तूपदेश इति यस्मादेवं तस्माद्दद्याद्, उपदिशेत वा, यथासमाधिना यथासार्थेन, अन्येभ्यो बालाऽऽदिभ्य इति गाथार्थः / / 23 / / अमुमेवार्थ स्पश्यन्नाहकयपचक्खाणो वि अ, आयरिअगिलाणबालवुड्डाणं। दिजाऽसणाइसंते, लाभे कयवीरिआयारो॥२४॥ संविग्गअन्नसंभो-इआण दंसिज्ज सङ्घगकुलाई। अंतरंतो वा संभो-इयाण देसे जह समाही॥२५॥ निगदसिद्धा // 24 // "एन्य पुण सामायारी सयं अभुंजतो वि साहूण आणेत्ता भत्तपाणं देजा, संतं वीरियं ण विग, हितव्यं अप्पणो संते वीरिते अन्नो नाणावेयव्यो, जहा अज्जो अमुगस्स आणिउं देहि, तम्हा अप्पणो संते वीरिए आयरियगिलाणवालधुड्डपाहुणगाईण गच्छस्स क्सभाण कुलेहितो असन्नारहिं बालद्धिसंपन्नो आणेत्ता देजा वा, दवावेजा वा, परिचिएस संखडीए वा दवावेज / दाणेत्ति गयं। उवदेसेजा वा संविगअन्नसंभोइयाणं जहा-एयाणि दाणकुलाणि सड्ढगकुलाणि वा अतरतो संभोइयाण वि देसेज, न दोसो, अह पाणगस्स सन्नाभूमि वा गतेण संखडी सुता दिहावा होजवा,ताहे साहूणं अमुगत्थसंखडित्तिएभं उवदिसेजा उवदिसति गयं / जहा समाही। नामदाणे उवंए जहासामत्थं जइ तरइ आणउ देह, अह न तरइ ते देवविजावा, उवदिसेज्जा वा, जहा जहा साहूणं अप्पणो Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 101 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण या सभाही तहा तहा पयइयव्वं / समाहि त्ति वक्खाणियं / / 24 / / अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह भाष्यकार:संदिग्गअन्नसंभोइयाण, दंसिज्ज सङ्कमकुलाई। अतरंतो वा संभो-इयाण दंसे जहसमाही॥२५॥ गतार्था, नवरमरस्स अन्नसंभोइयव्वं // 25|| आव०६ अ०। (11) / धकथामन्थनिर्मथितमिथ्यात्वभावाश्च भव्याः शुद्ध प्रत्याख्यानं प्रपद्यन्त इति। तदाहपंचविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते। तं जहा-सद्दहणसुद्धे, विणयसुद्धे, अणुभासणासुद्धे, अणुपालणासुद्धे, भावसुद्धे / (पंचतेहेत्यादि) प्रतिषेधत आख्यानं मर्यादया कथनं प्रत्याख्यानम्। तत्र श्रद्धापनेन तथेतिप्रत्ययलक्षणेन शुद्धं निरवयं श्रद्धानशुद्धम, श्रद्धानाभावे हि तदशुद्धं भवति। एवं सर्वत्र इह नियुक्तिगाथा"पञ्चखाणं सव्व-त्रुदेसियं जं जहिं जया काले। तं जो सदहइ नरो, तं जाणसु सद्दहणसुद्धं // 1 // विनयशुद्धं यथाकिइकम्मस्स विसोहि,पउंजए जो अहीणमइरित्तं / नणवयणकायगुत्तो, तं जाणसु विणयओसुद्धं // 1 // " अनुभासणाशुद्धं यथा"अगुभासइ गुरुवयणं, अक्खरपयवंजणेहि परिसुद्धं / पंजलिउडो अभिमुहो, तं जाणऽणुभासणासुद्धं / / 1 / / नवरं गुरुर्भणति-वोसिरत त्ति।" शिष्यस्तु-''वोसिरामि त्ति।" / अनुपातनाशुद्धं यथा"फतारे दुभिक्खे, आयके वा महइ समुप्पण्णे। जं पात्रिय न सग्गं, तं जाणऽणुपालणासुद्धं / / 1 / / " भावशुद्धं यथा"रानेण व दोसेण व, परिणामेण व न दूसियं जंतु। त खलु पञ्चक्खाणं, भावविसुद्धं सुणेयव्यं // 1 // " इति अन्यदपि षष्ठं ज्ञातशुद्धमिति नियुक्तावुक्तं, तदाह"पचक्खाणं जाणइ, कप्पे जंजम्मि होइ कायव्वं / मूलगुणउत्तरगुणे, तं जाणसु जाणसुद्धं ति॥१॥" / स्था०५ ठा०३ उ०। (12) प्रत्याख्यानशुद्धिःसोही पचक्खाण-रस छव्विहा समणसमयकेऊहिं। पन्नत्ता तित्थयरेहि, तमहं वुच्छं समासेण // 26 // शोधनं शुद्धिः, सा प्रत्याख्यानस्य प्राग्निरुपितशब्दार्थस्य, षड्विधा षट् प्रकारा, श्रमणसमयकेतुभिः साधुसिद्धान्तविहाभूतैः, प्रज्ञप्ता परुपिता. कैः?, तीर्थकरैः ऋषभाऽऽदिभिः, तामहं वक्ष्ये / कथम?, समासेन संक्षेपेणेति गाथार्थः ||26|| अधुना षड्विधत्वमुपदर्शयन्नाहसा पुण सद्दहणा जा-णणा य विणय अणुभासणा चेवा अणुपालणा विसोही, भावविसोही भवे छट्ठा // 27 // सा पुनः शुद्धिरेव षड्विधा / तद्यथा-श्रद्धानशुद्धिर्ज्ञानशुद्धिर्विनयशुद्धिः, अनुभाषणशुद्धिश्चैव / तथा-अनुपालनाशुद्धिर्भवति षष्ठी। पाठान्तरं वा- ''सोही सहहणा'' इत्यादि / तत्र शुद्धिशब्दो द्वारोपलक्षणार्थः, नियुक्तिगाथा चेयमिति गाथासमासार्थः / / 27 / / अवयवार्थ तु भाष्यकार एव वक्षयति इति, तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाऽऽहपचक्खाणं सवं-नुभासिअंजं जहिं जया काले। तं जो सद्दहइ नरो, तं जाणसु सहहणसुद्धं // 28|| प्रत्याख्यानं सर्वज्ञभाषितं तीर्थकरप्रणीतमित्यर्थः / यदिति यत्सप्तविंशतिविधंपञ्चविधं साधुमूलगुणप्रत्याख्यानं / दशविधभुत्तरगुणप्रत्याख्यानं, द्वादशबिधं श्रावकप्रत्याख्यानम्, यत्र जिनकल्पे स्थविरकल्पे, चतुर्यामे पश्चयामे च श्रावकधर्मे वा / यदा सुभिक्षे दुर्भिक्षे वा, पूर्वाह्न पराले वा / काल इति चरमकाले यत्र यः श्रद्दधते नरस्तत्र तदभेदोपचाराः तस्यैव तथापरिणतत्वाज्जानीहि श्रद्धानशुद्धामिति गाथार्थः // 28 // ज्ञानशुद्ध प्रतिपाद्यतेपचक्खाणं जाणइ, कप्पे जं जम्मि होइ कायव्वं / मूलगुणउत्तरगुणे, तं जाणसु जाणणासुद्धं // 26 // प्रत्याख्यानं जानात्यवगच्छति, कल्पे जिनकल्पाऽऽदौ, यत्प्रत्याख्यानं,यस्मिन् भवति कर्तव्यं मूलोत्तरगुणविषयं, तज्जानीहि ज्ञानशद्धम्। इति गाथार्थः // 26 // विनयशुद्धमुच्यतेकिइकम्मस्स विसुद्धिं, पउंजई जो अहीणमइरित्तं / मणवयणकत्यगुत्तो, तं जाणसु विणयओ सुद्धं // 30 // (कितिकम्मस्सेत्यादि) कृतकर्मणो वन्दनकस्येत्यर्थः / विशुद्धिं निरवद्या करणक्रियां प्रयुङ् क्तेयः प्रत्याख्यानकाले अन्यूनातिरिक्तो विशुद्धमनोवाक्कायगुप्तः सन्, तत्प्रत्याख्यानपरिणामत्वात् प्रत्याख्यान जानीहि विनयतो विनये शुद्धम् / इति गाथाऽर्थः / / 30 / / अधुना अनुभापणाशुद्ध प्रतिपादयन्नाहअणुभासइ गुरुवयणं, अक्खरपयवंणणेहि परिसुद्धं / कयपंजली अभिमुहो, तं जाणऽणुभासणामुद्धं // 31 // कृतिकर्मप्रत्याख्यानं कुर्वन् अनुभाषते गुरुवचनं, लघुतरेण शब्देन भणतीत्यर्थः। कथमनुभाषते? अक्षरपदव्यञ्जनैः परिशुद्धम्, अनेनानुभाषणाऽऽपन्नमाह / नवरं ''गुरु भणइवोसिरह त्ति / इसो वि भणतिवोसिरामि त्ति / सेसं गुरुभणियसरिसं भाणियव्वं / " किंभूतः सन् कृतप्राञ्जलिरभिमुखः तज्जानीझनुभाषणाशुद्धमिति गाथार्थः // 31 // आव०६ अ०। (अनुपालनाशुद्धम् 'अणुपालनासुद्ध' शब्दे प्रथमभागे 388 पृष्ठे गतम्) इदानीं भावशुद्धमाहरागेण व दोसेण व, परिणामेण व न दूसिअंजं तु। तं खलु पञ्चक्खाणं, भावविसुद्धं मुणेअव्वं / / 33 / / रागेण वाऽभिष्वङ्गलक्षणेन, द्वेभेण वा अप्रीतिलक्षणेन, परिणामेन चेहलोकाऽऽद्याशंसालक्षणेन स्त्म्भाऽऽदिना वक्ष्यमाणेन, न दूषितं न कलुषितं यत्तु यदेव तत्खल्विति तदेव, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्प्रत्याख्यानं भावशुद्धं, (मुणेयव्यं ति) ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः (33) "अवयवत्थे पुणरागेण एस पूइज्जइ त्ति अहं पि एवं करेमि त्ति पूजाहामि त्ति एवं रागेण करेइ। दोसेण तहा करेमि जहा लोगो ममद्दत्तो पडइ, तेण एयस्स नाढायति त्ति, एवं दोसेणं परिणामेण नो इहलोगट्ठयाए नो परलोगट्ठयाए नो कित्तिजसहेउं वा अन्नपाणवत्थलेणसयणासणहेउवा जो एक न करेइ तं भावसुद्धं " // 33 // Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाण 102 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण एऍहिँ छहिं ठाणेहिँ, पचक्खाणं न दूसिअंजंतु। तं सुद्धं नायव्वं, तप्पडिवक्खे असुद्धं तु // 34 // एभिरनन्तरव्यावर्णित : षभिः स्थानकैः श्रद्धानाऽऽदिभिः प्रत्याख्यान न दूषितं न कलुषितम्, यत्तु यदेव, तच्छुद्धं ज्ञातव्यं, तत्प्रतिपक्षे अश्रद्धानाऽऽदौ सति अशुद्धं तु इति गाथार्थः // 34 // परिणामेन वा न दूषितमित्युक्तं, तत्र परिणाम प्रतिपादयन्नाहथंभा कोहा अणाभोगा, अणापुच्छा असंतई। परिणामा उ असुद्धो-पाओ तम्हा विउ पमाणं // 35|| स्तम्भान्मानात्, क्रोधात्प्रतीतात्, अनाभोगाद्विस्मृतेः, अनापृच्छातः, असन्ततेः, परिणामतः, अशुद्धोपायो वा निमित्त यस्मादेवं तस्मात्प्रत्याख्यानचिन्ताया विद्वान्प्रमाणं निश्चयनयदर्शनेन विज्ञ इति गाथासमासार्थः / / 35 / / "थंभेणं एसो माणिज्जइ-अहं पि पचक्खामि, तो माणिजिस्सामि। कोहेण पडिचोयणादिअंबाडिओ नेच्छइ जेमिउं, कोहेण अभक्खटुं करेइ। अणाभोगेण न याणाइ-किं मम पचक्खाणं ति जिमिएण संभरियं अगं पञ्चक्खाणं / अणापुच्छा नाम-अणापुच्छाए भुंजइभा वारिजाहामि जहा तुमे अभत्तट्ठो पञ्चक्खाओ। अहवा-जेमिमि तो भणीहामि वीसरियं ति, नत्थि अत्थ किंचि भोत्तव्यं, एवं पञ्चक्खायति / परिणामओ असुद्धत्ति दारं, सो पुव्ववन्निओ, इह लोगजसकित्तिमादि / अहवा-एसेव थंभादिअवाउ त्ति-अहं पि पचक्खामि, मा निछुब्भीहामि त्ति अवाएण पञ्चक्खाइ, एवं न कप्पइ, विदू नाम जाणमो, तस्स सुद्धं भवति, सो अन्नहा न करेइ। कम्हा? जम्हा जाणओ तम्हा वि पमाणं, जाणतो सुहं परिहरेइ ति भणिय होइ, सो पमाणति।" तस्य शुद्धं भवतीत्यर्थः पञ्चक्खाणं सम्मत्त / मूलद्वारगाथायां प्रत्याख्यानमिति द्वारं व्याख्यातम् / शेषाणि तु प्रत्याख्यानाऽऽदीनि पञ्च द्वाराणि नामनिष्पन्ननिक्षेपान्तर्गतान्यपि सूत्रानुगमोपरि व्याख्यात्त्यामि / किमिति? अत्रोच्यते-येन प्रत्याख्यानं परमार्थतः सूत्रानुगगेन समाप्तिं यास्यति। आव०६ अ०॥ (13) मनसा वचसादुविहे पञ्चक्खाणे पण्णत्ते / तं जहा-मणसा वेगे पचक्खाति, वयसा वेगे पञ्चक्खाति / अहवा-पचक्खाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-दीहं एगे अद्धं पचक्खाति, रहस्सं एगे अद्धं पचक्खाति। (दुविहे पचक्खाणे इत्यादि) प्रमादप्रातिकूल्येम मर्यादया ख्यानं कथन प्रत्याख्यान, विधिनिषेधविषया प्रतिज्ञेत्यर्थः। तच द्रव्यतो मिथ्यादृष्टः सम्यग्दृष्टाऽनुपयुक्तस्य कृतचतुर्मासप्रत्याख्यानायाः पारणकदिने मांसदानप्रवृत्ताया राजदुहितुरिवेति / भावप्रत्याख्यानयमुपयुक्तसम्यग्दृष्टरिति, तच देशसर्वमूलगुणोत्तरगुणभेदादनेकविधमपि कारणभेदाद् द्विविधम् / आह च-मनसा चैकः प्रत्याख्याति वधाऽऽदिकं निवृत्तिविषयीकरोति, शेष प्रागिवेति / प्रकारान्तरेणपि तदाह- (अहवेत्यादि) सुगमम् / स्था०२ ठा०१ उ०॥ तिविधे पञ्चक्खाणे पन्नत्ते / तं जहा-मणसा वेगे पचक्खाइ, वयसा वेगे पचक्खाइ, कायसा वेगे पञ्चक्खाइ। एवं जहा गरहा तहा पचक्खाणे वि दो आलावगा भाणियव्वा। (मणसेत्यादि) "कायसा वेगे पचक्खाइपावाणं कम्माणं अकरणयाए' इत्येतदन्त एकः। "अहवा-पचक्खाणे तिविहे पन्नत्ते तं जहा-दीहं एगे अद्ध पचक्खाइ, हस्संएगे अद्ध पञ्चक्खाइ, कार्य एणे पडिसाहरइ पावाण कम्माणं अकरणयाए।" इति द्वितीयः, तत्र कायमप्येकः प्रतिसंहरति पापकर्माकरणाय। अथवा-कार्य प्रतिसंहरति पापकर्मभ्योऽकरणतायै तेषामेवेति / स्था०३ ठा० 1 उ०। (नमस्कारसहितप्रत्याख्यानम् 'णमोकारसहिय-पचक्खाण' शब्दे चतुर्थभागे 1861 पृष्ठ "सूरे उग्गए" इत्यादि सूत्रे व्याख्यातम्)। अधुना सूत्रस्पर्शिकर्नियुक्तयेदमेव निरुपयन्नाहअसणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा। एसो आहारविही, चउव्विहो होइनायव्वो // 36|| अशनं मएडकौदनाऽऽदि, पानकं चैव द्राक्षापानाऽऽदि, खादिम फलाऽऽदि, स्वादिमं गुडाऽऽदि, एष आहारविधिश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्यः / इति गाथार्थः // 36 // साम्प्रतं समयपरिभाषया शब्दार्थनिरुपणायाऽऽहआसं खुहं समेई, असणं पाणाणुवग्गहे पाणं / खे माइ खाइमं ती, साप्पइ गुणे तओ साई॥३७॥ आशु शीघ्र क्षुधं बुभुक्षां शमयतीत्यशन, तथा प्राणानामिन्द्रियाऽऽदिलक्षणानामुपग्रहे उपकारे, यद्वर्त्तत इति गम्यते / तत्पानमिति / खमित्याकाशं, तच मुखविवरमेव, तस्मिन्मातीति खादिमम्। इबादयति गुणान् रसाऽऽदीन् संयमगुणत्वाद् वतस्ततः स्थादिमं हि तत्त्वेन तदेवाऽऽस्वादयतीत्यर्थः / विचित्रनिरुक्तिषठाद् भ्रमति रौति तद् भ्रमर इत्यादिप्रयोगदर्शनात्साधुरेवायमन्वर्थः / इति गाथार्थः / / 37 / उक्तः पदार्थः / पदविग्रहस्तु समासभाक्पदविषय इति नोक्तः अधुना चालनामाहसव्वो वि अ आहारो, असणं सव्वो विवुचई पाणं। सव्वो विखाइम त्ति अ, सव्यो वि असाइमं होइ / / 3 / / यद्यनन्तरोदितपदार्थापक्षया अशनाऽऽदीनीति, यतः सर्वोऽपि चाऽऽहार श्चतुर्विधोऽपि तदर्थमशनं, सर्वोऽपि चोच्यते, पानकं, सर्वोऽपि च खादिम सर्व एव च स्वादिमं भवति, अन्वर्थाविशेषात् / तथाहियथैवाशनमोदनमएडकाऽऽदि क्षुधं शमयति, एवं पानमपि तत्तथैव द्राक्षाक्षीरपानाऽऽदि, खादिममपि फलाऽऽदि स्वादिममपि गुडाऽऽदि, यथा च पानं प्राणानामवग्रहे वर्तत्ते, एवमशस्याऽऽदीन्यपि / तथा चत्वार्यपि खे मान्ति, चत्वार्यपि चाऽऽत्यादयन्ति, आस्वाद्यते चेति न कश्चिद्विशेषस्तस्मादयुक्तमेव भेद इति गाथार्थः // 38|| इयं चालना। प्रत्यवस्थानं तु यद्यपि एतदेव, तथापि तुल्यार्थप्राप्तावपि रुढितोप्रयोजन च संयमापकारकमस्त्येव कल्पनया, अन्यथा दोषः / / 38 / / तथा चाऽऽहजइ असणं चिअसव्वं, पाणगमवि वजणम्मि सेसाणं / हवइ विसेसविवेगो, तेण विभत्ताणि चउरो वि॥३६॥ यद्यशनमेव सर्वमाहारजातं गृह्यते, ततः शेषापरिभोगेऽपि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पञ्चक्खाण पानकाऽऽदि वर्जने उदकापरित्यागे शेषाणामाहारभेदाना, निवृत्तिर्न कृता भवतीति वाक्यशेषः। ततः का नो हानिरितिचेव? भवति विशेषविवेकः, अस्ति च शेषाऽऽहारभेदपरित्यागः, न्यायोपपन्नत्वात् प्रेक्षापूर्वेणेत्यर्द्धकु क्कुट्याः पठ्यते अर्द्ध प्रसपीय कल्पत इत्यपरिणतानां श्राद्धानां च न जायते (2) एवं सामान्यविशेषभेदनिरुपणया सुखावसेयं सुखश्रद्धेयं च भवति / इति गाथार्थः // 36 // तथा चाऽऽहअसणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा। एवं परुविअम्मी, सद्दहिउं जं सुहो होइ॥४०|| अशनं पानक चैव खादिम स्वादिम तथा, एवं प्ररुपिते सामान्यविशेषभादनाख्याते तथ्यावबोधात् श्रद्धातुं सुखं भवति-सुखेन श्रद्धा प्रवर्तते, उपलक्षणार्थत्वाद्दीयते, पाल्यते च सुखम्। इति गाथार्थः / / 4 / / आह-मनसाऽन्यथा संप्रधारिते प्रत्याख्याने त्रिविधस्य प्रत्याख्यानं करोमीति वागग्यथा विनिर्गता चतुर्विधस्येति गुरुणाऽपि तथैव दत्तमत्र कः प्रगागम् ? उच्यते-शिष्यस्य मनोगतो भाव इति। आह चअन्नत्थ निविडए वं-जणम्मि जो खलु मणोगओ भावो। तं खलु परक्खाणं, न पमाणं वंजणं छलणा // 41 / / अन्यत्र निपतिते व्यञ्जने त्रिविधप्रत्याख्यानचिन्तायां चतुर्विध इत्यवमादौ निपतिते शब्दे यः खलु मनोगतो भावः प्रत्याख्यापयितुः, खलुशब्दो विशेषणे / अधिकतरसंयमयोगकरणं क्षिप्तचेतसोऽन्यत्र निपतिते, न तु तथाविधप्रमादात्यो मनागतो भावः तत्खलु प्रत्याख्यानं न प्रभाणन्, अनेनापान्तरालगतसूक्ष्मविवक्षाऽन्तरप्रतिषेधमाह / आद्याया एव प्रवर्तकत्वाद् व्यवहारदर्शनस्य पाधिकृतत्वात्, अतो न प्रमाण व्य-जनं तच्छिक्षाऽऽचार्यवचनम्, किमिति ? छलनाऽसौ / व्वजनमात्र, तदन्यथाभावसभावात्। इति गाथार्थः // 41 / / इदं च प्रत्याख्यानं प्रधानं निर्जराकारणमिति विधवदनुपालनीयम्, तथा चाऽऽहफासिअंपालिअंचेव, सोहिअंतीरिअंतहा। कित्तिअमाराहिअंचेव, एरिसम्मि पयइअव्वं / / 4 / / स्पृष्ट प्रत्याख्यानग्रहणकाले विधिना प्राप्त, पालितं चैव पुनः पुनरुप- | योगप्रतिजागरणेन रक्षितं, शोभितं गुर्वदिप्रदत्तशेषभोजनाऽऽसेवनेन, तीरित तथा-पूर्णेऽपि कालावधौ किञ्चित्कालावस्थानेन, कीर्तित भोजनवेलायामनुकं प्रत्याख्यानं तत्पूर्णमधुना भोक्ष्ये, इत्युच्चारणे, आराधितं चैव-एभिरेव प्रकारैः संपूर्णैर्निष्ठा नीतं, यस्मादेवंभूतमेतदाज्ञापालनादप्रमादाच महत्कर्मक्षयकारणं तस्मात् अस्मिन् प्रयतितव्यमिति एवंभूत एव प्रत्याख्याने यतः कर्तव्य इति गाथार्थः // 42 // उचिए काले विहिणा, जंपत्तं फासिअंतयं भणियं / तह पालिअंच असई, सम्म उवओगपडिअरिअं॥४३|| गुरुदत्तसेसभोअण-सेवणयाए असोहिअंजाण / / पुन्ने वि थोवकाला-वत्थाणा तीरिअं होइ।।४४।। मोअणकाले अमुगं, पच्चक्खायं ति सरइ किट्टीअं / आराहियं पयारेहिँ, सममेएहि निट्ठविअं॥४५॥ गाथात्रयमन्यकर्तृकम्। साम्प्रतमनन्तरं, पारम्पर्येण च प्रत्याख्यानगुणानाहपचक्खाणम्मि कए, आसवदाराई हुंति पिहिआई। आसववुच्छेएण य, तम्हा वुच्छे अणं होइ॥४६|| प्रत्याख्याने कृते सम्यक् निवृत्तौ कृताया किमाअवद्वाराणि भवन्ति पिहितानि तद्विष्यप्रतिवद्धानि कर्मबन्धद्वाराणि भवन्ति स्थगितानि, तत्राप्रवृत्तेराश्रवव्यच्छेदेन च कर्मबन्धद्वारस्थगनेन, संवरणेन चेत्यर्थः। किम् ? तझ्यवच्छेदनं भवति तद्विषयाभिलाषनिवृत्तिर्भवति / इति गाथार्थः // 46 / / तम्हा वुच्छेएण य, अउलोवसमो भवे मणुसाणं। अउलोवसमेण पुणो, पचक्खाणं हवइ सुद्धं / / 47 / / तहावच्छेन च तद्विषयाभिलाषनिवृत्त्या च अतुलः अनन्यसदृश उपशमः माध्यस्थ्यपरिणाओ भवति मनुष्याणां पुरुषाणां जायते। पुरुषप्रणीतः पुरुषप्रधानश्च धर्म इति ख्यापनार्थ मनुष्यग्रहणम्, अन्यथा स्त्रीणामपि भवत्येव / अतुलोपशमेन पुनरनन्यसदृशमाध्यस्थ्यपरिणामेन, पुनः प्रत्याख्यानमुक्तलक्षणं भवति शुद्धंजायते निष्फलङ्कम्। इतिगाथार्थः / / 47 / / तत्तो चरित्तधम्मो, कम्मविवेगो तओ अपुव्वं च। तत्तो केवलनाणं, तत्तो मुक्खो सया सुक्खो।।४८|| ततः प्रत्याख्यानात् शुद्धाचारित्रधर्मः, स्फु रतीति वाक्यशेषः / कर्मविवेक कर्मनिर्जरा, ततश्व चारित्रधर्मात्, ततश्चेति द्विरावर्तते, ततश्च तस्माच कर्मविवेकात् अपूर्वमिति क्रमेणापूर्वकरणं भवति / ततः अपूर्वकरणाच्छ्रे णिक्रमेण केवलज्ञानम, ततश्च केवलज्ञानद्भवोपग्राहिकर्मक्षयेणः मोक्षः सदा सौख्यः अपचर्मो नित्यसुखो भवत्येवमिदं प्रत्याख्यानं सकलकल्पैककारणमतो यनेन कर्तव्यमिति गाथार्थः / / 48|| आ० व०६ अ० धo1 एवमपि शुद्ध्यमानेन प्रत्याख्यान कार्यमतस्तत्फलं प्रश्नपूर्व कमाद्दपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?| पञ्चक्खाणेणं आसवदाराई निरुंभइ, पचक्खाणेणं इच्छानिरोहं जणयइ, इच्छानिरोहं गए णं जीवे सव्वदवेसु विणीयतएहे सीयलभूए विहरइ||१३|| हे भदन्त ! प्रत्याख्यानेन मूलगुणोत्तरगुणप्रत्याख्यानरुपेण जीवः किं जनयति? गुरुराह-हे शिष्य ! प्रत्याख्यानेन आश्रवद्वाराणि निरुणद्धि अतिशयेव आवृणोति / अत्र प्रत्यन्तरे कुत्रचित् अयं प्रश्रोऽस्ति- हे स्वामिन् ! प्रत्याख्यानेन जीवः किं जनयति ? अत्रोत्तरम्-हे शिष्य ! प्रत्याख्यानेनच्छानिरोधमाहाराऽऽदिवाच्छाया निरोधं जनयति, इच्छानिरोध प्राप्तो जीवः सर्वद्रव्येषु विनीतृष्णो भवति-सुतरामतिगयेन विनीता स्फोटिता तृष्णा येन स सुविनोततृष्णः- अत्यन्तवरीकृततृष्णः सन् शीतलीभूतो विहरति ब्राह्माभ्यन्तरसन्तापरहितो विचरति॥१३॥ उत्त० 26 अ०। इदं च प्रत्याख्यानमिहोपाधिभेदाद्दशविधं भवतिः, आकार-समविन्वतं च गृहाते पाल्यते च। अत इदमभिधित्सुराहनमुकारयोरिसीए, पुरिमड्वेगासणेगठाणे अ। आयंबिलि भत्तट्टे, चरमे अ अभिग्गहे विगई ||vel Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण दो छच सत्त अट्ठ य, सत्तऽट्ट य पंच छच्च पाणम्मि। चउ पंच अट्ठ नव य, पत्तेअंपिंडए नव य॥५०।। दो चेव नमुक्कारे, आगारा छच्च पोरिसीए उ। सत्तेव उपुरिमड्ढे, एगासणगम्मि अट्टेव / / 51 / / सत्तेगठाणगस्स उ, अट्टेवायं विलस्स आगारा। पंच अभत्तहस्स उ, छ प्पाणे चरमि चत्तारि॥५२|| नमस्कार इत्युपलक्षणत्वात् नमस्कारसहितेपौरुष्यांपुरिमार्द्ध एकासने एकस्थाने च आचाम्ले अभक्तार्थे चरमे च अभिग्रहे विकृतौ, किम् ? यथासंख्यमेते आकाराः-द्वौषट् सप्त अष्टौ सप्त अष्टौ च पञ्च षट् पाने, चतुः पञ्च अष्टौ नव प्रत्येक पिएडके नवकः / इति गाथाद्वयाऽक्षरार्थः / भावार्थमाहदावेव नमस्कारे आकारौ, इह नमस्कारग्रहणात् नमस्कारसहितं गृह्यते। तत्र द्वावेवाऽऽकारौ, आकारो हि नाम प्रत्याख्यानेऽपवादे हेतुः / / 50|| आव०६ अ०। आ०चू०। पञ्चा०। पं०व०। (पौरुष्यादिप्रत्याख्यानसूत्राणि स्वस्वस्थाने द्रष्टव्यानि) / (13) अथ सामायिकविधिरभिधीयते / तस्य चैवं प्रस्तावनाननु सामायिके सकलसावद्ययोगविरतिरुपे सति किमनेनाऽऽहारप्रत्याख्यानेन, सकलगुणानां सामायिकेवाऽऽक्षिप्तत्वात्। अत एव कैश्चिदुद्घुष्यते- "रागद्वेषौ यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ? तावेव यदि न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ? // 1 // " इत्याशङ् क्याऽऽहसामाइऍ विहु साव-जचागरुये उ गुणकरं एयं / अपमायबुड्विजणग-तणेण आणाउ विणेयं / / 13 / / सामायिके आत्मपरिणाभविशेषे, अपिशब्द उत्तरत्र संभत्स्यते। हुशब्दो वाक्यालङ्कारे। किंभूते ? सावद्यत्यागरुपेऽपि निखिलसपापव्यापारपरिहारस्वमावेऽपि, न केवल देशविरतिसम्यक्त्वश्रुतसामायिकेष्वेव, तुशब्द एवकारार्थो , भिन्नक्रमश्च / गुणकरमेवोपकारकमेव, एतदाहारप्रत्याख्यानमनन्तरोक्तम् / कथ मिदमेवमित्याह-अप्रमादवृद्धिजनकत्वेनाप्रमत्तताप्रकर्षोत्पादकत्यात्। अनुभवन्ति च साधवोऽमुतोऽप्रमादवृद्धिम्।तथा आज्ञातः सर्वविदादेशात्।आदिष्ट च सर्वविदा सामायिकवतामेतचतुर्थाऽऽदि, तपसामादेशात् / आह च - "तवहेउ चउत्थाई, जाव य छम्मासिओ तवो होइ।" विज्ञेयं ज्ञातव्यं, गुणकरमिति योग : / अतः सामायिके सत्यपीदं युक्तम्। इति गाथाऽर्थः // 13 // न चाप्रमादवृध्दिजनकत्वमस्यासिद्धमित्याहएत्तो य अप्पमाओ, जायइ एत्थमिह अणुहवो पायं / विरतीसरणपहाणे, सुद्धपवित्तीसमिद्धफलो॥१४॥ इतोऽनन्तरोक्कादाहारप्रत्याख्यानात् / तुशब्दः, चशब्दो वा पुनरर्थः। अप्रमादोऽप्रमत्तता, जायते विशेषेण संपद्यते। क्काप्रमादो जायते? इत्याह - (एत्थति) अत्र सावद्ययोगविरतिरुपे सामायिके / अथ किमत्र प्रमाणमित्याह-इहास्मिन्प्रत्याख्यानस्याप्रमादजननलक्षणेऽर्थे अनुभवः स्वसंवेदनं प्रमाणम, प्रायोबाहुल्येन, वीतरागाणामप्रमादस्य जातत्वात्, अनुपयुक्तसाधूनां वा न जायतेऽसौ, प्रत्याख्याने सत्यपीत्यप्रमादविशेषानुभवाभावोऽपि स्याद्, एतत्सूचनार्थ प्रायोग्रहणम् / किंविधोऽसावप्रमाद इत्याह-विरतिस्मरणप्रधानः प्रत्याख्येयार्थनिवृत्तिस्मृतिपरमः / प्रत्याख्यानजन्याप्रमादो हि विरतिं स्मारयत्येव, अनेन चान्तरं फलमप्रमादस्योक्तम् / तथा शुद्धप्रवृत्तेरनवद्यानुष्ठानस्य समृद्धिः संपूर्णता फलं यस्य स तथा / दृश्यते च प्रत्याख्यानजन्याप्रमादवतां सत्प्रवृत्तिप्रकर्षः / अनेन पुनरस्य ब्राह्म फलमुक्तम् / इति गाथार्थः / / 14 // नन्विदमाहारप्रत्याख्यानं त्रिविधाऽऽद्याहारभेदेन गृह्यमाणमप्रत्याख्यातान्यतराऽऽहारविषयेऽभिष्वङ्गभावयुक्तत्वेनेतरत्र च द्वेषभावोपेतत्वेन सामायिकं बाधते, सर्वत्र तस्य निरभिष्वङ्गतास्वभावत्वादित्याशड क्याऽऽहण य सामाइयमेयं, वाहइ भेयग्गहे वि सव्वत्थ। समभावपवित्तिणिवि-त्ति भावओठाणगमणं व // 15 / / न च नैव, सामायिकं समभावलक्षणं कर्मताऽऽपन्नम्, एतदाहारप्रत्याख्यानं कर्तृ, बाधते विनाशयति / भेदेन त्रिविधाहाराऽऽदिलक्षणविकल्पेन ग्रहणं प्रतिपत्तिः भेदग्रहणं, तत्रापि, न केवलं चतुर्विधाऽऽहारग्रहण एवेति प्रतिज्ञा कुत एतदेवमित्याह-सर्वत्राऽऽहाराऽऽदौ समभावेन प्रत्याख्यातेतराऽऽहारभेदयोस्तुल्यपरिणामेन ये प्रवृत्तिनिवृत्ती क्रमेणाप्रत्याख्यातप्रत्याख्यातार्थयोः प्रवर्तननिवर्त्तने, तयोर्यो भावः सद्भावः, स तथा, तस्मात्समभावप्रवृत्तिनिवृत्तिभावत इति हेतुः / समभावता च प्रत्याख्यातुः प्रत्याख्यातेतराऽऽहारविषये वेदनावैयावृत्याऽऽदिनाऽऽतङ्कोपसर्गाऽऽदिना च शास्त्रोक्ताऽऽलम्बनेनैव प्रवृत्तेनिवृत्तेश्च स्थानगमने प्रतीते इव स्थानगमनवदिति दृष्टान्तः / यथा हि समभावत एव क्वचित् स्थानं गमनं चेतरेतरपरिहारवदपि न सामायिक बाधते, एवमिदमपीति। प्रयोगोऽववत्समभावपूर्वकमनुष्ठानं तत्सामायिक न बाधते, स्थानगमने इव समभावपूर्वकं च भेदप्रत्याख्यानम् / इति गाथार्थः / / 15|| अथाऽऽहारप्रत्याख्यानवत्सामायिके आकाराः किमिति नोक्ता इति परमतमाशङ्कमान आहसामाइऍ आगारा, महल्लतरगे विणेह पण्णत्ता। भणिया अप्पतरे विहु, णवकाराइम्मि तुच्छमिणं ||16|| सामायिके सर्वविरतिरुपे, आकारा अपवादाः, (महल्लतरगे वि त्ति) आहारप्रत्याख्यानापेक्षया महत्तरकेऽपि बृहत्तरेऽपि महत्तरत्वं च तस्य यावजीवितया त्रिविधं त्रिविधेन च प्रतिपत्तेः। न नैव, इह प्रत्याख्यानाधिकारे, प्रज्ञप्ताः प्ररुपिताः, महत्तर एव विषयेतेप्ररुपयितव्या भवन्तीति हृदयम्। भणिताश्च प्ररुपिताः पुनरल्पतरेऽष्यतिशयतुच्छेऽपि, अपिशब्दोऽवाऽऽहारप्रत्याख्यानस्याऽल्पतरत्वेनाऽऽकारभणनायोभ्यतासंसूचनार्थः / हुशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः / नमस्काराऽऽदौ नमस्कारसहितपौरुषीप्रभृतिक, तदैवं तुच्छमसारमिदं नमस्कारसहिताऽऽदायाकारभणने सति सामायिके तदभणनं युक्तिरहितत्वादिति गाथार्थः / / 16 / / अत्रोत्तरमाहसमभावे चिय तंज, जायइ सम्वत्थ आवकहियं च। ता तत्थ ण आगारा, पण्णत्ता किमिह तुच्छंत्ति? ||17|| Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 105 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण समभाव एव रागाऽऽदिविहितवैषम्यविरहितपरिणाम एव सति, नान्यथा। तत्सामायिकम्, यद्यस्मात् जायते भवति। किं विषये समभाव इत्याहसर्वत्र सर्वेषु पदार्थेषु शत्रुमित्राऽऽदिषु, अनेन द्रव्याण्याश्रित्य सामायिकमुक्तम् / अथ कालतस्तदेवाऽऽह-न्यावत्कथितं यावजीविकम्। चशब्दः समुह / तज्जायते इति वर्तते। तत्तस्मात्कारणद्वयात्, तत्र सामायिके नाकारा नापवादाः, प्रज्ञप्ताः प्ररुपिताः, जिनैरितिगम्यम्। ततश्च किम् ? न किचिदित्यर्थः / इहाऽऽकारविचारे, तुच्छमसारं युक्तियुक्तत्वादिति। अमत्र भावार्थः- सामायिके आकारा नयुक्ताः, तस्याजन्म समभावरुपत्वात् / तथाहि- यदि गुरुलाघवाऽऽलोचनतो ग्लानाऽऽद्यवस्थाया प्रशस्ताऽऽलम्बनः काश्चित्प्रतिषेवां करोति, तदा तस्य समभावावस्थितत्वेन सामायिकस्यावाधितत्वात्किं महत्तराऽऽकाराऽऽदिकरणेन ? यदि च सामायिकप्रतिपत्तिकाले सर्वं सावधं योग प्रत्याख्यामि अन्यत्र चारप्रतीकाराऽऽदेरित्येवं साकारं पण्मासाऽऽदि वावदित्यवधिविशेषवदा प्रत्याख्याति तदा वैरिकाऽऽदिषु पच्मासाऽऽदिपरतश्च समभावाभावात्सामायिकं नास्त्येवेत्याकारकरणमनर्थक-मित्येवं सामागिकआकराभावः / इति गाथाऽर्थः / / 17 / / एतदेव सामायिकस्य सर्वार्थनिरभिष्वङ्गत्वं यावत्कथिकत्वं च स्पश्यन्नाहतं खलु णिरभिस्संगं, समयाए सव्वभाविसयं तु। कालावहिम्मि विपर, भंगभया णावहित्तेण / / 18|| तत्सामायिकम्, खलुरवधारणे, भिन्नक्रमश्च / निरभिष्वङ्गमेव निराशंसमेव। तथा समतया इष्टानिष्टार्थेषु तुल्यतया हेतुभूतया, सर्वभावविषय समस्तवस्तुगोचरमेव / करिचित् दृश्यते (सव्वभावविसयं ति ति) तत्र निरभिष्वनमेव तत्समतया सर्वभावविषयमिति कृत्वेति व्याख्येयम् / अनेन ''समभावे चिय तंज, जायइ सव्वत्थेति" भावितम / ननु तस्य काथं निरभिष्वङ्गत्वं जीवनं यावदेव निवृत्तिभावेन तत् परतोऽभिष्वङ्गभावाद् / अत्रोच्यतेकालावधावपि यावज्जीवतयेत्येवंभूतमर्यादायामपि, किंभूते कालावधावित्याह-परमिति जीवनात्परतः भङ्गभयात्प्रतिज्ञाभ्रंशभीत्या. कृते सतीति शेषः नावधित्वेन नपुनर्मर्यादात्वेन परतः सावद्य करिष्यामीत्येवं रुपेणेति शेषः / निरभिष्वङ्गमेव तदिति प्रकृतम् / अनेन च (आबकहियं ति ) भावितमिति गाथाऽर्थः / / 18 // अथ निदर्शनतः साभायिकमाकारणामविषय इति दर्शयन्नाहमरणजयऽज्झवसियसुद्द-डभावतुलमिह हीणणाएण। अक्ष-क्षण ण विसओ, भावेयव्वं पयत्तेण / / 16 / / मया जयो वाऽवाप्तव्य इत्युल्लेखेन रणावसरे मरणजयौ मृत्युरिपुविजयावध्यवसितौ येन सुभटेन स तत्य तत्य वो भावोऽध्यवसायः, तस्य तुल्यं सदृशं पत्तत्तथा। इह लोके, हीनज्ञातेन तुच्छोदाहरणेन, हीनता चास्य तज्जेतव्यस्यैकभविकत्वात्, रागाऽऽदिवैरिवारविधुरितान्तः करणत्यात, परोपकारकरणपरायणत्वात्, सामायिकवतश्चैतद्विपरीतत्वाद, तदेकात्यवसायतामात्रेणैव च साधात् / यतश्चैवमतोऽएवादानामाकाराणाम न विषयो गोचरः, तथाविधैकरूपत्वात्, भावयि- / तव्यं, एतत् प्रयत्नेनाऽऽदरेण न हयुपादेयविशेषे उपायविशेषतः प्रवर्तमान आशङ्कावान् भवति / इति गाथाऽर्थः / / 16 // यत एवेदमित्थं महत्तरमत एवाऽऽहएत्तो च्चिय पडिसेहो, दढं अजोग्गाण वण्णिओ समए। एयस्स पाइणो विहु, वीयं ति विही य अइसइणा / / 20 / / यत एवेदं सुभटभावतुल्यमत एव कारणात्प्रतिषेधो निवारणा दानं प्रति, दृढमत्यर्थम, अयोग्यानां क्षुद्रसत्त्वतया सुभटभाववर्जिताना, वर्णितोऽभिहितः, समये सिद्धान्ते। कस्य प्रतिषेध इत्याह-एतस्य सामायिकस्य / ननु यद्योयोग्यानामे तद्दाननिषेधो वर्णितस्तदा कथं भगवता महावीरेण जन्मान्तरविद्यारितसिंहजीवाभीरस्थ सामायिक प्रतिपातवतोऽपि सामायिकदानविधिरादिष्टो गौतमस्य? इत्याशड् क्याऽऽहपातिनोऽष्यवश्यं सामायिकात्प्रतिपतनशीलस्यापि, आस्तामितरस्य / हुशब्दोऽलड्कारार्थः। बीजमिति मुक्तिप्राप्त्यबन्ध्यकारणमयं सामायिकविधिरस्य भविष्यतीतिकृत्वा / विधिश्च सामायिकदानप्रवर्तन च / वर्णित इति प्रकृतम्। अतिशायिना केवलिना भगवता महावीरेण / अतो विशिष्टतरोपकारहेतुत्वं विज्ञाय केवलिनो तद्विधेः कृतत्वान्न तत्र भङ्गदोषः, प्रकृत्यैव तस्य भावात, गुणस्यैव तत्राधिकत्वात्, मारणान्तिकसन्निपाते स्मृतिकार्योसधदानवत् / इति गाथार्थः / / 20 / / ननु यदि सुभटभावतुल्यत्वात् सामायिकेनाऽऽकारा भवन्ति, तद्दा सामायिकवतो नमस्कारसहिताऽऽदावपि तेन युक्ताः, सुभटभावतुल्यभावबाधकत्वात् तेषामित्याशक्याऽऽहतस्स उपवेसणिग्गम-वारणजोगेसु जह उ अववाया। मूलावाहाएँ तहा, णवकाराइम्मि आगारा // 21 // तस्य तु तस्मैव सुभटस्य, प्रवेशश्व संग्रामे जयार्थिनः प्रवेशनं, निर्गतश्च तत एव जयार्थिन एव निर्गमनं, वारणं च विशिष्टावसरप्राप्तये प्रहरतः स्ववलस्य शत्रोर्वा निवारणं, योगश्च तस्यैव प्रवोगो व्यपारणं, प्रवेशनिर्गमवारणयोगाः, प्रवेशनिर्गप्रवारणान्येव वा योगा व्यापाराः प्रवेशनिर्गमवारणयोगाः / अतस्तेषु वैरिनिराकरणोपायभूतेषु सामायिकसिद्धषुपावभूतनमस्कारसहितादिकल्पेषु, यथा तु यथैव, अपवादा आकारास्तत्कारणभजनालक्षणा महत्तराऽऽकाराऽऽदिकल्पा भवन्ति / कथमित्याह-मूलाबाधया मूलभूतस्य मर्त्तव्यं जयो वाऽवाप्तव्य इत्येवंलक्षणस्य अध्यवसायस्याविचलिततया, तथा तेनैव प्रकारेण, नमस्काराऽऽदौ नमस्कारसहिताऽऽदौ प्रत्याख्याने। आकारा अपवादा महत्तराऽऽदिलक्षणा मूलाबाधया सुभटभावकल्पसामायिकाबाधया भवन्तीति गाथाऽर्थः // 21 // . मूलाबाधामेव स्पष्टयन्नाहण य तस्स तेसु वितहा, णिरमिस्संगो उ होइ परिणामो। पडियारलिंगसिद्धो, उणियमओ अण्णहारुवो // 22 // न च नैव, तस्य सामायिक वतः सुभट स्य च, तेष्वपवादे - ऽवपि सत्सु, आस्तामन्यत्र / तथा तत्प्रकार इष्टानिष्टार्थतुल्यतारुपो, जीविताऽनपेक्षश्च, निरभिष्वङ्गस्तु निराशंस एव स Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण 106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण न्, भवति जायते, परिणामोऽध्यवसायोऽन्यथारुप इति योगः। किंभूतोऽसावन्यथारुपः? प्रतीकारः प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिरुपः / सुभटपक्षे तु शरणान्वेषणाऽऽदिरुपः। स एव लिङ्ग चिहं, तेन सिद्धीयः स तथा। तुशब्दः पूरणार्थः / नियमादवइयंभावेन, अन्यथारूपः, साभिष्यङ्ग इत्यर्थः / इदमुक्तं भवति-यदि सामायिकवतो महत्तराऽऽद्याकारेषु सत्सु साभिष्वङ्गः परिणामोऽभविष्यत्तदा तच्छुद्धये प्रायश्चित्तभकरिष्यत्, न चैवम्, ततस्तस्याऽऽकारेष्वपि सत्सु निरभिष्वङ्ग एव परिणामोऽतः साधूक्तं मूलाबाधया / इति गाथार्थः / / 22 / / अपवादाऽऽश्रयणेऽपि न मूलभावबाधा भवतीत्येतदेव सविशेष दर्शयन्नाहणय पढमभावबाघा-य मो उ एवं पि अवि य तस्सिद्धी। एवं चिय होइ दढं, इहरा वामोहपायं तु // 23|| न च नैव, प्रथमभावव्याघात आद्याध्यवराायबाधा, प्रत्याख्यानपक्षे सामायिकबाधा, सुभटपक्षे जयाध्यवसायबाधा। ''मो" इति निपातः पादपूरणे। तुशब्दः पुनरर्थः। तत्संबन्धश्च दर्शयिष्यते। एवमपि अनन्तरोतापवादाऽऽश्रयणेऽपि / अपि चेत्यभ्युच्चये / तसिद्धिः प्रथमभावस्य विशेषतो निष्पत्तिः, एवमेवापवादाऽऽश्रयण एव, भवति जायते, दृढमत्यर्थमाकारवत्, प्रत्याख्यानाऽऽश्रयणस्य तदुपायत्वात्, रिपुविजये प्रवेश ऽऽदिभजनाया इवैति। इतरथा पुनरपवादवत् प्रत्याख्यानानाश्रयणे पुनः, व्यामोहप्रायं तु मूढताप्रख्यमेव सामायिकं, सभटस्य विजयाध्यवसान वा भवेद, उपायत एव तत्सिद्धेरिति गाथार्थः / / 23 / / ननु यद्यपि सामायिक सुभटाध्यवसायतुल्यं, तथापि कस्यापि प्राणिनः कालान्तरे तस्य प्रतिपातः संभवतीत्यतः तदपि सापवादमेव कर्तुं युक्तम्। अत्रोत्तरमाह - उभयाभावेऽपि कुतो, वि अग्गओ हंदि एरिसो चेव। तक्काले तब्भावो, चित्तखओवसमओ णेओ॥२४|| उभयस्य-वर्तमानभवक्षयस्य भाववैरिजयादपवर्गस्य च, सुभटदृष्टान्तापेक्षया तु भरणरिपुविजयलक्षणस्य द्वयस्याभावोऽसत्ता उभयाभावस्तत्रापि, आस्तांतदभ्रंशे। कुतोऽपि कस्मादपिपरीषहानीकभयाऽऽदेः, अग्रतः पुरतः, सामायिकप्रत्तिपत्तेरनन्तरं तत्पालनाक्सरे, सुभटपक्षे तु संग्रामकाल इत्यर्थः / हन्दीत्युपप्रदर्शने ईदृश एवमर्त्तव्यं वा भाववैरिविजयो वा विधेय इत्येवंविध एव, न पुनरपवादाभिमुखः, तद्भाव इति योगः। कदेत्याह- तत्काले सामायिकप्रतिपत्तिकाले, सुभटपक्षेतु संग्रामाभ्युपगमकाले। कोऽसावित्याह-तद्भावः सामायिकप्रतिपत्तिपरिणामः, अन्यत्र तु सुभटाध्यवसायः। कथमेतदेवमित्याह-चित्रक्षयोपशमतः कर्मक्षयोपशमवैचिच्यात्, ज्ञेयो ज्ञातव्यः। एवंविधो हि तस्य क्षयोपशमो भवति, यतोऽवश्यप्राप्तव्यमनोभङ्गत्वेऽपि साधुसुभटस्याऽऽदावुदात्त एव भावो भवति। इति गाथार्थः / / 24 / / तदेव सामायिके विधिसमायुक्तमित्यभिहितम्। पञ्चा०५ विव०। (14) अथ कोऽपि ब्रूयात-विद्यमानार्थविषयमेव प्रत्याख्यानमुपपद्यते, निवृत्तिफलत्वादित्यत्राऽऽहबज्झाभावे वि इमं, पच्चक्खंतस्स गुणकरं चेव। आसवनिरोहभावा, आणाआराहणाओ य!|४७।। वाभावेऽपि दुर्भिक्षकान्ताराऽऽदावशनाऽऽदेर्बाह्यस्य प्रत्याख्येय- | द्रव्यस्यात्यन्तासद्भावेऽपि, आस्तां सदावे, इदं प्रत्याख्यानं, प्रत्याचक्षाणस्यः, प्रत्याख्यातु गुणकरमेव कर्मनिर्जरालक्षणो पकारकरणशीलमेव भवति / कुत इत्याह-आश्रवनिरोधभावात् आश्रवस्य कर्माऽऽदानहेतोरविरतलक्षणस्यान्तरार्थस्य निरोधो निषेधो यस्तस्य यो भावः सत्ता स तथा, तस्मादाश्रवनिरोधभावात, आज्ञाराधनाच सर्वज्ञाऽऽज्ञानुपालनाच / सर्वविदो हि बाह्याभावेऽप्यातुरस्याविरत्याख्यार्थस्य प्रत्याख्वेयस्य सद्गावात् प्रत्याख्यानस्य सफलतां पश्यन्तस्तदादिशन्ति, रड्काऽऽदीनां प्रव्राजनश्रवणादिति गाथार्थः / / 47 // __अथास्यैव समर्थनार्थमाहन य एत्थं एगतो, सगडाऽऽहरणाऽऽदि एत्थ दिटुंतो। संतं पिणासइ लहुं, होइ असंतं पि एवमेव / / 46|| न च नैव, अत्रापि बाह्यप्रत्याख्येयद्रव्याभावे निर्विषयं प्रत्याख्यानं भवतीत्यस्मिन्नपि पक्षे, अपिशब्दाद्वाह्यसद्भावे सविषयमित्यत्रापि / एकान्तोऽवश्य भावः / अयं चार्थो दृष्टान्ताद् सिद्ध इत्याह-शकट यानं, तेनोपलक्षितमुदाहरणं कथानकं शकटोदाहरण, तदादिर्यस्य कुम्भाऽऽदेः शकटोदाहरणाऽऽदिः / अत्र बाह्याभावे प्रत्याख्यानं निर्विषयमित्यस्य पक्षस्यानैकातिकत्वे साध्ये दृष्टान्तो निदर्शनम् / अत्रैव हेतुमाह-सदपि विद्यमानमपि प्रत्याख्येयं वस्तु, असत्पुनर्नष्टमेवेत्यपिशब्दार्थः / नश्यत्यपैति, पुण्यविपर्ययालधु शीघ्रम् / तथा भवति जायते, असदप्यविद्यमानमपि प्रत्याख्येयवस्तु पुण्यवशत्पुनर्जातमेवेत्यपिशब्दार्थः / एवमेव लध्वेव। अथवा- सतो नाशः प्रायः प्रसिद्धः, असतस्तु भावो न तथेत्यत उच्यते- एवमेव यथा सन्नश्यति तथाऽसदपि स्यादित्यर्थः / हेतुप्रयोगश्चैवम्- अविद्यमानार्थविषयं प्रत्याख्यानम विषयमेवेत्यनेकान्तोऽसतोऽपि सत्त्वसंभवात्, शकटकथानके असतः शकटस्यैवेति गाथाऽक्षरार्थः ! कथानकं पुनरेवम्-किल केनचित् द्विजातिना तथा विधमुनिपुङ्गवचरणकमलमूले नानाविधविषयान्नियमान् प्रतिपद्यमानान् मानवानवलोक्यासंभवद्विषयत्वेन निष्फला एते नियमा इति मन्यमानेनोपहासपरिगतबुद्धिना "यद्यसद्विषयमपि प्रत्याख्यानं सफलं भवति ततो ममाणि तद्भगवतु / '' इत्यस्यया मया शकटं न भोक्तव्यमित्येवंभूतो नियम विहितः / तस्य चान्यदा कथञ्चित् कान्तारोत्तीर्णस्यातिबुभुक्षितस्य कयाचिन्नरपंतिसुतयोपवसननिमित्तमपूर्वमुद्धूलितजडमग्रजन्मानम. न्वेषमाणया पक्वान्नमयं शकट भोजनपाच्या विन्यस्य समुपहितं, ततोऽरण दृष्ट्वा चिन्तयामास-अहो साधूक्तं साधुभिः, असंभाविनोऽपि वस्तुनः कथश्चित्संभवो भवतीतिसविषयमेव सर्व प्रत्याख्यानंतदिदशकट भक्षय तया प्राप्त, कथमहं स्ववाचा अभक्ष्यतया प्रतिज्ञातं स्ववचनविलोपनेन भक्षयिष्यामीति विभाव्य तत्परिहतवान् / संजातसाधुवचन-बहुमानश्व राजसुतासंबोधनार्थ सर्वा स्ववार्ता तस्याः कथितवानिति संक्षेपतो दृष्टान्तः / इति गाथाऽर्थः / / 48|| पुनरपि प्रत्याख्यानस्य निर्विषयतापरिहारार्थमाहओहेणाविसयं पिहु,ण होइ एयं कहिं चि णियमेण। मिच्छासंसज्जियक-म्मओ तहा सव्वमोगाओ।।४६॥ ओघेन सामान्येन, अविषयमपि बाह्याभावेन निर्गोचरमपि, शकटभक्षणनियमवद, अपिशब्दः संभावनायाम् / हुशब्द Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 107 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण वाक्यालड़कारे न भवति न जायते, एतत्प्रत्याख्यानम्। कुत इत्याह- शक्तिक्रियाऽनुमतिकालपरिमाणस्येदानीं स्वयमेवाभ्युपगमादिति / क्वचिद्देशे काले वा, सर्वभोगादिति संबन्धः / नियमेनावश्यतया / कुत यदुक्तम-"तं दुट्ट आसंसा होइ।" इति। अत्राऽऽह--(आसंसेत्यादि) ननु एतदेवमित्याह- मिथ्या विरत्यपेक्षया विपरीततया संसज्जितं सामस्त्येन शक्तिरुपे अपरिमाणेऽपि त्वयेष्यमाणे आशंसादोषस्तदवस्थ एव, प्रगुणितम्। पाठान्तरेण- "संसेजितं' जीवेन स्वप्रदेशेषु संबन्धितम्, शक्तरुत्तरकालमिदं सेविष्ये इत्याशंसायाः तदवस्थत्वादिति।।२५३५।। सन्कर्म चारित्रमोहाऽऽदितत्तथा, तरमान्मिथ्यासंसज्जितकर्मतो मिथ्या- शक्तिरुपे परिमाणेऽभ्युपगम्यमाने न केवलं भवतः स्वपक्षहानिः, किं संजितकर्मतो वा। तथा तेन केनापि विशिष्टेन प्रकारेणाशकटाऽऽदावपि त्वन्येऽपि दोषाः। के ? इत्याहशकटाऽऽद्याकारत्वेन तत्कल्पनाऽऽदिना, सर्वेषां समस्तानामसंभाव्य- जह न भयभंगदोसो, मयस्स तह जीवओ वि सेवाए। मातभोगभावाना शकटाऽऽदिप्रत्याख्येयार्थाना भोगः सर्वभोगस्तस्मात्। वयभंगनिब्भयाओ, पच्चक्खाणाणवत्था य / / 2536|| इति माथाऽऽर्थः / 46 // इत्तियमेत्ती सत्ती, ति नाइयारो न यावि पच्छित्त। नन्वेवमपि प्रत्याख्यानं निष्फलमेव, मिथ्यासंसज्जितकर्मतः सर्वस्य नय सव्वव्वयनियमो, एगेण वि संजयत्त त्ति॥२५३६।। भोगभावेनावश्यतया तस्य भङ्गसंभयादि यथा मृतस्य पञ्चत्वमुपगतस्य सुरलोकादौ सुरकामिनीसंभोगाऽऽदित्याशङ्कयाऽऽह भोगान् भुजतोऽस्मत्पक्षे दोषो न भवति तथा शक्तिरुपमपरिमाणविरईए संवेगा, तक्खयओ भोगविगमभावेण / मभ्युपगच्छवस्तब मते जीवतोऽपि भोगोपसेवायां न दोषः प्राप्नोति, सफलं सव्वत्थ इम, भवविरहं इच्छमाणस्स / / 50|| एतावत्येव मम शक्तिः, अतो मत्प्रत्याख्यानस्य पूर्णत्वान्जीवन्नपि विरतेः प्रत्याख्येयार्थेषु निवृत्तिपरिणामाद्धेतोः / तथा संवेगाद्विरति भुनज्मि भोगान, इत्यभिप्रायवतस्तदभ्युपगमेन जीवतोऽपि भोगानाप्रतिपत्तिकारणभूतान्मोक्षाभिलाषरुपाध्यवसायात्। किमित्याह-तस्य सेवमानस्य दोषानुषङ्गोन स्यादित्यर्थः। न चैतद् दृष्टमिष्ट वा जिनशासने। मिथ्यासंसजितकर्मणः क्षयस्तत्क्षयस्तस्मात्तत्क्षयतः कारणात् / किं चेत्थमभ्युपगमे एतावती मम शक्तिः, इत्यवष्टम्भक्तो व्रतभङ्गनिर्भयकिम् ? भोगस्य विरतिविबाधकस्य कर्मजन्यस्य प्रत्याख्यानार्थोप त्वात्प्रत्याख्यानानवस्थैव स्याद्, एतावती मम शक्तिः, इति भोगासेवभोगस्य, विगमभावो वियोगसत्ता भोगविगमभावस्तेन हेतुना, सफलं फ नात्पुनः प्रत्याख्यानात्पुनरप्यासेवनात्पुनः प्रत्याख्यानादिति। किं चलवत् / सर्वत्र सर्वेषु विद्यमानाविद्यमानेष्वर्थेषु, इदं प्रत्याख्यानम् / व्रतानामतिचारः, तदाचरणे च प्रायश्चित्तम, एकव्रतभङ्गे सर्वव्रतभङ्ग नियमेन सर्वाण्यपि ब्रतानि पालनीयानीति / / 2536 / / यदागमरुढं कस्येन्याह-भवविरहं संसारवियोगम्, इच्छतोऽभिलषतः, तदन्यस्य हि तत्सर्वमपि भवदभिप्रायेण न प्राप्नोतीति सयुक्तिक दर्शयन्नाह (इत्तियप्रत्याख्यानाप्रतिपत्तेः / प्रतिपत्तावपि सांसारिकफ लसाधकत्वात् मेत्तीत्यादि) एतावत्येव मम शक्तिर्नाधिका, इत्यध्यवसायेन प्रतिसेवां परमार्थतरतन्निष्फलमेवेति गाथार्थः / / 50 // पञ्चा० 5 विव०। श्रावकस्य कुर्वतोऽपि साधोः शक्तयपरिमाणवादिनो भवतोऽभिप्रायेण नातिचारो, प्रलिक्रमणम्। ध०२ अधि०। (प्रत्याख्यानविषये निहवेन सह विप्रतिपत्तिः नचाऽपिव्रतभङ्गः, न चापि प्रायश्चित्तम. तथा सर्वव्रतपरिपालननियमश्च 'अबद्धिय' शब्दे प्रथमभागे 681 पृष्ठे दर्शिता) न स्यात्, शक्त्यवष्टम्भाद, एकव्रतपरिपालनेनापि त्वदभिप्रायेण संयत(१५) यदुक्तम्-प्रत्याख्यानपरिणाममेव विधीयमानं श्रेयो भवति, इति / त्वादिति // 2537 // तत्र प्रतिधीयते - अथ सर्वाऽप्यनागताद्धा अपरिमाणमपि द्वितीयो विकल्प इष्यते, सोऽपि किमपरिमाणं सत्ती, अणागयद्धा अहापरिच्छेओ?| नयुक्त इति दर्शयन्नाहजइ जावदत्थि सत्ती, तो नणु सचेय परिमाणं / 2534 // अहवा सव्वाणागय-कालग्गहणं मयं अपरिमाणं। सत्तिकिरियाणुमेओ, कालो सूरकिरियाणुमेओ व्व। तेणापुन्नपइन्नो, मओ विभग्गव्वओ नाम // 2538|| नणु अपरिमाणहाणी, आसंसा चेव तदवत्था॥२५३५।। सिद्धो वि सजओ चिय, सव्वाणागयद्धसंवरधर त्ति। किमिद नामाऽपरिमाणम् ? किं शक्तिर्यावच्छवनोमीत्यपरिमाणम् ? उत्तरगुणसंवरणा-भावो चिय सव्वहा चेव / / 2536 / / उत सर्वाऽप्यनागताद्धा, आहोस्विदपरिच्छेदः? इति त्रयी गति : / तत्र अथ सर्वस्याप्यनागतकालस्य ग्रहणमपरिमाणं भवतः तेन तर्हि यदि याददरित शक्तिस्तावदहमिदं न सेविष्ये इत्यपरिमाणमिष्यते, मृतोऽपि देवलोकाऽऽदौ भोगानासेवमानः, 'नाम' इत्यामन्त्रणे। अहो ततस्तहिं ननु स्व शक्तिः परिमाणमापन्नम्, अतो यदेव निषिध्यते भगवत एव साधुः, अपूर्ण प्रतिज्ञत्वात्, सर्वमप्यनागतकालं तदेवाभ्युपगतानिति / / 2534 / / कुतः ? इत्याह- (सत्तीत्यादि) तदपरिपालनादिति सुव्यक्तमेवेति।।२५३५|| अपि चैवं सिद्धोऽपि संयत 'यावच्छक्नामि तावदिदं न सेविष्ये' इत्येवंभूतया हि शक्तिक्रियया / एव प्राप्नोति, सर्वानागताद्धासंवरधरत्वाद्, अस्यापि सर्वाद्धागृहीप्रत्याख्यानस्यावधिभूतः काल एवानुमीयतेयावन्तं कालं शक्तिस्तावन्तं तप्रत्याख्यानकालाभ्यन्तरवर्तित्वादित्यर्थः, यावजीवगृहीतविरतिकालमिदं न सेविष्ये इत्यर्थः। दृष्टान्तमाह-यथा सूर्याऽऽदिगतिक्रियया कालाभ्यन्तरवर्तिसाधुवदिति दृष्टान्तः स्वयमेव द्रष्टव्यः / भवतु सिद्धः समयाबलिकाऽऽदिः कालोऽनुमीयते, तथाऽत्रापि शक्ति क्रियया संयतः, कोदोषः? इति चेत् / तदयुक्तम्, "सिद्धे नोसंजयए, प्रत्याख्यानावधिकाल इत्यर्थः / अस्त्वेवमिति चेत् / तदयुक्तम् यतो नोअसंजयए. नोसंजयासंजए।" इति वचनादिति। अपि च-अन्योऽपि नन्वेवं सति त्वया प्रतिज्ञातस्याऽपरिमाणपक्षस्य हानिः प्राप्नोति, ___ दोषः। कः? इत्याह-(उत्तरगुणेत्यादि) उत्तरगुणः पौरुषीपुरिमा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 108 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण काशनकोपवासाऽऽदितपोरुपः संवरणं बहुभिराकारैगृहीतस्यैकाऽऽसनकाऽऽदिप्रत्याख्यानस्य भोजनानन्तरमाकारसंक्षेपेण स्वरुपम्, उत्तरगुणश्व संवरणं चोगुणसंवरणे, तयोरेवं सर्वानागताद्धाप्रत्याख्यानपक्षेऽभ्युपगम्याने सर्वथैवाभावः प्रप्नोति, पौरुष्यादिषु सर्वानागताद्धाप्रत्याख्यानत्वानुपपत्तेः, एकाशनकाऽऽदिषु पुनस्त्वदभिप्रायेण सर्वाद्धाप्रमाणेषु संवरणं कदाचिदपि न घटत इति व्यक्तमेवेति // 2536 / / अथापरिच्छेदोऽपरिमाणमिति तृतीयपक्षमपाकर्तुमाहअपरिच्छेए वि समा-ण एस दोसो जओ सुए तेणं। वयभंगभयाउ चिय,जावज्जीवं ति निविट्ठ / / 2540 / / यतोऽपरिच्छेदरुपेऽप्यपरिमाणेऽभ्युपगम्यमाने एव सर्यानागताद्धाप्रत्याख्यानोक्तदोषः समान एव / तथाहि-कालापरिच्छेदेनापि प्रत्याख्याने कृते किं घटिकाऽऽदिमात कश्चित्कालं प्रतीक्ष्य प्रतिसेवां करोतु, आहोस्वित्सर्वमप्यनागताद्धाप्रत्याख्यानं पालयतु ? / यद्याद्यः पक्षः, तनिवस्था, यावद्धि घटिकां प्रतीक्षतेतावद् द्वे अपि घटिके किं न प्रतीक्षते ? यावच द्वे प्रतीक्षते तावन् तिस्त्रोऽपि किं न प्रतीक्षते? इत्यादि / अथ द्वितीयः पक्षः, तर्हिमृतस्यापि भोगानासेववानस्य व्रतभङ्ग / एव, सिद्धस्यापि संयतत्वम्, उत्तरगुणसंवरणाभावश्वेति त एव दोषाः / उपसंहरन्नाह- (सुए तेणेत्यादि) तेनैतान् परिमाणप्रत्याख्यामदोषानभिवीक्ष्य व्रतभङ्गभयादेव त्रिपक्षपरिहारेण श्रुत आगमे- "सव्वं सावर्ज जोगं पचक्खामि जावजीवाए।" इत्यत्र साधुप्रत्याख्यानस्य यावजीवमिति परिमाणमादिष्टम्, अतो मुच्यतामपरिमाणताग्रह इति / / 2540 / / आह- ननु सपरिमाणे प्रत्याख्याने मयाऽऽशंसालक्षणो दोष उक्त एव, स कथम् ?, इत्याहनासंसा सेविस्सा-मि किं तु मा मे मयस्स वयभंगो। होही सुरेसु को वा, वयावगासो विमुक्कस्स ?||2541 // यावजीवावधिना प्रत्याख्यानं कुर्वतो मरणानन्तरमहं भोगान् सेविप्ये इत्येवंभूता हस्त ! चिदाशंसा वर्त्ततेनैवंभूतेन परिणामेन सार्वधिक प्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः / किं तु मा मे मृतस्यसुरेषूत्पन्नस्य सतो भोगानासेवमानस्य व्रतभङ्गो भविष्यति, इत्यध्यवसायेन मा मे व्रतभङ्गस्तत्र भूयादू इत्येवंभू तेनैव शुभपरिणामेनेत्थंभूतं प्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः, अतस्तत्र का आशंसा? हिस विरत्यावारककर्मणः क्षयोपशमावस्थत्वादत्र स्वायत्तः, सुरलोके त्ववश्यं तदुदयात्परायत्त इश्यतःशक्यत्वाद्यावजीवावधिना प्रत्याख्याति,परतस्त्वशक्यत्वान्न प्रत्याख्याति, इति कथमाशंसादोषवानयम्? इति / अथैवं ब्रूयास्त्वं-किमितीत्थं व्रतभङ्गाद्विभेत्यसौ? अयं हि मृतो मुक्तिं यास्यति, तत्र चकामभोगाभावाहतभङ्गासंभव एव, इतिक्रस्तस्य व्रतभड़संक्षोभः? तदयुक्तम्। सांप्रतभिह मुक्तिगमनासंभवात्, महाविदेहेष्वपि सर्वस्यापि तद्गमननिश्चयायोगादिति / अथ कोऽपि तावन्मुक्तिं गच्छति, तस्य च विमुक्तस्य / मदभिमतेऽपरिमाणे प्रत्याख्याने गृह्यमाणे मुक्तावपि महाव्रतानुगमादपरिमाणप्रत्याख्यानस्य सफलता भविष्यतीति चेदित्यत्राऽऽह ''को धा दयेत्यादि' योऽपि मुक्तिं गच्छति तस्याऽपि विमुक्तस्य निष्ठितार्थस्य को व्रतानामवकाशः? किं व्रतानां साफल्यम् ? तत्कार्यस्य सिद्धत्वान्न किञ्चिदिति भावः / तस्मान्मुक्तिगामिनमपि प्रत्यसंगतमेवाऽपरिमाणप्रत्याख्यानमिति / तदेवं मुग्धमभिज्ञ वा व्यक्त्याऽनपेक्ष्य सामान्येनैवापरिमाणप्रत्याख्याने दूषणान्युक्तानि // 2541 / / अथ निर्धार्य किञ्चिदभिज्ञं प्रति दूषणमाहजो पुणरव्वयभावं, मुणमाणोऽवस्सभाविनं भणइ। वयमपरिमाणमेवं, पचक्खं सो मुसावाई // 2542 / / यः पुनरग्रेऽपि किचिच्छास्त्रपरिकर्मितमतिर्विज्ञो व्रतं गृण्हाति, विज्ञत्वादेव च चीर्णव्रतः सुरलोकमेव गच्छति, इत्युवषुद्ध्यमानः सुरेषु चाव्रतभावमविरतिभावमवश्यंभाविन मुणन् जानानोऽपि व्रतं प्रत्याख्यानमपरिमाण यावजीवपरिमारहितं मणत्युचरति ख एवं टुवाणः प्रत्यक्ष साक्षादेव मृषावादी, अन्यथा भणित्वा अन्यथा करणादिति // 2542 / / अपिचभावो पचक्खाणं, सो जइ मरणपरओ वि तो भग्गं / अह नत्थिन निहिस्सइ,जावजीवं ति तो कीस ?2543 भावश्चैतसिको विरतिपरिणामः प्रत्याख्यानमुच्यते, स च प्रत्याएयातुर्यावजीवावधिमेवास्ति, उत मरणपरतोऽपीति वक्तव्यम् ? यद्यनन्तरपक्षस्तर्हि भग्नं तस्य प्रत्याख्यानम्, सुर लोकाऽऽदौ भोगसेवनादवइयंभावी तदङ्ग इत्यर्थः / अथाऽऽद्य पक्षस्तर्हि वचनेनऽपि यावज्जीवम्, इति परिमाणं प्रगुणेन न्यावेन किन निर्दिश्यते किं व क्रियते, येनान्यचैतस्यन्यत्तु वचनेनोथ्यते?इति।।२५४३॥ अथ भावोऽन्यथा, वचनं त्वन्यथा प्रोच्यते, तर्हि मायैव केवलमिति दर्शयन्नाहजइ अन्नहेव भावो चेतयओ वयणमन्नहा माया। किंवाऽभिहिएँ दोसो,भावाओ किं वओ गुरुयं ?2544 हन्त ! यद्यन्यथैव यावजीवावधिक एव चेतसि भावः प्रत्याख्यानपरिणामः, अन्यथैव च यावजीवावधिपरिणामरहितमेव वचनं, तह्योतचेतयतो जानतः केवलैव माया निश्चीयते / नान्यत्फलं दृश्यते, अन्यथा विचिन्त्यान्यथा भावणादिति / अथवा-प्रष्टव्योऽसि त्वम्-कि भावे तथा स्थितेऽपि “यावज्जीवाए।" इत्यभिहिते दोषः कश्चिद्वीक्ष्यते भवता, येन वचनेनापि नेदमभिधीयते ? यदि वा-किं भावात्सकाशात् (वउ त्ति) वचनं गुरुकं प्रधानं पइयसि त्वं, येन भावेऽन्यथा स्यितेऽपि प्रामाएयेन, वचनस्य त्वप्रामाएयेनाभिधाना दिति // 2544|| कः पुनरयमागम इत्याहअन्नत्थ निवडिए वं-जणम्मि जो खलु मणोगओ भावो। तं खलु पञ्चक्खाणं, न पमाणं वंजणं छलणा।२५४५।। इह केनापि त्रिविधाऽऽहारौऽऽदिप्रत्याख्यानं कर्तुमध्यवसितम्, अधिकतरसंयमकरणाऽऽक्षिप्तचेतसा पुनश्चतुर्विघमाहारं प्रत्याख्यामीत्यादिव्यञ्जन शब्द उचरितः। एवं च मानसभावाननुवृत्त्या व्यञ्जने शब्देऽन्यत्र निपतिते अन्यविषये समुचारिते यः खलु प्रत्याख्यानविषयानेकसूक्ष्मविवक्षाऽतिक्रान्तः स्पष्टः प्रत्याख्यातुर्मनोगतोभावस्तदेव प्रत्याख्यानं प्रमाणं, स एव Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण प्रत्याख्यातृविवक्षितप्रत्याख्यानविषयो मनोगतो भावः प्रमाणं, न तु व्यञ्जनं शब्द इत्यर्थः / कुतोन व्यञ्जन प्रमाणम् ? यतश्छलनाछलमात्रं तद्ध्यञ्जनमतोऽप्रमाणम्, भावाननुरोधेन प्रवृत्तत्वात् / तदेवमागमेऽपि वचनस्याप्रामाएएनोक्तत्वात् यदि यावज्जीवावधिको मनसो भावस्त्वयेव्यते तदा वचनेनापि यावजीवम् इत्युचार्यता, किं मिथ्याग्रहेण ? इति / / 2545: विशे०अत एव-"नरभवजीवियमिह गयविसेसओ सेसय उहाजोग। जावजीवाभिगय, ता पच्चक्खामि सावज // 1 // " आ० म० 2 अ०। (16) अव्यक्तज्ञानोऽपि सपापः, तेनापि प्रत्याख्यातव्यम्सुपं मे आउमंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु पचक्खाणकिरिया णामऽज्झयणे, तस्सणं अयमढे पण्णत्तेआया अपचक्खाणी यावि मवति, आया अकिरियाकुसले यावि भवति, आया मिच्छासंठिया यावि भवति, आया एगंतदंडे यावि भवति, आया एगंतवाले यावि भवति, आया एगंतसुत्ते यावि भवति, आया अवियारमणवयणकायवक्के यावि भवति, आया अप्पमिहय-अपचक्खायपावकम्मे यादि भवति / एस खलु भगवता अक्खाए असंगते अविरते अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतवाले एतसुत्ते, से वाले अवियारमणवयणकायवक्के सविणमविण पस्सति / पावे य से कम्मे कज्जइ // 1 // इहास्मिन प्रवचने, सूत्रकृताङ्गे वा, खल्वितिवाक्यालङ्कारे। प्रत्याख्यानक्रिया नामाऽध्ययनं, तस्यमों वक्ष्यमाणलक्षणः। अततीत्यात्मा जीवः प्राणी, स चानादिमिथ्यात्वाविरतिप्रमादयोगानुगततया स्वभावत एवाप्रत्याख्यान्यपि भवति, अपिशब्दात्स एव कुतश्चिन्निमित्तात्प्रत्याख्यान्यपि। तत्राऽऽत्मन्नहणमपरदर्शनव्युदासार्थम्। तथाहि-सांख्यामामप्रत्युत्पन्न स्थिरैकस्वभाव आत्मा। स च तृणकुन्जीकरणेऽप्यसमर्थत या किश्चित्करत्वान्न प्रत्याख्यानक्रियायां भवितुमर्हति / बौद्धानामप्यात्मन भावात् ज्ञानस्य चक्षणिकतया स्थितेरभा वात् कुतः प्रत्याख्यानक्रियेति / एवमन्यत्रापि प्रत्याख्यानक्रियाया अभावो वाच्यः / तथा सदनुष्ठानं क्रिया, तस्यां कुशलः क्रियाकुशलः, तत्प्रतिषेधादक्रियाकुशलोऽप्यारमा भवति / तथाऽऽत्मा मिथ्यात्वोदयसंस्थितो भवति / तथैकान्तेनाऽपराव् प्राणिनो दण्डयतीति दण्डः, तदेवंभूतश्चात्मा भवति / तथा असारताऽऽपादनाद्रागद्वेषाऽऽकुलितत्वाद् बालवद् बाल आत्मा भवति। सुप्तवत्सुप्तः। तथाहि-द्रव्यसुप्तः शब्दाऽऽदीन् विषयान्नजानाति हिताहितप्राप्तिपरिहारविकलश्च / तथा-भावसुप्तोऽप्या त्मैवंभूत एव भवतीति। एवमविचारणीयान्यशोभनतया निरुपणीयान्यपर्यालोचनीयानि मनोवाक्कायवाक्यानि यस्य स तथा / तत्र मनोऽन्तःकरण, वाग् वाणी, कायो देहः, अर्थयति पादकं पदसमूहाऽऽत्मकं वाक्यमेकं तिङ् न्तं सुवन्तं वा। तत्र वाग्ग्रहणेनैव वाक्यार्थस्य गतार्थत्वाद्यत्पुनर्वाक्यग्रहणं करोति तदेवं ज्ञापयति-इह वाग्व्यापारस्य प्रचुरतया प्राधान्यं, प्रायशस्तत्प्रवृत्यैव प्रतिषेधविधानेनतयोरन्येषां प्रवर्तनं भवति। तदेवमप्रत्या ख्यानक्रियः सन् आत्माऽविचारितमनोवाका यवाक्यश्चापि भवतीति। तथा-प्रतिहतं प्रतिस्खलित प्रत्याख्यात विरतिप्रतिपत्त्या पापकर्माऽसदनुष्ठानं येन सः प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, तत्प्रतिषेधादसदनुष्ठानपरश्वात्मा भवति। तदेवमेष पूर्वोक्ताऽसंयतोऽविरतोऽप्रतिहतप्रख्यातपापकर्मा सक्रियः सावद्यानुष्ठानः तथाभूतश्चासंवृतो मनोवाक्कायैरगुप्तोऽगुप्तत्वाचात्मनः परेषां च दण्डहेतुत्वाद्दएडः, तदेवभूतश्च सन् एकान्तेन बालवबालः सुप्तवदेकान्तेन सुप्तस्तदेवं भूतश्च बालसुप्ततयाऽविचाराएयविचारितरमणीयानि परमार्थ विचारगुणया युक्तया वा विघटमानानि मनोवाकायवाक्यानि यस्य स तथा। यदि वापरसंबन्ध्यविचारितमनोवाक्कायवाक्यः सन् क्रियासुप्रवर्तते, तदेवंभूतो निर्विवेकतया पटुविज्ञानरहितः स्वप्नमपि न पश्यति, तस्य चाव्यक्तविज्ञानस्य स्वप्नमप्यपश्यतः पापं कर्म बध्यते, तैनेवभूतेनाव्यक्तविज्ञानेनापि पापं कर्म क्रियत इति भावः // 1 // अत्र चाऽऽचार्याभिप्रायं चोदकोऽनूद्य निषेधयतितत्य चोयए पन्नवर्ग एवं वयासी-असंतएणं मणेणं पावएणं, अंसतीयाए वत्तीयाए पावियाए, असंतएणं कारणं पावएणं अह णं तस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयकायव कस्स सुविणमवि अपस्सओ पावकम्मेणो कज्जइ / कस्स णं तं हेउं / चोवए एवं ववीति-अन्नयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ, अन्नयरीए वत्तिए पावियाए वत्तिवत्तिए पावे कम्मे कजइ, अन्नयरेणं कारणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइ। हणंतस्स समणक्खस्स सवियारमणवयकायवक्कस्स सुविणमवि पासओ, एवंगुणजातीयस्स पावे कम्मे कजइ / पुणरवि चोयए एवं वतीतितत्थ णं जे ते एवमाहंसु-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतीयाए वत्तिए पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयणकायवकस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कज्जइ, तत्थ णं जं ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु // 2 // (असंतएणं इत्यादि) अविद्यमानेनाऽसता मनसाऽसत्प्रवृत्तेनाऽशोभनेन / तथा-वाचा कायेन च पापेनाऽसता। तथासत्वान् घ्रतस्तथाऽमनस्कस्याऽविचारमनोवाक्कायवाक्यस्य स्वममप्यपइयतः स्वपनान्तिकं च कर्म नोपचयं यातीत्येवम व्यक्तविज्ञानस्याऽपि, पापं कर्म न वध्यते / एवंभूतविज्ञानेन पापं न क्रियत इति वावत्। कस्य हेतोः केन हेतुना केन कारणेन तत्पाप कर्म वध्यते? नात्र कश्चिदव्यक्तविज्ञानत्वात्पापकर्मबन्धहेतुरिति भावा। तदेवं वोदक एव स्वाभिप्रायेण पापकर्मबन्धहेतुमाह(अन्नयरेणमित्यादि) कर्माऽऽश्रवद्वारभूतैर्मनोवाक्कायकर्मभिः कर्म बध्यत इति दर्शयतिअन्यतरेण क्लिष्टन प्राणातिपाताऽऽदिप्रवृत्त्या मनसा वाचा कायेन च तत्प्रत्ययिक कर्म बध्यतइति / इदमेव स्पष्टतरमाहघ्नतस्स त्त्वान्समनस्फस्य सविचारमनोवाकायवाक्यस्य स्वप्रमपि पश्यतः प्रस्पष्टवि ज्ञानस्थैतद्गुणजातीयस्य पापं कर्म बध्यते न पुनरेकेन्द्रियविक लेन्द्रियाऽऽदेः पापकर्म संभव इति। तेषां घातकस्य मनोवामा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 110- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण यव्यापारम्याऽभावात् / अथैतङ्ख्यापारमन्तरेणाऽपि कार्यबन्ध इष्यते, एवं च सति मुक्तानामपि कर्मबन्धः स्यात्, न चैतदिष्यते, तस्मात नैव स्वप्रान्तिकमविद्योपचितं कर्मबध्यत इति / तत्र यद्येवं भूतैरेव मनोवाकायव्यापारैः कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते तदेवं -व्यवस्थिते सति येते एवमुक्तवन्तः, तद्यथा-अविद्यमान-रेवाशुभैोगैः पापकर्म क्रियते, मिथ्या त एवमुक्तवन्त इति स्थितम् / / 2 / / तदेवं चोदकेनाऽऽचार्यपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षे व्यवस्थापिते सत्याचार्य आहतत्थ पन्नवए चोयगं एवं बयासी-तं सम्मं जं मए पुग्वे वुत्तंअसंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वत्तियाएपावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमणवयकायवकस्स सुविणमवि अपस्सओ पावे कम्मे कजति, तं सम्म। कस्स णं तं हेतुं ? | आयरिय आह-तत्य खलु भगवया छज्जीवणिकायहेऊपण्णत्ता तंजहा-पुढविकाइया०जावतसकाइया, इचेएहिं छहिं जीवणिकाएहिं आया अपडिहयपचक्खायपावकम्मे निचं पसढविउवातचित्तदंडे / तं जहा-पाणातिवाए०जाव परिग्गहे, कोहे०जाव मिच्छांदसणसल्ले / / 3 / / तत्राऽऽचार्यः स्वमत्तमनू द्य तस्योपपत्तिकं साधयितुमाह-(तं सम्ममित्यादि) यदेतन्मयोक्तं प्राग् यथा स्पष्टा ऽव्यक्तयोगानामपि कर्मवध्तये, तत्सम्यक् शोभनं युक्तिसङ्तमिति / एवमुक्ते पर आहकस्य हेतो : केन कारणेन तत्सम्यगिति चेत ? / आह-(तत्थ खलु इत्यादि) तत्रेति वाक्योपभ्यासार्थम् / खलुशब्दो वाक्यालडकारे। भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना षड्जीवनिकायाः कर्मबन्धहेतुत्वेनोपन्यस्ताः। तद्यथा-पृथ्विीकायिका इत्यादि, यावत्रसकायिका इति / कथमेते षड् जीवनिकायाः कर्मबन्धस्य कारणमिति ? आह(इचेएहिमित्यादि) इत्येतेषु पृथिव्यादिषु षड्जीवनिकायुषु. प्रतिहतं विघ्नितं प्रत्याख्यातं नियमितं पापं कर्म येन स तथा / पुनर्नसमासेनाऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा य आत्मा जन्तुः, तथा तद्वत्वादेव नित्यं सर्वकालं प्रकर्षण शटः, ति तथा व्यपाते प्राणव्यपरोपणे चित्तं यस्यस व्यतिपातचित्तः, स्वपरदण्डहेतुत्वाद्दण्डः, प्रशठश्वासौ व्यतिपातचित्तदण्डश्चेति कर्मधारयः / इत्येतदेव प्रत्येक दर्शयितुमाह- (तं जहेत्यादि) तद्यथा-प्राणातिपात विधेये प्रशठचित्तदण्डः। एवं मृषावादादत्ताज्ञानमैथुनपरिग्रहेष्वपि वाच्यम्।यावन्मिथ्यादर्शनशल्यमिति, तेषामिहैकन्द्रियविकलेन्द्रियाऽऽदीनामनिवृत्तत्वाम्मिथ्यात्वाविरतिप्रभादकषाययोगानुगतत्वं द्रष्टव्यम्। तद्भवाच ते कथं प्राणातिपाताऽऽदिदोषवत्तया व्यक्तिविज्ञाना अपि खप्नाऽऽद्यवस्थायामिति ते कर्मबन्धका एव ? / तदेव व्यवस्थिते यत्प्रागुक्तं परेण-यथा नाव्यक्तविज्ञानानामघ्नताममनस्कानां कर्मबन्ध इत्येतत्प्ल वते / / 3 / / __साम्प्रतमाचार्यः स्वपक्षसिद्धये दृष्टान्तमाहतत्थ खलु भगवया वहए दिटुंते पण्णत्ते / से जहाणामए वहए सिया गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा खणं निद्दाणं निदाए पविसिस्सामि, स्वणं लभूणं बहिस्सामि | पहारेमाणे, से किं तु हु नाम से बहए तस्स गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा रण्णो वा रायपुरिसस्स वा खणं निदाए पविसिस्सामि, खणं लखूणं बहिस्सामि, पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभुते मिच्छासंठिते निचं पसढविउवायचित्तदंडे भवति, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए हंता ! भवति॥४॥ (तत्थ खलु भगवया इत्यादि) तत्रेति वाक्योपन्यासार्थः / खलुशब्दो वाक्यालड कारे। भगवतैश्वर्याऽऽदिगुणोपेतेन चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वितेन तीर्थकृता वधकदृष्टान्तः प्रज्ञप्तः प्ररुपितः। तत् यथानाम वधक्रः कश्चित्स्यादिति / कुतश्चिन्निमित्तात्कुपितः सन् कस्यचिद्वधपरिणतः कश्चित्पुरुषो भवति / यस्याऽसौ वधकस्तं विशेषेण दर्शयितुमाह(गाहावइस्स वा इत्यादि) गृहस्य पतिगृहपतिस्तत्पुत्रो वा / अनेन सामान्यतः प्राकृतपुरुषोऽभिहितः, तस्योपरि कुतश्चिन्निमित्ताद्वधकः कश्चित्सवृतः, स च वधपरिणामपरिणतोऽपि करिमश्चित्क्षणे पापकारिणमेनं घातयिष्यामीति / तथा- राज्ञः, तत्पुत्रस्योपरि कुपित एतत्कुर्यादित्याह- (खणं निहाय इत्यादि) क्षणमवसरम् (णिद्दाय त्ति) प्राप्य तथाविधस्य पुरे गृहे वा प्रवेक्ष्यामीत्येतदध्यवसायी भवति / तथाक्षणमवसर छिद्राऽऽदिक वध्यस्य लब्ध्वा तदुत्तरकालं तंवध्यं हनिष्यामीत्येवं संप्रधारयति। एतदुक्तं भवति-गृहपतेः सामान्यपुरुषस्य, राज्ञो वा विशिष्ठतमस्य कस्यचिद्वधपरिणतोऽप्यात्मनोऽवसरं लब्ध्वाऽपरकार्यक्षणे सति / तथा-वध्यस्य च छिद्रमपेक्षमाणस्तदवसरापेक्षी किश्चित्कालमुदारते, स चतत्रोदासीम्यं कुर्वाणोऽपरकार्ये प्रति व्यग्रचेताः सख्तस्मिन्नवसरे वधं प्रत्यस्पष्टविज्ञानो भवति / स चैवंभृतोऽपि तथा तं वध्य प्रति नित्यमेव प्रशछव्यतिपातचित्तदण्डो भवति / एवमविद्यमानैरपि प्रव्यक्तैरशुभैयोगैरेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाद्यादवोऽस्पष्टविज्ञाना अपि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगानुगतत्वात्प्राणातिपाताऽऽदिदोषवन्तो भवन्ति / य च तेऽवसरन्नपेक्षमाणा उदासीना अप्यवैरिणो न भवन्तीति / अत्र च वध्यवधकयोः क्षणापेक्षया चत्वारो भङ्गाः। तद्यथावध्यख्याऽनवसरो, वधकस्य च, उभयोर्वाऽनवसरो, द्वयोरप्यवसर इति। नागार्जुनीयास्तु पठन्ति- "अप्पणो अक्खाणया एतस्स वा पुरिसस्स छिड़ अलभमाणे णो वहेर, तं जया मे अणो भविस्सइ तस्सं पुरिसस्स छिई लभिस्तामि, तया मे स पुरिते अवस्सं वहयव्वे भविस्सइ, एवं मणो पहारेमाणे।" इति सूत्रं निगदसिद्धम्। साम्प्रतमाचार्य एव स्वाभिप्रेतमर्थ परप्रयत्नपूर्वकमाविर्भावयन्नाह-(से किंतुहु इत्यादि) आचार्याः स्वतो हि निर्णीतार्थेऽसूयया परं पृच्छति-किमिति ? तुरिति वितर्के, हुशब्दो वाक्यालङ्कारे। किमसौ वधकपुरुषावसरापेक्षी छिद्रमवसर प्रधारयन् पर्यालोचयनहर्निशं सुप्तो जाग्दवस्थो वा तस्य गृहपतेज्ञो वा वध्यस्यामित्रभूतो मिथ्यासंस्थितो नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवत्याहोस्विन्नेत्येवं पृष्टः परः समतया माध्यस्थ्यमवलम्बमानो यथाऽवस्थितमेवं व्यागृणीयात्। तद्यथा- हन्त ! आचार्य ? भवत्यसावमित्रभूत इतीत्यादि // 4 // तदेवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्शन्तिकं दर्शयितुमाहजहा से बहए तस्स गाहावइस्स वा गाहावइपुत्तस्स वा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चक्खाण 111 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण रण्णो वा रायपुरिसस्स खणं निदाए पविसिस्सामि, खणं लखूणं वहिस्सामि त्ति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे व. अमित्तभूए मिच्छासंठिते निचं पसढविउवायचित्तदंडे, एवमेव बाले वि सव्वेसि पाणाणंजाव सव्वेसिं सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूए मिच्छासंठिते निच्चं पसढविउवायचित्तदंडे / तं जहा-पाणातिवाए०जाव मिच्छादंसणसल्ले। एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते यावि भवइ, से बाले अवियारमणवयणकायवक्के सुविणमवि ण पस्सइ, पावे य से कम्मे कज्जइ / / 5 / / (जहा से वहए इत्यादि) यथाऽसौ वधक इत्यादिना दृष्टान्तमनूद्य टाष्टान्तिकमर्थ दर्शयितुमाह-(एवमेवेत्यादि) एवमेवेति / यथाऽसौ वकोऽवसरापेक्षितया वध्यस्यव्यापत्तिमकुर्वाणोऽप्यमित्रभूतो भवत्येवमेवासादपि बालवद्, बालोऽस्पष्टविज्ञावो भवत्येवं निवृत्तेरभावाद्योग्यतवा सर्वेषां प्राणिनां व्यापादको भवति, यावन्मिथ्यादर्शनशल्योपेतो भवति। इदमुक्त भवति-यद्यप्युत्थानाऽऽदिक विनयं कुतश्चिन्निमित्तादसौ विधत्ते, तथाऽप्युदायिनृपयापादकवदन्तर्दुष्ट एवेति नित्यंशठव्यतिपा-तचित्तदएडश्च / यथा- परशुरामः कृतवीर्य व्यापाद्यापि तदुत्तरकालं सप्तवारं पिःक्षत्रा पृथिवीं चकार। आह च-"अपवारसमेन कर्मणा, ननरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् / अधिकां कुरुतेऽरियातना, द्विषतां मूलमशेषमुरेत्।।१।।" इति। एव-सा वमित्रभूतो मिथ्या विनीतश्च भवतीति। साम्प्रतमुपसंहरन् प्राक् प्रतिपादितगर्थमनुवदन्नाह- (एवं खलु भगरया इत्यादि) यथाऽसौ वधकः स्परावखरापेक्षी सन्न तावद् ज्ञातयति। अथवा-ऽनिवृत्तत्वाद्दोषदुष्ट एच. एवम-सावप्यकेन्द्रियाऽऽदिकोऽस्पष्टविज्ञानोऽपितथाभूत एवाविरताप्रतिहतपत्याख्यातसत्क्रियाऽऽदिदोषदुष्ट इति। शेष सुगमम, यावत्पापं कर्म क्रियत इति // 5 // तदेवं दृष्टान्तदान्तिकप्रदर्शनेन पूर्वप्रतिपादितार्थस्य निगमन कृत्वाऽधुना सर्वेषामेव प्रत्येकं प्राणिनां दुष्टाऽऽत्मा भवति, इत्येव तत्प्रतिपादयितुकाम आह जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स जाव तस्स वा रायपुरिस्स पत्तेयं पत्तेयं चित्तं समादाय दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिचछासंठिते निचं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ, एवमेव वाले सव्वेसिं पाणाणं जाव सव्वेसिं सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्तं समादाय दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरगाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निचं पसढविउवायचित्तदंडे भवइ / / 6 / / (जहा से वहए इत्यादि) यथा असौवधकः पराऽऽत्मनोरवसरापेक्षी, तथाऽस्य गृहपतेः, तत्पुत्रस्य वाऽभ्यर्हितस्य वा राजाऽऽदेस्तत्पुत्रस्य चैकमेकं पृथक पृथक् सर्वेष्वपि वध्येषुघातकचित्तं समादाय प्राप्तावसरोऽहमेनं वैरिणं ममाधिविधायिनं पातयिष्यामीत्येवं प्रतिज्ञाय दिवा रात्री वा सुप्तो वा जाग्रदा सस्विवस्थासु सर्वेषामेव बध्यानां प्रत्येकममित्रभूतोऽवसरापेक्षितया ध्वन्नपि मिथ्यासंस्थितो नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवति / इति रागद्वेषाऽऽकुलितो बालवद्वालोऽज्ञानाऽऽवृत एकेन्द्रियाऽऽदिरिति सर्वेषामेव प्राणिनां विरतेरभावात्तद्योग्यतया प्रत्येक बध्येषु घातकचित्तं समादाय नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डो भवतीति। इदमुक्तं भवति-यथाऽसौ तस्माद् गृहपतिराजानुघातादुपशान्तवैरः कालावसरापेक्षितया वधनकुर्वाणोऽप्यविरति-सद्भावाद्वैरान्न निवर्त्तते, तत्प्रत्ययिकेन च कर्मणा बध्यते, एवं मृषावादादत्ताऽऽदानामैथुनपरिगृहेष्वपि प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनार्थविधानेन पञ्चावयवत्वं वाच्यमिति, इहैव पञ्चावयवस्व सूत्राणां विभागो द्रष्टव्यः। तद्यथा- ''आया अपचक्खाणी यावि भवति।" इत्यत आरभ्य यावत् 'पावे य से कम्मे कञ्जइ त्ति / " इयं प्रतिज्ञा / तत्र परः प्रतिज्ञामात्रेणोक्तमनुक्तसममिति कृत्वा चोदयति। तद्यथा-"तत्थ चोयए पण्णवर्ग एवं बयासी।" इत्यत आरभ्य यावत् "जे ते एवमासु मिच्छ ते एवमासु ति / " तत्र प्रज्ञापकश्वोदक प्रत्येवं वदेत्। तद्यथा-वन्मया पूर्व प्रतिज्ञातं तत्सम्यक् / कस्य हेतोः केन हेतुनेति चेत् ? तत्र हेतुमाह- "तत्थ खलु भगवया छज्जीवनिकायहेऊ पण्णत्ता।" इश्यत आरभ्य यावत् 'मिच्छादसणसल्ले' इत्ययं हेतुः। हेतोरवैकान्तिकत्वव्युदासार्थ स्वपक्षे सिद्धिं दर्शयितु दृष्टान्तमाह-तद्धथा- "जहा खलु भगवया वहए दिट्ट ते पण्णत्ते।' इत्येतदारभ्य याववस्या "खणं लभ्रूण वहिस्सामि ति पहारमणेति।" तदेवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य, तत्र च हेतोः सत्ता स्वाभिप्रेतां परेण भणयितुमाह"से किं तु हुणाम से वहए।" इत्यादेरारभ्य यावत् "हंता भवति।" तदेवं हेतोदृष्टान्ते सत्त्वं असाध्य हेतोः पक्षधर्मत्वं दर्शयितुमुपनयार्थ दृष्टान्तधर्मणि हेतोः सचा परेणाभ्युपगतामनुवदति- "जहा से वहए।'' इत्यत आरभ्य यावत् ''णिचं पसढविउवायचित्तदंडे त्ति।'' साम्प्रतं हेतोः पक्षधर्मत्वमाह- "एवमेव वाले यावि।" इत्यादीत्यत आरभ्य यावत् 'पावे य से कम्मे कज्जइ त्ति।" तदेव प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोप-नयप्रतिपादकानि यथाविधिसूत्राणि विभागतः प्रदाऽधुना प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनवचनं निगमनमित्येतत्प्रतिपादयितुमाह- "जहा से वहए तस्स वा गाहावइस्स।" इत्यादि यावत् "णिच्चं पसढविउवायचित्तदंडे त्ति।" एतासि प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगममाभ्यर्थतः सूत्रैः प्रदर्शितामि / प्रयोगस्त्वेवं द्रष्टव्यः- तत्राप्रतिहत प्रत्याख्यातक्रिय आत्मा पापानुबन्धीति प्रतिज्ञा, सदा षड्जीवनिकाय? शठव्यतिपातचित्तदण्डत्वादिति हेतुः, स्वपरावसरापेक्षितया कदाचिदव्यापादन्नपि राजाऽऽदिवधकवदिति दृष्टान्तः / यथाऽसौ वधपरिणामाद नेवृत्तत्वाद्वभ्यस्यामित्रभूतस्तथाऽत्मा अपि विरतेरभावात्सर्वेभ्वपि सत्वेषु नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्ड इत्युपशयः / यत एवं तस्मातए सुबन्धीति निगमनम्। एवं मृषावादाऽऽदिष्वपि पञ्चावयवत्वं योजनी. ति। केवलं मृषावादाऽऽदिशब्दोचारणं विधेयम्, तच्चानेन विधिना नियं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डत्वात्, तथा नित्यं प्रशठादत्ताऽऽदानचित्तदण्डत्वादिति / / 6 / / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण ११२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण तदेवं सर्वाऽऽत्मना षट्ष्वपि जीवनिकायेषु प्रत्येकममित्रभूततया द्वौ दृष्टान्तौ प्रज्ञप्तौ प्ररुपितौ / तद्यथा- संझिदृष्टान्तोऽसंज्ञिद्दष्टान्तश्च / पापानुबन्धित्वे प्रतिपादिते व्यभिचारं दर्शयन्नाह अथ कोऽय संज्ञिदृष्टान्तः? ये केचन इमे प्रत्यक्षासन्नाः षड्भिरपि णो इणढे समटुं, चोदक ! इह खलु बहवे पाणा जे इमेणं सरीर- पर्याप्तिभिः पर्याप्ता ऊहाऽपोहविमर्शरुपाः, संज्ञा विद्यन्ते येषां ते संझिनः, समुस्सएणं णो दिट्ठा वा सुयावा नाभिमया वा विभायावा, जेसिं पञ्चेन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः करणपर्याप्त्या पर्याप्तकाः, एषां च मध्ये णो पत्तेयं पत्तेयं चित्तं समायाय दिया वा राओ वा सुत्ते वा कश्चिदेकः षड्जीवनिकायान् प्रतीत्यैवंभूतां प्रतिज्ञां नियमं कुर्यात् / जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निचं पसढविउवा- तद्यथा-षट्सुजीवनिकायेषु मध्ये पृथिवीकायेनैवैकेन बालुकाशिलोपयचित्तदंडे / जहा-पाणातिवाए०जाव मिच्छादसणसल्ले ||7|| ललवणादिस्वरुपेण कृत्यं कार्ये कुर्याम्। स चैवंकृतप्रतिज्ञस्तेन तस्मिन् (णो इणट्टेसमटे इत्यादि) नायमर्थः समर्थ इति प्रतिपत्तुं योग्यः। तद्यथा तस्मात्तं वा करोति, कारयति च, -षका-भ्योऽहं विनिवृत्तः, तस्य च सर्वे प्राणिनः सर्वेषामेव सत्त्वानां प्रत्येकममित्रभूता इति। तत्राऽपरः कृतनियमस्यैवंभूतो भवत्य-ष्टवसायः / तद्यथैवं खल्वहं पृथिवीकायेन स्वपक्षसिद्धये सर्वेषां प्रत्येक मित्राऽभावंदर्शयितुं कारणमाह-इहास्मिश्च कृत्यं करोमि, कारयामि च, तस्य च सामान्यकृतप्रतिज्ञस्य विशेषाभितुर्दशरज्ज्वात्मके लोके बहवोऽनन्ताः प्राणिनः सूक्षमवादरभेदभिन्नाः संधिनैव भवति / तद्यथा- अमुना कृष्णेनामुना श्वेतेन पृथिवीकायेन सन्ति। यद्येवं ततः किमित्याह-तेच देशकालस्वभावविप्रकृष्टास्तथाभूता कार्ये करोति, कारयति च स तस्मात्पृथिवीकायादनिवृत्तोऽप्रतिहतबहवः सन्ति ये प्राणिनः सूक्ष्माऽऽदिविप्रकृष्टाऽऽद्यवस्था अमुना शरीर प्रत्याख्यातपापकर्मा भवति, तत्र खगनस्थाननिषीदनत्यग्वर्तनोचारसमुच्छ्रयेणेत्यनेनेदमाऽऽह- प्रत्यक्षाऽऽसन्नवाचित्वादिदम्, अनेनार्वाग प्रश्रवणाऽऽदिकरणक्रियासद्भावात्। एयमतजोवा षायुवनस्पतिष्यपि दर्शितज्ञानसमन्वितसमुच्छ्रयेण न कदाचिद्, दृष्टाश्चक्षुषा, न श्रुताः श्रवणे वाष्यम् / तत्राएकायेन स्वागपानावगाहनभाण्डोपकरणधावनाऽऽदिए प्रयोगः, तेज कायेनापि पचनपाचनप्रकाशनाऽऽदिपु / वायुनाऽपि न्द्रियेण, विशेषतो नाभिमता इष्ठा न च विज्ञाताः प्रतिभेदज्ञानेन स्वयमेवेत्यतः कथञ्चित्तद्विपर्ययः, तस्य मिन्नभावः स्यात्। अतस्तेषा कदाचिद व्यजनतालवृन्तेत्यादिव्यापाराऽऽदिषु प्रयोजनम् / वनस्पतिनाऽपि विज्ञातानां कथं प्रत्येक वधं प्रति चित्तसमादानं न भवति / न चाऽसौ कन्दमूलपुष्पफलपत्रत्वक शाखाऽऽधुपयोगः / एवं विकलेन्द्रियपञ्चे न्द्रियेष्यप्यायोज्यमिति। तथैकः कश्चित् षट्स्वपिजीवकायेषु अविरतोऽतान प्रति नित्यप्रशद्रव्यतिपातचित्तदण्डो भवतीति / शेष सुगमम् / / 7 / / सयतत्वाच तैरसौकार्य सावद्यानुष्ठानं स्वयं करोति, कारयति च परैः, एवं व्यवस्थितेन सर्वविषयं प्रत्याख्यानं युज्यते, इत्येवं प्रतिपादितेपरणे तस्य च मचिदपि निवृत्तेरभावादेवंभूतोऽध्यवसायो भवति / तद्यथैर्य सत्याचार्य आह खल्वहं षड्भिरपि जीवनिकायैः सामान्वेन कृत्यं करोमि, न पुनस्ततत्य खलु भगवया दुवे दिटुंता पण्णत्तातिं जहा- सन्निदिटुंते य, द्विशेषप्रतिज्ञेति / स च तेषु षष्यपि जीवनिकायेष्वसं, षतोऽप्रति. असन्निदिट्ठते य / से किं तं सन्निदिटुंते ? जे इमे सन्निपंचिंदिया हतप्रत्याख्यातपापकर्मा भवति। एवं मृषावादेरुपि वाष्यम्। तद्यथेदं मया पजत्तगा, एतेसिणं छज्जीवनिकाए पडुच०तं जहा-पुढवीकायं.जाव वक्तव्यमीदृष्भूतं तु न वक्तव्यम्। स च तसान्मृषावादनिवृत्तत्वादच्यतो तसकायं, से एगइओ पुढवीकारणं किच्चं करेइ वि, कारावेइ वि, भवति। तथाऽदत्तादानमष्प्राश्रित्य वक्तव्यम्। तद्यथेदं मयाऽदसाऽऽदान तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं पुढवीकारणं किच्चं करेमि वि, ग्राह्यमिदं तु न ग्राह्यमिति / एवं मैथुनपरिग्रहेष्यपीति / तथा क्रोधमाकारवेमि वि, णो चेवणं से एवं भवइ इमेणं वा, से एतेणं पुढवीकारणं नमायालोमेष्वपि स्वयमभ्यूह्यद्य वाध्यम्। तदेवमप्तौ हिंसाऽऽदीन्यकुर्वकिचं करेइ वि, कारावेइ वि, सेणं तासो पुढवीकायाओ असंन्नय नष्यविरतत्वात्तत्प्रत्ययिकं कर्म चिनोतीति / एवं देशकालस्वभानवेमअविरयअप्पडिहयपचक्खाणपावकम्मे यावि भवइ / एवं जाव कृष्टष्वपि जन्मुष्वमित्रभूवोऽसौ भवति, तत्प्रत्ययिकं चकर्म चिनोतीति, तसकाए ति भाणियव्वं / से एगइओ छजीवनिकाएहिं किचं करेइ सोऽयं संकिदृष्टान्तोऽभिहितः। स च कदाचिदेकमेव पृथिवीकार्य व्यापादवि, कारावेइ वि। तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं छज्जीवनिकाएहिं यति, शेपेषु निवृत्तः कदाचिद्द्वौ / एवं त्रिक्ताऽऽदिकाः संयोगा भणनीया किचं करेमि वि, कारावेमि वि, णो चेव णं से इवं भवइ, इमेहिं वा यावत्सर्वानपिव्यापादयतीति। स चैवम्-सर्वेषां व्यापादकत्वेन व्यवस्थासे य तेहिं छज्जीवनिकाएहिं०जाव कारवेइ वि, से य तेहिं ठहिं पयते, सर्वविषयाऽऽरम्भप्रवृत्तेः, तत्प्रवृत्तिरपि तदनिवृत्तेः। यथा कश्चिद् जीवनिकाएहिं असंनयअविरवअप्पडिहयपचक्खाणपावकम्मे हिं। ग्रामघाताऽऽदौ प्रवृत्तः, यद्यपि च न तेन विवक्षितकाले केचन पुरुषा तं जहापाणातिवाए०जाव मिच्छादसणसले; एस खलु भगवया दृष्टशस्तथाऽप्यसौ तत्प्रवृत्तिनिवृतेरभावात्तद्योग्यतया तद्वातक इत्युच्यते, अक्खाए असंजए अविरए अपसिहयपचक्खायणावकम्मे सृविणयवि इत्येवं दाष्टान्तिकेऽप्यायोज्यम् / / 8 / / अपस्सओ पावे य से कम्मे कज्जइ / सेत्तं सन्निदिष्टतेगं / / 8 / / संज्ञिदृष्टान्तानन्तरमसंज्ञित्ष्टान्तः प्रागुपन्यस्तः, सोऽधुना (तत्थ खलु भगवया इत्यादि) यद्यपि सर्वेष्वपि देशकालस्वभाववि प्रतिपाद्यतेप्रकृष्टषु वधकचित्तं नोत्पद्यते / तथाऽप्यसावविरतिप्रत्याख्येयत्वात्ते - से किं तं असन्निदिव॑ते ? जे इमे असन्निणोपाणा। तं जहा - ष्वमुक्तवैर एव भवति। अस्य चार्थस्य सुखप्रतिपत्त ये भगवता तीर्थकृता | पुढवीकाइया०जाव वणस्सइकाइया,छट्ठा वेगइया तसा पाणा Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 113 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण जेसिंगो तक्काइ वा सन्नाइ वा पन्नाइवा मणाइ वा वई वा पावे वा सयं वा करणाए अन्नेहिं वा कागवंतए करंतं वा समणुजाणित्तए, ते / विणं बाले सव्वेसिं पाणाणं.जाव सव्वेसिं सत्ताणं दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूतमिच्छासंठिया निचं पसढविउवातचित्तदंडा भवंति / तं जहा-पाणाइवाते०जाव मिच्छादंसणसल्ले, इचेयं०जाव णो चेव मणो, णो चेव वई पाणाणं.जाव सत्ताणं दुक्खणत्ताए सोयणत्ताए जूरणत्ताए (तित्पायणत्ताए) तिप्पणत्ताए पिट्टणत्ताए परितप्पणत्ताए, ते दुक्खणसोवण.जाव परितप्पणवहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति॥६॥ से किं तं असन्निदिट्ठते इत्यादि) संज्ञानं संज्ञा, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः तत्प्रतिषेधादसंज्ञिनो, मनसो द्रव्यतया अभावात्तीवाऽतीवाध्यवसायविशेषरहिताः, प्रसुप्तमत्तमूञ्छिताऽऽ दिवदिति / ये इमेऽमहिनः / तद्यथा-पृथिवीकायिका यावद्वनस्पतिकायिकाः तथा षष्टा अप्थके असाः प्राणिनो विकलेन्द्रिया यावत्संमूच्छिमाः पञ्चेन्द्रियाः, ते सर्वेऽप्यसंज्ञिनो, येषां नताऽऽदिविचारो मीमांसाविशिष्टविमर्शो विद्यते। यथा-कस्यचित्संझिनो मन्दमन्दप्रकाशे स्थाणुपुरुषोचिते देशे किमय स्थाणुरत पुरुषः? इत्येवमात्मक ऊहस्तर्कः सम्भवति, वैवं तेषामसंन्निनाताः संभवन्तीति। तथा संज्ञानं संज्ञापूर्वोपलब्धार्थेतदुत्तरकालपर्यालोचनाः तथा प्रज्ञानं प्रज्ञास्वबुध्योत्प्रेक्षणम्, स एवायमित्येवंभूतं प्रज्ञानं च। तथा मननं मनो, मतिरित्यर्थः / सा चावग्रहाऽऽदिरुपा। तथा प्रस्पटवर्णा वाक, सा च न विद्यते तेषामिति। यद्यपि च द्वीन्द्रियाऽऽदीनां जिहन्द्रियगलविवराऽऽ दिकमस्ति तथाऽपि न तेषां प्रस्पष्टवर्णत्वम् / तथा न चैषां पापं हिंसाऽऽदिकं करोमि कारयामीत्येवंभूताध्यवसायपूर्विका मतिः, तथा स्वयं करोम्यन्यैर्वा कारयामि, कुवन्तं वा समवुजानामीत्येवंभूतोऽध्यवसायो न विद्यते तेषाम् / तदेवं तेऽप्यसंज्ञिनो बालवद् वालाः सर्वेषा प्राणिनां घातनिवृत्तेरभावात्तद्योग्यतया घातका व्यापादकाः / तथाहि-द्वीन्द्रियाऽऽदयः परोपघाते प्रवर्तन्ते, एवं तद्भक्षणाऽऽदिना अनृतभाषणमपि विद्यते, तेषामविरतत्वात्, केवलं कर्मपरतन्त्राणां वागभावः / तथाऽदत्ताऽऽदानमपि तेषामस्त्येव, दध्यादिभक्षणात् / तथेदमस्मदीयमिदं च पारक्यमित्येवंभूतविचाराभावाश्चेति। तथा तीव्रनपुंसकवेदोदयान्मैथुनाविरतेश्वमैथुनसद्भावोऽपि / तथाऽशनाऽऽदेः स्थापनात्परिशह-सद्भावोऽपीति / एवं क्रोधमानमायालोभा यावन्मिथ्यादर्शनशल्यसद्भावश्च तेषामवगन्तव्यः। तद्भावाच ते दिवा वा रात्रौ वा सुप्ता वा जाश्रदवस्था वा नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डा भवन्ति / तदेव दर्शयितुमाह-(त जहा इत्यादि) ते ह्यसंज्ञिनः क्वचिदपि निवृत्तेरभावात्तत्प्रत्ययिककर्मबन्धोपेता भवन्ति। तद्ययात्राणातिपाते यावन्मिथ्यादर्शनशल्यवन्तो भवन्ति / तद्वत्तया च यद्यपि वैशिष्ट्यमनोवाग्व्यापाररहितास्तथाऽपि सर्वेषां प्राणिनां दुःखोत्पादनतया, तथा शोचनतया शोकोत्पादनत्वेन, तथा जूरणतया; जूरणं वयोहानिरुपं तत्करणशीलतया, तथा त्रिभ्यो मनोवाकायेभ्यः पातनं त्रिपातनं तद्भावस्तथा। यदि वा-(तिप्पणयाए त्ति) परिवेदनतया। तथा (पिट्टणत्ताए) मुष्टिलोष्टप्रहारेण, परितापनतया बहिरन्तश्च पीडया, ते चाऽसज्ञिनोऽपि यद्यपि देशकालस्वभावविप्रकृष्टानां न सर्वेषां दुःखं समुत्पादयन्ति, तथाऽपि विरतरभावात्तद्योग्यतया दुःखपरितापक्लेशाऽऽदेरप्रतिविरता भवन्ति, तत्सद्भावाच्च तत्प्रत्ययिकेन कर्मणा बध्यन्ते // 6 // तदेवं विप्रकृष्टविषयमपि कर्मबन्ध प्रदोपसंजिहीपुराहइति खलु से असन्निणो वि सत्ता अहोनिसिं पाणातिवाए उवकखाइज्जंति०जाव अहोनिसिं परिग्गहे उवक्खाइज्जति०,जाव मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइजंति / एवं भूतवादी सव्वजोणिया वि खलु सत्ता सन्निणो हुजा असन्निणो होति, असन्निणो हुजा सन्निणो होंति होचा सन्नी अहुवा असन्नी / तत्थ से अवि विचित्ता अवि घूणिता असंमुच्छिता अणणुताविता असनिकायाओ वा सन्निकायं संकमंति, सन्निकायाओ वा असन्निकायं संकमंति, सन्निकायाओ वा सन्निकायं संकमंति, असन्निकायाओ वा असन्निकार्य संकमंति। जे एए सन्नी वा असन्नी वा सव्वे ते मिच्छायारा निचं पसढनिउवाय चित्तदंडा। तं जहा-पाणातिवाए०जाव मिच्छादसणसल्ले / एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अपडिहयपचक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते, से बाले अवियारमणवयकायवक्के सुविंणमविण पस्सइ, पावे य से कम्मे कजइ॥१०॥ (इति खलु ते इत्यादि) इतीरुपप्रदर्शने / खलुशबदो वाक्यालङ्कारे, विशेषणे वा। किं विशिनष्टि ? ये इमे पृथिवीकायाऽऽदयोऽसंज्ञिनः प्राणिनस्तेषां न तर्को , न संज्ञान मनो, न वाक्, न स्वयं कर्तुं , नान्येन कारयितुं, न कुर्वन्तमनुमन्तुं वा प्रवृत्तिरस्ति / ते चाहर्निशममित्रभूता मिथ्यासंस्थिता नित्यं प्रशठव्यतिराराचित्तदण्डा दुःखोत्पादनतया यावत्परितापनपरिक्लेशाऽऽदेरप्रतिविरताः, असंज्ञिनोऽपि सन्तोऽहर्निश सर्वकालमेव प्राणातिपाते कर्तव्यये तद्योभ्यतया तदसंप्राप्तावपि ग्रामघातकवदुपाख्यायन्ते, यावन्मिथ्यादर्शनशल्ये उपाख्यायन्त इति / उपाख्यान वा संज्ञिनोऽपि योग्यतया पापकर्मानिवृत्तेरित्यमित्रायः। तदेवं दर्शिते दृष्टान्तद्वये तत्प्रतिबद्धमेवार्थशेष प्रतिपादयितुं चोद्यं क्रियते / तद्यथा-किमेते सत्वाः संज्ञिनश्च भव्याभव्यत्त्वयधियतरुपा एवाऽऽहोस्वित्संज्ञिनो भूत्वाऽसंज्ञित्वं प्रतिपद्यन्ते, असंज्ञिनोऽपि संज्ञित्वमित्येवं चोदिते सत्याहाऽऽचार्यः (सव्वजोणिया वि खलु इत्यादि) यदि वासत्येवंभूता वेदान्तवादिनो य एवं प्रतिपादयन्ति- "पुरुषः पुरुषत्वमश्मुठे, पसुरपि पशुत्वमिति।" तदत्रापि संज्ञिनः संज्ञिन एव भविष्वन्त्यसंज्ञिनोऽप्यसज्ञिन इति तन्मतव्यवच्छेदार्थमाह- (सव्वजोणिया वीत्यादि) यदि वा-किं संज्ञिनोऽसज्ञिकर्मबन्धं प्राक्तने सत्येव कमेणि कुर्वन्ति, किं वा नेति / एवमसंज्ञिनोऽपि संज्ञिकर्मबन्धं प्राक्तने सत्येव कुर्वन्ति, आहोस्विन्नेत्येतदाशङ्कयाऽऽह-(सव्वजोणिया वीत्यादि) सर्वा योनयो येषा ते सर्वयोनयः, संवृतविवृतोभयशीतोष्णोभयसचित्ताऽचित्तोभयरुपा योनय इत्यर्थः। ते च नारकनिर्यड्नरामराः, अपिशब्दाद्विशिष्टकयोनयोऽपि / खल्विति विशेषणे / एतद्विशिनश्तिजन्मापेक्षया Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 114 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चक्खाण सर्वयोनयोऽपि सत्त्वाः पर्याप्त्यपेक्षया यावन्मनः पर्याप्तिर्त निष्पद्यते तावदसंज्ञिनः करणतः सन्तः पश्चात्संज्ञिनो भवन्त्येकस्मिन्नेव जन्मनि अन्यजन्मापेक्षया त्वेकेन्द्रियाऽऽदयोऽपि सन्तः पञ्चान्मनुष्याऽऽदयो भवन्तीति / तथाभूतकर्मपरिणामात् पुनर्भव्याभव्यत्ववन्न व्यवस्थानियमः, भव्याभव्यत्वे हि न कर्माऽऽयत्ते, अतो नानयोर्व्यभिचारः / ये पुनः कर्मवशगास्ते संज्ञिनो भूत्वाऽसंज्ञिनो भवन्त्यसंज्ञिनश्च भूत्वा संज्ञिन इति वेदान्तवादिमतस्य प्रत्यक्षेणैव व्यभिचारः समुपलभ्यते। तद्यथासंज्ञयपि कश्चिन्मूर्छाऽऽद्यवस्थायामसंज्ञित्वं प्रतिपद्यते, तदपगमे तुपुनः संशित्वमिति, जन्मान्तरे तुसुतरां व्यभिचार इति। तदेवं संज्ञयसंज्ञिनोः कर्मपरतश्चत्वादन्योन्यानुगतिरविरुद्धा। यथा प्रतिबुद्धो निद्रोदयात्स्वपिति, सुप्तश्च प्रतिबुध्यते इत्येवं स्वापग्रतिबोधयोरन्योऽन्यानुगमनम् / एवमिहापीति। तत्र प्राक्तनं कर्म यदुदीर्णे यद्य बद्धमास्ते, तस्मिन् सत्येय तदविविच्यापृथक् कृत्य तथाऽविधूयाऽलमुच्छिद्याऽननुताप्य, एते चाविविच्यादयश्चत्वारोऽप्येकार्थिका अवस्थाविशेषं चाऽऽश्रित्य भेदेन व्याख्यातव्याः / तदेवमपरित्यक्तप्राक्तनकर्मणोऽसंज्ञिकायात्संज्ञिकायं संक्रामन्ति, तथा संज्ञिकायादसंज्ञिकायमिति। तथा-नारकाः सावशेषकर्माण एव नरकादुद्धृत्य प्रतनुवेदनेषु तिर्यक्षत्पद्यन्ते / एवं देवा अपि प्रायशस्तत्कर्मशेषतया शुभस्थानेषूत्पद्यन्त इत्यवगन्तव्यम् / अत्र चतुर्भगकसंभवं सूत्रेणैव दर्शयतिसाम्प्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृक्षुः प्राक् प्रतिपन्नमर्थे निगमयन्नाह-(जेएते सेत्यादि) ये एते सर्वाभिरपि पर्याप्तिमः पर्याप्ता लब्ध्या करणेन च विकलाश्वापर्याप्तका अन्योन्यसंक्रमभाजः संज्ञिनोऽसंज्ञिनो वा सर्वेऽप्येते मिथ्याऽऽवाराः, अप्रत्याख्यानित्वादित्यभिप्रायः / तथा सर्वजीवेष्वपि नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदण्डा भवन्तीत्येवभूताश्च प्राणातिपातायेषु सर्वेष्वप्याश्रवद्वारेषु वर्तन्त इति, तदेवं व्यवस्थिते यत्तदुक्तंचोदकेनतद्यथेहाविद्यमानाऽद्युभयोगसंभवे कथं पापं कर्म बध्यत इत्येतन्निराकृत्य विरतेरभावात्तद्योग्यतया पापकर्मसद्भावं दर्शयति-(एवं खलु इत्यादि) एवमुक्तनीत्या, खल्यवधारणे, अलङ्कारे वा। भगवता तीर्थकृतेत्यादिना यत्प्राक् प्रतिज्ञातं तदनुवदतियावत्पापं च कर्म क्रियत इति॥१०॥ तदेवमप्रत्याख्यानिनः कर्मसंभवात्तत्संभवाच्च नारकतिर्यड्न रामरगतिलक्षणं संसारमवगम्य संजातबैराभ्यश्वोदक आचार्य प्रति प्रवणचेताः प्रश्रयितुमाह से किं कुव्वं किं कारवं कहं संजयविरयप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे भवइ? आचार्य आहतत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकायहेऊ पण्णत्ता / तं जहापुढवीकाइया.जावतसकाइया। से जहाणामए मम अस्सातं (?) डंहेणं वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आताडि जमाणत्स वा०जाव उदविजमाणस्स वा०जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इचेवं जाणंतो सव्वे पाणाजाव सव्वे सत्ता दंडेण वा०जाव कवालेण वा आताडिज्जमाणे वा हन्ममाणे वा तजिजमाणे वा तालिज्जमाणे वाजाव उद्दविज्जमाणे वाजाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं पञ्चा सव्वे पाणा०जाव सव्वे सत्तान हंतव्याजाव ण उद्देवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णियए सासए समिच लोगं खेयन्नेहिं पवेदिए। एवं से भिक्खू विरते पाणाइवायातो०जाव मिच्छादंसणसल्लाओ, से भिक्खू णो दंतपक्खालेणं दंते पक्खालेजा, णो अंजणं णो वमणं णो धूवणं तं पि न आदत्ते, से मिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे०जाव अलोभे उवसंते परिनिव्वुडे, एस खलु भगवया अक्खाए संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए यावि भवइत्ति वेमि॥११॥ (से किं कुञ्वमित्यादि) अथ किमनुष्ठानं स्वतः कुर्वन्, किं वा पर कारयन्, कथंवा केन प्रकारेण संयतविरतप्रतिहतपापकर्मा जन्तुर्भवति। संयतस्य हि विरतिसद्भावात्सावधक्रियानिवृत्तिः, तन्निवृत्तेश्च कृतकर्मसंचराभावः, तदभावान्नरकाऽऽदिगत्यभाव इत्येवं पृष्टे सत्याचार्य आह(तत्थ खलु इत्यादि) तत्र संयमसद्भावे षडजीवनिकाया भगवतः हेतुत्वेनो पन्यख्ताः / यथा प्रत्याख्यानरहितस्य षड्जीवनिकाया संसारगतिनिवन्धभत्वेनोपन्यस्ता एवं त एव प्रत्याख्यानिनो मोक्षाय भवन्तीति। तथा चोक्तम्- "जे जत्तिया व हेऊ, भवस्स ते चेव तेतिया मोक्खे। गणणाईया लोना, दोएह वि पुण्हा भवे तुल्ला / / 1 / / " इत्यादि। इदमुक्तं भवति-यथाऽऽत्यनो दण्डाऽऽयुषघाते दुःखमुत्पद्यते, एवं सर्वेषामपि प्राणिनामित्यात्प्रोपमया तदुपघातान्निवर्तते, एए धर्मः सर्वापायाणलक्षणो धुवोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरस्वभावो नित्य इति / परिणामानित्यतायामपि सत्या रुपाऽऽद्यच्यववात्। तथा आ दिव्योझतिरिवशश्चद्रवनाच्छाश्वतः, परैः क्वचिदष्यस्खलितो, युक्तिसंगतत्वादित्यभिप्रायः, भयमेवंभूतश्च धर्मः समेत्यावगस्य लोकं चतुर्दशरज्वात्मक खेदः सर्वज्ञः प्रवेदितः, तदेवं स भिक्षुर्निवृतश्च सर्वाऽऽश्रवद्वारेभ्यो दन्तप्रह्लादनाऽऽदिकाः क्रिया अकुर्वन् सावधक्रिया या अभावाक्रियोऽक्रियत्वाच्च प्राणिनामलूवकोऽव्यापादको यावदेकान्तेनैवासौ पण्डितः भवति। इतिः परिसमाप्त्यर्य / प्रवीमीतिपूर्ववत्।नयाः प्राग्वद्व्याख्येयाः सूत्र०२ श्रु० 4 अ० (17) जीवाः किं मूलगुणप्रत्याख्यानिनः? दण्डकः-अचोक्तभेदेन प्रत्याख्यानेन तद्विपर्ययेण च जीवाऽऽदिपदानि विशेषयन्नाह जीवाणं भंते ! किं मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपत्रक्खाणी? अपचक्खाणी? गोयमा! जीवा मूलगुणपचक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी, अपचक्खाणी वि।नेरझ्या णं भंते ! किं मूलगुणपचक्खाणी वि पुच्छा?गोयमा ! नेरझ्या नो मूलगुणपञ्चक्खाण वि, गो उत्तरगुणपञ्चक्खाणी वि, अपचक्खाणी वि / एवं जव चउरिंदिया पंचिंदियातिरिक्खजोणिया, भणुस्सा य जहा जीवा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेरइया।। (जीवा णमित्यादि) (पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्तार जहा जीव ति) मूलगुण प्रत्याख्यानिन उत्तरगुण प्रत्याख्या Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण निनोऽप्रत्याख्यानिनश्च, नवरं पञ्चेन्द्रियतिर्यचो देशत्त एव मूलगुणप्रत्याख्यानिनः, सर्वविरतेस्तेषामभावात् / इह चोक्तं गाथया- "तिरियाण चारित, निवारियं अहय तो पुणो तेसि सुव्वइ बहुयाण चिय, महव्वयारोदण समए।।१।।" एरिहारोऽपि गाथयैव - "श महव्वयसभा-वे वि चरणपरिणामसंभषो तेसिं / न बहुगुणाणं पि जहा, केवलसंभूइपरिणामो // 2 // " इति। (18) अथ मूलगुणप्रत्याख्यानाऽऽदिमतामेवाल्पत्वाऽऽदि चिन्तयतिएएसिणं भंते ! जीवाणं मूलगुणपचक्खाणीणं उत्तरगुणपञ्चक्खाणीणं अपचक्खाणीण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्योवा जीवा मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपचक्खाणी अणंतगुणा। एएसिणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा?गोयमा ! सव्वत्योवा जीवापंचिंदियतिरिक्खजोणिया मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपचक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेजगुणा। एएसि णं भंते ! अणुस्साणं मूलगुणपचक्खाणीणं पुच्छा? गोयमा ! सव्वत्योवा मणुस्सा मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी संखेज्जगुणा, अपचक्खाणी असंखेजगुणा / जीवा णं भंते ! किं मूलगुणपञ्चक्खाणी, देसमूलगुणपचक्खाणी, अपचक्खाणी? गोयमा ! जीवासव्वमूलगुणपचक्खाणी वि, देसमूलगुणपचक्खाणी वि, अपचक्खाणी वि / नेरइयाणं पुच्छा? गोयमा ! नेरइया नो सव्वमूलगुणपचक्खाणी, नो मूलदेसगुणपबक्खाणी, अपचक्खाणी वि / एवं०जाव चउरिं दिया / पंचिंदियतिरिक्खपुच्छा ? गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खा नो / सवमूलगुणपञ्चक्खाणी वि, देसमूलगुणपचक्खाणी वि, अपचक्खाणी वि ! मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेरइया। एएसिणं भंते ! जीवाणं सव्वमूलगुणपञ्चक्खाणीणं देसमूलगुणपञ्चक्खाणीणं अ पञ्चक्खाणीण य कयरे कयरे०जाव विसेसाहियावा? गोयमा ! सव्वत्योवा जीवा सव्वमूलगुणपञ्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपचक्खाणी अनंतगुणा। एवं अप्पावहुयाणि तिण्णि वि जहा पढमिल्लए दंडए, नवरं सवत्योवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, देसमूलगुणपञ्चक्खाणी अपचक्खाणी असंखज्जगुणा / जीवाणं भंते! किं सवुत्तरगुणपञ्चक्खाणी, देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणी, अपचक्खाणी? गोयमा! जीवा सव्वृत्तरगुणपचक्खाणी, तिण्णि वि पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा, एवं चेव सेसा अपच्चक्खाणी०जाव वेमाणिया। एएसि णं भंते ! जीवाणं सव्वुत्तरगुणपचक्खाणीणं अप्पाबहुगाणि तिण्णि वि जहा पढमे दंडए० जाव मणुस्साणं॥ (एएसिणमित्यादि) (सव्वत्थोवा जीवा मूलगुणपचक्खाणी ति) देशतः सर्वतो वा ये मूलगुणवन्तस्ते स्तोकाः, देशसर्वाभ्यामुत्तरगुणवतामसंख्येयगुणत्वात् / इह च सर्वविरतेषु ये उत्तरगुणवन्तस्तेऽवश्य मूलगुणवन्तो, वस्तु स्यादुत्तरगुणयन्तः, स्यात्तद्विकलाः, य एव च तद्विकलास्त एवेह मूलगुणवन्तो त्राखाः तेश्वेतरेभ्यः स्तोका एव, बहुतरयतीनां दशविधप्रत्याख्यानयुक्तत्वात् / तेऽपि च मूलगुणिभ्यः संख्यातगुणा एव, नासंख्यातगुणाः, सर्वयतीनामपि संख्यातत्वात् / देशविरतेषु पुनर्मूलगुणवद्भ्यो भिन्ना अप्युत्तरगुणिनो लभ्यन्ते, ते च मधुमासादिविचित्राभिग्रहवशाबहुतरा भवन्तीति कृत्या देशविरतोत्तरगुणवतोऽधिकृत्योत्तरगुणवतां मूलगुणवद्भ्योऽसंख्यातगुणत्वं भवत्यत एवाऽऽह- "उत्तरगुणपचक्खाणी असंखेज्जगुण त्ति, अपचक्खाणी अणतगुण त्ति / " मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च एव प्रत्याख्यानिनोऽन्ये त्वप्रत्याख्यानिन एव, वनस्पति-प्रभृतिकत्वासेवामनन्तगुणत्वमिति। मनुष्यसूत्रे- "अपञ्चक्खाण्णी असंखेज्जगुण त्ति / " यदुक्तं तत्सम्मूछिमप्रहणेनावसेयम् / इतरेषां संख्यातत्वादिति / (एवं अप्पाबहुगाणि तिण्णि वि जहा पढमिल्लदंडए त्ति) तत्रैकं जीवानामिदमेव, द्वितीयं पञ्चेन्द्रियतिरश्वा, तृतीयं तु मनुष्याणाम्। एतानि य यथा निर्विशेषणमूलगुणाऽऽदिप्रतिबद्धे दण्डके उक्तानि, एवमिह त्रिण्यपि वाच्यानि / विशेषमाह- "नवरमित्यादि।" (पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य एवं चेव त्ति) यथा जीवाः सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान्याङ् य उक्ता एवं पञ्चेन्द्रियतिर्यचो मनुष्याश्च वाच्याः। इह पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽपि सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानिनो भवन्तीत्यवसेयम्। देशविरताना देशतः सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानस्याभिमतत्वादिति। भ०७ श०२ उ०। (16) जीवाः? प्रत्याख्यानिनोऽप्रत्याख्यानिनो वाजीवाणं भंते ! किं पचक्खाणी, अपचक्खाणी, पचक्खाणाऽपचक्खाणी? गोयमा ! जीवा पचक्खाणी वि, अपचक्खाणी वि। एवं तिण्णि वि, एवं मणुस्सा वि / पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आदिल्लविरहिया सव्वे अपचक्खाणी०जाव वेमाणिया / एएसि णं भत्ते ! जीवाणं पच्चक्खाणीणं०जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! दृष्वत्योवा पञ्चक्खाणी, पचक्खाणापचक्खाणी असंखेजगुणा, अपचक्खाणी अणंतगुणा। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सव्वत्थोवा पच्चक्खाणापचक्खाणी अपचक्खाणी असंखेज्जगुणा, मणुस्सा सव्वत्योवा पञ्चक्खाणी, पचक्खाणापचक्खाणी संखेजगुणा, अपचक्खाणी असंखेज्जगुणा / भ०७ श०२ उ०। जीवा णं भंते ! किं पचक्खाणी, अपचक्खाणी, पञ्चक्खाणापचक्खाणी? गोयमा ! जीवा पचक्खाणी वि, अपच्चक्खाणां वि, पचक्खाणापञ्चक्खाणी वि।सव्वीजीवाणंएवंपुच्छा? गोयमा! नेरझ्या Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाण 116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण अपचक्खाणी०जाव चउरिदिया। सेसा दो पडिसे हेयव्वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया नो पञ्चक्खाणी, अपचक्खाणी वि, पचक्खाणापच्चक्खाणी वि, मणुया तिण्णि वि सेसा जहा नेरइया। (जीवा णमित्यादि) (पञ्चक्खाणि त्ति) सर्वविरताः। (अपचक्खाणि त्ति) अविरताः / (पचक्खाणापचक्खाणि त्ति) देशविरता इति / (सेसा दो पडिसेहेयव्वे त्ति) प्रत्याख्यानदेशप्रत्याख्याने प्रतिषेधनीये, अविरतत्वान्नारकाऽऽदीनामिति / प्रत्याख्यानं च तजज्ञाने सति स्यादिति ज्ञानसूत्रम्जीवाणं भंते ! किं पञ्चक्खाणं जाणंति, अपच्चक्खाणं जाणंति, पचक्खाणापचक्खाणं जाणंति?1 गोयमा ! जे पंचिंदिया ते तिण्णि, वि अवसेसान पचक्खाणंजाणंति जीवाणं भंते ! किं पचक्खाणं जाणंति, अपचक्खाणं कुव्वं ति, पचक्खाणापचक्खाणं कुव्वंति? जहा ओहिया तहा कुव्वणा। तत्र च (जे पंचिंदिया ते तिन्नि वि ति) नारकाऽऽदयो दण्डकोक्तपञ्चेन्द्रियाः समनस्कत्वात्सम्यग्दृष्टित्वे सति ज्ञपरिज्ञाना प्रत्याख्यानाऽ5दित्रयं जानन्तीति। (अवसेसेत्यादि) एकेन्द्रिययिकलेन्द्रियाः प्रत्याख्यानाऽऽदित्रयं न जानन्ति, अमनस्कत्वादिति / कृतं च प्रत्याख्यानं भवतीति तत्करणसूत्र प्रत्यारख्यावमायुर्बन्धहेतुरपि भवतीत्यायु सूत्रम् - जीवा गं भंते ! किं पञ्चक्खाणनिवत्तियाउया, अपच्चक्खाणणिवत्तियाउया, पञ्चक्खाणापचक्खाणणिवत्तियाउया? गोयमा! जीवाय, वेमाणिया य, पचक्खागनिवत्तियाउया, तिण्णि वि अवसेसा पञ्चक्खाणनिवत्तियाउया। गाहा"पञ्चक्खाणं जाणइ, कुव्वति तेणेव आउनिष्वशी। सपएसुद्देसम्मि य, एमए दंडगा चउरो॥१॥" तत्र च (जीवा णेत्यादि) जीवपदे जीवाः प्रत्याख्यानाऽऽदित्रयनिबद्धाऽऽयुष्का वाच्याः, वैमानिकपदे च वैमानिका अप्येवं प्रत्याख्यानाऽऽदित्रयवता तेषूत्पादात्। (अणसेस त्ति, द्वारकाऽऽदयोऽप्रत्याख्याननिर्वृत्ताऽऽयुषो, यतस्तेषु तत्त्वेनाविरता एवोत्पद्यन्त इति / भ०६ श०४ उ०। आ०चू० आ०क०। आ०म० (20) प्रत्याख्यानं पर्षदि कथनीयम् - से भूणं भंते ! सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवहिं सव्वसत्तेहिं पचक्खायमिति वदमाणस्स सुपचक्खायं भवइ, तहा दुपचक्खायं ? गोयमा ! सव्वपाणे हिंजाव सबसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वहमाणस्स सिय सुपचक्खायं भणइ, सिय दुपचक्खायं भवइ / से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सव्वपाणेहिं० जाव सव्वसत्तेहिं० जाव सियदुपञ्चक्खायं भवइ? गोयमा! जस्स णं सव्वपाणेहिं०जाव सव्वतत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स नो एवं अभिसमण्णागयं भवइ- इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे , तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं०जाव सव्वसत्तेहिं पचक्खायमिति वदमाणस्स नो सुपञ्चक्खायं वुप्पचक्खायं भवइ / एवं खलु से दुपचक्खाइए सव्वपाणेहिं०जाव सव्यसत्तेहिं पचक्खायमिति वदमाणे नो सव्वभासं भासइ, भोसं भासं भासइ, एवं खलु स मुसावाई सव्वपाणेहिं०जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं असंजयविरयपडिहयपञ्चाक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगतदंडे एगंतवाले यावि भवइ / जस्स णं सव्वपाणेहिंजाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वदमाणस्स एवं अभिसमण्णागयं भवइ-इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं.जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स सुपचक्खायं भवइ, नो दुपचक्खायं भवइ, एवं खलु से सुपचक्खाई सव्वपाणेहिं०जाव सव्वसत्तेहिं वयमाणे सचं भासं भासइ, नो मोसं भासइ, एवं खलु से सच्चवाईसव्वपाणेहिं० जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए यावि भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ०जाव सिय दुपञ्चक्खायं भवइ। (से दूणमित्यादि) “सिय सुपचक्खायं सिय दुपच्चक्खाय'' इति प्रतिपाद्य यत्प्रथमं दुष्प्रत्याख्यानत्ववर्णन कृतं तद्यथासंख्यन्यायत्यामेन यथाऽऽसन्नतान्यायमङ्गीकृत्येति द्रष्टव्यम्। (नो एवं अभिसमण्णागय भवइ ति) (नो) नैव एवमिति वक्ष्यमाणप्रकारमभिसमन्वागतप्रवगतं स्यात्। (नो सुपचक्खायं भवइत्ति) ज्ञानाभावेव यथावदपरिपालनात्सुप्रत्याख्यातत्वाभावः / (सव्वपाणेहिं ति) सर्वप्राणेषु 4 / (तिविह ति) त्रिविधं कृतकारितानुमतिभेदभिन्नं योगप्राश्रित्य (तिविहेणं ति) त्रिविधेन मनोवाकायलक्षणेन करणेन (असंख्यविरवपडिहवपञ्चक्खायपावकम्मे त्ति) संयतो वधाऽऽदिपरिहारे प्रभतः, विरतो वधाऽऽदेर्निवृत्तः, प्रतिहल्लाहतीतकालसंबन्धीति, निष्दानः प्रत्याख्यातावि चावागतप्रत्याख्यानेन पापानि कर्माणि येन स तथा / ततः संयताऽऽदिपदावां कर्मधारकः / ततस्तविषधादसयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातथापकर्मा / अत एव (सकिरिए त्ति) कायिक्यादिक्रियामुक्तः स कर्मबन्धनो वा, अत एव(असुवडे त्ति) असंवृताऽऽश्रवद्वारः / अत एव-(एगंतदडे ति) एकान्तेन सर्वधैव परान्दण्डयतीति एकान्तदण्डः, अत एवैकान्तबालः, सर्वथा बालिशोऽज्ञ इत्यर्थः / भ०७ श०२ उ०। (21) साम्प्रतं प्रत्याख्यातव्यमुक्तमप्यध्ययनेद्वारशून्यार्थमाहदब्वे भावे अदुहा, पञ्चक्खायव्वयं तु विन्नेयं / दव्वम्मी असणाई, अन्नाणाई उभावम्मि॥६६॥ सोउं उवहिआए, बिणीअवक्खित्ततदुवउत्ताए। एवंविहपरिसाए, पञ्चक्खाणं कहेअव्वं // 70|| द्रव्यतो भावतश्च द्विधा प्रत्याख्यातव्यं तु विज्ञेयम् / द्रव्यप्रत्याख्यातव्यमशनाऽऽदि, अज्ञानाऽऽदि तु भावे, भावप्रत्याख्या व्यति Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 117 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पञ्चक्खाण लि गाथाऽर्थः / / 66 / / मूलद्वारगाथायां गतं तृतीयद्वारम् / इयाणि परिसा, गाय पुत्ववन्निया सामाइयनिजुत्तीए सेलघणकुडगचालणि इचादि। इह नुष सविसेस भन्नइ। परिसा दुविहाउवट्ठिया, अणुवडिया य। उवट्ठियाए कहेयन्यं, अणुवट्टियाए न कहेयव्वाजा उवडिया सा दुविहा-सम्मोवडिया, मिच्छोवट्टिया य / मिच्छोवट्ठिया जहा अज्जगोविंदो, तारिसाण न वट्टइ कहेउं / सम्मोवट्टिया दुविहा-भाविया, अभाविया य / अभावियाए न बट्टइ। भाविया दुविहा-विणी० या, अविणीया य। अविणीया न वट्टइ। विणीयाए कहंयव्वं / विणीया दुविहा-वक्खित्ता, अव्वक्खित्ता य / अक्खिता सुणेइ कम्मं च किंचि करेइ, खिप्पं ति वा अन्नं वावारं करेइ। अव्यरिखता न किचि अन्नं करेइ, केवलं सुणेइ। अव्वक्खित्ताए कहेयव्यं / अव्वक्तित्ता दुविहा-उवउत्ता, अणुवउत्ता य / अणुवउत्ता जा सुणेइ अन्नमण वा चिंतेइ। उवउत्ता जा तञ्चित्ता तम्मणा। उवउत्ताए कहेयव्वं / ' तथा चाह- ''सोउं उवट्टियाए (गाहा७०)" गतार्था / एवमेसा उवट्ठिया सम्मोवट्टिया भाविया / विणीया अव्वक्खित्ता उवउत्ता य पढमपरिला जोन्गा कहणाए, सेसाओ तेवट्टि परिसाओ अजोग्गाओ अजोगणा इमा पढना उवट्टिया सम्मोवट्टिया भाविया। विणीया अव्यक्खित्ता अणुवउत्ता एसा पढमा अजोग्गा। एवं तेवट्टि पिभाणियव्वाओ। उवट्टिया सम्मोवडिया भादिया। विणीए य होइवक्खित्ता उवउत्तिगाय जोगा। सेसा अजोग्गाओ तेवट्ठिा एवं पचक्खाणं पढमपोरिसीए कहिजइ। तव्वइरित्ताए न कहेयव्वं / न केवलं पचक्खाणं, सव्वसवि आवस्सयं, सव्वमवि सुयनाणं ति।" मूलद्वारगाथायां परिषदिति गतम् / अधुना कथनविधिरुच्यते / तत्रायं वृवाद:- "काए विहीए कहेयव्यं, पढम मूलगुणा कहिजंति पाणातिवायवेरमणाति, ततो साधुधम्मे कहिते पच्छा असत्तिट्ठस्स सावगधम्मो, इयरहा करिखते सत्तिट्टो विसावगधम्म पढमसोउंतत्थेव विधिति करेइ, उत्तरगुणेसु वि छम्मासियं आइकारंजं जस्स जोग्ग पचक्खाणं तं तस्स असढेण कहेयव्यं / ' ||7|| आ०६अ। आ० चू०। अथवाऽयं कथनविधिःआणागिज्झो अत्थो, आणाए चेव सो कहेयव्वो। दिढतिय दिट्ठता, कहणविहि विराहणा इहरा // 71 / / आज्ञा आगमः, तद्ग्राहस्तद्विनिश्चितोऽर्थः-अनागतातिक्रान्तप्रत्याख्यानाऽऽदिः, आज्ञयैवाऽऽगमेनैवाऽसौ कथयितव्यो, न दृष्टान्तेन तथा दार्शन्तिकः दृष्टान्तपरिच्छेद्यः प्राणातिपाताऽऽद्यनिवृत्तानामेते दोषा भवन्त्येवमादिः, दृष्टान्तात् दृष्टान्तेन कथयितव्यः / कथनेऽयं विधिरेष कथनप्रकारः प्रत्याख्याने वा / यद्वा-सामान्येनेवाऽऽज्ञाग्राह्योऽर्थः सौधर्माऽऽदिशज्ञयवासौ कथयितव्यः, न दृष्टान्तेन, तत्र तस्य वस्तुनोऽसम्भवाता तथा दार्टान्तिक उत्पादाऽऽदिमानात्मा, वस्तुत्वाद्घटवदित्येवमादिदृष्टान्तात् कथयितव्यः / एष कथनविधिः, विराधना इतरथा त्रिपर्ययोऽन्यथा, कथनविधेरप्रतिपत्तिहेतुत्वात् अधिकतरसंमोहा-दिति गाथाऽर्थः // 71 / / मूलद्वारगाथोपन्यस्त उक्तः कथनविधिः। (22) प्रत्याख्यानफलमपचक्खाणस्स फलं, इह परलोए अ होइ दुविहं तु / इहलोए धम्मिलाई,दामन्नगमाइ परलोए।७२।। प्रत्याख्यानस्योक्तफललक्षणस्य फलं कार्यमिह लोके परलोके च भवति द्विविध द्विप्रकारम् / तुशब्दः स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः। तथा चाऽऽह.. इहलोके धम्मिल्लाऽऽदय उदाहरणम्। दामनकाऽऽदयः परलोके इति गाथाऽक्षरार्थः // 72 // कथानके तु- "धम्मिल्लोदाहरणं धम्मिल्लहिंडीओ* नायव्वं / आदिशब्दतो आमोसहिमाइया घेप्पंति।दामन्नगोदाहरणं तुरायपुरे नयरे एगो कुलपुत्तगजातीओ, तस्स जिणदासो मित्तो, तेण सो साहुसगासं नीओ। तेण मच्छमंसस्स पचक्खाणं गहियं / दुभिक्खे मच्छाहारो लोगो जाओ। इयरो विसालएहिं महिलाए य खिंसिज्जमाणो गओ उविन्नो दह मच्छ दटुं, पुणरावत्ती जाया। एवं तिन्नि दिवसे तिन्नि वारे गहिया, मुक्का य। अणसणं काउ रायगिहे नयरे मणियारसेट्ठिपुत्तो दामन्नगो नामेण जाओ। अट्टवरिसस्स कुलं मारीओ छिन्नं, तत्थेव सागरपोयसत्थवाहस्स गिहे चिट्टइ। तथ्य रायगिहे साहू भिक्खट्टे पविट्ठा। साहुणा संघाडयलस्स कहियएयस्स गिहस्स एसदारओ अहिवती भविस्सइ। सुयं सत्यवाहेण, पच्छन्नं चंडालाण अप्पिओ। तेहिंदूर नेउं अंगुलिंछेत्तुं भेसिओ निव्यिसओ कओ, नासतो तरसेव गोसंघिएण गहिओ, पुत्तो त्तिजोव्वणत्थो जाओ। अन्नया सागरपोओ तत्थ गओ, तं दद्रूण उवाएण परियणं पुच्छइ-को एस? / कहिवं अणाहो त्ति इहागओ इमो। सोऽतिभीओ लेहं दाउं घरं पावहि त्ति विसिज्जओ। गबो रायगिहस्स बाहिं परिस्संतो देवउले सुयइ, सागइपोयधूया विसा नाम कन्नगा, तीए अचणियावावडाए दिट्ठो पिउमुद्दमुद्दियलेह दटुंवाएइ-एयरसदारयस्स असोहियमक्खियपायन विसं दायव्वं, अणुसारफु सणोवि मुद्देइ नगरं पविट्ठा वि सा अणेण विवाहिया। आमओ सागर पोयओ, माइधरअच्चणियाविसजणं सागरपोयस्स पुत्तभरण सोउं सागरपोओ हियउडभेदेण मओ, रन्ना दामन्नगो घरसामी कओ, भोगलंभिद्धी जाया। अन्नया पुव्वावरएहे मंगलिएहिं पुरओ से उग्गीयं-"अणुपुंखमावहता, वि अणत्था तस्स बहुगुणा हों ति / सुहदुक्खकच्छपुडओ, जस्स कयंतो वहइपक्खं॥१॥ सोउंसयसहस्स मंगलियाणं देइ / एवं तिण्णि वारा तिणि सयसहस्साणि। रन्ना सुयं पुच्छिएण सव्वो रनं सिट्ठ, तुडेण रण्णा सेट्ठी ठविओ। बोहिलाभो, पुणो धम्माणुहाणं, देवलोगागमणं / एवमाइ परलोए। अहवा सुद्धेण पचक्खाणेण हेवलोयगमण पुण बोहिलाभो सुकुलपच्चयादिसोक्खपरंपरेण सिद्धिगमण, केसिं च पुण तेणेव भवगहणेण सिद्धिगमणं भवतीति।" / अत एव प्रधानफलोपदर्शननोपसंहरन्नाहपच्चक्खाणमिणं से-विऊण भावेण जिणवरुद्दिढें / पत्ता अणंतजीवा, सासयसुक्खं लहुं मुक्खं // 73 // प्रत्याख्यानमिदमनन्तरोक्तमासेव्य भावेनान्तःकरणेन जिनवरोद्दिष्ट तीर्थकरकथितं प्राप्ता अनन्तजीवाः, तार्यस्वरुपकथन एव प्रवृत्तिहेतुत्वात् तत्रोक्तमित्यनपराध एवेत्यलं विस्तरेण / उक्तोऽनुगमः। आब० ६अ० / (प्रत्याख्याने मृषावादो पडिसेवणा' शब्देवक्ष्यते) तीर्थकृता महाव्रतरुपस्य प्रत्याख्यानस्य परिमाणम् / अधुन प्रत्याख्यानद्वारमाह-प्रथमजिनस्य ऋषभस्वामिनोऽन्तिमजिनस्य वीरस्वामिन इदं प्रत्याख्यानयदुत पञ्च यमाः, प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनिपञ्च महाव्रतानि, शेषाणामजितस्वामिप्र* धम्मिलहिगडनिमकग्रन्थात्। यथावसुदेवहि एडी। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाण 118 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण भृतीनां मध्ममानां द्वाविंशतितीर्थकृतां चत्वारो यमाः, मैथुनववर्जाणि शेषाणि चत्वारि महाव्रतानीत्यर्थः / तेषां मैथुनस्य परिप्रहेऽन्तर्भावविवक्षणात- "नापरिगृहीता स्त्री परिभुज्यते " इतिन्यायात् / आ० म०१ अ०१खण्ड। (23) साम्प्रतं प्रत्याख्याता उच्यतेपञ्चक्खाएण कया, पचक्खादितए वि सूआ उ। उभयमवि जाणगेअर, चउभंगो गोणिदिटुंतो॥६५।। मूलगुण उत्तरगुणे, सव्वे देसे अ तह य सुद्धीए। पञ्चक्खाणविहिन्नू, पच्चक्खाया गुरु होइ॥६६|| प्रत्याख्याता गुरुः, तेन प्रत्याख्यात्रा कृता प्रत्याख्याएयितर्यपि शिष्ये सूचा उल्लिङ्गना। न हि प्रत्याख्यानं प्रायो गुरुशिष्यावन्तरेण संभवति। अन्येतु- "पञ्चक्खाणेण कयं' इति पठन्ति, तत्पुनरयुक्तम्। प्रत्याख्यातुः नियुक्तिकारेण साक्षादुपन्यस्तत्वात्। सूत्रानुपपत्तेः प्रत्याख्यापयितुरपि तदन्तरङ्गत्वादिति / अत्र च ज्ञातर्यज्ञातिरेव चतुर्भङ्गो भवति। तत्र चतुर्भङ्गे गोदृष्टान्त इति गाथासमासार्थः / / 65 / / भावार्थतु स्वयमेवाऽऽहमूलगुणेषु उत्तरगुणेषु च (सव्वे देसे य त्ति) सर्वमूलगुणेषु देशमूलगुणेषु च, एवं सर्वोत्तरगुणेषु देशोत्तरगुणेषु च / तथा च शुद्धो षड्विधायां श्रद्धानाऽऽदिलक्षणायां प्रत्याख्यानविधिज्ञः अस्मिन्विषये प्रत्याख्यानविधिपेत्तेत्यर्थः, प्रत्याख्यातीति प्रत्याख्याता गुरुर्भवति आचार्यो भवति। इति गाथार्थः // 66 / / किइकम्माइंविहिन्नू, उवओगपरो असढभावो अ। संविग्ग थिरपइन्नो, पच्चक्खाविंतओ भणिओ // 67 / / इत्थं पुण चउभंगो, जाणगे इअरम्मि गोणिनाएणं / सुद्धासुद्धा पढम-तिमा उसेसेसु उविभासा॥६॥ कृतिकर्माऽऽदि विधिज्ञः वन्दनाऽऽकाराऽऽदिप्रकारज्ञ इत्यर्थः / उपयोगपरश्च प्रत्याख्यान एवोपयोगप्रधानश्च, अशठभावश्च, शुद्धचित्तश्च, संविज्ञो मोक्षार्थी, स्थिरप्रतिज्ञः न भाषितमन्यथा करोति / प्रत्याख्यापयतीति प्रत्याख्यापयिता शिष्य एवंभूतो भणितस्तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः / / 67 / / "एत्थ पुण पच्चक्खायंतस्स, पचक्खावेतस्स य चउभंगो, जाणगस्स पच्चक्खाइय सुद्धं पच्चक्खाणं, जम्हा दो वि जाणति किमवि पचक्खायं नमोकारसहियं, पोरिसिमाइयं वा, जाणगो अजाणगस्स जाणवेउं पचक्खाइ, जहा नमोकारसहियादीणं अमुगं पञ्चक्खायं ति सुद्ध, अन्नहा असुद्धं / अयाणगो जाणगस्स पचक्खाइ सुद्धं, पहुसंदिट्ठादिसु विभासा-अयाणगो अयाणगस्स पचक्खाइ असुद्धमेव। एत्थ दिलुतो गावीओ। जइ विगावीणं पमाणं सामिओ विजाणइ, गोयालो वि जाणइ, दोएहवि जाणमाणाणं भितीमोल्लं सुहं सामिओ देह, इयरो गेएहइ इहलोइए चउभंगो। एवं जाणगोजाणगेण पञ्चक्खावेइ सुद्ध, जाणगो अयाणगेण कारणेण पच्चक्खावेंतो सुद्धो, निक्कारणेण सुज्झइ,अयाणगो जाणगेण पचक्खावेइ सद्धो. अयाणओ अयाणएण पचक्खावेइन सुद्धो इतिगाथार्थः॥६८|| आव०६अ०। (24) प्रकीर्णकवार्ताःकश्चित्पारणकोत्तरपारणकयोश्चैकाशनकं विना "सूरे उग्गए अभतट्ठ।" प्रत्याख्याति, यदा पारणकोत्तरपारणकयोश्चैकाशनं करोति तदा "चउत्यभत्तं प्रत्याख्याति इति रीतिर्दृश्यते / तथा - "छठभत्त' इत्यादिकस्थाने तु नास्ति, तदा पारणकोत्तरपारणकयोश्चैकाशनं विनाऽपि "छट्ठभत्तं" इत्यादि प्रत्याख्याति, तत्र को हेतुरिति प्रवे, उत्तरम्-यदैकाशनकसहितोपवासं करोति तदा "सूरे उग्गए चउत्थभत्त अभत्तट्ठ' प्रत्याख्याति पुनरेकाशनकरहितं करोति तदा "सूरे उग्गए अभत्तट्ठ" प्रत्याख्यातीदृगविच्छिन्नपरम्परा दृश्यते / षष्ठप्रमुखप्रत्याख्याने तु पारणके उत्तरपारणके नकाशनकं करोति, अथवा न करोति तथापि "सूरे उग्गए छट्ठभत्तं अट्ठभत्तटुं" इति कथ्यते, तदक्षराणि तु श्रीकंल्पसूत्रसामाचारीमध्ये सन्तीति वोध्यम्। ५८प्र०। सेन०४ उल्ला० / केचन वदन्तिनमस्कार सहितप्रत्याख्याने उदिते सूर्ये भोक्तुं कल्पते, योगशास्त्रे त्वह्रो मुखेऽवसाने च घटिकाद्वयमध्ये भोक्तुं न कल्पते, घटिकाद्वयप्रारम्भोऽपि किं प्रातः कररेखादर्शनात् उत सूर्योदयत इति? प्रश्ने, उत्तरम्-नमस्कार सहितप्रत्याख्यामं सूर्यादारभ्य मुहूर्ताभ्यन्तरे प्रत्याख्यानभङ्गभयाभोक्तुं न कल्पते, "उग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं पचक्खामि" इत्यादि सूत्रव्याख्याने, योगशास्त्रवृत्त्यादौ च तथैव दर्शनादिति / 161 प्र० / सेन०३ उल्ला० / मुत्कलश्रावका नमस्कार त्रयेण नमस्कारिकाऽऽदिप्रत्याख्यानं पारयन्ति, तदक्षराणिक सन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-मुत्कल श्राद्धा नमस्कारत्रयेण नमस्कारिकाऽऽदिप्रत्याख्यानं पारयन्तीत्यवच्छिन्नपरम्पराऽस्ति, परमेतदक्षराणि कुत्रापि दृष्टानि न स्मरन्तीति। ३प्र०ा सेन०३ उल्ला०। त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्यानवता श्राद्धानां रात्रौ यत्सचित्तजलपानं तत्कि ग्रन्थस्थमुत परम्परागतं, तत्र कया युक्त्या दिवसे सचित्तजलं न शुद्ध्यति, रात्रौ च शुद्ध्यतीति प्रश्ने, उत्तरम्-दिवससंबन्धी त्रिविधप्रत्याख्याने "तह तिविहं पचक्खाणे भवणति अपाणगस्स आगारा" इति वचनात् "अपाणस्स" इत्युचारो भवति / तथा च प्रासुकमेव जलं कल्पते, रात्रिकत्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्याने तु "पाणस्स" इत्युच्चाराभावात्सचित्तजलमपि कल्पत इति / 182 प्र० / सेन०३ उल्ला० / चम्पकाऽऽदिपुष्पवासितवारिसकलाईवस्तुप्रत्याख्यानवतः श्राद्धस्य पातुंकल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - सकलाईवस्तुप्रत्याख्यानवतस्तद्वारि कल्पते पातुमिति। 268 प्र० / सेन०३ उल्ला०। योगशास्त्रतृतीयप्रकाशवृत्तौ "शुचिः पुष्पामिषस्तोत्रैर्देवमभ्यर्च्य वेश्मनि।" इति 122 श्लोकव्याख्याने पूर्वगएडूषाऽऽदिकं कृत्वा पश्चात्प्रत्याख्यानं प्रोक्तमस्ति तत्कमिति प्रश्ने, उत्तरम-योगशास्त्रे शुचिभवनप्रकारो लोकप्रसिद्धोऽनुवादपरतया प्रोक्तोऽस्ति न त्ववश्यं विधेयतयेति प्रत्याख्यानवतां गएडूषकरणं विनाऽपि देवपूजा शुद्धयतीति न कश्चिद्विरोधः / 235 प्र० / सेन०३ उल्ला०, शुद्धकालवेलाया नमस्कारसहितप्रत्याख्यानं कृतं भवति। ततो घटिकाद्वयं गृह्यते, किंवा सूर्योदयाद् घटिकाद्वयं गृह्यते, तद् व्यक्त्या प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम् शुद्धकाल वेलायां नमस्कारसहितप्रत्याख्यानं कृतं भवति.तत आरभ्य घटिकाद्वयं गृह्यते इति।८६प्र०ा सेन०४ उल्ला० नमस्कार सहितप्रत्या - ख्यानस्य फलमधिकं भवति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-नमस्कारसहितप्रत्याख्यानस्य जघन्यकालमानं घटिकाद्वयं कथितमस्ति / यदा नमस्कारं गणयति तदा प्रत्याख्यानं पूर्णभवतीयापि कथितमस्ति, तस्माद्घटिकाद्वयस्योपरि यावत्कालमुपयोगवान्। सेन०। पौषधिकश्राद्धो द्वितीयदिनप्राभातिकप्रतिक्रमणे ह्यशनाऽऽदिप्रत्याख्यानमिवायऽऽगामिविषयंदेशा वकाशिकमपि कस्मान्न कुरुते, अथ प्रत्याख्यानसा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाण 116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण दद्यव्यपारस्तदाऽऽगामिविषयमपि न कुरुत इति चेत्तर्हि सामा यिकस्य ख्यानंचघटते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्- मनुष्यलोका बहिष्कालप्रत्याकथं कुर्याऽदिति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्रार्थव्यवछिन्नवृद्ध- परंपरैव गतिर्न तु ख्यानं रात्रिभोजनप्रत्याख्यानं वेहत्यापेक्षया सम्यक्कालस्वरुपपरिज्ञाने पन्थाक्षारावातिरिति। 73 प्र०। सेन०१ उल्ला०आईफलकर्कटिकाऽऽ- भवत्यन्यथा तु संकेतप्रत्याख्यानमिति / 125 // प्र० सेन०१ उल्ला०। नाऽऽदीनि वीजीकृतानि घटिद्वयानन्तरं प्रासुकानि भवन्ति / तथा जिनाऽऽलये प्रत्याख्यानं पारयितुं शुद्धयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् त्रिविधाऽऽहारद्विविधाऽऽहारप्रत्याख्यनि नामेकाशनकमध्ये तानि शुद्धयति संप्रदाय इति। 184 प्र० / सेन०२ उल्ला० / यावज्जीव रात्री कल्पन्ते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् आमाफलानि निर्वीजीकृतान्यपि चतुर्विधाऽऽहारप्रत्याख्यानवतः स्त्रीसेवने भङ्गो, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्घाटेकादयादनु प्रासुकानि न भवन्ति यतः कटाहजीवस्तथैव तिष्ठति। स्त्रीसेवने ओष्ठचुम्बने सति प्रत्याख्यानभङ्गो भवति, नान्यथेति श्राद्धवितथा त्रिविधाऽऽहारैकाशनके न कल्पन्ते। द्विविधाऽऽहारैकाशनकेऽपि धिवचनादिति।२२० प्र०। सेन०३ उल्ला०। चतुर्दशनियमेषु द्वित्राऽऽदीनि रचित्तप्रत्याख्यानिना न कल्पन्ते / पक्कफलानि निर्वीजीकृतानि सचित्तानि प्रातः प्रत्याख्यानं क्रियमाणे मुत्कलानि रक्षितानि तान्यहघटिकाद्यानन्तर त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्यानिनां कल्पन्त इति। ७५प्र० / न्येव सर्वाण्यपि पूर्णीभूतानि, अथ रात्रौ तेषां कार्ये समुत्पन्ने पूर्वप्रमाणीसेन० 4 उल्ला० / अनशनिश्राद्धस्य त्रिविधाऽऽहार - प्रत्याख्यानं कृतादप्यपराण्यादातुं कल्पन्ते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-श्राद्धानां चतुर्दशकारयित्वा राजदुष्णपानीयपानेनाशनस्य दूषणं लगति। न वेति प्रश्ने, नियमेषु द्विवाऽऽदीनि सचित्तानि प्रातः प्रत्याख्यानसमयेऽहोरात्रावधि उनरम्-तथा कारणेनानशमस्य दूषणं न लगतीति। १३७प्र०। सेन०४ मुत्कलानि रक्षितानि भवन्ति, तदा तावतां दिवा परिभोगे रात्रावधिकानि उल्वाल / स्यशनप्रत्याख्यानकर्ता वान्तौ जातायां द्वितीयवार भुक्ते, न कल्पन्ते, यदि च संध्याऽवध्येव तावन्ति मुत्कलानि रक्षितानि, उदा न येति प्रश्ने, उत्तरम्-तस्मिन्नेव स्थानके स्थिते यदि वान्तिर्भवति, रात्रावधिकान्यपि न कल्पन्ते इति। 411 प्र० / सेन०३ उल्ला० विषयसूचीमुखशुद्धश्च कृता भवति, तदा द्वितीयवारं भोक्तुं कल्पते, नान्यथा चेति। 158 प्र० सेन० 4 उल्ला० / प्रथमदिने चतुर्विधाऽऽहारो वासं कृत्वा (1) प्रत्याख्यानमधिकृत्य द्वारगाथा / द्वितीयदिनोपवासमेकीकृत्य षष्ठाष्टमाऽऽदिकं प्रत्याख्याति, नवेति प्रश्ने, प्रत्याख्यानशब्दैकार्याः। (2) द्रव्यप्रत्याख्यानम्। उत्तरम्-प्रथमदिवसे चतुर्विधाऽऽहारकोपवासं प्रत्याख्याति, द्वितीय (4) अदित्साप्रत्याख्यानम्। दिवसे एकमेव प्रत्याख्याति, न तु षष्ठम्। यदि द्वितीयदिने षष्ठाऽऽदिकं. भावप्रत्याख्यानम्। तर्हि अंग्रे तृतीयोपवासः कृतो युज्यते, ईदृशी सामाचार्यस्तीति / 141 भावप्रत्याख्यानस्य श्रुतप्रत्याख्याननोश्रुतप्रत्याख्यानेन द्वैविप्रका तन०४ उल्ला०। कश्वित्प्रातः कृतनमस्कारिकासहितप्रत्याख्यानः ध्यम् / मूलोत्तरगुणप्रत्याख्याने चोदाहरणम् प्रतिलेखनायां त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्या नं करोति, स संध्यायां, किं वा श्रावकधर्मः। श्रावका अष्टविधाः, तेऽष्टौ भेदा विभज्यमाना द्वात्रिंशप्रत्याख्यानं विदधातीति प्रश्ने, उत्तरम्-एकाशनाऽऽद्यप्रत्याख्यानी, तश्च / यति गृहस्थयोर्भेदेन प्रत्याख्यानम्। गृहिप्रत्याख्यानस्याचं विहिलप्रतिलेखनात्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्याना च संध्यायां पानका भङ्गमाश्रित्य त्रैलिकप्रत्याख्याने- "तिविहं तिविहेणं " इत्यत्र ऽऽहारप्रत्याख्यानं करोति / अकृतप्रतिलेखनात्रिविधाऽऽहारप्रत्या चाक्षेपपरिहारौच। ख्यानस्तु चतुर्विधाऽऽहारप्रत्याख्यानं करोतीतिपरम्पराऽस्ति / येन श्राद्धेन प्रन्क्काले न प्रत्याख्यातः स पश्चात्काले प्राणातिपातं 16670 / सेन० 4 उल्ला०। कसेलकपानीयं त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्या प्रत्याचक्षाणः किं करोतीति प्रश्नः / आहारभेदप्ररुपणा, सोत्तरा निता पातुं शुद्धयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्यानिना दिगम्बरीया विप्रतिपत्तिश्च / प्रत्याख्यानस्य दशविधत्वम्। तत्पानीयमानं शुद्धयति, परमात्मनामाचरणा नास्तीति 16 प्र०। सेन० (8) श्राद्धाः प्रत्याख्यानं कदा गृह्णान्ति। 4 उल्ला तथा फेनचित् श्राद्धेन योजनशतादुपरि गमनप्रत्याख्यानं कृतं, (10) प्रत्याख्यानविधौ दानविधिः / तस्य धमार्थमधिकं गन्तुंकल्पते, न वा, यदिगच्छति, तदा केन विधिनेति (11) धर्मकथामन्थनिर्मयितमिथ्यात्वभावाश्च भव्याः शुद्धं प्रत्याख्यानं प्रश्ने, उत्तरम्-प्रत्याख्यानकरणसमये विवेको विलोक्यते, तेन प्रायो प्रपद्यन्ते। मुख्यवृत्त्या प्रत्याख्यानं सांसारिकाऽऽरम्भस्य भवति, नतुधर्मकृत्यस्य, (12) प्रत्यानशुद्धेः षड्विधत्वम्, द्विविधत्वम्, त्रिविधत्वम् / अत्रोत्तरम्। यदि च सामान्यतः कृतं, तदा नियमित्तक्षेत्रोपरि यतनया गच्छति, तत्रच (13) सामायिके सत्याहारप्रत्याख्यानेन किम् ? आहारप्रत्याख्यानयगतः सांसरिककृत्यं न करोतीति। 363 प्र०। सेन०३ उल्ला०ा पञ्चविकृ त्सामायिके आकराः किमिति नोक्ताः? अत्रोत्तरम्। निदर्शनतः तिपत्याख्यानिना द्विघटिकाऽनन्तरं गुडमिश्रितचूरिमकं कल्पते, न वेति सामायिक्रमाकाराणामविषयः / प्रश्ने, उत्तरम्-पञ्चविकृतिप्रत्याख्याने द्विघटिकाऽनन्तरं गुडमिश्रितं | (14) अथ कोऽपि ब्रूयात्-विद्यमानार्थ विषयमेव प्रत्याख्या नमुपपद्यते। चूरिभकं तद्विनेन कल्पने इति। 36 प्र०। सेन०३ उल्ला० / येषां कटाह- निवृत्तिफलत्वात्। विकृतिप्रत्याख्यान भवति तेषां डोलियाख्यतैलतलित पक्वान्नाऽऽदिकं (15) यदुक्तम्-प्रत्याख्यानपरिणाममेव विधीयमानं श्रेयो भवतीति। तत्र कल्पते, न देति प्रश्ने, उत्तरम्-डोलियाख्यतैलविकृतिर्न भवति तत्र प्रतिविधीयते। तैलनिष्पन्न पक्वान्नाऽऽद्यपि विकृतिर्न भवतीति सेन। मनुष्यलोका बहिः | (16) अव्यक्त ज्ञानोऽपि सपापः / ते नाऽपि प्रत्याख्यातक्वचिद्रात्रिविरेव क्वचिद्दिवैव। तत्र कालप्रत्याख्यान, रात्रिभोजनप्रत्या- व्यम्। स्वपक्षसिद्धये दृष्टान्तदाष्टान्तिकौ; संज्ञिदृष्टान्ता Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खाण 120 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचक्खाण ऽसंज्ञिदृष्टान्तौ च। अप्रत्याख्यानिनः संसारमवगम्य संजातवैरा- क्खाणं, पंच महेव्वया मूलगुणपच्चक्खाणं / इह उत्तरगुणपञ्चक्खाणेग्यइचोदकःसूरि प्रतिपृच्छति। णाहिगारो। (17) जीवाः किंमूलगुणप्रत्याख्यानिनः ? इत्यादि। इमा अभिक्खाऽऽसेवा(१८) मूलगुणप्रत्याख्यानादिमवामल्पत्वादि / सकि भंजणम्मि लहुओ, मासो वितियम्मि सो गुरु होति। (16) जीवाः प्रत्याख्यानिनोऽप्रत्याख्यानिनो वा / सुत्तणिवातो ततिए, चरमं पुण पावती दसहिं / / 12 / / (20) प्रत्याख्यानं पर्वदि कथनीयम्। सगिति एक्करिंस भजमाणस्स मासलहुं, एत्थ सुत्तणिवातो. चउत्थवारे (21) प्रत्याख्यानविधिः। चउगुरुं, पंचमवारे घट्ठवारे सत्तमवारे छेओ, अट्ठमवारे मूलं, नवमे अणवट्ठ (22) प्रत्याख्यानफलम् / दसमवारे चरिम, पारंचीत्यर्थः / आणाइया य दोसा। (23) प्रत्याख्याता। इमेय(२४) प्रकीर्णकवार्ता / अप्पचओ अवण्णो, एसगदोसो य अदढओ धम्मो। पच्चक्खाणकिरिया स्त्री० (प्रत्याख्यानक्रिया) क्रियाभेदे, (प्रत्या माया य मुसावाओ, होति पइण्णापलोए य / / 13 / / ख्याननिक्षेपः ‘पचक्खाण' शब्देऽनुपदमेव गतः) जहा एस नमोक्काराइ भंजइ तहा मूलगुणपञ्चक्खाणं पिभंजइ, एवं मूलगुणेसु य पगयं, पच्चक्खाणे इहं अधीगारो ! अगीयगिहत्थाण य अप्पचयं जाणइ। वर्णयते येन स वर्णः, तत्प्रतिपक्षः होजहु तप्पच्चइया, अप्पचक्खाणकिरियाओ।। श्रवर्णः / सो अप्पणो साहूणं च, पच्चक्खाणभंगेण सगेण मूलगुणे विभाइ, मूलगुणाः प्राणातिपातविरमणास्तेषु, प्रकृतमधिकारः, प्राणातिपाता पचक्खाणधम्मे समणधम्मे वा अदढतं कयं भवइ, अन्नं पइन्नं पडिवाइ ऽऽदेः प्रत्याख्यानं कर्त्तव्यमिति यावत् / इह प्रत्याख्यानक्रियाऽध्य अन्नं वा करेइ त्ति माया, अन्नं भासइ अन्नं करेइ ति मुसावाओ। एतै दोणि यनेनार्थाधिकारः, यदि मूलगुणप्रत्याख्यानं न क्रियते तत्रोपायं दर्शयितु जुगलओ लभंति / पोरिसिमाइए पइन्नापयलोवो कओ भवइ, एर माहप्रत्याख्यानाभावेऽनियतत्वाद्यत्किञ्चनकारितया तत्प्रत्ययिका संजमविराहणा, पञ्चक्खाणं भुंजइ ति देवया पदुवा खित्ताइ करेज। तन्निमित्ताभावादुत्पद्यतेऽप्रत्याख्यानक्रिया सावधानुष्ठानक्रिया कारणे पुण अपुन्ने वि काले भुंजर। वितियपदमणप्पज्झे, मुंजे अविकोविते च अप्पज्झे। तत्प्रत्ययिकश्च कर्मबन्धस्तन्निमित्तश्च संसार इत्यतः प्रत्याख्यानक्रिया कंतारोऽमगिलाणे, गुरु णिओगा य जाणे वि॥१४|| मुमुक्षुणा विधयति / सूत्र० 2 श्रु० 4 अ०। द्वितीये श्रुतस्कन्धे सूत्रकृत खमणेण खामियं वा, णिव्वीयति दुव्वलं वि नाऊणं / श्वतुर्थेऽध्ययने, आच० 4 अ०॥ उस्सूरे वा सेहो, दुक्खमवाई व वितरंति // 15|| पच्चक्खाणज्झयण न० (प्रत्याख्यानाध्ययन) प्रत्याख्यानप्रतिपादके अणप्पज्झे सेहो वा अजाणतो भुंजइ नत्थि दोसो / कंतारे तिआवश्यक श्रुतस्कन्धस्य षष्ठेऽध्ययने, आव० 5 अ01 आ०चू०। अद्घाणपडिवन्नस्स पच्चक्खाए पच्छा भत्तं पडुप्पत्तं, दूर चगंतव्वा अंतरेरा पच्चक्खाणपोसहोववास पुं० (प्रत्याख्यानपोषधोपवास) पौरुष्यादि भत्तसंभवो नत्थि, एवं भुजतो सुद्धो। ओमे वि कल्लं न भविस्सइ कि विषयप्रत्याख्यानपर्वदिनोपवासयोः, भ०७ श०६ उम साहारणट्टा भुंजइ। गिलाणो वि विगइमाइपचक्खायं विजुवएसा भुंजइ' पच्चक्खाणप्पवाय न० (प्रत्याख्यानप्रवाद) प्रत्याख्यानं सप्रभेद यद्वदति अग्गियगवार्हि वा राओ भुंजइ / आयरिओवएसेण वा तुरियं कर्हि दि तत्प्रत्याख्यानप्रवादम्। नवमे पूर्वे , 'पञ्चक्खाणपुव्वस्स णं वीसं वत्थू / गंतव्वं, तत्थ पोरिसिमाइ अपुण्णे भोत्तुं गच्छइ।खमओ वा मासाइखवणे पण्णत्ता।'' पदपरिमाणं चास्य एकाकोटिरशीतिश्च पदसहस्राणि / नं०। कते अईव किलंतो अपुण्णे चेव भुंजाविजइ। दुव्वलसरीरस्सव आचा०। स०। विगइपचक्खाणे विगई विजइ। उस्सूरे सेहो दुक्खं गमिस्सइ ति कमर पच्चक्खाणभंग पु० (प्रत्याख्यानभङ्ग) प्रत्याख्यानं गृहीत्वा प्रत्याख्यात नमोक्कारे चेव वितरति, खीराइया वा विणासि दव्वं चिरकालमट्ठार्हि असुर प्रतिसेवनातो भञ्जने, निचू०। पोरिसिमाइपचक्खाणे णमोकारो चेवं वितरंति। नि०चू०१२ उ०। प्रातः जे भिक्खू अभिक्खणं अमिक्खणं पञ्चक्खाणं, भंजइ भजंतं प्रतिक्रमणे तपसः कायोत्सर्गमध्ये उपवसाद्यमुकं तपः करिष्ये, ईदृष्ट वा साइजइ॥३॥ विचिन्त्य कायोत्सर्ग पारयति, पश्चात्कस्यचिदाग्रहाचिन्तितादन्यं तमः अभिक्खणं नाम पुणो पुणो, नमुक्काराइपञ्चक्खाणं भजंतस्स चउलहूं, करोति, तस्य प्रत्याख्यानभङ्गो लगति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रत्यआणादिया य दोसा। ख्यानभङ्गो लगतीति। 56 प्र० / सेन०२ उल्ला०। इमो सुत्तफासो पचक्खाणविहिण्णु त्रि० (प्रत्याख्यानविधिज्ञ) प्रत्याख्यानविष्टिपचक्खाणं भिक्खू, अभिक्खणाऽऽउट्टियाय जो भुंजे। वेत्तरि, आव० 6 अ०। उत्तरगुणणिप्फण्णं, सो पावति आणमादीणि ||11|| पच्चक्खाणापचक्खाणि पुं० (प्रत्याख्यानाप्रत्यारुपानिनो देशविरत आउद्रियां नाम आभोगो, जानान इत्यर्थः / नमोक्काराई उत्तरगुणपच- / ६श०४ उ०। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचक्खाणावरण 121 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चभिराणा पचक्खाणावरण पुं०(प्रत्याख्यानावरण) आडो मर्यादेषदर्थत्वाद् / पचक्खायपावग त्रि० (प्रत्याख्यातपापक) प्रत्याख्यातं निराकृतं पापक आसर्वविरतिप्रत्याख्यानमर्यादया। अथवा- ईषत्सावधयोगानुमतिमात्र सावधानुष्ठान येनासौ प्रत्याख्यातपापकः / सूत्र० 1 श्रु० अ० / विरतिरुपं प्रत्याख्यानमावृएवन्तीति प्रत्याख्याना वरणा इति व्युत्पत्तेः। पापकर्मप्रत्याख्यातवति, औ० / विशे०! "सर्वसावद्यविरतिः, प्रत्याख्यानमिहोच्यते। तदावरणसंज्ञात- पचक्खाविंतअ त्रि० (प्रत्याख्यापयितृ) प्रत्याख्यापयतीति प्रत्याख्यातृतीयेषु निवेशिता / / 1 / / " इत्युक्तस्वरुपेषु क्रोधाऽऽदिकषायेषु, कर्म० पयिता। प्रत्याख्यानकारयितरि, आव०६ अ०। कर्म०। दर्श०। विशे०। पञ्चक्खि(ण) त्रि० (प्रत्यक्षिन्) प्रत्यक्षज्ञानिनि आगमव्यव-हारिणि, व्य० पञ्चक्खाणावरणणामधिज त्रि० (प्रत्याख्यानावरणनामधेय) १उ०। प्रत्याख्यानं सर्वविरतिलक्षणं, तस्यावऽऽरणा एतदेव नामधेय येषां ते | पचक्खीभूय अव्य० (प्रत्यक्षीभूय) साक्षाज्ज्ञानविषयतां प्राप्येत्यर्थे , प्रत्याख्यानाऽऽवरणनामधेयाः / प्रत्याख्यानावरणशब्दाभिधेयेषु, विशे० / आ०म०१ अ०२ खण्ड। पचक्खाणि (ण) त्रि० (प्रत्याख्यानिन्) सर्वविरते, भ०६ श० 4 उ०। पचक्खेय त्रि० (प्रत्याख्येय) प्रत्याख्यानविषये वस्तुनि, आव०६ अ०। एचक्खाणी स्त्री० (प्रत्याख्यानी) याचमानस्य प्रतिषेधवचने, ध०३ पञ्चग्ग त्रि० (प्रत्यग्र) नवीने, “पञ्चग्गं अहिणवं च सज्जुक्छ।' पाइ० ना० अधिकायाचमानस्यादित्सा मेऽतो मा याचस्वेत्यादि प्रत्याख्यानरुपायां 162 गाथा। भाषायाम्, भ० 10 श०३ उ०। संथा० / पञ्चच्छिम त्रि० (पाश्चात्य) पश्चिमभागवर्तिनि, भ०१६ 20 ३उ०॥ पञ्चक्खाभास पुं० (प्रत्यक्षाभास) प्रत्यक्षस्य स्वरुपाभासे, रत्ना०। पच्चच्छिमा स्त्री० (पश्चिमा) दिग्भेदे, स्था० 10 ठा०॥ सांव्यत्रहारिकप्रत्यक्षाभासं तावदाहुः पचच्छिमुत्तरा स्त्री० (पश्चिमोत्तरा) दिग्भेदे, स्था० 10 ठा०। सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमिव यदाभासते तत्तदाभासम्॥२७।। पचड धा० (क्षर) संचलने, "क्षरः खिर-झर-पज्झर-पच्चड." सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमिन्द्रियानिन्द्रियनिबन्धनतया द्विप्रकारं प्रागुप- 18 / 4 / 173 / / इत्यादिना क्षरधातोः पचडाऽऽदेशः / "पचडइ।" वर्णितस्वरुपम् / / 27 // क्षरति / प्रा०४ पाद। उदाहरन्ति पचड धा० (गम) "गमेः अई-अइच्छाणुवजावजसोक्कुसायथाऽम्बुधरेषु गन्धर्वनगरज्ञानं, दुःखे सुखज्ञानं च // 28 // क्कुसपचड." / / 8 / 4 / 162 / / इत्यादिना गमधातोः पच्चड्डाऽऽदेशः।'' अत्राऽऽद्यं निदर्शनमिन्द्रियनिबन्धनाभासस्य, द्वितीयं पुनरनिन्द्रिय- पच्चडुइ / गच्छति। प्रा० 4 पाद। निबन्धनाभासस्य / अवग्रहाभासाऽऽदयस्तु तभेदाः स्वयमेव | पचड्डिया-स्त्री० (प्रत्यड्डिका) मल्लानां करणविशेषे, विशे०। आ०म०। पार्विज्ञयाः // 28 // पचणुभवमाण त्रि०(प्रत्यनुभवत्) प्रत्येक वेदयमाने, जी०३ प्रति०१ पारमार्थिकप्रत्यक्षाभासं प्रादुष्कुर्वन्ति अधि०२ उ०। रा०। 'पचणुभवमाणे विहरइ।" विपा०१ श्रु०१०। पारमार्थिकप्रत्यक्षमिव यदाभासते तत्तदाभासम्॥२६॥ स्था०। (इष्टानिष्टाऽऽदिषु दण्डकः 'वीईवयण' शब्दे वक्ष्यते) पारमार्थिकप्रत्यक्ष विकलसकलस्वरुपतया द्विभेदं प्रागुक्तम्।२६। पञ्चत्थि(ण) त्रि० (प्रत्यर्थिन) अर्थिनः प्रतिकूले, यः परस्य गृहीत्वा न उदाहरन्ति किमपि प्रयच्छति। व्य०१ उ०। पाइ० ना०। यथा शिवाख्यस्य राजर्षेरसंख्यातद्वीपसमुद्रेषु सप्तद्वीप | पचत्थिय पुं० (प्रत्यर्थिक) प्रत्यनीके प्रतिवाधाऽऽदौ, व्य०१३०नि०चू०। समुद्रज्ञानम् // 30 // पञ्चत्थुय न० (प्रत्यवस्तृत) आच्छादिते, जी० 3 प्रति० 4 अधिo शिवाऽऽख्यो राजर्षिः स्वसमयप्रसिद्धः, तस्य किल विभङ्गा परपर्याय- पुनःपुनराच्छादिते, ज्ञा०१ श्रु०८० अ०। मध्याभास तादृशं वेदनमाविर्वभूवेत्याहुः सैद्धान्तिकाः / मनःपर्याय पच्चप्पण न० (प्रत्यर्पण) निवेदने, विशे०। आचा० / कवलज्ञानयोस्तु विपर्ययः कदाचिन्न संभवति, एकस्य संयमविशुद्धिपादु- पञ्चप्पिणमाण त्रि० (प्रत्यर्पयत्) आदिष्टकार्यसंपादनेन निवेदने, स्था० भूतत्वात, अन्यस्य समस्ताऽऽवरणक्षयसमुत्थत्वात् / ततश्च नात्र 5 ठा०२ उ०। रा० / भ० / आचा० / तदाभासचिन्ताऽवकाशः / / 30 / / रत्ना०६ परि०।। पचन्भास पुं० (प्रत्याभ्यास) प्रत्युच्चारणे निगमने, विशे०। पचक्खाय वि० (प्रत्यारघ्यात) निराकृते, सूत्र० 1 श्रु० 8 अ० / पञ्चभिण्णा स्त्री० (प्रत्यभिज्ञा) स एवायमित्याकारे ज्ञाने, विशे०। सर्वविरतप्रतिपत्तितः प्रतिषधिते, औ०। नियमिते, सूत्र०२ श्रु० 4 अ०। प्रत्यभिज्ञाप्रामाल्यम्* प्रत्याख्यातृ त्रि० प्रत्याख्यातरि, “पचक्खाएण कया पचक्खावित्तए।'' यद्यपिआव०६अ। "प्रत्यक्षाऽऽदेरनुत्पत्तिः, प्रमाणाभाव उच्यते। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चभिण्णा 122 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचभिण्णाभास साऽऽत्मनोऽपरिणामो वा, विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि / / 1 / / " वस्त्वन्यत् प्रमेयमित्यपूर्वप्रमेयसद्भावः / तदुक्तम्सेति प्रत्यक्षाऽऽद्यनुत्पत्तिः, आत्मनो घटाऽऽदिग्राहकतया परिणामा- 'गृहीतमपि गोत्वाऽऽदि, स्मृतिस्पृष्ट च यद्यपि। भावः प्रसज्य पक्षे, पर्युदासपक्षे पुनरन्यस्मिन्धटविविक्तताऽऽख्ये तथापि व्यतिरेकेण, पूर्वबाधात्प्रतीयते / / 1 / / वस्तुन्यभावे घटोनास्तीति विज्ञानम्, इत्यभाव प्रमाणमभिधीयते। तदपि देशकालाऽऽदिभेदेन, तन्नास्त्यवसरो मितेः / यथासंभवं प्रत्यक्षाऽऽद्यन्तर्गतमेव / तथाहि- "गृहीत्वा वस्तुसगावं, यः पूर्वमवगतो नाशः, स च नाम प्रतीयते।।२।। स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् / मानसं नास्तिताज्ञानं, जायतेऽज्ञानपेक्षया इदानीन्तनमस्तित्वं, न हि पूर्वधियाऽऽगतम्॥" इति। // 1 // " इतीयमभावजप्रमाणजनिका सामग्री / तत्र च भूतलाऽऽदिकं नन्वेवं भिन्ना भिन्नवस्तुविषयो निबन्धनप्रत्ययः प्राप्तः, इष्यत एव चैतत् / वस्तु प्रत्यक्षेण घटाऽऽदिभिः प्रतियोगिभिः संसृष्टम्, असंसृष्ट वा गृह्योत ? यतो न भिन्नत्वेन प्रत्यभिज्ञानमभिन्नत्वेऽपि न प्रमेयभेदः। प्रत्यभिनाद्यः पक्षः-प्रतियोगिसंसृष्टस्य भूतलाऽऽदिवस्तुनः प्रत्यक्षेण ग्रहणे तत्र ज्ञाव्यपदेशोऽप्यस्य भेदाऽऽलम्बनत्वमेव द्योतयति, यतो नैककालैकप्रति-योग्यभावग्राहकत्वेनाभावप्रमाणस्य प्रवृत्तिविरोधात् ।प्रवृत्तौ वा न प्रमेयगोचराणां भिन्नप्रभातृ संबन्धिज्ञानानां प्रत्यभिज्ञेति व्यपदेशो, नापि प्रामाएयं, प्रतियोगिनः सत्त्वेऽपितत्प्रवृत्तेः। द्वितीयपक्षे तु-अभावप्रमाण- सर्वथा भिन्नेषु घटपटाऽऽदिषु न च कालस्यातीन्द्रियत्वादिन्नकालैकवैयर्थ्य, प्रत्यक्षेणैव प्रतियोगिनां कुम्भाऽऽदीनामभावप्रति पत्तेः / अथ न प्रमेयप्रत्यभिज्ञानेन प्रमेयाऽतिरेक इति वक्तव्यम्। यतो यद्यपि न कश्चित्तव संसृष्ट नाप्यसंसृष्ट प्रतियोगिभिर्भूतलाऽऽदिवस्तु प्रत्यक्षेण गृह्यते, वस्तु- प्रभेयातिरेकः, तथाऽपिघटाऽऽदयः कदाचिदुपलक्षिताऽऽकारा अन्यदामात्रस्य तेन ग्रहणाभ्युपगमादिति चेत्। तदपि दुष्टम्, संसृष्टत्वासंसृष्टत्वयोः ऽनुपलक्षमाणाः सदसत्तया संदेहविषयतामापद्यन्ते, तत्स्वभावावधिका परस्परपरिहारस्थितिरुपत्वेनैकनिषेधेऽपरविधानस्य परिहर्तुमशक्य- च प्रत्यभिज्ञा तेषां संदेहविषयतामपाकुवांणा प्रमाणतामश्नुते, यतो न त्वात, इति सदसद्रूपवस्तुग्रहणप्रवणेन प्रत्यक्षेणैवायं वेद्यते। कचित्तुतदघट विषयातिरेक एव प्रामाएयनिबन्धनं प्रत्ययानां, किंतु संदेहापाकरणमपि भूतलमिति स्मरणेन, तदेवेदमघट भूतलमिति प्रत्यभिज्ञानेन 'योऽग्नि- संदिग्धस्य। यदा त्वविरतोपलब्धिसन्तानः पुनः पुनरनेन संदेहसङ्गाः मान्न भवति, नाऽसौ धूमवान्" इति तर्कण,"नात्र धूमोऽनग्नेः' इत्यनु- प्रत्यभिज्ञायन्ते भावास्तदा संदेहविच्छेदाधिकफलाभावान्मा भूत्प्रत्यमानेन, गृहे गगौ नास्तीत्यागमेनाभावस्य प्रतीतेः क्वाऽभावः प्रमाण भिज्ञाप्रमाणम्।नचसविकल्पकमेवैकं प्रत्यभिज्ञाज्ञानम्। अविकल्पकप्रवर्तताम् ? / संभवोऽपि समुदायेन समुदायिनोऽवगम इत्येवंलक्षणः स्याप्येकत्वग्राहिणः प्रत्यभिज्ञा-ज्ञानस्य सद्भावात्। तथाहि-एकप्रमातृ"संभवति खायर्या द्रोणः इत्यादि नाऽनुमानात्पृथकातयाहि-खारी संबन्धिप्रथमप्रत्ययाभिन्नपयाऽऽकारातुभवतोऽनुद्यद्रूपार्यग्राह्यविकल्पक द्रोणवती, खारीत्वात्, पूर्वोपलब्धखारीवत्। ? ऐतिह्य त्वनिर्दिष्टप्रवक्तृ- ज्ञानमनुभूयत एव एकत्वग्राहि च ज्ञान प्रत्यभिज्ञाज्ञानमुच्यत इति प्रवादपारम्पर्यमितीहोचुदृद्धाः। यथा- "इह वटेयक्षः प्रतिवसति" इति / क्षणिकाऽभिव्यक्तिष्वपि शब्दमावास्वालोचनाप्रत्ययावगतमेव स्थैर्थं, स तदयमाणम्, अनिर्दिष्टप्रवक्तृकत्वेन सांशयिकत्वात्, आप्तयवक्तृक- एवायमित्यनन्तरमनुसंधानं विकल्पोत्पत्तिदर्शनात्। तथाहि-अर्थसंसल्पनिश्चये त्वागम इति। यदपि प्रातिममज्ञलिङ्गशब्दव्यापारानपेक्षमक- र्गानुसारिणोऽनुभवादुपजातान्नलिविकल्पात्तद्यापाराऽनुसारिणां यथा स्मादेव "अद्य में महीपतिप्रसादो भविता'' इत्याद्याकर स्पष्टतया वेदन- नीलानुभवव्यवस्था सौगतैरभ्युपगता तथा पूर्वदृष्टं पश्यामीत्युल्लेखवतोऽमुदयेन, तदप्यनिन्द्रियनिबन्धनतया मानसमिति प्रत्यक्षकुक्षिनिक्षिप्त- नुसन्धान विकल्पात्पूर्वदर्शनस्यानुद्यद्रूपशब्दाद्यवभासितः, तथाऽवध्यमेव। यत्पुनः प्रियाप्रियप्राप्तिप्रभृतिफलेन सार्धं गृहीतान्यथाऽनुपपत्ति- धिगतिरुपत्वं किमितिन व्यवस्था प्यते, पूर्वदृष्टमेव पश्यामीत्युल्लेखवानुकान्मनःप्रसादो द्वेगाऽऽदेर्लिङ्गादुदेति, तत्यिपीलिकापटलोत्सर्पणोत्थ- पजायमानोऽप्यनुसंधानप्रत्ययो न प्रत्यभिज्ञाऽध्यक्षतामनुभवति / ज्ञानवदस्पष्टमनुमानमेव / इति न प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणद्वविध्यातिक्रमः | सम्म०१ काण्ड। शकेणापि कर्तुं शक्यः / / 1 // रत्ना०२ परि०। तत्र प्रत्यभिज्ञाप्रामाए- पञ्चभिण्णाभास पुं० (प्रत्यभिज्ञाऽऽभास) अयथार्थप्रत्यभिज्ञाने, रत्ना०। यखण्डनम्-न च प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणम्। 'तत्र पूर्वार्थविज्ञान, निश्चित प्रत्यभिज्ञाऽऽभासं प्ररूपयन्तिवाधवर्जितम् / अदुष्टकारणाऽऽरब्धं, प्रमाण लोकसम्मनम् // 1 // " इति तुल्ये पदार्थ स एवायमिति, एकस्मिश्च तेन तुल्य इत्याप्रमाणलक्षणयोगात् / प्रत्यक्षं च प्रत्यभिक्षाऽऽत्मेन्द्रियार्थसंबन्धानु- दिज्ञानं प्रत्यभिज्ञानाऽऽभासम्॥३३|| विधानतस्तदन्यप्रत्यक्षवत्सि-द्व-नच समृतिपूर्वकत्वात्स एवायमित्यनु- प्रत्यभिज्ञानं हि तिर्यगूर्द्धतासामान्याऽऽदिगोचरमुपवर्णितं तत्र सन्धानाऽज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वमयुक्तमिति वाच्यम्। सत्संप्रयोगजनकत्वन तिर्यक्सामान्याऽऽलिङ्गिते भावे स एवायमिति ऊर्खतासामान्यस्वभाव स्मरणपश्चाभाविनोऽऽप्यज्ञप्रत्ययस्य लोके प्रत्यक्षत्वेन प्रसिद्ध- चैकस्मिन् द्रव्ये तेन तुल्य इति ज्ञानम, आदिशब्दादेवंजातीयकमन्यदपि त्वात् / उक्तं च- "न हि स्मरणतो यत्प्राक्तं प्रत्यक्षमितीदृशम्। ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानाऽऽभासमिति // 33 // वचनं राजकीयं वा, लौकिकं नापि विद्यते / / 1 / / उदाहरन्तिन चापि स्मरणात्पश्चा-दिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनम्। यमलकजातवत् // 34|| वार्थते केनचिन्नापि, तत्तदानी प्रदुष्यति // 2 // यमकजातयोरेकस्याः स्त्रिया एकदिनोत्पन्नयोः पुत्रयोर्मध्यादेकत्र तेनेन्द्रियार्थसंबन्धा-त्पागूर्द्ध चापि यत् स्मृतेः। द्वितीयेन तुल्योऽयमिति जिज्ञासिते स एवायमिति, अपरत्र स एवार मिति विज्ञानं जायते सर्व, प्रत्यक्षमिति गम्यते॥३॥" वुभुत्सिते तेन तुल्योऽयमिति च ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाऽऽभासम्॥३४॥ इति। अनेकदेशकालावस्थासमन्वितं सामान्य, द्रव्याऽऽदिकं च / रत्ना०६ परि०। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमाण 123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चय पञ्चमाण त्रि० (पच्यमान) विपाकावस्था प्राप्ते, उत्त०३२ अ०। अत्याकुलीक्रियमाणे, उत्त०२३ अ०। "णिरए णेरइयाणं, अहो-णिसं पचमाणाण। सूत्र० 1 श्रु०५ अ०१ उ०। पञ्चय पु० (प्रत्यय) अवबोधे, स्था० 1 ठा०। विश्वासे, द्वा० 14 द्वा०। व्य० / प्रतीतो, अविसंवादिवचनत्वे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। सर्वातिशयनिधानमतीन्द्रियार्थी पदर्शनाव्यभिचारि चेदं जिनप्रवचनमित्येवंरुपायां प्रतिपत्तो, स०६० अङ्ग / प्रत्यभिज्ञानाऽऽदौ, विशे०। प्रत्यापयतीति प्रत्ययः / अन्तर्भूतएयर्थादचप्रत्ययः। आ०म०१अ०१खएड। विशे०। प्रतीयोऽनेनार्थ इति प्रत्ययः / ज्ञानकारणे, उत्त०१ अ० अने०। प्रव०। अथ प्रत्ययद्वारमाहपचयनिक्खेवो खलु, दव्यम्मी तत्तमाऽऽसगाईओ। भावम्मि ओहिमाई, तिविहोपगयं तु भावेणं / / 2131|| केवलनाणि त्ति अहं, अरिहा सामाइयं परिकहेइ। तेसि पि पचओ खलु, सव्वएणू तो निसामिति 2132 / / प्रत्याययतीति प्रत्ययः, प्रत्ययनं वा प्रत्ययः, तन्निक्षेपस्तन्न्यासः, खलुशब्दस्यापिशब्दार्थत्वात्सोऽपि तन्निक्षेपः कारणनिक्षेपवभागस्थाफ्नाऽऽदिभेदाचतुर्विधः। तत्र नामस्थापने प्रतीतेद्रव्ये द्रव्यविषय : प्रत्ययो ज्ञशरीरराव्यशरीररुपः सुगमः। तद्यतिरिक्तस्तुतप्तमाषकाऽऽदिः, आदिशब्देन घटतन्दुलचर्वणाऽऽदिद्र व्यपरिग्रहः। द्रव्यं च तत्प्रत्याय्य पतीतिहेतुल्वात्प्रत्ययश्च द्रव्यप्रत्ययस्तंप्तमाषकाऽऽदिरेव, तज्जो वा प्रत्याप्यपुरुषगतप्रत्ययः। (भावम्मि त्ति) भावे भावप्रत्यये विचार्येऽवध्यादिस्त्रिविध भावप्रत्ययः। अवधिमनः पर्यायकेवलज्ञानत्रयलक्षणो बाह्यलिड्रानपेक्ष एव प्रत्याययति, अतस्तात्त्विकप्रत्ययत्वाद्भावप्रत्ययस्त्रिविध इत्यर्थः। मतिश्रुते तु बाह्यलिङ्ग करणमपेक्ष्य प्रत्याययतः,न साक्षाद् . अतः किलात्र न विवक्षिते। प्रकृतं प्रस्तुतोपयोगस्तु सामायिकमङ्गीकृत्य भावेन भावप्रत्यये नेति / / / 2131 / / अत एव केवलज्ञान्यहमिति स्वकीयादेव के वललक्षणाद्भावप्रत्यथादर्हन् साक्षादेव सामायिकामुपलभ्य सामायिक परिकथयति, तेषामपि श्रोतृणांगणधराऽऽदीना हृद्गताशेषसंशयपरिच्छित्त्या सर्वज्ञ इति प्रत्ययो बोधनिश्चयो भवति। ततो यस्मात्सर्वज्ञप्रत्ययात्ते निशमयन्ति श्रृण्वन्ति सामायिकम्, अत एव यत्कश्चिदुच्यते - "सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्तत्कालेऽपिवुभुत्सुभिः / तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम्?।।१।।'' इत्यादि / तद् व्युदातगवति। अन्यथा चतुर्वेदोऽयमित्यादिलोकव्यवहारानुपपत्तेः। इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः // 2132 // अथ भाष्यम्दव्वस्स दव्वओवा,दव्वेण व दव्वपच्चओ नेओ। तस्विरीओ भावे, सो विहु नाणाइओ तिविहो।२१३३१ प्रत्यप्प पुरुषलक्षणस्य प्रत्ययः, प्रतीतिर्द्रव्यप्रत्ययः, तथा द्रव्यात्तप्तमाषकाऽऽदः, द्रव्येण वा घटाऽऽदिना प्रत्ययोद्रव्यप्रत्ययो ज्ञेयः। वस्तु बाह्यद्रव्या बाह्यद्रव्येण वा न क्रियते, किंतु तद्विपरीतस्तन्निरपेक्ष एव साक्षादुपलम्भाद्भवति स भावरुपः प्रत्ययो भावप्रत्यया स चावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानभेदात्त्रिविध इति / अनेक च भावप्रत्येनेहाधिकारः // 2133 // तथा चाऽऽहकेवलनाणित्तणओ, अप्प चिय पच्चओ जिणिंदस्स। तप्पच्चक्खत्तणओ, तत्तो च्चिय गोयमाईणं // 2134|| जिनेन्द्ररय तीर्थंकरस्य केवलज्ञानित्वात्सामायिकार्थ साक्षादुपलभ्य कथयत आत्मैव प्रत्ययो नान्यः, केवलज्ञानाऽऽत्मना भावप्रत्ययावष्टम्भेनैव तस्य सामायिकप्ररुपणादिति। गौतमाऽऽदीनामपि श्रोतृणांतत एव केवलज्ञानलक्षणाद्भावप्रत्ययात्सामायिकश्रवणमिति गम्यते। कुतः? इत्याह- तस्य केवलज्ञानिनः प्रत्यक्षत्वं तत्प्रत्यक्षत्वं, तस्मात्। इदमुक्तं भवति-सर्वसंशयपरिच्छेदाऽऽदिना कैवलज्ञान्यसौ, इत्यनुभवप्रत्यक्षद्वारेणैव गौतमादयोऽवगच्छन्त्येव, ततस्तेषामपि वस्तुनः केवलज्ञानलक्षणभावप्रत्ययादेव सामायिकश्रवणं प्रवर्त्तत इति॥२१३४।। आह-ननु कथमवध्यादिरेव त्रिविधो भावप्रत्ययः यावता मतिश्रुते अपि प्रत्यायनफलत्वा त्कथं न भावप्रत्ययः? इत्याहजेणाइंदियमिटुं, सामइयं तोऽवहाइविसयं तं। न तु मइसुयपचक्खं, जं ताइँ परोक्खविसयाइं / / 2135|| येन यस्मात्कारणाजीवपर्यायत्वात् जीवस्य चाऽमूर्त्तत्वादतीन्द्रियमिन्द्रियविषयो न भवति सामायिकम्, इतीष्ट तत्त्व वेदिनां, तस्मादवध्यादिज्ञानानामेव तद्विषयः। मतिश्रुतप्रत्यक्षं तु तन्न भवति, यद्यस्मात्ते मतिश्रुते परोक्षार्थविषये, इन्द्रियद्वारेणै-वोत्पत्तेरिति॥२१३५।। अत्र प्रेरकः प्राऽऽहजुत्तमिह केवलं चे-व पचओ नोहि-माणसं नाणं / पोग्गलमेत्तविसयओ, सामइयरुवया जं च॥२१३६।। ननु यद्येवं, तर्हि जीवपर्यायत्वादमूर्तत्वेन सामायिक केवलज्ञानस्यैवविषयः, अतस्तदेवैकं भावप्रत्ययो युक्तं, न त्ववधिमनःपर्यायज्ञाने, तयोः पुद्गलमात्रविषयत्वात्,रुपिद्रव्यविषयत्वादित्यर्थः / सामायिकमपि पौद्गलिक भविष्यति, न, इत्याह-यद्यस्माचारुपताऽमूर्तता सामायिकस्य, जीवपर्यायत्वादित्युक्तमेवेति // 2136 / / सूरिराहजंलेसापरिणामो, पायं सामाइयं भवत्थस्स। तप्पचक्खत्तणओ, तेसिं तो तं पि पचक्खं // 2137 / / यद्यस्माद्भवस्थस्य जन्तोः संबन्धि प्रायोद्रव्यलेश्याजनित एव परिणामोऽध्यवसायः सामायिकम् / सिद्धस्यालेश्यापरिणामोऽपि सम्यक्त्वसामायिकं भवति, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थं भवस्थग्रहणम् / भवस्थस्याप्ययोगिकेवलिनोऽलेश्यापरिणाम रुपे अपि सम्यक्त्वचारित्रसामायिक भवतः, ततस्तन्निरासार्थ प्रायोग्रहणं, यस्मात्प्रायो द्रव्यलेश्याजनित एव परिणामो भवस्थस्य सामायिकम् / (तो तं पि पचक्ख ति) तत्त्तदपि सामायिक प्रत्यक्षम्। केषाम् ? इत्याह-(तेसिं ति) तेषामवधिमनः-पर्यायज्ञानिनाम्। कुतः? इत्याह-(तप्पचक्खत्तणउ त्ति) तासां द्रव्यलेश्यानां प्रत्यक्षत्वं तत्प्रत्यक्षत्वं, तस्मात्तत्प्रत्यक्षत्वात् / इदमुक्तं भवति-अवधिमनः पर्यायज्ञानिनोऽपि सामायिकपरिणामजनकानि लेश्याद्रव्याणि साक्षात्पश्यन्ति, ततस्तद्द्वारेण तजनितप रिणामरुपं सामायिकमपि तेषां प्रत्यक्षमुच्यते / मतिश्रुते तु Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचय 124 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचय साक्षान्न किञ्चित्पश्यत इत्येतावता भेदनं तयोर्भावप्रत्ययत्वे नोक्तमिति ||2137 // एवमप्यन्यदनिष्टभुत्पादयन्नाह परःओहाइपच्चयं चिय, जइ तं न सुयं पि पचओ पत्तो। पच्चक्खनाणिवज-स्म तेण वयणं न सद्धेयं / / 2138|| ननु यद्युक्तन्यायेनावध्यादिज्ञानत्रयप्रत्ययमेव सामायिकं, ततः श्रुतज्ञानमपि हन्त! न प्रत्ययः प्राप्तः / मा प्रापत्, किं नः सूयते ?, इति चेत्। उच्यते-तेन ततः प्रत्यक्षमवधिमनः पर्ययकेवलरुपं ज्ञानं येषां ते प्रत्यक्षज्ञानिनः, तद्बर्जस्य तान्बजयित्वा, अन्यस्य कस्यापि वचन न श्रद्धेयं प्राप्नोति; न चैतदस्ति, चतुर्दशपूर्वधराऽऽदिवचनस्य प्रमाणत्वेनोक्तत्वादिति // 2138|| अत्रोत्तरमाहसुयमिह सामइयं चिय, पच्चइयं जं तओ य तव्वयणं / पच्चक्खनाणिणो चिय, पच्चायणमेत्तवावारं / 2136 / ननु श्रुतं श्रुतज्ञानं यत्त्वया गणधराऽऽदिसंबद्धं प्रत्ययत्वेन गीयते, तदिह श्रुतसामायिकमेव, सामायिकहेतुत्वात् न पुनरन्यत्किचित्। तच प्रत्ययिक प्रतीयतेऽर्थो यस्मादसौ प्रत्ययोऽवध्यादिज्ञानत्रयलक्षणः, स प्रत्यायकत्वेन यस्यास्तीति तत्प्रत्ययिक, सर्वाभिलाप्यार्थगोचर सर्वद्रव्यसर्वपर्यायविषयं श्रुतज्ञानमित्यादिरुपेण केवलाऽऽदिज्ञानत्रयप्रत्याय्यं, न तु केवलाऽऽदिज्ञानत्रयवत्स्वयमेव तत्प्रत्यय इत्यर्थः, ततः कथमत्र भावप्रत्ययत्वेन तदधिक्रियते?। अथ वचनरुपं द्रव्यश्रुतं त्वया प्रत्ययोऽभिधीयते। तदप्ययुक्तम्। कुतः?, इत्याह-(जंतओय तव्वयणं इत्यादि) यतश्च तस्य प्रत्यक्षज्ञानिनो व्याख्याविधिप्रवृत्तस्य वचनं तद्वचनम्। कथंभूतम्? इत्याह-प्रत्यक्षज्ञान एवं प्रत्यायनमात्रमेव परावबोधनमातमेव व्यापारो यस्य तत्प्रत्यायनमात्रव्यापारम् / अतः केवलिप्रयुक्तवेन श्रद्धीयमानत्वात्तदपि प्रत्ययः, न तु केवलाऽऽदिवस्वयमेवेति / / 2136 / / यद्येवं तर्हि किमिह स्थितम्?- किं श्रुतं सर्वथैव प्रत्ययत्वेन नेहाधिकर्त्तव्यम् ? इत्याह ओहाइपचओ त्तिय, भणिए तोतिं पिपच्चओऽभिहियं / ओहाइतिगं च कह, तदभावे पचओ होजा? ||2140 / / ततस्तदपि श्रुतं प्रत्ययोऽभिहितं प्रत्ययत्वेनावाधिकृतं भवति / किं साक्षाद्? नैवं, सामर्थ्यात्। कथम्? इत्याशङ्वयाह-अवध्यादिरित्रविधोऽत्र प्रत्ययोऽधिक्रियते इति भणितेऽर्थापत्तेः श्रुतमपि प्रत्ययो गम्यते, किं पुनस्तदन्तरेण नोपपद्यते ? / इत्याह-अन्यथा तदभावे श्रुताभावे अवध्यादिज्ञानत्रयमपि कथं प्रत्ययो भवेत्। इदमुक्तं भवति-अवध्यादित्रयं प्रत्यय इति द्रव्यश्रुतैनैव परस्य प्रत्याय्यते, तदभावे त्ववध्यादीनि मूकत्वादात्मनः प्रत्ययत्वं परस्य प्रतिपादयितुं न शक्नुयुः, न चाप्रतिपादित तत् प्रत्ययत्वं सिद्धयेत्, द्रव्यश्रुतमपि चोपचारात् श्रुतज्ञानेऽन्तर्मवति। अतोऽवध्यादिप्रत्ययत्वसाधकत्वात् श्रुतस्यापीह प्रत्ययत्वमवगन्तव्यम्। उक्तं च- "सुयनाणे उ निउत्तं, केवले तयणंतरं। अप्पणो य परेसिंच, जम्हा तं परिभावगं 191" इति। तदेवमवध्यादयस्त्रयः प्रत्ययाः साक्षादुक्ताः, श्रुतप्रत्ययस्तु सामर्थ्यादमिहितः।।२१४०।। अथवाऽन्यथा त्रयः प्रत्यया भवन्तीत्याहआया गुरवो सत्थं , ति पचयावाऽऽदिमो चिय जिणस्स। सप्पचक्खत्तणओ, सीसाण उ तिप्पयारो वि॥२१४१।। वा इत्यथवा, आत्मा, गुरवः, शास्त्रम्, इत्येवं त्रयः प्रत्ययः। तत्राऽऽदिम आद्य एवाऽऽत्मलक्षणः प्रत्ययो जिनस्य, केवैलित्वेन स्वप्रत्यक्षत्वाद् आत्मावष्टमभेनैव जिनः सामायिकं कथयतीत्यर्थः। शिष्याणां तु गणधरतच्छिष्यप्रशिष्याऽऽदीनाम, आत्मगुरुशास्त्रलक्षणस्त्रिप्रकारोऽपि प्रत्ययो विज्ञेय इति / / 2141 / / तत्र सर्वोऽपि प्रेक्षावान 'युक्तमिदम्' इत्यात्मना ज्ञात्वैव प्रायः सामायिकप्ररुपणश्रवणाऽऽदिकार्ये प्रवत्तंत इत्यात्मप्रत्ययत्वं शिष्येष्वप्यस्तीति पञ्चाद्वक्ष्यति, अतो यथा गुरुप्रत्ययस्तथा दिदर्शयिषुर्गणधरापेक्षतावदाहएस गुरु सव्वण्णू, पच्चक्खं सव्वसंसयच्छेया। भयरागदोसरहिओ, तलिंगाभावओ जंच // 2142 / / अणुवकयपराणुग्गह-परो पमाणं च जं तिहुयणस्स। सामाइयउवएसे, तम्हा सद्धेयवयणो त्ति॥२१४३।। गणधराणां तीर्थकरो गुरुः; ततस्तेतत्प्रत्ययत्वेन सामायिक शृएवन्ति - किं विचिन्त्य ते तस्य प्रत्ययत्वमुपकल्पयन्ति ? इत्याह-एषोऽस्माकं गुरुः सर्वज्ञः प्रत्यक्षमनुभवसिद्धः सर्वसंशयच्छेदाद् अपरं च भयरागद्वेषरहितोऽयं, शस्त्रपरिग्रहाङ्गनासन्निधानवदनकाष्एाऽऽदितल्लिङ्गाभावात्ततः सर्वज्ञत्वाभयरागाऽऽदिशेषरहितत्वाच नायमनृतं कदाचिदपि भाषते, अतः सामायिकोपदेशे श्रद्धेयक्चन इति संवन्धः / / 2142 / / तथा-अनुपकृत आत्मोपकारे निरपेक्ष एव परानुग्रहपरः, प्रमाण च सकलत्रिभुवनस्य यस्मात्, ततः सामायिकोपदेशे अस्माकं श्रद्धेयवचनः ! एवं जम्बूपभवाऽऽदीनामपि शिष्यप्रशिष्याणां निजनिजगुरुषु संभत्रद्गुणोद्भावनपूर्वक सामायिक श्रवण-प्रत्ययत्वं भावनीयम् / / 2143 / / शास्त्रस्य कथं ते प्रत्ययत्वमवगम्य प्रवर्तन्ते ? इत्याहसत्यं च सव्वसत्तो-वगारिपुव्वावराविरोहीद। सव्वगुणाऽऽदाणफलं, सव्वं सामाइयऽज्झयणं / / 2144 / / शास्त्रं चेदं सर्वसत्त्वोपकारि.तथा पूर्वापराविरोधि, सर्वगुणग्रहणफलंच सर्वमप्येतत्सामायिकाध्ययनम्, अतः प्रमाणमस्माकम्, इत्येवं शास्त्रम्य प्रत्ययत्वमवधार्यतच्छवणे प्रवर्तन्ते शिष्याः। आह-ननु श्रुतस्य शास्त्रस्य प्रथममव कथं सर्वसत्वोपकारकत्वाऽऽदीन गुणान् शिष्या जानन्ति / सर्व शास्त्रं ज्ञात्वा जानन्तीति चेत्। तदयुक्तम्. श्रुते शास्त्रे तत्प्रत्ययाध्यवसायरय निष्फलत्वात्, तमन्तरेणापि तच्छ्रवणस्य प्रवृत्तत्वात्। नैतदेयं, यतोवर्णिकामावहेतोः कियदपिशास्त्रं श्रुत्वा तद्गुणान्विन्दन्ति शिष्याः, ततः शेष श्रृणवन्ति, आदिवाक्याट् वा समुदायार्थ वा गुर्वादिभ्यः श्रुत्या अश्रुतेऽपि शास्त्रेतद्गुणान् ज्ञात्वा तच्छ्रवणे प्रवर्तन्तइत्यदोष इति॥२१४६।। अथ शिष्याणामात्मप्रत्ययत्वमाहबुज्झामो णं निजमिव, विण्णणं संसयादभावाओ / कम्मक्खओवसमओ,य होइसप्पचओ तेसिं॥२१४५।। बुद्ध्यामहे संविज्ञानरूपतया सामायिकाध्ययनमवगच्छामः। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचय 125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्चलिउ 'किमिवेत्याह निजमिव घटाऽऽदिज्ञानमित्येवभूतः स्वप्रत्यय आत्मप्रत्य- घटयति, या सिद्धिः, साऽवश्यं नियमेन, पतति निवर्ततेऽतोऽवश्यं यस्तेषां शिष्याणां भवति, कुतो हेतोः पुनरयं स्वप्रत्ययस्तेषां पातात्तच्छक्त्याऽपि पातशक्त्याऽपि, अनुविद्धा व्याप्ता / एवशब्दस्य भवतीत्याह-संशयाऽऽद्यभावात्संशयः तिपर्ययानव्यवसायाभावत्वेना- भिन्नक्रमत्वात्ततः पात एव, असौ सिद्धिः, संप्रत्यपातेऽपि परतस्तावत्पात स्याध्ययनस्य तेषां सिद्धत्वादित्यर्थः / कर्मक्षयो यस्माद्वा कुतश्चिदेवंभूतः एवेत्यपिशब्दार्थः / तत्त्वतः परमार्थतः, मतःसम्मतो विदुषाम् / यथा स्वप्रत्ययस्तेषां भवतीति त्रयोदशगाथार्थः / विशे०। आ०म०। कारणे, ह्यविद्यमानपु-त्रपौत्राऽऽदिसन्तानः पुमान् स्वकालेऽपतन्नपि पातशक्त्य२० / निमित्ते, स्था०२ ठा०१ उ०। विशे०। अनु०। हेतौ, स्था०२ ठा० नुवेधात्परमार्थतः पात एव, तथा प्रस्तुता यमनियमाऽऽदि-सिद्धिरप्य४७०i ज्ञा०। विशे० श्रातु० / प्रत्ययशब्दः कारणत्वे / यत उक्तम् नुबन्धविकला योजनीया पातत्वेनेति // 234|| "प्रत्ययः शपथज्ञानहेतुविश्वासनिश्चये।" न०। अर्थतद्विपर्ययमाहसम्यक्प्रत्ययवृत्तिश्चेत्यधिकृत्याऽऽह सिद्ध्यन्तराङ्गसंयोगात, साध्वी चैकान्तिकी भृशम्। तथाऽऽत्मगुरुलिङ्गानि, प्रत्ययस्त्रिविधो मतः। आत्माऽऽदिप्रत्ययोपेता, तदेषा नियमेन तु॥२३५।। सर्वत्र सदनुष्ठाने,योगमार्गे विशेषतः॥२३१।। सिद्भ्यन्तराङ्गसंयोगात् सिद्ध्यन्तराणां प्रस्तुतसिद्धेरन्यसिद्धितथेति वक्तव्यान्तरसमुच्चये, आत्मगुरुलिङ्गानि-आत्म च गु-रुश्व विशेषाणां यान्यगानि हेतवस्तेषां संयोगान्मीलनात् साध्वी सङ्गता पुनः / लिङ्गानि चंति समासः / प्रतीयते भाव्यार्थोऽस्मादिति प्रत्ययः, त्रिविध ऐकान्तिकी सिद्धिः पातविकला, भृशमत्यर्थ परम्परयाऽप्यसिद्धिरुपपरिस्त्रिप्रकारो मतः। सर्वत्र सदनुष्ठाने फलाविसंवादिनि प्रयोजने, योगमार्गे हारात् / आत्माऽऽदिप्रत्ययोपेता आत्मगुरुलिङ्गप्रतीतिसङ्गता, प्रस्तुत एव, विशेषतो विशेषेण मत इति / अस्य सर्वसदनुष्टाना तत्तस्मात्, एषा ऐकान्तिकी सिद्धिः, नियमेन त्ववश्यं तथैव वर्तते, विशयित्वात् / / 231 // आत्माऽऽदिप्रत्ययस्यैव सिद्ध्यन्तरावन्ध्यहेतुत्वात्।।२३५।। मनमेव त्रिविधं प्रत्ययं भावयन्नाह एतदेव समर्थयते न ह्युपायान्तरोपेय-मुपायान्तरतोऽपि हि। आत्मा तदभिलाषी स्याद्, गुरुराह तदेव तु। तल्लिङ्गोपनिपातश्च, संपूर्ण सिद्धिसाधनम्।।२३२।। हाठिकानामपि यत-स्तत्प्रत्ययपरो भवेत् / / 236 / / न हि नैव, उपायान्तरोपेयं मृत्पिण्डाऽऽद्युपायान्तरसाध्यं घटाऽऽदिआत्मासदनुष्ठानाऽऽरम्भिणः पुंसोऽन्तराऽऽत्मरुपः, स्वत एव तावत्तद कार्यमुपायान्तरतोऽपि हि सूत्रपिण्डाऽऽधुपायान्तरादपि भवति, हाठिमिलाषी सदनुष्ठानाभिलाषवान, स्याद्भवेत् , ततो गुरुर्धर्मोप्रदेष्टा, आह कानामपि बलात्कारचारिणां, कि पुनस्तदन्यथाचारिणामित्यपिव्रते, तठेव तु यदेवाऽऽत्मनाऽभिलषितमासीत् तल्लिङ्गोपनिपातः शब्दार्थः। यतो यस्मात्, तत्प्रत्ययपर आत्माऽऽदिप्रत्ययपरायणः, भवेत् तस्याभिलषितस्य सिद्धिसूचकानि लिङ्गानि यानि-"नंदीतूरं पुन्नस्स स्यादेकान्तिकी सिद्धिमभिलषन् योगी, तस्यास्तदकहेतुत्वात्। यथाहि दसण संखपडहसद्दी य। भिंगारछत्तचामरझयप्पडागा पसत्थाई।।१।।" कुम्भकाराऽऽदिसन्निहितमृत्पिण्डाऽऽदिसर्वस्वोपकरणोऽपि न पटाऽऽदि इत्यादिसूत्रसिद्धानि, तेषामुपनिपातः संनिहितता / चःसमुचये / साधयितुमलं, तदुपकरणाभावात्, तथा आत्मादिप्रत्ययविकलस्तदन्यानुकिमित्याह-सम्पूर्ण समस्तम् सिद्धिसाधनम् विवक्षितफल निष्पत्ति ठानवानपि योगी नैकान्तिकी सिद्धिमाराधयितुं समर्थः स्यात्॥२३६|| सूचकम् / / 232|| अथामुमेव पुरस्कुर्वन्नाहअथ सिद्धिमेव भावयन्नाह पठितः सिद्धिदूतोऽयं, प्रत्ययो ह्यत एव हि। सिद्धयन्तरस्य सदीजं, या सा सिद्धिरिहोच्यते। सिद्धिहस्तावलम्बश्व, तथाऽन्यैर्मुख्ययोगिभिः।।२३७।। ऐकान्तिक्यन्यथा नैव, पातशक्त्यनुवेधतः / / 233 / / पठितो निरुपितः, सिद्धिदूतः सिद्धिसमागमहेतुः, अयमात्माऽऽदिसिद्धयन्तरस्य फलान्तरसिद्धिरुपस्य, सदबन्ध्यं बीजं हे तुर्या सा प्रत्ययः। हि स्फुटम् अत एव होकान्तिकसिद्धिहेतुत्वादेव हेतोः, सिद्धिहसिद्धिरिह विद्वल्लोक उच्यते। कीदशीत्याह-(एकान्तिकी) नियमेना स्तावलम्बश्चसिद्धौ तथाविधप्रासादश्रृङ्ग इवाऽऽरोढुमनसा हस्तावलम्बसिद्धिरुपपरिहारवती। अन्यथा सिद्ध्यन्तर-सतीजाभावेनैव न सर्वथा सदृशः / च : समुचये / तथेति तत्प्रकारैरन्यैर्ने पथ्यमात्रभेदत्तोऽस्मसिद्धिर्भवति। कुत इत्याह-(पातशक्त्यनुवेधतः) भ्रंशसामर्थ्यानुवेधात्। द्विलक्षणैर्मुख्ययोगिभिः शुद्धमार्गदर्शितया तत्त्वरुपैर्धार्मिकैरिति॥२३७॥ यथा हितथाविधप्रासादाऽऽद्यस्थ्यादिशल्योपघातान्महता यत्नेनोपार- यो०बि०। भ्रामाणमपि नोदयमासादयति किं त्ववश्यं पतति, एवं विवक्षितसिद्धिरपि पचयओ अव्य० (प्रत्ययतस्) प्रतीयते इति प्रत्ययो ज्ञानकारण मिथ्याऽभिनिवेशाऽऽदिपातशक्त्यनुवेधान्न निर्वाणावसानफ लाय घटाऽऽदिः, सर्वथाः निरालम्बनज्ञानाभावेन तदविनाभावित्वात् संपहाते॥२३३।। ज्ञानस्य / ज्ञानविषयमाश्रित्येत्यर्थे , उत्त०१०। अमुमेवार्थमधिकृत्याऽऽह पञ्चयकरण न० (प्रत्ययकरण) दूषणापोहेन प्रतीत्युत्पादने, ज्ञा० 1 श्रु० सिद्धयन्तरं न संधत्ते, या साऽवश्यं पतत्यतः। 14 अ०। तच्छक्त्याऽप्पनुविद्धव, पातोऽसौ तत्त्वतो मतः॥२३४|| | पचल त्रि० (प्रत्यल) समर्थे, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०।पाइ० ना०। सिद्ध्यन्तर प्रस्तुतकार्यसिद्धेः कार्यान्तरसिद्धिरुपम्। (न) नैव, संधत्ते | पचलिउ अव्य० (प्रत्युत) प्रत्युतस्य पचलिउ त्ति आ० Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चलिउ 126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पचुप्पण्ण देशः।'"सा व सलोणी गोरडी, नवखी कवि विसगठि। भडपचचलिउ सो | उत्तरोत्तरेषु विवक्षिताऽपायप्रत्यासन्नतरा वा विशेषास्ते प्रत्यावर्तनास्तमरइ, जासु न लग्गइ कंठि॥१।।" प्रा० 4 पाद। भावः प्रत्यवर्त्तनता। अवायाऽऽख्ये आभिनिबोधिकज्ञानभेदे, नं०। पचवत्थय त्रि० (प्रत्यवस्तृत) आच्छादिते, आ० म०१ अ०१खण्ड। पचाउडंत त्रि० (प्रत्यापतत्) प्रतिवर्तमाने, औ०। पचवत्थाण न० (प्रत्यवस्थान) प्रतीति परोक्तदूषणप्रातिकूल्ये- | पच्चाएस पुं० (प्रत्यादेश) दृष्टान्ते, पाइ० ना०२१६ गाथा। नावस्थीयतेऽन्तर्भूतण्यर्थत्वादवस्थाप्यते युक्तिपुरस्सरं निर्दोषमेतदिति पञ्चागच्छणया स्त्री०(प्रत्यागमनता) आगच्छतो गौरव्यस्याभिमुखशिष्यबुद्धाबारोप्यते येन तत्प्रत्यवस्थानम् / प्रतिवचने, वृ० 1 उ० / गमने, भ० 14 श०७ उ०। समाधौ, स्था०१ ठा०। "तस्स सद्दत्थण्णायाओ, परिहारो पचवत्थाणं पचागय न० (प्रत्यागत) प्रत्यागमे, उत्त० 30 अ०। 1 // 1007 / / ' (तस्स त्ति) तस्य चालनस्य परिहारः प्रत्यवस्थानं, पचाथरण न० (प्रत्यास्तरण) संमुखभिखूयुद्धकरणे, व्य०१ उ०। दूषितसिद्धिरित्यर्थः / कस्माद्योऽसौ परिहारः? / इत्याह-शब्दार्थ पचापिचिय न० (प्रत्यापिष्टित) तृणविशेषस्य कुट्टितत्वङ्मये रजोहरणे, न्यायतः-शब्दविषयिणा न्यायेन शब्दसंभविन्या युक्त्या शब्दगतदूषणस्य स्था०५ ठा०३ उ०। परिहारः, अर्थविषयिणा न्यायेनार्थसंभविन्या युक्त्याऽर्थगतदूषणस्य पञ्चामित्त पुं० (प्रत्यामित्र) शत्रुभूते प्रातिवेशिकराजे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। परिहारः प्रत्यवस्थानं, दूषितसिद्धिरिति भावार्थः / नयमतविशेषाच स्था०। औ०। शब्दार्थगतदूषणस्य परिहारः प्रत्यवस्थानमित्यपि द्रष्टव्यम् / इदमुक्तं पचामित्तया स्त्री० (प्रत्यामित्रता) अमित्रसहायतायाम्, भ०१२ 20 भवति- 'करोमि भदन्त ! सामायिकम् ' इत्यादौ गुमिन्त्रणवचनो ७उ०। पचायाइ स्त्री० (प्रत्यायाति) प्रत्यागमने, जन्म, स्था० 4 ठा० 130 // भदन्तशब्द इत्युक्ते, कश्चिचालनां करोतिनन्वेवं तर्हि गुरुविरहे भदन्तश * प्रत्याजाति स्त्री० जन्मनि, स्था० 4 ठा० 1 उ०। ब्दाऽनभिवानप्रसङ्गः, अभिधाने वाऽऽनर्थक्याऽऽदिदोषप्रसङ्गः। अत्र पचार धा० (उपालम्भ/उप-आ-लभ) असतः सतो वा दोषस्याप्रत्यवस्थानमुच्यते-आचार्याभावे स्थापनाऽऽचार्यस्य पुरतः सर्वाऽपि भिधाने, "उपालम्भेझपचार-वेलवाः" // 1 / 4 / 156|| इत्युपःसामाचारी क्रियत इति ज्ञापनार्थ मिदम् / अन्यत्रापि चोक्तम्- "ठवणा लम्भेः पचाराऽऽदेशः। 'पचारइ। उपालम्भई उपालम्भते। प्रा० 4 पाद' आयरियरसा, सामायारी पउंजए एयं" इत्यादि / तथा दृश्यते चार्हद पच्चारण न० (उपालम्भन) प्रतिभेदे, पाइ० ना० 266 गाथा। भावेऽहत्प्रतिमोपवेशनमिति / अथवा-गुरुविरहेऽपि स्वातन्त्र्यनिषेधो, पचारुहंत त्रि० (प्रत्यारोहत्) अवतरति, औ०। विनय मूलधर्मोपदर्शनार्थ च गुरुगुणज्ञानोपयोगो विधेय इत्येतचानेन पचालीढ त्रि० (प्रत्यालीढ) यद् वाममूरुमग्रतो मुखमाधाय दक्षिणमूर ज्ञाप्यते। यदि वा-नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव-भेदाचतुर्विध आचार्यः, पक्षान्मुखमपसारयति, अन्तरा वा, अत्रापि द्वयोरपि पादयोः पञ्च तत्राऽऽचार्योपयोगरुपो योऽसौ भावाऽऽचार्यः शिष्यस्यय मनसि वर्तते, पादास्ततः पूर्वप्रकारेण युध्यते तत्प्रत्यालीढम् / युद्धस्थानभेदे, व्य० / तद्विषयमिदमामन्त्रणं, मनोनिवर्तमानगुणमयाऽऽचार्यनिबन्धनमिति उ०। आ० चू०। आ०म०। भावः / अतो गुरुविरहोऽप्यत्रासिद्ध एवेति भावः / इत्येवभन्यत्रापि पचावड पुं० (प्रत्यावर्त) एकस्याऽऽवर्तस्य प्रत्यभिमुखेआवर्ते, जी०३ चालनाप्रत्यवस्थाने यथासंभवमभ्यूह्ये इति। तदनेन "संहिता च पद प्रति० 4 अधि०। आ०म० / प्रतिपुद्गलाऽऽवर्ते, द्वा० 12 द्वा०। चैव, पदार्थः पदविग्रहः / चालनप्रत्यवस्थाने, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा पञ्चासत्ति स्त्री० (प्रत्यासति) सादृश्ये सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 1 उ०। // 1 // " विशे० / गुरुकथने, दश०१ अ०। नीतितः पृष्ठ संशयनिरासे पच्चासन्नत्त न० (प्रत्यासन्नत्व) प्रत्यासत्तौ, सादृश्ये, विशे०। यथा युज्यत एवेष्टसिद्धेः / ल०। पचासि(ण) त्रि० (प्रत्याशिन) प्रत्यशितुं शीलमस्येति प्रत्याशी। वान्तपचवर (देशी) मुशले,देवना० 6 वर्ग 15 गाथा। भक्षके, "परिण्णायं पमायइ पचासी।" आचा०१ श्रु०२ अ० 5 उ० पचवाय पुं० (प्रत्यवाय) अनर्थे, द्वा० 16 द्वा०ाव्य०। आ०म०।उन्मार्ग- | पचाहार पुं० (प्रत्याहार) योगशास्त्रप्रसिद्ध इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यो रोगधर्मभंशलक्षणोष्वनर्थेषु, पञ्चा० 4 विव० कल्प० / आचा० / ओघ० / निराकरणे, वाच०।" प्रत्याहारो हृषीकाणामेत-दायत्तताफलः" (2) उवधातहेतुषु अध्यवसायाऽऽदिषु, उत्त०१० अ०। द्वा० 23 द्वा०। (अस्यार्थः 'थिरा' शब्दे चतुर्थभागे 2410 पृष्ठे गतः) पच्चा स्त्री० (पत्या) चमरस्य बलस्य च लोकपालानामग्रहिषीणां च पचुत्तरित्ता अव्य०(प्रत्यवतीर्य) नीचैर्गत्वेत्यर्थे, रा० सर्वबाह्यायां पर्षदि, स्था०३ ठा०२ उ०। पचुत्थ (देशी) प्रत्युप्ते, दे० ना०६ वर्ग 13 गाथा। पञ्चाइक्खमाण त्रि० (प्रत्याचक्षाण) प्राणातिपाताऽऽदिप्रत्याख्यानं / पचुत्यय त्रि० (प्रत्यवस्तृत) उपरि आच्छादिते, कल्प० १अधि० 4 क्षण: कुर्वाण, भ०८ श०५ उ०। पचुप्पण्ण त्रि० (प्रत्युत्पन्न) साम्प्रतमुत्पन्ने, अनु० / वर्तमाने, आप० / पच्चाउट्टणया स्त्री० (प्रत्यावर्तनता) आवर्तनं प्रति योगेनार्थविशेषेषु | अ०। सूत्र० / वर्तमानकालीने, विशे०१ कल्प०। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचुप्पण्णग्गाहि(ण) 127- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छाकम्म पचुप्पएणग्गाहि(ण) त्रि० (प्रत्युत्पन्नग्राहिन्) साम्प्रतमुत्पन्न प्रत्युत्पन्न- | पच्छंभाग पुं० (पश्चाद्गाग) दिवसस्य पश्चात्तने भागे, चं० प्र०१पाहु०३ मुच्यते, वर्तमानकालभावीत्यर्थः / तत् गृहीतुं शीलमस्येति प्रत्युत्पन्नग्राही। पाहु० पाहु०। वर्तमानकालभाविवस्तुग्राहिणि ऋजुसूत्रनये, अनु०। ठा० / पच्छंवत्थुगन० (पश्चाद्वास्तुक) पश्चाद् गृहे, प्रश्न०४ संब० द्वार। पचुप्पैहिऊण अव्य० (प्रत्युपेंक्ष्य) प्रतिलेख्येत्यर्थे, "वसहिं पचुप्पे- | पच्छण न० (प्रक्षण) ह्रस्वे त्वचो विदारणे, ज्ञा०१श्रु०१३ अ० विपा० / हिऊण ण संपएजा।'' महा०१ चू०। पच्छण्ण त्रि० (प्रच्छन्न) अप्रकटे, "पच्छण्णं पडियरइ।" आ०म०१ पचुरस न० (प्रत्युरस) उरसोऽभिमुखं प्रत्युरसम्।उरोऽभिमुखे, ओघ० / अ०१ खण्डा रहसि, स्था०३ ठा० 4 उ०। पछुवगार पुं० (प्रत्युपकार) प्रत्युपकृते, स्था० 4 ठा० 4 उ०। पच्छएणपइ पुं० (प्रच्छन्नपति)जारे, "एते जोष्वणकिड्डगा, पच्छण्ण पञ्चूस पुं० (प्रत्यूष) "प्रत्यूषे षश्च हो वा" ||6||2|14|| इति त्यस्य पई महिलियाणं / ' सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 1 उ०। या तरून्नियोगेन षस्य हः / पचूहो। पचूसो। प्रा०२पाद। रात्रेश्वरमप्रहरे, | पच्छएणपडिसेविणी स्त्री० (प्रच्छन्नप्रतिसेविनी) प्रच्छन्न प्रतिसेवते स्था० 4 टा०२ उ०। आव०। इति प्रच्छन्नप्रतिसेविनी / जारेण गुप्तमैथुनकारिण्यां स्त्रियाम्, सा च पञ्चूषकालसमय पुं० (प्रत्यूषकालसमय) प्रत्यूषकाललक्षणो यः समयो- | गर्भ न धरते। आव०४ अ०॥ ऽवसरः / ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। प्रभातसमये, कल्प०१ अधि० 3 क्षण। पच्छएणपाव त्रि० (प्रच्छन्नपाप) कूटप्रयोगकारिणि, असद्गुणं गुणवन्तपञ्चूह पुं० (प्रत्यूह) विधे, द्वा० 16 द्वा० / आचा० / विशे० / सूर्ये, मात्मानं ख्यापयति, गुणरहितमात्मानं वा यो गुणवन्तं ख्यापयति, न पुं०! पाइ० ना० 6 वर्ग 4 गाथा। तस्मादपरः प्रच्छन्नपापोऽस्तीति आव०४ अ०। पबेड देशी ) मुशले, दे० ना०६वर्ग 15 गाथा। पच्छतोवाहत न० (पश्चाद्व्याहृत) पश्चादुक्ते गत्वा प्रत्याग-तलक्षणभेदे, पछोइय त्रि० (प्रत्योदित) परिकर्मित, संथा / आ०चू०१ अ०।"जहा जीवति भंते ! जीवे जीवति?। गोयमा! जीवति पञ्चोगिलमाण त्रि० (प्रत्यवगिलत्) भूयोऽप्यास्वादयति, बृ०५ उ० ता नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवति, सिय नो जीबति।" आ०चू० पचोणियत्त त्रि० (प्रत्यवनिवृत्त) ऊर्ध्वमूर्ध्वमुच्छल्य तत्रैव पुनः पुनः १अ०। पतिते, कल्प०१ अधि०३ क्षण / उत्पत्त्य निपतिते, प्रश्र 3 आश्र० द्वार। पच्छय पुं० (प्रच्छद) वस्त्रविशेषे, "चित्तपरिच्छयपरिच्छेयं।'' भ०७ श० पञ्चोतरिता अव्य० (प्रत्यवतीर्य) अधोवतीर्येत्यर्थे, 'जाणविमाणाओ __E उ० / 'पिच्छोरी" इति ख्याते ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। उत्तरपटे, है०। पञ्चोतरिता। आचा०२ श्रु०३ चू०।। पच्छयाव पुं० (पश्चात्ताप) स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सायाम्, आ०म०१ अ० पचोयड न० (प्रत्यवट) तटसमीपवर्तिनि अभ्युन्नतप्रदेशे, जी०३ प्रति० २खण्ड। 4 अधि० / रा०। 'फालियपडलपच्चोयडा'' स्फाटिकापटलावच्छा- पच्छा अव्य० (पश्चात) अनन्तरे, भ०३श०२ उ०। कल्प०। पर्यन्तसमये, दितः। रा०। संथा० / विवक्षितकालस्याऽनन्तरे, तं० / परलोके, ''पच्छा कडुअ पचोरुहिता अव्य० (प्रत्यवरुह्य) मध्ये प्रविश्येत्यर्थे, जी०३ प्रति०४ विवागा।" इत्यत्र यथा पश्चाच्छब्दस्य परभवविषयत्वम्। प्रति०1 पाइ० अधि०। ना०। पचोवयमाण त्रि० (प्रत्यवपतत्) अधःपतति, "पचोवयमाणा जाई तत्थ | पच्छाइअ त्रि० (प्रच्छादित) आच्छादिते, 'पच्छाइअभूमिआई पाणाई जावजीवियाओ ववरोवेइ।" भ०१७ श० 1 उ०। वइआइँ।'' पाइ० ना० 176 गाथा। पचोसक्कित्ता अव्य० (प्रत्यवष्वष्क्य)प्रत्यवसयेत्यर्थे, व्यावयेत्यर्थे, पच्छाउत्त न० (पश्चादायुक्त)तदागमनकालादनन्तरमायुक्ते, पञ्चा०१० भ० १२श०६ उ०। विव०। पच्छ न० (पथ्य) "हस्वात्थ्य -श्च-त्स सामनिश्चले"||चा२।२१।। / पच्छाकड न० (पश्चात्कृत) पश्चात्कृतश्चारित्रं परित्यज्य गृहबास इति ध्यस्थाने च्छः। हिते, प्रा०२ पाद। प्रतिपन्नः / बृ० 1 उ० / मुक्तलिङ्गे, जीवा० 11 अधिक। व्या 'पच्छाकडं पच्छइ अव्य० (पश्चात्) पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्बइ तुवोच्छामि। सो दुविहो बोधव्यो, निहत्थ सारुविए चेव।" पश्चात्कृतंतु जि एम्बहिं पचलिउ एत्तहे" ||8|4|420|| अपभ्रंशे पश्चाच्छब्दस्य वक्ष्यामि, पश्चात्कृतो द्विविधः / तद्यथा-गृहस्थः, सारुपिकश्च / व्य०४ स्थाने पच्छइ इत्यादेशः / प्रा० 4 पाद / प्रथमा-ऽऽद्यर्थेवृत्तेरषरशब्द- | अ०। नि०चू० / भावातीते, आव०५ अ०1 स्यार्थे, वाच०। पच्छाकम्म(ण ) न० (पश्चात्कर्मन्) पश्चात् दानान्तरं कर्म पच्छंद धा० (गम्) गतौ, "गमेर० - " ||८|४११६२इत्यादिना भाजनधावनाऽऽदि यत्राशनाऽऽदौ तत्पश्चात् कर्म / प्रश्न०५ गमधातोः पच्छन्दाऽऽदेशः / पच्छदइ। गच्छति। प्रा० 4 पाद। संव० द्वार / भक्तदानात् पश्चात् यतिनिमित्त हस्ताऽऽदिधाव Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छाकम्म(ण) 128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छासंथुय ने, ध०३ अधि०। पश्वाजलोज्झनकर्मणि, आव० 4 अ०। पं०चून भूयोऽपि परिवेषणसंभवात् / यत्र तु निरवशेष, तत्र साधुदानानन्तरं "कण गिहिणिसिज्जागतस्य वत्थम्मि मइलिए गिहिणो / उप्फु नियमतो हस्तमात्रक वा प्रक्षालयति। ततो द्वितीयाऽऽदिषु समेषु भङ्गेषु सणधोवणादी, करेज पच्छाकम तं तु।" पं० भा० 1 कल्प। पश्चात्कर्मसंभवान्न कल्पते, प्रथमाऽऽदिषु तु विषमेषुभङ्गेषु तदसंभवाअसंसद्रुण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा। कल्पतें ग्रहीतुमिति / यदि चैतेष्वति यदलेपकृतं सक्तुमएडकाऽऽदि, दिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्म जहिं भवे ||35|| यचशुष्कं गुडपिण्डकाऽऽदि, तयोरपि ग्रहणं कल्पते। उक्तं परिकर्मद्वारम् असंसृष्टेन हस्तेन अन्नाऽऽदिभिरलिप्तेन दा भाजनेन वा दीय-मान | // 1032 / / बृ०१ उ० / पं० चू० / (अत्र विशेषः 'अण्णउत्थिय' शब्दे नेच्छेत् / किं सामान्येन ? नेत्याह-पश्चात्कर्म भवति यत्र दादौ, प्रथमभागे 462 पृष्ठे गतः) पश्चात्कर्भ सस्निग्धोदकारुप चतुर्भेदम्, अत्र शुष्कमण्डकऽऽदिवत् तदन्यद् दोषरहितं गृह्णीयादिति सूत्रार्थः / / 3 / / प्रायश्चित्तमाचामाम्लम्। जीता "पुरेकम्मे य पच्छाकम्मे य चउलह।" संसट्टेण य हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा। पं० चू०१ कल्प० / 'जं पुटवकम्म तं पच्छाकम्म, तं पुव्वकम्म जं दिजमाणं पडिच्छेज्जा, जंतत्थेसणियं भवे // 36 / / भिक्खुपडियाए वट्टमाण।'' इत्यन्यत्र। आचा०२ श्रु०१ चू० 2 अ०२ संसृष्टेन हस्तेन अत्राऽऽदिलिप्तेन तथा दा भाजनेन वा दीयमानं उ० / पश्चात्कर्माऽऽदि न गृण्हीयाचतुर्थी पिण्डेषणा / आचा०२ श्रु० प्रतीच्छेत् गृह्णीयात् / किं सामान्येन? नेत्याह-यत्तत्रैषणीयं भवति 1 चू०१ अ० 11 उ० / यदि निजकानां सम्बन्धी ग्लानो, वैद्यो वा तदन्यदोषरहितमित्यर्थः / इह च वृद्धसंप्रदायः "संसट्टे हत्थे संस? मत्ते निजकोऽन्यस्य कुरुते चिकित्सा, तत्र निश्चितं पश्चात्कम। व्य०६ उ०। सावसेसे दव्वे, संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते गिरवसेसे दव्वे, एवं अट्ठभंगा, एत्थ पच्छाग पुं० (प्रच्छादक) प्रावरणरुपे कल्पे, "तिन्नेव पच्छागा।" बृ० 3 पढमभंगो सब्बुत्तमो, अन्नेसु पिजत्थ सावसेस दव्वंतत्थ धिप्पइण इयरेसु | __उ०। पं० व०। प्रव०। पच्छाकम्मदोसाओ।" इति सूत्रार्थः / दशा०५ अ०१उ० पच्छागइ स्त्री० (पश्चाद्गति) गच्छतोऽनुगमेन विनयभेदे, द्वा० 26 द्वा०॥ कर्मण्यपि विधिमाह पच्छाणिवाइ(ण) त्रि० (पश्वान्निपातिन्) प्रव्रज्याग्रहणानन्तरं चारित्रतो संसट्ठमसंसट्टे, सावसेसे य णिरवसेसे य। लिङ्गतो वा निपतनशीले, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०) हत्थे मत्ते दव्वे, सुद्धमसुद्धे तिगट्ठाणे / / 1031 / / पच्छाणुताव पुं० (पश्चादनुताप) हा मया दुष्ट कर्म कृतमित्येवमनुतापे, इह भिक्षादातुः संबन्धी हस्तः संसृष्टो वा भवेदसंसृष्टो वा येन च / उत्त, 20 अ० / रा०।" पच्छाणुतावेणसुमज्झवसाणे।'' आ०म० 1 कांश्यिकाऽऽदिना मात्रकेण भिक्षां ददाति तदपि संसृष्टमसंसृष्ट वा, अ०२खण्ड। द्रव्यमपि सावशेष वा स्यान्निरवैशेष वा, अतः संसृष्टासंसृष्टसा- पच्छाणुपुच्यि(ण) स्त्री० (पश्चादानुपूर्वी ) पाश्चात्यादारभ्य प्रतिलोम वशेषनिरवशेषपदैर्हस्तमात्रकद्रव्यविषयैरष्टौ भङ्गा भवन्ति / तद्यथा- व्यत्ययेनानुपूर्वा परिपाटिः क्रियते यस्यां सा पश्चानुपूर्वी / आनुपूर्वीभेदे, संसृष्टो हस्तः संसृष्ट मात्रक सावशेष द्रव्यम् 1, संसृष्टो हस्तः संसृष्ट मात्रकं अनु० / (अत्रोदाहरणमुत्क मेणैव भवति इत्युक्तम् ‘आणुपुव्वी' शब्दे निरवशेषं द्रव्यम् 2, संसृष्टो हस्तः असंसृष्टं मात्रकं सावशेषं द्रव्यम् 3 द्वितीयभागे 141 पृष्ठे) संसृष्टो हस्तः असंसृष्ट मात्रकं निरवशेष द्रव्यम् / एवम संसृष्टनापि हरतेन पच्छाताव पुं० (पश्चात्ताप) अनुतापे, आव० 4 अ०। आ० मा आo चू०। चत्वारो भङ्गाः प्राप्यन्ते / एतस्यामष्टभ झ्यां यानि त्रीणि स्थानानि पच्छातावित पुं० (पश्चात्तापिक) पश्चात्तापवंति, प्रश्र० 3 संव० द्वार। हस्तमात्रकद्रव्यरुपाणि, तैर्यत्र पश्चात्कर्मदोषो न भवति ते भगकाः पच्छाभाग पुं० (पश्चाद्भाग) पाश्चात्यभागे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०॥ शुद्धाः, इतरे अशुद्धाः।।१०३१।। पच्छाविकुव्वणा स्त्री० (पश्चाविकुर्वण्णा) पश्चाद् विक्रियायाम, स०) अमुमेवार्थ स्पष्टयति पच्छासंखडि स्त्री० (पश्चात्संखडि) मृतकसंखडौ, मरणामन्तर पढमे भंगे गहणं, सेसेसु य जत्थ सावसेसं तु। बहुभोजनार्थ महारसवत्याम्, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०३ उ०। अन्नेसु उ अग्गहणं, अलेवसुक्खेसु ऊ गहणं // 1032 / / पच्छासंजोग पुं० (पश्चात्संयोग) श्वशुराऽऽदिकृते संबन्धे, आचा०१ अस्यामष्टभङ्गयां यः प्रथमो भङ्गस्त्रिभिरपि पदैः शुद्धस्तत्र ग्रहणं भवति, श्रु०१अ०३ उ०। सूत्र०। शेषेष्वपि भङ्गकेषु यत्न सावशेष द्रव्यं भवति तत्र ग्रहीतु कल्पते / पच्छासंथव पुं० (पश्चात्संस्तव) "जे पच्छा इतरा।" भार्यादुहित्रापश्चात्कर्मसंभवात् अन्येषु निरवशेषपदेषु युक्तेषु भङ्गेष्वग्रहणं, न कल्पते दिसंबन्धे, "नि००२ उ०। (पश्चात्संस्तबेन पिण्डग्रहणनिषेध संथव' ग्रहीतुमिति भावः / इयमन भावना-इह हस्तो मात्रकं वा द्वे वा स्वयोगेन शब्दे वक्ष्यामि) संसृष्टे वा न तद्वशेन पश्चात्कर्म संभवति, किं तर्हि द्रव्यवशेन। तथाहि- | पच्छासंथुय त्रि० (पश्चात्सुंस्तुत) श्वशुरकुलसंबन्धे, आचा०२ श्रु०१ यत्र द्रव्यं सावशेषं तत्रैते साध्वर्थ खरणिटते अपि न दात्री प्रक्षालयति, चू०१ अ० 4 उ०। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छासंथुय 126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त - पुट्विं पच्छा संथुता इमे चिंत्यतेसामन्ने जे पुटिव, दिट्ठा भट्ठा व परिजिता दा वि। ते हुति पुव्वसंथुय, जे पच्छा एतरा हुंति / / 283 / / सामाणे प्रतिपत्तिकालात्पूर्व, पश्चाद्वा / अहवा-सामण्णकाल चेव विजिति। नि०चू०२ उ०। पच्छित्त न० (पापच्छिद) पापं छिनत्तीति पापच्छित् / जीत०। प्रायश्चित्त न० अथवा प्रायश्चित्तं जीव मनो वाऽतिचारमलमलिनितं शाधयतीति प्रायश्चित्तम् / जीत०। नं०। पा०। "पायः पापं विजानीया-चित्तं तस्य विशोधनम्" इत्युक्तेः / अथवाप्रकर्षण अयते गच्छत्यस्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनिलोकः, तेन चिन्त्यते स्मर्यनऽतिचारविशुद्ध्यर्थमिति निरूक्तात्प्रायश्चित्तम् / शोधिरूपेऽनुष्ठानविशेषे, ध०२ अधि०1 पञ्चा०। (१)अय प्रायश्चित्तनिरूक्ताभिधानायाऽऽहपाव छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं ति भण्णई तेणं। पारण वा वि चित्तं, सोहयती तेण पच्छित्तं / / 3 / / पापमशुभ, छिनत्ति कृन्तति, यस्माद्वेतोः पापच्छिदिति वक्तव्ये प्राकृतत्वेन 'पायच्छित्तमिति,' भण्यते निगद्यते, तेन तस्माद्धेतोः, प्रायेण बाहुण्येन, वाऽपीत्यथवा, चित्तं मनः, शोधयति निर्मलयति. तेन हेतुना प्रायश्चित्तमित्युच्यते / इति गाथार्थः / पञ्चा० 16 विव०। (2) इदाणि पायच्छित्ते अहिकारी ति छटुं दारं, चपछित्तं एवं भवतिआयारे चउसु य चू-लियासु उवएसवितधकारिस्स। पच्छित्तमिहऽज्झयणे, भणियं अण्णेसु य पदेसु // 71 / / आयारो णवबंभचेरमाईओ चउसु य आइल्लचूनासु पिंडेसणातिविमोक्खावसाणासु (2) एआसु जो उवदेसो उवदिस्सइ ति। उवदेसो क्रियेत इत्यर्थः / सो य पडिलेहणापप्फोडणाति, ते वितह विवरीय, करेंतस्स, आयरतस्सेत्यर्थः / पाव छिंदतीति पच्छित्तं, इह पकप्पज्झयणे, वुत्तं निर्दिष्टमित्यर्थः / किं इह अज्झयणे केवलं पच्छित्तं हवइ ? नेत्युच्यते, अण्णेसु य पदेसु अन्नपयाणि कप्पववहारईणि, तेसु वि वुत्तं। अहवावितहकारि त्ति अणायारो महिओ। किं अणायार एव केवलं पच्छित्त हवइ? नेत्युच्यते- अण्णेसु य पएसु अश्वमो वश्वमो अइयारो, एएसु वि पच्छित्त वुतं / अहवा-किमायार एव संचुते वितहकारिस्स केवलं पच्छित्तं बुत्तं ? नेत्युच्यते- अन्नेसु य पदेसु, अण्ण पदा सूयकडादओ पया, तेसु वि वितहकारिस्स पच्छित्तं वुत्तं / चः पूरणे / नि० चू० 1 उ० / दुःखप्राऽऽदिप्रतिघातकेऽनुष्ठाने,"कयकोउयमंगलपायच्छित्ता।" सूत्र० २श्रु०२०। (3) अथेदं प्रायश्चित्तं भावतः कस्य भवतीत्याहभध्वस्साऽऽगारूइणो, संवेगपरस्स वणियं एयं / उवउत्तस्स जहत्थं, सेसस्स उदव्वतो णवरं / / 4 / / भव्यस्य मुक्तिगमनोचितस्य, तस्याऽप्याज्ञारूचेरागमबहुमानिनः सभ्यग्दृष्टः, न जातिभव्यस्य / तस्याऽपि संवेगपरस्य संविग्रस्य, चारित्रिण इत्यर्थः / वर्णितमुक्तमागमे, एतत्त्रायश्चित्तम, तस्याऽप्युपयुक्तस्य सर्वापराधस्थानेषु दत्तावधानस्य, यथार्थमन्वर्थयुक्तम्, शुद्धिकारक मित्यर्थः / उक्तव्यतिरिक्तस्य का वार्ते त्याहशेषस्य तूक्तादन्यस्य पुनर्भवति नवर केवलं द्रव्यतो भावशून्यत्वेनाप्रधानतया अयथार्थमित्यर्थः / इति गाथार्थः ||4|| एतदेव भावयन्नाहसत्थत्थवाहणाओ, पायमिणं तेण चेव कीरंत। एयं चि संजायति, वियाणियव्वं वुहजणेण // 5 // शास्त्रार्थबाधनादागमार्थविराधनात् प्राणातिपाताऽऽदिरूपात्, प्रायो बाहुल्येन, प्रायोग्रहण च हिंसाऽऽदावप्यप्रमत्तस्य "उच्चालियम्मि पाए'' इत्यादिन्यायेन न प्रायश्चित्तमिति ज्ञापनार्थम् / इदमिति प्रायश्चितं, भवतीति गम्यते। इह च प्रायश्चित्तशब्देन तद्विशोध्यमुपचारात्पापं गृह्यते। ततः किमित्याह- तेनैव शास्त्रार्थबाधनेनैव, क्रियमाणं विंधीयमानम्, विशुद्धिरूप प्रायश्चित्तम्, एतदेव प्रायश्चित्तमेव, पापमेवेत्यर्थः / संजायते संपद्यते, शास्त्रनिषिद्धानुष्ठानवत्। विज्ञातव्यं ज्ञेयम् बुधजनेन समयज्ञलोकेन। समयानभिज्ञजनो हि यथा कथंचिदपि क्रियमाणं तत्साध्वेव मन्यते, बुद्धिदोषादिति। अथवा शास्त्रार्थबाधनात्प्राय इदं द्रव्यप्रायश्चित्तं भवति, प्रायोग्रहणादन्यथाऽपि योग्यताविवक्षायां स्यादिति। ततश्च तेनैव शास्त्रार्थबाधनेनैव, क्रियमाणं प्रायश्चित्तम्, इदमेव द्रव्यप्रायश्चित्तमेव, संजायते। शेषं तथैव। इति गाथार्थः // 5 // एतदेव स्पष्टयन्नाहदोसस्स जं णिमित्तं, होति तगो तस्स सेवणाए / ण उ तक्खउ त्ति पयह, लोगम्मि विहंदि एयं ति॥६।। दोषस्यापराधस्य, यद्वस्तु शास्त्राऽर्थबाधनमिति / हृदयम् निमित्त कारण, भवति जायते, तकोऽसौ दोषः, तस्य निमित्तस्य शास्त्रार्थबाधनरूपस्य, सेवनया तु आश्रयणेनैव, नान्यथा, न तु न पुनः। तन्क्षयो दोषक्षयः, इत्येतद्वस्तु, प्रकटं प्रसिद्ध रोगाद्युदाऽऽहरणैः, लोकेऽपि पृथग्जनेऽपि, आस्तां लोकोत्तरजने / हन्दीत्युपप्रदर्शन। एतद्दोंषोत्पाददोषाक्षयलक्षणद्वयम्, इतिशब्दः समाप्तौ / इति गाथाऽर्थः / / 6 / / एतच्च प्रायश्चित्तं व्रणचिकित्सातुल्यं पूर्वसूरिभि रभिहितमित्येतदर्शनाय प्रस्तायन्नाहदव्ववणाऽऽहरणेणं, जोजितमेतं विदूहि समयम्मि। भाववणतिगिच्छाए, सम्मति जतो इमं भणितं / / 7 / / द्रव्यव्रणोदाहरणेन वक्ष्यमाणक्षतज्ञातेन करणेन, योजितमुपनीतम्, एतत्प्रायश्चित्तम्, विद्वद्भिर्बुधैः, समये कायोत्सर्गनियुक्तिलक्षणे सिद्धान्ते। क्कयोजितमित्याह-भावव्रणचिकित्सायां चरणातिचाररूपक्षतप्रतिक्रियायां, सम्यग यथावत्। इतिशब्दः समाप्तौ। यतो यस्मादिदं वक्ष्यमाणं, भणितमुक्तं श्रीभद्रबाहुस्वा-मिर्भिः। इति गाथार्थः // 7 // यदुक्तं तदेव गाथाषट्केनाऽऽहदुविहो कायम्मि वणो, तदुटभवाऽऽणतुगो य णायव्वो। आगंतुगस्स कीरति, सल्लुद्धरणं ण इयरस्स / / 8 / / द्विविधो द्विप्रकारः, काये देहे, व्रणःक्षतम्। द्वैविध्यमेवाऽऽहतस्मिन् काये भवतीति-तद्भवो गण्डाऽऽदिः, आगन्तुकश्च कण्टकाऽऽदिकृतः, ज्ञातव्यो ज्ञेयः, तत्राऽऽगन्तुकस्य कण्टकाऽऽदिजन्यस्य, क्रियते विधीयते, शल्योद्धरणं कण्टकाऽऽद्युद्वारः, नेतरस्य न कायसंभवस्य, आगन्तुकशल्याभावादिति / / 8 / / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 130 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त द्रव्यव्रणक्रियाविशेष दर्शयन्नाहतणुओ अतिक्खतुंडो, असोणितो केवलं तयालग्गो। उद्धरिउं अवउज्झइ, सल्लो ण मलिजइवणो उ| तनुरेव तनुकः स्वरूपेण कृशः, अतीक्ष्णतुण्डोऽनत्यन्तभेदकमुखः, अत एवाशोणितोऽरूधिरप्राप्तः, केवलं नवरं, त्वम्लग्नः त्वड्मात्रावसक्तः, स एवंभूतः शल्यः / किमित्याहउद्धृत्याऽऽकृष्य देहाद्, अपोह्यते बहिः प्रक्षिप्यते, शल्यो देहप्रविष्टः कण्टकाऽऽदिः। शल्पशब्दः पुल्लिङ्गोऽपि प्राच्यानामस्ति / एवं तावच्छल्यविधिः। वणस्य तु को विधिरित्याहव्रणस्तुव्रणः पुनः,नमल्यतेन मृद्यते, शल्याल्पत्वेनतदूव्रणस्यायप्यल्पत्वाच्छल्योद्धारमात्रमेव तचिकित्सेति // 6 // तथालग्गुद्धियम्मि वीए, मलिज्जइ परं अदूरगे सल्ले / उद्धरणमलणपूरण-दूरयरगए य तइयम्मि / / 10 / / तथा लग्नश्चासावुद्धृतश्च लग्नोद्धृतस्तस्मिन् / द्वितीये, शल्य इति योगः। मल्यते मृद्यते, व्रण इतिगम्यते। परं केवलं नतु कर्णेमलपूरणाऽऽदि विधीयते व्रणस्थ अदूरगे शरीरानतिभेदके, शल्ये कण्टकाऽऽदौ। तथा उद्धरणमलनपूरणानि शल्योद्धारब्रणमर्दनकर्णमलपूरणानि, प्रथमाबहुवचनलोपोऽत्र दृश्यः। क्रियन्त इति गम्यते।दूरतरगते द्वितीयशल्यापेक्षया देहे दूरतरावगाढे, तृतीयके शल्य इति।।१०।। तथामा वेअणा उ तो उ-द्धरित्तु गालिंति सोणिय धउत्थे। रूभइ लहुं ति चेट्ठा, वारिजइ पंचमे वणिणो॥११।। तथा मा वेदना मा भूत्पीडा शल्यवतः। तुशब्दः पुनरर्थो, भिन्नक्रमश्च / (तो इति) तस्माद्वेदनानिवारणार्थित्वलक्षणोद्धेतोः, उद्धृत्य निःकृष्य शल्यं व्रणादगालयन्ति निःसारयन्ति, शोणितं रक्तं कियदपि। अनुस्वारस्य चाऽश्रवणं छन्दोवशात् / भिषज इति गम्यम्। चतुर्थे पुनः शल्ये। तथारूह्यते, व्रणेन रूढो भवत्यसावित्यर्थः / लघु शीघ्रं शल्योद्धारानन्तरंचेष्टानिरोधे सति, इति कृत्वा, चेष्टाऽध्वगमनाऽऽदिक्रिय,वार्यत निष्ध्यिते वैद्यैः / पञ्चमे शल्ये गाढतरावगाढे ब्रणिनो व्रणवत इति॥११॥ तथारोहेइ वणं छठे, हितमितभोजी अभुजमाणो या। तत्तियमेत्तं छिज्जति, सत्तमए पूइमसादी।।१२।। रोहित निराश्रवीकरोति व्रणीति, ब्रणं क्षतम् / क्व ?, तत् षष्ठे शल्ये उद्धृते। सति किंविधःसन्नित्याह-हितमितमोजी पथ्याल्पाऽऽहाराभ्यवहारी,अभुञ्जमानो वा भोजनत्यागी वा चिकित्स्यानुगुण्येन। तथा यावच्छल्पेन दूषितं तावन्मात्रंतावत्प्रमाणम्। छिद्यतेऽपनीयते. सप्तमके शल्ये उद्धृते। किमित्याहपूतिमांसाऽऽदि दुष्टणिशितमेदःप्रभृतीति॥१२।। तह वि य अठायमाणे, गोणसखइयादि रप्पुए वा वि। कीरति तदंगछेदो,सअद्वितोसेसरक्खट्ठा / / 13 / / तथाऽपि चैवमपिच विधीयमाने कर्मणि, अतिष्ठति विसर्पति, गोनसखा-1 दिताऽऽदौ सरीसृपभक्षितप्रभृतौ, आदिशब्दाद्गोधेरकखादिताऽऽदिपरिग्रहः। रप्पुके वाऽपिवल्मीकरोगे, वाऽपीति समुच्चये। क्रियते विधीयते तदङ्ग च्छोदो दूषिताऽवयवकर्तन, सहास्थ्ना वर्तत इति सास्थिकः / शेषरक्षार्थमदूषिताङ्गत्राणायेति, सप्तम एव शल्ये। इतिगाथाषट्कार्थः // 13 // एवं तावद् द्रव्वशल्योद्धारद्वारेण द्रव्यव्रणचिकित्सोक्ता, अथ भावग्रणेन तथैव प्रतिपादयिषुभविव्रणप्ररूपणायाऽऽहमूलुत्तरगुणरूव-स्स ताइणो परमचरणपुरिसस्स। अवराहसल्लपभवो, भाववणो होइणायव्वो१४|| मूलोत्तरगुणा महाव्रतपिण्डविशुद्ध्यादयस्तएव रूपमात्मायस्य स तथा तस्य / तायिनः संसारसागरात्प्राणिपूगपालकस्य, परमचरणपुरूषस्य प्रधानचरित्रलक्षणनरस्य, अपराधशल्यप्रभवः पृथ्वीसंघऽऽद्यतिचाररूपशल्यनिमित्तः, भावव्रणो भावक्षतरूपो, भवति स्यात्, ज्ञातव्यो ज्ञेयः / इति गाथार्थः // 14 // भावव्रणचिकित्साप्रस्तावनायाऽऽहएसो एवंरूवो, सचिगिच्छो एत्थ होइ विण्णेओ। सम्भं भावाणुगतो, णिउणाए जोगिबुद्धीए।।१५।। एष भावव्रणः, एवंरूप उक्तस्वभावः, सचिकित्सो वक्ष्प्रमाणप्रतिक्रियोपेतः, अत्र प्रायश्चित्ताधिकारे, भवति स्याद्, विज्ञयो ज्ञातव्यः, सम्यगविपरीततया भावानुगत ऐदम्पर्यसंगतः, निपुणया सूक्ष्मया, योगिबुद्ध्या समाधिविशेषवन्नरावबोधेन, योगिन एवाध्यात्मिकार्थविवेचनचतुरचेतसो भवन्ति। इति गाथार्थः / / 15|| . अथ भावव्रणचिकित्सां गाथात्रयेण दर्शयन्नाह - भिक्खायरियादि सुज्झति, अतियारो कोइ वियडणाए उ। वितिओ उ असमितो मि,त्ति कीस सहसा अगुत्तोवा ? ||16|| भिक्षाचर्याऽऽदिः भिक्षाऽटनप्रभृतिः, तत्र गमनाऽऽगमनयोर्योsतिचारःस भिक्षाटनाऽऽदिरेव / आदिशब्दाद्विहारभूमिगमनाऽऽदिभवातिचारपरिग्रहः / शुझ्यत्यपैति, अतिचारोऽतिक्रमः, कोऽपि कश्चिदत्यन्तमल्पः,प्रथमशल्यतुल्यः विकटनया त्वालोचनयैव प्रथम शल्योद्धरणमात्रकल्पनया, न तत्र मलनाऽऽदिचिकित्साकल्पं प्रायश्चि. तान्तरमुपयोगीति। तथा द्वितीयस्तु द्वितीयः पुनरतिचारः समित्यादिभङ्ग रूपः, शुद्ध्यतीति प्रकृतम्। कथम्? असमितः समितिषु प्रमत्तः, अस्मि भवाम्यहम् / इतिशब्दोऽन्यत्र योक्षयते / कस्मात् कुतो हेतोः? सहसा प्रयोजनमन्तरेण, अगुप्तो वा गुप्तिप्रमत्तो वा, न किश्चिदप्यसमितत्वेऽमुप्तत्वे वा पुष्टाऽऽलम्पनमस्ति इत्येवंविधापश्चात्तापरूपविकल्पन मिथ्यादुष्कृतदानरूपा प्रतिकमणचिकित्सेत्यर्थः / इयं च द्वितीयशल्योद्धारे व्रणमलनकल्पे इति / / 16 / / / सद्दादिएसु राग, दोसं व मणे गओ तइयगम्मि। णाउं अणेसणिज्ज,भत्तादि विगिवण चउत्ये / / 17 / / शब्दाऽऽदिकेषु शब्दरूपप्रभृतिष्विष्टानिष्टविषयेषु, रागमभिष्य, द्वेषमप्रीतिम्, वाशब्दो विकल्पार्थः / मनसि चेतसि, मनोमात्रेणेत्यर्थः। गतः प्रतिपन्नः, मुनिरिति गम्यते / तृतीयके देविकित्साविष्ण व्रणमलनपूरणकल्पे मिश्राऽऽख्ये सति शुद्ध्यतीति प्रकृतम्। तदुमयाई हि मनोगतरागाऽऽदिशल्यमिति / तथा ज्ञात्वाऽववुध्य, अनेषणीयमकप्यम्, भक्ताऽऽद्यशनप्रभृति चतुर्थद्रव्यशल्पकल्पम् / (विगिंचप Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 131 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 - पच्छित्त त्ति) विवेचनात्तस्यैव पारिष्ठापनाद्विवेकाभिधानभावचिकित्सारूपच्छोणितनिगालनकल्पात, चतुर्थेऽतिचारशल्यविशेषे, शुद्ध्यतीति प्रकृतमिते॥१७॥ उस्सग्गेण विसुज्झति, अइयारो कोइ कोइ उ तवेणं / तह वि य असुज्झमाणे, छेयविसेसा विसोहंति॥१८॥ उत्सर्गेणापि कायोत्सर्गाभिधभावचिकित्साविशेषेणाऽपि चेष्टानिरोधकल्पेन, न केवलं विवेकेन, शुद्ध्यत्यपैति, अतिचारोऽतिक्रमः, पञ्चमशल्यकल्पः। कोऽपि कश्चिद् दुष्टस्वप्नाऽऽदिः, न तु सर्वोऽपि / तथा कोऽपिएकश्चित् पुनरतिचारः पृथिवीसंघट्टनाऽऽदिषष्ठशल्यकल्पः। तपसा निर्विकृति काऽऽदिना षण्मासावसानेन भावचिकित्साविशेषण हितमितभोजनाभोजनकल्पेन, तथाऽपि च तेनापि च प्रकारेण तपोरूपेण, अशुद्ध्ययनपगच्छत्यतिचारशल्येऽतिचारशल्यजनिते वा भावव्रणे, छदविशेषाः श्रामण्यपर्यायच्छेदप्रकाराः पञ्चरात्रिंऽऽदिवाऽऽदयो भावचिकित्साविशेषाः पूतिमांसास्यिच्छेदकल्याः, विशोधपन्त्यतिचारशल्यमपनयन्ति,तज्जन्यभावव्रणं वा नीरूजयन्ति, छेद-विशेषाद्वा विशोधयन्त्याचार्याः / इति गाथात्रयार्थः॥१८॥ कथं पुनश्छेदविशेषभ्योऽपराधशद्धिर्भवठीत्यत आहछिज्जति दूसियभावो, तहोमरायणियभावकिरियाए। संवेगादिपभावा, सुज्झइ णाता तहाऽऽझाओ।।१६।। छिद्याले पनीयते। (दूसियभावो) दूषिताध्यवमायः, साधोः, तथा तेन प्रकारेण रात्रिन्दिवपञ्चकच्छेदाऽऽदिना / अवमो लघुः, स चाऽसौ रात्निकश्व गुणरत्नव्यवहारी, तस्य भावोऽवमरात्निकभावो न्यूनपर्यायता, तस्य या क्रिया करणं सा तथा तथा अवमरात्निकभावक्रियया, लघुवाऽऽपादनेनत्यर्थः / ततश्वसंवेगाऽऽदिप्रभावत् लघुताकरणजन्यसंवेगनिदाऽऽदिगुणसामर्थ्यात्, शुद्ध्यति शुद्धिमनुभवति, अपरामलविगमेन। कोऽसावित्याह-ज्ञाता बुद्धिमान्। अथवा-न्यायत् साधुजनव्यवहारात्, तथेति समुच्चये। आज्ञातं आप्तोपदेशाद्, इष्टो ह्ययमुपायो भगवद्धिस्तथाविधापराधशुद्धो / यदाह- "उक्कोस तवभूमी, समतीनो सावसं सचरणो य / छेयं पणगाईयं, पावइ जा धरइ परियाओ॥१॥" इति गाथार्थः // 16 // एवं तावदालोचनाऽऽदीनि सप्त प्रायश्चित्तानि निरूपितानि। अथ शेषनिरूपणप्रस्तावनार्थमाहमूलाऽऽदिसु पुण अहिगतपुरिसाभावेण णत्थि वणचिंता। एतेसि पि सरूवं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए।।२०।। मूलाऽऽदिषु मूलानवस्थाप्यपाराश्चिकेषु, पुनःशब्दो विशेषणार्थः। तद्रावना चेवम्-आलोचनाऽऽदीनि ब्रणोदाहरणेन चिन्तितानि, मूलाऽऽदिषु पुनः, अधिकृतपुरूषाभावेन प्रस्तुतचरणरूपनरासद्भावेन हेतुमा, नास्ति न विद्यते, बणचिन्ता क्षतिनिरूपणा, मूलाऽऽदीनि हि चरणाभाव एव भवन्ति, तत्र चातिचारासंभवान्न व्रणचिन्तोपपद्यते, ततो व्रणचिन्ताविरूहेग तत्स्वरूपप्रतिपादनाय प्रस्तावययन्नाह एतेषामपि मूलाऽऽदीनामपि, आलोचनाऽऽदीनां तूतमेव, स्वरूपं स्वभावम्, वदयामि मणिष्यामि, यथानुपूर्वि अनुपूर्व्यनतिक्रमेण / इति गाथाऽर्थः // 20 // तत्र मूलस्वरूपमाहपाणातिवातपभितिसु, संकप्पकएसु चरणविगमम्मि। आउटे परिहारा, पुण वयठवणं तु मूलं ति॥२१।। प्राणातिपातप्रभृतिषु प्राणिबधमृवावादाऽऽदिष्वपराधेषु, संकल्पकृतेष्वाकुट्टिकाऽऽदिविहितेषु, चरणविगमे चारित्राभावे सति, आवृत्ते आवृत्तपरिणामे साधौ, कथं? परिहारदोषपरिहारमाश्रित्य। पुनव्रतस्थापनमुत्तरकालं महाव्रतन्यासम्, तुशब्दः पुनरर्थः / मूलामितिमूलाभिधानं प्रायश्चित्तमेतत् / इति गाथार्थः // 21 / / अनवस्थाप्यमाहसाहम्मिगादितेया-दितो तहा चरणविगमसंकेसे। णो चिय तवेऽकयम्मी, ठविञ्जति वएसु अणवट्ठो।२२।। साधम्मिकाऽऽदयः साधुप्रभृतयः, आदिशब्दादन्यसाधर्मिकग्रहः। तत्संबन्धिद्रव्यस्योत्कृष्टस्य सवित्ताऽऽदेर्यत् स्तेयं चौर्यं तत्तया, तदादिर्यस्य तत्तया तस्मात्साधर्मिकाऽऽदिस्तेयाऽऽदितः। आदिशब्दाद्धस्तताडनाऽऽदिग्रहः / हस्तताडनं चाऽस्थिमुष्टियष्ट्यादिभिर्मरणनिरपेक्षतयाऽऽत्मनः परस्य वा स्वपक्षगतस्य पपरक्षगतस्य वा घोरपरिणामतः प्रहरणम् / आहच- "उक्कोस बहुसो वा, पउट्ठचित्तो य तेणियं कुणइय / पहरइ जो सइ पक्खे, निरवेक्खो घोरपरिणामो॥१॥" कथं यत्सामिकाऽऽदिस्तेयायऽऽदीत्याह-तथा तेनाऽऽगमोक्त प्रकारेण "उको सं' इत्यादिनोक्तरूपेण / किमित्याह-चरणविगमसंक्लेशे चारित्राभावहेतुदुष्टाध्यवसाये जाते सति, न चोचिततपसि तदवस्थायोग्याऽऽगमोक्ततपसि, अकृतेऽनासेविते, स्थाप्यत आरोप्यते, व्रतेषु महाव्रतेषु यः सोऽयमेवंविधोऽनवस्थाप्यः। तदभेदोपचारात्प्रायश्चित्तमपि तथोच्यते / इति गाथाऽर्थः // 22 // अथ सविषयं पाराश्चिकमाहअण्णोण्णमूढदुट्ठा-इकरणतो तिव्वसंकिलेसम्मि। तवसाऽतियारपारं, अंचति दिक्खिज्जइततो य॥२३|| अन्योन्यम्य मूढस्य दुष्टम्य च यदतिकरणं तथाविधक्रियासु पौनः पुन्यप्रवृत्तिरतत्तथा ततोऽन्योन्यमूढदुष्टातिकरणतः। तत्राऽन्योन्यस्याऽतिकरणं परस्परेण पुरूषयोर्वेदविकारकरणम्, मूढातिकरण पञ्चमनिद्रायशविवर्त्तनम्। दुष्टातिकरणं तु द्विविधम्-कपायतो, विपयतश्च / तत्र स्वपक्षे कषायतो लिङ्गिघातः, विषयतस्तु लिङ्गिनीप्रतिषेवा। परपक्षे तु-कषायतो राजवधः, विषयतस्तु राजदारसेवेति। अथवा-अन्योन्यमूढदुष्टाऽऽदिकरणतइति व्याख्येयम् / तत्र चाऽऽदिशब्दात्तीर्थकराऽऽद्याशातनाकरणपरिग्रहः। तीव्रसंक्लेश उत्कृष्टदुष्टपरिणामे सति, तपसा चतुर्थाऽऽदिना समयोक्तने, कालतः षण्मासाऽऽदिना द्वादशवर्षान्तेन, अतिचारपारमपराधान्तम्, अञ्चति गच्छामि। (ततो य त्ति) ततश्चातिचारपारगमनानन्तरं दीक्ष्यते प्रब्राज्यते, नान्यथेति / य एवंविधः स पाराश्चिकः, तदभेदात् प्रायश्चित्तमपि पाराश्चिकम्। इति गाथार्थः।।२३।। इहैव मतान्तरमाहअण्णेसिं पुण तब्भव-तदण्णऽवेक्खाएँ जे अजोग त्ति। चरणस्स ते इमे खलु, सलिंगचितिभेदमादीहिं॥२४|| Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 132 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त अन्येषामपरेषामाचार्याणां मतेन, पुनःशब्दो विशेषणार्थः / स एव प्रत्यक्ष आहेत इत्यर्थः / वर्णितमुक्तम्, समये सिद्धान्ते। कथमित्याहयत्रापराधः कृतो भवो जन्म तद्भवः, तस्मादपराधभवादन्योऽपरो यो / आसेवनाऽऽदिभेदात् प्रतिषेवापुरुषप्रभृतिभेदेन / तत्पुनः प्रायश्चित्त - भवोऽनागतः स तदन्यः, तद्भवश्च तदन्यश्च तद्भवतदन्यौ, तयोरपेक्षाऽऽ- विचित्रत्वम्, सूत्रादागमात्, ज्ञातव्यं विज्ञेयमिति। तत्राऽऽगमव्यवहारिणा श्रयणं तद्भवतदन्यापेक्षा, तथा / ये जीवाः, अयोग्या इत्युनुचिता एव, प्रत्यक्षज्ञानित्वात् समानेऽप्यपराधे भावानुसारेण प्रायश्चित्तदानात् तस्य इतिशब्दस्यावधारणार्थत्वात् / कस्येत्याह- चरणस्य चारित्रस्य, ते विचित्रता, श्रुताऽऽदिव्यवहारिणां, तु श्रुतमात्राऽऽदिप्रामाण्यव्यवहाजीवाः, इमे एते पाराञ्चिका उच्यन्त इत्यर्थः / खलुक्यालङ्कारे / रित्वात्, एवं प्रतिषेवाया आकुट्टिदर्पप्रमादकल्पभेदेन चतुर्विधत्वात्, कैश्चरणायोग्या इत्यत आह- स्वलिङ्ग च साधुलिङ्ग, चितिश्च चैत्यमई- द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदेन वा / एवं पुरुषस्याऽऽचार्योपाध्यायवृषभभिक्षुत्प्रतिमा, तयोर्यो भेदो विध्वंसः, स तथा, तदादिभिस्तत्प्रभृतिभिः | क्षुल्लकभेदभिन्नत्वात्, एवमेकद्विवादिवाराभेदाद, अतः प्रायश्चित्तआदिशब्दात्प्रवचनोपघातपरिग्रहः, तत्र स्वलिङ्गभेद ज्ञषिघातेन, लक्षणविचित्रत्वादपि मतान्तरं नासंगतमिति गाथाद्वयार्थः / / 27 / / लिङ्गिनीभोगेन च। चितिभेदश्च प्रतिमाविनाशनेन, चैत्यद्रव्यविनाशनेन अथोक्तविधिप्रायश्चित्तस्यैव परमार्थ प्रतिपादयन्नाहच, भवन्ति चैतत्कारिणो वर्तमानभवे भवान्तरेषु च चरणायोग्याः, एयं च एत्थ तत्तं, असुहज्झवसाणओ हवति बंधो। हतबोधिलाभत्वात् / आह च- "संजइ चउत्थभंगे, चेइयदव्वे य आणाविराहणाणुग-मेयं पिय होति दट्टट्वं // 28|| पवयणुड्डाहे / रिसिघायणे चउत्थे, मूलग्गी बोहिलाभस्स"॥१॥ इति सुहभावा तश्विगमो, सो विय आणाणुगो णिओगेण। गाथार्थः // 24 // पच्छित्तमेस सम्म, विसिट्ठओ चेव विण्णेओ॥२६॥ अथेदमेव समर्थयन्नाह एतचेदं पुनः, अत्र प्रायश्चित्तविषये,तत्त्वं परमार्थो, यदुताऽऽशुभाध्यआसयविचित्तयाए, किलिट्ठियाए तहेव कम्माणं / वसानतः क्लिष्टपरिणामात्, भवति स्यात्, बन्धोऽशुभकर्मबन्धनम्, (एयं अत्थस्स संभवातो,णेयं पि असंगयं चेव // 25 / / पि य ति) इदं पुनरशुभाध्यवसानम् / आज्ञाविराधनामाप्तोपदेशाननुआशयविचित्रतया परिणामवैचित्र्यात्, क्लिष्टतया दुष्टतया, निरूप- पालनामनुगच्छत्यनुसरतीत्याज्ञाविराधनानुगम, भवति स्यात्, द्रष्टव्यं क्रमतयेत्यर्थः / तथैवेति समुचये / कर्मणां मोहनीयाऽऽदीनाम् / ज्ञेयमिति / / 28 / / शुभभावात्प्रशस्ताध्यवसायात, तद्विगमोऽशुभकर्मकिमित्याह- अर्थस्य तद्भवान्यभवयोश्चरणायोग्यतालक्षणस्य, विगमो भवति। (सो वि यति) सपुनः शुभभावः, आज्ञाऽनुग आगमानुसंभवादुपपद्यमानत्वात् न नैव, इदमपि आचार्यान्तरेणोक्तपाराश्चि- सारी भवति / नियोगेन नियमेन, अनाज्ञानुगाम्यशुभ पवेति भावः / कलक्षणमपि, आस्तामस्मदुक्तम् / असङ्गतमेवाऽयुक्तमेव / चैवशब्द प्रायश्चित्तं च विशुद्धिः पुनः, एष एव शुभभाव एव सम्यक् यथावत्। कि एवकारार्थः / इति गाथार्थः / / 2 / / सर्व एव? नेत्याह-विशिष्टको विशेषवान्, चैवशब्दौ नियोजितावेव, अथ प्रायश्चित्तस्य विचित्रतोपदार्शनेन मतान्तरमेव समर्थयन्नाह- विज्ञेयो ज्ञेयः / इति गाथाद्वयार्थः // 26 // आगममाई य जतो, ववहारो पंचहा विणिहिट्ठो। विशिष्टः शुभाध्यवसायः प्रायश्चित्तमित्युक्तम्। अथ विशिष्ट आगम सुय आणा धा-रणा य जीए य पंचमए|२६|| त्वमेव तस्य दर्शयन्नाहएयाणुसारतो खलु, विचित्तमेयमिह वणियं समए। असुहऽज्झवसाणाओ,जो सुहभावो विसेसओ अहिगो। आसेवणाऽऽदिभेदा,तं पुण सुत्ताउणायव्वं // 27|| सो इह होति विसिट्ठो,ण ओहतो समयणीतीए॥३०॥ आगमाऽऽदिश्च ज्ञानविशेषप्रभूतिः / मकारो लाक्षणिकः / चकारश्च अशुभाध्यवसानादकृत्यासेवननिबन्धनसंक्तेशात्सकाशात्, यः युक्त्यन्तरसमुच्चयार्थः / यतो यस्माद्धेतोः, व्यवहारः प्रायश्चित्त शुभभावः प्रायश्चित्ततया विवक्षितसत्परिणामः, विशेषतो विशेसमाचारः, पञ्चधा पञ्चभिः प्रकारैः, विनिर्दिष्टोऽभिहितो जिनैः। षणाऽधिकोऽनर्गलतरः, सशुभभावः, इह प्रायश्चित्तप्रक्रमे, भवति वर्तते, पञ्चधात्वमेत्राऽऽह-आ मर्यादाऽभिविधिभ्यां गम्यन्ते परिच्छिद्यन्तेऽर्था विशिष्टोऽतिशयवान्, न नैव, ओघतः सामान्येन, शुभभावमात्रमित्यर्थः / येनासावागमः केवलमनः पर्यायाबधिचतुर्दशदशनवपूर्वलक्षणः / समयनीत्याऽऽगमन्यायेन। इति गाथार्थः // 30 // व्यवहारता चास्य व्यवहारहेतुत्यात्। तथा श्रुतं श्रुतज्ञानं शेषमङ्गानङ्ग व्यतिरेके दोषमाहभेदम् / इह पदद्वयेऽपि प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः / तथा- आज्ञाय- इहरा बंभादीणं, आवस्सयकरणतो उ ओहेणं / झीतार्थो देशान्तरस्थगीतार्थस्य तत्समीपगमनाय स्वातिचाराणां पच्छित्तं ति विसुद्धी, ततो ण दोसो समयसिद्धो // 31 // गूढभाषोक्तानां निवेदनार्थमगीतार्थमाज्ञापयति, सा च तत्प्रवृत्तिरूत्त- इतरथाऽन्यथा, शुभभावमात्रस्यापि प्रायश्चित्तत्ये इत्यर्थः / ब्राह्मयरदानार्थमिति / तथा धारणा बहुशो निवेदिताऽतिचारलब्धशुद्धनि- दीनामादिदेवज्येष्ठपुत्रीप्रभूतीनाम्, आदिशब्दात्सुन्दर्यादिपरिग्रहः / मवधारणम् / तथा जीठं गीतार्थसंविग्नप्रवर्तितशुद्धव्यवहारः / चशब्दौ किमित्याह-आवश्ककरणतएव प्रतीतात्। तुशब्द एवकारार्थः। ओधेन समुच्चयाथौ / पञ्चमः // 26 // तत एतदनुसारत पञ्चविधव्यवहारानु- सामान्येन, विशिष्टतरशुभभावभावेनेत्यर्थः। प्रायश्चित्तं शुद्धयर्थमनुष्ठान सारेण / खलुक्यालङ्कारे, विचित्रं बहुप्रकारमेतत् प्रायश्चित्तम् / इह / कृतमभविष्यत्। इति कृत्वा, विशुद्धिः कर्मविगमोऽमविष्यत, ततो विशुद्ध। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 133 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त सकाशात्, न नैव, दोषो दूषणम्, समयसिद्ध आगमोक्तः स्त्रीत्वलक्षणोऽभविष्यद्, इति न शुभभावमात्रं शुद्धिनिमित्तमिति / / 31 / / (अत्र ब्राह्मी- | वृत्तान्तः 'बभी' शब्दे वक्षयते) अथोपसंहरन्नाहता एयम्मि पयत्तो, कायव्वो अप्पमत्तयाए उ। सतिबलजोगेण तहा, संवेगविसेसजोगेण // 32 // यस्माद्विशिष्ट एव शुभभावः शुद्धिनिमित्तं भवति / तस्मादेतस्मिन् विशिष्टशुभभावे, प्रयत्रः समुद्यमः, कर्तव्यो बिधेयः, अप्रमत्ततया त्वप्रमादेनैव, स्मृतिबलयोगेन स्थूलेतराऽऽद्यतिचारस्मरणसामर्थ्ययुक्ततया, तथेति समुचये / संवेगविशेषयोगेन भवभयातिशयसंबन्धेन / इति माथाऽर्थः // 32 // अथ कस्माद्विशिष्टशुभभावे अप्रमत्तत्वाऽऽदिना यत्नो विधेय इत्याहएतेण पगारेणं, संवेगााइसयजोगतो चेव। अहिगयविसिट्ठभावो, तहा तहा होति णियमेणं // 33 // एतेनोक्तेन प्रकारेणाऽप्रमत्तातास्मृतिबलयोगलक्षणेन। संवेगातिशययोगतश्चैव संवेगप्रकर्षसंबन्धत एव च, इह चैतेन प्रकारेणत्यनेनैव संवेगसंयोगस्य ग्रहणे यत्पुनः साक्षात्तद्ग्रहणं, तत्तस्य विशिष्टशुभभावजनने मुख्यकारणताप्रतिपादनार्थम्। अधिकृतविशिष्टभावो विशुद्धिहेतुप्रस्तुत प्रकृष्टशुभाध्यवसायः / तथा तथा जीववीर्यातिशधेन, भवति स्यात्, नियमेनावश्यंभावेन / इति गाथाऽर्थः // 33 // ततश्चतत्तो तव्विगमो खलु, अणुबंधावणयणं व होजाहि। जं इय अपुव्वकरणं, जायति सेढी य विहियफला।३४|| ततो विशिष्टशुभभावात्, तद्विगमः खलु अशुभाध्यवसायजातकर्मविनाश एव, अनुबन्धापनयन वाऽशुभभावजातकर्मानुबन्धव्यवच्छेदोवा, वेति विकल्पार्थः / भवेत्स्यात्, सर्वथा तद्विगमा भावे। अथ कथं तद्विगमो भवतीत्याह-यत् यस्माद्धेतोः, इत्यमुना प्रकारेण विशिष्टशुभभावलक्षणेन, अपूर्वकरणमष्टमगुणस्थानकमपूर्वेषामध्ययवसायविशेषाणां स्थितिघाताऽऽदीनामधि करणभूतम, जायते भवति, श्रेणिश्चोपशमकक्षपकश्रेणिरूपा, विहितफला सिद्धान्तनिरूपितप्रयोजनानुत्तरसौख्यनिर्वाणफला। इति गाथाऽर्थः // 34 // ___अथ प्रायश्चित्तरूपशुभभावस्य पुनरपि महार्थतां दर्शयन्नाहएवं निकाइयाण वि, कम्माणं भणियमेत्थ खवणं ति। तं पि य जुञ्जइ एवं, तु भावियव्वं अओ एयं // 35 // एवमित्यनेनैव न्यायेनापूर्वकरणश्रेणिजननरूपेण, निकाचितानमपि उपशमनाऽादिकरणान्तराविषयत्वेन नितरांबद्धानामपि, आस्तामनिकाचितानां कर्मणां ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनाम्, भणितमुक्तमागमे"तवसा उ निकाइयाण पि' इति वचनात्। अत्र प्रायश्चित्तरूपशुभभावे, क्षपण सर्वथा क्षयो भवतीति यत्तदपिच, अनिकाचितक्षपणं तुनिर्विचारमित्यपि चशब्दार्थः / युज्यते संगच्छते, ततश्चैवं तु एवमेव कर्मविगमकर्मानुबन्धापनयन-हेतुत्वेनैवं, भावयितव्यं पर्यालोचनीयमतो | निकाचितकर्मक्षपणउ-हेतुत्वात्, एतत् शुभभावरूपं प्रायश्चित्तमिति गाथाऽर्थः // 35 // अथाऽविहितानुष्ठानेषु युक्तं प्रायश्चित्तं, न तु विहितेषु भिक्षाचर्याऽऽदिष्विति परमतमादर्शयन्नाहविहियाणुट्ठाणम्मी, एत्थं आलोयणाऽऽदि जं भणियं / तं कह पायच्छित्तं, दोसाभावेण तस्स त्ति / / 36|| अह पं पि सदोसा चिय, तस्स विहाणं तु कह णु समयम्मि। न य णो पायच्छित्तं, इमं पि तह कित्तणाओ उ॥३७।। विहितानुष्ठाने आगमोक्तक्रियायां भिक्षाचर्याऽऽदिरूपायाम, अत्र प्रायश्चित्ताधिकारे, आलोचनाऽऽदि आलोचनाकायोत्सर्गप्रभूति, यत्प्रायश्चित्तं, भणितमुक्तमागमे- "भत्ते पाणे सयणासणे य अरहतसमणसेज्जासु / उच्चारे पासवणे, पणवीसं होति ऊसासा // 1 // " इति वचनात् / तत्वथं प्रायश्वित्तम् ? / न कथञ्चित् घटत इत्यर्थः / दोषाभावेन निर्दोषत्वेन हेतुना, तस्य भिक्षाऽटनाऽऽदि-विहितानुष्ठानस्य, इति : वाक्यसमाप्तौ // 36 // अथ ब्रूषे, तदपि विहितानुष्ठानमपि, आस्तांतदन्यत्। सदोषमेवसातिचारमेव, तस्य भिक्षाऽटनाऽऽदेर्विधानमुपदेशः, कथ केन प्रकारेण? नुइति वितर्के। समये सिद्धान्तेन तद्विधिः प्राप्नोतीत्यर्थः / नन्वालोचनाऽऽदिप्रायश्चित्तमेव न भवतीत्याशङ्ख्याऽऽहन च नो, प्रायश्चित्तमपि तु प्रायश्चित्तमेव, इदमप्यालोचनाऽऽद्यपि, आस्तां तप आदि, कुत इत्याह-तथा कीर्तनात् तु प्रायश्चित्तत्वेन संशब्दना देव। तथाहि- "आलोयणपडिक्कमणे मीसषिवेगे।" इत्यादि। इति गाथाद्वयार्थः // 37 // सूरिराहभण्णइ पायच्छित्तं, विहियाणुट्टाणगोयरं चेयं / तत्थ वि य किं तु सुहूगा, विराहणा अस्थि तीऍ इमं // 38|| भण्यतेऽभिधीयते अत्रोत्तरम् प्रायश्चित्तम्, न तु न प्रायश्चित्तम् तथा विहितानुष्ठानगोचरं चविधेयक्रियाविषयम्, चशब्दो विशेषणसमुच्चये। तत्र प्रथमविशेषणेन- "तं कहपायच्छित्तं' इत्यादिप्रायश्चित्तदूषणं वक्षयमाणयुक्तिबलान्निराकृतम् / द्वितीयेन तु "अह तं पि'' इत्यादि विहितानुष्ठानदूषणमिति / एतदालोचनाऽऽदिप्रायश्चित्तं, किं तु केवलं तत्रापि च विहितानुष्ठानेऽपि च, आस्तामितरत्र, सूक्षयाऽल्पा, विराधना खण्डना, अस्ति विद्यते, अतस्तस्या विराधनायाः, शुद्धयर्थमिदमेतदालोचनाऽऽदीति गाथाऽर्थः // 38 // अथ कथमुपयुक्तस्यापि सूक्षमा विराधना _स्यादित्याशक्याऽऽहसव्वावत्थासु जओ, पायं बंधो भवत्यजीवाणं। भणितो विचित्तभेदो,पुवायरिया तहा चाहु॥३६॥ सर्वावस्थासु सरागवीतरागाऽऽदिसमस्तपर्यायेषु, यतो यस्माद्धेतोः, प्रायो बाहुल्येनायोग्यावस्थायां बन्धो न स्यादपीति सूचनार्थ प्रायोग्रहणम् / बन्धः कर्मबन्धो, भवस्थजीवानां संसारिजन्तूना, न तु सिद्धानां, भणित उक्तः सिद्धान्ते। किंविध इत्याह-विचित्रभेदो बहुप्रकारः, कुत एतत्सिद्धमित्याह-पूर्वाऽऽचार्या अतीतसूरयः, तथा च कर्मबन्धविचित्रतार्थत्वेन आहुर्बुवते / इति गाथाऽर्थः // 36 // Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 134 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त यदाहुस्तदेव दर्शयन् गाथापञ्चकमाहसत्तविहबंधगा हों -ति पाणिणो आउवजियाणं तु। तह सुहुमसंपराया, छव्विहबंधा विणिहिट्ठा / / 40|| सप्तविधबन्धकाः सप्तप्रकारकर्मोपर्जिकाः, भवन्ति स्युः, प्राणिनो जीवाः, आयुर्वर्जितानां त्वायुःकर्मविरहितानामेव, शेषाणां ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीना, तद्धि एकत्र भवे सकृदेव बध्यते / तथेति समुच्चये। सूक्ष्मसंपराया दशमगुणस्थानवर्तिनः षड्डिधो बन्धो येषां ते तथा / विनिर्दिष्टा उक्ता आगमे // 40 // कथं षड्डिधबन्धा इत्याहमोहाऽऽनुयवज्जाणं, पगडीणं ते उ बंधगा भणिता। उवसंतखीणमोहा, केवलिणो एगविहबंधा / / 41|| मोहाऽऽयुर्षर्जाना मोहनीयाऽऽयुष्कवर्जितानाम्, प्रकृतीनां कर्म भेदाना, ते तु सूक्ष्मसंपरायाः पुनः, बन्धका आवर्जकाः, भणिता उक्ताः, तथा उपशान्तः सर्वथाऽनुदयावस्थःक्षीणश्च निर्जीणो मोहो मोहनीयं कर्म येषां ते तथा। केवलिनश्च सयोगिकेवलिनः, एकविधबन्धा व्यक्तमिति।।१।। ते पुण दुसमयठितिय-स्स बंधमाण पुण संथरायस्स। सेलेसीपडिवण्णा, अबंधया होति विण्णेया॥४२॥ / ते पुनस्त्रयोऽपि द्वौ समयौ बन्धोदयविशिष्टौ स्थितिरवस्थानं यस्य तत् द्विसमयस्थितिकं योगप्रत्ययं सातवेदनीयमित्यर्थः, तस्य, बन्धका अर्जकाः, न तु न पुनः, संपरायस्य कषायप्रत्ययस्य, उपशान्तक्षीणकषायत्वात्तेषाम्, तथा शैलेश्ययोव्यवस्थासंभवः करणविशेषस्ता प्रतिपन्ना आश्रिता येते तथा ते , अबन्धकाः कर्मबन्धरहिताः, भवन्ति स्युः, विज्ञेया ज्ञातव्या इति॥४२॥ एवं प्रकृतिबन्धापेक्षया सर्वावस्थासु बन्ध उक्तोऽथ स्थित्यपेक्षया तमाहअपमत्तसंजयाणं, बंधठिती होति अट्ठ उ मुहूत्ता। उक्कोसेण जहण्णा, भिण्णमुहूत्तं तु विण्णेया / / 43|| अप्रमत्तसंयतानां सप्तमगुणस्थानकवठाम्, बन्धातः स्थितिर्बदस्य कर्मणोऽवस्थानम्। भवति स्याद्, अष्ट तु अष्टावेव, मुहुर्तान् नाडिकाद्वयमानान, उत्कर्षणोत्कर्षतः,जघन्या तु सर्वाऽल्पा पुनः, भिन्नमुहूर्तमन्तर्मुहूर्त यावत् / तुशब्दः पुनरर्थो योजित एव, विज्ञेया अवसेया, कषायाणां स्थिति बन्धहेतूनां विद्यमानत्वादिति // 43 // जे उपमत्ताऽगाउ-ट्टियाए बंधंति तेसि बंधठिती। संवच्छराणि अट्ट उ, उक्कोसियरा मुहत्तंतो॥४४॥ येतुये पुनः, प्रमत्ताः प्रमत्तसंयताः षष्ठगुणस्थानकवर्तिनः अनाकुट्टिक्या अनुपेत्यकरणेन प्राणातिपाताऽऽदौ वर्तमाना बध्नन्त्यावर्जयन्ति कर्म, तेषां बन्धस्थितिः कर्मबन्धावस्थानं संवत्सरान वर्षाणि, अष्ट तु अष्टावेव, उत्कर्षा उत्कृष्टा भवन्ति, इतरा जघन्या पुनः / मुहूर्तान्तरमन्तर्मुहूर्त यावदिति / गाथापञ्चकार्थः / / 44 // प्रस्तुतयोजनामाहता एवं चिय एयं, विहियाणुट्टाणमेत्थ हवइ त्ति। कम्माणुबंधछेयण-मणइं आलोयणाऽऽदिजुयं // 45|| यस्मात् सर्वावस्थासु कर्मबन्धोऽस्ति, कर्मबन्धोनुमेया च विराधना, | इष्यत चासौ द्रव्यतो वीतरागस्यापि छभस्थस्य चतुर्णामपि मनोयोगाऽऽदीनामभिधानात्, तस्मात् / (एवं चिय त्ति) एवमेव विराधनायाः शोधनीयत्वेन एतद्भिक्षाऽटनाऽऽदिकम्, विहितानुष्ठान विधेयक्रिया। अत्र कर्मापनयनप्रक्रमे, भवति सयाद्, इतिशब्दः समाप्त्यर्थो गाथाऽन्ते योज्यः। किंविधं भवतीत्याह-कर्मनुबन्धच्छेदनं कर्मसत्ताऽवच्छेदकम, अनघमदाष, परोक्त-दूषणाभावात् / किं भूतं सदित्याहआलोचनाऽऽदियुतमालोचनाप्रतिक्रमणाऽऽदिप्रायश्चित्तसमन्वितमिति गाथाऽर्थः / / 4 / / इटैयार्थे परमतमाशक्य परिहरन्नाहविहिताणुट्ठाणत्तं, तस्स वि एवं ति ता कहं एयं / पच्छित्तं णणु भण्णति, समयम्मि तहा विहाणाओ।४६। विहितानुष्ठनत्वं विधेयक्रियात्वम्, तस्याप्यालोचनाऽऽदिप्रायश्चित्तस्याऽपि प्राप्नोति, आस्तां भिक्षाऽटनाऽऽदेः / एवमुक्तन्यायेन, विहितानुष्ठानमालोचनाऽऽदियुतं सत्कर्मानुबन्धच्छेदनं भवतीत्येवंलक्षणेन, इतिशब्दो वाक्यसमाप्तौ / यत एवं तत्तस्मात्, कथम्? न कथञ्चिदित्यर्थः / एतदालोचनाऽऽदिप्रायश्चित्तमुच्यत इति परः / सूरिराह नन्विति परमताक्षमायाम, भण्यते उच्यते, उत्तरमत्र समये सिद्धान्ते, तथा तेन प्रकारेण प्रायश्चित्तत्वेन, विधानाद्विहितत्वादिति गाथाऽर्थः / / 46 / / अथवा प्रायश्चित्तमपि मिहितानुष्ठानमेवेति दर्शयन्नाहविहियाणुट्ठाणं चिय, पायच्छित्तं तदण्णहाण भवे / समए अभिहाणाओ, इट्ठत्थपसाहगं णियमा॥४७|| विहितानुष्ठानमेव विहितक्रियैव, प्रायश्चित्तमालोचनाऽऽदिकमिति प्रतिज्ञा, समये सिद्धान्तेऽमिधानादुक्तत्वादिति हेतुः, भिक्षाऽटनाऽऽदिवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूहाः / विपर्यये बाधकमाह-तत्प्रायश्चित्तम्, अन्यथाऽविहितानुष्ठाने सति, न भवेन्नजागते, इष्टार्थप्रसाधकं कर्मविशोधकमित्यर्थः / नियमादवश्यंतयेति / यांदेष्टार्थसाधकं न भवति तद्विहितानुष्ठानमपि न भवति, यथा हिंसाऽऽदि, इष्टार्थसाधकं च प्रायश्चित्तम, अतो विहितानुष्ठानमिति। अथवा पूर्वोक्तार्थमेव भावयन्नाहविहितानुष्ठानमेव प्रायश्चित्तम्, तत्प्रायश्चित्तमन्यथा विहितानुष्ठानत्वा भावे न भवेद् अविहितानुष्ठानत्वादेवेति। नन्वेवं विहितानुष्ठानत्वे प्रायश्चित्तस्य भिक्षाऽटनाऽऽदिवच्छोध्यतैव स्यान्न शोधकतेत्याशड्क्याऽऽह-समये अभिधानाच्क्रोधकतया प्रायश्चित्तस्याऽऽगमेऽभिहितत्वादिष्टार्थप्रसाधक नियमाद्विशोधकमेव तदिति गाथाऽर्थः // 47 // अथ प्रायश्चित्तस्य विहितानुष्ठानत्वसमर्थनार्यवाहसव्वा वि य पव्वज्जा, पायच्छित्तं भवंतरकडाणं। पावाणं कम्माणं, ता एत्थं णस्थि दोसो ति॥४८|| सर्वाऽपि च समस्ताऽपि च, न केवलं तदेकदेशः / प्रव्रज्या महाव्रतप्रतिपत्तिः, प्रायश्चित्त विशुद्धिहेतुर्भवति, केषामित्याह-भवान्तरकृतानां जन्मान्तरोपात्तानाम्, पापानां भवनिबन्धनत्वेन दुष्टानाम्, कर्मणां प्रतीतानाम्, यत एवं तत्तस्माद्, अत्र प्रायश्चित्तस्य विहितानुष्ठानत्वे, नास्ति दोषो न विद्यते दूषणं, प्रव्रज्यालक्षणप्राययश्चित्तस्य विहितानुष्ठानत्वाभ्युपगमात् इतिशब्दः समाप्तौ / इति गाथाऽर्थः // 48|| Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त किं पुन: सम्यक्चरितस्य प्रायश्चित्तस्य लिङ्गमित्याहचिण्णयस्स णवरि लिंग, इमस्स पाएणमकरणया तस्स। दोसस्स तहा अण्णे, नियम परिसुद्धए विंति||४|| चीर्णस्य राम्यकचरितस्य, (नवरि त्ति) केवल, लिङ्ग चिह्नम्, -अस्य प्रायश्चित्तस्य, प्रायेण बाहुल्येनः प्रायोणेतिकरणात्कारणमपि संभाव्यते। अवरणमनासेवन, तस्य यमाश्रित्य प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नम्, दोषस्यापराधस्य प्रायश्चित्तहस्य, तथेति समुच्चये, अन्येऽपरे सूरयः, नियम दोषस्याकरणमेवेत्येवलक्षणम्, प्रायेणेति प्रागुक्तविशेषणस्यनिष्टः, परिशुद्धके विशुद्धेऽपगते, दोष इति प्रक्रमः / बुवतेऽभिदधति। अन्ये तु व्याख्यान्तिनियममकरणनियमस्, आसंसार तदोषाऽऽसेवनात्, परिशुद्धये दोषविशुद्धये / इति गाथाऽर्थः // 46 / / अथेदमपि मतान्तरं सङ्गतमेवेति दर्शयन्नाहणिच्छयणएण संजय-ठाणापातंम्मि जुज्जति इमं पि। तह चेव पयट्टाणं, भवविरहपराण साहूणं // 50 // निश्वयन्येन तत्वनयमतेन, परिणामत इत्यर्थः / संयमस्थानाऽऽपाते चरणशृद्धिविशेषाप्रतिपाते सति, युज्यते संगच्छते, इदमपि आचार्यान्तरमतमपि, आरतामस्मन्मतम् / केषामित्याह-संय-माप्रतिपातेनैव, प्रहलानां व्यापृलानां, भवविरहपराणां संसारछेदनप्रधानानाम्, साधूनां संयतानमिति गाथाऽर्थः // 50 // पञ्चा०१६ विव०। "पाच्छित्तं ओहियं निच्छइयं च।" पं० चू०४ कल्प० स्था०। प्रायश्चित्तसूत्रद्वयम् - बसविहे पायच्छित्ते पन्नते / तं जहा-णाणपायच्छित्ते, दसणपायच्छित्ते वियक्तकिच्चे / चउविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते / तं जहा- पडि सेवणापायच्छित्ते, संजोयणापायच्छिते, आरोवणापायच्छित्ते, पलिउंचणापायच्छित्ते। तत्र ज्ञानभेय प्रायश्चित्तम्, यतस्तदेव पापं छिनत्ति, प्रायश्चित्तं वा | शोधयतीति निरूक्तिवशाद् ज्ञानं प्रायश्चित्तमिति / एवमन्यत्रापि, (वियतकिचेति) व्यक्तस्य भावतो गीताथस्य, कृत्यं करणीयं व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्तमिति / गीतार्थो हि गुरुलाघवपर्यालोचनेन यत्किश्चन करोति तत्सर्वपापविशोधकमेव भवतीति। अथवा-ज्ञानाऽऽद्यतिचाराविशुद्धये यानि प्रायश्चित्तान्यालोचनाहॉऽऽदीनि विशेषतोऽभिहितानि तानि तथा व्यपदिश्यन्ते। “वियत्त त्ति "विशेषण अवस्थाऽऽद्यौचित्येन विशेषानमिहितमपि, दत्तं वितीर्णमभ्यनुज्ञातमित्यर्थः / यत्किञ्चिन्मध्यस्थगीतार्थन कृत्यमनुष्टानं तद् विदत्तकृस्य प्रायश्चित्तमेव / "वियतकिच्चेति' पाठान्तरम्। प्रीतिकृत्यं वैयावत्याऽऽदीति। प्रतिषेवणमासेवनमकृत्यस्येति प्रतिषेवणा। सा च द्विधापरिणामभेदात्, प्रतिषेवणीयभेदाद्वा। तत्र परिणामभेदात् - "पडिसेवणाउ भावो, सो पुण कुसलोव्व होजऽ कुसलो वा। कुसलेण होइ कप्पो, अकुसलपरिणामओ दप्पो // 1 / / '' प्रतिषेवणीयभेदातु- "मूलगुणउत्तरगुण, दुविहा पडिसेवणा समासेण / मूलगुणे पंचविहा, पिंडोविसहाइया इयरा ||1||" तस्यां प्रायश्चित्तमालोचनाऽऽदि। तच्चेदम्-'आलोयण पडिकमणे, मीसविवेगे, तहा विउस्सगे। तवळ्यमूलअणवठ्ठया य पारंचिए चेव // 1 // " इति प्रतिषेवणाप्रायश्चित्तम्। तथा संयोजनमेकजातीयातिचारमीलनं संयोजना यथा शय्यातरपिण्डो गृहीतः, सोऽप्युदकाऽऽर्द्रहस्ताऽऽदिना, सोऽप्यभ्याहतः, सोऽप्याधाकर्मिकः, तत्र यत्प्रायश्चित्तंतत् संयोजनाप्रायश्चित्तम् / तथा आरोपणमेकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताध्यारोपणमारोपणा / यथा-पञ्चरात्रिन्दिवं प्रायश्चित्तमापन्नः, पुनस्तत्सेवने दशरात्रिन्दिवं, पुनः पञ्चदशरात्रिन्दिवम्। एवं यावत्षण्मासान्, ततस्तस्याधिकं तपो देयं न भवति।अपितु शेषतपांसि तु तत्रैवान्तर्भावनीयानि। इह तीर्थ षण्मासान्तत्वात्तपस इति। उक्तं च- "पंचाईय रोवणे, नेयव्वा जाव होंति छम्मासा। तेण परमासियाणं, छण्हुवर्रि झोसणं कुल्ला।।१।।" इति आरोपणायाः प्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तमिति / तथा परिकृञ्चनमपराधस्य क्षेत्रकालभावानां गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणनं परिकुञ्चना, परिवञ्चना वा / उक्तंच- "दव्वे खेत्ते काले, भावे पलिउंचरण चउवियप्प ति"। तथाहि- "सचिते अच्चित्ते, जणवयपडिसेवियं च अद्धाणे / सुभिक्खे दुभिक्खे, हट्टेणं तह गिलाणेणं / / 1 / / " इति। तस्याः प्रायश्चित्तं परिकुञ्चनाप्रायश्चित्तम् / विशेषोऽत्र व्यवहारपीठादवसेय इति / प्रायश्चित्तं च कालापेक्षया दीयत इति कालनिरूपणासूत्रम् / तत्र प्रमीयतेपरिच्छिद्यते येन वर्षशतपल्योपमाऽऽदितत्प्रमाण, तदेव कालः प्रमाणकालः स च श्रद्धा कालविशेष एवं दिवसाऽऽदिलक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तीति। उक्तं च - "दुविहो पमाणकालो, दिवसपमाणं च होइ राई य। वउ पोरिसिओ दिवसो, राई चउपोरिसी चेव।।१।।" इति। स्था० 4 ठा० 1301 (4) अथ प्रायश्चित्तमिति कः शब्दार्थः 1, कतितिधं प्रायश्चित्तमिति प्रश्रसुपजीव्य प्रायश्चित्तनिरूक्ताऽऽदिद्वारकलाप प्रतिपादनाय द्वारगाथामाहपायच्छित्तनिरूत्तं, भेया जत्तो परूवणावहुलं। अज्झयणाण विसेसो, तदरिहपरिसाय सुत्तत्थे||३४|| प्रथमतः प्रायश्चित्तनिरूक्तं प्रायश्चित्तशब्दार्थो वक्तव्यः। ततः प्रायश्चित्तस्य भेदाः प्रतिसेवनाऽऽदयो वक्तव्याः / तदनन्तरं यतो निमित्तात्प्ररूपणाबाहुल्यम् / किमुक्तं भवति ?-यतो निमित्तात्प्रतिषेवणातः संयोजनाप्रायश्चित्तम्, आरोपणाप्रायश्चित्तम्, परिकुश्चनाप्रायश्चित्तं च पृथगुपपद्यते, तद्वक्तव्यम् / ततोऽनयोः कल्पाध्ययनव्यवहाराध्ययनयोर्विशेषो नानात्वं वक्तव्यम्, तदनन्तरं तदर्हाऽपि प्रायश्चित्तार्हा परिषद् वाच्या, ततः सूत्रार्थः, एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / व्यासार्थ तु प्रतिद्वारं वक्षयति // 34 // तत्र निरूक्ताद्वारप्रतिपादनार्थमाहपावं छिंदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णते तेणं। पाएण वा विचित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं // 35|| यस्मात् शोधिरूपो व्यवहारोऽपराध संचितं पापं छिनत्ति विनाशयति, तेन कारणेन प्रायश्चित्तं भण्यते / पृषोदराऽऽदित्वात् रूपसिद्धिः / अथ प्रायेण प्रायोऽपराधमलिनं चित्तं जीवमत्र चित्तशब्देन 'चित्तचित्तवतोरभेदोपचारात् "जीवोऽभिधीयते / तथा चाऽऽह चूर्णिकृत्-चित्तमिति जीवस्याऽऽख्येति, विशोधयत्ययराधमलरहितं करोति, तेन कारणेन, प्रा* कालनिरूपणा सूत्रं स्थानाङ्गमूलपाठतो ज्ञेयम्। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त यश्चित्तं, प्रायः यथाऽवस्थितं भवत्यस्मादिति प्रायश्चित्तमिति व्युत्पत्तेः / गतं निरूक्तद्वारम् // 3 // इदानीं भेदद्वारप्रतिपादनार्थमाहपरिसेवणा य संजो-यणा य आरोवणा य बोधव्वा। पलिउंचणा चउत्थी, पायच्छित्तं चउद्धा उ॥३६।। प्रतिषिद्धस्याऽऽसेवना प्रतिपेवणा, अकल्पसमाचरणमिति भावः। चः समुच्चये। संयोजना शय्यातरराजपिण्डाऽऽदिभेदन्निापराधजनितप्रायश्चित्तानां संकल्पनाकरणम्, आरोप्यते इति आरोपणा। प्रायश्चित्तानामुपर्युपर्यारोपणं यावत्पण्मासाः, परतो वर्द्धमानस्वामितीथें आरापणायाः प्रतिषेधात् / परिकुञ्चनं परिकुश्चना, गुरुदोपस्य मायया लघुदाषस्य कथनम्-यथा-सचित्तं प्रतिषेव्य मया अचित्तं प्रतिषेवितमित्याहेति। एषा प्रतिषेवनात आरभ्य गम्यमाना चतुर्थी एवमेतत् प्रायश्चित्तं चतुर्द्ध / भवति / तत्र-"यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायात्। प्रथमतः प्रतिषेवणोच्यते-सा च प्रतिषेवणा प्रतिषेचकप्रतिषेव्यव्यतिरेकेण नोएपद्यते, सकर्म कक्रियायाः कर्तृकर्मव्यतिरेकेणासंभवात् / व्य० 1 उ०। (प्रतिषेवणाप्रायश्चित्तं स्वस्थाने) आलोचनाऽऽदिप्रतिषेवणारूपंप्रायश्चित्तमिदंदशधादशप्रकार, तामेव दशप्रकारतामुपदर्शयति आलोयणपडिकमणे, मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे। तवछेदमूलअणव-ट्ठिया य पारंचिए चेव // 63|| आङ्मर्यादायाम्। सा चमर्यादा इयम्- "जह बालो जपतो, कज्जमकज्जच उज्जए भणइ।तं तह आलोएडा, मायामयविप्पमुक्को उ॥१॥" अनया मर्यादया 'लोबूदर्शने / धुराऽऽदित्वात् णिच् / लोकनं लोचना प्रकटीकरणम् / आलोचना गुरोः पुरतो वचसा प्रकटीकरणमिति भावः / यत् प्रायश्चित्तमालोचनमात्रेण शुद्धयति, तद् आलोचनाहतया कारणेकार्योपचारात् आलोचनम्। तथा-प्रतिक्रमण दोषान् प्रतिनिवर्तनमपुनःकरणतया मिथ्यादुष्कृतप्रदानमित्यर्थः / तदर्ह प्रायश्चित्तमपि प्रतिक्रमणम्। किमुक्तं / भवति-प्रायश्चित्तं मिथ्यादुष्कृतमात्रेणैव शुद्धिमासादयति, न च गुरुसमक्षमालोच्यते / यथा सहसाऽनुपयोगतः प्लेमाऽऽदिप्रक्षेपादुपजातं प्रायश्चित्तम् / तथाहि-सहसाऽनुपयुक्ते यदि श्लेष्माऽऽदिप्रक्षिप्तं भवति / न च हिंसाऽऽदिकदोषमापनस्तहिं गुरुसमक्षमालोचनामन्तरणाऽपि मिथ्यादुष्कृतग्रदानमात्रेण शुध्यति / तत्प्रतिक्रमत्वात् प्रतिक्रमणं, यस्मिन्पुनः प्रतिसेविने प्रायश्चित्ते यदि गुरुसमक्षमालोचयति, आलोच्य च गुरुसंदिष्टः प्रतिक्रामति, पश्चाच मिथ्यादुष्कृतमितिव्रते तदा शुद्ध्यति तत् आलोचनाप्रतिक्रमणलक्षणोमयाहत्वान्मिश्रम् / तथा विवेकः परित्यागः, यत्प्रायश्चित्तं विवेक एव कृते शुद्धिमासादयति, नान्यथा, यथा आधाकर्मणि गृहीते तत् विवेकाऽऽर्हत्वात् विवेकः तथा व्युत्सर्गः कायचेष्टानिरोधः / यत्सर्गुण कायचेष्टानिरोधोपयोगमात्रेण शुद्ध्यतिप्रायश्चित्तं, यथादुःस्वप्नजनित, तद् व्युत्सर्हित्वाद् व्युत्सर्गः (तवेति) यस्मिन् प्रतिसेविते निर्विकृताऽऽहृदषण्मासपर्यवसानं तपो दीयते, तत्तपोऽर्हत्वात्तपः, यस्मिन्पुनरापतिते प्रायश्चित्ते संदूषितपूर्वपर्यायदेशावच्छेदः शेषपर्यायरक्षानिमित्तं द्रष्टव्यो विषदूषितशरीरैकदेशच्छेदनमिव शेषशरीरावयवपरिपालनाय क्रियेत भवच्छेदार्हत्वाच्छेदः / (मूल त्ति) यस्मिन्समापतिते प्रायश्चित्ते निरवशेषपर्यावोच्छेदमाधाय भूयो महाव्रताऽऽरोपण तन्मूलार्हत्वान्मूलम्। येन पुनः प्रतिसेवितेनोत्थापनाया अप्ययोग्यः सन् किश्चित्कालं न व्रजेषु स्थाप्यते यावन्नाद्यापि प्रतिविशिष्ट तपश्चरणं भवति, पश्चाच चीर्णतपास्तद्दापात् परतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थितर्हत्वादनवस्थितप्रायश्चित्तम्। (पारं चिए चेव त्ति) अञ्चू' गतौ च / यस्मिन् प्रतिसेविते लिगक्षेत्रकालतपसा पारमञ्चितं, तत्पारश्चितमहतीति पाराश्चितम् / एष संक्षेपार्थः / व्य०१3०1ठा०1०। विशे०॥ध०२०। जीत पं०व० / प्रव०। पञ्चा० तस्स उ विसुद्धिहेउं, पच्छित्तं तस्स कत्तिया भेदा। छट्ठाणादीया खलु, परूवणा तेसिमा होति / / छसुकाएसु व तेसु य, छव्विह एगिदियादि पंचविहं। संघयणपरीतावण-उद्दवणे चेव णिप्फन्नं // चउहा तु नाणवंते, दमणवंते चरित्तवंते य। तत्तो च्चिय त्ति किच्चे, अहवा दवाइयं चउहा।। अहवा अतिकमादी, चउहा कोहाइयं च चउहा तु। णाणाऽतियारमादी, होती तिविहं ति पच्छित्तं / / अहवा आहारोवहि-सेज्जऽतियारे य होति तिविहं तु / उग्गम उप्पायण ए-सणाय तिविहं तु एकेके / / आलोयणपडिकमणे, तदुभयमेवं तु होति तिविहं तु / सचित्त अवित्त मीसग, तिविहं चेदं मुणेयध्वं / / अहवा सत्तट्ठविहं, णव दसहा वा वि होति पच्छित्तं / आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे य वोसग्गे।। छट्ठगतवे य तत्तो, सव्वे तुवरिल्ल सत्तमं छेदो। अट्ठाविह छेद दुविहो, देसे सव्वे य बोधव्वो।। णवविह सव्वच्छेदो, दुह संजमुवट्ठ वज्जती मूले। कालंतरम्मि इतरे, पुण खेत्तंतोवहिं च दसभेदं / अहवऽन्नह दुविहेदं, एगविहं वा वि होज्ज नेयव्वं / पं० भा० १कल्प। (आलोचनाऽऽदिव्याख्या स्वस्थाने) (तपोऽर्हप्रायश्चित्तेमासिकाने प्रायश्चित्तानि 'तवारिह' शब्दे चतुर्थभागे 2208 पृष्ठे गतानि) (संयोजनाप्रायश्चित्तं 'संजोअणा' शब्दे वक्ष्यते) (आरोपणाप्रायश्चित्तम् 'आरोवणा' शब्दे द्वितीयभागे 386 पृष्ठे गतम्) (प्रतिकुञ्चनाप्रायश्चित्तम् 'पलिउंचणा' वस्यते शब्द) (5) प्रायश्चित्तदानयोग्या पर्षत्। इदानीम्-"तदरिहपरिसाय' इत्येतद् द्वारं व्याचिख्यासुः "इहई भणियं पुरिसजाया'' इत्यवयवं व्याख्यानयन्नाहवटुंतस्स अकप्पे, पच्छित्तं तस्स वणिया भेदा। जे उण पुरिसजाया, तस्सऽरिहा ते इमे हुंति / / 156 / / इह कल्पे वर्तमानस्य तत्रोक्तविधिना यतनया प्रवृत्तेः प्रायश्चित्त विषयतैव नोपजायते इत्यग्रहणम् / अकल्पे दाऽऽदौ वर्त - Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 137 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त मानस्य यत्प्रायश्चित्तं, तस्य ये भेदाः प्रतिसेवनासंयोजनाऽऽदयस्ते वर्णिताः, ये पुनरतस्य प्रायश्चित्तस्यार्हा योग्याः पुरुषप्रकाराः, पुरुषभेदा इत्यर्थः। ते इमे वक्ष्यमाणस्वरूपा भवति। तानेव दर्शयतिकयकरणा इयरे वा, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा। निरवेक्खा जिणमादी सावेक्खा आयरियमादी।।१६०।। कृतकरणा नामषष्टाष्टमाऽऽदिभिर्विविधतपोविधानैः परिकमितशरीराः इतरे अकृतकरणाःषष्ठाष्टमाऽऽदिभिस्तपोविशेषेरपरिकम्मितशरीराः / तत्र ये कृतकरणास्ते द्विविधाः / तद्यथा सापेक्षाः खलु, तथैव निरपेक्षाः, सह अपेक्षा, गच्छस्येति गम्यते। येषां ते सापेक्षा गच्छ्वासिनः। निर्गता अपेक्षा येभ्यस्ते निरपेक्षाः, ते त्रिविधा जिनाऽऽदयः। तद्यथा-जिनकल्यिकाः, शुद्धपरिहा-रिकाः, यथालन्दकल्पिकाश्च / एते नियमाः कृतकरणाकृतकरणानामन्यतमस्यापि कल्पस्य प्रतिपत्त्ययोगात् सापेक्षा अपि त्रिविधा आचार्याऽऽदयः। तद्यथा-आचार्याः, उपाध्यायाः, भिक्षवश्च / पते प्रत्येकं द्विधात्वात्षट् भवन्ति / तद्यथा-आचार्याः कृतकरणाः, अकृतकरणाश्च / उपाध्याया अपिकृतकरणाः अकृतकरणाश्च / निक्षवोऽपि कृतकरणाः, अकृतकरणाश्च। तत्र कृतकरणानां चिन्त्यमानत्वादस्यां गाथायायमेते कृतकरणा ग्राह्याः / / 160|| अकयकरणा वि दुविहा, अणहिगया अहिगया य बोधव्वा। जं सेवेइ अहिगए, अणहिगए अत्थिरे इच्छा / / 161 / / इहाऽऽचार्या उपाध्यायाश्च कृतकरणा अकृतकरणा वा नियमाद् गीतार्थाः, स्थिराव, तत इहाकृतकरणा भिक्षव एव ग्राह्याः / ते अकृतकरणा भिक्षवो द्विविधाः / तद्यथा-अनधिगताः, अधिगताश्च / अनधिगता नाम अगीतार्थाः / अधिगता गीतार्थः / अपिशब्दः संभावने। सचैतत् सभावयति-ये भिक्षयोऽधिगतास्ते द्विविधाः / तद्यथा-स्थिराः, अस्थिराश्च / स्थिरा नाम धृतिसंहननसंपन्नाः, तद्विपरीता अस्थिराः। अधिगताः अपि द्विधास्थिराः, अस्थिराश्च। कृतकरणा अपि भिक्षवो द्विधा-अधिगताः। अनधिगताश्च / अनधिगता अपि द्विधा-स्थिराः, अस्थिराश्च / अधिगता अपि द्विधा-स्थिरा, अस्थिराश्च / अत्रैव संक्षेपतः प्रायश्चित्तदानविधिमाह- (ज सेवेइ इत्यादि) यत्प्रायश्चित्तस्थान सेवते अधिगतो गीतार्थः / उपलक्षणमेतत् कृतकरणः, स्थिरश्च / तस्मै, तदेव परिपूर्ण दीयते। तदेव प्रायश्चित्तस्थान प्राप्ते अनधिगते अस्थिरे, चशब्दादकृतकरणे च गुरोः प्रायश्चित्तदानविधौ इच्छा सूत्रोपदेशानुसारेण स्वेच्छा / तथाहि-यदि श्रुतोपदेशानुसारतः कृतकरणः स्थिरोऽधिगत इति वा ! कृतकरणादपि समर्थ इति विज्ञातो भवति, तदा यदेव प्रायश्चित्तमापन्नस्तदेव तस्मै दीयते / अथासमर्थ इति परीक्षितस्ततो यत्प्रायश्चित्तं प्रातस्तस्याक्तिनमनन्तरं दीयते, तत्राऽप्यसमर्थतायां, ततोऽप्यनन्तर, तत्राऽप्यसमर्थतायां ततोऽनन्तरम् / एवं यथा पूर्व क्रमेण तावन्नेयं यावन्निर्विकृतिकं, तत्राऽप्यसमर्थतायां पौरूषीप्रत्याख्यानं, तत्राप्यशक्तौ नमस्कारसहितं गाढग्लानत्वाऽऽदिना, तस्याप्यसंभवेय एवमेवाऽऽलोचनामात्रेण शुझ्यापादनमिति // 161 / संप्रति पुरुषभेदमार्गणायामेव प्रकारान्तरमाह अहवा साविक्खियरे, निरवेक्खा सव्वहा उकयकरणा। इयरे कयाऽकया वा, थिराऽथिरा होंति गीयत्था / / 16 / / अथ वेति प्रकारान्तरमिदं पूर्वं कृतकरणाऽकृतकरणभेदावादौ कृत्वा पुरुषभेदमार्गणा कृता / अत्र तु सापेक्षनिरपेक्षभेदी तथा चाऽऽह(साविक्खियरे ति ) द्विविधाः प्रायश्चित्तार्हाः पुरुषाः। तद्यथा-सापेक्षाः, इतरे च / सापेक्षा गच्छवासिनः / ते च त्रिधा-आचार्याः, उपाध्यायाः, भिक्षवश्च / निरपेक्षा जिनकल्पिकाऽऽदयः। तत्र ये निरपेक्षास्ते सर्वशः सर्वात्मना कृतकरणाः / तुशब्दस्य समुच्चयार्थत्वाद् अधिगताः, स्थिराश्च / इतरे सापेक्षा द्विविधाः / तद्यथा- "कयाकया वा” इति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् कृतकरणाः, अकृतकरणाश्च / चशब्दः समुच्चये / कृतकरणा अपि द्विधास्थिराः, अस्थिराश्च / एकैके द्विधागीतार्थाः, अगीतार्थाश्च / सूत्रे गीतार्था इत्युपलक्षणम् / ततोऽगीतार्था अपि विवृताः // 162 / / अथ किंस्वरूपाः कृतकरणा?, इति कृतकरणस्वरूपमाहछट्ठऽट्ठमाइएहिं, कयकरणा ते उभयपरियाएह। अहिगयकयकरणत्तं, जोगा य तवारिहा केई॥१६३।। कृतकरणा नाम ये षष्ठ ष्टमाऽऽदिभिस्तपोविशेषैरूभयपर्याये, श्रामण्ये, गार्हस्थ्ये पर्याये वेत्यर्थः / परिकमितशरीरास्ते ज्ञातव्याः, तद्विलक्षणा इतरे सामर्थ्यांदकृतकरणाः / अत्रैव मतान्तर माह(अहिगए इत्यादि) केचिदाचार्या ये अधिगतास्ते नियमात् कृतकरणा इत्यधिगतानांकृतकरणत्वमिच्छन्ति / कस्मादिति चेदत आह- (जोगा य तवारिहा इति) "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनमिति'' वृद्धयैत्राकरणप्रवादात् हेतावत्र प्रथमा / ततोऽयमर्थः- यतस्तैर्महाकल्पश्रुताऽऽदीनामायतका योगा उद्व्यूढः, तत आयतकयोगाही अभवन्निति नियमतोऽधिगताः कृतकरणाइति। तदेवं कृता पुरुषभेदमार्गणा। साम्प्रतममीषां प्रायश्चित्तदानविधिर्वक्तव्यः- तत्र ये निरपेक्षा जिनकल्पाऽऽदयस्ते यत्प्रायश्चित्तमापन्नास्तदेव तेभ्यो न दीयते, द्विविषया गुरूलाघवनिरपेक्षत्वात। सापेक्षाणां तु सापेक्षतयैव प्रायश्चित्तदानविधौ तद्विषया गुरूलाघवचिन्ता कर्तव्य।।१६३।। तत्र यानि प्रायश्चित्तानि दातव्यानि तानि संक्षेपतो गाथाद्वयेनाऽऽहनिव्विइए पुरिमड्डे, एक्कासणे अंबिले चउत्थे य। पणगं दस पन्नरसा, वीसा तह पण्णवीसा य॥१६४।। मासो लहुओ गुरूगो, चउरो मासा हवंति लहुगुरूगा। छम्मासा लहुगुरूगा, छेदो मूलं तह दुगं च / / 16 / / निर्विकृतिकं विकृतिप्रत्याख्यानं, (पुरिमड्ढे ति) दिवसपूर्वार्द्धप्रत्याख्यानम्। एकाशनाऽऽचाम्लचतुर्थानि प्रतीतानि। (पणगं ति) रात्रिन्दिनानां पञ्चकम् / (लहुगुरूयं ति) वक्षयमाणं पदमत्रापि व्याख्यानठो विशेषप्रतिपत्तिरिति विभक्तिपरिणामेन संबद्ध्यते / (पणगं ति) लघु रात्रिन्दिवपञ्चकं च / तव लघु रात्रिन्दिवपञ्चकमाचाम्लेन, एकद्व्यादिदिनैर्वा हीनं परिपूर्णम्। गुरूरात्रिन्दिवपञ्चकम्। एवं सति लघु रात्रिन्दिवदशकम् / गुरूरात्रिन्दिवदशकम् / (पन्नरस त्ति) लघु रात्रिन्दिवपञ्चविशतिकम्। (मासो लहु गुरू त्ति) लघुमासो, गुरूमासः / चत्वारो लघु Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 138 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त मासाश्वत्वारो गुरूमासाः। पणमासा लघवः, षण्मासा गुरवः / तथाछेदः कतिपयपर्यायस्य मूलं, सर्वपर्यायोच्छदेन व्रताऽऽरो पणम् (तहा दुगं च ति)। अनवस्थाप्यं, पाराञ्चितं च / इह पारा शितप्रायश्चित्तवर्ती प्रायो जिनकल्पिकप्रतिरूपको वर्तते / उक्तं च - 'पारंचिउ एगागी, इचादिजिणकप्पियपडिरूवगाय।" इति। अनवस्थाप्यप्रायश्चित्तवर्त्यप्येवंगुणः। उक्तंच "संघयण विरिय आगम, सुतविहीए जो समुज्जुत्तो। निगहजुतो तवस्सी, पवयणसारे गहियअत्थो॥१॥ तिलतुसविभागमित्तो, वि जस्स असुभो न विजए भावो। निज्जूहणारिहो सो, सेसे निज्जूहणा नस्थि ।।सा एयगुणसपउत्तो, पावइ णवठप्पमुत्तगगुणोहो। एयगुणविप्पहीणो, तारिसगम्मी, भवे मूलं // 3 // " इति एतौ चैकान्ततो निरपेक्षौ / सापेक्षाणां त्वयं प्रायश्चित्तदानविधिः कथयितुप्नुपक्रान्तः, ततो मूलादारभ्य प्रायश्चित्तदानविधिरूच्यते। तथा चाऽऽहंपढमस्स होइ मूलं, विइए मूलं व छेदो छग्गुरूगा। जयणाएँ होइ सुद्धो, अजयणगुरूगा तिविहभेदो॥१६६।। प्रथमस्याऽऽचार्यसा कृतकरणस्य सापेक्षस्य महत्यप्यपराधे सापेक्षत्वात्प्रायश्चित्त मूलम् / उपलक्षणमेतत्-तेनास्यैवाकृतकरणस्यासमर्यत्वात् छेद इत्यपि द्रष्टव्यम् / द्वितीये उपाध्याये कृतकरणे तथारुभायांधृतिबलसमर्थतायां मूलम्, इतरथा छेदः / अकृतकरणे गुरू षण्मासिकम् / इहाऽऽचार्य उपाध्यायो वा यदि यतनया करणे देशकालानुरूप प्रायश्चित्तस्थानेऽवतिष्ट तदा शुद्धो, न प्रायश्चित्तविषयः, यतनया कारणे प्रवृत्तेः / अयतनया तु प्रायश्चित्तस्थाने प्रवृत्ती मूलं, छेदो वा। आचार्यस्य उपाध्यायस्य गुरुकादारभ्योक्तं, प्रकारेण त्रिविधः प्रायश्चित्त - स्य भेदः, षशुरू, छेदो , मूल च / एवमुक्तानुसारेण भिक्षुष्वपि प्रायश्चित्तदानाविधिरनुसरणीयः। एतदेवव्याचक्षाण आहसव्वेसिं अविसिट्ठा, आवित्ती तेण पढमया मूलं / सावेक्खे गुरू मूलं, कयाकए होइ पुण छेओ / / 167 / / स्रावेक्खो त्ति द काउं, गुरूस्स कयजोगिणो भवे छेदो। अकयकरणम्मि छग्गुरू, इइ अड्डोकंतिए नेयं // 168|| इति प्रायश्चितदानविधिरूक्तप्रकारेण कथयितुमभीष्टो यथा सर्वे - षामाचार्याऽऽदीनामापत्तिः प्रायश्चित्तस्यापादनमविशिष्टा, सापेक्षाणां च महत्यपराधे मूलं नामानवस्थाप्यं पाराञ्चितंचा। ततः प्रथमतया सर्वेषां मूमलमापन्नमविशिष्टमधिकृत्य गुरुलाघवचिन्तया प्रायश्चित्तदानविधिरुच्यते। तत्र सापेक्षे गुरौ आचार्य, गाथायां विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् / कृते कृतकरणे / 'प्रायश्चित्तं मूलं सापेक्षे।" इति वचनात् / महत्थप्यपराधे गुरौ सापेक्षत्वात् मूलमेव प्रायश्चित्तं, न त्वनवस्थाप्यं, पराञ्चित वेति ज्ञापितम् / एतदेव चोपजीव्य प्रागप्येवमरयाभि व्याख्यातम् / अकृते अकृतकरणे, गुराविति संबन्धादाचार्ये भवति प्रायश्चित्तं छेदः / (सावेवखो ति व काउमित्यादि) अत्र गुरूशब्देनोपाध्यायः प्रोच्यते. आचार्यस्योक्तत्वात्। गुरोरूपाध्यायस्य, कृतयोगिनः / कृतकरणस्य, मूलं प्रायश्चित्तमापन्नस्यापि सापेक्ष इति कृत्या प्रायश्चित छेदो भवति / तस्यापि कृतकरणस्य मनाक् निरपेक्षतायां मूलमिति प्रायश्चित्तम्। “विइए मूलं च छेदो छग्गुरूगा (166)" इति वचनात्। अकृतकरणे तुतस्मिन्नेवोपाध्याये मूलमापन्नेऽपि प्रायश्चित्त षट् गुरूकाः। गुरवः षण्मासाः, प्राक् कृतकरणतया छेदप्रायश्चित्तस्याप्यनईत्वात्। इतिएवममुना प्रकारेण (अड्ढोक्कतिए इति) इह एकैकस्मिन्नाचार्याऽऽदौ स्थानेऽकृतकरणकृतकरणभेदतो द्वे द्वे प्रायश्चित्ते। तयोश्च द्वयोरेकमा प्रायश्चित्तमपक्रामति। द्वितीयं चोत्तरस्थानेऽनुवर्तते। एकं च द्वपोरर्द्धमित्यापक्रान्त्या, ज्ञेयं प्रायश्चित्तदानम् / इदमिति संक्षिप्तमुक्तमिति। विनेयजनानुग्रहाय यन्त्रककल्पनया विशेषतो भाव्यते / तत्र यन्त्रकविधानमिदमतिर्यग् द्वादश गृहकाणि क्रियन्ते। अघोमुखं च विंशतिगृहाणि / एवं च द्वादशगृहात्मकानिर्विशतिग्रहाणि। एवं च द्वादशगृहास्मिका विंशतिगृहपड्तयो जाताः तत्र विंशतितमायां षड्तौ दक्षिणठोऽन्तिमे ये द्वे गृहके ते गुक्त्वा तस्या अधस्तात दशगृहाऽऽत्मिका एकविंशतितमा षक्तिः स्थाप्या। तस्यामप्येकविंशतितमाया षड् क्तौ ये द्वे अन्तिमे गृहके तेमुक्त्वा अधस्तात् अष्टगृहात्मिका द्वाविंशतितमा षक्तिः स्थापनीया। तस्यामपि ये द्वे अन्तिमगृहके ते मुक्त्वा तस्या अधस्तात् षड्गृहात्मिका ठयोविंशतितमा पङ्क्तिय॑यसनीया, तस्यामपिये द्वे गृहके ते विमुच्य तस्या अधस्ताचतुर्गहात्मिका चतुर्विशतितमा षडि क्तः रथापयितव्या / तस्यामपि ये द्वे अन्तिमे गृहके ते परित्यज्य तस्या अधस्तात् द्विगृहात्मिका पञ्चविंशतितमा षड्क्तिः स्थाप्यले, तस्या अधस्तादेकगृहात्मिका षट्विंशतितमा षक्तिः / एवं पटिशपयात्मकस्य यन्त्रकस्य सर्वोपरि तत्पापक्रमपङ्क्तरूपरिप्रथमगृहके कृतकरण आचार्यः स्थापनीयः। द्वितीये गृहके अकृतकरणः / तृतीये कृतकरण उपाध्यायः / चतुर्थे स एवाकृतकरणः / पञ्चमे अधिगतस्थिरभिक्षुः कृतकरणः / षष्टे स एवाकृतकरणः / सप्तने अधिगतास्थिरभिक्षुः कृतकरणः। अष्टम स एवोकृतकरणः / नवमे अनधिगतस्थिरभिक्षुःकृतकरणः। दशमे स एवाकृतकरणः। एकादशे अनधिगतास्थिरभिक्षुः कृतकरणः। द्वादरे अनधिगतोऽस्थिरोऽकृतकरणः / एवं स्थापयित्वा कृतकरणस्याऽ5चार्यस्य मूलं, तस्मिन्नेवापराधेऽकृतकरणस्य छेदः / उपाध्यायस्य मूलमापन्नस्य कृतकरणस्य छेदः / अकृतकरणस्य षण्मासगुरु / तत्रैवापराधे भिक्षोरधिगतस्य कृतकरणस्य षण्मासगुरु। अकृतकरणस्य षण्मासलधु / अधिगतस्य भिक्षोरस्थिरस्य कृतकरणस्य षण्मासलघु। अकृतकरणस्य चतुर्मासगुरु / अनधिगतस्य भिक्षोः स्थिरस्य कृतकरणस्य चतुर्मासगुरु। तस्यैव अकृतकरणस्य चतुर्मासलघु। अनधिगतस्य भिक्षोरस्थिरस्य कृतकरणस्य चतुर्मासलधु / तस्यैवाकृतकरणस्य भासगुरु १२एवं प्रथमषक्तौ मूलादारब्ध मासगुरुके निष्ठतम्। द्वितीयषड् क्तौ प्रथमे गृहके छेदः / द्वितीये षड्गुरु / तृतीये षड्गुरु / चतुर्थ षट्लघु / पञ्चमे षट्लघु। षष्ठे चतुर्गुरु। सप्तमे चतुर्गुरु / अष्टमे चतुर्लए। नवमेऽपि / दशमे मासगुरु / एकादशेऽपि मासगुरु। द्वादशमे मासलधु। अत्र छेदादारब्धमासलधुके निष्ठितम्।तृतीयषङ्क्तौ प्रथम गृहके षट्गुरु। द्वितीये षट्लघु। तृतीये षट्लघु। चतुर्थ चतुर्मासगुरु / पञ्चमे चतुर्मासगुरु / षष्टमासलघु / सप्तमेऽपि चतुर्मासलघु / अष्टमे मासुगुरु / दशमे मा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त सलघु। एकादशेऽपि मासलघु। द्वादशे भिन्नमासगुरु। अत्र षड्गुरुकादारब्धं भिन्नमासे गुरौ निष्ठितम् / चतुर्थपत्तौ प्रथमे गृहके षट्लघु द्वितीये चतुर्मालगुरु। तृत्रीयऽपि चतुर्मासगुरु। चतुर्थे चतुर्लघु। पञ्चमे चतुर्लधु। षष्ठ मासगुरु / सप्तमे मासगुरु / अष्टमे मासलघु। नवमेऽपि मासलघु। दशम भिन्नमासगुरु / एकादशेऽपि भिन्नमासगुरु। द्वादशे भिन्नमासलघु। अरण्डगुरुकादारब्धं लघु भिन्नमासे निष्ठितम् / पञ्चमपङक्तौ प्रथमे गृहे चतुर्मसगुरु / द्वितीरे चतुर्लघु। तृतीये चतुर्लघु। चतुर्थे मासगुरु। पञ्चमेऽपि मासगुरु। षष्ठे नास्लघु। सप्तमे मासलघु। अष्ठमे भिन्नमासो गुरु। नवमे भिन्नभायो गुरु / दशमे भिन्नमासो लघु। एकादशे भिन्नमासो लघु। द्वादशे गुरु विशतिरात्रिंदिवम् / अत्र चर्तुगुरुकादारब्धं गुरुके विंशतिरात्रिंदिवे स्थितम् / षष्ठयक्तौ प्रथमे गृहे चतुर्मासलघु / द्वितीये मासगुरु / तृतीया पि मासगुरु / चतुर्थे मासलघु / पञ्चमेऽपि मासलघु / षष्ठे गुरु पञ्चविंशातेकम्। सप्तमेऽपि गुरु पञ्चविंशतिकम्। अष्टभे लघुपञ्चविंशतिकम्। नामेऽपि लघु पञ्चविंशतिकम्। दशमे गुरु विंशतिकम्। एकादशमे गुरुविंशतिकम् / द्वादशे लघुविंशतिक चतुर्मासलधुकादारब्ध लघुविंशतिक स्थितम्। सप्तमपक्तौ प्रथमग्रहके मासगुरु। द्वितीये मासलघु। तृतीचे मासलघु। चतुर्थे गुरुपञ्चविंशतिकम। पञ्चमे गुरुपञ्चविंशतिकम्। षष्ठे लघुपञ्चविंशतिकम्। सप्तमे लघुपञ्चविंशतिकम् / अष्टमे गुरुविंशतिकम् / नवमे गुरुविशतिकम्। दशमेलघुविंशतिकम्। एकादशे लघुविंशतिकम्। द्वादशे गुरुपञ्चदशकम। अत्र मासगुरुकादारब्धं गुरुपञ्चदशके पर्याप्तम्। अष्टमपडक्तौ प्रथमे गृहके मासलघु। द्वितीये गुरुपञ्चविंशतिकम्। तृतीये गुरुपञ्चविंशतिकम्। चतुर्थे लघु / पञ्चमे पञ्चविंशतिक लघु / पष्टगुरुविंशतिकमा अष्टमे लघुविंशतिकम्। नवमे लघुर्विशतिकम्। दशमे गुरुपञ्चदशकम् एकादशे गुरुपञ्चदशकमा द्वादशे लघुपञ्चदशकम् / अत्र मासलघुकादारब्ध लघुके पञ्चदशके पर्याप्तम्। नवमपतौ प्रथमे गृहके गुरुपच विशतिकम्। द्वितीय लघुपञ्चविंशतिकम्। तृतीये लघुपञ्चविंशतिकम् / चतुर्थे गुरुविंशतिकम् / पञ्चमे गुरुविंशतिकम् / षष्ठे लघुविंशतिकम् / सप्तमे लघुविंशतिकम् / अष्टमे गुरुपञ्चदशकम् / नवमे गुरुपचदशकम्। दशमे लघुपञ्चदशकम् / एकादशे लघुपञ्चदशकम्। द्वादशे गुरुदशकम् / अत्र गुरुपञ्चविंशतिकादारब्धं गुरुदशके निष्ठितम् / दशमपड़तौ प्रथमे गृहे लघुपञ्चविंशतिकम् / द्वितीये गुरुविंशतिकम् / तृतीये गुरुविशतिकम्। चतुर्थे लघुविंशतिकम् / पञ्चमे लघुविंशतिकम्। अष्टमे लघुपञ्चदशकम् / नवमे लघुपञ्चदशकम् / दशमे गुरुदशकम् / एकादशेगुरुदशकम्। द्वादशे दशकं लघु / अत्र लघुपञ्चविंशतिकादारब्ध लधुदशके स्थितम्। एकादशपङ्क्तौ प्रथमे गृहके गुरुविंशतिकम्। द्वितीये लघुविंशतिकम्। चतुर्थे गुरुपञ्चदशकम्। पञ्चमे गुरुपञ्चदशकम् / सप्तमे लघुपश्च-दशकम् / अष्टमे गुरुदशकम्। नवमे गुरुदशकम्। दशमे लघुदशकम् / एकादशे लघुदशकम्। द्वादशे गुरुपञ्चकम्। अत्र गुरुविंशतिकादाग्ब्धं गुरुपाचके पर्याप्तम् / द्वादशपती प्रथमे गृहके लघुविंशतिकम्। द्वितीये गुरुपञ्च पर्याप्तम्। तृतीय गुरुपञ्चदशकम्। चतुर्थे लघुपञ्चदशकम्। पञ्चमे लघुदशकम् / षष्ठ गुरुदशकम् / अष्टमे लघुदशकम् / नवमे लघुदशकम् ।दशमे गुरुपञ्चकम्। एकादशे गुरुपञ्चकम्। द्वादशेगुरुपञ्चकम्। द्वादशे लघुदशकम्। अत्र लघुविंशतिकादारब्ध लघुपञ्चके पर्याप्तम्। त्रयोदशषड़क्तौ प्रथमे गृहके गुरुपञ्चदशकम्। द्वितीये पञ्चदशकम्। तृतीये लघुपशदशकम्। चतुर्थे गुरुदशकम् / पञ्चमे गुरुदशकम् / षष्ठेलघुदशकम् / सप्तमे लघुदशकम् / अष्टमे गुरुपञ्चकम् / नवमे गुरुपञ्चकम् / दशमे लघुपशकम्। एकादशे लघुपञ्चकम्। द्वादशे दशकम्। अत्र गुरुपञ्चदशकम् कारारब्धं दशमे निष्ठितम् / चतुर्दशपतौ प्रथमग्रहके लघुञ्चदशकम्। द्वितीय गुरुदशकम् / चतुर्थे लघुदशकम् / पञ्चमे लघुदशकम् / षष्ठे गुरुपतकम्। सप्तमे गुरुपञ्चकम्। अष्टमे लघुपञ्चकम्।नवमे लघुपञ्चकम् / दशमे दशमम् / एकादशे दशमम् / द्वादशे अष्टमम् / अत्र लघुपञ्चकादरिब्धमष्टमे निष्ठितम्। पञ्चदशपङ्क्तौ प्रथमे गृहके गुरुदशकम्। द्वितीये लघुदशकम् / तृतीये लघुदशकम् / चतुर्थे गुरुपञ्चदशकम् / सप्तमे लघुपञ्चकम्। अष्टमे दशकम् / नवमे दशकम्। दशमे अष्टमम् / एकादशे अष्टमम्। द्वादशेषष्ठम्। अत्र गुरुदशकारारब्ध षष्ठे निष्ठितम्। षोडशपतो प्रथम ग्रहके लघुदशकम् / द्वितीय गुरुपञ्चकम् / तृतीये गुरुपञ्चकम् / चतुर्थे लघुपञ्चकम् / पञ्चमे लघुपञ्चकम् / षष्ठ दशमम् / सप्तमे दशमम्। अष्टमेअष्टमम्। दशमे षष्ठ मम् / द्वादशे चतुर्थम्। अत्र लघुदशकारारब्धं चतुर्थे निष्ठितम् / सप्तदशपङ्क्तौ प्रथम ग्रहके गुरुपञ्चकम् / द्वितीय लघुपञ्चकम् / तृतीये लघुपञ्चकम् / चतुर्थे दशमम् / पञ्चमे दशमम् / षष्ठे अष्टमम्। सप्तमे अष्टमम्। अष्टमे षष्ठम्। दशमे चतुर्थम्। एकादशे चतुर्थम् / द्वादशे आचामान्तमिति / अत्र गुरुपञ्चकारारब्धमाचामाम्ले निष्ठितम् / अष्टादशपङ्क्तौ प्रथमग्रहकेलघुपञ्चकम्। द्वितीय दशमम्। तृतीय दशमम् / चतुर्थे अष्टमम। पञ्चमे अष्टमम् / षष्ठे षष्ठम्। सप्तमे षष्ठम् / अष्टमे चतुर्थम्। नवमे चतुर्थम् / दशमे आचामाम्लम् एकादशे आचामाम्लम् / द्वादशे एकाशनकम् / अत्र लघुपचकादारब्धमेकाशनके निष्ठितम्। एकोनविंशतितमायां पक्तौ प्रथमगृहके दशमम्। द्वितीयऽष्टमम् चतुर्थे षष्ठम्। पञ्चमे षष्ठम् / षष्ठे चतुर्थम् / सप्तमे चतुर्थम् / अष्टमे आचामाम्लम् / दशमे एकाशनकम् / एकादशे एकाशनकम्। द्वादशे पूर्वार्द्धस्थितम्। विंशतितमायां पङ्क्तौ प्रथमे गृहके अष्टमम्। द्वितीय षष्ठम्। तृतीये षष्ठम्। चतुर्थे चतुर्थम् / पञ्चमे चतुर्थम्। षष्ठे आचामाम्लम्। अष्टमे एकाशनकम्। नवमे एकाशनकम् / दशने पूर्वार्द्धम्। एकादशे पूर्वार्द्धम् / द्वादशे निर्विकृतिकम्। अत्राष्टमादारब्धं निविकृतिके निष्टितम्। एकाविंशतितमाया पड्तौ प्रथमे गृहके षष्टम् / द्वितीये चतुर्थम्। तृतीये चतुर्थम् / चतुर्थे आचामा लम्। पञ्चमे आचामाम्लम् / षष्ठे एकाशनकम् / सप्तमे एकाशनकम् / अष्टमे पूर्वार्द्धम् / नवमे पूर्वार्द्धम् / दशमे निर्विकृतिकम / अत्र षष्ठादारब्धं निर्विकृतिके निष्ठितम् / द्वाविंशतितमायां पङ्क्तौ प्रथमे गृहके चतुर्थम्। द्वितीये आचामाम्लम्। तृतीये आचामाम्लम्। चतुर्थे एकाशनम्। पञ्चमे एकाशनम् / षष्ठे पूर्वार्द्धम् / सप्तमे पूर्वार्द्धम् / अष्टमे निर्विकृतिकम् / अत्र चतुर्थादारब्धं निर्विकृतिके निष्ठितम्। त्रयोविंशतितमायां पङ्क्तौ प्रथमगृहके आचामाम्लम् / द्वितीये एकाशनकम् / तृतीये एकाशनकम् चतुर्थे पू Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 140 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त वार्द्धम् / पञ्चमे पूर्वार्द्धम् / षष्ठे निर्विकृतिकम्। चतुर्विशतितमप-तौ प्रथमे गृहके एकाशनम् / द्वितीये पूर्वार्द्धम् / तृतीये पूर्वार्द्धम् / चतुर्थे निर्विकृतिकम् / पञ्चविंशतितमपक्तौ प्रथमगग्रहके पूर्वार्द्धम् / द्वितीय निर्विकृतिकम् / षड्विंशतितमायां पड़तौ निर्विकृतिकमिति / तदेवम्"कयकरणा इयरे वा।'' इत्यादिना ये पुरूषभेदाः प्रागुक्तास्तेषां प्रायश्चित्तदानविधिरूक्तः। संप्रति "जं सेवेइ अहिगतो'' इत्यादि यद् गाथोत्तरार्द्धमुक्तं तद्व्याख्यानार्थमाहअकयकरणा उ गीया, जे य अगीया य अकय अथिराया। तेसा वत्ति अणंतर, बहुयंतरियं ब झोसो वा / / 166 / / ये गीतार्थाः / अधिगता इत्यर्थः / अकृतकरणाः / ये च अगीतार्थाः, अनिधिगता इति भावः। (अकय त्ति) अकृतकरणाः। चशब्दात् कृतकरणाक्ष / अस्थिराश्च अकृतकरणाश्च, तेषां कदाचित् आप-त्तिप्रायश्चित्तं दीयते। यत् यत् प्रायश्चित्तमापन्नं तदेव दीयते। इति यावत्कदाचित्तथाविधायां समर्थतायां यत्प्रायश्चित्तमापन्नं तस्याक्तिनमनन्तरं दीयते / कदाचित्प्रभूतायामसर्थतायां बहन्तरितं बहुभिः प्रायश्चित्तैरन्तरितमक्तिनं दीयते। अत्यन्तासमर्थतायां 'झोषो' वा, सर्वस्य प्रायश्चित्तस्य परित्यागः / आलोचनामात्रेणैव तस्यामवस्थायां तस्य शुद्धिभावनात् यथा कृतकरणस्योपाध्यायस्य मूलमापन्नस्य तथाविधयोग्यतायां मूल दीयते। अकृतकरणस्य पुनरसमर्थ इति कृत्वा छेदः, तथाप्यसमर्थतायां षड्गुरु / तत्राप्यशक्ती षट्लघु। एवं तावत् नेय यावन्निर्विकृतिकम्। तत्र, प्यशक्तौ पौरूषी / तत्राप्यसमर्थतायां नमस्कारसहितम् / तस्यापि गाढग्लानत्वभावतोऽसंभव एवमेवाऽऽलोचनामात्रतः शुद्धिरिति। तदेवम्"कयकरणा इयरे वा।" इत्यादिगाथाद्वयं सकलमपि भावितम्। अधुना "सावेक्खा आयरियमादी।" इति यदुक्तं तत्र परस्याऽऽक्षेपमाहआयरियादी तिविहो, सावेक्खाणं तु किं कयो भेदो?। एएसिंपचिछत्तं, दाणं चऽण्णं अतो तिविहो // 17 // नन्वाचार्योपाध्याययोरपि भिक्षुत्वस्यावस्थितत्वात्तद्ग्रहणे तयोरपि ग्रहणमिति। किं किमर्थं सापेक्षाणां त्रिविध आचार्याऽऽदिक आचार्योयाध्यायभिक्षुलक्षणः कृतो भेदः / एवमुक्ते सूरिराह-(एएसि इत्यादि) एतेषामाचार्याऽऽदीनां यत् आभवति प्रायश्चित्तं, यच्च तस्य प्रायश्चित्तस्य समसिमर्थपुरूषाऽऽद्यपेक्षं दानं तत् पृथक् पृथक् अन्यत्, अतः सापेक्षाणामाचार्याऽऽदिकस्त्रिविधो भेदः कृतः। एतदेव सविशेषमाहकारणमकारणं वा, जयणाऽजयणा व नत्थि अगियत्थो। एएण कारणेणं, आयरियादी भवे तिविहा ||171 / / इदं कारणं प्रतिसेवनाया इदमकारणं, तथा इयं यतना, इयभयतना इत्येतन्नास्ति अगीतार्थे अगीतार्थस्य तु, अर्थात् गीतार्थस्यास्तीति प्रतीयते। तत्राऽऽचार्योपाध्यायौ गीतार्थी, भिक्षुर्गीतार्थोऽगीतार्थश्चा कारणे | यतनया कारणे अयतनया पृथक् पृथक् अन्यत्प्रायश्चित्तं सहासहपुरूषाऽऽद्यपेक्षानुतुल्यऽपि प्रायश्चित्ते आभद्यमाने पृथगन्यो दानिविधिरत | एतेनाऽऽचार्या स्त्रिविधा भवति सूत्रे इति। बहुत्वेऽप्येकवचनं प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि वचनव्यत्ययः कचिगतीति। एनामेव गाथां व्याख्यानयतिकज्जाकज जयाजय-अविजाणतो अगीउ जे सेवे। मो होइ तस्स दप्पो, गीओ दप्पो जए दोसा / / 172 / / कार्य नाम प्रयोजनं, तत् अधिकृतवृत्तेः प्रयोजकत्वात् कारणम् / अत एवान्यत्रोक्तम् - "कारणंति वा, कजं ति वा एगट्ठा।" ततोऽ-यमर्थःअगीतोऽगीतार्थः कारणं न जानाति यस्मिन् प्राप्ते प्रतिसेयना न क्रियते, तथा कारणे अकारणे वा प्रतिसेवनांकुर्वन् यतनामयतानां वा नजानाति, एतान्यजानानो यः सेवते तस्य दर्पो भवति / सा तस्य दपिका प्रति सेवाना भवतीति भावः / गीतार्थः पुनः सर्वाण्यप्येतानि जानाति, ततः कारणे प्रतिसेवते नाकारणे। कारणेऽपि यतनया न पुनरयतनया। ततः स शुद्ध एव न प्रायश्चित्तविषयः / अगीतार्थस्य त्वज्ञानतया दर्पण प्रतिसेवमानस्य प्रायश्चित्तं, यदि पुनर्गीतार्थोऽपि दर्पण प्रतिसेवते कारणेऽप्ययतनया वा, तदा तुल्यमगीतार्थेन समं तस्य प्रायश्चित्तम् / तथा चाऽऽह- "गीए दप्पा जए दोसा।" गीते गीतार्थे, दर्पण प्रवर्तमाने प्रतिसेवनायामिति गम्यते। कारणेऽपि प्रतिसेवनामयतमाने अगीतार्थन तुल्यं तस्य प्रायश्चित्तमिति भावः / प्रतिसेव्यमाने तुल्ये वस्तुनि दर्पणापि क्रियमायाणां प्रतिसेवनायां यतनया प्रवृत्तौ न तुल्यं प्रायश्चित्तम्। कारण पुनर्यतनया प्रवर्त्तमानः शुद्ध एव न प्रायश्चित्तविषयः / तत्राऽऽचार्य उपाध्यायाश्च नियमात् गीतार्था इति गीतार्थत्वापेक्षया समाः, केवल प्रतिसेव्यमानं वस्तु प्रतीत्य विषमाः भिक्षयो गीतार्थाऽगीताश्चि भवन्ति / प्रतिसेव्यमपि वस्त्वधिकृत्य भेद इति / वस्तुभेदत' गीतार्थत्वतश्च पृथक् विभिन्नं विभिन्न प्रायश्चित्तं सहासहपुरूषाऽऽद्यपेक्षया तुल्येऽप्याभावति प्राययश्चित्त पृथग विभिन्न प्रायश्चित्तदानम् दोसो विहवाणुरूवो, लोए दंडो वि किमुत उत्तरिए। तत्युच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न य विसोही॥१७३|| दण्डोऽपि इति, अपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् लोकेऽपीत्येवंद्रष्टव्यः लोकेऽपि दण्डो दोषः विभवानुरुपः / तथाहि-महत्य-पराधे महान दण्डोऽल्पेऽल्पीयान्, तथा समानेऽपि दोषे अल्पधनस्याल्पो महान धनस्य महान् / लोकेऽपि तावदेवं किमुत किं पुनरौत्तरिके लोकोतरसंबन्धिनि व्यवहारे, तत्र सुतरां दोष सामर्थ्यानुरूपो दण्डः, तस्य सकलजनानुकम्पायाः प्रधानत्वात्। यदि पुनरल्पेऽपि दोषे महान्दण्डडे, महत्यलपीयान्, तथा यदि समानेऽप्यपराधे कृतकरणत्वमकृतकरण वाऽऽचार्योपाध्याययोर्भिक्षोरपि कृतकरणत्वमधिगतत्वमनधिगतत स्थिरत्वमस्थित्वं वाऽनपेक्ष्य तदनुरूपो दण्डः स्यात् , किं तु तुल्य एव, तदा व्यवस्थाया अभावतः सन्तानप्रवृत्त्यसंभवे तार्थेच्छेदः स्यात्। तथा निरनुकम्पाया अभावः प्रायश्चित्तदायकस्य असमर्थ भिक्षुप्रभृतीनामनुग्रहात् / न च तरय प्रायश्चित्तदायकस्य विशोधिरप्रायश्चित्तस्य, प्रायश्चित्तेऽप्यतिमात्रप्रायश्चित्तस्य दानतो महाशातनासंभवात् / "अप्पच्छित्ते य देइ पच्छित्तं पच्छित्तं, अइमत्तं आसायणा तस्स महती उ।" इतिवचनात् / ततः सापेक्षा आचार्याऽऽदयस्त्रिविधाः उक्ताः Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तत्रैव प्रकारान्तमाहअहवा कज्जाकजे, जयाजयंते य कोविदो गीतो। दप्पाजतो निसेवे, अणुरूवं पावए दोसं // 17 // अथवेति प्रकारान्तरे, गीतोगीतार्थः, स कारणमपिजानाति, अकारणमपि जानाति, यतनामपि जानाति, अयतनामपि जानाति एवं कार्य यतायते कोविदो गीतार्थो यदि दप्पेण प्रतिसेवते, कारणेऽप्ययतनया, तदा स दप्पायतनाहो निषेवमाणोऽनुरूपं दोषं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति; दपायतनानिष्पन्नं तस्मै प्रायश्चित्त दीयते इति भावः। कप्पे य अकप्पम्मि य, जो पुण अविणिच्छितो अकजं पि। कजामिति सेवमाणे, अदोसवंतो असढभावो // 175|| अः पुनः कल्पे अविनिश्चितःकिं कल्प्यं किमकल्प्यमिति विनिश्चयरहितः सोऽकार्यमपि, अकल्प्यमिति भावः / कार्यमिति कल्पिकमिति युट्या सेवमानोऽशठभावः / अत्र हेतौ प्रथमा। अशठभावत्याददोमवान् न प्रयश्चित्तभाग्गभवतीति भावः।। जं च दोसमवाणतो, देहभूओ निसेवई। निदोसवं केण हुजा, वियाणतो तमायारं / / 176 / / देहभूतो नाम गुणदोषपरिज्ञानविकलोऽशठभावः / सयं दोषमजानानां निषेवत तमेव दोषं विजागानः कोविदो गीतार्थ आचरन् समाचरन् केन हेतुना निर्दोषवान्, दोषस्याभावो निर्दोषं, तदस्यास्तीति निर्दोषवान्, भवेत्, नैव भवतीति भावः। तीव्रदुष्टाध्यवसायभावात्। न खलु जानानस्तीव्रदुष्टाध्यवसायमन्तरेण तथा प्रवर्तत। तदेवं दृष्टान्तमभिधाय पुनर्रान्कियोजनामाहएमेव य तुल्लम्मि वि, अवराहपयम्मि वट्टिया दो वि। तत्थ वि जहाणुरूवं, दलंति दंडं दुवेण्हं पि॥१७७|| एवमेवा नेनैव प्रकारेण, अनेनैव दृष्टान्तेनेति भावः / द्वावपि जनौ आस्तामेक इत्यपिशब्दार्थः / तुल्येऽपि समानेऽप्यपराधपदे वर्तितौ, तत्रापि तुल्येऽप्यपराधपदे द्वयोरपि, ततो यथाऽनुरूपं गीतार्थागीतार्थयतनासहननविशेषानुरूपं दण्ड, दलयन्ति प्रयच्छन्ति। तस्मात्प्रायश्चित्तभेदतःप्रायश्चित्तदानभेदतश्चाचार्याऽऽदिकस्त्रिविधी भेदः कृतः, तदेवमाचार्याऽऽदित्रिविधभेदसमर्थनायोक्ता-रूपदृष्टान्तवशतो गीताथाऽऽदिभेदत आभवत्प्रायश्चित्तनानात्वं चोपदर्शितम् / इदानीमत एव दृष्टान्तादवस्थाभेदतो गीतार्थे एव केवले शोधिनानात्वमुपदर्शयतिएमेव तु दिट्ठतो, तिविहे गीयम्मि सोहिनाणत्तं ! वत्थुसरिसो उदंडो, दिज्जइ लोए वि पुवुत्तं / / 178|| गीते गीतार्थे त्रिविधे त्रिप्रकारे बालतरूणवृद्धलक्षणे यत् शोधिनानात्वं / तद्विषयाप एवानन्तरोदिठस्वरूपो दृष्टान्तः। तथाहि-यथा कल्प्याकल्प्यविधिपरिज्ञानविकलोऽकल्पनीयमपि कल्पनीयमिति बुद्ध्या प्रतिसेवमानो न दोषवान् भवति। कोविदस्तु कल्प्याकल्प्यौ जानानोऽकल्पनीय प्रतिसेवभानो दोषवान्। एवमिहापितुल्ये प्रतिसेव्यमाने वस्तुनि तरूणे प्रभूत प्रायश्चित्तं, समर्थत्वात् / बालवृद्धयोः स्तोकम्, असमथत्वात्। न चैतदन्याय्यं, यता लोकेऽपि वस्तुसदृशः पुरूषानुरूपो दण्डो दीयते। तथाहि-बाले वृद्ध च महत्यपि अपराध करूणाऽऽस्पदत्वत् स्तोको दण्डः, तरूणे महान् / एतच्च (पुव्वुत्तमिति) प्रागेवोक्तम्"दोसविहवाणुरूवो।' इत्यादिना, ततो न्याय्यमनन्तरोदितमिति / सम्प्रत्याचार्योपाध्यायभिक्षूणामेव चिकित्साविषये विधिना नात्वं दर्शयतितिविहे तेगिच्छम्मी, उज्जुयवाउलण साहूणा चेव। पण्णवणमणिच्छंते ,दिटुंतो भंडिपोएहिं / / 176 / / त्रिविधे त्रिप्रकारे आचार्योपाध्यायभिक्षुलक्षणे, विचिकित्स्यमाने, गीतार्थे इति गम्यते / (उज्जुय त्ति) ऋजु संस्फुटमेव व्यापृतसाधुना व्यापृतक्रियाकथनं कर्तव्यम् / इयमत्र भावना आचार्याणामुपाध्यायानां गीतार्यानां च भिक्षूणां चिकित्स्यमानानां यदि शुद्ध प्राशुकमेषणीयं लभ्यते, तदा समीचीनमेव, न तत्र विचारः / अथ प्राशुकमेषणीयं न लभ्यते, अवश्यं च चिकित्सा कर्तव्या, तदाऽशुद्धमप्यानीय दीयते, तथाभूते दीयमाने स्फुटमेव निवेद्यतेइदमेवंभूतमिति, तेषां गीतार्थत्वेनापरिणामदोषस्य चासंभवात् / अगीतार्थभिक्षोः पुनः शुद्धालाभे चिकित्सामशुद्धेन कुर्वन्तो मुनिवृषभा यतनां कुर्वन्ति, न चाशुद्धं कथयन्ति / यदि पुनः कथयन्त्ययतनया कुर्वन्ति, तदा सोऽपि परिणामत्वादनिच्छन् यत् आगाढाऽऽदिपरितापनमनुभवति, तन्निमित्तं प्रायश्चितमापद्यते तेषां मुनिवृषभाणाम् / यद्वाऽतिपरिणामतया सोऽतिप्रसङ्गं कुर्यात्तस्मान्न कथनीयं, नाप्ययतना कर्त्तव्या। अथ कथमपि तेनागीतार्थेन भिक्षुणा ज्ञातं भवेत्, यथा अकल्पिकमानीय मां दीयते इति तदा तदनिच्छन् प्रज्ञाप्यते / तथा चाऽऽह- (पण्णवण-मणिच्छते इति) अकल्पिकमनिच्छत्यगीतार्थे भिक्षी प्रज्ञापना कर्त्तत्यायथा ग्लानार्थं यदकल्पिकमपि यतनया सेव्यते तत्र शुद्धो, ग्लाने यतनया प्रवृत्तेरल्पीयान् दोषोऽशुद्धग्रहणात्, सोऽपि च पश्चात् प्रायश्चित्तेन शोधयिष्यते, न चाऽसावल्पीयान् दोषो नाङ्गीकर्तव्यः, उत्तरकालं प्रभूतसंयमलाभात। तथाहि- चिकित्साकरणतः प्रगुणीभूतः सन् परिपालयिष्यसि। चिरकालं संयमम् / सयमप्रभावतश्च कदाचिद्गम्यते तद्भव एव मोक्षो यदि पुनः चिकित्सां न कारयिष्यसि ततस्तकरणतो मृतः सन्नसंयतो भविष्यसि, असंयतस्य भूयान्कर्मवन्धस्तरमादल्पेन बहन्वे-ष्यतामेतद्विद्वत्ताया लक्षणम् / उक्तं च- "अप्पेण बहुमेसेज्जा, एवं पंडियलक्खणमिति।" एवं प्रज्ञापना तरूणे क्रियात् / यः पुनर्बालः स बलत्वात् यथाभणित करोत्येव / यस्तु बृद्धस्तरूणो वाऽतिरोगग्रस्तोऽचिकित्सनीयः स प्रोत्साह्यते-महानुभाव ! कुरू भक्तप्रत्याख्यानं, साधय त्वं पूर्वमहर्षिरिवोत्तमार्थे तज्जिनवचनाधिगमफलमिति। यदि पुनरेवमुत्साह्यमानोऽपि न भक्तप्रत्याख्यान कतुमिच्छति, तदा भण्डीपाताभ्यां दृष्टान्तः करणीयः / भण्डी गन्त्री, पोतः प्रवहण, दृष्टान्तकरणं चाग्रे ग्रन्थकारः स्वयमेव दर्शयिष्यति। एष गाथासमासार्थः / साम्प्रतमेनामेव गाथां विवृणोतिसुद्धालाभेऽगीते, अजयणक परणकब हणे भवे गुरूगा। कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाही।।१८०|| अगीते अगीतार्थे भिक्षा शुद्धालाभे प्रासु कै षणीयाला, अशुद्धेन चिकित्स्यमाने यदि अयतना क्रियते, कथ्यते वा तदा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 142 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त मुनिवृषभाणामयतनाकारिणां कथयतां प्रायश्चित्तं भवति गुरुकाश्चत्वारो मासगुरवः। इयमत्र भावना-यदि अयतनाकरणतोऽकरणतो वा ज्ञातं भवति-यथा ममाऽशुद्धन चिकित्सा क्रियते तदा तेषां निवृषभाणां चत्वारो गुरूकाः / एतच्चासमाचाराप्रवृत्तिनिषेधार्थं प्रायश्चित्तम् / वा पुनरनिच्छतोऽसमाधिप्रवृत्तेरनागाढाऽऽदिपरितापनानिष्पन्नमन्यदेव पृथगिति। यदि वा सोऽतिपरिणामकत्वादतिप्रसङ्ग कुर्यात्। अथवाचिकित्सायाः प्रतिषेधतोऽकपनीयमसेवमाने रोगवृद्धिवशादसमाधिस्तस्य स्यात्, असमाहितस्य च कुगतिप्रपातः, तस्मात्तसिन् यतनया कर्त्तव्यम, न च कथनीयमिति। साम्प्रतं यदुक्तं भण्डपोताभ्यां दृष्टान्तः कर्त्तव्य इति, तत्र भण्डीदृष्टान्त भावयतिजा एगदोसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए सा उ करेइ कजं / जा दुब्बला संठविया वि संती, न तं तु सीलंति विसण्णदारूं ||181|| या भण्डी गन्त्री, एकदेशे क्वचित् अदृढा, सा शीलाप्यते तस्याः परिशीलनं कार्यते, तुशब्दो यस्मादर्थे , यतः सा तथा शीलता सती करोति कार्यम्। या पुनः संस्थापिता सती दुर्बलान कार्यकरणक्षमा, ता विषण्णदारू नैव, तुशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमत्वादत्र संबध्यते / शीलयन्ति, कार्यकरणाक्षमत्वात् / एष भण्डीदृष्टान्तः / एतदनुसारेण पोतदृष्टान्तोऽपि भावनीयः। तद्यथाजो एगदोसे अदढो उपोतो, सीलप्पए सो उ करेइ कजं / जो दुब्बलो संठविओ वि संतो, न तं तु सीलंति विसण्णदारूं // 182|| दान्तिकयोजना त्वेवम्-यदि प्रभूतमायुः संभाव्यते, प्रगुणीकृतश्च देहः संयमव्यापारेषु समर्थ इति ज्ञायते, तदा चिरकालसंयमपरिज्ञापालनाय युक्ता चिकित्सा, अल्येन प्रभूतमन्वेषयोदिति वचनात्। यदा त्वायुः संदिग्धं, न च प्रगुणीकृतोऽपि देहः संयमव्यापारक्षमस्तदैव प्रज्ञापना निष्फला चिकित्सेति, न चिकित्सा कारयितुमुचितेति। अन्यच्चसंदेहियमारोग्गं, पउणो वि न पचलो उ जोगाणं / इइ सेवंतो दप्पे, वट्टइ न य सो तहा कज्जे / / 183 / / संदिग्धमारोग्यम्, अतिरोगग्रस्तत्वात्।नच प्रगुणोऽपि प्रगुणीकृताऽपि योगानां संयमव्यापाराणां करणे प्रत्यलः समर्थ इति जानानो यदि यतनयाऽप्यकल्प्यं प्रतिसंवते, तदा स द वर्तते / न च स तथारूपो दो गीतार्थेन करणीयः, दपिकप्रतिसेवनाया दीर्घसंसारमूलत्वादिति प्रज्ञाप्यते। यदि पुनरेवमपि प्रज्ञाप्यमानो नावबुध्यते, तदा यतनया समाधिमुत्पादयद्भिरूपेक्षितव्यम्। यः पुनस्तरूणो मनाक् वृद्धो वा प्रगुणीकृतः सन् तपःसंयमाऽऽदिषु प्रत्यलो भवितेति ज्ञायते तदा तं चिकित्सामप्रतिपद्यमानं प्रत्येवं ज्ञापना - काहं अत्थितिं अदुवा अहीहं, तवोविहाणेसु य उज्जमिस्सं / गणं व नीईइ य सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मुक्खं / / 184 // यो ग्लानः सन्नवमवबुध्यत समर्थो भूतः सन्नस्थितिं प्रभूतलोकप्रव्रजनाऽऽदिना तीर्थाव्यवच्छेदं करिष्यामि (अदुवेति) अथवा-अहमध्येष्ये सूत्रतोऽर्थतश्च द्वादशाङ्ग, दर्शनप्रभावकाणि वा शास्त्राणि, यदि वा तपोलब्धिसमन्वितत्वात् तपोविधानेषु नानाप्रकारेषु (उज्जामिस्म ति) उद्यमिष्यामि उद्यम करिष्यामि। गणं वा गच्छं वा नीत्या सूत्रोक्तया सारियिष्यामि गुणैः प्रवृद्धं करिष्यामि। स एवं सालम्बसेवी एतैरनन्तरोदितैरालम्बनैर्यतनया चिकित्सार्थमकल्प्यमपि प्रतिसेवमानः समुपैति प्राप्नोति मोक्ष सिद्धिमिति॥१८४|| गतो नमनिष्पन्नो निक्षेपः / व्य०१ उ०१प्रका सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षेपस्यावसरः, सच सूत्रे सति भवति! सूत्रं चाऽनुगमे / स चानुगमो द्विधा-सूत्रानुगमो, निर्युक्त्यनुगमश्च / तत्र नियुक्त्यनुगमस्त्रिविधः / तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगमः, सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमः, उपोद्धतनियुक्त्यनुगमस्त्वाभ्यांद्वारगाथाभ्यां सभवगन्तव्यः। तद्यथाउद्देसे निवेसे, य निग्गमे खेत्तकालपुरिसे य। कारणपचयलक्खण-नए समोयारणाऽणुमए।।१।। किं कइविहं कस्स कहिं, केस कहिँ केचिरं हवइ कालं कइसंतरणमविरहियं,वागरिसफासणनिरूत्ती।।२।। अनयोरर्थ आवश्यकटीकातोऽवसेयः, महार्थत्वात्। सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमसूत्रप्रवृत्तौ भवसूत्रं भवसूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव,युगपक सूत्राऽऽदयो व्रजन्ति। तथा चोक्तम- "सुत्तं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगकतो य निक्खेवो। सुत्तप्फासियनिज्जुत्तितया य समगं तु वचंति / / 1 / / विषयविभागः पुनरयममीषामवसातव्यःहोइ कयत्थो वोत्तु, सपयच्छेयं भवे सुयाणुगमो। सुत्तालावगनासो, नामादिन्नासविणिओगं 111 / / सुत्तप्फासियनिज्जु-त्तिनिओगो सेसओ पयत्थादी। पाय सो चिय नेगम-नयादिनयगोयरो होइ / / 2 / / अत्राऽऽक्षेपपरिहारौ सामायिकाध्ययने निरूपिताविति नेह वितायेते। सूत्रानुगमे वाऽस्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्। तच्चेदं सूत्रम्जे भिक्खू मासियं परिहारहाणं पाडे से वित्ता आलोएज्जा अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्सदोमासियं // 1 // अस्य व्याख्या-तल्लक्षणं चेदम्-"संहिता चपदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः। चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या सूत्रस्य षड्विधा / / 1 / / " तत्राऽस्खलितपदोचारण संहिता। सा चैवम्- "जेभिक्खू मासियं।" इत्यादि पाठः / अधुना पदानियः भिक्षुर्मासिकं परिहारस्थानं प्रतिसंख्य आलोचयेत् / अपरिकुञ्च्य आलोचयमानस्य मासिकं, यपरिकुल आलोधयमानस्य द्वैमासिकमिति (1) / अधुना पदार्थः- अरिमन्मस्तावे यत्पीठिकायामुक्तम्- "सुत्तत्थो" इति द्वारन्, तदापतितम्। य इति सर्वनाम, अनिर्दिष्ट नाम्रा निर्देशः / भिक्षायां याञ्चायाम्, यमनियम-व्यवस्थितः कृतकारितानुमोदितपरिहारेण भिक्षते इत्ये Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 143 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त वण्णोलो भिक्षुः। 'सनभिक्षाऽऽशंसेरूः" ||2 / 33 / इति उप्रत्ययः। यदि वा-नरूक्ता च शब्दव्युत्पत्ति:-क्षुध बुभुक्षायाम् / क्षुध्यति पुभूक्षते भोतुमिच्छति चतुर्गतिकमपि संसारमस्मादिति संपदादित्वात् क्षुत्, अष्टप्रकार कर्म, तंज्ञानदर्शपचारित्रतपोभिनित्तीति भिक्षुः। "पृषोद२ऽऽदयः // 3 / 2 / 15 / इतीष्टरूपनिष्पत्तिः। मासेन निर्वृत्तं मासिकम्। "तेन निवृत्ते च'' ||6||71 // इतीकण् / परि ह्रियते परित्यज्यते, गुरूनूलं गत्वा यत् तत् परिहारविषयः / "अकर्तरि च कार." ।।३।३।१६॥(पा ) इति कर्मणि घञ्। तिष्ठन्ति जन्तवः। कर्मकलुषिता अस्मिन्निति स्थानम् / 'करणाऽऽधारे' // 5 / 3 / 126 / / इत्यनट् / परिहारः न्यानं परिहारस्थानम् विशेषणसमासः / (पडिसेवित्तेति) प्रतिशब्दो भृशाथे, प्रकर्षे वा। सेवित्वा प्रतिसेव्य। 'गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः / / 3.142 / / " इति समासः। "अनञत्रत् क्त्वोयम् / / 3 / 2 / 154 / / इतिय क्त्वोय बबादेशः / सूत्रे यवः प्राकृतत्वात्। आलोचयेत् / लोच दर्शने। चुराऽऽदित्वात् णिच् / आइमर्यादायाम् / आ मर्यादया "जह बालो जथंतो'' इत्यादिरूपया आलोचयेत् / यथाऽऽत्मनस्तथा गुरोः / प्रकटीकुर्यात् यच्छब्दस्तच्छब्दापेक्षोऽतोऽत्रतस्येति सामर्थ्यांदसवीयते / तस्य (पलिउंचिय त्ति) कुचु कुञ्चु कौटिल्याल्पीभावयोः / परि सर्वतो भावे। परि समन्तात् कुञ्चित्वा क्रौटिल्यमाचर्य परिकृञ्च्य। सूत्रे "डश्च ऋपिडादीनाम् / / " इति विकल्पवचनतो रेफस्य लकारभावः / न परिकुञ्य अपरिकुञ्च्य, अपरिकुञ्च्य आलोचयमानस्य मासिक लघुकं गुरुकं वा प्रतिसेवनानुसारतः प्रायश्चित्तं दद्यादिति शेषः / परिकुञ्च्य कौटिल्यमाचर्य आलोचयमानस्य द्वैमासिकं दद्यात्, मायाकरणतोऽधिकस्य गुरुमासस्य भावात्। तथाहियः प्रतिकृञ्चयन्नालोचयति तस्य यटापन्न तद्दीयते। अन्यश्च मायाप्रत्ययो गुरुको मास इति। उक्तः पदार्थः / अधुना पदविग्रहः - स च समासोभाष्यपदेषु भवतीति परिहारस्थानमित्यत्रपरिकुळ्येत्यत्र च द्रष्टव्यः / स च यथा भवति तथा दर्शित एव। संप्रति चालनाऽवसरः। तत्र चोदक आह- यदिपरिहार एव स्थानं ततो द्वयोरप्येकार्थत्वात् परिहारशब्दस्यैव ग्रहणमुचितम्। परस्योक्तार्थत्वादप्रयोगः। "उक्तार्थानामप्रयोगः'' इति न्यायात् / अत्राऽऽचार्यः प्रत्यवस्थान करोतिरथानशब्दो नाम शब्दशक्तिस्वाभाव्यादनेकविशेषाऽऽधारसामान्याभिधायी। तेनैतध्वनयति-अनेकप्रकाराणि नाम मासिकप्रायश्चितेनोपन्यस्तेन प्रयोजनं कल्पाध्ययनोक्तस कलमासिकप्रायश्चित्तविषयदानाऽऽलाचनयोरभिधातुमुपक्रमात्, अतोऽव स्थानग्रहणम / पुनरप्याह-किं कारणं मासिकं प्रायश्चित्तमधिकृत्याऽऽदिसूत्रोपनिबन्धः कृतः। अथ मतंजघन्यमिदं प्रायश्चित्तमत एतदधिकृत्य कृतो, जधन्य मध्यमोत्कृष्टेषु प्रश्चमतो जघन्यम्याभिधातुमुचितत्वात् / तदसम्यक् / रात्रिन्दिवपञ्चकस्य जघन्यत्वात् अत्र भाष्यकृत् प्रत्यवस्थानार्थमिदमाहदुहतो मिन्नपलंबे, मासियसोही उ वणिया कप्पे। तस्स पुण इमं दाणं, भणियं आलोयणविही य / / 1 / / कल्पाध्ययने आदिसूत्रे- "आमे तालपलबे' इत्यादिरूपे प्रलम्बते प्रकर्षेण वृद्धिं याति वृक्षोऽसमादिति प्रलम्ब मूलम् - "अकर्तरि " // 3 // 3 / / 16 / / इति (पा.) घञ्प्रत्ययः / तस्मिन्, उपलक्षणमेतत्तालो वृक्षरतत्र भवं तालम्-तालवृक्षफलम् / तस्मिन्नपि प्रायश्चित्तस्य दानविधिरालोचनाविधिश्च वक्तुमुपक्रान्तः, ततो यदादौ कल्पाध्ययने मासिक प्रायश्चित्तमुक्तं, तस्य पुनः इत्यादि। पुनःशब्दो विशेषणे। स चेम विशेष द्योतयति-तत्र हि सामान्यत एव मासिकं प्रायश्चित्तमुक्तम्, न दानविधिरालोचनाविधिर्वेति / इह पुनर्व्यवहारे तस्य मासिकस्य प्रायश्चित्तस्येदं दानं भणितमालोचनाविधिश्च / न केवलमस्यैव मासिकरय प्रायश्चित्तस्य, किं त्वन्येषामपि मासिकप्रायश्चित्ताना तत्रोक्तानां सामान्येन सूत्रस्य प्रवृत्तत्वात्। एमेव सेसएसु वि, सुत्तेसुं कप्पे नाम अज्झयणे। जहिं मासियआवित्ती, तीसे दाणं इहं भणियं // 2 // एवमेव अनेनैव प्रकारेण, कल्पे नाम्नि अध्ययने यानि शेषाणि सूत्राणि "सपरिक्खेवे आवाहिरिए कप्पेइ हेमंतगिम्हासुमासं वत्थए जइमासकप्पं भिंदइ मासलहुं / एवं निग्गंथीण वि तहा।'' अत्र (सपरिक्खेवे इति) सपरिक्षेपेऽपि वृत्तिवरण्डकाऽऽदिसमन्विते अवाह्ये ग्रामस्यात्यन्तमबहिभूत, उपाश्रये इति गम्यते / (वत्थए इति) वस्तुम। शेषं सुगमम् / तथा अभिनिव्वगडाए तइए भंगे मासलहुँ।' अत्र "अभिनिव्वगडाए'' इति / अभिनिर्व्या-कृतायां पृथिग्विविक्तद्वारायां वसता वित्यर्थः / एवं शेषाण्यपि सूत्राण्युचारणीयानि। तेषु शेषेष्वपि सूत्रेषु (जहिं ति) अगृहीतवीप्सोऽप्येषशब्दः सामर्थ्यात् वीप्सांगमयति, शेषसूत्राणामतिप्रभूत्वात्। ततोऽयमर्थः- यत्र यत्र मासिकी आपत्तिरूत्ता (तीसे इति) अवाऽपि वीप्सार्थो द्रष्टव्यः, तच्छब्दस्य यच्छब्दापेक्षत्वात् / तस्यास्तस्या इह आदिसूत्रे दानं भणितमुपलक्षणमेतत् आलोचनाविधिश्च / छट्टे अपच्छिमसुत्ते, जिणथेराणं ठिई समक्खाया। तहियं पि होइ मासो, अमेरतो सो उ निप्फन्ने / / 3 / / षष्टे षष्ठोद्देशके, अपश्चिमसुत्रे जिनानां जिनकल्पिकानां, स्थविराणां च स्थितिः समाख्याता। तत्राऽपि यदि जिनानां स्थविराणां च स्वकल्पस्थित्यनुरूपसामाचार्यक्रमः, ततो भवति मासो मासलघु प्रायश्चित्तम्। तथा चाऽऽह- (अमेरओ सो उनिप्फन्नो) स पुनर्मासो मर्यादाऽतिक्रमतः स्वस्वकल्पस्थित्यनुरूपा सामाचार्यतिक्रमत इत्यर्थः / निष्पन्नस्तस्याऽप्यस्मिन्नादिसूत्रे दानमालाचनाविधिश्चोक्तः / अतोऽर्थ मासिकं प्रायश्वित्तममधिकृत्याऽऽदिसूत्रोपनिबन्धः कृतः। एष सूत्रार्थः / / 1 / / अधुना निर्यक्तिकृत प्तर वक्तुकाम आहजेत्ति व सेत्ति व केत्ति व, निहंसा होंति एवमादीया। भिक्खुस्स परूवणया, जे त्ति कए होइ निद्देमो // 4 // 'जे इति वा 'से इति वा' कियन्तो नामग्राहं दर्शयितुं शक्यन्ते। तत आह- एवमादिकाः / आदिशब्दाद् 'एगे' इत्यादिपरिग्रहाद् निर्देशा भवन्ति, सामान्यार्थे इति गम्यते। तत्र ये:ति निर्देशो यथा अत्रैव सूत्रे। अत्रैव "जे ण भंते ! परं असंतएणं अभक्खाणेणं अब्भक्खाइजा।" इत्यादि "से' इति निर्देशो यथा- "से गामंसि वा नगरंसि वा।" इत्यादि। 'के इति यथ- "के आगच्छइ दिन्नरूवेय "इत्यादि। सामान्य च Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 144 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त विशेषं निर्दिशन्तो "जे'' इति निर्देशे कृते भिक्षोभवति निर्देशो, यो | भिक्षुर्मर्त्य इति तस्य च भिक्षोस्तथा निर्दिष्टस्य प्ररूपणा नामाऽऽदिनिक्षेपरूपा कर्त्तव्या। व्य०१ उ०२ प्रक०। नि०चू०। (भिक्षुमासस्थानप्रतिसेवनाऽऽलोचनानां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (6) अथ कस्य समीपे आलोचना दातव्या / उच्यते-आगमव्यवहारिणः, श्रुतव्यहारिणो वा? तथा चाऽऽह आगमसुयववहारी, आगमतो छव्विहो उ ववहारी। केवलिमणोहिचोद्दस-दसनवपुव्वीउ नायव्वा / / 135 // "आगमसुयववहारि त्ति' व्यहारियशब्दः प्रत्येकमभिसबध्यते / आलोचना) द्विविधः / तद्यथा-आगमव्यवहारी, श्रुतव्यवहारी च / तत्राऽऽगमतो व्यवहारी षनिधः / तद्यथा-केवली, केवलज्ञानी। (मणोहि त्ति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् मनःपर्यायज्ञानी, अबधिज्ञानी / (चोद्दसदसनवपुटवी इति ) पूर्विशब्दः प्रत्येकम-भिसंबध्यते। चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी च। ज्ञातव्याः एते चाऽऽगमव्यवहारिणः प्रत्यक्ष ज्ञानिन उच्यन्ते, चतुर्दशाऽऽदिपूर्वबलसमुत्थस्याऽपि ज्ञानस्य प्रत्यक्षतुल्यत्वात्। तथाहि-येन यथा योऽतिचारः कृतस्तं तथा सर्वमेते ज्ञानन्तीति। पम्हुतु पडिसारण, अप्पडिवजंतयं न खलु सारे। जइ पडिवजइ सारे, दुविहऽतियारं पि पचक्खी // 136| प्रत्यक्षी प्रत्यक्षज्ञानी, आगमव्यवहारीत्यर्थः / द्विविधमपि मूलगुणविषयमुत्तरगुणविषयं वाऽतिचारमालोचनीयम्। (पम्हु, टे ति) विस्मृतं भवति। ततस्तस्मिन्चिस्मृते प्रतिसारण करोति। यथाऽमुकं तवाऽऽलोचनीय विस्मृतमितितदप्यालोचयति। केवलं यदि केवलज्ञानाऽऽदिवलेनैतत् जानाति तदैष भणितः सन् शुद्धभावत्वात् सम्यक् प्रतिपद्यते। "वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा / " इति वचनतो भविष्यति वर्तमान- | विधानात प्रतिपत्स्यते इति तदा स्मारयति / यदि पुनरेतदवगच्छतियथैष भणितोऽपि सन्न सम्यग प्रतिपत्स्यते इति, तदा तमप्रतिपत्स्यमानं न खलु नैव स्मारयति, निष्फलत्वात्। अमूढलक्षयो हि भगवानागमव्यवहारी / अत एव दत्तायाभप्यालोचनाया यद्यालोचकः सम्यगावृतो ज्ञातस्ततस्तस्मै प्रायश्चित्तं प्रयच्छति / अथ न प्रत्यावृतस्ततो न प्रयच्छतीति श्रुतव्यवहारिणः। प्राऽऽहंकप्पपकप्पी उसुए, आलोय ति ते उ निक्खुत्तो। सरिसत्थमपलिउंची, विसरसिपरिणामतो कुंची।१३७। कल्पग्रहणेन दशाश्रुतस्कन्धकल्पव्यवहारा गृहीताः / प्रकल्पग्रहणेन निशीथः। कल्पश्च प्रकल्पश्च कल्पप्रकल्पम्। तदेषामस्तीति कल्पप्रकल्पिनः।दशाकल्पव्यवहाराऽऽदिसूत्रार्थधराः।तुशब्दत्वाद् महाकल्पश्रुतमहाकल्पनिशीथ नियुक्तिपीठिकाधराश्च / श्रुतव्यवहारिणः प्रोच्यन्ते। तथाऽऽलोचकं त्रिःकृत्वस्त्रीन् वारान् आलोचयन्ति / ते ह्येकं द्वौ वारान्नाऽऽलोचित-अनेन प्रतिकुशनयाऽऽलोचितमप्रतिकुचनया वेति विशेष च बुध्यन्ते। ततस्त्रीन वारान आलोचापयन्ति। कथमितिचेत् ? उच्यते-प्रथमवेलायां निद्रायमाण इव श्रृणोति / तनो ब्रूतेनिद्राप्रमादं गतवानहमिति न किमप्यश्रोषमतो भूयोऽप्यालोचय। द्वितीयवारमालो- | चिते भणित-न सुष्टुमयाऽवधारितमनुपयोगभावाद्, अतः पुनरप्यालोचय। एवं त्रिष्वपि वारेषु यदि सदृशार्थमालोचितं ततो ज्ञातव्यमेषोऽप्रतिक शाऽमायावी। अथ विसदृशं तर्हि ज्ञातव्यमेष परिणामतः कुञ्ची कुटिलो मायावी। अथैकं दो वा वारानालोचनादापनेन मायावी अभायावी वा किं नोपलभ्यते, येन त्रीन्वारानित्युक्तम् ? उच्यते उपलभ्यते परं स्फुटतरोपलब्धिनिमित्तं त्रीन् वारानालोचाप्यते / तस्याऽपि च प्रत्ययो भवतियथाऽहं विस-दृशभणनेन मायावी लक्षितः, ततो मायानिष्पन्नं मासंगुरु प्रायश्चित्तं पूर्व दातव्यम्, तदनन्तरमपाराधनिमित्तं प्रायश्चित्तमिति। अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाहतिन्नि उ वारा जह दं-डियस्स पलिउंचियम्मि अस्सुवमा। सुद्धस्स होइ मासो, पलिउँ चिइतं चिमं वऽण्णं / / 13 / / दण्डिको नाम करणपतिः, तस्य यथा अपन्यायपीडितं करणमुपस्थितम्-किं मायाव्येषोऽमायावी चेति परिज्ञानाय त्रीन्वारानपन्यायमुचारयितुमंभियोगः / एवं श्रुतव्यवहारिणोऽपि अतीचारशल्यपीडित प्रायश्चित्व्यवहारार्थमुपस्थितमेष प्रतिकुचनापरो, न वेति परिज्ञानार्थ त्रीन्वारानुचारयितुं संरम्भः / ततो यदा श्रुतव्यवहारिभिस्त्रिाकृत्व आलोचनाप्रदापनेनाऽऽगमव्यव-हारिभिः प्रथमवेलायामप्यागमबलेन तस्य प्रतिकृश्चितं कौटिल्यज्ञानं भवति, तदा तस्मिन् प्रतिकुचिते ज्ञातोऽश्वोपसा अश्वदृष्टान्तःक्रियते / यथा आचार्य ! (?) शृणु तावदिदमुदाहरणम्- "जहा कस्सइ रन्नो एगो अस्सो सव्वलक्खणसंजुतो धावणपवण-समत्थो, तस्स आसस्स गुणेणं अजेयो सो राया सव्वे सामंतराइणो आज्ञापयति। ताहे सामंतराइणो अप्पप्पणो सभासु भणंतिनऽस्थि कोइ परिसे पुरिसो, जो तं हरित्ता आणेइ। सव्येहिं भणियं सो पुरिसपंजरल्थो चिट्ठइ। तत्थ नो पवनो सक्को हरिउं। एगस्स रण्णो एगेणं पुरिसेण भणियं-जइ सो मारेयव्वो तो मारेभि / ताहे रन्ना भणिय-मा अम्हं तस्स वा भवउ वाहएत्ति। ततो सो तत्थगओ। पच्छन्नपदेसहिए। श्लक्ष्णाया इषीकाया अग्रभागे क्षुद्रकण्टकं प्रोतं कृत्वा दिकरूयधणुएण मिल्लेइ, तेण आसो विद्धो, इषीका अश्वमाहत्य पतिता रिङ्गिणिकाकण्टकोऽश्वशरीरेऽनुप्रविष्टः / ततोऽसौ आसौ तेण अव्वत्तसल्लेण परिहायइ पभूयगण-जोरभासणमपि चरंतो / ततो विजस्स अक्खातो / वेजेण परिचिंतिऊण भणियं-नत्थि अण्णो कांइ रोगो, अवस्समव्वत्तो कोई सल्लो / ताहे वेजेणं सो आसो जमगसमगपुरिसे हिं चिक्खल्लेख आलिंपावितो। ततो जत्थ पढमं सुक्क दिटुं, तत्थ फालेत्ता अवणीतो सो क्षुद्रकण्टकीसल्लो / जहा सो अस्सो ससलो न सक्केइ सामंतरायाको निजिणि उ पुव्वं सम्मपि तस्य प्रतिकुंञ्चितं ज्ञातं भवति तदानासावश्वदृष्टान्तः क्रियते, स्वभावत एवास्य सम्यगालोचकत्वात् / तस्य तु शुद्धम्य मासिकं परिहारस्थानं प्राप्तस्य प्रायश्चित्तं भवति मासः / इतरस्य तु कृतप्रतिकुञ्चितस्य तचापन्नं मासिकं प्रायश्चित्तमिदं चान्यद मायानिष्पन्नमासगुरुा इतिगाथार्थः। संप्रति यदुक्तम्- "जह दंडियस्स" इति तद्विभावयतिअत्थुप्पत्ती असरिस-निवेयणे दंडापच्छ ववहारो। इय लोउत्तरियम्मि वि, कुंचियभावं तु वंडेति / / 136 / / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 145 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त उत्पद्यते यस्मादिति उत्पत्तिः, अर्थस्योत्पत्तिर्व्यवहारः उच्यते, तस्यामोन्पत्तै करणव्यवहारे असदृशनिवेदने दण्डः / इयःमत्र भावना-यथा को पि पुरुषोऽपन्यायपीडितो राजकरणमुपस्थितो निवेदयति-अहं देवदतेनाऽपन्यायेन पीडितः। ततः कारणिकाः पृच्छन्ति-कथमन्यायः संवृत्तः / सोऽकथयत् कथिते करणः प्रतिब्रूते, पुनः कथय / ततो, भूयः कथयति। ततः पुनरपि बूते-भूयोऽपि कथय। तत्रयदि तिसृष्वपि वेलासु सदृशं वक्ति ततो ज्ञायते-यथा अनेन यथावस्थितः सद्भावः कथितः / अ विसदृशं ततो जानाति करणपतिःएष प्रतिकुञ्च्य कथयति; ततः म निर्भसयतिकिमिति राजकुलेऽपि समागतस्त्वं मृषा वदसीति पूर्व मायामृषाप्रत्ययं दण्ड ते (पच्छ ववहारो इति) पश्चाद्व्यवहारः कार्यते। व्यवहारेऽपि यदिपरा जितो भवति ततो द्वितीयवेलंदण्ङ्यते। एष दृष्टान्तः / दान्तिकयोजनामाह-(इय इत्यादि) एवमुक्तप्रकारेण लोकोत्तरेऽपि वारत्रयमालोचनादापनेन यदि कुञ्चितो भावो ज्ञातो भवति / ततस्तं कुञ्चितभावं कुटिलभाव ज्ञात्वा पूर्वमाचार्यो निर्भर्त्सयतिकिमित्यालोचनायानुपस्थितो मृषा वदसि? ततः (दंडेइ त्ति) प्रथमतो मायानिछान्न मासगुरुप्रायश्चित्तेन दण्डयति, पश्चाद् यदापन्नं मासिकं, तेन द्वितीयपेल दण्डयति। अथवारत्रयमालोचनादापनेऽपि कथं श्रुतव्यवहा रिणो मायामन्तर्गतां लक्षयन्ति। तत आहआगारेहि सरेहि य, पुव्वावरवाहयाहि य गिराहिं। नाउं कुंचियभावं, परोक्खनाण / ववहरंति // 140 / / आकाराः शरीरगता भावविशेषाः, तत्र यः शुद्धस्तस्य सर्वेऽप्या-काराः संविग्नभावोपदर्शका भवन्ति, इतरस्य तुन तादृशाः। स्वरा अप्यालोचयतः शुद्धस्य व्यक्ता विस्पष्टा अक्षुभिताश्च निस्सरन्ति, इतरस्य त्वव्यक्ता अस्पष्टा क्षुभितगद्दाश्च / तथा शुद्धवाणी पूर्वापराऽव्याहता, इतरस्य तु पूर्वापरविसंवादिनी। तत एवं परोक्षज्ञानिनः श्रुतव्यवहारिण आकारः स्वरैः पूर्वापरव्याहताभिश्व गीर्भिस्तस्याऽऽलोचकस्य कुञ्चितभाव कुटिलभावं ज्ञात्वा तथा व्यवहरन्ति ; पूर्व मायाप्रत्ययेन प्रायश्चित्तदण्डेन दण्डयन्ति, पश्चादपराधप्रत्ययेन प्रायश्चित्तदण्डेनेति भावः / द्वैमासिकं प्रायश्चित्तम्जे भिक्खू, दोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्सदोमासियं,पलिउंचियं आलोएमाणस्स तिमासियं // 2 // यो भिक्षीभ्यां मासाभ्यां निर्वृत्तं द्वैमासिक परिहारस्थानं प्रतिसेव्य आलोचयति, तस्याप्रतिकुञ्च्य मायामकृत्वा आलौचयतो द्वैमासिक प्रायश्चित्त शुद्धत्वात्। प्रतिकुञ्च्याऽऽलोचयतस्वैमासिकम्, प्रतिकुश्चनानिष्पन्नस्य गुरुमासस्य प्रक्षेपात्। इह द्वैमासिकं परिहारस्थानमापन्नस्य प्रतिकुञ्चकस्य दृष्टान्तः / कुञ्चिको नाम तापसः। तद्यथा- "कुंचिगो तावसो. सो फलाम अटाए अडविंगतो, तेण नदीए सय मतो मच्छो दिट्टो तेण अप्पसागारियं पइत्ता खइतो, तस्स तेण अणुचियाहारेण अजारतेण लन्न जाय, तेण विजो पुच्छिओ। वेजो पुच्छइ-कितेखइय, जतो रोगो / उप्पन्ना? तावसो-भणइ-फलाई मोत्तुं अन्नं न किंचिखइयं। वेजो भणइकंदादीहिं ते निक्करिसियं सरीरं, तो थयं पिवाहि / तेण पीयं सुहुयर गिलाणीभूतो पुणो पुच्छितो विजो। तेण भणियंसम्मंकहेहि। कहियंमच्छो मे खइतो / ततो विजेण संसोहणवमणविरेयणकिरियाहिं लट्ठीकओ। इमो उवणओ। जो पलिउचइ तस्स पच्छित्तकिरिया न सक्कइ गुणं काउं सम्म। पुण इयरे रोग आलोयंतस्स सक्काइ।' त्रैमासिकम्जे भिक्खू तेमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलो एमाणस्स तेमासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स चउमासियं / / 3 / / (जे भिक्खू तेमासियं परिहारट्ठाणमित्यादि) अत्र व्याख्या पूर्ववत् नवरं त्रैमासिकमिति त्रिभिर्मासैर्निर्वृत्तं त्रैमासिकम् / शेषं तथैव / केवलं त्रयो मासा अवस्थिताः, अन्यो मायाप्रत्ययनिष्पन्नश्चतुर्थो मासो गुरुर्दीयते इति चातुर्मासिकम् / अत्र प्रतिकुश्विकस्य दृष्टान्तः। तद्यथा-"दो रायाणो संगाम संगामेति। तत्थ एगस्स रण्णो एगो मणूसो सूरत्तणेणं अतीव वल्लभो, सो बहूहि सल्लेहिं सल्लितो। ते तस्स सल्ले वेज्जो अवणेइ, अवणिज्जमाणेहि य सल्लेहिं सोऽतीव दुक्खाविज्जइ तओ एक्कम्मि अंगे सल्लो विज्जमाणो वि दुक्खा-विजामि त्ति वेज्जस्स न कहिती / ताहे सो तेण सल्लेण विघट्टमाणेण बलं न गेण्हइ, दुव्वली भवति। पुणोतेण पुच्छमाणेण निव्वंधे कहियं / भीणितो सल्लो, पच्छा बलवं जातो।" अत्राप्युपनयः प्राग्वत्। चातुर्मासिकम्जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स पंचमासियं / / 4 / / अस्य व्याख्या प्राग्वत्, नवरं प्रतिकुञ्चनानिष्पन्नः पञ्चमो गुरुमासोऽधिको दीयते इति पाञ्चमासिकम् / अत्र प्रतिकुञ्चके दृष्टान्तो मालाकार:"दो मालागारा, कोमुंदीबारो आसन्नीभूतो ति पुप्फाणि बहूणि आरामातो उच्चिणित्ता वीहीए कड्ढेऊण एगेण पागडाणि कयाणि।वीएण न पागडाणि कयाणि। जेण पागडाणि कयाणि तेण बहुलाभो लद्धो, जेण न पागडाणि कयाणि तस्स न कोइ कयगो अल्लीणो, तेण न लडो लाभो। एवं जो मूलगुणावराहे, उत्तरगुणावराहे य न पगडेइ सो निव्वाणलाभं न लहइ।" पाश्चमासिकं पाण्मासिकं चजे भिक्खू पंचमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स पंच-मासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स छम्मासियं // (जे भिक्खू पंचमासिय परिहारहाणमित्यादि) इदमपि तथैव, नानात्वमिदम्, प्रतिकुचनाया षष्ठो गुरुमासोऽधिको दीयते इति षागमासिकम् / अत्र प्रतिकुञ्चके मेघदृष्टान्तः / यथा- "मेघो गजिता नामेगे, नो वरिसिता / एवं तुम पि आलोएमि त्ति गजित्ता निजित्तं काउं आलोइउमाढतो, पलिउचेसि मा विप्रतिज्ञो भवाहि, सम्म आलोएहि।" Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त एतानेव दृष्टान्तान् गाथापूर्वार्द्धन भाष्यकृदाहकुंचिएँ जोहे माला-गारे मेहेपलिउंचिए तिगट्ठाणा (141) द्वैमासिकाऽऽदिपरिहारस्थानेषु प्रतिकुञ्चितेषु यथाक्रममिमे कुचिकाsऽदयो दृष्टान्ताः। तद्यथा-द्वैमासिक परिहारस्थानमापन्नस्य प्रतिकुञ्चकस्य दृष्टान्तः कुञ्चिकस्तापसः / त्रैमासिक परिहारस्थानमापन्नस्य योधः / चतुर्मासिकं परिहारस्थान-मापन्नस्य मालाकारः। पाश्चमासिक परिहारस्थानमापन्नस्य मेघः। (पलिउंचिए त्ति) प्रतिकुश्चनायां कृतायामाचार्येण सम्यगालोचय मा प्रतिकुशय मा प्रतिकुञ्चनां कार्षीरित्युपालब्धः स सम्यक् प्रत्यावर्त्ततेभगवन्मिथ्या मे दुष्कृतं, सती चोदना सम्यगालोचयामीति / ततः स श्रुतव्यवहारी प्रतिकुचिते कृते तं तथाप्रत्यावृत्तं सन्तं पुनरपि त्रीन्वारान् आलोचापयति। तत्र यदि त्रिभिरपि वारैः सदृशमालोचयति ततो ज्ञातव्यो, यथा-सम्यगेष प्रत्यावृत्त इति / तदनन्तरं च यद्देयं प्रायश्चित्तं तदातव्यमिति। अथ विसदृशमालोचयति, ततो भणति-अन्यत्र त्वं शोधिं कुरु, नाहं तब शक्नोम्येतादृश्या आलोचनायाः सद्भावमजानानः शोधि कर्तुमिति / अथवा शिष्यः पृच्छति-भगवन् ! एतानि मासाऽऽदीनि षण्मासपर्यन्तानि परिहारस्थानानि कुतः प्राप्तानि ? सूरिराह-(तिगट्ठाणा) उक्रमाऽऽदित्रिकरूपात् स्थानात् / किमुक्तं भवति ? उद्गमोत्पादनैषणासु यत् अकल्पाप्रतिसेवनया अनाचारकरणं तस्मादेतानि प्राप्नोति। साम्प्रतं पाण्मासिकं परिहारस्थानसूत्रमाहतेण परं पलिउंचियए वा अपलिउंचियए वा ते चेव छम्मास्सा / / 5 / / (तेण परं पलिउचियएवा अपलिउंचियएवातेचेवछामासा) तेनेत्यव्यय तत इत्यर्थे / ततः पाञ्चमासिकात् परिहारस्थानात् परमित्येतदप्यव्ययं सप्तम्यर्थप्रधानम्, परस्मिन् पाण्मासिके परिहारस्थाने प्रतिसे विते आलोचनाकाले प्रतिकुञ्चिते, प्रतिकुञ्चनया वा आलोचिते इत्यर्थः / ते एव प्रतिसेवनानिष्पन्नाः स्थिताः षण्मासाः, नाधिकं प्रतिकुश्शनानिमित्त - मारोपणम् / कस्मादिति चेत? उच्यते-इह जीतकल्पोऽयम्-यस्य तीर्थकरस्य यावत्प्रमाणमुत्कृष्ट तपःकरणं तस्य तीर्थे तावदेव शेषसाधू- / नामुत्कृष्ट प्रायश्चित्तदानम्। चरमतीर्थकरस्य तु भगवतो वद्धमानस्वामिन उत्कृष्ट तपः षाण्मासिकं, ततोऽस्य तीर्थ सर्वोत्कृष्टमपि प्रायश्चित्तदान षण्मासा एवेति षाण्मासिकं परिहारर-थानं प्रतिसेव्य प्रतिकुञ्चनयाऽप्यालोचयतो नाधिकमारोपणमतस्त एव षण्मासाः स्थिता उक्ताः। बहूमासिकम्जे भिक्खू बहुसो मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं / / 6 // यो भिक्षुर्बहुशोऽपि त्रिप्रभृतिवारानपि, आस्तामेकं. द्वौ वा वारावित्यपिशब्दार्थः / मासिक परिहारस्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत्, तस्याप्रतिकुञ्च्याऽऽलोचयतो मासिकमेकं प्रायश्चित्तम् / प्रतिकु - च्यालोचनानिष्पन्नो गुरुमासो दीयते इति द्वैमासिकम्। इयमत्र भावनाकेनापि गीतार्थेन कारणे अयतनया त्रीन्वारानबहून्वा वा वारान् मासिक परिहारस्थानं प्रतिसेवितम्, आलोचनाकाले चाऽप्रतिकुञ्चनयाऽऽलोचितं, तस्मै एकमेव मासिक प्रायश्चित्तं दीयते, न तु यावतो वारान् प्रतिसेवना मासिकस्य कृतवान् तावन्ति मासिकानीति, कारणे प्रतिसेवनायाः कृतत्वात्। अथ प्रतिकुञ्चनयाऽऽलोचनयति ततो द्वितीयो मासो मायानिष्पन्नो गुरुर्दीयते इति द्वैमासिकम् / एवं शेषाण्यपि द्वैमासिकाऽऽदिविषयाणि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि। नवरं द्वैमासिकसूत्रे तृतीयो मायानिष्पन्नो गुरुमासो दीयते इति त्रैमासिकम्। त्रैमासिकसूत्रे चतुर्थो मायानिष्पन्नो मास इति चातुर्मासिकम् / चातुर्मासिकसूत्रे पञ्चमा मायाप्रत्यय इति पश्चिमासिकम् / पाशमासिकसूत्रे षष्टो मायानिष्पन्नो गुरुमास इति षाण्मासिकम् / ततः परं पाण्मासिके परिहारस्थाने आलोचनाकाले प्रतिकुञ्चनायां वा त एव स्थिताः षण्मासा इति। अमीषां पञ्चानामपि सूत्राणां सूचकमिदं गाथायाः पश्चार्द्धम्पंच गमा नेयव्वा, बहूहिँ उक्खडमडाहिं वा / / 141 / / पञ्च गमाः सूत्रप्रकारा ज्ञातव्याः / कथमित्याह- (बहूहिं इत्यादि) "उक्खडमडा" इति देशीपदमेतत् पुनः पुनः शब्दार्थे द्रष्टव्यम्। उक्तं च- "उक्खडमड त्ति वा भुजो भुजो वा पुणो पुणो त्ति वा एगहूँ।'' पुनः पुनः शब्दार्थश्च वारं वारं बहुभिरिर्विशेषिता बहुश इति; बहु इति पदविशोषिता इत्यर्थः। अत्र चोदक आहबहुएसु एगदाणे, रागो एक्के कदाणे दोसो उ। एवमगीते चोयग ! गीयम्मिय अजतसेविम्मि / / 142|| ननु यूयं न मध्यस्थाः , रागद्वेषकरणात् / तथाहि-बहुशः प्रतिसेवितेष्वेतेषु पञ्चसु सूत्रेषु मासिकेषु परिहारस्थानेषु बहुशः शब्दविशेषितेष्वपि एकमेव मासं प्रयच्छथ, द्वैमासिकेषु परिहारस्थानेषु बहुश: प्रतिसेवितेष्वप्येक द्वैमासिकम्, त्रैमासिकेषु परिहारस्थानेषु बहुशः प्रतिसे वितेष्वप्यकं त्रैमासिकम्, चातुर्मासिकेषु परिहारस्थानेषु बहुशः प्रतिसेवितेष्वेकं चातुर्मासिकम्, पाञ्चबासिकेषु परिहारस्थानेषु बहुशः प्रतिसेवितेषु एक पाञ्चमासिकम्। एवं बहुकेषु बहुशः प्रतिसेवितेषु मासादिषु परिहारस्थानेष्वेकदाने एकैकसंख्याकस्य मासिकाऽऽदेर्दानीयेष्येकं प्रयच्छथतेषु रागः। आधेषु पञ्चसुसूत्रेषु एकैकदाने एकैकवार यत् प्रतिसेवितं मासिकाऽऽदि तस्य परिपूर्णस्यदानेष्वेवं प्रयच्छथ तेषु विषये द्वेष एव। तुशब्द एवकारार्थः। न च रागद्वेषवन्तः परेषां शोधिमुत्पादयितुं क्षमाः, सम्यक् प्रायश्चित्तदानविधेरकरणादिति / अत्र सूरिराद (एवमित्यादि) अहो चोदक ! एवमादिकेषु पञ्चसु सूत्रेषु यावन्मात्र प्रतिसेवित तावन्मात्रस्य परिपूर्णस्य दानमगीते अगीतार्थे प्रतिसेवके यत्पुनर्बहुशःशब्दविशेषितेषु पञ्चसुसूत्रेषु बहुशः प्रतिसेवितेष्टापि मासिकाऽऽदिषु स्थानेष्वप्येकैकसंख्याकस्य मासिकाऽऽटेनं तत् गीत गीतार्थ, अयतसेविनि अयतनया प्रतिसेवके। ततो गीतार्थागीतार्थभेदेन प्रतिसेवकस्य भेदादित्थं प्रायश्चित्तविधानमित्यदोषः / अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाहजो जत्तिएण रोगो, पसमइ तं देइ भेसजं विनो। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 147- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त एवाऽऽगमसुयनाणी, सुज्झइ जेणं तयं देंति // 143 / / यो रोगो यस्मिन्पुरुषेऽल्पो महान् वा पुरुषप्रकृतिमपेक्ष्य वन्मात्रेण प्रशाम्यति तस्य पुरुषस्य तत् तावन्मात्रं भेषजं वैद्यः प्रयच्छति। नाधिकम्; एवममुना दृष्टान्तप्रकारेण, मकारस्य लोपः प्राकृतत्वात् / (आगम्सुयनाणी ति) ज्ञानिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते / आगमज्ञानिनः श्रुतहानिनश्च गीतार्थोऽगीतार्थश्व येन यावन्मात्रेण प्रायश्चित्तेन परिणामवशात् शुद्धयति तस्मै तत् तावत्प्रमाणं प्रायश्चित्तं ददति, ततो यथौचित्यप्रवृत्तेर्न रागद्वेषवत्तेति न काचित् क्षतिः। संप्रतिवक्ष्यमाणार्थसूचिकामिमा संग्रहणिगाथामाहसुत्तं चोयग मा मद्द-भत्ति कोट्ठारतिय दुवे य खल्लाडा। अद्धाणसेवियम्मी, सव्वेसिंघेत्तुणं दिन्नं / / 144 / / प्रथमतः प्रमाणत्वेन सूत्रमुपन्यसनीयम्, ततश्चोदकवचन मुत्क्षि-प्य मा इति प्रतिषेधो वक्तव्यः, तदनन्तरं गर्दभदृष्टान्तः, ततोऽध्वनि सेविते अनेकवार मासिके परिहारस्थाने तेषां सर्वेषां समविषमतया दिवसान गृहीत्वा परामेकं मासिक प्रायश्चित्तमित्युक्ते चोदकवचनमुत्क्षिप्य कोष्ठागारत्रयं दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तव्यम्, तदनन्तरं च भूयः परवचनमाशड्लप द्वौ खल्वाटौ दृष्टान्तौ कर-णीयाविति गाथाऽक्षरयोजना। भावार्थ तु स्वयमेव भाष्यकृद्वक्ष्यति। तत्र- 'सुत्तं चोयग मा'' इत्येतद् व्याख्यानयन्नाहअवि य हु सुत्ते भणियं, सुत्तं विसमं ति मा भणसु एवं / संभवइ न सो हेऊ, अत्ता जेणालियं बूया // 145 / / अपि चेति रागद्वेषवत्ताभावहेत्वन्तरसमुच्चयने, आस्तां गीतार्थाऽगीता- 1 थभेदेन यथौचित्यप्रायश्चित्तदानतो न वयं रागद्वेषवन्तः, अपि च अन्यच सूत्रमेवविधष्वर्थेषु प्रमाण, सूत्रे बहु निश्चित्तं विषमास्वपि प्रतिसेवनासु तुल्यं प्रायश्चित्त भणितं, ततो न कश्चिद् दोषः / एतावता सूत्रमिति व्याख्यातम्। तत्र चोदक आह-ननु सूत्रमेव विषमं न समीचीनं, परस्परविरुद्धत्यात् / तथा ह्यादिमेषु पञ्चसु सूत्रेषु यावत् प्रतिसेवितं तावतः परिपूर्णस्य दानम, उत्तरेषु तु पञ्चसु सूत्रेषु बहुशः प्रतिसेवितेष्वपि मासिकाऽऽदिष्वेककसंख्याकस्य मासिकाऽऽदेर्दानं, न च विषमासु प्रतिसेवनासु सम प्रायश्चित्तं दातुमुचितमिति / एतावता चोदक इति व्याख्यातम् / इदानीमेतदेव चोदकवचनमुत्क्षिप्यमिति व्याख्यानयति(सुत्त विसमं ति इत्यादि) एवमुपदर्शितन प्रकारेण सूत्रं विषममिति मा भणमा वादीः। यतः सूत्रस्य अर्थतः कर्तारो भगवन्तो वीतरागाः सर्वज्ञाः"अत्थ भासइ अरहा'' इति वचनात्। एवं परमार्थतः प्राप्तिः क्षीणरागाऽऽदितया परिपूर्णयथावस्थिताऽऽसत्व लक्षणसद्भावात्, न च तेषामित्थभूतानामाप्तानां रा हेतुः कारणं संभवति, येन ते आता अलीकं ब्रूयुः / अलीकभाषणाहेतोः रागाऽऽदेर्निर्मूलकाषं कषणात्। उक्तं च- "रागाद्वा द्वेषाद्रा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् / यस्य तु नैते दोषास्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात् ? // 1 // " ननु यद्यपणेवं तथापि विषमाणि खलु प्रतिसेवनावस्तूनि, विषमेषु च प्रतिसेवनावस्तुषु कथं तुल्यं प्रायश्चित्तमिति? तत्राऽऽहकामं विसमा वत्थू, तुल्ला सोही तहा वि खलु तेसिं। पंचवणि तिपंचखरा, अतुल्लमुल्ला य आहरणं / / 146 / / काममित्यनुमतौ / काममनुमन्यामहे विषमाणि वस्तूनि प्रतिसेवनालक्षणानि, तथाऽपि खलु निश्चितम्, तेषां शुद्धिस्तुल्या भवति, प्रतिसेवकभेदात्। एकत्र ह्यगीतार्थः प्रतिसेवकोऽन्यत्रगीतार्थः / तथा चाऽत्र पञ्चवणिजा पञ्चानां वणिजा, त्रिपञ्च खराः पञ्चदश गर्दभाः। पञ्चवणिक त्रिपञ्चखराः कथंभूता इत्याह- अतुल्यमूल्या अतुल्यम् असदृशं मूल्यं येषां ते तथा / आहरणं दृष्टान्तः- "पंचवणिया समभागसामाइया ववहरति / तेसि पन्नरस खरा लाभतो जाता; ते विसमभारवाहितेण विसममोलतेण य समं विभइउमचायंता भंडिउमारद्धा, ततो ते एकस्स बुद्धिमतस्स समीवमुवट्ठिया। तेण खराण मुलं पुच्छिया। तेहिं कहियं / ततो भणइ-सम विभयामित्ति, धीरा होह / मा भंडेह / ततो तेण एक्को खरो सहिमोल्लो एक्कस्स वाणियगस्स दिण्णो, दोण्णि खरा पत्तेयं तीसमोल्ला विइयस्स वाणियगस्स दिन्ना। तिण्हं खराणं पत्तेयं वीस वीस मोल्लं, ते तइयस्स वाणियगस्स दिन्ना / चतुण्डं खराण पत्तेयं पन्नरस मोल्लं, ते चउत्थरस वाणियगस्स दिन्ना। पंच खरा पत्तेयं वारसमोल्ला, ते पंचमरस वाणियगस्स दिन्ना।" एतदेवाऽऽहविणिउत्तभंडभंडण, मा भंडहएत्थ एगसट्ठी उ। दो तीस तिन्नि वीसग, चउ पन्नरस पंच वारसगा / / 147 / पञ्चाना वणिजा समभागसामाजिकानां विनियुक्तभाण्डानां विनि-युक्त व्यापारितं भाण्ड क्रयाणक यैस्ते तथा, तेषां पञ्चदश खरा अभूवन्निति वाक्यशेषः / ते च विषमभारवाहिनो विषममूल्याश्च, ततो यद्यपि समविभागेन विभज्यमाना रूपतस्त्रयस्त्रया भवन्ति, तथाऽप्यतुल्यमूल्या इति परस्परं भण्डनमभूत्। तत्रएकोऽपरोमध्यस्थः समागत्य ब्रूतेमा भण्डयताह समविभागेन विभज्य दास्यामीति / तत्रैकः षष्टिकः षष्टिमूल्यः, एकस्य दत्त इति वाक्यशेषः / एवंद्वौ त्रिंशन्मूल्यौ द्वितीयस्य, यो विंशतिमूल्यास्तृतीयस्य, चत्वारः पञ्चदश मूल्याः चतुर्थस्य, पञ्च द्वादशमूल्याः पञ्चमस्य / यथा तेषां पञ्चानां वणिजा पञ्चदश खराः परस्परमतुल्यतया विभिन्नास्तथा केनाऽपि विभज्य दत्ता यथा तुल्या लाभप्राप्तिर्भवति, तथा साधूनामपि गीतार्यागीतार्थाऽऽदिभेदेनानेकविधानामागमव्यवहारिणां श्रुतव्यवहारिणां वा तथा कथश्चनापि रासभस्थानीया मासा विभज्य दीयन्ते यथा तुल्या विशोधिर्भवतीति। एतदेवाऽऽहकुसलविभागसरिसओ, गुरु साहू य होंति वणिया वा। रासभसमा य मासा, मोल्लं पुण रागदोसाउ॥१४८|| कुशलो विभागे कुशलविभागः, राजदन्ताऽऽदित्वाभ्युपगमात्कुशलशब्दस्य पूर्वनिपातः / तेन सदृशस्तुल्यो गुरुरागमव्यवहारी वा श्रुतव्यवहारी वा, साधवश्च भवन्ति वणिज इव वणिक्तुल्याः। वाशब्द उपमानार्थ: "वा विकल्पोपमानयोः" इति वचनात् / रासभसमाश्च मासाः, मूल्यं पुनः रागद्वेषावेव / तुशब्द एवकारार्थः / तथाहि-यथा रासभद्रव्यगुणवृद्धिहानितो मूल्यवृद्धिहानी, तथा रागद्वेषवृद्धिहानिकृते प्रतिसेवनातः प्रायश्चित्तस्य वृद्धिहानी / यथा केनापि तीव्रराग Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त द्वेषाध्यवसानेन मासिक स्थानप्रतिसेवितं, तस्य मासः परिपूणों दीयते। अपरेण मन्दाध्यवसानेन द्वे मासिके स्थाने प्रतिसेविते, तस्य एकैकस्य मासस्य अष्टिमानि दिनानि गृहीत्वा मासो दीयते इत्यादि। ततो भवति मूल्ये रागद्वेषौ / एवं सकलद्वैमासिकाऽऽदिसूत्रेषु बहुशः सूत्रेषु च कारणाऽयतनाप्रतिसेविनो रागद्वेषवृद्धिहानित उपयुज्य बहुविस्तर वक्तव्यम्। तदेवम्- "गद्दभत्ति' व्याख्यातम् / अधुना-"अद्धाणसे वियम्मिइत्यादिव्याख्यायते-गीतार्थेनाध्वनि, उपलक्षणमेतत् अन्यास्मिन्वा कारणान्तरे यदयतनया प्रतिसेवितं तत्र बहूनि मासिकस्थानान्यापन्नानि, तानि चाऽऽलोचनाकाले सर्वाण्यप्येकवेलायामालोचितानि, गुरुश्चाऽऽलोचनाप्रदानविशेषतो जानातियथैष गीतार्थः, कारणे च प्रतिसेवना कृता परमयतनया, ततोऽयतनाप्रसङ्ग निवारणार्थ सर्वेषामपि मासानां समविषमतया दिवसान् गहीत्वा मास एकस्तरमै दत्तः, अगीतार्थो यो मन्देनाध्यवसानेन बहूनि मासिकस्थानानि प्रतिसेव्य, तीव्रण वाऽध्यवसानेन प्रतिसेव्य हा दुष्ठमया कृतमित्येवमादिभिर्निन्दनैरालोचितवान्, सोऽप्येकेन शुध्यति / तथा गीतार्थोऽपरिणामको वा चिन्तयेत्-द्वौ मासिकावापन्नोऽहं कथमेकेन मासेन शुद्ध्यामि? ततः श्रुतव्यवहारी तस्य प्रत्ययकरणार्थमकैकस्मात् भासात्कतिषयान् दिवसान गृहीत्वा मासमेक प्रयच्छति, यथा द्वयोरपि मासयोः प्रतिसेवितयोरेकैकस्यार्द्धमासमर्द्धमास गृहीत्वा इति / एवं हि सर्वेऽपि मासाः सफलीकृता इति तस्य महती धृतिरुपजायते। यस्त्वागमव्यवहारी, स न द्वैमासिकं प्राप्तस्यद्वावीप मासौ सफलीकरोति, किं त्वेकं ददाति, द्वितीयं त्यजति / स हि प्रत्यक्षज्ञानी, ततो न तद्वचने कस्याप्यशुद्ध्याशङ्केति। यदा पुनः तीव्राध्यवसानो निष्कारणप्रतिसेवितस्य मासाऽऽदिकमापन्नस्य परिपूर्ण मासाऽऽदिकमेव दीयतेवीसुं दिन्ने पुच्छा, दिटुंतो तत्थ दंडलतिएण। दंडो रक्खा तेसिं, भयजणणं चेव सेसाणं / / 146 / / एवं गीतार्थानामगीतार्थानां च कारणे निष्कारणे वा पृथक् पृथक् प्रायश्चित्ते दत्ते (पुच्छत्ति) शिष्यः पृच्छति-किं कारणं गीतार्थाना कारणे निष्कारणे च विसदृशं प्रायश्चित्तं दत्तमिति? अत्र "दो दो गारस्थिए" इत्यस्य व्याख्याया अवसरः। सूरिराह-(दिटुंतो तत्थदंडलतिएण) तन्त्र पुरुषभेदेन विसदृशः प्रायश्चित्तदाने दृष्टान्तो दण्डलतिको दण्डो लातो गृहीतो येन स दण्डलातः, सुखाऽऽदिदर्शनात् निष्ठान्तस्य परनिपातः / दण्डलातः, प्राकृतत्वात् स्वार्थिक इकप्रत्ययो, यथा पृथिवीकायिका इत्यत्र / तेन दण्डलतिकेन गृहीतदण्डेन राज्ञा इत्यर्थः / यथा तेन दण्डलातिकेन राज्ञा राजकार्ये प्रवृत्ताना मपि तेषां दण्डाना रक्षा भवतु, मा भूयो गृहीषु कोष्ठागाराणा विनिवारणार्थ, तथा शेषाणां भयजननं च भयोत्पादश्च स्यादित्येवमर्थं स्तोको दण्डः कृतः, तथा गीतार्थस्याऽऽदिपारणे प्रवृत्तस्यायतनाप्रसङ्ग निवारणार्थम्, अगीतार्थस्य मन्दाध्यावसानप्रतिसेविनो दुष्टाध्यवसायप्रतिसेविनो वा बहुभिर्निदानैर्दत्ताऽऽलोचनस्य प्रमादनिवारणार्थ मासाना समविषमतया दिवसान् गृहीत्वा मासो दीयते। यथा च स राजा शेषस्य राजकार्याप्रवृत्तस्य कोष्ठागारलूषकस्य सर्वाऽऽत्मना दण्डं करोति, एवं या निष्कारणप्रतिसेवी तस्य / मासाऽऽदिको दीयत। अथ के ते दण्डाः , कथं च तेषां राजा दण्डं कृतवा - निति तत्कथानकमिदं गाथाद्वयमाहदंडतिगं तु पुरतिगे; ठवियं पच्चंतपरनिवारोहे। भत्तद्वतीस तीसं, कुंभग्गह आगया जेउं॥१५०|| कामं ममेय कलं, कयवित्तीए वि कीस भे गहियं ? एस पमादो तुब्भं, दस दस कुंभे दलह दंडं // 151 / / एमरस पयंडरन्नो पचतिओ राया विरुद्धो।ततोतेण पयंडेण रन्ना तरस पचासण्णेसु तिसु पुरेसु तिन्निदंडा विसज्जिया। गच्छह / पुराणि रक्खह। ततो तेसु नयरेसु पत्तेयं 2 टिया पचंतियराइणा ते आगंतु रोहिया। तेहि रोहिएहिं खाणभत्तेहिं जे ते पुरेसु पयंडस्स रन्नो कोट्टागारा तेहितो पत्ता पत्तेय धण्णस्स तीसं तीसं कुंभा गहिया। ततो तेहिं सो पचंतिओ राम जितो, आगया रण्णो, समीवं कहियं सव्वं सवित्थरं / तुट्ठो राया / पुर तेहिं कहिय-तुज्झ कजं करेंतेहिं धन्नं गहियं / रन्ना चिंतियं-जइ र नि दंडो न कीरइ ता मे पुणो पुणो उ उप्पण्णपओयणे हिं कोडागार विलुप्पेहिंति, न य अन्नेसिं भयं भवति, तम्हा मे दंडो कायव्यो / एए चितिऊण भणइ-काम मम कज्ज, तहा वि तुज्झं मए दित्ती / कर आसि, ततो कयवित्तीहि कीस भे धन्नं मज्झ गहियं ? तुझं एस पमा ततो अणवत्थपसंगनिवारणत्थं भणतिएस तुज्झदंडोममं धन्नदेह एक भणित्ता राया अणुग्गह करेइ / जेहि कोट्ठागारेहिंतो तीसं कुंभा गहिय, तेसु अप्पणिज्जस्स धन्नस्स दसकुंभे पक्खिवह, वीसं वीस कुंभा मुक्का। अक्षरयोजना त्वेवम्-प्रत्यन्तपरनृपावरोध-निमित्तं दण्डत्रिक पुरचित्र स्थापितं, तेन च प्रत्येक भक्तार्थ (तीसं तीसं कुंभमह ति) त्रिंशतस्त्रिंशतःकुम्भानां ग्रहो ग्रहण कृतम्। ततस्तं प्रत्यन्तनृपं जित्वा आगतान दण्डा राजान विज्ञप्तवन्तो यथा युष्मत्कार्यार्थ त्रिंशत् कुम्भा गृहीताः राजा प्राऽऽह-कामं ममैतत्कार्य, परंयुष्माकंमया वृत्तिः कृता आसीदिति कृतवृत्तिभिः (भे) भवद्धिः किमर्थ मम धान्यं गृहीतम् ? युष्माकमेः प्रमादस्तस्माद् दण्ड,दश दश कुम्भान् ददत। एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःतित्थयरा रायाणो, जइणो दंडा य काय कोट्ठारो। असिवाइ वुरगहा पुण, अजयपमायारुहण दंडो!।१५२। तीर्थकरा राजानो राजस्थानीयाः, साधवो दण्डाः दण्डस्थानीय कायाः पृथिवीकायिकाऽऽदयः कोष्ठागाराणि कोष्टागारतुल्याः अशिवाऽऽदीनि कारणानि व्युद्ग्रहाः प्रत्यन्तपरनृपेण सह ये व्युद्ग्रहा. स्तत्स्थानीयानि, अयतनाप्रमादरोधनार्थ गीतार्थायतनाप्रसङ्गनिवारणार्थमगीतार्थस्य प्रमादनिवारणार्थं सर्वेषां प्रतिसेविताना मासान समविषमतया दिवसान गृहीत्वा मासो दण्डो दीयते इति। अत्र पर आहबहुएहि वि मासेहिं, एगो जइ दिज्जती उ पच्छित्तं / एवं बहु सेवित्ता, एक्कैंसि वियडेमों चोएइ // 153 / / यदि गीतार्थस्य कारणे अयतनया बहु के ष्वपि मारोष, सूत्र तृतीया सप्तम्यर्थ प्राकृतत्वात् / प्रतिसे वितेषु एकवेला. यामालो चिता इति कृत्वा एको मासः प्रायश्चित्त दीयते / सतः Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त इतः प्रभृति वयं बानि मासिकाऽऽदीनि प्रतिसेव्य (एक्कसि) एकवेलाया विकटयिष्यामः / तत एकमेव मासाऽऽदिकं लप्स्यामहे इति चोदयति चोदकः। अत्राऽऽचार्य आहमा वय एवं एकसि, वियडेमो सुबहुए वि से वित्ता। लब्भिसि एवं चोयग!, दें तो खल्लाडखड़गं व // 154|| मा वद ना बादीरवम्-यदुत सुबहून्यपि मासिकाऽऽदीनि स्थानानि सेवित्वा प्रतिसेव्य (एक्कसि) एकवेलायां विकटयिष्यामो, येनैवमेकमासिकाऽऽदिकालप्स्यामहे इति / यत एवं कुर्वन् चोदक ! लप्स्यसे महान्तपपराध, खल्वाटे खडुका ददान इव / अत्र "दुवे य खल्लाडा'' इत्यस्यावत्सरः / द्वौ खल्वाटावत्र दृष्टान्तः। 'एगो खल्लाडो संयोलबाणिय पण्णे विकिणइ, सो एक्कण चारभड़पोट्टेण पन्ने मग्गितो / अरे खलाडवाणिया ! पन्ने देह / तेण सकसाएण न दिन्ना / अन्ने भणंतिथोचा दिना / ततोष्ण रूसिएण चारभङपोट्टेण खल्लाडसिरे खडुगा दिन्ना, टक्करा दिन्नेति धुर भवति। वाणियएण चिंतिय-जइ कलहेमि तो मएस दुमितो गरेवा! त-हा उ वीएण वेरनिज्जामणं करेमि / एवं चिंतिऊण उद्विता हत्थो से मेलिओ, वत्थजुयलं से दिन्नं, पादेसु पडिओ-बहुंच से तंबोल दिन्न / चारभडपोट्टो पुच्छइ-किं कारणं तुम न रुट्टो, पच्चुलं मम पएसि ? पाएमु य पडिसि ति? वाणिएण भणियंअम्ह विसए सव्वखल्लाडाणमेरिसा चेव दिती। चारभडपोट्टण चिंतियलद्धो मए जीवणोवाओ। ततो पुणो चिंतियंतारिसगरूस खडुगं देमि, जो मं अदरिदं करेजा / ताहे तेण एगरस ठक्कुरस्स खल्लाडगरस खडुगा दिन्ना। तेण मारितो॥" एतदेवाऽऽहखलाडगम्मि खड्डुगा, दिन्ना तंबोलियस्स एगेणं / सक्झारित्ता जुयलं, दिन्नं विइएण वोरवितो।।१५५।। एकन चारभटपोन ताम्बूलिकस्य शिरसि खल्वाटे खटुका टक्करा दिन्ना, ततस्तेन वणिजा ताम्बूलिकेन सत्कार्य तस्मै वस्त्रयुगल दत्तम्। द्वितीयेन खल्वाटेन्न व्यपरोक्तिो मारितः। एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःएवं तुभं पि चोयग !, एकसि पडिसेविऊण मासेणं / मुच्चिहिसि विइयगं पुण, लभिहिसि मूलं तु पच्छित्तं 156 एवं त्वमपि चोदक / (एक्कसि) एक वारं बहूनि मासिकानि प्रतिसेव्य एकवेलायां सर्वाण्यप्यालोचितानीति मासेन मुक्तो द्वितीयवारमुपेत्य प्रतिसेव्य तथाऽऽलोचयन् लक्षितस्वभावो मूलं, तुशब्दात् छेदं वा, लप्स्यसे, यथा लब्धवान् चारभटो मरणम्। अन्यच्च स चारभटपोत एक गरण प्राप्तवान्, त्वं पुनः ससारे अनेकानि मरणानि प्राप्स्यसि, तस्मात्प्रतिसेवकपरिणामानुरूप एष प्रायश्चित्तदानविधिर्नाऽऽलोचनानाविशेषः कृत इति नान्यथा प्रमार्जनीयः। एतदेवाऽऽहअसुहपरिणामजुत्ते-ण सेविए होइ एगमासो उ दिज्जइ य बहुसु एगो, सुहपरिणामो जया सेवे / / 157 / / अशुभपरिणामयुक्तेन सेविते निष्कारणमयतनया प्रतिसेविनेत्यर्थः। एकस्मिन् मासे एको मासः परिपूर्णो दीयते, दुष्टाध्यवसायेन प्रतिसेवनात् | पुनः प्रत्यावृत्तेरभावाच, यदा पुनः शुभपरिणामः सेवते, पुष्टमालम्बनमालम्ब्य प्रतिसेवते इत्यर्थः / दुष्टाध्यक्सायेन सेवित्वा पश्चाद् बह्वात्मनिन्दनं करोति, तस्य बहुष्वपि मासेषु प्रतिसेवितेष्वेको मासो दीयते। इह कश्चिद् दण्डदानादात्मानमपभ्राजनास्थानं दुःखितं मन्यते, तं प्रति दण्डदानादानफलमाहदिण्णमदिण्णो दंडो, सुहदुहजणणो उ दोण्ह वग्गाणं। साहूणं दिन्न सुहो, अदिन्न सुक्खो गिहत्थाणं / / 158|| द्वौ वर्गों तद्यथा-साधुवर्गो, गृहस्थवर्गश्च। तयोर्द्वयोर्वर्गयोर्दण्डो दत्तोऽदत्तश्च यथायोगं सुखदुःखजननः / तत्र साधूनां दत्तः सन् दण्डः सुखः सुखहेतुः, अदत्तः सन् दुःखकारणमिति सामर्थ्यागम्यते। गृहस्थानामदत्तः सन् दण्डः सुरखं सुखावहः; दत्तःसन् दुःखावह इति सामर्थ्यात् प्रत्येयम्। करभादेवमिति चेदत आहउद्धियदंडो साहू, अचिरेण उवेइ सासयं ठाणं / सो चियऽणुद्धियदंडो, संसारपयट्टओ होइ।।१५६।। उद्धियदंडों गिहत्थो, असणवसणविरहितोदुही होइ। सो च्चियऽणुद्धियदंडो,असणवसणभोगवं होइ॥१६०॥ उद्धृत उत्पाटितो गृहीतो दण्डो येन स उद्धृतदण्डः साधुरचिरेण स्तोकेन कालेनापैति शाश्वतं स्थानं, प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या अतीचारमलापगमकरणत उत्तरोत्तरविशुद्धसंयमलाभात् / स एव साधुरनुद्धृतदण्डः संसारप्रवर्तको भवति, अतीचारजातस्य संसारकारणत्वात् / तथाउद्धृतदण्डो गृहस्थोऽशनवसनविरहितो भोजनवस्त्रपरिहीनो दुःखीभवति स एवानुद्धृतदण्डोऽशनवसन-भोगवान् भवति। सूत्रम्जे भिक्खू मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चउमासियं वा पंचमासियं वा तेसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडि-सेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा चउमासियं वा पंचमासियं वा, पलिउंचियं वा आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा चाउमासियं वा पंचमासियं वा छम्मासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउचिए वा ते चेव छम्मासा / / (जे भिक्खू मासियं वा दोमासियं वा तेमासियं वा इत्यादि, यो भिक्षुर्मासिकं वा द्वैमासिकं वा त्रैमासिकं वा चातुर्मासिकं वा पाञ्चमासिक वा।वाशब्दाः सर्वे विकल्पार्थाः। तथा चाऽऽह-एतेषां परिहारस्थानानामन्यतमत् तस्येति सामदिवसीयते। यच्छब्दस्यतच्छब्दापेक्षित्वात, अप्रतिकुञ्च्य आलोचयतो मासिक वा द्वैमासिकं वा त्रैमासिकं वा चातुर्मासिकं वा पाश्चमासिकं वा, प्रतिकुच्याऽऽलोचयतः सर्वत्र आपन्नप्रायश्चित्तापेक्षया अधिको मायानिष्पन्नो गुरुमासो दीयते इति द्वैमासिकाऽऽदिक्रमेणाऽऽह-द्वैमासिकं वा त्रैमासिकं वा चातुर्मासिकं वा पाञ्चमासिकं वा पाण्मासिकंवा। (तेण परमित्यादि) ततः पाञ्चमासिकात्परिहार-स्थानात्परं परस्मिन् पाण्मासिके परिहारस्थाने प्रतिसेविते आलोचनायां प्रतिकुश्चितेऽप्रतिकुञ्चिते वाऽत एव स्थिताः षण्मासाः, तत ऊर्द्धमस्मिन् तीर्थे आरोपणाया असंभवात्। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 150 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त अत्र शिष्यः प्राऽऽहकसिणाऽऽरोवणा पढमे, विइए बहुसो वि सेविए सरिसा / सुद्धी संजोगो पुण, तत्थंऽतिम सुत्त वल्ली वा / / 161 / / आदिमानि पञ्चापि सकलसूत्राणि सकलसूत्रसामान्यादेकं प्रथमसूत्रं विवक्षितं, द्वितीयानि पञ्च सूत्राणि बहुशःशब्दविशेषितानि बहुश:शब्दविशेषितत्वाविशेषाद् द्वितीय सूत्रम्। तत्र प्रथमसूत्रे कृत्स्ना आरोपणा कृता / इदमुक्त भवति-यत् प्रतिसेवितं तत्सर्व परिपूर्ण दत्तं, न पुनः किञ्चिदपि तस्मान्मुक्तमिति। द्वितीये सूत्रे बहुशोऽपि सेविते मासिकाऽऽदो परिहारस्थाने झोषित्वा शुद्धिः सदृशी प्रथमसूत्रगमसदृशी दत्ता / एवं प्रथमे द्वितीये च सूत्रे गेंऽयं तृतीयसूत्रगमः किं प्रसिद्ध्यर्थमारब्धः? आचार्य आह-(संजोगो इत्यादि) तृतीयस्मिन्सूत्रे संयोगः पञ्चपदगत उपद-र्शितः। पुनःशब्दो विशेषणार्थः / स चैतदिशिनष्टिपञ्चानामादिसूत्रगमानां संयोगज्ञापनार्थमिदं तृतीयं सूत्रमारब्धमिति / तथाहि-पञ्चाना पदानां दश द्विकसंयोगे भङ्गाः, दश त्रिकसंयोगे, पञ्चचतुष्कसंयोगे, पञ्चपशकसंयोगे। तत्र योऽसावेकः पञ्चकसंयोगे सोऽनेन सूत्रेणाऽत्र साक्षात् गृहीतः। तथा चाऽहतत्थंऽतिमसुत्त त्ति) तत्र तेषु द्विकसंयोगाऽऽदिभङ्ग केषु मध्येऽन्तिमः पञ्चकसंयोगाऽऽत्मको भङ्गः सूत्रेण गृहीतः। विभक्तिलोपोऽत्र प्राकृतत्वात्। अस्य ग्रहणादितरेऽपि सर्वे भड़का गृहीताः। किमिवेत्यत आह(वल्लीवा) वाशब्द उपमार्थे, वल्लीवत्। यथा वली अग्रे गृहीत्वा समाकृष्टा सर्वा समूला समध्या समाकृष्टा भवति, एवमेते-"अन्न यरं पडिसेवित्ता आलोएजा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मा-सियं वा दोमासियं वा, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं वा तेमासियं वा / / 1 / / एवं जे भिक्खू मासियं वा तेमासियं वा / / 2 / / जे भिक्खू मासियं वा चउमासिय वा // 3 // जे भिक्खू मासियं वा पंचमासियं वा॥४॥ जे भिक्खूदोमासियं या तेमासियं वा / / 5 / / दोमासियं वा चउमासियं वा / / 6 / / दोमासिय वा पंचमासियं वा / / 7 / जे भिक्खू तेमासियं वा चउमासियं वा // 8 // तेमासिय वापंचमासियं वा H&|| चउमासियंवा पंचमासियं वा॥१०॥"त्रिकसंयोगे दश भङ्गा इमे। तद्यथा-"जे भिक्खू मासियं वा दोमासियं वा तेभासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणमन्नयरं।" इत्यादि।॥१॥ जे भिक्खू मासियं वा दोमासियं वा चउमासियं वा // 2 // मासिय वा दोमासियं वा पंचमासियं वा॥३॥ मासियं वा तेमासियं वा चउमासियं वा / / 4 / / मासिय वा तेभासिय वा पंचभासियं वा / / 5 / / मासियं वा चउमासियं वा पंचमासियं वा / / 6 / / दोमासियं वा तेमासियं वा चउमासियं वा / / 7 // दोमासियं वा तेमासिय वा पंचमासियं वा / / 8 / / दोभासियं वा चउमासियं वा पंचमारियं वा / / 6 / / ते मासियं वा चउमासियं वा पंचमासियं वा / / 10 // पञ्चचतुष्कसंयोगे भङ्गा इम-"जे भिक्खूमासियवादोभासियंवा तेमासियं वा चाउम्मासियं वा एएसिंपरिहारट्ठाणाणमन्नयर परिहारहाणं।" इत्यादि।।१॥ जे भिक्खू मासिय वा दोमासियं वा तेमासियं वा पंचमासियं वा // 2 // मासिय वा दोमासियं वा चउमासियं वा पंचमासियं वा // 3 // मासियं वा तेमासिय वा घउमासियं वा पंचमासियं वा // 4|| दोमासियं वा तेमासियं वा चउमासिय वा पंचमासियं वा ॥शा यस्त्वेकः पञ्चक संयोगे स भगः साक्षात् सूत्रे गृहीतः / सूत्रम्- 'बहुसो वि एमेव ति।" यथाऽऽदिमसकलसूत्रपक्षक | संयोगप्रदर्शनपरंतृतीयं सूत्रमुक्तम्। एवमेव अनेनैव प्रकारेण बहुशःशब्दविशेषितद्वितीयसूत्रपञ्चकसंयोगप्रदर्शनपर "बहुसो वि" इतिपदविशेषितं चतुर्थसूत्र वक्तव्यम्। तद्यथा- "जे भिक्खू बहुसो मासिय वा बहुसो दोमासिय वा बहुसो तेमासियं वा बहुसो चउमासियं वा बहुसो पंचमासियं वा एएसि परिहारहाणाणं अन्नयरं परिहारहाणं बहुसो परिसेवित्ता आलोएजा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं वा दोमारियं वा तेमास्यि वा चाउम्मासियं वा, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासिय वा तेमासिय वा चउमासियंवा (?) छम्भासियं वा तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा।।" इति। एतदेव नियुक्तिकृदाहजे भिक्खू बहुसो मा-सियाई सुत्तं विभासियव्वं तु / दोमासियतेमासिय-कयाइँ एगुत्तरा वुड्डी।।१६२॥ (बहुसो इति) त्रिप्रभृति, न केवल बहुशो मासिकानि, किं तु (दोमासियतेमासियकयाइइति) द्वैमासिकानि त्रैमासिकान्यपि च बहुशः प्रतिसेवनया कृतानि, उपलक्षणमेतत्-चातुर्मासिकानि पाञ्चमासिकानि द्रष्टव्यानि। एवंरूपं सूत्रं विभाषितव्यम्, बहुशः शब्दविशेषितद्वितीयसूत्रपञ्चक व्याख्यातव्यम्-(एगुत्तरावुड्डी-ति) द्विकाऽऽदिसयोगचिन्तायां पदानामेकोत्तरा वृद्धिः कर्त्तव्या। एतेनात्राऽपि द्विकाऽऽदिसंयोगभङ्गा द्रष्टव्या इति ख्यापितम,सूत्रस्य तथा स्थितत्वात्। तथाहि-अन्तिमः पञ्चकसंयोगनिष्पन्नो भङ्गः सूत्रेण साक्षादुपात्तः / अस्य ग्रहणादादिमा अपि द्विक संयोगाऽऽदिभङ्गा वल्लीदृष्टान्तात् गृहीता अवसेयाः, ते च सर्वसंख्या षड्विंशतिः, द्विकाऽऽदियोगे चैकैकं सूत्रमित्यनेन चतुर्थेन सूत्रेण षड्विंशतिः सूत्राणि सूचितानि, तृतीयेनापि सूत्रेण षड्विशतिरिति सर्वमिलितानि संयोगसूत्राणि द्वापञ्चाशत् पञ्चाऽऽदिमानि सकलसूत्राणि पञ्च ग बहुशःशब्दविशेषितानीति सर्वसंख्यया द्वाषष्टिः सूत्राणि / एतानि च उद्घातानुद्धाता-5ऽदिविशेषरहितानि उक्तानि।। साम्प्रतमेतेषामेवोद्धाताऽऽदिशेषपरिज्ञानार्थमिदमाहउग्धायमणुग्धाए,मूलुत्तर दप्प कप्पतो चेव। संजोगा कायव्वा, पत्तेयं मीसगा चेव / / 163 / / उद्घात लघु, अनुद्धात गुरु / उद्धाते, अनुद्धाते / तथा-(मूलु ति मूलगुणापराधे, (उत्तर ति) उत्तरगुणापराधे। तथा दर्प, कल्पतश्चैव कल्पे चैव, संयोगा अनन्तरोदिताः कर्त्तव्या भणितव्याः / कथमित्याह-प्रत्येक मेकैकस्मिन् उदाताऽऽदि मिश्रका या उद्धाता उद्धातसंयोगनिष्पन्नाः / उपलक्षणमेतत्. ते न केवलं संयोगाः,किं त्वादिमान्यपि दश सूत्राणि उद्धाताऽऽदिविशेषणैर्वक्तव्यानि / तत्रोद्धातविशेषणैरूपदर्श्यन्ते-जे भिक्खू उग्घाइयं मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा इत्यादि) इत्येवमादिमानि पञ्च सकलसूत्राणि, पञ्च बहुशः शब्दविशेषितानि, षड्विंशतिस्तृतीयसूत्रसूचितानि, षड्शितिश्चतुर्थसूत्रसूचितानि, सर्वस्ख्यया द्वाषष्टिः सूत्राणि वक्तव्यानि। एवं द्वाषष्टिः सूत्राणि अनुद्धातिमानि, अनुद्धाताभिधानेन वक्तव्यानि / तद्यथा- (जे भिक्खू अणुग्धाइय परिहारट्टाणं पडिसेवित्ता आलोएजा इत्यादि) एवमेतास्तिस्रो द्वाषष्टयः / सूत्राणां, सर्वसंख्यया षडशीतं सूत्रशतम्। अत्र च त्रिंशदस Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त योगाऽऽदिसूत्राणि,पटपञ्चाशं च शतं संयोगसुत्राणाम् / साम्प्रतमुखातशिकाभिधानेन संयोगसूत्राणि वक्तव्यानि। तानि चैवमुचारणीयानि- 'जे भिकाबू उद्घायमासियं अणुग्धा यमासियं वा परिहारायणं पनिसंवित्ता आलोरजा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स उग्घाइयं वा आयुग्धाइय वा, पलिउचियं आलोएमाणस्स छपघाइयदोमासिय वा अणुग्धाइग्दामासियं वा / जे भिक्खू उग्धाइयमासियं वा परिद्वारहाण पभिवेना।" इत्येवमुद्धातितपदममुञ्चता अनुद्धा तद्धमासिकाऽऽदोन्यपि वक्तव्यानि। एवमेतेभङ्गा: पञ्च, एतेच उद्धतितमासिकेऽनुद्धातितमारिकद्वैभासिकाऽऽद्येककसंयोगेन लब्धाः / एवमुद्धातिते द्वैमासिकेऽपि पक्ष, त्रैमासिकेऽपि प्व, चातुर्मासिकेऽपि पञ्च, पञ्चमासिकेऽपि पश्चेत्युभयोरप्येककसंयोगेन सर्वसंख्यया भङ्गा: पञ्चविंशतिः। तथाउद्घातितमारिके एवमनुवातितमासिके द्वैमासिकाऽऽदिद्विकसंयोगे भङ्गा दश।। एवमुद्धातितद्वैमासिके त्रैमासिके चतुर्मासिके पञ्चमासिके च प्रत्येक दश दशेति सटसंख्यया उद्भातितैककसंयोगे अनुद्धातितद्विकसंयोगे भगा: पक्षाशत् / इह एकैयास्मिन् अनुद्धातितसंयोगे उद्घातितमासिकद्वैमासिकाऽऽदि क्रमेण पञ्च भङ्गा: लभयन्ते। ततो येऽनुद्धातिते त्रिकसंयोगे दश भङ्गारले पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जातास्तत्र भङ्गा: पञ्चा शत चतुष्कसंयोगे भड़ा जाता: पञ्चविंशतिरकः / पञ्चकर्यागे भड़ा पञ्चभिर्गुणयन्ते जाता: पञ्च / सर्वसंख्यया उद्घातितकसंयोगे भड़ानां पञ्चपञ्चाइदिधिकं शतम् 155 / तथा पशानां द्विकसंयोगे भगा दशेत्युद्धातिते द्विकसयोगचिन्तायामकैरिमन अनुद्धात्तिसंयोगे भगा दश दश लभ्यन्ते इति अनुद्धातिते एकसंयोगे पञ्च, द्विकसंयोगे दश, त्रिकसंयोगे दश, चतुष्कसंयोगे पञ्च, पञ्चकसंयोगे एक प्रत्येक दशभिर्गुण्यन्ते इति जातं क्रमणे भङ्गानां पञ्चाशत,शतं सतं पंचाशत्, शतं शतं, पञ्चाशत्, दश / 50 / 100 / 100 505 18 / सर्वसंख्यया उद्घातिते द्विकसंयोगे भङ्गाना त्रीणी शतानि दशोत्तराणि 310 तथा पशानां पदानां त्रिकसंयोगे, ऽपि भङ्गा दशेत्युदितिते विकरायःगचिन्तायामप्येकैकरिमन्ननुदूघातित-संयोगे दश चतुष्क संयोगे पञ्च पञ्चकरसंयोगे एकः प्रत्येक दशभिर्गुण्यतेजाताः क्रमेणेयं मझाना संख्या पञ्चाश्त् शतं, शंत,पञ्चाश्त्, दश। 501 100 / 100 / 50 / 10 पिसर्वसंख्यया भङ्गानां त्रीणि शतानि दशोत्तराणि 310 / पञ्चानां चतुष्कसंयोगे भङ्गाः पशवत् (?) उद्धातिते चतुष्कसयोगचिन्तायामेकैकस्मिन् अनुहातितसंयोगे भङ्गाः पञ्च पञ्च लभ्यन्त इति / तत्रैकक्संयोगजा: पञ्च, त्रिकसंयोगजा: दश, चतुष्कसंयोगजा: दक्ष प्रत्येक पञ्चभिर्गुण्यन्ते ततो जाता क्रमेणेयं भङ्गानां संख्या पञ्चाशत्, पञ्चाशन, पञ्चविंशति., पञ्च / 25 / 50 / 50 / 25 / 5 / सर्वसंख्ययाउद्घातित चतुष्कसंयोगे भङ्गानां पङ्गपञ्चाशदधिकं शतम् 155 / पशकसयोगे पश्चानां पदनामेको भङ्ग इत्युद्धातिते पञ्चकसंयोगचिन्तायानुद्धातित एकसयोगा: पा, द्विकसंयोगा दश चतुष्क संयोगा | पश्चः पक्षकसंयोग एकः प्रत्येकमेककैन गुण्यते, एकेन च गुणितं तदेव भवतीति सैव भङ्गसंख्या। तद्यथा-पञ्च दश दश पञ्चकः, एकक,।५।१०।१०।५।१। सर्वसं-ख्यया उद्धातिते पाकसं योगा एकत्रिंशत् 31 / मूलत आरभ्य भङ्गानां सर्वसंख्यया नवशतान्येकषष्ट्यधिकानि६६१। एताचन्ति किल सूत्राणि पञ्चस्वादिमेषु सकलसूभेषूद्धातसंयो गतो जानाति / एतावन्त्येव बहुश:शब्दविशेषितेष्वपि पञ्चसु सूत्रेष्वेतेनैव विधिना सूत्राणि द्वष्टव्यानि 661 / सर्वसंख्यापिण्डनेन मिश्रक सूत्राणि द्वाविंशत्यु त्तराणि एकोनविंशतिशतानि 1622 / एतानि च तृतीयचतुर्थसूत्राभ्यामुत्पन्नानीतिन तत्र पृथक् मिश्रकसूत्राणां संभवः / तदेवममीषां मिश्रकसूत्राणामेकोनविंशतिशतानि द्वाविंशानि 162 षड्शीतं च शतं प्राक्तनसूत्राणामिति सर्वसंख्यया सूत्राणामेकविंशतिशतान्यष्टोत्तराणि 2108 / तथा यस्मादपराधो द्विधा। तद्यथा-मूलगुणे, उत्तरगुणे च। तत एतानि सर्वाण्यप्यनन्तरोदितानि सूत्राणि मूलगुणापराधाभिधातव्यान्युत्तरगुणापराधभिधानेनापीत्येष राशिद्धोभ्यां गुण्यते, जातानि चत्वारि सहस्त्राणि द्वे शते षेभ्योत्तरे 4216 / अपराधोऽपि च यस्मान्मूलगुणेषूत्तरगुणेषु च दर्पत: कल्पतो वाऽव्ययतनया तत एष राशिभूयो द्वाभ्या गुण्यते जातान्यष्टौ सहस्त्राणि चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि 8432 / एतावती सक्षेपत: सूत्रसंख्या भाणिता। इयं चेतावती भडकवशात्प्रायेण जाता, ततोभङ्गकपरिज्ञानार्थमाहएत्थ पभिसेवणाओ, एक्कगदुगतिगचउक्कपणगेहिं। दस दस पंचग एक्कग,अदुव अणेगाउ एयाओ।।१६४।। अत्र चैतस्मिन् सूत्रसमूहे एतावात्या प्रतिसेवना एवंसंख्याका: प्रतिसंवनाप्रकारा: पचाना पदानामेककद्विकात्रिकचतुष्क–पञ्चकैरेकक द्विकत्रिकचतुष्कपक्षकसंयोगैर्ये भवन्ति भङ्गाः क्रमेण (दस दसेत्यादि) इहककसंयोगे भङ्गाः पञ्च साक्षात्सूत्रे एव दर्शिता इति नोक्ताः सामर्थ्याच॑क्वसेयाः, ततोऽयमर्थ:-पञ्च, पञ्च, दश, दश पञ्चक इति तेभ्योऽवसेयाः / यथाऽध्यवसातव्यास्तथा प्रागेवोक्ताः। (अदुव अणेगाउ ए. याओ इति) अथवा न केवलमेतावत्य एवैता: प्रितिसेविता:, कित्वन्यासामपि भावादनेका एता द्रष्टव्या: ।ताश्वान्या: प्रतिसेवना इमा:"जे भिक्खू पंचराइंदियं पभिसेविता आलोएज्जा, अपलिउचिय आलोएमाणस्स पंचराइदियं पालिउचियं आतोएमाणस्य / " एवं दशपञ्चदशदशविंशति-पञ्चविंशतिरात्रिन्दिवेष्वपि सूत्राणि वक्तव्यानि। एवमेव पञ्च सूत्रणि बहुश:शब्दाभिलापेनाभिधात-व्यानितदनन्तरंतृतीयं संयोगसूत्रं षम्विशतिसूत्राऽऽत्मकं वक्तव्यम्। ततश्चतुर्थ संयोगसूत्रं षभ्विशतिसूत्रात्मक बहुश:शब्दविशेषितम् / एवमेतानि सामान्यतो द्वाषष्टिः सूत्राणि भणित्वा तदनन्तरमुद्धातानुद्धात-मिश्रमूलोत्तरदर्पकल्पै: प्रागुक्तप्रकारेण तावत्सूत्राणि वक्तव्यानि यावदष्टी सहस्रताणि चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि परिपूण्णानि भवन्ति / अत्र पञ्चकाऽऽदीनि मासिकद्वैमासि-कादिभिः सह न वारयितव्यानि, यत उपरिपञ्चम सातिरेकसूत्रं वक्ष्यति। तत्र च सातिरेकता पञ्चकाऽऽदिभिरिति पुनरुक्तता स्यादिति। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त साम्प्रमेतेषां सूत्राणामर्थावगमेनोत्कलितप्रज्ञ: सन् शिष्य पृच्छतिजह मन्ने बहुसो मा-सियाइँ सेवित्तु वड्डई उवरि। तह हेट्ठा परिहायइ, दुविहं तिविहं च आमं ति / / 165 / / इह मासिकद्वैमासिकाऽऽदिप्रायश्चित्ताऽऽपत्तिः प्रतिसेवकपरिणामानुरूपा, ततोऽहं भन्ये चिन्तयामियथा येन प्रकारेण बहूनि मासिकमेव प्रतिसेव्य कदाचित तद्यथा कदाचित त्रैमासिक मन्दावसायेन प्रतिसेवनात कदाचि दुपरि वद्धते / यावत् पाण्मासिक वा कदाचिदतिदुष्टाघ्यवसायेन प्रतिसेवनात्, तच्छेद वा, कदाचित् मूलंबा, यावत्कदाचित्पाराञ्चितं वा / तथा तेन प्रकारेणाधस्तादपि परिद्वीयते हानिमुपगच्छति / तद्यथा-मासिकंप्रतिसेवनाया: कारणात् त्रैमासिकं यावत् षाण्मासिकवा कदाचिदतिदुष्टाध्वसायेन प्रतिसेवनात्, तच्छेद वा, कदाचित् मूलवा, यावत्कदाचित्पाराञ्चितं वा / तथा तेन प्रकारेणाधस्तादपि परिहीयते हानिमुपगच्छति। तद्यथामासिकं प्रतिसेव्यकदाचिदिन्नमासमापद्य ते, कदाचित्पञ्चविंशतिरात्रिन्दिवं, यावत् रात्रिन्दि व पञ्चकम(दुविहं तिविह चेति) द्विविधा प्रकारौ मासलक्षणो यस्य तत् द्विविधं, द्वैमासिकमि त्यर्थः / तत एवं त्रिविधं त्रैमासिकं, चशब्दात चतुर्मासिकं पाश्चमासिकं षाण्मासिकं च प्रतीत्योक्तरूपेण प्रायश्चित्तवृद्धिहानी वक्तव्ये / तद्यथा-द्वैमासिके स्थाने प्रतिसेविते कदाचित्तदेव द्वैमासिकमापद्यते, कदाचित् त्रैमासिकं, कदाचित् चातुर्मासिकम्, एवम् यावत् पाराश्चितम् / अधस्ताद्धानिः, एवं द्वैमासिकं प्रतिसेव्यं कदाचित् मासिकं प्रायश्चित्तं लभते, कदाचित् भिन्नमासम्, एवं यावत पत्र रात्रिन्दिवम्। एवं त्रैमासिकचातुर्मासिकंपाचमासिकपाण्मासिष्वपि भावनीयड। तत्राऽऽचार्यआह-(आमंति) आम शब्दोऽनुमती, सम्मतमेतदस्माकंसर्वमिति भावः। केण पुण कारणेणं, जिणपन्नत्ताणि काणि पुण ताणि ? जिण जाणंति उ ताई, चोयग पुच्छा बहुं नाउं।१६६। शिष्यः पृच्छति-केन पुन: कारणेन मासिकाऽऽदौ प्रायश्चित्तस्य वृद्धिहानी वा भवत ? आचार्य आह-अत्र कारणानि जिनप्रज्ञप्तानि सर्वज्ञोपदिष्टशनि। कानि पुनस्तानीति चेत? उच्यतेरागद्वेषहर्पाऽऽदीनि। तथाहिरागाध्यवसानानां चोपर्युपरि वृद्धया, यदि वा सिंहव्यापादकस्येव पश्चाद्वर्षवृद्धयामासिकप्रतिसेवनायामप्युत्तरोत्तरप्रायश्चित्तवृद्धिर्भवति / तथा प्रथमत एव रागाध्यवसानहानितो वा, यदि वा पश्चात् - '' हा दुदु कयं हा दुड्ड कारियं दुटु अणुमयं चेवा'' इत्यनुतापकरणतो मासिकगतिसेवनायामपि भिन्नत:पञ्चविंशतिर्वा राबिन्दिवानि। एवम् घोऽयस्तात् प्रायश्चितहानिर्भवति। ततो रागद्वेप हषीऽऽदीन्येव तिहानिमन्ति कारणानि। पुन: शिष्यः पृच्छतिननु यदि प्रायश्चित्तवृद्धिहानिषु रागद्वेषहर्षाऽऽदीनि वृद्धिहानिमन्ति कारणानि, ततस्तानि प्रतिसेवकगतानि परमार्थतो जिना एव तुशब्द एवकागर्थो भिन्नक्रमत्वदच संबध्यते / केवल्यवधिमन: पर्यायज्ञानानिचतुर्दशदशनवपूर्विणो जानन्ति केवलाऽऽदिवलातू, ये पुन: कल्पव्य वहारिणस्ते कथं जानन्ति; तेषामतिशयाभा बातू ? अत्राऽऽचार्यप्रतिवचनम्न्तेयपि जानन्ति तदुपदिष्ट श्रुतज्ञानप्रमाणतः / तथा-हितेऽपि वारत्रयमालोचनादापयन्त श्रुतोष देशानुसरणतोऽचबुध्यन्तेरागद्वेषाऽऽद्यध्यलसायस्थानानां वृद्धिहानि चेति। (वोयग पुच्छा बहुं नाउंति ) बहुश: शब्दविशेषितेषु सूत्रेषु बहुशब्दोऽस्तितमर्थतो ज्ञातुम्। चोदकरय पृच्छा-यथा-भगवन् ! तेषु तेषु सूत्रेषूपात्तस्य बहुशब्दस्य कोऽर्थ इति? आहतिविहं च होइ बहुगं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं / जहणेण तिण्णि बहुगा, उक्कोसे पंच चुलसीया।।१६७।। त्रिविधं बहुक भवति / तद्यथा-जघन्य, मध्यमम्, उत्कृष्ट च / तत्र जघन्येन त्रीणि बहनि। किमुक्तं भवति?-जघन्येन त्रयो मासा बहवः, उत्कर्षः पञ्चमासशतानि चतुरशीतरनि चतुरशीत्यधिकानि एतेषां मध्ये यानि प्रायश्चित्तस्थानानि चतुरादीनियावत्पञ्चशतानि ब्यशीत्यधिकानि तानि मध्यमत: संप्रति यथा प्रायश्चित्तं दीयते तथा भणनीयम् / तत्र मासादारभ्य यावत षण्मासास्तावत् स्थापनाऽऽरोपणाव्यतिरेकेणापिसूत्रेणैव दीयते, तत: पराणि तु यानि सप्तमासाऽऽदीनि प्रायश्चित्तानि मध्यमानि, उत्कृष्ट च यत्प्रायश्चित्तं तत् स्थापनाऽऽरेपणप्रकारेणैव दीयते इति, तत्प्रतिपादयन्नाहठवणासंचयरासी-माणाइँ पभूय कित्तिया सिष्टा। दिट्ठा निसीहनामे, सच्चे वितहा अणायारा।।१६८।। स्थाप्यते इति स्थापना-वक्ष्यमाणेनाऽऽरोपणाप्रकारेण शुद्धीभूतेभ्यः संचयमासेभ्यो ये शेषा मासास्तेषां प्रतिनियतदिवसपरिमाणतया व्यवस्थापनम्। स्थापनाग्रहणेन आरोपणाऽपि गृहीता द्रष्टव्या, परस्परभनयो. संबेघात्। तत्रषट् मासेषु समविषमतया प्रतिनियतदिवसग्रहणतो व्यवस्थापनम्, ताभ्यांस्थापनाऽऽरोपणाभ्यां संचयन संकलन संचय / किमुक्तं भवति ?-षणा मासानामुपरि प्रतिसेवनायांकृतायां कुती मासात्पञ्चदश रात्रिन्दिवानि, कुतोऽपि दश, कुतोऽपि पञ्च गृहीत्या स्थापनाऽऽरोपणविधानेन षण्मासपूरणं संचयः / तथा-(रासि त्ति एप प्रायश्चित्तराशि: कुत उत्पद्यते? इति वक्तव्यम्। तथा मानानि प्रायश्चित्तमानं संवत्सरः, मध्यमानामष्ट मासाः, तथा चरमस्य षणमासाः / तथा प्रभव प्रायश्चित्तदाने स्वामिन: केवलिप्रभृतयो वक्तव्याः / तथा(कित्तिया सिद्धा इति कियन्तः खलु प्रायश्चित्तभेदाः सिद्धा इति वक्तव्यम् ? तथा एतेसर्वऽपि प्रायश्चित्तभेदा दृष्टाः / एष द्वारगाथारक्षेपार्थ:: संप्रति प्रतिद्वारं व्यासार्थो भणनीयः, तत्र यान प्रतिस्थापनाऽऽरोपन क्रिये ते तानुपदर्शयतिबहुपभिसेवी सेयो, वि अगीतो अवि य अपरिणामो वि। अहवा अतिपरिणामो, तप्पच्चयकारणे ठवणा / / 166 / / इह प्रायश्चित्तप्रतिपत्तार: पुरुषा इभे / तद्यथा-गीतार्थः, अगोतार्थः परिणामकः, अपरिणामक, अतिपरिणामकश्च / तत्र य. प्रायश्चित्तप्रतिपत्ता बहुना मासिकस्थानानां प्रतिसेवी, एकस्मिन् हि मासिके स्थाने प्रतिसेविले प्रायोन स्थापनाऽऽरोपणाविधिस्ततोबहुसेवीत्युक्तम्। सोऽपि चाबीतोऽगीतार्थ, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त स्थापनाऽऽरोपणाव्यतिरेकेणापरिणामक दीयते तदा तस्मिन्नपरिणामके एवमाशङ्का स्यात्यथा यस्यैकमासस्य मे दत्तं प्रायश्चित्तं स एवैको मास शुद्धो, न शेषा मासा., ततो नाद्याप्यहं शुद्ध इति। तस्मादेवंभूता आशङ्का मा भूदित्य परिणामके स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण सर्वे मासाः सफला: स्मृताः, समस्तमाससफलीकरणार्थ तत्र स्थापनाऽऽरोपणे क्रियते इति भावः। अतिपरिणामके दोषानुपदर्शयति अगीतार्थे हि प्रायश्चित्तप्रतिपत्तरि च बहुष्वपि मासेषु प्रतिसेवितेषु न स्थापनाऽऽरोपणे क्रियेते, तस्य गीतार्थतया ताभ्या विनाऽपि यदुक्तार्थप्राहिल्लात्, ततोऽगीतार्थ इत्युक्तम्, सोऽपि यदि परिणामको भवेत, तहिं तमपि प्रतिस्थापनाऽऽरोपणे, तस्यापि परिणामकतया ताभ्यां विनाऽऽपि यदुताथप्रतिपत्तेः / तत आहअपि च अपरिणामोऽपिन विद्यते परिणामो पदुक्कार्थपरिणमनं यस्य स तथा; आस्तामगीतार्थः किं त्वपरिणामकनेत्यपिशब्दार्थः / अथवाअतिपरिणाम:-अतिव्याप्त्या परिणामो यथोक्तस्वरूपो यस्यासावतिपरिणामस्तत्प्रत्ययकारणात्तयोरपरिणामातिपरिणामयोः प्रत्ययो ज्ञानं यावन्तो मासा, प्रतिसेवितास्तावन्तः सर्वऽपि सकलीकृता इत्येवंरूपं स्यादिति हेतोः स्थापनाग्रहणेनाऽऽरोपणाऽपि गृहहते इति आरोपणाऽपि क्रियते। तद्यथा-यावन्तो मासा दिवसा वा प्रतिसेवितास्तवन्तः सर्वे एकत्र स्थाप्यन्ते, स्थापयित्वा चयत्संक्षेपह विशिकाऽऽऽदिक प्रतिसवितं तत् स्थाप्यते, एषा स्थापना। तदनन्तरयेऽन्ये नासा, प्रतिसवितास्ते सफलीकर्तव्या इत्येकैकस्माद् मासात् परिसंयनापरिणामानुरूपाँस्तोकान् स्तोकतरान् समान् विषमान् वा 'देतपान गृहीत्वैकत्राऽऽरोपयति एषा आरोपणा / एषा चोत्कर्षतस्तादत्कर्तव्या यावत्याः स्थापनाया: सह संकलय्यमाना: षण्मासा: पृर्यन्ते, नाधिकाः, ततः स्थापनारोपणयोर्यदकत्र संकल नमेष संचयः / अयं स्थापनारोपणारचयानां परस्परप्रविभक्तोऽर्थः / अनेन हि प्रकारेण प्रायशित्तदानेऽतिपरिणामकोऽपरिणामको वा चिन्तयति सर्वे मासा: सफ लीकृता इति शुद्धोऽहमितिगीतार्थ गीतार्थपरिणामकयो: पुनर्न स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण प्रायश्चित्तं दीयते, प्रयोजनभावात्किंल्वेवमेव। तथा चाऽऽहएगम्पिऽगेगदाणंडणेगेसु य एगदाणमेगेगं। जं दिज्जइ तं गेण्हइ, गीतमगीतो अपरिणामी।।१७०।। योऽगीतार्थोऽपि परिणामी तस्मै एकस्मिन्मासे प्रतिसेविते रागद्वेषहषा- 1 नरोत्तरवृद्धया प्रतिसेवनात् यदि अनेकदानम् अनेके बहवो मासा दीयन्ते, अनेकेषु वा मासेषु प्रतिसेवितेषु कारणे मन्दाध्यवसायेन वा प्रतिसेवनात् तीव्राध्यवसानतप्रतिसेवनायां वा पश्चात् हा दुष्ठु मया कृतमित्यादि बहुनि न्दनादेकदानमेको भारो दीयते / अथवा-एकस्मिन्मासे प्रतिसेविते एकदानभक, परिपूर्णो मासो दीयते, दुष्टाध्यवसायेन प्रतिसेवनात, पश्चात हर्षरागद्वेषवृद्धय संभवतोऽनेकमासदानायोगात्। उपलक्षणमेतत्, तेनैतदीप द्रष्टव्यम्बहुषु मासेषु सप्ताष्टाऽऽदिसंख्येषु प्रतिसेवितेषुयदि बहवो मासा: षट्पञ्च चत्वारो वा दीयन्ते, तदाऽपि तत्सम्यक्गृह्याति, श्रद्धत्तेच शुद्धि प्राप्तोऽहमिति। ततस्तयोर्न स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण प्रायश्चित्तदानमिति / यदि पुनरपरिणामके ऽतिपरिणामके वा अगीतार्थे न स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारण प्रायश्चित्तं दीयते, तदा बहवो दोषाः / तत्रापरिणामके दोषं दर्शयतिबहुएम एगदाणे, सो चिय सुद्धो न सेसया मासा। अपरिणामे उ संका, सफला मासा कया तेण / / 171 / / बहुकेषु मासेषु प्रतिसेवितेषु यदा प्रागुक्तकारणवशात् एको मास: ठवणामित्तं आरो-वण त्ति नाऊणमतिपरीणामो। कुज्जा व अइपसंगं, बहुयं सेवित्तु मा विगडं ||172 / / अतिपरिणामकेऽपि यदि बहुकेषु मासेषु प्रतिसेवितेष्वेको मासः स्थापनाऽऽरोपणाव्यतिरेकेण दीयते,तत: सोऽप्येवंचिन्तयेत् भाषेत वा यथायदेतदागमे गीयते(आरोवण त्ति) प्रायश्चित्तमिति / तत: स्थापनामात्र, मात्रशब्दस्तात्पर्यार्थ: विश्रान्तेस्तुल्यवाची। यदाह निशीथिधूर्णिकृत् 'मात्रशब्दस्तुल्यवाचीति। यथा हि स्थापना शक्राऽऽदे:शक्राऽऽदिलक्ष.. णतात्त्विककार्थशून्या, एवमाऽऽरोपणाप्यागमेमीयमाना तात्त्विकार्थशून्या बहुष्वपि मासेषु प्रतिसेवितेष्वेकस्य मासस्य प्रदानात्। यद्वास्थापनामात्रमारोपणेति ज्ञात्वा अतिपरिणामोऽतिप्रसङ्ग कुर्यात् पुन:पुनस्तत्रैव प्रवर्त्तते, बहुकेष्वपि मासेषु प्रतिसेवितेष्वेकस्य प्रायश्चित्तलाभ इति बुद्धेः / यद्वा अकल्प्य प्रतिसेवनया बहूनू मासान् प्रतिसेव्य सर्वान् मासान् मा विकटयेत नाऽऽलोचयेत्, किं त्वेकमेव, बहुष्वपि मासेषु प्रतिसेवितेष्वेक एव मासस्तत्त्वत: प्रायश्चित्तमित्यवगमात्। तस्मादपरिणामकेऽतिरिणामकेच सकलामासफलीकरणाय स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण प्रायश्चित्तंदातव्यम्। इह स्थापनायाश्चत्वारि स्थानानि। तद्यथा-प्रथम त्रिंशत्स्थापनाऽऽत्मक, द्वितीयं त्रयस्त्रिंशत्स्थापनाऽऽत्मक,तृतीयं पञ्चत्रिंशत्स्थापनाऽऽत्मक, चतुर्थमकोनाशीत्यधिकस्थानशताऽऽत्मकम् / आरोपणाया अपि चत्वारि स्थानानि / तद्यथा-प्रथमं त्रिंशत्स्थानाऽऽत्मकं तृतीयं, पञ्चत्रिंशत्स्थानाऽऽत्मकंचतुर्थमकीनाशीत्यधकस्थानकशतप्रमाणमत: साम्प्रतमेतेषां चतुर्णा स्थापनास्थानानि चतुर्णा चाऽऽरोपणास्थानानां यानि जधन्यानि स्थानानि तानि प्रतिपादयतिठवणा वीसिय पक्खिय, पंचिय एगाहिया उ बोधव्या। आरोवणा विपक्खिय, पंचिय तह पंचि एगाही।।१७३।। स्थापनाया: प्रथमस्थाने जघन्ये स्थापना विंशिका विशंतिरा-त्रिन्दिवप्रमाणा, द्वितीये पाक्षिकी, तृतीये पञ्चिका पञ्चदिवसाऽऽत्मिका, चतुर्थेच एकाहिका एकाहमात्रा।आरोपणाऽपि प्रथम स्थाने जघन्या पाक्षिकी, द्वितीये पश्चिक पञ्चदिनप्रमाणा, तृतीयेऽपि पश्चिका, चतुर्थे एकाहिका सर्वजघन्यान्येतानि स्थापनाऽऽरोपणास्थानानि / आह च चूर्णिकृत"एयाणि सव्वजहन्नगाणि ठवणाऽऽरोवणाटाणाण।" इति। इह न ज्ञायते कस्मिन् जघन्ये स्थापनास्थाने किंजघन्यमारोपणास्थानं भवति, तत्परिज्ञानार्थमिदमाहवीसाएँ अद्धमासं, पक्ख पंचाहमारुहेज्जाहि। पंचाहे पंचाहं, एगाहे चेव एगाह / / 174|| Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त विशिकायां विंशिकारूपेजघन्ये स्थाने स्थापनास्थाने जघन्यमारोपणस्थानमर्द्धमासामारोहयेत्, खबुद्धावारोपयेत्, जानीया दित्यर्थः। तथा पक्षे पक्षप्रमाणे जघन्ये स्थापनास्थाने पश्चाहं पञ्चाहप्रमाणं जघन्यमारोपणास्थानम् / तथा पञ्चाहप्रमाणे जघन्ये स्थाने पश्चाह पञ्चाहप्रमाणमेव जघन्यमीरोपणास्थानम् / एकाहे एकदिनप्रमाणे जघन्ये स्थापनास्थाने जघन्यमारोपणा-स्थानमेकाहमेव एकदिनप्रमाण एव / संप्रति प्रथम स्थापनास्थाने या जघन्या स्थापना, या ध उत्कृष्टा, तां प्रतिपादयतिठवणा होइ जहन्ना, वीसइराइंदियाइँ पुन्नाई। पण्णटुंचेव सय,ठवणा उक्कोसिया होइ॥१७५।। प्रथम स्थापनास्थाने जघन्या स्थापना भवति पूर्णानि परिपूर्णानि विंशतिरात्रिन्दिवानि, विंशतिरात्रिन्दिवप्रमाणेतिभावः। उत्कृष्टा भवति स्थापना पशषष्टं शतं, पञ्चषष्ट्यधिकं रात्रिन्दिवानां शतम् / शेषाणि तु स्थानानि मध्यमानि / संप्रति प्रथमे आरोपणास्थाने या जघन्या आरोपणा, या चोत्कृष्टा, तां प्रतिपिपादयिषुराहआरोवणा जहन्ना, पन्नर राइंदियाई पुन्नाई। उक्कोसं सठिसयं, दोसु वि पक्खेरगो पंच / / 176 / / प्रथमे आरोपणास्थाने जघन्या आरोषणा पूर्णानि पञ्चदश रात्रिन्दिवानि, उत्कृष्ट पुनरारोपणां जानीयात् षष्टिशत षष्ट्यधिकं रात्रिन्दिवशंत, शेषाणि तु स्थानानि मध्यमानि, तत्परिज्ञानार्थमाह-(देसु विपक्खेवगो पंच) द्वयोरपिस्थापनाऽऽरोपणयोः प्रत्येकं जधन्यपदादारभ्योत्तरोत्तरे मध्यमस्थाने प्रक्षेपकः पञ्च पञ्चपरिमाणो ज्ञातव्यो यावदुत्कृष्ट पदम्। इयमत्र भावनाप्रथमे स्थापनास्थाने जघन्या स्थापना विशिंका, तत: पञ्चकपक्षेपे अन्या द्वितीया पञ्चविंशतिदिनमाना, तत: पुन, पञ्चकप्रक्षेपे तृतीया त्रिंशहिना / एवं पञ्च पञ्च परियर्द्धयता ताव न्नतव्यं यावत्पञ्चवष्टिरात्रिन्दिवशतप्रमाणा त्रिंशत्तमा स्थापनेति। तथा प्रथमे आरोपणास्थाने जघन्या आरोपणा पक्षप्रमाणा, तत: पञ्चकप्रक्षेपे विंशतिदिनप्रमाणा द्वितीया, तत्तोऽपि पश्चकप्रक्षेपे पञ्चविंशतिदिनमाना तृतीया। एवं यथोत्तरं पञ्च पञ्च परिवर्द्धयता तावन्नेय यावत षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतप्रमाणा त्रिंशत्तमेति। एतदेव सुव्यक्तमाहपंचण्हं परिबुड्डी, उकिट्ठा चेव होइ पेचण्डं। एएण पमाणेणं, नेयव्वं जाव चरिमं ति॥१७७।। स्थापनायामारोपणाया प्रत्येक जघन्यपदादारभ्योत्तरोत्तरस्थान जिज्ञासायां पञ्चानां परिवृद्धितिव्या प्रत्येकम्। एवमेव चान्तिम स्थानादारभ्य क्रमेणाऽधाऽवस्थानजिज्ञासायापञ्चानाम-पकृष्टिहानिर्भवत्यवसातव्या / तद्यथा-पञ्चषष्ट्यधिका रात्रिन्दिवशतप्रमाणा सर्वोत्कृष्टा त्रिंशत्तमस्थापना, तत: पञ्चानामपसारणे रात्रिन्दिवषष्ट्यधिकशतप्रमाना। एकोनत्रिंशत्तमा मध्यमा। ततोऽपि पञ्चपञ्चाशदधिकशतप्रमाणा अष्टाविंशतितमा / एवं क्रमेणाधोऽधन्तात्पञ्चपञ्चपरिहापयता तावन्तव्य यावविंशतिदिनप्रमाणा प्रथमा स्थापना / तथा षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतप्रमाणा सर्वोत्कृष्टा त्रिंशत्तमा आरोपणा। ततपश्चानामपगमे पञ्चाशदधिकशतमाना एकोनत्रिंशत्तमा मध्यमा / ततोऽपि पश्चानामपगमे पञ्चाशशतप्रमाणा अष्टविंशतितमा। एवं क्रमेणाधोऽध: पञ्चपञ्च परिहापयता तावन्नेय यावत् प्रथमा पक्षप्रमाणेति। तथाचाऽऽह. (एएणामित्यादि) / एतेन पूर्वानुपूर्व्या पश्चकपरिवृद्धिरूपेण, पश्चानुपूर्व्या पश्चयापकृष्टिरूपेण प्रमाणेन, पूर्वानुपूर्व्या जघन्यपदादारभ्य पश्चानुपूामुत्कृष्टात् स्थानात् प्रभृति तावन्नेतव्यं यावचरमस्थान परिवृद्धौ सर्वान्तिमस्थानं चरमम, अपकृष्टो जघन्यमादिमं चरभमिति। अथवेय गाथा अन्यथा व्याख्यायतेपूर्व किल स्थापनायामारोपणायां च प्रत्येक जघन्यमध्यमोत्कृष्टभे भिन्नानि स्थानान्युक्तानि, साम्प्रतमेकै-कस्मिन् स्थापनास्थाने जघन्याऽऽदी कियन्त्यारोपणास्थानानि, एकैकस्मिन् वा आरोपणास्थाने कियन्ति स्थापनास्थानानीत्येतत् प्रतिपादयति (पंचराह परिबृड्डी इत्यादि) पूर्वस्मात् स्थापना स्यानादारोपणास्थानाद्वोत्तरस्मिनुत्तस्मिन् स्थापनास्थाने आरोपणास्थाने वा वृद्धिर्भवति। यस्मिंश्च यदपेक्षया स्थापनास्थाने आरोपणा, स्थाने वा पञ्चानां वृद्धिर्भवति तस्मिन् वत्तदपेक्षया स्थापनास्थाने आरोपणाचिन्तायम्, अरोपणास्थाने वा स्थापनास्थानचिन्तायामन्ते पचानामकृष्टिानिर्भवति। एतेन प्रमाणेन पक्षकपरिवृद्धिरूपेण पञ्चकहानिरूपेण च तावत् ज्ञेययावदेकत्रान्तिमं चरममपरत्राऽऽदिम चरममिति / तयाहिर्विशिकायास्थापनायां जघ्न्या पाक्षिका आरोपणा, ततोऽन्या त्रिशिका एवं पञ्च पञ्च आरोपयता तावन्नेयं यावत् तस्यामेव विशिकायां सर्वोत्कृष्टा षष्टयधिकदिनशतप्रमाणा त्रिशत्तमा आरोपणा : तथा पशविंशतिकायां स्थापनायां जघन्या पाक्षिका आरोपण ततोऽप्यन्या त्रिशदिना। एवं च परिवर्द्धयतातावज्ज्ञातव्ये यवदेकोनत्रिशत्तमा पञ्चपञ्चाशदधिकदिपशतमाना सर्वोत्कृष्टा आरोपणा। अस्याकोनत्रिंशदारोपणास्थानानि , पूर्वस्थपनापेक्षाया अस्याः स्थापनाया पश्चभिर्दिनै परिवर्द्धमानतया पर्यन्ते पञ्चानां दिनानांत्रुटितत्वत्' एवमुतरत्रापि भावनीयम्। तथा त्रिंशदिनायां स्थापनाया जघन्यापाक्षिकी आरोपणा, ततोऽन्या विशिका, ततोऽप्यन्या पश्चविंशतिदिनमाना ततोऽप्यन्या त्रिशिका एवं पञ्च आरोपयता तावन्नेय यावत् तस्यामेव विशिकायां सर्वोत्कृष्टा षष्ट्यधिकदिनशतप्रमाणा त्रिंशत्तमा आरोपणा। तथापञ्चविंशतिकाया स्थानायां जघन्या पाक्षिकी आरोपणा ततोऽप्यन्या त्रिंशदिना / एवं च परिवर्द्धयता तावज्ज्ञातव्ये यावदेकानंत्रिंशनमः पञ्चपञ्चाशदधिकदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा आरोपणा। अस्यानेकोनत्रिशदारोपणास्थानानि, पूर्वरथापनापेक्षया अस्यास्थापनायाः पञ्चभिर्दिनः परविऽमानतया पर्यन्ते पश्चानां दिनानां त्रुटितत्वात् / एवमुत्तरत्राणि भावनीयम्। तथा त्रिशद्दिनायां स्थापनायां जधन्यां पाक्षिकी आरोपण' / ततोऽप्यन्या विंशतिदिना / ततोऽप्यन्या पञ्चविंशदिना / एवं पञ्च पश्य परिवर्द्धयता तावन्ने यं यासर्वोत्कृष्टा पश्चाशशतदिना स्थापना, विंशतितमाऽऽरोपणा / अस्यामष्टाविंशतिरोपणास्थानानि / तथ पञ्चविंशद्दिनायां स्थापनायां जघन्यां पाक्षिकी आरोपणा / ततोऽन्य विंशतिदिना / ततोऽप्यन्या पञ्चविंशदिना / एवं पञ्च पञ्चाऽऽरोपयला तावद्गन्तव्यं यासर्वोत्कृष्टा पञ्चचत्वारिंशदिनशतमाना सप्त विंशतितमःऽऽरोपणा। अस्या सप्तविशतिरारोपणास्थानानि, कारणं प्रागेवोक्तम एवमुत्तरोत्तरस्थपनासंक्रान्तावन्तिममन्तिम स्थानं परिहरता तावन्नतेव्य यावत्पश्चषष्टिदिनश्तायां त्रिशत्तमायां स्थापनायामेकैव जघन्या पाक्षिक आरोपणा, नान्येति / तथा पाक्षिक्यामारोपणायां जघन्या विंशतिदिन स्थापना, ततोऽन्या पञ्चविंशतिदिना मध्यमा, ततोऽप्यन्या निशदिना' एवं पञ्च पञ्च परिवर्द्धयता तावन्नेतटयं यावत्पशषष्टिदिन शतप्रभात सर्वोत्कृष्टा त्रिंशत्तमा स्थापना / तथा विशिकायामारोपणाया जघन्य स्थापना विंशतिदिना, ततोऽन्या मध्यमा पञ्चविंशतिदिना, ततोऽप्यन्त त्रिशद्दिना / एवं यथोत्तरं पञ्च पञ्च विलगयात तावद् गन्तव्यं यावत्य Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त ट्यपधिकदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा एकोनत्रिंशत्तमा स्थापना। पूर्वाऽऽरोपणात हास्यामारोणायां पञ्चदिनान्यधिकानि चोपरि त्रुटितानीत्येकोनत्रिंशदेगस्यामारोपणायां स्थापनास्थानानि / तथा पञ्चविंशतिदिनायामारोपणायां जघन्या विंशिका स्थापना, ततोऽन्या पञ्चविंशतिदिना मध्यमा, ततोऽप्यन्या त्रिंशदिना / एवं पञ्च पञ्च परिवर्द्धयता तावन्नेय यावत्पश्चपथाशद्विपशतमाना सर्वोत्कृष्टाऽष्टाविंशतितमा स्थापना / अस्य हि प्रागुक्तयुक्याऽष्टाविंशतिः स्थापनास्थानानि। एवमुत्तरोत्तराऽऽगेपणासंक्रान्तावन्तिममन्तिम स्थापनास्थानं परिहरता तावद्गन्तव्य यावत्यष्टिदिनशतमानायामारोपणायां जघन्या विंशिका स्थापनेति। यथा च प्रथम स्थापन स्थाने, आरोपणास्थाने च प्रत्येक संवेधतश्च भावना कृता, तथा द्वितीय, तृतीये च कर्तव्या। तद्यथा-द्वितीये स्थापनास्थाने जधन्या स्थापना पाक्षिका, तत: पञ्चकप्रक्षेपेऽन्या विंशतिदिना, तत्राऽपि पशव प्रक्षेपेन्या पञ्चविंशतिदिना / एवं पञ्च पञ्च प्रक्षिपता तावद्गन्तव्यं यावत्पशसएरात्रिन्दिवशतप्रमाणा त्रयस्त्रिंशत्तमा स्थापनेति। तथा द्वितीये स्थाने जघन्या आरोपणा पञ्चाहिका, ततः पञ्चकप्रक्षेपे दशाहिका, हतोऽपि पञ्चकप्रक्षेपे पाक्षिकी / एवं पञ्च पञ्च परिवर्द्धयता तावन्नेय यावत्पशाष्ठदिनशतमाना त्रयस्त्रिंशत्तमा सर्वोत्कृष्टा आरोपणेति। इदानीं संवेभावनापाक्षिक्या स्थापनाया जघन्या पश्चाहिका आरोपणा, ततोऽन्या दशदिना मध्यमा, ततोऽप्यन्या पाक्षिकी, ततोऽप्यन्या विशतिदिना। एवं पञ्च पञ्च परिवर्द्धयता तावद् गन्तव्यं यावत्त्रयस्त्रिंशत्तमा पञ्चषष्टिदिनशतनाना सर्वोत्कृष्टा आरोपणा। अस्यां त्रयस्त्रिशदारोपणास्थाननि। तथा विशिकायां स्थापनायां जघन्या पञ्चाहिका आरोपणा, ततोऽन्या दशदिना, ततोऽप्यन्या पाक्षिकी / एवं विशिकां स्थापनाममुस्ता पञ्च पर परिवर्द्धयता तावद्गन्तव्यं यावत्षष्टिशतदिनमाना सर्वात्कृष्टा द्वात्रिंशत्तमा आरोपणा; अस्यां द्वात्रिंशदारोपणास्थानानि, पूर्वस्थापनातोऽस्यां पञ्चकपरिवृद्धेरन्ते पञ्चानां त्रुटितत्वात् पञ्चविंशतिदिनाया स्थापनायां जघन्या पञ्चाहिका आरोपणा, ततोऽन्या मध्यमा दशदिन ततोऽप्यन्या पाक्षिकी। पञ्चपञ्चविंशतिदिनानां स्थापनाममुञ्चता पञ्च पर पारेवर्द्धयता तावन्नेयं यावत् पञ्चपञ्चशद्दिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा एकत्रिंशतमा आरोपण / एवमुत्तरोत्तरस्थापनासंक्रान्तावन्तिममन्तिम स्थान परिहरता तावन्नेनं यावत्पश्चासप्ततिरात्रिन्दिवशतमानायां स्थापनादा कैव जघन्या एकाहिका आरोपणेति। तथा पञ्चहिकायामारोपणायां जघन्या पाक्षिकी स्थापना, ततोऽन्या मध्यमा विंशतिदिना, ततोऽप्यन्या पञ्चविंशतिदिना। एवं पञ्चाहिकामारोपणामपरित्यजता पञ्च पञ्च परिवर्द्धयता तावद् गन्तव्यं यावत् पञ्चसप्ततिदिनाना सर्वोत्कृष्टा प्रयस्त्रिंशत्तमा स्थापना, तथा दशाहिकायामारापणायां जघन्या पाक्षिकी स्थापना। ततोऽन्या मध्यमा विंशतिदिना, ततोप्यन्या पञ्चविंशतिदिना। एवं दशाहिकामारोपणाममुञ्चता पश्च पञ्च परिवर्द्धयता तावद् गन्तव्यं यावत् सप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा द्वात्रिंशत्तमा स्थापना / अस्यां द्वात्रिंशदेव स्थापनास्थानानि, पूर्वारोपणातोऽस्यामारोपणायां पञ्चकवृहेरन्ते पञ्चवानं त्रुटितत्वात् / एवमुत्तरोत्तराऽऽरोपणास्थनसंक्रान्तावन्तिममन्तिमं स्थानं परिहरता तावद्गन्तव्यं यावत्पञ्चषष्टिदिनशतमानायां त्रयस्त्रिंशत्तमायामारोपणायामेकैकजघन्या पाक्षिकी स्थापनेति। तथा तृतीये स्थापनास्थाने जघन्या पञ्चाहिका स्थापना / तत: पञ्चानां प्रक्षेपेऽन्या मध्यमा दशदिना, ततोऽपि पञ्चकप्रक्षेपेऽन्या पाक्षिकी। एवं पञ्च पञ्च प्रक्षिपता तावद् गन्तव्यं यावत्पञ्चसप्ततिरात्रिन्दिवशतप्रमाणा पञ्चत्रिंशत्तमा स्थापनेति। तथा तृतीय स्थाने जघन्याऽऽरोपणा पञ्चदिना, तत: पञ्चकप्रक्षेपेऽन्या मध्यमा दशदिना / ततोऽपि पञ्चकप्रक्षेपेऽन्या पाक्षिका / एवं पञ्चप्रक्षिपता तावद्गन्तव्यं यावपञ्चसप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा पञ्चत्रिंशत्तमा आरोपणेति। संप्रति संबंधभावनापञ्चदिनायां स्थापनाया जघन्या आरोपणा पञ्चदिना, ततोऽन्या मध्यमा दिनदशकमाना, ततोऽपि अन्या पाक्षिकी। एवं पञ्चदिनां स्थापनाममुञ्चता पश्च पञ्च परिवर्द्धयता तावन्नेयं यावत्पञ्चत्रिंशत्तमः पञ्चसप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा आरोपणा / अस्यां पञ्चत्रिंशतदारोपणास्थानानि / तथा दशदिनायां स्थापनाया जघन्या पञ्चहिका आरोपणा, ततोऽन्या दशदिना, ततोऽप्यन्या पाक्षिकी। एवं दशदिना स्थापनाममुञ्चता पञ्च पञ्च परिवर्द्धयता तावद्गन्तव्य यावदुत्कृष्टा चतुस्त्रिंशत्तमा सप्ततिदिन शतमाना आरोपणेति / अस्यां चतुस्त्रिशदारोपणा स्थानानि / एवमुत्तरोत्तरस्थपनास्थानसंक्रान्तीअन्तिममन्तिमं स्थानं परिहरता तावज्ज्ञातव्यं यावत्पञ्चसप्ततिदिनशतमानायां स्थापनायामेकैव जघन्या पञ्चदिना आरोपणेति। तथा पञ्चदिनायामारोपणायां जघन्या पञ्चदिना स्थापना, ततोऽन्या मध्यमा दशदिना, ततोऽप्यन्या पञ्चदशदिनामारोपणामप रित्यजता पञ्च परिवर्द्धयता तावद् गन्तव्यं यावत्पञ्चसप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा पञ्चत्रिंशत्तमा स्थापना। तथा दशदिनायामारोपणायां जघन्या पञ्चदिना स्थापना, ततोऽन्या मध्यमा दशदिना स्थापना / ततोऽन्या पञ्चदशदिना। एवं दशदिनामारोपणाममुञ्चता पञ्च परिवर्द्धयमानेन तावद् गन्तव्यं यावत् सप्ततिदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा चतुस्विंशत्तमास्थापना। एवमुत्तरोत्तराऽऽरोपणास्थानसंक्रान्तावन्तिममन्तिम स्थानं परिहरता तावन्नेयं यावत्पञ्चसप्ततिदिनशतमानायां पञ्चत्रिंशत्तमायामारोपणायामकैव जघन्या पञ्चदिना स्थापनेति / चतुर्थे स्थापनास्थाने आरोपणास्थाने चनपञ्चकवृद्धि पिपञ्चकापकृष्टिः, कि तु वृद्वि निर्वा एकोत्तरा / ततो यद्यपि तद्भावना अधिकृतगाथाक्षराननुयायिनी तथाऽपि विनेयजनानुग्रहाय क्रियते / तद्यभा-चतुर्थे स्थापनास्थाने जघन्या स्थापना एकदिना, अन्या मध्यमा द्विदिना, अन्या त्रिदिना / एवमेकैकं प्रक्षिपता तावद्गन्तव्यं यावदेकोनाशीत्यधिकशतमाना सर्वोत्कृष्टा एकोनाशीत्यधिकशततमा स्थापनेति। तथा चतुर्थस्थाने जघन्याssरोपणा एकदिना, ततोऽन्या मध्यमा द्विदिना, ततोऽन्या त्रिदिना / एवमेकैकं परिवर्द्धयता तावद्गन्तव्यं यावदेकोनाशीत्यधिकविनशतमाना सर्वोत्कृष्टा एकोनाशीत्यधिकशततमा आरोपणेति / संप्रति संवेधभावनाएकदिनायां स्थापनायां जघन्याऽऽरोपणा एकदिना, ततोऽन्या द्विदिना मध्यमा, ततोऽन्या त्रिदिना। एवमेकदिना स्थापनाममुश्शता एकैकं परिवर्द्धयता तावद्गन्तव्यं यावदेकोनाशील्यधिकदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा एकोनाशीतिशततमा आरोपणा। अस्यामेकोनाशीत्यधिक शतप्रमाणान्यारोपणास्थानानि / तथाहि-द्विदिनायां स्थापनायां जघन्याऽऽरोपणा एकदिना, ततोऽन्या द्विदिना मध्यमा, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त ततोऽन्या त्रिदिना / एवं द्विदिनां स्थापनाममुञ्चता एकैकं परिवर्द्धयता इत्यर्थः / ततो यच्छेषमवतिष्ठते तत्तस्या ईप्सिताया आरोषणाया उत्कृष्टा तावन्नेयं यावदष्टसप्तत्यधिकदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा अष्टसप्ततिशततमा स्थापना भवति / यथा पञ्चदशदिनाया आरोपणाया उत्कृष्ट स्थापना आरोपणा / अस्यामष्टसप्ततिशतप्रमाणान्यारोपणास्थानाऽऽ दीनि, ज्ञातुमिष्टा, तत: पञ्चदश अशीत्यधिकशतादपनीयन्ते, जाल पञ्चषष्ट्यपूर्वस्थापनातोऽस्यां स्थापनायामेकस्य परिवृद्धेरन्ते एकस्य त्रुटितत्वान्। धिक शतं, तावत्प्रमाणा पञ्चदशदिनाया आरोपणाया उत्कृष्ट स्थापना। एवमुत्तरोत्तरस्थापना-स्थानसंक्रान्तौ अन्तिममन्तिमं स्थानं परिहरता तथा विंशतिदिनाया आरोपणाया उत्कृष्टा स्थापना किल ज्ञातुमिष्ठति तावज्ज्ञातव्यं यावदेकोनाशीत्यधिकशततमायां स्थापनायाभे केव विंशतिरशीत्यधिकशतादपनीयते, जातं षष्ट्यधिकं शतम / एतावति जघान्या एकादिना आरोपणेति। तथा एकदिनायामारोपणायां जघन्या विंशतिदिनाया आरोपणा उत्कृष्टा स्थापना / एवं सर्वत्रापि भवनीयम्। स्थापना एकादिना, ततोऽन्या मध्यमा द्विदिना, ततोऽन्या त्रिदिना / साम्प्रतं प्रथम स्थाने कियन्ति स्थापनास्थानानि, कियन्त्या-रोपणाएवमेकदिनामारोपणाममुञ्चता एकैकं परिवर्द्धयता तावद्गतव्यं यावदेको स्थानानि कियन्तो वा स्थापनाऽऽरोपणास्थानानां संवैधतः संयोगा नाशीत्यधिकदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा एकोनाशीतिदिनशततमा इत्येतत्प्ररूपणार्थमहस्थापना / अस्यामेकोनाशीत्यधिकशतसंख्यानि स्थापनानि / तथा तीसं ठवणाठाणा, तीसं आरोवणाएँ ठाणाई। द्विदिनायामारोपणायां जघन्या स्थापना एकदिना, ततोऽन्या द्विदिना ठवणाणं संवेहो, चत्तारि सया उपण्णाहा / / 10 / / मध्यमा, ततोऽन्या त्रिदिना / एवं द्विदिनामारोपणाममुञ्चता एकै परिव प्रथमे स्थाने त्रिंशत् स्थापनारथानानि, त्रिंशाऽऽरोपणाया: स्थानानि यता तावद्गतव्यं यावदष्टसप्तत्यधिकदिनशतमाना सर्वोत्कृष्टा अष्टस एतच्च प्रागेवानेकशो भावितमिति न भुयो भाव्यते। (ठवणाणमित्यादि) ततिशततमा स्थापना। अस्यामष्टसप्ततिप्रमाणानि स्थापनास्थानानि, स्थापनायामारोपणाभिः सह संवेधाः संयोगा: सर्वसंख्यया चत्वारि कारण प्रगुक्तमनुसतव्यम्। एवमुत्तरोत्तराऽऽरोपणास्थानसंक्रान्तावन्ति शतानि पञ्चषष्टीनि भवन्ति 465 / तथाहिप्रथमे विश'तेदिनरूपे ममन्तिमं स्थानं परिहरन् तावद्गन्तव्य यावदेकोनाशीत्यधिकशततमा स्थापनास्थाने त्रिंशदारोपणास्थानानि, द्वितीये पञ्चविंशतिरिनरूप यामारोपणायामेकैव जघन्या एकदिना स्थापनेति / इहेके कस्मिन् स्थापनास्थाने आरोपणा जघनया, मध्यमा, उत्कृष्टा व प्रतिपादिता। एकोनत्रिंशत्, तृतीये अष्टाविंशतिः / एवमेकैकरूपहान्या तावद्वक्तव्य तत: साम्प्रतमुत्कृष्टाऽऽरोपणापरिज्ञानार्थमाह - यावत्पञ्चषष्टिदिनशतरूपे त्रिंशत्तमे स्थापनास्थाने एकमारोपण स्थानम् / एतानि सर्वाण्यप्येकत्र लिखितानि यथोक्तसंख्याकानि जा ठवणा उहिट्ठा, छम्मास ऊणिया भवे ताए। आरोवण उनोसा, तीसे ठवणाऍ नायव्वा / / 17 / / भवन्ति। स्थापनाग्रहणे चाऽऽरोपणाऽपि गृह्यते अन्नयो: परस्पर संवेधात। षण्णां मासानामशंतं दिवसशतं भवति, तत स्थापयित्वा 1580 या तत एतदपि द्रष्टव्यम् आरोपणास्थानानां स्थापनाभिः सह संवेधा सर्वसंख्यया चत्वारि शतानि पञ्चषष्टीनि भवन्ति / तथाहि-प्रथम स्थापनालद्दिष्टेति / यस्या : स्थापनाया उत्कृष्टा आरोपणा ज्ञातुमिष्टा सा उद्दिष्टत्यभिधीयते; उद्दिष्टा ईप्सिता इत्यनर्थान्तरम्। तया षण्मासा. पदशदिनरूपे आरोपस्थाने त्रिंशत्स्थापनास्थानानि, द्वितीय षण्मासादिवसा उनका: क्रियन्ते। किमुक्तं भवति ? तामुद्दिष्टां स्थापना विंशतिदिनरूपे एकोनत्रिंशत, तृतीये अष्टाविंशति / एवमेकै रूपहान्ट षण्मासदिवसेभ्योऽशीतयधिकशतप्रमाणेभ्य शोध्येत्, ततो यच्छेष तावद् वक्तव्य यावत्षष्ट दिनशतप्रमाणे त्रिंशत्तमे आरोपणास्थान मवतिष्ठते तत्तस्या ईप्सिताया: स्थापनाया उत्कृष्टा आरोपणा भवति एकविंशतिदिन स्थापनास्थानम् / एतच्च सर्व प्रागेव सप्रपचं भावितम् ज्ञातव्या / यथा विंशतिदिनाया: स्थापनाया उत्कृष्टा आरोपणा एतानि च सर्वाण्यप्येकत्र मिलितानि यथोक्तसंख्याकानि भवन्ति। ज्ञातुमिष्टा ततो विंशतिरशीत्यधिकशतात् षण्मासदिवस संख्याभूतात् यथोक्तसंवेधसंख्यापरिज्ञानार्थमेव करणागाथामाहशोध्यते, जातं षष्ट्यधिकं शतम्। एषा विशिकाया: स्थापनाया उत्कृष्टा गच्छुत्तरसंवग्गे, उत्तरहीणम्मि पक्खिये आई। आरोपणा, ततः परमारोपणाया असंभवात्, विशन्या सह षण्णां मासानां अंतिमधणमादिजुअंगच्छद्धगुणं तु सव्वधाणं / / 181 / / परिपूर्णानां भावत्, षण्मासाधिकस्य व प्रायश्चित्तस्याऽदानात् / तथा इह यद्यपि प्रथम स्थाने त्रिंशदारोपणास्थानानि, द्वितीये एक नत्रिंशत् पञ्चविंशतिदिनाया. स्थापनाया: किल उत्कृष्टा आरोपणा ज्ञातुमिष्टा, तृतीये अष्टाविंशतिरिति क्रमः, तथापि संकलनायां यथोत्तरमा ततोऽशीत्यधिकशतात् पञ्चविंशतिः शाध्यते, जातं पञ्चपञ्चाशदधिक निवेश्यन्ते इत्येकद्वित्र्यादिकमः / तत्र गच्छस्त्रिंशत्रिंशतोऽङ्कस्थानान शतम्। एषा पञ्चविंशतिदिनाया उत्कृष्टा आरोपणा। एवं सर्वत्र भावनीयम् / भावत उत्तरमेकम्, एकोत्तराया वृद्धर्भावात् आदिरप्येकः, सर्वावस्थाना साम्प्रतमारोपणास्थाने उत्कृष्टस्थापनापरिज्ञानार्थमाह- नामादावेकस्य भावत् गच्छस्य त्रिंशत उत्तरेण एकेन संवर्गो गुणन आरोवण उद्दिट्टा, छम्मासा ऊगा भवे ताए। गच्छोत्तरसंवगस्तस्मिन्। किमुक्तं भवति? त्रिंशदेकेन गुण्यते, एकेन्च गुणित आरोवणाएँ तीसे, ठवणा उक्कोसिया होइ।।१७६।। तदेव भवतीति जाता. त्रिंशदेवा तत्र (उत्तरहीणमिति) उत्तरणकेन हीनंतस्मिन् याऽऽरोपणा उद्दिष्ट, यस्या आरोपणाया उत्कृष्टा स्थापना ज्ञातुमिष्टति कृते एकेन हीन त्रिंशत्क्रियते इत्यर्थः / जाता एकोनत्रिंशत् / तत, भावः / तया षण्मासा उत्तका: क्रियन्ते, सा षण्मासदिवसेभ्यः शाध्यते / प्रक्षिपेदादिममेक, जाता भूयस्त्रिंशत्। एतत् अन्तिमधनमन्तिमेऽड्कस्थान Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 157 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त परिमाणम् / एतत गदिना एकेन युत क्रियते, जाता एकत्रिंशत् पच्छस्त्रिशत्तस्यद्धं पञ्चदश, रमा एकत्रिंशता गुण्यते, जातानि संवेधानां चत्वारि शतानि पहपष्टानि 465 / अथवाऽयमन्यो गणितप्रकार:दो रासी ठावेज्जा, रूवं पुण पक्खिवाहि एगत्तो। जत्तो य देड अळं, तेण गुणं जाण संकलियं / / 182 / / राशिच्छ इत्यनर्थान्तरम्। ततो द्वौ राशी स्थापयत्। किमुक्तं भवति ? | -द्वौ वारापर्यधोभागेन त्रिशतं स्थापयेत् / तत एकत एकस्मिन् राशी / रुप पुनः प्रक्षिपेत्, जात स एकत्रिंशत्, यतश्च यस्माच्च राशेरर्द्धमात्मानं ददाति, तस्यार्द्ध गृह्यते, तत्रेह त्रिंशदर्द्धमर्पयति, नैकत्रिंशदिति त्रिंशतोऽर्द्ध पञ्चदश गृह्यन्ले, तन इतरो राशिरेकत्रिंशल्लक्षणो गुण्यते, गुणित च सति यद जयले तत् जानीहि संकलितं सर्वसंवेधसंकलनं, तच चत्वारि शतानि पञ्चषष्टानि 465 / इह चत्वारि स्थापनास्थानानि, चत्वारि चाऽऽरोपणास्थानानि / तत्र कस्मिन् ग्यापनास्थाने कियन्ति स्थापनापदानि कस्मिन्नारोपणास्थाने वियन्त्यारोपणापदानीत्येतत्परिज्ञानाय करणमाह - आसीया दिवससया, दिवसा पढमाण ठवणरुवणाणं। सोहित्तुत्तरभइए, ठाणा दुण्हं पि रूवजुया / / 183 / / पण्णा मासानामशीतं दिवसशतं भवति, तस्मादशीतात् दिवसशतात् प्रथमयो स्थापनाऽऽरोपणयोर्ये दिवसास्तान् शोधयेत, शोधयित्वा च यत्र यदुत्ता वृद्धिस्तत्र तत् उत्तरम्, तत्राऽऽद्येषु त्रिषु स्थापनास्थनेषु त्रिषु थाऽऽरोपणस्थानेषु पश्चोत्तरा वृद्धिरिति। तत्रोत्तरं पञ्च; चरिमे स्थापनास्थाने चरिमे चारोपणास्थाने पदानामेकोत्तरा वृद्धिरिति तत्रोत्तरमेक: / ततस्तेनोत्तरेण भक्ते सति यदागच्छति तानि रूपयुतानि द्वयोरपि स्थापनाऽऽरोपणायो: स्थानानि / एष गाथार्थ: / भावार्थस्त्वयम्बसु मासेषु फिल दिवसानामशीतं शतमित्यशीतं शतं ध्रियते 180, तत: प्रथम स्थाने प्रथमाया: स्थापनाया दिनानि विंशतिः, प्रथमाया आरोपणाया. पचदशेत्युभयमीलने जाता पञ्चत्रिंशत्, सा शोध्यते, जातं पञ्चचत्यारिश शतं, तत उत्तरेण पञ्चलक्षणेन भागो ह्रियते, लब्धा एकोनत्रिंशत्, सा रूपयता क्रियते, प्रथमस्थापनाऽऽरोपणायोः प्रथमत एव शोधितस्वात. एकावन्त्येव चाऽऽरोपणापदानि / तथा द्वितीय स्थाने प्रथमस्थापनाया दिवसा, पञ्चदश, प्रथमाऽऽरोपणाया: पञ्च उभयेषा मीलने जाता विंशतिः, अशीतिशतात् शोध्यते, जातं षष्ट शतं, तस्योत्तरेण पञ्चकलक्षणेन भागो ह्रियते, लब्धा त्रिशत् रूपयुता क्रियते, जाता त्रयस्त्रिंशत, एतावन्ति द्वितीय स्थाने स्थापनापदान्येतावन्त्येव चाऽऽरोपणापदानि, तृतीय स्थाने प्रथमस्थापनाया दिवसा: पञ्च, प्रथमाऽऽरोपणाया अपि पञ्च / उभयमीलन जाता दश, ते अशीतात् शतादपनीयन्त, जातं सप्ततं शतम् 170 / तस्योत्तरेण पञ्चकलक्षणेन भागो ह्रियते, लब्ध: चतुरिवंशत्, सारूपगुता क्रियत, जाता पञ्चत्रिंशत, एतावन्ति तृतीये स्थाने स्थापनापदान्येलावन्त्येव चाऽऽरोपणापदानि / चतुर्थे स्थाने प्रथमस्थापनाया एक दिन, प्रथमाऽऽरोपणाशा अपि चैकम्। उभयमीलने जाते द्वे दिने, ते | अशीतात् शतात शोध्येते / जातमष्टरसप्ततं शतम् 1708 / तरयोत्तरेण एकलक्षणेन भागो ह्रियते, लब्धमष्टसप्ततं शतं. तत् रूपयुतं क्रियते, जातमेकोनाशीतं शतमेतावन्ति चतुर्थे स्थाने स्थापनापदानि, एतावन्येच चाऽऽरोपणापदानि। " उत्तरभइए'' इत्युक्तम्, तत्र, कस्मिन स्थाने किमुत्तरमित्युत्तरविभागकरणार्थमाहठवणरुवणाण तिण्हं, उत्तरं तु पंच पंच विण्णेया। एगुत्तरिया एगा, सव्वावि हवंति अढेव // 184 / / तिसृणामाधानां स्थापनाना तिसृणामाद्यानामारोपणानां च पदचिन्तायामुत्तरं पञ्च पञ्च विज्ञेया तिसृष्वपिपदानां यथोत्तरं पञ्चोत्तरवृव्या प्रवृद्धत्वात्। एका चतुर्थी स्थापना, एका चतुर्थी आरोपणा, एकोतरिका उत्तर वृद्वया प्रवर्द्धमाना, ततस्त्रोत्तरमेकं जानीयात्, सर्वसंख्यया च सर्वा अपि स्थापनाऽऽरोपणा अष्टौ भवन्ति; तस्त्र: स्थापनाश्चतस्त्र आरोपणा इतयर्थः। संप्रति करणवंशाद् यद् लब्ध पदपरिमाणं तद्दर्शयतितीसा तेत्तीसा विय, पणतीसा अउणसीय सयमेव। एए ठवणाण पया, एवइया चेव रुवणाण।।१५।। एतानि चतसृणामपि स्थापनाना यथाक्रमं पदानि / तद्यथाप्रथमायासित्रंशत द्वितीयायास्त्रयस्त्रिशत्, तृतीयायाः, पञ्चत्रिंशत्, चतुर्थ्या एकोनाशीतं शतम् / एतावन्त्येव चतसृणामप्यारोपणानां यथाक्रम पदानि / तद्यथा-प्रथमायास्त्रिंशत्, द्वितीयस्यास्त्रयस्त्रिंशत्, तृतीयस्याः पञ्चत्रिंशत्, चतुर्थ्या एकोनाशीतं शतमिति। अथ का स्थापना, आरोपणा च? कतिषु मासेषु प्रतिसेवितेषु द्रष्ट-- व्येत्येतत्परिज्ञानार्थमाहठवणाऽऽरोवणादिवसे, माणाओं विसोहइत्तु जं सेसं। इच्छियरुवणाएँ भए, असुज्झमाणे खिवइ झोसं // 156 / / मानात् षण्णां मासानां दिवसपरिमाणादशीत्यधिकशतरूपात् विवक्षिताया: स्थापनाया विवक्षितायाश्चाऽऽरोपणाया ये दिवसास्तान् विशोधयेत्, विशेध्य च यच्छेषमुपलभ्यते तत् ईप्सितया अधिकृतया, यस्या दिवसा: पूर्व विशोधितास्तया ईत्यर्थ: 1 आरोपणाया भजेत, भार्ग ह्रियात्। भागे च हृते यदि राशिर्निर्लेप: शुद्ध्यति ततो न किमपि प्रक्षिप्यते, केबलं सा आरापणा कृत्स्नभागहरणात् कृत्स्नेति वयवह्रियते / यदि पुनर्निर्लेपो न शुद्ध्यति ततः क्षिपति झोषं, यस्मिन्प्रक्षिप्ते समो भागहारो भवति स राशि: समकरणो झोषः। उक्तं च-"झोसिति वा समकरण त्ति वा एगट्ठ।" सा च आरापणा अकृरनभागहरणात् अकृत्रनेति व्यवहर्त्तव्या। त्तथा च यथोक्तस्वरूपमेव झोषमुपदर्शयतिजेत्तियभेत्तेणं जो, सुद्धं भगं पयच्छती रासी। तत्तियमेत्तं पक्खिव, अकसिणरुवणाऐं झोसग्गं / / 187 / / यावन्मात्रेण प्रक्षिप्तेन शोधिकृतराशि: शुद्धं निर्लेपं भागं प्रयच्छति तावन्मात्र प्रक्षिप, एतत् अकृत्स्नाऽऽरोपणाया उक्त शब्दा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त या झोषाग्रं झोणपरिमाणम् / यथा केनापि पृष्टमर्विशिका स्थापता, पाक्षिकी चाऽऽरोपणा कतिभिर्मासै: प्रतिसेवितैनिष्पन्ना ? उच्यते?योदशभिर्मासैः / कथमेतदवयीयते इति चेत् ? उच्यतेइह षण्णां मासानामशीतं दिवसशतमित्यशीतं शतं ध्रियते १८०।ततो विशिकाया: स्थापनासा विंशतिदिनानि, पाक्षिक्याश्वाऽऽरोपणाया; पञ्चदश दिनानि शोध्यन्ते, "ठवणाऽऽरुवणदिवसे माणाउविसोहइत्तु इति वचनात्। शेषं जातं पञ्चचत्वारिंशशतम्, तत. "इच्छियरुवणाएँ भए'' इति वचनात् / अधिकृताया पशदशदिनया आरोपणाया भागो हियते। तत्र चोपरितनो राशि: शुद्ध भागंन प्रयच्छति, पञ्चसु च प्रक्षिप्तेषु प्रपच्छतीति पञ्चसु च प्रक्षिप्तेषु प्रयच्छतीति पञ्चपरिमाणोऽत्र झोष: प्रक्षिप्यते / ततो भागे हृते लब्धा: दश मासाः / तथा “दिवसा पंचहिँ भइया, दुरूवहीणा उ ते भवे मासा।" इति वक्ष्यमाणवचनात् स्थापनादिवसानां विंशते पञ्चभिर्भागो हियते, लब्धाश्चत्वारः, ते द्विरूपहीना: क्रियन्ते, स्थितौ द्वौ मासौ स्थापनायाः / तथा पञ्चदशदिनाया आरोपणाया: पञ्चभिर्भागी ह्रियते, लब्धास्त्रयस्ते द्विरूपहीना: कृता जाता एको, लब्ध आरोपणाया एको मासः, तेन, यदि वा प्रथमेयमारोपणेति लब्धमासा दश, एकेन गुण्यन्ते, जाता दशैव-" एकेन गुणितं तदेव भवति'' इति न्यायात्। ततो द्वौ स्थापनामासावेक आरोपणामासा दश प्रागुक्ता इति लब्धाः प्रतिसेविता मासास्त्रयोदश। पृच्छतिविशिकास्थापना पञ्चविंशतिदिना चाऽऽरोपणा कतिभिर्मासैः प्रतिसेवितैर्निष्पन्ना:? उच्यतेत्रयोविंशतिमासैः। तथाहि-स्थापनादिवसा विंशतिरारोपणादिवसा: पञ्चविंशतिरेते मिलिता: पञ्चचत्वारिंशत्, ते षण्मासदिवसेभ्योऽशीतिशतसंख्येभ्यः शोध्यन्ते, जातं शेषं पञ्चविंशशतं, ततोऽधिकृतया पञ्चविंशतिदिनया आरोपणया तस्य भागो हियते / तत्रोपरितनो राशि: शुद्धं भागं न प्रयच्छति, पञ्चदशसुवप्रक्षिप्तेषु प्रयच्छतीति पञ्चदशपरिमाणोऽत्र झोष प्रक्षिप्यते, लब्धाः षण्मासाः / तथा अधिकृताऽऽरोपणायाः पञ्चभिर्भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्च ते द्विरूपहीनाः क्रियन्ते जातात्रयः, एतावन्त आरोपणाया मासा:, यदि वेयं तृतीयाऽऽरोपणेति " दुण्हं पि गुणसुलब्द्ध इत्थियरुवणाइ जइ मासा / / " इति वक्षयमाणवचनात् ते षण्मासास्त्रिभिर्गुण्यन्ते, जाता अष्टादश, द्वौ स्थापनामासौ त्रयश्वाऽऽरोपणामासा इति सर्वसंख्यया त्रयोविंशतिमासाः। अथवा अन्यथा झोषपरिमाण कथयतिठवणादिवसे माणा, विसोहइत्ताण भयहरुवणाए। जो छेयंसक्सेिसो, अकसिणरुवणाएँ सो झोसो।।१८८|| मानान् षण्मासदिवसपरिमाणान् अशीतशतान स्थापनादिवसान अधिकृतस्थापनावासरान् विशोधय विशोध्य च यच्छेषमवतिष्ठते तत् आरोपणया अधिकृताऽऽरोपणादिवसैर्भज भागहीनं कुर्यात्, भागे च हृते य: छेदात् अंशानां विश्लेषः / इह विश्लेषे कृते सति यदवतिष्ठते तदपि विश्लेषतो जातत्वाद् विश्लेषः / स तावत्प्रमाणोऽकृत्स्नाऽऽरोपणायां झोषः / यथा षण्मासदिवसपरिमाण भूतात् अशीतशतात् विशिकाया: स्थापनाया. दिवसा विंशतिरिति, ततो विंशति: शोध्यते, जातं षष्ट्यधिकं | शतम् 160 / ततः पाक्षिक्यामारोपणायां संचयमासा ज्ञातुमिष्टा इति पञ्चदशभिर्भागो ह्रियते, स्थिता. शेषा दश, अधस्तात छेद: पञ्चदश, तेभ्यो दश विश्लिष्यन्ते, स्थिता: पञ्च, आगतं पाञ्चदशिक्यामकृत्स्नाऽऽरोपणायां पञ्चको झोषः। तथा अशीतशतात स्थापनादिवसा विंशति शोध्यन्ते, जातं षष्टशतम् 160 // ततः पञ्चविंशतिदिनाया आरोपणाया: संचयमास ज्ञातुमिष्टा इति पञ्चविंशत्या भागो ह्रियते, तथा शेषा दश छेदोऽधस्तात्पञ्चविंशतिः, तस्या दश विश्लिष्यन्ते स्थिताः पञ्चदश, आगतं पञ्चविंशतिदिनायामारोपणायां पक्षो झोषः। एवं सर्वत्र भावनीसम्। जत्थ पुण देइ सुद्ध, भागं आरोपणा उ सा कसिणा। दोण्हं पि गुणसु लद्धं, इच्छियरुवणाएँ जइ मासा ||186 / / यस्यां पुनरारोपणायामुपरितनो राशि: शुद्धं भार्ग प्रयच्छति, न किश्चित्पश्चाद्यस्यावतिष्ठते इति भावः / सा आरोपणा कृत्स्नभागहरणात् कृत्स्नेति प्रतिपत्तय्या, यथा विंशतिदिना। तथाहि केनापि पृष्ट विशिका चाऽऽरोपणा कतिभिर्मासै: प्रतिसेवितैर्निष्पन्ना? उच्यते-अष्टादशभिमसि। कथमेतदव-सेयमिति चेत? उच्यते षण्णां मासानामशीत दिवसशतं, तेभ्यो विंशतिर्दिनानि स्थापनाया विंशतिर्दिनान्यारोपणाया शोध्यन्ते, जातं शेष चत्वारिंशं शतम्। तत:-" इच्छियरुवणाइ भए" इति वचनात विंशिकया आरोपणाया भागो ह्रियते, भागे च हृते उपरितनो राशिर्निर्लेप: शुद्धः, एषा कृत्स्नाऽऽरोपणा, लब्धाः सप्त मासाः / ततः"दोण्हं पि गुणसु लद्ध, इच्छियरुवणाए जइ मासा। "इति वक्ष्यमाणवचनात् इयमारोपणा प्रागुक्तक्रमेणेद्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्नेति सप्त मास द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाताश्चतुर्देश मासा: / ततो द्वौ स्थापनामासौ द्वी चाऽऽरोपणामासाविति समुदिताश्चत्वारस्ते चतुर्दशसु प्रक्षिप्यन्ते आगतं विशिका स्थापना विशिका चाऽऽरोपणा अष्टादशभिर्मासैर्निष्पन्नेति। (दोण्हं तु इत्यादि) द्वयोरपि आरोपणायो: कृत्स्नाऽकृत्त्रयोर्लब्धमीप्सिताया आरोपणाया यति मासा यतिभिर्मासैरीप्सिताऽऽरोपण निष्पन्नेति यावत्, ततिर्मिगुणय, यद्येकेन मासेन निष्पन्ना तत एकेन गुणय इति, द्वाभ्यां मासाभ्यां निष्पन्ना तर्हि द्विकेनापि, अथ त्रिभिस्ततस्त्रिभिरित्यादि / अथवा-द्वयोरप्यारोपणयो: कृत्स्नाकृत्स्नयो लब्ध यतिमासास्तत इप्सितया आरोपणाया गुणय, यदि प्रथमा तत एकेन गुण्यते, अथ द्वितीया ततो द्वाभ्याम्, अथ तृतीया ततस्त्रिभिरित्यादि। एलच प्रागपि भावितम् / तदेवमशीतिशतात् स्थापनाऽऽरोपणादिवसेषु शोधितेषु यच्छेषं तद्वक्तव्यतोक्ता। संप्रति स्थापनाऽरोपणादिवसेभ्यो यथा मासा आगच्छन्ति, मासेभ्यो वा दिवसास्तथा प्रतिपादयतिदिवसा पंचहिँ भइया, दुरूवहीणा उ ते भवे मासा। मासा दुरूवसहिया, पंचगुणा ते भवे दिवसा / / 160 / / स्थापनाया आरोपणायाश्च दिवसा: पञ्चभिर्भज्यन्ते, पञ्चभिस्तेष भागो ह्रियते इति भावः / ततो भागे हृते ये लब्धास्ते द्विरूपहीनाः क्रियन्ते, ततो रूपद्वयं स्फेट्यते इति भावः / रूपद्विके वास्फेटितेयदवशिष्यते ते भवेयुर्मासाः, यथा विशिकाया: स्थापनाया दिवसा विंशति., तेषा पञ्चभिर्भागो ह्रियते, लब्धाश्चत्वारस्ते द्विरूपहीना: क्रियन्ते, स्थितौ द्वी, आगतं विशिकास्थापना द्वाभ्यां मासाभ्या निष्पन्ना / तथा पाक्षिक्या आरोपणाया दिनानि पञ्चदश, तेषां पञ्चभिर्भागहरण, लब्धास्त्र-- Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त थः, त द्विरूपहीना क्रियन्ते, स्थित एक, आगतं पाक्षिकी आरोपणा एकेन मासन निष्पन्ना, विशिकाऽऽरोपणा विशिकास्थापना च द्विमासनिष्पना नवनीया / तृतीयायाः पञ्चविंशतिदिनाया आरोपणाया दिवसा पञ्चविंशति तेषां पञ्चभिर्भगहारो, लब्धाः पञ्च, ते द्विरूपहीना: कता:, स्थितास्त्रयः आगतं पञ्चविंशतिदिना तृतीयाऽऽरोपणा त्रिभिर्मासैनिष्पला / एवं सर्वत्र भावनीयम्। (मासा दुरूवसहिया इत्यादि) यति मासः स्थापनायामा रोपणायां वाऽधिकृतकरणवशात् लब्धास्ते दिवसाऽऽनयनाय द्विरूप-हिता: क्रियन्ते, तत: पञ्चगुणास्ते भवयुर्यथोक्ता दिवसा. राथा शिकाया: स्थापनाया द्वौ मासौ. तौ द्विररूपसहितौ क्रियेते, जाताश्चत्वारः, तेपशभिर्गुण्यन्ते, आगतं विशिकाया: स्थापनाया विंशतिर्दिनानि, तथा पाक्षिक्या आरोपणाया एको मासाः, ते द्विरूपसहिताः क्रियन्ते, जातास्त्रयः, ते पञ्चभिर्गुण्यन्ते / आगतं पाक्षिक्या आरोपणायाः पशदश दिनानि, तथा पञ्चविंशतिदिनाया आरोपणायास्त्रयो मासास्ते द्विरुपयुता क्रियन्ते, जाता: पञ्च, ते पञ्च पञ्चभिर्गुण्यन्ते. आगतं पञ्चविशतिदिनानि / एवं सर्वत्र भवनीयम्। तदेवं करणान्यभिधायोपसंहारमाहठवणाऽऽरोवणसहिया, संचयमासा हंवति एवइया। कत्तो किं गहियंति य, ठवणामासे ततो सोह / / 161 / / पूर्वम "टवणाऽऽरोवणदिवसे माणा ए विसोहइत्तु'' इत्यादि करणवशात्ये लब्धा नासास्तेऽनन्तरोक्तकरणवशादानीता:. ये स्थापनाऽऽरोप्रणामासास्तत्सहिताः क्रियन्ते, तत: शिष्येभ्य एवं प्ररूपय अस्यां स्थापनायामस्या चाऽऽरोपणायामेतावन्त: संचयामासा: सर्वप्रायश्चित्तसंकलनमासा भवन्ति, तदवं यतिभिर्मासै: प्रतिसेवि तैर्या स्थापना आरोपणा चनिष्पन्ना, तदेतत्प्रतिपदितम्। अधुना तस्यां तस्यां स्थापनायामारोपणायां च संचयमासाना मध्ये कुतो मासारिक गृहीतमिति प्रतिपादनार्थमाह-(कत्तो इत्यादि) शिष्य पृच्छतितस्यां तस्यां स्थापनायामारोपणायां च रुचयमासानां मध्ये कुतो मासात्किं गृहीतम्? अत्र सूरिराह(ठवणा मासे ततो सोहे) ततः संचयमासासंख्यात: स्थापनामासान् शोधयेत,शोधिते च सतिदिवसेहिँ जइहिं मासो, निप्फन्नो हवइ सव्वरुवणाणं / तइहिँ गुणिया उ मासा, ठवणदिणजुया उ छम्मासा / / 162 / / सर्वासामारोपणानां यतिभिर्दिवसैर्मासो भवति निष्पन्नस्तति-भिर्गुणितास्ते मारता; कर्त्तव्याः पुन: स्थापनादिनयुक्तास्ततस्तेषण्मासा भवन्ति, यथा प्रथमायागारोपणायां त्रयोदश संचयमासा:, तेभ्य: स्थापनामासौ द्वी शोधितौ, स्थिताः पश्चादेकादश / अत्राऽऽरोपणयामेको मास:, स पञ्चदशभिर्दिननिष्पन्न इति, ते एकादश पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चषष्ट शतम्, ततो विशतिदिवसाः स्थापनासत्काः प्रक्षिप्यन्ते, जातं पञ्चाशीत शत, पञ्च झोष इति। तदयुक्ता जाता: षण्मासाः, आगतं द्वाभ्यां स्थापनीकृताभ्यां मासाभ्यां दश दश दिनानि गृहीतानि, शेषेभ्यस्त्वेकादशभ्य: पञ्चदश दिनानि, केवलं तन्मध्यात् पञ्चानां झोषः कृतः, पञ्च दिनानि इत्युक्तानीति भावः / झोषशब्दस्य तत्त्वतस्त्यागवाचित्वात्। अत एव च यान्यमूनि पशदिनानि त्यक्तानि, तान्येव प्राक राशिसमकरणार्थे प्रक्षिप्तानीति समकरण: प्रक्षेपणीयो राशिझोषशब्देनोक्तः / एवं सर्वत्र झोषभावना भवनीया / तथा विशिकाया चाऽऽरोपणायामष्टादश किल संचया मासा: तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ शोधितौ, जाता: षोडश / अत्र विशतिदिनाऽऽरोपणा द्विमासेत्येकैकोमासो दशभिर्दिनैर्निष्पन्नः, ततस्ते षोभश दशभिर्गुण्यन्ते, जातं षष्ट शतम् 160 / तत: स्थापनादिवसा विंशतिः प्रक्षिन्यन्ते, जातमशीतं शतम्, आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनामासाभ्या दश दश वासरा गृहिताः, शेषेभ्योऽपि षोडशेभ्यो गाात्रतो दश दशेति। तथा विशिकायां स्थापनायां पञ्च, विशिकायां चाऽऽरोपणायां त्रयोविंशति: संचयमासाः, तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ शोधितौ, जाता पश्चादेकविंशतिः पञ्चविंशतिदिना चाऽऽरोपणा त्रिभिर्मासैर्निष्पन्नेत्येकैको मासः, स त्रिभागैरष्टभिर्दिने निष्पन्नः, तत एकविंशतिरष्टभिर्गुणिता जातमष्टषष्ट शतं, त्रिभागगुणने च लब्धाः सप्त, तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातं पञ्चसप्ततं शतं, तत्र विंशति: स्थापनादिवसा: प्रक्षिप्यन्ते, जातं पञ्चनवतं शतम् 165 / अत्र पञ्चदश दिनानि झोष इति, तान्यपनीयन्ते, जातमशीतं शतम्, आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनाकृताभ्यां मासाभ्सां दश दश रात्रिंदिवानि गृहीतानि, शेषेभ्यस्त्वेकविंशतिमासेभ्यो गात्रतः सविभागान्यष्टावष्टौ रात्रिन्दिवानि, केवलं तत्रापि पञ्चदश दिनानि झोषीकृतानि / तदेवं स्थापनातः शेषमासेभ्यो गात्रतो यद् गृहीतं तत्प्रतिपादितम्। अधुना शेषमासेभ्यो यद् येभ्यो विशेषतो गृहीतं तत्प्रतिपादनार्थ करण्माहरुवणाई जइमासा, तइभागं तं करे तिपंचगुणं / सेसंच पंचगुणियं, ठवणादिवसाजुया दिवसा / / 163 / / स्थापनामासेषुशोधितेषु यच्छेषमवतिष्ठतेतत् आरोपणायां यतिमासास्ततिभागं तावत्संख्याकभाग करोति, कृत्वाचाऽऽद्यं भागं त्रिपञ्चगुणं करोति, शेष तु समस्तमपि पञ्च गुणम् / एतचैवं द्रष्टव्यपाक्षिक्यादिष्वारोपणासु यदि पुनरेकदिना द्विदिना यावच्चतुर्दशदिना आरोपणा, तदा य तिदिना आरोपणा, ततिगुणं कुर्यात्, ततस्ते दिवसा स्थापनादिवसयुता क्रियन्ते, ततो दिवसा: षण्मासदिवसा भवन्ति / तद्यथा-प्रथमायां स्थापनाया प्रथमायां चाऽऽरोपणायां त्रयोदश संचयमासाः, तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ शेोधितौ, जाता एकादश, अन्ये तु बुबते-अत्रायं वृद्धसंप्रदाय:- यद्येकस्मात् मासाद् निष्पन्ना आरोपणा, तत: प्रतिसेवितमासेभ्य: स्थापनाया: आरोपणायाश्च मासा: शोधयितव्याः / अथ द्वयादिमासैनिष्पन्नाऽऽरोपणा, ततः प्रतिसेवितमासेभ्य: स्थापनामासा एव शाध्यन्ते, नाऽऽरोपणामासा इति। ततस्तन्मतेन द्वौ स्थापनामासावेकश्चाऽऽरोपणामास दति त्रयः संचयमासेभ्य:शोध्यन्ते, जाता दशेति / तत्र स्वमते अधिकृताऽऽरोपणा एकमासनिष्पन्नेति एकादश एकभागेन क्रियन्ते, एकभागकृतं च तत्तथारूपमेव भवतीति जाता: समुदिता एव ते एकादश, तत: त्रिपञ्चगुणमिति वचनात् पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चषष्टं शतम् 165 / तत्र स्थापनादिवसा: विंशतिः प्रक्षिप्ताः, जातं पक्षाशीत शतम् / तत: पञ्चरात्रिन्दिवान्यत्र झोषीकृतानीति, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 160 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तान्यपसार्यन्ते, जातमशीतं शतम् / मतान्तरेण तु ते दश मासा एकभागीकृता: पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चाशं शतम् 150 / ततः स्थापनादिवसा विशतिरारोपणादिवसा: पञ्चदश प्रक्षिप्यन्ते, जातं पञ्चाशीतं शतम् 185 / पञ्च दिनानि झोष इति तानि ततोऽपनीयन्ते, जातमशीतं दिवसशतम, आगतमत्रद्वाभ्यां स्थापनीकृताभ्यां मासाभ्यां दश दश दिनानि गृहीतानि, शेषेभ्यस्त्वेकादशमासेभ्स: पञ्चदश पञ्चदश दिनानि, केवलं पञ्चदिनानि झोषीकृतानि तथा विशिकायां स्थापनायां विशिकायां चाऽऽरोपणायामष्टादश संचयमासाः, तेभ्यो द्वौ स्थापनामासावपनीती, जाता: षोडश, ततोऽत्राऽऽरोपणा द्वसभ्या मासाभ्यां निष्पन्नेति षोडश द्वाभ्यां भागाभ्यां क्रियन्ते, एकतोऽप्यष्टावधः, तत्रोपरितनमाद्यं भणन्ति, "पंचगुणमिति वचनात् पञ्चदशभिर्गुणयेत्, जातं विंश शतम 120 / अधस्तनास्त्वष्टौ, "सेसं च पंचगुणियं " इति शतवचनत: पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जाताश्चत्वारिंशत् 40 / उभयमीलने जात षष्ट शतम्,१६० / अत्र स्थापनादिवसा विंशतिः प्रक्षिप्ता, जातमशीत शतम्, आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनामासाभ्यां दश दश रात्रिन्दिवानि गृहीतानि, अष्टाभ्यो मासेभ्य: पञ्चदश पञ्चदश, अन्येभ्यस्त्वष्टाभ्यः पञ्च पञ्चेति / तथा विशिकायां स्थापनायां पञ्च, विशिकायां चाऽऽरोपणाया त्रयोविंशतिः संचयमासा तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ शोधितौ, जाता पश्चादे कविंशतिः, अत्राऽऽरोपणा त्रिभिर्मासैनिष्पन्नेति कृत्वा ते एकविंशति: संचयमासारित्रभागाः क्रियन्ते, जातास्त्रय: सप्तका: पुजाः / तत्र प्रथमे सप्तति पञ्चगुणमिति वचनात् पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं शतम्। अत्र पक्षो झोष इति पञ्चदश शोध्यन्ते, जाता नवति: 60 / शेषौ च द्वौ भागौ सप्तकौ सेस च पञ्चगुणमिति वचनात् प्रत्येक पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जाता उभयत्र प्रत्येकं पञ्चत्रिंशत्, उभयमीलने जाता सप्ततिः, सा पूर्वराशी प्रक्षिप्ता, जातं षष्ट्यधिकं शतम् 160 / अत्र विंशतिः स्थापनादिवसा: प्रक्षिप्ताः, जातमशीतं शतम्, आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनकृिताभ्यां मासाभ्यां दश दश वासरा गृहीता सप्तभ्यो मासेभ्य: पञ्चदश, चतुर्दशेभ्यो मासेभ्यः पञ्च पञ्च पञ्चदश वासराश्वझोषीकृता इति, एवं सर्वत्र भावनीयम्। तदेव या स्थापना आरोपणा च यतिभिर्मासै: प्रतिसेवितैर्निष्पन्न, यस्या चस्थापनायामारोपणायां च संचयमासाना मध्ये यतो मासात् यत् गृहीतं / तदेतत्सर्व प्रतिपादितम्। अधुना यत: स्थापनाया आरोपणायाश्च मासाऽऽनयनाय करणमुक्तं, "दिवसा पंचहिं भइया' इत्यादि तत्प्रथमस्थान एव सर्वाऽऽत्मना व्यापि, न द्वितीयाऽऽदिषु स्थानेषु, तेषु क्वचित्तदप्यस्ति, क्वचिदन्यथाऽपि, ततस्तत्रोभयं विवक्षुः प्रथमतस्तावत्तदेव करणमाहदिवसापँचहि भइया, दुरूवहीणा य ते भवे मासा। मासा दुरूवसहिया, पंचगुणा ते भवे दिवसा / / 164 / / अस्या व्याख्या पूर्ववत्॥१६॥ जत्थ य दुरूवहीणं, न होज भागं च पंचहिं दिखा। तहिं ठवणरूवणमासो, एगो उ दिणा उ ते चेव / / 165 / / यत्र पुन: स्थापनासु आरोपणासु च पञ्चदिनाऽऽदिकासु पञ्चभिर्भगे हृते यल्लब्धं तद् द्विरूपहीन न भवेत्। पञ्चदिनाऽऽदिकासु नवदिनपर्यन्तासु द्वयोरेव रूपयोरसंभवात्, दशदिनाऽऽदिकासुतु चर्तुदशदिनपर्यन्तासुद्धिरूपही नतायां शून्यताऽऽपत्ते / यदि वायासु स्थापनास्वारोपणासु चैकदिनाऽऽदिषु चतुर्दिनपर्यन्तासु पञ्चभिर्भगमुपरितनो राशिन दगधः, स्तोकत्वात्, तत्रतासु स्थापनास्वारोपणासु चैको मासो द्रष्टव्य / (दिष्ठा उ ते चेव त्ति) दिनान्यपि तान्येव यान्युपात्तानि, न पुनर्माससंख्यां द्विरूपसहितां कृत्वा पञ्चभिश्च गुणयित्वा दिनान्यानेतव्यानीति भावः। अथ कियन्तो दिवसा: स्थापनासामारोपणायां च प्रागुक्तकरणमन्तरेणैवमेवैकस्मात् मासात् प्रतिपत्तवया:? तत आहएक्कादीया दिवसा, नायव्वा जाव होंति चउदसओ। एकातो मासाओ, निप्पना परतो दुगहीणा / / 196|| एकस्मात्मासात् निष्पन्ना दिवसा एकाऽऽदयोक ज्ञातव्याः, यावचतुर्दश भवन्ति। किमुक्तं भवति? एकदिनाऽऽदिकाश्चतुर्दशदिनपर्यन्ता: स्थापना आरोपणाच दिवसा: "पंचहि भइया' इत्यादिकरणप्रयोगमन्तरेणैवमेट एकस्मात् मासात् प्रतिपत्तव्या इति (परतो दुगहीण त्ति ) परत पञ्चदशदिनाऽऽदिकासु स्थापनास्वारोपणासु च 'दुगहीण त्ति'' पदैवदेखें पदसमुदायोपचारात् ‘दिवसा पंचहिँ भइया दुरूवहीणा'' इति करण' मासा: प्रत्येतव्याः। अत्रैव प्रकारान्तरमाहजइ वा दुरूवहीणे, कयम्मि होज्जा जहिं तु आगासं / तत्थ वि एगो मासो, दिवसा ते चेव दोण्हं पि।।१६७।। यति वेति प्रकारान्तरे, तच्च प्रकारान्तरमिदमपूर्व दशदिनाऽऽदिकाम चतुर्दशदिनपर्यन्तासु द्विरूपहीनताया एवासंभवतएको मास उक्तो दर्द वा भवतु तत्र द्विरूपहीनता, तथाऽप्येतत्करणवशात्तत्रैको मासः प्रतिपत्तवय इति / तदेव करणमाह- (दुरूवहीणे इत्यादि) यत्र यस दशदिनाऽऽदिकासु चतुर्दशदिनपर्यन्तासुपञ्चभिर्भगे हृते यल्लब्धं तस्मिन द्विरूपहीने कृते भवेदाकाशं शून्यम्, तत्राप्येको मासो द्रष्टव्य दिवस अपि द्वयीनां स्थापनाऽऽरोपणानांत एवाऽऽज्ञया ये उपात्ता न तु प्राणुककरणवशतो माससंख्यात अनेतव्या इति भावः। अथ यत्रोत्कष्टा स्थापनाऽऽरोपणाभ्यामेव षण्णां मासानां परिपूण भवनात् "ठवणारुवणादिवसे, माणा उ विसोहइत्तु जं सेसं / " इत्यादिकरणं प्रवर्तते, तदप्रवृत्तौ च कथं संचयमाससंकलनं कर्तव्यम्। तत आहउक्कोसारुवणाणं, मासा जे होंति करणनिट्ठिा। ते ठवणातासजंया, संचयमासाओं सव्वासिं / / 168|| सर्वासामुत्कृष्टानामारोपणानां ये मासा भवन्ति करणनिर्दिष्टाः, "दिल्स पंचहि भइया 'दत्यादिना आरोपणाकरणेन निर्दिष्टाः, ते स्थापनामासयुता स्थापनाया ये करणवशतो लब्धमासास्तद्युक्ताः, संचयमांसा द्रष्टव्या.। यह विशिकायां षष्टदिनशतायामारोपणायां द्वात्रिंशन्मासा. तथाहि-स्थापना / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त वां द्वौ मासौ लब्धौ, तौ च प्रागेव भावितौ / आरोपणाया: पञ्चभिर्भागा यासांता एतद्गापिका गाथा भवन्त्यानुपूर्व्याऽनुक्रमेणाऽन्या अपिज्ञातव्याः। हियते, लब्धा द्वात्रिंशत् / द्विरूपहीना क्रियते, जाता त्रिंशत्, / यथा-"पढमा ठवणा वीसा, चोन्थी आरोवणा भवे तीसा / ठव्वीसा स्थापनामासौ तत्र प्रक्षिप्तावागतंद्वात्रिंशत्प्रतिसेविता मासा / अथात्र कुतो मासेहिं, वीसइराइंदिया झोसो ||1||" इत्यादि / अथानेन प्रकारेण मासास्किंगृहितम् ? उच्यते-द्वौ-द्वात्रिंशत: संचयमासेभ्य: स्थापनामासौ कियत्संख्याका गाथा अनुगन्तव्या? तत आह-(एएणेत्यादि ) एतेन शोध्येते / स्थिता: पश्चात् त्रिंशत् मासा: / तत इयमारोपणा त्रिंशता क्रमेण चत्वारि शतानि पञ्चषष्टानि गाथानां भवन्ति / इयमत्र भावनामासैनिष्पन्ना त्रिंशत्तमा वेति त्रिंशद्भागा: क्रियन्ते, आगत एकैकस्मिन् विंशिका स्थापनाममुञ्चता पञ्च, पञ्च आरोपणायां प्रक्षिप्ता तावन्नेतव्यं भागे एकैका मासाः / तत्र प्रथमतो भाग: पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाता: पञ्चदश, यावदन्तिमा आरोपणा। एतासु च संचयमासाऽऽनयनाय प्रागुक्तकरणएष एकोनत्रिंशत् पञ्चभिर्गुण्यते, जातं पञ्चचत्वारिंशं शतम्। उभयमीलने लक्षणं प्रयोक्तव्यम् / तद्यथा-अशीतात् दिवसशतात् प्राक् स्थापनापष्ट शतम् 160 / अत्र स्थापनादिवसा विंशतिः प्रक्षिप्ता, जातमशीत ऽऽरोपणादिवसा: शोधयितव्याः। ततो यच्छेषमवतिष्ठते तस्याधिकृताया शतम्, आगतमत्र द्वाभ्यां स्थापनीकृताभ्यां मासाभ्यां दश दश दिवसा आरोपणाया भागो हर्तव्यः, तत्र यदि शुद्धं भाग न प्रयच्छति, ततो यावता गृहीता: एकस्मात् पञ्चदश, शेषेभ्यः पञ्च पश्चेति / एवं सर्वत्र भावनीयम्। प्रक्षिप्लेन परिपूर्णो भाग: शुद्धयति, तावन्मात्री झोषः प्रक्षेपणीयः / तत्र प्रथम स्थाने यावती प्रथमा स्थापना, यावती व प्रथमाऽऽरोपणा, तत्प्रक्षेपानन्तरं च भागे हृते ये लब्धा मासास्ते यतिभिर्मासैरारोपणा यावन्तश्च तत्र संचयमासास्तदेतत्प्रतिपादयति निष्पन्ना ततिभिर्गुणयितव्याः, तत: स्थापनाऽऽरोपणामासा अपि तत्र पढमा ठवणा वीसा, पढमा आरोवणा भवे पक्खो। प्रक्षिप्यन्ते, तत: समागच्छति प्रतिसेवितमासपरिमाणमिति कुतो तेरसहिं मासेहिं, पंच उ राइंदिया झोसो ||16| मासात् किं गृहीतमित्यस्यामपि जिज्ञासायां संचयमासेभ्यः प्रथम प्रथमे स्थाने प्रथमा स्थापना विंशिका विंशतिदिना,प्रथमा चाऽऽरोपणा स्थापनामासा: शोधयितव्याः, ततः शेषा ये मासास्तिष्ठन्ति ते यतिभिर्माभवति पक्ष: पक्षप्रमाणा / एषा स्थापनाऽऽरोपणा च त्रयोदशभिमसि सैर्निष्पन्ना यत्संख्याका वा आरोपणा तावन्तो भागा: कर्तव्याः / तत्र निष्पन्ना। तथा एषाऽऽरोपणा अकृत्स्ना , ततोऽवश्यमस्यां झोषोऽभूदिति प्रथमो भाग: पञ्चइशभिर्गुणयितव्य:, शेषा: सर्वे ऽपि पञ्चभिर्गुणनीयाः / झोषपरिमाणमानम्, पञ्चरात्रि-न्दिवानि झोषः / एतद्विशया भावना प्रागेव एते सर्वेऽपि दिवसा एकत्र मीलयितव्याः, यश्च झोषः प्रक्षिप्त: स शोधयितव्यः / तत: स्थापनादिवसा: प्रक्षेपणीयाः। आगतफलमप्येवं कृता, न भुयोऽपि क्रियते / अधुना प्रथमस्थाने एव प्रथमस्थापनायां कथानोयम्-यतिभिर्दिवस: स्थापनामासो निष्पन्नस्तति दिवसा: द्वितीयाऽऽरोपणा षावधिना भवति, यावद्भिश्च संचयमासौ: स्थापनाऽऽ स्थापनीकृतेभ्यो मासेभ्य: प्रत्येकं गृहीता:, यावन्तश्च मासा: पञ्चदशरोपणा च निष्पन्ना, तदेतत्प्रतिपादयति भिर्गुणितास्तावद्भः पञ्चदश पञ्चदश, शेषेभ्य: पञ्चपञ्चेति, एवं पञ्चविंशिपढमा ठवणा वीसा, विइया आरोपणा भवे वीसा। कायामपि स्थापनायां पाक्षिक्यादश आरोपणा द्रष्टव्या, यावच्चरमा अट्ठारस मासेहि, एसा पढमा भवे कसिणा।।२००|| पञ्चपञ्चाशदिनशतमाना:, त्रिंशत्कायां स्थापनायां पाक्षिक्यादय प्रथने स्थाने प्रथमस्थापना विंशतिर्द्वितीया आरोपणा भवेदिशिका आरोपणा याचत्पञ्चाशद्दिनशतममना। एवंतावद्यावचरमाया स्थापनाया विंशतिदिना / एषा स्थापना आरोपणा च निष्पन्नाअष्टादशभिर्मासैरेषा पञ्चषष्टदिनशतमानायां पाक्षिक्येकाऽऽरोपणा / एतासु च पूर्वभणितेन चाऽऽरापणा कृत्स्ना प्रथमा च सर्वासा कृत्स्नाऽऽरोपणानामिति / प्रकारेण चत्वारिं शतानि पशषष्टानि गााथानां कर्त्तव्यानि। इति प्रथम एतद्विषयाऽपि भावना प्रागेव कृतेतिन भूयः क्रियते। स्थापनाऽऽरोपणास्थानं समाप्तम्। संप्रति प्रथम स्थाने प्रथमायां यावद्दिना तृतीया आरोपणा, यतिभिश्च संप्रति द्वितीय स्थापनाऽऽरोपणास्थानं संचयमासस्ते उभे अपि निष्पन्ने तत्प्रतिपादयति प्रतिपिपादयिषुरित्याहपढमा ठवणा वीसा, तइया आरोवणा उ पणवीसा। तेत्तीसंठवणपया, तेत्तीसाऽऽरोवणाएँ ठाणाई। तेदीसा मासेहि, पक्खो उतहिं भवे झोसो // 201|| ठवणाणं संवेहा, पंचेव सया उएगट्ठा॥२०३|| प्रथमस्थाने एव प्रथमा स्थापना विंशतिदिना, तृतीया चाऽऽरोपणा द्वितीय स्थाने त्रयस्त्रिंशत्स्थापनापदानि, त्रयस्त्रिशचाऽऽरोपणाया: पञ्चविंशतिदिना। एषा प्रथमा स्थापना तृतीया चाऽऽरोपणा त्रयोविंशति स्थानानि पदानि / एतच्च प्रागेव भावितमिति न भूयो भाव्यते। संप्रति मा निष्पन्ना ! इयमप्यकृत्स्नाऽऽरोपणा इति झोषोऽऽभूत्, अतो झोष- संवेधपरिमाणमाह (ठवणाणमित्यादि) स्थापनानामारोपणाभिः सह परिमाणमाह तृतीयायामारोपणायां झोष इति शेषस्थापनाऽऽरोपणानां संवेधा: सर्वसंख्यया भवन्ति पञ्चशतान्येकषष्टानि एकषष्ट्यधिकानि दिनपरिमाणे संचयपरिमाणे वाऽतिदेशपरिमाणमाह 561 / कथमेतदवसातव्यमिति चेत् ? उच्यते-हसंवेधसंख्याऽऽनयनाय एवं एयागमिया, गाहाओ हॉति आणुपुवीए। प्रागुक्ता 'गच्छोत्तरसांवग्गे'' इत्यादि करणगाथा। गच्छश्चात्र त्रयस्त्रिंशत्। एएण कमेण थवे, चत्तारि सया उ पण्णट्ठा॥२०२।। तथा गच्छाऽऽनयनाय पूर्वसूरिप्रदर्शितयं करणगाथा-- एवमुक्तेन प्रकारेण एषाऽनन्तरोदितो दिनमानाऽऽदिलक्षणोगम: प्रकारो | ठवणाऽऽरोवणविजुया, छम्मासा पंचभागभइया जे। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त १६२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त रूवजुया ठवणपया, तिसु चरमाऽऽदेस भागेको / / 204 / / / षण्णां मासानां समाहार: षड् मासं, तस्मान् सण्मासात् स्थापनाऽऽरोपणादिवसैर्विरहितात् तदनन्तरं पञ्चभागरक्तात्यंलब्धास्ते रूपयुता: सन्तो यावन्तो भवन्ति, तावन्ति स्थापनापदानि एतावान् तत्र गच्छ दति भावः / एतच्च त्रिष्वाद्येषु स्थानेषु द्रष्टव्यम्, चरमेऽपि स्थाने एष एवाऽऽदेश: केवलमेकेन भागो हर्त्तव्य / एष गाथाऽक्षरार्थ: / भावार्थस्त्वयम्प्रथमस्थाने प्रथमा स्थापना विंशतिदिना प्रथमा चाऽऽरोपणापञ्चदशदिनाउभयमीलने दिनानि पञ्चत्रिंशत्। तानि षण्मासदिवसेभ्योऽशीतशतप्रमाणेभ्य: शाध्यन्ते, जातं पञ्चचत्वारिशं शतम्, तस्या पञ्चभिर्मागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशत्, सा रूपयुता क्रियते, जाता त्रिंशत्। आगतः प्रथमे स्थाने त्रिंशत् गच्छाः। तथा द्वितीय स्थाने प्रथमा स्थापना पञ्चदशदिना, प्रथमा चाऽऽरोपणा पञ्चदिना उभयमीलने जातानि दिनानि विंशतिः, षण्मासदिवसेभ्योऽशीतशतप्रमाणेभ्य:शाध्यते, जातं षष्टि शतम्-१६० / तस्य पञ्चभिर्भागो हियते / लब्धा द्वात्रिंशत्, सा रूपयुता क्रियते, जातास्त्रयस्त्रिशत्। आगतं द्वितीय स्थाने त्रयस्त्रिंशगच्छ:। उत्तरमेक आदिरप्येक: / अत्र भावना प्रागुक्ताऽनुसतव्या / तत्र गच्छस्त्रयस्त्रिंशत् एकेन युक्ताऽनुसतव्या / तत्र गच्छस्त्रयस्त्रिंशत् एकेन गुण्यते, एकेन गुणितं तदेव भवतीति जातात्रयस्त्रिंशदेव मासा: उत्तरेणैकेन हीना क्रियन्ते, जाता द्वात्रिंशत्, तत्राऽऽदिममेककलक्षण प्रक्षिपेत, जाता भूयस्त्रयस्त्रिंशत्, एतत् अन्तिमं धनम् / एतच्चान्तिम धनमादिना एककेन युतं क्रियते, जाता चतुस्त्रिशत् सा गच्छार्द्धन गुणवितव्यः। तत्रगच्छमशेर्विषमत्वात्परिपूर्णमर्द्धन लभ्यते इति चतुस्त्रिशदी क्रियते, जाता: सप्तदश, ते गच्छेन परिपूर्णेन गुण्यन्ते, जातानि पञ्चशतान्येकषष्टानि 561 // संप्रत्यस्मिन् द्वितीय स्थाने कतिदिना प्रथमा स्थापना कतिदिना च प्रथमाऽऽरोपणा सा च प्रथमा स्थापनाऽऽरोपणा च कतिभिः संचयमानैः प्रतिसेवितैर्निष्पन्ना तत्प्रतिपादयतिपढमा ठवणा पक्खे, पढमा आरोवणा भवे पंच। चोतीसा मासेहि, एसा पढमा भवे कसिणा / / 20 / / द्वितीये स्थाने प्रथमा स्थापना पक्ष: पक्षप्रमाणा, प्रथमा चाऽऽरोपणा भवति पच्चपञ्चदिना। एषा स्थापना आरोपणा च निष्पन्ना चतुस्त्रिंशता मासै: प्रतिसेवितैः। कथमिति चेत् / उच्यतेषण्मासानांदिवसा अशीतं शतं, तस्मात्' ठवणाऽऽरोवणदिवसे माणा उ विसोहइत्तु'' इति वचनात् स्थापनादिवसा: पञ्चदश, आरोपणादिवसा: पञ्च उभयमीलने विंशति: शोध्यन्ते, जातं षष्ट शतम् 160 / ततोऽधिकृतया पञ्चकलक्षणया आरोपणया भागो ह्रियते, लब्धा द्वात्रिशत् मासाः / राशिश्चात्र निर्लप: शुद्ध इत्येषा आरोपणा कृत्स्ना / तथा चाऽऽह-एषा आरोपणा भवति कृत्स्ना, कृत्स्नाभागहरणात्। सा चान्यस्यां कृत्स्नाऽऽरोपणानां प्रथमा स्थापनादिवसा (?), तां च मासाऽऽनयनाय पञ्चभिर्भागो ह्रियते, लब्धास्त्रयः, ते द्विरूपहीना: क्रियन्ते, जात एकक आगत एको मास :, आरोप-णायामप्येको मासो लब्धः, "जत्थ उ दुरूवहीणं न होज्छ / ' इत्यादि-वचनात्।तत एकस्थापनातास एक आरोपणामास इति द्वौ मासौ पूर्वराशौ प्रक्षिप्येते, आगतं चतुरित्रंशन्मासा: प्रतिसेविताः। अथ कुतो | मासात् किं गृहीतम् ? उच्यते-चतुस्त्रिशत: प्रतिसेवितमासेभ्य एक: स्थापनामासा: शोध्यते, जातास्त्रयस्त्रिंशत्, ते आरोपणया पञ्चदिनमानया भागे हृते लब्ध इति पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चषष्टिशतम् 165 | तत्र स्थापनादिवसाः पञ्चदिवसप्रक्षिप्ताः, जात (?) मागतमेकस्मात् स्थापनीकृतान्मासात् पञ्चदश दिनानि गृहीतानि शेषेभ्यस्तु पञ्च पश्चेति। अधुना द्वितीये स्थाने प्रथमायां स्थापनायां यावद्दिना द्वितीया आरोपणा, यतिभिश्च संचयमासैः प्रतिसेवितै: सा प्रथमा स्थापना, द्वितीया चाऽऽरोपणा निष्पन्ना, तदेतत्प्रतिपादयतिपढमा ठवणा पक्खो, वितिया आरोवणा भवे दसओ। अट्ठारस मासेहिं, पंच उराइंदिया झोसो // 206|| द्वितीय स्थाने प्रथमा स्थापना पक्षो, द्वितीया चाऽऽरोपणा दश दश दिनानि भवन्ति / एषा च स्थापना, आरोपणा च अष्टादशमासै: प्रतिसेवितै निष्पन्ना / तथाहि-अशीतात् स्थापनादिवसा पञ्चदश, आरोपणादिवसा दश, उभयमीलने पञ्चविंशति: शोध्यते, जातं पक्ष पञ्चाशं शतम् 155 / ततोऽधिकृतया दशदिनया आरोपणाया भागो हियते, अत्र शुद्धो भागोनशुद्ध्यति, पञ्चसुप्रक्षिप्तेषु शुद्ध्यतीति पशकोऽत्र झोषः। तथा चाऽऽह पञ्चरात्रिन्दिवानि झोष इति लब्धा: षोडश मासाः, स्थापनायां च प्रागुक्तप्रकारेणैको मास आरोपणायास्तु दशाऽऽत्मिकाया: पञ्चभिर्भागो हियते, लब्धौ द्वौ तौ द्विरूपहीनौ कृतौ,जातं शून्यम, लब्ध एको मास: "जइ वा दुरूवहीणे, कयम्मि हुज्जा जहिं तु आगासं / तत्थ दि एगो मासोः" इति वचनात्, तौ द्वावपि मासौ पूर्वराशौ प्रक्षिप्येते, आगतमष्टादश मासा: प्रतिसेविता: / अथ कुतो मासात् किंगृहीतम् ? उच्यते-षोडशमासेभ्यो दश दश रात्रिन्दिवानि पञ्चझोषीकृतानि, स्थापनामासात्पञ्चदश, आरोपणामासाद्दशक: प्रत्यय इति? उच्यतेषोडश दशभिर्गुणिता जात षष्टं शतम् / 160 / पञ्चझोषीकृतास्ततः शोध्यन्ते, जातं पञ्चाशं शतम् / तत: स्थापनादिवसा: पञ्चदश, आरोपणादिवसा दश, उभयमीलने पञ्चविंशति प्रक्षिप्यन्ते, जातमशील शतम्। पढमा ठवणा पक्खा, तइया आरोपणा भवे पक्खो। वारसहिं मासेहिं, एसा विइया भवे कसिणा ||207 / / द्वितीये स्थाने प्रथमा स्थापना पक्षस्तृतीया चाऽऽरोपणा भवति पक्षः! एषा स्थापना आरोपणा च द्वादशभिर्मासैनिष्पन्ना। कथमवसीयते इति चेत् ? उच्यते-अशीतात् दिवसशतात् स्थापनादिवसा: पञ्चदश, आरेपणादिवसाश्च पञ्चदश, उभ्यमीलने त्रिंशत् शोधिता, जातं पञ्चाश शतम् 150 / ततोऽधिकृतया पञ्चदशदिनया आरोपणया भागो हियत, लब्धा दश मासाः, प्रागुक्तप्रकारेण चैको मास: स्थापनायामेको मास आरोपणायामिति द्वौ मासौ तत्र प्रक्षिप्तौ, आगतं द्वादश मास प्रतिसे वितैर्निष्पन्ना / अथ कुतो मासात् किं गृहीतम् ? उच्यतेएकैकरपात्पञ्चदश वासरा: / तथाहि द्वादश मासा: पञ्चदशभिर्गुणिता जातमशीतं दिवसशतमिति। एवं एयागामिया, गाहाओ हुंति आणुपुटवीए। एएण कमेण भवे, पंचेव सया उ एगट्ठा / / 20 / / एवमुक्तप्रकारेण एतत्गमिका अनन्तरोक्तप्रकारा, गाथा आ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त नुपूर्व्या क्रमेण भवन्त्यन्या अपि ज्ञातव्याः / कियत्संख्याकास्ता एतेन क्रमेण ज्ञातव्या: ? इत्याह-एतेन क्रमेण भवन्ति पक्षशतान्येकषष्टीनि गाथानामिति / इयमत्र भावनापाक्षिकी स्थापनाममुञ्चता आरोपेणायां चपञ्चपञ्च प्रक्षिपता तावन्नेतव्यं यावत् त्रयस्त्रिंशत्मासाः, पञ्चषष्टदिनशतभाना आरोपणा। ततो विंशतिदिनां स्थापनाममुञ्चता पश्चादिकायामारोपणायां पञ्च पञ्च प्रज्ञिपता तावद्गन्तव्यं यावत्द्वात्रिंशत्तमा षष्टिदिनशतमाना आरोपणा / एवं स्थापनासु पञ्च पञ्च प्रक्षिपता आरोपणासु चैक के स्थानमुपरितनभागात्परिहरता तावन्नेतव्यं यावद्गाथानां पाशलेनैकषष्टानि भवन्ति। द्वितीय स्थापनाऽऽरोपणं स्थानं समाप्तम्। संप्रति तृतीय स्थापनाऽऽरोपणास्थानं प्रतिपादयन्निदमाह - पणतीसं ठवणपया, पणतीसाऽऽरोवणाई ठाणाई। उदणाणं संवेहे, छच्चेव सया भवेतीसा॥२०६।। तृतीय स्थाने पञ्चत्रिंशत्स्थापनापदानि, पञ्चत्रिंशचाऽऽरोपणया स्थानानि पदानि / एतदपि पूर्वमेव भावितम् / संप्रति संवेधप-- रिमाणमाह-(ठवणाणमित्यादि) स्थापनानामारोपणाभिः सह संवेधा: सर्वसंख्यया भवन्ति षट्शतानि त्रिंशानि 630 / एतानि च ''गच्छुत्तरसं विग्गे" इत्यादिकरणवशादाने तव्यानि / तत्र गच्छ: पञ्चत्रिशत् / कथमिति चेत् ? उच्यते-"ठवणारोवणयिजुया।" इत्यादिकरणवशात् / तथाहि- अशीतात् शतात् पश्चदिनानि प्रथमस्थापनाया., पञ्चदिनानि प्रथमाऽऽरोपणाया उभयमीलने दश शोध्यन्ते, जातं सप्तशतम् 170 / तस्य पञ्चभिर्भागो हियते, लब्धं चतुस्त्रिंशत्। सा रूपयता क्रियते, आगत: पञ्चत्रिंशत् गच्छः / उत्तरमेक आदिरप्येक / ततः पञ्चत्रिंशत् एकेन गुण्यते। एकेन गुणितंतदेव भवतीति जाता पचत्रिंशदेव, सा उत्तरेणैकेन हीना क्रियते, जाताश्चतुस्त्रिंशत् तत्राऽऽदिममेकं प्रक्षिपेत्। भूयोऽभवत् पञ्चविंशत्। एतत् अन्तिमधनमन्तिमेऽङ्क स्थाने परिमाणम् / एतदादियुतं क्रियते, जाता षट्त्रिंशत्, सा गच्छार्द्धन गुणयितव्या। तत्र गच्छराशिर्विषमत्वात्परिपूर्णमर्द्धन ददातीति षट्त्रिंशदर्तीक्रियते , जाता अष्टादश, ते गच्छेन परिपूर्णेन गुण्यन्ते, जातानि षट्शतानि त्रिंशदधिकानि। सप्रत्यास्मिन् तृतीये स्थाने कियदिना प्रथमा स्थापना, प्रथमाऽऽरोपणाच, साचस्थापनाऽऽरोपणा च कियद्भिः संचयमासै: प्रतिसेवितैनिष्पन्नेत्यादभिधित्सुराहपढमा ठवणा पंच उ, पढमा आरोवणा भवे पंच। छत्तीसा मासेहि, एसा पढमा भवे कसिणा।।२१०॥ तृतीय स्थाने प्रथमा स्थापना पञ्च पञ्चदिनप्रमाणा, प्रथमा आरोपणा भवति पञ्चपञ्चदिना / एषा स्थापना आरोपणा च निष्पन्ना षत्रिंशता मासौः प्रतिसेवितः। कथमिति चेत्? उच्यते अशीतात् शतात् पञ्च स्थापनादिवसा: पच आरोपणादिवसाः, उभयमीलेन दश शोधिता:, जातं सप्ततं शतम् 170 / एतस्य पञ्चदिनया आरोपणया भागो हियते, लब्धाश्चतुर्विंशन्मासा., एक: स्थापनायां पूर्वप्रकारेण मास:, एक आरोपणायामिति द्वौ मासौ तत्र प्रक्षिप्तौ, जाता: षट्त्रिंशत् मासाः / अथ कुतो मासात्किं गृहीतम् ? उच्यते-प्रतिसेवितमासेभ्य: षट्त्रिंशत् एकः / स्थापनामास: शोधिता, जाता: पञ्चत्रिंशत्, ते यद्येकद्विव्यादिदिना आरोपणा पञ्च दिना दशादिना वा, ततस्यैवाऽऽरोपणया संचयमासा गुण्यन्ते इति वचनादत्र पञ्चदिनाऽऽरोपणेति पञ्चभिगुण्यन्ते, जातं पञ्च सप्ततं शतम् 175 / स्थापनादिवसाश्च पञ्च तत्रैव प्रक्षिपता जातमशीतं शतमागतमेकैकस्मान्मासात् पञ्च पञ्च रात्रिन्दिवानि गृहीतानि / अत्र भाग: शुद्ध पतित दति कृत्स्नैषाऽऽरोपणा सर्वासां च कृत्स्त्राऽऽरोपणानामाद्येति प्रथमा। तथा चाऽऽह-"एसा पढमा भवे कसिणा।" पढमा ठवणा पंच उ, विइया आरोवणा भवे दस उ। एगुणवीसमासेहि, पंवहिँ राइंदिया झोसो // 211 / / तृतीय स्थाने प्रथमा स्थापना पञ्चपञ्चदिना, द्वितीया आरोपणा भवति दश दशदिना। एषा स्थापना द्वितीया चाऽऽरोपणा निष्पन्ना एकोनविंशत्या मासै: प्रतिसेवितैः / तथाहि-अशीतात् शतात् पञ्च स्थापनादिवसाः / उभयमीलने पञ्चदश शाध्यन्ते, जातं पञ्चषष्ठं शतम् 165 / अस्य दशभिर्भागो ह्रियते। तत्र परिपूर्णो भागो न पततीति पञ्चरात्रिन्दिवानि झोष: प्रक्षिप्यते। तथा चाऽऽह-"पंचहिँ राइंदिया झोसा' झोषे च प्रक्षिप्ते लब्धा: सप्तदश मासा: एकः स्थापनाया मासः, एक आरोपणाया इति द्वौ मासौतत्र प्रक्षिप्तौ। जाताएकोनविंशतिरागतमेकोनविंशत्या प्रतिसेवितैमसैिनिष्पन्नति। अथ कुतो मासात्किं गृहीतम्? उच्यते। प्रतिसवितमासेभ्य एकोनविंशतेरेकस्थापनामासा: शोधितो, जाता अष्टादश मासा: / अत्र दशदिनाऽऽरोपणेति ते दशभिर्गुण्यन्ते, जातमशीतं शतं, पञ्चवासरा झोष इति पञ्च ततोऽपसारिता जातं पञ्चसप्ततं शतम् / तत्र स्थापनादिवसा: पञ्च प्रक्षिप्ता:, जातमशीतं शतम् / आगतं स्थापनीकृतान्मासात्पञ्चरात्रिन्दिवानि गृहीतानि / पञ्चझोषीकृत्य झोषेभ्यो दश दशरात्रिन्दिवानीति। पढमा ठवणा पंच उ, तइया आरोवणा भवे पक्खो। तेरसहिं मासेहि, पंच य राइंदिया झोसो॥२१२।। तृतीये स्थाने प्रथमा स्थापना पञ्चपञ्चदिना, तृतीया चाऽऽरोपणा भवति पज्ञ: पक्षप्रमाणा, एषा प्रथमा स्थापना तृतीया चाऽऽरोपणा त्रयोदशभिः प्रतिसेवितैर्मासैनिष्पन्ना। तथाहि-अशीतात् दिवसशतात् पञ्चस्थापना दिवसा:, पञ्चदश आरोपणा दिवसा:। उभयमीलने विंशति: शोध्यन्ते, जातं षष्टि शतम् 160 / तस्याधिकृतया पञ्चदिनया आरोपणाया भागो हियते, तत्र सिद्धो भागो न पततीति पञ्च झोष: प्रक्षिप्यते। तथा चाऽऽह"पंच उराइदिया झोसो।" झोषे च प्रक्षिप्ते लब्धा एकादश एकस्थापनाया मास एक आरोपणाया इति द्वौ मासौ तत्र प्रक्षिप्तावागतं त्रयोदशभिर्मासै: प्रतिसेवितैर्निष्पन्ना। अथ कुतो मासात् किं गृहीतम् ? उच्यतेप्रतिसेवितमासेभ्यस्त्रयोदशभ्य एकस्थापनामासा: शेधित:, स्थिताः पश्चात् द्वादश आरोपणा एकमासनिष्पन्नेत्येकभागीक्रियन्ते, आद्यश्च भाग: पञ्चदशभिः किल गुणयितव्य इति पञ्चदशभिस्ते द्वादशापि गुण्यन्ते, जातमशीतं शतं शतं, पञ्च झोष-इति ततोऽपनीयन्ते जातं पञ्चसप्ततं शतं, तत्र पञ्चस्थापनादिवसा: प्रक्षिप्यन्ते जातमशीतं शतमागतमत्र स्थापनाकृतान्मासात्पञ्च दिवसा गृहीताः, शेषेभ्यस्तु द्वादशमा सेभ्य: पञ्चझोषीकृत्य पञ्चदश पञ्चदशेति॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त पच्छित्त 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 एवं एयागमिया, गाहाओ हुंति आणुपुर्वीए। एएण कमेण भवे, छचेव सयाई तीसाइं॥२१३॥ एवमुक्तेन प्रकारेण एतद्गमिका अनन्तरोदितगाथा आनुपूा क्रमेणान्या अपि भवन्ति ज्ञातव्या. / कियत्संख्याका:? इत्याहएतेनानन्तरोदितेन क्रमेण भवन्ति गाथानांषट्शतानि त्रिंशानि। किमुक्त भवति-पञ्चदिनस्थापनाममुञ्चता आरोपणाया च यथोत्तरं पञ्च पञ्च प्रक्षिपता / तावद् गन्तव्यं यावत्पञ्चत्रिंशन्माना पश्चसप्तशतदिना आरोपणा / पुनर्दशदिनां स्थापना कृत्वा यथोक्तप्रकारेण तावन्नेयं यावश्चतुस्त्रिंशत्तमा सप्ततदिनशता आरोपणा। एवं स्थापनासु पञ्च पञ्च प्रक्षिपता आरोपणास्वेकैक-मुपिरतनं स्थानं हापयता तावन्नेयं यावत् गााथानां षट्शतानि त्रिंशदधिकानि भवन्ति। तृतीय स्थापनसऽऽरोपणा स्थान - समाप्तम्। संप्रति चतुर्थ स्थापनाऽऽरोपणास्थानं प्रतिपिपादयिषुरिदमाहअउणासीयं ठवणा-ण सयं आरोवणा वि तह चेव। सोलस चेव सहस्सा, दसुत्तर सयं च संवेहो॥२१४॥ चतुर्थ स्थाने एकोनाशीत स्थापनापदानां शतं भवति, आरोपणाया अपि तथैव ज्ञातव्यम् / किमुक्तं भवति ?-आरोपणानामपि पदानां शतमेकोनाशीतं भवतीति / एतच प्रागेव भावितम्। संप्रति संवेधपरिमाणमाह-स्थापनानामारोपणाभिः सह संवेधे संयोगा: षोड्शसहस्त्राणि दशोत्तरं शतम् 16110 भवतीति। एवंसंख्याकाश्च संवेधा: 'गच्छुत्तरसंविग्गे' इत्यादि-करणवशादानेतव्याः। गच्छश्चात्र एकोनाशीतं शतम्। तथाहि-अशीतात् शतात्प्रथमस्थापनादिवस एकः, प्रथमाऽऽरोपणादिवस एक इत्युभयमीलने द्वौ शोधितौ, जातमष्टसप्ततं शतम् / तस्य' 'चरमा देसभागेको'' इति वचनादेकेन भागो हियते, लब्धमष्ट - सप्तमेव शतम्। तत्र पूर्व रूपं प्रक्षिप्त, जातमेकोनाशीत शतम्। उत्तरमेक आदिरप्येकः, तत्र गच्छ एकोनाशीतशतलक्षण उत्तरेणैकेन गुण्यते, जीतं तदेव एकोनाशीतं शतम्, तत एकेन हीनं क्रियते, जातमष्टसप्ततं शतं, तत्राऽऽदिममेकं प्रक्षिपेत्, भूयस्तदेवा भूदेकोनाशीतं शतम्, एतदन्तिमधनम्, एतत् आदिना एकेन युतं क्रियते, जातमशीतं शतं गच्छराशिरत्र विषम इत्यस्यैवाशीतस्य शतस्यार्द्ध क्रियते, जाता नवतिः, सा गच्छेन परिपूर्णेन एकोनाशीतशतप्रमाणेन गुण्यते, आगतंषोड्शसहस्त्राणि, शतं दशोत्तरमिति। तथास्मिन चतुर्थे स्थाने कतिदिना प्रथमा स्थापना, कतिदिना च प्रथमाऽऽरोपणा, कतिभिश्व सा प्रथमा स्थापना, आरोपणा च प्रतिसेवितैमासनिष्पनेत्यत आहपढमा ठवणा एको, पढमा आरोवणा भवे एको। आसोया माससया, एसा पढमा भवे कसिणा।।२१।। चतुर्थे स्थाने प्रथमा स्थापना एको दिवस:, एकदिनप्रमाणा इत्यर्थः / प्रथमा आरोपणा भवत्येकएकदिना। एषा स्थापना आरोपणा च अशीतात शतादशीत्यधिकात् मासशताम् निष्पन्ना। तथाहि-शीतात् शतात् एक स्थापनादिवसः, एक आरोपणादिवस इति द्वौ शोधितौ, जातमष्टसप्ततं शतं, तस्य एकदिनप्रमाणयाऽऽरोपणया भागो ह्रियते, लब्धमष्टसप्ततमेव शतम् / एक: स्थापनामास एक आरोपणामास इति द्वौ तत्र प्रज्ञिप्ती, लब्धमशीतं मासशतम् / अथ कुतो मासारिक गृहीतम् ? एच्यते एकैकस्मान्मासादेकैको दिवसः / अत्र भागः शुद्धः पतित इति कृत्स्नाऽऽरोपणा 1 असावन्यासां कृत्स्नाऽऽरोपणानामाद्येति प्रथमा / तथा चाऽऽह-"एसा पढमा भवे कसिणा।" पढमा ठवणा एक्को, विझ्या आरोवणा भवे दोन्नि। एगनउयमासेहिं, एगो उतहिं भवे झोसो // 216|| चतुर्थे स्थाने प्रथमा स्थापना एक एकवासरा, द्वितीया आरोपणा भवति द्विदिने द्विदिनप्रमाणा / एषा स्थापना आरोपणा च निष्पन्ना एकनवतिमासैः / तथाहि-अशीतात् एकस्थापनादिवसो द्वावारोपणादिवसाः,उभयमीलने त्रय: शोध्यन्ते, जाता: पश्चान्नवतिमासा द्विदिना आरोपणेति द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातमशीतं शतम्, एको झोष इति स तत शोध्यते, ततोऽभवदेकोनाशीतं शतम् / तत्र स्थपनादिवस एकस्ता प्रक्षिप्तो, जातमशीतं शतम्। आगतमेकस्मात् स्थापनीकृतात् मासात् एको दिवसो गृहीतः, शेषेभ्य एकं झोषीकृत्य द्वौ द्वौ दिवसाविति। पढमा ठवणा एक्को, तइया आरोवणा भवे तिन्नि। एगट्ठी मासेहिं, एगो उ तहिं भवे झोसो।।२१७|| चतुर्थे स्थाने प्रथमा स्थापना एक: एकदिना, तृतीया आरोपणा त्रीणि दिनानि / एषा स्थापना आरोपणा च निष्पन्ना एकपष्टीमासैः। तथाअशीतात् दिवसशतात् एकः स्थापनाया दिवसस्त्रय आरोपणाया.. उभयमीलने चत्वार: शोध्यन्ते, जातं षट्सप्ततं शतम् 176 / तस्य त्रिभिर्भागो ह्रियते, आरोपणायास्त्रिदिननिष्पन्न-त्वात् / तत्र भाग शुष्ट नपततीत्येको झोष: प्रक्षिप्यते, जातं सप्तसप्ततं शतम् 177 (?) हृते लब्धा एकोनषष्टिमौसा: एक स्थापनाया एकस्त्वारोपणाया इति मासौ तत्र प्रक्षिप्तौ, आगतमेकषष्टिभिर्मासै: प्रतिसेवितनिष्नन्ना / अ कुतो मासात्किं गृहीतम् ? उच्यते-संचयगासेभ्य एकषष्टिसंख्याकेभ्य एक: स्थापनामास: शोध्यते, जाता षष्टित्रिदिना अधिकृता आरोगणेरि ते त्रिभिर्गुण्यन्ते, जातशीतं शतमेको झोष इति / एकस्ततोऽपनीतः, जातमेकोनाशीतं शतमेक: स्थापनादिवस:, तत्र प्रक्षिप्तो जातमशीत शतमागतमेकस्मात् स्थापनीकृतान्मासात् एकदिनं गृहीत, शेषेक षष्टिमासेभ्य एक दिनं झोषीकृत्य त्रीणि त्रीणि दिनानीति। एवं खलु गमियाणं, गााहाणं हुंति सोलससहस्ता। सयमेगं दससहियं, नेयव्वं आणुपुष्पीए।।२१८|| एवमुक्तेन प्रकारेण गमिकानामुक्तरूपगमोपेतानां गाथानामानुष क्रमेण खलु निश्चितं भवति ज्ञातव्यानि षोडशसहस्वाणि, शतमेतं दशाधिकमिति। एतदुक्तंभवति-एकदिनां स्थापनाममुञ्चता आरोपण यथोत्तरमे कै कमारोपयता तावन्ने यं यावदेकोनाशीतदिनशान चरमाऽऽरोपणा, द्विदिनाऽऽ दिष्वपि स्थापनास्येकाऽऽदिकाऽऽरोपर तावद् शेषा यावत्स्वरवचरमा आरोपणा / एवं षोडश सहस्त्राणि गावात शतमेकं च दशोत्तरं पूरणीयमिति। एतासु च स्थापनाऽऽरोपणासु गासकरणं कुर्वता एकाऽऽदिषु चतुर्दिनपर्यन्तासु पाभिर्भ गगदद Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त नासु पञ्चदिनाऽऽदिषु नवदिनपर्यन्ता शुद्ध्यति,रूपद्विकेदशदिनाऽऽदिषु चर्तुदशदिनपर्यन्तासु रूपद्विकशुद्धौ जायमानेशून्ये मास एको ग्रहीतव्यः / एवं पञ्चदशदिनाऽऽदिष्वप्येकोनविंशति दिनपर्यन्तासु एकोनविंशतिदिनाऽऽदिषु चतुर्विशतिदिनपर्यन्ताशुद्धौ मासौ। एवं सर्वत्र यावत्पञ्चकन परिपूर्णले तावत् पूर्वसंख्याकान् मासान् दद्ता पञ्चके तु पूर्ण रूपमधिक प्रक्षिपता भावनीयम् / तदेवमुक्तं स्थापनासंचसद्वारम्। अधुना राशिद्वारमाहअसमाहिट्ठाणा खलु, सवला य परीसहा य मोहे ति। पलिओवमसागरोवम-परमाणु ततो असंखाजा।।२१।। एष प्राथमित्तराशि: कुत:? उच्यते-यानि खल्वसमाधिस्थानानि विंशति, खलुशब्द: संभावने / स चैतत्संभावयतिअसंख्यातानि देशकालपुरुषभेदतोऽसमाधिस्थानानि / एवमेकविंशतिः शवलानि, द्वाविंशति: परीषहा, तथा मोहे मोहनीये कर्मणि ये अष्टाविंशतिर्भेदाः / अथवा-मोहविषयाणि त्रिंशत्स्थानानि, एतेभ्योऽसंयमस्थानेभ्य एष प्रायश्चित्त राशिरुत्पद्यते / भूयः शिष्यः पृच्छति-कियन्ति खलु तान्यसंयभस्थानानि ? उच्यते-(पलितोवमेत्यादि) पल्योपमेसगरोपमे च यावन्ति बालाग्राणि तावन्ति न भवन्ति, किं तु व्यावहीरिकपरमाणुमात्राणि यानि बालाग्राणां खण्डानि तेभ्योऽसंख्येयानि / इयमत्र भावनायावन्ति खलु पल्योपमे बालाग्राणि तावन्त्यसंयमस्थानानि भवन्ति / नायमर्थः समर्थः / यावन्ति सागरोपमे बालाग्राणि तावन्ति। यद्येवं तर्हि सागरोपमेयानि बालाग्राणि प्रत्येकासंख्येयखण्डानि क्रियन्ते, तानि च खण्डानि सांव्यवहारिकपरमाणुमात्राणि तावन्ति भवन्ति / नायमप्यर्थ: / कियन्ति पुनस्तानि भवन्ति ? उच्यतेतेभ्योऽप्यसख्येयगुणानि / अन्ये तु ब्रुवते-परमाणुमात्रा णि खण्डानि सूक्ष्मपरमाणुमात्राणि द्वष्टटयानि / तदसम्यक् / सूक्ष्मपरमाणवो हि तत्रानन्ता:, असंयमस्थानानि चोर्कषतोऽप्य संख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि / इति गतं राशिद्वारम्। अथ मानद्वारमाहवारस अट्ठ य छक्कग, माणं भणियं जिणेहिँ सोहिकरं। तेण परं जे मासा, संहण्णंता परिसडंति // 220 // मीयते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति मानम् / तद् द्विधा-द्रव्ये, भावे च तत्र द्रव्येषु प्रशस्काऽऽदिषु, भावतः पुनरिदं मानं प्रायश्चित्त मानं जिनैस्तीर्थकृद्भिस्त्रिविध शोधिकरं भणितम् / तद्यथा-प्रथमतीर्थकरस्य द्वादश मासा मध्यमतीर्थकृतामष्टौ मासा:, वर्द्धमानस्वामिन: षट्कं षण्मासा:। इतोऽधिक न दीयते, किन्तु बहुष्वपि प्रतिसेवितेषु मासेष्वेतावन्मात्रमेव / अत्र प्रस्थकदृष्टान्तो यथा-प्रस्थकेन मीयमानं धान्यं तावन्मीयते यावत् . प्रस्थकस्य शिखा परिपूणी भवति, ततः परमधिकमारोह्यमानमपि परिपतति / एव षण्णां मासानामधिकं यद्यपि प्रतिसेवितं तथापि तत् स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण संहन्यमानं परिशटति। तथाचाऽऽह-(तेणपरमित्यादि)तत उक्तरूपात् परमित्यव्ययम्, परे ये मासास्ते स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण संहन्यमाना: संघात्यामाना: पारशटन्ति। तावन्मात्रेणापि च प्रायश्चित्तप्रतिपत्तार : शुद्ध्यन्ति, शुद्धस्वभावत्वात् भगवतां तीर्थकृतामाझेषा सम्यगनुष्ठेया इति। संप्रति प्रभुद्वारमाह केवलमणपज्जवना-णिणो य तत्तोय ओहिनाणजिणा। चोदृसदसनवपुथ्वी, कप्पधार पकप्पधारी य॥२२१।। (केवलमणपज्जवनाणिणो त्ति) ज्ञानशब्द: प्रत्येकमभिसंबध्यते, केवलज्ञानिनो मन:पर्यायज्ञानिनश्च, ततस्तदनन्तरमवधिज्ञानेन जिना अवधिज्ञानजिना: / जिनशब्दो विशुद्धावधिप्रदर्शकः, विश्रुद्धावधिज्ञाना इत्यर्थः / ततश्चतर्दशपूर्विणो, दशपूर्विणो नवपूर्विणश्च / इहाऽसतां नवपूर्विण: न परिपूर्णनवपूर्वधरा:, किं नवमस्य पूर्वस्य यत् तृतीयमा - चारनामकं वस्तु तावन्मात्रधारिणोऽपि नवपूर्विण: / तथा कल्पधरा: कल्पव्यवहारधारिणः, प्रकल्पो निशीथाध्ययनं, तद्धारिणः / चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। ___ तदेवानुक्तं चशब्देन सूचितं दर्शयतिघेप्पति चसद्देणं, निजुत्तीसुत्तपेदियधराय। आणाधारण जीते, य होंति पहुणो उ पच्छित्ते // 222 / / चशब्देन गृह्यन्ते नियुक्तिसूत्रपीठिकाधराः / तत्र निर्युक्तयो भद्रबाहुस्वामिकृताः, सूत्रपीठिका निशीथकल्पव्यवहारप्रथमपीठिकागाथारूपाः / तथा आज्ञायां धारणे जीते च ये व्यवहारिण:-आज्ञाव्यवहारिणो, धारणाव्यवहारिणो, जीतव्यवहारिणश्च / एते प्रायश्चित्तदाने प्रभवः। तदेवं गतं प्रभुद्वारम्। इदानीं कियन्ति सिद्धानि प्रायश्चित्तस्थानानीति द्वारावसरः। तत्र शिष्यः पृच्छति-कियन्ति खलु प्रायश्चित्तनि ?आचार्य आहअर्थतो ऽपरिमितानि सूत्रत: पुनरिदं परिमाणम् - अणुधाइयमासाणं, दो चेव सया हवंति वावण्णा। तिन्नि सया बत्तीसा, हुंति अ उगघाइयाणं पि॥२२३।। पंचसया चुलसीया, सव्वेसिंमासियाण बोधवा। तेण परं वुच्छामी, चाउम्मासाण संखेवं / / 22 / / अनुद्धातिता नाम गुरवः, उद्धातिता लघव: / निशीथनाम्नि अध्ययने प्रथमोद्देशके अनुद्धातिता गुरवो मासा अभिहिता:, तेषामैकत्र संक्षिप्तानां द्वे शते द्वापञ्चाशदधिके भवत: / द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमोद्देशकेषु उद्धातिता मासा उक्ता:,तेषामुद्धातितानां मासानामेकत्र संक्षिप्तानां त्रीणि शतानि द्वात्रिंशानि भवन्ति / एतेषां सर्वेषामप्युद्धातितमासानामनुद्धातितमासानां चैकत्र मीलने मासिकानां प्रायश्चित्तनां योद्धवयानि पञ्चशतानि चतुरशतानि 584 / (तेण परमित्यादि) अत: परं चातुर्मासिकानां संक्षेपं वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिछच्च सया चोयाला, चाउम्मासाण होंतिऽणग्याया। सत्तसया चउवीसा, चाउम्मासाण उग्धाया॥२२॥ तेरससय अठसठ्ठा, चाउम्मासाण होंति सव्वेसिं। तेण परं वुच्छामी, सव्वसमासेण संखेवं / / 226 // षष्ठसप्तमाष्टमनवमदशमैकादशोद्देशकेषु अनुद्धातितानि चातुर्मासिकान्युक्तानि। एतेषामेकत्र संक्षिप्तानां भवन्ति षट्शतानिष्वारिंशानि६४४। गाथाय 'होतिऽणुग्धाया।' इत्यत्र षष्ठयर्थे प्रथमा, प्राकृतत्वात् / एवमुत्तराद्धेऽपि द्वादशचतुर्दशपञ्चदशषोडशसप्तदशशाष्टादशैकोनविंशतितमेष्ट्वष्टसूद्देशकेषु उद्धातिताश्चतुर्मासिका उक्ताः, तेषामेकत्र संक्षिप्तानां सप्तशतानानि चतुर्विंशति: 724 / उद्घातिनामनुद्धातितानां च सर्वेषां चतुर्मासानामेकत्र मीलितानां भवन्ति त्रयोदश शतानि अ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त अष्टषष्टानि 1368 / ( तेण परमित्यादि ) तत: परं सर्वेषां मासिकसनां चातुर्मासिकानां च य: समासो मीलनं तेन संक्षेपं सर्वसंख्यासंग्रह वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनव य सया य सहस्सं, ठाणाणं पडिवत्तिओ होति। वावण्णा ठाणाई,सत्तहिँ आरोवणा कसिणा / / 227 / / स्थानानां मासाऽऽदिप्रायाश्चितस्थानानां प्रत्तिपत्तयः प्रतिपादनानि सहस्त्र नव च शतानि द्वापञ्चा शच स्थानानि 1952 भवन्ति / तथाहिसर्वाणि प्रागुक्तानि मासाऽऽदिप्रायश्चित्तस्थानान्येकत्र मीलितीन्येतावन्तीति / सप्तभिः पुनरारोपणा कृत्स्ना / अथ कोऽस्य सूत्रस्याभिसंबन्धः? उच्यते-नन्वेष एव संबन्धः-कियन्ति प्रायश्चित्तानि सिद्धानि कियत्यश्चाऽऽरोपणा जघन्या, जघन्योत्कृष्टा, तथा कृत्स्ना अकृत्स्नाश्च सिद्धाः। तत्र प्रथम स्थापनाऽऽरोपणे स्थाने एका जघन्या, त्रिंशत् उत्कृष्टाः / एकैकस्यां स्थापनायामारोपणाभिः सह संवेधे एकैकस्या उत्कृष्टाया लभ्यमानचत्वारिशतानि चतस्त्रिशदधिकानि 434 / द्वितीये स्थापनाऽऽरोपणास्थाने एका जघन्या, त्रयस्त्रिंशत्, उत्कृष्टा अजघत्योत्कृष्टानां पञ्चशतानि सप्तविंशति 5271 तृतीये स्थापनाऽऽरोपणास्थाने एका जघन्या, पञ्चत्रिंशत् उत्कृष्टा, अजघन्योत्कृष्टानां पञ्चशतानि चतुर्णवतानि 465 / चतुर्थे स्थापनाऽऽरोपणास्थाने एका जघन्या एकोनाशीतं शतमुत्कृष्टानां पञ्चदशसहस्त्राणि नवशतानि त्रिंशानि 15630 अजघन्योत्कृष्टानां तथा प्रथमे स्थापनाऽऽरोपणास्थाने सप्ततिरारोपणा: कृत्स्नाः , भागहारिण्य इत्यर्थः / झोषविरहिता इति यावत्। ताश्चेमा:सवें सि ठाणाणं, उक्कोसाऽऽरोवणा भवे कसिणा। मेसा चत्त कसिणा, ता खलु नियमा अणुक्कोसा // 228| प्रथमे सथापनाऽऽरोपणास्थाने त्रिंशत् स्थापनास्थानानि, तेषां च सर्वेषामपि स्थानानामन्तिमाऽऽरोपणा उत्कृष्टा भति।ताश्च सर्वसंख्यया त्रिंशत्। एताश्च नियमतो झोषविरहिता इति कृत्स्नाः , शेषाश्चोत्कृष्टाऽऽरोपणाव्यतिरिक्तानामारोपणानां मध्ये झोषविरहिततया कृत्स्नाऽऽरोपणाश्चत्वारिंशत् / ताश्च खलु नियमान्नियमेन अनुत्कृष्ठाः, जघन्या मध्यमा वा इत्यर्थः / एता उत्कृष्टाः, ता मीलिता जाता सप्ततिः। अथ कास्ता अनुत्कृष्टाश्चत्वारिंशत् कृत्स्ना:? इत्यत आहवीसाए ऊवीसा, चत्त असीया य तिण्णि कसिणाओ। तीसाएँ पक्ख पणवी-स तीस पण्णा य पणसयरी।।२२६॥ | चत्तएँ वीस पणती-स सत्तरा चेव तिण्णि कसिणाओ। पणयालाए पक्खो, पणयाला चेव दो कसिणा / / 230|| पणाए पण्णट्ठी, पणपण्णाए य पण्णवीसा य। सट्ठिठवणाएँ पक्खो, वीसा तीसा य चत्ता य॥२३१।। सयरीए पण्पण्णा, तत्तो पण्णत्तरीऍपक्ख पणतीसा। असतीए ठवणाए, वीसा पणुवीस पण्णासा।।२३२।। नउईऍ पक्ख तीसा, पणयाला चेव तिण्णि कसिणाओ। सतियाएँ वीस चत्ता, पंचुत्तरि पक्ख वीसा उ॥२३३|| दस्सुत्तरसइयाए, पणतीसा वीसउत्तरे पक्खो। वीसा तीसा यतही, कसिणाओ तिण्णि वीए य॥२३४॥ तीसूत्तरि पणवीसा, पणतीसे पक्खिया भवे कसिणा। चत्तलीसा, वीसा, पण्णासं पक्खिया कसिणा॥२३५।। विशिकायां विंशतिदिनायां स्थापनायां विंशतिर्विशतिदिना। एवं चत्वारिंशदिना, अशीतिदिना च / एतास्तिस्रोऽप्यारोपणा: कृत्स्नाः / तथा त्रिंशति त्रिंशद्दिनायां स्थापनायामिमा: पञ्चाऽऽरोपणाः कृत्स्नाः / तद्यथा-पक्ष: पञ्चविंशतिस्त्रिशत्पञ्चाशत्पशसप्ततिश्च 5 / तथा चत्वारिशति स्थापनाशमिमास्तिस्त्र आरोपणा: कृत्सनाः / तद्यथा-विंशतिदिना, पञ्चशिदिना, सप्ततिदिना च। तथा पञ्चचत्वारिंशति स्थापनायाभिमे द्वे कृत्स्ने आरोपणे / तद्यथा-पक्ष: पक्षप्रमाणा, पञ्चचत्वारिंशच पञ्चचत्वारिंशदिना च / पञ्चाशदिनायां स्थापनायामेका पञ्चषष्टिदिना कृत्स्ना आरोपणा। पञ्चपञ्चाशदिनायामप्येका पञ्चविंशति: 11 षष्टिदिनायां स्थापनायामारोपणा: कृत्स्ना: चतस्रः। तद्यथा-पक्षो विंशतिस्त्रिंशत् चत्वारिंशत् / सप्ततिदिनायां स्थापनायामेका पञ्चपञ्चाशद्दिना कृत्स्नाऽऽरोपणा 55 / पञ्चसप्ततिदिनायां स्थापनायां वे कृत्सने आरोपणेपाक्षिकी, पञ्चविंशद्दिना च 2 / शीतिदिनायां स्थापनायां तिरन कृत्स्ना आरोपणाः। तद्यथा-विंशतिः, पञ्चविंशतिः पञ्चाशदिना। नवतिदिनायां स्थापनायामिमास्तिस्रः कृत्स्ना आरोपणा:-पक्षस्त्रिशत्पञ्चचत्वारिंशच / शतिकायां स्थापनायां द्वे कृत्स्ने आरोपणेपञ्चविंशतिदिना, चत्वारिंशद्दिना च 2 / पञ्चोत्तरशतिकायां पुन: स्थापनायामिमे द्वे कृत्स्ने आरोपणेपाक्षिकी, पञ्चविंशतिदिनाच 2 / दशोत्तरशनिकसयां स्थापनायामेका पञ्चत्रिंशत्कृत्स्नाऽऽरोपणा 1 / विंशत्युत्तरशतिकायां स्थापनायामेतास्तिस्त्र: कृत्स्ना आरोपणाः। तद्यथा-पाक्षिकी, विंशतिदिना, त्रिंशदिना च / त्रिंशदुत्तरशतिकायां स्थापनायामेक पञ्वविंशतिदिना कृत्स्नाऽऽरोपणा 1 / पञ् चत्रिंशदुत्तरशतिकायां स्थापनायामेका पाक्षिक्यारोपणा कृत्स्ना 1 / चत्वारिंशदुत्तरशतिकायां स्थापनायां पुनरियमेका कृत्स्ना आरोपणा विंशतिदिना 1 / पञ्चाशदुत्तरशतिकायां स्थापनायामेका पाक्षिक्यारोपणा कृत्स्ना / एवमेताश्चत्वारिंशत् त्रिंशदुत्कृष्टाः, सर्वमिलिती: सप्ततिः कृत्स्ना आरोपणाः। शेष पञ्चनवतित्रिंशत्संख्या अकृत्स्नाऽऽरोपणा: / एवं शेषेष्वपि स्थापनाऽऽरोपणास्थानेषु कृत्स्नऽकृत्स्नाऽऽरोपणानां परिमाणमुपयुज्य परिभावनीयमिति। अत परमेतासां सर्वासामपि स्थापनाऽऽरोपणानां स्वरूपं येन लक्ष्यते तद्विभणिषुरिदमाहसव्वासिं ठवणाणं, एत्तो सामन्नलक्खणं वुच्छं। मासग्गे झोसग्गे, हीणाहीणे य गहणे य / / 236 / / चतुर्ध्वपि स्थापनाऽऽरोपणास्थानेषु या: स्थापना आरोपणाश्चान्योन्यानुवेधतो भवन्ति, तासां सर्वासामपि स्थापनानामारोपणानां च इत उर्द्ध सामान्येन सकलव्यापितया लक्षणलक्ष्यते येन तासां स्वरूपं तल्लक्षणमुक्तानुक्तस्वरूपं वक्ष्ये। केत्याह- मासाग्रे प्रतिसेवितसंचयमासानां परिमाणे, तथा प्रतिसेवितमासाऽऽनयननिमित्तमेवाऽऽरोपणादिवसैर्भागे ह्रियमारो कियति प्रक्षेपे शुद्धं भागं दास्यतीति / एवं झोषाग्रे झोषपरिमाणे लक्षणं वक्तच्यम्। तथा हीनाहीने च ग्रहणे च / हीन Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त ग्रहण नाम विषमग्रहणम्, अहीनग्रहणं समग्रहणम् / एतच यथा संचयमासेभ्यो भवति तथा लक्षणं वक्तव्यम्। तत्र मासपरिमाणविषय लक्षणमभिधित्सुरिदं पूर्वोक्तमेव तावदाहजइहिं भये आरुवणा, ततिभागं तं करे तिपंचगुणं / सेसं पंचहिँ गुणए, ठवणदिणजुया उछम्मासा / / 237 / / इथमर्थत: प्रागेव व्याख्याता, परमन्यथा कियान् शब्दसंदर्भ इति भूयोऽपि व्याख्यायते-संचयमासेभ्यः स्थापनामासेषु शुद्धेषु यच्छषमवतिष्ठते तत् (जइ त्ति) यति मासा भवत्यारोपणा / किमुक्त | भवति?-यतिनिर्सिनिष्पन्ना आरोपणा ततिभागं तावत्संख्याकं भागं करोति, कृत्वा चाऽऽघ (त्रिपञ्चगुणमिति) त्रिपञ्चगुणं पञ्चदशगुणं करोति। शेष समस्तमनेकभागाऽऽत्मकमपि संपिण्ड्य पञ्चभिर्गुणयेत् / ततः स्थापनादिनयुतः षण्मासा भवन्ति। एतत्कने पञ्चदशाऽऽदिव्वारोपणासु कतन्यम् एकाऽऽदिषु चतुर्दशदिनपर्यन्तासु पुनरारोपणासु यावन्त्यारोपणादिनानि तावद्भिर्गुणयितव्यम् / एवं संचयमासाना मध्ये यावतो मासात् यत् गृहीतं तहिनप्रमाणामिधानतो मासपरिमाणविषयलक्षणमभिहितम्। संप्रत्येतदेव पंकारान्तरेणाभिधित्सुराहजतिमि भवे आरुवणा, ततिभागं तस्य पन्नरसहिं गुणए। ठवणाऽऽरोवणसहिया,छम्मासा होंति नायव्वा / / 238||* ये सचयमासास्ते पूर्वं स्थापनाऽऽरोपणामासविशुद्धा: कर्तव्याः। ततो जइभि ति) यतितमा प्रथमा द्वितीया तृतीया इत्यादि आरोपणा, ततिभागस्थास्ते कर्त्तव्याः। तत्र यद्येकभागस्थास्तत: सर्वानपि पञ्चदशभिर्गुणयति, गुणने च कृते स्थापनारोपणाऽऽदिवससहिता: झोषविशुदास्ते षण्मासा भवन्ति। अथानेकभागस्था: तर्हि तस्य अनेकस्य भागस्य आद्यं नाग पञ्चदशभिर्गुणयेत् / शेषान् समस्तानपि, पञ्चगुणानिति वाक्यशेषः। तत: स्थापनाऽऽरोपणादिवससहिता: षण्मासा ज्ञातव्या भवन्ति। तद्यथा-विंशतिदिनायां स्थापनायां पञ्चदशदिनायां चाऽऽरोपणाया त्रयोदश संचयमासाः, तेभ्य एक आरोपणामासो, द्वौ स्थापना-मासौ / उभयमीलने त्रयो मासा: शोधिता जाता दश मासाः / इयमारोपणा प्रथम स्थाने प्रथमेति ते दश मासा एकभागस्था: क्रियन्ते, कृत्वा पञ्चदशाभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चांश शतम् 150 / अत्र झोषपञ्चक इति पर ततो विशोधिता जातं पञ्चचत्वारिंशं शतम् 145 // तत्र स्थापनादिवसा विंशतिः, आरोपणादिवसा: पञ्चदशेति मीलिता: पञ्चत्रिंशत् ते प्रक्षिप्यन्ते, जातमशीत शतमिति / तथा विंशतिदिनाया स्थापनायां पशविंशतिदिनायां च आरोपणायां त्रयोविंशतिः सञ्चयमासा:, तेभ्यो द्वौ स्थापनामासौ, त्रय आरोपणामासा , उभयमीलने पञ्च मासा, शोधिता जाता अष्टादश / इयमारोपणा प्रथम स्थाने तृतीयेति विभागस्था क्रियते, जाता एकैकस्मिन् भागे षट् षट् / तत्राऽऽद्यो भाग: पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाता नवतिः / अत्र पक्षो झोष इति तेभ्यः पञ्चदश शोधिता जाता पञ्चसप्तति: 75 // शेषौ द्वावपि भागौ चैकत्र मीलितौ, जाता द्वादश, ते पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जाता षष्टिः, ते पुर्वराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातं * इयं गाथा मूले न दृश्यते। पशवत्रिंशतम् / तत्र स्थापनादिवसा: विंशतिररोपणादिवसा पञ्चविंशतिः। उभयमीलने पञ्चचत्वारिंशत् प्रक्षिप्ता, जातमशीतं शतम्। एवमन्यन्नापि भावनीयम् / नवरमेतत्कर्म क्वचिदेव प्रतिनियतेषु पदेषु कर्तव्यं, नावश्यं सर्वत्रति। संप्रति गुणकारवशेन यथा कृत्स्नाऽऽरोपणा परिज्ञानं भवति, तथा प्रतिपादयतिजेण उ पएण गुणिया, हि ऊगं सो ण होति गुणकारो। तस्सुवरि जेण गुणे, होति समं सो उ गुणकारो॥२३६।। (जेण उपएण गुणिया हि) विंशतिकाया स्थापनायां पाक्षिका आरोपणा दशभिर्गुणिता, जातं पञ्चाशं शतम् 150 / तत्र स्थापनादिवसा विंशति. प्रक्षिप्ता जातं सप्ततं शम् 170 // तदेवं दशभिर्गुणने ऊना: षण्मासा:, एकादशभिर्गुणने अधिका इति पाक्षिक्या-मारोपणायां समकरणं प्रतीत्यैतद्दशाऽऽदिको गुणकार इतीयमकृत्स्नाऽऽरोपणेति प्रतिपत्तव्यम्। (तस्सुवरि इत्यादि) तस्याधिकृतस्य विंशिकाऽऽदिरूपस्य पदस्योपरि त्रिंशत्प्रभृतिके स्थापनापदे येन गुणकारेण दशाऽऽदिलक्षणेन गुणेन षण्मास-दिवसपरिमाणं समं भवति स तत्र गुणकारः, तेन गुणकारेण सा आरोपणा तस्मिन् स्थापनापदे कृत्स्नेत्यवगन्तव्या। यथा पाक्षिक्येवाऽ-- ऽरोपणा त्रिंशत्स्थापनायाम् / तथाहि-पञ्चदशदिनाऽऽरोपणा दशभिर्गुणिता जातं पञ्चाशं शतं, त्रिंशत्स्थापनादिवसा: प्रक्षिप्ता जातमशीतं शतम् / एवं पञ्चचत्वारिंशदिने स्थापनापदे नवभिः षष्टिदिनेऽष्टाभिः, पञ्चसप्ततिदिने सप्तभिः, नवतिदिने षभिः , पञ्चोत्तरशतदिने पञ्चभिः, विंशत्युत्तरशतदिने चतुर्भि:, पञ्चत्रिंशदुत्तरशतदिने त्रिभिः, पञ्चाशशतदिने द्वाभ्यां, षष्टिशतदिने एकेन समं षण्मासदिवसपरिमाणं भवतीति पञ्चचत्वारिंशदादिषु स्थापनापदेषु पाक्षिक्यारोपणा कृत्स्ना प्रतिपतवया। तथा विशिकायामारोपणायां विंशतिदिने स्थापनापदेऽष्टभिः, चत्वारिंशदिने सप्तभिः, षष्टिदिने षड्भिरशीतिदिने पञ्चभिः, शतदिने चतुर्भिर्विशतिशतदिने त्रिभिश्चत्वारिशशतदिनेद्वाभ्यां, षष्टिशतदिने एकेन समं षण्मासदिवसपरिमाणं भवतीति विशिकाऽप्यारोपणा विंशिकाऽऽदिषु स्थापनापदेषु कृत्स्नेत्यक्सेया। एवं शेषा आरोपणा गुणकारैर्विचारयितव्या इति। एतदेव सुव्यक्ततरमाहजइहिं गुण आरोवण, ठवणाजुत्ता हवंति छम्मासा। तावइयाऽऽरुवणाओ, हवंति सरिसा भिलावाओ॥२४०।। यतिभिर्यावद्भिर्गुणकारैर्गुण्यते स्म गुणा गुणिता आरोपणा तदनन्तरं स्थापनायुक्ता स्थापनादिवसयुक्ता षण्मासा भवन्ति; तावत्यो गुणकारसंख्यातुल्यास्ता आरोपणा:, कृत्स्ना इतिगम्यते। प्रतिपत्तव्याः / कथंभूतास्तास्तावत्यः कृत्स्नाऽऽरोपणा इत्याह-सदृशामिलापाः, एकाभिलापा इति भावः / यथा पाक्षिकी आरोपणा त्रिंशदिनाऽऽदिषु दशाऽऽदिभिर्गुणकारैगुणिता: तदनन्तरं च स्थापनादिवसयुक्ताः षण्डमासान्पूरयतीति दश कृत्स्ना आरोपणा: सदृशामिलापा:, एवमन्या अपि तैस्तैर्गुणकारैस्ता-वत्संख्याकै स्तेषु तेषु स्थापनापदेषु गुणिताः, तदनन्तरं तत्तत्स्थापनादिवसयुक्ता: षण्मासपूरिकास्तावत्संख्याका: कृत्स्ना आरोपणा: सदृशामिलापा भावनीयाः। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त संप्रति चाऽऽलोचकमुखात् प्रतिसेवितमासागं श्रुत्वा तत् मासगं स्थापनायामारोपणायां च स्थापयित्वाऽऽरोप्य च परस्मैविविक्तमुपदर्शयेदित्युपदेशमाहठवणाऽऽरोवणमांसे, नाऊणं तो भणाहि मासग्गं / जेण समं तं कसिणं,जेणऽहियं तं च झोसग्गं // 241 / / आलोचकमुखात् प्रतिसेवितामासपरिमाणमाकर्ण्य तदनन्तरमेतावन्तो मासा: स्थापनायामेतोवन्त आरोपणायामिति ज्ञात्वा तत: सञ्चयमासागं विविक्तमालोचकाय भण प्रतिपादय। यथा-अष्टापञ्चाशत् प्रतिसेवितामासा:, आलोचकमुखादुपलब्धे / तत आचार्येण स्थापनाऽऽरोपणादक्षेण विंशिका स्थापना, पञ्चाशशतिका चाऽऽरोपणा स्थापिता, तत्र स्थापनाऽऽरोपणादिवसानामेकत्र मीलने जातं सप्ततं शतम् 170 / तत: षण्मासदिवसेभ्योऽशीतशतसंख्येभ्य: शोधितं, स्थिता: पश्चात् दश, तेषामधिकृतया पञ्चाशशतिकया आरोपणा भागो हियते, तत्र भागोन लभ्यते इतिचत्वारिंशं शतं प्रक्षिप्तम् / ततो भागे हृते लब्ध एको मासः, इयमारोपणा अष्टाविंशतिमासनिष्पन्ना अष्टा विंशतितमा चेति एकोऽष्टाविंशत्या गुणितो, जाता अष्टविंशति: 28 / तत एवमालोचकाय कथयति यथा द्वौ स्थापनामासौ, अष्टाविंशतिरारोपणामासा / एते मिलितास्विंशत, अष्टविंशतिरन्ये मासा आरोपणाया भागे हृते लब्धाः / एवं सर्वत्र संचयमासाग्रमालोचकाय विविक्तं भणनीयमिति / येन पुनरारोपणाभागहारेण भागे ह्रियमाणे झोषविरहेण समं शुद्धयति तत् कृत्स्नमारोपणं द्रष्टव्यम्। येन यावत्प्रमाणेन तु दिवसमीलनचिन्तायां षण्मासपरिमाणमधिकं भवति तच्च तावत्प्रमाणं पुनझोषाग्रं झाोषपरिमाणमवसातव्यम् / यथा विशिकायां स्थापना: पक्षिक्या आरोपणाया पञ्चेति। एतेन झोषपरिमाणलक्षणमुक्तं द्रष्टव्यम्। जत्थ उ दुरूवहीणा, न हाँति तत्थ उ हवंति साभावी। एक्काईजा चोद्दस, एक्काती सेस दुगहीणा।।२४२।। इह सर्वासां स्थापनानामारोपणानां च दिवसेभ्यो मासानामुत्पादनाय पञ्चभिर्भागो हर्तव्यः / तत्र भागे हृते यल्लब्धं तन्नियामाद् द्विरूपहीन कर्त्तव्यम् / यत्र पुनरारोपणा शुद्धिहीना लब्धमासान भवति, एकाऽऽदिषु चतुर्दिनपर्यन्तासु पञ्चभिर्भागहारस्य एवायं- भवात् / पञ्चदिनाऽऽदिषु नवदिनपर्यन्तासु पञ्चभिगि हृतेलब्धस्यापि(?) द्वयो रूपयोरसंभवात्। दशदिनाऽऽदिषु चतुर्दशदिनपर्यन्तासु शुद्धिरूपापसरणे शून्यस्य भावत्। तथा एकाऽऽदय एकदिनाऽऽदयो यावच्चतुर्दशदिनपर्यन्ता: स्थापना आरोपणाश्च स्वाभाविक्य एकस्मान्मासाद्दष्टवयसः। किमुक्तं भवति? - स्वभावेनैव, न तुमासोत्पादननिमित्तकरणप्रयोगत एकरमान्मासान्निवृत्ता प्रतिपत्तय्या इति। (सेस दुगहीण ति ) शेषा: पुन: पञ्चदशदिनाऽऽदय: स्थापना आरोपणाश्च द्विकहीना ज्ञेयाः, पक्षभिर्भागे हृते लब्धस्य द्विरूपहीनत्वाभावत् उपचास्तो द्विकहीना उक्ताः / उवरिं तु पंचभइए, जइ सेसा तत्थ केह दिवसा उ। ते सव्वे एगातो, मासातो हुंति नायव्या / / 243 / / पञ्चदशदिनाया: स्थापनाया आरोपणायाश्च उपरि षोडशदिनाऽऽदिषु स्थापनाऽऽरोपणासु पशभिभीगे हृते, उपरिभगलब्धेभ्यः शेषा ये एकद्विकाऽऽदयो दृश्यन्ते, ते सर्वे लब्धानां परणभतत्यादेकस्माद मासाद्भवन्ति ज्ञातव्याः। किमुक्तं भवति ? तेषु झोषीभूतेष्वपि स एवैको मासो गृह्यते य: पञ्चदशदिनायां लब्ध इति। एवमेकविंशतिदिनाऽऽदिष्वपि भवनीयम। संप्रति हीनाहीने ग्रहणे लक्षणं प्रतिपिपादयिषुर्यथास्थापनाऽऽरोपणामासेभ्यः शेषसंचयमासेभ्यश्च दिवसग्रहण क्रिश्ते, तथा प्रतिपादयतिहोइ समे समगहणं, तह वि य पडिसेवणा उ नाऊणं / हीणं वा अहियं वा, सव्वत्थ समं च गेण्हेज्जा / / 244|| स्थापनाऽऽरोपणानां दिवसपरिमाणे समे तुल्ये, यासु स्थापनाऽऽरोपणासु मासेभ्यो दिवसग्रहणं समं भवति तावन्तः स्थापनामासेभ्यः प्रत्येक दिवसा गृहीताः, तावन्त आरोपणामासेभ्योऽपीति भावः / शेषमासेभ्यो दिवसग्रहणं समं विषमं वा / यथा सप्तदिनायां स्थापनाया सप्तदिनायां चाऽऽरोपणायाम् तथाह्यत्र पूर्वकरणप्रयोगत: षड्विशतिसंचयमासो लब्धः, तत्र स्थापनाऽऽरोपणामासाभ्यां सप्त सप्त दिनानि गृहीतानि, ये चाऽऽरोपणया भागे हृते लब्धाश्चतुर्विंशतिमासास्तेष्येकस्मात्पञ्च दिनानि गृहीतानि, द्वयोर्दिनयोोषे पातितत्वात् / शेषेभ्यः सप्त सप्त दिनानीति / एवमन्यास्यपि स्थापनाऽऽरोपणासु तुल्ये दिवसपरिमाणे स्थापनाऽऽरोपणामासेभ्यस्तुल्यं दिवसग्रहणम्। शेषमासेभ्यस्तुल्यं विषम वा भवनीयम्। कासु चित्पुन: स्थापनाऽऽरोपणासु यद्यपि दिवसपरिमाणं समं भवति, तथापि प्रतिसेवनां ज्ञात्वा कास्यापि मासस्य कीदृशी प्रतिसेवना-उत्कृष्टरागाऽऽद्यध्यवसाया, मन्दरागाऽऽद्यध्यवसाया वा इति ज्ञात्वा तदनुरोध्त: स्थापनाऽऽरोपणासु दिवसग्रहणं कदाचिद्वीनं कदाचिदतिरिक्तं वा।। किमुक्तं भवति?-कदाचिदारोपणाया हीनं, स्थापनायामधिकम्। यथा विशिकायां स्थापनायां विंशिकायामारोपणायाम्। अत्र हि द्वाभ्यामपि स्थापनामासाभ्यां प्रत्येकं दश दिवसा गृहीता / आरोपणामासयोस्त्वेकस्मात्पञ्चदश, एकस्मात्पञ्च / अथ स्थापनाया मासयोरेकस्मात्पञ्चदश दिवसा गृहीताः, अपरस्मात्पञ्च आरोपणामासाभ्यां तुद्वाभ्यां प्रत्येक दश दशेति प्रतिसेवनाविशेषमन्तरेण तुस्थापनामासाभ्यामारोपणामासाभ्यां च प्रत्येकं दश दश दिवसा गृहान्ते इति। (सव्वत्थ समं व गेण्हेजा)कदचित्पुन: सर्वत्र स्थापनायामारोपणायाम्, तथा आरोपणया भागे हृते ये लब्धमासास्तेषु च समं दिवसग्रहण भवति / यथा प्रथम स्थाने स्थापनायां पाक्षिक्यामारोपणायां, तृती स्थाने पञ्चदिनायां स्थापनायां विंशिकायामारोपणायां, द्वितीये स्थाने पाक्षिक्यां स्थापनायां पञ्चदिनायामारोपणाया, चतुर्थे स्थाने एकदिनायां स्थापनायामेकदिनायां वाऽऽरोपणायाम्। एवमन्यास्वपि द्विव्यादिदिनासु स्थापनाऽऽरोपणासु यथयोगं भवनीयम्। विसमा आरुवणाओ, विसमं गहणं तु होइ नायव्व। सरिसे वि सेवियम्मी, जह झोसो तह खलु विसुद्धो // 24 // इह आरोपणाग हणेन स्थापनाऽपि गृहीता द्रष्ट व्या / तत्र प्रतिसेवना कुर्वता यद्यपि सर्वेऽपि मासाः सदृशापराधप्रति सवनेन प्रतिसेविताः, तथाऽपि सदृशे से वितेऽपि सदृश्यामपि प्रतिसेवनायां या: स्थापनाऽऽरोपणा: परस्परं दिवसमानेन वि Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त विषमाः, ताभ्यस्तदनुरोधेन आरोपणया भगे हृते ये लब्धमासास्तेषु जानीहि, शेषं पुनर्जानीयात् दिवसभागान् स्थापनाऽऽरोपणादिवसादिवसग्रहणं विषम भवति ज्ञातव्यं, स्थापनाऽऽरोपणादिवसानां परस्पर- स्तान स्थापनाऽऽरोपणामासैरेव भागो हर्त्तव्यः, तथापि यल्लब्ध, ते विषमत्वतस्तेष्वपि ग्रहणं विषमं भवतीति प्रतिपत्तव्यमिति भवः। एवं दिवसाः, यच्छेष, ते दिवसाभागा इति यथा प्रथम स्थाने विंशिकायां दिषमासु कृत्स्नाऽऽरोपणास्वसहित, याः पुनरारोपणा विषमा स्थापनायां चाऽऽरोपणायां पूर्वप्रकारेण त्रयोदश संचयमासा लब्धा: तेभ्य: अकृत्स्नाच, तत्र दिवसग्रहणं कुर्वता यथा झोषो विशुद्धयति, तथा खलु स्थापनामासौ द्वावेक आरोपणामासः, उभयमीलने त्रय: शोध्यन्ते, निश्चित कर्तव्य, नान्यथेति। जाता: पश्चाश / तत: स्थापनाऽऽरोपणादिवसा: पञ्चत्रिंशत्, तद्रहिता ये एवं खलु ठवणातो, आरुवणाओ विसेसतो हुति। षण्मासदिवसा. पशचत्वारिंशं शतम् 145, ते किल तदिवसा:, ताहि गुणा तावइया, नायव्वा तहेव झोसा य / / 246 / / तेभ्यस्तन्मासैस्तै: शेषीभूतैर्दशभिर्मासैदशकेनेत्यर्थ:। भागो हियते, हृते एतमुक्ताप्रकारेण स्थापनात आरोपणा विशेषतो भवन्ति-विशेषवत्यो च भागे लब्धाश्चतुर्दश, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च, आगतमेकैस्मात् मासात् भवन्ति / तथाहि-यदा स्थापनामासशुद्धा: शेषा. मासा यावन्तोऽधि चतुर्दश चतुर्दश दिवसा गृहीताः, पञ्च पञ्च दिवसस्य दश भागा / यदि वा कृताय मारोपणायां मासास्तावत्संख्याका भागा: क्रियन्ते, कृत्वा च एकस्मात् मासात् चतुर सार्धान दिवसान् गृहीत्वा शेषेषु मासेष्वर्द्धमर्द्ध प्रथमो भागः पञ्चदशगुणः क्रियते, शेषा: पञ्चगुणा:। यदि वा सर्वा प्रक्षिपेत्, तत आगतं नवभ्या मासेभ्य: प्रत्येक पञ्चदश दिवसा गृहीता अप्यारोपणादिवसगुणा मासा: क्रियन्ते, एवमारोपणया दिवसपरिमाणं एकस्माद्दश, एतत्प्रागुक्तमनुस्मारितम् / स्थापनादिवसानां विंशते लय भवति, तदा एतावद्भिः सीपनादिवस: प्रक्षिप्तै: ष्यण्मासा: पूर्यन्ते स्थापनामासाभ्यां भागो हियते, लब्धा एकैकस्मिन्मासे दश दश दिवसा., इति तदनुसारत; स्थापनादिवसा: स्थाप्यन्ते, तत आरोपणानुरोधिनी आरोपणामासस्वेक एव। तत्र पञ्चदश दिवसा लब्धाः,आगतं स्थापनास्थापनेति स्थापनात आरोपणा विशेषवती। तथा चाऽऽह-(ताहिँ गुणा मासाभ्यां दश दश दिवसा लब्धाः, आगतं स्थापनामासाभ्यां दश दश तावइया इति) ताभिरारोपणामाससंख्याभिः, आरोपणादिवससंख्या दिवसा गृहीताः / आरोपणामासात्पञ्चदश / एवं विषमदिवंसग्रहण भिर्वा आरोपणया भागे हृते ये लब्धा मासास्ते गुणा गुणिता: स्थापना सर्वत्राऽऽनेतव्यम्। यत्र पुन: स्थापना आरोपणाच नास्ति, अकृतत्वात्। अथवासंचिता मासा ज्ञायन्ते, तत्रा शीतस्य शतस्य सेवितमासैर्भाग हृते रोपणादिवसयुक्तास्तावन्त: संचयमासा आगच्छन्ति, नतु स्थापनामास यल्लभ्यते तदिवसग्रहणं प्रत्येकं मासेभ्योऽवगन्तव्यम् / उक्तं च-"जहिं संख्याभिः स्थापनादिवससंख्याभिर्वा गुणिताः, ततो विशेषवत्य नत्थि ठवण आरोवणा य नजंति सेविया मासा / सेवियमासेहि भए, स्थापनाभ्य आरोपणा इति। (नायव्वा तहेव झोसा य इति ) झोषा अपि अस्सीयं लद्धमो गहियं / / 1 / / " तथैव ज्ञातव्याः / तद्यथा-आरोपणया भगे ह्रियमाणे यावता भागो न एवं तु समासेणं, भणियं सामन्नलक्खणं वीयं / शुद्ध्यति तावत्प्रमाणा ज्ञातव्या झोषा इति। एएण लक्खणेणं, झोसेयव्वा उसव्वाओ॥२४६।। किसणाआरुवणाए, समगहणं होति तिसु य मासेसु / एवमुक्तेन प्रकारेण सामन्येनैव, तुशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमत्वादेव आरुवणाऽकसिणाए, विसमं झोसो जही सुज्झे।।२४७।। संबध्यते--सामान्य लक्षणबीजमिव बीज सकलसामान्यलक्षणावगमकृत्स्ना आरोपणा नाम या झोषविरहिता, तस्यां कृत्स्नाया आरोप प्ररोहसमर्थ किश्चिद्भणितम्, एतेनानन्तरोदितेन बीजकल्पेन लक्षणेन णायाम्, आरोपणया भागे हृते ये लब्धामासास्तेष्वेकभागः, तेष्विति सर्वा अपि कृत्स्ना अकृत्स्नाश्वाचाऽऽरोपणा: झोषयितव्या: सुबुद्धौ च याक्यशेष: समं दिवसग्रहणं भवति / अथव्यादिभागस्थास्तत: प्रत्येक शिष्यबुद्धी च यथाऽवस्थिततया प्रक्षेपणीयाः / तदेवं कियन्त सिद्धा भागेषु स्रग्रहणं द्रष्टव्यम् / तद्यथा-आद्यभागगतेषु मासेषु प्रत्येक इति द्वारमुक्तम्। पञ्चदशदिवसग्रहणं, शेषभगगतेषु पुनः सर्वत्र पञ्चदिवसग्रहणमिति / अधुना "दिट्टा निसीहनामे " इति द्वारं व्याचिख्यासुराहअकृत्स्नायामारोपणायां पुनर्नियमतो विषमदिवसग्रहण, तच्चावश्यंभावि कसिणाऽकसिणा एया,सिद्धाओं भवे पगप्पनामम्मि। विषमं दिवसग्रहणं झोषवशाद्भवति। तथा चाऽऽह झोषो यथा शुद्ध्यति चउरो अतिक्कमादी, सिद्धा तत्थेव अज्झयणे / / 250 / / तथा दिवसग्रहणं भवति, ततो विषममिति दिवसग्रहणविषयं व करणमिदम्। कृत्सना अकृत्स्नाश्चाऽऽरोपणा एता अनन्तऽऽरोदितसामान्य लक्षणा: जइ इच्छसि नाऊणं,ठवणाऽऽरोवण जहाहि मासेहि। प्रकल्पनाम्नि निशीथेऽध्ययने सिद्धा: प्रसिद्धा / एतेन 'दिट्टानिगहियं तद्दिवसे हिं, तम्मासेहिं हरे भागं // 248 / / सीहनामे'' इति व्याख्यातम्। अधुना "तत्थेव तदा अतीयारा।" इति अस्यायमर्थ:-यदि दिवसग्रहणं ज्ञातुमिच्छसि, ततः स्थापनाऽऽ-- व्याख्यानयति- (चउरो इत्यादि) अतीचारा ये चत्वारोऽतिक्रमाऽऽरोपणा: स्थापनाऽऽरोपणामासान्मासेभ्य: संचयमासेभ्य: जहाहि दयस्तेऽपि सप्रायश्चित्तभेदास्तत्रैव प्रकल्पनाम्न्यध्ययने सिद्धाः / परित्यज्य च कुतो मासात्किं गृहीतमिति जिज्ञासायां तद्दिवसेभ्यः संप्रति तानेवातिक्रमाऽऽदीन् दर्शयतिस्थापनाऽऽरोपणाशुद्धशेषसंचयमासदिवसेभ्यः। किमुक्तं भवति?- अतिकमें वइकेम चेवं, अतियारि तही अणायारे। षण्मासदिवसेभ्यः स्थापनाऽऽरोपणादिवसरहितेभ्यः तन्मासै गुरुओय अतीयारो, गुरुयतरागो अणायारो॥२५१।। स्थापनाऽऽरोपणादिवससहितशेषषण्मासदिवसमासै स्थापनाऽऽरोप- अतिक्रमण श्रुते. श्रवणतो मर्यादोल्लसनमतिक्रमः। विशेषेण णामासशुद्धशेषसचयमासैर्भागं हरेत / तत्र यल्लब्धं तान् दिवसान् / पदभेदकरणतोऽतिक्रमो व्यतिक्रमः / तथा अतिचरणं ग्रहण Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 170 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तो व्रतस्यातिक्रमणमतीचारः / आचारस्य साध्वाचारस्याभाव: परि-- प्राभृतशब्दवाच्या इछेदा अर्थच्छेदाः, तेषु यो विंशतितमः प्राभृतच्छेदः, भोगतो ध्वंसोऽनाचारः। एते चातिक्रमाऽऽदय आधाकाधिकृत्यैवं तस्मान्निशीथं सिद्धमिति। व्याख्याताः / आधकर्मणा निमन्त्रित: सन् यः प्रतिश्रृणोति सोऽतिकमे अत्राऽऽह शिष्य: सर्व साधूक्तं, किन्तुवर्तते, तद् ग्रहणनिमित्तं पदभेदं कुर्वन् व्यतिक्रमे गृह्णानोऽतीचारे भुञ्जा- पत्तेयं पत्तेयं, पए पए भासिऊण अवराहे। नोऽनाचारे , एवमन्यदपि परिहारस्थानमधिकृत्यातिकमाऽऽदयो तो केण कारणेणं, दोसा एगत्तमावन्ना / / 255 / / ज्ञातव्याः / एतेषु च प्रायश्चित्तमिदम् अतिक्रमे मासगुरु, व्यतिक्रमेऽपि एकोनविंशतावुद्देशकेषु पदे पदे सूत्रे सूत्रे, यदि वा उद्देशके प्रत्येक मासगुरु, काले लघु। अतीचारे मासगुरु द्वाभ्यां विशेषितम् / तद्यथा- प्रत्येकमेकस्य दोषस्य प्रति प्रत्येकम् / अत्राभिमुख्य प्रतिशब्दो यथा तपोगुरु, कालगुरु च / अनाचारे चतुर्गुरु, यस्मात् गुरुकातीचारः, प्रत्यग्निशलभाः पतन्तीत्यत्र, नवीप्सायामतः प्रत्येकशब्दस्य वीप्साविचशब्दोऽनुक्तसमुच्चपार्थः, स चैतत् समुचिनोतिअतिक्रमात् व्यतिक्रमो वक्षायां द्विवचनम् / अपराधान्, अपराधे सति मासाऽऽदिकं प्रायश्चित्त गुरुकः, तस्मादपि गुरुकोऽतीचार इति। ततोऽप्यतीचाराद् गुरुतर- दीयते इति उपचारत: प्रायश्चित्तान्येवापराधशब्देनोक्तानि, तान भणित्दा कोऽनाचारः। यथा केषुचिदपराधेषु मासलघु, केषुचित्मासगुरु, केषुचित् चतुर्मासगुरु। तत इत्थं प्रायश्चित्तविशेष: एवं सूत्रतोऽर्थतश्व केषुचिल्लघुपञ्चकं, केषुचिद् गुरुपञ्चकम् / एवं यावत् तत्थ भवे न उ सुत्ते अतिक्कमादी उ वण्णिया केई। केचित् भिन्नमासगुरु, तथा केषुचिदपराधेषु षट्लघु केषुचित चायेग सुत्ते सुत्ते, अतिक्कमादीए जोएज्जा।।२५२|| छेद,केषुचिद् मूलं, केषुचिदनव स्थाप्यं, केषुचित्पाराञ्चितम् / एवं दोषेषु तत्र एवमुक्तेन प्रकारेण भवेन्मतिश्चोदकस्य, यथा न तु नवै सुत्रे प्रत्येक प्रत्येकं प्रायश्चित्तानि भाषित्वा भूय इदमुक्तं, यथा एक: पुरुष निशीथाध्ययनलक्षणे, केचिदतिक्रमाऽऽदय उपवर्णिता सान्त, तत: कथं गुरुकं मासिकमापन्नोऽपरो लघुमासिकं, तयोर्द्वयोरपि कदाचित् गुरुक चत्वारोऽतिक्रमाऽऽदय स्तत्रैवाध्ययने सिद्धा इति? सूरिराह-चोदक ! मासिकंदद्यात् , कदाचित् लघुमासिकं, तथा एको लघुपञ्चकमापन्नोऽपरो सर्वोऽप्यषे प्रायश्चित्तगणोऽतिक्रमाऽऽदिषु भवति, तत. साक्षादनुक्ता अपि गुरुपञ्चकं, तयोरपि कदाचिल्लघुपञ्चक दद्यात्, कदाचिद् गुरुपश्चक, सूत्रे सूत्रे तान अतिक्रमाऽऽदीन् योजयेत्, साचतत्वात्। तथा एक पञ्चकमापन्नोऽपरो दशकं, तयोर्द्वयोरपि कदाचित्पञ्चकं दद्यात, कथमर्थत: सूचिता इत्याह - कदाचित दशकम् / एवं पञ्चदशकविंशतिरात्रभिन्नमासमास-द्विमासत्रिसव्वे वि य पच्छित्ता, ज सुत्ते ते पडुच्चऽणायार। मासचतुर्मासपञ्चमासषण्मासच्छेदाऽऽदिक्रमेण तावद्वाच्यं यावत्पाराथेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे चउसु वि परसु / / 253|| चितम् / तद्यथा-एक: पञ्चकमापन्नोऽपरः पाराञ्चितं, तयो योरपि यानि कानिचित् सूत्रेऽभिहितानि प्रायश्चित्तानि तानि सर्वाण्यपि कदाचित्पञ्चकं दद्यात्, कदाचित्पाराश्चितमिति। एवं दशकाऽऽदिकमपि स्थविराणां कल्पे स्थविरकल्पिकानामनाचारं प्रतीत्य भवन्ति, यतः स्वस्थाने गुरुलघुविकल्पत: परस्थाने पञ्चदशाऽऽदिभिः सह वक्तव्य स्थविरकल्पिकानां त्रिष्वतिक्रमाऽऽदिषु पदेषु प्रायश्चित्तं न भवति / यावत्पाराश्चितम् / एतच्च तदोपपद्यते यदा दोषाणामेकत्वं भवति, तत्र दुरूपपादमत: पृच्छति-(तो केणत्यादि) यतो दोषेषु प्रत्येक प्रत्येक तथाहि-प्रतिश्रुतेऽपि यदि स्वत: परतो वा प्रतिबोधत: पदभेद न कुरुते, प्रायश्चित्तान्युक्त्वा पश्चात् दोषाणामेकत्वे सतीव प्रायश्चित्तान्युक्तानि, ततकृतेऽपि वा पदभेदे भेदेन गृह्णाति, गृहीतेऽपि यदि न भुक्त, किंतु परिष्यापयति, तदा स मिथ्यादुष्कृतमात्रप्रदानेनापि शुद्धयतीति न कथय केन कारणेन दोषा: परस्परं गुरुगुरुतराऽऽदितया महदन्तरला अपि एकत्वामापन्नाः। सूत्राभिहितप्रायश्चित्तविषयः, भुञ्जानस्त्वनाचारे वर्तते इति तस्य सूरिराहसूत्रोक्तप्रायश्चित्तविषयता, जिनकल्पे जिनकल्पिकानां पुनश्चतुर्वप्य जिण चोद्दस जातीए, आलोयण दुव्वले य आयरिए। तिक्रमाऽऽदिषु पदेषु प्रायश्चित्तं भवति, किं त्विदं प्रायस्ते न कुर्वन्ति / एएण कारणेणं, दोसा एगत्तमावन्ना / / 256|| तदेवं सर्वमपि सूत्राभिहितं प्रायश्चित्तं, यतोऽनाचारमधिकृत्य प्रवृत्तम्, जिन प्रतीत्य (चोद्दस त्ति) चतुदर्शपूर्वधरम्। उपलक्षणमेतत्, यावद्भिन्नअनाचार श्वातिक्रमाऽऽविनाभावी, ततेऽर्थत: सूचितत्वात् प्रतिसूत्र दशपूर्वधरं प्रतीत्य, तथा-(जातीए ति) एकजातीयं प्रतीत्य, तथा मतिमाऽऽदयो योजनीया इति स्थितम्। ननु यद्येतत्सर्व निशीथे सिद्ध, आलोचनां प्रतीत्य, दुर्बलं प्रतीत्य, आचार्य प्रतीत्य दोषाणामन्यततो निशीथमपि कुत: सिद्धमित्यत आह थात्वमपि भवति, तत एतेन जिनाऽऽद्याश्रयणलक्षणेन कारणेन, दोषण निस्सीहं नवमपुव्वा, पच्चखाणस्म तइयवत्थूओ। एकत्वमापन्ना:, जिनाऽऽदीन्प्रतीत्य दोषाणामेकत्वमभूदिति भावः / आयारनामधेजा, वीसइमा पाहुडच्छेया / / 254 / / तत्राऽऽद्ययोर्यथाक्रमं घृतकुटनालिकादृष्टान्तौ, अपरयोस्तुद्वयोर्यथाप्रत्याख्यानस्याभिधायकं यन्नवमं पूर्व प्रत्याख्याननामकं तस्मात्, क्रममेकानक द्रव्यमेकानेकनिषद्या च विषय इति दर्शयतितवापि तृतीयादाचारनामधेयाद्वस्तुनः, तत्रापि विंशतितमात्प्राभृतच्छे घयकुङगो उ जिणस्सा, चोइसपुट्विस्स नालिया होइ। दानिशीथमध्ययनं सिद्धम् / इयमत्र भावनाउत्पादपूर्वाऽऽदीनि चतुर्दश सव्वे एगमणेगा, निसज्ज एगा अणेगा य॥२५७|| पूर्वाणि, तत्र नवमं पूर्वं प्रत्याख्याननामक, तस्मिन् विंशतिर्वस्तूनि, जिनस्य जिनविषये घृतकुण्ड् को दृष्टान्तः, चतुर्दशवस्तूनि नाम अर्थाधिकारवि शेषाः, तेषु विंशती वस्तुषु तृतीयमाचार- पूर्विणो नालिका भवति दृष्टान्तः, एक जातीयस्य एकानामधेय वस्तु, तत्र विंशतिः प्राभृतच्छेदा: परिमाणपरिच्छिन्ना: / नेक द्रव्यविषयः, आलोचना ग्रामे काऽने कनिषद्याविषयः / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 171 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तत्र पथा जिन प्रतीत्य दोषा एकत्वमापन्नास्तथा विभङ्गि प्रयुक्तघृत- / कुण्डदृष्टान्तेन भण्यतेउप्पत्तिं रोगाणं, तस्समणे ओसहे य विभंगी। नाउं तिविहमामयीणं, देइ तहा ओसहगणं तु // 258|| मिथ्याटाटेरुत्पन्नावधिविभङ्गी, स हि चिकित्सा करोति, न साधुरिति तदुपादानमा विभगिनो विभङ्गज्ञानिनो रोगाणामुत्पत्तिम्, उत्पद्यन्ते रोगा अस्य इत्युत्पत्ति निदान, तां ज्ञात्वा, तथा तदित्यनेन रोगा: संबध्यन्ते, शभ्यन्ते उपशम नीयन्ते रोगायैस्तानिशमनानि, ओषधानि तेषां रोगाणं शमनानि तच्छगनानि तानि ओषधानि, यथावत् ज्ञात्वा त्रिविधतापाऽऽदिजन्यरोगयोगतरित्रप्रकाराः, आमयो रोग: स येषां विद्यते ते आभायेन, त्रिविधाश्च ते आमयिनश्च, तेषां त्रिविधाऽऽमयिना तथा ओषधगण ददति प्रयच्छन्ति यथा नियमतो रोगोपशमो भवति। ओषधप्रदाने च चत्वारो भङ्गाः / तद्यथाएकेणेको छिज्जइ, एकेण अणेगऽणेगााहिं एको। गेगेहिं पि अणेए, पड़िसेवा एव मासेहिं // 256 / / कचित् एकेन घृतकुटेन एको वाताऽऽदिको रोगश्छिद्यते,एष प्रथमो भङ्गा दाचिदेकेन घृतकुटेन अनेके त्रयोऽपि वाताऽऽदयो दोषाश्छिद्यन्ते, एष द्वितीयः / तथा क्वचिदने केघृतकुटेरेकोऽत्यन्तमवगाढो रोगो वाताऽऽदिकश्छेदमुपयाति, एष तृतीयः / क्वचिदनेकैघृतकुटेरनेके वाताऽऽदयो दोषा उपशाम्पन्ति, एष चतुर्थो भङ्ग / एवं प्रतिसेवाऽप्येकरनेकमासविषया चतुर्भङ्गिकया एकानेकर्मासै: शुध्यतीति घृतकुटदृष्टान्त उपलक्षणं, तेन सामान्यत ओषधदृष्टान्तोऽपि द्रष्टव्यः / तत्राऽपि चतुर्भङ्गिका। प्रतिथूत्कृताः, तत एष एकेन मासेन शुद्ध्यतीति जानाना एक मासं प्रयच्छिन्ति। यदि वा-पञ्चरात्राऽऽदिकम् एष द्वितीयो भङ्गा एकन मासेन, पञ्चरात्राऽऽदिना वा बहूना मासिकाऽऽदिपरिहारस्थानानामुपशमनात् / तथा येन तीव्रण रागाऽऽद्यध्यवसानेन एको मास एकं वा पञ्चरात्राऽऽदिक प्रतिसेवितं, स किलैकेन मासेनैकेन पञ्चरात्राऽऽदिना वा न शुध्यतीति तस्मै अनेकान् मासान् प्रयच्छन्ति / उपर्युपरि रागद्वेषाऽऽदिवृद्धि पश्यन्तश्चछेदमपि मूलमपि यावत्पाराञ्चित्तमपि प्रयच्छन्ति, एष तृतीयो भङ्ग। अनेकैर्मासैश्छेदाऽऽदिभिर्वा पाराश्चितपर्यन्तैरकस्य मासस्य पञ्चरात्राऽऽदिकस्य वा शोधनात्। तथा बहुषु मासेषु पगतिसेवितेषु नूनमेष बहुभिर्मासै: शोधिमासादयिष्यतीत्यवबुध्यमाना: स्थापनाऽऽरोपणाव्यतिरेकेण षण्मासान प्रयच्छन्ति, परत: तपः प्रायश्चित्तदानस्यासंभवात्। एष चतुर्थो भङ्गः, अनेकैसैिरनेकषां मासाना शोधनात्। उपनययोजनामाहविभंगीव जिणा खलु, रोगी साहू य रोग अवराहा। सोहीय ओसहाई, तीए जिणओ विसोहिंति॥२६१।। इह विचारप्रक्रमे विभगितुल्या: खलु जिना: प्रतिपत्तव्या: रोगिणो रोगितुल्या साधवः, रोगा रोगतुल्या अपराधा मूलगुणोत्तरगुणापराधा: ओषधानि ओषधतुल्या: शोधय: प्रायश्चित्तलक्षणा:, यतस्तया शेध्या कृत्वा जिना अपि शोधयन्ति, नैवमेव, तत ओषधस्थानीया शोधि:, एवं जिनं प्रतीत्य दोषा: एकत्वमापन्नाः। संप्रति यथा चतुर्दशपूर्विणामधिकृत्य दोषाणामेकत्वं भवति तथा प्रतिपादयतिएसेव य दिह्रतो, विमंगिकएहिँ विजसत्थेहिं। भिसजा करेंति किरियं, सोहिंति तहेव पुव्वधरा / / 262 / / एष एव घृतकुटलक्षण ओषधलक्षणो वा दृष्टान्तश्चतुर्दशपूर्विणोऽपि योजनीयः / यतो यथा भिषजो भिषग्वराविभङ्गिकृतैवैद्यशास्त्रैर्विभ-टिवत् चतुर्भङ्गविकल्पेनावितथा रोगापनयनक्रिया कुर्वन्ति, तथा चतुर्दशपूर्वधरास्त्रयोदशपूर्वरा यावदशपूर्वधरा यावदभिन्नदशपूर्वधरा जिनोपदिष्टे शास्त्रैर्जिना इव चतुर्भङ्गविकल्पतः प्रायश्चितप्रदानेन प्राणिनोऽपराधमलिनान शोधयन्ति, ततस्तत्रापिघृतकुटदृष्टान्त: केवलौषधदृष्टान्तो वा योजनीय इति। आह पर:- ननु जिना: केवलज्ञानसामर्थ्यत: प्रत्यक्षेण रागाऽऽदिवृद्ध्यपवृद्धी पश्यन्ति, ततस्ते चतुर्भङ्गविकल्पतः प्रायश्चित्तं ददतु, तथा शुद्धिदर्शनात्। चतुर्दशपूर्विणस्तु साक्षान्ना वेक्षन्ते, ततः कथं ते तथा दद्युरिति ? नैष दोषः / तेषामपि ज्ञानात्। तथा चात्र नालिकादृष्टान्त :नालीऍ परूवणया, जह तीऍ गतो उ नजए कालो। तह पुव्वधरा भावं, जाणंति विसुज्झए जेण // 263 / / नालिका नाम घटिका, तस्या: पूर्व प्ररूपणा कर्त्तव्या, यथा पादलिप्तकृतविवरणे कालज्ञाने। सा चैवम "दाडिमपुप्फाऽऽगारा, लोहमयी नालिगा उ कायव्वा / तीसे तलम्मि छिड्डु, छिडुपमाणं च मे सुणह // 1 // छन्नउयमूलवाले–हिँ तिवस्सजायाएँ गयकुमारीए। उज्जुकयपिंडिएहिं, कायव्वं नालियाछिडु / / 2 / / तामेवाऽऽहएक्कोसहेण छिज्जं-ति के वि कुविया उ तिणि वायाऽऽदी। बहुएहिं छिज्जती, बहुए एक्केक्कतो वा वि॥२६०॥ एकेनौषधेन तथाविधेन केचित् वाताऽऽदयस्त्रयोऽपि कुपिताश्छिधन्ते, उपशभं नीयन्ते इति भावः। एष द्वितीयो भङ्ग। तथा बहुभिरोषधैर्बहयो वाताऽऽदयो रोगाश्छिद्यन्ते। एष चतुर्थो भङ्गा तथा-(एकेकतो वावि ति ) एकेनौषधेनैको वाताऽऽदिको रोग: छेदमुपयाति / एष प्रथमो भड़ भङ्गत्रयग्रहणाचतुर्थोऽपि भङ्गः सूचितो द्रष्टव्यः / स चायम्अनेकैरोषधैरेको वाताऽऽदिको रोगोऽत्यन्तमवगाश्छिद्यते / एष तृतीयो भगः / इयमत्र भावना-यथा विभङ्गज्ञानिन: सर्वरोगाणां निदानमेकानेकोषधसानथ्य चावबुध्यमाना उपसंपन्नानां रोगिणांघृताऽऽद्यौषधगणं प्रयुञ्जते, तेन च प्रयुज्यमानेन घृतकुटेन औषधेन वा केवलेन कदाचिदेकेनैको रोग उपशमं नीयते, कदाचिदेकेन अनेके, कदाचिदनेकैरेक:, कदाचिदनेके। एवं भगवन्तोपि जिना: केवलिनो मासाहै : रागाऽऽदिभिरासेवितो मास इत्ययमवश्यं मासेन शुद्ध्यतीति जानानास्तस्मै मासं प्रयच्छन्ति, एष प्रथमो भङ्गः / तथा यद्यपि बहवो मासा: प्रतिसेवितास्तथाऽपि ते मन्दानुभावतः प्रतिसेविता:, यदि वा पश्चात् हा दुष्टु कृतमित्यादिनिन्दनै: Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 172 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त अहवा दुवस्सजाया-ऍगयकुमारीऍ पुच्छवालेहिं। विहिं विहिं गुणहिँ तेहिँ उ कायट्वं नालियाछिड्ड / / 3 / / अहवा सुवण्णमासे-हिं चछहिँ चउरंगुला कया सूई। नालियतलम्मि तीए, कायव्वं नालियाछिड्डु / / 4 / / '' इत्यादि। तया नालिकया यथोदकसंगलनेन दिवसस्य रात्रेर्वा गतो वा अतीतो वाऽवशिष्टो वा कालो ज्ञायते / यया-एतावत् दिवसस्य रात्रेर्वा गतमेतावत्तिष्टति इति / तथा पूर्वधरा अपि चतुर्दशपूर्वधराऽऽदय आलोचयतां भावमभिप्राय दुरूपलक्ष्यमप्यागमबलत: सम्यग जानन्ति, ज्ञाने च भावे यो येन प्रायश्चित्तेन शुध्यति, तस्मै तचतुर्भङ्गविकल्पतो जिना इव प्रयच्छन्तीति न किञ्चिदनुपपन्नम् / तदेवं चतुर्दशपूर्विणमधिकृत्य दोषा एकत्वामापन्ना इति भावितम्। अधुना यथा जाति प्रतीत्यदोषा एकत्वमापद्यन्ते, तथा प्रतिपादयति-- मासचउमासिएहिं, बहूहिँ वेगं तु दिञ्जए सरिसं। असणाई दव्वाई, विसरिसवत्थूसु जंगरुयं / / 264 / / जातिर्दिधा-प्रायश्चित्तैकजातिव्यजातिश्च / तत्र प्रायश्चितैकजातिमधिकृत्येदमुच्यतेमासचतुर्मासिकैर्बहुभिरपि प्रतिसे वितैरेक मास चतुर्मासाऽऽदिकं दीयते। इयमत्र भावनाबहुषु लघुमासिकेषु प्रतिसेवितेष्वेकथेलायामालोचितेषु प्रतिसेवनासयां महानुभावकृतत्वात्, प्रतिसेवितमासानामपि सदृशत्वात, आलोचनायामपि सर्वेषामशठभावेनैकवेलायामालोचितत्वात, एकंलघुमासिकं दातव्यम् / एवं बहुषु गुरुमासिकेषु प्रतिसेवितेष्वेक गुरुक, बहुषु लघुषु द्वैमासिकेष्येक लघु द्वैमासिकं, बहुषु लघुगुरुद्वैमासिके ष्वेकं गुरु द्वैमासिकम् / एवं त्रैमासिक चातुर्मासिकपाश्चमासिकषाण्मासिकेष्वपि भावनीयम् / (विसरिसवत्थूसुजं गुरुयमिति) विशदृशवस्तुषु यत गुरुकं तद्दातव्यम्। तद्यथा-बहुषु लघुगुरुमासिके षु प्रतिसे वितेष्वेकं गुरुक, बहुषु लघुगुरुद्वैमासिकेष्वेक गुरु द्वैमासिकम्। एवं त्रैमासिकचातुर्मासिकपाञ्चमासिकषण्मासिकेग्यपि द्रष्टव्यम्। तथा बहुषु मासिकेषु बहुषु चद्वैमासिषु प्रतिसेविवितेष्येक द्वैमासिकम्। एवं त्रैमासिकचातुर्मासिकपाश्चमासिकषाण्मासिकेष्वपि भवनीयम् / बहुषु मासिकेषुद्वैमासिकेषु त्रैमासिकेषु चातुर्मासिकेषु पाशमासिके षु पाण्मासिके षु प्रतिसे वितेष्वे कं षाण्मासिकमिति। संप्रति द्रव्यजातिमधिकृत्य दोषाणामेकत्वं भावयति (असणाई दवाई इति) द्रव्याणि अशनाऽऽदीनि अशनपानखादिमस्वादिमानि तान्येकान्ये कान्यधिकृत्यदोषाणामेकत्वमुपजायते, तत्रैकद्रव्यमधिकृत्यैवम् / अनेकानि अशनै कद्रव्यविषयाण्याधाकर्मिकान्यभवन् तत्रैकमाधाकर्मिमकं चतुर्गुरु दीयते / यदि वा बहून्याहृतान्यभवत्त, तत्रैकमाननिष्पन्न मासिकं दीयते / एवमुदकाऽs - राजपिण्डाऽऽदिष्वपि भावीयम्। अनेकद्रव्याण्यधिकृत्यैव अशनमाधाकर्मिकं खादिममाधाकर्मिक प्रतिसेवितं. तेषु सर्वेष्वेकवेलमालोचितेषु एकमाधाकर्मिमकं चतुर्गुरु दीयते / एवं बहुष्वनेकद्रव्यविषयेषूदकाऽऽर्द्धषु एकमुदकानिष्पन्नं मासलघु दीयते / एवमनेकद्रव्यविषयेष्वपि स्थापनोद्देशिकाऽऽदिष्वपि भावीयम्। "विसरिसवत्थूसु खं गुरुयं / ' इत्येदत्राापि संबध्यते / तद्यथा-एकमशनराजपिण्डोऽपरमशमाहृतमन्यदुदकाऽऽर्द्रमपरमाधाकमिकम्, अत्रैकमेव गुरुतरमाधाकम्भिक निष्पन्नं चतुर्गुरु दीयते। एवंपानकाऽऽदिष्वपि भवनीयम्। एतदेकद्रव्यमधिकृत्योक्तम्, अनेकद्रव्याण्यधिकृत्यैवम्अशनमाधाकर्मिमकं पानं वीजाऽऽदिवनस्पतिसंमिश्र, खादिम स्थापितं स्वादिममौद्देशिकम् / अत्राप्येकमाधाकम्भिकनिष्पन्नं चतुर्गुरु दीयते / अत्र चागारीदृष्टान्त / यथा-"एगो रहकारो, तस्स भजाए बहू अवराहा कया, न य भत्तुणा नाया। अन्नया सा घरं उग्घाडदुवारं पमोत्तुं पमायाओ सयझयधरे ठिया। तत्य य घरे साणो पविठो। तस्समयं च पई आगतो। तेण साणो दिह्रो। पच्छा सा अगारी आगया, अवराहकारिणीति भत्तुणा पिट्टिउमारता ! सा चिंतेइअणे वि मे यह अवराहा अस्थि, ते विमाणाउं एस पिट्टिहिइता इयाणिं चेव सव्वा कहेमि / गावी वच्छेण पीआ, वासी हारिया, कंसभाणयमवि हत्थातो पडियं भिन्नं, पडो वि तुम्हाणं नठो त्ति : एवमादिअवराहेसु एकसरा कहिएसु तेण सा एक्कवारं पिट्टिया।" एवं लोकोत्तरेऽपि अनेकेष्यपराधपदेष्वेक: प्रायश्चित्तदण्डो दीयते / तदेवम्"दव्ये एगमणेग ति “गतम्। इदनीमालोचनाऽऽदीनि त्रीणि द्वाराणि वक्तव्यानीति तेषां यथाक्रममिमे दृष्टान्ता:आगारीदिटुंतो, एगमणेगे य ते य अवराहा। भंडी चउक्कभंगो, सामीपत्ते य तेणम्मि // 26 // आलोचनायामगारीदृष्टान्त / येषु चापराधेषु विषयेषु अगारीदृष्टान्तस्ते अपराधा एकेऽनेके च / दुईले भण्डीदृष्टान्तः। तत्र च भण्ड्या चतुष्कभङ्गः, भङ्गचतुष्टयमिति भवः / आचार्ये स्वामित्वप्राप्ते स्तेनदृष्टान्तता। तत्राऽऽलोचनाविकल्पा इमेनिस्सजेवियडणाए, एगमणेगा य होइ चतुभंगो। वीसरि उस्सण्णपए, विइयतिचरिमे सिया दो वि।।२६६।। इह स्त्रीत्वेऽपि पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्, निषद्यायां विकटनायां च भवति चतुर्भड़ी, चतुण्णा भङ्गानां समाहारश्चतुर्भङ्गी, गाथायां स्त्रीत्वेऽपि पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् / कथं चतुर्भङ्गीत्यत आह-एक्काऽनेका च / एका निषद्या अनेका च। तथा एका विकटना, अनेका वा / इयमत्र भवना-एका निषद्या आलोचना। इही ऽऽलोचनांददानेन गुरोर्निषद्या कर्तव्या, यावतश्च वारान आलोचना ददाति तावतो वारान् निषद्यां करोति / तत्र यदा विधिनः अशेषानप्यतीचारान् वि नैकवेलायामालोचयति तदा एकस्यामे निषद्याया सर्वातीचाराऽऽलोचनात् प्रथमो यथोक्तो भङ्गः / (वीसरि उस्सण्णपए विइय तिणि ) द्वितीयोभङ्गो विस्मृतौ, तृतीयो भङ्ग उत्सन्नपदे प्रभूतपदेषु। किमुक्तं भवति?-द्वितीयो भङ्गएका निषद्या, अनेकाऽऽलोचना एष विस्मृतातिचारस्य / यदि वा- मायाविन आलोच्य वन्दिते गुरौ पुन स्मरणतो मायाविन पश्चात्सम्यआलोचनापरिमाणपरिण तस्य गुरौ तथा विनिर्दिष्ट एव वन्दनकं दत्वा आलोचयतो वेदितव्य: तृतीयो भङ्गः / अनेक निषद्या. एका आलोचना, एष प्रभूतेन कालेन प्रतिसेविते बहुकस्य एकदिनेनाऽऽलोचनामपारयतोऽन्यस्मिन्नन्यस्मिन् दिने निषद्यां कृत्वाऽऽ. लोचयतो भवनीयः / यदि वा-निषदनं निषद्या, गुरौ बहुवेल कायिकभूमि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त गतप्रत्यागते अनेका निषद्या एका आलोचनेति। (चरिमे सिया दो वि) चरमनङ्गे अनेका निषद्या अनेका आलोचनाः, इत्येवंरूपे अशठभावोपेत्स्य स्याता द्वे अपि कारणेविस्मृतत्वं, यदि वाऽपराधबाहुल्यम् / इदमुक्तं भवति-प्रभूतेन कालेन प्रभूतमासेवितमतो बहुविस्मृतमित्यन्यस्भिन दिने स्मृत्वा आलोचयतः, यदिवा-अपराधबाहुल्यत एकदिनोनाऽऽलोचयितुमपारयतोऽपरस्मिन्नहन्यालोचयतो यथोक्तस्वरूपचतुर्थो भङ्गः / तत्र एका निषद्या एकाऽऽलोचनेति प्रथमे भङ्ग एकमेव गुरुतरं प्रायश्चित्तं दीयते शेषाणां सर्वेषामपि प्रायश्चित्तानामाच्छादकम्। तथा चोक्तन्-'तंचेगं ओहाडणं दिजा" इति। अस्यायमर्य:-तदेवैकं गुरुतरं प्रायश्चित्तं शेषाणां प्रायश्चित्तानामघटनमाच्छादक दीयते इति / अत्र दृष्टान्त: क्षारयोगः / यथा हि पङ्खापनयनाय प्रयुक्त: क्षारयोगोऽशेषमपि मलं धयति तथैकमप्यवघटनं प्रायश्चित्तनि शोधयतीति / उक्तं च - | "जहा पंकावणयणपउत्तो खारजोगो से समलं पि सोहे इ तहा ओहाडणपच्छित्तं पि सेसपच्छित्ते सोहेइ।।" इति / अथवा स एवगारीदृष्टान्त:-यथा सा अगारी एफापराधे हन्यामाना अन्यानप्यपराधान् कथयन्त्येकवार पिट्टिता, यदि पुनर्बहवोऽपराधाः कृता इत्यन्यस्मिन्नन्यस्मिन् दिवसे एकैकमपराध कथयेत् तर्हि यावतो वारान कथयेत् तावतो वारान् हन्येत् / एवमत्रापि यद्येकैकमपरस्मिन्नहन्यालोचयेत् ततो यावन्तोऽपराधास्तावन्ति प्रायश्चित्तान्याप्नुयादेकनिषद्यायाम् / एकालोचनायां त्येकमेव गुरुतरकं प्रायश्चित्तं दीयते इति / द्वितीये भने बहुप्रतिसेवितमशठेन सता पूर्व नस्मृतयद्यपि पश्चादालोचयति तथापि, यथा पथमे भङ्गे गुरुतरकमेकं शेषप्रायश्चित्तानामाच्छादकं दत्तं, तथाऽत्रापि, अशठभावेन नालोचितवान्ततो यावन्ति प्रायश्चित्तान्यालोचयति तावन्ति दीयन्ते इति। तृतीयेऽपि भङ्गे बहुप्रतिसेवितमतोऽशठस्य सत एकनिषद्ययाऽऽलोचना न समाप्तिमुपगता, ततो यस्मिन् दिने समाप्तिमुपयाति तस्मिन् दिने प्रथमभङ्गक इवैकं गुरुतरकं प्रायश्चित्तं दातव्यम् / अथ शठतया अन्यस्मिन्नन्यस्मिन्न-हन्यालोचयति तर्हि यावन्त्यपराधपदान्यालोचयति तावन्ति प्रायश्चित्तानि दातव्यानि / चरमभङ्गेऽपि यद्यशठभावतो विस्मृततया, बहुप्रतिसेवनातो वा अनेकेषु दिदसेष्वेकाऽऽलोचना समाप्तिं गच्छति, ततस्तत्राऽपि प्रथमभङ्गक इवैक गुरुतरकमवघाट नं प्रायश्चित्तं देयम / अथ मायावितया, ततो यावन्त्यपराधपदानि तावन्ति प्रायश्चित्तानि दातव्यानीति। __य इह अगारीदृष्टान्त: पूर्वमुक्षिप्तस्तमिदानीं कथयतिगावी पीया वासी, य हारिया भयणं च ते मिन्नं। अजेव ममं सुहयं, करेहि पडओ वि ते नहो॥२६७।। एगावराहदंडे, अन्ने य कहेयऽगारि हम्मंती। एवं गेगपएसु वि, दंडो लोगुत्तरे एगो॥२६८|| अगारी गृहस्था रथकारस्य भार्या एकापराधदण्डे शून्ये गृहे प्रविष्टा इत्येकस्यापराधस्य दण्डे पिट्टितलक्षणे भर्वा क्रियमाणे हन्यमानाऽचिन्तयत्वहदोऽपराधा मया कृताः, ततोमा प्रतिदिवसमेवायं मां हन्यात, किं त्यौवं मां सुहता करोतु, एवं चिन्तयित्वा अन्यानप्यपराधान्कथयति। यथागौर्वत्सेन पीता / किमुक्तं भवति?-गां वत्सो धावितवान् / तथा चासी च हारिता क्वापि मुक्ता, कस्मै समर्पिता वा न जानामि / तथा भाजनमपि कस्यिभाजनमपि ते तव संबन्धि, यत्र भवान भुईक्त, हस्तात्पतितं सद्भग्नम्। तथा पटोऽपितव संबन्धी न दृश्यते, केनाऽपि हत इति भवः / एवं लोकोत्तरेऽपिएकनिषद्यायामेकाऽऽलोचनायामित्यादिचतुर्भङ्गमामह्यायाविनोऽनकेष्वपराधपदेषु दण्ड एको गुरुतरकरे दीयते। अथवा त्रैवाऽलोचनाविषयेऽयमन्यो दृष्टान्त:णेगासु चोरियासुं, मारणदंडोन सेसया दंडा। एवमणेगपएसु वि, एक्को दंडो न उ विरुद्धो॥२६६।। "एगो चोरो, तेण बहुयाओ चोरियाओ कयाओ। तं जहाकस्सइ भाणं हरियं, कस्सइ पडओ, कस्सइ हिरण्णं, कस्सइ रुप्पं / अन्नया तेण रायउले खत्तं खणियं, रयणा हिया। दिलो आरक्खगेहिं, गहितो, रण्णो उवठवितो, तस्समयं च अण्णे वह वो उवट्ठिया भणति-अम्ह वि एएण हई / ततो रणा रयणहारि त्ति काउं तस्स मारणदंडो एक्को आणत्तो, सेसे चोरियादंडा तत्थेव पविट्ठा।" तथा चाऽऽह-अनेकासु चोरिकासु रतचोरिकानिमित्तं तसयैको मारणदण्ड: प्रयुक्तो, न शेषचोरिकादण्डाः, तेषां तवैव प्रविष्टत्वात्। एवं लोकोत्तरेऽप्यनेकपदेषु गुरुकैकपदनिमित्त एको दण्डोऽविरुद्धः, शेषदण्डानां तत्रैव प्रवेशात् / तदेवमालोचना प्रत्येकत्वं दोषाणामुपपादितम् / सांप्रतं दुर्बलं प्रतीत्य भाव्यते भण्डीदृष्टान्तः, तत्रापि भङ्गचतुष्टयम् / तद्यथा-भण्डी बलिका, बलीवर्दा वलिका 1, भण्डी वलिका, बलीवर्दा दुर्बला:२, भण्डी दुर्बला, बलीवर्दा वलिका 3, भण्डी दुर्बला, वलीवर्दाश्च दुर्बला: / तत्र प्रथमे भङ्गेबाह्य परिपूर्णमारोप्यते / द्वितीये भङ्गे यावत् वलीवर्दा आक्रष्टुं शक्नुवन्ति तावदारोप्यते / तृतीये भने यावत आरोपितेन भण्डी न भज्यते तावदारोप्यते / चरमभङ्गे यावन्मात्रेण न भण्डी भङ्गमुपयाति, यावच्च बलीवर्दा बाकष्टुमल, तावदरोह्यते। एष दृष्टान्तः / अयमुपनय:संघयणं जह सगडं.धितीउ धुओहिँ होंति उवणीया। वियतियचरिमे भंगे, तं दिखइजं तरइ वोढुं / / 270|| यथा शकटं तथा संहननं, शकटस्थानीयं संहननमिभ्यर्थ: / घृतयां धुर्यधोरेयैर्भवन्त्युपनीताः, धौरेयतुल्या धृतय इति भावः / अत्रापि भङ्गचतुष्टयम्। तत्र प्रथमभङ्गे यावदापन्नंतत्संर्वदीयते, द्वितीये धृत्यनुरूपं, तृतीये संहननानुरूपं, चतुर्थे धृतिसंहननानुरूपम / तथा चाऽऽह(वियतिय इत्यादि ) द्वितीये तृतीये चरिमे च भने तत्प्रायश्चित्त धृत्याद्यनुरूपं दीयते यत् शक्नोति वोढुमिति। साम्प्रतमाचार्यभधिकृत्य दोषाणामेकत्वं यथोपपद्यते तथा भाव्यते। तत्र स्वामित्वप्राप्तस्तेनदृष्टान्त:, तमेवाऽऽहनविमरण मूलदेवो, आसें ऽधिवासे य पट्ठि न उदंडो। संकप्पियगुरुदंडो, मुचइ जं वा तरइ वोहुं // 271 / / 'एगत्थ नगरे राया अपुतो मतो, तत्थ य रज्जचिंतगे हिं देवयाऽऽराहणनितित्तं आसो अहिवारि पो, हत्थी य / इतो मूल Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 174 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त देवो चोरियं करेंतो आरक्खगेहिं गहितो। तेहिं रजचिंतगेहिं बज्झो आपत्तो नगर हिंडाविजई / इतो य सो आसो हत्थी य मुक्कातो, अट्टार सपयइपरिवारेहिं दिलो मूलदेवो। आसेण हेसिय / पठी अड्डिया, हत्थिणा गुलुगुलाइयं / गंधोदकं करे घेत्तु अहिसित्तो, खंधो य अड्डितो।' सामुद्रिकलक्षणपाठकैरादिष्ट एष राजा' इति तस्य चौरिकापराधाः सर्वे मुक्ताः, राज्ये स्थापितः। तथा चाऽऽह-नृपमरणमभूत् ततोऽश्वोऽधिवासितोऽश्वाधिवासे कृते तेनाश्वेन मुलदेवस्य पृष्ट दत्तं, ततो मूलदेवो राजा बभूव, न पुनस्तस्य चौरिकादण्डः कृतः / एष दृष्टान्तः / अयमुपनय:-एकस्य साधोबहुश्रुतस्य अपराधे प्रायश्चित्त दण्डो गुरुक: संकल्पितः, आचार्यश्च कालगताः, सचाऽऽचार्यपदयोग्य इत्याचार्य: स्थापित:, गच्छे च सूत्रार्थतदुभयाऽऽदिभि: संग्रह कर्तव्यः। तत यच्छक्नोति वोढुं तद्दीयते। अथ न शक्नोति तर्हि न किञ्चिद्दीयते / तथा चाऽऽह-(संकप्पेत्यादि) संकल्पितगुरुदण्ड आचार्यपदे स्थापित सन्एवमेव मुच्यते, यद्वा शक्नोति वोढुं तद्दीयते इति। एवमाचार्यमधिकृत्य दोषा एकत्वमापन्नाः / अत्राऽऽह चोदक:-साधूक्तमिदं दोषकत्वकारणं, किमनया एतावत्प्रमाणया स्थापनाऽऽरोपणाभ्यामाकृष्टिविकृष्ट्या इत: पञ्च दिवसा गृहीता इतो दशेत्या दिरूपया / गुरुणा ह्यागममनुसृत्य यत्प्रायश्चित्तमाभवति तत्स्थापनाऽऽरोपणाभ्यामन्तरेणैव दीयताम् इदं ते प्रायश्चित्तमिति। अत्र सूरिराह-- चोयग ! पुरिसा दुविहा, गीयागीय परिणामि इयरे य / दोण्ह वि पचयकरणं, सव्वे सफला कया मासा / / 272 / / चोदक ! पुरुषा द्विविधाः / तद्यथा-(गीयागीय त्ति) गीतार्थाः, अगीतार्थश्च / अगीतार्थी द्विविधा:-परिणामिनः, इतरे च / इतरे नामअपरिणामाः, अतिपरिणामाश्च। तत्र गीतार्थानामपि च परिणामिकाना परिहारस्थानमापन्नानां यत् दातव्यं तत्स्थापनाऽऽरोपणाभ्यामाकृष्टिविकृष्ट्या विना दीयते। अत्र दृष्टान्तो वणिक्-"एगो वाणियत्रो, तस्य वीसं झंडीओ एगजातीयभंडभरियाओ सव्वाओ समभाराओ / तस्स गच्छतो सुकट्ठाणे सुंकियओ उवहितो भणइ-सुकं देहि। वणिओ भणइ किं दायव्वं? सुकिओ भणइ-वीसतिमो भागो। ताहे विणिएणं सुकिएण य परिच्छित्तामा ओयारणपचारोहेसु विक्खेवो हवउ त्ति एका भंडी सुके दिन्ना / एवं सव्वेसिं गीयत्थाणमगीयम्थाण य परिणामगाणं विणा आकढिविकड्ढीए पायच्छित्तं दिज्जइ। जे उण अगीयत्था अपरिणामगा। च, ते जइ छण्हं मासाणं परेणं आवण्णा तेसिं दोण्हं पचयकरणट्टा सव्वे मासा ठवणाऽऽरोवणविहाणेण सफलीकाउंदिउँति / " तथा चाऽऽह(दोण्ह वीत्यादि) द्वयानामपि अपरिणामकानामतिपरिणामकानां च प्रत्ययकारणं स्यादिति हेतो: सर्वे मासा: स्थापनाऽऽरोपणाभ्यां सफला: कृताः / अत्र दृष्टान्तो मूर्खमरुकेन "मुक्खमरुगत्स वीसं भंडीओ एगजातीयभंडभरियाओ सव्वाओ समभाराओ। तस्स गच्छतस्स सुंकट्ठाणे सुंकितो उवठितो भणइएगं भंडि दाउं वच, किं मम ओयारणविकरोगा मकरवायो गणपदभोगरिनाललो जीपदभारणहर) सुकिएण तस्स सय्यभंडीओ ओयारित्ता एक्केमाओवीसइमो भागो गहितो। मरुगसरिच्छा अगीया, सुंकियसरिसो गुरू / अहवा / निहिदिद्रुतो कज्जाकजे जयमाणाजयमाणासु / एक्केण वाणिएण निही उक्खणितो. तं अण्णेहिं नाउं रन्नो निवेइयं, वणिओ दंडितो, निही य से हडो। एवं मरुएण वि निही दिट्टो, रण्णो कनवेइओ रण्णा पुच्छितो, तेण सटव कहियं। मरुगो पूइतो, निही वि से दविखणा दिन्ना / एवं जो को जयणागारी तस्स सव्वं मरुगरसेव मुच्चइ, जो कज्जे अजयणागारी तेसु वि जो अकज्जे जयणागारी य, अजयणागारीय, वणिगस्सेव पच्छित्तं दिजइ, नवरं कजे अजयणाकारिस्स लघुतरं दिज्जइ। एतदेवाऽऽहवणिमरुगनिही य पुणो, दिटुंता तत्थ होतं कायव्दा। गीयत्थमगीयाण य, उवणयणं तेहिं कायव्वं // 273|| गीतार्था नामगीतार्थनां च विषये वणिक्मरुकनिधयः पुनदृष्टान्ता भवन्ति कर्तव्याः। तत्र वणिजा गीतार्थानामुपनयनं कर्त्तव्यं, मरुकेना:गीतार्थानाम्, एवमेतचनन्तरमेव भवितम्।। तत्र वणिक्मरुकदृष्टान्तावेच भावयतिवीसंदीसं भंडी, वणि मरु सव्वा य तुल्लभंडाओ। वीसइभागे सुंकमरुगसरिच्छो इहमगीतो॥२७४|| वणिजा मरुकेण च प्रत्येकं विंशतिभाण्ड्यो गन्त्रयः कृताः / कथंभूता ? इत्याह-सर्वास्तुल्यभण्डा: तुल्यक्रयाणकाः, तत्र शौल्किको विंशतितमे भागे प्रत्येकमेकैकं विंशतितमं भगं या चितवान, वणिक् एका भण्डीभेव दत्तवान्, मरुकस्तु प्रत्येकं प्रत्येकं भण्डीभ्य एकैकं विंशतितम भागम्। अत्र वणिक्सदृशो गीतार्थो मरुकसदृश: (इहमगीत इति ) पुनरिह अगीतोऽगीतार्थः। अथवा कार्याकार्येषु यतनाऽयतनयोर्निधिलाभे यौ वणिग्म रुका तो दृष्टान्तो कर्तव्यौ / तथा चाऽऽहअथवा वणिमरुएण य, निहिलंभ निवेइए वणिऍ दंडो। मरुए पूय विस्सनण, इय कजमकज जयमतओ।।२७५।। अथवेति प्रकारान्तरे / तच प्रकारान्तरमिदम्पूर्वं गीतार्थागीतर्थयोर्वणिक्मरुकदृष्टान्तावुक्ताविदानीं तु कार्याकार्येषु य तनायामयतनायां च निधिलाभोपलक्षितौ वणिक्मरुकदृराष्टान्तावुच्येते इति / वणिजा निधिलाभे अनिवेदिते वणिजो राज्ञा दण्डः कृतः, मरुकेश निधिलाभे निवेदिते तस्मिन्मरुके राज्ञा पूजा कृता, विसर्जनं च प्रदान निधे: मरुकाय कृतम्। इतिरेवममुना दृष्टान्तेन कार्यमकार्य वाऽधिकृत्य यतमानोऽयतमानश्चोपनेतव्यः / य: कार्ये यतनाकारी स मरुक इव पूज्य:, सर्वमपि च तस्य प्रायश्चित्तमुव्यते। कार्ये अयतनाकारी अकार्य यतनाकारीच वणिगिव दण्ड्यते, नवरं कार्येऽयतनाकारिण: स्तोको दण्ड / अत्राऽऽह-किमिति आचार्यस्य सर्व मुच्यते, किमिति वा शेषा: याधवा सर्व प्रायश्चित्तं बाह्यन्ते ? अत्र निधिदृष्टान्तः / तथा चाऽऽहमरुयसमाणो उगुरु, मुचइ पुव्वं पिसव्वं से। साहू वणिओव जहा, वाहिजइ सव्वपच्छित्तं / / 276|| कथानकं प्राक मेवानामवन्य-शामरुको निधिलाभनिवेदने न राज्ञोऽनुग्रहं कृतवान्, तथाऽऽचार्योऽपिग Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 175 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तथापा च्छोपग्रहं करोति, गच्छोपग्रहं च कुर्वन् भगवदाज्ञा पालयति, ततो मरुकवत्स पूज्यः, सर्व च तस्य प्रायश्चित्तं मुच्यते इत्यदोषः। तथा चाऽऽहअरुकसमानो गुरुरिति पूज्यते, अत एव च (से) तस्य पूर्व प्रायश्चित्त मुच्यते / साधुःपुनर्यथा वणिक् तथा द्रष्टव्यः, ततः सर्व प्रायश्चित्तं बाह्यते। अथवा- "वणिमरुयनिही य पुणो (270)" इत्यत्र वणिग्दृष्टान्तो गीतार्थाना, मरुकदृष्टान्तोऽगीतार्थानाम, उभयेषामपि यादृशः षण्मासाऽऽलोबनायामाचार्यस्य विनयोपचारः करणीयस्तथा मासिकाऽऽलोचनन्यामपि / इत्यत्रार्थ निधिदृष्टान्तः। तथा चाऽऽहअहवा महानिहिम्मी, जो उवयारो स एव थोवे वि। विणयादुवयारो पुण, जो छम्मासे समासे वि।।२७७|| अथवेति निधिशब्दस्यार्थान्तरार्थदृष्टान्तत्वोपदर्शने / महानिधादुत्खनितव्ये यो यादृश उपचारः क्रियते, स एव तादृश एव स्तोकेऽपि निधावुत्खनितव्ये करणीयः / एवमपराधाऽऽलोचनायामपि यादृशः षण्मासाऽऽलोचनाया विनयाऽऽधुपचारः क्रियते। अत्राऽऽदिशब्दात्प्रशस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावपरिग्रहः / स तादृशो मासेऽपि मासिकाऽऽलोचनायानपि कर्तव्यः। अत्राऽऽह पर:-यदिदं सूत्रखण्ड यूवं प्ररूपयथ- "तेण परं पलि-उंचिए वा अपलिउंचिए वा तेचेव छम्मासा।" इति। स किमेष सर्वस्यापि नियम उतपुरुषविशेषस्य ? सूरिराहसुबहहिं मासेहिं, छम्मासाणं परं न दायव्वं / अविकोवियस्स एवं, विकोविए अन्नहा होइ॥२७८।। षण्मासेभ्यः परतः सुबहुभिरपि मासैः प्रतिसेवितैः प्रायश्चित्तं षण्मासाना पर सप्तमासाऽऽदिकं न दातव्यं, किं तु षण्मासावधिकमेव। यतोऽस्माकमेतावदेव भगवता वर्द्धमानस्वामिना तपोर्ह प्रायश्चित्तं व्यवस्थापितम् / एतचैवमुक्तप्रकारेण स्थापनाऽऽरोपणालक्षणेन दातव्यमविकोविदस्य परिणामकस्य अपरिणामकस्य वा अगीतार्थस्य / इयमत्र भावनासर्वस्थाप्येष नियमो, यदुत सुबहुष्वपि षण्मासेभ्यः परतो मासेषु प्रतिसेवितेषु प्रायश्चित्तं षण्मासावधिकमेव दातव्यम्, नततोऽधिकमपि, केवलमेतावास्तु विशेषः-योऽपरिणामकोऽतिपरिणामको वा तस्यागीतार्थस्य स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण सर्वान्मासान्सफलीकृत्य षाण्मासिक तपो दीयते : यस्तु विकोविदो गीतार्थोऽगीतार्थो वा परिणामकः, तस्मिन्नन्यथा भवति प्रायश्चित्तदानम् / किमुक्तं भवति? -विकोविदस्य षण्मासानां परतः सुबहुष्वपि मासेषु प्रतिसेवितेषु शेषं समस्तं त्यक्त्वा षमासा दीयन्ते. न पुनरस्ति तत्र स्थापनाऽऽरोपणाप्रकार इति / आह परः-यदि भगवता तपोर्हे प्रायश्चित्ते उत्कर्षतः षण्मासा दृष्टाः, ततः षण्मासा तिरिक्तभासाऽऽदिप्रतिसेवने छेदाऽऽदि कस्मान्न दीयते, येन शेषं समस्तमपि त्यज्यते? इति / तत्राऽऽहसुबहूहिँ वि मासेहिं, छेदो मूलं तहिं न दायव्वं / अविकोवियस्स एवं, विकोविए अण्णहा होइ॥२७६।। यो नामागीतार्थोऽपरिणामकोऽतिपरिणामको वा, यो वा छेदाऽऽदिक न अद्दधाति, तस्य एवमवसातव्यम्-षण्मासानामुपरि तस्य बहुभिरपि / मासैः प्रतिसेवितैश्छेदो मूलं वा न दातव्यम्, अपरिणामाऽऽदिस्वभावतया तस्य छेदमूलानर्हत्वात्। किंतु स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारण षण्मासा दीयन्ते / विकोविद गीतार्थे वा परिणामके तदेव षण्मासदानमन्यथा भवति-स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारमन्तरेणैवमेव दीयन्ते षड् मासा इति भावः / अयमत्र संप्रदायः-अविकोविदा उक्तस्वरूपा निष्कारणप्रतिसेवनया यतनया प्रतिसेवनया वा अभीक्ष्णप्रतिसेवनया वा यदि कथमपि छेदमूलाऽऽदिक प्राप्तास्तथापि तेषां छेदो मूलं वा न देयं, किं-तुषण्मासिकं तपः / यदिपुनरकोविदोऽप्युपेत्य पञ्चेन्द्रियघातं करोति, दर्पण वा मैथुनं प्रतिसेवते, तदा छेदो मूलं वा दीयते। विकोविदस्य षण्णांमासानामुपरि बहुष्वपि प्रतिसेवितेषु मासेषु प्रथमवेलायामुद्धातिताः षण्मासा दीयन्ते, द्वितीयवेलायामनुद्धातिताः, तृतीयवेलायां छेदो मूलं वा इति। अथ कीदृशः कोविदः कीदृशो वा अविकोविद इत्यत आहगीतो विकों वितो खलु, कयपच्छित्तो सिया अगीतो वि। छम्मासियपट्ठवणा-ऍतस्स सेसाण पक्खेवो॥२८०|| गीतो गीतार्थः खलु कृतप्रायश्चित्तो विकोविदः, योऽप्युक्तो यथा आचार्य :-यदीदं भूयः सेविष्यसे ततः छेद मूलं वा दास्यामः, सोऽपि कोविदः / तद्विपरीतोऽगीतार्थः / यश्च प्रथमतया प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते, यश्चोक्तोऽपि तथा न सम्यक् परिणामयति स स्याद्वेत्कोविदः / तत्र यदि कोविदः षट्सु मासेषु तपसा कर्तुमारब्धेषु अन्तरा यदि मासाऽऽदिक प्रतिसेवते तत्तस्य पूर्वप्रस्थापितषण्मासस्य ये शेषा मासा दिवसा वा तिष्ठन्ति तेषां मध्ये प्रक्षिप्यते, न पुनः षण्मासपरिपूर्त्यनन्तरं तद्विषयं भिन्न प्रायश्चित्तं दातव्य-मिति / तथा चाऽऽहषण्मासप्रस्थापनायां, षण्मासेषु तपसा कर्तुमारब्धेषु इत्यर्थः / तस्य मासिकाऽऽदेरपान्तराले प्रतिसेवितस्य षण्मासस्य ये शेषा मासा दिवसास्तिष्ठन्ति तेषां मध्ये अनुग्रहकृत्स्नं, न वा प्रक्षेपः। आह-एतत्तपश्छेदमूलार्ह प्रायश्चित्तं कुत उत्पद्यते? सूरिराह(७) मूलातिचारे प्रायश्चित्तम्मूलातियार चेयं, पच्छित्तं होइ उत्तरेहिं वा। तम्हा खलु मूलगुणे-ऽनतिक्कमे उत्तरगुणे वा // 281 / / एतत् तपश्चेदमूलर्हि प्रायश्चित्तं यस्मात् भवति मूलातिचारे मूलगुणातिचारे, प्राणातिपाताऽऽदिप्रतिसेवने इत्यर्थः / उत्तरैर्वा उत्तरगुणैर्वा पिण्डविशुद्ध्यादिभिरतिचर्यमाणैर्भवति प्रायश्चित्तं, तस्मात् मूलगुणान् प्राणातिपाताऽऽदि प्रतिसेवनया, उत्तरगुणान् वा उद्गमाऽऽदिदोषाऽऽसेवनया नातिक्रमेत्। अत्र पर आहमूलव्वयाइयारा, जयऽसुद्धा चरणभंसगा हुंति। उत्तरगुणातियारा, जिणसासणे किं पडिक्कुट्ठा? // 282|| यदि मूलगुणातिचारा अशुद्धा इति कृत्वा चरणभ्रंशका भवन्ति, ततः साधूनामुत्तरगुणातिचाराश्चरणस्याभंशकाः प्राप्ताः, मूलगुणातिचाराणां चरणभ्रशकतया प्रतिपन्नत्वात् / ततः किमुत्तरगुणा जिनशासने प्रतिकुष्टाः, न युक्तस्तेषां प्रतिषेधो, दोषाकारित्वादिति भावः। उत्तरगुणातियारा, जयऽसुद्धा चरणभंसगा हुति। मूलव्वयातियारा, जिणसासणे किं पडिक्कुट्ठा? // 283|| Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त यदि उत्तरगुणातिचारा अशुद्धा इति कृत्वा चरणभ्रशका भवन्ति, ततो मूलवतातिचाराश्चरणभ्रशका न प्राप्नुवन्ति, उत्तरगुणातिचाराणां चरणभ्रशकतया प्रतिपन्नत्वात् / तथा च सति मूलव्रतातिचाराः किं जिनशासने प्रतिक्रुष्टाः? दोषाभावात्। अत्र सूरिराहमूलगुण उत्तरगुणा, जम्हा भसंति चरणसेढीओ। तम्हा जिणेहिँ दोण्णि वि, पडिकुट्ठा सव्वसाहूणं // 24 // यस्मात् मूलगुणा उत्तरगुणा वा पृथक् पृथक् युगपद्वा अतिचर्यमाणाश्चरणश्रेणीतः संयमश्रेणीतो भंशयन्ति / साधून ततो जिनैः सर्वोयेऽपि मूलगुणातिचारा उत्तरगुणातिचाराश्च प्रतिकुष्टाः / अन्यच्चमूलगुणेष्वतिर्थमाणेषु मूलगुणास्तवद्धता एव / किं तु उत्तरगुणा अपि हन्यन्ते। तेषां विनाशे उत्तरगुणेष्वति चर्यमाणेषुत्तरगुणा स्तावद्धता एव, किं तु मूलगुणा अपि हन्यन्ते। तथा चाऽत्र दृष्टान्तमाहअग्गधाओ हणे मूलं,मूलघातो उ अग्गयं / तम्हा खलु मूलगुणा, न संति न य उत्तरगुणा य / / 285 / / यथा तालट्ठमस्याग्रस्तद्व्याघातो मूलं हन्ति, मूलधातोऽपि चागंहन्ति, एवं मूलगुणानां विनाश उत्तरगुणानपि नाशयति, उत्तरगुणानामपि विनाशो मूलगुणान्, तस्मात् मूलगुणातिचारा उत्तरगुणातिचाराश्च जिनैः प्रतिकुष्टाः / अत्र चोदक आह-यदि मूलगुणानां नाशे उत्तरगुणानामपि नाशः, उत्तरगुणानां नाशे मूलगुणानामपि, तस्मात्ततो नखलु नैव मूलगुणाः सन्ति, नाष्युत्तरगुणाः / यस्मान्नास्ति स संयतो यो मूलोत्तरगुणानामन्यतमं गुणं न प्रतिसेवते, अन्यतमगुणप्रतिसेवने च द्वयानामपि मूलोत्तरगुणानामभावः, तेषामप्यभावे सामायिकाऽऽदिसंयमाभावः, तदभावे वकुशाऽऽदिनिर्गन्थानामभावः / ततः प्राप्त तीर्थमचारित्रमिति। सूरिराहचोयग ! छक्कायाणं, तु संजयो जाऽणुधावए ताव। मूलगुण उत्तरगुणा, दोण्णि वि अणुधावए ताव // 286 // चोदक! यावत् षड्जीवनिकायेषु संयमोऽनुधावति अनुगच्छति प्रबन्धेन वर्तते, तावत् मूलगुणा उत्तरगुणाश्च द्वयेऽप्यते अनुधावन्ति प्रबन्धेन वर्तन्ते। इत्तरसामाइयछे यसंजता तह दुवे नियंठा य। वउसपडिसेवगा ता, अणुसज्जंते य जा तित्थं / / 287|| यावत् मूलगुणा उत्तरगुणाश्चानुधावन्ति तावदित्वरसामायिकच्छदसयतावनुधावतः / यावचेत्वरसामायिकच्छेदोपस्थानसंयमा तावद् द्वौ निर्ग्रन्थावनुधावतः। तद्यथा-वकुशः, प्रतिसेवकश्वतथाहि-यावन्मूलगुणप्रतिसेवना तावत्प्रतिसेवको, यावदुत्तरगुणप्रतिसेवना तावद्वकुशः / ततो यावत्तीर्थ तावद्वकुशाः प्रतिसेवकाश्च अनुसज्जन्ति अनुवर्तन्ते, ततो नाचारित्रं प्रसक्त प्रवचनमिति। (8) मूलोत्तरगुणप्रतिसेवायां प्रायश्चित्तम् अथ मूलगुणप्रतिसेवनायामुत्तरगुणप्रतिसेवनायां वा चारित्रभ्रंशशास्तत्र कश्चिद्विशेषः उत नास्ति? अस्तीति बूमः / कोऽसावित्याह मूलगुणें दइयसगडे, उत्तरगुणे मंडवे सरिसवाई। छक्कायरक्खणट्ठा, दोसु वि सुद्धे चरणसुद्धी // 258|| मूलगुणेषु दृष्टान्तः दृतिः शकटं च केवलम्, उत्तरगुणा अपि तत्र दर्शयितव्याः। उत्तरगुणेषु दृष्टान्तो मण्डपे सर्षपाऽऽदि / आदिशब्दात शिलाऽऽदिपरिग्रहः / तत्रापि मूलगुणा अपि दर्शयितव्याः। इयमत्र भावनाएकेनापि मूलगुणप्रतिसेवनेन तत्क्षणादेव चारित्रभंश उपजायते, उत्तरगुणप्रतिसेवनायां पुनः कालेन। अत्र दृष्टान्तो दृतिकः / तथाहियथा दृतिक उदकभृतः पञ्चमहाद्वाराः, तेषां महाद्वाराणामेकस्मिन्नपि द्वारे मुत्कलीभूते तत्क्षणादेव रिक्तो भवति सुचिरेणानेककालेन पूर्यते एवं महाव्रतानामे कस्मिन्नपि महाव्रते अतिचर्यमाणे तत्क्षणादेव समस्तचारित्रभंशो भवति, एकमूलगुणघाते सर्वमूलगुणानाघातात्। तथा च गुरवो व्याचक्षते एकव्रतभने सर्वव्रतभङ्ग इति एतन्निश्चयनयमतम् / व्यवहारतः पुनरेकव्रतभड्ने तदेवैकं भग्रं प्रतिपत्तव्यम्, शेषाणां तु भङ्क: क्रमेण, यदि प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या नानुसंधत्ते इति / अन्ये पुनराहुचतुर्थमहाव्रतप्रतिसेवने तत्काल मेव सकलचारित्रभंशः, शेषेषु पुनर्महाव्रतेष्वभीक्ष्णप्रतिसेवनया महत्यतिचरणे वा वेदितव्यः उत्तरगुणप्रतिसेवनायां पुनः कालेन चरणभंशो यदि पुनः प्रायश्चित्तप्रसिपत्त्या नोजवालयति / एतदेव कुतोऽवसेयमिति चेत्? उच्यतेशकटदृष्टान्तात्। तथाहि-शकटस्य मूलगुणा द्वे चक्रे, उर्दी ?, अक्षय उत्तरगुणा वधकीलकलोहपट्टाऽऽदयः। एतैर्मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च सुसंप्रयुट सत् शकट यथा भारवहनक्षम भवति, मार्गे च सुखं भवति, तथा साधुनी मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च सुसंप्रयुक्तः सन् अष्टादशशीलाङ्ग सहसमारवहनक्षम भवति, विशिष्ट उत्तरोत्तरसंयमाध्यवसायस्थानपथेच सुखं वहति। # शकटस्य मूलाङ्गानामेकमपि मूलाङ्गं भग्नं भवति, तदान भारवहनक्षम नापि मागें प्रवर्तते, उत्तराङ्गेषु कैश्चिद्विनाऽपि शकटं कियत्कालं भारक्षभवति, प्रवहति च मार्गे, कालेन पुनर्गच्छताऽन्यान्यपरिशटनादयोग्य तदुपजायते। एवमिहापि मूलगुणानामेकस्मिन्नपि मूलगुणे हतेन साधून-- ष्टादशशीलाङ्ग सहस्रभारवहनक्षमता, नापि संयमश्रेणिपथे प्रवहन, उत्तरगुणैस्तु कैश्चित् प्रतिसेवितैरपि भवति / कियन्तं कालं, वरणभारवहनक्षमता, संयमश्रेणिपथेप्रवर्तनंचा कालेन पुनर्गच्छतातत्राप्यन्यान्यगुणप्रतिसेवनातो भवति समस्तचारित्रभ्रंशः ततः शकट-दृष्टान्तादुपपद्यान मूलगुणानामेकस्यापि मूलगुणस्य नाशे तत्कालं चारित्रभ्रंश उत्तरपुस्तके कालक्रमेणेति / इतश्चैतदेवं मण्डपसर्षपाऽऽदिदृष्टान्तात् / तथा हैएरण्डाऽऽदिमण्डपे योको द्वौ बहवो वा सर्षपाः, उपलक्षणमेतत्-तिला लाऽऽदयो वा प्रक्षिप्यन्ते, तथाऽपि न मण्डपो भङ्गमापद्यते, अतिप्रभू स्वादकाऽऽदिसंख्याकैर्भज्यते (?) अथतत्र महती शिला प्रक्षिप्यते, तर तयैक्याऽपिततक्षणादेवध्वसमुपयाति एवं चारित्रमण्डपोऽप्येकद्रित्र्यदिभिरुत्तरगुणैरतिचर्यमाणैर्न भङ्गमुपयाति बहुभिस्तुकालक्रमेणातिचर्यमाभज्यते,शिलाकल्पेन पुनरेकस्यापि मूलगुणस्यातिचारमेतत्कान ध्वंसमुपगच्छतीति / तदेवं यस्मात् मूलगुणातिचरणे क्षिप्रमउत्तरगुणातिचरणेकालेनचारित्रभंशोभवति तस्मान्मे मूलगुणा उत्तरपुगाई निरतिचाराः स्युरितिषट्कायरक्षणार्थ सम्यक्प्रयतितव्यम्।टकायरक हि मूलगुणा उत्तरगुणाश्च शुद्धा भवन्ति, तेषु च द्वयेष्वपि शुद्धेषु, ॐ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 177- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त गाथायामेकवचन प्राकृतत्वात्। प्राकृते हि वचनव्यत्ययोऽपि भवतीति। चरणशुद्धिश्चारित्रशुद्धिः। अत्र शिष्य आह-ये प्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्त्यात्मकाः पञ्च मूलगुणास्ते ज्ञाताः, ये तूत्तरगुणास्तान्न जानीमः, ततः कति उत्तरगुणा इति? सरिराहपिंडस्स जा विसोही, समितीओ भावणा तवो दुविहो।। पडिमा अभिग्गहा विय, उत्तरगुण मो वियाणाहि॥२८६।। पिण्डस्य या विशोधियश्च समितय ईर्यासमित्यादिकाः, याश्च भावना महाव्रतानां, यच द्विभेदं तपः, याश्च प्रतिमा भिक्षणांद्वादश, ये चाभिग्रहा द्रव्याऽऽदिभेदभिन्नाः एतान् उत्तरगुणान् "मो" इति पादपूरणे / विजानीहि। एतेषां चोत्तरगुणानामियं क्रमेण संख्यावायाला अद्वैव उ,पणवीसा बार बारस य चेव। दव्वाइ-चउरभिग्गह, भेया खलु उत्तरगुणाणं // 260 / / उत्तरगुणानां प्रागुक्तानां पिण्डविशुद्धयादीनां क्रमेण खल्वमी भेदाः। तद्यथा-पिण्डविशुद्धेःद्वाचत्वारिंशद्भेदाः-षोडशविध उद्गमः, षोडशविधा उत्पादना, दशविधा एषणा च / समितीनामष्टौ भेदाः। तद्यथा-पञ्च ईसिमित्यादयः, तथा मनः-समितिः, वाक्समितिः, कायसमितिरित्यष्टौ। भावनानां भेदाः पञ्चविंशतिः, एकैकस्य महाव्रतस्य पञ्चपञ्चभावनासगावात्। तपसो द्विविधस्यापि सर्वसंख्यया भेदा द्वादश। द्विविध हितपो, बाह्याऽऽभ्यन्तरभेदात्। बाह्यस्याऽऽभ्यन्तरस्य च प्रत्येकंषड्भेदा इति / प्रतिमानां भेदा द्वादश / ते च- "मासाई सत्ता।" इत्याद्यावश्यकग्रन्थतो वेदितव्याः / अभिग्रहभेदाश्चत्वारो द्रव्याऽऽदिकाःद्रव्याभिग्रहाः, क्षेत्राभिग्रहाः, कालाभिग्रहाः, भावाभिग्रहाश्चातदेवमुक्ता उत्तरगुणाः। संप्रति यदधस्तात्प्रायश्चित्तमुपवर्णितंतगतानां पुरुषाणामि मे विशेषा इति प्रतिपादयतिनिग्गय वटुंता विय, संचइया खलु तहा असंचइया। एक्नेका ते दुविहा,उग्घाय तहा अणुग्घाया॥२६१।। ये प्रायश्चित्त वहन्ति ते द्विविधाः। तद्यथा-निर्गताः, वर्तमानाश्च। निर्गता नाम ये तपोऽहं प्रायश्चित्तमतिक्रान्ताश्छेदाऽऽदिप्राप्ताः / वर्तमाना ये तपोऽहे प्रायश्चित्ते वर्तन्ते। तत्र ये वर्तमानान्ते पुनर्द्विविधाः-संचयिताः, असंचयिताच: संचयः संजात एषामिति संचयिताः,तारकाऽऽदिदर्शनादितच प्रत्ययः / येषण्णां मासानां परतः सप्तमासाऽऽदिकं यावदुत्कर्षतोऽशीतशतं मासानां प्रायश्चित्तं प्राप्तास्ते संचयिताः, तेषां मासेभ्यः स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण दिवसान गृहीत्वा षण्मासावधिकं प्रायश्चित्तं दीयते / असंचयिता नामये मासिके द्वैमासिके त्रैमासिके चातुर्मासिके पञ्चमासिके षण्मासिके वा प्रायश्चित्ते वर्तन्ते। ते संचयिता असंचयिताश्च एकैके द्विविधाः-उद्धातास्तथा अनुद्धाताः / उद्घातो नामलघुः / अनुद्धातो गुरुः / तत्र ये संचये असंचये च उद्धाते वर्तन्ते ते संचयिता असंचयिताश्च उद्घाताः। ये च पुनरुद्धाते वर्तन्ते संचयिता असंचयिताश्च ते अनुद्धाताः। साम्प्रतमेनामेव गाथा यथोक्तव्याख्यानेन व्याख्यानयति छेयाईआवण्णा, उ निग्गया ते तवा उ बोधव्या। जे पुण वद्रूति तवे, ते वदंता मुणेयव्वा / / 262 / / मासादी आवण्णे, जा छम्मासा असंचयं होइ। छम्मासा उ परेणं, संचइयं तं मुणेयव्वं / / 293 / / ये छेदाऽऽदिप्रायश्चित्तमापन्नास्ते निर्गता उच्यन्ते। कुतस्ते निर्गताः? इत्याह-(ते तवा उ बोधव्वा) ते निर्गतास्तपसस्तपोऽत्प्रिायश्चित्तात्तु बोद्धव्याः। ये पुनर्वर्तन्ते तपसि तपोऽर्हे प्रायश्चित्ते ते वर्तमाना ज्ञातव्याः / (मासादीत्यादि) मासाऽऽदिकं प्रायश्चित्तस्थानमाप: पासादारभ्य यावत्षण्मासाः, तावत्तत्प्रायश्चित्तमसंचयम् असंचयसंज्ञं भवति / षण्मासात्तु षड्भ्यो मासेभ्यः परेण परतो यत्प्रायश्चित्तं तत्संचयितं ज्ञातव्यम्। उद्घातानुद्धातविशेषस्तु सुप्रतीत इति नव्याख्यातः। संप्रति संचयासंचयेषूद्धातानुद्धातेषु प्रस्थापनविधिं विवक्षु रिदमाहमासाइ असंचइए, संचइ छहिं तु होइ पट्ठवणा। तेर पय असंचइए, संचय एक्कारस पयाई॥२६४|| असंचयिते प्रायश्चित्तस्थाने प्रस्थापना मासाऽऽदि मासप्रभृतिका, संचयिते पुनः प्रस्थापना नियमतः षड्भिर्मासैर्भवति। प्रस्थापना नाम दानम् / उक्तं च निशीथचूण्ाँ - "पट्ठवणा नाम दाणं ति।" इयमत्र भावना-असंचये प्रायश्चित्तस्थानविषये यो मासिकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्तस्य मासिकी प्रस्थापना, द्वौ मासावापन्नस्य द्वैमासिकी, त्रीन् मासानापन्नस्य त्रैमासिकी। एवं यावत्षण्मासानापन्नस्य पाण्मासिकी। यः पुनः संचयाऽऽपन्नस्तस्य नियमात् पाण्मासिकी प्रस्थापना / तत्राऽसंचये प्रस्थापनायाः पदानि त्रयोदश, संचये एकादश। तत्रासंचये प्रस्थापनायाः पदानि त्रयोदशामूनितवतिय छेयतियं वा, मूलतियं अणवठावणतियं च। चरमं च एक्कसरयं, पढमं तववज्जियं विइयं // 265|| तपस्त्रिकं छेदत्रिक मूलत्रिकमनवस्थाप्यत्रिकं चरमं पराञ्चितं तत् एकस्वरमेकवारं दीयते / इदमुक्तं भवति-असंचये उद्धाते मासाऽऽदिकमापन्नस्य प्रथमवेलायामुद्धातो मासो दीयते / द्वितीयवेलायामुद्धातचतुर्मासिकं, तृतीयवेलायामुद्धातषण्मासिकं, चतुर्थवेलायां छेदः, पञ्चमवेलायामपि छेदः, षष्ठवेलायामपिछेदः / सर्वत्र त्रीणि त्रीणि दिनानि छेदः / सप्तमवेलायां मूलम्, अष्टमवेलायां मूलं, नवमवेलायामपि मूलं, दशमवेलायामनवस्थाप्यम्, एकादशवेलायामनवस्थाप्यम् / द्वादशवेलायां पाराञ्चितमिति / एवमनुद्धातितेऽपि / संचये त्रयोदश पदानि प्रस्थापनायां वक्तव्यानि। (पढ़मंति) प्रथममसंचयं पदं गतं, द्वितीयं संचयं पदं (तववज्जियं ति) मासचतुर्मासलक्षणाभ्यामादिमाभ्यां द्वाभ्यां पदाभ्यां वर्जितमेकादशपदं भवति। एतदेव व्याख्यानयतिविइयं संचइयं खलु, तं आइपएहि दोहिं रहियं तु। छम्मासतवादीयं, एक्कारसपएहिँ चरमेहिं / / 266 / / द्वितीयं खलु संचयितमुच्यते , तद् द्वाभ्यामादिपदाभ्यां राहतं षण्मासतपआदिक षण्मासतपःप्रभृतिक चरमै रे कादशपदैद्रष्टव्यम् / तत्राऽपीय भावना-संचयितं प्रायश्चित्त मानमाप Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 175- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त नस्य प्रथममुद्धातं षाण्मासिकं तपो दीयते, द्वितीयवेलायां छेदः, तृतीयवेलायां छेदः,चतुर्थवेलायामपि छेदः, पञ्चमवेलायां मूलं, षष्ठवेलायां मूलं, सप्तमवेलायामपि मूलम्, अष्टमवेलायामनवस्थाप्य, नवमवेलायामनवस्थाप्यं, दशमवेलायामप्यनवस्थाप्यम्, एकादशवेलायां पाराञ्चितमिति / एतदेवाऽऽहछम्मास तवो छेदा-इयाण तिग तिग तहेक्क चरमं च। संवट्टियावराहे, एक्कार पया उसंचइए॥२६७|| संचयिते, कथंभूते ?, इत्याह-संवर्तितापराधे संवर्तिताः पिण्डीभूता अपराधा यत्र तत् संवर्तितापराधम्। तथाहि-बहुषु मासेषु प्रतिसेवितेषु स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण तेभ्यो मासेभ्यो दिनानि दश दश पञ्चपञ्चेत्यादिरूपतया गृहीत्वा पाण्मासिकं तपो निष्पाद्यते, ततो भवति संचयितं संवर्तितापराधं, तस्मिन्नेकादशपदान्येवं भवन्ति-प्रथमवेलायामुद्धातं षाभासिकं तपः, ततः छेदाऽऽदीनां त्रिक त्रिकम् / किमुक्तं भवति?तदनन्तरं वेलात्रयमपि यावत्छेदत्रिक, तदनन्तरमनवस्थाप्यत्रिकं, तथा एकमेकवेल वा चरमं पाराश्चितमिति। एवमनुद्धातितेऽपि संचयिते एकादश पदानि वाच्यानि। संप्रति येऽत्र प्रायश्चित्तस्याः पुरुषास्तान् प्रतिपादयतिपच्छित्तस्स उ अरहा, इमे उ पुरिसा चउव्विहा हुंति। उभयतर आयतरगा, परतरगा अण्णतरगा य / / 268 // प्रायश्चित्तस्यारे योग्या इमे चतुर्विधाश्चत्वारः पुरुषा भवन्ति। तद्यथाउभयतराः, आत्मतरकाः, परतरकाः, अन्यतरकाश्च। तत्र ये उत्कर्षतः षण्मासान् अपि यावत्तपः कुर्वन्तोऽग्लानाः सन्तः आचार्याऽऽदीनामपि वैयावृत्त्यं कुर्वन्ति, तल्लब्ध्युपेतत्वात् ते उभयमात्मानं परं चाऽऽचार्याऽऽदिकं तारयन्तीत्युभयतराः, पृषोदराऽऽदित्वाद् ह्रस्वः / ये पुनः तपोबलिष्ठा वैयावृत्त्यलब्धिहीनास्ते तप एव यथोक्तरूपं कुर्वन्ति, न वैयावृत्यमाचार्याऽऽदीनामित्यात्मानं केवलं तारयन्तीत्यात्मतराः, स्वार्थिकप्रत्ययविधानात् आत्मतरकाः। ये पुनस्तपः कर्तुमर्घा वैयावृत्त्यं चाऽऽचार्याऽऽदीनां कुर्वन्तिते परंतारयन्तीति परतरकाः / येषां न तपसि वैयावृत्त्ये च सामर्थ्यमस्ति केवलम्, उभयं युगपत्कर्तुं न शक्नुवन्ति, किं त्वन्यतरत्, ते एकस्मिन् काले आत्मपरयोरन्यमन्यतरं तारयन्तीत्यन्यतरकाः। आयतर परतरे विय, आयतरे अभिमुहे य निक्खित्ते। एकेक्कमसंचइए, संचय उग्घायमणुघाया ||26|| आत्मतरश्च स परतरश्च, आत्मतरपरतरः, उभयतर इत्यर्थः। यश्वाऽऽत्मतरः परतरो वा, एतौ द्वावपि प्रायश्चित्तवहनाभिमुखौ भवतः, ततस्तस्मिन्प्रत्येकं प्रायश्चित्तमभिमुखमुच्यते / यस्तु परतरोऽन्यतरको वा यावद् वैयावृत्यं करोति,तौ च तयोः प्रायश्चित्तं निक्षिप्तं क्रियते, इति तन्निक्षिप्तमभिधीयते / एकैकमभिमुख, निक्षिप्तं च द्विधासंचयितमसंचयितं च। पुनरेकैकं द्विधाउद्घातमनुद्घातं च। तदेतत् संक्षेपतउक्तम्। इदानीं विस्तरोऽभिधेयः, तत्र यः प्रथम उभयतरः, तस्येम दृष्टान्तमाचार्याः परिकल्पयन्ति जह मासओ उ लद्धो, सेवयपुरिसेण जुयलयं चेव। तस्स दुवे तुट्ठीओ, वित्तीय कया जुयलयं च / / 300 / / "एगो सेवगपुरिसोरायं ओलग्गइ, सो राया तस्स वित्तिं न देइ, अन्नया तेण राया केणइ कारणेण परितोसितो,ततो तेण रण्णा तस्स तुट्टेण पइदिवसं सुवण्णमासगो वित्ती कया, पहाणं च से वत्थजुयलं दिन्नं।" तथा चाऽऽह-(जहेत्यादि) यथेति दृष्टान्तोपन्यासे, माषकः सुवर्णभाषकः सेवकपुरुषेणलब्धो, युगलं च वस्त्रयुगलंचातस्य च सेवकपुरुषस्य द्वे तुष्ट्यौ जाते, एकंवृत्तिः कृताः, द्वितीयं वस्त्रयुगलमिति। एष दृष्टान्तः / अयमुपनयःएवं उभयतरस्सा, दो तुट्ठीओ उ सेवगस्सेव। सोहीय कया मेत्ती,वेयावचे निउत्तो य॥३०१।। एवं सेवकपुरुषदृष्टान्तप्रकारेण उभयतरस्यसेवकस्येव सेवकपुरुषस्येव द्वे तुष्ट्यौ भक्तः / तद्यथा-एक तावन्मे प्रायश्चित्तदानेन शोधिः कृतः, द्वितीयं वैयावृत्ये नियुक्तस्य महती मे निर्जरा भविष्यति। अथ प्रायश्चित्तं वहन् वैयावृत्यं च कुर्वन् यदि अन्यदपि प्रा यश्चित्तमापद्यते तदा कथम् ? उच्यतेसो पुण जइ वहमाणो,आवजइ इंदियाइहि पुणो वि। तं पिय से आरुहिज्जइ, भिन्नाई पंचमासंतं // 302 / / स पुनरुभयतरः प्रायश्चित्तं व्हन् वैयावृत्यं कुर्वन्यदिपुनरपि श्रोत्रादीन पञ्चानामिन्द्रियाणामन्यतमेनेन्द्रियेण, आदिशब्दात् क्रोधाऽऽदिभिश्च स्तोकं बहु वा प्रायश्चित्तमापद्यते। तत्र स्तोक विंशतिरात्रिन्दिवादारभ्य पश्चादानुपूर्व्या यावत् पञ्चरात्रिन्दिवं, बहुपाराञ्चितादारभ्य पश्चादानुपूा यावत् मासिकं, तदपि (से) तस्य आरुह्यते,भिन्नाऽऽदि भिन्नमासाऽऽदि, आदिशब्दात्सकलमासाऽऽदिपरिग्रहः / पञ्चमासान्त पञ्चमासपर्यन्तम् / इयमत्र भावनास्तोकं बहु वा यथोक्तस्वरूपं यदि प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, तथापि तस्य भिन्नमासाऽऽदि दीयते। कस्मादिति चेद्? अत आहतवबलिओ सो जम्हा, तेण र अप्पे वि दिज्जई बहुअं। परतरओ पुण जम्हा, दिज्जइ बहुए वि तो थोवं // 303 / / यस्मात्स उभयतरकः प्रायश्चित्ततपःकरणे धृतिसंहननबलिष्ठः, तेन कारणेन / रेफः पादपूरणे / "इजेराः पादपूरणे" ||8/2 / 217: इतेि वचनात् ।अल्पेऽपि पञ्चरात्रिन्दिवाऽऽदिके प्रायश्चित्तस्थाने, बहुक भिन्नमासाऽऽदि दीयते / यस्माच परतः परमाचार्याऽऽदिकं वैयावृत्यकरणतस्तारयति, ततो बहुकेऽपि पाराञ्चितिके प्रायश्चित्ते प्राप्पे स्तोक भिन्नमासाऽऽदि दीयते / तदेवं स्तोके बहुके वा प्रायश्चित्तस्थाने प्राप्त भिन्नमासाऽऽदि दाने कारणमुक्तम्। संप्रति भिन्नमासाऽऽदि यथा दातव्यं, तथा प्रतिपादयतिवीसऽवारस लहुगुरु-भिन्नाणं मासियाणमावन्नो। सत्तारस पण्णारस, लहुगुरुया मासिया हुँति / / 304|| स उभयतरक : प्रस्थापितं प्रायश्चित यहन वैयावृत्य च कुवन् यदि स्तोकं बहु वा उद्धातमनुद्धातं प्रायश्चित्तस्थानमन्यदापन्नः, ततो यदि पूर्वप्रस्थापितं प्रायश्चित्तमुद्धातं, तमु Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त द्धातो भिन्नमासो दीयते / यदि पुनरप्यापद्यते, ततो भूयोऽपि भिन्नमासो दीयते। एवं विंशतिवारान् भिन्नमासो दातव्यः 20 / यदि विंशतेवरिभ्यः परतोऽपि भूय आपद्यते, ततः स्तोके बहुके वो प्रायश्चित्ते प्राप्ते लघुमासो दीयते एवं भूयो भूयस्तावद्द्यावत् सप्तदश वाराः 17 / नवरमत्र स्तोकं पशाऽऽदिकं भिन्नमासान्तं, बहु द्विमासाऽऽदि पाराश्चितान्तं, ततः परतो यदि पुनरपि भूयो भूय आपद्यते, ततोऽन्यत् सप्तदशवारान् द्वैमासिक दातव्यम् / अत्र स्तोकं पञ्चकाऽऽदि लघुमासपर्यन्तं, बहु त्रिमासाऽऽदि पारा चतान्तम् / एवं त्रैमासिकाऽऽदिष्वप्यधस्तनानि स्थानानि स्तोकमुपरितनानि बहु वेदितव्यानि।ततः सप्तदशवारेभ्यः परतो यदि भूयः पुनः पुनरापद्यते. ततस्वैमासिक सप्तदशवारान् दीयते 17 / ततोऽपि परतो यदि पुनः पुनरापद्यते, ततः सप्तवारान् लघु चातुर्मासिकं दीयते 7 / ततोऽपि परतो यदि पुनर्भूयो भूय आपद्यते, ततः पञ्चवारान् लघुपाञ्चमासिक दीयते / यदि ततोऽपि परतो भूय आपत्तिः, तत एकवारं लघुषामासिक दीयते तदनन्तरं यदि पुनरपि भूयो भूय आपत्तिः, ततस्त्रीन् वारान् छेदो दीयते 3 / यदि ततः परमपि पुनः पुनरापत्तिस्ततस्त्रीन्वारान् मूलं दीयत 3 // ततोऽपि परतो भूयो भूय आपत्तौ त्रीन्वाराननवस्थाप्यदानं, तदनन्तरं यदि पुनरापद्यते तत एकं वारंपाराञ्चितदानमिति। एवमसंचयितमुद्धा तितं गतम् / अथासंचयितमनुद्धातितं प्रस्थापितं ततोऽल्पं बहु वा यदि प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते, तर्हि गुरुको भिन्नमासो दीयते, ततः पुनः पुनरापत्तौ सोऽष्टादश वारान् दीयते 18 ततः परं भूयो भूय आपत्ती पञ्चदश वारान गुरुमासिकम् 15 / ततः परंपञ्चदश वारान् गुरुद्वैमासिकम् 15 / ततः परं पञ्चदश वारान् गुरुत्रैमासिकम् 15 / ततो भूयोऽपि परं पञ्चयारान् गुरुचातुर्मासिकम् 5 / ततः परं यदिभूयो भूय आपत्तिस्ततस्त्रीन वारान गुरुपाञ्चमासिकम् 3 / तदनन्तरमकवारं षड्गुरु १।ततः परं छेदत्रिक, ततोऽनवस्थाप्यत्रिक, ततः परमेकं वारं पाराञ्चितम् / संप्रत्यक्षरार्थो विव्रियते-यदि पूर्वप्रस्थापितमुद्धातमनुद्धातं च प्रायश्चित्तं वहन वैयावृत्त्यं च कुर्वन्नुभयतरः स्तोकं बहु वा भूयो भूयः प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते, ततो यथासंख्यमुद्धातं प्रायश्चित्तं बहतो लघुभिन्नानां मासिकाना विंशतिवारान् प्रदानम् / अनुद्धातं प्रायश्चित्तं बहतो गुरुभिन्नानां मासिकाना मष्टादश वारान्। तदनन्तरं भूयो भूय आपत्तावुद्धात प्रायश्चित्तं बहतः सप्तदश वारान् लघुमासिका भवन्ति, अनुद्धातं प्रायश्चित बहतः पञ्चदश वारान् गुरुमासिकाः। उग्धाइयमासाणं, सत्तरसेव य अणुम्मुयंतेणं। णायव्वा दोणि तिण्णि य, गुरुया पुण हो ति पण्णरस // 305 / / सत्त चउका उग्धा-इयाण पंचेव होतऽणुग्घाया। पंच लहुया उपंच उ, गुरुगा पुण पंचगा तिण्णि // 306 / / उद्धातितमासानामनुद्धातितमासिकानां ये सप्तदश वारास्तानमुञ्चता ज्ञातव्यो द्वौ मासौ, त्रयश्च मासा ज्ञातव्याः ये पुनर्गुरुका द्वौ त्रयश्च मासास्ते पञ्चदश वारान् ज्ञातव्याः / किमुक्तं भवति? - उद्धातितं प्रायश्चित्तं बहतो मासिकानन्तरं भूयो भूय आपत्तौ द्वौ मासौ सप्तदश वारान् दीयेते ! ततोऽपि भूयो भूय आपत्तौ सप्तदश वारान् त्रीन् मासान्। अथानुवातित प्रायश्चित्तं वहति तर्हि गुरु-मासिकानन्तरं भूयो भूय | आपत्तौ द्वौ गुरुको मासौ पञ्चदश वारान् दीयेते, तदनन्तरं पञ्चदश वारान् त्रीन् गुरुकान्मासानिति / (सत्तचउक्केत्यादि) उद्घातितानां चतुष्काः सप्त भवन्ति। अनुद्धातितानाम्, अत्र गाथायां प्रथमा षष्ट्यर्थे / चतुष्काः पञ्च भवन्ति / लघुकाः पञ्च मासाः पञ्च वारान् भवन्ति / गुरुकाः पुनः पञ्चकाः पञ्च मासाः त्रीन्वारान् भवन्ति। इदमुक्तं भवतिउद्धातं प्रायश्चित्तं वहतः त्रैमासिकानन्तरं भूयो भूय आपत्तौ सप्त वारान् लघुकाश्चत्वारो मासा दीयन्ते ; तदनन्तरं पञ्च वारान् लघुकाः पञ्च मासाः। अनुद्धातितं प्रायश्चित्तं बहतः त्रैमासिकानन्तरं पुनः पुनरापत्तौ पञ्च वारान गुरुकाः पञ्च मासाः,तदनन्तरं त्रीन् मासान्पञ्च गुरुमासाः / साम्प्रतमत्रैवासंचये उद्धातानुद्धाताऽऽपत्तिस्थानानां सुखाव गमोपायमाहउक्कोसाउ पंयातो, ठाणे ठाणे दुवे परिहरेजा। एवं दुगपरिहाणी, नेयव्वा जाव तिण्णेव // 307 / / उत्कृष्ट नाम-उद्धातभिन्नमासगतं विंशतिलक्षणं, तस्मादारभ्योद्धातगते स्थाने यदुत्कृष्टं तदपेक्षया अनुद्धातगतेषु स्थानेषु द्वौ द्वौ परिहापयेत् / एवं द्विकपरिहानिस्तावत् ज्ञातव्या यावदुद्धातगतपञ्चकोत्कृष्टापेक्षया अनुद्धाते त्रय इति। इयमत्र भावनाउद्धाते भिन्नमासे विंशतिः, अनुद्धाते द्विकपरिहान्या अष्टादश, तथोद्धाते मासे सप्तदश, अनुद्धाते पञ्चदश। एवं द्विमासे त्रिमासेऽपि। तथा उद्घाते चतुर्मासे सप्त, अनुदाते पञ्च / तथा उद्घाते पञ्चमासे पञ्च, अनुदाते त्रय इति / तदेवमापत्तिस्थानान्युक्तानि / (E) उद्घातानुद्घातदानविधिः। साम्प्रतमेतेषां दान-विधिमाहअट्ठट्ठ उ अवणेत्ता, सेसा दिजंति जाव उ तिमासे। जत्थऽट्ठगावहारो, न होञ्ज तं झोसए सव्वं // 308|| ये भिन्नमासाऽऽदयो विंशत्यादिवारा आपन्नास्तेभ्यः प्रत्येकमटावष्टावपनयेत्, अपनीय शेषा दीयन्ते, एवं तावत् वाच्यं यावत्रि-मासाः वैमासिकम् / अयमत्र भावार्थः-विंशतिवाराः किलोद्धाता भिन्नमासा आपन्नाः, तत्राष्टौ भिन्नमासा झोषिताः, शेषा द्वादश दीयन्ते / तेऽपि स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेणाधिकं परिशाट्य षण्मासाः कृत्वा दीयन्ते, तथा अष्टादश अनुद्धाता भिन्ना मासा आपन्नाः, तेभ्योऽष्टौ त्यक्ताः, शेषा दश भिन्नमासाः प्रदातव्याः / तेऽपि स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेणाऽधिकं समस्तमपि त्यक्त्वा षण्मासाः कृत्वा दानीया इति। तथा सप्तदश वारा लघुमासाः प्राप्ताः तेभ्योऽष्टौ परित्यज्य शेषा नव लघुमासा दीयन्ते / पञ्चदश वारा गुरुमासा आपन्नाः, तेभ्योऽष्टी परित्यज्य शेषाः सप्त गुरुमासा देयाः / एवं द्वैमासिक त्रैमासिकेऽपि वाच्यम् / सर्वत्र स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेणाधिकं त्यक्त्वा षण्मासाः कृत्वा देयाः / अथाष्टकझोषणाभिधानं किमर्थम् ? एतदेव कस्मान्नोक्तम्-विंशत्यादयो भिन्नमासाऽऽदयःस्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण षण्मासीकृत्य दातव्या इति ? उच्यते - मध्यमतीर्थकृ तामष्टमासिकी या तपोभूमिः, तदनुग्रहार्थमित्यदोषः / उक्तं च निशीथचूण्ाँ - "अट्टमासिया मज्झिमा तवो भूमी, तीए अणुग्गह करणत्थमट्ठभागहारझोसणा कया।" इति। यत्र पुनश्चतुर्मासिके वा पाञ्चमासिके वा अष्टकापहारो न Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 180 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त भवेत्, अष्टानामेवासंभवात्। तं सर्वं झोषयेत्-सर्वमपि तत्परित्यजेत् : दिवसेषु व्यूढेषु परिसमाप्यन्ते। किमुक्तं भवति?-ये व्यूढाः षट् दिवसास्ते न किमपि तत्र दानं भवतीति भावः / व्यूढा एव, शेषाः पञ्च मासाश्चतुर्विंशतिदिवसा झोषिताः। यत्पुनरन्ययेभ्योऽष्टकापहारे यदवतिष्ठते,तदेतदुभयं दर्शयति त्पाण्मासिकं, तत्परिपूर्ण दीयते / एवं षट् मासाः षभिर्दिवसैरधिका वारस दस नव चेव य, सत्तेव जहन्नगाई ठाणाई। भवन्ति। एतत् धृतिसंहननबलिष्ठस्य निरनुग्रहकृत्स्नम्। द्वितीय आदेश:वीसऽट्ठारस सतरस-पन्नरठणाण बोधव्वा / / 306 / / पूर्वप्रस्थापितानां षण्भासानां षट् दिवसाः शेषास्तिष्ठन्ति। अन्यत्सर्वमपि द्वादश दश नव सप्तेत्यमूनिजघन्यानि स्थानानि बोधव्यानि, जघन्यता व्यूद, ततोऽन्यान्षण्मासान्प्राप्तः, ततो ये शेषाः षड् दिवसास्ते झोष्यन्ते, चैषां विशत्याद्यपेक्षयाऽमीषा स्तोकत्वात् / केषां स्थाने इत्याह- पाश्चात्य पाण्मासिकं परिपूर्ण दीयते, धृतिसंहननबलिष्ठत्वात्। एवं च विंशत्यष्टादशसप्तदशपञ्चदशस्थानानां स्थाने / इदमुक्तं भवति- षण्मासाः षभिर्दिवसैन्यूँनाः पूर्वस्थापिताः, पाश्चात्याः परिपूर्णा विंशतिस्थानानामष्टकापहारे द्वादश स्थानानि, अष्टाद-शानामष्टकापहारे षण्मासाः। ततः सर्वसकलनया द्वादश मासाः षभिर्दिवसैन्यूँना भवन्ति। दश, सप्तदशानामष्टकापहारे नव, पञ्चदशाना-मष्टकापहारे सप्तेति। एषा ज्येष्ठा प्रस्थापना / नातः परा तपोऽहे प्रायश्चित्ते उत्कृष्टतरा पुणरवि जे अवसेसा, जेहिं जेहिं पिछह मासाणं / प्रस्थापनाऽस्तीति भावः / अत्रापि सानुग्रहनिरनुग्रहचिन्तां कुर्वन्नाहउवरिं झोसेऊणं, छम्मासा सेस दायव्वा // 310 // छदिवसगए इत्यादि। पूर्वप्रस्थापितानां षण्मासाना, षट्सु दिवसेषु गतेषु अष्टकापहारे कृते सति पुनरपि षण्णा मासानामुपरि येऽव शेषा मासा यदन्यदापन्नं षण्मासाऽऽदिकं तपस्तदारोप्यते, पूर्वप्रस्थापिताश्य वर्तन्ते (जेहिं जेहिं पीत्यादि) अनुग्रहकृत्स्नविषयमेतत् / यैः यैरपि च षण्मासाःतेष्वेव षट्सु दिवसेषु व्यूढेषु परिसमाप्ताः क्रि यन्ते / दिवसैमसर्वा पूर्व स्थापितानां षण्णां मासानामुपरि गच्छति, तत्सर्व एतदनुग्रहकृत्स्नम्। यत्पुनः षट्सु मासेषुषभिर्दिवसैरगतेषु अव्यूढेषुषट् स्थापनाऽऽरोपणाप्रकारेण झोषयित्वा षण्मासाः शेषाः दातव्याः / दिवसाः शेया अव्यूढाः सन्ति, अन्यच समस्तमपि व्यूद्धमिति भावः। अनुग्रहचिन्तायां पूर्वस्थापितषण्मासो व्यूढदिवसैः सह परिपूण्णी- अत्रान्तरे अन्यत् पाण्मासिकमापन्नस्तत्परिपूर्णमारोप्यते, प्राक्तनाश्च कृत्य षण्मासाः शेषा दातव्याः / निरनुग्रहकृत्स्नचिन्तायां परिपूर्णा शेषीभूताः षट् दिवसास्त्यज्यन्ते। एतन्निरनुग्रहकृत्स्नमिति। षण्मासाः शेषा देयाः, झोषस्तु पूर्वप्रस्थापितषण्मासविषय इति। चोएइ रागदोसे, दुब्बल बलिए य जाणए चक्खू / छह दिवसेहिँ गएहिं, बण्हं मासाण हुंति पक्खेदो। मिन्ने खंधग्गिम्मि य, मासे चउमासिए चेडे / / 313|| छर्हि चेव य दिवसेहिं,छह मासाण पक्खेवो // 311 // परश्चोदयति-यूयं रागद्वेषवन्तः। तथाहि-यस्य षण्णा मासानां षट्सु सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थ। ततोऽयमर्थः-षट्सु दिवसेषु गतेषु षण्मासाना दिवसेषु शेषीभूतेषु अन्यत्षाण्मासिकमापन्नं षट्सु दिवसेषुपरिसमाप्यते, भवति प्रक्षेपः / इयमत्र भावना-ये ते प्रस्थापिताः षण्मासाः, तेषां षट् तस्य दुर्बलस्योपरि रागो, यतो यूयं जानीथएष बलिकः सन सुख दिवसा व्यूढाः, तदनन्तरमन्यान् षण्मासानापन्नाः, ततः पूर्वं प्रस्थापित- विनयवैयावृत्त्यं करोति / यस्य पुनः पूर्व-प्रस्थापितषण्मासानां वसु षण्मासानां पञ्चमासाश्चतुर्विशतिदिनाश्च झोष्यन्ते, झोषयित्वा च तत्र मासेषु चतुर्विशतौ दिनेषु व्यूटेषु षट् दिवसाः शेषीभूता झोषिताः, अन्य पाश्चात्याः षण्मासाः प्रक्षिप्यन्ते। ते च यथा प्रक्षिप्यन्ते यथा पूर्वप्रस्था- पाण्मासिकमारोपितम, तस्य बलिष्ठस्योपरि विद्वेषः / अत्रापि जानीथपितषण्मासा व्यूढदिवसैः सह षण्मासाः भवन्ति, एवं पाश्चात्यानामपि यथैष तपः कृत्वा शरीरो नास्माकं शक्नोति वैयावृत्त्यं कर्तु, षण्मासानां षट् दिवसा झोषिता इति / एतद् धृतिसंहननाभ्यां तस्माद्दीयतामस्य निरनुग्रहप्रायश्चित्तमिति। एवं च भवन्तः कुर्वन्तोन्न दुर्बलमुपेक्ष्यानुग्रहकृत्स्नम् / एष मित्रवाचकक्षमाश्रमणानामादेशः / चक्षुर्मेलं कुरुथा चक्षुर्मेलो नामयदेकं चक्षुरुन्मीलयति, अपरं निमीलयति। साधुरक्षितगणिक्षमाश्रमणाःपुनरेवं ब्रुवते-(छहिं चेबयेत्यादि) षट्सु चैव एवमेकं सानुग्रहप्रायश्चित्तदानेन जीवापयथ, अपरं निरनुग्रहप्रायदिवसेषु षण्मासाना प्रक्षेपः / इदमुक्तं भवति-ये पूर्वप्रस्थापिताः श्चित्तदानेन मारयथेति। अत्राऽऽचार्य आह-"भिन्ने' इत्यादि पश्चार्द्धम्। षण्मासास्तेषभिर्दिवसैरूनाः परिपूर्णा व्यूढाः, शेषाः षदिवसास्ति- भिन्नो नामतत्कालमरणिनिर्मथनेन नवोदितोऽग्रिः, स यथा महाटि ष्ठन्ति / अत्रान्तरे अन्यान् षण्मासानापन्नस्ते षण्मासाः, तेष्वेव षट्सु काष्ठाऽऽदिके प्रक्षिप्ते तद्दग्धुमसमर्थो भवति, शीघ्रं च विध्यायति / स एव दिवसेषु प्रक्षिप्यन्ते। किमुक्तं भवति?-तेषां षण्णां मासाना षट् दिवसाः 'लक्ष्णकाष्ठछगणाऽऽदिचूर्णाऽऽदिषु स्तोकं प्रक्षिप्यमाणेषु क्रमेण प्रबार प्रायश्चित्तं शेष समस्तमपि झोषितं, पूर्वप्रस्थापितषण्मासानामपि षट् उपजायते। स्कन्धाग्निर्नाममहत्काष्ठं प्रज्वल्याऽग्निरूपतया परिणमित, दिवसाः, झोषिताः। एतत् धृति-संहननदुर्बलमपेक्षानुग्रहकृत्स्नमिति। स महत्यपि काष्ठाऽऽदिके प्रक्षिप्ते तद्दग्धुं समर्थो भवति, प्रबलः प्रबलतरसंप्रति निरनुग्रहकृत्स्नमाह श्योपजायते / एवं दुर्बलस्य षट्सु मासेषु पूर्वप्रस्थापितेषु बहुषु ध्यूढेन एवं वारस मासा,छदिवसूणा य जेट्ठ पट्ठवणा। षट्सु दिवसेषु शेषीभूतेषु / यदि वा-षट्सु मासेषु पूर्वप्रस्थापितेषु षट्स छदिवसगएऽणुग्गह, निरनुगहत्थागते खेवो / / 312 / / दिवसेषु व्यूढेषु यदन्यत् पाण्मासिकं तपः पृथग्दीयते, तत् सन्निभोऽग्निरिख इह निरनुग्रहकृत्स्ने आदेशद्रयम् / एकस्तावदयमादेशः-पूर्वप्र- विषीदति, धृतिसंहननदुर्बलत्वात्। यस्य पुनः षट्सु मासेषु व्यूटेषु षट्स स्थापितानां षण्मासानां षट् दिवसा व्यूढाः, तेषु षट्सु दिवसेषु व्यूढेषु / दिवसेषु शेषीभूतेषु अन्यदारोप्यते षण्मासाऽऽदिकं तपः, स धृतिसंहनअन्यत् पाण्मासिकमापन्न, ततः पूर्वप्रस्थापिताः षण्मासास्तेष्वेव षट्सु | 'नाभ्यां बलीयानिति न विद्राति, न च विषादमुपगच्छति स्कन्धाग्निरिय। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 181 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तथा द्वौ चेटौ / तद्यथा-मासजातः, चतुर्मासजातश्च / तत्र यदि नारजातस्य चेटस्य चतुर्मासचेटाऽऽहारो दीयते तदा सोऽजीर्णेन / विद्राति / चतुर्मासजातस्य मासजातवदाहारो दीयते तदा स तेमहारण नाऽऽत्मानं सन्धारयितुमलम्। एवं यो दुर्बलस्तस्य यदि बलिष्ठ प्रायश्चित्तं दीयते तदा स विद्राति, दुर्बलत्वात्, मासिकचेटवत् / अलिष्ठस्यापि यदि दुर्बल प्रायश्चित्तं दीयते तदा स तावता न विशुद्धिनासादयतीत्यशुद्ध्या विषीदति / ततो यथा भिन्नाग्नौ प्रभूतमिन्धनं, तथा मासजाते चेटे स्तोकमाहारं चतुर्मासजाते प्रभूतमाहारं प्रयच्छतो न रागद्वेषवत्ता, योग्यताऽनुरूपं प्रवृत्तेः। तथा दुर्बले बलिष्ठे च यथोक्तरूपं प्रायश्चित्तं ददाना न वयं रागद्वेषवन्तः / इति उक्त उभयतरकः / (10) इदानीमात्भतरकाऽऽदयो वक्तव्याः , परमुभयतरसदृशोऽन्यतर इति रु एवोत्कर्मण प्रथमतो भण्यते / तस्य स्वरूपमिदम्-यथा एकेन स्कन्धेन द्वे कापोत्यौ युगपत् वोढुं न शक्नोति, तथा सोऽप्यन्यतरकः प्रायश्चित्तव्यावृत्त्ये युगपत्कर्तुं न शक्नोति; स च संचयितमसंचयितं या प्रायश्चित्तमापन्नः / अथ च तदा गुरूणामन्यो वैयावृत्यकरो न विद्यते ततस्तदापन्न प्रायश्चित्तं निक्षिप्त क्रियते। एतेन यदुक्तमधस्तान्निक्षिप्तमिति तद् भादितमवसेयम् / गुरूणां वैयावृत्यं कार्यते, तच्च वैयावृत्यं कुर्वन् यदीन्द्रियाऽऽदिभिरन्यदापद्यते तत्सर्व तु झोष्यते / यदा तु वैयावृत्यं समाप्तं भवति तदा तत्प्राग्निक्षिप्त प्रायश्चित्तमुत्क्षिप्यते। तच्च वहन् यदीन्द्रियाऽऽदिभिरन्यदापद्यते तदाऽनेन विधि नादातव्यम्सत्त चउक्का उग्घा-इयाण पंचेव होंतऽणुग्घाया। पंच लहु पंच गुरुगा, गुरुगा पुण पंचगा तिण्णि // 314|| सत्तारस पण्णारस, निक्खेवा हुंति मासियाणं तु। वीसऽद्वारस मिन्ने, तेण परं निक्खिवणया उ॥३१५।। सोऽन्यतरः पूर्वप्रस्थापितं प्रायश्चित्तं वहन् यदि स्तोकं बहुउद्घातं वा प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, ततो यदि पूर्वप्रस्थापितं प्रायश्चित्त-मुद्घातस्तत उद्घातो भिन्नमासो दीयते / यदि पुनरापद्यते तद् भूयोऽपि भिन्नमासदानम् / एवं भूयो भूय आपत्तौ विंशतिवारान् भिन्नमासा दातव्याः 20 / तदनन्तरं सप्तदश वारा लघुमासाः 17 / एवं द्विमासत्रिमासा अपि वक्तव्याः / तदन्तरमपि भूयो भूय आपत्तौ सप्त वाराश्चतुर्मासाः 7 / ततः परं पञ्च वाराः पञ्च लघु-मासाः 5 / तदनन्तरं त्रीन्वारान् छेदः। ततः परंवारत्रयं मूलम्। तदनन्तरं वारत्रयमनवस्थाप्यम्। तदनन्तरमेकं वारं पाराशितमिति। अथ तस्य पूर्वस्थापितमनुद्घातितं, ततोऽष्टादश वारा गुरुभिन्नमासा दातव्याः 18 / तदनन्तरं पञ्चदश वारा गुरुमासाः 15 / एवं द्विमासास्त्रिमासा अपि वक्तव्याः। तदनन्तरं पञ्च वाराश्चत्वारो गुरुमासाः; शततोऽपि परं त्रिवाराः पञ्च गुरुमासाः 3 / ततो वारत्रयं छेदः 3 / तदनन्तरं वारत्रय मूलम्। ततः परं वारत्रयमनवस्थाप्यम्। एवं संचयितेऽप्युद्घाते अनुदाते च वक्तव्यम्, नवरमादिमास्तपोभेदा वक्तव्याः। किन्तु प्रथमत एवषाण्मासिक, तदनन्तरं छेदत्रिकाऽऽदि अष्टकापहाराऽऽदिकं पूर्ववद्वतव्यम् / अधुनाऽक्षरगमनिका-इह विचित्रा व्याख्याप्रवृत्तिरिति | पश्चादानुपूर्व्या व्याख्या विधेया। पूर्वप्रस्थापितमुद्घातमनुद्घातं च वहतो यथाक्रमं भिन्ने भिन्नमासविषये दानं विंशत्यष्टादशवारान् / किमुक्तं भवति? -पूर्वप्रस्थापितमुद्धातं प्रायश्चित्त वहतो विंशतिवारान् भिन्नमासा दातव्याः / अनुद्धात वहतोऽष्टादश वारा भिन्नमासाः। (तेण परमित्यादि) ततो भिन्नमासदानात् पश्चादानुपूर्व्या परं, प्रागिति भावार्थः / निक्षेपणता निक्षिप्तता आसीत् विंशत्यष्टादशवाराननन्तरं च उद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहतो मासिकानां लघूनां मासिकत्रैमासिकानां सप्तदश निक्षेपा भवन्ति; सप्तदशवारं दानं भवतीत्यर्थः / अनुद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहतो मासिकानां निक्षेपाः पञ्चदश भवन्ति, पञ्चदशवारं मासिकानां दानमित्यर्थः। तथाउद्धातितानां चतुष्का मासचतुष्टयानि सप्त भवन्ति / अनुद्धाताश्चतुष्काःपञ्च भवन्ति,तेषां पञ्च मासा लघुकाः पञ्च गुरुकाः पञ्च भवन्ति। गुरुकाः पुनः पञ्चकाः पञ्च मासास्त्रयः / इदमुक्तं भवति-पूर्वप्रस्थापितमुद्धातं वहतस्त्रिमासदानानन्तरं सप्तवाराश्चत्वारो लघुमासा दातव्याः, तदनन्तरं पञ्च वाराः पञ्चमासा लघवः / अनुद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहतो गुरुमासत्रिमासदानानन्तरं पञ्चवारा लघवश्चतुर्मासा दातव्याः, ततः परं गुरवः पञ्चमासास्विवारा इति / तदेवमेकेषामाचार्याणां व्याख्यानमुपदर्शितम्।। अन्ये पुनरेवं व्याख्यानयन्ति-अन्यतरो नाम द्विधाआत्मतरः, पर-तरश्च। तत्र आत्मतरस्य प्रायश्चित्तदानविधानमिदम् (सत्त चउक्का उग्धाइयाणमित्यादि) यदि पूर्वप्रस्थापितमुद्धातं वहन् भूयो भूयोऽन्यदापद्यते प्रायश्चित्तं तदा प्रथमत एव सप्त वारा उद्धातितानां लघूनां मासानां च तुष्का दातव्याः / सप्तवारा लघवश्चतुर्मासा देयाः, तदनन्तरं पञ्चवारा लघवः पञ्चमासाः, तदनन्तरंवारत्रयं छेदः, ततः परं वारत्रिक मूलं, ततो वारत्रिकमनवस्थाप्यं तत एकवारं पाराञ्चितम्। अथानुद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहन् पुनः पुनरापद्यते प्रायश्चित्तं तत आदौ पञ्चवारा अनुद्धाता गुरवश्चत्वारो मासा दोन भवन्ति, तदनन्तरं त्रीन् वारान् पञ्चमासा गुरवः, ततोवारत्रयं छेदः, तदनन्तरंवारत्रयं मूलं, ततो वारत्रयमनवस्थाप्यम्, तत एकवारं पाराञ्चितम् / यस्त्वन्यतरेतरतस्तस्येदं प्रायश्चित्तविधानम्। (सत्तारस पण्णारसेत्यादि) पूर्वप्रस्थापितमुद्धातं प्रायश्चित्तं वहन् यदिभूयो भूयः स्तोक बहु वा अन्यत् प्रायश्चित्तमापद्यते, ततस्तस्य सप्तदश त्रैमासिकानां निक्षेपा भवन्ति, सप्तदशवारं त्रैमासिक दीयते इति भावः / तदनन्तरं भूयो भूय आपत्तौ सप्तदश निक्षेपा द्वैमासिकानाम् / तदनन्तरं सप्तदश निक्षेपा मासिकानाम् / ततः परं निक्षेपणं दानं भिन्ने भिन्नमासस्य विंशतिवारान्, ततः परं वारत्रयं छेदः, तदनन्तरंवारत्रयं मूलम्, तदनन्तरं वारत्रयमनवस्थाप्यम्। तत एकवारं पाराञ्चितम्। अनुद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहन् यदिभूयो भूयः स्तोकं बहु वा प्रायश्चित्तमन्यदापद्यते तस्य पञ्चदश गुरूणां द्वैमासिकानां निक्षेपा भवन्ति, पञ्चदशवारं द्वैमासिकं गुरु दीयते इत्यर्थः / ततः परं निक्षेपणता भिन्नमासानां गुरूणामष्टादशवारान्, ततः परं वा-रत्रयं मूलं, ततोऽनवस्थाप्यत्रिक, तत एकवारं पाराञ्चितमिति उक्तोऽन्यतरः ।साम्प्रतमात्मतरस्य प्रायश्चित्तदानमुच्यते संचयितमसंचयितं वा प्रत्येक मुद्धातमनुद्धातं वा वहन् यदि भूयो भूयः स्तोकं बहु वाऽन्यदिन्द्रियाऽऽदिभिः प्रायश्चित्तमापद्यते तदा सप्तवारं लघुमासिकं दी Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 182 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त यते। तउः परं भूयो भूय आपत्तौ चतुर्वारं लघुकं चतुर्मासं, ततः परं छेदत्रिक, तदनन्तरं मूलत्रिकं, ततोऽनवस्थाप्यात्रकं, तत एकवारं पाराधितं, यदि पुनः पूर्व प्रस्थापितमनुद्धात वहन् स्तोकं बहु वाऽन्यदापद्यते भूयो भूयस्ततः पञ्चवारान् गुरुमासिक दीयते, ततः परं त्रीन वारान् चतुर्गुरुकं, वारत्रयं छेदः, तदनन्तरं वारत्रय-मनवस्थाप्यं, तत एकवारं पाराञ्चितम्। एतदेवाऽऽहआयतरमाइयाणं, नासा लहु गुरुग सत्त पंचेव। चउ तिग चाउम्मासा, तत्तो य चउव्विहो भेओ।।३१६।। आत्मतरो नाम-यस्य वैयावृत्त्यकरणे लब्धि स्ति। आदिशब्दात्परतरपरिग्रहः / आत्मतर आदिर्येषां ते आत्मतराऽऽदयः, आत्मतराः, परतराश्चेत्यर्थः / तेषामात्मतराऽऽदीनां प्रायश्चित्तदानविधिरुच्यते / तत्राऽऽत्मताराणामयम् / उद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहतां सप्त वारान् लघुमासा दीयन्ते / तदनन्तरं चतुरो वारान् चतुर्मासा लघवः / ततश्चतुर्विधो भेदः छेदमूलानवस्थाप्यपाराञ्चितलक्षणो दातव्यः / अनुद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहत्तां पञ्चवारान् गुरुमासो दीयते। तदनन्तरं श्रीन वारान गुरवश्चतुर्मासाः। ततो यथोक्तरूपश्चतुर्विधो भेदः। संप्रति परतरस्य प्रायश्चित्तदानविधिरभिधीयतेपरतरो नामयस्य वैयावृत्त्यकरणे लब्धिरस्ति, नतपसि, ततः स यदा तपः करोति न तदा वैयावृत्त्यं कर्तु समर्थ इति। अत्रापि एकस्कन्धेन कापोतीद्वयं बोदन शक्यमिति दृष्टान्तो वक्तव्यः / यच प्रायश्चित्तं संचयितमसंचयितं वाऽऽपन्नस्तत् यावद् वैयावृत्यं करोति तावन्निक्षिप्त क्रियते, वैयावृत्त्यं च कुर्वन् यदन्य-दापद्यते तत्सर्वं झोष्यते, वैयावृत्त्ये च समाप्ते तत् पूर्वनिक्षिप्त प्रस्थाप्यते, तच वहन् यदि भूयो भूय इन्द्रियाऽऽदिभिरन्यदापद्यते तत उद्धात पूर्वप्रस्थापितं वहतः सप्त वारान् लघुमासिक दीयते। तदनन्तरं पञ्च वारान् चतुर्लघुकम्। ततः परं वारत्रयं मूलं, ततः परंवारत्रयमनवस्थाप्यम्। तत एकवारं पाराञ्चितमिति / अनुद्धातं पूर्वप्रस्थापितं वहतः षड् वारान् गुरुमासिकं दीयते। तदनन्तरं चतुरो वारान् चतुर्गुरुकम्।ततः परं वात्रयं छेदः, तदनन्तरंवारत्रयं मूलं,ततः परंवारत्रयमनवस्थाप्यम्, तत एकवारं पाराश्चितम्। एतदेव सुव्यक्तार्थमाहआवण्णे इंदिएहिं, परतरए झोसणा तउ परेण / मासलहुगा य सत्त य, छच्चेव य हुति मासगुरू / / 317 / / चउलहुगाणं पणगं, चउगुरुगाणं तहा चउकं च / तत्तो छेदादीयं, होइ चउकं मुणेयव्वं // 318|| परतरको वैयावृत्त्यं कुर्वन् यदीन्द्रियाऽऽदिभिः स्तोकं बहु वा आ-पद्यते प्रायश्चित्तं, ततस्तस्मिन्परतरके ततो वैयावृत्त्यकरणादारभ्य यावद्वैयावृत्त्यं करोति तावत्परोपकारीति स्तोक बहु वा यदन्यदापद्यते तस्य सर्वस्थ झोषणता परित्यागः / ततो वैयावृत्त्यसमाप्त्यनन्तरं पूर्वनिक्षिप्तं प्रायश्चितमुद्धातं वहतो भूयो भूय आपत्तौ मासलघुकाः सप्त भवन्ति दातव्याः, सप्त वारान् लघुमासो दीयते इति भावः / अनुद्धातं वहतः षट् भवन्ति मासगुरवो देयाः, षट् वारान् गुरुमासो दीयते इत्यर्थः / (चउलहुगाणमित्यादि) उद्घातं वहतःसप्तवारलघुमासिकदानानन्तरं भूयो भूय आपत्तौ __ चतुर्लघुकानां पञ्चकंदातव्यम्, पञ्चवारान् चत्वारोमासा लघुका दातव्या इत्यर्थः / अनुद्धातं वहतः षड्वारगुरुमासिकदानानन्तरं चतुर्गुरुकाण चतुष्कं चतुरो वारान् गुरुकं देयं, ततः परमुभयस्यापि छेदाऽऽदिचतुष्कं छेदमूलानवस्थाप्यपाराञ्चितलक्षणं भवति पूर्वप्रकारेण ज्ञानबुद्ध्या ज्ञातव्यम्। साम्प्रतं 'झोसणा तउ परेणं,' एतस्य व्याख्यानार्थमाहतं चेव पुथ्वभणियं, परतरए णत्थि एगखंधादी। दो जोए अचयंते, वेयावच्चट्ठया झोसो॥३१॥ यत्पूर्वमन्यतरके भणितं यथा नास्त्येतत् यत् (एगखंधाई) एकेन स्कन्धेन एककालं द्वे कालं द्वे कापोत्यौ न उह्येते इति तदेव परतरकेऽपि सर्वं भणनीयम्। ततो द्वौ योगौ तपःकरणवैयावृत्यलक्षणौ युगपदशक्नुवन वैयावृत्यर्थं झोषः, त्यागः। स्यादेवमुच्यतेतवतीयमसद्दहिए, तवबलिए चेव होइ परियाए। दुव्वले अप्परिणामे, अत्थिर अबहुस्सुए मूलं / / 320 / / यो मास्राऽऽदिकं षण्मासमर्यन्तं तपोऽतीतो व्युत्क्रान्तः / कि मत भवति ?- मासाऽऽदिना षण्मासपर्यन्तेन तपसायो न शुद्ध्यति, तपोग्रहणमुपलक्षणम् / देशच्छेदमपि योऽतीतो, देशच्छेदेनापि यो न शुद्ध्यतीति भावः / तस्य मूलं दीयते इति सर्वत्र संबध्यते। तथा (असद्दहिए इनि तपसा पापं शुद्ध्यतीति एतद्यो न श्रद्दधाति तस्मिन्नप्यश्रद्दधाने मूलम् अथवा-अश्रद्दधानो नाममिथ्यादृष्टिः, ततो योऽश्रद्दधान एव सन् छतेषु स्थापितं पश्चात्सकम्यत्वं प्रतिपन्नः सन् सम्यगावृत्तो भवति तस्य मूल देयम् यथा गोविन्दवाचकस्य दत्तमिति। (तवयलिए त्ति) तप सा बलियो बलिष्ठस्तपोबलिकः। किमुक्तं भवति? महताऽपितपसायो नक्लान्या यत्र तत्र वा स्वल्ये प्रयोजने तपः करिष्यामि इति विचिन्त्य प्रतिसेवते, यदि वाषाण्मासिके तपसि दत्ते वदति-समर्थोऽहमन्यदपि तपः कर्तुतदारी मे देहीति तस्मिन् तपोबलिके मूलम् / (परियाए इति) यस्य छेदेन छिद्यमानः पर्यायो न पूर्यते, स्तोकत्वात्। अथवा छेदपर्यायं वो न सम्य श्रद्दधाति-यथा कोऽयमर्द्धजरतीयो न्यायः / कियत्पर्यायस्य छिद्यारे, कियन्नेति। यदि छिद्यते तर्हि मूलत एव छिद्यताम्, यदि वान किमपीति यदि वा वक्तिरत्नाधिकोऽहं बहुकेऽपि परिच्छिन्ने पर्याये अस्ति मे दीर्घः पर्याय इति न किमपि छेत्स्यति, तस्य सर्वस्यापि पर्याय हीनस्य पर्याय श्रद्धानरहितस्य पर्याये गर्वितस्य मूलम् / तथा यो बहुप्रायश्चित्तमापन्नोऽथ च धृतिसंहननाभ्यां दुर्बलत्वात्तपः कर्तुमसमर्थस्तस्मिन् दुर्बल मूलम् / तथा योऽपरिणामत्वात् ब्रूते-यदेतत्तपः पाण्मासिक युष्माभिर्मे दत्तमेतेनाहं न शुद्धयामि, प्रायश्चित्तस्य बहुत्वात् / तस्मिन्नप्यपरिणामे मूलम्। तथा यो धृतिदुर्बलतया पुनः पुनः प्रतिसेवते तस्मिन्नस्थिरे धृत्यवष्टम्भरहिते मूलम्। तथाऽबहुश्रुतोऽगीतार्थः / अथवाअनवस्थाप्यं पाराञ्चितंवा आपन्नः, तस्य चाबहुश्रुततया तहानायोग्यल, तस्मिन्नप्यबहुश्रुते मूलं दातव्यमिति। साम्प्रतमाचार्यों विशेष दर्शयितुकामो यदेवाधस्तात्तावदुक्तं तदेव पृच्छन्नाहजह मन्ने मासियं से-विऊण एगेण सो उ निग्गच्छे। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तह मन्ने मासियं से- विऊण चरमेण निग्गच्छे // 321 // बोदको वाक्त-अहमेवं मन्ये-यथा मासिक परिहारस्थानं सेवित्वा सोऽधिकृतः प्रायश्चित्तप्रतिपत्ता एकेन, मासेनेति गम्यते / निर्गच्छति शुद्धयति / तथा आस्तामन्येन द्वैमासिकाऽऽदिना / एतदप्यहं मन्ये / अतिशयख्यापनार्थ भूयो मन्ये इत्युपादानम्। मासिकं सेवित्वा चरमेण पाराधितेन निर्गच्छति शुद्ध्यति / एवं चोदकेनोक्ते सत्याचार्य आहसत्यमेतत्, यदा मासिक सेवित्वा कदाचिचरमेण शुद्ध्यति ; इह मासिक सेधित्वा मासेन शुद्ध्यतीत्यादिगमो गृहीतो, मासिक सेवित्वा चरमेण शुद्ध्यतीत्यन्तगमः / आद्यन्तग्रहणे मध्यमन्यापि ग्रहणमिति शेषा अपि गमाः सूचेिताः, मासिकग्रहणेन तद् द्वैमासिकाऽऽदीन्यपि। तद्यथा-यथा मास सेवित्या मासेन निर्गच्छति, तथा मास सेवित्वा द्वाभ्यां मासाभ्यां निर्गच्छति, मासं सेवित्वा त्रिभिमसैनिर्गच्छति, मासं सेवित्वा चतुर्भिर्मासैनिगग्छति, मास सेवित्वा पञ्चभिमॉसैर्निर्गच्छति मासं सेवित्वा षभिर्मासैर्निर्गच्छति, मासं सेवित्वा छेदेन निर्गच्छति, मासं सेवित्वा मूलेन निर्गच्छति, मासं सेवित्वा अनवस्थाप्येन निर्गच्छति, मासं सेवित्वा चरमेण पाराञ्चितेन निर्गच्छति / तथा द्वैमासिकं सेवित्वा द्वाभ्यां निगच्छति, द्वैमासिक सेवित्वा त्रिभिर्मासैर्निर्गच्छति। एवं यावद्द्वैमासिक सेविल्या चरमेण निर्गच्छति। तथा त्रैमासिकंसेवित्या त्रिभिर्मासैर्निर्गच्छति, त्रैमासिक सेवित्वा चतुर्भिर्मासैर्निर्गच्छति। एवं यावत्त्रैमासिकं सेवित्वा चरमेण निर्गच्छति। तथा चातुर्मासिकं सेवित्वा चतुर्भिर्मासैर्निर्गच्छति, यावच्चरमेण निर्गच्छति। तथा पञ्चमासिकं सेवित्वा पञ्चभिर्मासैर्निर्गच्छति। एवं यावच्चरमेण निर्गच्छति। तथा षाण्मासिकं सेवित्वा षभिर्मासैनिगच्छति, यावच्चरमेण निर्गच्छति।तथा छेदंसेवित्वा छेदेन निर्गच्छति, यावचरमेण निर्गच्छति / मूलं सेवित्वा मूलेन निर्गच्छति, यावचरमेण निर्यच्छति / अनवस्थाप्यं सेवित्वा अनवस्थाप्येन निर्गच्छति, अनवस्थाप्यं सेवित्वा चरमेण निर्गच्छति। अत्र शिष्यः प्राऽऽह-यस्मिन्नापन्ने यत्तदेव दीयते तत् आपत्तिसम दानमुचितम्, अन्यादृशे त्वासेविते यदन्यादृशं दीयते तत्र को हेतुः? आचार्य आहजिण निल्लेवणकुडए, मासे अपलिउंचमाण सट्ठाणं। मासेण विसुज्झिहिई, तोदेंति गुरूवएसेणं / / 322 / / जिनाः केवलिनो, जिनग्रहणादवधिमनःपर्यायज्ञानिनःचतुर्दशनवपूर्वधरा गृहीताः / एते यथावस्थिताः संक्लेशविशोधिपरिज्ञाने अपराधनिष्पन्नं मासिकाऽऽदि, भावनिष्पन्नं च द्वैमासिकाऽऽदि यथा विशुध्यति तदा तद्विशोधिनिमित्तं प्रायश्चित्तं ददति। तत्राध्यवसानेन मासे प्रतिसेविते यद्यप्रतिकुञ्चतमालोचयति ततस्तस्मिन्नालोचनायामप्रतिकुशतः स्वस्थानं मासमेव प्रयच्छन्तिा अथवा-यानि द्वैमासिकाऽsदीनां प्रायश्चित्तानामहर्हाण्यध्यवसा-यस्थानानि तैर्मासः प्रतिसेवितः, तत एष द्वैमासाऽऽदिभिर्मासैर्विशोत्स्यतीति जिनाः केवलाऽऽदिबलतः, श्रुतव्यवहारिणो वा गुरूपदेशेनाधिकमपि प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति / अत्र चार्थे -(निल्ले-वणकुडए इति) निर्लेपनकुटदृष्टान्तः। निर्लेपको रजकः, कुटो जलभृतो घटः। यथा जलकुटैर्वस्त्राणि रजकः प्रक्षालयति, तथा ऽपराधपदानि जिनाऽऽदयो मासाऽऽदिभिः शोधयन्ति। अथवा-निर्लेपनं लेपस्य मलस्याभावः, कुटो जलकुटः, स दृष्टान्तः।अत्र चत्वारो भङ्गाः। एकं वस्त्रमेकेन जलकुटेन निर्लेपनं क्रियते 1 / एकं वस्त्रमनेकैर्जलकुटैः 2 / अनेकानि वस्वाणि एकेन जलकुटेन 3 / अनेकानि वस्त्राण्यनेकैर्जलकुटैः / / तत्र प्रथमद्वितीयभङ्ग व्याख्यानार्थमाहएगुत्तरिया घडछ-कएण छेयादि हों ति निग्गमणं / एएहिँ दोसवुड्डी, कप्पिज्जइ दोहिँ ठाणेहिं / / 323|| एकोत्तरिका घटस्यावृद्धिर्घटषट्केन परिसमापयितव्या / इयमत्र भावना-कोऽप्यल्पमलः पट एकेन जलकुटेन शुध्यति, स गृह एव प्रक्षाल्यते। एष प्रथमभङ्गः। ततो मलिनतरः कठिनमलो वा पटो द्वाभ्यां कुटाभ्यां शुद्धिमासादयति, सोऽपि गृह एव प्रक्षाल्यते। ततोऽपि मलिनतररित्रभिः कुटैः, सोऽपि गृहे प्रक्षाल्यते। एवमेकोत्तरिका वृद्धिस्तावन्नेया यावत्कोऽपि मलिनतरः षड्भिर्जलकुटैः शुद्धयति, सोऽपि गृह एव प्रक्षाल्यते / अत्र वस्वस्थानीयान्यपराधपदानि मलस्थानीयानि रागद्वेषाध्यवसायस्थानानि, तज्जनितो वा कर्मसचयः, जलकुटस्थानीयानि मासिकाऽऽदीनि प्रायश्चित्तानि / तथाहि-अल्पमपराधपदमेकेन मासेन शुद्धयति, ततो गुर्वपराधपदं द्वाभ्यां मासाभ्यां, गुरुतरमपराधपदं त्रिभिर्मासैः, ततोऽपि गुरुतरं चतुर्भिर्मासैर्यावत् गुरुतरमपराधपदं षड्भिर्मासैः। (छेयादि होंति निग्गमणमिति) ये गाढगाढतराऽऽदिमलाः पटास्ते गृहान्निर्गत्य बहिः सरित्तडागाऽऽदि गत्वा प्रभूतप्रभूततरैः क्षारगोमूत्राऽऽदिभिर्बहुवहुतरैराच्छोटनपिट्टनाऽदभिर्महन्महत्तमप्रयत्नैः शद्धिमासादयन्ति / तथाऽपराधपदान्यपि गाढगाढतराध्यवसायानिर्वतितानि छेदमूलानवस्थाप्यपाराश्चितैः पर्यायाऽऽदिभ्यो निष्काशनेन शुध्यन्ति। ततो निर्गमतुल्याः छेदाऽऽदयो भवन्ति / अथ कथं जलकुटबहिनिर्गमतुल्यो मासाऽऽदिछेदाऽऽदय इति। अत्राऽऽह-(एएहिं इत्यादि) एताभ्यामनन्तरोदिताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां मासाऽऽदिछेदाऽऽदिलक्षणाभ्यांदोषवृद्धिस्तीव्रतीव्रतररागद्वेषाध्यवसायवृद्धिः, तजनिता कर्मोपचयवृद्धि, कल्प्यते छिद्यते, ततो मासाऽऽदिच्छेदा ऽऽदयो जलकुटनिर्गमसमानाः। साम्प्रतम् "एगुत्तरिया घडछक्कएणं त्ति" व्याख्यानयतिअप्पमलो होइ सुई, कोइ पडो जलकुडेण एक्केण / मलपरिवुड्डीऍ भवे, कुडपरिवुड्डी तु जा छन्नू // 324|| कोऽपि पटोऽल्पमलः सन् एकेन जलकुटेन शुचिर्भवति शुद्ध्यति। एष प्रथमभङ्ग उक्तः / मलपरिवृद्धौ कुटपरिवृद्धिर्भवति। सा च तावत्यावत्। तुशब्दो विशेषणार्थः। स चैतद्विशिनष्टि-एकेन यावत् पटस्य शुद्धिर्गृह एव क्रियते / इयमत्र भावना-बहुमलपटो द्वाभ्यां जलकुटाभ्यां शुद्ध्यति / बहुमलतरस्थिभिर्जलकुटैः / एवं मलपरिवृद्ध्या जलकुटपरिवृद्धिस्तावदवसेया यावबहुमलतमः षडिभर्जलकुटैः। एतेच गृह एव प्रक्षाल्यन्ते। एवमपराधपदान्यपि मासिकाऽऽदीनि साधूनां स्वपर्यायमण्डल्यादिरूपे गृहे एव स्थितानि मासिकाऽऽदिभिः प्रायश्चित्तैः शोध्यन्ते। एतेन द्वितीयो भङ्ग उपदर्शितः। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 184 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त "छेयाई हुंति निगमणं" इत्यस्य व्याख्यानमाहतेण परं सरियादी, गंतुं सोहिंति बहुतरमलं तु / मलनाणत्तेण भवे, आयंचणजत्तनाणत्तं // 325 / / तस्मादनन्तरोदितात् पटात् परं बहुतरमलं पटं सरिदादि। सरित्नदी। आदिशब्दात्- हृदकूपतडागाऽऽदिपरिग्रहः। तत् गत्वा शोधयन्ति / एवं साधूनामप्यपराधपदानि छेदाऽऽदिभिः पर्यायमण्डल्यादि-रूषाद् गृहाद् निष्काशनेन जिनाऽऽदयः शोधयन्ति। (मलनाणत्तेणेत्यादि) द्वितीयाऽऽदिपटेषु यथा यथा मलनानात्वं तथा तथा आदञ्चनयत्ननानात्वमपि। आदञ्चनं नामगोमूत्रअजालिण्डिकोरवाऽऽदि यत्न आच्छोटनपिट्टनाऽऽदिषु प्रयत्नः। तन्नानात्वमपि। तथाहि-यथा यथा मलस्योपचयस्तथा तथा बहुतरगोमूत्राऽऽदिप्रक्षेपो, बहुतर आच्छोटनपिट्टनाऽऽदिषु प्रयत्नस्ततो भवति। मलनानात्वे आदञ्चनयत्ननानात्वमिव साधनामप्यपराधपदेषु रागद्वेषोपचयवृद्धौ मासादिवृद्धिस्तपःक्रियाविशेष - वृद्धिश्चेति। चरमतृतीयभङ्गव्याख्यानार्थमाहवहुएहिँ जलकुडे हिं, बहूणि वत्थाणि काणि वि विसुज्झे। अप्पमलाणि बहूणि वि, काणि चि सुज्झंति एक्केणं / 326|| कानिचिद्दस्वाणि तथाविधगाढमलानि बहूनि बहुभिर्जलकुटैर्विशुध्यन्ति। एवमपराधपदान्यपि तथाविधानि बहूनि साधूना बहुभिर्मासैः शुद्धिमासादयन्ति / एतेन चतुर्भङ्गो व्याख्यातः। तथा कानिचिदल्पमलानि वस्त्राण्येकेन जलकुटेन शुद्ध्यन्ति। एवं मन्दानुभावे कृतानि बहून्यपि साधूनामपराधपदान्येकेन मासेन शुद्ध्यन्ति। एष तृतीयो भङ्ग उपदर्शितः। अत्र शिष्यः प्राह-यथा रागद्वेषवृद्धिवशतः प्रायश्चित्तवृद्धिरुपलब्धा, तथा किं रागद्वेषहानिवशतःप्रायश्चित्तहानिरप्युपलब्धा? आचार्याः प्राऽऽहउपलब्धा। तथा चैतदेव प्रयच्छतिजह मन्ने दसमं से-विऊण निग्गच्छए उ दसमेणं / तह मन्ने दसमं से-विऊण नवमेण निग्गच्छे // 327|| अहमेवं मन्ये-यथा दशमं प्रायश्चित्तं पाराश्चितं प्रतिसेव्य दशमेन पाराञ्चितेन प्रायश्चित्तेन निर्गच्छति। तथा एतदपि मन्येदशमं पाराञ्चित सेवित्वा नवमेन अनवस्थाप्येन प्रायश्चित्तेन निर्मच्छति शुद्ध्यति। आचार्य आह-सत्यमेतत्। दशमं सेवित्वा दशमेन शुद्धयति, कदाचिन्नवमेनाऽपि अनया गाथया सर्वेऽधोमुखा गमाः सूचिताः / ते चाऽमीदशमं सेवित्वा मूलेन, मूलं सेवित्वा छेदेन निर्गच्छति। एवंषाण्मासिकेन पाश्चमासिकेन चातुर्मासिकेन त्रैमासिकेन द्वैमासिकेन मासिकेन च वक्तव्यम् / दशमं सेवित्वा भिन्नमासेन निर्गच्छति / दशम सेवित्वा विंशत्या रात्रिन्दिवैर्निर्गच्छति। दशमं सेवित्वा पञ्चदशमी रात्रिन्दिवैर्निर्गच्छति। दशमं सेवित्या दशमभक्तेन निर्गच्छति। दशम सेवित्वा अष्टमेन निर्गच्छति।। दशमं सेवित्वा षष्ठेन निर्गच्छति / दशमं सेवित्वा चतुर्थेन निर्गच्छति। दशमं सेवित्वा आचामलेन निर्गच्छति / दशमं सेवित्वकाशनकेन निर्गच्छति / दशमं सेवित्वा पूर्वार्द्धन निर्गच्छति / दशमं सेवित्वा निर्विकृतिकेन निर्गच्छति। तथा- अनवस्थाप्यं सेवित्वा अनवस्थाप्येन | निर्गच्छति / अनवस्थाप्यं सेवित्वा मूलेन निर्गच्छति / एवं यावन्निर्विकृतिकेन निर्गच्छति। एवं मूलेऽपि नेतव्यं यावन्मूलं सेवित्वा निर्विकृतिकेन निर्गच्छति। एवं छेदे,एवंषाण्मासिके,एवं पाश्चमासिके, एवं चातुर्मासिके। एवं त्रैमासिके, एवं मासिके, भिन्नमासे, विंशतिरात्रिन्दिवे, पञ्चदशरात्रिन्दिवे, दशरात्रिंदिवे, पञ्चरात्रिन्दिवे, दशमे, अष्टमे, षष्ठे, चतुर्थ, आचामाम्ले, एकाशनके, पूर्वार्द्ध , निर्विकृतिके च गमा वक्तव्याः, त? एतेऽपि रामा द्रष्टव्याः, सूत्रस्य सूचकत्वात्। निर्विकृतिक सेवित्वा तेनैः निकृतिकेन शुध्यति / निर्विकृतिकं कृत्वा पूर्वार्द्धन निर्गच्छति / एवं यावच्चरमेण पाराशितेन निर्गच्छति / तथा-पूर्वार्द्ध सेवित्वा पूर्वार्द्धन निर्गच्छति। पूर्वार्द्धसेवित्वा एकाशनेन निर्गच्छति।याव-चरमेण एकापान सेवित्वा एकाशनेन निर्गच्छति / एकाशनं सेवित्वा आचामाम्लेन निर्गच्छति यावचरमेण / एवमाचामाम्लाऽऽदिष्व-प्यूर्द्धगमा वक्तव्याः' अत्र शिष्यः प्राऽऽहजह मण्णे बहुसो मा-सियाई सेविय एगेण निग्गच्छे। तह मन्ने बहुसो मा-सियाइ सेविय बहूहिँ निग्गच्छे / / 328 // अहमेवं मन्ये-यथा बहुशो बहून वारान् मासिकाऽऽदीनि परिहारस्थानानि सेवित्वा एकेन मासेन सोऽपराधकारी निर्गच्छति, अपराधपदान्निर्याति, मन्दानुभावेन प्रतिसेवनायां कृतत्वात्। तथा एतदपि मन्दबहुशो बहूनि मासिकानि सेवित्वा कदाचिद् बहुभिर्मासैनिर्गच्छति, यदि तीव्रानुभावेन प्रतिसेवनां कृत्वा स्यादिति भावः / अत्रार्थे आचार्याणामिति वक्तव्यम्, रागद्वेषवृद्धिहानिवशत एकैकस्मिन्नापत्तिस्थाने सर्वप्रायश्चितानामारोपणाभावात्। तत्र यदुक्तं दशमं प्रायश्चित्तं स्थानं सेवित्वा दशमेन शुध्यति दशमं सेवित्वा नवमेन शुध्यति, तत्र दृष्टान्तं प्रागुक्तमेव दर्शयतिएगुत्तरिया पडछ-क्कएण छेयाई हॉति निग्गमणं / तेहिं तु दोसवुड्डी, उप्पत्ती रागदोसेहिं // 326 / / एकोत्तरिका जलकुटस्य वृद्धिर्घटषट्केन नियमयितव्या। कि मुल भवति?कोऽपि तथाविधाऽल्पमलः पट एकेन जलकुटेनगृहे प्रक्षाल्यात, कोऽपि बहुतरमलो द्वाभ्यां कुटाभ्याम्। ततोऽपि बहुतरमलस्विभिः कुरैः एवं यावद् बहुतमः षद्भिः कुटैः / एवं किमपि साधूनामपराधपदनतिप्रभूतरागद्वेषाध्यवसायोपचितं स्वपर्यायमण्डल्यादिरूपे गृह एवाऽदस्थितानां षड्भर्मासैःशुद्ध्यति। किमपि स्तोकरागद्वेषाध्यवसायोपचिन पञ्चभिर्मासैः / ततोऽपि स्तोकरागद्वेषाध्यवसायोपचितं चतुर्भिसि एवमेकैकहानिस्तावद्वक्तव्या यावत्किमप्यल्पतररागद्वेषाध्यवसाहे. पचितमेकेन शुद्ध्यतीति / (छेयादी होति निग्गमणं) यथाकेऽपि घट अतिप्रभूतकठिनमला गृहान्निर्गत्य वहिः सरित्तडागाऽऽदि गत्व बहुभिर्गोमूत्राऽऽदिभिर्बहुभिश्चाऽऽच्छोटनपिट्टनप्रकारैः शुध्यन्ति / तय निर्गमतुल्याः छेदाऽऽदयो भवन्ति। तथाहि-किश्चिदतिप्रबलरागद्वेषाध्य. वसायोपचितमपराधपदं साधूनां दशमेन पाराञ्चिताभिधानेन शुध्यतिः किञ्चित्ततो हीनरागद्वेषाध्यवसायोपचितमनवस्थाप्येन। ततो हीनत. ररागद्वेषाध्यवसायोपचितं मूलेन। ततो हीनतमरागद्वेषाध्यवसायोपचित छेदेन / छेदाऽऽदयश्च पर्यायाऽऽदिगृहान्निष्काशनेन भवन्ति / तर निर्ममनतुल्याश्छेदाऽऽदयः। कस्मादेवं प्रायश्चित्तहानिः? (अत आ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 185 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त ह-(तेहिं तु इत्यादि) तैरागद्वेषैस्तीव्रतीव्रतरवैराऽऽदिदोषवृद्धः कर्मोपचयवृद्धरुत्पत्तिरतो यथा यथा रागद्वेषध्यवसायवृद्धिस्तथा तथा प्रायश्चित्तस्याऽपि वृद्धिः, यथा यथा च रागद्वेषहानिस्तथा तथा प्रायश्चित्तस्यापि हानिरिति। एतदेवाऽऽहजिण निल्लेवणकुडए, मासे अपलिउंचमाणे सट्ठाणं / मासेण विसुज्झिहिई, तो दें ति गुरूवएसेणं * / / 330 / / जिनाः केवल्यवधिमनः पर्यायज्ञानिप्रभृतयः ते केवलाऽऽदिबलतो यथाऽवस्थितरागद्वेषाऽध्यवसायहानिवृद्धीरुपलभमाना निर्लेपनकुटान प्राणुरूप्रकारेण दृष्टान्तीकृत्य यो यथा शुध्यति तस्मै तथा प्रायश्चित्त प्रयच्छन्ति / तथाहि- मासाहे रागद्वेषाध्यवसायासे प्रतिसे विते तदनन्तरमालोचनायामप्रतिकुञ्चति जिनाः केवलाऽऽदिबलतः श्रुतव्यवहामिण गरूपदेशतः, पाठान्तरं- "जिनोपदेशेन' मासेनैष विशोत्स्यनीति विज्ञाय स्वस्थानं मासिकमेव प्रायश्चित्तं ददति प्रयच्छन्ति / यदि पुनमारिसकं यावत्पाराञ्चितं वा मासाऽऽदिरेव रागद्वेषाध्यवसायैस्ततो हीनतर्वा प्रतिसेवितम्। यदि वा-पश्चात् हा दुष्टकृतमित्यादिभिर्निन्दनैः प्रतनकृतं तदा जिनाः केवलाऽऽदिबलतः, श्रुतव्यवहारिणो गुरूपदेशतस्तथा विज्ञाय तस्मै मासं भिन्नमासं यावदन्ते निर्विकृतिकमपि प्रयच्छन्ति ततो न कश्चिद्दोषः। पुनरप्याह चोदकःपत्तेयं पत्तेयं, पए पए भासिऊण अवराहे। तो केण कारणेणं, हीणऽभहिया व पट्ठवणा ||331|| पदे पदे सूत्रगते प्रत्येकं प्रत्येकमपराधान् भाषित्वा ततस्तदनन्तसमर्थतः केन् कारणेन हीना अभ्यधिका वा प्रस्थापना भणिता? यथा स्तोके प्रायश्चित्तस्थाने बहु प्रयच्छथ, बहुके वा स्तोकम्, यदि वा सर्वथा झोष कुरु थेति? अत्राऽऽचार्य आहमण पर मोहि जिणं वा, चउदस दसपुट्वियं च नवपुट्विं। थेरे च समासज्जां, ऊणऽभहिया च पट्टवणा / / 332 / / मनःपर्यायज्ञानिनं परमावधिं प्रभूतावधि जिनं वा केवलज्ञानिनं चतुर्दशपूर्विणं दशपूर्विणं नवपूर्विण च स्थविराश्च समासाद्याऽऽश्रित्य हीना अभ्यधिका वा प्रस्थापना भवति। इयमत्र भावनामनःपरमावधिजिनाऽऽदयः प्रत्यक्षज्ञानिनः, ततः तेप्रतिसेवकेषु रागद्वेषाऽध्यवसायस्थानाना हानि वृद्धि वा साक्षादवेक्षमाणाः, तुल्येऽप्यपराधपदे रागद्वेषानुरूपं होनमधिकं वा प्रस्थापयन्ति; ददतीत्यर्थः। अथ ये मनः परभावधिजिनाऽऽदयः प्रत्यक्षज्ञानिनस्तेषामेतत् युक्तम्, रागद्वेषाध्यवसायवृद्धिहान्या साक्षादवेक्षणात्। ये पुनः स्थविरास्ते कथं रागद्वेषाणां हानि वृद्धिं वा जानीयुः ? उच्यते बाह्यपश्चात्तापाऽऽदिलिङ्ग तः, तत्र हानिपरिज्ञानलिङ्ग पश्चात्तापाऽऽदिकमाहहा दुठु कयं हा दु-ठु कारियं दुट्ठमणुमयं मे त्ति। अंतो अंतो मज्झइ, पच्छातावेण वेवंतो // 333 / / प्राणातिपाताऽऽदि कृत्वा, कारयित्वा, अनुमोद्य च तदुत्तरकालं हा इति विषादे, दुष्ठ अशोभनं मया कृतम्, हा दुष्टु का रितम्, हा दुष्टु अनुमतम् *"जिणावएसेणं" इतिपाठान्तरम्। मे ममेत्येबलक्षणेन पश्चात्तापेन पश्चात्तापवहिना वेपमानः पश्चात्तापकरणत एव कम्पमानोऽन्तरन्तश्चित्तमध्ये दह्यते ततो ज्ञायते स्थविरैरेतस्य रागद्वेषहानिरिति तदनुरूप प्रायश्चित्तं प्रस्थाप्यते। वृद्धिपरिज्ञानलिङ्गमाहजिणपण्णत्ते भावे, असद्दहंतस्स तस्स पच्छित्तं / हरिसमिव वेदयंतो, तहा तहा वड्डए उवरि // 334|| तस्य प्रायश्चित्तप्रतिपत्तुजिनैः सर्वज्ञैः प्रकर्षेण ज्ञप्ताः प्रज्ञप्ता भावा जीवाऽऽदिकास्तान जिनप्रज्ञप्तान् भावान् अश्रद्दधानस्य / तथा प्राणातिपाताऽऽदि कृत्वा आस्तां तदुत्तरकालं किं त्यालोचनायामपि निधिलाभे हर्षमिव वेदयमानस्य यथा यथा हर्षगमनं तथा तथा प्रायश्चित्तमुपर्युपरि वर्द्धते। किमुक्तं भवति? स्थविरा अपि जिनप्रज्ञप्तभावाश्रद्धानेन तथा तथा हर्षगमनेन च प्रतिसेवकस्य रागद्वेषवृद्धिमवगच्छन्त्यवगत्य च तदनुरूपमुपर्युपरि प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति। सूत्रम्जे भिक्खू चाउम्मासियं वा सातिरेगचाउम्मासियं वापंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडि से वित्ता आलो एज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स चाउम्भासियं वा सातिरेगचाउम्भासियं वा पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियं, पलिउंचिय आलोएमासस्स पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियं छमासियं वा, तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचियए वा ते चेव छम्मासा।१३(५) यो भिक्षुश्चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा पाञ्चमासिकं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां परिहारस्थानानामन्यतरत् परिहारस्थानमालोचयेत्, तस्याप्रतिकुञ्च्याऽऽलाचयतः चातुर्मासिकं वा सातिरेकचातुर्मासिकं वा पाश्चमासिकं वा सातिरेकपाश्चमासिकं वा, दद्याद् इति शेषः / यत्प्रतिसेवितं तद्दद्यादिति भावः। तद्योग्यैरेवाध्यवसानैस्तस्य तस्य प्रतिसेवनात्, आलोचनायां वा तत्प्रतिकुञ्चनात् / प्रतिकुञ्च्याऽऽलो चयतश्चातुर्मासिक प्रतिसे वक स्य पाशमासिक सातिरेकचातुर्मासिकप्रतिसेवकस्य सातिरेकपाश्चमासिकं, मायानिष्पन्नस्य गुरुमासस्याधिकस्य दानात् / पाश्चमासिकप्रतिसेवकस्य सातिरेकपाश्चमासिकप्रतिसेवकस्य च पाण्मासिकं, षण्मासात्परस्य भगवद्वर्द्धमानस्वामितीर्थे तपोदानस्यासंभवात्। (तेण परमित्यादि) ततः पाश्चमासिकात्स्थानात्परस्मिन्षाण्मासिके सातिरेके वा पाण्मासिके प्रतिसेविते आलोचनाकाले प्रतिकुञ्चितेऽप्रतिकुञ्चते वा त एव स्थिताः षण्मासाः प्रदातव्याः, परतस्तपोदानस्य निषेधनात् / तदेवं पञ्चमसूत्रमुक्तम्। इदानीं षष्ठ सूत्रमाहएवं बहुसो विनेयव्वं / एवममुना प्रकारेण बहुशोऽपि बहुशःशब्देन विशिष्टमपि सूत्रं षष्ठ वक्तव्यम् / तचैवम् "जे भिक्खू बहुसो चाउम्मासिय वा बहुसोसातिरंगचाउम्मासियं वा बहुसो पंचमासियं वा बहुसो सातिरंगपंचमासिय वा एएसिंपरिहारट्ठाणाणं अण्णयर परिहारट्ठाण पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउचिय आलोएमाणस्न चाउम्मासियं वा साइरेगचाउमासियं वा पंचमासियं वा सातिरेगपंचमासिय वा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त पलिउचिय आलोएमाणस्स पंचमासियं वा सातिरंगपंचमासिये छम्मासिय वा तेण परं पालउचिए वा अपलिउचिए वा ते घेव छम्मासा इति।" अस्याक्षरगमनिका पञ्चसूत्रानुसारतः कर्तव्या, नवरं बहुशोऽपि चातुर्मासिके प्रतिसेविते यद्येकं चातुर्मासिक दत्तं तत् बहुशोऽपि प्रतिसेवनाया मन्दानुभावकृतत्वात् आलोचनावेलायामप्येककालं सर्वेषामालोचितत्वात् / एवं सातिरेकचातुर्मासाऽऽदावपि भावनीयम्। (11) आलोचनायां दन्तपुरकथानकम् / संप्रति वक्तव्यविशेषमभिधित्सुराहएत्तो निकायणा मा-सियाण जह घोसणं पुहविपालो। दंतपुरे कासी या, आहरणं तत्थ कायव्वं // 335 / / इत इति तृतीयार्थे पञ्चमी। ततोऽयमर्थ:-एतैरनन्तरोदितैः सर्वैरपि सूत्रैमासिकानां मासनिष्पन्नाना मासिकद्वैमासिकत्रैमासिकयावतुषाण्मासिकानां निकाचनोक्ता / निकाचना नामयत् मासिकाऽऽदि प्रतिसेवितं तत् यावदद्यापि आलोचनार्हस्य पुरतो नालोच्यते तावदनिकाचितमवसेयम् / आलोचितं तु निकाचितं, तत "आलोएज्जा" इत्यादि-पदैनिकाचना भाविता द्रष्टव्या। तत्र आलोचनायामाहरणं ज्ञात कर्तव्यम् / किं तदित्याह-(जह घोसणमित्यादि) यथेत्याहरणोल्लेखोपदर्शने, दन्तपुरे पत्तने पृथिवीपालो राजा दन्तवक्रनामा घोषणामकार्षीत् दन्ता न केनापि क्रेतव्याः, स्वगृहे वसन्तः समर्पणीया इत्येवरूपामित्यादि / तचेदम्- "दंतपुरं नगरं, दंतवक्को राया, तस्स सच्चवती देवी, तीसे दोहलो जाओ-जह अहं सव्वदंतमए पासाए कीलिजामि. स्नो कहिय / न्ना अमचो आणत्तोसिग्ध मे दंते उवट्टवेह / तेण नगरे घोसावियं-जो अण्णो दंतो किणेइ, न देइ वा घरे सते, तस्स सारीरो दंडो। तत्थ नगरे धणमित्तो सत्थवाहो, तस्स दो भज्जाओधणसिरी, पउमसिरीय। अन्नया तासिं दुन्ह वि कलहो जाओ। तत्थ धणसिरीए पउमसिरी भणिया-किमेवं गव्वमुव्वहसि,किं ते सच्चवतीए विव दंतमयो पासाओ कतो? ताहे पउमसिरीए असम्गाहो गहितो-जह मे दंतमओ पासाओ न किज्जइ, तो अलं मे जीविएणं / न देइ धणमित्तस्स वि उल्लावं / तस्स वयंसो दढमित्तो नाम, तस्स कहियं / तेण भणिय-अहं ते इच्छं पूरेमि, छड्डाविया असग्गाहं ताहे सो दढमित्तो वणयरे दाणमाण गहिए करेइ। तेहिं भणियं-किं आणेमो, किं वा पइच्छामो? तेण भणियंदते मे देह / तेहि य ते दंता खडपूयगेहिं गोविया, सगड भरियं, नगरदारेपवे-सिज्जताण एगोखडपूयगो त्ति गोणेण गहीतो, दंतोपडिओ। चोरो ति रायपुरिसेहिं वणयरो गहितो, पुच्छितोकस्सेते दंता ? सो न साहेइ, एत्यंतरे दढमित्तेण भणियमम एते दंता, एस कम्भकरो, ततो वणयरो मुक्को, दढमित्तो गहितो / रण्णा पुच्छिओ-कस्सते दता? सो भणइमम ति। एत्थंतरे दढमित्तं गहियं सोऊण धणमित्तो आगतो, रण्णो पुरतो भणइ-ममेत दंता, मम दंड सारीरं वा निगाहं करेह / दढमित्तो भणइ-अहमेयं न जाणामि, मम संतिया, दंता मम निग्गह करेह / एवं ते अन्नोन्नावराहरक्खाट्ठिया रण्णा भणिया-भो ! तुब्भ निरपराधा, भूयत्थं | कहेह / तेहिं सव्वं जहाभूयं कहियं / तुट्टेण रन्ना मुक्का / उम्मुको जहा सो / दढमित्तो तिरबलापो, अवि य मरणमाभुवगतो, न य परावराहो सिद्धो, तहा आलोयणारिहेण अपरिस्ताविणा भवियव्वं / जहा सो धणमित्तो भूयत्थं कहेइ-ममेसोऽवराहो त्ति / एवं आलोयगेण मूलुत्तरावराहा अपलिउंचमा-णेण जहटिया कहेयव्या।" निकाचना किल तत्त्वत आलोचनार्हाऽऽलोचकाभ्यां विना न भव-तीति त्रितयमपि सप्रपञ्चं विवक्षुरिदमाह आलोयणारिहो आ-लोयओं आलोयणाएँ दोसविही। पणगातिरेग जाप-प्रणवीस सुत्ते अह विसेसो // 336|| आलोचना) यादृगु वक्तव्यः, तथा आलोचकश्च यथावस्थितो यादृशे भवति तादृशोऽभिधातव्यः, आलोचनाया दोषविषयो विधिः दोषभेट वक्तव्याः / तथा (अह त्ति) एष सूत्रे विशेषोयदुत चातुर्मासिकस्य पाञ्चमासिकस्य वा पञ्चकाऽतिरेको रात्रिन्दिवपञ्चकेनातिरेकोऽत्यर्गलता / एवं पश्शकवृद्ध्याऽतिरेकस्तावद्वक्तव्यो यावत्पञ्चविंशतिः, पञ्चविंशत्यातिरेक इत्यर्थः / इयमत्र भावनासूत्रे चातुर्मासिकस्य पाशमासिकस्य च या सातिरेकता सा दिनानां पञ्चकेन दशकेन पञ्चदशकेन विंशत्या पञ्चविंशत्या वा द्रष्टव्येति। साम्प्रतमालोचना) यादृग्भवति तादृशमुपदर्शयतिआलोयणारिहो खलु, निरावलावी उजह उदढमित्तो। अट्ठहिँ चेव गुणेहिं, इमेहि जत्तो उनायव्वो // 337 / / आलोचनाहः खलु निरपलापी-अपलपतीत्येवंशीलोऽपलापीनिश्चितमपलापीति निरपलापी, अयमसौऽपरिश्रावीति भावार्थः। तथैव, तुरेवकारार्थः / दृढ मित्रोऽनन्तरकथानकोक्तस्तथैव द्राव्यः, चाष्टभिर्गुणैरेतैः वक्ष्यमाणस्वरूपैर्युक्तो ज्ञातव्यः। तानेव गणानाहआयारव आहारव ववहारवऽवीलए पकुव्वी य। निजव अवायदंसी, अपरिस्सावी य बोधव्वा // 338|| आचारो ज्ञानाऽऽचाराऽऽदिरूपः पञ्चप्रकारः, सोऽस्यास्तीति आचारवान् / आ सामस्त्येनाऽऽलोचितापराधानां धारणमाधारः, सोऽस्यास्तीत्याधारवान, आलोचकेनाऽऽलोच्यमानो यः सर्वमवधारयति न आधारवानित्यर्थः / व्यवहियतेऽपराधजातं प्रायश्चित्तप्रदानतो येन स व्यवहार आगमाऽऽदिकः पञ्चप्रकारः, सोऽस्यास्तीति व्यवहारवान, सम्यगागमाऽऽदिव्यवहारं जानाति, ज्ञात्वा च सम्यक् प्रायश्चित्तदानते व्यवहरति, सव्यवहारवानिति भावः / तथाऽपवीडयति लज्जा म'चयती. त्यपव्रीडकः, आलोचकं लज्जयाऽतीचारान् गोपायन्तं यो विचित्रमयुरऽऽदिवचनप्रयोगैस्तथा कथञ्चनापि वक्ति यथा सलज्जामपहाय सम्या.. लोचयति सोऽपव्रीडक इत्यर्थः। (पकुव्वी यत्ति) 'कुर्व' इत्यागभप्रसिद्धी धातुरस्ति,यस्य विकुर्वणेति प्रयोगः। प्रकुर्वतीत्वेवं शीलः प्रकुर्सी / विमुलं भवति? आलोचकेनालोचितेष्वपराधेषु यः सम्यक् प्रायश्चित्तप्रदानन आलोचकस्य विशुद्धिमुपजनयति स प्रकुर्वीति / (निजय ति) निकित यापयति प्रायश्चित्तविधिषु याप्यमालोचकं करोति निर्वाहयतीति यावदिति निर्यापः, अच्प्रत्ययः / अपराधकारी यथोक्तं प्राचिन कर्तुमसमर्थो यथा निर्वहति तथा तदुचितप्रायश्चित्तप्रदानतः प्रायकि कारयति स निर्यापक इति, भावः / तथा इह लोकेऽपार श्व दर्शयतिइ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 187- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त त्येवंशीलोऽपायदर्शो। किमुक्त भवति? यः सम्यगालोचयति, कुञ्चितं / वा आलोचयति, दत्तं वा प्रायश्चित्तं सम्यग् न करो ति, तस्य, यदि वनसम्धगालोचयिष्यसि प्रतिकुञ्चितं वा करिष्यसि, दत्तं वा प्रायश्चित्तं मसम्यक पूरयिष्यसि, ततस्ते भूयान्मासिकाऽऽदिको दण्डो भविष्यतीत्येवनिहलोकापायान्; तथा संसारे जन्ममरणाऽऽदिकं त्वया प्रभूतमनुभवितव्य, दुर्लभबोधिता च तवैवं भविष्यतीत्येवं परलोकापायांश्च दर्शयति, सोऽपायदर्शीति भावः। तथा न परिश्रवतीत्येवंशीलोऽपरिश्रावी, आलोचित गोप्यमगोप्यं वा योऽन्यस्मै नकथयति सोऽपरिश्रावीतिभावः। साम्प्रतमालोचकमभिधित्सुराहआलोयंतो एत्तो, दसहिँ गुणेहिं तु होइ उववेओ। जाइकुलविणयनाणे-दसणचरणेहिं संपन्नो // 336 / / खंते दंते अमाई, अपच्छतावी य होति वोधव्यो। आलोयणाएँ दोसे, एत्तो वुच्छं समासेणं / / 340 / / इतऊर्द्धमालोचयन्नालोचको वक्तव्यः, सच दशभिर्गुणैरुपपेत एव युक्त एव भवति। तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमत्वादत्र संबध्यते / तानेव गुणानुपदर्शयाते-(जाइ इत्यादि) जातिसंपन्नः, कुलसंपन्नः, मातृपक्षो जातिः, पितृपक्षः कुलम्। विनयसंपन्नः, ज्ञानसंपन्नो, दर्शनसंपन्नः, चरणसंपन्नः। क्षान्तः, दान्तः, अमायी, अपश्चात्तापी च बोधव्यः। अथ कस्माद्बालोचकस्यैतावान गुणसमूहोऽन्विष्यते? उच्यते-जातिसंपन्नः प्रायोऽकृत्यं न करोति, अथ कथमपि कृतं तर्हि सम्यगालोचयति। कुलसंपन्नः प्रतिपन्नप्रायश्चित्तनिर्वाहक उपजायते। विनयसंपन्नो निषद्यादानाऽऽदिकं विनयं सर्व करोति सम्यगालोचयति / ज्ञानसंपन्नः श्रुतानुसारेण सम्यगालोचयति, अमुकश्रुतेन मे तद्दत्तं प्रायश्चित्तमतः शुद्धोऽहमिति च जानीते। दर्शनसंपन्नः प्रायश्चित्तात् शुद्धि श्रद्धत्ते ! चरणसंपन्नः पुनरतिचार प्रायोन करोति, अनालोचिते चारित्रं मे न शुद्ध्यतीति सम्यगालोचयति। क्षान्तो नाम क्षमायुक्तः, स करिमश्चित्प्रयोजने गुर्वादिभिः खरपरुषमपि भणितः सम्यक् प्रतिपद्यते, यदपि च प्रायश्चित्तमारोपितं तत्सम्यग्वहति / दान्तो नाम इन्द्रियजयसंपन्नः, स प्रायश्चित्ततपः सम्यक् करोति / माया अस्यास्तीति मायी, न मायी अमायी, सोऽप्रतिकुञ्चितमालोचयति / अपश्चात्ताधी नाम यः पश्चात्परितापं न करोति-हा दुष्टु कृतं मया यत् आलोचितमिदानी प्रायश्चित्ततपः / कथं करिष्यामीति ? किन्त्वेवं मन्यतेकृतपुण्योऽहं यत्प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवानिति / अत ऊर्द्धमालोचनाया दोषान समासेन संक्षेपेण वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिआकंपइत्त अणुमा-णइत्त जं दिट्ठ बायरं सुहुमं / छाणं सद्दाउलगं, बहुजण अव्वत्त तस्सेवी॥३४१॥ आवर्जितः सन् आचार्यः स्तोकं मे प्रायश्चित्तं दास्यतीति बुझ्या वैयावृत्त्यकरणाऽऽदिभिरालोचनाऽऽचार्यमाकम्प्य आराधयन् आलोचयत्येष आलोचनादोषः 1 तथा अनुमान्य अनुमानं कृत्वा लघुतरापराधनिवेदनातो मृदुदण्डप्रदायकत्वाऽऽदिस्वरूपमाचार्यस्याऽऽकलय्य रादालोचयत्येषोऽप्यालोचनादोषः 2 / तथा यद् दृष्टमपराधजातं क्रियमाणमाचार्याऽऽदिना तदेवाऽऽलोचयति नापरमिति तृतीय आलोचनादोषः 3 / (वायर त्ति) बादरं दोषजातमालोचयति, न सूक्ष्म, तत्रावज्ञापरत्वदिष चतुर्थमालो-चनादोषः 4 / (सुहुमं ति) सूक्ष्म वा दोषजातमालोचयति, न बादनम्। यः किल सूक्ष्ममालोचयति स कथं बादर नाऽऽलोचयि-व्यतीत्येवंरूपभावसंपादनार्थमेवार्थस्येति / एष पञ्चम आलोचनादोषः 5 / तथा (छण्णमिति) प्रच्छन्नमालोचयति / किमुक्तं भवति?-लजालुतामुपदाऽपराधानल्पशब्देन तथाऽऽलोचयति यथा केवलमात्मैव शृणोति, न गुरुरित्येष षष्ठ आलोचनादोषः 6 / (सद्दाउल त्ति) शब्दाकुलं बृहच्छब्दं यथा भवत्येवमालोच-यति। इदमुक्तं भवतिमहता शब्देन तथा आलोचयति यथा अन्येऽप्यगीतार्थाऽऽदयः शृण्वतीत्येष सप्तम आलोचनादोषः७। तथा (बहुजण त्ति) तथा बहुजनमध्ये यदालोचनं तद्बहुजनम् / अथवा-बहवो जना आलोचनागुरवो यत्र तत् बहुजनमालोचनम्। किमुक्तं भवति? -एकस्य पुरत आलोच्य तदेवापराधजातमन्यस्यान्यस्य पुरत आलोचयति, एषोऽष्टम आलोचनादोषः / (अव्वत्त त्ति) अव्यक्तोऽगीतार्थस्तस्याव्यक्तस्य गुरोः पुरती यदपराधाऽऽलोचनं तदव्यक्तम्। एष नवम आलोचनादोषः / / (तस्सेवी ति) शिष्यो यमपराधमालोचयिष्यति तमेव सेवते यो गुरुरसौ तत्सेवी, तस्य समीपे यदपराधाऽऽलोचनमेष ममातिचारेण तुल्यस्ततो न किमपि मे प्रायश्चित्त दास्यत्यल्प वा दास्यति, न च मां खरण्टयिष्यति-यथा विरूपं कृतं त्वयेति बुद्ध्या यदालोचनं तत्सेवी / एष दशम आलोचनादोषः 10 / तदेवमालोचनाविधिदोषा उक्ताः। संप्रति यथाभूतेषु द्रव्याऽऽदिष्वालोचनं तथाभूतद्रव्याऽऽदि प्रतिपादनार्थमाहआलोयणाविहाणं, तं चिय जंदव्व खित्त काले य। भावे सुद्धमसुद्धे, ससणिद्धे सातिरेगाई॥३४२॥ आलोचनाविधानं तदेवात्राऽपि सविस्तरमभिधातव्यम्। यदुक्तं प्रथमसूत्रे- 'दव्वादि चउरभिग्गह'' इत्यादिना ग्रन्थेन / ततः प्रागुक्तदोषवर्जिता आलोचना प्रशस्ते द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च प्रागुक्तस्वरूपेदातव्या, नाऽप्रशस्ते इह प्रतिसेवितं द्विधा भवति-शुद्धम्, अशुद्ध च / तत्र यत् शुद्धेन भावेन प्रतिसेवितं यतनया च तत् शुद्ध, तब शुद्धत्वादेव न प्रायश्चित्तविषयः / यत्त्वशुद्धेन भावेन प्रतिसेवितमयतनया च तदशुद्ध, तच्च प्रायश्चित्तविषयोऽशुद्धत्वात्, तस्मिश्चाशुद्धे प्रायश्चित्तानि केवलानि मासिकाऽऽदीनि सातिरेकाणि च। तत्र सा तिरेकाणि (ससणिद्धे इति) सस्निग्धे हस्ते मात्रके वा सति तेन भिक्षाग्रहणतः, उपलक्षणमेतत्तेन बीजकायसंघट्टनाऽऽदिनाऽऽपि सातिरेकाणि द्रष्टव्यानि। तत्र सातिरेकतामेव भावयतिपणगेणऽहिओ मासो, दस पक्खेणं च वीस मिन्नेणं / संजोगा कायव्वा, गुरुलहुमीसे हिँ य अणेगा॥३४३|| इह मूलत आरभ्याऽमूनि सर्वाण्यप्यालोचनासूत्राणि किल सर्वसंख्यया दश भवन्ति।तत्राऽऽद्यानि चत्वारिसूत्राणि साक्षात्सूत्रतएव परिपूर्णान्युक्तानि, शेषाणि तु षट् सूत्राण्याभ्यां द्वाभ्यां सूत्राभ्यामर्थतः सूचितानि / तानि चामूनि-सा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तिरेकसूत्रम् 1 / बहुसातिरेकसूत्रम् 2 / सातिरेकसंयोगसूत्रम् 3 / बहुसातिरेकसंयोगसूत्रम् 4 / नवमं सकलस्य सातिरेकस्य च संयोगसूत्रम् 5 / दशमं बहुशःशब्दविशिष्टस्य सकलस्य बहुशः शब्दविशिष्टस्य सातिरेकस्य च संयोगसूत्रम् 6 / तत्र पञ्चमं सातिरेकसूत्रं पञ्चसूत्राऽऽत्मकम्। तचैवमुच्चारणीयम्- "जे भिक्खू सातिरेगमासिय परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स सातिरेगदोमासियं / " इद पञ्चमसूत्रे प्रथमसूत्रम्। अत्र मासिकस्य सातिरेकतां पूर्वार्द्धन व्याख्यानयतिपञ्चकेन रात्रिन्दिवपञ्चकेन मासोऽधिकः। (दस त्ति) दशभिरहोरात्रैः पक्षण (वीस त्ति) विंशत्या रात्रिन्दिवैर्भिन्नेन भिन्नमासेन, पञ्चविंशन्या दिनैरित्यर्थः / तत्र पञ्चकातिरिक्तो मासो-यथा केनाऽपि शय्यातरपिण्डः सस्निग्धेन हस्तेन मात्रकेण वा गृहीतः तत्र मासः शय्यातरपिण्डग्रहणात् रात्रिन्दिवपञ्चक, सस्निग्धेन हस्तेन मात्रकेण भिक्षाग्रहणात् रात्रिन्दिवदशकेनाऽधिको मासो, यथा केनापि शय्यातरपिण्डः परीत्तकायानन्तरं निक्षिप्तः सस्निग्धेन हस्तेन मात्रकेण वा गृहीतः, तत्र मासः शय्यातरपिण्डग्रहणात रात्रिन्दिवपञ्चकं परीत्तकायानन्तरनिक्षिप्तग्रहणात्। द्वितीय रात्रिन्दिवपञ्चक सस्निग्धेन हस्तेन मात्रकेन वा भिक्षाग्रहणात् / एवं पक्षाऽऽद्यतिरेकेऽपि भावना कार्या / एवं द्वितीयतृतीयसूत्राऽऽदिष्वपि द्वैमासिकाऽऽदीनां सातिरेकता पञ्चकाऽऽदिभिभावनीया / सूत्रपाठस्त्वेवम् - "जे भिक्खू सातिरेग दोमासिय परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएजा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स सातिरेग मासियं, पलिउंचिय आलोएमाणस्स सातिरेग तेमासियं / जे भिक्खू सातिरेग तेमासियं परिहारहाणमित्यादि।'' षष्ठमपि बहुशः शब्दविशिष्ट सातिरेकसूत्रं पञ्चसूत्राऽऽत्मकम्। तचैवमुचारणीयम्- "जे भिक्खू बहुसो सातिरेगमासियं परिहारहाण पडि-सेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स सातिरेगदोमासियं / जे भिक्खू बहुसो सातिरेगदोमासिय परिहारट्टाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स सातिरेगदोमासिय, पलिउंचिय आलोएमाणस्स सातिरेगते-मासियं।" इत्यादि सप्तमं सातिरेकसंयोगसूत्रम्। अष्टम बहुशः सातिरेकसयोगसूत्रम्। तत्र सातिरेकाणां मासिकाऽऽदीनां संयोगाः सातिरेकसंयोगाः, तदात्मकं सूत्रं सातिरेकसंयोगसूत्रं, तदेव बहुशःशब्दविशिष्टं बहुशः सातिरेकम्। तत्र सातिरेकाणि पञ्च पदानि। तद्यथा-सातिरेक मासिकम् 1 / सातिरेक द्वैमासिकम् 2 / सातिरेकं त्रैमासिकम् 3 / सातिरेकं चातुर्मासिकम् / / सातिरेक पाशमासिकम् 5 / पञ्चानां च पदानां द्विकसंयोगे भगा दश, त्रिकसयोगेऽपि दश, चतुष्कसंयोगे पञ्च, पञ्चकसंयोगे एकः / एते च तृतीयचतुर्थसूत्रचिन्तायामिव भावनीयाः सर्वसंख्यया भङ्गाः षड्विंशतिः / एवमेव षड्विंशतिर्भङ्गाः सातिरेकसंयोगसूत्रेऽपि भावनीयाः। उभयमीलने भगा द्वापञ्चाशत् / पञ्च सूत्राणि पञ्चमे सातिरेकसूत्रे,पञ्च सूत्राणि षष्ठे बहुशः सातिरेकसूत्रे; तान्यप्यत्र मीलितानि जातानि सर्वसंख्यया द्वाषष्टिसूत्राणि 62 / एतानि च उद्धातानुद्धातविशेषरहितानि / तत एतावन्त्येबोद्धातविशेषपरिकलितान्यन्यानि सूत्राणि द्रष्टव्यानि 62 / एतावन्त्येव चानुद्धातविशेषपरिकल्पितान्यपि 62 / एवमेतास्तिस्रो / द्वाषष्टयः सूत्राणां सर्वसंख्यया पडशीतं सूत्रशतम् 186 / अत ऊर्द्ध / तूद्धातमिश्रकाभिधानतः संयोगसूत्राणि भवन्ति / तत्सूचनार्थमिदमुत्तरार्द्धमाह-(संजोगा कायव्वा इत्यादि) गुरवश्च लघवश्च गुरुलघवः, ते च ते मिश्राश्च गुरुलघुमिश्राः, तैरनेकैः संयोगा भवन्ति कर्त्तव्याः। त चैवमुचारणीयाः-"जे भिक्खू सातिरेगउग्घायमासियं वा परिहारट्टाणं पडिसेवित्ता आलोएजा, अपलिउंचिय आलोएमाणस्स सातिरेगमुग्घायमासियं वा, पलिउंचिय आलोएमाणस्स सातिरेगमुग्घायदोमासियं घा, सातिरेगमणुग्घायदोमासियं वा / जे भिक्खू सातिरेगमुग्घायमासियं वा सातिरेगमणुग्घायदोमासिय वा परिहारहाणं पडिसेवित्ता।" इत्येवमुदधातितपदममुञ्चता अनुद्घातद्वैमासिकाऽऽदीन्यपि वक्तव्यानि / एवमेते भङ्गाः पञ्च / एते अनुद्घातमासिके अनुयातमासिकद्वैमासिकाऽऽद्यधिसंयोगेन लब्धाः / एवमुद्घातिते द्वैमासिकेऽपि पञ्च, पाश्चमासिकेऽपि पश्चेत्युभयोरेककसयोगेन सर्वसंख्यया भङ्गाः पञ्चविंशतिः / तथा उद्घातसातिरेकमासिके / एवमनुद्घातसातिरेकमासिकद्वैमासिकाऽऽदिद्विकसंयोगे भड़ा दश / एवमुद्घातिते साविरेके द्वैमासिके त्रैमासिके चातुर्मासिके पाञ्चमासिके च प्रत्येक दश दशेति सर्वसंख्यया उद्घातितैकसंयोगे,अनुद्घातितद्विकसंयोगे भङ्गाः पञ्चाशत्। एवं तृतीयसूत्रानुसारतो भङ्गगास्तावद्द्वाच्याः यावत्सर्वसंख्यया भङ्गानां नवशतान्येकषष्ट्यधिकानि६६१ भवन्ति / एतावन्त एव च 661 भङ्ग काः अष्टमेऽपि बहुशः सातिरेकसंयोगसूत्रे भवन्ति / षडशीतं शतं सूत्राणां प्राक्तनमिति सर्वसंख्यया पञ्चमषष्ठसूत्रेषु सूत्राणामेकविंशतिशतान्यष्टोत्तराणि भवन्ति 2108 / एतानि च मूलगुणापराधाभिधानेनोत्तरगुणापराधाभिधानेन र प्रत्येकं वक्तव्यानीत्येष राशिभ्यां गुण्यते, जातानि द्वाचत्वारिंशतानि षोडशोत्तराणि 4216 / एतानि च दर्पतः कल्पतो वाऽप्ययतनया भवन्तीति द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जातानि अष्टौ सहस्राणि चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि 5432 // एतावन्त्येव चाऽऽदिमेषु सूत्रेषु सूत्राणि द्वात्रिंशदधिकानि 8432 // एतावन्त्येव चाऽऽदिमेषु सूत्राणि भवन्तीत्यष्टास्वपि सूत्रेषु सर्वसंख्ययः सूत्राणां षोडश सहस्राण्यष्टौ शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि भवन्ति 16-865 नवमं सूत्रं सकलस्य सातिरेकस्य च संयोगाऽऽत्मक, तत्र सकलसयोगा मासिक्द्वैमासिकाऽऽदिसंयोगाः सातिरेकसंयोगाः लघुगुरुपञ्चकदशका. दिसंयोगाः / तत्र प्रथमतो लघुगुरुरहितपञ्चकाऽऽदिसूत्राणि केवलान्युपदयन्ते- "जे भिक्खू पणगातिरेगं मासियं परिहारट्ठाण पडिसेवित्त आलोएजा" इत्यादि / "जे भिक्खू दसगातिरेगं मासियं परिहारहाण सेविता" इत्यादि। एवं पञ्चदशकेन विंशत्या सातिरेकसूत्राणि मासिकविषयाणि वक्तव्यानि / एवमेव प्रत्येक द्वैमासिकत्रैमासिकचातुर्मासिकपाञ्चमासिकविषयाण्यपि पञ्च पञ्च सातिरेक सूत्राणि वक्तव्यानि, सर्वसंख्यया पञ्चविंशतिसूत्राणि / एवं लघुपञ्चकाऽऽदिविषयाण्यपि पञ्चविंशतिसूत्राणि वाच्यानि। एवमेव पञ्चविंशतिसूत्राणि गुरुपञ्चकाऽऽदि. विषयाण्यपि।सर्वमीलने पञ्चसप्ततिसूत्राणि। एतानि गुरुलघुविशेषरहितमासिकाऽऽदिविषयाणि, तदनन्तरमेतावन्त्येव लघुमासिकाऽऽदिविषयाण्यपि वक्तव्यानि / ततः पुनरप्येतावन्ति गुरुमासिकाऽऽदिविषयाणि, सर्वसंख्यया एककसंयोगसूत्राणा द्वेशतेपञ्चविंशत्यधिके 225 / तदनन्तरम्"जे भिक्खू पणगातिरंगमासियं वा पणगातिरेगदोमासियं वा परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएजा।" इत्यादि / तथा- "जे भिक्खू पणगातिरंगमा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त सियं दसगातिरेगभासियं वा परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएजा।" इत्यादि / एवं मासिकं पञ्चकं वा / द्वैमासिके पञ्चकदशकपञ्चदशकविंशतिपञ्चविंशति भेः सह पञ्च सूत्राणि वक्तव्यानि / एवं रैमासिकम् / चातुर्मासिके पञ्चमासिके च प्रत्येकं पञ्चपञ्चेति द्वैमासिकेन मटकेन विंशतिसूत्राणि लब्धानि। एवं दशकेन पञ्चदशकेन विंशत्या च विशतिविंशतिसूत्राणि लभ्यन्ते, इति पञ्चविंशतयः शतम्। तदनन्तरं देमासिक पञ्चकममुञ्चता त्रैमासिके पञ्चकदशकपञ्चदशकविंशतिभित्रनासैः सह पञ्च सूत्राणि। एवं चातुर्मासिके पञ्चपञ्चमासिके दश चेति पञ्चदश सूत्राणि वक्तव्यानि। एवं दशकं पञ्चदशकं विंशतिपञ्चविंशति राधमुञ्चता पञ्चदश सूत्राणि लभ्यन्ते, इति सर्वमीलने पञ्चसप्ततिसूत्राणि / तथा त्रैमासिके पञ्चकाऽऽदिभिः सह पञ्च सूत्राणि, पञ्च पाज्यमासिकपञ्चकाऽऽदिभिः सहेति दश सूत्राणि / एवं दशकाऽऽदीन व्यमञ्चता प्रत्येक प्रत्येक दश दश लभ्यन्ते; इति पञ्चाशत् सूत्राणि। तदनन्तरं चातुर्मासिकेपञ्चकममुञ्चता तानि षड्मासिकपञ्चकाऽऽदिभिः सह पञ्च सूत्राणि वाच्यानि / एवं दशकाऽऽदीन्यमुञ्चता प्रत्येकं पञ्च पञ्चेति सूत्राणि / सर्वसंख्ययाऽर्द्धतृतीयानि शतानि सूत्राणां भवन्ति। एतापन्ति लघुपञ्चकाऽऽदिभिरप्येतावन्त्येव गुरुपञ्चकाऽऽदिभिरपीति सर्वसख्यया पञ्चाशदधिकानि सप्तशतानि सूत्राणाम् / एतानि च मासिकद्वैमासिकाऽऽदीनां गुरुलघुविशेषाभावेन लब्धानि / ततो मासिका -दीना लघुविशेषचिवक्षायामप्येतावन्ति सूत्राणि लभ्यन्ते। एतावत्येव च गुरुविशेषविवक्षायामपि / सर्वमीलने द्वाविंशशतानि पञ्चाशदधिकानि 2250 / तदनन्तरम्- "जे भिक्खू पणगातिरेगमासियं वा पागाइरेगदोमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अन्नयरंपरिहारद्वाणं सेदिता।" इत्यादीनि त्रिसंयोगावषयाणि। "जे भिक्खू पणगातिरंगमासियं वा पणगातिरेगदोमासियं वा पणगातिरेगतिमासिय वा पणगातिरेगचाउम्मासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं / ' इत्यादीनि चतुःसंयोगविषयाणि। "जे भिक्खू पणगाइरेगमासियं वा पणगातिरेगदोमारियं वा पणगातिरेगतमासियं वा पणगातिरेगचाउम्मासियं वा पजगातिरेगपंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणमन्नयरं परिहारट्ठाण।" इत्यादीनि पञ्चकसंयोगविषयाणि बहूनि सूत्राणि वक्तव्यानि। एतानि च गुरुलघुगतपरस्परसंयोगरहितान्युपदर्शितानि। संप्रति लघुगुरुगतपरस्परसंयोगविषयाण्युपदर्श्यन्ते-'जे भिक्खूलहुगपणगगुरुगपणगातिरेगपंचमसियं वा परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा।" इत्यादि। "जे भिक्खू लहुगपण्गलहुदसगातिरेगमासियं परिहारट्ठाणं।'' इत्यादि। "जे भिल्लू लहुगपणगगुरुदसगातिरेगमासियं परिहारट्ठाणं" इत्यादि। पञ्चनासिकं लघुपञ्चकं वाऽमुञ्चता तावद्वक्तव्यं यावद् गुरुभिन्नमासः / एवं मासिकमसुञ्चता पञ्चकाऽऽदीनां सर्वे द्विकसंयोगाः,तदनन्तर सर्वे चतुष्कसंयोगा यावत्सर्वे नवकसंयोगा वक्तव्याः, ततः परमेकादशकसंयोगो याच्यः / ततो मासलघुममुञ्चता पञ्चकदशकविंशतिपञ्चविंशतीनां गुरुलघुभेदभिन्नानां द्विकाऽऽदिसंयोगा दशकैकसंयोगपर्यन्ताः सर्वे वक्तव्याः, ततः परमेवं मासगुरुममुञ्चता वक्तव्याः। एवं द्वैमासिकाऽऽदिस्थानेष्वपि प्रत्येक संयोगतव पञ्चकाऽऽदीनां सर्वे संयोगाः कर्त्तव्याः। एवमनेकसंयोगाऽऽत्मक सूत्रम्, एवं दशमसूत्रमपि बहुशः सकलबहुश: सातिरकसंयोगरूपं वक्तव्यम्। तत्र येषु स्थानेषु पञ्चकं भवति तानि स्थानान्युपदर्शयतिससणिखें वीयघट्टे, काएसुं मीसएसु परिठविए। इत्तर सुहम सरक्खे, पणगा एमाइया हुति // 344|| सस्निग्धे भोजनमात्रके सातिरेकभिक्षाग्रहणेन, तथा वीजघट्टे बीजकायसंघट्ट कुर्वत्याः सकाशात् भिक्षाऽऽदाने, तथा कायेषु परीत्तेषु सचित्तेषु, मिश्रेषु वा सचित्ताचित्तरूपेषु परीत्तकायेषु परिस्थापिते परम्परस्थापिते, इतररिंमचानन्तरस्थापिते गृह्यमाणे, तथा (सुहुम त्ति) सूक्ष्मप्राभृतिकाग्रहणे, (सरक्ख त्ति) सरजस्केन हस्तेन मात्रकेण वा भिक्षाग्रहणे, सर्वत्र पञ्चकं भवतीतिवाक्यशेषः। किमेतेष्वेव स्थानेषु पञ्चक भवति किं वऽिन्येष्वपीति चेत् ? उच्यते अन्येष्वपि / तथा चाऽऽह(पणगा एमाइया हुति) पञ्चकान्येवमादीनि एवमाद्यपराधहेतुकानि भवन्ति। एवमादिष्वन्येष्वप्यपराधेषु पञ्चकं द्रष्टय्यमिति भावार्थः / साम्प्रतमालोचनाऽर्हस्य यथा पञ्चकाऽऽदि परिज्ञातंयथा च प्रायश्चित्तदानविधिस्तथा प्रतिपादयतिसस णिद्धमादि अहियं, प रोक्खी सोच देंति अहियं तु। हीणाहिय तुल्लं वा, नाउं भावं तु पच्चक्खी // 345|| परोक्षषु विषयेषु भवं पारोक्ष, पारोक्षं विषयं ज्ञानं तदस्यास्तीति पारोक्षी श्रुतव्यवहारी, शय्यातरं पिण्डाऽऽदेरधिकं सस्निग्धाऽऽदि आलोचकमुखात् श्रुत्वा मासं पञ्चकाऽऽदिभिरधिकं, तुरेवकारार्थः। ददति प्रयच्छन्ति, आलोचकमुखात् श्रवणानुसारतः प्रायेण तस्य प्रायश्चित्तदानविधिप्रवृत्तेः / यः पुनः प्रत्यक्षी प्रत्यक्षज्ञानी केवल्यादिः सपञ्चकातिरिक्त मासे आलोचिते भावमेव, तुरेवकारार्थः। रागद्वेषपरिणामलक्षणं, ज्ञात्वा रागद्वेषपरिणामानुसारतः प्रतिसेवनातो हीनमधिकं वा, यदि वा प्रतिसेवनातुल्यं प्रयच्छति। साम्प्रतमस्मिन्नर्थतो नवमे सूत्रतः पञ्चमे सूत्रे संयोगविधि प्रदर्शनार्थमाहएत्थ पडिसेवणातो, एक्कगदुगतिगचउक्कपणगेहिं। छक्कगसत्तगअट्ठग-नवदसगेहिं अणेगाओ॥३४६।। इहार्थतो नवमे सूत्रमः पञ्चमे सूत्रे साक्षाद्दशकसंयोगस्थान्तिमानि चत्वारि पदान्युपात्तानि। तत एतैर्दशकसंयोगो दर्शितः। स चायम्-मासिकम् 1 / सातिरेकमासिकम् 2 / द्वैमासिकम् 3 / सातिरेकद्वैमासिकम् 4 / त्रैमासिकम् 5 / सातिरेकत्रैमासिकम् 6 / चातुर्मासिकम्। सातिरेकचातुर्मासिकम् / पाञ्चमासिकम् / सातिरेकपाञ्चमासिकम् 10 // तेन च दशकसंयोगेन शेषा अप्येककाऽऽदयः संयोगाः सूचितास्तानन्तरेण दशकसंयोगविकल्पस्यासंदभात् / तथा चात्र पूर्वसूरयो वल्लीदृष्टान्तमुपन्यस्यन्ति, स च प्राग्वद्भावनीयः / तत आह- अनाधिकृतेऽर्थतो नवमे सूत्रतः पञ्चमे सूत्रे, प्रतिसेवनैककद्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकैः षट्सप्तकाऽष्टकनवकदशकैरनेकाः प्रतिसेवना उपात्तव्याः। किमुक्त भवतिदशाना पदानामेकद्विकाऽऽदिसंयोगेषु यावन्तो भङ् गका भवान्त तावन्त्यः प्रतिसेवना अनेन सूत्रेण सूचिता द्रष्टव्याः। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 190- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त तत्रैककाऽऽदिसंयोगेषु भङ्गसंख्याऽऽनयनाय करणमाहकरण एत्थ य इणमो, एक्कादेगुत्तरा दस ठवेउं / हेट्ठा पुण विवरीयं, काउ रूवं गुणयव्वं // 347|| अत्र तेष्वेकाऽऽदिसंयोगेषु भङ्ग कसंख्याऽऽनयनाय करणमिदम्- | एकाऽऽदीनेकोत्तरान् एकोत्तरवृद्ध्या प्रवर्द्धमानान् दशकपर्यन्तानकान् स्थापयित्वेत्यर्थः / अधस्तात् पुनर्विपरीत राशिं कृत्वा / किमुक्तं भवति ?-य एककाऽऽदय एकोत्तरदशकपर्यन्ता अङ् काः पूर्वानुपूर्व्या उपरि स्थापितास्तेषामधस्तात् पश्चानुपूा एक-काऽऽदय एकोत्तरदशपर्यन्ता अड्काः स्थापनीयाः। स्थापना-[ ] अत्रभेरितना अङ्का गुणकाराः, अधस्तना भागहाराः / तत्रैककसंयोगसंख्यामिच्छन् अव्यदेकं सकलं रूपं स्थापयेत्, स्थापयित्वाऽन्तिसेन दशभेन गुणकारेण गुणयितव्यम्। तेन तस्य गुणने जाता दर्शव, एकस्य गुणनेतदेव भवतीति वचनात्। दसहिं गुणाउं रूपं, एक्केणऽहियम्मि भागें जं लद्धं / तं पडिरासेऊणं, पुण विनवेहिं गुणेयव्वं // 348|| दशभिर्गुणयित्वा रूपमेकेनाधस्तनेन भागहारेण भागो हरणीयः, भागे च हृते यल्लब्धं तत्प्रतिराशीक्रियते, लब्धाश्चात्र दश, "एकेन भागहारेण यदेवोपरि तदेव लभ्यते।" इति वचनात्। लब्धा एक-कसंयोगे भङ्गा दश, ते एकान्ते स्थापनीयाः, तान् प्रतिराश्य एकान्ते स्थापयित्वा द्विकसंयोगे भङ्कसंख्यामिच्छता तत् प्रतिराशीकृतंदशकलक्षणमङ्कस्थान पुनरपि नवभिर्गुणयितव्यम्, जाता नवतिः। दोहिं हरिऊण भागं, पडिरासेऊण तं पिलद्धं / एएण कमेणंतू, कायव्वं आणुपुथ्वीए॥३४६।। तस्या नवतेरधस्तनेन द्विकेन भागं हियात्,भागे हृते लब्धाः पञ्चचत्वारिंशत्, आगतं द्विकसंयोगे पञ्चचत्वारिंशद् भङ्गाः। तचैवं सूत्रत उच्चारणीयाः- "जे भिक्खू मासियं च सातिरेगमासियं च 1 / जे भिक्खू मासियं च दोमासियं च 2 जे भिक्खू मासियं च सातिरेगदोमासियं च 3 / जे भिक्खू मासियं च तेमासियं च 4 / जे भिक्खू मासियं च सातिरेगतेमासियं च 5 / " इत्यादि। ततो यल्लब्ध पञ्चचत्वारिंशल्लक्षणं तत्त्रिकसंयोगे भङ्गसंख्यामिच्छता प्रतिराशीकर्तव्यं, प्रतिराश्योपरितनेनाष्टकेन गुणयेत् / एतेनानन्तरोदितेन क्रमेण सर्वेष्वप्यङ्कस्थाने ष्वानुपूर्व्या सर्व कर्तव्यम्। कैरित्याहउवरिमगुणकारेहि, हेढिल्लेहिं व भागहारेहि। जा आइमं तु ठाणं, गुणितें इमे हॉति संजोगा॥३५०।। उपरितनैर्गुणकारैस्तस्य तस्य प्रतिराशीकृतस्य क्रमेण गुणनं कर्तव्यम्, गुणने च कृतेऽधस्तनांगहारैभागो हर्तव्यः, भागे च हृते यल्लभ्यते तैर्विवक्षितस्य त्रिकसंयोगाऽऽदेर्भङ्गः / एतच तावत्कर्तव्यं यावदादिममङ्कस्थानम्, तत्रैवमुपरितनैर्गुणकारैः गुणिते, उपलक्षणमेतत्-अधस्तनर्भागहारैर्भाग हृते इमे वक्ष्यमाणसंख्याकाः क्रमेण संयोगा एककद्विकाऽऽदिसंयोगभङ्गा भवन्ति / तानेवाऽऽहदस चेव य पणयाला, वीसालसयं च दोस दस अहिया। दोण्णि सया वावण्णा, दसुत्तरादोणि उसया उ॥३५१।। वीसालसयं पणया-लीसं दस चेव हों ति एको य। तेवीसें च सहस्सं, अदुव अणेगाउ नेयाओ॥३५२|| एककसंयोगे दश भङ्गाः, द्विकसंयोगे पञ्चचत्वारिंशत् 45, एते प्रागेव भाविताः। त्रिकसंयोगे (वीसालसयं चेति) विंशत्युत्तरं शतम्। तचैवम्पञ्चचत्वारिंशत् अष्टकेन गुणिता जातानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि 360 / तेषां त्रिकेनाऽधस्तनेन भागे हृते दाब्धं विंशतिशतम् 120 / चतुष्कसंयोगे भड़कानां द्वेशते दशाऽधिके 210 / तथाहि-त्रिकसंयोगे लब्धशतं प्रतिराशीक्रियते, प्रतिराश्योपरितनेन सप्तकेन गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चत्वारिंशदधिकानि८४०॥ एतेषामधस्तनेनचतुष्केण भागो व्हियते, लब्धे द्वे शते दशोत्तरे / एवं सर्वत्र भावना कार्या / पञ्चकसंयोगे भङ्गकानां द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके 252 / षष्ठकसंयोगे भङ्गकानां दशोत्तरे द्वे शते 210 / सप्तकसंयोगेविंशत्युत्तरं शतम् 120 / अष्टकसंयोगे पञ्चचत्वारिंशत् 45 / नवकसंयोगे दश १०।दशकसंयोगे एकः। सर्वसंख्यया भङ्गानां त्रयोविंशत्यधिकं सहस्रम्। (अदुवा) अथवाअनेका इतोऽप्यतिप्रभूतसंख्याकाः प्रतिसेवनाः ज्ञातव्याः। कथमिति चेत् ? उच्यते-एता हि अनन्तरोदिताः प्रतिसेवनाः सामान्यत उक्ताः तत एता एव भूय उद्घातविशेषणविशिष्टा ज्ञातव्याः,एता एव चानुद्धातविशेषणविशिष्टाः। तदनन्तरमनेका उद्घातानुद्घातसंयोगविकल्पतः, ततः सर्वा अपि पिण्डीकृत्य मूलगुणोत्तरगुणापराधाभ्यां गुणयितव्याः ततो दर्पकल्प्याभ्यामेवानेका भवन्ति / अथवाअनेकप्रतिसेवनाऽऽनयनार्थमयं त्रिंशत्पदाऽऽत्मिका रचना कर्तव्यामासिकम् 1 / पञ्चदिनातिरेकमासिकम् 2 / दशदिनातिरेकमासिकम् 3 / पञ्चदशदिनातिरेकमासिकम् 4 / विंशतिदिनातिरेकमासिकम् 5 / भिन्नमासातिरेकमासिकम् 6 एवं द्वैमासिकत्रैमासिकचातुर्मासिकपाञ्चमासिकेषु प्रत्येक षट् षट् स्थानानि वेदितव्यानि पञ्चषट्कानि त्रिंशत् / एतेषु च त्रिंशतिपदेषु करणमन्तरोदितं प्रवर्तयितव्यम् / तत्र सर्वेषामागतफलानामेकत्र संपिण्डनेनेयं सूत्रसंख्या "कोडिसय सत्ततीसं, .......................(? च होंति लक्खाई। एआलीससहस्सा, अट्ठसया अहियतेवीसा।।१।।" एता अपि सामान्यतः प्रतिसेवना उक्ताः, तत एता एवोद्घातविशेषणविशिष्टा ज्ञातव्याः, तदनन्तरमेता एतानुद्घातविशेषणविशिष्टाः, ततोऽनेकानुद्धातसंयोगतः, ततः संपिण्ड्य मूलोत्तरापराधाभ्यां गुणयितव्याः, तदनन्तरं दर्पकल्पाभ्याम्। एवमनेकाः प्रतिसेवनाः। व्य०१ उ०२ प्रक०। (12) आलोचनां श्रुत्वा प्रायश्चित्तं यथा दद्यात्सो ववहारविहिण्णू, अणुमजित्ता सुतोवदेसेण / सीसस्स देइ, आणं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं // 631 / / स आलोचनाऽऽचार्यो व्यवहारविधिज्ञः कल्पव्यवहाराऽऽत्मके छेदश्रुते अनुमज्य पूर्वापरपर्यालोचनेन श्रुततात्पर्यनिष्पन्नो भूत्वा श्रुतोपदेशेन रागद्वेषतोऽन्यथा तस्यपूर्वप्रेषितस्य स्वशिस्याऽऽज्ञांददाति-यथा गत्वा तस्येदं प्रायश्चित्तं देहि। किं तदित्याहपढमस्सय कज्जस्सय, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। नक्खत्ते भे पीडा, सुक्के मासं तवं कुणसु॥६३२। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त प्रथमस्य कार्यस्य दर्पलक्षणस्य संबन्धिनी दर्पाऽऽदिपदभेदतो दशविधां दशप्रकारामालोचनां निशम्याऽऽकर्ण्य परिभावितं, यथा नक्षत्रशब्देन भासः सूचितः, मासे मासप्रमेये प्रायश्चित्तविषये (भे) भवतःपीडा व्रतषटकपीडा कल्प्याऽऽदिषट्कपीडा वा आसीत्। साऽपि च (सुक्कं त्ति) शुक्लौ इति सांकेतिकी संज्ञेति बुझ्याऽतीतं मासं तपः कुर्यात्। यदिचातुर्मास षण्मासंवा लघुप्रायश्चित्तमापन्नो भवेत्, तदैवं कथयतिपढमस्स य कजस्सय, दसविहमालोअणं निसामेत्ता। नक्खत्ते मे पीडा,चउमासतवं कुणसु सुक्के // 633 / / पढमस्स य कन्जस्स य, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। नखत्ते में पीला, छम्मासतवं कुणसु सुक्के // 634|| गाथाद्वयमापे व्याख्यातार्थम्। एवं ता उग्घाए,अणुघाऐं ताणि चेव किण्हम्मि। मासचउमासछम्मा-सियाणि छेयं अतो वुच्छं॥६३५।। एवमुक्तेन प्रकारेण तावत् उद्धाते लघुरूपे मासचतुर्मासषण्मासलक्षणे प्रायश्चिते समापतितेऽभिहितम् / अनुद्घाते गुरुके समापतिते तान्येव मासचतुर्मासषण्मासानि "किण्हम्मि'' इत्यनेन पदेन विशेषितानि वक्तव्यानि। तद्यथा"पढमस्स य कलस्स य, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। नक्खत्ते भे पीला, किण्हे मासं तवं कुज्जा / / 1 / / पढमस्स य कज्जस्स य, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। नक्खत्ते भे पीला, चउमासतवं कुणसु किण्हे // 2 // पढमस्स य कज्जस्स य, दसविहमालोयणं निसामेत्ता। नक्खत्ते भे पीडा, छम्मासतवं कुणसु किण्हे / / 3 / / (छेयं अतो वोच्छंति) अतः परं छेदम्। उपलक्षणमेतत्मूलाऽऽदिकं च वक्ष्ये। तदाहछिदंतु व भे भाणं, गच्छंतु व तस्स साहुणो मूलं / अव्वावडा व गच्छे, अविइया वा पविहरंतु॥६३६|| व शब्दो विकल्पने / अथवा-यदि छेदप्रायश्चित्तमापन्नो भवति तदैवं संदिशति-भवन्तो भाजनं छिन्दतु। अत्र विशेषव्याख्यानार्थमिदं गाथाद्वयमाह"भाणऽगुल पणगे दस-राऍ तिभाग अद्ध पण्णरसे / वीसाएँ तिभागूणं, छन्भागूणं तु पणवीसा ||1|| मासचउमासछक्के, अंगुल चउरो तहेव छ चेव / एए छेयवियप्पा, नायव्वा जह कमेणं तु॥२॥" पञ्चके पञ्चरात्रिदिवसप्रमाणे छेदे समापन्ने एवं संदेशं कथयतिभाजनरूपत्यामु लषड्भागं छिन्दन्तु / दशरात्रे च छेदे समापतिते त्रिभागमडलस्य भाजनं छिन्दन्तु। पञ्चदशे पञ्चदशरात्रे छेदे अर्द्धम गुलस्या विंशतो विंशतिरात्रिन्दिवच्छेदे त्रिभागोनमङ्गुलम्। पञ्चविंशतौ पञ्चविंशतिरात्रिन्दिवच्छेदे षड्भागोनमगुलम्। मासे मासप्रमाणे छेदे प्राप्ते परिपूर्णमेकम गुलम् / चतुर्मासे चत्वार्यड्डलानि। षण्मासे षडड् | गुलानि छेद्यानि संदिशन्ति / एवमेते यथाक्रमेण छेदविकल्पाः संदेशा ज्ञातव्याः। (गच्छंतुव तस्स साहुणो मूलमिति) यदि मूलं प्रायश्चित्तमापन्नो भवति तदैवं संदिशतियोऽन्यो दूरे साधुर्गच्छाधिपतिर्विहरति तस्य मूलं समीपं गच्छन्तु, तस्य समीपं गत्वा मूल प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यतामिति भावः। (अव्वावडा व गच्छे इति) अथानवस्थाप्यं प्रायश्चित्तमापन्नस्तत एवं कथयति संदेशयथा गच्छे अव्यापृता भवत, किञ्चित् कालं गच्छस्य वर्त्तमानिकामवहन्तस्तिष्ठन्तु (अविइया वा पवि-हरंतु इति) पाराञ्चिता प्रायश्चित्ताऽऽपत्तौ पुनरेवं संदिशतिकिञ्चित्कालम-द्वितीयका एकाकिनः प्रविहरन्तु / तदेवं दर्पणाऽऽसंविते प्रायश्चित्तम्। अधुना कल्प्ये यतनया सेविते प्राऽऽहविइयस्स य कज्जस्स य, तहियं चउवीसतिं निसामेत्ता। नमुकारे आउत्ता, भवंतु एवं भणिज्जासि // 637 / / द्वितीयस्य कार्यस्य कल्प्यलक्षणस्य संबन्धिनी चतुर्विशतिं निशम्याऽऽकर्ण्य तत्रैवं संदिशति-नमस्कारे भवन्त आयुक्ता भवन्तु, एवं भणेत बूयात्। एवं गंतुण तहिं, जहोवएसेण देहि पच्छित्तं / आणाएँ एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं॥६३८।। एवमुक्तप्रकारेणाऽऽचार्यवचनमुपगृह्य तत्र गच्छे यथोपदेशेन ददाति प्रायश्चित्तम्। एष आज्ञया व्यवहारः पुरुषैर्भणितः। एसाऽऽणाववहारो, जहोवएसं जहक्कम भणितो (639) एष आज्ञाव्यवहारो यथोपदेशं यथाक्रमं भणितः कथितः / व्य१उ०२ प्रक०। (13) संप्रति तेषां चातुर्मासिक प्रतिसेव्याऽऽलोचयेतजे भिक्खूचाउम्मासियंवा सातिरेगचाउम्मासियं वापंचमासियं वा सातिरेगपंचमासियं वा एतेसिं परिहारट्ठा-णाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचिय आलोएमाणस्स ठवणिज्जं ठवइत्ता करणिजं वेयावडियं०जाव पुवं पडिसेविय पच्छा आलाइयं०जाव पलिउंचिएमाणस्स सव्वमेयं सगयं साहणियं०जाव आरुहियव्वे सिया !|20|| जे भिक्खू बहुसो चाउम्मासियं वा० एवं तं चेव आरुहियव्वे सिया।।२१।। इदं सूत्रं परिहारप्रायश्चित्ततपःप्रतिपादक मतस्तद्विधे यमाह(टवणिज्ज ठवइत्ता इत्यादि) यः परिहारतपः-प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्तस्य परिहारतपोदानार्थं सकलसाधुसाध्वीजनपरिज्ञानाय सकलगच्छसमक्षं निरुपसर्गप्रत्ययं कायोत्सर्गः पूर्व क्रियते , तत्क्षणानन्तरं च गुरुबूंत-अहं ते कल्प्यस्थितोऽयं च साधुरनुपरिहारकः, ततः स्थापनीयं स्थापयित्वा यत्तेन सह नाऽऽचारणीयं तत्स्थाप्यते इति स्थापनीयं वक्ष्यमाणमालोचनपरिवर्तनाऽऽदि तत् सकलगच्छसमक्ष स्थापयित्वा कल्प्यस्थितेनानुपरिहारिकेण च यथायोगमनुशिष्टचुपालम्भे परिग्रहरूपं वक्ष्यमाणवैयावृत्त्यं करणीयम्, ताभ्यां क्रियमाणेऽपि वैयावृत्ये स्थापितेऽप्यालोचनाऽऽदौ कदाचित्किमपि प्रतिसेवित्वा गुरोः समीपमुपतिष्ठेत्-यथा भगवन् ! अहममुकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः। ततः (से वित्ति 385 गाथामुपजीव्येदं सूत्रं व्याख्यायते।) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्त 162 -- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्त - तदपि कृत्स्नं परिहारतपसि उह्यमाने आरोहयितव्यमातोषणाय स्यात्। स्यादित्यव्ययभत्रावधारणे / आरोहयितव्यं केवलं, तत्कृत्स्नमारोहयितव्यमनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन तस्य प्रतिसे-वितस्य गुरुसमक्षमालोचनायां चतुर्भङ्गी। तामेवाऽऽह-(पुव्वं पडिसेवियमित्यादि) पूर्वमिति पदैकदेशे पदसमुदायापचारात् पूर्वानुपूर्येति द्रष्टव्यम् / ततोऽयमर्थः-गुरुलघुपर्यालोचनायामानुपूा लघुपञ्चकाऽऽदिक्रमेण प्रतिसेवितं पूर्व पूर्वानुपूर्व्या, प्रतिसेवनानुक्रमेणेति भावः / आलोचितम्। एष प्रथमो भगः / तथा पूर्व गुरुलघुपयलो चनया पूर्वानुपूर्त्या मासलघुकाऽऽदि प्रतिसेवितं, तदनन्तर च तथाविधाल्पप्रयोजनोत्पत्ती गुरुलघुपर्यालोचनयैव लघुपञ्चकाऽऽदि प्रतिसेवितम्। आलोचनाकाले तु पश्चात् पश्चानुपूर्व्या आलोचितम्। पूर्व लघुपञ्चकाऽऽद्यालोचित पश्चात् लघुमासाऽऽदीति भावः / एष द्वितीयो भङ्गः / तथा पश्चात् अनुपूर्व्या प्रतिसेवितं गुरुलघुपर्यालोचनामन्तरेण पूर्व गुरुमासाऽऽदि प्रतिसेवित पश्चात् लघुपञ्चकाऽऽदीति भावः / आलोचनावेलायां तु पूर्वानुपूर्त्या आलोचितं पश्चात् गुरुमासाऽऽदीत्यर्थः / एष तृतीयो भङ्गः / तथा पश्चादनुपूर्त्या प्रतिसेवितं, गुरुलघुपर्य लोचनाविरहतो यथाकथञ्चन प्रतिसे वितमिति भावः / पश्चात् पवादनुपूया आलोचित, प्रतिसेवनाऽनुक्रमेण वाऽऽलोचितम्। अथवा स्मृत्वा स्मृत्वा यथाकथञ्चनाप्यालोचितमित्यर्थः / एष चतुर्थो भङ्गः / इह प्रथमचरमभङ्गावप्रतिकुञ्चनाया, द्वितीयतृतीयभनौ प्रतिकुशनाऽप्रतिकुञ्चनाभ्यां चतुर्भङ्गी कृता / तामेवाऽऽह-(अपलि-उंचिए अपलिउचियमित्यादि) यदा अपराधानापन्न आलोचनाभिमुखस्तदैव कश्चित् सकल्पितवान्यथा सर्वऽप्यपराधा मया आलोचनीयाः / एवं पूर्व संकल्पकलि अप्रतिकुश्चिते आलोचनावेलायामप्य प्रतिकुचितमालोचयति। एष प्रथमो भङ्गः / तथा पूर्व संकल्पकाले अप्रतिकुञ्चितम्। आलोचनावेलाया तु प्रतिकुञ्चितमालोचयतीत्येष द्वितीयः / पूर्व संकल्पकाले केनाऽपि प्रतिकुञ्चितं यथा मया सर्वेऽपराधा आलोचनीयाः। एवं पूर्व संकल्पकाले प्रतिकुञ्चिते आलोचनावेलायां भावपरावृत्तेः सर्वमप्रतिकुचितमालोचयति / एष तृतीयो भङ्गः। तथा पूर्व संकल्पकाले केनाऽपि प्रतिकुञ्चितयथा मया सर्वेऽपराधा आलोचनीयाः। तत एवं संकल्पकाले प्रतिकुञ्चित आलोचनावेलायामपि प्रतिकुञ्चित-मेवालोचयति / एष चतुर्थो भङ्गः। तथा प्रतिकुञ्चितमप्रतिकुञ्चितमालोचयतो वीप्सा कल्प्येन व्याप्ता भवति। ततोऽयमर्थः-निरवशेषमालोचयतः सर्वमेतत् यदापन्नमपराधजातम्, यदिवा-कथमपि प्रतिकुञ्चना कृता स्यात्, ततः प्रतिकुचनानिरुपन्नम्। यच गुरुणा सहाऽऽलोचनावेलायां समासेनोचाऽऽसननिष्पन्नं, या चाऽऽलोचनाकाले असमाचारी तन्निष्पन्न च, सकलमेतत्स्वयमात्मना अपराधकारिणा कृतं स्वकृतम्। (साहणिया इति) संहत्य एकत्र मीलयित्वा, यदि संचयितं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्ततः पाण्मासिक प्रायश्चित्तं दद्यात् / यत्पुनः षण्मासातिरिक्तं तत्सर्व झोषयेत् / अथ मासादिकं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्ततस्तद्देपमिति वाक्यशेषः / (जे एयाए इत्यादि) यः साधुरेतया अनन्तरोदितया पाण्मासिक्यादिकया वा | प्रस्थापनया प्राक् कृतस्थापराधस्य विषये स्थापना प्रायश्चित्तदानप्रस्थापना तया प्रस्थापितः प्रायश्चित्तकरणे प्रवर्ति तो निर्विशमानस्तर प्रायश्चित्तमुपभुञ्जानः, कुर्वाण इत्यर्थः। यत् प्रमादतो विषयकषायाऽऽदिभिर्वा प्रतिसेवते, ततस्तस्यां प्रतिसेवनायां यत्प्रायश्चित्त सेवते, तदपि कृत्स्नमनुग्रहकृत्स्नेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा तत्रैव पूर्वप्रस्थापिते प्रायश्चित्ते आरोहयितव्यं स्यात्। चढापयितव्यमित्यर्थः / एष संक्षेपतः सूत्रार्थः / व्यासार्थ तु भाष्यकारोवदन्- "जे भिक्खू'' इत्यादिसूत्रावयवस्य व्याख्यामतिदेशत आहजे चिय सुत्तविभासा, हेट्ठिलसुयम्मि वणिया एसा। स चिय इह पिनेया, नाणत्तं ठवणपरिहारे // 346 / / यैवैषा सूत्रविभाषा- 'जे भिक्खू" इत्यादिसूत्र वयवव्याख्या एककद्विकाऽऽदिसंयोगोपदर्शनरूपा अधस्तनसूत्रे अनन्तरोदितसूत्रे वर्णिता, सैव इहापि अस्मिन्नपि सूत्रे वर्णयितव्या, यदि सैव वर्णयितव्या ततः के विशेष? तत आह नानात्वं पूर्वसूत्राद्विशेषः स्थापनापरिहारे / व्य० 1 उ०२ प्रक० / नि० चू०। (परिहारत-पोव्याख्याऽन्यत्र) (१४)ततःएवं च कीरमाणे, अणुसट्ठाईहिं वेयवच्चयए। को विय पडिसेवेजा, सेविय कसिणेऽऽरुहेयव्यो // 385 / / एवमपि यथागममनन्तरोदितेनापि प्रकारेण अनुशिष्ट्यादौ त्रिविधे वैयावृत्त्ये क्रियमाणे कोऽपि प्रतिसेवेत, प्रायश्चित्तस्थानमापद्येत इति भावः / (से विय कसिणेऽऽरुहयव्वो इति)तदपि कृत्स्नमारोपायतव्यम् / कृत्स्न नाम निरवशेषम्। एतेन "ठविए पडिसेवित्ता स विकसिणे तत्थेव आरुहियव्वे सिया।" इति सूत्रपद व्याख्यातम्। कृत्स्नमित्युक्तम्। तत्र कृत्स्नप्ररूपणार्थमाहपडिसेवणा य संचय, आरुवण अणुग्गहे य बोधव्वे / अणुघाय निरवसेस, कसिणं पुण छविहं होइ॥३८६॥ पारंचियमासीयं, छम्मासा रुवण छविणगएहिं। कालगुरु निरंतरं वा, अणुणमहियं भवे छटुं // 387 / / अनयोथियोर्यथासंख्येन पदयोजना। सा चैवम्-कृत्स्नं, पुनः शब्बे वाक्यभेदार्थः, स च वाक्यभेद एवम्-वैयावृत्त्ये क्रियमाणे प्रतिसेवते ततस्तत् कृत्स्नमारोपयेत्। तत्पुनः कृत्स्नंषड्विधं षट्प्रकारं भवतिः तद्यथा-प्रतिसेवने प्रतिसेवनाकृत्स्नम्, एवं संचयकृत्स्नम्, अरोपणाकृत्स्नम्, अनुग्रहकृत्स्नम्, अनुद्धातकृत्स्नम्, निरवशेषकृत्स्नमिति: तत्र पराञ्चितं प्रतिसेवनाकृत्स्नम्, ततः परस्यान्यस्य प्रतिसेवनास्थानस्यासंभवात् / संचयकृत्स्नम्आशीतं मासशत, ततः परस्य संचयस्याभावात्। आरोपणाकृत्स्नम्-षाण्मासिकं, ततः परस्य भगवत वर्द्धमानस्वामिनस्तीर्थे आरोपणस्याभावात् / अनुग्रहकृत्स्नम्- यत् षण्णां मासानामारोपितानां षट् दिवसा गतास्तदनन्तरमन्यान्षण्मासान आपन्नस्ततो यत् अव्यूढ तत्समस्तं झोषितं पश्चात्यदन्यत्पाण्मासिकमापन्नस्तद्वहति। तथा चाऽऽह-(छघिणग एहिं ति) अत्र तृतीया सप्तम्यर्थे। पूर्वषण्माससंबन्धिषु षट्सु दिनेषु गतेषु यदन्यत् पाण्मासिकमारोपितमुह्यते, यत्र यस्मात् पञ्चमासाश्चतुर्विशतिदिवसाचारोपितास्तत एतद् Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छित्तववहार 206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पच्छित्तमंत्त नसा कुर्वन् मनसा जानाति 3 // एवं च वचसा 3, कायेन 3 च / तत्र सर्वसंख्यया नवा एते चातीतानागतवर्तमानरुपकालम्रिके चिन्त्यमानाः सप्तविंशतिभवन्ति। एते वा शुभव्यापारसमाचाणविषयेऽपिद्रष्टव्यम्। यथा न करोति कालप्राप्तमपि च सत्यं शुभं व्यापारम् 1, न च कारयति 2, कुर्वन्त नानुजानीते 3 / इत्यादि। तथैव उभयमीलने चतुःपञ्चाशत् उक्तम् / द्विगुणा वा एते एककसंयोगे द्विकत्रिकसंयोगे च बहुतराभवन्ति / ते चाऽवश्यक टीकायां प्रत्याख्यानचिन्तायामिव भावनीयाः। ततोऽवादि बहुतरा वाऽपि। अथ मनसा कथं करणमनुमननं वा ? / तत आहवावेमऽहमंबवणं, मणसा करणं तु होयऽवुत्ते वि। अणुजाणसु जेणप्पइ, मणकारण मो अवारेंते॥१८६|| कोऽपि सयतः कशित्प्रदेशं दृष्टवा चिन्तयति-अस्मिन्नवकाशेऽहमामवणं वपामि, यद्यपि तेन तथा चिन्तयित्वा नोप्तमाम्रवणं तथाऽपि तत्तेन मनसा कृतनिति मनसा करणम् ।तथा केनचिद् गृहस्थेन संयत उक्तो यथा संगत ! यदि त्वमनुजानासि तत एतस्मिन्नबकाशे आम्रवणं वपामि तस्मादनुजानीहि येनोप्यते इति एवमुक्ते यदि निवारयति तदा वरं, अथवाऽनुक्तेऽपि मनसा कारापणं द्रष्टव्यम्। तदेव भावयतिमागहा इंगिएणं तु, पेहिएण य कोसला। अद्भुतेण उ पंचाला, नाणुत्तं दक्खिणावहा॥१८७।। एवं तु अणुत्ते वी, मणसा कारावणं तु बोधव्वं / मणसाऽणुन्ना साहू, भूयवणं वुत्त वुप्पति वा॥१५॥ मागधा मगधदेशोद्भवाः प्रतिपन्नमप्रतिपन्नं वा इङ्गिताऽऽकारविशेषण जानन्ति। कोशलाः प्रेक्षितेन अवलोकनेन। पञ्चाला अझै क्तेनानानुक्तं दक्षिणापथाः, किं तु साक्षाद्वचसा व्यक्तीकृतं ते जानते, प्रायो जडप्रज्ञत्वात् / तत एवं सति बचसाऽनुक्तेऽपि निवारणाभावात् मनसा कारापणं बोद्धव्यम्। संप्रति मनसाऽनुज्ञातं भावयतिभूतवनमुप्तं पूर्वमारोपितम्। यदि बाउप्यते। आरोप्यमाणं तिष्ठतीतिज्ञात्या साधुः चिन्तयतिशोभनं यदिह भूतवनमुप्तमुप्यते वा / एषा मनसाऽनुज्ञा। एवं वयकायम्मी, तिविहं करणं विभास बुद्धीए। हत्थाऽऽदिसन्न छोटिं, दय काए कारणमणुण्णा // 186 / / एवमक्तप्रकारेण वचसि काये च त्रिविधं करणं करण-कारणानुमन- | नलक्षण स्वबुद्धया विभाषेत / तत्र वचसिं सुप्रतीतम्, काये तु दुर्विभावमिति तद्भावनामाह-( हत्थादि इत्यादि ) अत्रापि कायेन स्वयं करणमिति प्रतीतम् / तत् कारणम् / तथा-छार्टि नखच्छोटिकां ददत् कायेन अनुशा। एवं नवभेएणं, पाणाइवायादिगे उ इयारे। निरवेक्खमणेण वि प-च्छित्तमियरेसि उभएणं / / 160) एवमुक्तेन प्रकारेण नवभेदेन, समाहारोऽयम् / नवभिर्भ दैः प्राणाति | पाताऽऽदिके अतीचारे यत्प्रायश्चित्तं तङ्गायविषयमिति भाय् / तत्र निरपेक्षाणां प्रतिमाप्रतिपन्नाऽऽदीनां मनसाऽप्यतीचारसेवने प्रायश्चित्तम्, इतरेषां गच्छस्थितानामुभयेन वाचा कायेन वाऽतीचारसेवने प्रायश्चित्तमिति / / 16 / / वायामवग्गणादी, धावण डेवणं होइ दप्पेणं। पंचविहपमायम्मी, जं जहि आवजई॥११॥ यन्निष्कारण व्यायामवल्गनाऽऽदि।यदिवा-धावनं, डेपनंवा लोष्ठाऽऽदेः प्रक्षेपणं तद्विषयं प्रायश्चित्तं भवति ज्ञातव्यम् / दर्पण तथा पञ्चविधे पञ्चप्रकारे प्रमादे यं प्रमादमापद्यते यत्र तद्भति प्रमादविषयं प्रायश्चित्तम्। संप्रति पुरुषानाहगुरुमाईया पुरिसा, तुल्लऽवराहे वि तेसि नाणत्तं / परिणामगाइया वा, इडिमनिक्खंत असहू वा / / 192|| पुमं वाल थिरा चेव, कयजोग्गा य सेयरा। अहवा सभावतो पुरिसा, हों ति,दारुण भइग्गा ||193|| गुर्वादयः पुरुषास्तेषां तुल्येऽप्रुपराधे प्रायश्चित्तमधिकृत्य भवति नानात्वम्। अथवा-त्रिविधाः पुरुषाः परिणामकाऽऽदयः। परिणामकाः, अतिपरिणामकाश्च / तेषामपि तुल्यंऽप्यराधे प्रायश्चित्तम् / अथवाअन्यथा भवति। अथवा अनेकविधाः पुरुषाः। तद्यथा-ऋद्धिमन्निक्रान्ताः, अऋद्धिमन्निक्रान्ताश्च / असहाः, ससहाश्च। पुरुषाः स्त्रीपुनपुंसकानि च, बालास्तरुणाश्च, स्थिराश्च, कृतयोगा अकृतयोगाश्च। सेतरा नामप्रतिपक्षाः / एतेषामपि लुल्येऽप्यपराधे पुरुषभेदेन प्रायश्चित्तभेदः / अथवा-स्वभावतः पुरुषा द्विविधा भवन्ति। तद्यथा-दारुणाः, भद्रकाश्च / तत्र तुल्येऽप्यपराधे दारुणानामन्यत्प्रायश्चित्तम्, अन्यद् भद्रकाणामिति। उपसंहारमाहपायच्छित्ताऽऽभवती, ववहारेसो समासतो भणितो। जेणं तु ववहारिजइ, इयाणि तं तू पवक्खामि ||194|| कएषोऽनन्तरोदितः प्रायश्चित्ते आभवति च प्रत्येक पञ्चविधो व्यवहारः समासतो भणितः / इदानीं तु येन व्यवहियते व्यवहारं प्रवक्ष्यामि। व्य० 10 उ०। ( सच "ववहार" शब्दे दर्शयिष्यते) पच्छित्ताणुपुव्वी स्त्री० (प्रायश्चित्तानुपूर्वी ) पायश्चित्तानुपरिपाट्यां गुरुलघुमञ्चकाऽऽदिक्रमे, व्य०१ उ०) पच्छिपिडयन० (पक्षिपिटक ) पक्षिकालक्षणपिटके, भ०७श०८ उ०। पच्छिम त्रि० ( पश्चिम ) पश्चात्-डिमच / "हस्वात् थ्य-श्व-त्स प्सामनिश्चल" ||8 / 2 / 21 / / इति श्वभागस्य च्छः / प्रा०२ पाद। पाश्चात्ये सर्वान्तिने, नं०। ज्ञा०। स्था०। आ० म०। पच्छिमओ अव्य० (पश्चिमतस्) पश्चिमभागे, पञ्चा०३ विव०। पच्छिमंत न० (पश्चिमान्त) पश्चादनीके, “पच्छिमंतपडागाहरणे / " पश्चिमान्ते पश्चादनीके कस्यापि विजिगीषोः पताकाहरणमन्ते जयाय भवति, संथा०। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छिमखंध 210- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पजत्ति पच्छिमखंध पुं०(पश्चिमस्कन्ध ) / पश्चिमशरीरे,आ० चूला इथ कोऽयं काण्ड। विशे० आ० म०॥ पश्चिमस्कन्धः ? इति प्रश्रे व्याख्यायते-औदारिकवैक्रयाऽऽहारक- पज्जणुजुजुपेच्छण न० ( पर्यनुयोज्योपेक्षण ) झनविंशतिमे निग्रहतैजसकार्मणनि शरीराणि स्कन्ध इत्याचक्ष्महे। पश्चिमशरीरं पश्चिम- स्थानभेदे, स्यय० / निग्रहस्थानप्राप्तस्योपेक्षणे, '' निग्रहस्थानप्राप्तभवइतियावदुक्तं स्यात्तावदिदं पश्चिमस्कन्ध इति कथमिह यस्मादय- स्ययनिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणम् / " ( गौत० सू० 5 / 2 / 22) मनादौ संसारे परिभ्रमन् स्कन्धान्तराणि भूयांसि गृह्णाति मुञ्चति च पर्यनुयोज्योपेक्षणं लक्षयति-निग्रह-स्थान प्राप्तवतोऽनिग्रहः, तस्याऽऽद्यसमसमवाप्य स्कन्धमाविर्भूतासाधारणज्ञानदर्शनचारित्र- निग्रहस्थानानुद्भावनतित्यर्थः। यत्र त्वनेक-निग्रहस्थानपाते एकतरोनाबलीभूयस्कन्धान्तरमन्यदात्मनोपादत्ते स पश्चिमस्कन्ध इति। आ० चू० वनं तत्र न पर्य्यनुजयोज्योपेक्षणम् / अवसरे निग्रहस्थानोदावनत्वा१०॥ यच्छिन्नाभावस्यैव तत्त्वात् / ननु वादिना कथमिदमुद्भाव्यं, स्वकौपीनपच्छिमग पुं०(पश्चिमक ) चरमे, स्था०५ ठा० 1 उ०। विवरणस्यायुक्तत्वादिति चेत् / सत्यम् / मध्यस्थेनैवमुद्भावयम्। वादे पच्छी स्त्री० (देशी) पेटिकायाम, दे० ना०६ वर्ग 1 गाथा। स्वयमुद्भावनेऽप्य-दोषः / इतिविश्व नाथकृतवृत्तिः। वाच० / पच्छे णय न० (देशी) पाथेये, दे० ना० 6 वर्ग 24 गाथा। पज्जण्ण पुं०(पर्यन्य) सेचने, इन्द्रे, मेघेचा वाच० / “अस्थि ण भंते! पंजपमाण त्रि० (प्रजल्पत्) प्रजल्पनकारके, भ०११श०११ उ०। पखण्णे कालवासी वुट्ठिकायं पकरें ति?| हंता अस्थि।" भ० 14 110 पंजपिय त्रि० (प्रजल्पित) प्रकृष्टवचने, बृ०१ उ०३ प्रक०। 2 उ०॥ पजणण न० ( प्रजनन ) प्रजन्यतेऽनेनापत्यं प्रजननम् / लिङ्ग, शिश्रे, | पज्जत त्रि० ( पर्याप्त ) / पर्याप्तयो विद्यन्ते यस्यासौ पर्याप्तः सूत्र० 1 श्रु०४ अ०१ उ०। मेहने, स्था०३ ठा०३ उ०। विशे०। "अभाऽऽदिभ्यः" / / 7 / 2 / 46 / / इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः / न० पजणणपुरिस पुं०(प्रजननपुरुष) प्रजन्यतेऽपत्यं येन तत्प्रजननं शिश्नं "द्यय्यर्या जः" ||चारा२४॥ इति द्यस्थाने जः। प्रा०२ पाद।६ लिङ्गम्, तत्प्रधानः पुरुषः, परपुरुषकार्यहितत्वात्। पुरुषभेदे, सूत्र०१ पर्याप्तीः परिसमाप्तवति, आ० म०१ अ०। कर्म०। प्रज्ञा० / पं० सं० श्रु०४ अ०१ उ०। समस्तपर्याप्तिभिः पर्याप्त संज्ञिनी, आचा० 1 श्रु० 4 अ० 2 उ० / त पजहियव्व त्रि० ( प्रहातव्य ) त्यक्तव्ये, "लोको जह वज्इ जह य तं जीवाः पर्याप्तका अपप्तिकाश्चकतिद्विविधाः / प्रज्ञा०१ पद। ला पजहियव्वं / "आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। अणु०७ वर्ग 1 अ०। परिपूर्णे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। स्था०।' पजन पज्ज त्रि० ( पद्य) छन्दोनिगद्धे वाक्ये, यथा विमुक्ताध्ययनम् / स्था० 4 पहुत्त / " पाइ० ना०१८४ गाथा। ठा०४ उ०। पज्जतम त्रि० (पर्याप्तक ) पर्याप्त एव पर्याप्तकः, पर्याप्तनामकर्मादयाअधुना पद्यमाह ख्या०२ ठा०२ उ०। ('अपज्जत्तग' शब्दे प्रथमभागे 563 पृष्ठे दण्डा पज्जं तु होइ तिविहं, सममद्धसमं च नाम विसम च। उक्त)अवाप्तपर्याप्ती, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। 'णारयदेवतिरिपाएहिं अक्खरेहि य, एव विहिण्णू कई वेति / / 17 / / यमणुय-गहभजा जे असंखवासाओ। एए अप्पज्जत्ता खलु, उपवार सेट पद्यम्, तुशब्दो विशेषणार्थः / भवति त्रिविधं त्रिप्रकारम्-समम्, अर्द्धसम बोधव्वा // ' श्रा०ा पर्याप्तिनामकर्मोदयान्निजनिजपर्याप्तियुते, कर्न: च, नाम विषमं च / कैः सममित्यादि / अत्राऽऽह-पादैरक्षरैइज / कर्म। पादैश्चतुःपादाऽऽदिभिः, अक्षरैर्गुरुलघुभिः / अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीय- पज्जत्तणाम न०(पर्याप्तनामन्)। पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते। "अभाव, योर्द्वितीयचतुर्थयोश्च समान्यक्षराणि विषमं तु सर्वपादेष्वेव विषमाक्षर- दिभ्यः" ||7 / 2 / 46 / / इत्यप्रत्ययेऽतः पर्याप्ताः, तद्विपाकवेद्य कर्मी मित्येवं विधिज्ञाः छन्दःप्रकारज्ञाः कवयो ग्रुवत इति गाथार्थः / / 178 / / पर्याप्तनाम। कर्म० / चतुर्विंशतितमनामकर्मभेदे, यदुदयात् स्वपर्याप्ति दश०२ अ०। वृत्ताऽऽदि गीयते यत्र तादृशे गेयभेदे, जं०१ गक्ष०। युक्ता भवन्ति जीवास्तत्पर्याप्तनामेत्यर्थः / ते च पर्याप्ता द्विधाल पाद्य न० पादहितं पाद्यम् / पादप्रक्षालनोदके, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ करणैश्च / तत्र ये स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थ्य मियन्ते गादी पज्जंत पुं० ( पर्यन्त ) "बल्ल्युत्करपर्यन्ताऽऽश्चर्ये वा" लधिपर्याप्ताः, ये च पुनः करणानि शरीरेन्द्रियाऽऽदीनि निवर्तितयन्त / / 8 / 1 / 5 / / इति आदेरत एत्वम्। "पेरंतो / पत्तंतो "प्रा० 1 पाद / करणपर्याप्ताइति / कर्म०१ कर्म०। प्रव० / श्रा० / पं० सं०। ( एरोन प्रान्ते, औ०। आद्यन्तलक्षणे प्रान्ते. विशे०। शरीरोच्छाययोः सिद्धयोः शरीरनामाऽऽदिपृथगुपादानं गामकम्मर पज्जण न० (देशी) पाने , दे० ना०६वर्ग 11 गाथा। चतुर्थभागे 1666 पृष्ठे निहितम्) पज्जणय न० (पायन) जलनिवोलने, 'नवपज्जणएणं / " नवं प्रत्यंग | पज्जत्ति स्त्री० (पर्याप्ति ) सामर्थ्ये, सूत्र०१ श्रु० 1 अ० 5 : (पज्जणएणं ति) प्रतरचितस्यायोधनकुट्टनेन तीक्ष्णीकृतस्यमायन आहाराऽऽदिपुदलग्रहणपरिणमनहे तुरात्मनः शक्तिविशेषे, ना जलनिवोलनं यस्य तन्नवपायनं, तेन। भ०१४ श०७ उ०। पुद्धलोपचयादुपजायते / किमुक्तं भवति ? उत्पत्तिदेशमाग पज्जणया स्त्री० (पायनता ) निष्पन्नस्य वस्त्रस्य खलिकापायके, वृ० / प्रथमं ये गृहिताः पुदलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रतिसमय गृह 1 उ०। माणानां तत्सम्पर्कतस्तद्रूपतया जातानां यः शक्तिविशेष आहाराः पज्जणुओगपुं० (पर्यनुयोग) प्रश्नाऽऽदिद्वारेण विचारणायाम् सम्म०२ | दिपुद्धलस्वलरसरुपताऽऽपादानहेतुर्य थोदरान्तर्गतानां युद्न, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जत्ति २११-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव पविशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरुपतापरिणमनहेतुः सा पर्याप्तिः। सा च षोढा / तद्यथा-आहारपर्याप्तिः, शरीरपर्याप्तिः, इन्द्रियपर्याप्तिः, प्राणापानपर्याप्तिः, भाषापर्याप्तिः, मनःपर्याप्तिश्च / इति। जी०१ प्रति० / प्रद। प्रज्ञा० 1 नं० / पं० संव। कर्म०। दर्श०स्था०। (आसां व्याख्या स्वस्यस्थाने ) ('जीवहाण' शग्दे चतुर्थभागे 1548 पृष्ठ विशेषः) समस्तपर्याप्तिपर्याप्ततायाम्, उत्त०३ अ०। प्रश्न०। आहारशरीराssदीना नेवृतौ, भ 3 श० 1 उ० / आ० म०। पज्जबंध पुं० (पद्मबन्ध) छन्दोनिबद्धकाव्यरचने, ज्ञा०। श्रु०६ अol पल्जय पु० ( प्रार्जक ) पितुः पितामहे भ०६ श०३३ उज्ञा०"अजए पजाए वा वि, वप्पोपुल्ला पिउत्ति य।" दश०७ अ०। पज्जयजोय पुं० ( पर्याययोग) परिणतिसंबन्धे, सम्म०१ काण्डा पज्जयसमास पुं० ( पर्यायसमास ) ये हि, यादयः श्रुतज्ञाना-विभागलि छेदानानाजीवेषु बद्धालभ्यन्ते ते समुदाये, वृ०१ उ०। लब्धपर्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदजीवस्य यत्सर्वजघन्यं श्रुतमात्रं तस्मादन्यत्र जीवान्तरे य एकः श्रुतज्ञानाशी विभागपलिच्छेदरुपो वर्धते, तस्मिन, कर्म०१ कर्म। पज्जरइ (देशी) म्लायति, दे० ना०६ वर्ग 26 गाथा। पज्जरय पुं० ( पर्जरक) सीमन्तकप्रभान्नरकेन्द्रकात् पूर्वालिकायां पञ्चत्रिंशतमे महानरकेन्द्रके, स्था०६ठा०। पज्जरय पुं० ( पर्जरक) सीमान्तकाऽऽवर्तात्पश्चिमायां पञ्चत्रिंशत्तमे नरकेन्द्रके, स्था०६ ठा०॥ पज्जस्यावसिट्ठ पुं० ( पर्जरकावशिष्ट ) सीमान्तकावशिष्टाद्दक्षिणायां पत्रिंशत्तमे नरकेन्द्रके, स्था०६ ठा०। पज्जलंत त्रि० (प्रज्वलत् ) जाज्वल्यमाने, कल्प०१ अधि० 3 क्षण। पज्जलणपुं० ( प्रज्वलन ) प्रज्वलयति दीपयति वर्णवादकरणेन मागधवदिति प्रज्वननः / तस्मिन्, स्था० 4 ठा०१ उ०। *दर्पित पुं० अवष्टम्भके, स्था० 4 ठा०३ उ०। पज्जलिय पुं० (प्रज्वलित) जाज्वल्यमाने, ग०२ अधि०। आव०॥ पज्जव पुं० ( पर्गव ) परि सर्वतोभावे, अवनमवः / तुदादिभ्यो नक्कावित्यधिकारे, "अकितो वा।" इत्यनेन औणादिकोऽकारप्रत्ययः / अवनं, गमन, वेदनमिति पर्यायाः / अथ वापर्यवणं पर्यवः, भावेऽल् प्रत्ययः / परिच्छेदे, आ० म० 1 अ० / प्रज्ञा० / अनु० / स्था० / धर्मे , पर्यायाः पर्यवाः पर्यया धर्मा इत्यनान्तरम् / भ० 25 श०५ उ० / अनु० / विशेष, आचा०१ श्रु० 3 अ० 2 उ० / पर्याया गुणा विशेषा धर्मा इत्यनान्तरम् / प्रज्ञा०५ पद / विशे०। ज्ञानाऽऽदिविशेषे, स्था०१ ठा० / आव० / स्वपरभेदभिन्ने नवपुराणऽऽदौ च स०५ अङ्ग / पर्यवा द्विविधाः। क्रभवर्तिनः पर्यायाः, नवपुराणाऽऽदयः / तत्र गुणाः स्थूलाः। पर्यायास्तु तत्सूक्ष्माः / आ० म०१ अ०। आव०॥ __ कतिविधाः पर्यवाः ? इतिकइविहा णं मंते ! पञ्जवा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पज्जवा पण्णत्ता। तं जहा-जीवपञ्जवाय, अजीवपज्जवा य / / ( कदविहा णं भंते ! पज्जवा पण्णता ? इति ) अथ केनाभिप्रायेण गौतमस्वामिना भगवानेव पृष्टः ? उच्यतेउक्तमादौ प्रथमपदे, प्रज्ञापना द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-जीवप्रज्ञापना, अजीवप्रज्ञापना चेति / तत्र जीवाश्च, अजीवाश्चं द्रव्याणि द्रव्यलक्षणं चेदम्- “गुणपर्यायवद् द्रव्यमिति।" ततो जीवाजीवपर्यायभेदावगमार्थमेवं पृष्टवान् / तथा च भगवानपि निर्वचनमेवमाह-(गोयमा ! दुविधा पजवा पण्णता / त जहाजीवपजवा य, अजीवपजवा य इति) तत्र पर्शश गुणा विशेषा धर्मा इत्यनर्थान्तरम् / ननु सम्बन्ध प्रतिपादयतेदतुक्तम्, इह त्वौदयिकाऽऽदिभवाऽश्रयपर्यायपरिमाणावधारणं प्रतिपाद्यत इति। औदयिकाऽऽद्वयश्च भवा जीवाऽऽश्रयास्ततो जीवपर्याया एव गम्यन्ते। अथ चास्मिन्निर्वचनसूत्रे द्वयानामपि पर्याया उक्ताः। ततोन सुन्दरः सम्बन्धः। तदयुक्तम्। अभिप्रायापरिज्ञानात्। औदयिको हि भवः पुद्गलवृत्तिरपि भवति, ततो जीवाजीवभेदेनौदयिकभावस्य द्धैविध्यान्न सम्बन्धः, कथं न निर्वचनसूत्रयोर्विरोधः? सम्प्रति सम्बन्धपरिमाणावगमाय पृच्छतिजीवपज्जवा णं भंते ! किं संखेजा, असंखेजा, अणंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता / से केणढे णं भंते ! एवं वुचइ-जीवपज्जवा नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता ? गोयमा ! असंखेज्जा णेरड्या असंखेज्जा असुरा असंखेज्जा नागा असंखेज्जा सुवण्णा असंखेज्जा विजुकुमारा असंखेज्जा अग्गिकुमारा असंखेज्जा दीवकुमारा असंखेजा वाउकुमारा असंखेज्जा थणियकुमारा असंखेज्जा पुढविकाइया असंखेजा आउकाइया असंखेज्जा तेउकाइया असंखेज्जा वाउकाइया अणंता वणस्सदकादया असंखेज्जा वेइंदिया असंखेजा तेइंदिया असंखेजा चउरिंदिया असंखेज्जा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया असंखेज्जा मणुस्सा असंखेज्जा वाणमंतरा असंखेजा जोइसिया असंखेचा वेमाणिया। अणंता सिद्धा। से एएणढे णं गोयमा ! एवं वुच्चइ।तेणं णो संखेज्जा, नो असंखिज्जा, अणंता।। (जीवपजवाणं भते ! किं संखेजा इत्यादि) इह यस्माद्वनस्पतिसिद्धवर्ज सर्वेऽपि नैरयिकाऽऽदयः प्रत्येकमसंख्येयाः, मनुष्येष्वसंख्येयत्वं संमूर्छिममनुष्यापेक्षया, वनस्पतयः सिद्धाइच प्रत्येकमनन्ताः ततः पर्यायिणामनन्तत्वाद्भवन्त्यनन्ता जीवपर्यायाः, तदेवं गौतमेन सामान्येन निर्वचनमुक्तवान्। इदानीं विशेषविषयप्रश्नं गौतम आहणेरइयाणं भंते ! के वइ या पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! कइविहा णं भंते ! से के णद्वे णं भंते ! एवं वुचइणेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! णे रइए णेरइयस्स दव्वट्ठ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जत्ति 212- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जद याए तुल्ले पदेसट्ठयाए तुल्ले उग्गाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए, जदि हीणे असंखेजइभागहीणे वा संखेजइभागहीणे वा संखेज्जइगुणहीणे वा असंखेज्जइगुणहीणे वा, अह अब्भहिए असंखेनभागमभहिए संखेजभागमभहिए वा असंखेज्जगुणमन्भहिए संखेनगुणमन्महिए वा,ठिइए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय मब्भहिए, जइ हीणे असंखेज्जइभागहीणे वा संखेज्जइभागहीण वा संखेजइगुणहीणे वा असंखेज्जइ-भागहीणे वा, अह अन्महिए असंखेज्जइभागमब्महिए वा संखेजइभागम भहिए वा असंखेज्जगुणमन्महिए वा संखिजगुणमब्भहिए वा। कालवण्णपज्जवेहिं सिय हीणे सिय तुल्ले सिय मग्भहिए, जदि हीणे अणंतभागहीणे वा असंखेज्जभागहीणे वा संखेज्जभागहीणे वा संखिज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अब्महिए अणंतभागमभहिए वा असंखेज्जभागममहिए वा संखेज्जभागममहिए वा संखेजगुणमब्भहिए वा असंखेजगुणमब्भहिए वा अणंतगुणमन्महिए वा / नीलवन्नपज्जवेहिं लोहियवनपत्तवेहिं पीयवनपत्तवेहिं सुकिल्लन्नपज्जवेहि यछट्ठाणवडिए, सुस्मिगंधपज्जवेहिं दुन्मिगंधपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, तित्तरापज्जवेहिं कडुय रसपञ्जवेहिं कसायरसपज्जवेहिं अंविलरसपज्जवेहिं महुररसपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, कक्खडमासपञ्जवेहिं महुरफसपज्जवेहि गरुयफसपनवेहिं लहुयफासपज्जवेहिं सीतफासपञ्जवेहिं उसिणफासपञ्जवेहिं णिद्धफसपज्जवेहिं लुक्खफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए, आमिनिवोहियनाणपज्जवेहिं सुयनाणपज्जवेहिं ओहिनाणपज्जवेहि मइअन्नाणपञ्जदेहिं सुयअन्नाणपञ्जवेहिं विभंगनाणपज्जवेहिं चक्खुदंसणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिं ओहिदसणपञ्जवेहिं छट्ठाणवडिए। से तेणढे णं गोयमा ! एवं वुचइणेरड्या णं नो संखेजा, नो असंखेज्जा, अणंता पज्जवा पण्णत्ता। अथ केनाऽभिप्रायेणैवं गौतमः पृष्टवान् ? उच्यते-पूर्व किल सामान्यप्रश्ने पर्यायिणामनन्तत्यात्पर्यायाणामानन्त्यमुक्तम्।यत्र पुनः पर्यायिणामानन्त्यं नास्ति तत्र कथमिति पृच्छति-(नेरइयाणमित्यादि) तत्राऽपि निर्वचनमिदभम्अनन्ता इति। अत्रक्कं जातसंशयः प्रश्न इति। (सेकेणढे णं भंते ! इत्यादि) अथ केनार्थेन केनकारणेन केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाणां पर्याया ण्वमनन्ता इति। भगवानाह-( गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स दव्वद्वयाए तुल्ले इत्यादि ) अथ पर्यायाणामानन्त्यं कथं घटते ?, इति पृष्ट तदेव पर्यायाणामानन्त्यं यथायुत्युपपन्नं भवति तथा निर्वचनीयं, नान्यत्, ततः केनाऽभिप्रायेण भगवानेव निर्वचनमवाचि ? भैरयिको नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्य इति ? उच्यत- एकमपि द्रव्यम-नन्तपर्यायमित्यस्य न्यायस्य प्रदर्शनार्थम् / तत्र यस्मादिदमपि नारकजीवद्रव्यमेकसंख्याऽवरुद्धमिदमिति नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया / तुल्यो, द्रव्यमेवाओं द्रव्यार्थस्तद्भावो द्रव्यार्थता. तया तुल्य एवं तादद् द्रघ्यार्थतया तुल्यत्वमभिहितम्। इदानी प्रदेशार्थतामधिकृत्य लुल्यत्वमाह-( एएसद्वयाए तुल्ले) इदतपि नारकजीवद्रव्यं लोकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशमिति प्रदेशार्थतयाऽपि नैरयिको नैरयिकस्य तुल्यः प्रदे" एवार्थः प्रदेशार्थः, तद्भावः प्रदेशार्थतया। कस्माभिहितमिति चेत् ? उच्यते-द्रव्यद्वैविध्यप्रदेशनार्थम् / तथाहि-द्विविधं द्रव्यमम्प्रदेशवत. अप्रदेशवच / तत्र परमाणुरप्रदेशो, द्विपदेशाऽऽदिकं तु प्रदेशवत् / एतम द्रव्यद्वैविध्यं पुद्गलास्तिकाय एव भवति।शेषाणि तुधर्मास्तिकायाऽऽदीनि द्रव्याणि नियमात्सप्रदेशानि / (उग्गाहणट्टयाए सिय हीणे इत्यादि नैरयिकोऽसंख्यातप्रदेशोऽपरस्य नैरयिकस्य तुल्यप्रदेशस्य अवगाहनमवगाह शरीरोच्छयोऽवगाहनमेवार्थो ऽवगाहनाथस्तद्धावोऽवगाहनार्थता, तया अवगाहनार्थतया / (सिय हीणे इत्यादि) स्याच्छन्द प्रशंसाऽस्तित्वविवादविचारणाऽनेकान्तसंशयप्रश्नाऽऽदिष्वर्थ अत्राऽनेकान्तद्योतकस्य ग्रहणं, स्याद्धीनो, नैकान्तेन हीन इत्यर्थः स्यात्तुल्यो नैकान्तनाभ्यधिक इति भावः / कथमिति चेत् ? उच्यतं. यस्माद्वक्ष्यतिरत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाणां भवधारणीयस्य वैक्रियशी. रस्य जघन्येनावनाहनाया अडलस्यासंख्येयो भाग उत्कर्षतः सप्त धनी त्रयो हम्ताः षट्चाडलानि / उत्तरोत्तरासु च पृथिवीषु द्विगुणं दिएर यावत्सप्तमपृथिवीनैरयिकाणां जघन्यतोऽवगाहनाऽङ्गुलस्यासंख्येव भागः, उत्कर्षतः पञ्चधनुः शतानीति / तत्र (जइ हीणेत्यादि) यदे. हीनरुततोऽसंख्येयभागहीनो वा स्यात्संख्येयभागहीनो वा स्यात असंख्येयगुणहीनो वा / अथाभ्यधिकस्ततोऽसंख्येयभागाभ्यधिकोट स्यात् संख्येयभागाभ्यधिको वा संख्येयगुणाऽधिके वा असंख्येयगुणाधिको वा / कथमितिचेत् ? उच्यते-एकः किल नारक उग्रेसदपञ्च धनुःशतानि, अपरस्तान्येवाडलाऽसंख्येयभागहीनानि, अडला. ख्येयभागच पञ्चानां धनुःशतानामसंख्येये भागे वर्तते, तेन सोऽअलसंख्येयभागहीनः पञ्चधनुःशतप्रमाणोऽपरस्य परिपूर्णपश्चधनुःशत माणस्यापेक्षयाऽसंख्येयभागहीनः, इतरस्त्वितरापेक्षयाऽसंख्येयमणभ्यधिकः। तथा एकः पञ्च धनुःशतान्युस्त्वेनाऽपरस्तु तान्येदात त्रिभिर्वा धनुर्भिन्यूनानि, ते च द्वे त्रीणि वा धनूंषि पञ्चान धनुःशलम संख्येयभागे वर्तते, ततः सोऽपरस्य परिपूर्णपञ्चधनुःशतप्रमाणः तदपेक्षया संख्येयभागाधिकः, तथा एकः पञ्चविंशतिधनुः शतमुच्चस्त्रनाऽपरः परिपूर्णानि पञ्चधनुःशतानि पञ्चविंशं च धनुःशत चतुर्भिर पञ्चधनुशतानि भवन्ति। ततः पञ्चविंशत्य धिकधनुःशतप्रमाणोचैत्त्वऽप्यपरस्य परिपूर्णपञ्चधनुः शतप्रमाणस्यापेक्षया संख्येयगुणहीनो भवति तदपेक्षया त्वितरः परिपूर्णपञ्चधनुःशतप्रमाणःसंख्येयगुणाधिकः / एकोऽपर्याप्तावस्कायामङ्गुलस्याड् ख्येयभागावगाहे वर्तने, अन्य पक्षधनुः शतप्रमाणान्युस्त्वेनाडुलासंख्येयभागश्चांसख्येश गुणितः सन् पञ्चधनुःशतप्रमने भवति। ततोऽपर्याप्तावस्थायामङ्कलन Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजव 213- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव ख्येयभागप्रमाणेऽवगाहे वर्तमानः परिपूर्णः पञ्चधनुःशतप्रमाणा–पेक्षया असंख्येयगुणहीनः, पञ्चधनुःशतप्रमाणस्तु तदपेक्षया असंख्येयगुणामाधिकः / ( ठिइए सिय हीणा इत्यादि) यथाऽवगाहनया हानौ वृद्धौ चतुःस्थानपतित उक्तस्तथा स्थित्याऽपि वक्तव्य इति भावः / एतदेवाह- (जइ हीणे असंखेज्जइभागहीणे वा इत्यादि) तत्रैकस्य किल नारकस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः, अपरस्यतुतान्योव समयाऽऽऽदिन्यूनानि / तत्र यः समयाऽऽदिन्यूनस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणस्थितिकः स परिपूर्णस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकनारकापेक्षया असख्येयभागहीन परिपूर्णः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकस्तु तदपेक्षया असंख्येयभागऽभ्यधिकः / समयादेः सागरोपमापेक्षया असंख्ययभागमात्रत्वात्। तथा ह्यसंख्येयैः समयैरेकाऽवलिका, संख्याताभिरावलिकाभिरेक उच्चासनिःस्वासकालः, सप्तभिरुच्छासनिःश्वासरेकः स्तोकः, सप्तभिस्तोकैरेको लवः, सप्तसप्तत्या 77 लवानामेको मुहूर्तः, त्रिंशता मुहूर्त रहोरात्रः, पञ्चदशभिरहोरात्रैःपक्षौ, द्वाभ्यां पक्षाभ्यां मासो द्वादशभिर्मासः संवत्सरः, असंख्येयैः संवत्सरैः पल्योपमसागरोपमाणि / सनयावलिकोच्छासमुहूर्तादेवसाहोरात्रपक्षमाससंवत्सरयुगीनः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षयाऽसंख्येयभागहीनो भवति / तदपेक्षण वितरोऽसंख्येयभागाऽभ्यधिकः। तथा एकस्यत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः, परस्य तान्येवपल्योपमैन्यूँनानि, दशभिश्च पल्योपमकोटाकाटीभिरेकं सागरोपमं निष्पद्यते ततः पल्योपमैन्यूँनस्थितिकः परिपूर्णस्थितिकनारकापेक्षया संख्येभागहीनः परिपूर्णस्थितिकस्तु तदणेक्षयाऽसंख्येयभागाभ्यधिकः / तथाएकस्य सागरोपममेकं स्थितिरपरस्य परिपूर्णानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि / तत्रैकसागरोपमस्थितिकः पारेपूर्णस्थितिकनारकापेक्षया सङ्ख्येयगुणहीनः, एकस्य सागरोपमस्य त्रयस्त्रिंशता गुणने परिपूर्णस्थितिकत्वप्राप्तेः। परिपूर्णस्थितिकस्तु तदपेक्षया सख्येयगुणाभ्यधिकः ।तथा एकस्य दशवर्षसहस्त्राणि स्थितिरपरस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि दशवर्षसहस्त्राएयसख्येयरुपेण गुणकारेण गुणितानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि भवन्ति / तलो दशवर्षसहस्त्रस्थितिकस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकनारकापेक्षया असङ्ख्येयगुणहीनः, तदपेक्षया तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकोऽसङ्ख्येयगुणाभ्यधिक इति। तदेवमेकस्य नारकस्याऽपरनारकापेक्षया द्रव्यतो द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया चतुल्यत्वमुक्तम्। क्षेत्रतोऽवगाहनं प्रति हीनाधिकत्वेन चतुःस्थानपतितत्वम् / कालतोऽपि स्थितितो हीनाधिकत्वेन चतुःस्थानपतितत्वम्। इदानीं भावाऽऽश्रयं हीनाधिकत्वं पतिपाद्यतेयतः सकलमेव जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं वा परस्परतो द्रव्यक्षेत्रकालभार्विनज्यते, यथा घटः / तथाहि-घटो द्रव्यत एको मार्तिकोऽपरः काश्चनौरानताऽऽदिर्वा। क्षेत्रत एक इहत्यः, अपरः पाटलिपुत्रकः / कालत एकोऽद्यतनोऽन्यस्त्वैषमः परुतनो वा / भावत एकः श्यामोऽपरस्तु रक्ताऽऽदिः / एवमन्यदपि / तत्र प्रथमतः पुद्धलविपाकिनामकर्मोदयनिमित्तजीवौदयिकभावाऽऽश्रयेण हीनाधिकत्वमाह-(कालवण्णमज्जवेहि सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए) अस्याक्षरघटना पूर्ववत्। तत्र यथा हीनत्वमभ्यधिकत्वंवा तथा वष्स्थानकेच यत्यदपेक्षया अनन्तभागहीनं तस्य सर्वजीवानन्तकेन भागे हते यल्लभ्यते तेनानन्ततमेन भागेन हीनं, | यश्च तदपेक्षया सख्येयभागहीनं तस्यापेक्षणीयस्यासङ्ख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणेन राशिना भागे हते यल्लभ्यते तावता भागेन न्यूनम्।यच तदधिकृत्य सङ्घयेयभागहीनं तस्यापेक्षणीयस्योत्कृष्टसङ्घयेयकेन भागे हृते यल्लभ्यते तावता हीनम् / गुणनसङ्ख्यायां तु यद्यतः सङ्खयेयगुणं तदवधिभूतसुत्कृष्टन सङ्ख्येयकेन गुणितं सत् यावद्धवति तावत्प्रमाणमवसातव्यम्। यच्च यतोऽसङ्खयेयगुणं तदवधिभूतमसङ्घयेयमलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणेन गुणकारेण गुण्यते, गुणितं सत् यावद्भवति तदवसेयम् / यच यस्मादनन्तगुणं तदवणिभूतं सर्वजीवानन्तकरुपेण गुणकारेण गुण्यते, गुणितं सत् यावद्भवति तावत्प्रमाणं द्रष्टव्यम् / तथा चैतदेव कर्मप्रकृतिसंग्रहिण्यांष्स्थानकप्ररुपणावसरे भागहारगुणकारस्वरुपमुपवर्णितम्- "सव्वजीवाणंतमसंखलोगसंखेज्जगस्स जेट्ठस्स भागो तिसु गुणणातिसु इति।" सम्प्रत्यधिकृतसूत्रोक्तस्थानपतितत्वं भाव्यतेतत्रकृष्णवर्ण पर्यायवरिमाणं तत्त्वतोऽनन्तसंख्याऽऽत्मकप्यसद्धावस्थापनया किल दशसहस्त्राणि १००००।तस्य सर्वजीवानन्तकेन शतपरिमाणपरिकल्पतेन भागो हियते,लब्धेशतम् १००।तत्रैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं दशसहस्त्राणि, अपरस्य तान्येव शतेन हीनानि 6600 / शतं च सर्वजीवानन्तभागीरलब्धत्यादनन्ततभो भागः, ततो यस्य शतेन हीनानि दश सहस्त्राणि सोऽपरस्य परिपूर्णदशसहस्त्रप्रमाणकृष्णवर्णपर्यायस्य नारकसयापेक्षयाऽनन्तभागहीनः, तदपेक्षया तु सोऽपरः कृष्णवर्णपर्यायोऽनन्तभागीयधिकः / तथा कृष्णवर्णर्यायपरिमाणस्य दशसहस्त्रसंख्याकस्यासंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणपरिकल्पितेन पश्चाशत्परिमाणेन भागहारेण भागो ह्रियते, लब्धे द्वे शते। एषोऽसंख्येयतमो भागस्तत्रैकस्य किल नारकस्य कृष्ण-वर्णपर्याया दशसहस्त्राणि शतद्वयेन हीनानि 1800 / अपरस्य परिपूर्णानि दशसहस्त्राणि 10000 / तत्र यः शतद्वयहीनदशसहस्त्रप्रमाणकृष्णवर्णपर्यायः स परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षयाऽसंख्येयभागहीनः / परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायस्तुतदपेक्षयाऽसंख्येयभागाधिकः 2 / तथा तस्यैव कृष्णवर्णपर्याय राशेर्दशसहस्त्रसंख्याकस्योत्कृष्टसंख्येयकपरिमाणकल्पितेन दशकपरिमाणेन भागहारेण हियते, लब्धं सहस्त्रम् / एष किल संख्याततमो भागः / तत्रैकस्य नारकस्य किल कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं नवसहस्त्राणि 6000 / अपरस्य दशसहस्त्राणि 10000 / नवसहस्त्राणि तु दशसहस्त्राणि सहस्त्रेण हीनानि / सहस्त्रं च संख्येयतमो भाग इति नवसहस्त्रप्रमाणकृष्णवर्णपर्यायपारपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया संख्येयभागहीनः, तदपेक्षया त्वितरः संख्येयभागाधिकः तथैकस्य नारकस्य किल कृष्णवर्णवर्यायपरिमाणं सहस्त्रम्, अपरस्य दशसहस्त्राणि, तत्र सहस्त्रदशकेनोत्कृष्टसंख्यातककल्पनेन गुणितं दशसहस्त्रसंख्याकं भवतीति सहस्त्रसंख्यकृणवर्णपर्यायो नारको दशसहस्त्रसंख्याककृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षया संख्येयगुणहीनः, तदपेक्षया परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायः संख्येयगुणाभ्यधिकः / एकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णवर्यायाग्रं द्वे शते, अपरस्य परिपूर्णानि दश सहस्त्राणि द्वे च शते संख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रकल्पितेन पञ्चाशत्परिमाणेन गुणकारगुणितेन दशसहस्त्राणि जायन्तेोप्रतिपादयति-(जइहीणेत्यादि) इह भावापेक्षया हीनाधिकत्वचिन्तायां हानौ वृद्धौ च प्रत्येकं स्थानपतितत्वमवप्तयते। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव 214 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव ततो द्विशतपरिमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारकः परिपूर्णकृष्णवर्णप- यिनारकापेक्षया असंख्येयगुणहीनः, तदपेक्षया त्वितरोऽसंख्येयगुणाभ्यधिकः 5, तथैकस्य किल नारकस्य कृष्णवर्णपर्यायपरिमाणं शतमपरस्य दशसहस्त्राणि शते च सर्वजीवानन्तकपरिकल्पिवेन गुणकारणेन गुणिते जायन्ते दश सहस्त्राणि, ततः शतपरिमाणकृष्णवर्णपर्यायो नारकः परिपूर्णकृष्णवर्णपर्यायनारकापेक्षयाऽनन्तगुणहीनः, इतरस्तु तदपेक्षयाऽनन्तगुणाभ्यधिकः। यथा कृष्णवर्णपर्यायानधिकृत्य हानौ वृद्धौ च षट्स्थानपतितत्वमुक्तमेवं शेषवर्णगन्धरसस्पर्शरपि प्रत्येक पदास्थानपतितत्वं भावनीयम्। तदेवं पुदलविपाके नामकर्मोदयजनितजीवौदयिकभावाऽऽश्रयेण षट्स्थानपतितत्वमुपदर्शितम् / इदानीं जीवविपाकिज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिकर्मक्षयोपशमभावाऽऽश्रयेण तदुपदर्शयति-"आभिणिबोहियपज्जवेहिं" इत्यादि पूर्ववत् / प्रत्येकमाभिनिबोधिकाऽऽदिषु षट्स्थानपतितत्वं भावनीयम् / इह द्रव्यतस्तुल्यत्वं वदता सम्मूच्छिमसर्वप्रभेदनिर्भेदवीजं मसूरण्डकरसवदनभिव्यक्तदेशकालक्रमप्रत्यवबद्धविशेषभेदपरिणतैर्यो ग्यं द्रव्यमित्यावेदितम्। अवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वमभिवहता क्षेत्रतः सङ्कोचविकोचधर्मा आत्मा, न तु द्रव्येप्रदेशसङ्ख्याया इति दर्शितम् उक्तं चैतदन्यत्रापिविकसनसङ्कोचनयोन स्तो द्रव्यप्रदेशसङ्ख्याया वृद्धिहासौ स्तः, क्षेत्रतस्तु तावान्मनः, तस्मात् स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वं वदता आयुःकर्मस्थितिनिर्वर्तकानामध्यवसायस्थानानामुत्कर्षापकर्षवृत्तिरुपदर्शिता, अन्यथा स्थित्या चतुःस्थानपतितत्यायोगात्। आयुःकर्म चोपलक्षण, तेन च सर्वकर्मस्थितिनिर्वतकेष्वध्यवसायोत्कर्षापकर्षवृत्तिरवसातव्या। कृष्णादिपर्यायः षट्स्थानपतितत्वमुपदर्शयता एकस्यापि नारकस्य पर्याया अनन्ताः किं पुनः सर्वेषां नारकाणामिति दर्शितम्। अथ नारकाणां पर्यायाऽऽनन्त्यं पृष्टेन भगवता तदेव पर्यायाऽऽनन्त्यं वक्तव्यं, न त्वन्यत्, ततः किमर्थे द्रव्यक्षेत्रकालभावाभिधामिति? तदयुक्तम् / अभिप्रायापरिज्ञानात्। इह न सर्वेषां सर्वे स्वपर्यायाः समसंख्याः किं तु षट्थानपतिताः। एतच्चानन्तरमेव दर्शितम्, षट्थानपतितत्वं परिणामित्वमन्तरेण न भवति, तच परिणामित्वं यथोक्तलक्षणस्य द्रव्यस्येति द्रव्यतस्तुल्यत्वमभिहितम् / तथा न कृष्णाऽऽदिपर्यायैरेव पर्यायवान् जीवः, किंतु तत्तत्क्षेत्रसङ्कोचविकोचधर्मतयाऽपि / तथा तत्तदध्यवसायस्थानयुक्ततयाऽपीति ख्यापनार्थ क्षेत्रकालाभ्यां चतुःस्थानपतितत्वमुक्तमिति कृतं प्रसङ्गेन. तदेवमवसित नैरयिकाणां पर्यायाऽऽनन्त्यम्। इदानीमसुरकुमारेषु पर्यायाग्रं पिपृच्छिषुराहअसुरकुमाराणं भंते ! केवइया पजवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ असुरकुमाराणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! असुरकुमारे असुरकुमारस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणचडिए, कालवन्नपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए / एवं नीलवनपज्जवेहिं लोहिल्लाहालिहवण्णपज्जवेहिं सुकिल्लवण्णपज्जवेहिं सुब्भिगंधपज्जवेहिं दुढिभगंधपज्जवेहिं तित्तरसपज्जवेहिं कडुयरसपज्जवेहिं कसायरसपज्जवेहिं अंविलरसपज्जवेहिं महुररसपज्जवेहिं कक्खडफासपज्जवेहि मउयफासपञ्जवेहिं गरुयफासपञ्जवे हिं लहुयफासपज्जवे हिं सीतफासपज्जवेहिं उसिणफासपज्जवेहिं निद्धफसपज्जवेहि लुक्खफासपज्जवे हिं आमिणिबोहियनाणपज्जवेहिं सुयनाणपज्जवेहिं ओहिनाणपज्जवेहिं मइअन्नाणपज्जवेहिं सुयअन्नाणपज्जवेहिं विभंगनाणपज्जवेहिं चक्खुदंसणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिं ओहिदंसणपञ्जवेहिं य छट्ठाणवडिए / से तेणढे णं गोयमा ! एवं दुबइ-असुरकुमाराणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। एतं जहा णेरइया जहा असुरकुमारा तहा नागकुमारा विण्जाव थणियकुमारा। पुढविकाइयाणं भंते ! केवझ्या पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पजवा पण्णत्ता / से केणढे णं एवं वुबइपुढविकाइयाणं अणंता पजवा पण्णत्ता? गोयमा ! पुढविकाइए पुढविकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए / जइ होणे असंखेजइभागहीणे वा संखेजहभागहीणे वा संखेजगुणीहीणे वा असंखिजगुणहीणे वा / अह अन्भहिए असंखेज्जइभागअब्महिएवा संखेज्जइभागअब्महिए वा संखेज्जगुणमब्महिए वा असंखिज्जगुणमब्भहिए वा / ठिईए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जइहीणे असंखिज्जभागहीणे वा संखेजभागहीणे वा संखेजगुणहीणे वा / अह अन्भहिए असंखेज्जइभागअब्भहिए वा संखेजइभाग-अब्भहिए वा संखेज्जगुणमन्महिए वा वण्णेहि गंधेहिं रसेहिं फासेहिं मइअन्नाणपञ्जवेहिं सुयअण्णाणपञ्जदेहि अचक्द सणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए / आउकाइयाणं भंते / केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पन्जवा पण्णत्ता। से केणढे णं भंते ! एवं वुचइ-आउकाइयाणं अणंता पञ्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! आउकाइए आउकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले. पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तिट्ठा सणवडिए वन्नगंधरसफासमइअण्णाणसुयअण्णाण अचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए। तेउकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता पजवा पण्णता ? से केण्टे णं भंते ! एवं दुबइ-तेउकाइयाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! तेउकाइए तेउकाइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए। ठिईए तिट्ठाणवडिए वण्णागंधरसफासमइअन्नाणसुयअन्नाणअचक्खु दंसणपज्जवे हि य छट्ठाणवडिए। वाउकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! वाउकाइयाणं अणंता पजवा पण्णत्ता / से के णडे णं भंते ! एवं दुबइ. वाउकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! वाउकाइए Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव वाउकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, सुयअण्णाअणअ ओगाहमाल्याए चउट्ठाणवडिए / ठिईए तिट्ठाणवडिए वण्णगंधरसफासमइअण्णाणचक्खुदंसणपज्जवेहियछट्ठाणवडिए। वणस्सइकाइयाण मंते ! केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णता / से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइवणस्सइकाइयाणं अणंता पजवा पण्णत्ता ? गोयमा ! वणस्सइकाइए वणस्सइकायस्स दवठ्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणबडिए। ठिईए तिट्ठाणवडिए, वण्णगंधरसफासमइअण्णाणसुयअण्णाण-अचक्खुदंसणपञ्जवेहिय छट्ठाणवडिए। से तेणढे पं गोयमा ! वणस्सइकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता / देइंदियाणं पुच्छा? गोयमा! वेइंदियाणं अणंता पजवा पण्णत्ता। सेकेणढे णं भंते ! एवं वुचइवेइंदियाणं अणंता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! वेइंदिए वेइंदियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्महिए। जदि हीणे असंखेजइभागहीणे वा संखेजभागहीणे वा संखेजगुणहीणे वा संखेजभागब्भगहिए वा / अह अब्भहिए असंखेलभागमभहिए वा संखेनगुणमब्महिए वा असंखेज्जगुणमन्महिए वा / ठिईए तिट्ठाणवडिए, वण्णगंधरसफसआमिणिबोहियनाणसुअणाणमइअण्णाणसुय-अण्णाणअचक्खुदेसणपज्जवे हि य छट्ठाणवडिए / एवं तेइंदियाण वि, एवं चउरिदियाण दि.णवरं दो दंसणा चक्खुदंसणेहिं अचक्खुदंसपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जवा जहा णेरइयाणं तहा भाणियव्वा / मणुस्साणं भंते ! के वइया पजवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। सेकेणढे णं मंते ! एवं वुचइ-मणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! माणुसस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहणट्ठाए चउट्ठाणवडिए। ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्णगंधरसफासआमिजियोहियनाणसुयनाणओहिनाणमणपज्जवनाणपज्जवे हि य छट्ठाणवडिए, केवलनाणपञ्जवेहिं तुल्ले तिहिं अण्णाणेहिं तिहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिए, केवलदसणपज्जवेहिं तुल्ले / वाणमंतरा ओगाहणट्ठाए ठिईए चउट्ठाणवडिया, वन्नादीहिं छट्ठाणवडिया, जोइसियवेमाणिया वि एवं चेव, नवरं ठिईए चउट्ठाणबडिए तिट्ठाणवडिया। (असुरकुमाराणं भंते! केवइया पज्जवा पण्णत्ता इत्यादि) उक्त एवार्थः प्रायः सर्वेष्यप्यसुरकुनाराऽऽदिषु, ततः सकलमपि चतुर्विशतिदण्डकसूत्र प्रागावनीयं, यस्तु विशेष उपदर्श्यते तत्र यत्पृथिवीकायिकाऽऽदीनामवगाहनाया अडलासय्येयभागप्रमाणाया अपि चतुःस्थानपतितत्वं तदङ्गुलासंख्येयभागस्यासंख्येयभेदभिन्नत्वादवसेयम् / स्थित्या हीनत्वमधिकत्वं च त्रिस्थानपतितं, न चतुःस्थानपतितम्, असंख्येयगुणवृद्धिहान्योरसम्भवात्। कथं तयोरसम्भव इति चेत् ? उच्यते-इह पृथिव्यादीनां सर्वजघन्यमायुः क्षुकभव क्षुल्लकभवग्रहणस्य परिमाणमा वलिकाना द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके मुहूर्ते च द्विध-टिकप्रमाणे, सर्वसंख्यया क्षुल्लकभवग्रहणानांपञ्चषष्टिसहस्त्राणि पञ्चशतानि षट्त्रिंशदधिकानि 65536 / उक्तं च - " दोन्नि सयाइं नियमा, छप्पन्नाइं पमाणओ हॉति / आवलियपमाणेणं, खुड्डागभवग्गहणमेयं // 1 // पन्नाठि य सहस्साई, पंचेव सयाई तह य छत्तीसा। खुड्डागभवग्गहणा, इति एते मुहुत्तेणं // 2 // " पृथिव्यादीनां च स्थितिरुत्कर्षतोऽपि संख्येयवर्षप्रमाणा, ततो नासंख्येयगुणवृद्धिहान्योः सम्भवः / शेषवृद्धिहानित्रिकभावना त्वेवम्एकस्य किल पृथिवीकायस्थितिः परिपूर्णानि द्वाविंशतिवर्षसहस्राणिस्त्राणि, अपरस्य तान्येव समयन्यूनानि / ततः समयन्यूनद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्त्रस्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्त्रस्थितिकापेक्षया असंख्येयभागहीनः, तदपेक्षया त्वितरोऽसंख्येयभागाधिकः, तथा एकस्य परिपूर्णानि द्वाविंशतिवर्षसहस्त्राणि स्थितिरपरस्य तान्ये वान्तमुहूर्ताऽऽदिनोनानि।अन्तमुहूर्ताऽऽदिकंद्वाविंशतिवर्षसहस्रास्त्राणां संख्येयतमो भागः, ततोऽन्तर्मुहूर्ताऽऽदिन्यूनद्वाविंशतिवर्षसम्रहस्वस्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्त्रस्थितिकापेक्षया संख्येय-- भागहीनः, तदपेक्षया तु इतरः संख्येयभागाभ्यधिकः। तथा एकस्य द्वाविंशतिवर्षसहस्त्रास्त्राणि स्थितिपरस्यान्तर्मुहूर्त मासो वर्ष वर्षसहस्रंस्त्रं वा अन्तर्मुहूर्ताऽऽदिकं नियतपरिमाणया संख्यया गुणितं द्वाविंशतिवर्षसहरसस्त्रस्थितिप्रमाणं भवति, तेनान्तर्मुहूर्ताऽऽदिप्रमाणास्थितिकः परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्त्रस्थितिकापेक्षया संख्येयगुणहीनः, तदपेक्षया तु परिपूर्णद्वाविंशतिवर्षसहस्रस्त्रस्थितिकः संख्येयगुणाभ्यधिकः। एवमप्कायिकाऽऽदीनामपि चतुरिन्द्रिद्धियपर्यन्तानां स्वस्वोत्कृष्टस्थित्यनुसारेण स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं भावनीयम्। तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च चतुःस्थानपतितत्वं,तेषामुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः / पल्योपमं चासंख्येयवर्षसहस्रस्त्रप्रमाणमतोऽसंख्येयगुणवृद्धिहान्योरपि सम्भवादुपपद्यते चतुःस्थानपतितत्वम्। एवं व्यन्तराणामपि तेषां जघन्यतो दशवर्षसहस्रस्त्रस्थितिकत्वादुत्कर्षतः पल्योपमस्थितिः ज्योतिष्कवैमानिकानां पुनः स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं, यतो ज्योतिष्काणां जघन्यमायुः पल्योपमाष्टभागः, उत्कर्षतो वर्षलक्षाधिकं पल्योपमं,वैमानिकानां जघन्यं पल्योपममुत्कृष्ट त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि दशकोटाकोटीसंख्येयपल्योपमप्रमाणं च, सागरोपमतस्तेषामप्यसंख्येयगुणवृद्धिहान्यसम्भवात् स्थितितः त्रिस्थानपतितता। शेषसूत्रभावना तु सुगमत्वात् स्वयं भावनीया, तदेव सामान्यतो नैरयिकाऽऽदीनां प्रत्येक पर्यायाऽऽनन्त्यं प्रतिपादितम्। _इदानीं जघन्याऽऽद्यवगाहनाऽऽद्यधिकृत्य तेषामेव प्रत्येक पर्यायाग्रं प्रतिपिपादयिषुराह जहन्नो गाहणाणं भंते ! णे रइयाणं के वइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणढे णं भं Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव 216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव ते ! एवं वुचइ-जहन्नोगाहणगाणं णेरइयाणं अनंता पञ्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहीन्नोगाहणए णेरइए जीनोगाहणस्स णेरइयस्स दब्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, उग्गाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउहाणवडिए, वण्णगंधरसफसपज्जवेहिं तिहिं णाणे हिं तिहिं अण्णाणे हिं तिहिं दंसणे हिं छट्ठाणवडिए। उक्कोसोगाहणयाणं भंते ! णेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणढे णं भंते ! एवं वुचइउकोसोगाहणयाणं णेरइयाणं अणंता पञ्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! उक्कोसोगाहणए णेरइए उक्कोसोगाहणस्स णेरइयस्स दध्वट्ठयाए तुल्ले पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहणट्ठयाए तुल्ले / ठितीए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए / जदि हीणे असंखेज्जइभागहीणे वा संखेज्जइभागहीणे वा / अह अब्भहिए असंखेज्जभागअन्महिए वा संखेज्जभागमब्भहिए वा, दन्नगंधरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अण्णाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए / अजहन्नुक्कोसोगाहणगाणं भंते ! णेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ-अजहन्नुक्कोसोगाहणगाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अजहन्नुक्कोसोगाहणएणेरइए अजन्नुकोसोगाहणस्स णेरइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पदेसट्ठयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए सिय हीणे तुल्ले सिय तुल्लेसिह अब्महिए। जइ हीणे असंखेज्जइभागहीणे वा संखे जइभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखिजगुणहीणे वा / अह अब्भहिए वा असंखिज्जमागमभहिए वा संखेज्जभागमभहिए वा संखिज्जगुणअब्भहिए वा असंखिजगुणमब्भहिए वा। ठिईए सिय हीणे सिय | तुल्ले सिय अब्भहिए / जदि हीणे असंखेज्जभागहीणे वा संखेज्जभागहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा संखज्ज-गुणहीणे वा। अह अब्भहिए असंखेजहभागअन्भहिएवा संखेज्जभाग-अब्भहिए वा संखेजगुणअब्भहिए वा असंखेजगुणअब्भहिए वा, वनगंधरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं दंसणेहि छट्ठाणवडिए। से ते णटे णं एवं वुच्चइ-गोयमा! अजहन्नुक्कोसोगाहणगाणं णेरइयाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता। जहण्णठिइयाणं भंते ! णेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ-जहन्नट्टिईयाणं णेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नहहितीए नरइए जहन्नठिइयस्स णेरइयस्स दध्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए / दिईए तुल्ले वनगंधरसमस पज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणे हिं तिहिं दंसणे हिं छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसट्ठिईए वि अजहन्नुक्कोसहिईए वि एवं, णवरं सट्ठाणे चउट्ठाणवडिए / जहण्णगुणकालयाणं भंते ! णेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा !अणंता पञ्जवा पण्णत्ता / से केणढे णं भंते ! एवं वुच-इजहण्णगुणकालयाणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए नेरइए जहण्णगुणकालगस्स नेरइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए। कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्णगंधरसफसपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहि छट्ठाणवडिए। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुधइ-जहन्नगुणकालयाणं नेरइयाणं अणंता पजवा पण्णत्ता / एवं उक्कोसगुणकालर वि, अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, नवरं कालवण्णपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए एवं, अवसेसा चत्तारि वण्णा दो गंधा पंक रसा अट्ठ पासा भाणियवा। जहण्णामिणिवोहियनाणीणं भते! नेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पजवा पण्णत्ता से केणढे णं भंते ! एवं वुधइ जहण्णामिणिबोहियनाणीणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पन्नत्ता ? पण्णत्ता ? गोयमा। जहण्णामिणिबोहियनाणी नेरइए जहन्नाभिणिबोहियनाणिस्म नेरइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहणद्वयाए चउट्ठाणवडिए, ठितीए चउट्ठणवडिए, वण्णगंधरसफासपञ्जदेहि छट्ठाणवडिए। आमिणिबोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले, सुयनाणओहिनाणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसाभिणिबोहियनागि वि, अजहण्णमणुक्कोसामिणिबोहियनाणी वि एवं चेव, नवरं आमिणिबोहियनाण पज्जवेर्हि सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। एवं सुयनारी, ओहिनाणी विएवं चेव, नवरं जस्सनाणा तस्स अण्णाणा नत्वि, जहा नाणा तहा अण्णाणा विभाणियव्वा, नवरं जस्स अण्णाय तस्स नाणा नत्थि / जहण्णचक्खुदंसणीणं भंते ! नेरझ्याप केवइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णता. से केणढे णं भंते ! एवं बुचइ-जहण्णचक्खुदंसणीण नेरइयार अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नचक्खुदंसणीण नेरक जहन्नचक्खुदंसणि-णस्स ने रइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, खि चउट्ठाणवडिए, वन्नगंवरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिह अन्नाणेहिं छट्ठाणवडिए, चक्खुदंसणपज्जवेहिं तुल्ले, अचक्स दसणपज्जवे हिं ओहिदंसणपज्जवे हिं छट्ठाणवडिए / ए Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जव 217 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव उक्कोसचक्खुदंसणी वि, अजण्णमणुक्कोसचक्खुदंसणी वि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए / एवं अचक्खुदंसणी वि, ओहिदसणी वि / जहण्णोगाहणगाणं भंते ! असुरकुमाराणं केवइया पज्जया पण्णता ? से केणढे णं भंते ! एवं बुचइजहण्णोगाहणगाणं असुरकुमाराणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए असुरकुमारे जहण्णोगाहणगस्स असुरकुमारस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउहाणवडिए, वण्णादीहिं छट्ठाणवडिए, आभिणिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणपञ्जवेहिं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहि यछट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसोगाहगए वि, एवं अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि, नवरं उक्कोसोगाहणए वि असुरकु मारहितीए चउहाणवडिए, एवं जाव थणियकुमारो। जहन्नोगाहणगाणं भंते ! पुढविकाइयाणं केवइया प्रज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणटेणं भंते ! एवं बुधइ-जहण्णोगाहणगाणं पुढविकाइयाणं अणंता पजवा पण्णता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए पुढविकाइए जहन्नो गाहणगस्स पुढ विकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसद्वयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणवडिए, वनगंधरसफासपज्जवेहिं दोहिं अण्णाणेहिं अचक्खुदंसणपनवेहि य छट्ठाणवडिए / एवं उक्कोसोगाहणए वि, अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, नवरं सहाणे चउट्ठाणवहिए। जहन्नठितीयाण भंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा? गोयमा! अनंता पञ्जवा पण्णत्ता / से के णढे णं भंते ! एवं वुचइ-जहन्नठितीयाणं पुढविकाइयाणं अणंता पज्जवापण्णता ? गोयमा ! जहण्णठितीए पुढविकाइए जहण्णठितीयस्स पुढविकाइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए, ठिईए तुल्ले, वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं मतिअन्नाणसुयअन्नाणअच खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए / एवं उक्कोसद्वितीए वि, अजहन्नमणुक्कोसद्वितीए वि एवं चेव, णवरंसट्ठाणे तिट्ठाणवडिए।। जहन्नगुणकालयाणं भंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइजहन्नगुणकालगाणं पुढविकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नगुणकालए पुढविकाइए जहन्नगुणकालगस्स पुढविकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहणद्वयाए चउट्ठाणवडिए, ठितीए तिट्ठाणवडिए, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्णगंधरफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिय छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोस गुणकालए वि, अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, णवरं सट्ठाणे उट्ठाणवडिए / एवं पंच वन्ना, दो गंधा, पंच रसा, अट्ठ फासा भाणियव्वा / जहण्णमइअन्नाणीणं भंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता पञ्जवा पण्णत्ता। से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ-जहन्नमतिअन्नाणी पुढविकाइए, जहन्नमतिअन्नाणिणस्स पुढविकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए, ठितीए तिट्ठाणवडिए, वन्नगंधर-सफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, मतिअन्नाणपज्जवे हिं तुल्ले, सुयअन्नाणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छहाणवडिए। एवं उक्कोसमतिअन्नाणी वि, अजहण्णमणुक्कोसमति अण्णाणी वि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। एवं सुयअणाणी वि, अचक्खुदंसणी वि एवं चेव / एवं० जाव वणस्सइकाइया / जहण्णोगाहणगाणं भंते ! वेइंदियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ-जहण्णोगाहणगाणं वेइंदियाणं अणंता पञ्जवा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णोगाहणए वेइंदिए जहण्णोगाहणगस्स वेइंदियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए तुल्ले / ठितीए तिट्ठाणवडिए, वण्णगंधरफासपज्जवे हिं दोहिं नाणे हिं दोहिं अण्णाणे हिं अचक्खुदंसणपजवे हिं छट्ठाणवडिए / एवं उक्कोसोगाहणए वि, नवरं णाणा नत्थि / अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए जहा जहण्णोगाहणए णदरं सहाणे ओगाहणाए चउट्ठाणवडिए / जहण्णद्वितीयाणं भंते ! वेइंदियाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता पञ्जवा पण्णत्ता। से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ-जहण्णद्वितीयाणं वेइंदियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णद्वितीए वेइंदिए जहण्णट्ठितियस्स वेइंदियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए। ठितीए तुल्ले, वण्णगंधरफासपज्जवेहिं दोहि अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपज्जवे हिं छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसद्वितीए वि, नवरं दो नाणा अब्भहिया। अजहण्णमणुक्कोसद्वितीए जहा उक्कोसद्वितीए, नवरं ठितीए तिट्ठाणवडिए। जहण्णगुणकालयाणं भंते ! वेइंदियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता पञ्जवा पण्णत्ता। से केणढे णं भंते ! एवं वुचइ-जहण्णगुणकालयाणं वेइंदियाणं अणंता पञ्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए वेइंदिए जहण्णगुणकालगस्स वेइंदियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, उग्गाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठितीए तिट्ठाणवडिए / कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्णगंधरफासपज्जवेहिं दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिं Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव 218 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणकालए वि, अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए, एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा भाणियवा। जहण्णाभिणिबोहियनाणीणं भंते ! वेइंदियाणं केवइया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ? गोयमा ! जहण्णाभिनिबोहियनाणी वेइंदिए जहन्नाभिनिबोहियनाणी वेइंदियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पेदसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठाए चउट्ठाणवडिए ठिईए तिहाणवडिए, वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, आमिणिबोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले सुयनाणपञ्जनेहिं छट्ठाणवडिए, अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसाभिणिबोहिनाणी वि, अजहण्णमणुक्कोसामिनिबोहियनाणी वि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए,एवं सुयनाणी वि, सुयअन्नाणी वि, मतिअन्नाणी वि, अचक्खुदंसणी वि, नवरं जत्थ नाणा तत्थ अन्नाणा नत्थि, जत्थ अन्नाणा तत्थ नाणा नत्थिा जत्थ दंसणं तत्थ नाणा वि अण्णाणा वि एवं चेव, तेइंदियाण वि एवं, चउरिदियाण वि एवं चेव, नवरं चक्खुदंसणमब्भहियं / "जहन्नोगाहणाणं भंते!'' इत्यादि सुगमम्। (नवरं ठिईए चउहाणवडिए इति) जघन्यावगाहनो हि दशवर्षसहस्राणि स्थितिकोऽपि भवति, रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थितिकोऽपि, सप्तमनरकपृथिव्यां तत्रोपपद्यते, स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वात्। (तिहिं नाणाहिं तिहिं अन्नाणाहिं ति) इह यदा गर्भव्युत्क्रान्तिकसज्ञिपञ्चेन्द्रिया नरकेपूत्पद्यन्ते तदा स नारकाऽऽयुःसंवेदनप्रथमसमय एव पूर्वगृहीतौदारिकशरीरपरिशाट करोति, तरिमन्नेव समये सम्यग्दृष्टस्त्रीणि ज्ञानानि मिथ्यादृष्टस्त्रीणि अज्ञानानि समुत्पद्यन्ते, ततोऽविग्रहेण विग्रहेण वा गत्वा वैक्रियशरीरसङ्घातं करोति, यस्तु राम्मूर्चिछमासज्ज्ञिपञ्चेन्द्रियो नरकेषूत्पद्यते तस्य तदानी विभइ ज्ञानं नास्तीति जघन्यावगाहनयाज्ञानानि भजनया द्रष्टव्यानि द्वे त्रीणि वेति। उत्कृष्टावगाहनसूत्रे स्थित्या हानौ वृद्धौ च द्विस्थानपतितत्वम्। तद्यथा-असङ्ख्येयभागहीनत्वं वा सङ्ख्ये यभागहीनत्वं वा, तथा असङ् ख्येयभायाधिकत्वंवा सङ्ख्येयभागाधिकत्वं वा, नतु सख्येयाऽसड् ख्येयगुणवृद्धिहानी / कस्मादितिचेत् ? उच्यते-उत्कृष्टावगाहना हि नैरयिकाः पञ्चधनुःशतप्रमाणाः, ते च सप्तमनरकपृथिव्या, तत्र जघन्या स्थितिाविंशतिसागरोपमाणि, उत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, ततोऽसङ्ख्येयास ख्येयभागहानिवृद्धिरेव घटेत, न सड् ख्येयगुणहानिवृद्धिस्तेषां चात्कृष्टावगाहनानां त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि वा नियमाद्वेदितव्यानि. न भजनया, भजनाहेतोः समूच्छिमासज्ञिपञ्चेन्द्रियोत्पादस्य तेषामसम्भवात, अजघन्योत्कृष्शवगाहनसूत्रे यदवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वं तदेवम्, अजघन्योत्कृष्टावगाहनो हि सर्वजघन्याङगुलासङ्ख्ययभागात्परतो मनाक बृहत्तराड्गुलासक्तयेयभागादारभ्य यावदगुलासङ्खयेयभागन्यूनानि पशुधनुः शतानि तावदवसेकयः, ततः सामान्यनेरयिकसूत्र इवात्राऽप्युपपद्यते अवगाहनतश्चतुःस्थानपतितता, | स्थित्वा चतुःस्थानपतितता सुप्रतीता, दशवर्षसहस्रेभ्य आरभ्योत्कर्ष तस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणामपि तस्यां लभ्यमानत्वात्। जघन्यस्थितिसूत्रेऽवगाहनया चतुःस्थानपतितत्वं तस्यावगाहनाया जघन्यतोऽड गुलास ख्येयभागादारभ्योत्कर्षतः सप्तपादोनधनुषोऽवाप्यमानत्वात्, अत्रापि त्रीण्यज्ञानीनि केषाञ्चित्कदाचित्कतया द्रष्टव्यानि, समूच्छिमासज्ज्ञिपश्शेन्द्रियेभ्य उत्पन्नानामपर्याप्तावस्थायां विभङ्गस्याऽभावात्, उत्कृष्टस्थितिचिन्तायामवगाहनया चतुः स्थानपतितत्वम्,उत्कृष्टस्थिति कस्याऽवगाहनाया जघन्यतोऽङ्गुलासङ्खयेयभागादारभ्योत्कर्षतः पञ्चानां धनुःशतानामवाप्यमानत्वात् / (अजहन्नुकोसहिईए दि एतं. चेवेत्यादि) अजघन्योत्कृष्टास्थितावपि वक्तव्यं यथा जघन्यस्थितिसूत्रे उत्कृष्टस्थितिसूत्रेच, नवरमयं विशेषोजघन्यस्थितिसूत्रे उत्कृष्टस्थितिसू च स्थित्या तुल्यत्वमभिहितमत्र तु स्वस्थानेऽपि स्थितावपि चतुः स्थानपतित इति वक्तव्यम्, समयाधिकदशवर्षसहस्रेभ्य आरभ्योत्पर्षतः समयोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणामवाप्यमानत्वात्। जधन्यगुणकालिकाऽऽदिसूत्राणि सुप्रतीतानि, नवरम् (जस्स नाणा तस्स अन्नाणा नस्थि त्ति) यस्य ज्ञानानि तस्याज्ञानानि न सन्तीति। यतः सम्यगदृष्टानानि मिथ्यादृष्टरज्ञानानि / सम्यग्दृष्टित्वं च मिथ्यादृष्टित्वोपमर्दैन भवति, मिथ्यादृष्टित्वमपि सम्यगदृष्टित्वोपमर्देन भवति / ततो ज्ञानसगारे अज्ञानाभावः, एवमज्ञानसद्भावे ज्ञानाभावः / तत उक्तम्- "जहा ना, तहा अन्नाणा वि भाणियव्वा, नवरं जस्स अन्नाणा तस्स नाणा में भवति।" इति / शेष पाठसिद्धम् / एवमसुरकुमाराऽऽदिसूत्राण्यात भावनीयानि, प्रायः समानगमत्वात् / जघन्यावगाहनाऽऽदिपृथिव्यादि सूत्रे स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वं, सङ्ख्ये यवर्षाऽऽयुष्कत्वात् / एतच प्रागेव सामान्यपृथिवीकायिकसूत्रे भावितम्। पर्यायचिन्तायामज्ञानेत मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलक्षणे वक्तव्ये न तु ज्ञान, तेषां सम्यक्त्वस्पोऽस्,ि तेषु मध्ये सम्यक्त्वसहितव्य चोत्पादासम्भवात्, 'उभयाभावो पुढवाइएसु'' इति वचनात् / अत एवैतदेवोक्तमत्र-(दोहिं अन्नाणेहिं इति जघन्यावगाहनतीन्द्रिय-सूत्रे-(दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं इति द्वीन्द्रियाणां हि केषाञ्चित् अपर्याप्तावस्थायां सास्वादनसम्यक्त्वमवाध्यात सम्यग्दृष्टश्च ज्ञाने लभ्यतेशेषाणामज्ञाने। तत उक्तम्- "द्वाभ्यां ज्ञानाभ्य द्वाभ्यामज्ञानाभ्यामिति / " उत्कृष्टावगाहनायां त्वपर्याप्तावस्थान अभावात् साादनासम्यक्त्वं नावप्यते ततस्तत्र ज्ञाने न वक्तव्ये / त चाऽऽह- (एवं उक्कोसितोगाहणाए वि.नवरं नाणा नस्थित्ति) तथा अजधन्योत्कृष्टावगाहना किल प्रथमसमयादूर्द्ध भवति इति अपर्यापावस्थायमपि तस्यासम्भवात, सासादनसम्यक्त्ववता ज्ञाने, अन्येषां चाज्ञान इति / ज्ञाने चाऽज्ञाने च वक्तव्ये। तथा चाऽऽह-(अजहन्नुमोसोगाहा जहा जहन्नीगाहणाए इति) तथा जघन्यस्थितिसूत्रे द्वे अज्ञान एव वक्त न तु ज्ञाने, यतः सर्वजघन्यस्थितिको लब्ध्यपर्यप्तको भवति। नय लब्ध्यपर्याप्तकेषु मध्ये सासादनसम्यग्दृष्टिरुपपद्यते / किं कारणमिति चेत्? उच्यते लब्धपर्याप्तको हि सर्वसक्लिष्टः सासादनरम्यग्दृष्टि मनाक् शुभपरिणामस्ततः स तेषु मध्ये नोत्पद्यते, तेनाज्ञाने एव लभ्ये Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजन 216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव नज्ञाने उत्कृष्टस्थितिषु पुनर्मध्ये सासादनसम्यक्त्वसहिलोऽ-प्युत्पद्यते इति तत्सूत्रे ज्ञानेऽज्ञाने च वक्तव्ये। तथा चाऽऽह-(एवं उक्कोसहिईए वि नवरं दो नाणा अब्भहिया इति) एवमेवाजघन्योत्कृष्टस्थितिसूत्रमपि वक्तव्यम् / भावसूत्राणि पाठसिद्धानि / एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया अपि वय्याः, नवरं चतुरिन्द्रियाणां चक्षुर्दशनमधिकम्, अन्यथा चतुरिन्दियाचा योग.दिति चक्षुर्दर्शनविषयमपि सूत्रं वक्तव्यम्। जघन्यावगाहना तिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रेजहण्णोगाहरणगाणं मंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पञ्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पञ्जवा पण्णत्ता। से केणद्वे णं भंते ! एवं वुचइ-जहण्णोगाहणगाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अणंता पजवा पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णोगाहणाए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णोगाहणगस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पदेसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए तुल्ले ठिईएतिहाएवडिए, वन्नगंधर-सफासपज्जवेहिं दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं दोहिं दंसणेहं छट्ठाणवडिए / उक्कोसोगहणए वि एवं चेव, नवरं तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहि तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए / जहा उक्कोसोगाहणए तहा अजहन्नमणुकोसोगाहणए वि, नवरं ओगाहणट्टिईए चउट्ठाणवडिए ठिईए चउट्ठाणवडिए। जहण्णद्वितीयाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणतुणं भंते ! एवं वुचइजहण्णद्वितीयाणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अणंता पञ्जवा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णद्वितीए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णट्ठितीयस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दवट्ठयाए तुल्ले पदेसट्ठयाए तुल्ले उग्गाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए ठितीए तुल्ले, वण्णगंधरसपज्जवेहिं दोहिं अण्णाणेहिं दोहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए। उक्कोसद्वितीए वि एवं चेव, नवरं दो अण्णाणा दो दंसणा। अजहण्णमणुक्कोसद्वितीए वि एवं चेव, नवरं ठितीए चउट्ठाणवडिए। तिण्णि नाणा तिण्णि अण्णाणा तिण्णि दंसणा / जहण्णगुणकालगाणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केगटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहण्णगुणकालगाणं पंचिं दियतिरिक्खजोणियाणं अणंता पञ्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णगुणकालगस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पदेसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए ठितीए चउट्ठाणवडिए, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्णगंधरसफास पज्जवे हि तिहिं नाणेहिं तिहिं अण्णाणे हिं तिहिं दंसणे हिं छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसगुणकालए वि, अजहन्नमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा। जहन्नाभिणिबोहिनाणीणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता।सेकेणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ? गोयमा ! जहन्नामिणिबोहियनाणी पंचिं दियतिरिक्खजोणिए जहण्णाभिणिबोहियनाणिस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पदेसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए। ठितीए चउट्ठाणवडिए, वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छटाणवडिए। आमिणिबोहियना णपज्जवेहिं तुले, सुयनाणपज्जवे हिं छट्ठाणवडिए चक्खुदंसणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसामिणिबोहियनाणी वि, णवरं ठितीए तिहाणवडिए / तिण्णि नाणा तिण्णि अण्णाणा तिणि दंसणा सट्ठाणे तुल्ले, सेसेसु छट्ठाणवडिए, अजहन्नुक्कोसामिणिबोहियनाणी जहा उक्कोसामिणिबोहियनाणी वि, नवरं ठितीए चउट्ठाणवडिए, एवं सुयनाणी वि / जहण्णोहि-नाणीणं भंते / पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा! अणंतापज्जवा पण्णत्ता। सेकेणटेणं भंते ! एवं वुचइ? गोयमा ! जहण्णोहिनाणी पंचिंयतिरिक्खजोणिए जहन्नोहिनाणिणस्सपंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठाए तुल्ले पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउहाणवडिए, ठितीए तिट्ठाणवडिए, वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं आभिणिबोहिय-नाणसु अनाणपज्जवे हिं छट्ठाणवडि ए, ओहिनाणपज्जवेहिं तुल्ले अन्नाणा नत्थि / चक्खुदंसणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए। एव उक्कोसोहिनाणी वि, अजहन्नुकोसोहिनाणी वि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। जहा आभिणिबोहिय-नाणी तहा मइअन्नाणी, सुयअन्नाणी य। जहा ओ हिनाणी तहा विभंगनाणी य, चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणीय / जहा आभिणिबोहियनाणी ओहिदसणी तहा ओहिणाणी। जत्थ नाणा तत्थ अन्नाणा नत्थि, जत्थ अन्नाणा तत्थ नाणा नत्थि / जत्थ दंसणा तत्थ नाणा वि अन्नाणा वि अत्थि त्ति भाणियव्वं। इह तिर्य गपशेन्द्रियसवयेयवर्षाऽऽयुष्क एव जधन्यावगाहनो भवति, नो सङ्ख्ये यवर्षाऽऽयुष्कः। किं कारणमिति चेत् ? उच्यतेअसइ ख्येयवर्षाऽऽयुष्का हि महाशरीराः, कङ्ककुक्षिपरिणामत्वात्, पुष्टाऽऽहाराः,प्रबलधातूपचयाः, ततस्तेषां भूयान् शुक्र निर्षको Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव 220- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव भवति / शुक्रनिषेकानुसारेण च तिर्यडभनुष्याणामुत्पत्तिसमयेऽवगाहनेतिन तेषां युगलिकानां जघन्यावगाहनालभ्यते, किन्तु सङ्ख्येयवर्षाऽऽयुषाम्, सङ्ख्येयवर्षाऽऽयुषश्च स्थित्या त्रिस्थानपतितता, एतच्च भावितं प्राक् / तत उक्तस्थित्या त्रिस्थानपतितता इति। (दोहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं इति) जघन्यावगाहनो हि तिर्यक्पोन्द्रियासड़ ख्येयवर्षाऽऽयुषोऽपर्याप्तो भवति, सोऽपि चाल्पकायेषु मध्ये समुत्पद्यमानस्ततस्तस्यावधिविभङ्गज्ञानासम्भवात्द्वेज्ञाने द्वे अज्ञाने उक्ते। यस्तु विभङ्ग ज्ञानसहितो नरकादुद्वृत्त्य सङ्ख्येयवर्षाऽऽयुष्केषु तिर्यपञ्चेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पद्यमानो वक्ष्यते स महाकायेषूत्पद्यमानो द्रष्टव्यो, नाल्पकायेषु, तथास्वाभाव्यात्, अन्यथाऽधिकृतसूत्रविरोधः, उत्कृष्टावगाह-नतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियसूत्रे-(तिहिं नाणेहिं तिहिं अन्नाणेहिं इति) त्रिभिनिरित्रभिरज्ञानैः षट्स्थानपतिताः त्रीण्यज्ञानानि / कथमिति चेत्?ह, उच्यते-इह यस्य योजनसहस्रशरीरावगाहना स उत्कृष्टावगाहनः, स च सङ्खयेयवर्षाऽऽयुष्क एव भवति, पर्याप्तश्चा तेन तस्य त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि च सम्मन्ति। स्थित्याऽपि चासावुत्कृष्टावगाहनः त्रिस्थानपतितः, सख्येयवर्षाऽऽयुष्कत्वात्। अजघन्योत्कृष्टावगाहसूत्रे स्थित्या चतुःस्थानपतितो,यतो जघन्योत्कृष्टावगाहनोऽसङ्ख्येयवर्षाऽऽयुष्कोऽपि लभ्यते, तोपपद्यते प्रागुक्तयुक्त्या चतुःस्थानपतितत्वम्। जघन्यस्थितिकतिर्यक् पश्चेन्द्रियसूत्रे द्वेऽज्ञाने एव वक्तव्ये न तु ज्ञाने, यतोऽसौ जधन्यस्थितिको लब्ध्यपर्याप्तक एव भवति, न तन्मध्ये सासादनसम्यग्दृष्टरुत्पाद इति। उत्कृष्टस्थितिकतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियसूत्रे-(दो नाणा दो अन्नाणा इति) उत्कृष्ट स्थितिको हि तिर्यक्पोन्द्रियत्रिपल्योपमस्थितको भवति। तस्य च द्वेऽज्ञाने तावन्नियमेन, यदा पुनः षण्भासविशेषाऽऽयुर्वैमानिकेषु षद्वाऽऽयुष्को भवति, तदा तस्य द्वे ज्ञाने लभ्येते। अत उक्तम्- द्वे ज्ञाने द्वे अज्ञाने इति। अजघन्योत्कृष्टस्थितिकतिर्यक्रपथेन्द्रियसूत्रे-(ठिईए चउट्टाण-वडिए इति) अजघन्योत्कृष्टस्थितको हि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियसवये-यवर्षाऽऽयुष्कोऽपि लभ्यते, असड् ख्येयवर्षाऽऽयुष्कोऽपि समयो, न त्रिपल्योपमस्थितिकः, ततश्चतुःस्थानपतितता। जघन्याभिनिबोधिकतिर्यकपञ्चेन्द्रियसूत्रे-(ठिईए चउट्ठाणवडिए इति) असंख्येयवर्षाऽऽयुषोऽपि हि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियस्य स्वभूमिकाऽनुसारेण जघन्येनाऽऽभिनिबोधिकश्रुतज्ञानेलभ्येते। ततः संख्येयवर्षाऽऽयुषोऽसंख्येयवर्षाऽऽयुषश्च जघन्याऽऽभिनिबोधिकश्रुतज्ञानसंभवाद्भवति स्थित्वा चतुः स्थानपतितः, उत्कृष्टाऽऽभिनिबोधिकज्ञानसूत्रे स्थित्या च त्रिस्थानपतितता वक्तव्या। यत इह यस्योत्कृष्ट आभिनिबोधिकश्रुतज्ञाने स नियमात्संख्येयवर्षाऽऽयुश्च स्थित्या त्रिस्थानपतित एव, यथोक्तं प्राक् अवधिसूत्रे। विभङ्गसूत्रेऽपि स्थित्यात्रिस्थानपतितता। किं कारणमिति चेत् ? उच्यते असंख्येयवर्षाऽऽयुषोऽवधिविभङ्गासम्भवात्। आह च मूलटीकाकारः- "ओहिविभगेसु नियमा तिहाणवडिए,किं कारण ? भन्नइ-ओहिविभंगा असंखेजवासाउयस्स नत्थि यत्ति // ' | संप्रति अजीवपर्यायान पच्छति जहण्णो गाहणगाणं भंते ! मणुस्साणं के वइया पजवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जहण्णोगाहणगाणं मणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा! जहाण्णोगाहणए मणुस जहण्णोगाहणगस्स मणुस्सस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पदेसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए तुल्ले ठितीए तिट्ठाणवडिए, वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं तिहिं नाणेहिं दोहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए। उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, नवरं ठितीए सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अन्महिए। जइ हीणे असंखेज्जइभागहीणे, अह अब्भहिए असंखेज्जइभागमन्भहिए। दो नाणा दो अन्नाणा दो दसणा। अजहण्णमणुकोसोगाहणए वि एवं चेव, नवरं ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए. ठितीए चउट्ठाणवडिए। आइल्लेहिं चउहिं नाणेहिं छट्ठाणवडिए. के वलनाणपज्जवे हिं तुल्ले, तिहिं अण्णाणे हिं दंसणेहि छट्ठाणवडिए / केवलदसणपज्जवेहिं तुल्ले / जहण्णद्वितीयाग भंते ! मणुस्साणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पजवा पण्णत्ता / से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ? गोयमा ! जहण्णद्वितीए मणुस्से जहण्णद्वितीयस्स मणुस्सस्स दवट्ठयार तुल्ले पदेसट्ठयाए तुल्ले ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठितीए तुल्ले / वण्णगंधरफासपज्जवेहिं दोहिं अण्णाणेहिं दोहिं दंसणेहि छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसहितीए वि,नवरं दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा! अजहण्णमणुक्कोसद्वितीए वि एवं चेव, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, आइल्लेहिं चलाई नाणेहिं छट्ठाणवडिए, के वलनाणपज्जवे हिं तुल्ले, तिथि अण्णाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए, केवलदसणपज्जवेहि तुल्ले / जहन्नगुण-कालयाणं भंते ! मणुस्साणं केवइया पज्जन पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणतुणं भते! एवं वुचइ ! गोयमा ! जहण्णगुणकालए मणूसे जहण्णगुणकाल. गस्स मणूसस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पदेसट्ठयाए तुल्ले ओगाहणद्वयाए चउट्ठाण-वडिए। कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, चउहिं नाणेहिं छट्ठाणवडिए, के वलनाणपज्जवेहिं तुल्ले, तिहिं अन्नाणे हिं तिहिं दंस छट्ठाणवडिए, केवलदसणपज्जवेहिं तुल्ले, एवं उक्कोसगुणकाल वि, अजहन्नमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए / एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ठ मासा भाणियव्वा / जहण्णाभिणिवोहियनाणीणं भंते! मणुस्सा केवइया पजवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णताः से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ ? गोयमा ! जहन्नाभिणिबोहियनाणी मणुस्स जहण्णाभिणिबोहियनाणिस्स मणुस्सत दवट्टयाए तल्ले पदेसट्टयाए तुल्ले ओगाहणट्टयाए चउहाणवहिए Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजद 221 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव ठितीए चउट्ठाणवडिए, वन्नगंधरसफासपञ्जवेहिं छट्ठाणवडिए, / आमिणिबोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले, सुयनाणपज्जवेहिं दोहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसामिणिबोहियनाणी वि, नवरं आमिणिबोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणवडिए, तिहिं नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छठाणवडिए। अजहन्नमणुकोसाभिणिबोहियनाणी जहा उक्कोसाभिणिबोहियनाणी, नवरं ठितीए चउठाणवडिए, सट्ठाणे विछट्ठाणवडिए,एवं सुयनाणी वि। जहन्नोहिनाणीणं भंते ! मणूसाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणेता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते! एवं वुबह-गोयमा ! जहन्नोहिनाणी मणूसे जहन्नोहिनाणिस्स मणुसस्स दव्वठ्ठयाए तुल्ले पदेसठ्ठयाए तुल्ले ओगाहणठ्ठयाए तिट्ठाणवडिए, ठितीए तिट्ठाणवडिए, वन्नगंधर-सफासपज्जवेहिं दोहिं नाणेहिं छट्ठाणवडिए, ओहिनाणपज्जवेहिं तुल्ले, मणपजवनाणपज्जवेहि,छट्ठाणवडिए तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए, सट्ठाणे छट्ठाणवडिए / एवं उक्कोसोहिनाणी वि, अजहण्णमणुक्कोसोहिनाणी वि एवं चेव, नवरं ओगाहणठ्ठयाए चउठाणवडिए, सहाणे छाणवएि। जहा ओहिनाणी तहा मणपजदनाणी वि भाणियव्वो, नवरं ओगाहणद्वयाए तिट्ठाणवडिए, जहा आमिनिबोहियनाणी तहा सुयअन्नाणी य माणियव्वो / जहा ओहिनाणीतहा विभंगनाणी विभाणियध्वो। चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी य / जहा आभिणिबोहियनाणी ओहिदंसणी तहा ओहिनाणी। जत्थ नाणा तत्थ अन्नाणा नत्थि, जत्थ अन्नाणा तत्थ नाणा नत्थि ।जत्थ दंसणा तत्थ नाणा वि, अन्नाणा वि / केवलनाणीणं भंते ! मणुस्साणं केवइया पजवा पण्णता ? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-केवलनाणीणं मणुस्साणं अणंता पजवा पण्णत्तां? गोयमा ! केवलनाणी मणुस्से केवलनाणिस्स मणुसस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले पदेसठ्ठयाएतुल्ले ओगाहणट्ट्याए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तिठाणवडिए, वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छठाणवडिए, केवलनाणपज्जवेहिं केवलनाणदंसणपज्जवेहिं तुल्ले। एवं केवलदसणी वि मणुस्से भाणियट्वे / वाणमंतरा जहा असुरकुमारा / एवं जोइसिया वेमाणिया, नवरं सठाणे ठिईए तिवाणवडिए भाणियट्वे / सेत्तं जीवपजवा। जधन्यावणाहनमुनष्यसूत्रे-(ठितीए तिहाणवडिए इति) तिर्यक्पपेन्द्रियवन्मनुष्योऽपि जघन्यावगाहनो नियमात् सख्ये यवर्षाऽऽयुष्कः सख्येयवर्षाऽऽयुष्कश्च स्थित्या त्रिस्थानपतित एवेति। (तिहिं नाणेहिं इति) यदा यदा कश्चित्तीर्थकरोऽनुत्तरोपपातिकदेवो वा अप्रतिपतितेनावधिज्ञानेन जघन्यायामवगाहनायामुत्पद्यते, तदाऽवधिज्ञानमपि लभ्यते इति त्रिभिज्ञनिरित्युक्तम्। विभङ्गज्ञानसहितस्तु नारकादुवृत्तो जघन्यावामवगाहनायां नोत्पद्यते,तथास्वाभाव्यादतो विभङ्गज्ञानं न लभ्यते इति द्वाभ्यामज्ञानाभ्यामित्युक्तम्। उत्कृष्टावगाहनामनुष्यसूत्रे"ठिईए सिय हीणे सियतुल्ले सिय अब्भहिए जइहीणे असंखेजभागहीणे जइ अब्भहिए असंखेज्जभागअब्भहिए।" उत्कृष्टावगाहना हि मनुष्यास्त्रिगव्यूतोच्छ्यारित्रगव्यूतानां स्थितिर्जघन्यतः पल्योपमासंख्येयभागहीनानि त्रीणि पल्योपमानि, उत्कर्षतस्तान्येव परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि / उक्तं च जीवाभिगमे-'उत्तरकुरुदेवकुराए मणुस्साण भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं तिन्नि पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जभागहीणाई उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई त्ति।" पल्योपमासंख्ययभागश्च त्रयाणां पल्योपमानामसंख्येयतमो भाग इतिपल्योपमासंख्येयभागहीनः पल्योपमत्रयस्थितिकः परिपूर्णपल्योपमत्रयस्थितिकापेक्षयाऽसंख्येयभागहीनः, इतरस्तुतदपेक्षयाऽसंख्येयभागाधिकः, शेषा वृद्धिहानयो न गण्यन्ते। (दो नाणा दो अन्नाणा इति) उत्कृष्टावगाहना हि असंख्येयवर्षाऽऽयुषोऽसंख्येयवर्षाऽऽयुषांचाऽवधिविभङ्गासम्भवः, तथास्वाभाव्यादतो वे एव ज्ञाने द्वे चाऽज्ञाने इति / तथा अजघन्योकृष्टावगाहनः संख्येयवर्षाऽऽयुष्कोऽपि भवत्यसंख्येयवर्षाssयुष्कोऽपि गव्यूतद्विगव्यूतोऽच्छ्रयः, ततोऽवगाहनयाऽपि चतुःस्थानपतितत्वं स्थित्याऽपि तथाऽऽद्येश्चतुभिर्मतिश्रुतावधिमनः पर्यवरूपैनिःषट्स्थानपतिताः, तेषां चतुर्णामपि ज्ञानानां तत्तदृद्रव्याऽऽदिसापेक्षक्षयोपशमवैचित्र्यतारतम्यभावात्केवलज्ञानपर्यवैस्तुल्यता, निःशेषस्वावरणक्षयतः, प्रभूतस्य केवलज्ञानस्य भेदाभावात् / शेषं सुगमम् / जघन्यस्थितिकमनुष्यसूत्रे-(दोहिं अन्नाणेहिं इति) द्वाभ्यामज्ञानाभ्यां मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपाभ्या षट्स्थानपतितता वक्तव्या, न तु ज्ञानाभ्याम्। करमादिति चेत्? उच्यते-जघन्यस्थितिका मनुष्याः सम्भूच्छिमाः, सम्मूछिममनुष्याश्च नियमतो मिथ्यादृष्टयस्ततः, तेषामज्ञाने एव न ज्ञाने / उत्कृष्टस्थितिमनुष्यसूत्रे-(दो नाणा दो अन्नाणा इति ) उत्कृष्टस्थितिका हि मनुष्यारिखपल्योपमाऽऽयुषस्तेषां च तावद् ज्ञाने नियमेन, यदा पुनः षण्मासावशेषाऽऽयुषो वैमानिकेषु बद्धवाऽऽहयुषस्तदा सम्यक्त्वलाभात् द्वे ज्ञाने लभ्येते, अवधिविभङ्गा एवासंख्येयवर्षाऽऽयुषां न स्त इति त्रीणि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानीति नोक्तम्। अजघन्योत्कृष्टस्थितिमनुष्यसूत्रमजघन्योत्कृष्टावगाहनमनुष्यसूत्रमिव भावनीयम्। जघन्याऽऽभिनिबोधिकमनुष्यसूत्रे द्वे ज्ञाने वक्तव्ये, द्वे दर्शने। किं कारणमिति चेत्? उच्यते-जघन्याभिनिबोधिको हि जीयो नियमादवधिमनः पर्यवज्ञानवि कलः,प्रबलज्ञानाऽऽवरणकर्मोदयसगावादन्यथा जघन्याऽऽभिनिबोधिकज्ञानत्वायोगात्, ततः शेषज्ञानदर्शनासंभवादाभिनिबोधिकज्ञानपर्यवैस्तुल्यश्रुतज्ञानपर्यवैाभ्यां दर्शनाभ्यां च षट्स्थानपतिता उक्ता / उत्कृष्टाऽभिनिबोधिकसूत्रे- (ठिईए तिवाणवडिए इति) उत्कृष्टाऽऽभिनिबोधिको हि नियमात्संख्येयवर्षाऽऽयुरसंख्येयवर्षाऽऽयुषः, तथा भवस्वाभाव्यात्, सर्वोत्कृष्टाऽऽन्निनबोधिकज्ञानसंभवाद्, संख्येयवर्षाऽऽयुषश्च प्रागुक्तयुक्तेः स्थित्या त्रिस्थानपतिता इति जघन्याऽवधिसूत्रे उत्कृष्टावधिसूत्रे च अवगाहनया त्रिस्थानपतितो वक्तव्यः / यतः सर्वजघन्योऽबधिर्यथोक्तस्वरूपोमनुष्याणां पारभविको न भवति, किंतुतद्भ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव 222 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पजव वभावी, सोऽपि च पर्याप्तावस्थायाम, अपर्याप्तावस्थायां तद्योग्य- कायस्य प्रदेशास्तस्यैव निर्विभागा भागाः / एवं त्रिकमधर्मास्तिकाये विशुद्ध्यभावात् / उत्कृष्टोऽप्यवधिर्भावतश्चारित्रिणस्ततो जघन्यावधि- आकाशास्तिकाये च भावनीयम्। एतावता चान्योऽन्यानुगमाऽऽत्मकारुत्कृष्टावधिर्वाऽवगाहनया त्रिस्थानपतितः, अजघन्योत्कृष्टस्त्ववधिः वयवावयविस्वरूपं धर्मास्तिकायाऽऽदिकं यस्त्विति प्रतिपादितम् / पारभविकोऽपि सम्भवेति, ततोऽपर्याप्तावस्थामपि, तस्य सम्भवात्, दशमोऽद्धासमयः। नन्वत्र पर्याया वक्तुमुपक्रान्तास्तत्कथं द्रव्यमात्रोअजधन्यत्कृष्टाऽवधिरवगाहनया चतुः स्थानपतितः, स्थित्या तुजघन्या- पन्यासः कृतः? उच्यते-पर्यायपर्यायिणोः कथञ्चिदभेदख्यापनार्थः / वधिरुत्कृष्टायधिरजघन्योत्कृष्टावधिर्वा त्रिस्थानपतितः, असंख्येयवर्षा- एवमुत्तरोऽपि ग्रन्थः। आह च मूलटीकाकार:-अत्र सर्वत्र पर्यायपर्यायिक ऽऽयुषामवधेर संभवात्, संख्येयवर्षाऽऽयुषां च त्रिस्थानपतितत्वात् कथञ्चिदभेदस्थापनार्थमित्थ सूत्रोपन्यास इति / परमार्थतस्त्वेतद जघन्यमनः पर्यवज्ञानी, उत्कृष्टमनःपर्यवज्ञानी, अजघन्योत्कृष्टमनःपर्य द्रष्टव्यमधर्मास्तिकायत्वं धर्मास्तिकायदेशत्वं धर्मास्तिकायप्रदेशत्ववज्ञानी स्थित्या त्रिस्थानपतितः, चारित्रिणामेव मन पर्यवज्ञानसद्भावात्, मित्यादि। (तेण भंते ! किं संखेज्जा इत्यादि) स्कन्धाऽऽदयः प्रत्येक कि चारित्रिणां च संख्येयवर्षाऽऽयुष्कत्वात्। केवलज्ञानसूत्रे तु-(ओगाहण संख्येया असङ्ख्ये या अनन्ताः? भगवानाह-अनन्ताः / एतदेव ट्ठयाए चउट्ठाणवडिए इति) के वलिसमुद्धात प्रतीत्य / तथाहि - भावयति- "से केणटेणं भंते !" इत्यादि पाठसिद्धम् / संप्रति दण्डन केवलिसमुद्धागतः के वली शेषकेवलिभ्योऽसंख्येयगुणावगाहनः, क्रमेण परमाणुपुद्गलाऽऽदीनां पर्यायाश्चिन्तनीयाः / दण्डकक्रमश्चायम्तदपेक्षया शेषाः केवलिनोऽसंख्येयगुणहीनावगाहनाः, स्वस्थाने तुशेषाः प्रथमतः सामान्येन परमाण्वादयश्चिन्तनीयाः, तदनन्तरमेव एकप्रदेश केवलिनस्विस्थानपतिता इति स्थित्या त्रिस्थानपतितत्वम्, संख्येय एकप्रदेशाऽऽद्यवगाढाः, तत एकसमयाऽऽदिस्थितिकाः, तदनन्तरमेकवर्षाऽऽयुष्कत्वात्, व्यन्तरा यथा असुरकुमाराः ज्योतिष्का वैमानिका गुणकालकाऽऽदयः, ततो जघन्याऽऽद्यवगाहनाप्रकारेण, तदनन्तर जघन्यस्थित्यादि भेदेन, ततो जघन्यगुण कालाऽऽदिक्रमेण, तटनन्तर अपि तथैव, नवरं ते स्थित्या त्रिस्थानपतिता वक्तव्याः / एतच प्रागेव जघन्यप्रदेशादिना भेदेनेति। उक्तंचभावितम् / उपसंहारमाह-(सेत्तं जीवपज्जवा इति) ते जीवपर्यायाः / "अणुमाइओहियाणं, खेत्ताऽऽदिपएससंगयाणं च। संप्रत्यजीवान् पृच्छतिअजीवपज्जवा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा जहन्नावगाहणाई-ण चेव जहन्नाइदेसाणं // 1 // " अस्या अक्षरगमनिका-प्रथमतोऽण्वादीनां चिन्ता कर्तव्या, तदनन्त पण्णत्ता। तं जहा-रूविअजीवपज्जवा, अरूविअजीवपज्जवा य। क्षेत्राऽऽदि प्रदेशसङ्गतानाम् / अत्राऽऽदिशब्दात्कालभावपरिग्रहः' अरू विअजीवपञ्जवा णं मंते ! कतिविहा पण्णत्ता ! ततोऽयमर्थः-प्रथमतः क्षेत्रप्रदेशैरेकाऽऽदिभिः सङ्गतानां चिन्ता कर्तव्य, गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता। तं जहा-धम्मत्थिकाए, धम्मत्थि तदनन्तरं कालप्रदेशैरेकाऽऽदिसमयैः, ततो भावप्रदेशैरकगुणकालकाकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा, अधम्मत्थिकाए, ऽऽदिभिरिति। तदनन्तरंजघन्यावगाहनाऽऽदीनामिति। अत्र-अपिशोर अधम्मत्थिकायस्स देसे,अधम्मत्थिकायस्स पदेसा, आगास मध्यमोत्कृष्टावगाहना जधन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितिजधन्यमध्यमोत्कृष्टत्थिकाए, आगासत्थिकायस्सदेसे, आगासत्थिकायस्स पदेसा, गुणकालिकाऽऽदिवर्णाः परिग्रहः। ततो जघन्याऽऽदिप्रदेशाना जघन्यअद्धासमए / रूविअजीवपज्जवा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता? प्रदेशानां मध्यभप्रदेशानामजघन्योत्कृष्टप्रदेशानामिति। गोयमा! चउव्विहा पण्णत्ता। तंजहाखंधा,खंधदेसा,खंधपदेसा, अत्र प्रथमतः क्रमेण परमाण्वादीनां चिन्ता कुर्वन्नाहपरमाणुपोग्गला / ते णं भंते ! किं संखेज्जा, असंखेज्जा परमाणुपोग्गलाणं भंते ! केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा अणंता ? गोयमा! नो संखिज्जा,नो असंखिज्जा, अणंता। से परमाणुपोग्गलाणं अणंता पञ्जवा पण्णत्ता। से केणटेणं भंते ! एवं केणढेणं भंते ! एवं वुश्चइनो संखिज्जा, नो असंखिज्जा, वुच्चइ-परमाणुपोग्गलाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता? गोयमा! अणंता परमाणुपोग्गला, अणंता दुपएसिया परमाणुपोग्गले, परमाणु-पोग्गलस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए खंधा० जाव अणंता दसपदेसिया खंधा, अणंता संखिज्ज तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए सिय हीम पदेसिया खंधा, अनंता असंखिज्जपदेसिया खंधा, अणंता सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जइ हीणे संखेज्जइभागहीणे व अणंतपदेसिया खंधा। से तेणढेणं गोयमा! एवं दुचइ-ते णं नो असंखेज्जभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे संखेजा नो असंखेज्जा अणंता। वा, अह अब्भहिए संखेज्जइभागमब्भहिए वा असंखेज्जइभागम(अजीवपज्जवा णं इत्यादि) (रूविअजीवपज्जवा य अरूवि अजी- भहिए वा संखेज्जगुणमडमहिए वा असंखेज्जगुणमन्भहिए वा वपजवा य इति) रूपमिति, उपलक्षणमेतत-वर्णगन्धरसस्पर्शाश्व विद्यन्ते कालवन्नपज्जदेहिं सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जब येषां ते रूपिणः, ते च ते जीवाश्च रूप्य जीवाः, तेषां पर्याया रुप्यजीव- हीणे अनंतभागहीणे वा असंखिज्ज भागहीणे वा संखिजपर्याया इत्यर्थः / तद्विपरीता अरूप्यजीवपर्यायाः, अमूर्त्यऽजीवपर्याया / भागहीणे वा संखिज्जगुणहीणे वा असंखिज्जगुणहीणे वा इति भावः। (धम्मत्थिकाए इत्यादि) धर्मास्तिकाय इति परिपूर्णमवयवि अणंतगुणहीणे वा, अह अब्भहिए असंखेज्जइभागमठमहिए / द्रव्यं धर्मास्तिकायस्य देशः, तस्यैवाछुऽऽदिरूपो विभागः, धर्मारित- | संखेज्जइ-भागमब्भहिए वा संखिज्जगुणमब्भहिए वा असंखिज्ज Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजद 223 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव गुणमभहिए वा अणंतगुणमब्भहिए वा / एवं अवसेसवन्नगंधर- सफापज्जवेहिं छट्ठाणवडिए / फासाणं सयिउसिणनिद्धलुक्खेहिं छट्ठाणवडिए / से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ. परमाणुपोग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता / / (परमाणुपोग्गलाणं भंते ! इत्यादि) स्थित्या चतुःस्थानपतितत्वं, परमाणोः समयादारभ्योत्कर्षतोऽसङ्ख्ये यकालमवस्थानभा-वात् / कालाऽऽदिवर्णपर्यायः षट्स्थानपतितता, एकस्यापि परमाणोः पर्यायाऽऽनन्त्याविरोधात्। ननु परमाणुरप्रदेशी गीयते ततः कथं पर्यायाऽऽनन्त्याविरोधः, पर्यायाऽऽनन्त्ये नियमतः स्वप्रदेशत्वप्रसक्तेः? तदयुक्तम्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् / परमाणुर्हि अप्रदेशो गीयतेद्रव्यरूपतया सांऽशो न भवतीति, न तु कालभावाभ्यामिति। "अपएसो दव्वट्ठयाए उ'' इति वचनात् / ततः कालभावाभ्यां सप्रदेशत्वेऽपि न कश्चिद्दोषः। तथा परमाप्रवादीनामसंख्यातप्रदेशकस्कन्धपर्यन्तानां केषाञ्चिदनन्तप्रदेशकानामपि स्कन्धाना तथा एकप्रदेशावगाढानां यावत्संख्यातप्रदेशावगाढानां शीतोष्णस्निग्धरूक्षरूपाश्चत्वार एव स्पर्शा इति तैरेव परमाण्यादीना षट्स्थानपतितता वक्तव्या, न शेषैः। द्विप्रदेशकस्कन्धसूत्रेदुपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता? से केण्डेणं भंते ! एवं वुच्चइ-गोयमा ! दुपदेसिए, दुपदेसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओग्गाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जइ हीणे पएसहीणे, अह अब्भहिए पदेसमन्महिए, ठितीए चउट्ठाणवडिए, वन्नादीहिं उवरिल्लेहिं चउफासेहि य छट्ठाणवडिए / एवं तियपएसिए वि, नवरं उग्गाहणट्ठाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए, जइहीणे पदेसहीणे वा दुपएसहीणे वा, अह अब्भहिए पदेसमभहिए वा, एवं जाव दसपदेसिए, नवरं ओगाहणाए पदेसपरिवुड्डी कायव्या जाव दसपदेसिए, नवरं पदेसहीणे त्ति / संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ-गोयमा ! संखिज्जपदेसिए, संखेज्जपदेसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए, जइ हीणे संखेज्जभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा, अह अमहिए एवं चेव, ओगाहणहया वि दुट्ठाणवडिए, ठितीए चउद्वाणवडिए, वन्नादिउवरिल्ले चउफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए। असंखेज्जपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा! असंखेज्जपदेसिए खंधे असंखेज्जपदेसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए चउठाणवडिए, ओगाहणठ्ठयाए चउठाणवडिए, वन्नादिउवरिल्ले चउफासेहि य छाणवडिए। अणंत पदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ? गोयमा ! अणंतपदेसिए खंधे, अणंतपदेसियस्स खंधस्स दव्वळ्याए तुल्ले पदेसठ्ठयाए छठाणवडिए, ओगाहणठ्ठयाए चउठाणवडिए, ठितीए चउठाणवडिए, वन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छाणवडिए / एगपदेसोगाढाणं पोग्गलाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। सेकेणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ? गोयमा! एगपदेसोगाढे पोग्गले, एगपदेसोगाढस्स पोग्गलस्स दव्वयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणठ्ठयाए तुल्ले, ठितीए चउट्ठाणवडिए, वन्नादिउवरिलचउफासेहिय छट्ठाणवडिए। एवं दुपएसोगाढे वि०जाव दसपदेसोगाढे। संखेज्जपदेसोगाढाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता पण्णत्ता / से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचई ? गोयमा ! संखेज्ज पदेसोगाढे पोग्गले संखिज्जपदेसोगाढस्सपोग्गलस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिए? ओगाहणट्ठयाए दुट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वन्नादिउवरिल्लचउफासे हि य छट्ठाणवडिए / असंखेज्जपदेसोगाढाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुचइ ? गोयमा ! असंखेज्जपदेसोगाढे पोग्गले, असंखेज्जपदेसोगाढस्सपोग्गलस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणढाए चउढाणवडिए, ठिईए चउठाणवडिए, वण्णादिअळफासेहिं छट्ठाणवडिए। एगसमयठिईयाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता / से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! एगसमयट्टिईए पोग्गले एगसमयट्ठिइयस्स पोग्गलस्स दव्वढ्याए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणठ्याए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तुल्ले, वण्णादिअट्ठफासेहिं छट्ठाणवडिए। एवं०जाव दससमयट्ठिईए। संखेज्जसमयट्टिईयाणं एवं चेव, नवरं ठिईए दुट्ठाणवडिए / असंखेज्जसमयट्टिईयाणं एवं चेव, ठिईए चउठाणवडिए। एगगुणकालगाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता / से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! एगगुणकालए पोग्गले, एगगुणकालगस्स पुग्गलस्स दव्वट्ठ्याए तुल्ले , पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए, चउट्ठाणवडिए ठिइए चउट्-ठाणवडिए कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्णगंधरसपज्जवे हिं छठाणवडिए, अट्ठहिं फासे हिं छट्ठाणवडिए / एवं०जाव दसगुणकालए, संखेज्जगुणकालए विएवं चेव, नवरं सट्ठाणे दुट्ठाणवडिए। एवं असंखिज्जगुणकालए वि, नवरं सट्ठाणे चउट्ठाणवडिए। एवं अणंतगुणकालए वि, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। एवं जहा कालवण्णस्स वत्तव्वया भणिया, तहा सेसाण वि वण्णगंधरसफासाणं वत्तव्वया भाणियव्वा जाव अणंतगुणलुक्खे / जहण्णोगाहणगाणं भंते ! दुपदे Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव 224 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव सियाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता / से केणतुणं भंते ! एवं युच्चई ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए दुपदेसिए खंधे जहन्नोगाहण-- गस्स दुपदेसियरस खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवडिए, कालवन्नपज्जवे हिं छट्ठाणवडिए, सेसवन्नगंधरसफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, सीतउसिणणिद्धलुक्खफासेहिं छट्ठाणवडिए। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुचइजहन्नोगाहणगाणं दुपदेसियाणं पोकग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, अजहन्नमणुक्कोसोगाहओ नत्थि। जहन्नोगाहणगाणं भंते ! तिपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता। से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ ! गोयमा ! जहा दुपदेसिए जहन्नोगाहणए उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, एवं अजहन्नमणुक्कोसोगाहणए वि। जहण्णोगाहणगाणं भंते ! चउपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नोगाहणर दुपदेसिए तहा उक्कोसोगाहणए चउप्पएसिए वि, एवं अजहण्णमणुकोसोगाहणए विचउप्पदेसिए, णवरं उग्गाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्महिए, जइ हीणे पदेसहीणे, अह अब्भहिए पदेसअब्भहिए, एवं०जाव दसपदेसिए णेयव्वं, नवरं अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए पदेसपरिवुड्डी कायव्दा० जावदसपदेसियस्स सत्त पएसा परिखुड्डिजति / जहण्णोगाहणगाणं भंते ! संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता। से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ ? गोयमा! जहण्णोगाहणए संखेजपएसिए, जहन्नोगाहणगस्स संखेज्जपदेसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए दुट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वन्नादिचउफासपञ्जवेहिं छट्ठाणवडिए / एवं उक्कोसोगाहणए वि, अजहन्नमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेव नवरं सट्ठाणे दुट्ठाणवडिए जहन्नोगाहणगाणं भंते ! असंखिज्जपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता / से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ ? गोयमा ! जहन्नोगाहणए असंखेज्जपदेसिए खंधे, जहण्णोगाहणगस्स असंखिज्जपदेसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए / चउट्ठाणवडिए, वण्णादिउवरिल्ले फासे हिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसोगाहणए वि, अजहन्नमणुक्कोसोगाहणए विएवं चेव, नवरं सहाणे चउहाणवडिए। जहन्नोगाहणगाणं भंते! अणंतपदेसियाणं / पुच्छा ? गोयमा ! अणंता / से केणटेणं भंते! एवं बुचइ ? गोयमा ! जहन्नोगाहणए अणंतपदेसिए खंधे, जहन्नोगाहणस्स अणंतपदेसियस्सखंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाएछट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवहिए, वन्नादिचउ प्फासेहिं छट्ठाणवडिए। उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, नवरं ठिईए वि तुल्ले / अजहण्णमणुक्कोसोगाहणगाणं भंते ! अणंतपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा! अणंता। से केणटेणं? अजहण्णमणुकोसोगाहणए अणंतपदेसिए खंघे, अजहन्नमणुक्कोसोगाहणगस्स अणंतपदेसियस्स खंधस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए ठिईए वन्नादिअट्ठफासेहिं छट्ठाणवडिए। जहन्नट्ठिईयाणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता। से केणढेणं ? गोयमा ! जहन्नहिईए परमाणुपोग्गले, जहन्नट्ठिइयस्स परमाणुपोगालस्स दवद्वयाए तुल्ले, पर्दसट्टयाए तुल्ले, उग्गाहणद्वयाए तुल्ले, ठिईए तुल्ले, वन्नाइदुफासेहि य छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसटिईए वि, अजहन्नमणुकोसटिईए वि एवं चेव,नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए। जहन्नट्टिईयाणंदुपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा! अणंता से केणटेणं ? गोयमा ! जहन्नट्ठिईए दुपदेसिए, जहन्नट्ठिईयस्स दुपदेसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ने, पदेसठ्ठयाए तुल्ले, उग्गाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए, जइ हीणे पदेसहीणे, अह अब्भहिए पदेसट्ठयाएअब्भहिए, ठिईए तुल्ले, वन्नादिचउफासेहि य छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसहिईए वि, अजहन्नमणुक्कोसटिईए वि एवं चेव, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए, एवं जाव दसपदेसिए, नवरं पदेसपरिवुडी कायवा, ओगाहणट्ठयाए तिसु विगमएसु०जाव दसपदेसिएनव पदेसा वुड्डिजंति / जहन्नठिईयाणं भंते ! संखेजपदेसिया पुच्छा? गोयमा! अणंता। से केणटेणं? गोयमा ! जहन्नट्टिई संखेजपदेसिए, जहन्नट्ठिईयस्स संखेज्जपदोसियस्स खंघस दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए दुट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए दुट्ठाणवडिए, ठिईए तुल्ले, वण्णादि-चउफासेहि य छट्ठाणवडिए वि, एवं उक्कोसट्ठिईए वि, अजहन्नमणुक्कोसहिईए वि एवं चेद, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए। जहन्नट्टिईयाणं भंते ! असंखिजपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा! अणंता। से केणट्टेणं ? गोयमा! जहन्नट्ठिइए असंखिज्जपएसिए, जहन्नटिईयस्स असंखेजपदेसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए,ठिईए तुल्ले, वन्नादिउवरितचउफासेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उकोसहिईए वि, अजहन्नमणुकोसहिईए वि एवं चेव, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए। जहन्नलिईयार अणंतपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा! अणंता। सेकेणतुण ? गोयमा! जहन्नटिईए अणंतपदेसिए जहण्णठिईयस्स अणंतपदेसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले,पदेसट्ठयाएछट्ठाणवडिए, ओगाहणट्टयाए चउहाण Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्जद 225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव वडिए, ठिईए तुल्ले, वन्नादि अट्ठाफासेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उकोसहिईए वि, अजहन्नमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव, नवरं लिईए चउहाणवडिए / जहन्नगुणकालयाणं परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता। से केणटेणं? गोयमा ! जहन्नगुणकालए परमाणुपोग्गले, जहन्नगुणकालगस्स परमाणुपोग्गल- | स्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवडिए, कालवन्नपज्जवेहिंतुल्ले, अवसेसा वन्ना नत्थि, गंधरसफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणकालए वि, एवं अजहन्नमणुक्कोसगुणकालए वि, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। जहन्नगुणकालयाणं भंते ! दुपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता / से केणद्वेणं ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए दुपदेसिए, जहण्णगुण-कालगस्स दुपदेसियस्सदव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्महिए, जइ हीणे पदेसहीणे, अह अब्भहिए पदेसमब्भहिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसे सवणादिउवरिल्लचउफासेहिं य छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणकालओ वि, अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए / एवं० जाव दसपदेसिए,नवरं पदेसपरिवुड्डी ओगाहणा तहेव / जहण्णगुणकालयाणं भंते ! संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता। से केणढेणं ? गोयमा ! जहण्णगुपकालए संखेज्जपदेसिए, जहण्णगुणकालगस्स संखेज्जपदेसियस दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए दुट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए दुवाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्णादिउवरिल्लचउफासेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्लोसगुणकालए वि,एवं अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि,नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए। जहण्णगुणकालयाणं भंते! असंखिज्जपदेसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! अणंता। से केणटेणं ? गोयमा! जहणगुणकालए असंखेज्जपदेसिए, जहण्णगुणकालगस्स असंखेळपदेसियस्स दव्वट्ठयाएतुल्ले, पदेसट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसे हिं वण्णादिउवरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसमुणकालए वि, अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए विएवं चेव, नवरं सट्ट छट्ठाणवडिए / जहण्णगुणकालयाणं भंते ! अणंतपदेसियाणं पुच्छा ? अणंता / से केणटेणं? गोयमा ! जहण्णगुणकालए अणंतपदेसिए, जहण्णगुणकालगस्स अणंतपदेसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए चउद्वाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, कालवन्नपज्जवेहिं तुल्ले, | अवसे से हि य वण्णादि अट्ठफासेहिं छट्ठाणवडिए / एवं उक्कोसगुणकालए वि। एवं अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, नवरं सहाणे छहाणवडिए / एव नीललोहियहालिहसुकिलसुबिभगंधदुखिभगंधतित्तकडु यकसायअंबिलमहुररसपज्जवेहि य वत्तट्वया माणियव्वा, नवरं परमाणुपोग्गलस्स सुब्मिगंधस्स दुन्मिगंधो न भण्णति, दुन्भिगंधस्स सुभिगंधो न भण्णति, तित्तस्स अवसेसा न भण्णंति, एवं कडुयादीनि वि, सेसं तं चेवा जहन्नगुणकक्खडाणं अणंतपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता / से केणटेणं ? गोयमा ! जहण्णगुणकक्खडे अणंतपदेसिए, जहण्णगुण-कक्खडस्स अणंतपदेसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणद्वयाए चउट्ठाणवडिए / ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्णगंधरसेहिं छहाणवडिए, कक्खडफासपज्जवे हिं तुल्ले, अवसेसहिं सत्तफासपज्जवेहिं छहाणवडिए, एवं उक्कोसगुणकक्खडे वि, अजहण्णमणुक्कोसगुणकक्खडे वि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए / एवं मउयगुरुयलहुए वि भाणियव्वे / जहन्नगुणसीयाणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता / सेकेणटेणं ? गोयमा ! जहन्नगुणसीयाणं परमाणुपोग्गले जहन्नगुणसीयस्स परमाणुपोग्गलस्स दथ्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वन्नगंधरसे हिं छहाणवडिए, सीतफासपज्जवे हिं तुल्ले, उसिणफासो न भवति, निद्धलुक्खफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणसीते वि, अजहन्नमणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए / जहन्नगुणसीताणं दुपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता से के णटेणं भंते ! गोयमा! जहन्नगुणसीते दुपदेसिए, जहन्नगुणसीयस्स दुपदेसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सियतुल्ले सिय अब्महिए, जदिंहीणे पदेसहीणे, अह अब्भहिए पदेसमभहिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्णगंधरसपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, सीयफासपज्जवेहिं तुल्ले, उसिणणिद्धलुक्खफासपज्जवे हिं छहाणवडिए / एवं उक्कोसगुणसीते वि, अजहन्नमणुक्कोसगुणसीते विएवं चेव, नवरंसट्ठाणे छट्ठाणवडिए। एवं०जाव दसपदेसिए, नवरं ओगाहणट्ठयाए पएसपरिवुड्डी कायव्वा ०जाव दसपदे सियस्स नव पदेसा वुद्विजंति / जहण्णगुणसीयाणं संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा! अणंता। से केणढेणं ? गोयमा ! जहण्णगुणसीते संविज्जपदेसिए, जहन्नगुणसीयस्ससंखेज्जपदेसियस्सदव्वट्ठयाएतुल्ले, पदेसट्टयाए Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव 226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पञ्जब दुट्ठाणवडिए, ओगाहणट्टयाए दुट्ठाणवडिए, ठिईए चउ- / ट्ठाणवडिए, वण्णादीहिं छट्ठाणवडिए, सीयफासपज्जवेहि य तुल्ले, उसिण निद्धलुक्खेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणसीते वि, अजहन्नमणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए / जहण्णगुणसीयाणं असंखेअपदेसियाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता / सेकेणदेणं भंते ! गोयमा ! जहण्णगुणसीते असंखेज्जपदेसिए, जहण्णगुणसीतस्स असंखेज्जपदेसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्णादिपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, सीतफासपज्जवेहिं तुल्ले, णिद्धउसिणलुक्खफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणसीते वि, अजहन्न-मणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव,नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए / जहन्नगुणसीयाणं अणंतपदेसियाणं पुच्छा?, गोयमा ! अणंता / से केणटेणं? गोयमा ! जहण्णगुणसीते अणंतपदेसिए, जहन्नगुणसीतस्स अणंतपदेसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्णादिपज्जवे हिं छहाणवडिए, सीतफासपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसे हिं सत्तफासपज्जवे हिं छट्ठाणवडिए, एवं उक्कोसगुणसीते वि, अजहन्न-मणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव, नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए, एवं उसिणे णिद्धे लुक्खे जहा सीते परमाणुपोग्गलस्स तहेव पडिपक्खो सव्वेसिं न भण्णति त्ति भाणियध्वं / जहन्नपदेसियाणं भंते ! खंधाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता / से केणटेणं ? गोयमा ! जहन्नपदेसिए खंधे, जहन्नपदेसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सियमब्महिए, यदि हीणे पदेसहीणे, अहमन्भहिए पदेसमब्महिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वन्नगंधरसउवरिल्ल-चउफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिए / उक्कोसपदेसियाणं भंते ! खंधाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता। से केणटेणं? गोयमा ! उक्कोसपएसिए खंधे, उकोसपदेसियस्सखंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवहिए, वण्णादिअट्ठफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए। अजहन्नमणुकोसपदेसियाणं भंते ! संधाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता। से केणद्वेणं? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसपदेसिए खंधे अजहण्णमणुक्कोसपदेसि यस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए. वण्णादिअट्ठफासपज्जवहिं छट्ठाणवडिए। जहन्नोगाहणगाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा ? गोयमा! अणंता।से केणटेणं? / गोयमा ! जहन्नोगाहणए पोग्गले, जहन्नोगाहणगस्स पोग्गलस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्णादिउवरिल्लफासेहि य छट्ठाणवडिए, उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, नवरं ठिईए तुले / अजहण्णमणुकोसोगाहणगाणं भंते! पोग्गलाणं पुच्छा? गोयमा ! अणंता। से केणटेण? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए पोग्गले, अजहन्नमणुक्को-सोगाहणगस्स पोग्गलस्स दव्वट्ठयाए तुले, पदेसट्टयाएछट्ठाणवडिए, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईर चउट्ठाणवडिए, वण्णादिअट्ठाफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए। जहन्नट्टिईयाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा? गोयमा ! अगंता। सेकेणतुणं? गोयमा! जहन्नट्ठिईए? पोग्गले, जहन्नट्ठिझ्यस पोग्गलस्स दव्वट्ठयाए पएसट्टयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयार चउट्ठाणवडिए, ठिईए तुल्ले, वन्नादिअट्ठफासपज्जवेहि / छट्ठाणवडिए। एवं उकोसट्ठिईए वि, अजहन्नमणुक्कोसटिइएपि एवं चेव, नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिए। जहन्नगुणकालयाणं मते! के वइया पज्जवा पण्णत्ता? अणंता / से के णडे गं? गोयमा ! जहन्नगुणकालए पोग्गले, जहणगुणकालगस्स पोगलस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिए, ओगाहणट्ठयार चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, कालवन्नपज्जवेहिं तुले, अवसेसेहिं वन्नगंधफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, से तेणद्वे गोयमा ! एवं वुचइजहन्नगुणकालयाणं पोग्गलाणं अगंत पज्जवा पण्णत्ता। एवं उक्कोसगुणकालए वि, अजहन्नमणुगोस. गुणकालए वि एवं, नवरं सहाणे छट्ठाणवडिए / एवं जर कालवण्णपज्जवाणं वत्तवया भणिया तहा से साग 1 वण्णगंधरसफासाणं वत्तव्वया भाणियव्वा, जाव अजहन्नमणुक्कोसलुक्खे सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। से तं रूविअजीवपज्जतः से तं अजीवपज्जवा। द्विप्रदेशकस्कन्धसूत्रे-(ओमाहणट्टयाए सियहीणे सियतुल्ले सिय अन्मदि इत्यादि) यदा द्वावपि द्विप्रदेशको स्कन्धौ द्विदेशावगाढावेक-प्रदेशकदाई वा भवतस्तदा तुल्यावगाहनी, यदा त्वेको द्विप्रदेशावगाढ-सपाट एकप्रदेशावगाढो द्विप्रदेशवगाढापेक्षया प्रदेशहीनो, द्विप्रदेशावगा-उ तदपेक्षया प्रदेशाभ्यधिकः, शेष प्राग्वत्। त्रिप्रदेशस्कन्धसूत्रे- (ओगह याए सिय हीणे इत्यादि) यदा द्वावपि त्रिप्रदेशको स्कन्धौ त्रिप्रदेशात द्वि-प्रदेशावगाढावेकप्रदेशावगाढौ वा तदा तुल्यौ, यदा त्येकसि देशावगाढौ वा द्विप्रदेशावगाढो वाऽपरस्तु द्विप्रदेशावगाढ एक-प्रदेशातगड वा तदा द्विप्रदेशक्गादैकप्रदेशावगाढौ यथाक्रमं त्रिप्रदेशावगाढद्विप्रदेश: गाढापेक्षया एकप्रदेशहीनौ, त्रिप्रदेशावगाढद्विप्रदेशावगाढौ तु तदपेक्षा एकप्रदेशाभ्यधिको, यदा त्वेकस्त्रिप्रदेशावगाढोऽपर एकप्रदेशावगारिश शावगाढापेक्षया द्विप्रदेशहीनस्त्रिप्रदेशावगाढस्तु तदपेक्षया द्विप्रदेशान्द Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जव 227- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जव धिकः / एवमेकै कप्रदेशपरिवृद्ध्या चतुःप्रदेशाऽऽदिषु स्कन्धेष्ववगाहनामधिकृत्य हानिवृद्धिर्वा तावद्वक्तव्या यावद्दशप्रदेश कस्क-न्धः / तस्मि दशप्रदेशकस्कन्धे एवं वक्तव्यम्- "जइ हीणे पएसहीणे वा दुपएसहीण वा० जाउ नवपएसहीणे वा, अह अब्भहिए पएसमभहिए वा दुपएसमभहिए वा० जाव नवपएसमभहिए इति।" भावना पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं कर्तव्या। सङ् ख्यातप्रदेशकस्कन्धसूत्रे-(ओगाहणट्ठयाए दुट्टाणवडिढ इति) सङ्ख्येयगुणेन वेति / अयङ्ख्यातप्रदेशकस्कन्धे(ओगहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए इति) असङ्ख्यातभागेन सङ्ख्यातभागेन सङ्ग्यातगुणेनाऽसङ्ख्यातगुणेनेति / अनन्तप्रदेशस्कन्धेऽप्यगाहनार्थत्यः चतुःस्थानपतितता, अनन्तप्रदेशावगाहनयाऽसम्भवतोऽनन्तभागानन्तगुणाभ्यां वृद्धिहान्यसम्भवात्, (एगपएसोगाढाणं पोगलाप भंते ! इत्यादि) अत्र-(दव्यठ्ठयाए तुल्ले पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिए इति) इदमपि विवक्षितैकप्रदेशावगाढपरमाण्वादिकं द्रव्यमिदमध्यपरेकप्रदेशावगाद द्विप्रदेशाऽऽदिकं द्रष्टव्यमिति / द्रव्यार्थतया तुल्यता प्रदेशार्थतया षट्स्थानपतिता, अनन्तप्रदेशकस्याऽपि स्कन्धस्यैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहसंभवात्। शेषं सुगमम्। एवं स्थितिभावाऽऽथवाण्यपि सूत्राणि उपयुज्य भावनीयानि (जहन्नोगाहणाणं भंते ! दुधरसियाणमित्यादि) जघन्या द्विप्रदेशकस्य स्कन्धस्यावगाहना एकप्रदेशाऽऽत्मिका, उत्कृष्टा द्विप्रदेशाऽऽत्मिका / अत्र अपान्तरालं नास्तीति मध्यमान लभ्यते। तत उक्तम्-(अजहन्नुक्कोसोगाहणओनत्थि इति) त्रिप्रदेशकस्य जघन्याऽवगाहना एकप्रदेशरूपा, मध्यमा द्विप्रदेशरूपा, उत्कृष्टा त्रिप्रदेशरूपा / चतुःप्रदेशस्य जघन्या एकप्रदेशरूपा, उत्कृष्टा चतुःप्रदेशाऽऽत्मिका, मध्यमा द्विविधा-द्वैविध्यप्रदेशाऽऽत्मिका च, त्रिप्रदेशाऽऽस्मिका / एवं च सति मध्यमावगाहनश्चतुःप्रदेशको मध्यमावगाहनचतुःप्रदेशापेक्षया यदि हीनस्तर्हि प्रदेशतो हीनो भवति, अथान्यधिकस्वतः प्रदेशतोऽधिकः / एवं पञ्चप्रदेशाऽऽदिषु स्कन्धेषु मध्यमाव-गाहनामधिकृत्य प्रदेशपरिवृद्ध्या वृद्धि निश्च तावद्वक्तव्या यावद्दशप्रदेशके स्कन्धे सप्तप्रदेशपरिवृद्धिः / सा चैव वक्तव्या"अजहन्नमणुक्कोसोगाहणए दसपएसिए अजहन्नमणुक्कोसोगाहणस्स दसपएसियस खंधस्स ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अ०भहिए, जइ हीणे पएसहीणे दुपएसहीणे०जाव सत्तपएसहीणे, अह अभहिए पएसअब्भहिए दुपएसअन्भहिए०जाव सत्तपएसअब्भहिए।" इति। शेष सूत्र स्वयमुपरि भावनीय, सुगमत्वात्, नवरमनन्तप्रदेशकोत्कृक्षवगाहनाचिन्तायाम्-(ठिईए वि तुल्ले इति)। उत्कृष्टावगाहनः किलानन्तप्रदेशकः स्कन्धः स उच्यते यः समस्तलोकट्यापी स चाचित्तमहास्कन्धः, केवलिसमुद्धातकर्मस्कन्धो वा, तयोश्चोभयोरपि दण्डकपाट-मन्थान्तरपूरणकलक्षणश्चतुःसमयप्रमाणवेतितुल्यकालता। शेषसूत्रमापादपरिसमाप्तेः प्रागुक्तभावनानुसारेण स्वयमुपयुज्य परिभावनीयम्। प्रज्ञा०५ पद। (संहननानां पर्यायद्वारम्। निर्ग्रन्थानां परिहारविशुद्धिकस्य च पर्यायद्वारं स्वस्वथाने) आभिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानपर्यायाःकेवइया णं भंते ! आभिणिबोहियनाणपञ्जवा पण्णता? गोयमा! अणंता आभिणिबोहियनाणपज्जवा पण्णत्ता। केवइया णं भंते ! सुयनाणपज्जवा पण्णत्ता? एवं चेव, एवं०जाव केवलनाणस्स, | एवं मइअन्नाणस्स सुयअणाणस्स य / केवइया णं भंते ! विमंगनाणपज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता विभमनाणपज्जवा पण्णत्ता। आभिनिबोधिक ज्ञानस्य पर्यवाः विशेषधर्मा आभिनियोधिकज्ञानपर्यवाः, ते च द्विविधाः, स्वपरपर्यायभेदात्। तत्र येऽवग्रहाऽऽह-यो मतिविशेषाः क्षयोपशमवैवित्र्यात्ते स्वपर्यायाः ते चाऽनन्ताः / कथम्? एकस्मादवग्रहादेरन्योऽवग्रहाऽऽदिरनन्तभागवृद्ध्या विशुद्धोऽन्यस्त्वसंख्येयभागवृद्ध्याऽपरः संख्येयभागवृद्ध्या अन्यतरः संख्येयगुणवृद्ध्या तदन्योऽसंख्येयगुणवृद्ध्याऽपरस्त्वनन्तगुणवृद्ध्येति। एवं चसंख्यातस्य संख्यातभेदत्वादसंख्यातस्य चाऽसंख्यातभेदत्वादनन्तस्य चानन्तभेदत्वादनन्ता विशेषा भवन्ति, अथवा-तज्ज्ञेयस्थानन्तत्वात्प्रति ज्ञेयं च तस्य भिद्यमानत्वात्, अथवा मतिज्ञानमविभागपरिच्छेदैर्वृद्ध या छिद्यमानमनन्तखण्ड भवतीत्येवमनन्तास्तत्पर्यायाः,तथायेपदार्थान्तरपर्यायास्तेतस्य परपर्यायाः,तेचस्वपर्यायभ्योऽनन्तगुणाः, परेषामनन्तगुणत्वादिति। ननु यदि ते परपर्यायास्तदा तस्येति न व्यपदेष्टु युक्तं, परसम्बन्धित्वात् / अथ तस्य ते, तदा न परपर्यायास्ते व्यपदेष्टव्याः स्वसम्बन्धित्वादिति? अत्रोच्यतेयस्मात्तत्रासम्बद्धास्ते तस्मात्तेषां परपर्यायव्यपदेशो, यस्माच ते परित्यज्यमानत्वेन तथा स्वपर्यायाणां स्वपर्याया एतदित्येवं विशेषणहेतुत्वेन च तस्मिन्नुपयुज्यन्ते, तस्मात्तस्य पर्यवा इति व्यपदिश्यन्ते, यथा असम्बरूमपि धनं स्वधनमुपयुज्यमानत्वादिति। आह च"जइ ते परपज्जाया, न तस्य अह तस्सन परपज्जाया।" आचार्य आहजं तम्मि असंबद्धा, तो परपज्जावववएसो।।१।। चायस्रपज्जायविसे-सणाइणा तस्स जमुवजुजंति। सधणमिवासंबद्धं, हवंति तो पज्जवा तस्स / / 2 / / " इति। (केवइयाणं भंते ! सुयनाणेत्वादौ) (एवं चेव त्ति) अनन्ताःश्रुतज्ञानपर्यायाः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, तेच स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च / तत्र स्वपर्याया ये श्रुतज्ञानस्य स्वगता अक्षरश्रुताऽऽदयो भेदाः, ते चाऽनन्ताः, क्षयोपशमवैचित्र्यविषयाऽसनन्त्वाभ्यां श्रुतानुसारिणां बोधानामनन्तत्वाद विभागपलिच्छेदानन्त्याच्च, परपर्यायास्त्वनन्ताः सर्वभावानां प्रतीता एव। अथवा-श्रुतग्रन्थानुसारिज्ञानां श्रुतज्ञानं, श्रुतग्रन्थश्चाक्षराऽऽत्मकोऽक्षराणि चाऽऽकाराऽऽदीनि,तेषां चैकैकमक्षरं यथायोगमुदात्तानुदात्तस्वरितभेदात्सानुनासिकनिरनुनासिक भेदात् अल्पप्रयत्नमहाप्रयत्नभेदाऽऽदिभिश्च संयुक्तसंयोगासंयुक्तसंयोगभेदात् ट्यादि संयोगभेदाद भिधेयाऽऽनन्त्याच भिद्यमानमनन्तभेदं भवति, तेच तस्य स्वपर्यायाः परपर्यायाश्चान्ये अनन्ता एव। एवं चाऽनन्तपर्यायं तत्। आह च"एक्वेक्कमक्खरं पुण, सपरपज्जायभेयओ भिण्ण। तंसव्वदव्यपज्जा-यरासिमाण मणेयव्वं // 1 // जे लभइ केवली से-सवण्णसहिओ य पज्जवेगारो। ते तस्स सपज्जाया, सेसा परपज्जवा तस्स / / 2 / / " इति। एवं चाक्षराऽऽत्मकत्येनाक्षरपर्यायोपेकतत्यादनन्ताः श्रतज्ञानस्यपर्याया इति। एवं "जाव" त्ति करणादिददृश्यम्- "केवइयाणं भंते! ओहिनाणपजवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता ओहिनाणपज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणताओहिनाणपज्जवा पण्णत्ता। केवइयाणभंते!मणपज्जवताणपज्जवा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजव 228 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जवजायसत्थखेयण पण्णता? गोयमा ! अणंता मणपजवा पण्णत्ता / केवइया णं भंते! केवलनाणपज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता केवलनाणपज्जवा पण्णत्त ति।" तत्रावधिज्ञानस्य स्वपर्यायायेऽवधिज्ञानभेदा भवप्रत्ययक्षयोपशतिकभेदान्नानकतिर्यग्मनुष्यदेवरूमपत्वात्स्वामिभेदादसंख्यातभेदतद्विषयभूतक्षेत्रकालभेदादनन्तभेदतविषयद्रव्यपर्यायभेदादविभागपलिच्छेदाच ते चैवमनन्ता इति / मनः पर्यायज्ञानस्य केवलज्ञानस्य च स्वपर्यायाः ये स्वाम्यादिभेदेन स्वगता विशेषास्ते चानन्ता अनन्तद्रव्यपर्यायपरिच्छेदापेक्षया अविभागपलिच्छेदापेक्षया वेति। एवं मत्यज्ञानाऽऽदित्रयेऽप्यनन्तपर्यायत्वमूह्यमिति। अथ पर्यवाणामेवाल्पबहुत्वनिरूपणायाऽऽहएएसि णं मंते ! आमिणिबोहियनाणपज्जवाणं ओहिनाणपज्जवाणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं केवलनाणपज्जपाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणनाणपज्जवा, ओहिनाणपज्जवा अणंतगुणा, सुयनाणपज्जवा अणंतगुणा, आमिणिबोहियनाणपज्जवा अणंतगुणा, केवलनाणपज्जवा अणंतगुणा / एएसि णं भंते ! मइअण्णाणपज्जवाणं सुयअण्णाणविभंगनाणपज्जवाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा विभंगनाणपज्जवा, सुयअण्णाणपज्जवा अणंतगुणा, मइअण्णाणपज्जवा अणंतगुणा। एएसि णं भंते ! आमिणिबोहियनाणपज्जवाणंजाव केवलणाणपज्जवाणं मइअण्णणपज्जवाणं सुयअण्णणपज्जवाणं विभंगनाणपजवाण य कयरे कयरेजाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणनाणपज्जवा, विभंगनाणपज्जवा अणंतगुणा, ओहिनाणपज्जवा अणंतगुणा, सुयअण्णाणपज्जवा अणंतगुणा, सुयनाणपज्जवा विसेसाहिया, मइअण्णाणपज्जवा अणंतगुणा, आमिणिबोहियनाणज्जवा विसेसाहिया, केवलनाणपज्जवा अणंतगुणा, सेवं भंते भंते त्ति। (एएसि णमित्यादि) इह च स्वपर्यायापेक्षयैषामल्पबहुत्वमवसेयं, स्वपरपर्यायापेक्षया सर्वेषां तुल्यपर्यायत्वादिति / तत्र सर्वस्तोका मनःपर्यायज्ञानपर्यायाः, तस्य मनोमात्रविषयत्वात्। तेभ्योऽवधिज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, मनःपर्यायज्ञानापेक्षयाऽवधिज्ञानस्य द्रव्यपर्यायतोऽनन्तगुणविषयत्वात्। तेभ्यः श्रुतज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, ततस्तस्य रूप्यरूपिद्रव्यविषयत्वेनानन्तगुणविषयत्वात्। ततोऽप्याभिनिबोधिकज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, ततस्तस्याभिलाप्यानभिलाप्यद्रव्याऽऽदिविषयत्वेनानन्तगुणविषयत्वात्। ततः केवलज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वात् तस्येति / एवमज्ञानसूत्रेऽष्वल्पबहुत्वकारण सूत्रानुसारेणोहनीयम् / मिश्रसूत्रे तु स्तोका मनः पर्यायज्ञानपर्यायाः / इहोपपत्तिः प्राग्वत्तेभ्यो विभङ्गज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, मनः पर्यायज्ञानापेक्षया विभङ्ग स्य बहुतमविषयत्वात् / तथाहि-विभङ्गज्ञानमूवधि उपरिमग्रैवेयकादारभ्य सप्तमपृथिव्यन्ते क्षेत्रे तिर्यक्त्वासङ्ख्यातद्वीपसमुद्ररूपे क्षेत्रे यानि रूपिद्रव्याणि तानि कानिचिज्जानाति, कांश्चित्तत्पर्यायांश्च, तानि च मनः पर्यायज्ञानविषयापेक्षयाऽनन्तगुणानीति / तेभ्योऽवधि ज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, अवधेः सकलरूपिद्रव्यप्रतिद्रव्यासङ्ख्यातपर्यायविषयत्वेन विभङ्गापेक्षयाऽनन्तगुणविषयत्वात् / तेभ्योऽपि श्रुताज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, श्रुताज्ञानस्य श्रुतज्ञानवदोघाऽऽदेशेन समस्तमूर्तामूर्तद्रटसर्वपर्यायविषयत्वेनावधि-ज्ञानापेक्षयाऽनन्तगुणविषयत्वान तेभ्यः श्रुतज्ञानपर्यवा विशेषाधिकाः, केषाञ्चिच्छुताज्ञानविषयीकृतपयांयाणां विषयीकरणात् / यतो ज्ञानत्वेन स्पष्टाचभासं तत्तेभ्योऽपि मत्यज्ञानपर्यवा अनन्तगुणा यतः श्रुतज्ञानमभिलाप्यवस्तुविषयमेव, मत्यज्ञान वु तदनन्तगुणानामभिलाप्यवस्तुविषयमपीति / ततोऽपि मतिज्ञानपर्यवा विशेषाधिकाः, केषाशिदपि मत्यज्ञानविषयीकृतभावानां विषयंकरणात्तद्धि मत्यज्ञानापेक्षया स्फुटतरमिति, ततोऽपि केवलज्ञानपर्यट अनन्तगुणाः, सर्वाद्धाभाविनां समस्तद्रव्यपर्यायाणामनन्यसाधारणायभासेनावभासनादिति / भ०८ श०२ उ०। पञ्जवएक्कय न० (एयंवैकक) पर्यायविषयभूते एकके, स्था० 4 ता० उ०। (व्याख्या 'एक्क' शब्दे तृतीयभागे 2 पृष्ठे द्रष्टव्या) पज्जवकसिण न० (पर्यवकृत्स्न) चतुर्दशपूर्वाऽऽत्मके विस्तृत श्रुन "पञ्जवकसिणसमासो, पजवकसिणं तु चोद्दसा पुव्वा। सामाइययका होति समासो मुणेयव्यो। पज्जवकसिणं / तिविहं,सुत्ते अत्थे व तदुः चेव।" पं० भा०५ कल्प। पज्जवकाय पुं० (पर्यवकाय) पर्याया वस्तुधर्मा यत्र परमण्वादौ पिटिसन बहवस्तादृशे सङ्घाते, आव०५ अ०। पज्जवजात त्रि० (पर्यवजा(या) पर्यवा ज्ञानाऽऽदिविशेषा जाता रु. पर्यवजातः / आहिताग्न्यादित्वात्जातशब्दस्योत्तरपदत्वम / अधद. पर्यवान् पर्यवेषु वा यातः प्राप्तः पर्यवयातः। अथवा-पर्यवः परिरक्षा पछि परिज्ञान वा। पर्यवप्राप्ते, स्था० 1 ठा० / जातविशेषे, न० / "सुत्ते दार पज्जवजाए भविस्सइ।" स्था०५ ठा०३ उ० सूत्रार्थप्रकारे, स्था०९ ठा० 1 उ० / पर्यवोऽवस्थान्तरं जातो यत्र तत्पर्यवजातम् / का, दिके,उद्भरिते, दध्यादिना विमिश्रिते करम्बाऽऽदिके पर्यायान्तरमादिते, अयमप्यौद्देशिकभेदकृताभिधानः। प्रश्न०५ संव०द्वार। द्रव्यजा भेद, पर्यवजातं तैरेवावाग्निसृष्टभाषाद्रव्यैः यानि विश्रेणिस्थानि भा. वर्गणान्तर्गतानिसृष्टद्रव्यपरघातेन भाषापर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते, तारे द्रव्याणि पर्यवजातमित्युच्यते। आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ० 138. पज्जवजायलेस्स त्रि० (पर्यवजातलेश्य) पर्यवाः पारिशेष्या तिशृष्टिविशेषाः प्रतिसमयं जाता यस्यां सा तथा, विशुद्ध्या वर्द्धमानेत्यर्थः। लेश्या यस्मिंस्तत्तथा। बालमरणभेदे, स्था०३ ठा० 4 उ00 पज्जवजायसत्थ न० (पर्यवजातशस्त्र) शब्दाऽऽदिविषयाणां पर विशेषास्तेषु तन्निमित्तं जातशस्त्रम् / शब्दाऽऽदिविशेषाऽऽपाटकर प्राण्युपघातकार्यनुष्ठाने, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। पज्जवजायसत्थखेयण्ण पुं० (पर्यवजातशस्वस्वेदज्ञ) पर्यायान खेदज्ञः। पर्यायशस्त्रनिपुणे, यः शब्दाऽऽदिपर्यायानिष्टात्मकस्तरहारनुष्ठानं च शस्त्रभूतं चेति सोऽनुपघातकत्वात्-संयममप्यशास्त्र मात्मपरोपकारिणं नेति सूत्रितम्, "जे खेयपणे, से पज्जवजातसखेयण्णे से असत्थस्स खेयण्णे से पज्जावजात्तखेयण्णे / " आचा। श्रु०३ अ०१301 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जवट्टिय 229 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जवट्ठिय पज्जवट्ठिय पुं० (पर्यवार्थिक) पर्येत्युत्पादविनाशौ प्राप्नोतीति पर्यायः, स एतार्थः, सोऽस्ति यस्यासौ पर्यायार्थिकः / रत्ना०७ परि० / सर्वेषां भावानामनित्यताऽभ्युपगन्तरि मूलनयभेदे, सम्म०१काण्ड। ("मूलणियमंण पज्जवणयस्स्उज्जुसुयवयणविच्छेदो / तस्स उ सद्दाईया, साहपसाहा सुहुमभेया // 5 // " इति गाथा 'दव्वट्ठिय' शब्दे चतुर्थभागे 2468 पृष्ठ व्याख्याता) (तथा 'ण य दव्ववियपक्खे, संसारो णेव परवणयस्स / सासयवियत्तिवाई,जम्हा उच्छेअवाई य।।१७।।" इयं 'गाय' शब्दे चतुर्थभागे 1860 पृष्ठे व्याख्याता) पर्यायार्थिक प्रपञ्चयन्तिपर्यायार्थिकश्चतुर्धा-ऋजुसूत्रः,शब्दः, समभिरूढः, एवंभूतबेति // 27 // रत्ना०७ परि०। (ऋजुसूत्राऽऽदीनां घ्याख्यातु स्वस्वस्थाने) पर्यायार्थिक एवापि, मुख्यवृत्त्याऽत्र भेदताम्। उपचारानुभूतिभ्यां, मनुतेऽभेदतां त्रिषु / / 3 / / (पर्यायेति) पर्यायार्थिकनयः एवाऽपि एवमेवंप्रकारेणोक्तलक्षणेन, मुखवृत्त्या प्रधानव्यापारेण,अत्र द्रव्यगुणपर्यायेषु, भेदतां भेदभावं ज्ञापयति, यतश्चैतस्य नयस्य मते मृदादिपदस्य द्रव्यमित्यर्थः 1, रूपाऽऽदिपदस्य गुण इत्यर्थः२, घटाऽऽदिपदस्य कम्बुग्रीवपृथुबुध्नाऽऽदिपर्याय इत्यर्थः 3, इत्थं त्रयाणामपि मिथो नामाऽनन्तरकल्पना भिन्नाऽभिन्ना प्रदर्शिता, अतो द्रव्यगुणपर्यायाणां प्राधान्येन भेदोऽस्तीति ध्येयम्। तथा उनः-उपचारानुभूतिभ्यामुपचारो लक्षणा, अनुभूतिरतुभवः, उपचारश्चानुभूतिश्च ताभ्यां पर्यायार्थिकनयोऽपि अभेदताम् अभेदभावं द्रव्याऽऽदिषु त्रिषु मनुते। यतः घटाऽऽदिमृद्रव्याऽऽद्यभिन्नमेवाऽऽस्ते, लक्षणयाज्ञानेन चेति इमां प्रतीति घटाऽऽदिपदानां मृदादिद्रव्येषु लक्षणाप्रवृत्त्याऽङ्गीकुर्वता न कदाऽपि क्षतिरिति भावार्थः // 3 / / द्रव्या०५ अध्या०॥ पर्यायार्थिकषड्भेदानाहपर्यायार्थिकषड्भेद-स्तत्राऽऽद्योऽनादनित्यकः। पुद्गलानां तु पर्यायो, मेरुशैल इवाऽचलः // 2 / / (पति) पर्यायार्थिवश्वाऽसौ षड्भेदश्च पर्यायार्थिकषड्भेदः, पर्यायार्थिको नयः षटप्रकार इत्यर्थः / तत्र तेषु षट्सु भेदेषु, आद्यः प्रथमो भेदः, अनादिनित्यकः शुद्धहपर्यायार्थिकः कथ्यते। न विद्यते आदिर्यस्यानादिः पूर्वकल्पनारहितः, उत्पत्त्यभावात्, नित्य एव नित्यकः, स्वार्थे कः, सदैकम्वभावः, अनश्वरत्वात्, अनादिश्च नित्यकश्चेति द्वन्द्वः / अयं च शुद्धपर्यायार्थिकः प्रथमः। क इव ? अचलो मेरुगिरिवि यथा मेरुः पुद्गलपर्यायण प्रवाहतोऽनादिनित्यकोऽस्तिअसङ्ख्यातकाले अन्योऽन्यपुद्गलसंक्रनेणाऽपि संस्थानतः स एव मेरुर्वर्तते, एवं रत्नप्रभाऽऽदीनामपि पृथ्वीपर्याया ज्ञातव्या इति।। अथ द्वितीयः पर्यायार्थिकस्य कथ्यतेपर्यायार्थिकः सादि-नित्यः सिद्धस्वरूपवत्। (पर्यायेति) पर्यायार्थिको द्वितीयः साऽऽदिः आदिसहितः, पुनर्नित्यः, किंवत् ? सिद्धस्वरूपवत्, यथा-सिद्धस्य पर्यायः सादिरस्ति, उत्पत्तिमत्वात्, सर्वकर्मक्षयात्सिद्धपर्याय उत्पन्न, परंतु नित्योऽविनश्वरत्वात् सिद्धपर्यायः सदाकालावस्थितो लभ्यते, राजपर्यायसमं सिद्धपर्यायद्रव्यं भावनीयम्। अथ तृतीयं पर्यायार्थिकं श्लोकार्द्धन, पुनरग्रेतनश्लोकार्द्धनाऽऽहसत्तागौणतयोत्पाद-व्यययुक् सदनित्यकः // 3 // सत्तागौणतयाऽध्रुवत्वेन उत्पादव्ययग्राहकः सदनित्यकः संश्वासावनित्यकश्च अनित्यशुद्धपर्यायार्थिकः कथ्यते,सद्शब्देन यदा शुद्धमित्यर्थस्तदा अनित्यशुद्धपर्यायार्थिको भवति / कीदृशः? उत्पादव्यययुक्उत्पादश्व व्ययश्च उत्पादव्ययौ ताभ्यां युक् सहिताः-सतो हि वस्तुन उत्पादव्ययौ पर्यायेण भवतः, तस्मात्सत्तागौणतया सत्ताया अप्राधान्येन उत्पादव्यययोः प्राधान्येन अनित्यशुद्धपर्यायार्थिकः / / 3 / / तत्र दृष्टान्तमाहएकस्मिन्समये यदत्, पर्यायो नश्वरो भवेत्। एकस्मिन्समये पर्यायो नश्वरः पर्यायो विनाशी भवेत् यद्वद्, शब्दो यथा पर्यायवाचकः, अत्र हि नाशं कथयतः पर्यायस्य उत्पादोऽपि आगतः परं ध्रौव्यं तु गौणत्वेन निदर्शितं,"प्राधान्याप्राधान्ययोः प्राधान्यविधिर्बलीयान।" तस्माद्यस्य प्रधानत्वं तस्यैवोत्पत्तिनाशयोः समावेशः, सत्ता हि ध्रुवे नाशे च विचरन्ती आत्मनो गौणत्वव्यपदेशि वर्तमानत्वमुभयत्र निक्षिपति इति। अथ चतुर्थभेदमुपदिशन्नाहसत्तां गृह्णन् चतुर्थाऽऽख्यो, नित्योऽशुद्ध उदीरितः॥४।। (सत्तेति) दत्तां ध्रुवत्वं गृह्णन् अङ्गीकुर्वन् चतुर्थाऽऽख्यश्चतुर्थो भेदो नित्योऽशुद्धपर्यार्थिक उदीरितः कथित इति श्लोकार्थः / / 4 / / अथामुमेव दृष्टान्तेन द्रढयतियथोत्पादव्ययध्रौव्य-रूपैः शुद्धः स्वपर्यवः। एकस्मिन्समयेऽथातः, पर्यायार्थिकपञ्चमः॥५।। (यथेति) यथा एकसमयमध्ये स्वपर्यायो रूपत्रययुक्त उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणैः शुद्धः / किं च-कोऽपि पर्यव उत्तरचरो रूपाऽऽदिः पाकानुकूलघटे श्यामवर्णः पूर्वचरो नष्टस्तत उत्तरो रक्तवर्ण इति प्रश्नः-रूपी घटः श्यामो वा रक्तो वेति / वितळमाण:सत्तया तथाऽऽकारपरिणतपर्यवः प्राप्यते इति / अत्र हि पर्यायस्य शुद्धरूपं सत्ता, सा यदि गृह्यते तदा नित्याशुद्धपर्यायार्थिको भवति, सत्तादर्शनमेवाशुद्धमिति / अथ पञ्चम भेदीत्कीर्तनं करोति (अथेति) अथातः परंपर्यायार्थिकः पञ्चमो ज्ञेयः / / 5 / / कर्मोपाधिविनिर्मुक्तो, नित्यः शुद्धः प्रकीर्तितः। यथा सिद्धस्य पर्यायैः, समो जन्तुर्भवी शुचिः।।६।। नित्यशुद्धपर्यायार्थिकोऽस्ति। कीदृशः? कर्मोपाधिविनिर्मुक्त:-कर्मण उपाधिकानामन्यद्रव्याणां कुतश्चित्संगतानामुपधिः साहचर्य, तेन विनिर्मुक्तो रहितः कर्मोपाधिविनिर्मुक्तः। (यथेति) यथाशब्देन दृष्टान्तविषयीकरोति-यथाभवीभवः संसारोऽस्तीति भवी संसारी, जन्तुःप्राणी, सिद्धस्य कर्मोपाधिविनिर्मुक्तस्य सिद्धस्य, पर्यायैः समः शुचिर्निर्मल: संसारे संसरतः प्राणिनोऽष्टापि कर्माणि सन्ति, तानि च विचार्यमाणान्युपाधिरूपाणि वर्तन्ते, यद्वत् अग्नेः शुद्धद्रव्यस्थाऽऽर्दैन्धनसंयोगजनितो धूम औपाधिक एव संभाव्यते तद्वदिहापि विद्यमानान्यपि कर्माणि अनात्मगुणत्वेनौपाधिकानि सन्ति, अतस्तेभ्यो युक्तोऽपि अयुक्ततया विचिन्त्यमानः प्राणी सिद्ध एवेति कर्मोपाधिभावः सन्नपिन विवक्षणीयः। अथ च ज्ञानदर्शनचारित्राणि छन्नान्यपि बहिः प्रकटतया विवक्षितानि ततो नित्यशुद्धपर्यायार्थिकभेदस्य भावना संपद्यते।।६।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जवट्ठिय 230 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जा अथ पर्यायार्थिकस्य षष्ठभेदोपकीतेनमाह आह-गुणपर्याययोः कः प्रतिविशेषः? उच्यते-सदैव सहवतिअशुद्धश्च तथाऽनित्य-पर्यायार्थिकोऽन्तिमः। त्वाद्वर्णगन्धरसाऽऽदयः सामान्येन गुणा उच्यन्ते / न हि मूर्ते वस्तुनि यथा संसारिणः कर्मो-पाधिसापेक्षिकं जनुः / / 7 / / वर्णाऽऽदिकमात्र कदाचिदपि व्यवच्छिद्यते एकगुणकालत्वाऽऽदयस्तु (अशुद्धति) कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो विनश्वरत्वादनित्यः एवमनित्य- द्विगुणकालत्वाऽऽद्यवस्थायां निवर्तन्ते एवेत्यतः क्रमवृत्तित्वात्पर्यायाः। मादौ कृत्वा अशुद्धं ततो योजयित्वा पर्यायार्थिक पदेन समुच्चार्यते तदा उक्तं च- "सह वर्तिनो गुणाः, यथा जीवस्य चैतन्यामूर्त्तत्वाऽऽदयः / षष्ठोऽन्तिमो भेदोऽनित्याशुद्धपर्यायार्थिको निष्पद्यते। अथ तस्योदाहरण- क्रमवर्तिनः पर्यायाः, यथा तस्यैव नार-कत्वतिर्यगादय इति। ननु योद माह-यथा संसारिणः संसारवासिजनस्य जनुर्जन्म कर्मोपाधिसापेक्षिक तर्हि वर्णाऽऽदिसामान्यस्य भवतु गुणत्वं तद्विशेषाणां तु कृष्णाऽऽदीनां प्रवर्तते, जन्ममरणव्याधयो वर्तमानाः पर्यायाः अनित्या उत्पत्तिविनाश- स्यात् अनियतत्वात्तेषाम्? सत्यम् / वर्णाऽऽदिसामान्यभेदानामनि शालित्वात, पुनरशुद्धाः कर्मसंयोगजनितत्वत् भवस्थितानां प्राणिनां कृष्णनीलाऽऽदीनां प्रायः प्रभूतकालं सहवर्तित्वात् गुणत्वं विवक्षितभवन्तीति। अत एव मोक्षार्थिनो जीवाः जन्माऽऽदिपर्यायाणां विनाशाय मित्यलं विस्तरेण। ज्ञानाऽऽदिना मोक्षे यतन्ते, तस्मात् कर्माण्यनित्यानि अशुद्धानि, तैः आह- भवत्वेवं, किन्तु पुद्गलादिकायद्रव्यस्यैव संबन्धिना गुणपर्यायः सापेक्षिक जन्माऽऽद्यपि अनित्यमशुद्धं चेत्यं योजनया निष्पन्नो नयोऽपि किमिति गुणपर्यायनामत्वेनोदाहृताः? न धर्मास्तिकायाऽऽदीनाम्, अनित्याशुद्धपर्यायार्थिकः कथ्यते इत्यर्थः // 7 // द्रव्या०६ अध्या० / च वक्तव्यं तेषा ते न सन्तीति, धर्माधर्माऽऽकाशजीवकालद्रव्येष्वनि (पर्यायार्थिकनयमतं सामायिकोदाहरणेन 'सामाइय' शब्दे) (पर्यायार्थि- यथाक्रम गतिस्थित्यवगाहोपयोगवर्तमानाऽऽदिगुणानां प्रत्येकमनन्ताकनयविषये विशेषः 'सुद्धपज्जवट्ठिय णयमत' शब्दे दर्शयिष्यते) नामगुरुलघुपर्यायाणांच प्रसिद्धत्वात् ? सत्यं, किन्त्विन्द्रियप्रत्यक्षगम्यपज्जवणयपुं० (पर्यवनय) परिसमन्तादवनमवः पर्यवी विशेषः, तज्ज्ञाता त्वात् सुप्रतिपाद्यतया पुद्गलद्रव्यस्यैव गुणपर्याया उदाहृता - वक्ता या नयो नीतिः पर्यवनयः / पर्यायार्थिकनये, "दव्वडिओ य पजव- शेषाणामित्यलं विस्तरेण, तस्माद्यत्किमपि नाम तेन सर्वेणापि द्रव्यनाम्न ठिओ य सेसा विपज्जासि।" सम्म०१ काण्ड / आव० / विशेषाणा- गुणनाम्ना पर्यायनाम्ना वा भवितव्यं,गातः परं किमपि नामास्ति, टनः मुपपत्तिबलात्परिच्छेदे,सम्म०१ काण्ड। सर्वस्यैवानेन संग्रहात् त्रिनामैतदुच्यत इति। अनु०। पज्जवणाम न० (पर्यवनामन) नामभेदे, अनु० / पज्जवणिस्सामण्ण न० (पर्यायनिःसामान्य) पर्यायाद् निष्क्रान्त से किं तं पज्जवणामे ? पज्जवणामे एगगुणकालए दुगुणकालए तद्विकलं सामान्य संग्रहस्वरूपं यस्मिन्वचने तत्पर्यायनिः सामान्यम् तिगुणकालए०जाव दसगुणकालए सं खिजगुणकालए पर्यायऋजुसूत्रनयविषयादन्यो द्रव्यत्वाऽऽदिविशेषः, स एव निधिअसं खिज्जगुणकालए अणंतगुणकालए, एवं नीललोहि- सामान्यं वचनम् / द्रव्यत्वाऽऽदिसामान्यविशेषाभिधायिनि द्रव्यार्थिकअहालिहसुकिल्ला विभाणियव्वा / एगगुणसुरभिगंधे दुगुणसुर- रूपप्रतिपादके वचने, सम्म०१ काण्ड। ("पज्जवनिस्सामण्ण(७)" भिगंधे तिगुणसुरभिगंधे०जाव अणंतगुणसुरभिगंधे / एवं इत्यादिगाथायाः 'णया' शब्दे चतुर्थभागे 1888 पृष्ठे विस्तरः) दुरमिगंधो विभाणियव्वो। एगगुणतित्ते जाव अणंतगुणतित्ते / पज्जववाइ पुं० (पर्यायवादिन) पर्यायनयमतानुसारिणि नयविश एवं कडुअकसायअंबिलमहुरा वि भाणिअव्वा। एगगुणकक्खडे० "उत्पत्तिविगमध्रौव्य-ख्यापक संप्रचक्षते / उत्पत्तिविगमात्र, म जाव अणंतगुणकक्खडे / एवं मउअगरु-अलहुअसीतउसिण- पर्यायवादिनः / / 1 / / " उत्त०१ अ०। णिद्धलुक्खा वि भाणिअव्वा / से त्तं पज्जवनामे / पज्जवसाण न० (पर्यवसान) निष्ठाफले, प्रश्न०४ सम्ब० द्वार। अन्ते, परिः समन्तादवन्त्यपगच्छन्ति, न तु द्रव्यवत् सर्वदैवावतिष्ठन्त इति स्था०२ठा०१ उ०। पर्यवाः / अथवा-परिः समन्तादवनानि गमनानि द्रव्यस्था-वस्थान्तर- पज्जवसिय न० (पर्यवसित) पर्यवसानं पर्यवसितम्। भावेक्त प्रत्ययः। नः प्राप्तिरूपाणि पर्यवा एकगुणकालत्याऽऽदयः, तेषां नाम पर्यवनाम। यत्र स्था०। समाधिमरणतोऽपुनर्मरणतो वाऽनशने, स्था०३ ठा०४३०' तु पर्यायनामेति पाठः, तत्र परिः समन्तादयन्तेऽपगच्छन्ति न | पज्जा स्त्री० (प्रज्ञा)"ज्ञोञः"||२१८३॥ इति ज्ञसंबन्धिनो शर पुनर्द्रव्यवत्सर्वदैव तिष्ठन्तीति पर्यायाः ।अथवा-परिः सामास्त्येन | लुक् / जद्वित्वे। पञ्जा।लुक्यभावे णः। पण्णा। प्रकृष्टबुद्धौ, प्रा०२ पाद एत्यभिगच्छति व्याप्नोति वस्तुतामिति पर्याया एकगुणकालत्वाऽऽदय *पद्या स्त्री० अधिकारे, 'पज्जा अहिगारो।' पाई० 238 गाथा अदिएव, तेषां नाम पर्यायनामेति। तत्रेह गुणशब्र्दोऽशपर्यायः, ततश्च सर्वस्यापि ___ रोहिण्याम्, दे० ना०६ वर्ग। त्रैलोक्यगतकालत्वस्या-सत्कल्पनया पिण्डितस्य य एकः-सर्वजघन्यो | पजाअ पुं० (पर्याय) परि समन्तादयन्तेऽपगच्छन्ति न पुनद्रव्यवत्सदैगुर्णोऽशस्तेन कालकः परमाण्वादिरेकगुणकालकः-सर्वजघन्यकृष्ण तिष्ठन्तीति पर्यायाः अथवा-परि सामस्त्येन एत्यभिगच्छति व्याप्रोति इति / द्वाभ्यां गुणाभ्यां तदभ्यां कालकः परमाण्वादिरेव द्विगुणकालकः। वस्तूनामिति पर्यायाः।"द्यय्याज्जः " ||8/2 / 24 / इति यस्था: एवंतावद् नेयं यावदनन्तैर्गुणैस्तदंशैः कालकोऽनन्तगुणकालकः स एवेति, ज्जः। एकगुणकालत्वादिषु, अनु०। अजीवानां मानुषत्वबाल्याऽऽदे? एवमुक्तानुसारेणैकगुणनीलकाऽऽदीनामेकगुणसुरभिगन्धाऽऽदीनां च च जीवानां कालकृताऽवस्थालक्षणेष्वर्थेषु, स्था० 10 ठा० / पर्याद सर्वत्र भावना कार्येति। भेदा धर्माः, बाह्यवस्त्वालोचनाप्रकारा इत्यर्थः / आ०म०१ अ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जाअ का पर्यायो विशेषो धर्म इत्यनर्थान्तरम्। स्था० 4 ठा०२ उ०। अनु०। विश० / स्वपरपर्यायाऽऽदयोऽनेकप्रकाराः पर्यायाः।विशे। ते चे पर्याया द्विविधा:-रूपरसाऽऽदयो युगपद्भाविनो, नवपुराणाऽऽदयस्तु क्रमभाविनः / पुनः शब्दार्थपर्यायभेदात्सर्वेऽपि द्विविधाः। तत्र इन्द्रो दुश्च्यवनो हरिरित्यादिशब्दैथेऽभिलप्यन्त ते सर्वेऽपि शब्दपर्यायाः। ये त्वमिलापयितुं न शक्यन्त शृतज्ञानविषयत्वादतिक्रान्ताः केवलाऽऽदिज्ञानविषयास्तेऽर्थपर्यायः / पुनरेत द्विविधाः-स्वपर्यायाः, परपर्यायाश्च / पुनस्तेऽपि केचिस्वाभाषिकाः, केचित्पूर्वापराऽऽदिशब्दतयाऽपेक्षिकाः। पुनरेते सर्वेऽप्यतोतानागतवर्तमानकालभेदात्त्रिविधाः / विशे० / नं० / आ०म०। (अक्षरस्य के स्वपर्यायाः के परपर्याया इति 'अक्खर' शब्दे प्रथमभागे 141 पृष्ठे उक्तम्) गुणपर्याययोर्भेदः-सहवर्तिनो गुणाः, क्रमवर्तिनस्तु पर्यायाः / अ०म० 1 अ०। सहवर्तिनो गुणाः शुक्लत्वाऽऽदयः। क्रमवर्तिनः पर्याय नवपुराणाऽऽदयः। आ०म०१ अ०। (इति 'गुण' शब्दे तृतीयभागे 106 पृष्ठे विन्तरः) दूरे ता अण्णत्तं, गुणसद्दे चेव जाव पारिच्छं। किं पज्जवाहिए हो-ज्ज पज्जवे चेव गुणसण्णा ||6|| दूरे तादल गुणगुणिनोकरेकान्तेनान्यत्वम्, असंभावनीयमिति, यावदगुणाऽऽत्मकद्रव्यप्रत्ययबाधितत्वादेकान्तगुणगुणिभेदस्य। न च समवायनिमित्तोऽयमभेदपारोक्ष्यमस्ति / किं पर्यायादधिक गुणशब्द उत पर्याय एव प्रयुक्त इति अभिप्रायश्चन पर्यायादन्यो गुणः, पर्यायश्च कंथश्चिद् द्रव्याऽऽत्मकम् इति विकल्पः कृतः। यदि पर्यायाः गुणसंज्ञाः ततः / दो पुण नया भगवया, दव्वट्ठियपज्जवट्ठिया नियया। एतो य गुणविसेसे, गुणट्ठियणओ वि जुजंतो।।१०।। द्रायेव मूलनयौ भगवता द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको नियमितौ तत्रातः पर्यायादधिके गुणविशेष ग्राह्ये सति तद्ग्राहकगुणास्तिकनयोऽपि नियमितुं युज्यमानः स्यात्, अन्यथा अव्यापकत्वं नयानां भवेत्, अर्हतो वा तदपरिज्ञानं प्रसज्येत। नच भगवताऽसावुक्त इत्याहजं च पुण अरिहया ते-सु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं / - पज्जवसण्णा णियया, वागरिया तेण पज्जाया // 11 // यतः पुनर्भगवता तस्मिस्तस्मिन्सुत्रे "वण्णपज्जवेहिं गंधपञ्जवेहि'' इत्यादिना पर्यायसंज्ञा नियमिता वर्णाऽऽदिसुगौतमाऽऽदिभ्यो व्याकृता, ततः पर्याया एव वर्णाऽऽदयो गुणा इत्यभिप्रायः। अथ तत्र गुण एव पर्यायशब्देन कस्तुल्यार्थत्वादागमाच्चय एव पर्यायःस एव गुण इत्यादिकात्॥११॥ एतदेवाऽऽहपरिगमणं पज्जाओ, अणेगकरणं गुणो त्ति एगत्थं / तह वि न गुण त्ति, भण्णइ, पज्जवणयदेसणं जम्हा / / 12 / / परि समन्तात्सहभाविभिः, क्रमभाविभिश्च भेदैर्वस्तुतः परिणतस्य गमनं परिच्छेदो यः सपर्यायो विषयविषयिणोरभेदेनैकरूपतया वस्तुनः करणं करोतेानार्थत्वाज्ज्ञानं, विषयविषयिणोरभेदादेव गुण इति तुल्यार्थी गुणपर्यायशब्दौ तथाऽपि न गुणार्थिक इत्यभिहितस्तीर्थकृता, | पर्यायनयद्वारेणेव देशनायस्मात कृता भगवतेति। गुणद्वारेणाऽपि देशनायां भगवतः प्रवृत्तिरुपन्यस्यते, न गुणाभाव इत्याहजंपति अस्थि समये, एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो। रूवाईपरिणामो, भण्णइ तम्हा गुणविसेसो।।१३।। जल्पन्ति द्रव्यगुणान्यत्ववादिनो-विद्यत एव सिद्धान्ते "एगगुणकालए दुगुणकालए" इत्यादि रूपाऽऽदौ व्यपदेशस्तस्माद् रूपाऽऽदिर्गुणविशेष एवेत्यस्ति गुणाथिको नय उद्दिष्टश्च भगवतेति। ___ अत्राऽऽह सिद्धान्तवादीगुणसद्दमंतरेण वि, तंतु पज्जवविसेससंखाणं / सिज्झइ णवरं संखा-ण सत्थधम्मो न य गुणो ति॥१४|| रूपाऽऽद्यपि गुणशब्दव्यतिरेकेणाप्येकगुणकाल इत्यादि (?) तत्तु पर्यायविशेषसंख्यावाचकं वचः सिध्यति, न पुनः गुणास्तिकनयप्रतिपादकत्वेन,यतः संख्यानं न गुणः शास्त्रधर्मत्वादस्येत्यर्थः। दृष्टान्तद्वारेणामुमेवार्थ दृढीकर्तुमाहजह दससु दसगुणम्मिय, एगम्मिय दसत्तणं समं चेव / अहियम्मि वि गुणसद्दे, तहेव एयं पिदट्ठध्वं // 15|| यथा दएसु द्रव्येषु एकस्मिन् वा द्रव्ये दशगुणिते गुणशब्दातिरेकेऽपि दशत्वं सममेव तथैवैतदपि न विद्यते परमाणुरेकगुणकृष्णाऽऽदिरित्येकाऽऽदिशब्दाऽऽधिक्ये गुणपर्यायशब्दयोः, वस्तु पुनस्तयोः तुल्यमिति भावः, न च गुणानां पर्यायत्वे वाचकमुख्यसूत्रं गुणपर्यायवद् द्रव्यमिति विरुध्यते, युगपदयुगपत्भाविपर्यायविशेषप्रतिपादनार्थत्वात् तस्य / न चैवमपि मतुब्योगाव्यविभिन्नपर्यायसिद्धिर्नित्ययोगेऽत्र मतुविधानात्, द्रव्यपर्यययोस्तादात्म्यात् सदा विनिर्भागवर्तित्वात्। अन्यथा प्रमाणबाधोपपत्तेः संज्ञासंख्यास्वलक्ष्णार्थक्रियाभेदादा कथञ्चित्तयोरभेदेऽपि भेदसिद्धर्न मतुबनुपपत्तिः। एवं द्रव्यपर्याययोर्भदैकान्तप्रतिषेधे अभेदैकान्तवाद्याहएगंतपक्खवाओ, जो पुण दव्वगुणजाइभेयम्मि। अह पुट्वं पडिकुट्ठो, उ आहरणमेत्तमेयं तु // 16 // एकान्तव्यतिरिक्ताभ्युपगमवादो यः पुनद्रव्यगुणजातिभेदेषु स यद्यपि पूर्वमेव प्रतिक्षिप्तोऽभेदैकान्तग्राहकप्रामाण्यात, अभेदग्राहकस्य च सर्व पिअपुत्तनत्तिभज्जय-भाऊणं एगपुरिससंबंधो। ण य से एगस्स पिउ, त्ति सेसयाणं पिया होइ।।१७।। पितृपुत्रनतृभागिनेयभ्रातृभिर्य एकस्य पुरुषस्य संबन्धस्तेनासावेक एव पित्रादिव्यपदेशमासादयति / न चासावेकस्य पितापुत्रसंबन्ध इति शेषाणामपि पिता भवति। जह संबंधिविसिट्ठो, सो पुरिसो पुरिसमावणिरइसओ। तह दध्वमिंदियगयं, रूवाइविसेसणं लहइ / / 18 / / यथा प्राग दर्शितइतिसंबन्धविशिष्ट : पित्रादिव्यपदेशमाश्रित्याऽसौ पुरुषः पुरुषरूपतया निरतिशयोऽपि संस्तथा द्रव्यमपि इन्द्रियगतं घ्राणरसनचक्षुस्त्वक् श्रोत्रसंबन्धभवाप्य रूपरसगन्धस्पर्शशब्दव्य पदैशमात्र लभते द्रव्यस्वरूपेणाविशिष्ट मपि, न हि Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जाअ 232- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जा शक्रेन्द्राऽऽदिशब्दभेदागीर्वाणनाथस्येव रूपाऽऽदिशब्दभेदाद्वस्तुभेदो युक्तः, तदा द्रव्याद्वैतैकान्तस्थितेः कथञ्चित् भेदवादो द्रव्यगुणयोमिथ्यावाद इति // 18 // अस्य निराकरणायाऽऽहहोज्जा हि दुगुणमहुरं, अणंतगुणकालयं तु जं दव्वं / न उडहरओ महल्लो, होई संबंधओ पुरिसो॥१६॥ यदि नामाऽऽम्राऽऽदिद्रव्यमेव रसनसंबन्धाद्रस इति व्यदेशमासादयेत् द्विगुणमधुररसः कुतो भवेत् ? तथा नयनसंबन्धाद्यदि नाम कृष्णमिति भवेदनन्तगुणकृष्णं तत् कुतः स्यात्? वैषम्यभेदावगतेनयनाऽऽदिसंबन्धभानादसंभवात् / तथा पुत्राऽऽदिसंबन्धद्वारेण पित्रादिरेव पुरुषो भवेत्, न त्वल्पो महान्वेति युक्तः, विशेषप्रतिपत्तेरुपचितत्वे मिथ्यात्वे वा सामान्यप्रतिपत्तावपि तथा प्रसक्तेरिति भावः। अत्राऽऽह भेदैकान्तवादीभण्णइ संबंवसा, जइ संबंधित्तणं अणुमयं ते। नणु संबंधविसेसे, संबंधिविसेसणं सिद्धं ? / / 20 / / सबंन्धिसामान्यवशात् यदि संबन्धित्वसामान्यमनुमतं तव, ननु संबन्धविशेषद्वारेण तथैव संबन्धिविशेषोऽपि किं नाभ्युपगम्यते? सिद्धान्तवाद्याहजुज्जइ संबंधवसा, संबंधिविसेसणं ण पुण एयं / णयणाइविसेसगओ,रूवाइविसेसपरिणामो॥२१।। संबन्धविशेषवशात् युज्यते संबन्धिविशेषः यथा-दण्डाऽऽदि-संबन्धविशेषजनितसंबन्धिविशेषसमासादितः संबन्धिविशेषोऽवगतः / द्रव्याद्वैतवादिनस्तु संबन्धिविशेषनाऽपि संबन्धिविशेषः संगच्छते इति कुतो रसनाऽऽदिविशेषसंबन्धजनितो रसाऽऽदिविशेषपरिणामः (1) / नन्वनेकान्तवादिनोऽपि रूपरसाऽऽदेरनन्तद्विगुणाऽऽदिवैषम्यपरिणतिः कथमुपपन्नेत्याहभन्नइ विसमपरिणयं, कह एवं होहिइ ति उवणीयं / तं होइ परणिमित्तं, न व त्ति एत्थ स्थि एगंतो॥२२॥ शीतोष्णस्पर्शवदे कत्रैकदा विरोधात् भण्यते एकत्राऽऽम्रफलाऽऽदौ विषमपरिणतिः कथं भवतीति परेण प्रेरिते उपनीतं प्रदर्शितमातेन, तद्भवति परनिमित्तं द्रव्यक्षेत्रकालभावानां सहकारिणां वैचित्र्यात् आसादयति तदाऽऽम्रादि वस्तु विषमरूपतया परनिमित्तं भवति, न वा परनिमित्तमेवं तत्राप्येकान्तोऽस्मि, स्वरूपस्याऽपि कथञ्चिन्निमित्तत्यात्, तन्न द्रव्याद्वैतैकान्तः संभवी, द्रव्यगुणयोर्भेदैकान्तवादिना प्राक् प्रदर्शिततल्लक्षणस्यैकत्वप्रतिपत्त्यध्यक्षबाधितत्वाल्लक्षणान्तरं वक्तव्यम्। तदाहदव्वस्स ठिई जम्म वि-गमो य गुणलक्खणं तु वत्तव्वं / एवं सइ केवलिणो, जुज्जइ तं णो उ दवियस्स // 23 // द्रव्यस्य लक्षणं स्थितिः, जन्म विगमो लक्षणं गुणानाम, एवं सति केवलिनो युज्यत एतल्लक्षणं, तत्र किल केवलाऽऽत्मना स्थित एव चेतनाचेतनरूपा अन्येऽथा ज्ञेयभावनोत्पद्यन्ते अज्ञेयरूपतश्चा ऽऽदिवत् (?) कथंवा केवलिनः सकलज्ञेयग्राहिणो नैतल्लक्षणं युज्यते नचाऽपि द्रव्यस्याचेतनस्य गुणगुणिनोरत्यन्तभेदे असत्याऽऽपत्तेरसतोश्च खरविषाणाऽऽदेरिव लक्षणासंभवात् इति द्रव्यार्थान्तरभूतगुणवादिनः। दव्वत्थंतरभूया, मुत्ताऽमुत्ता व ते गुणा होज्जा? | जइ मुत्ता परमाणु, णत्थि अ सुत्तेसु अग्गहणं // 24|| द्रव्यादर्थान्तरभूता गुणा मूर्ता अमूर्ता वा भवेयुः? यदि मूर्ताः, परमाद न तर्हि परमाणवो भवन्ति, मूर्तिमद्रूपाऽऽद्याधारत्वात्. अनेकप्रदेशकस्कन्धद्रव्यवत्। अथाऽमूर्ताः, अग्रहणं तेषां, कथञ्चित् भेदः, यथाक्रसमेकानेक प्रत्ययावसे यत्वात्, कथशिदभेदोऽपि, रूपाऽऽहद्यात्मनः स्वरूपस्य रूपाऽऽदीनां च द्रव्याऽऽत्मकतया प्रतीतेरन्यथा तदभावऽऽपत्तेः। ततःसीसमईवित्थारण-मित्तत्थोऽयं को समुल्लवो। इहरा कहामुहं चे-व नत्थि एवं ससमयम्मि / / 25 / / शिष्यबुद्धिविकाशनमात्रार्थोऽयं कृतः प्रबन्धः, इतरथा कथनं चैत्रनास्ति स्वसिद्धान्तकिमेते गुणाः गुणिनो भिन्ना आहोश्विदभिन्ना इति' अनेकान्ताऽऽत्मकत्वात्सकलवस्तुनः। एवंरूपे च वस्तुतत्त्वे अन्यथारूपं तत्प्रतिपादयन्तो मिथ्याटादिन भवन्तीत्याहन वि अत्थि अन्नवादो, नवितव्वाओ जिनोवएसम्मि / तं चेव य मन्नता, अवमन्नंता नयाणं ति // 26 // नैवास्त्यन्यवादो गुणगुणिनो प्यनन्यवादो, जिनोपदेशे द्वादशाई प्रवचने, सर्वत्र कथचिदित्याश्रयणात् तदेवान्यदेवेति वा मन्यमान आगममेवावमन्यमाना वादिनोऽभ्युपगतविषयावज्ञावधायित्वादनाभवन्ति, अभ्युपगमनीयवस्त्वस्तित्वप्रतिपादकोपायनिमित्तापरे. ज्ञानात्, मृषावादिवदिति तात्पर्यार्थः / सम्म० 3 काण्ड। परस्परं द्रव्यपर्याययोरत्यन्तं भेदः ? इत्यत्र युक्तिमाहउप्पायाइसहावा, पज्जाया जंच सासयं दव्वं / ते तप्पभवा न तयं, तप्पभवं तेण ते भिन्ना / / 2652 // (उप्पायेत्यादि) यस्मादुत्पादव्ययपरिणामस्वभावाः पर्यायाः, शाका नित्यं पुनर्द्रव्यम्। अपरं च-ते गुणास्तत्प्रभवा द्रव्यालब्धाऽऽत्मलाभः न पुनस्तद्रव्यं तत्प्रभव गुणेभ्यो लब्धाऽऽत्मस्वरूपम् तेन तन्मादनन्यायेन परस्परं भिन्नस्वभावत्वात् भिन्नास्ते द्रव्यपर्याया अन्योऽन्टव्यतिरेकिण इति // 2652 // द्रव्यपर्यायार्थिकनयप्रस्तावे, विचक. एकार्थके, आ०म० 1 अ० / विशे०। अथ पर्यायाभिधानं किमर्थमा उच्यते-असम्मोहप्रतिपत्त्यर्थम्। तथा चन्द्रः शशी निशाकरो रजनिक उडुपतिरित्येवमादिषु चन्द्रपर्यायेषु,आदित्यः सविता भास्करो दिनका इत्येवमादिषु सूर्यपर्यायष्वभिहितेषु चन्द्रसूर्यपर्यायाभिज्ञःसन् एकस्मिन शशिपर्याय केनाप्युक्ते समस्तसूर्यपर्यायव्युदासेन चन्द्रपर्यायेषु सर्वपुरी वा सूर्यपर्याय एकस्मिन् केनाप्युक्ते समस्तचन्द्रपर्यायपरित्यागेन सर्व सूर्यपर्यायेषु संप्रत्ययो भवति, न तु मुह्यति / आ०म० 1 अ० ! भदे, आव० 4 अ०। पर्यायो भेदो भाव इत्यनर्थान्तरम्। विशे० / आ० : Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जा 233 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जाअ अथ पर्यायभेदानाहनत्वा जिनं प्रवक्ष्यामि, पर्यायोत्कीर्तनं मुदा। व्यञ्जनार्थविभेदेन, तद् द्विभेदं समासतः / / 1 / / जिन वीतराग, नत्वा नमस्कृत्य, पर्यायोत्कीर्तनं पर्यायाणा मुत्कीर्तन पर्यायात्कीर्तन, मुदा हर्षेण, प्रवक्ष्यामि, यदित्युत्तरापेक्षायां, तत्पर्यायोकीर्तन, समासतः संक्षेपाद्, व्यञ्जनार्थविभेदेनव्यञ्जनं चाऽर्थश्च, तयोविभेदः प्रत्येक योजना, व्यञ्जनभेदेनार्थभेदेन, तत् कीर्तनं पर्यायस्य विभेदं द्विप्रकारमित्यर्थः / / 1 // तत्र व्यञ्जनपर्यायः, त्रिकालस्पर्शनो मतः। द्वितीयश्चार्थपर्यायो, वर्तमानानुगोचरः।।२।। तत्र तयोर्दयोरुत्कीर्तनयोर्मध्ये आद्यो व्यञ्जनपर्यायः त्रिकालस्पर्शनो मतोऽनुगत्कालकलितः कथितः। यस्य हि त्रिकालस्पर्शनः पर्यायः स चव्यञ्जनपर्यायः / यथा हिघटाऽऽदीनां मृदादिपर्यायो व्यञ्जनपर्यायोमृन्मयः, सुवर्णाऽऽदिधातुमयो वा घटः कालत्रयेऽपि मृदादिपर्यायत्वं व्यत्यति / तथा द्वितीयो भेदोऽर्थपर्यायः वर्तमानानुगोचरः सूक्ष्मवर्तमानकालखती अर्थपर्यायः / यथाहि-घटाऽऽदेकस्तत्तत्क्षणवर्ती पर्यायो यस्मिन् काल वर्तमानतया स्थितस्तत्तत्कालापेक्षा कृतविद्यमानत्वेनार्थपर्याय उच्यते इत्यर्थः।।२।। अथ तयोः प्रत्येकं द्वैविध्यं दर्शयन्नाहद्रव्यतो गुणतो द्वेधा, शुद्धतोऽशुद्धतस्तथा। शुद्धद्रव्यव्यञ्जनाऽऽख्य-श्वेतने सिद्धता यथा / / 3 / / द्रव्यतो प्रव्यपर्यायो भवति, तथा गुणतो गुणपर्यायोऽपि भवति, एवं द्वेधा द्विप्रकारः स्यात्। तथाहि-द्रव्यव्यञ्जनपर्यायो, गुणव्यञ्जनपर्याय इति / तथा-पुनस्तेनैव प्रकारेण शुद्धतः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः, अशुद्धतोऽशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायश्च द्विप्रकारः / तत्र तेषु भेदेषु शुद्धद्रव्यव्यञ्जनाऽऽख्यः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः, कस्मिन् भवति? चेतने, यथा सिद्धताचेतनद्रव्यस्य यथा सिद्धपर्यायः। अय हि केवलभावात्ज्ञेयः॥३॥ पुनर्भेदापदेशमाहअशुद्धद्रव्यव्यञ्जनो, नराऽऽदिर्बहुधा मतः। गुणतोऽपीत्थमेवात्र, केवल्यं मतिचिन्मुखः ||4|| अशुद्ध द्रव्यव्यञ्जनपर्यायोऽशुद्धद्रव्यव्यञ्जनो नराऽऽदिः, आदिशब्दात् देवनारकतिर्यगादयो बहुधा मताः, तदपेक्षया नराऽऽदिर्बहुधा मतः / अत्र हि द्रव्यभेदः पुद्गलसंयोगजनितोऽस्ति, मनुप्याऽऽदिभेदेनैवं भेदः / गुणतोऽपीत्थमेव / गुणव्यञ्जनपर्यायो द्विप्रकारः / तत्र प्रथम शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायः कैवल्यं केवलज्ञानाऽऽदिरूपः, द्वितीयोऽप्यशुगुणव्यञ्जनपर्यायो मतिचिन्मुखः मतिश्रुतावधिमनः पर्यायरूप इति॥४॥ पुनः कथयतिऋजुसूत्रमतेनार्य-पर्यायः क्षणवृत्तिमान्। आभ्यन्तरः शुद्ध इति, तदन्योऽशुद्ध ईरितः / / 5 / / ऋजुसूत्रमतेन ऋजुसूत्राऽऽदेशेनाऽर्थपर्यायः, आभ्यन्तरः शुद्धोऽधेपर्यायः क्षणवृत्तिमान् क्षणपरिणतः / तदन्यस्तदतिरिक्तोऽशुद्धह ईरितः, यो यस्मादल्पकालवी पर्यायः स च तस्मादल्पत्वविवक्षया अशुद्धार्थपर्यायः कथ्यते / / 5 / / अत्र वृद्धवचनसंमति दर्शयतिनरो हि नरशब्दस्य, यथा व्यञ्जनपर्ययः। बालाऽऽदिकोऽर्थपर्यायः, सम्मतौ भणितस्त्वयम्॥६॥ नरो हि नरशब्दस्य यथा व्यञ्जनपर्याय इति / यथा पुरुवशब्दवाच्यजन्ममरणकालपर्यन्त एकोऽनुगतनरत्वपर्यायः, स च पुरुषस्य व्यञ्जनपर्यायोऽस्ति, संप्रतिविषये बालाऽऽदिकस्तु पुनरर्थपर्यायः कथितः। अयमिति इदमः प्रत्यक्षत्वे साक्षात्संमतौ दृष्टः इति / अत्र गाथा"पुरिसम्मि पुरिससद्दो, जम्माइमरणकालपजंतो। तस्स उ बालाईया, पज्जवभेया बहुविगप्पा // 32 // " // 6 // अथ केवलज्ञानाऽऽदिकः शुद्धगुणव्यज्जनपर्याय एव भवति, तत्रार्थपर्यायो नास्तीत्येतादृशी कस्यचिद् दिग्पटाऽऽभासस्याऽऽशड्काऽस्ति तां निराकरोतिषड्गुणहानिवृद्धिभ्यां, यथाऽगुरुलघुस्तथा। पर्यायः क्षणभेदाच, केवलाऽऽख्योऽपि संमतः / / 7 / / षड्गुणहानिवृद्धिभ्यामगुरुलघुपर्यायाः यथा कथिताः षड्गुणहानिवृद्धिलक्षणा अगुरुलघुपर्यायाः सूक्ष्मार्थपर्याया इतिवत् पर्यायः क्षणभेदात् केवलाऽऽख्योऽपि संमतः क्षणभेदात् केवलज्ञानपर्यायोऽपि भिन्न एव दर्शितः। यतः- ''पढमसमयेऽयोगिभवत्थकेवलनाणे अपढमसमये सयोगिभवत्थकेवलनाणे।'' इत्यादिवचनात्। तदृजुसूत्राऽऽदेशेन शुद्धगुणस्याप्यर्थपर्याया मन्तव्याः / / 7 / / सहव्यव्यञ्जनोऽणुश्च, शुद्धपुद्रलपर्यवः। द्यणुकाऽऽद्या गुणाः स्वीय-गुणपर्यायसंयुताः ||8|| सद्व्यव्यञ्जनोऽणुः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपरमाणुः शुद्धपुद्गलपर्यवः तस्य नाशो नाऽस्ति / तथा व्यणुकाऽऽदिका अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः संयोगजनितत्वात् / कीदृशाः? स्वीयगुणपर्यायसंयुताः पुगलद्रव्यस्य अशुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायास्ते निजनिजगुणाऽऽश्रिता मन्तव्याः / यतः परमाणुगुणो यः स च शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायः, तथा-द्विप्रदेशाऽऽदिगुणो यः स चाशुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायः॥८॥ सूक्ष्मार्थपर्यवाः सन्ति, धर्माऽऽदीनामितीव ये। कथयन्ति न किं तेऽमुं, जानन्त्यात्मपरार्थतः ||6|| धर्माऽऽदीना धर्मास्तिकायाऽऽदीनां सूक्ष्मार्थपर्यवाः शुद्धद्रव्यव्यजनपर्यायाः सन्ति, इतीव ये कथयन्त्येतादृशं हठ कुर्वन्ति तेजना हठ त्यक्त्वा आत्मपरार्थतः निजपरप्रत्ययादृजुसूत्राऽऽदेशेन चाऽमु क्षणपरिणतिरूपं पूर्वोक्तमर्थपर्यायमपि केवलज्ञानाऽऽदिवत् न किं, किमित कथं न जानन्ति, हठं त्यक्त्वा कथं नाङ्गीकुर्वन्ति? किं च-तेषु धर्मास्तिकायाऽऽदिष्वपेक्षयाऽशुद्धपर्यायोऽपि भवति, न चेत्तदा परमाणुपर्यन्तविश्रामः पुद्गलद्रव्येऽपि न भवतीत्यभिप्रायेण कथयन्नाहयथाऽऽकृतिश्च धर्माऽऽदेः, शुद्धो व्यञ्जनपर्यवः।। लोकस्य द्रव्यसंयोगा-दशुद्धोऽपि तथा भवेत्॥१०॥ धर्मास्तिकायाऽऽदेराकृतिर्लोकाऽऽकाशमानसंस्थानरूपा यथाव Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जाअ 235 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जाअ तते तथा शुद्धो व्यञ्जनपर्यवः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः कथ्यते परनिरपेक्षत्वेनेति। तथा-लोकस्य द्रव्यसंयोगात् लोकवर्ती द्रव्य-संयोगरूपोऽशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायोऽपि तस्य लोकस्य द्रव्यसंयोगात् निरपेक्षत्वं कथयन् विरोधं नोत्पादयति, विरोधः कोऽपि नास्तीत्यर्थः / / 10 / / अथाऽऽकृतिः पर्यायो भविष्यति, संयोगः पर्यायो न भविष्यतीत्याशङ्का परिहरन्नाहआकृतेरिव संयोगः पर्यवः कथ्यते यतः। उत्तराध्ययनेऽप्युक्तं, पर्यायस्य हि लक्षणम् // 11|| संयोगोऽप्याकृतेरिव आकृतिवत्पर्यायः कथ्यते। यतो हेतोः पर्यायस्य लक्षणं, हीति निश्चितम्,उत्तराध्ययनेऽप्युक्तम् कथितम्। ततोऽस्य लक्षणं सभेदमपि श्रीउत्तराध्ययनादेवावसेयमिति // 11 // पुनस्तदेवाऽऽहएकत्वं च पृथक्त्वं च, संख्या संस्थानमेव च / संयोगश्च विभागश्चे-तीत्थं मनसि चिन्तय / / 12 / / एकत्वं, पृथक्त्वम् एतद् वयं तथा पुनःसंख्या संस्थानम्। एतवयं, च पुनः संयोगः विभागः-एतद् द्वयं च, इत्यादि षट्कं द्वित्वपरिणतं मनसि चिन्तय, स्वचेतोगोचरीकुरुष्वेत्यर्थः / तथा च तत्र गाथा- "एगत्तं च पुहुत्तं च, संखा संठाणमेव य / संजोगो य विभागो य, पज्जवाणं तु लक्खणं / / 1 / / " इत्येतद्गाथोक्तपर्यायभेदभावना भावयितव्या। पुनः प्रकृतमेवार्थमाहउपचारीन वाऽशुद्धो, यद्यप्यन्याऽऽश्रितो भवेत्। असद्भूता मनुष्याऽऽद्या-स्तदा नाऽशुद्धयोगकाः।।१३।। उपचारी न भवति अशुद्धो यद्यप्यन्याऽऽश्रितो भवेत् परद्रव्यसंयोगी स्यात् तथाऽप्युचारी अशुद्धता नाप्नोति। अथ च यद्येवं कथयिष्यथ यद् यदि च धर्मास्तिकायाऽऽदीनां परद्रव्यसंयोगोऽस्ति, तदुपचरितपर्याय इति कथ्यते, परं त्वशुद्धपर्याय इति न कथ्यते, द्रव्यातथात्वहेतुष्वेवाशुद्धत्वव्यवहारोऽस्तीति, तत्तस्माद् मनुष्याऽऽदिपर्यायोऽप्यशुद्ध इति न कथ्यते, असद्भूतव्यवहारनयग्राह्यत्वेनासद्भूत इति कथ्यते / तद्धि तन्त्वादिपर्यायवदेकद्रव्यजनकावयवसङ्घातस्यैवाशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायत्वं च कथयन्तं चतुररत्रं लगेदिति / तस्मादपेक्षाऽनपेक्षाभ्यां शुद्धाशुद्धानेकान्तव्यापकत्वमेवश्रेय इति / तदेवाग्रेतने पद्ये प्रतिपादयिष्यति / पुनरक्षरार्थस्त्वेवम्-असद्भूता मनुष्याऽऽद्यास्तदा अशुद्धयोगका नेति॥१३॥ पुनः कथयतिधर्माऽऽदेरन्यपर्याये-णाऽऽत्मपर्यायतोऽन्यथा। अशुद्धताविशेषो न, जीवपुद्गलयोर्यथा / / 14 / / धर्माऽऽदेर्धर्मास्तिकायाऽऽदेरन्यपर्यायण परपर्यायेणाऽऽत्मपर्यायेणाऽऽन्मपर्यायतः स्वपर्यायादन्यथा विषमत्वं विलक्षणत्वं ज्ञातव्यम् / यतः कारणादशुद्धताया विशेषो नास्ति, यथा-जीवपुद्गलयोर्विषये अशुद्धताविशेषो नास्ति // 14 // अथ प्रकारान्तरेण चतुर्विधपर्याया नयचक्रे कथिताः, तानेव दर्शयन्नाहस्वजातेश्च विजातेश्व, पर्याया इत्थमर्थके। स्वभावाच विभावाब, गुणे चत्वार एवच / / 15 / / इत्थममुना प्रकारेण स्वजातेः पर्यायाः सजातीयद्रव्यपर्यायाः, विजातेः पर्याया विजातीयद्रव्यपर्यायाश्च, अर्थक द्रव्ये द्रव्यविषये भवन्ति स्वभावाच पुनर्विभावादिति स्वभावगुणपर्यायाः, विभावगुणपर्यायाः, इत्थं चत्वारो भेदा द्रव्यगुणभेदात्पर्यायाणां कथनीयाः, स्वजातीयद्रव्यपर्यायः, विजातीयद्रव्यपर्यायः, स्वभावगुणपर्यायः, विभावगुणा. पर्यायः, इति चत्वारो द्रव्यगुणयोभेदा भावनीया इति / / 15 / / अत्र पूर्वोक्तानां भेदानामुदाहरणमाहध्यणुकं च मनुष्याश्च, केवलं मतिचिन्मुखाः। दृष्टान्ताः प्रायिकास्तेषु, नाणुरन्तर्भवेत्कचित्॥१६॥ (यणुकं चेति) द्विप्रदेशाऽऽदिस्कन्धः स च सजातीयद्रव्यपर्यायः कः तत? द्वयोः परमाण्वोः संयोगे सतिद्व्यणुकमेतावता द्रव्यदर्थ सङ्गत्यैक्ट्रक भवतीति सजातीयद्रव्यपर्यायः 1 / मनुष्याश्च मनुजाऽऽदिपर्याया विजातीयद्रव्यपर्याय इति, जीवयुगलयोर्योगे सति मनुष्यत्वव्यवहारो जायन एतावता विजातीयद्रव्यद्वयं सङ्गत्यैकद्रव्यं निष्पन्नमिति विजातीयद्रव्यपर्यायः 2 / अथ केवलमिति केवलज्ञानं स्वभावगुणपर्यायः कथ्य कथं तत् ? कर्मणां संयागरहितत्वात् स्वभावगुणपर्यायः 3 : मतिचिन्मुखा मतिज्ञानाऽऽदयः पर्यायाः विभावगुणपर्यावाःकथ्यन्ते।क तत् ? कर्मणां परतन्त्रत्वात् विभावगुणपर्यायाः 4 इति। एते हि चत्वर दृष्टान्तः प्रायिका ज्ञातव्याः। परमार्थतस्तु परमाणुरूपद्रव्यपर्यायः, चतुषु नान्तर्भवितुमर्हति, विभागजनितपर्यायत्वात् / तदुक्तं समत. "अणु अणुएहिं दव्वे, आरद्धेति अणुअंति णिद्देसो। तत्तो अ पुण विभ अणु त्ति जाओ अणू होइ॥३६॥" (अस्या अर्थः "अणेगंतवाय र प्रथमभागे 427 पृष्ठे गतः) इत्यादिकं सर्वं विमृश्य विशेयमिति आरब्धद्रव्यपर्याय अणुद्यसंयोगे सति व्यणुकं निष्पद्यते, त्रिभिण. स्त्र्यणुक जायते, त्रिभिस्त्र्यणुकैश्चतुरणुकमुत्पद्यते, एवं महती पृष्ठ महत्थ आपो, महान्तो वायव इत्यादि नैयायिकैः प्रणीतत्वात् // 16 पुनः प्रतिपिपादयिषुराहगुणानां हि विकाराः स्युः, पर्याया द्रव्यपर्यवाः। इत्यादिकथयन् "देव-सेनो" जानाति किं हृदि ? // 17 // गुणविकाराः पर्याया एवं कथयित्वा तेषां भेदाधिकारे पर्याया देखिधःद्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्चेति कथयंश्च "देवसेनो' दिगम्बराऽऽचार्यनयचक्रग्रन्थकर्ता हृदि चित्ते किं जानाति ? अपि तु संभाक्ति: किमपि जानातीत्यर्थः / पूर्वापरविरुद्धभाषणादसत्प्रलापप्राय एवेदनिन्द. भिप्रायः / किं च-द्रव्यपर्याया एव कथनीयाः परं तु गुणपर्याया इतिवृत भेदोत्कीर्तनं न कर्तव्यं,द्रव्ये गुणत्वाधिरोपाद्, गुणे च गुणत्वाभावादित निष्कर्षः।।१७।। द्रव्या०१४ अध्या०। क्रम, परिपा, पर्यायः परिपरि रित्यनर्थान्तरम्। ज्ञा०१ श्रु०१अ०। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जाअलोग 235 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पजुसवणाकप्प रशाअलोग पु०(पर्यायलोक) " दव्वगुणखेत्तपज्जव-भावणुभावे य, भ०१५ श०।"पुत्तं रज्जे ठवेझणं, सामन्ने पञ्जुवठिया।" ज्ञामण्ये चारित्रे भवपरिणामे : जाण छव्विहमिम, पज्जवलोगं समासेणं / / 1 / / '' इत्युक्त- पर्युपस्थिताः, चारित्रयोग्यक्रियाऽनुष्ठानतत्पराः उत्त०१८ अ०। भणे लोकोदे, आ० म०२ अ०। पञ्जुवासण न० (पर्युपासन) सेवायाम्, दशा० 10 अ० / स्था० पजाअसद्द मु०(पर्यायशब्द) एकार्थकशब्दे, आ०म०१ अ०। सूत्र०। नि०। ज्ञा०। पखाउलमि०(पर्याकुल) "नवार्यो य्यः" || 266 / / इतिर्यस्य | पञ्जुवासणकप्प पु०(पर्युपासनकल्प) पर्युपासनसामाचार्याम, पं०भा०। स्क या वा। पजाउलो / पय्याकुलो। 'परितो व्याकुले, प्रा० 4 पाद। पज्जूवासणकप्पो, सुत्ते कप्पो तहा चरित्ते य। पखाभाइता अव्य०(पर्याभाज्य) भाग कृत्वेत्यर्थे , "दातारेसु णं दायं अज्झयणुद्देसम्मि य, कप्पो तह वयणाए य / / एड गतितः / आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०३ उ०। कप्पो पडिच्छाणाए, परियट्टपेहणाएँ कप्पो य। पञ्जालेत्ता अव्य० (प्रज्वाल्य) प्रकर्षेण ज्वालयितु मित्यर्थे, "अगणिकायं ठितमट्ठिएसु दोसु वि, एते सव्वे भवे कप्पा / / उद्धालेता पजालेता कार्य आयावेज्जा!" आचा०१ श्रु०८ अ०४ उ०। जातमजाओ अहुणा, दोषिण वि एते समं तु वचंति / पवालिय अन्स०(पज्वाल्य) पुनः पुनः प्रज्वालनं कृत्वत्यर्थे , दश०५ जातं णिप्पण्णं ति य, एगढ़े होति णायव्वं / / 300301 जातमजातं करणं, जाते करणे गती तिह विण्णा। पजिजमाण निक(पाय्यमान) पानं कार्यमाणे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। अज्जाए करणम्मि तु, अण्णतरी तं गती जाइ। पब्जिया स्त्री (भार्जिका) मातुः पितुर्वा मातामह्याम, दश०७ अ०। जाइं खलु णिप्पण्णं, सुत्तेणऽत्थेण तदुभएणं च / चरणेण य संजुत्तं, वतिरित्तं होति अज्जातं / / पअण्ण न०(प्रद्युम्न)"म्नज्ञोर्णः" ||8|2 // 42 // इतिम्नस्थाने गः ।प्रा० 2 पाद। जिकाभिधानाया ब्रहादत्तचक्रिणो भार्यायाम, उत्त० जातिकरणेण छिण्ण, गरगतिरिक्खा गती उ दोण्णि भवे। अहवा वि तिहा छिन्ना, नरगतिरिक्खा मणुस्सगती।। 13 अ०।कृष्णवासुदेवपुत्रे, स च कृष्णाद्रुकमिण्यामुत्पद्यारिष्टनेमेरन्तिके दोवेसु वि तिण्णि गजी, छिण्ण वेमाणिण्सु उवउत्ती। पदव्य शत्रुजये सिद्ध इत्यन्तकृद्दशासु चतुर्थे वर्गे षष्ठेऽध्ययने सूचितम् / चउसु वि गतीसु गच्छति, अण्णतरि अजातकरणेणं / / अन्त० 4 वर्ग / आ० चू० / आ० म०1 आ० क०। (कमलामेलोदा एसो जातमजाते, अभिहितो इयाणि वक्खामि। हरणेऽन्य किश्चिदवृत्तम् ) पं०भा०६ क०। पडण्णखमासमण पुं०(प्रद्युम्नक्षमाश्रमण) निशीथचूर्णि-कृदुपदेशके, पञ्जुवासमाण त्रि०(पर्युपासीन) सेवमाने, भ०१२०१ उ०। औ०। सू० "सविसेसायरजूतं, काउपणामंच अत्थदाइस्सा पञ्जुण्णखमासमणस्स प्र०। चं० प्र०ा तथारुपं श्रमण पर्युपासीनस्य पर्युपासना किफला? भ० चरणकरणानुपालस्स // 2 // " नि० चू० 1 उ०।। २श०५ उ०।("समणपजुवासणा "शब्देऽस्य विस्तरः) पअण्णगिरि पु०(प्रद्युम्नगिरि) उज्जयन्तशैलाऽवयवभेदे, "गिरिपज्जुण्ण पत्रुसवणाकप्प पुं०(पर्युषणाकल्प)(पर्योसवनाकल्प) पर्याया ऋ. वाटारे, अअिआयमएयं च नामेण / " ती०३ कल्प। तुवृद्धिका द्रव्यक्षेत्रकालभावसम्गन्धिन उत्सृज्यन्ते उज्झयन्ते यस्यां सा पअण्णसूरि पुं०(प्रधुम्नसूरि) चन्द्वकुलालङ्कारयशोदेव सूरिशिष्ये, गol निरुक्तविधिना पर्योसवना। अथवा-परीति सर्वतरु क्रो धाऽऽदिभावेभ्य सुद्युम्नः प्रद्यम्नाभधश्व यशोदेवसूरिशिष्यः सूरिस्ततोऽप्यासीत्। ग०३ उपशम्यतेयस्ययं सा पर्युपशमना। अथवा-परिः सर्वथा एकक्षेत्रे जधन्यतः अधि० / अयमोचार्थो विक्रमसंवत् -807 मिते वर्तमान आसीत् / सप्ततिदिनानि. उत्कृष्टतः षण्मासान् वसनं निरुक्तादेव पर्युषणा। तस्याः द्वितीयश्चैवमन्नामा विचारसारनामप्रकरणग्रन्थरचयिता, तृतीयश्व राज कल्प आचारो, मर्यादेत्यर्थः / पयों सवनाकल्पः पर्युपशमनाकल्पः / गच्छे अभयदेवसूरिगुरुः, स च वैद्यकशास्त्र परिनिष्ठित आसीत्, चतुर्थः "सक्कोसं जोयणं विगईनवयं" इत्यादिके वर्षाकल्पे, स्था० 10 ठा०। चन्द्रगच्छ मूलशुद्धिप्रकरणग्रन्थकृत्, पञ्चमोऽपि चन्द्वगच्छएव कनकप्रभ न्यूनोदरताकरणविकृतिनवकपरित्यागपीठकलकाऽऽदिसंस्तारसुरिशिष्यः / स च विक्रमसंवत्-१३२२ मिते विद्यमाने आसीत्। जै० इ० / काऽऽदानभित्यादिके वर्षाकल्पे, स्भा० 5 ठा०५ उ०। पजुदास पुं०(पर्युदास) परि-उद्-अस-घञ्। निवारणे,फलप्रत्यवाय (1) अपर्युषणायां पर्युषयतिशून्यतया भेदार्थकना बोध्ये, मीए पज्जोसवणा, "प्रधान्यं हि विधेर्यत्र, जे भिक्खू अपजजोसवणाए पजोसवेइ, पञ्जोसवंतं वा साइजइ॥ प्रतिषेधेऽप्रधानता। पर्युदासः स विज्ञेयो, यत्रोत्तरपदे न नञः॥१॥" ४८॥जे भिक्खू ण पज्जोसवेइ,ण पज्जोयवंतं वा साइजइ / / 46 / / इत्युक्तलक्षणे निषेधे च / वाच०। विशे०। (विस्तरस्तु वाचस्पत्येऽस्ति) "जे भिक्खू अपजोसवणाए पज्जोसवति " इत्यादि दो सुत्त सुगम पछुवट्ठिय त्रि०(पर्युपस्थित) सामस्त्येनोपस्थित उपरतः। परिसमाप्ते, वचति / इमो सुत्तत्थो। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्प गाहा मासकल्पः कृतस्तत्रैव चतुर्मासककरणे चतुर्मासकानन्तर च मासकल्पपजोसवणाकाले, पत्ते जे भिक्खु णो वसेज्जाहि। करणे षापमासिकः, अयमपिस्थदिरकल्पिकानामेव, तथा पञ्चकपचकअप्पत्तमतीते वा, सो पावति आणमादीणि / / 521 / / वृद्ध्या गृहिज्ञाताज्ञाताऽऽदिविस्तरस्तु नात्र लिखितः, साम्प्रतं जे भिक्खूपजोसवणाकाले पत्तेण पञ्जोसवति, अपजोसवणए त्ति अपते / सजाऽऽज्ञया तस्य विधेयुच्छिन्नत्वाद्विस्तरभयाच विशेषार्थिना च अतीते वा जो पजोसवति त्तस्स आणादिया दोसा, चउगुरु पच्छित्त, एस कल्पकिरणावल्यादयो विलोक्याः, एवं सर्वत्रापि ज्ञेयम्। अथैवं वर्णितसुत्तत्थो। स्वरुपः पर्युषणाकल्पः प्रथमान्तिमपिनतीर्थे नियतः, शेषाणां तु (2) एकार्थिकानि तत्र इमा णिज्जुत्तिगाहा अनियतः, वतस्ते हि दोषाभावे कस्मिन् क्षेत्रे देशोना पूर्वकोटि पञ्जोसवणाए अक्खराइ होंति उ इमाइ गोणाई। यावत्तिष्ठन्ति, दोषसद्भावे तुन मासमपि। एवं महाबिदेहेऽपि द्वाविंशतिपरियायट्ठवणाए पज्जोसवणा य पागइया / / 522 / / जिनवत्सर्वेषा जिनानां कल्पव्यवस्थाज्ञेया। कल्प० 1 अधि० 1 क्षण पडिवसणा पजुसणा, पजोसवणा य वासो य। (कल्पसूत्रस्य वाचनीयत्वं कप्पसुत्त शब्दे तृतीयभागे 236 पृष्ठे उक्तम् पढमसमोसरणं ति य, ठवणा जेट्ठोगहेगट्ठा / / 523 / / (3) प्रथम पर्युषणा कदा विधेयेत्याह(पजोसवण त्ति) एतेसिं अक्खराणि इमाणि एगद्विता णि गोषणामाणि | तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वासा अट्ठ भवंति / तं जहा-परियायट्ठवणा, पजोसवणा य, परिवसणा, सवीसइराए मासेविइक्कते वासावासं पजोसवेइ / / 1 / / से केणद्वेग पजुसणा, वासावासो, पढमसमोसरणं, ठयणा, जेट्टोग्गहो त्ति / एते भंते ! एवं वुच्चइ-समणे भगवं महावीरे वासाणं सदीसइराए मासे एगट्ठिया / एतेसिं इभो अत्थो-जम्हा पज्जोसवणादिवसे पव्वजापरियागो विइक्वंते वासावासं पजोसवेइ ? जओ णं पाएणं अगारीगं व्यपदिश्यते व्यवस्थाप्यते संखा एत्तिया वरिसा मम उवट्टावियस्सति। अगाराई कडियाई उक्कंपियाई छन्नाई लित्ताई घट्ठाई मट्ठाई तम्हा परियायट्ठवणा भण्णति, पम्हा उदुवटिया व दव्यखेत्तकालभावा संपधूमियाइं खाओदगाई खायनिद्धमणाइं अप्पणो अट्ठार पजाया, एत्थ परि समंता ओसविजंति, परित्यजन्तीत्यर्थः / अपणे य परिणामियाइं भवंति, से तेणटेणं एवं वुच्चइ-समणे भगवं महावीर दव्वादिया पुरिसकालपायोग्गा घेत्तुं आयरजति तम्हा एगखेत्ते चत्तारि वासाणं सवीसइराए मासे विइकते वासावासं पञ्जोसवेइ // 2 // मासा परिवसंतीति, तम्हा परिवसणा भण्णति, उदुवड्डियवाससमीवातो तहाणं गणहरा वि वासाणं सवीसइराए मासे विइक्कंते वासावाल जम्हा पुरिसेण उसंति सव्वदिसासु परिमाणपरिच्छिन्नं तम्हा पञ्जुसणा पजोसंविति।।३।। जहाणं गणहरा विवासाणं सवीसइराए। जब भण्णति, पजोसवणा इतिगतार्थन् वर्ष इति वर्षाकालः तस्मिन् वासः३ पजोसंविति,तहाणं गणहरसीसा विवासाणं० जाव पजोसंदिी प्रथम आद्यन्त्यबहूण समीवातो समोसरणं, तेय दोसमोसरणएग वासासु. ||4|| जहा णं गणहरसीसा वासाणं० जाव पञ्जोसंविति तहाम विहिय उदुवद्धे, जतो पज्जोसवणातो वरिसं आढप्पति अतो पढम थेरा वि वासाणं० जाव पज्जोसविंति॥शा जहाणं थेरा वासार्थक समोसरण भण्णति, वासकप्पातो जम्हा अण्णा वासकप्पमेरा ठविञ्जति जाव पञ्जोसविंति तहा णं जे इमे अज्जत्ताए समणा णिमांक तम्हा उदुबद्धे एक मासं खेत्तो उग्गहो भवति. वासावासासु चत्तारि मासा विहरंति, एते विअणं वासाणं० जाव पञ्जोसविति ॥६|जहा तम्हा उदुवनिया ओग्गहो जेडो भवति। एषां व्यंजनतो नानात्व, न त्वर्थः / जे इमे अज्जत्ताए समणा णिग्गंथा वि वासाणं सवीसइराए मरने एतेसिं एगट्ठियाणं एणं ठवणापदं परिगृह्यति, तम्मि णिक्खित्ते सव्वे विइक्कते वासावासं पजोसर्विति, तहा णं अम्हं पि आयरिए णिक्खित्ता भवंति। नि० चू० 10 उ० / स चैवम्-"पञ्जोसवणाकप्पो' उवज्झाया वासाणं० जाव पज्जोसविंति।।७।। त्ति (6 गाथा) पञ्चा० 17 विव०। परि सामस्त्येन उषणा वसनं पर्युषणा, अथ सामाचारीलक्षणं तृतीयं वाच्यं वक्तुं प्रथमं पर्युषणा कदा कि तत्र पर्युषणाशब्देन सामस्त्येन वसन, वार्षिकं पर्व च द्वयमपि कथ्यते, त्याह-"तेणं कालेणं' इत्यादितो "वासावासं पज्जोसवेइ"ई तत्र वार्षिकं पर्व भाद्रपदसितपञ्चम्यां, कातकसूरेरनन्तरं चतुर्थ्यामेवेति, पर्यन्तम् / तत्र आषाढचतुर्मासकदिनादारभ्य विंशतिरात्रिसहिते मन सामस्त्येन वसनलक्षणश्च / पर्युषणाकल्पो द्विविधःसालम्बनो, निराल- व्यतिक्रान्ते भगवान् ( पजोसवेइ ति ) पर्युषणाम-कार्षीत् / / भ्यनश्च। तत्र निरालम्बनः, कारणाभाववान् इत्यर्थः / स द्विविधःजघन्यः, केण?णामित्यादि ) तत्केनार्थे न केन कारणेन इति शिष्येण प्रश्न उत्कृष्टश्च / तत्र जघन्यस्तावत्सांवत्सरिकप्रतिक्रमणादारभ्य कार्तिक- गुरुरुत्तरं दातुं सूत्रमाह ॥१॥"जओ णं " इत्यादितः “पड़ोसदेई है. चतुर्मासप्रतिक्रमणं यावत् सप्तति 70 दिनमानः, उत्कृष्टस्तु चातुर्मासिकः, यावत् / तत्र यतः प्रायेण अगारिणां गृहस्थानामगाराणि गृहाणि (कहिट अयं द्विविधो निरालम्बनः स्थविरकल्पिकानां, जिनकल्पिकानां तु एको ति) कटयुक्तानि (उ-चंपियाई ति) धवलितानि (छत्राइ) तृणति निरालम्बनश्वातुर्मासिकः, सालम्बनस्तु कारणिक इत्यर्थः / यत्र क्षेत्र / (लित्ताइति) छगणाऽऽदिभि (गुत्ताइंति) वृतिकरणाऽऽदिभिः (घाइ) विध Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजुसवणाकप्प 237 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्रुसवणाकप्प भूमिभञ्जनात् (मट्ठाई ति) पाषाणखण्डेन घृष्टवा सुकुमालीकृतानि (संपधूमियाई) सौगन्ध्यार्थ धूपैर्वासितानि / (खाओदगाई) कृतप्रणालीरूपजलमार्गाणि (खायनिद्धमणाई) सञ्जितखालानि, एवं विधानि (अप्पणो अट्ठाए त्ति)आत्मार्थम् / (कडाई) गृहस्थैः कृतानि परिकर्भितानि (परिभुत्ताई) परिभुक्तानि (परिणामियाई) परिणामितानि, अचित्तीकृतानि ईदृशानियतो गृहाणि भवन्ति (से तेणट्टेणं ति) तेनाऽर्थेन तेन कारणेन भगवान् महावीरो वर्षाणां वर्षाकालस्य विंशतिरात्रे चुक्ते मासेऽतिकान्ते पर्युषणामकार्षीत्। यतोऽमी प्रागुक्ता अधिकरणदोषा मुनिमाश्रित्य न स्युः।।२।। "जहाणं' इत्यादिका "पोसविंति त्ति' पर्यन्ता सप्तसूत्री सुगमा / नवरं षष्ठसूत्रे-(अजत्ताए त्ति) अद्यकालीना, आर्यतया वा व्रतस्थविरत्वेन वर्तमाना। कल्प० 3 अधि०६ क्षण / (4) पर्युषणास्थापनाठवणाए णिक्खेचो, छक्को दव्वं च दव्वणिक्खेवो। खेत्ते तु जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जोओ। ओदइयादीयाणं, भावाणं जो हि ठाणभावेण। जेणेव पुणो भावे, ठवेज ते भावठवणा तु // सामित्तयकरणम्मि य, अह करणे होति छब्भेया। एगत्तपुहुत्तेहिं, दव्वे खेत्ते य भावे य॥५२४।। ठयणाएछव्विहो निक्खेवो। तंजहाणामठवणा, दव्वठवणा, खेत्तठवणा, कालट्टवणा, भावठवणा / णामठवणाओ गयाओ। दव्वठवणा दुविहाआगमतो, णोआगमतो य / आगमतो जाणए अणुवउत्ते / णोआगमतो तिविधः / त जहाजाणगसरीरठवणा, भवियसरीरठवणा, जाणगसरीरभवियसरीखतिरित्ता / जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ता दव्वट्ठवणा इमादध्वं च दव्वणिक्खेवी। दव्वं परिमाणेन स्थाप्यमानं दव्वठवणा भवति, चसद्दोऽणुकरिसणे, किं अणुकरिसयति? भण्यते-इमंदव्यं वा णिक्खमभाजं दव्यास पडिवसभं गामस्स अंतरंएत्तियायकरणे खेत्तेण एगत्तबहुमित्ते दव्यस्स ठयणा, दव्वाण वा ठवणा। जहा-कोइ साहू एगसंथाराभिग्गहणं ईवेदि गृह्णातीत्यर्थः। दव्वाण ठवणा जहासंथारगतिगपुडो आरगहणाभिमहणं आत्मनि ठवेति। करणे जहा दव्वेण ठवणा, दव्वेहिं वा ठवणा। तत्य दत्वेण चाउम्मासिं जावेति। दव्वेहिं कुरकुसण्णेहिं वा चातुम्मास जावेति, अहवा चउसु मासेसु एक्क आयंविलं पारेत्ता सेसकालं अभत्तट्ठकरेति, एवमात्मान स्थापयतीत्यर्थः। दव्वेहिं दोहिं आयंविलेहिं चाउम्मासं जावेति: अधिकरणे दवेठवणा दव्वेसुवा ठवणा, तत्थ दव्ये जहाणामए कलहमएसु ठवियव्वं, दव्वेसु अणेगम्मि संथारमण्सुठवियव्यं / एवं छभेदा णातपुत्तेहिं दवे भणित्त / इदाणिं खेत्तठवणा-(खेत्तं तु जम्मि खेत्तत्ति) क्षेत्रं यत्परिभोगेन परित्यागेनवा स्थाप्यते। जम्मिवाखेत्तठवणा ठविधति सा खेत्तठवणा / सा य सामित्तकरणअधिकरणेहिं एगत्तपुहत्तेहिं छडभेया भाणियव्या / इयाणिं कालठवणा-(कालो जहिं जोओ त्ति) काले कालो, तत्थ उि सामित्तकरणअधिकरणेहिं एगत्तपुहत्तेहिं छब्भेयाऽणुभवंति।भावे छब्भेयासामित्ते खेत्तस्स एगगामस्स परिभोगो, खेत्ताणं तिमादीणं मूलगामस्स पडिवसभगामस्स अंतरं पल्लियाए करणे खेत्तेण एगत्तपुहतेणं / एत्थ ण किंचि संभवति / अधिकरणे परं अद्धजोयणमेराए गंतुं पडियत्तए पुहत्तकरणे दुमादी अद्धजोयणं गंतु पडिए व कालस्स ठवणा। अधिकरणे एगत्तं परं उदुबद्धे जा मेरा सा वज्जिजति, स्थाप्यते इत्यर्थः / कालाण चउण्हं मासाणं ठवणा ठविञ्जति, आचरणतेनेत्यर्थः / कालेणं आसाढपुण्णिमा कालेणं ठायंति, कालेहिं बहूहिं पंचाहेहिं गते ठायंति। कालम्मि पाउसे ठायंति, कालेसुकारणे आसाढपुणिमातो वीसइमासदिवसेसु गतेसु ठायति / भावस्सोदइयस्स ठवणा, भावाणं कोहमाणमायालोभादीणं। अहवाणाणमादीणं गहणं अहवाखाइयं भावंसंकामंतस्स सेसाणं भावाणं परिवजणं भवति / भावेण णिज्जरहत्ताए एगखेते ठायंति णोऽद्धं ति। भावेहिं संगहउवग्गहणिज्जरणिमित्तं बाणा अभंति / भावम्मि खित्तिए वा ठवणा भवति, भावेसुणत्थि ठवणा। अहवाखओवसमिए भावे सुद्धातो भावातो सुद्धतर भावं संकमंतस्स भावेसु ठवणा भवति / एवं दव्वातिठवणा समासेण भणिता इयाणि एते चेव वित्थारेणंभणीहामि। तत्थ पढमकालठवण भणामि। किं कारणं? जोण एणं सुत्तं कालठवणाए गतं। एत्थ भण्णतिकालो समयादीओ, पगयं कालम्मि तं परूवेस्सं / णिक्खमणे य पवेसे,पाउस सरए य वोच्छामि / / 525 / / कलनं कालः, कलिज्जतीति वा कालः, कालंससहो वा कालः / सो य समयादी। समयो पट्टसाडियापाडणादिट्ठतेणं सुत्ताएसेणं परवेयव्यो। आदिग्गहणातो आवलिया पुहुत्तो पक्खो मासो उदूअयण संवच्छरोजुगं एवमाइ। एत्थ जेण पगयं ति अधिकार समए सिद्धं तमहं परूवेस्सं / उदुवद्धियवरिसमासकप्पखेत्तातोपाउसे णिक्खमणं वासो, खेत्तय पाउसे चेव पवेसं वोच्छ। वासाखेत्तातोसरए णिक्खमणं उदुवड्डियखेत्ते पवेसं सरए चेव वोच्छामि। अधवा सरए णिग्गमणं पाउसे पवेसंवोच्छामीत्यर्थः। गाहाऊणाऽतिरित्तमासे, अट्ठ विहरिऊण गिम्ह हेमंतो। एगाहं पंचाहं, मासं व जहासमाहीए॥ 526 / / चत्तारि हेमतिया मासा, चत्तरि गिम्हिया मासा। एते अट्ट ऊणाऽतिरित्ता वा विहरितता भण्णतिपडिमापडिवण्णाणं एगाहो, अहालंदियाएपंचाहो, जिणकप्पियाण सुद्धपरिणयाण थेराण य मासो, जस्स जहाणाणदंसणचरित्तसमाही भवति सो तहा विहरित्त वासाखेत्तं उवें ति; कहं पुण ऊणातिरित्ता वा उदुवड्डिया मासा भवंति तत्थ ऊणा। गाहाकाऊण मासकप्पं, तत्थेव उवगयाण ऊणाऊ। चिक्खल्लवासरोहे-ण वा वितीए ठिता णूणं / / 527 / / जत्थ खेत्ते आसाढमासकल्पो कतो तत्थेव खेते वासावासत्तेण उवगया। एवंऊणा अट्टमासा, आसाढमासे अनिर्गच्छता सप्त विहरणका भवन्तीत्वर्थः। अधवइमेहि पगारहिं ऊणा अट्ठ मासा हवेज, स चिक्खल्लपंथा वासं वा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजुसवणाकप्प 238 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पजुसवणाकप्प अज वि णोवरमते, णयर वा रोहितं, वाही वा असिवादिकारणा, तेण मग्गसिरे सव्वं ठिया अतो पोसादिया आसाढ़ता सत्त विराहणाकाला भवंति / इयाणि जहा अतिरित्ताअट्ठ मासा विहारो तहा भण्णति। गाहावासाखेत्तालंभे, अट्ठाणादीसु पत्तमहिगाओ। सावगवाघातेण व, अप्पडिकमितुं जति वयति / / 528|| आसाढासुत्तवासावासपउग्गा खेत्तं मग तेहिं लद्ध ताव जाव आसाढचाउम्मासातो परतो सवीवतीराते मासे अतिक्कते लद्ध, ताहे भद्दवयाओ हस्सपंचमीए पज्जोवति / एवं णव मा सा वीसतीराता विहरणकालो दिट्ठो। एवं अतिरिता अट्ठमासा / अहवा साहू अट्ठाणा पडिवण्णा सत्तुवसेणं आसाढचउम्मासातो परेणं पंचाहेण वा जाव बीसराते वा मासे वासाखेत्तं पत्ताणं अतिरित्ता अट्ठ मासा विहारो भवति। अहवावासवञ्जाए अण्णवुट्टीए आस्त्रोए कत्तियणिग्गयाण अट्ठ अतिरित्ता भवंति। वासहिवाघातेवा कत्तियं चाउम्मासियस्स आरओ चेव णिग्गया। अहवाआयरियाणं कत्तियपोण्णिमाएपरतो वा साहगंणक्खतं भवति, अण्णं वा रोहगादिकंति। एस वाघायं जाणितुण कत्तियचाउम्मासियं अपडिक्कमिय जया वयेति तत्तो अतिरित्ता अट्ठ मासा भवंति। "एगाह पंचमासं च जहासमाहीए "त्ति। अन्य व्याख्या गाहापडिमापडिवण्णाण य, एगाहो पंचहो तहा लंदो। जिणसुद्धाणं मासो, णिचारणतो य थेरातं / / 526 / / जिण त्ति जिणक प्पिया, सुद्धाणं ति सुद्धपरिहारियाणं एतेसिं मासकप्पविहारो णिव्वाघायं कारणाभावा। वाघाते पुण थेरकप्पिया उण अतिरित्त वा वासं अत्थति। वासावासं पजोसवेमो, अंतरा विय से कप्पइ, नो से कप्पइत रयाणिं उवाइणावित्तए॥८॥ "जहाणं " इत्यादितः "उवाइणावित्तए त्ति'' पर्यन्तं सूत्रद्वयम्ल (अंतराविय त्ति) अर्वागपि तत् पर्युषणाकरणं कल्पते परं न कल्पतेत रात्रि भाद्रशुक्लपञ्चमीरात्रिम्। ( उवाइणावित्तए त्ति) अतिक्रमयितुन तत्र परिसामस्त्येन उषणं वसनं पर्युषणा / सा द्वेधा गृहस्थजाता, गृस्थैरज्ञाता च। तत्र गृस्थैरज्ञाता यस्यां वर्षायोग्यपीठफलकाऽऽदौमा कल्पोक्तद्रव्यक्षेत्रकालभावस्थापना क्रियते, सा चाऽऽषाढपूर्णिमाया, योग्यक्षेत्राभावे तु पञ्चपञ्चदिनवृद्ध्यादशपर्वतिथिक्रमेण यावत् प्रावा. कृष्णदशम्यामेव / गृहिज्ञाता तु द्वेधासांवत्सरिककृत्यविशिष्ट गृहिज्ञातमात्रा च। तत्र सांवत्सरिककृत्यानि-" संवत्सरप्रतिक्रान्ति : चाऽष्टमं तपः / सहिङ्गक्तिपूजा च, संघस्य क्षामणं मिथः / / 1 // एतत्कृत्य-विशिष्टा भाद्रसितपञ्चम्यामेव, कालिकाऽऽचार्याऽऽदेशावतुर्थ्यामपि, केवलं गृहिज्ञाता तु सा यत् अभिवर्द्धिते वर्षे चतुर्मासकदि. नादारभ्य विंशत्या दिनैर्वयमत्र स्थिताः स्मेति पृच्छता गृहस्थानां पुर वदन्ति, तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण, यतस्तत्र युगमध्ये पौषो, युगान्न चाऽऽषाढी वर्द्धत, नान्ये मासाः, तट्टिपनकं तु अधुना सम्यग् न ज्ञाथ ततः पञ्चाशतैव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः / अत्र कश्चिदाहन श्रावणवृद्धौ श्रावणसितचतुमिव पर्युषणा युक्ता, नतु भाद्रसितचतुष्य दिनानामशीत्यापत्तः, " वासाणं सवीसइराए मासे विइकते " वचनबाधा स्यादिति चेत् ? मैवम्, अहो देवानुप्रियाः ? एवं आश्विन चतुर्मासककृत्यम् आश्विनसितचतुर्दश्यां कर्तव्यं, यस्मात्कार्तिकसितचतुर्दश्यां करणे तु दिनानां शताऽऽपत्त्या" समणे भगवं महावीरे वारसा सवीसइराए मासे विइक्कंते सत्तरिराइंदिएहिं सेसेहि। ' इति समवाय. वचनबाधा स्यात् / न च वाच्यं चतुर्मासकानि हि आषाढाऽऽदिनारप्रतिबद्धानि, तस्मात्कार्तिकचतुर्मासकं कार्तिकसितचतुर्दश्यामेव युन दिनगणनायां त्वधिको मासः कालचूलित्यविवक्षणादिनानां सप्ततिर कुतः समवायाङ्गवचनबाधा इति, यतो यथा चतुर्मासिकानि आषाढातादिमासप्रतिबद्धानि तथा पर्युषणाऽपि भाद्रपदमासप्रतिबद्धा तफा कर्तव्या, दिनगणनायामधिकमासः कालचूलेत्यविवक्षणाविना पञ्चाशदेव. कुतोऽशीतिवार्ताऽपि, न च भाद्रपदप्रतिबद्धत्वं पर्युशाण अयुक्तं, बहुष्वागमेषु तथा-प्रतिपादनात्। तथाहि- "अन्नया पोस:णादिवसे आगए अज्जकालगेण सालिवाहणो भणिओ भद्दवयजुः पंचमीए पज्जोसवणा." इत्यादि पर्युषणाकल्पचूण्णा / तथा- "जर य सालिवाहणो राया, सो असावगो, सो अ, कालगज त इंत सोकर निग्गओ अभिमुहो समणसंघो अ, महाविभूईए पविट्ठो कालगर पवितुहि अ भणिअं-" भद्दवयसुद्धपंचमीए पञ्जोसविज्जइ। समणसंधा पडिवण्णं, ताहे रण्णा भणिअं, तदिवसं मम लोगाणुवत्तीए इंट अणुजाणेयव्यो होहि त्ति साहू चेइए ण पज्जुवासिरसं, तो छडीए पजोसवर किजउ। आयरिएहिं भणिअंन वट्टति अतिक्कमितुं। ताहे रण्णा भषिक्षत अणागयचउत्थीए पजोसविज्जति / आयरिएहिं भणियं-एवं भवउ ऊणाऽतिरित्त मासा, एवं थेराण अट्ठ नासव्वा। इयसेस अट्ठरिइतुं, णियमा चत्तारि अत्थंति / / 530 // एवं ऊणातिरित्ता थेराणं अट्ठ मासा णायव्वा / इतरेण न पडिमा पडिवण्णा, अहालंदिया विसुद्धपरिहारिया जिणकप्पियाय जहा विहारेण अट्ट रीइतुं वासारत्तियाचरा सव्वे णियमा अत्यति। वासावासे कम्मि खेत्ते कम्मि काले पविसियव्वं अतो भण्णति। गाहाआसाढपुण्णिमाए, वासावासासु होति ठायव्वं / मग्गसिरबहुलदसमी-ताजाव एक्कम्मि खेत्तम्मि / / 431 / / (ठायव्वं ति) उस्सग्गेण पजोसवेयव्वं अहवा प्रवेष्टव्य, तम्मिपविट्ठाओ तस्सग्गेण कत्तियपुण्णिमं जाव अत्थंति। अववादेण मग्गसिरबहुलदसमी जाव ताव तम्मि एगखेत्ते अत्थंति। दसरायग्गहणातो अववातो दंसितो, अण्णे विदोदसराता अत्थेजा, अववातेण मार्गसिरमासं तत्रेवास्त्येत्यर्थः / नि० चू०१० उ०। (5) आचार्याऽऽद्यनुसाराद्वयमपि प्रकुर्म :जहा णं अम्हं पि आयरिया उवज्झाया वासाणं जाव पजो- | सविंति, तहा णं अम्हे वि वासाणं सवीसइराए मासे विइकते Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजुसवणाकप्प 236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पञ्जुसवणाकप्प ताहे चउत्थीए पजोसवित। एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्थी पवत्तिया, सा वेवाणुमता सव्वसाहणं।'' इत्यादि श्रीनिशीथचूर्णिदशमोद्देशके। एवं यत्र कुत्राऽपि पर्युषणानिरुपणं तत्र भाद्रपदविशेषितमेव न तु क्वाप्यागमे "भवयसुद्धपंचमीए पजोसविजइ ति'' पाठवत् "अभिवडिअवरिसे साता सुद्धएचमीए पजोसविज्जइ त्ति पाठ उपलभ्यते, ततः कार्तिकमासप्रतिबद्धचतुर्मासककृत्यकरणे यथा नाधिकमासः प्रमाणं, तथा भाद्रमासत्रातबद्धपर्युषणाकरणेऽपि नाधिकमासः प्रमाणं मिति त्यज कदाग्रह, किं चाधिकमासः किं काकेन भक्षितः, किं वा तस्मिन्मासे पाप न लगति, उत बुभुक्षा न लगति, इत्याद्युपहसन्मा स्वकीयं गृहिलत्वं प्रकटय, यतस्त्वमपि अघिसकमासे सति त्रयोदशसु मासेषु जातेष्वपि सांवत्सरिकक्षामणे-" वारसण्हं मासाणं " इत्यादिकं वदन्नधिकमासं नाङ्गीकरोधि / एवं चतुर्मासिकक्षामणेऽधिकमाससद्भावेऽपि " चउण्हं मालाण " इत्यादि, पाक्षिकक्षामणेऽधिकतिथिसंभवेऽपि-"पन्नरसह दिवसाममिति" बूषे / तथा-नवकल्पविहाराऽऽदिलोकोत्तरकार्येषु "आसाढेमार दुपया" इत्यादि , सूर्यचारेऽपितथैव, लोकेऽपि दीपालिकाऽक्षततृतीयाऽऽदिपर्वसु धनकलान्तराऽऽदिषु च अधिकमासो न गण्यते, तदपि त्वं जानासि, अन्यच सर्वाणि शुभकार्याणि अभिवर्द्धिते नासे नपुंसक इति कृत्वा ज्योतिःशास्त्रे निषिद्धानि / अपरमास्तामन्योभिवर्द्धिती, भाद्रपदवृद्धौ प्रथमो भाद्रपदोऽपि अप्रमाणसेव, यथाचतुर्दशीवृद्धौ प्रथमां चतुर्दशीमवमणस्य द्वितीयायां चतुर्दश्यां पाक्षिककृत्यं क्रियते. तथाऽत्रापि / एवं तहिं अप्रमाणे मासे देवपूजामुनिदानाऽऽवश्यकाऽऽदिकार्यमपिं न कार्यम्, इत्यापि वक्तुं माऽधरौष्ठ चपलय, यतो यानि हि दिनप्रतिबद्धानि देवपूजामुनिदानाऽऽदिकृत्यानि तानि तु प्रतिदिनं कर्तव्यान्येव, यानि च संध्याऽऽदिसमय-प्रतिबद्धानि आवश्यकाऽऽटीनि तान्यपि य कञ्चन संध्याऽऽदिसमयं प्राप्य कर्त्तव्यान्येव,यानि तु भाद्रपदाऽऽदिमासप्रतिबद्धानि तानि तु तद्वयसंभवे कस्मिन् क्रियते इति विचारे प्रथममवगणय्य द्वितीये क्रियते इति सम्यग्विचारय। तथा च पश्य अचेतन्ग वनस्पतयोऽधिकमासं नाङ्गीकुर्वते, येनाधिकमासं प्रथम परित्यज्य द्वितीय एव मासे पुष्यन्ति / यदुक्तमावश्यकानिर्युक्तौ- "जइ कुल्ला कणिआरया, चूअग अहिमासयम्मिघुट्ठम्मि। तुह न खमंफुल्लेऊ, जइ पचंता करिति डमराई // 1 // " तथा च कश्चित्-" अभियट्ठियम्मि वीसा, इयरेसुं सवीसई मासो। इति वचनबलेन मासाभिवृद्धौ विंशत्या दिनरेव लोचाऽऽदिकृत्यविशिष्टांपर्युषणां करोति, तदप्ययुक्तम। येन" अभिवड्डियम्नि वीसा " इति वचनं गृहिज्ञातमात्रापेक्षया, अन्यथा-" आसाढमासिए पजोसविति एस उस्सग्गो, सेसकालं पज्जोसविताणं अवदाउ ति। " श्रीनिशीथचूणिदशमोद्देशकवचनादाषाढपूर्णिमायामेव लोचाऽऽदिकृत्याविशिष्टा पर्युषणा कर्त्तव्या स्यात् / इत्यलं प्रसङ्गेन। कल्पोक्ता द्रव्यक्षेत्रकालभावस्थापना चैवम् द्रव्यस्थापनातॄणडगलछारभल्लकाऽऽदीनां परिभोगः, सचिताऽऽदीनां च परिहारः। तत्र सचित्तद्रव्यं शैक्षो न प्रव्राज्यते, अतिश्रद्धं राजानं राजामात्यं च विना, अचित्तद्रव्यं वस्त्राऽऽदि प गृह्यते, मिश्रद्रव्यं सोपधिकः शिष्यः क्षेत्रस्थापनासक्रोश योजनं ब्लानवेद्योषधाऽऽदिकारणेन चत्वारि पञ्च वा योजनानि / कालस्थापना चत्वारो मासाः। भावस्थापनाक्रोधाऽऽदीनां विवेकः, ईर्याऽऽदिसमितिषु चोपयोग इति॥ 8 // कल्प०३ अधि०६ क्षण। (6) भाद्रपदपञ्चमीविचार:-वर्षाप्रायोग्यक्षेत्रप्रवेश:-" कहं पुण वासापाउग्गं सेत्तं पविसंति? इमेण विहिणावाहिट्ठिया वसते-हि खेत्त गाहेतु वासपाउग्गं / कप्पं कहेतु ठवणा,सावणबहुलस्स पंचाहो / / 532 / / वाहिडित त्ति / जत्थ आसाढमासकप्पो कतो अण्णत्थ वा आसपणे हिता वाससामायारीखेत्त वसभेहिं गाहेति, भावये तीत्यर्थः / आसाढपुण्णिमाए पविट्टा पडिवयाओ आरब्भ पंच दिणा संथारगछारमल्लादीयं गेण्हति, तम्मि चेव पणगरातीए पञ्जोसवणाकप्पं कहें ति, ताहे सावलणलहुपंचमीए वासकालसामायारि ठवेंति। गाहा एत्यं अणभिग्गहियं,वीसातिरायंय वीसतीमासं। तेण परमभिग्गहितं, गिहिणातं कत्तिओ जाव / / 533 / / एत्थ त्ति। एत्थ आसाढपुण्णिमाए सावणबहुलपंचमीए वासपज्जोसविए वि अप्पणो अणभिग्गदियं, अहवा-जति गिहत्था पुच्छति-अओ ! तुज्झे एत्थ वरिसाकालं ठिया, अहण ठिया? एवं पुच्छिएहिं अणभिग्गहियंति संदिग्धं वक्तव्यं; इह अन्यत्र वाऽद्यापि निश्चयो न भवतीत्यर्थः। एवं संदिग्धं कि यत्कालं वक्तव्यं? उच्यतेवीसतिरायं वीसतिमांस जति अभिवाड्डियवरिसं तो वीसतिरायं जाव अणभिग्गहियं अहं चंदवरिसं तीसवीसतिरायं जाव अणभिग्गहियं भवति ( तेणति ) तत्कालात्परतः अप्पणो आभिमुख्येन गृहीतं अभिगृहीतं इह व्यवस्थिता इति इह ठिया मो वरिसाकालं ति / किं पुण कारणं तिवीसतिरातेव मासो / अप्पणो अभिग्गहियं गिहिणातं वा कहें ति आरतोण कहेंति ? उच्यतेअसिवादीकारणेहिं, अह व ण वासं न सुद्ध आरद्धं / अहिवड्डियम्मि वीसा, इयरस्स तु विंसती मासे / / 534|| कयाइ असिवे भवे, आदिग्गहणातो रायदुट्ठाइ। वासावासंण सुटुआरद्धं वासितुं। एवमादीहि कारणेहिं जइ अत्थति तो आणादिया दोसा। अहवा गच्छति ततो गिहत्था भणंति-एते सव्वण्णुपुत्तगा ण किंचि जाणंति, मुसावायं च भासंति। ठिवामो त्ति भणित्ता जेण णिग्गता / लोगो वा भणेज्जासाहू एत्थं वरिसारत्तित्तं ठिता अवस्सं वासं भविस्सति, ततो धण्णं विकणति,लोगो घरादीणि छादेति, हलादिकम्माणि वा संठवेति। अणिग्गहिते गिहिणातेय आरतो कते जम्हा एवमादिया अधिकरणदोसा तम्हा अभिवड्डियवरिस वीसतिराते गते गिहिणातं करिति / तिसु चंदवरिसे सवीसतिराते मासे गते गिहिणातं करेति, जत्थ अधिमासगो पडति वरिसं तं अभिवड्डियवरिसं भण्णति, जत्थ ण पडति तं चंदवरिसं, सो य अधिमासगो मासगो जुगस्सग्गंते मज्झे वा भवति, जति तो णियमा दो आसाढा भवन्ति, अह मज्झे दो पोसा। सीसो पुच्छतिकम्हा अभिवड्डियवरिसे वीसतिरातं, चंदवरिसे सवीसतिमासो? उच्यतेजम्हा अभिवड्डियवरिसो गिम्हे चेव सो मासो अतिक्रतो Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजुसवणाकप्प 240- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्य तम्हा बीसदिणा अणभिग्गहियं तं कीरति, इयरेसु तिसु चंदवरिसेसु विसतिमासा इत्यर्थः। गाहाएत्थ उ पणगं पणगं, कारणियं जा सवीसती मासो / सुद्धदसमीठियाण व, आसाढीपुन्निमा सवणा / / 537 / / जत्थ उ आसाढपुन्निमाए ठिय डगलादीयं गेहंति पजो-सवणाकप्पं च कहेति पंच दिणा ततो सावणबहुलपंचमीए पजोसवेंति, संखित्ताभावे कारणे पणगेसुंवुढे दसमीए पजोसर्वति, एवं पण्णरसीए, एवं पणगवड्डिता वजंति जा वासवीसतिमासो पुण्णो, सो यसवीसतिमासो भद्दवयसुद्धपंचमीएं युज्जति, अह आसाढसुद्धदसमीए वासाखेत्तं पविट्ठा / अहवाजत्थ आसाढमासकप्पो कओ तं वासपाउग्गं खेत अण्णं च णस्थि चासपाउग्गं ताहे तत्थेव पजोसवेंति , वासं च गाढं अणुवरयं आढत्तं ताहे तत्थेव पजोसवेंति, एक्कारसीओ आढवेउं डगलादीयं गेण्हति, पजोसवणाकप्प कहंति ताहे आसाढ पुणिमाए पनो सवें ति / एस उस्सग्गो / सेसकाल पजोसवेंताण अववाता। अववाते वि सवीसतिरातमासांतो परेण अतिक्कामेण वड्डति सवीसतिराते मासे पुण्णं, जति वासखेत्तं ण लब्भति तोरुक्खहेट्ठा वि पजोसवेयव्वं तं पुण्णिमाए पंचमीए दसमीएएवमादिपव्वेसु पजोयवेयव्वं, णो अपव्वेसु।सीसोपुच्छति-इयाणिं कह चउत्थी ए अपव्वे पज्जोसविज्जति ? आयरियो भणति-कारणिया चउत्थी अज्जकालगायरिएण पवत्तिया। कहं ? भण्णत्ते कारणं / कालगायरिओ विहरंतो उज्जेणिं गतो, तत्थ वासावासंतरंटितो , तत्थणयरीए बलमित्तो राया,तस्स कणिडो भायो भाणुमित्तो जुवराया, तेसिं भगिणी भणुसिरीणामा, तस्स पुत्तो बलभाणू णाम, सोय पगितिभद्दविणीययाए साहू पजुवासति, आयरिएहिं से धम्म कहितो पडिवुड्डो पव्वावितो य, तेहि य बलमित्तभाणुमित्तेहिं कालगजो पञ्जोसविते णिव्यिसितो कतो। केति ? आयरिया भणंति-जहा बलमित्तभाणुमित्ता कालगायरियाण भागिणेजा भवंति , माउले त्ति काउंसहतं आयरं करेंति, अब्भुट्ठाणादियं तओपुरोहियस्स अप्पत्तिय, भणति य-एस मुद्दपासडी वंतावितोहरो ण्णो अग्गतो पुणो पुणो उल्लावंतो आयरिएण णिप्पट्ठसिराकरणो कतो, ताहे सो पुरोहितो आयरियस्स पदुवो रायाण अणुलोमेहिं विप्परिणमेहिं ति, एते सतो महाणुभावा, एते जे ण पहेणं गच्छति तेण पहेणं जति रण्णो णागच्छति ताणि वा अक्कमति मो असिवं भवति, ताहे णिग्गता। एवमादियाण कारणाण अण्णतमेण णिग्गता विहरता पतिवाणं गवसंतेण पट्टिता पतिवाणसमणसंघस्स य अजकालगेहिं संदिटुंजावाहं आगच्छामि ताव तुज्झेहिं णो पज्जोसवियव्वं / तत्थ यं सायवाहणो राया सावतो, सो य कालगज एतं सोउं णिग्गतो, अभिमुहो समणसंघो य, महया विभूतीए पविट्ठो कालगजो। पविट्ठहि य भणिय-भद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविज़ति। समणसंघेण पडिवण्णं / ताहे रण्णा भणियं-तदिवसं मम लोगाणुवत्तीए इंदो अणुजा-एयव्यो होहिति साहू वेत्ति तेण ण पञ्जुवासिस्सं तो छट्ठीए पजोसवणा कजउ / आयरियहिं भणियंण वट्टति अतिकम्मिउं / ताहे रण्णा भणियं-तो अणागयचउत्थीए पजोसविनति। आयरिएण भणिय एवं भवउ / ताहे चउत्थीए पजोसविय। एवं जुगप्पहाणेहिं चउत्थी कारण पवित्ता स चेवाणुमता सव्वसाधूणा रण्णा अंतेपुरियाओ भणिता तुल्झे अट्टमासाए उववासं कातुं पडिवयाए सव्वखजभोजविहीहि साधू उत्तरपारणाए पडिलाभत्ता पारेह, पजोसवणाए अहम ति काउंपाडिययए उत्तरपारणयं भवति, तं च सव्वलोगेण वि कयं ततो पभिति मरहट्टदिसए सवणपूवउ ति वणो पवत्तो। इयाणि पंचगपरिहाणिमधिकृत्य कालावग्रह उच्यतेइय सत्तरी जहण्णां,असीति नउती दहुत्तरसयं च / जति वासति मग्गसिरे, दसराया तिन्नि उक्कोसा।।५३६।। पण्णासा पडिवज्जइ, चउण्ह मासाण मज्झओ। ततो उ सत्तरी होति,जहण्णो वा सुयग्गहो / / 537|| काऊण मासकप्पं, तत्थेव वियाणती तु मग्गसिरे। सालंबणाण छम्मा-सिओ अजेट्ठो उ उग्गहो होइ / / 538|| इह इति उपप्रदर्शन, जे आसाढचाउम्मासियातो सवीसतिमासो पण्णा दिवसा ते वीसुत्तरमज्झातो साधितो, सेसा सत्तरी, जे भद्दवयबहुलदसमीए पजोसावंति तेसिं असीतदिवसा मज्झिमो वासाकालोगह भवति, ते सावणपुण्णिमाए पजोसवें ति, तेसिं णिउत्ती चेव वासाऊ.. लोग्गहो भवति, से सावणबहुलदसमीए पोसवेंति, तेसि दसुत्तर दिन / ससम जेट्टो वासुग्गही भवइ, सेसंतरेसु दिवसपमाणं वत्तव्यं, पमाणति / प्पगारेहिं वरिसारत्तं एगखेत्ते कत्तियचउम्मा सियपडिवयाए अवरू / णिग्गंतव्वं / अह मग्गसिरमासे वासति, चिक्खल्लजला ओला पंथात अववातेण एक्क, उक्कोसेणं तिणि वा दसराया जाव तम्मि खेत्ते अत्थाने. : मार्गसिरपौणमासी या वेत्यर्थः / मग्गसिरपुण्णिमाए ज परता जति दि. सचिखल्ला पंथा, वासं वा गाढ अणवरयं वासति, जति विषलव ते तहा वि अवस्सं णिगंतव्वं, अहण णिगच्छति तो चजगुरुगा / एक पंचमासीतो जेट्ठोग्गहो जातो काउण मासगाही, जम्मि खेने पर आसाढमासकप्पो, तं च वासावासपाउग्गं खेत्तं अण्णम्मि अलई वासपाउग्गे खेत्ते जत्थ आसाढमासकप्पो कतो तत्थेव वासावासंदित. तीसे वासावासे चिक्खल्लाइएहिं कारणेहिं तत्थेव मग्गसिरं 'उता, एर सालवणाण कारणा, अववाते छम्मासितो जेट्ठोगहो भवतीत्यर्थः। गाहाजति अत्थि पयविहारो, चउपाडिवयम्मि होति णिग्गमणं। अहवा वि अणिंतस्स उ, आरोवणयाएँ णिहिट्ठा।। 536 // वासाखेत्ते णित्विग्घेण चउरो मासा अस्थितु कत्तियचाउस्मार परिकमिउ मग्गसिरबहुलपडिवयाए णिगंतव्वं / एसो चेव चउपाडिवरू, चउपाडिवए अणिताण अविसद्दातो एसेव चउलहू सवित्यारो, जहा गुट वण्णिओ, वितियसुत्ते संभोगसुत्ते वा तहा दायव्वो चउपाडिवए, अपन) अतिक्कते वा णिते कारणे णिदोसा। तत्थ अपत्ते इमे कारणाराया कुंथू सप्पे, अगणि गिलाणे य थंडिलस्सऽसती। एएहि कारणेहिं, अप्पते होति निग्गमणं / / 540 / / Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजुसवणाकप्प 251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्रुसवणाकप्प गया दुटो, सप्पो वसहिं पविट्ठो कुंथुहिं वा वसही संसत्ता , अगणीण वा वसही, दड्डा, गिलाणस्स पडिचरणटुं, गिलाणस्स वा ओसहहेउं, योडेलस्स या असति, एतेहिं कारणेहि अप्पते चउप्पाडिवए णिग्गमणं ग्दति। अहवा इमे कारणाकाइयभूमीसंघा-तिए य संसत्तदुल्लभे मिक्खे। एहिँ कारणेहिं, अप्पते होति निग्गमणं / / 541 / / काइयभूमिसंघाए संसत्ती दुल्लभं वा भिक्खं जातं, आयपर-समुत्थेहि वादोलेहि मोहोदओजाओ, असिवं वा उप्पण्ण। एतेहिं कारणेहिं 'अप्पते' जियामण भवतिः चउप्पाडिवए अनिक्कते निग्गमो इमेहिं कारणेहिंदासं वण उवरमती, पंथा वा दुग्गमा सचिक्खल्ला। एहि कारणेहिं, अतिकंते होति निग्गमणं / / 542 / / असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलण्णे। आगाढकारणेणं, अतिकंते होइ निग्गमणं / / 543 / / अळले. यासाकाले वासनोवरमइ, पंथो वा दुग्गमो अइजलेण सचिक्खल्ली य। एवमाइएहि कारणेहिं चउप्पा डिवए अइकते णिग्गमणं भवति // 542 / अहवा इमे कारणाअसिवं ओमं वा वाहिं वा रायदुट्ट वोहिगाssदिभयं वा आगाड, आगाढकारणेण वा ण णिग्गच्छति। एतेहिं कारणेहि चरप्पाडिवए अतिकते अणिग्गमणं भवति। एसा कालठवणा गता। नि० चू०१०३०। येन शुक्लपञ्चमी उच्चारिता भवति स यदिपर्युषणायां द्वितीयांतोऽष्टम करोति तदैकान्तेन पञ्चम्यामेकाशनकं करोति, उत यथा रुच्येति ? प्रश्ने , उत्तरम् -अत्र येन शुक्लपञ्चमी उच्चारिता भवति तेन मुख्यवृत्त्या तृतीय तोऽष्टमः कार्योऽथ कदाचित् द्वितीयातः करोति तदा पञ्चम्यामेकाशनकरणप्रतिबन्धो नास्ति, करोति तदा भव्यमिति।।१४।। 901 प्रका०। (7) वर्षासुसक्रोशं योजनमवग्रहःवासावासं पजोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा / सवओ समंता सक्कोसं जोअणं उग्गहं ओगिण्हित्ता णं चिट्ठिउं अहालंदमवि उग्गहे ||6|| (जासाबास ति) वर्षावासं चतुर्भासकम्। (पजोसवियाण ति) पर्युषितानां स्थितानांनिर्ग्रन्थाना साधूना , निर्ग्रन्थीनां साध्वीनां वा सर्वतश्चतसृषु दिक्षु समन्तात् विदिक्षु च सक्रोशं योजनमवग्रहं अवगृह्य (अहालंदमवि ति), अथेत्यव्ययं, लन्दशब्देन काल उच्यते, तत्र यावता कालेनोदका करः शुष्यति तावान्कालो जघन्यं लन्द, पञ्चाहोरात्रा उत्कृष्ट लन्द, तन्मध्ये मध्यमं लन्द, लन्दमपि कालं यावत् स्तोककालमपि अवग्रहे स्थातु कल्पते. नतु अवग्रहाबहिः; अपिशब्दात् अलन्दमपि बहुकालभाषि यावत्षण्मासानेकत्रावग्रहे स्थातुं कल्पते, नाऽवग्रहाद् बहिः, गजेन्द्रपदाऽऽदिगिरमखलाग्रामस्थितानां षट्सु दिक्षु उपाश्रयात्साईक्रोशद्वयं, गमनाऽऽगमने पञ्चक्रोशावग्रहः यत्तु विदिक्षु इम्युक्तम्, तद् / व्यावहारिकविदिगपेक्षया, नैश्चयिकविदिशामेकप्रदेशाऽऽत्मकत्वेन तत्र गमनासंभवात, अटवीजलाऽऽदिना व्याघातेषु त्रिदिक्को द्विदिक एकदिक्को वा अवग्रहो भाव्यः / / 6 / / कल्प०३ अधि०६क्षण। (8) क्षेत्रस्थापना / इयाणिं खत्तठवणाउभयो वि अद्धजोयण, अद्धक्कोसं व तह भवति खेत्तं / होति सकोसं जोयण, मोत्तूणं कारणज्जाए।। 544 / / उभयो ति। पब्बावरेण दक्खिणुत्तरेण वा। अहवा भउओ त्ति सव्वओ समंता अद्धजोयणं सह अद्धकोसेण एगदिसाए खेत्तपमाणं भवति, उभयतो वि मेलितं गतागतेन वा सकोसजोयणं भवति, वासासु एरिसं खेत्तट्टवणं ठवेति, क्षेत्रावग्रहं गृह्णातीत्यर्थः। सोय खेत्तावग्गहो संववहार पडुच ठदिसं भवति। जओ भण्णतिउम्ढमहोतिरियम्मि वि, अद्धक्कोसं हवतिं सव्वतो खेत्तं / इदंपदमादिएसुं, छद्दिसि सेसेसु चउपंच / / 545 / / उड्डू अहो पुव्वादओ य तिरियदिसाओ चउरो / एतेसु छसु दिसासु गिरिमज्याट्ठिताण सव्वतो समंता सकोसं जोयणं खेत्तं भवति / तं इदंपयपव्वत्ते छदिसि संभवति, इंदपयपव्वतो गयग्गपव्वतोभण्णति। तस्स उवरिं गामो। एवं छविसि पिगामे संभवो भवति। आतिग्गहणातो अण्णो विजो एरिसोपव्वतो भवति तत्थ विछद्दिसाओ संभवंति। सेसेसुपव्वतेसु चउदिसं या पंचदिसं भवति / समभूमीए वा णिव्वाघाएण चउद्दिसि संभवति / वाघायं पुण पडुच नो भवति। तिण्णि दुवे एक्का वा, वाघाएणं दिसा हवति खेत्ते। उज्जोणीतो परेणं, झिण्णमडवं तु अक्खेत्तं / / 546 / / एगदिसाए वाघते तिसु दिसासु खेत्तं भवति, दोसु दिसासु वाघते दासु दिसाखेत्तं भवति, तिसु दिसासु वाघाते एगदिसु खेत्तं भवति / को पुण वाघातो? महाडबी पव्वतादि, विसमंबा समुद्दाकद विसमं समुद्दादिजलं वा। एतेहिं कारणेहि ता चउदिसाओ रुद्धाओ, जेण गामगोकुलादी नस्थि, जं दिसं याघातो तं दिस अखुजाणं(?) जाव खेत्तं भवति, परओ अखेत्तं जं छिण्णमडघंणामजस्स गामरसणगरस्स णिग्गमस्सवा उग्गहे सव्वासु दिसासु अण्णो गामोणस्थि, गोकुलं वा, तत्थडण्णं मडवं तं च अखेत्तं भवति। णदिमादिजलेसु / इमा विधिदगघट्ट तिण्णि सत्त व, उदुवासासु ण हणंति ते खेत्तं / चतुरट्ठादिहणंती, जं घट्टे को वितु परेणं / / 547 / / दगघट्ठो णाम-जत्थ अद्धजंघा जाव उदंग, उडुबद्धे तिण्णि दगसंघट्टा खेत्तोवघातं ण करेंतिते भिक्खायरियाए गयागएण य भवंतिण हणंति य खेत्तं वासासु सत्तदगसंघट्टाओवहणतिखेतं, जे गयागतेण चोद्दसउदुबद्धे चउरो दगसंघट्टाओव हणतिखेत्तं, ते गयागतेण अट्ठवासासु अट्ठदगसंघट्ठा उ वहणंति खेत्तं, गयागतोण सोलस, जत्थ संघट्टातो परतो उदगतेण एगेण वि उदुबद्धे वासासु चउवहं संगच्छति खेत्तं सो य लेवो भण्णति। गता खेत्तठवणा। नि० चू० 10 उ० / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजुसवणाकप्प 242 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्प (6) भिक्षाक्षेत्रम्वासावासं पजोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाणं वा णिग्गंथीण वा सव्वओ समंता सक्कोसं जोअणं भिक्खायगंतुं पडिनियत्तए।।१०।। "वासावास'' इत्यादिता 'गंतुपंडिनिअत्तए'' इतिपर्यन्तं सुमम्॥१०॥ पञ्चमहार्णवसूत्रम्जत्थ नई निचोयगा निच्चसंदणा नो से कप्पइ सव्वओ समंता सक्कोसं जोअणं भिक्खायरियाए गंतुं पाडिनियत्तए / / 11 / / एरावई कुणालाए, जत्थ चक्किआ सिआएंग पायं जले किचा एगं पायं थले किया एवं चक्किया एवं णं कप्पइ सव्वओ समंता सक्कोसं जोअणं गंतु पडिनियत्तए।।१२।। एवं च नो चक्किआ एवं से नो कप्पइ सव्वओ समंता गंतुं पडिनियत्तए / / 13 / / "जत्थ नई " इत्यादितो "नियत्तए " ति / यत्र नदी (निञ्चोयगा) नित्योदका प्रचुरजला (निञ्चसंदणं त्ति) नित्यस्यन्दना नित्यस्त्रवणशीला, सततवाहिनीत्यर्थः // 11 // “एरावई" इत्यादितो "नियत्तए त्ति" यावत्सुत्रद्वयी। तत्र यथा ऐरावती नाम्नी नदी कुणालायां पुर्यो सदा द्विक्रोशवाहिनी तादृशी नदी लवयितुं कल्प्या, स्तोकजलत्वात्। यतः (जत्थ चक्किय त्ति ) यत्र एवं कर्तुं शक्नुवन्ति। किंतदित्याह-(सिय त्ति) यदि (एंग पायमित्यादि) एकं पादं जले कृत्वा जलान्तः प्रक्षिप्य, द्वितीय चजलादुपरि उत्पाट्य (एवं चक्कय त्ति) एवं गन्तुं शक्नुयात्, तदा तामुत्तीर्य परतो भिक्षाचर्या कल्पते॥१२॥ यत्र चैवं कर्तुं न शक्नुयाजलं विलोड्य गमनं स्यासत्र गन्तुं न कल्पते, यतो जघर्ट्स यावदुदकं दकसंघट्टो, नाभर्यावल्लेपो, नाभेरुपरि, लेपोपरि, तत्र शेषकाले त्रिभिर्दकसंघट्ट सति क्षेत्रं नोपहन्यते, तत्र गन्तुं कल्पते इति भावः / वर्षाकाले च सप्तभिः क्षेत्र नोपहन्यते, चतुर्थे अष्टमे च दकसंघट्टे खसि क्षेत्रमुपहन्यते एव, लेपस्तु एकोऽपि क्षेत्रमुपहन्ति, नाभेर्याक्ज्सतसद्भावे तु गन्तुं न कल्पते एव, किं पुनर्लेपोपरि नाभेरुपरि जलासद्भावे // 13 // वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगइ एवं वुत्तपुव्वं भवइ,दावे भंते ! एवं से कप्पइ दावित्तए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए / 14 / / वासावासं पजोसवियाणं अत्थेगइयाणं एवं वुत्तपुव्वं भवइ, पडिगाहे भंते ! एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ दावित्तए / / 15 / / वासावासं पजोसवियाणं अत्थेगइयाणं एवं वुत्तपुव्वं भवइ, दावे भंते ! पडिगादेहि भंते ! एवं से कप्पइ दावित्तए दि पडिगाहित्तए वि॥१६॥ वासावासमित्यादितः ' पडिगाहित्तए ति " पर्यन्तस्य सूत्रत्रयस्य शब्दार्थः सुगमः। भावार्थस्त्वयम्-चतुर्मासीस्थितानाम्।अस्त्येतत् यत् एकेषां साधूनां गुरुभिरेवम् (उत्तपुव्वं ति ) पूर्वमुक्तं भवति यत् (भने ति हे भदन्त कल्याणिन शिष्य ! ( दावे त्ति ) त्वं ग्लानाय अशनाऽऽदि दद्यास्तदा दातुं कल्पते, नतु स्वयं प्रतिग्रहितुम्। यदि चैवमुक्तं भवति यः स्वयं प्रतिगृण्हीयाः ग्लानाय अन्यो दास्यति तदा स्वयं प्रतिगृहीत्यु भवति तदा दातुं प्रतिग्रहीतुं उभयमपि कल्पते। 14 / 15 / 16 (10) नवरसविकृतिनिषेधःवासावासं पञ्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंधीन वा हट्ठाणं आरुग्गाणं वलियसरीराणं इमाओ नव रसविगइसे अभिक्खणं अमिक्खणं आराहित्तए / तं जहा-खीरं 1 दहि / नवणीअं३ सप्पिं तिल्लं 5 गुडं 6 महुँ 7 मजं 8 मंसं // 17 वासावासमित्यादितो ' मंसं ति पर्यन्तम्। तत्र (दट्ठाणं ति दृष्टः तारुण्येन समर्थानां, तरुणा अपि केचिद्रोगिणो निर्बलशरीराश्च भवन्ति अत उक्तम्-(आरोग्गाणं वलिअसरीराणं ति) आरोग्याना बलबच्छर णामीदृशानां साधूनामिमा वक्ष्यमाणाः नवरसप्रधाना विकृतयोऽमोर 2 वार वारमाहारयितं न कल्पन्ते, अभीक्ष्णग्रहणात्कारणे कल्पन्त नवग्रहणात्कदाचित्पक्कानं गृह्यतेऽपि, तत्र विकृतयो द्वेधासाञ्चटिक: असाञ्चयिकाश्च। तत्राऽसाञ्चयिका या बहुकालं रक्षितुमशक्या दुमार धिपक्वानाऽऽख्याः / ग्लानत्वे गुरुबालाऽऽद्युपग्रहार्थ श्राद्धा ग्राहः साञ्चयिकास्तु घृततैलगुडाख्यास्तिस्रस्ताश्च प्रतिलम्भन गृही यन्त्र महान्कालोऽस्ति, ततो ग्लानाऽऽदिनिमित्त ग्रहीष्यामः, स वदेत् गगाई चतुर्मासी यावत्प्रभुताः सन्ति, ततो ग्राह्या बालाऽऽदीनां च देय : तरुणानाम् / यद्यपि मधुमासमधनवनीतवर्जन यावजीवमस्त्येवल्या अत्यन्तापवाददशायां बाह्यपरिभोगाऽऽद्यर्थ कदाचिद् गहाईचतुर्मास्यां सर्वथा निषेधः। कल्प०३ अधि०६ क्षण। (11) इयाणि दव्वट्ठावणादव्वट्ठवणाऽऽहारे, विगती संथारमत्तए लोए। सच्चित्ते अचित्ते, वोसिरणं गहणवहणादी॥ 548|| आहारे विगतीसु संथारगो मत्तगो लोयकरणं सचित्तो से हो इगल:दियाण य अचित्ताणं, उदुबद्धे गहीयाणं वोसिरणं, वासापउग्गाण संथा. दियाण गहणं,उदुबद्धे बिगहियाण वत्थपायादीण धरणं डगलगादिया य कारणाणं / नि० चू० 10 उ०। इदाणिं विगतिठवण त्ति दारं। संचतिअत्ति गाथापच्छद्ध विगती दुह. संचतिया, असंचतिया य / तत्थ असंचइया खीरदहिमसणवणीय उग्गाहिमगा य। सेसा उघयगुलमजखजगविहाणा य संचतिगाओ तर महुञ्जमंसठाणा य अप्पसम्थाओ। सेसा खीरादिया पसत्थाओ। एसस वा कारणे पमाणपत्तासु घेप्पमाणीसु दव्वविवदि कता भवति! Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रुसवणाकप्प 243 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्रुसवणाकप्प णिक्काणे अण्णतरगतिग्गहे दोष उच्यतेविगतिं विगतीभीतो, विगतीगयं जो तु मुंजते भिक्खू / विगती विगतिसहावा, विगती विगति बला नेति / / 550 / / विगतीए गहणम्मि वि, गरहियविगती य होइ कजम्मि। गरहा लाभ पमाणे, पच्चय पावप्पडीयारो।। 551 / / पसत्थविगतिगहणं, तत्थ वि य असंचइयजाओ उ। संचतिय ण गेण्हती, गिलाणमादीण कट्ठा / / 552 / / विगति खीरातिय, वीभच्छा विकृता वा गतीति विगती। सा य तिरियगजी, मरगगती, कुमाणुसत्तं, कुदेवत्तं च / अहवा विविधा गती, संसारेत्यर्थः / अहवा संजमो गती, तस्स भीतो विगतियं ति विगतिप्रतिजारमित्यर्थः / विगती वा जम्मिदव्वे गतातं विगतिमं भक्षति। तं पुण भष्ट पाणं वा, जो तं विगति विगतिगतं भुंजति तस्स इमे दोगादिगतिसभावत्ति खीरातिया भुत्ता, जम्हा संजमसभावातो विगतिसभाव कति कारणे कजं उवचरित्ता पढिज्जतिविगती विगतिसभावा। अप-विगधनभावा / तं विकृतस्वभावं विगतसभावं जो भुंजति तं सा बला परणादिशं विगति णेति, प्रापयतीत्यर्थः / जम्हा एते दोसातम्हा विगती मालारेयव्या। तो उदुबद्ध वासासु विसेसेण जम्हा साधारणे काले अतीव मोहुजयो भवति / विजुगजियाइएहि यतम्मि काले मोहो दिप्पति। कारणे वितियपदेण गेहेजा, आहारेज वा गेलण्णट्ठा गेण्हेजा गिलाणो वा आहारेख एवं नायरियबालबुडूटुब्बलस्स बागच्छोवग्गहा घेप्पज्जा / अथवा गड्ढाणियधण णिमंतेजा / पसत्थाहिं विगतीहि तत्थिमा विधी पसत्यविगतीतो खीरं दहिं णवणीय घयं गुलो तेल्लं ओगाहिमगं च अप्पसथा उमहुमज्जमसा आयरियबालबुड्ढादियाणं कज्जेसु पसत्था असंचझ्या उ खीराइया घेप्पंति। संचतिया उघयादिया उ ण घेप्पंति। तासु खांणासु जया कज्जभया ण लब्भति तेण ताओ ण घेप्पति / अह सड्ढानिबंधेष भणेज ताहै ते वत्तव्वा! जया गिलाणातिकज्ज भविस्सति त्या घेत्थानो,बालबुड्डसेहाण य बहूणि कजाणि उप्पजंति / महतो य कालो पत्तो तं उप्पण्णे कत्थेण घेत्थामो त्ति ताहे सड्ढा भणति अम्ह घरे अस्थि अचित्तं, दिगतिदव्वं च पभूतमत्थि जाविच्छा ताव गेण्हह, गिलाणको वि दाहामो / एवं भणित्ता संचइयं पि गिण्हेति / गेण्हताणं य अविच्छिण्णभावे भणंति-अहिला पञ्जत्तं / सो य गिहित्ता बालबुद्धदुबला दिजतिबलियतरुणाणं ण दिज्जति / एवं पसत्थविगतिगहणं महपऊपंसादिगरहियदिगतीणं गहणं / आगाढे गिलाणकज्ज गरहालाभपमाणेति गरहंतो गेण्हति / अहो कजमिण,किं कुणिमो, अण्णहा गिलाणो पषमण्ड। गरहियविगतिलाभे य पमाणपत्तं गेण्हंति, णो अपरिमितमित्यर्थः / जावति ता गिलाणस्स उवउज्जति, तमत्ताए घेप्पमाणीए दातारस्स पच्चयो भवति जोव अप्पणो अभिलासो तस्स य पडिधाओ कश्रो भवति / पार्वादट्ठीण वा पडिघातो भवति / पुवुत्ता एते गिलाणगा गेहति, ण जीहलालयाए त्ति। एवं विगतिट्टवणा गता। नि० चू० 10 उ०। (12) आहारस्थापनम् 'आहारे त्ति ' पढमं द्वारम्। अस्य व्याख्यापुव्ववाहारोसवणं, जोगविवड्डीय सत्ति उग्गहणं। संचतियमसंचतिए, दव्वविवड्डीय सत्थाओ||५४६।। जो उदुवडितो आहारो, सो ओसवेयव्वो। ओसारेयव्वो, परियागेत्यर्थः / जइसे आवस्सगपरिहाणी ण भवति, तो चउरो सो उववासी अत्थउ। अह ण तरति तो चत्तारि मासा दिवसूण / एवं तिणि मासा अत्थित्ता पारेउ / एवं जइ जोगपरिहाणी तो दोसा सा अत्थउ मासं वा अतो परं दिवसहाणी जाव दिणे दिणे आहारेओ जोगविवड्डीए इमा जोगविवड्डी जा णमोकारइत्तो सो पोरिसीए पारेउ। जो पोरिसिओ पुरिमलेण पारेउ। जो पुरिमड्डइतो एकासणय करेउ। एवं जहासत्तीए जोगविवड्डीए कायव्वा। किं कारणं? वासासु चिक्खल्लचिलिविले दुक्खं भिक्खागहणं कजंति, सण्णभूमि च दुक्खं गम्मथंडिला हरियमातिएहिं दुविसो (2) अजा भवंति / आहारट्ठवण त्ति गयं / नि० चू०१० उ०। नित्यभक्तिकाऽऽदीनाम्जे भिक्खू पजोसवणाए इत्तिरियं पि आहारेति, आहारंतं वा साइजइ।।५१॥ गाहाइत्तिरियं पीऽऽहारं, पज्जोसवणाएँ जो उ आहारे। तयभूति विंदुमादी, सो पावति आणमादीणि || 564|| इत्तिरियं णाम-थोवं, एगसिवमवि अलद्धलवणादि वा। अहवा-ऽऽयारे तहामेत्तं सातिमिरियं चुण्णगादि भूतिमेत्तपाणगे बिंदुमतं / तयेत्ति तिलतुसतिभागमेत्तं / भूतिरिति यत्प्रमाणमड्डष्टप्रदेशनीसंदंसकेन भस्म गृह्यते / पानके विन्दुमात्रमपि आदिग्गहणातो खातिमं पि थोवं जो आहारति पजोसवणाए, सो आणादियादोसा पावति, चउगुरुंच पच्छिन्त। पुर्वसुतञ्च करंतस्स इमो गुणो भवतिउत्तरकरणं एगग्गता य आलोयवेति वंदणया। मंगलधम्मकहा वि य, पुवेसु य तहमणा होति / / 565 / / अट्ठछचउत्थं संवच्छरचाउम्मासपक्खेय। पासहिय तवे भणिते, वितियं असहू गिलाणे य / / 566 / / उत्तरगुणकरणं कतं भवति, एगग्गया कया भवति, पज्जोसबणासु य वरिसिया आलोयणा दायव्वा / वग्सिाकालस्स य आदीए मंगलं कते भवति। सढाण धम्मकहा कायव्वा। पज्जोसवणाए जइ अट्ठम न करेति तो चउगुरु, चाउम्मासिए छद्ध न करेति तो चउलहुं, पक्खिए चउत्थंण करोति तो मासगुरु। जम्हा एते दोसा तम्हा जहाभणितो तवो कायव्यो। वितिय अववादेण ण करेजा, उववासस्स असहू न करेजा, गिलाणो वा न करेजा / गिलाणपडियरगो वा सो उववासं वेयावच्चं व दो वि काउं असमत्थो। एवमादिहिं कारणेहिं पज्जोसवणाए आहारे तो सुद्धो। नि० चू०१० उ०1 (13) एवमाहारविधिमुक्त्वा पानकविधिमाहवासावासं पोसवियस्स निश्चभत्तियस्स मिक्खुस्स कप्पंति सव्वाइं पाणगाइं पडिगाहित्तए ? वासावासं पजो Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रुसवणाकप्प 244 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पजुसवणाकर सवियस्स चउत्थभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाई सिया, कप्पइ से तदिवसं तेणेव भत्तट्ठणं पज्जोसवित्तए। नो के पडिगाहित्तए / तं जहा-ओ से इम, संसे इम, चातुलोदंग / कप्पइ दुचं पिगाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खनिए वासावासं पज्जोसवियस्सछट्ठभत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंति तओ वा, पविसित्तए वा / / 26 // पाणगाइं पडिगहित्तए / तं जहा-तिलोदंग, तुसोदंग, जवोदंग वासावासमित्यादितः"पविसित्तए त्ति' यावत् तत्र (संखादांतेदवा। वासावासं पज्जोसावियस्स अट्ठमभत्तियस्स भिक्खुस्सतओ स्सेति) दत्तिपरिमाणवत इत्यर्थः। तत्र दत्तिशब्देनाऽल्पं बहु वा यदेववक पाणगाई पडियाहित्तए / तं जहा-आयामं वा, सोवीरं वा, दीयतेतदुच्यते इत्याह-(लोणासायण त्ति ) लवणं किल स्तोक दी सुद्धवियर्ड दा / वासावासं पजोसावियस्स विकिट्ठभत्तियस्स यदि तावन्मानं भक्तपानस्य गृह्णाति साऽपि दत्तिर्गण्यते। पञ्चेत्युप्लस भिक्खुस्स कप्पति एगे उसिणवियडे पङिगाहित्तए। से वि य णं तेन चतस्रस्तिस्त्रो द्वे एका षट्सप्त वा यथा अभिग्रह वाच्याः / सनग्रस्ट असित्थेनो वि य णं ससित्ये / वासावासं पजोसवियस्स सूत्रस्य अयं भावः--यावत्योऽन्नस्य पानकस्य वा दत्तयो रक्षिता भदाने भत्तपडियाइक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पइ एये उसिणवियडे तावत्य एव तस्य कल्पन्ते, न तु परस्परं समावेशः कर्तु कल्पत में पडिगाहित्तए, से वियणं असित्थेनो चेवणं ससित्थे। से विय दत्तिभ्योऽतिरिक्त ग्रहीतुं कल्पते। णं परिपूएनो चेव णं अपरिपूए से वि य णं परिमिएनो चेव णं (15) सप्तगृहमध्ये निषेधःअपरिमिए। से वियणं बहुसंपन्ने, नो चेवणं अबहुसंपन्ने // 25 // वासावासं पज्जोसवियाण नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधी वासेत्यादित "संपन्ने 'इति यावत् / तत्र नित्यभक्तिकस्य सर्वाणि वाजाव उवस्सयाओ सत्तघरंघरं संखडिं सन्निअट्टचारिस्सइइए पानकानि कल्पन्ते, सर्वाणि च आचाराङ्गोक्तानि एकविंशतिरत्र वक्ष्यमा- एगे पुण एवमाहंसु-नो कप्पइ जाव उवस्सयाओ परेणं संखां णानि नव वा / तत्राऽऽचाराङ्गोक्तानि इमानि सन्नियट्टचारिस्स इत्तए / एगेपुण एवमाहसुनो कप्पइ जर "उस्मेश्म संसेइम, तंदुलतिलतुसजवोदगायाम / उवस्सयाओ परंपरेणं संखडिं संनिअट्टचारिस्स इत्तए।। 26 सोवीर सुद्धवियमं, अंवय अवांडय कविठ्ठ॥ 1 // वासावासमित्यादितः 'इत्तए त्ति " यावत् / तत्रोपाश्यादर माउलिंग दक्ख दाडिम-खजुर नालिकेर कयर वोरजलं / (सत्तधरतरति) सप्तगृहमध्ये ( संखडि त्ति ) संस्कृतिरोदनपाकः / आमलगं चिंचा पाणगाई पढमंग भणिआई॥२॥ गन्तुं सार्धान कल्पते, भिक्षार्थतत्र न गच्छदित्यर्थः / एतावता श्याम एषु पूर्वाणि नव तु अत्रोक्तानि, तत्र उत्स्वेदिम-पिष्टाऽऽदिभृतह- गृहमन्यानि चषड् गृहाणि वर्जयेदिति। तेषामासन्नत्वेन साधुगुणानस्ताऽऽदिधावनजलं संस्वेदिमयत्पर्णाऽऽद्युत्काल्यशीतोदकेन सिच्यते गितया उद्माऽऽदिदोषसंभवात्। कथंभूतस्य साधोः ? (सन्नि अद्याप तञ्जलं, चाउलोदगं तंदुलधावनजलम् / तिलोदकंतिलधावनजलं, त्ति) निषिद्धगृहेभ्यः सन्निवृतः संश्चरति यस्तस्य, प्रतिषिद्धवर्डकतुषदोकंब्रीह्याऽदितुवधावनजलम् यत्रोदक्यवधावनजलम्। आयामकोऽ- त्यर्थः / बहवस्त्वेवं व्याचक्षतेसप्तगृहान्तरे संखडि जनसंकुल श्रावण, सौवीरं काञ्जिकं, शुद्धविकटगउष्णोदकम् ।एषु चतुर्थभक्तिकस्य वारालक्षणां गन्तुं न कल्पते / अत्रार्थे सूत्रकृमतान्तर याह - उत्सवेदिमसंस्वेदिमतन्दुलोदकाख्यानि त्रीणि पानकानि कल्पन्ते / पुणेत्यादि) द्वितीयमते-(परेणति ) शय्यातरगृहम्, अन्यानिक षष्ठभक्तिकस्य आयामकसौवीरशुद्धविकटानि, ततःपरं विकृष्टभक्तिकानां गृहाणि वर्जयेत्। तृतीयमते-(परंपरेणेति ) शय्यातरगृहं, तत एका तुएक मुष्णोदकं कल्पते, तदप्यसिकथम् यतः प्रायेणाष्टमोऽर्द्ध तपस्विनः ततः परं सप्त गृहाणि वर्जयेदिति भावः / / 27 // कल्प०३ अधि०६३ शरीरं देवताऽधितिष्ठति। (भत्त--पडियाइक्खियरस त्ति) प्रत्याख्यात (16) उदउल्लंभक्तस्य, अनशनिन इत्यर्थः / तस्याऽपि एकमुष्णोदकं कल्पते, तदपि वासावासं पञ्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गथाण वा नि-गांधी असिक्थं, तदपि परिपूर्त वस्त्रगलितम्। अपरिपूते तृणाऽऽदेललग-नात्; वा उदगउल्लेण वा ससिणिवेण वा काएणं असणं वा पाणी तदपि परिमितम, अन्यथा अजीर्णे स्यात्, तदषि बहुसंपूर्णम् ईषद- खाइमं वा साइमं वा आहारित्तए।॥४२॥ संकि-माहु भंते त. परिसमाप्तं संपूर्णम्। अतिस्तोके हि तृण्मात्रस्याऽपि नोपशम इति / / 25 / / / सिहाययणा पन्नता / तं जहा-पाणी, पाणिलेडा, ना (14) दत्तिसंख्यया ग्राह्यग्रहणम् नहसिहा, भभुहा, अट्ठरुट्ठा, उत्तरुट्ठा। अह पुण एवं जाणिडाविवासावासं पज्जोसवियस्स संखादत्तियस्स भिक्खुस्स कप्पंती। गओदए मे काए छिनसिणेहे, एवे से कप्पइ असणं वा पाय पंच दत्तीओ भोयणस्स पाडगाहित्तए पंचपाणगस्स,अहवा चत्तारि खाइमं वा साइमं वा आहारित्तए।। 43 // भोअणस्स पंच पाणगस्स, अहवा पंच मोअणस्स चत्तारि (वासावासमित्यादि) तत्र (उदगउल्लेत्यादि) रदक पाणगस्सा तत्थणं एगा दत्ती लोशासायणमित्तमवि पडगाहिआद्रेणगलद्विन्दुयुक्तेन सस्निग्धेन इषेदुदक यु के न कार्य Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 245 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्प जनाइऽदिकमाद्दारयितुं न कल्पते ॥४२॥(से किमाहु भंते त्ति) तत्र स | तीर्थकर: किकारणमाह ? इति शिष्येण षष्ठे गुरुराह-(सत्ते-त्यादि) सप्त स्नेहाऽयतनानि जलावस्थानस्थानानि प्रज्ञप्तानि जिनैर्येषु चिरेण जलं शुष्याते तमिति / तद्यथा-पाणी हस्ती, पाणिरेखा आयुरेखाऽऽदयः, तासु हे चिरं जलं तिष्ठति, नखा अखण्डा नखशिखास्तदग्रभागाः, भमुहा पूनती रोपणि / (अह-रुट्टा) दाढिका (उत्तरुट्ठा) इमश्रूणि। अथ पुनरेवं जानाति-यत् विगतोदको विन्दुरहितः छिन्नस्नेहः सर्वथा निर्जलो मम काठः संजातः तदा कल्पते अशनाऽऽद्याहारयितुम्॥४३॥ सूक्ष्माणिवावासं पज्जोसबियाणं इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा झाई अट्ठ सुहुमाई जाई छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथीण वा अभिक्खणं अभिक्खणं जाणियव्वाइं पासियट्वाई पडिलेहियव्वाई भवंति / तं जहा-पाणसुहुमं१, 2, वीयसुहुमं 3, हरिय-सुहुमं 4, पुप्फसुहुमं 5, अंडसुहुमं 6, लेणसुहुमं 7, सिणेहसु-हुमं 8........... // 44 // (अट्ट सुमाई इत्यादि) अष्ट सूक्ष्माणि (आभिक्खणं ति) वारं वारं इवावस्थानाऽऽदि करोति तत्र तत्रज्ञातव्यानि सूत्रोपदेशेन (पासियव्वाई जि) चक्षुषा द्रष्टव्यानि (पडिले हियध्वाई ति) ज्ञात्वा दृष्टा च प्रतिलखिल्यानि परिहर्तव्यतया विचारणीयानि / कल्प०३ अधि०६ क्षण (प्रापसूक्ष्नाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (17) भिक्षुरिच्छेद् गृहपतिकुलम्शासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा उयज्झायं वा थेरं वा पवित्तिं वा गणिं दा गगहरं वा गणावच्छेइयं जं वा पुरओ काउं विहरइ, कप्पइ से आपुच्छिउं आयरियं वा जाव जं वा पुरओ काउं विरहइइच्छामिणं भंते ! तुज्झेहिं अब्भणुण्णाए समाणे गाहा-वइकुलं मत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, ते य से वियरिज्जा एवं से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, ते य से नो वियरिज्जा, एवं से नो कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पदिसित्तए वा, से किमाहु भंते ? आयरिया पच्चवायं जाणंति / / 46|| अथ ऋतुबद्धवर्षाकालयोः सामान्या सामाचारी, वर्षासु विशेषेघोच्यत-वासावासभित्यादितः 'जाणंतीति पर्यन्तं सूत्रम् / तत्र (आयरिय छेत्यादि) आचार्यः सूत्रार्थदाता ; दिगाचार्यो वा। उपाध्यायः सूत्राध्यापकः स्थविरो ज्ञानाऽऽदिषु सीदतां स्थिरीकर्ता, उद्यतानामुपबृहकश्च, प्रवर्तको ज्ञानाऽऽदिषु प्रवर्तयिता : गणी यस्य पार्श्वे आचार्याः सूत्राण्यभ्यस्यन्ति; गणधरस्तीर्थकृच्छिष्यः, गणावच्छेदको यः साधून गृहीत्वा बहिःक्षेत्रे आस्ते, गच्छार्थ क्षेत्रोपधिमार्गणाऽऽदौ प्रधावनाऽऽदिकर्ता सूत्रार्थोभयवित्, यं चान्यं वयःपर्यायाभ्यां लघुमपि पुरतः कृत्वा गुरुत्वेन कृत्वा विहरन्ति तमापृच्छयैव भक्तपानाऽऽद्यर्थ गन्तु कल्पते, न त्वनापृच्छ्य / केनालेखेनेत्याह-( इच्छामि णमित्यादि) इच्छा-स्यह भवद्भिरनुज्ञातःसन् भक्तपानाऽऽद्यर्थ गन्तुम् / (ते य से वियरिजत्ति) ते आचार्याऽऽदयः (से) तस्स वितरेयुरनुज्ञां दद्युः, तदा कल्पते, अथ न वितरेयुः, तदान कल्पते (से किमाहुभंते त्ति) तत्कुतो हेतोरिति शिष्यप्रश्ने गुरुराह-(आयरिया इत्यादि) प्रत्य-पायम्-अपाय तत्परिहारं च जानन्तीति // 46 // एवं विहारभूमि वा विआरभूमि वा अन्नं वाजं किंचि पओयणं एवं गामाणुगामं दूइज्जित्तए॥४७|| (एवमित्यादि) तत्र प्रथमसूत्रे विहारभूमिर्जिनचैत्ये गमनम्, "विहारो जिनसद्भनि'' इति वचनात् / विचारभूमिः शरीरचिन्ताऽऽद्यार्थ गमनम्। (अन्नं वेत्यादि) अन्यद्वा लेपसीवनलिखनाऽऽदिकम्, उच्छासाऽऽदिवर्ज सर्वमापृच्छ्यैव कर्तव्यमिति तत्त्वम्। (एवं गामाणुगामं दूइज्जित्तए त्ति) ग्रामानुग्रामं हिण्डितुं भिक्षाऽऽद्यर्थमुग्लानाऽऽदिकारणेवा, अन्यथा वर्षासु ग्रामानुग्रामहिण्डनमनुचितमेव // 47 // वासावासं पज्जोसवियाणं भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरिं विगइं आहारित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा० जाव जं वा पुरओ काउंविहरइ, कप्पइसे आपुच्छित्ता आयरियं जाव आहरित्तए-इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अन्नयरिं विगई आहारित्तए, तं एवइयं वा एवइखुत्तो वा, ते य से वियरिज्जा, एवं से कप्पइ अन्नयरि विगई आहारित्तए ते य से नो वियरिज्जा, एवं से नो कप्पइ अन्नयरिं विगइं आहारित्तए, से किमाहु भंते ! आयरिया पचवायं जाणंति // 48|| द्वितीये विकृत्याहारसूत्रे- (तं एवइयं ति) तां विकृतिमेतावतीम्(एवइखुत्तो नि) एतावतो वारान् इत्यादि (ते असे इत्यादि) यथा ते तस्य वितरन्ति आज्ञा ददति, तथा अन्यतरां विकृतिमाहारयितुं कल्पते, नान्यथा // 48 // वासावासं पज्जोसवियाणं भिक्खू इच्छेज्जा अण्णयरं तेगिच्छं आउट्टित्तए, तं चेव सव्वं भाणियव्वं / / 4 / / तृतीये चिकित्सासूत्रे-(अन्नयर तेगिच्छं आउट्टित्तए त्ति) 'आउट्टि धातुः करणार्थे सैद्धान्तिकः, ततः अन्यतरां चिकित्सां कारयितुम, आज्ञयैव कल्पते। वासावासं पजोसवियाणं भिक्खूइचिछज्जा अन्नयरंओरालंकल्लाणं सिवं धन्नं मंगलं सस्सिरियं महाणुभावंतवोकम्मं उवसंपञ्जित्ताणं विहरित्तएतं चेव सव्वं भाणियव्वं // 50 // वासावासं पजोसवियाणं भिक्खू इच्छिज्जा अपच्छिममारणंति असंलेहणाझूसणाझूसिए Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्य भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे वि विहरित्तए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा आहारित्तए वा उच्चारं पासवणं परिट्ठावित्तए वा, सज्झायं वा करित्तए, धम्मजागरियं वा जागरित्तए, नो से | कप्पइ अणापुच्छित्ता तं चेव सव्वं / / 5 / / एवं तपःसूत्रेऽपि / संलेखनासूत्रे-(अपच्छिमेत्यादि) अपश्चिमं चरमं मरणम् / अपश्चिमं मरणं न पुनः प्रतिक्षणमायुर्दलिकानुभवलक्षणमावीचिकमरणम्; अपश्चिमं मरणम् एवान्तस्तत्र भवा अपश्चिममारणान्तिकी, संलिख्यते कृशीक्रियते शरीरकषायाऽऽद्यनयेति संलेखना, सा च द्रव्यभावभेदभिन्ना। (चत्तारि वि चित्ताइं इत्यादि) का तस्या (झूसण त्ति) जोषणं सेवा, तथा (झूसिए त्ति) क्षपितशरीरोऽत एव प्रत्याख्यातभक्तपानोऽत एव कालं जीवित-कालं मरणकाल वा अनवका क्षन्ननभिलषन्विहर्तुमिच्छत्तदपि गुर्वाज्ञयेति तत्त्वम् (धम्मजागरिय ति) धर्मध्यानेन जागरिका धर्मजागरिका, तामपि जागर्तुं गुर्वाज्ञयैव कल्पते। रत्नाऽऽदि गृह्णातिवासावासं पजोसवियाणं भिक्खू इच्छिज्जा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अन्नयरिं वा उवहिं आयावित्तएं वा पथावित्तएवा, नो से कप्पइ एगंवा अणेग वा अप (डि) ण्णवित्ता गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा | असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारित्तए बहिया विहारभूमि वा वियारभूमिं वा सज्झायं वा करित्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए, अत्थि इत्थ केइ अहासन्निहिए एगे वा | अणेगे वा कप्पइ से एवं वइत्तए-इमं ता अञ्जो ! मुहुत्तगं वा जाणाहि जाव ताव अहं गाहा वइकुलंजाव काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए, से अपडिसुणेज्जा, एवं से कप्पइ गाहावइकुलं तं चेव सव्वं भाणियव्वं, से अ से नो पडिसुणेज्जा, एवं से नो कप्पइ गाहा-वइकुलंजाव ठाणं वा ठाइत्तए॥५२।। वासावासमित्यादिनः "ठाइत्तए त्ति'' पर्यन्तम्। तत्र (वत्थं वेत्यादि) पादप्रोञ्छनं रजोहरण, ततो वस्त्राऽऽदिकमुपधिमातापयितुमेकवारम् आठपे दातुं, प्रज्ञापयितु पुनः पुनरातपे दातुमिच्छति, अनातापने कुन्थुपनकाऽऽदिदोपोत्पत्तेः / तदा उपधौः आतपेदते सति एकं वा अनेक वा साधुमप्रतिज्ञाप्य गोचराऽऽदौ गन्तुं यावत्कायोत्सर्गेऽपि स्थातु न कल्पते. वृष्टिभयात्। अस्त्यत्र कोऽपि यथा सन्निहितस्तमेवं वकुंकल्पतेयत् आर्य ! इममुपधिं तावन्मुहूर्तमात्र जानीहि विभावय / (जाव ताव त्ति) यावदर्थे (से अ पडिसुणेज्ज त्ति) स प्रतिशृणुयात् अङ्गीकुर्यात्. तद्वस्त्रसत्या-पनं, तदा कल्पते गोचराऽऽदौ गन्तुमशनाऽऽद्याहारयितुं, विहारभूमि विचारभूमि वा गन्तुं, स्वाध्यायं वां कायोत्सर्ग वा कर्तुं स्थान वा वीराऽऽसनाऽऽदिळ स्थातुम् / / 52|| शय्यासंस्तारःवासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण, वा अणभिग्गहियसिज्जासणिएणं हुत्तए, आयाणमेयं, अणभिागहियसिज्जासणियस्य अणुचाकुइअस्स अणट्ठावंधि-अस्त अमियासणियस्स अणातावियस्स असमियस्स अभिक्खा अभिक्खणं अपडिले हणासीलस्स अपमज्जणासीलस्स तहातहारूवाणं संजमे दुराराहए भवइ / / 53 / / अणायाणमेर अभिग्गहियसिज्जा-सणियस्स उच्चाकुइयस्स अट्ठाबंधियस मियासणियस्स आयाविअस्स समियस्स अभिक्खणं अभिक्षणं पडिलेहणासीलस्स पमजणासीलस्स तहा तहा संजमे सुआ राहए भवइ॥५४|| वासावासमित्यादितः "भवइ ति'' यावत्। तत्र (अणभिग्गहिएत्यादि न अभिगृहीते शय्यासने येन सः अनभिगृहीतशय्यासनः, अनभिगृहीत. शय्यासन एव अननिगृहीतशय्यासनिकः, स्वार्थे इकप्रत्ययः / तथाविध साधुना (हुत्तए त्ति) भवितुंन कल्पते। वर्षासुमणिकुट्टिमेऽपि पीटफलकभिग्रहवतैव भाव्यम्, अन्यथा शीतलायां भूमौ शयने च कुन्थ्वादिविराधनोत्पत्तेः। (आयाणमेअंति) कर्मणा दोषाणां वा आदानकारण,मेल अनभिगृहीतशय्यासनिकत्वम् / तदेव द्रढयति-अणभिग्गहियेत्यादि अनभिगृहीतशय्यासनिक इति प्राग्वत् / तस्य (अणुच्चाकुझ्यस्सी उचा हस्ताऽऽदि यावत् येन पीपिलिकाऽऽदेवधो न स्यात्, साढे दंशो न स्यात् / अकुचा "कुच'' परिस्पन्दे इति वचनात्। परिस्पान्द्र रहिता, निश्चलेति यावत्। ततः कर्मधारयः। उन्ना कुचा शय्या कम्झाए. दिमयी, सानो विद्यते यस्यस अनुचाकुचिको नीचसपरिस्पन्दशय्याततस्य (अणट्ठाबंधियस्स त्ति) अनर्थकबन्धिनः पक्षमध्ये अन्धः निष्प्रयोजनमेकवारोपरि द्वौ त्रीश्चतुरो वारान् कम्बासु बन्धान ददरि चतुरुपरि बहूनि अट्टकानि वा बध्नाति। तथा च स्वाध्यायानिमिसंघाऽऽदयो (?) दोषाः। यदि चैकाङ्गिकं चम्पकाऽऽदिपद लभ्यतेन्द्र तदेव ग्राह्य, बन्धनाऽऽदिपलिमन्थपरिहारात, (अमियासणियत्त्व अमितासनिकस्य अबद्धाऽऽसनस्य मुहुर्मुहुः स्थानात स्थानान्त गच्छतो हि सत्त्ववधः स्यात् / अनेकानि वा आसनानि सेउमान्म (अणातावियस्स त्ति) संस्तारकपात्राऽऽदीनामातपे अदातुः (ध:यस्य ति) ईर्याऽऽदिषु समितिषु अनुपयुक्तस्य। (अभिक्खणं ति) वारमप्रतिलेखनाशीलस्य दृष्ट्वा अनाप्रमार्जनशीलस्य रजोहरमा. दिना, ईदृशस्य साधोः संयमो दुराराधो भवति / अत्र किरणावलदीपिकाकाराभ्यां दुराराधो दुःप्रतिपाल्य इति प्रयोगौ लिखितौ / चिन्त्यौ / "दुःखीषतः कृच्छाकृच्छ्रार्थात्खल' ।।५।३।१३६॥ई सूत्रेण खलप्रत्ययाऽऽगमनेन दुराराध इति दुष्प्रतिपाल इतिः भवनात्। न च वाच्यम् आडा प्रतिना च प्रतिव्यवधानात्खल न भविध Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 247 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्प तीति, "उपसर्गो न व्यवधायीति'' न्यायात्। किं च-समागच्छतीत्यत्र आडा व्यवधानेन 'समाक गमृच्छिभ्याम्' / / 1 / 3 / 26 / / इत्यादिनाऽऽन्मनेपदाप्रसारस्य न्यायस्यानित्यत्वादत्रोपसर्गस्य व्यवधायकत्वं विष्यतीत्यपि न वाच्यम्। न हि खल्विषये उपसर्गस्य व्यवधायकत्वम्, "उपसर्गाट खल्घश्व" ||4|4|107 / / इति सूत्रेण ईषत्प्रलम्भं दुष्प्रलम्भमित्यादिप्रयोगज्ञापनादिति दिक् / आदानुमुक्त्वा अनादानमाह- ''अणायाणमित्यादितः" "सुआराहए भवइ त्ति' यावत् / तत्र कर्मणा दोषाणां वा अनादनमकारणमेतत्-अभिगृहीतशय्यासनिकत्वम्, उच कुचश्ययावत्त्वं संप्रयोजनं पक्षमध्ये सकृच्च शय्याबन्धकत्वमिति। तदेवढयति अभिगृहीतशय्यासनिकस्य उचाकुचिकस्य अर्थाय बन्धिनो मितासनिकरय आतापिनो वस्त्राऽऽदेरातपे दातुः समितस्य समितिषु दत्तोपयोगस्याभीक्ष्णं प्रतिलेखनाशीलस्य प्रमार्जनाशीलस्येदृशस्य साधोः तथा तथा तेन तेन प्रकारेण संयमः सुखाऽऽराध्यो भवति।।५४।। कल्प० ३क्षा अधि०। (18) इदाणिं संथारग त्ति दारंकरणे उदुगहिते उज्झिऊण गेण्हति अण्णपरिसाडिं। दाउं गुरुस्स तिण्णि ऊ, सेसा गेण्हंति एक्ककं // 553 / / उदुद्धकाले जे संथारगा कारणे गहिता ते वोसिरित्ता अण्णे संथारगा अगडिसाड बासा जे गेण्हंति गुरुस्स तिण्णि दाउं णिवाते पवाते शिवायपवाए से साधू अहाराइणियाए एक्कक्क गेण्हति। नि०चू० 10 उ०। (ऋतुबद्धिक शय्यासस्तारमन्यत्र नयतीति 'सिज्जासंथार' शब्दे वक्ष्यते) (16) उच्चारप्रश्रवणभूमिःवासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ उच्चारपासवणभूमीओ पडिलेहित्तए, न तहा हेमंतगिम्हासु जहा णं वासासु, से किमाहु भंते ! वासासु णं ओसन्नं पाणा य तणा य वीया य पणगा य हरियाणि य भवंति / / 5 / / (उबारपासवणभूमीओ त्ति) अनधिसहिष्णोस्तिस्रोऽन्तः, अधिसहिष्णो श्व बहिस्तिसः / दूरच्याघाते मध्या भूमिः, तद्व्याघाते धाऽऽसन्नेति। आसन्नमध्यदूरभेदात्त्रिविधा भूमिः प्रतिलेखितव्या (न तहत्यादि) न तथा हेमन्तग्रीष्मयोर्यथा वर्षासु (से किमाहु भंते ! त्ति) तत्कुत इति प्रवे गुरुराह-(वासासु णं इत्यादि) वर्षासु (ओसन्नं ति) प्रायेण प्राणाः शड् खनकेन्द्रगोपकृम्यादयः,तृणानि प्रतीतानि. बीजानि तत्तद्वनस्पतीना नवोद्भिन्नानि किशलयानि / पनका उल्लयो, हरितानि बीजेभ्यो जातानि। एतानि वर्षासु बाहुल्येन भवन्तीति / / 5 / / (20) मात्रकद्वारम्वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा णिग्गंथीण या तओ मत्तगाइं गिणिहत्तए। तं जहा-उच्चारमत्तए, पासवणमत्तए, खेलमत्तए॥५६|| (तओ मत्तगाई ति त्रीणि मात्रकाणि उच्चारप्रस्रवणश्लेष्मार्थम्।। मात्रकाभावे वेलाऽतिक्रमेण वेगधारणे आत्मविराधना, वर्षति च बहिर्गमने संयमविराधनेति। कल्प० 3 अधि०६ क्षण। इयाणि मत्तए त्ति दारंउच्चारपासवणखे-लमत्तए तिण्णि तिण्णि गेण्हंति। संजमआएसट्ठा, भिजेज्ज व सेस उज्झंति / / 554|| वरिसाकाले उच्चारमत्तया तिण्णि, पासवणमत्तया तिण्णि, तिण्णि खेलमत्तया। एवं ण घेतव्वा / इमं कारणं-जं संजमणिमित्तं वरिसंते एगम्मि वाहद्विते वितिय ततिएसु कजं करेति / असिवाऽऽदिकारणिएसु वा / आएसिए आगतेसु दलएज्जा, सेसेहिं अप्पणो करेंति। एगमादिभिण्णेण वा सेसेहि कज्ज करेंति। एवं सेसा जे उदुबद्धगहिया ते उज्झंति। उभओ कालं पडिलेहणा कज्जति- दिया, रातो वा। अवासंते जति परि जति ता मासलहुँ / जाहे वा संपडति ताहे परि जति। जेण अभिग्गहो गहितो सो परिडवे ति / उल्लो ण णिक्खियव्यो, अपरिणयसेहाण ण वाइज्जति। मत्तए त्ति गयं / नि० चू० 10 उ०। (21) लोचःवासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पर पज्जोसवणाओ गोलोमप्पमाणमित्ते वि केसे तं रयणिं उवायणावित्तए अजेणं खुरमुंडेणं वा लुक्कसिरएणं वा होयट्वं सिया पक्खिया आरोवणा, मासिए खुरमुडे, अद्धमासिए कत्तरिमुंडे, छम्मासिए लोए, संवच्छरिए वा थेरे कप्पे // 17 // वासावासं पज्जोसवियाणमित्यादितः "संवच्छरिए थेरे कप्पे त्ति' यावत्। तत्र (परं पज्जोसवणाओ त्ति) पर्युषणातः परमाषाढचतुर्मासकादनन्तरं गोलोमप्रमाणा अपि केशा न स्थापनीयाः, आस्तां दीर्घाः / "धुवलोओ उ जिणाणं, निचं थेराण वासवासासु (555 नि० चू०)' इति वचनात् / यावत् तां रजनीं भाद्रसितपञ्चमीरात्रिम् / साम्प्रतं तु चतुर्थीरात्रि नातिक्रमयेत्, चतुर्थ्याश्च अर्वागेव लोचे कारयेत्। अयं भावः-- यदि समर्थस्तदा वर्षासु नित्यं लोचं कारयेत्। असमर्थोऽपि तां रात्रिं नोलड्डयेत्। पर्युषणापर्वणि लोचं विना प्रतिक्रमणस्याऽऽवश्यमकल्प्यत्वात्। केशेषु हि अप्कायविराधनातत्संसर्गाच्च यूकाः संमूर्च्छन्ति, ताश्च कण्डूयमानो हन्ति, शिरसि नखक्षतं वा स्यात्। यदिक्षुरेण मुण्डा-पयति का वा तदाऽऽज्ञाभङ्गाऽऽद्या दोषाः / संयमाऽऽत्मवि-राधनायूकश्छिद्यन्ते, नापितश्व पश्चात्कर्म करोति, शासनापभ्राजना च। ततो लोचः(१) शिरोजेन / अपवादतो बालग्लानाऽऽदिना मुण्डित-शिरोजेन भवितव्यं स्यात् तत्र केवलं प्रासुकोदके एव श्रेयान् / यदि चासहिष्णुर्लोचे कृते ज्वराऽऽदिर्वा स्यात् कस्यचित् / बालो वा रुद्याद्धर्म वा त्यजेत्ततो न तस्य लोच इत्याह-(अज्जेणमित्यादि) आर्येण साधुना (लुक्कसिरएण त्ति) उत्सर्गतो लुञ्चितशिरः प्रक्षाल्य नापितस्याऽपितेन करौ क्षालयति / यस्तु क्षुरेणापि कारयितुमसमों, व्रणादिमच्छिरा वा, तस्य केशाः कर्त्ता कल्पनीयाः। (पक्खिआ आरोवण त्ति) कोऽर्थः? पक्षे पक्षे संस्तारकदव Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 248 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्प रकाणां बन्धा मोक्तव्याः, प्रतिलेखितव्याश्चेत्यर्थः / अथवा-आ- | रोपणाप्रायश्चित्तं पक्षे पक्षे ग्राह्य सर्वकालं, वर्षासु विशेषतः / (मासिए खुरमुंडे त्ति) असहिष्णुना मासि मासि मुण्डनं कारणीयम्। (अद्वमासिए कत्तरिमुंडे त्ति) यदि कर्तर्या कारयति तदा पक्षे पक्षे गुप्त कारणीयम्। क्षुरकर्त्ताश्च लोचे प्रायश्चित्तं निशीथोक्तं यथासंख्य लघुगुरुमासलक्षण ज्ञेयम्। (छम्मासिए लोएति) षा-मासिको लोचः / (संवच्छरिए वा थेरे कप्पे त्ति) स्थविराणां वृद्धानां जराजर्जरत्वेनासामा दृष्टिरक्षार्थ च। (संवच्छरिए वा थेरकप्पे त्ति) सांवत्सरिको वा लोचः, स्थविरकल्पे स्थितानामिति, अर्थात्तरुणानां चातुर्मासिक इति // 57 // कल्प०३ अधि० 6 क्षण। नि० चू०। धुवलोओ उ जिणाणां थेराणं निच वासवासासु / असहू गिलाणयस्स य, तं रयणिं तू नातिक्कमे // 555 / / इदाणिं लोएत्ति / उदुबखे वासासुवा जिणकप्पिवाणं धुवलोचो, दिने दिने कुर्वन्तीत्यर्थः। थेराण वि वासासु धुवलोओ चेव असहूगिलाणाण पज्जोसवणराति णातिक्कमति, आउक्काइयविराहणाभ्या संसज्जणभया य वासासु धुवलोचो कज्जति। लोए त्ति गतं / नि० चू०१० उ०। अत्र पर्युषणायां केशलोचःजे भिक्खू पज्जोसवणाए गोलोमाइं पि बालाई उवायणावेइ, उवायणावंतं वा साइजइ।।५०॥ गोलोममात्रा अपि न कर्तव्याः, किमुत दीर्घा / अहवा हस्तप्राप्याः। अपिशब्देन विशेषयति / (उवातिणवेति ति) पज्जोसवणारयणि अतिक्रामतीत्यर्थः। गाहासूत्रपनोवसणाकेसे, गावीलोमप्पमाणमेत्ते वी। जे भिक्खूवातिणती, सो पावति आणमादीणि // 560|| तस्स चउगं पच्छित्तं, आणादिया य दोसा। गोलोमविशेषणार्थमाहण वि सिंगपुंछबालो, ण अत्थि पुच्छेण वत्थिया बाला। सुजवसणीरोगाए, सेस गुरू होति हाणीए।।५६१॥ णिसुढंते आउवधो, उल्लेसु य छप्पदा उ मुच्छंति। ता कंडुयं विराहे, कुज्जा व खयं तु आतोदे // 562|| धुवलोओ उ जिणाणं, वरिसासु य होति गच्छवासीणं। उदुतरणे चउमासो, खुर कत्तरि छल्लहू गुरुगा / / 562|| कंठा। वासासु लोए अकज्जते इमे दोसा- आउकाए णिसुदंते आढ़ते आउविराहणा, उल्लेसु य बालेसु छप्पयाओ संमुच्छंति, कंटुअंतो वा छप्पदादि विराहेति, कंडुअतो वा खयं करेज्जा, तत्थ आयविराहणा। जम्हा एते दोसा तम्हा, धुवलोओगाहा। उदुबद्धेवासासुवा जिणकप्पियाण धुवलोओ, थेरकप्पियाण वासासु धुवलोओ, धुवलोयासमत्था वा तं रयणि नातिक्कमे; थेर कप्पिओ तसणे उदुबद्ध उकासेणं चउण्हं मासाणं लोय करावेति। थेररस वि एवं, णवरं उक्कोसेणं छम्मासा, जति उदुबद्धे वासासु वा खुरेण कारावेति, तो मासलहु : कत्तीए मासगुरुं, आणादिया यदोसा। छप्पतिगाण विराहणा पच्छकम्मदोसा या आदेसंतरेण कारवेति, तो छलहु, कत्तरीए चउगुरुमासा, लोयं कारवंतेण एते दोसा परिहरिट भवंति। गाहापक्खियमासियछम्मा-सिए य थेराण तू भये कप्पो। कत्तरि खुर लोए वा, वितिए असहू गिलाणे य / / 563 // (वितियं ति) वितियपदेण लोयंण कारवेजा, असहू लोयं ण कारवेस्ट असहू लोयं ण तरति अधियासेउं, सिरोरोगेण था, मंदचवखुणा द्र लोयं वा असहतो धम्म छड्डेजा, गिलाणस्स वा लोओ ण कजति.ल वा करेति गिलाणो हवेज्ज। एवमादिएहि कारणेहिं जइव कत्तरीए करेंतो पक्खे पक्खे। अह खुरेण, तो मास मासे / पढम खुरेण वा व लोयकरस्समहुरोदयं हत्थ-धोवणं दिज्जति, पच्छा कम्मपरिहरपल अववादेण लोओ छम्मासेण कारावेयव्यो। थेराण एस कप्पो संवच्छ भणितो। नि० चू० 10 उ०। (22) अधिकरणम्इयाणिं अधिर . त्ति / अधिकरण कलहो भण्णति / तं चन चउत्थोद्देसएस. जयं तहा इहावि सवित्थरं दट्टव्वं / तं च ण कष्टः पुव्वुप्पण्णं चा, उदीरियव्वं, पुव्वुप्पण्णं जइ कसायउक्कडताए ण खाने तो पञ्जोसवणासु अवस्सं विउसावयव्यं / अधिगरणे इमे दिद्वंतादुरूवगामोवलक्खियं पज्जोतो दो मओ या तत्थ दुक्खग त्ति उदाहर आयरियजणवयस्स अंतग्गामा एक्को कुंभारो, सो कुलालाणं भरिक पच्चंतगाम दुरूवगं णामयं गता। तेहि य दुरुत्तावेहिं गोहेहिं एगं वइल्ल हरिउकामेहि भण्णतिएगवइल्लं भंडिं, पासह तुज्झे वि मज्झ खलहाणे। हरणे झामण भाणग, घोसणता मलजुद्धेसु // 562 / / भो भो पेच्छह इमं अच्छेर-एमेण वइल्लेणेगा भंडी गच्छते कुंभकारेण भणिय-पेच्छह भो इमस्स गामस्स खलहाणाणि डायनि अतिगया भंडी गाममज्झे ठिता। तस्स तेहिं दुरूगव्वेहि छिई लकि एगो वइल्लो हडो, विक्कयं गया कुलालातो य गामिचया जाचित न वइल्लं / ते भणंति-तुम एक्केण वइल्लेण आगयो। ते पुणो जातिता उई: देति ताहे सरयकाले सव्वण्णाणि खलधारणेसु कताणि, ताहे में दिण्णो / एवं तेण सत्त वरिसाणि झामिता खलधाणा / लाहे अट्टने इन दुरूवगगाममल्लएहिं मल्लजुद्धमहे वट्टमाणे भाणगो भणितो-धोरहे: जस्स अम्हेहिं अवरद्धं,तं खामेमो, जंच गहेय तंदेमो, मा अम्हे भन्द दहेओ / ततो भाणएण उग्घोसिय / कुभकारेण भाणगो भणितोघोसेहिअप्पिण हतं वइलं, दुरूतगो तस्स कुंभकारस्स। मा भंडहिंति बंधण, अण्णा वि सत्त वरिसाणि / / 563 // भाणगेण उग्घोसियं, तं तेहिं दुर... बेहि सो कुंभकारो खमिता दिन य से वइल्लो / इमो उवसंहारो-जति ता तेहिं असंजारहि अपनी होतेहिं खामियं, तेण विखमिय, किमग ! पुण संजएहिं न णीहिं जप्टक तं सव्वं पजोसवणाए खमियव्यं, खामेयथ्यं था एवं कारतहि संजमरा कता भवति। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्जुसवणाकप्प 246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्प अहवा-इमो दिट्ठतो पज्जोसवेंतिचंपा कुमारणंदा, पंचऽच्छरा थेरणयण दुमवलए। विहपासणयण सावग, इंगिणि उववाय णंदिवरे।।५६४।। पेहण पडिमोदायण, पभाव उप्पाय देवदत्तपदे। मरणुवयातो वस-नयणं तह भीसणा समणा / / 565 / / गंधारगिरी देवय-पडिमा मुलिया गिलाणपडियरणं / पजोयहरण दुक्खररण, गहणेण गओ उवसण्णा // 566|| नि० चू० 10 उ०। (अ चन्यानगरीवास्तव्याऽनङ्ग सेनवृत्तं "दसउर'' शब्दे चतुर्थभागे 24.33 पृष्ठे गतम् / तस्यैवानङ्ग सेनस्य कुमारनन्दीति नामान्तरम्) टीक स्थोदायनवृत्तान्तमात्रमुपवर्ण्यतेऽधः) सिन्धुसौबीरदेशाधिपति मुकुटबद्धभूपसेव्य उदयनराजो विद्युन्मालिसमर्पितश्रीवीरप्रतिमाऽचनाऽऽगतनीरागीभूतगन्धारश्राद्धार्पितगुटिकाभक्षणतो जाताद्भूतरुपयाः सुवर्णगुलिकाया देवाधिदेवप्रतिमायुताया अपहतरि मालवदेशभूपसेव्दं चण्डप्रधोराजं देवाधिदेयप्रतिमाप्रत्यानयनोत्पन्नसंग्रामे बद्धा पादाच्छन्दशपुरे वर्षासुतस्थौ, वार्षिकपर्वाणि चस्वयमुपवास चक्रे। भूऽऽदिष्टरसृप्कारेण भोजनार्थ पृटन चण्डप्रद्योतेन विषभिया श्राद्धस्य ममाप्यद्योपवास इति प्रोक्ते धूर्तसाधर्मिकेऽप्यस्मिन्नक्षमिते मम प्रतिक्रमण न शुद्ध्यतीति तत्सर्वस्वप्रदानतस्तद्भाले मम दासीपतिरित्यक्षाराच्छादनाय स्वमुकुटपट्टदानतश्च श्रीउदयनराजेन श्रीचण्डप्रद्योतः क्षनेतऽत्र श्रीउदयनराजस्येवाराधकत्वं, तस्यैवोपशान्तत्वात्। कृचिनोनयोरप्याराधकत्वम् / तथाहि-अन्यदा कौशाम्ब्यां सूर्याछन्द्रनसौ स्वविमानेन श्रीवीर वन्दितुं समागच्छतः स्म / चन्दना च दक्षाऽस्तसमयं विज्ञाय स्वकीयस्थानं गता। मृगावती च सूर्यचन्द्रगमनात्तमसि विस्तृते सति रात्रि विज्ञाय भीता उपाश्रयमागत्यर्यापथिकी प्रतिक्रम्य निद्राणां चन्दना प्रवर्तिी क्षम्यतां ममापराध इत्युक्तवती। चन्दनापि भद्रे ! कुलीनायारतवेदृशं न युक्तमित्युवाच / साऽप्यूचे-भूयो नेश करिष्ये, इति पादयोः पतिता तावता प्रवर्तिन्या निद्राऽगात्। तया च तथैव क्षमणेन केवल प्राप्त, सर्पसमीपात्करापसारणव्यतिकरण प्रदोधितः / प्रवर्तिन्यपि कथं सर्पोऽज्ञायीति पृच्छन्ती तस्याः केवलं ज्ञास्या मृगावती क्षमयन्ती केवलमाससाद। तेनेदृशं मिथ्यादुष्कृतं देयं, नपुनः कुम्भकार-क्षुल्लकदृष्टान्तेन। तथाहि-कश्चित् क्षुल्लको भाण्डानि काणीकुर्वन् कुम्भकारण निवारितो मिथ्यादुष्कृतं दत्तेऽपि न पुनस्ततो निवर्तत, ततः स कुम्भकारोऽपिकर्करैः क्षुल्लककर्णमोटनं कुर्वन्पुनः पुनः क्षुल्लेन पीड्येऽह मित्युक्तोऽपि मुधामिथ्यादुष्कृतं ददौ // 56 // कल्प०३ अधि० 6 क्षण / (विस्तरस्तु 'अहिगरण' शब्दे प्रथम-भागे 883 पृष्ठे उक्तम्) काषाया न कर्तव्याः-इदाणिं वाय त्ति दारं / तेसिं चउक्कणि क्खेवो पुव्वं वण्णियव्यो / जहा वऽट्टाणे कोहो चउविधो / उदगराइसमाणो, पुढदिराइसमाणो. वालुआराइसमाणो, पव्वयराइसमाणो या नि० चू० 10 उ०। (23) उपाश्रयाःवासावासं पजोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ उवस्सया गिण्हित्तए / तं जहा-वेउव्विया पडिलेहा, साइज्जिया, पमज्जणा / / 6 / / "वासावासं पज्जोसवियाण'' इत्यादितः ‘पमज्जणा।'' इति यावत्। तत्र वर्षासु त्रय उपाश्रया ग्राह्याः, जन्तुसंसक्त्यादिभयात्तमिति पदं तथेत्यर्थः / तत्र त्रिषु उपाश्रयेषु (वेउव्विया पडिलेह त्ति) द्वौ पुनः पुनः प्रतिलेख्यौ द्रष्टव्यौ इति भावः। (साइज्जिया पमज्जण त्ति) 'साइज्जि' धातुरास्वादने। तत उपभुज्यमानो य उपाश्रयन्तत्संबन्धिनी प्रमार्जना कार्या, यतो यस्मिन्नुपाश्रये साधवस्तिष्ठन्ति तं प्रातः प्रमार्जयन्ति, पुनर्भिक्षां गतेषु साधुषु, पुनस्तृतीयप्रहरान्ते चेति वारत्नयम्। ऋतुबद्धे च बारद्वयम्, असंसक्तेऽयं विधिः, संसक्ते च पुनः पुनः प्रमार्जयन्ति, शेषोपाश्रयद्वयं तु प्रतिदिने दृशा पश्यन्ति, कोऽपि तत्र ममत्वं मा कार्षीदिति, तृतीयदिने च पादप्रोञ्छनेन प्रमार्जयन्तीति / अत उक्तम् (वेउव्विया पडिलेह त्ति) // 60 // कल्प० / (आज्ञा गृहीत्वा गोचरचर्या गन्तव्या इति 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 1004 पृष्ठे द्रष्टव्याम्) (24) योजनान्यवग्रह:वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा गिलाणहेउंजाव चत्तारिपंच जोअणाइंगतुं पडिनियत्तए, अंतरा विय से कप्पइवत्तव्वए, नो से कप्पइतं रयणिं तत्थेव उवायणावित्तए।।६।। "वासेत्यादित उवायणावित्तए त्ति" पर्यन्तम् / तत्र-(जावे त्यादि) वर्षाकल्पौषधवैद्याऽऽद्यर्थ गलानसारीकरणार्थ वा यावच्चत्वारि पञ्च योजनानिगत्वा प्रतिनिवर्तितुकल्पते, नतुतत्र स्थातुकल्पते। स्वस्थानं प्राप्नुमक्षमश्चेत्तदा तस्यान्तराऽपि वस्तुं कल्पते, न पुनस्तत्रैव / एवं हि वीर्याऽऽचाराऽऽराधनं स्यादिति यत्र दिने वर्षाकल्पाऽऽदिलब्ध तहिनरात्रिं तत्रैव नातिक्रमयितुं कल्पते, कार्ये जाते सद्य एव बहिर्निर्गत्य तिष्ठेदिति भावः। इचेयं संवच्छरिअं थेरकप्पं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं काएण फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आराहित्ता आणाए अणुपालित्ता अत्थेगइया समणा निग्गंथा तेणेव भवग्गहणेण सिज्झंति, बुज्झंति,मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करिति, अत्थेगइया दुच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झंतिजाव अंतं करिंति। अत्थेगइआतइएणं भवग्गहणेणं जाव अंतं करिति, सत्तट्ठभवग्गहणाइं पुण नाइक्कमंति॥६३।। (इचय संवच्छरिअं थेरकप्पं) इतिरूपप्रदर्शने / तं पूर्वोपदर्शितं सांवत्सरिक वर्षारात्रिकं स्थविरकल्पम् / (अहासुत्तं यथा सूत्रे भणित तथा, नतुसूत्रविरुद्धम्। (अहाकप्पं) यथा अत्रोक्तंतथा करणेकल्पोऽन्यथा त्वकल्प इति यथाकल्पम् / एतत्कुर्वतश्च (अहामग्गं) ज्ञानाऽऽदित्रयलक्षणो मार्ग इति यथामार्गम् / (अहातचं) अत एव यथातथ्य, सत्यमित्यर्थः / Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 250- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्य (सम्म) सम्यग् यथावस्थितम् (कारण) उपलक्षणत्वात्कायवाड्मानसैः (फासित्ता) स्पृष्ट्वा आसेव्य (पालित्ता) पालयित्वा अतिचारेभ्यो रक्षयित्या (सोभित्ता) शोभयित्वा विधिवत्करणे न (तीरित्ता) तीरयित्वा यावज्जीवम् आराध्य (किट्टित्ता) कीर्तयित्वा अन्येभ्य उपदिश्य (आराहिता) आराध्य यथोक्तकरणेन (आणाए अणुपालित्ता) आज्ञया जिनोपदेशेन यथा पूर्वैः पालितं तथा पश्चात परिपाल्य (अत्थेगइया समणा निगंथा) सन्त्येके ये अत्युत्तमया तदनुपालनया श्रमणा निर्ग्रन्थाः (तेणेव भवग्गहणेग सिज्झति) तस्मिन्नेव भवग्रहणेन भवे सिद्धगयन्ति कृतार्था भवन्ति। (बुज्झति) बुद्ध्यन्ते केवलज्ञानेन (मुचंति) मुच्यन्ते कर्मपञ्जरात् (परिनिव्वायंति) परिनिर्वान्ति कर्मकृतः सर्वतापोपशमनात् शीतीभवन्ति (सव्वदुक्खाणमंत करिति ) सर्वदुःखाना शारीरमानसानामन्तं कुर्वन्ति (अत्थेगइया दुचेणं भवग्गहणेणं जाव अतं करिति) सन्त्येके ये उत्तमया तु तत्पालनया द्वितीय-भवग्रहणे सिद्ध्यन्ति यावत् अन्तं कुर्वन्ति / (अत्थेगइया तइएणं भवग्गहणेणं जाव अंत करिति) सन्स्येके ये मध्यमया तत्पालनया तृतीयभवे यावत् अन्त कुर्वन्ति। (सत्तट्ठभवग्गहणाई पुण नाइक्कमंति) जघन्ययाऽपि एतदाराधनया सप्ताष्टभवास्तु पुनः / नातिक्रामन्तीति भावः // 63 // अथैवं वर्णकः स्वबुद्ध्या न प्रोच्यते, किन्तु भगवदुपदेशपारतन्त्र- | यणेत्याह तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे गुणासिलए चेइए बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं मज्झगए चेव एवमाइक्खइ, एवं भासइ एवं पन्नवेइ, एवं परूवेइ पज्जोवसणाकप्पो नाम अज्झयणं सअटुं सहेउसकारणं ससुत्तं सअत्थं सउभयं सवागरणं भुजो भुजो उवदंसेइत्ति बेमि।।६४॥ (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले चतुर्थारकपर्यन्ते (तेणं समएण) तस्मिन समये (समणे भगवं महावीरे) श्रमणो भगवान् महावीरः (रायगिहे नगरे) रजगृहनगरे समवसरणावसरे (गुणसिलए चेइए) गुणशैले नाम चैत्ये (बहूणं स मणाणं) बहूनां श्रमणाना (बहूणं समणीणं) बहूनां श्रमणीनाम् (बहूर्ण सावयाणं) बहूनां श्रावकाणाम् (बहूणं सावियाणं) बहूना श्राविकाणाम् (बहूणं देवाणं) बहूना देवानाम् (बहूण देवाणं) बहूनां देवीनाम् (मज्झागए चेव) मध्यगत एव, न तु कोणके प्रविश्य प्रच्छन्नतयेति भावः / (एवमाइक्खइ) एवमाख्याति कथयति (एवं भासइ) एवं भाषतेवाग्योगेन (एवं पण्णवेइ) एवं प्रज्ञापयति फलकथने न (एवं परुवेइ) एवं प्ररूपयति दर्पण इव श्रोतृहृदये सङ्क्रामयति / (पज्जोसवणाकप्पो नाम अज्झयण) पर्युषणाकल्पो नाम अण्यवनम् (सग्रह) अर्थेन प्रयोजनेन सहित, न तुनिष्प्रयोजनम् (सहेड) सहेतुकं हेतवो निमित्तानि, यथा गुरूणां पृष्ट्वा सर्व कर्तव्यं, तत् केन हेतुना, यत आचार्याः प्रत्यपायं जानन्तीत्यादयो हेतवस्तैः सहितम् (सकारणं) कारणमपवादो यथा अंतरा वि से कप्पइइत्यादिः, तेन सहितम् (ससुत्त) सूत्रसहितम् (सअत्थं) / अर्थसहितम् (सउभयं) उभयसहितं च (सवागरणं) व्याकरणं पृष्टार्थकटम तेन सहितं सव्याकरणम् (भुज्जो भुज्जो उवदं सेइ ति बेमि) भूयो भूद उपदर्शयति इत्यहं ब्रवीमीति श्रीभद्रबाहुस्वामी स्वशिष्यान प्रतीदवाचेति। कल्प०३ अधि०६क्षण। (25) सचित्तलाभःइयाणि सचित्तेति। जो पुराणो भावियसड्डो वा एते मोत्तुं सचित्तो सेला. चित्ताण पव्वाविज्जति, अह पव्वावेति सेसेहिं खातो चउगुरा, आणातिय य दोसा। वासासु पव्वावितो मा होहि ति णिद्धम्मो, तेण ण पथ्यानिजात कहं निद्धम्मो भवति ? उच्यते-वासतेमाणीहिं आउकाइयविराह भवति, ताहे सो भणाति-जइ एते जीवा तो णिस्सग्गमाणे किं भिक्छ गेण्हह, वियारभूमिं वा गच्छह, कह वा तुज्झेहिं सक्का साहयो य जागर चलणे धोवंति, पायलेहणियाए णिलिहंति ? ताहे सो भणाति, अनु चिक्खलं मट्टिऊण पाए ण धीवेति, असुइणो एतो समलस्स य कार धम्मो। एवं विपरिणतो उ णिक्खमति / अहवा सागारियं काउंसह पाए धावेंति, ततो असमायारी, पाउसदोसोय, असमंजसं ति कारसहति, णिद्धम्मो भवति, भोयण मोए य उड्डाहेति, वासे पडत अमाउंट सेहे वसहीतो अणिते जइ मंडलीए भुजति तो उड्डाहं करेति, पाणमा परोप्परसंकट्ठ भुंजंति,अहं पिणेहिं विट्टालितो, ताहे विपरिणमति मा मंडलीए न भुजति, ताहे असमायारी समयाणं कला भवति,जति दर साहवो णिस्सम्गमाणे मत्तएसुउच्चारपासवणति आयरंति, सो यतं दयु विपरिणामेज्जा, उण्णिक्खमते, उड्डाहं च करेति। अह सहियो सारामा ति काउधरेति, तो आयविराहणा। अह णिस्सगते चेव णिसति - संजमविराहणा। जम्हा एवमादी दोसा तम्हा वासासु पज्जा सवितः पव्वावेतव्यो। पुराणे सड्ढेसंपुण्णा एतेदोसाण भवति, तेणतेपत्यायेको कारणे पज्जोसविते पज्जोसविज्जंति अतिसती जाणि काऊण लम पुवुत्ता दोसा णस्थि तं पव्वावेति / अणतिसती वि अव्योच्छित्तिनह. कारणेहिं पव्वावेति, इमंच जयणं करेति, विचित्तं महति वसाद आउक्कायजीवचोदणे पण्णविज्जति, असरीरो धम्मो णस्थिति कार मंडली मोएसुजुत्त करेंति, अण्णाएवा वसहीएठवेति, जत्तेणय उयकी सचित्ते त्ति गयं / इदाणिं अचित्ते त्ति दारं / ठारडगलमल्लमादीश गह वासाउदुबद्धगहियाण वोसिरणं, वत्थातियाण धरण, छाराझ्या पि ण गेण्हंति तो मासलहु, भायणे विणा गिलाणादियाण विराहमा, भाट वि विराधिते लेवेण विण्णा,तम्हाय तचावित्थारोगहितो एगको कज्जति, जति ण कज्जं तलियाहितो वि गिज्झति, अह कल्लन हितो छारपुंजरस मज्झे ठविज्जति, पणयमादिसंसज्जणभ्याओं में काउं तडिया डगलं च सव्वं पडिलेहंति, लेवं संजोएता अप्पाडेभुतमाणभया ण हेहा पुप्फके कीरति, छारेण य उ [विज्जति, रह झापा पडिलोहिज्जति, अहापरिभुज्जमाणं भायण णत्थि, ताहे मल्लगे लिये ण पडिहत्थं भरिज्जति। एवं काणइय गहणं काणइ वोसिरण, काय गहणं धरणं / दव्वठवणा गता। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्प इयाणिं भावठवणाइरिएसणभासाणं, मणवयसा कायए य दुचरिते। अहिकरणकसायाणं, संवच्छरिए वि ओसमणं / / 558 / / इरियासमिति, एसणासमिति, भासासमिती / एतेसिं गहणे आग्राणक्खिमणासमिती, पारिट्ठावणियासमिति य गहियाओ एतासु पंचविहसमितीसु वासासु समिएण भवियव्वं / एवं उक्ते चोदकाऽऽहउदुबद्धे लिं असमितेण भवितव्वं, जेण वासासु पंचसु यि समितीसु बासाउयत्तेग भवियव्वमिति भणसु? आचार्य आहकामं तु सव्वकालं,पंचसु समितीसु होति जतियव्वं / वासासु य अहिकारो, बहुपाणा मेदिणी जेणं // 555 / / काम तुकाममनुमतार्थ / यद्यपि सर्वकालसमितो भवतितहा विवासासु देससे अधिकारो कीरति, जंणं तदा बहुपाणा मेदिणी आगासमेति त्ति पुढवी ! एक ताव सव्वासिं सामण्णं भणियं। ___इयाणि एक्कक्काए समितीए दोसा भण्णतिनासणे णेंति वहो, दुण्णेअ णेहछेओ ततियाए। इरिए चरिमासु दोसु य, अपेह अपसज्जाणे पाणा / / 560 / / भारपणे ति) सासमिती ते असमियस्स असमंजसं भासमाणस्स मक्रिसगादिसंपातिमाण मुहे पविसंताण वधो भवति / आदिग्गहणातो आउझायं कुसित्ता सचित्तपुढविरओ सचित्तवातो य मुहे पविसति / जतियासणासमिती पडिक्कमणऽज्झयणे सुत्ता हिसाणुक्कमेण वासासु जस विराहणा, किं पुण अणुवउत्तरस, उदउल्लपुक्खेमाणं च हत्थमत्ताण य्हच्छेयं दुक्खं जाणति, स्निग्धकालत्वात् दुर्जेयो दुर्विज्ञेयः आउक्काइयच्छेदो परिणमिति, अचित्तीभवतीत्यर्थः / (इरिए त्ति) इरियासमितीयए अणुवउत्तो छज्जीवणिकाये विराहेति। (चरिमासु त्ति) आयाणे जिक्खेवणासमिती, पारिट्ठावणिवासमितीवा एता दो चरिमाओ त्यामु अगुवउत्तो जइ पडिलेहणपमज्जण करेति, दुप्पडिलेहियदुप्पमज्जियं करेति वा। एयासु वि एवं छज्जीवणिकायविराहणा भवति। पंचसमिओ आहरणोतो जहा आवस्सए - मणवयसकायगुत्तो, दुच्चरिताणि व णेच्चमालोए। अहिकरणेसु दुरूवग, पज्जोए चेव दमए य / / 561 / / मणेण वायाए कारण य जो गुत्तो गुत्तीण उदाहरणा जहा आवस्सए। जं किंचि मूलगुणसूत्तरगुणेसुसमितीसुगुत्तिसुया उदुबद्धेवासासु य दुच्चरिय संवासासु खिप्पं आलोएव्वं / नि० चू० 10 उ०। (26) इमं च वासासु कायव्वंपच्छित्ते बहुपाणा, कालो बलिओ चिरं वि ठायव्वं / सज्झायसंजमतवे, धणियं अप्पा निओयव्वो।।५८२।। अट्टसु उबद्धिएतु मासेसुपच्छित्तं संचियं णबुढतं वासासु छोढव्वं / किं कारणं तं वारसासु छुब्भते ? भण्णते जेण वासासु बहु पाणा भवंति, तं हिंडतेहिं वहिजेति, सीयाणुभावेण य कालो वलितो, सुहं तत्थ पच्छित्तं वोढुं सक्कति, एगक्खेत्ते चिरं अत्थियव्वं, तेण वासासु पच्छित्तं वुज्ज्ञति / अवि यसीयलगुणेण पलिया इंदियाई भवंति, तदप्पणिरीहणत्थं तवो कज्जति, पंचपगारसज्झाए उज्जमियव्वं, सत्तरसविहे य संजमें वारसविहे य तवे अप्पा धणिय सुठुणिओयब्बो, णियुजितव्यमित्यर्थः / गाहापुरिमचरिमाण कप्पो, उ मंगलं वद्धमाणतित्थम्मि। तो परिकहिया जिणपरि-कहिए थेरावली चेत्थ / / 583 / / पुरिमा उसभसामिणो सिरसा, चरिमा णं चरिमसामिणो। एतेसिं एस कप्पो चेव, जं वासासु पज्जोसविजंति वासं पडउ, मा वा। मज्झिमाणं पुण भणितं पज्जोसवेंति वा, ण वा। जति दोसो अत्थि तो पज्जोसवेंतिवा, ण वा। जति इहरहा णो मंगलं बद्धमाणसामितित्थे भवति, जेण य मंगलं तेण सव्वजिणाणं चरितादि कहिज्जंति, समोसरणाणि य / सुधम्मादियाण थेराणं आवलिया कहिज्जति। एत्थ सुत्तणिबंधे य इमो कप्पो कहिज्जतिसुत्ते जहा निबंधो, वग्घारियभत्तपाणमग्गहणं / णाणट्ठि तवस्सी अण-हियासि वग्घारिए गहणं // 584|| णो कप्पति निगंथाण वा णिग्गंथीण वा बग्घारियट्टिकायंसि गाहावतिकुलं वा भत्ताए वा पाणाए वा णिक्खमित्तए वा पविसि त्तए वा। वग्धारियणाम तिणि वासं पडति,जत्थवाणिचं वासकप्पो वा गलति, जत्थ वा वासकप्पं भेत्तूण अंतो कायं उल्लेति, एयं वग्घारियवासंवरिसे ण कप्पति भत्तपाणं घेत्तुं, सुत्ते जहा णिबंधो तहा न कल्पतीत्यर्थः / अवग्घारिए पुण भत्तपाणग्गहणं काउं कप्पति, से अप्पवुट्टिकायंसि संतसत्तरंसि,संतरमिति अंतरकप्पो, उत्तरमिति वासकप्पकंबली। इमेहि कारणेहिं वितियपदे वग्धारियबुट्टिकाए विभत्तपाणग्गहणं कज्जतिणाणट्टी पच्छद्धं / (णाणट्टि त्ति) जदा कोति साहू अज्झयणं सुत्तं खंधमंग वा अहिज्जति, वग्धारियवासं पडति, ताहे सो वग्धारिए विहिंडति। अहवाबुहालू अणधियासो वग्धारिए हिंडइ / एते तिणि वग्धारिते संतरुत्तरा हिंडति। संतरुत्तरस्य व्याख्या पूर्ववत् / अहवा इह संतरं जहासत्तीए चउत्थमादी करेंति, उत्तरमिति बालसुत्तादिएण अडंति / गाहासंजमखेत्तचुयाणं,णाणट्टि तवस्सि अणहियासीय। आसज्ज निक्खकालं, उसूरकरणेण जतियव्वं / / 5 / / संजमखेत्तचुता व जे णाणट्ठी तवस्सी अणधियासीया, जोएते सव्वे भिक्खाकाले उत्तरकरणेण भिक्खग्गहणं करेंति। केय पुण संजमे खेत्तंओण्णियवासाकप्पं, लाउय पातं व लब्भती जत्थ / सज्झाएसणसोही, वरिसइकाले यतं खेत्तं // 586 / / जत्थ खेत्ते उणियवासा कप्पा लभंति, जत्थ अलाउपाता चाउकालो य सुज्झति, सुज्झाओं जत्थ य भत्तादीयं सव्वं एसणासुद्धं लब्भति, विविधं च धम्मसाहणो वकरण जत्थ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 252 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकण लब्भति। कालवरिसी णाम-रातो वासइ, ण दिवा। अहवा भिक्खावेलं, | सण्णभूमिगमणवेलं च मोत्तुं वासति। अथवा-वासासुवासति, णो उडुबद्धे, सकालवंरिसाए य। संजमखेत्ततातो भसिवादिकारणेहिं चुता णाणहितवस्सिअधियासे त्ति तिण्णि वि एगगाहाए वक्खाणेति। गाहापुवादीयं णासति, एवं च छातो ण पञ्चलो पत्तुं / खभगस्स य पारणए, चरती असहू व बालादी॥५८७|| छुभाभिभूयस्स परिवाडि अकुव्यतो पुव्वाधीत णासेति, अभिणवं वा सुत्तत्थं छातो ग्रहीतुमसमर्थो भवति, खभगपारणए वा वसति, बालादी असहू वा वा संते असमत्था उववासं काउं, ताहे इमेण उत्तरकरणेण गच्छति। गाहाबालेसु य तेसऽसती, कुउ पलास छत्तए य पच्छिमए। णाणद्विया तवस्सी, अणहियासि अह उत्तरविसेसो॥५८८|| वरिसते उववासो कायव्वो, असहू कारणे वा (बालेत्ति) उण्णियवासाकप्पेण पाउतो अडति, उण्णियस्स असति उट्टिएण अडति, उट्टियासति कुतवेणं, जाहे य एवं पलासपत्तहिं वागडेण वि णो छत्तय कीरइ, तं सिरं काउंहिंडति / तस्सऽसति विदलमा-दिछत्तएणं हिंडति / एसो संजमखेत्तसुत्तादियाण वासासु वासंत उत्तरकरणविसेसो भणितो। सव्यो य एस पज्जोसवणाविधी भणितो। वितियपदेण पोसवणाए ण पज्जोसवेति, अपज्जोसवणाए वा पज्जोसवेज्जा, इमेहि कारणेहिअसिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे। अद्धाणरोहए वा, दोसु वि सुत्तेसु अप्पबहू // 586 / / पज्जोसवणाकाले पत्ते असिवं होहिति त्ति णो तेण पज्जोसवित्ता ओमएसु वि एवं अतिक्ते वा पज्जोसवेज्जा, महलढाणातो वा चिरेण णिग्गया, तेणपज्जोसवणाए पज्जोसवेज्जा, वोहियभएण वा णिग्गता अतिक्कतो पज्जोसवेति / एवं दोसु वि पत्तेसु अप्पाबहु णाऊण पज्जोसविति, अपजोसवणाए वा पज्जोसवेंति। नि० चू० 10 उ०। पर्युषणाकल्पसामायारीजे भिक्खूम अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा पञ्जोसवेइ, पज्जोसंवंतं वा साइजइ // 52 / / गाहापञ्जोसवणाकप्पं, पञ्जोसवणा य जो तु कड्डेज्जा। गिहिअण्णतिथिओस-न्नसंजतीणं च आणादी।५९७|| पज्जोसवणा पुव्वं वण्णिता, गिहत्थाणं अण्णतित्थियाणं गिहत्थीण अण्णतित्थणीणं ओसण्णाण य सजतीण थ जो एते पज्जोसवेति / एषामग्रतः पर्युषणाकल्पंपठतीत्यर्थः। तस्स चउगुरू, आणादिया य दोसा। गाहागिहिअण्णतित्थिओसन्न दुगतेगुणेहिंऽणुववेया। सम्मीववाससंका-दिणो य दोसा समणिवग्गे // 568|| मिहत्था मिहत्थीओ एवं दुर्ग, अहवा अण्णतित्थिगा अण्णतिथिणी अहवा-ओसण्णा, ओसण्णीओ एते दुगा। संजमगुणेहि अणुववया तर तेसि पुरतो ण कड्डिजति। अहवा - एतेहिं सह समीववासे दोसा भवन इत्थीसु य संकमादिया दोसा भवंति, संजतीओ जइ सजभोटि उववेयाओ तथा वि समीववासादीओ, संकादेसोय। माहादिवसतो न चेव कप्पति, खेत्तं पडुच्च सुणेज्जिम तेसिं। असती पढइ तारसिं, दंडगमादित्थितो कवे / / 566|| पज्जोसवणकप्पो दिवसतो कड्डिज्जति, तत्थ वि साहू राए कडेतिः पासत्थो कडुति, तं साहू सुणेज्जा, ण दोसो,पासस्थाण वा कडुगन असतिडिडिगेण वा अज्झट्ठिओ, सड्डेहिं वा ताहे दिवसतो कडुतिः (27) पर्युषणाकल्पकपणे सामाचारीपज्जोसवणकप्पकडणे इमा सामायारी-अप्पणो उवस्सए पादोति आवस्सए कते कालं घेत्तु काले सुद्धे वा पडवेत्ता कड्डिज्जति। एवं बहन वि रातीसु / पज्जोसवणरातीए पुण कट्टिए सव्वे साधू समप्यावी काउस्सगं करेंति। पज्जोसवणकप्पस्स समप्पावणी करेमि काउस जं खंडियं जं विराहिय ज ण पूरियं सव्वो दंडओ कड्डिययो न वोसिरामि त्ति "लोगस्सुज्जोयकर'' चित्तेण उस्सारेना पुणो "रेड. स्सुज्जोयकरे'' कड्डित्ता सव्वे साहवो णिसीयंति, जेण कङ्कितो सोता कालरस पडिक्कमति, ताहे वरािकालठवणे टविज्जति / एमा दिद भणिता / कारणे गिहत्थअण्णतिस्थियपासत्थे य पज्जोसवेति कह भण्णति। गाहावितियं गिहिओसण्णा, कभिज्जतम्मि रत्ति एज्जाहि। असती असंजतीणं, जयणाए दिवसतो कप्पे // 600 / संजतितो कड्डिज्जति गिहत्था अण्णतित्थिया ओसण्णो वा आ. च्छेजा तो विण ठवेजा। एवं सेजियमादिइत्थीसु वि संजतीतो ति सम्म पडिस्सए चेव रातो कद्वृति। जइपुण संजतीण संभोतियाण कडुतिया होज्ज तो अहाणाणं कुलाणं आसण्णपडिदुवारे संलोए राहुणीण य अंग चिलिमिलिंदाउंदिवसतो कड्डिज्जति, पूर्ववत्। जे भिक्खू पढमसमोसरणुदेसपत्ताइ चीवराइं पडिगाहेइ. पडिग्गाहंतं वा साइज्जइ।।५३|| विलियसमोसरणं उदुबद्धं, तं पडुच वासावासोग्गहो पढमसमोरू भणंति। सेसा सुत्तपदा कंठा / तं वत्थपादादिगहणं सेवमाणे आदर्श प्राप्नोति चउमासेहिं णिफण्णचाउम्मासियं अणुग्घातियं गुरुग पाठति इमो सुत्तत्थोपढमं ति समोसरणे, वत्थं पायं व जे पडिग्गाहे। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे।।६०१।। जो गेण्हइ सो आणाइक्कम करेति, अणवत्था य तेण कता भवति. मिच्छत्तं च जणेति, न यथा वादिनस्तथा कारिण इति आयविराहार पावति। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्जुसवणाकप्प 253 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकप्प पढमे सरणे उवही, ण कप्पती पुव्वगहियअतिरित्ते। अप्पत्ताणं तु गहणं, उवहिस्सा सातिरेगस्स॥६०२।। जइ पदम्समोसरणे कप्पति उवधी घेत्तुं, तो किं कायव्वं ? उच्यतेपुष्वगहित अतिरित्तो उवधी परिभोजः / कथं पुण सो अतिरेगो उवधी धैतव्यो? उच्यते-अप्पत्तेहिं ति खेत्तकाले अपत्तपत्तेहिं चउभंगो कायव्यो / से इससे चउभगाखेत्तओ णामेगे पत्ता नो कालओ 1, कालतो नामेगे पत्ता न खेत्तता 2. एगे खेत्तओ वि कालओ विपत्ता 3. एगे णो खेत्तओणो कालभ पत्ता 4 / इमो पढभभंगो उदुवट्टितो चरिममासकप्पो जत्थकतो अण्णवेना सतीए कारणतो वा, तत्थेव वासं काउमाणो खेत्तलो. इमो ततिरः-गो-अचरिमखेत्तं आसाढ़पुणिमा जाता एते कालतो एत्ताण, खेतता इमोरतियभंगो-जे वरिसखेत्तं आसाढपुण्णिमाए पविट्ठा तेउभएण विपचा असाढपुण्णिम अपत्ताणं अतरे अद्धाणे वद्धमाणाण एवं उभएण वेश्यनाज चरिमभंगा भवति। नि० चू० 10 उ०। (28) अथ यस्मिन्काले वर्षावासे स्थातव्यं यावन्तं वा कालं येना वा विधिना तदेन्दुण्दर्शयतिआसाढपुणिमाए, वासासु य होति अतिगमणं। मगसिरबहुलदसमी-उजाव एक्कम्मि खेत्तम्मि।।५६०|| आषापूर्णिमाया वर्षात्रासप्रायोग्ये क्षेत्रे गमनं प्रवेशः कर्त्तव्यं भवति / तत्र चाऽपवाटतो मार्गशीर्षबहुलदशमी यावदेकत्र क्षेत्रे वस्तव्यम्। एतच चिक्खल्लवर्षाऽऽदिक वक्ष्माण कारणमङ्गी कृत्योक्तम् / उत्सर्गतस्तु कार्तिकपूर्णिमायां निर्गन्तव्यम्। इदमेव भावयतिबाहिट्ठिय वसभेहिं,खेत्तं गाहित्तु वासपाउग्गं / कप्पं कहित्तु वचणे, सावणबहुलस्स पंचाहे 11561 / / स्वाऽऽपानभासकल्पं कृतस्तत्रान्यत्र वा प्रत्यासन्नग्रामे स्थिता वर्षाक्षेत्र वृषभः साधुसामाचारी ग्राहयन्ति, ते च वृषभा वर्षाप्रायोग्यं संस्तारकतृणडगलक्षारमल्लकाऽऽदिकमुपधि गृह्णन्ति, तत आषाढपूर्णिमायां प्रविष्टाः प्रतिपद आरभ्य पञ्चविंशतिभिरहोभिः पर्युषणाकल्पं कथयित्वा प्रावणबहुलञ्चम्या वर्षाकालसामाचार्या स्थापनां कुर्वन्ति, पर्युषण नार्वागिति? अत्रोच्यतेअसिवाइकारणेहिं, अहवा ण वासं सुद्ध आरद्धं / अभिवड्डियम्मि वीसा, इयरेसु सवीतीमासो / / 563|| कदाचित्तत्र क्षेत्रे अशिवं भवेत, आदिशब्दात, राजद्विष्टाऽऽदिकं वा भयमुपजायेत, एवमादिभिः कारणेः / अथवा-तत्र क्षेत्रे न सुष्ट वर्ष वर्षितुमारब्धं,येन धान्यनिष्पत्तिरुपजायते, ततश्च प्रथममेव स्थिता वयमित्युक्ते पश्चादशिवाऽऽदिकारणे समुपस्थिते यदि गच्छन्ति तसो लोको ब्रूयात्-अहो एते आत्मानं सर्वज्ञपुत्रतया ख्यापयन्ति, परं न किमपि जानते, मृषावाद वा भाषन्तेस्थिताः स्म इति भणित्वा संप्रति गच्छन्तीति कृत्वा, अथाशिवाऽऽदिकारणेषु संजातेष्वपि तिष्ठन्ति, तत आज्ञाऽऽदयो दोषाः / अपि च-स्थिता स्म इत्युक्ते गृहस्थाश्चिन्तयेयुः-अवश्यं वर्ष भविष्यति, येनैते वर्षारात्रं स्थिताः, ततो धान्यं विक्रीणीयुः, गृहं वा छादयेयुः, हलाऽऽदीनि वा संस्थापयेयुः / यत एवमतोऽभिवर्द्धितवर्षे विंशतिरात्रे गते, इतरेषु च त्रिषु चन्द्रसंवत्सरेषु सविंशतिरात्रे मासे गते गृहिज्ञातं कुर्वन्ति। अत्थ उ पणगं कारणि-गं जाव सवीसती मासो। सुद्धदसमीठियाण व, आसाढा पुर्णिमा सवणं / / 564|| अत्रेति आषाढपूर्णिमायां स्थिताः पञ्चाहं यावद् दिवा संस्तारकडगलाऽऽदि गृह्णन्ति रात्रौ च पर्युषणाकल्पं कथयन्ति, ततः श्रावणबहुलपञ्चम्यां पर्युषणं कुर्वन्ति। अथाऽऽषाढपूर्णिमायां क्षेत्रं न प्राप्तास्तत एवमेव पञ्चरात्रं वर्षावासप्रायोग्यभुपधि गृहीत्या पर्युषणाकल्पं च कथयित्वा दशम्यां पर्युषणयन्ति / एवं कारणिकं रात्रिन्दिवानां पञ्चकंपञ्चक वर्द्धयता तावन्नेयं यावत् सविंशतिरात्रौ मासः पूर्णः / अथवा-आषाढशुद्धदशम्यामेव वर्षाक्षत्रे स्थितास्ततस्तेषां पञ्चरात्रेण डगलाऽऽदौ गृहीते पर्युषणाकल्पेच कथिते आषाढपूर्णिमायां समवसरणं पर्युषणं भवति, एष उत्सर्गः,शेष काल पर्युषणमनुतिष्ठतां सर्वोऽपवादः / अपवादेऽपि सविंशतिरात्रान् मासान् परतो नातिक्रमयितुं कल्पते, यद्येतावतोऽपि गतवर्षाक्षेत्र न लभ्यते ततो वृक्षमूलेऽपि पर्युषणयितव्यम्। अथ पञ्चकपरिहाणिमधिकृत्य ज्येष्ठकल्पावग्रहप्रमाणमाहइय सत्तरी जहन्ना, असतीणउई दसुत्तरसयं च / जति वासति मग्गसिरे, दस राया तिण्णि उक्कोसा ||565|| इतिरुपप्रदर्शन, ये किलापाढपूर्णिमायां सविंशतिरात्रे मासे गतेपर्युषणयन्ति, तथा सप्तभिर्दिवसान्ति जघन्या वर्षावासावग्रहो भवति, माद्रपदशुद्धपञ्चम्या अनन्तरं कार्तिकपूर्णिमायां सप्ततिदिवससद्भावात्। एषं ये भाद्रपदबहुलदशम्यां पर्युषणयन्तिा तेषामशीतिर्दिवसा मध्यमो वर्षाकालावग्रहः / श्रावणपूर्णिणमाया नवतिर्दिवसाः श्रावणबहुलदशम्यां दशोत्तरं दिवसशतं मध्यम एव वर्षाकालाऽऽवग्रहो भवति। शेषान्तरेषु दिवसपरिमाणं गाथायामनुक्तमपीत्थं वक्तव्यम्-भाद्रपदामावास्या पर्युषणे क्रियमाणे पञ्चसप्ततिर्दिवसाः, भाद्रपदबहुलपञ्चम्यां पञ्चाशीतिः, श्रावणशुद्धदशम्यां पञ्चनवतिः, श्रावणामावास्यां पञ्चोत्तरशतं, श्रावणबहुलपाम्यां पशदशोत्तरं शतम्, आषाढपूर्णिणमायां तु पर्युषिते विंशत्युत्तरं दिवसशतं भवति / एवमेतेषां प्रकाराणामन्यतरेषां वा सममेकक्षेत्रे स्थित्वा कार्तिकचातुर्मासिकप्रतिपदि निर्गन्तव्यम्। अथ एत्थ य अणभिग्गहियं, वीसतिरायं सवीसगं सासं। तेण परमभिग्गहियं, गिहिजायं कित्तिउं जाव // 562 / / अति थावणबहुलपञ्चम्यादौ आत्मना पर्युषितेऽपि अनभिगृहीतमनवधारितं गृहस्थानांपुरतः कर्तव्यम्। किमुक्तं भवति? यदि गृहस्था पृच्छेयुः- आर्या यूयमत्र स्थिता वा, नवेति एवं पृष्ट सति स्थिता वयमवेति सावधारणा न कर्तव्यं किं तु साकारं, यथानाद्यापि कोऽपि निश्चयः, स्थिता अस्थिता वेति / इत्थमनभिगृहीत कियन्तं कालं वक्तव्यम्? उच्यतेयद्यभिवर्द्धितोऽसौ संवत्सरस्ततो विंशतिरात्रिन्दिवानि। अथ चन्द्रोऽसौ, ततः सविंशतिरात्र मास यावदनभिगृहीतं कर्तव्यम् / (तेणं ति) विभक्तिव्यत्ययात्ततः परं विंशतिरात्रात् सविंशतिरात्रमासाद्वोसऽर्द्धमभिगृहीत निश्चित कर्तव्यं, गृहिजातं च गृहस्थानां पृच्छता ज्ञापना कर्तव्या, यथा वयमत्र वर्षाकालं स्थिताः / एतच्चं गृहजातं कार्तिकमासं यावत् कर्तव्यम् / किं पुनः कारणमियति काले व्यतीत एव गृहजातं क्रियते, Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 254 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पज्जुसवणाकम्प मार्गशीर्षे वर्ष वर्षति, कर्दमजलाऽऽकुलाश्च पन्थानः, ततोऽपवादेनैकं वचासितो तु कज्जे, जिणाण नियमऽट्ठ चउरो य / / 356 / / दशरात्रमवतिष्ठन्ते / अथ तथापि वर्ष नोपरमते ततो द्वितीय दशरात्रं स्थविराणां स्थविरकल्पिकानां प्रथमपश्चिमतीर्थकरराक्तानां सप्ततिदितत्राऽऽसते, अथैवमपि वर्ष न तिष्ठति, ततस्तृतीयमपि दशरात्रमासते। नानि, खलु शब्दो जघन्यत इत्यस्य विशेषस्य द्योतनार्थम वर्षात एवं त्रीणि दशरात्राणि तूत्कर्षतस्तत्र क्षेत्रे आसितव्यं, मार्गशिरः पूर्णमासी पर्युषणाकल्पो भवति / तेषामेव ऋतुबद्ध मासमेकत्रावस्थानरूप यावदित्यर्थः / तत ऊद्धर्वं यद्यपि कर्दमाऽऽकुलाः पत्थानो, वर्ष वा मासकल्पः स्थितो भवति। कार्ये पुनरशिवाऽऽदौ न्यासितो विपर्यस्तो गाढमनुपरतं वर्षति, यद्यपि च पानीयैः पूर्यमाणैः तदानी गम्यते, भवति, हीनाधिकप्रमाण इत्यर्थः / जिनानां तु प्रथमचरमतीर्थकरकतत्राप्यवश्यं निर्गन्तव्यम्। एवं पाश्चमासिको ज्येष्ठकल्पावग्रहं संपन्नः / जिनकल्पिकानामृतुबद्धे नियमादष्टौ मासकल्पाः, वर्षासु तु चत्वारो मास अथ तमेव पाण्मासिकमाह न्यूनाधिकाः स्थिताः कल्पतया मन्तव्याः, निरपवादानुष्ठानपरल्या. काऊण मासाकप्पं, तत्थेव ठिताणऽतीतमग्गसिरे। देषामिति भावः। सालंगणाण छम्मा-सिओ उ जिट्ठोग्गहो होति / / 566|| दोसासति, मज्झिमगा, अत्यंती जाव पुव्वकोडी वि। यस्मिन् क्षेत्रे आषाढमासकल्पः कृतः तद्वर्षावासयोग्यमन्यच्च तथाविधं विचरंति य वासासु वि, अकद्दमे पाणरहिए य / / 357 / / क्षेत्र नास्ति ततो मासकल्पं कृत्वा तत्रैव वर्षावासं स्थितानां ततश्चतुर्मा- मिणं पि मासकप्पं, करंति तणुगं पि कारणं पप्प। सानन्तरं कर्दमवर्षाऽऽदिभिः कारणैरतीते मार्गशीर्षमासे निर्गच्छता जिनकप्पिका वि एवं, एमेव महाविदेहेसु // 358 / / सालम्बनानामेबंविधाऽऽलम्बनसहितानां पाण्मासिको ज्येष्ठावग्रहो यत्तु मध्यमा अस्थितकल्पिकाः साधवस्ते दोषाणामप्रीतिका भवति, एकक्षेत्रे अप्यस्थानमित्यर्थः। तिबन्धाऽऽदीनामसत्यभावे पूर्वकोटीमप्येकत्र क्षेत्रे आसते, तथा वर्षास्ती अह अस्थि पदवियारो, चउपडिवयम्मि होति निग्गमणं / अकर्दमे पुनः चिक्खल्ले प्राणरहिते वसुधातले जाते सति विचराने अहवा वि अणिताणं, आरोवण पुव्वनिदिहा / / 567|| विहरन्ति, ऋतुबद्धेऽपि यद्यप्रतिकावग्रहो वसतेयाघातो वा भवेत् : अथास्ति कर्दमवर्षाऽऽदिकारणभावात्पदविचारः ततश्चतुर्णा मासाना एवमादिकं तनुकमपिसूक्ष्ममपि करण प्राप्य मासकल्पं भिन्नमपि कुर्वन्ति पर्यन्ते यावत् प्रतिपन्न तावत् निर्गमनं कर्तव्यम्। अथ तेपदप्रचारसंभवेऽपि आपूरयित्वा निर्गच्छन्तीत्यर्थः। जिनकल्पिका अपि मध्यमतीर्थकरसल निर्गच्छन्ति ततोऽनिर्गच्छता पूर्वनिर्दिष्टा मासकल्पे प्रकृते प्रागभिहिता एवमेव मासकल्पेपर्युषणाकल्पेवा स्थिताः प्रतिपत्तव्याः। एवमेव महादिचतुर्लघुकाऽऽख्या आरोपणा मन्तव्या। बृ०३ उ०। हेषु ये स्थविरकल्पिकाः, जिनकल्पिकाश्वतेऽप्यस्थितकल्पिकाः प्रल्पि(२६) अथ द्विविधं पर्युषणाद्वारमाह त्तव्याः। गतं पर्युषणाकल्पद्वारम्। बृ०६ उ०। प्रव०। 80 / पं० भा०६ पज्जोसवणाकप्पो, होति ठितो अद्वितो य थेराणं। चू०। पञ्चा० / जीत०। एमेव जिणाणं पि य, कप्पो ठितमट्टितो होति / / 354|| विषयसूचीपर्युषणाकल्पः स्थविरकल्पिकानां जिनकल्पिकानां च भवति / तत्र (1) अपर्युषणायां पर्युषणे विचारः। स्थविराणां स्थितोऽस्थितश्च भवति, एवमेव जिनानामपि स्थितोऽ- (2) पर्युषणैकार्थिकानि। स्थितश्च पर्युषणाकल्पः प्रतिपत्तव्यः। (3) प्रथमं पर्युषणा कदा विधेया। इदमेव भावयति (4) पर्युषणास्थापना। चाउम्मासक्कोसे, सत्तरिराइंदिया जहण्णेणं / (5) आचार्याऽऽद्यनुसाराद्वयमपि प्रकुर्मः / ठितमद्वितगेमतरे, कारणे वचासितऽण्णयरे // 355 / / भाद्रपदपञ्चमीविचारः / वर्षाप्रायोग्यक्षेत्रप्रवेशश्च / उत्कर्षतः पर्युषणाकल्पश्चतुर्मासं, यावद्भवति, आषाढपूर्णिमायाः | (7) वर्षासु सक्रोशं योजनमवग्रहः। कार्तिकपूर्णिमा यावदित्यर्थः / जघन्यतः पुनः सप्ततिरात्रिन्दिवानि, (8) क्षेत्रस्थापना। भाद्रपदशुक्लपञ्चम्याः कार्तिकपूर्णिमां यावदित्यर्थः / एवं विधे पर्युषणा- | (8) भिक्षाक्षेत्रम्। कल्पे पूर्वपश्चिससाधवः पुनरस्थितास्ते हि यदि वर्षारात्रो भवति तत एकत्र (10) नवारसविकृतिनिषेधः।। क्षेत्रे तिष्ठन्ति, अन्यथातु विहरन्ति / पूर्वपश्चिमा अप्यन्यतरस्मिन्नशिवाss- (11) द्रव्यस्थापना। दौ कारणे समुत्पन्ने एकतरस्मिन् मासकल्पे पर्युषणाकल्पे वा व्यत्यासितं (12) आहारस्थापनम्। विपर्यस्तमपि कुर्यः। किमुक्तं भवति?-अशिवाऽऽदिभिःकारणे ऋतुबद्ध (13) पानकविधिः। मासस्तूनमधिकं वा तिष्ठेयुः, वषास्वपि तैरेव कारणैश्चतुर्मासमपूरयित्वा- | (14) दत्तिसंख्यया ग्राह्यग्रहणम्। ऽपि निर्गच्छन्ति, पराभावात् तत्रैव क्षेत्रे तिष्ठन्ति। (15) सप्तगृहमध्ये निषेधः। इदमेवाऽऽह (16) उदकाइँण सस्निग्धेन वा कायेनाऽशनाऽऽदिकरणनिषेधः। थेराण सत्तरी खलु, वासासु ठितो उदुम्मि मासा उ। (17) भिक्षरिच्छेद् गृहिपतिकुलम्। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जुसवणाकप्प 255 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पट्टावलि (18) अतुण्डकाले संस्तारकग्रहणविषयविचारः। (16) उच्चारप्रश्रवणभूमिः। समाकद्धारम्। (2) लोचविचारः। (22) अशिकरणम्। (23) उपाश्रयाः (2) योजनान्यवग्रहश्च। (25) सविनलाभः। (26) वर्षासु यत्कर्तव्यं तन्निरूपणम्। (27), पर्युषणाकल्पकर्षणे सामाचारी। (2) यस्मिन् काले वर्षावासे स्थातव्यं यावन्तं वा कालं येन वा विधिना तदुपदर्शनन्। (26) विविधपर्युषणाद्वारनिरूपणम्। पज्जूसवणाकप्प पु० (पर्युषणाकल्प) वर्षाकालसामा-चाम्,ि पञ्चा० 1 विव पलोइय 40 (प्रघातित) वह्निना ज्वालिते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। पजोत ए० (प्रद्योत) प्रकाशे,स०१ सम०। भ०। सूत्र० स्वनाम-ख्याते उज्जयिनीराज, श्रेणिकभार्यायाश्चेल्लणाया भग्निन्याश-वायाः पत्यौ, (अदृश्यकनियुक्ति 183 मूलगाथायामियंकथा) 'प्रद्योननृपतेश्वास्ति, दिव्या रत्नचतुष्टयी (18) लहजड्यो लेखहारी, अग्निभीरुस्तथा रथः। स्त्रीरत्नं च शिवा देवी, गजोऽनलगिरिः पुनः ||16|| लोहजड्योऽन्यदाऽगच्छद्, भृगुकच्छं नृपाज्ञया। दथ्यो तदीशोऽह्रत्येष, पञ्चविंशतियोजनीम्।।२०।" आ० के० 4 अ० / आ० म० / आ० चू० / व्य० / नि० चू० / आव०। (श्रेणिकशब्दे विस्तरः) (राजगृहनगराऽवरोधोऽभयकुमारेण तत्पराज योऽन्यत्र . पोयगर 0 (प्रद्योतकर) प्रद्योतं करोतीति प्रद्योसकरः / प्रकाशकरे, भ०१ श०१ उ०॥ पज्जोयगारि(ण) पुं० (प्रद्योतकारि) श्रीरामशयवतीर्थे पूज्यमानव धमानप्रतिमायाम, ती०४३ कल्प। पोयग पु० (प्रद्योतन) चन्द्रकुलीने देवसूरिशिष्ये, ग०३ अध०। पज्झंझमाण त्रि० (प्रझञ्झायमान) शब्दायमाने,जं०१ वक्षा पज्झरघुः (प्रझर) जलप्रस्रवणमार्गविशेषे, प्रज्ञा०२ पद। पज्झरिम त्रि० (प्रक्षरित) पतिते, “निटुइअं खिरिअं छिप्पिअंच नीसंदिअ पज्झरिअं" पाइ० ना०८० गाथा। पज्झाय न० (प्रध्यात) चिन्तिते, अनु०॥ पज्झुत्त नि० (प्रयुक्त) खचिते, "वेअडिअं पज्झुत्तं, खचिअं विच्छुरिअं जडिम!" पाइ० ना०५० गाथा। पट्ट पु० (पट्ट) सुवर्णसूत्रे, ('कलावत्तू' इति भाषायाम्) स्था०५ ग०३ न० तत्प्रचुरे वस्त्रे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०।०। पट्टसूत्रमये वस्त्रे, भ०११ श० 11 उ० / शाके, सू० प्र०२० पाहु 0 / ज्ञा० परिधानपट्टे, विपा० 1 श्रु०३ अ० / त्रयः पट्टाः। तद्यथा-संस्तारपट्टः, उत्तरपट्टः, चोलपट्टश्च / पिं०। पं० चू०। पट्टो वि होइ इक्को, देहपमाणेण सो य भइयव्वो। (401) पट्टोऽपि गणनयैको भवति, स च पर्यन्तभागवर्तिवाटकबन्धबद्धः पृथुत्वेन चतुरङ् गुलप्रमाणःसमतिरिक्तो वा दीर्धेण तु स्त्रीकटीप्रमाणः, स च देहप्रमाणेन भक्तव्यः, पृथुलकटीभागाया दीर्घः संकीर्णकटीभागायास्तु ह्रस्व इत्यर्थः / (401) बृ०३उ०। नि० चूला ललाटाऽऽभरणे, विपा०१ श्रु०६ अ०। पट्टइ धा० (देशी) पिवतीत्यर्थे, दे० ना०६ वर्ग १४गाथा। पट्टइल्ल पुं० (पट्टवत्) भूमिकरनिबन्धनपट्टोऽस्त्यस्य / प्राकृते मत्वर्थीय इल्लः / प्रधानकृषके राज्ञां प्रकृतौ,ज०३ वक्षः। पट्टकार पुं० (पट्टकार) पट्टकूलकुविन्दे, प्रज्ञा० 1 पद। पट्टण न० (पत्तन) पतन्ति तस्मिन् समस्तदिग्भ्यो जना इति पत्तनम्। उत्त० 30 अ० / 'पट्टणं वा' उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात्। प्रज्ञा०१ पद। जलस्थलनिर्गमप्रवेशे, जलस्थलयोरन्यतरेण पर्याहारप्रवेशे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०२ उ० / कल्प० / विविधदेशाऽऽगतपण्यस्थाने, भ०१श०१उ०। विविधदेशपण्यान्यागत्य यत्र पतन्ति तादृशे नगरविशेषे, स०४८ सम०। रत्नद्रोण्याम,सूत्र०२ श्रु०२ अ०। रत्लखनौ, उत्त०३० अ०। ग०। स्था० / "जलपट्टणं च थलपट्टणं च भवे दुविहं / ' पठनं द्विधाजलपत्तनं, स्थलपत्तनं च / यन्न जलपथेन नावादिवाहनाढूढ भाण्डमुपैति तज्जलपत्तनं यथा द्वीपं, यन्न तु स्थलपथेन शकटाऽऽदौ स्थापितं भाण्डमायाति तत् स्थलपत्तनं, यथा आनन्दपुरम् / बृ० 1 उ०२ प्रक० / नि० चू 0 / जलपत्तन यज्जलमध्यवर्ति, यथा कननद्वीपः / स्थलपत्तनं च निर्जलभूभागभावि, यथा मथुरा। उत्त०३० अ०। स्था०। आचा०। जलस्थलनिर्गमप्रवेशे, यथा भृगुकच्छः / उक्तं च- "पत्तगंशकटैगम्यं, घोटकैनौभिरेव च। नौभिरेव तु यद गम्य, पट्टनं तत्प्रचक्षते।।१।।" व्य०१ उ० ओघ०। प्रश्र०। जी०। आचा०1 छादनकोशके, औ०। पट्टबंध पुं० (पट्टबन्ध) यस्य शिरसि पट्टो बद्धः तस्मिन्, प्रद्योत-राजाय बद्धोन्मुक्ताय उदायनराजेन मस्तके पट्टो बद्धः / "तप्पभिई पट्टबद्धा रायाणो.पुव्वं मउडबद्धा आसी।" आ० म०१ अ०। आ० चू०। पट्टसंठिय त्रि० (पट्टसंस्थित) पट्टवत् शिलापट्टकाऽऽदिवत्, शिलाप ट्टकाऽऽकृतौ, "पट्टसंथियपसत्थवित्थिण्णपिहुलसोणीओ।" पट्टवत् शिलापट्टकाऽऽदिवत् संस्थिता पट्टसंस्थिता प्रशस्ता प्रशस्तलक्षणोपेतत्वात् विस्तीर्णा ऊधिः पृथुला दक्षिणोत्तरतः श्रोणिः कटेरग्रभागो यासां ताः पट्टसस्थितविस्तीर्णपृथुलश्रोणयः। जी०३ प्रति०४ उ०। पट्टसुत्त न० (पट्टसूत्र) मलयकीटजे सूत्रे, आ०मा०१ अ०। अनु०। पट्टाकिइ त्रि०(पट्टाऽऽकृति) पट्टसस्थिते, स्था०६ ग०। पट्टावलि स्त्री०(पट्टावलि) पट्टपरम्परायाम्, ताश्चानेकविधा अनेकैरनेकत्र दर्शिताः,यथा गच्छाऽऽचारटीकाकृता विजयविमलगणिना गच्छाऽ5चारवृत्त्यन्ते। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावलि 256 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पट्टावलि अथ प्रशस्तिर्लिख्यतेप्रकटितजगानन्दः, सुरतसमणिसुराभिमहिमरमणीयः। प्रणते हितप्रणेता, शासननेता जयति वीरः 1 / / 1 / / तत्पट्टोदयभानु-गणी सुधा 2 यथार्थनामाऽभूत्। बोधितशरशतचोरः, श्रीजम्बूकेवली 3 चरमः॥२॥ श्रीमान् प्रभवस्वामी, 4 गणनाथी गुणमणिःसलिलनाथः / शय्यंभवोऽपि सूरि-मणकपिता सोऽजनिष्ट ततः 5 / 3 / / निजगतिनिर्जितभद्रः कृतभद्रः श्रीगणी यशोभद्रः 6 / तत्पट्टे श्रीमन्तौ,संभूतविजयसुभद्रबाहुगुरू 7 // 4 // श्रुतकेवलीहि चरमः, स्थूलभद्रस्त्योर्विनयोऽभूत् 8 / शिष्योत्तमौ तदीयौ, सूरिमहागिरिसुहस्तिगुरू / / 5 / / जिनकल्पपरिकर्मप्रथमः, प्रथया चितः प्रथयति स्म। श्रेणिकतःप्रति संप्रति-नृपं द्वितीयः स्म बोधयति // 6 // तदनु च सुहस्तिशिष्यौ, कौटिककाकन्दकावजायेताम्। सुस्थितसुप्रतिबद्धौ,कौटिकगच्छस्ततश्च समभूत् 10 // 7 / / तत्रेन्द्रदिन्नसूरि ११-भगवान् श्रीदिन्नसंज्ञसूरीन्द्रः 120 तस्य पदे सिंहगिरि-निरिरिवाऽऽधारो गिरि गम्भीरः 13 // 8 // समजनिवजस्वामी, जृम्भकदेवार्पितस्फुरद्विद्यः। बाल्येऽपि जातजाति-स्मृतिः प्रभुश्चरमदशपूर्वी 14 / / 6 / / श्रीवजसेनसंज्ञ-स्तत्पदपूर्वाद्रिचूलिकाऽऽदित्यः 15/ मूलं चान्द्रकुलस्या-जनिचततश्चन्द्रसूरिगुरुः 16 / / 10 / / पूर्वगतश्रुतजलधि-स्तस्मात्सामन्तभद्रसूरीन्द्रः 17 / श्रीमांश्च देवसूरि-स्तदीयपट्टेऽभवद् वृद्धः 18 // 11 / / प्रद्योतनाभिधानः 16, ततोऽपि सूरीन्द्रमानदेवाऽऽख्यः। शान्तिस्तवेन मारि,यो जहे देवताऽभ्यर्च्यः 20 / / 12 / / श्रीमानतुङ्ग सूरिः, कर्ता भक्तामरस्य गणभतां 21 / श्रीमान् वीरः सूरिः 22, ततोऽपि जयदेवसूरीन्द्रः 23 // 13 // श्रीदेवानन्दगुरु २४-र्विक्रमसूरि 25 गुरुश्च नरसिंहः। बोधितहिंसकयज्ञः, 26 क्षपणकजेता समुद्रोऽथ 27 // 14 // हरिभद्रमित्रमभव-त्सूरिः पुनरेव मानदेवगुरु:२८ / विबुधप्रभश्च सूरिः, 26 तस्मात्सूरिर्जयाऽऽनन्दः 30 // 15 // श्रीमद्रविप्रभगुरु ३१-गरिमालङ्कारगुरुयशोदेयः 32 / सुद्युम्नः प्रद्युम्नः-भिधश्च सूरिस्ततोऽप्यासीत् 33 / / 16 / / विहितोपधानवाच्य-ग्रन्थस्तस्माच्च मानदेवाऽऽख्यः / सूरिः समजनि भूयो, मानवदेवार्चितः सततम् 34|17|| (केचिदिदं सूरिद्वयमिह न वदन्ति) तन्माच विमलचन्द्रः सहेमसिद्धिर्बभूव सूरिवरः 35 उद्द्योतनश्च सूरिः, दूरीकृदुरिवाडकुरव्यूहः 3618| अथ युगनवनन्द 466 / मते, वर्षे विक्रमनृपादतिक्रान्ते। पूर्वावनितो विहरन, सोऽर्बुदसुगिरेः सविधमागात्।।१६।। तत्र वटेलीखेटक-सीमाच निसंस्थवरवटाधः। सुमुहुर्ते स्वपदेऽष्टी, सूरीन् संस्थापयामास॥२०॥ (युग्मम्) ख्यातस्ततो गणोऽयं, वटगच्छाह्वोऽपि वृद्धगच्छ इति। अभवत्तत्र प्रथमः, सूरिः श्रीसूरिदेवाह्नः 37 / / 21 / / रूपश्रीरिति नृपति-प्रदत्तविरूमदोऽथ देवसूरिरभूत 38 / श्रीसर्वदेवसूरि-र्जज्ञे पुनरेव गुरुचन्द्रः 36 // 22 // जातौ तस्य विनेयौ, सूरियशोभद्रनेमिचन्द्राऽऽहौ 40 / ताभ्यां मुनीन्द्रः श्रीमुनि-चन्द्रो भूयो गुरुः समभूत् 41 // 23 // श्रीअजितदेवसूरिः, प्राच्यस्तस्माद्वभूव शिष्यवरः। वादीति देवसूरि-द्वितीयशिष्यस्तदीय इह 42 / / 24 / / तत्राऽऽदिमाद्बभाषे,गुरुर्विजयसिंह इति मुनिपर्सिहः 43 / तस्याप्युभी विनेयौ, बभूततुर्भूमिविख्यातौ / / 25 / / ख्यातस्तत्र शतार्थः, सोमशुभसूरिपुङ्गवः प्रथमः। श्रीमणिरत्नगणीन्द्रो,गुणगणमणिनीरनिधिरन्यः / / 44 // 26 // शिष्या मणिरत्नगुरो-स्ततो जगच्चन्द्रसूरयोऽभूवन्। भूतलविदिता नूतन-वैराग्याऽऽवेगभाजस्ते // 27 // श्रीचैत्रगणाम्भोधी, विधूपमाद्देवभद्रगणिमिश्रात्। उपसंपन्नाश्चरणं, विधिना संवगवन्तश्च // 28 // आचाम्लाऽऽख्यतपोऽभि-ग्रहवन्तो ब्यधुर्विधूतमलाः। शरकरटितरणि-१२८५ वर्षे , ख्यातस्तत इति तपागच्छः 45329 (विशेषकम) "तेषामुभौ विनेयौ, देवेन्द्रगणीन्द्रविजयचन्द्राऽऽहौ 46 / श्रीदेवेन्द्रगुरोरपि, शिष्यों द्वौ भूतलख्यातौ // 30 // श्रीविद्यानन्दगणी, प्रथमोऽन्यो धर्मघोषसुरिरिति 47 / अथ सोमप्रभसूरिः 48, तस्य विनेयास्तु चत्वारः // 31 // श्रीविमलप्रभसूरिः (1), श्रीपरमानन्दसूरिगुरुराजः (2) / श्रीपद्मतिलकसूरि (३)-गणतिलकःसोमतिलक्गुरुः // 32 // श्रीसोमप्रभसूरेः,पट्टे श्रीसोमतिलकसूरीन्द्राः 46 / तेषां त्रयो विनेया-स्तत्र श्रीचन्द्रशेखरःप्रथमः।।३३।। सूरिजयानन्दोऽन्य-स्तृतीयका देवसुन्दरा गुरवः। श्रीसोमतिलकसूरे-स्त एव पट्टाम्बराऽऽदित्याः 50 // 34 // तेषां पञ्च च शिष्याः, प्रथमे श्रीज्ञानसागरा गुरवः। कुलमण्डना द्वितीयाः, श्रीगुणरत्नास्तृतीयाश्च / / 35 / / तुर्या अहार्यषीर्याः, गुरवः श्रीसोमसुन्दरप्रभवः / आसंश्च पञ्चमा अपि,गुरवः श्रीसाधुरत्नाऽऽह्वाः // 36 // श्रीदेवसुन्दरगुरोः,पट्टे श्रीसोमसुन्दरगणीन्द्राः। अभवन युगप्रधानाः 51, शिष्यास्तेषां च पञ्चैते॥३७|| श्रीमुनिसुन्दरसूरिः,१, श्रीजयचन्द्रो गुरुमरिमधाम 2 / श्रीभुवनसुन्दरगुरु ३-जिंनसुन्दर 4 सूरिजिनकीर्तिः // 38|| श्रीसोमसुन्दरगुरोः, पट्टे मुनिसुन्दरो युगप्रवरः 52 / तत्पदृमुकुटरत्नः, रत्नशेखरो गुरूत्तंसः // 36 // श्राद्धविधिसूत्रवृत्त्या-द्यनेकद्ग्रन्थनिर्मितिपटिष्ठः 53 / लक्ष्मीगरसूरि-स्तत्पदमण्डनमतिगरिष्ठः 54 // 40 // आसीत्तदीयपट्टेगुरुर्गुणी सुमतिसूरीन्द्रः 55| श्रीहेमविमलसूरि-स्तदीयपट्टे गुरुः समभूत् 56 // 41 / / अथ दुःषमोत्थदोषात्, प्रमादवशचेतसा ममत्वभृतः। अभवन्मुनयःप्रायः, स्वाचाराऽऽचरणशैथिल्याः // 42 // किञ्चिन्निरीक्ष्याप्यसमञ्जसं तत् शास्त्रार्थशून्यैः प्रतिभोज्झितैश्च / लुकाऽऽद्यनादेयमतान्धकृपेडप्यन्धैरिवोच्चैः पतितं प्रभूतैः / / 43 // इतश्वश्रीहेमविमलसूरि-दूरीकृतकल्मषः ससूरिगुणम्। ज्ञात्वा योग्य तूर्ण, धर्मस्याऽभ्युदयसंसिद्धथै / / 44 / / सौभाग्यभाग्यपूर्ण संवेग-तरङ्गनीरनिधिम्। आनन्दविमलसूरि, निजपट्टेस्थापयामास 57 // 45 / / (युग्मन्) धान्या नागरसंकाशा-स्तपोभिर्दुस्तपै शम्। स्थूलभद्रोपमाः सर्वे, ब्रह्म- चर्यगुणैरपि।।४६|| Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावलि 257 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पट्टावलि श्रीमदानन्दविमल-प्रभवः शासनाद् गुरोः। शाश्वत् शुद्धां क्रिया कर्तु-मकुर्वन्निश्चलं मनः / / 47 / / (युग्मम्) अथ कुमार्गपतज्जनताद्भुतौ, विनयभावमावाप्य सहायकम्, सविनयं न्यनिर्मलमानसं, मुदमधाद्विशदा गुरुपुङ्गवः / / 48 / / श्रीटिनयभावसंज्ञः, विज्ञवरैः संयुताः सहायैस्ते। समतासहिता हित्वा वस्त्राऽऽदिपरिग्रहे ममताम्॥४६।। श्रीविक्रमनृपकालात्, भुजनगशरशशि 1582 मिते गते वर्षे / चकुवरजोद्धरणं, शरणं संवेगवेगवताम्॥५०॥ (युग्मम्) तदा व तेषां जगदुत्तमाना, संविग्नतासाररसप्रसिक्तः। प्लानिं गतोऽपहि चरित्रधर्म-कल्पद्रुमः पल्लवितो बभूव / / 51 / / सगुरुरिमौदार्य-स्थैर्थाऽऽदिगुणसेवधिः। निर्ममयः शरीरेऽपि, तपस्तेपे सुदुस्तपम् / / 52 / / अथ तच्छ्यतां किधि-दालोच्य स्वकपापाकः। कृतवानपवस्त्राणा-मशीत्यभ्यधिकं शतम्॥५३|| अहंदादियदध्याय, विंशतिस्थानकं तपः। निर्विकारश्वकारेष, चतुःशतचतुर्थकैः / / 54|| चंद्र पुनस्तपस्तदुवरिष्टषष्टःचतुश्शतप्रमितैः। विंशतिषष्पा ने ततो, विहरज्जिनं समाश्रित्य // 55 / / तीथाधिपदीरविभोः, षष्ठानि नवेक्षणेक्षण 226 मितानि॥ पाक्षिकमुखेषु पर्वसु, षष्ठानि बहूनि चान्यानि // 56 / / द्वादशानि प्रभुः पञ्च, चक्रे प्रथमकर्मणः। तानि पञ्चान्तरायस्य, नवैव दशमनि तु / / 57 / / दर्शनाऽऽदरणस्यापि, मोहनीयस्य कर्मणः। अष्टाविंशतिसङ्ग्यानि, विशिष्टाष्टमकानि च / / 58 / / (युग्मम्) अश्मदशभान्येवं, वैद्ये गात्रे तथाऽऽयुषि बहूनि। कृतवान् भगवान्नम्नो, न च जज्ञे कर्मणस्तु तपः // 56 // तपोभिरेवं विहितैरनेकै-रनुत्तरैः श्रीगुरुकुञ्जरोऽसौ। वषुः शुशोशस्तसमस्तदोषः, समं समग्रैर्दुरितैः स्वकीयम्।६०। वदन्ति तस्येति जना निरीक्ष्य, निरीहताज्ञानतपःक्रियाऽऽढ्यम्। अदातरत् सर्वगुणः किमेषश्रीमान् जगचन्द्रगुरुर्द्वितीयः मरुस्थला मालवगूर्जरत्राः, सौराष्ट्रमुख्येष्वपि मण्डलेषु / हरस्तमः पङ्कमपास्तदोषः, स सूरिभानुर्व्यहरचिराय॥६२।। क्षितितलतिलके श्रीम-त्यहम्मदावादसंज्ञिते द्रङ्गे। विक्रमनृपतेः समति-क्रान्ते रसनवतिथि 1566 मितेऽब्दे // 63 // विधिना विहितानशनः, श्रीमानानानन्दविमलसूरिः / ........ ||64 // आनन्दविमलगुरवः, श्रीमन्तः सप्तपञ्चाशाः 57 // 67 / / आसंस्तदीयपट्टे,प्रभवश्रीविजयदानसूरीन्द्राः। सर्वत्र विजयवन्तो, नयवन्तः समयवन्तश्च 55 // 68 // तेषां पट्टे संप्रति, विजयन्ते सर्वसूरिपारीन्द्राः। सूविहितस धुप्रभवः, श्रीमन्तो हीरविजयाऽऽह्वाः // 66 / / सौभाग्यमद्भुततरं, भाग्यमसाधारणं सदा येषाम्। वैराग्यमुत्तमतम,चारित्रमनुत्तरतमं च // 70 / / येषां दोषांश्च गुणान्, शक्तौ खलसज्जनौ न जायेताम्। वर्णयितुमसद्भावा-दप्रमितेश्चापि पूज्यानाम् / / 71 / / श्रीविजयसेनसूरि-प्रमुखैमुनिपुङ्गवैर्विगतदोषैः। सेवितपदारविन्दाः, श्रीगुरवस्ते जयन्ति तराम् 56 // 72 // तेषां श्रीसुगुरूणां, प्रसादमासाद्य संश्रुतानन्दः। वेदाग्निरसेन्दु 1634 मिते, विक्रमभूपालतो वर्षं // 73 // शिष्यो भूरिगुणाना,युगोत्तमाऽऽनन्दविमलसूरीणाम्। निर्मितवान् वृत्तिमिमाः-मुपकारकृते विजयविमलः // 74|| (युग्मम्) कोविदविद्याविमलाः, विवेकविमलाभिधाश्च विद्वांसः / आनन्दविजयगणयो, विचिन्तयन्तो गुरौ भक्तिम् / / 7 / / शोधनलिखताऽऽदिविधा-वस्या वृत्ते-य॒धुः समुद्योगम्। स्युढिमादरपराः, उपेततत्कृत्यदकृतज्ञाः॥७६।। (युग्मम्) प्रत्यक्षरं गणनया, वृत्तेनि ससूत्रकम्। सहस्राः पञ्चसार्द्धानि, शतान्यष्टावनुष्टभाम्॥७७।। यावन्महीतले मेरु-र्यावच्चन्द्रदिवाकरौ। तावद्वृत्तिरियं धीरे-र्वाच्यमाना श्रुता जयेत् / / 78||" ग०४ अधिo अ०। पट्टिज्जंत त्रि० (पाट्यमान) सिरिकिलत्तिकाऽऽदिवादनप्रकारेण वाद्यमाने, आ० चू०१ अ०।। पट्टिया स्त्री० (पट्टिका) धनुर्यष्टौ, औ०। "सरासणपट्टिआ।" जं०३ वक्ष० / वंशानामुपरि कम्बास्थानीयेऽर्थे, जी०३ प्रति०४ उ० रा०। ज०। पट्टिसंग(देशी) ककुदे, तालुस्थाने, दे०ना०६ वर्ग 23 गाथा। पट्टिस पु०(पट्टिश) प्रहरणविशेषे, उत्त०१६ अ०। प्रश्न०। पट्अहिअ त्रि० (क्षुब्धा) सकर्दमजले, "खउरिअंउच्चिवलयं पटुहिअं जाण कलुसजलं।" पाइ० ना०८६ गाथा। पट्ठ त्रि० (पृष्ठ) शरीरावयवविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। उपरि-तनभागे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। उपरितने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। "तलिम पट्ट च तलं।" पाइना० 122 गाथा। * प्रष्ठ त्रि० वाग्मिनि, कुशले, जी० 3 प्रति०२ उ० / कार्याणामविलम्बितकारिणि, रा० / प्रधाने, उपा०७ अ० / अग्रसरे, कल्प०१ अधि०३क्षण / अग्रगामिनि, ज्ञा०१श्रु०१अ०। प्रश्न०। पुं०। प्रश्ने, स्था० प्रश्नविभागमाहछव्विहे पट्टे पण्णते। तं जहा-संसयपढे, वुग्गहपढे, अणुजोगी, अणुलोमे, तहणाणे, अतहणाणे। (छव्विहेत्यादि) प्रच्छन प्रश्नस्तत्र संशयः प्रश्नः क्वचिदर्थे संशये सति यौ विधीयते। यथा-"जइ तवसा ओदाणं, संजमओगोतवोत्तिते कहणु। देवत्तं जति जई, गुरुराह सरागसजमओ॥१॥" इति। व्युद्ग्रहेण मिथ्याऽभिनिवेशन, विप्रतिपत्त्येत्यर्थः / परपक्षदूषणार्थयः क्रियतेप्रश्नः सव्युद्ग्रहप्रश्नः। ................ किल गरछनेता। श्रीमान् स सूरिस्तु बभूव सप्तत्रिंशा बृहद्गच्छपसर्वदव 37 // 65 / / तपोऽभिधाऽऽदिस्त्विह पञ्चचत्वारिशो 45 जगचन्द्रमुनीन्द्रचन्द्रः। ततः क्रियोद्धारकृतो मुनीन्द्रास्त्रयोदशाः श्रीगुरबो बभूवुः 56 / / 66 / / एवं श्रीवीरजिनः, संततिकृद् गच्छनाथगुरुगणने। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्ठ 258 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पट्ठवण यथा-"सामन्नओ विसेसो, अन्नोणन्नो व्व होज्ज जइ अन्नो। सो नन्थि खपुप्फ पिव, णन्नो सामण्णमेव तयं / / 1 / / " इति। अनुर्यागीति। अनुयोगो व्याख्यानं, प्ररूपणेति यावत्। स यत्रास्ति, तदर्थ यः क्रियत इति भावः / यथा-"चउहि समएहिं लोगो।" इत्यादि प्ररूपणाय "कइहिं समरहिं " इत्यादि ग्रन्थकार एव प्रश्नयति। अनुलोमेऽनुलोमनार्थमनुकूलकरणाय परस्य यो विधीयते, यथा क्षेमं भवतामित्यादि। (तह नाणे त्ति) यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञानं तथैव प्रच्छकस्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्ने स तथाज्ञानो, जानन्प्रश्न इत्यर्थः। सच गौतमाऽऽदेर्यथा-"केवइकालेण भंते! चमरचंचा रायहाणी विरहिया उववाएणं।" इत्यादिरिति। एतद्विपरीतस्त्वतथाज्ञानेऽजानन्प्रश्न इत्यर्थः / क्वचिद् 'छविहे अतु।" इति पाठस्तत्र संशयाऽऽदिभिरर्थो विशेषणीय इति। स्था०७ ग०। पट्ठवण न० (प्रस्थापन) प्रारम्भे, "इमं पुण पट्ठवणं पडुच्च'' इदं पुनः | प्रस्तुतं प्रस्थापन प्रारम्भं प्रतीत्या आश्रित्य / अनु०। पट्ठवणा स्त्री० (प्रस्थापना) प्रायश्चित्तदाने, "पट्ठवणा नाम दाणं ति।" व्य०१ उ० / प्रस्थापनाभेदाः।। प्रस्थापनाया भेदानाहदुविहा पट्ठवणा खलु, एगमणेगा य होयऽणेगा य। तवतियपरियत्ततिगं, तेरस ऊ जाणिय पयाणि / सा प्रायश्चित्तप्रस्थापना द्विविधा / तद्यथा-एका, अनेका च / तत्राऽसंचयिता सा नियमात् पाण्मासिकीत्येकविधा। साऽपि स्वभेदचिन्तायां द्विधा-उद्घाता, अनुराता च। अनेका पुनरियं भवतियमित्यादि। तत्र पञ्चकाऽऽदिषु भिन्नमासान्नेषु परिहारतपो न भवति, किंतु मासाऽऽदिषु, ततो मासिकमेव तपः स्थानकं द्वैमासिकाऽऽदि यावच्चातुर्मासिकमेतत् द्वितीयं तपः स्थानम्। पाञ्चमासिकं षण्मासिक च तृतीयं तपःस्था नम्। एतान्यपि प्रत्येक द्विविधानि / तद्यथा-उद्धातानि, अनुद्धातानि च / एतत्तपस्त्रिकं (परियत्ततिगं ति) प्रव्रज्यापर्यायस्य परावर्तस्तस्य त्रिकं परिवर्तत्रिकम्। तच्च छेदत्रिकं, मूलत्रिकमनवस्थाप्यत्रिकंचा छेदो द्विधाउद्धातः, अनुद्धातां वा / पाराञ्चितमेकमेतानि यानि त्रयोदश पदानि एषा पाराञ्चितवर्जा अनेका प्रस्थापना / अथैतानि त्रयोदश पदानि प्रागेवाभिहितानि, किमर्थमिह पुनरुचार्यन्ते ? उच्यते-स्मरणार्थम् / अथ वायदेतत्प्रस्थापितोऽपि प्रतिसेवते तत्कृत्स्नमनुग्रहकृत्रनेन निरनुग्रहकृत्स्नेन वा आरोप्यते, प्राकृतत्वं त्वनुग्रहकृत्स्नेनैवाऽऽरोपितमिति ज्ञापनार्थम् / व्य० 1 उ०।। प्रस्थापितिकाऽऽदिभेदचतुष्टयं व्याख्यानयतिपट्टवितिया वहंते, वेयावचट्ठिया ठवितिया उ। कसिणा झोसविरहिया, जहिँ झोसो सा अकसिणा उ।। यदारोपितं प्रायश्चित्तं वहति एषा प्रस्थापितिका आरोपणाया वैयावृत्यकरणलब्धिसंपन्नः आचार्यप्रभृतीनां वैयावृत्यं कुर्वन् यत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तस्याऽऽरोपितमपि तं क्रियते, यावत् वैयावृत्यपरिसमाप्तिभवति / द्वौ योयावेककालं कर्तुमसमर्थ इति कृत्वा सा आरोपणा स्थापितिका / व्य०१ उ०। प्रथमत्या वेदनारम्भे, पापकर्मप्रस्थारम्भःजीवाणं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्ठविंसु समायंणिद्वबिंदु 1 / समायं पट्ठविंसु वि समायं णिट्ठविंसु 2 / विसमायं पट्ठविंदु समायं णिट्ठविंसु 3 / विसमायं पट्टविंसु विसमायं णिति 4? गोयमा ! अत्थेगया समायं पट्ठविंसु समायं णिट्ठविंसुरुजाव अत्थेगइया विसमायं पट्टविंसु विसमायं णिट्ठविंसु / / से केपट्टे भंते ! एवं वुच्चइअत्थेगइया समायं पट्ठविंसु समायं तं चेद? गोयमा!जीवा चउविहा पण्णत्ता। तं जहा-अत्थेगइया समात्य समोववण्णगा, अत्थेगइया समाउया विसमोववण्णगा, अत्थे. इया विसमाउया विसमोववण्णगा। तत्थ णं जे ते समाङ समोववण्णगाते णं पावं कम्मं समायं पट्ठविंसु समायं णिट्ठविर तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववण्णगा ते णं पावं कम्मं समर पट्ठविंसु विसमायं णिट्ठविंसु। तत्थ णं जे ते विसमाउया समोदवण्णगा ते णं पावं कम्मं विसमायं पट्ठविंसु समायं णिहविंसु तत्थ णं जे ते विसमाउया विमोववण्णगा ते णं पावं कम विसमायं पट्ठविंसु विसमायं णिट्ठविंसु; से तेणटेणं गोयमा!! चेव। सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्मं एवं चेव। एवं सव्वाः णेसु वि०जाव अणगारोवउत्ता एते सव्वे विपया एयाए वत्तव्यया भाणियव्वा / णेरइयाणं भंते ! पावं कम्मं किं समायं पट्ठविर समायं णिढविंसु पुच्छा ! गोयमा ! अत्थेगइया समायं पढदिर एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणियव्वं जाव अणागारोवउत्ता। जाव वेमाणिया जस्स जं अस्थि तं एएणं कमेणं भाणिय; जहा पावेणं कम्मेणं दंडओ, एवं एएणं कमेणं अट्ठसु कम्मपगडीसु अट्ठ दंडगा भाणियच्वा, जीवादिया वेमाशिण पज्जवसाणा॥ (जीवा ण भंते ! पावमित्यादि) (समायं ति) समकं बहबो जीवायु दित्यर्थः / (पट्ठविंसु त्ति) प्रस्थापितवन्तः प्रथमतया वेदयितुमास्क वन्तः / तथा समकमेव (निट्ठविंसु त्ति) निष्ठापितवन्तो निष्ठा नीता इत्येकः / तथासमकं प्रस्थापितवन्तो (विसमं ति) विषमं यथा विषमतयेत्यर्थी निष्ठापितवन्त इति द्वितीयः / एवमन्यौ द्वौ (अत्य समाउया इत्यादि) चतुर्भङ्गी। तथा (समाउत्ति) समायुष उदध्यक समकालाऽऽयुष्कोदया इत्यथः। (समोववण्णग त्ति) विवक्षितापुर क्षये समकमेव भवान्तरे उपपन्नाः समोपपन्नकाः, ये चैवंविधास्ते सका प्रस्थापितवन्तः, समकमेव च निष्ठापितवन्तः। नन्वायुः कर्मवाऽकि वमुपपन्नं भवति न, तु पापं कर्म, तद्धि नाऽऽयुष्कादयापेक्ष प्रस्थान निष्ठाप्यते वेति। नैवम् / यतो भवापेक्षः कर्मणामुदयः क्षयश्चेष्यते उस (उदयखयक्खओवसमेत्यादि) अत एवाऽऽह-(तत्थ ण जे ते सगळ समोववण्णगा ते णं पाव कम्मं समायं पट्टविंसु समायं निद्वतिसुमि प्रथमः / तथा (तत्थ ण जे ते समाउया विसमोववण्णगरि) समाकालऽऽयुष्कोदयाः विषमतया परभवोत्पन्ना मरणकालवैषम्यात् / (ते समय पट्ठविंसु त्ति) आयुष्कविशेषोदयसम्पाद्यत्वात्यापकर्मवेदनविशेष Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टवणा 256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडडला (विसमायं णिहविसुत्ति भरणवैषम्येण पापकर्मवदनविशेषस्य विषमतया | पट्टवय पुं० (प्रस्थापक) प्रारम्भके, 'पट्ठवणओ अ दिवसो।' (6) निष्ठासम्भवादिति द्वितीयः / तथा- (विसमाउया समोक्यण्णग त्ति) प्रस्थापनकश्च प्रारम्भकश्च दिवसः। आव०६ अ०। विषमकालाऽयुष्कोदयाः समकालभवान्तरोत्पत्तयः (ते णं पावं कम्मं | पट्टविय न० (प्रस्थापित) प्रवर्तिते, नि० चू०२० उ० / स्थिरी-कृते, भ० विस्ग्मायं पढविंसु, समायं निट्टविंसुति) तृतीयः। चतुर्थस्तु ज्ञान एवेति। १२श०४ उ०। मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगाऽऽदेयइह दैतान् भड़कान प्राक्तनशतभङ्गकांश्वाऽऽश्रित्य वृद्धरूक्तम् यशःकीर्तिनामसहोदयत्वेन व्यवस्थापिते, प्रज्ञा० 21 पद० / भ०। "पडुवण्णसए किह णुहु० समाउउव्वण्णएसुचउभंगो। पट्टविया स्त्री० (प्रस्थापिता) बहुष्वारोपितेषु यन्मासगुर्वादिप्रायश्चित्तकिह व समज्जिणणसए, गमणिज्जा अत्थओ भंगा॥१॥ प्रस्थापयति वोढुमारभते तदपेक्षयाऽसौ प्रस्थापिता। आरोपणाभेदे, यडुबण्णसर भंगा, पुच्छा भंगाणुलोमओ वच्चा।" स्था० 5 ठा०२ उ०। "ज वहति पच्छित्तं सापट्ठवितिका भण्णति।" यथा पृच्छाभड़ाःसमकप्रस्थापनाऽऽदयो न बाध्यन्ते, तथेह समाऽऽ- नि० चू०२० उ०। युष्काऽऽदयोऽन्यत्र अन्यथा व्याख्याता अपि व्याख्येया इत्यर्थः / भ० पट्टाविय त्रि० (प्रस्थापित) "स्थष्ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः" 26 श०१ 301 |8416|| इति सूत्रेण स्थास्थाने ठेत्यादेशः। प्रा० 4 पाद। प्रकर्षण अणंतरोदवण्णगाणं भंते ! णेरइयाणं पावं कम्मं किं समायं स्थापिते, सूत्र० श्रु०६ अ०। पट्टविंसु, समायं णिट्ठविंसु पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइया समायं | पट्टि स्त्री० (पृष्ठि) "स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ||841326 / / पट्टविंसु समायं णिट्ठविंसु, अत्थेगइया समायं पट्टविंसु विसमायं इति सूत्रेण ऋकारस्य स्थानेऽकारः। प्रा०४ पाद। आ० चू०।"द्वितीयगिद्वविंसु / से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया समायं तुर्ययोरुपरि पूर्वः" // 20 // द्वितीयतुर्ययोxित्वप्रसङ्गे उपरिपूर्वी पट्टविंसु तं चेव ? गोयमा ! अणंतरोववण्णगा णेरइया दुविहा भवतः, द्वितीयस्योपरि प्रथमश्चतुर्थस्योपरि तृतीय इत्यर्थः। इति पण्णता तं जहा-अत्थेगइया समाउया समो ववण्णगा, ठकारोपरि टकारः। प्रा०२ पाद / प्राकृतत्वात् पृष्ठशब्दस्य 'पट्टि ति' अत्थेगइया समाउया विसमोववण्णगा। तत्थणं जे ते समाउया आदेशः / 'पीठ'' इतिख्याते शरीरावयवे, उत्त०३ अ०। समोववण्णगा ते णं पावं कम्म समायं पट्टर्विसु, समायं | पट्ठिअत्रि० (प्रस्थित)"स्थःठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः" ||416 गिद्वविंसु / तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववण्णगा ते णं पावं इति स्थास्थाने ट्ठः। प्रा०४ पाद। प्रयाते, आ० म०१ अ०। कम्मं समायं पट्ठविंसु, विसमायं णिविंसु, से तेणतुणं तं चेव। पट्ठितून स्त्री० (पठित्वा)"क्त्वः तूनः"||४॥३१२।इति पैशाच्या सलेस्सा णं मंते ! अणंतरोववण्णगा जेरइया पावं कम्मं एवं | क्त्वाप्रत्ययस्य तूनाऽऽदेशः। भणित्वेत्यर्थे , प्रा० 4 पादा चैव० जाव अणागारोवउत्ताए। एवं असुरकुमारा वि। एवं० जाव पड पुं० (पट) उत्तरीयवस्त्रे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। पृथुलवस्त्रे, ज्ञा० 1 श्रु० वेमाणिया, णवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं / एवं १अ०। माणावरणिज्जेण वि दंडओ। एवं णिरवसेसं० जाव अंतराइएणं | पहुंचा स्त्री० (प्रत्यञ्चा) प्रत्याञ्चायाम्, 'सित्थं नीवा गुणो पडचाय।" से वं भंते ! भंते ति०जाव विहरइ। एवं एएणं गमएणं 2 जंचेव पाइ० ना० 122 गाथा। बंधिसए उद्देसगपडिवाडी सव्वा वि इह वि भाणियव्वा० जाव पडंत त्रि० (पतत्) भृश्यति, अनु०। अचरिमो त्ति / अणंतरउद्देसगाणं चउण्ह वि एगाए वत्तव्वया, | पडंतरियन० (पटकान्तर) वस्वविशेषान्तरे, तं०। सेसाणं सत्तण्हं एका वत्तव्वया। पडंसुआ स्त्री० (प्रतिश्रुत) प्रतिरूपं श्रूयते श्रु-क्विप। “पथिपृ-थिवी(अणंतरोववाभनगाणमित्यादि) द्वितीयः / तत्र चाऽनन्तरोपपन्नका प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्रा-विभीतकेषु अत् / / 8 / 1 / 88|| इति द्विविधाः- (समाउया समोववण्णग त्ति) अनन्तरोपपन्नानां सम एव इकारस्यात्वम् / "वक्राऽऽदावन्तः" ||1 / 26 / / इत्यनुस्वारः। आगुरुदयो भवति, तद्वैषम्येऽनन्तरोपपन्नत्वमेव न स्यादायुः प्रथमसमय- "सर्वत्र लवरामचन्द्रे"||८/२।४६।। इति रलुक्। "शषोः सः" वर्तित्वात्तेषामा (समोववण्णग त्ति) मरणाऽनन्तरं परभवोत्पत्तिमाश्रित्य, |8/1 / 260 // इतिषस्य सः।"स्त्रियामाविद्युतः" // 8/1 / 15|| ते च मरणकाले भूतपूर्वगत्याऽवन्तरोपपन्नका उच्यन्ते / (समाउया इति तस्य आ।'प्रत्यादौ डः" // 8 / 1 / 206|| इति तस्य डः / प्रां० विसमोववण्णग त्ति) विषमोपपन्नकत्वमिहापि मरणवैषम्यादिति तृतीय- टुं० 1 पाद। ज्यायाम, दे० ना०६ वर्ग 14 गाथा। चतुर्थी भगावन्तरोपपन्नेषु न सम्भवतोऽनन्तरापपन्नत्वादेवेति द्वितीय पडकार पुं०(पटकार) तन्तुवाये,प्रश्न०२ आश्र० द्वार। उद्देशकः, एवं शेषा अपि (नवरं अणंतरोद्देसगाणं चउण्ह वि त्ति) पडचर (देशी) श्यालप्राये विदूषकाऽऽदौ, दे० ना०६ वर्ग 25 गाथा। अनन्तरोपपन्नानन्तरावगाढ़ानन्तराऽऽहारकानन्तरपर्याप्तकोद्देशकानाम- पडड(देशी) धवले, दे० ना०६ वर्ग 1 गाथा। (कम्मपट्ठवणसय ति) कर्मप्रस्थापनाऽऽद्यर्थप्रतिपादनपरं शतं कर्मप्र- पडडंस (देशी) गिरिगहरे, दे० ना०६ वर्ग 2 गाथा। स्थापनशतमेकोनत्रिंशं शतं वृत्तितः समाप्तम्। भ०२६ श०२ उ०।। पडडला (देशी) चरणाऽऽघाते, दे० ना०६ वर्ग 8 गाथा। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडडस 260 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडाली पडडस (देशी) सुसंयमिते, दे० ना०६ वर्ग 6 गाथा। समाणे चउहि अंगुलीहिं जंतुएन पावति। अहवा-दाहताणेण अढाइवर्ग पडडुआ (देशी) चरणाऽऽधाते, दे० ना० 6 वर्ग 8 गाथा। छारुदत्तणेण दिवड्डो हेत्थो।" बृ०३ उ०। नि० चू० / प्रव० / अॅः पडण न० (पतन) पाते, नि० चू०१ उ० / 'पडण ति वा उज्झण त्ति वा | ध०। पं०व०। एगटुं / ' नि० चू० 4 उ० / बाहादेः खगच्छेदाऽऽदिना पाते, त०। पडलग न० (पटलक) पटलपुष्पभाजने, स्था०७ ठा। वर्णाऽऽदिविनाशे, ज्ञा० 1 0 1 अ०। मरणभेदे, "पडणं तु उप्पत्तिता।" पडवा (देशी) पटकुट्याम्, दे० ना०६ वर्ग 6 गाथा। (506 गा०1) उर्ल्ड उप्पतित्ता जो षडइ वखडेवने डिण्डिकवत् तं पुण पडसाडय पुं० (पटशांटक) पटरूपः शाटकः पटशाटकः / शाटमा पडणं।" नि० चू०११ उ०। ('बाल-मरण' शब्दे विस्तरः) शटनकारकोऽप्युच्यते, इति तद्व्यवच्छेदार्थ पटग्रहणम्। अथवा-पष्ट पडडंडवपुं० (पटमण्डप) पटमये मण्डपे, आ० क० 1 अ०। वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पटोऽभिधीयते पटशाटकः / भ०६ श८३३० पडमाण त्रि० (पतत्) पतितुकामे, बृ०६ उ०। आचा०। परिधाने, बृ०१ उ० 2 प्रक०। पटश्च शाटकश्च द्वन्द्वः / उनरीयपडयाणग न० (पटतानक) पर्याणस्याधो दीयमाने अश्वोपकरणे, ज्ञा० धानवस्त्रयोः, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। १श्रु०१७ अ०। पडह पुं० (पटह) आतोद्यविशेषे, प्रज्ञा 33 पद। आडम्बरे, "डोट पडल न० (पटल) संघे, सूत्र०२ श्रु० 2 अ० / वृन्दे, अनु० / इतिख्याते, स्था०७ ग० / नं० / आ० म० / विशे० / भण्डाम्टः समानजातीयवृन्दे, आ० चू०५ अ० / समूहे, ज्ञा०१ श्रु०१२ अ०। 'नगाड़ा" इतिख्याते औ० / भ० / स च किश्चिदायत उपर्य: ध०। भिक्षाऽवसरे पात्रप्रच्छादकेषु, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। यानि भिक्षां समप्रमामाणः / आ० म०१ अ०। पर्यटभिः पात्रोपरि स्थाप्यन्ते। बृ०३ उ०। नीd, दे० ना०६ वर्ग 5 | पडागा स्त्री० (पताका) "प्रत्यादौ डः" ||1:206 // इति गाथा / पाइ० ना०॥ डः / प्रा०१पाद। "चिंधाई वेजयंतीओ, पडाया केउणो धया हुम्ल पटलकानां प्रमाणमाह पाइ० ना०६८ गाथा / चक्रसिंहाऽऽदिलाञ्छनापेत, भ० ६श : तिविहम्मि कालछेए, विविहा पडला तु होति पातस्स। उ० / गरुडसिंहाऽऽदिचिहरहिते, औ० / ध्वजलक्षणरहित, गिम्हसिसिरवासासुं, उक्कोसंमज्झिमजघण्णा / / 285|| हस्तिनामुपरिवर्तिनि (ज्ञा०१श्रु०८ अ०) तिर्यक्पटरूपे लोक त्रिविध कालच्छेदे कालविभागे त्रिविधानि पटलकानि पात्रस्य भवन्ति / ऽर्थे , रा० / प्रश्नः / ज्ञा० / आ० म० / विपा० / मत्स्यभेद, जै: इदमेव व्याचष्टेग्रीष्मशिशिरवर्षासु प्रत्येकमुत्कृष्टानि मध्यमानि जघन्यानि | प्रति०। ज्ञा०। च, तत्र यान्यत्यन्तदृढानि तानि। पडागाइपडागा स्वी० (पताकतिपताका) मत्स्यभेदे, जी० 1 प्रतिः इदमेव भावयति "सपड़ागाइपडागमंडिए।" सह पताकया वर्तत इति सपता गिण्हासु तिन्नि पडला, चउरो हेमंतें पंच वासासु / तदेकां पताकामतिक्रम्य या पताका सा अतिपताका, तया मल्टि उक्कोसगा उ एते, एतो वोच्छामि मज्झिमगा // 286|| यत्तत्तथा। प्रज्ञा०१ पद। ग्रीष्मेषु चतुर्षु मासेषु त्रीणि पटलानि भवन्ति,कालस्यात्यन्तस्नि- पडागाहरण न० (पताकाहरण) पताकायाश्वारित्राऽऽराधनाजपत ग्धत्वात, चत्वारि हेमन्ते, पञ्च वर्षासु, एतान्युत्कृष्टानि मन्तव्यानि, अत हरणं ग्रहणं पताकाहरणम्। विजिगीषया पताकाग्रहणे, "एस" महकर ऊर्द्ध मध्यमानि वक्ष्ये। उच्चारणा पडागाहरणं।"लोके हि मल्लयुद्धाऽऽदिषु वस्त्रमा प्रतिज्ञातमेवाऽऽह या ध्वजाग्रे वध्यते, तत्र यो येन युद्धाऽऽदिना गुणेन प्रकर्षवान् सरङ्गक गिम्हासु हाँति चउरो, पंच य हेमंते छच्च वासासु / पुरतो भूत्वा गृह्णातीति पताका हरतीत्युच्यते। एवमत्राऽपि पक्षिलाई मज्झिमगा खलु एते, एत्तो उजहन्नए वोच्छं / / 260 / / महाव्रतोच्चारतः समुपजातचारित्रविशुद्धिप्रकर्षः साधुः प्रवचनोक्ताया ग्रीष्मेषु चत्वारि पटलकानि, हेमन्ते पञ्च, वर्षाषु षट्, मनाक जीर्णतया | रित्राऽऽराधनापताकाया हरणं करोतीति / पा०। संथा०1 20! प्रभूततराणामेव स्वकार्यसाधनात्, एतानि खलु मध्यमकानि पडायाण न० (पर्याण)"पर्याणे डावा" ||81 / 252 / / पाणिन मन्तव्याति। डा इत्यादेशो भवति वा / इति रस्य विशिष्टस्य डः / "पहार अत ऊर्द्ध जघन्यानि वक्ष्ये पल्लाणं / ' प्रा०१पाद। गिम्हासु पंच पडला, हेमंते छच्च सत्त वासासु। पडाली स्त्री० (पटाली) पटसमूहे, व्य०1 तिविहम्मि कालछेए, तिविहा पडला उपातस्स // 261 // मुत्तूणं साधूणं, तेणं गहितो पउत्थम्मि। ग्रीष्मेषु पञ्च पटलकानि, हेमन्ते षट्, वर्षासु सप्त, एतानि जघन्यानि। हेट्ठा उवरिम्मि ठिते, सीसम्मि पडालिववहारो।।५०५॥ एवं त्रिविधकालच्छेदे त्रिविधानि पटलकानि पात्रस्य भवन्ति / उक्त साधूनामवकाशं मुक्त्वा तेन पूर्वस्वामिना शय्यातरेण क्रिशिकन पटलकानां गणनाप्रमाणम्। भाटकं गृहीतः, गृहीत्वा च प्रोषितः, तस्मिन्प्रोषिले अधस्ताद अथ प्रमाणाप्रमाणं, तत्र च विशेषचूर्णिः- "एल्थ निग्गया चउरसा पडला कस्य भाण्डमुपरि माले साधवः / अथवा- अस्तात् शान जलाण मज्झिमए हेट्ठा अट्ठ अंगुलाई लवति, गच्छवासीणं जं उग्गाहिए | स्थिताः साधवः उपरि माले वक्रयिकस्य दत्तम, एतन्मिनुभ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडाली 261 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण ।ख मिश्र स्थितानां सदा शालायां साधन उपरि माले वक्रयि-कस्य / औपचारिकविनयभेदे, व्य०१ उ०। माण्ड तदा पडाली गलति भाण्डस्योपरीति न काचित्सा धूनां क्षतिः। पडिकुट्ट त्रि० (प्रतिकुष्ट) निवारिते, पञ्चा० 4 विव० / नि०चू०। स्था०। अट-वक्रशिकस्य भाण्डमधस्तात् शालायामुपरिमाले तिष्ठन्ति साधवः निराकृते, दर्श० 4 तत्त्व / पिं०। पडाली च गलति तदा वक्रयिकश्चिन्तयति उपरि माले पडाली गलति, | पडिकुट्टकुल न० (प्रतिकुष्टकुल) हिण्डनाय निषिद्धकुले, प्रतिकुष्टकुलं तंत्रसामूनां कर्ट, ममतु भाण्डमधस्तात् शालायां ततो विनश्यतीति एवं द्विविधम्-इत्वरं, यावत्कथिकं च / इत्वरं सूतकयुक्तम् / यावत्कथिचिन्तयेच्या पडालीं न छादयति, तत्र यद्यन्योऽपि कश्चित् न छादयति कमभोज्यम्। दश०५ अ०१ उ०। तदा व्यवहारः कर्तव्यः, व्यवहारेण छादयितव्य इति। व्य०७ उ०। बृ०। पडि कु हिलगदिअस पु० (प्रतिकुष्ट दिवस) इल्लप्रत्ययः प्राकृते पको, देना०६वर्ग गाथा। स्वार्थे प्रतिकुष्टा एव प्रतिकुष्टेल्लकाः, ते च ते प्रतिकुष्टलकदिवसाः। पडि अर (प्रति) "प्रत्यादौ डः" ||8 / 1 / 206 / / इति तस्य डः। प्रतिषिद्धदिवसेषु, “पडिकुठ्ठिलगदिवसे, वजेजा अट्ठमि च नवमिं च / टीम, प्रतिकूल्ये भवः / आभिमुख्ये,चं०प्र० 20 पाहु० / प्रतिषेधे छट्टि च चउत्थि वा-रसिं च दोहि पि पक्खाणं // 1 // " व्य०१ उ०। विशा अचा० / वीप्सायाम, आ०म०१ अ०। प्रतिपाद्यार्थे , आ०चू० सेवाऽऽदित्वाद्वा द्वित्वम्। प्रा०२ पाद। पडिकूलग त्रि० (प्रतिकूलक) सेवाऽऽदित्वात् वा द्वित्वम्। प्रा-२ पाद। पडिज (दशी विद्याटिते. दे० ना०६ वर्ग 12 गाथा। प्रतिपन्थिनि, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। प्रत्यनीके, स्था०३ ठा० 4 उ०। पडिआग धा० (अनुव्रज) अनुगमने, "अनुव्रजेः पडिअग्गः" विपरीतवृत्ता,स्था० 4 टा०३ उ०। अनभिमते, आचा०२ श्रु०१चू०२ / 6 / 4 / 107 // इति सूत्रण 'पडिअग्ग' आदेशः। 'पडिअग्गइ।' अनुव्र- उ०। द्वेषिणि, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। जति : प्रा०४ पाद। पडिकूलभासि(ण) त्रि० (प्रतिकूलभाषिन) प्रतिकूल प्रतिलोम भाषते घडिअज्झऊ (दशी) उपाध्याये, देखना०६ वर्ग 31 गाथा। वक्तीत्येवंशीलः प्रतिकूलभाषी / उत्त० 12 अ० सम्मुखवादिनि, पडिअमित्त पु० (प्रत्यमित्र) यः पूर्व मित्रं भूत्या पश्चादमित्रो यातः तस्मिन् "अज्झावयाणं पडिकूलभासी, पभाससे किं तु सगासि अम्ह।" उत्त० इन, 050 1 अ० / जी०। १२अ०। पडिअर देशी चुल्ली मूले, दे० ना०६ वर्ग 17 गाथा। पडिकूलया स्त्री० (प्रतिकूलता) विरोधितायाम, द्वा० 14 द्वा०॥ पडिअली (दशी) त्वरित, देखना०६ वर्ग 7 गाथा। पडिकूलवयण न० (प्रतिकूलवचन) प्रस्तुतस्य मधुरवचोभिर्गिमपडिआगय न० (प्रत्यागत) प्रत्यागमने, आ०चू०१ अ०। प्रतिपाद्यमानस्वरभिष्ठुरभाषणे, दर्श०४ तत्व। पडिआयणियय त्रि० (प्रत्यात्मनियत) आत्मानमात्मानं प्रतिनियत- | पडिकूलिय त्रि० (प्रतिकूलित) प्रतिभाषिते, नि०१श्रु०१ वर्ग 6 अ०। फलसंपादक द्वा० 11 द्वा०। पडिक्कंत त्रि० (प्रतिक्रान्त) निवृत्ते, आ०म० 1 अ० / आ० चू०। पडिआर पु० (प्रतीकार) चिकित्सायाम, आव० 4 अ०। सर्वातिचारप्रतिनिवृत्ते, पा०। पडिउत्तरण न० (प्रत्युत्तरण) नालिकयाऽसकृत्तरणे, नि०यू०१ उ०।। | पडिकंतव्व त्रि० (प्रतिक्रान्तव्य) निवर्तितव्ये, मिथ्यादुष्कृते दातव्ये, आ० पडिएलिअ (देशी कृतार्थे , दे० ना०६ वर्ग 32 गाथा। म०१अ०। पडिकत्ता त्रि० (प्रतिकत) चिकित्सके, स्था० 4 ठा० 4 उ०। पडिक्कमण न० (प्रतिक्रमण) प्रतीत्ययमुपसर्गः प्रतिपाद्यर्थे वर्तत। 'क्रम' पडिकप्पिय त्रि० (परिकृप्त) कृतसन्नाहाऽऽदिसामग्रीके, विपा०१श्रु०२ ‘पादविक्षेपेऽस्य ल्युडन्तस्य प्रतीपंप्रातिकूल्येन वा क्रमणं प्रतिक्रमणम्। अान०। एतदुक्तं भवति शुभयोगेभ्योऽशुभात् संक्रान्तस्य शुभेष्वेव प्रतीपंप्रतिकूलं पडिकम्म न० [परि (प्रति )कर्मन] गुणान्तरोत्पादने, स्था० 1 ठा० / वा क्रमण प्रतिक्रमणमिति। वस्त्रपात्राऽऽदेश्छेदनसीवनाऽऽदी, स्था० 5 ठा०२ उ०। सङ्कलनाऽऽदिके उक्तंचपाटी सिद्ध, स्था० 4 डा० 3 उ०। वसत्यादिसंरक्षणे, स्था०१० ठा० / "स्वस्थानाद्यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशादतः / पडिकम्मविसुद्धि स्त्री० परि(प्रति)कर्मविशुद्धिपरिकर्मणा वसत्यादि- तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते।।१।। संरक्षणलक्षणेन क्रियमाणेन संयमस्य विशुद्धौ, स्था० 10 ठा०। क्षायोपशमिकादावा-दौदयिकस्य वशं गतः। पडिकम्मोवघाय पुं० परि (प्रति) कर्मोपघात ] वस्त्रपात्राऽऽदेश्छेदन- तत्राऽपि च स एवार्थः, प्रतिर नं गमात्रमृतः / / 2 / / " सेवनाऽऽदिनाऽकल्पनायाम, स्था०५ टा०२ उ०। प्रति इति क्रमणं वा प्रतिक्रमण, शुभयोगेषु प्रतिप्रतिवर्तनमित्यर्थः / पडिकय न० (प्रतिकृत) प्रत्युपकारे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। उक्तं च- "प्रतिप्रतिवर्तन वा, शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु / पडिकिति स्त्री० (प्रतिकृति) स्थापनायाम्, आचा०१ श्रु०२ अ०१ निःशल्यस्य यतेर्यत्तदा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् / / 1 / / " शुभयोगेभ्योऽउ० / कृते कार्ये यः क्रियते विनयः स प्रतिकृतिरूपत्वात् प्रतिकृतिः। शुभायोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्वेव योगेषु गमने, आव० 4 अ०। ध०। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमम प्रतिनिवृत्तौ, उत्त० 26 अ०। स्था० / प्रा०। मिथ्यादुष्कृतदाने, ग०१ अधि० स्था० / पं०सू० / व्य० / पञ्चा०। प्रव० / भ० / प्रतिक्रामकप्रतिक्रान्तव्यौ / प्रतिक्रामकव्याख्या- "थुइमंगल'' स्तुतित्रयम्। (1) इह च यथा करणात् कर्मकोंः सिद्धिः तद्व्यतिरेकेण करणत्वानुपपत्तेः, एवं प्रतिक्रमणादपि प्रतिक्रामकप्रतिक्रान्तव्यसिद्धिरित्यतस्त्रितयमप्यभिधित्सुराह नियुक्तिकारः - पडिकमणं पडिकमओ, पडिकमिअव्वं च आणुपुव्वीए। तीए पच्चुप्पन्ने, अणागए चेव कालम्मि।।१।। प्रतिक्रमणं निरूपितशब्दार्थम्, तत्र प्रतिक्रमयतीति प्रतिक्रामकः कर्ता, प्रतिक्रमितव्यं च कर्म अशुभयोगलक्षणमानुपूर्व्या परिपाट्या अतीते अतिक्रान्ते प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽनागते चैव एष्यते, काले प्रतिक्रमणाऽऽदि योज्यमिति वाक्यशेषः / आह-प्रतिक्रमणमतीतविषयम् / यत उक्तम्"अतीतं पडिक्षमामि, पडुप्पन्नं संवरेमि, अणागयं पच्चक्खामि।" इति। तत्कथमिह कालत्रये योज्यते इति ? / उच्यते-प्रतिक्रमणशब्दो ह्यशुभयोगविनिवृत्तिमात्रार्थः सामान्यशब्दः परिगृह्यते, तथा च सत्यतीतविषयं प्रतिक्रमणं निन्दाद्वारेणाऽशुभयोगविनिवृत्तिरेव प्रत्युत्पन्न विषयमपि संवरद्वारेणाऽशुभयोगनिवृत्तिरेव अनागतविषयमपि प्रत्याख्यानद्वारेणाऽशुभयोगनिवृत्तिरेवेति न दोष इति गाथाऽक्षरार्थः / / 2 / / __साम्प्रतं प्रतिक्रामकस्वरूपप्रतिपादनायाऽऽहजीवो उ पडिक्कमओ, असुहाणं पावकम्मजोगाणं / झाणपसत्था जोगा, जो तेन पडिक्कमे साहू ||2|| जीवः प्राइनिरूपितशब्दार्थः / तत्र प्रतिक्रामतीति क्रामकः, तुशब्दो विशेषणार्थः। न सर्व एव जीवः प्रतिक्रामकः, किं तर्हि सम्यग्दृष्टिरुपयुक्तः / केषां प्रतिक्रामकः ? अशुभानां पापयोगानामसुन्दराणां पापकर्मव्या-. पाराणामित्यर्थः / आह-पापकर्मयोगा अशुभा एव भवन्तीति विशेषणानर्थक्यम्, न, स्वरूपान्वाख्यानपरत्वादस्य, प्रशस्तौ चतौ योगौ च ध्यान च प्रशस्तयोगौ च ध्यानप्रशस्तयोगा ये तानधिकृत्य न प्रतिक्रमेत न प्रतीपं वर्तेत साधुः, अपितुतान् सेवेत, मनोयोगप्राधान्यख्यापनार्थ पृथग् ध्यानग्रहणं, प्रशस्तयोगोपादानाच ध्यानमपि धर्मशुक्लभेदं प्रशस्तभवगन्तव्यम् / आह- "यथोद्देश निर्देशः' इति न्यायमुल्लङ्घय किमिति प्रतिक्रमणमनभिधीय प्रतिक्रामक उक्तः ? / तथाऽऽद्यगाथागतमानुपूर्वीग्रहणं चातिरिच्यत इति ? / उच्यते-प्रतिक्रामकस्याल्पवक्तव्यता तत्कञधीनत्वाच क्रियाया इत्यदोषः। इत्थमेवोपन्यासः कन्मान्न क्रियत इति चेत् ? प्रतिक्रमणाध्ययनावामनिष्पन्ननिक्षेपप्रधानत्वात्तस्येत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः / उक्तः प्रतिक्रामकः। साम्प्रतं प्रतिक्रमणस्यावसरस्तच्छब्दार्थ पर्यायैयाचिख्यासु निमित्तं वा उपयुक्तस्य निवस्य पुस्तकाऽऽदिन्यस्तं वा क्षेत्रप्रतिक यस्मिन क्षेत्रे व्यावय॑ते क्रियते वा, यतो वा प्रतिक्रम्यते खलाऽऽदेरिने कालप्रतिक्रमण द्वेधा ध्रुवम, अध्रुवं च। तत्र धुवं भरतैरावतेषु प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थेष्वपराधो भवतु यानाः ध्रुवमुभयकालं प्रतिक्रम्यते। मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु तु अध्रुवं कारराज प्रतिक्रमणमिति। भावप्रतिक्रमणं द्वेधाप्रशस्तं, चाप्रशस्तं च। अन्धन मिथ्यात्वाऽऽदेः, प्रशस्तं सम्यक्ता ऽऽदेरिति / अथवौधत एवौषयुक्तक सम्यग्दृष्टेरिति प्रशस्तेनात्राऽधिकारः / प्रतिचरणा व्याख्यायते- 'उः गतिभक्षणयोरित्यस्य प्रतिपूर्वस्य ल्युडन्तस्य प्रतिचरणेति भी प्रतीतेषु तेष्वर्थेषु चरणं गमनं तेन तेनाऽऽसेवनाप्रकारेणेति ! आदः। अ०। आ०म०। (प्रतिचरणाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने सम्प्रति विनेयानुग्रहाय प्रतिक्रमणाऽऽदिपदानां यथाक्रमं दृष्टान्त प्रतिपादयन्नाहअद्धाणे पासाए, दुद्धकाए विसभोअण तलाए। दो कन्नाओ पइमारि-आ य वत्थं अ अगए अ॥१२॥ अध्वानःप्रासाद दुग्धकायःविषभोजनतडाग द्वे कन्ये पतिमारिक वस्त्रं चागदश्च। आव०४ अ०। तत्र प्रतिक्रमणेऽध्वदृष्टान्तः"पुरे क्वाऽपि नृपः कोऽपि, सौधं कर्तुमना बहिः। सूत्रमाच्छोटयद्भव्ये, दिने न्यास्थ चव रक्षकान् // 1 // ऊचे च यदि कोऽप्यत्र, प्रविशेन्मार्य एव सः। अपसर्पत्पदैस्तैश्वे-तैरेव मोच्यः पुमानसौ।।२।। व्याक्षिप्तानां च तेषां द्वौ, ग्राम्यौ प्राविशतां नरौ / रक्षकैर्दूरगर्दृष्टा-वुक्तौ तौ कम्पितासिभिः / / 3 / / अरे! प्रविष्टौ किमिह, धृष्ट एकोऽवदत्तयोः / दोषः कोऽत्रेति निस्त्रिशै-नश्यंस्तत्र हतः स तैः / / 4 / / भीतो द्वितीयस्तेष्वेव, पदेष्वस्थाद्वभाण तान। अजानन प्राविश मा मा, हतस्वाऽऽदेशकारिणम / / 5 / / उक्तस्तैर्यदि तैरेव, पदैस्त्वमपसर्पसि। तन्मुक्तिस्तेऽय भीतोऽसौ, तथाऽकार्षीदमोचि तैः / / 6 / / भोगभोगी स संजज्ञे-ऽनाभोगी च परोऽभवत्। इयं द्रव्यप्रतिक्रान्ति-भवि चोपनयः पुनः / / 7 / / राजा तीर्थकरोऽध्वा च, संयमो रक्ष्य इत्यवक्। ग्राम्येणेव व्यतिक्रान्तः, स एकेन कुसाधुना।।८।। सहतो रक्षकै राग-द्वेषाऽऽधैः सुचिरं भवे। लप्सते दुर्मतिर्जन्म-मरणानि पुनः पुनः // 6 // यस्तु प्रमाददोषेण, जात्वतिक्रान्तसंयमः। प्रतिक्रामति संसार-भीरुस्तैरेव दण्डकैः / / 10 / / स निर्वाणसुखाऽऽभोगी, जायते मुनिपुङ्गवः / असौ प्रतिक्रमणायां, दृष्टान्तो दर्शितोऽधुना / / 11 / / आ०क०४ अ०1 साम्प्रतं प्रत्यहं यथा श्रमणेनेयं शुद्धिः कर्तव्या तथा मा आकलन चेतसि निधाय प्रतिपादयन्नाहआलोअणमालुंचण-विअडीकरणं च भावसोही / राह पडिक्रमणं पडिचरणा, परिहरणा चारणा निअत्ती / निंदा गरिहा सोही, पडिक्रमणं अट्ठहा हाइ॥३॥ प्रतिक्रमणं तत्त्वतो निरूपितमेवाधुना भेदतो निरूप्यते, तत्- | पुनर्नामाऽऽदिभेदतः षोडा भवति / तथा चाऽऽहनामं ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे अ। एसो पडिकमणस्सय, निक्खेवो छव्विहो होइ।।४।। तत्र नामस्थापने गतार्थे; द्रव्यप्रतिक्रमणमनुपयुक्तसम्यग् दृष्टलष्ट्यादि Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण आलोइअम्मि आरा-हणा अणालोइए भयणा / / 15 / / अवलोकनमालुशन विकटीकरण च भावशुद्धिश्च, यथेह कश्चिन्निपुणमालाकार: स्वस्याऽऽरामस्य सदा द्विसंध्यमवलोकन करोतिकिं कुसम्पनि सन्त्युत नेति दृष्ट्वा तेषामालुञ्चनं करोति, ग्रहणमित्यर्थः। ततो चिकटीकरणं विकसितमुकुलितार्द्धमुकुलितानां भेदनं विभजनमित्यर्थः / चशब्दात पश्चाद् ग्रन्थनं करोति, ततो ग्राहका गृह्णन्ति, ततोऽस्याभिलबितार्थलामो भवति / भावशुद्धिश्व चित्तप्रसादलक्षणा, अस्या एव विवक्षितत्वात्, अन्यस्तु विपरीतकारी मालाकारस्तस्य न भवति, एवं साधुरपि कृतोपधिप्रत्युपेक्षणाऽऽदिव्यापारा उच्चाराऽऽदिभूमिप्रत्युपेक्षया घानटिरहितः कायोत्सर्गस्थोऽनुप्रेक्षते, सूत्रं गुरौतु स्थिते दैवसिकाऽऽवश्यकस्य मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणाऽऽदेः कायोत्सर्गतस्त्ववलोकनं कोति, पक्षदालुञ्चनं स्पष्टबुद्ध्याऽपराधग्रहणं, ततो विकटीकरणं गुरुलघूनामपराधाना विभञ्जनं, चशब्दादालोचनं प्रतिसेवनानुलोमेन इन्धन, ततो यथाक्रम गुरोर्निवदेनं करोति, एवं / कुर्वतः भावशुद्धि उपजायते, औदयिकभावात् क्षायोपसमिकप्राप्तिरित्यर्थः / इत्थमुक्तेन प्रकारेणाऽऽलोचिते गुरोपराधजाले निवेदिते आराधना मोक्षमार्गाऽsखण्डना भवति,अनालोचिते अनिवेदिते भजना विकल्पनाकदाचिद् गवति, कदाचिन्न भवति। तथं भवति"आलोयणापरिणओ, सम्म संपढिओ गुरुसगासं। जइ अंतरो उ काल, करेज्ज आराहओ तह वि।।१६।।'' एवं तु न भवति। "इट्टीए गारवेणं, बहुसुयमरण वा वि दुच्चरियं / छो न कहेइ गुरुणं, न हु सो आराहओ भणिओ।।१७॥" इति गाथार्थः। इत्थं चाऽऽलोचनाऽऽदिना प्रकारेणोभयकालं नियमत एव प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थ सातिचारेण निरतिचारेण वा साधुना शुद्धिः कर्तव्या, मध्यतीर्थकरतीर्थेषु पुनर्नव किं त्वतिचारवत एव शुद्धिः क्रियते। आव० 4 अ०। जीत०। कल्प० / वृ०। प्रव०। अथ प्रतिक्रमणद्वारमाहसपडियमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मझिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिकमणं / / 347|| सपडिक्रमणः उभयकालं षड्विधाऽऽवश्यककरणयुक्तो धर्मः पूर्वस्य पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे भवति, तत्तीर्थ साधूनां प्रमादबहुलत्वात्, शठत्वाच / मध्यमानां तु जिनानां तीर्थे कारणजाते तथाविधे अपराधे उत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति, तत्तीर्थसाधूनामशठत्वात्, प्रमादरहितत्वाच्च। अथाऽस्यामेव पूर्वार्द्ध व्याचष्टगमणाऽऽगमणवियारे, सायं पाओ य पुरिमचरिमाणं। नियमेण पडिक्कमणं, अतिचारो होइ वा मा वा // 348|| गमनाऽऽगमनुषु चैत्यवन्दनाऽऽदिकार्येषु प्रतिश्रयान्निर्गत्य हस्तशतात्परतो गत्वा भूयः प्रत्यागमने (बियारे त्ति) हस्तशतमध्येऽप्युचाराऽऽदेः परिष्ठापने कृते तथा सायं संध्यायां प्रातश्च प्रभाते पूर्वचरमाणं साधूनामतिचारो भवतु वा, मा वा, तथाऽपि नियमेनैतेषु प्रतिक्रमणं भवतीति। परः प्राऽऽहअतिचारस्स उ असती, णणु होति णिरत्थयं पडिक्कमणं / ण भवति एव चोदग!, तत्थ इमं होति णातं तु / / 346 / / अतिचारस्याऽसत्यभावे न तु निरर्थक प्रतिक्रमणं भवति / सूरिराहए चोदक ! एवं त्वदुक्तं प्रतिक्रमणस्य निरर्थकत्वं न भवति न घटते, किंतु सार्थक प्रतिक्रमणम्। तत्र च सार्थकत्वे इदं ज्ञातमुदाहरणं भवति। सति दोसे होअगद्दो, जति दोसो णत्थि तो गदो होति। वितियस्स हणात दोसे, ण गुणं दोसं व तदभावा // 350 / / दोसं हंतूण गुणं, करेति गुणमेव दोसरहिते वि। ततिय तिगिच्छकरस्स उ, रसायणं दंडियसुतस्स // 351 / / जति दोसो तं छिंदति, असंतदोसम्मि णिज्जरं कुणइ। कुसलतिगिच्छिरसायणसुवणीयमिदं पडिक्कमणं // 352|| एगस्स रनो पुत्तो अईव वल्लहो। तेण वि तयं अणागयं किं वितहाविह रसायणं करावेमिजेण मे पुत्तस्स कयाइरोगोन होइ त्ति वेज्जा सद्दाविया। मम पुत्तस्स तिगिच्छं करेह / जेण निहओ होइ।ते भणतिकरेमो। राया भणइ-कोरसाणि तम्ह ओ सहाणि?। एगो भणइमम आसहमेरिसं जइ रोगो अत्थि तो उवसामेइ, अह नत्थि तं चेव जीवंतं मारेइ। विइओ भणइ-मम ओसहं जइरोगो अत्थि तो उवसामेइ, अह नत्थि तो न गुणं न दोसं करेइ। तइओ भणइजइ रोगो अस्थि तो वण्णरूवजोव्वणलावएणत्ताए परिणमइ, अपुवो य रोगो न पाउन्मतइ / एवमायणिऊरन्ना तइया वज्जेण किरिया कारिया / एव मम पि पडिक्कमणं जइ अइयारदोसो अस्थि तो तेसिं विसोहिं करोति। अह नत्थि अइयारो तो चारित्तं विसुद्ध करेइ / अभिनवकम्मरोगस्स य आगमं निरंभइ। अधाक्षरगमनिकाप्रथमवैद्यस्यौषधेन सति दोषे रोगसंभवे उपयुज्यमाने अगदो नीरोगो भवति / यदि पुनर्दोषो नास्ति तदः प्रत्युत गदो रोगो भवति / द्वितीयस्य तु वैद्यस्यौषधं रोगं हन्ति तदभावे दोषाभावे सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं // 15|| सप्रतिक्रमणो धर्मः कर्तव्यः, अस्य च जिनस्य तत्तीर्थ साधुना ईपध्यागतेन उचाराऽऽदिविवेक उभयकालं चापराधो भवतु वा, मा वा, नियमतः प्रतिक्रान्तव्यं, शठत्वात्प्रमादबहुलत्वाच / एतेष्वेव स्थानेषु मध्यमानां जिनानामजिताऽऽदीनां पार्चपर्यन्तानां कारणे जाते अपराध एवोत्पन्ने सति क्रमण तदैव भवत्यशठत्वात, प्रमादरहितत्वाचेति गाथार्थ: // 18 // तथा चाऽऽह ग्रन्थकार:जो जाहे आबन्नो, सो हु अन्नयरम्मि ठाणम्मि। सो ताहे पडिकमई, मज्झिमयाणं जिणवराणं ||19|| यः साधुरिति योगः यदा यस्मिन्काले पूर्वाह्नऽऽदी आपन्नः प्राप्तोऽन्यतरस्मिन्स्थाने प्राणातिपाताऽऽदौ स तदैव तस्य स्थानस्य एकाक्येव गुरुप्रत्यक्ष वा प्रतिक्रामति, मध्यमानां जिनवराणामिति गाथार्थः / आय० Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 264 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण ६ठा०। तथा गुण न दोषं करोति। तृतीयस्य तु दोषं हत्वा गुणं करोति, दोषरहितेऽपि च गुणमेव वर्णाऽऽदिपुष्ट्यभिनवरोगाभावाऽऽत्मकं करोति। ततस्तृतीयसमाधिकरस्य तृतीयस्य वैद्यस्य रसायनंदण्डिकसुतस्य योग्यमिति कृत्वा राज्ञा कारितम् / एवं प्रतिक्रमणमपि रायतीचारलक्षणा दोषा भवन्ति ततस्तं छिनात्ति, अथ नास्ति दोषः ततोऽसति दोषे महतीं कर्मनिर्जरा करोति; एवं कुशलचिकित्सस्य तृतीयवैद्यत्य रसायनेनोपनीतमुपनयं प्रापितमिदं प्रतिक्रमणं मन्तव्यम् / गतं प्रतिक्रमणद्वारम् / बृ०६ उ०। (2) पञ्चविधप्रतिक्रमणम्पंचविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते / तं जहा-आसवदारपडिक्कमणे, मिच्छत्तपडिक्कमणे, कसाय-पडिक्कमणे, जोगपडिक्कमणे, भावपडिक्कमणे। इदं च विषयभेदात्पञ्चधेति। तत्रऽऽश्रवद्वाराणि प्राणातिपाताऽऽदीनि, तेभ्यः प्रतिक्रमणं निवर्त्तनं, पुनरकरणमित्यर्थः आश्रवद्वारप्रतिक्रमणमसंयमप्रतिक्रमणमिति हृदयम्। मिथ्यात्वप्रतिक्रमणयदाभोगानाभोगसहसाकारैर्मिथ्यात्वगमनं तन्निवृत्तिरेवं कषायप्रतिक्रमणम्। योगप्रतिक्रमणं तु यन्मनोवचनकायव्यापाराणामशोभनानां व्यावर्त्तनमित्याश्रवद्वाराऽऽदिप्रतिक्रमणमेव विवक्षितविशेष भावप्रतिक्रमणमिति। आह च"मिच्छत्ताइ न गच्छइ, न य गच्छावेइ नाणुजाणाइ। जं मणवइकाएहि, तं भणियं भावपडिकमणं " // 1 // इति। विशेषविवक्षायां तक्ता एवं चत्वारो भेदाः। यदाहमिच्छत्तपडिक्कमणं, तहेव अस्संजमे पडिक्कमण। कासायाण पडिक्कमणं, जोगाण य अप्पसत्थाणं "।।१।।इति। स्था०५ ठा०३ उ01 (3) षड्विधप्रतिक्रमणम् - छविहे पडिक्कमणे पण्णत्ते / तं जहा-उच्चारपडिक्कमणे, पासवणपडिक्कमणे, इत्तरिए, आवकहिए, जं किंचि मिच्छासोमरातिए। (छविहे पडिकमणेत्यादि) प्रतिक्रमण द्वितीयप्रायश्चित्त दलक्षणं मिथ्यादुष्कृतकरणमितिभावः तत्रोचारोत्सर्ग विधाय यदीपिथिका प्रतिक्रमणं तदुचारप्रतिक्रमणमेवं प्रश्रवणविषयमपीति / उक्त च"उच्चारं पासवणं, भूमीए वोसिरित्तु उवउत्तो। ओसरिऊणं तत्तो, इरियाबहियं पडिकभइ // 1 // वोसिरइ मत्तगेज्झइ, न पडिक्कमई य मत्तगं जो उ। साहू परिहवेई, नियमेण पडिक्कमे सो उ॥२॥" इति। (इत्तिरिय त्ति) इत्वरं स्वकल्पकालिकं दैवसिकरात्रिकाऽऽदि (आवकहिय त्ति) यावत्कथिकं यावजीविकं महाव्रतभक्तपरिज्ञानाssदिरूपं, प्रतिक्रमणत्वं चाऽस्य निवृत्तिलक्षणान्वर्थयोगादिति। (जं किंचि मिच्छति) खेलसिंघाणाविधिनिसर्गाऽऽभोगानाभोगसहसाकाराऽऽद्यसंयमस्वरूपं यत्किञ्चिन्मिथ्या असम्यक् तद्विषयं मिथ्येदमित्येवं प्रतिपत्तिपूर्वकं मिथ्यादुष्कृतकरणं यत् किश्चिन्मिथ्याप्रतिक्रमणमिति। / उक्तंच"संजमजोगे अब्भु-ट्टियरस जं किंचि तहयमायरिय। मिच्छा-एय ति विया-णिऊण मिच्छत्त कायव्व / / 1 / / " इति। व्या० खेलं सिंघाण वा, अप्पडिलेहापमज्जिउं तह य। चोसिरिय पडिक्कमइ, तं पिय मिच्छाकड देइ"1१। इत्यादि। तथा-(सोमणंतिए त्ति) स्वापनान्तिक स्वपनस्य सुप्तिक्रिया, अन्तेऽवसाने भवं स्वापनान्तिकम् / सुप्तोत्थिता हि इंयाप्रतिक्रानन्ति साधव इति / अथवा-स्वप्रो निद्रावशे विकल्पस्तस्याऽन्तो विभाग: स्वप्रान्तस्तत्र भवं स्वापान्तिकम्। स्वप्रविशेषे हि प्रतिक्रमणं कुर्वनि साधवः / यदाह- 'गमणागमणबिहारे, सुत्ते वा सुमिणदसणे राऔ नावा नइसंतारे, इरियावहिया पडिक्कमणं / / 1 / / यतः - "आउलमाउलयाए सोवणवत्तियाए" इत्यादि प्रतिक्रमणसूत्रम् / तथा स्वप्रकृतप्राणातिपाताऽऽदिष्वथंगत्या प्रतिक्रमणरुपया कायोत्सर्गलक्षणप्रतिक्र-- णमेवमुक्तम्- 'पाणिवहमुसावाए, अदत्तमेहुणपारंग्गहे चेव / सयना: अणूणं, ऊसासाणं भवेज्जाहि।१।।" स्था०६ उ०। (4) अधुना यरसप्रतिक्रमणो धर्म इत्यादि तत्प्रतिक्रमण दैवसिक. ऽऽदिभेदेन निर यन्नाहपडिकमणं देसिअरा-इअंच इत्तरिअमावकहियं च। पक्खिअचाउम्मासिअ-संवच्छरि उत्तमढे अ॥२१॥ प्रतिक्रमणं प्रानिरूपितशब्दार्थ दैवसिकं दिवसनिर्वृत्त, राफिक रजनिनिवृत्तम, इत्त्वर स्वल्पकालिकं दैवसिकाऽऽद्येव, यावत्यधिक यावजीवकं व्रताऽऽदिलक्षणं, पाक्षिकं पक्षातिचारनिवृत्तम् / देवसिकनेः शोधिते सत्यात्मनि पाक्षिकाऽऽदि किमर्थम् ? / उच्यते गृहदृष्टान्तोक"जह गेहं पइदियह, पि सोहियं तह विपक्खसंधीए। सोहिद्धइ सविस्तर एवं इहई पि नायव्वं // 1 // " एवं चातुर्मासिक सांवत्सरिकम, एतानि ? प्रतितान्येव, उत्तमार्थं च भक्तप्रत्याख्याने प्रतिक्रमणे भवति, निवृतिरूपत्वात्तस्येति गाथासमुदायार्थः।।२१।। आव०४ अ०॥ यावत्कथिकं प्रतिक्रमणमउच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए पडिक्कमणं / आभोगमणाभोगे, सहसक्कारे पडिक्कमणं / / 2 / / उचारे पुरीषे, प्रश्रवणे मूत्रे, खेले श्लेष्मणि, सिडानके नासिकता श्लेष्मणि व्युत्सृष्टे सति सामान्येन प्रतिक्रमणं भवति। 25 / / अहः 4 अ०। आभोगे जाणंते-ण जो अइआरो कओ पुणो तस्स / जायम्मि उ अणुतावे, पडिकमणमजाणणा इयरे // 28 // प्रत्युपेक्षिताऽऽदिविधिविवेके तु न ददाति, तथा आभोग अगर सहसाकारे सति योऽतिचारस्तस्य प्रतिक्रमणम् "आभोग गणने अइयारो कओ पुणो तस्स। जातम्मि उ अणुतावे, पडिकमाणमा इयरे" ||28|| अनाभोगः सहसकारो इत्थं लक्षणो पुव्वं अपासिम पादम्मि जं पुणो पासे न य तरइ, नियते तु पायं सहसाकरणमेतं.' तम्मिश्च सति प्रतिक्रमणम् / अयं गाथाऽक्षरार्थः / इदं पुनः एलए कम्- 'पडिलेहिओ पमजिय भत्तं पाणं च वासिऊण / वसहीकरयवरमा उनियमेण पडिक्कमे साहू। हत्थसया आगंतु च मुहत्तग जहिं नि / वा वच्चंतो, नदीसंतरणे पडिक्कमणं / / 1 / / " आ० 4 अ० Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 265 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण प्रतिक्रान्तव्यमुच्यते, तत्पुनरोघतः पञ्चधा भवतीत्याह नियुक्तिकारमिच्छत्तपडिक्कमणं, तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं / कसायाण पडिक्कमणं, जोगाण य अप्पसत्थाणं // 32 // संसारपडिक्कमणं, चउव्विहं होइ आणुपुव्वीए। पावपडिक्कमणं पुण, तिविहं तिविहेण नेअव्वं // 33 // प्रथ्यात्वमोहनीयकर्मपुद्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामो मिथ्यात्वं तन्य प्रतिक्रन तत्प्रतिक्रान्तव्यं वर्तते, यदा भोगानाभोगसहसाकारैर्मिध्यत्वं गतस्तस्य प्रतिक्रान्तव्यमित्यर्थः / तथैवासंयमे असंयमविषय प्राप्तिकम्णम्। असंयमः प्राणातिपाताऽऽदिलक्षणः प्रतिक्रान्तप्यो वर्तते, कषायण प्रनिरूपितशब्दार्थानां क्रोधाऽऽदीनां प्रतिक्रमणं, कषायाः प्रतिकतिष्याः, योगानां च मनोवाक्कायानामप्रशस्तानामशोभनानां प्रतिक्रमणम्, ते च प्रतिक्रान्तव्या इति गाथार्थः // 32 // संसरणं संसारस्तिोड्नारकामरभवानुभूतिलक्षणास्तस्य प्रतिक्रमणं चतुर्विधं चतुष्प्रकार भवत्वाना परिपाट्या / एतदुक्तं भवतिनरकाऽऽयुषो ये हेतवो महाभाऽऽदयः तेष्वाभोगानाभोगसहसाकारैर्यद्वर्तितमन्यथा वा प्ररूपित जन्य प्रतिक्रान्तव्यम् / एवं तिर्यड्नरामरेष्वपि विशेषो, नवर रमनरामराऽऽयुर्हे तुभ्योमायाऽऽद्यनासेवनाऽऽदिलक्षणेभ्यो निराशंसेदापवर्गाभिलाषिणाऽपि न प्रतिक्रान्तव्यम्-"भावपडिक्कमणं पुण, लिविहं तिविहण नेयव्व।" तदेतदनन्तरोदितं भावप्रतिक्रमणं पुनस्त्रिविधं त्रिविधेनेर नेलप्यं, पुनः शब्दस्यैवकारार्थत्वात्। एतदुक्तं भवति ''मिच्छनादि न गच्छति, न य गच्छावेति णाणुजाणाति। जमणवयकाएहि, तं मणियं भावपडिकमण ||1||" मनसा न गच्छति न चिन्तयति यथा शोमनः शाक्याऽऽदिधर्मः, वाचा नाभिधत्ते, कायेन न तैः सह निष्प्रयोजन संसर्ग करोति, तथा न गच्छावेति, मनसा न चिन्तयति कथमेष तच्चनिकाऽऽदिः स्यात. वाचान प्रवर्तयति यथा तचनिकाऽऽदिर्न र कायेन न तच्चनिकाऽऽदीनामपयति / णाणुजाणाति कश्चित्तच्चनिकाऽऽदिभवति, न तद् मनसाऽनुमोदयति, तूष्णीं त्वास्ते, वाचा न सुष्टुवारब्धं कृतं चेति भणति, कायेन न नखछोटिकाऽऽदि प्रयच्छति। एतमसंयमाऽऽदिष्यपि विभाषा कार्येति गाथार्थः॥३३॥ इत्थं मिथ्यात्वाअदिपोचरं भावप्रतिक्रमणमुक्तमिह च भवभूलाः कषायाः। तथा चोक्तम्"दोहो यमाणो य अणिग्गिहीया, माया य लोभो य पवट्टमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचति मूला. पुणब्भवस्स" // 1 // अतः कषायप्रतिक्रमण एव उदाहरणमुच्यते- "कई दो संजया संगारं काऊण देवलोग गया इओय एगम्मि नयरे एगस्स सेट्ठिस्स भारिया पुत्तनिमित्तं नागदेवयाए उपवासेण टिया। ताए भणियं होहितिते पुत्तो देवलोयचुओ त्ति। तेसिमेगे चइता तीए पुत्तो जाओ।" नागदत्तो "त्ति से नामं कयं, वाहत्तरिकलाविसारओ जाओ, गंधव्वं च से अतिपरिचियं, तेणं गंधव्वनागदत्तो भन्नइ / तओ सो मित्तजणपरिवारिओ सोक्खमणु भवति, देवो य णं बहुसो बहुसो पडिवोहेति, सो न संबुज्झति, ताहे सो देवो अव्वत्तलिंगेणं न नजए, जाहे स पच्चइयगो जेण से रजोहरणााइउवगरण नस्थि, सप्पे चत्तारि करंडयहत्थो गहेऊण तस्स उज्जाणियगयस्स अदूरसामंते वीयीवयति, मित्तेहिं तस्स कहियं एस सप्पखेलावगोत्तिगतो तस्स मूलं, पुच्छइ-किमेत्थ?। देवो भणइसप्पो। गंधदेवनागदत्तो भणइ-रमामो तुमे मम वएहिं अहं न वच्चएहि,देवो तस्सप्पएहिं रमइ, खइओ विन मरई। गंधव्वनादत्तो अमरिसिओ भणइ-अहं पिरमामि तव संतिएहिं सप्पेहिं। देवो भणति-मरसि जइ खज्जसि, जाहे निवंवेण लग्गो ताहे मंडलं आलिहियं देवेण, चउदिसिं पिकरंड्या ठविया, पच्छा से सव्वं मित्तसयशंपरियण मेलेऊण तस्स समक्खं इमं भणइ। गंधध्वनागदत्तो, इच्छइ सप्पेहिं खेलिउं इहयं / सो जइ कहिं वि खज्जइ, इत्थ हु दोसो न कायव्वो 34 गन्धर्वनागदत्त इति नाम इच्छत्यभिलषति सर्पः सार्द्ध क्रीडितुमत्र स खल्वयं यदि कथञ्चित्केनचित्प्रकारेण खाद्यते भक्ष्यते (एत्थ) अस्मिन्वृत्तान्ते दोषो न कर्त्तव्यो मम भवद्भिरिति गाथार्थः॥३४॥ यथा चतसृष्वपि दिक्षु स्थापिताना, सपणां माहात्म्यमसाव-कथयत् तथा प्रतिपादयन्नाहतरूणदिवायरनयणो, विज्जुलयाचंचलग्गजीहालो। घोरमहाविस दाढो उ-क्का इच पज्जलिअरोसो॥३५॥ तरूणदिवाकरवदभिनवोदिताऽऽदित्यवन्नयने लोचने यस्य स तरूणदिवाकरनयनो, रक्ताक्षइत्यर्थः विद्युल्लतेव चञ्चला जिह्वा यस्य स विद्युलताचञ्चलाग्रजिह्नः, धोरा रौद्रा महाविषाः प्रधानविषयुक्ता दंष्ट्रा आस्यो यस्य सघोरमहाविषदष्ट्रः / उक्लेव निर्गतज्वालेव प्रज्वलितो रोषो यस्य स तथोच्यते इति गाथार्थः // 35 // डको जेण मणुस्सो, कयमकयं वा न जाणइ बहुं पि। अहिस्समाणमच्छु, कह गिज्झसि तं महानागं // 36|| (डको) दष्टो येन सर्पण मनुष्यः कृतं किञ्चिदकृतं वा न जानीते स बह्व पि अदृश्यमानोऽयं करण्डस्थो मृत्युर्वर्तते मृत्युहेतुत्वान्मृत्युः, यतश्चैवमतो कथं गृहीष्यसि त्वं महानागं प्रधानसर्पमिति गाथार्थः॥३६।। अयं च क्रोधसर्पः पुरुषेषु योजना स्वबुद्ध्या कार्या, क्रोधसमन्वितस्तरूणदिवाकरनयन एव भवतीत्यादिमेरुगिरितुंगसरिसो, अट्ठफणो जमलजुअलजीहालो। दाहिणपासम्मि ठिओ, माणेण विअट्टई नागो॥३७॥ मेरूगिरेस्तुङ्गन्युच्छूिटानि तैः सदृशः मेरुगिरितुङ्गसदृशः, उच्छ्रित इत्यर्थः / अष्टौ फणा यस्याऽसौ अष्टफणः, जातिकुलरूपबललाभबुद्धिबालभ्यकश्रुतानि द्रष्टव्यानि, तत्त्वतः यमो मृत्युः मृत्युहेतुत्वात्। 'ला' आदाने यमं लातीति आददतीति यमला युग्मा जिह्व यस्य स यमलयुग्मजिह्वः / करण्डकन्यासमधिकृत्याऽऽहदक्षिणपाचे स्थितः दक्षिणादिड्न्यासस्तुदाक्षिण्यवल उपरोधवतो मानप्रवृत्तेरत एवाऽऽहमानेन हेतु भूतेन व्यावर्तते नागः सर्प इति गाथार्थः / / 37 / / डक्को जेण मणुस्सो,थद्धो न गणेइ देवरायमवि। तं मेरुपव्वयनिभं, कह गिज्झसि तं महानागं // 38|| (डक्को) दष्टः येन सण मनुष्यः स्तब्धः सन्न गणयति देवराजमपि इन्द्रमपि,तमित्थंभूत मेरूपर्वतमिव कथं ग्रहिष्यसित्वं महानागं प्रधानसर्पमिति गाथार्थः // 38 // Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कम अयं च मानसर्पः वशस्य सतो नरकपतनं भवति, नास्ति न विद्यते (से) तस्य आलम्क सललिअवेल्लहलगई, सत्यिअलंछणफणकिअपडागा। किञ्चित् येन न पतन्तीति गाथार्थः / / 45 // मायामई अनागी, निअडिकवडवंचणाकुसला॥३६॥ एवमभिधायते मुक्ताःसललिता मृद्री वेल्लहला स्फीता गतिर्यस्याः सा सललित-वेल्लहलगतिः एएहिं अहं खइओ, चउहिँ वि आसीविसेहि घोरेहि। स्वस्तिकलाञ्छनेनाङ्किता फणा पताका यस्याः सा स्वस्त्किलाञ्छना- विसनिग्घायणहेउं, चरामि विविहं तवोकम्मं // 46|| कितफणापताकेति वक्तव्ये गाथाभङ्ग भयादन्यथा पाठः 1मायाऽऽत्मिका सो खइओ पडिओ मओ य, पच्छा देवो भणति-किह जातं न बार नागी निकृतिकपटवञ्चनाकुशला निकृतिरान्तरो विकारः, कपट वारिजंतो, पुव्वभणिया य तेण मित्ता अगद छुहं ति, ओसहाणि इ वेषपरावर्तिताऽऽदि बाह्यः, आभ्यां या यञ्चना तस्यां कुशला निपुणेति / किंचि गुणं करेंति। पच्छा तस्स सयणो पाएसुपडिओ जीवावेहि निदेव गाथार्थः // 36 // भणति-एवं चेव अहं पिखइओ, जइ एरिसं चरियमणुचरइ तो जीप तंचऽसि वालग्गाही, अणोसहिबलो अ अपरिहत्थो या जति णाणुपालेति तो उज्जीवाविओ पुणो वि मरति, तं च चरित्रं नाही साय चिरसंचिअविसा, गहणम्मिवणे वसइनाणी||४| कहेति / एभिरहं (खतितो त्ति) भक्षितः चतुर्भिराशीविषैर्भुजगेध, इयमेवंभूता नागी रौद्रा, त्वं च व्यालग्राही सर्पग्रहणशीलः, अनौषधि- रौद्रविषनिर्घातहेतुं विषनिर्घातननिमित्तं चरामि आसेक्यामि विष्ट बलश्च औषधिबलरहितः, अपरिहतश्चादक्षश्च, सा च चिरसञ्चितविषा गहने विचित्रचतुर्थे षष्ठाऽष्टमाऽऽदिभेदंतपःकर्मतपःक्रियामिति गाथार्थः 76. सडकुले वने कार्यजाले वसति नागीति गाथार्थः॥४०॥ सेवामि सेलकाणण-सुसाणसुन्नघररुक्खमूलाई। होही ते विणिवाओ, तीसे दाढंतरं उवगयस्स। पावाहीणा तेसिं, खणमवि न उवेमि वीसंभं // 47 // अप्पोसहिमंतबलो,नहु अप्पाणं चिगिच्छिहिसि॥४१|| अच्चाहारो न सहइ, अइनिद्धेण विसया उइज्जंति। भवीष्यति ते विनिपातः तस्या दंष्ट्रान्तरमुपागतस्य प्राप्तस्य अल्पं जायामायाहारो, तं पिपगामं न इच्छामि / / 48|| स्तोकमोषधिमन्त्रयल यस्य सोऽल्पौषधिमन्त्रबलः यतश्चैवमतो ओसन्नकयाहारो, अहवा विगईविवजिआहारो। नैवाऽऽत्मानं चिकित्सिष्यसीति गाथार्थः // 41 // जं किंचि कयाहारो, उवउजिअ थोवमाहारो॥ इयं च मायानागी थोवाहारो थोवं, भणिओ अ जो होइ थोवनिहो अ। उत्थरमाणे सव्वं, महालओ पुन्नमेहनिग्घोसो। थोवोबहिउवगरणो, तस्स य देवा विपणमंति / / 5 / / उत्तरपासम्मि ठिओ,लोभेण विअट्टई नागो।।४२।। सिद्धे नमंसिऊणं, संसारत्था य जे महाविज्जा। (उत्थरमाणे त्ति) अभिभवन् सर्व वस्तु, महानालयो यस्येलि स- वुच्छामि दंडकिरिअं, सव्वविसनिवारणिं विजं // 51 // हालयः, सर्वत्रानिवारितत्वात् पूर्णः पुष्कलावर्तमेघस्येव निर्घोषो यस्य सव्वं पाणइवायं, पच्चक्खाइ त्ति अलिअवयणं च , स तथोच्यते। करण्डकन्यासमधिकृत्याह-उत्तरपार्श्वस्थितः उत्तरदि- सव्वमदिन्नादाणं, अव्वंभपरिग्गहं साहा।।५२।। गन्यासस्तु सर्वोत्तरो लोभ इति ख्यापनार्थः / अत एवाऽऽहलोभेन सेवामि भजामि शैलकाननश्मशानशून्यगृहवृक्षमूलानि, शैलाः परः हेतुभूतेन (वियदृति ति) व्यावर्तत रुष्यति वा नागः सर्प इति काननानि दूरवर्तिवनानि, शैलाश्च काननानि चेत्यादि-द्वन्द्व क्रिक: गाथार्थः // 42 // पापाहीना पापसाणां तेषां क्षणमपि नोपैमिन यामि विश्व दट्ठो जेण मणुस्सो, महसायरइवातिदुप्पूरं / विश्वासमिति गाथार्थः // 47 // अत्याहारः प्रभूताऽऽहारः न मह. सव्वविससमुदयं खलु, कह गेज्झसि तं महानागं / / 43 / / प्राकृतशैल्या न सहते न क्षमते, मम स्निग्धमल्पं च भोजन मशिने दष्टो येन मनुष्यो भवति महासागर इव स्वयंभूरमण इव दुष्पूरस्तमि- इत्येतदपि नास्ति, यत अतिस्निग्धेन मृदुश्लक्ष्णप्रचुरेण दिश्यः त्थंभूतं सर्वविषसमुदयं सर्वव्यसनैकराजपथं कथं गृहीष्यसि त्वं महानागं शब्दाऽऽदय उदीयन्ते उद्रेकावस्था नीयन्ते, ततश्च यात्रमात्रा प्रधानसर्पमिति गाथार्थः // 43 // यावता संययात्रा सर्पतेतावन्तंभक्षयामि तमपि, न प्रकाम पुनः पुनर्नर अयं च लोभसर्पः इति गाथार्थः / / 4811 उत्सन्नं प्रायशः अकृताहारस्तिष्ठामीति फिर, एए ते पावाऽऽही, चत्तारि वि कोहमाणमयालोहा। अथवाविकृतिभिर्वर्जित आहारो यस्य मम सोऽहं विकृतिजिं-तह जेहिं सया संतत्तं, जरियमिव जगं कलकलेइ॥४४|| यत्किञ्चिच्छोभनमशोभनं वौदनाऽऽदि कृतमाहारो येन मया संत एते ते पापा अहयः पापसाश्चत्वारोऽपिक्रोधमानमायालोभाः,यैः सदा / तथाविधः / (उवउजियथोवमाहारो त्ति) उपयुज्य स्तोकः स्वला आहार संतप्तं सत् ज्वरितमिव जगद् भुवनं कलकलायते भवजलधौ क्वथतीति यस्य मम सोऽहम् उपयुज्य स्तोकाहार इति गाथार्थः / / गाथार्थः / / 44|| क्रियायुक्तस्य क्रियान्तरयोगाच गुणानुपदर्शयतिस्तोकाहा! एएहिं जो उ खज्जइ, चउहि आसीविसेहिं पावेहिं। स्तोकमणितश्च यो भवति स्तोकनिद्रश्च स्तोकोपध्युपकरणः उपधिरेदार है अवसस्स नरयपडणं, नत्थि सें आलंबणं किंचि।४५। करणं तस्य चेत्यंभूतस्य देवा अपि प्रणमन्तीति गाथार्थः // 50 // एवं का एभिर्य एव खद्यते भक्ष्यते चतुर्भिराशीविषैः भुजङ्गै पिरशोभनैस्तस्य अणुपालेतितो उद्वेति, भणतिपरं, एवं पिजीवंतोपेच्छामो पुयाभिमुहोति। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एडिक्कमण 267 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण किषिय पओजिउकामो देवो भणति-सिद्ध गाहा। सिद्धान्मुक्तान्नमस्कृत्य संसारस्थाश्च ये महावैद्या केवलिचतुर्दशपूर्ववित्प्रभृतयः, तांश्च नमस्कृत्य, वक्षर टाण्डक्रियां सर्वविषनिवारणी विद्यामिति गाथार्थः / / 51 / / सर्वं संपूर्ण प्राणतिपात प्रत्याख्याति प्रत्याचष्ट एष महात्मेति, अमृतवचनं च, सर्व शादत्ताऽऽदानम्, अब्रह्मपरिग्रहं च प्रत्याचष्टे स्वाहेति गाथार्थः / / 52 / / एवं भणिओ उडिओ अम्मापित्तीहिं से कहियंन सद्दहति पच्छा पहाविओ पडिओ, पुणो वि तहेव देवेण उहाविओ, पुणो विपहाविओ, तो पडिओ, तश्याए वेलाए देवो नेच्छति, पासाइओ उहाविओ, पडिस्सुयं अम्मापियर पुच्छित्ता तेण सम पहाविओ, एगम्मि वणसंडे पुव्वभवं कहेति, संबुद्धो फ्लेयबुद्धो जाओ। देवो वि पडिगओ। एवं सो ते कसाए सरीरकरंडए छदाकओ विसंचरिउंन देति, एवं सो औदयियस्सभावस्स अकरणयाए अहिओ पडिक्कतो होइ, दीहेण सामन्नपरियाएण सिद्धो। एवं भावपडि (5) प्रतिक्रमणनिमित्तम् - आह-किं निमित्तं पुणो पुणो पडिकमिजइ, जहा मज्झिमाणं तहा कीस नकले पडिकमिज्जइ ? / आइरिय आह एत्थ वेज्जेण दिलुतो। एगस्स रन्नो पुती अतीव पिओ, तेण चिंतियं-मा स रोगो भविस्सति, किरियं करावेमि / तेण वेजा सद्दाविया, मम पुत्तस्स तिगिच्छं करेह, जेण निरोगो होइाते भणति-करमो। राया भणति-केरिसा तुज्झ जोगा। एगो भणतिजइरोगो अस्थि ता उवसामेति, अह नत्थितंचेव जीवंत मारेति। वितिओ भगति-लइ रोगो अस्थि उवसामेति, अन्नहा न गुणं न दोसं करेति / ततिओ भणति जइ रोगो अत्थि उवसामेत्ति, अह नत्थि तो वन्नरूवजोवणलावन्नत्ताए परिणम ति / वितिओ विही अणागयपरित्ताणे नाणियव्यो। ततिएण रम्ना कारिया किरिया एवमिमं पि पडिक्कमणं, जति दोसा अत्धिता विसोहिजंति, जइ नत्थि तो सोहिचरित्तस्ससुद्धायरिया पदइ / उक्त संप्रसङ्गं प्रतिक्रमणम् / अत्रान्तरे अध्ययनशब्दार्थों निरूपणीयः / स चाऽन्यत्र न्यक्षेण प्ररूपितत्वान्नेहाधिक्रियते / गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निक्षेपस्याऽवसरः, सच सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगम इत्यादिप्रपञ्चो वक्तव्यः / आव० अ०11०/ध०२०। (6) प्रतिक्रमणविधिश्चैवं प्रतिक्रमणहेतुगर्भाऽऽदौ उक्तःसाधुना श्रावकेणापि अनुयोगद्वारगत "तदप्पियकरणे" इति पदस्य करणानितत्साधकतमानि देहरजोहरणमुखवस्त्रिकाऽऽदीनि, तस्मिन्नेवाऽऽवश्यके यथोचितव्यापारनियोगेनार्पितानि नियुक्तानि येन स तदर्पितकरणः सम्यग् यथाऽवस्थानन्यस्तोपकरण इत्यर्थ इति वृत्तिः। तथा "जो मुह पोतिअं अपडिलेहित्ता वंदणं देह तो गुरुअं तस्स पच्छित / " इति व्यवहारसूत्रम्। 'पोसहसालाए ठवित्तु टवणायरिअं मुहपुत्तिपमजता सीहो गिण्हइ पोसहं।" इति विवाहचूलिका, ''पावरणं मात्तूण, गिण्हिता मुहपोति। वत्थकायविसुद्धीए, करेई पोसहाइअं" 1 // इति च व्यवहारचूर्णिरित्येवमादिग्रन्थप्रामाण्यात् मुखवस्त्रिकारजोहरणाऽऽदियुक्तेन द्विसंध्यं विधिना प्रमार्जिताऽऽदौ स्थाने जातु तदभावेऽपि ससाक्षिकं कृतमनुष्ठानमत्यन्तं दृढं जायत इति गुरुसाक्षिक, तदभावे च नमस्कारपूर्वं स्थापनाऽऽचार्य स्थापयित्वा पञ्चाऽऽचारविशुव्यर्थ प्रतिक्रमणं विधेयम् / अत्रऽऽह कश्चित् - (ध०) तथा तत्रैव यदपरमुक्तम्- "चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगनिक्खमणं' इत्यादि। तदपि न युक्तं भवेद् / यतश्चतुःशीर्षत्वं वन्दनकदातृतत्प्रतीच्छकसद्भावे सति भवति, न तु साक्षाद्र्वभावे स्थापनाचार्यस्याऽनभ्युपगमे च, एवं द्विप्रवेशैकनिष्क्रमणे अपि दुरापास्ते एव, अवधिभूतगुरोः स्थापनाऽsचार्यस्य वाऽभावात्। न च हृदयमध्य एव गुरुरस्तीति वाच्यं, तथा सति प्रवेशनिर्गमयोरविषयत्वादिति / तस्मात् "अक्खे वराडएवा, कढे पुत्थे अ चित्तकम्मे अ। सडभावमसब्भावं, गुरुठवणा इत्तराऽऽवकह / / 1 / / " इतिवचनप्रमाणाच साधुश्रावकाणां स्थापनाऽऽचार्यस्थापनं समानमेवेति व्यवस्थितम् / पञ्चाऽऽचाराश्च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याऽऽचारा इति / तत्र सामायिकेन चारित्राऽऽचारस्य शुद्धिः क्रियते 1, चतुर्विशतिस्त-वेन दर्शनाऽऽचारस्य 2, वन्दनकेन ज्ञानाऽऽद्याचाराणाम 3. प्रतिक्रमणेन तेषामतिचारापनयनरूपा 4, प्रतिक्रमणेनाशुद्धानां तदतिचाराणा कायोत्सर्गेण 5, तपआचारस्य प्रत्याख्यानेन 6, वीर्याऽऽचारस्यैभिः सर्वैरपीति / यतश्चतुःशरणप्रकीर्णके- 'चारित्तस्स विसोही, कीरइ सामाइएण इह किरय।'' इत्यादि गाथाः प्रसिद्धाः। तत्र चाऽऽवश्यकाऽऽरम्भे चैत्यवन्दनाधिकारोक्ताऽऽगमवचनप्रामाण्यात् - "जइ गमणागमणाई, आलोइअ निं दिऊण गरहित्ता। हा दुट्टम्हेहि कय, मिच्छादुक्कडमिअ भणित्ता // 1 // तह काउस्सग्गेणं, तयणुरूवपच्छित्तमणुचरित्ता थे। जं आयहि चिश्चं-दणाइ णुट्ठिज उवउत्तो।।२।। दवच्चणे पवित्तिं, करेइजह काउ वज्झवणुसुद्धिं / भावचणं तु कुज्जा, तह इरिआए विमलचित्तो / / 3 / / " इत्यादियुक्तेश्च पूर्वमीर्यापथिकी प्रतिक्रामति / प्रतिक्रामता च तां मनसोपयोगं दत्त्वा त्रीन वारान् पदन्यासभूमिः प्रमार्जनीया, एवं च तां प्रतिक्रम्य साधुः कृतसामायिकश्च श्रावक आदौ श्रीदेवगुरुवन्दनं विधत्ते, सर्वमप्यनुष्ठानं श्रीदेवगुरुवन्दनविनयबहुमानाऽऽदि भक्तिपूर्वकं सफलं भवतीति। आह च"विणयाहीआ विजा, दिति फलं इह परे अलोगम्भि। नफलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाणि / / 1 / / भत्तीइ जिणवराणं, छिज्जती पुव्वसंचिआ कम्मा। आयरिअनमुक्कारेण, विजा मंता य सिज्झंति // 2 // " इति हेतोः"पढमऽहिगारे वंदे, भावजिणे 1 वीअए उदव्वजिणे 2 / इगवेइअठवणजिणे, तइअचउत्थम्मि नामजिणे 3-4 / 1 / / तिहुअणठवणजिणे पुण, पंचमए 5 विहरमाणजिण छट्टे 6 / सत्तमए सुअनाणं 7, अट्ठमए सव्वसिद्धथुई 8 // 2 // तित्थाहिववीरथुई, नवमेह दसमे अ उज्जयंतथुई 10 / अट्ठावयाइ इगदसि 11, सुदिट्ठिसुरसमरणा चरमे 12 // 3 // नमु१जे अइअ 2 अरिहं 3, लोग 4 सव्व 5 पुक्ख 6 तम 7 सिद्ध 8 जो देवा / उजिं १०चत्ता 11 वेयावच्च 12 अहिगारपढमपया।।४।।" इति चैत्यवन्दनभाष्यगाथोक्तै दशभिरधिकारैः पूर्वोक्त - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 268 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण विधिना देवान वन्दित्वा चतुरादिक्षमाश्रमणैः श्रीगुरून् वन्दते। लोकऽपि हि राज्ञः प्रधानाऽऽदीनां च बहुमानाऽऽदिना स्वसमीहितकार्यसिद्धिर्भवति / अत्र राजस्थानीयाः श्रीतार्थकराः, प्रधानाऽऽदिस्थानीया आचार्याऽऽदय इति / श्राद्धस्तु तदनु "समस्तश्रावको वां, " इति भणति / ततः चारित्राऽऽचाराऽऽदिशुद्धिं विधित्सुत्तत्सिद्धिमभिलषमाणश्चारित्राऽऽचाराऽऽद्याराधकान सम्यक् प्रणिपत्यातीचारभारभरित इवावनतकाययष्टि निहितशिराः सकलातिचारवीजम् - "सव्वस्स वि देवरितअं" इत्यादि सूत्रं भणित्वा मिथ्यादुष्कृतं दत्ते / इदं च सकलप्रतिक्रमणबीजकभूतं ज्ञेयम् / अन्यत्राऽपि च ग्रन्थाऽऽदौ आदौ बीजस्य दर्शनात् / तत उत्थाय ज्ञानाऽऽदिषु चारित्रं गरिष्टं, तस्य मुक्तेरनन्तरकारणत्वात् / ज्ञानाऽऽदेस्तु परम्पराकारणत्वात्। (ध.) इति हेतोरादौ चारित्राऽऽचारविशुद्ध्यर्थम् - "करेमि भंत ! सामाइअं" इत्यादि-सूत्रत्रयं पठित्वा द्रव्यतो वपुषा भावतश्च शुद्धपरिणामेनोच्छ्रितोच्छ्रितं वक्ष्यमाणलक्षणं कायोत्सर्ग कुर्यात्, कायोत्सर्गे च साधुः प्रातस्त्यप्रतिलेखनायाः प्रभृति दिवसातिचारॉश्चिन्तयति / यतः- "पाभाइअपडिकमणाण तरमुहपुत्ति पमुहकजेसु / जाव इमो उस्सग्गो, अइआर ताव चिंतेजा // 1 // " इति मनसा संप्रधारयेच, 'सयणासणे' इत्यादिगाथाचिन्तनतः, (30) एतदतिचारचिन्तनं मनसा, संकलनं च श्रीगुरुसमक्षमालाचनार्थम्, अन्यथा तत्सम्यग् न स्यात्। लोकेऽपि हि राजाऽऽदीनां किमपि विज्ञप्यं मनसा संप्रधार्य, कागदाऽऽदौ लिखित्वा वा विज्ञप्यते इति / ततश्च नमस्कारपूर्व कायोत्सर्ग पारयित्वा चतुर्विशतिस्तवं पठेत्, तदनु जानुपाश्चात्यभागपिण्डिकाऽऽदि प्रमृज्योपविश्च च श्रीगुरुणां वन्दनकदानार्थं मुखवस्त्रिका कायं च द्वावपि प्रत्येकं पञ्चविंशतिधा प्रतिलिख्य पूर्वोक्तविधिना वन्दनके दद्यात्, एतद्वन्दनक च कायोत्सर्गावधारितातीचाराऽऽलोचनार्थ , ततश्च सम्यगवन-लाङ्गः पूर्वं कायोत्सर्गे स्वमनोऽवधारितान्। दैवसिकातीचारान् "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! देवसिअं आलोएसि" इत्यादिसूत्रं चारित्रविशुद्धिहेतुकमुच्चरन् श्रीगुरुसमक्षमालोचयेत्। एवं दैवसिकातीचाराऽऽलोचनानन्तरं मनोवचनकायसकलात। चार संग्राहकम्- "सव्वस्स वि देवसिय" इत्यादि पटेत्, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् " इत्यनेनानन्तराऽऽलोचितातीचारप्रायश्चित्तं च मार्गयेत, गुरवश्च 'पडिक्कमह' इति प्रतिक्रमणरूप दशविधप्रायश्चित्ते द्वितीयं प्रायश्चित्तमुपदिशन्ति / तच्च मिथ्यादुष्कृताऽऽदिरूपम् (ध०) प्रथमप्रायश्चित्तं त्वालोचनारूपं प्राक् कृतमेव, गुरवः संज्ञाऽऽदिना प्रायश्चित्तं ददते, न तु 'पडिझमह" इति भाषन्ते इत्युक्तं दिनचर्यायां, तथा च तथा. ''गंभीरिमगुणनिहिणो, मणवयकाएहि विहिअसमभावा / पडिक्कमह त्ति न जंयइ, भणत्ति तं पइ गुरू राहा / / 1 / / " रुष्टा इव भणन्तीत्यर्थः / ततो विधिनोपविश्य समभावस्थितेन सम्यगुपयुक्तमनसाऽनवस्याप्रसङ्गभीतेन पदे पदे संवेगमापद्यमानेन दंशमशकाऽऽदीन देहेऽगणयता श्राद्धेन सर्व पञ्चपरमेष्ठिनमस्कार पूर्व कर्म कर्त्तव्यमित्यादी स पठ्यते, समभावस्थेन च प्रतिक्रमितव्यमित्यतः सामायिकसूत्रं भण्यते, तदनन्तरं देवसिकाऽऽद्यतीचाराणामोघाऽऽलोचानार्थम् - ''इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइयारो कओ' इत्यादि भण्यते, तदनु श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रं पठ्यते, यावत्- "तस्स धम्मरस'' इति। साधुस्तु | सामायिकसूत्रानन्तरं मङ्गलार्थं ''चत्तारि मगलं'' इत्यादि भणति तर ओघतोऽतीचाराऽऽलोचनार्थम्- ''इच्छामि पडिकमिउ'' इत्यादि विभागाऽऽलोचनार्थं तु तदनु ईपिथिकी, ततश्च शेषाशेषाऽतीचार प्रतिक्रमणार्थ मूलसाधुप्रतिक्रमणसूत्र पठति, आचरणाऽऽदिनैव चेयं मिक रीतिः / प्रतिक्रमणसूत्रं च तथा भणनीय, यथा स्वस्थ पठतः शृण्वन परेषां संवेगभराद्रोमाञ्चो भवति। तदुक्तं दिनचर्यायान्- 'पनणति तह सुत्तं, न केवलं तेसि तह व अन्नेसिं। जह नयजललवेणं, पए पर हुँदै रोमंचो।।१।।" इति। तदनु सकलातिचारनिवृत्त्याऽपगततद्धारो लघुभः उत्तिष्ठति, एवं द्रव्यतो भावतश्वोत्थाय "अब्भुटिओमि'' इत्यादि प्रान्तं यावत्पठति। ततः प्रतिक्रान्तातीचारः श्रीगुरुपु स्वकृतापराधःमणार्थ वन्दनकं ददाति, प्रतिक्रमणे हि सामान्यतश्चत्वारि वन्दनकारि द्विकरूपाणि स्युः, तत्र प्रथममालोचनवन्दनकम् 1. द्वितीय क्षमाफवन्दनकम् 2, तृतीयमाचार्याऽऽदिसर्वसङ्ग स्य क्षमणकपूर्वमाश्रयः ३,चतुर्थ प्रत्याख्यानवन्दनकम् 4, इति / ततो गुरून धमकी पूर्वोक्तविधिना, तत्र पञ्चकमध्ये तु ज्येष्टमेवैकम, आचीणोनिप्रायोडमुक्तम, अन्यथा तु गुरुमादिं कृत्वा ज्येष्ठानुक्रमेण सर्वान् क्षमट पक्षप्रभृतिषु सत्सु त्रीन् गुरुपभृतीन् क्षमयेत्, इदं च वन्दन्फन 'अलिआयणवंदणयं' इत्युच्यते आचार्याऽऽदीनामाश्रराणार्यद इत्युक्तं प्रवचनोद्धारवृत्तौ। ततश्व कायोत्सर्गकरणार्थम- "पडिया सज्झाए 2, काउस्सग्गाव राह 3-4 पाहुणए 5'' इत्यादिवचनाद्वन्दन, कदानपूर्वक भूमिं प्रमृज्य "जे मे केइ कसाया'' इत्याद्यक्षरसूति कषायचतुष्टयात्प्रतीपंक्रमणमनुकुर्वन्निव पाश्चात्यपादैरवग्रहाद्वहिनिः "आयरिअउवज्झ ए" इत्यादि सूत्रं पठति / तत्राऽऽद्यश्चारित्रशुद्ध कायोत्सर्गो विधीयते। चारित्रं च कषायाविरहेण शुद्धं भवति, रदन तस्याऽसारत्वात् / (ध०) ततश्च चारित्रप्रकर्षकृते कषायोप्शभादः ''आयरियउवज्झाए'' इत्यादिगाथात्रयं पठित्वा चारित्राति चार "पडिकमणासुद्धाण'' इति वचनात, प्रतिक्रमणेनाशुद्धानां शुद्धिति कायोत्सर्ग चिकीर्षुः "करेमि भंते! सामाइअं" इत्यादिसूत्रत्रय वाटिन्न कायोत्सर्ग करोति / सामायिकसूत्रे च सर्व धर्मानुष्ठान समतापरिस्थितस्य सफलम्, इति प्रतिक्रमणस्याऽऽदौ मध्येऽवसाने पुत्र पुनस्तत्रमृत्यर्थमुच्चार्यमाणं गुणवृद्धये एव। आह च"आइमकाउस्सग्गे, पडिक्कमंतो अकाउँ सामइ। तो किं करेइ वीअं, तइअंच पुणो वि उस्सग्गे / / 1 / / समभावम्मि ठिअप्पा, उस्सग्ग करिअ तो अपडिक्कनइ। एमेव य समभावे, ठिअस्स तइअंपि उस्सग्गे / / 2 / / सज्झायझाणतवओ-सहेसु उवएसथुइपयाणेसु। संतगुणकित्तणेसु य,न हुति पुणरुत्तदोसा उ॥३॥" इति कायोत्सर्गे च- "चंदेसु निम्मभयरा'' इत्यन्तं चतुर्विशनिस्तान चारित्राचारविशुद्ध्यर्थ चिन्तयति, पारयित्वा च कायात्सर्ग, सम्या: शनस्य सम्यगज्ञानहेतुत्वाज्ज्ञानाद्दर्शन गरिष्ठम, इति ज्ञानाचार दर्शनावारविशुद्ध्यर्थ भरतक्षेत्रोत्पन्नत्वेनासन्नोपकारित्वाच्छीपन दिस्तुतिरूपं चतुर्विशतिस्तवम्, "सव्वलोए अरिहल वेइयाणे इन्। सूत्रं च पठित्वा तदर्थमेव कायोत्सर्गमेक चतुर्विशतिस्तवचिन्तनरूपक तं च तथैव पारयित्वा सामायिकादिचतुर्दशपूर्वपर्यन्तश्रुतज्ञानाउन Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण विशुद्ध्यर्थ मुखरवरदीवड्ड'' इत्यादि सूत्रम्, 'सुअस्स भगवओ करेमि कास्मण' इत्यादि च पठित्वैकचतुर्विशतिस्तवचिन्तनरूपं कायोत्सर्ग कुष्पेत् / जरियल्या च तं ज्ञानदर्शनचारित्राचारनिरतिचारसमाचरणफल जाना सिद्धाना "सिद्धाणं वुद्धाणं" इति स्तवं पठति / इह च इतुर्विशतिस्तव -द्वयचिन्तनरूपो द्वितीयश्चारित्राचारविशुद्धिहेतु: कायोत्सर्गः / एकस्य चारित्राचारशुद्धिहेतुकस्य दिवसातिचारचिन्तनार्थ प्राकटत्वात्। आहुरपि- "दुन्नि अहुति चरित्ते, दसणनाणे अ इक्किको'' इसी गनात्। अरिंभश्च पूर्वोक्तयुक्त्या चारित्राचारस्य ज्ञानाद्याचारेभ्यो वैशिष्ट्यादिना चतुर्विशतिस्तवद्वयचिन्तनं संभाव्यते ? / नागेतनयोः तृतियचतुर्थयोदर्शनाचारज्ञानाचारविशुद्धिहेतुकयोरिति स्थितम्। अथ सिद्धन्तवपटनानन्तरमासन्नोपकारित्वात् श्रीवीरं वन्दते / ततो महातीर्थस्वादिनोज्जयन्तालङ्करणं श्रीनमि, ततोऽपि चाष्टापदनन्दी रादिबहुतोर्थनमस्काररूपाम् - 'चत्तारि अट्टदस" इत्यादिगाथा पउति / एवं चारित्राद्याचाराणां शुद्धि विधाय सकलधर्मानुष्ठानस्य श्रुत कावतस्य समृद्ध्यर्थम्- "सुअदेवयाए करेमि काउस्सग्गं अन्नत्य' इत्यादि च पठित्या श्रुताधिष्ठातृदेवतायाः स्मर्तुः कर्मक्षयहेतुत्वेन * श्रुतदेवतयाः कायोत्सर्ग कुर्यात्, तत्र च नमस्कारं चिन्तयति / देवनद्यारधिनस्य स्वल्पयत्नसाध्यत्वेनाष्टोच्छ्रासमान एवायं कायोत्सर्ग इत्यादि हेतु: संभाव्यः / पारियत्वा च तं तस्याः स्तुति पठति"अदेवया भगवई " इत्यादि, अन्येन दीयमानां वा शृणोति / एवं x क्षेत्रदेवलाया अपि स्मृतियुक्तेति तस्याः कायोत्सर्गानन्तरं तस्या एव स्तुति भगाति / यच्च प्रत्यह क्षेत्रदेवतायाः स्मरणं, तत्तृतीये व्रतेऽभीक्ष्णावग्रह्याचारूपभावनायाः सत्यापनार्थ संभाव्यते। ततः पञ्चमङ्गलभजनपूर्व सदश्क प्रमृज्योपविशति ततो मुखवस्त्रिकां काय च प्रतिलिख्य श्रीगुरूणां वन्दनके दत्त्वा'' इच्छामो अणुसहि" इति भणित्वा जानुभ्यां स्थित्वा कृताञ्जलिर्नमोऽर्हत्सिद्धेति पूर्वकं स्तुतित्रयं पठति, इदं च पूर्वोक्तचन्दनकदानं श्रीगुर्वाज्ञया कृतावश्यकस्य विनेयस्य मया युष्मा माज्ञया प्रतिक्रान्तमिति विज्ञपनार्थम् / लोकेऽपि 'राजादीनामादेश विधाय प्रणाभपूर्वक तेषामादेशकरणं निगद्यते,' एवमिहापि ज्ञेयम्। एतदर्थश्वायम् इच्छान अभिलषामः, अनुशास्ति गुर्वाज्ञां, प्रतिक्रमण कार्यमित्येवं रूपां, तां च वयं कृतवन्तः स्वाभिलाषपूर्वकं न तु राजवेष्ट्यादिना / इत्थ संभावना विधानं च "इच्छामो अणुसद्धि" इति भजनानन्तर श्रीगुरूणामादेशस्याश्रवणात् / एवं च प्रतिक्रमणं संपूर्ण जातम् / तसंपूर्णीभवनाच संपन्ननिर्भरप्रमोदप्रसराकुलवर्द्धमानस्वरेण वर्द्धमानाक्षरं तीर्थन यकत्वात् श्रीवर्द्धमानस्य स्तुतित्रयं "नमोऽस्तु वर्षमानाय" इत्यादिरूप, श्रीगुरुभिरेकस्तो स्तुतौ , पाक्षिकप्रतिक्रमणे तुश्रीगुरुपर्वणोर्विशेषबहुमानसूचनार्थ तिसृष्वपि स्तुतिषु भणितासुसतीषु सर्वे साधवः आद्धाश्च युगपत्पठन्ति / "बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाशिणाम्। अनुग्रहार्थ सर्वज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः / / 1 / / इत्याद्युक्तेः स्त्रीणां संस्कृतेऽनधिकारित्वसूचनात्साध्व्यः श्राविकाश्च नमोऽर्हत्सिद्देत्यादिसूत्र न पटन्ति, "नमोऽस्तु वर्द्धमानाय" इत्यादि*x आवश्यकत्तिप्यांदा विमा कायोत्सर्गा न रतः, केनचित्प्रक्षिप्ता वित्यावश्यकदीपिकायान्न स्थाने संसारदावानलेत्यादि च पठन्ति / रात्रिकप्रतिक्रमणे तु विशाललोचनेत्यादिस्थाने के चित्तु स्त्रीणां पूर्वाध्ययनेऽनधिकारित्वात, नमोऽस्तु वर्द्धमानेत्यादीनां च पूर्वान्तरगत्वेन संभाव्यमानत्वात्, न पटन्तीत्याहुः / यच्च श्रीगुगकथनावसरे प्रतिस्तुतिप्रान्तम्- 'नमो खमासमणाणं' इति गुरुनमस्कारः साधुश्राद्धादिभिर्भण्यते। तन्नृपाद्यालापेषु प्रतिवार्ताप्रान्तं जीवेत्यादि भणनवत्, श्रीगुरुवचः प्रतीच्छादिरूपं संभाव्यते / स्तुतित्रयपाठानन्तरं शक्रस्तवपाठः / तत उदारस्वरेणैकः श्रीजिनस्तवं कथयति, अपरे च सर्वे सावधानमनसः कृताञ्जलयः शृण्वन्ति / स्तवनभणनानन्तरं च सर्वजिनस्तुतिरूप वरकनके त्यादि पठित्वा चतुर्भिः क्षमाश्रमणैः श्रीगुर्वादीन्वन्दते, अत्र च देवगुरुवन्दनं नमोऽर्हत्सिद्धेत्यादेरारभ्य चतुःक्षमाश्रमणप्रदानं यावत् ज्ञेयम्। श्राद्धस्य तु 'अडइजेसु'' इत्यादि भणनावधि ज्ञेयम् / इदं च देवगुरुवन्दनं प्रतिक्रमणस्य प्रारम्भे अन्ते च कृतम्। "आद्यन्तग्रहणे मध्यस्याऽपि ग्रहणम" इति न्यायात सर्वत्राप्यक्तरतीति। यथा-शक्रस्तवस्यादावन्ते 'नमो" इति भणनम्। ततोऽपि द्विवद्धं सुवद्धं भवति" इति न्यायेन पूर्व चारित्राद्याचारशुद्ध्यर्थं कृतेष्वपि कायोत्सर्गेषु पुनः प्राणातिपातविरमणाद्यतिचाररूपदेवसिकप्रायश्चित्तविशोधनार्थ चतुश्चतुर्विशतिस्तवचिन्तनरूपं कायोत्सर्ग कुरुते, अयं च कायोत्सर्गः सामाचारीवशेन कैश्चित्प्रतिक्रमणस्याऽऽदौ कैश्वित्त्वन्ते क्रियते / तदनु तथैव पारयित्वा चतुर्विशतिस्तवं च मङ्गलार्थ पठित्वा क्षमाश्रमणद्वयपूर्व मण्डल्यामुपविश्य सावधानमनसा स्वाध्यायं कुरुते मूलविधिना / पौरुषी यावत्संपूर्णा स्यात् / अत्राऽह पर:- ननुप्रतिक्रमणं पञ्चाचारविशुद्ध्यर्थं प्रागुक्तम. अत्र तु ज्ञानदर्शनचारित्राचाराणामेव यथास्थानं शुद्धिरुक्ता, न च तपोवीर्याचारयोः, तथा च प्रतिज्ञाहानिरिति चेत् ? / मैवम् एतच्छुद्धिनिाद्याचारानान्तरीयका इति प्रतिपादितैव / तथाहि-सायं साधोः कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानस्य श्राद्धस्याऽपि कृतान्यतरप्रत्याख्यानस्य तद्भवति / प्रातरपि पाण्मासिकप्रभृतिनमस्कारसहितान्तं प्रत्याख्यानं करोतीति स्फु टैव तप आचारशुद्धिः। यथाविधि यथाशक्ति च प्रतिक्रामतो वीर्याचारशुद्धिरपि प्रतीतैवेति / अविधिना च कृते प्रायश्चित्तम् / तथाहि-काले आवश्यकाऽकरणे चतुर्लघुः / मण्डल्यप्रतिक्रान्तौ कुशीलैः सह प्रतिक्रान्तौ च चतुर्लघुः / निद्राप्रमादाददिना प्रतिक्रमणे न मिलितः, तत्रैकस्मिन् कायोत्सर्गेभिन्नमासः। द्वयोर्लधुमासः। त्रिषु गुरुमासः। तथा गुरुभिरपारिते कायोत्सर्गे स्वयं पारणे गुरुमासः। सर्वेष्वपि कायोत्सर्गेषु चतुर्लघुः / एवं वन्दनेष्वपि योज्यमिति व्यवहारसूत्रे। तथा साधवः प्रतिक्रमणानन्तरं तथैवान्तरमुहूर्तमात्रमासते, कदाचिदाचार्या अपूर्वा सामाचारीमपूर्वमर्थं वा प्ररूपयेयुरित्युक्तमोघनियुक्तिवृत्तौ। इति दैवसिकप्रतिक्रमणविधिः / ध० 2 अधि (7) प्रतिक्रमणसूत्रम्नमो अरिहंताणं० / 1 / क रेमि भंते ! सामाइयं० 12 / चत्तारि मंगलं-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, के वलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं / चत्तारि लोगुत्तमाअरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, के वलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवजामि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 270 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कम अरिहंते सरणं पवजामि, सिद्धे सरणं मवजामि, साहूसरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि।३। (करेमि भंते ! सामाइयं इत्यादि। जाव वोसिरामित्ति) अस्य व्याख्या। तल्लक्षणं चेदम्- "संहिता च पदं चैव' इत्यादि / अधिकृतसूत्रस्य व्याख्यानलक्षणा योजना सामायिकवद् दृष्टव्या। आहेदं स्वस्थान एव सामायिकाध्ययने उक्तं सूत्रं, पुनः किमभिधीयते ? पुनरुक्तदोषप्रसङ्गात्। उच्यते- प्रतिषिद्धाऽऽसेवितादिसमभावस्थितेनैव प्रतिक्रान्तव्यमिति ज्ञापनार्थम् / अथवा-यद्वद्विषघातार्थ मन्त्रपदे न पुनरुक्तदोषोऽस्ति, तद्वद्रागविषघ्नं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदम्। रागविषघ्नं चेदं यतश्च मङ्गलपूर्वकं प्रतिक्रान्तव्यम् / अतः सूत्रकार एव तदभिधित्सुराह(चत्तारि मंगलं) मङ्गलं प्राङ्गनिरूपितशब्दार्थम् / तत्र चत्वारः पदार्था मङ्गलमिति / क एते चत्वारः ? तान् प्रदर्शयन्नाह-(अरहंता मंगलमित्यादि) अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तस्तेऽहन्तो मङ्गलम् / सितं ध्मातं येषां ते सिद्धास्ते च सिद्धा मङ्गलम् / निर्वाणसाधकान्योगान् साधयन्तति साधवस्ते च मङ्गलम्। साधुग्रहणाच्चाचार्योपाध्याया गृहीता एव द्रष्टव्याः, यतो न हि तेन साधवः / धारयतीति धर्मः केवलमेषां विद्यत इति केवलिनः, केवलिभिः सर्वज्ञैः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः केवलिप्रज्ञप्तः, कोऽसौ धर्मः श्रुतधर्मः, चारित्रधर्मश्च मङ्गलम् / अनेन कपिलादिप्रज्ञप्तधर्मव्यवच्छेदमाह / अर्हदादीनां च मङ्गलता। तेभ्य एव हितमङ्गलात्सुखप्राप्तेः, अत एव च लोकोत्तमत्वात्तेषामिति, आह च- "चत्तारि लोगुत्तमा" अथवा-कुतः पुनरहंदादीतां मगलता? लोकोत्तमत्वात् / तथा चाऽऽह- "चत्तारि लोगुत्तमा” चत्वारः खल्वनन्तरोक्ता वक्ष्यमाणा वा लोकस्य भावलोकदे सत्तमाः प्रधाना लोकोत्तमाः / क एते चत्वारः ? तान्प्रदर्शयन्नाह- (अरहता लोगुत्तमा इत्यादि) अर्हन्तः प्राड्-निरूपितशब्दार्थाः / लोकस्य भावलोकस्य उत्तमाः प्रधानाः। तथा चोक्तम्"अरहता ताव तहिं, तु उत्तमा होति भावलोयस्स। कम्हा जं सव्वासिं, कम्मपगडीए सत्थाणं / / 1 / / अणुभावं तु पडुच्च, वेयणियाऊय णामगोखस्स। भावस्सोदइयस्स, नियमा ते उत्तमा हों ति / / 2 / / एवं चेव य भूओ, उत्तरपगठीविसेसणविसिट्ठ। भन्नइ हु उत्तमत्त, समासओ से निसामेह // 3 // सायमणुयाउ, दोन्नी,उ नाम इंगतीसिमा पसत्था य। मणुयगतिपणिदिजाइ-ओरालियतेयकम्मं च // 4|| ओरालियंगुवंगा, समचउरंसंतहेव संठाण। वइरोसभसंघयणं, वण्णा रससंधफासाय।।५।। अगुरुलहु उवधायं, परधाउसासविहगगतिपसत्था। तसवायरपज्जत्तग-पत्तेयथिराथिराई च // 6|| सुभमुज्जोयं सुभगं, सूसरं चाएज्ज तह य जसकित्ती। तत्तो णिम्मिणतित्थग-रणाम इगतीसमित्ताई // 7 // तत्तो उच्चागोयं, चोत्तीसहिं सह उद्यभावेहि। ते उत्तमा पहाणा, अणण्णतुल्ला भवंतीह ||8|| उवसमिओ पुण भावो, अरहताणं न विज्जए सो हु। खाइगभावस्स पुणो, आवरणाणं दुवेऽन्नं ति॥६॥ तह मोहअंतराइय- निस्सेसखयं पडुच एतेसिं। भावखए लोयस्स उ, हवंति ते उत्तमा नियमा।।१०।। हवइ पुण सन्निवाए, उदइयभावे हुजे भणिया। पुटवं अरहताणं, जे भणिया खाइया भावा / / 11 / / तेहिं सया जोगेणं, निप्पज्जइ सन्निवाइओ भावो। तस्स वि य भावलोग-स्स उत्तमा होति नियमेणं // 12 // " सिद्धाः प्राङ्निरूपितशब्दार्थाः एव, तेऽपि च क्षेत्रलोकस्य क्षायिकभावलोकस्य चोत्तमाः प्रधाना लोकोत्तमाः। तथा चोक्तम्"लोउत्तमत्ति सिद्धा, ते उत्तमा होति खेत्तलोयरस / तेलोक्कमत्थयत्था, जं भणिय होति ते नियमा।।१।। निस्सेसकम्मपगती-ण वा वि जो होति खाइओ भायो। तस्स वि हु उत्तमा ते, सव्वपयडिवज्जिया जम्हा // 2 // " साधवः प्रानिरूपितशब्दार्थाएव, तेच दर्शनज्ञानचारित्र-भावलोकन उत्तमाः प्रधाना लोकोत्तमाः। तथा चोक्तम् - "लोगुत्तमत्ति साह, पर ते भावलोयमेयं तु / दसणणाणचरित्ताणि तिन्नि जिणइंदभणिक ||1 // ' केवलिप्रज्ञप्तो धर्मः प्राड्निरूपितशब्दार्थः / स च क्षायोपशी. कौपशमिकक्षायिकभाव-लोकस्योत्तमः प्रधानः लोकोत्तमः . चोक्तम्- "धम्मो सुयचरणी य, दुहा वि लोगुत्तमो ति नायवं खयउवसमिओवसनियखइयंच पडुचलोग तु॥"यत एवं लोकोत्तमः अत एव सरण्याः। तथा चाह- "चत्तारि सरणं पवजामि'' अथवापुनः लोकोक्तमत्वम् ? आश्रयणीयत्वात्। आश्रयणीयत्वमुपदर्शयन्ना(चत्तारि सरणं पयज्जामि) चतुरः संसारभयपरित्राणाय शरण प्रस्ट आश्रयं गच्छामि। भेदेन तानुपदर्शयन्नाह- (अरहंत-मित्यादि) अई. शरणं प्रपद्ये सांसारिकदुःखत्राणायार्हतः आश्रयं गच्छामि, हे करोमीत्यर्थः / एवं सिद्धान् शरणं प्रपद्ये। साधून शरणं प्रपद्ये केवल्पिक धर्म शरणं प्रपद्ये। इत्थं कृतमङ्गलोपचारः। प्रकृतं प्रतिक्रमणसूत्रमाहइच्छामि पडिक्कमिउं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काझे वाइओ माणसिओ, उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिके. दुज्झाओ दुविचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्यो अस्समा पाउम्गो, नाणे दंसणे चरित्ते सुए सामाइए, तिण्हं गुत्तीर्ण चळवं कसायाणं पंचण्हं महव्वयाणं छण्हं जीवनिकायाणं सत्तम पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयण माऊणं नवण्हं बंभचेर गुत्तीणं दसहिद समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडियं जं विराहियं तम मिच्छा मे दुक्कडं 11 "इच्छामि पडिक्कमिउं" इत्यादि यावत् तस्स मिच्छा मे दुक्कड़ इच्छामि प्रतिक्रमितुं यो मया दैवसिक अतिचारः कृतः इत्येवं पड़ वक्तव्यानि / अधुना पदार्थ:-इच्छामि अभिलषामि, प्रतिका निवर्तितुं, कस्य ? यः, इत्यतिचारमाह-मयेत्यात्मनिर्देशो, दिनक निवृत्तो दिवसपरिणामो वा दैवसिकः, अतिचरणमतिचारः, अतिक्रम गमनमित्यर्थः। कृतो निर्वर्तितस्तस्येति योगः, अनेन क्रियाकालमा "मिछामे दुक्कडं "अनेन तु निष्ठाकालमिति भावना / स पुन्रतिक उपाधिभेदेनानेकधा भवत्यत आह-कायेन शरीरेण निवृत्तः 8. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घडिझमण 271 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण यिकः, कायकृत इत्यर्थः / वाचा निर्वृत्तो वाचिकः, वाक्कृत इत्यर्थः / मनसः निर्वृत्तो मानसः, स एव (मानसिओ त्ति) मानसिको, मनःकृत इत्यर्थः / ऊई सूत्रादुत्सूत्रः, सूत्रानुक्त इत्यर्थः। मार्गः क्षायोपशमिको मायः द्ध मार्गादन्मार्गः, क्षायोपशमिकभावत्यागेनौदयिकभावसक्रम इत्यर्थ. कल्पत इति कल्पः, न्याय्यः कल्पो विधिराचारश्चरणकरणव्यपारः न कल्पोऽकल्पः, अतद्रूप इत्यर्थः / करणीयः सामान्येन कर्तव्यः, न करीियोऽकरणीयः। हेतुहेतुमद्भावश्चात्र। यत एवोत्सूत्र अत एवेन्मान इत्यादिरुक्तस्तावत्कायिको वाचिकश्च / अधुना मानसमाहटुके ध्यातायातःआर्तरौद्रलक्षणः / एकाग्रचित्ततया, दुष्टो विचिन्तितः दुचिन्तितः, अशुभ एव चलचित्ततया।यत एव अशुभोऽत एवानाचारः, आरपीय आचारो न आचार अनाचारः, साधूनामनाचरणीयः। यत एशानावरणीय अत एवानष्टव्यः, मनागपि मनसापि न प्रार्थनीयः। यत एदेवभूतोऽनष्टेव्य अत एवासावश्रमणप्रायोग्यो न श्रमणप्रायोग्यः अश्रमणप्रायोग्यः, तपस्व्यनुचित इत्यर्थः / किं विषयोऽयमतिचारः? इत्याह च- (नाम दसणे चरित्ते) ज्ञानदर्शनचारित्रविषयः / अधुना भेदेन व्याचट - (राए त्ति) श्रुतविषयः, सूत्रग्रहणं मत्यादिज्ञानोपलक्षणं, तत्र दियरीलप्ररूपण अकालस्वाध्यायादिरतिचारः / (सामाइए त्ति) सामायिकदिषयः, सामायिकग्रहणात्सम्यक्त्वत्वसामायिकचारित्रसान्गायिकग्रहणम् / तत्र सम्यक्त्वसामायिकाऽतिचारः, शङ्कादिः / चारित्रसामायिकातिचारं तु भेदेनाह- "तिण्हं गुत्तीणं " इत्यादि / स्सूिजा गुप्तीना तत्र प्रविचाराप्रविचाररूपा गुप्तयः / चतुर्णा कषायाणां क्रोधमानम.यालोमानां / पञ्चाना महाव्रतानां प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानां वपणां जीवनिकायानां पृथवीकायिकादीनां / सप्ताना पिण्डेषणानामससृष्टादीनां। ताश्चेमाः- "संसट्टमसंसट्ठा'' इत्यादि। (सप्त पिण्डवाना व्याख्या 'एसणा' शब्दे तृतीयभागे७१ पृष्ट द्रष्टव्या) (आव०) एष खलु समासार्थः। व्यासार्थस्तु ग्रन्थान्तरादवसेयः / सप्तानां पानैषशाना, केचित्पठन्ति, ता अपि चैवंभूता एव, नवरम्-चतुर्थ्या नानात्वं, तत्र हायाभप्तौवीरकादिनिर्लेपं विज्ञेयमिति / अष्टानां प्रवचनमातृणां / लाश्चातौ प्रवचनमातरः, तिस्रो गुप्तयः, तथा पञ्च समितयः। तत्र प्रविचारामविचाररूपा गुप्तयः / समितयः प्रविचाररूपा एव / तथा चोक्तम्"तमिओ नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणमि भइयव्यो / कुसलं वइ मुटीरतो जं च तिगुत्तो वि संमिओ वि॥१॥" नवानां ब्रह्मचर्यगुप्तीनां वसत्किधादीनाम्, आसां स्वरूपमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः।दशविधे दशप्रकारे, श्रनणधर्मे साधुधर्म क्षान्त्यादिके, अस्यापि स्वरूपमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः / अस्मिन् त्रिगुप्त्यादिषु च ये श्रामणा योगाः, श्रमणानामेते श्रामणास्तेषां श्रामण ना, योगाना व्यापाराणां सम्यक्प्रतिसेवनश्रद्धानप्ररूपणालक्षणाना, यत्, खण्डितं देशता भग्नं, यद्विराधितं सुतरां भगं, न पुनरकान्ततो भावमापादित, तस्य खण्डन विराधनद्वाराऽऽयातस्य चारित्रातिचारस्यैव तद्रोचरस्य ज्ञानादिगोचरस्य च दैवसिकातिचारस्यैतावता क्रियाकालमाह- तस्यैव- "मिच्छा मे दुक्कड' ति। अनेन तु निष्ठाकालमा ह-मिथ्यति प्रतिक्रमामीति दुष्कृतमेतदकर्तव्यमिदमित्यर्थः। अत्रेयं सूत्रस्पर्शिका गाथा पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अपडिक्कमणं / अस्सद्धाणे य तहा, विवरीयपरूवणाए य॥ प्रतिषिद्धानां निवारितानामकालस्वाध्वायादीनामतिचाराणा, करणे निष्पादने आसेवन इत्यर्थः / किं ? प्रतिक्रमणमिति योगः। प्रतीपंक्रमण प्रतिक्रमणमिति व्युत्पत्तेः / कृत्यानामारोवनीयानां कालस्वाध्यायादीनां योगादीनामकरणेऽनिष्पादनेऽनासेवने प्रतिक्रमणम्,अश्रद्धाने च तथा केवलिप्रणीताना पदार्थाना प्रतिक्रमणमिति वर्तते, विपरीतप्ररूपणायां च अन्यथा पदार्थकथनाया च प्रतिक्रमणमित्यर्थः / अनया च गाथया यथायोगं सर्वसूत्राण्यनुगन्तव्यानि / तद्यथा-सामायिकसूत्रे प्रतिषिद्धौ रागद्वेषौ तयोः करणे, कृत्यस्तु तन्निग्रहः तस्याकरणे, सामायिक मोक्षकारणमित्यश्रद्धाने, 'असमभावलक्षणं सामायिकं' इति विपरीतप्ररूपणायां च, प्रतिक्रमणमिति / एवं मङ्गलादिसूत्रेष्वप्यायोज्यम्। चत्वारो मङ्गलमित्यत्र प्रतिषिद्धोऽमङ्गलाध्यवसायस्तत्करण इत्यादिना प्रकारेण / एवमोघातिचारस्य समासेन प्रतिक्रमणमुक्तम्। (8) साप्रतमस्यैव विभागेनोच्यते, तत्राऽपिगमनाऽऽगमना-तिचारमधिकृत्याह-"इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए" इत्यादि सव्याख्यं प्रतिक्रमणसूत्रम्- (द्वितीयभागे'इरियावहिया' शब्दे 630 पृष्ट द्रष्टव्यम्) इत्थं गमनाऽऽगमनातिचारप्रतिक्रमणमुक्तम् / आव० 4 अ०1०। (E) अत्रैव प्रायश्चित्तम्इरियाए अपडिक्कंताए भत्तपाणाइयं आलोएज्जा पुरिमहूँ / ससरक्खेहिं पाएहिं अप्पमजिएहिं इरिअंपडिक्कमेजा पुरिमळू / इरियं पडिक्कमे, मिच्छाकारो तिन्नि वाराओ वा / चलणगाणं हेट्ठिमं सीसभागं ण पमजेजा णिव्विइगं / कण्णेट्ठियाए वा, मुहणंतगेण वा, विणा इरियं पडिक्कमे, मिच्छाकडं, पुरिमळू वा। समुद्देसमंडलिं छिविऊण दंडापुच्छणगं च दाविऊण इरियं ण पडिक्कमेजा णिव्विइयं / एवं इरियं पडिक्कमेत्तु दिवसावसेसियं ण संवरेज्जा आयामं / महा०१ चू०। प्रतिक्रमणे आलोचनानन्तरं "ठाणे कमणे' इत्यादि कथयित्वा गमनागमनालोचनादेशो मार्यते / तत्र केचित्कथयन्ति न मार्यते। तदाश्रित्य यथा भवति तथा प्रसाद्यम् ? तथा केचित्कथयन्ति हस्तशत द्वहिर्गमने गमनागमनालोचनादेशो मार्यते, केचिच्चाप्रार्जितभूमिगमने इत्येतदाश्रित्यापि यथोचितं प्रसाद्यमिति? अत्रोत्तरम्-प्रतिक्रमणे आलोचनानन्तरं "ठाणे कमणे" इत्यादि कथयित्वा गमनागमनालोचनादेशो मार्गणीयो ज्ञायते / तथा पौषधमध्ये स्थण्डिलादिकार्ये बहिर्गत्वा आगमनानन्तरं गमना-गमनालोचनं ज्ञायत इति॥२२॥ ही०४ प्रका०। (10) अधुना त्वग्वर्तन स्थानातिचारप्रतिक्रमणं प्रतिपादयन्नाह इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसिजाए निगामसिज्जाए उव्वट्टणाए परियट्टणाए आउंटणपसारणाएछप्पइसंघट्टणाए कूइए ककराइए छीए जंभाइए आमोसे ससरक्खामोसे आउलमाउलाए सोयणवत्तियाए इत्थीविप्परियासियाए दिडिविप्परियासियाए मणविप्परियासियाए पाणभोयणविप्परियासियाए जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 272 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिकमा इच्छामि प्रतिक्रमितुं पूर्ववत्, कस्य? इत्याह-प्रकामशय्यया हेतुभूतया, यो मयाद्वैवशिकोऽतिचारः कृतस्तस्येति योगः / अनेन क्रियाकालमाह- (मिच्छा मे दुक्कड़ ति) अनेन तु निष्ठाकालमेवेति भावना / एवं सर्वत्र योजना कार्येति। (आव०) ('पगामसिज्जाए' इति व्याख्या पगामसज्जा' शब्दे गतानुपदमेव) तथा हेतुभूतया स्वाध्यायाधकरणतश्वेहातिचारः। प्रतिदिवस प्रकामशय्यैव निकामशय्योच्यते तया हेतुभूतया, अत्राप्यतिचारः पूर्ववत् / उद्वर्तनं तत्प्रथमतया वामपार्श्वन सुप्तस्य दक्षिणपार्श्वेन वर्तनमुद्वर्तनम, उद्वर्तनमेवोद्वर्तना तया। परिवर्तन पुनर्वामपार्श्वेनैव वर्तनं तदेव परिवर्तना तया, अत्राप्यप्रमृज्य कुर्वतोऽतिचारः / आकुञ्चनं गात्र सङ्कोचनलक्षणं तदेवाकुञ्चना तया, प्रसारणमङ्गनां विक्षेपः तदेव प्रसारणा तया, अत्र च कुक्कुटिदृष्टान्तप्रतिपादितविधिमकुर्वतोऽतिचारः। (११)तथा चोक्तम्-(कुक्कुटिदृष्टान्तः) "कुक्कुडिपायपझारे, जह आगासे पुणो वि आउंटे। एवं पसारिऊणं, आगासे पुणो वि आउँटे॥१॥ अतिकुटियत्ति ताहे, जहियं पायस्स पण्हिया ठाति। तहियं पमजिऊण, आगासेणं तु नेऊणं / / 2 / / पादं ठावेत्तु तहिं, आगासं एव पुणो वि आउँटे। एवं विहिमकरतो, अतियारोतत्थ से होति // 3 // " षट्पदिकाना यूकानां सट्टनमविधिना स्पर्शनं षट्पदिकासंघट्टनं तदेव षट्पदिकासंघटना तया, तथा- (कूइए त्ति) कूजिते सति योऽतिचारः, फूजितं कासितं तस्मिन्नविधिना मुखवस्त्रिकां कर वा मुखे नाऽऽधाय कृत इत्यर्थः / विषमा धर्मवतीत्यादि। शय्यादोषोचारण कर्करायितमुच्यते तस्मिन्सति योऽतिचारः, इह चार्तध्यानजोऽतिचारः / क्षुते अविधिना जृम्भिते, ('आमोसे' 'स सरक्खा०' व्याख्या 'आमोस' शब्दे द्वितीयभागे 262 पृष्ठे गता) एवं जाग्रतोतिचारसंभवमधिकृत्योक्तम् / अधुना सुप्तस्योच्यते-(आउल० सोयण० इन्थीवि० एतेषां व्याख्या स्व 2 शब्दे दृष्टव्या) स पुनर्मूलगुणोत्तरगुणविषयो भवत्यतो भेदेन तद्दर्शयन्नाह(इत्थीविप्परियासियाए त्ति) स्त्रिया विपर्यासः स्त्रीविपर्यासः विपर्यासोऽब्रह्मसेवनं तस्मिन् भवास्त्रीवैपर्यासिकी तया, स्त्रीदर्शनानुरागतः तदवलोकनं दृष्टिविपर्यासः तस्मिन् भवा दृष्टिवैपर्यासिकी तया, एवं मनसा अध्युपपातो मनोविपर्यासः तस्मिन् भवा मनोवैपासिकी तया, एवं पानभोजनवैपर्यासिक्या रात्रौ पानभोजनपरिभोग एव तद्विपर्यासः अनया हेतुभूतया, य इत्यतिचारमाह- मयेत्यात्मनिर्देसः, दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिमाणो वा दैवसिकः, अतिचरणमतिचारः, अतिक्रम इत्यर्थः, कृतो निर्वर्तितः। (तस्स मिच्छा मे दुकडति) पूर्ववत्। आह-दिवा शयनस्य निषिद्धत्वादसंभव एवास्यातिचारस्य नापवादविषयत्वादस्य ? तथाहिअपवादतः सुप्यत एव। दिवाध्वानखेदादाविदमेव वचनं ज्ञापकम्। आव० 4 अ०। (12) अत्र च त्रिषष्ट्यधिकपञ्चशतीमिताना जीवानामेव मिथ्यादुष्कृतं दीयते, तद्भेदाश्च-अष्टादश लक्षाः चतुर्विशतिसहस्त्राः एक शतं विशतिश्च 1824120 भवन्ति। तद्यथासप्तठरकभवाः पर्याप्ताऽपर्याप्तभेदेन 14, भूजलज्वलनवाय्वनन्तवनस्पतयः पर्याप्ताऽपर्याप्तसूक्ष्मवादरभेदैः 20 प्रत्येकवनस्पातर्द्वित्रिचतुरिन्द्रियाश्च पर्याप्ता अपर्याप्ताश्चेति 8, जलस्थलखचरा उरोभुजपरिसपश्चि संइयसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तभेदात् 20, एवं तिर्यग्भेदाः 48, कर्मभुवः / अकर्मभुवः 30 अन्तरद्वीपाः 56 एवम् 101 एषां गर्भजाना पयार:पर्याप्ततया 202, सर्मूछजत्वेन पुनः 303 मुनष्यभेदाः, भवनपतयः :व्यन्तराः१६ चरस्थिरभेदभिन्नज्योतिष्काः १०.कल्पभवाः 12. प्रेवतः गाः 6, अणुत्तरोपपातिनः 5, लोकान्तिकाः 6, किल्विधिकाः : भरतैरावतवैताढयदशकस्थाः - "अन्ने १पाणे२ सयणे 3, पत्शेत 5 पुष्फ 6 फल 7 विज्जा पा बहुफल : अवियत्तजुआ 10, - दसविहा हुति / / 1 / / ' ति / जृम्भकाः 10, परमाधार्मिकाः सर्वे पर्याप्तापर्याप्तभेदात् 168 देवभेदाः। सर्वे मिलिताः 563 जीव (चतुर्थभागे 'जीव' शब्दे 1536 पृष्ठेऽप्युक्ताः)"अभिहयेत्यादि": पदगुणिताः 5630, रागद्वेषगुणिताः 11260, योगत्रयगुतिः 33780, कृतकारितानुमतिभिर्गुणिताः 101340 / एते च कालमा गुणिताः 304020, तेऽर्हत्सिद्धसाधुदेवगुर्वात्मसाक्षिभिर्ग१८२४१२० जाताः। एतदर्थाभिधायिन्यो गाथाः / यथा"चउदसपय अडचत्ता, तिगहिअतिसया सयं च अडनउयं। चउगइदसगुणमिच्छा, पणसहसा छसयतीसा य॥१॥ नेरइया सत्तविहा, पज्जअपज्जत्तणेण चउदसहा। अडचत्ताईसंखा, तिरिनरदेवाण पुण एवं / / 2 / / भूदणिावाउणता, वीसं सेसतरुविगलअट्ठव। गन्भेअरपज्जेअर, जल 1 थलर नह३ उर 4 भुआ 5 टीसं // 3 पनरसतीसछपन्ना, कम्माऽकम्मा तहेतरद्दीवा। गब्भयपज्जअपज्जा, मुच्छअपज्जा तिसयतिन्नि / / 4 / / भवणा परमां जंभय, वणयर दस पनर दस य सोलसग।. चरथिरजोइस सगं, किव्विस तिअनव यलोगंता // 5 // कप्पा गेविजऽणुत्तर, वारस नव पण पज्जअपज्जत्ता। अडनउअसयं, अभिहय-वत्तिअमाईहिं दसगुणिआ॥६॥" एवंचअभिहयपयाइदसगुण, पणसहसा छसयतीसया भेआ। ते रागदोस दुगुणा,इक्कारसदोसया सट्ठी / / 7 / / मणवयकाए गुणिआ, तित्तीससहस्ससत्तसयऽसीआ। कयकारणाणुमइए, लक्खसहस्सा तिसयचाला |8|| कालतिगेणं गुणिआ, तिलक्खचउसहस्सवीसअहिआय: अरिहंतसिद्धसाहू, देवगुरुअप्पसकसीहि / / 6 / / अट्ठारस लक्खाइं, चउवीससहस्सएगवीसहिआ। इरिया मिच्छा दुक्कड़-पमाणमेअंसुए भणिअं॥१०॥" अस्यां च विश्रामाष्टकोल्लिङ्गनपदानि 'इच्छा-गम-पाण-ओ-- मेएगिदिअभिहया तस्स। अडसंपयवत्तीसं, पयाइ वन्नाण राङ्सय व०२ अधि०। (13) एवं त्वग्वर्तनस्थानातिचारप्रतिक्रमणमविधायट गोचरातिचारप्रतिक्रमण प्रतिपादनायाहपडिक्कामामि गोयरचरियाए भिक्खावरियाए उग्धाड-कवफ उग्घाडणाए साणावच्छादारासंघट्टणाए मंडियपाहुडियाए दलिया डियाए ठवणापाहुडियाए संकिएसहसागारे अणेसणाएपाणभोग्न बीयभोयणाए हरियभोयणाए पच्छाकम्मियाए पुरेकम्मि अदिट्ठहडाए दगसंसट्ठहडाए रयसंसट्ठहडाए पारिसाडगर जा Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमण 273 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण पारिद्वावणियाए ओहासणभिक्खाए जं उग्गमेणं उप्पायणेसणाए अपरिसुद्धं पडिग्गहियं परिभुत्तं वा जनपरिट्टवियं तस्स मिछा से दुक्कडं। प्रतिक्रमामि निवर्तयामि, कस्यां? गोचरचर्यायां योऽतिचार इति प्रमो, तस्येति योगः / गोश्चरणं गोचरः चरणं चागोचर इव चर्वा तम्या गोचरचर्यायां, कस्यां भिक्षार्थं चर्या भिक्षाचर्या तस्यां, तथाहिसागरलाभनिरपेक्षः खल्वदीनचित्तो मुनिरुत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्वरेशनिष्टेषु वस्तुषु रागद्वेषापगमेन भिक्षामटतीति। कथं पुनस्तस्यामतिद? इत्याह-(उग्घाडकवाडुग्घाडणाए) उद्घाटमदत्तार्गलमीषत्स्थगितं 3. के तत् कपाटं तस्योद्घाटनं सुतरां प्रेरणमुद्धाटकपाटोद्धाटनमिदमेटोवाटकपाटोद्धाटना तया हेतुभूतया, इह चाप्रमार्जिताऽऽदिभ्योऽविचारः / तथ श्ववत्सदारकसंघट्टनयेति प्रकटार्थम्, मण्डीप्राभृतिकया, दलिग्राभृतकया, स्थापनाप्राभृतिकया, भासांस्वरूपम्"मडीपाहुडिया सा-हुंमि आगएँ अग्गकूरमंडीय। अमि भायणम्मि, काउं तो देइ साहुस्स॥१॥ तुश्च प्रवत्तणदोसो, न कप्पए तारिसाण सुविहियाण। बलिपाहुडिया भण्णइ, चउद्दिसिं काउं अच्चणियं / / 2 / / अगिम्भिव छिविऊण, सित्थे तो देइ साहुणो भिक्खं / सा विन कप्पइ ठवणा, जा भिक्खयराण ठविया उ॥३॥" आधाऽऽकर्मादीनामुझमाऽऽदिदोषाणामन्यतमेड संकिते गृहीते सति योऽतिचारः / सहसाकारे वा सत्यकल्पनीये गृहीत इति अत्र च तदपरित्यजतोऽविधिना वा परित्यजतो योऽतिचारः, अनेन प्रकारेणानेषजया हेतुभूतया, तथा-(पाणभोयणाए त्ति) प्राणिनो रसजादयः, मोमे दध्यदनादौ, संघट्यन्ते विराध्यन्ते व्यापाद्यन्ते वा यस्यां प्रामृतिकायां सा प्राणिभोजना तया, एतेषां च संघट्टनाऽऽदिदातृग्राहकप्रभव विज्ञेयमत एवातिचारः / एवं (बीयभोयणाए) बीजानि भोजन यस्या सा बीजभोजना तया, एवं हरितभोजनया, (पच्छाकम्मियार, पुरेकम्मियाए त्ति) पश्चात्कर्म यस्यां पश्चाजलोज्झनकर्म भवति, पुरः कर्मयस्यामादाविति, (अदिहहडाएत्ति) अदृष्टाऽऽहृतया अदृष्टोत्क्षेपनिक्षेपमा नीतयेत्यर्थः / तत्र च सत्त्वसंघट्टनाऽऽदिनाडितिचारसंभवः / (दासगुहडाए त्ति) उदकसंबद्धाऽऽनीतया, हस्तमात्रगतोदकसंसृष्टया वा भावना एवं रजःसंसृष्टाऽऽहृतया। नवरम्-रजःपृथिवीरजोऽभिगृह्यते, (पारिसाडणीयाए त्ति) परिशाट उज्झनलक्षणः प्रतीत एव तस्मिन् भवापरिशाटनिका तया, (पारिट्ठावणियाए त्ति- (आय०) अर्थोऽस्य 'पारिद्वावणिया' शब्द) (ओहासणभिक्खाए त्ति) विशिष्टद्रव्ययाचनं, समयपरिभाषया "ओहासणं ति भण्णइ" तत्प्रधाना भिक्षा तया, कियदत्र भणियामो भेदानामवंप्रकाराणां बहुत्वात्, ते च सर्वेऽपि यस्मादुद्रमोत्पादनैषणास्ववतरन्त्यत आह- (जं उग्गमेणं इत्यादि) यत् किञ्चिदशनादि, उझमेनाऽऽधाकर्माऽऽदिलक्षणेन, उत्पादनया धात्र्यादिलक्षणया, एषणया शङ्काऽ ऽदिलक्षणया, अपरिशुद्धमयुक्तियुक्तं, प्रतिगृहीत वा, परिभुक्तं वा, यन्न परिष्ठापितं, कथञ्चित्प्रतिगृहीतमपि यन्नोज्झितं. परिभुक्तमपि च भावतोऽपुनः करणाऽऽदिना प्रकारेण नोज्झितं, एवमनेन प्रकारेण यो जातोऽतिचारः, "तस्स मिच्छामि दुक्कड" इति पूर्ववत्। आव०४ अ०। गोयरपविठ्ठो कहं वा विकहं वा उभयकहं वा पत्थावेज वा, उदीरेज वा, कहेज वा, निसामेज वा कहं। गोयमा ! यओ य भत्तं वा, पाणं वा, भेसचं वा, जेण वित्तियं, जहा य वित्तियं, जहा य पडिग्गहियं, तंतहासव्वं अणाऽऽलोएजा पुरिमळ / महा० १चू०। (14) एवं गोचरातिचारप्रतिक्रमणमुक्तं, अधुना स्वाध्यायाद्यतिचारप्रतिक्रमणं प्रतिपादयन्नाह पडिक्कमामि चाउकालं सज्झायस्स अकरणयाए, उभओ कालं भंडोवगरणस्स अपडिलेहणाए दुप्पडिलेहणाए अप्पमज्जणाए दुप्पमज्जणाए अइक्कमे वइक्कमे अइयारे अणायारे जो मे देवसिओ अइयारो कओ। तस्स मिच्छामि दुकडं / प्रतिक्रमामि पूर्ववत्। कस्य चतुष्काल, दिवसरजनीप्रथमचर-मयामेष्वित्यर्थः / स्वाध्यायस्य सूत्रपौरुषीलक्षणस्याकरणया, अनासेवनया हेतुभूतयेत्यर्थः / यो मया दैवसिकोऽतिचारः कृतः, तस्येति योगः, तथा उभयकालं प्रथमपश्चिमपौरुषीलक्षणं,भाण्डोपकरणस्य पात्रवस्त्रादेः, अप्रत्युप्रेक्षणया दुःप्रत्युप्रेक्षणया। तत्राऽप्रत्युप्रेक्षणा मूलत एव चक्षुषाऽनिरीक्षणा, दुःप्रत्युप्रेक्षणा दुर्निरीक्षणा तया, अप्रमार्जनयादुःप्रमार्जनयातत्राप्रमार्जनामूलत एव रजोहरणाऽऽदिनाऽस्पर्शना, दुःप्रमार्जनातुविधिना प्रमार्जनेति, तश्चा-अतिक्रमे, व्यतिक्रमे, अतिचारे, अनाचारे, यो मया दैवसिकोऽतिचारः कृतः, तस्य मिथ्या दुष्कृतमित्येतत्प्रा-ग्वत्। आव०४ अ०। ध०। (अतिक्रमाऽऽदीनां स्वरूपं 'अइक्कम' शब्दे गतम्) (15) अयं चातिचारः संक्षेपत एकविधः विस्तरतस्तु द्विविधस्त्रिविधो यावदसंख्येयविधः / संक्षेपविस्तरतो पुनर्द्विविधं प्रति संक्षेपः, एकविधं प्रति विस्तरः इत्येवमन्यत्रापि योज्यम् / विस्तरतस्त्वनन्तविधसूत्रे एकविधाऽऽदिभेदप्रतिक्रमणप्रतिपादनायाऽऽहपडिकमामि एगविहे-असंजमे / पडिकमामि दोहिं बंधणेहिंरागबंधणेणं,दोसबंधणेणं पडिकमामि तिहिं दंडे हिंमणदंडेणं, वयदंडेणं, कायदंडेणं / पडिक्कमामि तिहिं गुत्तीहिं-मणगुत्तीए, वयगुत्तीए, कायगुत्तीए। पडिक्कमामि तिहिं सल्लेहि-मायासल्लेणं, णियाणसल्लेणं, मिच्छादंसण्णसल्लेणं / पडिक्कमामि तिहिं गारवेहिं-इड्डीगारवेणं, रसगारवेणं, सायागारवेणं / पडिक्कमामि तिहिं विराहणाहि-नाणविराहणाए, दंसणविराहणाए, चरित्तविराहणाए। (पडिक्क० एगवि०) प्रतिक्रमामि पूर्ववत्। एकविधे एकप्रकारे असंयमेड विरतिलक्षणे सति प्रतिषिद्धकरणाऽऽदिना या मया देवसिकोऽतिचारः कृत इति गम्यते / तत्त्व मिथ्यादुष्कृतमिति संबन्धः। वक्ष्यति च- (सज्झाए न सझाइयं तस्स मिच्छामि दुक्कड) एवमन्यत्रापि योजना कार्या / आव० 4 अ० / (एकविधाऽसंयमस्वरूपम् - 'असंजम' शब्दे प्रथमभागे 823 पृष्ठे गतम्। असंयमस्य वहवो भेदा अपि तत्रैव प्रतिपादिताः) (रागद्वेषभेदेन बन्धनद्विविधत्वम्- 'बधण' शब्देवक्ष्यते / तत्र रागबन्धनव्युत्पत्तिः-'रागवंधण' शब्दे द्रष्टव्या / Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण पडिक्कमम द्वेषबन्धनव्युत्पत्तिः- 'दोसवन्धण' शब्दे चतुर्थभागे 2641 पृष्ठे गता) (दण्डस्वरूपम् - 'दण्ड' शब्दे चतुर्थभागे 2420 पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम् / तत्र मनोदण्डः- 'मणदंड' शब्दे वक्ष्यते। वचोदण्डः'वइदंड' शब्दे, तत्रोदाहरणं चापि तत्रैव। कायदण्ड:- 'कायदंड' शब्दे तृतीयभागे 462 पृष्ठे गतः) (गुप्तिशब्दार्थः- 'गुत्ति' शब्दे तृतीयभागे 633 पृष्ठ गतः। तत्र मनोगुप्तेस्त्रिविधत्वम्- 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1626 पृष्ठे गतम् / वाग्गुप्तिम्- 'वइगुत्ति' शब्दे सोदाहरणां व्याख्यास्यामि / कायगुप्तिः- 'कायगुत्ति' शब्दे तृतीयभागे 446 पृष्ठे प्रतिपादितैव) (शल्यभेदाः तद्व्युत्पत्तिश्च-'सल्ल' शब्दे। तत्र मायाशल्यम्- 'मायासल्ल' शब्दे। निदानशल्यम्- 'णियाणसल्ल' शब्दे चतुर्थभागे 2108 पृष्ठे गतम्। मिथ्यादर्शनशल्यम्-'मिच्छादसणसल्ल' शब्दे वक्ष्यते) (गौरवस्वरूपम्'गारव' शब्दे तृतीयभागे 870 पृष्ठे गतम् / तत्र ऋद्धिगौरवव्युत्पत्तिः 'इड्डिगारव' शब्दे द्वितीयभागे 583 पृष्ठे गता / रसगौरवस्वरूपम्'रसगारव' शब्दे / सातागौरवस्वरूपम्- 'सायागारव' शब्दे वक्ष्यते) (विराधनास्वरूपम्- "विराहणा' शब्दे वक्ष्यते / तत्र ज्ञानविराधना'णाणबिराहणा' शब्दे चतुर्थभागे 1963 पृष्ठे गता। दर्शनविराधना'दंसणविराहणा' शब्दे चतुर्थभागे 2435 पृष्ठे विशेषतोऽस्ति। चारित्रविराधना- 'विराहणा' शब्द पडिकमामि चउहिं कसाएहिं-कोहकसाएणं, माणकसाएणं, मायाकसाएणं, लोभकसाएणं / पडिक्कमामि चउहिं सन्नाहिंआहारसन्नाए, भयसन्नाए, मेहुणसन्नाए, परिग्गहसनाए / पडिमामि चउहिं विगहाहिं-इत्थीक हाए, भत्तक हाए, देसकहाए, रायकहाए / पडिकमामि चउहिं झाणेहि-अट्टेणं झाणेणं, रूद्देणं झाणेणं, धम्मेणं झाणेणं, सुक्केणं झाणेणं / / (कषायस्वरूपं तद्भेदाश्च- 'कसाय' शब्दे तृतीयभागे 364 पृष्ठादारभ्यगताः। तत्र क्रोधकषायः- 'कोहकसाय' शब्दे तृतीयभागे 685 पृष्ठे प्रतिपादितः। मानकषायः- 'माणकसाय' शब्दे वक्ष्यते।मायाकषायः'मायाकसाय' शब्दे द्रष्टव्यः / लोभकषायः- "लोभकसाय' शब्दे विस्तरतः प्रतिपादयिष्यामि) (संज्ञास्वरूपम्- 'सपणा' शब्देः / 'तत्राऽऽहारसंज्ञा-''आहारसण्णा' शब्दे द्वितीयभागे 527 पृष्ठे गता। भयसंज्ञा- 'भयसण्णा' शब्दे द्रष्टव्या। मैथुनसंज्ञा- 'मेहुणसण्णा' शब्दे। परिग्रहसंज्ञा- 'परिगहसण्णा' शब्दे) (विकथास्वरूपम्- 'विगहा' शब्दे / तत्र स्त्रीविकथा- 'इत्यिकहा' शब्दे द्वितीयभागे 585 पृष्ठे द्रष्टव्या, तद्भेदाश्चापि तत्रैव / भक्तविकथा विस्तरतः- 'भत्तकहा' शब्दे / देशचिकथा- 'देसकहा शब्दे 2628 पृष्ठेगता। राजविकथा- 'रायकहा' शब्दे)(ध्यानशब्दार्थः तद्भेदाः स्वरूपंच-'झाण' शब्दे चतुर्थभागे 1661 पृष्ठे गताः। तत्रार्तध्यानस्य- 'अट्टज्झाण' शब्दे प्रथमभागे 235 पृष्ठे गतम्। रौद्रध्यानस्य - 'रोद्दज्झाण' शब्दे। धर्मध्यानस्य च- 'धम्मज्झाण' शब्दे चतुर्थभागे 2716 पृष्ठे गतम्। शुक्लध्यानस्य- 'सुक्कज्झाण' शब्दे वक्ष्यते) पडिकमामि पंचहिं किरियाहिं०(आव०) पडिकमामि पंचहिं कामगुणेहिंसद्देणं, वेणं, रसेणं, गंधेणं, फासेणं। पडिकमामि | पंचहिं महव्वएहिंपाणाइवायाओ वेरमणं, मुसावायाओ वेरमण, अदिनादाणाओ वेरमणं, मेहुणाओ वेरमणं, परिगहा वेरमणं / पडिक्कमामि पंचहिं समिईहिंइरिआसमिईए, भासासमिईए, एसणासमिईए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिईए उधारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्ठावणियासमिईए। पडिज. मामि छहिं जीवनिकाएहिंपुढवीकारणं, आऊ कारणं, तेऊकाएणं वाउकाएणं वणस्सइकाएणं, तसकाएणं / पडिकमामिछर लेसाहिकिण्हलेसाए, णीललेसाए, काऊलेसाए, तेऊलेसाए पम्हलेसाए, सुक्कलेसाए। (क्रियाशब्दार्थः स्वरूपं तद्भेदाश्च-'किरिया' शब्दे तृतीयभागे 5354 तत्प्रतिक्रमणं चाऽपि 550 पृष्ठेऽस्ति। तत्र कायिक्याः - कायिकी शर तृतीयभागे 404 पृष्ठे गता / अधिकरणिक्याः -'अहिगरणिया' इर प्रथमभागे 885 पृष्ठे गतम् / प्रादेषिक्याः - 'पाउसिया' शुद्ध पारितापनिक्याः 'पारितावणिया' शब्दे वक्ष्यते / प्राणातिपातिक्यः 'पाणाइवायकिरिया' शब्दे।) (कामगुणशब्दार्थः- 'कामगुण' इस तृतीयभागे 434 पृष्ठे गतः / तत्र शब्दस्य- 'सह' शब्दे / रूपस्य- क शब्दे / रसस्य 'रस' शब्दे / गन्धस्वरूपम्- 'गन्ध' शब्दे तृतीय 764 पृष्ठे गतम्। स्पर्शविस्तरः- 'फास' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्या (पञ्चमहाव्रतशब्दार्थः- 'पंचमहव्वय' शब्दे। तत्र प्राणातिपातविरमा'पाणाइवायवेरमण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते / मृषावादविरम-श'मुसावायवेरमण' शब्दे। अदत्तादानविरमणम् - / अदत्ता-दाणवेना शब्दे प्रथमभागे 540 पृष्ठे गतम्। मैथुनविरमणम्- 'मेहुणवेरमण पर परिग्रहविरमणम् - 'परिग्गहवेरमण' शब्देऽस्मिन्नेय भाग 3 (समितिशब्दार्थ:-"समिइ' शब्दे। तत्र्यासमितिस्वरूपम्- 'हास्यमिइ' शब्दे द्वितीयभागे ६३१पृष्ठे गतम्। भाषासमितिव्युत्पत्तिस्त्वान र्थस्तदुदाहरणं च-'भासासमिइ शब्दे वक्ष्यते / एषणासमितर्विस्त 'एसणा-समिइ' शब्दे तृतीयभागे 72 पृष्ठे गतः। आदानमाडत्रकनिक्षेपणासमितिव्याख्या- 'आदाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिर'६ द्वि० भा० 216 पृष्ठेऽवलोकनीया / उच्चारप्रस्त्रवणखेलशिक्षापाश पारिष्ठापनिकासमितिव्याख्या-'उचारपासवणखेलसिंघाणजजज ट्ठावणियासमिइ' शब्दे द्वितीयभागे 733 पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादिः / (षड्जीवनिकायव्याख्या- 'जीवणिगाय' शब्दे चतुर्थभारे 15:3: गता। तत्रपृथिवीकायिकस्य- 'पुढवीकाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागेका अप्कायिकस्वरूपम् - 'आउक्काय' शब्दे द्वितीयभागे 20 पृष्ठेऽस्ति' तेजस्कायिकविस्तरः-'तेउक्काइय' शब्दे चतुर्थभागे 2343 पुष्ठे वायुकायिकभेदाः-- 'वाउकाइय' शब्दे द्रष्टव्याः / वनस्पतिकाधि 'वणप्फई' शब्दे / 'वणप्फइकाइय' शब्दे च वक्ष्यते / प्रसार शब्दार्थः- 'तसकाय' शब्दे चतुर्थभागे 2214 पृष्ठे गतः / ) (के विस्तरः-'लेस्सा' शब्दे / तत्र कृष्णलेश्याऽर्थः- 'किण्हलेस्सा नीललेश्याव्याख्यानम्-णीललेस्सा' शब्दे चतुर्थभागे 21 // गतम् / कापोतलेश्या च- 'काऊलेस्सा' शब्दे तृतीयभागे 428 पृष्पर तेजोलेश्याऽर्थविस्तरः- 'तेऊलेस्सा' शब्द। पालेश्या च- 'एगहूशब्दे। शुक्ललेश्या च- 'सुक्कुलेस्सा' शब्दे)। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिक्कमण 275 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण पडिक्कमामि सत्तहिं भयट्ठाणेहिं / अट्ठहिं मयट्ठाणेहिं / नवहिं दंभचेरगुत्तीहिं / दसविहे समणधम्मे / इगारसहिं उवासगपडिमाहिं / वारसहिं मिक्खुपडिमाहिं / तेरसहिं किरिआठाणे हिं। चनहसहिं भूआगमेहिं। पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं / सोलसहिं, पाहासोलसएहिं। सत्तरसविहे असंजमे / अट्ठारसविहे अबंभे। शुणवीसाए णायज्झयणेहिं। वीसाए असमाहिट्ठाणेहिं। एगवीसाए साबलेहिं / वावीसाए परीसएहिं / तेवीसाए सूअगडज्झयणेहिं। चवीसाए देवेहिं / पणवीसाए भावणाहिं। छथ्वीसाएदसाकप्पववहाराणं उद्देसणकालेहिं। सत्तावीसाए अणगारमुणेहिं अट्ठावीझाए आयारप्पकप्पेहिं। एगुणतीसाए पावसुअप्पसंगेहिं / तीसाए मोहणिहाणेहिं / एगतीसाए सिद्धाइगुणेहिं / वत्तीसाए जोगसंगहिं। तेत्तीसाए आसायणाए / अरिहंताणं आसायणाए० (आव०) सज्झाइए ण सज्झाइयं तस्स मिच्छामि दुक्कडं / (आव० 4 अ०) (सप्तभयस्थानभेदाः- 'भयट्ठाण' शब्दे वक्ष्यन्ते) (अष्टौ मद'स्थानभेदाः- 'मयट्टाण' शब्देद्रष्टव्याः) (नव ब्रह्मचर्यगुप्तयः- 'बंभचेरगुत्ति' शब्दे द्रष्टयाः) (दशविधश्च श्रमणधर्मः- 'समणधम्म' शब्दे द्रष्टव्यः) (एकादशीपाशकप्रतिमानां भेदाः, स्वरूपं च- 'उवासगपडिमा' शब्दे द्वितीयमागे 1065 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) (द्वादशभिक्षुप्रतिमाना विशेषः'मिक्युपडिमा' शब्दे वक्ष्यते) (त्रयोदश क्रियास्थानानि-'किरियाट्ठाण' शब्दे तृतीयभागे 553 पृष्ठे गतानि) (चतुर्दश भूतग्रामाः- 'भूयग्गाम' शब्दे वक्ष्यन्ते) (पञ्चदशपरमाऽधार्मिकनिरूपणम्- 'परमाहम्मिय' शब्दे द्रष्टव्यम्) (षोडशभिः- गाथोषोडशैः सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धाध्ययनैः। तेषां स्वरूपम- 'गाहासोलसग' शब्दे तृतीयभागे 874 पृष्ठे गतम्) (सप्तदशाइसंयमभेदाः- 'असंजम' शब्दे प्रथमभागे 823 पृष्ठे गताः) (अष्टादशविधमब्रह्म- 'अबंभ' शब्दे प्रथमभागे 675 पृष्ठे गतम्) (एकोनविशतिविध ज्ञाताध्ययनविवरणम्- 'णायज्झयण' शब्दे चतुर्थभागे 2003 पृष्ठे गतम् ) (विंशतिरसमाधिस्थानानि 'असमाहिट्ठाण' शब्दे प्रथमभागे 842 पृष्ठे द्रष्टव्यानि) (एकविंशतिः शबलपरीषहनामानि'सबलपरीसह' शब्दे द्रष्टव्यानि) (द्वाविंशतिपरीषहाः- 'परिषह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यन्ते) (त्रयोविंशतिः सूत्रकृताङ्गाध्ययननामानि'सूदगड शब्दे प्रष्टव्यानि) (चतुर्विशतिर्देवभेदाः- 'देव' शब्दे चतुर्थभागे २६१३पृष्ठे गताः) (पञ्चविशतिर्भावनाः- 'भावणा' शब्दे द्रष्टव्याः) (पइदिशतिर्दशाकल्पव्यवहारोद्देशनकालाः- 'उद्देसणकाल' शब्दे 1 द्वितीयभाग 814 पृष्ठे गताः) (सप्तविंशतिरनगारगुणाः- 'अणगारगुण' शब्दे प्रथमभागे 278 पृष्ठे गताः) (अष्टाविंशतिविधमाचारप्रकल्पस्वरूपम्- 'अयारपकप्प' शब्दे द्वितीयभागे 346 पृष्ठे गतम्) (एकोनत्रिंशद्विधं पापश्रुतप्रसङ्गम् - 'पावसुयप्पसंग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) (त्रिंशन्मोहनीयस्थानभेदाः- 'मोहणिज्जट्ठाण' शब्दे द्रष्टव्याः) (एकत्रिंशसिद्धानामादिगुणाः- 'सिद्धाइगुण' शब्दे वक्ष्यन्ते) (द्वात्रिंशद्योगसंग्रहाः- 'जोगसंगह' शब्दे चतुर्थभागे 1650 पृष्ठे गताः) (त्रयस्त्रिंशदाशातनाभेदाः- 'आसायणा' शब्दे द्वितीयभागे 481-482 पृष्ठे, | अर्हरादीनामाशातनास्वरूप, तद्विवरणं च-तस्मिन्नेव शब्दे 483 पृष्ठे, तथा-असज्झाइए सज्झाइयं पाठोऽपि तस्मिन्नेव शब्देऽस्ति। विवरणं च- 'असज्झाइय' शब्दे प्रथमभागे 827 पृष्ठऽस्ति) तथा (सज्झाइएण सज्झाइयं ति) तथा-स्वाध्यायिके अस्वाध्यायिकविपर्ययलक्षणे न स्वाध्यायितं, इत्थमाशातनाया योऽतिचारः कृतः, तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति क्रिया पूर्ववत्। "एअं सुत्तणिबद्धं, अत्थेण नं पि होइ विण्णे। तं पुण अव्वामोह-त्थमोहओ संपवक्खामि।।१२।। तित्तीसाए उवरि, चोत्तीसं बुद्धवयणअतिसेसा। पणतीसवयणअइसयं-छत्तीसं उत्तरज्झयणा // 13 // एवं जह समवाए, जा सयभिसरिक्ख होइ सयतारं। (तथाचोक्तम्- "सतभिसया णक्खत्ते सतेगतारेतहेव पण्णत्ते।) इअसंखअसंखेहि, तह य अणंतेहिं ठाणेहिं॥१४॥ संजममसंजमस्स य, पडिसिद्धाइकरणाइआरस्स। होइ पडिक्कमणं तं, तेत्तीसेहिं तु ताइँ पुणो।।१५।। अवराहपदेसुंतु, अंतगया होंति णियम सव्वे वि। सव्वो वि इआरगणो, दुगसंजोगादिजो एसो॥१६|| एगविहस्साऽसंजम-स्स हवइ इह दीहपज्जवसमूहो। एवमिआरविसोहिं, काउं कुणती णमोकारं / / 17 / / " आव०४ अ०। अथवा प्राक्तनाया अशुभाऽऽसेवनायाः प्रतिक्रान्त अपुगःकर-णाय प्रतिक्रामन् नमस्कारपूर्वकं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रामयन्नाह। अत्र सूत्रम्नमो चउव्वीसाए तित्थयराणं उसभाइ-महावीर-पज्जवसाणाणं, इणमेव निग्गंथं पावयणंसचं, अणुत्तरं, केवलियं, पडिपुण्णं, नेयाउयं, संसुद्ध, सल्लगत्तणं, सिद्धिमग्गं, मुत्तिमगं, णिज्जाणमग्गं, णिव्वाणमग्गं, अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं। (नमो चउव्वीसाए तित्थयराणं उसभाइमहावीरपज्जवसाणाणं ति) नमश्चतुर्विशतितीर्थङ्करेभ्य ऋषभादिमहावीरपर्यवसानेभ्यः, 'प्राकृते षष्ठी चतुर्थ्यर्थ एव भवति।' तथा चोक्तम्- "बहुवयणेण दुवयणं, छट्ठिविभत्तीएँ भण्णइ चउत्थी। जह हत्था तह पाया, नमोत्थु देवाहिदेवाणं // 1 // " इत्थं नमस्कृत्य प्रस्तुतस्य गुणव्यावर्णनायाऽऽह- ''इणमेव णिग्गंथं पावयणं सचं अणुत्तरमित्यादि" इदमेवेति सामायिकाऽऽदिप्रत्याख्यानपर्यन्तं द्वादशाङ्ग वा गणिपिटकं, निर्ग्रन्था बाह्याभ्यन्तरग्रन्थनिर्गताः साधवः निर्गन्थानामिद नैन्थ्यं, प्रावचनमिति प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवादयो यस्मिस्तत्प्रावचनम् / इदमेव नैर्ग्रन्थ्यं प्रावचनं किम्? अत आह-सता हितं सत्यं, सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा सद्भूतं वा सत्यमिति। नयदर्शनमपि स्वविषये सत्यं भवत्येव ? अत आह-(अणुत्तरं ति) नास्त्यस्योत्तरं सिद्धान्तं विद्यत इत्यनुत्तरं, यथावस्थित समस्तवस्तुप्रतिपादकत्वादुत्तममित्यर्थः / यदि नामेदमित्थंभूतमन्यदप्येवंभूतं भविष्यतीति? अत आह-(केवलियं ति) केवलमद्वितीय, नापरभित्थंभूतमित्यर्थः / यदि नामेदमित्थंभूतं तथाप्यन्यस्याऽसंभवात्तथाप्यपवर्गप्रापकैर्गुणैः प्रतिपूर्ण न भविष्यतीति ? अत आह- (पडिपुण्णं ति) प्रति Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमम पूर्णमपवर्गप्रापकैर्गुणैर्भूतमित्यर्थः / भृतमपि * कदाचित आत्मम्भरतया न तन्नयनशीलं भविष्यतीति? अत आह- (नेआट्टयं ति) नयनशील नैयायिक, मोक्षगमकमित्यर्थः। नैयायिकमप्यसंशुद्ध संकीर्णं नाऽऽक्षेपेण नैयायिकं भवष्यितीति? अत आह-(संसुद्धं ति) सामस्त्येन शुद्ध संशुद्ध, एकान्ताच्छुद्धमित्यर्थः / एवंभूतमपि कथंचित्तथास्वाभाव्यान्नालं भवति, बन्धनविकृन्तनाय? भविष्यतीत्यत आह- (सल्लगत्तणं ति) / कृन्ततीति कर्त्तनं शल्यानिमायाशल्याऽऽदीनि तेषां कर्त्तनं शल्यकर्त्तनं, / भवनिबन्धनमायाशल्याधुच्छेदकमित्यर्थः / परमतनिषेधार्थ त्वाऽऽह(सिद्धिमग्गं मुत्तिमगं) सेधनं सिद्धिः हितार्थप्राप्तिः, सिद्धार्ग सिद्धिमार्ग / मोचनं मुक्तिः, अहितार्थकर्मविच्युतिस्तस्या मार्गो मुक्तिमार्ग इति / मुक्तिमार्गकेवलज्ञानादिहितार्थप्राप्तिद्वारेणाऽहितकर्मविच्युतिद्वारेण च मोक्षसाधकमिति भावना। अनेन च केवलज्ञानाऽऽदिविकलाः सकर्मकाश्च मुक्ता इति दुर्णयनिरासमाह-विप्रतिपत्तिनिरासार्थमेवाह(णिज्जाणमग्गं, णिव्वाणमग्ग) यातितदिति यानं,"कृत्यल्युटो बहुलम्" // 3 / 3 / 113 / / इति वचनात्, कर्मणि ल्युट् / निरुपम यानं निर्याणम्। ईषत्प्रारभाराऽऽख्यं मोक्षपदमित्यर्थः / तस्य मार्गो निर्याणमार्ग इति। निर्याणमार्ग विशिष्टनिर्याणप्राप्तिकारणमित्यर्थः। अनेनानियतसिद्धिक्षेत्रप्रतिपादनपरदुर्णयनिरासमाह-(णिव्वाणमग्गं ति) निर्वृतिनिर्वाण, सकलकर्मक्षयजमात्यन्तिकसुखमित्यर्थः / निर्वाणस्य मार्गो निर्वाणमार्ग इति, निर्वाणमार्ग परमनिर्वृतिकारणमिति हृदयम्। अनेन च निस्सुखदुःखा मुक्तात्मानः, इति प्रतिपादनपरदुर्णयनिरासमाहनिगमयन्नाह-इदं च (अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं) अवितथं सत्यम्, अविसंधि अव्यवच्छिन्नं, सर्वदाऽपरविदेहाऽऽदिषु भावात् / सर्वदुःखप्रक्षीणमार्ग सर्वदुःखप्रक्षीणो मोक्षः, तत्कारणमित्यर्थः / सांप्रतं परार्थकरणद्वारेणास्य चिन्तामणित्यमुपदर्शयन्नाहइत्थं ठिआ जीवा, सिझंति, वुझंति, मुचंति, परिणिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करंति।तं धम्मं सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि, फासेमि, पालेमि, अणुपालेमि / तं धम्म सद्दहतो, पत्तियंतो, रोयंतो, फासंतो, पालंतो, अणुपालंतो / तस्स धम्मस्स केवलिपन्नतस्स, अब्मुट्ठिओमि आराहणाए। विरओमि विराहणाए। (इत्थं ठिआ जीवा सिज्झति त्ति) अत्र नैन्थ्ये प्रावचने स्थिता जीवाः, सिध्यन्तीति, अणिमाऽऽदिसंयमफलं प्राप्नुवन्ति / (बुज्झंति त्ति) बुध्यन्ते, केवलिनो भवन्ति। (मुचंति त्ति) मुच्यन्ते, भवोपग्राहिकर्मणा। (परिणिव्वायंति त्ति) परि समन्तान्निर्वान्ति। किमुक्तं भवति- (सव्वदुक्खाणमतं करेंति त्ति) सर्वदुःखानां शारीरमानसभेदानामन्तं विनाश कुर्वन्ति निवर्तयन्ति। इत्थमभिधायाऽधुनावचिन्तामणिकल्पं कर्ममलप्रक्षालनसमर्थसलिलौघं तं श्रद्धानमाविष्कुर्खन्नाह-(तं धम्म सहामि त्ति) य एष नैन्थ्यः प्रावचनलक्षणो धर्म उक्तः, ते धर्म श्रद्दधामहे सामान्येनैवमेवायमिति / (पत्तियामि ति) प्रतिपद्यामहे प्रीतिकरणद्वारेण। (रोएमिति) रोचयामि अभिलाषातिरेकेणाऽऽसेवनाभिमुखतया * भृतकोऽपीत्यपि पाठान्तरम् 4 एकान्ताऽकब्रङ्कमित्यर्थ इत्यपि पाठः। प्रीत्या अत्र प्रीतिः रुचिश्न भिन्न एव। यतः-क्वचिद्रव्यादौ प्रीतिसद्भाव न सर्वदा रूचिः / (फासेमि त्ति) स्पृशामि, आसेवनाद्वारेणे हि (अणुपालेमि त्ति ) अनुपालयामि पौनः पुन्यकरणेन। (तं धम्म सहर इत्यादि) तं धर्म श्रद्दधानः, प्रतिपद्यमानो, रोचयन, स्मृशान अनुपालयन्, (तस्स धम्मस्स अब्भुट्टिओमि आराहणाए ति) स धर्मस्य प्रागुक्तस्य, अभ्युत्थितोऽस्मि आराधनायामऽऽराधनाविष्ट (विरओमि विराहणाए त्ति) विरतोऽस्मि निवृत्तोऽस्मि, विराधनः विराधनाविषये। एतदेव भेदेनाहअसंजमं परियाणामि / संजमं उवसंपज्जामि / अबंम परियणामि / बंभं उवसंपज्जामि / अकप्पं परियाणामि / का उवसंपज्जामि / अण्णाणं परियाणामि / नाणं उवसंपजाति अकिरियं परियाणामि / किरियं उवसंपज्जामि / मिना परियाणामि। सम्मत्तं उवसंपज्जामि। अबोहिं परियाणामि। उवसंपज्जामि। अमगं परियाणामि / मंग्गं उवसंपन्जामि। (असंयमंपरियाणामि, संजमंउवसंपज्जामि त्ति) असंयम प्राणतिक, ऽऽदिरूपं परिजानामीति, ज्ञपरिज्ञयात्रिज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिहर प्रत्याख्यामीत्यर्थः। तथा-संयमंप्रागुक्तस्वरूपं उपसंपद्यामहे प्रतिक महे इत्यर्थः / तथा- (अबंभं परियाणामि, बंसं उवसंपज्जामिन तस्यानियमलक्षणस्य विपरीतं ब्रह्म, शेषं पूर्ववत् / प्रधानासयमा त्वाचाब्राह्मण इति वा। तत्परिहिारार्थमनन्तरमिदमाह- असंयमाङ्गताः वाऽऽह-(अकप्पं परियाणामि / कप्पं उवसंपज्जामि) अकर ऽकृत्यमाख्यायते, अयोग्यं वा, कल्पस्तु कृत्यमिति / इदानों में बन्धकारणमाश्रित्याऽऽह-यत उक्तम्- "असंयमो य एक्को कम अविरतीय दुविहं तु" इत्यादि। (अण्णाणं परियाणामि। पाट उतरू जामि) अज्ञानं सम्यग्ज्ञानादन्यत्, ज्ञान तु भगवद्वचनजं तयाभेदपरिहरणायैवाऽऽह-(अकिरियं परियाणामि, किरियं उपस्पा अक्रिया नास्तिकवादः, क्रिया सम्यग्वादः / तृतीयं बन्धकारा त्याऽऽह-(मिच्छत्तं परियाणामि, सम्मत्तं उवसंपजामि) मिर पूर्वोक्तं, सम्यक्त्वमपि एतदङ्गत्वादेवाऽऽह-(अबोहि परियाणरित उवसंपज्जामि) अवोधिर्मिथ्याकार्य, बोधिस्तु सम्यक्त्वस्येति। सामान्येनाऽऽह-(अमगं परियाणामि, मागं उवसंपज्जामि) थ्यात्वादिः, मार्गस्तु सम्यग्दर्शनादिरिति। इदानीं छद्मस्थत्वादशेषदोषशुद्ध्यर्थमाहजं संभरामि / जं च न संभरामि / जं पडिक्कमामि / जी पडिक्क मामि / तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारत पडिक्कमामि / समणोऽहं, संजय-विरय-पडिहय-पचन पावकम्मो, अणियाणो, दिद्विसं पन्नो,माया-मोसविजित (जं संभरामि, जंचण संभरामि) यत्किञ्चित्स्मरामि, यच्या ऽनाभोगान्नेति / तथा-(जं पडिक्कमामि, जं च ण पडिक्कमापन क्रमाम्याऽऽभोगादित्वात् यद्विदितं, यच न प्रतिक्रमामि सूक्ष्मं यदयों अनेन प्रकारेण यः कश्चिदतिचारः कृतः (तस्स सव्वर देवसियन Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 277- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण पडिक्कमामि त्ति) कण्ठ्यम् / इत्थं प्रतिक्रम्य पुनरकुशल प्रवृत्तिपरिहारायाऽऽत्मानमालोचयन्नाह-(समणोऽहं, संजय विरयपडिहय-पच्चक्खाय पावकम्मो, अणियाणो, दिहिसंपण्णो, मायामोसविवजिओ ति) श्रमणोऽई तत्रापि न चरकाऽऽदिः, किं ठर्हि? संयतः सामस्त्येन यतः, इदानीं विरतो निवृत्तः, अतीत स्यैष्यस्य च निन्दासंवरणद्वारेण / अत एवाऽऽह-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा प्रतिहतमिदानीमकरणतया, प्रत्याख्यातनतीतनिन्दया, एष्यमकरणतयेति, प्रधानोऽयं दोष इति कृत्वा / तच्छून्यतामात्मनो भेदेन प्रतिपादयन्नाह- (अनियाणो त्ति) निदानरहितः सकलगुणमूलभूतगुणयुक्ततां दर्शयन्नाह-दृष्टिसं-पन्नः, सम्यग्दर्शनयुक्त इत्यर्थः / वक्ष्यमाणद्रव्यवन्दनपरिहारायाऽऽहमायामृषाविवजकः, मायागर्भमृषावादपरिहारीत्युक्तं भवति। एवंभूतः सन् किम्-अत्र सूत्रम् - अड्डाइजेसु दीव-समुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु। जावंत के वि साहू, रयहरण-गुच्छ-पडिग्गहधारा ||1|| पंचमहय्वयधारा, अट्ठारससहस्ससीलंगधारा। अक्खयाऽऽयार-चरित्ता, ते सर्वे सिरसा मणसा म-त्थएण वंदामि ||2|| अड्डा.दीव. (व्याख्या 'अड्डाइजदीव' शब्दे प्रथमभागे 258 पृष्ठ) पायरस, (व्याख्या कम्मभूमि' शब्दे तृतीयभागे 340 पृष्ठे) यावन्तः कैचन साधवो रजोहरण-गोच्छ-प्रतिग्रहधारिणः / निहवाऽऽदिव्यवच्छेदायाऽऽह-पञ्चमहाव्रतधारिणः, पञ्चमहाव्रतानि प्रतीतानि, अतस्तदेकाङ्गविकलप्रत्येकबुद्धाऽऽदिसंग्रहाय आह-अष्टादशशीलाङ्गसहस्त्रधारिणः / तथाहि केचिद्भगवन्तो रजोहरणाऽऽदिधारिणो न भवन्त्यपि। तानि वाऽष्टादशशीलाङ्ग सहस्त्राणि दर्श्यन्ते-तत्रेयं करणगाथा- 'जोए करणे.' इति गाथा-('अट्ठारससीलंगसहस्स' शब्दे प्रथमभागे 251 पृष्ठे सटीका गताऽस्ति) स्थापना त्वियम्- ('गुरुकुलवास' शब्दे तृतीयमागे 140 पृष्ठे समुपन्यस्तास्ति) इयं तु भावना"मगरेण ण करेइ आहारसण्णाविप्पजढो सोइंदियसंवुडो पुढवीकायसरक्खणओ खंतिसंपण्णो 1, "एव आउक्कायसंरक्खणओ खंतिसंपण्णो 2, एवं तेऊ 3 वाऊ ४-वणस्सइ-५ बि-६ति-७ चउ-८ पंचिदिय-६ अजीवसुदस१० भेदा। एते खंतियममु-यंतेण लद्धा / एवं मुवादिसु वि इक्कि के दस 2 लभंति, एवं सयं 100, एवं सोइदियममुयंतेण लद्धा 100 / एवं चक्खुइंदियादिसु वि इक्किकसयं / जाया पंचसया 500 / एते वि आहारसन्नाअपरि-चागेण लद्धा / भयादिसन्नादिसु वि पत्तेयं, एवं पंच २सतं, जाता दो सहस्सा 2000, एए (ण करेति ति) एतेणलद्धा। ण कारवेति एतेण विदो सहस्सा 2000 / करत णाऽणुजाणाति एतेण वि दो सहस्सा 2000, जाता छसहस्सा 6000, एते मणेण लद्धा, वाया, काएहिं वि छछसहस्स त्ति (6000) (6000) जाता अट्ठारस सहस्स त्ति 18000 / " अक्षताऽऽचारचारित्रिणः अक्षताऽऽचा एव चारित्रम्, तान् सर्वान् गच्छगतनिर्गताऽऽदिभेदान् शिरसोत्तमाङ्गेन, मनसाऽन्तःकरणेन, मस्तकेन वन्द इति वाचा। इत्थमभिवन्द्य साधून पुनरोघतः सकलसत्त्वक्षामणमिति प्रदर्शनायाऽऽह खामेमि सव्वजीवे य, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झ न केणई / / 1 / / निगद सिद्धा एवेयम् / नवरम्- (इति सटीका गाथा 'खामणा' शब्दे तृतीयभागे 737 पृष्ठे गता) “सव्वे जीवा खमंतु मे त्ति" मा तेषामप्यक्षान्तिप्रत्ययः कर्मबन्धो भवत्वित्ति करूणयेदमाह। समाप्तौ स्वरूपप्रदर्शनपुरस्सरं मङ्गलमाहएवमहं आलोइय-निंदियगरहियद्रांछियं सम्मं / तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं / / निगदसिद्धा / एवं दैवसिक प्रतिक्रमणमुक्तम् / रात्रिकमप्येवंभूतमेव / नवरम्-यत्रैव दैवसिकाऽतिचारोऽभिहितस्तत्र तस्मिन् रात्रिकातिचारो वक्तव्यः / आह-यद्येवम्- "इच्छामि पडिक्कमिउं गोयरचरियाए'' इत्यादिसूत्रं तत्रानर्थक, रात्रावस्य सम्भवादिति?, उच्यते-स्वप्रादौ संभवात्यिदोष इत्युक्तोऽनुगमः / नयाः प्राग्वत्। इति शिष्यहितायां (वृत्तौ) प्रतिक्रमणाध्ययनम् / आव० 4 अ०।ध०। (देवसिक-प्रतिक्रमणवेला च तत्परिसमाप्तिदशोपकरण-प्रत्युपेक्षणासमनन्तरभाविसूर्योदयपरिमेया। यतः- "आवस्स-यस्स समए, णिद्दामुदं चयति आयरिआ। तहतं कुणंति जह दस, पडिलेहाणंतरं सूरो।।१।।" इति! ध०३ अधि०। (16) रात्रिकप्रतिक्रमणविधिर्यथापाश्चात्यनिशायामे पौषधशालायां गत्वा स्वस्थाने वा स्थापनाऽऽचार्य्यान संस्थाप्य ईर्यापथिकीप्रतिक्रणपूर्व सामायिकं कृत्वा क्षमाश्रमणपूर्वम्- "कुसुमिणदुस्सुमिणउहडावणिराइअपायच्छित्तविसोहणत्थं काउस्सग्गं करेमि" इत्यादि भणित्वा चतुर्विंशतिस्तवचतुष्कचिन्तनरूपं शतोच्छासमान, स्त्रीसेवाऽऽदिकुस्वप्नोपलभ्भे तु अष्टशतोच्छ्रासमानं कायोत्सर्ग कुर्यात्। रागाऽऽदिमयः कुस्वप्नाः, द्वेषाऽऽदिमयो दुःस्वप्रः। एतद्विधिस्तुनमस्कारेणावबोध इति प्रथमद्वार उक्त एव / इह च-सर्व श्रीदेव-गुरुवन्दनपूर्व सफलमिति चैत्यवन्दनां विधाय क्षमाश्रमणद्वयपूर्व स्वाध्यायं विधत्ते, यावत्प्राभातिकप्रतिक्रमणबेला। तदनु चतुरादिक्षमाश्रमणैः श्रीगुर्वादीन्वन्दित्वा क्षमाश्रमणपूर्वम् - 'राइअ-पडिक्कमणइ ठाउँ' इत्यादि भणित्वा भूनिहितशिराः- "सव्वस्स वि राइअ' इत्यादिसूत्रं सकलरात्रिकातिचारबीजकभूत पठित्वा शक्रस्तवं भणति। "प्राक्तन चैत्यवन्दनं तु स्वाध्यायाऽऽदिधर्मकृत्यस्य प्रतिबद्धं, न तु रात्रिकाऽऽवश्यकस्येति / " एतदारम्भे मङ्गलाद्यर्थ पुनः शक्रस्तवेन संक्षेपदेववन्दन, ततो द्रव्यतो भावतश्चोत्थाय- "करेमि भंते! सामाइअं' इत्यादिसूत्रपाठपूर्व चारित्र-दर्शन-ज्ञानातिचरिविशुद्ध्यर्थ कायोत्सर्गत्रयं करोति / प्रथम द्वितीये -कायोत्सर्गे चतुर्विशतिस्तवमेकं चिन्तयति / "साय सावंगोसद्धमिति'' वचनात् / तृतीये तु सान्ध्यप्रतिक्रमणान्तरंक्तवर्द्धमानस्तुतित्रयात्प्रभृति निशातिचाराँश्चिन्तयति। "रातःदिवसावस्सयअंते, जं थुइतिअगंतनिसाइआरे य। जाव छियं उस्सगं, चिंतिज्जसु ताव अइयारे त्ति" इह च पूर्वोक्तयुक्त्या चारित्राऽऽचारस्य ज्ञानाद्याचारेभ्यो वैशिष्ट्येऽपि यदेकस्यैव चतुर्विंशतिस्तवस्य चिन्तनं, तद्रात्रौ प्रायोऽल्पव्यापारत्वेन चारित्रातिचाराणां स्वल्पत्वाऽऽदिन संभाव्यते। ततः कायोत्सर्ग पारयित्वा सिद्धस्तवं पठित्या संदंशकप्रमाजनपूर्वमुपविशति / अत्र च प्राभातिक प्रतिक्रमणे प्रादोषिकप्रतिक्रमणवत्प्रथमे चारित्रातिचारविशुद्धिकायोत्सर्गे निशातिचारचिन्तनं यन्न कृतं, तन्निद्राभिभूतस्य सम्यग् स्मरणं न स्यादिति। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 278 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कम तृतीये कायोत्सर्गे च सावधानीभूतत्वात्सम्यग् स्यादिति / तत्र | निशातिचारचिन्तनमिति हार्दम् / यत उक्तं समयविद्भि- "निद्वामत्तो न सरइ, अइआरे मा यघट्टणं नुभे। किइअकरणे दोसा वा, गोसाई तिण्णि उस्सग्गा / / 1 / / " (एषा गाथा 'काउस्सग्ग' शब्दे तृतीयभागे 421 पृष्ठे सटीकाऽस्ति) इति ततः पूर्ववन-मुखवस्त्रिकाप्रतिलेखनापूर्व वन्दनाऽऽदिविधिः, प्रतिक्रमणसूत्राऽनन्तरकायोत्सर्ग यावत् ज्ञेयः / पूर्व चारित्राद्याचाराआं प्रत्येकं शुद्धये पृथक् कायोत्सर्गाणां कृतत्वेन सांप्रतं तेषां समुदितानां प्रतिक्रमणेनाप्यशुद्धानां शोधनायाऽयं कायोत्सर्गःसम्भाव्यते, अत्र च कायोत्सर्गे श्रीवीरकृतं पाण्मासिकं तपश्चिन्तयतिहे जीव ! श्रीवीरेण पाण्मासिकमुत्कृष्ट तपः कृतं, तत् त्वं कर्तृ शक्रोषि न वेत्यादि? जीवो वक्ति न शक्नोमि / तर्हि एकदिनोनं पाण्मासिकं कर्तुं शक्रोषि ? न शक्रोमि / एवं द्वित्रिचतुःपञ्चदिनैरूनं पाण्मासिक कर्तु शक्रोषि? पुनर्वक्ति न शक्रोमि। तर्हि षट्सप्ताष्टनवदशदिनोनं पाण्मासिक कर्तुं शक्रोषि? न शक्रोमि / एवमेकादशतः पञ्च-पञ्चदिनवृद्ध्या क्रमेणैकोनत्रिंशदिनानि यावच्चिन्तयति / एवं पञ्चमे, चतुर्थे, तृतीये, द्वितीये, मासेऽपि। प्रथमे तु-रे जीव ! त्वमेकमासिकं कर्तुं शक्रोषि ? न शक्रोमि। तत एकदिनोनं कर्तुं शक्रोषि ? न शक्नोमि / एवं पायत्त्रयोदशदिनोनं कर्तुं शक्नोषि? न शक्नोमि, तर्हि चतुस्त्रिशत्तमं कर्तु | शक्नोषि? न शक्नोमि / द्वात्रिंशत्तमं, त्रिंशत्तम, अष्टाविंशतितम षडविंशतितम, चतुर्विशतितमं द्वाविंशतितम, विंशतितम, अष्टादशं, षोडशं, चतुर्दश, द्वादशं, दशमं, अष्टम, षष्ठ, चतुर्थं, कर्तुशक्नोषीत्यादि विचिन्त्य यत्तपः कृतं स्यात्तत्रं करणेच्छायां करिष्य इति वक्ति। अन्यथा तु-शक्नोमि। परं नाऽद्यमनो वर्तत इति। एवमाचा-माम्ल-निर्विकृतिकैकाशनाऽऽदिषु यत्र मनो भवति तन्मनसि निधाय पारयित्वा च, कायोत्सर्ग मुखपोतिष्काप्रतिलेखनापूर्वं वन्दनके दत्त्वा मनश्चिन्तितप्रत्याख्यानं विधत्ते / यत उक्त दिनचर्यायाम्"सामाइअछम्मासत-दुस्सग्गुज्जोयपुत्तिवंदणयं / उस्सग्गचिंतियतवो-विहामऽह पच्चक्खाणेणं / / 1 / / इगपंचाइदिणूणं, पण मासं चइत्तु तेर दिणडड्ड। चउतीसाइदिणूणं, चिंते नवकारसहियं जा॥२॥" ध०२ अधिo (एष तपश्चिन्तनविधिः 'काउस्सग्ग' शब्दे 421 पृष्ठेऽप्यस्ति) तदनु "इच्छामो अणुसद्धिति" भणित्योपविश्य स्तुतित्रयाऽऽदिपाठपूर्व चैत्यानि वन्दते / इदं च प्रतिक्रमणं मन्दस्वरेणैव कुर्यात्। अन्यथाऽऽरम्भिणां जागरणेनाऽऽरम्भप्रवृत्तेः। ततश्च साधुः, कृतपौषधःश्रावको वा क्षमाश्रमणद्येन भगवान् !"बहुवेलं संदिसावेमि, बहुवेल करेमि'' इति भणति। बहुवेलासंभवीनि चोच्छ्रासाऽऽदीनि कार्याणि 'बहुवेल इत्युच्यन्ते। ततश्च चतुर्भिः क्षमाश्रमणैः श्रीगुर्वादीन्वन्दते। श्राद्धस्तु"अड्डाइजेसु" इत्यादि च पठति / इति रात्रिकप्रतिक्रमणविधिः / ध०२ अधि०। (17) पाक्षिकाऽऽदिषु प्रतिक्रमणम्-तथा यः श्रावको नियमेन प्रत्यहं प्रतिक्रमणद्वयं कुर्वाणो भवति तस्य कालवेलायां संध्याप्रतिक्रमणविस्मरणे कियती रात्रिं यावत्तच्छुध्यतीति ? / अत्रोत्तरम्-कारणविशेष विस्मृतौ वा, रात्रिप्रहरद्वयं यावत्तत्कर्तु शुध्यतीति। ही०४प्रका०। अथ पाक्षिकाऽऽदिप्रतिक्रमणविधिःठानि च दैवसिक-रात्रिकाभ्यां शुद्धौ सत्यामपि सूक्षमबादरा- | तिचारजातस्य विशेषेण शोधनार्थयुक्तान्येव। यतः- "जह गेहं पइदिक पि सोहिअंतह विपक्खसंधीसुसोहिज्जइसविसेस, एवं इहयं पिनमः ||1 // ' अत्र पाक्षिके पूर्ववदिवसप्रतिक्रमणं प्रतिक्रमणसूत्रान्तं विध ततः क्षमाश्रमणपूर्वम्- "देवसियं आलोइय पडिक्कता इच्छाका संदिसह भगवन् ! “पाखी मुहपत्ती पडिलेहुं" इत्युक्त्या ता काटा प्रतिलिख्यवन्दनकेदत्त्वा संबुद्धान् श्रीगुर्वादीन् क्षमयितुं क्षमाप्रधानः सर्वमनुष्ठानं सफलमिति ज्ञापयितुम्-"अब्भुट्ठिओ मि संबुद्धाखमा अभितरपक्खि खामे" इति भणित्वा "इच्छं खामेमि पनिता पन्नरसण्हं दिवसाणं पन्नरसण्ह राईण, जं किंचि अपत्तिअं" खामणामूलसूत्र तृतीयभागे 421 पृष्ठे गतमस्ति) इत्यादिना गुरुः स्थापनाचार्ये क्षमिते, शिष्यः श्राद्धो वा श्रीगुर्वादीन् क्षमयति, वीर वा। यदिद्वौ शेषौ, तत उत्थाय''इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पछिल्ला आलोएमि? इच्छं आलोएमि, जो मे पक्खिओ" इत्यादिसूत्र भीत संक्षेपेण विस्तरेण वा पाक्षिकानतीचारानालोच्य ''सव्वस्स विपक्सि: " इत्यादि भणिते, गुरुराह- "पडिक्कमह" तत "इच्छंति" मीट "पउत्थेणं'' इत्यादिना गुरुदत्तमुपवासादिरूपं प्रायश्चिचं प्रतिपः ततो वन्दनकदानपुरस्सर प्रत्येकक्षमणकानि विधातुं गुरुरन्यो वारूला पूर्वमुत्थावोर्द्धस्थित एव भणति- "देवसिअं आलोइअ-पत्रिका इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! अब्भुट्ठिभोऽहं अमिततरपक्खिअंजन 'इच्छं' इच्छकारि अमुक तपोधन ! स भणति 'मत्थएणं बंदाक्षमाश्रमणपूर्व / गुरुराह- "अब्भुडिओ वि पत्तेअखामणेणं अमित पक्खिअं खामेउ'' सोऽपि "अहमवि खामेमि तुब्भे ति" भारित भूमिनिहितशिराः पुनभणित- "इच्छ खामेमि पक्खिअं, पनररूट दिवसाणं पन्नरसण्हं राईणं' इत्यादि। गुरुस्तु-''पन्नरसण्ह "इया 'उच्चासणे समासणे' इति पदद्वयवज भणति, एवं सर्वेऽपि सका परस्परं क्षमयन्ति / लघुवाचनाचार्येण सह प्रतिक्रामता साधूना का प्रथमं स्थापनाचार्य क्षमयति, ततः सर्वेऽपि यथारत्नाधिकम् गुर्वक तु सामान्यसाधवः प्रथमं स्थापनाचार्य क्षमयन्ति, यावद् द्वौ शेष: श्रावका अपि। परं वृद्धश्रावकोऽमुकप्रमुखसमस्तश्रावकान् "वादुम्स इति भणित्वा "अब्भुडिओ मि प्रत्येकखामणेणं अभि-तरपति खामेउं ति" (भणति) इतरे च भणन्ति- "अहमदि खामेमि तुम ततो वृद्ध इतरे चेति उभयेऽपि भणन्ति - "एण्ण-रसण्हं रिजल्ट पण्णरसण्हं राईण भण्यां भास्यां मिच्छामि दुक्कड' ततो वन्दनाकान्त "देवसिअंआलोइअपडिक्कता इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पक्ति पडिक्कमाबेह?"गुरुर्भणति- "सम्मं पडिक्कमह," ततः- "इच्छर कथनपूर्व सामायिकसूत्रम्-" इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे पबिख इत्यादि भणित्वा क्षमाश्रम-णपूर्वम्- "इच्छाकारेण संदिसह भार पक्खिअसुत्तं कड्डेमि त्ति' उक्ता गुरुस्तदाऽऽदिष्टोऽन्यो वा सट सावधानमना व्यक्ता-क्षरं नमस्कारत्रिकपूर्वं पाक्षिकसूत्रं कथयति, इ. च क्षमाश्रमणपूर्वं 'संभले मि त्ति' भणित्वा यथाशक्ति काईत्सर्गाऽऽदौ स्थित्वा शृण्वन्ति। पाक्षिकसूत्रभणनानन्तरम् - "सुअलंका भगवई' इति स्तुतिं भणित्योपविश्य पूर्वविधिना पाक्षिकप्रक्रमणसूत्रं पठित्वोत्थाय च तच्छेषं कथयित्वा 'करेमि भंते सामाझ इत्वादि सूत्रत्रयं पठित्वा च प्रतिक्रमणे नाऽशुद्धानामतीचारण Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण विशझ्यर्थ द्वादशचतुर्विशतिस्तवचिन्तनरूपं कायोत्सर्ग कुर्यात्। ततो मुखवस्त्रिकाप्रतिलेखनापूर्व वन्दनकं दत्त्वा क्षमाश्रमणपूर्व 'इच्छाकारण संदिसह भगवन् ! अब्भुडिओ मि समाप्तखामणेणं अभितरपक्खिअं खामे' इत्यादि भणित्वा क्षमणकं विधत्ते / अत्रपूर्व सामान्यतो विशेषतश्च पाक्षिकाऽपराधे क्षमितेऽपि कायोत्सर्गे स्थितानां शुभैकाप्रभावमुपगताना किञ्चिदपराधपदं स्मृतं भवेत्, तस्य क्षमणनिमित्तं पुनरपि क्षामणकरणं युक्तमेव / तत उत्थाय "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पाखीखामगां खामुं? इच्छ" ततः साधवश्चतुर्भिः क्षमाश्रमणैः चत्वारि पाक्षिकक्षमणानि कुर्वन्ति / तत्र च राजानं यथा माणवका अतिक्रान्ते माङ्गल्यका बहु मन्यन्ते / यदुत अखण्डित्बलस्य ते सुष्टु कालो गतोऽन्योऽप्येयमेवोपस्थितः एवं पाक्षिकं विनयोपचारम् / "इच्छामि खमासमणो पियं च मे'' इत्यादिप्रथमक्षामणसूत्रेण तथास्थित एव साधुराचार्यस्य करोति / 1 / ततो द्वितीयेक्षमणके चैत्यसाधुवन्दनं निवेदयितुकामः- "इच्छामि खमासमणो पुटिव' इत्यादि भणति।२। तदनु तृतीये-आत्मानं गुरून निवेदयितुम्- ''इच्छामि खमासमणो अमुट्ठिओ हं तुब्भण्ह" इत्यादि भणति / 3 / चतुर्थे तु-यच्छिक्षां ग्राहितस्तमनुग्रहं बहुमन्यमानः 'इच्छामिखमासमणो अहमविपुव्वाई" इत्यादि वक्ति।४। (एताश्चतस्त्रः क्षमापना मूल-पाठतः तृतीयभागे 421422 पृष्ठे गताः सन्ति) एतेषां चतुर्णा पाक्षिकक्षमणकानां प्रत्येकमन्ते "तुडभेहिं समं 1, अहमयि वंदामि चेइआइं 2, आयरिअसंतिअं३, नित्थारपाग्गा होइ इति 4," (एतन्निरूपिका सव्याख्या गाथा तृतीयभामे 521 पृष्ठे गतास्ति) श्रीगुरूक्तौ शिष्यः- "इच्छं ति" भणति। श्वावकाः पुनरेक्रेक नमस्कारं पठन्ति / ततः- "इच्छामो अणुसट्टि ति'' भणित्वा वन्दनदेवसिकक्षमणकवन्दनाऽऽदि दैवसिकप्रतिक्रमणं कुर्यात् / श्रुतदेवतायाः पाक्षिकसूत्रान्ते स्मृतत्वेन तद्दिने तत्कायोत्सर्गस्थाने भवनदेवतायाः कायोत्सर्गः / क्षेत्रदेवतायाः प्रत्यहं स्मृतौ भवनस्य क्षेत्रान्तर्गतत्वेन तत्त्वतो भवनदेव्या अपि स्मृतिः कृतैव / तथाऽपि पर्वदिने तस्या अपि बहुमानाऽहत्वात् कायोत्सर्गः साक्षात्क्रियते, स्तवस्थाने च मङ्गलार्थमजितशान्तिस्तवपाठ इति / अत्राऽपि पाक्षिकप्रतिक्रमणे पञ्चविधाऽऽचारविशुद्धिस्तत्तत्सूत्रानुसारेण स्वयमभ्यूह्या / सा चैवं संभाव्यतेज्ञानाऽऽदिगुणवत्प्रतिपत्तिरूपत्वाद्वन्दनकानि संबुद्धक्षमणानि च ज्ञानाऽऽगरम्य द्वादश"लोगस्स" कायोत्सर्गानन्तरं प्रकटचतुर्विशतिस्तवकथनेन दर्शनाऽऽचारस्य, अतिचाराऽऽलोचनप्रत्येकक्षमणकबहलधुपाक्षिकसूत्रकथनसमाप्तिपाक्षिकक्षाभणकाऽऽदिभिश्चारित्राऽऽपारस्य, चतुर्थतपःप्रभृति द्वादश लोगस्स' कायोत्सर्गाऽऽदिभिर्बाह्याभ्यन्तरतपआचारस्य, सर्वैरप्येतैः सम्यगाराधितैर्वीर्याऽऽचारस्य शुद्धिः कियते / एतदनुसारेण चातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणयोरिपि संभाव्यम् / इति पाक्षिकप्रतिक्रमणक्रमः। (18) चातुर्मासिकसांवत्सरिकयोरपि क्रम एष एव। नवरम्-नाम्नि विशेषः / कायोत्सर्गेऽपि चातुर्मासिकप्रतिक्रमणे विंशतिचतुर्विशतिस्तवचिन्तनं, सांवत्सरिकप्रतिक्रमणे च चत्वारिंशचतुर्विंशतिस्तवाः, तदन्ते एको नमस्कारश्च चिन्त्यते। क्षमणके च - "चउण्हं मासाणं, अट्टण्हं पक्खाणं, इगसयवीसराइदिआणं' तथा- 'बारसण्हं मासाणं, चउवीसह पक्खाणं, तिन्नि सयसद्विराइंदियाणं' इत्यादि वक्तव्यम् / साधवश्चपाक्षिकचतुर्मासिकयोः पञ्चसांवत्सरिके च सप्तगुर्वाद्याः क्षम्याः, यदि द्वौ शेषौ तिष्ठत इति चातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणक्रमः। (16) एतद्विधिसंवादिन्यश्वेमाः पूर्वाऽऽचार्यप्रणीता गाथाःपंचविहाऽऽयारविसु-द्धिहेउमिह साहू सावगो वा वि। पडिकमणं सह गुरुणा, गुरुविरहे कुणइ इक्को वि।।१।। वंदित्तु चेइयाई, दाउं चउराइए खमासमणे। भूनिहिअसिरो सयक्ता-इआरमिच्छाकडं देइ / / 2 / / सामाइअपुव्वमिच्छामि ठाउंकाउस्सग्गमिच्चाइ। सुत्तं भणिअ पलंविअ-भुअकुप्परधरिअपहिरणओ / / 3 / / घोडगमाहअदोसे-हिँ विरहिअंतो करेइ उस्सग्ग। नाहिअहो जाणुड, चउरंगुलठविअक्तडिपट्टो॥४॥ तत्थ य धरेइ हियए, जहक्कम दिणकए अ अइआरे। पारेत्तु नमोक्कारेण, पढइचउवीसथयं दंड / / 5 / / संडासगे पमजिअ, उवविसिअ अलग्गविअयबाहुजुओ। मुहणंतगं च कायं, पेहए पंचबीस इह / / 6 / / जट्ठिअठिओ सविणय, विहिणा गुरुणो करेइ किइकम्भ। बत्तीसदोसरहिअं.पणवीसावस्सगविसुद्धं ||7|| अह सम्ममवणयंगो, करजुगविहिधरिअपुत्तिरयहरणो। परिचिंतिअअइयारे, जहक्कम गुरुपुरो विअडे / / 8 / / अह उवविसित्तु सुत्तं, सामाइअमाइअंपढिअपयओ। अब्भुट्टिओ म्हि इच्चा-इ पढइ दुहओ ठिओ विहिणा |IEl दाऊण वंदणं तो, पणगाइसु जइसु खामए तिन्नि। किइकम्म करिआयरिअ-माइगाहातिगं पढइ॥१०॥ इअसामाइअउस्स-ग्गसुत्तमुच्चरिअकाउसग्गठिओ। चिंतइ उज्जोअदुर्ग, चरित्तअइआरसुद्धिकए।११।। विहिणा पारिअसम्म-त्तसुद्धिहेउंच पढइ उज्जोअं। तह सव्वलोअअरिहं-तचेइआराहणुस्सगं॥१२॥ काउं उज्जोअगरं, चिंतिअ पारेइ सुद्धसम्मत्तौ। पुक्खरबरदीवड्ढे, कड्डइ सुअसोहणनिमित्तं // 13 // पुण पणवीसुस्सासं, उस्सग्गं कुणइ पारए विहिणा। तो सयलकुसतकिरिआ-फलाण सिद्धाण पढइ थयं / / 14 / / अह सुअसमिद्धिहेउं, सुअदेवीए करेइ उस्सगं। चिंतेइ नमोक्कारं, सुणइ व देई व तीइ थुइं॥१५।। एवं खित्तसुरीए, उस्सग्गं कुणइ सुणइ देइ थुई। पढिऊण पंचमंगल-मुवविसइपमज्ज संडासे॥१६।। पुव्वविहिणेव पेहिअ, पुत्तिं दाऊण वंदणे गुरुणो! इच्छामो अणुसट्ठि, ति भणिउं आणूहिंतो ठाइ / / 17 // गुरुथुइगहणे थुई ति-णि वद्धमाणक्खरस्सरो पढइ। सक्कत्थयथवं पढिअ, कुणइय पच्छित्तउस्सगं / / 18|| एवं ता देवसिअं, राइअमवि एवमेव नवरि तहिं। पढमंदाउंमिच्छा-मि दुक्कडं पढइ सक्कथयं / / 16 / / उहिअ करेइ विहिणा, उस्सग्गं चिंतए अ उज्जोअं। बीअंदसणसुद्धो-एचिंतएतत्थ इममेव / / 20 / / तइए निसाइआर, जहक्कम चिंतिऊण पारेइ। सिद्धत्थयं पढित्ता, पमज्ज संडासमुवविसइ / / 21 / / पुव्यं व पुत्तिपेहण-वंदणमालोअसुत्तपढणं च। वंदणखामणवंदण-गाहातिगपढणमुस्सगो।।२२।। . तत्थ य चिंतइ संजम-जोगाण न होइ जेण मे हाणी। तं पडिबज्जामि तवं, छम्मासंता न काउमलं॥२३।। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 280 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण एगाइइगुणतीसू-णयं पिन सहो न पंचमासमवि। एवं चउ-ति-दुमासं, न समत्थो एगमासमवि।।२४।। जा तं पितेरसूणं, चउतीसइमाइअंदुहाणीए। जा चउत्थं तो आय-बिलाइजा पोरिसि नमो वा // 25 // जं सक्षं तं हिअए, धरेत्तु पारेइ पेहए पुत्ति / दाउं वंदणमसढो, त चिअपच्चक्खए विहिणा।।२६|| इच्छामो अणुसहि ति भणिअ उवविसिअ पढइ तिणि थुई। मिउसद्देणं सक्क-त्थयाइतो चेइए वंदे॥२७॥ अह पक्खिअंच उद्दसि-दिणम्मि पुव्वं व तत्थ देवसिअं। सुतंतं पडिकमिउं, तो सम्ममिमं कर्म कुणइ॥२८॥ मुहपत्ती वंदणय, संबुद्धा खामणं तहाऽऽलोए। वंदणपत्तेअखाम-णं च वंदणयमह सुत्तं // 26 // सुत्तं अब्भुट्ठाणं, उस्सग्गो पुत्तियंदणं तह य। पज्जतिअखामणयं, तह चउरो छोभवंदणया।॥३०॥ पुटवविहिणेव सव्वं, देवसिअं वंदणाइ तो कुणइ। सेजसुरी उस्सग्गो, संतित्थयपढणे भेओ अ॥३१।। एवं चिअचउमासे, वरिसे अजहक्कम विहीणेओ। पक्खचउमासवरिसे-सुनवरि नामम्मि नाणत्तं / / 3 / / तह उस्सगुजोआ, बारस वीसा समंगलग चत्ता। सबुद्धखामणं तिप-णसत्तसाहूण जहसंखं // 33 / / " ध०२ अधिक (20) पक्षान्तादिष्ववश्यं प्रतिक्रमणं कर्त्तव्यमिति सकारणं सोदाहरण च प्रदर्शितम्। शिवशम्मैकनिमित्तं, विघ्नौघविघातिनं जिनं नत्वा। वक्ष्यामि सुखविबोधां, पाक्षिकसूत्रस्य वृत्तिमहम् / / 1 / / एतच्चूर्ण्यनुसाराद्, ग्रन्थान्तरविवरणानुसाराच। प्रायो विवरणमेत-द्विधीयते मन्दमतिनाऽपि // 2 // तत्र चाहत्प्रवचनानुसारिसाधवः सकलपापमलमूलसावद्ययोगनिवृत्ता अपि सुविशुद्धमनोवाक्कायवृत्तयोऽष्यनाभोगप्रमादादेः सकाशात्प्रतिषिद्धकरणकृत्यकरणादिना समुत्पन्नस्य मूलोत्तरगुणगोचरस्य बादरेतरातिचारजातस्य विशोधनार्थं सदा दिवसनिशावसानेषु प्रतिक्रमण विदधाना अपि पक्षचतुर्मास-संवत्स-रान्तेषु विशेषप्रतिक्रमणं कुर्वन्ति, उत्तरकरणविधानार्थम् / तथाहि-यथा कश्चित्पुरुषस्तैलामलकजलादिभिःकृतशरीरसंस्कारोऽपि धूपनविलेपनभूषणवस्त्रादिभिरुत्तरकरणं विधत्ते, एवं साधवोऽपि प्रतिदिनप्रतिक्रमणेन विशुद्धचरणा अपि पाक्षिकाऽऽदिषु विशेषप्रतिक्रमणेनोत्तरकरणं कुर्वन्ति। शुद्धिविशेषं कुर्वन्तीत्यर्थः / किञ्च- "जह गेहं पइदिवस, पि सोहियं तह वि पक्खसंधीसु। सोहिज्जइ सविसेस, एवं इहयं पि नायव्वं // 1 // ' तथा-नित्यप्रतिक्रमणे सूक्ष्मो बादरो वाऽतिचारोऽनाभोगादनि विस्मृतो भवेत् / स्मृतो वा भयगौरवादिना गुरुसमक्षं न प्रतिक्रान्तः स्यात् / प्रतिक्रान्तोऽपि परिणाममान्द्यादसम्यक् प्रतिक्रान्तः स्यात्। अतः पाक्षिकादिषुतं स्मृत्वा सञ्जातसंवेगाः प्रतिक्रामन्ति / अथवा-पाक्षिकाऽऽदिषु विशेषप्रतिक्रमणेन प्रतिक्रामन्तो विस्मृतमप्यतिचार स्मरन्ति प्रायशः / अथवा प्रथमचरमतीर्थङ्कराणां कालविशेषनियतोऽयं विधिः, यदुत पाक्षिकाऽऽदिषु विशेषेण प्रतिक्रमितव्यम्। यथा-'सूत्रार्थ-पौरुषी-प्रत्युपेक्षणादीनि प्रतिनियतकालकर्तव्यान्यनुष्ठानानीति।' अथवाअतिचाराऽभावेऽनियुक्तं पाक्षिकाऽऽदिषु विशेषप्रतिक्रमणं, तृतीयवैद्यौषधक्रियातुल्यत्वात्. यथा किल-धनधान्यसमृद्धबहुजनसमाकुने विविधसौधराजीरमणी प्रचुरचारुसुरमन्दिरशिखरविराजिते क्षितिप्रतिष्ठिते नगरे, शौर्यादिगुणरत्नसारस्य सदाऽलकितनीतिवेला वलयस्याऽसाधारणगाम्भीर्यशालिनोऽपूर्वलावण्यभाजः पाथोनिधेरिव जितशत्रो राज्ञो,मनोरथशताऽप्ने बहुविधोपयाचितविधिलब्धः सकलान्तःपुरकमलवनराजहंसिकाशाइ धारिणीदेव्या आत्मजः स्वजीवितव्यादष्यतिप्रियः कुमारः समस्तिस्म तेन च राज्ञा, मा मम पुत्रस्य कश्चनाऽपि रोगो भविष्यति, ततोऽनागतमेद केनाऽपि भिषजा क्रिया कारयामीति विचिन्त्य वैद्याः शब्दिताः भणित। मम पुत्रस्य तथा क्रियां कुरुत यथा न कदाचनाऽपि रोगसंभवो भी तैरप्युक्तमकुर्मः। ततो राज्ञाऽभिहितं कथयत तर्हि, कस्य कीदा क्रियेति? तत्रैकेनाऽभिहितम् मदीयौषधानि यद्यग्रे रोगो भवति ततस्तमाशु शमयन्ति / अय नास्ति, ततस्तं प्राणिनमकाण्ड : मारयन्ति / ततो राज्ञोक्तमलमेतैरौषधैः स्वहस्तोदरप्रमर्दनशूलव्यथ. त्थाप-नन्यायतुल्यैः द्वितीयेनोक्तम् -यद्यस्ति रोगः ततस्तमुपशमयनित अथ नास्ति ततः प्रयुक्तानि प्राणिनो न दोष, नाऽपि कञ्चनपुर कुर्वन्तीति / राज्ञा चोक्तम्-एतैरपि भस्माऽऽहुतिकल्पैः पर्याप्तम्। तृती च गदितम्-मदीयौषधानि यदि रोगे सति प्रयुज्यन्ते तदा तर निर्मूलकाषं कषान्ते। अथ न विद्यते रोगस्तथाऽपि तस्य देहिनस्तर प्रयुक्तानि बलवर्ण रूप-यौवन-लावण्यतया परिणमन्ति। अनापत. व्याधिप्रतिबन्याय च जायन्ते। एवं चोपश्रुत्य राज्ञा तृतीयभिषजा स्वपुत्र क्रिया कारिता। जातश्च व्यङ्ग-वली-पलित-खलीत्या-दिदोषकर निरामयकमनीयमूर्तिः प्रकृष्टबुद्धिबलशाली नवनीरदोदारस्वरक्षेति न सन्ति ततश्चारित्रं शुद्धतरं करोतीति। ततः स्थितमिदमतिचारो भए वा, मावा, तथाऽपि प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थेषु पक्षान्तादिषु प्रतिक्रम कर्तव्यमेवेति। (21) आवश्यक -पाक्षिकचूर्ण्यभिप्रायेण पाक्षिकादिप्रतिक. मणविधिः। केन पुनर्विधिनेति चेत् ? उच्यते- "इह किर साहुणो कथसाल. वेयालियकरणिज्जा सूरत्थमणवेलाए सामाइयाइसु तं कडि दिवसाइयारचिंतणत्थं काउस्सग्गं करेंति। तत्थ य गोसमुहणंत-गइ अहिंगयचेट्ठा काउस्सग्गपजवसाण दिवसाइयारं चिंतितं। तओपमोक्कर पारिता चउवीसत्थयं पढ़ति। तओ संडासगे पडिलेहिता उक्कड्डयनिष्टि ससीसोवरियं कार्य पमजंति। तओपरेण विणएण तिगरणविसुद्ध दिल करेंति / एवं वंदित्ता उत्थाय उभयकरगहियर-ओहरणा अद्धावण्यकः पुष्वपरिचिंतिए दोसे जहा रायणियाए संजयभासाए जहा गुरू सुति पवड्डमाणसंवेगा मायामयविमुक्का अप्पणो विसुद्धिनिमित्तमालोयति। नस्थि अइयारो ताहे सीसेणं संदिसद्द त्ति भणिए गुरुहिं पडिक्कमह में भणियव्यं, अह अइयारो तो पायच्छित्तं पुरिमड्ढाइ दिति। तओ गुरुदिश पडिवण्णपायच्छित्ता विहिणा निसिइत्ता समभवडिया सम्ममुदष्टर अणवत्थपसंगभीया पए पए संवेगमावजमाणादंसमसगाइ देहे अपलोमा पयं पएण सामाइयमाइयं पडिक्कमणसुत्तं कद॒ति / जाव तस्स धम्म त्ति पदं, तओ उद्घट्टिया अब्भुट्ठिओ मि आराहणाए इयाइयं हा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 281 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण 'उटामि जिणे चउव्वीसं' त भणित्ता गुरु णिविसति। तओ साह वंदित्ता भापति-इच्छामि खमासमणो उवडिओ मि अभितरपक्खिअंखामेउं / गुरु भणइ-अहमवि खामेमि तुबभेत्ति। ताहे साहू भणति - "पण्णरसण्हं दिवसाणं, पण्णरसण्हं राईणं जं किंचि अपत्तियं परपत्तियं " इत्यादि। एव जहागणं तिपिण वा, पंच वा, चाउम्मासिए संयच्छरिए य सत्त, उनोसेणं तिसु वि ठाणेसु सव्वे खामिजंति। एवं संबुद्धाखामण राइणियस्स भत्रिरा: एत्थ कणिट्टेण जेडो खामेयत्वो त्ति वुत्तं भवइ। तओ कयकिइम्मा उहडिया पत्तेयखामणं करें ति / तत्थ य इमो विही-गुरु अन्नो वा जो समज्डो जेट्टो पढममुढेऊण उद्धहिओ चेव कणिहओ चेवकणिट्ठभणइअमुगनामधेया ! अभितरपक्खियं खामेमो पण्णरसण्हं दिवसाणं, पगरसह राईण'' इत्यादि 'इमो वि भूमिनिहियजाणुसिरो कयजली म्णइ-भगवं ! अहमवि खामेमि तुब्भे पण्णरसण्ह" इत्यादि। सीसो पुन्छइ-कि गुरू उद्देत्ता खामेइ?।'' उच्यते "सव्वजइजाणावणत्थं जहा एस महया मोत्तु-महंकार जहा दव्वओ अभुट्टिओ खामेइ. एवं भावओ वित्तमुडिओ खानेइ त्ति। कंच-जे गुरु समीवाओ जचाइएहिं उत्तमतरा, तेचिंतिजा- 'एस नीयतरो, अम्हे उत्तम त्ति काउंपणयसिरो खामेइ वि। एवं कसा वि अहारायणियाए खामेति.जावदुचरिमो चरिमं ति। ताहे सब्वे कयकिटकम्मा भणति- 'देवसियं आलोएउ पडिकता पक्खिअं पडिलमामो ? गुरु भण्इ- सम्म पडिक्कमह।" इति पाक्षिकचूर्ण्यभिप्रायः / आवश्यकाभिप्रायस्तु- "गुरु उडेऊण जहारायणियाए उद्धट्ठिओ चेद खामेइ। इयरे विजहारायणियाए सव्वे वि अवणयउत्तमंगा भणंति - "देवसिय पडिसतं पक्खियं खामेमो पण्णरसह दिवसाणं " इत्यादि। एवं सेसा वि जहाराय-णियाए खाति, पच्छा वंदित्ता भणंतिदेवसिय पटिकतं पक्खियं पडिकामावेह त्ति / तओ गुरु, गुरुसंदिडो वा पक्खियं पटिक्कम कट्टइ। सेसगा जहासत्तिं काउस्सग्गाइसंठिया धम्मज्झाणोवण्या तुणंति।" तचेदं सूत्रमतित्थंकरे य तित्थे, अतित्थसिद्धे य तित्थसिद्धे य। सिद्धे जिणे रिसी मह-रिसी य नाणं च वंदामि।।१।। पा०। (22) पाक्षिकं चतुर्दश्यामेवतत्रापि पाक्षिकं च चतुर्दश्यामेव, यदिपुनः पञ्चदश्यां स्यात्तदा चतुर्दश्यां पाक्षिके चोपवासस्योकत्वात् पाक्षिकमपि षष्ठेन स्यात्। तथा च"अट्ठम-टु-चउत्थं, संवच्छरचाउमासपक्खीसु / '' इत्याद्यागमविरोधः / तथा यत्र चतुर्दशी गृहीता न तत्र पाक्षिकं, यत्र च पाक्षिकं न तत्र चतुर्दशी। तथाहि- "अट्टमीचउद्दसीसु उववासकरणं।" इति पाक्षिकचूर्णा / तथा-"सागरचंदो कमलामेला वि सामिसगासे धम्म सोऊण गहिआऽणुव्वयाणि सादगाणि संयुत्ताणि, तओ सागरचंदो अट्ठमि-च उद्दसीसु सुण्णवरेसु मसाणेसु एगराइ पडिमं ठाइ ति सो अट्ठाभिचउद्दसीसु उववासं करेइ'' इति 'अहमिचउद्दसीसु अरहंता साहुणो अ वंदेअब्वा।" इति चाऽऽवश्यकचूर्णा / तथा "संते बलवीरिअपुरिसक्वारपरक्कमे अट्टमि-चउद्दसी णाणपंचमी-पज्जोस-वणा-चाउम्मासिए वउत्थछट्टऽट्टमे न करिज्जा, पच्छित्तं।" इति श्रीमहानिशीथे प्रथमेड* कचित् पुस्तकेऽधिकः पाठः, स च ग्रन्थेऽवलोक्य / ध्ययने / इति पाक्षिककृत्योपलक्षितचतुर्दशीशब्दप्रतिपादकाक्षराणि / तथा- "चउत्थछट्टऽहमकरणे अट्ठमिपक्खचउमासवरिसेसु" इति व्यवहारभाष्यषष्ठोद्देशके च। तथा- 'पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेअव्वं / '' इत्यादिव्याख्यायां वृत्तौ चूणौ च पाक्षिकशब्देन चतुर्दश्येव व्याख्याता,ततश्चतुर्दशीपाक्षिकयोरैक्यमिति निश्चीयते, अन्यथा तु क्वचिदुभयोपादानमपि स्यादेव। चातुर्मासिकसांवत्सरिके तु पूर्व पूर्णिमापञ्चम्योः क्रियमाणे अपि श्रीकालिकाऽऽचार्याऽऽचरणतश्चतुर्दशीचतुर्यो : क्रियेते। प्रामाणिकं चैतत्, सर्वसम्मतत्वाद् / उक्तं च कल्पभाष्ये- "असढेण समइण्ण, जं कत्थइ केणई असावज्जं / न निवारिअमन्नेहि, बहुजणभयमेयमायरिअं॥१५" इति। तथा धुवाध्रुवभेदाद् द्विधा प्रतिक्रमणम्।तत्र धुवं भरतैरवतेषु प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थेषु, अपराधो भवतु मा वा, परम् उभयकालं प्रतिक्रमणं कर्तव्यम्। अधुवं मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु विदेहेषु च कारणे जाते प्रतिक्रमणम्। य दाह"सपिडक्कमणोधम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्सय जिणस्स! मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं / / 1 / / " ध०२ अधि०।। संप्रति तृतीयमधिकार पाक्षिकविचारण लक्षणं गाथात्रयेणाऽऽहपक्खपडिक्कमणकए, विवयंती केइ णेय जाणंति / णियधम्मधणं अम्हे, हारामो उभयहा जेण / / 1 / / सत्थभणियं पि जं नो, आयरियं पुव्वसूरिपयरेहिं। तं नो जुञ्जइ काउं, अणवत्था जेण तक्करणे / / 2 / / जं पिण हु पुथ्वसूरीहिँ णिच्छियं तं पि धम्पनिरयाण। न हु णिच्छइउं जुज्जइ, छउमत्थाणं विसेसेण / / 3 / / पक्षप्रतिक्रमणकृते परस्परं विवदन्ते / तथाहि-कश्चित् पाक्षिकातिचारप्रतिक्रमण पञ्चदश्यां विधीयते, अन्येतु चतुर्दश्याम्, उभयेषामपि सुमत, सूत्रोक्तत्वात् / केऽपि न सर्वे , नैव न च जानन्ति बुद्ध्यन्ते निजधर्मधनं स्ववृषवित्तम् (अम्हे त्ति) वयं हारयाम उद्वृत्त्य करणतः स्फाट्यामः, उभयथा पञ्चदश्य-परिग्रहेण चतुर्दशीग्रहणेन च। येन यस्मात् कारणात् शास्त्रभणितमपि, आस्तामभणित-मित्यपिशब्दार्थः / शयनिकगणाऽऽदिकं यत् (नो) नैवाऽऽचरितं सेवितं पूर्वसूरिभिश्चिरन्तनाऽऽचार्यस्तत्प्रतिक्रमणाऽऽदिकं (नो) नैव कर्तुयुज्यते, तादृशकरणे तु अनवस्था अप्रतिष्ठा, एतदन्यदन्यथा करिष्यतीत्येवंरूपा, येनयस्मात्तत्करणे पूर्वाऽऽचार्यानारोवितविधाने, भवतीति क्रियाऽध्याहारो दृश्यः। यदपि (न हु) नैव पूर्वसूरिभिर्बहुश्रुतचिरन्तनाऽऽचार्यैर्निश्चितं तदपि न केवलं स्वयमनिश्चितं न निश्चीयते इत्यप्यर्थः / धर्मनिरतानां प्रधानोपशमामृतरसलम्पटानां (न हु) नैव निश्चेतुमवधारयितुं युज्यते, छास्थानामतीन्द्रियज्ञानवर्जितानां, विशेषेणाऽऽदरेण / तथाहि-पञ्चदश्यां पाक्षिक चतुर्दश्यां वा पाक्षिकमिति निर्धार्य नोक्तम्, पाक्षिकं तु प्रोक्त सामान्येन तत्र दशाश्रुतस्कन्धे तावदित्थम्- 'पक्खियपोसहिएसु समाहिपत्ताणं झियायमाणाणं इमाइ दस चित्तसमाहिट्ठाणाइं असमुप्पएणपुव्वाई समुप्पज्जेज्जा।'' इदं सूत्रम् / चूर्णिरस्य- "पक्खे भवं पविखयं, पक्खिए पोसहो पक्खियपोसहो चाउद्द-सिअट्ठमीसु वा। "समाहिपत्ताणं ति" नाणे दसणे चरित्ते समाहिपत्ताणं ति नाणे वट्टमाणाणं झियायमाणाणं इमाई दस चित्तसमाहिट्ठाणाणि असमुप्पन्नपुव्वाणिसं Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 282 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिकमा मुप्पज्जेज्जा।'' अत्र पाक्षिकं भिन्नम, चतुर्दशी अष्टमी च भिन्ने, इति के चिद् व्याचक्षते / पोषधशब्देन चतुर्दश्यष्टम्योः संबन्धकर-णात् "चाउसिअट्ठमीसु वा पोसहो" इत्येवं व्याख्याने पञ्चदश्यां पाक्षिकम्। अत्र तु पाक्षिकशब्देन संबन्धकरणात् चतुर्दश्यष्टम्योः 'चाउद्दसि अट्टमीसु वा पक्खियपोसहो'' इति पाक्षिकं चतुर्दशी कथयिति / परमत्र मते चतुर्दशीग्रहण निरर्थकं भवति, पाक्षिकशब्देनैव चतुर्दश्या ग्रहणात् "अट्टमीए वा'' इत्येतदेव भणितव्यं स्यात्। पूर्वव्याख्यानेतुपौषधप्रस्तावाचतुर्दश्यष्टमीपौषधमपि प्रतिपादितमित्यनिन्द्यम, व्यवहारैर्वे दं भणितम् / कारणेनाऽऽचार्यः पृथगेकाकी एकरात्रादिकं वसतीत्येतस्मिन् प्रस्तावे "विज्जाणं परिवाडी, पुव्ये पव्ये य देंति आयरिया। मासद्धमासियाणं, पव्वं पुण होइ मज्झं तु // 1 // " पक्खा पव्वस्स वि मज्झं गाहा"पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं / अन्नं पि होइ पव्वं, उवरागो चंदसूराणं / / 1 / / " पक्खपव्वस्स मज्झं - अट्टमीबहुलाइया मास त्ति काउंमासस्स मज्झं पक्खियं किण्हचउद्दसीए विज्जासाहणोवयारो।" आह-यद्येवम्- "एगरायगहणं कायव्यं दुरायं तिरायं वेति न वत्तव्यं" अत उच्यते गाहा- "चाउद्दसिग्गहो हो- इकोइ अहवा विसोलसिगहणं / वत्तं तु अणज्जते, होइ दुराय तिरायं वा / 1 / " इयं गाथा व्याख्यानार्हा, परं न व्याख्याता, कण्ठेत्युक्तम् / सर्वस्याप्येतस्य किशिदव्याख्यातस्याऽपि पूज्यैः कथितार्थः कथ्यते विद्यानां देवताऽऽद्याष्ठितमत्राणां परिपार्टि परावर्तनं पर्वणि पर्वणि वक्ष्यमाणलक्षणे चकारोऽवधारणे, स चव्यवहितो योज्यः ददत्येव, अनेकार्थत्वाद्धातूना कुर्वन्ति, आचार्याः सूरयः / पर्वस्वरूपमाह- मासार्द्धमासिकयोः पर्व पुनर्भवति मध्यं वक्ष्यमाणम् / तुः पूरणे। तदेवाऽऽह-पक्षस्य प्रतीतस्य, अष्टमी तिथिलक्षणा, खलुरवधारणे सा च जिनगता / मासस्य पुनः प्रतीतस्य पाक्षिकमनिश्चितरूपम् यदि पुनरत्र चतुर्दशी पञ्चदशी वा भणिष्यते ततो निश्चितः स्यात् / यत्तूक्त चूर्णिकृता पाक्षिकव्याख्यानं कुर्वता- "भासस्स माझंपक्खियं किण्हपक्खस्स चउद्दसीए विज्जसाहणोवयारो" तच सम्यग नाऽवगम्यते / तथाहि यदि कृष्णचतुर्दशी परिपाटी पाक्षिकमित्युच्यतेततो "विज्जासाहणोक्यारो" अत्र उपचारशब्दो नावबुध्यते। न हि उपचार शब्देन परिपाटिण्यते स्वसमयवादिभिः / किं चैवं व्याख्याने शुक्लचतुर्दशीपाक्षिकशब्दव्याख्यानं न स्यात्, भण्यते च तन्मते शुक्लचतुर्दश्यपि पाक्षिकम्। पूज्यास्तु वदन्तिउपवारशब्देन पूर्वसेवाऽत्र भण्यते, ततः कृष्णचतुर्दश्या पूर्वसेवा नूतनमन्त्रग्रहणजपलक्षणा क्रियते। पाक्षिके चपञ्चदशीलक्षणे परिपाटिः परावर्तन विधीयते, इत्थ व्याख्याने पौर्णमास्यपि पाक्षिकं भवति, परिपाटीव पठने शुक्ल चतुर्दश्यां तु पूर्वसेवा न क्रियते इति सर्वजनप्रतीतम् / कृष्णचतुर्दश्यां चारुरफुरी मन्त्री भवत्यतस्तत्र पूर्वसेवा न क्रियते इतिद्विरात्रसाधकगाथाया अपि पूज्यव्याख्यानं चतुर्दश्या कृष्णायां ग्रहोऽभिनवविद्याग्रहणाऽऽदिरूपो भवति जायते कोऽप्यनिर्दिष्टनामा,अथवाअपीति विकल्पार्थः / षोडश्यां प्रतीताया, ग्रहणं भूयोऽपि रागलक्षणं भवतीति संबध्यते। व्यक्तं स्पष्टं, पञ्चदशयां षोडश्यां वा ग्रहणं जातमित्यज्ञायमानेऽनवबुध्यमाने द्विरात्रं त्रिरात्रं वा भवति वसितव्य- ] माचार्यस्य। इत्थमभिप्रायःयदि कृष्णचतुर्दश्यां ततो ग्रहणं न कृतं भवति. ततः पञ्चदशीषोडशीरूपं दिनद्वयम्। कृते तु ग्रहणे कृष्णचतुर्दशीसहिः तदेव त्रयमज्ञातं भवति। ज्ञाते तु यदि कृष्णचतुर्दश्यां ग्रहणं पूर्वसेवाला ततो दिनद्वयं, कृते त्वेकमेवेत्यादि ग्रहणे तु ज्ञाते एक दिनमडाते दिनद्वयम्। न हि शुक्लचतुर्दश्यां पूर्वसेवा भवति। ये तु चतुर्दश्या पालिक वदन्ति ते चन्द्रग्रहणदिनद्वयं पौर्णिमाप्रतिपल्लक्षणमज्ञाते त्येकमेद. शुक्लपक्षे परिवर्तनं नेत्युभयोरपि मतत्वात् / आदित्यग्रहणे च ज्ञाः दिनद्वयमज्ञाते तु दिनत्रयं भवति। किं च-यन्मते चतुर्दशीपाक्षिकं तन्म चतुर्दशीग्रहण 'चाउद्दसिगहो होइ कोइ" इत्यत्र तत्रिरर्थक स्थान चतुर्दश्या व्यवस्थितत्वात् किं न ग्रहणेन। अन्यच प्रज्ञा अत्रार्थ बदने यदा सांवत्सरिकं पशम्यामासीत् तदा पाक्षिकानिपञ्चदश्यां सदायाभूवन् / यतः- "इय सत्तरी जहन्ना" इत्येतत्पदमित्थं घटते। तथादिभाद्रपददिनानि दश, अश्वयुक्-कार्तिकमासदिनषष्टिश्च, मीलितः सप्ततिर्भवति। "अभिवड्डियम्मि वीसा, इयरम्म सवीसओ मासो। एतदपि युज्यते, यतः श्रावणः परिपूर्णः, भाद्रपदादिनानि च विंशतिनीलिते च पञ्चाशत् / एवमनभिवद्धिते, अभिवर्द्धिते तु विंशतिः श्रावणदिनरहिता। साम्प्रतं चतुर्थ्यां पर्युषणा, ततश्चतुर्दश्यां पाक्षिका घटन्ते। यतो भाद्रपददिनान्येकादश, अश्वयुदिनानि त्रिंशत्, कार्टिदिनान्येकोनत्रिंशत्, सर्वेषां मीलने सप्ततिः, सविंशतिमासा एकमाषाढदिन, श्रावणदिनानि त्रिंशत्, भाद्रस्यत्वेकोनत्रिंशत् नै। च सविंशतिमासे भवति विंशतिश्च तथैव, परमेकदिन आषाढमासान्छक्षपणीयभिति। यद्योच्यते एव सतिषष्ठं स्यात् पाक्षिके, भवतु मासमती पाक्षिकषष्ठेन क्रियते इत्यस्माभिराच्यते,किंतु चतुर्थेन, चतुर्दश्युपवार पर्वणितपो विधानमते तन्नलगत्येतदप्यनिन्धम्। तथा- "दिवसो पोत पक्खो वइक्कतो" इत्यादिपाक्षिकक्षामणकस्य चूण्य स्पर व्याख्यानमिदम्पौषधोऽष्टमीचतुर्दश्युपवासकरणम्। पौषधंतु प्रतीतमि व्याख्यान्तरं स्यादपिव्याख्याने नचतुर्दशीव्यवस्थितमिति यदि चात्रकिं क्रियते तथा च तत्रोक्तम्-"पोसहो त्ति" अट्ठमिचउद्दसीसु तथळावासकरण, सेसं कंठमिति। यदि तत्रापि किश्चिह्यख्यान्तर क्रियते तर संदेहोऽपि स्यात् परतन्त्रमध्ये स्वादितसतृप्तानां न मनांसि प्रीण्य, एवमन्य-शास्त्रान्तरोक्तं मध्यस्थैर्भूत्वा विचारणीयम् / तत्त्व तु सद्ध विशिष्टश्रुतविदो वा विदन्ति श्रावकापेक्षयातु पञ्चदश्यपि विशेषेणोक्तः तथा चाऽऽवश्यकचूर्णी - "सव्वेसु कालपव्वेसु, विसिट्ठो जिणमएटर जोगो। अट्ठमिपण्णरसीसु, णियमेणहवेज पोसहिओ।।१।। समन्दतस्तु तेषामपि भगवत्यादाविदमुक्तम्-"चाउद्दसट्टमुदिहपुन्नमासतुः पडिपुग्नं पोसह समणुपालेमाणे त्ति / " इति सप्रपञ्चभावनायुक्त गाथाऽर्थः। यद्येवं ततः किमित्याहतम्हारे जीव ! तुमं, मन्नसु धम्मत्थमप्पणो एवं / तं कुण जं आयरियं, जस्सटे तस्स सद्दहणं // 4 // तस्मात्कारणाने जीव ! इत्यामन्त्रणे। त्वं भवान् मन्यस्य जानीहिया क्षान्त्यादिनिमित्तमात्मनो जीवस्य एवं वक्ष्यमाणन्यायन तत् कुरु विरे यत् पाक्षिक्यादिआचरित मासेवितं पूर्वाऽऽचारितिगम्यते। यत् हान सिद्धान्ते तस्य शास्त्रोक्तर्थस्य श्रद्धानमेतदिति / अयमभिप्रक शास्त्रक्तं निश्चितमपि यन्नासे वितं पूर्वपुरूषैः केनचित् काई Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 283 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण बदन्यथा न क्रियते, तदाचरणाभावात्ः कृतं तु क्रियते / यथा बहुगुणं भवति तथा त एव जानते इति गाथार्थः / समर्थितस्तृतीयः पादिकविचारणलक्षणोऽधिकारः / जीवा०३ अधि०। जंय इमं गुणरयण-सायरमविराहिऊण तिण्णसंसारा। हे मगलं करित्ता, अहमवि आराहणाभिमुहो ||2|| (जे यइमं इति) ये महामुनयः, चशब्दो मङ्गलान्तरसमुच्चयार्थः / इमं जनशासनप्रसिद्धं (गुणरराणसायरं ति) गुणा महाव्रताऽऽदयस्त एव रत्नानि विशिष्टफलहेतुत्वात्सर्ववस्तुसारत्वाच्च गुणरत्नानि तान्येव बहत्वात्सागर इन सागरः समुद्रो गुणरत्नसागरः, तम्। किमित्याहअविराध्य अखण्डमनुपाल्य, तीर्णसंसारा लधितभवोदधयो जातासताम् परमात्मनो मङ्गल कृत्वा, शुभमनोवाक्कायगोचरं समानीयेत्यर्थः। उमापे, न केवलमुक्तन्यायेनाऽऽराधकत्वात् ते तीर्णभवार्णवाः, कि त्वहमपि संसारार्णवलधनार्थमेवाऽऽराधनायाः संपूर्णमोक्षमार्गानुपालनाया अभिमुखः संमुखः, कृतोद्यम इत्यर्थः, आराधनाऽभिमुखः संजात इति / तथामम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुयं च धम्मो य / खंती गुत्ती मुत्ती, अज्जवया मद्दवं चेव ||3|| (मम इति) मम मे, मङ्गलं श्रेयः कल्याणमिति यावत्। क एते? इत्याह(अरिहत त्ति) अशोकाऽद्यष्टमहाप्रातिहार्याऽऽदिरूपां पूजामहन्तीत्यहन्तस्तीर्थनायकाः / तथा- (सिद्ध त्ति) सितं बद्ध कर्म ध्मातं येषां ते सिद्धाः, शुक्लध्यानानलनिर्दग्धकर्मन्धना मुक्तिपदभाजो जीवाः / तथा-(साहु त्ति) निर्वाणसाधकान योगान् साधयन्तीति साधवो मुनयस्तद्गाच्चाऽऽचार्योपाध्याया अपि गृहीता एव द्रष्टव्याः / यतो न हितेन साधवः। तथा-(सुयं च त्ति) श्रूयत इति श्रुतम्, सामायिकाऽऽद्यागमः। चशब्दस्तगतभेदप्रदर्श-नार्थः / तथा-(धम्मो यत्ति) धारयति दुर्गती प्रपतन्तमात्मानामेति धर्मश्चारित्रलक्षणः, चशब्दः स्वभेदप्रदर्शकः / तथा-क्षान्तिः क्रोधपरित्यागो, गुप्तिः संलीनता, मुक्तिर्निर्लोभता। कापि "अहिंसा खंती मुत्ती'' इति पाठः सच सुगम एव। आर्जवता मायावर्जनं, मार्दवं मानत्यागः, चः समुच्चये, एवशब्दः पूरणे, अनेनापि गाथाद्वयेन मङ्गलमुक्तम्, लत्प्रयोजनं च प्राग्वत् / न चाऽत्र स्तोतव्यपदाना पौनरुवत्यचिन्ता कार्या, स्तुतिवचनेषु पुनरुक्तदोषानभ्युपगमात्। आह च- "सज्झायज्झाणतवोसहेसु उवएसथुइपयाणेसु / संतगुणकित्तणासु य, न होति पुणरुत्तदोसा उ॥२॥" अथाऽऽराधनाङ्गभूतामेव महाव्रतोच्चारणा कर्तुकाम इदमाहलोगम्मि संजया जं, करेंति परमरिसिदेसियमुयारं / अहमवि उवट्ठिओ तं, महवयउच्चारणं काउं।।४।। लोके तिर्यग्लोकलक्षणे, सम्यग्यताः संयताः साधवः, यां महाव्रतोचारणां प्रत्यहमुभयकालं विशेषतस्तु पक्षान्ताऽऽदिषु, कुर्वन्ति विदधति, किं विशिक्षा महाव्रतोचारणाम् ? अत आहपरमर्षिभिस्तीर्थकरगणधरैर्देशिता कथिता परमर्षिदेशिता, ता पुनः कर्थभूताम् ?- | उदारां विशिष्टकर्मक्षयकारणत्वात्प्रधानाम, अत एव चाऽऽदावियमेव प्रतिज्ञाता, अन्यथा श्रुतकीत्तर्नाऽऽदेरप्यत्र करिष्यमाणत्वात् अहमपिन केवलमन्ये साधव इत्यपिशब्दार्थः। उपस्थितः प्रवीभूतोऽभ्युद्यत इति यावत् / ता पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट महान्ति बृहन्ति तानि च तानि व्रतानि च नियमा महाव्रतानि, महत्त्वं चैतेषां सर्वजीवाऽऽदिविषयेन महाविषयत्वात्। उक्तं च - 'पढमम्मि सव्वजीवा,बीए चरिमेय सव्वदयाई। सेसा महव्यया खलु, तदेकदेसेण दव्वाण "||1|| इति (तदेकदेसेणं ति) तेषां द्रव्याणामेकदेशेनेत्यर्थः। तथा यावजीव त्रिविधं त्रिविधेनेति प्रत्याख्यानरूपत्वाच तेषामिति, देशविरतापेक्षया महतोवा गुणिनो व्रतानि महाव्रतानीति, तेषामुच्चारणा समुत्कीर्तना महाव्रतोचारणा महद्वतोचारणा या, तां कर्तुं विधातुमिति। (23) महाव्रतोच्चारणा तत्रेदमादिसूत्रम् - से किं तं महव्वयउच्चारणा ? | महव्वयउच्चारणा पंचविहा पन्नत्ता राईभोयणविरमणछट्ठा ||5|| अथास्य सूत्रस्य कः प्रस्ताव इत्युच्यते प्रश्रसूत्रमिदं, एतत्त्वादावुपन्यस्यन्निदं ज्ञापयति, पृच्छतो मध्यस्थस्य बुद्धिमतोऽर्थिनो विनेयस्य भगवदर्हदुपदिष्टतत्वप्ररूपणा कार्या नान्यस्य। तथा चोक्तम्- 'मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, श्रोता पात्रमिति स्मृतः।" इति। पात्रं योग्योऽर्होऽधिकारी चोच्यते, तस्मा इदमप्यध्ययनं देयमितिा आह-शुभाध्ययनप्रदानाधिकारे समभावव्यवस्थितानां सर्वत्र सत्त्वहिताय चोधतानां महापुरुषाणां किं योग्यायोग्यविभागनिरीक्षणेन, न हि परहितार्थ मिह महादानोद्यता महीयांसोऽर्थिगुणमपेक्ष्य दानक्रियायां प्रवर्तन्ते दयालव इति / अत्रोच्यतेननु यत एव शुभाध्ययनप्रदानाधिकारे समभावव्यवस्थिताः सर्वसत्त्वहितोद्यताः महापुरुषाश्च गुरवोऽत एव योग्यायोग्यविभागनिरीक्षणं न्याय्यं, मा भूदयोग्यप्रदाने तत्सम्यग्नियोगाक्षमार्थिजनाऽनर्थ इति। न खलु तत्त्वतोऽनुचितप्रदानेन दुःखहेतुना विवेकिनमर्थिजनमनुयोजयन्तोऽप्यनवगतपरार्थसंपादनोपायाः पुरुषा भवन्ति दयालव इत्यवधूय मिथ्याभिमानमालोच्यता-मेतदिति। आहक इवायोग्यप्रदाने दोष इति / उच्यते-स ह्यचिन्त्यचिन्तामणि कल्पमनेकभवशतसहस्रपात्तानिष्टदुष्टाष्टकर्मराशिजनित-दौर्गत्यविच्छेदकमपीदमयोग्यत्वादवाप्य न विधिवदासेवते, लाघवं चास्यासावापादयति, ततो विधिसमासेवक इव कल्याणम् अविधिसमासेवको महदकल्याणमासादयतीति। उक्तं च"आमे घडे निहत्तं, जहा जलं तं घड विणासेइ। इय सिद्धतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ // 1 // " ततोऽयोग्यश्रुतप्रदाने दातृकृतमेव वस्तुतस्तस्य तदकल्याणमि-त्यलं प्रसङ्गेन / प्रकृतं प्रस्तुमः-तत्र 'से' शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातोऽथशब्दार्थ द्रष्टव्यः, सच वाक्योपन्यासार्थः, किमित परप्रश्ने / ततश्चायं वाक्यार्थः-अथ किंतवस्तु महाव्रतोच्चारणा, प्राकृतशैल्याऽभिधेयवल्लिङ्गवचनानि भवन्तीति न्यायादेवं द्रष्टव्यम् / अथ का सा महाव्रतोच्चारणे ति ? एवं सामान्येन के नचित्प्रश्ने कृते सति भगवान गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनाऽऽदरार्थ किञ्चिच्छिष्योकुं प्रत्यु Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 284 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण च्चार्याऽऽह-महाव्रतोच्चारणाऽभिहितस्वरूपा पञ्चविधा पञ्च-प्रकारैव प्रज्ञप्ता प्ररूपिता, न चतुर्विधा, प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थयोः पञ्चानामेव महाव्रतानां भावात् / यदाह- "पंच जमा पढमतिमजिणाण सेसाण चत्तारि।" इति। अनेन चागृहीतशिष्याभिधानेन निर्वचनसूत्रेणैतदाहन सर्वमेव सूत्रं गणधर-प्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं, किंतर्हि ? / किञ्चिदेव, बाहुल्येन तु तदृब्धमेव / तथा चोक्तम्- "अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा णिउणं।" इति। ततश्च यदा तीर्थकरगणधरा एव प्रज्ञप्तेत्येवमाहुस्तदाऽयमर्थोऽवरोयोऽन्यैरपि तीर्थङ्करगणधरैः प्ररूपितेति / यदा पुनरन्यः कश्चिदाचार्यस्तन्मतानुसारी प्रज्ञप्तेति प्राह-तदातीर्थङ्करगणधरैरेव देशितेत्ययमों द्रष्टव्यः / किं विशिष्टा सा? इत्याह-रात्रिभोजनविरमणं निशि जेमनवर्जनं षष्ठं यस्यां सा रात्रिभोजनविरमणषष्ठा। अथ रात्रिभोजनविरमणषष्ठ पञ्चविधत्वमुपदर्शयन्नाह-- तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं 1, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं 2, सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं 3, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं 4, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमाणं 5. सव्वाओ राईभोयणाणओ वेरमणं६॥ तद्यथेत्युपदर्शनार्थः / सर्वस्मान्निरवशेषात्त्रसस्थावरसूक्ष्मबादरभेदभिन्नात्कृतकारितानुमतिभेदाच्चेत्यर्थः। अथवा-द्रव्यतः षड्जीवनिकायविषयात, क्षेत्रतस्त्रिलोकसम्भवात्, कालतोऽतीताऽऽदे रात्र्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्वेषसमुत्थात् प्राणानामिन्द्रियोच्छ्वासाऽऽयुरादीनामतिपातः प्राणिनः सकाशाद्विभ्रंश प्राणातिपातः, प्राणिप्राणवियोजनमित्यर्थ / तस्माद्विरमणं सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वक निवर्तनमिति ||1|| तथा-सर्वस्यान्सद्भावप्रतिषेधा १ऽसद्भावोद्भावना२ऽर्थान्तरोक्ति३ग४िभेदात्कृताऽऽदिभेदाच्च, अथवा-द्रव्यतः सर्वधर्मास्तिकायाऽऽदिद्रव्यविषयात्, क्षेत्रतः सर्वलोकालोकगोचरात्, कालतोऽतीताऽऽद रात्र्यादिवर्तिनो वा, भावतः कषायनोकषायाऽऽदिप्रभवात् मृषाऽलीकं वदनं वादो मृषा वादस्तस्माद् विरमणं विरतिरिति॥श तथा सर्वस्मात्कृताऽऽदिभेदाद, अथवा-द्रव्यतः सचेतनाचेतनद्रव्यविषयात्, क्षेत्रतो ग्रामनगरारण्याऽऽदिसम्भवात् कालतोऽतीताऽऽदे रात्र्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्वेषमोहसमुत्थात् अदत्तं स्वाभिनाऽवितीर्ण तस्याऽऽदानं ग्रहणमदत्ताऽऽदानं तस्माद्विरमणमिति / / 3 / / तथा-सर्वस्मात्कृतकारितानुमतिभेदात्, अथवा-द्रव्यतो दिव्यमानुषतैरश्वभेदात् रूपरूपसहगतभेदावा, क्षेत्रतरत्रैलोक्यसंभवात, कालतोऽतीताऽऽदे रात्र्यादिसमुत्थाद्वा भावतो रागद्वेषप्रभवात्, मिथुनं स्त्रीपुंसद्वन्द्व, तस्य कर्म मैथुन, तस्माद्विरमणमिति।।४।। तथा-सर्वस्मात् कृताऽऽदेः, अथवा-द्रव्यतः सर्वद्रव्यविषयात्, क्षेत्रतो लोकसंभवात्, कालतोऽतीताऽऽदे रात्र्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्वेषविषयात् परिगृह्यते आदीयते परिग्रहणं वा परिग्रहस्तस्माद्विरमणमिति // 5 // तथा-सर्वस्मात्कृताऽऽदिरूपादिवा गृहीत दिवा भुक्तम् दिया गृहीत सत्रो युक्तम् रात्रौ गृहीतं दिवा भुक्तम३, रात्री गृहीतं रात्रौ भुक्तमिति 4 चतुर्भङ्गरूपाच्चेत्यर्थ / अथवा-द्रव्यतश्चतु- विधाऽऽहारविषयात् क्षेत्रतः समयक्षेत्रगोचरात्कालतो रात्र्यादिसंभात भावतो रागद्वेषप्रभवात् रात्रिभोजनात् रजनीजेमनाद्विरमणमिति // 6 एवं सामान्येन व्रतषट्कमभिहितम्। अथ विशेषतस्तत्स्वरूपनिरूपणार्थमाहतत्थ खलु पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं, सम्य भंते ! पाणाइवायं पचक्खामि, से सुहमं वा बायरं वा तस हा थावरं वा नेव सयं पाणे अइवाएज्जा, नेवऽनेहिं पाणे अइवायाविज्जा, पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणुजाणामि। तत्र तेषुषट्सुव्रतेषु मध्ये, खलुशब्दादन्येषु च मध्यमतीर्थकरप्रणीत चतुर्यामेषु, वाक्यालङ्कारार्थो वा खलुशब्दः, प्रथमे सूत्रक्रमप्रामाण्यादाट "भते त्ति''गुरोरामन्त्रणम्। अस्य च साधारणश्रुतित्वाद्भदन्त ! भवान्त, भयान्त इति वा संस्कारो विधेयः, तत्र भदन्तः कल्याणः सुखश्वोच्चने तद्रूपत्वात्तद्धेतुत्वाद्वेति, तथाभवस्य संसारस्यान्तो विनाशस्तेन्नाचार्येण समाश्रितसत्त्वानां क्रियत इति भवान्तकरत्वात् भवान्तः तथाभयमिह-परलोकादानाकस्मादश्लोकाजीविकामरणभेदात्सना वक्ष्यमाणलक्षणम्, एतस्य सप्तविधभयस्य यमाचार्य प्राप्यान्त भवन स भयान्त इति। एतच्च गुमिन्त्रणं गुरुसाक्षिकैव व्रतप्रतिपत्तिः साछी ज्ञापनार्थ सर्वशुभानुष्ठानगुरुतन्त्रताप्रति-पादनार्थ चेति। महच्च तटा च तस्मिन्महाव्रते, महत्त्वं चास्य श्रावकसम्बन्ध्यणुव्रतापेक्षयेति। अचान्त सप्तचत्वारिंशदधिकप्रत्याख्यानभङ्ग शताधिकारः, तच्चोपरिष्ट क्ष्यामः / प्राणा इन्द्रियाऽऽदयस्तेषामतिपातो विनाशः प्राणतिकः जीवस्य महादु खोत्पादनं, न तुजीवातिपात एव, तस्माद्विरमणं सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनम्। भगवतोक्तमितिशेषः / यतश्चैठार उपादेयमेतदिति विनिश्चित्य सर्वं निरवशेष, नतु परिस्थूरमेव, भदन् गुर्वामन्त्रण, प्रतिपदमनुवृत्तिज्ञापनार्थं च पुनरस्योपन्यासः, प्राणालियर जीवितविनाशं, प्रत्याख्यामि परिवर्जयामीत्यर्थः / अथवा-प्रत्याच संवृताऽऽत्मा साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्याऽऽदरेणाभिधानं करेग्मीत्य: अनेन व्रतार्थपरिज्ञानाऽऽदिगुणयुक्तो व्रतार्ह इत्यावेदयति। उक्तंच. "पढिए कहिय अहिगय, परिहर उवठावणाएं कप्यो त्ति। छक्क तिहिं विसुद्धं, परिहर नवएण भेएण॥१॥ पडपासाउरमाई, दिढ़ता हुंति वयसमारुहणे। जह मलिणाइसु दोसा, सुद्धाइसु नेयमिहई पि // 2 // " एयासिंलेसओ विवरणं पढियाए सत्थपरिन्नाए छजीवणियाए वा.रे. चेव कहियाए गुरुणा वक्खायाए, अहिगयाए अत्थओ परिन्नायार, सम परिहरंतो उवट्ठावणाए कप्पो जोग्गो, परिहारमेव वक्खाइ- ( ति) छज्जीवनिकाए, तिहिं मणवयकाएहि, विसुद्धं परिहरइनतरण भएका पत्तेयं मणाइकयकारियाणुमइसरूवेण, सम्म च परिक्खिन उवहाविजइ नऽण्णहा, इमे य इत्थं दिट्ठता। मइलो पडो न रंगिज सोधियो चेव रंगिइ। असोहिा मूलपणा प्रासाओ न कीरइ, सोहिए / कीरइ। वमणाईहिं असोहिए आउरे ओसहं न दिजइ, सोहिए चेव दिजइ: Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 285 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण चित) आइसघाओ अस्टविए रयणे पडिबंधो न किज्जइ, संठविए चेव किजइ। एवं पढियकहियाइाहे असाहिए सीसे न वयावरोवणं किजइ, सोहिए चेव कबइ। असोहिए य करणे गुरुणो दोसो, सोहियापालणे सीसस्सदोसो।' इति कृतं प्रसङ्गेन / प्रकृतमुच्यते-तत्र यदुक्तं सर्व भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्य मिलदेतद्विशेषताऽभिधित्सुराह-(से सुहमं वेत्यादि) 'से' शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थः, स चोपन्यासे / तद्यथा-सूक्ष्म वा बादरं वा वसं वा स्थावरं वा / अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते न तु सूक्ष्मनामकांदयात्सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासंभवात्, बादरोऽपि स्थूलो, वाशब्दो परस्परापेक्षया समुचये, स चैकैको द्विधात्रसः, स्थावरश्च / तत्र सूक्ष्मस्वस: कुन्थ्वादिः, स्थावरोवनस्पत्यादिः, बादरस्तुत्रसो गवादिः, स्थावरः पृथिव्यादिः। अत्रापि वाशब्दौ समुच्चये। एतान्पूर्वोक्तान् नैव स्वयमात्मन प्राणिनो जीवान (अइवाएज त्ति ) विभक्तिव्यत्ययादतिपातयामि विनाशयामि, मारयामीति यावत्, नैवान्यैरात्मव्यतिरिक्तजनैः प्राणिनोऽतिपातयामि, प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान् परान्न समनुजानाम्यनुमोदयामि / पा० / (विशेषतः प्राणतिपातस्वरूप 'पाणाइवाय शब्दे वक्ष्यते) कथमित्याहजावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। (जावजीवार इत्यादि) "जावज्जीवाए त्ति' प्राकृतत्वाज्जीवन जीवः प्राणधार, यावजीवो यावज्जीवम् / "यावदियत्त्वे" / / 3 / 1 / 31 / / (सिद्धहे०) इत्यनेनाव्ययीभावसमासः / ततश्च यावज्जीवं प्राणधारणं यावत् / अथवा-अलाक्षणिकवर्णलोपाद्यावज्जीवं भावो यावज्जीवता, तया यावजीवतया आ प्राणेपरमादित्यर्थः / परतस्तुन विधिर्नापि प्रतिषेधो, विधावाशंसादोषप्रसङ्गात्, प्रतिषेधे तु सुराऽऽदिषु अविरतेषूत्पन्नस्य भङ्गप्रसङ्गात् किमित्याह-तिस्त्रो विधा यस्य, प्राणातिपातस्येति गम्यते, असौ त्रिविधस्तं त्रिविधेन, एतदेव दर्शयतिमनसाऽन्तः-करणेन, धाचा वचनेन, कायेन शरीरेण / अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणः प्राणातिपातः, तमपि वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैवदर्शयन्नाह-न करोमि स्वयं, न कारयाम्यन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि नानुमन्येऽहमिति। अत्राऽऽह-किं पुनः कारणमुद्देशक्रममतिलध्य व्यत्ययेन निर्देशः कृत? इति। अत्रोच्यतेकरणाऽऽयत्ता कृताऽऽदिरूपा क्रिया प्रवर्तत इति दर्शनार्थम् / तथाहि-कृताऽऽदिरूपा क्रिया मनः-प्रभृतिकरणवशा एव करणानां भावे क्रियाया अपि भावात् अभावे चाभावात्करणानामेव तथाक्रि यारूपेण परिणतेरितिभावः / अपरस्त्वाह-न करोमिन कारयामि कुर्वन्तं न समनुजानामीत्येतावता ग्रन्थेन गतेऽपि अप्यन्यमित्यतिरिच्यते, तशा चातिरिक्तेन सूत्रेण नार्थ इति ? 1 अत्रोच्यते-साभिप्रायकमिदमनुक्तस्याप्यर्थस्य संग्रहार्थ, यस्मात्संभावनार्थोऽयमपिशब्द उभयपदमध्यस्थ एतदावेदयति-यथा कुर्वन्तं नानुजानामि, एवं कारयन्तमप्यन्यमनुज्ञापयन्तमप्यन्यं न समनुजानामिति तथा यथा वर्तमानकाले कुर्वन्तमन्यं न समनुजानामि, एवमपिशब्दादतीतकाले कृतवन्तमपि अनुज्ञापितवन्तमपि, एवमनागतकालेऽपीति, तथा न क्रियाक्रियावतोर्भेद एवातो न केवला क्रिया संभवतीति ख्यापनार्थमन्यग्रहणमिति / तथा तस्य त्रिकालभाविनोऽधिकृतप्राणातिपातस्य संबन्धिनमतीतमवयवं, न तु वर्तमानमनागतं वा, अतीतस्यैव प्रतिक्रमणत्वात्, भदन्तेति गुर्वामन्त्रणं प्राग्वत्, प्रतिक्रमामि मिथ्यादुष्कृतं तत्र प्रयच्छामीत्युक्तं भवति, तच्च द्रव्यतो भावतश्च संभवति। तत्राऽऽद्ये कुलालोदाहरणम् - "किर एगया एगस्स कुंभगारस्स कुडीए साहुणो ठिया। तत्थेगो चिल्लगो चवलत्तणेण तस्स कुंभगारस्स कोलालाणि अंगुलियधणुगएणं पाहाणेहिं विधेइ / कुंभगारेण पडिजग्गिओ दिट्ठो भणिओखुड्डगा ! कीस मे कोलालाणि काणेसि? खुड्डगो भणइ-मिच्छामि दुक्कडं न पुणो विधिस्सं मणागं पमायं गओ मि त्ति / एवं सो पुणो वि केलीकिलत्तणेण विंधेऊण चोइओ मिच्छा मि दुक्कडं देइ / पच्छा कुंभकारेण सढो त्ति नाऊण तस्स खुड्डगस्स कन्नामोडओ दिन्नो / सो भणई-दुक्खविओऽहं / कुंभकारो भणइ मिच्छा भिदुक्कड। एवं सो पुणो पुणो कन्नामोडयंदाऊण मिच्छा मि दुक्कड करेइ / पच्छा चेल्लओ भणइ-अहो सुंदरं मिच्छा मि दुक्कडं ति। कुंभकारो भणइतुभ वि एरिसं चेव मिच्छा मि दुक्कडं ति। पच्छा ठिओ विधेयव्वस्स।" किच- "जं दुक्कड ति मिच्छा, तं चेव निसेवई पुणो पावं। पच्चक्खमुसावाई, मायानियडीपसंगोय।।१।।" इदं द्रव्यप्रतिक्रमणम्। भावप्रतिक्रमणे तु मृगावत्युदाहरणम् - "भगवं बद्धमाणसामी कोसंबीए समोसरिओ। तत्थ चंदसूरा भगवओ वंदगा सविमाणा ओइन्ना तत्थ मिगावई अज्जा उदयण-माया उदिवसो त्ति काउंचिरं ठिया। सेसाओ साहुणीओ तित्थगरंवन्दिऊणपडिगयाओ, चन्दसूरा वि सट्ठाणं पत्ता। ताहे सिग्घमेव वियालीहूयं मिगावई वि संभत्ता गया सोवस्सय, साहुणीओ वि कयावस्सयाओ अत्थंति। तओ मिगावई आलोएउं पवत्ता अज्जचंदणाए भन्नइ-कीस अज्जे चिर ठियासि ? जुत्तं नाम तुज्झ उत्तमकुलप्पसूयाए एगागिणीए एच्चिरं अत्थिउं ति? सा सब्भा-वेण मिच्छा मि दुक्कड़ भणमाणी अज्जचंदणाए पाएसुनिवडिया। अज्जचंदणाए वेतिविताएवेलाए संथारगगयाए निद्या आगया, मिगावईए वि तिव्वसंवेगमावन्नाए पायवडियाए चेव केवलनाणं समुप्पन्नं / सप्पो य तेण मग्गेणं समागओ, अज्जचंदणाएसंथारगाओ हत्थोलंबइ। मिगावईए मा खजिहि त्ति सो हत्थो संथारगं चडाविओ।सा विबुद्धा भणइ-किमेयं ति, अज्ज वि तुम अत्थसि ति? मिच्छा मि दुक्कडं, निद्दापमाएणं न उद्ववियासि / मिगावई भणइएस सप्पो मा भे खाहिइ त्ति अओ हत्थो चडाविओ। भणइ-कहिं सो? सा दाएइ। अज्जचन्दणा अपेच्छमाणी भणइ-अज्जे ! किं ते अइसओ। सा भणइ-आमं। तो किं छाउमत्थिओ, केवलिओत्ति। सा भणइ केवलिओ त्ति / पच्छा अज्जचंन्दणा मियावईए पाएसु पडिउ भणइ-मिच्छा मि दुक्कड, केवली आसाइओ त्ति।" इदं भावप्रतिक्रमणम्। किश- "जइ य पडि कमियटवं, अवस्स काऊण पावयं कम्म / तं चेवन कायव्यं, तो होइपए पडिक्कं तो।।१।।" तथा Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कम (निंदामि गरिहामीति) अत्राऽऽत्मसाक्षिकी निन्दा, परसाक्षिकी गर्दा अहोसे कयपुन्नय त्ति / दुम्मुहेणं भणिय-कुतो एयस्स धन्नया? जो जुगुप्सोच्यते / निन्दाऽपि द्रव्यतो, भावतश्च संभवति / तत्र द्रव्यनिन्दा असंजायबलं पुत्तं रज्जे ठविऊण पव्वइओं , सो तवस्सी दाइपहि चित्रकरदारिकाया इव परिभविजइ, नगरं च उत्तम खयं पडिवन्न, ता एवमणेण बहुलोगो दुस्से "सा किर चित्तगरदारिया ओवरयं पविसिऊण कवाडाणि पिहि-ऊण टविओ, ता सव्वहा अदट्ठव्वो एसो ति / ताहे तस्स रायरिसिणो को चिराणए मणियए चीराणि य पुरओ काउं अप्पाणं निन्दिया -इया जहा- जाओ, चितियं चाणेण-को मम पुत्तस्स अवकरेइ त्ति नूणममुगतो ता हि "तुम चित्तगरदारिया ! एयाणि ते पिइसतियाणि चेलाणि आभरणगाणि तेण एयावत्थं गओ विणं वावाएमि / माणससंगामेण रोइज्झाणं पवन्नो। य, इमा पुण पट्टसुयरयणमाइया रायसिरी, अन्नाओयउन्नयकुलपसूयाओ हत्थिणा हत्थि आसेण आसं वावाए त्ति विभासा / इत्थंतरे सेणि रायवरधूयाओ मोत्तुं राया तुमं अणुयत्तइ ता मा गव्वं करेसि त्ति / एसा भगवओ वंदिउ निग्गच्छइ, तेण दिट्ठो वंदिओ य / तेण ईसि पिन दव्यनिंदा।" निज्झाइओ / तओ सेणिएण चिंतियं-सुक्कज्झाणोवगओ भगय त भावनिन्दा ईदिसम्मि झाणे कालगयस्स का गई भवइ त्ति भगवंत पुच्छिस्लानि "साहुणा अप्पा निंदियवा- "जीव ! तए हिंडतेण नारयतिरियगईसु तओगओ वंदिऊण पुच्छिओ-अणेण भगवं!जम्मि झाणे ठिओ मए वंदित कह विमाणुसत्ते सम्मत्तनाणचरित्ताणि लद्धाणि, जेसिं पसाएण सव्वलोए पसन्नचंदो तम्मि मयस्स कहिं उववाओ भवइ ? भगवया भणियंत्र माणणिज्जो पूयणिज्जो य, ता मा गव्वं काहिंसि-जहाऽहं बहुस्सुओ, सत्तमपुढवीए। तओ सेणिएण चिंतियं-हा किमेयं ति। पुणो वि पुच्छित उत्तमचरित्तो वत्ति।" तथा-''हा दुटुकयं हा दुटु कारिय अणुमयं पि एत्थंतरम्मि पसन्नचंदस्स माणसे संगामे पहाणनायगेण सहावडिया हा दुठु। अंतो अंतो डज्झइ, सिरोव्व दुमो वणदवेणं " // 1 // इति। असिसत्तिचक्ककप्पणीपमुहाइंखयं गयाइं पहरणाई, तओ णेण सिरत्तार गर्हाऽपि द्रव्यतो भावतश्च भवति-तत्र द्रव्यगर्हायां मरुक-उदाहरणम्- वावाएमित्ति परामुसियमुत्तमंग जाव लोय कयं पासति तओ संवेगमाक "आणंदपुरे नयरे एगो मरूओ, सो सुलाए समं संवास काऊण अचंतविसुज्झमाणपरिणामेण अत्ताणं निदिउँ पयट्टो समाहियमदेव उवज्झायस्स कहेइ, जहा-सुविणए सुलए समं संवासं गओ मि ति।" पुणरवि सुक्काज्झाणं / एत्थंतरम्मि सेणिएण भगवं पुणो वि पुच्छिओजारित भावगर्हायां तु साधुरुदाहरणम् झाणे संपइ पसन्नचंदो वदृइ तारिसे मयस्स कहिं उववाओ? भगवया ''गंतूण गुरुसगासे, काऊण य अंजलिं विणयमूलं / जह अप्पणो तह भणियं-अणुत्तरसुरेसु।तओ सेणिएण भणियंपुव्वं किभन्नहापरूवियं उया परे, आणवणा एस गरिह त्ति // 1 // ' किं जुगुप्सा?, इत्याह- आत्मानम- मया अन्नहाऽवहारियं ति। भगवया भणियनन्नहा परूिविअं नावित तीतप्राणातिपातक्रियाकारिणमश्लाध्यम्, तथा व्युत्सृजामिति विविध अन्नहाऽवगयं / तओ सेणिएण भणियं-कहमेयंति। तओ भगवया सर्व विशेषेण वा भृशं त्यजामि, अतीतप्राणातिपातमिति गम्यते / आह- वुतंतो साहिओ। एत्थंतरम्भि पसन्नचंदमहरिसिणो समीवे रिक यद्येवमतीतप्राणातिपातपतिक्रमणमात्रमस्य सूत्रस्यैदम्पर्य, न प्रत्युत्पन्न- देवदुंदुहिसणाहो महंतकलयलो ओहाइओ। तओ सेणिएण भणियसंवरणमनागतप्रत्याख्यानं चेति / नैतदेवम्-"सव्वं भंते ! पाणाइवार्य भयवं ! किमयं ति। भगक्या भणियं-तस्सेव विसुज्झमाणपरिणामस्त पच्चक्खामि।" इत्यादिना तदुभयसिद्धेरिति / अपरस्त्वाह-ननु सर्व केवलनाणं समुप्पण्णं। तओ देवो से महिमं करेति त्ति।" एवं प्रसञ्चन्द्र भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीत्युक्ते प्राणातिपातनिवृत्तिरभिधीयते, द्रव्यव्युत्सर्गभावव्युत्सर्गयोरुदाहरणं विज्ञेय इति। पा०। (प्रत्यास्थानतदनन्तरं च व्युत्सृजामीतिशब्दप्रयोगे वैपरीत्यमापद्यते। तन्न / यस्मा- भेदाः पचक्खाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 264 पृष्ठे गताः) प्रकृतनुच्यतेन्मांसाऽऽदिविरमणक्रियाऽनन्तरं व्युत्सृजामीतिप्रयुक्ते तद्विपक्षत्यागो इह च सूक्ष्म वा बादरं वेत्यादिना द्रव्यप्राणातिपातोऽनेन चैकाहः मांसभक्षणनिवृत्तिरभिधीयते / एवं प्राणातिपातविरत्यनन्तरमपि प्रयुक्ते तज्जातीयग्रहणमिति न्यायाच्चतु विधः प्राणातिपात उपलक्षित इत्यतव्युत्सृजामीतिशब्दे तद्विपक्षत्यागोऽवगम्यत इति न कश्चिद्दोष इति / स्तदभिधानायाऽऽहव्युत्सर्गोऽपि द्रव्यभावभेदाद द्विधा / तत्रोदाहरणं प्रसन्नचन्द्रो यथा से पाणाइवाए चउव्विहे पन्नते / तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, "खितिपइट्ठिए नयरे पसन्नचंदो राया / तत्थ य भगवं महावीरो कालओ, भावओ। दव्वओ णं पाणाइवाए छसु जीवनिकाएसु, समोसढो। तओ राया धम्म सोऊण संजायसंवेगो पव्वइओ गीयत्थो खेत्तओ णं पाणाइवाए सव्वलोए, कालओ णं पाणाइवाए दिया जाओ। अन्नया जिणकप्पं पडिवजिउकामो सत्तभावणाए अप्पाणं भावेइ। वा राओ वा, भावओ णं पाणाइवाए रागेण वा दोसेण वा। तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे मसाणे पडिम पडिवन्नो। तत्थ भगवं (सेत्ति) स पूर्वोक्तः प्राणातिपातः प्राणिप्राणवियोगः, चतुर्विधश्चतुःमहावीरो समोसढो। विरइयं देवेहिं समोसरणं। लोगो य वंदगो नीइ. दुवे प्रकारः प्रज्ञप्तो जिनैरभिहितः। तद्यथा-द्रव्यतो द्रव्यप्रधानतामाश्रित्व य वाणियगा सुमुहदुम्मुहनामाणो खिइपइट्टियनगराओ तत्थेव आगया। क्षेत्रतः क्षेत्रमङ्गीकृत्य, कालतः कालं प्रतीत्य, भावतः भावमुररीकृत्य पसन्नचन्द पडिमडियं पासिऊण सुमुहेण भणियएसो सो अम्हाणं सामी / एतानेव व्याचष्टेद्रव्यत इति व्याख्येयपदपरामर्शः, णमिति वाक्याजो तहाविहं रायलच्छि परिच्चइय तवसिरि पडिवन्नो, अहो से धन्नया, | लङ्कारे / प्राणातिपातः षट्सु षट्सख्येषु जीवनिकायेषु सूक्ष्माऽऽदिभेदनि Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 287 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण श्रेषु प्राणिगणेषु, संभवतीति शेषः / क्षेत्रतो, णमित्यलद्वारे प्राणतिपातः सर्वलोके तिर्यग्लोकाऽऽदिभेदभिन्ने भुवने भवतीति। कालतो, णमिति प्रास्यत्, प्राणतिपातो दिवा वासरे, वा समुच्चये। रात्रौ रजन्या,वा समुच्चय श्व स्यादिति / भावता, णमिति प्राग्वदेव, प्राणातिपातो रागेण मांसाऽऽदिभक्षणाऽऽद्यभिप्रायलक्षणेन, द्वेषेण शत्रुहननाऽऽदिपरिगामस्वरूपेण, वाशब्द समुच्चये, स्यादिति द्रव्यभावपदसमुत्था चतुर्भड्रिक चात्र / तद्यथा-द्रव्यतो हिंसा भावतश्च 1, तथा-द्रव्यतो न भावतः२. तथा-भावतो न द्रव्यतः३. तथा-न-द्रव्य-तो न भावत इति ' / तत्रयं भङ्गकभावार्थ:- द्रव्यतो, भावतश्चेति / 'जह केइ पुरिसे मियवहाए परिणते मियं पसित्ता आयन्नायड्डियकोदण्डजीवे सरं निसिरेज्जा, से य मिगे तण सरेण विखे मए सिया, एसा दव्वओ हिंसा, पात्रओ वि!' या पुनर्रव्यतो न भावतःसा खल्वीर्याऽऽदिसमितस्य साधोः कारणे गच्छत इति। उक्तं च - "उच्चालियाम्म पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए। वावज्जेज कुलिंगी, मरेज्जत जोगमासज्ज / / 1 / / नउ तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो विदेसिओ समए। अणवज्जो उवओगे-ण सव्वभावेण सो जम्हा॥२॥" इत्यादि। या पुनभावतो न द्रव्यतः सेयम् - 'जहा केइ पुरिसे मंदमंदप्पगासे पएसे संठिय ईसिं वलिपकार्य रज्जु पासित्ता एस अहि त्ति तत्थ हणणपरिणानपरिणए निकहिया सिपत्ते दुयं दुर्य छिदिज्जा, एसा भावओ हिंसा न दव्वओ। चरमभङ्गस्तु शून्य इति। एवं प्राणातिपातं भेदतोऽभिधायाऽथ तस्यैवातीतकाल-विहितस्य सविशेषनिन्दाप्रतिपादक सूत्रमाहजंमए इमस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खणस्स सबाहिट्ठियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरन्नसोवनियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स मिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंबलस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्स निव्वियारस्स निवित्तीलक्खणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामिस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुट्विं अणाणयाए असवणयाए अवोहिए अणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएक रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किडुयाए तिगारवगरुयाए चउक्क साओवगएणं पंचिं दियओवसट्टे णं पडुप्पन्नभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं इह वा भवेअन्नेसु वा भवग्गहणेसु पाणाइवाओ कओ वा काराविओवा कीरंतो वा परेहि समणुण्णाओ / तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं / / अत्र च यो मयाऽस्य धर्मस्य केवलिप्रज्ञप्ताऽऽदिद्वाविंशतिविशेषपविशेषितस्य पूर्वमज्ञानताऽऽदिभिश्चतुर्भिः प्रमादाऽऽदिभिश्चैकादशभिः कारणः प्राणातिपातः कृतस्तं निन्दामीत्यादिसंबन्धो द्रष्टव्यः (जति) | विभक्तिव्यत्ययाद्यः प्राणातिपात इति योगः / भाषामात्रे वा यदिति पदं व्याख्येयम् / मयेति प्रतिक्रामकसाधुरात्मान निर्दिशति / अस्य स्वहृदयप्रत्यक्षस्य धर्मस्य प्रक्रमात्सर्वचारित्राऽऽत्मकस्य, अत्र च- "जं पियमए इमस्स धम्मस्स" तथा "जं पिय इमं अम्हेहिं इमस्सधम्मस्स'' इत्यादि पाठान्तराण्युक्तानुसारतः स्वयं व्याख्येयानीति / किंविशिष्टस्य ? केवलिप्रज्ञप्तस्य सर्वज्ञोपदिष्टस्य / 1 / तथा-अंहिसा प्राणिसंरक्षणं लक्षणं चिहं यस्यासौ अहिंसालक्षणः सत्त्वानुकम्पानुमेयसंभव इत्यर्थस्तस्य / 2 / तथा-सत्येनावितथभाषणेनाधिष्ठितः समाश्रितः सत्याधिष्टितः सत्यवचनव्याप्त इत्यर्थस्तस्य।३।तथा-विनयो विनीतता मूल कारण यस्यासौ विनयमूलो विनयप्रभव इत्यर्थस्तस्य / 4 / तथा क्षान्तिः क्षमा प्रधाना सारभूता यस्यासौ क्षान्तिप्रधानस्तस्य 15 तथा हिरण्यं रजतं सौवर्णिकं सुवर्णमयं कनककलशाऽऽदि, न विद्यते हिरण्वसौयर्णिक यत्राऽसौ अहिरण्यसौवर्णिकः, उपलक्षणत्वात्सर्वपरिग्रहरहित इत्यर्थस्तस्य / 6 / तथोपशम इन्द्रियनोइन्द्रियजयस्तस्मात्प्रभवो जन्मोत्पत्तिर्यस्यासौ उपशमप्रभव इन्द्रियमनोनिग्रहलभ्य इत्यर्थस्तस्य। 7 / तथा-नवब्रह्मचर्याणि गुप्तिशब्दलोपात् वसतिकथाऽऽद्यानवब्रह्मचर्यगुप्तयस्ताभिर्गुप्तः सरक्षितो नवबृह्मचर्यगुप्तिगुप्तस्तस्य।८। तथा-न विद्यन्ते पचमानाः पाचका यत्रासौ अपचमानः, पाकक्रियाविनिवृत्तसत्वासेवित इत्यर्थः / अथवा-पचने पचमानो, न पचमानोऽपचमानो धर्मो , धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात्, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम्।। अत एव भिक्षावृत्तेर्भिक्षया भक्ताऽऽदेः परतो याचनेन वृत्तिर्वर्तनं धर्मसाधक.. कायपालनं यत्रासौ भिक्षावृत्तिस्तस्य / 10 / तथाकुक्षावेव बहि: सञ्चयाभावाज्जठर एव शम्बलं पाथेयं यत्रासौ कुक्षिशम्बलस्तस्य।११। तथा-निर्गतमनेः पावकाच्छरणं शीताऽऽदिपरित्राणं यत्र। अथवा-निर्गते स्वीकाराभावादग्निशरणे वह्निभवने यत्रासौ निरग्निशरणः / अथवानिर्गतमग्रेः स्मरणं यत्रासौ निरग्निस्मरणस्तस्य।१शतथा-संप्रक्षालयति कर्ममलं शोधयतीत्येवंशीलः सम्प्रक्षाली, तस्य, कप्रत्ययोपादानाद्वा सम्प्रक्षालिकस्य, सम्प्रक्षालितस्य वा सर्वदोषमलरहितस्य / 13 / अथपतथाब त्यक्ता हानि नीता अभावमापादिता इति यावद्दोषा मिथ्यात्वाज्ञानाऽऽदिदूषणानि येनासौ त्यक्तदोषः / अथवा-त्यक्तो द्वेषोऽप्रीतिलक्षणो यस्मिन्नसौ त्यक्तद्वेषस्तस्य।१४। अत एव गुणग्राहिणो गुणग्रहण-शीलस्य, कप्रत्ययविधानाद् गुणग्राहिकस्य वा पाठान्तरम्। तथाहि-प्रकृतधर्मचारिणो गुणवद्गुणोपबृंहणपरा एव भवन्त्यन्यथा धर्मस्यैवाभावप्रसङ्गात् / यदाह- "नो खलु अप्परिवडिए, निच्छवओ मइलिए व सम्मत्ते / होइ तओ परिणामो, जुत्तोणुवबूह-णाईया // 1 // " / 15 / तथा-निर्गतो विकारः कामोन्मादलक्षणो यस्मादसौ निर्विकारस्तस्य / 16 / तथा-निवृत्तिलक्षणस्य सर्वसावद्ययोगोपरमस्वभावस्य 117 / तथा-पञ्चमहाव्रतयुक्त-स्येति प्रतीतं, नवरम्-अहिंसालक्षणस्येत्याधभिधानेऽप्यस्याभिधानं महाव्रतानां प्राधान्यख्यापनार्थमनुक्तमहाव्रतसंग्रहार्थ च। तथाहि-नात्रादत्ताऽऽदानं कण्ठतः के नापि विशेषणेनाभिहितमतो युज्यते अस्य विशेषणस्योपन्यास इति / 18| तथान विधते संनिधिर्मोदकोदकखज्जूरहरीतक्यादेः पर्युषित Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 288 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण स्य सञ्चयो धारणं यत्रासावसंनिधिसशयस्तस्य / 16 तथाअविसंवादिनो दृष्टेष्टाविरोधिनः / पाठान्तरे वा अविसंवादितस्य सद्भूतप्रमाणाबाधितस्येत्यर्थः / 20 / तथा-संसारपारं भवार्ण-वतीरं गमयति तदारूढप्राणिनः पोतवत्प्रापयतीति संसारपारगामी तस्य, कप्रत्ययोपादानात् संसारपारगामिकस्य वा / 21 / तथा-निर्वाणगमनं मुक्तिप्राप्तिः, पर्यवसाने आनुषङ्गिकसुरमनुजसुखानुभवपर्यन्ते,फलं कार्य यस्यासौ निर्वाणगमनपर्यवसानफलस्तस्य।२। एवंविधस्य धर्मस्य पूर्व प्रतिपत्तिकालात्प्राक् अज्ञानतया सामान्यतोऽवगमाभावेन / 1 / तथाऽश्रवणतया प्रज्ञापकमुखादनाकर्णनभावेन / अथवा-श्रवणेऽपि पअबोहिए तिब अबोध्या अबोधेन यथावद्धर्मस्वरूपापरिज्ञानेन / 3 / अथवा-व्यवहारतः श्रवणावगमसद्भावेऽपि पअणभिगमेणं तिब अनभिगमेन, सम्यगप्रतिपत्त्येत्यर्थः / अथवा- (अभिगमेण व त्ति)विभक्तिव्यत्ययादभिगमेवा सम्यग्ध प्रतिपत्तौ वा प्रमादेन मद्यविषयाऽऽदिलक्षणेन।१।तथा-रागद्वेषप्रतिबद्धतया रागद्वेषाऽऽकुलतयेत्यर्थः।श तथाबालतया शिशुतया अपण्डिततया वा।३। तथा-मोहतया विचित्ततया मोहनीयकम्र्माऽऽत्ततया वा / 4 / तथा-मन्दतया कायजडतया, अलसतयेत्यर्थःश तथा- (किड्डयाए त्ति) कीडतया केलीकिलतया, द्यूताऽऽदिक्रीडनपरतयेत्यर्थः / 6 / तथा-त्रिगौरवगुरुकतया ऋद्धिरससा'तलक्षणगौरवत्रिकभारिकतया / 7 / तथा-चतुःकषायोपगतेन क्रोधाऽऽधुदयवशगमनेनेत्यर्थः।।तथा-पञ्चेन्द्रियाणां स्पर्शनाऽऽदिहृषीकाणामुप सामीप्येन वश आयत्तता, वर्णलोपात्पञ्चेन्द्रियोपवशस्तेन यदा-मार्त्तध्यानं, विड्वलतेत्यर्थः, पञ्चेन्द्रियोपवशात , तेन / / / तथा- (पडुप्पन्न भारियाए त्ति) इह प्रत्युत्पन्नं वर्तमानमुत्पन्नं वोच्यते, ततश्च प्रत्युत्पन्नश्वासौ भारश्च, कर्मणामिति गम्यते। प्रत्युत्पन्नभारः, स विद्यते यस्यासौ प्रत्युत्पन्नभारी, तस्य भावः प्रत्युत्पन्नभारिता तया, कर्मगुरुतयेत्युक्तं भवति। पाठान्तरस्तुप्रतिपूर्णभारितया, भावार्थः पूर्ववत्।१०। तथासातात्सातवेदनीयकर्मणः सकाशात्सुखं शर्मसातसुखम्, अथवा-सातं च तत्सुखं च सातसुखमतिशयसुखं तदनुपालयताऽनुभवता, सुखाऽऽसक्तमनसेत्यर्थः / पाठान्तरेण तु-सदासर्वकालं सुखमनुपालयतेति व्यक्तम्।११। (इह व त्ति) विन्दुलोपात् इह वाऽस्मिन्ननुभूयमाने भवे मनुष्यजन्मनि, अन्येषु वा अस्माजन्मनोऽपरेषु भवग्रहणेषु जन्मोपादानेषु प्राणातिपातः कृतो वा स्वयं निर्वर्तितः, कारितो वाऽन्यैर्विधापितः, क्रियमाणो वा विधीयमानः परैरन्यैः समनुज्ञातोऽनुमोदितस्तं प्राणातिपातं निन्दामि स्वप्रत्यक्षमेव जुगुप्से, तथा गर्हामि गुरुसमक्षं जुगुप्से, त्रिविधं कृतकारितानुमतिभेदात्त्रिप्रकारं त्रिविधन त्रिप्रकारेण करणेन / तदेवाऽऽहमनसा वाचा कायेनेति प्रतीतमेव // (24) साम्प्रतं त्रैकालिकप्राणातिपातविरतिं प्रतिपादयन्नाह अईयं निंदामि, पड़प्पन्नं संवरेमि,अणागयं पच्च-क्खामिसव्वं पाणाइवायं। अतीतमतीतकालकृतं निन्दामि / तथा-प्रत्युत्पन्नं वर्तमानसमयसम्भविन संवृणोमि, भवन्तं वारयामीत्यर्थः। तथा अनागतं भविष्यत्कालविषयं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् / किं तदित्याह-सर्व समस्तं न पुनः / परिस्थूरमेव प्राणातिपातं जीवितविनाशम् / इदमेवानागतप्रत्याख्यानं विशेषयन्नाह जावज्जीवाए अणिस्सिओहं नेवसयं पाणे अइवाएजानेवेनेहिं पाणे अइवायावेजा पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणुजाणामि। यावज्जीवं प्राणधारणं यावत् अनिश्रितोऽहम् इहपरलोकाशंसाविप्रमुक्तोऽहं ममेतो व्रतानुपालनात्किञ्चिदमरसुखं वा भूयादित्याकाङ्क्षारहित इत्यर्थः / नैव स्वयं प्राणानसून (अइवाएज्ज त्ति) उक्तहेतोरतिपातयामि विनाशयामि, नैवान्येः प्राणान् (अइवा-यावेज त्ति) अतिपातयामि, प्राणानतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, क्वापि "नेव सयं" इत्यादि पदानि न दृश्यन्ते / कतिसाक्षिकं पुनरिदं प्रत्याख्यानमिति चेत् ? उच्यते-अर्हदा-दिपञ्चकसाक्षिकम्। एतदेव दर्शयतितं जहा-अरहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं / तद्यथेत्युपदर्शनार्थः, अर्हन्तस्तीर्थकरास्तेसाक्षिणःसमक्ष-भाववर्त्तिनो यत्र तत्, "शेषाद्वा" // 73175 / इतिकप्रत्यय-विधानादर्हत्साक्षिक प्रत्याख्यानक्रियाविशेषणं चैतत्। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् / तथाहिइहेक्षत्रवर्त्तिनोऽन्यक्षेत्रवर्तिनो वा तीर्थकराः केवलवरज्ञानप्रधानचक्षुषा ममेदं प्रत्याख्यानं पश्यन्तीत्यतस्तत्साक्षिकमुच्यते, एवं सिद्धा मुक्तिपद प्राप्ताः साक्षिणो दिव्यज्ञानभावेन समक्षभाववर्तिनो यत्र तत्सिद्धसाक्षिकम्!आह उभयप्रत्यक्षभावेलोके साक्षिकव्यवहारो रूढः, नचात्र प्रत्याख्यानकर्तुः सिद्धाः प्रत्यक्षाः, अतीन्द्रियज्ञानगोचरत्वात्तेषां, तत्कथं ते तस्य साक्षिणः?| उच्यते -श्रुतवासितमतेस्तत्स्वरूपज्ञस्य तस्य ते भावकल्पनया प्रत्यक्षा इवेति कथं न साक्षिण इति ? / तथा-साधवो मुनयस्ते सातिशयज्ञानवन्त इतरे वा विरतिप्रतिपत्तिसमयसमीपवर्तिनः साक्षिणो यत्र तत्साधुसाक्षिकम्। तथा-देवा भवनपत्यादयस्ते जिनभवनाऽऽद्यधिष्ठायिनस्तिर्यग्लोकसञ्चरिष्णवो वा विरतिप्रतिपत्तिक्रमभाविनश्चैत्यवन्दनाऽऽद्युपचारात्समीपमुपगताः स्वस्थानस्था वा कश्चिद्वीपसमुद्रान् प्रति प्रयुक्तावधयः साक्षिणो यत्र तदेवसाक्षिकम् / यदाह चूर्णिकार:- "विरइपडिवत्तिकाले चिइवंदणाइणोवयारेण अवस्समहासंनिहिया देवया सन्निहाणम्मि भवइ अतो देवसक्खियं भणियं / अहवा-भवणवइजोइसवेमाणिया देवा सट्ठाणत्था चेव अहापवत्तोवहिणा दीवं दीवपञ्जवेहिं समुदं समुद्दपज्जावेहिं बहवे नारयतिरियमणुयदेवे य विविहभावसंपउत्ते पेच्छमाणा साहुं पि पाणाइवायविरइं पडिवजमाणं पेच्छंति, विसेसओ तिरियजम्भगा दियराओ दिसिविदिसासुं चरंति त्ति / " तथाऽऽत्मा स्वजीवःस स्वसंवित्प्रत्यक्षविरतिपरिणामपरिणतः साक्षी यत्र तदात्मसाक्षिकम् / इह च ससाक्ष्यं कृतमनुष्ठानमत्यन्तदृढं जायत इति साक्षिणः प्रतिपादिताः। पृथग्जनेऽपि प्रतीतमेवैतद्यदुत ससाक्षिको व्यवहारो निश्चलो भवतीति। एवं च कृते यत्संपद्यतेतदाहएवं हवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयप Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 286 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण सक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा। एवमिति प्रामुक्तप्रत्यारस्याने संपन्ने सति, किमित्याह भवति जायते, क इत्याह-भिक्षुर्वति-आरम्भत्यागाद्धर्मकायपरिपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षुः / एवं भिक्षुक्यपि, पुरुषोत्तमो धर्म इति कृत्वा भिक्षुर्विशेष्यते / तद्विशेषणाने च भिक्षुक्या अपि द्रव्यानीत्याह-संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मातत्र समस्त्येन ततः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमोपेतस्तथा विविधमनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतस्ततश्च संयतबासौ विरतश्च संयत-विरतः। तथा प्रतिहतं स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन विनाशितं प्रत्याख्यातं च त्वभावतः पुनर्वद्ध्यभावेन निराकृतं पापमशुभं कर्म ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदि येन स तथाविधस्ततः पुनः पूर्वपदेन सह कर्मधारयः / दिवा वा दिवसे वा, रात्रौ वा रजन्यां वा, एकको वा कारणिकावस्थायामसहायो वा, पर्षद्गतो वा साधुसंहतिमध्यवर्ती वा, सुनो या रात्रिमध्ययामद्वये निद्रागतो वा, जाग्रता निद्रावियुक्तो वेति। साम्प्रतं प्राणातिपातविरतिमेव स्तुवन्नाहएस खलु पाणाइवायस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए अणुगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए प्रतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणोद्दवणयाए महत्थे महागुणे महागुभावे महापुरिसाणुचिण्णे परमरिसिदेसिए पसत्थेतं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खयाए बोहिलाभाए संसारुतारणाए त्ति कटु उवसंपज्जित्ता णं विहरामि। (एस ति) लिङ्गव्यत्ययादिदमधिकृतम, खलु निश्चयेन, प्राणातिपातस्येति विभक्तिव्यत्ययात्प्राणातिपाताज्जीवहिंसायाः (वेरमणे त्ति) विस्मणं निवृत्तिर्दर्तते / किमित्याह- (हिए त्ति) हितं कल्याणं तत्कारित्वाद्धितं पथ्यभोजनवत् / तथा-सुखं शर्म तद्धेतुत्वात्सुखं पिपासितशीतलजलपानवत् / तथा-क्षम युक्तं सङ्ग तमुचितरूपमिति यावत् / तथा- (निस्सेसिए त्ति) प्राकृतत्वेन यकारलोपात् निःश्रेयसो मोक्षस्तकारणत्वान्नेः- प्रेयसं तदेव निःश्रेयसिकम् / तथा-आनुगामिकमनुगमनशीलं भवपरम्पराऽनुबन्धिसुखजनकमित्यर्थः / कथमिदमेवविधमित्याह-सर्वेषां निःशेषाणां प्राणा इन्द्रियपञ्चकमनःप्रभृतित्रिविधवलोच्यासनिः श्वासाऽऽयुर्लक्षणा असवो विद्यन्ते येषां तेऽतिशवनार्थमत्वर्थी-यात्प्रत्ययविधानात्समग्रप्राणधारिणः प्राणाः, पञ्चेन्द्रियप्राणिन इत्यर्थः / तेषाम् / तथा-सर्वेषां समस्तानामभूवन् भवन्ति भदष्यिन्ति चेति भूतानि पृथिवीजलज्वलनपवनवनस्पतयः कालत्रयव्यापिसत्तासमन्वितास्तेषाम् / तथा-निरुपक्रमजीवितेन जीवन्तीति जीवाः देवनारकोत्तमपुरुषाऽसङ्ख्येयवर्षाऽऽयुस्तिर्य नरचरमशरीरिलक्षणा यथोपनिबद्धजीवनधर्माणस्तेषाम्। तथा-सर्वेषा लोकोपकारमारहेतुसत्योपेतत्वात्सत्त्वाः सोपक्रमाऽऽयुषस्तिर्य मनुष्याः असम्पूर्णप्राणभाजो द्वित्रिचतुरिन्द्रयाश्च तेषाम् / क्वाप्यमीषां परस्परमेवं विशेषो दृश्यते। यथा- "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः / जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्या इतीरिताः" ||1) एकाथिकानि वैतान्यत्यादररक्षणीयताख्यापनाय नानादेशज्ञविनेयानुग्रहाय प्रयुक्तानीति / एतेषां च (अदुक्खणयाए त्ति) अदुःखनतया अदुःखोत्पादनेन, मानसिकासातानुदीरणेनेत्यर्थः। तथा- अशोचनतया शोकानुत्पादनेन। तथा-अजूरणतया शरीरजीर्णत्वाऽविधानेन, दृश्यन्ते चाऽऽरम्भिणोजना भारवाहनाऽऽहारनिरोधकशलताङ्कुशारानिपाताऽऽदिभिर्वृषभमहिषाश्वकरिकरभरासभाऽऽदीनां शरीराणि जूरयन्तोऽतस्तदकरणेनेति / तथा-अतेपनतया स्वेदलालाऽश्रुजलक्षरणकारणपरिवर्जनेन। तथा-अपीडनतया पादाऽऽद्यनवगाहनेन / तथा-अपरितापनतया समन्ताच्छरीर-सन्तापपरिहारतः / तथा-अनवद्रावणतया उत्त्रासनकरणाभावेन, मारणपरिहरणेन वा / किं च-इदं प्राणातिपातविरमणपदं महाथ महान् प्रभूतोऽर्थः फलस्वरूपाऽऽद्यभिधेयं यस्य तन्महार्थ महागोचरम् / तथा-महांश्वासौ गुणश्च महागुणः, सकलगुणाऽऽधारत्वान्महाव्रतानामिति / तथा-महानतिशायी अ अनुभावः स्वर्गापवर्गप्रदानाऽऽदिलक्षणं माहात्म्यं यस्य तन्महानुभावम् / तथामहापुरुषैस्तीर्थक रगणधराऽऽदिभिरुत्तमनरैरनुचीर्ण मेक दासे - वनात्पश्चादप्यासेवितं महापुरुषानुचीर्णम्। तथा-परमर्षिभिस्तीर्थकराऽऽदिभिरेव देशितं भव्योपकाराय कथितं परमर्षिदेशितम् / तथाप्रशस्तमत्यन्तशुभं सकलकल्याणकलापकारणत्वात्, यतश्चैवमतस्तत्प्राणातिपातविरमणं दुःखक्षयाय शारीरमानसानेकक्लेशविलयाय, कर्मक्षयाय ज्ञानाऽऽवरणाऽऽद्यदृष्टवियोगाय मोक्षाय, पाठान्तरतो मोक्षताये, परमनिःश्रेयसायेत्यर्थः / बोधिलाभाय जन्मान्तरे सम्यक्त्वाऽऽदिसद्धर्मप्राप्तये, संसारोत्तारणाय महाभीमभवभ्रमणपारगमनाय, मे भविष्यतीति गम्यते, इति कृत्वा इति हेतोः, उपसंपद्य तदेव सामस्त्येनाङ्गीकृत्य, विहरामि मासकल्पाऽऽदिना सुसाधुविहारेण वर्ते, अन्यथा व्रतप्रतिपत्तेर्वैयर्थ्यप्रसङ्गादिति। अथ व्रतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाहपढमे भंते ! महव्वर उवडिओ मि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं। प्रथमे भदन्त ! महाव्रते, किमित्याह-उप सामीप्येन तत्परिणामाऽऽपत्त्येत्यर्थः / स्थितो व्यवस्थितोऽस्मि अहं, ततश्च इत आरभ्य मम सर्वस्मान्निःशेषात्प्राणातिपाताजीवहिंसाया विरमणं निवृत्तिरिति। अत्र च भदन्त ! इत्यनेन गुर्वामन्त्रणवचसाऽऽदिमध्यावसानोपन्यस्तेन गुरुमनापृच्छय न किञ्चित्कर्त्तव्यं कृतं च तस्मै निवेदनीयमेवंतदाराधितं भवतीत्येतदाह / दोषाश्चेह प्राणातिपातकर्तृणां नरकगमनाल्पाऽऽयुर्बहुरोगित्वकुरूपाऽऽदयो वाच्याः / इत्युक्तं प्रथमं महाव्रतम्। इदानी द्वितीयमाहअहावरे दोच्चे भंते ! महत्वए मुसावायाओ थे रमणं, सव्वं भंते ! मुसावायं पच्चक्खामि, से कोहा वा 1 लोहा वा 2 भया वा 3 हासा वा 4, नेव सयं मुसं वएजा, ने Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 260- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमय वन्नेहिं मुसं वायावेज्जा, मुसं वयंते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि,न | कारवे मि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते पडिकमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि॥ अथेति प्रथममहाव्रतानन्तरे अपररिमन्नन्यस्मिन् द्वितीये सूत्रक्रमप्रामाण्याद् द्विसङ्ख्ये, द्वितीयस्थानवर्तिनीत्यर्थः। भदन्त ! महाव्रते, किमित्याह-मृषावादादलीकभाषणाद्विरमणं सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वक सर्वथा निवर्तन, भगवतोक्तमिति वाक्यशेषः / स च मृषावादश्चतुर्विधः। तद्यथा सद्भावप्रतिषेधः 1, असद्भावोदावनम् 2, अर्थान्तराभिधानम् 3, गहविचनं च 4, तत्र सद्भावप्रतिषेधो यथा- नास्त्यात्मा, नास्ति पुण्य पापं वेत्यादि।" मृषात्वं चास्याऽऽत्माऽऽद्यभावेदानध्यानाध्ययनाऽऽदिसर्वक्रियावैयर्थ्यप्रसङ्गात्, जगद्वैचित्र्याभावप्रसङ्गाच / असद्भावोद्भावन यथा- 'श्यामाकतन्दुलमात्र आत्माललाटरथो, हृदयदेशस्थः, सर्वगतो वेत्यादि।" अलीकता चास्य वचसः श्यामाकतन्दुलमात्रे ललाटस्थे हृदयदेशस्थे वाऽऽत्मनि सर्वशरीरे सुखदुःखानुभवानुपपत्तेर्निरात्मनि वस्तुनि वेदनाया अभावात्, सर्वजगह्यापित्ये सर्वत्र शरीरोपलम्भः सुखदुःखानुभवश्वाविशेषेण स्यान्न चैव दृश्यते तस्मादलीकतेति / अर्थान्तराभिधानम् ''गामश्वं बुदाणस्येत्यादि / गर्हावचनं तु-काणं काणमेव वदत्यकाणमपि वा काणमाह / एवमन्धकुब्जदासाऽऽदिष्वपि भावनीयम् / अथवा-परलोकमड्लीवृत्य गर्हि वचनं गहविचनम् / तच्च- "दम्यन्तां बलीवर्दाऽऽदयः, प्रदीयतां कन्या वरायेत्यादि।" यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति विनिश्चित्य सर्व समस्तं भदन्त ! मृषावादमनृतवचनं प्रत्याख्यामि / (से त्ति) तद्यथा-क्रोधाद्वा कोपात्, लोभादा अभिष्वङ्गात्। आद्यन्तग्रहणाच्च मानमायापरिग्रहो वेदितव्यः / भयावा भीतेः, हास्याद्वा हसनात्सकाशात्, अनेन तु प्रेभद्वेषकलहाभ्याख्यानाऽऽदिपरिग्रहः / वाशब्दाः समुचये। अरमात्किभित्याह- (नेव सय मुसं वएज्ज त्ति) नैव स्वयमात्मना, मृपा मिथ्या, वदामि वच्मि, नैवान्यैः परै{षा वितथम्. (वायावेज्ज ति) वादयामि भाषयामि, मृषावदतोऽपि भाषमाणानप्यन्यानपरान् न नैव समनुजानामि अनुमोदयामि / कथमित्याह-यावज्जीवं या वत्प्राणधारणम्, त्रिविधं कृतकारितानुमतिभेदात् त्रिप्रकारं त्रिविधेन मनःप्रभृतिना त्रिप्रकारेण करणेन / तदेवाऽऽहमनसा, वाचा, कायेनेति। अस्य च करणस्य कर्मोक्तलक्षणो मृषावाद-स्तमपि वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणेव दर्शयन्नाह-न करोमि स्वयं, न कारयाम्यन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि / तथा तस्य त्रिकालभाविनोऽधिकृतमृषावादस्य संबन्धिनमतीतमवयवं भदन्त! प्रतिक्रमामि भूतान्मृषावादानिवर्तेऽहभित्युक्तं भवति / तस्माच्च निवृत्तिर्यत्तदनुमतेविरमणमिति / तथा निन्दामि गर्हामीति। अत्राऽऽत्मसाक्षिकी निन्दापरसाक्षिकी गहाँ / आह च- "मणसा मिच्छादुकाडकरणं भावेण इह पडिक्कमणं / सचरित्तपच्छयावो, निंदा गरिहा गुरुसमक्खं // 1 // " सचरित्रस्य स्वप्रत्यक्षमेव पश्चात्तापो निन्देति / किं जुगुप्से, इत्याह-आत्मानमतीतमृषावादभाषिणं स्वं, तथा व्युत्सृजामि भूतमृषा. वादं परित्यजामि, इह च क्रोधाद्वा भयाद्वेत्यादिना भावतो मृषावादोऽभिहितोऽनेन चैकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति न्यायाच्चतुर्विधो मृषाया उपलक्षित इति। अतस्तदभिधानायाऽऽह से मुसावाए चउव्विहे पन्नत्ते / तं जहा-दव्वओ, खित्तओ. कालओ, भावओ।दव्वओणं मुसावाए सव्वदव्वेसु, खेत्तओ मुसावाए लोए वा अलोए वा, कालओ णं मुसावाए दियाद राओवा, भावओ णं मुसावाए रागेण वा दोसेण वा / / (से त्ति) स पूर्वाभिहितो मृषावादश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः। तद्यथा-द्रव्या द्रव्यप्राधान्यमाश्रित्य 1, क्षेत्रतः क्षेत्रमड़ीकृत्य 2, कालतः कालं प्रर्तक 3, भावतो भावमधिकृत्य 4 | द्रव्यतो, णमित्यलङ्कारे, मृषावर सर्वद्रव्येषु, अन्यथाप्ररूपणतो धर्माधर्माऽऽदिसमस्तपदार्थेषु। 1 / क्षेत्रन' णमिति सर्वत्रालङ्कारमात्रे मृषावादः लोके वा लोकविषये, अलोक : अलोकविषये / / कालतो मृषावादोदिवा वा दिवसे अधिकरण विषयभूते वा, रात्रौ वा रजन्यामाधारभूतायां वा / 3. भावतो मृषावादरागेण वा मायया लोभलक्षणेन वा, तत्र मायया अग्लानोऽपि ग्लाने ममानेन कार्यमिति वक्ति भिक्षाऽऽटनपरिजिहीर्षया वा पादपीडा ममें भाषते इत्यादि / लोभेन तु शोभनतराऽन्नलाभे सति प्रान्तस्यैषणीत्वेऽप्यनेषणीयमिदमिति ब्रूते इत्यादि। द्वेषेण वा क्रोधमानस्वरूपेण, क्रोधेन वदतित्वं दास इत्यादि / मानेन तु अबहुश्रुत एव बहुश्रुतेःहमित्यादि / उपलक्षणत्वाद्यहास्याऽऽदयोऽपीह द्रष्टव्याः ! न. भयात्किञ्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान कृतमित्यादि भाषते !? हास्याऽऽदिष्वपि वाच्यमिति / 4 / द्रव्यभावपदप्रभवा चतुर्भगि का इन द्रष्टव्या। सा पुनरियम्- "दव्वओ नामेगे मुसावाए, नो भावओ। भाज नाभेगे मुसावाए, नो दव्वओ। एगे दव्वओ वि, भावओ वि। एगे नोदव्या नो भावओ। तत्थ कोइ कंचिहिं सुज्जुओ भणइइओ तए पुसमिगाइ बोलितगा दिट्ट त्ति ? / सो पुण दयाए दिवहि वि भणइ-न दिट्ट नि.. दव्वओ मुसावाओ, न भावओ / अवरो मुसं भणिहामि त्ति परि सहसा सच्चं भणइ एसो भावओ, नदव्वओ। अवरो मुसं भणिहामि परिणओ मुसं चेव भणइ, एस दव्वओ वि, भावओ वि। चरिमभंग सुन्नो ति" // जं मए इमस्स धम्मस्स के वलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खणस सच्चाहिट्ठियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरम सोवन्नियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपय माणस्स भिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंबलस्स निरग्गिसरणस संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गहियस्स निटिवयारत निवित्तीलक्खणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयन अविसं वाइस्स संसारपारगामिस्स निव्वाणगमपपत्र वसाणफलस्स पुटिव अण्णाणयाए असवणयाए अबोनि अणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं रागदोसपडिबद्धया बालयाए मोहयाए मंदयाए किडुयाए तिगाखगुरुययाएर Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 291 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण कसाओवगएणं पंचिंदिओवसट्टेणं पडुप्पन्नभारियाए सायासोखमणुपालयंतेणं इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु मुसावाओ भासिओ वा भासाविओ वा भासिज्जंतो वा परेहिं समगुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं अईअं निंदामि पडुप्पन्न संवरेमि अणागयं पचक्खामि सचं मुसावायं जावञ्जीवाए अणिस्सिओहं नेव सयं मुसंवएज्जा, नवऽन्नेहिं मुसं वायावेज्जा, मुसंवयंते वि अन्ने न समणुजाणामि। तं जहा-अरहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहु सक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खू वा भिक्खूणी वा संजय-विरय-पडिहय-पचक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा शाओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा, एस खलु मुसावायस्स वेरमणे हिर सुहे खमे निस्सेसिए आणुगामिए सम्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिंजीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए असोडणयाए अपरियावणयाए अणोद्दवणयाए महत्थे महागुणे महगुभावे महापुरि-साणुचिण्णे परमरिसिदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बोहिलाभाए संसारुतारणाए ति कटु उवसंपञ्जित्ता णं हिरामि / दोचे भंते! महटवए उवढिओ मि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं॥ सत्सकलमपि सूत्रं मृषावादाभिलापेन प्राग्वत्समवसेयमिति, नवरमिह दोषः मृषाभाषिणां जिह्वाच्छेदाविश्वासमूकत्वाऽऽदयो वाच्याः। इच्युक्तं द्वितीय महाव्रतम्। साम्प्रतंतृतीयमाहअहावरे तो भंते ! महत्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! अदिण्णादाणं पचक्खामि, से गामे वा नगरे वा अरण्णे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वाथूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव संयं अदिण्णं गिण्हेजा,नेवऽन्नेहिं अदिण्णं गिण्हावेज्जा, अदिण्णं गिण्हंते वि अन्नं न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि। से अदिन्नादाणे चउव्विहे पण्णत्ते।तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं अदिन्नादाणे गहणधारणिज्जेसु दव्वेस, खित्तओ णं अदिनादाणे गामे वा नगरे वा अरण्णे वा, कालओ णं अदिन्नादाणे दिया वाराओवा, भावओणं अदिन्नादाणे रागेण वा दोसेण वा। जंमए इमस्स धम्मस्स केवलिपण्णतस्स अहिंसालक्खणस्स सच्चाहिट्टियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरन्नसोवन्नियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स मिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंबलस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्स निव्वियारस्स निव्वित्तिलक्खणस्सपंचमहव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामिस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुदि अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किडयाए तिगारवगरुययाए चउकसाओवगएणं पंचिंदिय-ओवसट्टेणं पड़प्पन्नभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु अदिनादाणं गहियं वा गाहावियं वा घेप्पंतं वा परेहिं समणुनायं तं निंदामि, गरिहामि, तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अईयं निंदामि, पडुप्पन्नं संवरेमि, अणागयं पच्चक्खामि, सव्वं अदिन्नादाणं जावज्जीवाए अणिस्सिओहं नेव सयं अदिन्नं गिण्हेज्जा, नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविज्जा, अदिन्नं गिण्हते वि अन्नं न समणुजाणामि। तं जहा-अरहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खू वा मिक्खूणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खा-यपावकम्मे दिया वाराओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एस खलु अदिन्नादाणस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्से सिए आणुगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्येसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सवे सिं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पण-याए अपीडणुयाए अपरियावणयाए अणुद्दबणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिण्णे परमरिसिदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाएत्ति कटु उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। तच्चे भंते! महव्वए उवढिओ मि सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं / पा०। (अदत्तऽऽदानविरमणव्याख्या 'अदत्तादाणवेरमण' शब्दे प्रथमभागे 540 पृष्ठे गता) अधुना चतुर्थमाहअहावरे चउत्थे भंते ! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! मेहुणं पञ्चक्खामि, से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सयं मेहुणं सेविज्जा, नेवऽग्नेहिं मेहुणं सेवावेज्जा, मेहुणं सेवंते वि अन्नं न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवेमि, करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते ! पंडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 292 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमए अथापरस्मिन् चतुर्थे चतुःसङ्ग्ये भदन्त ! महाव्रते मैथुनाद्विरमणं जिनेनोक्तमतः सर्वं भदन्त ! मैथुनं मिथुनकर्म प्रत्याख्यामि / (से त्ति) तद्यथा-दैव वा मानुषं वा तैर्यग्योनं वेत्यनेन द्रव्यपरिग्रहः। तत्र देवानामिद, दैवमपूसरोऽमरसंबन्धीति भावः / मनुष्याणाभिदं मानुष, स्त्रीपुरुषसत्कमित्यर्थः / तिर्यग्योनी भव तैर्यग्योनं, बड़वाश्वाऽऽदिप्रभवमित्यर्थः / (नेव सयमित्यादि) गतार्थम् / अत्र च दैवं वेत्यादिना द्रव्यतो मैथुन मैथुमुक्तम्, अनेन च चतुर्विधं मैथुनमुपलक्षितमित्यतस्तद्वक्तुकाम आह से मेहुणे चउटिवहे पण्णत्ते / तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ ।।दव्वओ णं मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा, खित्तओ णं मेहुणे उड्डलोएवा अहोलोए वा तिरियलोएवा, कालओ णं मेहुणे दिया वा राओ, वा भावओ णं मेहुणे रागेण वा दोसेण वा॥ तन्मैथुनं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्। तद्यथा-द्रव्यतः 1, क्षेत्रतः २,कालतः 3. भावतः / तत्र द्रव्यतो मैथुनं रुपेषुवा रूपसहगतेषु वा द्रव्येषु भवति, तत्र रूपाणि निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रुपसहगतानि तु सजीवानि पुरूषाङ्गनाशरीराणि, भूषणसहितानितु रूपसहगतानि। क्षेत्रतो मैथुनम्ऊर्ध्वलोके वा मेरुवनखण्डसौधर्मेशानाऽऽदिपु संभवति, अधोलोके वा अधोग्रामभवनपतिभवनाऽऽदिषु, तिर्थग्लोकेवा द्वीपसमुद्राचलाऽऽदिषु / (पा०) (ऊर्ध्वलोकप्रमाणं रिथतिश्च ‘उड्डलोग' शब्दे द्वितीयभागे 752 पृष्ठे प्रतिपादिता] [अधोलोकवक्तव्यता 'अहोलोय' शब्द प्रथमभागे 862 पृष्ठे गता] [तिर्यग्लोकवृत्तम् 'तिरियलोग' शब्दे चतुर्थभागे 2322 पृष्ठे गतम् ] प्रकृतमुच्यतेकालतो मैथुनं दिवा वा रात्रौ वा स्यात्। भावतो मैथुनं-रागेण वा मायया लोभलक्षणेन, द्वेषेण वा कोपमानलक्षणेन / तत्र मायया मैथुनसंभयो यथा- 'एगो साहू एमाए अगारीए संजायसंबंधो बाहुल्लयाए गच्छरस परियारणाविरहमलहंतो नियडीए गुरुं विन्नवेइ। जहा - 'भयवं! दुक्खइ मे गाढमुदरं, ता अणुजाणेह जेण पच्चासन्नगिहे गन्तूण अहापवत्तग्गिणा पयावेमि / गुरुणा वि अविन्नायपरमत्थेण विसज्जिओ गन्तूण अगारि पडिसेवित्ता समागओ भणइ- 'उवसंता में वेयण त्ति। लोभेन तु मैथुनसम्भवोऽमुनोदाहरणेन भावनीयः'तगराए नथरीए अरिहभित्तो नाभ आयरिओ विहरइ। तस्स य समीवे दत्तो नाम वाणियओ भद्दाए भारियाए पुरो ण य अरहन्नएण सद्धिं पव्वइओ। सो तं खुड्डगं न कयावि भिक्खाए हिंडावेइ, पढमालियाईहिं पोसइ, एवं च सो सुकुमालो जाओ, साहूण य अप्पत्तियं, जं सो भिक्खाइसुन हिंडइ, परं खंतोवरोहेण न तरंति किंचि भणिउं। अन्नया सो खन्तो कालगओ, तओ साहहिं तस्स दो तिन्नि दिवसे भत्तं दाउ भिक्खाए ओयारिओ, सो सुकुमाल-सरीरो गिम्हे उवरि हेट्ठा य डझंतों परसेयजलकिलिन्नगत्तो अतीव तण्हाभिभूओ छायाए वीसमतो एगार पउत्थवइयाए वणियमहिलाए नियभवणट्टियाए दिट्टो, ओरालसुकुमालसरीरो ति काउं तीसे तहिं अणुराओ जाओ। तओ चेडीए सद्दावित्ता पुच्छिओ- 'किं मग्गसि त्ति / तेणुत्तं - "भिक्खंति / 'तओ अण्णाए दवाविया से य मोयगा। तओ पुणो पुच्छिओ-किं निमित्त तुमं धम्ममिः करेसि ? सो भणइ 'सुहनिमित्तं। तओ तीए जंपियं-जइएवं तो मए ग्रेट समाणं भोगे भुंजाहि, मा हत्थगयं सुहं परिच्चइऊण अणागयसदिद्धसुहासाए अप्पाणं किले सेह त्ति / ' सो वि उण्हेण तज्जिर उवसग्गिज्जतो य पडिभग्गो पच्छन्ने ठिओ भोगे भुञ्जइ, साइहि : मग्गिओ, न दिट्टो, पच्छा से माया उम्मत्तिया जाया पुत्तसोगेण, नम भमंती अरहन्नयं विलवंती जं जहिं पासइ त तहिं सव्वं भणइ अरहनः दिट्टो त्ति / एवं विलवमाणी भमइ, जावन्नया तेणोलोयणगएण दिड़ पञ्चभिन्नाया।तओताहे चेव ओयरित्ता पाएसुपडिओ।सा वि तपेच्छिक ताहे चेव सत्थचित्ता जाया / ताए भन्नइ- 'पुत्तय ! पव्वयाहि' : तित्थयराण माणं विराहिय दोग्गई जाहिसि।' सो भणइ- 'अम्मो :: तरामि दीहकालं संजमं परिवालिउं, जइ परं गहियसंग खिप्पमणसणविहिणा कालं करेमि।' मायाए भणियं- ‘एवं करेहि : पुत्तय ! असंजओ भविय संसारसागरे निमजाहि' यतः ''वरं पर जलियं हुयासणं, न यावि भग्ग चिरसंचियं वयं 1 वरं हि मा सुविसुद्धकम्गुणो, न यावि सीलक्खलियस्स जीवियं // 1 // ' ही पच्छा सो गुरुसगासे आलोइय पडिक्कतो। समारोवियपंच-महन्दयकयाणसणो भविय ताहे चेव तत्तसिलायले पाओवगमणं करेइ, सुहग सुकुमालसरीरो त्ति नवणीयपिंडो व्व उण्हेण विलीणो त्ति। कोपेन पुनर्यथा"एगो साहू गामंतराओ, गुरुसमीवमागच्छंतो अंतरा परियड संमुहमिति पेच्छिय एयाए पवयणपञ्चयाए वयं भजामि त्ति पदुट्ट-दिए तत्थेवतंपडिसेवित्ता गुरुसगासमागओ कहेइ। जहा-'मए दुट्टपरिवार वयं भग्गति। मानेन पुनर्यथाएगम्मि गच्छे एगो तरुणसमणो मणोहरागिई,तदट्ठमेगा तरूण-महिर अज्झोववन्ना चिंतेइ- 'अहो हाणुवट्टणाइवि-भूसा-वियारविरयस्ः इमस्स साहुस्स लावन्नसिरित्ति।' तओ सा तं बहुसो ओभासेइ. नः तमभिलसइ,तओ अन्नया तीए भणिय, जहा- "फुड तुम नपुंसनजो दढाणुरत्तचित्तं मणहरजोव्वणं पि म न माणेसि तओ साहा संजायाहंकारेण सा दढं पडिसेविय त्ति / " इह च वेदोदयग्रह त्वान्मैथुनप्रवृत्तेर्वेदोदयसत्ता सर्वत्र समवसेयेति / द्रव्यादिचतु पुनरियम्- "दव्वओ नामेगे मेहुणे, नो भावओ। भावओ नाम: दव्वओ। एगेदव्वओ वि, भावओ वि। एगेनो दव्वओ, नो भावओ त अरत्तदुवाए इत्थियाए बला परिभुजमाणीए दव्वओ मेहुणे, नो भार मेहुणसन्नापरिणयस्स तदसंपत्तीए भावओ नो दय्वओ। एवं चेय संघ दव्वओ वि, भावओ वि। चउत्थो पुण सुन्नो त्ति। जंमए इमस्स धम्मस्स के वलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खणरू सचाहिट्ठियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिर सोवन्नियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपदमाणस्स भिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंबलस्स निरग्गिसरणत Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण २६३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहियस्स निटिवयारस्स निवित्तीलक्खणस्स पंचमहत्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइस्स संसारपारगामिस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुट्विं अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए तिगारवगरुयाए चउक्कसाओवगएणं पंचिंदियवसट्टेणं पडुपन्नभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु मेहुणं सेवियं वा सेवावियं वा सेविज्जत वा परेहिं समणुन्नायं, तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेण वायाए कारणं अईयं निंदामि, पड़प्पन्नं संवरेमि, अगागयं पचक्खामि, सव्वं मेहुणं जावज्जीवाए अणिस्सिओ हं नेद सयं मेहुणं सेविज्जा, नेवऽन्ने हिं मेहुणं सेवाविज्जा, मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणामि / तं जहा-अरहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खू वा भिक्खूणी वा संजयविरयपडिहय-पचक्खायपावकम्मे दिया वा राओ था एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एस खलु मेहुणस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सवेसिं पाणाणं सव्ये सिं भूयाणं सत्वे सिं जीवाणं सब्वे सिं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावगयाए अणोद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणु चिण्णे परमरिसिदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए ति कटु उवसंपज्जिता णं विहरामि / चउत्थे भंते ! महव्वए उवडिओ मि सध्याओ मेहुणाओ वेरमणं / / एतत्सकलमपि सूत्रं गतार्थम, दोषश्चेहाब्रह्मसेविनां वधबन्धनायशः कीर्तिपण्डकत्वबन्ध्यावैधव्याऽऽदयो वाच्याः। इत्युक्तं चतुर्थ महाव्रतम्। अधुना पश्चममाहअहावरे पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! | परिगहं पञ्चक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वाथूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिण्हेज्जा , नेवऽन्नेहिं परिग्गडं परिगिण्हाविज्जा, परिग्गहं परिगिण्हंते वि अन्नं न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि, न कारवे मि, करंतं पि अन्नं न समणुजाण मि। तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि॥ अथापरस्मिन् पञ्चमे भदन्त ! महाव्रते, किमित्याह-परिगृह्यते स्वीक्रियत इति परिग्रहो, धनधान्यहिरण्याऽऽदिः, तस्माद्विरमण भगवतोक्तमतः सर्वं भदन्त ! परिग्रहं प्रत्याख्यामि / (से त्ति) तद्यथाअल्पं वा बहु वा अणुवा स्थूलं वा चित्तवद्धा अचित्तवक्रेत्यनेन द्रव्यपरिग्रहः / व्याख्या तु पूर्ववत् / “नेव सयं'' इत्याद्यपि पूर्ववदेव / अत्र चाल्पं वेत्यादिना द्रव्यपरिग्रह उक्तः, अनेन चतुर्विधपरिग्रह उपलक्षित इत्यतस्तदभिधानायाऽऽह से परिग्गहे चउविहे पण्णत्ते तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं परिग्गहे सचित्ताचित्तमीसेसु दव्वेसु, खेत्तओ णं परिग्गहे लोए वा अलोए वा, कालओ णं परिग्गहे दिया वा राओ वा, भावओ णं परिग्गहे अप्पग्धे वा महग्घे वा रागेण वा दोसेण वा॥ सपरिग्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः। तद्यथा-द्रव्यतः 4 / तत्र द्रव्यतः सर्वद्रव्येषु आकाशाऽऽदिसर्वपदार्थेषु / यदाह चूर्णिकारः-गामघरंगणाइपएसेसु ममीकरणाओ आगासपरिग्गहो, चंकमण-पएसममीकारकरणाओ धम्मदव्वपरिगहो, ठाणनिसीयणतुयदृणपएसममीकारकरणाओ अधम्मपरिग्गहो, मायापिइमाइएसु जीवेसु ममत्तकरणाओ जीवदव्वओ परिगहो, हिरण्णसुवन्नाइएसुदव्वेसुममत्तकरणाओ पोगलदव्वपरिग्गहो, सीउण्हवरिसकालेसु रिउछक्के वा अन्नयरमुच्छियस्स कालपरिगहो त्ति।" क्षेत्रतः परिग्रहो लोके वाऽलोके वा लोकालोकाऽऽकाशममत्यकरणादिति भावः / 'सव्वलोए त्ति'' क्वचित्पाठः / सङ्ग तश्चायम् ग्रन्थान्तरैः सह संवादात् / कालतः परिग्रहो दिवा या रात्रौ वा, दिनरात्र्यभिलाषादित्यर्थः / पठ्यते च-"रयणिमभिसारियाओ, चोरा परदारिया य इच्छंति / तालायरा सुभिक्खं, बहुधन्ना केइ दुभिक्खं // 1 // " दिनरात्र्यधिकरणविवक्षया वा कालपरिग्रहो भावनीयः। भावतः परिग्रहोऽल्पाघे वाऽल्पमूल्ये महाघे वा बहुमूल्ये द्रव्ये रागेण वाऽभिष्वड् गलक्षणेन द्वेषेण वा अप्रीतिलक्षणेन, अन्यद्वेषणेत्यर्थः / द्रव्याऽऽदिचतुर्भङ्गी पुनरियम्- "दव्वओ नामेगे परिग्गहे नो भावओ। भावओ नामेगे नो दव्वओ। एगे दव्वओ वि भावओ वि। एगे नो दव्वओ नो भावओ। तत्थ अरत्तदुट्ठस्स धम्मोवगरण दव्वओ परिग्गहो नो भावओ / मुच्छियस्स तदसंपत्तीए भावओ नोदव्वओ। एवं चेव संपत्तीए दव्वओ विभावओ वि। चरमभंगो पुण सुन्नो।" जं मए इमस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खणस्स सच्चाहिद्वियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरण्णसोवन्नियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स भिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंवलस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खालियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहिस्स निव्वियारस्स निवित्तिलक्खणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइस्स संसारपारगामिस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुटिव अन्नाणयाए असवणयाए अबोहीए अणभिगमेणं अभिगमेण वा पमाएणं रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डयाए Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 264 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण तिगाररवगरुययाए चउक्कसाओकवगएणं पंचिंदिओवसट्टेणं रात्रौ भुजानानप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतत् यावज्जीवमित्यादि / पडुप्पन्नभारियाए सायासोक्खमणुपालयतेणं इहं वा भवे अन्नेसु भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् / अत्राशन वेत्यादिना द्रव्यतो रात्रिभोजनवा भग्गहणेसु परिग्गहो गहिओ वा गहाविओ वा धिप्पंतो वा | मुक्तम्, अनेन च चतुर्विधं रात्रिभोजनमुपलक्षितम्, इत्यतस्तदपरेहिं समणुन्नाओ, तं निंदामि। गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं भिधातुमाहवायाए कारणं अईयं निंदामि, पड़प्पन्नं संवरेमि, अणागर्य से राईभोयणे चउविहे पन्नते / तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, पच्चक्खामि सव्वं परिग्गह, जावज्जीवाए अणिस्सिओ हं नेव कालओ, भावओ४ादव्वओणं राईभोयणे असणे वा पाणेद सयं परिग्गहं परिगिण्हेज्जा, नेवऽन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हावेजा, खाइमे वा साइमे वा, खित्तओ णं राईभोयणे समयक्खित्ते, परिग्गहं परिगिण्हते वि अन्ने न समाजाणामि / तं जहा कालओ णं राईभोयणे दिआवाराओवा, भावओणं राईभोयो अरहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं देवसक्खियं तित्ते वा कडुए वा कसाए वा अंबिले वा महुरे वा लवणे व अप्पसक्खियं, एवं हवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय रागेण वा दोसेण वा / / पडिहय-पचक्खायपाव-कम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा तद्रात्रिभोजनं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् / तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालत परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा एस खलु परिग्गहस्स भावतश्च / तत्र द्रव्यतो रात्रिभोजनम्-अशने वा पाने वा खाद्ये वा स्वाद वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आणुगामिए पारगामिए सव्वेसिं वा, क्षेत्रतो रात्रिभोजनसमयेन कालविशेषेणोपलक्षितं, क्षेत्रं समयक्षेत्रमपाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं र्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रलक्षणम्। तस्मिन् संभवति न परतः, मनुष्यलोड. प्रसिद्धदिनरजन्यभावात। कालतो रात्रिभोजनंदिवा वा, सन्निधिपरिभा अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए इत्यर्थः / रात्रौ वा रजन्यां वा, भावतो रात्रिभोजनं भवति, केत्याहअपीडणयाए अपरियावणयाए अणुद्दवणयाए महत्थे महागुणे तिक्ते वा चिर्भिटिकाऽऽदौ, कटुके वा आर्द्रकतेमनाऽऽदौ, कार्य महाणुभावे महापुरिसाणुचिण्णे परमरिसिदेसिए पसत्थे तं वल्लाऽऽदौ, अम्ले वा तक्राऽऽरनालाऽऽदौ, मधुरे वा क्षीरदध्यादौ, लब दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बो हिलाभाए वा प्रकृतिक्षार तथाविधजलशाकाऽऽदौ, लवणोत्कटे वा अन्यस्मिन् द्रका संसारुत्तारणाए ति कटुउवसंपज्जित्ता णं विहरामि। पंचमे भंते ! रागेण वाऽभिष्वङ्ग लक्षणेन, द्वेषेण वा अनभिष्वङ्ग लक्षणेनेति / कार्य महव्वर उवडिओ मि सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं / पदद्वयं न दृश्यत एव / द्रव्याऽऽदिचतुर्भङ्गी पुनरियम्- "दव्यओ न एतदपि सूत्रं पूर्ववद्व्याख्येयम् / दोषाश्चेह परिग्रहिणां वधबन्धनमारण राई भुंजई नो भावओ। भावओ नामेगे नो दव्वओ / एगे दव्यओ . दुःखितत्वनरकगमनाऽऽदयो वाच्याः / इत्युक्तं पञ्चमं महाव्रतम्। भावओ वि। एगे नोदव्वओनो भावओ।तत्थ अणुग्गए सूरिए उम्गओपी साम्प्रतं षष्ठं व्रतमाह अत्थमिए वा अणत्थमिओ त्ति अरत्तदुट्टस्स, कारणाओ रयणीए - अहावरे छठे भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! भुंजमाणस्स दव्वओ राई भोयणं नो भावओ। राईए भुंजाभि में राईभोयणं पच्चक्खामि, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं मुच्छ्यिस्स तदसंपत्तीए भावओ नो दव्वओ। एवं चेव संपत्तीए दव्या वा नेव सयं राई भुजेज्जा, नेवऽन्नेहिं राई भुंजावेज्जा, राई मुंजते भावओ वि। चउत्थभंगो सुन्नो।" वि अन्ने न समणुजाणामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं जं मए इमस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खणस वायाए कारणं न करेमि, न कारवे मि, करतं पि अन्नं न सच्चाहिट्ठियस्स विणयमूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरनसमणुजाणामि / तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, सोवन्नियस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपयमाणत अप्पाणं वोसिरामि। भिक्खावित्तिस्स कुक्खीसंबलस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खा अथापरस्मिन् षष्ठे भदन्त ! व्रते, किमित्याह-रात्रिभोजनात्-रात्री लियस्स चत्तदोसस्स गुणग्गाहिस्स निव्वियारस्स निवित्तीलगृह्णाति रात्रौ भुक्ते, रात्रौ गृह्णाति दिवा भुङ्क्ते, दिवा गृह्णाति रात्री क्खणस्स पंचमहव्वयजुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइस भुक्ते, दिवा गृह्णाति दिवा भुक्ते संनि धिपरिभोगे, इत्येवंविध- संसारपारगामिस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुनि भड़ वतुष्कस्वरूपान्निशाऽभ्यवहाराद्विरमण भगवतोक्तमतः सर्व भदन्त ! अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमेणं अभिगमेण द रात्रिभोजन प्रत्याख्या मि / तद्यथा-अशन वा पान वा खाद्यं वा स्वाद्य पमाएणं रागदोसपडिबद्धयाए बालयाए मोहयाए मंदयाए किड्डया वा, इत्यनेन द्रव्यपरिग्रहः। तत्राश्यत इत्यशनमोदनाऽऽदि, पीयते इति | तिगारवगुरूययाए चउक्क साओवगएणं पंचिंदिओवसट्टेर पानं मृद्विकापानाऽऽदि,खाद्यत इति खाद्यं खजूराऽऽदि, स्वाद्यत इति पडु प्पन्नमारियाए सायासोक्खमणुपालयं तेणं इहं व स्वाद्यताम्बूलाऽऽदि। एतच नैव स्वयं रात्रौ भुजे नैवान्यैः रात्रौ भोजयामि, भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु राईभोयणं मुंजियं वा मुंजावियं व Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण भूजतं वा परेहिं समणुन्नायं तं निंदामि, गरिहामि, तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाएकाएणं अईयं निंदामि, पड़प्पन्नं संवरेमि, प्रणागय पच्चक्खामि सव्वं राईभोयणं जावजीवाए अणिस्सिओ हुनेव सयं राई भुंजेज्जा, नेवऽन्नेहिं राई भुंजावेजा, राई भुंजंते वि अन्ने न समणुजाणामि / तं जहा-अरहंतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहसक्खियं देवसक्खियं अप्पसक्खियं एवं हवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे अ, एस खलु राईभोयणस्स वेरमणे हिए सुहे खमे निस्सेसिए आणुगामिए सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सम्वेसि सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपीडणयाए अपरियावणयाए अणुद्दवणयाए महत्थे महागुणे महाणुभावे महापुरिसाणुचिन्ने परिमरिसिदेसिए पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बोहिलाभाए संसारुतारणाए ति कट्टु उवसंपञ्जित्ता णं विहरामि। छठे भंते! वए उबढिओ मि सव्वाओ राईभोयणाओ वेरमणं / / एतत्सूत्र रूकलमपि प्राग्वत्। एतच्च रात्रिभोजनव्रतंप्रथमचरमतीर्थकर तीर्थयोः ऋजुजडवकजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं महाव्रतोपरि पाठेलं, मध्यमतीर्थकरतीर्थे पुनः ऋजुप्राज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति। दोषाचेह रात्रिभोजिनां पिपीलिकाशलभाऽऽदिसत्त्वविनाशाऽऽदयो कच्याः / इत्युक्तं षष्टं व्रतम्। अथ समस्तवताभ्युपगमख्यापनायाऽऽहइयेयाइ पंचमहव्वयाइं राईभोअणवेरमणछट्ठाइं अत्तहियट्टयाए उपसंपज्जित्ता णं विहरामि। इत्येतान्यनन्तरोदितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्टानि, किमित्याह- (अत्तहियद्वयाए त्ति) आत्मने जीवाय हितो मोक्षस्तदर्थमात्महितार्थाय, अनेनान्याथ तत्त्वतो व्रताभावमाह, तदभिलाषनुमत्या हिंसाऽऽदावनुमत्यादिभावात् / उप सामीप्येन संपद्याङ्गकृत्योपसम्पद्य विहरामि सुसाधुविहारेण वर्तेऽहं, तदभावेऽङ्गीकृतानामपि व्रतानामभावप्रसङ्गादिति कृता महाव्रतोच्चारणा। साम्प्रतं महाव्रतानामेव यथाक्रममतिचारानुपदर्शयितुमाहअप्पसत्था य जे जोगा, परिणामा य दारूणा। पाणाइवायस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइक्कमे / / 1 / / रूपकम्। अप्रशस्ता हिंसाहेतुत्वादसुन्दराः, चशब्दो वक्ष्यमाणपदापेक्षया समुचयार्थः / ये कंचन योगा अयतचड् क्रमणभाषणाऽऽदयो व्यापाराः, परिणामनभूतघाताध्यवसायाः, चःपूर्वपदापेक्षया समुचये, दारुणा रौद्राः, प्राणातिपातस्य प्राणि(प्राण) प्रहाणस्य, विरमणे निवृत्तावेषोऽयमुक्तो भगवद्धि प्रतिपादितोऽतिक्रमोऽतिचारः, इति मत्वा तान् परिहरेदिति भावः / एवमुत्तरत्रापि भावना काया। द्वितीयव्रतमधिकृत्याऽऽह तिव्वरागाय जा भासा, तिव्वदोसा तहेव य। मुसावायस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइक्कमे // 2 // तीव्ररागा उत्कटविषयानुबन्धा या काचिद्भाष्यत इति भाषा भारती, तीव्रद्वेषा उग्रमत्सरा, तथैव चेति समुच्चयपूरणार्थान्यव्ययानि, मृषावादस्य वितथभाषणस्य, विरमणे विरतावेषोऽयम् उक्तो जिनैर्गदितोऽतिक्रमो देशभङ्गः सर्वभङ्गो वेति भावः। तृतीयव्रतमाश्रित्याऽऽहउग्गहं च अजाइत्ता, अविदिण्णे य उग्गहे। अदिण्णादाणस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइक्कमे // 3 / / अवगृह्यत इत्यवग्रह आश्रयः, तमयचित्वा तस्मात् स्वामिनः स्थामिसंदिष्टाद्वा सकाशादननुज्ञाप्य, तत्रैव यदवस्थानमिति गम्यते / तथा अविदत्ते वाऽवग्रहस्यामिनाऽवितीर्णेऽवग्रहे प्रतिनियताऽवग्रहमर्यादाया बहिरित्यर्थः / यच्चेष्टनमिति वाक्यशेषः। अदत्ताऽऽदानस्य विरमणे एष उक्तोऽतिक्रमो विराधनेत्यर्थ __ चतुर्थव्रतमगीकृत्याऽऽहसद्दारूवारसागंधा-फासाणं पवियारणा। मेहुणस्स वेरमणे,एस वुत्ते अइक्कमे ||4|| आकारस्येहाऽऽगमिकत्वात् शब्दाश्च प्रक्रमाद्वेणुवीणाकामित्तीसमुत्थकलध्वनयः, एवं रूपाणि ललनाऽऽदिमनोहराऽऽकृतयः रसाश्च मधुराऽऽदिविशिष्टाऽऽस्वादाः, गन्धाश्च स्त्रक्चन्दनाऽऽदिदिव्यपरिमलाः, स्पर्शाश्च मृदुतूलीयोषिदङ्गाऽऽदिस्पर्शास्ते तथा, तेषां प्रविचारणा रागात्प्रतिसेवना, मैथुनस्याब्रह्मासेवनस्य, विरमणे एष उक्तोऽतिक्रमोऽतिचारः, तस्मादेतान्न कुर्यादिति हृदयमिति। परिग्रहव्रतमुररीकृत्याऽऽहइच्छा मुच्छा य गेही य, कंखा लोभे य दारुणे। परिग्गहस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइक्कमे / / 5 / / इच्छा मूर्छा च गृद्धिश्च काक्षा लोभश्च दारुण इत्येकार्थानि अबुधबोधनायोपन्यस्तानि। अथवा-इच्छा अनागताऽऽन्तरार्थप्रार्थना, मूच्र्छा च हतीतीतनष्ट पदार्थशोचना, गृद्धिश्व विद्यमानपरिग्रहप्रतिबन्धः, अप्राप्तविविधार्थप्रार्थना काड्क्षा, तद्रूपो लोभः काक्षा लोभश्च, चशब्दाः समुच्चये, किं विशिष्टो? दारुणस्तीव्रः, परिग्रहस्य विरमणे एष उक्तोऽतिक्रम इति पूर्ववत्। षष्ठव्रतमुररीकृत्याऽऽहअइमत्ते य आहारे, सूरखेत्ते य संकिए। राईभोयणस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइक्कमे // 6 // साधूना हि कवलापेक्षया भोजनमानमिदम् / यदुत- "बत्तीस किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवेकवला॥१॥" षड्भागकल्पितजठरापेक्षयात्विदम्-"अद्धंअसणस्स सव्वं, जणस्स कुज्जा दवस्स दो भागे। वाउपवियारणट्ठा, छठभागं ऊणगं कुजा॥१॥" ततश्चास्माच्छास्त्रीयभोजनप्रमाणादधिकोऽतिमा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिकमय त्रश्च पूर्ववदाहारो भोजनं, भुक्त इति गम्यते / दिवाऽपि हि समधिकभोजने कृते रात्री भुक्तान्नगन्धोदाराः प्रजायन्ते, वमनं वा कदाचित, तत्र च रात्रिभोजनदोषः, समुदिलितगलने च प्रभूततरा दोषा इति / सूरस्याऽऽदित्यस्य क्षेत्रम् उदयास्तलक्षण नभः खण्ड सूरक्षेत्र, तस्मिंश्व शङ्किते उदयक्षेत्रमागतो वा, न वा, अस्तदेशं प्राप्तो वा, न वा दिनकर इत्यारेकिते आहारो, भुक्त इति वर्तते / रात्रिभोजनस्य विरमणे उक्तोऽतिक्रम इति व्याख्यातमेव। दर्शिता महाव्रतेष्वतिचाराः / साम्प्रत यथा तान्येवातिचाररहितानि परिपालितानि भवन्ति तथा दर्शयितुमाहदंसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे। पढमं वयमणुरक्खे, विरया मो पाणाइवायाओ ||1|| दंसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे। बीयं वयमणुरक्खे, विरया मो मुसावायाओ // 2 // दंसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे / तइयं वयमणुरक्खे, विरया मो अदिन्नदाणाओ॥३॥ दसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे। चउत्थं वयमणुरक्खे, विरया मो मेहुणाओ य॥४| दंसणनाणचरित्ते, अविरहित्ता ठिओ समणधम्मे। पंचमं वयमणुरक्खे, विरया मो परिग्गहाओ / / 5 / / दंसणनाणचरित्ते, अविराहित्ता ठिओ समणधम्मे। छटुं वयमणुरक्खे विरया मो राइभोयणओ।।६।। दर्शनं च सम्यग्दर्शन, ज्ञानं चाऽऽभिनिबोधिकाऽऽदि, चारित्रं च सामायिकाऽऽदि दर्शनज्ञानचारित्राणि कर्मताऽऽपन्नानि, अविराध्य अखण्डितानि परिपाल्य, विराधना च ज्ञानदर्शनयोः प्रत्यनीकताऽऽदिलक्षणा पञ्चविधा / यदाह- "नाणपडिणीयनिन्हवअच्चासायणतदंतराय च / कुणमाणस्सऽइयारो, नाणविसंवायजोगं च / / 1 / / तत्र ज्ञानप्रत्यनीकता पञ्चविधज्ञाननिन्दया। तद्यथा आभिनियोधिकज्ञानमशोभनं, यतस्तदवगतं ज्ञानं कदाचिदन्यथेति, श्रुतज्ञानमपि शीलविकलस्याकिञ्चित्करत्वादशोभनमेव, अवधिज्ञानमप्यरूपिद्रव्यगोचरत्वादसाधु, मनःपर्यायज्ञानमपि मनुष्यलोकावधिपरिच्छिन्नगोचरत्वादशोभनं, केवलज्ञानमपि समयभेदेन दर्शनज्ञानप्रवृत्तेरेकसमये अकेवलत्वादशोभनमिति। दर्शनप्रत्यनीकतातु क्षायिकदर्शनिनोऽपि श्रेणिकाऽऽदयो नरकमुपगता इत्यतः कि दर्शनेनेति निन्दया। निहवो व्यपलापः; स च ज्ञानस्यान्यसकाशे अधीतमन्यं व्यपदशितो जायते, दर्शनस्यापि सम्मत्यादिदर्शनप्रभावकशास्त्राण्यधिकृत्यैवमेव द्रष्टव्यम्।अत्याशातना तु ज्ञानस्य "काया वया य ते च्चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य। मोक्खाहिगारियाणं, जोइसजोणीहि किं कज्ज / / 1 / / " दर्शनस्य तु किमेभिः सम्मत्यादिभिः कलहशास्वैरिति। अन्तरायंगयोरपि कलहास्वाध्याययिकाऽऽदिभिः करोति / ज्ञानविसंवादयोगोऽकालस्वाध्यायाऽऽदिना, दर्शनविसंवादयोगस्तु शङ्काकाक्षाऽऽदिनेति। चारित्रविराधना पुनः सावद्ययोगानुमत्यादिलक्षणा विचित्रेति / एतान्यविराध्य, किमित्याह स्थितः समारूढः सन्, क्वेत्याह-श्रमणधर्म श्रमणानां साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिलक्षणः समाचारः तस्मिन, किं करोमीत्याहप्रथममाद्यं व्रतं यमम् (अणुरक्खे ति) अनुरक्षामि सर्वातिचारविरहिपालयामि, किंविशिष्ट इत्याह-(विरया मो त्ति) वचनस्य व्यत्ययाद्विरतोऽस्मि निवृत्तोऽहं, कस्मात्प्राणातिपाताज्जीववधादिति एवमन्यदपि द्वितीयाऽऽदिव्रताभिलापि सूत्रपञ्चकमेतदनुसारेण सभवसेयमिति। अथ प्रकारान्तरेणापि महाव्रतरक्षणमभिधातुमाहआलयविहारसमिओ, जुत्तो गुंत्तो ठिओ समणधम्मे। पढमं वयमणुरक्खे, विरया मो पाणाइवायाओ ||1|| आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे। बीयं वयमणुरक्खे, विरया मो मुसावायाओ / / 2 / / आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे। तंइयं वयमणुरक्खे, विरया मो अदिन्नदाणाओ||३|| आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे। चउत्थं वयमणुरक्खे, विरया मो मेहुणाओ ||4|| आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे। पंचमं वयमणुरक्खे, विरया मो परिग्गहाओ / / 5 / / आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे। छटुं वयमणुरक्खे, विरया मो राईभोयणाओ।।६।। आलयविहारसमिओ, जुत्तो गुत्तो ठिओ समणधम्मे। तिविहेण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 7 / / (आलए त्ति) सूचकत्वादालयवर्ती , सकलकलङ्कविकलनिल्लानिषेवीत्यर्थः / (एवं विहार त्ति) यथोक्तविहारेण विहरन् / तथा. ईर्याऽऽदिसमितिपञ्चकेन समितः। तथा-युक्तो नाग्न्यास्नानभूशदनदन्तपवनशिरस्तुण्डमुण्डनभिक्षाभ्रमणक्षुत्पिपासाशीताऽऽतपाऽदि. सहनगुरुकुलवसनाऽऽदिलक्षणैः श्रमणगुणैः समन्वितः। तथा-गुमित्रः गुप्तः, स्थितो व्यवस्थितः श्रमणधर्मे क्षान्त्यादिके यत्यनुष्ठाने, प्रथना व्रतं यमम् ,अनुरक्षामि सदातिचारविरहितं पालयामि, (विरया सरि वचनव्यत्ययाद्विरतोऽस्मि प्राणातिपातात् / इत्येवं शेषसूत्राप्यः द्वितीयाऽऽदिव्रताभिलापेन नेतव्यानि, नवरंसप्तमसूत्रस्योत्तरार्द्धविशेष यथा-त्रिविधेन मनोवाक्कायलक्षणेन करणेनाप्रमत्तः सुप्रणिहितः, रक्षा स्वजीवितमिवाऽऽदरेण पालयामि महाव्रतान्युक्तलक्षणानि पशे पञ्चसंख्यानीति। इदानीमेकाऽऽद्यकोत्तरवृद्धिकाना दशान्तानां शुभाशुभस्थानान परिवर्जनाङ्गीकारकरणद्वारेण महाव्रतपरिक्षणाभिधानायाऽऽहसावज्जजोगमेगं, मिच्छत्तं एगमेव अन्नाणं / परिवजंतो गुत्तो, रक्खामि महय्वए पंच ||1|| अवधं पापं, सहावद्येन यो वर्त्तते स सावद्यः, स चासौ योगश्च व्याप: तमेकमेकभेदं सकलनिन्द्यकर्मणां सावद्ययोगत्वाव्यभिचारादिति। तद. मिथ्या इत्येतस्य भावो मिथ्यात्वंमोहनीयकर्मोदयजन्यो विपर्यस्ताध्यवसयरूपो जीवपरिणामः, तन्निमित्तलौकिकदेवताऽऽदिवन्दनाऽऽदिक्रिया छ? Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिझमण 267 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण देकम् आभिग्रहिकान भिग्रहिकनिवेशिकानाभोगिकसांशयिक- | भेदात्यञ्चविधमपि, उणधिभेदतो बहुतरभेदमपि वा विपर्ययसास्याटेकप्रकारम् / तथा (एव ति) अनुस्वारलोपादेवम्, मिथ्यात्ववदेकविधमित्यर्थः। (अन्नाणं ति) नञःकुत्सार्थत्वात् कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं संशयविपर्ययानध्यवसायाऽऽत्मकोज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणकर्मोदयप्रभवो जीवस्यावबोधपरिणामः, तत्प्रभवग्रन्थविशेषाश्च तदप्युक्तक्रमेणानेकविधमप्यबोधसामान्यादेकविधमिति / किमित्याह-परिवजयन् परिहरन, गुप्तो मनोवचनशरीरैः संवृतः सन् रक्षामि सुविशुद्धानि परिपालयामि महाव्रतान्युक्तलक्षणानि पञ्चेति पञ्चसइ ख्यानीति। तथाअणवजजोगमेगं, सम्मत्तं एगमेव नाणं तु। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 2 / / अनवद्ययोग कुशलानुष्ठानम्, एकं सकलकुशलानुष्ठानानामनवद्ययोगत्याव्यभिचारादेकप्रकारम्।तथा-सम्यक्त्वमिति। सम्यक्शब्दः प्रशंसार्थः, सम्रागित्येतस्य भावः सम्यक्त्वं, दर्शनमोहनीयक्षयक्षयोपशगोपशनाऽऽवि तो जिनोक्ततत्त्वश्रद्धानरूप आत्मपरिणामः, तच्चोपाधिभवादनेकप्रकारमपि श्रद्धानसामान्यादेकमेव एकप्रकारमेव, एकजोदस्य चैकदैकस्यैव भावादिति। तथा-(नाणं तु त्ति) तुशब्दस्यावर्थत्वात् ज्ञानमप्येकविधमेव, तत्रज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेति ज्ञानमावरणक्षयक्षयोपशमाऽऽदिसमुत्पन्नो मतिश्रुताऽऽदिविकल्पाSऽत्मको जीवस्यावबोधपरिणामः, तच्चानेकमप्यवबोधसामान्यादेकमुपयोगापेक्षया वा / तथाहि-लब्धितो बहूना बोधविशेषाणामेकदा संभवेऽप्युपयोगत एक एव सम्भवत्येकोपयोगत्वाज्जीवानामिति। नन्ववबोधसामान्यात्सम्यक्त्वज्ञानयोः कः प्रतिविशेषः?। उच्यते-रुचिः सम्यक्त्व, रुचिकारण तु ज्ञानम् / यथोक्तम्- "नाणमवायधिईओ, दसणमिट्ठ जहोग्गहेहाओ / तह तत्तरुई सम्म, रोइज्जइ जेणं त नाणं // 1 // एतत्किमित्याह-उपसम्पन्नः प्रतिपन्नो युक्तः श्रमणगुणैः रक्षामि पाल्यामि महाव्रतानि भणितस्वरूपाणि पञ्चेति पञ्चसड् ख्यापरिच्छिन्नानीतिः तथादो चेव रागदोसे, दुन्नि य झाणाइ अट्टरोद्दाई। परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ||3|| द्वावेत द्विसङ्ख्यावेव, कावित्याह-रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषो, तत्र अनभिव्यक्तमायालोभलक्षणभेदस्वभावमभिष्वङ्गमात्र रागः, अनभिव्यक्तक्रोधमानलक्षणभेदस्वभावं प्रीतिमात्र तुद्वेषः,तौ परिवर्जयन्नितियोगः। तथाद्वेच द्विसङ्ख्ये च ध्यायते चिन्त्यते वस्त्वाभ्यामिति ध्याने, ध्याती वा घ्याने, अन्तर्मुहूर्तमात्रकालमेकाग्रचित्ताध्यवसाने। यदाह- "अंतोमुहत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि। छउमत्थाणं झाणं, जोगनिरोहो जिणाणं तु!१॥" ते एव नामग्राहमाह-आर्त्त च रौद्रं चाऽऽतरौद्रे, तत्र ऋतं दुःखं तस्य निमित्त तत्र वा भवम्, ऋते वा पीडिते प्राणिनि भवमार्त्त, तचामनोज्ञान शब्दरूपरसगन्धस्पर्शलक्षणानां विषयाणां तदाश्रयभूतवायसाऽ5दिवस्तूना वा समुपनतानां विप्रयोगप्रणिधानं, भाविनां वाऽसंप्रयोग- | चिन्तनम् 11 एवं शूलशिरोरोगाऽऽदिवेदनाया अपि विप्रयोगप्रार्थनम् / इटशब्दाऽऽदिविषयाणां सातवेदनायाश्चावियोगसंप्रयोगप्रार्थनम् 3 / देवेन्द्रचक्रवादिसम्बन्ध्यद्धिप्रार्थनं च 4 / शोकाऽऽक्रन्दनस्वदेहताडनविलपनाऽऽदिलक्षणलक्ष्यं तिर्यग्गतिगमनकारणं विज्ञेयम् / तथारोदयतीति रन्द्र आत्मैव, तस्य कर्म रौद्रं तदपि सत्त्वेषु वधवेधबन्धनदहनाङ्कनमारणाऽऽदिप्रणिधानम् 1 / पैशुन्यासत्यासद्भूतभूतघाताऽऽदिवचनचिन्तनम् 2 / तीव्रकोपलोभाऽऽकुलं भूतोपघातपरायण परलोकापायनिरपेक्ष परद्रव्यहरणप्रणिधानम् 3 / सर्वाभिशङ्कनपर परोपघातपरायणं शब्दाऽऽदिविषयसाधकद्रव्यसंरक्षणप्रणिधानम् 4 / उत्सन्नवधाऽऽदिगम्य नरकगतिगमनकारण समवसेयम् / एते च, किमित्याह-परिवर्जयन गुप्तः सन् रक्षामि महाव्रतानि पञ्चेति। तथादुविहं चरित्तधम्म, दुन्नि य झाणाइ धम्मसुक्काइं। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वएपंच // 4 // द्विविधं देशसर्वचारित्रभेदाद् द्विप्रकार, चर्यत मुमुक्षुभिरासेव्यते तदिति, चर्यत वा गम्यतेऽनेन निर्वृताविति चरित्रम् / अथवा-चयस्य कर्मणां रिक्तीकरणाचरित्रं निरुवतन्यायादिति चारित्रमोहनीयक्षयाऽऽद्याविर्भूत आत्मनो विरतिरूपः परिणामस्तल्लक्षणो धर्मः श्रेयश्चारित्रधर्मस्तं, द्वे च द्विसंख्ये च ध्याने प्रणिधाने धर्म्य शुक्लं च धर्म्यशुक्ले, तत्र श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्य,तच्च सर्वज्ञाऽऽज्ञाऽनुचिन्तनम् पारागद्वेषकषायेन्द्रियवशजन्त्वपायविचिन्तिनम् 2 / ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिशुभाशुभकर्मविपाकसंस्मरणम् 3 / क्षितिवलयद्वीपसमुद्रप्रभृतिवस्तुसंस्थानाऽऽदिधर्माऽऽलोचनाऽऽत्मकम् 4 / जिनप्रणीतभावश्रद्धानाऽऽदिचिगम्य देवगत्यादिफलसाधकं ज्ञातव्यम् / तथा-शोधयत्यष्टप्रकार कर्ममलं शुचं वा शोक क्लमयत्यपनयतीति निरुक्तविधिना शुक्लम्। एतदपि पूर्वगतश्रुतानुसारिनानानयमतैकद्रव्यगतोत्पत्तिस्थितिभङ्गाऽऽदिपर्यायानुस्मरणाऽऽदिस्वरूपम् अवधासंमोहाऽऽदिलिङ्गम्यं मोक्षाऽऽदिफलप्रसाधक विज्ञेयम् / शेषं प्राग्वद् ज्ञेयमिति। तथाकिण्हा नीला काऊ, तिन्नि य लेसाउ अप्पसत्थाउ। परिवजंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 5 / / (किण्ह त्ति) विभक्तिव्यत्ययात्कृष्णाम्. (एवं नील त्ति) नीलाम् (काउ त्ति) कापोतीं चेत्येतास्तिसस्त्रिसंख्याः, चशब्दो योजित एव, लिश्यन्ते श्लिष्यन्ते प्राणिनः कर्मणा यकाभिस्तालेश्याः कृष्णाऽऽदिद्रव्योपाधिका जीवपरिणामविशेषाः। आह च- "श्लेष इववर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्य।' तथा- "कृष्णाऽऽदिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्राय, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते।।१।।" इति। ताः किंविशिष्टा इत्याह-अप्रशस्ता अप्रशस्तस्वरूपत्वात् क्लिष्टकर्मबन्धहेतुत्वाचारित्राऽऽदिगुणलाभविघातनिमित्तत्वाचासुन्दराः1 किमित्याह-परिवर्जयनित्यादि पूर्ववदिति। तथातेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि य लेसा उ सुप्पसत्थाउ। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 268 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 6 / / (तेउत्ति) तैजसीम (पम्ह त्ति ) पद्माम (सुक्कत्ति) शुक्ला चेत्येतास्तिसस्त्रिसंख्याः , चशब्द : प्राग्योजित एव / लेश्याः परिणामविशेषाः, सुप्रशस्ताः शुभस्वरूपत्वात् शुभकर्मबन्धहेतुत्वाचारित्राऽऽदिगुणलाभकारणत्वात् शुभगतिनिबन्धनत्वाच सुन्दराः / किमित्याह - उपसंपन्न इत्यादि पूर्ववदिति / तत्र कृष्णा वर्णतः स्निग्धजीमूतगवलव्यालभ्रमरा जनाऽऽदिस मानवर्णः, रसतो रोहिणीपिचुमन्दकटुकनुम्बकाम्बकाऽऽदिसमधि कतमरसैः गन्धतः कुथितगोकडेवराऽऽदिसमधिक्तमगन्धैःस्पर्शतःक्रकचाऽऽदिसमधिकतमस्पर्श:, सकलकर्मप्रकृतिनिष्यन्दभूतैः कृष्णद्रव्यैर्जनितत्वात्कृष्णाभिधाना / नीला तु वर्णतो नीलाशोकगुलिकावैडूर्येन्द्रनीलचाषपिच्छाऽऽदिसमवणः, रसतो मरिचपिप्पलीनागराऽऽदिसमधिकतररसेः, गन्धतो मृततुरगशरीराऽऽदिसमधिकतरगन्धैः, स्पर्शतो गोजिहाऽऽ दिसमधिकतरकर्क शस्पर्शः सकलप्रकृतिनिष्यन्दभूतैर्नीलद्रव्यैर्जनितत्वान्नीलाभिधाना / कापोती तु वणेतोऽतसीकुसुमपारापतशिरोधराफलिनीकन्दलाऽऽदिधूमद्रव्यतुल्यवर्णः, रसतः तरुणाम्रवालकपित्थाऽऽदिसमधिकरसः, गन्धतः कुथितसरीसृपाऽऽदिसमधिकगन्धः, स्पर्शतः कठोरपलाशतरुपत्रादिसमधिकस्पर्शः सकलप्रतिनिष्यन्दभूतैःकपोताऽऽभद्रव्य निष्पिन्नत्वात्कापोती संज्ञा / तैजसी तुवर्णतो वह्निज्वालशुकमुखकिंशुकतरुणार्कहिड्गुलुकाऽदिलोहितद्रव्यसमानवर्णः, रसतः परिणताऽऽमसुपक्ककपित्थाऽऽदिरामधिकरसैः, गन्धतोविचकिलपाटलाऽऽदिसमधिकगन्धेः स्पर्शतःशाल्मलीफलतूलाऽऽदिसमधिकस्पर्श : तेजोवर्णद्रव्यैर्निष्पन्नत्वात्तैजसी संज्ञा / पद्मातुवर्णतो हरिद्राहरितालाऽऽदिपीतद्रव्यसमवर्णैः, रसतो वर वारुणीमध्वादिसमधिकरसैः, गन्धनः शतपत्रिकापुटपावागन्धाऽऽदिसमधिकतरगन्धैः, स्पर्शतो नवनीतरुताऽऽदिसमधिकतरसुकुमारस्पर्शः, पनागर्भाऽऽभद्रव्यैर्निष्पन्नत्वात्पद्माऽभिधाना। शुक्ला तु वर्णतः शकुन्देन्दुहारक्षीररजताऽऽदिसदृशवण :, रसतो मृद्वीकाखण्ड क्षीरखजूरशर्कराऽऽदिसमधिकतमशुभरसैः, गन्धतःकर्पूरमालतीमाल्यादिसमधिकतमसुरभिगन्धैः, स्पर्शतः शिरीषपुष्पाऽऽदिसमधिकतमसुकु मारस्पर्शः शुक्लद्रव्यैर्जनितत्वाच्छुक्लाऽभिधाना। पा०। (विशेषता लेश्याविस्तरः स्वस्वस्थाने) मणसा मणसचविऊ वायासचेण करणसचेण / तिविहेण वि सबविऊ, रंक्खामि महव्वए पंच!।७।। अस्य प्राकृतचूर्ण्यनुसारिणी व्याख्येयम्-मनसा शुभस्वभावरू-पेण चेतसा करणभूतेन रक्षामि महाव्रतानि पञ्चेति सर्वत्र योगः। किंविशिष्टः सन्नित्याह-(मणसचविउ ति) गनसः सत्यं मनःसत्यं मनःसंयम इत्यर्थः / स चाकुशलमनोनिरोधकुशलमनः प्रवर्तनलक्षणः, तं वेधि सम्यगासेवातो जानामीति मनःसत्यविद्वान, तथा-वाक्सत्येन कुशलाकुशलवचनो दीरणनिरोधलक्षणेन वाक्संयमेन करणभूतेन, तथाकरणसत्येन क्रियातथ्येन, कायसं यमेनेत्यर्थः / स च सति कार्य उपयोगतो गमनाऽऽगमनाऽऽदिविधानं तदभावे तु संलीनकरचरणाऽऽद्यवयवस्यास्थानं यदिति / अनेन च भङ्गत्रयाभिघाने नात्यदपि द्विकसंयोगभङ्ग त्रयं सूचितम्। तद्यथा-मनोवाक्सत्येन, मनःकायसत्यन, वाक्कायसत्येन चेति। तथा-(तिविहेण वि सच्चविउ ति) त्रिविधेनाऽपि मनोवाझायलक्षणेन करणेन सत्यविद्वान् संयमज्ञः, शुद्धसंयमपालय इत्यर्थः। अनेन च त्रिकसंयोगभङ्गः प्रदर्शित इत्येवं सत्यविकल्पेन संयम्भ रक्षामि परिपालयामि, महाव्रतानि पञ्चेति / / तथाचत्तारिय दुहसेज्जा, चउरो सन्ना तहा कसाया य। परिवज्जंतो रक्खामि महव्वए पंच / / 8 / / चतसश्चतुःसङ्ख्याः, चशब्दोऽभ्युचये, शेरते आस्वितिशय्याः, दुःखटः शय्याः दुःखशय्या, ताश्च द्रव्यतोऽतथाविधस्वरूपाः, भावतस्तु दुःस्थचित्ततया दुःश्रमणतास्वभावाः प्रवचनाश्रद्धान१परलाभप्रार्थनरकामाऽऽशंसन३स्नानाऽऽदिप्रार्थनाविशेषिता मन्तव्याः। (पा०) प्रथम दुःखशय्या प्रवचनाश्रद्धानरूपा / तथा द्वितीयाप रलाभप्रार्थनरूपा तथा तृतीया-कामाऽऽशंसनरूपा ! तथा चतुर्थी स्नानाऽऽदिप्रार्थनविशेषता च / पा०1 ('दुहसेज्जा' शब्दे चतुर्थभागे 2603 पृष्ठे गत तथा-चतस्रश्चतुःसङ्ख्याकाः का इत्याह-संज्ञानानि संज्ञा असातवेदनीयमोहनीयकर्मोदय-जन्यश्चेतनाविशेषाः / ताश्चेमाः-आहारसंज्ञा भयसंज्ञा 2, मैथुनसंज्ञा 3, परिग्रहसंज्ञाच 4 / (पा०) (आहारसह 'आहार-सण्णा' शब्दे द्वितीयभागे 527 पृष्ठे गता) (भयसंज्ञास्वरूप 'भयसण्णा' शब्देद्रष्टव्यम्) (मैथुनसंज्ञा मेहुणसण्णा' शब्दे) (परिरसंड 'परिग्गहसण्णा' शब्दे वक्ष्यते) तथा-कषायांश्चेति। तेन चतुर्विधप्रकारे कषायश्चि परिवर्जयन्निति / तत्र कृषन्ति विलिखन्ति कर्मक्षेत्रं सुस दुःखफ लयोग्य कलुषयन्ति वा जीवमिति निरुक्तविधिना कषायाः, उक्त च- 'सुहदुक्खबहुसईयं, कम्मक्खेत्तं कसंति ते जम्हा। कलुसति : च जीव, तेण कसाय ति वुचंति / / 1 / / " अथवा कषति हिनस्ति दहिइति कषः कर्म, भवो वा तस्याऽऽया लाभहेतुत्वाकर्ष वा आययन्ति गमयन्ति देहिन इति कषाऽऽयाः। उक्तंच-"कम्म कसं भवो वा, कसमओसिंजओ कसाया उ / कसमाययति च जओ गमयति कसं करायी ||1 // " ते खेमे, क्रोधो, मानो,माया लोभश्च (पा.) (क्रोधकपाट 'कसाय' शब्दे तृतीयभागे 363 पृष्ठे गतः) (मानकषायः 'माणकसाय शब्दे वक्ष्यते, 'माण' शब्दे च विस्तरः) (मायाकषायः 'माणकसाय शब्दे, 'माया' शब्दे च वक्ष्यते ) (लोभकषायः 'लोभ' शब्दे द्रष्टव्यः "परिवजंतो" इत्यादि पूर्ववत् // 8 // तथाचत्तारिय सुहसिज्जा, चउव्विहं संवरं समाहिं च। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वएपंच / / 6 / चतस्रश्चतुःसंख्याः / चः समुचये / का इत्याह-सुखदाः शरयः सुखशय्याः / एता दुःखशय्याविपरीताः प्रायः प्रागियावगन्तदया, (पा०) (चत्वारोऽपि सुखशय्याः 'सुहसेञ्जा' शब्दे वक्ष्यन्ते) तथाचतुर्विध चतुःप्रकारम् / कमित्याह-संवरं संयमम (पा०) (संवरस्य बहवो भेदाः 'संजम' शब्दे संवर' शब्दे च वक्ष्यन्ते) तथा- (समाहि चेति) समाधानं समाधिः प्रशस्तभावाविरोधलक्षणः, स च दर्शनज्ञानतपश्चारित्रविषयभेदाचतुर्विधः, दर्शनाऽऽदीनां समस्ताना वा अविरोध Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण इतिवृत्वा तमुवसंपन्न इत्यादि पूर्ववदिति / (समाधि भेदाः 'समाहि शब्दे वक्ष्यन्ते! पंचेव य कामगुणे, पंचेव य अण्हवे महादोसे। परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच // 10 // पथेट मनोज्ञशब्दरूपरसगन्धस्पर्शभेदाःपञ्चसंख्या एव, चशशब्दोऽर्थान्तराभिधानसमुच्चयार्थः / के इत्याह-काम्यन्ते रागाऽऽतुरेः प्राणिभिरभिकाड्यन्त इति कामा अभिलषणीयपदार्थाः, त एवाऽऽत्मसंयमनकहेतुत्वाद् गुणाःसूत्रतन्तवः, आत्मगुणोपघातकारणत्वाद्वा गुणाः कामगुणाः / अथवा-कामस्य मदनस्थाभिलाषामात्रस्य वा संपादका गुणा धर्माः पुद्रलाना कामगुणाः, ते चानर्थहेतवः। (पा०) (तेषामनर्थहेतुत्व 'कामगुण' शब्दे तृतीयभागे 434 पृष्ठे दर्शितम्) तान् कामगुणान् परिवर्जयन्निति योगः। तथा-पञ्चैव प्राणितिपातमृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनपरिगहभेदात्पञ्चसंख्या एवं, चः समुच्चये। केइत्याह-आस्नात्यादत्ते कम्र यस्ते अस्नवा आसवा इत्यर्थस्तान, किंविधानित्याह-महान्तश्च ते दोषाश्च महादोषाः, दारुणदुःखहेतुत्वात्प्रकृष्टदूषणानि तान् / शेष पूर्ववदितिः तथापंचिंदियसंयरणं, तहेव पंचविहमेव सज्झायं / उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वएपंच / / 11 / / तत्र इन्दनादिन्द्रो जीवः सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपर-मैश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्ग मिति इन्द्रियं श्रोत्राऽऽदि / तच्च द्विविधम् द्रव्येन्द्रियम, भावेन्द्रियं च / (पा०) (इन्द्रियस्य सर्वोऽप्यधिकारः,तद्भेदाश्च 'इदिय' शब्दे द्वितीयभागे 548 पृष्ठे गताः) पञ्च च तानीन्द्रियाणि, तेषां संवरणं इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाभ्यां प्रवर्तमानानां निग्रहणं पञ्चेन्द्रियसंवरणं तदुपर पन्नः / (तहेव त्ति) तथैव तेनैव प्रकारेण पञ्चविधमेव वाचनाप्रच्छन्नापरिवतर्नाऽनुप्रेक्षाधर्मकथाभेदात्पञ्चप्रकारमपि, तर वक्ति शिष्यस्त पति गुरोः प्रयोजकभावो वाचना, पाठनमित्यर्थः / गृहीतवाचनेनापि संशयाऽऽद्युत्पत्तौ पुनः प्रष्टव्यमिति पूर्वाधीतस्य सूत्राऽऽदेः शङ्कि-ताऽऽदौ प्रश्नः प्रच्छनेति। प्रच्छनाविशोधितस्य मा भूद्विस्मरणमिति परिवर्तना, सूत्रस्य गुणनमित्यर्थः / सूत्रयदर्थेऽपि संभवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा, चिन्तनिकेत्यर्थः / एवमभ्यस्तश्रुतेन धर्मकथा विधेयेति धर्मस्य श्रुतरूपस्य कथा व्याख्या धर्मकथेति / एवं पञ्चविध किमित्याह- (सज्झायं ति) शोभनमा मर्यादयाऽध्ययनं श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्या-यस्तमुपसंपन्न इत्यादि पूर्ववदिति। तथाछज्जीवनिकायवह, छप्पि य भासाउ अप्पसत्थाउ। परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ||12|| षड्जीवनिकायानां पृथ्वीकायाऽप्कायतेजः कायवायुकायवनस्पतिकायत्रसकायलक्षणषद्विधप्राणिगणाना वधो विनाश षड्जीवनिकायवधरतं, तथा षडपिच अलीकाऽऽदिभेदात् षट्सङ्ख्याः अपि च / काः? इत्याह-भाष्यन्ते प्रोव्यन्ते इति भाषाः वचनानीत्यर्थः / ताः किंविशिष्टा इत्याह-अप्रशस्ता गुरुकर्मबन्धहेतुत्वादसुन्दराः / (पा०) भाषाभेदाः 'भासा' शब्द] शेषं प्राग्वदिति। तथाछव्विहमडिभतरयं, बज्झं पि य छव्विहं तवोकम्म। उवसपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच॥१३॥ षद्धिधं प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायध्यानोत्सगभेदात्षट् - प्रकारम् / (अडिभतरय ति) लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात्तन्त्रान्तरीयैश्च परमार्थतोऽनासेव्यमानत्वान्मोक्षप्राप्त्यन्तरङ्गत्वाचाऽऽभ्यन्तरं, तदेवाऽऽभ्यन्तरक, तपःकर्मेति योगः / (पा०) (बज्झं पि य छविहं तवो कम्मभिति) बाह्यमित्यासेव्यमानस्य लौककैरपि तपस्तया ज्ञायमानत्वात्प्रायो बहिः शरीरतापकत्वाद्वेति बाह्यमपि चेतिसमुच्चये, षड्डिधमनशनाऽवमादरिकावृत्तिसङ्के परसपरित्यागकायक्लेशप्रतिसंलीनताभेदात्षट्प्रकारम् / किं तदित्याह-तपति दुनोति शरीरकर्माणीति तपस्तस्य कर्म क्रिया तपः कर्म, तपोऽनुष्ठानमित्यर्थः / तत्रानशनमभोजनमाहार त्याग इत्यर्थः / (पा०)। तपःकर्मविषये 'तवोकम्म' शब्दः चतुर्थभागे 2211 पृष्टान्तर्गती द्रष्टव्यः) "उवसंन्नो" इत्यादि पूर्ववदिति / तथासत्त भयहाणाई, सत्तविहं चेव नाणविन्भंग। परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच॥१४|| सप्तेहलोकाऽऽदिभयभेदात्सप्तसंख्यानि, भयं मोहनीयप्रकृति-समुत्थ आत्मपरिणाम: तस्य स्थानान्याश्रया भयस्थानानि / (पा०) (भयस्थानभेदवक्तव्यता 'भयट्टाण' शब्दे वक्ष्यते) तथा-सप्तविधमेव सप्तप्रकारमेव (नाणविभंगति) पूर्वापरनिपातनाद्विभङ्गज्ञानं, तत्र विरुद्धो वितथो वा, अयथावस्तुविकल्पो यस्मिस्तद्विभङ्ग, तच तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति विभङ्ग ज्ञान, मिथ्यात्वसहितावधिरित्यर्थः / (पा०) विभङ्ग ज्ञानवक्तव्यता 'विभंगणाण' शब्दे) (परिवज्जतो त्ति) विभङ्गज्ञानोपलब्धार्थ-प्ररूपणां परिहरन्नित्यर्थः / “गुत्तो'' इत्यादि पूर्ववदिति। तथापिंडेसण पाणेसण, उग्गह सत्तिक्कया महज्झयणा। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ||15|| पिण्डःसमयभाषया भक्तं, तस्यैषणा ग्रहणप्रकाराः पिण्डषणाः। (पा०) (पिण्डेषणाविस्तरः 'पिडसणा' शब्दादवगन्तव्यः) पानैषणा अप्येता एव, नवर चतुर्थ्या नानात्व, तर ह्यायामसौवीरकाऽऽदि निर्लेपं विज्ञेयमिति। (पानैषणाविषयः पाणेसणा' शब्दादवगन्तव्यः) (उग्गह त्ति) सूचकत्वादवग्रहप्रतिमा-अवगृहात इत्यवग्रहो वसतिः तत्प्रतिमा अभिग्रहा अवः हप्रतिमाः। (पा०) [सत्तिक्कय ति सप्त सप्तैकका अनुद्देशकत्यैकसरत्वेनैकका अध्ययनविशेषा आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूडारूपाः, ते चे समुदायतः सप्तेति कृत्वा सप्तैकक अभिधीयन्ते, तेषामेकोऽपि सप्तै कक इति व्यपदिश्यते, तथैनामत्वात् (पा०) | सप्तककानां वक्तव्यता ‘सत्तिक्कय' शब्द वक्ष्यते] पमहज्झयण त्ति] सूत्रकृताङ्ग स्य द्वितीय श्रुतस्कन्महान्ति प्रथमश्रुतस्कधाध्य-यनेभ्यः सकाशाद्ग्रन्थतो बृहन्त्यध्ययनानि (पा०)[अत्र विस्तरः सूयगड' शब्दे "उवसंपन्नो जुत्तो' इत्यादि सूत्रं तु प्राग्वदिति। अट्ठ मयट्ठाणाई, अट्ठ य कम्माई तेसि बंधं च / परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 16|| Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 300- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिकमा अष्टौ जातिकुलबलरूपतपऐश्वर्यश्रुतलाभभेदादष्टसंख्यानि मदस्थानानि मदभेदाः, तत्र मातृकी विप्राऽऽदिका वा जातिः, पैतृकमुग्राऽऽदिक वा कुलं, शक्तिबलं, शरीरसौन्दर्यरूपम् / अनशनाऽऽदि तपः, सम्पदः प्रभुत्वम् ऐश्वर्य, बहुशास्त्रज्ञता श्रुतम् अभिलषितवस्तुप्राप्तिभिः / अत्र च दोषः- "जात्यादिमदोन्मत्तः, पिशाचवदति दुःखितश्वेह। जात्यादिहीनता परभवे च निःसंशयं लभते / / 1 / / " इति / अष्टौ च ज्ञानाऽ5वरणदर्शनाऽऽवरणवेदनीयमोहनीयाऽऽयुष्कनामगोत्रान्तरायमूलप्रकृतिभेदादष्टसंख्यानि कर्माणि, तेसिं बंधं च ति] तेष्टामष्टविधकर्मणां बन्धोऽभिनवग्रहण तं च, तद्वर्जन च तद्धेतुपरिहारतः समवसेय, परिवर्जयन्नित्यादि पूर्ववदिति / मदस्थानचिस्तरः 'मयहाण' शब्दे / वक्ष्यते तथाअट्ठय पवयणमाया, दिट्ठा अट्ठविहनिट्ठियटेहिं / उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्यए पंच / / 17 / / अष्टौ चेर्यासमित्यादिभेदादष्टसंख्या एव, का इत्याह-प्रवचनस्य / द्वादशाङ्गस्य मातर इव तत्प्रसूतिहेतुत्वान्मातरोजनन्यः प्रवचनमातरः / [पा०] प पवयणमाया' शब्दे विस्तरब दृष्टा उपलब्धाः, कैरित्याहअष्टविधा अष्टप्रकारा निष्ठिताः क्षयं गता अर्थाः प्रक्रमात् ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिपादार्था येषां ते तथा तैरष्ट विधनिष्ठितार्थर्जिनैरित्यर्थः / "उवसंपन्नो जुत्तो'' इत्यादि पूर्ववदिति। नव पावनियाणाइं, संसारत्था य नवविहा जीवा। परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।१८।। तथा-(नव) नवसंख्यानि, पापानि पापनिबन्धनानि निदानानि | भोगाऽऽदिप्रार्थनालक्षणानि पापनिदानानि तानि परिवर्जयेन्निति योगः / [पा० तथा-संसरन्ति कर्गवशवर्तिनः प्राणिनःपरिभ्रगन्ति यरिमन्निति संसारः, तत्र तिष्ठन्तीति संसारस्थाश्चः समुच्चये, नवविधाः पृथिव्यप्ते - जोवायुवनस्पतिद्वित्रिः चतुःपञ्चेन्द्रियभेदान्नवसंख्याः, के इत्याह-जीवाः प्राणिनः, तान परिवर्जयन्नित्यादि पूर्ववदिति। [पा०] शेषं पूर्ववदिति। नवबंभचेरगुत्तो, दुनवविहं बंभचेरपरिसुद्धं / उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 16 / / पनवबंभचेर तिब सूचकत्वान्नवब्रह्मचर्य गुप्तिभिस्तत्र ब्रह्मचर्यस्य / मैथुनव्रतस्य गुप्तयो रक्षाप्रकाराः ब्रह्मचर्यगुप्तयो, नव च ता ब्रहाचर्यगुप्तथस्ताभिगुप्तः सुसंवृतस्सन्निति (पा०) पनवब्रहाचर्यगुप्तिविवरणम् 'बंभचेरगुत्ति' शब्दे वक्ष्यतेय तथा-पदुनवविहं बम्भचेरपरिसुद्धं ति ब द्विनवविधमष्टादशप्रकारगित्यर्थो, ब्रह्मचर्य मैथुनविरति, परिशुद्ध निर्दोष, तचौदारिकवै क्रियमैथुनस्य मनोवाक्कायः करणकारणानुमतिवर्जनाजायते / पा०। दर्शिताः ] असंवरणं तय त्ति] संवरणं संवरः, न संवरोऽसंवरः / [पा०] (संकिलेसंच त्ति) संक्लेशोऽसमाधिः, तं च दशविध, परिवर. नित्यादि पूर्ववत् / पा०। (असमाधिभेदाः 'असमाहि' शब्दे प्रथम 842 पृष्ठे गताः) तथासच्चसमाहिट्ठाणा, दस चेव दसाउ समणधम्मं च। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 21 / / सन्तः प्राणिनः पदार्था मुनयो वा, तेभ्यो हितं सत्यं, तद्दशविधम्।। (सत्यस्य बहवो भेदाः, ते च 'सच्च' शब्दे दर्शयिष्यन्ते) (समाहिए. त्ति) समाधेः रागाऽऽदिरहितचित्तस्य स्थानान्याश्रयाः समाधिस्थान तान्यपि दश / (पा०) (समाधिस्थानभेदाः 'समाहिट्ठाण' र दर्शयिष्यन्ते ) क्वचित्तु-"चित्तसमाहिट्ठाण ति'' पाठः, तत्राप्ययमेव नवरं सत्यदशकं न व्याख्येयमिति / [ दस चेव दसाओ दि] दो. दशसंख्या एव दशाधिकाराभिधायकत्वाद्दशा इति बहुवचनान्तं स्त्रीने शास्त्रस्याभिधानमिति / (पा०) (ताश्चदशाः 'दसा' शब्दे चतुझं 2484 पृष्ठे दर्शिताः)(समणधम्मच त्ति) श्राम्यन्तीति श्रमणाः साध्य तेषां धर्मः क्षान्त्यादिलक्षणः श्रमणधर्मस्तं च दशविधम्, उपसंपन्त्रक पूर्ववत।। पा०]शेषं प्राग्वदिति। (25) अथाऽऽशातनावर्जनतो महाव्रतलक्षणमाहआसायणं च सव्वं, तिगुणं एकारसं विवज्जंतो। उपसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 22 / / आयं ज्ञानाऽऽदिलाभं शातयत्याशातना, अर्हदादेरवजेत्यर्थः / विवर्जयन्निति योगः। किंविशिष्टाम् ?-सर्वां समस्ता सामान्येन, र (तिगुण एक्कारसं ति ) चशब्दस्येहसंबन्धात्त्रयो गुणा गुणकारका यस त्रिगुणस्तमेकादशं चैकादशाकं, त्रयस्त्रिंशत्तमाऽऽशातना इच्छा एकादशानां त्रिगुणितानां त्रयस्त्रिंशत्संख्योपपत्तेरिति भावना। अठरा वचनव्यत्ययात् प्रक्रान्ताशातनाशब्दसंबन्धाच त्रिगुणा एकादशकाः शातनाः कर्मताऽऽपन्ना विवर्जयन् परिहरन्, तथोप संपन्नः प्रतिपत्र नाशातनामिति सामर्थ्यादम्यते / तथा-युक्तः श्रमणगुणः 2 परिपालयामि महाव्रतानि पञ्चेति। (पा०) (आशातनाया बहब में 'आसायणा' शब्दे द्वितीयभागे 478 पृष्ठे दर्शिताः) एवन्द द्वयादिशुभाऽशुभस्थानाङ्गीकारवर्जनद्वारेण कृता महाव्रोच्चारण, साम्प्रतमनुक्तस्थानातिदेशस्ता कर्तुमाहएवं तिदंडविरओ, तिगरणसुद्धो तिसल्लनीसल्लो। तिविहेण पडिकंतो, रक्खामि महव्वए पंच॥२३॥ एवं प्रागुक्तलेश्याऽऽदिस्थानवत्रिदण्डविरतो, दण्ड्यते चारित्रमा पहारतो निःसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डास्त्रयश्च ते दुष्प्रयुक्तनन वामायभेदाः त्रिसंख्याः दण्डास्तेभ्यो विरतो निवृत्तस्विदण्डविरः उदाहरणानि चात्र मनोदण्डे कोकणाऽऽर्यः - सो "किर गया महान वायंते उड्डजाणू अहोसिरो चितंतो चिट्टइ। साहुणो अहो छ सुहज्झ णोवगओ ति वंदंति, न य किंचि पडिवयण देइ, चिरेण सहा देउमारद्धो / साहूहिं पुच्छिओ - किमेचिरं झाइयंति? सो भाए. तथा उवघायं च दसविहं, असंवरं तह य संकिलेसं च। परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 20 / / उपहननमुपघातस्तं च दशविधभुदगमोपधाताऽऽदिभेदादृशप्रकार वर्जयन (पा० उपघातस्य भदाः 'उबघाय' शब्दे द्वितीयभाग 880 पृष्ठे / Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 301 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण संपयं खरतरो मारुओ वायइ, जइ ते मम पुत्ता इयाणिं बल्लराणि क्षेत्राणीत्यर्थः / पलीवेज्जा तओ तेसिं वासारत्ते सरसाए भूमीए सुबहू सालिसण्या होजा, एवं मए चिंतियं / तओ आयरिएहिं वारिओ ठिओ। एवमाइ जमसुहं मणेणं चिंतेइ सो मणदंडो।" (पा०)(वाग्दण्डः वइदंड' शवे वक्ष्यते) (कायदण्डः कायदंड' शब्दे द्वितीयभागे 462 पृष्ठे गतः) तथा- (लिगरणसुद्धा त्ति) त्रीणि च तानि करणानि च मनःप्रभृतीनि त्रिकरणाने, तैः शुद्धो निर्दोषस्त्रिकरणानि वा शुद्धानि सर्वदोषरहितानि यस्य स त्रिकरणशुद्धः। आह-त्रिदण्डविरल स्त्रिकरणशुद्ध एव भवत्यतः किं तद्ग्रहणेन?। सत्यम् : सावल्योगनिवृत्तस्त्रिदण्डविरत उच्यते, निरवद्ययोग-प्रवृत्तस्तु त्रिकरणशुद्धः / अथवा-करणरूपसावद्ययोगविरतोदण्डत्रयविरत उच्यते, करणकारगनुमतिरूपसावद्ययोगविरतस्तु त्रिकरणशुद्ध इति न दोषः, अन्यथा वाऽनयोर्बहुश्रुतैर्विशेषो भावनीयः, यतो गम्भीरमिदमार्षमिति / (पा०) ('तिसल्लनीसल्ल' पदव्याख्या 'तिसल्लनीसल्ल' शब्दे चतुर्थभागे 2339 पृष्ठे गता) (तिविहेण पडिक्कतो ति) त्रिविधन त्रिप्रकारेण, करणेनेति गम्यते। प्रतिक्रान्तः सर्वातिचारप्रतिनिवृत्तो, रक्षामि महाउतानिपश्चेति। अथ महाव्रतोचारणं निगमयन्नाहइचेयं महव्वयउच्चारणं थिरत्तं सल्लुद्धरणं धिइबलयं ववसाओ साहणट्ठो पावनिवारणं निकायणा भावविसोही पड़ागाहरणं निज्जूहणा राहणा गुणाणं संवरजोगो पसत्थज्झाणोवउत्तया जुत्तया य नाणे परमट्ठो उत्तमहो एस तित्थंकरेहिं रइरागदोसमहणेहिं देसिओ पवयणस्स सारो छज्जीवनिकायसंजमं उवएसियं तेल्लोकसक्कयं ठाणं अब्भुवगया / / / इत्येतदनन्तरोक्त महाव्रतोचारणं व्रतोत्कीर्तन, कृतमिति शेषः। अत्र च को गुण इत्याह- (थिरत्तमित्यादि) अथवा-तत् कथंभूत-मित्याह(थिस्तं ति) महाव्रतेष्वेव धर्मे वा स्थैर्यहेतुत्वात् स्थिरत्वं निश्चलत्वं, भवति चाऽऽसन्नसमाधेः सत्वविशेषस्य तत्करणश्रवणाऽऽदिभ्यः संवेगातिशयान्महाव्रतेषु धर्मे वा निष्प्रकम्पतेति।शल्यानां मायाशल्या दीनामुद्धरणकारणग्वाच्छल्योद्धरणमिद-मिति / तथा-धृतेश्चित्तसमाधेबलमवाटाभो धृतिबलं, तत्कारणत्वान्महाव्रतोचारणमपि धृतिबल, स्वार्थिककप्रत्ययोपादानाद्धृतिबलकम्। धीबलं वा धृतिबलं का ददातीति धृतिबलद धीबलदं वेत्युच्यते, जायते चासकृत्तद्वासितमतेतिबलमिति। एवमन्यत्रापि भावना कार्या। तद्यथा-व्यवसायो दुष्करकरणाध्यवसायः, तथा (साहणट्टो त्ति) साध्यतेऽनेन साध्यमिति साधनं साधकतमकरणं, तल्लक्षणोऽर्थः पदार्थः साधनार्थः, मोक्षाssख्यपरमपुरुषार्थनिष्पत्त्युपाय इत्यर्थः, तथा-(पावनिवारणं ति) पापस्याऽशुभकर्मणो निवारणं निषेधकं पापनिवारणम्। तथा-(निकायण नि) निकाचनेव निकाचना, स्वव्रतप्रतिपत्तिदृढतरनिबन्ध इत्यर्थः। शुभकर्मण वा निकाचनाहेतुत्वान्निकाचनेदमुच्यते, नच सरागसंयमिनामयमों नघटत इति। तथा-(भावविसोहि ति) भावस्याऽऽत्मपरिणामस्य जलमिव वस्त्रस्य विशोधिकारणत्वाद्भावविशोधिर्भावनिर्मलत्वहेतु- | रित्यर्थः / तथा- (पडागा-हरणं ति) पताकायाश्चारित्राऽऽराधनावैजयन्त्या हरणं ग्रहणं पताकाहरणमिदम्, लोके हि मल्लयुद्धाऽऽदिषु वस्त्रमाभरणं द्रव्यं वा ध्वजाग्रे बध्यते, तत्र यो येन युद्धाऽऽदिना गुणेन प्रकर्षवान् स रङ्ग मध्ये पुरतो भूत्वा गृह्णातीति पताका हरतीत्युच्यते / एवमत्रापि पाक्षिकाऽऽदिषु महाव्रतोच्चारणतः समुपजातचारित्रविशुद्धि प्रकर्षः साधुः प्रवचनोक्तायाश्चारित्राऽऽराधनापताकायाहरणं करोतीति / तथा- (निज्जूहण त्ति) निजूंहणा निष्काशना कर्मशत्रूणामात्मनगरान्निर्वासनेत्यर्थः / तथा-राधना अखण्डनिष्पादना। केषामित्याहगुणाना मुक्तिप्रसाधकजीवव्यापाराणाम्, तथा-(संवरजोग इति) नूतनकर्माऽऽगमनिरोधहेतुःसंवरस्तद्रूपो योगो व्यापारः संवरयोगः / अथवा-संवरेण पञ्चाऽऽश्रवनिरोधलक्षणेन योगः संबन्धः संवरयोग इति। तथा / (पसत्थज्झाणोवजुत्तय त्ति) प्रशस्तध्यानेन धर्मशुक्ललक्षणशुभाध्यवसानेनोपयुक्तता संपन्नता, प्रशस्तध्याने वोपयुक्तता प्रशस्तध्यानोपयुक्तता, महाव्रतोचारणं कुर्वतः श्रृण्वतो वा नियमादन्यतरशुभध्यानसंभवादिति। तथा- (जुत्तया य नाणे ति) युक्तता च समन्वितता च, विभक्तिव्यत्ययात् ज्ञानेन तत्त्वावगमेनसद्धोधसंपन्नतेत्यर्थः / महाव्रतप्रतिपत्तेः राम्यग्ज्ञानफलत्वादिति भावः / चूर्णोतु-"जुत्तया य त्ति' पाठो व्याख्यातः। तत्र युक्तता चाष्टादशशीलाङ्गसहसैरितिद्रष्टव्यम् / तथा-(परमट्ठो त्ति) परमार्थः सद्भतार्थः, अकृत्रिमपदार्थ इत्यर्थ इति, कश्चित्पदार्थः परमार्थोऽपि परमाण्वादिवदुत्तमो न भवत्यत आहउत्तमश्चासावर्थश्चोत्तमार्थः, प्रकृष्टपदार्थः, मोक्षफलप्रसाधकत्येन महाव्रतानां सर्ववस्तुप्रधानत्वादिति भावः। तथा-[एस ति] लिङ्गव्यत्ययादेतन्महाव्रतोच्चारणं प्रवचनस्य सारो देशित इति संबन्धः / अथवा एष इत्यनेन सार इत्येतस्य लिङ्गं गृहीतमिति / कै रित्याह तीर्थकरैः प्रवचनगुरुभिः / किंविधैरित्याह-रतिश्चारित्रमोहनीय-कर्मोदयजन्यस्तथाविधाऽऽनन्दरूपश्चित्तविकारः, रागश्च ममकारो, द्वेषश्चाहङ्कारो, रतिरागद्वेषास्तान्मथ्नन्ति व्यपनयन्तीति रतिरागद्वेषमथनाः / तैः किमित्याह-देशितः के वलाऽऽलो केनोपलभ्य भव्येभ्यः प्रवेदितः प्रवचनस्य द्वादशाङ्गर्थस्य सारो निष्पन्दः महाव्रतानि तीर्थकरैः प्रवचनार्थस्य सारभूतानि कथितानीत्यतो मुमुक्षुणा तेषु महानादरो विधेय इति भावः / ते च भगवन्तस्तीर्थकराःषड्जीवनिकायसंजमं षट्सङ्ख्यपृथिव्यादिसत्त्वसमूहरक्षामुपलक्षणत्वान्मृषावादाऽऽदिपरिहारं चोपदिश्य भव्येभ्यः कथयित्वा उपलक्षणत्वात्स्वयं कृत्वा च त्रैलोक्यसत्कृतं लोकत्रयपूजित स्थान प्रदेश, सिद्धिक्षेत्रमित्यर्थः / अभ्युपगताः संप्राप्ता इत्यनेनापि महावतानामत्यन्तोपादेयता सूचयतीति / अथ महाव्रतोत्कीर्तनापरिसमाप्तौ मङ्गलार्थ प्रत्यासन्नोप कारित्वाद् विशेषतो महावीरस्य स्तुतिमाहनमोऽत्यु ते सिद्ध बुद्ध मुत्त नीरय निस्संग माणमुरण गुणरयणसागर मडणंत मऽप्पमेय असरीर ! नमोऽत्थु ते महइ महावीर वद्धमाण सामिस्स नमोऽत्थु ते अरहओ भगवओ तिकट्ठ। नमो नमस्कारोऽस्तु भवतु, कस्मै ते तुभ्यं, हे वर्धमानस्वामिन्निति प्रक्रमः। किं विशिष्ट ? सिद्ध कृतार्थ बुद्ध के वलज्ञानेनावगतसमस्त वस्तुतत्त्व, मुक्त पूर्वबद्धकर्मबन्धनै स्त्य Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 302 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण क्त, नीरजः बध्यमानकर्मरहित ! अथवा- नीरय ! निर्गतीत्सुक्य, क्षमाऽऽदिगुणप्रधानमहातपस्विभ्यः स्वपुरूभ्य स्तीर्थकरगणधराऽऽ. निःसङ्ग! पुत्रकलत्रमित्रधनधान्यहिरण्यसुवर्णाऽऽदिसकलसंबन्ध- दिभ्यो वेति भाव / यैरिद वक्ष्यमाणं वाचितम् अस्मभ्यं प्रदत्तं, अथदाविकल ! (मानमूरण त्ति) सर्वगर्वोद्दलन ! गुणरत्नसागर ! इति व्यक्तम्। वाचितं परिभाषितं, सूत्रार्थतया विरचित-मित्यर्थः। षड्विधं षट्प्रकारमतथा अनन्तज्ञानाऽऽत्मकत्वादनन्तस्तरयाऽऽमन्त्रणम् अनन्त !, मकारः वश्यकरणादावश्यक, गुणानां वाऽभिविधिना वश्यमात्मानं करोतीत्याप्राकृतशैलीप्रभवः। अप्रमेय ! प्राकृतज्ञानापरिच्छेद्य, अशरीर! जीवस्व- वश्यकं, किंविशिष्टम् ? भगवत् सातिशयाभिधेयसमृद्धयादिगुणयुक्त रूपस्य छद्मस्थैः परिच्छेत्तुमशक्यत्वादिति। तथा-नमो नमस्कारोऽस्तु षधित्वमेवोपदर्शयन्नाहभवतु,करमै ? ते तुभ्यम्, किंविशिष्टत्याह-महति गरीयसि, प्रक्रमात् तं जहा-सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमण, मोक्षे, कृतमते ! इतिगम्यते। पुनरपि किंविशिष्टत्याह-विशेषेणेयति मोक्ष काउस्सग्गो, पचक्खाणं; सव्वेहिं पि एयम्मि छव्विहे आवस्सर प्रति गच्छति गमयति वा प्राणिनः प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति, भगवंते ससुत्ते सअत्थे सगंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा वीरयति वा रागाऽऽदिशत्रून् प्रति पराक्रमत इति वीरः, निरूक्तितो वा वा भावा वा अरहंतेहिं भगवंतेहिं पन्नत्ता वापरूविया वा ते भावे वीरः / यदाह- "विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते / तपोवीर्येण सद्दहामो, पत्तियामो, रोएमो,फासेमो, पालेमो, अणुपालेमो युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः / / 1 / / '' इतरवीरापेक्षया महांश्वासी तद्यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः, सामायिक सावद्ययोगविरतिप्रधान वीरश्चेति महावीरस्तस्याऽऽमन्त्रणं हे महावीर ! पुनरपि किंविशिष्ट? ध्ययनविशेषः १,चतुर्विशतिस्तव ऋषभाऽऽदिजिनगुणोत्कीर्तनाधिकावर्धमान स्वकुलसमृद्धिहेतुतया पितृभ्या कृतवर्धमानाभिधान ! कुतस्ते रवानध्ययनयविशेषः 2, वन्दनकं गुणवत्प्रतिपत्तिप्रधानोऽध्ययनविक्षत नमस्कारोऽस्त्वित्याह- (सामिस्स त्ति) विभक्तिव्यत्ययादितिकृत्वेति एव 3, प्रतिक्रमण स्खलितनिन्दाप्रतिपादकोऽध्ययनविशेष एव / प्रत्येकमभिसंबन्धाच स्वामीतिकृत्वा प्रभुरितिहेतोः, तथा नमो कायोत्सर्गो धर्मकायातिचारव्रणशोधकोऽध्ययनविशेष एव 5, प्रत्यः नमस्कारोऽस्तु ते इति / कुत इत्याह-(अरहओ त्ति) उक्तहेतुभ्याम ख्यानं विरतिगुणकारकोऽध्ययनविशेष एव 6, सर्वस्मिन्नपि समस्या शोकाऽऽद्यष्टमहाप्रातिहार्याऽऽदिरूपां पूजामर्हतीत्यर्हन, स इति कृत्वा तस्मिन्ननन्तरोक्ते षडविधे षड्भेदे, आवश्यके भणितस्वरूपे, 'लगाई नमोऽस्तुते। कुत इत्याह- (भगवतो ति) भगवानिति कृत्वा भगवानिति समग्रैश्वर्याऽऽदिमति, सह सूत्रेण मूलतन्त्ररूपेण वर्तत इति ससून तस्मिन्सहार्थेन तद्व्याख्यानरूपेण वर्तत इति सार्थतस्मिन्, सहगृन्धन हेतोः। तत्र भगः समग्रैश्वर्याऽऽदिलक्षणः। उक्तंच- "ऐश्वर्यस्य समत्रस्य, सूत्रार्थोभयरूपेण वर्तत इति सग्रन्थं तस्मिन, सह निर्युक्त्या प्रती. रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयनस्य, षण्णा भग इतीङ्गना॥१॥" तरूपया वर्तत इति स नियुक्तिकं तस्मिन्, सह सङ्ग्रहण्या निर्य-कर स विद्यते यस्येति भगवानिति / अथवा- 'महइमह ति" रुढिव बर्थसंग्रहणरूपया वर्तत इति ससङ्ग्रहणिकम्, तस्मिन्, ये केचना शादतिमहान्, स चासो वीरश्चेति महावीरः, स चासौ वर्द्धमानश्चेति विरतिजिनगुणोत्कीर्तनाऽऽदयो धर्माः, वाशब्द उत्तरपदार्थापेक्षः महावीरवर्धमानः, स चासौ स्वाभी, तस्मै / तथा- नमोऽस्तु तेऽर्हते, समुच्चये, भावाः क्षायोपशमिकाऽऽदिपदार्था जीवाऽऽदिपदार्थाः तथा- नमोऽस्तु ते भगवते इतिकृत्वा इतिहेतोः यतस्त्वमुक्तविशेषणो वाशब्दः पूर्वपदापेक्षया समुच्चय एव, अर्हद्भिदेवाऽऽदिकृतसपर्याहभनाई ऽतस्ते नमोऽस्त्वि ति भावः। अथवा- कथं नमोऽस्त्वित्याह- (तिकट्ट समगैश्वर्याऽऽदिमद्भि, किमित्याह-प्रज्ञप्ताः सामान्येनोद्दिष्टाः, प्रति त्ति) त्रिः कृत्वः त्रीन् वारानिति, प्रतिवाक्यं च नमस्क्रियाऽभिधानं स्तुति विशेषेण निर्दिष्टाः / वाशब्दौ पूर्वक्त् / तान् भावानुपलक्षणत्वाद गुणा प्रस्तावाददुष्टमिति। यथा-महाव्रतोचारणं कर्मक्षयाय तथा श्रुतोत्कीर्तन (सदहामो त्ति) श्रद्दध्महे सामान्येनेदमेवैतत् इति श्रद्धाविषयीकुमः मपि कर्मविलयायेति। (पत्तियामो त्ति) प्रतिपद्यामहे प्रीतिकरणद्वारेण, (रोएमो त्ति) अभिलक महाव्रतोत्कीर्तनं निगमयन् श्रुतोत्कीर्तनं कर्तुकाम इदमाह ऽतिरेकेण रोचयामः, आसेवनाभिमुखतया, रुचिविषयीकुर्मा इत्यर्थः एसा खलु महव्वयउच्चारणा कया इच्छामो सुयकित्तणं काउं। न च प्रीतिरुची न भिन्ने, यतः क्वचिद्दध्यादौ प्रीतिसद्भावेऽपि न सध्द एषाऽनन्तरोक्ता, खलुक्यालङ्कारलङ्कामात्रे, महाव्रतोच्चारणा रुचिरतो विभिन्नताऽनयोरिति / (फासेमो त्ति) स्पृशामः आसेवनाद्वारे महाव्रतसंशब्दना, कृतोक्तन्यायेन विहिता, साम्प्रतम् इच्छामोऽभिल छुपामः / ''पालेमो त्ति' पाठोऽशुद्ध इव लक्ष्यः, (अणुपालेम' नि षामः, श्रुतकीर्तनामागमग्रन्थाभिधानसंशब्दना, कर्तुं विधातुमिति / अनुपालयामः पौनःपुन्यकरणेन। यदि पुनः प्रसिद्धत्वात् 'पालेमोति / (पा०)(तच श्रुतम् 'सुय' शब्दे वक्ष्यते) पदमवश्यं व्याख्येयं, तदा पालयामः पौनःपुन्यकरणेन रक्षामः एक तत्र तावदल्पवक्तव्यत्वादावश्यकश्रुतसमुत्कीर्तनाय तदुपदेशकनम- कतिपयदिनपालेनऽपि स्यादतः-अनुपालयामः पालनादनु पश्चादस्कारपूर्वक सूत्रमाह जन्मापीत्यर्थः पालयामोऽनुपालयामः। नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं छव्यिह-मावस्सयं तथाभगवंतं। ते भावे सद्दहंतेहिं पत्तियंतेहिं रोयंतेहिं फासंतेहिं पालती। नमो नमस्कारोऽस्त्विति गम्यते, केभ्यः? इत्याह-तेभ्य क्षमाश्रमणेभ्या | अनुपालंतेहिं अंतो पक्खस्स जं वाइयं पढियं परियट्टियं पुचि Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिझमण 303 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण अणुपहियं अणुपालियं तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मोक्खाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकटु उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। तान् भावान् श्रद्दधाने रेवमेवैतदिति सामान्येन प्रतीतिं कुर्वाणैः, प्रतिपद्यमानार्वेशेषप्रीतिकरणद्वारेण मन्यमानैः, रोचयद्भिरभिलाषाअतिरेकेण आसेवनाभिमुखतया रुचि विषयीकुर्वाद्भिरित्यर्थः / स्पृशदिरासेवनाद्वारेण छुपद्भिः; पालयद्भिरिति पदमत्रापि न विद्य, तदङ्गीकारे च पूर्ववदर्थविशेषो वाच्यः। अनुपालयद्भिः पौनःपुन्यकरणेन रक्षयद्भिः, अन्तमध्ये पक्षस्य चन्द्राभिधानार्द्धमासस्य, यत्किमपि, वाचितम् -अन्येभ्यः प्रदत्तं, पठितं स्वयमधीतं, परिवर्तितं सूत्रतो गुणितं, पृष्ट पूर्वार्धरतस्य सूत्राऽऽदेः शङ्किताऽऽदौ प्रच्छनं, विहितमित्यर्थः, अनुप्रेक्षितमर्थविस्मरणभयाऽऽदिना चिन्तितम्, अनुपालितम् एभिरेव प्रकारैरनधमनुष्ठितं तद् दुःखक्षयाय शारीरमानसासातोच्छेदाय, कर्मक्षवाय ज्ञानाऽऽवरणाऽऽद्यदृष्टविनाशाय, मोक्षाय परमनिःश्रेयसाय, बोधिलाभाय प्रेत्य सद्धर्मावाप्तये, संसारोत्तारणाय भवभ्रमणपारगमनाय, अस्माकं भविष्यतीति गम्यते। इतिकृत्वा इतिहेतोरुपसंपद्यागीकृत्य, विहरामीति वचनव्यत्ययाद्विहरामो मासकल्पाऽऽदिना साधुविहागा दर्नामहे इति। तथाअंतो पक्खस्स जंन वाइयं न पढियं न परियट्टियं न पुच्छियं नाणुपहियं नाणुपालियं संते बले संते बीरिए संते पुरिसक्कारपरक्कमे तस्स आलोएमो, पडिक्कमामो, निंदामो, गरिहामो विउट्टे मो, विसोहेमो, अकरणयाए अब्भुट्टे मो, अहारिहं / तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जामो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। अनविशेषितसूत्राणि पूर्ववव्याख्येयानि, कस्मिन् विद्यमानेऽपि वाचनाऽदि न कृतमित्याह-सति विद्यमाने बले शारीरे प्राणे, तथा सति विद्यमाने वीर्ये जीवप्रभवे प्राणे एव, तथा सति पुरुषकारपराक्रमे, तत्र पुरुषकारः पुरषाभिमानः, स एव निष्पादित-फलः पराक्रम इति, (तस्स आलोएमो शि) विभक्तिव्यत्ययात्तदवाचिताऽऽदिकमालोचयामो गुरवे निवेदयामः, तथा- (पडिक्कमामो त्ति) प्रतिक्रमामः प्रतिक्रमणं कुर्मः, तथा- (निंदामो त्ति) निन्दामः स्वसमक्षं जुगुप्सामहे / आह च "सचरितपच्छतावो निंद ति" तथा- (गरहामो त्ति) गर्हामो गुरुसमक्ष जुगुप्सामहे। आह च- "गरहा वि तहा जाइयमेव नवरं परप्पयासणय ति।" तथा-(विउद्देमो त्ति ) व्यातवर्तयामो वित्रोटयामो, विकुट्टयामो वा अवाचनाऽऽद्यनुबन्धं व्यवच्छेदयाम इत्यर्थः / (विसोहेमो त्ति) विशोधयामः प्रकृतदोषपडमलिनमात्मानं विमलीकुर्मः / तथाअकरणतया पुनर्न करिष्याम इत्येवमभ्युत्तिष्ठामोऽभ्युपगच्छाम इति, यथार्हमपराधाऽऽद्यपेक्षया यथोचितं तपःकर्म निर्विकृतिका-5ऽदिक, पापच्छेदकत्वात्पापच्छित्, प्रायश्चित्त विशोधकत्वाद्वा प्रायश्चित्तं, प्रतिपद्यामहे अभ्युपगच्छामः, तथा-तस्य यन्न वाचितभित्यादेरपराधस्य मिथ्यादुष्कृत स्वदोषप्रतिपत्तिगर्भ पश्चात्तापानुसूचकं मिथ्यादुष्कृतमिति वाक्यं प्रयच्छाम इति / समुत्कीर्तितमावश्यकम्। इदानीं तह्यतिरिक्त स्यावसरः तदपि द्विविधं प्रज्ञप्तम् / तद्यथा-कालिकं, चोत्कालिकं च / यदिह दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एवास्वाध्यायिकाभावे पठ्यते तत्कालेन निर्वृत्तं कालिकम, (तच्च 'कालियसुय' शब्दे द्वि. भा. 466 पृष्ठे गतम् ) यत्पुनः कालवलापशविधास्वाध्यायिकवयं पठ्यते तदुत्कालिकम् / तत्र तावदुत्कालिकसमुत्कीर्तनायाऽऽहनमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं अगबाहिरं उक्कालियं भगवंतं / तं जहा-दसवेयालियं, कप्पियाकप्पियं, चुल्लकप्पसुयं, महाकप्पसुयं, ओवाइयं, रायप्पसेणइयं, जीवाभिगमो, पन्नवणा, महापन्नवणा, नंदी, अनुओगदाराई, देविंदत्थओ, तंदुलवेयालियं, चंदाविज्झयं, पमायप्पमायं, पोरिसिमंडलं, मंडलप्प-वेसो, गणिविजा, विजाचरणविणिच्छओ, झाणविभत्ती, मरणविभत्ती, आयविसोही, संलेहणासुयं, वीयरागसुयं, विहारकप्पो, चरणविही, आउरपञ्च-क्खाणं, महापच्च-क्खाणं। 'नमो' नमस्कारोऽस्त्विति गम्यते, तेभ्यः क्षमाश्रमणेभ्यः, सूत्रार्थदातृभ्य इत्यर्थ / यैरिदं वक्ष्यमाण, वाचितमस्मभ्यं प्रदत्तमङ्गबाह्य प्रवचनपुरुषानेभ्यो बहिर्भवम्, उत्कालेन निवृत्तमुत्कालिकं, भगवत् महार्थत्वसमृद्धयादिगुणवत्। तद्यथा- (दसवेयालिय ति) विकालेनापरावलक्षणेन निवृत्त वैकालिकं, दशाध्ययननिर्माण च तद्वैकालिकं च मध्यपदलोपाद् दशवैकालिम् / (पा०) (दशवैकालिकवक्तव्यता 'दसवे यालिय' शब्दे चतुर्थभागे 2480 पृष्ठादारभ्य द्रष्ट ट्या) (कप्पियाकप्पियं ति) कल्प्याकल्प्यप्रतिपादक कल्प्याकल्प्यम् ('कप्पियाकप्पिय' शब्दस्य ग्रन्थविशेषप्रतिपादकत्वं 'कप्पियाकप्पिय' शब्दे तृतीयभागे 240 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) तथा-(चुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुयं ति) कल्पनं कल्पः स्थविरकल्पाऽऽदिस्तत्प्रतिपादिकं श्रुतं कल्पश्रुतम्। तत्पुनर्द्धिभेदमेकमल्पग्रन्थमल्पार्थ च (अस्योत्कालिक श्रुतप्रतिपादकत्वम् 'चुल्लकप्पसुय' शब्दे तृतीयभागे 1168 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) द्वितीयं महाग्रन्थं, महार्थ च। ["महाकप्पसुय शब्देऽस्य विशेषो वक्ष्यते] तथा[ओवाइयं ति] प्राकृतत्वात् वर्णलोपे औपपातिकम्, उपपतनमुपपातो देवनारकजन्म, सिद्धिगमनं च, तमधिकृत्य कृतमध्ययनमौप-पातिकम् / [अस्य बहुविस्तरः 'ओववाइय' शब्दे द्वितीयभागे 66 पृष्ठे गतः] [रायप्पसेणइयं ति] राज्ञः प्रदेशिनाम्नः प्रश्नानि तान्युपलक्षणभूतान्यधिकृत्य प्रणीतमध्ययनं राजप्रश्रीयमिदमप्युपाङ्ग सूत्रकृताङ्ग स्येति / [विस्तरः 'रायपसेणीय' शब्दे वक्ष्यते] तथा-(जीवाभिगमो त्ति) जीयानामुपलक्षणत्वाद-जीवानां चाभिगमो ज्ञानं यत्र स जीवाभिगमो ग्रन्थः / [पा०] (तगतिविशेषः जीवाभिगम शब्दे तृ० भागे 1563 पृष्ठे गतः। तथा- (पण्णवण त्ति जीवाऽऽदीनां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना (सर्वा वक्तव्यता 'पण्णवणा'शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते] बृहत्तरा प्रज्ञापना महाप्रज्ञापना / अत्र विशेष: 'महापण्णवणा' शब्दे बिलोकनीयः] एते च समयावाङ्गस्योपाने इति। तथा- निंदिति नन्दन नन्दी, नन्दन्त्यनयेति वा भव्यप्राणिन इति नन्दी, पञ्चप्रकार ज्ञानस्वरूपप्रतिपादकोऽध्ययनविशेष इति। नन्दर्भेदाः, तत्स्वरूपंच 'णांदे' शब्दे चतुर्थभागे 1751 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 304 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कम पृष्ठे प्रतिपादितम्ब तथा- [अणुओगदाराई ति |' अनुयोगो व्याख्यानं, तस्य द्वाराण्युपक्रमाऽऽदीनि चत्वारि मुखान्यनुयोगद्वाराणि तत्स्वरूप्रतिपादकोऽध्ययनविशेषः, अभेदोपचारादनुयोगद्वाराणीत्युच्यते / [अनुयोगद्वारवक्तव्यता 'अणुओगदार 'शब्दे प्रथमभागे 358 पृष्ठे 'अणुओग' शब्दे 355 पृष्ठे च गता तथा-[देविंदत्थओ ति ] देवेन्द्राणां चमरवैरोचनाऽऽदीनां स्तवनं भवनस्थित्यादिस्वरूपाऽऽदिवर्णन यत्रासौ देवेन्द्रस्तव इति। | अत्र देवेन्द्रस्तवग्रन्थो विलोकनीयः। तथा-प तंदुलवेयालियं ति) तन्दुलानां वर्षशताऽऽयुष्कपुरुषप्रतिदिनभोग्याना संख्याविचारेणोपलक्षितो ग्रन्थविशेषः तन्दुलवैचारिकमिति / (अत्र विस्तरः तुंदलवेयालिय' शब्दे चतुर्थभागे 2168 पृष्टे द्रष्टव्यः बा तथा(चंदाविज्झयं ति) इह चन्द्रो यन्त्रपुत्रिकाऽक्षिगोलको गृह्यते, तथा-आ मर्यादया विध्यत इति आवेध्यं, तदेवाऽऽवेध्यकं, चन्द्रलक्षणमावेध्यकं चन्द्राऽऽवेध्यकम, राधावेधइत्यर्थः। तदुपमानमरणाऽऽराधनाप्रतिपादको ग्रन्थविशेषश्चन्दाऽऽवेध्यकमिति / (अत्र विशेषचिन्तायां (' चंदाविज्झय' शब्दस्तृतीयभागस्थः 1067 पृष्ठगतो विलोकनीयः) तथा(सूरपण्णत्ति ति) ('सूरपण्णत्ति' शब्देऽत्र विशेषः) तथा-(पमायप्पमायं ति) प्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफलविपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रमादाप्रमादम्। (तत्र प्रमादस्वरूपम् ('पमाय' शब्दे वक्ष्यते) प्रतिपक्षद्वारेणाप्रमादाऽऽदयो वाच्या इति (पा०) (पोरिसिमंडल ति) पुरुषः शड़ कुः शरीरं वा तस्मान्निष्पन्ना पौरुषी। इयमत्र भावना-यदा सर्वस्य वस्तुनः स्वप्रमाणा छाया जायते तदा पौरुषी, इत्येतच पौरुषीमानमुत्तरायणान्ते दक्षिणायनाऽऽदौ वैकं दिन भवति, तत ऊर्द्धमडगुलस्याष्टावेकषष्टिभागा दक्षिणायने, वर्धन्ते उत्तरायणे च हसन्तीति / एवं पौरुषी मण्डले 2 अन्या 2 प्रतिपाद्यते, तदध्ययनं पौरुषीमण्डलमिति (अत्र चूर्णिः 'पोरिसीमंडल' शब्दे वक्ष्यते) तथा-(मंडलप्पवेस इति) यत्रेह चन्द्रसूर्ययोर्दक्षिणोत्तरेषु मण्डलप्रवेशो वण्यत तदध्ययन मण्डलप्रवेश इति। (विलोकनीयश्चात्र मंडलप्पवेस'शब्दः) तथा-(गणिविज त्ति) गुणगणोऽस्यास्तीति गणी, स चाऽऽचार्य स्तस्य विद्या ज्ञानं गणिविद्या / (पा०)-(अस्मिन् विषये गणिविजा' शब्दस्तृतीयभागस्थः 825 पृष्ठगतो विलोकनीयः) तथा- (विज्जाचरणविणिच्छओ त्ति) (अत्र ' विज्जाचरणविणिच्छय' शब्दो विलोकनीयः) तथा-(झाणविभत्ति त्ति) ध्यानान्यार्तध्यानाऽऽदीनि तेषां विभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा ध्यानविभक्तिः। (अस्योत्कालिकश्रुतप्रतिपादकत्वम्- ' झाणविभत्ति' शब्द चतुर्थभागे १६७६पृष्ठ गतम्) तथा- (मरण-विभत्ति त्ति) मरणानि प्राणत्यागलक्षणानि (पा०) मरणानां विभ-क्तिर्विभजनं विचारणं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ क्रियते सा मरणविभ-क्तिरिति / (अत्र विशेषः, भेदाश्च मरण' शब्दे दर्शयिष्यन्ते) तथा- (आयविसोहि त्ति) आत्मनो जीवस्यालोचनाऽऽदिप्रायश्चित्त "चत्तारि विचित्ताई, विगईनिज्जूहियाइ चत्तारि'' इत्यादिका / भावसंलेखना तु क्रोधाऽऽदि कषायप्रतिपक्षाभ्यास इति / तथा-(वीयरायसुप ति) सरागव्यपोहेन वीतरागस्वरूपं प्रतिपाद्यते यत्राऽध्ययने तद्वीतताश्रुतम् / तथा-(विहारकप्पो त्ति) विहरणं विहारो वर्तन तस्य कल्प। व्यवस्था स्थविरकल्पाऽऽदीनामुच्यते यत्र ग्रन्थैऽसौ विहारकल्पः। (ग्रन्थविशेषप्रतिपादकत्वमस्येति 'विहारकप्प' शब्दे वक्ष्यते) तथ(चरणविहि त्तिब चरणं व्रताऽऽदि। यथोक्तम्- ''वयसमण-धम्मसंजनवेयावचं च बंभगुत्तीओ।नाणाइतियं तवको हनिग्गहा इय चरमेयं / / 1 / / एतत्प्रतिपादकमध्ययन चरणविधिः। [अत्र बहु-विस्तरः 'चरणविहि शब्दे तृतीयभागे 1128 पृष्ठे दर्शितः ] तथा- पआउरपञ्चक्खाण वि आतुरः क्रियाऽतीतो ग्लानस्तस्य प्रत्याख्यानमातुरप्रत्यारगरपपचूर्णिकृतोक्तो विधिश्वाऽत्र 'आउर आउपच्चक्खाण' शब्दे द्वितीय 41 पृष्ठे दर्शितः बतथा-पमहापच्चक्खाणं ति ब महच्च तत्प्रत्याख्या चेति समासः। पपा०ब एतदपि पूर्ववव्याख्येयम्। [पा०] [अत्र विस्तर 'महापच्च-क्खाण' शब्दे वक्ष्यते] सव्वहिं पिएयम्मि अंगबाहिरे उक्कालिए भगवंते ससुत्ते सात सगंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा वा भावा वा अरहती भगवंतेहिं पन्नत्ता वा परूविया वा ते भावे सहहामो, पत्तियाम | रोएमो, फासेमो पालेमो, अणुपालेमो, ते भावे सहहंदी पत्तियंतेहि रायंतेहिं फासंतेहिं पालंतेहिं अणुपालंतेहिं अंती पक्खस्स जं वाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छियं अणुपेरि अणुपालियं तंदुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मुक्खाए बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकटुउवसंपज्जित्ता णं विहरामि। अंत पक्खस्स जं न वाइयं न पढियं न परियट्टियं न पुचि नाणुपेहियं नाणुपालियं संते बले संते वीरिए संते पुरिसयारपरक्कमे तस्स आलोएमो, पडिकमामो, निंदामो, गरिहामो, विउट्टे मो, विसोहेमो, अकरणयाए अब्भुट्टे मो, अहाति तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जामो, तस्स मिच्छामि दुआर। इदमपि सूत्रं प्राग्वत्समवसेयमिति / समुत्कीर्तितमुत्कालिकम्। अथ कालिकोत्कीर्तनायाऽऽहणमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं अंगबाहिर कालि भगवंतं / तं जहा-उत्तरज्झयणाई, दसाओ, कप्पो, ववहारो, इसिभासियाई, निसीहं, महानिसीह, जंबूदीवपन्नत्ती, सूरपमत्ती,चंदपन्नत्ती, दीवसागरपन्नत्ती, खुड्डियाविमाणपविभती | महल्लियाविमाणपविभत्ती, अंगचूलियाए, वंगचूलियाए, विवाहचूलियाए, अरुणोववाए, वरुणोववाए, गरूलोववाए, वेसमणोववाए, वेलंधरोववाए, देविंदोववाए, उट्ठाणसुए. सम्ट्ठाणसुएं, नागपरिण्णावलियाणं, निरयावलियाणं, कप्पियाणं, कप्पवडिं सयाणं, पुप्फियाणं, पुप्फचूलियाणं, वण्डियाणं, वण्हिदसाणं, आसीविसभावणाणं,दिट्ठीविसमाव तदध्ययनमात्मविशुद्धिः। तथा-(संलेहणासुयं ति) द्रव्यभावसंलेखना प्रतिपाद्यते यत्र तदध्ययनं संलेखनाश्रुतम् / तत्र द्रव्यसंलेखनोत्सर्गतः Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 305 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण पाणं चारणभावणा णं महासुमिणभावणा णं तेयगनिसग्गाणं सम्वहिं पि एयम्मि अंगबाहिरे कालिए भगवंते ससुत्ते सअत्थे सम्मथे संनिज्जुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा वा भावा वा अरहतेहिं भगवंतेहिं पन्नत्ता वा,परूवियावा, ते भावे सहहामो, पत्तियामो,रोएमो, फासेमो, पालेमो, अणुपालेमो, ते भावे सद्दहंतेहिं पत्तियंतेहिं फासंतेहिं पालिंतेहिं अणुपालिंतेहिं अंतो पक्खस्स जं वाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छियं अणुपेहियं अणुपालिय तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मुक्खाए बोहिलाभाए संसारुत्तारपाए तिकट्ठ उवसंपज्जित्ता णं विहरामि / अतो पक्खस्स जं न वाइयं न पढियं न परियट्टियं न पुच्छियं नाणुपेहियं नाणुपालियं संते बले संते वीरिए संते पुरिसयारपरक्कमे तस्स बालोएमो, पडिकमामो, निंदामो, गरिहामो, विउट्टेमो विसोहेमो, अकरण-याए अब्भुट्टेमो, अहारिहं तवोकम्म पायच्छित्त पडिवज्जामो, तस्स मिच्छामि दुक्कडं / / एतदपि पूर्वयद् व्याख्येयम्।नवरम्- "(उत्तरज्झयणाई ति) उत्तराणि प्रधानान्यध्ययनानि, रूढ़िवशाद्विनयश्रुताऽऽदीन्येव षट्त्रिंशत् प्रथमाझोपरि पाठाद्वोत्तराध्ययनानीति / पा० / अत्र विशेषः 'उत्तरज्झयण' 'शब्दे द्वितीयभागे 764 पृष्ठे प्रतिपादितः) पदसाओ त्ति ब दशाध्ययनाऽत्मको ग्रन्थविशेषो दशाः, दशाश्रुतस्कन्ध इति यः प्रतीत इति / दशा श्रुतस्कन्धविषये 'दसासुयक्खंध ' शब्दश्चतुर्थभागे 2485 पृष्ठस्थोऽवलोकनीयः] (कप्पो त्ति) कल्पः साध्वाचारः, स्थविरकल्पाऽऽदि तत्प्रतिपादकमध्ययनं कल्प इति। [ कल्पस्य सर्वो विषयः कप्प' शब्दे तृतीयभागे 220 पृष्ठे गतः / कल्पव्यवहारयोर्भेदः 'ववहार' शब्दे वक्ष्यते / (ववहारो त्ति) प्रायश्चित्तगोचरव्यवहारप्रतिपादकमध्ययनं व्यवहार इति / [व्यवहारविषये बहुवक्तव्यता, सा च' ववहार' शब्दे दर्शयिष्यते] (इसिभासियाई ति) इह ऋषयः प्रत्येकंबुद्धसाधनः [पा०] तैर्भाषितानि पञ्चचत्वारिंशत्सङ्ख्यान्यध्ययनानि श्रवणाऽऽद्यधिकारवन्ति ऋषिभाषितानि। [पा०] [वृद्धसंप्रदायश्चाऽत्र ' इसिमासिय' शब्दे द्वितीयभागे६३५ पृष्ठे गतः] (निसीहं ति) निशीथो मध्यरात्रिस्तद्वद्रहोभूतं यदध्ययनं तन्निशीथम्, आचाराङ्ग पञ्चमचूडेत्यर्थः / निशीथवक्तव्यता ‘णिसीह ' शब्दे चतुथीभागे 2140 पृष्ठे गता] अस्मादेव ग्रन्थार्थाभ्यां महत्तरं महानिशीथम् पमहानिशीथवक्तव्यता महाणिसीह' शब्दे वक्ष्यते ब (जंबुद्दीवपन्नत्ति त्ति) जम्बूद्वीयाssदिस्वरूपप्रज्ञापन यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः। [सर्वोऽप्यस्या विषयः 'जंबूदीवपण्णत्ति' शब्दे चतुर्थभागे 1376 पृष्ठे गतः] (सूरपन्नत्ति ति) तूरचरितपज्ञापन यस्यां सा सूरप्रज्ञप्तिः, केचिदेनामुत्कालिकमध्येऽधीयन्ते तदपि युक्तम्। नन्द्यध्ययनेऽप्यस्या उत्कालिकमध्येऽधीतत्वादिति। [अत्रार्थे ' सूरपण्णत्ति' शब्दो विलोकनीयः] (चंदपण्णत्ति त्ति) चन्द्रचारविचारप्रतिपादको ग्रन्थश्चन्द्रप्रज्ञप्तिः। [चन्द्रप्रज्ञप्तिविषये चन्द्रप्रज्ञप्तिग्रन्थो विलोकनीयः] (दीवसागरपन्नत्ति त्ति) द्वीपसागराणां प्रज्ञापनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः / [द्वीपसागरज्ञाप्तिविषयेऽपि द्वीपसागरप्रज्ञप्तिग्रन्थो विलोकनीयः] इह चाऽऽवलिकाप्रविष्टतरविमानप्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा विमानप्रविभक्तिः ,सा चैकाऽल्पग्रन्थार्था, तथाऽन्या महाग्रन्थार्था, अतः क्षुल्लिका विमानप्रविभक्तिः, महती विमानप्रविभक्तिः / [अङ्ग चूलिय त्ति] अङ्गस्याचाराऽऽदेश्चूलिका यथाऽऽचारस्यानेकविधा / इहोक्तानुक्तार्थसङ् ग्रहाऽऽत्मिका चूलिका ['अंगचूलिया' प्रथमभागे 37 पृष्ठे व्याख्याता] (वग्गचूलिय त्ति) इह वर्गोऽध्ययनाऽऽदिसमूहः, यथाऽन्तकृशास्वष्टौ वर्गा इत्यादि, तस्य चूलिका वर्गचूलिका। [वर्गचूलिकावक्तव्यता ' गोहिल्ल 'शब्दे६५०पृष्ठगता] (विवाहचूलिय त्ति) व्याख्या भगवती तस्याश्चूलिका व्याख्याचूलिका [विशेषश्चात्र ' विवाहपण्णत्ति 'शब्दे दर्शयिष्यत] [अरुणोववाए त्ति] इहारुणो नाम देवः तत्समयनिबद्धो ग्रन्थस्तदुपपातहेतुररुणोपपातः।(पा०)[अरुणोपपातविशेषचिन्तायाम् 'अरुणोववाय' शब्दः प्रथमभागे 766 पृष्ठस्थोऽवलोकनीयः ] * एवं वरुणोपपातः। [अत्रार्थे 'वरुणोववाय' शब्दो विलोकनीयः] गरुडोपपातः [अत्रार्थे 'गरूलोववाय' शब्दस्तृतीयभागे 852 पृष्ठस्थो द्रष्टव्यः] वैश्रमणोपपातः [वैश्रमणोपपातविषये ' वेसमणोववाय' शब्दोद्रष्टव्य] वेलंधरोपपातः [वेलंधरोपपातार्थः 'वेलंधरोववाय' शब्दे विलोकनीयः] देवेन्द्रोपपातः पअस्योत्कालिकश्रुतभेदत्वम् ‘देविंदोववाय' शब्दे चतुर्थभागे 2627 पृष्ठे गतम्ब (उट्ठाणसुए त्ति) उत्थानश्रुतमध्ययनम्। [पा०] अत्र चूर्णिः 'उठाणसुय' शब्दे द्वितीयभागे 750 पृष्ठे गता [समुट्ठाणसुए त्ति) समुत्थानश्रुतमध्ययनम्। "तं पुण समत्तकजे तस्सेव कुलस्स वागामस्स वा जाव रायहाणीए वा से चेव समणे कय सङ्कप्पे तुढे पसन्ने पसन्नलेस्से समसुहासणन्थेउवउत्ते समुट्ठाणसुयमज्झयणं परियट्टेइ एक दोन्नि तिन्नि वा वारे, ताहे से कुले वा गामे वा जाव रायहाणी वा पहट्ठचित्ते सुपसत्थमंगलकलयलं कुणमाणे मंदाएगईए सलीलयं आगच्छंते समुट्ठाइ, आवसइ त्ति वुत्तं भवइ / एवं कयसंकप्पस्स परिय१तस्स पुव्वुट्टियं पि समुद्रुइ।'' इतः षष्ट्यन्तानि श्रुताभिधानानि दृश्यन्ते, विभक्तिविपरिणामात्प्रथमान्तानि व्याख्येयानि / अथवा-णकारस्यालङ्कारार्थत्वात्प्रथमान्तान्येवामूनि द्रष्टव्यानि अथवा -प्रथमान्तान्येवामूनि पठनीयानि, क्वापि तथैव दर्शनात् / नागपरिज्ञा (णागत्ति) नागो नागकुमारस्तत्समयनिबद्धमध्ययनम्। "तं जया समणे उवउत्ते परियट्टेइ तया अकयसंकप्पस्स वि ते नागकुमारा तत्थत्था चेव परियाणति, वंदति, नमसंति, बहुमाणं च करेंति, संघमाइयकज्जेसु य वरदा भवंतीति / " (नागकुमाराणां स्थितिः 'ठिइ' शब्दे चतुर्थभागे 1716 पृष्ठे गता) (उच्चासनिःश्वासक्रिया च आण' शब्देद्वितीयभागे 106 पृष्ठदर्शिता) [आहारश्च 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 504 पृष्ठेदर्शितः] [एतेषामसुर कुमारसम-माहारः सम' शब्देदर्शयिष्यते] ['णाग-कुमार' शब्दोऽप्यवलोकनीयः] (निरयावलिआओ ति) निरयावलिकाः, यासु"आवलियापविट्ठा इयरे य निरया तग्गामिणो य नरतिरिया पसंगओ वन्निजति / " [निरयावलिकावक्तव्यता 'णि * एवं वरूणोपपातगरुडोप, वैश्रमणोप.वेलंधरोप, देवेन्द्रोपपातेष्वपि वाच्यम्। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण रयावलिया' शब्दे चतुर्थभागे 2106 पृष्ठे गता ब [ कप्पिया उ ति] पन्नत्ती, नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, सौधर्माऽऽदिकल्पगतवक्तव्यतागोचराः ग्रन्थपद्धतयः कल्पिका उच्यन्ते। अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणं, विवागसुयं, दिट्ठीवा[कल्पिकावक्तव्यता 'कप्पिया' शब्दे तृतीयभागे 240 पृष्ठे प्रतिपादिता] ओ। सव्वहिं पि एयम्मि दुवालसंगे गणिपिडगे भगवंते ससुने [कप्पवडिंसियाउ ति]सोहम्मीसाण-कप्पेसु जाणि कप्पप्पहाणाणि सअत्थे सग्गंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा वा भावा वा विमाणाणि ताणि कप्पवडिसयाणि, तेसुय देवीओ जा जेण तवोविसेसेण अरहंतेहिं भगवंतेहिं पन्नत्ता वा, परूविया वा, ते भावे सद्दहामी, उववन्नाओ, इड्डिं च पत्ताओ, एवं जासु सवित्थरं वन्निज्जइ, ताओ' / पत्तियामो, रोएमो, फासेमो, पालेमो, अणुपालेमो ते भावे कल्पावतंसिकाः प्रोच्यन्त इति। [अत्रार्थे तृतीयभागे 235 पृष्ठस्थः सद्दहंतेहिं पत्तियंतेहिं रोयंतेहिं फासंतेहिं पालंतेहिं अणुपा'कप्पवडिंसया' शब्दो विलोकनीयः] [पुप्फियाओ ति] इह यासु लंतेहिं अंतो पक्खस्स जं वाइयं पढियं परियट्टियं पुच्छिय ग्रन्थपद्धतिषु गृहवासमुकुलपरित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुष्पिताः अणुपेहियं अणुपालियं तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए मुक्खाए सुखिताः, पुनः संयमभावपरित्यागतो दुःखावाप्तिमुकुलनेन मुकुलिताः, बोहिलाभाए संसारुत्तारणाए तिकट्टउवसंपज्जिताणं विहरामि, पुनस्त-त्परित्यागादेव पुष्पिताः प्रतिपाद्यन्ते ताः पुष्पिता उच्यन्ते। अंतो पक्खस्स जं न वाइयं न पढियं न परियट्टियं न पुच्छिय [दशाध्ययनाऽऽत्मिका पुष्पिकेति 'पुप्फिया' शब्दे प्रतिपादयिष्यत) नाणुपहियं नाणुपालियं संते बले संते वीरिए संते पुरिसयार पुप्फचूलियाओ ति] पूर्वोक्तार्थविशेषप्रतिपादिकाः पुष्पचूडा इति / परक्कमे तस्स आलोएमो, पडिकमामो, निंदामो, गरिहामो, ['पुप्फचूलिया' शब्देऽत्रार्थे विवारो निरूप-यिष्यते ] वहिदसाओ ति] विउट्टेमो विसोहेमो, अकरणयाए अब्भुट्टेमो, अहारिहं तवोकम्म वृष्णिरन्धकवृष्णिनराधिपः, तद्वक्तव्यताविषया दशा वृष्णि दशा उच्यत पायच्छित्तं पडिवजामो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। इति / [अस्या विषये बही वक्तव्यता 'वहिदसा' शब्दे] एतच्च प्राग्वद् व्याख्येयं, नवरं गणिपिटकम् आचार्यस्यार्थ सर[आसीविसभावणाओ त्ति) आश्यो दंष्ट्रास्तासु विषं येषां ते आशीविषाः। प्रधानभाजनमित्यर्थः / (आयारो त्ति) आचरणमाचारः, आचर्यत ई. ते च द्विविधाः जातितः, कर्मतश्च / पा०] [आशीविषभावना' आसी- वाऽऽचारः, शिष्टाऽऽचरितो ज्ञानाऽऽद्यासे वनविधिरित्यर्थः विसभावणा' शब्दे द्वितीयभागे 488 पृष्ठे गता] [दिट्ठीविसभावणाओ तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्याचार एवोच्यते [ आचारभेदाः ' आचार' त्ति] दृष्टौ विष येषां ते दृष्टिविषाः, तत्स्वरूपप्रतिपादिका दृष्टि-विषभावना द्वितीयभागे 340 पृष्ठे दर्शिताः] आचारप्रतिपादको ग्रन्थः (तत्स्यरून इति / [अङ्गबाह्यकालिकश्रुतविशेषत्वम् - दिट्ठिविसभावणा' शब्दे 'आयारंग' शब्दे द्वितीयभागे 341 पृष्ठादारभ्य दर्शितम्) [सूयगडोर चतुर्थभागे 2516 पृष्ठे गतम] [चारणभावणाओ त्ति] अतिशयबहुगम- 'सूच' सूचायाम, सूचनात्सूत्रं, सूत्रेण कृतं सूत्रकृत, स्वपरसमयाऽद. नाऽऽगमनस्वरूपाच्चरणाच्चारणाः सातिशयगमनाऽऽगमनलब्धि- सकलपदार्थसूचकं यदित्यर्थः 'सूयगड' वक्तव्यता [' सूयगड' 35 सम्पन्नाः साधुविशेषाः, ते च द्विविधाः-विद्याचारणाः, जङ्घाचारणाश्च / / दर्शयिष्यत] [ठाणं ति] तिष्ठन्त्यासते वसन्ति यथावदभिधेयतयैकद पा०] [चारणभेदाः 'चारण 'शब्दे तृतीयभागे 1173 पृष्ठे गताः) महा- ऽऽदिविशेषिता आत्माऽऽदयः पदार्था यरिंमस्तत् स्थानम्, अथ. सुमिणभावणाओ त्ति] महास्वप्नानि गजवृषभसिंहाऽऽदीनि भाव्यन्ते स्थानशब्दे-नेहकाऽऽदिकः सङ्ख्याभेदोऽभिधीयते, ततश्चाऽऽत्मा:यासु ता महास्वप्नभावना इति। [अत्र ' महासुमिणभावना' शब्दो द्यर्थगतानामेकाऽऽदिदशान्तानां स्थानानामभिधायकत्येन स्थानमा विलोकनीयः [तेयगनिसग्गाणं ति] तैजसनिसर्गो वर्ण्यते यासु राभिधायकत्वादाचारवदिति। [विशेषतः स्थानशब्दार्थः / र, तास्तैजसनिसर्गा इति। अत्र चाऽऽशीविषभावनाऽऽदिग्रन्थपञ्चकस्वरूपं तिपाकग्रन्थवक्तव्यता च' ठाणंग' शब्दे चतुर्थभागे 1615 पृष्ठे दर्शिनः नामानुसारतो दर्शितं, विशेषसंप्रदायश्चन दृष्ट इति। एतान्यपि षट्त्रिंशद- पसमवाओ त्ति समिति सम्यक् अवेत्यधिक, अयः जीवाऽऽदिपरिसर ध्ययनान्युपलक्षणभूतानि द्रष्टव्यानि, यतो भगवतो वृषभस्वामिन समवायः, तद्धेतुश्च ग्रन्थोऽपि समवाय इति। [समवायशब्दार्थः समका आदितीर्थकरस्य चतुरशीतिप्रकीर्णकसहस्राणि तथा मध्यमानामजिता- शब्दे, तत्प्रतिपादकग्रन्थवक्तताऽपि तत्रैव प्रतिपादयिष्यते] (विद्वार ऽऽदीना पार्श्वपर्यन्तानां जिनवराणां संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि, पण्णत्ति त्ति विशिष्टा वाहा अर्थप्रवाहास्तत्त्वार्थविचारपद्धतय इत्यर्थः / यस्य यावन्तः शिष्यास्तस्य तावन्तीत्यर्थः / तथा चतुर्दशप्रकीर्णकस- प्रज्ञप्तिःप्रज्ञापनं व्याख्यानं यस्यांसा विवाहप्रज्ञप्तिः। पूज्यत्वेन नाम हस्राणि भगवतो वर्द्धमानस्वामिन आसन्निति। उक्तं कालिक तदभिधा- भगवतीत्यपीयमुच्यते / [भगवत्या व्याख्या 'विवाहपण्णात्ते' 1E नाच्चाऽऽवश्यकव्यतिरिक्तं, तद्भणनाष्चाङ्ग बाह्यं श्रुतमुक्तम्। करिष्यते] [नायाधम्मकहाओ त्ति] ज्ञातान्युदाहरणानि, तत्प्रभार साम्प्रतमङ्गप्रविष्टश्रुतसमुत्कीर्तनायाऽऽह धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा। [तद्वक्तव्यता'णायाधम्मकहा' शब्देचर नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं दुवालसंगं गणिपिडगं भागे 2006 पृष्ठ गता [उवासगदसाओ ति] उपासकाः श्रावकारतदभगवंतं। तं जहा-आयारो, सूयगडो,ठाणं, समवाओ, विवाह- | क्रियाकलापप्रतिबद्धादशाध्ययनोपलक्षिता उपासकदशाः [उपासक्छ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 307 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण अदक्तव्यता 'उवासगदसा' शब्दे द्वितीयभागे 2064 पृष्ठ विस्तरतोगता] (अंतगडदसाओ त्ति] अन्तो विनाशः, स च कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य कृतो यैस्ते अन्त कृतास्ते च तीर्थकराऽऽदयस्तेषां दशाः प्रथमवर्ग दशाध्ययनानीति तत्स-ख्ययोपलक्षिता अन्तकृदशा इति / अन्तकृद्दशाव्याख्या, तद्वक्तव्यता च 'अंतगडदसा' शब्दे प्रथमभागे 61 पृष्ठेदर्शिता] [अणुत्तरोववाइयदसाओ त्ति] उत्तरः प्रधानो नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुतरः, उपपतनमुपपातो, जन्मेत्यर्थः, अनुत्तरश्वासावुपपातथेत्यनुत्तरपपातः, सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः सर्वार्थसिद्धिविमानपञ्चकोपपातिन इत्यर्थः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा दशाध्ययनोपल्लक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशा इति। [अनुत्तरोपपातिकदशाविचारः' अजुत्तरोववाइय' शब्दे प्रथमभागे 383 पृष्ठे वर्णितः] [पण्हावागरणं त्ति ] प्रश्नाश्व पृष्ठः, व्याकरणानिच निर्वचनानि, समाहारत्वात्प्रश्नव्याकरणं, तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽपि प्रश्नव्याकरणमिति। [प्रश्नव्याकरणस्वरूपविवरणम् ‘पण्हावागरण' शब्दे दर्शयिष्यते] [विवागसुयं ति ] विपचनं विपाकः, शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतम् (विणकश्रुतवक्तव्यता विवागसुय' शब्दे दर्शयिष्यत] पदिठिवाओ त्ति ब दृष्ट्यो दर्शनानि,वदनं वादेः, दृष्टी नां वादो दृष्टिवादः, दृष्टीनां वा पातो यनासौ दृष्टिपातः, सर्वनयदृष्टयो यत्राऽऽख्यायन्तेसमवतरन्तिचेति भावः। [सर्वाऽपि दृष्टिवादविषयः 'दिट्टिवाय' शब्दे चतुर्थभागे 2513 पृष्ठादारभ्य दर्शितः इत्युतकीर्तित सामान्यतोऽङ्गप्रविष्टश्रुतम्। [अङ्गप्रविष्टश्रुतविषये चूर्णिः अंगपदिट्ट' शब्दे प्रथमभागे 38 पृष्ठे दर्शिता] साम्प्रतं श्रुतदातपालकेभ्यो नमस्कारम्, आत्मीयप्रमाद विषये मिथ्यादुष्कृतं चाऽऽहनमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं दुवालसंगं गणिपिडगं भगवंतं, सम्मं कारण फासंति, पालंति, पूरंति, तीरंति, किट्टति, सम्म आणाए आराहंति, अहंच नाराहेमि, तस्स मिच्छा मि दुबडं। (नमा) नमस्कारोऽस्तु, तेभ्यः क्षमाश्रमणेभ्यः क्षमाऽऽदिगुणगणप्रधानमहामुनिभ्यः स्वगुरुभ्यः तीर्थकरगणधराऽऽदिभ्यो वेति भावः, यैरिदं प्रागुक्त वाचित प्रदत्त, परिभाषित वा सूत्रार्थतः प्रणीतमित्यर्थः, द्वादशाङ्गं द्वादशानामङ्गानां समाहारो द्वादशाङ्गम्। पद्वादशाङ्गथाः नित्यत्वम् ' बारसंगी ' शब्दे दर्शयिष्यतेब किंविशिष्टमित्याह- (गणिपिडगं ति) गुणगणः साधुगणो वास्याऽस्तीति गणी आचार्यः, तस्य पि टकमिव रत्नाऽऽदिककरण्डक इव पिटकं गणिपिटकं, सर्वार्थसारकोशभूतमित्यर्थः / पुनरपि किंविशिष्टम् - (भयवंतं ति) भगःसमग्रैश्वर्याऽऽदिलक्षणः यदुवत्तम्- "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णा भग इतीङ्गना / / 1 / / " इङ्गना नाम, सा विद्यते यस्य तद्भगवत, तत्रेह समगैश्वर्यं सातिशयाभिधेयविभूतिः / यदवाचि"सव्वनईणं जा होजवालुया सव्वउदहिजं सलिलं / एत्तो वि अणंतगुणो अत्थो एगस्स सुत्तस्स // 1 // " रूपंच निर्दोषत्वसारवत्त्वहेतुयुक्तत्वालड्कृतत्वाऽऽदिगुणगणसंपाद्यं यशश्च विश्वव्यापिनी कीर्तिः श्रीश्च कमनीयता | श्रुतिहृदयाऽऽनन्ददायितेत्यर्थः, धर्मश्चाभिधेयत्वेन सर्वोपाधिविशुद्धोऽहिंसाऽऽदिकः, प्रयत्नश्चाभिधेयतया सर्वप्रमादवर्जनरूप उद्यमः, अथवा-प्रयत्नो महात्म्य, प्रभावः सामर्थ्यामिति यावत्। सुप्रसिद्धचैतदागमस्वरूपवेदिनामिति / ये चेदं सम्यगवैपरीत्येन कायेन कायप्रवृत्त्या मनोमात्रेणेत्यर्थः, स्पृशन्ति ग्रहणकाले विधिना गृह्णन्ति, पालयन्ति पुनः पुनरभ्यासकरणेन रक्षन्ति, पूरयन्ति मात्राविन्द्वक्षराऽऽदिभिरध्येतृदोषादपरिपूर्ण परिपूर्ण कुर्वन्ति तीरयन्ति अविस्मृतं जन्मपारं नयन्ति, कीर्तयन्ति स्वनामभिः स्वाध्यायकरणतो वा संशब्दयन्ति, सम्यगाज्ञया आराधयन्ति सम्यग्यथावत् आज्ञया तदुक्तार्थरूपया गुरुनियोगात्मिकया वा आराधयन्ति तदुक्तक्रियाकरणतः फलदं कुर्वन्तीत्यर्थः, तेभ्योऽपि नम इति प्रक्रमः / (अहं च नाराहेमि) यच्चाहं नाराध्यामि प्रमादतो नानुपालयामि, (तस्स त्ति) षष्ठीसप्तम्योरभेदात्तस्मिन्नाराधनविषये (मिच्छा मिदुक्कडं ति) मिथ्या मे दुष्कृतमिति स्वदुश्चरितानुतापसूचकं स्वदोषप्रतिपत्तिसूचकं वा प्रतिक्रमणमिति परिभाषितं वाक्यं प्रयच्छामीत्यर्थः। साम्प्रतं प्रस्तुतसूत्रपरिसमाप्तौ श्रुतदेवतां विज्ञपयितुमाहसुयदेवया भगवई, नाणावरणीयकम्मसंघायं / तेसिं खवेउ सययं,जेसिं सुयसायरे भत्ती / / 1 / / श्रुतमर्हत्प्रवचनं, श्रुताधिष्ठात्री देवता श्रुतदेवता, संभवति च श्रुताधिष्ठातृदेवता / यदुक्तं कल्पभाष्ये- "सव्यं च लक्खणोवेयं, समहिट्ठति देवता / सुत्तं च लक्खणोवेयं, जेण सव्वणणुभासियं / / 1 / / " इति। भगवती पूज्या, ज्ञानाऽऽवरणीय कर्मासातंज्ञानाऽऽशातनाया उद्भूतं [ज्ञानघ्नं कर्मनिवहं तेषां प्राणिनां, क्षपयतु क्षयं नयतु, सततमनवरतं, येषां किमित्याह-श्रुतमेवाति-गम्भीरतया अतिशयरत्नप्रचुरतया च सागरः समुद्रः श्रुतसागरस्तस्मिन् भक्तिर्बहुमानो विनयश्च, समस्तीति गम्यते। ननु श्रुतरूपदेवताया उक्तरूप विज्ञापना युक्ता, श्रुतभक्तेः कर्मक्षयकारणत्वेन सुप्रतीतत्वात्, श्रुताधिष्ठातृदेवतायास्तु व्यन्तराऽऽदिप्रकाराया न युक्ता, तस्याः परकर्मक्षयेऽसमर्थत्वादिति। तन्न। श्रुताधिष्ठातृदेवतागोचरशुभप्रणिधानस्यापि स्मर्तुः कर्मक्षयहेतुत्वेनाभिहितत्वात्। यदुक्तम्- "सुयदेवयाएँ जीएसंभरणं कम्मखयकरं भणिय। नत्थि त्ति अकज्जकरी व, एवमासायणा तीए।।१।। इति। किञ्च-इहेदमव व्याख्यान कर्तुमुचितं येषां सततं श्रुतसागरे भक्तिस्तेषां श्रुताधिष्ठातृदेवता ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मससातं क्षपयत्विति वाक्यार्थोपपत्तेः, व्याख्यानान्तरेतु श्रुतरूपदेवता श्रुते भक्तिमतां कर्म क्षपयत्विति सम्यन्नोपपद्यते, श्रुतस्तुतेः प्राग्बहुशोऽभिहितत्वाचेति / ततः स्थितमिदमहत्पा-क्षिकी श्रुतदेवतेह गृह्यते इति। पा०। (26) साम्प्रतं शेषप्रतिक्रमणविधिरुच्यते- 'तओ उद्धट्ठियपक्खपडिक्कमणसुत्तकित्तणावसाणे विहिणा निसिइत्ता करेमि भंते! सामाइयं' इत्यादि सव्वं निविठ्ठपडिक्कमणं कट्टित्ता उद्घट्टिया तस्स धम्मस्सऽब्भुडिओ मिति एयमाइयं वदामि जिणे चउव्वीसं ति' आलावगपज्जवसाणं सुत्तं कहूंति कड्डिएय'करेमि भंते! सामाइयं इचाइ काउस्सग्गदंडगुच्चा Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 308 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमय रणपुरस्सरं उद्घठिया चेव मूलुत्तरगुणेसु जं खंडियं तस्स पायच्छितनिमित्तं उस्साससयतिगपरिमाणं काउस्सगं करेंति / तत्थ बारस उज्जोयगरे चिंतति / चउमासिए पंचसउस्सासमाणं उज्जोगरे वीसं संवच्छरिए अठुत्तरसहस्सुस्सासमाणं उज्जोयगरे चालीस नमोक्कारं चिंतति, तओ विहिणा पारित्ता चउवीसत्थयं पढ़ति। पच्छा उवविठ्ठा मुहणंतगं कायं च पडिलेहित्ता किइकम्मं करें ति, तओ धरणियलनिहियजाणुकरयलुत्तमंगं समगं भणंति'' - इच्छामि खमासमणो ! अब्भुट्ठिओ मि अभितरपक्खियं खामेउं पन्नरसण्हं दिवसाणं पन्नरसण्हं राईणं जं किंचि अपत्तियं परपत्तियं भत्ते पाणे विणए वेयावच्चे आलावे संलावे उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरिभासाए जं किं चि मज्झ विणयपरिहीणं सुहमं वा बायरं वा तुन्भे जाणह, अहं नजाणामि, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / अहमवि तुब्भे खामामि। अस्यार्थः-इच्छाम्यभिलषामि, क्षमयितुमितियोगः। (खमासमणो त्ति) हे क्षमाश्रमण ! ओकारान्तत्वं च प्राकृतत्वात्। न केवलमिच्छाम्येव किंतु (अभुट्टिओ मि त्ति) अभ्युत्थितोऽस्मि प्रारब्धोऽस्म्यहम् / अनेनाभिलाषमात्रव्यपोहेन क्षमणक्रियायाः प्रारम्भमाह-(अभितरपक्खियं ति) पक्षाभ्यन्तरसंभवमतिचारमिति गम्यते / क्षमयितुं मर्षयितुमिति प्रस्तावना / क्षामणमेवाऽऽह (पन्नरसण्हं दिवसाणं ति) पञ्चदशाना दिवसानां (पन्नर-सण्ह) पञ्चदशानां [राईणं ति ) रात्रीणामभ्यन्तरमिति | शेषः / (जं किंचित्ति ) यत्किञ्चित्सामान्यतो निरवशेष वा। (अपत्तियं / ति) प्राकृतशैल्याऽप्रीतिकमप्रीतिमात्रम् / [परपत्तियं ति] प्रकृष्टमप्रीतिकं परप्रत्ययं वा परहेतुकमुपलक्षणत्वादस्याऽऽत्मप्रत्ययं चेति द्रष्टव्यम् / भवद्विषये मम जातं वा मया जनितमिति शेषः। "तस्स मिच्छा मि दुक्कडमिति' संबन्धः। तत्रभक्ते भोजनविषये, पाने पानविषये, विनये अभ्युत्थानाऽऽदिरूपे, वैयावृत्ये औषधपथ्यदानाऽऽदिनोपष्टाभकरणरूपे, आलापे सकृजल्पे, संलापे मिथः कथायाम्। 'उच्चासणे समासणे चेति' व्यक्तम्, (अंतरभासाए त्ति) अन्तरभाषायामाराध्यस्य भाषमाणस्यान्तरालभाषणरूपायाम, उपरिभाषायामाराध्यभाषणानन्तरमेव तत्तदधिकभाषणरूपायाम् / इह समुच्चयार्थश्चशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः / यत्किञ्चित्समस्तं सामान्यतो वा (मज्झ त्ति) मम विनयपरिहीण शिक्षावियुतत्वमनौचित्यमित्यर्थः / संजातमिति शेषः / सामस्त्य सामान्यरूपता वा विनयपरिहीणस्यैव दर्शयन्नाहसूक्ष्म वा, बादरं वा, वाशब्दौ द्वयोरपि मिथ्यादुष्कृतविषयतातुल्यतोद्भावनाओं (तुब्भे जाणह त्ति) यूयं जानीथ , यत्किञ्चिदिति वर्तते / (अहं न याणामि त्ति) अह पुनर्न जानामि, मूढत्वात् / यत्किञ्चिदिति वर्तते, अप्रीतिकविषये, विनयपरिहीणविषये च (मिच्छा मि दुक्कड ति) मिथ्या मे दुष्कृतमिति। स्वदुश्चरितानुतापसूचकं स्वदोषप्रतिपत्तिसूचकं या प्रतिक्रमणमिति परिभाषितं वाक्यं प्रयच्छामिति वाक्यशेषः / अथवा - पतस्स त्तिब विभक्तिपरिणामात्तदप्रीतिकं, विनयपरिहीण च मिथ्या मोक्षसाधनविपर्ययभूतं वर्तते / मे] मम तथा दुष्कृतं पापमिति स्वदोषप्रतिपत्तिरूपमपराधक्षमणमिति / अत्राऽऽचार्यो ब्रूते- [अहमवि खामेमि तुब्भे त्ति) प्रतीतार्थमेवेदमिति / अत्राऽऽह कश्चित् - "नणु पुय्यमेव सामन्त्रओ विसेसओ वि पक्खियावराहखामणं कय, ता किं पुणो इयाणिं पक्षिण खामेह ? / " उच्यते 'काउस्सम्पट्ठियाणं सुभेगग्गभावमुवगयाणं किंचटराहपयं सुमरियं होजा, तस्स खामणानिमित्तं पुरो खामणगं करेमो ति अहवा सव्वहेह पक्खपडिक्कमणपरिसम्मत्ती, तओ पुटिवल्लखामणगाणतरं जं किंचि पत्तियं वितहकिरियावइराइणा समुप्पन्नं तमिह खामिज्जइ त्ति / अहवा विही चेव सो कम्मक्खयहेऊ भयवय तझ्यवेजोसहपओगसरिसो दरिसिओ, ता कायव्वमित्थ वि खामणगन कोइ पजणुञ्जोगो कायव्यो, आणा चेवेह भागवई पमाणं ति।" ततो यथा राजानं पुष्यमाणवा अतिक्रान्तेमाङ्गल्यकार्ये बहुमन्यन्ते यदुत अखण्डितबलस्य ते सुष्टु कालो गतोऽन्योऽप्येवमेवोपस्थितः, एवं पाहिल विनयोपचारं द्वितीयक्षामणकसूत्रेण तथा स्थिता एव साधव आचार्य कुर्वन्ति। तच्चेदम्इच्छामि खमासमणो ! पियं च मे जंभे हवाणं तुट्ठाणं अप्पापकाणं अभग्गजोगाणं सुसीलाणं सुव्वयाणं सायरियउवज्झ याणं नाणेणं दंसणे णं चरित्तेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा बहुसुभेणं भे दिवसो पोसहो पक्खो वइक्कं तो अन्नो जो कल्लाणेणं पज्जुवट्ठिओ सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि। (इच्छामीत्यादि) तत्रेच्छामि अभिलषामि वक्ष्यमाणं वस्तु, ! क्षमाश्रमण ! कुतोऽपि कारणादप्रियमपि किञ्चिदिष्यत इत्या. प्रियमभिमतं चशब्दः समुचये। मे मम, किं तदित्याह-वद्(भे) भवन हृष्टानां रोगरहितानां तुष्टाना तोषवताम् / अथवेदं हर्षातिरेकप्रतिपः नार्थमेकार्थिकपदद्वयोपादानम्, अल्पाऽऽतङ्कानामल्पशब्दस्याभक्ष वचनत्वात् सद्योघातिरोगवर्जितानां सामान्येन वा नीरोगाणं स्तोमर गाणां वा, सर्वथा निरुजत्वस्यासंभवात्। (अभग्गजोगाणं ति) अगस. मययोगाना [सुसीलाणं सुव्वयाणं ति] व्यक्तम् / साऽऽचार्योपाध्य. यानामनुयोगाऽऽद्याचार्योपाध्यायोपेताना ज्ञानाऽऽदिन्ग आत्मा भावयतां बहुशुभेन अत्यर्थश्रे-यसा ईषदूनशुभेन वा, सर्वथ शुरू संभवात्।। भे इति] भो भगवन्तः! दिवसो दिन, किं विधः? पैट पर्वरूपः। तथा-पक्षोऽर्द्धमासरूपो व्यतिक्रान्तोऽतिलड्डितः। अन्यथर इति वर्तते। [भे] भवतां कल्याणेन शुभेन, युक्त इतिगम्यते। पर्युपस्थित प्रक्रान्त इति। एवं पुष्यमाण इव मङ्गलवचनमभिधाय प्रमाणमाह-विर मनसेति व्यक्तम्, चशब्दश्वेह समुच्चयार्थो द्रष्टव्यः। मत्थएण संदर नमस्कारवचनमव्युत्पन्नं समयप्रसिद्धमतः शिरसेत्यभिधाय: यन्मस्तकेनेत्युक्तं तददुष्ट, यथैषां वलीवनामेष गोस्वामीति भेट मिनशब्दास्थ स्वामिपर्याय-तया लोके रूढत्वादिति। अत्राऽऽचार्य आहतुब्भेहिं समं ति। युष्माभिः सार्द्ध सर्वमेतत्संपन्नमित्यर्थः। ___ अथ चैत्यवन्दापन, साधुवन्दापनं च निवेदयितुकामा भणन्ति. इच्छामिखमासमणो ! पुर्टिव चे इयाई वंदित्ता नमरित Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमण 306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण तुम्मण्हं पायमूले विहरमाणेणं जे केइबहुदेवसिया साहुणो दिट्ठा समाणा वा वसमाणा वा गामाणुगामं दूइज्जमाणा वा रायणिया संपुच्छंति ओमरायणिया वंदंति, अञ्जया वंदंति, अज्जियाओ वंदति, सावया वंदंति,सावियाओ वंदंति, अहं पि निस्सल्लो निकसाओ तिकट्टु सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि, अहमवि इंदावेमि चेझ्याई। इच्छाम्यभिलषामि चैत्यवन्दापन साधुवन्दापनं च, भवतां निवेदयितुमिति वाक्यशेषः / [खमासमणो इति व्यक्तम्। पुटिव ति] पूर्वकाले विहारकालात [चेइयाइ ति] जिनप्रतिमाः विंदित्त त्ति] स्तुतिभिः नमंसित ति) प्रणामतः, संघसत्क-चैत्यवन्दना ह्येतदहं करोमीति प्रणिधानयोगात्। क्व वन्दित्वे-त्याह- [तुब्भण्हं ति] युष्माकं [पादमूले रि] चरणसन्निधौ, ततश्च | विहरमाणेणं ति] ग्रामानुग्रामं संचरता मया |जे केइ नि) ये केचन सामान्यतः [बहुदेवसिया] बहुदिवसपर्यायाः (साहुणो दिट्ठाइति व्यक्तम्। किंविधास्त इत्याह- (समाणा व त्ति) जड़ाबलपरिक्षयात् वृद्धवासितया आश्रितक्षेत्रादबहिर्वर्तिनो (वसमाणा वति ) विहारवन्तो, विहारश्च तेषामृतुबद्धे मासकल्पेन, वर्षाकाले चतुर्मासकल्पेन्त्यत एवाऽऽह-(गामाणुगाम दूइज्जमाणा व त्ति) ग्रामश्च प्रतीतोऽनुग्रामश्च तदनन्तर इति ग्रामानुग्राम, तद्रवन्तो गच्छन्तः। अथवा-गामाऽऽदिष्वेकरात्रिकं वसन्तः, आहिण्डका इत्यर्थः / वाशब्दाः समुद्ययार्थाः / इह स्थाने तेषु मध्ये इति वाक्यशेषो द्रष्टव्यः / रायणिय नि। रात्निका भावरत्नव्यवहारिणः, बृहत्पर्याया आचार्या इत्यर्थः / [संपुच्छंति त्ति] मां प्रश्नयन्ति मया वन्दिताः सन्तो भवतां शरीरकुशलाऽऽदिवाामिति गम्यम्। [ओमरायणिय त्ति]अवमरात्निका भवतः / प्रतीत्य लघुतरपर्याया आचार्या एव वन्दन्ते भवतः प्रणमन्ति। कुशलाऽऽदितु। प्रश्नयन्त्येव, [अज्जया वंदंति]सामान्यसाधवो वन्दन्ते, एवमार्यिकाऽऽदयोऽपि। तथाऽहमपितान्यथादृष्टसाधूनिःशल्याऽऽदिविशेषणो बन्दे। शेषं प्राग्वत्, तथा-(अहमवि वंदावेमि चेइयाई ति) तान् यथादृष्टसाध्वादीन् वन्दापयामि चैत्यानि, यथा अमुत्र नगराऽऽदौ युष्मत्कृते चैत्यानि वन्दितानि, तानि च यूयं वन्दध्वमित्येवमिति। एवं शिष्येणोक्तः सन्नाचार्यः प्रत्युत्तरयति। यथामत्थएण वंदामि अहं पितेसिं ति। मस्तकेन वन्देऽहमपितानिति। ये मम वार्तासंप्रच्छनाऽऽदि कुर्वन्तीति भावः। "अन्ने भणंति-अहमवि वंदावेमि त्ति '' / तत आत्मानं गुरुणां निवेदयन्ति तृतीयक्षामणकसूत्रेण। तच्चेदम्इच्छामिखमासमणो! उवढिओ मितुब्भण्हं संतियं अहाकप्पं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अक्खरं वा पर्य दा गाहं वा सिलोगं वा अटुं वा हेउंवा पसिणं वा वागरणं वा तुन्मेहिं चियत्तेणं दिन्नं मए अविणएण पडिच्छियं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ति। प इच्छामि खमासमणो त्ति ब इह स्थाने आत्मानं निवेदयितुमिति वाक्यशेषो दृश्यः / [उवडिओ मि ति] उपस्थितोऽस्मि, आत्मनिवेदनायेति शेषः / (तुब्भण्हं संतियं) युष्माकं सत्कं युष्मदीयमिदं सर्व यदस्मत्परिभोग्यम्। किंभूतं किं तदित्याह- (अहाकप्पं ति) यथाकल्पं कल्पानतिक्रान्तं स्थविरकल्पोचितं कल्पनीयं चेत्यर्थः। वस्त्राऽऽदि प्रतीतं, नवरं (पडिग्गहं ति) पात्रम् (पायपुंछणं ति ) पादप्रोञ्छनं रजोहरणम् (अट्ठ व त्ति) अर्थः सूत्राभिधेयः, प्राकृतत्वाचनपुंसकनिर्देशः / (पसिणं व त्ति) प्रश्नः, पण्डिता-भिमानी परो माननिग्रहाय यत्प्रश्नयति (वागरणं ति) व्याकरणं, तथैव परेण प्रश्रिते यदुत्तरं दीयते, वाशब्दाः समुचायार्थाः / एवं वस्त्राऽऽदिनिवेदनद्वारेणाऽऽत्मानं गुरूणां निवेद्य युष्माभिरेवेदं वस्त्राऽऽदिकं मे दत्तम्। इत्यावेदने तद्ग्रहणे च संभविनमविनयं क्षमयन्निदमाह- (तुब्भेहीत्यादि) (तुब्भे हिं ति) युष्माभिः (चियत्तेणं ति) प्रीत्या दत्तं, मया त्वविनयेन प्रतीक्षितम् / अत्र यदिति शेषो दृश्यः (तस्स ति) तत्र मिथ्यादुष्कृतमिति प्राग्वत्। एवमुक्ते आचार्यो ब्रूते - आयरियसंतियं ति। पूर्वाऽऽचार्यसत्कमेतदिति किं ममात्रेति / अहङ्कारवर्जनार्थ , गुरुषु भक्तिख्यापनार्थ चैतादिति।। अथ यच्छिक्षां ग्राहितास्तमनुग्रहं बहु मन्यमाना आहुःइच्छामि अहमपुव्वाइं खमासमणो / कयाइंच मे किइकम्माइं आयारमंतरे विणयमंतरे सेहिओ सेहाविओ संगहिओ उवगहिओ सारिओ वारिओ चोइओपडिचोओ चियत्तामेपडिचोयणा उवडिओऽहं तुब्भण्हं तवसेयसिरीए इमाओ चाउरंतसंसारकंताराओ साह ट् टु नित्थरिस्सामि तिकट् टु सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि। (इच्छामि इत्यादि) इच्छामि अभिलषामि, अहमपूर्वाण्यनागतकालीनानि, कृतिकाणीति योगः ! कर्तुमिति वाक्यशेषः "खमासमणो" इति व्यक्तम् / तथा कृतानि पूर्वकाले चः समुच्चये। (मे त्ति) मया कृतिकाणि वैयावृत्त्याविशेषाः, भवतामिति गम्यते / तेषु च (आयारमंतरे त्ति) आचारान्तरे, क्वचित् ज्ञानाऽऽद्याचारविशेष विषयभूते आचारव्यवधाने वा सति, ज्ञानाऽऽदिक्रियाया अकरणे सतीति भावः / तथा-(विणयमंतरे त्ति) विनयान्तरे आसनदानाऽऽदिविनयविशेषे विषयविभूते विनयविच्छेदेवा, तदकरणे इत्यर्थः, (सेहिओत्ति) शिक्षितः स्वयमेव गुरुभिः शिक्षा ग्राहित इत्यर्थः / सेधितो निष्पादित आचारविशेषविनयविशेषेषु कुशलीकृत इत्यर्थः, (सेहाविओ त्ति) शिक्षापितः सेधापितो वा उपाध्यायाऽऽदिप्रयोजनतः, तथा- (संगहिओ त्ति) संगृहीतः शिष्यत्वेनाऽऽश्रितः। तथा- (उवग्गहिओ त्ति) उपगृहीतः, ज्ञानाऽऽदिभिर्वस्त्राऽऽदिभिश्चोपष्टम्भितः, तथा-(सारिओ त्ति) सारितो हिते प्रवर्तितः, कृत्यं वा स्मारितः। (वारिओ त्ति) अहितान्निवारितः (चोइओ ति) संयमयोगेषु स्खलितः सन्नयुक्तमेतद्भवादृशां विधातुमित्यादिवचनेन प्रेरितः। (पडिचोइओ त्ति) तथैव पुनः पुनः प्रेरित एव (चियत्ता मे पडिचोयण त्ति) चियत्ता प्रीतिविषया, नत्वहकारादप्रीतेति (मे) मम प्रति प्रेरणा भवद्भि क्रियमाणेति। उपलक्षणं चैत Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 310- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कम च्छिक्षाऽऽदेरिति / ततश्च (उवढिओऽहं ति) उपस्थितोऽहमस्मि, प्रतिप्रेरितार्थसंपादनविषयं कृतोद्यम इत्यर्थः / तथा-(तुरभण्हं तवतेयसिरीए) युष्माकं तपस्तेजःश्रिया भवदीयया तपःप्रभावसंपदा हेतुभूतया (इमाओ त्ति) प्रत्यक्षात् (चाउरंतसंसारकंताराओत्ति) चतुरन्त चतुर्विभाग नरकत्वाऽऽदिभेदेन, तदेव चातुरन्त। तच्च तत्संसारकान्तारं च भवारण्यमिति समासः। तस्मात् (साहटु त्ति) संहृत्य कषायेन्द्रिययोगाऽऽदिभिर्विस्तीर्णमात्मानं संक्षिप्येत्यर्थः / (नित्थरिस्सामि त्ति) लयिप्यामि (इति कटू) इति कृत्वा इतिहेतोः / "सिरसा मणसा मत्थरण वंदामि त्ति' प्राग्वत्। इह भगवन्तमिति वाक्यशेषः / इहाऽऽचार्यवचनम्नित्थारगपारगा होह। निस्तारकाः संसारसमुद्रात् प्राणिनां प्रतिज्ञायाश्च पारगाः संसारसमुद्रतीरगामिनो भवत ययमित्याशीर्वचनमिति / "पच्छा देवसियं पडिक्कमंति / तत्थ खामणानिमित्तं किइकम्मं करेत्ता भणंति-इच्छामि खमासमणो ! अन्भुट्टिओ मि अभितृदेवसियं खामे उं. जं किंचि अपत्तियमित्यादि / पच्छा साहुदुर्ग खाति, तओ आयरियस्स य अल्लियावणनिमित्तं किइकम्म करेंति, तओ दुरालोइयं वा होज्जा, दुप्पडिक्कतं वा होज्जा, अणाभोगाइणाकारणेण, तओ पुणो विकयसामाइयाइसुत्तुचारणा चारित्तविसोहणत्थमेव पंचासुस्सासपरिमाणं काउस्सग करेंति।तओनमोझारेण पारेत्ता विसुद्धचरित्ता विसुद्धचरित्तदेसयाणं दसणविसुद्धिनिमित्तं नामुकितणं करेंति "लोगस्सुजोयगरे" इत्यादि / तओ दंसणविसुद्धिनिमित्तं पणवीसूसासपरिमाणं काउस्सगं करेंति। तओ नमोक्कारेण पारिता नाणविसुद्धिनिमित्तं सुयनाणत्थयं पढति- "पुक्खर-बरदीवड्डे' इत्यादि / तओ सुयनाणविसुद्धिनिमित्त पणुवीसूसास-परिमाणं काउस्सग्गं करेंति, तओ नमोक्कारेण पारित्ता सिद्धत्थयं पढंति- "सिद्धाणं बुद्धाणं' इत्यादि। "तओ सेजादेवयाए काउस्सगं करेंति। तत्थ यसत्तावीसूसासे पूरेति।" इत्यावश्यकचूर्णिः / "आयरणओ अट्ठत्ति, तओ विहिणा निसिइत्ता मुहपोत्तिय ससीसोवरियं कायं च पडिलेहित्ता आयरियस्स वंदणगं करेंति। तं च जहा रन्नो भणूसा आणत्तियाए पेसिया पणामं काऊण गच्छंति। तं च सुकयं काऊण पुणो पणामपुव्वगं निवेदेति। एवं साहुणो वि गुरुसमाइट्टा वंदणपुव्वगं चरित्ताइविसोहि काऊण पुणो वि सुकयकिइकम्मा संता गुरुणो निवेदेति। भयवं ! कयं पेसणं आयविसोहिकारगति 'निवेयणत्थं ति' तं च काऊण पुणो उछुडुया आयरियाभिमुहा विणयरइयंजलिपुडा चिटठति, जावायरिया वड्डमाणीओ सरेण छंदसा वा तिनि थुईओ भणंति / इमे वि अंजलिमउलियग्गहत्था एक्किकाए समत्तीए नमोक्कार करें ति।" सबहुमानं शिरसा प्रणमन्तीत्यर्थः / केचिदत्र- "नमो खमासमणाणं ति भणंति / पच्छा सेसगा वि तिन्नि थुईओ तहेव भणंति, तं रयणि नेव सुत्तपोरिसी नेव अत्थपोरिसी थयथुईओ, भणंति, जस्स जत्तियाओ इंति त्ति / देवसिए पुण ताव चिट्ठति जाव गुरुथुइगहणं करें ति। तओ पढमथुइसमत्तीए थुई कडंति, विणओ त्ति, सेसाओ दोन्नि सहेव भणंति।" एष सूत्रोक्तः / पाक्षिकप्रतिक्रमणविधिः।। 'चाउम्मासियसंवच्छरिए वि एस चेव विही। विसेसो खामणगकाउस्सग्गेसु, सो पुण लाघवत्थं दंसिओ चेव; तह चाउम्मासियसंवच्छरिएसु मूलगुणउत्तरगुणाइयाराणं आलोयणं दाऊ पडिकमंति त्ति, खेत्तदेवयाए य उस्सग करेंति, केइ पुण चाउम्मानित सेज्जादेवयाए वि उस्सगं करेंति। तहा आवस्सए कए निरइयारा। पंचकल्लाणगं गेण्हति पुव्वगहिए य अभिग्गहे निवेदेति। ते य सम्म नाणुपालिया तओ तव्विसुद्धिनिमित्तं उस्सगं करेंति, पुणो विजी गेण्हंति, निरभिग्गहाण यन वट्टइ अत्थिउंति, संवच्छरिए य आवत / कए पज्जोसवणाकप्पो कड्डिज्जइ। तत्थ दिवसओ कट्टिउं चेव नका! नावि संजइगिहत्थपासत्थाईणं पुरओ, जत्थ वि खेत्त पडुच्च कडिला जहाऽऽणंदपुरे मूलेचेइयघरे दिवसओ सव्वजणसमक्खं कडिजइ। तत् वि साहू नो कडइ, पासत्थो कड्डइ, तं साहू सुणेज्जा, नदोसो, पासत्या वा कडगस्स असइ दंडिगेण सड्डेहिं वा अन्भस्थिओ, ताहे दिवस कट्टइ। तत्थ इमो विही-अणागयचेव पंचरत्तेण अप्पणो उवस्सए पारि आवस्सए कए कालं घेत्तुं काले सुद्धे असुद्धे वा पट्टवेत्ता कड्डिाइ 1 चउसु राईसु पञ्जोसवणाराईए पुण कड्डिए सव्ये साहवो समप्पावपिन काउस्सगं करेंति, पजोसवणकप्पस्स समप्पावणियं करेंति काउन जखडियंज विराहियं जंचन पडिपूरियं सव्वो दंडओ कड्डियन' जग वोसिरामि त्ति। "लोगस्सुज्जोयगर' चिंतेऊण उस्सारत्ता पुरी "लोगस्सुज्जोयगरं'' कड्डता सव्वे साहवो निसीयंति, जेण कड्डिओलाई ताहे कालस्स पडिक्कमइ, ताहे वरिसाकालढवणा ठविज्जइ। त जर / ऊणोयरिया कायव्वा, विगइनवगपरिच्चाओ कायव्यो, जम्हा निट कालो, बहुपाणा मेइणी, विज्जुगज्जियाईहि य मयणो दिप्पइ, पीढफगाइसंथारगाणं उच्चारपासवणखेलमल्लगाण य जयणाए परिभो। कायव्वो, निच्चं लोओ कायव्यो, सेहो न दिक्खियव्यो, अभिणयो उपई। न गहेयव्वो, दुगुणं वरिसोवग्गहोवगरण धरेयव्वं, पुव्वगहिया छारडगलाईणं परिचाओ कायव्यो, इयरेसिं धारणं कायव्वं, पुव्यावशः सकोसजोयणाओ परओ न गंतव्वं।" इत्यादि। किं च- "पक्वचारम्माससंवच्छरियपव्येसु जहरूमचउत्थछट्टमतवो चेइयवंदणपरिषई। सड्डाणं धम्मकहा य कायव्व त्ति / इयाणिं पसंगओराइयविही भन्नइ-का मंचिय सामाइयं कड्डिऊण चरित्तविसुद्धिनिमित्तं पणवीसुस्तास्परिना काउस्सग्गं करें ति, तओ नमोक्कारेण पारिता दंसणविसुद्धिनित चउवीसत्थयं पढंति, पणवीसुस्सासपरिमाणं काउस्सग करितिात वि नमोक्कारेण पारेत्ता सुयनाणविसुद्धिनिमित्तं सुयनाणत्थयं को तत्थय पाउसियथुइमाइयं अहिगयकाउस्सग्गपज्जतमइयारं चितेति आह किंनिमित्तं पढमकाउस्सग्ग एव राइयाइयारं न चिंतेति? " वापढममेव तिन्नि काउस्सग्गे करेंति ? उच्यते-निद्दाभिभूषा : संभरंति, सुट् टु अइयारं न चिंतंति, मा य अंधयारे वंदना अन्नोन्नघट्टणं, अंधयारे वा अदंसणाओ मंदसद्धा न समं बंदणागं ट्रेन त्ति काउं पच्चूसे तइए निसाइयारं चिंतति, आइए य तिन्नि काउन्सन भवति, नपुण पाओसिए जहा एक्को त्ति, तओ चिंतेऊणऽइयारं नमोक्को पारेत्ता सिद्धाण थुई काऊण पुव्वणिएण विहिणा वंदिता छ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 311 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण लोएंति, तओ सामाइयपुव्वगं पडिक्कमंति, तओ वंदणपुव्वयं खाति, तओ कयकिइकम्मा सामाइयपुव्वयं काउस्सग्गं करेंति, तत्थ चिंतेतिकम्मि नियोगे निउत्ता वयं गुरुहिं तो तारिसं तवं पव्वजामो जारिसेणं तरूप हाणी न भवइ / तओ चिंतेंति-छम्मासं खवणं करेमो न सकेमो , एगदिवसेणऊण तहाविन सक्केमो, एवं जाव एगूणतीसाएऊणं एवंपंचमासे, तओ चत्तारि। तओ तिन्नि, तओ दोन्नि, तओ एकं. तओ एगेण दिणेण मणं जाव चउदसहिं ऊणं न सक्केमो, तओ वत्तीसइमं / तीसइमं०जाव चलत्य, आयंबिलं एगट्टाणयं एक्कासणयं पुरिमड्ड निव्विगइयं पोरिसि नमोक्कारसहियं व त्ति / एवं जे समत्था तवं काउं तमसढभावा हियए करेंति, पच्छा ददित्ता गुरुसक्खियं पव्वजंति, सव्वे य नमोक्कारचिंतगा समग उर्दुति, वोरिसरावेंति, निसीयंति य। एवं पोरिसिमाइसु विभासा। तओ तिनं थुईओ जहा पुव्वं, नवरमप्पसगं देंति, जहा घरकोइलाई स्ता न उन्हेंलि। तओ देवे वंदेति, तओ बहुवेलं संदिसावेंति। तओ मुहणंतर्ग पडिलेहिता रयहरणं पडिलेहिति। पुणो ओहियं संदिसावेंति,पडिलेहिंत य, तओ वसहि पमन्जिय काल निवेदेति / अन्ने भणंति-थुइसमणंतरं कालं निवएंति एव च पडिक्कमणकालं तुलेंति, जहा पंडिक्क्मंताणं थुइअवसाणे चेव पडिलेहणवेला भवइ त्ति।" पा०। (27) श्रावकप्रतिक्रमणम्प्रतिक्रमण तु सामान्यत ईर्यापर्थिकीप्रतिक्रमणभणनेनैव सिद्धं, न च विचित्राभिग्रहवतां श्रावकाणां कथमेकेन प्रतिक्रमणसूत्रेण तदुपपद्यत इति वाच्यम् / प्रतिपन्नव्रतस्यातिचरणे प्रतिक्रमणं युक्तम्, अन्यस्य तु अश्रद्धानाऽऽदिविषयस्यैव प्रतिक्रमणसमाधानस्य सुलभत्वात् / ननु साधुप्रतिक्रपणाद्भिनं श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रमयुक्तं, नियुक्तिभाष्यचूादिभिरतन्त्रितत्नानार्षत्वात् / नैवम् / आवश्यकाऽऽदिदशशास्त्रीध्यतिरेकेण निर्युक्तीनामभावेनौपपातिकाऽऽद्युपाङ्गानां च चूर्ण्यभावेनानार्थत्वप्रसङ्गात्, तत्प्रतिक्रमणमप्यस्ति तेषाम्। (ध०) तस्मात्साधुवच्छ्रावकेणापि श्रीसुधर्मस्वाम्यादिपरम्पराऽऽयातविधिना प्रतिक्रमणं कार्यमित्यलं प्रसङ्गेन ध०२ अधि०। (28) श्रावकप्रतिक्रमणविधिःश्रावकाप्रतिक्रमणस्येदानीमवसरः, तत्र कृतसामायिकेन प्रतिक्रमणमनुष्ठेयं, तस्य च सर्वातिचारविशोधकत्वेन विशिष्ट श्रेयोभूतत्वान्मङ्गलाऽऽदिविधानार्थ प्रथमगाथामाह"वंदित्तु सव्वसिद्धे,धम्मायरिए असव्वसाहू अ। इच्छामि पडिकमिउं, सावगधम्माइआरस्स // 1 // " वन्दित्वा नत्वा, सर्व वस्तु विदन्ति सर्वेभ्यो हितावेति सास्तिीर्थकृतः, सिद्ध्यन्ति स्म सर्वकर्मक्षयानिष्ठितार्था भवन्ति स्मेति सिद्धाः, सार्वाश्च सिद्धाश्च सार्वसिद्धास्तान्। तथा-धर्माऽऽचार्यान् श्रुतचारित्रधर्माऽऽचारसाधून, धर्मदातृन वा, चशब्दादुपाध्यायान् श्रुताध्यापकान् / तथासर्वसाधूश्व स्थविरकल्पिकाऽऽदिभेद-भिन्नान्मोक्षसाधकान् मुनीन्, चः समुचये। एवं च विधवातोपशान्तये कृतपञ्चनमस्कार इदमाह-(इच्छामि) अभिलषामि प्रतिक्रमितुं निवर्तितुं, कस्मादित्याह- श्रावकधर्मातिचाराद, जालावेकवचनं, पञ्चम्यर्थे षष्ठी, ततो ज्ञानाऽऽद्याचारपञ्चकस्य चतुर्विशशतसंख्याऽतिचारेभ्यः प्रतिक्रमितुमिच्छामि। इतिगाथार्थः / / 1 / / सामान्येन सर्वव्रतातिचारप्रतिक्रमणार्थमाह"जो मे वयाइओरा, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ। सुहुमो य बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि // 2 // " य इति सामान्येन, 'मे' मम सर्वव्रतातिचारोऽणुव्रताऽऽदिमालिन्यरूपः पासप्ततिसंख्यः संजात इति शेषः / तथा-ज्ञाने ज्ञानाऽऽचारे कालविनयाऽऽद्यष्टप्रकारे वितथाऽऽचरणरूपः / तथा-दर्शने सम्यक्त्वे शङ्काऽऽदीनां पञ्चनामासेवनाद्वारेण, निःशङ्किताऽऽद्यष्टविधेच दर्शनाऽऽचारे अनासेवनाद्वारेण, तथा-चारित्रे समितिगुप्तिलक्षणेऽनुपयोगरूपोऽतीचारः, चशब्दात्तपोवीर्याऽऽचारयोः संलेखनायां च / तत्र बाह्याऽऽभ्यन्तरभेदात्तपोद्वादशधा, वीर्य मनोवाकायैस्विधा, अतिचारता चानयोधर्म स्वशक्तिगोपनात्, संलेखनायास्तु पञ्चातिचारा : / एवं चतुर्विंशत्यधिशतसंख्यातिचारमध्ये यः सूक्ष्मो वाऽनुपलक्ष्यः, बादरो वा व्यक्तः, तं निन्दामि मनसा, पञ्चात्तापेन तं च गर्हे गुरुसमक्षमिति // 2 // प्रायोऽन्यव्रतातिचारा अपि परिग्रहात्प्रादुर्भवन्ति, अतः सामान्येन तत्प्रतिक्रमणायाऽऽह"दुविहे पारेग्गहम्मी, सावज्जे बहुविहे य आरम्भ। कारावणे अ करण, पडिक्कमे देसि सव्वं // 3 // " द्विविधे परिग्रहे सचित्ताचित्तरूपे, सावद्ये सपापे, बहुविधेऽनेक-प्रकारे, आरम्भे प्राणातिपातरूपे कारणेऽन्यैर्विधापने, करणे स्वयं निवर्तने, चशब्दात् क्वचिदनुमतावपि, यो मेऽतिचारस्तमित्यनुवर्तते, तं निरवशेष (देसिअंति) आर्षत्वादेवसिकम्, एवं रात्रिकपाक्षिकाऽऽद्यपि स्वस्वप्रतिक्रमणे, अशुभभावात्प्रातिकूल्येन क्रमामि प्रतिक्रमामि। निवर्तेऽहमित्यर्थः / उक्तं च- "स्वस्थानाद्यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशागतः। तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमण-मुच्यते॥१॥" इति। अधुना ज्ञानातिचारनिन्दनायाऽऽह"जंबद्धमिदिएहिं, चउहिँ कसाएहिँ अप्पसत्थेहिं। रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि // // " यद्वद्धं यत् कृतमशुभं कर्म, प्रस्तावाद्विरतिनिबन्धकाप्रशस्तेन्द्रियकषायवशगानां ज्ञानातिचारभूतम्। यदुक्तम् -"तद् ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः / तमसः कुतोऽस्ति शक्ति दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम्॥१॥" इन्द्रियैः स्पर्शनेन्द्रियाऽऽदिभिः स्पर्शाऽऽदिविषयसंबद्धसंभूतसाधु-सौदासराजघ्राण-प्रियकुमार-मथुरावणिकसुभद्राश्रेष्ठिन्यादिवत् / तथा-चतुर्भिः कषायैः क्रोधाऽऽदिभिरप्रशस्तैस्तीबौदयिकभावमुपगतैर्मण्डूक-क्षपक-परशुराम-धनश्री-मम्मणाऽऽदिवत्, रागेण दृष्टिरागाऽऽदिरूपेण गोविन्दवाचकोत्तराभ्याभिव, द्वेषेणाप्रीतिरूपेण गोष्ठामहिलाऽऽदिवत्, वा शब्दौ विकल्पार्थो (तं निंदे) इत्यादि प्राग्वत् // 4 // साम्प्रतं सम्यग्दर्शनस्य, चक्षुर्दर्शनस्य च प्रतिक्रमणायाऽऽह"आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे अणाभोगे। अमिओगे अनियोगे, पडिक्कमे देसि सव्वं / / 5 / / " आगमने मिथ्यादृष्टि रथयात्राऽऽदेः संदर्शनार्थं कुतूहलेनाऽ5समन्ताद्गमने, निर्गमने च, यद्वद्धमित्यनुवर्तते / तथा- स्थाने Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 312 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण "वह १बंध 2 छविच्छेए ३,अइभारे 4 भत्तपाण-वोच्छेए५॥ मिथ्यादृष्टिदेवकुलाऽऽदावूर्ध्वस्थाने, चक्रमणे च तत्रैवेतस्ततः परिष्वष्कणे, वसतीत्याह-अनाभोगे अनुपयोगे, अभियोगे राजाभियोगाऽऽदिके, नियोगे श्रेष्ठिपदाऽऽदिरूपे, शेषं पूर्ववत्।। __ साम्प्रतं सम्यक्त्वातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"संका 1 कंख 2 विगिंछा 3, पसंस 4 तह संथवो कुलिंगीसु / सम्मत्तस्सऽझ्यारे, पडिक्कमे देसिअंसव्वं // 6 // " तत्र तावद्दर्शनमोहनीयकर्मोपशमाऽऽदिसमुत्थोऽर्हदुक्ततत्त्वश्रद्धानरूपःशुभ आत्मपरिणामः सम्यक्त्वं, तस्मिश्च सम्यक्त्वे श्रमणोपासकेन शङ्काऽऽदयः पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः, न समाच-रितव्याः। ध०। इदानीं चारित्रातिचारप्रतिक्रमणमभिधित्सुः प्रथमं सामान्येनाऽऽरम्भनिन्दनार्थमाह"छकायसमारंभे,पयणे य पयावणे य जे दोसा। अत्तट्ठाय परट्ठा, उभयट्ठा चेव तं निंदे॥७॥" षट्कायानां-भूदकाग्निवायुवनस्पतित्रसरूपाणां, समारम्भे परितापने, तुलादण्डन्यायात् संरम्भाऽऽरम्भयोश्वसङ्कल्पापद्रावणलक्षणयोः, एतेषु सत्सु, ये दोषाः पापानि, न त्वतीचाराः, अनङ्गीकृते मालिन्याभावात्, व सति ? पचने च पाचने च, चशब्दादनुमतौ च / किमर्थमित्याहआत्मार्थं स्वभोगार्थ, परार्थं प्राघूर्णकाऽऽद्यर्थम्, उभयार्थं स्वपरार्थ चशब्दोऽनर्थकद्वेषाऽऽदिकृतदोषसूचकः, एवकारः प्रकारेयत्ताप्रदर्शकः। यद्वाआत्मार्थ मुग्धमतित्वात् साध्वर्थमशने कृते मम पुण्यं भविष्यति,एवं परार्थोभयार्थावपि। अथवा-षट्कायसमारम्भाऽऽदिष्वयत्रेनापरिशुद्धजलाऽऽदिना ये दोषाः कृतास्ताँश्च निन्दामीति / / 7 / / साम्प्रतं सामान्येन चारित्रातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह. "पंचण्हमणुवयाणं, गुणव्वयाणं च तिण्हमइयारे। सिक्खाणंच चउण्हं, पडिकमे देसि सव्वं // 8 // " कण्ठ्या, नवरम्, अनु सम्यक्त्वप्रतिपत्तेः पश्चात्, अणूनि वा महाव्रतापेक्षया लघूनि, व्रतानि अणुव्रतानि, तानिपञ्चेति मूलगुणाः, तेषामेव विशेषगुणकारकाणि दिव्रताऽऽदीनि त्रीणि गुणव्रतानि, एतानि यावत्कथितानि, शिक्षाव्रतानि पुनरित्वरकालिकानि, शिक्षकस्य विद्याग्रहणमिव पुनः पुनरभ्यसनीयानि चत्वारि सामायिकाऽऽदीति॥८॥ अधुना प्रथममाह"पढमे अणुव्वयम्मी, थूलगपाणाइवायविरईओ। आयरियअप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगणं // 6 // " प्रथमे सर्वव्रतानां सारत्वादादिमे, अणुव्रतेऽनन्तरोक्तस्वरूपे, स्थूलको | बाबैरुपलक्ष्यत्वाद्वादरो गत्यागत्यादिव्यक्तलिङ्गद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजीवसंबन्धिनां प्राणानामिन्द्रियाऽऽदीनामस्थ्याद्यर्थमतिपातो विनाशस्तस्य विरतिर्निवृत्तिस्तस्याः सकाशादतिचरितमतिक्रान्तम्, एतच सर्वविरतिसंक्रमेऽपि स्यात्। न च तत्प्रतिक्रमणार्हमत आह-अप्रशस्ते क्रोधाऽऽदिनौदयिकभावे सति (इत्थं ति) अत्रैव प्राणातिपाते प्रमादप्रसङ्गेन, प्रमादो मद्याऽऽदिः पञ्चधा, तत्र प्रसञ्जनं प्रकर्षण प्रवर्तनं प्रसङ्ग स्तेन; एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणादाकुट्याऽऽद्यैरपि, यद्वा-विरतिमाश्रित्य यदाचरितं वक्ष्यमाणवधबन्धाऽऽदिकमसाध्वनुष्ठितमिति // 6 // तदेवाऽऽह वधो द्विपदाऽऽदीनां निर्दयताडनं, बन्धो रज्ज्वादिभिः संयमनं, छविच्छेदः कर्णाऽऽदिच्छेदनम् अतिभारः शक्त्यनपेक्षं गुरुभाराऽऽरोपणं, भक्तपानव्यवच्छेदोऽन्नपाननिरोधः, सर्वत्र क्रोधादितिगम्यते। एताँश्च प्रथमव्रतातिचारानाश्रित्य यद्बद्धम्, शेषं प्राग्वत् / वधाऽऽदीनामतीचारता च प्रागतिचाराधिकारे भावितैव, अनाभोगातिक्रमाऽऽदिना वा सर्वत्रातिचारताऽवसेया / / 10 / / द्वितीयव्रतमाह"बीए अणुव्वयम्मी, परिथूलगअलियवयणविरईओ। आयरियमप्पसत्थे, इत्थपमायप्पसंगणं // 11 // " द्वितीये अणुव्रते, परीत्यतिशयेन स्थूलकमकीादिहेतुरली-कवचनं कन्यालीकाऽऽदि पञ्चधा / तेत्र द्वेषाऽऽदिभिरविषकन्यां विषकन्यामित्यादिवदतः कन्याऽलीकम् 1 एवमल्पक्षीरां बहुक्षीरांगामित्यादिवदतो गवालीकम् 2 / परसत्कां भूमिमात्मसत्कां वदतो भूम्यलीकम् / उपलक्षणानि चैतानि सर्वद्विपदच-तुष्पदापदालीकानां, न्यासस्य धनधान्याऽऽदिस्थापनिकाया हरणमपलापोन्यासापहारः 4 / अत्र पूर्वत्र चादत्ताऽऽदानत्वे सत्यपि वचनस्यैव प्राधान्यविवक्षणात् मृषावादत्वं, लभ्यदेयविषये प्रमाणीकृतस्योत्कोचमत्सराऽऽद्यभिभूतस्य कूटसाक्षिदानात् कूटसाक्षित्वम् / अनयोश्च द्विपदाऽऽद्यलीकान्तर्भावऽपिलोकेऽतिगर्हितत्वात्पृथगुपादानम् / एतस्य पञ्चविधाऽलीकस्य यद्वचनं भाषणं तस्य विरतेः, "आयरिए" इत्यादि प्राग्वत्॥११॥ अस्यातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"सहसा रहस्सदारे, मोसुवएसे य कूडलेहे य। वीयवयस्सऽइयारे, पडिकमे देसियं सव्वं // 12 // " तत्र (सहस त्ति) सूचनात्सूत्रमिति सहसाऽनालोच्याभ्याख्यानमसदोषाधिरोपणं चौरोऽयमित्याद्यभिधानं सहसाऽभ्याख्यानम्?। रहस्येकान्ते मन्त्रयमाणान् वीक्ष्येदं चेदं च राजविरुद्धाऽऽदिकमेते मन्त्रयन्ते इत्याद्यभ्याख्यानं रहोऽभ्याख्यानम् सस्वदाराणां विश्रब्धभाषितस्यान्यस्मैकथनं स्वदारमन्त्रभेदः। ततोद्वन्द्वंकृत्वा तस्मिन् 31 अज्ञातमन्त्रीषधाऽऽद्युपदेशनं मृषोपदेशस्तस्मिन् 4, अन्यमुद्राऽक्षरविन्द्रादिना कूटस्यार्थस्य लेखनं कूटलेखस्तस्मिश्च, शेषं प्राग्वत्॥१२॥ इदानीं तृतीयव्रतमाह"तइए अणुष्वयम्मि,थूलगपरदव्वहरणविरईओ। आयरियमप्पसत्थे, इत्थपमायप्पसंगणं / / 13 // " तृतीये अणुव्रते स्थूलकं राजनिग्रहाऽऽदिहेतुः परद्रव्यहरणं, तस्य विरतिरित्यादि प्राग्वत्। अस्यातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"तेनाहडप्पओगे, तप्पडिरूवे विरुद्धगमणे य। कूडतुलकूडमाणे, पडिकमे देसि सव्वं // 14 // " स्तेनाश्चैरास्तैराहृतं देशान्तरादानीतं किञ्चित्कुङ कुमाऽऽदि तत् समर्घमिति लोभाद्यत् काणकक्रयेण गृह्यते तत् स्तेनाऽऽहृतम्। (पओगि त्ति) सूचनात् तस्करप्रयोगः, तदेव कुर्वन्तिीति त Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिक्कमण 313 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण स्कराचौराः / तेषामुद्यतकदानाऽऽदिना हरणक्रियायां प्रेरणं प्रयोगः२। (तप्पडिरूवत्ति) तस्य प्रस्तुतकुडकुमाऽऽदेः प्रतिरूपं सदृशं कुसुम्भादि, कृत्रिमकुडकुमाऽऽदिवा तत्प्रक्षेपेण व्यवहारः तत्प्रतिरूपव्यवहारः शविरुद्धनुषयोः राज्यं विरुद्धराज्यं, तत्र ताभ्यामननुज्ञातेवाणिज्यार्थनतिक्रमणंगन विरुद्धगमनम् ४।कूटतुला कूटमानं, तद्न्यूनाधिकाभ्यां व्यवहरतः 5 / यदाह- " उचियं मोत्तूण कालं, दवाइकमागयं च उक्करिस / निवाडियमवि जाणतो, परस्स संतं न गिव्हिज्जा / / 1 / / " एतेष क्रियमाणेषु यद् बद्धभित्यादि प्राग्वत्॥१४॥ तर्यव्रतमाह"धउत्थे अणुव्वयम्मी, निच्चं परदारगमणविरईओ। आयरियमप्पसत्थे, इत्थ पमाणप्पसंगणं॥१५|" * चतुर्थे अणुव्रते, नित्यं सदा, परे आत्मव्यतिरिक्ताः, तेषां दाराः परिणीतसंगृहीतभेदभिन्नानिकलत्राणि तेषुगमनमासेवनं तस्य विरतेरि-- त्यादि प्राग्वत् // 15 // अस्यातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"अपरिग्गहिआ इत्तर, अणंग वीवाह तिव्वअणुरागे। चउत्थवयस्सऽइयारे, पडिक्कमे देसिअंसव्वं // 16 // " अपरिगृहीता विधवा, तस्यां गमनमपरिगृहीतागमनम् ।(इत्तर त्ति) इत्वरमल्पकाल भाटीप्रदानतः केनाचित् स्ववशीकृता वेश्या, तस्यां गमनम् इत्वरपरिगृहीतागमनम्। (अणंग त्ति) अनङ्गः कामस्तत्प्रधाना क्रीडाऽधरदशनाऽऽलिङ्ग नाऽऽद्या, तां परदारेषु कुर्वतोऽनङ्ग क्रीडा, वात्स्यायनाऽऽद्युक्तचतुरशीतिकरणासेवनं वा (वीवाह त्ति) परकीयापत्यानां स्नेहाऽऽदिना विवाहस्य करणं परविवाहकरणं स्वापत्येष्वपि संख्याऽभिग्रहो न्याय्यः 4, (तिव्वअणुरागे त्ति) कामभोगतीव्रानुरागःकामेषु शब्दाऽऽदिषु भोगेषु रसाऽऽदिषु, तीव्रानुरागोऽत्यन्तं तदध्यवसायः 5, स्वदारसन्तोषिणश्च त्रय एवान्त्या अतिचाराः, आद्यौ तु भङ्गावेव, स्त्रिया अपि तथैव, यद्वाऽतिक्रमाऽऽदिभिरतिचारता अवसेया, एतानाश्रित्य। यद् बद्धमित्यादि प्राग्वत् / / 16 / / पञ्चमाणुव्रतमाह"इत्तो अणुव्वर पं-चमम्मि आयरियमप्पसत्थम्मि। परिमाणपरिच्छेए, इत्थ पमाणप्पसंगणं // 17 // " इतस्तुर्यव्रतानन्तर, धनधान्याऽऽदिनवविधपरिग्रहप्रमाणलक्षणे पञ्चमे अणुव्रते यदाचरितमप्रशस्ते भावे सति, क्व विषये? परिमाणपरिच्छेदे परिग्रहप्रत्याख्यानकालगृहीतप्रमाणोलने / अत्रेत्यादि प्राग्वत्॥१७॥ अस्यातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह“वणवनखित्तवत्थु, रुप्पसुवन्ने य कुवियपरिमाणे। दुपए चउप्पयम्मी, पडिक्कमे देसिअंसव्वं // 18 // " धनम्-गणिमाऽऽदि (ध०) धान्यं व्रीह्यादि (ध०) क्षेत्रम्सेतुकेतूभयाऽऽत्मकम्। (ध०) रूप्यम्, रजतम्। सुवर्णम्-कनकम् (ध०) कुपितं स्थालकचोलाऽऽदि (ध०) द्विपदम्-गन्त्रीदास्यादि / चतुष्पदम्गवाश्यादि (ध०) शेषं प्राग्वत्॥१८॥ साम्प्रतं वीणि गुणव्रतानि, तत्राऽऽद्यप्रतिक्रमणायाऽऽह"गमणस्स य परिमाणे, दिसासु उड्ढे अहे अतिरिअंच। वुड्डिसइअंतरद्धा, पढमम्मि गुणव्यए निंदे // 16 // " अत्र गमनस्य च परिमाणे गतेरियत्ताकरणे, चशब्दाद्यदतिक्रान्तं, क्व विषये? दिक्षु, तदेवाऽऽह- (उड्ढे ति ] ऊर्ध्वम् [ध०] एवमधस्तिर्यगदिशोः [ध० बुद्दित्ति क्षेत्रवृद्धिः,कोऽर्थः? सर्वासु दिक्षु [ध०] |सइअंतरद्धत्ति| स्मृत्यन्तर्धा, स्मृतभ्रंश इत्यर्थः। [ध०] प्रथमे [ध०] गुणाय व्रत तस्मिन् यदतिचरितमित्यादि प्राग्वत्।।१६।। साम्प्रतं द्वितीयं गुणव्रतम् / तच द्विधा-भोगतः, कर्मतश्च / भोगोऽपि द्विधा-उपभोग-परिभोगभेदात् / तत्र उप इति सकृत् भोग आहारमाल्याऽऽदेरासेवनमुपभोगः, परीत्यसकृद्धोगो भवनाङ्गनाऽऽदीनामासेवनं परिभोगः / तत्र गाथामाह"मज्जम्मिय मंसम्मिय, पुप्फे य फले य गंध मल्ले य। उवभोगपरीभोगे, बीयम्मि गुणव्वए निंदे // 20 // " श्रावकेण तावदुत्सर्गतः प्रासुकैषणीयाऽऽहारिणा भाव्यम्, असति सचित्तपरिहारिणा, तदसति बहुसावद्यमद्याऽऽदीन् वर्जियत्वा प्रत्येकमिश्राऽऽदीनां कृतप्रमाणेन भवितव्यं, तत्र मद्यम्-मदिरा, मांसम्-पिशितं, चशब्दाच्छेषाभक्ष्यद्रव्याणामनन्तकायाऽऽदीनां च ग्रहः / तानि च प्रागुक्तानि पञ्चोदुम्बर्यादीनि, पुष्पाणिकरीरमधुकाऽऽदिकुसुमानि, चशब्दात्त्रससंसक्तपत्राऽऽदिपरिग्रहः / फलानि-जम्बूबिल्वादीनि, एषु च मद्याऽऽदिषु राजव्यापाराऽऽदौ वर्तमानेन यत्किञ्चित्क्रायणाऽऽदि कृतं तस्मिन्, एतैरन्तर्भागः सूचितः, बहिस्त्वयम् [ गंध मल्ले त्ति | गन्धाःवासाः, माल्या-नि-पुष्पसजः, अत्रोपलक्षणत्वाच्छेषभोग्यवस्तुपरिग्रहः / तस्मिन्नुक्तरूपे, 'उपभोगपरिभोगे' 'भीमो भीमसेन' इति न्यायादुपभोगपरिभोगपरिमाणाऽऽख्ये 'द्वितीये गुणवते' अनाभोगाऽऽदिनायदतिक्रान्तं, तन्निन्दामि // 20 // अत्र भोगतोऽतिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"सच्चित्ते पडिबद्धे, अप्पोल दुप्पोलिएय आहारे। तुच्छोसहिभक्खणया, पडिक्कमे देसियं सव्वं // 21 // " कृत सचित्तप्रत्याख्यानस्य, कृततत्परिमाणस्य वा सचित्तमत्तिरिक्तमनाभोगादिनाऽभ्यवहरतः सचित्ताऽऽहारोऽतिचारः 1, एवं वृक्षस्थं गुन्दाऽऽदि राजादनाऽऽदि वा सास्थिकफलं मुखे प्रक्षिपतः सचित्तप्रतिबद्धाऽऽहारः२, एवमपक्कस्यान्निनाऽसंस्कृतस्यापरिणतकणिक्कादेः पिष्टस्य भक्षणमपक्कौषधिभक्षणता 3, एवं दुष्पक्कस्य पृथुकादेर्दृष्पकौषधिभक्षणता४ / तुच्छा अतृप्तिहेतुत्वादसारा, औषधिः कोमलमुगशिम्बाऽऽदिका, तां भक्षयतस्तुच्छौषधिभक्षणता 5, एतद्विषये "पडिक्कमे" इत्यादि प्राग्वत् 211 अत्र व्रते भोगोपभोगोत्पादकानि बहुसावधानि कर्मतोऽङ्गारकर्माऽsदीनि पञ्चदश कर्माऽऽदानानि तीव्रकर्मोपादानानि श्रावकेण ज्ञेयानि, न तु समाचरणीयान्यतस्तेषु यदनाभोगाऽऽदिनाऽऽचरितं तत्प्रतिक्रमणाय गाथाद्वयमाह "इंगालीवणसाडी-भाडीफोडीसु वजए कम्म। वाणिज्जं चेव यदं-तलक्खरसकेसविसविसयं // 22 // एवं खु जंतपीलण-कम्म निलंछणं च दवदाणं / सरदहतलायसोसं, असईपोसं च वञ्जिज्जा // 23 // " कर्मशब्दः पूर्वार्ध प्रत्येकं योज्यः, तेनाऽङ्गारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटककर्म, स्फोटकर्म चेति पा कर्माणि / (ध०) Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 314 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण प्रगुणी विवकिना सात विसंयुक्तरमोगाति उत्तरार्द्धन पञ्चवाणिज्यान्याह- [वाणिज्जं इत्यादि] विषयशब्दः प्रत्येक योज्यः, ततो दन्तविषयं वाणिज्यं दन्तवाणिज्यम्। एवं लाक्षाऽऽदिष्वपि [ध०] पञ्चविधं वाणिज्यम् [ध०] कर्म श्रावको वर्जयेदिति संटङ्कः / [जंतपीलण त्ति ] यन्त्रंउलूखलाऽऽदौ पीडनंधान्यखण्डनाऽऽदि, तेन कर्म जीविका यन्त्रपीडनकर्म, [निलं-छण त्ति] नितरां लाञ्छनम्अङ्गावयवच्छेदस्तेन कर्म जीविका निर्लाञ्छनकर्म / [दवदाणं ति] अरण्येऽग्निप्रज्वालनम् (सरदह इत्यादि) सरोद्रहतटाकशोषः सारणीकर्षणेन, ततो जलनिष्कासनमित्यर्थः, (असईपोसं ति) वृत्त्यर्थ दास्यादिदुः शीलजन्तुपोषणं, लिङ्गमतन्त्रं,सूत्रे च एवंखलुशब्दौ गाथापर्यन्ते सम्बध्येते, ततश्चैवंप्रकाराणि खरकर्माणि गुप्तिपालाऽऽदीनि च, 'खु' निश्चयेन, सुश्रावको वर्जयेदिति // 2 // 23 // साम्प्रतमनर्थदण्डाऽऽख्यं तृतीयं गुणव्रतम् / तत्रार्थो देहस्वजनाऽऽदीनां कार्य, तदभावोऽनर्थः, ततः प्राणी निःप्रयोजनं पुण्यधनापहारेण दण्ड्यते, पापकर्मणा विलुप्यते येन सोऽपध्यानाऽऽचरिताऽऽदिकश्चतुर्धाऽनर्थदण्डस्तस्य मुहूर्ताऽऽदिकालाऽवधिना निषेधोऽनर्थदण्डव्रतं, तत्र चापध्यानाऽऽचरितपापोपदेशौ व्रताधिकारस्थव्याख्यानादेवावसेयौः हिंसप्रदानप्रमादाऽऽचरिते तु बहुसावद्यत्वात् साक्षात्सूत्रकृदेव द्विसूत्र्याऽऽहं "सत्थग्गिमुसलजंतग-तणकट्ठे मंतमूलभेसज्जे। दिने दवाविए वा, पडिकमे देसियं सव्वं // 24 // ण्हाणुचट्टणवअग-विलेवणे सद्दरूवरसगंधे। वत्थासणआभरणे, पडिक्कमे देसियं सव्वं // 25 // " शस्त्रानिमुशलानि प्रतीतानि, यन्त्रकम्-गन्त्र्यादि, तृणम्-महारज्जुकरणाऽऽदिहेतुर्दर्भाऽऽदि वा व्रणकृमिशोधनं बहुकरी वा, काष्ठम्अरघट्टयष्ट्यादि, ‘मन्त्र' विषापहाराऽऽदिः, वशीकरणाऽऽदिर्वा, मूलम्नागदमन्यादि, ज्वराऽऽद्युपशमनमूलिका वा गर्भशातनाऽऽदि वा मूलकर्म, भेषजम् सांयोगिकद्रव्यमुघाटनाऽऽदिहेतुः, एतच्छस्त्राऽऽदिप्रभूतभूतसङ्घातधातहेतुभूतं दाक्षिण्याऽऽद्यभावेऽन्येभ्यो यदत्तं दापितं वा तस्य "पडिक्कमे" इत्यादि प्राग्वत्॥२४|| स्नानम्-अभ्यङ्गपूर्वकमङ्गप्रक्षालनं, तचायतनया त्रससंसक्तभृम्यां संपातिमसत्वाऽऽफुले वाऽकाले वस्त्रापूतजलेन यत्कृतम्, उद्वर्तनम्-संसक्तचूर्णाऽऽदिभिः उद्वर्तनिकाश्च न भस्मनि क्षिप्तास्ततस्ताः कीटिकाकुलाः श्वाऽऽदिभिभक्षयन्ते, पादैर्वा मृद्यन्ते, वर्णकः-कस्तूरिकाऽऽदिः, विलेपनं कुङ्कुमचन्दनाऽऽदि, एते च संपातिमसत्वाऽऽद्ययतनया कृते, शब्दो वेणुवीणाऽऽदीनां कौतुकेन श्रुतः शब्दो वा निश्युच्चैः स्वरेण कृतस्तत्र, "आउज्जोयणविणए'' इत्याद्यधिकरणं यदभूत, रूपाणिनाटकाऽऽदौ निरीक्षितानि, रसः-अन्येषामपि तद्गृद्धिहेतुर्वर्णितः, एवम्गन्धाऽऽ- | दीन्यपि, अत्र विषयग्रहणात्तज्जातीयमद्याऽऽदिप्रमादस्य पञ्चविधस्याऽपि ग्रहः / यद्वा-आलस्येन तैलाऽऽदिभाजनास्थगनं प्रमादाऽऽचरितं, | तस्मिँश्च "पडिक्कमे" इत्यादि प्राग्वत्॥२५॥ अत्रातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरिअहिगरणभोगअइरित्ते। दंडम्मि अणट्ठाए, तइअम्मि गुणव्वए निंदे॥२६॥" कन्दप्पो मोहोद्दीपकं हास्यं 1, कौकुच्यं नेत्राऽऽदिविक्रियागर्भ हास्यजनकं विटचेष्टितम् 2, मौखर्यम्-असंबद्धबहुभाषित्वम्३, (अधिकरण त्ति) संयुक्ताधिकरणता तत्राधिक्रियते नरकाऽऽदि ध्वात्माऽनेनेत्यधिकरणं मुशलोदूखलाऽऽदिसंयुक्तमर्थक्रियायां प्रगुणीकृतं तच तदधिकरणं च तद्भावः संयुक्ताधिकरणता। इह विवेकिना संयुक्तं गन्धाऽऽदि न धरणीयम्, तद् दृष्ट्वा जनो गृह्णन्न निवारयितुं शक्यते, विसंयुक्ते तु स्वत एव निवारितः स्यात् 4, (भोगअइरिते ति) उपभोगपरिभोगातिरिक्तता, तदाधिक्य-करणे ह्यन्येऽपि तत्तैलामलकाऽऽदि याचित्वा स्नानाऽदौ प्रवर्तन्ते (दडम्मि अणट्ठाए त्ति) अनर्थदण्डाऽऽख्ये (तइअम्मि) इत्यादि प्राग्वत्॥२६॥ साम्प्रतं शिक्षाव्रतानि, तत्र प्रथम सामायिक, तत्स्वरूपंचपूर्वमुक्तमेव, तस्यातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"तिविहे दुप्पणिहाणे, अणवट्ठाणे तहा सइविहूणे। सामाइअ वितहकए, पढमे सिक्खावए निंदे // 27 // " त्रिविधं त्रिप्रकारं 'दुष्प्रणिधानं' कृतसामायिकस्य मनोवाक्कायानां दुष्प्रयुक्तता, तत्र मनसा गृहाऽऽदिव्यापारचिन्तनम् 1, वाचा सावधकर्कशाऽऽदिभाषणम् 2, कायेनाप्रत्युपेक्षिता-प्रमार्जितस्थाण्डिलाऽऽदौ निषदनाऽऽदिविधानम् 3, अनवस्थान-म्सा-मायिककालावधेरपूरणं यथा कथञ्चिद्वाऽनादृतस्य करणम् 4, तथा-स्मृतिविहीनं निद्राऽऽदिप्रमादात् शून्यतयाऽनुष्ठितम् 5 एतानाश्रित्य सामायिके प्रथमे शिक्षाव्रते वितथाकृते सम्यगननुपालिते योऽतिचारस्तं निन्द मीति // 27 // अधुना देशावकाशिकं व्रतम्-तच पूर्वं योजनशताऽऽदिनायावज्जीवं गृहीतदिग्व्रतस्य तथाऽभीष्टकालं गृहशय्यास्थानाऽऽदे : परतो गमननिषेधरूपम्, सर्वव्रतसंक्षेपकरणरूपं वा / अस्याति चारप्रतिक्रमणायाऽऽह"आणवणे पेसवणे, सद्दे रूवे य पुग्गलक्खेवे। देसावगासियम्मी, वीए सिक्खावर निंदे // 20 // " गृहाऽऽदौ कृतदेशावकाशिकस्य गृहाऽऽदेवहिस्तात् केनचित् किञ्चिद्वस्त्वानयत आनयनप्रयोगः 1, एवं प्रस्थापयतः प्रेष्यप्रयोगः 2, गृहाऽऽदेबहिः स्थस्य कस्यचित् काशिताऽऽदिना कार्यकरणार्थमात्मानं ज्ञापयतः शब्दानुपातः३, एवं स्वरूपं दर्शयतो मालाऽऽदावारुह्य पररूपाणि वा प्रेक्षमाणस्य रूपानुपातः 4, नियन्त्रितक्षेत्राहिः स्थितस्य कस्यचित्लेष्टादिक्षेपणेन स्वकार्य स्मारतः पुद्गलक्षेपः 5, "देसावगासियम्मि" इत्यादि प्राग्वत्॥२८॥ . अधुना पोषधोपवासः तत्र पोषं पुष्टिं प्रक्रमाद्धर्मस्य धत्त इति पोषधः अवश्यमष्टम्यादिपर्वदिनानुष्ठेयो व्रतविशेषः, तत्रोपवसनं पोषधोपवासः। तद्भेदास्तु पौषधव्रते उक्तास्ततोऽवसेयाः / अत्र चातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"संथारुच्चारविही-पमाय तह चेव भोयणाभोए। पोसहविहिविवरीए, तइए सिक्खावए निंदे॥२९॥" संस्तारकः-कम्बलाऽऽदिमयः, उपलक्षणत्वाचछय्यापीठफलऽऽकादिच, (उच्चार त्ति) उच्चारप्रश्रवणभूमयो द्वादश द्वादश विण्मूत्रस्थण्डिलानि,एषां विधौ प्रमादः, कोऽर्थः? शय्यायां संस्तारके च चक्षुषा अप्रत्युपेक्षिते दुष्प्रत्युपेक्षिते वोपवेशनाऽऽदि कुर्वतः प्रथमोऽतिचारः१, एवं रजोहरणाऽऽदिना अप्रमार्जिते दुष्प्रमार्जिते च द्वितीयः 2. एवमुच्चाराऽऽदिभूमीनामपिदावतिचारी, अतः प्रोच्यते-(तह चेव त्ति) तथैव भवत्यनाभोगे अनुपयुक्ततायां सत्यामित्यतिचारचतुष्टयम् 4, तथा- 'पोषधविधिविपरीतः' - पोषधविधेश्चतुर्विधस्यापि विपरीतोऽसम्यक्पालनरूपः, यथा कृतपौषधस्य क्षुधाऽऽद्यार्तस्य Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 315 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण पौषधे पूर्ण श्वः स्वार्थमाहाराऽऽदिइत्थमित्थंकारयिष्ये इत्यादिध्यायतः पञ्चमोऽतिचारः / पाठान्तरं वा- (भोयणाभोय त्ति) भोजने-आहारे, उपलक्षणत्वात् देहसत्काराऽऽदौ आभोग-उपभोगः, कदा पौषधः पूर्णा भविष्यात येनाहं भोक्ष्ये इत्यादितत्परतेति पञ्चमः 5 / एवं पञ्चभिरतिचारैः पौषधविधिविपरीते वैपरीत्ये सति "तइए'' इत्यादि प्राग्वत् // 26 // साम्प्रतमतिथिसंविभागाऽऽख्यं तुर्य शिक्षाव्रतम्। तत्र तिथिपर्वाऽऽदिलौकिकव्यवहारत्यागादोजनकालोपस्थायी श्रावकस्यातिथिः साधुरुच्यते। तस्य सड़तो निर्दोषो न्यायाऽऽगतानां कल्पनीयान्नपानाऽऽदीनां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमयुक्तः पश्चात्कर्माऽऽदिदोषपरिहारेण विशिष्टो भाग आत्मानुग्रहबुद्ध्या दानमतिथिसंविभागः / अत्र चायं विधिःकृतपौषधेन श्राद्धन पारणकदिने साधुसद्भावेऽवश्यमतिथिसंविभागवतमासेव्य पारयितव्यम्, अन्यदात्वनियमः। यदाह- "पढम जईण दाऊण " इत्यादि। अत्रातिचारप्रतिक्रमणायाऽऽह"सचित्ते निक्खिवणे, पिहिणे ववएस मच्छरे चेव। कालाइक्कमदाणे, चउत्थे सिक्खावए निंदे // 30 // " देयस्यान्नाऽऽदेरदानबुध्द्याऽतिक्रमाऽऽदिभिरनाभोगेन वा 'सचित्ते' पृथ्व्यादौ निक्षिपतः सचित्तनिक्षेपणतेति प्रथमोऽतिचारः१, एवं सचित्तेन पिदधतः सचित्तपिधानता 2. स्वकीयमपि परकीयमिदमित्यभिदधतः परव्यपदेश. 3, किमस्मादप्यहं न्यून इति मात्सर्यादितो मत्सरिता 4, साधुभिक्षावेलामतिक्रम्य निमन्त्रयमाणस्य कालातिक्रमः 5 / शेष प्राग्वत् // 30 // साम्प्रतमत्र थद्रागाऽऽदिना दत्तं तत्प्रतिक्रमणायाऽऽह"सुहिएसु य दुहिएसु य, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा। रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि // 31 // " साधुष्विति विशेष्यं गम्य, संविभागवतप्रस्तावात्, ततः साधुषु कीदृक्षु? सुइ हित ज्ञानाऽऽदित्रयं येषा ते सुहितास्तेषु, पुनः कीदृक्षु? दुःखितेषु रुजा तपसा वा क्लान्तेषु प्रान्तोपधिषुवा, पुनः किंविशिष्टेषु ?'न' स्वयं स्वच्छन्देन यता उद्यता अस्वंयतास्तेषु, गुर्वाज्ञया विहरत्सु इत्यर्थः / 'या' मया कृताऽनुकम्पा अन्नाऽऽदिदानरूपा भक्तिः, अनुकम्पाशब्देनात्र भक्तिः सूचिता / यथोक्तम्- "आयरिअऽणुकंपाए, गच्छो अणुकंपिओ महाभागो। गच्छाणुकंपणाए, अव्वुच्छित्ती कया तित्थे / / 1 / / ' रागेणपुत्राऽऽादेपेम्णा, न तु गुणवत्त्वबुद्ध्या, तथाद्वषेण-द्वेषोऽत्र साधुनिन्दाऽऽख्यः, यथा-अदत्तदानाधनधान्याऽऽदिरहिता मलाऽऽविलसकलदेहा ज्ञालिजनपरित्यक्ताः क्षुधाऽऽर्ताः सर्वथा निर्गतिका अमी, अत उपष्टम्भारे इत्येवं निन्दापूर्वकं या ऽनुकम्पा साऽपि निन्दाऱ्या, अशुभदीर्धाऽऽयुष्कहेतुत्वात्। यदागमः- "तहारूवं समण वा माहणं वा संजयविरयपडिहयपच्चल्खायपावकम्म हीलित्ता निंदित्ता खिंसित्ता गरहित्ता अवमन्नित्ता अमगुन्नेणं अपीइकारगेण असणपाणखाइमसाइमेण पडिलाभित्ता असुहदीहाउयत्ताए काभपकरेइ।" यद्वा-सुखितेषु वा असंयतेषु पार्श्वस्थाऽऽदिषु, शेषं तथैव / नवरं 'द्वेषेण' 'दगपाणं पुप्फफलं' इत्यादि तद्रतदोषदर्शना-मत्सरेण, अथवा-असंयतेषु षड्डिधजीवबधकेषु कुलिङ्गिषु, रामेण एकग्रामात्पस्यादिप्रीत्या, द्वेषणप्रवचनप्रत्यनीकतादिदर्शनोद्रन, तदेवंविधंदानं निन्दामि, गर्हे च, यत् पुनरौचित्यदानंतन निन्दाऽऽहं जिनैरपि वार्षिकंदानंददद्भिस्तस्य दर्शितत्वात्॥३१॥ सम्प्रति साधुषु यन्न दत्तं तत्प्रतिक्रमितुमाह"साहस संविभागो, न कओ तवचरणकरणजुत्तेसुं। संते फासुयदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि // 32 // " कण्ठया, नवरं-तपश्चरणकरणयुक्तेष्बित्यत्र तपसः पृथगुपादानमनेन निकाचितान्यपि कर्माणि क्षीयन्ते इति प्राधान्यख्यापनार्थम् / / 31 / / संप्रति संलेखनातिचारान्परिजिहीर्षुराह"इहोए परलोए, जीवियमरणे य आससपओगे। पंचविहो अइयारो, मा मज्झं हुज मरणं ते // 33 // " अत्रऽऽशंसाप्रयोग इति सर्वत्र योज्य, तत्र प्रतिक्रामकं प्रतीत्येह-लोको नरलोकस्तत्राऽऽशंसाराजा स्यामित्याद्यभिलाषस्तस्याः प्रयोगो व्यापार इहलोकाऽऽशंसाप्रयोगः 1, एवं देवः स्यामित्यादिपरलोकाशंसाप्रयोगः 2, तथा कश्चित्कृतानशनः प्रभूतपौरजनव्रतविहितमहामहसततावलोकनात् प्रचुरवन्दारुवृन्दवन्दनसम्पर्ददर्शनात् अस्तोकविवेकिलोकसत्कृतश्लोकसमाकर्णनात् पुरतः संभूय भूयो भूयः सद्धार्मिकजनविधीयमानोपबृंहणश्रवणात् अनघसमस्तसङ्घ जनमध्यसमारब्धपुस्तकवाचनवस्त्रमाल्याऽऽदिसत्कारनिरीक्षणाचैवं मन्यते-प्रतिपन्नानशनस्यापि मम जीवितमेव सुचिरं श्रेयः, यत एवंविधा मदुद्देशेन विभूतिर्वर्तत इति जीविताऽऽशंसाप्रयोगः 3, तथा-कश्चित् कर्कशक्षेत्रे कृतानशनः प्रागुक्तपूजाऽऽद्यभावेक्षुधाऽऽद्यार्तो वा चिन्तयतिकिमिति शीघ्र न म्रियेऽहमिति मरणाऽऽशंसाप्रयोगः 4, तथा-कामभोगाऽऽशंसाप्रयोगः, तत्र कामी शब्दरूपी, भोगाःगन्धरसस्पर्शः, यथा ममास्यतपसः प्रभावात् प्रेत्य सौभाग्याऽऽदि भूयादिति 5 / एष पञ्चविधोऽतिचारो मा मम भूयाद् मरणान्ते यावच्चरमोच्छास इति॥३३।। सर्वोऽप्यतिचारो योगत्रयसंभवोऽतस्तमुद्दिश्य तैरेव प्रति-क्रामन्नाह"काएण कायइयस्सा, पडिक्कमे वाइयस्स वायाए। मणसा माणसियस्सा,सव्वस्स वयाइआरस्स॥३४॥" कायेन वधाऽऽदिकारिणा शरीरेण कृतः कायिकस्तस्य, आर्षत्वादत्र दीर्घः, कायेन तपःकायोत्सर्गऽऽधनुष्ठानपरेण देहेन, एवं वाचा सहसाऽभ्याख्यानदानाऽऽदिरूपया कृतस्य वाचिकस्य वाचैव मिथ्यादुष्कृतकरणाऽऽदिलक्षणया, तथा-मनसा देवतत्वाऽऽदिषु शङ्काऽऽदिकलुषितेन कृतो मानसिकस्तस्य मनसैव हा दुष्ट कृतमित्याद्यात्मनिन्दापरेण सर्वस्य व्रतातिचारस्य प्रतिक्रमामीति सामान्येन योगत्रयप्रतिक्रमणमुक्तम्॥३४॥ सम्प्रति विशेषतस्तदेवाऽऽह"वंदणवयसिक्खागा-रवेसु सन्नाकसायदंडेसु। गुत्तीसु समिईसु य, जो अइयारो तयं निंदे॥३५॥" वन्दनं चैत्यवन्दनम् (ध०) (तद्विधिः 'चेइयवंदण' शब्दे तृतीयभागे 1266 पृष्ठादारभ्य दर्शितः, 'वंदण' शब्दे च दर्शयिष्यते) गुरुवन्दनं च (ध०) (गुरुवन्दनविधिं च 'वंदण' शब्दे दर्शयिष्यामि) व्रतानि स्थूलप्राणातिपाताऽऽदीनि पौरुष्यादिप्रत्याख्यानरूपा नियमा वा, शिक्षा ग्रहणाऽऽसेवनरूपा द्विविधा, तत्र ग्रहणशिक्षा सामायिकाऽऽदिसूत्रार्थग्रहणरूपा। यदाह-"सावगस्सजहन्नेणं अट्ठप्पवयणमायाओ, उक्कोसेणं छज्जीवणिया सुत्तओ वि अत्थओ वि, पिंडेसणज्झयणं न सुत्तओ, अत्थओ पुण उल्लावेणं सुणइत्ति।" आसेवनशिक्षा तु-नमस्कारेणावबोध Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण इत्यादि दिनकृत्यलक्षणा, गौरवाणिजात्यादिमदस्थानानि, तानि प्रतीतानि, ऋद्धयादीनिवा, वन्दनं च व्रतानिचेत्यादिद्वन्द्वस्तेषु, तथासंज्ञाः आहार 1 भय 2 मैथुन 3 परिग्रह 4 रूपाश्चतस्रः / तथा पराः षट्संज्ञा:-क्रोध 1 मान 2 माया ३लोभ 4 लोक५ ओघ६ रूपाः, मीलिताश्च दश, पञ्चदश वा, ताश्च आहाराऽऽदि 4 क्रोधाऽऽदि 4 / सुखदुःखमोहवितिगिच्छा-शोकधर्मांघरूपाः,आसुचलोकसंज्ञामीलने षोडशापि, तथा-कषः संसारस्तस्याऽऽयो लाभो येभ्यस्ते कषायाः क्रोधाऽऽदयः, तथादण्ड्यते धर्मधनापहारेण प्राणी यैस्तेऽशुभमनोवाक्कायरूपा दण्डा, मिथ्यादर्शनमायानिदानशल्यरूपा वा, तेषु तथा गृप्तिषु अशुभयोगनिरोधरूपासु, तथा ईर्याऽऽदिषु पञ्चसु समितिषु, चशब्दाद्दर्शनप्रतिमाऽऽद्यशेषधर्मकृत्येषुच, निषिद्धकरणाऽऽदिनायोऽतिचारस्तकं निन्दामीति / / 3 / / साम्प्रतं सम्यग्दर्शनमाहात्म्योपदर्शनायाऽऽह"सम्मट्ठिी जीवो, जइ विहु पावं समायरइ किंचि। अप्पो सि होइ बंधो, जेण न निद्धंधसं कुणइ॥३६॥" सम्यगविपरीता दृष्टिर्बोधो यस्थ सम्यग्दृष्टिीवो यद्यपि कथञ्चिदनिर्वहन् पापं कृष्याद्यारम्भं समाचरति, किञ्चित् स्तोकं निर्वाहमात्रमित्यर्थः / हुरत्र तथाऽपीत्यर्थे, ततस्तथाप्यल्पः पूर्वगुणस्थानापेक्षया स्तोकः, (सि त्ति) तस्य श्रावकस्य भवति बन्धो ज्ञानाऽवरणाऽऽदिकर्मणां, कुत इत्याह-येनेति। यस्मान्न(निबंधसं ति) निर्दयं क्रियाविशेषणमिदं, कुरुते प्रवर्तते पशुवधनिबन्धनवाणिज्योधतचारुदत्तवदिति // 36|| ध०। (चारुदत्तवृत्तम् 'चारुदत्त' शब्दे तृतीयभागे 1176 पृष्ठे गतम्) ननु स्तोकस्य विषस्य विषमा गतिरित्यल्पस्यापि बन्धस्य का गतिरित्यत आह"तं पिहुसपडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च। खिप्पं उवसामेई, बाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो||३७। तदपि यत्सम्यकदृष्टिना कृतमल्पं पापं सह प्रतिक्रमणेन षट्विधावश्यकेन वर्तत इति सप्रतिक्रमणं सपरितापंपश्चात्तापानुगतं, पकारस्य द्वित्वमार्षत्वात्, सोत्तरगुणं च गुरुपदिष्टप्रायश्चित्तचरणान्वितं, क्षिप्रं शीघ्रमुपशमयति निष्प्रतापं करोति क्षपयति वा श्रावकः, हुरित्यस्यात्रैवार्थत्वात् निष्प्रतापं करोत्येवेत्यर्थः, कमिव?, इत्याह-व्याधिमिव साध्यरोगमिव सुशिक्षितो वैद्य इति // 37 // दृष्टान्तान्तरमाह"जहा विसं कुछगयं, मंतमूसविसारया। विज्जा हणंति मंठेहिं, तो तं हवइ निव्विसं // 38 // " कण्ठ्या, नवरं (विज्जा इति) वैद्याः (तं ति) तत्पापं यद्यप्यसौ विषाऽऽर्तस्तेषां मन्त्राक्षराणां न तथाविधमर्थमवबुध्यते तथा-ऽप्यचिन्त्यो हिमणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव इति तदक्षरश्रवणेऽपि गुणः संपनीपद्यते॥३८|| दार्शन्तिकमाह"एवं अट्ठविहं कम्मं, रागदोससमज्जियं। आलोयंतो य निदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ॥३६॥" कण्ठ्या, नवरं सुशब्दः पूजार्थः स च "कयवयकम्मो" इत्यादिना पूर्वोक्तषट्स्थानयुक्तस्य भावश्रावकत्वस्यसूचकः, एनमेवार्थं सविशेषमाह"कयपावो विमणुस्सो, आलोइयनिंदिओ गुरुसगासे। होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभर व्व भारवहो // 40 // " सुबोधा / नवरं मनुष्यग्रहणमेतेषामेव प्रतिक्रमाहत्वख्यापनार्थम्, (आलोइअनिंदिओ त्ति) आलोचितनिन्दितः सम्यक्कृताऽऽलोचननिन्दाविधिरित्यर्थः, गुरुसकाशे इत्यनेन चाऽगुरोरगीतार्थाऽऽदेरन्तिके आत्मनैव वा क्रियमाणाया आलोचनायाः शुद्धभावो दर्शितः, (ओहरिअमरु व्व ति) अपहृतभार इवेति॥४०| संप्रति श्रावकस्य बह्वारम्भरतस्याप्यावश्यकेन दुःखान्तो भवतीति दर्शयितुमाह"आवस्सएण एए-ण सावओ जइ वि बहुरओ होइ। दुक्खाणमंतकिरियं, काही अचिरेण कालेण // 41 // " आवश्यकेनतेनेति षविधभावाऽऽवश्यकरूपेण, न तुदन्तधावनाऽऽदिना द्रव्याऽऽवश्यकेन श्रावको यद्यपि ब रजा बहुबध्य मानका बहुरतो वा विविधसावद्याऽऽरम्भाऽऽसक्तो भवतितथाऽपीत्यध्याहाराद्दुःखानां शारीरमानसानाम् (अंतकिरिय) अन्तक्रियां विनाशं करिष्यत्यचिरेण स्तोकेनैव कालेन / अत्र चान्तक्रियाया अनन्तरहेतुर्यथाख्यातचारित्रं तथाऽपि परम्परा-हेतुरिदमपि जायते सुदर्शनाऽऽदेरिवेति // 41 / / धo (सुदर्शनवृत्तम् 'काउस्सग्ग' शब्दे तृतीयभागे 427 पृष्ठे दर्शितम्) संप्रति विस्मृतातिचारं प्रतिक्रमितुमाह"आलोयणा बहुविहा,नय संभरिया पडिक्कमणकाले। मूलगुणउत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि // 42 // " कण्ठ्या, नवरं आलोचना गुरुभ्यो निजदोषकथनम् उपचारातत्कारणभूता प्रमादक्रियाऽप्यालोचना (पडिक्कमणकाले त्ति) आलोचनानिन्दागर्दाऽवसरे॥४२॥ एवं प्रतिक्रामको दुष्कृतनिन्दाऽऽदीन विधाय विनयमूलधर्माऽऽराधनाय कायेनाभ्युत्थितः "तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स त्ति' भणित्वा मङ्गलगर्भमिदमाह "अब्भुडिओ मि आरा-हणाइ विरओ विराहणाए अ। तिविहेण पडिकंतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ||3||" तस्य गुरुपाचे प्रतिपन्नस्य धर्मस्य श्रावकधर्मस्य केवलिप्रज्ञप्तस्य अभ्युत्थितोऽस्म्याराधनाय उद्यतोऽहं सम्यग् पालनार्थ , विरतश्च विराधनाया निवृत्तः खण्डनायाः त्रिविधेनेत्यादि सुगमम्॥४३॥ एवं भावजिनान्नत्वा सम्यक्त्वशुद्ध्यर्थं त्रिलोकगतस्थापनार्ह द्वन्दनार्थमाह"जावंति चेइयाई, उड्डे अ अहे अतिरिअलोए अ। सव्वाइँ ताईं वंदे, इह संतो तत्थ संताई॥५४॥" कण्ठ्या, नवरं(इह संतो त्ति) इह स्थितः। साम्प्रतं सर्वसाधुवन्दनायाऽऽह"जावंत के वि साहू, भरहेरवए महाविदेहे // सव्वेहि तेसिपणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं / / 5 / " यावन्तः केचित्साधवो जिनस्थविरकल्पिकाऽऽदिभेदभिन्नाः, उत्कर्षतो नवकोटिसहस्रसंख्याः, जघन्यतस्तु द्विकोटिसहस्रप्रमिताः, भरतैरावतमहाविदेहेषु चशब्दात्संहरणादिनाऽकर्मभूम्यादिषु च, सर्वेभ्यस्तेभ्यः प्रणतस्त्रिविधेनेत्यादि सुगमम् // 45|| एवमसौ प्रतिक्रामकःकृतसमस्तचैत्ययतिप्रणतिर्भविष्यत्कालेऽपि शुभभावमाशंसन्नाह"चिरसंचियपावपणा-सणीइभवसयसहस्समहणीए। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 317- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण चउवीसजिणविणिग्गय-कहाइ बोलंतु मे दिअहा॥४६॥" दीनमिवेति // 46 // कण्ठ्या, नवरं कथया तन्नोमोच्चारणतद्गुणोत्कीर्तनतच्चरित- साम्प्रतं प्रतिक्रमणाध्ययनमुपसहरन्नवससानमङ्गलप्रदर्शनार्थमाहवर्णनाऽऽदिकया वचनपद्धत्या, (बोलंतु त्ति) व्रजन्तु // 46 // "एवमहं आलोइय, निंदिय गरिहय दुगुंछिउं सम्म / सप्रति मङ्गलपूर्वक जन्मान्तरेऽपि समाधिबोध्याऽऽशंसामाह तिविहेण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं // 50 // " "मम मंगलमरहंता, सिद्धा साहू सुअंच धम्मो य। कण्ड्या / नवरं-(दुगुछिउं ति) जुगुत्सित्वाधिग मां पापकारिसम्मदिही देवा, दिंतु समाहिं च बोहिं च // 47 // " णमित्यादिना, सम्यगिति च सर्वत्र योज्यम् / इत्येवमल्परुचिसमम मङ्गलमर्हन्तः, सिद्धाः, साधवः, श्रुतं च अङ्गोपाङ्गाऽऽद्यागमः, त्वबोधनाय श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रसंक्षेपार्थोऽत्र लिखितो, विस्तरार्थस्तु धर्मश्चारिखाऽऽत्मकः, चशब्दाल्लोकोत्तमाश्च, शरणं चैते इति द्रष्टव्यम्। बृहदात्ततश्चूर्णितश्चावसेयः। "चत्तारि मंगल'' इत्यादी चत्वार्येव मङ्गलान्युक्तानि, अत्र तुधर्मान्तर्गत- अत्र च प्रसङ्गतोऽन्यान्यपि शेषसूत्राणि व्याख्यायन्ते - त्वेऽपि श्रुतस्य पृथग्रहणं ज्ञानक्रियाभ्यां समुदिताभ्यामेव मोक्ष इति "आयरिएँ उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलॅ गणे य। ज्ञापनार्थम् / तथा-सम्यग्दृष्टयोऽर्हत्पाक्षिका देवाश्च देव्यश्चेत्येकशेषाद्देवा जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि / / 1 / / " यश्वाम्बाप्रभृतयो ददतु प्रयच्छन्तु, समाधिं चित्तस्वास्थ्यं, बोधिं प्रेत्य आचार्य उपाध्याये शिष्ये साधर्मिके कुले गणे च ये (मे) मया केऽपि जिनधर्माभिरूपाम् / आह-ते देवाः समाधिदाने किं समर्थाः, न वा?, कषायाः कृताः सन्ति, तान् सर्वान् अहं त्रिविधेन मनोवाक्काययोगेन यद्यसमर्थास्तर्हि तत्प्रार्थनस्य वैयर्थ्यम्। यदि समर्थास्तर्हि दूरभव्याभ- क्षमयामि ||1 // व्येभ्यःकि न प्रयच्छन्ति? अथैवं मन्यते-योग्यानामेव ते समर्था "सव्वस्स समणसंघ-स्स भगवओ अंजलिं करिअ सीसे। नाऽयोग्यानां, ताह योग्यतैव प्रमाणं, किं तैरजागलस्तनकल्पैः? सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वरस अहयं पि॥२॥" अत्रोच्यते-सर्वत्र योग्यतैव प्रमाणं, परं न वयं विचाराक्षमनियतिवाद्या- सर्वस्य श्रमणसधस्य भगवतः अञ्जलिं कृत्वा शीर्षे सर्व क्षमयित्वा दिवटेकान्तवादिनः, किं तु जिनमतानुयायिनः। तच्च सर्वनयसमूहाऽऽ- क्षाम्यामि सर्वस्य च अहमपि // 2 // त्मकस्याद्वादमुद्रानतिभेदि, "सामग्री वै जनिका" इति वचनात् / "सव्वस्स जीवरासि-स्स भावओ धम्मनिहिअनिअचित्तो। तथाहि-घट निष्पती मृदो योग्यतायामपि कुलालचक्रचीवरदवर- सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि॥३॥" कदण्डाऽऽदयोऽपि तत्र सहकारिकारणम् / एवमिहापि जीवयोग्यतायां सर्वस्य जीवराशेर्भावतो धर्मे निहितं निजचित्तं येनस तथा ईदृशः सर्व सत्यामपि तथा तथा प्रत्यूहनिराकरणेन देवा अपि समाधिबोधिदाने क्षमयित्वा क्षाम्यामि सर्वस्य अहमपि।।ध०२अधि०। पाक्षिकप्रतिक्रमणे समर्था भवन्ति, मतार्याऽऽदेरिवेत्यतो न निरर्थका तत्-प्रार्थनेति॥४७॥ संबुद्धक्षामणाऽऽदौ कृते "इच्छकारि सुहपाखी सुखतपशरीरनिराबाधननु स्वीकृतव्रतस्य प्रतिक्रमण युक्तं, न त्वतिनां व्रतासत्त्वेनाऽ- सुखसंजमयात्रानिरवहो छो।" इत्यादिवचनं कथनीयंन वा? इति प्रश्रे, तिचाराऽसंभवादितिचेत्, मैवम्; यतो नातिचारेष्वेव प्रतिक्रमणं, किंतु उत्तरम्-तथापाक्षिकप्रतिक्रमणे संबृद्धक्षामणाऽऽदौ कृते "इच्छकारि चतुर्दा स्थानेषु इति / येषु चतुर्यु स्थानेषु प्रतिक्रमणं भवति तदुपद- सुहपाखी" इत्यादिपठनमधिकं संभाव्यते, सामाचार्यदावदर्शनात् 42 / शनायाह ही० 2 प्रका० / सद्दालपुत्रकुम्भकारकृतं प्रतिक्रमणसूत्रमिति प्रघोषः "पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अपडिक्रमण। सत्यो, न वा, कस्य कृतिर्वा सा? इति प्रश्रे, उत्तरम्-श्राद्धप्रतिक्रमणअस्सहहण अतहा, विवरीअपरूवणाएय॥४८॥" सूत्रमार्षम् इतिपञ्चाशकवृत्तौ प्रोक्तमस्ति, कुम्भकारकृतमिति प्रघोषस्तु प्रतिषिद्धानां सम्यक्त्वाणुव्रताऽऽदिमालिन्यहेतुशङ्कावधाऽऽदीनां तथ्येतर इति ज्ञायते 28 / ही०१ प्रका० द्वयोः श्राद्धयोः प्रतिक्रमणकरणे. कृत्यानां चाङ्गीकृत पूजाऽऽदिनियमानामकरणे अश्रद्धाने च करणसमयेऽथवा-सामायिके कृते सति एकस्य हस्तादपरेण चरवलके निगोदाऽऽदिविचारविप्रत्यये, तथा-विपरीतप्ररूपणायाम्-उन्मार्गदश- पातिते उभयोर्मध्ये कस्यापथिकी समायाति? कि मुभावपि नायाम् इयं हि चतुरन्तादभ्रभवभ्रमणहेतुर्मरीच्यादेरिव, तस्या प्रतिक्रामतः, एको वेति प्रश्रे, उत्तरम्द्वयोः श्राद्धयोः प्रतिक्रमणकरणाऽऽदौ धानाभोगाऽऽदिना कृतायां प्रतिक्रमण भवतीति।।४८|ध०। (श्रावकस्य सावधानतयकेन चरवलको गृहीतो भवति, अथ यदि द्वितीयहस्तलगनेन धर्मकथनेऽधिकारोऽस्ति? अथवा-नास्तीति प्रश्नोतरम्- 'धम्मकहा' हेतुना पतति तदा तस्यापथिकी समायाति, यदि च गृहीतोऽप्य शब्दे 2714 पृष्ठे गतम्) सावधानतयैव, तदोभयोरपीर्या-पथिकी समायातीति 1 // ही०४ साम्प्रतमनादिससारसागराऽऽवर्तान्तर्गतानांवानामन्योऽन्यं वैरसंभवात् प्रका०। तत्क्षमणायाऽऽह (26) विराधनायां प्रायश्चित्तानि"खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। जे णं पडिकमंतेइ वा वंदतेइ वा सज्झायं करेंतेइ वा मित्ती मे सव्वभूएस, वेरं मज्झ न केणइ॥४६॥" परिभमितेइ वा संचरंतेइ वा गएइ वा ठिएइ वा पइट्ठलग्गेइ क्षमयामि सर्वजीवाननन्तभवेष्वप्यज्ञानमोहाऽऽवृतेन या तेषां कृता वा उट्ठियलग्गेइ वा तेउकाएण वा फुसियलग्गे भवेज्जा, पीडा तयोरपगमाद् मर्षयामि, सर्वे जीवाः क्षाम्यन्तु मे दुश्चेष्टितम्, अत्र से णं आयंबिलं न संवरेज्जा तओ चउत्थं / (महा०) तेणं वा हेतुमाह-मैत्री मे सर्वभूतेषु, वैरं मम न केनचित्, कोऽर्थः?, मोक्षलाभ- गिलाणेणं वा जइणं कहिं वि के णइ कारणेणं जाएणं असई हेतुभिस्तान् सर्वान् स्वशक्त्या लम्भयामि, न च केषाञ्चिद्विघ्रकृतामपि गीयत्थगुरुणो अणणुन्नाएणं सहसा कयादी पइहपडिक्कमणं विधाते वर्तेऽहमिति / वैरं हि भूरिभवपरम्पराऽनुयायि कमठरूभूत्या- | कयं हवेज्जा, तओ मासं० जाव अवंदे चउमासे० जाव नूणं Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 318 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण वयं च जेणं पढमाए पोरिसीए अणइक्वंताए तइयाए पोरिसीए अइक्वंताए भत्तं वा पाणं वा पडिगाहेजा वा, परिभुजेज्जा वा, तस्स णं पुरिमटुं / महा०१चू०। "सव्वसो चउत्था' सर्वस्मिस्तु प्रतिक्रमणे अकृते चतुर्थम् / जीत. तथा प्रभातप्रतिक्रमणसमये प्रथमतः "कुसुमिणदुसुमिणओहडावणिय काउस्सग्ग' चतुर्लोकस्य मानं करोति, तदा "चंदेसु निम्मलयरा'' इति यावत् "सागर वरगंभीरा'' इति यावद्वेति। तथा-प्रभातप्रतिक्रमणे प्रथमतः "कुसुमिणदुसुमिणकाउस्सग्गं,' चैत्यवन्दनां च कृत्वा चत्वारि क्षमाश्रमणानि ददाति, ततः स्वाध्यायं करोत्युत स्वाध्यायं कृत्वा क्षमाश्रमणानि ददातीति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रभातप्रतिक्रमणसमये प्रथमतः "कुसुमिणदुसुमिणओहडावणियं काउस्सग्ग" चतुलॊकस्य मान करोति, "तदा चंदेसु निम्मलयरा'" इति यावत्सागरवरगम्भीरेति यावद्वेति / अत्र सामान्येन "चंदेसु निम्मलयरा'' इति यावत्करोति, यदा पुनः स्वप्ने तुर्यव्रतातिचारो जातो भवति, तदा नमस्कारमेकमधिकं चिन्तयतीति / / 2 / / तथा-प्रभातप्रतिक्रमणे प्रथमतः ''कुसुमिणदुसुमिणकाउस्सग्ग," चैत्यवन्दनां च कृत्वा चत्वारि क्षमाश्रमणानि ददाति, ततः स्वाध्यायं करोत्युत स्वाध्यायं कृत्वा क्षमाश्रमणानि ददातीति। अत्र प्रभातप्रतिक्रमणे प्रथमतश्चतुर्लोकरय मानं कायोत्सर्ग, चैत्यवन्दनां च कृत्वा चत्वारि क्षमाश्रमणानि च दत्वा क्षमाश्रमणयुगेन स्वाध्यायं च कृत्वा प्रतिक्रमणं करोति। यत उक्तम्- ''इरिया कुसुमिणुसग्गो, जिणमुणिवंदण तहेव सज्झाओ। सव्वस्स वि सक्कत्थउ, तिन्नि य उस्सग्ग कायव्वा / / 1 / '' एषा गाथा श्रीसोमसुन्दरसूरिकृतसामाचारीमध्ये वर्तते, तथा श्रीविजयदानसूरयोऽपीत्थमेव कृतवन्तस्तशिक्षया च वयमपि तथैव कुर्म इति स्वाध्यायानन्तरं चत्वारि क्षमाश्रमणानि देयानीति विधिः क्वापि ग्रन्थे वर्तते, तस्यापि प्रतिषेधो नारित, परं यथा वृद्धाः कृतबन्तस्तथैवेदानी कुर्म इति // 3 // ही०४ प्रका० / वर्षमध्ये कियन्ति प्रतिक्रमणानिचतुर्मासकं पूर्णिमायामभूत्तदा प्रतिक्रमणानि पञ्चविंशतिरष्टाविंशतिर्वावभूवुः, तथा तानि शास्त्राक्षरबलेन विधीयमानानि परम्परातो वा, शास्त्राक्षरबलेन चेत्तदा तदभिधानं प्रसाद्यमिति प्रश्रे, उत्तरम्-अत्र वर्षमध्ये प्रतिक्रमणानि पञ्चविंशतिरष्टाविंशतिर्वेति वापि ज्ञानं नास्ति, शास्त्रमध्ये तु दैवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकलक्षणानि पञ्च प्रतिक्रमणानि प्रतिपादितानि सन्तीति। 15 / ही० 4 प्रका० / रात्रौ ये सुखभक्षिकां भक्षयन्ति तेषां सान्ध्यप्राभातिकप्रतिक्रान्तिः शुद्धिमती, अन्यथा वा इति प्रश्रे, उत्तरम् -रात्रौ ये सुखभक्षिका, भक्षयन्तीत्यत्र "अविहिकया वरमकयं, उस्सुयवयणं कहति गीयत्था। पायच्छित्तं जम्हा, अकए गुरुअंकए लहुअं / / 1 / / " इति प्रतिक्रमणहेतुगर्भगाथाऽनुसारेण प्रतिक्रमणकरणमेव सुन्दरं प्रतिमाति 12 / ही० 3 प्रका० / पाक्षिक प्रतिक्रमणगताऽऽयः क्षामणावसरें "नित्थारगपारगा होह'' इति कथ्यते तदा श्रावकाऽऽदिभिरपि किमेतदेव कथनीयमुत-"इच्छामो अणुसद्धिं" इति तत्र श्रावकाऽऽदिभिः "इच्छामोअणुसट्टि" इत्येव कथनीयं, न तु "नित्थारगपारगा होह" इति 1 // तथा-पाक्षिकप्रतिक्रमणपर्यन्ते गाथार्थस्य शान्तिकथनाऽऽदेश | ददति इत्यादि। अत्र पाक्षिकप्रतिक्रमणशान्तेः कथयिता अप्रतश्चतुर्लोकस्य कार्योत्सर्ग च, तच्चाप्रकटमेकं च कथयिता शान्तिं कथयाति एतावतैवशुद्धति, द्वितीयवारं "पंचदसलोगस्स काउस्सग्गस्स" करने विशेषो ज्ञातो नास्तीति 1 / ही०४ प्रका०1 तथा-तैलाऽऽदिमानेनाऽ5देशप्रदान शुद्ध्यति, न वा? इति प्रश्रे, उत्तरम्-तथा-तैलाऽऽदिमानने प्रतिक्रमणाऽऽद्यादेशप्रदानं न सुविहिताऽऽचरितं. परं क्वापि तदभाटे जिनभवनाऽऽदिनिर्वाहासंभवेन निवारयितुमशक्यमिति 22 / ही० प्रका० / पाक्षिकाऽऽदिप्रतिक्रमणमध्ये चैत्यवन्दनादारभ्य किं सूत्र यावत्पञ्चेद्रियछिन्दनं निवार्यते 35 / पाक्षिकाऽऽदिप्रतिक्रमणे क्रियभार छिक्कासद्भावे कुतः स्थानात्किं स्थानं यावत्पुनः प्रतिक्रमणं क्रियते 35 इति प्रश्रे, उत्तरम्-पाक्षिकाऽऽदिप्रतिक्रमणमध्ये चैत्यवन्दनादारभद्र "इच्छामो अणुसट्टि" यावत्पञ्चेन्द्रियछिन्दनं निवार्यमाणं परम्पर दृश्यते, परं व्यक्ताक्षराणि नोपलभ्यन्ते 34 / पाक्षिकप्रतिक्रमणे पाक्षिकातिचाराऽऽलोचनादर्वाग्यदि छिक्का जायते तदा सत्यवसरे चैत्यवन्दन्गऽऽदि पुनः कर्तव्यमिति वृद्धसंप्रदायः॥३५।। ही०२ प्रका०। (30) प्रतिक्रमणफलम्पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? पडिक्कमणेणं वयच्छि दाइं पेहई, पिहियवयच्छिद्दे पुण जीवे निरूद्धासवे असवलचरित अट्ठसुपवयणमायासु उवउत्ते अपुहते सुप्पणिहिए विहरइ // 11 // हे भदन्त ! प्रतिक्रमेन जीवः किं जनयति ? गुरुराह-हे शिष्ट प्रतिक्रमणेन अपराधेभ्यः पश्चान्निवर्तनन व्रतच्छिद्राणि पिदधाति, व्रता प्राणातिपातविरमणाऽऽदाना छिद्राणि अतीचारान् स्थगयति सपदि. पिहितव्रतच्छिद्रः सन पुनर्जीवो निरुद्धाऽऽश्रवो भवति, निरुद्धाऽऽ पुनरशवलचारित्रोऽष्टसु प्रवचनमातृषु उपयुक्तः सन् समितिगुरि सावधानः सन् अपृथक् त्वः संयमयोगेभ्योऽभिन्नःसन् सुभ्रणिहिरू विहरति, सुप्रणिहितानि असन्मार्गात् निषेध्य सन्मार्ग व्यवस्थापितानन्द्रियाणि येन ससुप्रणिहितेन्द्रियः सन्मार्गप्रस्थापितेन्द्रियः साधुः स्वमा विहरतीत्यर्थः / 11 / / उत्त०२६ अ०। प्रतिक्रमणार्हप्रायश्चित्तभेदे : 1 उ० / आव० / आ० चू० / आवश्यकान्तर्गत स्खलननिन्दाप्रति पादकेऽध्ययनविशेषे, पा०। (31) श्राद्धाः प्रतिक्रमणं कुर्वाण वन्दरकदानावसरे किं मुखवस्त्रिका शुद्धभूमौ मुञ्चन्ति, किमुत पादपुञ्छनोद मुखवस्त्रिका मुक्त्वा वन्दनकाऽऽदि ददतीति प्रश्रे, उत्तरम्-प्रतिक्रम कुर्वाणाः श्राद्धा वन्दनकदानावसरे मुखवस्त्रिकां शुद्धभमौ रजोहरूप वा मुञ्चन्ति। नान्यत्रेति विधिरिति६७ / प्र० / सेन०१ उल्ला० : ता. गुरुपादुका प्रतिक्रमणाऽऽदिकं शुद्ध्यति, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्. केवलदेववन्दनं विना सर्व प्रतिक्रमणाऽऽदिकं शुद्ध्यतीति नवपादुकाष्पाऽऽदिभिरर्यत इति प्रतिक्रमणाऽऽदि न शुह्यतीति या पुष्पाऽऽधर्चितजिनप्रतिमानामग्रेऽपि प्रतिक्रमणाऽऽदिक्रिया शुद्ध्यमानत्वादिति / 44 प्र० / सेन० 2 उल्ला० / तथा-पाक्षिाप्रतिक्रमणमुखवस्त्रिकाप्रतिलेखनानन्तरं पौषधिकं विना प्रतिक्रमःसूत्राऽऽदेशो दत्तो शुद्ध्यति, न वेति प्रश्रे, उत्तरममुख्यवृत्त्या पौषधिकत दीयते, ईदृशं वृद्धवचोऽस्ति, परमेकान्तो ज्ञातो नास्तीति / 12: Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमण / सेन० 2 उल्ला० / तथा-पाक्षिकप्रतिक्रमणे क्षुत् कदा निवायते इतिप्रश्ने, उत्तरम्-चैत्यवन्दनाऽऽदित आरभ्य शान्तिं यावत् क्षुन्निवार्यत इतिपरम्परऽस्ति। 121 प्र० / सेन०२ उल्ला०ा तथा-सन्ध्याप्रतिक्रमणे एडवश्यकसूत्राणि कानीति प्रश्ने उत्तरम् - 'नमो अरिहंताणं' इत्यादि संपूर्णनमरकारः, "करेमि भंते ! सामाइअं' इत्यादितः "अप्पाण बोसिरामि इत्यन्तं प्रथम सामायिकाध्ययनम् १।"लोगस्सुज्जोयगरे' इत्यादितः- "सिद्धा सिद्धिं मम दिसतु" इत्यन्तं द्वितीयं चतुर्विंशतिस्तवाश्ययनम् 2 / ''इच्छामि खमासमणो ! वंदिउँ जावणिज्जाए निसिहीआए अगुजाणह मे मिउग्गह'' इत्यादि तृतीय वन्दनकाध्ययनम् ३६"चतारि मंगल० इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ.'' ''इच्छामि पडि." "इरिया-वहिआए." "इच्छामि पडिक्क." "पगामसिज्जाए." "इत्यादि चतुर्थं प्रतिक्रमणाध्ययनम् 4 / " " इच्छामि ठाउं काउसणं " तस्स उत्तरीकरणेणं." "अन्नत्थ'' "ऊससिएणं सव्वलोए अरिहंतचेइ-आणं " ''पुक्खरवरदीड्ढ०" "सिद्धाणं बुद्धाणं" ''वेयाकनगराणं " इच्छामि खमासमणो! अभुट्टिओ मि अभिंतरदेवसिअं खामेड" "इच्छामि खमासमणो ! पिअंच मे जं भे" इत्यादि पञ्चम कायोत्सगोध्ययनम् 5 / " उग्गए सूरे नमुक्कारसहिअं पच्चक्खामि" इत्यादीनि साण्यपि प्रत्याख्यानसूत्राणि षष्ठं प्रत्याख्यानाध्ययनं च 6 / इमानि प्रतिक्रमणे षडावश्यकसूत्राणि परम्परया ज्ञेयानीति। 51 प्र०। सेन० 3 उल्ला० / तथा-प्रतिक्रमण-हेतुगर्भे रात्रिकप्रतिक्रमणविधौ रात्रिकप्रायश्चित्त-कायोत्सर्गस्ततः चैत्यवन्दनं, ततः स्वाध्याय एव पश्चात्प्रति-क्रमणाऽऽदौ चत्वारि क्षमाश्रमणान्युक्तानि सन्तीति, एवं तु न क्रियते, तत्कि बीजमिति प्रश्ने, उत्तरम्-यतिदिनचर्याऽऽदौ स्वाध्यायादनु चत्वारि क्षमाश्रमणानि प्रोक्तानि, श्राद्धदिनकृत्यवृत्तिवन्दारुवृत्त्यादौ तु स्वाध्यायादनु प्रतिक्रमणस्थापनमुक्तं, ततस्तानि स्वाध्यायं कुर्वन् ज्ञायतेऽयं च विधिः-परम्परया बाहुल्येन क्रियमाणोऽस्ति, स्गामाचारीविशेषेण चोभयथाऽपि विरुद्धमेवेति / 162 प्र०। सेन०३ उल्ला तथा-55-त्मीयप्रति-क्रमणविधिः संपूर्णः क्व मूलसूत्रेऽस्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-आवश्य-कवृत्त्यावश्यकचूयादौ कियान् विधिरुपलभ्यते, कियास्तु सामाचार्यादाविति। 206 प्र० / सेन०३ उल्ला०॥ तथा-सांवत्सरिकप्रतिक्रमणकायोत्सर्गे चत्वारिंशल्लोकोद्योतकरान् कथयित्वा तत्प्रान्ते एको नमस्कारो वक्तव्यः, पश्चात्कायोत्सर्गः पाराणीयः कश्चिन्च, प्रान्ते नमस्कारं वक्तव्यं, न ब्रूते तेन कि प्रमाणमिति प्रश्ने, उत्तरम्-सांवत्सरिकप्रतिक्रमणे सनमस्कारश्चत्वारिंशत्ल्लोकोद्योतकरकायोत्सर्गः प्रतिक्रमणहेतुगर्भाऽऽदावुक्तोऽस्ति, पारम्पर्येणाऽपि तथैव क्रियते इति / 285 प्र० / सेन०३ उल्ला० / तथापाश्चात्यरात्री साधुसमीपे समागत्य यत् श्राद्धाः प्रतिक्रमणं कुर्वाणा दृश्यन्ते, तस्याक्षराणि कुत्र ग्रन्थे सन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-सामाचार्यनुसारेण यथा पौषधकरणाय पाश्चात्यरात्रौ समीपसमागमनं दृश्यते, तथा प्रतिक्रमणाकृतेऽपि तदयुक्तिमद् ज्ञायत इति 311 प्र०। सेन०३ उल्ला०। तथा-पाक्षिके प्रतिक्रान्तौ श्राद्धे रुच्यमानास्तपआचाराऽऽधतीचाराः साधुभिः श्रूयन्ते केवलसाधवश्व प्रतिक्रान्तास्तानतिचारान् कथयन्ति, न वा, साम्प्रतं तु न केचित्कथयन्तीति प्रश्ने, उत्तरम् केवलसाधुभिः पाक्षिकप्रतिक्रमणे क्रियमाणे तपआचाराऽऽद्यतीचारा यद्यायान्ति तदा स्वयं कथनीयास्तत्प्रवृत्तिरपि दृष्टाऽस्तीति / 332 प्र० / सेन०३ उल्ला० / तथा"देवसिअराइअपक्खिए त्ति" कायोत्सर्गनियुक्तिगतचतुर्नवतितमगाथार्थो हारिभद्रयां वृत्तौ व्याख्यातोऽस्ति, तत्रैकैकस्मिन् प्रतिक्रमणे त्रयो गमाः प्रतिपादिताः सन्ति, ते पञ्चस्वपि प्रतिक्रमणेषु यत् ख्यातं यथा समासा गमा भवन्ति तथा व्यक्ताः प्रसाद्या इति प्रश्ने, उत्तरम-दैवसिकाऽऽदिषु पञ्चसु प्रतिक्रमणेषु प्रारम्भानन्तरं यत्प्रथमम्"करेमि भंते!'' इत्याधुचारणं स प्रथमगमप्रारम्भस्तदनुप्रतिक्रमणसूत्रपाठनावसर, यत् ' करेमि भंते !" इत्याधुच्चारणम्, स द्वितीयागमप्रारम्भस्तस्योचारादर्वाक प्रथमगमस्य समाप्तिः, तथा तृतीयवेलायां यत् " करेमि भते!" इत्याधुच्चारण स तृतीयगमस्य प्रारम्भस्तस्य पूर्व तु द्वितीयगमस्य समाप्तिः, तृतीयगमसमाप्तिस्तु तत्तत्प्रतिक्रमणसमाप्ति यावदिति श्रीआवश्यकबृहदृत्त्यनुसारेणावसीयते इति।३८१ प्र०।सेन० 3 उल्ला० 1 तथा-संध्याप्रतिक्रमणवत्प्रातः प्रतिक्रमणे श्राद्धानां प्रतिक्रमणसूत्राऽऽदेशो न दीयते, तत्र को हेतुरिति प्रश्ने, उत्तरम- प्रातः प्रतिक्रमणं वाढस्वरेण न कर्त्तव्यमित्यागमीया रीतिः, श्राद्धानामादेशदाने तुते प्रतिक्रमणसूत्रश्रावणार्थ वाढस्वरेण कथयन्तीति तद्विलोपः स्यादिति प्रातः प्रतिक्रमणाऽऽदेशो न दीयते इति 366 प्र० / सेन०३ उल्ला० / तथा-खाद्यरतनिकाऽऽदीनां प्रतिक्रमणकरणोदीरणा क्रियते, त्रिवारं सामायिकाऽऽदिदण्डकं चोच्चार्यते तद्युक्तमयुक्तं वेति प्रश्ने, उत्तरम्खाद्यस्तनिकाऽऽदीनां प्रतिक्रमणकरणोदीरणाकरणं न युक्तं, यदि चते स्वयं प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति पौषधाऽऽदिदण्डकं त्रिवारमुच्चरन्ति तदा द्रव्यक्षेत्रकालाभावानुसारेणानु-कूलाऽऽदिगुणसंभवः स्यात्तदोच्चार्यते, यस्माच्छास्त्रेऽप्येवं दृश्यते-"तम्हा सव्वाणुन्ना. सव्वनिसेही अपवयणे नत्थि।" इति। 421 प्र०। सेन०३ उल्ला०ा तथा-खाद्यमण्डल्या प्रतिक्रमणं कुर्वन्ति तत्कथितं प्रतिक्रमणसूत्रं श्राद्धानां स्तवनाऽऽदिकं यतिनां च शुद्ध्यति, न वा, तथा-उपवस्त्राऽऽदिप्रत्याख्याने ये कसेल्लकपानीयं पिबन्ति तेषामुपवस्त्राऽऽदिकं कार्यते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-द्रव्यक्षेत्रकालभावानुसारेण प्रश्नोत्तरवदनुसंधेया इति 422 प्र०। सेन०३ उल्ला तथा-प्रोञ्छनकस्योपरि स्थित्वा प्रतिक्रमणं कृतं शुद्धयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-तदुपरि कृतं न शुद्धयतीति प्रतिक्रमणसूत्राऽऽदिकथनवेलायां तु तत्रोपवेष्टव्यमिति / 487 प्र० / सेन० 3 उल्ला०ा तथा-पदस्थं विना स्थापनाग्रे प्रतिक्रमणं क्रियते तदा क्षामणकविधिः कथमिति प्रश्ने, उत्तरम्-स्थापनाग्रे प्रतिक्रमणकरणे प्रथम स्थापनाऽऽचार्यस्य पश्चादृद्धानुक्रमेण यतिद्वयस्य चतुष्कस्य षट्कस्य च क्षामणकं क्रियते, यति विना स्थापनाया एवेति / 55 प्र० / सेन०४ उल्ला०ा तथा-द्वाविंशतितीर्थकरवारके "कारणजाए पडिक्कमणं" इत्युक्तमस्ति तत्पञ्चानां प्रतिक्रमणाना मध्ये किं नामकमिति प्रश्ने, उत्तरम्- "कारणजाए पडिक्कमणं' एतत्पाक्षिकाऽऽद्याश्रित्य ग्राह्यम, उभयकालं प्रतिक्रमणं तु सर्वेषां भवतीति बोध्यम्। 63 प्र०। सेन०४ उल्ला०। तथा-कालिकसूरिभिः पाक्षिकदिने चतुर्मासकमानीतं तत्र प्रतिक्रमणानि न्यूनानि भवन्ति तत्कथमिति प्रश्ने, उत्तरम् प्रतिक्रमणानां न्यूनत्वेऽधिकत्वे वानकश्चिद्विशेषो, यतः पूर्वाऽऽ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमण 320 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिक्कमणारिह चार्याणामाचरणमेवात्र प्रमाणं, यथा कल्पसूत्रस्य श्रावणं श्राद्धानां पूर्वाचार्याऽऽचरणयैव क्रियते इति / 111 प्र० / सेन० 4 उल्ला० / संध्याप्रतिक्रमणे सामायिकोचारानन्तरं स्वाध्यायनमस्कारत्रयं कथयित्वा वन्दनकप्रत्याख्यानमुखवस्त्रिका प्रतिलिख्यते, सा क्षमाश्रमणं दत्त्वा प्रतिलिख्यते, किं वा क्षमाश्रमणं विना ? तथा सा फि कथयित्वा प्रतिलिख्यते इति प्रश्ने, उत्तरम् सामायिकं कृत्वा "बिसणि संदिसायूँ " प्रमुखक्षमाश्रमणचतुष्टयं दत्त्वा नमस्कारत्रयं च कथयित्वा क्षमाश्रमणपूर्वकम् "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! मुहपत्ति पडिलेहुं" इत्यादेशपूर्व मुखवस्त्रिका प्रतिलिख्य वन्दनकद्वयं च दत्त्वा प्रत्याख्यान कर्तव्यमिति। 161 प्र० / सेन० 4 उल्ला० / विषयसूची(१) प्रतिक्रमण-प्रतिक्रामक प्रतिक्रमयितव्यसिद्धिः / (2) आश्रवद्वार-मिथ्यात्व-कषाय-योग-भावभेदात् प्रतिक्रमणस्य पञ्चविधत्वम्। (3) उचार-प्रस्रवण-इत्वर-यावत्कथिकाऽऽदिभेदेन षनिधत्वम्। देवसिकाऽऽदिभेदेन प्रतिक्रमणनिरूपणम्। (5) प्रतिक्रमणनिमित्तम् / (6) प्रतिक्रमणविधिप्रकारः / (7) प्रतिक्रमणसूत्रम्। (8) प्रतिक्रमणनिर्वचनविभागनिर्वचनम्। (6) अत्रैव प्रायश्चित्तम्। (10) त्वग्वर्तनस्थानातिचारप्रतिक्रमणम्। (11) तत्र कुक्कुटिदृष्टान्तः। (12) त्रिषष्ट्यधिकपञ्चशतीमितजीवाना मिथ्या दुष्कृतं दीयते, तद्भेदनिरूपणम्। (13) गोचरातिचारप्रतिक्रमणप्रतिपादनम् / (14) स्वाध्यायाऽऽद्यतीचारप्रतिक्रमणप्ररूपणम् / (15) तत्र प्रतिक्रमणभेदख्यापनम्। (16) रात्रिकप्रतिकमणविधिः / (17) पाक्षिकाऽऽदिषु प्रतिक्रमणम्। (18) चातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणक्रमः। (16) अत्र पूर्वाऽऽचार्यप्रणीतगाथाः। (20) पक्षान्ताऽऽदिषु प्रतिक्रमणं कर्तव्यम्। (21) आवश्यकचूर्ण्यभिप्रायेणपाक्षिकाऽऽदिप्रतिक्रमणविधिप्रति पादनम्। (22) पाक्षिकं चतुर्दश्यामेव। (23) महाव्रतोचारणा। (24) कालिकप्राणातिपातविरतिप्रतिपादनम्। (25) आशातनावर्जनतो महाव्रतलक्षणम्। (26) शेषप्रतिक्रमणविधिः। (27) श्रावकप्रतिक्रमणम्। (28) कृतसामायिकश्रावकप्रतिक्रमणविधिः। (26) विराधनायां प्रायश्चित्तानि / (30) प्रतिक्रमणफलम्। (31) प्रकीर्णकविषयाः। पडिक्कमणारिह नं० (प्रतिक्रमणाह) प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृत तदर्हम् / स्था० 10 ठा० / व्य० / प्रतिक्रमणं दोषात प्रतिनिवत. नमपुनःकरणतया मिथ्यादुष्कृतप्रदानमित्यर्थः / तदहं प्रायश्चित्तमरि प्रतिक्रमणम् / किमुक्तं भवति? -प्रायश्चित्तं मिथ्यादुष्कृतमात्रेणैट शुद्धिमासादयति, न च गुरुसमक्षमालोच्यते / यथा-सहसाऽनुपयोगतः श्लेष्माऽऽदिप्रक्षेपादुपजातं प्रायश्चित्तम् / तथाहि-सहसाऽनुपयुक्त याद श्लेष्माऽऽदि प्रक्षिप्तं भवति / न च हिंसाऽऽदिकं दोषमापनस्ता, गुरुसमक्षमालोचनामन्तरेणाऽपि मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेण शुक्ष्यति तत्प्रतिक्रमणार्हत्वात् प्रतिक्रमणम्। व्य०१ उ०। प्रव०। जीत०। इदानीं प्रतिक्रमणामभिधित्सुराहगुत्तीसु य समितीसु य, पडिरूवजोगें तहा पसत्थे य वइक्कमे अणाभोगे, पायच्छित्तं पडिक्कमणं // 6 // गुप्तयस्तिस्रः / तद्यथा-मनोगुप्तिः, वचनगुप्तिः, कायगुप्तिः / तन्न समितयः पञ्च / तद्यथा-ईर्यासमितिः, भाषासमितिः, आदानभाण्डमा:निक्षेपणासमितिः, उचारप्रश्रवणखेलसिधाणजल्लपारिष्ठापनिकसमितिश्च / एतासु च सहसाकारतोऽनाभोगतो वा कथमपि प्रमादे सती. वाक्यशेषः / प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षणम् / इयम् भावना-सहसाकारतोऽनाभोगतो वा यदि मनसा दुश्चिन्तितं, तथा-दच दुर्भाषितं, कायेन दुश्चेष्टितं, तथा-ईर्यायां यदि कथां कथयन् ब्रजे भाषायामपि यदि गृह स्थभाषया ढड्डरस्वरेण वा भाषेत, एषणा भक्तपानगवेषणवेलायामनुपयुक्तो भाण्डोपकरणस्याऽदाने निक्षेपेट प्रमार्जयिता प्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले उच्चाराऽऽदीनां परिष्टापयिताम: हिंसादोषमापन्नः / उपलक्षणमेतत्, तेन यदि कन्दर्पो वा हासोट स्त्रीभक्तचौरजनपदकथावा, तथा-क्रोधमानमायालोभेषु गमनं, विका वा शब्दस्पर्शरसरूपगन्धलक्षणेष्वनुषङ्गः, सहसानाभोगतो वा कृ स्यात्, तत एतेषु सर्वेषु स्थानेषु मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षणं पायकिनमिति / तथा-प्रतिरूपयोगे प्रतिरूपविनयाऽऽत्मके व्यापार तथा प्रशमन यो यत्र करणीयो व्यापारः स तत्र प्रशस्तः, "इच्छामिच्छा' इत्यादि स्तस्मिन्नपि वा क्रियमाणे प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमणम् / इह प्रतिरूपगृह ज्ञानाऽऽदिविनयोपलक्षणम् / ततोऽयमर्थ:- ज्ञानदर्शनचारित्रप्रति रूपलक्षणप्रकारविनयाकरणे "इच्छा-मिच्छा तथाकारा'' दि. प्रशस्तयोगाकरणे उपलक्षणमेतत्, आचार्याऽऽदिषु मनसा प्रद्वेष'ऽऽदिकरणे वाचा अन्तरभाषाऽऽदिकृतौ कायेन पुरोगमनाऽऽदौ प्रतिक्रम प्रायश्चित्तम् / तथा-उत्तरगुणप्रतिसेवनायाम् "बइझम'' इति मर्यादकथनं, तेनातिक्रमे च प्राग्व्याख्यातस्वरूपे, तथा-अनाभोगादकन्दप्रतिसेवने मिथ्यादुष्कृतप्रदानाऽऽत्मकं, प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तम् / ई गाथासमासार्थः / / 60 // व्यासार्थ तु भाष्यकृद्यचिख्यासुः प्रथमतो ''गुत्तीसु य समिईसुय इति व्याख्यानयतिकेवलमेव अगुत्तो, सहसाऽणाभोगओ व अप्पहिंसा। तहियं तु पडिक्कमणं, आउड्डि तवो न वा दाणं // 61 / / एवकारो भिन्नक मः, अगुप्त एव गुप्तिरहित एव, 'के बलम Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्कमणारिह 321 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिग्गहेत्ता उपलक्षगमेतत्. तेन रामितिरहित एव केवलमित्यपि द्रष्टव्यम् / मिथ्यादुष्कृतं द्रष्टव्यम्।। वेदलग्रहणमगुप्तत्वमसमितत्वं चैक केवलं, न तु गुप्तत्वासमितत्वप्रत्ययं संप्रति यद् मूलगाथायाम-"अतिक्कमे अणाभोगे" इत्युपन्यस्तं, प्राणिव्यापादनम्मपन्न इति प्रतिपादनार्थम् / तथा चाऽऽह-[अप्पहिंसा | तद्व्याख्यानयन्नाहअल्पशब्दोऽभाववाची / अल्पा नैव काचन प्राणिनो हिंसा, भवेदिति अवरोहँ अतिकमणे, वइक्कमे चेव तह अणाभोगा। शेयः / कथमगुप्तोऽसमितो वेत्यत आह-पसहसाब पदैकदेशेपदसमुदा- भयमाणे य अकिच्चं, पायच्छित्तं पडिक्कमणं ||16|| योपचारात् सहसाकारोऽनाभोगतो वा / तत्र सहसाकारो नाम-''पुव्व अपराधे उत्तरगुणप्रतिसेवनरूपे अतिक्रमणे, तथा व्यतिक्रमे च, तथा अपासिजग छूते पाए कुलिंगयं पासे / न य तरइ नियत्तेउं, जोगं अनाभोगतोऽकृत्यमिति मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनालक्षणं भजमाने सहसःकरणभयं / / 1 / / " इत्येवरूपः / अनाभोगो विस्मृतिः। (तहियं तु प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृत प्रायश्चित्तम् / तदेवमुक्तं प्रतिक्रमणार्ह पडिङमणमिते) तत्र सहसा-कारतोऽनाभोगतो वा केवल एवागुप्तत्वे प्रायश्चित्तम्। व्य०१ उ०। स्था०। ग०। असमितत्वे च सति प्रायश्चित्तं 'पडिक्कमणं', यदि पुनः (आयट्टि त्ति) / पडिक्कमिउं अव्य० (प्रतिक्रमितुम्) प्रतीपं क्रमितुमित्यर्थे , "इच्छामि उपेत्य अगुप्तत्यमसमितत्वं वा करोति तदा प्रायश्चित्तं तपोऽर्ह, नवा दान, | पडिक्कमिउं।' ध०२ अधि०। तपरु इति गम्यते। कथमदानमिति भावत उच्यते-यदि स्थविरकल्पिका पडिक्कमित्तए अव्य० (प्रतिक्रान्तुम्) प्रतिक्रमणं कर्तुमित्यर्थे, स्था०२ उमेत्यागुप्तत्दमतमितत्वं वा मनसा समापन्नास्ततस्तपोऽर्ह प्रायश्चित्तं तेषां | टा० 1 उ०। नभवति: गच्छनिर्गतानां तुमनसाऽप्यापन्नानां चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमिति। पडिक्कमित्ता अव्य० (प्रतिक्रम्य) प्रतिक्रमणं कृत्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु० तदेवं गुप्तिषु समितिषु वेति व्याख्यातम्॥६१॥ ३चू०॥ इदानों प्रतिरूपयोगपदव्याख्यानार्थमाह पडिक्कमियव्व त्रि० (प्रतिक्रान्तव्य) मिथ्यादुष्कृतदानेन पापान्निवर्तिपडिरूवग्गहणेणं, विणओ खलु सूइओ चउविगप्पो। तव्ये, आ०म०१ अ०। नाणे दंसणे चरणे, पडिरूवचउत्थओ होति // 62 / / पडिक्खर पु० (देशी०) कूरे, दे०ना०६ वर्ग 25 गाथा। प्रतिस्पशब्दोपादानेन चतुर्विकल्पः चतुष्प्रकारः खलु विनयः सूचितः। / पडिक्खलण न० (प्रतिस्खलन) स्थित्युष्टम्भकाभावात् पतने, आ०म० चतुष्प्रकारतामेव दर्शयति-ज्ञाने ज्ञानविषयः, दर्शने दर्शनविषयः, चरणे १अ०। चरणविषयः, चतुर्थः प्रतिरूपको विनयो भवति। व्य०१ उ०। पडिखंध पुं०न० (देशी) जलवहने, जलवाहे च / देवना०६ वर्ग 28 - संग्रति "गुतीसु य समिईसु य' इत्यादिगाथायां यदुक्तम् गाथा। "पसत्थेय'' इति, तत्र प्रशस्तग्रहणव्यवच्छेद्यं दर्शयति पडिखंधी स्त्री० (देशी) जलवहने, जलवाहे च / देना०६ वर्ग 28 तत्थ उ पसत्थगहणं, परिपिट्टणछेज्जमाइ वारेइ। गाथा। ओसन्नगिहत्थाण य, उट्ठाणाई य पुवुत्तो // 67|| पडिगमण न० (प्रतिगमन) व्रतभञ्जने, व्रतमोक्षे, व्य०१० उ०। 'जोरे तहा पसत्थे य' इत्यत्र यत्प्रशस्तग्रहणं कृतं तत् अप्रशस्त- | पडिगय त्रि० (प्रतिगत) यत आगतस्तत्र गते, सू० प्र० 1 पाहु० 1 योगपरिपिट्टनच्छेटाऽऽदिकं वारयति निराकरोति, नतदकरणे प्रतिक्रमण पाहु०पाहु०। रा०। स्वस्थानं गते, भ० १श०१ उ०। प्रायश्चित्तं नवतीति भावः / तस्याप्रशस्तत्वेन तत्करणस्यैव प्रायश्चित्त- पडिग्गह पुं० (पतद्ग्रह) आचेलकाऽऽधारे, है.। पतभक्तंपानंवा गृह्णाति विषयत्वात् तथा ये अवसन्नानाम्, उपलक्षणमेतत्, पार्श्वस्थकुशीला- इति पतद्ग्रहः / लोहाऽऽदित्वादच् प्रत्ययः / पात्रे, दशा० 10 अ०। दीनां च, तथा-गृहस्थानां, पूर्वोक्ता उत्थानाऽऽदयोऽभ्युत्थानाञ्ज- कल्प० / भ० / प्रश्न० 1 पा०। आचा० / भाण्डे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। ल्यासनप्रदानाऽऽदयस्तानपि वारयति, तेषामपि तान् प्रति अप्रश- बृ०। औ० / प्रव० / नि०चू० / दृष्टिवादस्य सिद्धश्रेणिकापरिकर्मभेदे, स्तत्वात्। स०१२ अङ्ग / व्य०। (पात्राधिकारः सर्वोऽपि पत्त' शब्देवक्ष्यते) पतद् अत्रैव प्रायश्चित्तयोजनमाह ग्रह इव पतद्ग्रहः / संक्रम्यमाणप्रकृत्याधारे, क०प्र०। जो जत्थ उ करणिज्जो, उट्ठाणाई उ अकरणे तस्स। परिणमई जीसे तं, पर्गइऐं पडिग्गहो एसा। (2) होइ पडिक्कमियव्वं, एमेव य वाऐं माणसिए|१८|| यस्यां प्रकृतौ आधारभूतायां तत् प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं परिणमयति यो योग उत्थानाऽऽदिरभ्युत्थानाञ्जलिप्रदानाऽऽदिको यत्र आचार्या- आधारभूतप्रकृतिरूपतामापादयति, एषा प्रकृतिराधारभूता पतद्ग्रह ऽऽदिविषये करणीय उक्तस्तस्य तत्राकरणे प्रतिक्रमितव्यं भवति, इत्युच्यते॥२।। क० प्र०२ प्रक०। पं० सं०। मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चित्तं भवतीति भावः / तदेव तत्कायिकप्रतिरूप- *प्रतिग्रह पुं० प्रतिग्रहपतग्रही पर्यायौ। है। योगविषये उक्तमेव, अनेनैव प्रकारेण वाचिके मानसिकेऽपियोग प्रतिरूपे पडिग्गहधारि(ण) त्रि० (प्रतिग्रहधारिन्) पात्रधारिणि स्थविरकल्पिवक्तव्यम् / यथा-वाचिको मानसिकोऽपि यः प्रतिरूपयोगो यथा यत्र | काऽऽदौ,कल्प०३ अधि०६ क्षण। आचा०। करणीय उक्तस्तस्य तथा तत्राकरणे मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चित्तमिति।। पडिग्गहेत्ता अव्य० (परिगृह्य) स्वीकृत्येत्यर्थे, "पिंडवायं पडिग्गहेत्ता।" चशब्दोऽनुक्तसमुचयार्थः / तेन इच्छामीत्यादिप्रशस्तयोगाकरणेऽपि | आचा०२ श्रु०१ चू०१अ०३ उ०। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिघ 322 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिणिम पडिघ त्रि० (प्रतिघ) प्रतिहते. अनु० / पडिच्छमाण त्रि० (प्रतीच्छत्) गृह्णाति, कल्प० 1 अधि० 5 क्ष पडिघात पुं० (प्रतिघात) निराकरणे, बृ० 3 उ० / स्था०। प्रश्न०। सेवकाऽऽदिभिहियति, कल्प० 1 अधि०५ क्षण। पडिचंद पुं० (प्रतिघन्द्र) उत्पाताऽऽदिसूचके द्वितीये चन्द्रे, अनु०। भ०। | पडिच्छयण न० (प्रतिच्छदन) आच्छादने, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। जी०। पडिच्छयपडिच्छय पुं० (प्रतीच्छकप्रतीच्छक) प्रतीच्छकणी पडिचक्क न० (प्रतिचक्र) अनुरूपे चक्रे, समुदाये, नं० / प्रव०। प्रतीच्छके, नि०चू०११ उ०। 'पडिच्छगस्स जो पुणो अण्णो पडि पडिचरग पुं० (प्रतिचरक) हारिके, ये परराष्ट्राणि स्वयं प्रच्छन्नचारितया सो पडिच्छगपडिच्छगो भण्णति।" नि०चू०११ उ० / (अत्र ध्यास गवेषयन्ति। बृ०१ उ०३प्रक०।। 'पडिच्छग' शब्देऽनुपदमेव गता) पडिचरणा स्त्री० (प्रतिचरणा) प्रतिक्रमणभेदे, आव० 4 अ०। पडिच्छायण न० (प्रतिच्छादन) गुह्यप्रदेशस्य प्रच्छादने, आचा-१५ (अस्याः सर्वा वक्तव्यता पडियरणा' शब्दे वक्ष्यते) 8 अ०७ उ०। पडिचरिय अव्य० (प्रतिचर्य) विधिनाऽऽराध्येत्यर्थे, 'गुरुमिह सययं पडिच्छिआ स्त्री० (देशी) प्रतीहारिणि, चिरप्रसूतायामपि / देवनः पडिचरिय मुणी, जिणमयनिउणे।" दश०६ अ०३ उ०। वर्ग 21 गाथा। पडिचार पुं० (प्रतिचार) चारो ज्योतिश्चारस्तद् विज्ञानं प्रतिचारः। पंडिच्छिऊण अव्य० (प्रतीच्छ्य) गृहीत्वेत्यर्थे, "सुद्धं परि-च्छिक प्रतिकूलश्चारो ग्रहाणां वक्रागमनाऽऽदिस्तत्परिज्ञानम् / अथवा- अपरिच्छेए।" नि०चू०२० उ०। प्रतिचरणं प्रतिचारो रोगिणः प्रतीकारकरणम् / जं०२ वक्ष। पडिच्छिय त्रि०(प्रतीष्ट) पुनःपुनरिष्ट भावतो वा प्रतिपन्ने,भ००० द्विसप्ततिकलास्वेकोनपञ्चाशत्तमकलायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। / उ०। पतत्येव गृहीते, कल्प०१ अधि०१क्षण। पडिचो अणा स्त्री० (प्रतिचोदना) प्रतिकूला चोदना प्रोत्साहना * प्रतीप्सित त्रि०(गृहीत), "विमणेण पडिच्छिया " देश० 5 प्रतिचोदना / भ०१श०१ उ०। पुनः पुनः स्खलितस्य निष्ठुर शिक्षापणे, उ०"आयरिओ भवउ तेहिं पडिच्छिउं।" आ०म० अ०। व्य० 4 उ० / असकृत्खलिताऽऽदौ धिक् ते जन्मेत्यादिनिष्टुरवाक्यैर्गाढ- * प्रतीच्छित त्रि० स्वीकृते, व्य० 6 उ०। तरप्रेरणायाम, ध०२ अधि०। पडिजागर पुं० (प्रतिजागर) अनुपालने, आचा०१ श्रु० 2 अ० 12H पडिचोइय त्रि० (प्रतिचोदित) तथैव पुनः पुनः प्रेरिते, पा० / धा पुनः जागरस्य प्रतिनिधिः प्रत्यवेक्षणाय गृहमवेक्षस्वेति नियोगे, वाच० पुनरेव कुर्वित्येवमभिहिते, आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। पडिजागरग पु० (प्रतिजागरक) पियधम्मो पियवादी, पियार पडिचोएत्ता त्रि० (प्रतिचोदयितृ) उपदेष्टरि, स्था०३ ठा०३ उ०। अप्पकोउहल्लोय। अज्ज गिलाणियं खलु पडिजग्गति एरिसो साहू पडिच्छअपुं० (देशी) समये, दे०ना०६ वर्ग 16 गाथा। इत्येवलक्षणलक्षिते (बृ०३ उ०) साधुविशेषे, स्था० 4 टा०३९ पडिच्छंद पुं० (देशी) मुखे, देवना० 6 वर्ग 24 गाथा। आ०म०। पडिच्छग त्रि० (प्रतीच्छक) गच्छान्तरादागत्य सूत्रार्थस्य वा प्रतीच्छनं | पडिजागरण न० (प्रतिजागरण) जागरणकरणे, “पडिजागरणं उन्न प्रतीच्छा, तया चरति प्रतीच्छकः / व्य०१ उ०। परगणवर्तिनि सूत्रार्थत- कालम्मिा" व्य०६उ०। दुभयग्राहके, व्य०३ उ०।। पडिजागरमाण त्रि० (प्रतिजागृत्) अनुपालयति. भ०१२ 2013H तं पुण पडिच्छमाणो, पडिच्छगो तस्स जो पुणो मूला। स्त्रियाम् “पडिजागरमाणी।" भ०११ 2011 उ०। गिण्हति एगंतरितो, पडिच्छगपडिच्छगो सो उ॥४३८|| पडिजायणा स्त्री० (प्रतियातना) प्राप्तानां चाधिसहने, सूत्र०१४ तेणस्स, तेणतेणस्सवा जो पडिच्छति सपडिच्छगो।पडिच्छगस्स जो | अ०१उ०। पुणो अन्नो पडिच्छति सपडिच्छगपङिच्छगो भन्नति। इह संतरमेव एगतरं / पडिणिअंसण (देशी) नैशिके परिधेयवस्त्रे, दे०ना०६ वर्ग 36 गाड नन्न त्ति अन्ने भणति प गेण्हति एगंतरिउ ति ब तेणस्स पडिच्छमाणो पडिणिभ त्रि० (प्रतिनिभ) सदृशे, यत्रोपन्यासनये वादिनोपन्यततेणतेणपडिच्छओ, एकक्षणं अंतरिता पडिच्छगा भवन्तीत्यर्थः। नि०चू० वस्तुनः सदृशं वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिभः। हेतुभेदे, स्थ: 11 उ०। "पडिनिभे।" अस्य व्याख्यायत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तता पडिच्छणा स्त्री० (प्रतीच्छना) अन्यगणे सूत्रार्थग्रहणे, नि०चू०१६ उ० / सदृशं वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिभः / यथा-कोऽपि प्रतिटन (अन्ययूथिकग्रहस्थपार्श्वस्थाऽऽदीन् प्रति प्रतीच्छति इति 'अण्णउ- यदुत-यो मामपूर्व श्रावयति तस्मै लक्षमूल्यमिदं करोटकं दद त्थिय' शब्दे प्र०भा०४७३ पृष्ठे उक्तम्) स च श्रावितोऽपि तन्नापूर्वमिति प्रतिपद्यते, तत एकेन सिद्धपुत्रेणोलनक पडिच्छण्ण त्रिल (प्रतिच्छन्न) आच्छादिते, ज्ञा० 1 श्रु०३ अ०उपरि तुज्झ पिया मज्झ पिऊ धारेइ अणूणयं सयसहस्सं / जइ सुपर प्रावरणान्विते, उत्त० 1 अ० / सम्पातिमसत्त्वजीवरक्षार्थ संवृते, पार्श्वतः दिज्जइ, अह न सुयं खोरयं देहि // 1 // '' इति / प्रतिनिभता घर कटकुड्याऽऽदिनाऽऽच्छादिते, उत्त० 1 अ०। सर्वस्मिन्नप्युक्ते श्रुतपूर्वमेवेदं ममेत्येवमसत्य वचो बुवाणस्य एक Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिणिम 323 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिणीयता निग्रहाय-तथ पिता मम पितुर्धारयति लक्षमित्येवंविधस्य द्विपाशरज्जु- (रायगिहेत्यादि) तत्र (गुरू णं ति) गुरून् तत्त्वोपदेशकान्प्रतीत्याकल्पस्यासत्यस्यैव वचस उपन्यस्तत्वादिति। अस्य चोपपत्तिमात्ररूप- ऽऽश्रित्य प्रत्यनीकमिव प्रतिसैन्यमिव प्रतिकूलतया ये ते प्रत्यनीकाः, स्थाप्यर्थज्ञापकतया ज्ञातव्यमुक्तमिति। अथवा यथा रूढमेव ज्ञातमेव। तत्राऽऽचार्योऽर्थव्याख्याता, उपाध्यायः सूत्रदाता, स्थविरस्तु जातिश्रुततथाहि अवारा प्रयोगोनास्त्यश्रुतपूर्वं किञ्चित् श्लोकाऽऽदिममेत्येवम- पर्याथः / तत्र जात्या षष्टिवर्षजातः श्रुतस्थविरः समवायधरः, पर्यायभिमानधन बूमो वयम्, अस्ति तवाश्रुतपूर्व वचनंतव पिता मम पितुर्धार- स्थविरो विंशतिवर्षपर्यायः एतत्प्रत्यनीकता चैवम् - यत्यन्यून शतसहस्रमिति यथेति तथा / स्था० 4 ठा०३ उ० / दश०। "जच्चाईहि अवण्णं, विभसइ वट्टइ नयावि उववाए। साम्प्रतं प्रतिनिभमभिधित्सुराह अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवाई अणणुलोमा ||1|| तुज्झ पिया मज्झ पिऊ, धारइ अणूणयं पडिनिमं ति। अहवा वि वए एवं, उवएस परस्स दिति एवं तु। तब पिता मन पितुरियत्यन्यून, शतसहस्रमित्यादि गम्यते / दसविहवेयावचे, कायव्वं सयं न कुव्वंति // 2 // " प्रदिनिभमिति द्वारोपलक्षणम् / अयमक्षरार्थः / भावार्थः कथान (गई णमित्यादि) गतिमानुषत्वादिकां प्रतीत्य, तत्रेहलोकस्य प्रत्यक्षस्य कादबसेयः। तचेदम् - "एमम्मि नगरे एगो परिव्वायगो सोवन्नएण खोरएण मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् तर्हि हिंडति / सो भणइ-जा मम अस्सुयं सुणावेइतस्स एयं देमि खोरयं / पञ्चाग्नितपस्विवदिहलोकप्रत्यनीकः, परलोको जन्मान्तरं, तत्प्रत्यनीक तत्थ एका सावओ, तेण भणियं-तुज्झ पिया मम पिउणो, धारेइ अणूणगं इन्द्रियाऽर्थतत्परो, द्विधालोकप्रत्यनीकश्च चौर्याऽऽदिभिरिन्द्रियार्थसयसहस्सं / जइ सुयपुव्वं दिजउ, अह न सुयं खोरयं देहि / " इदं साधनपरः (समूह णमित्या दि) समूहं साधुसमुदायं प्रतीत्य, तत्र कुलं लौकिकम् / अनेन च लोकोत्तरमपि सूचितमवगन्तव्यम्। तत्र चरणकर चन्द्राऽऽदिकं तत्समूहो गणः, कौटिकाऽऽदिस्तत्समूहः सघः, जानुयोगे वषां सर्वथा हिंसायामधर्मस्तेषां विध्यनशनविषयोद्रेकचित्त प्रत्थनीकता चैतेषामवर्णवादाऽऽदिभिरिति / कुलाऽऽदिलक्षणं चेदम्भादात्महिंसायामप्यधर्म एवेति, तदकरणं द्रव्यानुयोगे पुनरदुष्ट "एत्थ कुलं विण्णेयं, एगायरियस्स संतई जाओ। मद्चनमिति मन्यमानो यः कश्चिदाह-अस्ति जीव इत्यत्र वद किश्चित्, तिण्ह कुलाणमिहो पुण, सावेक्खाणं गणो होइ / / 1 / / सञ्चवक्तव्योयद्यस्ति जीव एवं तर्हि कुटाऽऽदीनामप्यस्तित्वाञ्जीवत्व सव्वो वि नाणदसण-चरणगुणविभूसियाण समणाणं। प्रसङ्ग इति गतं प्रतिनिभम् / दश०१ अ०॥ समुदाओ पुण संघो, गणसमुदाओ त्ति काऊणं / / 2 / / " पडिणिवेस पुं० (प्रतिनिवेस) गाढानुशये, विशे०। (अणुकंपमित्यादि) अनुकम्पा भक्तपानाऽऽदिभिरुपष्टम्भस्ता पहिणि(नि)व्वुइ स्त्री० (प्रतिनिर्वृति) आगतौ, स्था० 1 ठा०। प्रतीत्य, तत्र तपस्वी क्षपकः, ग्लानो रोगाऽऽदिभिरसमर्थः, शैक्षोऽभिपडिणिहि पुं० (प्रतिनिधि) प्रतिबिम्बे, है। नवप्रवजितः एते ह्यनुकम्पनीयाः भवन्ति, तदकरण-करणाभ्यां च पडिणीय त्रि० (प्रत्यनीक) प्रतिकूले, आतु०। स्था०। उत्त०। आचा०। प्रत्यनीकतेति। (सुयं णमित्यादि) श्रुतं सूत्राऽऽदि तत्र सूत्र व्याख्येयं, प्रतिकूलवृत्तः, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। पं०चू०। नि०चू०। छिद्रान्वेषिणि, अर्थस्तव्याख्यान निर्युक्त्यादि, तदुभयमेतद्वितयम्। तत्प्रत्यनीकता जी.०३ प्रति०४ उ० / उत्त०। प्रत्यनीकाः च- "काया वया य ते चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया य / मोक्खाहिरायगिहे नयरे०जाव एवं वयासी-गुरु णं भंते ! पडुच्चं कइ गारियाणं, जोइसजोणीहि किं कन्न / / 1 / / '' इत्यादि दूषणोद्धावनम् / पडिणीया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता / तं (भावमित्यादि) भावः पर्यायः, स च जीवाजीवगतः तत्र जीवस्य जहा-आयरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए, थेरपडिणीए। गई प्रशस्तः, अप्रशस्तश्च तत्र प्रशस्तःक्षायिकाऽऽदिः, अप्रशस्तःविवक्षणं भंते ! पड़च कइपडिणीया पण्णत्ता? गोयमा ! तओपडिणीया यौदयिकः / क्षायिकादिः पुनर्जानाऽऽदिरूपोऽतो भावान् ज्ञानाऽऽदीन पण्णत्ता / तं जहा-इहलोगपडिणीए, परलोगप-डिणीए, प्रति प्रत्यनीकस्तेषां वितथप्ररूपणतो दूषणतो वा / यथा- "पायसुत्तदुहलोगपडिणीए। समूहं णं भंते ! पडुच कइ पडिणीया निबद्धं, को वा जाणइ पणीयकेणेयं / किं वा चरणेणत्तं, दाणेण विणा उ पण्णत्ता? गोयमा! तओ पडिणीया पण्णत्ता / तं जहा- हवई ति / / 1 / / " एते च प्रत्यनीका अपुनःकरणेनाऽभ्युत्थिताः कुलपडिणीए, गणपडिणीए, संघपडिणीए / अणुकंपं पडुच शुद्धिमर्हन्ति, शुद्धिश्च व्यवहारादिति। भ० 8 श०८ उ० / स्था० / मंते ! कइ पडिणीया पुच्छा ? गोयमा ! तओ पडिणीया (व्यवहारवक्तव्यता- ‘ववहार' शब्दे करिष्यते ) प्रतिकूलवर्ती पण्णता / तं जहा-तवस्सिपडिणीए, गिलाणपडिणीए, शिलाऽऽक्षेपक कूलबालक श्रमणवत् दोपानीकं प्रति वर्तते इति सेहपडिणीए / सुअंणं भंते ! पडुच पुच्छा ? गोयमा ! तओ प्रत्यनीकः / उत्त० 1 अ० / (कृतबाल-ककथा 'कूलवालग' शब्दे पडिणीया पण्णत्ता / तं जहा-सुत्तपडिणीए, अत्थपडिणीए, तृतीयभागे 636 पृष्ठे दर्शिता) तदुभयपडिणीए। भावं णं मंते ! पडुच्च पुच्छा? गोयमा ! तओ | पडि णीयता स्त्री० (प्रत्यनीक ता) कायो पघातक तायाम् , पडिणीया पण्णत्ता / तं जहा-णाणपडिणीए, दंसणपडिणीए, भ०१२ श०६उ० / ज्ञानस्य विराधना ज्ञानस्य प्रत्यनीचरित्तपडिणीए॥ कतादिलक्षण।। उक्तं च- "नाणपडि णीय णिण्हव'' प्र Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिणीयता 324 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिपुच्छणा त्यनीकता पञ्चविधा ज्ञानविषया / तद्यथा आभिनिबोधिक ज्ञान- पडिदुवारदेसभाग पुं० (प्रतिद्वारदेशभाग) द्वार देशभाग प्रतीत्यर्थे, मशोभन, यतस्तदवगतं कदाचित्तथा भवति, कदाचिदन्यथेति / औ० / रा०। श्रुतज्ञानमपि शीलविकल्पस्याऽकिञ्चित्करत्वादशोभनमेव / अवधि- पडिपंथ पुं० (प्रतिपन्थ) प्रतिकूलत्वे, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० 1 उ०। ज्ञानमप्यरूपिद्रव्यागोचरत्वादसाधु / मनःपर्यायज्ञानमपि मनुष्यलोका- पडिपक्ख पुं० (प्रतिपक्ष) दृष्टान्तभूते पक्षे, स्था०४ ठा०१ उ०। वधिपरिच्छिन्नगोचरत्वादशोभनम् / के वल ज्ञानमपि समयभेदेन पडिपहपुं० (प्रतिपथ) प्रतिकूलः पन्थाः प्रतिपथः / अग्रेतन-मार्गत्यागेन दर्शनज्ञानप्रवृत्तेरेक समये केवलत्वादशोभनमिति। आव० 4 अ०। पश्चान्मार्गे , उत्त० 27 अ०। आचा० / निषिद्धपथि, यथा सचित्तपृथिए, पडिणीयत्तण न० (प्रत्यनीकत्य) अनिष्टाऽऽचरणे, कर्म०१ कर्म गच्छति, नि०चू०१ उ०। पडिणीयवंदण न० (प्रत्यनीकवन्दन) "आहाररस उकाले,णीहारुभयो | पडिपाय पुं० (प्रतिपाद) मूलपादानां प्रतिविशिष्टपिष्टम्भकरणाट य होइ पडिणीए।" आहारस्य, नीहारस्य वा, उभयस्य मूत्रपुरीष- पादे, रा०। लक्षणस्य काले यत्र वन्दते, तत् प्रत्यनीकम् इति लक्षणलक्षिते सप्तमे पडिपिंडिअन० (देशी) प्रवृद्धे, दे०ना०६वर्ग 34 गाथा। वन्दनदोषे, बृ०३ उ०। ध०। आ०चू०। पडिपुच्छण न० (प्रतिप्रच्छन) शरीराऽऽदिवार्ताप्रश्ने, ज्ञा० 1 श्रु पडिण्णत्त त्रि० (प्रतिज्ञप्त) वैयावृत्यकरणाऽऽद्यर्थ परैरुक्ते, आचा०१ ___अ०। पूर्वाधीतश्रुतस्य पृच्छायाम, नि०चू० 1070 / श्रु०८ अ०५ उ०। पडिपुच्छणा स्त्री० (प्रतिपृच्छा) पृच्छा प्रश्नस्तस्याः प्रतिवचन पडिण्णा स्त्री० (प्रतिज्ञा) ऐहिकाऽऽमुष्मिकरूपाया प्रतिज्ञायाम्, प्रतिपृच्छा / बृ०४ उ०। सूत्रार्थयोः शरीरवाया वा प्रतिप्रच्छने, वृद: सूत्र०१श्रु०१०अ०। प्रकरणोक्तेऽर्थे, यत् स्वयं प्रतिज्ञातं तदन्त्योच्छ्रासं उ०। उत्त०। स्था०। यावद्विधेयमिति। उक्तं च- "लजां गुणोघजननी जननीमिव स्वामत्य- पतिपृच्छना स्त्री० (प्रतिपृच्छा) गुरोः पुरतः सन्दहप्रच्छने, उत्त० 26 न्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाम् / तेजस्विनःसुखमसूनपि संत्यजन्ति, अ०। औ०। स्वध्यायभेदे, उत्त०। सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्।।१।।" आचा० १श्रु०२१०५उ० / अस्याः फलम्-अथ गृहीतवाचनेन पुनः संशयाऽऽदो पुनः प्रच्छन् पडितंतसिद्धत पुं० (प्रतितन्त्रसिद्धान्त) स्वस्वशास्त्रसिद्धे परतन्त्राऽसिद्धे प्रतिपृच्छति अतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाहसिद्धान्तभेदे, बृ०। पडिपुच्छणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? पडि-पुच्छणयाए जो खलु सतंतसिद्धो, न य परतंतेसु सो तु पडितंतो। णं सुत्तत्थतदुभयाई विसो हेइ, कं खामोहणिज कम निच्चमनिचं सव्वं, नियानिच्चं च इचाइ॥१८॥ वुञ्छिदइ // 20 // यः खल्वर्थः स्वतन्त्रसिद्धो, नच परतन्त्रेषु स प्रतितन्त्रसिद्धान्तः। यथा- | हे स्वामिन् ! प्रतिप्रच्छनया पूर्वाधीतस्य सूत्राऽऽदः पुनः प्रच्छन्न जीतः सन्तीति नित्यं सांख्यानां, सर्वभनित्य क्षणिकवादिना, सर्वं नित्यानित्य- किं जनयति ? प्रतिप्रच्छनया सूत्रार्थतदुभयानि विशोधयति सूत्रार्थया: मार्हतानामित्यादि / बृ०१उ०१प्रक० / यथासांख्यानां नाऽसत संशयं निवार्य निर्मलत्वं विधत्ते। तथा काक्षामोहनीयं कर्म व्युच्छिनति आत्मलाभो, न च सतः सर्वथा विनाश इति / सूत्र०१ श्रु०११ अ०॥ काक्षाशब्देन संदेहः, काक्षया सन्देहेन मोहन काक्षामोहन, तक पडितप्पण न० (प्रतितर्पण) संविग्रे तप्यति अनुतपने, व्य०७ उ०। भवं काड्क्षामोहनीयम्, एतत्कर्म विशेषेणाऽपनयति-इदमित्थं तदा पडितप्पिय त्रि० (प्रतितर्पित)। भक्तपानप्रदानाऽऽदिना सोपष्टम्भीकृते, अथवा इदमित्थं, नास्ति वा इदं मम अध्ययनाय योग्यमित्यादि घटन व्य०१उ० विनयाऽऽहारोपध्याऽऽदिभिः प्रत्युपकृते,स०३० सम०।। काङ्क्षा वाञ्छा, तद्रूपमेव मोहनीय कर्म अनभिग्रहिकमिथ्यात्वरूपंटर पडितप्पियसाहु त्रि० (प्रतितर्पितसाधु)प्रतितर्पिता भक्तपानप्रदाना- विनाशयति॥२०।। उत्त० 26 अ० नं० / गुरुनियोगेऽपिपुनः प्रवृत्तिकार ऽऽदिना सोपष्टम्भीकृताः साधवो येन सः। साधूपष्टम्भं कृतवति, औ०। गुरोः प्रच्छना प्रतिप्रच्छना / सकृदादिष्टेनाऽपि कार्यकाले पुनर्गुरुपडिति स्त्री० (पतिति)मरणे, व्य०५ उ०। प्रतिपृच्छा रूपे सामाचारीभेदे, पञ्चा०। पडिथद्ध (प्रतिस्तब्ध) अनमे, उत्त०१२ अ०। अथ प्रतिपृच्छामाहपडिथिर पुं० (देशी) सदृशे, दे० ना०६ वर्ग 20 गाथा। पडिपुच्छणा उ कज्जे, पुव्वणिउत्तस्स करणकालम्मि। पडिदिसा स्त्री० (प्रतिदिश्) विदिशि, स्था० 4 ठा० 3 उ०। कजंतरादिहेळं, णिहिट्ठा समयकेऊहिं॥३०॥ पडिदुगुंछय त्रि० (प्रतिजुगुप्सक) अप्रासुकोदकपरिहारिणि, सूत्र०१ प्रतिपृच्छायाः करणं प्रतिप्रच्छना पुनः तुशब्दः पुनरर्थः श्रु०२ अ०२ उ०। कार्ये प्रयोजने, पूर्वनियुक्तस्य पूर्व काले गुरुभियापारिटन्ट पडिदुवार न० (प्रतिद्वार) स्थूलद्वारापान्तरालवर्तिनि लघुद्वारे, प्रज्ञा०२ सतः, निर्दिष्टे ति योगः। कदे त्याह-करणकाले विधानावसर पद। स०। द्वारं द्वारं प्रतीत्यर्थे , प्रश्न०३ आश्र० द्वारा रा०। के स्मादे तदेवमित्याह- कान्तिरं प्रागुपदिष्ट कार्यादन्यत Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुिच्छणा 325 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिपुण्णवीरिय कार्य तदादिर्यस्य तन्निषेधाऽऽदेः स तथा, स एव हेतुर्निमित्तं स्यात्, कर्मकार्य तु वजर्येत् / / 1 / / '' इति गाथार्थः / / 33 / / उक्ता कार्यान्तराऽऽदिहेतुः, तस्मात् कार्यान्तराऽऽदिहेतोः, द्वितीयायाः प्रतिपृच्छा। पञ्चा० 12 विव० ल०। आ०चू०। ध०। उत्त०१ अनु०। पञ्चम्यर्थत्वात्। निर्दिष्टोपदिष्टा, समयक्तुभिः प्रकाशकतया प्रवचनचिह्न- पडिपुच्छणीय त्रि० (प्रतिप्रच्छनीय) असकृत्प्रच्छनीये, रा०। भूतैरिति गाथार्थः // 30 // पडिपुच्छमाण त्रि० (प्रतिपृच्छत्) पुनः पुनः पृच्छति, आचा०१ श्रु०४ कार्यान्तराऽऽदिहेतूनेव दर्शयन्नाह अ०२ उ०। कजंतरे ण कज्जं, तेणं कालंतरे व कज्जं ति। पडिपुच्छा स्त्री० (प्रतिपृच्छा) प्रति पुनरपि पृच्छा प्राग्नियुक्तेन अण्णो वा तं काहिति, कयं व एमाइया हेऊ / / 31 / / कार्यकरणकाले प्राग्निषिद्धेन वा पुनः प्रयोजनतः कर्तुकामेन गुरोः प्रच्छनं प्रतिपृच्छां कुर्वतः शिष्यस्य गुरुः कदाचित्कार्यान्तरं प्रागादिष्ट -- प्रतिपृच्छा।पञ्चा० 12 विव०। जीत०। भ० / विशे०। पृच्छा प्रश्नस्तस्याः कार्यादपरकार्यम् / अथवा-न कार्यं नास्ति प्रयोजनं, तेन यत्कार्य प्रतिवचनं प्रतिपृच्छा / व्य० 2 उ० / स्था० / आ० म०। आदिष्टस्य मादिष्टमासीत्। कालान्तरे वाऽवसरान्तरे वा, नाऽधुनैव कार्य विधेयम्। कार्यस्य करणकाले पुनः प्रच्छने, बृ०१३०२ प्रक०। एष सामाचारीभेदः वाशब्दो विकल्पार्थः / अन्यो वा आदिष्टादपरः साधुः, तत्प्रागादिष्टं प्रतिपृच्छनाशब्देन दर्शितः / आ०म० 1 अ०। शङ्कितस्य विस्मृतस्य कार्यम्, करष्यिति, कृतं वा विहितं वा तदन्येनेति त्वमास्स्वेत्यादिशेत्। गुरोः पुनः प्रतिपृच्छायाम्, एष स्वाध्याभेदः। आ०यू० 10 // एवमादय एवंप्रभृतयो गुरुविकल्पाः / आदिशब्दादधिकृतकार्यस्यैव पडिपुण्ण त्रि० (प्रतिपूर्ण) अन्यूने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०रा०ासका नि०। विशेषो गृह्यते / हेतवः कारणानि भवन्ति ; प्रतिपृच्छायाः करण इति स्वप्रमाणेनाहीने, जी०३ प्रति०४ उ०। अन्यूनातिरिक्तमाने, रा०। शेषः / इति गाथाऽर्थः // 31 // सर्वाऽवयवसंपन्ने, कल्प० 1 अधि० 3 क्षण / 'पडिपुन्नपाणिअहवा वि पवित्तस्सा, तिवारखलणाएँ विहिपओगे वि। पायसुकुमालकोमलतले हिं।" प्रतिपूर्णस्य पाणिपादस्य सुकुमा रकोमलानि अत्यन्तकोमलानि तलानि येषां ते / कल्प०१ अधि०३ पडिपुच्छण त्ति नेया, तहिं गमणं सउणवुड्डीए|३२|| क्षण / अत्र किरणावलीकारेण प्रतिपूर्णानां पाणिपादानाम् इति योगो अथवाऽपीति प्रतिपृच्छायां हेतोः प्रकारान्तरत्वसूचनार्थः / प्रवृत्तस्य लिखितः। स तु चिन्त्यः / "द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनानानाम्।" 2 / 4 / चिकीर्षितकार्यकरणाय गमने व्यावृत्तस्य सतः साधोस्त्रिवारस्खलनाया 2 / / इति सूत्रेणावश्यमेकवद्भावात्। सकलस्वांशयुक्त-तयोत्पन्नत्वात्। त्रीन् वारान् यावत्तत्प्रतिहतौ सत्याम्, दुनिमित्तादिति गम्यम् / विधि भ०६ श०३१ उ०।स्वरूपतः पौर्णमासीचन्द्रवत्। प्रयोगेऽपि दुनिमित्तप्रतिधातविधिश्च प्रथमस्स्खलनायाम्-अष्टोच्छास स्था० 6 ठा० / दशा० / औ० / अंशेनापि स्वकीये समस्त-कलोपेते, प्रमाणः कायोत्सर्गो, द्वितीयायां तुतद्विगुणः, तृतीयायां संघाटकज्येष्ठ उत्त०११ अ०। षोडशकलाभिर्युक्ते, उत्त०११ अ०। विषयाऽऽदिभ्यो करणपश्चात्करणमित्यादिलक्षण इति। प्रतिपृच्छना उक्तनिरुक्ता। इति विरक्तत्वेनाऽखण्डे, उत्त०३२ अ०। अपवर्गप्रापकगुणैर्भूते केवलज्ञाने, एषा सामाचारी, ज्ञेयाऽवसेया। विधेयतयेति शेषः / प्रतिपृच्छोत्तरकालं आव० 4 अ०। ध० भ०। धनधान्याऽऽदिपदार्थभृते, उत्त०२ अ०1 च (तर्हि ति) तत्र विवक्षितकार्यसिद्धिस्थाने, गमनं गतिः, कार्यम्। आव०। हीनाधिकाक्षराभावात्। आ०म०१ अ०।दश। विशे०। सूत्रतो शकु नवृद्ध्या सन्निमित्तवर्द्धनेन शुभशकु ने सतीत्यर्थः / इति बिन्दुमात्राऽऽदिमिरन्यूने अर्थतोऽध्याहाराऽऽकाङ्क्षाऽऽदिरहिते गाथार्थः // 32 // गुणवत्सूत्रे, अनु० / अल्पग्रन्थत्वाऽऽदिभिः प्रवचनगुणैः संशुद्ध मार्गे, प्रतिपृच्छायामेव मतान्तरमाह औ० / निरवयवतया सर्वविरत्याख्ये मोक्षगमनै-कहेतौ,सूत्र०१ श्रु०११ पुष्वणिसिद्धे अण्णे, पडिपुच्छा किल उवहिए कज्जे / अ० / “पडिपुण्णसव्वमंगलभेअ-समागमे।'' प्रतिपूर्णा एव प्रतिपूर्णका एवं पि नत्थि दोसो, उस्सम्गाईहिं धम्मठिई॥३३|| न तु न्यूना एवंविधा ये सर्वमङ्गलभेदा मङ्गलप्रकाराः सकलकल्याणपूर्वनिषिद्धे प्राक्कालनिवारिते गुरुणा क्वचिच्चकीर्षित-कार्येविषय-भूते, प्रकाराः तेषां समागमः सङ्केतस्थान मिव, यथा सङ्केतस्थाने अन्ये अपरेसूरयः, प्रतिपृच्छा कार्येत्याहुः / किलेत्याप्तप्रवादसंसूचनार्थः / सङ्केतकारिणो जना अवश्यं प्राप्यन्ते, तथा तस्मिन् कलशे दृष्ट अवश्य कदेत्याहुः? उपस्थिते प्राप्तकरणावसरे, कार्ये पूर्वनिवारितप्रयोजने, प्राग् सर्वे मङ्गलभेदाः प्राप्यन्ते इति भावः / कल्प०१ अधि०३ क्षण। निवारितमपि कथञ्चिदनुजानीयादिति कृत्वा। ननु यत्पूर्वमनुचितत्वेन पडिपुण्णघोसन० (प्रतिपूर्णघोष) गुरुवत्सम्यगुदात्ताऽऽदिघोषैर विकले, मिषिद्धंतदेवपुनरनुजानतः कथंनदोषोऽनौचित्यस्य तादवस्थ्यादेत्या ग०२ अधि०। आ० मातथाविधे गुणवत्सूत्रे, यद्धि उदात्ताऽऽदिघोषैः शङ्कयाऽऽह एवमप्यनेनापि प्रकारेण निषिद्धस्यानुज्ञालक्षणेन, नास्तिन परावर्तनाऽऽदिकाले उच्चारयति। विशे० / अनु० भवति, दोषोऽनुचितानुज्ञालक्षणः / यत उत्सर्गाऽऽदिभिरुत्सर्गापवादा- | पडिपुण्णभासि(ण) त्रि० (प्रतिपूर्णभासिन्) अस्खलिताहीनाक्षरार्थभ्याम् / आदिशब्दः स्वगतभेदसंसूचक इति बहुवचनं व्याख्यातम्।। वादिनि, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। धर्मस्थितिधर्मव्यवस्था। तथाहि-यदेवोत्सर्गतो निषिद्ध, तदेव / पडिपुण्णवीरिय पुं० (प्रतिपूर्णवीर्य) वीर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षयात् तत्कालोत्पन्नकारणान्तरापेक्षयाऽपवादतो विधेयं स्यात् / आह च- निःशेषवीर्यशालिनि तीर्थकृति, "से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे "उत्पद्यते हि साऽवस्था, देशकालामयान् प्रति / कार्य यस्यामकार्यं वाणगसव्वसे?।" (E) सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिपुणे दियया 326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिबद्धसिज्जा पडिपुण्णे दियया स्त्री० (प्रतिपूर्णेन्द्रियता) अविकलेन्द्रियतारूपे | पडिबद्धसरीर त्रि० (प्रतिबद्धशरीर) दृढावयवकाये, यूनि, सूत्र० शरीरोपसंपद्धेदे, व्य०१० उ० / बहुपरिपूर्णन्द्रियतेति नामान्तरमस्याः / / 2 श्रु० 2 अ०। दशा० 4 अ०। पडिबद्धसिज्जा स्त्री० (प्रतिबद्धशय्या) द्रव्यतो, भावत प्रतिबद्धे पडिपूइय त्रि० (प्रतिपूजित) चन्दनाऽऽदिचर्चिते, ज्ञा०१ श्रु०१०। उपाश्रये, व०। पडिपूयग त्रि० (प्रतिपूजक) पूजाकारिणि, स०३० सम०। नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्धसेजाए वत्थए।।३१।। पडिपेहित्ता अव्य० (प्रतिपिधाय) स्थगित्वेत्यर्थे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अस्य संबन्धमाह(नावं मृत्तिकाऽऽदिना प्रतिपिदधाति इति 'णईसंतार' शब्द चतुर्थभागे इति ओहविभागेणं, सेज्जा सागारिका समक्खाया। 1745 पृष्ठे उक्तम्) तं चेव य सागरियं, जस्स अदूरे स पडिबद्धो॥४४५॥ पडिप्फद्धि (ण) त्रि० (प्रतिस्पर्धिन) "अतः समृद्ध्यादौ वा" प इति ब एवमोघेन विभागेन च सागारिका सागारिकयुक्ता शय्या // 8/1 / 44|| इति वा दीर्घः / 'पडिप्फद्धी। पाडिप्फद्धी। परोत्कर्षाभि- प्रतिश्रयापरपर्याया समाख्याता, तदेव सागारिकं यस्योपाश्रयस्थादूरे काक्षिणि शत्रौ, प्रा०१पाद। आसन्ने, स प्रतिबद्ध उच्यते॥४४५|| पडिप्फलिअत्रि० (प्रतिस्फलित) स्खलिते, "खलिअंपडिप्फलि।" तत्र निर्ग्रन्थानामवस्थानमनेन प्रतिषिध्यते अनेन संबन्धेनाssपाइ० ना०२४५ गाथा। यातस्याऽस्य सूत्रस्य व्याख्यानो कल्पते निन्थिानां प्रतिबन्धशय्याया पडिबंध पुं० (प्रतिबन्ध) प्रतिघातरूपे प्रमोदे, नि०१ श्रु०३ वर्ग 4 अ०। द्रव्यतो, भावतश्च प्रतिबद्ध उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रार्थः। विधाते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आसङ्गे, आव०३ अ०। शय्यातराऽऽदि अर्थ नियुक्तिविस्तरःवस्तुषु, पञ्चा० 17 विव० / अभिष्वङ्गे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ० प्रश्न०। नामं ठवणा दविए, भावम्मि चउदिवहो उ पडिबद्धो। नत्थि णं तस्स कत्थइ पडिबंधे / से पडिबंधे चउविहे दव्वम्मि पट्ठिवंसो, भावम्मि चतुव्विहो भेदो॥४४६।। पण्णत्ते / तं जहा-अंडए इ वा, पोयए इवा, उग्गहिए इ वा, नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदाच्चतुर्विधः प्रतिबद्धः / तत्र नामस्थापने पग्गहिए इवा / जंणं जं णं दिसं इच्छइ तं णं तं णं दिसं गतार्थे / द्रव्यतः पुनरयम्-पृष्ठवंशो बलहरणं स यत्रोपाश्रये गृहस्थगृहेण अपडिबद्धे। सह संबद्धः स द्रव्यप्रतिबद्ध उच्यते। भावे तु चिन्त्यमाने चतुर्विधो भदो (नत्थि इत्यादि) नास्ति तस्य भगवतो महापद्यस्यायं पक्षो यदुत भवति। कुत्राऽपि प्रतिबन्धः स्नेहो भविष्यतीति / (अंडए इ व त्ति) अण्डजो तद्यथाहंसाऽऽदिर्ममायमित्युल्लेखेन वा प्रतिबन्धो भवति / अथवा-अण्डक पासवणठाणरूवे, सद्दे चेव य हवंति चत्तारि। मयूर्यादीनामिदं रमणकं मयूराऽऽदेः कारणमिति प्रतिबन्धः स्यादिति, दव्वेण य भावेण य, संजोगे होइ चउभंगो।।४४७।। अथवा-अण्डज पट्टसूत्रजमिति वा / पोतजो हस्त्यादिरयमिति वा प्रस्रवणे, स्थाने, रूपे शब्द चेति चत्वारो भेदाः, तत्र यस्मिन् साधना प्रतिबन्धः स्यात् / अथवा-पोतको बालक इति वा / अथवा-पोतक स्त्रीणां वा कायिका भूमिरेका सा प्रस्रवणप्रतिबद्धा / यत्र पुनरेकमेवस्त्रमिति वा प्रतिबन्धः स्यात्। आहारेऽपि च विशुद्धे सरागसंयमवतः वोपदेशनस्थानं स स्थानप्रतिबद्धः। यत्र स्थितैर्भाषाभूषणरहस्यशब्दाः प्रतिबन्धः स्यादिति दर्शयति- (उग्गहिए वत्ति) अवगृहीतं परिवेषणा- श्रूयन्ते, सशब्दप्रतिबद्धः / तत्र द्रव्येण च भावेन च संयोगे चतुर्भङ्गी भवति / र्थमुत्पाटितं, प्रगृहीत भोजनार्थमुत्पाटितमिति। अथवा अवग्रहिकमि- तद्यथाद्रव्यतो नामैकः प्रतिबद्धो, न भावतः१, भावतो नामकः त्यवग्रहोऽस्यास्तीति वसति-पीठफलकाऽऽदि, औपग्रहिकं वा दण्ड- प्रतिबद्धा, न द्रव्यतः २,एको न द्रव्यतो, न भावतः 3, एको द्रव्यतोऽपि, काऽऽदिकमुपधिजातम् / तथा-प्रकर्षण ग्रहोऽस्येति प्रग्रहिकमाधिक- भावतोऽपि। मुपकरणं पात्राऽऽदीति। अथवा-अण्डजे वा पोतजे वेत्यादि व्याख्येयम्। एवं चतुर्भङ्गयां विरचितायां विधिमाहइकारस्त्यागमिक इति / (जं जं ति) यां यां दिशं, णामेति वाक्या- चतुत्थपदं तु विदिन्नं, दव्ये लहुगा य दोस आणादी। लकारे / तुशब्दो वाऽयं तदर्थ एव इच्छति तदा विहर्तुमिति शेषः। तां तां संसद्देण विबुद्धे, अहिकरणं सुत्तपरिहाणी॥४४८|| दिशं विहरिष्यतीति संबन्धः / स्था०६ टा० / कल्प० / सूत्र०ा व्याप्ती, चतुर्थपदमत्र वितीर्णमनुज्ञात, चतुर्थभङ्ग वर्तिनि प्रतिश्रये स्थातव्यमि अविनाभावे, रत्ना०६ परि० / वेष्टने, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०२ उ०। त्यर्थः / द्रव्यप्रतिबद्धे तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः। पडिबंधणिराकरण नं० (प्रतिबन्धनिराकरण) साधुशय्यातरयोयोंऽ- साधूनां संबन्धिना आवश्यकीनषेधिकीप्रभृतिना संशब्देन विबुद्धेषु त्यन्तोपकारकभावेन स्नेहस्तन्निरासे, पक्षा० 17 विव०।। गृहस्थेष्वधिकरणं भवति / अथाऽधिकरणभयान्निस्संचारास्तूष्णीपडिबद्ध त्रि० (प्रतिबद्ध) संरुद्धे, प्रश्न०३ आश्र० द्वारा व्यवस्थिते पञ्चा० काश्वाऽऽसते, ततः सूत्रार्थपरिहाणिः। 13 विव०। संथा। __ अथाऽधिकरणपदं व्याख्यानयतिपडिबद्धया स्त्री० (प्रतिबद्धता) गाढसंबन्धे, तं०। आऊ जोवण वणिए, अगणि कुटुंवी कुकम्म कुम्मरिए। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिबद्धसिज्जा 327 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिबद्धसिज्जा तेणे मालागारे, उन्भामगे पंथिए जंते // 446 / / अस्या व्याख्या प्रागवत-साधूनां गृहस्थानां च सधं विना / असंखडशब्देन विबुद्धाः स्त्रियः (आउत्ति)अप्कायाऽऽहरणार्थ व्रजन्ति / (जोवणं ति) रथकाराऽऽदयः शकटे गवादीन् योजयित्वा काष्ठाऽऽदिहेलोरटवीं गच्छेयुः / वणिजो घृतकुतुपाऽऽदिकं गृहीत्वा ग्रामान्तरं व्रजन्ति / (अगणि ति) लोहकाराऽऽदय उत्थिता अग्निप्रज्वालनाऽऽदिककर्मणि लगन्ति / कुटुम्बिनो हलाऽऽदीन गृहीत्वा क्षेत्राणि गच्छन्ति। कुकर्मणो मत्स्यगन्धे वागुरिकाऽऽदयो मत्स्याऽऽद्यर्थ गच्छन्ति। कुत्सितो मारणीयसत्त्वस्यातीव वेदनोत्पादकत्वान्निन्द्यो यो मारो मारणं स विद्यते येषां ते कुमारिकाः, सोकरिका इत्यर्थः / तेऽपि स्वकर्मणि लगन्ति / स्तेनः प्रभातमिति कृत्वा पन्थानं धावन् गच्छेत् / मालाकार: करण्ड गृहीत्वा आराम गच्छति उद्भ्रामकः पारदारिकः स लब्धसंकेत उद्ग्रामिकां गृहीत्वा पलायेत् / पथिको बुद्धः पथि प्रवर्तते यान्त्रिका विबुद्धाः सन्तो यन्त्राणि वाह यन्ति। यस्मादेते दोषास्तरमात्पुरुषेष्वपि नस्थातव्यम्॥ अथाधिकरणभयातूष्णीकास्तिष्ठन्ति तत एते दोषाःआसज्ज निसीही वा, सज्झायं न करिति मा हु बुज्झेजा।। तेणासंकालग्गण, संजमआयाएँ भाणादी॥४५०il मा गृहस्था विबुध्यन्तामिति कृत्वा "आसज्ज'' इति शब्दं नोचरन्ति मासलधु, नैषेधिकीं वा न कुर्वन्ति पञ्चरात्रिन्दिवानि, स्वाध्याय सूत्रपौरुषी न कुर्वन्ति मासलघु, अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु, सूत्र नाशयन्ति चतुर्लघु, अर्थ नाशयन्ति चतुर्गुरु / एतेन सूत्र-परिहाणिरिति पदं व्याख्यातम् / तथा-साधूनामा-वश्यकीशब्द, पदनिपातशब्दं वा श्रुत्वा त गृहस्थाः स्तेनोऽयमित्याशङ्कया साधुना समं युद्धाय लगेयुः; ततश्च युध्यमानयोः संयमाऽऽत्मभाजनानां विराधनाऽऽदयो दोषाः; यत एवमतो द्रव्यप्रतिबद्धायां वसतौ न स्थातव्यम्। द्वितीयपदे तिष्ठेयुरपिअद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। गीयत्था जयणाए, वसंति तो दव्वपडिबद्धे॥४५१।। अध्वनिर्गताऽऽदयः त्रिःकृत्वः त्रीन् वारान् द्रव्यतो भावतो वा प्रतिबद्धमुपाश्रयं मार्गयित्वा यदि न लभन्ते ततो गीतार्था यतनया द्रव्यप्रतिबद्ध वसन्ति। यतनामेवाऽऽहआपुच्छण आवासिय, आसञ्ज निसीहि वा य जयणाए। वेरत्ती आवस्सग जो जाहे चिंधण दुगम्मि||४५२|| यदा कोऽपि साधुः कायिकभूमौ गन्तुं गच्छति तदा द्वितीयं साधुमापृच्छ यनिर्गच्छति, सच द्वितीयः स्पृष्टमात्रएवोत्थाय दण्डक-हस्तो द्वारे तिष्ठति यावदसो प्रत्यागच्छति, एषा आपृचछपतना। आवश्यकीम् 'आसज्ज'' शब्द नैषेधकी चयतनया यथा गृहस्था न श्रृण्वन्ति वैरात्रिकवेलायामपि यः पूर्वमुत्थितस्तेन द्वितीयः साधुर्यतनया हस्तेन स्पृष्ट्वा प्रतिबोधयितव्यः, स च स्पृष्टमात्र एव तूष्णींभावेनोत्तिष्ठति / ततो वावपि कालभूमौ गत्वा वैरात्रिक यतनया गृहीतः। यथा-पार्श्वस्थितोऽपि न श्रृणोति आवश्यक यो यदा यत्र स्थितो विबुध्यते स तदा तत्र स्थित एव करोति वन्दनकं, स्तुतीश्च हृदयेनैव प्रयच्छति / यद्वा-यदा ते गृहस्थाः प्रभाते स्वयमेवोत्थिताः तदा आवश्यक कुर्वन्ति / (चिंधण दुगम्मि त्ति) परावर्तयतां यत्र सूत्रे अर्थे वा रात्रौ शङ्कितं तस्य चिह्न तमभिज्ञानकरणंयथा अमुकस्मिन्नङ्गे श्रुतस्कन्धे अध्ययने उद्देशके वा इदं शङ्कितमस्तीति तत्सर्व दिवा प्रश्नायित्वा निःशङ्कित कुर्वन्ति। तथाजणरहिए वुजाणे, जयणा भासाए किमुय पडिबद्धे। दढतरसरऽणुप्पेही, न य संघाडेण परिवत्ते // 453 / / यदि तावज्जनरहितेऽप्यु द्याने वसतां रात्रौ भाषायां यतनामात्रं चतुष्पदपक्षिशरीसृपाऽऽदयो जन्तवो विबुध्यन्तामितिकृत्वा, ततः किं पुनद्रव्यप्रतिबद्ध प्रतिश्रये, तत्र सुतरां यतना कर्तव्येति भावः यस्तु दृढतरस्वरो बृहता शब्देन भाषणशीलः स वै रात्रिकं स्वाध्यायमनुप्रेक्षया करोति, मनसैवेत्यर्थः / येऽपिचसाधवोन दृढतरस्वरास्तेऽपि सङ्घाटकेन न परिवर्तयन्ति, किं तु पृथग, गतः प्रथमो भङ्गः। अथ द्वितीयभङ्ग भावतः प्रतिबद्धो न द्रव्यत इत्येवलक्षणं निरूपयतिभावम्मि उ पडिबद्धे, चउरो गुरुगाय दोस आणाऽऽदी। ते विय पुरिसा दुविहा, भुत्तभोगी अभुत्ता य॥४५४|| भावे भावतः प्रतिबद्धेप्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्गुरुकम्, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः / ये पुनस्ते भावप्रतिबद्धे वसन्ति ते पुरुषाः साधवो द्विविधाः / केचिद् भुक्तभोगिनो ये स्त्रीभोगान् भुक्त्वा प्रव्रजिताः, केचित्तु अभुक्तभोगिनः कुमारप्रव्रजिताः / एषा पुरातनी गाथा। अथास्या एव व्याख्यानमाहभावम्मि उपडिबद्धे, पन्नरससु पदेसु चउगुरू होंति। एकेकाउ पयाओ, हवंति आणाइणो दोसा।।४५५।। भावप्रतिबद्धे चतुर्भिः प्रश्रवणाऽऽदिभिः पदैः षोडश भङ्गा कर्तव्याः। तद्यथा-प्रश्रवणप्रतिबद्धः, स्थानप्रतिबद्धो, रूपप्रतिबद्धः, शब्दप्रतिबद्धश (पुस्तके पाठस्त्रुटितो विभाति।)। इत्यादि। अत्र प्रथमभङ्गादारभ्य पञ्चदशसु पदेषु च चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम्। आदेशान्तरेण वा प्रथमे भने चत्वारः चतुर्गुरवः, चतुर्णामपि पदानां तत्राशुद्धत्वात् / द्वितीये भने त्रयश्वतुर्गुरवः, त्रयाणां पदाना तत्राऽशुद्धत्वात्। एवमनया दिशा यत्र भङ्गे यावन्ति पदान्यविशुद्धानितत्र भवेयुश्चतुर्गुरवः एकैकस्माच पदाद्भङ्गकादाज्ञाऽऽदयो दोषाः / यस्तु षोडशो भङ्गः स चतुर्वपि पदेषु शुद्ध इति न तत्र प्रायश्चित्तम्। प्रश्रवणाऽऽदीनामेवान्योऽन्यसंभवमाहठाणे नियमा रूवं, भासासद्दो य भूसणा भइओ। काइयठाणं नत्थी, सद्दे रूवे य भय सेसे // 456 / / यत्र साधूनां स्त्रीणां चैकमेवोपवेशनस्थानं तत्र नियमात् परस्पर रूपमवलोक्यते भाषाशब्दश्च श्रूयते, भूषणशब्दस्तु भाज्यः साभरणानां स्त्रीणां भवति, इतरासां न भवतीत्यर्थः / कायिकी प्रस्रवणं, तस्य स्थानं नास्ति, लोकजुगुप्सिततया कायिकीभूमावुपवेशनाभावात् भाषाभूषणशब्दरूपाणि तु भवन्तीतिभावः / शब्दरूपे च शेषाणि भज विकल्पय / Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिबद्धसिज्जा 328 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिबद्धसिज्जा किमुक्तं भवति?-शब्दे प्रश्रवणस्थानरूपाणि भवन्ति वा, नवा, रूपेऽपि एवमादीनाकारान् बहुविधान् दृष्ट्वा भुक्तानामितरेषां चा भुक्तानां प्रस्रवणस्थानशब्दा भवन्ति वा, न वेति। स्मृतिकरणकौतुकाऽऽदयो दोषाः अविरतिकाना पुनर्नानादेशीयान् साधून एतेष्वेव दोषानुपदर्शयति दृष्ट्वा इत्थमभ्युपपातो भवेत्आयापरोभयदोसा, काइयभूमी य इच्छऽणिच्छंते। जल्लमलपंकियाण वि, लावन्नसिरी जहेसि साहूणं / संकाए गमणे तू, वोच्छेद पदोसतो जं च / / 457|| सामन्नम्मि सरूवा, सयगुणिया आसि गिहवासे।४६११ यत्र संयतानामविरतिकानां चैका कायिकी भूमिस्तत्राऽऽत्मपरी- जल्लं च कठिनीभूतं कफाऽऽदि मलः पुनरुद्भर्तितः सन्निर्गच्छति, जल्लेन भयसमुत्था दोषाः / तत्र संयत एवाविरतिका रहसि दृष्ट्वा यदाऽऽत्मना मलेन च पतितानामप्येषां साधूनां देहेषु अभ्यङ्गो द्वर्तननस्नानक्षुभ्यति एष आत्मसमुत्थो दोषः। यस्तु सा स्त्री तस्मिन् संयते क्षुभ्यति विरहितेष्वपि यथा लावण्यश्रीः शोभालक्ष्मीः श्रामण्येपि सुरूपोपलभ्यते, स परसमुत्थः / यत्तु साधुर्विरतिकायाविरतिकाऽपि साधौ क्षोभमुपगच्छति तथा ज्ञायते नूनममीषां गृहस्थत्वे शतगुणिता लावण्यलक्ष्मीरासीत्। स उभयसमुत्थो दोषः / (इच्छऽणिच्छत्ति) यदि स्त्रिया प्रार्थितः साधुस्तां शब्दप्रतिबद्ध दोषानाहप्रतिसेवितुमिच्छतिततो व्रतभङ्गः, अथ नेच्छतिततः सा उड्डाहं कुर्यात् / गीयाणि य पढियाणि य हसियाणि य मंजुलुल्लावा। (संक ति) अविरतिका कायिकीभूमौ प्रविष्टा पश्चात् संयतमपि तत्र गच्छन्तं भूसणसद्दे राह-स्सिए असोऊण जे दोसा / / 462|| दृष्ट्वा कोऽपि शङ्कां कुर्यात्, यदेवमद्य द्वावप्यत्र त्वरित प्रविष्टौ तद् स्त्रीणां संबन्धीनि भाषाशब्दरूपाणि यानि गीतानि च पठितानि च मैथुनार्थमिति। ततएकस्यानेकेषां वा साधूनां व्यवच्छेद कुर्यात् (पदोसतो मञ्जुलाश्च माधुर्याऽऽदिगुणोपेता उल्लापाः, ये च वलयनूपुराऽऽदीना जवत्ति) तदीयाः पतिदेवराऽऽदयः प्रद्वेषतो यद् ग्रहणाऽऽकर्षणाऽऽदिक भूषणानां शब्दाः, ये च रहसि भवाराहसिकाः पुरुषेण परिभुज्यमानायाः करिष्यन्ति, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। स्त्रियाः स्तनिताऽऽदयः शब्दा इत्यर्थः / तान् श्रुत्वा ये भुक्तसमुत्था यत्राविरतिकानां साधूना चैकमेवोपवेशनस्थान दोषास्तन्निष्पन्नमाचार्यः प्रायश्चित्तं तत्र भवे प्रतिबद्धे तिष्ठन् प्राप्नोति। तदोषानाह अथ स्त्रियः साधूना स्वाध्यायशब्दं श्रुत्वा यद्विनयेयुस्तहर्शयतिदुग्गूढाणं छह, तहसणे भुत्तभोगिसइकरणं / गंभीरमहुरफुडविस-यगाहओ सुस्सरो सरो जह सिं / वेउव्वियमाईसु य, पडिबंधुडंचयाऽऽसंका।।४५८।। सज्झायस्स मणहरो, गीयस्स णु केरिसो आसी ? || 463|| दुर्गुढानां दुष्प्रावृताना स्त्रीणां यानि षड्भागानि गण्डकुचोरः-प्रभृतीनि, गम्भीरो नाम यतः प्रतिशब्द उत्तिष्ठते मधुरः कोमलः स्फुटो व्यक्ताक्षरः, तेषां दर्शन भुक्तभोगिनां तु स्मृतिकरणं कौतुकमुत्पद्यते, तथा वैक्रियं विषयग्राहकोऽर्थपरिच्छेदपटुः,सुस्वरो मालवकौशिक्यादिस्वरानुवाताऽऽदिविक्रियाविशेषान्महाप्रमाणं सागारिकम्, अथवा- विकुर्वित रञ्जितः, एवंविधः स्वरो यथा एषां साधूनां संबन्धी स्वाध्यायस्य मनोहर: नाम महाराष्ट्रविषये सागारिकं दृष्टा तत्र विण्टकः प्रक्षिप्यते, सा श्रूयते, यदा गृहवासे विश्वास्ताः संगीतमेते विहितवन्तस्तदानीं तस्य चाविरतिका तादृशेडनदाने प्रतिसेवितपूर्वा ततो वैक्रिय, विकुर्वितं वा। कीदृशो नाम शब्द आसीत्, किन्नरध्वनयस्तदानीमभूवन्निनि भावः / आदिग्रहणात्पैतिक वा सागारिकं दृष्ट्वा सा स्त्री तत्र साधौः प्रतिबन्ध उक्ताश्चतुर्वपि प्रस्रवणाऽऽदिप्रतिबद्धेषु दोषाः / अथ "ते पुण पुरिसा कुर्यात्, उड्डञ्चकं वा कश्चिदगारः कुर्यात् / आशङ्का वा लोकस्य भवति- दुविहा' इत्यादि पश्चार्द्ध व्याख्यानयतिएते श्रमणका न सुन्दरा येनैवं महेलाभिः सममासते। पुरिसा य भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केइ निक्खंता। सर्वेष्वपि प्रस्रवणाऽऽदिस्थानेषु सामान्यत इमे दोषाः कोऊहल सइकरणे, भेवहिँ दोसेहिंमं कुज्जा / / 464 // बंभवयस्स अगुत्ती,लज्जाणासो य पीइपरिवुड्डी। ते पुनः सङ्घातपुरुषा द्विविधाः केचिद् भुक्तभोगिनः, केचित्तु अभुक्तसाहु तवोवणवासो, निवारणं तत्थ परिहाणी।।४५६।। भोगिनो निष्क्रान्ताश्वा ते च तत्रोपाश्रये स्मृतिकरणकुतूहलोद्भवा दोषा ये स्त्रीभिः सहैकत्र तिष्ठतां साधूनां ब्रह्मचर्यस्यागुप्तिर्लज्जानाशश्च भवति, उत्पद्यन्ते तैरिदं कुर्यु:परस्परमभीक्ष्णं संदर्शनाऽऽदिना प्रीतिपरिवृद्धिरुपजायते, लोकश्चोप- पडिगमणमन्नतित्थिग, सिद्धी संजइसलिंग हत्थो य। हासोक्तिभङ्गया ब्रवीति अहो अभी साधवस्तपोवने वसन्ति / निवारण अद्धाणवाससावय-तेणेसु च भावपडिबद्धे॥४६५|| च राजादयः कुर्वन्ति-मा एतेषां मध्ये कोऽपि प्रव्रज्यां गृहीत / ततश्च प्रतिगमनं नाम भूयाऽपि गृहवास गच्छेयुः / यद्वा-कश्चित्पार्श्वस्थातीर्थपरिहाणिः तीर्थस्य व्यवच्छेदो भवति / *ऽऽदिभ्यः समागतः स तेष्वेव व्रजेत्, अन्यतीर्थिकेषु वा गच्छे वा रूपप्रतिबद्धे दोषानाह सिद्धपुत्रिका वा संयती वा स्वलिङ्ग स्थितः प्रतिसेवेत, हस्तकर्म वा चंकमियं ठिय जंपिय, मोडिय विप्पेखियं च सविलासं। कुर्यात् / यत एते दोषा अतो न भाव प्रतिबद्धे स्थातव्यं भवेत्। आवश्यके आगारे य बहुविहे, दर्छ भुत्तेयरे दोसा / / 460 / / तत्राऽपि स्थातव्यं भवति / किं पुनस्तदित्याह- (अद्धाण इत्यादि) चक्रमितु राजहंसवत् सलीलं पदन्यासः, स्थितं कटिस्तम्भेनो- अध्वप्रतिपन्नास्ते साधवो नवां वसतिन लभन्ते, वर्ष वा निरन्तरं पतति भ्रस्थानं, मोटितं गात्रमोटनं विविधमर्धाक्षिकटाक्षाऽऽदिभिर्भदैः प्रेक्षितं / चतुष्पदाः स्तेनाऽऽदयो ग्रामाऽऽदौ बहिरुपद्रवन्ति एतैः कारणैर्भावप्रतिबद्धे विप्रेक्षित, तच सविलासं सविक्षेपसहितं सविस्मितं सुखं च / / तिष्ठन्ति। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिबद्धसिञ्जा 326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिबद्धसिज्जा एतदेव व्याचष्टेविहनिग्गया य जइउं, रुक्खे जोइपडिबद्ध उस्से वा। ठायंति अह व वासं, सावयतेणाइ तो भावे // 466 / / "विह त्ति" अध्वा, ततो निर्गताः स्वयं प्रतिपन्ना वा त्रिः कृत्वा शुद्धाया वसतेरन्वेषणाय यतित्वा यदि न लभन्ते ततो वृक्षस्याधस्ताद्वा ज्योतिर्युतायां द्रव्यप्रतिबदायां वा वसतौ तिष्ठन्ति। (अह त्ति) अथ पुनर्वृक्षस्याधस्तात् (उस्से व त्ति) अवश्यायो वा, वर्ष वा निपतति, श्वापदस्तेनाऽऽदयो वा तत्रोपद्रवन्ति, ततः (भावे) भावप्रतिबद्धायां वसन्ति। तत्र चेयं यतनाभावम्मि ठायमाणे, पढमं ठाणं तु रूवपडिबद्ध। तहियं कडग चिलिमिली, तस्सऽसती ठंति पासवणे॥४६७।। भावप्रतिबद्ध तिष्ठन्ति, प्रथमं स्थानं तु रूपप्रतिबद्धे, तत्र चाऽपान्तराले कटक चिलिमिलिकां वा प्रयच्छन्ति, तस्य रूपप्रतिबद्धस्याभावे प्रस्रवणप्रतिबद्धेऽपि तिष्ठन्ति। तत्राऽपि कायिकी मात्रके व्युत्सृज्यान्यत्र परिष्ठापयन्ति। असई य मत्तगस्सा, निसिरणभूमीइ वावि असईए। वंदेण बोलकरणं, तासिं बेलं च वर्जिति // 468 / / मात्रकस्याऽसत्यभावे अन्यस्या वा कायिकीनिसर्जनभूमेरभावे वृन्देन त्रिचतुः प्रभृतिसाधुसहेन महता शब्देन बोलं कुर्वन्तस्तस्यामेव कायिकभूमौ प्रविशन्ति, तासां चागारीणां कायिकीव्युत्सर्जनवेला वर्जयन्ति प्रत्रवण इति / बद्धस्याभावे शब्दाप्रतिबद्धेऽपि तिष्ठन्ति। तत्रभूसणभासासद्दे, सज्झायज्झाणनिच्चमुपओगो। उवगरणेण सयं व, पेल्लण अन्नत्थ वा ठाणे // 466 / / प्रथमं भूषणशब्दप्रतिबद्धे, तदभावे भाषाशब्दप्रतिबद्धेऽपि तिष्ठन्ति।। तत्र चोभयाऽपि महता शब्देन समुदिताः सन्तः स्वाध्यायं कुर्वन्तिः / ध्यानलब्धिमन्तो वा ध्यानं शुक्लाऽऽदिभेदभिन्नं ध्यायन्ति / एतयोरेव स्वाध्यायध्यानयोर्नित्यमुपयोगः कर्तव्यः। भूषणभाषाशब्दप्रतिबद्धालाभे स्थानप्रतिबद्धे तिष्ठन्तिा तत्रोपकरणेन स्वयं वा विप्रकीर्णाः सन्तः तथा भालयन्ति यथा तासा प्रेरणं भवति; अवकाशो न भवतीति भावः / अन्यत्र वा स्थाने गत्वा दिवसे तिष्ठन्ति, स्थानप्रतिबद्धस्याभावे रहस्यशब्दप्रतिबद्धे तिष्ठन्ति। परियारसद्दजयणा, सद्दे वए चेव तिविह तिविहाय। उद्दाणपउत्थसाही-णभाइया जस्स जा गुरुगा।।४७०।। पुरुषेण स्त्री परिभुज्यमाना यं शब्दं करोति स परिचारशब्द उच्यते। तत्र यतना स्वाध्यायगुणनाऽऽदिका कर्तव्या। (सहे वए चेव तिविह त्ति) | शब्दतो वयसा च सा स्त्री त्रिविधा / तद्यथा-मन्दशब्दा, मध्यमशब्दा, तीव्रशब्दा च / वयसा तु स्थविरा मध्यमा तरुणी च। (तिविहा य त्ति) पुनरेकैका त्रिविधा अपद्रावणिभर्तृका, प्रोषितभर्तृका, स्वाधीनभर्तृका चति / तत्र पूर्वमपद्रावणभर्तृकायां स्थविरायां स्थातव्यम् / तदसंभवे प्रोषितभतृकायां स्थविरायां, तदप्राप्तावपद्रावणप्रोषितभर्तृकयोरेव प्रथममध्यमयोस्तत्तदपिण्योरूपरिक्रमेण स्थातव्यम्। ततः स्वाधीन भर्तृकायां स्थविरायां मन्दशब्दायां ततस्तस्यामेव मध्यमशब्दायां, ततस्तीव्रशब्दायां, तदभावे मध्यमतरुण्योरपि यथाक्रमं मन्दमध्यमतीव्रशब्दयोः स्थातव्यम्। अथवा- (जस्सजा गुरुग त्ति ) यस्य साधोर्यो मन्दाऽऽदिकशब्दो रोचते तेन यायुक्ता सा तस्य गुरुरागहेतुत्वात् गुरुका तेन च सर्वप्रयत्नेनतया गुरुकस्त्रिया प्रतिबद्धः प्रतिश्रयः परिहर्तव्यः। अथवाऽयमपर:क्रम उच्यतेउद्दाण परिट्ठविया, पउत्थ कन्ना सभोइया चेव। थेरी मज्झिमतरूणी, सद्दकरी मंदसद्दा य / / 471 / / कन्याशब्दो बन्धानुलोम्यान्मध्ये अभिहित आदौ कर्तव्यः / ततः पूर्व कन्यायामपरिणीतायां, तदभावे अपद्रावणभर्तृकायां, ततो भर्तृपरिष्ठापितायां दौर्भाग्यात्पत्या परित्यक्तायां, तदलाभे प्रोषितभर्तृकायां स्थविरायां स्थातव्यं, तदप्राप्तास्वेव शब्दकरी मन्दशब्दा च। चशब्दन्मध्यमशब्दा, तीव्र शब्दाचेति त्रिधा / तत्र पूर्व मन्दशब्दायां, ततो मध्यमशब्दायां, ततस्तीव्रशब्दयामपि स्थातव्यम्। "सर्वे वए चेव तिविह तिविह त्ति व्याख्यानयतिथेरी मज्झिम तरूणी, वएण तिविह त्ति तत्थ एकेका। तिव्यकारी मज्झकरी, मंदकरी चेव सद्देणं // 472 / / स्थविरा, मध्यमा, तरुणी, चेति वयसा त्रिविधा स्त्री / तत्रैकैका त्रिविधा-तीव्रशब्दकरी, मध्यमशब्दकरी, मन्दशब्दकरी चेति शब्देन त्रिविधा। ___ अथ प्रस्रवणप्रतिबद्धाऽऽदिषु चतुर्वपि या भाष्यकृता सविस्तरं यतना प्रोक्ता, तामेव नियुक्तिकृदेकगाथया संगृह्याऽऽहपासवणमत्तएणं, ठाणे अन्नत्थ चिलिमिलीरूवे। सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे वा / / 473 / / कायिकीप्रतिबद्ध स्वाध्यायो, ध्यानं वा, आवरणं वा कर्णयोः स्थगन विधेयम् / तथापि शब्दे श्रूयमाणे शब्दकरणं तथा शब्दः कर्तव्यो यथा तयोः शब्द उपशाम्यति। अथाऽस्याश्व पश्चार्द्ध व्याचष्टेवेरग्गकरं जं वा-वि परिजियं बाहिरं च इअर वा। सो तं गुणेइ साहू, झाणसलद्धी उ झाएज्जा / / 474|| वैराग्यकरमुत्तराध्ययनाऽऽदि। यद्वाऽऽपि परिजितं स्वभ्यस्तं परावर्तमानमस्खलितमागच्छतीति भावः / तच्चाङ्गबाह्यं वा प्रज्ञापनाऽऽदि, इतरद्वा-अङ्ग प्रविष्टम् आचाराऽऽदियद्यस्य साधोरागच्छति स तत्सूत्र तथा गुणयति यथा परिचारणशब्दो न श्रूयतेः यस्तु ध्यानलब्धिसंपन्नः स ध्यानं ध्यायति। दोसु वि अलद्धि कण्णे, उवेइ तह वि सवणे करे सइं। जह लज्जियाण मोहो, नासइ जणगंतकरणं वा / / 475 / / द्वयोरपि स्वाध्यायध्यानयोर्यःसाधुरलब्धिकः स्वकर्णी स्थगयति, तथाऽपिशब्दश्रवणे शब्दं तथा कुर्यात् यथा तयोर्लज्जितयोर्मोहो नश्यति किमेवं भो न पश्यसि त्वमस्मानत्र स्थितान्, यदेवं चेष्टितानि पुरुषे? यद्येवमप्युक्तो न तिष्ठति ततो जनकान्तं कुर्वन्ति-यथा पश्यत पश्यत भो इन्द्रदत्त ! सोमशर्मन् ! अर्थविगुप्त इत्थमस्माकं पुरतोऽनाचार सेवते। गतो द्वितीयभङ्गः। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिबद्धसिज्जा 330 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिबद्धसिज्जा अथ तृतीयभङ्ग माहउभओ पडिबद्धाए, भयणा पन्नरसियाएँ कायव्वा / दव्वे पासवणम्मिय , ठाणे रूवे य सद्दे य / / 476 / / उभयतो-द्रव्यतो, भावतश्चया प्रतिबद्धा वसतिः तस्यां पञ्चदशि-कायां | भजना भङ्गकरचना कर्तव्या / तद्यथा-द्रव्यतः प्रतिबद्धा, भावे च प्रस्रवणस्थानरूपैः प्रतिबद्धा न शब्देन / द्रव्यतः प्रतिबद्धा, भावतः प्रस्रवणस्थानशब्दः प्रतिबद्धा, नरूपेण / द्रव्यतः प्रतिबद्धा, भावे च प्रस्रवणस्थानाभ्यां प्रतिबद्धा। द्रव्यतः प्रतिबद्धा, भावतः प्रस्रवणरूपशब्दाभ्याम् 4 / एते चत्वारो भङ्गाः स्थानप्रतिबद्धयदेनापि च लभ्यन्ते, जाता अष्टौ भङ्गाः / एते प्रस्रवणप्रतिबद्धपदेन लब्धाः / एवं प्ररत्रवणाप्रतिबद्धपदेऽप्यष्टौ लभ्यन्ते, जाताः षोडश भङ्गाः। अत्र च षोडशो भगो द्रव्येण प्रतिबद्धः, भावतः पुनः प्रस्रवणाऽऽदिभिरित्येवलक्षणो नाधिक्रियते, उभयतः प्रतिबद्धाया अधिकारादत्र च भने भावतः प्रतिबद्धाया भावात् / ततो ये आद्या पञ्चदश भङ्गकाः तेषु तिष्ठतो दोषानाहउमओ पडिबद्धाए, ठायंते आणमाइणो दोसा। ते चेव पुव्वभाणिया, तं चेव य होइ वितियपयं / 477 / उभयतः प्रतिबद्धायां वसतौ तिष्ठतामाज्ञाऽऽदयश्च दोषाः / ये च प्रथमद्वितीयभङ्गयोः पूर्वं शब्दकरणाऽऽदय आत्मपरोभयसमुत्थाऽs - दयश्च दोषा भणिताः त एवाऽत्राऽपि समुदिता वक्तव्याः। यच्च प्रथमद्वितीयभड्गयोर्द्वितीयपदमुक्तं तदेवात्राऽपि ज्ञातव्यम् / गतस्तृतीयो भड्गः / चतुर्थस्तु भड्गो न द्रव्यतः प्रतिबद्धो, नापि भावतः इत्येवंलक्षणः / स चोभयथाऽपि निर्दोष इति न काचित्तदीया विवरणा। निर्ग्रन्थीनां प्रतिबद्धशय्यायां वासनिषेधः''नो कप्पइ निग्गंथीणं पडिबद्धसिज्जाए वत्थए।" अत्र भाष्यमएसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि चउलहुगा। सुत्तनिवाओ निद्दो-सपडिबद्धे असइ उसदोसे // 47|| एष एव क्रमो द्रव्यभावोभयप्रतिबद्धव्याख्यापरिपाटिरूपो नियमाद निर्ग्रन्थीनामपि वक्तव्यः, नवरं प्रतिबद्धे तिष्ठन्तीना तासां चतुलघुकाः। नोदकः प्राऽऽह-यद्येवं तर्हि सूत्रं निरर्थकम् ? / आचार्यः प्राऽऽहसूत्रनिपातो निर्दोषप्रतिश्रये सति प्रायश्चित्तं सदोषप्रतिबद्धे द्रष्टव्यम्। अथ निर्दोषप्रतिबद्धो न प्राप्यतेऽतस्त-स्यासत्यभावे सदोषप्रतिबद्धेऽपि स्थातव्यम्। आऊजोयणमादी, दव्वम्मि तहेव संजईणं पि। नाणत्तं पुण इत्थी, नऽयासन्ने न दूरे य॥४७६॥ द्रव्यप्रतिबद्धे संयतीनामप्कायशकटयोजनाऽऽदयस्तथैव भवन्ति, परं तासां सागारिकनिश्रये तिष्ठन्तीनां न दोषः। (नाणत्तं पुण इत्थि त्ति) स पुनः प्रतिबद्धः स्त्रीभिरेव वसन्तीभितिव्यो, न पुरुषैः / एतन्निन्थेभ्यो निर्ग्रन्थीनां नानात्वं, स च संयतीना प्रतिश्रयः सागारिकगृहस्य नाऽत्यासन्ने, न चाऽतिदूरे भवति। तद्यथा अज्जियमादी भगिणी,जा यन्न सगोर अब्भरहियाउ। विहवा वसंति सागा-रियस्स पासे अदूरम्मि॥४८०।। आर्यिका पितामही वा, आदिशब्दाज्जनन्यादिपरिग्रहः / भगिनी प्रतीता, याश्वान्या अपि भ्रातृजायाप्रभृतयः सागारिकस्य शय्यातरस्याभयर्हिताः पूज्या विधवाः सागारिकगृहस्थपाचे अ दूरे वसन्ति, ताभिर्द्रव्यतः प्रतिबद्ध प्रतिश्रये वस्तव्यमिति। आह च - एयारिसगेहम्मी, वसंति वाणीउदव्वपडिबद्धे। पासवणादी य पया, ताहिँ समं होति जयणाए।।४८१।। एतादृशे गेहे स्त्रीमिर्द्रव्यतः प्रतिबद्धे वतिन्यो वसन्ति, तत्र च स्थताः प्रस्रवणाऽऽदीनि पदानि यतनया वारकग्रहणाऽऽदिरूपया ताभिः, सम कुर्वन्ति, एतन्निर्दोषं द्रव्यप्रतिबद्धमुच्यते। नोदकःप्राऽऽहयद्यत्राप्यप्कायशकटयोजनाऽऽदीन्यधिकरणानि भवन्ति ततः कशं निर्दोष भवतीत्युच्यतेकामं अहिगरणादी, दोसा वयणीण इत्यियासुं पि। ते पुण हवंति सज्झा, अणिस्सियाणं असज्झा उ॥४२॥ काममनुमतमस्माकं यदधिकरणाऽऽदयो दोषा व्रतिनीनां स्त्रीप्रतिबद्धे भवन्ति, परं ते पुनः दोषाः साध्याः। "आपुच्छण आवासिय, आसज्ज निसीहि वा य जयणाए। (452)" इत्यादि-गाथोक्तया यतनया तेषां परिहर्तुं शक्यत्वात् / ये तु तासामनिः श्रितानां तरुणाऽऽदिसमुत्थिता दोषा भवन्ति ते असाध्याः / असाध्यदोषपरिहारेण च साध्यदोषानाद्रियमाणाना यतनया च तत्परिहारं कुर्वतीनां न कश्चिद्दोषः उक्तो द्रव्यप्रतिबद्ध विधिः। अथ भावप्रतिबद्धे विधिमाहपासवणठाणरूव-सदा य पुमं समस्सिया जे उ। भावनिबंधो तासिं, दोसा ते तं च विइयपदं॥४५३।। ये च प्रस्रवणस्थानरूपशब्दाः पुमासं पुरुषमाश्रितास्तैः, प्रतिबद्धा या शय्या तस्यां, तासां साध्वीनां भावनिबन्धः, सा भावप्रतिबद्धेति भावः। अथ च दोषास्त एव पूर्वोक्ताः , द्वितीयपदमपि तदेव मन्तव्यम्। यस्तु विशेषस्तमुपदर्शयतिविइयपयकारणम्मी, भावे चिटुंति पूवलियखाए। तत्तो ठाणे रूवे, काइयसविकार सद्दे य॥४८४।। द्वितीयपदे कारणे अध्वनिर्गमनाऽऽदौ निर्दोषोपाश्रयस्याप्राप्तौ भावप्रतिबद्धे तिष्ठत्यः प्रथमं पूपलिकाखादस्य वक्ष्यमाणशब्दस्य प्रतिबद्धे तिष्ठन्ति, ततस्तस्यैव स्थानप्रतिबद्ध रुपप्रतिबद्धे कायिक्या वायुकायस्य वायोर्युत्सृजतः शब्दो भवति, तेन सविकारे सदोष तथैव प्रस्रवणप्रतिबद्धे तिष्ठन्ति। पूपलिकाखादकस्य स्वरूपमाहनउइ-सयाऊओ वा, खट्टामल्लो अजंगमो थेरो। अन्नेण उट्ठविजइ, भोइज्जइ सो य अन्नेणं / / 485|| यः स्थविरो नवतिवार्षिको वा शताऽऽयुष्को वा, संपन्न - शतवर्ष इत्यर्थः / खट्टामलो नामप्रबलजराजर्जरितदे हतया यःखटाया उत्थातुं न शक्नोति, अत एवाऽसावजङ्गमः अन्येन Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिबद्धसिज्जा 331 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिमट्ठाइ (ण) mmmmmmm परिचारकाऽऽदिन्ना उत्थाप्यते, अन्येन चाऽसौ भोज्यते भोजन कार्यते, निर्ग्रन्थीनां तु पुरुषिकाखादकप्रतिबद्ध स्वल्प एव दोषः, अनिश्रितानां तु एष पूपलिकाखादकः। महानिति / बृ० 1 उ० प्रक० / नि० चू० / अस्यैव व्युत्पत्तिमाह पडिबिंब न० (प्रतिबिम्ब) चिकणपदार्थेषु बिम्बाऽऽकृति-संक्रमणे, आ०म० पूवलियं खायंतो, चवचवसई तु सो परं कुणइ। 1 अ० / सूत्र० / प्रतिमायाम्, “पडिमा पडिबिबा' पाइ० ना० 217 एरिसओ वा सद्दो, जारिसओ पूवभक्खिस्स // 486 / / गाथा। पूपलिकां भक्षयन् दन्तानामभावाद्यस्मादसौ परं केवलं चपचपशब्द पडिबुज्झमाण त्रि० (प्रतिबुध्यमान) सावधानीभवति, कल्प० करोति, लेन पूपलिकाखादकः / यादृशो वा पूपभक्षिणः शब्दो भवति 1 अधि० 5 क्षण। ईदृशो यस्य भाषमाणस्य शब्दः स धूपलिकारखादकः / पडिबुद्ध त्रि० (प्रतिबुद्ध) जागरिते, कल्प० 1 अधि० 3 क्षण / अनिद्रे, सो वि य कुटुंतरितो, खाहु त्थू माइ कुणइ जत्तेणं। अप्रमादिनि, उत्त० 4 अ० / मिथ्यात्वाज्ञाननिद्राऽपगमे सम्यक्त्यविकाश परिदेवइ किच्छा हिय-यऽवितकंतो विगयभावो / / 467 / / प्राप्ते, दश० 1 अ०। भावे क्तः। प्रतिबोधे, आचा०१ श्रु०५ अ० 5 उ० / सोऽपि पूपलिकाखादकः स्थविरः संयतीप्रतिश्रयस्य कुड्यान्त-रितो | पडिबुद्धजीवि(ण) त्रि० (प्रतिबुद्धजीविन्) प्रमादनिद्रार-हितजीविते, वर्तमानः (खाहु त्थूमाइ त्ति) काशितनिष्ठीवने, ते द्वे अपि यत्नेन कष्टन दश०२ चू० / प्रतिबुद्धम् प्रतिबोधः, द्रव्यतो जाग्रत्ता, भावतस्तुकरोति, कृच्छ्राबासौ परिदेवते करुणति / वितर्कम-कुर्वन् विगतभावो यथावस्थितवस्तुतत्त्वावगमः, तेन जीवितुं. प्राणान् धर्तुं शीलमस्येति निरभिसन्धिहृदपः, सप्तममूर्तितादिरिवाव्यवतचेतनाक (?) इत्यर्थः / प्रतिबद्धजीवी / यदि वा-प्रतिबुद्धः द्विधाऽपि प्रतिबोधवान् ईदृशेन पलिवाखादकशब्देन प्रतिबद्धे प्रथम स्थातव्यम्, तदभावे जीवतीत्येवंशीलः जीवी-प्रतिबुद्धजीवी। कोऽभिप्रायः? द्विधा प्रसुप्तेष्वपि तस्यैव स्थानप्रतिबद्धे, ततो रूपप्रतिबद्धे, ततः प्रतिहते बद्धेऽपि / आह- अविवे किषु न गतानुगतिकतयाव्यं स्वपिति, किं तु प्रतिबुद्ध एव किमत्र पूपलिका-खादकप्रतिबद्ध रागोद्भवो न भवति? यावजीवमास्ते। (उत्त०) (तत्र च द्रव्यनिद्राप्रतिषेधे अगडदत्तोदाहरणम् उच्यते 'अगडदत्त' शब्दे प्र०भा० 153 पृष्ठादारभ्य गतम्) भावसुप्तेषु तु अवि होज विरागकरो, सद्दो रूवं च तस्स तदवत्थं च। तपस्विनः, ते हि मिथ्यात्वाऽऽदिमोहितेष्वपिजनेषु यथावदवगमपूर्वकमेव ठाणं च कुच्छणिज्जं, किं पुण रागोब्भवो तम्मी? // 488 / / संजमजीवित धारयन्तीति / उत्त० 4 अ० / प्रतिबोधः प्रतिबुद्धमेतत् अपीत्यभ्युच्चये / यो भवेत् पूपलिकाखादकस्य संबन्धी काशित- प्रतिबुद्धं तेन जीवितुं शीलमस्येत्येतत्प्रतिबुद्धजीवी / प्रतिबोधेन परिदेवनाऽऽदिकः शब्दो, यच्च तदवस्थं तस्यामवस्थायां वर्तमान जीवनशीले, आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०। वलीपलिताऽऽदिकं रूपं, यत् तस्य विण्मूत्रश्लेष्माऽऽद्युशुचिपङ्किल पडि बुद्धराय पुं० (प्रतिबुद्धराज) मल्लितीर्थकरेण सह प्रव्रजिते कुत्सनीयं जुगुप्साऽऽस्पदं स्थानं, तानि प्रत्युत विरागकराण्येव, कुतः साकेतनिवासिनि इक्ष्वाकुराजे, स्था०७ढा० / ज्ञा०। (येन च नागयज्ञे पुनस्तत्र रागोद्भवो भविष्यति? अथ पूपलिकाखादकप्रतिबद्धंन कल्प्यते स्वभार्यायाः पद्मवत्याः श्रीदामगण्डे विस्मितो मिथिलापतिपुत्र्या ततो यथा निर्ग-थाना कटकचिलिमिलिकाऽऽदिका यतना भणिता, तथा मल्ल्याः श्रीदामगण्डवर्णन श्रुत्वा तत्र दूतःप्रेषितः, इति 'मल्ली' शब्दे निर्गन्थीनामपि द्रष्टव्या। वक्ष्यते) अत्र परः प्राह पडिबोहग पु० (प्रतिबोधक) प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः / विशे०। एयारिसे पि रूवे, सद्दे वा संजईण जइऽणुण्णा। गृहचिन्तके, यो गृहं चिन्तयन् यो यत्र योग्यस्तं तत्र व्यापारयति। व्य०३ समणाण किं निमित्तं, पडिसेहो तारिसे भणिओ?||४८६॥ उ०। प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः / सुप्तस्योत्थापके, नं०। यद्येतादृशे पूपलिकाखादकसंबन्धिनि रूपे शब्दे वा संयतीनामनुज्ञा पडिबोहिय त्रि० (प्रतिबोधित) व्यक्तचेतनावति, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। क्रियते तर्हि श्रमणानां किं निमित्तमीदृशे स्थविरस्त्रीसंश्रिते रूपाऽऽदि- पडिभजिउकाम त्रि० (प्रतिभक्तुकाम) प्रतिपतितुकामे, व्य० 4 उ० / प्रतिबद्धे प्रतिपधो भणितः; तेषामपि तत्र वस्तुं युक्तमिति भावः / पडिभयकर त्रि० (प्रतिभयकर) भयजनके, स०११ अङ्ग। सूरिराह पडिभाग पुं०(प्रतिभाग) प्रतिरूपो भागः प्रतिभागः। प्रतिबिम्बे, आ०म० मोहोदएण जइ ता, जीवविउत्ते वि इत्थिदेहम्मि। 1 अ०। अशे, अनु०। दिट्ठा दोसपवित्ती, किं पुण सजीवए देहे // 46 // पडिभासंत त्रि० (प्रतिभाषत) बुवाणे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०) यदि तावता मोहोदयेन जीववियुक्तेऽपि स्त्रीदेहे पुरुषाणां प्रति- | पडिभेअ पुं० (प्रतिभेद) उपालम्भने, पाइ० ना०२६६ गाथा। सेवनादोषप्रवृत्तिर्दृष्टा, तर्हि किं पुनः सजीवदेहे स्थविरायां संबन्धिनि, पडि मट्ठाइ(ण) पु० (प्रतिमास्थायिन्) प्रतिमया एक रात्रितत्र सुतरा भवष्यितीति भावः / अतस्तेषां तत्रापि प्रतिषेधः कृतः, क्यादिक या कायोत्सर्ग विशेषेण व तिष्ठ तीत्येवं शीलो यः स Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमट्ठाइ (ण) 332 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिमा प्रतिमास्थायी, स्था० 5 टा० 1 उ०। भिक्षुप्रतिमाकारिणि, स्था०७ / ठा०।०। पडिमंगी स्त्री० (प्रतिमाङ्गी) रचनायाम्, जिनप्रतिमानां सत्काऽङ्गीरचना | क्रियमाणा दृश्यते, सा युक्तिमती, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्-यद्यपि लोहितसंस्कारे किशिदपावित्र्यं श्रूयते तथाऽपि नामग्राहं निषेधाक्षरानुपलम्भादिदानींतनकाले स्थान स्थाने तथा प्रवृत्तिदर्शनाद्, बहूना पूजाकरणान्तरायप्रसङ्गाच सर्वथा न निषेधः / 15 प्र० / सेन०२ उल्ला०। पडिमा स्त्री०(प्रतिमा) सद्भावस्थापनायाम, दश०१अ01 बिम्बे, आव० 3 अ० / "पडिमा पडिबिवं / ' पाइ० ना० 217 गाथा। "जिणपडि- | मादसणेण पडिबुद्ध / ' दश०१ अ०। (जिनप्रतिमाऽधिकारः सर्वोऽपि 'चेझ्य' शब्दे तृ०भा० 1205 पृष्ठादारभ्योक्तः) प्रतिपत्तौ, स्था०। दो पडिमाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-सुयसमाहिपडिमा चेव, उवहाणपडिमा चेव / दो पडिमाओ पण्णत्ताओ / तं जहाविवेगपडिमा चेव, विउस्सग्गपडिमा चेव / दो पडिमाओ पण्णत्तओ / तं जहा-भद्दे चेव, सुभद्दे चेव / दो पडिमाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-महाभद्दे चेव, सव्वतोभद्दे चेव / दो पडिमाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-खुड्डिया चेव मोयपडिमा, महलिया चेव मोयपडिमा। दो पडिमाओ पन्नत्ताओ। तं जहाजवमज्झे चेव चंदपडिमा, वइरमज्झे चेव चंदपडिमा। (दो पडिमा इत्यादि) प्रतिमा प्रतिपत्तिः, प्रतिज्ञेति यावत् / समाधान समाधिः प्रशस्तभावलक्षणः, तस्य प्रतिमा समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता द्विभेदाश्रुतसमाधिप्रमिमा, सामायिकाऽऽदिश्चारित्रसमाधिप्रतिमा च। उपधानं तपस्तत्प्रतिमा उपधानप्रतिमा द्वादशभिक्षुप्रतिमा ('भिक्खुपडिमा' शब्देऽस्या व्याख्या) एकादशोपासकप्रतिमाश्वेत्येव रूपेति / विवेचन विवेकस्त्यागः, स चाऽऽन्तरायाणां कषायाऽऽदीनां, बाह्यानां गणशरीरभक्तपानाऽऽदीनामनुचिताना तत्प्रतिप, त्तिर्विवेकप्रतिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा, कायोत्सर्गकरणमेवेति / भद्रा पूर्वाऽऽदिदिक् चतुथ्ये प्रत्येक प्रहरचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्रद्वयमानेति। सुभद्राऽप्येवं प्रकारेणैव सम्भाव्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तेति महाभद्राऽपि तथैव नवरमहो रात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रचतुष्टयभाना सर्वतोभद्रा तुदश नु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात्रदशक प्रमाणे ति / (क्षुद्रिका सर्वतोभद्रप्रतिमा 'खुड्डागसव्वओभद्दपडिमा' शब्दे तृतीयभागे 753 पृष्ठे गता) मोकप्रतिमा प्रस्रवणप्रतिमा, सा च कालभेदेन क्षुद्रिका (अस्यार्थः 'खुड्डिया' शब्दे तृतीयभागे 753 पृष्ट गतः) महती च भवतीति / यत उक्तं व्यवहारे"खुड्डियाणं मोयपडिमापडिवन्नस्स / ' इत्यादि / इयं च द्रव्यतः प्रस्रवणविषया, क्षेत्रतो ग्रामाऽऽदेर्बहि, कालतः शरदि निदाघे वा प्रतिपद्यते, भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते चतुर्दशभक्तेन समाप्यते, अभुक्त्वा तु षोडशभक्तेन,भावतस्तु दिव्याऽऽद्युपसर्गसहनमिति। एवं महत्यपि, नवरं भुक्त्वा चेत्प्रतिपद्यतेषोडशभक्तेन समाप्यते, अन्यथा त्वष्टादशभक्तेनेति / यवस्येव मध्यं यस्याः सा यवमध्या, चन्द्र इव कलावुद्धि हानिभ्या या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा। पस्था०ब पयवमध्या चन्द्रप्रतिम 'जवमज्झवंदपडिमा' शब्दे चतु० भा० 1430 पृष्ट व्याख्याताब यस्या तु कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश भुक्त्वा एकै कहान्या अभावास्यायामेकं, शुक्लप्रतिपदि चैकमेव, ततः पुनरेकैकवृद्धया पूर्णिमायां पञ्चदश भुङ्क्ते सा, बज्रस्येव मध्यं यस्यास्तन्वित्यर्थः / सा वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमेति स्था०२ ठा०३ उ० / प्रतिज्ञायाम्, प्रव०६७ द्वार / स्था० / अभिग्रहप्रकारे, यथा मासाऽऽद्याभिक्षुप्रतिमा। ओघ०। स० दश ध०। स्था० / आचा० / उत्त०। ज्ञा० / व्य०। चत्तारि सेज्जपडिमाओ पण्णत्ताओ। चत्तारि वत्यपडिमाओ पण्णत्ताओ। चत्तारि पायपडिमाओ पण्णत्ताओ। चत्तारि ठाणपडिमाओ पण्णत्ताओ। स्था०४ ठा०३ उ०। (पृथक् पृथगेषां व्याख्या) तपोभेदाऽऽत्मिकाः प्रतिमा आहपंच पडिमाओ पण्णत्ताओ।तं जहा-भद्दा, सुभद्दा, महाभद्दा, सव्वओभद्दा, भदुत्तरपडिमा। "पंच'' इत्यादि व्यक्त, नवरम्-भद्रा१, महाभद्रा 3, सर्वतोभद्रा 4 च द्विचतुर्दशभिर्दिनैः क्रमेण भवतीत्युक्तं प्राक् / सुभद्रा त्वदृष्टत्वात् न लिखित। सर्वतोभद्रातु प्रकारान्तरेणाप्युच्युते। द्विधेयम्-क्षुल्लिका, महती च। तत्राऽऽद्या चतुर्थाऽऽदिना द्वादशावसानेन पञ्चसप्ततिदिनप्रमाणेन तपसा भवति। अस्याश्च स्थापनोपायगाथा-"एगाई पंचते, ठगिय मज्झ तु आइमणुयति। उचियकमेण य सेसे ,जाण लहुं सव्वतोभहं / / 1 / / " इति / पारणकदिनानि तु पञ्चविंशतिरिति स्थापना / महती तु चतुर्थाऽऽदिना षोडशावसानेन षण्णवत्यधिकदिनशतमानेन तपसा भवति। अस्या अपि स्थापनोपायगाथा- ''एगाई सत्तंते, टवियं मज्झेतु आदिमणुयंति। उचियकमेण य सेसे, जाण मह सव्वओभदं / / 1 / " इति। पारणकदिनान्येकोनपञ्चाशदिति 2 स्थापना / भद्रोत्तरप्रतिमा द्विधाक्षुल्लिका, महती च / तत्राऽऽद्या द्वादशदिना विशान्तेन पञ्चसप्तत्यधिकाऽऽदिशतप्रमाणेन तपसा भवति / अस्याः स्थापनोपायगाथा'पंचाई अनर्वते, ठवियं मज्झे तु आइमणु-यंति। उचियकमेण य सेसे, जाणह भद्दोत्तरं खुडु // 1 // " इति। पारणकदिनानि पञ्चविंशतिरिति 3 / महती तु द्वादशाऽऽदिना चतुर्विशतितमान्तेन द्विनवत्यधिकदिनशतत्रयमानेन तपसा भवति। तत्र च गाथा-''पंचाइऽऽगारसंते, ठवियं मज्य तु आइमणुयति। उचियकमेण य सेसे, महई भद्दोत्तरं जाण।।१।।" इति। पारणकदिनान्येकोनपञ्चाशदिति / उक्तः कर्मणां निर्जरणहेतुस्तपोविशेषः / स्था०५ठा०१ उ० / “एगा अहम्मपडिमा।" धर्मप्रतिपक्षभूतस्त्वधर्मः, तद्विषया प्रतिमा प्रतिज्ञा, अधर्मप्रधानशरीरा वा अधर्मप्रतिमा, सा एका (स्था०) "एगा धम्मपडिमा।" स्था० 1 टा०। संथा० / प्रव० / आव० / ध० (एकादशोपासकप्रतिमाः 'उवासगपडिमा' शब्दे द्वि०भा० 1065 पृष्ठे प्रपञ्चिताः) (प्रकीर्णक विषयाः 'पढिमा' शब्दे वक्ष्यते) अथ प्रतिमापालनरूपं जन्मसंबन्ध्येव कृत्यं स्वातन्त्र्येणाऽहविधिना दर्शनाद् ध्यानात्, प्रतिमानां प्रपालनम्। यासु स्थितो गृहस्योऽपि, विशुद्ध्यति विशेषतः॥७०।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमा 333 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिमा (विधिना) दश श्रुतस्कन्धाऽऽद्यागमप्रतिपादनेन दर्शन, सम्यक्त्वं, तत्प्रधाना, तेनोपलक्षिता वा प्रतिमाऽपि दर्शनं सा आद्या प्रथमा यासां प्रतिमानां ता दर्शनाऽऽद्यास्तासाम्, एकादशसंख्यानामित्यर्थः / (प्रतिमानाम) अभिग्रहविशेषाणाम् (प्रपालनम्) प्रकर्षेण पालनं, विशेषता गृहिधर्मो भवतीति अन्वयः / आसां पालने किं भवतीत्याह(पास्वित्यादि। यासु प्रतिमासु (स्थितः) निष्ठः (गृहस्थोऽपि) यतितामप्राप्नुवन्नपि, आस्तां कृतसर्वसङ्ग त्यागोऽनगार इत्यपिशब्दार्थः / (विशेषतः) असंख्यगुणया गुणश्रेण्या (विशुध्यति) क्षीणपापो भवति / अथ पुनःकाः प्रतिमाः यासु स्थितो गृहस्थोऽपि विशेषतः शुध्यति? उच्यते"दसण 1 वय २सामाइअ, 3, पोसह 4 पडिमा 5 अबंभ६ सच्चित्ते 7 / आरंभ 8 पेस ( उद्दिट्ठ 10 वज्जए समणभूए अ॥१॥" इति। तत्र शहाऽऽदिदोषरहितं प्रशमाऽऽदिलिङ्ग स्थैर्याऽऽदिभूषणं मोक्षमार्गप्रासादपीठभूतं सम्यग्दर्शन, भयलोभलज्जाऽऽदिभिरप्यतिचरन् मासमात्र सम्यक्त्वमनुपालयतीत्येषा प्रथमा प्रतिमा 1 / द्वौ मासौ यावदखण्डितान्यविराधितानि च पूर्वप्रतिमाऽनुष्ठानसहितानि द्वादशाऽपि व्रतानि पालयतीति द्वितीया। त्रीन् मासानुभयकालमप्रमत्तः पूर्वोक्तप्रतिमाऽनुष्ठानसहितः सामायिकमनुपालयतीति तृतीया३ चतुरो मासाश्चतुष्पा पूर्वप्रतिमाऽनुष्ठानसहितोऽखण्डितं पौषधं पालयतीति चतुर्थी 4 / पञ्चमासाँश्चतुष्पा गृहे तद्द्वारे चतुष्पथे वा परीषहोपसर्गाऽऽदिनिष्कम्पकायोत्सर्गः पूर्वोक्तप्रतिमाऽनुष्ठानं पालयन् सकलां रात्रिमास्त इति पञ्चमी 5 / एवं वक्ष्यमाणास्वपि प्रतिमासु पूर्वपूर्वप्रतिमाऽनुष्ठाननिष्ठताऽवसेया, नवरं षण्मासान् ब्रह्मचारी भवतीति षष्ठी 6 / सप्तमासान् सचित्ताऽऽहारान् परिहरतीति सप्तमी 7 / अष्टौ मासान् स्वयमारम्भं न करोतीत्यष्टमी 8 / नवमासान् प्रेष्यैरप्यारम्भं न कारयतीति नवमी 6 / दशमासानात्मार्थ निष्पन्नमाहारं न भुक्त इति दशमी 10 / एकादशमासाँस्त्यक्तसङ्गो रजोहरणाऽऽदिमुनिवेषधारी कृतकेशोत्पाटः स्वायत्तेषु गोकुलाऽऽदिषु वसन् प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रवणोपासकाय भिक्षा दत्त इति वदन् धर्मलाभशब्दोच्चारणरहितं मुसाधुवत्समाचरतीत्येकादशी 11 उक्तंच"दसणपडिमा नेया, सम्मत्तजुअस्स सा इहं बुदी। कुराहकलकरहिआ, मिच्छत्तखओयसमभावा / / 1 / / विइया पडिमा णेया, सुद्धाणुव्वयधारण। सामाइअपडिमा ऊ सुद्ध सामाइअंपि अ॥२॥ अट्ठमीमाइपव्वेसु, सम्म पोसहपालणं। सेसाणुट्टाणजुत्तस्स, चउत्थी पडिमा इमा॥३॥ निकंपो काउसम्म तु, पुन्बुत्तगुणसंजुओ। करेइ पव्वराईसुं, पंचमी पडिवन्नओ।।४।। असिणाणविअडभोई, मउलिउडो दिससबंभयारी अ। रतिं परिमाणकडो, पडिमावज्जेसु दिअएसु // 5||" टीका-(मउलिउड त्ति) अबद्धकच्छः / / 5 / / "झायइ पडिमाइठिओ, तिलोगपुज्जे जिणे जिअकसाए / णिअदोसपच्चणीअं,अण्णे वा पंच जा मासा / / 6 / / छुट्टीए बंभयारी सो.फासुआऽऽहार सत्तमी। वजिजा वजमहारं, अट्टमि पडिवन्नओ / / 7 / / " षष्ट्या पुनरय विशेषः''पुव्वाइअगुणजुत्तो, विसेसओ विजिअमोहिणिजो अ। वजइ अबंभमेग-तओ अ राई पिथिरचित्तो / / 8 / / सिंगारकहाविरओ, इत्थी' समं रहम्मि णो ठाइ। चयइ अ अतिप्पसंग, तहा विभूसंच उक्कोसं 118 / / एव जा छम्मासा, एसोऽहिगओ इहरहा दिट्ट। जावजीव पि इम, वजइ एअम्मि लोगम्मि / / 10 / / अवरेण वि आरंभ, नवमीए नो करावए। दसमीए पुणो दिट्ट, फारसुअंपि न भुंजए।।११।। णिक्खित्तभरो पायं पुत्ताइसु अहव सेसपरिवारे। थोवममत्तो अतहा, सय्वत्थ परिणओ नवरं / / 12 / / लोगववहारविरओ, बहुसो संवेगभाविअमई / पुष्योइअगुणजुत्तो, णव मासा जाव विहिणा उ॥१३॥" दशम्या पुनरय विशेषोऽपि, यथाउद्दिट्टकड भत्तं, विवज्जए किमुअ सेसमारंभ। से होइ अ खुरमंडो, सिहलि वा धारई कोइ॥१४॥ जं णिहिअमत्थजायं, पुट्ठो णिअएहिं णवरि सो तत्थ। जइ जाणइ तो साहइ, अह णवि तो बेइण वि जाणे // 15|| जइ पज्जुवासणपरो, सुहुमपयत्थेसु णिच्चतल्लिच्छो। पुवोदिअगुणजुत्तो, दस मासा कालमासेण|१६|| एगारसीसु निस्संगों, धरे लिंग पडिग्गह। कयलोओ सुसाहु व्व, पुवुत्तगुणसायरो।।१७।। पुव्वाउत्तं कप्पइ, पच्छाउत्तं तुणखलु एअस्स। ओयणभिलिंगसूआ-इ सव्वमाहारजायं तु / / 8 / / " इति / / आवश्यकचूर्णी त्वित्थम्- 'राइभत्तपरिण्णा पंचमी, सचित्ताहारपरिणा'' इति षष्ठी, "दिआ बंभचारी, राओ परिमाणकडे 'त्ति सप्तमी। "दिया विराओ वि बंभचारी असिणाणए वोसट्ठकेसमंसुरोमनहे'' त्ति अष्टमी। ''पेसारंभपरिणाए'' ति दशमी, "उद्दिभत्तविवजए समणभूए'' त्ति एकादशीति ॥७०॥ध० 2 अधि०। (अत्र बहुविस्तरः 'उवासगपडिमा' शब्दे तृतीयभागस्थ 1065 पृष्ठऽवगन्तव्यः) "उद्दिट्टपेच्छसंगय-उज्झियधम्मे चउत्थए होइ।" उद्दिष्टपात्रं प्रेक्षासंगतिकपात्रमुज्झितधर्मकं च चतुर्थमिति चतस्रः पात्रगवेषणे प्रतिमाः / वृ०१उ० १प्रक०। (वस्त्रस्य गवेषणे प्रतिमा 'वत्थ' शब्दे) (प्रतिमाप्रतिपन्नस्योपाश्रयप्रत्युपेक्षणं पडिलेहणा' शब्दे) ('एगल्लविहारप्पडिमा' स्वस्थाने उक्ता) (सत्त्वभावनायां पञ्च प्रतिमा भवन्ति इति 'सत्तभावणा' शब्दे) मोकप्रतिमा- "दो पडिमाओ (सूत्रद्वयं पुस्तके नास्ति, ततो व्याख्यातोऽवसेयम्।)"इत्यादि सूत्रद्वयम्। अस्य संबन्धमाहपडिमाहिगोरे पगते, हवंति मोयपडिमा इमा दोण्णि। ता पुण गणम्मि वुत्ता इमा उ बाहिं पुरादीणं // 17 // प्रतिमाधिकारः प्रकृतस्तत इमे अपि द्वे मोकप्रतिमे इह भवतः, प्रतिमाप्रस्तावादिमे अपि प्रतिमे अत्रोपन्यस्ते इति भावः, केवलमयं विशेषःता अनन्तरो दिताः प्रतिमा गणे स्थितस्योक्ताः, इमे पुनः पुराऽऽदीना बहिः स्थितस्येति संबन्धः अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य (सूत्रस्य) व्याख्याद्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमा 334 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिमा क्षुलिका च मोकप्रतिमा, महती वा मोकप्रतिमा / मोकः कायिकी तदप्युत्सर्गप्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिभा, तत्र क्षुलिका णमिति प्राग्वत् / मोकप्रतिमां प्रपन्नस्यानगारस्य कल्पते (से) तस्य प्रथमनिदाधकालसमये वा, चरमनिदाघकालसमये वा बहिग्रामस्य वा, यावत्करणान्नगराऽऽदिपरिग्रहः / राजाधान्यां वा वने वा, एकजातीयगुमसंघातो वन, विदर्गे नानाजातीयद्रुमसंघाते, पर्वते प्रतीते, पर्वतविदुर्गे अनेकपर्वतसंघातरूपे भुक्त्वा यदि प्रतिमामारोहति प्रतिपद्यते, तदा चतुर्दशन भक्तेन पारयति समापयति, अथाभुक्त्या आरोहति तदा षोडशकेन भक्तेन पारयति, तेन च जातं मोकं कायिकी आघातव्या, आगमने च दिवा आगच्छति, एवं महत्या अपि प्रतिमायाः सूत्रं वाच्यं, विशेषोऽपि पाठसिद्ध एव / व्य० 6 उ०। ('मोयपडिमा' शब्दे विस्तरः) यवमध्यचन्द्रप्रतिमा- "दो पडिमाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-जवजज्झाय, चंदपडिमा" इत्यादि। अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहपगया अभिग्गहा खलु, एस उदसमस्स होति संबंधो। संखा य समणुवत्तइ, आहारे वा वि अहिगारे ||1|| प्रकृताः खलु नवमोद्देशके चरमसूत्रेष्वभिग्रहाः, अत्रापि त एवाभिग्रहाः प्रतिपाद्या इत्येष दशमस्य दशमोद्देशकाऽऽदिसूत्रस्य संबन्धः अथवा नवमोद्देशे चरमानन्तरसूत्रे आहारे या अभिहिता संख्या सा अवाप्यनुवर्तते -तत आहारविषयसंख्या प्रशस्ता वा दशमोद्देशकाऽऽदिसूत्रस्याधिकारप्रवृत्तिः, सूत्राक्षराणि सामान्यतः सुप्रतीतानि। विशेषं तु भाष्यकारो व्याख्यानयतिजवमज्झ वइरमज्झा, वोसट्ट चियत्त तिविह तीहिं तु। दुविहे च सहइ सम्म, अण्णाओ तित्थनिक्खेवो॥२। यवमध्येति पदं, वज्रमध्येतिपदं, तथा व्युत्सृष्ट इति, त्यक्त इति त्रिविधमुपसर्ग , त्रिभिर्मनोवाक्कायैः सम्यक् सहते, यदि वाद्विविधात् उपसर्गात् अनुलोमरूपात् त्रिभिः सम्यक् सहते, तथा-अज्ञातः तीर्थनिक्षेप इति व्याख्येयमेष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो यवमध्येति, वज्रमध्येति च व्याख्यानयतिउवमा जवेण चंदे-ण वावि जवमज्झचंदपडिमाए। एमेव य विइयाए, वज्जं वइरं ति एगटुं|३|| यवमध्यचन्द्रप्रतिमाया यवनोपमा, चन्द्ररोव यवस्येव मध्यं यस्याः सा यवमध्या, चन्द्राऽऽकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमेति व्युत्पत्तेः / एवमेव द्वितीया अपि वक्तव्या वजमध्यचन्द्रप्रतिमाया वजेणोपमा चन्द्रेण च / वजस्येव मध्यं यस्याः सा वज्रमध्या, चन्द्राऽऽकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमा, प्राकृतमधिकृत्य वज्रशब्दस्य पर्यायण व्याख्यानमाह-(वज वइरति एगट्ठ) इयमत्र भावनाशुक्लपक्षस्य प्रतिपादि चन्द्रविमानस्य दृश्यपञ्चदशभागीकृतस्य एका कला दृश्यते, द्वितीयायां ट्रे कले, तृतीयायां तिस्रः कलाः, एवं यावत् पञ्चदश्यां परिपूर्णाः पञ्चदश कलाः। ततो बहुलपक्षस्य प्रतिपदि एकैकया कलया ऊनो दृश्यते चतुर्दशकला दृश्यन्ते, द्वितीयायां त्रयोदश, तृतीयस्यां द्वादश, यावदमावास्यायामेकाऽपि न दृश्यते। तदेवमयं मास आदावूनो मध्ये संपूर्णोऽन्ते पुनरपि परिहीनो, यवोऽप्यादावन्त च तनुको मध्ये विपुलः / एवं साधुरपि भिक्षा गृह्णाति शुक्लपक्षस्य प्रतिपदिएका, द्वितीयस्या द्वे, तृतीयस्यां तिस्रः, यावत्पञ्चदश्यां पञ्चटश / ततो बहुलपक्षस्य प्रतिपदि पुनश्चतुर्दश द्वितीयायां त्रयोदश यावच्चतुर्दश्यामेकाममावस्यायामुपोषितः। ततश्चन्द्राऽऽकारतया चन्द्रप्रतिमा आदायन्ते च भिक्षायास्तनुत्वान्मध्ये विपुलत्वात् यवमध्योपमितमध्यभागा। तथाऽमुमेव यवमध्यं चन्द्रप्रतिमामधिकृत्यान्यत्रोक्तम्- "एकैकां वर्द्धयेत् भिक्षा, शुक्ले कृष्णे च हापयेत्। भुञ्जीत नामावस्याया मेष चान्द्रायणे विधिः / / 1 / / " वज्रमध्यायां चन्द्रेण प्रतिमायां बहुलपक्ष आदौ क्रियते, तत एवं भावना-बहुलपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रविमानस्य चतुर्दशकला दृश्यन्ते, द्वितीयस्यां त्रयोदश, यावचतुर्दश्यामेका, अमावास्यायामेकाऽपिन, ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य प्रतिपदि चन्द्रविमानस्यैका कला दृश्यते, द्वितीयायां द्वे,यावत्पञ्चदश्यां पञ्चदशाऽपि,तदयं मास आदावन्ते च पृथुलो, मध्ये तनुको, वज्रमप्यादावन्ते च विपुलं, मध्य तनुकमेव साधुरपि भिक्षां गृह्णाति बहुलपक्षस्य प्रतिपदि चतुर्दश द्वितीयस्यां त्रयोदश, यावचतुर्दश्यामेकामेव, अमावास्यायामुपवसति। ततः पुनरपि शुक्लपक्षस्य यद्येकां भिक्षां गृह्णाति, द्वितीयास्यां द्वे, यावत्पञ्चदश्या पञ्चदशेति / तत एषाऽपि चन्द्राऽऽकारतया चन्द्रप्रतिमा आदावन्ते च विपुलतया मध्ये च तनुतया, वज्रमध्योपमितमध्यभागा वजमध्या। एतदेव यवमध्यचन्द्रप्रतिमामधिकृत्य सूचयन्नाहपण्णरसेव य काउं, भागे ससिणं तु सुक्कपक्खस्स। जा वड्डए य दत्ती, हावइ ता चेव कालेणं // 4 / / शशिनं शशिविमानं पञ्चदश भागान् कृत्वा यथा शुक्लपक्षस्याऽऽदित आरभ्य कलाः प्रतिदिवसं च संवर्द्धन्ते, एवं दत्तयोऽपि प्रतिपदि आरभ्य यावर्द्धयते, ता एव कालेन कृष्णेन पक्षण क्रमेण हापयेत्। बृ०। (दत्तयस्तु 'दत्ति' शब्दे चतुर्थभागे२४४६ पृष्ठे प्रति-पादिताः) एवं विपरीतक्रमण वजमध्यचन्द्रप्रतिमायामपि द्रष्टव्यम्। भत्तट्ठी खवओ वा, इयरदिणे तासि होइ पट्ठवओ। चरिमे असद्धवं पुण, होइअभत्तट्ठमुजवणं / / 5 / / तयोर्यवमध्यवज्रमध्यप्रतिमयोः प्रस्थापक आरम्भे इतरस्मिन्नारम्भदिवसात् पाश्चात्ये दिने भक्तार्थी वा भवति।क्षपको वा चरमदिवसे पुनर्भक्तविषये अश्रद्धावान् श्रद्धामपि न करोति। एतद् यवमध्यचन्द्रप्रतिमामधिकृत्योक्त वेदिततव्यम् / उद्यापनं पुनर्द्वयोरपि प्रतिमयोरभक्तार्थमवसेयम्। संघयणे परियाए सुत्ते अत्थे य जो भवे वलिओ। सो पडिमं पडिवाइ, जवमज्झं वइरमज्झं च / / 6 / / संहनने आद्यत्रयान्यतमस्मिन्पर्याये जन्मतो जघन्येन एकोनत्रिंशद्वर्षेषु, उत्कर्षतो दशोनायां पूर्वकोट्या, प्रव्रज्यापर्यायेण जघन्यतो विंशतौ वर्षेषु, उत्कर्षतो देशोनायां पूर्वकोट्यां, सूत्रमर्थं च जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु, उत्कर्षतः किश्चित्तूनानि दशपूर्वाणि। एवं संहनने पर्याये सति यः सूत्रे अर्थे च भवति बलिको बलीयान् स प्रति Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमा 335 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिमापूयण मायवमध्या, वजमध्यां च प्रतिपद्यते। तदेवं यवमध्यवजमध्येति गतम्।। व्य०१० उ०। (व्युत्सृष्टकायाऽऽदिपदानामर्थः स्वस्वस्थाने, सप्तसप्त- | तिका भिक्षुप्रतिमा च स्वस्थाने) कायोत्सर्गे, आ०म०१ अ० / प्रव०॥ ग० / शरीरे, बृ० 1 उ० 3 प्रक० 1 (सागारिकोपाश्चये न स्थातव्यमिति सागारिकप्ररूपणायां प्रतिमानरूपणं 'वसई' शब्दे वक्ष्यते) जिनप्रतिमानां यथा भूरथाने कृष्णता क्रियते, तथैवोष्ठयोः रक्तता क्रियते, न वेति प्रश्ने, उत्तरमशाश्वतप्रतिमानुसारेणभूस्थाने कृष्णताकरणवदोष्ठयोः रक्तताकरणमविरुद्धमिति। 14 प्रश्न० / सेन० 2 उल्ला० / पडिमागिह न० (प्रतिमागृह) चैत्यगृहे, नि०चू० 12 उ०। पडिमाजुय त्रि० (प्रतिमायुत) सागारिकसहिते, नि०चू०१ उ०। बृ०। पडिमाण न० (पतिमान) प्रतिरूपं सदृशं मानम् / गुञ्जाऽऽदौ प्रतिमीयते तदिति प्रतिमानं गुजाऽऽदिना मीयतो अनु०। अथ प्रतिमानप्रमाणं निरूपयितुमाहसे किं तं पडिमाणे ? पडिमाणे जं पडिमिणिज्जइ। तं जहागुंजा, कागणी, निप्फावो, कम्ममासओ, मंडलओ, सुवण्णो। पंच गुंजाओ कम्ममासओ, कागण्यपेक्षया चत्तारि कागणीओ कम्ममासओ, तिण्णि निप्फावा कम्ममासओ, एवं चउक्को कम्ममासओ, काकण्यपेक्षयेत्यर्य: / वारसकम्ममासया मंडलओ, एवं-अडयालीसं कागणीओ मंडलओ, सोलसकम्ममासया सुवण्णो, एवं चउसट्ठिकागणीओ सुवण्णो, एएणं पडिमाणप्पमाणेणं किं पओअणं? एएणं पडिमाणप्पमाणेणं सुवण्णरजतमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालादीणं दवाणं पडिमाणप्पमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ / से तं पडिमाणे / / (से किं ते पडिमाणे इत्यादि) मीयतेऽनेनेति मानं मेयस्य सुवर्णाऽऽदेः प्रतिरूपं सदृशं मानं प्रतिमानं गृञ्जाऽऽदि / अथवा प्रतिमीयते तदिति प्रतिमानं, तत्र गुञ्जा चणोठिया 1, सपादा गुञ्जा काकिणी 2, स विभागकाकिण्या त्रिभागोनगुञ्जाद्वयेन बा निर्वृत्तो विष्पावः 3, त्रयो निष्पावाः कार्ममाषकः 4, द्वादश कर्ममाषका एको मण्डलकः 5, षोडश कर्ममाषका एकः सुवर्णः६, अमुमेवार्थ किश्चित्सूत्रेऽप्याह-(पच गुंजाओ इत्यादि) पञ्च गुञ्जा एकः कर्ममाषकः / अथवा-चतराः काकण्य एकः कर्ममाषकः। यदि वा-त्रयो निष्पावका एकः कर्ममाषकः / इदमुक्तं भवति-अस्य प्रकारत्रयस्य मध्ये येन केन चित्प्रकारेण प्रतिभाति, तेन वक्ता कर्ममाषकं प्ररूपयतु पूर्वोक्तानुसारेण, न कश्चिदर्थभेद इति। एवम्(चउक्को कम्ममासओ इत्यादि) चतसृभिः काकिणीभिनिष्पन्नत्वाच्चतुष्को यः कार्ममाषक इति स्वरूपविशेषणामात्रामिद, ते द्वादश कर्ममाषका एको मण्डलकः, एवमष्टचत्वारिंशत्काकिणीभिर्मण्डलको भवतीति शेषः / भावार्थः पूर्ववदेव / षोडश कर्ममाषकाः सुवर्णः। अथवा-चतुःषष्टिः काकिण्य एकः सुवर्णो, भावार्थः स एव / एतेन प्रतिमानप्रामणेन किं प्रयोजनमित्यादि गतार्थम् ! नवरं रजतं रूप्यं मणयश्चन्दकान्ताऽऽदयः शिलाराजपट्टकः गन्धपदृ इत्यन्ये, शेषं प्रतीतम् / यावत्तदेतत्प्रति मानप्रमाणम। अनु० / स्था०। पडिमाधर पुं० (प्रतिमाधर) प्रतिमा प्रतिपन्ने श्राद्धे, प्रतिमाधराः श्राद्धाः पर्वदिवसपौषधन, रात्रिकायोत्सर्गा श्व स्वाध्यायसंभवे कथं कुर्वन्तीति रीतिः प्रसाद्येति प्रश्ने, उत्तरम्-अस्वाध्यायसंभवे प्रतिमाधरश्राद्धा मौनेन कायोत्सर्गान्,पौषधाऽऽदिकं च कुर्वन्तीति वृद्धवादः। 165 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / प्रतिमाधरः श्रावकः श्राविका वा चतुर्थीप्रतिमात आरभ्य चतुरुपर्वीपौषधं करोति, तदा पाक्षिकपूर्णिमाषष्ठकरणाभावे पाक्षिक पौषधं विधायोपवासं करोति, पूर्णिमायां चैकाशनकं कृत्वा पौषधं करोति, तदा मुख्यवृत्त्या पाक्षिकपूर्णिमयोश्चतुर्विधाऽऽहारः षष्ठएव कृतो युज्यते, कदाचिच्च यदि तवथा शक्तिर्न भवति, तदा पूर्णिमायां चाम्लं निर्विकृतिक वा क्रियते, एवंविधाक्षराणि सामाचारीग्रन्थे सन्ति, परमेकाशनक शास्त्रे दृष्ट नास्तीति। 42 प्र० / सेन० 4 उल्ला०। पडिमापडिमा स्त्री० (प्रतिमाप्रतिमा) प्रतिमा कायोत्सर्गः, सैव प्रतिमा प्रतिमाप्रतिमा / पञ्चा० 10 विव० / पञ्चम्यामुपासकप्रतिमायाम, पञ्चमासांश्वतुष्पा गृहे तद्द्वारे च चतुष्पथे वा परिग्रहोपसर्गाssदिनिष्कम्पकायोत्सर्गः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानं पालयन् सकलरात्रिमारते इति पञ्चमी। ध०२ अधि०। ("उवासगपडिमा" शब्दे द्वि०भा०६५ पृष्टेऽस्याः स्वरूपमुक्तम्) पडिमापडिवण्ण पु० (प्रतिमाप्रतिपन्न) प्रतिमा भिक्षुप्रतिमा द्वादशसमय प्रसिद्धास्ताः प्रतिपन्नोऽभ्युपगतवान् / भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्ने, स्था० 4 टा०१उ०! पडिमापूयण न० (प्रतिमापूजन) पौषधिकः पट्टपट्टिकालिखितप्रतिमा पूजयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधिकः कारणं बिना पट्टाऽऽदिकं न पूजयतीति ज्ञेयमिति। 240 प्र० / सेन०३ उल्ला० आञ्चलिकप्रतिष्ठिता प्रतिमा पूज्या, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-आञ्चलिकप्रतिष्ठिता अपि प्रतिमा द्वादशजल्पपट्टकानुसारेण गुरु-वचनात् पूज्या एव। 'तम्हा सव्वानुन्ना सव्वनिसेहो पवयणे नत्थिा" इत्याधुक्तिस्त्रानुसरणीयेति। 368 प्र० / सेन०३ उल्ला० / श्राद्धानां पूजाऽवसरे अष्टपुटमुखकोशबन्धः प्रोक्तोऽस्ति, स कया रीत्या बध्यते, वस्त्रद्वयाद् यदा भवति पूजक स्य शरीरे तदोत्तरीयाचलवस्त्रेण मुखकोशबन्धः कर्तुं न शक्यते, यदि तृतीय वस्त्र मुखकोशबन्धनिमित्तं भवति तदाऽयुक्तमुत्तरीयाञ्चलेनैव वा बध्यते इति प्रश्ने, उत्तरम्-पूजावसरे श्राद्धैरष्टपुटमुखकोशबन्ध उत्तरीयाञ्चलेन कर्तव्यो, न तु तृतीयवस्त्रेण, यतः श्राद्धविधौ देवपूजाऽवसरे श्राद्धानां परिधानोत्तरीयलक्षण वस्त्रद्वयं, श्राद्धीनां च कञ्चुक्सहितं तत्रयमे - वाक्तमस्ति, न त्वधिक, तथोत्तरीयमपि, तत्कारणेऽयोग्यमेव विधेयं, तेन न किमप्यशक्यमिति / 401 प्र० सेन० 3 उल्ला० / श्राविका जिनाऽऽलये, गृहदेवावसरे च प्रतिमायाः प्रक्षालनं करोति, न येति, तथा यौवनावस्थाया देवपूजां करोति, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्-देवगृहे देवावसरे च श्राविका प्रतिमायाः प्रक्षालनं करोति, तथा-यौवनावस्थायां पूजामपि करोतीति, यथा-ज्ञाताधर्मकथाऽङ्गे द्रौपद्यायौवनावस्थायां स्नपनपूर्वक पूजा Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमापूयण 336 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडियरणा कृतेति बोध्यम् / 405 - 406 प्र० / सेन०३ उल्ला०।( 'दुवई' शब्दे निषिद्धोऽपि यथा पूर्णं भवतां वैयावृत्त्यकरणेनेति / एवं प्रतिमुण्डनया चतुर्थभागे 25 87 पृष्ठे द्रौपदीकृतं प्रतिमार्चन विस्तरतः प्रतिपादितम्) | महन्मानसं दुखमुत्पद्यते / इत्यादि। बृ० 1 उ०२ प्रक० / यवनधीवराऽऽदय श्राद्धा जातास्तेषां तीर्थकृत्प्रतिमापूजने लाभो, न | पडिमोयग त्रि० (प्रतिमोचक) धर्मकथोपदेशदानाऽऽदिना संसारसावेति प्रश्रे, उत्तरम्-यदि शरीरस्य, तथा वस्त्रऽऽदीनां च पावित्र्यं स्यात्तदा ___गरात्तारके तीर्थकरगणधराऽऽदौ, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। निषेधो ज्ञातो नास्ति, परं तेषां प्रतिमापूजने लाभ एव ज्ञातोऽस्तीति। पडिय त्रि० (पतित) गते, आव० 4 अ०। हस्तात् परिभ्रष्टे, बृ० 3 उ०। 471 प्र० / सेन०३ उल्ला० / आचार्योपाध्यायप्रज्ञांशपादुका जिनगृहे ज्ञा०। पतने, भावे क्तप्रत्ययविधानात्। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०) स्थापिता सन्ति, जिनप्रतिमापूजार्थमानीतश्रीखण्डकेसरपुष्पाऽऽ- पडियच अव्य० (प्रतीत्य) परिच्छिद्य सम्यगवबुद्ध्येत्यर्थे, "अण्णाणियाण दिभ्यस्तासामर्चनं क्रियते, न वेति प्रश्न, उत्तरम्-मुख्यवृत्त्योपाध्याय- पडियच ठाणं।" सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। प्रज्ञाशपादुका- करणविधिः परम्पराया ज्ञातो नास्ति, स्वर्गप्राप्ताऽऽचा- पडियपिंडोवजीवि(ण) त्रि० (पतितपिण्डोपजीविन्) ग्रामपिण्डोलकायस्य पादुकाकरणविधिरस्ति, ततो जिनपूजार्थ श्रीखण्डाऽऽदिभि- ___ऽदिसदृशे जने, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। स्तत्पादुका न पूज्यते, देवद्रव्यत्वात् / तथा श्रीखण्डादिकं साधारणं पडियरग पुं० (प्रतिचरक) ग्लानव्यापारके, नि०चू०१ उ०। अपराधाऽऽभवति, तेनापि प्रतिमाः पूजयित्वा पादुका पूज्यते, परं पादुकामर्चयित्वा पन्नस्य प्रायश्चित्ते दत्ते तपः कुर्वता ग्लायमानस्य वैयावृत्यकरे, व्य० प्रतिमा नाऽय॑त, देवाऽऽशातनामयादिति। 130 प्र०। सेन० 4 उल्ला० / 1 उ०। पडिमावंदण न०(प्रतिभावन्दन) चैत्यवन्दने, पूर्वनिष्पन्नं जिनगृहं पडियरणा स्त्री० (प्रतिचरणा) 'चर' गतिभक्षणयोः, इत्यस्य प्रतिपूर्वस्य कदाचित्किञ्चिद् भक्तया तावन्मानं द्रव्यलिङ्गिद्रव्येण कृतं, तत्र प्रतिमाः ल्युडन्तस्य प्रतिचरणा इति भवति। प्रतीतेषु तेष्वर्थेषु चरणं गमनं तेन वन्धन्ते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-तत्रस्थजिनप्रतिमावन्द्यत इति ज्ञायते। तेनाऽऽसेवनाप्रकारेणेति प्रतिचरणा। प्रतिक्रमणे, आव०। 62 प्र० / सेन० 4 उल्ला० / (सर्वोऽपि प्रतिमावन्दनाधिकारः 'चेइय' प्रतिचरणा षड्विधा। तथा चाऽऽहशब्दे तृतीयभागे 1211 पृष्ठे द्रष्टव्यः) (बहवः प्रतिमाशब्दार्था इति नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे अ। 'पडिमा' शब्देऽनुपदमेव समर्थितम्) (वन्दनशब्दार्थः 'वंदण' शब्दे एसो पडियरणाए, निक्खेवो छव्विहो होइ।।५।। वक्ष्यते) तत्र नामस्थापने गतार्थे। द्रव्यप्रतिचरणा-अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टः तेषु पडिमासयग न० (प्रतिमाशतक) प्रतिमाविषयशडकानिरा-सार्थक तेष्वर्थेष्वाचरणीयेषु चरणं गमनं तेन तेन प्रकारेण यष्ट्यादिनिमित्त वा शतश्लोकीपरिमिते यशोविजयोपाध्यायकृते ग्रन्थविशेषे, प्रति०। उपयुक्तस्य वा न्हिवस्य सचित्ताऽऽदिद्रव्यमेवेति / क्षेत्रप्रतिचरणा "ऐन्द्र श्रेणिप्रणत-श्रीवीरवचोऽनुसाररियुक्तिभृतः। व्याख्यायते, क्षेत्रस्य वा प्रतिचरणा क्षेत्रप्रतिचरणा, यथा शालिगोपिप्रतिमाशतकग्रन्थः, प्रथयतु पुण्यानि भविकानाम्॥१॥ काऽऽद्याः शालिक्षेत्राऽऽदीनि प्रतिचरन्ति / भावप्रतिचरणा द्वेधापूर्व न्यायविशारदत्वविरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधै प्रशस्ता, अप्रशस्ता च। मिथ्यात्वाज्ञानाविरति प्रतिचरणा अप्रशस्ता न्यायाऽऽचार्यपदं ततः कृतशतग्रन्थस्य यस्यार्पितम्। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रप्रतिचरणा प्रशस्ता अथवा-ओघत एवोपयुक्तशिष्यप्रार्थनया नयाऽऽदिविजयप्राज्ञोत्तमाना शिशुः, सम्यग्दृष्टिस्तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्याः,यतः शुभयोगेषु सोऽयं ग्रन्थमिमं यशोविजय इत्याख्याभृदाख्यातबान् // 2 // प्रतिक्रमणं वर्तनं प्रतिक्रमणमुक्तम् / प्रतिचरणाऽप्येवंभूतैव वस्तुनः / अस्य प्रतिमाविषया नेकाऽऽशकाऽपहारनिपुणस्य। आव० 4 अ०। अकार्यपरिहारे, कार्यप्रवृत्तौ, च। आ०चू० 4 अ०। संविग्रसमुदयस्य, प्रार्थनया तन्यते ग्रन्थः // 3 // इयाणिं पडियरणाए पासारण दिट्ठतो भवतिव्याख्यानेऽस्मिन् गिरां देवि, विघ्नवृन्दमपाकुरु। "एगम्मि नगरे अत्थसमिद्धो वाणियओ, तस्स पासाओ रयणभरिओ। व्याख्येयं मङ्गलैरेव, मङ्गलान्यत्र जाग्रति॥४॥" प्रति.। सो त भज्जाए उवनिविखिविऊण दिसाजत्ताए गओ, सा अण्णेण लगिया (अस्य सर्वोऽपि विषयः 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1205 पृष्ठा | मंडणपसाहणे वावडा ण तस्स पासायस्स अवलोयणं करेति। तओ तस्स दारभ्योक्तः) एगखडं पडिय। सा चिंतेतिकिं एत्तिय करेहिति त्ति। अन्नया पिप्पलपायओ पडिमिन्जमाण त्रि० (प्रतिमीयमान) परिगण्यमाने, ज्यो०२ पाहु०। जाओ, किं एत्तिओ करेहि त्ति णावणीओ तीए तेण वडतेण पासाओ भग्गो पडिमुंडणा स्त्री० (प्रतिमुण्डना) निषेधने, वृ०१ उ० 2 प्रक०। वाणियओ आगओ, पेच्छति विणपट्ट पासायं, तेण सा निच्छूढा अण्णो बहुसा पुच्छिजंता, इच्छाकारं न ते मम करिति / पासाओ कारिओ। अन्ना य भज्जा आणीया, भणिया यजइ एस पासाओ पड्मुिंडणाएँ दुक्खं, दुक्खं च सलाहिउं अप्पा।१०४७ विणस्सति तोते अहं नत्थिा एवं भणिऊण दिसाजत्ताए गओ सासे महिला बहुशो भूयो भूयः पृच्छ्यमाना अपि ते साधवःकदापि ममेच्छाकारं न तपासायंसव्वायरेण तिसंझंअवलोएति. जंतत्थ किंचि कट्टकम्मे लेप्पक्म्म कुर्वन्ति, अन्यच-अहमभ्यर्थितस्तत्र गतस्तैश्च प्रतिमुण्डितोऽपि | चित्तकम्मे पासाए वा तुडियानि पासति, तं संठवेति किंचि दाऊण Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडियरणा 337 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिरूवया तओ सो पासाओ तारिखो चेव अत्थति / वाणियएण आगएण दिट्ठो, तुट्टेण सव्वस्स सामिणी कया, विउलभोगसमन्नागया जाया। इयरा असणवसणरहिया अच्चंतंदुक्खभागिणी जाया। एसा दव्यपडिचरणा। भावे दिढतस्स उवणओ-वाणियगथाणीयेणाऽऽयरिएण पासायत्थाणीओ संजमो पडिचरियव्यो त्ति। आणातो एगेण साहुणा सायासोक्खबहुलेण ण परिचरिओ सो वाणिगिणीव संसारे दुक्खभायणं जाओ, जेण परिचरिओ अक्खओ संजमपासाओ धरिउं सो निव्वाणसहभागी जाओ" इति। आव० 4 अ० पडियरिऊण अव्य० (प्रतिचर्य) सेवित्वेत्यर्थे , “पडियरिऊण जहाभूतं णातं।" नि०चू०१ उ०। पडिया स्त्री० (प्रतिज्ञा) उद्देशे, “साहुवडियाए।" साधुमुद्दिश्येत्यर्थः। आचा०२ श्रु०१चू०५ अ०१उ०। पडियाइक्खिय त्रि० (प्रत्याख्यात) अतिस्थापिते, नि० चू०६ उ०। निषिद्धे, नि० चू०१ उ०।। पडियाणंद पु० (प्रत्यानन्द) चित्ताऽऽल्हादे, औ०। सूत्र० / पडियार पुं० (प्रतीकार) प्रतिविधाने, विशे०। आचा०। पूर्वाऽऽचरितस्य कर्मणोऽनुभवे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। * प्रतिचार पुं० अङ्ग व्यापारे, आचा०१ श्रु०५ अ०८ उ०। पडियारकम्म न० (प्रतिचारकर्म) (ण) प्रतिचारकत्वेक, ज्ञा० 1 श्रु० १३अ०। पडियारगत त्रि० (प्रतीकारगत) प्रतीकारः पूर्वाऽऽचरितस्य कर्मणोऽनु भवस्तमेके गताः प्राप्ताः / स्वकृतकर्मभोगिनि, 'पडियारगता एगे, जे एते एव जीविणो।" सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। पडियारि(ण) त्रि० (प्रतिचारिन्) प्रतिचारके, व्य०१ उ०। पडिरंजिअन० (देशी) भग्ने, दे०ना०६ वर्ग 32 गाथा। पडिरह अव्य० (प्रतिरथ) रथं रथं प्रतीत्यर्थे, भ०७ श०६ उ०। पडिरूव त्रि० (प्रतिरूप) प्रतिविशिष्टमसाधारणं रूपं यस्य तत् प्रतिरूपम्। अथवा-प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्य तत् प्रतिरूपम्। जी०३ प्रति० 4 अधि० / सुन्दररूपे, कल्प०१ अधि०५ क्षण। तं०१ प्रज्ञा०1रा०। ओ०। ज्ञा० / चं० प्र०। प्रति० / जं० आ० म०। जी०। उपा०। नि०। द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीये, स०। औ०। ज्ञा० / स्था० / विपा० / सू० प्र० / प्रधाने रूपे, प्रति प्रतिबिम्ब चिरन्तनमुनीनां यद्रूपतत्तथा।उत्त०१ अ०। सुविहितप्राचीनमुनीनां रूपे, उत्त०१ अ० / सूत्र०। प्रतिबिम्बे, प्रतिनिधौ, सम्म० 3 काण्ड। रा०।अनन्य सदृशे, सूत्र०२श्रु०७ अ० ! सदृशे० ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / उचिते, भ० 15 श० / "अणुण्णपडिरूपका" अज्ञानविलसितमित्यर्थः / सूत्र०२ श्रु०६ अ01 यथोचिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। उचिते, दश०६ अ० 1 उ०। ज्ञा० रा० / औतराहाणां भूतानामिन्द्रे, स्था० 2 ठा० 3 उ० / प्रज्ञा० / विनयभेदे, व्य०। संप्रति प्रतिरूपविनयप्रतिपादनार्थमाहपडिरूवो खलु विणओ, काय-वइ-मणे तहेव उवयारे। अट्ठ चउव्विह दुविहो, सत्तविह परूवणा तस्स।॥६६।। प्रतिरूप उचितः खलु विनयश्चतुष्प्रकारः / तद्यथा-काये कायनिमित्तः, एवं वाचि वाचिकः / मनसि मानसिकः / तथा उपचारे औपचारिक: (अट्टचउचिहेत्यादि) अत्र यथासंख्यं पदघटनाकायिको विनयोऽष्टविधः / वाचिकश्चतुर्विधः / मानसिको द्विविधः। औपचारिकः सप्तविधः / (परूवणा तस्स त्ति) तस्य कायिकाऽऽदिभेदभिन्नस्य चतुष्प्रकारस्य प्रतिरूपविनयस्य प्ररूपणा। व्य०१ उ०। भूतभेदे, प्रज्ञा०१ पद। पडिमारूव पुं० (प्रतिमारूप) प्रतिमारूपे श्रावकधर्म, तज्जिनवल्लभसूरिकृतप्राकृताऽऽलापकरूपदी पालिकाकल्पे लिखितमस्ति"पडिमारूपो सावगधम्मो वुच्छिजिस्सइ।" इति। तेन तत्रत्यपुस्तकेऽय पाठोऽस्ति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-जिनवल्लभसूरिकृताऽऽलापकरूपो दीपालिकाकल्पो दृष्टो नास्ति, जिनप्रभसूरिकृतस्त्वालापकरूप एव वर्तते / तत्र च-"पडिमारूवो सावगधम्मो वुच्छिजिस्सइ।" इत्यक्षराणि नसन्तीति। 46 प्रश्न। सेन०१ उल्ला०। पडिरूवजोगजुंजण न० (प्रतिरूपयोगयोजन) प्रतिरूपः खलु विनयः कायिकाऽऽदिभेदतश्चतुर्धाऽभिहितस्तदनुगता योगा मनोवाक्कायाः, तेषां योजनं व्यापारणमवश्यकरणमविभक्तवि-भागयोजनम् / व्य०३ उ०। औपचारिकविनयभेदे, दश०६ अ०१ उ०। पडिरूवया स्त्री० (प्रतिरूपता) प्रतिः स्थविरकल्पिकमुनिसदृशं रूपं वेषो यस्य स प्रतिरूपः, तस्य भावः प्रतिरूपता। स्थविरकल्पिकसाधुयोग्यवेषधारित्वे, उत्त०२६ अ०। अस्याः फलम्पडिरूवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिरूवयाएणं लाघवं जणयइ, लहुभूए णं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसमत्ते सत्तसमितिसम्मत्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पपडिलेहे जिइंदिए विपुलतवसमितिसमन्नागए आवि विहरइ॥४२॥ हे भगवन् ! प्रतिरूपतया जीवः किं फलं जनयति ? प्रतिरूपतायाः कोऽर्थः, प्रति इति स्थविरकल्पिसदृशं रूपं यस्य स प्रतिरूपः, तस्य भावः प्रतिरूपता, तया स्थविरकल्पिकसाधुवेषधारित्वेन जीवः किं जनयति? गुरूराह-हे शिष्य? प्रतिरूपतया जीवो लघुत्वं जनयति, अधिकोपधित्यागे लघुत्वमुपार्जयतीत्यर्थः। द्रव्यतः उपध्यादिपरिग्रहत्यागेन, भावतस्तु अप्रतिबद्धविहारत्वेन लघुर्भवति, लघुभूतश्च जीवोऽप्रमत्तो भवति, तादृशः प्रकटलिङ्ग प्रकटं स्थविरकल्पाऽऽदिवेषेण स्फुट लिङ्ग चिह्न यस्य स प्रकटलिङ्ग:पुन प्रशस्तलिंगः प्रशस्तं समीचीनं रजोहरणमुखपोत्तिकादिकं यस्य स प्रशस्तलिङ्गः पुनर्विशुद्धसम्यक्त्वो निर्मलसम्यक्त्वः, पुनः सत्त्वसमितिसमाप्तः सत्त्वं च समितयश्व सत्त्वसमितयस्ताभिः समाप्तः संपूर्णो, धैर्यसमितियुक्त इत्यर्थः / ततः पुनः सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेषु विश्वसनीयः विश्वासयोग्यो भवति / पुनस्तादृशोऽल्पप्रतिलेखः प्रतिलेखन प्रतिलेखः, अल्पः प्रतिलेखो यस्य सोऽल्पप्रतिलेखः, अल्पोपकरणत्वात् अल्पप्रतिलेखनावान् भवतीत्यर्थः। पुनः स जितेन्द्रि Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 338 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा यो भवति, पुनर्विपुलतपःसमितिसमन्वागतश्चापि विहरति / विपुलानि विस्तीर्णानितपांसि समित्यश्च विपुलतपःसमितयस्ताभिरन्वागतः सहितः सन विहरति, द्वादशविधेन तपसा समितिगुप्तिसहितो भूत्वा ग्रामनगराऽऽदौ विचरति / / 42 / / उत्त० 26 अ०। पडिरूवा स्त्री० (प्रतिरूपा) चतुर्थकुलकरस्याभिचन्द्रस्य भार्यायाम, आo म० 1 अ० / स्था० / स० / आ०चू० / (अभिचन्द्रकुलकरवक्तव्यता 'अभिचंद' शब्दे प्र० भा०६१४ पृष्ठे गता) (अत्र विशेषवक्तव्यता 'कुलगर' शब्दे तृ०भा०५६३ पृष्ठे गता) पडिलंभ पुं० (प्रतिलम्भ) प्राप्तौ, सूत्र०२ श्रु० 5 अ०। पडिलंभिय अव्य० (प्रतिलभ्य) अवाप्येत्यर्थे सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। पडिलग्गल न० (देशी) वल्मीके, दे० ना०६ वर्ग 31 गाथा। पडिलाभ पुं० (प्रतिलाभ) प्राप्तौ, तुर्यव्रतप्रत्याख्यानिश्रेष्ठि-विजयश्रीविजययोः प्रतिलाभने चतुरशीतिसहस्रसाधुप्रतिलाभनपुण्यं भवतीत्यक्षराणि कस्मिन् ग्रन्थे सन्ति, कस्य तीर्थकरस्य वारके द्वे तजातमिति व्यक्त्या प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्-अयं संबन्धः प्रघोषण श्रुतोऽस्ति, प्रकारेण त्वेवं यथा 'वसन्तपुरे शिवकर श्रेष्ठी श्रीधर्मदाससूरिपार्श्वे हर्षेण भणतिमम लक्षसाधर्मि-कभोजनप्रदाने मनोरथोऽस्ति, परं कि करोमि तथाविधं धनं नास्ति? गुरुभिरमाणिअहं भृगुकच्छे श्रीमुनिसुव्रतस्वामिवन्दनार्थं गतः। तत्र जिनदासाभिधः श्राद्धो, भार्या सुहागदेवी, तया युतो वस्त्रभोजनऽऽद्यलङ्करणीय तद्वात्सल्येन लक्षसाधर्मिकभोजनदानपुण्यं भविष्यति, अतस्तेन तथा कृतं, तदनु पृष्ट चतुष्पथेभो जिनदास ! सुकृती कीदृशोऽस्ति, सत्यो वा, दाम्भिको वा? लोकाः कथयन्ति-शृणुतेन सप्तवार्षिकं गुरुमुखात् शीलोपदेशमालाव्याख्यां श्रुत्वा एकान्तरितब्रह्मव्रतं प्रतिपन्नम् एवं सुहागदेव्याऽपि साध्वीपाचे एकान्तरितशीलव्रतं प्रतिपन्नं, भवितव्ययशात्परस्परं पाणिग्रहणं जातम्। ततो यस्मिन् दिने जिनदासस्य मुत्कलं तस्मिन् दिने सुहागदेव्या नियमाः, यस्मिन् दिने तस्या मुत्कलं तस्मिन् दिने तस्याभिग्रहः / तदनु गुरुसमीपे यावजीवमेव ब्रह्मव्रतं प्रतिपन्नमित्युपदेशतरङ्गिणीग्रन्थानुसारेण उपदेशरत्नाकरग्रन्थानुसारेण च तत्प्रतिलाभने लक्षसाधर्मिकप्रतिलाभनपुण्यं भवति इत्यक्षराणि सन्ति। 47 प्र०। सेन०३ उल्ला०1 पडिलाभित्ता त्रि० (प्रतिलाभयित) लाभवन्तं करोतीत्येवंशीले, स्था० 3 ठा० 1 उ० / श्रमणं वा ब्राह्मणं वा प्रासुकं प्रतिलाभ्य एकान्ततो निर्जरामप्रासुकं च प्रतिलाभ्य बहुतरां निर्जरामल्प पापकर्म करोति / भ०८ श० 5 उ०। ("समणमाहणपडिलाभ' शब्दे, 'आउ' शब्दे द्वितीयभागे 13 पृष्ठेच समर्थितम्) पडिलेहग त्रि० (प्रतिलेखक प्रतिलेखतीति प्रतिलेखकः / प्रवचनानु सारेण स्थानाऽऽदिनिरीक्षके साधौ, औ०। पडिलेहणा स्त्री० (प्रतिलेखना) गोचराऽऽपन्नस्य शय्याऽऽदेश्चक्षुषा निरीक्षणे, आव०६ अ० प्रश्र०। आचा०। सम्म०। प्रत्युपेक्षणा स्त्री० प्रतिलेखनाशब्दार्थ, प्रतिलेखनाव्याख्या, तत्रैकार्थि / कानि। ओघ01 प्रतिलेखनाद्वारव्याख्यानायाऽऽहआभोग मग्गण गवे-सणा य ईहा अपोह पडिलेहा। पिक्खण निरक्खणा वि य, आलोय पलोयणेगट्ठा / / 18 / / आभोगनमाभोगः, 'भुज' पालनाभ्यवहारयोः, मर्यादयाऽभिविधिना धाऽऽभोगनं पालनमाभोगः प्रतिलेखना भवति / मार्गण मार्गणा, 'मृग' अन्वेषणे, अशेषसत्त्वाऽपीडया च यदन्वेषणं सा मार्गणत्युच्यते। गवेषणं गवेषणा, अशेषदोषरहितवस्तु-मार्गणं गवेषणेत्युच्यते। ईहनमीहा, 'ईह' चेष्टायाम्, शुद्धवस्त्वन्वेषणरूपा चेष्टा ईहेत्युच्यते, सा च प्रतिलेखना भवति / अपोहनमपोहः, "अपोह' पृथग भाव उच्यते, तथा च चक्षुषा निरीक्ष्य यदि तत्र सत्त्वसंभवो भवति तत उद्धारं करोति सत्त्वानामन्यलाभे सति, स चापोहः प्रतिलेखना भवति, प्रतिलेखन प्रतिलेखना, प्रति आगमानुसारेण निरूपणमित्यर्थः। सा च प्रतिलेखना प्रेक्षणं प्रेक्षणा, प्रकर्षण ईक्षण दर्शन प्रेक्षणेत्युच्यते; सा च निरीक्षणं निरीक्षणा, निराधिक्ये 'ईक्ष' दर्शने, अधिकं दर्शन निरीक्षणेत्युच्यते। अपिशब्दादन्योपसर्गयोगे चैकार्थिकसंभवः। यथा-उपेक्षणेति। चशब्दादाभोगाऽऽदीनां ये पर्यायास्तेऽपि प्रतिलेखनाद्वारस्य पर्यायशब्दाः। आलोचनमालोकः मर्यादयाऽभिविधिना वाऽऽलोकनमित्यर्थः। प्रलोकनं प्रलोकना, प्रकर्षणाऽऽलोकनमित्यर्थः / (एगट्ट त्ति) एकाथिकान्यमूनि / अनन्तरोद्दिष्टानि भवन्ति, पुँल्लिङ्गता च प्राकृतलक्षणवशात् भवत्येव / यथा- 'जसो, तयो, सल्लो' इति नपुंसकलिङ्गा अपि शब्दाः पुँ लिने प्रयुज्यन्ते। एवमत्रापीति। एवं व्याख्यते सत्याह परः-प्रतिलेखनं नपुंसकम्, अत्र तु कानिचिन्नपुंसकानि, कानिचित् स्त्रीलिङ्गनि, कानिचित्पुंलिङ्गानि। तत्र नपुंसकस्य नपुंसकान्येव वाच्यानि / तत्कथामति ? अत्रोच्यतेएवं तावत्प्राकृतशैलीमङ्गीकृत्य नपुंसकस्याऽपि स्त्रीलिङ्ग पुंल्लिङ्गै : पर्यायाभिधानमदुष्ट, तथाऽन्यत् प्रयोजनं संस्कृते चैकस्यैव शब्दस्य त्रयमपि भवति / यथा तटः, तटी, तटमिति भेदेऽत्र भिन्नलिङ्गाः शब्दाः केन कारणेन पर्यायशब्दा भवन्तीति। प्रतिलेखनाग्रहणेन किं सैव केवला गृह्यते, किमन्यदपि? अन्यदपि / किं तत् 'पडिलेहय" इत्यादि। अथवा-का पुनरत्र प्ररूपणेति ? तदर्थं ब्रवीतिपडिलेहओ अपडिले-हणा य पडिलेहियव्वयं चेव। कुंभादीसु जह तिय, परूवणा एवमिहयं पि।।१६।। प्रतिलेखतीति प्रतिलेखकः, प्रतिवचनानुसारेण स्थानाऽऽदिनिरीक्षकःसाधुरित्यर्थः / चशब्दः सकारणाऽऽदिस्वगतभेदानां समुच्चयकः / प्रतिलेखन प्रतिलेखना "दुविह खलु पडिलेहणा'' इत्यादिना ग्रन्थेन वक्ष्यमाणलक्षणा,चशब्दो भेदसूचकः। प्रतिलेख्यत इति प्रतिलेखितव्यम्,''ठाणे उवगरणे" इत्यादिना वक्ष्यमाणम्। चशब्दः पूर्ववत्, एवकारोऽवधारणे नातस्त्रिकादतिरिक्तमस्ति / आह-कथं पुनः प्रतिलेखक प्रतिलेखितव्ययोरनुक्तयोः ग्रहणमिति ? दण्डमध्यग्रहणन्यायात् / अथवा-ग्रन्थेनैवोच्यते, कुम्भाऽऽदिषु, कुम्भो, घटः, आदिशब्दात् कुटपटाऽऽदेहः यथा येन प्रकारेण त्रिकं त्रि ला Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेल्णा तयं, त्रीणीत्यर्थः / (परूवण त्ति) प्ररूपणा (एवं ति) तथा तेन प्रकारेण, इहेति प्रतिलेखनायाम्। अपिशब्दः साधर्म्यदृष्टान्तप्रतिपादनार्थः / यथा- | कर्ता कुलालः, करणं मृत्पिण्डदण्डाऽऽदि, कार्य घटः, परस्परापेक्षितया नैकमेकेनाऽपि विनेति। तथा प्रतिलेखना क्रिया,सा चकतरि प्रतिलेखकमपेक्षते, प्रतिलेखितव्याभावे चोभयोरभावः, तस्मात् त्रीण्येतानि प्रतिलेखकः, प्रतिलेखना, प्रतिलेखितव्यं चेति। इह च "यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायमङ्गीकृत्य प्रतिलेखकः कर्तृत्वाप्रधानश्चेत्यतस्तद्व्याख्यानार्थमाहएगो व अणेगा वा, दुविहा पडिलेहगा समासेणं / ते दुविहा नायव्वा, निक्वारणिया य कारणिया / / 20 / / सुगमा / नवरम्-(निक्कारणिया य त्ति) चशब्दाद्गच्छत्, तिष्टद्विशेषण चात्र द्रष्टव्ये इति। ओघ०। (प्रतिलेखकस्याशिवाऽऽदिकारणैर्गमनविधिः 'विहार' शब्दे वक्ष्यते) इदानीमेषां श्रमणानां सर्वेषां मध्ये ये शुद्धास्तेष्वेव संवसनं करोति, नेतरेष्वित्यमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाहजइ सुद्धा संवासा, होइ असुद्धाण दुविह पडिलेहा। अभिंतर बाहिरिया, दुविहा दव्वे य भावे य / / 163|| यदिशुद्धाः संवासाः,शुद्धाः के अभिधीयन्ते? प्रशस्तश्रुतगुणाः, तथा प्रशस्ताज्ञातगुणाश्च / तचैवंविधेषु संवासं संवसनं करोति। "होइ असुद्धाण दुविह पडिलेहा।" भवति अशुद्धानां द्विविधा प्रत्युपेक्षणा / तत्राशुद्धा अप्रशस्तश्रुतगुणाः, तथा-अप्रशस्तात्यन्तगुणा अशुद्धा अभिधीयन्ते, तद् द्विविधं प्रत्युपेक्षणं भवति / कथम्?-(अभिंतरबाहिरिया) एका आभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणा, साभ्यन्तरेत्यर्थः / अपरा बाह्यप्रत्युपेक्षणा। (दुविहा दवे य भाबे य) एकैका च प्रत्युपेक्षणा द्विविधा-(दव्ये य भावे य) याऽसौ अभ्यन्तरा प्रत्युपेक्षणा सा द्रव्यतो, भावतश्च भवति, याऽपि वाच्या प्रत्युपेक्षणा साऽपि द्रव्यतो भावतश्चेति द्विविधैव। इदानीं बाह्या प्रत्युपेक्षणां द्रव्यतः प्रतिपादयन्नाहघट्ठाइ तलिय दंडग-पाउण संलग्गती अणुवओगो। दिसिपवणगामसूरिय-वितहं विच्छोलणं दव्वे / 165! (घट्टाइ त्ति) घृष्टा जघासु दत्तफेनकाः, आदिशब्दात्तु मट्ठाऽऽदयो गृह्यन्ते। (तलिग त्ति) सोपनत्का उपानद्गूढपादाः पदंडग त्ति ब वैत्रलगाः दण्डकैः गृहीतैः / [पाउणमिति] प्रावृतं यथा संयत्यः प्रावृण्वन्ति इति कल्पं तथा तैः प्रावृतम् / (संलग्गइ त्ति) परस्परं हस्तावलगिकया द्रजन्ति / अथवा-(संलग्गइ त्ति) युगलिता व्रजन्ति (अणुवओगो त्ति) अत्र प्रयुक्ताः व्रजन्ति ईर्यायामनुपयुक्ताः / एवं बहिर्भुवं गच्छन्तः प्रत्युपेक्षिताः, इदानीं संज्ञाभूमिं प्राप्ताँस्तान् संयतान् प्रत्युपेक्षेत (दिसि ति) आगमोक्तं दिग्वि-पर्यासेनोपविशन्ति (पवण ति) पवनस्य प्रतिकू लमुपवेष्टव्य, ते तु आनुकूल्येन पवनस्योपविशन्ति / [गाम त्ति | ग्रामस्याभिमुख्येनोपवेष्टव्यं ते तु पृष्ठ दत्त्वोपविशन्ति प सूरिय तिब सूर्यस्याभिमुखेनोपवेष्टव्य, तेतु पृष्ट दत्वोपविशन्ति। एवमुक्तेन प्रकारेण वितथं कुर्वन्ति [उच्छोलणं ति| पुरीषमुत्सृज्य प्रभूतेन पयसा क्षालन कुर्वन्ति (दव्वे त्ति) द्वारपरामर्शः / इयं तावद् बाह्या द्रव्यतः प्रत्युपेक्षणा, तत आह-अनन्तरगाथायामभ्यन्तरायाः प्रत्युपेक्षणायाः प्रथममुपन्यासः कृतः, एवं तावद् बाह्या प्रत्युपेक्षणा भवति। ततस्तामेव व्याख्यातुंयुक्तं, न तु बाह्यामित्युच्यते प्रथमं तावद् बावि प्रत्युपेक्षणा भवति, पश्चादभ्यन्तरा, अतो बावि व्याख्यायते। आह-किमिति इत्थमेव नोपन्यासः कृतः / उच्यते आभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणायाः प्राधान्यख्यापनार्थमादावुपन्यासः कृतः एवं तावद् बाह्या प्रत्युपेक्षणा द्रव्यतोऽभिहिता। इदानीं बाह्यां प्रत्युपेक्षणां भावतः प्रतिपादयन्नाहविकहा हसिओग्गाइय, भिन्नकहा चक्कवाल बलियकहा। माणुसतिरियावाए, दालण आरयणया भावे॥१६५।। विकथा विरूपा कथा / अथवा-विकथां स्त्रीभक्तचौरजनपद-कथां कुर्वन्तो व्रजन्ति / तथा हसन्त उद्गायन्तश्च व्रजन्ति [भिन्नकह त्ति मैथुनसंबद्धा राभसिका कथा तां कुर्वन्तो व्रजन्ति [चक्कवाल त्ति मण्डलबन्धनस्थिता व्रजन्ति बलियकह त्ति] षट्पदिका गथाः पठन्तो गच्छन्ति (माणु सतिरियावाते त्ति] मानुषाऽऽपाते तिर्यगापाते संज्ञा व्युत्सृजन्ति पदालण त्तिब परस्परस्याङ्गुल्या किमपि दर्शयन्ति। इयमेव आचरणता [भावे त्तिद्वारपरामर्शः। इयं बाह्यभावमङ्गीकृत्य प्रत्युपेक्षणा, या अशुद्धानपि साधून दृष्ट्वा प्रविशन्ति, कदाचित्ते गुरोरनादेशेनैव एवं कुर्वन्ति। एतदेव प्रतिपादयन्नाहबाहिं जइ वि असुद्धा, तह विय गंतूण गुरुपरिक्खाओ। अहव विसुद्धा तह वि उ, अंतो दुविहा उ पडिलेहा॥१६६।। बाह्यां प्रत्युपेक्षणामयीकृत्य यद्यप्यशुद्धास्तथाऽपि प्रविश्य गुरोः परीक्षाः कर्तव्याः / अथवा-बाह्यप्रत्युपेक्षया विशुद्धा एव भवन्ति, तथाऽपि तु अन्तरतः आभ्यन्तरतया प्रत्युपेक्षणामाश्रित्य द्विवि-धैव प्रत्युपेक्षणा भवति कर्तव्या द्रव्यतो, भावतश्च / इदानीमसौ आभ्यन्तरप्रत्युपेक्षणामङ्गीकृत्य द्रव्यतः परीक्षा करोति साधम्मिकाऽऽसन्नेषु भिक्षाचर्यायां प्रविष्टः सन्। पविसंतो निमित्तमणे-सणंच साहइण एरिसा समणा। अम्हं च ते कहती, कुकुड खरियाइठाणं च // 67 / / प्रविशन भिक्षार्थ निमित्तं पृच्छ्यते गृहस्थैस्ततश्च न कथयति, अनेषणां क्रियमाणां गृहस्थेन निवारयति। ततः स गृहस्थः कथयति-(ण एरिसा समणा) नास्मदीया एवंविधाः श्रमणा अस्माक हिते निमित्तं कथयन्ति, अनेषणायामपि गृह्णन्ति, एवमभिधीयते गृहस्थेन (कुकुड त्ति) कुक्कुटप्रायोऽयमिति एवं तावत् भिक्षामटता प्रत्युपेक्षणा कृता / इदानी दूरस्थ एव उपाश्रयप्रत्युपेक्षणां करोति पखरिया इत्यादिब'खरिया' व्यक्षरिका, तत्समीपे स्थानमुपाश्रयः। आदिशब्दाचरिकासमीपे वा / इयं तावद्द्वसतिबाह्या प्रत्युपेक्षणा। इदानीमुपाश्रयाभ्यन्तरे द्रव्यप्रत्युपेक्षणां कुर्वन्नाहदव्वम्मि ठाणफलए, सेज्जा संथार काय उच्चारे। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 340 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा द्रव्यमिति द्वारपरामर्शः प ठाणफल त्ति ब स्थानमवस्थितिः फलकानामवस्थितिं पश्यति, तानि हि वर्षाकाल एव गृह्यन्ते, न शेषकाले, सन प्रविष्ट शेषकालेऽपि फलकानि संगृहीतानि पश्यति [सेजाउ ति] शेरतेऽस्यामिति शय्या आस्तरण, तदास्तृतमेवाऽऽस्ते, संस्तारकस्तृणमयः प्रकीर्यते। अथ तृणानि स्वपदि संस्तृतानि तत्र संस्तारके पश्यति [काय त्ति] कायिकीभूमि गृहस्थसंबद्धा पश्यति, (उच्चार त्ति) गृहस्थैः सह पुरीषव्युत्सर्गकुर्वन्ति। अथवा- [उचारं ति] श्लेष्मणः परिष्ठापनमङ्गणे कुर्वन्ति, एवं स साधुः पश्यति / इयमभ्यन्तरा द्रव्यप्रल्युपेक्षणा। इदानीमभ्यन्तरां भावप्रत्युपंक्षणां प्रतिपादयन्नाहकंदप्पगीयविकहा, विग्गह किड्डाय भावम्मि॥१६८।। [कंदप्पगीयविगह त्ति कन्दर्पगीतविकथाः कुर्वन्ति। तथा-पविग्गह त्ति ब विग्रहः कलहस्तं कुर्वन्ति / (किड्डुत्ति) पाशकपकैः क्रीडन्ति [भावम्मि] भावविषया प्रत्युपेक्षणा। उक्ता अभ्यन्तरा भावप्रत्युपेक्षणा। ओघ०। पथिप्रत्युपेक्षणम्सो चैव य निग्गमणे, विही य जो वन्निओ उ एगस्स। दवे खेत्ते काले, भावे पंथं तु पडिलेहे // 216 / / स एव विधिर्य एकस्य निर्गमने उक्तः, "वीसमण पउसे'' इत्येवमादिको विधिरुक्तः / इदानीं पथि व्रजतो विधिरूच्यते स चायम्दवे खेत्ते काले भाव पंथं तु पडिलेहे त्ति) द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च मार्ग प्रत्युपेक्षेत। इदानीमेतानेव द्रव्याऽऽदीन् व्याख्यानयन्नाहकंटग तेणा बाला, पडणीया सावया य दव्वम्मि। समविसमउदयथंडिल-भिक्खायरियंतरा खेत्ते / / 220|| तत्र कण्टकाः, स्तेनाः, व्यालाः, प्रत्यनीकाः, स्वापदनि, एतेषां पथि यत् प्रत्युपेक्षणं सा द्रव्यविषया प्रत्युपेक्षणा भवतीति द्वारम् / तथासमविषमोदकस्थण्डिलभिक्षाचर्याऽऽदीनां याऽन्तरे प्रत्युपेक्षणा सा क्षेत्रतः प्रत्युपेक्षणा। इदानीं बालप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाहदिय राउ पचवाओ, य जाणई सुगमदुग्गमे काले / भावे सपक्खपरप-क्खपेलणा निन्हवाईया।।२२१६॥ दिवा प्रत्युपायो, रात्रौ वा प्रत्युपायो न कालप्रत्युपाय इत्येतज्जानाति। तथा-दिवाऽयं पन्थाः सुगमो दुर्गमो वा, रात्रौ वा सुगमो, दुर्गमी वा / एवं यत्परिज्ञानं स कालतः प्रत्युपेक्षणा भावतःप्रत्युपेक्षणा इयं यदुत स विषयः स्वपक्षण परक्षेण वा आक्रान्तो व्याप्तः, कश्वासौ स्वपक्षः, परपक्षश्च अत आह- (निन्हवाईया) निह्नवकाऽऽदिः स्वपक्षः, आदिग्रहणाच्चरक-परिव्राजिकाऽऽदिः, परपक्ष एभिरनवरतं प्राय॑मानो लोको न किञ्चिद्दातुमिच्छति इत्येवं यद् निरूपणं सा भावप्रत्युपेक्षणा। ओघ०। (सार्थप्रत्यु-पेक्षणा 'विहार' शब्द) (वसतिप्रत्युपेक्षणं वसत्यां मागितायाम् 'वसहि' शब्दे) (संस्तारका अवश्यं प्रत्युपेक्षयाः इति 'संथार' शब्दे वक्ष्यते) प्रतिलेखनाद्वारमाहएत्तो पडिलेहा छउ मत्थाणं चेव केवलीणं च / अभिंतर बाहिरिया, दुविहा दव्वे य भावे य / / 406 / / द्विविधा प्रत्युपेक्षणा भवति, कतमे ते द्वैविध्ये इत्यत आह-छद्म-स्थानां संबन्धिनी केवलिना संबन्धिनी च / सा चैकका द्विविधा-आभ्यन्तरा, बाह्या च / या छद्मस्थानां साऽभ्यन्तरा बाह्या च, याऽपि केवलिना साऽपि बाह्याऽऽभ्यन्तराच। (दव्वे भावे यत्ति) याऽसौ बाह्या प्रत्युपेक्षणा सा द्रव्यविषया, याऽप्यसौ अभ्यन्तरा सा भावविषया। तत्र केवलिनः प्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाहपाणेहि उ संसत्ता,पडिलेहा होइ केवलीणं तु / संसत्तमसंसत्ता, छउमत्थाणंच पडिलेहा।।४०७|| प्राणिभिः संसक्तं द्रव्यं तद्विषया प्रत्युपेक्षणा भवति केवलिनाम्। (ससत्तमसंसत्त त्ति) संसक्तद्रव्यविषया, तथा असंसक्तद्रव्यविषया च छद्मस्थानां प्रत्युपेक्षणा भवतीति। आह-''यथा न्यासः तथा निर्देशः" इति न्यायात् प्रथमं छद्मस्थानां व्याख्यानंयुक्त, पश्चात् केवलिनामिति? उच्यते-प्रधानत्वात् केवलिनां प्रथमं व्याख्या कृता, पश्चाच्छद्मस्थानामिति। आहतत्कथं प्रथममेवमुपन्यासो न कृतः? उच्यते-ततपूर्वकाः केवलिनो भवन्तीत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थमिति। अनेनैव कारणेन केवलिनः प्रत्युपेक्षणं कुर्वन्तीति प्रदर्शयन्नाहसंसज्जइ धुवमेयं , अपेहियं तेण पुव्वमेव केवलिणो। पडिलेहियं तु संस-जइत्ति संसत्तमेव जिणा / / 405 / / संसज्जते प्राणिभिः सह संसर्गमुपयाति ध्रुवमवश्यमेतद्वरत्राऽऽदि अप्रत्युपेक्षितं सत् तेन पूर्वमेव केवलिनः प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ति, यदा तु पुनरेवं संविद्रते (संविद्रते इति व्याकरणविरुद्धम्) इदमिदानी वस्त्राऽऽदि प्रत्युपेक्षितमपि उपभोगकाले संसज्जते, तदा संसक्तमेव (जिण ति। संसक्तमेव जिनाः केवलिनः प्रत्युपेक्षन्तेन त्वनागतानेव पलिमन्थदोषान्। उक्ता केवलिनो द्रव्यप्रत्युपेक्षणा। इदानीं केवलिन एव भावप्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाहनाऊण वेयणिज्ज़, अइपहुयं थोवगं च ओदइयं / कम्म पडिलेहेळं, वचंति जिणा समुग्घायं // 406 / / ज्ञात्वा वेदनीय कर्म अतिप्रभूतम् पुष्कलं च स्तोकं च कर्म प्रत्युपेक्ष्य ज्ञात्वा इत्यर्थः / इत्यत आह-(वचंति जिणा समुग्घायं ति) जिनाः केवलिनः समुद्घातं व्रजन्ति, अत्र च भावः कर्मण उदयः, औदयिको भाव इत्यर्थः / उक्ता केवलिनो भावप्रत्युपेक्षणा। इदानीं छदास्थद्रव्यप्रत्युपेक्षणामाहसंसत्तमसंसत्ता, छउमत्थाणं तु होइ पडिलेहा। चोदग पसायनासा, आरक्खा हिंडगा चेव॥४१०।। (संसत्त त्ति) संसक्तद्रव्यविषया। (असंसत्त त्ति) असंसक्तद्रव्यविषया च, छद्मस्थानां भवति प्रत्युपेक्षणा / अत्र चोदक आह-युक्त तावत्सं सक्तवस्त्राऽऽदेः प्रत्युपेक्षणां क तुम्, असंसक्तस्य तु कस्मात्प्रत्युपेक्षणा क्रियते? आचार्य आह-यथा आरक्षकहिण्डकयोर्यथासङ्ख्येन प्रसादविनाशौ संजातौ / तथा अत्राऽपि द्रष्टव्यमतत्थ किंचि नगरं, तत्थ राया तेण चोरनिगहत्थं आरक्खियो ठविओ सो एग दिवसं हिंडति, एवं हिंडतो चोरं न किंचि पासइ, ताहे ठिओ नि Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 341 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा विन्नः, चोरेहिं आगनियं-जहा वीसत्थो जाओ आरक्खिओ, ताहे एगदिवसेण सव्वंणगर मुटुंताहे एगे णागरा उवट्ठिया मुट्ठाओ। राया भणइवाहरह आरक्खियं तं वाहरिता पुच्छिओ, किं तुमे अज्ज हिंडियं णगरे ? ताहे सो भणइ-न हिडिय / ताहेरुट्ठो राया भणइ-जइणाम एत्तिए दिवसे चारहि ण मुट्ठ, साताणं चेव गुणो, ता एएण पमायं कयं तो अणेण मुसावियं तओ सो निग हिओ राइणा / अन्नो ठविओ, सो पुण जइ वि न दिक्खइ चारे, तह विरतिं रत्तिं सयलं हिंडति। अह तत्थेगदिवसे अंतरत्थाए गय भाऊण चोरेहि खत्तं खयं, सो य णागरओ रायकुले उवडिओ, राइणा पुच्छिओ आरक्खिओ, जहातुम किं हिंडसि? सो भणइ-आम हिंडामि / वाहे राइणालागो पुच्छिआ। भणइ-आम हिंडइ ति। ताहे सो णिद्योसो कीरइ / एवं चेव रायत्थाणीया तित्थयरा, आरक्खिहाणीओ, साहू, उवगरणं नगर-थाणीय कुंथुकीडियत्थाणीया चोरा, नाणदंसणचरित्ताणि हारियत्थाणीयाणि, संसारो दंडो। एवं केण वि आयरिएहि भणिओ सीसो दि दिव दिवे पडिले-हेहि, जाव ण पेच्छइ ताहे ण पडिलेहति। एवं तरस अपडिलेहंतस्त संसत्ता उवही, ण सको। साहेउं ततो तेण तित्थगराणामंगो कओ, तं चेव अपरिभोगं जाय / एवं अन्नो भणिओ, तेण य सव्वं कालं तित्थगराऽऽणा कया, वत्थं च परिभोगं जायं।'' अमुमेवार्थमुपसंहरनाहतित्थयरा रायाणो, साहू आरक्खि भंडगं च पुरं। तेणसरिसा य पाणा, हारियं तिगरयणं भवो दंडो।४११/ सुगगा। उक्ता छ दास्थविषया द्रव्यप्रत्युपेक्षणा। इदानीं भावप्रत्युपेक्षणा प्रतिपादयन्नाह - किंकय किं वा सेसं, किं करणिज्जं तवं व न करेमि। पुव्वावरत्तकाले, जागरओ भावपडिलेहा 11412 / / सुगमा / णतरं (पुव्यावरत्तकाले त्ति) पूर्वरात्रकाले रात्रिप्रहरद्वय - स्यान्तः, उपरिष्टादपररात्रकालं, तस्मिन् जाग्रतश्चिन्तयतः / एवं उक्ता छद्मस्थविषया भावप्रत्युपेक्षणा। ओघ०। देहप्रतिलेखना"दिहपडिलेह एगा, पप्फोडा तिन्नि तिन्नि अंतरिआ। अक्खोडा पक्खोडा, नव नव मुहपुत्ति पणवीसा / / 1 / / पायाहिणेण तिअ तिअ, बाहुसु सीसे मुहे अ हिअए अ। पिट्ठीइ हुंति चउरो, छप्पाए देहे पणवीसा / / 2 / / ' एताश्च देहप्रतिलेखनाः पञ्चविंशतिः पुरुषानाश्रित्य ज्ञेयाः, स्त्रीणां तु गोप्यावयवगोपनाय हस्तद्वयवदनपादद्वयानां प्रत्येकं तिस्रः तिस्रः प्रमार्जना इति पञ्चदशैव भवन्तीति प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ। तथामुखवस्विकाकायप्रतिलेखनायां सुमनसः स्थिरीकरणार्थमेवं विचिन्तयेत् 'सुनत्यतत्तदिट्ठी 1, दंसणमोहत्तिगंच 4 रागतिगंवा देवाईतत्त-तिगगं 10 तह य अदेवाइतत्ततिग 13 // 1 // नाणइतिगं 16 तहत-विराहणा 16 तिन्निगुत्ति 22 दंडतिग 25 इअ मुहणतगपडिले हणाइ कमसो विचिंतिजा / / 2 / / हासा रई अ अरई 3, भयसोगदुगुंछया य 6 वजिज्जा। भुअजुअलं पेहतो, सीसे अपसत्थलेसतिगं 6 / / 3 / / गारवतिग च वयणे 12 उरिसल्लतिग 15 कसायचउ पिढे 16 / पयजुगि छज्जीववहं 25, तणुपेहाए विजाणमिणं / / 4 / / जइ विपडिलेहणाए, हेऊ जिवरक्खणं जिणाऽऽणा य। तह वि इमं मणमक्कड़-नियंतणत्थं मुणी विति // 5 // " ध०२ अधि०। त्रिकालप्रत्युपेक्षणा / अथ विस्तरार्थ प्रकटयिषुः ''यथोद्देशं निर्देशः'' इति वचनप्रामाण्यात्प्रथमतः प्रत्युपेक्षणा द्वारमभिधातुकाम इमां प्रतिद्वारगाथामाहपडिलेहणा उ काले, अप्पडिलेहदोसछसु विकाएसु / पडिगहनिक्खेवणया,पढिलेहणया सपडिवक्खा ||22| प्रतिलेखना, तुरेवकारार्थो भिन्नकमश्च / काल एव कर्तव्या, नो अकाले / (अपडिलेह त्ति) अप्रतिलेखने प्रायश्चित्तम्-(दोस त्ति) दोषा आरभड़ाऽऽद्याः, तैर्दुष्टां प्रत्युपेक्षणां कुर्वतः प्रायश्चित्तम्। (छसु विकाएसं त्ति) षड्जीवनिकायेषु स्वयं प्रतिष्ठित उपधिर्वा प्रतिष्ठित इति प्रतिग्रहनिक्षेपणे वर्षासु विधेयं प्रतिलेखना सप्रतिपक्षा साऽपवादा भवतीत्येतानि द्वाराणि वक्तव्यानीति समासार्थः।।८२२|| व्यासार्थ तु प्रतिद्वारमभिधित्सुराहसूरुग्गए जिणाणं, पडिलेहणियाए आढवणकालो। . थेराणऽणुग्गयम्मी, उवहीणासो तुलेयव्वो।।८२३|| सूर्य उद्गमे सति जिनानां जिनकल्पिकानामेकग्रहण तज्जातीयग्रहणभितिवचनादपरेषामपि गच्छनिर्गतानां प्रतिलेखनाया आरम्भणकालो मन्तव्यः / स्थविराणां स्थविरकल्पिकानाममुद्गते सूर्ये प्रत्युपेक्षणाया आरम्भकालः, सचोपधिना तोलयितव्यः / कथमिति चेत्? उच्यते-इह प्राभातिकप्रतिलेखनाया भूयांसः आदेशाः सन्ति, अतस्तत्प्रतिपादकः पञ्चवस्तुकवृत्त्यु-क्तो वृद्धसंप्रदायो लिख्यते- "को पडिलेहणाकालो, एगो भणइ-जया वायरसा वासंति तया पडिलेहिजउ, तो पट्टवित्ता अ साइजउ। अन्नो भणइ-अरूणे उठ्ठिए। अवरो भणइ-जाहे पगासं जायं। अन्नो पुण-जहिं पडिस्सए परोप्परं पव्वइयगा दीसंति / अन्ने भणतिजाहे हत्थरहाओ दीसति / आयरिया भणंति-एए सव्वे वि अणाएसा, अपसिद्धान्तत्वात्। जओ अंधकार पडिस्सए हत्थरेहाओ उहिए वि सूरे नदीसंति वायसाइआएसेसु य अंधकारं तिपडिलेहणान सुज्झइ। तम्हा इमो पडिलेहणाकालो आवस्सए कए-तिहिं थुईहिं दित्तियाहिं जहा पडिलेहणाकालो भवइ तहा आवस्सय कायवं, इमेहि य दसहि पडिलेहिएहिं जहा सूरो उट्टेइ 'मुहपत्ती रयहरण, दुन्नि निसिज्जा य चोलपट्टी य। संथारुत्तरपट्टो, तिन्नि विकप्पा मुणेयव्वा / / 1 / / जीवदयट्ठ पेहा, एसो कालो इमीइ ता नेओ। आवरसगथुइअंते, दसपेहा उग्गए सूरे।।२।।" चूर्णिकृत् पुनराह-यथाऽऽवश्यके कृते एकद्वित्रिश्लाकस्तुतित्रये गृहीते एकादशभिः प्रतिलेखितरादित्य उत्तिष्ठते स प्रारम्भकालः प्रतिलेखनिकायाः। कतरे पुनरेकादश-"पंच अह जोजना, तिन्नि विकप्पा, तेसिं एगो उन्निओ, दो सुत्तिया / संथारपट्टो, उत्तरपट्टो, दंडओ एगारसमो त्ति / ' गतं प्रतिलेखनाकाल इति द्वारम् / बृ० 1 उ०३ प्रक०। 'अण्णे भणंतिएक्कारसमो दंडओ, सेसं वसहिमादि उदिते सूरिए पडिलेहति / ततो सज्झायं पट्ठवें ति।" निचू०२ उ०॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 342 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा इमो भाणपडिलेहणकालोचतुभागवसेसाए, पढमाए पोरिसीऍ भाणदुगं॥ पडिलेहणधारणता, भणिता चरिमाएँ णिक्खवणे // 631 / / पढमचरमपोरिसीहिं, पडिलेहणयाएँ कालेसो।। पढमपहरचउभागावसेसा य चरिम त्ति भण्णति, तत्थ काले भाणदुगं पडिलेहिज्जति, सो भत्तट्ठी, इतरो वा / जति भत्तट्ठी तो अणिक्खितेहिं चैव पढति सुणति वा / अहाऽभत्तट्टी तो णिक्खिवति, एस भयणा, एस उदुबद्ध वासासु वा विही / अण्णे भणति वासासु दो वि णिक्खिवंति चरिमपोरिसीए पुण उग्गहो, तीए चेव पडिलेहिउ णिक्खिवंति, ततो सेसोवकरणं, ततो सज्झाय पवेति। पढमगाहा-एस चरमपोरिसीसु कालो / काले त्ति दारं गतं / नि०चू०२ उ०।। आह-वेलायां न्यूनाधिकायां प्रत्युपेक्षणायां क्रियमाणायां दोष उक्तः, कस्यां पुनः वेलायां प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या ? तत्र केचन आह अरुणाऽऽवस्सगपुव्वं, परोप्परं पाणिपडिलेहा।।४३२।। पअरुणावस्सगपुव्वं ब अरुणाऽऽदावावश्यकं पूर्वमेव कृत्वा ततः अरूणोद्रमसमये प्रभास्फुटनवेलायां प्रत्युपेक्षणा क्रियते। अपरे त्याहुःअरुणे उगते सति प्रभायां स्फुटितार्या सत्याम, आवश्यकं प्रथमं पूर्व कृत्वा ततः प्रत्युपेक्षणा क्रियते। अन्ये त्वाहुः- परोप्परं ति| परस्पर यदा मुखानि विभाव्यन्ते, तदा प्रत्युपेक्षणा क्रियते / अन्ये त्वाहु "पाणिपडिलेहा'' यस्यां वेलायां पाणिरेखाः दृश्यन्ते, तस्यां वेलाया प्रत्युपेक्षणा क्रियते // 432 / / [432 ओघ०)। वेलायां च न्यूनायामधिकायां वा प्रत्युपेक्षणा न कार्येति भावः। कालं त्वङ्गीकृत्य - "कुक्कुडअरुणपगासं।" इत्यादिना गाथार्धमाह। अत्र वृद्धसंप्रदायः- "कालेण ऊणो जो पडिलेहणाकालो, तत्तो ऊणं पडिलेहेइ, तत्थ भणइको पडिलेहणाकालो? ताहे एगो भणइ-जाहे कुक्कुडो वासइ पडिक्कमित्ता / ताहे पडिलेहावउ, तो पट्टवित्ता पडिलेहउ। अण्णो भणइ-अरूण सरीर भवइ / अण्णों -जाहे पगासंती पहाफुट्टणवेला / अवरो भणइपरोप्पर अण्णोण्णं मुहाणि दीसंति। अण्णो भणइजत्थ हत्थरेहाओ दीसति ति। एतेषां विभ्रमे निमित्तमाह "देवसिआ पडिलेहा, जं चरिमाए त्ति विब्भमो एसो। कुकुडगाऽऽदेसिस्सा, तहिंधयारं ति तो सेसा // 16 // " दैवसिकी प्रत्युपेक्षणा वस्त्राऽऽदेः यस्माच्चरमाया, तदनुएव स्वाध्याय इति एषा भ्रान्तिः। कस्य? कुर्कुटाऽऽदेशिनश्चोदकस्य, तत्रान्धकारमिति कृत्वा / ततः शेषा अनादेशाः। ध०३ अधि०। एए उ अणाएसा, अंधारे उग्गए वि हुण दीसे। मुह रय णिसिज चोले, कप्पतिअ दुपट्ट थुइ सूरो // 433 / / एते सर्वे एवमनादेशा असत्पक्षाः, यतः प अंधारे उग्गते विहुण दीसे ब अन्धकारे उगतेऽपि सूर्य एव वान दृश्यते, तस्मादसत्पक्षोऽयं, शेषं पक्षत्रयं सान्धकारत्वाद् दूषितमेव द्रष्टव्यम् / तत्कस्या पुनर्वेलायां प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या इति? अत आह- ''मुहरय-णि सेजचोले कप्पतिग दुपट्टथुइसूरो] / [मुह इति] मुखवस्त्रिका (रय इति) रजोहरणम्, "णिसेज्जा" रजोहरणस्य उपरितनपट्टः [चोले त्ति) चोलपट्टकः / (कप्पतिग ति] एक और्णिकः, द्वौ सूत्रिको (दुपट्ट ति] संस्तारकपट्टः, उत्तरपद्रकश्च [थुतित्ति] प्रतिक्रमणसमाप्तौ ज्ञानदर्शनचारित्रार्थ स्तुतित्रये दत्ते सति एतेषां मुखवस्त्रिकाऽऽदीनां प्रत्युपेक्षणासमाप्त्यनन्तरं यथा सूर्य उद्गच्छेत्येव प्रत्युपेक्षणा काल इति। ओघ०।"एवं आयरिआ भणंतिसव्वे वि अणादेसा सच्छंदा अंधयारे पडिस्सए हत्थेहाओ उगए वि सूरेण दीसति, इमो पडिलेहणाकालो आवस्सए कए तिहिं थुईहिं दिन्नि-आहिं तहा पडिलेहणाकालो जहा एएहिं दसहिं पडिलेहिएहिं जहा सूरो उट्ठई, "मुहपोत्तीरयहरण [1]'' इत्यादि काऽनुपदगता गाथा। तस्याः फलितमाह"जीवदयट्ठा पेहा, एसो कालो इमीइ तो णेओ। आवस्सगाइ अते. दसपेहा उट्टई सूरो॥३६।।" सुगमा / ध०३ अधि०। गाहातविवरीओ उ पुणो, णो होज्जा होति तु अकाले // 632 / / तविवरीतो अकालो-पडिलेहणाए-जति पुण अद्धाणे वा अण्णेण वा वाया य कारणेण पढमए ण पडिलेहियं ताहे अकाले विपडिले-हेति जाव चउत्थी ण उग्गाहति ताव पडिलेहियव्वं / जति वा पडिलेहियमेत्ते चेव चउत्थी ओगाहति तह विपडिलेहियव्वं / अकाले ति दारं गत / नि०चू० 2 उ०। अथ प्रत्युपेक्षणादोषद्वारं विवृणोतिलहुगा लहुगो पणगं, उक्कोसादुवहि अपडिलेहाए। दोसेहि उपेहंते, लहुओ भिन्नो य पणगं च // 524 / / उत्कृष्टाऽऽद्युपधीनामप्रत्युपेक्षणे प्रायश्चित्त लघुकाः लघुकः पञ्चकं चेति / उत्कृष्टमुपधिंन प्रत्युपेक्षते चत्वारोलघुकाः, मध्यमं न प्रत्युपेक्षते मासलघु जघन्यं न प्रत्युपेक्षते पञ्चकम्। अथ षट्सुकायेष्विति पदं व्याचष्टकाएसु अप्पणा वा उवहीच पइट्ठिोऽत्थ चउभंगो। मीससचित्तअणंतर-परोप्परपइट्ठिए चेव // 25 // प्रत्युपेक्षमाणः षट्सु कायेषु आत्मना प्रतिष्ठित उपधिर्वा तेषु प्रतिष्ठित इत्यर्थः, चतुर्भगी। तद्यथा-स्वयं कायेषु प्रतिष्ठितो नोपधिः, उपधिः प्रतिष्टितो न स्वयम्, स्वयमपि प्रतिष्ठित उपधिरपि प्रतिष्टितः, स्वयमप्यप्रतिष्ठित उपधिरप्यप्रतिष्ठित इति / एते च षट्काया मिश्रा वा भवेयुः सचित्ता वा, एतेषु साधुरुपधिर्वा अनन्तरं वा परम्परं वा प्रतिष्ठितो भवेत् / अत्र च प्रायश्चितं "छक्कायचउसु लहुगा।" इत्यादिगाथाऽनुसारेणावगन्तव्यम् / यस्तु द्वाभ्यामप्यप्रतिष्ठितः स शुद्ध इति। अथ दोषद्वारस्य वक्तव्यताशेष, प्रतिग्रहनिक्षेपणपदं च व्याख्यानयतिआयरिए य परिन्ना, गिलाण सरिसखमए य चतुगुरुणा। उडुबंधे मासलहुओ, बंधणधरणे य वासासु / / 26|| (आयरिए यत्ति] षष्ठी सप्तम्यो र प्रत्यभे दादावार्य स्य Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 343 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा परिन्न ति] मत्वर्थीयप्रत्ययलोपाद् परिज्ञा तपः कृतभक्रप्रप्रत्याख्यानस्य (गिलाणसरिसखवय त्ति ग्लानस्य ग्लानसदृशश्च यः क्षपको विकृष्टतपस्वी, तस्य एतेषा चतुर्णामुपधिं यदि प्रत्युपेक्षते तदा चत्वारो गुरवः / चशब्दात्माघूर्णकस्थविरशेषाणामग्लानोपमस्य च क्षपकस्योपधिमप्रत्युपेक्षाणानां चतुर्लघवः [उरु इत्यादि पश्वार्द्धम्] यदा सर्वाण्यपि वस्त्राणि प्रत्युपेक्षितानि भवन्ति तदा यान्यतिरिक्तानि भाजनानि तानि प्रत्युपेक्षन्ते, प्रतिग्रहमात्रकं च यदितदानीमेव प्रत्युपेक्षते तदा मासलधु, असामाचारीनिष्पिन्नमिति भावः / अतः सूत्रपौरुषीं कृत्वा चतुर्भागावशेषायां पौरुष्यां प्रत्युपेक्ष्य द्वे अपि ऋतुबद्धे काले धारणीयेन निक्षेप्तव्यः। / अथ ऋतुबद्धे प्रतिग्रह मात्रकं वा न धारयति उपकरण वा दवरकेन न बधाति तदा पसलधु। अग्निस्तेनदण्डिकक्षोभाऽऽदयश्च ओघनियुक्तिप्रतिपादिता दोषाः / बर्षासु पुनरुपधिं न बनाति प्रतिग्रहमात्रक च प्रत्युपक्ष्य निक्षिपति, अथोपधि बध्नाति भाजने वा धारयति तदा मासलघु / विशेषतश्चूर्णिकृता त्वस्या एकगाथायाः स्थाने गाथाद्वयं लिखितं यथागुरु पच्चक्खाया लहु, गिलाण सरिसखमए य चउगुरुणा। पाहुणगा सह बाले, वुड्डे खमए य चउलहुगा / / 27 / / चउभागवसेसाए, पडिग्गहं पच्चुवेक्ख न धरेइ। उडुबद्ध मासलहुं, वासासु धरिति मासलहुं / / 828 इदं च गाथाद्वयं भावितार्थमेव। अथ प्रतिलेखिनिका सप्रतिपक्षेति पदं भावयतिअसिवे ओमोयरिए, सागारभए य रायगेलन्ने। जो जम्मि जया, जुज्जइ, पडिदक्खे तं जहा जोए।।८२६| प्रतिपक्षो नाम द्वितीयपदम्, अशिवे अशिवगृहीतः सन्न शक्नोति प्रत्युपक्षितुमयमौदर्ये तु प्रत्यूष एव भिक्षा हिण्डितुं प्रारब्धवन्तः, अतो नास्तिप्रत्युपेक्षणायाः कालः, सागारिको वा प्रेक्षमाणों मातं सारमुपधिमद्राक्षीदिति कृत्वा, भये वा बोधिकस्तेनाऽऽदिसंबन्धिनि सारोपकरणहरणभयान्न प्रत्युपेक्षन्ते, राजा वा प्रत्यनीकस्तदाहर्निशमध्वनि वहन्तो न प्रत्युपेक्षेरन ग्लानत्वे वा वर्तमान एकाकी तिष्ठन्न प्रत्युपेक्षते / एतैः कारणेर्न वा प्रत्युपेक्षेत, अनागतेऽतीते वा काले प्रत्युपेक्षते, त्वरमाणैर्वा आरनडाऽऽदिभिर्वा दोषैर्दुष्टां प्रत्युपेक्षणां न कुर्वते, असमर्थो वा गुर्वादीनामप्युपछि न प्रत्युपंक्षेत, एवं यो यत्र शिवाऽऽदौ यदा यस्मिन्नवसरे प्रतिपक्षे प्रत्युपेक्षणाकाले प्रत्युपेक्षणाऽऽदिको युज्यते तं तथा तत्र योजयेदिति अथ षट्सु कायेषु प्रत्युपेक्षमाणस्य प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थ, तत्र प्रत्युवेक्षणा न कर्तव्येति यदुक्त, तदेवदर्शयतितसवीयरक्खणट्ठा, काएसु वि होज कारणे पेहा। नदिहरण-पुत्तनायं, तणू य थूरे य पुत्तम्मि।।८३०।। त्रसाश्च द्वीन्द्रियाऽऽदयः बीजानि च शाल्याऽऽदीनि, तेषामस्थिरसंहननानां रक्षार्थ कायेष्वपि पृथिव्यादिषु दृढसहननेषु कारणतः प्रत्युपेक्षणा भवति। नच प्रायश्चितम्। आह-तेषु तिष्ठतः प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् संघट्टनाऽऽदिबाधनात् कथं न दोषभाग भवतीति? उच्यते-नदीहरणोपलक्षित पुत्रज्ञातमत्र भवति / कथमित्याह- (तणू य थूरे य पुत्तम्मि त्ति) यथा कस्यचित्पुरुषस्य द्रौ पुत्रौ तयोरेकस्तनुकः कृशशरीरः, द्वितीयस्तु स्थूलोऽतीव पीवरगात्रः, स चान्यदा ताभ्यां सहितः कश्चित् ग्राम गछन्नपान्तराले एकामपारगम्भीरांनदीमवतीर्णवान् सचनदी प्लवनतया सुखनैव स्वयं ता तरीतुं शक्तः, परं पुत्रावद्यापि तरणकलायामकोविदाविति कृत्वा तनुके स्थूले चपुत्रे उभयेऽपितारयितुं प्राप्ते सतिस किं करोतीत्याहजइसे हविज ताओ, तारिज्जतओ दुवग्गे वि। थूरो पुण तणुअतरं, अवलंबंतो वि बोलेइ॥३१।। यदि (से) तस्य पितुः शक्तिः सामर्थ्य भवेत् ततो (दुवग्गे वि त्ति) देशीवचनत्वात् द्वावपि पुत्रावुत्तारयेत् नैकमप्युपेक्षेत। अथ नास्ति तस्य तथाविधं सामर्थ्य, ततो यस्तयोः कृशशरीस्तं तारयति, लघुभूतशरीरतया तस्य सुखेनैव तारणीयत्वात्। यस्तु स्थूरशरीरो जडः सतनुकतरं स्तोकमात्रमप्यवलम्बमानो निजशरीरभारिकतयैवाऽऽत्मानं तं च नद्या बोलयति अतस्तमुपेक्षते। एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयः-पितृस्थानीयः साधुः पुत्रद्वयस्थानीयाः स्थिरशरीरसंहननिन पृथिवीकायाऽऽदयः। ततः साधुना प्रथमतो निर्विशेषं षड्कायाः स्थिरसंहनिनश्च रक्षणीयाः। अथान्यतरेषां विराधनामन्तरेणाध्वगमनाऽऽदिषु प्रत्युपेक्षणाऽऽदीना प्रवृत्तिरेव न घटामञ्चति, ततः स्थिरसंहननिनां पृथिव्यादीनां विराधनामभ्युपेत्यास्थिरसंहनिनस्त्रसाऽऽदयो रक्षणीया इति। अस्यैवार्थस्य समर्थनाय द्वितीयं दृष्टान्तमाहअंगारखडपडियं, दळूण सुयं सुयं विइयमन्नं / पवलित्ते नीणितो, किं पुत्ते ण य कुणइ पायं / 832 / यथा नामकश्चित्पुरुषस्तस्य पुत्रद्वयम्, अन्यदाचरात्रौतद्गृहे प्रदीपनक लग्नं, तद्भयादेकः पुत्रः पलायमानः सहसैवाङ्गारभृतायां गर्तायां निपतितः, स च गृहपतिर्द्वितीयं पुत्रमादाय गृहान्निर्गतो यावन्नश्यति पुरतः स्वपुत्रमगारगर्तायां पतितं पश्यति, तं सुतं तथाभूतं दृष्ट्वा द्वितीयमन्यं सुत (पवलिते नीणितो त्ति) पञ्चम्यर्थे सप्तमी प्रदीप्ताद् गृहान्निष्काशयन् निजपारिणामिकमत्या विचार्य परिच्छेदकुशलः सन् किमङ्गारगर्तायां निपतितपूर्वे पुत्रे पादं न करोति, अपितु करोत्येव,कृत्वा च तदुपरि पाद सुखेनैव तां लड्डयतीति भावः। अथ तदुपरि पादं न दद्यात् स्वपुत्रं कथं पादेनाऽऽक्रमामीतिकृत्वा, ततः को दोष स्यादित्याहतं वा अणकमंता, चयइ सुयं तं च अप्पगं चेव। निस्थिन्नो हुँतं पि हु, पुत्तं तारिज जो पडितो // 833 / / वाशब्दः पातनायां, सा च कृतैव, ततो गर्तानिपतितं तं पुत्रं पादेनानाक्रामन् स पिता त्यजति पुत्रं तं च, स्वहस्तगृहीतमात्मानं च, उभयोरप्यङ्गारगर्तापातेन विनाशसद्भावात्। अपिच सस्वयं निस्तीर्णः सन् कदाचितमपि पुत्र तारेयत् यः पूर्वं गर्तायां पतित इति। एष द्वितीयो दृष्टान्तः। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 344 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा उपनययोजना तु प्रागृतोपनययोजनानुसारेण कर्तव्येति / गत प्रत्युपेक्षणाद्वारम् / बृ०१ उ०। इदानीं प्रत्युपेक्षणीयमुच्यते, तत्प्रतिपादनायाऽऽहठाणे उवगरणे वा, थंडिलें अवर्थभ मग्ग-पडिलेहा। किं आदी पडिलेहा, पुव्वण्हे चेव अवरण्हे / / 413 / / स्थानं कायोत्सर्गाऽऽदि त्रिविधं वक्ष्यति / तथा-उपकरणं पात्रकाऽऽदि, स्थण्डिलं यत्र कायिक्यादि क्रियते, अवष्टम्भः-अवष्टम्भनं, तत्प्रत्युपेक्षणा, मार्गः वर्त्म, यदेतत्परकमुपन्यस्तं, एतद्विषया प्रत्युपेक्षणा भवति (किं आदी पडिलेहा पुव्वण्हे) किमादिका प्रत्युपेक्षणा पूर्वाह मुखवस्त्रिकाऽऽदिकेति, अपराह्ने किमादिका, तत्रापि मुखवस्त्रिकाऽऽदिकति द्वारगाथेयम्। इदानीं भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति। तत्र सामान्येन सर्वाणि च द्वाराणि व्याख्यानयन्नाहठाणनिसीयतुयट्टण-उवगरणाईण गहणनिक्खेवे। पुट्विं पडिलेहे च-क्खुणा उपच्छा पमञ्जेज्जा / / 414 / / स्थान कायोत्सर्गः, तं कुर्वन् चक्षुषा प्रथम प्रत्युपेक्षते, पश्चात् प्रमार्जयति / तथा-निषीदनमुपविशनं, त्वग्वर्तनं स्वपनम्, तथाउपकरणाऽऽदीनां ग्रहणनिक्षेपे च / आदिग्रहणात् स्थण्डिलमवष्टम्भश्व गृह्यते / एतानि सर्वाण्येव पूर्व चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य, पश्चाद्रजोहरणेन प्रमृज्यन्ते / ओघ, / (स्थानद्वारम् 'काउस्सग' शब्दे तृतीयभागे 417 पृष्ठे विवृतम्) इदानीमुपकरणद्वारप्रतिपादनायाऽऽहउवगरणादीयाणं, गहणे निक्खेवणे य संकमणे / ठाण निरिक्ख पमजण,काउं पडिलेहए उवहिं।।४२०।। उपकरणाऽऽदीना ग्रहणे आदाने यत् स्थानं तद् निरीक्ष्य निरूप्य प्रमृज्य च, उपधिः प्रत्युपेक्षणीय इत्यव संबन्धः / तथा-उपकरणाऽऽदीनां निक्षेपणे च यत् स्थानं तद् निरीक्ष्य प्रमृज्य च उपधिः प्रत्युपेक्षणीयः। तथा-उपकरणाऽऽदीनामेव यत् संक्रमण स्थानान्तरसंक्रमणं तरिमन यत् स्थानान्तर निरीक्ष्य प्रमार्जनं कृत्वा उपधि, प्रत्युपेक्षेत योऽयमादिशब्दः स उपधिप्रकारप्रतिपादकः उपकरणाऽऽदेः गृहणनिक्षेपणसंक्रमणेषु यत् स्थानं तत्स्थान-निरीक्षण प्रमार्जनमुक्तम् / इदानीमुपकरणप्रत्युपेक्षणाप्रतिपादनायाऽऽहउवगरण वत्थ पायं, वत्थे पडिलेहणं तु वोच्छामि। पुव्वण्हे अवरण्हे, मुहणंतगमाइपडिलेहा / / 421 // उपकरणप्रत्युपेक्षणा द्विविधा-(वत्थे पाए त्ति) वस्त्रविषया, पात्रविषया च प्रत्युपेक्षणा उच्यते, यतः प्रव्रजितस्य प्रथमं वस्त्रोपकरणमेव दीयते, नपात्रोपकरणम्, साच वस्त्रप्रत्युपेक्षणा। सा च कस्मिन्काले भवतीत्यत आह- (पुव्वण्हे अवरण्हे) पूर्वाह्ने वस्त्रप्रत्युपेक्षणा भवत्यपराहे च / किमादिका पुनः प्रत्युपेक्षणा भवतीत्यत आह- (मुहणतगमादिपडिलेह त्ति) मुखवस्त्रिका आदौ यस्याः प्रत्युपेक्षणायाः सा मुखवस्त्रिकाऽऽदिका प्रत्युपे-क्षणा, कदा पूर्वाह्न, अपराहे चेति। तत्र मुखवस्त्रिकाऽऽदिकवस्त्रप्रत्युपेक्षणायामयं विधिः उर्ल्ड थिरं अतुरियं, सव्यं वा वत्थ पुव्व पडिलेहे। तो वितियं पप्फोडे, तइयं च पुणो पमजेञ्जा // 422 / / तत्र वस्त्रोद्ध कायोर्द्ध च आर्यामतेन भविष्यति, चोदकमतेन च वक्ष्यमाणम्, तत्र वस्त्रोद्ध कायोर्द्ध च यद्वा भवंति तथा प्रत्युपेक्षेत थिर ति] स्थिर सुगृहीतं कृत्वा प्रतयुपेक्षेत / [अतुरियं ति] अत्वरित स्तिमितं प्रत्युपेक्षेत निरीक्षेत [सव्वं ति] सर्वं कृत्स्नं वस्त्रं तावत् पूर्व प्रथमं प्रत्युपेक्षेत चक्षुषा निरीक्षते, एवं तावदर्वाग्भागः परभागोऽपि परावृत्य एवमेव चक्षुषा निरीक्षते [तो वितिय पप्फोडि त्ति ततः द्वितीयायां वारायां प्रस्फोटयेत् वस्त्रं, प्रस्फोटिमा कर्तव्या इत्यर्थः [तइयं च पुणा पमज्जेज त्ति तृतीयायां वारायां हस्तगतान् प्राणान् प्रमार्जयेदिति। इदानीमेनामेव गाथा भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाहवत्थे काए तम्मि य, परवयणं ठिओ गहाय दसियते। तं न भवइ उकुडुओ, तिरियं पेहे जह विलित्ते // 423 / / तत्रोचं द्विविधा-वस्त्रोध कायोवं, चेत्येते, तस्मिन्नुक्ते परवयणं ति] परचोदकस्तस्य वचनम्। किं तदित्याह [ठिओ गहाय दसियंत ति] स्थितस्य ऊर्द्धस्य गृहीत्वा दशान्तं वस्त्रं प्रस्फोटयति वस्त्रोद्ध कायोर्द्ध चेति भवति / एवमुक्ते सति आचार्य आह- [तं ण भवति ति] तदेतन्न भवति यचोदकेनाभिहितम् / कुतः? यस्मात् [उकुडुओ तिरियं पेहे) उत्कुटुकः स्थितः तिर्यक् प्रसार्य वस्त्रं प्रत्युपेक्षते, एतदेव वचनं वस्त्रोद्ध कायोर्द्ध वा नान्यत् / यथा चन्दनाऽऽदिना विलिप्ताङ्ग: परस्परमङ्गानि न लगयति, एवं सोऽपि प्रत्युपेक्षते ततश्चैवम् उत्कुटुकस्य कायोर्द्ध भवतीति, तिर्यकप्रसारितस्स वस्त्रस्य वस्त्रोद्धं भवतीति "उड्ड ति" (422) भणितम्। इदानी स्थिराऽऽदीनि पदानि भाष्यकार एव व्याख्यानयन्नाहघेत्तुं थिरं अतुरियं, तिभागवुड्डीऍ चक्खुणा पेहे। तो वितियं पप्फोडे,तइयं च पुणो पमञ्जेज्जा॥४२४।। गृहीत्वा च स्थिरं निविडं दृढ वरचं ततः प्रत्युपेक्षेत, अत्वरित स्तिमितमूर्द्ध वस्त्रं ततः प्रत्युपेक्षेत इति भावः / (तिभागवुड्डीए त्ति) भागत्रयवृद्ध्येत्यर्थः चक्षुषा प्रत्युपेक्षेत।ततः द्वितीयवारायां प्रस्फोटयेत्, तृतीयवारायां प्रमार्जयेत् पूर्ववत्। इदानी प्रत्युपेक्षणां कुर्वता इदं कर्तव्यम्अणच्चावियं अचलियं, अणाणुबंधि अमोसलिं चेवा छप्पुरिमा णव खोडा, पाणी पाणे पमजणया॥४२५।। तत्र प्रत्युपेक्षणां कुर्वता वस्त्रमात्मा वा न नर्तयितव्यः, तथाऽचलितं वस्त्रं शरीरं च कर्तव्यम्। (अणाणुबंधिति) अनुबन्धः, सोऽस्मिन्नस्तीति अनुबन्धि, न अनुबन्धि अननुबन्धि तत्प्रत्युपेक्षणा न अनवरत प्रस्फोटनाऽऽदि कर्तव्यं, किं तर्हि सान्तरं सविचछेद इत्यर्थः / (अमोसलिं ति) न मोशली क्रिया यस्मिन् प्रत्युपेक्षणे तदमोशलि प्रत्युपेक्षण, यथा मुशल कुट्टिते ऊर्द्ध लगति, अधस्तिर्यक, एवं न प्रत्युक्षणा कर्तव्या। किंतु यथा प्रत्युपेक्षमाणस्य ऊर्द्ध पीठिषु न Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 345 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा लगति, न च तिर्यक, न भूमौ, तथा कर्तव्यम् (छप्पुरिमा) तत्र वस्त्रस्य चक्षुषा निरूप्याक्भिागं त्रयः पुरिमाः कर्तव्याः, तथा परावर्त्य अपरभागं निरूप्य पुनरिप त्रयः पुरिमाः कर्तव्याः / एतमेतेषु पुरिमाः षड्वाराः, प्रस्फोटनानीत्यर्थः, नव च खोडकाः कर्तव्याः। पाणेरुपरि (पाणी पाणे पमजणय त्ति) प्राणिनां कुन्थ्वादीनां पाणौ हस्ते प्रमार्जनं नवैव वाराः कर्तव्याः। इयं द्वारगाथा। इदानीं भाष्यकारः पूर्वार्द्ध व्याख्यानयन्नाहवत्थे अप्पाणम्मिय, चउह अणच्चावियं अचलियं च। अणुबंध निरंतरया, तिरि उड्ढह घट्टणा मुसली / / 4266 वस्त्रे आत्मनि इत्यनेन पदद्वयेन भङ्गचतुष्टयं सूचितं भवति। ततश्चानेन प्रकारेण अनावितं चतुर्द्धा भवति। कथम्?-"वत्थं अणचावियं अप्पा च अणचावियं एगो भगो। तथा वत्थं अणच्चावियं, अप्पाणं णच्चावियं। तथा वत्थं णच्चावियं अप्पाणं ण णच्चावियं / तथा वत्थं पिनच्चाविय अप्पाण विणचावियं / एस चउत्थो। एत्थ पढमो भंगो सुद्धो।" एवम्(अचलितं ति अचलितेऽपि चउरो भङ्गा यथा-वत्थं अचलित अप्पाणं अचलिया तथा-वत्थं चलियं अप्पाणं अचलिया तथा-वत्थं अचलियं अप्पाणं चलिय / तथा वत्थं पि चलियं अप्पाणं पि चलिय / एत्थ पढमो भंगो सुद्धो। (अणुबंधनिरंतरय ति) अनुबन्धनिरन्तरता उच्यते, ततश्च न अनुबन्धेन नैरन्तर्येण प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या। इदानीम् "अमोसलिं ति'' व्याख्यानयनाह- [तिरि उड्ढह घट्टणा मुसलि त्ति |त्रिविधा मुशली तिर्यघट्टना,ऊर्द्ध घटना, अधोघटना चेति। तत्र प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् वस्त्रेण तिर्यक् कुट्यादि घट्टति स्पृशति, ऊर्द्ध कुट्टिकाऽऽदिपटलानि घट्टयति, अधोभुवं घट्टयति / एवं मुशली, किं तु अमुशली न किञ्चित् प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् वस्त्रेण धट्टयति। इदं तावत् पूर्वोक्तमनर्तिताऽऽदि कर्त्तव्यम्, इदं तु वक्ष्यमाणं न कर्तव्यं, किं तदित्याह आरभडा सम्मद्दा, वज्जेयव्वा य मोसली तइया। पप्फोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेइय छ दोसा।।४२७।। (आरभड त्ति) आरभटा प्रत्युपेक्षणा न कर्त्तव्या, (संमद्दत्ति) संमर्दा, वर्जनीया च मौशली तृतीया, प्रस्फोटना च चतुर्थी , विक्षिप्ता पञ्चमी, वैदिका षष्टी इति द्वारगाथेयम्। इदानी भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति / तत्राऽऽद्यावयवव्याचिख्यासुराह.. वितहकरणे व तुरियं, अण्णं अण्णं च गेण्हणाऽऽरभडा। अंतो व होज कोणा, णिसियण तत्थेव संमद्दा // 42 // वितथं विपरीतं यत्करणं तदारभटाशब्देनोच्यते / सा चाऽऽरभटा प्रत्युपेक्षणा न कर्तव्या इत्यर्थः, वा विकल्पे, इयं चाऽऽरभटोच्यते, यदुत त्वरितमाकुलं यदन्यान्यवस्त्रग्रहणं तदारभटाशब्देनोच्यत सा च प्रत्युपेक्षणा न कर्तव्या। त्वरितमन्यान्यवस्त्रग्रहणं न कर्तव्यमित्यर्थः / आरभटेति भणितम्। इदानीं संमर्दा व्याख्यते। तत्राऽऽह-(अतो व होज कोणा, निसियण तत्थेव संमद्दा) अन्तर्मध्यप्रदेशे वस्त्रस्य संवलिताः | कोणा यत्र भवन्ति सा संमर्दोच्यते, सा प्रत्युपेक्षणा, तादृशी क्रिया न कर्तव्या। (णिसीयण तत्थेवत्ति) तत्रैव अवधिकायामुपविश्य प्रत्युपेक्षणं करोति, सा वा समर्दोच्यते, सा च न कर्तव्या इति। "संमत्ति भणियं / " इदानीं मौशलीवर्जनप्रतिपादनायाऽऽहमोसलि पुवुद्दिट्ठा, पप्फोडण रेणुगुंडिए चेव। विक्खेवं तु विखेवे, वेइय पणगं च छद्दोसा // 426|| मौशली पूर्वमेवोद्दिष्टा, पूर्वमेव भणिता इत्यर्थः। 'मोसलि त्ति' गता। इदानीं "पप्फोडि त्ति' व्याख्यायते-तत्राऽऽह-(पप्फाडण रेणुगु-डिए चेव) प्रकर्षण धूननं प्रस्फोटन, तद्रेणुगुण्डितस्यैव वस्त्रस्य करोति, यथाऽन्यः कश्चित् गृहस्थो रेणुना गुण्डितं सद् वस्त्रं प्रस्फोटयति, एवमसावपि, इयं च न कर्तव्या / "पप्फोडण त्ति '' गतम्। इदानीं "विक्खित ति" भण्यते / तत्राऽऽह- (विक्खेवं तु विखेवे) विक्षेपं तु तं विद्धि यत्र वस्त्रस्यान्यत्र क्षेपणम् / एतदुक्तं भवतिप्रतिलेखयित्वा वस्त्रमन्यत्र जवनिकाऽऽदौ क्षिपति / अथवा-विक्षेपः वस्त्राचलानामूर्द्ध यत् क्षेपण स उच्यते / स च प्रत्युपेक्षणायां न कर्त्तव्यः। 'विविखत्त ति" गतम्। इदानीं 'वेइय त्ति" व्याख्यायते-तत्राऽऽह-(वेइयपणगं च त्ति) वेदिका पचप्रकारा। "तं जहा-उड्डे वेइया, अधो वेइया, तिरिय वेइया, दुहतो वेइया, एगओ वेइया / तत्थ उड्डवेइया-उवरि जाणुगाणं हत्थे काऊण पउिलेहेइ। अधोवेइया अधोजाणुगाणं हत्थे काऊण पडिलेहेइ। तिरियवेड्या-संडसगाणं मज्झ मज्झेणं हत्थेणेत्तणं पडिलेहेति, दुहओ वेइया-बाहूर्ण अंतरे दो वि जाणुगा काऊण पडिलेहेइ. एगओ वेइया जाणुगं वाहाणं अंतरे काऊण पडिलेहे।" इदं वेदिकापञ्चकं प्रत्युपेक्षणा कुर्वता न कर्तव्यमा(छद्दोस त्ति) एते आरभटाऽऽदयः प्रत्युपेक्षणां कुर्वता न कर्तव्या इति। तथा एते च दोषाः प्रत्युपेक्षणायां न कर्तव्याः। पसिढिल पलंवलोला, एगा मोसा अणेगरूव धुणे। कुणइ पमाणे पमायं, संकिएँ गणणोवगं कुजा / / 430|| (पसिढिलं ) दृढं न गृहीतम् [पलंब त्ति] प्रलम्बमानाञ्चलंएका-न्ते गृहीतं, ततश्च प्रलम्बते। लोला इति] भूमौ लोलते हस्ते वा पुनर्लो लयति प्रत्युपेक्षयन। 'लोल त्तिगयं।" [एगा मोस ति] मत्सरं गहेऊण हत्थेहि वत्थं घसंतो तिभागावसेसं जाव णेति, दोहिं वि पासेहिं जाव गिण्हण इत्यर्थः / अहवा-तिहिं अंगुलीहिं घेत्तयंतो एकाए चेव गेण्हइ। अहवाणेगा मोसा" इति केचित्पठन्ति। तत्र न एके आमर्षा अनेके स्पर्शा इत्यर्थः / [अणेगरूव धुण त्ति "अणेगपगारं कंपेति / अथवा-अणेगाणि एगओ काऊण धुणइ।'' तथा- [कुणइ पमाणे पमायं तिपुरिमेषु खोटकेषु यत्प्रमाणमुक्तं भवति तान् पुरिमादीनां न्यूनानधिकान् वा करोति / (संकिए गणणोवगं कुज्ज त्ति शङ्किता चाऽसौ गणना च शङ्कितगणना तामुपगच्छतिया प्रत्युपेक्षणा सा शङ्कितगणनोपगताताम् एवं गुणविशिष्ट न कुर्यात्। एतदुक्तं भवति-पुरिमाऽऽदयः शङ्कितान् जानाति कियन्तो गता इति, ततो गणनां करोति। तथा अनाभोगाच्छङ्किते सति गणनोपगां गणनामुपगच्छतीति गणनोपगता गणनोपगां गणनामुक्तप्रत्युपेक्षणां करोति पुरिमाऽऽदीन गणयन्नित्यर्थः / द्वारगाथयम्। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा इदानी भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयन्नाहपसिदिलमघणमणिसयं, विसमग्गहणे च कोणं च। भूमीकर-लोलणया, कत्तणगहणेग आमोसा / / 431 // (पसिढिल त्ति) प्रसिथिलमघनमदृढ गृह्णाति / अतिशयं वा, अत्रुटितं वा प्रसिथिलमुच्यते / "पसिढिल त्ति' गतम् ।।पलंव त्ति) भण्यते / विषमग्रहणे सति लम्बकोण भवति वस्त्रम् / / पलवं ति" गतम् / "लोला'' भण्यते अत्राऽऽह पभूमीकरलोलणया भूमौ लोलयति करे हस्ते वा लोलयति प्रत्युपेक्षयन् / "लोल त्ति''गतम् [एगामोस त्ति भण्यते / तत्राऽऽह- [कत्तणगह-णेगआमोसा मध्ये च वस्त्रं गृहीत्वा तावदाकर्तनं करोति यावत् त्रिभागशेषग्रहणं जातम्। इयमेका मोसा,एक धर्षणामित्यर्थः / अथवा-आकर्षणग्रहणे च अनेक अमोसा अनेकानि स्पर्शनानि तद्वस्त्रमनेकधा स्पृशति। "एकामोस तित'' गतम्। "अणेगरूवधुण त्ति' [430 गा० भण्यतेधुणणं त्तिण्ह परेणं, बहूणि वा घेत्तु एकओ धुणइ। खोडणपमञ्जणासु य, संकिऐं गणणं करे पमाई च // 432|| धूनना कम्पना त्रयाणां ''पुरिमाणां" परत उपरिष्टाद्यत्त करोति / अत्र च त्रयाणां परत इति यदुक्तं तदेकवस्त्रापेक्ष या बहूनि वा गृहीत्वा वस्त्राणि एकीकृत्य यौगपद्येनापि प्रस्फोटयति 'अणेगधुणे त्ति' भणियं। ''कुणइ पमाणे पमायं ति" भण्णति। तथाऽऽह- [खोडणपमजणासुय) खोटनकेषु नवसु, प्रमार्जनासु च नवसु न प्रमादं करोति। "कुणइ पमाणे पमाय ति'' गतम्। 'संकिऍ गणणोवर्ग ति" भण्णइ। अत्राऽऽह-(संकिएँ गणणं करे पमादी य त्ति शङ्किते सति गणना करोति यः स प्रमादी भवति। एवमियमित्थंभूता प्रत्युपेक्षणा न कर्तव्या इति स्थितम्। ओघ / (प्रमादप्रतिलेखना 'पमायपडिलेहा' शब्दे वक्ष्यते) (अप्रमादप्रतिलेखना 'अपमायपडिलेहा' शब्दे प्रथमभागे 566 पृष्ठे गता) अनतिरिक्ता कर्त्तव्या प्रत्युपेक्षणा, किंविशिष्टा पुनः कर्तव्येति? आह अणुणऽतिरित्तपडिलेहा, अविवजासाइ पढमओ सुद्धो। पढम पयं पसत्थं, सेसाणि उ अप्पसत्थाणि // 433 / / अन्यूना अनतिरिक्ता अविपर्यासेन प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या ।एभिः त्रिभिः पदै अष्टौ भङ्गाः सूचिताः / तेषां चैषा स्थापनाएतेषां प्रथम पद प्रशस्त शेषाणि तु अप्रशस्तानि अE 31 नादेयानि / इदानीं भाष्यकारः शुद्धाशुद्धप्रदर्शनायाऽऽहण वि ऊणा णऽतिरित्ता, अविवच्चासा वि पढमओ सुद्धो। सेसा हुंति असुद्धा, उवरिल्ला संति जे भंगा।।४३४॥ नापि न्यूना, नाप्यतिरिक्ता, विपर्यासेन च, अत्र प्रथमो भङ्गकः शुद्धः, शेष सुगमम्। इदानीं ये अशुद्धाः सप्त भङ्ग का दर्शितास्ते एवं भवन्तिखोडणपमज्जवेला-सु ण च ऊणहिया मुणेयव्वा / अरुणावस्सगपुव्वं, परोप्परं पाणिपडिलेहा / / 435 / / खोटका यदि ऊना अधिका वा क्रियन्ते, ततः अशुद्धता भवति। | प्रमार्जना च नवसंख्या यदि न्यूना अधिका वा क्रियते ततोऽशुद्धता भवति, वेलायां च न्यूनायामधिकायां वा प्रत्युपेक्षणायां क्रियमाणायामशुद्धा भङ्गाका भवन्ति विज्ञेयाः / उत्तरार्धव्याख्या तु पूर्व गता। ओघ०। उपधिविपर्यासः। यदुक्तमपुरिसुपहिविवच्चासो, सागरिऐं करेज्ज उवहिवधासं। आपुच्छित्ता च गुरुं, पडुच्चमाणेतरे वितह / / 437 / / तत्र विपर्यासो द्विविधः-पुरुषविपर्यासः, उपधिविपर्यासश्च / तत्र उपधिविपर्यासप्रतिपादनायाऽऽह-(सागारिए करेज उवहिवच्चारा ति) सागारिके स्तेनाऽऽदिके सत्यागते विपर्यासः क्रियते। प्रत्युपेक्षणायां प्रथम पात्रकाणि प्रत्युपेक्षन्ते, पश्चाद्वस्त्राणि / एवमयं प्रत्युषसि विपर्यासः प्रत्युपेक्षणायाः / एवं विकालेऽपि सागारिकानागन्तुकान ज्ञात्वा इदानीं पुरुषविपर्यास उच्यते। तत्राऽऽह-(आपुच्छित्ता च गुरुं, पडुनमाणे ति) आपृच्छ्य गुरुभात्मीयामुपधिं ग्लानसत्का वा प्रत्युपेक्षणे पुरुषविपर्यास उच्यते। कदा ? अत आह-(पडुच्चमाणे) यदा आभिग्रहिका उपधिप्रत्युपेक्षकाः (पडुच्चं त्ति) पर्याप्यन्ते तदैवं करोति। (इतरे वितहं ति) इतरे आभिग्राहिका यदान सन्ति तदा प्रथममात्मीयामुपधिं प्रत्युपेक्षमाणस्य वितथमनाचारो भवतीत्यर्थः। तत्र न केवल प्रत्युपेक्षणकाले उपधिविपर्यास कुर्वतो वितथमनाचारो भवति। एवं च वितथं भवतिपडिलेहणं करेंतो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा / देह व पच्चक्खाणं, वाएइ सयं पडिलहइ वा / / 438 / / प्रत्युपेक्षणां कुर्वन् मिथः कथा मैथुनसंबद्धा कथां करोति। जनपदकथां वा / प्रत्याख्यानं वा,श्रावकाऽऽदेर्ददाति, वाचयति किश्चित्साधु पाठयतीत्यर्थः / (सयं पडिलहइ वा) स्वयं प्रतीच्छति-आत्मना वा आलापकं दीयभानं प्रतीच्छति गृह्णाति। एतच्च वक्ष्यमाणं कुर्वन षण्णामपि जीवनिकायानां विराधको भवतीत्यर्थः। इत्यत आहपुढवीआउक्काए-तेऊवाऊवणस्सइतसाणं / पडिलेहणापमत्तो, छण्हं तु विगहओ होई / / 436 / / सुगमा / / 436 // कथं पुनः षण्णामपि कायान विराधकः ? अत आहघडगार पलुट्टणया, मट्टिय अगणी य कुंथुबीयाइ। उदगगया य तसेतर, उम्मकसंघट्ट झावणया॥४४०।। स हि साधुः कुम्भकाराऽऽदिवसतौ प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ननुपयुक्तः तोयघटाऽऽदिषु प्रलोटयेत् / स च तोयभृतो घटः मृतिकाऽग्रिवीज कुन्थ्वादीनां उपरि प्रलुठितः, ततश्चैतान् व्यापादयेत्, यत्राग्निस्तत्र वायुरप्यवश्यंभावी / अथवा-अनया भङ्गया षण्णां कायानां व्यापादकाः (उदगगया य तसेतर त्ति) ये त्रसा उदकघटे पूतरकाऽदयः (इतर त्ति) वनस्पतिकायाश्च / तथा वस्त्रान्ते नवे उल्मुकं संघट्टयेत् चालयेत्, त Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 347 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा तश्वपझावणय त्तिब तेनोल्मुकेन चालितेन सता प्रदीपनकं संजातं, ततश्च संयमाऽऽत्मविराधना जातेति / अथोपयुक्तः प्रत्युपेक्षणां करोति, तत एतेषामेव षण्णां जीवनिकायानामाराधको भवति / एतदेवाऽऽहपुढवीआउक्काए-तेऊवाऊवणस्सइतसाणं। पडिलेहणमावन्नो, छण्हं आराहओ होइ॥४४१॥ सुगमा, णवरं आराधकोऽविराधको भवति, न केवलं प्रत्युपेक्षणा, | अन्योऽपि यः कश्चिद्व्यापारो भगवन्मते सम्यक् युज्यते, स एव | दुःखक्षयाय भवति। तदेवाऽऽहजोगे जोगे जिणसा-सणम्मि दुक्खक्खयाएँ पउज्जंते। अन्नोन्नमबाहाए, असवत्तो होइ कायव्वो॥४४२।। योग योग इति वीप्सा, ततश्च व्यापारः जिनशासने दुःखक्षयाय प्रयुज्यमानः / कथम् ? अन्योन्याबाधया परस्परमपीडया। एतदुक्तं भवति-यथा क्रिया क्रियमाणा अन्येन क्रियान्तरेण न बाध्यत एवमन्योन्यायाधया प्रयुज्यमानः असपत्नोऽविरुद्धो भवति कर्तव्य इति। इदानी फलं प्रदर्शयन्नाहजोगे जोगे जिणसा-सणम्मि दुक्खखयाएँ पउजते। एकेक्वम्मि अणंता, वस॒ता केवली जाया॥४४३।। सुगमा। नवरम-एकैकस्मिन् योगे व्यापारे वर्तमाना अनन्ताः केवलिनो | जाता इति। एवं पडिलेहित्ता, अईअकाले अणंतगा सिद्धा। चोयगवयणं सययं, पडिलेहामो जओ सिद्धा॥४४४|| एवं प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्तः-अतीतकाले अनन्ताः सिद्धाः। एवमा- | चार्येणोक्ते सति (चोदगवयणं) अत्र चोदकवचनं चोदकपक्षः / किं तदित्याह- [सययं पडिलेहामो] यद्येवं प्रत्युपेक्षणाप्रभावादनन्ताः सिद्धाः, ततः सततमेव प्रत्युपेक्षणामेव कुर्मः, किमन्येन योगेनानुष्ठितेन, यतस्तत एव सिद्धिर्भवति। आचार्य आहसेसेसु अवट्टतो, पडिलेहंतो वि देसमाराहे / जइ पुण सव्वाराहण-मिच्छसि तेणं निसामेहि।।४४५।।। शेषेषु योगेषु अवर्तमानः सम्यक् शास्त्रोक्तेन न्यायेन प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्नपि देशत आराधक एवाऽसौ, नतु सर्वमाराधितं भवति। तेन यदि | पुनः संपूर्णाऽऽराधनामिच्छसीत्यादि सुगमम्। ओघ०। गाहापडिलेहणा तु तस्सा-काले सहोस णिहोसा। हीणऽतिरित्ता य तहा, उक्कमकमतो य णायव्वा / / 625 / / इदाणिं हीणातिरित्ते ति दारं पडिलेहणगाहा। (पडिलेहण पप्फोडणपमज्जणा य ति) ततो अहीणमतिरित्ता कायव्वा / हीणातिरित्ते दारं गतं / उक्कमकमतो त्ति दारंउवधिपुरिसे तिसु। उवधिम्मि पच्चूसे पुवं मुहपोती, ततो रयहरण। ततो णिसज्जा, ततो बाहिरणिसेज्जा, चोलपट्टो, कप्पं, उत्तरपट्ट संथारं, पत्तं दंडगो य एस कमो। अण्णहा उक्कमो पुरिसेस पुव्वं आयरियरस, पच्छा परिणीयतो गिलाणसेहादियाण अण्णहा उक्कमो / उक्कर्म पडिलेहणाए य पच्छित्तं / इदाणिं पडिलेहणदारं गाहापडिलेहण पप्फोडण, पमन्जणा चेव जा जहिं कमति। तिविहम्मि वि उवहिम्मी, तमहं वोच्छं समासेणं / 626 / चक्खुणा पडिलेहणा उक्कोडगप्पदाणं पप्फोडणा मुहपोत्तियरयहरणगोच्छगेहिं पमज्जणा / एताओ तिविहोपकरणे जहण्णमज्झिमुक्कोसे जा जत्थ संभवति तं समासतो भणामि। गाहापडिलेहणा य वत्थे ,पाए य भवंति दोसा तु / पडिलेहणा पमज्जण, पातादीयाण दोसया होंति / 627 / वत्थे पडिलेहणपप्फोडणाओ दोसा भवंति पाणित्ति हत्थो, तत्थ पडिलेहणपमजणाओ दोसा भवंति अह णिविडेंति त्ति पप्फोडणा, सा अविधि त्ति काऊण भवति।पाते दण्डगे,आदिसद्दातो पीठफलगसंथारागसेजाए य पडिलेहणपमञ्जणा दोसा भवंति। पायवत्थेसु पप्फोडणप्रदर्शनार्थमाहरत्तिं पमजणं पुण, भणिता पडिलेहणा य णत्थि त्ति। पडिलेहगा केति आयरिया भणंति-पडिलेहिए पाते जमंगुलीहिं आहिंडति सा पप्फोडणा, पडलवत्थेसु। गोच्छकपदेसे सरियाहि णियमा पमज्जणा संभवति न केषाञ्चिन्मतमित्यर्थः / इदाणिं पडि-लेहण पमजण पप्फोडणादिवसतो का कत्थ संभवति त्ति भण्णति-(पडिलेदोगाहा (सार्द्धगाथा पुस्तके नास्ति।)) पादादिए उवकरणे जहा संभवदिवसतो तिण्णि वि संभवति।राओय पप्पोडणपमजणाय दोसा भवंति पडिलेहणा ण संभवति अचक्खुविसयाओ। पडिहेण त्ति दारं गतं। नि०चू०२ उ०। गाहाचाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंच य जहण्णे। तिविधम्मि वि उवधिम्मी, तिविधा आरोवणा भणिता।।६३७।। उक्कोसे चाउम्मासो।मज्झिमे मासो, जहन्ने पणगं। तिविधा जहण्णमज्झिमणुक्कोसा। गाहाइत्तरिओ पुण उवधी, जहण्णओ मज्झिमो य णातव्वो। सुत्तणिवातो मज्झिमों, तमपडिलेहेंति य आणादी।।६३८|| इत्तरगहणातो जहण्णमज्झिमे सुत्तणिवाओ, मज्झिमे तमपडिलेहंतस्स आणाइया दोसा इमे संजमदोसा। गाहाघणसंताणगपणगे, घरकोइलियादिपसवणं वा वि। हितणट्ठ जाणणट्ठा, विच्छयतह सेट्ठकारी य॥६३६।। घणसंताणगे त्ति। अपेहिए लूतापुडग संबज्झति, पणगो उल्ली अपेहिते भवति / गिहिकोइला पसवति / हियणटुं वा संभारियं भवति, गिम्हे विच्छुगसप्पादिया पविसति, अपेहिते तेहिं वि आयविराहणा भवति / सेट्टयारिया धणारियारिह करेज / जम्हाएते दोसा तम्हा सव्वोवही दुसंझं पडिलेहियव्वो। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 348 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा कारणे पुण अपेहतो वि अदोसो। इमे य ते कारणा द्वेष न गच्छति। भणिता पश्चेन्द्रियगुप्तता / इदानीम् 'मणमादितिविहअसिवे ओमोयरिए, गेलण्णेऽद्धाणसंभम भए वा। करणआउत्ता भण्णति।" तत्राऽऽह- (अकुसलजोगनिरोहो) अकुशलातेणयपउरें सागार-संजमहेतुं व बितियपए।।६४०।। नामशाभनानां मनोवाक्काययोगाना व्यापाराणां निरोधः- अकुशलअसिवगहितो ण तरति. तप्पडियरगा वा वाउलत्तणओ, अवमे य एचिय योगनिरोधः सः / त्रिविधकरणगुप्ततः। तथा (कुसलोदय त्ति) कुशलानां आरादा हिंडिउं पडिलेहणाए णत्थि काला, गिलाणो ण तरति, एगागी प्रशस्तानां मनोवाक्कायव्यापारा य उदयः सः। त्रिविधकरणगुप्तानाम् / अद्धाण सत्थवसो ण पेहे, अगिणिमादिसंभमा ण पेहे, बोहिगादिभए था, तथा (एगभावो व ति) न कुशलेषु योगेषु प्रवृत्तिर्नाऽप्यकुशलषु योगेयु ण पेहे तेणे य पउरे सारोवही य मा पेस्सिहिति ण पेहे, कसिणोवहि त्ति प्रवृत्तिर्या मध्यस्थिता सा च त्रिविधकरणगुप्तानां भणिता / त्रिविधसागारिए ण पेहेति, पाववंचगाण वा अग्गतो ण पेहेति, संजमहेउवा करणगुप्त इदानीं भवति। महियाभिण्णवाससचित्तएसु वितियपदेण अपेहितो वि सुद्धो इति। अडिभंतर-बाहिरि, तवोवहाणं दुवालसविहं पि। नि०चू०२ उ०। इंदियओ पुव्वुत्तो, नियमो कोहाइओ वीओ॥४४८॥ धुवं च पडिले हिज्जा, जोगे सापायकवलं / अभ्यन्तरं, बाह्यं चतप उपधानं तप उपदधातीत्युपधानम्, उपकरोतीसिज्जामुच्चारभूमिं च, संथारं अदुवाऽऽसणं / / 17 / / त्यर्थः। तत्र उपधानं द्वादशविधमपि तप उच्यते। "तको गतो" नियमो तथा-ध्रुवं च नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागते परिभोगे च तस्भिन्.1 भण्णइ ति / स च द्विविधः इन्द्रियनियमः, नोइन्द्रियनियमश्च / तत्र प्रत्युपेक्षेत सिद्धान्तविधिना, योगे सति सति सामर्थ्य , अन्यूनाति- इन्द्रियतः इन्द्रियाण्यङ्गीकृत्य पूर्वोक्तो नियमः क्रोधाऽऽदिकः / रिक्तम् / किं तदित्याह-पात्रकम्बल, पात्रग्रहणादलावुदारुमयाऽऽदि- आदिग्रहणान्मानमायालोभा गृह्यन्ते एतेषां नियमो निरोधः / "नियमे परिग्रहः / कम्बलग्रहणादूर्णसूत्रमयपरिग्रहः / तथा-शय्या वसति द्विकाल / त्ति गया।" त्रिकालं च उच्चारभुवं चानापात-वदादि थण्डिलं, तथा-संस्तारक इदानीं "संजमो भण्णइ" स च सप्तदशप्रकारः / तत्राऽऽहतृणमयाऽऽदिरूपम् / अथवा- असनमपवादगृहीतं पीठकाऽऽदि पुढविदअ, अगणि मारुय, वणस्सइ वितिचउक्कपंचिंदी। प्रत्युपेक्षेत / इति सूत्रार्थः / / 17 / / अज्जीवपोत्थगाइसु, गहिए अस्संजमो जेणं / / 446 / / उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाण जल्लियं / ''पुढवीदगअगणिमारुयवणस्सइवेइंदियतेइंदियचउरिदियपंचेंदिया।" फासुयं पडिलेहित्ता, परिहाविज संजए।।१८।। तथा (अजीव त्ति) अजीवेषु पनकसंसक्तपुस्तकाऽऽदिषु गृहीतषु उच्चार, प्रसवणं, श्लेष्मसिधाणजल्लमिति प्रतीतानि। एतानि प्रासुकं असंयमो भवति। यतः तत्र ग्राह्यम्, आदिशब्दात् "दूसपण त्णपणगा, प्रत्युपेक्ष्य, स्थण्डिलमिति वाक्यशेषः / परिष्ठापयेत् ध्युत्सृजेत संयत / चम्मपणग।" एतेषु परिगृहीतेषु असंयमः, परिहतेषु च संयमः। इति सूत्रार्थः / दश० 8 अ०। . तथापात्रप्रत्युपेक्षणायां कथं स चाऽऽराधको भवत्यत आह पेहिता संजमो वुत्तो, उपेहिता वि संजमो। पंचिंदिएहिँ गुत्तो, मणमाइतिविहकरणमाउत्तो। पमज्जेत्ता संजमो वी, परिठावित्ता विसंजमो॥४५०।। तवनियमसंयमम्मि, जुत्तो आराहगो होइ॥४४६|| प्रेक्ष्य संयमचक्षुषा यन्निरूपण ततश्चैवं पूर्व चक्षुषा निरूपयतः प्रेक्षासंयम पञ्चभिरिन्द्रियैर्गुप्तः मानसाऽऽदिना त्रिविर्धन करणेनाऽऽयुक्तः यत्नवान, उक्तः (उवेहिता वि संजमो त्ति) उपेक्षा द्विप्रकारा, तां कुर्वतः संयम तपसा द्वादशविधेन युक्तः, नियम इन्द्रियनियमो, नोइन्द्रियनियमच, उक्तः। तां च वक्ष्यति। (पमजेत्ता संजमोत्ति) प्रमार्जयतः संजम उक्तः तेन युक्तः, संयमः सप्तदशप्रकार:- ''पुढ-विकाइओ, आउनाओ, (परिठावित्ता वि संजमो त्ति) परिष्ठापयतः परित्यजतोऽपि पानकातिवाउक्काओ, वणस्सइकाओ, वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिय-अजीवकाय- रिक्तः संयम उक्तः। एवमेते चतुर्दश, मनोवाकायसंयमश्च त्रिविधः उक्त संगमो पेहेउपेहा पमजणं परिठ्ठावणं वणस्सइकाए।" अत्र यः संयतः स एव द्रष्टव्यः / इदानीं भाष्यकृद् व्याख्यानयति प्रथमगाथार्थिः-एकाकि मोक्षस्य आराधको भवति, प्रव्रज्याया वा आराधकः / द्वारगाथा इयम्। (करेणिक) गमनयतनायां उक्तः, अजीवपुस्तकाऽ दिसंयमोऽपि अचित्त इदानीं भाष्यकार एनां गाथां प्रतिपदं व्याख्यानयति-तत्र 'पंचिदिएहिं वनस्पतिगमनयतनाया व्याख्यात एव द्रष्टव्यः / गुत्तो'' इति प्रथमावयवं व्याख्यानयन्नाह इदानीं यदुपन्यस्तम्- "अपेहित्ता वि संजमं" इत्यादि, तत् न क्वचिद् इंदियविसयनिरोहो, पत्तेसु य रागदोसनिग्गहणं / व्याख्यातमिति व्याख्यानयन्नाहअकुसलजोगनिरोहो, कुसलोदय एगभावो वा / 447 / ठाणाइ जत्थ चेते, पुव्वं पडिलेहिऊण चेइज्जा। इन्द्रस्याऽमूनि इन्द्रियाणि तेषां विषयाः शब्दाऽऽदयः, तेषां यो निरोधः / संजयगिहिचोयणा उ, चोयण वावार उप्पेहा।।४५१।। सः पोन्द्रियगुप्तिरभिधीयते ।अयमप्राप्तानां शब्दाऽऽदिविषयाणां स्थानमूलस्थानं कायोत्सर्गाऽऽदि आदिग्रहणानिषीदनिरोधः। तथा-(पत्तेसु य रागदोसनिग्गहणं ति) तथा-प्राप्ते गोचरमाग- नस्थानं च गृह्यते / ततः स्थानाऽऽदि यत्र चेतयते 'चिती' तेष्वपि शब्दाऽऽदिषु विषयेषु रागद्वेषयोर्निग्रहणं मनसा पञ्चेन्द्रियगुप्तता। संज्ञाने, जानाति, चेष्टते, करोति, कर्तुमभिलषतीत्यर्थः / तत् तत्र शब्दाऽऽदि विषयप्राप्ती राग न गच्छति, अनिष्टशब्दाऽऽदिविषयप्राप्तौ / पूर्व प्रथम प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा निरीक्षते, ततश्चेतयते, स्थान का Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा योत्सर्गाऽऽदि। अयं प्रेक्षासंयमः / इदानीमुपेक्षासंयम उच्यतेसा चोपेक्षा द्विविधा-कथम ? संयतव्यापारोपेक्षा, गृहस्थव्यापारोपेक्षा च / तत्र थासंख्य चौटना-चोदनविषयसंयतस्य चोदनविषया व्यापारोपेक्षा। एतदुक्तं भवतीति-साधु विषीदन्तं दृष्ट्वा संयमव्यापारेषु चोदयतः संयमव्यापारोपेक्षा। उपेक्षाशब्दश्चात्र-'ईक्ष' दर्शने। उप सामीप्येन ईक्षा उपेक्षा, गृहस्थस्य च व्यापारी-पेक्षागृहस्थम् अधिकरणव्यापारेषु प्रवृत्तं दृष्ट्वा अधिकरणव्यापारेषु प्रवृत्तं चोदयतः गृहस्थव्यापारोपेक्षोच्यते। उपेक्षाशब्दश्चात्र अवधारणायां वर्तत इति। इदानी "परिद्ववित्ता वि संजमो" व्याख्यायते, तत्राऽऽहउवगरणं अइरेगं, पाणाई वाऽवहट्ट संजमणा। सागारियअपमजण-संजमों सेसे पमज्जणया।।४५२|| उपकरणं वस्त्राऽऽदि यदतिरिक्तं गृहीत. तथा- [पाणाइ वा] तथा पानकाऽऽदि वा यदतिरिक्तं गृहीत तत् [अवहटु त्ति] परित्यज्य, किम् ? [संजमणा) संयमो भवतीति। आदिग्रहणाद्भक्तं वा परित्यक्त, परित्यज्य संयमः। इदानीं 'पमज्जेता वि संजमो'" व्याख्याते- [सागारियअपमजणसंजमो| सागारिकाणामग्रतः पादाप्रमार्जनम्, असावेय संयमः।। सेसे पमज्जणय त्ति| शेषेषु सागारिकाऽऽद्यभावेषु प्रमार्जनेन च संयमः। इदानीं योगत्रयसंयमप्रतिपादनायाऽऽहजोगतिग पुव्वभणियं, समत्तपडिलेहणाएँ सज्झाओ। चरिमाए पोरिसिए, ताहे पडिलेहँ पत्तदुगं // 453 / / योगत्रयं पूर्व मेव व्याख्यातम् - ''मणसाइतिविहकरणमाउत्तो'' इत्यस्मिन् ग्रन्थे, अत्रापि तथैव द्रष्टव्यम्। उक्तः सप्तदश प्रकारः संयमः / तत्प्रतिपादनाच उक्ताऽथ वस्त्रप्रत्युपेक्षणा / तत्समाप्तौ च किंकर्तव्यमित्यत आह- (समत्तपडिलेहणाएँ सज्झाओ) समाप्तायां प्रत्युपेक्षणाया स्वाध्यायः कर्तव्यः, सूत्रपौरुषीत्यर्थः, पादोनप्रहरं यावत् / इदानी पात्रप्रत्युपेक्षणामाह- (चरिमाए) चरिमायां पादोनपौरुष्या प्रत्युपेक्षेत ताहे ति] तदा तस्मिन् काले स्वाध्यायानन्तरं पात्रकद्वितीयम्। इदानीमिदमुक्तं चरमपौरुष्या पात्रकद्वितयं प्रत्युपेक्षणाया तत्र पौरुष्येव न ज्ञायते, किंयमाणा? तत्प्रतिपादनायाऽऽहपोरिसिपमाणकालो, निच्छयववहारिओ जिणक्खाओ। निच्छयओ करणजुओ, ववहारमओ परं वोच्छं / 454 // पौरुष्याः प्रमाणकालो द्विविधः-निश्चयतो, व्यवहारतश्च ज्ञातव्यः। तत्र निश्चयपौरुषीप्रमाणकालप्रतिपादनायाऽऽहअयणातीयदियगणे, अट्ठगुणेगट्ठिभाइए लद्धं / उत्तरदाहिणमादी, पोरिसिपयसोहि पक्खेवो // 455 / / ओघ०। (पोरुसी' शब्दे व्याख्यास्यते) एतस्यां चरमपौरुष्या पात्रकाणि प्रतिलेख्यन्ते, सच पात्रकः प्रत्युपेक्षणसमये पूर्वमेन व्यापार करोति, अत आहउवउंजिऊण पुव्वं, तल्लेसो जइ करेइ उवओगं। सोएण चक्खुणा घा-णाएण जीहाएँ फासेण / / 460 // उययुज्य उपयोग दवा पूर्वमेव यदुत सर्वाण्यस्यां वेलायां पात्रकाणि प्रत्युपेक्षणीयानीत्येवमुपयुज्य पुनः तल्लेश्य एव प्रत्युपेक्षणाभिमुख एव यतिः प्रव्रजितः पात्रसमीपे उपविश्य उपयोग करोति मतिं व्यापारयति / कथम् ? श्रात्रेन्द्रियेण पात्रके उपयोग करोति, कदाचित्तत्र भ्रमराऽऽदि गुञ्जति पुनस्तं यतनयाऽपनीय तत् पात्रकं प्रत्युपेक्षते, तत्र वा चक्षुषा उपयोग ददाति, कदाचित्तत्र मूषिकोत्कीर्णाऽऽदिरजो भवति ततस्तद् यतनया अपनयति, घ्राणेन्द्रियेण चोपयोग करोति, कदाचित्तत्र सुरुडविकाऽऽदिर्मर्दितो भवति, पुनश्च घ्राणेन्द्रियेण ज्ञात्वा यतनया अपनयति, जिहया रसं च ज्ञात्वा यत्र गन्धस्तत्र रसोऽपि, गन्धपुद्रलैरोष्ठो यदा घ्रातो भवति तदा जिह्वायां रसं जानातीति, स्पर्शनेन्द्रियेण चोपयोग ददाति, कदाचित्तत्र मूषिकाऽऽदिः प्रविष्टः सन्निःश्वासवायुश्च शरीरे लगति, ततश्चैवमुपयोगं दत्त्वा पात्रकाणि प्रत्युपेक्षते।। __इदानीं भाष्यकृत् किञ्चिद् व्याख्यानयन्नाहपडिलेहणियाकाले, फिडिए कल्लाणगं तु पच्छित्तं / पायस्स पासवेट्ठो, सोयादुवउत्त तल्लेस्सा।।४६१।। प्रत्युपेक्षणाकाले प फिडिएब अतिक्रानते, एककल्याणक यतः प्रायश्चित्तं भवति, अतः पूर्वमुपयोगं प्रत्युपेक्षणाविषये करोति / किविशिष्टोऽसौ उपयोग करोतीत्यत आह- [पायस्स पासवेट्ठो] पात्रकस्य पार्चे उपविष्टः श्रोत्राऽऽदिभिरुपयुक्तः तल्लेश्यः तचित्तो भवतीति। कथं पुनः पात्रप्रत्युपेक्षणां करोतीत्यत आहमुहणंतएण गोच्छ, गोच्छगगहियंगुलीहिँ पडलाई। उक्कुड्डुभाणवत्था, पलिमंथादीसु तेण भवे // 462 / / रजोहरणमुखवस्त्रिकाया गोच्छकं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रमार्जयति, पुनः तदेव गोच्छकमड्गुलीभिर्गृहीत्वा पटलानि प्रमार्जयति। अत्राऽऽहः परःपउमडुयभाणवत्थाब उत्कुटुकस्य भा० जनवस्त्राणि गोलकाऽऽदीनि प्रत्युपेक्षयन्ततो वस्त्रप्रत्युपेक्षणा उत्कुटुकेनैव कर्तव्या। आचार्य आह|पलिमंथादीसुतेण भवे | तदेतत् भवति यचोदकेनोक्त, यतः पलिमन्थः सूत्रार्थयोर्भवति कथम् ? प्रथममसौपादपुञ्छने निषीदति, पश्चात् पात्रकवस्त्रप्रत्युपेक्षणायाम उत्कुटुको भवति, पुनः पात्रकप्रेक्षणायां पादपुञ्छने निषीदति, एतत्तस्य साधोश्चिन्तयतः सूत्रार्थयोः पलिमन्थो भवति, यतः अतः पादपुञ्छने निषण्णेनैव पात्रकवस्त्रप्रत्युपेक्षणा कर्तव्या इति। ततः किं करोतीत्यत आहचउकोणभाणकत्तं, पमज पायकेसरिय तिउणं तु। भाणस्स पुप्फगधं, इमेहिं कजेहिं पडिलेहा / / 463 / / पटलानि प्रत्युपेक्ष्य पुनः गोच्छक वामहस्तानामिकाङ्गुल्या गृह्णाति, ततः पात्रककेसरिकां पात्रमुखवस्त्रिका पात्रकस्थामेव गृह्णाति, [चतुकोण| ति चतुःपात्रबन्धकोणान् सत उपरिस्थापितान प्रमार्जयति, पुनर्भाजनस्य कर्त्तमपि प्रमार्जयति, पुनश्च पात्रकं केसरिकमेव त्रिगुणं तिस्र एव वारा बाह्यतः, अभ्यन्तरतश्च तिस्र एव वारा प्रमार्जयति ततः भाण्डस्य पात्रकस्य पुष्पकं बुधं तत एतानिवक्ष्यमाणलक्षणानि कार्याणि यदि न भवन्ति ततः प्रथमं बुधगन्धं पात्रकस्य प्रत्युपेक्षते। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 350 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा कानि पुनस्तानि कार्याणि, अत आहमूसियरयउक्के रे, घण संताणए ति य। उदए मट्टिया चेव, एमेव पडिवत्तिओ॥४६४।। कदाचित्तत्र मूषिकोत्कीर्ण रजो लन भवति, ततस्तद्यतनयाऽपनीयते। तथा- (संताणए ति) कदाचित्तथा पुनः सन्तानको वा 'कोलियतंतुयं लग होति'' तत् यतनयाऽपनीयते। तथा-(उदए त्ति) कदाचिदुदकं लग्न भवति, सार्दीया भूमेरुन्मज्ज्यलगति, तत्र यतनां वक्ष्यति (मट्टिया चेव) तथा कदाचित मृत्तिका लगति, तत्र यतना वक्ष्यति। एवमेताः प्रतिपत्तयः प्रकारा भेदा यदि न भवन्ति, ततः बुध्नं प्रत्युपेक्षते। कुतः पुनरुत्कीर्णाऽऽदिसंभव, इत्यत आहनवगपवेसे दूरा, उक्के रो मूसगेहिँ उक्किन्नो। निद्धमहिहरतणू वा, ठाणं भेत्तूण पविसे य॥४६५।। (णवग त्ति) नवकप्रवेशे यत्र ग्रामाऽऽदौ ते साधव आवासिताः स नवः अभिनवो निवेशः कदाचिद्भवति, तत्र चपात्रकसमीपे मूषकैरुकीर्णस्तेन रजसा पात्रकं गुण्ड्यते। "मूसगरयउक्किण्णे त्ति भाणयं" (णिद्धमहिहरतणू व त्ति) तथा स्निग्धायां सार्द्रायां भुवि (हरतूण व त्ति) सलिलविन्दव उन्मज्य लगन्ति, ततो भुव उन्मजत्पात्रकं स्थानकं भित्त्वा प्रविशेत, स लगो भवेत्, तद्यतनां वक्ष्यतिउदए त्ति गयं।'' इह कस्मादुदकमस्थान एवोक्तम् ? उच्यते-पृथिवीकायस्य धनसन्तानस्य च तुल्ययतनाप्रतिपाद-नार्थम्। तथाकोत्थलगारिय घरगं-धणसंताणाइया व लग्गेज्जा। उक्केरं सट्ठाणे, हरतणु चिट्ठिन्ज जा सुक्खे // 466 / / कोत्थलकारिका गृहक लगति गृहिका गृहकं मृन्मयं करोति। तत्र यतना वक्ष्यति 'मट्टिए त्ति भणितं / " घनसन्तानिका च कदाचिल्लगति आदिशब्दात्तु दण्डकाऽऽदिः / इदानीं सर्वेषामेव तेषां यतना-प्रतिपादनायाऽऽह-(उत्क्कर सट्टाणे) मूषिकोत्केरः स्वस्थानमुच्यते,यतनया मूषिकोत्केरः मध्या एव स्थाप्यते। (हरतणू) अथ हरतून अधस्तात्सलिलविन्दव उन्मृज्य लग्नास्ततस्ताववत्प्रतिपादयतियावदेते शोषमुपच्छन्ति, ततः पश्चात्पात्रं प्रत्युपेक्ष्यते। "उदए ति'' गतम्। इयरेसु पोरिसितिगं, संवेक्खावेत्तु तत्तियं छड्डे / सव्वं वावि विगिंवइ, पोराणं मट्टियं ताहे // 467 / / (इयरेसु त्ति) "कोत्थलकारियाघणसंताणमादियाणं " (पोरिसितिगं संवेक्खावेत्तु त्ति) प्रहस्त्रयं यावत्पात्रके (संवेक्खावेत्तु) प्रतिपाल्य यदि तावत्या अपिवेलाया नापैति ततः पात्रस्थापनाऽऽदेः तावन्मानं स्थित्वा परित्यज्यते / (सव्वं वावि विर्गिचइ) अन्येषां वा पात्रस्थापनाऽऽदीनां सद्भावे सर्वमेव तत् पात्रस्थापनाऽऽदि परित्यजति (पोराणं मट्टियं ताहे त्ति) अथ तत्कोत्थलिकागृहकं न सचेतनया मृत्तिकया कृतं, कि तु पुराणमृत्तिकया, ततस्ता पुराणां मृत्तिकाम् / (ताहे ति) तस्मिन्नेव प्रतिलेखनाकाले अपनयति, यदि तत्र न मूषिका प्रवेशिता इति / पत्तं पमजिऊणं, अंतो बाहिं सइत्तु पप्फोड़े। केइ पुण तिन्नि वारे, चउरगुलभूमिपडणभया / / 468|| इदानी तत्पात्रे केसरिकया पात्रकमुखवस्त्रिकया तिस्रो वारा बाह्यतः प्रमृज्य संपूर्ण ततो हस्ते स्थापयित्वा अभ्यन्तरं तिस्रो वाराः पुनः समस्तं प्रमृज्यते, ततः [सइत्तु पप्फोडे ति] सकृदेकां वारामधः कृत्वा बुध प्रस्फोटयेत्, एवं केचिदाचार्याः प्राप्नुवन्ते। केचित्पुनराचार्या एवं भणन्तियदुत त्रयो वाराः प्रस्फोटनीयम् / एतदुक्तं भवति एकां वारां प्रमृज्य पश्चादधोमुखं प्रस्फोटयते, पुनरपि प्रमृज्य प्रस्फोटयते। एवमेता : त्रयो वाराः प्रस्फोटनीयम्। तत्र पात्रकं भुव उपरि कियद्दूरे प्रत्युपेक्षणीयमिति ? अत आह- पचउरंगुलभूमि त्ति ब चतुर्भिरड्गुलै व उपरि धारयित्वा प्रत्युपेक्षणीय मा पतनभङ्ग भयं स्यादिति / एवं तावत्प्रत्यूषे वस्त्रपात्रप्रत्युपेक्षणा उक्ता। इदानीमुपधिपत्रकं च प्रत्युपेक्ष्य किमुपधेः कर्तव्यं, क च पात्रक स्थापनीयमित्यत आहवेंटियबंधण धरणे, अगणित्तेणे य दंडियक्खोभे। उउबद्धधरणबंधण, वासासु अबंधणा ठवणा / / 466 / / उपधेर्विण्टिकानांबन्धनं कर्तव्यम् (धरण त्ति) पात्र कस्याऽऽत्मसमीप आत्मोत्सङ्गे धरणं कार्यमनिक्षिप्तमित्यर्थः / किमर्थ पुनरेतदेवं क्रियते यदवधिका बाह्यतः पात्रकमनिक्षिप्त क्रियते इत्युच्यते-अग्निभयात्प्रदीपनकभयात, स्तेनकभयात्, दण्डिकक्षोभाचैतदेवं क्रियते / कस्मिन पुनः काले एतदेवं क्रियते, कस्मिन पुनरेतदेवं न क्रियते ? इत्यत आह(उउबर ति) ऋतुबद्ध उच्यते-शीतकाले उष्णकाले च तस्मिन् पात्रके धरणमुपधेर्बन्धनं कर्तव्यम् (वासासु त्ति) वर्षाकाले (अबंधण त्ति) उपधेरबन्धनं कर्तव्यम् उपधिर्न बध्यते (ठवण ति) पात्रकं च निक्षिप्यते एकदेशे स्थाप्यते. प्रयोजने उपधेरबन्धनं निक्षेपणं पात्रकस्य च वक्ष्यति / इदानीं भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाहरयताण भाणधरणं, उडुबद्धे निक्खिवेज वासासु। अगणीतेणभएण व, रायक्खोभे विराहणया!|४७०|| रजस्त्राणस्य, भाजनस्य च धरणमनिक्षेपणं कर्तव्यं, कदा? ऋतुबद्ध शीतोष्णकालयोर्वर्षासु पुनर्भाजनं निक्षिपेत् एकान्ते, किमर्थं पुनर्भाजनस्य उत्सङ्गे धरण क्रियते? अत आह-(अगणी) अग्निभयेन स्तेनभयेन वा राजक्षोभेण वा मा भूदाकुलस्यागृह्णतः पलिमन्थेन आत्मविराधना, संयमविराधना च। परिगणमाणी गेण्हे-ज डहण भेदो तहेव छ काया। गुत्तो व सयं डज्झे, हीरेज व जं च तेण विणा / / 471 / / अग्न्यादिक्षोभे सति उपधिर्यावद् गृह्यते, (भेदो इति) आकुलस्य निर्गच्छतः अनशनं पात्रक गृह्णतः भेदो वा विनाशो भवेत्, ततश्च ततश्च षट्कायस्याऽपि विराधना भवति / (गुत्तो व सयं डज्झे) समूढो वा उपधिपात्रकग्रहणे स्वयं दह्यात्, स्तेनकसंक्षोभे वा सति उपधिपात्रकग्रहणव्याक्षेपेण स्तेनकैर्लेच्छैरपहियते (जं च तेण विण त्ति) यच तेन उपधिपात्रकाऽऽदिना भवति आत्मविराधना, संयमविराधना च तत्तदवस्थमेवेति। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 351 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा आह-किं पुनः कारणं वर्षासु उपधिन बध्यते, पात्रकाणि वा निक्षिप्यन्ते ? उच्यतवासासु नत्थि अगणी णेव य तेणा वि दंडिया सत्था। तेण अबंधण ठवणा, एवं पडिलेहणा पाए॥४७२।। वर्षासु नास्त्यग्निभयं, नाऽपि च स्तेनभयं स्तेनाश्चात्र पल्लीपतिकाऽऽदयो द्रष्टव्याः, यतस्त एव वर्षासु प्रव्यथिता नाऽऽगच्छन्तीति / दण्डिनश्च राजानः वर्षासु स्वस्थास्तिष्ठन्ति, विग्रहस्य तस्मिन्कालेऽभावात। अतस्तेन कारणेन (अबंधण त्ति) अबन्धनमुपधेः (ठवण त्ति) पात्रकं च पार्श्वनिक्षिप्तन हियते, अपितु स्थाप्यते मुच्यते। एवं प्रत्युपेक्षणा पात्रविषया प्रतिपादिता। ओघo) मार्गप्रत्युपेक्षणा। इदानीं मार्गद्वारं प्रतिपादयन्नाहपंये तु वचमाणो, जुगंतरं चक्खुणा उ पडिलेहे। अइदूरचवक्खुपासे, सुहुमतिरिच्छागऍण पेहे या५१२। पथि व्रजन युगान्तरं चतुर्हस्तप्रमाणं तन्मात्रान्तरं च चक्षुषा प्रत्युपेक्षेत. किं कारणम्? यतः अतिदूरचक्षुषा प्रेक्षिते सति सूक्ष्मान तिर्यगागतान् प्राणिनः न (पेहे) न पश्यति, दूरे प्रतिष्ठितत्वाच्चक्षुषः। अचासन्ननिरोहे, दुक्खं दलु पि पादसाहरणं / छक्कायविऊरमणं, सरीरें तह भत्तपाणे य // 513 // अथ अत्यासन्ने (निरोहे त्ति) निरोधे चक्षुषः सतः दृष्ट्वा प्राणिनं दुःखेन (पादसाहरणं) पादप्रणिनिपतनं धारयतीत्यर्थः / अतिसन्निकृष्टत्वाच्चक्षुषः (छकायाविऊरमणं ति) षट्कायविराधना करोति, शरीरविराधनां, तथा भक्तपानविराधनां च करोति। इदानीमस्या एव गाथायाः पश्चार्द्ध व्याख्यानयन्नाहउड्डाहो कहरत्तो, अवएक्खंतो विअक्खमाणो य। बायरकाए वहए, तसेतरे संजमे दोसा / / 514 // ऊर्द्ध मुखो व्रजन् कथासु च रक्तः सक्तः |अवएक्खतो त्ति पृष्टतोऽभिमुखं निरूपयन् [वियक्खमाण त्ति विविधं सर्वासु दिक्षु पश्यन् / स एवविधः बादरकायनपि व्यापादयेत्, त्रसेतराँश्च पृथिव्यादीन् स्थावरकायाऽऽदीन्, ततश्च संयमे संयमविषया एते दोषा भवन्ति। इदानीं शरीरविराधनाप्रतिपादनायाऽऽहनिरवेक्खो वच्चंतो, आवडिओ खाणुकंटविसमेसु / पंचण्ह इंदियाणं, अन्नयरं सो विराहेजा।।५१५।। निरपक्षो व्रजन आपतितः सन् स्थाणुकण्टकविषमेषु, विषमस्तु गर्तः / तष्यापतितः पश्चानामिन्द्रियाणां चक्षुरादीनामन्यतरत् स विराधयेत्। इदानीम्- 'भत्तपाणे यत्ति" अवयवं व्याख्यानयन्नाहभत्ते वा पाणे वा, आवडिवडियस्स भिन्न भाणे वा। छक्कायविऊरमणं, उड्डाहो अप्पणो हाणी।।५१६।। आपतितश्चासौ पतितश्च तस्य साधो ग्ने भिन्ने पात्रके सति पत्रके वा, भक्ते, पानके, ततः षट्कायव्युपरमणं भवति, उड्डाहश्च भवत्यात्मनश्च हानिः क्षुधाबाधनं भवति। कथं पुनः षट्कायव्युपरमणम, उड्डाहश्च दहि घय तक पयमं बिलं च सत्थं तसेतगण भवे / छक्कम्मिय जणवाओ, वहुफोडा जं च परिहाणी।५१७। तानि गृहीत्वा कदाचित् दधिघृततक्रपयः काजिकानि भवन्ति, ततश्च तानि शस्त्रं, केषाम? सानामितरेषां च पृथिव्यादीनां भवेत् षट्कमिति प्रचुरे तस्मिन् भक्ते लोकेन दृष्ट सति जनापवादो भवति बहुफोड त्ति) बहुभक्षका एते इति / या च आत्मपरितापनाऽऽदिका हानिः, सा च भवति। तथा पात्रविराधनायां याचनादोषं प्रदर्शयन्नाहपायं च मग्गमाणे, हवेज्ज पंये विराहणा दुविहा। दुविहा य भवे तेणा, पडिक्कमे सुत्तपरिहाणी।।५१८|| पात्रं च अन्वेषति सति ग्रामाऽऽदौ भवेत् पथि विराधना द्विविधाआत्मविराधना, संयमविराधना चेति। पथि स्तेनाश्च द्विविधा भवन्तिउपधिस्तेनाः, शरीरस्तेनाश्चेति / लब्धे कृच्छ्रात्पात्रे तत्परिकर्मयतः तद्व्यापारे लग्नस्य सूत्रार्थपरिहानिः। एस पडिलेहणविही, कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता। संजमगुणइड्डाणं, निग्गंथाणं महरिसीणं / / 516 // अयं च प्रत्युपेक्षणाविधिः कथितः (भे) भवताम् किंविशिष्टो? धीरपुरुष प्रज्ञप्तो गणधरः प्ररूपितः संयमगुणैराढ्यानां निर्ग्रन्थानां महर्षीणां कथित इति। तथाएयं पडिलेहणविहिं, जुजंता चरणकरणमाउत्ता। साहू खमंति कम्मं, अणेगभवसंचियमणंतं / / 520 / / एवं प्रत्युपेक्षणाविधि युञ्जन्तः कुर्वाणाः चरणकरणयोगयुक्ताः सन्तः साधवः क्षपयन्ति कर्म, किंविशिष्टम् ? अनेकभवसंचितमुपात्तम्। (अणंत) अनन्तकर्मपुगलनिवृत्तत्वादनन्तम्, अनन्तानां वा भवानां हेतुर्यत्तदनन्तं क्षपयन्तीति / ओघ०। आलोचनान्तरम्आलोएत्ता सव्वं, सीसं सपडिग्गहं पमज्जित्ता। उड्ढमहे तिरियम्मिय, पडिलेहे सव्वओ सव्वं / / 762|| एवमेषा मानसी आलोचना,वाचिकी चाऽऽलोचना उक्ता / ओघ०॥ संज्ञाया आगत्य चरमपौरुष्पा प्रत्युत्थाय, इदानीं सामाचारीति व्याख्यायतेसन्नाउ आगओ चरि-मपोरिसिं जाणिऊण ओगाढं / पडिले हिय अप्पत्तं, णाऊण करेइ सज्झायं // 634 // एवं साधुः संज्ञा व्युत्सुज्य आगतः पुनश्चरमपौरुषीं चतुर्थप्रहरं ज्ञात्वा अवगाढमवतीर्णः / ततः किं करोतीत्यत आह-प्रत्युपेक्षणां करोति / अथाऽसौ चरमपौरुष्यामपि भवति ततः अप्राप्तां घरमपौरुषी ज्ञात्वा स्वध्यायं तावत्करोति यावच्चतुर्थी पौरुषी प्राप्ता। पुव्वुद्दिट्ठो य विही, इहइं पडिलेहणाइ सो चेव / जं एत्थं नाणतं, तमहं वोच्छं समासेणं / / 635 / / अत्र च प्रत्युपेक्षणायां पूर्वोद्दिष्ट एव विधिः मुखवस्त्रिको - Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 352 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा पधिप्रत्युपेक्षणा, एवमादि। तथा पात्रस्याऽपि सा चाऽहीना। "उवउत्ततल्लेसा'' इत्येवमादि। इहाऽपि स एव प्रत्युपेक्षणायां विधिर्द्रष्टव्यः / यदत्र नानात्वं योऽतिरिक्तो विधिर्भवति, तं विधिमहं वक्ष्ये समासेन संक्षेपेण। पडिलेहगा उ दुविहा, भत्तट्ठिय एयरा य णायव्वा। दोण्ह वि य आइ पडिले-हणा उ मुहणंतयसकायं // 636|| तत्र ये तत्प्रत्युपेक्षकास्ते द्विविधाः-भक्तर्थिका भुक्ताः, (एतरा य) इतरे च उपवासिकाश्च ज्ञातव्याः / तयोरपि भक्तार्थिका-भक्तार्थिकयोरादौ प्रथम प्रत्युपेक्षणा तुल्या इयं चैव वेदितव्या (मुहणंतसकाय त्ति) मुखवस्त्रिकायां प्रत्युपेक्षते, ततः कायं शरीरं प्रत्युपेक्षते मुखवस्त्रिकया चैव, इयं तावद्भक्तार्थिकाभक्तार्थिकयोः तुल्या। प्रत्युपेक्षणाविधिं प्रदर्शयतितत्तो गुरू परिन्ना, गिलाण सेहाऽऽइ जे अभत्तट्ठी। संदिसह पायमुवहिं, च अप्पणो पट्टगं चरिमं / / 637 / / ततः मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणानन्तरं [गुरु त्तिगुरोः संबन्धिनीमवधि प्रत्युपेक्षन्ते [परिन्न ति] परिज्ञा प्रत्याख्यानम्। ग्लानस्य एतदुक्तं भवतिअनशनस्थस्य संबन्धिनीमवधिं प्रत्युपेक्षन्ते / तथा-शिक्षकोऽभिनवप्रव्रजितः शिक्षणार्थमर्पितस्तदीयामुपधिं तस्यैवाग्रतः प्रत्युपेक्षन्ते / आदिग्रहणाद वृद्धाऽऽदेः संबन्धिनीमुपधि प्रत्युपेक्षन्ते, ये अभक्तार्थिनस्ततस्त एवमनेन क्रमेण कुर्वन्ति प्रत्युपेक्षणाम।ततः गुरुं संदिशापयित्वा "संदिसह इच्छाकारेण उवहिं पडिलेहामि।" एवं भणित्वा पात्रं पत्तद्ग्रह प्रत्युपेक्षन्ते, ततश्च सकलामुपधिं प्रत्युपेक्षन्ते तावद्यावच्चोलपट्टक चरमम्, भूमिमपि प्रत्युपेक्षन्ते- "एव ताव अभत्तट्ठियाण पडिलेहणविही।" ओघ० / पं०व०ाध०। प्रति० / स्था०। प्रतिमाप्रतिपन्नानामुपासकानां प्रत्युपेक्षणापडिमापडिवनस्स णं अणगारस्स कप्पंति तओ उवस्सगं पडिले हित्तए। तं जहा-अहे आगमणगिहंसि वा, अहे वियडगिहंसि वा, अहे रूक्खमूलगिहंसि वा / एवमणुन्नवेत्तए / उवाइणित्तए। पडिमापडिवन्नस्सणं अणगारस्स कप्पंतितओ संथारगा पडिलेहित्तए। तं जहा-पुढविसिला, कट्ठसिला। अहासंघट्टमेव / एवमणुण्णवित्तए, उवाइणित्तए। प्रतिमा मासिक्यादिकां भिक्षुप्रतिज्ञाविशेषलक्षणां प्रतिपन्नोऽभ्युपगतवान्यः स तथा, तरयानगारस्य कल्पन्ते युज्यन्ते, त्रय उपाश्रीयन्ते भज्यन्ते शीताऽऽदित्राणार्थ ये ते उपाश्रया वसतयः प्रत्युपेक्षितुमवस्थानार्थं निरीक्षितुमिति [अहे ति] अथार्थः / अथशब्दश्चेह पदत्रयेऽपि त्रयाणामप्याश्रयाणां प्रतिमा प्रतिपन्नस्य साधोः कल्पनीयतया तुल्यता प्रतिपादनार्थः / वा विकल्पार्थः पथिकाऽऽदीनामागमनेनोपेतं तदर्थ वा गृहमागमनगृहं सभाप्रपाऽऽदि। यदाह- "आगं तुगो रत्थजणो जहिं तु, संठाइ जं वा गमणम्मि तेसिं / तं आगमो किंतु विदू वयंति, सभापवादे - उलमाइयं वा / / 1 / / '' इति। तस्मिन्नुपाश्रये यस्तदेकदेशभूतः, प्रत्युपेक्षितुं कल्पत इति प्रक्रमः / तथा- [वियडं ति विवृतमनावृतं, तच द्वेधा- ] अधः, ऊर्द्ध च। तत्र पार्श्वत एकाऽऽदिदिक्ष्वनाकृतमधो विवृतमनाच्छा दितममालगृह चौवं विवृतं, तदेव गृहं विवृतगृहमा उक्तञ्च- ''अनाउड जं तु चउद्दिसिं पि, दिसामहो तिन्नि दुवे य एक्का। अहे भवे तं वियडं गिह तु, उड्ड अमालं च अतिच्छदं च // 1 // '' इति / तस्मिन्वा / वृक्षस्य करीराऽऽदेर्निर्गलस्य मूलमधोभागस्तदेव गृहं वृक्षमूलगृहम्। तस्मिन्वेति, प्रत्युपेक्षया चोपाश्रये शुद्धे गृहस्थ प्रति तदनुज्ञापन भवतीत्यनुज्ञापनासूत्रम्। (एवमिति) एतदेव''पडिमापडिवन्न'' इत्याधुच्चारणीय, नवरं प्रत्युपेक्षणास्थाने अनुज्ञापनं वाच्यमिति। अनुज्ञाते च गृहिणा तस्योपादानमित्युपादानसूत्रंतदप्येवमेवेति। (उवाइणित्तए त्ति) उपादातुं गृहीतु, प्रवेष्टुमित्यर्थः एवं संस्तारकसूत्रत्रयमपि। नवरं पृथिवीशिला यः प्रसिद्धः काष्ठशासौ शिलेवाऽऽयतिविस्तराभ्यां शिला, सा चेति काष्ठशिला. यथा संस्तृतमेवेति यत्तृणाऽऽदि यथोपभोगार्ह भवति, तथैव यल्लभ्यत इति / स्था०३ ठा०४ उ०। भुक्त्वा स्थण्डिलप्रत्युपेक्षणम् / इदानी भुक्तानां विधि प्रतिपादयन्नाहपट्टग मत्तग सयमो-ग्गहाऽऽइ गुरुमाइया अणुनवणा। तो सेस भाणवत्थे, पायपुंछणगं च भत्तट्ठी॥६३८|| मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्ष्य तयैव कायं प्रत्युपेक्षेत, ततः (पट्टगं ति) चोलपदृकं प्रत्युपेक्षन्ते। पुनश्च गोलको यः पत्रकस्योपरि दीयते। "पच्छा पडिलेहणीय पत्तावधिपडलाइ रयत्ताणं च पत्तेयं चेव जइमत्तओ अइरिको तो सो चेव पढमं निक्खिपति।" पुनश्च मात्रकं निक्षिप्य स्वकीयमवग्रह पतद्ग्रह प्रत्युपेक्षन्ते, ततो गुरुप्रभृतीनाम् एका उपधयः प्रत्युपेक्षन्ते। भक्तार्थिकैः (अणुण्णवण त्ति) ततो गुरुमनुज्ञापयन्ति, यदुत-"संदिसह अवधिं पडिलेहामो त्ति। ततः शेषाणि गच्छ साधारणानि पत्रकाणि वस्त्राणि च अपरिभागानि यानि तानि प्रत्युपेक्षन्ते / ततः स्वकाय पादपुञ्छनकं रजोहरणं च प्रत्युपेक्षन्ते / भक्तार्थिका एवमनेन क्रमेण प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ति। जस्स जहा पडिलेहा, होइ कया सो तहा पढइ साहू। परियट्टेइ च पयओ, करेइ वा अन्नवावारं // 636 // पुनश्च यस्य साधोः यथैव प्रत्युपेक्षणा भवति कृता परिनिष्ठता स तथैव पठति परिवर्तयति वा गुणति, पूर्वपठितप्रयत्नेन तत्करोति वा अन्यः साधुना अभ्यर्थितः सन् व्यापारं किञ्चिदिति कर्म प्रयोगं वा। यदि वाअन्यथा व्यापार तूर्णनाऽऽदि करोति। चउभागऽवसेसाए, चरिमाए पडिक्कमित्तु कालस्स। उच्चारं पासवणे, ठाणे चउवीसयं पेहे ||14|| एवं स्वाध्यायाऽऽदि कृत्वा पुनश्वतुर्भागावशेषायां चरमपौरुष्यां प्रतिक्रम्य कालस्य ततः स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षन्ते / किमर्थन् ? उचारार्थ तथा प्रस्रवणार्थ च स्थानानि चतुर्विशतिपरिमाणानि प्रत्युपेक्षन्ते। इदानीं च ताः स्थण्डिलभूमयः प्रत्युपेक्षणीया इत्यत आहअहियासियाउ अंतो, आसन्ने मज्झ दूर तिन्नि भवे / तिन्नेव अणहियासी, अंतो छ च्छच्च बाहिरओ MEv1|| Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 353 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलेहणा अधिकासिका भूभयः संज्ञावेगेनानुत्पीडितः सुखेनैव गन्तुं शक्नोति, ता एवंविधा अन्तर्मध्ये अङ्गणस्य तिस्रः प्रत्युपेक्षणीयाः। कथम्? एका स्थण्डिलभूमिर्वरातेरासन्ना, अन्या मध्ये, अन्या दूरे; एवनेतास्तिस्रः स्थण्डिलभूमयो भवन्तिा तथा अन्यास्तिस्त्र एव तस्मिन्नेवागणे असन्नतरे भवन्ति। अनधिकासिकाः संज्ञावेगेनोत्पीडितःसन्याति, ता अपि तिरत्र एव भवन्ति-एका वसतेरासन्नतरे प्रदेशे, अन्या मध्ये अन्या दूरे। एवमेव अन्तर्मध्ये अङ्गणस्य षड् भवन्ति, तथा षट् च बाह्यत इति अङ्गणस्य बाहेः षडेवमेव भवन्ति। एमेव य पासवणे, वारस चउवीसयं तु पेहित्ता। कालस्स य तिन्नि भवे, अह सूरो अत्थमुवयाइ / / 942 // एवमेव प्ररनवणे कायिकायां द्वादश भूमयः प्रत्युपेक्ष्यन्ते, षडङ्गणमध्ये, षडङ्गणबाह्यतो भवन्ति। एवमेताः सर्वा एव उच्चारे कायिका भूमयश्चतुविशतिः, ताः प्रत्युपेक्ष्य पुनश्च कालस्यापि ग्रहणे तिस्र एव भूमयः प्रत्युपेक्षणीया भवन्ति / ताश्च कालभूमयो जघन्येन हस्तान्तरिताः प्रत्युपेक्ष्यन्ते / एवमनेन प्रकारेण कृतेन अथ-यथा सूर्यः अस्तमुपयाति तथा कर्त्तव्याः / ओघ०। बृ०। उचारप्रस्रवणभूमीनां प्रत्युपेक्षणासूत्रम्जे मिक्खू साणुप्पाए उच्चारपासवणभूमि ण पडिलेहेइ, ण पडिलेहतं वा साइज्जइ / / 138 / / साणुप्पाओ णाम- चउभागावसेसचरिमाए उच्चारपासवणभूमीओ पडिलेहेयवाओ त्ति, ततो कालस्स पडिलेहेति एस साणुप्पाओ, जति (0 पडिलेहेति तो मासलहं, आणादिया दोसा। गाहापासवणुच्चारं जो, भूमी य अणुप्पदे ण पडिलेहे। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे / / 290 / / अपडिलेहिते इमे दोसाछक्कायाण विराधण, अहिविच्छुअखाणुमुत्तमादीसु। वोसिरणणिरोधे सुं.दोसालू संजमा यापि॥२६१।। अपडिलेहिते जति वोसिरति ततो दव्वओ छकायविराहणा संभवति। भावतो पुण विराधित्ता एस संजमविराहणा। अपडिलेहिते-अहिविच्छुगादिणा खजति आयविराहणा। अपडिलेहिते मुत्तेण वा, पुरीसेण वा, आदिसद्दातो वंतपित्तादिणा पायं लेवाउज्ज, ततो उवकरणविणासो वा, सेहविपरिणामो वा / अपडिलेहियं वा थंडिल ति णिरोह करेति, ण वोसिरति। एवं च- 'मुत्तणिरोहे चक्खुं, वच्चाणिरोहे ये जीवियं चयइ / ' एत्थ वि आयविराहणा। जम्हा एते दोस तम्हाचतुभागऽवसेसाए, चरिमाए पोरिसी, तम्हा तु / पयतो पडिलेहिज्जा, पासवणुच्चारमादीणं ! // 262 / / चरिमा पच्छिमा, पयतो प्रयत्नवान् भवे। कारणे ण पडिलेहेज्जा वि गेलण्णे रायदुहे, अद्धाणे संभमे भएगतरे / गामणुगाम वियाले, अणुपत्ते वा ण पडिलेहे // 263 / / गिलाणो ण पडिलेहति / मासर्कप्पविहारे गामाओ गच्छतो अण्णो अणुकूलो गामो गामाणुगामो, तं वियाले अणुपत्तो ण पडिलेहे / एतेहि कारणेहि अप्पडिले हें तो सुद्धो। सूत्रम्जे मिक्खू तओ उच्चारपासवणभूमीओ न पडिलेहेइन पडिलेहतं वा साइज्जइ / / 13 / / तओ त्रयः सूचनात्सूत्रमिति द्वादशविकल्पप्रदर्शनार्थ त्रयो ग्रहणम् अपिडलेहतरस मासलहुं, आणादिया य दोसा / पासवणुच्चारगाहा (260) अंतो णिवेसणस्स काइयभूमीओ, बहिं णिवेसणस्सा एवं चेव छक्काइयभूमीओ, एवं पासवणे वारस सण्णाभूमीओ, एवं च ता सव्वाओ चउव्वीस, जो एया ण पडिलेहति, तस्स आणादिया दोसा / सो आणा गाहा-(२६०) छक्कायगाहा (261) किं णिमित्तं तिणि तिण्णि पडिलेहिज्जति? कयाति एक्कस्स वाघातो भवति, ततो वितियाऽऽदिसु परिढविज्जति, पासवणे तपो अपहरणे चेल्लगओ दिलुतो भाणियव्वो, अणधियासिकाणं कोवि अतीव उव्वाहितो जाव दूरं वञ्चति ताव आयविराहणा भवे, तेण आसपणे पेहे। वितियपदे गेलण्णगाहा (263)" नि०० 4 उ०। कालग्रहणमपडिलेहेइ पमत्ते, अवडज्झइ पावकंबलं / पडिलेहणाअणाउत्ते, पावसमणे त्ति वुथइ।।। पडिलेहइ पमत्ते, किंचि हु निसामिआ। गुरुं परिभावए निचं, पावसमणे त्ति वुच्चइ ||10|| उत्त०१७ अ०। (इति पापसमण' शब्दे व्याख्यास्यते) अविधिप्रत्युपेक्षणे प्रायश्चित्तम्दिया तुयट्टेज्जा दुवालसं पडिक्कमणं काउं गुरुपायमूलं वसहिं संदिस्सावेज्जा, ताण ण पच्चुप्पेहइ, चउत्थं वसहिं पच्चुप्पेहिऊणं ण संपवेएज्जा, छ8 वसहिं असंपवित्ता णं रयहरणं पच्चुप्पेहिजा, पुरिमर्ल्ड रयहरणविहीए पच्चुप्पेहित्ता णं गुरुपायमूलं मुहणंतगं पच्चुप्पेहिय उवहिं संदिसावेज्जा, पुरिमळ मुहणंतगं णं अपच्चुप्पेहिएणं उव हिं संदिस्सावेजा पुरिमळू असंदिसावियं उवहिं पच्चुप्पेहेन्जा, पुरिमडं अणुवउत्ता वसहिं वा पच्चुप्पेहिज्जा, दुवालसं अविहीए वसहिं वा अन्नयरं वा भंडमत्तोवगरणजायं किंचि अणुवउत्तमप्पमत्तो पच्चुप्पेहिज्जा, दुवालसं वसहिं वा उवहिं वा भंडमत्तोवगरणं च अपडिलेहियं वा दुप्पडिलेहियं वा परिभुजेजा, दुवालसं वसहिं वा उवहिं वा भंडमत्तोवगरणं वा ण पच्चुप्पे हिज्जा, उवट्ठावणं एवं वसहिं उवहिं पच्चुपे हित्ता णं जम्मि पएसे संथारयं जम्मि उपएसे उवहीए पच्चुप्पेहणं कयं, तं थामं निउणं लहुयलहुयं तं दंडापुंछगेण वा रयहरणेण वा साहरेत्ता णं तं च कयवरं पच्चुप्पे हितुं छप्पइयाओ ण प Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलेहणा 354 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिलोम डिगाहिया दुवालसं छप्पइयाओ पडिगाहित्ता णं तं च कयवरं ज्ञेयम् / जीत० / मात्रकस्य भिक्षापात्रकस्य प्रमादेनाप्रतिलेखने परिट्ठयेऊणं इरियं णं पडिक्कमेज्जा, चउत्थं अपचुप्पेहियं कयवरं पञ्चकल्याणक प्रायश्चित्तम्। जीत०। (यथाछन्दः 'अहाछंद' शब्दे प्रथम परिट्ठवेज्जा उवट्ठावणं जइणं छप्पयाओ हवेजा, अहा णं नत्थि भागे 864 पृष्ठ प्रतिलेखनाविषयां शङ्काम-करोत्) संध्याप्रतिलेखनाया तओ दुवासं एवं वसहिं उवहिं पच्चुप्पेहिऊणं समाहिं खइरोल्लगं | पश्चाद्धर्मध्वजप्रतिलेखन विधीयते, प्रभातप्रतिलेखनायां च पूर्व, तत्र च ण परिट्ठवेजा, चतुत्थं अणुग्गए सूरिए समाहिं वा खयरोल्लगं को हेतुरिति प्रश्श्रे, उत्तरम्-ओघनियुक्तियतिदिनचर्याऽऽदिषु तथाक्तिरेव वा परिवेज्जा, आयंबिलं हरियकायसंततेइ वा वीयकायसंततेइ हेतुरिति / 80 प्र० 1 सेन० 1 उल्ला० / श्रावकैः पौषधोपधानाऽऽदिषु वातसकायेवंइदियाइहिं वा संततेथंडिले समाहिं वा खइरोलगं संध्याप्रतिलेखनाया क्रियमाणायां 'पडिलेहणा पडिले हावउ'' वा परिवेज्जा, अन्नयरं वा उच्चाराइयं बोसिरिज, पुरिमड्ढे इत्यादेशमार्गणाननतरं यतिकाजकोद्धारे उपधिमुखपोत्तिकाप्रतिएक्कासणगायंबिलमहक्कमेणं जइ णं णो उद्दवणं संभवेजा, अहा लेखनानन्तरं उपधि-प्रतिलेखने कृतेतत्काजकोद्धारः कृतो विलोक्यते, णं उद्दवणा संभाविए तओ खमणं तं च थंडिलं पुणरवि, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्-पूर्व काजकोद्वारे कृतेऽप्युपधिप्रतिलेखनानन्तर जागरिऊणं नीसंकं काऊण पुणरवि आलाएत्ता णं जहाजोगं तत्का-जकोद्धारः कृतो विलोक्यत इति। 182 प्र० / सेन० 2 उल्ला० / पायच्छित्तं ण पडिगेहेजा तओ उवट्ठाणं समाहिं परिद्ववेमाणे व्याख्यानवेलायां कृतसामायिकः श्राद्ध आदेशमार्गणापूर्वकं प्रतिलेखना सागारिएणं संचिक्खीयए संचिक्खियमाणो वा परिट्ठवेज्जा,खवणं करोति, अन्यथा वेति प्रश्ने, उत्तरम-सामायिकमध्ये प्रतिलेखनाऽऽदेशअपच्युपेहिय थंडिल्ले जं किंचि वोसिरेज्जा, तत्थोवट्ठावणं एवं मार्गणं यौक्तिकमिति / 165 प्र० / सेन० 2 उल्ला०। मुत्कलः श्राद्धः स्थापनाप्रतिलेखनां करोति, तथा-'पडिलेहणा पडिलेहायूं" इत्यादेश वसहिं उवहिं पच्चुप्पहित्ता णं समाही, खइरोल्लगं च परिहवेत्ता णं एगग्गमणसो आउत्तो विहीए सुत्तत्यमणुसरेमाणो इरियं न मार्गयित्वा प्रतिलिख्यान्यथा वेति प्रश्रे, उत्तरम्-मुत्कलः श्राद्धः प्रतिलेखनाऽऽदेशं मार्गयित्वा मुखवस्त्रिका प्रतिलिख्य परिधानवस्त्र पडिक्कमेजा, एक्कासणं मुहणंतगेणं विणा इरियं पडिक्कमेज्जा, वंदणपडिक्कमणं वा करेजा, जंभाएज्ज वा, सज्झायं वा करेजा परावृत्त्य च स्थापनाः प्रतिलिखति, परं पौषधसामायिकं विना "पडिलेहणा पडिलेहावू' इत्यादेशं न सार्गयतीति परम्पराऽस्तीति / वायणादी सव्वत्थ पुरिमळू, एवं च इरियं पडिक मित्ता णं 54 प्र०। सेन० 3 उल्ला०। सुकुमालपम्हलअवोप्पडअविकिट्ठणं अविद्धदंडेणं दंडापुंछण पडिलेहणासील त्रि० (प्रत्युपेक्षणाशील) प्रमार्जनाशीले, कल्प० 3 गेणं वसहिं ण पमज्जे एक्कासणगं बाहिरियाए वा वसहिमोहा अधि० 6 क्षण। रिज्जा, उवट्ठावणं वसहीए दंडापुंछणगं दाऊणं कयवरं ण पडिलेहणिया स्त्री० (प्रतिलेखनिका) प्रतिपूर्वकस्य 'लिख' अक्षरपरिद्ववेज्जा, चउत्थं अपच्चुप्पेहियं कयवरं परिट्ठवेज्जा विन्यासे इत्यस्य भावे ल्युडन्तस्य प्रयोगः / "उपर्गेण धात्वर्था, दुवालसंजइणं छप्पइयाओ ण हवेज्जा आहाण्णं हवेज्जा तओ बलादन्यत्र नीयते।'' इति न्यायादागमानुसरेण क्षेत्राऽऽदेर्निरूपणायाम, णं उवट्ठावणं वसहीसंतियं कयवरं पच्चुप्पेहमाणेण जाओ घ०३ अधि०। छप्पइयाओ, तत्थ अन्निसिऊणं अण्णेसिऊणं समुचिणिय पडिलेहित्तए अध्य० (प्रत्युपेक्षितुम्) निरीक्षितुमित्यर्थे, स्था०३ ठा० समुचिणिय पडिगाहिया ताओ जइ णं ण सव्वेसिं भिक्खूणं ३उ०॥ संविभाविऊणं देज्जा तओ एक्कासणगं, जइ सयमेव अत्तणा पडिले हित्ता अव्य० (प्रत्युपेक्ष्य) दृष्ट्वा यथावदृपलभ्येत्यर्थे, आचा०१ ताओ छण्णइयाओ पडिग्गहेज्जा, अह णं ण संविभाविउं श्रु०१ अ०७ उ० / पर्यालोच्याऽऽगम्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु०८ अ०३ दिज्जा, णय अत्तणो पडिगाहेज्जा, तओ पारंचियं, एवं वसहिं उ०। सूत्र० / चक्षुषा प्रमृज्येत्यर्थे, दश० 5 अ० 1 उ० पौनः पुन्येन दंडापुंछणगेणं विहीए य पमज्जिऊणं कयवरं पच्चुप्पेहेऊणं सम्यक् प्रमृज्येत्यर्थे, दश०५ अ० 1 उ०। चक्षुषा प्रमृज्येत्यर्थे, दश०५ छप्पइयाओ संविभाविऊणं वयं च कयवरं ण परिवेज्जा, अ० 1 उ०। आचा०। परिट्ठवित्ताणंदसमं विहीए अच्चंतोवउत्ता एगग्गभणे से पयंपएणं पडिलेहिय त्रि० (प्रत्युपेक्षित) पर्यालोचिते, आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। तु सुत्तत्थोभयं सरमाणे जे णं भिक्खू ण इरियं पडिक्कमेज्जा पडिलेहियव्व त्रि० (प्रतिलेखितव्य) परिहर्तव्यतया विचारणीये, कल्प० तस्स य आयंविलखमणं पच्छित्तं निदिसिज्जा। महा०१चू०। 1 1 अधि०५ क्षण। प्रतिलेखनाविस्मारणे विस्मार्य प्रतिलेखनां गुरुणामनिवेदने प्रेक्षेत | पडिलोम त्रि० (प्रतिलोम) प्रतिकूले , व्य० 2 उ० / सूत्र० / जघन्यम्, मध्यमस्य, उत्कृष्टस्य च सर्वरिंमश्वोषधौ विच्युतलब्धे पश्चान्मुखे, विशे० / उक्तविपरीते, उत्त०१ अ० / इन्द्रियमन - विस्मारितप्रतिलेखने प्रतिलेखत इति गुरुणामनिवेदिते चाऽऽचामा- | सोरनाल्हादकत्वात् अनुकू लगन्धाऽऽदित्वाद् विपरीतगन्धाम्लम् / इदं च मुखवस्त्रिकारजोहरणव्यतिरिक्तरयोपधेः प्रायश्चित्तं / ऽऽदौ, आचा०२ श्रु० 1 चू०२ अ०२ उ० / स्था० यत्र प्रातिकू Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिलोम 355 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिवाजिउकाम ल्यमुपदिश्यते तादृशे आहरणतद्देशभेदे, यथा-''शट प्रतिशठो भूयात्। संनिविसमाणेसु असिवा सिवा अग्गी सीअलो विसं महुंर स्था० 4 ठा०३ उ०। कल्लालघरेसु अंबिलं साउअंजे रत्तए से अलत्तए जे लाउए से अधुना प्रतिलोमद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह अलाउए जे सुंभए से कुसुंभए आलवंते विवलीअभासए। से तं पडिणोमे जह अभओ, पजोयं हरइ अवहिओ संतो। पडिवक्खपएणं। गोविंदवायगो वि य, जह परपक्खं नियत्तेइ / / 1 / / विवक्षितवस्तुधर्मस्य विपरीतो धर्मो विपक्षः तद्वाचकं पदं विपक्षपदं, प्रतिलोमे उदाहरणदोषे यथा अभयोऽभयकुमारः प्रद्योत राजान तन्निष्पन्न किश्चिन्नाम भवति, यथा शृगाली अशिवाऽप्य-माङ्गलिकशब्दहतवान्, अपहृतः सन्नित्येतत् ज्ञापकमिह च त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थी परिहारार्थ शिवा भण्यते / किं सर्वदा? नेत्याह-('नवेसु' इत्यादि) तत्र वर्तमाननिर्देश इत्यक्षरार्थः / भावार्थः कथानकादवसेयः। तच यथाऽऽव- ग्रसते बुद्ध्यादीन गुणानिति ग्रामः प्रतीतः, आकरोलोहाद्युत्पत्तिस्थानं, श्यक शिक्षायां तथैव द्रष्टव्यमिति। एवं तावल्लौकिक प्रतिलोमम्। लोकोत्तर नगरंकररहित, खेट-धूलीमयप्राकारोपेतं, कबर्ट कुनगर, मडम्ब सर्वतो तु द्रव्यानुयोगमधिकृत्य सूचयन्नाह-गोविन्देत्यादिगाथादलम्। अनेन च दूरवर्ति सन्निवेशान्तर, द्रोणमुखंजलपथस्थलपथोपेतं, पत्तनं नानादेशाचरणकरणानुयोगमप्यधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम् / आद्यन्तग्रहणे ऽऽगतपण्यस्थानम्। तच द्विधा-जलपत्तनं, स्थलपत्तन च / रत्नभूमिरितन्मध्यपतितस्य तद्ग्रहणेनैव ग्रहणात्तत्र चरणकरणे / 'णो किंचि वि त्यन्ये / आश्रमः-तापसाऽऽदिस्थानं, संबाधः-अतिबहुप्रकारलोकपडिकूल, कातव्वं भवभएण मन्ने सिं। अविणीतसिक्खगाण उ, जयणाएँ सङ्कीर्णस्थानविशेषः, सन्निवेशो-घोषाऽऽदिः। अथवा-ग्रामाऽऽदीनां द्वन्द्वे जहोचियं कुज्जा / / 1 / / " द्रव्यानुयोगे तु गोपेन्द्रवाचकोऽपि च यथा परपक्ष ते च ते सन्निवेशाश्वेत्येवं योज्यते, ततस्तेषु ग्रामाऽऽदिषु नूतनेषु निवर्तयतीत्यर्थः / 'सो य किर तव्वण्णिओ आसि, विणासणनिमित्त निवेश्यमानेष्वशिवाऽपि सा मङ्गलार्थ शिवेत्युच्यते, अन्यदा त्वनियमः, पव्वइआ।पच्छा भावो जाओ।" महावादी जात इत्यर्थः / सूचकमिदमत्र- तथा-कोऽपि कदाचित् के नाऽपि कारणवशेनाग्नि:शीतो, विष 'दव्वट्ठियस्स पजव-णयठियमेयं तु होइ पडिलोमं। मधुरमित्याद्याचष्टे, तथा-कल्पपालगृहेषु किलाऽऽम्लशब्दे समुच्चारिते सुहदुक्खाइ अभावं, इतरेणियरस्स चोइजा / / 1 / / सुरा विनश्यति। अतोऽनिष्टशब्दपरिहारार्थमम्लं स्वादूच्यते, तदेवमेतानि अन्ने उ दिट्टवादि-म्मि किंचि बूया उ किल पडिकूल। शिवाऽऽदीनि विशेषविषयाणि दर्शितानि, साम्प्रत त्वविशेषतो यानि दोरासिएइन्नाए, तिन्नि जहापुच्छ पडिसेहो।।२।।" सर्वदा प्रवर्तन्ते तान्याह-(जो अलत्तए इत्यादि) यो रक्तो लाक्षारसेन, उदाहरणदोषता त्वस्य प्रथमपक्षे साध्यार्थासिद्धः, द्वितीयपक्षे तुशास्त्र- प्राकृतशैल्या कन्प्रत्ययः, स एव रश्रुतेर्लश्रुत्या अलक्तक उच्यते, तथाविरुद्धभाषणादेव भावनीयेति गाथार्थः / दश०१ अ०। अपवादे, ओघ० / यदेव लाति आदते धरति प्रक्षिप्त जलाऽऽदि वस्तु इति निरुक्तेलाबु पडिलोमइत्ता अव्य० (प्रतिलोमयित्वा) प्रतिलोमान् कृत्वा विवादाध्यक्षान् तदेव अलाबु तुम्बकमभिधीयते, य एव, च सुम्भकः शुभवर्णकारी स एव प्रतिपन्थिनो वा सर्वथा सामर्थेऽसति प्रतिलोमं कृत्वा विधीयमाने कुसुभकः, (आलवंते त्ति) आलपन्अत्यर्थं लपन्नसमञ्जसमिति गम्यते, विवादभेदे, स्था०६ ठा०। स किमित्याह (विवलीयभासए त्ति) भाषकाद् विपरीतो विपारीतभाषक पडिलोमपरूवणा स्त्री० (प्रतिलोमप्ररूपणा) पञ्चादानुपूा प्ररूपणा- इति राजदन्ताऽऽदिवत समासः। अभाषक इत्यर्थः। तथा हि-सुबद्धहयाम्, नि०चू०१ उ०। संबद्धं प्रलपन्त कञ्चिद दृष्ट्वालोके वक्तारो भवन्ति-अभाषक एवाऽयं पडिवंसय पुं० (प्रतिवंशक) लघुवंशे, "लोहियक्खपडिवंसगा।" रा०। द्रष्टव्योऽसा-रवचनत्वादिति। प्रतिपक्षनामता यथायोगं सर्वत्र भावनीया। पडिवक्ख पुं० (प्रतिपक्ष) प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः / विरोधिनि, स्या०। ननु च नोगौणादिदं न भिद्यते इति चेत्, नैतदैवं, तस्य कुन्ताऽऽदियथाऽबहुश्रुतस्य बहुश्रुतः प्रतिपक्षः। नि०चू०१ उ० अन्यशब्दार्थे, व्य० प्रवृत्तिनिमित्ताभावमात्रेणैवोक्तत्वाद्, अस्य तु प्रतिपक्षधर्मवाच-कत्व७ उ० / अभिहितार्थविपर्यये, आ०म० 1 अ० तुल्यपक्षे, ओघ० / सापेक्षत्वाद् इति विशेषः / अनु०। अपवादे, यथा शृगाली अशिवाऽप्यद्वितीयपदे, बृ०१उ०२ प्रक० द्वितीयपक्षदृष्टान्तभूते, स्था० 4 ठा०१ माङ्गलिकशब्दपरिहारार्थ शिवा भण्यते,किंसर्वदा? नेत्याह- "नवेसु" उ० / शत्रौ, सत्तू अरी अमित्तो, रिऊ अराईय पडिवक्खो '' पाइ० ना० इत्यादि / ओघ०। 35 गाथा। पडिवक्खवयण न० (प्रतिपक्षवचन) उत्तरवचने, जी०१ प्रति०। पडिवक्खदुगंछा स्त्री० (प्रतिपक्षजुगुप्सा) मिथ्यात्वप्राणिवधाऽऽद्युद्- पडिवक्खवाय पुं० (प्रतिपक्षवात) शीतोष्णाऽऽदिके वाते, आचा० 1 वेगे, पञ्चा०१ विव०। श्रु०१ अ०७उ०। पडिवक्खपय न० (प्रतिपक्षपद) विवक्षितवस्तुधर्मस्य विपरीतो धर्मो | पडिवजमाण त्रि० (प्रतिपद्यमान) अङ्गीकु र्वति, आचा०१ श्रु०१ विपरीतपक्षस्तवाचकं पदं विवक्षितपदम्। विरुद्धार्थके पदे, अनु०।। अ०७ उ०। से किं तं पडिवक्खपएणं ? पडिवक्खपएणं नवेसु गामागरण- | पडिवजिउकाम त्रि० (प्रतिपत्तुकाम) अभ्युपगन्तुमनसि, पञ्चा० 18 गरखेड कटवडमडं वदोणमुहपट्टणासमसंवाह-संनिवेसेसु विव०। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिवज्जिऊण 356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिवासुदेव पडिवजिऊण अव्य० (प्रतिपद्य) अङ्गीकृत्येत्यर्थे , श्रा० / दश०) 1 अ०। प्रदीप इव निर्मूलमेककालमुपगच्छति अवधिज्ञानभेदे, कर्म०१ गृहीत्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१चू०२१०१३०। कर्म०1 आ०म०। पडिवज्जित्तए अव्य० (प्रतिपत्तुम) अभ्युपगन्तुमित्यर्थे, स्था०२ ठा० से किं तं पडिवाइ ओहिनाणं ? पडिवाइ ओहिनाणं जं णं 1 उ०। जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिज्जयभागं वा संखिज्जयभागं वा पडिवजियव्व त्रि० (प्रतिपत्तव्य) अङ्गीकर्तव्ये, उत्त०३२ अ०॥ बालग्गं वा बालग्गपुहुत्तं वा लिक्खं वा लिक्खपुहुत्तं वा जूयं वा पडिवण्ण त्रि० (प्रतिपन्न) आश्रिते, स्था०७ ठा० / समाश्रिते, सूत्र०२ जूयपुहुत्तं वा जवं वा जवपुहुत्तं वा अंगुलं वा अंगुलपुहुतं वा श्रु०१ अ०। औ०। स्था०। जं०। आचा०। अभ्युपगतवति, स्था०४ पाउं वा पाउपुहुत्तं वा विहत्थि वा विहत्थिपुहुत्तं वा रयणिं वा ठा०१ उ०। रयणिपुहुत्तं वा कुच्छिं वा कुच्छिपुहुत्तं वा धणुं वा धणुपुहुत्तं वा पडिवत्ति स्त्री० (प्रतिपत्ति) प्रतिपदन प्रतिपत्तिः। परिच्छित्ती, आ०म०१ गाउयं वा गाउयपुहुत्तं वा जोयणं वा जोयणपुहुत्तं वा जोयण अ० / प्रकृतयोऽपि प्रतिपत्तिहेतुत्वात्प्रतिपत्तय इत्युच्यन्ते, प्रतिपद्यते सयं वा जोयणसयपुहुत्तं वा जोयणसहस्सं वा जोयणयथावदवगम्यते आभिरिति प्रतिपत्तयः। "लाभाऽऽदिभ्यः" इति करणे सहस्सपुहुत्तं वा जोयणलक्खं वा जोयणलक्खपुहुत्तं वा दिप्रत्ययः / आ०म०१ अ०। परमतरूपे (सू०प्र० 1 पाहु० चं० प्र०) जोयणकोडिं वा जोयणकोडिपहत्तं वा जोयणकोडाकोडिं वा द्रव्याऽऽदिपदार्थाभ्युपगमे, नं०। पञ्चा०। प्रति०।स। सम्यक्रियाऽ- जोयणकोडाकोडिपुहुत्तं वा उक्कोसेणं लोगवा पासित्ता णं भ्युपगमप्रतिपादने, विशे०। गत्यादिद्वाराणामन्यतरैकपरिपूर्ण - पडिवएज्जा। से तं पडिवाइ ओहिणाणं ||5|| गत्यादिद्वारेण जीवाऽऽदिमार्गणायाम्, कर्म० 1 कर्म० / प्रारम्भे, ('से किं तं' इत्यादि) अथ किं तत्प्रतिपाति अवधिज्ञानम् ? सूरिअङ्गीकारे, दश०४ अ०। लाप्रतिवचनप्रदाने, बृ०३ उ०नि०चू०। राह-प्रतिपात्यवधिज्ञानं यत् अवधिज्ञानं जघन्यतः सर्वस्तोकतया परिपाट्याम्, आव० 4 अ०1 भेदे, प्रकारे, आ०चू०१०। 'निच्छ्यस्थ- अङ्गुलस्यासंख्येयभागमात्रं वा संख्येयभागमात्रं वा बालाऽग्रं था पडिवत्ति अववोहिति।" आ०चू०१ अ०॥ बालाग्रपृथक्त्वं वा लिक्षां वा बालाग्राष्टकप्रमाणां लिक्षापृथक्त्वं वा यूका पडिवत्तिसमास पुं० (प्रतिपत्तिसमास) प्रतिपत्तिद्वारद्वयाऽऽदिमार्गणा- वा लिक्षाष्टकभाना यूकापृथक्त्वं वा यवं वायूकाष्टकमानं वा यवपृथक्त्वं याम्, कर्म०१ कर्म०। वाऽङ्गुलं वा अड्गुलपृथक्त्वं वा, एताव-दुत्कर्षेण सर्वप्रचुरतया लोक पडिवत्थूवमा स्त्री० (प्रतिवस्तूपमा) दूरान्तरेऽपि यत्किञ्चित्सामान्येन दृष्ट्वा उपलभ्य प्रतिपतेत् प्रदीप इव नाशमुपयायात्, तस्य भ्राम्यतामुपहासो व्यज्यते तद्व्यञ्जकेऽलङ्कारे, प्रति०। (स च 'चेइय' तथाविधक्षयोपशमजन्यत्वात्। तदेतत्प्रतिपात्यवधिज्ञानं, शेषं सुगमम्। शब्दे तृ०भा० 1213 पृष्ठे "काके' इत्यादिना श्लोकेन दर्शितः) नवरं कुक्षिर्द्विहस्तप्रमाणा, धनुश्चतुर्हस्तप्रमाणम् "पृथक्त्वं, सर्वत्रापि पडिवन्न त्रि० (प्रतिपन्न) अभ्युपगते, "पडिवन्नं अब्भुवगय।'' पाई० ना० द्विप्रभृतिरा नवभ्य" इति सैद्धान्तिक्या परिभाषया द्रष्टव्यम्। नं०। 188 गाथा। पडिवाइय त्रि० (प्रतिपादित) प्रवेदिते; प्रकथिते, आचा० 5 श्रु० 2 अ० पडिवयण न० (प्रतिवचन) आदेशे, विशे० देहि मे पडिवयणं तं तस्स | 3 उ०1 तीर्थकरगणधरैः कथिते, आव०४ अ०। वयणं / " आ०म०१ अ०। पडिवाय पुं० (प्रतिपात) ध्वंसे, आ०म०१ अ०। विशे० / अधःपाते, पडिवयमाण त्रि० (प्रतिपतत्) उच्चैर्गत्वा पुनः पतति, आचा०१ श्रु०६ "जइ उवसंतकसाओ, तहइ अणंतं पुणो विपडिवायं'भ०२ श० अ०४ उ०। 1 उ०। * प्रतिपद्यमान त्रि० प्रथमं प्राप्नुवति,'पडिवज्जमाणओ नाम जो | * प्रतिवाद पुं० उत्तरपक्षे अष्ट० 5 अष्ट० / परोपन्यस्तपक्षप्रतिवचने, द्वा० तप्पढमताए आभिणियोहियणाणं पडिवज्जति।" आ०चू० 1 अ०। / 23 द्वा०॥ पडिवया स्त्री० (प्रतिपत) पक्षस्य प्रथमतिथी, सू० प्र० 10 पाहु०॥ * प्रतिवात पुं० आघ्रायकविवक्षितपुरुषाणां प्रत्यभिमुखवायौ, आ०म० चं०प्र०। १अ०। पडिवा स्त्री० (प्रतिपत्) कृष्णप्रथमतिथौ, आ०क० 1 अ०। चं० प्र० पडिवाल धा० (प्रतिपाल) धातवोऽर्थान्तरेऽपि इति / प्रतीक्षणे, रक्षणे पडिवाइ(ण)त्रि० (प्रतिपातिन्) प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति / उत्कर्षण च / पडिवालइ।' प्रतिक्षते, रक्षति वा। प्रा०४ पाद। लोकविषय भूत्वा प्रतिपतति, स्था० 6 ठा० / प्रतिपतनशील, नं०। पडिवासुदेव पुं० (प्रतिवासुदेव) वासुदेवानां प्रतिशत्रुषु तिलकाऽऽदिषु, विशे०। स्था०। आ० म० 1 प्रतिमातिसम्यग्दर्शनमौपशमिकं क्षायोपश- ति०। मिकमित्येतत्सम्यग्दर्शनभेदे, (व्याख्या 'दसण' शब्दे चतुर्थभागे 2426 एएसिणं नवण्हं वासुदेवाणं नव पडिसत्तू होत्था, तं जहा पृष्ठे गता) कियन्तमपि कालं स्थित्वा ततो ध्वंसगमनस्वभावे आ० म० आसगीवे० जाव जरासंधे०जाव स चक्के हिं। स०। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिवासुदेव 357 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसंलीणया तथा स्था० / चत्तारि पडिसंलीणा पण्णत्ता। तं जहा-मणपडिसंलीणे, "अस्सग्गीव तारऍ, मेरऐं महुकेटभे निसुंभे य। वइपडिसलीणे, कायपडिलीणे, इंदियपडिसंलीणे। बलि पहिराए तह रा-वणो य नवमे जरासंधे / / 1 / / इति। क्रोधाऽऽदिक वस्तु वस्तुप्रति सम्यग्लीना निरोधवन्तः प्रतिसंलीनाः। एए खलु पडिसत्तू, कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं। तत्र क्रोधं प्रति उभयनिरोधेनोदयप्राप्तविफलीकरणेन प्रतिसलीनःसव्वे वि चक्काजोही, सव्वे वि हया सचक्केहिं / / 2 / / " इति / स०। क्रोधप्रतिसलीनः / उक्तं च- "उदयस्सेव निरोहो, उदयं पत्ताण आ०म०ातिoआ०चू०। प्रतिवासुदेवमाता कति स्वप्रान् पश्यतीति वाऽफलीकरणं / जंएत्थ कसायाणं, कसायसंलीणया एसा।।१॥" इति / प्रश्ने, उत्तरम्-सा त्रीन् स्वप्रान् पश्यतीति / यदुक्तममितसिंहसूरि- कुशलमनउदीरणेनाकुशलमनोनिरोधेन च मनः प्रतिसलीनं यस्य सः, कृतशान्तिचरित्रे षष्ठप्रस्तावे-"प्रत्यर्थिचक्रिणां त्रीश्चान्येषामुत्तमजन्मि- मनसा वा प्रतिसलीनो मनःप्रतिसंलीनः / एवं वाक्कायेन्द्रियेष्वपि, नवर नाम् / एकैकमम्बिकाः स्वप्रं, पश्यन्त्येषां हि मध्यतः / / 16 / / " इति / शब्दाऽऽदिषु मनोज्ञाऽमनोज्ञेषु रागद्वेषपरिहारी इन्द्रियप्रतिसंलीन इति। तथा-सप्ततिशतस्थानकेऽपि / किं च-तान् गज 1 कुम्भ 2 वृषभा३- स्था० 4 ठा०२ उ०। ऽऽख्यान् पश्यतीति परम्परया ज्ञेयम् / 81 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / पंच पडिसंलीणा पण्णत्ता / तं जहा-सोइंदियपडिसंलीणे, प्रतिवासुदेवस्य कियन्ति कानि च रत्नानि स्युरिति प्रश्ने, उत्तरम् - ०जाव फासिंदियपडिसलीणे। प्रतिवासुदेवस्य रत्नसख्यायां रत्नानां तु नियमः शास्त्रे दृष्टो नास्ति, प्रतिसंलीनेतरसूत्रयोः पुरुषो धर्मी उक्तः, संवरेतरसूत्रयोस्तु धर्म तेन चक्राऽऽदीनि तानि यथासंभवं भविष्यन्तीति संभाव्यत इति। 326 एवेति / स्था० 5 ठा०२ उ०1 प्र० / सेन०३ उल्ला०। पडिसंलीणया स्त्री० (प्रतिसंलीनता) इन्द्रियकषाययोगविषयायां पडिवित्यरविहि पुं० (प्रतिविस्तरविधि) परिकररूपे परिग्रहे, सूत्र० 2 | गुप्ततायाम्, विविक्तशयनाऽऽशनतायां च / स्था० 6 ठा० / पा० / श्रु०२ अ०। प्रतिसंलीनताभेदाःपडिविद्धंसण न० (प्रतिविध्वंसन) विनाशने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। से किं तं पडिसलीणता? पडिलीणता चउव्विहा पण्णत्ता। पडिविरय त्रि० (प्रतिविरत) सावद्ययोगेभ्यो निवृत्ते प्रवीजते, स०३० तं जहा-इंदियपडिसलीणता, कसायपडिसंलीणता, जोगपडि सम० सूत्र० / “एगच्चाओ अबंभसमारंभाओ पडिविरओ।" औ०। संलीणता, विवित्तसयणासणसेवणया। से किं तं इंदियपडिपडिविहाण न० (प्रतिविधान) प्रतीकारे, विशे० / आक्षेपनिराकरणे, संलीणता? इंदियपडिसंलीणया पंचविहा पण्णत्ता / तं जहाविशे०। सोइंदियविसयप्पयारणिरोहा वा सोइंदियविसयप्पत्तेसु वा पडिवूह पुं० (प्रतिव्यूह) तत्प्रतिद्वन्द्विना तत्प्रतिभयोगोपायप्रवृत्तानां व्यूहे, अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो चक्खिदियविसय० एवं० जाव जं०२ वक्ष०। कलाभेदे, औ०। फासिंदियप्पयारणिरोहो वा फासिंदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु पडिदेस पुं० (प्रतिवेश) प्रत्यासन्नगृहे, बृ० 1 उ०२ प्रक० / रागदोसविणिग्गहो / से तं इंदियपडिसंलीणया। से किं तं प्रातिवेशिकनरेन्द्राः सीमातटवर्तिनः प्रत्यन्तराजानः / व्य० 4 उ०॥ कसायपडिसलीणया? कसायपडिसंलीणया चउव्विहा पण्णत्ता। विक्षेपे, दे०ना०६ वर्ग 21 गाथा। तं जहा-कोहोदयणिरोहो वा उदयप्पत्तस्स वा कोहस्स पडिसंखविय अव्य० (प्रतिसंक्षिप्य) मुष्टिग्रहणेण संक्षिप्येत्यर्थे भ०१४ विफलीकरणं, एवं जाव लोभोदयणिरोहो वा उदयप्पत्तस्स श०७० लोभस्स विफलीकरणं / से तं कसायपडिसंलीणया। से किं तं पडिसंखा स्त्री० (प्रतिसंख्या) व्यपदेशे, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। जोगपडि-संलीणया? जोगपडिसलीणया तिविहा पण्णत्ता। तं पडिसंजलण न० (प्रतिसझलन) क्रोधाग्रिनाऽऽत्मन उद्दीपने, आचा० जहा-अकुसलमणणिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा मणस्स वा १श्रु०४ अ०४ उ०1 एगत्तीभावकरणं / से किं तं वइपडिसलीणया ? वइपडिपडिसंत त्रि० (प्रतिश्रान्त) विश्रान्ते, बृ०१ उ०३ प्रक० / प्रतिकूले, संलीणया तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-अकुसलवइणिरोहो वा दे०ना०६ वर्ग 18 गाथा। कुसलवइउदीरणं वा वइए वा एगत्तीभावकरणं / से किं तं पडि संधाय अव्य० (प्रतिसन्धाय) सह गन्तृभावेनाऽऽनुकूल्य कायपडिसलीणया ? कायपडिसंलीणया जेणं सुसमाहियपप्रतिपद्येत्यर्थे , सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ संतसाहरियपाणिपादे कुम्मो इव गुत्तिदिए अल्लीणपल्लीणे चिट्ठइ। पडिसंलीण पुं० (प्रतिसलीन) क्रोधाऽऽदिकं वस्तु वस्तु प्रति सम्यग्लीने से तं कायपडिसंलीणया / से तं जोगपडिसंलीणया। निरोधवति, स्था०। श्रोत्रेन्द्रियस्य यो विषय विष्टानिष्ट शब्देषु प्रचारः श्रवण - चत्तारि पडिसेलीणा पण्णत्ता / तं जहा-कोहपडिसंलीणे, लक्षणा प्रवृत्तिः, तस्य यो निरोधो निषेधः स तथा, शब्दानां माणपडि संलीणे मायापडिसंलीणे, लोभपडि संलीणे / श्रवणवर्जनमित्यर्थः / (साइंदियविसयेत्यादि) श्रोत्रेन्द्रिय - Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसंलीणया 358 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसुया विषयप्राप्तेषु चाऽर्थेषु इष्टानिष्टशब्देषु रागद्वेषविनिग्रहो रागद्वेष-निरोधः। // 8 / 4 / 167 / / इत्यनेन पडिसामाऽऽदेशः। 'पडिसामइ।'' शमयति। (मणस्स वा एत्तीभावकरणं) मनसो वा (एग त्ति त्ति) विशिष्टकागत्वेन प्रा०४ पाद। एकता तद्रूपस्य भावस्य करणं एकताभावकरणम्, आत्मना वा सहकता- पडिसार (देशी) (पटुतायाम्) पटावित्यन्ये, दे० ना०६ वर्ग 16 गाथा। निरालम्बनत्वं तद्रुपो भावस्तस्य करणं यत्त-त्तथा। (वइए वा एगत्तीभाव- / पडिसारिअ (देशी) स्मृत्याम, दे० ना०६ वर्ग 33 गाथा। करणं ति) वाचो वा विशिष्ट काग्रत्वेन एकतारूपभावकरणमिति।। पडिसाहण न० (प्रतिसाधन) प्रतिकथने,सूत्र०१ श्रु०११ अ०। (सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपाए त्ति) सुष्टु समाधिप्राप्तो वहिर्वृत्त्या स / पडिसाहरणा स्त्री० (प्रतिसंस्मरणा) तन्मनःप्रतिकूलतया विस्मृतार्थचासौ प्रशान्तश्चान्तर्वृत्यायः स तथा। संहतमविक्षिप्ततयाधृतं पाणिपादं स्मारणायाम, भ०१५ श०। येन स तथा। ततः कर्मधारयः। (कुम्मो इव गुत्तिदिए त्ति) गुप्तेन्द्रियो गुप्त | पडिसाहरिय अव्य० (प्रतिसंहृत्य) विकीर्णनालान् बाहुना संगृह्येत्यर्थे, इत्यर्थः / क इव? कुर्मा इव / कस्याञ्चिदवस्थायामिति / अत एवाऽऽह- - भ०१४ श०७ उ०। (अल्लीणपल्लीणे त्ति) आलीन ईषल्लीनः पूर्वं प्रलीनः पश्चात्प्रकर्षण लीनः। पडिसिद्ध त्रि० (प्रतिषिद्ध) निवारिते, नि०चू० 1 उ० / "पडिसिद्धो ततः कर्मधारयः। भ० 25 श०७ उ० / नि०चू०। वारिओ।" पाइ० ना०२६३ गाथा। पञ्चा० आव० जी०। विधयेतया पडिसंवेयण न० (प्रतिसंवेदन) अनुभवे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। आचा०।। निवारिते, पञ्चा० 6 विव० / निराकृते , पं०व०२ द्वारा पडिसंसाहणया स्त्री० (प्रतिसंसाधनता) अनुव्रजने, भ०१४ श०३ उ०। पडिसुइ पुं० (प्रतिश्रुति) भरतक्षेत्रजे द्वितीयकुलकरे, जं० 2 वक्षः। पडिसंहार पुं० (प्रतिसंहार) निवर्तन, सूत्र०१ श्रु०७ अ० / निरोधे, भविष्यति ऐरवतवर्षजे कुलकरभेदे नि०। स०। स्था० 3 ठा० 1 उ०। पडिसुणणा न० स्त्री० (प्रतिश्रवण) अङ्गीकरणे, कल्प०३ अधि०६ पडिसत्तु पुं० (प्रतिशत्रु) प्रतिकूले शत्रौ, "एए खलु पडिसत्तू, कित्ती- क्षण। आचा० / आधाकर्मनिमन्त्रणान्तरं प्रतिश्रूयते अभ्युपगम्यते यत् पुरिसाण वासुदेवाणं / '' स०। आधाकर्म तत् प्रतिश्रवणम्। प्राकृतत्वात्स्त्रीत्वम् / दोषभेदे, पिं०। पडिसत्थ पुं० (प्रतिसार्थ) प्रतिकूलसार्थे, सार्थप्रतिकूले , नि०चू० संप्रति प्रतिश्रवणस्य स्वरूपमाह१५ उ०। उवओगम्मि य लाभ, कम्मग्गाहिस्स चित्तरक्खट्ठा। पडिसद्दय पुं० (प्रतिशब्दक) सेवके, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। आलोइए सुलद्धं, भणइ भणंतस्स पडिसुणणा।।११६।। पडिसरोम्मुयण न० (प्रतिसरोन्मोचन) ककणविमोचने, ध०२ इह यो गुरुरुपयोगकरणवेलायां कर्मग्राहिण आधाकर्मग्रहणाय प्रवृत्तस्य अधि० / पञ्चा०। शिष्यस्य चित्तरक्षार्थ मनोऽन्यथाभावनिवारणार्थ दाक्षिण्याऽऽद्युपेतो पडिसलागा स्त्री० (प्रतिशलाका) शलाकामहाशलाकामध्यशलाका- लाभ भणति लाभ इतिशब्दमुचारयति / तथा-आधाकर्मणि गृहस्थयाम, प्रतिशलाकाभिनिष्पन्नत्वात् पल्योऽपि प्रतिशलाकेति। पल्योपम- गृहादानीय आलोचिते श्राद्धिकयेदं करोटिकया दत्तमित्येवं निवेदिते परिज्ञानार्थपल्ये, कर्म०४ कर्म०1 (सुलद्ध) शोभनं जातं यत् त्वयेदं लब्धमिति भणति / तस्य गुरोरित्थं पडिसा धा० (शम्) उपशमे, "शमेः पडिसा-पडि सामौ" भणतः प्रतिश्रवणं नाम दोषः। सूत्रे तु स्त्रीत्व निर्देशः प्राकृतत्वात्। प्राकृते ||8||4|167 / / इति शमधातोः पडिसाऽऽदेशः। 'पडिसाइ सभइ।" | हि लिङ्ग व्यभिचारि। यदाह पाणिनः स्वप्राकृत्तलक्षणे- "लिङ्ग व्यभिशमयते, प्रा०४ पाद। चार्यपीति।" प्रतिश्रवणं च नामाभ्युपगमः / पिं० / वाचनां प्रयच्छतो *नश धा० (अदर्शने.) "नशेणिरिणास-णिवहावसेह-पडिसा- गुरोः सूत्र-ग्रहणे 'पडिसुणणाए हक्कारो।'' गुरौ वाचनां प्रयच्छति सति सेहावहराः" ||4|178 // इति नशेः पडिसाऽऽदेशः / 'पडिसाइ।' सूत्रं गृह्यमाणेन तथाकारः कार्य इत्यर्थः / ध०३ अधि० / आ० म०। नश्यति। प्रा०४ पाद। पडिसुणमाण त्रि० (प्रतिशृण्वन्) अभ्युपगच्छति, “आहा-कम्मणिमंतण, पडिसाअ (देशी) घर्घरकण्ठे, दे० ना०६ वर्ग 17 गाथा। पडिसुणमाणे अतिक्कमो होइ।" व्य० 1 उ० / आचा०। ज्ञा०। ओ०। पडिसाडणा स्त्री० (परिशाटना) 'शट' रुजायाम्, परिपूर्वः / परिशटति | पडिसुत्ती (देशो) (प्रतिकूले,) दे० ना० 6 वर्ग 18 गाथा। परिभ्रश्यति तमन्यः प्रयुक्ते, पूर्ववत् णिच् / परिशाट्यते इति | पडिसुय न० (प्रतिश्रुत) गुरुवाक्यागीकारे, उत्त० 26 अ० / जम्बूद्वीपे परिशाटना। "णिवेत्त्यास." / / 5 / 3 / 111 // इत्यादिना अनप्रत्यये, | भरते वर्षेभविष्यति सप्तमे कुलकरे, स्था० 10 ठा० / आप् / च्यवने, प्रक्रिरणे, 'चवणं ति रोवणंति य पकिरण पडिसेवणाय पडिसुया स्त्री० (प्रतिश्रुता) प्रव्रज्याभेदे, पं०भा०। एगट्ठा।" व्य०१ उ०। चतुरो तु गोणपाला, सत्था हीणं जतिं तु अडवीए। पडिसाम धा० (शम) शान्तौ, "शमः पडिसा-पडिसाम।" / पडिलाहेंति पहट्ठा, दोहिं दुरंछाइयं तहियं / / Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसुया 356 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवग दियलोगगता तत्तो, चइत्तु दुगुंछी दसन्ने दासत्तं / पडिसेज्जा स्त्री० (प्रडिशय्या) उत्तरशय्यायाम, भ०११ श०११ उ०। तत्तो भिगा य हंसा, सोवागा वित्तसा भूता।। पडिसेवग पुं० (प्रतिसेवक) संयमप्रतिकूलार्थस्य संज्वलनकषायोदयात् अदुगुंछी तित्थयरं, पुच्छति किं सुलभदुलहवोहिऽम्हे / सेवकः प्रतिसेवकः / संयमविराधके, भ० 25 श०६ उ०1 ध०। तित्थकर आह विग्धं, अम्मापितरो करेहिंति / / "णिझारणे वि भिक्खू, कारणे पडिसेवते य पंचा उ।" प्रतिसेवको तो ओहिणा य याणसि, माहणपुत्तत्तणगमुसुगारे। नामयो भिक्षुः निष्कारणेऽपि कारणाभावेऽपि पञ्चकाऽऽदीनि प्रायश्चित्तसो माहणे अपुत्तो, पुच्छति णेमित्तिए य भवे / / स्थानानि प्रतिसेवते / व्य०३ उ० / प्रतिवद्धं सेवते इति प्रतिसेवकः / ते काउ समणरूवं, उसुगारपुरम्मि आगता कहए। प्रतिसेवनकारिणि, व्य०१ उ०। बहुजणतातादीणं, तो पुच्छे माहणो ते उ। प्रतिसेवकद्वारम्होज्जऽम्ह किंचऽवचं, पचह भूया दिया तु होहिंति। पडिसेवओ उ साधू, पडिसेवण मूल उत्तरगुणा य। दो जमलदारगा तू, कुमारगा पव्वइस्संति॥ पडिसेवियव्वयं खलु, दव्वादिचतुविधं होति / / 76|| मा तेसि करेज्जसी, विग्धमवस्सं च तेसि पव्वज्जा। तत्थ पडिसेवगो त्ति दारं / पडिसेवणं पडिसेवा पडिसेवयतीति होहिति वोत्तूण गता, चइत्तु उववण्णजातेसु / / पडिसेवगो, सोय साहू, तुसद्दो अवधारणे,। पूरणे वा / तस्स पडिसेवबालत्ते अम्मपियरो, भणंति समणाण सरिसतवेणं। गस्सिमे भेदापुरिसा, णपुंसगा, इत्थीओ। रक्खस माणुसखायग, भवंति दळूण ते पुत्ता !|| तत्थ पुरिसे ताव भणामिमा तेसि अल्लिएजह, दूरं दूरेण परिहरिजाहि। पुरिसा उक्कोस मज्झिम-जहण्णया ते चउविधा होति। मा भक्खेज्जा ते भे, ते वि य तेसिं पडिसुणे ति।। कप्पट्ठिता परिणता, कडजोगी चेव तरमाणा।।७७|| रत्थाति जत्थ पासं-ति संजते ते तओ पलायंति। एसा भद्दबाहुसामिकता गाहा-पडिसेवगपुरिसा तिविहाउकोसअह अन्नया णगरबहि, चेडे पासंति वंदंतो।। मज्झिम-जहण्णा / एते वक्खमाणसरूवा जे उक्कोसादि ते चेव चउविहा वें ति ते अम्मापियरो, दिट्ठाऽम्हे चेड वंदमाणा तु। होति / कह? उच्यत-भगविगप्पेण। ण वि समणरूवरक्ख-स भक्खंति य चेड रूपाइं / / सा य भंगरयणगाहा इमाचिंते तऽम्मापितरो, अतिवीसत्था इमे उजायंति। संघयणे संपण्णा, धितिसंपण्णा य होंति तरमाणा। मा पव्वएज्ज इहई, अल्लियमाणा तु समणेणं। सेसेसु होति भयणा, संघयणधिती य इतरा य / / 78|| सउवज्झाया एते, वइयं निजतु तत्यहिज्जंतु / संघयणसंपण्णा, धितिसंपण्णा य होंति, एस पढमभंगो / तरमाणा इयं संचिंतेऊणं, वइयं णीता ततो तेहिं / / गतिसंपण्णा सिग्घं चिट्ठउ भणित्ता उ. जमणंत सेसं होति पढमभंगो वइयाएँ समीवम्मी, मणोभिरामो तु अस्थि वडरूक्खो। भणितो, सेसा तिण्णि भंगा, तेसु भयणा। भयणा णाम-सेवत्थे किं पुण अह अण्णदा कयाई, ते तु रमंते गता तहियं / तं भजं संघयणं वितियभंग संघयणेण भयधितिवज्जियं कुरु सोय इमो सत्था हीणा य जती, तिसियकिंलंता तु आगता तहियं / / संघयणसंपण्णो, णो धितिसंपण्णो। वितीयति तियभंगो धिईए भज्जो, एत्थ करेमो सिक्खं, बडहेर्ट पट्ठिया तत्तो। णो संघयणभजो / सो य इमो णो संघयण-संपण्णो धितिसंपण्णो। इयर तो ते भयाभिभूता, चेडविलग्गा तमेव वडरूक्खं / त्ति / इयरा णाम-संघयणधितिरहिता / सो चउत्थो भंगो इमो-णो जतिणो विय तस्माहो,ठातुं पविसंति भिक्खट्ठा। संघयणसंपण्णो, णो धितिसंपण्णो1 एवं एते भंगा रचिता। चोदगाह जति वरियं वत्तेति गुरू, तहियं अज्झयण णलिणगुम्म त्ति। उक्कोसाऽऽदिपुरिसतिगं तो भंगविगप्पिया चउरोण भवंति, अह चउरो, तो ते सरंति जाति, गुरुमित्थं वंदितुं वें ति / / तिगंण भवति पण्णवगाइ, जे इमे भंगविगप्पिया चउरो, एते चेव तओ अम्मापियरो पुच्छिय, पव्वज्ज अब्भुपेम सेसं तु। भण्णति। जह उसुगारज्झयणे, वक्खातं सुत्तआलावे। कह ? भण्णतिएसा पडिसुता खलु, पव्वज्जा ............. | पं० भा० पुरिसा तिविहा संधय-ण धितिजुया तत्थ हॉति उक्कोसा। 1 कल्प। पं०चू०। एगेतरजुत मज्झा, दोहिं विजुता जहण्णा उ॥७६।। पडि सुयासयसहस्ससंकु ल त्रि० (प्रति श्रुतशतसहससंकुल) | उक्कोसगा तु दुविहा, कप्प पकप्पट्ठिता व होजहि। प्रतिशब्दकलक्षसंकुले, भ० 6 श०३३ उ०। कप्पट्ठिता तु णियमा, परिणत कडजोगि तरमाणा |80 पडिसूयग पुं० (प्रतिसूचक) नगरद्वारसमीपेऽल्पव्यापारत्वेनाऽवतिष्ठमाने, पढ मभं गिल्ला उक्कोसो, से सं पुटवद्धस्स कं ठं / एगे तरजु - व्य०१० ताणामवितियततियभंगा, ते दो वि मज्झा भवंति दो हिं वि पडिसूर पुं० (प्रतिसूर्य) इन्द्रधनुषि, जी०३ प्रति० 4 अधि० / अनु० | विजुता णामसंघयण धिती य / एस चउत्थो भंगो / एए प्रतिकूले, देवना० 6 वर्ग 16 गाथा। जहण्णा भवंति। एएचउरो वितओ भवंति। जे ते भंगविग Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवग 360 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवग प्पिया चउरो पुरिसा, ते अणेण पच्छदाभिहिएण चउविकप्पेण चितियव्वा / कप्पद्विता णाम-जहाभिहिए कप्पे ठिता, ते य जिणकप्पिया / तप्पडिवक्खा कप्पट्टिता / पकप्पणा पकप्पो, भेदेत्यर्थः / तं संठिता पकप्पट्टिता, अववादसहिते कप्पे ठिय त्ति भणियं भवति। परिणताणामसुत्तेण वएण य वत्ता / तप्पडिक्क्खा णामअपरिणता / कडजोगी णामचउत्थादितवे कतजोगी, तप्पडिवक्खा अकडजोगी,तरमाणा णाम जे० ज तवोकर्म आढवें ति तं नित्थरंति, तप्पडिवक्खा अतरमाणा, पच्छवसरूवं वरखायं। इयाणिं चउभंगविगप्पिया पुरिसा कप्पा कप्पडिता वा होजा / कप्पपकप्पा पुत्ववक्खाया एव / इयाणिं तरमाणा सण्णासिय पदं समोयारिजति-कप्पे पकप्पे वा ठिता पढमभंगिल्ला णियमा तरमाणा कयकिच्चं पयं / इदाणिं कप्पपकप्पट्ठिता पत्तेगसो चिंतिजति, कप्पट्टिता जिणकप्पिया, तुसद्दो पत्तेयणियमधारणे / परिणया सुत्तेण वयसा य, णियमा कडजोगिणो तवे णियमा तरमाणगा ते णियमा कप्पट्टिता गता, पकप्पद्विता भण्णति। अओ भण्णतिजे पुण ठिया पकप्प, परिणत कडजोगि वावि ते भइया। तरमाणा पुण णियमा, जेणेउभएण ते वलिया / / 1 / / जे इति णिद्देसे / पुण इति पादपूरणे / पकप्पे थेरकप्पे, परिणय - कड़जोगित्ते भइया, भयसद्दो पत्तेयं / कहं भइया ? जेणं थेरकप्पिया गीता अगीता य संति, वयसा सोलसवासारत्तो परतो य संति, तम्हा ते भजा, तरमाणा पुण णियमा / कम्हा ? उच्यते-जेणेउ उभयेण ते वलियाओभयं णाम-संघयणधितिसामत्थाओ य ज तवोकाम आढति, तं णित्थरति! गतो पढ़मभंगो। इयाणि मज्झिमपुरिसा वितियभंगिल्ला भण्णतिमज्झा वितीय ततिया, नियम पकप्पट्ठिता तु णायव्वा / वितिया परिणत कडजो-गिताएँ भइया तरे किंचि।२। (मज्झ त्ति) मज्झिमपुरिसा (वितिय त्ति) वितियभंगो (ततिय त्ति) ततियभंगो (णियमा इति ) अवस्सं णियम सद्दाओ जिण-कप्पवुदासो, पकप्पावधारण पकप्पो थेरकप्पो, णायव्वं बोधव्वमिति। तु अवधारणे: किमवधारयति-इम दोण्ह वि मज्झिल्लभ-गाणं सामण्णमभिहिय। विसेसो भण्णति-(वितिया इति) वितियभंगिल्ला परिणयत्तेण कडजोगित्ति भइया पूर्ववत्। (तरे किंचि त्ति) तरति शक्रोति किचिदिति स्वल्पतरमिति। भण्णतिसंघयणेण तु जुत्तो, अदढधिती ण खलु सव्वसोऽतर ति। देहस्सेव तु सगुणे-ण भज्जते जेण अप्पेणं / / 3 / / संघयणेण य जुत्तो, संपण्ण इत्यर्थः। अदढधिई धितिविरहितः।ण इति पडिसे हे / खलु अवधाणे / सव्वसो सर्वप्रकारेण अतरः असमर्थः द्विप्रतिषेधः प्रकृतिं गमयति, तरत्येवेत्यर्थः / कह धिति-विरहितावेतरो भण्णति, देहस्सेव उसगुणो देहं सरीरं गुणो उवगारो पडिसेहे भज्जति विसायमुवगच्छति / जेण यस्मात् कारणात्, अप्पेणं स्तोकेनेत्यर्थः / गतो वितियभङ्गो। _ इयाणिं ततिओततिओ घितिसंपण्णो, पडिणय कडजोगि वावि सेवर भइतो। एगे पुण तरमाणं, तमाहु मूलं धिती जम्हा / / 84|| (ततिउत्ति) ततियभंगो धितिसंपण्णो धृतिसंयुक्तः संघयणविरहितः अविसद्या किंचि तरति. धितिसंपण्णत्वात्। पुव्वद्धस्स सेसं कहूँ। (एगे त्ति) एगे आयरिया पुण विसेसेण (तरमाणं ति) समत्थं, तदिति तइयभंगिलं, आहुरिति उक्तवन्तः / कम्हा कारणा तरमाण भणतिभवस्य मूलं धिती जम्हा / कहं पुण दुविहसंघयणुप्पत्ती भवति। भण्णतिणामुदया संघयणं, धिती तु मोहस्स उवसमे होति। तह वि सती संघयणा, जा होति धिती ण साहीणे 185 // णाम इतिछट्ठी मूलकम्मपगडी तस्स वायालीसुत्तरभेएसु अट्ठमो संघय - णभेओ णाम, तस्स पुक्खलुदया पुक्खलसरीरसङ्घयणं भवति। (धिति त्ति) धितिसंघयणं, मोहो णामचउत्थी मूलकम्मप्पगडी, तस्स खओवसमा धिती भवति / विसेसओ चरित्तमोहक्खओवसमा। तत्थ विसेसओ णो कसायचरित्तमोहणीयखओवसमा, तत्थ विसेसओ अभरमाणगो कज्जति। जइ विभिण्णाणुप्पत्ती कारणाणि, तहा वि सति संघयणे सति विज्जमाणे संघयणे (जा इति ) जारिसी होति धितीण सा संघयणहीणे भवति / तम्हा तइयभंगो अतरमाणगो, केइमतेणं पुणो तरमाण एव! गओ ततिओ भंगो। ___ इयाणिं चउत्थोचरिमो परिणतकडजो-गिताएँ भइऊण सव्वसो अतरो। रातीभत्तविवज्जण-पोरिसिमादीहिं जंतरति॥८६|| चरिमो चउत्थभंगो, सेसं पुटवद्धस्स कंठं / जो धितिसरीरसंघयणविहीणो कहं पुण सव्वसो अतरो ण भवति ? उच्यते-(राती भत्तेत्यादि) जं यस्मात्कारणात् एवमादि प्रत्याख्यान तरति, तम्हा ण सव्वसो अतरो। गओ चउत्थो भगो। गओ पुरिसपडिसेवगो। इदानीं णपुंसगित्थिपडिसेवगा भण्णंतिपुरिसणपुंसा एमे-व होंति एमेव होंति इत्थीओ। णवरं पुण कप्पठिता, इत्थीवग्गेण कातव्वा / / 7 / / णपुंसगा दुविहा-इत्थिणपुसगा य, पुरिसपुंसगा य / इत्थिणपुंसगा अपच्चावणिज्जा, जे ते पुरिसणपुंसगा अप्पडिसेविणो छज्जणावधिप्पियमंतओसहिउवहता ईसिसत्ता देवसत्ता / एते जहा पुरिसा उक्कस्सगादिचउसु भंगेसु कप्पद्वियादिविकप्पेहिं चिंतिता तहेव चिंतितेयव्वा / इत्थियाओ वि एवं चेव, णवरं जिणकप्पिया इत्थी ण भवति। वगो नाम स्त्रीपक्षः। पडिसेवगो त्ति दारं गयं / नि०चू०१ उ०। यदाचार्येण वक्तव्यं तदाहवेसकरणं पमाणं, न होइन इ मज्जणं नऽलंकारो। साइज्जिएण सेवी, अणणुमएणं असेवी उ॥३०१।। व्य० 2 उ० / (इयं गाथा 'ओहावण' शब्दे तृतीयभागे 134 पृष्ठे व्याख्याता) Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणा 361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवणा पडिसेवणा स्त्री० (प्रतिसेवना) प्रतिसेव्यते इति प्रतिसेवना। आधाकर्मोपजननहेतुविशेषे, पिं०। तत्र प्रथमतः प्रतिसेवनास्वरूपं वक्तव्यं, तत्राऽपि य आधाकर्म स्वयमानीय भुङ्क्ते स आधाकर्मप्रतिसेवी प्रतीत एव / केवलमिह ये परेणोपनीतमाधाकर्म भुञ्जानस्यन कश्चिद्घोष इति मन्यन्ते तन्मतविकुट्टनार्थ परेणोपनीतस्याऽऽधाकर्मणो भोजने प्रतिसेवनादोषमाह अन्नेणाऽऽहाकम्म, उवणीयं असइ चोइओ भणइ। पहत्थेणंऽगारे, कबुतो जह न डज्झइ हु॥११४। एवं खु अहं सुद्धो, दोसो देंतस्स कूडउवमाए। समयत्थमजाणंतो, मूढो पडिसेवणं कुणइ॥११५।। अन्येन साधुना भक्ताऽऽदिकभाधाकर्म उपनीतं गृहस्थगृहादानीम समर्पित, तद योऽनाति स प्रतिसेवनां करोतीति संबन्धः / स चाधाकर्म भुजानः केनाप्यपरेण साधुना धिग्गहो महे यच भवान् विद्वानपि संयतोऽप्यावाकर्म भुञ्जीतेति चोदितो विक्षिप्तः सन् प्रत्युत्तरं भणतियथा न मे कश्चिद्दोषः, स्वयं ग्रहणस्याभावात्। यो हि नाम स्वयमाधाकर्म गृहीत्वा भुङ्क्त तस्य दोषो, यस्तु परेणोपनीतं भुक्ते तस्य न कश्चित्। तथा चाऽत्र दृष्टान्तो यथा- परहस्तेनाङ्गारान् कर्षयन्न दह्यते, एवमहमप्याऽऽधाकर्मभोजी, (खु) निश्चितं शुद्ध एव, दोषः पुनर्ददतो, यथा परस्य स्वहस्तेनाङ्गा-रानाकर्षतः, एवं कूट्या उपमया, अलीकेन दृष्टान्तेन, समयार्थ भगवत्प्रवचनोपनिषदम्। "जस्सट्ठा आरंभो, पाणिवहो होइ तस्स नियमेण / पाणिवहे वयभंगो, वयभंगे दुग्गई चेव / / 1 / / '' इत्यादि रूपमजानान:ऽत एव मूढः प्रतिसेवनं कुरुते / तदेवमुक्तं प्रतिसेवनस्य स्वरूपम्। पिं० / प्रतीपं सेवना प्रतिसेवना। संयमानुष्ठानात् प्रतीपसंयमानुष्ठाने, ओध० / प्रतिषिद्धस्य सेवना प्रतिसेवना / अकल्पसमाचरणे, व्य०१ उ / चारित्रभंशनायान, बृ०१ उ०३ प्रक०। प्रतिसेवनाभेदाःपडिसेवओं य पडिसे-वणा य पडिसेवियव्वयं चेव। एएसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं वुच्छं // 37 // प्रतिषिद्धं सवते इति प्रतिषेवकः, प्रतिसेवनक्रियाकारी। चः समुचये। प्रतिसेवना अकल्प्यसमाचरणम् / प्रतिसेवितव्यमकल्पनीयम् / एतेषां त्रयाणामपि पदानां प्रत्येकं प्ररूपणा वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपडिसेवओं सेवंतो, पडिसेवण मूल उत्तरगुणे य / पडिसेवियव्व दव्वं, रूवि व्व सिया अरूवि व्य||३५|| प्रतिसेवको नामाकल्प्यं सेवमानः,प्रतिसेवना अकल्प्यसमाचरणम्। सा च द्विधा-(मूल उत्तरगुणे य इति ) गुणशब्दः प्रत्येकमपि संबध्यते। मूलगुणविषया, उत्तरगुणविषया च / यच्च कार्य समाचर्यमाणं मूलगुणप्रतिघाति, उत्तरगुणप्रतिघाति वा तत्प्रतिसेवितव्यम्। तच द्रव्यं, पर्यायो वा / तत्र पर्याया द्रव्य एवान्तर्भूता विवक्षिताः, भेदाभावादिति द्रव्य द्रष्टव्यम / तथा चाऽऽहद्रव्य तच्च स्यात् कदाचिद्रूपि आधाकर्माऽऽधोदनाऽऽदि, वा विकल्पे, अरूपि वा आकाशाऽऽदितदपि हि मृषावादाऽऽदिविषयतया भवति कदाचित्प्रतिसेवनीयम्, इह प्रतिसेवनामन्तरेण न प्रतिसेवकस्य सिद्धिः, नापि प्रतिसेवनीयस्य। ततः प्रतिसेवनाया विशेषतः प्ररूपणामाह पडिसेवणा उ भावो, सो पुण कुसलो य होज्जऽकुसलो वा। कुसलेण होइ कप्पो, अकुसलपरिणामओ दप्पो // 36 / / प्रतिसेवना द्विविधा-द्रव्यरूपा, भावरूपा च / प्रतिसेवनक्रियायाः कर्तृकर्मगतत्वात् तत्र या तस्य वस्तुनः प्रतिसेव्यमानता सा द्रव्यरूपा प्रतिसेवना। यस्तु जीवस्य तथा प्रतिसेवकत्वपरिणामः सा भावरूपा प्रतिसेवना, सैव चेह ग्राह्या, परिणामानुरूपतः प्रायश्चित्तविधिप्रवृत्तेः / तथा चाऽऽह-(पडिसेवणा उ भावो) प्रतिसेवना नाम, तुरेवकारार्थोभिन्नक्रमच, भाव एव जीवस्याध्यवसाय एव नान्या। स च भावो द्विधाकुशलोऽकुशलश्च / तत्र कुशलो ज्ञानाऽ-ऽऽदिरूपोऽकुशलोऽविरत्यादिरूपः, तत्र या कुशलेन परिणामेन बाह्यवस्तुप्रतिसेवना, सा कल्पः, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारास्कल्पप्रतिसेवना, कल्पिका इति भाव / या पुनरकुशलपरिणामतः प्रतिसेवना, सा दर्पः-दर्पप्रतिसेवना,दर्पिका इत्यर्थः। आह-किमेषां त्रयाणामपि परस्परमेकत्वम्, अन्यत्वं वा ? उच्यते उभयमपि। कथमित्यत आहनाणी न विणा णाणं, नेयं पुण तेसऽणनमन्नं च। इय दोण्हमनाणत्तं, भइयं पुण सेवियव्वेण ||40|| यथा ज्ञानं विना अन्तरेण ज्ञानी न भवति, ज्ञानपरिणामपरिणत-तयैव ज्ञानित्वव्यपदेशभावादिति। तयोर्ज्ञानज्ञानिनोरेकत्वम्। (इय दोण्हमनाणत्तं ति) इति एवं ज्ञानिज्ञानगतेन प्रकारेण द्वयोः प्रतिसेवकप्रतिसेवनयोरनानात्वमेकत्वं, प्रतिसेवनामन्तरेण प्रतिसेवकस्याऽप्यभावात् प्रतिसेवनापरिणामपरिणतावेव प्रतिसेवकत्वव्यपदेशप्रवृत्तेः। (णेयं पुण तेसऽणण्णमन्नं च इति ) पुनःशब्दो विशेषद्योतने। स चामुं विशेष द्योतयतिन ज्ञानज्ञानिनोः परस्परमविज्ञयेनापि सहाय एकत्व, किं तु ज्ञेय, तयोनि-ज्ञानिनोरनन्यत। तथाहि-यदा ज्ञानी आत्माऽऽलम्बनज्ञानपरिणामपरिणतस्तदा ज्ञानज्ञानिनोरेकत्वं, यदा चाऽऽत्मव्यतिरिक्तघटाद्यालम्बनज्ञानपरिणामपरिणतस्तदा ज्ञत्वमात्मनो घटाऽऽदीनामन्यत्वात, ज्ञानमपि यदाऽभिनिबोधिकाऽऽदिस्वरूपाऽऽलम्बनं तदा ज्ञानज्ञेययोरेकत्वम्, यदा तु स्वव्यतिरिक्तघटाऽऽद्यालम्बनं तदाऽन्यत्वं घटाऽऽदीना ज्ञानात मूतोमूर्त्ततया पृथग् देशाऽऽदितया च भिन्नत्वात् / (भइयं पुण सेवियव्वेण इति ) अत्रापि इतीत्युवर्तते, इति उक्तेन प्रकारेण प्रतिरसेवकप्रतिसेवनयोरना-नात्वं भक्तं विकल्पितं पुनर्नानात्वं सेवितव्येन प्रतिसवितव्येन, कदाचिदनानात्वं, कदाचिन्नानात्वमित्यर्थः। तथाहियदा प्रतिसेवको हन्तकाऽऽदि प्रतिसेवते तदा प्रतिसेवकप्रतिसेवितव्ययोरेकत्वमित्यर्थः, यदा पुनः प्रथमतया कीटकाऽऽदिसत्त्वव्यापादनाऽऽदि प्रतिसेवते तदा नानात्वं कीटकाऽऽदिसत्त्वाना साधोः पृथगभूतत्वात्प्रतिसेवनात् यदा प्रतिसेव्यमानता तदा सा प्रतिसेवितव्यादनन्यैवेति प्रतिसेवनाप्रतिसे वितव्ययोरेकत्वनानात्वचिन्ता नोपपद्यते / अथ प्रतिसेवनाप्रतिसेवक स्याध्यवसायः, स तर्हि यदात्मव्यापादनविषयस्तदा प्रतिसेवकत्वं, यदा तु बाह्यस्यादिप्रतिसेवनाविषयः तदा नानात्वम्, स्त्र्यादेः प्रतिसेवकादन्यत्वात्। संप्रति यत्प्राक मूलोत्तरगुणविषयतया प्रतिसेवनाया द्वैविध्यमुक्तं तद्विभावयिषुराहमूलगुण उत्तरगुणे, दुविहा पडिसेवणा समासेणं / Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणा 362 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवणा मूलगुणे पंचविहा, पिंडविसोहाऽऽइया इयरा / / 41 / / प्रतिसेवना समासेन संक्षेपेण द्विविधा / तद्यथा- मूलगुणविषया, उत्तरगुणविषया। तत्र मूलगुणविषया पञ्चविधाप्राणातिपात-मृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनपरिग्रहरूपा। इतरा उत्तरगुणविषया पिण्ड विशुद्ध्यादिविषया अनेकविधा / अत्राऽऽदिशब्दात्समित्यादिपरिग्रहः / किमुक्तं | भवति? मूलगुणेषु प्राणातिपातविरत्यादिषु, उत्तरगुणेषु पिण्डविशुद्ध्यादिषु यथाक्रम प्रतिसेवना प्राणातिपाताऽऽदिलक्षणा पवावधा। आधाकोपभोगाऽऽदिलक्षणा अनेकविधेति / तत्र मूलगुणप्रतिसेवना संरम्भाऽऽदिभेदतश्चित्रा, उत्तरगुणप्रतिसेवना त्वतिक्रमाऽऽदिभेदतः।। तथा चाऽऽहसा पुण अइक्कमें वइ-कमे य अइयार तह अणायरे / सारं में समारम्भे, आरंभे रागदोसाऽऽदी।।४।। सा उत्तरगुणप्रतिसेवना पुनरतिक्रमे, व्युत्क्रमे, अतीचारे, तथा अनाचारे भवति। एतदुक्तं भवति-सर्वाऽप्युत्तरगुणप्रतिसेवना अतिक्रमाऽऽदिभेदतश्वतुष्पकारा। मूलगुणप्रतिसेवना संरम्भे, समारम्भे, आरम्भे च, संरम्भाऽऽदिभेदतस्त्रिप्रकारेति भावार्थः। ते च संरम्भाऽऽदयो रागद्वेषाऽऽदितः। रागतो, द्वेषतः, आदिशब्दादज्ञानतश्च / तत्र रागतो यथा चिलातीपुत्रस्य सुसुमाबधः / द्वेषतो यथा सत्यके₹षायनव्यापादनम् / अज्ञानतो ब्राहाणाऽऽदीनां छागाऽऽदिवधः / ननु "यथोद्देशस्तथा निर्देश इति" प्रथमतो मूलगुणप्रतिसेवना व्याख्यातुमुचिता, पश्चादुत्तरगुणप्रतिसेवना। अत्र तु विपर्यय इति कथम् ? उच्यते-इह प्रायः प्रथम तः किलाऽल्पसंक्लिष्टाध्यवसायः स तूत्तरगुणप्रतिसेवनां कुरुते / पश्चादतिसंक्लिष्टाध्यवसायो मूलगुणप्रतिसेवनामितिख्यापनार्थ विपर्ययेणोपन्यास इत्यदोषः / व्य० 1 उ० 1 प्रक० / मूलगुणे पञ्च प्रतिसेवनाः, अनाचारे चतुर्मासलघु / मूलगुणे पञ्चविधा प्रतिसेवनेति यदुक्तं, तत्र पञ्चविधत्वं दर्शयतिपाणिवह मुसावाए, अदतें मेहुण परिग्गहे चेव। मूलगुणे पंचविहा, परूवणा तस्सिमा होइ / / 45 / / व्य०१ उ०१ प्रक० / ('मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे व्याख्या) साम्प्रतमस्यामेव 'सा पुण अतिक्कमेत्यादिकायां गाथायां यद् मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनयोर्विपर्ययणोपन्यसनमकारि, तत्र कारणमाक्षेपपुररसरमुपन्यस्यन्नाहचोएइ किमुत्तरगुणा, पुवं बहु अ थोव लहुयं च। अतिसंकिलिटुभावो, मूलगुणे सेविते पच्छा / / 51 / / चोदयति प्रश्नयति शिष्यो, यथा-किमुत्तरगुणा उत्तरगुणप्रतिसेवना पूर्वमुक्ता?, "यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायाद्धि पूर्व मूलगुण प्रतिसेवना वक्तुमुचितेति भावः / अत्रोत्तरमाह-बहव उत्तरगुणाः स्तोका मूलगुणाः, तथा लघु शीघ्रम्, उत्तरगुणानां सेवकः प्रतिसेवकः, ततोऽविसक्लिष्टभावः सन् पश्चात् मूलगुणान्सेवते प्रतिसेवते इति ख्यापनार्थ विपर्य येणोपन्यासः इह प्रायाश्चत्तं मुखवृत्त्या विशोधिः, तथा चाऽ अपराध विघाय विशुद्धमनसो गुरुसमक्षं वदन्ति भगवन्नमुकस्या पराधस्य प्रयच्छत प्रायश्चित्तमिति, कदाचित्सेवनाऽप्युप वारात्प्राय रिचत्तम तथाऽपराधे कृते वक्तारो भवन्ति-समापितमस्याकमद्य प्रायश्चित्तमिति / तत्र यथोपचारतः प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तमुच्यते, तथोपपादयन्नाहपडिसेवियम्मि दिज्जइ, पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहो। तेण पडिसेवण चिय, पच्छित्तं तं चिमं दसहा / / 5 / / प्रतिसे विते प्रतिषिद्धसे विते यस्मात् प्रायश्चित्त दीयते, इतरथा प्रतिषिद्धासेवनमन्तरेण प्रतिषेधः प्रायश्चित्तम्य / ततः प्रतिसेवना प्रायश्चित्तस्य निमित्तमिति कारणे कार्योपचारात् प्रतिसेवनै व प्रायश्चित्तम् / व्य०१ उ०१ प्रक०। तत्र प्रतिसेवनाव्याख्यानार्थमाहमूलुत्तर पडिसेवा, मूले पंचविह उत्तरे दसहा। एकेका वि य दुविहा, दप्पे कप्पे य नायव्वा / / 38|| प्रतिसेवा नाम प्रतिसेवना, सा च द्विधा (मूलोत्तर त्ति) 'पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् "मूलगुणातिचारप्रतिसेवना, उत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना च / तत्र (मूल पंचविह त्ति) मूले मूलगुणातिचार. प्रतिसेवना पञ्चविधा पञ्चप्रकारा, मूलगुणातिचाराणा प्राणातिपाताऽऽदीनां पञ्चविधत्वात् / उत्तरे उत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना दशधा दशप्रकारा, उत्तरगुणानां दशविधतया तदतिचाराणामपि दशविधत्वात् / ते च दशविधा उत्तरगुणा दशविधं प्रत्याख्यानम् / तद्यथा-अनागतमतिक्रान्त कोटी सहितनियन्त्रितम् / साकारमनाकारं, परिमाणकृतं निरवशेष सांकेतिकमद्धाप्रत्याख्यानं च / अथवा-इमे दशविधा उत्तरगुणाः / तद्यथा-पिण्डविशोधिरेक उत्तरगुणः, पञ्च समितयः / पञ्च उत्तरगुणाः / एवं तयोर्बाह्य षष्ठ भेदं सप्तम उत्तरगुणाः, अभ्यन्तरषट्प्रभेदमष्टमः, भिक्षुप्रतिमा द्वादश नवमः, अभिग्रहा द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्ना दशमः / एतेषुदशविधेषूत्तरगुणेषुयाऽतिचारप्रतिसेवना क्रियते सा दपिका, या पुनः कारणे सा कल्पिका। अत्र शिष्टाः पृच्छन्तिकिह भिक्खू जयमाणे, आवजइ मासियं तु परिहारं / कंटगपहे च छलणा, भिक्खू वि तहा विहरमाणो।३६। केन प्रकारेण भिक्षुर्यतमानः सूत्रोक्तनीत्या प्रयत्नपरी मासिकं परिहार प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते। नैवाऽऽयत्तिसंभवो, यतनया सर्वत्र प्रवृत्तेरिति भावः। आचार्य आह-(कंटगेत्यादि) कण्टकाऽऽकीर्णः पन्थाः कण्टकपथस्तस्मिन्निवयतनयाऽपि वर्तमानस्य छलना भवति, ततो भिक्षुरपि तथा विहरन् यतमानो मासिकमापद्यते प्रायश्चित्तस्थानमिति। अत्रैव दृष्टान्तान्तरमाहतिक्खम्मि उदगवेगे, विसमम्मि विज्जलम्मि वच्चंतो। कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावए पडणं / / 4 / / तीक्ष्णेऽतिप्रबले शीघ्र च उदकवेगे उदकरये यदि वा विषमे अतिदुर्गमे विजले सकर्दमस्थाने व्रजन् पुरुषः कुर्वन्नपि प्रयत्नमवशो यथा प्राप्नोति पतनम्। इह समणसुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वी जयंताणं / कम्मोदयपव्वइया, विराहणा कस्स इ हवेज्जा / / 41 / / इह श्रमणा लिङ्गमात्रधारिणोऽपि व्यवन्हियन्ते, शाक्याऽऽदयोऽपि च / ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ सुविहितग्रहण, शोभनं विहितमनुष्ठान येषांते सुविहिताः, तेच श्रमणशब्देन सह विशेषणसमासः।तथा-प्रागुक्तदृष्टान्तप्रकारेण श्रमणसुवि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणा 363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवणा हिताना सर्वप्रयत्नेन सर्वाऽऽत्मना स्वशक्त्यनतिक्रमेण / अपि शब्दो भिन्नक्रमः,स चैवं योजनीयःयतमानानामपि मध्ये कस्याऽपि कर्मोदयप्रत्ययिका कर्मोदयहेतुका विराधना भवेत् / आह-किमेकान्तेनैव प्रतिसेवना कर्मोदयप्रत्ययिका, उतान्योऽपि कश्चित्प्रकारः प्रतिसेवनाया अस्ति? उच्यते-अस्तीति ब्रूमः / तथा चाऽऽहअन्ना वि हु पडिसेवा, साउन कम्मोदएण जा जयतो। सा कम्मक्खयकरणी, दप्पाऽजयकम्मजणणी उ॥४२|| कर्मोदयहेतुका या प्रतिसेवना सा तावदेकाऽस्त्येव, किं त्वन्याऽपि कर्मोदयहेतुकाया व्यतिरिक्ताऽपि प्रतिसेवा प्रतिसेवनाऽस्ति। (साउन कम्मोदएणं ति ) तुशब्दोऽव्ययत्वेनानेकार्थत्वात् हेतौ / ततोऽयमर्थःयतः साऽन्या प्रतिसेवना न कर्मादयेन कर्मोदयहेतुका, कर्मादयहेतुकत्वे अन्यथा योगात। सा च कारणे, तत्राऽपि यतनया द्रष्टव्या। तत्र या कारणे (जयता ति) यतमानस्य प्रतिसेवना सा कर्मक्षयकरणी-कर्मक्षयः क्रियतेऽनयेति कर्मक्षयकरिणी, करणे अनट् / सा हि नावशस्य सतः कर्मोदयहेतुका, किं तु सूत्रोक्तनीत्या कारणे यतनया यतमानस्य ततस्तत्राऽऽज्ञाविराधनात् सा कर्मक्षयकारिणी / या पुनः प्रतिसेवना दर्पणः, या च कल्प्पेऽप्ययतनया सा कर्मजननी। तथा चाऽऽह- (दप्पा जयकम्मजणणी उ) या दर्पण कारणेऽपि चायतमानस्य प्रतिसेवा कर्म जन्यते अनया कर्मजननी / तदेवं यतो दर्पण कल्प्येऽपि चायतनया प्रतिसेवना कर्मजननी। तत इदं सिद्धम् - पडिसेवणा उ कम्मो-दएण कम्ममवि तन्निमित्तागं। अन्नोन्नहेउसिद्धी, के सिं वीयंकुराणं व / / 43 / / प्रतिसेवना कर्मोदयेन। किमुक्तं भवति? प्रतिसेवनाया हेतुः कमोदयः, कर्माऽपि च तन्निमित्तकं प्रतिसेवनानिमित्तकम्, कर्मणोऽपि हेतु: प्रतिसेवना इति भावः / एवं तेषां प्रतिसेवनाकर्मणामन्योन्यं परस्परं हेतुसिद्धिः हेतुभावसिद्धिः / केषामिव परस्परं हेतुभावसिद्धिरित्यत आहवीजाडुकुरयोरिव, गाथायां द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात्। तथा वीजमड्कुरस्य हेतुरड्डरोऽपिच वीजस्य हेतुरित्यनोंः परस्पर हेतुभावः, तथा कर्मप्रतिसेवनयोरपि। दिट्ठा खलु पडिसेवा, सा उ कहं हुज्ज पुच्छिए एवं / भण्णइ अंतोवस्सएँ, बाहिं व वियारमादीसुं॥४४|| परस्य चक्षुरादिप्रत्यक्षतः स्वस्यस्वसंवेदनप्रत्यक्षेण दृष्टा खलु प्रतिसेवा सा तु क्षेत्रतः क्व भवेत इति एवममुना प्रकारेण पृष्टे सति भण्यते उत्तरं दीयते / अन्तः मध्ये उपाश्रये उपाश्रयस्य, बहिर्वा विचाराऽऽदिषु विचाराऽऽदिनिमित्त बहिर्निर्गतस्य, उपलक्षणमेतत्। तेन कालतः प्रश्ने दिवा रात्री वा, भावतः प्रश्ने दर्पण कल्पेन इत्यपि वक्तव्यमिति। पडिसेविऍ दप्पेणं, कप्पेणं वा वि अजयणाए उ। नविणज्जइ वाधातो, कं वेलं होज जीवस्स // 45|| दर्पण कल्प्यनाप्ययतनया प्रतिसेविते मासिकाऽऽदिकमतीचारं प्राप्तेन संवगमुपगच्छता आलोचना प्रयोक्तव्या। एतच चिन्तयितव्यं, नाऽपि नैवं | ज्ञायते-कां वेलां कस्यां वेलायां व्याघातो, 'जीव' प्राणधारणे, जीवनं / जीवस्तस्य, जीवितस्येत्यर्थः / व्याघातो भवेत्। अनालोचिते यदि भियते ततो दीघसंसारी भवति। तत एव तद भण्यते - तं न खमं खुपमातो" मुहुत्तमाव आसिउं ससल्लेणं। आयरियपादमूले, गंतूण समुद्धरे सल्लं / / 46 / / यस्मादचिन्तितः पतति जीवितस्य व्याघातः, अनालोचिते च मृतस्य दीर्घसंसारिता, तस्मात् (पमातो इति) अत्र दकारस्य लोपःप्राकृतत्वात्। प्रमादवशेन सशल्येनातीचारशल्ययुक्तेन मुहुर्तमप्यासितुं न क्षमम्। खलु निश्चित कृत्वाऽऽवार्यपादमूले गत्वा आलोचनाविधानेन प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या शल्यमतीचाररूपं समुद्धरेत् विशोधयेत्। यस्मात्नहु सुज्झई ससल्लो, जह भणियं सासणे जिणवराणं / उद्धरियसव्वसल्लो, सुज्झइ जीवो धुयकिलेसो॥४७।। यथा भणितं जिनवराणां भगवतामर्हता शासने तथा ज्ञायते, जिनवचनतो ज्ञायते इत्यर्थः / (नहु) नैव, सशल्योऽतीचारशल्यपरिकल्पितस्तपश्चरणाऽऽदिकं प्रभूतमपि कुर्वन् शुद्ध्यति। "अविसुद्धस्स न वड्डइ, गुणसेढी तत्तिया ठाइ।" इति वचनात्। किं तद ? उद्धृतसर्वशल्यः सन् तपश्चरणाऽऽदि भावतो धुतक्लेशोऽपगमितसमस्तकर्मजालो जीवः शुद्ध्यति मुक्ताऽऽत्मा भवतीति। व्य०१ उ०२ प्रक०। प्रतिसेवकस्य प्रायश्चित्तम् -सीसो पुच्छति-एय, पुण पच्छित्तं कि पुण पडिसेविणो, अपरिसेविणो जइ पडिसेविणो तो जुत्तं, अह अपडिसेविणो तो सव्वे साहू सपायच्छित्ता, सपायच्छित्तिणो य चरणअसुद्धत्तं, चरणासुद्धीओ य अमोक्खो, दिक्खादि णिरत्थया। गुरू भणइतं अइपसंगदोसा, णिसेवतो होति ण तु असे विस्स। पडिसेवए य सिद्धे, कत्तादिव सिज्झए तितयं / / 72 / / तदिति पूर्वप्रकृतापेक्ष अति अत्यर्थः / प्रसङ्गो नामअवशस्यानिष्टप्राप्तिः / जस्स अपडिसेवंतस्स पच्छित्तं तस्सेसो अतिप्पसंगदोसो भवति। वयं पुण णिसेवतो इच्छामोणो अणिसेवउं।अहवा-तंपचिछत्तं, अति अच्चत्थे, पसंगो पाणादिवायाऽऽदिसु, दूसिजति जेण स दोसा, अतिपसंग एव दोसो अतिपसंगदोसो, तेण अतिपसंगदोसेण दुट्टो णिसेवति त्ति, आचरतीत्यर्थः। होति भवति, प्रायश्चित्तमिति वाक्यशेषः / ण पडिसेहे, तु अवधारणे, असेविस्स अणाचरतः, तुसद्दोऽवधारणे अपडिसेवणो न भवत्येव, पडिसेविणो विणिच्छियं भवति जो य सो पडिसेवति सोय पडिसेवगो, तम्मि सिद्धे पडिसेवणा, पडिसेवितव्वं च सिद्धं भवति / स्यान्मतिः कह पुणपडिसेवगसिद्धीओपडिसेवणापडिसेवियव्या, णसिद्धी, एत्थ दिढतो भण्णति-कत्तादि व सिज्झते त्ति तितयं जो करेति सो कता,कता आदी जेसिं ताणिमाणि कत्तादीणि / ताणिय करण-कज्जाणि जहा कर्तरि सिद्धे कत्ता करण कजाणि सिद्धाणि भवंति। कहं ? उच्यतेसकत्ता तक्करणेहिं पयत्त कुर्वाणोतदत्थंकजममिणिप्पायति, इव ओवामे, एवं जहा पडिसेवणाए पडिसेवियव्वेण य पडिसेवगो भवति, तस्सि'पमादतो' इव्यस्य स्थाने प्राकृत्वात् 'पमातो।' Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणा 364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवणा द्वीओ ताणि वि सिद्धाणि / एवं सिज्झते तितयं ति / तितयं णाम | पडिसेवगाऽऽदि। तं चिमपडिसेवतो तु पडिसे-वणा य पडिसेवियव्ययं चेव / एतेसिं तिण्हं वी, पत्तेय परूवण वोच्छं / / 73 / / पत्तेयमिति-पुढो पुढो पगरिसेण रूपणं परूवणं, स्वरूपकथनमित्यर्थः। / सेस कट। नि०चू०१ उ०। प्रतिसेवना भण्यते - एवं पडिसेवणसिद्धीओ पडिसेवगपडिसेवियव्वाण वि सिद्धी। एवं तिसु ति सिद्धेसु चोदक आह-भगवं ! जहा घडाऽऽदिवत्यूणुपत्तिकाले / कत्ताकरणकज्जाणमच्चतं भिण्णता दीसति, किमिह पडिसेवगपडिसेवणापडिसेवियव्याण भिण्णया भण्णति। पण्णवग आह-सिया एगत्तं, सिय मण्णत्तं / कह भण्णतिणाणी ण विणा णाणं, णेयं पुण तेसऽणण्णमण्णं वा। इय दोण्ह अणाणत्तं, भइतं पुण सेवितव्वेणं / / 7 / / ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी, ण इति पडिसेहे, विना ऋते,अभावादित्यर्थः / / ज्ञायते अनेनेति ज्ञानं, ज्ञानी ज्ञानमन्तरेण न भवत्येवेत्यर्थः। ज्ञायते इति ज्ञेयं, ज्ञानविषये इत्यर्थः पुण विसे सणे / किं विसेसयति? इम तेसऽणण्णमण्ण वा तेषामिति ज्ञानिज्ञानयोः अणाण, अभिण्णं, अपृयगित्यर्थः / अण्णं भिण्णं, पृथगित्यर्थः, वा पूरणे, समुच्चये वा। चोयग आह-कह ? उच्यते-जया णाणी णाणेण णाणादियाणं पज्जाए चिंतति, तदा तिण्ह वि एगत्तं धम्माऽऽदिपरपज्जायचिंतणे अण्णत्तं / अहवा भिण्णे वा णेये उवउत्तस्स उवओगा अणण्णं णेय, अणुवउत्तस्स अण्णं / एष दृष्टान्तः। इयाणि नियोजना-इय एवं ( दोण्हं ति) पडिसेवगपडिसेवणाणं णाणाभावो णाणत्तं, न णाणत्तं अणाणतं, एगत्तमिति वुत्तं भवति / भइयं भज-सिय एगतं, सिय अण्णत्तं ति वुत्तं भवति। पुण त्ति सद्दोऽवधारणत्थे, सेवियव्यं णाम-जं उवभुजति, तेण य सह पडिसेवगपडिसेवणाण य एगत्तं भयणिज्ज। कह? उच्यते-जदा करकम्मं करेति तदा तिण्ह वि एगत्तं, जदा बाहिरवत्थुपलंवति पडिसेवति तदा अणतं / अहवा ज पडिसेवति छठभावपरिणते एगत्तं, जं पुण णो सेवति तम्मि अपरिणयत्ताओ अण्णत्त / समासतोऽभिहियं पडिसेवगादि ततियसरूवस्स वित्थरणिमित्त णिक्खेवणाविण्णासो कजति। नि०चू०१3०। (दशविधा दर्पप्रतिसेवना, चतुर्विशतिविधा कल्पिकाप्रतिसेवना 'ववहार' शब्दे वक्ष्यते) इदाणिं पडिसेवणेति दारंदप्पे सकारणम्मि य, दुविधा पडिसेवणा समासेणं / एकेक्का वि य दुविधा, मूलगुणे उत्तरगुणे य॥८६॥ तत्थ वयण-"पडिसेवण मूल-उत्तरगुणे य त्ति / " सा पडिसेवण] दुविहादप्पे, सकारणम्मिया दप्प इति जो अणेगवायामजोग्णं वग्गणादिकिरियं करेति णिकारणे स दप्पो। (सकारणम्मि यत्ति) णाणदंसणाणि अहिकिचसंजमादिजोगेसु य असरमाणेसु पडिसेवति सो कप्पो।। (समासेणं) संखेवेण / एक्केका वित्ति वीप्सा / दप्पिया दुविहा कप्पिया दुर्भया, दप्पेण ज पडिसेवति तं मूलगुणा वा उत्तरगुणा वा, कारणे विजं पडिसेवति त पडिसेवियध्वं / तं चिमं गाहापच्छद्रेण गहिय। नि०चू०१ उ० / (पूर्वगताऽऽदिश्रुतनिषिद्धवस्तूनां साधोर्यद्विधा प्रतिसेवा भवति तद्विधा प्रतिसेवा 'सहसक्कारपडिसेवणा' शब्दे वक्ष्यते) (मूलगुणप्रतिसेवनायाः सर्वोऽपि विषयः 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे वक्ष्यते) इदाणिं उत्तरगुणपडिसेवणा भण्णति ते उत्तरगुणा पिंडविसोहादि अणेगविहा,तत्थ पिंडे ताव दप्पियं, कप्पियं च पडिसेवणं भण्णति। तत्थ दप्पिया इमेहिं दारहिं अणुगंतव्वा - पिंडे उग्गमउप्पा-यणे सण संजोयणा पमाणे य। इंगालधूमकारणे, अट्ठविहा पिंडणिज्जुत्ती / / 456 / / एताए गाहाए वक्खाणं विदेसणिमित्तं भण्णति। पिंडस्स परूवणता, पच्छित्तं चेव जत्थ जं होति। आहारोवधिसेज्जा, एक्के कं अट्ठ ठाणाइं॥४५७|| पिंडस्स पावणा असेसा जहा पिंडणिज्जुत्तीए तहा कायव्वा, पच्छित्त च जत्थ जत्थ अवराहे जं जं जहा कप्पपेढियाए वक्खमाणं तहा दहव्वं। आहारो त्ति। एस आहारपिंडो एवं अट्ठहिं दारेहि वक्खाणितो, एवं उवहीए सेज्जाए एक्कक्कं अट्ठ उग्गमादिदारा दट्ठव्वा। "उवहिए उग्गम उप्पा-यणेसण संजोयणा पमाणे य। इंगालधूमकारेण, अट्ठविहा उवहिणिज्जुत्ती / / 1 / / सज्झाएँ उग्गमउप्पा-यणे सणे य संजोयणा पमाणे य। इंगालधूमकारणे, अट्टविहा सेजणिज्जुत्ती // 2 // " एस दप्पियापडिसेवणा गता। इदाणी कप्पिया भण्णतिअसिवे ओमोदरिए, रायडुट्टे भए व गेलण्णे। अद्धाण रोधए वा, कप्पिय तीसू विजयणाए।४५८|| असिवं उद्दाइयाए अभिद्रुतं, ओमं दुडिभक्खं, राया वा दुट्टो, बोहिगादिभएण वा णट्टा, गिलाणस्स वा, अद्धाणपडिवण्णगा वा, णगरादिउवरोहे वा ठिता, (तीसू वित्ति) आहारउवहिसेज्जासु (जयणाए इति ) पणगहाणीए जाव चउगुरुएण वि गेण्हमाणाण कप्पिया पडिसेवणा भवतीत्यर्थः / चोदग आह-मूलगुणउत्तरगुणेसुपुव्व पडिसेहो भणितो, ततो पच्छा कारणे पडिसेहरूसेव अणुण्णा भणिता, तो जा अणुण्णा सा किमंग तेण सेवणिज्जा उत नेति। __आयरिय आहकारणे पडिसेवा विय, सावजा णिच्छए अकरणिज्जा। बहुसो विचारइत्ता, अधारणिज्जेसु अस्थेसु / / 456 / / कारणं असिवाऽऽदी, तम्मि असिवाऽऽदिकारणे पत्ते जा कारणपडिसेवा सा सावजा णाम बंधात्मिका, सा णिच्छएण अकरणिजा, णिच्छओ णाम परमार्थः / परमत्थओ अकरणीया सा, अविशब्दात् किमंग ! पुण अकारणपडिसेवाए जं आयरिएणाभिहिए। चोदग आहजा सा अणुण्णा पडिसेवा णिच्छएण अकरणिज्जा तो तीए अणुण्णं प्रति नैरर्थक्यं प्राप्नोति। आचार्य आहण नैरर्थक्य। कहं? भण्णति - बहुसो पच्छद्धं / बहुसो अणेगसो वियायरित्ता वियारेऊण अप्पबहुत्तं, अधारणिज्जेसु अत्थेसु प्रवर्तितव्यमित्यर्थः। अहवा-धारिज तीति Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणा 365 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवणा धारणिज्जा / क ते ? भण्णति-अत्था, ते य णाणदंसणचरित्ता, तेसु अधारणिज्जेसु पत्तेसु अप्पबहुत्तं बहुसो विचारइत्ता प्रवर्तितव्यमित्यर्थः / पुनरप्याह चोदकःणाणकप्पियाए पडिसेवं अणुण्णाय असे वंतस्स आणाभंगो भवति। आचार्य आहजाति वि य समसणुण्णाता, तह वि य दोसो ण वज्जणे दिट्ठो। दढधम्मता हु एवं, णाभिक्खणिसेव णिद्दयता / / 460 // जइ वि अकप्पियपडिसेवणा अणुण्णता, तहा विवजणे आणाभंगदोसो न भवतीत्यर्थः / अणुण्णाय अपडिसेवंतस्स जं चान्यो गुणो दढधम्मया पच्छद्धाण य अभिक्खणिसेवणदोसा भवंति,णय जीवेसु णिहया भवंति, तम्हा कप्पियपडिसेवा वि सहसा नेव णो पडिसेवेजा। सा पुण कतमेसु पडिसेवियव्वत्थेसु कप्पिया पडिसेवणा भवति? भण्णति गाहाजे सुत्ते अवराहा, पडिकुट्टा ओहओ य सुत्तत्थे। कप्पंति कप्पियपदे, मूलगुणे उत्तरगुणे य॥४६१।। "जे सुत्ते अवराहा पडिकुट्ठा" अस्य व्याख्याहत्थादि वायणंत, सुत्तं ओहो तु पेढिया होति। विधिसुत्तं वा ओहो, जंवा ओहे समोतरति / / 462 / / "जे भिक्खू हत्थकाम करेति, करेंतं वा सातिञ्जति।" एयं हत्थकम्मसुत्तं भण्णति / एयं सुत्त आदि काउं जाव एगूणवीससइमरस अंते वायणासुत्तं, एतेसुसुत्तेसुजंपडिसिद्ध। "ओहतोय सुत्तत्थे त्ति।' अस्य व्याख्या ओहतो पेढिया होति / ओहो णिसी-हपेदिया, तत्थ जे गाहासुत्तेण वा अत्थेण वा अत्था पडिसेहिता। अहवा-विहिसुत्तं ओहो भण्णति, तं च सामाइयादि विधिसुत्तं भण्णति / तत्थ जे अत्था पडिसिद्धा। अहवा ज वा ओहे समोतरइ सो ओहो भण्णति। उस्सग्गो ओहो त्ति वुत्तं भवति / तत्थ सव्वं कालियसुत्तं ओयरति, तं सव्वं ओहो भण्णति। एयम्मि ओहे जे अत्था सुत्तेण वा अत्थेण वा पडिकुट्ठा णिवारिया इत्यर्थः। ते कप्पती कप्पियापदे, अववायपदे इत्यर्थः / अथवा अववायपदेण ते मूलगुणा वा उत्तरगुणा वा। दप्पकप्पएहिसेवणं समासओ वक्खाणं भणियं। इदानीं सभेया भण्णति। तत्थ दप्पो ताव भणामि दप्प अकप्पणिरालं-ब वियत्ते अप्पसत्थे वीसत्थे। अपरिच्छि अकडजोगी, अणाणुतावी य णिस्संके 463 एवं गाहा समोयरिजति / अहवाऽन्येन प्रकारेणावतारः-दप्पिया / कप्पिया पडिसेयणा भण्णति / अहवऽन्नेण प्रकारेण दप्पकप्पसेवणाविभागो भण्णति / नि०चू० 1 उ० / ("वायाम'' 464 इत्यादिका | दर्पविषया गाथा 'दप्प' शब्दे चतुर्थभागे 2455 पृष्ठे गता) अकप्पो त्ति | दार-कायापच्छद्धं काय त्ति पुढवादी, ते अपरिणयाणं गहण करेंति, तेहिं वा काएहिं हत्थमत्तादी संसठ्ठा, तेहिं हत्थमत्तेहिं अपरिणएहिं भिक्खं गेण्हति, जहा- उदउल्ला ससणिवा ससरक्खेत्यादि, एस कप्पो भण्णति जवा अगीयत्थेण आहारउवहिसेज्जादी उप्पादियं तंपरिभुजंतस्स अकप्पो भवति। अकप्पो गओ। ''निरालंबेत्ति / " अस्य व्याख्या-सालम्बसेवापरिज्ञाने सतिा निरालम्बसेवनाऽवबोधो भवतीति कृत्वा सालम्बसेवा पूर्व व्याख्यायते - संसारगडपडितो, णाणाइ अवलबिउं समारुहति। मोक्ख तडं जध पुरिसो, वलिविताणेण विसमाओ।।४६५।। संसारो चउग्गतिओ, गड्डा खड्डा, दव्वे अगडादिभावे, संसार एव गड्डा संसारगड्डा, ताए पडितो णाणाइ अवलंविउं समुत्तरति। आदिग्गहणातो दसण चरित्ता समारुहति, तड उत्तरतीत्यर्थः / (मोक्खो त्ति) कृत्स्नकर्मक्षयात् मोक्षः, तड तीरं जहा जेण पगारेण (वल्लि त्ति) कोसंववल्लिमादी, वियाण णाम -अणेगाणं संघातो / अहवा-वल्लिरेव वियाण, वितण्णत इति वियाणं, तेण वल्लिविताणेण जहा पुरिसो विसमाओ सव्वं समुत्तरति,तहा णाणादि संसारगड्डातो मोक्खतडं उत्तरतीत्यर्थः / ताणि नाणादीणि अवलंबिउं अकप्पियं पडिसेवति, जतो भन्नतिणाणादी परिवुड्डी, ण भविस्सति मे अ सेवतो वितियं / तेसिं पसंधणट्ठा, सालंबणिसेवणा एसा // 466|| णाणदसणचरित्ताण बुड्ढी फाती ण भविस्सत्ति में तो तेसिं णाणादीणं संधणट्ठा, संधणा णाम गहणं गुणनं, अतो सेवनादित्यर्थः। वितियं अववायपद, तं सेवति। एसा सालंबसेवना भवतीत्यर्थः / णिक्कारणपडिसेवा, अपसत्थालंबणा य जा सेवा। अमुगेण वि आयरियं, को दोसो वा णिरालंबा / / 467 // अकारणे चेव पडिरनेवति एसा निरालंबा / अप्पसत्थंवा आलंबणं काउं पडिसेवति, एसा विणिरालंबा। किं पुण तं अप्पसत्थं आलंबणं? भण्णति, अमुगण वि आयरिय, अहं आयरामि को दोसो त्ति वायणिऊण आसेवति जहा गंड पिलागवा परिपलेज्ज मुहत्तगं, एवं विण्णवणित्थीसुदोसा। तत्थ कतो सिया, एवमादिया णिरालंबसेवेत्यर्थः। “णिरालंबसेवण त्तिगतं / ' - इदाणिं वियत्ते त्ति दारंजं सेवितं तु वितियं, गेलण्णाइसु असंयरंतेणं। हट्ठो वि पुणो तं चिय, वियत्तकिच्चो णिसेवंतो।४६५५ जं वितियपदेण अववायपदेण णिसेवितं गिलाणाऽऽदिकारणेण असंथरे वा पुणो त चेव हट्टो समत्थो विउणं सेवंतो वियत्तकियो भवति / किच करणिज्ज, त्यक्तं कृत्यं येन स भवति त्यक्तकृत्यः, त्यक्तचारित्र इत्यर्थः "वियत्ते त्ति गतं / " "इयाणि अप्पसत्थे" ति दारं। अप्पसत्थभावेण पडिसेवति त्ति वुत्तं भवति, जहाबलवन्नरूवहेतुं, फासुयभोई वि हाइ अपसत्थो / किं पुण जो अविसुद्धं, णिसेवते वण्णमादिट्ठा / / 466 / / बलं मम भविस्सति त्ति मसरसमादि आहारेति, सरीरस्स वा वण्णो भविस्सितीति य तानि पाणं करेति, बलवण्णेहिं रूव भवतीति एतान्येवाऽऽहारयति / हेऊ कारण फासुगं गयजीवियं अवि अत्थसंभावणे, किं संभावयति? एसोविताव फासुगभोई अपसत्थपडिसेवी भवति; किंपुण प Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणा ३६६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवणा च्छद्धं / अविसुद्ध आहारं कम्मादी वण्णो, आदिग्गहणातो रूववन्नाओ घेप्पति। अप्पसत्थेति गतं। इदानी वीसत्थेति दारंसेवंतो तु अकिच्चं, लोए लोउत्तरम्मि वि विरुद्धं / परपक्खें सपक्खे वा, वीसत्या सेवणमलज्जे / / 470 / / सेवंतो प्रतिसेवंतो अकिचं पाणाऽऽदि वायाऽऽदि। अहवा अकिच्वं ज लोकलोउत्तरविरुद्धं, त पडिसेवंतो सपक्खपरपक्खातो ण लज्जति, सपक्खो सावगाऽऽदि, परपक्खो मिथ्यादृष्टयः / एसा वीसत्थसेवणा इत्यर्थः / वीसत्थेति गतं। इदाणिं अपरिच्छिय त्ति दारंअपरिक्खिउमाय वए, णिसेवमाणे तु होति अपरिच्छं। तिगुणं जोगमकातुं, वितियासेवी अकडजोगी॥४७१।। अपरिविखउ पुटवद्धं / अपरिक्खिउं अनालोच्य आयो लाभः, प्राप्तिरित्यर्थः व्ययो लब्धस्य प्रणाशः, ते य आयव्वए अनालोचिते पडिसेवमाणस्स अपरिक्खपडिसेवणा भवतीत्यर्थः। "अपरिच्छत्ति' गतं / अकडजोगि त्ति दारंतिगुणं पच्छद्ध / तिन्नि संखा तिणि गुणाओ तिगुणं, असंथरातीसु तिन्नि वारा एसणियं संणिसिउ जाता, ततियवाराए विणलब्भति तदा चउत्थपरिवाडीए अणेसणियं घेतव्य एवं तिगुण जोग काऊण, जोगो व्यापारः, वितिय-वाराए चेव अणेसणीय गेण्हति जो सो अकडजोगी भन्नति 'अकडजोगि त्ति" गयं / (अणाणुतावि त्ति दारं 'अणाणुतावि (ण) शब्दे प्रथ० भा० 306 पृष्ठे गतम्) णिस्सकेति दारंकरणे भए य संका करणे कुव्वं ण संकइ कुतो वि। इहलोगस्सण भायइ, परलोए वा भए एसा॥४७३|| संकणं संका अनिरपेक्षाध्यवसायेत्यर्थः / णिग्गयसको निस्सको, निरपेक्षेत्यर्थः / सा य निस्संका दुविहाकरणे भए य। सूचग आह-करणं क्रिया ते कारेतो णिस्संको। भयं णाम-अपायोगित्वं / सक त्ति / इह छंदोभंगभया णिगारलोवो द्रष्टव्यः। करणणिस्संकताए ववखाणं करेंति। करणे कुव्वं ण संकति कुतो वित्ति। कुतो विन करव चिदाशंकतेत्यर्थः / भयणिस्संकाए वक्खाणं करेति। इहलोगस्स पच्छद्धं / भए एस त्ति / एसा भए णिस्संकता इत्यर्थः / सेसं कंठ। इदाणिं एतासु दससु वि असुद्धपडिसेवणासु पच्छित भण्णइमूलं दससु असुद्धे-सुजाण सोधिं च दससु सुद्धेसु / सुद्धमसुद्धवइकरे, (दससु असुद्धेसु त्ति) दससु वि एतेसुपदेसु दप्पादिएसु असुद्ध-पएसु मूलं भवतीत्यर्थः अथवा-मूलं दससु. दससुदप्पादिसु मूलं भवतीत्यर्थः / असुद्धेत्ति एतेसु दप्पादिएसु दससु असुद्धपदेसु पडिसेविजमाणेसु चारित्रमसुद्धं भवतीत्यर्थः / एतेसुचेव दससुदप्पादिसु सुद्धेसु चारित्रविसुद्धिं जानीहि। कथं पुनरेषां सुद्धासुद्धं भवतीति ? उच्यते-वर्तमानावर्त्तमानयोरित्यर्थः / सुद्धमसुद्धवतिकरे त्ति / किंवि सुद्ध, किंचि असुद्धं / तेसि सुद्धासुद्धाणं मेलओ वतिकारो भण्णति। एत्थ वक्खाणगाहासालंबो सावजं, जिसेवते णाणुतप्पते पच्छा। जंवा पमायसहिओ, एसा मीसा तु पडिसेवा।।४७५|| णाणादियं आलंबणं अवलंबमाणो सालंबो भण्णति, तंपसत्थमालंबणं अवलंबमाणो सालंबो भण्णति। तपसत्थमालंबणं आलंबिऊण सावज्ज णिसे विऊण णाणुतप्पति पच्छा, सालं बपदं सुद्ध, सालंबित्वात् अणाणुतावी पदं असुद्ध, अपश्चात्तापित्वात्, एवं अण्णाण वि पदाणं सुद्धासुद्धाण मीसा पडिसेवा भवतीत्यर्थः / जं वा अन्नतरपमाएण पडिसवितं तं पच्छाणुतावजुत्तस्स असुद्धसुद्धं भवति एसा मीसा पडिसेवा भवतीत्यर्थः। एसाए मीसाए पडिसेवणार का आरोवणा? भण्णतिपण्णट्ठ विदू तु अण्णतरे॥४७४।। पन्नट्ठविऊ उ अन्नतरे। पएण त्ति वा पण्णवण त्ति वा विन्नवण त्ति वा परूवण त्ति वा एगट्ठ / अटो णाममीसियाए पडिसेवणाए पच्छित्तं / विदू नामज्ञानी / अण्णतरे त्ति मीसपडिसेवणा वि कप्पेति, मीसपडिसेवणाए जे विदू ते पायच्छित्त परूवयंतीत्यर्थः। अथवा दसह विपदाण इमं पच्छित्तंदप्पेण होति लहुया, सेसा काहेमि परिणते लहुओ। तब्भावपरिणतो पुण, जं सेवति तं समावज्जे // 476 / / दप्पेण धावणादी करेमि त्ति परिणते चउलहुगा भवंति / सेसा अकप्पादिया घेप्पंति, ते करेमि त्ति परिणते मासलहु भवति / एतं परिणामणिप्फण्णं जतो पुण तब्भावपिरणओ भवति / तस्य भावस्तद्भावः, दप्पादिआण अप्पणो स्वरूपे प्रवर्तनमित्यर्थः / पुनर्विशेषणे, पूर्वाभिहितप्रायश्चित्तादयं विशेषः। आयसंजमपवयण-विराहणाणिप्फण्ण पच्छित्तं दहव्वमिति। अहवा-मीसा पडिसेवणा इमा दसविहा भण्णतिदप्पपमादऽणभोगा, आतुरे आवतीसुतह चेव। तिंतिणे सहसकारे, भय-प्पदोसाय वीमंसा।।४७७॥ दप्पपमादाणभोगा, सहसक्कारो य पुव्वभणिताओ। सेसाणं छह पी, इमा विभासा तु विण्णेया / / 478 / / दप्यो, पमादो, अणाभोगो, सहसक्कारोय, एते इहेव आदीए पुटवं वणिया भणिया, तो सेसाण विभासा अर्थकथनम्। "आतुरे त्ति" अस्य व्याख्यापढमवितियडुते वा धितो व जं सेवे आतुरा एसा। दव्वादिअलाभे पुण, चतुविधा आवती होति॥४७६।। पढमो खुहापरीसहो, वितिओ पिवासापरीसहो, बाधितो जरसादिणा, एत्थ जयणाए पडिसेवमाणस्स सुद्धा परिसेवणा। अजयणाए तण्णिप्पन्न पच्छितं भवति / "आवती सु य' / अस्य व्याख्यादब्वादिपच्छद्ध / दव्वादि, आदिसहा तो खेत्तकालभावा घेप्पति। दव्यतो फासुग दव्वं ण लब्भति, खेत्तओ अद्धाणपडिवण्णताण आवती, कालतो दुभिक्खादिसु आवती, भावतो पुण गिलाणस्स आवती, एत्थ जेण एयाए चउब्विहाए आवतीए पडिसेवति तेण एसा सुद्धा पडिसेवणा, अजयणाए तण्णिप्फन्न पच्छित्तं भवति। "आवईसु ति" गतं दार। "तितिणे त्ति' अस्य व्याख्यादवे भावे तिंतिण, भयमभिओगेण सीहमादी उ। कोहादी तु पदोसा, वीमंसा सेहमादीणं // 480 / / Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणा 367 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवणा पाए तितिणो दुविहो-दव्ये, भावे य। दवे ते वरुयदारुय अग्गिमाहियं तिडितिडेति / भावे आहारादिसु अलब्भमाणेसु तिडितिडेति। असरिसे वा दव्वे लद्ध तिडितिडेति। तितिणियत्तं दप्पेण करेमाणस्स पच्छित्तं / कारणे वइयाइसु सुद्धो। “तिंतिणेतिगतं।''"भए ति।' अस्य व्याख्याभयमभियोगेण सीहमादी द्वितीयपादः। अभिओगोणाम-केणइ रायादिणा अभिउत्तो पंथं दंसेहि, तद्भयाद्दर्शयति सीहभयाद्वा वृक्षमारूढः / एत्थ सुद्धा। अणाणुतावितेण पच्छित्तं भवति। "पदोस त्ति।” अस्य व्याख्याकोहादी उपओसेतृतीयः पादः। कोधादिएहिं कसाएण पदोसेण पडिसेवमाणस्स असुद्धो भवति, मूलं से पच्छित्तं कसायणिप्पण्णं वा। "पदोसे त्ति गतं / " वीमंसा सेहमादीणं ति चतुर्थः पादः / वीमंसा परीक्षा, सेह परिक्खमाणेण सचित्तगमणादिकिरिया कया होज, किं सद्दहति, ण सद्दहति तो सुद्धो। अहवा इमे मीसियपडिसेवणापगारादेसचाई सव्वचाई , दुविधा पडिसेवणा मुणेयव्या। अणुवीइ अणणुवीती, सइंच दुक्खुत्त बहुसो वा // 481 // चारित्तस्स देसं चयतीति देसचाती, सव्वं चयतीति सव्वचाई,एसा दुविहा पडिसेवणा समासेण णायव्वा / अणुवीई चिंतेऊण गुणदोस सेवति, अणणुवीई सहसा एव पडिसेवति। सति त्ति। एगरिस.दुक्खुत्तो दोवारा, बहुसो त्रिप्रभृति बहुत्वम्। ''देसचाइ ति" स्य व्याख्याजेण ण पावति मूलं, णाणादीणं च जहि धरति किंचि। उत्तरगुणाववादे, देसच्चाएतरा सव्वा / / 482 / / जेण अवराहेण पडिसेवति तेण मूलं पच्छित्तंण पावति, सा देस-चागी पडिसेवणा / जेण वा अवराहेण पडिसेवितेण णाणदंसण वरित्ताण किंचि धरति सा वि देसच्चागी पडिसेवणा / उत्तरगुणपडिसेवा वा देसच्चाई पडिसेवणा। (इतरा सव्व त्ति) इतरा णाम जाए मूलं पावति, णाणादीण वा ण किंचि धरति, सा विदेसच्चागी पडिसेवणा। मूलगुणपडिसेवा वा एसा देससव्वच्चागी पडिसेवणा भवतीत्यर्थः। "अणणुवीइ ति" अस्य व्याख्याजा तु अकारणसेवी, सा सव्वा अणणुवीइतो होति। अणुवीई पुण णियमा, अप्पज्झे कारणा सेवा / / 483 / / पुव्वद्धे जा अकारणतो पडिसेवा गुणदोसे अचिंतेऊण सा अणवीती, पडिसेवापमाणतो एकसि दो तिणि वा परओ वापडिसेवति। "अणुवीइ त्ति'' अस्य व्याख्या-अणुवीथे वा पुण पच्छद्धा असिवादीकारणे आत्मचराः अपरायत्तेत्यर्थः। सो पुण गुणदोसे विचिंतिऊण जं जयणाए पडिवति एस से अणुवीती पडिसेवा भवतीत्यर्थः / भणियामीसिया पडिसेवणा। इदाणिं कप्पियापडिसेवणाभेया भण्णंतिदसणणाणचरित्ते, तवपवयणसमितिगुत्तिहेतुं वा। साधम्मियवच्छल्ले-ण वावि जयले गणस्सेव / / 454 / / संघस्साऽऽयरियस्स व, असहुस्स गिलाण बालवुड्डस्स। उदयग्गिचोरसावयकताए वा सती वसणे // 485 / / एताओ दो दारगाहाओ। दसणणाणचरणा तिण्णि वि एगगाहाएं वक्खाणेतिदंसणपभावगाणं, सत्थाऽणट्ठाएँ सेवती जंतु। णाणासुतत्थाणं, चरणेसण इत्थिदोसाय॥४८६|| दसणप्पभावगादीणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छियसंमतिमादि गेण्हतो असंथरमाणे ज अकप्पियं पडिसेवति जयणाए तत्थ सो सुद्धो। चरणे त्ति / जत्थ खेत्ते एसणादो सा इत्थिदोसा वा ततो खेत्ताओ चारित्रार्थिना निर्गन्तव्यं, ततो निग्गच्छमाणो जं किंचि अकप्पियं पडिसेवति जयणाए तत्थसुद्धो। तवपक्यणे दो विदारा एगगाहाए वक्खाणेतिणेहो ति तवं काहं, कते विकिट्टे व लायतरणादी। अभिवादणाऽऽदिपवयण, विण्हुस्स विउव्वणा चेव४८७ तवं काहामि त्ति घताऽऽदि णेहं पिवेज्ज, कते वा विकिट्टतवेपरेण लायतरणादीए पिएज्जा लाया णामवीहिया तम्मिउ भट्टे भुज्जित्ता ताण तंदुलेसु पेज्जा कजति, तं लायतरण भण्णति / तं विकिट्ठतवपारणाए आहारकम्मियं पिएज्ज,मा अण्णेण दोसेण दव्वादिणा रोगो भवेज / आदिग्गहणातो आमलगसक्करादयो गृह्यन्ते, जयणाए सुद्धो। 'पवयणे त्ति' अस्य व्याख्या-अभिवादणपच्छद्धा पवयणढताए किंचि पडिसेवंतो सुद्धो, जहा कोतिराया भणज्ज, जहा धिज्जातीयाणं अभिवायणं करेह, आदिग्गहणातो अतो वा में विसयाओ णीहहा। एत्थ पवयणहियद्वयाए पडिसेवंतो सुद्धो। जहा विन्हु अणगारो, तेण रुसिएण लक्खजोयणप्पमाणं विगुटिवयं रूवं, लवणो किल आलोडितो वलणेण तेण / अहवाजहा एगेण राइणा साधवो भणिताधिज्जाइयाण पाएसु पडह, सो य अणु-सटिमादीहिं ण ठाति, ताहे संघसमवातो कतो। तत्थ भणियं जस्स काइ पवयणुब्भावणसत्ती अस्थि, सो तं सावज्जं वा असावज्जं वा पउंजउ / तत्थेगेण साहुणा भणियं-अहं प्रयुंजामि, गतो संघो राइणो समीवं, भणिओ य राया, जेसिंधिज्जाइयाणं अम्हेहिं पाएसु पडियव्वं तेसि मम वातं देहि, तेसिं सयण्हं अम्हे पायेसु पडामो, णो य एगेगस्स, तेण रण्णा तेण ताहे कयसंघो एगपासे ठितो, सो अ अतिसयसाहू कणवीरलयं गहेऊण अभिमतेऊण य तेसिं धिज्जातीयाणं सुहासणट्टाणं तं कणवीरलयं वंदणाऽऽगारेण भमाडेति, तक्खणादेव तेसिं सव्वेसिं धिज्जातीयाण सिराणि णिवडियाणि, ततो सो साहू रुट्ठो रायाणं अंतिय भणति, दुरात्मन! जतिणट्ठासि तो एवं ते सबलबाहणं चुण्णेमि, सो राया भीतो संघस्स पाएसुपडितो उवसंतोय। अण्णे भणति जहा सोवि राया तत्थेव चुणितो। एवं पवयणत्थं पडिसेवंतो वि सुद्धो। "समिति त्ति'' अस्य व्याख्याइरियं ण सोधइस्सं, चक्खुणिमित्त किरिया तु इरियाए। खित्ता वितिया ततिया, कप्पेणऽद्धणेसिसंकाए।।४५६|| विकल चविखदी इरियं ण सोहिस्सामीति काउ चक्खुणि Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणा 368 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेवणा - मित्त किरिय करेज्जा। क्रिया नामवैद्योपदेशात् ओषधपानमित्यर्थः / एष पडिसेवणा इरियासमितिनिमित्तं / खित्तचित्तादिओ होउं वितियाए भासासमितीए असमत्तो तप्पसमणट्टाए किंचि ओसहपाणं पडिसेवेज। ततिय त्ति एसणा समिती, ताए अणेसणिज्जंपडिसेवेज, अद्धाणपडिवण वा अद्भाणकप्पं वा पडिसेवेज्जा एसणादोसेसुवा दससु सकादिएसुगेण्हेज / आदाणे चलहत्थो, पंचमिए काइभूमाऽऽदी। विगडाइमणअगुत्ते, वइ काए खित्तचित्ताऽऽदी॥४८६।। आयाणे ति आयाणणिक्खेवसमिती गहिता, ताए चलहत्थो होउं किंचि पडिसेवेज। चलहत्थो णामकरण वाउणा गहितो, सो अण्णतो पमज्जति, अण्णतो णिक्खेवं करोति, एसा पडिसेवणा तप्पसमणट्ठा वा ओसह करेज / पंचमिए ति परिढवणासमिती गहिता।ताए किंचि कातियभूमीए बचमाणो विराहेज / आदिग्गहणातो सण्णाभूमीए वा संठविज 'तीए गुत्तिहेउ व ति" अस्य व्याख्याविगडाइ पच्छद्धं / विगड मर्ज, तं कारणे पडिसेवियत्तेण पडिसेविएण मणसा अगुत्तो भवेज, वायाए वा अगुत्तो हवेज्ज कायगुत्तिए वा अगुत्तो खित्तवित्तादिया हवेज्ज। साहम्मियवच्छल्लाइ आणं बालवुड्दपज्जवसाणा णवण्हं दाराणं एस गाहाए वक्खाण करेतिवच्छल्ले असियमुंडो, अभिचारणिमित्तमादि कन्जेसु। आयरि साहु गिलाणे, जेण समाधी जुयलए य // 460|| साहम्मियवच्छल्लयं पडुच्च किंचि अकप्पं पडिसेवेज, जहाअज्जवइरसामिणा असियमुडो णित्थारितो, तत्थ किं अकप्पियं ? भण्णति"तहेवासंजतं धीरो" सिलोगो कंटः।(कज्जेसु त्ति) कुलगणसंघकज्जेसु समुप्पन्नेसु अभिचारकं कायव्वं, अभिचारकं णामवसीकरणं, उच्चारणं वा रणो वसीकरणमंतेण होमं कायव्वं / णिमित्तमादीणि वा पउत्तव्वा / आदिग्रहणातो चुण्णजोगा आयरियस्स असहिष्णो गिलाणस्स य जेण समाधी तत्कर्तव्यमिति वाक्यशेषम्। जुयलं वा जुयलं णाम-बालवुड्डा, ताण वि जेण समाधी, तत्कर्तव्यमिति। सीसो पुच्छति-को असहू, कीसे वा जुयल पडिसिद्धं दिक्खयं तेसिं वा जेण समाही तं काए जुयलो घेत्तुं दायव्वमिति आयरिओ भणतिणिवदिक्खिताऽऽदि असहू, जुयलं पुण कन्जदिक्खंतं / पणगादी पुण जतणा, पाओग्गट्ठाएँ सव्वेसिं // 461|| णिवो राया, आदिसद्दातो जुवरायसेडिअमच्चपुरोहिया य एते असहू पुरिसा भण्णति। ते कीस असहू ? भण्णइ-अंतपंतादीहिं अभावितत्वात्। जुयल बालबुड्डा, ते य कारणे दिक्खिया होज्जा / जहा वइरसामी अज्जरक्खियपया य। जेण तेसिं समाधी भवति तं पाणगादि जयणाए वेत्तट्वं / प्रायोग्य नामसमाधिकारकं द्रव्यम् / सव्वेसिं ति आयरिय असहुगिलाणसवुड्डाणं ति भणियं भवति / जयणाए अलब्भमाणे पच्छा जाव आहाकम्मेण वि समाधान कर्तव्यमित्यर्थः / इदाणि उदयादीण वसणपज्जवसाणाणं अट्ठण्हं दाराणं एगगाहाए वक्खाणं करेति उदयग्गितेणसावय-भएसु थंभणि पलाउँ रुक्खं वा। कतारें पलंबादी, वसणं पुण वाइ गीताऽऽदी।४६२।। उदकवाहोपानीयप्लवेत्यर्थः / अग्गि त्ति, दवाग्निरागच्छतीत्यर्थः। चोरा दुविहा-उवकरणसरीराण / सावएण वा उत्थितो सीहवग्घादिणा, भयं बोधिगाण समीवातो उप्पण्णं / एतेसिं अण्णतरे कारणे उप्पन्नं इमं कारणं पडिसेवण करेजा थंभणिविजं मंतेऊण थंभेज। विजाभावे वा पलायति, रोडेन नश्यतीत्यर्थः / पलाउं वा असमत्थो श्रान्तो वा सचित्तं रुक्खं दुरुहेज्जा इत्यर्थः। चोरसावयबोहियाण वा उवरि रोसं करेज्ज / तथा रोसेण अण्णतरं परितावणादिविगप्पं पडिसेवेज्ज, तथाऽप्यदोष इत्यर्थः / 'कतारे ति" अस्य व्याख्याकंतारे पलंबादी। कंतारं नाम-अध्वानं, जत्थ भत्तपाण ण लब्भति, तत्थ जयणाए कयलगमादी पलंबा गेण्हेज्ज / आदिसद्धाओ उदगाही वा, आवती चउविहा दव्यखेत्तकालभावावती, चउरण्णतराए किंचि अकप्पिय पडिसेवेज्ज तत्थ वि सुद्धो। "वसण ति।" अस्य व्याख्या-वसणं पुण वाइगीतादी। बसणं णामतम्मि वसतीति वसणं, तस्स वा वसे वट्टतीति वसणं, सुअब्भत्थो वा अब्भासोवादाणं भणति, पुण अवधारणे। वाइगंणाममज्जतं कोतिपुव्वभावितो धरेउण सक्केति, तस्स तंजयणाए आणे उंदिज्जति। गीता इति। कोइ चारणाऽऽदि दिक्खितो वसणतो गीओग्गारं करेज्जा। आदिसघातो पुव्वभावितो कोपि पक्वतंबूलपत्तादि मुहे पक्खवेज्जा। एतऽण्णतराऽऽगाढे, सदंणो णाणचरणसालंबो। पडिसेवितुं कडाई, होइ समत्थो पसत्थेसु // 463|| एतदिति यदेतव्ह्ययाख्यानं दसणाऽऽदि जाव वसणेति। एतेसिं अन्नतरे अगाढकारणे उप्पण्णे पडिसेवंतो वि सदसणो भवति / सह दंसणेण सदसणो / कह ? यथोक्तश्रद्दधानत्वात् / अहवा-णाणचरणाणि सह दसणेण आलंबणं काउंपडिसेवंतो। कह पडिसेवतो? उच्यते-(कडाइ त्ति) कडाई नामकृतयोगी। तिक्खुत्तो कओ योगो अलाभे पणगहाणीतो गेण्हति, से एवं पण-गहाणीए जयणाए पडिसेवेउ होति भवति, समत्थो त्ति पभु त्ति वुत्तं भवति। सो य पभू गीतार्थात्वात् भवति, केसु? उच्यतेपसत्थेसु, पसत्था तित्थकराणुण्णया जे कारणा, प्रत्युपेक्षादिका इत्यर्थः / अहवा-होति समत्था पसत्थेसु। गीयत्थत्तणतो समत्थो भवति, अगीओ समत्थो ण भवति पंसत्थेसु, तित्थकराणुण्णा, तेष्वित्यर्थः। एसा उदप्पिया क-प्पिया य पडिसेवणा समासेणं। कहिया सुत्तत्थो पे-ढियाएँ देओ न वा कस्स / / 464|| एसा दप्पिया कप्पिया पडिसेवणा समासेणं संखेवेणं कहिता इत्यर्थः नि०चू०१ उ०। (मासिकाऽऽदिप्रायश्चित्तस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत् इत्यादि प्रायश्चित्तसूत्राणि पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 136 पृष्ठे गतानि)। साम्प्रतं प्रतिसेक्नास्वरूपं चतुर्थभेद व्याचिख्यासुर्गाथोत्तरार्द्धमाहआसेवइ थिरभावो, आयंकुवसग्गसंगे वि (36) आसेवते, सम्यक सेवते परिपालयति, स्थिरभावो निष्प्रकम्पमनाःआतङ्को ज्वराऽऽदिरोगः, उपसर्गा दिव्यमानुषतैर्यग्वोनिकाऽऽत्मसंवेदनीयभेदाच्चतुर्भेदाः। ध० 202 अधि० 1 लक्षा Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेवणाकप्प 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडिसेह पडिसेवणाकप्प पुं० (प्रतिसेवनाकल्प) शुद्धाशुद्धप्रतिसेवनासामाचााम्; पं०भा०। __ इयाणिं पडिसेवणाकप्पो, तत्थ गाहावोच्छं पडिसेवणाए कप्पं तु। जारिसयं सेविज्जति,सुद्धमसुद्धं समासेणं / / गहण-पडिसेवणाए, णिव्वाघाते तहेव वाघाते। वाघाते दुयगहणं, णिव्वाघाते तियग्गहणं / / पडिसेवणा उ दुविहा, गहणे परिभुंजणे य णायव्वा / एक्केका वि य दुविहा, णिव्वाघाते य वाघाते / / वाघातिमं च सुद्धं, गेण्हति असुद्धं च एतदुयगहणं / परिमुंजती वि एवं, णिव्वाघातम्मि वोच्छामि।। उग्गमादी सुद्धं गेण्हति, परिभुंजती य तियमेत्तं / अह को पुण वाघातो? परूवणा तस्सिमा होति॥ असिवे, ओमोदरिए, रायदुठे, भएव आगाढे। छक्कायदुगमुवादा-य वाघाते णिव्वाघाते य / / सुद्धमसुद्धं वा जहिं, अहवा सच्चित्तमीसग वा वि। एतेसिं दोण्हं तु, वाघाते गहण-भोगो य॥ निव्वाघाए छह वि, अच्चित्ताणं तु गहणं। कायाणं गहियस्स य, परिभोगो तस्स होति कायव्वो।। परिभोगे वाघातो, गहिते पच्छा तु होज्जतं णातं / जह अहाकम्मं ती, ताहे य तवं न परिभुजे / / वाघाते सेवंतो, अकिच्चमेयं ति चिंतए साहू। होति तहा णिज्जरओ, जो पुण इणमो समायरति / / पूजारसपडिबद्धो, ओसण्णाणंच अणुयत्तीए। चरणकरणं णिगृहति, तं जाण अणुत्तियं समणं // पूजारसहेउं वा, वेत्ती जह किच्चमेव एयं तु / मासेण देहिन्ति पुणो, जह एसो अकिच्चकारि त्ति / / अहवा उसण्णाणं, तु आणुयत्ती य पेतिको दोसो। आहाकम्मादीसुं, णवरं या कीरतु सयं तु / / सो गृहति चरणादी, एवं तुच्छं खु तस्स सामण्णं / तम्हा तु य रूवेज्जा, सुद्धं मणं तुऽकिंचण्णं / / णिस्साए पदं पीहिति, अण्णत्थ विहरंतयं ण रोएति। तं जाण मंदधम्मं, इहलोगगवेसगं समणं / / अहवा उम्मग्गो खलु, निस्साणं तं तु पीहए जो तु। तस्स तुं च्छेदसुत्तत्थं, ण कहे दोसा इमे तहियं / / पंचमहव्वय (त) भेदो, छक्कायवहो य तेणऽणुण्णाओ। सुद्दसीलवियत्ताणं, कहे य जो पयणरहस्सं / / पजिसेवकप्पएसो मा०५कल्प। 'गहणपडिसेवणा' पडिसेवणा पुण दुविहा गहणे य भवइ, परिभुंजणे य पडिसेवणा भवइ, एक्केका दुविहानिव्वाघाए य, वाघाए य। वाघाएदुविहं पिगेण्हन्ति असिवाइम्मि सुद्धं च असुद्धं च। निव्वाघाए तिविहं पि सुद्धं गेण्हन्ति आहाराइ। उग्गमाईहिं तिहिं असुद्धं पि कयाइ गेण्हन्ति / को य पुण वाघाओ जत्थ असुद्धं घेप्पइ ? गाहा-'असिवे ओमो' असिवाइसु कारणेसु छक्काओ उप्पायण पि करेइ, किमुक्तं भवति-छक्कायमुप्पायण ति। सचित्तमीसयाणं वा वाघाएगहणं / निव्वाघाए पुण अचित्ताणं छहं पि कायाण गहणं जोणिपा-हुडियाइसु कुलगणाइकज्जेणं, न पुण पडिसेवंतेण करिज्जं करेमि त्ति चिंतेयव्वं / कुल-गण-संघ-चेझ्यविणासाइसु कारणेसु. नाण-दरिसण-चरित्तट्ठा वा पडिसेवमाणा सुद्धा जयणाए।गाहा- 'पूय-रस' कोइ मंदधम्मो पूयासकारहेउं किच्चमेयं ति भासइ, रसहेउं वा मासे पुणो न दाहें ति, अहवा उसन्नाण अणुयत्ती पभणइ-को दोसो ? आहाकम्माइसु उम्मग्गपडिवन्नो त्ति सो दट्ठव्यो, उम्मग्गो नाम नाणवइरित्तो चरणाइ निगृहइ / गाहा-'निस्साणपयं, सिद्धमेव / पंचमहब्बयभेओ छक्कायवहो य तेण ऽणुण्णाओ। गाहा। एस पडिसेवणाकप्पो। पं०चू०५ कल्प। पडिसेवणाकुसील पुं० (प्रतिसेवनाकुशील) "सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता वाऽऽसेवना प्रतिसेवना, सा पञ्चसु ज्ञानादिषु येषां ते प्रतिसेवनाकुशीलाः / स्था०५ ठा०३ उ० / असम्यगाराधनाकुशीले, भ०२५ श०६ उ०। पडिसेवणापायच्छित्त न० (प्रतिसेवनाप्रायश्चित्त) प्रायश्चित्त भेदे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / (प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तं 'पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 135 पृष्ठ गतम्) पडिसेवणिज्ज त्रि० (प्रतिसेवनीय) प्रतिसेवनाविषये, तच्च व्रतषट्का दीन्यष्टादश स्थानानि / तद्यथा-''वयछक्कं कायछकं, अकप्पो गिहभायणं / पलियंकणिसिज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं" जीत०। पडिसेवा स्त्री० (प्रतिसेवा) प्रतिसेवनं प्रतिसेवासंयमानुष्ठा-नविरुद्धा चरणे, ध०३ अधि०। पडिसेवि त्रि० (प्रतिसेविन्) अवश्य प्रतिसेवके, ग० 2 अधि०। (मूलगुणप्रतिसेवया चरित्रभंश इति मूलगुणप्रतिसेवी न वन्द्य इति कृतिकर्माधिकारे, कृतिकर्माधिकारश्च तृतीयभागे 506-525 पृष्ठे गतः) पडिसेवित्ता त्रि० (प्रतिसेवितृ) सावधप्रतिसेयके, स्था०७ठा० पडिसेविय त्रि० (प्रतिसे वित) मैथुनादौ प्रतिसेवाकर्मणि कल्प० 1 अधि०६क्षण। पडिसेवियव्व त्रि० (प्रतिसेवितव्य) प्रतिसेवनाकर्मणि, व्य०१ उ०। (तच्चतुर्विध पडिसेवणा' शब्दे दर्शितम्) पडिसेह पुं० (प्रतिषेध) निराकरणे, सूत्र०२ श्रु०५ अ० / बृ० / पं० चू०| निवर्तन, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। पडिसेहम्मि तु छक्कं (5) / / प्रतिषेधे प्रतिषेधविषयं षट्कं नाम-स्थापना-द्रव्यं-क्षेत्र-काल-भावलक्षणं निक्षेपणीयम् / तत्र नामः प्रतिषेधो-न वक्त-व्यममुकं नामेतिलक्षणः / यथा"अज्जए य पज्जए वा, वि (व?) प्पो चुल्लपिउत्ति य। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिसेह 370 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 माउला भायणिज्ज त्ति, पुत्ता नत्तुणिय त्ति य / / 1 / / पडिसोयाणुग त्रि० (प्रतिश्रोतोऽनुग) प्रतिश्रोतोऽनुगच्छति यः स हे हो हल त्ति अन्ने त्ति, भट्टा सामि य गामिय। प्रतिश्रोतोऽनुगः / प्रतिलोमगामिनि, द्वा०१४ द्वा०। हेलगो लवसु म ? त्ति, पुरिसं तेच मा लवे // 2 // " पडिस्सय पुं० (प्रतिश्रय) प्रतिश्रीयते साधुभिरिति प्रतिश्रयः / वसतौ, इत्यादि / स्थापना, आकारो, मूर्तिरिति पर्यायाः। तस्याः प्रतिषेधो बृ०२ उ०। 'पडिस्सए ठाइऊण पच्छा आगतो" आ० म०१ अ०। यथा- "वितह पितहा सुत्तं, जो तहा भासए नरो। सो विता पुढो पावे ण | पडिस्सुय त्रि० (प्रतिश्रुत) अभ्युपगते, स्था०४ ठा०३ उ०। प्रतिज्ञाते, किं पुण जो मुसं वए॥" स्था० 10 ठा०। प्रतिशब्दे, ज्ञा० 1 श्रु०५ अ० / नि० चू०। द्रव्यप्रतिषेधो-ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तः पुनरयम्-"नो कप्पइ पडिस्सुया स्त्री० (प्रतिश्रुता) प्रतिश्रुतात् प्रतिज्ञाताद्द्या सा प्रतिश्रुता, निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा आमे, ताल-पलंबे, अभिन्ने पडिगाहित्तए'' / शालिभद्रभगिनीपतिधन्यकस्येव। प्रव्रज्याभेदे, स्था० 10 ठा०। त्ति / क्षेत्रप्रतिषेधो यथा- "नो कप्पइ निरगंथाण वा निग्गंथीण वा पडिहत्य त्रि० (देशी) प्रतिपूर्णे, जी०३ प्रति०४ अधि० / अतिरेकिते अद्धाणगमण एत्तए" कालप्रतिषेधो यथा- "अत्थं गयम्मि आइच्चे, अतिप्रभूते, "पडिहत्था अतिरेकिता अतिप्रभूता'' इत्यर्थः / जी०३ प्रति०४ अधि०। दे० ना०। पुरत्था य अणुग्गए आहारमइयं सव्वं मणसा विन पत्थए'' भावप्रतिषेधःऔदयिकभावनिवारणरूपो यथा-"कोहं माणं च मायं च, लोभं च पडिहय त्रि० (प्रतिहत) निराकृते, औ० / प्रतिस्फलिते, आ० म० 1 पाववडणं, वमे चत्तारि दोसे उइच्छंतो हियमप्पणो'' इत्यादि बृ०१ उ०२ अ०। प्रस्खलिते. औ० भ०। प्रतिस्खलिते, सूत्र० 2 श्रु०४ अ०। प्रतिषेधिते, ज्ञा०१श्रु०१६ अ०।अनु०। विघिते, सूत्र०२ श्रु०४ अ०। प्रका विपक्षप्रतिषेधने-अनुमानवाक्यस्यदशमेऽवयवे, दश० 110 // पडिहयपच्चक्खायपावकम्म त्रि० (प्रतिहतप्रत्याख्यात-पापकर्मन) प्रतिषेधं प्रकटयन्ति "प्रतिहतं स्थिति हासतो ग्रन्थिभेदेन, प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः प्रतिषेधोऽसदंशः // 57 // पुनर्वद्ध्यभावेन, पापं ज्ञानावरणीयादि येन सतथा-विधः" / पापकर्मतादृशस्यैव वस्तुनो योऽयमसदृशोऽभावस्वभावः, स प्रतिषेध इति प्रत्याख्यातवति, दश० 4 अ०। पा०। गीयते // 27 // पडिहरंत त्रि० (प्रतिहरत्) धातूनामर्थान्तरेऽपि वृत्तेः पुनः पूर्यमाण अस्यैव प्रकारानाहु: इत्यर्थः, प्रा०४ पाद। सचतुर्धा-प्रागभावः, प्रध्वंसाभावः, इतरेतराभावः, अत्यन्ता पडिहा स्त्री० (प्रतिभा) नवनवोन्मेषशालिन्यां प्रज्ञायाम्, "प्रज्ञा नवनवोभावश्च / / 58|| न्मेषशालिनी प्रतिभा मता' वाच०। प्राक् पूर्व वस्तूत्पत्तेरभावः, प्रध्वंसश्चामायभावश्च, इतरेतरस्मि पडिहाणव त्रि० (प्रतिभानवत्) प्रतिभानमौत्पत्तिक्यादिबुद्धिगुणसमनभावः, अत्यन्तं सर्वदाऽभावः / विधिप्रकारास्तु प्राक्तनैर्नोचिरे, अतः न्वितत्वेनोत्पन्नप्रतिभत्वं विद्यते यस्याऽसौ प्रतिभानवान्। अपरेणाऽऽसूत्रकृद्भिरपि नाभिदधिरे, रत्ना०३ परि० / प्रतिषिध्यतेऽनेनेति क्षिप्तत्वेऽनन्तरमुत्तरदानसमर्थे, सूत्र०१श्रु०१३ अ०। उत्पन्नप्रतिभे,सूत्र० प्रतिषेधः / वर्णे। 1 श्रु०१४ अ० / उत्पन्नबुद्धौ, सूत्र० 1 श्रु०१४ अ० / पडिसेहे उ अकारो, मकारो नो अ तह नकारो। पडिहार पुं० (प्रतिहार) नियुक्तपुरुषे, प्रतिहार इव प्रतिहारः। सुरपतिअतब्भावदुविहकाले, देसे संजोगमाइसु अ॥११॥ नियुक्ते देवे, प्रव०३८ द्वार। प्रतिषिध्यतेऽनेनेति प्रतिषेधः, को? वर्णः,स चतुर्द्धा-अकारः, मकारः, | पडिहारय त्रि०(प्रतिहारक) सर्वदोषविप्रमुक्ते, "अप्पड जाव संताणग नोकारः, तथा नकारश्च / तत्र अकारस्तद्भावप्रतिषेधं करोति, मकारः लहुयं पडिहारयं णो अहाबद्धं" आचा०२ श्रु०१ चू० 2 अ०३ उ०। पुनर्द्विविधंकालविषयं प्रतिषेधम्, तद्यथा-प्रत्युत्पन्नविषयम्, अनागत- पडिहारी स्त्री० (प्रतिहारी) प्रतिहारेऽग्रद्वारे दण्डकहस्ता तिष्ठति या सा विषयं च / नोकारो देशप्रतिषेधम्। नकारः पुनः संयोगादिषु संयोग- / तथा। द्वारपालिकायाम्, बृ०१ उ०३ प्रक० / आ० म०। समवाय-सामान्य-विशेषचतुष्टय-प्रतिषेधं करोति। बृ०१ उ०२ प्रक० / पडीण त्रि० (प्रतीचीन) अपरदिग्भागे, आचा०१ श्रु०१ चू०१ अ०२ वितथाचरणे, आ०चू०१ अ० उत्सर्गावस्थायामाज्ञायाम्, 'पडिसेहो उ० / पश्चिमत इत्यर्थे, 'पाईणपड़ीणायया" प्राचीनं पूर्वतः, प्रतीचीन णाम जा आणाउसग्गावत्थावणीयं च सूत्रमित्यर्थः' नि०चू०२० उ०। पश्चिमतः, आयता दीर्घा प्राचीनप्रतीचीनायता। स०६००० सम०। पडिसोयगमणया स्त्री० (प्रतिश्रोतोगमनता) प्रतिश्रोतसा गमनं पडीणवाय पुं० (प्रतीचीनवात) वायुकायभेदे, स्था० 7 ठा० / पडु (अ) - प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता / प्रवाहप्रातिकूल्ये, भ०६ श०३३ उ०। / पटु (क) - त्रि० दक्षे, स्था० 8 ठा० / रा० / सूत्र०ा पं०व०।" पडिमो यचारि त्रि० (प्रतिश्रोतवारिन् ) दुरादारभ्य प्रतिश्रयाभि- पडुपवणाहयचलियचवलपागडतरंगरंगंतभंगखोखुब्भमाणसोभतमुखचारिणि, स्था०५ ठा०३ उ०। नद्यादिप्रवाहविपरीतगामिनि, स्था० निम्मलुक्कडउम्मीसहसंबंधधावमाणावनियत्तभासुरतराभिरामं" कल्प० 4 ठा०४ उ० 1 अधि०३क्षण। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडुच्च 371 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पडुप्पण्णविणास पडुच्च अव्य० (प्रतीत्य) आश्रित्य इत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु०७ अ० सम्म०। आ०म०१ अ+मा० / स्था० / वर्तमानकालभाविनि, आचा०१ श्रु० दशा०। स्था०। सूत्र०ा पडुच्च त्ति पप्प तिवा, अहिकिच्च त्ति वा एगट्ठा। / 4 अ०१ उ०। भ० / जंक आतु०। वर्तमानकालीने, भ०८ श०५ उ० / आ० चू० 1 अ० / आचा० / स्था० / उत्त० / अनु० प्रतीत्य प्रकृत्य वार्त्तमानिके, स्था० 10 ठा०। अधिकृत्य इत्यर्थे, अनु०। पडुप्पण्णणंदि पुं० (प्रत्युत्पन्ननन्दि) (न्) प्रत्युत्पन्नेन लब्धेन वस्त्रपडुच्चकरण न० (प्रतीत्यकरण) किञ्चित्प्रतीत्य किञ्चि-त्करणे, शिष्यादिना, प्रत्युत्पन्नो वा जातः सन् शिष्याऽऽचार्यादिरूपेण नन्दति "एसेव कमो नियमा, छज्जे लेवे य भूमिकम्मे य / तेसालचाउसालं, यः स प्रत्युत्पन्ननन्दी, नन्दनं नन्दिरानन्दः, प्रत्युत्पन्नेन नन्दिर्यस्य स पडुच्च करणं जइ निस्सा।।" "यथा त्रिशालगृहं कर्तुकामः साधून प्रतीत्य प्रत्युत्पन्ननन्दिः / वर्तमाननन्दिके, स्था० 4 ठा०२ उ०। चतुःशालं करोति।" बृ०१ उ०२ प्रका पडप्पण्णदोस त्रि० (प्रत्युत्पन्नदोष) प्रत्युत्पन्नो वार्त्तमानिकोऽभूतपूर्व पडुच्चमक्खिय न० (प्रतीत्यम्रक्षित) अङ्गुल्या गृहीत्वा तैलेन का, घृतेन इत्यर्थः, दोषो गुणेतरः, सचातीतादिदोषसामान्यापेक्षया विशेषः, अथवा म्रक्षिते, पं०व०२ द्वार। प्रत्युत्पन्ने सर्वथा वस्तुन्यभ्युपगतेविशेषो दोषोऽकृताभ्यागमकृतविप्रपडुच्चवयण न० (प्रतीत्यवचन) समीक्षितार्थवचने, "प्रतीत्यवचनं णाशादिः, स दोषः सामान्यापेक्षया विशेष इति। विशेषभेदे, स्था० 10 समीक्षितार्थवचनं सर्वज्ञवचनमित्यर्थः" सम्म०३काण्ड। ठा०। पडुच्चसच्च न० (प्रतीत्यसत्य) प्रतीत्याऽऽश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्यं पडुप्पण्णभारिया स्त्री० (प्रत्युत्पन्नभारिता) प्रत्युत्पन्नं वर्त-मानमुत्पन्नं प्रतीत्यसत्यम्। सत्यभेदे, प्रज्ञा० 11 पद। यथा अनामिका कनिष्ठिका योच्यते, ततश्च प्रत्युत्पन्नश्वासौ भारश्च कर्मणामिति गम्यते प्रत्युत्पन्नभारः, प्रतीत्य दीर्घत्युच्यते; सैव मध्यमां प्रतीत्यहस्वेति। प्रश्न० 2 सम्व० स विद्यते यस्याऽसौ प्रत्युत्पन्नभारी, तस्य भावः प्रत्युत्पन्नभारिता / द्वार। कर्मगुरुकतायाम्, पा०। सच्चाणं भंते ! भासापज्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! पडुप्पणवयण न० (प्रत्युत्पन्नवचन) वर्तमानवचने, यथा-"पडुप्पण्णदसविहा पण्णत्ता, तं जहा-जणवयसच्चा, समुदितसच्चा, | वयणं" वर्तमानवचनं करोति / आचा०२ श्रु०१ चू० 4 अ० 1 उ०। ठवणासच्चा,नामसच्चा, रूवसच्चा, पडुच्चसच्चा, ववहार प्रज्ञा०। सच्चा, भावसच्चा,जोगसच्चा, उवम्मसच्चा। पडुप्पण्णविणास पुं० (प्रत्युत्पन्नविनाश) प्रत्युत्पन्नस्य वस्तुनो विनाशो ('पडुच्चसच्चे ति) प्रतीत्याऽऽश्रित्य वस्त्वन्तरसत्या प्रतीत्य-सत्या। विनाशनं तस्मिन्निति समासः / उदाहरणभेदे, दश०। यथा अनामिकायाः कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घत्वम्, मध्यमा-मधिकृत्य अधुना प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारममिधातुकाम आह। -हस्वत्वम् / न च वाच्यं कथमेकस्या हस्वत्वं दीर्घत्वं च तात्त्विकं हो ति य पडुप्पन्नविणा-सणम्मिगंधव्विया उदाहरणं। परस्परविरोधादिति / यतो (?) भिन्ननिमित्तत्वे परस्परविरोधाभाव सीसो वि कत्थइ जइ, अब्मोवजिज्ज तो गुरुणा / / 68|| एव / यदि कनिष्ठा मध्यमांवा एकामङ्गुलिमङ्गीकृत्य -हस्वत्वं दीर्घत्वं च भवति प्रत्युत्पन्नविनाशे विचार्ये गान्धर्विका उदाहरणं लौकिकमिति। प्रतिपाद्येत ततो विरोधः संभवेत्, एकनिमित्तपरस्परविरुद्धकार्यद्वया- तत्र प्रत्युत्पन्नस्य वस्तुनो विनाशनं प्रत्युत्पन्नविनाशनम्, तस्मिन्निति संभवात् / यदा त्वेकामधिकृत्य -हस्वत्वम्, अपरामधिकृत्य दीर्घत्वं, समासः गान्धर्विका उदाहरणमिति यदुक्तं तदिदम्- "जहा एगम्मि नगरे तदा सत्त्वाऽसत्त्वयोरिव भिन्ननिमित्तत्वात्परस्परमविरोधः / अथ यदि एगो वाणियओ, तस्स बहुयाओ भयणीओ, भाइणिज्जाय, तस्स घरस्स तात्त्विके न्हस्व-दीर्घत्वे, तत ऋजुत्व -वक्रत्वे इव कस्माते परनिरपेक्षेन समीवे राउलया गंधव्वीया संगीयं करेंति। दिवसस्स तिनि वारे ताओ प्रति-भासेते? तस्मात्परोपाधिकत्वात् काल्पनिके इमे इति। तदयुक्तम् वणियमहिलाओ तेण संगीयसद्धेण तेसु गंधव्विएसु अज्झोववण्णाओ द्विविधा हि वस्तुनो धर्माःसहकारिव्यङ्गयरूपाः, इतरे च / तत्र ये किंपि कम्मदाणं न करेंति। पच्छा तेण वाणियएण चिंतियं जहा-विणट्ठा सहकारिव्यङ्गयरूपास्ते सहकारिसम्पर्कवशात्प्रतीतिपथमा-यान्ति, एताउत्ति। को उवाओ होज्जा, न विणस्संति त्ति काउंमित्तस्स कहियं / यथा पृथिव्यां जलसम्पर्क तो गन्धः इतरे त्वेवमेवापि, यथा- तेण भण्णति-अप्पणो घरसमीवे वाणमंतरं करावेहि / तेण कयं / ताहे कर्पूरादिगन्धः? -हस्वत्व-दीर्घत्वे अपि च सहकारिव्यङ्गयरूपे, ततस्ते पाडहियाण रूवए दाउंवायावेइ। जाहे गंधव्विया संगीययं आढवेति ताहे ते तं सहकारिणमासङ्गयाभिव्यक्तिमायात इत्यदोषः, प्रज्ञा०।११ पद। पाडहिया पडहे दिति, वंसादिणोय फुसति, गायतिय।ताहे तेसिंगंधव्वियाणं पडुपडहवाइयन० (पटुपटहवादित) पटुपटहस्य महति शब्दे, कल्प०१ विग्धो जाओ, पडहसघणयण सुव्वति गीयसद्दो। तओते राउले उवहिता। अधि०१क्षण। वाणिओ सद्दाविओ। किं विग्धं करे ? ति। भणति-ममघरे देवो, अहं तस्स पडुपवणाहय त्रि० (पटुपवनाहत) अमन्देन पवनेनाऽऽस्फालिते, तिन्नि वेला पडहे दवावेमि / ताहे ते भणिया-जहा अन्नत्थ गायह / कि कल्प०१ अधि०३ क्षण। देवस्स दिवे दिवे अंतराइयं कज्जति। एवं आयरिएण वि सीसेसु अगारीसु पडुप्पण्ण त्रि० (प्रत्युत्पन्न) प्रति साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नम् / वर्तमान | अब्भोववज्जमाणेसु तारिसो उवाओ कायव्वो जहा तेसिं दोसस्स Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडुप्पण्णविणास 372 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पढम तस्स णिवारणा हवति / मा ते चिंतादिएहिं णरयपडणादिए अवाए पावेहिति। उक्तंच*"चिंतेइ, दळुमिच्छइ, दीह णीससइ, तह जरो, दाहो। भत्ताऽरोअग, मुच्छा, उम्मत्तो, ण याणई, मरणं / / 1 / / पढमे सोयइ वेगे, दटुं तं गच्छई बितियवेगे। नीससई तइयवेगे, आरुहइ जरो चउत्थम्मि।।२।। डज्झइपंचमवेगे, छट्टे भत्तं न रोयए वेगे। सत्तमियम्मि य मुच्छा, अट्ठमए होइ उम्मत्तो॥३॥ णवमे ण याणई किचि, दसमे पाणेहिं मुच्चइ मणुसो। एतेसिमवायाण, सीसे रक्खंति आयरिया / / 4 / / परलोइया अवाया, भग्गपइण्णा पडति नरएसु। ण लहंति पुणो बोहिं, हिंडति य भवसमुद्दम्मि॥५॥" अमुमेवार्थचेतस्यारोप्याऽऽह शिष्योऽपि विनेयोऽपि, क्वचिद्विलयादौ। यदीत्यभ्युपगमदर्शने। अभ्युपपद्येत अभिष्वङ्गं कुर्यादित्यर्थः। तत्र गुरुणा आचार्येण। किंचवारेयव्वु उवाएण, जइ वा बातूलिओ वदेज्जाहि। सव्वे वि नत्थि भावा, किं पुण जीवो सवोत्तव्वो // 66 // वारयितव्यो निषेद्धटयः, किं यथा कथंचित् ? नेत्याह-उपायेन प्रवचनप्रतिपादितेन यथाऽसौ सम्यग् वर्तत इति भावार्थः / एवं तावल्लौकिकं चरणकरणानुयोगं चाऽधिकृत्य व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम् / अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्याह-यदि वा वातूलिको नास्तिको वदेत् किं सर्वेऽपि घटपटादयः (पत्थि त्ति) प्राकृतशैल्या न सन्ति भावाः पदार्थाः / किं पुनर्जीवः-सुतरां नास्तीत्यभिप्रायः, स वक्तव्यः सोऽभिधातव्यः। किमित्याहजं भणसि नत्थि भावा,वयणेयं अस्थि नत्थि जइ अस्थि / एवं पइन्नाहाणी, असओ णु निसेहए को णु? ||7|| यद्भणसि यद्रवीषि न सन्ति भावाः न विद्यन्ते पदार्था इति। वचनमिदं भावप्रतिषेधकम, अस्ति-नास्तीति विकल्पौ। किं चातः?यद्यस्ति एवं प्रतिज्ञाहानिः-प्रतिषेधवचनस्याऽपि भावात्वात्तस्य च सत्त्वादिति भावार्थः / द्वितीयं विकल्पमधि-कृत्याह-(असतो णु त्ति) अथाऽसन् निषेधते, को नु निषेधकः ? वचनस्यैवासत्त्वादित्ययमभिप्रायः। इति गाथात्रयार्थः। यदुक्तं किं पुनर्जीवः ? इत्यत्रापि प्रत्युत्पन्नविनाशमधिकृत्याऽऽहणो य विवक्खापुव्वो, सद्दोऽजीवुभवो मुणेयव्यो। न य सा वि अजीवस्स उ, सिद्धो पडिसेहओ जीवो।। 71|| चशब्दस्यैवकारार्थत्वनाऽवधारणार्थत्वान्न च नैव विवक्षापूर्वो विवक्षाकारण इच्छाहेतुरित्यर्थः / शब्दो ध्वनिः, अजीवोद्भवोऽजीवप्रभव इत्यर्थः / विवक्षापूर्वकश्च जीवनिषेधकः शब्द इति मा भूद्विवक्षाया एव जीवधर्मत्वासिद्धिरित्यत आह-न च नैव, साऽपि विवक्षा यद्यस्मात्कारणादजीवस्य,घटादिष्वदर्शनात्। किंतु मनस्त्वपरिणतान्वितद्रव्यसाचिव्यतो जीवस्यैव / यतश्चैवमतः सिद्धः प्रतिष्ठितः, प्रतिषेधध्वनिः, नास्ति जीव इति प्रतिषेधशब्दादेवेत्यर्थः / ततस्तस्माज्जीवः, आत्मेत्यत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयात् / इति गाथार्थः 171 / / व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम्। दश० 1 अ०। पडुप्पण्णविणासि त्रि० (प्रत्युत्पन्नविनाशिन) प्रत्युत्पन्नं विनाशयतीत्ये वंशीलं प्रत्युत्पन्नविनाशि। अन्तरायकर्मभेदे, स्था०२ ठा० 4 उ०। पडुप्पण्णसेवि त्रि० (प्रत्युत्पन्नसेविन) प्रत्युत्पन्नं यथालब्ध सेवते भजते नानुचित विवेचयतीति प्रत्युत्पन्नसेवी,यथालब्धसेवके, पुरुषजाते स्था० 4 ठा०२ उ०। पडुप्पण्णण्ण त्रि० (प्रत्युत्पन्नज्ञ) वर्तमानार्थज्ञायके। पडुप्पवाइय त्रि० (पटुप्रवादित) पटुना दक्षपुरुषेण प्रवादितः / रा०| स्था०। निपुणपुरुषप्रवादिते, सू० प्र०१६पाहु० / प्रज्ञा०। पडप्पाएमाण त्रि० (प्रत्युत्पाद्यमान) गुण्यमाने, जी०३ प्रति० 4 अधि०। पडुह धा० (क्षुभ्) संचलने, "क्षुभेः खउरपडुहौ" // 84143|| इत्यनेन क्षुभधातोः पडुहादेशः। पडुहइ। क्षुभ्यति। प्रा० 4 पाद। पडोयार पुं० (प्रत्यवतार) प्रति सर्वतः सामस्त्येनाऽवतीर्यन्ते व्याप्यन्ते यैस्ते प्रत्यवताराः / घनोदंध्यादिवलयेषु, प्रज्ञा० 30 पदा अवतरणे, जं०२ वक्ष०। *प्रत्युपचार पुं० प्रतिकूले उपचारे, भ०१५ श०। *प्रत्युपकार पुं० उपकारं प्रत्युपकारे, पिं०। पडोयारेउं अव्य० (प्रत्युपचारयितुम्) प्रत्युपचारं करोतु, इत्यर्थे , प्रत्युपकारयितुम् अव्य० प्रत्युपकारयत्वित्यर्थे, "धम्मिएण पडोयारेणं पडोयारेउ गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं''भ०१५ श०। पडोल पुं० स्त्री०(पटोल) वल्लीभेदे ; प्रज्ञा० 1 पद। आचा०1ल०प्र०। पड्डिया स्त्री० (पड्डिका) अभिनवप्रसूतायां गवि, महिष्यां च।व्य०३ उ०। पड्डी स्त्री० देशी (प्रथमप्रसूतायाम्) "पड्डी पढमपसूआ" दे० ना० 6 वर्ग 1 गाथा। पढ धा० (पठ) भणने;"ठो ढः" ||8111196|| इति ठस्या ढः। पढइ। पठति। प्रा०१ पाद। पढ(द)म त्रि० (प्रथम) "मेथि-शिथिर-शिथिल प्रथमे थस्य ढः" | |21|| इति थस्य ढः / प्रा० 1 पाद। आद्ये, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। अनु० / विपा०। 'पढम ति पहाणं, अहव पंचण्हं पढम पहाणतरयं व मंगलं पुव्वभणियत्थं "विशे०जीवादीनामर्थानां प्रथमाऽप्रथमत्वविचारपरायणे व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रस्य अष्टादशशतकप्रथमोद्देशे। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम 373 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पढम तत्रत्या वक्तव्यता चैवम्-तत्र प्रथमोद्देशकार्थप्रतिपादनार्थमाह"तेणं कालेणं, तेणं समएणं रायगिहे. जाव एवं वयासी-जीवे | णं भंते ! जीवभावेणं किं पढमे, अपढमे ? गोयमा ! णो पढमे, | अपढमे / एवं णेरइए जाव वेमाणिए। सिद्धेणं भंते ! सिद्धभावेणं किं पढमे, अपढमे ? गोयमा ! पढमे, णो अपढमे / जीवा णं भंते! जीवभावेणं किं पढमा, अपढमा ? गोयमा ! णो पढमा, अपढमा। एवं जाव वेमाणिया। सिद्धाणं पुच्छा, गोयमा ! पढमा, णो अपढमा। ('तेण' इत्यादि) उद्देशकद्वारसंग्रहणी चेयं गाथा क्वचिद् दृश्यते"जीवा-ऽऽहारग-भव-सण्णि-लेसा-दिट्ठीय संजयकसाए। नाणे जोगुवओगे, वेएय सरीर-पज्जत्ती" ||1|| अस्याश्वार्थ उद्देशकार्थाधिगमाधिगम्यः / तत्र प्रथमदाराभिधानायाऽऽह-('जीवे णं भंते !' इत्यादि) जीवो भदन्त ! जीवभावेन जीवत्वेन, किं प्रथमः प्रथमताधर्मयुक्तः? अयमर्थः-किं जीवत्वमसत् प्रथमतया प्राप्तम्, उत ('अपमे' त्ति) अप्रथमोऽनाद्यवस्थित-जीवत्वः ? इत्यर्थः / अत्रोत्तरम्-('नोपढमे, अपढमे' त्ति) इह च प्रथमत्वाऽप्रथमत्वयो-लक्षणगाथा- 'जो जेण पत्तपुव्वो, भायो सो तेणऽपढमाओ होइ। जो जं अपत्तपुव्वं, पावइ सो तेण पढमा उ।।१।। त्ति / (एवं नेरइए' त्ति) नारकोऽप्यप्रथमः, अनादिसंसारे नारकत्वस्य अनन्तशः प्राप्तपूर्वत्वादिति। ('सिद्धे णं भंते !') इत्यादौ ('पढमे' ति) सिद्धेन सिद्धत्वस्य अप्राप्तपूर्वस्य प्राप्तत्यात् तेनाऽसौ प्रथम इति। बहुत्वेऽप्येवमेवेति। आहारकद्वारे - आहारए णं भंते ! जीवे आहारभावेणं किं पढमे, अपढमे? गोयमा ! णो पढमे, अपढमे / एवं जाव वेमाणिए / पोहात्तिए वि एवं चेव / अणाहारएणं भंते ! जीवे अणाहारभावेणं पुच्छा, गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे / जेरइए जाव वेमाणिए णो पढमे, अपढमे। सिद्धे पढमे, णो अपढमे। अणाहारगाणं भंते ! जीवा अणाहारगा पुच्छा, गोयमा ! पढमा वि, अपढमा वि / णेरइया जाव वेमाणिया णो पढमा, अपढमा। सिद्धा पढमा, णो अपढमा। एक्कक्के पुच्छा भाणियव्वा। ('आहारए णं' इत्यादि) आहारकत्वेन नो प्रथमः, अनादिभवे अनन्तशः प्राप्तपूर्वत्वाद् आहारकत्वस्य / एवं नारकादिरपि। सिद्धस्तु आहारकत्वेन न पृच्छ्यते, अनाहारकत्वात्तस्येति। ('अणाहारए णं') इत्यादौ ('सिय पढमे' त्ति) स्यादिति कश्चिज्जीवोऽनाहारकत्वेन प्रथमः, यथा सिद्धः। कश्चिच्चाऽप्रथमः, यथा संसारी, संसारिणो विग्रहगतावनाहारकत्वस्य अनन्तशो भूतपूर्वत्वादिति। ('एक्कक्के पुच्छा भाणियव्व' त्ति) यत्र किल पृच्छावाक्यमलिखितं तत्रएकैकस्मिन् पदे पृच्छावाक्यं वाच्यमित्यर्थः। भवसिद्धिए एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए। एवं अभवसिद्धिए वि। णोभवसिद्धिअणोअभवसिद्धिए णं भंते ! जीवे णोभव० पुच्छा, गोयमा ! पढमे, णो अपढमे। णोभवसिद्धिणोअभवसिद्धिए णं भंते ! सिद्ध णोभव०, एवं पुहत्तेण वि दोण्ह वि। ('भवसिद्धिए' इत्यादि) भवसिद्धिक एकत्येन, बहुत्वेन च यथा आहारकोऽभिहित एवं वाच्यः-अप्रथम इत्यर्थः / यतो भव्यस्य भव्यत्वमनादिसिद्धम्, अतोऽसौ भव्यत्वेन न प्रथमः। एवमभवसिद्धिकोऽपि। ('नोभवसिद्धिअनोअभवसिद्धिएण' इत्यादि) इह च जीवपदम्, सिद्धपदं च षड्विंशतिदण्डकमध्यात् संभवति, न तु नारकादीनि, नोभवसिद्धिकनोअभयसिद्धिकपदेन सिद्धस्यैवाऽभिधानात् / तयोश्चैकत्वे, पृथक्त्वे च प्रथमं वाच्यम्। ___ संज्ञिद्वारेसण्णी णं भंते ! जीवे सण्णिभावेणं किं पढमे ? पुच्छा, गोयमा ! णो पढमे, अपढमे / एवं विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणिए। एवं पुहत्तेण वि / असण्णी एवं चेव एगत्तपुहत्तेणं, णवरंजाव वाणमंतरा। णोसण्णीणोअसण्णी जीवे, मणुस्से, सिद्धे पढमे, णो अपढमे / एवं पुहत्तेण वि। ('सण्णी णं' इत्यादि) संज्ञी जीवः संज्ञिभावेन अप्रथमः, अनन्तशः संज्ञित्वलाभात् / ('विगलिंदियवज्जं जाव वेमाणिए' त्ति) एक द्वि त्रिचतुरिन्द्रियान वर्जयित्वा शेषा नारकादिवैमानिकान्ताः संज्ञिनोऽप्रथमतया वाच्या इत्यर्थः / एवमसंज्ञयपि। ('नवरं-जाय वाणमंतर' त्ति) असंज्ञित्वविशेषितानि जीवनारकादीनिव्यन्तरान्तानि पदानि अप्रथमतया वाच्यानि, तेषु हि संज्ञिष्वपि भूतपूर्वगत्याऽसंज्ञित्वं लभ्यते, असंज्ञिनामुत्पादात् / पृथिव्यादयस्त्वसंज्ञिन एव, तेषां चाऽप्रथमत्वम्, अनन्तशस्तल्लाभादिति / उभयनिषेधकपदं च जीव-मनुष्य-सिद्धेषु लभ्यते, तत्रच प्रथमत्वं वाच्यम्, अतएवोक्तम्-('नोसण्णी' इत्यादि) लेश्याद्वारेसलेस्से णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहा आहारए, एवं पुहत्तेण वि / कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से एवं चेव / णवरं जस्स जा लेस्सा अत्थि। अलेस्से णं जीवा, मणुस्सा, सिद्धा, नोसण्णीणोअसण्णी॥ ('सलेस्से णं' इत्यादि) ('जहा आहारए' त्ति) अप्रथम इत्यर्थः, अनादित्वात् सलेश्यत्वस्य इति। ('णवरं जस्सजा लेस्सा अत्थि' त्ति) यस्य नारकादेर्या कृष्णादिलेश्याऽस्ति, सा तस्य वाच्या / इदं च प्रतीतमेव / अलेश्यपदंतु जीवमनुष्य सिद्धेष्वस्ति, तेषां च प्रथमत्वं वाच्यं नोसंज्ञिनोअसंझिनामिवेति। एतदेवाऽऽह-('अलेस्सेणं' इत्यादि)। दृष्टिद्वारेसम्मदिट्ठीए णं भंते ! जीवे सम्मदिहिभावेणं किं पढमे? पुच्छा, गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे / एवं एगिं दियवज्जं जाव वे माणिए। सिद्धे पढमे, णो अपढमे। पुहत्ति भव्यद्वारे Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम 375 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पढम कषायित्वस्येति। ('अकसायी' इत्यादि) अकषायो जीवः स्यात् प्रथमः, यथाख्यातचारित्रस्य प्रथमलाभे; स्याद् अप्रथमः, द्वितीयादिलाभे। एवं मनुष्योऽपि / सिद्धस्तु प्रथम एव सिद्धत्वानुगतस्याऽकषायभावस्य प्रथमत्वादिति। ज्ञानद्वारे या जीवा पढमा वि, अपढमा वि, एवं जाव वेमाणिया / सिद्धा पढमा, णो अपढमा। मिच्छट्ठिीए एगत्त-पहुत्तेणं जहा आहारगा। सम्मामिच्छादिट्ठीए एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मट्ठिी। णवरं-जस्स अस्थि सम्मामिच्छत्ते। (' सम्मट्ठिीएणं' इत्यादि) ('सिय पढमे, सिय अपढमे' त्ति) कश्चित् सम्यग्दृष्टिीवः सम्यग्दृष्टितया प्रथमः, यस्य तत्प्रथमतया सम्यग्दर्शनलाभः / कश्चिचाऽप्रथमः, येन प्रतिपतितं सम्यग्दर्शन पुनर्लब्धमिति / (एवं ए गिदियवज्ज ति) एकेन्द्रियाणां सम्यक्त्वं नास्ति, ततो नारकादिदण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियान्वर्जयित्वा शेषः स्यात्प्रथमः, स्याद् अप्रथम इत्येवं वाच्यः, प्रथमसम्यक्त्वलाभापेक्षया प्रथमः, द्वितीयादिलाभापेक्षया त्वप्रथमः। सिद्धस्तु प्रथम एव, सिद्धत्याऽनुगतस्य सम्यक्त्वस्य तदानीमेव भावात् / ('मिच्छादिट्ठी' इत्यादि) ('जहा आहारग' त्ति) एकत्वे, पृथक्त्वे च मिथ्यादृष्टीनामप्रथत्वमित्यर्थः, अनादित्वाद् मिथ्यादर्शनस्येति / ('सम्मामिच्छादिट्ठी' इत्यादि) ('जहा सम्मदिहि' त्ति) स्यात् प्रथमः, स्याद् अप्रथमः प्रथमेतरसम्यग्मिथ्यादर्शनलाभापेक्षया इति भावः। ('नवरं जस्स अत्थि सम्मामिच्छत्तं' त्ति) दण्डकचिन्तायां य स्य नारकादेर्मिश्रदर्शनमस्ति स एवेह प्रथमाऽप्रथमचिन्तायामधिकर्तव्यः। संयतद्वारेसंजते जीवे, मणुस्से य एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी। असंजए / जहा आहारए / संजयाऽसंजए जीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणियमगुस्से एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मट्ठिी / णोसंजए, णोअसंजए, णोसंजयाऽसंजएजीवे, सिद्धेय एगत्त-पुहत्तेणं पढमे, णो अपढमे।। ('संजए' इत्यादि) इह च जीवपदं मनुष्यपदं च-एते द्वे एव स्तःतयोश्चैकत्वादिना यथा सम्यग्दृष्टिरुक्तः तथाऽसौ वाच्यः-स्यात् प्रथमः, स्यादप्रथम इत्यर्थः / एतच्च संयमस्य प्रथमे-तरलाभापेक्षयाऽवसेयमिति। ('असंजए जहा आहारए' ति) अप्रथम इत्यर्थः, असंयतत्वस्य अनादित्वात् / ('संजयाऽसंजए' इत्यादि) संयताऽसंयतो जीवपदे, पञ्चेन्द्रियतिर्यक्पदे, मनुष्यपदे च भवति, इत्यत एतेषु एकत्वादिना सम्यग्दृष्टिवद् वाच्यः-स्यात् प्रथमः, स्यादप्रथम इत्यर्थः / प्रथमाऽप्रथमत्वं च प्रथमे-तरदेशविरतिलाभापेक्षयेति। ('नोसंजए, णोअसंजए' इत्यादि) निषिद्धसंयमाऽसंयम-मिश्रभावो जीवः, सिद्धश्च स्यात् स च प्रथम एवेति। कषायद्वारेसकसायी कोहकसायी०जाव लोभकसायी एगत्तेणं, पुहत्तेणं जहा आहारए। अकसायी जीवे सिय पढमे, सिय अपढमे / एवं मणुस्से वि। सिद्धे पढमे, णो अपढम। पुहत्तेणं जीवा, मणुस्सा पढमा वि, अपढमा वि। सिद्धा पढमा, णो अपढमा। ('सकसायी' इत्यादि) कषायिण आहारकवदप्रथमाः अनादित्वात् | णाणी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मट्ठिी। आमिणि-बोहियणाणी जाव मणपज्जवनाणी एगत्त-पुहत्तेणं एवं चेव / णवरं जस्स जं अस्थि / केवलणाणी जीवे,मणुस्से, सिद्धे य एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, णो अपढमा। अण्णाणी मइअण्णाणी, सुअअण्णाणी, विभंगणाणी एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए। ('णाणी' इत्यादि) ('जहा सम्मद्दिहि' त्ति) स्यात् प्रथमः, स्याद् अप्रथम इत्यर्थः। तत्र केवली प्रथमः, अकेवलीतुप्रथमज्ञानलाभेप्रथमः, अन्यथा त्वप्रथम इति। ('नवरंजं जस्स अत्थि' त्ति) जीवादिदण्डकचिन्तायां यद् मतिज्ञानादि यस्य जीवनारकादेरस्ति तत् तस्य वाच्यमिति। तच्च प्रतीतमेव / ('केवलनाणी' इत्यादि) व्यक्तम्। ['अन्नाणी इत्यादि जहा आहारए' त्ति] अप्रथम इत्यर्थः, अनादित्वेन अनन्तशोऽज्ञानस्य सभेदस्य लाभादिति। योगद्वारेसजोगी, मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए। णवरं-जस्सजो जोगो अत्थि। अजोगी जीव-मणुस्सा सिद्धा एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, णो अपढमा। ('सजोगी' इत्यादि) एतद् अपि आहारकवद् अप्रथममित्यर्थः। ('जस्स जो जोगो अस्थि' त्ति) जीव नारकादिदण्डकचिन्तायां यस्य जीवादेर्यो मनोयोगादिरस्ति, स तस्य वाच्यः, स च प्रतीत एवेति / ('अजोगी' इत्यादि) जीवो मनुष्यः सिद्धश्च अयोगी भवति, स च प्रथम एवेति। उपयोगद्वारेसागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ताएगत्त-पुहत्तेणं जहाअणाहारए। ('सागार' इत्यादि) ('जहा अणाहारए' त्ति) साकारोपयुक्ताः, अनाकारोपयुक्ताश्च यथाऽनाहारकोऽभिहितस्तथा वाच्याः, ते च जीवपदे स्यात् प्रथमाः अनादित्वात् तल्लाभस्य। सिद्धपदे तुप्रथमाः नो अप्रथमाः, साकाराऽनाकारोपयोगविशेषितस्य सिद्धत्वस्य प्रथमत एय भावादिति। वेदद्वारेसवेदगोजावणपुंसगवेदगो एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए। णवरं जस्स जो वेदो अत्थि। अवेदओ एगत्त-पुहत्तेणं तिसु वि पदेसु जहा अकसाई। ('स वे दग इत्यादि जहा आहारए' ति) अप्रथम एवेत्यर्थः / ('नवरं-जस्स जो वेदो अस्थि' ति) जीवादिदण्डकचिन्तायां यस्य नारकादेयों नपुंसकादिर्वेदोऽस्ति स Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम 375 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पढम तस्य वाच्यः, स च प्रतीत एवेति। ('अवेयओ' इत्यादि) अवेदको यथा __ अधि० 4 क्षण। अकषायी तथा वाच्यस्त्रिष्वपि पदेषु जीव मनुष्य सिद्धलक्षणेषु / तत्र च पढमजिण पुं० (प्रथमजिन) प्रथमे रागादीनां जेतरि, जीव-मनुष्य-पदायोः स्यात् प्रथमः, स्याद् अप्रथमः, अवेदकत्वस्य "उसभे णामं अरिहा कोसलिए, पढमराया, पढम-जिणे, प्रथमे-तरलाभापेक्षया सिद्धस्तु प्रथम एवेति। पढमकेवली, पढमतित्थंकरे, पढमधम्मवर-चकवट्टीसमुप्पशरीरद्वारे जित्था"। ससरीरी जहा आहारए। एवं कम्मगसरीरी। जस्स जं अत्थि | प्रथमजिनः प्रथमो रागादीनां जेता, यद्वा प्रथमो मनःपर्यवज्ञा-नात्, सरीरं / णवरं-आहारगसरीरी एगत्त-पहुत्तेणं जहा सम्मद्दिट्ठी। राज्यत्यागादनन्तरं द्रव्यतः, भावतश्च साधुपदवर्तित्वेन, अत्राऽवसअसरीरी जीवो, सिद्धो एगत्त-पुहत्तेणं पढमो, णो अपढमो।। पिण्याभस्येव भगवतःप्रथमतस्तद्भवनात्ाजिनत्वं च अवधि-मनःपर्यव('ससरीरी' इत्यादि) अयमपि आहारकवद् अप्रथम एवेति / केवलज्ञानिना स्थानाङ्गे सुप्रसिद्धम्।अवधिजिनत्वे तु व्याख्यायमानेऽ('नवरं- आहारगसरीरी' इत्यादि जहा सम्भद्दिट्टि ति) स्यात् प्रथमः, क्रमबद्धसूत्रमिति श्रोतृणां प्रति ज्ञायते! जं० 2 वक्ष० / कल्प० / स्याद् अप्रथम एवेति। पढमहाणि त्रि० (प्रथमस्थानिन्) 'पढमठाणि' शब्दार्थे , पञ्चा० 16 पर्याप्तिद्वारे विव०॥ पंचहिं पज्जत्तीहिं, पंचहिं अपज्जत्तीहिं एगत-पुहत्तेणं जहा पढमठाणि त्रि० (प्रथमस्थानिन्) अव्युत्पन्नबुद्धौ, पञ्चा० 16 विव०। आहारए / णवरं जस्स जा अत्थि, जाव वेमाणिया णो पढमा, पढमतणुतिग न० (प्रथमतनुत्रिक) प्रथमा आद्या यास्तनवः शरीराणि तासां त्रिकं त्रितयं तत्र औदारिक वैक्रियाऽऽहारकस्वरूपे आये शरीरत्रये, अपढमा। ('पंचहिं' इत्यादि) पञ्चभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तकः, तथा पञ्चभि कर्म०१ कर्म०। रपर्याप्तिभिरपर्याप्तक आहारकवद् अप्रथम इति। ('जस्स जा अत्थि' पढमतित्थंकर पुं० (प्रथमतीर्थङ्कर) आद्ये चतुर्वर्णसंघसंस्थापके __ उदिततीर्थकृन्नामनि तीर्थकरे, ऋषभे जं०२ वक्ष० / कल्प० / त्ति) दण्डकचिन्तायां यस्य याः पर्याप्तयः सन्ति तस्य ता वाच्याः, ताश्च पढमदियह पुं० (प्रथमदिवस) आद्यदिने, यथा प्रतिष्ठोत्सवे अधिवासनाप्रतीता एवेति। दिनम्। पञ्चा० 8 विव०। अथ प्रथमा-प्रथमलक्षणाभिधानाय पढमदिवस पुं० (प्रथमदिवस) पढमदियह शब्दार्थे, पञ्चा०८ विव०। आह, इमा लक्खणगाहा पढमधम्मवरचक्रवट्टि पुं० (प्रथमधर्मवरचक्रवर्तिन) प्रथमो धर्मवरो जो जेण पत्तपुथ्वो, भावो सो तेण अपढमो होइ। धर्मप्रधानश्चक्रवर्ती / यथा चक्रवर्ती सर्वत्राऽप्रतिहतवीर्येण चक्रेण वर्तते सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुव्वेसु भावेसु // 1 // तथाऽयमपीति भावः / प्रथमे धर्मनायके, जं०२ वक्ष०ा ('जो जेण' गाहा) यो भावो जीवत्वादिः, येन जीवादिना कर्ता, पढमपयावइ पुं० (प्रथमप्रजापति) श्रीऋषभदेवे, इक्ष्वाकूणां महाराजे, प्राप्तपूर्वोऽवातपूर्वो भावः पर्यायः, स जीवादिस्तेन भावेन अप्रथमको स्था०६ठा०1 भवति। (' सेसेसु' त्ति) सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वात् शेषैः प्राप्तपूर्वभावव्य पढमपाउस पुं० (प्रथमप्रावृष) आषाढे, प्रावृऋतौ, "आसाढो पढमतिरिक्तैर्भवति प्रथमः, किंस्वरूपैः शेषैः ? इत्याह-अप्राप्तपूर्वैविरिति पाउसो' "अहवा छह उतूर्ण जेण पढमो पाउसो वणिज्जति तेण गाथार्थः / भ०१८ श०१ उ०। पढमपाउसो भण्णति'। नि०चू० 10 उ० / स्था० / पुंस्त्वं चाऽस्य पदमंगपरिमाण न० (प्रथमाङ्गपरिमाण) प्रथमाङ्गसंख्यायाम् प्रथमाङ्ग "प्रावृट-शरत्-तरणयः पुंसि"||१।३१।। इति सिद्धहेमसूत्रेण। स्याष्टादशसहस्रपदानि सन्ति, तत्रैकपदप्रमाणं कियत्? इति प्रश्ने, प्रा०१ पाद। उत्तरम्-पढम आयारंगं अट्ठारसपयसहस्सपरिमाणं, एवं सेसंगा वि य, पढममिक्खा स्त्री० (प्रथमभिक्षा) निष्क्रमणानन्तरं प्रथमलब्धभिक्षादुगुणा दुगुणपमाणाई"||१| एवमेकादशाङ्गानां त्रिकोटी, सप्तषष्टिलक्षाः, याम, यथा “संवच्छरेण भिक्खा, लद्धा उसभेण लोगनाहेण / सेसेहि चत्वारिंशत्सहस्रपदानि भवन्ति / तत्रैकपदस्य 51, 08, 86, 840 बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ" आ०म०१ अ०। एतावन्तः श्लोका अष्टाविंशत्यक्षराणि च भवन्ति, इत्यनुयोगद्वारवृत्ता- पढममिक्खायर पुं० (प्रथमभिक्षाचर) ऋषभदेवे, तेनैवप्रथमं भिक्षायाः विति / / 83 प्र० / सेन०३ उल्ला०। प्रवर्तितत्वात्। कल्प०१ अधि०७क्षण। पढमकरण न० (प्रथमकरण) आद्यपरिणामविशेषे, पञ्चा०३ विव० पढमराय (याण) पुं० (प्रथमराज) ऋषभदेवे, इहाऽवसर्पिण्यां नाभिकुलपढमकसाय पु० (प्रथमकषाय) अनन्तानुबन्धिसंज्ञिकषायेषु, क० प्र० | कराऽऽदिष्टयुग्मिमनुजैः, शक्रेण च प्रथममभिषिक्तत्वात्। जं० 2 वक्ष। 2 प्रक०। पं० सं०। पढमवय पुं० (प्रथमवयस्) कुमारत्वे, आ०म० अ०। पुंस्त्वं चास्य पढमकेवलि पु० (प्रथमकेवलिन) आद्यसर्वझे ऋषभदेवे, जं०२ वक्ष०। "स्नमदास-शिरो-नमः" // 11 // 32 // इति सिद्धहेमसूत्रेण / प्रा० पढमचंदजोग पुं० (प्रथमचन्द्रयोग) प्रथमे प्रधाने चन्द्रयोगे, कल्प०२ | १पाद। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमसमय 376 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पढिदूण पढमसमय त्रि० (प्रथमसमय) प्रथमः समयः प्राप्तो यस्य स तथा। | पढमा स्त्री० (प्रथमा) प्रतिपलक्षणायां तिथौ, चं०प्र०१३ पाहु०। सू० उत्पत्तिप्रथमसमये, स्था०८ ठा० न०। प्र० / 'सि (सु) औ-जस्' इति वचनत्रयात्मिकायां प्रथमाविभक्तौ / पढमसमयउववण्णग त्रि० (प्रथमसमयोपपन्नक) प्रथमःसमय उपपन्नानां | | "णिद्देसे पढमा होइ" अनु०। स्था०। येषां ते प्रथमसमयोपपन्नकाः। प्रथमसमयोपपत्तिकेषु, स्था०२ ठा० 1 | पढमाणुओग पुं० (प्रथमानुयोग) तीर्थकरादिपूर्वभवादिव्याख्यानग्रन्थे, उ० ('अपढमसमयउववण्णग' शब्दे प्रथमभागे 566 पृष्ठे अस्य दण्डक स्था० १०ठा०। उक्तः ) पढमालिया स्त्री० (प्रथमालिका) सर्वेभ्यः साधुभ्यः प्रथममेव किञ्चिद् पढमसमयएगिंदिय त्रि० (प्रथमसमयैकेन्द्रिय) प्रथमः समयो येषामेके- भोजने,ध०३अधि०। विशुद्धपिण्डं गृहीत्वा त्रिभिःकारणैस्तत्र बहिरपि न्द्रियत्वस्य ते प्रथमसमयाः, तेच ते एकेन्द्रियाश्चेतिविग्रहः। एकेन्द्रियत्व प्रथममालिकां करोतीत्याज्ञा / कारणानि च-उष्णकालः, संघाटकोऽप्रथमसमयवर्तिनि प्राणिनि, स्था० 10 ठा। सहिष्णुः, क्षपकश्चेति। यतः-"पुरिसे, काले, खवगे, पढमालिअ तीसु पढमसमयएगिदियणिव्वत्तिय पुं० (प्रथमसमयैकेन्द्रियनिवर्तित) प्रथमः ठाणेसु" ति। तत्र चायं विधिः-अप्राप्तायां भिक्षावेलायां पर्युषितान्नं समयो येषामेकेन्द्रियत्वस्य ते तथा, ते च ते एकेन्द्रियाश्चेति प्रथमस गृहीत्वा जघन्यतस्त्रिभिः, उत्कर्षतश्च पञ्चभिः कवलैर्भिक्षाभिर्वा मयैकेन्द्रियास्तैः सद्भिय निर्वर्तिताः कर्मतयाऽऽपादिता अविशेषतो अन्यपात्रे, एककरे वा कृत्वैकान्ते प्रथममालयति / गुर्वर्थ तु एकस्मिन् गृहीतास्ते तथा। प्रथमसमयैकेन्द्रियैः कर्मतामापादितेषु पुद्गलेषु, स्था० मात्रके भक्तम, द्वितीये च संसक्तपानकं पूर्वमेव पृथक्कुर्यादिति। तत्राऽपि क्षेत्राद्यतिक्रान्तादिदूषण रहितमेव भोक्तव्यम्, न पुनस्तद्दोषसहितम्: १०ठा० पढमसमयचउरिदिय त्रि० (प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय) चतुरिन्द्रियत्वस्य तस्य यतीनामकल्प्यत्वात्। तदुक्तम्प्रथमसमये वर्तमाने प्राणिनि, स्था० 10 ठा०। "जमणुगए रविम्मि अ, ताव खित्तम्मि गहिअअसणाई। पढमसमयजिण पुं० (प्रथमसमयजिन) प्रथमः समयो यस्य स तथा, स कप्पइ न तमुवभुत्तुं खित्ताइअंति समओ ति // 1 // चाऽसौ जिनश्च सयोगिकेवली प्रथमसमयजिनः। प्रथम-समयकेवलिनि, असणाईअंकप्पई, कोसद्गभंतराउ आणेउं। परओ आणिज्जंतं, मग्गाइअंति तमकप्पं / / 2 / / स्था०४ ठा०१७०। पढमप्पहराणीयं, असणाई जईण कप्पए भुत्तुं / पढमसमयणेरइय त्रि० (प्रथमसमयनैरयिक) नैरयिकत्वस्य प्रथमसमये जाव तिजामे उर्दू, तमकप्पं कालइक्कतं // 3 / / इति / ध० 3 अधि०। वर्तमाने प्राणिनि, स्था० 10 ठा०। वृ० / ओघ०। पढमसमयतेइंदिय त्रि० (प्रथमसमयत्रीन्द्रिय) त्रीन्द्रियत्वप्रथमसमय पढमावलिआ स्त्री० (प्रथमावलिका) आद्यवलिकायाम्-''पढमाऽऽवर्तिनि जीवे, स्था० 10 ठा०। वलियाए एगमेगाए" प्रथमा उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया-आद्याश्चतस्र पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाण न० (प्रथमसमयसयोगिभव आवलिका यस्मिन् सप्रथमावलिकाकः, तत्र ; अथवा प्रथमाद् मूलभूताद् स्थकेवलज्ञान) प्रथमसमये (वर्तमानः) सयोगी चासौ भवस्थश्च प्रथम विमानेन्द्रकाद् आरभ्य या चावलिका विमानानुपूर्वी, अथवा उत्तरोत्तरासमयसयोगिभवस्थः, तस्य केवलज्ञानम्, प्रथम-समयवर्तिसयोगि वलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमा आधा आवलिका / तस्याम्, भवस्थसंबन्धिकेवलज्ञाने, स्था०२ ठा०१ उ०) स०६२ सम०। पढमसमयसिद्ध त्रि० (प्रथमसमयसिद्ध) सिद्धत्वस्य प्रथम-समये पढ मिल्लुग (मि)ल्लुक त्रि० (प्रथमे) प्रथममेव प्रथमेल्लुकम्, वर्तमाने आत्मनि,स्था० 4 ठा०१ उ०। “पढमसमयसिद्धस्सणं चत्तारि देशीवचनत्वात्, विशे० / आद्ये, आव०५ अ०। उत्त०। संथा०। पं० कम्मंसा जुगवं खिज्जति। तं जहा-वेयणिज्ज, आउयं, णाम, गोय" व०।"पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहिं वि लहुगा'" वृ० 1303 प्रक०। स्था० 4 ठा० 1 उ०। पढमिल्लुगसंघयण त्रि० (प्रथमसंहनन) वजऋषभनाराचसंहनपढमसमोसरण न० (प्रथमसमवसरण) वर्षाकाले, "बितिय-समोसरण नोपेते,पं०व०५ द्वार०।। उदुबद्धं, तंपडुच्च वासावासोग्गहो पढमसमोरणं भण्णति"। (द्वितीय- पढिअ अव्य० (पठित्वा) "क्त्व इअ-दूणौ" ||8/4/271 / / इत्यनेन समवसरणमृतुवद्धम्, तत् प्रतीत्य वर्षावासावग्रहः प्रथमसमवसरणं क्त्वाप्रत्ययस्य शौरसेन्यामिआदेशः। भणित्वा' इत्यर्थे, शौरसेनीसभण्यते) नि०चू०१ उ० / वृ०। (प्रथमसमवसरणे वस्त्रग्रहणं 'वत्थ' त्कोऽयं शब्दः / प्रा०४ पाद। शब्दे) 'पढमसमवसरणं, ठवणा, जेट्टोग्गहो त्ति एते एगद्विया'' नि०चू० | पढिता अव्य० (पठित्वा) 'भणित्वा' इत्यर्थे, 'पठित्वा' इत्यतः १०उ०॥ संस्कृतरूपादेव निष्पन्नोऽयम् // 14 // 271 / / सूत्रे चाऽस्य निर्देशः। पढमसरयकालसमय पुं० (प्रथमशरत्कालसमय) मार्गशीर्षे , समय- प्रा०४ पाद। भाषया मार्गशीर्षपौषौ शरद् अभिधीयते, तत्र मार्गशीर्षस्य प्रथमत्वात्। पढिदूण अव्य० (पठित्वा)"क्त्व इअ-दूणौ" ||8/4/271|| इत्यनेन भ०१५ श०। क्त्वाप्रत्ययस्य दूणादेशः / 'भणित्वा' इत्यर्थे, प्रा०४ पाद। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढिमा 377 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पढिमा पढिमा स्त्री० (प्रतिमा) "चूलिकापैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्यद्वितीयौ" ||8/4:325 / / इति सूत्रे निर्दिष्टोऽयं शब्दः / बिम्बे, प्रा०४ पाद। अभिग्रहविशेषे, "तत्संबन्धिप्रतिष्ठित जिनबिम्बं वन्य तर्हि ते कथ न वन्द्याः ? इति प्रश्ने, उत्तरम्- "पासत्थो उसन्नो कुसीलसंसत्तउ अहाछंदो / दुगदुगदुगेण तिविहा, अवंदणिज्जा जिणमयम्मि'' ||1|| इत्यादिवचनात्तेषामन्द्यत्वम्, प्रतिमानांत्वन्यतीर्थिकपरिगृहीतप्रतिमाव्यतिरेकाणान्यासां वन्द्यत्वमस्तीति / 130 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / अभिनिवेशमिथ्यादृकप्रतिष्ठितं जिनबिम्बं वन्द्यतां प्राप्तं तत्र किं बीजम् ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-आत्मपूर्वसूरिभिस्तद्वन्दनादौ अनिवारणमेव बीजम्, किंच शास्त्रेऽभिनिवेशमिथ्यादृष्टित्वं निन्हवानां प्रोक्तम्, सांप्रतीना रक्तमतिनो दिगम्बरं विहाय निन्हवा इति न व्यवन्हियन्ते, तथैव गुर्वादीनामाज्ञासद्भावादिति / 131 प्र० / सेन०२ उल्ला० / अप्रतिष्ठितजिनबिम्बमर्चयतः, पादादिनाऽऽशातयतो वा लाभालाभौ न वा ? इति / लाभश्चेत्तर्हि प्रतिष्ठायां किंप्रयोजनम् ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-अप्रतिष्ठितप्रतिमानां वन्दने व्यवहारो नास्तीति कथं लाभः? आशातनाकरणे तु प्रत्यवायो भवत्येव, तासु तीर्थकरा-कारोपलम्भादिति // 133 प्र० / सेन० 2 उल्ला०। श्राद्धविधिवृत्तौ प्रतिमायाः सृष्ट्या नवागतिलककरणमुक्तं तत्र प्रथमं किं वामपादे तत्कर्तव्यम्, अथवा दक्षिणपादे ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-जिनप्रतिमायाः पूजाकरणावसरे नवाङ्गेषु तिलकानि दक्षिणचरणादारभ्याऽङ्गसृष्ट्या विधेयानीति 213 प्र०। सेन०२ उल्ला० / आचार्यादीनां प्रतिमास्तूपप्रतिष्ठाऽक्षराणि कुत्र ग्रन्थे सन्ति? इति प्रश्ने, उत्तरम्आचार्यमूर्ति स्तूपयोःस्थापनमन्त्रो यथा-"उँनमो आयरियाणं, भगवंताणं, नाणीणं, पंचविहायारसुट्टियाणं; इह भगवंतो आयरिआ अवयरंतु, साहु-साहुणी-सावय-साविआपूर्य पडिच्छंतु, सव्वसिद्धिं दिसंतुस्वाहा' अनेन मन्त्रेण वासक्षेपः। उपाध्याय-मूर्तिस्तूपयोः उँनमो उवज्झायाणं, भगवंताणं, बार-संगपढणपाढगाणं, सुअहराणं सज्झायज्झाणसत्ताणं; इह उवज्झाया भगवंतो अवयरंतु, साहु-साहुणी सावय सावियापूअं पडिच्छंतु, सव्वसिद्धिं दिसंतु 'अनेन मन्त्रेण वासक्षेपः। साधु-साध्वीमूर्ति स्तूपयोः- “ओनमो सव्वसाहूणं. भगवंताणं, पंचमहव्वयधराणं, पंचसमियाणं, तिगुत्ताणं, तवनियम-णाण-दसण-जुत्ताणं, मुक्खसाहगाणं, साहुणो भगवंतो इह अवयरंतु भगवईउ साहुणीउ इह अवयरंतु, साहु-साहुणी-सावय-साविआकयं पूअंपडिच्छतु, सव्वसिद्धिं दिसंतु स्वाहा'' अनेन मन्त्रेण वासक्षेप इत्याचारदिनकरे श्रीवर्द्धमानसूरिकृते, इत्यादिग्रन्थानुसारेण आचार्यादीनां प्रतिमास्तूपप्रतिष्ठापनाक्षराणि ज्ञेयानीति॥७ प्र० 1 सेन० 3 उल्ला० / विक्रयकारिसमुच्छेदितनाम लाञ्छनानां प्रतिष्ठितार्हत्प्रतिमानां पुनर्लक्ष्मादिकरण शुद्ध्यति न वा? इति प्रश्ने, उत्तरम्तासामभिधान लक्ष्मादिकरणं प्रायो न शुक्ष्यति कदाचित्कारणे यद्यावश्यकं कर्तव्यं स्यात् तदा तद्विधानानन्तरं प्रतिष्ठितवासक्षेपादिना शुद्धिर्भवतीति श्रीभगवत्पादानामनुशिष्टिरिति / / 25 प्र० / सेन०३ उल्ला० / प्रतिमाधरो यतिर्यदि परीषहादिना न क्षुभ्यति तदाऽवधिज्ञानादि प्राप्नोति, यदि च क्षुभ्यति तदोन्मत्तरोगातङ्कादि वा प्राप्नुयात् परं स कथं क्षुभ्यति? यतः स्वयं पूर्वधरस्ततः पूर्वं दत्तोपयोगो भविष्यति, पूर्वधराऽऽज्ञया च प्रतिमा प्रतिपन्नोऽस्तीति प्रश्ने उत्तरमयथा प्रतिमाप्रतिपत्तुःस्वयं पूर्वधरत्वम् तथाऽऽज्ञादातुरपि, तथाऽपि तयोश्छद्यस्थत्वे तस्मिन्समये श्रुतोपयोगाभावोऽपि भवति नेन स कथं क्षुभ्यति इत्याशङ्कानिरवकाशः इति / 142 प्र० सेन० 3 उल्ला० पञ्चशतधनुःप्रमा-णाया:प्रतिमायाःपूजनं कया युक्त्या देवैर्विधीयते, किंच कुर्यादुत्प्लुत्य वा? तत्र राजप्रश्नीयमध्ये महत्परिमाणशरीर सूर्याभदेवेन कृतमित्युक्तम, उत्प्लुत्य तु न शोभते, यथा भवति तथा प्रसाद्य-मिति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रतिमानुसारेण देवाःशरीरं कृत्वा पूजां कुर्वन्ति, अनभिधाने त्वविवक्षैव बीजमिति संभाव्यते। 183 प्र०। सेन० 3 उल्ला० / जिनालये क्षेत्रपालप्रतिमाया मानने, पूजने, सिन्दूरचढापने च सम्यक्त्वस्य दूषणं लगति न वा? इति प्रश्ने, उत्तरम् क्षेत्रपालप्रतिमायाः क्षेत्ररक्षाकरत्वेन सिन्दूर-तैलचढापने दूषणं न लगति, मानने तु सम्यक्त्वस्य दूषणं लगतीति। 217 प्र०। सेन०३ उल्ला० / अष्टम्यां प्रतिमाया स्वयमारम्भकरणनिषेधोऽस्ति, तत्र सचित्तपुष्पादिभिः पूजा करोति न वा ? इति प्रश्ने उत्तरम्-तत्र पूजां करोति परं प्रयोगेण सचित्तपुष्पादिभिः कारयति, परं तत्र स्वयं सचित्तपुष्पादिभिः पूजा न करोतीति। 226 प्र०। सेन०३उल्ला०। पञ्चम्यां प्रतिमायां कच्छटिकावालन निषिद्धमस्ति तदाश्रित्य कश्चिद्वक्ति-रात्रौ चतुर्दिक्षु कायोत्सर्गे एव कच्छटिका न वालनीयाऽन्यदा सर्वकालं कच्छटिका वालनीयैव तदाश्रित्य , कथमस्ति? इति प्रश्ने, उत्तरम्-पञ्चमीप्रतिमातो बद्धकच्छ इत्येवं ग्रन्थे दृष्टमस्तीति कायोत्सर्गकाले एव कच्छटिका मोच्येति यो वक्ति स एवं प्रष्टव्यः एवं विधान्यक्षराणि क सन्ति ? इति / 307 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / चन्दनवत्प्रतिमानां कस्तूरीलेपः क्रियते नवेति प्रश्ने, उत्तरम्-जिनप्रतिमानां कस्तूरीलेपो न क्रियत इत्यक्षराणि न सन्ति, प्रत्युत सामान्यतस्तत्करणाक्षराणि श्राद्धविध्यादौ सन्ति, यक्षकईममध्यगता तु कस्तूरी सांप्रतमपि जिनार्चने व्यापार्यमाणा दृश्यते इति / 365 प्र०। सेन०३ उल्ला। प्रतिष्ठितजिनप्रतिमाविक्रयकारिभिः समुच्छेदितनामलक्षणाः श्राद्धैव्यव्ययेन गृहीताः सन्ति, तेन तन्नामोचारावसरे कस्य जिनस्येयं प्रतिमेति वक्तुं कथं शक्यते ? ततो यदि लक्ष्मादिकरणविधिर्भवति तर्हि तथा प्रसाद्यमिति प्रश्ने,उत्तरम् -प्रतिष्ठित-जिनप्रतिमानामभिधानलक्षणादि प्रायस्तु न कर्त्तव्यम् पुनः प्रतिष्ठाकर्तुरज्ञातत्वादिकारणेन यद्यावश्यकं कर्त्तव्यं भवति तदा तद्विधाय प्रतिष्ठितवासक्षेपादिना शुद्धिर्भवतीति ज्ञायते इति / 41 प्र० / सेन० 4 उल्ला० / श्रावकः, श्राविका वा चतुर्थीपौषधप्रतिमां वहते, तस्य सामाचार्यनुसारेण चतुर्विधाहारपोषधः कर्तव्यः कथितोऽस्ति, तथा समवायाङ्ग वृत्त्यनुसारेण तु त्रिविधाहारः संभवति, तस्मास्त्रिविधाहारपौषधं विहाय चतुर्थी प्रतिमा वहते, किं वा न ? इति प्रश्ने, उत्तरम् प्रवचनसारोद्धारादिग्रन्थे श्राद्धचतुर्थप्रतिमायां चतुष्पव्वीदिने परिपूर्णश्चतुष्प्रकारपौषधः कथितोऽस्ति, तदनुसारेणाऽष्टप्रहरपौषधश्चतुर्विधाहारोपवासः कर्तव्यो युज्यते, परं सामाचार्यनुसारेणैतावान् विशेषो ज्ञायते-यत्पक्षिकायां षष्ठकरणशक्तिर्न भवति तदा पूर्णिमायाममावस्याया त्रिविधाहारोपवासस्तथाऽऽचाम्ल-शक्त्यभावे निर्विकृतिकमपि कर्त्तव्यम्, तत्र प्रथमोपवासस्तु शास्त्रानुसारेण चतुर्विधाहारोपवासः कर्त्तव्य इति ज्ञायते। समवायाङ्ग Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढिमा 378 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पणट्ठपव्व वृत्त्यनुसारेण तु त्रिविधाहारोपवासः कर्त्तव्य इति व्यक्तिर्न ज्ञायते। 48 ठा० / सूक्ष्मभेदे, कल्प। प्र० / सेन० 4 उल्ला० / अष्टमप्रतिमानवमप्रतिमयोरारम्भ-वर्जनम्, से किं तं पणगसुहुमे ? पणगसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहादशमप्रतिमायां सावधाहारवजनं च क्रियते, अन्यथा वा? इति प्रश्ने, किण्हे,नीले,लोहिए, हालिद्दे, सुक्किले / अत्थि पणगसुहुमे उत्तरम्-अष्टमप्रतिमायामारम्भोऽष्टमासान् यावत् स्वकायेन त्यज्यते, दव्वसमाणवण्णे नामं पण्णत्ते / जे छउमत्थेणं वा निग्गंथेणं वा, नवम्यामप्यारम्भो नवमासान्यावत्परेण न कार्यते, दशम्यां च दशमासान णिग्गंथीए वा जाव पडिलेहियध्वे भवइ / से तं पणगसुहुमे। यावत्स्वार्थनिष्पन्नाऽऽहारपानी-यादिवस्तुन गृह्णति, परार्थनिष्पन्नाऽऽ- ('से किंतं पणगसुहुने') तत्कः सूक्ष्मः पनकः; गुरुराह-('पणगसुहुभे हारादिकं तु गृह्णाति इति / 132 प्र० / सेन० 4 उल्ला० / परपक्षिणां पंचविहे पण्णत्ते') सूक्ष्मपनकः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः। ('तं जहा') तद्यथाप्रतिमास्थापनादिके प्रतिष्ठा अर्यते न वा? इति प्रश्ने, उत्तरम्-यदि ('किण्हे जाव सुकिल्ले') कृष्णः यावत् शुक्लः ('अस्थि पणगसुहमे ततस्तदाशातना न भवति तदा तत्प्रतिष्ठाप्पणे न कार्या बाधेति। 136 तद्दवसमाणवन्नए नाम पन्नत्ते') अस्ति सूक्ष्मः पनकः, यत्रोत्पद्यते प्र०ा सेन०४ उल्ला०। तद्रव्यसमानवर्णः प्रसिद्धः प्रज्ञप्तः / ('जे छउमत्थेणं निग्गंथेणं वा, * प्रथिमन् पु० पृथुत्वे। निगंथीए वा जाव पडिलेहिअव्वे भवई') यश्छदास्थेन साधुना,साध्व्या पढिय त्रि० (पठित) अधीते, पञ्चा०१६ विव०। यावत्प्रतिलेखितव्यः भवति।पनक उल्ली; सच प्रायः प्रावृषि भूकाष्ठादिषु पढियव्व त्रि० (पठितव्य) अन्वाख्यानविधिना अध्येतव्ये, पं० सू०१ सूत्र। / जायते; यत्रोत्पद्यते तद्व्यसमवर्णश्च ('नामंपन्नत्ते') इत्यत्र नाम प्रसिद्धी पण न० (पण) आनतादिषु विमानभेदे, स०१६ सम०। (सेत्तं पणगसुहुने) स सूक्ष्मपनकः / कल्प०३ अधि०६ क्षण। पञ्च पञ्चसंख्यायाम्। पणगाइन० (पञ्चकादि) समयभाषात्वात् पञ्चकदशकप्रभृतौ प्रायश्चित्ते, पणअपुं० (पनक) देशी पङ्के, दे० ना०६ वर्ग 7 गाथा। पञ्चा० 15 विव०। पणअत्तिअ (देशी) प्रकटिते. दे० ना०६ वर्ग०३० गाथा। पणट्ट त्रि० (प्रनष्ट) प्रकर्षण नष्टो दृष्ट्यगोचरतां गतः / उत्त० 4 अol पणअन्न त्रि० (पञ्चाशत्) पंचावण' शब्दार्थ (अस्मिन्नेव भागे 54 पृष्ठे | अदृश्यतां गते, अपगते, सूत्र०१ श्रु०१अ०२ उ०।। अस्य साधना दृश्या) पणजम्मणक्खत्त न० (प्रनष्टजन्मनक्षत्र) अज्ञानजन्मभे,तत्परिज्ञानमपणइ त्रि० (प्रणयिन्) सेहयुक्ते, "रमणो कंतो पणई, पाणसमो पियसमो | गेतनशब्दे। ज्यो० 20 पाहु०। दइओ' पाइ० ना०६१ गाथा। पणदीव त्रि० (प्रनष्टदीप) प्रनष्टसम्यक्त्वे उत्त० 4 अ०। पणग न० (पञ्चक) पञ्चावयवे समुदाये / पञ्चरूपकमूल्ये, बृ०३ उ०। पणठपव्व न० (प्रनष्टपर्खन) क्षयपर्वणि, ज्यो०। 'पणग' ति समयभाषात्वात् पञ्चक-दशक-प्रभृतिना क्रमेण प्रायश्चित्त- तचैवम्-अमावस्या पौर्णमासीप्रतिपादकैकोनविंशतितमात् प्राभृतादवृद्धिवर्धन यथा यथा विकटयतीति प्रकृतम्, इह चलघावऽतीचारे पञ्चकं नन्तरं प्रनष्टपर्वप्रतिपादकं विंशतितमं यथानु पूर्व्या क्रमेण वक्ष्यामि, नाम प्रायश्चित्तम् / ध०२ अधि०। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपनक पुं० आगन्तुकप्रतनुद्रवरूपकर्दमे, बृ०६ उ०। "आगंतूय-पयणुओ, जइ कोई पुच्छेञ्जा, सूरे उद्वितियम्मि अमियस्स। दुओ पणओ" आगन्तुकप्रतनुको द्रुतश्च पनकः, वृ०६ उ० / स्या०।। एका कला, पडिपुन्ना किं पुव्वं का तिही होइ? प्रतले कर्दमविशेषे, भ०७ श०६ उ० प्रश्न० / पञ्चवणे साइकुरे, कोऽपि शिष्यःपृच्छति यदि सूर्ये उत्तिष्ठति उदयमाने अभिजितो नक्षत्रस्य अनड्कुरे वा अनन्तवनस्पतिविशेषे, बृ०४ उ० / नि० चू० / काष्ठादौ एका परिपूर्णा कला सप्तषष्टिभागरूपा चन्द्रमसा प्रतिपत्ता भुक्ता भवति उल्लीविशेषे, आचा०१ श्रु०१ अ० 2 उ०। आव०। कल्प० / आ० चू० / तदा तस्मिन् दिवसे कि पर्व वर्तते, का वा तिथिः? एवं शिष्येण प्रश्ने कृते पनक उल्लिरिति वनस्पतिविशेषः। दश० 8 अ०। नि० चू० / पिं०। सति सूरिः शेषनक्षत्रदर्शनादिति विवक्षितं नष्टपर्व जानीयादिति। प्रज्ञा० / दशा०। तद्विषयं करणमाहपणगजीव पुं० (पनकजीव) पनकश्चासौ जीवश्च पनकजीवः, नं० नक्खत्ताउ अभिजि-मुपादाय संखिवेऊण। वनस्पतिविशेषे, विशे०। (तस्य शरीरमानमतिसूक्ष्मम्, एतच्च ओहि' इच्छिअकलूणकालम्मि, इणमो भवे करणं इसित्ता // शब्दे प्रथमभागे 146 पृष्ठेऽदर्शि)। नक्षत्रात् पूर्वमभिजितमुपादाय याः कलास्ता एकत्र संक्षिपन मीलने पणगमट्टिया स्त्री० (पनकमृत्तिका) पृथ्वीकायभेदे, स च नद्या- ततो या पइसित्ताब विवक्षिताः कलास्ताभिरूने काले सति इदं वक्ष्यमाणं दिपूरप्तावितदेशे नद्यादिपूरेऽपगते यो भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो जलमलाऽपर- भवति करणम्। पर्यायः पङ्कः स पनकमृत्तिका; तदात्मका जीवा अपि अभेदोपचारात् तदेवाहपनकमृत्तिका / जी० 1 प्रति० / प्रज्ञा०। छेऊण इच्छियं तेरसेहि तिनउइपडितं तु। पणगसुहम न० (पनकसूक्ष्म) पनक उल्ली, स च प्रायः प्रावृट्-काले संगुणए अट्ठारस-हि सएहिं तीसेहिं भइया / / भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनो भवति स एव सूक्ष्मम्। स्था०८ | तम्मि एगसट्ठीउ, विभत्ते जं लद्धा ते य होति पक्खेवा। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणट्ठपव्व 376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पणमिय पन्नरसभागलद्धा, पव्वगा अंसगा य तिही।। भवति-पञ्चवर्णरूपा संख्या छेदं सहते तावती छिन्द्यात्, छित्त्वा च छित्त्वा अपनीय, छेदमीप्सितकलारूपं यत् शेष लभ्यते तत्र त्रयो- शेषाणि यानि वर्षाणि तिष्ठन्तितानि पर्वाणि कुरु , कृत्वा च पर्वराशिमानः दशभिः शतैस्त्रिनवत्यधिकैर्भजेत्, भक्ते च सति यत् शेषमवतिष्ठते पर्वपुरुषः संप्रदायात् चतुरशीतिसंख्यो वर्तमानः समस्तोऽपि एकत्र तत्प्रतिराश्यते, प्रतिराश्य चतस्मिन्ने कषष्ट्या प्रविभक्ते च सति यल्लभ्यते मील्यते, ततो वर्तमानं पर्वराशिम्, तिथिराशिरष्टरूपः, इत्थंभूत च ते प्रक्षिप्ताः प्रक्षेपणीया राशयो ज्ञातव्याः, तेषु च प्रतिक्षिप्तेषु प्रतिराशी, वर्तमानं पर्वराशि तिथिराशिं च शोधयित्वा ये अवधिराशिं च प्रक्षियेत् तस्य पशदशभिगि हृते यल्लभ्यते तानि पर्वाणि द्रष्टव्यानि, अंशास्तु प्रक्षिप्य वाधिककपर्वराशेयुगपर्वराशिं योधयित्वा शेषं पूर्वोपदेशेन कुर्यात् तिथयः एवं करणगाथाक्षरार्थः / संप्रति भावना क्रियते-तत्र यत्पृष्टम् एष करणगाथाक्षरार्थः / भावना त्वियम्-कस्यापि जातस्य नव वर्षाणि, उदयति सूर्य अभिजित एका कला चन्द्रमसा भुक्ता स्यात् तत्तस्मिन् त्रयो मासाः, एकः पक्षः, पञ्च दिवसाः एष जातस्य कालः / अत्र किं दिवसे किं पर्ववर्तते, का वा तिथिः? इति। तत्रसाएका कला त्रयोदशभिः चन्द्रनक्षत्रम्, सूर्यनक्षत्रं वा? अत्र स्थापना प्रथमतः सर्वोपरि नव वर्षा शतैस्त्रिनवतिअधिकैर्गुण्यते, जातानित्रयोदशशतानि त्रिनवत्यधिकानि | ध्रियन्ते, तेषामधस्तात् ये मासाः, तेषां वाऽधस्तात् पञ्चमी / अत्र 1363 / तेषामष्टादशभिः शतैस्त्रिनवत्यधिकैर्भागो न लभ्यते इति शेषः वर्षराशेःपञ्चसंज्ञितेन युगेन भागो व्हियते, स्थितानि शेषाणि चत्वारि, करणविधिविधीयते। तत्र त्रयोदशशतानि त्रिनवत्यधिकानि प्रतिराश्यते, तानि पर्वाणि कर्तव्यानि, तत्र वर्षे चतुर्विशतिः पर्वाणि, ततश्चत्वारः प्रतिराश्य च मूलराशेस्त्रिषष्ट्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिः 22 सा चतुर्विशत्या गुण्येत जाता पण्णवतिः, त्रिषु मासेसुषट् पर्वाणि, तान्यपि प्रतिराशौ प्रतिक्षिप्यते, जातः प्रतिराशिश्चतुर्दश शतानि पञ्चदशोत्तराणि | तत्र प्रक्षिप्यन्ते, चतुषु वर्षेष्वेकोऽधिको मासः संवृत्तस्तत्र च द्वे पर्वणी, ते 1415 / तेषां यद्दशभिर्भागो हियते,लब्धा, चतुर्नर्वतिः 64 शेषास्ति- अपि प्रक्षिप्ते यदि चैकं पर्व, तदपि तत्र प्रक्षिप्तम, जातं सर्वसंख्यया छन्ति पञ्च, आगतंच पुनर्नवतितमेपर्वणि पञ्चम्यामुदयति सूर्य अभिजितः पञ्चोत्तरं पर्वशतम् / अतो वर्तमानानि चतुरशीतिपर्वाणि शोध्यन्ते, कला चन्द्रमसा प्रतिपन्ना भवति तदा किं पर्व वर्तते का वा तिथिरिति। स्थितानि शेषाणि एकविंशतिः पर्वाणि, पञ्चतोऽअष्टौ न शुध्यन्ति तत् तत्राभिजितः कला एकविंशतिः, श्रवणनक्षत्रस्य सप्तषष्टिः, धनिष्ठाया एकविंशतेरेक रूपमादाय पञ्चदश भागाः क्रियन्ते, ते च पञ्चदशपञ्चसु एकाकलेति / सर्वसंकलनेन जाता एकोननवतिः 53 इत ईप्सिता मध्ये प्रक्षिप्ता जाता विशतिस्ततोऽष्टौ शुद्धाः स्थिता द्वादश, आगतं धनिष्ठासत्का एका शोध्यते, स्थिता पश्चादष्टाशीतिः 88 एवं राशि युगाऽऽदौ विंशतः पर्वसु गतेषुद्वादश्यां चन्द्रगतं सूर्यगतं या यत् नक्षत्रं सत् त्रयोदशभिः शतैस्त्रिनवत्यधिकैर्गुणयेत जातमेकं लक्षं त्रयोविंशति- तस्य नक्षत्रमवसेयम् / यथा-योगमन्यस्याऽपि जन्मनक्षत्रमानेतव्यम्, सहस्राणि नव शतानि सप्तत्यधिकानि 123677 तेषामष्टादशभिः एवमनागतमपि जन्मनक्षत्रमानयितव्यमिति / / इतिश्रीमलयगिरिविरशतैर्भागो हियते, लब्धं त्यज्यते,स्थितानि शेषाणि त्रयोदश शतानि चितायां ज्योतिष्करण्डकटीकायां नष्टपर्वप्रतिपादकं विंशतितमं प्राभृतं सप्तषष्ट्यधिकानि 1367 तानि प्रतिराश्यन्ते 1367 तत आदिमस्य समाप्तम्। ज्यो०२० पाहु०। रोशेरकषष्ट्या भागहरणं लब्ध्वा द्वाविंशतिः सा प्रतिराशौ च प्रक्षिप्यते पणट्ठवाबाह त्रि० (प्रनषव्यावाध) प्रकषण नष्टाः क्षीणा व्याबाधा येषां ते जातानि त्रयोदश शतानि नवाऽशीत्यधिकानि 1386 तेषां पञ्चदशभि- तथा-सर्वव्याबाधवर्जितेषु, पं० सू०१ सूत्र० / भर्भागोन्हियते, लब्धा द्विनवतिः, शेषास्तिष्ठन्ति। तत आगतं द्विनवतितमे / पणट्ठसंधि त्रि० (प्रनष्टसन्धि) सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणपत्रार्द्धद्वयसन्धौ, पर्वणि नवम्यामुदयति सूर्ये धनिष्ठाया एका कला चन्द्रमसा प्रतिपन्नेति, प्रव०४ द्वार। प्रज्ञा०। एवं सर्वत्रापि भावना भावनीया। पणतीस स्त्री० (पञ्चत्रिंशत्) पञ्चाधिकत्रिंशत्संख्यायाम, स०६८ सम०। सम्प्रति प्रनष्टजन्मनक्षत्रपरिज्ञानार्थकरणमाह पणद्ध त्रि० (प्रणद्ध) परिगते, औ०। समइच्छि एसु वासेसु, कोइ पुच्छेज्ज जम्मनक्खत्तं / पणपन्निय पुं० (पञ्चप्रज्ञप्तिक) व्यन्तरभेदे, प्रव० 164 द्वार। जायस्स वरिससंख पव्वाणि, तिहिं व ठाविज्जा छित्तूण / / पणबंध पु० (पणबन्ध) प्रतिज्ञाबन्धे,आ०क० 1 अ० / वरिससंखं पंचसु, सेसाणि कुणसुपव्वाणि। [पणबन्धोदाहरणम् 'उप्पत्तिया' शब्दे द्वितीयभागे 827 पृष्ठे उदाहृतम्। ततो उ वट्टमाणं, सोहेजा एवं तिहिरासिं // ग्लहे, (होड) नियमविशेषबन्धने, यदि भवानिदं कुर्यात् तर्हि इदमहं अवसेसं साहिंतो,संपयकालमिव आणएव सव्वं / भवते दास्यामीति समयकरणं पणबन्धः / वाच०। जं जं इच्छसि किंचि, अणागयं वा वि खेवेणं / / पणमिऊण अव्य० (प्रणम्य) प्रकर्षण भावपूर्वकं मनोवाकायैर्नत्वेत्यर्थे, ('समइच्छिएसु') समतिक्रान्तेषु वर्षेषु कोऽपि स्वकीयं जन्मनक्षत्र ध०१ अधि०। आव०। पृच्छेत, यथा किं मम जन्मकाले नक्षत्रमासीत् ? इति / एवं पृष्ट सति | पणमिच्छ पञ्चमिथ्यात्व न० (पञ्चप्रकारे) मिथ्यात्वे, कर्म० 4 कर्म० / जातस्य सतस्तस्य या वर्षसंख्या अतिक्रान्ता तां पर्वाणि, तिथीश्च | पणमिय त्रि० (प्रणमित) नन्तुमारब्धे, प्रशब्दस्यादिकार्थत्वात् / स्थापयेत्, स्थापयित्वा च वर्षसंख्यां पञ्चविषयां छिन्द्यात्, किमुक्तं | ओघ०। ज्ञा० / जं० Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणमत्ति 380 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पणिहाण पणमुत्ति स्त्री० (पणमुक्ति) राजकुले व्यवहारविशेषे, आ० म०१ अ०। | | पणियभंडन० (पणितभाण्ड) पणितंव्यवहारस्तदर्थ भाण्डम्, पणितं वा पणय त्रि० (प्रणत) निमे, रा०। जं०। प्रवीभूते, सूत्र० 1 श्रु०२ अ०३ क्रयाणकं तद्रूपं भाण्डं न तु भाजनमिति पणितभाण्डम्। पणितार्थभाण्डे, उ०। आचा० / प्राप्ते, सूत्र०१ श्रु०४ अ० 1 उ०। खर्वे, स्था० 4 ठा०१ भ० 15 श०। उ०1पअत्र चतुर्भङ्गी 'पुरिसजाय' शब्दे वक्ष्यतेब पणियभूमि स्त्री० (पणितभूमि) भाण्डविश्रामणस्थाने, भ०१५ श० / * प्रणय पुं० रोहे, ज्ञा० 1 श्रु० अ०। वजभूम्याख्याऽनार्यदेशे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। तत्र हि वीरस्वामिपणयखेड्य न० (प्रणयखेदित) प्रणयरोषणे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० नामेकं चातुर्मास्यं जातम्। पणयभंग पु० (प्रणयभड्ग) प्रार्थनाभङ्गे, बृ०३ उ०। तएणं अहंगोयमा ! गोसालेणं मंखलीपुत्तेणं सद्धिं पणियभूमीए पणयासण न० (प्रणतासन) निम्रासने, जी०३ प्रति० 4 अधिकारा०ाज।। छवासाइं लाभं, अलाभ, सुहं, दुक्खं, सक्कारं, असक्कारं पणव पुं० (पणव) भाण्डपटहे, लघुपटहे च / जं० 3 वक्ष० / रा०ा प्रश्नः / पच्चणु-भवमाणे अणिच्चजागरियं विहरित्था। भ० / कल्प०। ज्ञा० / पणवो भाण्डपटहो लघुपटह इत्यन्ये। औ01 नं०। पणितभूमेरारभ्य प्रणीतभूमौ विहृतवानिति योगः / भ० 15 श०। पणस पुं०(पनस) पकटहरब वृक्षभेदे, आचा०२ श्रु०२ चू०१३ अ०॥ * प्रणीतभूमि स्त्री० मनोज्ञभूमिः / भ०१५ श०। पणसुन्न न० (पञ्चशून) पंचसुण्ण' शब्दार्थे , प्रव० 35 द्वार। पणियसाला स्त्री० [प (णित) ज्यशाला हट्टे, आचा०१ श्रु० ज्ञा०६ अ० पणाम पुं० (प्रणाम) नमस्कारे, आतु०। विनये, आव०२ अ०॥ प्रणिपाते, 2 उ०। 'पणियसाला जत्थ भायणाणि विक्कति वाणिय कुम्भकारो या रस चोत्कृष्टतः पञ्चाङ्गो ज्ञातव्यः संघा०१ अधि०१ प्रस्ता०ा "तिन्नि चेय एसा पणियसाला। नि० चू०१६ उ०ा आचा०। घघशालायाम, दशा० फ्णामा' संघा० 1 अधि० 1 प्रस्ता० / [पणामत्रिकम् 'चेइयवंदण' शब्दे १०अ०। तृतीयभागे 1268 पृष्ठे व्यख्यातम्] कोलालियावणो खलु, पणिसाला..................! *अर्पि धा० / "अरल्लिवचंचुप्पपणामाः" ||8|4|36 / / इति कोलालिकाः कुलाक्रयविक्रयिणस्तेषां आपणः पणितशाला मन्तव्या। अपर्यन्तस्य पणामादेशः / पणामइ / अर्पयति। प्रा० 4 पाद। किमुक्तं भवति-यत्र कुम्भकारा भोजनानि विक्रीणते, वणिजो वा पणामय त्रि० (प्रणामक) प्रणामयन्ति प्रापयन्ति, दुर्गतिमिति प्रणामकाः / कुम्भकारहस्ताद्भाजनानि क्रीत्वा यत्रापणे विक्रीणन्ति सा पणितशाला। शब्दादिविषयेषु, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। बृ०२ उ०। पणामहज्ज त्रि० (प्रणामहार्य) उपलक्षणत्वात् प्रणामदानादिनाऽऽवर्ज पणिवइय त्रि० (प्रणिपतित) नमस्कृते, नं०। नीये, पिं०। प्रणामिअ त्रि० (प्रणामित) नमस्कृते, "प्रणामिअं दिण्णमुवणीअं'' पाइ० / पणिवाय पु० (प्रणिपात) प्रणमने, पञ्चाङ्गः प्रणिपातः। दर्श० 1 तत्त्व। संघा०। ना०१८४ गाथा। पणायग त्रि० (प्रणायक)प्रकर्षेण स्वतन्त्रतया नायके, व्य०१ उ०। पञ्चाङ्ग प्रणिपातादीनां व्याख्यानायाऽऽहपणालिया स्त्री० (प्रणालिका) पारम्पर्ये, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। दो जाणू दोण्णि करा, पंचमग होइ उत्तिमंगं तु / पणास पुं० (प्रणाश) अपनयने, आ० म०१ अ०। आव०।उच्छदे, विशे०। सम्मं संपणिवाओणेओ पंचंगपणिवाओ ||18|| पणिअ त्रि० (देशी) प्रकटे, दे० ना० 6 वर्ग 7 गाथा। वे जानुनी अष्ठीवन्तौ। द्वौ करो हस्तौ, पञ्चममेव पञ्चमकं भवति वर्तते पणिदि पुं० (पञ्चेन्द्रिय) पञ्चेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्त, कर्म० 2 कर्म०। प्रश्न० / उत्तमाङ्ग तु शिर एव इत्यनेन पञ्चाङ्ग इति व्याख्यातम्। अथ प्रणिपातपणिजंत त्रि० (प्रणीयमान) वश्ये, अधीने, कृतलौकिकसंस्कारे च, वाच० / व्याख्यानायाऽऽह-एतैरेव पञ्चभिरङ्गैः सम्यग् भक्तितो भून्यासतः यः पणिय न० (पणित) भाण्डे, ज्ञा० 1 01 अ०। विक्रेये वस्तुनि० रा०। स प्रणिपातःप्रणामोऽसौ ज्ञेयो ज्ञातव्यः / पञ्चाङ्गप्रणिपातः पूर्वोक्तहोड्डादिके व्यवहारे, ज्ञा०१ श्रु०३ अ०। निर्वचन इति गाथार्थः / पञ्चा० 3 विवा पणियगिह न० (पण्यगृह) पण्याऽपणे, आचा०२ श्रु०१ चू० 2 अ०२ पणिवायदंडय पुं० (प्रणिपातदण्डक) 'नमोऽत्थु णं अरहंताणं उ०। "जत्थ भण्ड अच्छति तं पणियगिह' नि० चू०१२ उ० भगवंताण'' इत्यादिकेसूत्रे, ध०२ अधि०। (अत्राऽऽलापकाः सम्पदश्व पणियघर न० (पण्यगृह) पणियगिह' शब्दार्थे, आचा०२ श्रु०१ चू०२ | 'चेइयवंदण' शब्दे तृतीयभागे 1318 पृष्ठे व्याख्याताः) अ०२ उ०। पणिहाण न० (प्रणिधान) चेतःस्वास्थ्ये, व्य० 1 उ० / ग0 / उ पणियट्ठ पुं० (पणितार्थ) पण्यवस्तुनि, दश०७ अ० / प्राणिधूतप्रयोजने, 0 / दश०। प्रव० / ऐकार ये, द्वा०५ द्वा०। प्रशस्तावधाने, दश०७अ०1 द्वा०२२ द्वा०। चित्तोपयोगे, पञ्चा०३ विव०। पं० सू०। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिहाण 381 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पणिहि दृढाध्यवसाये, आव० 4 अ०। अन्तःकरणवृत्तौ, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। पणिहाणवं त्रि० (प्रणिधानवत) एकाग्रमनसि, उत्त०१६ अ०1"संकाठापणिहाणं ति वा, अज्झवसाणं ति वा, चिट्ठ ति वा एगट्ठा / नि००१ | णाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणिहाणवं" उत्त०१६ अ०। उ० / प्रणिहितिः प्रणिधानम् / एकाग्रतायाम, स्था०। पणिहाणजोगजुत्त त्रि० (प्रणिधानयोगयुक्त) प्रणिधानं चेतः स्वास्थ्यम्, त्रिधा प्रणिधानं प्रतिपादयति तत्प्रधाना योगा व्यापारास्तैर्युक्तः समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः। व्य० तिविहे पणिहाणे पण्णत्ते / तं जहा- मणपणिहाणे, वयप- 10 / दश०। प्रणिधानं मनसः शुभमैकार यंतद्रूपस्तत्प्रधानो वा योगो णिहाणे, कायपणिहाणे / एवं पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाणं / व्यापारस्तेन युक्तोऽन्वितः। अथवा-योगो मनोनिरोधस्ततश्च प्रणिधातिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, वय- नयोगाभ्यां युक्तो यः स तथा। पञ्चा० 15 विव० / प्रणिधानरूपयोगैः, सुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे। प्रणिधान-योगाभ्यां वा युक्ते।"पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समितीहिं प्रणिहितिः प्रणिधानमेकाग्रता, तच्च मनःप्रभृतिसम्बन्धिभेदात् तीहिं गुत्तीहि" पंचा० 15 विव०। सम्म०। त्रिविधेति / तत्र मनसः प्रणिधानं मनःप्रणिधानम्, एवमितरे / तच्च पणिहाणपुरस्सर पु० (प्रणिधानपुरस्सर) प्रणिधानमेकाग्रूयं तत्पुरस्सरम्। चतुर्विशतिदण्डके सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां भवति, तदन्येषां तु नास्ति, उपयोगप्रधाने, षो०६ विव०। योगानां सामस्त्येनाऽभावादिति / अत एवोक्तम्- (एवं पंचेंदिया- | पणिहाय अव्य० (प्रणिधाय) आश्रित्येत्यर्थे, भ० 15 श०। अपेक्ष्येत्यर्थे, इत्यादीति) प्रणिधानं हिशुभाशुभभेदम् / अथ शुभमाह- ('तिविहे' ज्ञा०१ श्रु०१० अ०। इत्यादि) सामान्य सूत्रम् / विशेषमाश्रित्य चतुर्विशतिदण्डकचिन्तायां | पणिहि पुं० (प्रणिधि) प्रणिधाने, मनसो विशिष्टकाग्रत्वे, प्रश्न०५ सम्व० मनुष्याणामेव, तत्राऽपि संयतानामेवेदं भवति, चारित्रपरिणामरूपत्वा- द्वार०। आ०चू०। प्रणिधानमवधानं चरश्च / है०। दशा दस्येति। (सुप्रणिधानदुष्प्रणिधानस्वरूप स्वस्वस्थाने) स्था० 3 ठा० प्रणिधिनिक्षेपः१ उ०। जो पुट्विं उहिट्ठो, आयारो सो अहीणमइरित्तो। चतुर्धा प्रणिधानम् दुविहोय होइ पणिही, दव्वे, भावे य नायव्यो ||5|| चउदिवहे पणिहाणे पण्णत्ते / तं जहा-मणपणिहाणे, यः पूर्वं क्षुल्लकाचारकथायामुद्दिष्टः आचारः सोऽहीनातिरिक्त स्तदवस्थ वयपणिहाणे, कायपणिहाणे, उवगरणपणिहाणे / एवं नेरइयाणं / एवेहापि दृष्टव्यः इति वाक्यशेषः / क्षुण्णत्वान्नाम स्थापने अनादृत्य पंचेंदियाणं जाव वेमाणियाणं।। प्रणिधिमधिकृत्याऽऽह-द्विविधश्च भवति प्रणिधिः / कथम्? इत्याहप्रणिधिः प्रणिधानं प्रयोगः, तत्र मनसः प्रणिधानमार्त्तरौद्रधर्मादिरूप- द्रव्य इति द्रव्यविषयः / भाव इति भावविषयश्च ज्ञातव्यः / इति तया प्रयोगो मनःप्रणिधानम् / एवं वाकाययोरपि। उपकरणस्य लौकिक- गाथार्थः // 56 // लोकोत्तररूपस्य वस्त्र-पात्रादेः संयमाऽसंयमो-पकाराय प्रणिधानं प्रयोग तत्रउपकरणप्रणिधानम्। (एवमिति) यथा सामान्यतस्तथा नैरयिकाणा- दवे निहाणमाई,मायपउत्ताणि चेव दव्वाणि। मिति। तथा चतुर्विशतिदण्डकपठितानां मध्ये ये पञ्चेन्द्रियास्तेषामपि भावेदिय-नोइन्दिय, दुविहो उपसत्थ अपसत्थो // 60 / / वैमानिकान्तानामेवमेवेति। स्था०४ ठा०१उ०। दर्श०। प्रयोगे, आव० द्रव्य इति द्रव्यविषयः प्रणिधिर्निधानादि, प्रणिहितं निधानं नि६अ। क्षिप्तमित्यर्थः / आदिशब्दः स्वभेदप्रख्यापकः / मायाप्रयुक्तानि चेह कइविहा णं भंते ! पणिहाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे द्रव्याणि, द्रव्यप्रणिधिः पुरुषस्य स्त्रीवेषेण पलायनादिकरणम् / स्त्रिया पणिहाणे पण्णत्ते / तं जहा-मणपणिहाणे, वइपणिहाणे, वा पुरुषवेषेण चेत्यादि।तथा भाव इति / भावप्रणिधिर्द्विविधः-इन्द्रियकायपणिहाणे / णेरइयाणं भंते ! कइविहे पणिहाणे पण्णत्ते ? प्रणिधिः, नोइन्द्रियप्रणिधिश्च / तत्र इन्द्रियप्रणिधिर्द्विविधः प्रशस्तोऽएवं चेव / एवं जाव थणियकुमारा / पुढवीकाइयाणं पुच्छा, प्रशस्तश्च / इति गाथार्थः // 60|| गोयमा ! एगे कायपणि-हाणे पण्णत्ते, एवं जाव वणस्सइ प्रशस्तमन्द्रियप्रणिधिमाहःकाइयाणं बेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! दुविहे पणिहाणे पण्णत्ते। सद्देसु य रूवेसु य, गंधेसु रसेसु, तह फासेसु / तं जहा-वइपणिहाणे य, कायपणिहाणे य। एवं जाव चउरि- न वि रज्जइन वि दुस्सइ, एसा खलु इंदिअप्पणिही॥६१|| दियाणं / सेसाणं तिविहे जाव वेमाणियाणं / भ०१५ श०७०। शब्देषु च, रूपेषु च, गन्धेषु, रसेषु, तथा च स्पर्शषुएतेष्विन्द्रि (प्रणिधानलक्षणम् 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2670 पृष्ठे गतम्) ('जय यार्थेप्विष्टाऽनिष्टषु चक्षुरादिभिरिन्द्रियैर्नाऽपि रज्यते, नाऽपि द्विष्यते / वीयराय ! जगगुरु ! होउ मम' इत्यादि प्रणिधानसूत्रं 'चेइय-वंदण' शब्दे एष खलु माध्यस्थ्यलक्षणः इन्द्रियप्रणिधिः प्रशस्तः। इति गाथार्थः / तृतीयभागे 1320 पृष्ठे व्याख्यातम्) ('णिथाण' शब्दे चतुर्थभागे 2105 अन्यथा त्वप्रशस्तः, तत्र दोषमाहनिदानकरणदोषविचार उक्तः) सोइंदिअरस्सीहि उ, मुक्काहिं सद्दमुच्छिओ जीवो। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिहि 382 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पणिहि आइयइ अणाउत्तो, सहगुणसमुट्ठिए दोसे // 62 / / श्रोतेन्द्रियरश्मिभिः श्रोत्रेन्द्रियरज्जुभिः मुक्ताभिरुच्छृङ्खलाभिः। किमित्याह शब्दमूर्छितः शब्दगृद्धो जीवः, आदत्ते गृह्णाति अनुपयुक्तः सन्, कान् ? इत्याह-शब्दगुणसमुत्थितान् दोषान्-शब्द एवेन्द्रियगुणस्तत्समुत्थितान् दोषान् बन्ध-वधादीन् श्रोत्रेन्द्रियरज्जुभिरादत्त इति गाथार्थः। शेषेन्द्रियातिदेशमाहजह एसो सद्देसुं, एसेव कमो उ सेसएहिं पि। चउहिं पि इंदिएहिं, रूवे, गंधे, रसे, फासे // 63 / / यथैष शब्देषु शब्दविषयः श्रोत्रेन्द्रियमधिकृत्य दोष उक्तः, एष एव क्रमः शेषैरपि चक्षुरादिभिश्चतुर्भिरपीन्द्रियैर्दोषाभिधाने दृष्टव्यस्तद्यथा"चविखदियरस्सीहि उ" इत्यादि / अत एवाऽऽह-रूपे, गन्धे, रसे, स्पर्श, रूपादिविषयः / इति गाथार्थः / अमुमेवार्थ दृष्टान्ताभिधानेनाऽऽहजस्स खलु दुप्पणिहिया-णिंदियाइं तवं चरंतस्स। सो हीरइ असहीणेहिं सारही वा तुरंगेहिं / / 64|| यस्य खल्विति-यस्याऽपि दुष्प्रणिहितानीन्द्रियाणि विश्रोतोगामीनि, तपश्चरत इतितपोऽपि कुर्वतः। सतथाभूतो व्हियते अपनीयते, इन्द्रियैरेव निर्वाणहेतोश्वरणात् / दृष्टान्तमाह-अस्वाधीनरस्ववशैः, सारथिरिव रथनेतेव, तुरङ्गमैरश्वैरिति गाथार्थः / उक्त इन्द्रियप्रणिधिः। नोइन्द्रियप्रणिधिमाहकोहं,माणं,मायं, लोभ, च महन्मयाणि चत्तारि। जो रुंभइ सुद्धप्पा, एसोनोइंदिअप्पणिही।।६।। क्रोधम्, मानम्, मायाम्, लोभं चेति; एषां स्वरूपमनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्नं पूर्ववत् / एत एव महाभयानि चत्वारि,सम्यग्दर्शनादिप्रतिबन्धरूपत्वात् / एतानि यो रुणद्धि शुद्धात्मा उदयनिरोधादिना; एष निरोद्धा क्रोधादिनिरोधपरिणामानन्यत्वाद् नोइन्द्रियप्रणिधिः कुशलपरिणामत्वात् / इति गाथार्थः / एतदनिरोधे दोषमाहजस्स वि य दुप्पणिहिआ, होंति कसाया तवं चरंतस्सा सो बालतवस्सी विव, गयण्हाणपरिस्समं कुणइ।।६६।। यस्याऽपि कस्यचिद्व्यवहारतपस्विनः दुष्प्रणिहिता अनिरुद्धा भवन्ति कषायाः क्रोधादयस्तपश्चरतः तपः कुर्वत इत्यर्थः / स बालतपस्वीव उपवासपारणकप्रभूततरारम्भको जीवो गजनानपरिश्रमं करोति; चतुर्थषष्ठादिनिमित्ताऽभिधानतः प्रभूततरकर्मबन्धोपपत्तेः / इति गाथार्थः / अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाहसामण्णमणुचरंत-स्स कसाया जस्स उक्कडा होति। मन्नामि उच्छुफुलं, व निप्फलं तस्स सामन्नं / / 67|| श्रामण्यमनुचरतः श्रमणभावमपि द्रव्यतः पालयतःइत्यर्थः कषाया यस्योत्कटा भवन्ति क्रोधाऽऽदयः, मन्ये इक्षुपुष्यमिव निष्फलं निर्जराफलमधिकृत्य तस्य श्रामण्यम्। इति गाथार्थः / उपसंहरन्नाह एसो दुविहो पणिही, सुद्धो जइ दोसु तस्स तेसिंच। एत्थो पसत्थमपसत्थ-लक्खणमज्झप्पनिप्फन्नं / / 6 / / एषोऽनन्तरोदितो द्विविधः प्रणिधिः इन्द्रिय-नोइन्द्रियलक्षणः शुद्धइति निर्दोषो भवति / यदि द्वयोर्बाह्याऽभ्यन्तरचेष्टयोः तस्येन्द्रियकषायवतस्तेषां चेन्द्रिय कषायाणां सम्यग योगो भवति, एतदुक्तं भवति-यदि बाह्यचेष्टायामभ्यन्तरचेष्टायां च तस्य प्रणिधिमतः इन्द्रियाणां कषायाणां च निग्रहो भवति, ततः शुद्धः प्रणिधिः, इतरथा त्वशुद्धः; एवमपि तत्त्वनीत्याऽभ्यन्तरैव चेष्टह गरीयसी इत्याह-अत एवमपि तत्त्वे प्रशस्त चारु, तथाऽप्रशस्तमचारुलक्षणं प्रणिधेरध्यात्मनिष्पन्नमध्यवसानोद्रतम् / इति गाथार्थः। एतदेवाऽऽहमाया-गारवसिहिओ, इंदिय-नोइंदिएहिं अपसत्थो। धम्मत्था अपसत्थो, इंदिअ-नोइंदिअप्पणिही॥६६।। माया-गौरवसहितः मातृस्थानयुक्तः, ऋद्ध्यादिगौरवयुक्तश्चेन्द्रियनोइन्द्रिययोर्निग्रह करोति; मातृस्थानत ईर्यादिप्रत्युपेक्षणं द्रव्यक्षान्त्याद्यासेवनम् तथा ऋद्ध्यादिगौरवाद्वेत्यप्रशस्त इत्ययमप्रशस्तः प्रणिधिः / तथा धर्मार्थ प्रशस्त इति मायागौरवरहितो धर्मार्थमवेन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहं करोति यः स तदभेदोपचारात् प्रशस्तः सुन्दरः इन्द्रियनोइन्द्रियप्रणिधिनिर्जरा-फलत्वाद इति गाथार्थः। साम्प्रतमप्रशस्ते-तरप्रणिधेर्दोष-गुणावाहअट्ठविहं कम्मरयं, बंधइ अपसत्थपणिहिमाउत्तो। तं चेव खवेइ पुणो, पसत्थपणिहीसमाउत्तो // 70 / / अष्टविध ज्ञानावरणीयादिभेदात्कर्मरजो बध्नाति आदत्ते / कः? इत्याह-अप्रशस्तप्रणिधिसमायुक्तः अप्रशस्त-प्रणिधौ व्यवस्थित इत्यर्थः / तदेवाष्टविधं कर्मरजःक्षपयति पुनः। कदा? इत्याह-प्रशस्तप्रणिधिसमायुक्त इति गाथार्थः। , संयमाद्यर्थं च प्रणिधिः प्रयोक्तव्य इत्याहदसण-नाण-चरित्ताणि संजमो तस्स साहणट्ठाए। पणिही पउंजिअव्वो, अणाययणाइंच वजाइं॥७१।। दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि संयमःसम्पूर्णः / तस्य सम्पूर्णसंयमस्य साधनार्थ प्रणिधिः प्रशस्तः प्रयोक्तव्यः / तथा अनायतनानि च विरुद्धस्थानानि वर्जनीयानि। इति गाथार्थः / एवमकरणे दोषमाहदुप्पणिहिअजोगी, पुण लञ्छिज्जइ संजमं अयाणंतो। विट्ठद्धो निसटुंगो-व्व कंटइल्ले जह पडं तो / / 72 / / दुष्प्रणिहितयोगी पुनः सुप्रणिधिरहितः प्रव्रजित इत्यर्थः / लक्छ्यते खण्ड्यते संयममजानानः-संयत एवेति। दृष्टान्तमाह-विष्टब्धो निसृष्टाङ्गस्तथा अयत्नपरः कण्टकवति श्वभ्राद्रौ यथा पतन् कश्चिल्लञ्छ्यते तद्वदसौ संयमे। इति गाथार्थः।। व्यतिरेकमाहसुप्पणिहिअजोगी पुण, न लिप्पइ पुव्वभणिअदोसेहिं। निद्दहइ अ कम्माइं, सुक्कतणाई जहा अग्गी // 73 // Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिहि 383 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पणोल्लय सुप्रणिहितयोगी पुनः सुप्रणिहितः प्रव्रजितो न लिप्यते पूर्वभणितदोषैः कर्मबन्धादिभिः, संवृताश्रवद्वारत्वात्। निर्दहति च कर्माणि प्राक्तनानि तपःप्रणिधिभावेन / दृष्टान्तमाह-शुष्कतृणानि यथा अग्निर्निर्दहति तद्वदिति गाथार्थः। तम्हाओ अपसत्थं, पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं। पणिहाणम्मि पसत्थे, भणिओ आयारपणिहि त्ति / 74|| यस्मादेवमप्रशस्तप्रणिधिर्दुःखदः, इतरस्तु सुखदः। तस्माद-प्रशस्तं प्रणिधानमप्रशस्तं प्रणिधिमुज्झित्वा परित्यज्य, श्रमणेन साधुना, प्रणिधाने प्रणिधौ, प्रशस्ते कल्याणे यत्नः कार्य इति वाक्यशेषः / निगमयन्नाह भणित आचारप्रणिधिरिति गाथार्थः / दश० 8 अ०। (आचारप्रणिधिः 'आयारपणिहि' शब्दे द्वितीयभागे 358 पृष्ठ उक्तः) व्यवस्थापने, उत्त०२३ अ०। मायायाम, सा च द्विधा-द्रव्यप्रणिधिः, भावप्रणिधिश्च / तत्र द्रव्यप्रणिधौ उदाहरणम्भरुअच्छे जिणदेवो, भयंतमित्ते कुणालभिक्खू अ। पइट्ठाण सालवाहण, गुग्गुल भगवं च नहवाणे // 203|| भरुकच्छपुरेऽत्राऽऽसीद, भूपतिर्नरवाहनः। स समृद्ध्याऽऽत्मकोशस्य, श्रीदमप्यवमन्यते / / 1 / / इतः प्रतिष्ठानपुरे पार्थिवः शालवाहनः। बलेनाऽपि समृद्धः स, रुरोध नरवाहनम्॥सा आनयत्यरिशीर्षाणि यस्तस्याऽदान्महर्द्धिकः / लक्ष विपक्षं तत्तस्य, नित्यं निघ्नन्ति तद्भटाः।।३।। हा! तस्याऽपि भटाः केप्याऽऽ-निन्युः सोऽदान्न किंचन। सोऽथ क्षीणजनो नष्ट्वा पुनरेति समांतरे / / 4 / / पुनर्नष्ट्वा तथैवैति, नाभूत्तद्ग्रहणक्षमः / अथैको मायया हालं, सचिवो निरवास्यत॥५॥ स परंपरयाऽज्ञासीद्रुकच्छनराधिपः। अपास्तोऽल्पापराधोऽपि, निजामात्यस्ततः कृतः / / 6 / / ज्ञात्वा विश्वस्तं सोऽवक् तं, राज्यं पुण्येन लभ्यते। तदन्यस्य भवस्यार्थे, पाथेयं कुरु पार्थिव ! ||7|| धर्मस्थानविधानाद्यैर्द्रव्यमव्याययत्ततः। आगामन्त्रिगिरा हालः-पार्थिवोऽथाऽऽह मन्त्रिणम् / / 8 / / मिलितोऽसि किमस्य त्वं, सोऽवदन्न मिलाम्यहम्। अथान्तःपुरभूषादि-द्रविणैस्तं तदाऽक्षिपत्।।६।। हालेऽथ पुनरायाते, निद्रव्यत्वान्ननाश सः। नगरं जगृहे हालो, द्रव्यप्रणधिरेषिका / / 10 / / आचार्यो जिनदेवोऽभू-दत्रैव भृगुपत्तने। वादिनौ भ्रातरौ भिक्षु, भदन्तक कुणालकौ / / 11 / / वादितः पटहस्ताभ्यां, जिनदेवगुरुस्तदा। गतोऽभूद्वन्दितुं चैत्यं, श्रुत्वा तेन स वारितः॥१२॥ जातो राजकुले वाद-स्तौ द्वावपि विनिजितौ। दध्यतुस्तावमीषां न. सिद्धान्तावगमं विना // 13 // उत्तरं शक्यते दातुं, शाठ्याद्गोविन्दवत्ततः। व्रतं जगहतुः पश्चात्पठतां भावतोऽभवत् ||14|| आक०४ अ०। आ००। आव०। मायाशल्ये, तन्न कार्यमिति योगसंग्रहत्वमस्या स० 32 सम० दश०। पणिहिय त्रि० (प्रणिहित) संवृते, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार / व्यवस्थिते, आव०४ अ०। पणीय त्रि० (प्रणीत) प्ररूपिते, अनु०। आख्याते, आव० 4 अ०। सूत्र०। प्रज्ञप्ते, आव० 3 अ०।अर्थकथनद्वारेण, प्ररूपिते, नं०। सम्यगाचीर्ण सूत्र० 1 श्रु० 11 अ०। शुभतया प्रकृष्ट, भ०५ श० 4 उ०) स्निग्धे, औ० / गलत्रनेहबिन्दुके भोक्तव्ये, प्रति० / आव० / भ० / दश० / स्था० / प्रणीतं नाम गूढस्नेहं घृतपूरादिकमाईखज्जकम्, यद्दा बहिः स्नेहेन मेक्षितमण्डकादि, अपरं वा स्नेहावगाढ कृशराऽऽदि प्रणीतमुच्यते। तथा चाह-'गूढसिणेहं उल्लं तु खज्जगं मक्खियं च जं बाहिं। नेहागाढं कुसरं तु एवमाई पणीयं तु" ||बृ०५ उ०। पणीयभत्त न० (प्रणीतभक्त) घृतदुग्धादिके, बृ०५ उ०। पणीयभोयण न० (प्रणीतभोजन) गलत्स्नेहभोजने, 'जं पुण गलंतनेह पणीयमितितं बुहा बेंति'' यत्पुनर्गलत्नेह भोजनं तत्प्रणीतं बुधास्तीर्थकृदादयो ब्रुवते। पिं०॥ पणीयमाहार पुं० (प्रणीताहार) गलत्स्नेहे आहार्यवस्तुनि, “आहार उद्भवो पुण, पणीयमाहारभोयणा होति। वाईकरणाहरणं कल्लाणपुरोहउज्जाणे'' उदाहरणमिदं 'हत्थकम्म' शब्दे वक्ष्यते। नि००१ उ०। पणीयरसपरिच्चाइ त्रि० (प्रणीतरसपरित्यागिन्) गलघृत-दुग्धादि बिन्दुभक्तपरित्यागाभिग्राहिणि, औ०। पणीयरसभोइ-त्रि० (प्रणीतरसभोगिन) गलत्स्नेहबिन्दुभोक्तरि, स्था० 6 ठा0। “एगे पणीअरसभोई सिया'' इति चतुर्थे ब्रह्मचर्ये, आचा०२ श्रु०३ चू०१ अ०। * प्रणीतरसभोजिन् त्रि० गलत्स्नेहबिन्दुभोक्तरि, स्था०६ ठा०) पणीयरसभोयण न० (प्रणीतरसभोजन) गलत्स्नेहरसाभ्यवहारे, "विभूसा इत्थीसंसग्गो, पणीअं रसभोअणं / नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउड़ जहा॥५७॥"द०८ अ०। पणुल्ल धा० (प्रक्षिप्) प्रकर्षण क्षेपणे, "क्षिपेर्गलत्थाऽडुक्ख-सोल्लपेल-जोल-छुह-हुल्ल-परी घत्ताः" ||8/4/143 / / इत्यनेन क्षिपेोल्लादेशः / पणुल्लइ / पणोल्लइ पणुल्ली। पणुल्लिस्सइ। पणुल्लंतो। पणुल्लिअं। प्रा०४ पाद। "कम्माइं पणुल्लयामो' प्रकर्षण स्फेटयामः। उत्त०१२अ०। पणेज्जय पुं० (प्रणीयक) चन्द्रं गृह्णतो राहोरेकादशकृत्स्ने, कृष्णपुद्गले चं० प्र०२० पाहु०॥ पणोल अव्य० (प्रक्षिप्य) 'प्रेर्य' इत्यर्थे , सूत्र०१ श्रु०८ अ०। प्रणुद्य अव्य० 'प्रेर्य' इत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०८ अ01 पणोल्लणगइस्त्री० (प्रक्षेपणगति) बाणादीनामिव परप्रेरणाद् गती, स्था० ८टा०1 * प्रणोदनगति स्त्री० बाणादीनामिव परप्रेरणाद् गतौ, स्था०८ ठान पणोल्लय त्रि० (प्रक्षेपक) प्रेरके, "परिसहाणं पणोल्लए'' आचा० 1 श्रु०५ अ०२ उ०। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणोल्लय 384 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पण्णत्तिकुसल * प्रणोदक त्रि० प्रेरके आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। पणोल्लि पुं० (प्रणोदिन्) प्राजनकदण्डे, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। पण्ण त्रि० (प्रज्ञ) प्रकर्षण जानातीति प्रज्ञः। ज्ञानप्रभया श्रेष्ठे, सूत्र०१ श्रु० 6 अ० / निर्मलावबोधे, उत्त०८ अ० / प्रकर्षण केवलज्ञानित्वाद् जानातीति प्रज्ञः, स एव प्राज्ञः। सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। केवलज्ञानिनि, उत्त०८ अ०। तीर्थकरे, स्था०५ ठा०३ उ०। गणधरे, नं० / अनु० / पण्डिते, 17 द्वा० / सद्बोधयुते, स्था०७ ठा०। अनु०। * प्राज्ञ त्रि० निर्मलावबोधे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। प्रज्ञस्येदं प्राज्ञम्, गीतर्थेनोपाते सूत्र०२ श्रु०१ अ०। * पर्ण न० दले, पत्रे, स्था० 10 ठा० * पार्ण त्रि० पर्णाद् जाते, पर्णसंबन्धिनि या अग्न्यादौ, आचा० 1 श्रु०१ | अ०४ उ०। *पन्न त्रि० पद्धातोः क्तप्रत्यये रूपम्। गते, वाच०। * पण्य न० भाण्डे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। पण्णग पुं०(पन्नग) सर्प, जं०१ वक्ष०। पण्णगतिल पु० (पन्नकतिल) दुर्गन्धितिले, व्य०१ उ०। पण्णगद्ध न० (पन्नगार्द्ध) पन्नगस्य सर्पस्याऽर्द्ध, जी० 3 प्रति० 4 अधि०।। "अह पण्णगद्धरूवा पण्णगसंठाणसंठिया" जी०३ प्रति० 4 अधि०। रा०। पण्णगद्धरूव त्रि० (पन्नगार्द्धरूप) सर्द्धिरूपे, यादृश पन्नगस्योदर- | च्छिन्नस्य पुच्छत ऊर्वीकृतमर्धमधोविस्तीर्णमुपर्युपरि चातिश्लक्ष्ण भवतीहत्येवंरूपं येषां तानि तथा। भ०१५ श०। पण्णगभूय त्रि० (पन्नगभूत) नागकल्पे, विपा०१ श्रु०७ अ०भ०) पण्णगरिउ पुं० (पन्नगरिपु) गरुडे, पक्षिराजे, वाच०। है। पण्णगा स्त्री० (पन्नगा) श्रीधर्मजिनस्य शासनदेव्याम् श्रीधर्मस्य पन्नगा देवी। मतान्तरेण कन्दर्पा, गौरवर्णा, मत्स्यवाहना चतुर्भुजा, उत्पलाsइकुशयुक्तदक्षिणपाणिद्वया, पद्माऽभययुतवामपाणिद्वया च / प्रव० 27 द्वार। पण्णत्त त्रि० (प्रज्ञप्त) प्ररूपिते. तीर्थकर-गणधरैः प्ररूपिते, नं० * प्रज्ञाऽऽप्त त्रि० प्रज्ञा बुद्धिस्तयाऽऽतं संप्राप्तं तीर्थकरगणघरैः। स्वप्रज्ञया प्राप्ते, नं०। * प्राज्ञाऽऽत त्रि० प्राज्ञात्तीर्थकरादाप्तं गणधरैः / तीर्थकरोपदेशादाप्ते, नं०। भ०। प्रणीते, आ० म०१ अ०। समुपादेयतया प्रकाशिते, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। स्था०। पा०। सूत्र०। प्राज्ञैश्छेकैराप्तं प्राज्ञाप्तम्। छेकपुरुषपरिकर्मिते, रा०। विशे०! पञ्चा० / योग्यीकृते, "लट्ठपण्णत्तसेउसीमा" | योग्यीकृता बीजवपनस्य सेतुसीमा यस्याः सा। औ०। * प्रज्ञपित त्रि० कथिते. रा०। औ०। पण्णत्तगंडविव्वोयण त्रि० (प्रज्ञाऽऽप्तगण्डविव्वोकन) प्रज्ञया विशिष्टपरिकर्मविषयया बुद्ध्याऽऽसे प्राप्ते अतीव सुष्टु परिकर्मिते इति भावः, गण्डोपधानके, यत्र तत्तथा। चं०प्र०२० पाह०। उपरि कर्मितगण्डोपधाने, भ० ११श०११ उ०। पण्णात्त स्त्री० (प्रज्ञप्ति) प्रज्ञाप्यन्ते प्रकर्षण बोध्यन्ते अर्था यासु ताः प्रज्ञप्तयः / सूर्यप्रज्ञप्त्यादिषु, स्था०। प्रज्ञप्तयःतओ पन्नत्तीओ कालेणं अहिज्जंति-चंदपन्नत्ती, सूरपन्नत्ती, दीवसागरपन्नत्ती॥ (तओ इत्यादि) कालेन प्रथमपश्चिमपौरुषीलक्षणेन हेतुभूतेनाsधीयन्ते / व्याख्याप्रज्ञप्तिर्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिश्च न विवक्षिता, त्रिस्थानकानुरोधादिति / स्था० 3 ठा० 1 उ०। अङ्गबाह्यप्रज्ञाप्तयःचत्तारि पण्णत्तीओ अंगबाहिरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहाचंदपण्णत्ती, सूरपण्णत्ती, जंबुद्दीवपण्णत्ती, दीवसागरपणत्ती। अङ्गान्याचारादीनि तेभ्यो बाह्या अङ्गबाह्यः / व्याख्याप्रज्ञप्तिरस्ति पञ्चमी, केवलं साऽङ्गप्रविष्टति एताश्चतस्र उक्ताः। स्था० 4 ठा०१ उ०। नामादिनिक्षेपःप्रज्ञप्तिरपि नामादिभिश्चतुर्दा, तत्र प्रज्ञप्तिरिति नाम, यथा-प्रज्ञप्तिर्विद्यादेवी। स्थापनाप्रज्ञप्ति-प्रज्ञप्तिशब्दार्थज्ञसाध्वादिः। द्रव्यप्रज्ञप्तिधिा-आगमतः, नो-आगमतश्च। तत्राऽऽगमतः-तदर्थज्ञानानुपयुक्तः। नोआगमतस्तु ज्ञशरीर-भव्यशरीरो-भयव्यतिरिक्तद्रव्यप्रज्ञप्तिभेदात्रिधा / तत्राद्यौ भेदौ सुबोधौ, उभयव्यतिरिक्ता द्रव्यप्रज्ञप्तिर्द्विधालौकिकी, लोकोत्तरा च / एकैकाऽपि त्रिविधा-सचित्त मिश्र द्रव्यविषयभेदात् / तत्राऽऽद्या यथा-प्रियासो पस्य मन्दुरासमानीतहयज्ञापनम्। द्वितीया-तस्यैव रथज्ञापनम्, तृतीया-तस्यैव पर्याणादिपरिष्कृतहयज्ञापनम्, रथस्य वाऽश्वादियुक्तस्य ज्ञापनम्। लोकोत्तरातु सचित्तविषया, यथा-प्रव्राजनाचार्यस्य नवप्रव्रजितं प्रति शाल्यादिसचित्तज्ञापनम्, सैव द्वितीया-शस्त्रपरिणतशाल्यादिज्ञापनम, सैव तृतीया-दुष्पक्वशाल्यादिज्ञापनं चेति / अथ भावप्रज्ञप्तिरपि द्विधा-आगमतः, नोआगमतश्च / तत्राऽऽगमतस्तदर्थज्ञानोपयुक्तः। नोआगमतस्तु भावप्रज्ञप्तिर्दिधाप्रशस्ताऽप्रशस्तभावप्रज्ञप्तिभेदात् / तत्र अप्रशस्तभावप्रज्ञप्तिर्यथाब्राह्मण्याः स्वसुताः प्रति जामातृभावनिवेदनम्, प्रशस्तभावप्रज्ञप्तिरियमेव-अर्थतोऽर्हतां गणधरान् प्रति, सूत्रतो गणधराणां स्वशिष्यान् प्रति। जं०१वक्ष० / नि० चू०। चं० प्र०ा भगवतीसूत्रे, प्रति०। प्रज्ञप्तिलक्षणासु महाविद्यासु, आ०चू०१अ० / कल्प० / आ० म०ा संशयापन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापने, दश०३अ०। ध० / स्वसमय परसमयप्ररूपणायाम, व्य० 3 उ०। पण्णत्तिकुसल पुं० (प्रज्ञप्तिकुशल) कथाकुशले, व्य० / संप्रति प्रज्ञप्तिकुशलमाहलोगे, वेए, ससमए, तिवग्ग-सुत्त-ऽत्थगहियपेयालो। धम्म ऽत्थ काममीसग-कहासु कहणवित्थरसमत्थो।।१४३॥ जीवाजीवं बंधे, मोक्खं गतिरागतं सुहं दुक्खं / पन्नत्तीकुसलविऊ-परवादिकुदंसणे महणो।।१४।। लो के , वेदे समये वाऽऽत्मीये प्रवचने यानि शास्त्राणि तेषु सूत्रार्थ यो गृहीतं पेयालं परिमाणं ये न स सूत्रार्थ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णत्तिकुसल 385 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पण्णवणा गृहीतपेयालः / सभ्यविनिश्चितसूत्रार्थ इति तात्पर्यार्थः / तथा धर्म- तथाभूतः स्वसमयप्ररूपणाद् नियमतः कुसमयान्मशात्येव, उक्तः कथासु, अर्थकथासु च द्वित्रिसंयोगतो धर्माऽर्थकामकथासुकथयितव्यासु प्रज्ञप्तिकुशलः / व्य०३ उ०। ('कहणवित्थर' ति) विस्तरेण कथने समर्थः-धर्माऽर्थकाममिश्रकथासु | पण्णत्तिखेवणी स्त्री० (प्रज्ञप्तिक्षेपणी) कथाभेदे, (व्याख्या अक्खेवणी' विस्तरकथाकथनसमर्थः / तथा जीवम्, अजीवम्, धर्मम, मोक्षम्, गतिम्, शब्दे प्रथमभागे 152 पृष्ठे गता) स्था० 4 ठा०२ उ०। आगतिम्, सुखम्, दुःखमधिगत्य प्रज्ञप्तौ कुशलः / कुतः ? इत्याह- पण्णत्तिपक्खेवणी स्त्री० (प्रज्ञप्तिप्रक्षेपणी) कथाभेदे, (अस्याः वक्तव्यता यतो विद् विद्वान्, एतदुक्तं भवतियतो लोक-वेद-समयाऽऽचाराणा 'अक्खेवणी' शब्दे प्रथमभागे 152 पृष्ठे गता) सम्यग्वेत्ता ततो जीवानां नारकादीनाम्, अजीवानां धर्मास्तिकाया- पण्णपत्तिया स्त्री० (प्रज्ञपत्तिका) आर्यारोहणान्निर्गतस्योद्देहगणस्य दीनाम्, बन्धस्य मिथ्यात्वाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगप्रत्ययकस्य, शाखायाम, कल्प०२ अधि०८ क्षण। मोक्षस्य सकलकर्माशाऽपगमरूपस्य, ज्ञान-दर्शन-चारित्रहतु-कस्य, पण्णप्प त्रि० (प्रज्ञाप्य) प्रज्ञापनीये, प्रति०। तथा येन येन कर्मणा कृतेन नरक-तिर्यग्-देवभवेषूत्पत्तिर्भवति तद्रूपाया पण्णरस त्रि० (पञ्चदशन्) पञ्चाधिकेषु दशसु, सू० प्र०१पाहु। गतेः , येन च कर्मणा कृतेन मनुष्यभवे समुत्पत्तिस्तद्रूपाया आगतेः, तथा पण्णरसी स्त्री० (पञ्चदशी) पौर्णमास्याम्, चं० प्र०२ पाहु० / जं०। सुखं यथा प्राणिनामुपजायते तथाभूतस्य, यथा दुःखं तथा दुःखस्य पपुण्णमासी' शब्दे वक्तव्यताब। प्ररूपणायां कुशलः / तथा परवादिनो यत् कुदर्शन तस्मिन्मथनः, पण्णरह त्रि० (पञ्चदशन) पञ्चाधिकेषु दशसु, पञ्चदशशब्दे "पञ्चाशत्किमुक्तं भवति-परवादिनः प्रथम भाषन्तेयथा युष्माभिः कुदर्शनमग्राहि, पञ्चदश-दत्ते" |चा२।४३।। इत्यनेनञ्चइत्यस्यणत्वे "दश-पाषाणे ततस्तेन सहमाना विप्रतिपद्यन्ते, ताँश्च विप्रतिपद्यमानान्युक्तिभिस्तथा हः" ||61 / 262 / / इत्यनेन शइत्यस्य हत्वे "संख्या गद्गदे रः" मथ्नाति यथा स्यदर्शनपरित्यागं कुर्वन्तीति। एष इत्थंभूतः प्रज्ञप्तिकुशलः। ||8/1 / 216 // इत्यनेन द इत्यस्य रत्वे च पण्णरह' रूपनिष्पत्तिः / प्रा० साम्प्रतमत्रैव दृष्टान्तमाह २पादा पण्णत्तीकुसलो खलु, जह खुडगणी मुरुंडरायस्स। पण्णवं त्रि० (प्रज्ञावत्) प्राज्ञे, बुद्धिमति, दश०७ अ०।"दुग्मए दुहए वा पुट्ठो कह न वि देवा, गयं पि कालं न याणंति / / 145 / / वि नेयं भासिज्ज पन्नव' प्रज्ञा हेयोपादेयविवेचनात्मिका मतिस्तद्वान्। तो उद्वितो गणिवरो, राया वि य उद्वितो ससंभंतो। विवेचके, उत्त०२ अ०। अह खीरासवलद्धी, कहेति सो खुड्डगगणी तो // 146|| पण्णवग पुं० (प्रज्ञापक) यथावस्थितं सूत्रार्थ प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः / जाहे य पहरमेत्तं, कहियं न य मुणइ कालमह राया। गुरी, नं०। विशे०। आचार्ये, सूत्र०२ श्रु० 4 अ०। भेदभणनतो बोधके,भ० तो बेति खुड्डगगणी, रायाणं एव जाणाहि // 147il श०३१ उ०। प्रज्ञापयति सूत्रार्थ प्ररूपयति शिष्येभ्य इति प्रज्ञापकः / जह उद्विएण वि तुमे, न विन्नाओ एत्तिओ इमो कालो। घ्याख्यातरि, आ०म० 1 अ०। विशे० / अनु०। इय गीयवादियविमो-हिया उ देवा न याणंति॥१४॥ पण्णवगदिसा स्त्री० (प्रज्ञापकदिशा)प्रज्ञापको व्याख्याता, तदाश्रयेण अब्भुवगयं च रण्णा, कहणीए एरिसो भवे कुसलो। या दिक् प्रज्ञापकदिक्, 'पन्नवतो जयभिमुहो सा पुव्वा सेसिया ससमयपरूवणाए, महेति सो कुसमए चेव / / 146 / / पयाहिणतो। तस्सेवऽणुगंतव्या अग्गेईया दिसा नियमा" इत्युक्तलक्षणे प्रज्ञप्तिकुशलो यथा क्षुल्लकाचार्यो मुरुण्डराजस्य, तथा चान्यदा तेन दिग्भेदे, प्रज्ञापको यस्या दिशोऽभिमुखस्तिष्ठति सा पूर्वा, शेषास्त्वाग्नेराज्ञा पृष्टः क्षुल्लकगणी-कथं नु देवा गतमपि कालं न जानन्ति? ततः एवं प्यादिका दिशो नियमात् तस्यैव प्रज्ञापकस्य प्रदक्षिणातः प्रदक्षिणेनानुपृष्टः सन् गणिवरः सहसा आसनादुत्थितः / तमुत्थितं दृष्ट्वा राजाऽपि गन्तव्याः इति गाथार्थः / आ०म० 1 अ० विशे० / आचा० ससंभ्रान्तः सममुत्थितः। ततोऽथाऽनन्तरं स क्षुल्लकगणी क्षीरमिवाऽऽ- (प्रज्ञापकदिग्भेदाः, तन्नामानि, तत्संख्या, तत्स्थितिश्च 'दिसा' शब्दे श्रवति कथयन् यस्या लब्धेः सा क्षीराश्रवा, सा लब्धिर्यस्याऽसौ चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादिता।ज्ञानसंपत्तीच्छायां तस्याः क्षीराश्रवलब्धिः। स इत्थंभूतः स्वसमयानुगतं किमपि कथयति ('जाहे प्रधानत्वात्) य' इत्यादि) यदा च प्रहरमात्रं कालं यावत् कथितम्, अथ च तावन्तं पण्णवगपरूवग त्रि० (प्रज्ञापकप्ररूपक) प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः कालं राजा गतमपि न जानाति। ततो राजानं ब्रूते क्षुल्लकगणी-एवमनेन प्रज्ञापकश्वासौ प्ररूपकश्चेति विग्रहः / अवबोधकप्ररूपके, दश०३ अ०। प्रकारेण वक्ष्यमाणमपि जानीहि। तदेवाऽऽह ('जह उदिएण वि'इत्यादि) / पण्णवणा स्त्री० (प्रज्ञापना) सामान्यविशेषरूपतः प्रज्ञापने स्था० 10 यथा उत्थितेनाऽपि त्वया न विज्ञातोऽयमेतावान् कालो गतः कथारस- ठा०। ज्ञा०ा यथावस्थितार्थप्ररूपणायाम्, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। प्रवृत्तेनेति। एवमनेन प्रकारेण गीतवादित्रविमोहिता देवाः प्रभूतमपि गतं अनु०। भेदेन कथने, प्रज्ञा०। कालं न जानन्ति / एतच्च राज्ञा तथै वाऽभ्युपगतम् / जाता महती | तिविहा पण्णवणा पण्णत्ता, तं जहा-णाणपन्नणवा, प्रतिपत्तिः ईदृशः खलु कथायाः कथनीयायाः प्रज्ञप्तेः कुशलः, स च सणपन्नवणा, चरित्तपन्नवणा। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णवणा 386 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पण्णवणा (तिविहा इत्यादि) परं प्रज्ञापनाभेदाद्यभिधानम् / तत्र ज्ञानप्रज्ञापना आभिनिबोधिकादिपञ्चधा ज्ञानम्। एवं दर्शनं क्षायिकादि त्रिधा इत्यादि। स्था० 3 ठा०४ उ०। सूत्र० / 'पन्नत्ति वा, पन्नवण त्ति वा,विण्णत्ति वा, परूवण ति वा एगट्ठा।" नि०चू०१ उ० / भ० / नि०। नंगा फलकथने, कल्प० 3 अधि०६ क्षण / निदर्शनायाम्, सम्म०१ काण्ड / प्रकर्षण निःशेषकुतीर्थितीर्थकरासाध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञाप्यन्ते शिष्यबुद्धावा-ऽऽरोप्यन्ते जीवाऽजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना हिताऽहितप्रवृत्ति निवृत्त्युपदेशयथावस्थितजीवादिपदार्थज्ञापनात्प्रज्ञापना। प्रज्ञा०१पद। अनु०। "जयति नमदमरमुकुट-प्रतिबिम्वच्छभविहितबहुरूपः। उद्धर्तुमिव समस्तं, विश्वं भवपङ्कतो वीरः / / 1 / / जिनवचनामृतजलधि, वन्दे यद्विन्दुमात्रमादाय। अभवन्नून सत्त्वा, जन्मजराव्याधिपरिहीणा // 2 // प्रणमत गुरुपदपङ्कज-मधरीकृतकामधेनु कल्पलतम्। यदुपास्तिवशान्निरुपम-मश्नुवते ब्रह्म तनुभाजः // 3 // जडमतिरपि गुरुचरणो-पास्तिसमुद्भूतविपुलमतिविभवः। समयानुसारतोऽहं, विदधे प्रज्ञापनाविवृतिम् // 4 // अथ प्रज्ञापनेतिक शब्दार्थः? उच्यते-प्रकर्षण निःशेषकुतीर्थितीर्थकराऽसाध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञाप्यन्ते शिष्यबुद्धावाऽऽरोप्यन्ते जीवाऽजीवादयः पदार्था अथयेति प्रज्ञापना / इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थाङ्गस्योपाड्न तदुक्तार्थप्रतिपादनार्थम् / उक्तप्रतिपादनमनर्थकमिति चेत्, न, उक्तानामपि विस्तरेणाऽभिधानस्य मन्दमतिविनेयजनानुग्रहार्थतया सार्थकत्वात् / इयं चोपाङ्गमपि प्रायः सकलजीवाऽजीवादिपदार्थशासनात् शास्त्रम्, शास्त्रस्य चादौ प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थमवश्यं प्रयोजनादित्रितयम्, मङ्गलं च वक्तव्यम् / उक्तं च"प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादित्रितयं स्फुटम् / मङ्गलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये // 1 // " इति। प्रज्ञा०। ववगयजरमरणभए, सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहेणं / वंदामि जिणवरिंद, तेलोक्कगुरुं महावीरं / / 1 / / सुयरयणनिहाणं जिण-वरेणं भवियजणणिव्वुइकरेणं। उवदंसिया भगवया, पन्नवणा सव्वभावाणं // 2 // वायगवरवंसाओ, तेवीसइमेण धीरपुरिसेणं / दुद्धरधरेण मुणिणा, पुव्वसयसमिद्धबुद्धीण ||3|| सुयसागरा विणेऊ-ण जेण सुयरयणमुत्तमं दिण्णं / सीसगणस्स भगवओ, तस्स णमो अज्जसामस्स // 4 // अज्झयणमिणं चित्तं, सुयरयणं दिट्ठिवायणीसंदं। जह वणियं भगवया, अहमवि तह वण्णइस्सामि।।५।। सिद्धाश्च नामादिभेदतोऽनेकधा, ततो यथोक्तसिद्ध प्रतिपत्त्यर्थ विशेषणमाह व्यपगतजरामरणभयान / जरा वयोहानिलक्षणा, मरणं प्राणत्यागरूपम्, भयमिहलोकादिभेदात्सप्तप्रकारम्, उक्तं च- "इहपरलोगा-ऽऽदाण-मकम्हा आजीव-मरण मसिलोए" इति। विशेषतोऽपुनर्भावरूपतया अपगतानि भ्रष्टानि जराभरण-भयानि येभ्यस्ते तथा तान, त्रिविधेन मनसा, वाचा, कायेन, अनेन योगत्रयव्यापारविकलं द्रव्यवन्दनमित्याह। अभिवन्द्य अभिमुखंवन्दित्वा प्रणम्येत्यर्थः / अनेन समानकर्तृकतया पूर्वकाले च क्त्वाप्रत्ययविधानाद् नित्यानित्यैकान्तपक्षव्यवच्छेदमाह, एकान्तनित्यानित्यपक्षे क्त्वाप्रत्ययस्याऽसम्भवात्। तथाहि अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं नित्यम्, तस्य कथ भिन्नकालक्रियाद्वयकर्तृत्वोपपत्तिः ? आकालमेकस्वभावत्वेनैकस्या एव कस्याश्चित् क्रियायाः सदा भावप्रसङ्गात्। अनित्यमपि प्रकृत्यैकक्षणस्थितिधर्मकम्, ततस्तस्याऽपि भिन्नकालक्रियाद्वयकर्तृत्वाऽयोगः, अवस्थानाभावादित्यलं विस्तरेण, अन्यत्र सुचर्चितत्वात्। क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासापेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह (वंदामि जिणवरिदि इत्यादि) 'शूर' 'वीर विक्रान्तौ / वीरयति स्म कषायादिशत्रून प्रति विक्रामति स्मेति वीरः / महाश्वासौ वीरश्च महावीरः। इदं च महावीर इति नाम न यादृच्छिकम्, किंतु यथावस्थितमनन्यसाधारणं परीषहोपसर्गादिविषयं वीरत्वमपेक्ष्य सुरासुरकृतम्, उक्तंच-"अयले भयभेरवाणं, खतिखमे परीसहोवसग्माणं देवेहि कए महावीरे" इति। अनेनाऽपायापगमातिशयो ध्वन्यते / तं कथं-भूतम् ? इत्याह जिनवरेन्द्रम्-जयन्ति रागादिश नभिभवन्ति जिनास्तेच चतुर्विधास्तद्यथा-श्रुताजिनाः, अवधिजिनाः, मनः पर्यायजिनाः, केवलजिनाः। तत्र केवलिजिनत्वप्रतिपत्तये वरग्रहणम् / जिनाना वरा उत्तमा भूत भवद्-भाविभाषस्वभावावभासि-के वलज्ञानकलितत्वाद् जिनवराः। ते चाऽतीर्थकरा अपि सन्तः सामान्यकेवलिनो भवन्ति, ततस्तीर्थङ्करत्वप्रतिपत्त्यर्थमिन्द्रग्रहणम् / जिनवराणामिन्द्रो जिनवरेन्द्रः प्रकृष्टपुण्यस्कन्धरूपतीर्थकर नाम कर्मोदया तीर्थकर इत्यर्थः / अनेन ज्ञानातिशयम, पूजातिशयं चाह / ज्ञानातिशयमन्तरेण जिनेषु मध्ये उत्तमत्वस्य, पूजातिशयमन्तरेण जिनवराणामपि मध्ये इन्द्रत्वस्याऽयोगात्।तं पुनः किम्भूतम्? इत्याह-त्रैलोक्यगुरुमगृणाति यथावस्थितं प्रवचनार्थमिति गुरुः, त्रैलोक्यस्य गुरुस्त्रैलोक्यगुयः, तथा च भगवान् अधोलोकनिवासिभवनपतिदेवेभ्यः, तिर्यग्लोकनिवासिव्यन्तनरपशु-विद्याधर-ज्योतिष्केभ्यः, ऊर्ध्वलोकनिवासिवैमानिकदेवेभ्यश्च धर्म दिदेश, तम्, अनेन वागतिशयमाह / एते चाऽपायापगमातिशयादयश्चत्वारोऽप्यतिशया देहसौगन्ध्यादीनामतिशयानामुपलक्षणम् तानन्तरेणैतेषामसम्भवात्। ततश्चतुस्त्रिंशदतिशयोये भगवन्तं महावीरं वन्दे इत्युक्तं दृष्टव्यम्। आह-ननु ऋषभादीन व्युदस्य किमर्थं भगवतो महावीरस्य वन्दनम् ? उच्यते वर्तमानतीर्थाधिपतित्वेनाऽऽसन्नोपकारित्वात्। तदेव आसन्नोपकारित्वं दर्शयति पसुयरयणं इत्यादिब अत्र प्रज्ञापनेति विशेष्यम्। शेषं सामानाधिकरण्येन, वैयधिकरण्येन च विशेषणम्। पजिणवरेणं तिब जिनाः सामान्यकेवलिनरतेषामपि वर उत्तमस्तीर्थकृत्त्वात् जिनवरस्तेन सामर्थ्याद् महावीरेण अन्यस्य वर्तमानतीर्थाधिपतित्वाभावात् / इह छद्मस्थक्षीणमोहजिनापेक्षया सामान्यकेवलिनोऽपि जिनवरा उच्यन्ते, ततस्तत्कल्पमा ज्ञासीद्विनेयजन इति तीर्थकृत्त्वप्रतिपत्तये विशेषणान्तरमाह-भगवताभगः समगैश्वर्यादिरूपः। उक्तंच- 'ऐश्वर्यस्यसमग्रस्य, रूपस्ययशसः श्रियः। धर्मस्याऽर्थप्रयत्नस्य, षण्णा भग इतीङ्गना' ||1|| भगोऽस्याऽस्तीति भगवान्, अतिशयने Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णवणा 387 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पण्णवणा वतुप्रत्ययः / अतिशायी च भगो वर्द्धमानस्वामिनः शेषप्राणिगणापेक्षया लोक्याधिपतित्वात्। तेन भगवता परमार्हन्त्यमाहेमोपेतेनेत्यर्थः / पुनः कथंभूतेन ? इत्याह भव्यजननिर्वृतिकरण भव्यस्तथाविधाऽनादिपारिणामिकभावात सिद्धिगमनयोग्यः, सचाऽसौ जनश्च भव्यजनः, निर्वृतिर्नेणिं सकलकर्ममलापगमनेन स्वस्वरूपलाभतः परमस्वास्थ्यम्, तद्धेतुः सम्यग्दर्शनाद्यपि 'कारणे कार्योपचारात' निर्वृतिस्तत्करणशीलो निर्वृतिकरः, भव्यजनस्य निर्वृतिकरो भव्यजननिर्वृतिकरस्तेन। आह-भव्यग्रहणमभव्यव्यवच्छेदार्थम अन्यथा तस्य नैरर्थक्यप्रसङ्गात्। तत इदमापतितं भव्यानामेव सम्यग्दर्शनादिक करोति, नाऽभव्यानाम् / न चैतदुपपन्नं भगवतो वीतरागत्वेन पक्षपातासम्भवात् / नैतत्सारं सम्यग्वस्तुतत्त्वाऽपरिज्ञानात् / भगवान् हि सवितेव प्रकाशमविशेषेण प्रवचनार्थमातनोति, केवलमभव्यानां तथा-स्वाभाव्यादेव तामसखगकुलानामिव सूर्यप्रकाशो न प्रवचनार्थ उपदिश्यमानोऽपि उपकाराय प्रभवति / तथा चाह वादिमुख्यः- "सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवाऽपि खिलान्यभूवन् / तन्नाद्भूतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः" ||1 // ततो भव्यानामेव भगवद्वचनादुपकारो जायते इति भव्यजननिर्वृतिकरणेत्युक्तम्। किम् ? इत्याह- ('उवदंसिय' त्ति) उप सामीप्येन यथा श्रोतृणां झटिति यथावस्थितवस्तुतत्त्वावबोधो भवति तथा स्फुटवचनैरित्यर्थः। दर्शिता श्रवणगोचरं नीता उपदिष्टा इत्यर्थः / काऽसौ ? प्रज्ञापना, प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते जीवादयो भावा अनया शब्दसंहत्या इति प्रज्ञापना, किंविशिष्टा? इत्यत आह-श्रुतरत्ननिधानम्, इह रत्नानि द्विविधानि भवन्ति, तद्यथाद्रव्यरत्नानि, भावरत्नानि। तत्र द्रव्यरत्नानि वैडूर्यमरकतेन्द्रनीलादीनि, भावरत्नानि श्रुतव्रतादीनि। तत्र द्रव्यरत्नानि नतात्त्विकानीति भावरत्नरिहाऽधिकारः, तत एवं समासः श्रुतान्येव रत्नानि श्रुतरत्नानि, न तु श्रुतानि च रत्नानि च, नाऽपि श्रुतानि रत्नानीवेति, कुतः? इति चेत् उच्यते प्रथमपक्षे श्रुतव्यतिरिक्तैर्द्रव्यरत्नरिहाधिकाराभावात्, द्वितीयपक्षे तु श्रुतानामेव तात्त्विकरत्नत्वात् शेषरत्नैरुपमाया अयोगात्। निधानमिव निधानं श्रुतरत्नानां निधानं श्रुतरत्ननिधानम्। केषां प्रज्ञापना ? इत्यत आह-सर्वभावानाम्, सर्वे च ते भावाश्च सर्वभावा जीवा ऽजीवाऽऽश्रवबन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षाः। तथाहि-अस्यां प्रज्ञापनायां षट्त्रिंशत्पदानि; तत्र प्रज्ञापना-बहुवक्तव्य-विशेष-चरम-परिणाम-संज्ञेषु पञ्चसु पदेषु जीवा-ऽजीवानां प्रज्ञापना / प्रयोग-पदे क्रियापदे चाऽऽश्रवस्य "काय वाङ्मनःकर्मयोग आश्रवः" इतिवचनात्।कर्मप्रकृतिपदे बन्धस्य प्ररूपणा / समुद्घातपदे केवलिसमुद्धातप्ररूपणायां संवर-निर्जरामोक्षाणां त्रयाणाम् / शेषेषु तु स्थानादिषु पदेषु क्वचित् कस्यचिदिति। अथवा-सर्व-भावानामिति द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानाम्। एतद्व्यतिरेके- / णाऽन्यस्य प्रज्ञापनीयस्याऽभावात् / तत्र प्रज्ञापनापदे जीवा ऽजीवद्रव्याणां प्रज्ञापना / स्थानपदे जीवाऽऽधारस्य क्षेत्रस्या स्थितिपदे नारकादिस्थितिनिरूपणात् कालस्य / शेषपदेषु संख्या-ज्ञानादिपर्यायव्युत्क्रान्त्यु-च्छासादीनां भावानामिति / अस्याश्च गाथायाः "अज्झयणमिदं चित्तं " इत्यनया सहाभिसम्बन्धः / केवल येनेयं सत्त्वानुग्रहाय श्रुतसागरादुद्भुता असावप्यासन्नतरोपकारित्वादस्मद्विधाना नमस्कारार्ह इतितन्नमस्कारविषयमिदमपान्तराल एवान्यकर्तृकं गाथाद्वयम्-(वायगवरवंसाओ इत्यादि) वाचकाः पूर्वविदः वाचकाच ते वराश्व वाचकवराः वाचकप्रधानाः, तेषां वंशः प्रवाहो वाचकवरवंशस्तरिमन, सूत्रे च पञ्चमीनिर्देशः प्राकृतत्वात्। प्राकृते हि सर्वासु विभक्तिष्वपि सर्वा विभक्तयो यथायोगं प्रवर्तन्ते। तथा चाह-पाणिनिः स्वप्राकृतव्याकरणे- "ध्यत्ययोऽप्यासाम्" इति / त्रयोविंशतितमेन तथा च सुधर्मस्वामिन आरभ्य भगवानार्यश्यामस्त्रयोविंशतितम एव, किम्भूतेन ? धीरपुरुषेण, धीर्बुद्धिस्तया राजत इति धीरः, धीरश्चासौ पुरुषश्च धीरपुरुषस्तेन, तथा दुर्द्धराणि प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि पञ्च महावतानि धारयतीति दुर्द्धरधरस्तेन, तथा मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिस्तेन, विशिष्टसंवितसमन्वितेनेत्यर्थः / पुनः कथंभूतेन ? इत्याह-पूर्वश्रुतसमृद्ध-बुद्धिनापूर्वाणि चतत् श्रुतंच पूर्वश्रुतम, तेन समृद्धा वृद्धिमुपगता बुद्धिर्यस्य स पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिस्तेन आह-यो वाचकवरवंशान्तर्गतः स पूर्वश्रुतसमृद्धबुद्धिरेव भवति, ततः किमनेन विशेषणेन? सत्यमेतत् / किन्तु पूर्वविदोऽपि षट्स्थानकपतिता भवन्ति, तथा च चतुर्दशपूर्वमिदामपि मतिमधिकृत्य षट्स्थानकं वक्ष्यति। तत आधिक्य - प्रदर्शनार्थमिदं विशेषणमित्यदोषः समिद्धबुद्धीण इत्यत्र ‘णा' शब्दस्य हस्वत्वम्, 'शि' शब्दस्य च दीर्घता आर्षत्वात्। तथा श्रुतमनर्वाक्पारत्वात् सुभाषितरत्नयुक्तत्वाच्च सागर इव श्रुतसागरः 'व्याघ्रादिभिगर्गाणिस्तद्गुणानुक्तौ' इति समासः। तस्मात् 'विणेऊण' ति। देशीवचनमेतत्। साम्प्रतकालीनपुरुषयोग्यं वीनयित्वा इत्यर्थः / येनेदं प्रज्ञापनारूपं श्रुतरत्नमुत्तमं प्रधानम्, प्राधान्यं च न शेषश्रुतरत्नापेक्षया किंतु स्वरूपतः / दत्त शिष्यगणाय तस्मै भगवते ज्ञानेश्वर्यधर्मादिमते, आरात् सर्वहयधर्मेम्यो यातः प्राप्तो गुणैरित्यार्यः, सचासौ श्यामश्च आर्यश्यामस्तरमै, सूत्रे च षष्ठी चतुर्थ्यर्थे द्रष्टव्या- 'छडिवि भत्तीए भन्नइ चउत्थी'' इति वचनात् / अधुनोक्तसंबन्धैवेय गाथा / (अज्झयणं इत्यादि) अध्ययनमिद प्रज्ञापनाख्यम्, ननु यदीयमध्ययनं कि-मित्यस्याऽऽदावनुयोगादिद्वारोपन्यासोन क्रियते? उच्यते-नाय नियमो यदवश्यमध्ययनादावुपक्रमाद्युपन्यासः क्रियत इति / अनियमोऽपि कुतोऽवसीयते ? इति चेत् उच्यते-नन्द्यध्ययना-दिष्वदर्शनात् / तथा चित्रार्थधिकारयुक्तत्वाच्चित्रम्, श्रुतमेव रत्नं श्रुतरत्नम्, दृष्टिवादस्य द्वादशस्याङ्गस्य निःष्यन्द इव दृष्टिवादनिःष्यन्दः, सूत्रे नपुंसकतानिर्देशः प्राकृतत्वात्। यथा वर्णित भगवता श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिना इन्द्रभूतिप्रभृतीनामध्ययनार्थस्य वर्णितत्वात्: अध्ययनं वर्णितमित्युक्तम्, अहमपि तथा वर्ण-यिष्यामि। आह कथमस्य छद्मस्थस्य तथा वर्णयितुं शक्तिः? नैष दोषः; सामान्येनाभिधेयपदार्थवर्णनमात्रमधिकृत्यैवमभिधानात् / तथा च अहमपि तथा वर्णयिष्यामीति / किमुक्तं भवति-तदनुसारेण वर्णयिष्यामि, न स्वमनीषिकयेति। षट्त्रिंशत् पदानिपण्णवणा 1 ठाणाई 2, बहुवत्तव्वं 3 ठिई 4 विसेसा य 5 / Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णवणा 388 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पण्णवणिज्ज वक्कंती 6 उस्सासो ७सण्णा 8 जोणी यह चरिमाइं 10 / / 1 / / भासा 11 सरीर 12 परिणाम 13, कसाया 14 इंदिय 15 प्पयोगे य 16 / लेसा 17 कायट्ठिइया 18, सम्मत्ते 16 अंतकिरिया य 20||2|| ओगाहणसंठाणा 21, किरिया 22 कम्मे इयावरे 23 / (कम्मस्स) बन्धए 24 (कम्मस्स) वेय (ए)२५ वेयस्स, बंधए 26 वेयवेयए 27||3|| आहारे 28 उवओगे 26, पासणया 30 सण्णि 31 संजमे 32 चेव / ओही 33 पवियारण 34 वेयणा 35 य तत्तो समुग्धाए 36 ||4|| अस्यां च प्रज्ञापनायां षट्त्रिंशत्पदानि भवन्ति, पदम्, प्रकरणम्, अर्थाधिकार इति पर्यायाः। तानि च पदान्यमूनि-(पन्नवणा' इत्यादि) गाथाचतुष्टयम्। तत्र प्रथम पदं प्रज्ञापनाविषयं प्रश्रमधिकृत्य प्रवृत्तत्वात् प्रज्ञापना / 1 / एवं द्वितीय स्थानानि / 2 / तृतीयं बहुवक्तव्यम् / 3 / चतुर्थं स्थितिः / 4 / पञ्चम विशेषः / / षष्ठं व्युत्क्रान्तिः, व्युत्का न्तिलक्षणाधिकारयुक्तत्वात्।६। सप्तममुच्छ्रासः।७। अष्टम सज्ञाः।८। नवमं योनिः / / / दशमं चरमाणि, चरमाणीति प्रश्नमुद्दिश्य प्रवृत्तत्वात / 10 / एकादश भाषा।११। द्वादशं शरीरम्।१२। त्रयोदशं परिणामः।१३। चतुर्दश कषायाः / 14 / पञ्चदशमिन्द्रियम् / 15 / षोडशं प्रयोगः / 16 / सप्तदर्श लेश्याः / 17 / अष्टादशं कायस्थितिः / 18 / एकोनविंशतितम सम्यक्त्वम् / 16 / विंशतितममन्तक्रिया।२०। एकविंशतितममवगाहनास्थानम् / 21 / द्वाविंशतितमं क्रिया / 22 / त्रयोविंशतितमं कर्म / 23 / चतुर्विशति तमं कर्मणो बन्धकः, तस्मिन् हि यथाजीवः कर्मणो बन्धको भवति तथा प्ररूप्यत इति तत् तथानाम / 24 / एवं पञ्चविंशतितम कर्मवेदकः / 25 / षड्विंशतितम वेदस्य बन्धक इति वेदयतेऽनुभवतीति वेदस्तस्य बन्ध एव बन्धकः, किमुक्तं भवतिकति प्रकृतीर्वेदयमानस्य कतिप्रकृतीनां बन्धो भवति ? इति तत्र निरूप्यते ततस्तद्वेदस्य बन्ध इति नाम / 26 / एवं कां प्रकृति वेदयमानः कति प्रकृतीर्वेदयते इत्यर्थप्रतिपादक वेदवेदको नाम सप्तविंशतितमम्।२७। अष्टाविंशतितममाहारप्रतिपादकत्वादाहारः / 28 / एवमेकोनत्रिंशत्तममुपयोगः / 26 / त्रिंशत्तम 'पासणय' त्ति दर्शनता।३०ा एकत्रिंशत्तम सज्ञा।३१। द्वात्रिंशत्तम संयमः / 32 // त्रयस्त्रिशत्तममवधिः / 33 / चतुरिंशत्तम प्रविचारणा / 34 / पञ्चत्रिंशत्तम वेदना / 35 / षट्त्रिंशत्तमं समुद्घातः१३६। तदेवमुपन्यस्तानि पदानि / / साम्प्रतं यथाक्रमं पदगतानि सूत्राणि वक्तव्यानि, तत्र प्रथमपदमतमिदमादिमं सूत्रम् से किं तं पण्णवणा? पण्णवणा दुविहा पण्णत्ता। तं जहाजीवपण्णवणा य, अजीवपण्णवणाय / प से किं तं पण्णवणा?' इति ब अथाऽस्य सूत्रस्य क:प्रस्तावः? उच्यते, प्रभसूत्रमिदम् / एतबादावुपन्यस्तमिदं ज्ञापयतिपृच्छतो मध्यस्थबुद्धिमतोऽर्थिनो भगवदर्हदुपदिष्टतत्त्वप्ररूपणा कार्या, न शेषस्य। तथा चोक्तम्- 'मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, श्रोता पात्रमिति स्मृतः" / तत्र-से शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तत्रशब्दार्थे / अथवा अथशब्दार्थे, स च वाक्योपन्यासार्थः / किं इति परप्रश्ने, (तं ति ) तावदिति द्रष्टव्यम्, तच्च क्रमोद्योतने। तत एष समुदायार्थः-तिष्ठन्तु स्थानादीनि पदानि प्रष्टव्यानि वाचः क्रमवर्तित्वात, प्रज्ञापनाऽनन्तरं च तेषामुपन्यस्तत्वात्। तत्र तावदेतावत् पृच्छामि-किं प्रज्ञापना ? इति। अथवा प्राकृतशैल्या अभिधेयवलिङ्गवचनानि योजनीयानि इति न्यायादेवं द्रष्टव्यम्-तत्र का तावत्प्रज्ञापना ? इति / एवं सामान्येन केनचित्प्रश्ने कृते सति भगवान् गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनाऽऽदरार्थ किश्चिच्छिष्योक्तं प्रत्युच्चार्याऽऽह-(पन्नवणा दुविहा पन्नत्ता इति) अनेन चागृहीत-शिष्याभिधानेन निर्वचनसूत्रेणैतदाचष्टनसर्वमेव सूत्रं गणधरपत्र तीर्थकरनिर्वचनरूपम्, किंतु किञ्चदन्यथाऽपि,बाहुल्येन तु तथारूपम्। यत उक्तम् 'अत्थं भासइ अरिहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउण' इत्यादि / तत्र प्रज्ञापना इति पूर्ववत् / द्विविधा द्विप्रकारा, प्रज्ञप्ता प्ररूपिता / यदा तीर्थकरा एव निर्वक्तारस्तदाऽयमर्थोऽवसेयो-अन्यैरपि तीर्थकरैः / यदा पुनरन्यः कश्चिदाचार्यस्तन्मतानुसारी तदा तीर्थकरगणधरैरिति / द्वैविध्यमेवोपदर्शयति-(तं जहा जीवपन्नवणा य, अजीवपन्नवणा य) तद्यथा इति वक्ष्यमाणभेदकथनप्रकाशनार्थः / जीवन्ति प्राणान् धारयन्तीति जी-वाः / प्राणाश्च द्विधा-द्रव्यप्राणाः, भावप्राणाश्च / तत्र द्रव्यप्राणा इन्द्रियादयः, भावप्राणा ज्ञानादीनि / द्रव्यप्राणैरपि प्राणिनः संसारसमापन्ना नारकादयः / केवलभावप्राणः प्राणिनो व्यपगतसमस्तकर्मसगाः सिद्धाः / जीवानां प्रज्ञापना जीवप्रज्ञापना। नजीवा अजीवा जीवविपरीतस्वरूपाः, तेच धर्माऽधर्माssकाश पुद्गलास्तिकाया-ऽद्धासमयरूपाः, तेषां प्रज्ञापना अजीवप्रज्ञापना। चकारी द्वयोरपि प्राधान्यख्यापनार्थी / न खल्विहाऽन्यतरस्याः प्रज्ञापनाया गुणभावः, एवं सर्वत्राप्यक्षरगमनिका कार्या / (जीवाजीवप्रज्ञापनयोर्भेदा जीवाजीवभेदानां प्ररूपणया गता इति)। प्रज्ञा०१ पद। एतट्टीकाकार:नमत नयभङ्गकलितं, प्रमाणबहुलं विशुद्धसद्बोधम्। जिनवचनमन्यतीर्थिक कुमतनिरासैकदुर्ललितम् / / 1 / / जयति हरिभद्रसूरि-ष्टीकाकृद्विवृतविषमभावार्थः / वद्वचनवशादहमपि, जातो लेशेन विवृतिकरः ||2|| कृत्वा प्रज्ञापनाटीका, पुण्यं यदवाप मलयगिरिग्नघम्। तेन समस्तोऽपि जनो, लभतां जिनवचनसद्वोधम् / / 3 / / प्रज्ञा०३६ पद। ('सुय' शब्दे निक्षेपः) पण्णवणाजोग्ग त्रि० (प्रज्ञापनायोग्य) प्रज्ञापनीये अभिलाप्ये, आ० म०१अ० पपणवाणिज्ज त्रि० (प्रज्ञापनीय प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते इति प्रज्ञापनीयाः / वचनपययित्वन श्रुतज्ञानमा चरे, विशे०। अभिलाप्ये. विशे०। सुखावबोध्ये, ध०२ अधि०। तदन्यो हि स्वाग्रहादकृत्यविषयान्निवर्तयितुं न शक्यते इति आलोचना Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णवणिज्ज 386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पण्णापरिसह -- प्रदानयोग्य, पञ्चा० 11 विव०। कथंचिदनाभोगादन्यथा प्रवृत्ती, तथाऽपि | पण्णाण न० (प्रज्ञान) प्रकृष्ट ज्ञानं प्रज्ञानम्। जीवाजीवपदार्थ-परिच्छेतरि गीतार्थेन संबंधयितु शक्ये, पञ्चा० 3 वि०। ज्ञाने, आचा०१श्रु०४ अ०४ उ०। सदसद्विवेके, आचा०१ श्रु० 4 अ० पण्णवणी स्त्री० (प्रज्ञापनी) प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी। अर्थकथन्या 1 उ०। स० / बोधे, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०२ उ०। प्रज्ञायते येन तत्प्रज्ञानम्, दक्तव्यायां भाषायाम्, भ० 10 श०३ उ० / विनीतविनेयजनस्योपदेश- यथावस्थितवस्तुग्राहिणि ज्ञाने, आचा० 1 श्रु०१ अ०७ उ० / दाने, ध० 3 अधि० / भ० / प्रज्ञा० / प्रज्ञापनी यथा-हिंसादिप्रवृत्ती पदार्थाऽऽविर्भावके, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। प्रकर्षण ज्ञायतेऽनेनेति दुःखितादिर्भवति। दश०७ अ०। शिष्यस्योपदेशे हेतुरूपा भाषा। संथा० / प्रज्ञानम्। स्वपरावभास-कत्वादागमे, आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०। पण्णविय त्रि० (प्रज्ञापित) सामान्य विशेषपर्यायैर्व्यक्तीकरणेन श्रुतज्ञाने, आचा०१ श्रु०६ अ० 4 उ०। मत्यादिज्ञानेच, आचा०१ श्रु० प्रकटीकृते , उत्त० 26 अ० / सामान्यतो विनेयेभ्य कथिते, अनु०। ३अ०१ उ०॥ प्रश्नः / ग०नि० चू०! पण्णाणवं त्रि० (प्रज्ञानवत्) प्रकर्षण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं स्वपपण्णवेता त्रिः (प्रज्ञापयितृ) प्रज्ञापके, "इमं सावज्जं ति पण्णवेत्ता रावभासकत्वादागमः, तद्वन्तःप्रज्ञानवन्तः। आगमस्य वेत्तरि, आचा० पडिसवेत्ता भवई' स्था०७ ठा०। 1 श्रु०५ अ० 5 उ०। सश्रुतिके, आचा० १श्रु०६ अ०२ उ०। प्रकृष्ट ज्ञान पण्णवेमाण त्रि० (प्रज्ञापयत्) बोधयति, औ०। जीवाजीवपरिच्छेत्तृ, तद् विद्यते यस्याऽसौ प्रज्ञानवान्। आचा०१ श्रु० पण्णसमत्त त्रि० (प्रज्ञासमाप्त) प्रज्ञायां समाप्तः प्रज्ञासमाप्तः पटुप्रज्ञे, सूत्र० 4 अ० 4 उ०। ज्ञानिनि, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। श्रु०२ अ०२ उ० पण्णापरिसह पुं० (प्रज्ञापरिषह) प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा पण्णसमण्णिय त्रि० (प्रज्ञासमन्वित) औत्पत्तिक्यादिबुद्ध्या समन्विते, बुद्ध्यतिशयः, स एव परीषहः प्रज्ञापरीषहः / प्रव० 86 द्वार। प्रज्ञया सत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०॥ गर्वाऽकरणे, प्रज्ञाया अभावे उद्वेगाऽकरणे, भ०५ श०८ उ०। मनोज्ञप्रज्ञापण्णरह त्रि० (पञ्चदश) 'पञ्चदश' शब्दार्थे / प्राग्भारप्राप्ती, नो गर्वमुद्हेत्। प्रज्ञाप्रतिपक्षणाऽप्यऽबुद्धिकत्वेन परीषहो पण्णा स्त्री० (प्रज्ञा) प्रज्ञानं प्रज्ञा, विशिष्टक्षयोपशमजन्यायां प्रभूत- भवति-नाहं किचिजाने, मूर्वोऽहं सर्वैः परिभूत इत्येवं परितापमुपागतस्य वस्तुगतयथावस्थितधर्माऽऽलोचनरूपायां संविति, इयं चाभिनिबोधि- कर्मविपाकोऽयमिति मत्वा तदकरणात् परीषहजयः / प्रव० 86 द्वार / कज्ञानविशेष एव / नं0 आ० म०प्र० / विशे० / स्वयं विमर्शपूर्वक "प्रज्ञा प्रज्ञावता पश्यन, आत्मन्यऽप्रज्ञतां विदन्। न विषीदन्न वा माघेत् वस्तुपरिच्छेद, मतिज्ञानविशेषे,स०२२ सम०। उत्त०। स्वबुद्धयोत्प्रेक्षणे, प्रज्ञोत्कर्षमुपागतः / / 20 / " ध०३ अधि०। सूत्र०२ श्रु० 4 अ०। मतौ, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। सूक्ष्मार्थविषयायां मतौ, साम्प्रतमनन्तरोक्तपरीषहान् जयतोऽपि कस्यचिद् ज्ञानावरणाभ०१६ श०३ उ० / स्था० / ज्ञाने, सूत्र० 1 श्रु०१२ अ० / स (ण्ण) न्न पगमात्प्रज्ञाया उत्कर्षे, अपरस्य तु तदुदयादपकर्षे उत्सेकवैक्लव्यसंभव तिवा, सइ ति वा, मति त्ति वा, पन्न त्ति वा एगट्टा / नि००१ उ०। इति प्रज्ञापरीषहमाहआ०चू० / सूत्र० / विशिष्टपरिकर्मविषयायां बुद्धौ, चं०प्र०२० पाहु० / से नूणं मए पुव्वं , कम्माऽण्णाणफला कडा। सूत्र० / प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा, हेयोपादेयविवेचिकाया बुद्धी, जेणाऽहं नाऽभिजाणामि,पुट्ठो केणइ कण्हुइ॥४०।। उत्त०७ अ०। सूत्र० / बुद्ध्यतिशये आव० ४अ०। क्रियासहिते ज्ञाने, अह पच्छा उइज्जंति, कम्माऽण्णाणफला कडा। उत्त० 7 अ० / सम्यक्त्वज्ञातौ, आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०ा तीक्ष्णबुद्धौ, एवमासासि अप्पाणं, णच्चा कम्मविवागयं // 41 / / सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। 'से' शब्दो मागधप्रसिद्ध्या अथ-शब्दार्थे उपन्यासे, नूनं निश्चितम्, से पन्नया अक्खय सागरे वा, महोदही वा वि अणंतपारे। 'मया' इत्यात्मनिर्देशः / पूर्व प्राक्, क्रियन्त इति कर्माणि, तानि च असौ भगवान्, प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा, तया अक्षयो न तस्य ज्ञात- मोहनीयादीन्यपि संभवन्त्यत आह-अज्ञानमनवबोधस्तत्फलानि न्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते, प्रतिहन्यते वा, तस्य हि बुद्धिः केवल- ज्ञानावरणरूपाणीत्यर्थः / कृतानि ज्ञाननिन्दादिभिरुपार्जितानि / ज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसाना कालतः द्रव्य-क्षेत्र-भावैरप्यनन्ता। यदुक्तम्- "ज्ञानस्य ज्ञानिना चैव, निन्दा प्रद्वेष मत्सरैः / उपघातैश्च सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। केवलज्ञा ने, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०१ उ०। प्रज्ञा० विश्व, ज्ञान कर्म बध्यते" ||1|| 'मया' इत्यभिधानं च स्वयमकृतस्योबुद्धिरीप्सितार्थसंपादनविषया कुटुम्बकाभिवृद्धिविषया च, तद्योगाद् पभोगाऽसंभवात् / उक्तं च-"शुभाऽशुभानि कर्माणि स्वयं कुर्वन्ति दशाऽपि प्रज्ञा, प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञा, दशदशानां पञ्चम्या दशायाम, देहिनः / स्वयमेवोपभुज्यन्ते, दुःखानिच सुखानिच।।१।।" कुत एतत् ? स्था० 10 ठा० / त० / "पंचमी उ दसं पत्तो आणुपुवीए जो नरो। इत्याह-येन हेतुना अहं नाभिजानामि नाभिमुख्येनाऽवबुध्ये पृष्टः इच्छियत्थं विचिंतेति, कुडुबं वाऽभिकखति / / 5 / / '' दश० 1 अ० / केनचित्स्वयमजानता, जानता वा (कण्हु त्ति) सूत्रत्वात्कस्मिश्चि(अस्या गाथाया अर्थः 'दसा' शब्दे चतुर्थभागे 2484 पृष्ठे मूलगाथायां त्सूत्रादौ, वस्तुनि वा प्रगुणेऽपीत्यभिप्रायः, न हि स्वयं स्वच्छस्फटिकप्रतिपादितः) प्रकर्षेण ज्ञायते उत्सर्गाऽपवादतत्त्वमनयेति छेदश्रुतगर्भायां वदतिनिर्मलस्य प्रकाशरूपस्याऽऽत्मनोऽप्रकाशकत्वम्, किंतु ज्ञानारहस्यवचनपद्धता, बृ०१ उ०१प्रक०। वृतियशत एव। उक्तहि "तत्र ज्ञानवरणीय, नाम कर्मभवति येनाऽस्य।तत् Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णापरिसह 390- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पण्हसमत्थ पञ्चविध ज्ञान-मावृत रविरिव मेघैस्तथा / / 1 / / " अथवा (से णूण ति) प्रारब्धम्, चमत्कृता लोकाः सागरचन्द्रव्याख्यानं प्रशंसन्ति। कालिका'से' शब्दः प्रतिवचनवाचिनोऽथशब्दस्याऽर्थे / स हि के नचित्किं चार्याणां सागरचन्द्रेण पृष्टम्-मद्व्याख्यानं कीदृशम् ? तैरुक्तम्-भव्यम् / चित्पर्यनुयुक्तस्तथाविधविमर्शाभावेन स्वयमजानन् कुत एतन्ममाऽ- तेन च आचार्यैः समं तर्कवादः प्रारब्धः। परं तुल्यतया वक्तुंन शक्नोति। ज्ञानमिति चिन्तयन् गुरुवचनमनुसृत्याऽऽत्मानमात्मनेव प्रतिवक्ति। (से भृशं चमत्कृतः / अथ शिष्यास्ततः शय्यातरेण तिरस्कृताःत्रपां प्राप्ताः इति ) अथ नूनं निश्चितमेतत् / शेषं प्राग्वत् / आह-यदि पूर्व कृतानि स्वगुरुं गवेषयन्तश्चलिताः 'कालिकाचार्याः समायान्ति' इति प्रसिद्धिं कर्माणि किं न तदैव वेदितानि ? उच्यते, अथेति वक्तव्यान्तरोप- कुर्वाणाः सुवर्णभूमौ प्राप्ताः / सागरचन्द्रः 'कालिकाचार्याः समायान्ति' न्यासे,पश्चादबाधोत्तरकालमुदीर्यन्ते विपच्यन्ते कर्माण्यज्ञानफलानि इति वृद्धस्य पुरः प्रोक्तवान्।वृद्धः प्राहमयाऽपि श्रुतमस्ति। सागरचन्द्रकृतान्यलर्क (अलर्क उन्मत्त श्वा।) मूषिकविषविकारवत्, तथाविधद्रव्य- स्तेषां सन्मुखमायातः / तस्य तैः पृष्टम्-किमत्र कालिकाचार्याः साचिव्यादेव तेषां विपाकदानात्। ततस्तद्विघातायैव यत्नो विधेयः, न समायातास्सन्ति न वा? तेनोक्तम्-एकोऽत्र वृद्धस्समायातोऽस्ति, तु विषादः। एवममुना प्रकारेणाऽऽश्वासय स्वस्थीकुरु कम् ? आत्मानम्, नापरः कोऽपीति। तेऽप्युपाश्रयान्तः समायता उपलक्षिताः कालिकामा वैक्लव्यं कृथा इत्यर्थः / उक्तमेव हेतुं निगमयन्नाह-ज्ञात्वा चार्याः, प्रणतास्तैः, सागरचन्द्रेण पश्चादुपलक्ष्य तेषां मिथ्यादुष्कृतं दत्तम्कर्मविपाकं कर्मणां कुत्सितविपाकम्। इत्थं प्रज्ञाऽपकर्षमाश्रित्य सूत्रद्वयं हा ! मया श्रुतलवगर्वाऽऽध्मातेन श्रुतनिधयो यूयमाशातिता इति च व्याख्यातम्। एतदेव तदुत्कर्षपक्ष एवं व्याख्यायते प्रज्ञोत्कर्षवतैवं कथितम् / कालिकाचार्यरुक्तम्-वत्स ! श्रुतगर्वो न कार्यः, यथा परिभावनीयम्- 'से' इत्युपन्यासे, नूनं मया पूर्व कर्माण्यनुष्ठानानि सागरचन्द्रेण श्रुतमदः कृतस्तथाऽपरैर्न श्रुतमदः कार्यः / उत्त०२ अ०। ज्ञानप्रशंसादीनि, ज्ञानमिह विमर्शपूर्वको बोधः, तत्फलानि कृतानि, पण्णापरिसहविजय पुं० (प्रज्ञापरिवहविजय) अङ्गोपाङ्गपूर्वप्रकीर्णकयेनाऽहं ना, अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वान्नाऽपि पुरुषोऽप्यभिजानामि, विशारदस्य तर्काऽध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादन्ये सर्वेऽपि भास्करस्य पृष्टः पर्यनुयुक्तः, केनाऽप्यविवक्षितविशेषेण सर्वेणापीत्यर्थः / कस्मिश्चिद् पुरः खद्योता इव निष्प्रभा इति ज्ञानानन्दस्य निरसने, आव०१ अ०। यत्रतत्राऽपि वस्तुनि। अथ इत्युत्कर्षानन्तरम् (अपत्थ त्ति) अपथ्यानि / पण्णामय पुं० (प्रज्ञामद) तीक्ष्णबुद्ध्या जन्ये मदे, "पण्णामयं चेव तवोमयं आयतिकटुकानि काण्यज्ञानफलानि ('उदिज्जति' त्ति) सूत्रत्वात् ___च, णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू'' सूत्र० 1 श्रु०१३ अ०। तिथ्यत्ययेन उदेष्यन्ति 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवता''।।३।३।१३१।। पण्णायरगुत्त पुं० (प्रज्ञाकरगुप्त) स्वनामख्याते दार्शनिके, विदुषि, ने०। (पाणि.) इत्यनेन वर्तमानसामीप्ये वा लटि उदीयन्ते सन्निहितकाल पण्णावंत त्रि० (प्रज्ञावत) क्रियासहितज्ञानयुक्ते, उत्त०७ अ० / एवोदेष्यन्तीत्यर्थः / अयं चाऽऽशयः-उत्सेको हि ज्ञानावरणकारणम्, पण्णास स्त्री० (पञ्चाशत्) पञ्चाऽऽवृत्तायां दशसंख्यायाम, राधा अवश्यवेद्यं च तत्, तदुदये च कुतो ज्ञानम् ? अनियते वाऽस्मिन् क | पण्णासग त्रि० (पञ्चाशत्क) पञ्चाशद्वर्षजाते,''पण्णसगस्स चक्खु उत्सेकः ? इत्येवमालोचयन्नाश्वासय-प्रज्ञावलेपावलुप्तचेतनमात्मानं हायइत०। स्वस्थीकुरु, ज्ञात्वा कर्मविपाकम् / इह च तन्त्रन्यायेन युगपदर्थद्वय- पण्णासास्त्री० (पञ्चाशत्) "पञ्चाशत्पञ्चदश-दत्ते" / / 8 / 2143 / / संभवः / तन्त्रं च दैर्घ्यप्रसारितास्तन्तवः, ततो यथा तदेकम् अनेकस्य इति संयुक्तस्य णे पण्णासा। ‘पण्णास' इत्यर्थे, प्रा०२पाद। तिरश्चीनस्य तन्तोः संग्राहि, तथा यदेकेन अनेकार्थस्याऽभिधानं स | पण्णी स्त्री० (पत्नी) यज्ञसबन्धिन्यां भार्यायाम, सामान्यभार्यायाम्, तन्त्रन्याय इति सूत्रद्वयार्थः / / 40-41 / / उत्त० पाइटी० 2 अ०। उत्त०२२ अ०। अस्मिश्च प्रस्तुतसूत्रसूचितमुदाहरणमाह पण्ह पुं० (प्रश्न)प्रछ-नड्। "सूक्ष्मश्न-ष्ण-स्न-ह्न-ह-क्ष्णांण्हः" उज्जेणी कालखमणा, सागरखमणा सुवण्णभूमीए। |8/275|| इति श्रस्य ण्हः / प्रा०२ पाद। पृच्छायाम, आगमोक्तरीइंदो आउयसेसं, पुच्छइ सादिव्वकरणं च // 120 // त्योपस्थितस्य साधुक्रियाकथने, ध०३ अधि० / अड्गुष्ठबाहु('उज्जेणी') उज्जयनी, कालक्षपणाः, सागरक्षपणाः, सुवर्णभूमौ इन्द्र | प्रश्नादिकासु मन्त्रविद्यासु, स० 10 अङ्ग। आयुष्कशेष पृच्छति सादिव्यकरणं चेति गाथाक्षरार्थ / / 120 // पण्हअधु० (प्रस्नव) स्तनस्तन्ये 'आगयपण्हया''पुत्रस्नेहन स्तनागतभावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायाद् ज्ञातव्यः / उत्त० पाइटी० 2 अ०। स च स्तन्या। अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 8 अ०। ('अज्जरक्खिय' शब्द प्रथमभागे 215 पृष्ठे आर्यरक्षितकथावदत्र ] पण्हवाहणय न० (प्रश्नवाहनक) स्थविरसुस्थित-सुप्रतिबुद्धाभ्यां भावनीयः) अत्र प्रज्ञाऽपकों परि कालिकाचार्यसागरचन्द्रयोः कथाउ- निर्गतस्य कोटिकगणस्य चतुर्थे कुले, कल्प० 2 अधि० 8 क्षण। 'सिरिज्जयनीतःकालिकाचार्याः प्रभादिनः स्वशिष्यान मुक्त्वा सुवर्णकुले पण्हवाहणकुलसम्भूओ हरिसउरीयगच्छालंकार-भूओ अभयदेवसूरी" स्वशिष्यसागरचन्द्रस्य समीपे प्राप्ताः / सागरचन्द्रस्तु तानेकाकिनः ती०३८ कल्प। समायातान् नोपलक्षयति। कालिकाचार्या अपि न किञ्चत्स्वस्वरूपो- | पण्हसमत्थ त्रि० (प्रश्नसमर्थ) प्रश्नविषये प्रत्युत्तरदानसमर्थे , सूत्र०१ पलक्षणं दर्शयन्ति / अन्यदा सागरचन्द्रेण पर्षदि सिद्धान्तव्याख्यानं | श्रु०२ अ०२ उ०। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्हावागरण 391 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पण्हावागरणदसा पण्हावागरण-न० (प्रश्नव्याकरण) प्रश्नाश्च पृच्छाः, व्याकरणानि च निरुद्धेसु आउत्तभत्तपाणएणं अंग जहा आयारस्स। निर्वचनानिसमाहारत्वात्प्रभव्याकरणम्। तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽपि प्रश्न इति श्रीप्रश्रव्याकरण दशमाङ्ग समाप्तम्। व्याकरणम्।८० प्रश्नाः अङ्गुष्ठादिप्रश्न विद्यास्ता व्याक्रियन्ते अभिधी- "नमः श्रीवर्द्धमानाय, श्रीपार्श्वप्रभवे नमः / यन्तेऽस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणम्। प्रवचन-पुरुषस्य दशमेऽङ्गे। अयं च नमः श्रीसरस्वत्यै, सहायेभ्यो, नामे नमः।।१।। व्युत्पत्यर्थाऽस्य पूर्वकालेऽभूत्। इदानीं त्वाश्रवपञ्चकसंवरपञ्चकव्या- इह हि गमनिकार्थं यन्मयाऽभ्युहयोक्तं, कृतिरवहोपलभ्यते, अतिशयाना पूर्वाचार्यरैदंयुगीनानांपुष्टालम्बनप्रति- किमपि समयहीनं तद्विशोध्यं सुधीभिः। सेविपुरुषापेक्षयोत्तारितत्वादिति / अस्य च श्रीमन्महावीरवर्द्धमान- न हि भवति विधेया संर्वथाऽस्मिन्नुपेक्षा, स्वामिसंबन्धी पञ्चमगणनायकः सुधर्मस्वामी सूत्रतो जम्बुस्वामिनं प्रति दयितजिनमताना तायिनां चाऽगि वगैः / / 2 / / प्रणयन चिकीर्षुः सं बन्धाऽभिधेय-प्रयोजनप्रतिपादनपरम् "जम्बू ! परेषां दुर्लक्षा भवति हि विवक्षा स्फुटमिदं, इणमो अण्हय संवरविणिच्छियं पवयणस्स। निस्संदं वोच्छामि, निच्छ- विशेषादृद्धानामतुलवचनज्ञानमहसाम्। यत्थं सुभासियत्थं महेसीहिं"।। प्रश्न०१आश्र० द्वार। स०। निराम्नायाऽधीभिः पुनरतितरां मादृशजनैप्रश्नव्याकरणदशा स्ततः शास्त्रार्थ मे वचनमनघं दुर्लभमिह / / 3 / / से किं तं पण्हावागरणाइं? पण्हावागरणेसु णं अछत्तरं पसि ततः सिद्धान्ततत्त्वज्ञैः, स्वयमूह्यं स्वयत्नतः / णसयं, अठुत्तरं, अपसिणसयं अत्तरं परिणाऽपसिणसयं / न पुनरस्मदाख्यात एव ग्राह्यो नियोगतः ||4|| तं जहा-अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई, अद्दागपसिणाई; अन्ने तथैवं माऽस्तु में पापं, संघमत्युपजीवनात्। वि चित्ता दिव्या विज्जाइसया,नागसुवण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया वृद्धन्यायानुसारित्वा-द्धितार्थ च प्रवृत्तितः / / 5 / / आघविजंति / पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा, संखिज्जा यो जैनाभिमतं प्रमाणमनघं ध्युत्पादयामासिवान, अणुओगदारा, संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा, संखि प्रस्थानैर्विविधर्निरस्य निखिलं बौद्धादिसम्बन्धि तत्। ज्जाओ निज्जुत्तीउ, संखिज्जाओ संगहणीउ, संखिज्जाउ नानावृत्तिकथाः कथापथमतिक्रान्तं च चक्रे तपः, पडिवत्तीउ, से णं अंगठ्ठयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, निःसम्बन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा / / 6 / / तस्याऽऽचार्यजिनेश्वरस्य, मदवद्वादिप्रतिस्पर्द्धिनपणयालीसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं स्तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि। समुद्देसणकाला, संखिज्जाई पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा छन्दोबद्धनिबद्धबन्धुरवचःशब्दादिसल्लक्ष्मणः। अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा,परित्ता तसा, अणंता श्रीसंविग्नविहारिणः श्रुतनिधेश्चारित्रचूडामणेः॥७॥ थावरा, सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नता भावा शिष्येणाऽभयदेवाख्य-सूरिणा विवृतिः कृता। आधविज्जति, पन्नविज्जंति, परूविज्जंति,दंसिज्जंति, प्रश्नव्याकरणाग स्य, श्रुतभक्त्या समासतः / / 8 / / निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जति, से एवं आयां, एवं नाया, एवं निर्वृतिककुलनभस्तलचन्द्र-द्रोणाख्यसूरिमुख्येन। विन्नाया, एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ / से तं पण्हा पण्डितगणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम्।।६।। वागरणाई।१०। प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। अथ कानि प्रश्रव्याकरणानि ? प्रश्रः प्रतीतः, तद्विषयं निर्वचनं पण्हावागरणदसा स्त्री० (प्रश्नव्याकरणदशा) प्रश्नानां विद्याविशेषाणां व्याकरणम्, तानि च बहूनि ततो बहुवचनान्तता, तेषु प्रश्नव्याकरणेषु यानि व्याकरणानि तेषां प्रतिपादनपरा दशा दशाध्ययनप्रतिबद्धा अटोत्तरं प्रश्रशतम्, या विद्याः, मन्त्रा वा विधिना जप्यमानाः पृष्टा एव ग्रन्थपद्धतय इति प्रश्नव्याकरणदशा। प्रश्न०१ आश्र० द्वार० / दशमे सन्तः शुभाऽशुभं कथयन्ति ते प्रश्नाः, तेषामष्टोत्तरं शतम्।याः पुनर्विद्याः, अङ्गे, पा०। मन्त्रा वा विधिना जप्यमाना अपृष्टा एव शुभाऽशुभं कथयन्ति तेऽप्रश्राः, पण्हावागरणदसाणं दस अज्झयणापण्णत्ता। तं जहा-उवमा, तेषामष्टोनरं शतन् / तथा ये पृष्टाः, अपृष्टाश्च कथयन्ति ते प्रश्नाऽप्रश्नाः, संखा, इसिभासियाई, आयरियभासियाई, महावीरभासियाई, तेषामष्टोत्तर शतमाख्यायते। तथाऽन्येऽपि च विविधा विद्यातिशयाः / खोमगपसिणाई, कोमलपसिणाई, अद्दागपसिणाई, अंगुट्ठकाध्यन्तं, तथा नागकुमारः सुपर्णकुमारः, अन्यैश्च भवनपतिभिः सह पसिणाई, बाहुपसिणाई॥ साधूनां दिव्याः संवादा जल्पविधयः कथ्यन्ते-यथा भवन्ति तथा कथ्यन्ते प्रश्नव्याकरणदशा इहोक्तरूपा न, दृश्यमाना तु पञ्चाश्रव पञ्चइत्यर्थः / शेषं निगदसिद्धम्।नवरम्-संख्येयानि पदसहस्राणि द्विनवति संवरात्मिका। इतीहोक्ताना तूपमादीनामध्ययनानामक्षरार्थः प्रतीयमान लक्षाः, षोडशसहस्रा इत्यर्थः। नं० सं०1 अनु०॥ एवेति / नवरम्-(पसिणाई ति) प्रश्नविद्या यकाभिः क्षौमकादिषु पण्हावागरणे णं एगो सूयक्खंधो, दस अज्झयणा एक्कसरगा, देवतावतारः क्रियत इति। तत्र क्षौमकं वस्त्रम् (अद्दागो) आदर्शः, अङ्गुष्ठो दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जंति, एकंतरसु आयंबिलेसु | हस्तावयवः, बाहवो भुजा इति। स्था० 10 ठा०। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्हा 362 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त पण्हा पु० (प्रश्न) पृच्छायाम, "वेमाऽजल्याद्याः स्त्रियाम्" | पतेलसवास न० (प्रत्रयोदशवर्ष) पतेरसवा' शब्दार्थे, आचा०१ श्रु०६ ||1|35|| इत्यनेन अञ्जल्यादिपाठात् वा स्त्रीत्वम् / प्रा०१ पाद। अ०१उ०। पण्हुय त्रि० (प्रस्नुत) स्तनविश्लिष्टपयसि, "सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न- पतेस पुं० (प्रदेश)"तदोस्तः" // 4 // 307 / / पैशाच्या मिति सूत्रेण ह्न-ह-क्ष्णां ग्रहः ।।८।२।७५||इत्यनेन ण्हत्वम्,प्रा०२पाद।" दकारस्य तकारः / प्रकृष्टावयवे, प्रा० 4 पाद। (अत्र विस्तरः ‘पएस' पतण नं० (पतन) निपाते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। शब्देऽस्मिन्नेव भागे 22-26 पृष्ठे गतः)। पतणतणायंत त्रि० (प्रतणतणायमान) प्रकर्षेण तणतण ति शब्दं कुवाणे | पतोदय न० (पतदुदय) पतितपताके स्थाने, भ०३ श०४ उ०। गर्जति। भ० 15 श० / रा०। पत्त न० (पत्र) पणे, स्था० 4 ठा०३ उ० 1 निम्बाऽश्वत्थादिपत्र-जाते, पतणु (अ) त्रि० (प्रतनु) (क) अल्पे "पङ्को खलु चिक्खिल्लो, आगंतुग रा० / प्रश्नादले, भ०१श०१ उ०। दुमपत्तए पंडुरए जहा, निवडइ पतणुओ दवो पणओ" स्था०५ ठा०२ उ०। राइगणाण अच्चए / उत्त०१० अ० / ज्ञा०। जी० / विशे०। दश० पतणुकरण पुं० (प्रतनुकरण) संसारक्षयकारके, आ०म०२ अ०। लिखनाधारे, वाच० / पतन्ति गच्छन्ति तेनेति पत्रम्। पक्षपुटे, सूत्र० 1 'पतणुकरणो संसारं पगरिसेण तणुयं करेति' आ०चू०२ अ०। श्रु०१४ अ० / वाहनमात्रे, वाच०। पत्रस्य चतुर्विधो निक्षेपो द्रुमस्येव पताका स्त्री० (पताका)"तदोस्तः"||४|३०७।। इत्यनेन पैशाच्या वेदितव्यः। उत्त० 10 अ०। (कस्य वनस्पतेः पत्रं कियज्जीवम् ? इति तकारस्य तकारविधानसामर्थ्यान्न तकारस्याऽऽदेशान्तरम् / ध्वजार्थे / 'अणतजीव' शब्दे प्रथमभागे 262-264 पृष्ठ गतम्। पत्तेयजीव' शब्दे प्रा० 4 पाद। चवक्ष्यते) पतिट्ठा स्त्री० (प्रतिष्ठा) देवस्थापनायाम्, प्रतिष्ठाया प्रतिमायां नेत्रोन्मील * प्राप्त त्रि० प्राप्ते, अधिगते, वाच०। नेऽजने मधु क्षिप्यते नवा? इति प्रश्ने, उत्तरम्-सांप्रतं प्रतिष्ठायाम पात्र न० पतद्ग्रहादिभाजने, उत्त० 6 अ० / प्रश्न०। जने, मधुशब्देन शर्कराऽभिधीयत इति सैव प्रक्षिप्यते। ३१६प्र०। सेन० अथ पात्रस्य सर्वोऽधिकारः। पात्रनिक्षेपः-तच्च पात्रं चतुर्विधम्। तद्यथा३ उल्ला० / (अत्र विस्तरः पइट्टा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1 पृष्ठे गतः / नाम ठवणा दविए, भावम्मि चउव्विहं भवे पायं / प्रतिष्ठाविधिश्च 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1266 पृष्ठे गतः। आधारदिन एसो खलु पायस्स, निक्खेवो चउव्विहो होइ॥६१४|| करादिग्रन्थे प्रतिष्ठाक्षराणि लभ्यन्ते, तानि च 'पढिमा शब्देऽस्मिन्नेव भागे 377 पृष्ठे गतानि, प्रतिष्ठा कृत्वैव प्रतिमाः वन्दनीयाः, अस्मिन् नामपात्रम्, स्थापनापात्रम्, द्रव्यपात्रम्, भावपात्रमिति चतुर्विधं पात्रम् / विषयेऽपि पढिमा' शब्दो विलोकनीयः)। एष खलु पात्रस्य निक्षेपश्चतुर्विधो भवति। पतिट्ठाण न० (प्रतिष्ठान) निसोपानमूलप्रदेशे, रा०॥ त्राणकारणे, प्रश्न० तत्र नाम-स्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्य-भावपात्रे प्रतिपादयति३ आश्र० द्वार। (अत्र विस्तरः पइट्टाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 2 पृष्ठ गतः) दव्वे तिविहं एगि-दिविगलं-पंचिंदिएहि निप्फन्नं / पतिण्ण त्रि० (प्रतीर्ण) निस्तीर्णे आजन्मपरिपालिते, प्रभ०१ सम्ब० द्वार। भावे आया पत्तं, जो सीलंगाण आहारो॥६१५।। पति पु० (पति) पाति रक्षतीति पतिः-भर्तरि, नि०० 4 उ०। द्रव्यविषयं त्रिविध पात्रम् / तद्यथा एकेन्द्रियनिष्पन्नम् विकलेन्द्रिपतुण्ण न० (प्रतुन्न) वल्कल, नुनिष्पन्ने, आचा०२ श्रु०१ चू०५ अ० यनिष्पन्न च / एकेन्द्रियनिष्पन्नमपि अलाबुकादि, विकलेन्द्रियनिष्पन्न १उ०। शुवित-शड्खादि, पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं कुतपदन्त श्रृङ्गपात्रादि / भावे पतुन्न न० (प्रतुन्न) 'पतुण्ण' शब्दार्थे, आचा०२ श्रु०१ चू० 5 उ०। भावविषयं पात्रम् आत्मा / किं सर्व एव एवम्? इत्याह-यः पूर्वोक्तापतेरसवासन० (प्रत्रयोदशवर्ष) प्रकर्षण त्रयोदशे वर्षे, नामष्टादशसहस्रसंख्याना शीलाऽङ्गानामाधार आश्रयः स आत्मा साधूना एएहिं मुणी सयणेहिं समणे आसि पतेरसवासे। सम्बन्धी भावपात्रम्-भाजनम्, आधार इति पर्यायवचनत्वात् / बृ०१ राई दिवं पि जयमाणे अपमते समाहिए झाइ / / 4 / / उ०१ प्रक० / आचा० ‘एतेषु' पूर्वोक्तेषु शयनेषु वसतिषु स मुनिः' जगत्त्र यवेत्ता ऋतुबद्धेषु कारणे पात्रग्रहणम्वर्षासुवा श्रमणः' तपस्युद्युक्तः समना वाऽऽसीद निश्चलमना इत्यर्थः, अतरंतबालवुड्डा, सेहाऽऽदेसागुरु असहुवग्गो। कियन्तं कालं यावत् ? इति दर्शयति-('पतेलसवात ति') प्रकर्षण साहारणोग्गहाऽल-द्धिकारणा पायगहणं तु // 1 // त्रयोदशं वर्ष यावत्समस्तां रात्रि दिनमपि यतमानः संयमानुष्ठान (अतरंत त्ति) ग्लानाः, आदेशाः प्राघूर्णकाः (असहु त्ति) सुकुमारो उद्युक्तवान्, तथाऽप्रमत्तो निद्रादिप्रमादरहितः 'समाहितमनाः विस्रोत- राजपुत्रादिः प्रव्रजितः, साधारणावग्रहात्सामान्योपष्टम्भार्थम्, अलब्धिसिकारहितो धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा ध्यायतीति।॥४॥ आचा०१ श्रु० कार्थ चेति। स्था० 3 ठा०३। उ० / आचा०। ६अ०१उ०। कप्पई निग्गंथाणं वा, निग्गंथीणं वा, तओ पायाइंधा Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त रित्तए वा, परिहरित्तए वा / तं जहा-लाउयपाए वा, दारुपाएवा, मट्टियापाए वा / स्था० 3 ठा०३ उ०। अत्र पुनर्भावपात्रोपयोगिना द्रव्यपात्रेणाऽधिकारः, तदपि त्रिविधम्लाउय दारुअमहिय, तिविहं उक्कोस-मज्झिम-जहन्नं / एक्के कं पुण तिविहं, अहागडऽप्पं सपरिकम्मं / / 657 / / अलावुमयम्, दारुमयम, मृत्तिकामयं च। पुनरेकैकं त्रिविधम्-उत्कृष्टम्, मध्यमम्, जघन्यं वा / उत्कृष्ट प्रतिग्रहः, मध्यम मात्रकम्, जघन्यं टोप्परिकाऽऽदि। एकैकं पुनस्त्रिधायथाकृतम्-अल्पपरिकर्म, सपरिकर्म च। बृ०१3०१ प्रक०। (2) पात्रस्य गणना-प्रमाणाऽऽदीनि द्वाराणि, पात्रैषणाएगं पायं जिणक-प्पियाण थेराण मत्तओ बीओ। एयं गणणपमाणं, पमाणपमाणं अओ वोच्छं // 1000 / / एकमेव पात्रकं जिनकल्पिकानां भवति, स्थविरकल्पि कानां तु मात्रको द्वितीयो भवति। इदं तावदेकह्यादिकं गणनाप्रमाणम्, इत ऊर्ध्वं प्रमाणप्रमाणं वक्ष्ये। तत्र पात्रकस्य प्रमाणप्रमाणं प्रतिपादयन्नाहतिन्नि वितत्थी चउरं-गुलं तु भाणस्स मज्झिमपमाणं। इत्तो हीण जहन्नं, अइरेगयरं तु उक्कोसं // 1001 / / समवउरंसं वट्ट दोरएण मविज्जइ-तिरिच्छयं उड्डमहो य / सो दोरओ तिन्नि वितत्थी चत्तारि अंगुलाणि जइ होइ तओ एणं भाणस्स मज्झिम पमाण। इतः अस्मात्प्रमाणात यद्धीनंतदजघन्यं प्रमाण भवति, अथातिरिक्त प्रमाणं मध्यमप्रमाणाद्भवति तदुत्कृष्टम्, उत्कृष्टप्रमाणमित्यर्थः / तथा-इदमपरं प्रकारान्तरेण पात्रकस्य प्रमाणं भवतिइणमन्नं तु पमाणं, नियगाहाराउ होइ निप्फन्नं / कालप्पमाणसिद्धं, उदरपमाणेण य वयंति॥१००२॥ इदमन्यत्प्रमाणं निजेनाऽऽहारेण निष्पन्नं वेदितव्यम् / एतदुक्तं भवतिकाञ्जिकाऽऽदिद्रव्योपेतस्य चतुर्भिरङ्गुलैयूँनं पात्रकम्, तत्साधोक्षयतः यत्परिनिष्ठितं तत् तादृग्विधं मध्यभप्रमाणं पात्रम्, तथैवविध कालप्रमाणेन ग्रीष्मकालप्रमाणसिद्धं पात्रक भणन्ति, उदरप्रमाणेन च सिद्धम्। तदित्थं कालप्रमाणसिद्ध पात्रकम्, उदरप्रमाणसिद्धं च वदन्ति प्रतिपादयन्ति। कालप्रमाणसिद्धं पात्रकम्, उदरप्रमाणसिद्धं च पात्रकं प्रतिपादयन्नाहउकोसतिसामासे, दुगाउमद्धाणमागओ साहू। चउरंगुलूणभरियं, जं पञ्जत्तं तु साहुस्स / / 1003 / / उत्कृष्टा तृट् पिपासा यस्मिन् काले स उत्कृष्टतृण्मासः कालः, तस्मिन्नुत्कृष्टतृण्मासकाले द्विगव्यूतमात्रादागतः साधुश्चतुर्भिरङ्गुलैयूँन भृतं यत् सत पर्याप्त साधोर्भवति तदित्थं कालप्रमाणोदरप्रमाणसिद्धं पात्रक मध्यम भवति। एयं चेव पमाणं, सविसेसअरं अणुग्गहपवत्तं / कंतारे दुभिक्खे, रोहगमाईसु भइयव्वं / / 1004 / / एतदेव पूर्वोक्तं प्रमाणं यदा सविशेषतरम् अतिरिक्ततरं भवति, तदा तदनुग्रहार्थ प्रवृत्तं भवति-बृहत्तरेण पात्रेण अन्येभ्यो दानेनानुग्रह आत्मना क्रियते / तच्च कान्तारे महतीमटवीमुत्तीर्य अन्येभ्योऽप्यर्थमनुग्रहाय भवति, येन बहूनां भवति / तथा दुर्भिक्षे अलभ्यमानायां भिक्षायां बहु अटित्वा बालाऽऽदिभ्यो ददाति। तच्चातिमात्रे भाजने सति भवति दानम्। तथा रोधके कोट्टोपरोधे जाते सति कश्चिद्धोजनं श्रद्धया दद्यात् तत्र तत् नीयते, येन बहूनां भवति। एतेषु भजनीयं सेवनीयं तदतिमात्रं पात्रकम्। इदानीमेतदेव भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाहवेयावच्चकरो वा, नंदीभाणं धरे उवगगहियं / सो खलु तस्स विसेसो, पमाणजुत्तं तु सेसाणं / / 1005 / / ओघ / (अत्र नन्दिभाजनसत्का सर्वा वक्तव्यता 'णंदिभायण' शब्दे चतुर्थभागे 1757 पृष्ठ गता) (3) अथपात्रविषयं तमेवाऽभिधित्सुराहदव्वपमाणं अतिरे-गें हीणे दोसा तहेव अववाए। लक्खणमलक्खणं वा, तिविहं वुच्छेय आणाऽऽदी॥३१३|| को पोरुसी य कालो, आगर चाउल जहण्णजयणाए। चोदग असती असिव-प्पमाणउवओगछेयण मुहे या।।३१४।। द्रव्यमिह पात्रं, तस्य यद्वक्ष्यमाणं प्रमाणम् 1 / अतिरिक्ते,हीने च पात्रे दोषा वक्तव्याः। तथैवाऽपवादे कारणे हीनाऽतिरिक्तधारणलक्षणे 2 / पात्रस्य किं लक्षणम्, किं वा अलक्षणम् 3 / त्रिविध उत्कृष्टाऽऽदिभेदाद्, तथा कृताऽऽदिभेदाद्वा त्रिप्रकार उपधिर्यथा गृह्यते / यथोक्तक्रमाच विषय॑स्तेन ग्रहणे प्रायश्चित्तम्, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः 5 // 313 / / तथा(को त्ति) कः पात्रं गृह्णाति 6 (पोरिसि त्ति) बहुबन्धनबद्ध पात्रं धारयता सूत्राऽर्थपौरुष्यौ द्वे अपि हापयित्वा अपरं पात्रं गवेषणीयम् / (कालो त्ति) तस्य च गवेषणा नुकूलक्रियाकाल इति 8 / आकरः कुत्रिकापणाऽऽदि, यत्र पात्रं गवेष्यमाणं लभ्यते / / (चाउल त्ति) तन्दुलधावनेन, उपलक्षणत्वादुल्लोटकाऽऽदिना भावितं किं कल्पते, न वा इति 10 / (जहन्नजयण त्ति) जघन्यं पञ्चकप्रायश्चित्तम्, जघन्यानि वा सर्षपाऽऽदीनि, तद्युक्तमपि पात्रं यतनया ग्रहीतव्यम् 11 / चोदकः प्रेरयतिकथं बीजभृतमपि पात्रमनुज्ञायते ? 12 / सूरिराह-यदेतद्गीजयुक्तपात्रग्रहणमनुज्ञातंतदसत्तायां पात्रकस्याऽभावे, यत्र वा भाजनानिलभ्यते तत्राऽपान्तराले वा अशिवम् 13 / (प्रमाणउवओगछेयण ति) यदि प्रमाणयुक्तपात्रं न लभ्यतेतत उपयोगपूर्वकं पात्रस्य छेदन विधाय प्रमाणं विधेयम् 14 / (मुहे य त्ति) अल्पसपरिकर्मकयोर्मुखकरणं भवति, न यथाकृते 15 / एवमेतानि द्वाराणि प्ररूपणीयानि / इति द्वार गाथाद्वयसंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेतदेव विवरीषुराहपमाणऽतिरेगधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाऽऽइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए।।३१५।। प्रमाणाऽतिरिक्तपात्रस्य धारणे चत्वारो मासा उद्घातिका भवन्ति, आज्ञाऽऽदयश्च दाषाः विराधना च संयमाऽऽत्मविषया। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 364 ~ अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त इदमेव भावयतिगणणाएँ पमाणेण य, गणणाएँ समत्तओ पडिग्गहओ। पलिमंथ भरुव्वहरा, अतिप्पमाणे इमे दोसा / / 316 / / गणनया, प्रमाणेन च, पात्रस्य प्रमाणं द्विविधम्-तत्र गणनायां समात्रको मात्रकसहितः प्रतिग्रहो मन्तव्यः / अथेत ऊर्ध्व तृतीयाऽऽदिकं पात्रं धारयति, ततः कर्मणि रङ्गनाऽऽदी, प्रत्युपेक्षणाऽऽदिषु च महान् परिमन्थो भवति। अध्वनि बहूनि पात्राणि वहमानस्य भारः , बहूपकरणश्चो द्वहको जनोपहास्यो भवति-अहो ! भारवाहकोऽयमिति / अत्र चाऽतिप्रमाणे प्रमाणद्वयातिरिक्ते पात्रे एते दोषाः। तद्यथाभारेण वेयणा वा, अमिहणमाई ण पेहए दोसा। इरियादि संजमम्मि य, छक्काया भाणभेओ य / / 317 / प्रभूतपात्रवहने भारेणाऽऽक्रान्तस्य वेदना (अभिहण ति) हस्तितुरङ्ग माऽऽदीनि अभिघातं प्रहारं प्रयच्छन्ति, तं न पश्यति, आदिशब्दात् स्थाणुकण्टकाऽऽदीनि न प्रेक्षते, एवमात्मविराधनायामीर्याऽऽदिकं न शोधयति, ततश्च षट्कायविराधना / अनुपयुक्तो वा प्रस्खलितो भाजनभेदमपि विदध्यात्, एते गणनाति-रिक्ते दोषा उक्ताः। प्रमाणातिरिक्ते तु पात्रे इमे दोषाःभाणऽप्पमाणगहणे भुंजणे गेलण्णऽभुंजे उन्ममिगा। एसणपेलण भेदे, हाणि अडते दुविह दोसा // 318 / / (भाणऽप्पमाण त्ति) अकारप्रश्लेषादप्रमाणस्याऽतिबृहत्तरप्रमा-णस्य भाजनस्य ग्रहणे इमे दोषाः, तदतिबृहत्तर भाजनं परिपूर्णमपि भृत्वा यदि सर्वमपि भुङ्क्ते ततो ज्वराऽऽदिक ग्लानत्वं भवेत्, अथ न भुङ्क्ते तत उद्घामिका भवति। अतिबृहत्तरं च पात्रं यदा गृहिणाऽपि न पूर्यते तदा एषणाप्रेरणम् / पीडनं, कृत्वाऽपि विभृयात्, भरितं वाऽतिभारेण प्रतिस्खल्य भेदमुपगच्छेत, ततो भाजनेन विरहिते आत्मनः कार्यपरिहाणिः, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / गुरुत्वेन वाऽऽत्मसंयमविराधनालक्षणा द्विविधा दोषा भवन्ति / तथाऽत्र आत्मविराधना ईयाँ पर्यटतोऽतिभारेण कटीस्कन्धाऽऽदिकं परिताप्यते, संयमविराधनायामीर्यामशोधयन षट्कायान् विराधयेत्। गतमतिरिक्तद्वारम्। (4) अथ हीनद्वारमाहहीणप्पमाणधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाऽऽदिणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽताए / / 316 / / यत्प्रतिग्रहस्य, मात्रकस्य वा प्रमाणं वक्ष्यते, ततो हीनं यदि धारयति तदा चत्वारोमासा उद्घातिमा भवन्ति। एतच्च प्रतिग्रहे मन्तव्यम्, मात्रके तु मासलघु / आह च निशीथचूर्णिकृत्- 'पडिग्गहणे चउलहु मत्तगे मासलहुँ।' आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः, विराधना च संयमाऽऽत्मविषया। इदमेव भावयतिऊणेण न पूरिस्सं, आकंठा तेण गिण्हते उभयं / मा लेवकडं ति पुणो, तत्थुवओगो न भूमीए // 320 // ऊनेन प्रमाणहीनेन, नोनेनाऽभरितेनाऽहमात्मानं पूरयिष्ये, तत आकण्ठात्तत्र भाजने उभयमपि कूण, कुसणं च गृह्णाति, ततोमा पात्रबन्धो लेपकृतो भवेत, तत्रैव पात्रकबन्धखरण्टने उपयोगो भवति, न पुनभूमौ। अनुपयुक्तस्य चेमे दोषाःखाणूकंटगविसमे, अभिहणमादी ण पेहए दोसा। इरियाएँ गलियतेणग-भायणभेए य छक्काया // 321 / / ईर्यायाभनुपयुक्तः स्थाणुना कण्टकेन वा विध्यते, विषम वा भूभागे निपतेत, गवादिकृताभिघाताऽऽदींश्च दोषन्न प्रेक्षते, इयमात्मविराधना। संयमविराधना त्वेवम्-अनुपयुक्त ईयाँ न शोधयेत्, भाजनाच भक्तं पानकं वा परिगलेत, तच प्रगलितं विलोक्य स्तेना : प्ररिपूर्ण भृतमिदं भाजनमस्तीति परिभाव्य प्रहरेयुः। अथ कुत्रापि प्रखलितस्ततो भाजनभेदः, षट्कायविराधना वा भवेत्।। गुरुपाहुणखमदुब्बले, बाले वुड्ढे गिलाणें सेहे य। लाभालाभऽद्धाणे, अणुकंपा लाभवोच्छेदो॥३२२।। प्रमाणहीन भाजनं धारयता गुरुप्राघूर्णकक्षपकदुर्बलाः, बालः, वृद्धः, ग्लानः, शैक्षश्च परित्यक्ता मन्तव्याः। तथा क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ प्रेषितस्तेनाऽल्पीयसा भाजनेन कथं लाभाऽलाभपरीक्षा करोतु / अध्वनि प्रपन्नाना संखडिर्भवेत, तत्र पर्याप्त लभ्यमाने लघौ भाजने किं नाम गृह्णातु, विधिनाऽध्वनि वा कश्चिदानश्रद्धालुरनुकम्पया प्रायच्छदुपस्थाप्यते तत्तद्भाजन भरति / तत्र गच्छसाधारणं भाजनमुपस्थापयितव्यम्। हीनभाजने पुनरूपस्थाप्यमाने तस्य लाभस्य व्यवच्छेदो भवति, निर्जरायाश्च लाभो न भवतीति संग्रहणथासमासार्थः / / 322 / / अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तमाहगुरुगा य गुरुगिलाणे, पाहुणखमए य चउलहु हों ति। सेहस्स होइ गुरुओ, दुब्बलजुगले य मासलहू // 323 / / गुरूणा, ग्लानस्य चोपष्टम्भमकुर्वतश्चतुर्गुरुकाः,प्राघूर्णकस्य, क्षपकस्य चोपष्टम्भाऽकरणे चतुर्लघवो भवन्ति, शैक्षस्याऽदाने मासगुरुकः, दुर्बलयुगलस्य च बालवृद्धलक्षणस्याऽदाने मासलधुः।।३२३॥ अप्पपरपरिचाओ,गुरुभाईणं अदितदितस्स। अपरिच्छिए य दोसा, वोच्छेओ निजरालाभे / / 324 // लघुतरभाजनं गृहीतं गुर्वादीनां यदि ददाति तत आत्मपरित्यागः, अथ स्तोकमिति कृत्वा न ददाति ततो गुर्वादिना परेषां परित्यागः कृतो भवति / तथा प्रमाणहीनं भाजनं गृहीत्वा क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं गतः कथं लाभाऽलाभ परीक्षेत? ततोऽपरीक्षित क्षेत्रे ये दोषास्ते मन्दपरीक्षितेमन्तव्याः अध्वनि प्रपन्नानां च संखडिर्भवेत्। दानश्राद्धो वा कश्चिदनुकम्पया प्रभूतं भक्तपानं दद्यात्। यद्वा-स्वस्थानेऽपि धृताऽऽदिसाधारणद्रव्यं लभेत, तत्र लघुतरभाजने भक्तपानलाभस्य,निर्जरायाश्च व्यवच्छेदो भवति / / 324 / / अथ क्षुलकभाजनस्यैव दोषान्तराभिधानायाऽऽहलेवकडे वोसट्टे, सुक्खे लग्गे य कोडिते सिहरे / एए हवंति दोसा, डहरे भाणे य उड्डाहे // 325|| तक ।ऽऽदिना तदवमप्रमाणं भाजनमाकण्ठमापूरितं , ततः (वोस? त्ति) प्रलठिते तक्रे चैतद्भाजनं ले पकृतं क्रियते अथ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त पात्रलेपनभयात् तत्र शुष्कमेव भक्तं गृह्णाति, ततस्तद्भक्तं भुजा-नस्य गलके, उदरे वा लगेत, लग्ने च तत्राऽजीर्णे भवेत् (कोडियं ति) गाढं चम्पितं चम्प्यमानं वा पात्रक भज्येत, शिखर वा पात्रस्योपरि भक्तस्य शिख कुर्वन्तं दृष्ट्वा लोको ब्रूयात्-अहो असंतुष्टा बहुभक्षका अमी, एवमुड्डाहो भवेत्। एते डहरे भाजने दोषाः / / 325|| अथैनामेव भावयतिधुवणा-ऽधुवणे दोसा, वोसटुंते य काय आयुसिणे। सुक्के लग्गाऽजीरणे, कोडिएँ सिहरे य उड्डाहो / / 326 / / अतिभृतत्वेन तक्र-तीमनाऽदीनि प्रलोठयतो यत्पात्रक लेपकृतं, तस्य धावनाऽधावनयोरुभयोरपि दोषाः। तत्र धावने प्लावनाऽऽदयः, अधावने तु रात्रिभोजनव्रतभङ्गः। (वोसटुंते य त्ति) परिगलति भक्तपाने षण्णां कायानां विराधना / अथवा-तेनोष्णेन परिगलता दग्धशरीरस्याऽऽत्मविराधना / शुष्के च भक्ते अतिमात्रं भुज्यमाने गलके उदरे वा लग्ने अजीर्ण भवेत्। तत्र च ग्लानाऽऽरोपणा। कोडितं गाढ चम्पितं सत् पात्रक भज्येत, शिखरे च भक्तस्योपरि शिखायां विधीयमानामुड्डाहो भवति। यत एवम-दयो दोषाः, ततः प्रमाणयुक्तमेव ग्रहीतव्यम्॥३२६।। क्रीदृशं पुनस्तत्प्रमाणम्? इत्याशङ्कय प्रमाणमाहतिन्नि वितत्थी चउरं-गुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं / एत्तो हीण जहन्नं, अतिरेगयरंतु उक्कोसं (एता नियुक्तिगाथा ओघ नियुक्त्या मिलन्ति 363 पृष्ठे) // 327 / / पात्रस्य परिधि दवरकेण मीयते, यदा समानदवरकस्तिस्रो वितस्तयश्चत्वारि अड्गुलानि च भवन्ति, तदा भाजनस्य पात्रकस्य तद् मध्यमप्रमाणम् / इतो मध्यमप्रमाणहीन यत् पात्रं तद् जघन्यम्। अतिरिक्ततरं तु मध्यमप्रमाणाद् बृहत्तरमुत्कृष्टम् // 327|| अथवाउकोसतिसामासे, दुगाउअद्धाणमागओ साहू। चउरंगुलवजं भ-त्तपाणपज्जित्तयं हेट्ठा*॥३२५|| उत्कृष्टस्तृडमासः स उच्यते यस्मिन्नतीव प्रबला पिपासा समुल्लसति, सच जेष्ठः, आषाढो वा; तस्मिन्काले द्विगव्यूतप्रमाणादध्वन आगतो यः साधुः, तस्य ईदृशकालाध्वखिन्नस्य यच्च-तुरङ्गुलवर्जमुपरितनैश्चतुर्भिरङ्गुलैन्यूनमधस्ताद् भक्तपानस्य भृतं सत्पर्याप्तं भवति, तदित्थंभूतं पात्रकस्य प्रमाण मन्तव्यम्॥३२८|| एयं चेव पमाणं, सविसेसयरं अणुग्गहपवत्तं / / कंतारे दुभिक्खे, रोहगमाईसु भइयव्वं * // 326 // एतदेव प्रमाणं सविशेषतरं समधिकतरं यस्य भाजनस्य भवति तदनुग्रहप्रवृत्तं गच्छरयाऽनुग्रहार्थ प्रवर्तते / कथम् ? इत्याह-(कंतारे) महत्यामटव्यां वर्तमानस्य, तदुत्तीर्णस्य वा गच्छस्यानुग्रहार्थ तद् गृहीत्वा वैयावृत्यकरः पर्यटति। दुर्भिक्षेऽप्यलभ्यमानायां भिक्षायां तद् ग्रहीत्वा चिरमटित्वा बालाऽऽदिभ्यो ददाति / एवं नगरस्य रोधके संजाते, आदिशब्दाद् अपरेषुवा भयविशेषेषु कश्चिदानश्रद्धालुर्यावदेकस्मिन् भाजने माति, तात्प्रचुरमपि भक्तपानं दद्यात्, तत्र तदतिरिक्तभाजनं भक्तव्यं सेवनीयम्॥३२६॥ अथाऽपवादद्वारमभिधित्सुर्यः कारणैरधिकं हीनं वा धारयति तानि ताव दर्शयतिअन्नाणे गारवे लु-द्धे असंपत्तीऐं धारओ चेव। लहुओ लहुआ गुरुगा, चउत्थो सुद्धो उ जाणओ // 330 / / यद्यज्ञानेन हीनधिकप्रमाणं भाजनं धारयति ततो लघुमासः, गौरवेन धारयतश्चत्वारों लघवः लोभनं लुब्ध, लोभ इत्यर्थः / तेन धारयतश्चत्वारो गुरवः / असंप्राप्ति मप्रमाणयुक्तस्य पात्रस्याऽप्राप्तिस्तस्या यो हीनाऽतिरिक्तं धारयति स चतुर्थोऽप्राप्तिधारकः शुद्धः / तथा ज्ञायको नामपात्रलक्षणाऽलक्षणवेदी स लक्षणयुक्तं हीनाधिक प्रमाणमपि धारयति, ततः शुद्ध इति द्वार-श्लोकसमासार्थः / / 330 // अथैनामेव विवृणोतिहीणाऽतिरेगदोसे, अजाणओ सो धरिज हीणऽहियं / पगईऍ थोवभोई,सति लाभे वा करे तोसं // 331 / / पात्रस्य ये हीनाऽतिरिक्तविषया दोषाः पूर्वक्तास्तान्यो यर्तिन जानीते स हीनाधिकप्रमाणं धारयेत् / तथा कश्चिद् ऋद्धिगौरवयुक्तः सत्यपि भक्तपानलाभे प्रकृत्यैव स्तोकभोजी स्वल्पाहारोऽयं महात्मेतिख्यापनार्थमवम हीनप्रमाणं भोजनं करोति, सति पर्याप्त लाभे संतोषं वा कुर्यात् // 331 / / किं पुनस्तस्य ऋद्धिगौरवम् ? इत्याहईसरनिक्खंतो वा, आयरिओ वा वि एस डहरेणं / इति गारवेण ओमं, अतिप्पमाणं विमेहिं तु // 332 / / ईश्वरनिष्क्रान्ता वा राजाऽऽदिमहर्द्धिकः प्रव्रजितः, आचार्यो वा एष साधुः, यदेव डहरेण लघुना भाजनेन भिक्षा पर्यटति, इत्येवं गौरवेण यशःप्रवादलिप्सालक्षणेनाऽवमं भाजनं करोति / अतिप्रमाणं पुनः पात्रममुना कारणेन करोति / / 332 // अणिगूहियबलविरिओ, वेयावच्चं करेति अह समणो। मम तुल्लो न य कोई, पसंसकामी महल्लेणं // 333 / / अथेत्युपन्यासे / अहो अयं श्रमणः पुण्याऽऽत्मा अनिगूहितबलवीर्यो महता भाजनेन सकलस्याऽपि गच्छस्य वैयावृत्त्यं करोति, एवं प्रशंसाकामी नास्ति कोऽपि मम बाहुबलमङ्गीकृत्य तुल्यः सदृश इति ख्यापनार्थमतिरिक्तं भाजनं करोति // 333 // अथ लुब्धपदं व्याचष्टेअंतं न होइ देयं, थोवासी एस देह से सुद्धं / उक्कोसस्स व लंभे, कहि घेत्थं महल्ललाभेणं / / 334|| क्षुल्लकभाजनेन गृहाङ्गणस्थितं साधुं दृष्ट्वा गृहस्वामी भणति-स्तोकाऽऽशी स्तोकाऽऽहारोऽयं मुनिः, अतोऽस्य अन्तप्रान्तभक्तं न देयम्, किं तु शुद्धमुत्कृष्ट द्रव्यम अस्य प्रयच्छ, य एवं विचिन्त्य लुब्धतया हीनप्रमाणं करोति।तथा उत्कृष्टस्य शालिमुद्गदाल्यादेव्यस्य प्रभूतस्य लाभे सति चिन्तयति-अनेन प्रमाणोपेतभाजनेन पूर्व सामान्यमक्तस्य भृतेन पश्चादुत्कृष्टद्रव्यं लभ्यमानं कुत्र ग्रहीष्यामीति विचिन्त्य लोभेन महत्तर भाजनं गृह्णाति / / 334|| अथासंप्राप्तिज्ञायकपदे व्याख्यातिजुत्तपमाणस्सऽसती, हीणऽतिरित्तं चउत्थों धारेति। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त लक्खणजुएँ हीणऽहियं, नंदी गच्छट्ठ वा चरिमो।३३५।। आदिशब्दादाताऽऽनाबद्धे, दुष्पूते, कीलकसंस्थाने, अवर्णाऽऽन्ये, शबले युक्तप्रमाणं यथोक्तप्रमाणोपेतं तदनेकशो गवेष्यमाणमपि न प्राप्यते, च मासलघु // 340 / / गतं लक्षणाऽऽलक्षणद्वारम्। अतस्तस्याऽभावे हीनं वा अतिरिक्तं वा पात्रं चतुर्थः संग्रहगाथोक्त (6) अथ त्रिविधोपधिद्वारमाहक्रमप्रामाण्यादसप्राप्तिमान् धारयति / तथा यल्लक्षणयुक्तं लक्षणाऽ- तिविहं च होइ पायं, अहाकडं अप्प समीरकम्मं च। लक्षणवेदी हीनाधिकप्रमाणमपि ज्ञानाऽऽदिवृद्धिनिमित्त धारयति / तथा पुव्वमहाकडगहणं, तस्साऽऽसति कमेण दोन्नियरे // 341 / / गच्छस्योपग्रहकर यन्नन्दीभाजनं तद् गच्छार्थ चरमश्वरमद्वारवती ज्ञायको त्रिविध च भवति पात्रम्-अलावुमयम्, दारुमयम्, मृत्तिकामयम्। धारयति / / 335 / / गतमप-वादद्वारम् / पुनरेकैकं त्रिविधम्-यथाकृतम्, अल्पपरिकर्म, सपरिकर्म च / पूर्व (५)अथ लक्षणद्वारमाह यथाकृतस्य ग्रहणम्, तस्याभावे क्रमेण इतरे द्वे पात्रके गृहीतव्ये। वट्ट समचउरंसं, होइ थिरं थावरं च वन्नडं। प्रथममल्पपरिकर्म, तदप्राप्तौ बहुपरिकाऽपीत्यर्थः / / 341 / / हुंडं वायाइद्धं, भिन्नं व अधारणिज्जाइं // 336 / / विपर्यस्तद्वारमाहवृत्तं वर्तुलम्, तदपि समचतुरसं बुध्रपरिधिना, कुक्षिपरिधिना चतुल्यं, तिविहे परूवियम्मी, वोच्चत्थे गहणे लहुग आणाऽऽदी। स्थिरं सुप्रतिष्ठानं दृष्ट वा, स्थावरमप्रातिहारिकम, वर्णाढ्य स्निग्ध- छेदणभेदणकरणे, जा जहिं आरावेणा भणिता / / 342 / / वर्णोपेतम्। पाठान्तरण- "धन्नं चत्ति।'' एतैर्गुणैर्युक्तं धन्यं ज्ञातविधिना यथाकृताऽदिभेदात् त्रिविधे पात्रे प्ररूपिते सति, ततो बिपर्यस्तग्रहणे वहनमित्यर्थः / एवंविधं लक्षणयुक्तमुच्यते / तथा हुण्ड विषमस्थिति चतुर्लघुकाऽऽख्यं प्रायश्चित्तम्, आज्ञाऽऽदयश्च दोषा वक्तव्यःःः तत्र क्वचिदुन्नत क्वचिदवनतमित्यर्थः / वाताऽऽविद्ध निष्पत्तिकालमन्तरेणा- यथाकृताऽऽदिप्ररूपणा तावद्विधीयते-यथाकृतं नामपूर्वकृतमुख ऽगिपि शुष्कम्, अत एव संकुचितं बलिभृतं च संजातम् / भिन्न नाम- प्रदत्तलेप च सर्वथा परिकर्मरहितम् / अल्पपरिकर्म तु पात्रं तदुच्यते सच्छिद्र, राजियुक्त वा / एतान्यलक्षणतया अधारणीयानि // 336 / / यद मुलं यावत् च्छिद्यते, अड् िगुलात्परतः छिद्यमानं अथ लक्षणाऽलक्षणयुक्तयोरेव गुणदोषानाह बहुपरिकर्मकम। पुनरे कैकं त्रिधा-उत्कृष्टमध्यम-जघन्यभेदात् / संठियम्मि भवे लाभो, पतिट्ठा सुपतिहिए। तत्रोत्कृष्टस्य यथाकृतस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्पपरिनिव्वण्णे कित्तिमारोगं, पण्णड्डे नाणसंपया।।३३७।। कर्म गृह्णाति तदा चतुर्लघवः / तथा यथाकृतं योगे कृतेऽपि न प्राप्यते हुंडे चरित्तभेओ, सबलम्मि य चित्तविन्भमं / तदाऽल्पपरिकर्म, अल्पपरिकर्मणो योगमकृत्वा बहुपरिकर्मग्रहणे दुप्पुए खीलसंठाणे, नत्थि ठाणं ति निविसे // 338|| चतुर्लघवः, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः / एवं मध्यम-जघन्ययोरपि भावना पउमप्पले अकुसलं, सव्वणे वणमाइसे। कर्तव्या। नवरं मध्यमस्य विपर्यासनग्रहणे मासलघु, जघन्यविपर्यासग्रहणे अंतो बाहिं च दड्डे उ, मरणं तत्थ निदिसे // 336 / / पञ्चकम् / अपि च-सपरिकर्मणि पात्रे छेदनभेदनाऽऽदि कुर्वतो या संस्थिते वृत्तसमचतुरस्रे पात्रे धार्यमाणे विपुलो भक्तपानाऽऽदिलाभो यत्राऽऽरोपणा पीठिकायां पात्रकल्पिकद्वारे भणिता, सैवहाऽपि भवति। सुप्रतिष्ठिते स्थिरे पात्रे चारित्रे गणे आचार्याऽऽदिपदे वा प्रतिष्ठा मन्तव्या // 342 // स्थिरता संजायते / निर्बणे व्रणविकले कीर्तिरारोग्यं च भवति। वर्णाढ्ये अथ 'कः' इति द्वारं विवृणोतिस्निग्धवर्णोपेते ज्ञानसंपत् प्रस्तुतसूत्रार्थलाभरूपा भवति। हुण्डे विषम- को गिण्हति गीयत्यो, असतीए पायकप्पिओ जो उ। संस्थिते चारित्रस्य भेदो, मूलोत्तरगुणविषयाश्चारित्रातिचारा इत्यर्थः / उस्सग्गऽववाएहिं, कहिज्जती पायगहणं से॥३४३।। शषलं विचित्रवर्णम्, तत्र चित्ते विभ्रमं क्षिप्तचित्तताऽऽदिरूपसम्भवं, तं कः संयतः पात्रं गृह्णाति ? सूरिराह-गीतार्थः परिज्ञातसकलच्छेजानीयात् "दुप्पुय" नामपुष्पकमूलेन प्रतिष्ठितं, कीलकसंस्थानं तु दश्रुतार्थः पात्रकं गृह्णाति। अथ नास्ति गीतार्थस्ततो यः पात्रकल्पिका कूर्पराऽऽकारं कीलकदीर्घम् ईदृशे पात्रे गणे चरणे वा स्थानं नास्तीति गृहीतपात्रैषणासूत्रार्थः स गृह्णाति / तस्याप्यभावे यो मेधावी तस्य निर्दिशत्। पद्मोत्पलेऽधः पद्मोत्पलाऽऽकारपुष्पकयुक्ते साधूनामकुशलं पात्रग्रहणमुत्सर्गतः, अपवादतश्च कथ्यते, ततोऽसौ पात्र गृह्णीयात्॥३४३॥ भवति / सव्रणे व्रणमादिशेत्, पात्रकस्वामिनो व्रणो भवतीति भावः। अथ पौरुषीद्वारमाहअन्तर्बहिर्वा दाधे सति पात्रके मरणं निर्दिशेत् / / 336 / / हुंडाऽऽदि एकबंधे, सुत्तत्थे करिते मग्गणं कुन्जा। अथैव प्रायश्चित्तमाह दुगतिगबंधे सुत्तं, तिण्हुवरिं दो वि वज्जेज्जा // 344 / / दड्डे पुप्फगभिन्ने, पउमुप्पले सव्वणे य चउगुरुगा। यत्पात्रं हुण्डम, आदिशब्दाद् दुष्पूतम्, कीलकसंस्थितम्, शवलं च सेसगभिन्ने लहुगा, हुंडादीएसु मासलहू // 340 / / यद्वा-एकबन्धम् एतानि परिभुञ्जानः सूत्रार्थपौरुष्यौ / अपि कुर्वन अन्तर्बहिर्वा दग्धे पात्रे, तथा पुष्पकं पात्रकस्य नाभिः, तत्र पद्भिन्न यथाकृताऽऽदेः पात्रस्य मार्गणां कुर्यात् ।द्विविधं त्रिविधं वा पात्र तस्मिन, तथा पद्मोत्पलाऽऽकारपुष्पकयुक्ते, सव्रणे च प्रत्येक चतुर्गुरुकः / परिभुज्यमानमस्ति ततस्तत्र पौरुषीं कृत्वाऽर्धपौरुषी हापयित्वामार्गयति। शेषेषु पुष्पकव्यतिरिक्तेषु कुक्ष्यादिस्थानेषु भिन्ने चतुर्लघुकाः / हुण्डे, | अथ त्रयाणां बन्धानामुपरि चतुःप्रभृतिस्थानेषु तत्पात्रं नद्धमस्ति, ततः Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 367 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 सूत्रार्थपौरुष्यौ द्वे अपि वर्जयेत्, सूर्योदयादारभ्यैवाऽपरं पात्रक मार्गयतीति / / 344 / / (7) अथ कालद्वारमाहचत्तारि अहाकडए, दो मासा हाँति अप्पपरिकम्मे / तेण पर मग्गियम्मि य, असती गहणं सपरिकम्मे // 34 // हुण्डशबलताऽऽद्यपलक्षणयुक्तं पात्रं धारयता चतुरो मासान् यथाकृतं मार्गयितव्यम्, चतुर्षु मासेषु पूर्णेष्वपि यदा यथाकृतं न प्राप्यते तदा द्वो मासावल्पपरिकर्मगवेषणे भवतः, ततः परं मार्गितऽप्यल्पपरिकर्मण्य - प्राप्ते पण्मास्यां पूर्णायां सपरिकर्मणो ग्रहणं करोति / / 345 / / तच्च कियन्तं कालं गवेषणीयम् ? इत्याहपणयालीसं दिवसे, मग्गित्ता जो न लब्मए ततियं / तेण परेण न गिण्हइ, मा तं पक्खेण रज्जेजा // 346|| पञ्चचत्वारिंशतं दिवसान तृतीयं बहुपरिकर्म मार्गयित्वा यदि न लभ्यते, ततः किम्? इत्याह-(तण पर त्ति) प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे तृतीया, ततः पशचत्वारिंशतो दिवसेभ्यः परं बहुपरिकर्म गृह्णाति, कुत इति चेत? इत्युच्यते-यथाकृतगवेषणकालादारभ्य सार्द्धसप्तसु मासेषु गतेषु पञ्चदशभिर्दिवसैवर्षारात्रो भवति। तेन च पक्षमात्रेण कालेन मा तत्पात्रक रज्येत, मा लिप्तं सत् प्रगुणीभवेत्। किमुक्तं भवति? -वर्षाकाले पात्रस्य परिकर्म कर्तुं न लभ्यते, बहुपरिकर्मणि च पात्रे छेदनभेदनाऽऽदि प्रभूतं परिकर्म विधेयम्। तच्च पक्षमात्रेण न कुर्त पार्यते, अतः पञ्चचत्वारिंशदिवसेभ्यः परतो न ग्रहीतव्यमिति // 346 / / गतं कालद्वारम्। (8) अथाऽऽकरद्वारमाहकुत्तियसिद्धगनिण्हव-पवंचपडिमाउवासगाईसु। कुत्तियवज्जं वितियं, आगरमाईसु वा दो वि॥३४७।। यथाकृतं पात्रकं कुत्रिकाऽऽपणे मार्गयितं सिद्धपुत्रकस्य वा, निह्नवस्य वा, प्रपञ्चश्रमणस्य वा, एकादशी प्रतिमा पूरयित्वा वा श्रमणोपासको गृहं प्रत्यागतस्तदादेर्वा पार्श्वे यथाकृत पात्रं प्राप्यते, कुत्रिकाऽऽपणवर्ज शेषेषु सिद्धपुत्रकाऽऽदिषु द्वितीयमल्पपरिकर्म प्राप्यते / अथवाआकराऽऽदिषु हि अल्पपरिकर्मणी प्राप्येते // 347 / / तद्यथाआगर नई कुडंगे, बाहे तेणे य भिक्खं जंत विही। कय कारियं च कीतं, जइ कप्पइ धेप्पिउं अञ्जो ! / / 348|| आकरो भिल्लपल्ल्यादिर्यत्राऽलाबूनि प्राप्यन्ते, नद्या, यास्तुम्बकैरतीयन्ते, कुडङ्गं नाम-यत्र च खण्डतुम्बकानि ज्ञायन्ते। (बाहे तेणय त्ति) व्याधपल्ल्यां, स्तेनपल्ल्यां वाऽलाबूनि लभ्यन्ते। (भिक्ख त्ति) ये भिक्षाचरा अलाबुकानि गृहीत्वा भिक्षा पर्यटन्ति। (जंत त्ति) यन्त्रशालासु गुडाऽऽदीनामुत्सेवनार्थमलाबूनि धार्यन्ते। एतेषु स्थानेषु (विहि ति) विधिना पात्रकं ग्रहीतव्यम् / कः पुनर्विधरिति चेत् ? उच्यतेतत्राऽऽकराऽऽदिषु गत्वा च भाषणे कृते दायकेन दर्शिते प्रष्टव्यम्कस्यार्थमेतत् कृतम् ? ततस्तेऽभिदध्यु-युष्माकमर्थे कृतम् कारितम, क्रीत वा, यदि कल्पते ततः आर्य ! गृह्यताम् / एवमुक्ते सति न गृह्णातीति संग्रहगाथासमासार्थः // 348 / / अथेनामेव गाथाद्वयेन विवृणोतिआगर पल्लीमाई, निच्चुदग नदी कुडंगमुस्सरणं / बाहे तेणे भिक्खे, जंते परिभोग संसत्तं // 34 // तुम्हट्ठाएँ कयमिणं, अन्नेसऽट्ठाएँ अहवण सयट्ठा। जो घेप्पइ च तदट्ठा, एमेव य कीयपामिचे // 350 / / आकरो नाम-भिल्लपल्ली, भिल्लकोट्टं वा / तत्र प्रायोऽलाबूनि प्रभुतानि प्राप्यन्ते / तथा नित्योदका अगाधजला महानद्यो यत्र ग्रामाऽऽदी अलाबुभिस्तीर्यन्ते, तत्र पात्राणि प्राप्यन्ते / कुडङ्गं वृक्षगहनम्, तत्र तुम्बिकानामुत्सरणं वापनं क्रियते, यथा तासामेव नदीनां कूलेषु ये वृक्षकुडङ्गास्तेषु तुम्बिका अवाप्यन्ते। व्याघपल्ल्या, स्तेनपल्ल्यां च तुम्बकेषु काञ्जिकपानीयाऽऽदीनि प्रक्षिप्यन्ते, तत्र कौलालभाजनाभावात् / भिक्षाचरा भिक्षार्थमलाबूनि गृह्णन्ति / यन्त्रशालाऽऽदिषु च गुडोत्सेचनाहेतोरलाबूनि गृह्यन्ते / एतेष्वाकराऽऽदिषु यस्य प्रतिदिवसं परिभोगः क्रियमाणो विद्यते, तत्पात्रक जन्तुभिरसंसक्तं भवतीति कृत्वा ग्रहीतव्यम॥३४६।। पात्रे च दर्शित कस्यार्थमेतत् कृ तम् ? इति पृष्टो दाता श्रूयात्युष्प्राकमर्थाय कृतमिदम् कारितं वा / अथवा-अन्येषां साधूनामर्थाय कृतम्। "अहवण त्ति" निपातः यथार्थे स्वार्थमात्मनोऽर्थाय कृतमिदमस्माभिः / यद्वा-य एव भिक्षाचरो ग्रहीष्यति तस्यार्थाय कृतमिदंयावतिकमित्यर्थः। एवमेव च क्रीतप्रायमित्यादिकमपि वक्तव्यम् / यचाऽऽमार्थ कृताऽऽदिकं तत्कल्पते, आधाकर्मिमकाऽऽदिक तु न कल्पते // 350 गतमाकरद्वारम्। (6) अथ चाउलद्वारमाहचाउल उण्होदग तू-यरे य कुसणे तहेव तक्के य। जं होइ भावियं तं, कप्पति भइयव्वगं सेसं // 351 / / उण्हजलभावियं तं, अविगते सीओदगेण गेण्हंति। मज्जवसतेल्लसप्पी-मधुमादी भावियं भतियं / / 352 / / (चाउलं ति) तन्दुलधावनम्, उष्णोदकं प्रतीतम्, तुवरं कुसुम्भो दकाऽऽदिकम्, कुसणं मुद्गदाल्यादि, तस्य यदुदकं तदपि कुसणम्, तर्क प्रतीतम् / एतैर्यद्भावितं तत्कल्पते। शेषमेतद्विपरीतजलभावितं यत्पात्रम्, तदविगतेऽपरिणते शीतोदकेन गृह्णन्ति / मज्जावसातैलसर्पिर्मध्वादिभिस्तु भावितं भक्तं विकल्पितम्। तथा-हि-यदि तेषां मजाऽऽदीनामवयवा निःशेषा अप्यपनेतुं शक्यन्ते, ततो गृह्यते। अथवा-विकटाऽऽदिभावित यत्र युगपदुज्झितं तत्र न गृह्यते, अनुज्झितं तु गुह्यते।।३५२।। पात्रग्रहण एवं विधिमाहओभासणा य पुच्छा, दिट्ठी रिक्के सुहं वहते य। संसट्टे निक्खित्ते, सुक्खे य पगासें दठूण ||353|| ओसत्थ पाणमाई, पुच्छा मूलगुण-उत्तरगुणे य / तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, मुट्ठो ससिणिद्धमादीसु॥३५४|| दाहिणकरेण कोणं,घेत्तुं भाणण वाम मणिबंधे। घट्टेइ तिन्नि वारे, तिन्नि तले तिन्नि भूमीए // 355|| Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 368 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त तसेंबीयम्मि वि दिढे, न गेण्हती गेण्हती तु अधिटे। गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पति दिडेहि वी बहुहिं // 356 / / एताश्चतस्रोऽपि गाथाः पीठिकायां सविस्तरं व्याख्याता इति नेह भूयो व्याख्यायन्ते / गतं चाउलद्वारम्। (10) अथ जघन्ययतनाद्वारमाहपच्छित्तपण जहण्णं, तेण उ तव्बुड्डिए य जयणाए। जहन्ना व सस्सवादी, तेहि उजयणेयर कलादी॥३५७|| जघन्यं प्रायश्चित्तपञ्चकं तेन यतना जघन्ययतना। कथम् ? इत्याह-ते वृद्धाः पञ्चकाऽऽदिवृद्धिरूपया यतनया पात्रकाऽसत्तायां यतन्ते। अथवासर्षपाऽऽदीनि बीजानि जघन्यानि, सूक्ष्माणीत्यर्थः / तैर्युक्तं पात्रक वक्ष्यमाणया षट्भागकरवृद्धियतनया गृह्णन्ति, इतराणि तु बादराणि बीजानि, कला (या) क्षणकास्तदादीनि, आदिशब्दाद् मसूराऽऽदीनि च / / 357 // अमुमेवार्थ विवरीषुराहछन्भागकते हत्थे, सुहमेसु पढमपव्वें पणगं तु। दस बितिए रायदिणा, अंगुलिमूलेसु पन्नरस // 358|| इह हस्तः षड्भागः क्रियते, तत्र प्रथमपर्वण्येको भागः, द्वितीय-पर्वणि द्वितीयः, अड्गुलिमूलानि तृतीयः, आयुषो रेखा चतुर्थः अङ्गुष्ठबन्धः पञ्चमः अड्गुष्ठमतिक्रम्य शेषः सर्वोऽपि षष्ठो भागः। एवं षड्भागीकृतेहस्ते प्रथमपर्वमात्रे सूक्ष्मबीजे, पञ्चकं पञ्चरात्रिन्दिवानि प्रायश्चित्तम्। द्वितीयपर्वमात्रेषु दश रात्रिन्दिवानि प्रायश्चित्तम्,अड्गुलिमूलेषु पक्ष दश रात्रिन्दिवानि प्रायश्चित्तम् // 358 / / वीसं तु आउलेहा, अगुटुंतो य होति पणवीसा। पसइम्मि होइ मासो, चाउम्मासो भवे चउसु // 356 / / आयूरेखामात्रेषु विंशतिरात्रिन्दिवानि, अङ्गुष्ठान्तमात्रेषु पञ्चविंशती रात्रिन्दिवानि, प्रसृतिप्रमाणेषु मासलघु,चतुष्प्रसृतिप्रमाणेषु चत्वारो मासा लघवः। एवं सूक्ष्मबीजेषु प्रायश्चित्तमुक्तम्॥ 356 / / अथ बादरबीजेषु तदेवाऽतिदिशन्नाहएसेव कमो नियमा, मूलेसु वितियपव्वमारद्घो। अंजलिचउक्क लहुगा, तचिय लहुगा अणंतेसु॥३६०|| एष एव क्रमो नियमाद् मूलेष्वपि चणकाऽऽदिबीजेषु मन्तव्यः। नवरम्द्वितीयपर्वाण्यादी कृत्वाऽत्र प्रायश्चित्तकमः प्रारभ्यते-द्वितीयपर्वमात्रेषु बादरषीजेषु पञ्चकम्, अड्गुलिमूलमात्रेषु दशकम्, आयूरेखामात्रेषु पञ्चदशकम् अङ्गुष्ठमूलमात्रेषु विंशतिः, प्रसृतिप्रमाणेषु भिन्नमासः, अङ्गुलिमात्रेषु मासलघु, अञ्जलि चतुष्कपरिमाणेषु चतुर्लघु।। एतत्प्रत्येकबीजविषयं भणितम् अनन्तबीजेषु सूक्ष्प्रस्थूलेषु यथाक्रममेतान्येव प्रायश्चित्तानि गुरुकानि कर्त्तव्यानि॥३६०।। निक्कारणम्मि एए, पच्छित्ता वन्निया उ बीएसु / नायव्वा आणुपुव्वी, एसेव उ कारणे जयणा // 361 / / एतानि प्रायश्चितानि निष्कारणे बीजेषु बीजयुक्ते पात्रे गृह्यमाणे वर्णितानि, कारणे तु पात्रकस्याऽसत्तालक्षणे आनुपूा प्रथमपर्वाऽऽयदिरूपया एषैव पञ्चकाऽऽदिका यतना कर्त्तव्या। अथ यथाकृते प्रथमपर्वप्रमाणानि बीजानि, अल्पपरिकर्मकं च शुद्ध प्राप्यते, अनयोरेक- / तरत गृहीतमुच्यते, यथाकृतं ग्राह्यम्, नाऽल्पपरिकर्म। एवं द्वितीयपर्वाऽऽदिष्वपि वक्तव्यम्, यावदीजैराकण्ठभृतमपि यथाकृतं ग्राह्यम॥३६१।। तथा चाऽऽहवोसर्ट पि हु कप्पइ, बीयाईणं अहाकडं पायं। नय अप्पसपरिकम्मा, तहेव अप्प सपरिकम्मा।।३६२।। आगन्तुकानां बीजाऽऽदीना (वोसहमपि) आकण्ठभृतमपि यथा-कृतं पात्रं कल्पते, न चाऽल्पपरिकर्म शुद्धमपि, तथैवमेवाल्पपरिकर्मकमागन्तुकबीजानां भृतमपि कल्पते, न च सपरिकर्मकं शुद्धमपि // 362 / / अत्रैवैदम्पर्यमाहथूला वा सुहमा वा, अवहंते वा असंथरंतम्मि। आगंतुअसंकामिय, अप्पबहु असंथरंतम्मि।।३६३।। यथाकृते स्थूलानि वा चणकाऽऽदीनि बीजानि भवन्तु, सूक्ष्माणि वा सर्षपाऽऽदीनि, यदि तस्य प्राक्तनं भाजनं, नवरं गत्या तदवह-मानकं, तेन वा भाजनेन न संस्तरति, सर्वथा वा भाजनं तस्य नास्ति / एवमसंस्तरतोऽल्पे बहुत्वंतोलयित्वा बहुगुणकरमिति कृत्वा यथाकृतमागन्तुकबीजानां भृतमपि बीजानि यतनयाऽन्यत्र संक्रमय्य ग्रहीतुं कल्पते // 363 / / गतं जघन्ययतनाद्वारम्। अथ"असई,""असिव ति" द्वारद्वयमाहथूलसुहूमेसु वुत्तं, पच्छित्तं तेसु चेव भरिओ वि। जं कप्पइत्ति भणियं, ण जुञ्जई पुव्वमवरेणं / / 464 / / स्थूलसूक्ष्मेषु बीजेषु पूर्व सप्रपा प्रायश्चित्तमुक्तम् संप्रति तैरेव बीजै तोऽपि यथाकृतप्रतिग्रहो ग्रहीतुं कल्पते, इत्येवं यद्भणितं, तदेतद् युष्माकं पूर्वमपरेण न युज्यते // 364 / / गुरुराहचोयग ! दुविहा असई, संताऽसंताय संत असिवाऽऽदी। इयरा उ झामिताऽऽई, संते भणियाउ सा सोही // 365 / / हे नोदक ! द्विविधा असत्-सदसत्ता, असदसत्ता च। तत्र सत्ता नामयत्र ग्रामे नगरे वा भाजनानि सन्ति तत्राऽपान्तराले वा अशिवं, स्वनामे वा येषु कुलेषु लभ्यन्ते तेषु अशिवम्, आदिशब्दादवमौदर्याऽऽदीनि तत्राऽपान्तराले, वा विद्यन्ते, अथ चाऽस्ति भाजनं, परं नवरं गत्या न तावद्द्वहति / यद्वातद्भाजनमतिलधुतरमतो न तेन संस्तीर्थते / इतराअसदसत्ता। सा पुनरियम्-पात्रंध्यामितं प्रदीपनकेन दग्धम,आदिशब्दात् स्तेनैर्वाऽपहृतं, भग्नं वा। एवंविधयोरप्यसत्तयोर्यशाकृतमागन्तुकबीजाना भृतमपि कल्पते, न पुनः शुद्धमल्पपरिकर्म, यत्पुनरस्माभिः शोधिः प्रायश्चित्तमुक्तम्, सा द्विविधाया असत्ताया अभावे सति पात्रं यो गृह्णाति, तद्विषया मन्तव्या॥३६॥ किं च - जो उ गुणो दोसकरो, ण सो गुणो दोसमेव तं जाणे / अगुणो वि होति उ गुणो, विणिच्छओ सुंदरो जस्स // 366 / / यस्तु यः पुनः गुणो दोषकर आत्मोपघाताऽऽदिदोषजनकः, स परमार्थतो गुण एव न भवति, किन्तु दोषमेव तं जानीयात, दोषकारणत्वात्। यस्य तु विनिश्चयः सुन्दरः, स कथञ्चिदगुणोऽपि परिणामसुन्दरतया गुण एव भवति, गुणकारणत्वात्। एवमिहापि यथाकृते यत्स्थापितान्यागन्तुकबीजानि यतनयाऽन्यत्र संक्रामयतः स्वल्पसंघट्टनदो माता Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त षः, नतत्र सूत्राऽर्थयोः परिमन्थः, नचछेदनभेदनाऽऽदिनाऽऽत्मोपघातः। अपि च-तद् गृहीतं सत् तस्यामेव वेलायां भक्तपानग्रहणे उपयुज्यते, एवं सदोषमपि तद् बहुगुणम् अपिरकर्माऽऽदौ अपरिक्रम्यमाणे सूत्रार्थपरिमन्थः, छेदनाऽऽदिनाऽऽत्मोपघातः, इत्यादयो बहवो दोषाः / / 366 / / (11) अथ सगुणमपि तावद्द्बहुदोषतरम् "अपमाणउवओगच्छेयण त्ति'' द्वारमाहअसइ तिगे पुण जुत्ते, जोगे ओहोवही उवग्गहिए। छेयणमेयणकरणे सुद्धो जं निजरा विउला ||367 / / यथाकृतं त्रीन्वारान् मार्गित पर न लब्धम्, ततो वारत्रिकं योगे व्यापारे युक्ते कृतेऽपि यथाकृतस्याऽप्राप्तो, पुनःशब्दोऽवधारणे। स चैतदवधारयति-वारत्रयात्परतोऽल्पपरिकर्मकमेव ग्रहीतव्यम् / अथ तदपि न प्राप्यते, ततो बहुपरिकर्माऽपि ग्राह्यम् / एष ओघो-पधौ च सर्वस्मिन्नपि विधिरवसातव्यः / एवं च क्रमाऽऽगतमल्पपरिकर्माऽऽदि गृहीत्वा तत्रोपयुक्तो यः छेदन-भेदने करोति, स शुद्धो, न प्रायश्चित्तभाग। कुतः? इत्याहयद्यरमाद्यथोक्तमागतं विधिं विदधानस्य निर्जरा विपुला भवति // 367 / / ननु चाऽल्पपरिकर्माऽऽदौ छेदनाऽऽदिपरिकर्मसम्भवादात्मसंयमावेराधना भवति, ततः कथं तस्य ग्रहणमनुज्ञायते ? उच्यतेचोयग ! एताए चिय, असईए अहाकडस्स दो इयरे। कप्पति य छेयणे पुण, उवओगं मा दुवे दोसा // 36 // हे नोदक ! या पूर्वं द्विविधा असत्ता प्ररूपिता, एतयैव यथाकृतस्याऽसत्तया द्वे इतरे अल्पपरिकर्म-सपरिकर्मणी कल्पेते प्रतिग्रहीतुम परं तयोः छेदनाऽऽदौ महता प्रयत्नेन य उपयोगं करोतिस द्वौ संयमाऽऽत्मविराधनालक्षणो दोषौ मा भूतामिति कृत्वा।।३६८।। अहवा वि कओऽणेणं , उवओगो न चेय लब्भती पढम। हीणाधिकं च लब्भति, सपमाणे तेण दो इयरे // 366 / / अथवा कृतोऽनेन साधुना उपयोगो मार्गणव्यापारः, परं न लभ्यते, प्रथमं यथाकृतं पात्रम्। अथवा लभ्यो, परं स्वप्रमाणतो हीनाधिकम् तेन कारणेन द्वे इतरे-अल्पपरिकर्मसपरिकर्मणी यथाक्रमं गृह्णाति॥३६६।। कुतः? इति चेदुच्यतेजह सपरिकम्मलंभे, मग्गंते अहाकडं भवे विपुला। निज्जरमेवमलंभे, वितियस्सियरे भवे विउला / / 370 / / यथा सपरिकर्मणोऽल्पपरिकर्मपात्रकस्य लाभेऽपि यथाकृतं मार्गयतो विपुला निर्जरा भवति, तथा यथाकृताऽलाभे इतरस्मिन् बहुपरिकर्मणि लभ्यमानेऽपि द्वितीयस्याऽल्पपरिकर्मणः, उपलक्षणत्वादपरिकर्मणोऽप्यलाभे बहुपरिकर्ममार्गण विपुलैव निर्जरा द्रष्टव्या / / 370 / / अथवाअसिवे ओमोदरिए, रायढे भए व गेलन्ने / सेहे चरित्त सावय-भए य ततियं पि गिण्हिज्जा।।३७१।। यत्र यथाकृतमल्पपरिकर्म वा भाजनं प्राप्यते, तत्राऽपान्तराले वाऽशिवमवमौदर्य राजद्विष्ट भयं वा बोधिकरतेनाऽऽदिसमुत्थं वर्तते, ग्लानत्वं वा तस्य साधोः संजातं, तत्प्रतिबन्धेन न शक्यते तत्र गन्तुम् / शैक्षस्य वा तत्र सागारिकचारित्रस्य वा चोरिकाऽऽद्युपसर्गसमुत्थो भेदः श्वापदाः सिंहाऽऽदयस्तेषां वा भवम्, एव-मादिभिःकारणैस्तृतीयमपि बहुपरिकर्म पात्रं स्वस्थाने गृह्णीयात्॥३७१।। उक्तमेवार्थं सिंहावलोकितेनाऽऽहआगंतुगाणि य जओ, चिरपरिकम्मे य सुत्तपरिहाणी। एएण कारणेणं, अहाकडे होति गहणं तु / / 372 / / यथाकृते यानि बीजानि तान्यागन्तुकानि, चिरकालपरिकर्मणि च क्रियमाणे सूत्राऽर्थपरिहाणिः / एतेन कारणेन यथाकृतस्य ग्रहण कार्यम् नाऽल्पपरिकर्माऽऽदेः / / 372 / / (12) अथ मुखद्वारमाहविइय-तइएसु नियमा, मुहकरणं होज तस्सिमं माणं। तं चिय तिविहं पायं, करंडगं दीह वर्ल्ड च / / 373|| द्वितीयतृतीययोरल्पपरिकर्म-सपरिकर्मणोर्नियमात्तु मुखकरणं भवेत्। तस्य च मुखस्य इदं वक्ष्यमाणं मानम्-तत्र यस्य मुखं विचारयितव्यं तत् त्रिविधं करण्डकं करण्डकाऽऽकारम्-बहुपृथुत्वमल्पोच्छ्रयम्, दीर्घमल्पपृथुत्वं बहूच्छ्य म्, वृत्तं चतुर सम्॥३७३।। एतेषां मुखप्रमाणमाहअकरंडम्मी भाणे, हत्थो उ जहा ण घट्टेति / एयं जहण्णगमुहं, वत्थु पप्पा विसालतरं // 374 / / अकरण्डके करण्डकाऽऽकाररहिते दीर्घ, समचतुरो वा भाजने हस्तः प्रविशत् निर्गच्छन् वा यथा ऊर्ध्व कर्णं न घट्टयते न स्पृशति, एतत्सर्व जघन्य मुखप्रमाणम्, अतः परं वस्तु बृहत्तरपात्राऽऽदिकं प्राप्य प्रतीत्य विशालतरं मुखं क्रियते,यत्पुनः करण्डकाऽऽकारं पात्रं तस्य विशालमेव मुखं कर्त्तव्यम्, अन्यथा तद् दुष्प्रत्युपेक्षं भवति // 374 // एष प्रतिग्रहविधिरुक्तः, बृ०३ उ०। से भिक्खू वा अभिकंखेज्जा पायं एसित्तए, से जं पुण पायं जाणेजा। तं जहा-अलाउयपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे निग्गंथे तरुणे.जाव थिरसंधयणे, से एगं पायं धरिजा, नो बिइयं / / स भिक्षुरभिकाक्षेत् पात्रमन्वेष्टुम्, तत्पुनरेवं जानीयात् / तद्यथाअलाबुकाऽऽदिकम् / तत्र च यः स्थिरसंहननाऽऽद्युपेत एकमेव पात्रं विभृयाद, न द्वितीयम्, स च जिनकल्पिकाऽऽदिः / इतरस्तु मात्रकसद्वितीयं पात्रं धारयेत्, तत्र संघाटके सत्येकस्मिन् भक्तं द्वितीये पात्रे पानकं, मात्रकं त्याचार्याऽऽदिप्रा योग्यकृतेऽशुद्धस्य वेति। आचा०२ श्रु०१चू० ६अ०२उ० (13) अलावुपात्रं गृह्णातिजे भिक्खू लाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा सयमेव परिघट्टे इवा, संठवेइ वा, जमति वा, परिघट्टतं वा संठवंतं वा जमवियंतं वा साइज्जइ // 24 // इत्यादि। भाष्यं यथा प्रथमोद्देशके तथाऽत्र पि। लाउऍ दारुऐं पाए मट्टियपाए य तिविधमेक्के के। बहुअप्पअपरिक्कम्मे, एकेकं तं भवे कमसो॥१६२।। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त ४००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त अद्धंगु 1 पुटव 2 तिण्णि वि 3 उक्कोस 4 तं चेव 5 भत्त६ वट्ट७ परिघट्ट पढमा 6 एता गाहा नव। घट्टित संठवियाणं,पुट्विं जमिताण होतु गहणं तु। असती पुव्वकताणं, कप्पति ताहे सयं करणं / / 163 / / तत्र परकरणं प्रतिषिद्धम्, इह तु स्वयं करणं प्रतिषिध्यते / नि०चू०२ उ०। नायकमनायकं वा पात्रं याचते - जे भिक्खू सणायगवा, अणायगंवा, उवासगं वा, अणउवासगं वा गामंतरंसि वा, गामपहंतरंसि वा पडिगाहं ओभासिय ओभासिय जायइ, जायंतं वा साइज्जइ॥४७॥ इमो सुत्तत्थो। गाहाजे भिक्खू णायगाई, पडिगामे अंतरा पडिपहे वा। ओभासेजा पायं, सो पावति आणमादीणि ||193|| नायगो पुरसंथुतो, पच्छा संथुओवा। पुव्वसथुतो-मातिपितियाऽऽदिगो, पच्छा संथुओ-सासससुराऽऽदिगो, असंथुओ एयव्व-इरित्तो सणायनो अणायनो सव्वो वि एसो उवासगो, अणुवासगो त्ति। अस्य व्याख्यासाधुं उवासमाणो, उवासओ सो वती व अवतीवा। सो य सणायग इतरो, एवऽणुवासे वि दो भंगा ||164|| साधूचेइए वा पोसह उवासंतो उवासगो भवति, से उवासगो पुणो दुविहोवती, अवती वा। अणुव्वया जेण गहिया सो वती, जो दंसणसावगो सो अव्वती, सो सणायगो इयर त्ति गतार्थः / जो वि अणुवासगो सो वि सणायगो, अणायगो वा, एते दो भंगा। पडिग्गामं अंतरपडिबंधस्स य इमं वक्खाणं / गाहापडिगामो पडिवसभो, गाभंतर दोण्ह मज्झ खेत्तादी। गामपहो पुण मग्गो, जत्थ व अण्णत्थ गिहवजं / / 16 / / पडिवसभो अंतरपल्लिगो वा अणगो वा पडिग्गामो भण्णति, दोण्हंगामाण अंतरे मज्झे खेत्ते खलए वा पह प्रति पडिपहो भण्णति / उज्झामाऽऽदि गतस्स वा अभिमुहो पहे मिलेज्जा, एस पडिपहोवा, वासद्धाओ गिह वझेत्ता अण्णत्थ वा जत्थ परिसारत्थाऽऽदिसु मग्गइ, एवमादिसु ठाणेसु जतितं सणायगादिपाय ओभासेजा, तो आणाऽऽदिया दोसा, चउलहु च पच्छित्तं / इमे य भद्दपत्तदोसा भवंतिअसती य भद्दओ पुण, उग्गमदोसे करेज सव्वेहिं / पत्तो पेलवगहणं, अद्धाणे भासितो कुजा / / 166|| भद्दो चिंतेति-एयस्स साधुस्स अतीव आदरो दीसति, जेण अद्धाणणयं भासते भारियं, से किंचि कज्ज / सो भद्दगो असति पायस्स सोलसण्हं उग्गमदोसाणं अण्णतरेण दोसेण करेत्ता देजा, सव्वेहि वा उग्गमदोसेहि बहुपाए करेत्ता देख / एगपाएसु सव्वुग्गमदोसा ण संभवन्तीत्यथः / पत्तो पुण अद्धाणे ओरुद्धो कतो, ममत्थ पायं ति पेलवग्गहणं करेज्ज। | अणालोइय-पुत्वाऽवक्खारिणो पेलवा एए त्तिण देज्ज, अहवा अद्धाणेद्धो रुट्टो संत पिण दिज्जा। गाहाअतिआतुरो सि दीसति, अद्धाणगय पिजेण मग्गंति। भद्दमदोसा एए, इतरो संतम्मि पुण देजा ||167|| इयरो त्ति पत्तो। सेसं गतार्थम्। जम्हा एवमादी दोसा भवंति। गाहातम्हा सट्ठाणगयं, नाऊणं पुच्छिऊण ओभासे। वितियपदे असिवादी, पडिवसभाऽऽदीसु जयणाए 168 सट्ठाण घरे ठियं णाऊणं ति अस्थि एयस्स पायं दिट्ट वा, तं पुच्छितकस्सेदं ति / अण्णण कहिय अमुगस्स / ताहे ओभासियव्वं,अण्णाए अपुच्छिते वा पुव्युत्ता दोसा भवंति। वितियपदेण अद्धाणगयं पि जयणाए ओभासेज, जत्थ जहुत्तेण विधिणा पाया लब्भंति तत्थजति असिवाऽऽदिकारणाताहे तत्थेव पडिवस-भाइसु अद्धाणगय पि जयणाए ओभासेज। का जयणा? इमःविप्पभिति घरादिहे, गाढं वा विक्खुणं तहिं दट्छ। विति घरे ण विट्ठो, से किं कारण ताहें दीवेंति ||166 / / जाहे णायं-णिस्संकियं एयस्स अस्थि पाय, दिटुं वा, ताहे अचिर त्ति गतो ओभासेज्जा, जइ ताहे दिण्णं तो लद्धं / अह सो भणेज्ज-घरपती जाणति / ताहे सो घरहितो ओभासिज्ज त्ति / अह ण दिट्ठो ताहे घरे भण्णति-अक्खेज्जह तस्स, जहा तुज्झ समीव पव्वइआ आगय त्ति। पुणो बितियदिणे एवं, ततिए वि एवं, ततो वा घरे अदितु, अह वा घरे दिट्ठो, तस्स पुण गाढ विक्खुणोति / किंचि घरकयध्वताए अतीव अक्खाणितो पि गतो, ण मग्गितो त्ति / अहवा गाढ़ विक्खुणं ति साहुस्स संबज्झति / गाढं अतीव विक्खुणं विसूरणं, जाहे अतीव साहू विस्तरन्तीत्यर्थः। ताहे अण्णत्थ वि अद्धाणठितं दढुंभणंति-अम्हे तुज्झ सगास आगता घरे य तओ वारा गविट्टो आसि, ताहे सो भणेज्ज-किं कज्ज? ताहे साहुणो तस्स कारणं दीवेति। तुज्झ पायं अत्थि, तं देहि त्ति। गाहाताहे चिय जति गंतुं, ददाति दिढे च भणति एज्जाह। तो कप्पती चिरेण वि, अदितु तु उग्गमेकतरं / / 200 / / जति तेहिं साहूहिं तं पायंण दिट्ठ आसि, तो जति दोसा ता ताहे च्चिय तेहिं साहूहिं सहरंगतु देति तदा कप्पति, अह भणति-पुणो पवज्जह, तो उग्गमदोसकरणाऽऽसंकाए ण कप्पति, पच्छा अह तं साहूहि दिट्ठ पत्तं आसि, जति भणेज्ज-पुणो एजह, तो तं चेव पातं सुचिरेण वि देंतस्स कप्पति, अण्णं ण कम्पति। सुत्तजे मिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणउवासगंवा परिसा मज्झा ओवट्टित्ता पडिगाहगं ओभासिय ओभासिय जीयइ, जीयंतं वा साइज्जइ||८|| Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 401 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त गाहा - जे मिक्खू णायगाई, परिसामज्झाउ उट्ठवित्ता णं। ओभासेज्जा पायं, सो पावति आणमादीणि // 201 / / कंटा चउलहुं पच्छित्तं, आणाऽऽदिया य दोसा। इमे अण्णे य दोसा - दुपद-चउप्पदहरणे, डहणे वा सजणघरखलक्खेत्ते / तस्स अरी मित्ताण व, संकेगतरे उभयतो वा / / 202 / / जो सो परिसामज्झातो उट्टितो, तस्स जे अरी अरीण वा जे मित्ता, तेसिं तदिवसं चेव अहासमावत्तीए दुपदं-दासो, दासी वा, चउप्पदं वा अश्वादिणद्धं हरिय वा अडाडाए, तेसिं वा कोई सयणो उद्दीवितो, घरं, खलथाणं वा दडू, खित्तं वा खयं, ते संकेज्ज, कल्लं पव्वइएणं अमुगो परिसामज्झातो ओसारिओ त्ति,तेसिं एगतरं संकेज्ज-साहु उववातं उस्सारित / अहवा उभयं पि संकेज तत्थ संकाए चउगुरु, णिस्संकिए मूल, जं वा ते रुट्ठा डहणहरणतावणाऽऽदी करेज, तं णिप्फण्णं पावेज्जा / जम्हा एवमादी दोसा, तम्हा परिसमज्झाउ णायगादी णो कप्पति उस्सारेउ। कारणे पुण कप्पति। तंच इम कारणं - असिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व गेलाणे। सेहे चरित्त सावय-भए व जयणाऐं ओमासे / / 203|| कंठा, णवरं जयणाए ओभासेति। अस्य व्याख्यापरिसाए मज्झम्मि वि, अट्ठाणोभासणे दुविह दोसा। तिप्पमितिगिहादिढे, दीवणता उच्चसद्देणं / / 204 / / जत्थ न होज्जा संका, संकेज्जजणाउ जे वयणपंतो। सो पडियरइय तुरिओ, अण्णेण व उट्ठवावे इ॥२०५।। जे अट्ठाणोभासणे दुविधा भद्दपंतदोसा भणिया, तेचेव परिसामज्झातो वि उद्यविजते दोसा भवति / अह आगाढं विक्खणं ताहे भण्णतितिप्पभितिगिहादिढे इदाणिं तुज्झ सगासं आगता / किं कज्ज? ताहे साधू भणति-इहेव भणेमो, किं वा एगंत भणामो / तेण अब्भणुण्णा, तत्थेव भणेल / एगते हामो, ताहे एगते ओसारिजति / त्थ वा साहू बहुजणमज्झे मागतो संकति / तत्थ सो साधू तं पडिग्गहसामि सयमेव उट्टितं पडियरइ त्ति, पडिक्खइ त्ति वुत्तं भवति / अह त्वरितो अण्णेण परिसामज्झातो उट्टवावेति, एस जयणा / नि० चू०१४ उ०। (14) महाधनानि अयःपात्राऽऽदीनिसे भिक्खू वा भिक्खुणीवा से जाइं पुण पायाईजाणेज्जा विरूवरूवाइं महद्धणमुल्लाइं / तं जहा-अयपायाणि वा, तउपायाणि वा, तंबपायाणि वा, सीसगपायाणि वा, हिरण्णपायाणि वा, सुवण्णपायाणि वा, रीरिअपायाणिवा, हारपुडपायाणि वा, मणि काय-कंसपायाणि वा, संखसिंगपायाणि वा, दंतपा-याणि वा, चेलपायाणि वा, सेलपायाणि वा, चम्मपायाणि वा अण्णपराणि वा तहप्पगाराई विरूवरूवाइं महद्धणमुल्लाई पायाई अफासुयाई० जाव णो पडिग्गहेजा। 'से भिक्खू वा'' इत्यादीनि सूत्राणि सुगमानि, यावन्महार्घमूल्यानि पात्राणि लाभे सत्यऽप्रासुकानिन प्रतिगृण्हीयादिति, नवरम् -(हारपुडपाय त्ति) लोहपात्रमिति, एवमयोबन्धनाऽऽदिसूत्रमपि सुगमम्। आचा० 2 श्रु०१चू० 6 अ० 1 उ०। जे भिक्खू अयपायाणि वा, तंबपायाणि वा, तउयपायाणि वा, सीसपायाणि वा, कंसपायाणि वा, रुप्पपायाणि वा, सोवण्णपायाणि वा, जायरुप्पपायाणि वा, मणिपायाणि वा, दतपायाणि वा, कणयपायाणि वा, सिंगपायाणि वा, चम्मपायाणिवा, चेलपायाणि वा, सेलपायाणि वा, कणयपायाणि वा, सिंगपायाणि वा, अंकपायाणि वा, संखपायाणि वा, वइरपायाणि वा करेइ, करतं वा साइजइ। 1 / जे भिक्खू अयपायाणि वा.जाव वइरपायाणि धरेइ, धरेतं वा साइजइ। २राजे भिक्खू अयपायाणि वा. जाव वइरपायाणि वा परिभुंजइ, परिभुंजंतं वा साइज्जइ / 3 / जे भिक्खू अयबंधणाणि करेइ, करंतं वा साइज्जइ। 4 / जे मिक्खू अयबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ। 5 / जे भिक्खू तउयबंधणाणि वा भुंजइ, मुंजंतं वा साइजइ। 6 / जे मिक्खू सीसबंधणाणि करेइ, करंतं वा साइजइ। 7 / जे भिक्खू सीसबधणाणि धरेइ, धरंतं वा साइजइ। 8 / जे भिक्खू सीसबंधणाणि वा भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइन जे भिक्खू सबंधणाणि वा करेइ, करतं वा साइज्जइ। 10 / एवं धरेइ, धरतं वा साइजइ।११। एवं मुंजइ भुजंतं वा साइजइ।१२। जे भिक्खू रुप्पबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा साइज्जइ।१३ / एवं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ।१४ / एवं भुंजइ, भुंजंतं वा साइजइ / 15 / जे मिक्खू सोवण्णबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा साइज्जइ। 16 / एवं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ।१७। एवं भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / 18 ! जे भिक्खू जायरुप्पबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा साइजइ। 16 / एवं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ / 20 / एवं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ / 21 / जे मिक्खू मणिबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा साइज्जइ। २२जे भिक्खू मणिबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ। 23 / जे मिक्खू मणिबंधणाणि वा भुंजइ, भुजतं वा साइज्जइ।२४। जे भिक्खू कणयबंधणाणि वा करेइ करतं वा साइज्जइ। 25 / जे भिक्खू कणयबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ।२६ / जे भिक्खू कणयबंधणाणि वा मुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / 27 / जे भिक्खू दतबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा साइजइ / 28 / Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 402 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त जे भिक्खू दंतबंधणाणि वा धरेइ, धरतं वा साइज्जइ। 26 / जे भिक्खू दंतबंधणाणि वा भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ। 30. जे भिक्खू सिंगबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा साइज्जइ।३१। जे भिक्खु सिंगबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ। 32 / जे भिक्खू सिंगबंधणाणि वा भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ / 33 / जे भिक्खू चम्मबंधणाणि वा कारेइ, करतं वा साइज्जइ। 34 / जे भिक्खू चम्मबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइजइ। 35 // जे भिक्खू चम्मबंधणाणि वा भुंजह, भुजंतं वा साइज्जइ / 36 / जे भिक्खू चेलबंधणाणि वा करेइ, करंत वा साइज्जइ। 371 जे भिक्खू चेलबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइजइ।३८ / जे भिक्खू चेलबंधणाणि वा भुंजइ, भुंजंतं वा साइज्जइ / 36 | जे भिक्खू सिलबंधणाणि वा करेइ, करतं वा साइज्जइ। 40 / जे भिक्खू सिबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइजह / 41 / जे भिक्खू सिलबंधणाणि वा भुंजति, भुजंतं वा साइज्जइ / 42 / जे मिक्खू अंकबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा साइज्जइ / 43 / जे भिक्खू अंकबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ। 44 / जे भिक्खू अंकबंधणाणि वा भुंजइ, भुजंत वा साइजइ / 45 / जे भिक्खू संखबंधणाणि वा करेइ, करतं वा साइज्जइ / 46 / जे भिक्खू संखबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइजइ / 47 / जे भिक्खू संखबंधणाणि वा भुंजइ, भुजंतं वा साइज्जइ। 48 / जे भिक्खू वइरबंधणाणि वा करेइ, करंतं वा साइजइ / 46 / जे भिक्खू वइरबंधणाणि वा धरेइ, धरंतं वा साइजइ / 50 / जे भिक्खू वइरबंधणाणि वा भुंजइ, मुंजत वा साइबइ। 511 अयमादिया कंठा / हारपुड णाम-अयमाद्याः पात्रविशेषाः / मौक्तिकलताभिरुपशोभिता मणिमादिया कण्ठा / मुक्ता शैलमय चेलमयं वा, सप्पओ खलियं वा पुडियाकारं कज्जइ। प्रथमसूत्रे स्वयमेव करणं कज्जइ / द्वितीयसूत्रे अन्यकृतस्य धरणम्. तृतीयसूत्रे अयमादिभिः स्वयमेव बन्धं करोति। चतुर्थसूत्रे अन्येन अयमादिभिर्बद्धं धारयति। गाहाअयमाई पाया खलु, जत्तियमेत्ताउ आहिया सुत्ते। तब्बंधणबद्धं वा, नाणि धरे तम्मि आणादी।।२।। करणधरणे आणाअणवत्थमिच्छत्तविराहणा य भवइ, चतुगुरुगं च से पचिछत्तं। इमो य भावपडिसेहो भन्नतितिन्नट्ठारस वीसा, सतमड्डाइज्ज पंच य सयाणि। सहस्संच दससहस्सा, पण्णास तहासयसहस्सा।।३।। मासो लहुओ गुरुओ, चउमासा हों तिलहुय गुरुगा या छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुर्ग च / / 4 / / एगादिया०जाव तिन्नि कहावणा जस्स मुल्लं, एवं धरेंतस्स मासलहुँ। चउरादिया०जाव अट्ठार कहावणाजस्स मोल्ल, एयं धरेतस्स मासगुरूं। वीसाए चतुलहुं इक्कवीसाइ.जाव सयं पूरं एत्थ चतुगुरुगा। एगुत्तरादियसयाउ०जाव अढाइजा सया, एत्थ छल्लहुग। एदुवरि एगुत्तरवुड्डीए०जाव पंचसया, एत्थ छगुरुगा। एवं सहस्से छेदो। दससहस्सेसुमूलं। पन्नासाए सहस्सेसु अणवहो। सयसहस्से पारंचियं / एक्कक्के ठाणे आणाइया दोसा। इमे-अयसंजमविराधना दोसाभारो भय परितावण-मारण अधिकरण अहियकसिणम्मि। पडिलेहऽऽणाए लोवो, मणसंतावो उवादाणं / / 5 / / पमाणातिरित्ते भारो भवति, अथवा-भारभयाण विहरति। भएण वाण विहरइ-मा मे एवं उक्कोसे पत्ते हीरज, भारेण वा परिताविज्जइ, तेणेगेहि वा दिवो गहिओ परिताविजइ, मा स चावज कहइ ति तेणगा वा मारेज, तेणगेहि य गहिए पाए अहिकरणं, अथवा अइरित्तं अनुपयोगित्वात् अधिकरणं, एते गणणाधिके, पमाणाहिके, मुल्लाधिके य दोसा भणिया। मुल्लपमाणकसिणं च जइ पडिलेहंतितो तेणगा पडुया यत्ति, हरंति यते, अतोपडिलेहिए उवहिणिप्फण्णं संजमविराहणा य, गणणाइरित्तं जई पडिलेहेइ तो सुत्तत्थपलिमंथो, अप्पडिलेहिए उवहिणिप्फण्णं संजमविराहणा य अतिरित्तग्गहणा अप्पडिलेहणाए, आणालोपो कओ भवति / कसिणोऽवराहेमणसंताको भवइ-एरिसं तारिसं मज्झ पायं आसि त्ति, खेत्तादिए भवे कसिणं च, सहस्सउ णिक्खिवउकामम्स उवादाणं भवइ। जम्हा एते दोसा तम्हा महद्धणमोल्लाइं पायाईण धरे, किं तु अप्पाई। गाथावितियपदे गेलण्णे, असतीऍ अभाविते व गच्छम्मि। असिवादी परलिंगे, परिक्खणट्ठा विवेगो वा // 6 // अगदो महसंजोगो, तं पि य रजतादि अहव वजेट्ठा। मल्लगमभावितम्मी, पइदिण दुलभे व रयमादी||७|| अगदमाइया, ते वेज्जुवदेसण गिलाणस्स ओसह टविज्जति, महसंजोए वा वेजट्ठा वा घेप्पइ / राया रायमच्चो वा पव्वाविउ सिया, तस्स य कणगमाइया उवट्टियस्स कंसभायणे मा छद्धो, गेलन्न वा भवेज, तेण कणगदि घेप्पेञ्ज, असइत्ति लाउयमादियाऽभावे अयमादियं गेण्हिज्ज, तत्थ विअप्पमुल्लं, गच्छे वा अभाविया अस्थि तेसिं अट्ठाए मल्लगं गिण्हेज, मल्लगे य पतिदिणं अलभंते दुल्लभे वा रयताऽदिघेप्पेज। गाथागच्छे च करोडादी, पतावणट्ठा गिलाणमादीणं। असिवे सपक्खपत्तं, रायढे च परलिंगे॥|| उवग्गहट्टा वा करोडगाई गच्छे धरिज ति, गिलाणस्स Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 403 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त जो जस्सुवरि य पभू, बलियतरो वा वि जस्स जो उवरिं। एसो बलवं भणितो, सो गहवति सामि तेणाऽऽदी॥२०६॥ (जो त्ति) यः पुरुषः यस्य पुरुषस्योपरिप्रभुत्वं करोति सो बलवं भण्णति, अहवा-अप्रभू वि जो बलवं सो वि बलवं भण्णति, सो पुण गृहपतिः, गामसामिगो वा, तेणगादि वा। शेषं पूर्ववत्। एत्तो (160) पच्छा (162) असिवे (194) भिण्णे (165) इच्चाइ गाहाओ। संतासंतसतीए, गवेसणं पुव्वमप्पणो कुज्जा। पच्छा तू बलवंते, जतणाएं गवेसणं कारे // 207 / / वा किंचि ओसह छोटुटुं उण्हे पयाविज्जइ / आदिगहणाओ ओमरायदुहादिसु, कारण वा परलिंग करंतो गेण्हेजा। गाहाभुंजइ ण व त्ति सेहो, परिक्खणट्ठा व गेण्ह कम्मादी। विसरिसवेसनिमित्तं, होज्जवपंडादिपव्वइए| से हस्स वा परिक्खणनिमित्तं पाडिहारियं घेप्पेज्जा, अहवाकोइ अवाणिज्जो कारणेण पव्वाविओ, तस्स य विसरिसो वेसो कायव्यो, कारणे संमत्ते तरस विवेगो कायव्यो। नि०चू०११ उ०। (15) परगवेषितं पात्रं धरतिजे भिक्खू परगवेसियगं पडिग्गहकं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ॥२७॥ (जे भिक्खू परगवेसित्यादि) परः अस्वजनः, भङ्गचतुष्काऽऽदि, शेष पूर्वसूत्रवत् द्रष्टव्यम्। गाहासंजतपरे गिहिपरे, उभयपरे चेव होति बोधव्वे / एते तिमिण विकप्पा, णायव्वा हों ति तु परम्मि !|166 / / लज्जाएँ गारवेण व, काऊण समूहपेच्छितो वाति। मित्तेहिं दावितो वा, णिस्सो लुद्धो विमं कुज्जा / 200 / असिवे ओगोदरिए, रायडुढे भए द गेलण्णे। सेहे चरित्त सावय-भए व जयणा गवेसेज्ज॥२०१।। संतासंतसतीए, गवेसणं पुव्वमप्पणो कुज्जा। तो पच्छा तु परेणं जतणाएँ गवेसणं कारे / / 202 // पुव्वं भट्ठमलद्धे, णियं परं वा वि पट्ठवेत्तूणं / पच्छा गंतुं जायति, समणुव्वूमहं ति य गिही वि।२०३१ सुत्तंजे भिक्खू वरगवेसियं पडिग्गहकं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ // 28!! "जे भिक्खू वरगविद्वेत्यादि। वरशब्दप्रतिपादनार्थमाहजो जत्थ अवितो खलु, पमाणपुरिसो व होइ जो जत्थ। जम्मी वरसाद्दो खलु, से गामए रट्ठिताऽऽदीतु // 204|| जो पुरिसो जत्थ गामे णगराऽऽदिसु अळते, अर्चितो वा, खलुशब्दः अवधारणार्थे / गामणगरादिसु कारणेसु पमाणीकतो, तेसु वा गामादिसु धणकुलादिणा पहाणो एरिसिपुरिसे वरशब्द-प्रयोगः, सो य इमो हवेज (गामए त्ति) गाममहत्तरः, (रट्टि त्ति) राष्टमहतरः, आदिशब्दतो भोइयपुरिसो वा, शेषं पूर्ववत् / एत्तो (160) पच्छा (162) असिवे (164) इत्यादि गाहाओ। संताऽसंतसतीए, गवेसणं पुव्वमप्पणो कुज्जा। तो पच्छा जतणाए, परं गविटुं पि कारेज्जा / / 205|| सुत्तजे भिक्खू बलगवेसियं पडिग्गहकं धरेइ, धरतं वा सा इज्जइ // 26 // (जे भिक्खू बलगविद्वत्यादि) बलं सारीरं, धनजनपदादि वा। गाहा जे भिक्खू लवगवे सियं पडिग्गहकं घरेइ, धरतं वा साइजइ ||30|| (जे भिक्खू लवगविद्वेत्यादि) दाणफलं लविऊणं पडिग्गहं मग्गति। दाणफलं लविऊणं, लावावेड गिहिअण्णतित्थीहिं। जो पायं उप्पाए, लवगविटुं तु सो होति // 205|| दाणफलं अप्पणा कहेति, गिहिअण्णतित्थिएहिं वा कहावेत्ता जो पायं उप्पादेति, एय लवंगविट्ठ भण्णति। नि०चू०२ उ०1 (16) निजगवेषितं पात्रमजे मिक्खू णिययगवेसियगं पडिग्गहकं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ // 26|| इत्यादि। नियगः स्वजनः स साधुवचनाद्गवेषित, तेनाऽन्विष्ट याघितं, तंगवेसितं गृण्हतीत्यर्थः / / 26 / / उदया बारस एकेक (176) अद्धंगुल (१६१)जं पुव्व० (162) पढम० (166) वितिय (201) घट्टि० (200) पच्छा० (202) (नि०चू०१ उ०) एताओं चेव गाहाओ। एस सुत्तत्थो। अधुना नियुक्तिविस्तरःसंजतणिए गिहिणिए, उभयणिए चेव होइ बोधव्वे / एते तिणि विकप्पा, णिययम्मी होंति नायव्वा।१९८) जो निहत्थो पायं गवेसतिजति सो निजत्वेनाऽन्विष्यते, साधोर्यस्य च तत्पात्रमस्ति गृहिणः संजतणिए एगो गिहिणिए, एवं ठाणक्रमेण चउभंगो कायव्यो, चतुर्थः शून्यः, तृतियभंगे जइ वि संजयस्स णिओ, तहा वि गिहिणा मग्गावयति इमेहि कारणेहिं आसण्णतरो भयमाऽऽयति उवरोवकारिता चेव। इति णीयायारवं वी, णीएण गवेसए कोई॥१८६।। स्वजनत्वेनाऽऽसन्नतरो भजतु, इतरो वा, आयातिं वा स यस्य करोति उपकारप्रत्युपकरणे वा प्रतिबद्धः इतिः कारणोपदर्शने।। परशब्द एष्यत्सूत्रस्पर्शने आद्यत्रयभङ्गप्रदर्शनार्थः। गाहाएत्तो एगतरेणं, णितिएणं जो गवेसणं कारे। भिक्खू पडिग्गहम्मी, सो पावति आणमादीणि।१९०। लिण्हं भंगाणं एगतरेणाऽविजोपडिग्गहं गवेसइ, सोपावति आणमादीणि। दातुमप्रियं, तथाऽप्येवं दादतिलज्जाए गारवेण व, कातूण समूहपेच्छितो वा पि। मित्तेहिं दावितो वा, णिस्सो लुद्धो विमं कुज्जा।१६१। बहुजण मज्झे मग्गितो लज्जाए ददाति, जेण मग्गितो त Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 404 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त परिहारिया भवंति। नि०चू०२ उ० / (17) अयोबन्धनाऽऽदीनिसे मिक्खू वा भिक्खुणी वा से जाई पुण पायाइं जाणेज्जा विरूव-रूवाइंमहद्धणबंधणाईतं जहा-अयबंधणाणि वा०जाव चम्म-बंधणाणि वा अन्नयराइं तहप्पगाराइं महद्धणबंधणाई अफासुयाइं णो पडिग्गहेज्जा / / 2 / / आचा०२ श्रु०२चू०६ अ०१ उ०। स्स गारवेण देति, बहुजणमज्झे मग्गिओ, बहुजणेण वुत्तो देति मित्ताण पुरओ मणिओ, मित्तेहिं भणिओ देति, निस्सो दरिद्दी, तम्गि वा भायणे लुद्धो इमं कुजा। पच्छाकम्मपवहणे, अचियत्ता संखड़े पदोसे य। एगतर उभयतो वा, कुज्जा पच्छारतो जो वि // 162 // तं दाउं अप्पणो विसूरंतो अण्णस्स भायणस्स मुहकरण करोति, पच्छाकम्म वा करेति, अण्ण वा अपरिभोगं पवाहेजा, संजए मिहत्थे वा अचियत्तं करेज, अचियत्तेण जहासंभवं वित्तिवोच्छेदं करेज, साहुणा गिहत्थेण वा सद्धिं दो विउवितो असंखडं करेज्ज। साहुस्स, निहत्थरस वा ओभओ वा पओसेज, पच्छारओ वा सव्वसाहूर्ण पदूसेज, पत्थारओ वा डहण-घाय-मारणाऽऽदि सयं करेज, कारये व। कारणओ पुण गिहिणा मग्गावेउं कप्पेज - संतासंतसतीए, थिर अपजत्त लब्भमाणे वा। पडिसेधणेसणिज्जे, असिवाऽऽदी संतओ असती।१६३। संत विद्यमानं, असंतं अविद्यमान, संतेसु चेव विसूरति, असंतेसु वा विसूरेइ / तत्थ संतासंती इमा-अस्थिर हुंड अपज्जत्तं वा, अस्थि वा गिहकुलेसुण लब्भंति, रायादिणा वा पडिसेधिएणलब्भति। असिवादीहि वा संताओ असती। असिवादी इमं - असिवे ओमोदरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे। असती दुलह पडिसे-वओ य गहणं भवे पाए।।१९४|| भाणभूमीए अंतरा वा असिवं, एवं ओमे रायदुट्टे भए वा गिलाणो ण सक्केति पायभूमिं गतुं, दुल्लभपत्ते वा देसे राइणा वा पडिसिद्धा, एरिसाए संतासंतीए गिहिगविट्ठस्स गहणं भवे।। असतासंती इमाभिणे व झामिते वा, पडिणीए साणतेणमादीसु। एएहिं कारणेहिं, णायव्व असंतओ असती||१९|| भिण्णं, झामियं दड्ड पडिणीयसाणतेणमादीहिं हड, अण्णं च णत्थि, | एवं असतो असंताऽसती गया। दुविहाऽसतीए इमं विधिं कुजासंतासंतसतीए, गवेसणं पुव्वमप्पणो कुजा। तो पच्छा जतणाए,णीएण गवेसणं कारे||१९६|| दुविहासतीए पुव्वं अप्पणो कुजा, सयमलब्भमाणे पच्छा जयणाए णिवेण / गवेसावए। अहवा गविट्ठ अलद्धे इमा विहीपुव्वं भट्ठमलद्धे, णियं परं वा वि पट्टवेत्तूणं / पच्छा गंतुं जायति, समणुव्वूहति य गिही वि॥१९७|| पुव्वं संजएण गविट्ठण लद्धं, ताहे संजतो णिय परं वा पुव्वं तत्थ पट्टवेति गच्छ तुम तो पच्छा अम्हे गमिस्सामो, तुज्झ य पुरतो तं मग्गिस्सामो, तुम उववूहेजासि, जतीण भत्तदाणेण महतो पुण खंधा वज्झति उवहिते जति ण लब्भति पच्छा भगेज्जासु वि देहि ति। एवं पदोसादयो दोसा | जे भिक्खू पायं एगेणं बंधेण बंधति, बंधतं वा साइज्जइ॥४५।। (जे भिक्खू पायं एगेण इत्यादि) उस्सग्गेण ताव अवंधणं पात्रं घेत्तव्वं, एगबंधणमपि करेंतस्स ते चेव आदिणो दोषाः, शेषं सभाष्यं पूर्ववत्। जे भिक्खू पायं परं तिण्हं बंधाणं बंधति, बंधंतं वा साइजइ॥४६|| (जे भिक्खू पायं परं तिहं इत्यादि) उववाओसग्गिय सुत्तं, दोसा ते चेव, मासगुरु च से पच्छित्तं। तिण्हं तू बंधाणं, परेण जे मिक्खु बंधती पायं / विहिणा वाऽविधिणावा, सो पावति आणमाईणि॥२५१।। संतासंतसतीए, अथिरअपञ्जत्तलब्भमाणे वा। पडिसेधणेसणिज्जे, असिवादी संतओ असती॥२४२।। असिवे / / 243 / / सेहे // 244 / / भिण्णे वा // 245 / / इत्यादि पूर्वत्। संतासंतसतीए, परेण तिण्हंण बंधियव्वं तु। एवंविधे असंते, परेण तिण्हं पिबंधिज्जा // 246|| एवं ताव दिट्ट अतिरेगबंधणं, तं पुण केवतियं कालं अलख्खण धरेयव्यं / नि०चू०१ उ०। ग०। जे मिक्खू अतिरेगबंधणं पायं दिवड्डाओ मासाओ परेणं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ॥४७॥ (जे भिक्खू अतिरेगेत्यादि) दिवड्डमासातो परं धरंतस्स आणादिणो दोसा, मासगुरुंच से पच्छित्तं, ण केवलमतिरेगबंधणमलक्खणं दिवड्डातो परंण धरेयव्वं, एगबंधणाऽवि अलक्खणं न धरेयव्वं। अवलक्खणेगबंध, दुगतिगअतिरेगबंधणं वा वि। जो पायं परिवड्डइ, परं दिवड्डाओं मासाओं // 247 // कंठा। जो एगबंधणादिधरेति, तस्स इमे दोसासो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तहा दुविधं / पावति जम्हा तेणं, अण्णं पायं वि मग्गेज // 248|| तित्थगराणं आणाभंगो, अगवत्था एगेण धारितं अण्णो वि धरेति, मिच्छतंण जहा वाइणो तहा कारिणो, आयसंजमविराहणा वक्खभाणगाहाहि अतिरेगबंधणमलक्खणेण अण्णे वि सूइत्ता अलक्खणा। हुंडं सवलं वाता-इद्धं दुप्फत खीलसंठितं चेव / पउमप्पलं च सवणं, अलक्खणं दवा दुव्वण्णं / / 246 / / समचउरसं जण भवति त हुई, कृष्णाऽऽदिचित्तलाणि ज Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 405 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त स्स तं सबलं, अणिप्फणं वाताइद्धं टोप्पड़यं ति वुच्चति। जं ठविजंत उड्ढुं टायति, वालियं पुण पलोट्टति, तं दप्फत्तं / जं ठविजंत ण ठातित खीलसंठित : जस्स अहाँ णाभी पउमागिती, उप्पलागिती वा त पउमुष्पलं / कं उगाऽऽदिखयं सव्वणं / एताणि अलक्खणाणि, ददुव्वण्णाणि य-द8 अग्गिणा, पंचवण्णोववेयं दुव्वण्णं, एकस्मिन्नपि न पततीत्यर्थः। अहवा-प्रबालाकुरसंनिभं सुवण्णं, सेसा सव्वे दुव्वण्णा, अनिष्टा इत्यर्थः / अहवाऽलक्खणं एगबंधणाऽऽदि, जंवा एयवज्ज आगमे अणिव्वट्ठ। इमा चरित्तविराहणाहुंडे चरित्तभेदो, सबले चित्तविन्भमो। दुप्पत्ते खीलसंठाणे, गणे व चरणे व णो ठाणं / / 250 / / पउमुप्पले अकुसलं, सव्यणे वणमादिसे। अंतो बहिं च दड्ढे, मरणं तत्थ णिदिसे // 251 // दुव्वण्णम्मि य पाए, णत्थि णाणस्स आगमो। तम्हा एते ण धारेज्जा, मग्गणे य विधी इमो / / 252 // चरणविणासः णाण-दसण-चरित्तविराहणा, सरीसस्स जं पीडाभवणं तं सव्वमकुसतं भवति, सेस कंट। अवलक्खणेगबंधे, सुत्तत्थ करें तो मग्गणं कुज्जा। दुगतिगबंधे सुत्तं, तिण्हुवरिं दो वि वज्जेज्जा // 253 / / हुंडादिलक्खणेगबंधपत्तेण गहिएण सुत्तत्थपोरिसाओ करेंतो जहा भत्तपाणं गवेसति तहा सलक्खणमभिण्णं वा पायं उप्पाएति. दुगतिगबंधणे सुत्तपोरिसिं काउं अत्थपोरिसीवेलाए मिम्गति, भिक्खं च हिंडतो तिण्हं जं परेण बद्धं, अंतो बहिं वा दर्दू,णाभि-भिण्णं वा एतेसु सुत्तत्थपोरिसीओ वज्जेति, सूरगामाओ आढत्तो जाव भिक्खं पि हिंडतो मगति, केरिसं पायं? केण वा कमेण त केत्तियं वा कालं मग्गियवं? चत्तारि अहाकडए, दो मासा होंति अप्पपरिकम्मे। तिण्णि परं मग्गेज्जा, दिवड्डमासं सपरिकम्मं // 254|| चत्तारि मासः अहाकडं पायं मग्गियव्य, जाहे तं चउहिं वि ण लद्धं, सदुपरि दो मासा अप्पपरिकम्म मग्गियध्वं, जाहे तं पिण लब्भति ताहे बहुपरिकम्म दिवड्डमासं मग्गेज्जा / किं कारण ? जाव तं अद्धमासेण परिकम्मिज्जति ताव वासाकालो लग्गति, तम्मि परिकम्मणा णत्थि। एवं वि मग्गमाणे, जति पायं तारिसंण वि लभेजा। तं चेवऽणुकड्डेजा,जाव य णो लब्भती पायं / / 255 / / जारिसं आगमे भणियं सलक्खणं, जति तारिसं न लभेज्जा तं चेव / अणुकड्वेज्जा। भणिया परिकम्मणा उस्सग्गेण, अववातेण या नि०चू० १उ० (18) प्रतिमापात्रग्रहणेअह भिक्खू जाणेज्जा चउहिं पडिमाहिं पायं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खूणी वा उद्दिसिय 2 पायं जाएज्ज। तं जहा-अलाउयपायं वा, दारुपायं वा, मट्टि- | यापायं वा, तहप्पगारंपायं सयं वाणं जाएजाजाव पडिग्गहेजा, पढमा पडिमा 1 / अहावारा दोचा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पेहाए पायं जाएज्जा / तं जहा-गाहावई वा. जाव कम्मकरिं वा, से पुव्वामेव आलोएज्जा, आउसो त्ति वा भइणी ति वा दाहिसि मे एत्तो अण्णयरं पायं / तं जहा-अलाउपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा तहप्पगारं पायं सयं वा णं जाएज्जाजाव पडिग्गहेज्जा, दोचा पडिमा।। अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खु. वा से जं पुण पायं जाणिज्जातं जहा-संगतियं वा वेजयंतियं वा तहप्पगारं पायं सयं वा जाव पडि-गहेजा, तचा पडिमा / 3 / अहावरा चउत्था पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उज्झियधम्मियं पायं जाएज्जा, जावऽण्णे बहवे समणा माहणा० जाव विणीमगाणाऽवकंखंति, तहप्पगारं पायं सयं वा जाएज्जा जाव पडिग्गहेज्जा, चउत्या पडिमा / इचे-इयाणं चउण्हं पडिमाणं अण्णयरं पडिम, जहा पिंडेसणाए। तथा प्रतिमाचतुष्टयसूत्राण्यपि वस्त्रैषणावन्नेयानीति, नवरम् - तृतीयप्रतिमायां (संगइयं ति) दातुः स्वाङ्गिक परिभुक्तप्रायम् / (वेजयंतियं ति) द्वित्रेषु पात्रेषु पर्यायणोपभुज्यमानं पात्र याचेत। आचा० 2 श्रु०२ चू०६ अ०२ उ०। बृ०। (16) अथ कतिभिः प्रतिमाभिः पात्रं गवेषणीयम्? उच्यतेउद्दिद्व पेक्ख संगय, उज्झियधम्मं चउत्थाए होइ। सव्वे जहन्न एक्को, उस्सगाई जयं पुच्छे / / 656 / / उद्दिष्टपात्रम्, प्रेक्षापात्रम्, संगतिकपात्रम्, उज्झितधर्मकं च चतुर्थमिति चतस्रः पात्रगवेषणायां प्रतिमाः, गच्छवासिनः प्रतिमाचतुष्टयेनाऽपि पात्रं गृह्णन्ति, जिनकल्पिकानामधस्तनाभ्यां द्वाभ्यामग्रहणम्-उपरितनयोर्द्धयोरेकतरस्यामभिग्रहः / अथ गौरवभयादतिदिशन्नाह-(सव्वे जहन्न एक्को त्ति ) यद्यस्य नास्ति वस्त्रम् इत्यारभ्य सर्वे वा गीतार्था निश्रा वा जघन्यत एको गीतार्थो निश्रा वा इतिपर्यन्तं यथा वस्त्रविषये भावितं तथा पात्रेऽपि सर्वं तदवस्थमेव भावनीयम् / नवरम् -पात्राऽभिलापः कर्तव्यः / (उरसग्माइत्ति ) कायोत्सर्गाऽऽदिकम्। "आवाससोहि अखलत समग उस्सग्ग" इत्यादि गाथोक्तं प्रायश्चित्तं तथैव वक्तव्यं (जयं पुच्छ त्ति) यतः मानपूर्वोक्ता यतना कुर्वन् पृच्छेत् / किमुक्तं भवति ?-श्रावकेपु नावभाषितव्यम्, किंतर्हि भाषितकुलेषु, तत्रापि पात्रे दर्शित कस्येदम् ? किमासीत्, किं भवष्यिति इति पृच्छाचतुष्टयं तथैव कर्तव्यम्, किंबहुना य एव वस्त्रस्य विधिः- “एवं तुगविट्ठसुं, आयरिया दिति जस्सजनत्थि। समभागेसु कएसु ब, जह रायणियो भवे विइओ / / 1 // " इति पर्यन्तः, प्रायः स एव पात्रस्थाऽपि द्रष्टव्यः, यस्तु विशेषः स उपरिष्टाद्दर्शयिष्यते। संप्रति मासचतुष्कं विभावयिषुराहउद्दिट्ट तिगेगयरं, पेहा पुण दट्ठ एरिसं भणइ। दोण्हेगयरं संगइ, वाहअई वारएणं तु // 660 / / Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त त्रिकस्य जघन्याऽऽदित्रयस्यैकतरं यद् गुरुसमक्षं प्रतिज्ञातं तदेव याच्यमानमुद्दिष्टपात्रमिति प्रथमा, प्रेक्षापात्रं पुनर्दृष्ट्वा अवलोक्य यदीदृशं प्रयच्छति भणति तत्प्रेक्षापूर्वकं याच्यमानत्वात् प्रेक्षापात्रमिति द्वितीया। अथ तृतीयातस्याश्च स्वरूपमाचाराने द्वितीयश्रुतस्कन्धे षष्ठाऽध्ययने प्रथमाद्देशके इत्थमभिहितम्-"अहा-वरातच्चा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण पायं जाणेज्जा / तं जहा-संगइयं वा वेजयंतियं वा।'' अथ किमिदं सङ्गतिकं, किं वा वैजयन्तिकमित्याह-(दोण्हेगयरमित्यादि) इह कस्यचिदगारिणो द्वे पात्रे, स च तयोरेकतरदिने 2 वारकेन वायति, तत्र यस्मिन् दिवसे यद्वाह्यते तत् संगतिकमभिधीयते, इतरत् वैजयन्तिकं, तयोरेकतर यदभिग्रहविशेषेण गवेष्यते, सा तृतीया प्रतिमा / चतुर्थी प्रतिपादयतिदव्वाऽऽइ दव्वहीणा-हियं तु अमुगं च मे न घेत्तव्वं / दोहि वि भावनिसिटुं, तमुज्झिउं भट्ठ णोभट्ठ // 661 / / उज्झितं चतुर्दा-दिव्यक्षेत्रकालभावोज्झितभेदात्। तत्र द्रष्योज्झितं यथा-केनचिदगारिणा प्रतिज्ञातम्-इयत्प्रमाणात् हीनाधिकं पात्रममुकं वा कमठप्रतिग्रहाऽऽदिकपात्रं मया न ग्रहीतव्यं, तदेव केनचिदुपनीतं, ततः प्रागुक्तयुक्त्या द्वाभ्यामपि भावतो निसृष्ट तदवभाषितमनवभाषितं वा दीयमानं द्रव्योज्झितम्। क्षेत्रोज्झितमाहअमुइच्चगं न धारे, उवणीयं तं च केणई तस्स। जं तुज्झे भरहाई, सदेस बहुपत्तदेसे वा // 662 / / अमुकदेशोद्भवं पात्रं न धारयामि, तदेव च केनचिदुपनीतं तदुभा- | भ्यामपि पूर्वोक्तहेतोः परित्यक्त क्षेत्रोज्झितम्, यद्वा-पात्रमुज्झेयुर्भरताऽऽदयः, भरतो नटः, आदिशब्दाचारणाऽऽदिपरिग्रहः। स्वेदशं गताः सन्तो, बहुपात्रदेशे वा, तदपि क्षेत्रोज्झितम्। कालोज्झितमाहदगदोछिगाऽऽइ जं पु-व्वकालजुग्गं तदन्नहिं उज्झे। होहि तहेस्सइ काले, अजोग्गयमणागयं उज्झे / / 663 / / "दोछिग" तुम्बकं, दकस्य जलस्य यद्भियते तुम्बक, तदादिशब्दात्तक्रतुम्बकाऽऽदिक च यत्पूर्वस्मिन् ग्रीष्माऽऽदी काले योग्यं तदन्यस्मिन् वर्षाकालाऽऽदावुज्झेत, भविष्यति वा एष्यति कालेऽयोग्यमतोऽनागतमेव यदुज्झेत्, तदुभयथाऽपि कालोज्झितं ज्ञातव्यम्। भावोज्झितमाहलक्षूण अण्णपाए, स देइ अन्नस्स कस्सइ गिही वि। सो वि अनिच्छइ ताई, भावुज्झिय एवमाईयं / / 664 / / लब्ध्वा अन्यान्यभिनवानि पात्राणि पुराणानि स गृही अन्यस्य कस्यचिददाति, अपि च तानि दीयमानानि यदा नेच्छति तदा एवमादिक भावोज्झितं द्रष्टव्यम्। बृ०१ उ०१प्रक०। (20) तच पात्रक लक्षणोपेतं ग्राह्य, नालक्षणोपेतम्, एतदेवाऽऽहपायस्स लक्खणमल-क्खणं च भुजो इमं वियाणित्ता। लक्खणजुत्तस्य गुणा, दोसा य अलक्खणस्सेमे 1007 पात्रस्य लक्षणां ज्ञात्वा विज्ञाय अलक्षणं च बुद्धा भूयः पुनः लक्षणोपेतं ग्राह्य, यतो लक्षणोपेतस्याऽमी गुणाः, अलक्षणस्य चैवं दोषा वक्ष्यमाणा भवन्ति, तस्माल्लक्षणोपेतं ग्राह्यम्। तचेदम् वट्ट समचउरंसं, होइ थिरं थावरं च वण्णं च। हुंडं वाताइद्धं, भिन्नं च अधारणिज्जाई / / 1008 // वृत्तं वर्तुलं, तत्र वृत्तमपि कदाचित्समचतुरस्रं न भवतीत्यत आहसमचतुरस्त्रं सर्वतः, तथा स्थिरंच यद्भवति सुप्रतिष्ठान तत् गृह्यते नान्यत्, तथा स्थावरं च यद्भवति नपरकीयं परवत्याचितं कतिपयदिनस्थायि, तथा वर्ण्य स्निग्धवर्णोपेतं यद्भवति गद्ग्रा , नेतरत्। उक्त लक्षणोपेतम्। इदानीमलक्षणोपेतमुच्यते-हुण्ड क्वचिन्निम्नं क्वचिदुन्नतं यत्तदधारणीयम् (वाताइद्धत्ति) अकालेनैव शुष्कं संकुचितं बलिभृतं तदधारणीयं, तथा भिन्नराजियुक्तं सछिद्र वा, एतानि न धार्यन्ते, परित्यज्यन्त इत्यर्थः / _इदानी लक्षणयुक्तस्य फलं प्रदर्शयन्नाहसंठियम्मि भवे लाभो, पइट्टा सुपइहिए। निव्वणे कित्तिमारुग्गं, वन्नड्डे नाणसंयया // 1006 / / संस्थिते पात्रके वृत्तचतुरस्र ध्रियमाणे लाभो भवति, प्रतिष्ठा गच्छे भवति सुप्रतिस्थिते स्थिरे पत्रके, निम्रणे क्षताऽऽदिरहिते कीर्तिः आरोग्यं भवति, वर्णाढ्ये ज्ञानसंपद्भवति। इदानीमलक्षणयुक्तफलप्रदर्शनायाऽऽहहुंडे चरित्तभेओ, सबलम्मि य चित्तविन्ममं जाणे। दुप्फए खीलसंठाणे, गणे व चरणे च णो ठाणं / 1010 / हुण्डे चारित्रस्य भेदो विनाशो भवति / शवले चित्रले विभ्रमो चित्तविप्लुतिर्भवति, दुष्पात्रे अधोभाग अप्रतिष्ठिते प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठानरहिते, तथा कीलसंस्थाने कीलकं दीर्घमुचं गतं तस्मिश्च एवंविधे गणे स्वगच्छे चरणे चरित्रे वा न प्रतिष्ठान भवति। . पउमुप्पले अकुसलं, सव्वणे वणमाइसे। अंतो बहिं व दड्डे, मरणं तत्थ निद्दिसे // 1011|| पद्मोत्पलहेटेस्थासगागारे पात्रके अकुशलं भवति, सव्रणे भवति पत्रकस्थायिनः। तथा-अन्तः अभ्यन्तरे, बहिर्बादग्धेसति मरणंतत्र निर्दिशेत्। इदानीं मुखलक्षणं प्रतिपादयन्नाहअकरंडगम्मि भाणे, हत्थो उड्ढे जहा न घट्टेइ। एयं जहन्नयमुहं, वत्थु पप्पा विसालं तु / / 1012|| करण्डकः वसनग्रन्थितः समतलकः करण्डकस्येवाऽऽकारो यस्य तत्करण्डकं, न करण्डकमकरण्डकं वृत्तासमचतुरसमित्यर्थः। तस्मिन् एवविधे भाजने पात्रके मुखं कियन्माचं क्रियते ? अत-आह - हस्तः प्रविशन ऊर्द्ध करणे यथा न ? घट्टयति न स्पृशति एतज्जधन्यमुखं पात्रकं भवति वस्तु प्राप्य वस्त्वाश्रित्य मुखनैव गृहस्थो ददाति इत्येवमाद्याश्रित्य विशालतरं मुखं क्रियत इति / ओघ०। दाता वदेत् तैलाऽऽदिना म्रक्षयेत्से ण एताए एसणाए एसमाणं पासित्ता परो वइज्जा-आ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 407 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त उसंतो समणा ! एजासि तुमं मासेण वा जहा वत्थेसणाए, से णं वा, अह भिक्खू णं पुव्वोवदिवा पतिण्णा, जं पुव्वामेव पडिग्गहगं परो णेता वदेजा-आउसो त्ति वा भइणीति वा आहारेयं पायं अंतो अंतेणं पडिलेहिजा, सअंडादि सव्वे आलावगा भाणियव्वा, तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा अभंगेत्ता वा तहेव' जहा वत्थेसणाए णाणत्तं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए सिणाणाइ तहेव सीतोदगादि कंदादिं तहेव, से णं परो णेता वा सिणाणादि.जाव अण्णयरंसि वा तह-प्पगारंसि थंडिलंसि वदेज्जा-आउसंतो समणा! मुहुत्तअंजाव अत्थाहि ताव अम्हे पडिले हिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तओ संजयामेव असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवकरेंसु वा उवक्खडेंसु आमज्जेज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खु-णीए वा सामग्गियं वा तो ते वयं आउसो! सपाणं सभोयणं पडिग्गहं दागणो, तुच्छए सव्वढेहिं सहितेहिं सया जएज्जा ति वेमि / / 152 / / पडिग्गहए दिण्णे समणस्स णो सुठु साहु भवइ / (तथा से णमित्यादि) स नेता तं साधुमेवं ब्रूयात्-तथाऽतिरिक्त पात्रं (हे इत्यादि) एतयाऽनन्तरीक्तया पात्रैषणया पात्रमन्वेषितं साधु प्रेक्ष्य दातुं न वर्त्तत इति मुहूर्तक तिष्ठ त्वं, यावदशनाऽऽदिकं कृत्वा पात्रक पर यागिन्यादिक, यथा तैलाऽऽदिनाऽभ्यज्य साधवे ददस्वेत्यादि भृत्वा ददामीत्येवं कुर्वन्तं निषेधयेन्निषिद्धोऽपि यदि कुर्यात्ततः पात्रं न सुगममिति : आचा०२ श्रु०१ चू०६अ०१3०। गृह्णीयादिति / यथा दीयमानं गृह्णीयात्तथाऽऽह-(से इत्यादि) तेन दात्रा दीयमानं पात्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षे-तेत्यादि वस्त्रवन्नेयमित्येतत्तस्य (21) पात्रप्रयोजनम् / आह-करमादाजनग्रहण क्रियते? आचार्य भिक्षोः सामग्यमिति। आचा०२ श्रु०१चू०६ अ० 130 / स्त्ताह यदि पात्रार्थ योजनात्परं गच्छतिछक्कायरक्खणट्ठा, पायग्गहणं जिणेहिं पण्णत्तं / जे भिक्खू परं अद्धजोयणमेराए पायवडियाए गच्छद, गच्छंतं जे य गुणा संभोगे, हवंति ते पायगहणे वि।।१०१३॥ वा साइजइ॥११० षट्कायरक्षणार्थं पात्रकरहितः साधुः भोजनार्थ षडपि कायान् मूलवसभगागाओ जाव अद्धजोयणं ति मेरा भवइ, अद्धजोयणाओ सापादयन्ति यस्मात्तत्पात्रग्रहणं जिनैः प्रज्ञप्तं प्ररूपितम्, ये च गुणाः परओ जइ जाइ, पायग्गहणं करेति, तो आणाइया य दोसा भवंति। मण्डलीसंभोगे व्यावर्णिता भवन्ति त एव गुणाः पात्रकग्रहणेऽपि भवन्ति, गाहाअतो ग्राह्य पात्रमिति। परमद्धजोयणाओ, संथरमाणेसु णवसु खेत्तेसुं। के ते गुणाः? इत्यत आह जे भिक्खू पायं खलु, गवसती आणमादीणि / / 10 / / अतरंतबालवुड्डा, सेहा एस्सा गुरू असहुवग्गो। उस्सग्गेणं जाव उज्झामगखेत्तं, तम्मि पायं गयेसियव्वं, परतो आणादिया साहारणुग्गहाऽल-द्धिकारणा पायगहणं तु / / 1014 / / दोसा, तम्हा णो परतो उप्पाएज्जा। ग्लानकारणात बालकारणात् वृद्धकारणात् शिष्यकारणात् प्राघु गाथार्णक कारणात गुरुकारणात असहिष्णू राजपुत्रः कश्चित्प्रव्रजितः भिक्खू वसहीसुलहे, णवसु तह चेव पायवत्थादी। तत्कारणात साधोरवग्रहो अवष्टम्भः अनेन पात्रकेण क्रियते, एतेषां जोयणमद्धे चउगुरु, अद्भुढेहिं भवे चरिमं / / 11 / / सर्वेषामतः साधारणावग्रहाद्धेतोः अलब्धिमान कश्चिद्भवति, तस्याऽऽनीय अंतरपल्ली लहुगा, परतो खलु अद्धजोयणे गुरुगा। दीयते एतच पात्रकेण विना दातुन शक्यते, अस्मात्कारणात् पात्रकग्रहणं ततियाएँ गवेसिञ्जा,इतरांहिं अट्ठहिंसपदं / / 12 / / भवति / उक्तं पात्रकप्रमाणम्। ओघ० / ध०। पं०३० / प्रव० / उदुबद्धे अट्ठसु मासखेत्तेसु, वासाखेत्तेसु य एतेसु णवसु खेत्तेसु जह चेव आधाकर्मिकाऽऽदिपात्राणि भत्तपायमुप्पाए तहा पायबत्थादिए वि, जइ पुण संथरंतो परतो से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो त्ति वा भइणीति वा णो खलु अद्धजोयणाओ आणेति, तो इमं पच्छित्त, जइ अंतरपल्लिआओ आणेति मे कप्पइ आधाकम्मिए असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा ता चउलहुगा, अंतरपल्लिआओ परओ अद्धजोयणमेत्ताओ मूलं, वसतिभुत्तए वा पायए वा मा उवकरेहि मा उवक्खडे हि अभिकरवसि गामाओ तं च जोयण, एत्थ चउगुरुगा, खेतबहिं जोयणे छलहुँ, दिवड्डे मे दाउं एमेव दलयाहि से सेवं वयंतस्स परो असणं वा पाणं वा छग्गुरुं, दोहिं छेदो, अड्डाइज्जेहिं मूलं, तिहिं अणवट्ठो अधुढेहिं पारंचियं, खाइमं वा साइमं वा उवकरेत्ता उवक्खडेत्ता सपाणं सभोयणं आणाझ्या य दोसा। दुविहाय विराहणा, तत्थ आयविराहणा कंटकखाणुपडिग्गहगं दलएज्जा, तहप्पग्गारं पडिग्गहगं अफासुयं.जाव णो माइया, संजमे छक्कायादिया, तम्हा खेत्तवत्थेहिं ण गवेसियव्वं, खेत्तातो पडिग्गाहेजा, सिया से परो उवणित्ता पडिग्गहगं णिसिरेज्जा, से अद्ध-जोयणमन्भतरं गवेसंतो, कालतो सुत्तत्थपोरुसिं काउं तइयाए पुव्वामेव आलोएजा-आउसो ति वा भइणी ति वा तुमं चेवणं पोरुसीए गवेसइ, जइ इतराहिं गवेसइ तो अभिक्खासेवाए चउलहुगा, संतियं पडिग्गहगं अंतो अंतेणं पडिले हिस्सामि। केवली बूया- अट्टमा वा, एए पारंचियं पावइ, खेत्तभंतरे अलब्भमाणे विहरते चेव आयाणमेयं अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा वीयाणि वा हरियाणि भायणभूमि गंतव्व। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 405 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 गाहावितियपदं गेलेंण्णे, वसही भिक्खुमंतरे। सज्झाय गुरूजोगे, सुणणे वत्तणाइणो / / 13 / / गेलन्नाइयाण इमा व्याख्या / गाहादुहओ गेलण्णम्मी, वसही भिक्खू व दुल्लभं उभए। अंतर विगिट्ठ सज्झा-उ नत्थि गुरुणं च पाउग्गं / / 14 / / / दुहतो गेलन्न-अप्पणो, परस्स वा। अहवा-अणागाढं गाढत्ति / दुहत्तो त्ति / खेत्तकाले रुअतिक्कम करेति, गिलाणकारणेण सयं गिलाणो / गिलाणवावडो वा ण तरतिगतुं जत्थ भायणा उप्पज्जति ताहे दूरातो वि भायणा, अंतरपल्लियासु आणिज्जंति, अनंतरपोरिसीए वा गेण्हेजा। अथवा-भायणदोसा, भिक्खं दुल्लभं,वसही वा दुल्लभा, उभयं वा दुल्लभं। अहवा उभये गिलाणस्स य भिक्खा, वसही य दुल्लभं / अहवा उभए सुत्तत्थपोरिसीतो वि अकाउंपादग्गहणं करेति। अहवा-बालवुड्डा उभयं, तेहिं आउलो गच्छो संकामेउंण सक्कतिगामंतराणि चाविगिट्टाणि अहवा तम्मि भायणादेसे सज्झातो न सुज्झति, गुरूण वा भत्तपाणदीयं पायोगग नत्थि, आगाद जोग्ग वा वहति।। अणुओगो गाहा-अणुओगो पट्टविउ त्ति अत्थं सुणेति त्ति बुत्तं भवति, अभिणवधारित वा सुत्तत्थ ण वत्तेति, भायणभूमीए वा मासकप्पपाउग्गा खेत्ता अप्पा, गच्छस्य आधारभूता न भवंतीत्यर्थः / सबालवुड्डस्स वा गच्छस्स बत्थपाओग्ग नथि। गाहाएएहिँ कारणेहिं, गच्छं आसज्ज तिन्नि चतुरो वा। गच्छंति निब्मयं भाणभूमि वसहादिए सुलह / / 15 / / एवमादिएहिं कारणेहिं भायणभूमि गच्छा ण गच्छति, गच्छमासज्जति, तिचउरो वा साहू णिब्भयं भाणभूमिं गच्छंति, ते य गीयत्था वसभावचंति, तसिं अप्पाणं सुलभं भत्तपाणवसहिमादी भवति, गणनाप्रमाणातिरिक्तमपि ग्रहीतव्यं, कुतः? गाहाआलंबणे विसुद्धं, दुगुणं तिगुणं चउग्गुणं वा वि। खेत्ताकालादीऽऽओ, समणुण्णाओ य कप्पम्मि॥१६| विसुद्धे आलंबणे दुगुणो तिगुणो वा चउगुणो वा पादपुट्टो य घेतव्यो, अविसद्दातो वत्थादओ वि क्खेत्तातीओ अद्धजोयणातो परतो, कालातीतो वासासु गहण करेति, दुमास वा पूरेत्ता गहणं करेति, रातो वा, एतं सव्वं कारणे विसुद्धे अणुण्णाय, अप्पे पकप्पो गच्छवासो, अहवा णिसीहज्झयणं / नि० चू०११ उ०। (22) यादृशं पात्रमादाय भिक्षार्थ गच्छेतसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए / पविढे समाणे पुव्वामेव पेहाए पडिग्गहगं अवहट्ट पाणे पमजिय रयं तओ संजयामेवगाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमेज वा, पविसेज वा / केवली वूया-आउसो ! अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वावीए वा रए वा परियावज्जेज्जा, अह भिक्खू णं पुव्वोवदिट्ठा पतिण्णा जं पुव्वामे मेव पहाए पडिग्गहं अवहुल पाणे पमज्जिय रयं ततो संजयामेव गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसेज वा, णिक्खमेज वा॥ (से इत्यादि) स भिक्षुहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशन् पूर्वमेव भृशं प्रत्युपेक्ष्य पतद्ग्रह, तत्र च यदि प्राणिनः पश्येत्तत-स्तानाहत्य, निष्कृष्य त्यक्त्वेत्यर्थः / तथा-प्रमृज्य चरजस्ततः संयत एव गृहपतिकुलं प्रविशेद्वा, निष्क्रामेद्वेत्येषोऽपि पात्रविधिरेव, यतोऽत्रापि पूर्व पात्रं सम्यक प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च पिण्डो ग्राह्य इति पात्रगलैव चिन्तति किमिति पात्र प्रत्युपेक्ष्य पिण्डो ग्राह्य इति? अप्रत्युपेक्षिते तु कर्मबन्धो भवतीत्याहकेवली ब्रूयाद्यथा कर्मापादाननेतत्, यथा च कर्मोपादानं तथा दर्शयतिअन्तः मध्ये पतद्ग्रहकस्यातिना द्वीन्द्रियाऽऽदयः, तथा-बीजानि रजो वा पर्यापद्येरन् भवेयुः, तथाभूते चपात्रे पिण्ड गृह्णतः कर्मोपादानं भवतीत्यर्थः / साधूना पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञाऽऽदिकं यत्पूर्वमेव पात्रप्रत्युपेक्षणं कृत्वा तद्गतप्राणिनो रजश्चापनीय गृहपतिकुले प्रवेशो निष्क्रमण वा कार्यमिति। आचा०२ श्रु०१ चू०६ अ०२ उ०। (अभिहृतव्याख्या 'अभिहड' शब्दे प्रथमभागे 733 पृष्ठे गता) __ किञ्च पात्रे शीतोदकादिसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं. जाव समाणे सिया से परो आहटु अंतोपडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाएत्ता णिहट्ट दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपादंसि वा अफासुयं.जाव णो पडिग्गाहेज्जा, से य आहच पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरेजा, से पडिग्गहमायाए पाणं परिठ्ठवेज्जा, ससणिद्धाए वा भूमीए णियमेज्जा; से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा ससणिद्धं वा पडिग्गहं णो आमज्जेज वा. जाव पयावेज वा / अह पुण एवं जाणेजा-वियडोदए मे पडिग्गहए छिण्णसिणेहे तहप्पगारं पडिग्गह, ततो संजयामेव आमजेज वा.जाव पयावेज्ज वा; से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पविसिउकामे सपडिग्गहमायाए गाहावइकुलं पिंडवातपडियाए पविसेज वा, णिक्खमेज वा; एवं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा गामाणुग्गामं दूइज्जेज्जा, तिव्वदेसियाए जहा-वीइयाए वत्थेसणाए णवरं-एत्थ पडिग्गहे, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं / / 154|| (से इत्यादि) स भिक्षुर्गहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सनपानक याचेत, तस्य च स्यात्कदाचित्स परो गृहस्थोऽनाभोगेन प्रत्यनीकतया तथाऽनुकम्पया विमर्षतया वा गृहन्तिः मध्य एवा-परस्मिन पतद्ग्रहे स्वकीये भाजने आहृत्य शीतोदकं परिभाज्य विभागीकृत्य(णिहटु त्ति) निस्सार्य दद्यात्, स साधुः तथाप्रकार शीतोदकं परहस्तगत परपात्रगतं वा अप्रासुकमिति मत्त्वा न प्रतिगृह्णीयात्। तद्यथा-अकामेन विमनस्केन वा प्रतिगृहीतं स्यात्ततः क्षिप्रमेव तस्यैवदातुरुदकभाजने प्रक्षिपेत्, अनि Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त च्छतः कूपाऽऽदौ समानजातीयोदके प्रतिष्ठापनविधिना प्रतिष्ठापनं प्रतिग्रहनिश्रया ऋतुबद्धं वसतिकुर्यात, तदभावेऽन्यत्र वा छायागर्ताऽऽदौ प्रक्षिपेत्सति चान्यस्मिन भाजने जे भिक्खू अइरेगं पडिग्गाहं गणिं उद्दिसिय गणिं समुद्दिसिय तत्सभाजनमेव निरुपरोधिनि स्थाने मुञ्चेदिति। तथा- (से इत्यादि) स गणियं अणामंतिय अण्णमण्णमस्सेविय परिइवियरइ, परिइविभिक्षुरुदकाऽऽऽऽदेः पतद्ग्रहस्य मार्जनाऽऽदि न कुर्यादीषच्छुष्कस्य यरंतं वा साइज्जइ॥५॥ तु कुर्यादिति पिण्डार्थः / किञ्च-(से इत्यादि) स भिक्षुः क्वचिद् गृहपति . अतिरेकज्ञापनार्थमिदमुच्यतेकुलाऽऽदौ गच्छन् सपतद्ग्रह एव गच्छेदित्यादि सुगम, यावदेतत्तस्य दो पायाऽणुण्णाता, अतिरेगं तइयगं पमाणातो। भिक्षोः सामा यमिति आचा०२ श्रु०१चू०६ अ० 2 उ०। छिण्णेसु व परिभणिया, सयं च गेण्हंति जा जोग्गा५१ (23) प्रतिग्रहनिकाया ऋतुबद्धं वसति दो पायाणि तित्थकरहिं अणुण्णाताणि-पडिग्गहो, मत्तगो य / जति जे भिक्खु पडिग्गहणिस्साए उदुबद्धं वसइ, वसंतं वा साइज्जइ ततिय पायं गेण्हति तो अतिरेयं भवति / अहवा ज पमाणं भणिय ततो ||46 जे भिक्खू पडिग्गहगणीसाए वासावासं वसइ, वसंतं वा जति बहुतरं गेण्हति, एवं अतिरेगं भवति, अहवा इमेण प्रकारेण अतिरेग साइज्जइ॥५०॥ हवेज्जा-ते साहू पायाणि मग्गामो त्ति संपट्टित्ता आयरिएणं भणित्ता अण्णे मासकप्पवासाजोग्गा खेत्ता, ते मोत्तु एत्थ पाए लभिस्सामो त्ति / छिण्णाणि संदिट्ठाणि, जहा-वीसं आणेह, अह ते वचंता अंतरा जे वसंति, एस पायणिस्सा भवति। संभोइयसाहुणो पासंति, तेहिं पुच्छिता-कतो संपट्टित्ता ? तेहिं कहियएताए पायणिस्साए गाहा आयरिएण पयट्टियामो वीसं पाए आणेहि त्ति। ताहे ते भणति-जावतिया उडुबद्ध मासवासं, वासावासे तहेव चउमासं। तुज्झे संदिहा तावतिएहिं गहिएहिं जइ अण्णाणि लभेज्जह, तो गेण्हेह, पत्ताऽऽसाए भिक्खू,सो पावति आणमाईणि॥२०६।। अम्हे आयरियं अणुण्णातिस्सामो, एवं होउ त्ति ते गता, लद्धा य, जइ वि उदुबद्ध मासं वसति, वरिसाकाले यचउमासंतहा विपाताऽऽ- अतिरेगलद्धा गहिया य, एवं अतिरेग-परिग्गहो हुजा, अहवा छिण्णेसु साए कालातिक्कम अकरेंतस्स वि आणाऽऽदिया दोसा, चउलहु च से चेव पाउग्गाणि लब्भति त्ति काउं बहूणि गहियाणि अप्पछंदेणं अणिद्दिष्टे पच्छित्तं। वि अतिरेंगपरिग्गही होज्जा। निचू०१४ उ०। अहवा तं उदुबद्धं वासावासं वा पायणिस्साए (24) अतिरिक्तपात्रम्वसंतो गिहिणं पुरता इमं भणाति कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अतिरेगं पडिग्गहयं पायणिमित्तं वसिमो, इह व मो आगया तदट्ठाए। अण्णमण्णस्स अट्ठाए दूरमवि अद्धाणं परिवहित्तए वा, धारित्तए इति कहयंते सुत्तं, अध तीते ताणि तिय दोसा / / 207|| वा परिगहित्तए वा सो वा णं धारेस्सइ, अहं वा णं धरिस्सामि, जाणह हे सावग ! अम्हे पायणिमित्तं वसामो, इहं वा आगता वरं पाए अन्ने वा णं धारेस्सइ, णो से कप्पइ त अणापुच्छिय अणमंतिय लभिस्सामो, एवं कहेंतस्स चउलहुँ सुत्तणिवातो त्ति, अधमासकप्पातीतं अण्णमन्नेसि दाउंवा अणुप्पदाउंवा, कप्पति से तं आपुच्छिय वसति, वासातीतं वा वसति, तो मासलहू, चउलहू य, जे णिस्साए दोसा आमंतिय अण्णमण्णेसिं दाउंवा अणुप्पदाउंवा / / 11 / / वण्णिता ते सव्वे आवर्जति, तम्हा ण वसेजा। भयकारणत्तेण पायणिस्साए अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहवि वसेजा। उवही दूरद्धाणे, साहम्मियतेणरक्खणे चवे। गाहा अणवत्तंते उइम, अतिरेगपडिग्गहे सुत्तं / / 210 / / असिवे ओमोयरिए, रायडुळे भए व गेलण्णे। अनन्तरसूत्रे इदमुक्त विस्मरणतः पतित उपधिर्दूरादप्यध्वन आनेतव्य अद्धाण रोहए वा, जयणाए तत्थ निवसेज्जा / / 208|| इत्युपदेशः कृतोऽन्येषां च विस्मरणतः पतितं गृहीत्वा दूरेऽपि येषां सत्कः कंटा। णवरं वसियव्वे। तेषां दातव्योऽन्यथाऽदाने साधमिकाचोरिका स्यात् तत उपधौ दूराध्वनि इमा जयणा गाहा साधर्मिकस्तैन्यरक्षणे अनुवर्तमाने इदमप्यधिकृतं सूत्रमतिरेकपतद्ग्रहगेलण्ण सुत्त जोए, इति लक्खेणं गिही परिविणंति / विषयं दूरध्वाधिकारे विहितमित्येप सूत्रार्थः / / 210 / / अनेन जा उब्मिण्णा पाया, णेतं पडिबंधमक्खंति // 206 / / संवन्धेऽऽनायातस्यास्य (11 सूत्रस्य) व्याख्याकल्पते निर्गन्थानां उदुबद्धं वासाकालं वा अतिरित्तं वसंता गिलाणलक्खेण वसंति, वा निर्ग्रन्थीनां वा अतिरे-कमतिरिक्तं पतद्ग्रहम् अन्यस्य अर्थाय, सुत्तग्गाहीण वा, इह सुत्तपाढो सरति गाढाणागाढजोगीण वा, इह जोगो इदमविशेषितं वचनं साधर्मिमकस्यार्थायेति द्रष्टव्यम् / धारयितुं वा सुज्झति, इति उवदसणे, एवमादीहिं लक्खेहिं तिप्रशस्त-भावमाया- स्वयं वा परिग्रहीतं स वा धारयिप्पति इदं विशेषित वचनम्-अमुको करणमित्यर्थ। गिही परिविणंति, जेसिं पाया अस्थि गिहीणं तेसिं समाण गणी वाचकोऽन्यो वा विशेषनिर्दिष्टः साधुः, तस्य भविष्यतीति परिचयं करेंति, जाव ते पाया उडिभज्जति, णिप्फण्णाणं अप्पणो भावः / अहं वा एनं धारयिष्यामि ममैव भविष्यतीति भावः / अन्यो वा वीयणिमित्तं उन्भेदं कुर्वतीत्यर्थः, ण य तेसिं गिहत्थाणं कहिति, जहा- णमिति सर्वत्र वाक्यालङ्कारे, धारयिष्यति यस्याऽप्यहं दास्यामि न इह अम्हे पायणिभित्तं ठिता नैतत्प्रतिबधं कथयन्ति। नि०चू०१४ उ०। | च (से) तस्य कल्पते, यस्य विशेषतो निर्दिष्टममुकस्य दातव्य, त Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 410- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त मनापृच्छ्य अनामन्त्र्य या अन्येषां यदृच्छ्या दातुं वा अनुप्रदातुं वा, / कल्पते (से) तस्यतान् आपृच्छ्य आमन्त्र्य च अन्येषां दातुवा अनुप्रदातुं वा, एष सूत्राक्षर संस्कारः / / 210 / / अधुना भाष्यकृत्सामान्यविशेषवचनरूपयोरुद्देशनिर्देशयोःस्वरूपमाहसाहम्मिय उद्देसो, निद्देसो होइ इत्थिपुरिसाणं। गणि वायग उद्देसो, अमुय गणी वायओ इयरो // 211 / / साधर्मिक इत्युद्देशो भवति स्त्रीणां पुरुषाणां वाऽभिधानमिति निर्देशः / अथवा-गणी वाचक इत्युद्देशः: अमुको गणी, अमुको वाचक इतीतरो निर्देशः। सम्प्रति नियुक्तिविस्तरःऊणातिरित्तधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, संघट्टणमादि पलिमंथो॥२१॥ गणनया प्राणेन च ऊनस्यातिरिक्तस्य वा उपकरणस्य धरणे प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा उद्घाता लघवः, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः। तथा पात्रपरिकर्मणां कुर्वन् तज्जातान् प्राणान्संघट्टयति, आदि-शब्दात्परितापयति, अभद्रावयति वा, ततस्तन्निमित्तमपि तस्य प्रायश्चित्तम्। तथा प्रतिदिवसमुभयकालं पात्राणि अन्यद्वाऽतिरिक्तमुपकरणं प्रत्युपेक्षमाणस्य परिमन्थः सूत्रार्थव्याघातः, तस्मात् गणनया प्रमाणेन सूत्रोक्तमुपकरणं धारयितव्यम्। तत्र पात्रमधिकृत्यातिरेक व्याख्यानयतिदो पायाऽणुण्णाया, अतिरेग तइययं पमाणातो। धारतें प णघट्टण, भारे पडिलेह पडिमंथो / / 213 / / द्वे पात्रे तीर्थकरैरनुज्ञाते, तद्यथा-पात्रममत्रं च। तत्र यदि तृतीयं गृह्णाति तदा गणनयाऽतिरेकं भवति, यच प्रमाणं पात्रस्योक्तं, ततो यदि बृहत्तरं गृह्णाति तदा प्रमाणतोऽतिरेकम्। तत्र गणनया प्रमाणेन चातिरिक्तं पात्रं धारयति कर्मणा तज्जातप्राणसंघट्टयनम्, उपलक्षणमेतत्-प्राणानां परितापनमपद्रावणं च / तथा-अव्वनि तद्वहने भारः, उभयकालं प्रतिदिवसं प्रतिलेखने परिमन्थः। अथ परः प्रश्नमुपदर्शयतिचोदेती अतिरेगे, जइ दोसा तो धरेउ ओमं तु। एक बहूण कप्पइ, हिंडंतु य चक्कवालेणं // 214|| अत्र परश्वोदयति-यद्यतिरेके पात्रे गृह्यमाणेऽनन्तरोक्तदोषास्ततोऽवमं गणनया हीनं पात्रं धारयतु, यथा यथा अल्पोपधिता तथा बहुबहुतरगुणसंभवात्। कथं तया हीनंधारयत्वित्याह-एकं बहूनां पञ्चानां कल्पते, ते च पञ्चजनाचक्रवालेन एकस्मिन् दिने एको द्वितीय इत्यादिरूपेण हिण्डन्ताम्। एतदेव स्पष्टयतिपंचण्हमेगपायं, दसमेण एक एक्कों पारेउ। संघट्टणाऽऽदि एवं, न हों ति दुविहं च ओमम्मि।।२१५।। पञ्चानां जनानामेकं पात्रं भवतु, तेषां च मध्ये एकैकक्रमेण चक्रवाललक्षणेन दशमेन पारयतु, यस्मिन् दिवसे पारणकं सत्पात्रं गृहीत्वा | हिण्डन्तामेवं च तेषां परिपाट्या दशमदशमातिक्रमे दिवसे वारको भवति / एवं च संघटनाऽऽदयो दोषा न भवन्ति / किं च-तेषां यद् द्विविधभवम.. मवमौदर्य पञ्चानामेकस्य पात्रस्य भवेत्तदवभौदर्य च दशमदशमातिक्रमण वारणात् तद् गुणो भवति। एतदेवाऽऽहआहारे उवगरणे, दुविहं ओमंच होति तेसिं तु / सुत्ताभिहियं च कयं, वेहारियलक्खणं चेव // 216 / / द्विविधं द्रव्यभावभेदतो द्विप्रकारमवमं भवति, तेषामाहारे उपकरणे च आहारविषयं भावमुपकरणविषयं द्रव्यावममित्यर्थः। सूत्रे चाभिहित वैहारिकलक्षणं गच्छतामल्पोपधिताऽल्पोहारता च प्रकृतं भवति। एतदेवाऽऽहवेहारियाण मण्णे, जह सिं जल्लेण मइलियं अंग। मइलाय चोलपट्टा, एगं पायं च सव्ये सिं // 217 / / मन्ये यथाऽमीषा वैहारिकाणां जल्लेन शरीरोच्छेदेन मलिनमङ्ग , यथा च मलिनाश्चोलपट्टास्तथा सर्वेषामेकं पात्रं भवति / न एक-पात्रग्रहणे विहारिकलक्षणं कृतं भवति। अत्राऽऽचार्य आहजेसिं एसुवदेसो, तित्थगराणं तु कोविया आणा। चउरो य अणुग्घाया, णेगे दोसा इमे होति / / 218 / / येवामेष उपदेशस्तैस्तीर्थकराणामाज्ञा कोपिता, तीर्थकरैः पात्रद्वयस्य प्रत्येकमनुज्ञानात, तेषां च प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा अनुद्धाता गुरवः, यत इमे वक्ष्यमाणा अनेके दोषा भवन्ति। तानेवाऽऽहअद्धाणे गेलन्ने, अप्पपर वयाइँ भिन्नमारियाए। आदेसबालवुड्डा, सेहा खमगा य परियत्ता / / 216 / / अध्वनि ग्लानत्वेन च आत्मा परश्च तैस्त्यक्तः / इयमत्र भावना-ये अध्वनिर्गता विस्मरणतः पतितोपधयः स्तेनोपहृतोपधयो वा भिन्नपात्रा वा तद्विषये आत्मा परो वा त्यक्तो भवति, यदि तेषां पात्रं ददाति तदा आत्मात्यक्तः, पात्राभावे भिक्षाऽटनासंभवात्। अथ नददाति अध्वनिर्गतरत्यक्त्वा अपि बहूनामेषां पात्रमित्युक्तं तत एकेन पात्रेण यदानीत न तेन बहवोऽध्वनिर्गताः संस्तरेयुः, तथा ग्लानविषयेऽप्यात्मा परो वा त्यक्तः स्यात्। तथाहि-यदिग्लानस्यददातितत्पात्रंतदात्मात्यक्तोऽथ न ददाति तदा परो ग्लान इति, अन्यस्याध्वनिर्गतानां ग्लानस्य वा तत्पात्रार्पणे स्वयं कुलालभाण्ड यावतिकं स्यात्तचाऽऽनीतं, यदि कथमपि भिद्येत तदा तन्मूल्यदाप्ये कलहाऽऽदयो वा दोषाः स्यु। (वयाइं ति) व्रतान्यपि च परित्यक्तानि स्युर्यतः प्रत्येकपात्रगहणे एकत्र संसक्तं भक्तपानं वा गृहीत्वा प्रत्युपेक्ष्यान्यत्र प्रक्षिपति, बहूना त्वेकपात्राभ्यनुज्ञाने शीतोष्णानि संसक्तासंसक्तपानानि गृह्णतः प्राणानां विराधना / तथा चव्रतानि परित्यक्तानि,(भिन्न त्ति) एकं पात्रं कदाचिद् भिन्नं स्यात् तदा कुतोऽन्यत्तत्कालं लभ्यतेऽन्यत्र मार्गयतः स एव पलिमन्थदोषः / कुलालभाण्डग्रहणे च प्रागुक्ता दोषास्तथा एकपात्रपरिग्रहे आचार्या आदेशाः प्राघूर्णका बालवृद्धाः शैक्षकाः क्षपकाश्च परित्यक्ताः, यत ए Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 411 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त कपात्राऽऽनीतमेकस्यात्मनो भवति, आचार्याऽऽदीनां किं ददातु, कुत्र च तेषा प्रायोग्यं गृहातु ततस्ते एवं परित्यक्ताः। अत्र पूर्वार्द्धव्याख्यानार्थमाहदेंते तेसिं अप्पा, जढो उ आदाणे ते जढा जंच। कुज्जा कुलालगहणं, वया जढा पाणगहणम्मि।२२०॥ तेषामध्वनिर्गतानांग्लानानां च ददति आत्मा परित्यक्तो भवति, अदाने ते अध्वनिर्गताऽऽदयः परित्यक्ताः, यच्च तेषां पात्रं दत्त्वा स्वयं कुलालभाण्डग्रहणं कुर्यात् तत्राप्यनेके दोषाः, ते च प्रागेव भाविताः, व्रतानि परित्यक्तानि भवन्ति / पानग्रहणे, पानग्रहणं भक्तोपलक्षणं, संक्तभक्तपानग्रहणे इत्यर्थः / भावना सर्वत्र प्रागेव कृता। पुनरपि परः प्रश्नययतिजइ होंति दोस एवं, तम्हा एकेक धारए पत्तं / सुत्ते य एगभणिय, मत्तयउवदेसणा चेम्हि / / 221 // दिन्नऽज्जरक्खिएहिं, दसपुरनगरम्मि उच्छुघरनामे। वासावासठितेहिं, गुणनिप्फत्ती बहुं नाउं।।२२२!! एवमुक्तप्रकारेण बहूनामेकपात्राभ्यनुज्ञायां भवन्ति दोषाः, तस्मात् एकैकः, एक पात्रं धारयेत्, न मात्रकं युक्तं पात्रमनुज्ञातम्। तथा चोक्तम्"जे निग्गंथे तरुणे बलवं से एगंपायं धरेज, नो वीयं' इति। ततो ज्ञायते नानुज्ञातं तीर्थकरैत्रिकग्रहणं केवलमिदानीमार्यरक्षितैराचार्यैर्दशपुरनगर इक्षुगृहनाम्नि उद्याने वर्षावासस्थितैर्बह्रीं गुणनिष्पत्तिं ज्ञात्वा मात्रकस्योपदेशना दत्ता कृता। सा च यैः कारणैः कृता, तान्युपदर्शयतिदूरे चिक्खल्लो बु-ट्टिकायसज्झायझाणपलिमंथो। तातेहिं एस दिन्नो, एस भणंतस्स चउ गुरुगा।।२२३।। ते आर्यरक्षिता आचार्या दशपुरनगरात् दूरे इक्षुगृहनाम्नि उद्याने वर्षा रात्र स्थिताः, मार्गे च कर्दमोऽतिप्रभूतो वृष्टिवर्ष, तदप्यतिशयेन प्रभूतं पतति, ततः प्रायोग्ये आचार्याऽऽदीनां लभ्यमाने यदिन गृह्यतेतदातेपरित्यक्ता भवति / अथ गृह्यते तर्हि कुत्र पानीयं भैक्षं वा गृह्यताम् / अथ नीत्वा प्रत्यागम्यते तदा कायानामप्काय-हरितकायानां विराधना स्वाध्या यध्यानानां च परिमन्थो व्याघातः, ततस्तैरेतैः कारणैरेष मात्रकस्योपदेशो दत्तः / सूरिराह-यथोक्तकारणवशादर्यरक्षितैरेष मात्रकोऽनुज्ञातो न तीर्थकरैरिति। एवं भणतो वदतस्तत् प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, तीर्थकरेरप्यनुज्ञानात् / एतचाऽग्रे दर्शयिष्यते / यदपि चोक्तम्- "जे निगथे तरुणे बलव से एगे पाय धरेज्जा नो वीय।'' इत्यादि सूत्र, तदपि गच्छनिर्गतविषयं, न स्थविरकल्पाऽऽश्रितं, न च तेन कारणे जातेनाऽऽयंरक्षितैत्रिकानुज्ञा कृता. तदेवैकं केवलं, किं त्वन्यदपि मात्रकानुज्ञायां कारणकदम्बकमस्ति। तदेवाऽऽहपाणदयखमणकरणे, संघाडासतिविकप्पपरिहारी। खमणासहु एगागी, गेण्हति ऊमत्तए भत्तं / / 224 / / थेराणेस विदिन्नो, ओहोवहिमत्तगो जिणवरेहिं। आयरियादीणऽट्ठा, तस्सुवभोगो नइहरा उ॥२२५।। प्राणिदयानिमित्तं कोऽपि साधुः क्षपणं कुर्यात् तस्य यः संघाटकः स क्षपणं कुर्त न शक्नोति, न च तस्याऽन्यः संघाटकः विद्यते, ततो यदि त्रयो जनाः संभूय भिक्षामटन्ति तदा जनानां विकल्पो भवति, तस्य परिहरणाय एकाकी हिण्डते, सद्वितीयस्य संघाटकवतः साधोः प्राणिदयार्थ क्षपणकरणे संघाटाभावे विकल्पपरिहारी क्षपणकरणासमर्थो भिक्षामेकाकी हिण्डमानः पतदग्रहे पानकं गृह्णाति, मात्रके भक्तम्। अनेन कारणेन स्थविराणामोघोपधिरूपो मात्रको जिनवरैर्वितीर्णोऽनुज्ञातः, ओघनिर्युक्तौ तथाऽभिधानात्। एतेन यदुक्तं तीर्थकरैर्नानुज्ञातो मात्रक इति तन्मिथ्येत्याविदितम्, अत एतस्यैवं ब्रुवतश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम्। तथा तस्य मात्रस्योपभोगे आचार्याऽऽदीनामाचार्यग्लानप्राघूर्णकबालवृद्धाऽऽदीनामर्थाय तत्प्रायोग्यग्रहणाय, उपलक्षणमेतत्-संसक्तभक्तपानशोधिकरणाय च प्रागुक्तकारणव्यतिरेकेण प्रायेणानु-ज्ञातः, इतरथा तूक्तकारणव्यतिरेकेण नानुज्ञातः, एतच्च परिभाव्य तत आर्यरक्षितश्चिन्तितं प्रायः प्राणरक्षणाय संसक्तभक्तपानविशोधिकरणाय च मात्रक एकपरिभोगोऽनुज्ञातः, शेषकालं त्वलोभाऽऽद्यसङ्गनिवारणाय प्रतिषिद्धः। तथाऽऽहगुणनिप्फत्ती बहुगी, दगमासे होहिति त्ति वियरंति ! लोभे पसञ्जमाणे, वारे ति ततो पुणो मत्तं / / 226|| गुणनिष्पत्तिर्बही दकमासे वर्षारात्रे भवष्यितीति ततप्रारम्भ समये भगवन्त आर्यरक्षिता मात्रकपरिभोगवन्त आर्यरक्षिता मात्रकपरिभोगं वितरन्त्यानुजानन्ति, ऋतुबद्धे तु काले आचार्याऽऽदि-प्रायोग्यग्रहणलक्षणं कारणमतिरिच्यान्यत्कारण न समस्ति, केवल लोभ एव प्रसञ्जते। तथाहि-यत् यत् उत्कृष्ट तत्तत् लोभेन मात्रके गृह्णाति, तत इत्थं लोभे प्रसञ्जति तन्निवारणायाऽऽ-चार्याऽऽदिप्रायोग्यग्रहणाभावे पुनर्मात्रकं तदा वारयन्ति। एवं सिद्धं गहणं, आयरियाईण कारणे भोगो। पाणदयठ्ठपभोगो, वितिओ पुण रक्खिअज्जाओ॥२२७।। एवमुक्तप्रकारेण मात्रस्य ग्रहण सिद्ध, यतः सूत्रे ओघनिर्युक्त्यादी आचार्याऽऽदीनां कारणे आचार्याऽऽदिप्रायोग्यग्रहणलक्षणे मात्रकस्याभोगोऽनुज्ञातः, द्वितीयः पुनरुपभोग आर्यरक्षितात् प्राणदयाऽर्थ प्रवृत्तः / कारणाभावे तु मात्रकपरिभोगे प्रायश्चित्तम् / तदेवाऽऽहजत्तियमित्ता वारा, दिणेण आणेइ तत्तिया लहुगा। अट्ठहिँ दिणेहि सपयं, निक्कारेण मत्तपरिभोगे // 228|| निष्कारणे कारणाऽभावे मात्रकस्य परिभोगे यावन्मात्रान् वारान् दिवसेनैकेन तेन मात्रेणाऽऽनयति भावतो लघुका मासास्तस्य प्रायश्चित्तमष्टभिर्दिनैः स्वपदं पुनव्रताऽऽरोपणं, मूललक्षणमष्टम, प्रायश्चितमिति भावः। जे वेंति न घेतव्यो, मत्तओंजे वा य तं न धारेंति। चउगुरुगा तेसि भवे, आणाऽऽदिविराहणा चेव।२२६। जे ब्रवते-न ग्रहीतव्यो मात्रको, ये च तन्मात्रकं न धारयन्ति, तेषां प्रत्येक प्रयश्चितं भवति चत्यारो गुरुकाः, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः, प्राणविपत्तेः संयमविराधना वा।। अन्यच्चलोए होइ दुगुंछा, वियारपडिग्गहेण उड्डाहो। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 412 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त आयरियाई चत्ता, वारत्तथलीऍ दिटुंतो // 230 / / यदि येनैव पतद्ग्रहेण भिक्षामटति तेनैव विचारे विचारभूमौ गच्छति, तर्हि लोके जुगुप्सा जायते, तथा च सति भवति प्रवचनस्योड्डाहः, आचार्याऽऽदयश्च मात्रकापरिभोगे त्यक्ताः / अत्रार्थ वारत्रस्थल्या दृष्टान्तः। उपसंहारमाहतम्हा उ धरेयव्वो, मत्तो य पडिग्गहो य दोण्णेते। गणणाएँ पमाणेण य, एवं दोसान होतेए।।२३१।। यत एवं पात्रस्य मात्रकस्य वाऽधारणे दोषास्तस्मान्मात्रकं पतद्ग्रहश्च द्वावप्येतो धारयितव्यो। कथमित्याह-गणनामधिकृत्य एकैकः प्रमाणत ओघनियुक्त्यभिहितप्रमाणेन एवं चैते अनन्तरोदिता दोषा न भवन्ति। (25) नवपुराण्णपात्रग्रहणम्जइ दोण्ह चेव गहणं, अइरेगपरिग्गहो न संभवति।। अह देइ तत्थ एगं, हाणी उड्डाहमादीया // 232|| यदि द्वयोरेव पात्रकमात्रकयोहणं ततोऽतिरिक्तः पतद्ग्रहो न संभवति, तदभावाच कथमध्वनिर्गताऽऽदीनां पतद्ग्रहं ददाति, देयस्याभावात्। अथाऽऽत्मीय तमेकं पतद्ग्रहमध्वगाऽऽदीना प्रयच्छति, स्वयं तु केवलेन मात्रकेण सारयति / तत आह-अथ तयोः पात्रकमात्रकयोमध्ये एक पतदग्रहं ददाति, तदा द्वितीयस्य हानिरिति, येनैव भिक्षामटति तेनैव विचारभूमावपि गच्छतीति लोके जुगुप्साप्रसङ्गतः प्रवचनस्योड्डाहः, आदिशब्दादाचार्याऽऽदयश्च तेन परित्यक्ता इति परिग्रहः / तस्मादफलं सूत्रमनवकाशादिति। आचार्यों ब्रवीति-सूत्रनिपातः खल्वयं कारणिकः। किं तत्कारणमिति चेदत आहअतिरेग दुविह कारण, अभिणवगहणे पुराणगहणे य। अभिणवगहणे दुविहे, वावरिऍ अप्पच्छंदे य / / 233|| द्विविधेन प्रकारेण द्वाभ्यां कारणाभ्यामतरेकस्यातिरिक्तस्य पतद्ग्रहस्य संभवः / तद्यथा- अभिनवग्रहणेन पुराणग्रहणेन च। तत्र यत्तदभिनवग्रहण तत् द्विविधं द्विपकारम् / तद्यथा-व्यापारिताश्च गृह्णन्ति, आत्मछन्दसा च / गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात्। तच द्विविधमप्यभिनवग्रहणमेभिः कारणैर्भवतिभिन्ने व झामिए वा, पडिणीए तेणसाणमादिहडे / सेहोवसंपयासु य, अभिनवगहणं तु पायस्स / / 234|| प्रमादतो भिन्न वाऽग्रेतनं पात्रमग्निना वा ध्यामित दग्धं प्रत्यनीकेन हुतमभिन्नं वा स्तेनैः श्वाऽऽदिभिर्वा हृतम्, आदिशब्देनात्र शृगालाऽऽदिपरिग्रहः, शैक्षका वा केचिदुपपन्नास्तेषु भाजतानि दातव्यानि, एतैः कारणैरभिनवस्य पात्रस्य ग्रहणं भवति। देसे सव्वुहिम्मि य,अभिग्गही तत्थ होंति सच्छंदा। तेसिं सति निज्जोए, जा जोग्गा दुविह उवहिम्मि।२३५॥ तत्र तेषां व्यापारितानां स्वच्छन्दसां च मध्ये स्वच्छन्छसो भवन्ति अभिग्राहिण अभिग्राहिकास्ते चाभिग्रहिका। द्विविधा भवन्ति। तद्यथादेशे सर्वस्मिश्नोप छावुत्पाद्ये किमुक्तं भवतीतिएक एवम-भिग्रह प्रतिपन्नाः यथा उपधिदेश, पात्राऽऽदिकंवयमुत्पादयिष्यामिः।अपरे चैवं प्रतिपन्नाः / सर्वमुपधिमुत्पादयिष्यामः। ते चाभिग्रहिका भाजनैः कार्यमन्येन चोपधिः कार्यमिति कृत्वा तदुत्पादाय अब्यापारिता एव गच्छन्ति, अत एव ते आत्मछन्दस उच्यन्ते, आत्मनैव परप्रेरणाभावेनैव उपधेरानयनाय छन्दोऽभिप्रायो विद्यते येषां ते आत्मच्छन्दस इति व्युत्पत्तेः, तेषामसत्यभावे ये योग्याः समर्था द्विविधे औधिके औपग्रहिके चोपधावुत्पाद्ये, तनाचार्यो निर्युक्ते व्यापारयति।। दुविहा छिन्नमछिन्ना, भणंति लघुको य पडिसुणंते य। गुरुवयण दूरे तत्थ तु, गहिते गहणे य ज वुत्तं / / 236 / / अभिग्रहिका अपि आचार्यभापृच्छ्य पात्राणामानयनाय गच्छन्तिा ये वा नियुक्ताः ते द्विविधाः / तद्यथा-छिन्नाश्चाऽछिन्नाः / छिन्ना नाम-ये आचार्येण संदिष्टा यथा विशतिः पात्राण्यानेतव्यानि। अच्छिन्ना येषां न परिणामनिरोधः, तत्र ये तावन्नियुक्तास्तेषां छिन्नानां विधिरुच्यते-तत्र छिन्नेषु त्रिभिः प्रकारैरतिरिक्तपतद्ग्रहसंभवः, ताऽऽद्येऽपि प्रकारे त्रयः प्रकाराः। तद्यथा एकः साधुःच्छिन्नानां संदेशं श्रुत्वा तत्रैवं समक्षमाचार्यस्य ब्रूतेक्षमाश्रमणाः! अनुजानीत युष्माकं योग्येषु परिपूर्णषु पतद्ग्रहेषु लब्धेषु यद्यन्येऽपि लभेरन् ततस्यान्यपि मम योग्यानि गृह्णन्तु एवं ब्रूवाणः शुद्धः। अत्रैवमाचार्य नानुज्ञापयति, किंत्वेवमेव तान बजतो व्रते, तर्हि तस्मिन्नेवं भणति प्रायश्चित्तं लघुको मासः, ते चेत् व्रजन्तः प्रति-शृण्वन्ति ग्रहीष्याम इति तदा तेषामपि प्रायश्चित्तं प्रत्येक लघुको मासः, द्वितीयो व्रजतस्तान संभोगिकान दृष्ट्वा ब्रवीति क्व यूयं संप्रस्थितास्तैरवाचिपात्राणामानयनायाऽऽचार्येण प्रेषिताः। ततस्तान्स बूते-यावन्ति युष्माकं संदिष्टानि तावत्सु परिपूर्णेषु यद्यन्यानि यूयं लभध्वं ततोऽस्माकं कारणेन तान्यपि प्रतिगृह्णीत एवं भणति प्रायश्चित्तं लघुको मासः, तेऽपि यदि प्रतिशृण्वन्ति तदा तेषामपि प्रत्येक प्रायश्चित्तं लघुको मासः / तृतीयो लजालुतया न शक्नोति स्वयमाचार्यान् विज्ञापयतुम् / अथवा कोऽपि शठत्वेन अन्येन भाणयति। यथा-कैते प्रेष्यन्ते, तान् ब्रुवते-यूयमाचार्यान् भणत युष्माकं परिपूर्णेषु लब्धेषु यद्यन्यान्यपि लभध्वं तदा मम कारणेन प्रतिगृहीत, एवं भणतितस्मिन् प्रायश्चित्तं लघुको मासः। सोऽपि यदिशठत्वेन भाणयति तस्य यदीच्छन्ति तर्हि तेषां प्रायश्चित्तं मासलधु, तस्मात तैर्नेष्टव्यम्, यथा न भणामीति लज्जालोर्वचनेन पुनराचार्या भणन्ति तत्र यदा तत्समक्षमाचार्यो भणितः, आचार्येण च समनुज्ञात, तदा यल्लभ्यते अतिरिक्त लक्षणं युक्तमयुक्तं वा तत्तस्यैव दातव्यम्। द्वितीयप्रकारमाह- (गुरुवयणत्यादि) कोऽपि पथि गच्छतो दृष्टा ब्रूते, यथा-ममापि योग्यानि भाजनानि गृह्णीत, तत्र यदि प्रत्यासन्नस्तदा तद्वचमं प्रतिग्राह्यम् / किमुक्तं भवति? आसन्न प्रदेशात्प्रतिनिवृत्त्य गुरुः पृच्छति यो-यथा अमुकः साधुरेवं ब्रवीति-ममाप्यर्थाय भाजनानि प्रतिगृह्णीता अथवा-तमेव प्रेषयन्ति, त्वमेवाऽऽचार्य विज्ञपय, एवं कुर्वत्सु तेषु प्रायश्चित्तं लघुको मासः / अथ दूरे गतास्तान सांभोगिकान् दृष्ट्वा ब्रूयुरस्माकमपि योग्यानि भाजनानि गृहीत। ते ब्रूयुः प्रतिगृहीष्यामः, परंतत्र प्रमाणं गुरुवचः। तथा चाऽऽह-तत्र दूरागताना प्रार्थने सति गृहीते च तद्योग्ये पात्रे गुरवः प्रमाणीकर्तव्याः तृतीयोविंशतेरधिकंलक्षणयुक्तंपात्रं दृष्ट्वा स्वयं गृह्णाति, एवं स्वयं ग्रहणवदुक्तसूत्रे तत्संभवति, अतिरिक्तंपात्रं सम्भवतीति गाथार्थः। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 413 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराहगिण्हह वीसं पाते, तिण्णि पगाराउ तत्थ अतिरेगे। तत्थेव भणइ एगो, मज्झ वि गेण्हे जहा अञ्जो / / 237|| गृह्णीत विंशतिः पात्राणि इत्युक्ते तत्रातिरेके त्रयः प्रकारा भवन्ति, एकरतत्रैवाऽऽचार्यमनुज्ञाप्य बूतेममापि योग्यान्यार्थ भाजनानि गृहीत। आयरिऍ भणाहि तुमं, लज्जालुस्स न भणंति आयरिए। नाऊण व सढभावं, नेच्छंतिहरा भवे लहुगो / / 238 // अपरोऽन्यं ब्रूते-त्वमाचार्यान् भण, यथा-अमी आचार्येणानुज्ञाता अधिकान्यपि भाजनानि प्रतिगृह्णति, तत्र यो लण्णालुतया आचार्यान् विज्ञापयितुं न शक्नोति, तस्य कारणे न भणन्ति वाऽऽचार्यान, यदि च शठभावं तस्य ज्ञात्वाऽऽचार्यान् विज्ञपयितुं नेच्छन्ति, इतरथा शटभावे विज्ञः यदि विज्ञपयति लघुको मासः। जइ पुण आयरिएहिं, सयमेव पडिस्सुयं भवति तस्स। लक्खणमलक्खणजुयं, अतिरेगं जं तु तं तस्स // 236|| यदि पुनस्तस्य लज्जालोः कारणेनाऽऽचार्यास्तस्य समक्षं विज्ञप्ता आचार्यश्च स्वयमेव तस्य लज्जालोरतिरिक्तपात्रग्रहणं त्रतिश्रुतमगीकृतं, तदा वल्लभ्यते अतिरिक्त पात्रं लक्षणयुक्तमलक्षणयुक्तं वा तत्तस्य दातव्यम् / गत एकः प्रकारः। द्वितीयप्रकारमाहवितिओ पंथे भणती, आसन्नागं तु विन्नवेंति गुरुं। तं चेव पेसवंती, दूरगयाणं इमा मेरा / / 240 / / द्वितीयस्तान पथि दृष्ट्वा भणति-ममाऽपि योग्यानि भाजनानि प्रतिगृह्णीत। अथवा आसमस्थं गुरुं विक्षपयन्ति / अथवा-तमेव साधुमभ्यर्थमानं प्रेषयन्ति, यथा-त्वमाचार्य विज्ञापयेति तेषामेवं कुर्वतांतदा तेषां प्रायश्चित्तं मासलघु, दूरगतानां पुनरियं वक्ष्यमाणा मर्यादा सामाचारी। तामेवाऽऽहगोण्हामो अतिरेगं, तत्थ पुण वियाणगा गुरू अम्ह। देंति तदेवण्णं वा, साहारणमेव ठावेंति // 241 / / दूरगतान् सांभोगिकः साधुवलोक्य ब्रूते-अस्माकमपि योग्यं पात्रमाददध्वं, ततस्तैर्वक्तव्यम्-अतिरिक्त पात्रं ग्रहीष्यामस्तत्र पुनर्विज्ञायका अस्माक गुरवस्तदेव वा अतिरिक्त पात्रं दास्यामि, अन्यद्वा को जानाति, कदाचिदतिरिक्त पात्र सुन्दरमिति कृत्वा स्वयं प्रतिगृहन्ति, यस्य वा इष्ट तस्मै ददाते, एवं साधारण स्थापयन्तिा उक्तो द्वितीयः प्रकारः। तृतीयमाहतइओ लक्खणजुत्तं, अहियं वीसाऍ ते सयं गेण्हे। एण् तिण्णि विगप्पा, होंततिरेगस्स नायव्वा // 242 / / तृतीयः प्रकारः पुनरयम्-ते प्रेषिताः साधवो विशतेरधिकं पात्रं स्वयमेव गृह्णन्ति / एते त्रयो विकल्पा अतिरिक्तस्य पात्रस्य संभवाय ज्ञातव्याः। तदेवं व्यापारितानां छिन्नानि गतानि। साम्प्रतमभिग्रहिकाणां छिन्नानि प्रतिपादयितुमाहसच्छंद पडिन्नवणा, गहिते गहणे य तारिसं भणियं / अलथिरधुवधारणियं सो वा अन्नो व णं धरए // 243 // स्वच्छन्दा नाम-अभिमाहिकास्ते अव्यापारिता एवाऽऽचार्यानापृच्छय गतास्ते यदि छिन्नाः संदिष्टास्ततस्तेषामपि सैव सामाचारी या प्राक व्यापारितानां छिन्नानामुक्ता / (पडिन्नवण त्ति) प्रतिज्ञापना नामविधिना पात्राऽऽदीनां मार्गणा कर्त्तव्येत्युपदेशदानम्, उद्गमाऽऽदिशुद्धानि पात्राऽऽदीनि प्रतिग्राह्याणीत्युपदेशदानमिति भावः / तदा गृहीते ग्रहणे च यादृशं कल्पाध्ययनपीठिकाया भणितं तादृशं कर्त्तव्यं, तत्र यावन्ति संदिष्टान्याचार्येण तावन्ति गृहीतानि, यदि न केनचित् भणितपूर्व, यथा ममापि योग्यं पात्रं ग्राह्यमिति तदा अलं समर्थ स्थिरं दृढं ध्रुवं चिरकालावस्थायि पात्रं धारणीयमितिन्यायमनुसृत्य, ते चिन्तयन्तिप्रायोग्यमेतत्प्रात्रं तस्मात् गृह्णीमो, गृहीतेस एव ग्राहकश्चिन्तयति-अहमाचार्यानुज्ञातं धारयिष्यामि. यदि वा स एवाऽऽचार्यो धारयिष्यति, अन्यो वा साधुर्धारयिष्यति, एवमतिरिक्तपतदग्रहसम्भवः। सम्प्रति ग्रहणे गृहीत च यद्भणितं कल्पपीठिकायां तदेव विनयजनानुग्रहाय दर्शयतिओमंथणमादीणं, गहणे उ विहिं तहिं पउंजंति। गहिए य पगासमुहे, करेति पडिलेह दो काले // 244 // अवमन्थनमधोमुखं कृत्वा प्राणाऽऽदीन खोटनेन भूमौ यतनया पातयन्ति। अमु विधिं तत्र ग्रहणे प्रयुञ्जन्ति। गृहीते चतानि पावाणि प्रकाशमुखानि करोति, तथा द्वौ कालौ प्रातरपराहे च प्रत्युपेक्षते। संप्रति तेषु पात्रेष्वानीतेषु विधिमाहआणीतेसु उगुरुणा, दोसुंगहिएसु गया जहवुद्धं / गेण्हति उग्गहे खलु, ओमादी मत्त सेसेवं / / 245 / / आनीतेषु तु भाजनेषु आचार्येण प्रधानं सुलक्षणं पात्रं मात्रक च परिग्रहीतव्यं ततो गुरुणा द्वयोहीतयोः शेषाणि भाजनानि यावतां दातव्यनि तावन्तो भागाः क्रियन्ते, ततो ये गतास्ते यथावृद्ध यथारत्राधिकतया पतद्ग्रहान् गृह्णन्ति, तदनन्तरं ये गतानामेवा-वमरल्लाधिकास्ते यथारत्नाधिकृतया मात्रकाणि गृह्णन्ति, तदनन्तरं यैः पतद्ग्रहा नगृहीतास्ते अवमरत्नाधिकाः, शेषाश्च साधवो यथारत्नाधिकतया पतद्ग्रहान् मात्रकाणि च गृह्णन्ति। तदेव व्यापारितानां स्वच्छन्दसां च छिन्नानि। साम्प्रतमेषामेव द्वयानामच्छिन्नानि विभणिषुरिदमाहएमेव अछिन्नेसु वि, गहिए गहणे य मोत्तु अतिरेगं / एत्तो पुराणगहणं, वोच्छामि इमेहि उपदेहिं // 246|| एवमेव पूर्वोक्तेनैव प्रकारेणा छिन्नेषु अपि ग्रहीतव्येषु गृहीते च ग्रहणे च विधिरनुसरणीयो, मुक्त्वा अतिरेकं भवति, अतिरिक्तः पतद्ग्रह एव न सम्भवति, परिमाणकारणादिति तत्सम्भवविधिर्न वक्तव्यः। सम्प्रति पुराणग्रहणमेभिर्वक्ष्यमाणैः पदैर्वक्ष्यामि। तान्येव पदान्याहआगमगमकालगते, दुल्लभ तहिँ कारणेहिँ एएहिं। दुविहा एगमणेगा, अणेग णिद्दिद्वऽनिद्दिट्ठा।।२४७।। आगमद्वारं गमद्वार, कालगतद्वारं दुर्लभद्वारमेतैः कारणैस्तत्र गच्छे पुराणग्रहणसम्भवः। तत्र ये पात्राणि ददति ते द्विविधाःएको वा, अनेके वा; येषामपि ददाति तेऽपि द्विविधा:-एको Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 414 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त वा, अनेके वा, दानंच निर्देशपूर्वकं, यथा अमुकस्य दास्यामि, तत्र यदा एकस्यापि ददाति तदा तन्निर्दिशति-अमुकस्य दास्यामि / ये त्वनेके ऽनिर्दिष्टा वा, अपरिमितसंख्याकतया निर्देशाकरणात्। एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव व्याचिख्यासुः प्रथमत आगमद्वारमाहभायणदेसा एंतो, पाए घेत्तूण एति दाहं ति। दाऊणऽवरो गच्छइ, भायणदेसं तहिं घेत्तुं // 248|| भाजनदेशा न यस्मिन् देशे भाजनानि संभवन्ति तस्मात् देशादानन्दपुराऽऽदावागच्छन् आगन्तुकामः पूर्वकृतानि गृहीत्वा समागच्छति, साधुभ्यो दास्यामीति बुद्ध्या / गतमागमद्वारम् / अधुना गमद्वारमाहअपरः साधुरानन्दपुराऽऽदिकात् देशात् भाजनदेशं गन्तुकामस्तत्रान्यान्यपि पात्राणि ग्रहीष्यामि, सुलभत्वादिति पुराणानि पात्राणि दत्त्वा गच्छति। गतं गमद्वारम्। इदानीं कालद्वारमाहकालगयम्मि सहाए, भग्गे वऽण्णस्स होइ अतिरेगं / पत्तो लंबतिरेगे, दुल्लभपाए विमे पंच / / 246 / / कस्यापि साधोः सहायः कालगतः प्रतिभग्नो वा, ततस्तस्य पात्रमतिरिक्त लम्बते, इत्यन्यस्य द्वितीयस्य साधोरतिरिक्त पुराणं पात्रं च भवति / गतं कालगतद्वारमाअधुना दुर्लभद्वारमाह-दुर्लभानि पात्राणि यस्मिन् देशे स दुर्लभपात्रस्तस्मिन्नपि इमानि वक्ष्यमाणानि पञ्च भाजनानि धारयेत् / देशे पात्राणि दुर्लभानि, तत्रेमान्यतिरिक्तानि ध्रियन्ते / तद्यथा''नन्दीपतद्ग्रहो 1, विपतद्ग्रहः 2, कमठकम् 3, विमात्रकं 4, प्रश्रवणमात्रकं ५च। तत्कार्यप्ररूपणा चैवं कार्यानन्दीपतद्ग्रहोऽतिशयितः महान् तद्ग्रहस्ते चाध्वनि अवमौदर्ये पर चक्रावरोधे च प्रयोजनम् / तथा च कश्चित् ब्रूयात्-दिने दिने युष्माकमहमेकं पात्रं भरिष्यामि, ततस्तत्र नन्दीपात्रं धार्यते, एतेन कारणेन गच्छोपग्रहनिमित्तं धार्यते। विपतद्ग्रहः पतद्ग्रहात्किश्चिदूनः। स एतदर्थ धार्यते, कदाचित्पतद्ग्रहो भिद्यते, अन्यच भाजनं तस्मिन् देशे दुर्लभं, तत एतेन कार्य भविष्यति। कमठकः सागारिकरक्षणाय ध्रियतेच, तथा कदाचिदेकाकी जायते, तत्र च भक्तं प पतद्ग्रहे गृहीतं, पानीयं मात्रके, यत्र च भोजनकरणार्थमवतीर्णस्तत्र सागारिकास्ततो यत्रैव भुङ्क्ते तत्र वसतिमहती। तैरतिजुगुप्सा क्रियेत, ततस्तद्रक्षणाय कमठके भोजनं करोति / तथा विमात्रकं मात्रकान् मनाक् समधिक ऊनतरो वा, तत्र मात्रकः कदाचित् भिद्येताऽन्यत्र देशे भोजनं दुर्लभं, तत एतेन प्रयोजनं भविष्यतीति स ध्रियते। प्रश्रवणमात्रकोऽपि सागारिकभयेन यतनाकरणाय ग्लानस्याऽऽचार्याणां वाऽर्थे ध्रियते / एषा कार्यप्ररूपणा। संप्रति "दुविहा एगमणेगा' इत्यदिव्याख्यानार्थमाहएगो निद्दिस एगं, एगे णेगा अणेग एग वा। णेगाऽणेगे ते पुण, गणि वसभे मिक्खु खुड्डे य / / 250 / / ये पात्राणि प्रयच्छन्ति ते द्विविधाः / तद्यथा-एको वा स्यादनेके वा, / येभ्योऽपि ददति पात्राणि तेऽपि द्विविधाः-एको वा स्यादनेके वा, तत्रैको नियमतोऽनेके विकल्पिता निर्देशा भवन्ति। अत्र चतुर्भगिका-एको दात्रा एक संप्रदानं निर्दिशति। आचार्यस्यामुकस्य वृषभस्य भिक्षोः क्षुल्लकस्य वा दास्यामि। एष प्रथमो भङ्ग / एकोऽनेकान्निदिशतीति द्वितीयः। अनेक एकमिति तृतीयः। अनेके अनेकानिति चतुर्थः / ते पुनर्निर्देश्याः / के इत्याह-गणी, वृषभो, भिक्षुः क्षुल्लक श्च / गणी द्विविध आचार्य उपाध्यायश्च / एवमेते पञ्च भवन्ति या अपि स्त्रियो निर्दिशति ता अपि पञ्च। तद्यथा-प्रवर्तिनी, अभिसेव्या, भिक्षुका, स्थविरा, क्षुल्लिका च। तथा चाऽऽहएमेव इथिवग्गे,पंच गमा अहव निद्दिसति मीसे। दाउं वचति पेसे, ति वावि नीते पुण विसेसो // 251 / / एवमेव अनेनैव संघातगतेन प्रकारेण स्त्रीवर्गे निर्दिश्यभाने पञ्च गमा भवन्ति। अथवा-यत्रानेकान् निर्दिशति तत्र मिश्रान् निर्दिशतिसंयतानपि निर्दिशति, संयतीरपि / तदेतदागमद्वारेऽभिहितम् / संप्रति गमद्वारे वक्तव्यं, तथापि तत्रैव नवरं दत्त्वा व्रजति, प्रेषयति च, अग्रे गतः, नीते पुनर्विशेषः / स चाऽयम्-नीतानि भाजनानि समाने निर्दिशति, असमाने वा। संयतस्य समानो वर्गः संयतवर्गोऽसमानः संयतीवर्गः / अत्र च एतएव चत्वारो भङ्गाः। तद्यथा-संयतः संयतं निर्दिशति, संयताः संयतम्, संयतः संयतान,संयताः संयतान् / एवं समाने निर्देशे चत्वारो भङ्गाः / एवमसमाननिर्देशेऽपि द्रष्टव्याः। तद्यथा-संयतः संयती निर्दिशति 1, संयतः संयतीः 2, संयताः संयतीम् 3. संयताः संयतीः 4 एवं कालगते प्रतिभग्ने वा सहाये दुर्लभद्वारे च द्रष्टव्यम्।। सच्छंदमणिद्दिडे, दावण निद्दिट्ठमंतरा दें ति। चतुलहु आदेसो वा, लहुगा य इमेसि अदाणे॥२५२|| तत्र यदि न निर्दिष्टममुकस्यामुकानां वा दातव्यमिति तदा स्वच्छन्दो यस्मै रोचतेतस्मै ददाति, यदि पुनर्निर्दिष्टः ततो यानिर्दिशति एकमनेकामिश्रत्वात्तेषां दातव्यम्। एतनिर्दिष्ट प्रायणम्। अथ यस्य निर्दिष्टः सोऽन्यत्र अन्तरा अपान्तराले अन्यस्य ददाति तदा तस्मिन् अन्यस्मै ददति प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, आदेशो वा अत्र विद्यते, मतान्तरमप्यस्तीति भावः / तदिदं केषाञ्चिन्मतेनान्यस्य दाने अनवस्थाप्यं तेषां प्रायश्चित्तमिति / अमीषां वक्ष्यमाणानायदाने चत्वारो लधवः / केषामित्याहअद्धाण बालवुड्डे, गेलन्ने जंगिए सरीरेणं / पायंऽच्छिनासकरक-नसंजतीणं पि एमेव / / 253 / / अध्वनि वर्तमानानामध्वनिर्गतानामित्यर्थः, उपलक्षणमेतत्तेन चावमौदर्यनिर्गतानामशिवनिर्गतानामन्तरा विस्मरणतः पतितोपधीनां, तथा बालस्य शरीरेण जुङ्गितस्य हीनस्य, केनाङ्गेन हीनस्येत्यत आह-पादेन, ईक्षणेन, नासया, करण, कर्णेन वा, एवमेव संयतीनामप्यदाने प्रायश्चित्तम्, एष द्वारगाथासंक्षेपार्थ। संप्रति तामेव विवरीषुराहअद्धाण ओम असिवे, उढाणं वि न देंति जं पाए। बालस्सऽज्झुववातो,थेरस्सऽसतीए जं कुजा // 254 / / अध्वनिर्गतानामवमौदर्यनिर्गतानामशिवनिर्गतानामरूढानामन्तरा विस्मरणतः पतितस्तेनापहृतोपधीनां यदि न ददाति तदा प्रायश्चित्त चत्वारो लघवः / यच भाजनैर्विनामप्राप्स्यन्ति तन्निमित्तमपि तस्य प्रायश्चित्तम् / तथा बालस्य उत्कृष्टमात्रकं दृष्ट्वा तद्विषये अध्युपपात उत्कृष्टोऽभिलाषो भवति, ततः मात्रकं याचते स यत् याचते Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 415 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त तत् तस्य दातव्यम्, अदाने चत्वारो लघुकाः / यतस्तस्मिन्नदीयमाने एव चत्वारो लघवः। रोदिति, अधृत्वा च महती परितापनोपजायते, ततः शून्यचित्तो भवति, (26) सम्प्रति निर्दिष्टस्य दाने विधिमाहभूतन चाग्रस्रा ते वृद्धरयाप्यदाने चत्वारो लघवः। स हि भाजनानि याचितु अह एते उन हुज्जा, ताहे निविट्ठ पायमूलं तु। न शक्रोति, तातोऽदाने यत् अधृत्या प्राणोतितन्निष्पन्नमपितस्य प्रायश्वि- गंतूण इच्छकारं, काउं तो तं निवेदेति / / 256 / नमापात / गतं बालद्वार, वृद्धद्वारं च! अथ एते अध्वनिर्गताऽऽदयः प्रायुक्ता न स्युस्ततो यस्य निर्दिष्ट तस्य संप्रति ग्लानद्वारमाह पादमूलं गत्वा इदं पात्रं मया युष्मन्निमित्तमानीतमिच्छाकारेण गृहीत, अतरंतस्स अदेंते, तप्पडियरगस्स वावि जा हाणी। एवमिच्छाकारं कृत्वा निवेदयति समर्पयति। जुंगिता पुव्वनिसिद्धो, जातिविदेसेतरो पच्छा / / 255 / अद्दिढे पुण तहियं, पासे अहवा वि तस्य अप्पाहे / अतरतो ग्लानप्रतिचारकस्य च यदि न ददाति, तदा प्रायश्चित्तं त एव अह उन नजई ताहे, ओसरणे संतिसु विमग्गे // 26 // चत्वारो लघवः / तथा भाजनमृते प्रतिचारकं वा विना ग्लानस्य अथ स न दृष्टो यस्य निर्दिष्ट ततोऽन्यस्य हस्ते कृत्वा तत्र प्रेषयति, हानिस्तन्निमित्तमपि प्रायश्चित्तम् / गतं ग्लानद्वारम् / जुङ्गितद्वार-माह- अथवा साधु श्रावकं वा तत्र व्रजन्तं संदेशयति, यथा-तव योग्य पात्रं जुङ्गितो द्विविधो-जात्या, शरीरेण च। जात्या असांभोगिक इतरश्छिन्न- मयाऽऽनीतम्, इच्छाकारेणाऽऽगत्य गृहीत, प्रेषयत वा कमपि यो पादो गतावक्षम इत्यादि / एष द्विविधोऽपि पूर्वमेव प्रतिषिद्धो यथा नयतीति / अथ पुनः स न ज्ञायते क्वापि तिष्ठतीति ततस्तेषु क्षुल्लकेषु प्रमाजयितुन कल्पते, केवलं यो जातिजुङ्गितः स विदेशे कथमप्यज्ञात- समवसरणेषु मृगयेत ! इयमत्र भावना-अज्ञायमाने समवसरणं साधुमेतया प्रव्राजितः, इतरः शरीरेण जुङ्गितः प्रताजितः सन् पश्चात् स्यात्। लापकरूपं गत्वा पृच्छति,यथा अमुकः कुत्र विद्यते, तत्र यदि स्वरूपतो जातीऍ जुंगितो पुण, जत्थ न नजइ तहिं तु से अत्थे। न दृष्टो नापि वार्तयोपलब्धस्तथा द्वितीये समवसरणे पृच्छयते, तत्राप्यदृष्टे अमुगनिमित्तं विगलो, इयरो जहिँ नजइ तहिं तु // 256|| अनुपलब्धे वा तृतीये पृछ्यते / एवं त्रिषु क्षुल्लकेषु समवसरणेषु मध्ये यो जात्या जुड़ितो विदेशे कथमप्यज्ञायते तत्र तिष्ठति, इतरः यत्रैकतरस्मिन् दृष्टस्तत्र तथैव समर्पयति / अथ न दृष्टः केवलमुपप्रव्राजनानन्तरं पश्चात् शरीरेण जुङ्गितो यत्प्रासुकनिमित्तमेष विकलो लब्धवार्तया यथा अमुकस्थाने स तिष्ठतीति स तत्र स्वयं वा नयति, जात इति ज्ञायते तत्र तिष्ठति, अन्यत्र तिष्ठतो लोकानाम-प्रत्ययो भवति, अन्यस्य वा हस्ते प्रेषयति।। केचिदेवं गन्यन्तेपारदारिकाऽऽदिभिरपराधैः प्रव्रजितो जुङ्गित इति / अथ त्रिष्वपि समवसरणेषु न दृष्टो जे हिंडंता काय-वहं ति जे वि य कारंति उड्डाहं / नाप्युपलब्धस्तदाऽऽहकिं तु हु गिहिसामन्ने, विजुंगितो लोकसंका उ॥२५७।। एगे वि महंतम्मि उ, उग्घोसेऊण नाउ तेहि तहिं। जे जुङ्गिता हिण्डमानाः पादाऽऽदिविकलतया कायान् पृथिवी- अह नत्थि पवत्ती से, ताहे इच्छा विवेगो वा / / 261 / / कायप्रभृतीन् धन्ति येऽपि च दृश्यमानाश्छिन्ननासिकाऽऽदयः प्रवचन- महति समवसरणे पुनरेकस्मिन्नपि कुत्रामुक इत्युद्घोषणां कृत्वा यदि स्योड्डाहं कुर्वान्ति, यांश्च दृष्ट्वा लोकस्य शङ्कोपजायते यथा किंत 'हु' स्वयं दृष्टस्तत इच्छाकारपुरस्सरं तथैव समर्पयति, अथवार्त्तयोपलब्धनिश्चितम् / गृहिसामान्ये च गता अमी इति तेषां भाजनानि दातव्यानि, स्तर्हि तत्र स्वयं नयति, अन्यस्य वा प्रेषयति, संदेशयति वा. अथ तत्राऽपि अदाने चत्वारो लघवः / तथा हिण्डमाना यत् कायान् घन्ति, यच्च न दृष्टो नाप्युपलब्धस्ततो द्वितीयं वारं महत् समवसरणं न गच्छति, किं प्रवचनस्योड्डाहकरणं तन्निष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चित्तम्। तु इच्छया स्वयं तत्पात्रं धारयति, अन्यस्मै वा ददाति / (विवेगो वेति) तथा परिष्ठापयति वा। अथ येषां ददतामेकस्थाने केषां वा सकाशात् गृहीतव्यं पायऽच्छिनासकरक-नजुंगिते जातिजुंगिते चेव / ते किं सांभ्रोगिका उताऽसांभोगिकाः एवं प्रश्ने / कृते प्रथमत एकानेकवोचासे चउलहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं / / 258|| प्ररूपणामाहशरीरे जुङ्गिताः पञ्च। तद्यथा-छिन्नपादः, अक्षिकाणो वा, छिन्ननासः, एगे व पुव्वभणिए, कारण निक्कारणे दुविहभेदो। छिन्नकरः, छिन्नकर्णः, षष्ठो जातिजुङ्गितः / तत्र यदि षडपि जुङ्गिताः, आहिंडग ओहाणे, दुविहा ते होंति एकेका // 262 / / भाजनानि च दातव्यानि विद्यन्ते, तदा सर्वेषामपि दातव्यानि / अथ एक एकाकी द्विविधभेदः पूर्वमोघनिर्युक्तौ भणितः / तद्यथा-कारणे सर्वेषामपि भालनानिन पूर्यन्तेतर्हि यावतां पूर्यन्तेतावतामुपन्यस्तक्रमण निष्कारणे च। पुनः साधवो द्विविधा:-अहिण्डका अवधावने चा ते एकैके दातव्यानि। विपर्यासे उक्तक्रमव्यत्यासेन दाने प्रायश्चित्तं चत्वारो लघवः / द्विविधा भवन्ति वक्ष्यमाणभेदेनेति गाथासमासार्थः। अथ संयता संयत्यश्च जुङ्गिताः सन्ति तत्र भाजनसम्भवे सर्वेषामवशेषेण साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः कारणैकप्रतिपादना-र्थमाहदातव्यम् / अथ तावन्ति भाजनानि न पूर्यन्ते, ततः संयतीसमुदाये असिवादीकारणिया, निक्कारणिया य चक्कथूभाऽऽदी। छिन्नपादाऽऽदिक्रमेण दातव्यम् / अथ संयतोऽपि छिन्नपादः, संयत्ययि उवएस अणुवएसा, दुविहा आहिंडगा हुंति // 263 / / छिन्नपादा, एवं सर्वत्र विभाषा कर्तव्या। तत्राऽऽह-सदृशे जुड़ितत्वे पूर्व अशिवाऽऽदिभिरादिशब्दादवमादर्यराजद्वेषाऽऽदिपरिग्रहः / का श्रमणीनां दातव्यम् पश्चात्सति सम्भवे संयतानाम्, अन्यथा विपर्यास त / रणैरे काकिनः कारणिकाः, चक्र स्तूपाऽऽदौ आदिशब्दात्प्रतिमा Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त निष्क्रमणाऽऽदिपरिग्रहः / तेषां वन्दनाय गच्छन्त एकाकिनः निष्कारणिका ये आहिण्डकारते द्विविधा भवन्ति / तद्यथा-उपदेशतोऽनुपदेशतश्च / तत्रोपदेशेन ये ते द्वादश संवत्सराणि सूत्रं गृहीत्वा द्वादश संवत्सराणि तस्यैव सूत्रस्यार्थ गृहीत्वा य आचार्यकं कर्तुकामः सद्वादश संवत्सराणि देशदर्शनं करोति, तस्य व्रजतो जघन्यो न संघाटको दातव्य उत्कर्षेणानियताः साधवो, ये अनुपदेशेन देशदर्शनं कुर्वन्ति, ते चैत्यानि वन्दिष्यामहे इत्यविधिं कृत्वा व्रजन्ति। ओहावेता दुविहा, लिंगे विहारे य होंति नायव्वा। एगागी छप्पेते, विहार तहिँ दोसु समणुन्ना // 26 // अवधाविनो द्विविधाः-लिङ्गेन, विहारेण च / लिङ्गेनोत्प्रव्रजितुकामा विहारेण पार्श्वस्थविहारेण विहर्तुकामा भवन्ति ज्ञातव्याः / षड़प्येते कारणिकाः 1, निष्कारणिकाः 2, उपदेशिकाः 3, अनुपदेशकाः 4, लिङ्गेनावधाविनः 5, विहारेणावधाविनश्च 6 / प्रायेणैते एकाकिनो विहरन्ति, गच्छन्ति वा, उपदेशिका यद्यपि नियमतःससहायास्तथापि येन गच्छान्निर्गतास्तेन एकाकिनो भण्यन्ते। इतरेऽपि पञ्च यद्यपि वृन्देन हिण्डन्ते तथापि गच्छान्नि-र्गता एकाकिनःप्रोच्यन्ते। तत उक्तं षडप्येते विहारिणः एकाकिनः (तहि त्ति) तेषु षट्सु मध्ये द्वयोः समनुज्ञातयोः सांभोगिकाः / तद्यथा-अशिवाऽऽदिकारणिका उपदेशा हिण्डकाच, तैरानीतानि भाजनानि ग्रहीतव्यानि, शेषैरानीतानां भजना, कारणे गृह्यन्ते निष्कारणेनेति। निकारिणिए तुवदे-सिए य आपुच्छिऊण वचंते। अणुसासंति उ ताहे, वसहा उ तहिं इमेहिं तु // 265 / / निष्कारणिकः अनौपदेशिकश्च यद्याचार्यमापृच्छ्य व्रजति तदा तत्र व्रजते एभिर्वक्ष्यमाणैर्वचनैर्वृषभा अनुशासति। कैर्वचनैरित्याहएसेव चेइयाणं, भत्तिगतो जो तवम्मि उज्जमती। इइ अणुसढे चिट्ठइ, असंभोगायारभंडं तु // 266|| एष एव चैत्यानां भक्तिगतो भक्तिमुपनतो यस्तपसि द्वादशप्रकारो यथाशक्ति उद्यच्छति, एवमनुशिष्यमाणे यदि तिष्ठति ततः सुन्दरम्, अथ नतिष्ठति यत्तस्य साम्भोगिकमुपकरणं तन्निवर्त्यते इतरदसाम्भोगिकमाचारभाण्डं समर्प्यते। अथ कथमसाम्भोगिकमाचारभाण्डमुपजातमत आहखग्गूढेणोवहयं, अमणुन्ने सागयस्स वा जं तु / असंभोगियउवगरणं, इहरा गच्छे तगं नत्थि / / 267 / / यत उपकरणं खगूढेनोपहतं, यदि वायत अमनोज्ञेभ्योऽसाम्भोगिकेभ्य आगतस्योपसंपन्नस्य संबन्धितत आसाम्भोगिकमुपकरणमाचारभाण्डमितरथा प्रकारद्वयव्यतिरिक्तेनान्येन प्रकारेण तकत् असाम्भोगिकमुपकरणं गच्छे नास्ति न सम्भवति। तिहाणे संवेगो, सावेक्खो नियत्तते दिवससुद्धो। मा सो रुट्ठ विवेचण, तं चेवऽणुसट्ठिमादीणि // 26 // तस्य गच्छान्निर्गतस्य कदाचित् त्रिभिः स्थानःसंवेगःस्यात् गाथायां सप्तमी प्राकृतत्वात्, एकवचनं समाहारत्वात्। तद्यथा ज्ञानेन, दर्शनेन, चारित्रेण च / ततः संवेगसमापन्नः सापेक्षः प्रतिनिवर्तते, स च यदि तस्मिन्नेव दिवसे गच्छं प्रत्यागत स्तर्हि रुषितस्तदा तदेव तदुपकरणस्य विवेचनं प्रायश्चित्तदानमुन शिष्ट्यादीनि च क्रियन्ते, आदिशब्दादुपहणाऽऽदिपरिग्रहः। संप्रति स्थानत्रयेण संवेगभावनामाहअजेव पाडिपुच्छं, को दाहिइ संकियस्स मे उभए। दसणकं उववूहे, कं थिर करे कस्स वच्छल्लं // 266 / / सारेहिति सीयंतं, चरणे सोहिं च काहिती का मे। एव नियत्तणुलोम,णाउं उवहिं च तं दें ति // 270 / / अद्यैव उभयस्मिन सूत्रे अर्थे च शङ्कितस्य कः प्रतिपृच्छां दास्यति, एषा ज्ञाने चिन्ता। दर्शकमहमिदानीमुपबंहिस्यामि, कं वा स्थिरं करिष्यामि, कस्य वा वात्सल्यमधुना करिष्यामि, चारित्रे चिन्ता, सा चरणे सीदन्तमिदानी कः सारयिष्यति, को वा मे प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्य शोधिं करिष्यति / एवं चिन्तयन्संवेगमापन्नः सम्प्रति निवर्तते, तस्य प्रतिनिवृत्तस्य गच्छं प्रत्यागतस्यानुलोमता कर्तव्या धन्योऽसि त्वं येनाऽऽत्मा प्रत्यभिज्ञातः, एवमनुलोमतां कृत्वा तस्य तमेवोपधिं प्रयच्छन्ति। संप्रत्यविधाविनमधिकृत्य प्रतिपिपादयिषुराहदुविहा इहावि वसभा, सारेंति भयाणि वा सि साहेति। अट्ठारस ठाणाई, हयरस्सिगयंकुसनिभाई।।२७१।। द्विविधमप्यवधाविनमाचार्यमापृच्छ्य व्रजन्तं वृषभाः सारयन्ति, शिक्षयन्ति, भयानि वा (से) तस्य साधयन्ति कथयन्ति, रतिवाक्यचूलिकाभिहितानि अष्टादशस्थानरूपाणि हयरस्मिगजाङ्कुशनिभानि। एतया अनुशिष्ट्या अनुशासितो यदि तिष्ठति ततः सुन्दरम्, अथन तिष्ठति तहि यत् खगूढेनोपहतमाचारभाण्डं, यद्वा असाम्भोगिकेभ्यः समागतस्योपसंपन्नस्य संबन्धि तस्य दीयते, अग्रेतनं तु साम्भोगिकमुपकरण निवर्त्यते। संविग्गमसविग्गे, सारूवियसिद्धपुत्तमणुसटे। आगमणं आणयणं, तं वा घेत्तुं न इच्छंति // 272 / / संविनाः साम्भोगिका असाम्भोगिका वा, उद्यतविहारिणः असंविनाः पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाच्छन्दाः, सारूपिकसिद्धपुत्रो नाममुण्डितशिररको रजोहरणरहितोऽलावुपात्रेण भिक्षामटन सभार्योऽभायो वा एतैरनुशिष्टस्य यदि आगमनं तत उपहतोपकरणस्य अनुपहतोपकरणस्य वा प्रायश्चित्तदानम्। ते वा संविग्नाऽऽदयो गृहीत्वा तस्याऽऽनयनं कुर्वन्ति, अथ स आनयन नेच्छति तदा वक्ष्यमाणो विधिः / एष गाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव व्याचिख्यासुराहसंविग्गाण सगासे वुत्थो तेहिं अणुसासियनियत्तो। लहुओ न चेव हम्मति, इयरे लहुगा उवहतो य / / 273 / / यदि संविनानां समीपे उषितः तैश्चानुशिष्टः प्रतिनिवृत्तो वसति समागतः तदा तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः। न च तस्योपधिरुपहन्यते, यं चान्तरा लभते, गृह्णाति चोपधिं सोऽपि नोपहन्यते, संविग्नानां समीप उषितः संविग्नैः सहागमनाच, इतरे नाम असंविग्नाः पार्श्वस्थाऽऽदयः सारूपिकसिद्धपुत्राश्च, तेषां समीपे यद्युषितास्तैश्चानुशिष्टः प्रतिनिवृ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 417- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त तस्तस्याऽऽगतस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघवः। उपकरणं च तस्योपहन्यते यदा छन्दस्य सकाशे उषितस्य चतुर्गुरुकम्। साम्प्रतमागमनद्वारमाहसंविग्गाऽऽदणुसिट्ठो, तदिवस नियत्तो जइ विन मिलेज्जा। न य सज्जइ वइयादिसु, चिरेण वि हु तो न उवहम्मे / / 274 / / संविग्नैः, आदिशब्दादसंविग्नैश्वानुशिष्टो यदि तत्र नोषितः, किं तु तस्मिन्नेव दिने न मिलति, न च जिकाऽऽदिषु सजति, ततश्चिरेणाप्यागच्छतो (हु) निश्चितंतस्योपकरणं नोपहन्यते, आनीयमानस्य तूपहन्यते। एतदेवाऽऽहएगागियस्स सुविणे, मासो उवहम्मते य से उवही। तेण परं चउलहुगो, आवज्जइ जं च तं सव्वं / / 275 / / बलादानीयमान एकाकी समागच्छन् यदि रात्रौ स्वपिति, तदा तस्यैकाकिनः स्वप्ने प्रायश्चित्तं लघुको मासः, उपधिश्च तस्यो पहन्यते। अथ तस्मादिवसात्परमपि लगति, तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / अथ जिकाऽऽदिष्वपान्तराले सजति, यच तत्र प्राप्नोति, तन्निष्पन्नं सर्व तस्य प्रायश्त्तिमापघते। सम्प्रति "ते वा घेत्तु नेच्छंतीति" द्वारव्याख्यानार्थमाहसंविग्गेरणुसिहो, भणेज जइ अहं इहेव अत्थामि / भण्णति ते आपुच्छसु, अणिच्छ तेसिं निवेयंति / / 276|| सो पुण पडिच्छतो वा, सीसे वा तस्स निग्गतो हुजा। सीसं समणुन्नायं, गेहतियरम्मि भयणा उ॥२७७।। संविग्नैरनुशिष्टो यदि बूते-अहमिहैव युष्माकं समीपे तिष्ठामि, तदा स प्रष्टव्यो, येषां समीपात्त्वमागतस्तस्यशिष्यो वा त्वं भवसि, प्रातीच्छिको वा? तत्र यदि शिष्यस्तर्हि भण्यतेतान् आत्मीयान् आचार्यानापृच्छस्व, मुत्कलापय। अथ स आपृच्छनं नेच्छति, तर्हि तेषां निवेदयन्ति / यथायौष्माकीणस्याऽस्माकं पायें समागतो वर्तते, सबहुधाऽनुशिष्टः परं प्रतिनिवर्तितुं नेच्छति, किं तु ब्रूते-अहं युष्माकं पार्श्वे स्थास्यामि, एवं निवेदने कृते यदि ते समनुजानन्ति ततः प्रतीच्छन्ति, अथ नानुजानन्ति ततो न प्रतीच्छन्ति / इतरो नाम-प्रतीच्छिकस्तस्मिन् भजना। तामेव प्रतिपादयतिउद्विट्ठमणुद्दिढे, उद्दिट्ट समाणियम्मि पेसंति। वायंति समणुनायं, कड़े पडिच्छंति उ पडिच्छं // 278|| तस्य प्रातीच्छकस्य प्रथमतः प्रश्रेन परिभाव्यते-किमेतस्य श्रुतस्कन्याऽऽदिकमुद्दिष्टमस्ति, किं वा नेति। तत्र यधुद्दिष्ट तदपि वा परिसमापित तदान प्रतीच्छन्ति, किंतु तेषामेव समीपे प्रेषयन्ति, तत्र यदि समनुजानन्ति यूयमेवैनं वाचयत तदा तैः समनु-ज्ञातं वाचयन्ति, अन्यथा न प्रतीच्छन्ति / अथोद्दिष्ट श्रुतस्कन्धाऽऽदि परं कृतं समाप्तिं नीतं तदा कृते श्रुतस्कन्धाऽऽदौ त प्रतीच्छकं प्रतीच्छन्ति / अथ न किमप्युद्दिष्टमस्ति तदाऽऽपि तमागतं प्रतीच्छन्ति / एष विहारेणावधावी भणितः। संप्रति लिङ्गावधाविनमाह एवं ताव विहारे, लिंगोहावी वि होइ एमेव / सो किमु संकमसंकी, संकि विहारे य एगगमो // 276 / / एवमुक्तेन प्रकारेण विहारे विहारावधावी उक्तो, लिङ्गावधाची अन्योऽप्येवमेव भवति, स पुनर्लिङ्गावधावी द्विधा-शङ्कीअशङ्की च। शङ्की नामयस्यैव संकल्पः यदि मम स्वजना जीविष्यन्ति, यदि वा तत्साधारण धनमविनष्ट स्यात्, यदि च मां ते वदिष्यन्ति, उनिष्क्रामेति तदा उन्निष्क्रमामि। यदि पुनस्ते स्वजना मृता भवेयुस्तद्वा साधारणं विनष्ट, न वा कश्चिन्मा वदेत उन्निष्क्रामेति, तदा पार्श्वस्थाऽऽदिविहारमभ्युत्थास्यामि, एवं सङ्कल्प कुर्वन् शङ्की। एवं रूपसङ्कल्पविकलोऽशङ्की। तत्र शङ्किनि लिङ्गावधाविनि विहारे च विहारावधाविनि एक एव गमः। किमुक्तं भवति? यत् विहारावधाविन्युक्तं तत् लिङ्गावधाविन्यपि शङ्किनि वक्तव्यमिति। संविग्गमसंविग्गे, संकमसंकीऍ परिणइ विवेगो। पडिलेहण निक्खिवणं, अप्पणों अट्ठाऐं अन्नेसिं // 280 / / सशङ्की अशङ्की वा पथि अनुशिष्यमाणो यदि संविग्ने असंविग्ने वा परिणतो भवति, वसतिवा, तदा तस्योपकरणमुपहतमिति तस्य विवेकः कर्तव्यः / अथ स गतश्चिन्तयति-एतदुपकरणं तेषामेव दास्यते, मम वा भविष्यति, तदा निष्क्रामतो वा उभयकालं प्रतिलेखयतो यतनया विनिक्षिपस्तदुपकरणं नोपहन्यते, प्रत्यागच्छन्पुनर्यदि व्रजिकाऽऽदिषु सजति तत उपहन्यते, अथ न सजति नोपहन्यते। इतिगाथासंक्षेपार्थः / __ संप्रत्यस्या एव विवरणमाहघेत्तूणऽगारलिंग, वती व अवती व जो उ ओहावी। तस्स कडिपट्टदाणं, वत्थु वाऽऽसज्ज जं जोग्गं / / 281 / / यो लिङ्गे नावधावी स द्विधा अगारलिङ्ग वा गृहीत्वा व्रजति, स्वलिङ्गसहितो वा अत्र योऽगारलिङ्गं गृहीत्वा अवधावति तस्यैव विधिः। पथि व्रजन केनाप्यनुशिष्टो यदि निवर्तते, उपतिष्ठते च, मां प्रव्राजयेति तदा तस्य मूलं दीयते, स पुनरगारलिङ्गं गृहीत्वा संप्रस्थितो व्रती वा स्यादव्रती वा। अणुव्रतानि वा गृहीत्वा व्रजति, अव्रती वा सन इत्यर्थः / तस्योभयस्यापि कटीपट्टको दातव्यो वस्तुवाऽऽसाद्य यद्योग्यं तद्दातव्यम्। किमुक्त भवति ? मा प्रद्वेषं यायात् दारुणस्वभावो वा, तत उपरि प्रावरणमपि दीयते / अथवा राजाऽऽदिः प्रव्रजितस्तस्य सुन्दरे द्वे वस्त्रे दातव्ये / तदेवमगारलिङ्गावधावी भणितः। - सम्प्रति स्वलिङ्गावधाविनमधिकृत्याऽऽहजइ जीविहिंति जइ वा, वितं धणं धरति जइव वोच्छति। लिंग मोच्छिति संका, पविट्ठ वुच्छे व उवहम्मे // 282 / / स्वलिङ्गेन योऽवधावति स द्विधा-शङ्की, अशङ्की च / तत्र शङ्की एवं सङ्कल्पयतियदि मम ते स्वजना जीविष्यन्ति, यदि वापि तत्साधारण धनं धरते, विद्यते वा, मां वक्ष्यन्ति लिङ्गं मुश्चेति, उन्निष्क्रामेति, तदा उन्निष्क्रमिष्यामि इत्येव शङ्कावान् पथि केनाप्यनुशिष्टः सन् संविनानामसंविनानां वा उपाश्रये प्रविशति तदा तस्योपकरणमुपहन्यते, तदेवं सशङ्कलिङ्गावधावी उक्तः। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 418 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त - सम्प्रति निःशङ्कलिङ्गावधावी भण्यते। निशङ्को नाम य एवं सङ्कल्पयति- क्षाऽऽदिकमित्येथंशीलमुपजीवी, सारूपिकत्वेन, सिद्धपुत्रत्वेन वा स्थित अवश्यतया उन्निष्क्रमितव्यमिति / तस्य विधिमाह इत्यर्थः / सारूपिको शिरोमुण्डो रजोहरणरहितोऽलावुपात्रेण भिक्षासमुदाणचारिगाण व, भीतो गिहिपंततक्कराणं वा। मटति, सभार्योऽभार्यो वा सिद्धपुत्रो नाम सकेशो भिक्षामटतिवा, नवा, नेउवधिं सो तेणो, पविट्ठ वुच्छे वि न विहम्मे / 283 / वराटकैर्विटलकं करोति, यष्टिं धारयति तस्य प्रत्युत्थितस्य यः समुदानं भैक्षं, तस्य भयेन / किमुक्त भवति?-यद्यहमिदानी लिङ्गं पूर्वउपधिर्यच्च सारूपिकत्वेन सिद्धपुत्रत्वेन वा तिष्ठता यदुत्पादितं, मोक्ष्यामि ततो न कोऽपि मह्य भिक्षां दास्यति.किं तु मामुपद्रजितु दृष्ट्वा तदुपहन्यते, न वा ? तत आह कश्चिद्भणति, सारूपिकसिद्धपुत्रलिङ्गिमध्येऽतिलीना भविष्यन्ति, ततः समुदानभयेन, चारिकास्तेषां वा भयेन नामुपकरणमुपहन्यते, तत्र भवति। कुत इत्याह-चरणाभावादुपहननमअन्तरा गृहस्थप्रान्ताः संयतभद्रकाः, स्तेनास्तेषां वा भयेन, उपधिं नीत्वा नुपहननं वा चरणवतामुपधिर्न च सारूपिकसिद्धपुत्रलिङ्गिनश्चरणवतः। तेनोपधिना युक्तः स संविग्नानामसविग्नानामुपाश्रये उपविष्ट उषितो सो पुण पच्चुट्ठितो जइ, तस्स उवहयं तु उवगरणं / वा, तथाऽपि प्रत्यागच्छतोऽस्योपधिोपहन्यते तेनाप्युपधिना समन्वितः असती य वती अन्नं, उग्गार्वे तेति गीयत्थो / / 288|| स भावतो गृहस्थ इति कृत्वा। स पुनः प्रत्युत्थितो यदि तस्योपकरणमुपहतम्। अथवा-नास्ति तर्हि नीसको वऽणुसिट्ठो, नेहुवहिमहं अहं खु ओहामि। गीतार्थोऽन्यमुपधिमुद्गमयन् एति आगच्छति। संविग्गाण य गहण, इयरेहिं विजाणगा गेण्हे // 24 // कुत्र कुत्र स्थाने उत्पादयन् आगच्छतीत्याहवाशब्दो विकल्पान्तरे, निःशङ्को व्रजन् संविग्नैरसंविग्नैर्वा अनुशिष्टो, संजयभावियखेत्ते, तस्स असतीए उचक्खुवेतिहयं / यथा-यदि त्वमु निष्क्रमिष्यसि, किमुपधिं नयसि ? ततः स ब्रूतेअमु तस्सऽसति वेंटलहए, उप्पाएंतो तु सो एइ॥२६॥ संयमभावित क्षेत्र नाम-यत्र क्षेत्रे संयतत्वेन स्थितस्तस्मिन्संयतमुपधिं तेषां समीपं नयत, अहं (खु) निश्चितमवधा-विष्यामि तत्र यदि संविग्नानां हस्ते प्रेषयति तदा तैरानीतस्य ग्रहणम् / अथागीर्ताथानां भावितक्षेत्रे उत्पादयन् तरयासत्यभावे चक्षुर्व्यतिहते दृष्ट्या परिचिते, तस्याप्यभावे विण्टलहते। विण्टलहतं नाम-यत्र पूर्व विण्टलैराहारोपधिहस्ते प्रेषयति तदा तैरितरैरानीतं, यदि सर्वे गीतार्थास्ततो गृह्णन्ति, शय्या उत्पादितास्तस्मिन् उत्पादयन् गच्छति। परिभुञ्जते च / अथागीतार्थमिश्रास्तदा कारणिकानामेकाकिनां व्रजता जाणंति एसणं वा, सावग दिट्ठीउ पुव्वझुसिया वा। ददति परिष्ठापयन्ति वा। विंटलभाविय तेहि, किं धम्मो न होइ गेण्हेज्जा / / 260|| नीसंकितो वि गंतू-ण दोहि वग्गेहिँ चोदितो एति। स च उत्पादयति उत्पादनेषणादोषैर्विशुद्ध, तांश्च दोषान् तेभ्यः तक्खण निंत न हम्मे, तहि परिणय वत्थु उवहम्मे / 285 / कथयति / यदि वा-यत्र संयतत्वेन विहृतो, दृष्ट्या वा पूर्व झुषिताः निः शङ्गितोऽपिगत्वा यदि द्वाभ्यां वर्गाभ्यां, संविग्नैरसंविग्नैर्वा इत्यर्थः / परिचितास्ते श्रावकाः, तेच स्वत एव दोषान् जानन्ति, ततो दोषविशुद्ध चोदितोऽनुशिष्टः सन् तेषामुपाश्रयात् यदि तत्क्षणमेव निर्गच्छति, तदा प्रयच्छन्ति। यच्च विण्टलक्षेत्रं तत्र गीतार्थो यदि उत्पादयति तदाऽऽदितः तस्योपधिनों पहन्यते / अथ तत्क्षणं न निर्गच्छति, वसति वा तदा प्रतिबूतेनाहमिदानी वेण्टलं करिष्यामि, यद्येवमेव ददध्वे ततः उपहन्यते। अथवा-यदि तस्यैवं परिणामो जायते-अत्रैव तिष्ठामि तदापि प्रतिगृह्णामि, एवमुक्ते यदि ते बुवते-किं युष्माकं मुधा दत्ते न भवति, तस्योपधेर्घातः, ततस्तस्योपधिः कथमप्यागत इति कृत्वापरिष्ठाप्यते। तस्माद्धर्भ इति दद्मस्ततो गृह्णाति। सम्प्रति "पडिलेहणनिक्खवणमप्पणोऽट्टाए अन्नेसि'' इत्यस्य एवं उप्पाएउं, इयरं च विगिंचिऊण तो एति। व्याख्यानमाह असतीऍ जहालाभं, विगिंचमाणे इमा जयणा / / 26 / / अत्तट्ठ परट्ठा वा, पडिलेहिय रक्खितो वि उन हम्मे। वक्ष्यमाणा यतना कर्तव्या / किमुक्तं भवति?-यत् यत् सांभोगिकं पावेंतस्स उनवरिं, पवेस वइयासु वा भयणा / / 286 // लभ्यते तस्य यत्सदृशमसांभोगिकं तत्परिष्ठाप्यते। स गतः सन् यदि चिन्तयति तेषामेवमुपकरणं दास्यते। अथवा-मम एतदेवाऽऽहभविष्यति, एवमात्मार्थ वा उभयकालं प्रत्युपेक्षितो निरुपद्रवस्थान- उवहयउग्गहलंभे, उग्गहण विविंच मत्तए भत्तं / निक्षेपेण च रक्षितोऽपिशब्दः प्रयुक्तापेक्षया समुचये तुरवधारणे, अपजत्ते तत्थ दवं, उग्गहभत्तं गिहिदवेणं / / 262 / / मिनक्रमश्च / नैव हन्यते, नवरं केवल प्रत्यागच्छतो प्रजिकाऽऽदिषु अपहुचते काले, दुल्लभदवभाविते व खेत्तम्मि / प्रवेशतजनाः किमुक्त भवति ? स प्रत्यागच्छत् यदि वजिकाऽऽदिषु मत्तगदवेण धोवइ, मत्तगलंभे वि एमेव / / 263 / / सजति तदोपहन्यते। अथन सजति नोपहन्यते। उपहतस्य असांभोगिकस्यावग्रहणस्य अवग्रहलाभे विवेचनं परिष्ठापन अह पुण तेणुवजीवी, तो सारूवियसिद्धपुत्तलिंगीणं / कर्तव्यम् / एवं च तस्य पतद्ग्रहः सांभोगिका, मात्रकमसांभोगिक, तत्र केइभ गंतुवहम्मति, चरणामावे तु तत्थ भवे // 287 / / यदसांभोगिकंतस्मिन भक्तंग्राह्य यच्च सांभोगिकं तत्र पानीयं, ततो मात्रके अथ सो डनुशिष्टोऽपि न प्रतिनिवृत्तः किन्तु तेन लिङ्गेनोपजीवति। भि | तेन भक्तंग्राह्य पतद्ग्रहपानीयेन तस्य कल्पोदातव्यः, यदिमात्रकेगृहीतेन Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त भक्तेन संरतरण तत्र मात्रके द्रवं गृह्णाति, अवग्रहे पतद्ग्रहे भक्त, तत्र भुक्त्वा गृहस्थभाजनेन पानीयमानीय पतद्ग्रहस्य कल्पो देयः। अथ यावता कालेन गृहस्थात्यानीयमानीयते तावान् कालो न प्राप्यते दुर्लभ तत्र द्रव, न तेनेयतस्ततो गृहस्थेभ्यो द्रवं लभ्यते। यदि वा-तत् क्षेत्रमभाषितं संयतैरतो गृहस्था न ददति भाजनं, यत्र पानीयं गृह्यते तदा मात्रकगृहीतेनैव पानीयेन पतद्ग्रहो धाव्यते प्रक्षाल्यते, तथाऽपि स नोपहन्यते एवमेव अनेनैव प्रकारेण मात्र-कस्यापि सांभोगिकस्य लाभे असांभोगिकस्य परिष्ठाप्यते, पतद्ग्रहे वा सांभोगिके विभाषा कर्तव्या। तद्यथा-पतद्ग्रहे भक्तं ग्राां, मात्रके पानीयम् अथ मात्रके संसक्तं भक्त पानं वा गृहीतमाचार्याऽऽदिप्रायोग्यं वा पतद्ग्रहे च पानीयं तदा गृहस्थभाजनेन पानीयमात्रकस्य प्रक्षालनं कर्तव्यम् / अथ कालो न प्राप्यते दुर्लभं वा द्रवमभावितं वा तत् क्षेत्र, तदा पतद्ग्रहपानीये नैव मात्रक प्रक्षाल्यते नोपहन्यते, इति। अत्र परः प्रश्नमाहचोएइ सुद्धऽसुद्धे, संफासेणं तु तं तु उवहम्मे / भन्नइ संफासेणं, जेसुवहम्मे न सिं सोही / / 264|| परश्चोदयति-तत शुद्ध भक्तं पानीयं वा अशुद्धे मात्रके, पतद्ग्रहे वा प्रक्षिप्त संस्पर्शनोपहन्यते. ततः कथं शुद्धिरिति? आचार्य आह-भण्यते उत्तरं दीयते / येषां संस्पर्शनोपहन्यते तेषां न कदाचनापि शोधिः। एतदेव भावयतिलेवाडहत्थछिक्के, सहस अणाभोगतो व पक्खित्ते / अविसुद्धग्गहणम्मि वि, असुद्ध सुद्धेज इयरं वा / / 265 / / यदि तव मतेनैवमुपघातस्तर्हि असांभोगिके भाजने यद् गृहीतं भक्तं / पान वा तेन लिप्ताभ्यां यत्सांभोगिक भाजनं स्पृश्यते, तदप्यसांभागिक जातं, तत्संस्पर्शतोऽन्यान्यपि, न च तत्कालं सर्वाण्यपि परिष्ठापयितुं शक्यन्ते / न चान्यानि तावन्ति लभ्यन्ते, ततो न कदाचनाविशुद्धिः, तथा सहसा नामयत्त्वरमाणोऽसांभोगि-कात् सांभोगिकः प्रक्षिपति तदप्यसाभोगिकभुपजायते। अनाभोगो नामएकान्तविस्मरणं, तेनाप्यसाभोगिक जायत। (अविसुद्धं ति) कथञ्चिदनाभोगतोऽविशुद्धस्योद्गमाऽऽद्यतमदोषदुष्टस्य ग्रहणे तद् भाजनमशुद्ध स्यात् न च तदिष्यते, तस्मान्न संस्पर्श-मात्रेणोपहननम्। अन्यच यथाऽशुद्धेन संस्पर्शतोऽशुद्धं भवति, तथा इतरदशुद्धं शुद्धेन संस्पर्शतः शुद्ध्येत शुद्धीभूयात् न्यायस्योभयत्रापि समानत्वात् / न चैतदस्ति, तस्मात् यत्किञ्चिदेतत्। व्य० 8 उ०। (27) प्रतिग्रहमनलमस्थिरं धारयतेजे मिक्खू पडिग्गहगं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं धरेइ, धरंतं वा साइज्जइ॥८॥ जे मिक्खू पडिग्गह अलं थिरं धुवं धारणिज्जंण धरेइ, ण धरंतं वा साइज्जइ || इमो सुत्तत्थो . अणलमपज्जत्तं खलु, अथिरमदझं तु होति णायव्यं / अधुवं च पाडिहारिय, अलक्खणमहारणिज तु / 152 / कंठा। अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जएतेसिं तु पदाणं, भयणा पण्णरसिया तु कायव्वा / एत्तो एगतरेणं, गेण्हताऽऽणादिया दोसा।।१५३।। एतेसिं चउण्णं पदाणं भंगा सोलस कायव्वा / अंतिमो सुद्धो, सेसा पण्णरस, तेसिं पण्णरसण्हं अण्णतरेण वि गेहंतस्स आणादिया दोसा। तेसुपण्णरससु असुद्धेसु इमं पच्छित्तंपढमे भंगे चउरो, लहुगा सेसेसु होति भयणा तु / जो पण्णरसो भंगो, एतेसुत्तंतिमो सुद्धो।।१५४|| पढ़मभंगे चत्तारि विपदा असुद्धा सेसपदेसु भयण त्ति / जत्थ भंगपदे जति पदा असुद्धा तत्थ तत्तिया चउलहुदायव्वा / पढम-भंगातो आरब्भ जाव पण्णरसमो भंगो, एतेसु सुत्तणिवातो अंतिमो पुण सुद्धत्तणतो अपच्छित्ती। अणलादियाणं इमे दोसाअद्धाणादी अनले, अदेंत देंतस्स उभयओ हाणी। अथिरते भग्गंते सुत्तत्थे बंधणे चरणं / / 155|| अद्धाणपडिवण्णाऽऽदियाण अणलपादं अप्पज्जियं भत्तमिति काउंण देज्ज अह देति तो अप्पणो हाणी, एवं अणले उभयहा वि दोसा। अथिर अदद तम्मि भग्गे अण्ण मर्गतस्स सुत्तत्थाणं हाणी। अलभंतेवा एसणाघातं करेज्ज अधुवं पाडिहारिय तम्मि गहिते अण्ण मग्गंतस्स सुत्तत्थहाणी, अलभतो वा एसणाघातं करेज्ज, अह भग्ग बंधति, एगदुगतिगबंधणे चेरणभेदो भवति। पुणरवि अधुवे दोसो भण्णतिअधुवम्मि भिक्खकाले, गहियागहितम्मि मग्गणे जंतु। दुविहा विराहणा पुण, अधारणिजम्मि पुव्वुत्ता॥१५६|| अधुवं पाडिहारिय, ते घेत्तुं भिक्खाकाले भिक्खते तत्थ भिक्खाए गहियाए अगहिताए वा पुव्वसामिणा मग्गितं तस्स तं देति, तो अप्पणो परिहाणी. अहण देति, तो पुव्व सामी रूसति, रुट्ठो य जंतु काहिति, वसहीतो दिवा रातो वा आसियावेज्जा, तस्स वा दव्वस्स अण्णस्स वा वोच्छेदं करेज, असभवयणे हिं वा आओ-सेज, अधारणिज्ज अलक्खणजुत्तं तम्मि धरिजते दुविधा विराहणा भवति आयसंजमेसु / सा य पुवुत्ता ओहणिज्जुत्तीए - ''हुंडे चरित्तभेदो सवलम्मि य चित्तबिभमं / दुप्पत्ते खीलसंडणे, णत्थिट्ठाणं तु णिदिसे।।१।।" (बृ०३ उ० 338 गाथा) जम्हा एवमादी दोसा तहा अलं थिरं धुवं धारणिज धारेयव्व। अववादतो अणलादिया विधरेयव्वाअसिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलण्णे। सेहे चरित्त सावय-भए य जयणाएँ गेण्हेजा / / 157 / / एते असिवाऽऽदिया भायणभूमीए होज, अंतरावा, जयणाए गेण्हिजंति / का जयणा ? इमा-चत्तारि मासे अहाकड गवेसेज्जा, दोमासे अप्पपरिकम्म, बहुपरिकम्मं दिवट्ठति। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 420 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त वर्णमत्पात्रमवर्ण करोतिजे भिक्खू वण्णमंतं पडिग्गहं विवण्णं करेइ, करतं वा साइजइ ||10|| जे भिक्खू विवण्णं पडिग्गहं वण्णमंतं करेइ, करतं वा साइजइ / / 11 / / जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लम्भे ति कटु तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाएज्ज वा, मंखेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा, मंखंतं वा भिलिंगतं वा साइज्जइ // 12 // जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहं लब्भे त्ति कट्ठ लोद्धेण वा कक्केण वा ण्हाणेण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उच्छोलेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उच्छोलंतं वा साइज्जइ।।१३।। इमो सुत्तत्थोपंचण्हं वण्णाणं, अन्नयरं जं तु पात दुव्वण्णं / दुव्वण्णं च सुवण्णं, जो कुज्जा आणमादीणि ||158 / / सुभवण्णं दुव्वणं करेति, दुव्वण्णं पातं सुवण्णं करेति, जो एवं करेति तस्स आणादिया दोसा भवंति। गाहावण्णविवचासं पुण, आलेवे पायधोणाऽऽदीणि। दुग्गंधं च सुगंधं, जो कुज्जा आणमादीणि / / 156 / / पढमपादेण वण्णविवच्चाससुत्तं गहियं, वितियपादेण णो णवं पाद लद्धमिति धोवणादी करेज, एयं सुत्तं गहियं, ततियपाएण णो सुबिभगंध पादं लद्धमिति सीतोदगादीहिं धोवइ, एयं सुत्तगहियं / एसा भद्रबाहुसामिकाया गाहा / एतीए तण्णि वि सुत्ता फासियव्वा। कहं पुण वण्णविवचासो ? भण्णति-उण्हो तु उण्णोदगेण पुणो पुणो धोव्वमाणं छगणादीहि य आलिप्पमाणं विवण्णं भवति, तेल्लादिणा मंखिजंत खदिरबीयककक्कादीहि य पुणो पुणो धोव्वमाणं मंखेऊण धूमट्ठाणे कज्जति / एवमादिरहिं विवण्णस्सवण्णो भवति। कीस पुण वण्णड्ड विवण्णं करेति? भण्णइमा णं परो हरिस्सति, तेनाहडगं च सामि मा जाणे। वण्णं कुणति विवण्णं, हरणे नवरि संभवो णत्थि / / 16 / / वण्णुज्जलं मा मे परो हरीहि ति तेण विवण्णं करेति / अहवा तं पातं तेणाहडं, मा मे एवं पुव्यसामी जाणिस्सति, तेण वा विवण्णं करेति। विवण्णं पितेणाहडं ति काउंसो पुव्वसामी जाणिस्सइ, तेण वन्नर्ल्ड करेति। अहवा-वण्णड्ढेकरेति रागेण चउगुरुं, विवण्णकरणे हरणसंभवो णत्थि! णिरत्थे परिकम्मणे इमे दोसाघंसणे आतुवघातो, तदुब्भवाऽऽगंतु संजमे पाणा। धुवणे संपातिमवहो, उप्पीलग चेव भूमिगते / / 161 / / धोवणे कलादिणा य आघसणे आतोवघातो हत्थकंडगं भवति, परिस्समो वा / किं च-तदुभवा वा पाणा, आगंतुगा वा पाणा विराहिज्जति, एस संजमविराहणा। सपातिमा य विवज्जति, अतिउच्छोल- 1 णधोवणेण जे भूमिगता पाणा तेइ उप्पीलाविज्जति। जम्हा एवमादिया दोसातम्हा तु अपरिकम्म, पातमहालद्ध परिहरे भिक्खू। परिभोगमपाओग्गं, सप्परिकम्मे य वितियपदं / / 162 / / उस्सग्गेण अपरिकम्मंपायंघेत्तव्वं, जहालद्धस्सयपादस्स परिहारोऽतिपरिभोगो भिक्खुणा कायव्वा, इमं वितियपद-(परीभोगमपाओग्गं ति) विसेण वा गरेण वा मज्जेण भावियतस्स धोवणादी करेज्ज, छगणमट्टियादीहिं वा णिरवारेज / अहवा-अप्पबहुपरिकम्मं लद्धं, तस्स णियमा धोवणएघंसणादि कायव्वा गाहावण्णवमवि य पायं, मा हरिही तस्सऽवण्णकरणे य। जे तुस्सग्गे दोसा, कारणे ते चेव जयणाए।।१६३।। वण्णविवचासकरणे जे उस्सग्गे दोसा भणिता, कारणगहियं वण्णड्डमा हारिह त्ति विवण्णं करें तो जयणाए सुद्धो। अथवाकारिणें हंसित मा सिंगणा तु मुच्छा च उज्जते जत्थ। तत्थ विवण्णयकरणं, अज्झोवाए य बालस्स!॥१६४|| तंवण्णड्डपायं सलक्खणंणाणगच्छवुड्डिणिमित्तं हंसितं तिहडमित्यर्थः / मा तस्स पुव्वसामी सिंगणं करिस्सति त्ति, अतो तस्स वण्णविवज्जयं करोति / अहवा-तं वण्णड दट्ठ पुणो पुणो मुच्छा उप्पज्जति,तत्थ वा विवण्णं कज्जति, अणप्पज्झो सीहो वा अजाणतो करेज्जा, बालस्स वा अधिकं अज्झोववातो, वण्णड्ड कीरति त्ति एवं कीरेज। नवप्रतिग्रहमुच्छोलयेत्जे भिक्खूणवए मे पडिग्गहे लद्धत्ति कटु सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोएज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ / / 14 / / जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्ध त्ति कटु बहुदिवसीएणं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मंखेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा, मखंतं वा भिलिंगंतं वा साइज्जइ ||15|| जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्धे त्ति कट्ट बहुदिवसिएण लोद्धेण वा कक्केण वा पहाणेण वा पोउमचुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उव्वदृज्ज वा, उल्लोलंतंवा उव्वट्टतं वा साइज्जइ ||16|| जे भिक्खू णवए मे पडिग्गहे लद्धे त्ति कटु बहुदिवसिएण सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज वा उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ॥१७॥ जे मिक्खू सुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे त्ति कटु दुखिभगवं करेइ करतं वा साइज्जइ // 18 // जे भिक्खू दुब्मिगंधे पडिग्गहे लद्धे त्ति कटु सुन्भिगंधे करेइ, करंतं वा साइज्जइ / / / जे भिक्खू सुभिगंध पडिम्गहे लद्धे त्ति कटु तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मंखेज्जवा, भिलिंगेज्जवा, मखतं वा भिलिंगंतवासाइज्जइ।।२०।। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त जे भिक्खू सुन्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कटु लोद्धेण वा कक्केण तेल्लमोइतो, चुण्णो पुण गंमुणिगाऽऽदिफला चुन्नीकता। एतेहिं एकसि वा बहाणेण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उव्वट्टेज्ज आघसण, पुणो पुणो पघंसण। चउत्थसुत्ते कक्कादिएहिं चेव बहुदेवसिएहि, वा, उल्लोलंतं वा उव्वस॒तं वा साइजइ॥२१।। जे भिक्खू सुब्भि- सेस त चेव, एयरस पुण अणवस्स पातस्म एते धोवणदिया पगारा करेति, गंधे पडिग्गहे लद्धे ति कटु सीओदगवियडेण वा उसिणोदग- वरं मे णवाकरं भविस्सति त्ति / जहा अणवपाते चउरो सुत्ता भणिता तहा वियडेण वा उच्छोल्लेज वा, पधोवेज वा, उच्छोलतं वा पधोवंतं दुग्गंधे वि चउरो सुत्ता भाणियव्वा, णवरं तत्थ दुग्गंधे मे पातं सुगंध वा साइजइ।।२२।। जे भिक्खू सुडिभगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कल भविस्सति त्ति धोवणादिपयारे करेति त्ति / बहुदिवसिएणं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा मंखेज्ज गाहावा, मिलिंगेज्ज वा, मंखंतं वा भिलिंगंतं वा साइजइ / / 23 / / जे उच्छोल दोसु आघं-दोस आणादि होंति दोसा तु। भिक्खू सुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कट्ट बहुदिवसिएणं लोद्धेण किं पुण बहुदेसीयं, भण्णति इणमो निसामेहि॥१६६|| वा कक्केण वा बहाणेण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज वा, अणवपाए जे चउरो सुत्ता, तेसु जे आदिला दो सुत्ता, एसु उव्वट्टेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उव्वस॒तं वा साइज्जइ॥२४॥ जे | उच्छोलणपधोवणा भण्णति। पच्छिमा पुण दो सुत्ता, तेसु आघसणपघंभिक्खू गंधे पडिग्गहे लद्धे ति कट्ट बहुदि वसिएण सीओद- सणाऽऽदि भण्णति / सेस कठं। गवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज्ज गाहावा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ / / 25 / / जे भिक्खू दगकक्कादीहि नवेहि, बहुदेवसितेहिं तु जे पातं / दुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कटु तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण एमेव य दुग्गंधं, धुवणुव्वट्टेत आणादी॥१६७|| वा वसाए वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मंखंतं वा भिलिंगतं वा दोसा नामं पसती, तिप्पमिति परेण वा वि बहुदोसा। साइज्जइ / / 26|| जे भिक्खू दुडिभगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कटु कक्कादि अणाहारे ण वा वि बहुदिवसवुत्थेणं / / 168|| लोद्धेण वा कक्केण वा बहाणेण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज सुत्ते पातो बहुदेवसितेण वा एक्को पसती, दो वा तिषिण वा पसती, तो वा, उव्वट्टेज वा, उल्लोलंतं उवळूतं सा साइज्जइ |27|| जे भिक्खू दोसा भण्णति, तेण्ह परेण बहुदोसा भण्णति, अणाहारादि कक्षेण वा दुडिभगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कटु सीओदगवियडे ण वा संवासितेण पत्थपगरादिसंवासित, तं पि बहुदेवासियं भण्णइ। अणाहाउसिणोदगवियडेण उच्छालेज वा, पधोवेज्ज वा, उच्छोलंतं रियगहणं अणाहारिमे चउलहुं, आहारिमे पुण चउगुरुं भवति। वा पधोवंतं वा साइज्जइ // 28 // जे भिक्खू दुडिभगंधे पडिग्गहे इमे दोसालद्धे ति कटु बहुदिवसिएणं तेल्लेण वा घएण वाणवणीएण वा घंसणे आतुवघातो, तदुब्भवाऽऽगंतु संजमे पाणे। वसाए वा मंखेज वा मिलिंगेज वा, मंखंतं वा भिलिंगतं वा धुवणे संपातिमवहो, उप्पीलणे चेव भूमिगते // 166 / / साइजइ // 23 // जे भिक्खू दुन्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कट्ट पूर्ववद्वक्तव्या। बहुदिवसि-एणं लोद्धेण वा कक्केण वा पहाणेण वा पउमचुण्णेण जम्हा एते दोसावा उल्लोलेज्ज वा, उव्वदृज्ज वा, उल्लोलंतं वा उव्वदृतं वा तम्हा उ अपरिकम्म, पादगहा लद्ध धारए भिक्खू / साइज्जइ॥३०॥ जे भिक्खू दुब्भिगंधे पडिग्गहे लद्धे ति कटु परिभोगमपरिभोगे, पाओग्गं जं सपरिकम्मं / / 170 / / बहुदिवसिएणं सीओ दगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा पूर्ववत् कण्ठा। उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज वा, उच्छोलतं वा पधोवंतं वा इमो बहुदेवसियस्स अववाते वितियपदंसाइज्जइ॥३१॥ अभिओगे विसकए वा, बहुरऍ मज्जादिदुन्भिगंधे वा। इमो सुतत्थो कक्कादीहि दवेण व, कुज्जा बहुदेसिएणं पि।।१७१।। एमेव य अणवे वी, वियडे बहुदेसि कक्क बहुदेसी। पातं वसीकरणजोगेण भावित, विसेण वा भावित बहुरएण वा घ8, सुत्ता चउरो एए, एमेव य चउरो दुगंधे / / 165 / / अच्चत्थं मलिनमित्यर्थः / मनजादि दुग्गंधदव्वेण वा भावितं, दुग्गंधं तं णो णवं अणवं जुण्णं, सीयदगं सीतोदगं अतो वि य वियड ति व्यपगत एवमादिएहि कारणेहिं बहुदेवसिएणं दवेण वा कक्केण वा धोवति वा, जीव उसिणे ति तावित, तं चेव ववगयजीवं, एकसिं धोवण पुणो पुणो आघंसिज्जति वा, मा मज्जाऽऽदिगंधेण उड्डाहो भविस्सतीत्यर्थः / पधोवणं / वितियसुत्ते एसेवत्थो, णवरं बहुदिवसेहिं सीओदओसिणोदएहिं (28) पृथिव्या प्रतिग्रहमातापयेत्वत्तव्यं / तलिय सुत्ते कक्को, सो दव्वं संजोगेण वा असंजोगेण वा भवति, जे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए पडिग्गहगं आयावेज्ज लोट्टो सक्खो, तरूणं छल्ली लोद भण्णति / वण्णो पुण हिंगुलगादी | वा, पयावेज्ज वा, आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 422 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त // 32 // जे मिक्खू सरक्खाए पुढवीए पडिग्गहगं आयावेज्ज वा, पयावेज्ज वा, आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ / / 33 / / जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए पडिग्गहगं आयावेज्ज वा, पयावेज्ज वा, आयावंतं वा पयावंतं वा साइजइ // 34 // जे भिक्खू चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुए कालोवासंति दारुए.जाव पइट्ठिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सउस्सेसउत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणए पडिग्गहगं आयावेज्ज वा, पयावेज्ज वा, आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ॥३५॥ जे भिक्खू थूणंसि वा गिहलेलुयंसिवा उसकालंसि वा कामजालंसिवा पडिग्गहगं आयावेज्जवा, पयावेज्ज वा, आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ // 36|| जे भिक्खू कुलियंसिवा मित्तिसि वा सेलसि वा लेलुसि वा अंतरिक्खलायंसि वा जं आयावेज्ज वा, पयावेज्ज वा, आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ // 37 // जे भिक्खू खलुसि वा थंभंसिवामंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अण्णयरंसि वा अंतरिक्खजायंसि वा दुवद्धे पनिक्खित्ते पडिग्गहगं आयावेज वा, पयावेज वा, आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ // 38|| जे भिक्खू खंधंसि वा थंभंसि वा मंचंसि वा मालसि वा पासायंसि वा हम्भियतलंसि वा अंतरिक्खजायंसि वा सपडिग्गहगं आयावेज वा, पयावेज वा, आयावंतं वा पयावंतं वा साइज्जइ।।३६।। जे एते सुत्तपदा जहा तेरसमे उद्देसगे तहा वक्खाणेयव्वा णवर तत्थ ठाणादी भणिया, इह पुण पातस्स आतावणाऽऽदी वत्तव्या। इमा सुत्तफासिता गाहापुढवीमादी थूणा-दी, सुक्कलियादिखंधमादीसु। जो पातं आतावे, सो पावति आणमादीणि।।१७२।। पुढवीमादीएसु, विराहणा णवरि संजमे होति। संजमें आतविराहण, पातम्मि य सेसगपदेसु / / 173 / / अणंतरहिताऽऽदिएसुजाव संताणए त्ति, एतेसुपातं आतावतरसपाओं संजमविराहणाए भवति, सेसा जे थूणादिया पदा तेसु पायावेतस्स आयविराहणा, संजमविराहणा, पायविराहणा य भवति। संजमविराहणा पुढवादिसु कायणिप्फणं जत्थ आयविराहणातत्थ चउगुरुं, पातविराहणा चउलहुँ। थूणादिसु इमे दोसाथूणादि दुट्टिएसुं, रुंभंते लट्ठि रज्जुब्बद्धे। पतणे भवंति दोसा, भूमीए कूडमादीसु // 174 / / थूणादिसुदुट्ठिएसुरज्जुव्वेहमादिसु वा दुब्बद्धसुचलहियस्सअरुंभंतस्स उत्तारेंतस्स य भेदो पायस्स भवति, उवहडंति आरुभणोतरणे जे मालोहडे दोसा भणिता ते इह पयावणे भवंति। भूमीए कूडमुहादिसु वा उविजेते ते दोसा ण भवतीत्यर्थः / सव्वेसु सुत्तपदेसुइमंगाहावितियपदमणप्पज्झे, आतंवि विकोविते व अप्पज्झे। पचवाते उवा से,असती आगाढ़े जाणमवि।।१७।। पुव्वद्ध कंठं भूमीए जइ ठविज्जति तो गोणमादिएहिं पच्चवातो भवति, समभूमीए वा अवगासो णत्थि, आगाढे वा रायदुट्टातिगो अपागडो अत्थतो जाणतो विथूणादिसु विलएज्जा। गोणे गाहागोणेण साणमादी, कप्पट्ठगहरण खेलगट्ठाए। ससणिद्ध हरितपाणा-दिएसु पालंब जयणाए।।१७६।। समभूमीए ठवित गोणेणं भजति, साणो वा हरति / कप्पट्टगेण व हरिज्जेज्जा सावासगभूमी, कप्पट्टगाणं खेलणट्ठाण सा वासभूमी आउक्कायससणिद्धा हरिया वा उट्टिता कुंथुमादिएहिं वा पाणेहि संसत्ता, एवमादिएहि कारणेहिं जहा आयसंजमपायविराहणा ण भवति तहा जयणाए ओगाहिय परेण विहासे लंवेति। तसपाणजातादिजे भिक्खू पडिग्गहाओ तसंपाणजायं णीहरइ,णीहरावेइ, णीहरियमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गहएइ पडिग्गहतं वा साइजइ॥४५॥ अहिणवपातग्गहणे तसपाणजायं जो णीहरित्ता गेण्हति, तस्रः चउलहुँ, तसपाणा वेइंदियादिणो चउव्विधा भवंति। अहवा-तसादुभेदाआगंतुग तज्जाता, दुविधा पाणा हवंति पातम्मि। आगंतुगप्पवेसो, परप्पओगा सयं वा वि। 176|| आयतुगा पिपीलिगाऽऽदी, तत्थेव जाव तज्जाया, ते य धुणकुंथुगादी, आगंतुगाणं पवेसो सयं वा भवति, परेण वा पवेसिता। गाहाएएसामण्णतरं, तसपाणं तिविह जोगकरणेणं। जे भिक्खू णीहटू, पडिच्छए आणमादीणि॥१७७।। तिविधजोगकरण, जोगो तिविधो मणमादि, सय करणादि, करणत पि तिविधं, एत्थ वारणविधीए णव भेदा, तेसु णीहरिजमाणेसु संघट्टणादिआवण्णे सट्टाणपडिच्छत्तं विच्छुगादिणा वा आयविराहणा, परेण वाणीहटु दिजमाणे जो पडिच्छति तस्स आणादी दोसा। इमं वितियपदंअसिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलण्णे। आगंतुका उ दुविहा, सुहुमा थूला य नायव्वा / / 178|| एते असिवाऽऽदिया भायणदेसे वा, अंतरे वा,तत्थ अगच्छंतो इहेव जाणि य तसपाणजाई णीहट्टु लभंति, ताणि गिण्हतो सुद्धो, गहिते वा पच्छा दिडो तं नीहरंतो सुद्धो। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त सुत्तंजे मिक्खू पडिग्गहाओ ओसहबीयाई णीहरइ, णीहरावेइ, णीहरियमाहटु दिजमाणं पडिग्गहे इ, पडिग्गहंतं वा साइजइ // 42 // आगंतु गाहा (176) आगंतुगा सरिसवादी, तदुत्था तस्सेव कणगा,पुणो आगंतुगा दुविधा-सण्हा, थूला य / सण्हा सरिसवाई सुरिमादी,थूला वदरणिप्फावादी। सीसो पुच्छति-काओ ओसहीओ, को वा वीय त्ति अतो भण्णतिसणसत्तरसा धण्णा, ओसहिगहणेण हों ति गहिताओ। वीयगहणम्मि करणे, एते चेव विराधणसमत्था // 175|| जवगोधूमसालिवीहिकोद्दवरालगोतिलमुग्गमासअयसीचणगादिणिप्पावमसूरचवलगतुवरिकुलत्था, सणो सत्तरसमो। सेस कंट। गाहाएएसामण्णतरं, जो बीयं तिविहजोगकरणेणं / णीहरिऊण पडिच्छति, सो पावति आणमादीणि ||176 / / पूर्वववत्कण्ठा। इमं वितियपदंअसिवे अमोयरिए, रायडुढे भए व गेलण्णे। सीहे चरित्तसावय, पुव्वागहिए य जयणाए।।१८०|| कंटाणवरं (पुव्वगहिए ति) गहणकाले सुद्धो, जइ पच्छा परिकम्मणकाले वितिया दीसंति तो इमा जयणा विरहियं सुद्ध लब्भति, कयगं गेण्हतु, उस्सग्गओ सुद्धं लब्भति, अप्पपरिकम गेण्हति, अह णिक्कारणे आगंतुगवीयसहित गेण्हति तत्थ पच्छित्तमागणा। कमो इमो- 'छभाग (इयं गाथा पूर्वग्रन्थे विलोक्या)" गाहा- अंगुलीणं अग्गपव्वा पढमो भागो, वितिओ मज्झवारे भागो, ततितो अंगुलिमूले भागो। आउरेहाए चउत्थो भागो, अंगुट्ठगस्स अब्भंतरकोडीए पंचमो भागो, सेसो छट्ठो भागो / एवं छब्भागेसु कप्पितेसु जति णिमारणे पदमपोरपमाणमेत्तेसुपादे दीसमाणेसुगेण्हतितो पंचराइंदियाणि पच्छित्त, वितियपव्वमेत्तेसु दसराइंदिया, ततियपव्वमेत्ते पन्नरस राइंदिया। गाहावीसंतु आउलेहा, अंगुटुंऽते तु हों ति पणुवीसा। संतम्मि होति मासो, चाउम्मासो भवे चतुसु॥१८३॥ चउत्थे आउलेहप्पमाणमेत्तेसु वीसं राइंदिया, पंचमे अंगुट्ठमूलप्पमाणमेत्तेसु भिण्णमासो, छ?ण भागेणं पसती चेव पूरति, पसतिमेत्ते मासलहु, वितियपसतीए वितिओ मासो ततियपसतीए ततियमासो, चउत्थपसतीए चउत्थमासो एवं चउलहुगंजातं, अतो परं दुगुणेण पारंचियं पावेयव्यं सुहुमेसुपच्छित्तं भणियं। इदाणिं थूलादि गाहाएसेव गमो नियमा, थूलेसु वितियपव्वमारद्धो। अंजलि चउक्क लहुगा, ते चिय गुरुगा अणतेसु / / 184 / / थूलवेयाणं वितियपव्वमेत्तेसु पणगं, अंगुलिथूले दस आउरेहाए पणरस अंगुट्ठते वीसं, पसतीए भिण्णमासो, अजतीत्यर्थः / वितियंजलीए वितिओ मासो, ततियाए ततिओचउत्थंजलीए चउत्थो मासो / एवं चउत्थं लहुजातं / अतो परं दुगुणवुड्डीए पारंचितं पावेयव्वं / अण्णे भणंति-दो दो छठभाए विवड्डति,वार-ससु मासलहुं कायव्यं; स एवांजलि रविरुद्ध इत्यर्थः / चउसु अंजलीसु चउलहु / एवं परित्तेसु पच्छित्तं अणतेसु वि एतेण चेव, करछल्भागक्कमेण एते चेव पणगादिया पच्छित्ता, णवरं गुरुगा कायव्वा। जति पुण पुव्वं सुद्धे, कारिजंतम्मि वितिय ततिए वा। तिय पंच सत्त वीया, दीसंति तहा वितं सुद्धं // 181 / / वितियं अपरिकम्म, ततियं बहुपरिकम्म, तेसु जति विपरिकम्मणकाले तिण्णि वा वीया, पंच वा, सत्त वा वीयकणा दीसंति, तहा वितं सुद्धं चेव विहिगहणाता। चोदगाऽऽह-गहणकालातो पच्छा बीएसु दिढेसुकहं सुद्ध भवति? आचार्याऽऽहजह भत्ते आहचति, पाणाऽऽदिजुतम्मि भोयणे गहिते। दस वितिए रातिदिणाण, अंगुलिमूलेसु पण्णरसा॥१८२|| जहा भत्तं पाणं वा सुयविहितविहाणेण उवउत्तेण गहियं आहच्चति सहसा तुरियगहणं, एवं पाणादिजुत्ते गहिए भत्तपाणे आलोगति, भायणे पडियमेत्तो चेव आलोगितो, निरीक्षित इत्यर्थः। तत्थ गहणकालातोपच्छा तसवीयादिहा, ते य जइ विसोहेउं सक्ति, तो विसोहित्ता तं भत्तपाणं भुंजति, ण दोसो। अह ते पाणिणो विसोधेउंण सक्कति, ताहे तं भत्तपाण विगिचंति। जहा भत्ते, तहा पाने विदहव्वं, ण दोष इत्यर्थः / एस तदुत्थेसु विधी भणिता। इमा आगंतुगेसु-"तत्थ पुण" (इयं गाथा पूर्वग्रन्थे विलोक्या।) गाहाजं अहाकडं पायं तत्थ जइ गिहीहिं आगंतुगा बीया अहाभावेण छूढा होज, तंतारिसंबीयसहियं लब्भति, अण्णं च अप्प-परिकामं सव्वदोस णिक्कारणम्मि पाए, पच्छित्ता वणिया य बीएसु। नायव्व आणुपुच्ची, एसेव तु कारणे जयणा // 185|| पुव्वद्धं कंट, कारणे पुण पत्ते जया आगंतुकबीयसहितं गेण्हति तदा एतेण चेव पणगा वि पच्छित्ताणुलोभेण गेण्हंतो सुद्धो, जयणा, एसेव पणमादिगा इत्यर्थः / अह कारणे वि पणगादिभेदतो वोचत्थं गेण्हइ, तो चउलहुं भवति। जहा कारणे करछभागादिएसु वीएसु दिडेसु विकप्पं तहा इमं गाहावोसर्ट पि हु कप्पति, बीयाऽऽदीणं अहाकुडं पायं / णय अप्पसपरिकम्मा, बहु वा अप्पं सपरिकम्मा।।१५६।। वोसटु भरितं जति अहाकड पादं भरियं धीयाणं लब्भति, तहा वितं चेव अहाकड घेत्तव्यं, ण य बहुपरिकम्मं सुद्ध, अप्पपरिकम्मस्स असति बहुपरिकम्ममेव बोसट्ट पिबीए अवणेत्ता गेण्हतीत्यर्थः। चोदगो भणति-पुव्वं सोही सति कप्पं भणिऊण इदाणि Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्त 424 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्त तत्त्व। भणह वोसर्ल्ड पि कप्पइ त्ति पुव्वावरविरुद्धं ? आचार्याऽऽह-इमे कारणे / प्राप्तिमुपगते, विपा० 2 श्रु० 1 अ० / गृहीते० भ० 5 श०४ उ०। अवलंबतो ण दोसो-झामिएसु. संतासंतसतीए वा बाल-बुढेसुसीदतेसु परिच्छिन्ने, भ०५ श०४ उ०।लब्धे, "पत्तभवन्नवतीरं।" प्राप्तो लब्धो जाव ते अप्पबहुपरिकामा परिकम्मिजिहंति तो बहुपरिहाणी, अहाकड भवः संसारोऽर्णवः समुद्रो भवार्णवस्तस्य तीरं पर्यन्तो येन तम्। दर्श०१ पुण तक्खणादेव परिभुजति अवि य वीएसुसंघट्टणं चेव केवलं, दोसो वि जो बहुगुणो स चित्तव्यो गुणो वि जो बहुदोसो स परित्याज्य इत्यर्थः / विषयसूचीसुत्त (1) पात्रनिक्षेपे पात्रस्य चातुर्विध्याऽऽदि निरूपणे "नाम ठवणा" जे भिक्खू पडिग्गहाओ कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा (614) इत्यादिगाथा। पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा णीहरइ, (2) पात्रस्य गणनाप्रमाणाऽऽदीनि द्वाराणि / णीहरावेइ, णीहरियमाहल दिज्जमाणं पडिग्गहेइ, पडिग्गहतं अथ पात्रविषयं तमेवाऽभिधित्सुराह। वा साइज्जइ॥४३॥ अथ हीनद्वारम्। जे भूमीए अवगाढंतस्स जाव मूलं फुट्टति ताव कंदो भण्णति, भूमीओ अथ लक्षणद्वारम्। उवरि जाव डाली ण फुट्टति ताव खंधो भण्णति, सा डाली भण्णति, (6) अथ त्रिविधोपधिद्वारम्। सालातो जं फुति तं पवालं भण्णति। सेसा पदा कंटा। (7) अथ कालद्वारम्। सुतं अथाऽऽकरद्वारम्। जे मिक्खू पडिग्गहाओ पुढवीकायं णीहरेइ,णीहरावेइ, णीह (6) अथ'चाउल' द्वारम्। रियमाहट्ट दिज्जमाणं वा पडिग्गहेइ, पडिग्गहतं वा सा-इज्जइ (10) अथ जघन्ययतनाद्वारम्। // 44 // जे भिक्खू पडिग्गहाओ आउकायं णीहरति, णीहरावेइ, (11) अथ सगुणमपि तावद्बहुदोषतरम् "अपमाणउयओगछयणत्ति" णीहरियमाहट दिज्जमाणं पडिग्गहेइ, पडिग्गहतं वा साइज्जइ द्वारम्। // 45|| जे भिक्खू पडिग्गहाओ तेउकायं णीहरइ, णीहरावेइ, / (12) अथ मुखद्वारम्। णीहरियमाहटु दिज्जमाणं पडिग्गहे इ, पडिग्गहतं वा (13) अलावुपात्रं गृह्णाति। (14) महाधनानि अयः पात्राऽऽदीनि / साइज्जइ॥४६॥ (15) परगवेषितं पात्र धरति। एतेसिं सुत्ताणं इमो अत्थो (16) निजगवेषितं पात्रम्। बीएसुं जो उ गमो, नियमा कंदाऽऽदिएसु सो चेव। (17) अयोवन्धनादीनि। पुढवीमादीएसुं, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि।।१८७।। (18) प्रतिमाः पात्रग्रहणे। णवरं अणंतेसु कंदाऽऽदिएसु गुरुगं पच्छित्तं भाणियव्यं / सेसं सव्वं | (16) अथ कतिभिः प्रतिमाभिः पात्रं गवेषणीयम्। उस्सग्गऽववालेणं जहा बीएसुतहा भाणियव्वं नि०चू० 14 उ०। (पात्रस्य (20) तच पात्रक लक्षणोपेतं ग्राह्य, नालक्षणोपेतम्। निष्कोरणम्- "णिकोरण' शब्दे चतु० भा० 2022 पृष्ठे गतम्)। (21) पात्रप्रयोजनम्। (निर्गन्थ्या अपात्रिकया न भवितव्यमिति 'अपाइया' शब्दे प्रथ० भा० / (22) यादृशं पात्रमादाय भिक्षार्थ गच्छेत्। 605 पृष्ठ उत्कम्) (पात्रस्य लेपकरणम् 'लेव' शब्दे वक्ष्यते) (23) प्रतिगृहनिकाया ऋतुवद्ध वसति। (पात्रसीवनार्थ सूचीपाचनम् ‘सूई' शब्दे) योग्ये परिणामके, व्य०१० (24) अतिरिक्तपात्रम्। उ० / अधिकारिणि, "पत्तं ति वा जोग्गो त्ति वा एगट्ठ"दशा० 4 अ०। (25) नवपुराणपात्रग्रहणम्। आ०चू०। पत्तं नाम-सुत्तत्थ तदुभयस्स गहण-धारणशक्तिरित्यर्थः। / (26) संप्रति निर्दिष्टस्य दाने विधिः। नि०चू०१ उ०। अष्ट० / विपा०।२६) पारिणामिकाऽपारिणामिकाति- (27) प्रतिग्रहमनलमस्थिरं धारयते। पारिणामिकभेदात्त्रिविधं पात्रम्। ध० २०३अधि०२ लक्ष० / साधुभिः, (28) पृथिव्यां प्रतिग्रहमातापयेत्। पौषधिकश्राद्धैश्च मात्रकाणि पात्रकाणीव द्विः प्रतिलेख्यान्युत व्यापार- (26) पारिणाभिकाऽपारिणामिकाऽतिपारिणामिकभेदात्त्रिविधं पात्रम्। णावसरे एव व्यापारणीयानीति प्रश्ने, उत्तरम् साधुभिः, पौषधिकश्राद्धैश्च | पत्तइय त्रि० (पत्रकित) संजातकुत्सिताल्पपत्रे, ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। मुख्यतो मात्रकाण्यपि पात्राणि इव द्विः प्रतिलेख्यानि, व्यापारणावसरे पत्तकप्पिय पुं०(पत्रकल्पिक) पात्रग्रहणादिसामाचारीज्ञे,बृ० 1 उ०। च प्रमृज्य व्यापारणीयानीति। 25 प्र०। सेन०२ उल्ला० / विहृतपात्रकाणि सम्प्रति पात्रमिति। पात्रकल्पिकद्वारम्पुनर्लेपितानि चतुर्मासके विहृतानि कल्पन्ते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्- अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगया परिछणे य चतुगुरुगा। पूर्वविहुत-पात्रकाणि पुनर्लेपितानि चतुर्मासके विहतानि कल्पन्ते इति। दोहिं गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहिं वी लहुगा / / 476|| 75 प्र० / सेन०२ उल्ला०। इयं गाथा तथै व द्रष्ट व्या नवरमिह सूत्रमा चारान्तर्गत * प्राप्त त्रि० उपगते, ज्ञा०२ श्रु०२ श्रु०१ वर्ग 1 अ०1 उपार्जिते / पात्रैषणाध्ययनं, तस्याप्राप्ते यदि पात्राऽऽनयनाय प्रेषयति तदा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तकप्पिय 425 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्तकप्पिय प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / द्वाभ्यामपि गुरवः- तपसा, कालेन च। अथ सूत्र प्राप्तः परं नाद्यापि तस्यार्थः कथितः तदा चत्वारो लघुकाः, तपसा गुरवः / अथ कथितोऽर्थः परं नाद्यापि सम्यगधिगतः तदाऽपि चत्वारो लघुकाः, कालेन गुरवः / अथाऽप्यधिगतोऽर्थः, श्रद्धानविषयीकृतश्च, परं नाद्यापि परीक्षितः तदाऽपि चतुर्लघवः, तपसा कालेन च लघुकाः / अतः सूत्रं पाठयित्वा तस्यार्थ कथयित्वा सम्यगधिगते चार्थे पात्राय परीक्ष्य प्रेषणीय इति। बृ०१०। (पात्रनिक्षेपः 'पत्त' शब्देऽनुपदमेवगतः) अत्र वैपरीत्यकरणे प्रायश्चित्तमाहवोच्चत्थे चउ लहुआ, आणाइविराहणा य दुविहा उ। छेयणभेयणकरणे, जा जहिं आरोवणा भणिया।६६३। विपर्यस्तेन ग्रहणे करणे वा चतुर्लघुकाः, उपलक्षणत्वाल्लघुमासरात्रिन्दिवपञ्चके अपि / इदमुक्तं भवति-उत्कृष्टस्य यथाकृतस्यापात्रे पात्रस्योत्पादनाय निर्गतः, तस्य योगमकृत्वाऽल्पपरि-कर्मोत्कृष्टमेव गृह्णाति चतुर्लघु, परिकर्मवा प्रथमतयाऽवगृह्णाति चतुर्लधु; यदा यथाकृत योगे कृतेऽपि न लभ्यते तदाऽल्पपरिकर्म गवेषणीयम्, तस्योत्पादनाय निर्गतः प्रथमत एव सपरिकर्म गृह्णाति चतुर्लघु इति त्रीणि चतुर्लघुकानि। एवं मध्यमस्यापि त्रिषु स्थानेषु त्रीणि मासिकानि / जघन्यस्य स्थानक त्रयेऽपि त्रीणि रात्रिन्दिवपञ्चकानि। यथा यथाकृताऽऽदिविपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तमुक्तं, तथोत्कृष्टाऽऽदीनामपि परस्परं विपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तभवसातव्यम्। तद्यथा-उत्कृष्टस्य प्रतिग्रहस्यार्थाय निर्गतो मध्यम मात्रक गृह्णाति मासिक, जघन्यं टोप्परिकाऽऽदि गृह्णाति पञ्चकं, मध्यमस्य निर्गत तूत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघु, जघन्यं गृह्णाति पञ्चकं, जघन्यस्य निर्गत उत्कृष्ट गृह्णाति चतुलघु, मध्यमं गृह्णाति मासिकम् / तदेवं विपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तमुक्तम्। सम्प्रति विपर्यस्तकरणेऽभिधीयते-उत्कृष्टं भक्त्वा मध्यमं करोति पञ्चकं, मध्ये संयोज्योत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, तदेव भक्त्वा जघन्य करोति पञ्चक, जघन्ये संयोज्योत्कृष्ट करोति चतुर्लधु, मध्यमं करोति मासिकम्, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः, विराधना च / विराधना च द्विविधासंयमे, आत्मनि च / तथा चाऽऽह-पात्रस्य छेदनं भेदन वा कुर्वत आत्मविराधना परिताप-महादुःखाऽऽदिका, संयमविराधना तु तद्गता घुणाऽऽदयो विनाशमश्नुवते, ततो या यस्यां संयमविराधनायामात्मविराधनायां वा आत्मव्यपरोपणा भणिता सा तस्यामभिधातव्या, तत्राऽऽत्मविराधनायां वा सामान्यतश्चतुर्गुरु, संयमविराधनायां 'छक्कायचउसलहुगा'' इत्यादिका कायनिष्पन्ना / यत एवं ततो न विधेय विपर्यस्तकरणम्। बृ० 1 उ०१ प्रक०। अथ पात्रस्यैव विशेषविधिं विभणिषुराहओभासणा य पुच्छा, दिद्वे रित्ते मुहे वहंते य ! संसट्टे उक्खित्ते, सुक्के अपगास दठूणं // 66 // पात्रस्योत्पादनायामवभाषणं कर्त्तव्यं, तत्र पृच्छति शिष्यः-किं दृष्ट पात्रं | प्रशस्तमुताऽदृष्टम् ? एवं रिक्तम्, अरिक्तवा? कृतमुखमकृतमुखं वा? वहमानकमवहमानकं वा? संसृष्टमसंसृष्ट वा? उत्क्षिप्तं निक्षिप्त वा? | शुष्कमार्द वा? प्रकाशमुखमप्रकाशमुखं वा? इत्यष्टौ पृच्छाः / आसां निर्वचनं स्वयमेव सूरिरभिधास्यति। तथा-(दटूणं ति) दृष्ट्वा चक्षुषा निरीक्ष्य पात्र यदि निर्दोषं तदा गृह्णाति। अथैनामेव गाथा विवरीषुः प्रथमद्वितीय पृच्छयोरेकगाथया परिहारमाहदिट्ठमदिह्र दिटुं, खमतरमियरे न दीसए काया। दहिमाईहिं अरिकं, वरं तु इयरे सिया पाणा / / 666 / / दृष्टादृष्टयोः पात्रयोर्मध्ये दृष्ट क्षमतरं क्षमशब्द इह युक्तार्थः, ततश्च क्षमरतमदृष्टादतिशयेन गृहीतुयुक्तम्। कुत इत्याहइतरस्मिन्नदृष्टे (नदी सयत्ति) प्राकृतत्वादेकवचनम् , न दृष्यन्त, कायाः पृथि-वीकायाऽऽदयः, तथा दध्यादिभिरित्यादि ग्रहणोन्मोदकाऽऽदिपरिग्रहः / तैरतिरिक्तं पूर्ण वरम् इतरस्मिन् रिक्ते स्युर्भवेयुः कदाचित् प्राणाः कुन्थुप्रभृतयो जीवाः। यदि पुनर्न तत्र प्राणसंभवस्तदाऽपि सम्यगुपयुज्य गृह्णतां न दोषः। अथ कृतमुखाऽकृतमुख्योः किं कृतमुख ग्राह्यमुताकृतमुखम् ? उच्यतेअकयमुहे दुप्पस्सा, वीयाई छेयणाऽऽइ दोसा वा। कुंथूभादवहंते, फासुवहतं अओ धन्नं / / 667 / / अकृतमुखे भाजने दुर्दृश्या अप्रत्युपेक्ष्या बीजाऽऽदयो जीवाः, तत्र बीजानि तत दुत्थानि, आदिशब्दात्त्रसाऽऽदिपरिग्रहः छदनभेदनयो दोषास्तत्र भवेयुः, यत एवं ततोऽकृतमुख परिहर्तव्यम्। अथ वहमानकावहमानकयोः कतरत् श्रेष्ठमित्याहकुन्थ्वादयः सत्त्वा अवहमानके प्रायः सम्भवन्ति, अत प्रासुकेन वस्त्रऽऽदिना वहमानकं व्याप्रियमाणं यत्तत्पात्रंधनाय हितमिति धन्यं, संयम-धनोपकारकमित्यर्थः / अथ संसृष्टाऽऽदिपृच्छात्रयं प्रतिविधत्तेएमेव य संसटुं, फासुएण पसत्थ नाह पडिकुटुं / उक्खितं च खमतरं, जंचोल्लं फासुगदवेणं // 66 // एवमेव यथा वहमानक तथा संसृष्टमपि यत्प्रासुकेन भक्ताऽऽदिना संसृष्टं खरण्टितं तत्प्रशस्यमप्राशुके न पुनः संसृष्ट प्रतिकुष्ट निक्षिप्तम्, उत्क्षिप्तनिक्षियोर्मध्ये यदा प्रयोगेणैव गृहिणा पात्रमुत्क्षिप्तं तन्निक्षिप्तात् क्षमतरं युक्तरम् / यचा प्रासुकं द्रव्येण तक्राऽऽदिना तत्पात्रं श्रेयः, अर्थादापन्नमप्राशुकेनार्द्र परिहार्यम्। अथ किं प्रकाशमुखं गृह्यतामप्रकाशमुखं वाजं होइ पगासमुहं, जोग्गयरं तं तु अप्पगासा तु। तसबीयाइ अदलु इमं तु जयणं पुणो कुणइ // 666 / / यद्भवति प्रकाशमुखम्, तत्तु योग्यतरं, संयमाऽऽत्मविराधनाया अभावाद्विशेषेण योग्यमप्रकाशमुखभाजनात्, इत्थं पात्रस्य प्रशस्याप्रशस्यरूपतामुपवर्ण्य तस्यैव विधिशेषमभिधातुमुपक्रमते- "तसवीया" इत्यादि पश्चार्द्धमा / तत्पात्रं चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य यदि त्रसजीवाऽऽदिकं जन्तुजातं किञ्चित् न पश्यति तद् दृष्ट्वा इमां वक्ष्यमाणां यतना पुनः करोति। तामेवाऽऽहओमंथपाणमाई, पुच्छा मूलगुण उत्तरगुणे य। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तकप्पिय 426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्तरह ucioall तिट्ठाणे तिक्खुत्तो, सुद्धो ससिणिद्धमाईसु // 670 / / पत्तकारि(ण) त्रि० (प्राप्तकारिन्) प्राप्यकारिणि, स्पष्टार्थग्राहिणि, (ओमंथ त्ति) तत्पात्रमवाङ् मुखं कृत्वा त्रीणि स्थानानि समाहितानि विशे०। (इन्द्रियाणां प्राप्याऽप्राप्यकारित्वम् 'इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे त्रिस्थानं मणिवधहस्ततलभूमिकालक्षणं, तत्र चिःकृत्वः त्रीन् वारान् / 557 पृष्ठे उक्तम्) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र वीरः प्रतिमया स्थितः, प्रत्येकं प्रस्फोटयेत्, ततः प्राणास्त्रसाः, आदिशब्दावीजानि वा दृष्ट्वा न तत्रैव शून्यागारे स्कन्दो नाम ग्रामकूटपुत्रो दास्या सह रेमे / आ०म०१ गृह्णाति, पृच्छा मूलगुणोत्तरगुणे। यदि शिष्यः पृच्छति-के मूलगुणाः, के अ०। आ०५० / आलम्भिकाया नगर्या बहिःस्थे चैत्ये, "तत्थ णं जे से चोत्तरगुणाः? अत्र निर्वचनमग्रे वक्ष्यते / (सुद्धो ससिणिद्धमाईसु त्ति) पंचभे पउडुसंहारे, सेणं आलम्भियाए णयरीए बहिया पत्तकालंसि चेइयसि यत्राप्कायः प्रक्षिप्यमाण आसीत् तदधुनाऽपनीताप्कायतया कदाचित् रोहस्स सरीरगं विप्पजहामि।' भ० 15 श० / ससिग्धं भवेत्, तच यदि त्रिः कृत्वः प्रस्फोटनाऽऽदिविधिं कुर्वता न पत्तग न० (पात्रक) पिठरिकाविशेषे, भ० 15 श०। परिभावित तथाऽपि श्रुतज्ञानप्रामाण्यबलेन शुद्धः आदिशब्दाद्वीज * पत्रक न० लेखे, बृ० 1 उ०१ प्रक० / कायपरिग्रहः। पत्तगधुवण न० (पात्रकधावन) पात्रमलाऽऽदिप्रक्षालने, पं० व०२ द्वार। एतदेव भावयति पत्तचारण पुं० (पात्रचारण) नानाद्रुमफलान्युपादाय फलाऽऽश्रयप्राण्यदाहिणकरेण कोणं, घेत्तुत्ताणेण वाम मणिबंधे / विरोधेन फलतले पादोत्क्षेपनिक्षेपकुशले, ग०२ अधि०। फोडेइ तिन्निवारे, तिन्नि तले तिन्नि भूमीए // 671 / / पत्तच्छण्ण त्रि० (पत्रच्छन्न) पत्रैव्यप्ति, रा०। दक्षिणेन करेणोत्तानेन पात्रस्य कोणं कर्ण गृहीत्वा पात्रमवाङ्मुखं कृत्वा पत्तच्छेज न० (पत्रच्छेद्य) अष्टोत्तरशतपत्राणां मध्ये विवक्षितसंख्याकपवामहस्तस्य मणिबन्धे त्रीन् वारान् प्रस्फोटयति, ततस्त्रीन वारान् वच्छेदने हस्तलाघवे, जं० 2 वक्षः। औ० / कलाभेदे, ज्ञा०१ श्रु०१ हस्ततले, त्रीन् भूमिकायामिति। अ०। कल्प०। तसबीयाइ तु दिढे, न गिण्हई गिण्हती य अहिटे। पत्तच्छेज्जकम्म(ण) न० (पत्रच्छेद्यकर्मन) पत्रच्छेद्यनिष्पादित वस्तुनि, गहणम्मि उ परिसुद्धे, कप्पइ दिढेहि वि बहूहिं / / 672 / / आचा०२ श्रु०२ चू०२ अ०। नवकृत्वः प्रस्फोटिते सति त्रसवीजाऽऽदिजन्तुजातं तं यदि दृष्ट तदान पत्तट्ठ त्रि० (प्राप्तार्थ) अधिकृतकर्मणि निष्ठागते, भ०१४ श०१ उ०। गृह्णाति, अथ न दृष्ट ततो गृह्णाति। अथ महताऽपि प्रयत्नेन प्रत्युपेक्ष्य बहुशिक्षिते, सुन्दरे च / दे०ना० 6 वर्ग 68 गाथा। अनु० / 'चउरा माणानि तदा बीजाऽऽदीनि सन्त्यपि शुषिरत्वान्न दृष्टानि, ततः परिशुद्ध निउणा कुसला, छेआ विउसा बुधा य पत्तट्ठा।'' पाइ० ना०६० गाथा। निर्दोषमिति मत्वा पात्रस्य ग्रहण कृतं , तत उपाश्रयमागतैस्तानि दृष्टानि कृतप्रयोजने, उपा०७ अ०। ततः को विधिरित्याह-कल्पते बहुभिरपि बीजाऽऽदिभिः पश्चात दृष्टरिति / पत्तण न० (पत्तन) नानादेशाऽऽगतपण्यस्थाने, अनु० / बाणफकिमुक्तं भवति?-तत्पात्रमप्रासुकमिति मत्वा न भूयोऽगारिणः लपुड्खयोः, देना०६ वर्ग 64 गाथा। ('पट्टण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे प्रत्यर्प्यते, न वा परिष्ठाप्यते, श्रुतप्रामाण्येन गृहीतत्वात्, किं त्वेकान्ते बहुप्रासुके प्रदेशे तानि वीजानि यतनया परिष्ठापयेत्। 255 पृष्ठे सर्वमुक्तम्) अथ ''पुच्छा मूलउत्तरगुणे त्ति" अस्य निर्वचनमाह पत्तणा स्त्री० (प्रापणा) सूत्रस्यापरिवर्तनायाम्, पं०चू० 4 कल्प। मुहकरणं मूलगुणा, पाए निक्कोरणं च इयरे उ। पत्तणिव्वाण त्रि० (प्राप्तनिर्वाण) प्राप्तं कषायाऽऽदिशमनेन निर्वाण गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरिमए सुद्धो॥६७३।। शीतीभावो येन स प्राप्तनिर्वाणः / उपशान्तकषाये, उत्त० 25 अ०। पात्रस्य यन् मुखकरणं तन्मूलगुणाः यत्पुनर्मुखकरणानन्तरं तदप्य पत्ततिलभंडगसगडिया स्त्री० (पात्रतिलभाण्डकशकटिका) पात्रयुक्तन्तर्वतिनो गिरस्योत्किरणं तन्निष्कोरणमित्यभिधीयते, तदितरे तिलाना भाण्डकानां च मृण्मयभाजनानां भृताया गन्त्र्याम,भ० 2 श० उत्तरगुणाः / अत्र चतुर्भङ्गी संयतार्थ कृतमुखं संयतार्थमेव चोत्कीर्णमिति 5 उ०। प्रथमो भङ्गः / संयतार्थ कृतमुखं स्वार्थमुत्कीर्णमिति द्वितीयः / पत्तपडिमा स्त्री० (पात्रप्रतिमा) 'पायपडिमा' शब्दार्थ, स्था० 4 ठा० स्वार्थ कृतमुख संयतार्थनवोत्कीर्णमिति तृतीयः / स्वार्थ कृतमुख १उ०। स्वार्थमेवोत्कीर्णमिति चतुर्थः / अत्र त्रिषु भङ्गेषु प्रायश्चित्तम् / तद्यथा- पत्तपल्लव पुं० (पत्नपल्लव) अत्यभिनवपत्रगुच्छे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०) प्रथमे भङ्गे चत्वारो गुरुकाः तपसा कालेन च गुरवः, द्वितीयेऽपि पत्तभार पुं० (पत्रभार) दलवये, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / "नवकहरिचतुर्गुरुकाः, तपसा गुरवः, कालेन लघवः। तृतीये चतुर्लघुकाः कालेन यभिसंतपत्तभारधकारगम्भीरदरिसणिज्जा।" रा० / औ० / गुरवः तपसा लघवः / चरमे चतुर्थं भङ्गे शुद्धः, उभयस्यापि स्वार्थत्वा- पत्तय न० (पत्रक) तलताल्यादिसम्बन्धिनि, (अनु०) गन्ध-द्रव्यविशेषे, दिति / व्याख्यातः पात्रकल्पिकः / बृ० 1 उ०१ प्रक०।। आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०। गेयभेदे, स्था० 4 ठा०४ उ०। पत्तकयवर पुं० (पत्रकचवर) पत्राण्येव कचवरः। पत्रस्वरूपे कचवरे, जं० | पत्तरह पुं० (पत्ररथ) पक्षिविशेषे, 'सडणा खगा सउता पत्तरहा अंडया 2 वक्ष०ा विहंगा या" पाइ० ना० 41 गाथा। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तल 427 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्तेयणाम (ण) पत्तल न० (पत्रल)"विद्युत्पत्रपीतान्धालः" ||1/173 / इति स्वार्थे | *पात्री स्त्री० जलाऽऽद्याधारे भोजनयोग्ये अमत्रे, वाच०। जं० 2 वक्ष० / लः। प्रा०२पाद। पत्रशब्दार्थे, पत्रसमृद्धे। त्रि०। 'पत्तसमिद्ध।" स्कन्ध- पत्तिय त्रि० (प्रीतिक) प्रीतिरेव प्रीतिक, स्वार्थिककप्रत्ययोपादानेऽपि पत्रलमिति वचनात् / रा० / पक्ष्मवति, जं०२ वक्ष०। चं० प्र० / आ० रूढनपुंसकतेति। प्रीतौ, स्था०४ ठा०३ उ०। प्रीतिसमुत्पादके वचने, म०। "घणपत्तलछायाबहुल-फुल्लइ जाम्ब कयम्बु' प्रा० 4 पाद / तीक्ष्णे, उत्त०१ उ०। प्रीतिकरे, कल्प०३ अधि०६ क्षण / "पत्तसमिद्ध पत्तल / ' पाइ० ना० 136 गाथा। दे० ना० / *प्रतीत त्रि० उपपत्तिभिः प्रतीते, स्था०६ ठा०। पत्तविच्छुया पुं० (पत्रवृश्चिक) चतुरिन्द्रियजीवभेद, जी०१ प्रतिका प्रज्ञा० / * पत्रित त्रि० संजातपत्रे, ज्ञा० 1 श्रु०७ अ०। पत्तवें टिय पुं० (पत्रवृन्तक) त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 पाद। * प्रातीतिक न० प्रतीतिः प्रयोजनमस्येति प्रातीतिकम् / प्राकृतपत्तसगडिया स्त्री० (पात्रशकटिका) पलाशाऽऽदिभृतायां गन्त्र्याम्, भ० त्वाद्रूपनिष्पत्तिः / शपथाऽऽदौ, उत्त० 1 अ०। २श०१ उ०। पत्तियमाण त्रि० (प्रतीयमान) रोजयति, "तं सद्दमाणेहिं पत्तियमाणेहिं पत्तसमिद्ध त्रि०(पत्रसमृद्ध) "पत्तसमिद्धं पत्तलं'' पाइ० ना० 140 गा० / रोयमाणेहिं।'' एकार्थाश्चते। आचा०२ श्रु०१ चू० 2 अ० 2 उ०। पत्तसमुग्ग पुं० (पात्रसमुद्ग) पात्रभृतसमुद्गे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। पत्तिया स्त्री० (पत्रिका) सुरभिपत्रे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। पत्तहार पुं० (पत्रहार) त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। जी०। पत्तिसमिद्ध न० (देशी) तीक्ष्णार्थ दे०ना०६ वर्ग 14 गाथा। पत्ताबंध पुं० (पात्रबन्ध) औधिकोपधिभेदे, येन वस्त्रखण्डेन चतुरस्रेण पत्ती स्त्री० (पत्नी) भार्यायाम्, "जाया पत्ती दारा, घरिणी भज्जा पुरंधी पात्रकं धार्यते / बृ०३ उ०। औ०। ध०। पं०व०॥ य।"पाई० ना०५६ गाथा। पत्तेय न० (प्रत्येक) एक प्रति प्रत्येकम् / अत्राऽऽभिमुख्य प्रतिशब्दो, न अथ पात्रकबन्धाऽऽदीना प्रमाणनिरूपणायाऽऽह वीप्सायाम् / एक प्रतीत्यर्थे, "पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ।" पत्ताबंधपमाणं, भाणपमाणेण होइ कायव्वं / जी०३ प्रति० 4 अधि० / वीप्सायामव्ययीभावः। एकमेकं प्रतीत्यर्थे, चतुरंगुलं कमंता, पत्ताबंधस्स कोणा उ / / आचा० १श्रु० 4 अ०२ उ० / पाइ० ना० / एकैकस्मिन्, आचा०१ श्रु० पात्रकबन्धप्रमाणं भाजनप्रमाणेन कर्त्तव्यं भवति। यदि मध्यमं जघन्य 1 अ०६ उ० / प्रज्ञा० / पृथक्पृथगित्यर्थे, दश०१चू०। विशे० / पत्तेयं वा पात्रं भवति तदा पात्रकबन्धोऽपि तदनुसारेण करणीयः। अथोत्कृष्ट पुढो पुढो। नि०चू० 1 उ० / प्रश्र० / सूत्र०ा औ०। आचा०। प्रमाणं पात्रं तदा सोऽपि गुरुतरः कार्यः / किं बहुना ?-यथा ग्रन्थौ कृते पत्तेयजीव त्रि० (प्रत्येकजीव) प्रत्येको जीवो येषां ते तथा। असाधारणसति पात्रकस्य बन्धस्य कोणाश्चतुरङ्गुलमूर्ध्व क्रामन्तो भवन्ति ग्रन्थे शरीरेषु, आचा०१ श्रु० 4 अ०५ उ०। ('वणप्फई' शब्दे विवेकः) रतिरिक्तश्चतुरगुला अञ्चला यथा भवन्तीति भावः, तथा पात्रकबन्ध पत्तेयणाम(ण) न० (प्रत्येकनामन) नामकर्मभेदे, कर्म०। माविधेयम् पत्तेय तणू पत्ते-उदएणं दंतअट्ठिमाइ थिरं / / 46|| रयताणस्स पमाणं, भाणपमाणेण होति कायव्वं / प्रत्येकोदयेन प्रत्येकनामकर्मोदयवशाज्जन्तूनां प्रत्येकं तनुः पृथक पायाहिणं करितं, मज्झे चतुरंगुलं कमति॥ पृथक् शरीरं भवति। यदुदयादेकैकस्य जन्तोरेकैकं शरीरमौदारिक, वैक्रियं रजस्त्राणस्य प्रमाणं भाजनप्रमाणेन कर्तव्यं भवति / कथमित्याह वा भवति, तत्प्रत्येकनामेत्यर्थः / कर्म०१ कर्म०। पं०सं० / 'पत्तेयथिरं प्रादक्षिण्येन वेष्टनं कुर्वन् पात्रस्य मध्ये यं चतुरड्गुलं चत्वार्यड्गुलानि सुभं च नायव्वं (8)" यदुदयाजीवं जीवं प्रति भिन्नं शरीरमुपजायते तत रजस्त्राणमतिक्रामति तथा रजस्त्राणप्रमाणं विधेयम् / बृ०३ उ० / प्रत्येकनाम, तस्योदयः प्रत्येकशरीरिणा, प्रत्येकशरीरिणश्च नारकामरम"पत्ताबंधरय णं गठी उच्छोडिजाण साहेज्जा चउत्थं / ' महा०१ चू०। नुष्यदीन्द्रियाऽऽदयः पृथिव्यादयः कपित्थाऽऽदितरवश्च / ननु यदि पत्तामोड पुं० (पत्राऽऽमोट) तरुशाखामोटितपत्रे, नि०१श्रु० 3 वर्ग 3 प्रत्येकनाम्न उदयः कपित्थाऽऽदिवृक्षाऽऽदीनामिष्यतेतर्हि तेषां जीव जीव अ०भ०। प्रति भिन्नं शरीरं भवेत्, न च तद्भवति, यतः कपित्थाश्वत्थपीलुसेल्वापत्तासव पुं० (पत्राऽऽसव) धातकीपत्ररससारे आसवे, जी०३ प्रत्ति०४ दीनां मूलस्कन्धत्वक्शाखाऽऽदयः प्रत्येकसंख्येयजीवा इष्यन्ते। यत उक्त अधि० / प्रज्ञा०। प्रज्ञापनायामेकास्थिकबहुवीजवृक्षप्ररूपणाऽवसरे-“एएसिंमूला असंखिपत्ताहार पुं० (पत्राऽऽहार) पत्रकाऽऽहारे वानप्रस्थे, औ०। जजीविया कंदा वि खंदा वि तया वि साला वि पवाला वि पत्ता पत्तेयजीपत्ति(ण) पुं० (पत्रिन्) पत्रं पक्षः अस्त्यस्य इनि। पक्षिणि, शरे, श्येने, विया।'' इत्यादि मूलाऽऽदयश्च फलपर्यन्ताः सर्वेऽप्येकशरीराऽऽकारा उपलरथिनि, पर्वते, ताले च पर्णयुते, त्रि० / वाच०। भ्यन्ते, देवदत्तशरीरवत्, यथाहि देवदत्तशरीरमखण्डमेकरूपमुपलभ्यते, * प्राप्ति स्त्री० लाभे, अनु० / सूत्र०। आ०चू०। तद्वन् मूलाऽऽदयोऽपि, तत एक-शरीराऽऽत्मकाः कपित्थाऽऽदयस्ते चासं Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तेयणाम 428 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्तेयसरीर ख्येयजी वास्ततः कथं ते प्रत्येकशरीरिणः ? उच्यते-प्रत्येकशरीरिण एकादशाङ्गानि, उत्कर्षतः किञ्चिन्यूनानि दशपूर्वाणि, तथा लिङ्ग तस्मै एव ते, तेषां मूलाऽऽदिष्वसंख्येयानामपि जीवानां भिन्नभिन्नशरीर-1 देवता प्रयच्छति, लिङ्गरहितो वा कदाचिद् भवति / तथा चोक्तम्सम्भवात्, केवल श्लेषद्रव्यविमिश्रितसकलसर्षपवर्तरिव प्रबलरागद्वेषो- ''पत्तेयबुद्धाणं पुव्वाहीयं सुयं नियमा हवइ, जहण्णेणं एक्षारस अंगा, पचिततथारूपप्रत्येकनामकर्मपुगलोदयतस्ते, तथा परस्परविमिश्र- उकोसेण भिन्नदसपुव्वी, लिंगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवजिओ वा शरीरा जायन्ते। तथा चोक्तं प्रज्ञापनायामेव भवइ, जतो भणियं-"रुप्प पत्तेयबुहा इति।" आ०म० 1 अ०। "जह सगलसरिसवाणं, सिलेसमिस्साण वट्टिया वट्टी। पत्तेयबुद्धसिद्ध पु० (प्रत्येकबुद्धसिद्ध) प्रत्येकबुद्धत्वे सिद्धे, स्था० 1 ठा० / पत्तेयसरीराणं, तह हो ति सरीरसंघाया / / 1 / / पा०। ये हि प्रत्येकबुद्धाः सन्तः सिद्धाः / ध०२ अधि० / प्रज्ञा० / जह वा तिलपप्पडिया, बहुएहिँ तिलेहि मीसिया संती। पत्तेयरस पुं० (प्रत्येकरस) एकमेकं प्रति भिन्नो रसो येषां ते प्रत्येकरसाः। पत्तेयसरीराणं, तह होंति सरीरसंघाया // 2 // " अतुल्यरसे, "चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता / तं जहालवणोदए, गाथाद्वयस्याप्ययमक्षरार्थ:-यथा सकलसर्षपाणां श्लेषद्रव्येण वारुणोदए, खीरोदए, घओदए।" स्था० 4 ठा० 4 उ०। मिश्रीकृतनां वर्तिता वलिता वर्तिः यथा वा बहुभिस्तिलैर्विमिश्रिता सती पत्तेयसरीर पु० (प्रत्येकशरीर) प्रत्येकनामकार्मोदये वर्तमाने, न च तिलपर्पटिका भवति, तथा प्रत्येकशरीराणां शरीरसंघाताः / इयमत्र नारकाऽमरमनुष्यद्वीन्द्रियाऽऽदयः पृथिव्यादयः कपित्थाऽऽदितरवश्व भावना-यथा तस्यां वर्ती सकलसर्षपाः परस्पर भिन्नाः नान्योन्यानुवेध- व्याख्याताः। पं०सं०३ द्वार।(वणप्फइ शब्दे व्याख्या) भाजस्तथा अदर्शनात्, अत एव सकलग्रहणं, येन स्पष्टमेवान्योन्यानु __ सम्प्रति प्रत्येकवनस्पतिजीवप्रमाणमाहवेधाभावः प्रतीयते / एवं वृक्षाऽऽदावपि मूलाऽऽदिषु प्रत्येकमसंख्येया पत्तेय पजत्ता, पयरस्स असंखभागमित्ताओ। अपि जीवाः परस्पर विभिन्नशरीराः, यथा च ते सर्षपाः श्लेषद्रव्य- लोगा असंख अपज-त्तयाण साहरणमणंता।२३|| संपर्कमाहात्म्यात्परस्परं विमिश्रा जातास्तथा प्रत्येकशरीरिणोऽपि पर्याप्ताः प्रत्येकवनस्पतिजीवाः घनीकृतस्य लोकस्य सम्बन्धिनः प्रत्येकनामकर्मपुद्गलोदयतः परस्परसंहता जाता इति। पं० सं०३द्वार। प्रतरस्य असख्यतमे भागे यावत् आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणा पत्तेयदुक्ख त्रि० (प्रत्येकैकदुःख) प्रत्येकमेकं दुःखं प्रत्येकैकदुःखम् / भवन्ति / अपर्याप्तानां पुनः प्रसेकतरुजीवानामसङ्ख्येया लोकाः परिमाण एकैकस्यासाधारणादुःखे, "पत्तेयदुक्खे जीवाणं," प्रत्येकैकदुःखं पर्याप्तापर्याप्तानां च साधारणजीवानामनन्तलोकाः / प्रज्ञा०१ पद जीवानां, स्वकृतकर्मफलभोगित्वात्। स्था० 1 ठा०। द्वीन्द्रियाऽऽदीनां प्रत्येकशरीरवत्त्वम्पत्तेयबुद्ध पुं० (प्रत्येकबुद्ध) प्रतीत्यैकं किञ्चिद् वृषभाऽऽदिकमनित्यता- "वेइंदियभागासे, पाणवहे उवचए य परमाणू। ऽऽदिभावनाकारण वस्तु बुद्धाः बुद्धवन्तः परमार्थमिति प्रत्येकबुद्धाः। अंतरबंधे भूमी, चारण सोवक्कमा जीवा ||1||" प्रत्येकपरमार्थवत्सु तेषु, (करकण्डादीनां कथा करकवादि शब्देषु) रायगिहेजाव एवं वयासी-सिय भंते ! 0 जाव चत्तारि पंच (णमि' शब्दे चतुर्थभागे 1807 पृष्ठे मीलकः) स्वयंबुद्धप्रत्येकबुद्धानां देइं-दिया एगयओ साहरणसरीरं बंधंति, बंधतित्ता तओ पच्छा च बोध्युपधिश्रुतलिङ्ग कृतो विशेषः / तथाहि-स्वयंबुद्धानां बाह्यनिमित्त- आहारेंति वा, परिणामेंति वा, सरीरं वा बंधंति ? णो इणढे मन्तरेणावबोधिः, प्रत्येकबुद्धानां तु तदपेक्षया करकण्ड्वादीनामिवेति समढे, वेइदिया णं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयसरीर उपधिः। स्वयं बुद्धानां पात्राऽऽदि द्वादशविधः 1 (स्था०) प्रत्येकबुद्धानां बंधंति, बंधंतित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा, परिणामेंति वा, तु नवविधः पावरणवर्ज इति / स्वयंबुलानां पूर्वाधीते श्रुते अनियमः, सरीरं वा बंधंति / तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ लेस्साओ प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव लिङ्ग प्रतिपत्तिः / स्वयं बुद्धानामा- पण्णत्ताओ? गोयमा ! तओ लेस्साओ पण्णत्ताओ / तं जहा चार्यसन्निधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धाना तु देवता प्रयच्छतीति। स्था०१ कण्ह-लेस्सा, णीललेस्सा,काउलेस्सा। एवं जहा एगूणवीसइमे ठा० / नं०। आ० चू० / गुरुसन्निधौ वा गत्वा (लिङ्ग) प्रतिपद्यते, यदि च सए तेउकाइयाणं.जाव उव्वट्ट ति, णवरं सम्मद्दिट्ठी वि, एकाकी चरणसमये, इच्छा च तस्य तथारूपा जायते, तत एकाकी मिच्छद्दिट्ठी वि, णोसम्मामिच्छादिट्ठी,दो णाणा, दो अण्णाणा, विहरति, अन्यथा गच्छवासे अवतिष्ठते / अथ पूर्वाधीतं श्रुतं तस्य न णियम, णो मणजोगी, वइजोगी वि, कायजोगी वि, आहारो भवति तर्हि गच्छं चाऽऽवश्यं न मुञ्चति। तथा चोक्तं चूर्णी- ''पुव्वाहीयं णियम छघिसितेसिणं भंते ! जीवाणं एवं सण्णाइवा, पण्णाइ सुयं से हवइवा, जइसे नत्थि तो लिंग नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, वा, मणेइ वा, वईति या, अम्हे णं इट्ठाणिठे रसे, इट्ठाणिद्वे गच्छे विहरइ इति / अह पुव्याहीयसुयसम्भवो अस्थि, तो से लिंग देवया फासे, पडिसंवेदेमो? णो इणढे समढे, पडिसंवेदें ति पुण ते, पयच्छइ, गुरु-सन्निहे वा पडिवज्जइ,जइय एगविहारविहरणसमत्थो, ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वारस संवच्छराई, सेसं इच्छा च से, तो एक्को चेव विहरइ, अन्नहा गच्छे विहरइ" इति / तं चेव / एवं तेइंदियाणए वि, एवं चउरिंदियाणए वि णाणत्तं प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो भवति / तच जघन्यत | इंदिएसु ठितीए य, सेसं तं चेव, ठिती जहा पण्णवणाए। सिय Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तेयसरीर 426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्थग भंते !०जाव चत्तारि पंच पंचिंदिया, एगयओ साहारण-सरीरं, | पत्तेयसरीरिदव्यवग्गणा स्त्री० (प्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गणा) प्रत्येकशरीरिणां एवं जहा बेइंदियाणं, णवरं छल्लेस्सा तिविहा दिट्ठी चत्तारिणाणा यथासंभवमौदारिकवैक्रियाहारकतैजसकामणेषु शरीरनामकर्मसु प्रत्येक तिण्णि अण्णाणा भयणाए तिविहा जोगा। तेसिणं भंते ! जीवाणं विससापरिणामेनोपचयमापन्नेषु सर्वजीवानन्तगुणेषु पुद्गलेषु, पं०सं०। एवं सण्णाइ वा पण्णाइवा०जाव वईइवा अम्हे णं आहारमाहा- "पत्तेय वग्गणा इह, पत्तेयाणं तु उरलमाईणं। रेमो ? गोयमा ! अत्थेगइयाणं एवं सण्णाइ वा पण्णाइ वा मणेइ पंचण्हसरीराण, तणु कम्मपएसगा जे उ।।१।। वा वईइ वा अम्हे णं आहारमाहारेमो, अत्थेगइयाणं णो एवं तर्थक्कक्कपएसे. वीससपरिणामउवचिया होति। सण्णाइवा० जाव वईइ वा अम्हे णं आहारमाहारेमो, आहारें ति सव्वजियाऽणंतगुणा, पत्तेया वग्गणा ताओ॥२॥" पुण ते / तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णाइ वा.जाव वईइ वा तत एकपरमाण्वधिकस्कन्धरूपा द्वितीया प्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गण्णा, अम्हे णं इहाणिढे सद्दे इहाणिट्टे रूवे इट्टाणिढे गंधे इट्ठाणिढे एवमेकैकं परमाण्वधिकस्कन्धरूपाः प्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गणारतावररसे इटाणिढे फासे पडिसंवेदेमो? गोयमा! अत्यंगइयाणं एवंस- क्तव्या यावदुत्कृष्टप्रत्येकशरीरिद्रव्यवर्गणाः। पं० सं०५ द्वार। ण्णाइ वा०जाव वईइ वा अम्हे णं इट्ठाणिढे सद्दे०जाव इट्ठाणिढे पत्तोवग त्रि० (पत्रोपग) पत्राण्युपगच्छतीति, पत्रोपगः / वहलपत्रे, स्था० फासे पडिसंवेदेमो, अत्थेगइयाणं णो एवं सण्णाति वा पण्णाति ४ठा०३ उ०। पत्रप्राप्ते, स्था० 3 ठा० 1 उ० / पत्रोपेते, आचा०२ श्रु० वाजाव वईति वा, अम्हे णं इट्ठाणिढे सद्दे०जाव इट्टाणिढे फासे 2 चू० 3 अ०। पडिसंवेदेमो, पडिसंवेदें तिपुण ते। तेणं भंते ! जीवा किं पाणा- | पत्थ न० (पथ्य) पथि मोक्षमार्ग हितं पथ्यम्।क्षपक श्रेण्या गुणत्रये, ''पत्थं इवाए उवक्खाइजंति पुच्छा? गोयमा ! अत्थेगइया पाणाइवाए सेयं णिव्युई णिव्याणं सिवकरं चेव" इत्येते एकार्थाः। सूत्र०१ श्रु०११ उवक्खाइजंति.जाव मिच्छादसणसल्ले वि उवक्खाइजंति, अ०। स्था० / रोगोपशमहेतौ, भ०१२०८ उ०। हिते, संथा०। जी०। अत्थेगइया णो पाणाइवाए उवक्खाइज्जति, णो मुसावाए उव- भ० / आरोग्यकरे, ज्ञा०१ श्रु०१२ अ०। आव०। क्खाइजंतिजाव णो मिच्छादंसणसल्ले उवक्खाइज्जंति। जेसिं | *प्रस्थ पु० कुडवचतुष्टयपरिमितेमागधतुलामाने, "चत्तारि चेव कुडवा, पिय णं जीवाणं ते जीवा एवमाहिज्जति तेसिं पिणं जीवाणं पत्थो पुण मागहो होइ। चत्वारश्च कुडवा एकत्र पिण्डिता एकः प्रस्थो अत्थेगइयाणं विण्णाते णाणत्ते, अत्थेगइयाणं णो विण्णाए मागधो भवति, सोऽपि च धरिमप्रमाणचिन्तायां सार्धानि द्वादशपलाणाणत्ते, उववाओ सव्वओ० जाव सव्वट्टसिद्धाओ, ठिती न्यवगन्तव्यः। ज्यो०२ पाहु०। "दो असईओपसई, दो पसईओ सेइया, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, चत्तारि सेझ्या कुडओ, चत्तारि कुडवा पत्थो, चत्तारि पत्था च ढगं / '' छसमुग्घाया केवलवजा, उवट्टणा सव्वत्थ गच्छंतिजाव (दो असईआ पसई इत्यादि) धान्यभृतोऽवा मुखीकृतो हस्तोऽससव्वट्ठसिद्ध त्ति, सेसं जहा बेइंदियाणं। तीत्युच्यते / द्वाभ्यामसतीभ्यां प्रसृतिः / द्वाभ्यां प्रसृतिभ्यां सेतिका (रायगिहेत्यादि) (सिय त्ति) स्यात्कदाचिन्न सर्वदा (एगओ त्ति) एकत भवति / चतसृभिः सेतिकाभिः कुडवः / चतुर्भिः कुडवैः प्रस्थः / चतुर्भिः एकीभूय संयुज्येत्यर्थः / (साहारणसरीरं बंधति त्ति) साधारणशरीर- प्रस्थैराढक इति क्रमः। बृ०३ उ०। औ०। अनु०। सूत्र०। मनेकजीवसामान्य बनन्ति प्रथमतया तत्प्रायोग्यपुद्गलग्रहणतः। (ठिई * प्रार्थ पु० भावे णिजन्तादच्प्रत्ययः। प्रार्थने, रा०। जहा पण्णवणाए त्ति) तत्र त्रीन्द्रियाणामुत्कृष्टा एकोनपञ्चाशद्रात्रिन्दि- पत्थकामुय त्रि० (पत्थ्यकामुक) पथ्यमिव पथ्यमानन्दकारणं वस्तु / वानि, चतुरिन्द्रियाणां तु षण्मासा, जघन्या तूभयेषामप्यन्तर्मुहूर्तम् / भ० 15 श० / पथ्यं दुःखवाणं तत्कामयते यः स तथा / कृपया परेषां चत्तारि नाण ति) पञ्चेन्द्रियाणा चत्वारि मत्यादीनि ज्ञानानि भवन्ति, सुखदुःखप्राप्तिपरिहारेच्छौ,भ० 15 श०। प्रति०। केवलं त्वनिन्द्रियाणामेवेति / (अत्थेगइयाण त्ति) संज्ञिनामित्यर्थः / पत्थग पुं० (प्रस्यक) काष्ठघटिते मगधदेशप्रसिद्ध धान्यमान विशेष, अनु० / (अत्थेगइया पाणाइवाए उवक्खाइजति ति ) असंयताः (अत्यंगइया नो विशे०। ज्ञा०। ('णय' शब्दे चतुर्थभागे 1876 पृष्ठ प्रस्थकदृष्टान्तप्ररूपणा पाणाइवाए उवक्खाइज्जति त्ति) संयताः (जेसिं पिणं जीवाणमित्यादि) कृता) येषामपि जीवानां सम्बन्धिना प्राणातिपाताऽऽदिना ते पञ्चेन्द्रिया जीवा प्रस्थकमानम्एवमाख्यायन्ते-यथा प्राणातिपाताऽऽदिमन्त एत इति तेषामपि दुब्बलीए कंडियाणं बलियाए छंडियाणं खयरमुसलजीवानाम् अस्त्ययमों यदुतैकेषां सज्ञिनामित्यर्थो विज्ञातं नानात्वं पच्चाहयाणं ववगयतुसकणियाणं अखंडियाणं अफु डियाणं भेदो यदुतैते वयं बध्यादयः, एते तु बधकाऽऽदय इति, अस्त्येकेषाम- फलगसरिसयाणं एक्किक्कवीयाणं अद्धतेरसपलियाणं पत्थए सज्ञिनामित्यर्थः, नो विज्ञातं नानात्वमुक्तरूपमिति / / भ० 2020 णं / से वि य णं पत्थए मागहए, कल्लं पत्थो 1, सायं पत्थो 2, 1 उ०। चउसट्ठिसाहस्सीओ मागहओ पत्थो। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थग 430- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्थार दुर्बलिकया स्त्रिया कण्टितानां बलवत्पराक्रमवत्या छटितानां | पत्थरंतर न० (प्रस्थरान्तर) पाषाणान्तरे, स्था० 4 ठा० 1 उ०। सूऽदिना खदिरमुशलप्रत्याहतानां व्यपगततुषकणिकानामखण्डानां पत्थरण न० (प्रस्तरण) आस्तरणे, (विछौना) "पत्थरणं तत्थ वा फलगा संपूर्णावयवानामस्फुटिताना राजिरहिताना (फलगस-रिसयाण) घेप्पति।" नि०चू०२ उ०। फलकवीनितानां कर्कराऽऽदिकर्षणेन, एकैकबीजानां वीनानार्थ पृथक पत्थरमलिअ (देशी) कोलाहलकरणे, दे० ना० 6 वर्ग 36 गाथा / 2 कृतानामित्यर्थः, एवंविधानां सार्द्धद्वादशपलानां तन्दुलाना प्रस्थको पत्थरसीया स्त्री० (प्रस्तरसीता) प्रस्तराऽऽकुले क्षेत्रे, बृ०१ उ०१ प्रक० / भवति ण वाक्यालङ्कारे। पलाऽऽदिमानं यथा पञ्चभिर्गुजाभिषिः, पत्थरिअ त्रि० (प्रस्तृत) विस्तृते "पत्थरिअं अत्थु / ' पाइ० ना० षोडशभाषः कर्षः, अशीतिगुञ्जाप्रमाण इत्यर्थः / स यदि कनकस्य तदा 214 गाथा। सुवर्णसंज्ञः, नान्यस्य रजताऽऽदेरिति। चतुर्भिः कर्षः पलमिति, विंशत्य- पत्थरेत्ता अव्य० (प्रस्तीर्य) प्रस्तृतान् विधायेत्यर्थः / स्था०६ ठा०। धिकशतत्रयगुञ्जाप्रमाणमित्यर्थः 320 / सोऽपि च प्रस्थकः मगधे भवो | पत्थव पुं० (प्रस्ताव) प्र-स्तु-घञ्।- इति सूत्रेण वैकल्पिकाऽऽकारः / मागध इत्युच्यते / (कल्लं ति) स्वः प्रातःकाल इत्यर्थः। प्रस्थो भवति प्रा०१ पाद / अवसरे, देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय भोजनायेति (सायमिति) संध्यायां प्रस्थो भोजनायेति / एकरिम इत्यनान्तरम्। आ०म०१ अकादश० / विशे०। मागधप्रस्थके कति तन्दुला भवन्ति ? इत्याह-(चउ-सट्टि ति) पत्था धा० प्र-स्था- प्रस्थाने, अवस्थितौ, नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अ०। चतुःषष्टितन्दुलसाहसिको मागधप्रस्थो भवत्येकः / तं०। 'पत्थगा जे पत्थाण न० (प्रस्थान) प्रयाणे, "एएसु अत्थाणं, पत्थाणं ठाणयं च पुरा आसी, हीणमाणा उ तेऽधुणा। माणभंडाणि धन्नाणि, सो हि जाण कायव्वं / ' द०प०। परलोकसाधनमार्ग, नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अ०भ० / तहेव य॥१|| व्य०१ उ०। पल्ये, विशे०। पत्थार पुं० (प्रस्तार) स्थापनायाम्, अनु०। प्रायश्चित्तरचना-विशेष, वृ०। * पार्थक त्रि० समीहके, सूत्र०१ श्रु०२ अ० 2 उ०। षट् कल्पस्य प्रस्ताराः। सूत्रम्पत्थगद्ध न० (प्रस्थकार्द्ध) कुडवद्वयमितमगधदेशप्रसिद्ध धान्यमान छ कप्पस्स पत्थारा पण्णत्ता / तं जहा-पाणाइवायस्स वायं विशेषे, रा०। क्यमाणे 1, मुसावायरस वायं वयमाणे, 2, अदिन्नादाणस्स वायं वयमाणे 3, अविरइयावायं वयमाणे 4, अपुरिसवायं वयमाणे पत्थड पु० (प्रस्तट) प्रस्तरे, रा० / प्रस्तारे, जी० 3 प्रति० 4 अधिका रचनाविशेषवत्समूहे, स्था०३ ठा०४ उ०। सू० प्र० / प्रतरे, स० / 5, दासवायं वयमाणे 6, इच्चेवं कप्पस्स छ पत्थारे पत्थरेत्ता सम्मं अपडिपूरेमाणे तट्ठाणपत्ते सिया॥२॥ भवनानामपान्तराले, प्रज्ञा०२ पद / विमानप्रस्तटा अन्यत्र / स०६२ अस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाहसम०। तुल्लऽहिकरणे संखा, तुलहिगारो वि वाइओ दोसो। पत्थडोदय त्रि० (प्रस्तृतोदक) समजले, भ०६ 208 उ०। अहवा अयमधिगारो, सा आवत्ती इहं दाणं / / 66!! पत्थण न० (प्रार्थन) अभिलषितस्य चिन्तने, उत्त० 32 अ०। अनुमतौ, द्वयोरप्यनन्तरप्रस्तुतसूत्रयोस्तुल्याधिकरणमसंख्यासमानः षट्सूत्र०१ श्रु०७ अ०। संख्यालक्षणोऽधिकार इत्यर्थः / यद्वाचिको दोषः तुल्याधिकारः, पत्थणया स्त्री० (प्रार्थनता) स्वार्थ तल। परं प्रति दृष्टार्थया-ज्ञायाम्, उभयोरपि सूत्रयोर्वचनदोषोऽधिकृत इति भावः / अथवा अयमभ० 12 श०५ उ०। परोऽधिकार उच्यते-सा पूर्वसूत्रोक्ता शोधिरापत्तिषु या, इह तु तस्या पत्थणा स्त्री० (प्रार्थना) अभिलाषे, आव० 4 अ० / पं० सू० / एव शोधेर्दानमधिक्रियते / अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य (2 सूत्रस्य) आशंसायाम, पञ्चा०४ विव०। ("तित्थयरा मे पसीयंतु'' इति मोक्ष व्याख्या-कल्पःसाधुसमाचारः, तस्य संबन्धिनस्तद्विशुद्धिकारणत्वाप्रार्थनावाक्यानि 'चेइयवदंण' शब्देतृतीयभागे 1316 पृष्ठे व्याख्यातानि) त्प्रस्ताराः प्रायश्चित्तरचनाविशेषाः, षट्प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्राणातिपातस्य (''आरोग्गं बोहिलाहं समाहिवरमुत्तमं दितु।" इति "णियाण'' शब्दे वादं वार्तावाचं च वदति साधोः प्रायश्चित्तप्रस्तारोऽधिकार उच्यते एकः। चतुर्थभागे 2106 पृष्ठे व्याख्यातम्) एवं मृषावादस्य वादं वदति द्वितीयः। अदत्तादानस्य वादं वदतितृतीयः। पत्थणामइय त्रि० (प्रार्थनाऽऽत्मक) याच्ञामये, "देविदचक्क-वट्टित्तणा अविरतिव्रते, यद्वा न विद्यते विरतिरस्याः सा अविरतिका स्त्री, तद्वाद इगुणरिद्धिपत्थणामझ्य।" आव० 4 अ० / वदति चतुर्थः / अपुरुषो नपुंसकस्तद्वादं वदति पञ्चमः / दासवादं वदति पत्थयण न० (पथ्यदन) शम्बले, संथा० / ज्ञा०। ''पत्थयण संबलं च षष्ठः। इतीत्युपदर्शने, एवंप्रकारानेतान्षट्कल्पस्य प्रस्तारान् प्रायश्चित्तपाहिज्ज। पाइ० ना० 155 गाथा। रचनाविशेषान् प्रस्तीर्य अभ्युपगमत आत्मनि प्रस्तुताः स्वधिया पत्थर पुं० (प्रस्तर) "स्तस्य थोऽसमस्तस्तम्बे।" / / 8 / 2 / 45 / इति / प्रस्तारयिता अभ्याख्यानदाता साधुः सम्यगप्रतिपूरयन् अभ्याख्येयार्थस्तस्य थः / प्रा०२ पाद। प्रतरे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। पाषाणे, व्य०१ स्यासद्भूततया अभ्याख्यानसमर्थन कर्तुमशक्नुवत् तस्यैव प्राणातिपाउ०/आ०म०। ताऽऽदिकर्तुरिव स्थान प्राप्तं तत्रस्थानप्राप्तः स्यात्, प्राणातिपाताऽऽदिका Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थार 431 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्थार ददुर सूणए सप्पे, मूसग पाणातिवादुदाहरणा। एतेसिं पत्थारं, वोच्छामि अहाणुपुवीए।।७४।। प्राणातिपाते एतान्युदाहरणानि निदर्शनानि भवन्ति-दर्दुरः, शुनकः, सर्पो, मूषकश्चेति। एतेषामेतद्विषयमित्यर्थः / प्रस्तार प्रायश्चित्तरचनाविशेष यथानुपूया वक्ष्यामि। तत्र दर्दुर विषयं तावदाहओमो चोदिजंतो, दुपहियाऽऽदीसु संपसारेति। अहमवि णं चोदिस्सं, ण य लब्भति तारिसं छिदं // 75|| अवमोऽवमरात्निको रात्निकेन दुःप्रत्युपेक्षिताऽऽदिषुस्खलि तेषु भूयो भूयो चोद्यमानः संप्रसारयति मनसि पर्यालोचयति। (अहमविणं) एनं रात्निक नोदयिष्यामि, एवं पर्यालोच्य प्रयत्नेन गवेषयतोऽपि तादृशं छिद्र रात्निकस्य न लभते। अन्नेण घातिए द-दरम्मि दल चलणं कतं ओमो। उद्दवितो एस तुमे-ण वत्ति वितियं पिते णत्थि // 76|| अन्यदा च भिक्षाऽऽदिपर्यटते अन्येन केनाऽपि ददुर घातिते रात्निकेन तस्योपरि चरण पादं कृतं दृष्ट्वा अवमो प्रवीति-एष दर्दुरस्त्वया अपद्राविः / रात्निको वक्ति-न मया अपद्रावित, द्वितीयमपि मृषावादव्रतं ते तव नास्ति। री च दण्डनीयो भवेदिति भावः / अथवा प्रस्तारान् प्रस्तीर्य चिरन्तनस्याचाऽऽर्येणाभ्याख्यानदाता अप्रतिपूरयन अपरापरप्रत्ययवचने समर्थ सत्यमकुर्वन् तत्थानप्राप्तः, कर्तव्य इति शेषः। यत्र प्रायश्चित्तपदे विवदमानोऽवतिष्ठते, न यदीतरमारभते, तत्पदं प्रापणीय इति भावः / एष सूत्रार्थः। अथ भाष्यकारो विषमपदव्याख्यामाहपत्थारो उ विरचणा, स जोतिसछंदगणितपच्छित्ते। पच्छित्तेण तु पगयं, तस्स तु भेदा बहुविगप्पा / / 7 / / प्रस्तारो नाम-विरचना, स्थापना इत्यर्थः / स च चतुर्झज्योतिषप्रस्तारः, छन्दःप्रस्तारो, गणितप्रस्तारः, प्रायश्चित्तप्रस्तारश्चेति। अत्र प्रायश्चित्तप्रस्तारेण प्रकृत, तस्य च प्रायश्चित्तस्यामी बहुविकल्पा अनेकप्रकारा भेदा भवन्ति। तद्यथाउग्घातमणुग्घाते, मीसे य पसंगि अप्पसंगी य। आवजणदाणाई, पडुच वत्थु दुपक्खे वि // 71 / / इह प्रायश्चित्तं द्विधा-उद्घातम्, अनुरात था। उद्घातं लघुकं, तब लघुभासाऽऽदि। अनुद्घातिकं गुरुकं, तच्च गुरुमासाऽऽदि। तदुभयमपि द्विधा-मिश्र, चशब्दादमिश्रं च / मिश्रं नाम-लघुमा-साऽऽदिकं, तपःकालयोरकतरेण द्वाभ्यां वा गुरुक, गुरुमासाऽऽदिक वा, तपसा कालेन वा द्वाभ्यां वा लघुकम् / अमिरं तु लघुमासाऽऽदिकं तपःकालाभ्यां द्वाभ्यामपि लघुकं गुरुमासाऽऽदिकम्, द्वाभ्यामपि गुरुकम्। उभयमपि च तपःकालविशेषरहितं पुनरपि द्विधा-प्रसङ्गि अप्रसङ्गि च। प्रसङ्गि नामयदभीक्षा प्रतिसेवरूपेण शङ्काभोजिकाघाटिकाऽऽदिपरम्परारूपेण वा प्रसङ्गेनयुक्तम् तद्विपरीतमप्रसभि / भूयोऽप्येतदेकैक द्विधा-आपत्तिप्रायश्चितं, दानप्रायश्चित्तं च / एतत्सर्वमपि प्रायश्चित्तं च द्विपक्षेऽपिश्रवणपक्षे, श्रमणपक्षे च वस्तु प्रतीत्य मन्तव्यः। वस्तुनाम-आचार्याऽsदिकं, प्रवर्तिनीप्रभृतिकं च / ततो यस्य वस्तुनो यत्प्रायश्चित्तं योग्यं तत्तस्य भवतीति भावः / एष प्रायश्चित्तप्रस्तार उच्यते। "सम्म अपडिपूरेमाणे ति" पदं व्याचष्टेजारिसएणऽभिसत्ती, सचाधिकारीण तस्स सगणस्स। सम्मं अपूरयंतो, पच्चंगिरमप्पणो कुणति // 72 / / यादृशेन दर्दुरमारणाऽऽदिना अभ्याख्यानेन स साधुरभिशप्तोऽभ्याख्यातः स तस्य स्थानस्य नाधिकारी न योग्यः, अप्रमत्तत्वात्। अतोऽभ्याख्यानं दत्त्वा सम्यगप्रतिपूरयन् अनिर्वाहयन् आत्मनः प्रत्यङ्गिरा करोति, तं दोषमात्मनो लगयतीत्यर्थः / कृता विषभपदव्याख्या भाष्यकृता। सम्प्रति नियुक्तिविस्तरःछच्चेव य पत्थारा, पाणवहे मुसें अदत्तदाणे अ। अविरति अपुरिसवादे, दासे वादं व वदमाणे / / 73|| षडेव प्रस्तारा भवन्ति / तद्यथा-प्राणवधवादं, मृषावादवादमदत्ताऽऽदानवादमविरतिकावादमपुरुषवादं, दासवादं च वदन्निति / इति। तत्र प्राणबधवादे प्रस्तारं तावदभिधित्सुराह एवं भणतस्यस्येयं प्रायश्चित्तरचनावचति भणाति आलो-य निकाए पुच्छिते णिसिद्धे या साहु गिहि मिलिय सव्वे, पत्थारो जाव वयमाणो 77 / मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य हॉति गुरुगा या छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च / / 78|| स एव मुक्त्वा ततो निवृत्त्याऽऽचार्यसकाशं व्रजति मासलघु, आगत्य भणति-यथा तेन दर्दुरो मारितः, एवं भणतो मासगुरु।योऽवमाभ्याख्याता स गुरूणां सकाशमागतः,आचार्य श्चोक्तम्-(आलोय त्ति) सम्यगालोचय किमयं भवता दर्दरो मारितः। स प्राह-नमारयामि। एवमुक्ते प्रत्याख्यानदातुश्चतुर्लधु (निकाय त्ति) इतरो निकाचयति। रात्निकस्तु भूयोऽपि तावदेव भणति, तदा चतुर्गुरुा अवमरात्निको भणति-यदिन प्रत्ययस्ततः तत्र गृहस्थाः सन्ति, ते पृच्छयन्ता, ततो वृषभा गत्वा पृच्छन्ति, पृष्टे च सति षट् लघु / गृहस्थाः पृष्टाः सन्तः (निसिद्धे त्ति) निषेधं कुर्वन्ति, नास्माभिर्द१रख्यपरोपणं कुर्वन् दृष्ट इति षट्गुरु। (साहु त्ति) ते साधवः समागताः आलोचयन्ति नापद्रावित इति तदा च्छेदः / (गिहि त्ति) अथैवमभ्याख्यानदाता भणति-गृहस्था असंयता यत्प्रतिनाम चैतदलीकं सत्यं वा ब्रुवते. एवं भणतो मूलम्। अथासौ भणति (मिलिय त्ति) गृहस्थाश्च यूयं चैकत्र मिलिता अहं पुनरेक इति ब्रुवते अनवस्थाप्यम्। सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य बाह्या इति भणतः पाराञ्चिकम्। एवमुत्तरोत्तरं वदतः पाराश्चिक यावत्प्रायश्चित्तप्रास्तरो भवति। अथेदमेव भावयतिकिं आगओऽसि णाह, अडामि पाणवहकारिणा सद्धि। सम्म आलोएत्ति य, जा तिण्णि तमेव वियडेति / / 7 / / Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थार 432 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्थार रात्निकं विना स एकाकी समायातः / गुरुभिरुक्तः-किमेककी त्वमागतोऽसि ? स प्राऽऽह-नाहं प्राणवधकारिणा सार्द्धमटामि। एवमुक्ते रात्निक आगतः / गुरुभिरुक्तः सम्यगालोचय कोऽपि प्राणी त्वया व्यपरोपितो, नवेति। स प्राह-नव्यपरोपितः। एवं त्रीन वारान् यावदालोचाप्यते, यदि त्रिष्वपि वारेषु तदेव विकटयति आलोचयति, तदा परिस्फुटमेव कथ्यते। तुमए किर ददुरओ, हओ त्ति सो विय भणाति ण मए त्ति! तेण परं तु पसंगो, धावति एक्के य वितिए वा ||8|| किलेति द्वितीयस्य साधोमुखादस्माभिः श्रुतं-त्वया दर्दुरो हतो विनाशितः / स प्राऽऽह-न मया हत इति / ततः परमेवंभ णनानन्तरं प्रसङ्गः प्रायश्चित्तवृद्धिरूप एकस्मिन् रात्निके द्वितीये वा अधमरात्निके धावति। किमुक्तं भवति? यदि तेन रात्निकेन सत्यमेव दर्दुरो व्यपरोपितस्ततो यदि सम्यगा लोचयति भण्यमानो भूयो भूयो निकुते तदा तस्य प्रायश्चित्तवृद्धिः। अथ तेन न व्यपरोपितस्तत इतरस्याभ्याख्यान निकाचयतः प्रायश्चित्तं वर्द्धते। इदमेव भावयतिएक्कस्स मुसावादो, काउंनिण्हाइणो दुवे दोसा। तत्थ विय अप्पसंगी, भवति एक्को व अन्नो वा / / 81 // एकस्याभ्याख्यानदातुरेक एव मृषावादलक्षणो दोषः, यस्तु दर्दुरखधं कृत्वा निहतेतस्य द्वौ दोषौ / एकः प्राणातिपातदोषो, द्वितीयो मृषावाददोष इति। तत्राऽपि चाभ्याख्याने, प्राणातिपाते च कृतेऽप्येकोऽन्यो वाऽवमरात्निको यद्यप्रसंगी भवति तदा न प्रायश्चित्तवृद्धिः / किमुक्तं भवति ? यद्यवमरात्निकोऽभ्याख्यानं दत्त्वा न निकाचयति, यो वा अभ्याख्यातः सोऽपि न रुष्यति, तदा न प्रायश्चित्तवृद्धिः। अथाभ्याख्यातो भूयो भूयः समर्थयति, इतरोऽपि भूयो रुष्यति, तदा प्रायश्चित्तवृद्धिः। एवंद१रविषयः प्रस्तारो भवति।शुनकसर्पमूषकविषया अपि प्रस्तारा एवमेव भावनीयाः। गतः प्राणातिपातप्रस्तारः। सम्प्रति मृषावादाऽदत्ताऽऽदानयोः प्रस्तारमाहमोसम्मि संखडीए, मोयगगहणं अदत्तदाणम्मि। आरोवणपत्थारो, तं चेव इमं तु णाणत्तं / / 2 / / मृषावादे संखडीविषयं दर्शनम्, अदत्तादाने मोदकग्रहणम्, एतयोयोरप्यारोपणायाः प्रायश्चित्तस्य प्रस्तारः स एव मन्तव्यः। इदं तु नानात्वं विशेषःदीणकलुणेहि जायति, पडिसिद्धो विसति एसणं वहति। जंपति मुहप्पियाणि य, जोगतिगिच्छानिमित्ताई॥८३।। कस्यामपि संखड्यामकालत्वात्प्रतिसिद्धः साधू अन्यत्र गतैः, ततो मुहुर्तान्तरे रत्नाधिकेनोक्तम्- व्रजाभः संखड्यामिदानी भोजनकालः सम्भाव्यते। अवमो भणति-प्रतिषिद्धोऽहं न व्रजामि। ततोऽसौ निवृत्त्याऽऽचार्यायेदमालोचयति-यथाऽयं दीनकरुणवचनैर्याचते, प्रतिषिद्धोऽपि च प्रविशति, एषणां वहति प्रेरयति / अथवा एष गृहं प्रविष्टो मुखप्रियाणि योगचिकित्सानिमित्तानि जल्पति। एवंविधमृषावादवादं वदतः प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवति। सचाऽयम्वचइ भाणइ आलो-यय णिकाए पुच्छिए णिसिद्धे या साहु गिहिम्मि य सव्वे, पत्थारो जाव वदमाणे / / 4 / / मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च // 15 // गाथाद्वयमपि गताथम्। अथादत्ताऽऽदाने मोदकग्रहणदृष्टान्तं भावयतिजा फुसति भाणमेगो, वितिओ अण्णत्थ लड्डुए ताव। लखूण णीति इयरो, तद्दिस्स इमं कुणति कोइ।।८६|| एकत्र गृहे भिक्षा लब्धा, साऽवमेन गृहीता, यावदसौ एकोऽवमरत्निको भाजनं स्पृशति सम्यगादिष्टः तावत् द्वितीयो रत्नाधिकोऽन्यत्र संखड्यां लड्डुकान लब्ध्वा च निगच्छति, इतरः पुनरवमस्तान मोदकान दृष्ट्वा कश्चिदीर्ष्यालुरिदं करोति- "वच्चई" गाहा (84) "मासो लहुओ' गाहा (85) (वच्चइत्ति) सं निवृत्य गुरुसकाश व्रजति, आगम्य च भणति आलोचयेति, रत्नाधिकेनादत्ता मोदका गृहीता इति / शेषं प्राग्वत् / अथाऽविरतिवादे प्रस्तारमाहरातिणियवातितेणं, खलियमिलियपेल्लएण उदएणं। देवउले मेहुणम्मि य, अक्खाणं वा कुडंगे वा // 87 / / कश्चिदवमरात्निको रत्नाधिकेनाभीक्ष्ण शिष्यमाणः चिन्तयति-एष रत्नाधिकवातेन रत्नाधिकोऽहमिति गर्वेण मा दशविधचक्रबालसामाचार्यामस्खलितमपि कषायोदयेन तर्जयति / यथा हे दुष्ट! शिष्यक ! स्खलितोऽसीति तथा मां भिन्नतरमपि पदं पदेन विच्छिन्नं सूत्रमुच्चारयन्तं हा दुष्ट शैक्षा किमिति मिलितमुच्चारयसीति तर्जयति। तथा (पिल्लण त्ति) अन्यैःसाधुभिर्वार्यमाणोऽपि कषायोदयतो मा हस्तेन प्रेरयति / अथवेषा सामाचारी-रत्नाधि-कस्य सर्व क्षन्तव्यमिति, ततस्तथा करोमि, यथैष मरुलघुको भवति, ततोऽन्यदा द्वायपि भिक्षाचर्यायै गतौ तृषितौ वुभुक्षितौ चेत्येव चिन्तितवन्तौ यदस्मिन्नार्यादेवकुले कुडङ्गे वा वृक्षविषमे प्रथमालिका कृत्वा पानीयं पास्याम इति / एवं चिन्तयित्वा तौ सुख स्थितौ / अत्रान्तरे अवमरत्नाधिकः परिवाजिकामेकां तदभिमुखभागच्छन्तीं दृष्टा स्थितो, लब्ध एष इदानीमिति चिन्तयित्वा तं रत्नाधिक वदति-अहो ज्येष्ठाऽऽये ! कुरु त्वं प्रथमालिकां पानीय वा, अहं पुनः संज्ञा व्युत्सृक्ष्यामि। एवमुक्त्वा त्वरितं वसतावगत्य मैथुने अभ्याख्यातुं दातुं यथाऽऽलोचयति, तथा दर्शयतिजेट्ठजेण अकजं, सज्जं अजाघरे कयं अजं / उवजीवितोऽत्थ भंते!,मए वि संसट्ठकप्पोऽत्थ।।५५|| ज्येष्ठाऽऽर्वेणाद्य सद्य इदानीमागृहे कृतमकार्य मैथुनसेवालक्षणं, ततो यदव तत्संसर्गतो मयाऽपि संसृष्टकल्पो मैथुनप्रतिसेवनेऽस्मिन् प्रस्ठावे उपजीवितः / अत्राऽप्ययं प्रायश्चित्तप्रस्तार:-("वचति भणाति गाहा' (84) ('मासो लहुओ गाहा'' (85) अवमरात्निको निवृत्त्य गुरुसकाशं व्रजति लघुमासः / आगम्य च (गुरूत्तण त्ति) ज्येष्ठाऽऽर्येण मया वाऽकृत्यमासेवितमतो मम तावन्महाव्रतान्यारोपयत, एवं रत्ना Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थार 433 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पत्थिव धिकस्य लघूभवनानि प्रायेण भणतो गुरुमासस्ततोऽधिक आगतः। सूरिणा भणितः-किं त्वया संसृष्टकल्प आसेवितः ? स प्राऽऽहनाऽऽसेवितः, ततश्चतुर्लघु, इतरो निकाचयति चतुर्गुरु, इत्यादि प्राग्वद्रष्टव्यम् / गतोऽपिरतिकाबादः। अथापुरुषवादमाहतइउ त्ति कधं जाणसि, दिट्ठा णियया सें तेहिं मे वुत्तो। वट्टति ततिओ तुज्झं, पव्वावेतुं मम वि संका ||6|| दीसति य पाडिरूवं, थितचंकमितसरीरभासाहिं। बहुसो पुरिसवयणे, सवित्थराऽऽरोवणं कुज्जा / / 60|| कोऽपि साधुस्तथैव च्छिद्रान्वेषी भिक्षातो निवृत्य रत्नाधिकमुद्दिश्याऽऽचार्य भणति-एष साधुस्तृतीयस्त्रैराशिकः / आचार्यः प्राऽऽह-कथं जानासि ? प्राऽऽह-मयेतस्य निजका दृष्टाः। तैरह-मुक्तः-वर्तत युष्माकं तृतीयः प्रवाजयितुम् / तता ममाऽपि हृदये शङ्का जाता / अपि च-अस्य साधोः प्रतिरूपं नपुंसकाऽनुरूपं स्थितचङ्क्रमितशरीरभाषाऽऽदिभिर्लक्षणैदृश्यते, एवं बहुशः अपुरुषवचने नपुंसकवादे वर्तमानस्य सविस्तरामारोपणां कुर्यात् / तद्यथा- "वचति भणति गाहा'' (84) 'मासो लहुओ गाहा' (85) / स निवृत्य एकाकी प्रतिश्रयं व्रजति लधुमासः, आगतो गुरून भणति एष साधुस्त्रैराशिक एतदीयसज्ञातकैरुक्तः, अतो गुरुमासः। शेष प्राग्वत्। अथदासवादमाहखरउ त्ति कहं जाणसि, देहाऽऽयारा कधेति से हंदी। छिक्कोवण दुभंडो, णीयाऽऽसी दारुणसभावो / / 1 / / कोऽपि साधुस्तथैव रत्नाधिकमुद्दिश्याऽऽचार्य भणति- अयं साधुः खरको दास इति / आचार्य आह-कथं जानासिः ? इतरः प्राऽऽहएतदीयनिजकैर्मम कथितम् / तथा देहाऽऽकाराः कुब्जताऽऽदयः (से) तस्या हन्दीत्युपदर्शने / दासत्वं कथयन्ति / तथा (छिकोवण त्ति) शीघ्रकोपनोऽयम / 'दुभंडो' नाम-असंवृतपरि धानाऽऽदिः, नीचाऽऽसी नीचतरे आसने उपवेशनशीलः, दारुणस्वभाव इति प्रकटार्थः। "अथ देहाऽऽकार त्ति" पदं व्याख्यातिदेहेण वा विरूवो, खुज्जो वडभो य बाहिरप्पादो। फुडमेव से आयारा, कधेति जह एस खरउ त्ति / 12 / स प्राऽऽह-देहेनाप्ययं विरूपः। तद्यथा-कुब्जो, वडभो, बाह्यवादो वा। एवमादयस्तस्याऽऽकाराः स्फुटमेव कथयन्ति यथा खरको दास इति। अथाऽऽचार्य माहकेइ सुरूव दुरूवा, खुज्जा वडभा य बाहिरप्पाया। न हु ते परिभवियव्वा,वयणं च अणारियं वोत्तुं // 63|| इह नामक मोदयवैचिव्यतः केचिन्नीचकुलोत्पन्ना अपि दासाऽऽदयः सुरूपा भवन्ति केचित्तु राजकुलोत्पन्ना अपि दुरूपा कुब्जा बडभा बाह्यपादा अपि भवन्ति / अतो (नहु) नैव ते परिभवितव्याः, अनार्थ च वचनं दासोऽयमित्यादिकं वक्तुं न योग्यः / अत्रापि प्रायश्चित्तप्रस्तार:"वचति भणात्ति गाहा' (84) / "मासो लहुओ' गाहा (85) / गतो दासवादः। अथ द्वितीयवदमाहविइयपयमणाभोगे, सहसा वोत्तूल वा समाउट्टो। जाणंतो वावि पुणो, विविंचणट्ठा वदे जाहिं / / 64 द्वितीयपदे अनाभोगेन सहसा वा प्राणवधाऽऽदिविषयं वादमुक्त्वा भूयः समावर्तिते प्रत्यावर्तिते मिथ्यादुष्कृतं न पुनः करणेन दद्या-दित्यर्थः / अथवा-जानन्नपि पुनःशब्दो विशेषणे / स चैतद्विशिनष्टि-योऽयोग्यः स हि प्रवाजितस्तस्य विवेचनार्थ प्राणातिपाताऽऽदिवादमपि वदेत, यतमो बुद्धे जिनो गणे निर्गच्छति (?) / बृ०६ उ० / स्था०। संग्रहाऽऽदिके नयराशी, प्रस्तार्यते येनेति प्रस्तारः। सम्म० १काण्ड। "तित्थयरवयणसंगहविसेसमूलवागरणी।" विस्तारे, नि० चू०१ उ० / प्रस्तार्यत इति प्रस्तारः / कटे. बृ०१ उ० 3 प्रक० / ('पत्थारो अंतो बहि, अंतो बंधाहिँ चिलिमिलि उवरिं।" प२०१ब इत्यादि गाथा 'वसहि' शब्दे) कटकमर्दे,बृ०१उ०३ प्रक०। पत्थारपसंग पुं० (प्रस्तारप्रसङ्ग) प्रस्तारः प्रस्तरणं, प्रसङ्ग उत्त रात्तरदुःखसम्भव इत्यर्थः / प्रस्तारप्रसञ्जेने, नि०० 4 उ०। पत्थारी स्त्री० (देशी) निकरे, प्रस्तरे च 1 देना० 6 वर्ग 66 गाथा। संस्तारके, "पत्थारी संथरओ।" पाइ० ना०१५३ गाथा। पत्थाव पुं० (प्रस्ताव) समये, पाइ० ना०६७ गाथा। पत्थावाय पुं० (पथ्यावात) वनस्पत्यादिहिते वायौ, भ०५ श०२ उ०। पत्थिअ पुं० (प्रार्थित)प्रार्थनं प्रार्थो, णिजन्तादच् / प्रार्थः संजातोऽस्मिन्निति प्रार्थितः। अभिलाषाऽऽन्मके ( जी०३ प्रति० 4 अधिo नि०) प्रार्थनारूपेऽर्थे, विपा०१ श्रु०१ अ०। भ०। भगवदुत्तरप्रार्थनाविषये, विपा०१ श्रु०१ अ०। अभिलषिते, दशा० 1 अ० कल्प०। ज्ञा० / लब्धं वाञ्छिते, भ०११०२ उ०ा लब्धुमाशंप्तिते, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। चिन्तिते, औ०। "चिंतिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे।" एकार्थाः। विपा०१ श्रु०१अ०॥ * प्रस्थित त्रि०"स्थः ठा-थक-चिट्ठ-निरप्पाः" ||4|16|| इति बाहुलकत्वान्न टत्वम् / प्रा०४ पाद / प्रवृत्ते, "पत्थाणे पस्थिया' (पत्थाणे त्ति) प्रस्थाने परलोकसाधनमार्गे प्रस्थितं प्रवृत्तं फलाऽऽद्याहारणार्थ, गभने वा प्रवृत्तम्। भ० 11 श०६ उ०। शीघ्र इत्यर्थे, देना० 6 वर्ग 10 गाथा। पत्थिया स्त्री० (प्रस्थिका) पिटके,वंशमयभाजनविशेष, विपा०१ श्रु०३ अ०। पत्थिव त्रि० (पार्थिव) पृथिवीविकारेऽर्थे, यथा पार्थिव शस्त्रं पृथिवीविकारनिष्पन्न शस्त्रम्। सूत्र०१ श्रु०८ अ०। पृथिवीश्वरे राजनि, जं०। 36 नृपगुणाः षट्त्रिंशताऽधिकप्रशस्तैः पार्थिवगुणैर्युक्तः। तेचेमे''अव्यङ्ग 1 लक्षणपूर्ण २-रूपसंपत्ति 3 भृत्तनुः / अमदो 4 जगदोजस्वी 5, यशस्वी 6 च कृपालुहृत् 7 / 1 / / कलासु कृतकर्मा 8 च, शुद्धराजकुलोद्भबः 6 / वृद्धानुग 10 स्त्रिशक्ति ११श्च, प्रजारागी 15 प्रजागुरुः 13 // 2 // समर्थनः पुमर्थानां, त्रयाणां सममात्रया 14 / कोशवान् 15 सत्य लंधश्च 16 चरदृग 17 दूरमन्त्रदृग 18 // 3 // Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थिव 434 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पद्धर असिद्धकर्मोद्योगी 16 च, प्रवीणः शस्त्र 20 शास्त्रयोः 21 / चन्द्रादीनां दक्षिणमेव मेरुर्भवति यस्मिन्नावर्त्तमण्डलपरिभ्रमणरूपे स निग्रहा 22 ऽनुग्रहपरो 23, निलञ्चो दुष्टशिष्टयोः 24 / / 4 / / प्रदक्षिणः,प्रदक्षिण आवर्ती येषां मण्डलाना तानि प्रदक्षिणाऽऽवर्तानि। उपायार्जितराज्यश्री 25 -दनिशौण्डो 26 ध्रुवं जयी 27 / मेरुदक्षिणत आवर्ते,जी०३ प्रति० 4 अधिका न्यायप्रियो 28 न्यायवेत्ता 26, व्यसनानां व्यपासकः 30 // 5 // पदित्त त्रि० (प्रदीप्त) प्रकर्षेण दीप्तः प्रदीप्तः। अत्यन्तदीप्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अशार्यवीर्यो 31 गाम्भीर्यो ३२-दार्य 33 चातुर्यभूषितः 34 / / अ०। अन्त। प्रणामावधिकक्रोध 35 -स्तात्त्विकः सात्विको 36 नृपः // 6 // एते | पदिसा स्त्री० (प्रदीश्) प्रगता दिक् प्रदिक् / विदिशि, आचा०१ श्रु०१ पाठसिद्धार्थाः / जं० 3 वक्ष०1"नरनाहो पत्थिवो नियो राया।" पाइ० अ०६ उ०। ना० 100 गाथा। पदिस्स अव्य० (प्रदृश्य) प्रकर्षण दृष्ट्रेत्यर्थे, 'पदिस्सा य दिस्सा पत्थीण न० (देशी) स्थूलवस्त्रे, देना०६ वर्ग 11 गाथा। वयमाणा / " भ० 18 श० 8 उ०। पत्थुय त्रि० (प्रस्तुत) अधिकृते, पंञ्चा० 18 विव० / आव० / अनु०। | पदीव पुं० (प्रदीप) प्रदीपयतीति प्रदीपः / विशे० / ज्वलितो-ज्ज्वले. विशे०। सूत्र। प्रश्र०२ आश्र० द्वार। दीपे प्रकाशवत्यर्थे, विशे०। पत्थेमाण त्रि० (प्रार्थयमान) अभिलषति, "अन्नं पि य से नाम, कामा | पदीविय त्रि० (प्रदीपित) उज्ज्वालिते, को०। रोग त्ति पंडिया विति। कर्म पत्थेमाणे, रोगे पत्थेइ खलु जंतू // 1 // " | पदुक्खेव पुं० (प्रत्युत्क्षेप) मुरजकंसिकाघातोत्थानध्वनौ, स्था० 7 ठा०। दश०२ अ०। * प्रतिक्षेपपुं० मुरजकंसिकाघातोत्थानध्वनौ, स्था०७ ठा० / पद न० (पद) पद्यते इति पदम् / अर्थपरिसमाप्तियुक्ते शब्दे, पं०५०१ पदुट्ठ त्रि० (प्रदुष्ट) प्रद्वेषमापन्ने, बृ० 3 उ० / प्रद्वेष गते, उत्त० 32 अ०। कल्प।''अत्थुवलद्धी जत्थ तु, तं होति पदं ति।" प०भा०१ कल्प। पदुम्भेश्य न० (पदोद्भेदक) पदविभागपदार्थमात्रकथनपरे पारायणे, व्यक भ० / ('पय' प्रकरणे विस्तरं वक्ष्यामि)। 3 उ०। पदअ धा० (गम) गतौ, "गमेरई-अइच्छाणुवज्जावजसोक्कु -साकु- 1 पदूमिय त्रि० (प्रदून) प्रकर्षेण क्लेशिते, बृ०३ 301 स-पच्चड्डु-पच्छंद णिम्मह-णी-णीण-णीलुक-पद-अ-रम्भ- | पदेस पुं० (प्रदेश) धर्मास्तिकायाऽऽदीनां परमनिकृष्टंऽशे, उत्त०१ अ०। परिअल्ल-वोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहाव-हराः" पदेसयंत त्रि० (प्रदेशयत्) प्ररूपयति, विशे० / / / 8 / 4 / 162 / / इति सूत्रेण गमधातोः 'पदआ' आदेशः। पदअइ। पदेससंजोग पुं० (प्रदेशसंयोग) प्रदेशानामितरेतरसंयोगाऽऽख्ये गच्छति / प्रा०४ पाद। संयोगभेदे, उत्त० 1 अ०। ('संजोग' शब्दे विवृतिः) पदग पुं० (पदक) पिशाचभेदे, प्रज्ञा०१ पद। पदोस पुं० (प्रद्वेष) अतिमाने, नि०चू०१ उ०। "पदोसेण पडिसेवमाणस्स पदग्ग न० (पदाग्र) पदानामग्रं पदाग्रम्। पदपरिमाणे, नि०चू० 1 उ०।। __ असुद्धो भवति।" नि०चू०१ उ०। सूत्र०। स० ! पदप्रमाणे, आचा०१ श्रु०१०१ उ०। * प्रदोष पुं० दिवसाऽवसाने, पञ्चा०२ विव०। पदट्ठवणा स्त्री० (पदस्थापना) गणिवाचनाऽऽचार्याऽऽदिपद-प्रतिष्ठापने, | पद न० (पद्र) लघुग्रामे, ''गामहडं खेडयं पह।" पाइ० ना० 152 गाथा / ध०२ अधि०। ग्रामस्थाने, दे०ना०६ वर्ग 1 गाथा। पदबद्ध न० (पदबद्ध) गेयपदैर्निबद्धे, स्था०७ ठा०। पद्धइ स्त्री० (पद्धति) प्रक्रियायाम, प्रति०। पङ्क्ती , स्था० 2 ठा० 4 पदमग्ग पुं० (पदमार्ग) पदानां मार्गे सोपाने, पदमार्ग संक्रामति, "जे भिक्खू उ०। परिपाट्याम्, आ०म० अ०। पदमग्गं वा संकम वा अवलंवणं वा अन्नउथिएण वा गारथिएण वा | पद्धंसाभाव पुं० (प्रध्वंसाभाव) नाशाऽपरपर्यायसंसर्गाभावे, रत्ना० कारेति, कारत वा साइजई"।११। नि००१ उ०। ('अण्णउत्थिय' प्रध्वंसाभावं प्राऽऽहु:शब्दे प्रथमभागे 488 पृष्ठे व्याख्यातमिदम्-११ सूत्रम्) यदुत्पत्तौ कार्यस्यावश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसाभावः // 61 / / पदविग्गह पुं० (पदविग्रह) पदपृथक्करणे, आ०म०१ अ०। यस्य पदार्थस्योत्पत्तौ सत्यां प्रागुत्पन्नकार्यस्यावश्यं नियमेन, पदसम न० (पदसम) पदं गेयपदं नासिकाऽऽदिकमन्यतरबन्धनेन बद्धं / अन्यथाऽतिप्रसङ्गाद, विपत्तिर्विघटनम्, सोऽस्य कार्यस्य प्रध्वंसाऽयत्र स्वरेऽनुयाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीत गीयते तादृशे गेयगुणे, स्था० भावोऽभिधीयते // 61 // ७ठा०॥ उदाहरन्तिपदाण न० (प्रदान) वितरणे, आव० 4 अ०॥ यथा कपालकदम्बकोत्पत्ती नियमतो विपद्यमानस्य कलशस्य पदाहिण पुं० (प्रदक्षिण) प्रकर्षेण दक्षिणे, जी०३ प्रति०४ अधिo, कपालकदम्बकम् // 62 // रत्ना० 3 परि० / पदाहिणावट्टपुं० (प्रदक्षिणावर्त) प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमता पद्धर (देशी) ऋजौ, दे०ना०६ वर्ग 10 गाथा। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धार 435 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पबालमंत पद्धार (देशी) दे०ना०६ वर्ग 13 गाथा। पधाविय त्रि० (प्रधावित) इतस्ततः प्रकर्षेण गते, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। विगतगती, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। पधूविय त्रि० (प्रधूपित) धूपाऽऽदिना धूपिते, आचा० 2 श्रु०१ चू०२ अ०१ उ०। पधोवण न० (प्रधावन) प्रकर्षण हस्ताऽऽदेविने, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ०६ उ० / शीतोदकाऽऽदिना पुनः पुनर्धावने, नि०चू०१ उ०।। (अङ्गादान धावतीति 'अंगादाण' शब्दे प्रथमभागे 40 पृष्ठे उक्तम्) | (पादानामुच्छोलनाप्रधावनम् 'अणायार' शब्दे प्रथमभागे 314 पृष्ठे उक्तम्) ('अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 480 पृष्ठे तैर्गृहस्थैश्च पदानां प्रधावनमुक्तम) पन्थ पु० (पथि) "वर्गेऽन्त्यो वा" ||811 / 30 / / इति सूत्रेणानु-स्वारस्य नकारः / मार्ग प्रा० 1 पाद। पन्धव पुं० (बान्धव) स्वार्थे अण। "चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराधद्वितीयौ" // 4325 / / इति वस्य पकारः। भ्रातरि, प्रा०४ पाद। पन्नय पुं० (पन्नग) सर्प, "उरओ अही भुवंगो, भुवंगमो पन्नओ फणी भुअओ।'' पाइ० ना० 26 गाथा। पन्नयरिउ पुं० (पन्नगरिपु) गरुडे, “विणयसुओ खयराओ, तक्खो पन्नयरिऊ गरुलो।" पाइ० ना०२५ गाथा। पन्नाड धा० (मृद) क्षोदे, "मृदो मलमढ-परिहट्ट-खड्डुचड्ड्-मडु-पन्नाडाः" 11/4/126|| इति सूत्रेण 'पन्नाड' आदेशः / 'पन्नाडइ।' मृदनाति / प्रा०४ पाद। पन्नाडिअय त्रि० (मर्दित) चूर्णिते, ''पन्नाडिअयं परिहट्टि।" पाइ० ना०१७८ गाथा। पपिआमह पुं० (प्रपितामह) ब्रह्मणि, आ०म०१ अ०। पपोत्त पुं० (प्रपौत्र) पुत्रपुत्रे, विशे०। पप्प अव्य० (प्राप्य) आश्रित्येत्यर्थे , भ०१६ श०८ उ०। आसाद्येत्यर्थे / दश० 3 अ०। "पडुच त्ति वा पप्प त्ति वा अहिकिच त्ति वा एगट्ठा / ' आ०चू०१ अ०। पप्पग पुं० (पर्पक) वनस्पतिविशेष, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। नवतृणे गृहे, वाच०। पप्पड पुं० (पर्पट) पर्प-अटन् / मुद्गचणकाऽऽदिपिष्टकृते वृत्ता-ऽऽकृती अग्नितापसहकृतभक्ष्यपाके 'पापड'' इति ख्याते पदार्थ, प्रव० 37 द्वार / नि०चू० / प्रज्ञा० / जी० / सौराष्ट्रमृत्तिकायाम, उत्तरदेशभवे सुगन्धद्रव्ये च। स्त्री०। गौ० डीष् / वाच०। जं०२ वक्ष०। पर्पटाऽऽकृतौ शुष्कमृत्खण्डे, 'पप्पडगो णामसरियाए उभयतडेसु पाणिएण जरेल्लिया भूमी, सा तम्मि पाणे ओहट्टमाणे तरिया होउं उण्हेण छिन्ना पप्पडी भवति।" नि०चू० 130 / जा पप्पडिया स्त्री० (पर्पटिका) शष्कुलिकायाम्.'"तिलपप्पडिया।" तिलशष्कुलिका / प्रज्ञा० 1 पाद। पप्पीअ पुं०(देशी) चातके, दे०ना०६ वर्ग 12 गाथा। पप्पुय त्रि० (प्रष्णुत) जलानॆ, "पप्पुयलोयणा ओससियरोम-कूया।" (आ०म०१ अ० / झा० / प्रश्र०।) प्रष्णुतलोचना पुत्रदर्शनप्रवर्तिता नन्दजलेन। भ०६श०३३ उ०। पप्पंदण न० (प्रस्पन्दन) प्रचलने, सूत्र०१ श्रु० 1 अ० 1 उ०। पप्फाडा (देशी) अग्निभेदे. दे०ना०६ वर्ग गाथा। पप्फिडिअन० (देशी) प्रतिफलिते, देना०६ वर्ग 22 गाथा। पप्फु अन० (देशी) दीर्घ , उड्डीयमाने च / दे०ना०६ वर्ग 64 गाथा। पप्फुल्ल त्रि० (प्रफुल्ल) विकसिते, "पफुल्लकेसरोवचिया / " प्रफुल्लविकसितैः केसररिति, केसरोपलक्षितरुपचिता। उपचित-शोभाके, जी० 3 प्रति०४ उ०। पप्फोडण न० (प्रस्फोटन) प्रकर्षेण स्फोटनं प्रस्फोटनम्। झाटने, ध० 3 अधि०। उत्त०। प्रश्र० स्था०।आस्फोटने, सकृदीषद्वा स्फोटनम, अतोऽन्यत्प्रस्फोटनम् / दश०४ अ० / प्रश्र / प्रकर्षण रेणुगुण्डितस्येव वस्त्रस्य धूनने, स्था० 6 ठा०। (आचार्यपाद-प्रस्फोटनम् 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 12 पृष्ठे उक्तम्) पप्फोडिअ त्रि० (प्रस्फोटित) 'पप्फोडिय' शब्दार्थे "पप्फोडियं च पक्खोडिअं।" पाइ० ना०२४३ गाथा। पप्फोडिय त्रि० (प्रस्फोटित) प्रकर्षेण विदारिते, ध० 2 अधि० / निझाटिते, चूर्णिते, दे०ना०२७ गाथा / आ०म० पप्फोडियमोहजाल पुं० (प्रस्फोटितमोहजाल) प्रकर्षण स्फोटित मोहजाल मिथ्यात्वाऽऽदि येन सः। ध०२ अधि० / संथा। विवेकिनां मोहजालविलयाऽऽपादके श्रुतधर्म, ल०। पप्फोडेमाण त्रि० (प्रस्फोटयत्) प्रस्फोटनं कारयति झाटयति, "पप्फो डेमाणे वा पमज्जेमाणे वा णाइक्कमइ।' स्था०६ ठा० / पबंध पुं० (प्रबन्ध) प्रकृष्टोऽन्यबन्धेभ्यो विलक्षणः पूर्वावस्थापरित्यागेनोत्तरोत्तरावस्थारूपतया परिणामेन यो बन्धः स प्रबन्धः। अनेकक्षणेषु एकद्रव्यताऽऽपादके बन्धे, अने०१ अधिउपाङ्गोक्तप्रपञ्चनपरे ग्रन्थे, नि०१श्रु०३ वर्ग 1 अ०॥ पबंधण न० (प्रबन्धन) प्रबन्धेन करणे "कहाए अपबंधणे।" स०१२ सम०। पबंधवित्ति त्रि० (प्रबन्धवृत्ति) प्रकृष्टोऽन्यबन्धेभ्यो विलक्षणः पूर्वाऽवस्थापरित्यागेनोत्तरोत्तरावस्थारूपतया परिणामेन यो बन्धः स प्रबन्ध इत्युच्यते / तेन वृत्तिर्वर्तनं स्वभावलाभो यः पदार्थानां सर्वक्षणेषु एकद्रव्यानुवृतौ। त्रिकालकोटिस्पर्शिन्यां नित्यतायाम, अने०१ अधि०। पबाल पुं० (प्रबाल) नवाड्कुरे, स्था० 4 ठा० 4 उ० / ईषदुन्मीलितपत्रभवे पल्लवे, प्रबालाः ईषदुन्मीलितपत्रभवाः / जी०३ प्रति०४ अधि०। ज०। विद्रुमे० ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०रा०ा प्रश्र० जी०। प्रज्ञा स्था० / भ० रत्नविशेषे, आ०म०१ अ०॥ पबालंकुर पुं० (प्रबालाकुर) रत्नविशेषस्य प्रबालाभिधानस्याङ्कुरे, आ०म०१ अ०। पबालमंत त्रि० (प्रबालवत्) विशिष्टप्रबालकुरोपेते, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पबालि(ण) 436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पभावई पबालि(ण) पुं० (प्रबालिन्) प्रबालवैशिष्ट्यशालिनि वृक्षे, स्था० 5 टा० | पभंजण पुं० (प्रभञ्जन) ऋषभदेवस्य शततमे पुत्रे, कल्प० 1 अधि०७ 330 क्षण। मानुषोत्तरपर्वतस्य प्रभञ्जनकूटाधिपतिदेवे, द्वी०। औत्तराहाणा पबाह पुं० (प्रबाध) प्रकृष्टायां पीडायाम, विपा० 1 श्रु०१ अ०। ज्ञा०। / वायुकुमाराणामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ०। प्रज्ञा० / भ०। 'पभंजणस्स पबुद्ध त्रि० (प्रबुद्ध) प्रकर्षण यथैव तीर्थकृदाह तथैवावगततत्त्वे, आचा०१ णं वाउकुमारिदस्स वायालीसं भवणावास-सयसहस्सा।'' स० 46 श्रु०५ अ० 5 उ०। सम०। लवणसमुद्रे ईश्वराऽऽख्यमहा-पातालाधिपतिदेवे, स्था० 4 ठा० पबोधण न० (प्रबोधन) विज्ञप्ती, प्रकर्षण बोधने, विशे०। 2 उ०। पबोहण न० (प्रबोधन) पबोधण' शब्दार्थ, विशे०। पभकं त पुं० (प्रभकान्त) विद्युत्कुमारेन्द्रयोहरिकान्तहरिसिंहयोपन्भट्ठत्रि० (प्रभ्रष्ट) प्रकर्षण स्खलिते, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०ा आव०। लोकपाले, स्था० 4 ठा०१ उ०। प्रश्नः। "पिअपडभट्टवगोरडी।" प्रा०४ पाद। पभव पुं० (प्रभव) पराक्रमे, है० / प्रभवनं प्रभवः / प्रसूतौ, उद्गमे, पञ्चा० पब्भार पु० (प्रारभार) ईषदवनतपर्वतभागे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। ईषदवनते 13 विव० / उत्पत्ती, स्था० 6 ठा० / "पभवो पसू इति एगट्ठा।" पं० गिरिदेशे, भ०५ श०७ उ० / ईषदवनतें वस्तुमात्रे, स्था० 10 ठा० ! भा०५ कल्प। उत्त०। विशे०। सम्भवे, आव०५ अ०। प्रभवन्ति सर्वाणि अनु०। ज्ञा०॥ तं०। भ० / यत्कटमुपरि कुडजागवत् कुब्ज तत्प्राग्भारम्। शास्त्राणि अस्मादिति प्रभवः / प्रथमे उत्पत्तिकारणे, नं० / विशे० / यद्वा-यत्पर्वतस्योपरि हस्तिकुम्भाऽऽकृति कुब्जं विनिर्गततत्प्राग्भारम्। नि०चू० / आर्यजम्बूनाम्नः काश्यपगोत्रस्य प्रभवनामशिष्ये, कल्प०२ नं० / पुगलनिचये, ज्ञा० / समूहे, गिरिगुहायां च / दे०ना०६ वर्ग 66 | अधि०८ क्षण। (स च चौरपतित्वे पूर्वं जम्बूस्वामिना प्रतिबोधित इति गाथा। 'जंबू' शब्दे चतुर्थभागे 1371 पृष्ठे उक्तम्) "सुहम्मं अग्गिवेसाणं, पब्भारगइ स्त्री० (प्राग्भारगति) द्रव्यान्तराऽऽक्रान्तस्य गतिभेदे, यथा जंबूनामं च कासवं / पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छ सिजंभवं तहा।।१।।"नं01 नावादेरधोगतिः। स्था०५ ठा०। पभवसिरी पुं० (प्रभवश्री) श्रीवीरजिनात्सप्तपञ्चाशदानन्दविमलगुरोः पब्भारा स्त्री० (प्रारभारा) प्राग्भारमीषदवनतमुच्यते। तदेवंभूतं गात्रं यस्या __ शिष्ये, ग० 3 अधि०। भवति सा प्रारभारा।पुरुषस्य सप्ततिवर्षादूर्ध्वमशीतिवर्षपर्यन्तंदशवर्षाऽऽ- पमा स्त्री० (प्रभा) प्रकाशने, स्वरूपेणावस्थाने, अनु०। कान्तौ, रा०। त्मिकायां दशायाम्, "संकुचियबलिय-चम्मो, संपत्तो अट्टमि दस / औ०।नं। प्रकाशे० स०। दीप्तौ, औ०। स०। प्रज्ञा०। अर्काऽऽभायाम्, नारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ।।१।।" स्था० 10 ठा० / नं०। द्वा०२० द्वा०। (व्याख्यातैषा 'जोगदिट्टि' शब्दे चतुर्थभागे 1636 पृष्ठे) दश०। वणे, अन्त०१ श्रु० 3 वर्ग 8 अ०। आत्मानुभवे, द्वा०२४ द्वा० / पभोअ (देशी) भोगे, देना० 6 वर्ग 10 गाथा। पभागर पुं० (प्रभाकर) श्रीऋषभदेवस्यैकोनसप्ततितमे पुत्रे, कल्प०१ पभ पुं० (प्रभ) हरिकान्तहरिसिंहयोर्भवनपतीन्द्रयोः प्रथमे लोकपाले, __ अधि०७ क्षण। स्था०४ ठा०१ उ०। स्वनामख्याते चित्रकरे, आ०चू०४ अ०। द्वीप- पभाचंदसूरि पुं० (प्रभाचन्द्रसूरि) चान्द्रकुलीये चन्द्रप्रभसूरि-शिष्ये, येन समुद्रविशेषाधिपतौ देवे, द्वी०। प्रभावकचरित्रनामा ग्रन्थो रचितः / स च वैक्रमीये सं० 1334 मिते पभंकर पुं० (प्रभङ्कर) सप्ततितमे महाग्रहे, "दो पभंकारा।" स्था०२ विद्यमान आसीत्। जै० इ०। ठा०३ उ०। चं० प्र०। कल्प०। सू० प्र०। सौधर्मदेवलोकस्थविमानभेदे, / पभाय पु० (प्रभात) उषःकाले, औ०। स्था०। अनु०। स०३ सम० / पञ्चमदेवलोकस्थविमानभेदे, स०८ सम०। दक्षिणयोः पभायतारणा स्त्री० (प्रभाततारका) प्रभातसमयधै ,''पभायतारग त्ति कृष्णराज्योर्मध्ये शुभकरापरपर्याय-लोकान्तिकविमाने, स्था०८ टा०। वा एवमेव धण्णस्य लोयणा।" प्रभातसमये तारका ज्योतिः,ऋक्षमिपभंकरा स्त्री०(प्रभङ्करा) चन्द्रस्य सूर्यस्य चचतुर्थ्यामग्रम-हिष्याम्, भ० त्यर्थः, सा हि स्तोकतेजोमयी भवतीति तयालोचनमुपमितमिति। अणु० 10 श० 5 उ० / जी० / जं० / सू०प्र० / ज्ञा० / स्था०। (अनयोः 3 वर्ग 1 अ०। पूर्वोत्तरभवकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 172 पृष्ठे उक्ता) वत्स- पभाव पुं० (प्रभाव) माहात्म्ये, पञ्चा० 4 विव० / ज्ञा० / सामर्थ्य, ध०२ कावतीविजयक्षेत्रयुगलराजधानीयुगले, ''दो पभंकराओ।" स्था०२ अधि०। प्रश्न० / षष्ठ्यां गौणानुज्ञायाम, नं०। ठा० 3 उ०। 'वच्छगावईविजए पभंकरा रायहाणी, पमत्तजला णई।" पभावई स्त्री० (प्रभावती) चेटकमहाराजदुहितरि वीतभयनगरज०४ वक्ष०। राजोदायनभायम्, आ०चू० 4 अ० / आव० / आ० कानि०चू०। पभंकरावई स्त्री० (प्रभङ्करावती) वत्सकावतीविजयराजधान्याम, यत्र ग० भ० / ( 'उदायण' शब्दे द्वितीयभागे 786 पृष्ठे वक्तव्यता) ऋषभस्वामी पूर्वभवे केशवो नाम जातः। प्रभङ्करैव प्रभङ्करावती। आ०चू० पार्श्वनाथभार्यायां कुशस्थलेशप्रसेनजिन्नृपपुत्र्याम्, कल्प० 1 10 // अधि०७ क्षण / मल्लिजिनमातरि कुम्भकराजभार्यायाम, ती०१८ पभंगुर त्रि० (प्रभड्गुर) प्रकृष्टविनशनशीले, आचा० 1 श्रु०८ अ०३ उ०। कल्प। ज्ञा० / स०। ति०। प्रव० / स्था० / बलदेवपुत्रस्य निषधस्थ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभावई 437 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पभावग भाव्याम्, आ०चू० 1 अ० / सागरचन्द्रमातरि, आव० 1 अ० / हस्तिनापुरनगरराज्ञो बलस्य भार्यायां महाबलकुमारस्य मातरि, भ० 11 2011 उ०। (कथा 'उदायण' शब्दे द्वितीयभागे७८८ पृष्ठे। 'दसउर' शब्दे चतुर्थभागे 2477 पृष्ठे च गता) पभावग पुं० (प्रभावक) दर्शनोद्भावके, प्रव० / "अट्ठ प्रभावग ति" विवरीषुराहपावयणी धम्मकही, वाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विज्जा सिद्धोय कवी,अद्वैव पभावगा भणिया / / 948|| प्रवचनं द्वादशा, तदस्यास्त्यतिशयवदिति प्रावचनी युगप्रधानाऽऽगमः, धर्मकथा प्रशस्याऽस्याऽस्तीति धर्मकथी, यः क्षीराऽऽश्रवाऽऽदिलब्धिसंपन्नः सजलजलधरध्वानानुकारिणा नदिनाऽऽक्षेपणीविक्षेपणीसंवेगजननीनिवेदनीलक्षणा चतुर्विधां जनित-जनमनःप्रमोदप्रथा धर्मकथा कथयति,वादिप्रतिवादिसभ्यसभापतिरूपायां चतुरङ्गायां परिषदि प्रतिपक्षप्रतिक्षेपपूर्वक स्वपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीति वादी, निरुपमवादलब्धिसंपन्नत्वेन वावदूकवादिवृन्दारकवृन्दैरप्यमन्दीकृतवा गविभव इति भावः / निमित्त त्रैकालिकलाभालाभप्रतिपादकं शास्त्रं, तद्वेत्त्यधीते वा स नैमित्तिकः, सुनिश्चितातीताऽऽदि निमित्तवेदीत्यर्थः / विप्रकृष्ट-टमप्रभृतिकं दुस्तपं तपोऽस्यास्तीति तपस्वी / (विज त्ति) मतुप्प्रत्ययलोपात विद्यावान, विद्याः प्रज्ञप्त्यादयः शासनदेवता-स्ताः सहायके यस्य स विद्यावान्, वज्रस्वामिवत् / अञ्जनपादलेपतिलकगुटिकासकलभूताऽऽकर्षणवैक्रियत्वप्रभृतयः सिद्धयः ताभिः सिद्ध्यति स्मेति सिद्धः। 'कवते नवनवभङ्गीवैदग्ध्यदिग्धैः पाकातिरे करसनीयरसरहस्याऽऽस्वादमेदुरितसहृदयहृदयाऽऽनन्दैनि:-शेषभाषावैशारद्यवैदग्ध्यहृद्यैर्गद्यपद्यप्रबन्धैर्वर्णनं करोतीति कविः / एते प्रवचन्यादयोऽष्टी प्रभावयन्ति स्वतः प्रकाशकस्वभावमेव देशकालाऽऽद्यौचित्येन सहायकरणात्प्रवचनं प्रकाशयन्तीति प्रभावकाःकथिताः, तेषां च कर्म प्रभावना, सा च सम्यक्त्वं निर्मलीकरोतीति / अन्यत्र पुनरन्यथाऽष्टी प्रभावका उक्ताः / तथाहि"अइसेस इड्डि 1 धम्मकहि, 2 वाई 3 आयरिय 4 खवग 5 नेमित्ती 6 / विजा ७य रायगणसंभया य 8 तित्थं पभाति / / 1 / / " अस्य व्याख्या-तत्र अतिशेषा अवधिमनःपर्यायज्ञानाऽऽमर्पोषध्यादयोऽतिशयास्तैस्तेर्वा ऋद्धिर्यस्यासी अतिशेषद्धिः, राजसमता नृपवल्लमाः, गणसमता महाजनाऽऽदिबहुमता इति / / 648|| प्रव० 23 द्वार / जीवा०। संथा०। ध०। अइसेसइड्डि धम्मकहिं, वादी आयरिय खमग णे मित्ती। विज्जा रायागणसं-मताय तित्थं पभावेति // 33 / / (अइसेस त्ति) अति सयसंपण्णो, सोय अतिसओ मणोहिअ-इसया अज्झयणा य / (इड्डि ति) इड्डिदिक्खिता रायाऽऽमच्चपुरोहितादि / (धम्मकहि ति) जे अक्खेवणि विक्खे वणिणिव्वे यणि संवेयणिए धम्ममातिक्खंति / वादी-वायद्धिसंपण्णो अजे ओ / आयरिओ सपरसिद्धतपरूवगो। खमगोमासियाऽऽदि / नेमित्ती अटुंगणिमित्तसंपण्णो। विजासिद्धो जहा-अजखउडो। रायसंमतो रायवल्लभेत्यर्थः / गणा पुरचा उविजादि, तेसिं सम्मतो। एते अट्ठविपुरिसा तित्थं पगासंति, परपक्खे ओभावेंति। भणिया दिहता / नि०चू०१ उ०। (अत्र प्रभावनमकुर्वता प्रायश्चित्तं दसणाया-रातियारपायच्छित्त' शब्दे चतुर्थभागे 2437 पृष्ठे प्रतिपादितम्) दर्शनप्रभावकाऽऽचार्यनिन्दाकेण वि गुणेण दंसण-पभावगं पिच्छिऊण आयरियं / केई कसायनडिया, तं पिहु हीलंति मूढमई // 7 // केनाऽपि अनिर्दिष्ट नाम्रा गुणेन जीवस्य निर्मलीकरणस्वभावेन दर्शनप्रभावकं, सर्वज्ञशासनप्रकाशकं प्रेक्ष्याऽऽचार्य सूरि केऽपि,न सर्वे, कषायनटिताः क्रोधाऽऽद्यभिहतास्तमपि दर्शनकबलमित्यपिशब्दार्थः / हीलयन्ति तिरस्कुर्वन्ति मूढमतय : कुबोधत्वाऽऽदिबाधितधिषणा इति गाथार्थः। अमुमेवार्थ सिद्धान्तभणित्या निवारयन्निदमाहकप्पम्मि वि भणियमिणं, सूरिणाऽऽसायगा इमे भणिया। जे सयलजणसमक्खं, भणंति एवं अहम्माणी // 76 / / कल्पेऽपि छेदग्रन्थे न केवलं शेषशासने इत्यपिशब्दार्थः / भणितमुक्तमिदं पूर्वोक्तम् / कथमित्याह-सूरीणामाचार्याणामाशातका अवज्ञाकारका इमे वक्ष्यमाणा भणिताः प्रतिपादिताः, ये अनिर्दिष्टनामानः साध्वादयः सकलजनसमक्षं समस्तलोकप्रकट भणन्ति गदन्त्येवं वक्ष्यमाणनीत्या, अहंमानिन आत्मोत्सेकिन इति गाथार्थः / कल्पोक्तमेवाऽऽहइड्डिरससायगरुया, परोवएसुज्जया जहा मंखा। अत्तह्रघोसणरया,पोसंति दिया व अप्पाणं / / 77|| परोपदेशोद्यता अन्यधर्मकथननियुक्ता मङ्खा इव विचित्र फलकग्राहिनरविशेषा इव, यथाशब्द उपमानार्थः, सच योजितः, एवमभिप्रायः- मड्खो हि परेभ्यः कथयति, स्वयं च न करोत्येव- मेतेऽपि आत्मार्थ घोषणरताः स्वकार्यप्रतिपादनासक्ताः,पोषयन्ति उपचिन्वन्ति द्विजा इव ब्राह्मणा इवाऽऽत्मानं स्वमेवं वदन्त आचार्याऽऽशातका इति हृदयमिति कल्पगाथार्थः। अत्रैवार्थे सूत्रेणैव ससंबन्धां किश्चिद् न्यूनां गाथामाहअन्नं च एत्थ दोसो,लोयविरुद्धं हविज इय वयणं / रीढा जणपुज्जाणं, वयणाउ"" अन्यच्चेत्यभ्युचये। अत्राऽऽचार्यावर्णवादकरणे दोषो दूषणं लोको-विरुद्धं जननिन्द्यं भवेज्जायतेति वचनमेवं प्रतिपादनम्। कस्मात्? रीढा अवज्ञा जनपूज्याना लोकमान्यानां वचनात् पञ्चाशकभण-नात् / तत्र हि लोकविरुद्धानि प्रतिपादयता भणितम्- "बहुधम्म-चरणहसणं, रीढा जणपूयणिज्जाणं।'' इति किञ्चिदूनगाथार्थः / / 4 / / एवं स्थिते जीवोपदेशं साधिकगाथया प्राह """""""ता तुमंजीव // 78|| मा मा कुणसु अवण्णं, सया वि खलु तेसि कसाय नडिओ वि जेण भवपंजराओ, मुच्चसि निस्ससयं झ त्ति / / 7 / / तस्मात्त्वं जीव / / 78|| मा कुरु अवज्ञां सदाऽपि तेषां दर्शनप्रभाव काऽऽचार्याणां कषायनटितोऽपि, ये न भवपञ्जरात् मुच्यते निरसंशयं झगितीनि गाथाऽक्षरार्थः / दर्शनप्रभावकाऽऽचार्यनि Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभालग 438 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पभावणा न्दाविचारवर्णनस्त्रयोदशोऽधिकारः / जीवा० 13 अधि० / दश०। नि०० / संथ०। ध०। पभावणा- स्त्री० (प्रभावना) जिनशासनोद्भावनायाम्, पञ्चा० 6 विव० / स्वतीर्थोन्नतिकरणे, उत्त० 28 अ० / धर्मकथाऽऽदिभिस्तीर्थख्यापनायाम, ध०१ अधिक प्रभाव्यते विशेषतः प्रकाश्यते इति प्रभावनाव्युत्पत्तेः णिच् / 'ण्यासश्रन्थो० // 3 // 3 / / 107 / / इत्यादिना (पाणि०) भावेऽनप्रत्ययः / स चार्थात्प्रवचनस्य / व्य०१ उ० / वृ० / प्रभावना धर्मकथा प्रतिवादिनिर्जयदुष्करतपश्चरणाऽऽदिभिर्जिनवचनप्रकाशनं, यद्यपि च प्रवचनं शाश्वतत्वात्तीर्थकरभाषितत्वाद्वा सुरासुरनमस्कृतत्वाद्वा / स्वयमेव दीप्यते, तथाऽपि दर्शनशुद्धिमात्मनोऽभीप्सुर्यो येन गुणेनाधिक: स तेन तत्प्रवचनं प्रभावयति; यथा भगवदाचार्यवज्रस्वामिप्रभृतिक इति। प्रव०६ द्वार। जिनशासनस्योत्सर्पणकरणे, ध०३ अधि० / प्रभवति जैनेन्द्र शासन, तस्य प्रभवतः प्रयोजकत्वे, ध०२ अधि०। धर्मकथाऽऽदिभिरर्थख्यापनायाम्, “पभावणाए उदाहरणं ते चेव अज्जवइरा, जहा तेहिं अग्गिगिहाओ सुहुमकाइयाई आणेऊण सासणस्स उन्भावणा कता, एवमक्खाणयं जहा आवस्सए तहा कहेयव्वं / " ('तचाऽऽख्यानकम् अजवइर' शब्दे प्रथमभागे 218 पृष्ठे विस्तरत उक्तम्) एवं साहुणा वि सव्वपयत्तेण सासण उढभवियव्यं।" दश० अ०1 ग० / संथा०। जीत० / नि००। "चोदग आह-णणु जिणाणं पवयणं सभावसिद्धंण झ्याणिं साहियव्वं?" गुरु भणइकामं सभावसिद्धं, तु पवयणं दिप्पते सयं चेव। तह वि य जो जेणऽहिओ, सो तेण पभावए तं तु // 31 / / कामसद्दोऽभिधारियत्थे, अणुमयत्थे वा / इह तु अणुमयत्थे दट्ठव्यो। सो भावी सभावो सहजभावः, आदित्यतेजोवन्नपरकृतेत्यर्थः / तेन स्वभावेन सिद्ध प्रख्यातं, प्रथितमित्यर्थः / तुः पूरणे। 'प्र' इत्ययमुपसर्गः, युति जं तं वयणं पावयणं पवयणं, पहाणं वा वयणं पवयणं, पगत वा धयणं, पसत्थं वा वयणं पवयण, दीप्यते भासते सोभते इति भणियं भवति। सयमिति अप्पाणेण, चसद्दो अत्थाणुकरिपणे। एवसद्दो अवहारणे। (तह वि यत्ति) जइ वि य एवसद्दणावधारियं पवयणं सयं पसिद्ध तह वि य पभावण भण्णति, चशब्दो जहाहसम्भवं योजो, जोगारेण अणिद्दिवो पुरिसो, जेण त्ति अणिद्दिष्टेण अतिसएण अधिको प्रबलो। जोगारुट्टिस्स सोगारो णिवेसे, तेगारो वि जेगारस्स णिद्देसे / प्रख्यापयति तदिति प्रवचनम् / अमूढदिट्ठिउववूहथिरीकरणवच्छल्लपभावणाणं सरूवया भणिता। नि०चू०१ उ० / तीर्शप्रभावनानिमित्तं प्रतिवर्षमेकैकशोऽपि गुरुप्रवेशोत्सवः संघपरिधापनिका प्रभावनाऽऽदि च कार्यम् / ध०२ अधि०। धर्मार्थना भावशुद्धिर्विधेयेत्युपशमतामिच्छता शासनमालिन्य सर्वथा रक्षणीयम्। अन्यथा महाननर्थ इति दर्शयन्नाहयः शासनस्य मालिन्ये-नाभोगेनाऽपि वर्तते। स तन्मिथ्यात्वहेतुत्वा-दन्येषां प्राणिनां ध्रुवम् // 11 // बध्नात्यपि तदेवालं, परं संसारकारणम् / विपाकदारुणं घोरं, सर्वानर्थविवर्धनम् / / 2 / / यः कोऽपि श्रमणाऽऽदिः शासनस्य जिनप्रवचनस्य मालिन्ये लोकविरुद्धाऽऽचरणेनोपघाते। आह च - "छकायदयावंतो, वि संजतो दुल्लभ कुणइ बोहिं। आहारे नीहारे, दुंगुछिए पिंडगहणे / / 1 / / " अनाभोगेनापि अज्ञानेनापि, किं पुनराभोगेनाऽपि. व्याप्रियते स प्राणी तेन जिनशासनमालिन्येन करणभूतेन मिथ्यात्वहेतुर्विपर्ययबोधजनकस्तन्मिथ्यात्वहेतुः, तद्भावस्तत्त्वम्। अथवा-तस्मिन् जिनशासनविषये मिथ्यात्वहेतुत्वं मिथ्यात्वभावजनकत्वन्-तन्मिथ्यात्वहेतुत्वं, तस्मात्तन्मिथ्यात्वहेतुत्वात्, केषां मिथ्यात्वहेतुत्वादित्याह-अन्येषामात्मव्यतिरिक्तानां, ये हि तस्यासदाचारेण जिनशासनं हीलयन्ति तेषा, प्राणिना जीवानां, ध्रुवमवश्यन्तया। बधात्यपि स्वात्मप्रदेशेषु संबन्धयत्यपि न केवलं तेषां तज्जनयति, तदेव मिथ्यात्वमोहनीयकर्मव यदन्यप्राणिनां जनितं, न त्वन्यच्छुभं कर्मान्तरम्, अलमत्यर्थ निकाचनाऽऽदिरूपेण, परं प्रकृष्ट, संसारकारणं भवहेतुं, विपाकदारुण दारुणविपाक, घोर भयानकं, सर्वाऽनर्थविवर्धनम-निखिलप्रत्यूहहेतुम् / ननु सम्यगदृष्टिर्न मिथ्यात्वं बध्नाति, मिथ्यात्वहेतुकत्वान्मिथ्यात्वप्रकृतेः? अत्रोच्यते-शासनमालिन्योत्पादनाऽवसरे मिथ्यात्वोदयात् मिथ्यादृष्टिरेवाऽसावतो मिथ्यात्वबन्ध इति / / 1 / / उक्तविपर्यये गुणग्नतिपादनायाऽऽहयस्तून्नतौ यथाशक्ति,सोऽपि सम्यक्त्वहेतुताम्। अन्येषां प्रतिपद्येह, तदेवाऽऽप्नोत्यनुत्तरम्।।३।। यस्तु यः पुनः प्राणी, उन्नतौ प्रभावनाया, शासनस्य इति वर्तते / यथाशक्ति सामर्थ्यानुरूपं, वर्तते इत्यनु वर्तते / तत्र साधुः प्रावचनिकत्वाऽऽदिना शासनोन्नतौ वर्तते / यदाह- "पावयणी धम्मकही'' (6.48 गाथा प्रव०२३ द्वार पभावग' शब्दे सार्था दर्शिता) श्रावकस्तु कार्पण्यपरिहारतो विधिमता जिनबिम्बस्थापनयात्राकरणेन जिनभवनगमनजिनपूजनाऽऽदिना साधुसाधर्मिककृपणाऽऽधुचितकरणपुरस्सरभोजना चेति / सोऽपि शासनप्रभावकःप्राणी, न केवलं शासनमालिन्यकारी स्वव्यापारानुरूपं फलमासादयति, शासनप्रभावकोऽपि स्वव्यापारानुरूपमेव फलमवाप्नोतीत्यपिशब्दार्थः / सम्यक्त्वहेतुतां शासनोन्नतिकरणेन सम्यग्दर्शनलाभस्य निमित्तभावम्, अन्येषामात्मव्यतिरिक्तप्राणिनां समुपजनितशासनपक्षपातानां, प्रतिपद्य स्वीकृत्य, इहेत्यस्मिन जन्मनि, तदेव सम्यक्त्वं, न तु मिथ्यात्वम्, आप्नोत्यासादयति, अनुत्तरम्-सर्वोत्तममक्षायिकमित्यर्थ इति / / 3 / / सम्यक्त्वस्वरूपमाहप्रक्षीणतीव्रसंक्लेशं, प्रशमाऽऽदिगुणान्वितम्। निमित्तं सर्वसौख्यानां, तथा सिद्धिसुखाऽऽवहम् ||4|| प्रक्षीणो निःसत्ताकतां गतस्तीव्र उत्कटः संक्लेशोऽनन्ताऽनुबन्धिकषायोदयलक्षणो यस्मॅिस्तत्तथा। यतोऽनन्तानुबन्ध्युदये तन्न भवतीति। यदाह- “पढमिल्लुयाण उदए. नियमा संजोयणा कसायाणं / सम्मइंसणलंभ,भवसिद्धी याविन लहंति // 15" प्रशमाऽऽदिगुणान्वितं प्रशम Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभावणा 436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पभावणा संवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणगुणसंगतम्।यदाह- "उवसमसंवेगो विय निव्वेओतह य होइ अणुकपा अस्थित्तं वीयराए भवंति सम्मत्तलिंगाई // 1 // " भवन्ति सम्यग्दृष्टेः सद्बोधसामर्थ्यात् प्रशमाऽऽदयो गुणाः, विशिष्टक्रोधाऽऽदीनामभावात् / आह च- तन्नास्य विषयतृष्णा प्रभयत्युचैर्न दृष्टिसंमोहः / अरुचिर्न धर्मपथ्ये न च पापक्रोधकण्डूतिः / / 1 / / / आदिशब्दादन्येषामपि जिनशासनकुशलताऽऽदिगुणानां परिग्रहः / / तथाहि- "जिणसासणे कुसलया, पभावणा यणयसेवणा थिरया। भत्ती य गुणा सम्मत्तदीवगा उत्तमा पंच / / 1 / / " इति / तथा निमित्तं कारणं, सर्वसौख्यानां समस्तनरामरभवसंभवाऽऽनन्दविशेषाणाम्। आह च'सम्मत्त-म्मि उ लद्धे, ठइयाई नरयतिरियदाराई। दिव्वाणि माणुसाणि य, मोक्खसुहाइं सहीणाई // 1 // ' तथेति समुचये। सिद्धिसुखाऽऽवहं निर्वाणसौख्यप्रापकम् / ननु मोक्षसुखं न सम्यक्त्वमात्राद्भवत्यपि तु सम्यगदर्शनाऽऽदित्रयात् / यदाह- "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।" ततः कथं सम्यक्त्वं सिद्धिसुखाऽऽवहमिति / अत्रोच्यतेससहायस्य सम्यग्दर्शनस्य सिद्धिसुखसाधकत्वात् सामग्यन्तभविन तदावहता न विरुद्धा, बीजाऽऽदिसामग्यन्त विनो वर्षस्येवाड्कुरहेतुतेति / / 4 / / अथ पूर्वोक्तस्य प्रवचनमालिन्यस्य वर्जनमुपदिशन्नाहअतः सर्वप्रयत्नेन, मालिन्यं शासनस्य तु / प्रेक्षावता न कर्तव्यं, प्रधानं पापसाधनम् / / 5 / / अनाभोगविहितमपि शासनमालिन्यं घोरसंसारकारणमिथ्यात्वकर्मनिबन्धन भवति। अत एतस्मात् कारणात् सर्वप्रयत्नेन सर्वाऽऽदरेण मालिन्य दूषण,शासनस्य प्रवचनस्य, तुशब्दोऽवधारणार्थः तस्य च प्रयोग दर्शयिष्यामः / प्रेक्षावता बुद्धिमता, न कर्तव्यम् नैव विधातव्यम् / कुत इत्याह-प्रधानमुत्कृष्ट, पापसाधनमशुभकर्मनिषन्धन,यत इति गम्यमिति // 5 // कुत एतदेषमित्याहअस्माच्छासनमालिन्या-जातौ जातौ विगर्हितम् / प्रधानभावादात्मानं, सदा दूरीकरोत्यलम्॥६|| अरमादनन्तरोदितमिथ्यात्वबन्धफलाच्छासनमालिन्यात्प्रवचनाऽपभाजनात्, जातौ जातौ भवे भवे,वीप्सायचनेन मालिन्यकारिणोऽनन्तं भवसन्तानं दर्शयति / विगर्हितं जात्यादिहीनत-योत्पत्ते विशेषण निन्दितम् / आत्मानमिति योगः। प्रधानभावात्प्रभुत्वादात्मानं स्वं, सदा सर्वकालं, दूरीकरोति अनासन्नं विदधाति, अप्राप्तव्यप्रभुत्वं करोतीत्यर्थः / अलमतिशयेनेति। शासनस्य मालिन्यं वर्जनीयमित्युपदिश्य तस्यैव यद्विधेयं तदुपदिशन्नाहकर्तव्या चोन्नतिः सत्या, शक्ताविह नियोगतः। अबन्ध्यं कारणं ह्येषा, तत्त्वतः सर्वसंपदाम् / / 7 / / - न केवलं शासनस्य मालिन्यं वर्जनीय, कर्तव्या च विधेया चोन्नतिः प्रभावना, सत्या विद्यमानायां शक्तौ सामर्थ्य, इहेति प्रक्रान्ते जिनशासने, नियोगतो नियमेन। कस्मादेवमित्याह-अबन्ध्यं फलसाधकं बीजमिव कारणम्, एषा शासनप्रभावना, हि यस्मात्कारणात्तत्त्वतः परमार्थतः सर्वसंपदा समस्तश्रियामिति / / 7 / / कथमित्याह अत उन्नतिमाप्नोति, जातौ जातौ हितोदयाम् / क्षयं नयति मालिन्यं, नियमात्सर्ववस्तुषु // 8 // अत एतस्मार्जिनशासनोन्नतिकरणादुन्नति जातिकुलरूपविभवाऽऽदिगुणैरुन्नतित्वमाप्रोत्यासादयति, जाती जातौ भवे भवे, हितः शुभानुबन्ध उदय उद्गमो यस्याः सा तथा तां हितोदयां, कल्याणानुबन्धिनीमित्यर्थः / एतेनार्थप्राप्तिकारित्वमुक्तम्। शासनोन्नतिकरणस्याथानर्थप्रतिघातकत्वमाहक्षयमपुन वन विनाशं नयति प्रापयति, मालिन्यं दुषणभावमात्मन इति गम्यते। नियमादवश्यन्तया, सर्ववस्तुषु जातिकुलबुद्ध्यादिसमस्तभावविषये, अतः कर्तव्योन्नतिरिति / / 8 / हा० 23 अष्ट०। अन्ये तु चतुर्थाऽऽदीनां श्लोकानां स्थाने सूत्रपञ्चश्लोकान् पठन्ति। यः शासनस्योन्नतौ प्रवर्तते सोऽन्येषांजीवानां सम्यक्त्वहेतुतां प्रतिपद्यतदेव सम्यक्त्वमनुत्तरमवाप्नोतीति तृतीश्लोकेऽभिहितमथ यथाऽसौ सम्यक्त्वहेतुतां प्रतिपद्यते तथा दर्शयन्नाहतत्तथा शोभनं दृष्ट्वा, साधु शासनमित्यदः। प्रतिपद्यन्ते तदैवैके,बीजमन्येऽस्य शोभनम् / / 4 / / तदिति प्रवचनोन्नतिहेतुभूतं पूजाऽऽद्यनुष्ठानं, तथा तेन विशिष्टौदार्याऽऽदिना प्रकारेण, शोभन शासनान्तरासंभवित्वेन प्रधानं, दृष्ट्वा अवलोक्य, साधु प्रधान, शासनमार्हतप्रवचनं यत्रैवंविधमत्युदारमनवद्यमनुष्ठानम्, इति एवं प्रस्तुतबोधादित्यर्थः। अद एतदनन्तरलोकोपात्त सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते समाश्रयन्ते, तदैव तस्मिन्नेव काले, यदा जिनशासन प्रतिपक्षपात उत्पद्यते, एके केचन भव्याः, बीजमिव बीजं कारणं शासनपक्षपातरूपं प्रतिपद्यन्त एवेति / अन्ये सम्यग्दर्शनप्रतिप तृभ्योऽपरेऽस्य सम्यग्दर्शनस्य, शोभनमबन्ध्यं, कालान्तरे अवश्य सम्यग्दर्शनफलजननादिति // 4 // अथ सम्यक्त्वबीजस्य हेतुनां प्रतिपद्यमानः कथं सम्यक्त्वहेतुतां प्रतिपद्यते इत्यभिधीयते इति ? अत्रोच्यते -बीजस्य कालान्तरे सम्यक्त्वजननादेतदेवाहसामान्येनापि नियमाद्, वर्णवादोऽत्र शासने। कालान्तरेण सम्यक्त्व-हेतुतां प्रतिपद्यते // 5 // सामान्येनाऽपि अविशेषेणाऽपि, जिनशासनमपि साध्वित्येवंपरिणाम आस्ता पुनर्विशेषेण जिनशासनमेव साध्वित्येवं शासनान्तरव्यपोहेनाऽपि, नियमादवश्यंभावेन, वर्णवादः श्लाघा, सम्यग्दर्शनबीजमित्यर्थः / अत्रेति प्रत्यक्षे प्रत्यासन्ने जैन इत्यर्थः। लोके वा शासने प्रवचने, कालान्तरेण वर्णवादकरणकालादन्यः कालः कालान्तरं तेन, कियताऽप्यागामि कालेनेत्यर्थः / सम्यक्त्वहेतुतां सम्यग्दर्शननिमित्तता, प्रति. पद्यते भजते, सम्यक्त्वं जनयतीत्यर्थः।५। एतदेव दृष्टान्तेन भावयन्नाहचौरोदाहरणादेवं, प्रतिपत्तव्यमित्यदः। कौशाम्ब्यां स वणिग् भूत्वा, बुद्ध एकोऽपरो न तु // 6 // चौरोदाहरणात् स्तेनयोर्शातात्, एवमनेन प्रकारेण कालान्तरसम्यक्त्वहेतुतालक्षणेन, प्रतिपत्तव्यं प्रत्येतव्यम्, इतिशब्दो वाक्यपरिसमाप्तौ, वक्ष्यमाणदृष्टान्तार्थोपदर्शनार्थो वा। अदः एतद्वर्णवादरूपबीजस्वरूपम्। चौरोदाहरणं भावयन्नाह-कौशाम्च्यां नगास शासनवर्णवादकारी चौरवणिक् वाणिजको, भूत्वा उत्पद्य, बुद्धो बोधि प्राप्त एकः, अपरोऽन्यो, न तु नैवेत्यक्षरार्थः / भावार्थः कथानकग्रम्यः / त Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभावणा 440 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पभासचित्तगर चेदम् -कौशाम्ब्यां नगर्यां धनयक्षाऽभिधानश्रेष्टिनो धर्मपालवस्तुपालाऽभिधानावन्योऽन्यमतिस्नेहवन्तौ स्नेहवशादेव प्रायः समचितौ समशीलो समधनौ सुतावभवताम् / अन्यदा श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामी तत्र विहरन्नाजगाम। ततोऽसावमरवरविनिर्मितस्य रत्नाऽऽदिप्रभापटलविपुलजलमध्यगतस्य विचित्रपत्रपक्तित्रयोपेतसहस्रपत्रोपमस्य रजततपनीयमणिमयविशाल-शालवलयत्रयस्य मध्यगतः केशरनिकराऽऽकारकायो मधुकरनिकरकल्पाशोकानोकहनिरुद्धगगनाऽऽभोगः गगनतलोपनिपतत्कलहंसयुगलकल्पोपमीयमाननिर्मलधवलचामरयुगो मत्तमधुकरनिकरझङ्काररवरम्यतममहाध्वनिः जगज्जननियन्त्रकमोह-वरत्रात्रटत्त्रोटनपटीयांसं सुरनिवहसंकुलसंसदि सद्धर्माकुण्ठकुठारमुपदिशति स्म। ततः तत्रत्यो नरपतिः समवगतपारगताऽऽगमनवार्तोऽन्तःपुरपुरजनाऽऽदिपरिवृतो भक्तिभरावऽऽर्जितमानसोजिनान्तिकमाजगाम / तावपि नैगमनायकतनयौ भक्तिकौतुकाभ्यां तत्राऽऽगतौ / ततो भगवताऽभिहिते जन्तुसन्तानम्य कर्मबन्धहेतौ, वर्णिते मुक्तिकारणे, दर्शिते भवनैर्गुण्ये प्रकटिते निर्वाणसुखानन्त्ये, मोहनिद्राविद्रावर्णन दिनकरकरनिकरैरि-वाम्भोजराजयो भगवद्वचनैः प्रतिबुद्धा भूयांसो भव्यजन्तवः, ततस्तयोरपि वणिग्वरनन्दनयोज्येष्टस्य संपन्ना बोधिर्द्वितीयस्य तु वजतन्दुलस्येव दुर्भदत्वेन बोधिभिवत् / ततो ज्येष्ठस्य हर्षोऽजनि-अहो धन्योऽहं येन मयाऽनर्वागणारभवजलनिधिनिमग्नेन सद्धर्मयानपात्रमेवंविधमवाप्तम् इतरस्यतु क्लिष्टकर्मणो माध्यस्थ्यमेवाभवत / ततः परस्परस्याभिप्रायमवगतवन्ती-यथाऽवायोधर्मपरिणतिविशेषे भेदोऽभूत्। ततो ज्येष्ठो भगवन्तं पप्रच्छ / यदुतभगāस्तुल्यस्नेहयोरावयोस्तुल्य एव विभूतिरूपविनयाऽऽदिसंबन्धोऽभवद्, अधुना पुनर्मुक्तिफलकल्पतरुकल्पसम्यक्त्वविभूतिप्राप्तावतुल्यता जाता मम मित्रस्य तद्विकल्पत्वात. तत्किमत्र कारणम? ततो भगवानुवाच-भो भद्र ! भवन्तौ जन्मान्तरे ग्राममहत्तरसुतावभूताम्, ततो व्यसनोपहती चौर्यपरायणावभवताम् अन्यदा ग्रामान्तरं गत्वा गाः अपहृतवन्ती, ततस्ताः स्वस्थानं नयन्तो दण्डिपाशिकान् पश्वाल्लग्नान विज्ञाय तदयात् पलायमानौ गिरिगह्वरे प्राविशताम्, शैलगुहायां चाऽऽतापयन्तं महातपस्विनमपश्यताम्, ततस्त्वं संवेगमागतोऽवोचःयथा सुलब्धभस्य जन्म, योऽयं परित्यक्तसकलपुत्रकलत्रमित्राऽऽदिसंबन्धः सन्तोषसुखसागरावगाढो धर्मनिरतचित्तो विषयविरतः स्वर्गापवर्गसंसर्गाय तपस्यति। मादृशास्त्वधन्या उभयलोक-गर्हितमनर्थफलं,क्लेशबहुफल च चौर्यमाश्रिता इत्येवंविधा साधु-प्रशंसा भवतो बोधिबीजमजनि, इतरस्य तु यतिद्वेषो बोधिबीजदाही संजातः, इदं भवतोर्बोधर्भावाभावकारणमिति // 6 // उपसंहरन्नाहइति सर्वप्रयत्नेन, मालिन्यं शासनस्य तु। प्रेक्षावता न कर्तव्य-मात्मनो हितमिच्छता॥७॥ स्पष्टः // 6 // कर्तव्यं च किमित्याहकर्तव्या चोन्नतिः (उन्नतिः, प्रभावना। ) सत्यां, शक्ताविह नियोगतः। प्रधानं कारणं ह्येषा, तीर्थकृन्नामकर्मणः / / 8 / / हा०२३ अष्ट।। संवत्सरवासरे पूगीफलसहितनाणकप्रभावनांलान्ति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पूगीफलाऽऽदिसहिता तया रहितां वा प्रभावना लान्ति, पश्चाद यस्मिन ग्रामे या रीतिस्तदनुसारेण प्रवर्तितव्यमिति // 152 प्र०। सेन०४ उल्ला०1 पभावाल पुं० (प्रभावाल) तरुविशेषे, जं०२ वक्ष०। पभास पुं० (प्रभास) श्रीवीरजिनस्यैकादशे गणधरे, कल्प० 1 अधि०६ क्षण / आ०चू० / स च निर्वाणविषयसंदेहयुतो वीरान्ति-कमागत्य छिन्नसंशयः प्रवव्राज गणधरो जातः / ('गणहर' शब्दे तृतीयभागे 817818 पृष्ठे तन्मातापित्रादयो दर्शिताः) ('णिव्वाण' शब्दे चतुर्थभागे 2121 पृष्ट वक्तव्यता) "एकादशो गणधरः, श्रीवीरस्य गणेशितुः / प्रभासो नाम पावित्र्य,यस्य चक्रे स्वजन्मना ।।२४॥"ती०१० कल्प। वैभारगिरेः ऐरण्यवतवर्षीय-विकटाऽऽवृत्तवेताळ्यपर्वतराजदेवे, स्था०४ ठा०३ उ० / 'दो पभासा / " स्था०२ ठा०३ उ० / साकेतराजस्य महाबलस्य चित्रकरे, आक्० 4 अ०। श्रीप्रभनृपोपदेशके साधुगुरौ, ध० 3 अधि०। स्वनामख्याते भरतवर्षस्य पश्चिमदिग्भागस्थेतीर्थभेदे, ती० 41 कल्प। आ०क० / भरते हि पूर्वाऽदिक्रमेण 'मागहे वरदामे पभासे त्ति'' त्रीणि तीर्थानि / ज० 6 वक्ष० / संथा० / स्था० / आ० म० / बृ० / तच पाण्डववश्यराजपुत्रयोर्मतिसुमत्योः प्रवहणे औत्पातिकेन भाज्यमाने स्कन्दरुद्राऽऽदिदेवस्मरणेनानुपशान्तौ सुस्थितेन लवणाधिपेन महिम्नि कृते तत्र तीर्थत्वेन जातम इति धृतिमतित्वे उदाहृतम्। आव० 4 अ०। आ०चू०। पभासचित्तगर पुं० (प्रभासचित्रकर) स्वनामख्याते चित्रकरे, तत्कथा"विलसंतनागपुना-गसंगयं पुरमिहऽत्थि साएयं। कइलाससिहरसिहरं, व कि नु बहुरुइरधवलहरं / / 1 / / राया महाबलो रिउ-रुक्खाण महाबलु व्व तत्थऽस्थि। सो अत्थाणुवविट्ठो, अन्नदिणे पुच्छए दूयं / / 2 / / भो मम रायतरभा-विरायलीलोवियं न कि अत्थि। सो भणइ सामि ! सव्वं, पि अस्थि मुत्तूण चित्तसह / / 3 / / नयणमणोहारिविचि-तचित्तअवलोयणेण रायाणो। जकिर तीए वि फुड, कुणति चंकमणलीलाओ॥४॥ इय आयन्निय रन्ना, महलकोहल्लपूरियमणेण / आइटो वरमंती, तुरियं कारेसु चित्तसह / / 5 / / दीहरविसालसाला, बहुसउणालंकिया सुहच्छाया। उज्जाणमहि व्व लहु, महासहा तेण निम्मविया॥६।। आहूया नरवइणा, चित्तयरा चित्तकम्मकयकरणा। विमलपहासभिहाणा, तत्तो तुरियं पुरपहाणा |7|| अवद्धविभाएणं, विभइत्ता अप्पिया सहा तेसिं। दावित्तु अंतरा जव णियं च वुत्ता निवेणेवं / / 8 / / भो तुब्भेहिं कम्म, कथा वि न हु पिच्छियव्वमन्नुन्नं / नियनियमईइ निउण, इह चित्त चित्तियत्वं च / / 6 / / विद्धी न मन्नियव्वा, जहविन्नाणं काहिइ पसाओ। अहमहमिगाइ तत्तो, सम्म कम्म कुणति इमे / / 10 / / जाव गया छम्मासा, तो पुट्ठा उस्सुएण ते रन्ना / Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभासचित्तगर ४४१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमजण चिमलेण तओ भणिय, निप्फन्नो देव ! मह भागो।।११।। पभासिय त्रि० (प्रभाषित) प्रकर्षण भाषिते, "वइजोगेण पभासियमणेगमेरुत्व तय भाग, सुवन्नरूइर विचित्तभूभाग। जोगणधराण साहूणं।" (16) प्रकर्षण भाषितः प्रभाषितः / गणधराणाम् / पिच्छितु निवो तुट्टो, महापसायं कुणइ तस्स // 12 // सूत्र०१श्रु०१ अ०१उ०। पुढो भणइ पहासो, चित्ताऽऽरंभ पि देव ! न करेमि। पभासेमाण त्रि० (प्रभासयत्) सूक्ष्मवरस्तूपदर्शनतः (स्था०८ ठा०) ज अज्ज वि मे विहियं, भूमीए चेव परिकम् / / 13 / / शोभयति, भ०२श०५ उ०। जी०। औ०। त भूकम्म नणु के-रिसं ति भूवेण अवणिया जवणी / पभिइ अव्य० (प्रभृति) आदौ, स्था० 6 ठा०। औ०। चं०प्र० / उत्त०। ताव सविसेसरम्म, सुचित्तकम्म तहिं दिट्ट।।१४।। अनु०। तो भणिओ सो रन्ना, रे! किं अम्हे वि विप्पयारेसि। पभीय त्रि० (प्रभीत) प्रकर्षण त्रस्ते, उत्त०५ अ०। अन्नो विन वंचिज्जइ, किं पुण सामि त्ति सो आह / / 15 / / पभु त्रि० (प्रभु) समर्थे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। भ०। प्रभविष्णौ, भ०१५ पडिबिंबसंकमा दे-व! एस इय भणिय तेण परियच्छी। श० / वश्येन्द्रिये, सूत्र०१श्रु०११ अ०। शक्ले,भ०१श०१ उ०। दिन्ना तओ निवेण, सा दिट्टा केवला भूमी।।१६।। सूत्र० / स्वामिनि, आ० म०१ अ० / उपाश्रयस्वामिनि, बृ०२ उ० / अह विम्हिएण रन्ना, पुट्ट कीरइ किमेरिसा भूमी? स्वगृहमात्रनायके, प्रव०६७ द्वार ! गृहपतौ, नि०चू०२ उ०। राजनि, तो भागइ देव ! एरिस-महीऍ चित्तं हवइ सुथिरं।।१७।। 'पभूराया, अणुप्पभू जुवराया।" नि००२ उ०। 'पभु त्ति वा जोग्गो वन्नाण फुरइ कंती, अहियं सोहं धरंति रूवाई। त्ति वा एगट्टा।" नि०चू०२० उ०। पिच्छताण जणाणं, भावुल्लासो मिस होइ।१८।। पभुत्त न० (प्रभुत्व) सामर्थ्य बृ०१ उ०३ प्रक०। तं सुणिउं तस्स विवे- गराइणाऽऽइणा पहिढण। पभूतदंसि(ण) त्रि० (प्रभूतदर्शिन) प्रभूतं प्रमादविपाकाऽऽदिनिउणो कओ पसाओ, सपसाय पभणियं च इमं / / 16 / / कमतीतानागतवर्तमानं वा कर्मविपाकं द्रष्टुं शीलमस्येति प्रभूतदर्शी। एमेवं इम चिट्टउ, चित्तसहा मे चलतचित्तजुया / साम्प्रतेक्षिततया न यत्किञ्चनकारिणि आ०चा०१ श्रु०५ अ०४ उ० / होउ अपुव्वपसिद्धि, त्ति एस पुण उवणओ इत्थ / / 20 / / पभूतपरिण्णाण त्रि० (प्रभूतपरिज्ञान) प्रभूतं स्वत्वरक्षणोपाय-परिज्ञानं साएयं संसारा, राया सूरी सहा य मणुयगई। संसारमोक्षकारणपरिज्ञानं वा यस्य स प्रभूतपरिज्ञानः। यथाऽवस्थितचित्तयरो भवियजिओ, चित्तसहाभूसमो अप्पा / / 21 / / संसारस्वरूपदर्शिनि, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। भूपरिकम्मसु गुणा, चित्तं धम्मो वयाइँ रुवाइँ। पभूतसंभार पुं० (प्रभूतसंभार) प्रभूतवस्तुसामग्याम्, “पभूत-संभारवन्नसमा इह नियमा जियविरियं भावउल्लासो।।२२।। सभिता पोसमाससतभिसयजोगट्टनिता।" जी०३ प्रति० 4 अधि०। एवं प्रभासाभिधचित्रकृद्धद् . पभूय त्रि० (प्रभूत) अतिप्रचुरे, आ०म०१अ०। रा० प्रचुरे० ज्ञा०१ श्रु० कार्याऽऽत्मभूमिर्विवुधैर्विशुद्धा / 1 अ० उत्त। स्था०1 बहुशब्दार्थे स्था० 4 ठा०२ उ०। अनेकशब्दार्थ येनोज्ज्वला धर्मविचित्रचित्रां, अनु०॥ शोभामनन्यप्रतिमां दधीत // 23 // " पभूयग्ग न० (प्रभूताग्र) कस्यचिदपेक्षया प्रभूते, यथा-"जी वा पोग्गलइति प्रभासकथा (31 गाथा) ध०२० 1 अधि०। समया, दव्वा य पज्जवा चेव।" आचा०२श्रु०१ चू०१ अ०१ उ०। पभासण न० (प्रभासन) प्रकर्षण द्योतने, स्था०२ ठा०२ उ०। प्रभासनं पभूयतरय न० (प्रभूततरक) बहुतरके, आ०म० 1 अ०। च चन्द्राणामेव / 'चंदा य पभासिंसु।" चन्द्रासणा सौम्यदीप्तिकत्वात् / पभूयरयण त्रि० (प्रभूतरत्न) प्रभूतानि रत्नानि मरकताऽऽदीनि प्रवरगवस्तुप्रभासनमुक्तमादित्यानां तु खररश्मित्वात्। स्था० 4 ठा०२ उ० / जाश्वाऽऽदिरूपाणि वा यस्यासौ प्रभूतरत्नः। उत्त० ४अ०। प्रचुरप्रधानपभासतित्थ न० (प्रभासतीर्थ) स्वनामख्याते भारतवर्षस्य पश्चिमदि- गजाश्वमणिप्रमुखपदार्थधारिणि, उत्त० 4 अ०। तीर्थे, यत्र सिन्धुनदी समुद्रं प्रविशति / तत्र भरतदिग्जययात्रायां तु, पमक्खण न० (प्रम्रक्षण) अभ्यञ्जने, भ०११ 2011 उ०। "उत्तरपच्चच्छिमं दिसिं पभासतित्थाभिमुहे पयातेयाविहोत्था।" जं० पमज्जण न० (प्रमार्जन) प्रतिलेखनं चक्षुषा निरीक्षणम्, प्रमार्जन च 3 वक्ष० 1 आ०चू०। रजोहरणाऽऽदिभिः / ध०३ अधि० पुनः पुनर्जिन नि०चू०३ उ०॥ पभासतित्थकुमार पुं० (प्रभासतीर्थकुमार) प्रभासतीर्थदेवे, आ०चू० / भूमिशुद्धौ, पचा०६ विव० / प्रकर्षेण शोधने, आचा०२ श्रु०१ 1 अ०। चू०१ अ०६ उ० / संमार्जने, नि० चू०२ उ०। पं०व०॥ (आचार्यपभासमाण वि० (प्रभासमान) दीप्यमाने, कल्प०१ अधि०२ क्षण।। पादप्रमा-र्जनम् 'अइसय' शब्दे प्रथमभागे 13 पृष्ठे 30 पृष्ठे च उक्तम्) पभासयंत न० (प्रभासयत्) लोकप्रसिद्धस्याऽऽकाशस्यापि शिखरं (वर्षासु उपाश्रयाः प्रमार्जनीयाः 'पज्जुसवणाकप्प' शब्देऽस्मिन्नेव स्वकान्त्या शोभयन्तमित्यर्थः, कल्प०१ अधि० 3 क्षण। भागे 246 पृष्ठे उक्तम् ) (शरीराङ्गाणां हस्तपादाऽऽदीनामामापभासा स्त्री० (प्रभासा) प्रभासनिबन्धनत्वादेकोनषष्टितम-गौणाहिंसा- | जनप्रमार्जने 'अणायारं' शब्दे प्रथमभागे 314 पृष्ठे, 'अण्णमण्णयाम्, प्रश्न०१ संब० द्वार। किरिया' शब्दे 480 पृष्ठे च उक्ते) मूलत एव रजोहरणाऽदिनाऽस्पर्शनाया Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमज्जण 442 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमत्तसंजयगुणट्ठाण म, ध०३ अधि० / रजोहरणाऽऽदिव्यापाररूपे, प्रश्र० 1 संव० द्वार। / पमज्जेमाण त्रि० (प्रमार्जयत) प्रमार्जन कारयति, स्था०७ ठा०। प्रमार्जनविधिः-वसतिं प्रमार्जयेत् / यदुक्तं पञ्चवस्तुके पमत्त पु० (प्रमत्त) प्रमाद्यन्ति स्म मोहनीयाऽऽदिकर्मोदयप्रभावतः "पडिलेहिऊण वसहि, गोसम्मि पमजणा उ वसहीए। संज्वलनकषायनिद्राऽऽद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्मेति अवरण्हे पुण पढम, पमजणा पच्छ पडिलेहा // 1 // " प्रमत्ताः, कर्तरि क्तप्रत्ययः / नं० / पञ्चानां प्रमादानामन्यतरेण प्रमादेन यतिदिनचर्यायामपि युक्तेषु, व्य०३ उ०। आचा०ा विषयमूञ्छितेषु, आचा०१ श्रु०१ अ० "सिजा पमज्जिअव्वा, पभायसमयम्मि सव्वओ पच्छा। 5 उ०। ('पारचिय' शब्दे व्याख्यास्यामि) विकथाऽऽदिप्रमादसहिते, पुत्तीतणुपडिलेहा, समणतरमेव मज्झण्हे / / 1 / / " द्वा० 16 द्वा०। आचा० / सूत्र० / स्था०। ज्ञा० / मद्याऽऽदिप्रमादवति, इत्थं च जीवसंसक्तिरहितायामपि वसतौ ऋतुबद्धे वारद्वयं, वर्षासुच आचा०१ श्रु० 3 अ० 4 उ० / विषयाऽऽदिभिः प्रमादै हिधर्माद वारत्रयं, जीवसंसक्तौ च बहुशोऽपि वसतिप्रमार्जयेदित्यवसेयम्, तथापि व्यवस्थिते, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। प्रमदंन प्रमत्तं प्रमादः, सच बहुजीवोपमर्दै त्यजेदपि तदुक्तं दिनचर्यायाम्-"दुन्नि पडिलेहणाओ, मदिराविषयकषायनिद्राविकथानामन्यतमे सर्वथा प्रमत्तमस्यास्तीति उउम्भि वासासु तइअ मज्झण्हे / वसहिं बहुसो पमज्जइ. अइसंघट्टे त प्रमत्तः। प्रमादवति, कर्म०२ कर्म०। (अन्न) हिं गच्छे॥१॥" वसतिप्रमार्जनं च यतनानिमित्त, सा चान्धकारे पमत्तभाव पुं० (प्रमत्तभाव) प्रकर्षण मत्तभावः / उन्मत्तभावे, तं०। न स्यादित्युपधिप्रतिलेखनाऽनन्तरमेव प्रातस्तच्छ्यः / तदुक्तं तत्रैव - पमत्तसंजय पुं० (प्रमत्तसंयत) संयच्छति स्म सम्यगुपरमति स्म संयतः। "को हेऊ ? जिणआणा, एसा जयणा निमित्तमहवा वि। रविकर- ___ "गत्यर्थाकर्म" ||5/1 / 11 / / (हैम०) इति क्तः / प्रमाद्यन्ति स्म हांधयारे, वसहीइ पभजणं सेअं॥१॥" इति। तचाव्याक्षिप्तेनोपयुक्तेन संयमयोगेषु सीदन्ति स्म, प्राग्वत् कर्तरि क्तः प्रमत्तः / यद्वा-प्रमदनं च गीतार्थेन विधेयं, न तु विपरीतेन, अविध्यादिदोषात् / यदुक्तं प्रमादः, स च मदिराविषयकषायनिद्राविकथाना-मन्यतमः। सर्वथा पञ्चवस्तुके-'वसही पमजिअव्वा विक्खेवविवज्जिएणगीएण। उवउत्तेण प्रमत्तमस्यास्तीति प्रमत्तः प्रमादवान् "अभ्राऽऽदिभ्यः" / 7 / 2 / 46 / / विवक्खे, णायव्यो होइ अविही उ॥१॥" इति। तेनापि सदा पक्ष्मलेन (हेम०) इत्यप्रत्ययः। प्रमत्तश्चासौ संयतश्वप्रमत्तसंयतः। कर्म०२ कर्म०। मृदुना प्रमाणोपेतेनाविद्धदण्डकेन च दण्डकप्रमार्जनेन प्रमार्जनीया पं० सं०।दर्श० किश्चित्प्रमादवति सर्वविरते, स०१४ सम०। षष्ठगुणवसतिः, न तु कचवरशोधनाऽऽदिना / यतस्तत्रैव-"सइ पम्हलेण स्थानवर्तिनि, पञ्चा० 16 विव० / मिउणा, चोप्पडमाइरहिएण जुत्तेणं / आविद्धदंछोणं दंडगपुच्छेण णऽण्णेणं पमत्तसंजयस्स णं भंते ! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा विय // 1 // ' इति / यतना च वसतिं प्रमार्ण्य पिण्डीभूतरेणपुञ्जमुद्धरेत् तत्र णं पमत्तद्धा कालओ केव चिरं होइ ? मंडिया ! एगं जीवं पडुन चैवं विधिर्यतिदिनचर्यायाम जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी, णाणाजीवे "अह उग्गयम्मि सूरे, वसहिं सुपमजिऊण जयणाए। पडुच्च सव्वद्धा। ऊद्धरिअ रेणुवुजं छायाए विक्खिरेऊणं / / 1 / / (पमत्तेत्यादि) (सव्वा वि य णं पमत्तद्ध त्ति) सर्वाऽपि च सर्वकासंगहिअछप्पयाओ, पआण कीडाण लहइ तो संखं। लसम्भवाऽऽपि च प्रमत्ताद्धा प्रमत्तगुणस्थानककालः कालतः प्रमत्ताद्धा पुव्वं च लेइ भूई, वोसिरिआ नवं च गिण्हति // 2 // समूहलक्षण कालमाश्रित्य कियचिरं कियन्तं कालं यावद्भवतीति प्रश्नः। जो तं पुजं छंडइ. इरिआवहिआ हवेइ निअमेण। ननु कालत इति न वाच्यम्, कियच्चिरमित्य-नेनैव गतार्थत्वात, नैवं संसत्तगवसहीएतह हवइपमज्जमाणस्स॥३॥" क्षेत्रत इत्यस्य व्यवच्छेदार्थत्वात्। भवति हि क्षेत्रतः कियच्चिरमित्यपि अत्रच आभिग्रहिकोऽनाभिग्रहिको वा साधुर्दण्डान् प्रमार्जयेत्, ततस्त- प्रश्री यथावधिज्ञान क्षेत्रतः कियच्चिरं भवति, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, दुपरितनभूमिं च / यतः- "आभिग्गहिओ अणभिगहिओ व दंडे पमजए कालतस्तु सातिरेका षट्षष्टिरिति। (एक समयं ति) कथम् ? उच्यतेसाहू / पडिलेहिजइ कमसो, दंडो कुड्डोवरि भूमि // 1 // " प्रतिलेखन प्रमत्तसंयमप्रति-पत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणात् / (देसूणा पुव्वकोडि चक्षुषा निरीक्षणं, प्रमार्जन चरजोहरणाऽदिभिरिति विवेकः / यतस्तत्रैव- त्ति) किल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणे एव प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानके, ते च "चक्खूहि णिरिक्खिजइज किर पडिलेहणा भवे एसा। रयहरणमाइएहिं, पर्यायण जायमाने देशोनपूर्वकोटिं यावत् उत्कर्षण भवतः। संयमवतो हि पमजणं विंतिगीअत्था // 1 // " ध०३ अधि०। पूर्वकोटिरेव परमायुः, स च संयममष्टासु वर्षेषु गतेष्वेव लभते, महान्ति पमजणया स्त्री० (प्रमार्जनका) मूलत एव रजोहरणाऽऽदिना स्पर्शनायाम, चाप्रमत्तान्तर्मुहूर्तापेक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्तानि कल्प्यन्ते। एवं चान्तर्मुहूर्तध०३ अधि०। प्रमाणानां प्रमत्ताद्वानां सर्वासां मीलनेन देशोना पूर्वकोटी कालमानं पमज्जणिया स्त्री० (प्रमार्जनिका) शलाकाऽऽदीना दवरके, ज्ञा० 1 श्रु० भवति। अन्थे त्याहुः-अष्टवर्षोनां पूर्वकोटीं यावदुत्कर्षतः प्रमत्तसंयतता 7 अ०। स्यादिति / भ० 3 श०३ उ०। पमज्जणी स्त्री० (प्रमार्जनी) वसतेर्दण्डकपुञ्छने, पं०३० 3 द्वारा वसतेः | पमत्तसंजयगुणट्ठाण न० (प्रमत्तसं यतगुणस्थान) प्रमत्तसंयतस्य शुद्धिकरण्याम् , ध० 3 अधि० / आचा० / गुणस्थानम् / षष्ठे गुणस्थान के , कर्म० विशुद्ध्यविशुद्धि Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमत्तसंजयगुणट्ठाण 443 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण प्रकर्षाप्रकर्षकृतः स्वरूपभेदः / तथाहि-देशविरतिगुणापेक्षया एतद्गुणाना विशुद्धिप्रकर्षाविशुद्ध्यप्रकर्षश्च / अप्रमत्तसंयतापेक्षया तु विपर्ययः / एवमन्येप्वपि गुणस्थानेषु पूर्वोत्तरापेक्षया विशुद्ध्यविशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षयोजना द्रष्टव्या। कर्म०२ कर्म० / प्रव०। पं०सं०। पमद्द पुं० (प्रमर्द) संमते, परस्परसंघर्षे, "चंदेण सह जोय जोएंति।' चन्द्रेण सह प्रमर्दरूपं योग युञ्जन्ति / सू०प्र० 10 पाहु० 11 पाहु० पाहु० / चन्द्रेण सार्ट्स प्रमर्द चन्द्रो मध्येन तेषां गच्छतीत्येवलक्षणं योग संबन्धं योजयन्ति। स०८ सम०। पमद्दण न० (प्रमर्दन) कठिनस्याऽपि वस्तुनश्चूर्णनकरणे, स०। जी०। पमद्दमाणी स्त्री० (प्रमृनती) रूतं कराभ्यां पौनःपुन्येन विरलं कुर्वन्त्याम्, “पमद्दमाणी या" (574 गाथा) पिं०। पमयवण न० (प्रमदवन) हस्तिनापुरनगरे मलिदत्तकुमारस्वामिके उद्याने, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। आ०म०। तेतलिपुरनगरोद्याने, "तेतलिपुरं नाम नगरं, पमयवणे उजाणे।" ज्ञा०१ श्रु०१३ अाआ०म०। पमया स्त्री० (प्रमदा) स्त्रियाम्, बृ०४ उ०। पमयाकम्मकरण पुं० (प्रमदाकर्मकरण) प्रमदाः स्त्रियस्तासां यत्कर्म तत्स्वयमेव करोतीति प्रमदाकर्मकरणः। "कृद् बहुलम्" इति वचनात्कर्तरि अनट्प्रत्ययः / स्त्रीणां कण्डनदलनपरिवेषणोदकाऽऽहरणप्रमार्जनाऽऽदिकरणशीले नपुंसके, बृ० 4 उ०। पमह पुं० (प्रमय) शिवसेवके, पाइ० ना०२६६ गाथा। पमाइ पुं० (प्रमातृ) प्रमाकर्तरि, रत्ना०। तल्लक्षणम-तदित्थं प्रमाणनयतत्त्वं व्यवस्थाप्य संप्रति तेषां तत्र कथञ्चिदविष्वग्भावेनावस्थितेरखिलप्रमाणनयानां व्यापकं प्रमातार स्वरूपतो व्यवस्थापयन्तिप्रमाता प्रत्यक्षाऽऽदिप्रसिद्ध आत्मा।।५५|| प्रमिणोतीति प्रमाता / किंभूतः क इत्याह-प्रत्यक्षाऽऽदिप्रसिद्धः प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाणप्रतीतः, अतत्यपरापरपर्यायान् सततंगच्छतीत्यात्मा जीवः / रत्ना०७ परि०। (प्रमातृनित्यत्वसिद्धिः 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 165 पृष्ठादारभ्य दर्शिता) प्रमादिन् पुं० विकथामद्याऽऽदिप्रभादवति, आचा० 1 श्रु०३ अ० 1 उ० द्वा०। पमाण न० (प्रमाण) प्रकर्षण संशयाऽऽद्यभावस्वभावेन मीयतेपरिच्छिद्यते वस्तु येन तत्प्रमाणम् / रत्ना० 1 परि०। आ०म० / विशे०। उत्त०। प्रमितिः प्रमाणम् / हेयोपादेयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपतया पदार्थपरिच्छित्तिकरणे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। ज्ञा०। (1) अथ प्रमाणस्याऽऽदौ लक्षणं व्याचक्षतेस्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् / / 2 / / अत्र चादग्धदहनन्यायेन यावदप्राप्तं तावद्विधेयम् इति विप्रतिपनानाश्रित्य स्वपरेत्यादिकम्, अव्युत्पन्नान् प्रति प्रमाणम्, प्रमाणप्रमेयापलापिनस्तूद्दिश्य द्वयमपि विधेयम्: शेषं पुनरनुवाद्यम्। तत्र प्रमाणमिति प्राग्वत् / स्वमात्मा ज्ञानस्य स्वहरूपमः परः स्वस्मादन्यः, अर्थ इति / यावत् तौ विशेषेण यथाऽवस्थितस्वरूपेण, अवस्यति निश्चिनोतीत्येवशील यत् तत् स्वपरव्यवसायि। ज्ञायते प्राधान्येन विशेषो गृह्यतेऽनेनेति ज्ञानम् / एतच्च विशेषणम्-अज्ञानरूपस्य व्यवहारधुराधौरेयतामनादधानस्य सन्मात्रगोचरस्य स्वसमयप्रसिद्धस्य दर्शनस्य, सन्निकर्षाऽऽदेश्वाऽचेतनस्य नैयायिकाऽऽदिकल्पितस्य प्रामाण्यपराकरणार्थम् / तस्याऽपि च प्रत्यक्षरूपस्य शाक्यैर्निर्विकल्पकतया प्रामाण्येन जल्पितस्य, संशयविपर्ययानध्यवसायानां च प्रमाणत्वव्यवच्छेदार्थ व्यवसायीति / स्पष्टनिष्टङ्यमानपारमार्थिकपदार्थसार्थलुण्टाकज्ञानाद्वैताऽऽदिवादिमतमत्यसितु परेति। नित्यपरोक्षबुद्धिवादिनां मीमांसकानाम, एकाऽऽत्मसमवायिज्ञानान्तरप्रत्यक्ष ज्ञानवादिना योगानाम्, अचेतनज्ञानवादिना कापिलानां च कदाग्रहग्रहं निग्रहीतुंस्वेति। समग्रलक्षणवाक्यं तु परपरि कल्पितस्यार्थोपलब्धिहेतुत्वाऽऽदेः प्रमाणलक्षणत्वप्रतिक्षेपार्थम् / तथाहि-अर्थोपालब्धेरनन्तरहेतुः, परम्पराहेतुर्वा विवक्षाञ्चक्रे ? परम्पराहेतुश्चेत्। तर्हि, इन्द्रियवदञ्जनाऽऽदेरपि प्रामाण्यप्रसङ्गः। अथाऽनन्तरहेतुरिन्द्रियमेव प्रमाणम्, तत् किं द्रव्येन्द्रियम् भावेन्द्रियं वा ? द्रव्येन्द्रियमप्युपकरणरूपम्, निर्वृत्तिरूपं वा? न प्रथमम्, तस्य निवृत्तीन्द्रियोपष्टम्भमात्रे चरितार्थत्वात् / नाऽपि द्वितीयम्, तस्य भावेन्द्रियेणाऽर्थोपलब्धौ व्यवधानादानन्तर्याऽसिद्धेः / भावेन्द्रियमपि लब्धिलक्षणम्, उपयोगलक्षण वा ? न पौरस्त्यम्: तस्यार्थग्रहणशक्तिरूपस्यार्थग्रहणव्यापाररूपेण तेन व्यवधानात्। उदीचीनस्य तु प्रमाणत्वे - ऽस्मल्लक्षितमेव लक्षणमक्ष रान्तरैराख्यातं स्यात्। न च नास्त्येवाभूदृशमिन्द्रियमिति भौतिकमेव तत् तत्रानन्तरो हेतुरिति वक्तव्यम्, व्यापार मन्तरेणाऽऽत्मनः स्वार्थसंवित्फलस्यानुपपत्तेः / न ह्यव्यापृत आत्मा स्पर्शा-ऽऽदिप्रकाशकः, सुषुप्त्यवस्थायामपि प्रकाशप्रसङ्गात् / न च तदानीमिन्द्रियं नास्ति, यतस्तदभावः स्याताअथ नेन्द्रियं सत्तामात्रेण तद्धेतुः किन्तु मनसाऽर्थेन च सन्नि कृष्टमिति चेत् / ननु सुषुप्त्यऽवस्थायामपि तत्तादृशमस्त्येव,मनसः शरीरव्यापिनः, स्पर्शनाऽऽदीन्द्रियेण, स्पर्शनाऽऽदेश्च तूलिकाऽऽदिना सन्निकर्षसद्भावात्। न चाऽणुपरिमाणत्वाद्मनसः शरीरव्यापित्वमसिद्ध-मिति वाच्यम्, तत्र तस्य प्रमाणे न प्रतिहतत्वात् / तथाहि-मनो गुपरिमाणं न भवति, इन्द्रियत्वाद् नयनवत्। न च शरीरव्यापित्वे युगपज्ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गः, तादृक्षक्षयोपशमविशेषेणैव तस्य कृतोत्तरत्वात् / इति नैतत्प्रमाणलक्षणमक्षूणम्। आचक्ष्महि च मतपरीक्षापञ्चाशति"अर्थस्य प्रमितौ प्रसाधनपटु प्रोचुः प्रमाणं परे, तेषामञ्जनभोजनाऽऽद्यपि भवेद् वस्तु प्रमाण स्फुटम्। आसन्नस्य तु मानता यदि तदा संवेदनस्यैव सा स्यादित्यन्धभुजगरन्ध्रगमवत् तीर्थः श्रितंत्वन्मतम्।।१।। इति / "अनधिगतार्थाधिगन्तृ प्रमाणम्" इत्यपि प्रमाणलक्षणं न मीमासकस्य मीमांसामासलतां सूचयति, प्रत्यभिज्ञानस्याप्रामाण्यप्रसङ्गात् अथात्रापूर्वोऽप्यर्थः प्रथते, "इदानीन्तनमस्तित्वं, न हि पूर्वधियाणतम्।" इति चेत् / इदमन्यत्रापि तुल्यम्, उत्तरक्षणसत्त्वस्य प्राक्क्षणवर्तिसंवेदनेनाऽवेदनात्। पूर्वोत्तरक्षणयोः सत्त्वस्यैक्यात् कथं तेन तस्याऽऽवेदनम् ? Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 444 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण इति चेत् / प्रत्यभिज्ञागोचरेऽपि तुल्यमेतत्, "रजतं गृह्यमाणं हि, चिरस्थायीति गृह्यते।" इति वचनात्, प्रागेव तद्वेदने च तदिदानीमस्ति? न वा ? कीदृक् वाऽस्ति ? इति तदनन्तरं न कोऽपि संदिहीत? ततोऽपार्थकमेवानधिगतेति विशेषणम्, व्यवच्छेद्याभावात्। न चाऽव्यापकत्वदोषः प्रकृतलक्षणे, प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणव्यवितव्यापकत्वात् / नाप्यतिव्यापकत्वकलङ्कः, संशयाऽऽद्यप्रमाणविशेषेष्ववर्त्तनात् / नाप्यसंभवसम्भवः, प्रमाण स्वपरव्यवसायि ज्ञानम्, प्रमाणत्वान्यथाऽनुपपत्तेः, इत्यतस्तत्र स्वपरव्यवसायिज्ञानत्वसिद्धेः। अत्र चायं कण्टकोद्धारप्रकारः / तथाहि-न तावदत्र पक्षप्रतिक्षेपदक्षदोषसंश्लेषः / अयं हि भवन् किं प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणत्वम्, अनभीप्सितसाध्यधर्मविशेषणता, निराकृतसाध्यधर्मविशेषणत्वं वा भवेत् ? इति भेदत्रयी त्रिवलीव तरलाक्षीणामुन्मीलति / तत्र न तावत् प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणत्वमत्राऽऽख्यायमानं संख्यावतां ख्यातये,यतः प्रसिद्धमेव साध्यं साधयतामेतदुन्मज्जति, आपो द्रवा इत्यादिवत्; न चैतत् प्रमाणलक्षणमद्यापि परेषां प्रसिद्धिकोटिमाटीकिष्ट / नाऽप्यत्राऽनभीप्सितसाध्यधर्मविशेषणता भाषणीया, सा हि स्वानभिप्रेतं साध्यं साधयतामधीमतां धावति, शौद्धोदनस्य नित्यत्वसाधनवत, न चाऽऽहंतानामेतत् प्रमाणलक्षणमनाकाशितम् / नाऽपि निराकृतसाध्यधर्मविशेषणत्वमत्रोपपत्तिपद्धतिप्रतिबद्धता दधाति, तद्धि प्रत्यक्षेणाऽनुमानेनाऽऽगमेन वा साध्यस्य निराकरणाद् भवेत् / न चैतदनुष्णस्तेजोऽवयवी, नाऽस्ति सर्वज्ञो, जैनेन रजनिभोजनं भजनीयमित्यादिवत् प्रत्यक्षाऽनुमानाऽऽगमाऽऽदिभिर्वाधासंबन्धवैधुर्यं दधानमीक्ष्यते। तस्मान्नात्र दोषः पक्षस्य सूक्ष्मोऽष्युत्प्रेक्षितुं पार्यत। नाऽपि हेतोः; स खल्वसिद्धता विरुद्धता, व्यभिचारो वा भवेत्? यदि तावदसिद्धता, तदाऽपि किमन्यतरासिद्धिः, उभयासिद्धिर्वा भवेत् ? अन्यतरासिद्धिश्चेत्, तदाऽपि वादिनः प्रतिवादिनो वाऽन्यतरस्येयमसिद्धिःस्यात् ? यदि वादिनः, तदा किं स्वरूपद्वारेण, आश्रयद्वारेण, भिन्नाधिकरणताद्वारेण, पक्षकदेशद्वारेण, प्रतिज्ञार्थंकदेशद्वारेण वाऽसौ स्यात् ? स्वरूपद्वारेण चेत्।तत्कि हेतुस्वरूपे विप्रविपत्तेः, अप्रतिपत्तेः, संदेहाद्वा ? न प्राच्यः प्रकारः सारः; प्रमाणत्वाऽऽख्यहेतुस्वरूपे समस्तप्रामाणिकपरिषदामविवादात्। नापि द्वितीयः प्रमाणस्वरूपमप्रतिपद्यमानस्य वादिनोऽप्रामाणिकत्वप्रसङ्गात् / नापितृतीयः, सर्वथैवानिर्णीतप्रमाणस्वरूपस्य प्रतिपत्तुस्तत्र संदेहानुत्पादात्, न खलु सकलकालमनाकलितस्थाणुत्वस्य स्थाणुत्वपुरुषत्वोल्लेखी संदेहः कस्याऽपि संपद्यते, तत्स्वरूपप्रतिपतौ वा क्वचित्कथं सर्वथा प्रमाणस्वरूपे संशयः स्याद् ? आश्रयासिद्धिव्यधिकरणसिद्धी तु वादिनी जैनस्य दोषावेव न संमती ; अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाणत्वाद्, उर्दष्यति शकट कृत्तिकोदयाद, इत्यादेर्गमकत्वेन स्वीकृतत्वात् / संमतत्वे वा न तयोरत्रावकाशशङ्काशड्कुसंकथा; प्रमाणस्य धर्मिणः सकलवादिनामविवादाऽऽस्पदत्वात्, प्रमाणत्वहेतोस्तत्र वृत्तिनिर्णयाच। पक्षकदेशासिशताऽपि नात्र साधीयस्ता दधाति, सा हि संपूर्णपक्षाव्यापकत्वे सति / संभविनी, सचेतनास्तरवः स्वापात्, इत्यादिवत्, न चैतदत्रास्ति / नाऽप्यनित्यःशब्दोऽनित्यत्वाऽऽदित्यादिवत् प्रतिज्ञाऽर्थकदेशासिद्धताऽभिधानीया, तस्यास्तत्त्वतःस्वरूपासिद्धिरूपत्वाद्, अन्यथा धर्मिणोऽपि हेतुत्वे तत्प्रसङ्गात् / स्वरूपासिद्धिश्चात्र न यथा स्थमानमास्तिगघ्नुते, तथाऽनन्तरमेव न्यरूपि, इति न वादिनः साधनमसिद्धमेतत्। नापि प्रतिवादिनः, तत्राप्येवंप्रकार (प्रकारो विकल्पः।) प्रकारकल्पनाप्रबन्धस्य प्रायः समानत्वात् / अत एव वादिप्रतिवाद्युभयस्याऽपि नासिद्धमिदम् / एवं च कथमिदं साधनमसिद्धिसंबन्धं दधीत ? नापि विरुद्धताबन्धकी-संपर्ककलङ्कितमेतत् विपक्षाद् व्यावृत्तत्वात् / नापि व्यभिचार-पिशाचसंचारदुःसंचरं, यतो निर्णीतविपक्षवृत्तित्वेन, संदिग्धविपक्षवृत्तित्वेन वाऽत्र व्यभिचारः प्रोच्येत? न तावदायेन, अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वादित्यादिवद्विपक्षे वृत्तिनिर्णयाभावात् स्वपरव्यवसायिज्ञानस्य हि विपक्षः संशयाऽऽदिर्घटाऽऽदिश्च, न च तत्र कदाचन प्रमाणता वरिवर्ति। नापि द्वितीयेन, विवादाऽऽपन्नः पुमान् सर्वज्ञो न भवति, वक्तत्वाद, इत्यादिवद्विपक्षे वृत्तिसंदेहस्यासंभवात्; संशयघटाऽऽदिभ्यः प्रमाणत्वव्यावृत्तेनिीतत्वात् / तन्नानैकान्तिकत्वलक्षणमपि दूषणभत्रोपढौकते। इति न हेतोरपि कलङ्ककलिकाऽपि प्रोन्मीलति। निदर्शनं पुनर्नोपदर्शितमेवाऽत्र, इति न तद्दोषोद्धारसंरम्भः / भवतु वा तदपि व्यतिरेकरूपं संशयघटाऽऽदिन चात्र कश्चिदूषणकणः / सखल्यसिद्धसाध्यव्यतिरेकः, असिद्धसाधनव्यतिरेकः, असिद्धोभयव्यतिरेकः, सदिग्धसाध्यव्यतिरेकः, संदिग्धसाधनव्यतिरेकः, संदिग्धोभयव्यतिरेकः, अव्यतिरेकः, अप्रदर्शितव्यतिरेकः, विपरीतव्यतिरेको वा स्यात् ? तत्र न तावदाद्याः षट्, घटाऽऽदौ साध्यसाधनव्यतिरेकस्य स्पष्टनिष्टदूनात्। नाऽपि सप्तमः, व्याप्त्याऽत्र व्यतिरेकनिर्णयात्। नाऽप्यष्टमनवमौ; यत्र न स्वपरव्यवसायिज्ञानत्वंनतत्र प्रमाणत्वमिति व्यतिरेकोपदर्शनाद्, इत्यतो निकलङ्कादनुमानात्तल्लक्षणसिद्धेरनवद्यमिदं लक्षणम् / / 2 / / (2) अथात्रैव ज्ञानमिति विशेषणं समर्थयन्तेअभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम हि प्रमाणम्, अतो ज्ञानमेवेदम् // 3 // अभिमतमुपादेयम्, अनभिमतं हेयम्।तद्वयमपि द्वेधामुख्यं गौण च। तत्र मुख्यम्-सुख, दुःखं च / गौणं पुनःतयोः कारणं कुसुम-कुडकुमकामिनीकटाक्षाऽऽदिकं, खलकलहकालकूट-कण्टकाऽऽदिकं च / एवंविधयोरभिमतानभिमतवस्तुनोयाँ स्वीकारतिरस्कारौ प्राप्तिपरिहारौ, तयोः क्षमं समर्थ; प्रापकं परिहारकं चेत्यर्थः। अनयोरुपलक्षणत्वादेतदुभयाभावस्वभाव उपेक्षणीयोऽप्यत्रार्थो लक्षयितव्यः / रागगोचरः खल्वभिमतो, द्वेषविषयोऽनभिमतः, रागद्वेषद्वितयानालम्बनं तु तृणाऽऽदिरुपेक्षणीयः। तस्य चोपेक्षक प्रमाणं तदुपेक्षायां समर्थमित्यर्थः / हिर्य स्मादर्थे, यस्मादभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम प्रमाणम्, अत इदं ज्ञानमेव भवितुमर्हति, नाऽज्ञानरूपं सन्निकर्षाऽऽदिकम्। प्रयोगश्चप्रमाणं ज्ञानमेव, अभिभतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षमत्वात्, यत्तु नैवं न तदेयं, यथा स्तम्भः, तथा चेदम, तस्मात्तथा // 3 // Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 445 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण उपपत्त्यन्तरं प्रकटयन्तिन वै सन्निकर्षाऽऽदेरज्ञानस्य प्रामाण्यमुपपन्नम्, तस्यान्तिरस्येव स्वार्थव्यवसितौ साधकतमत्वानुपपत्तेः / / 4 / / अयमर्थः-यथा सम्प्रतिपन्नस्य पटाऽऽदेरर्थान्तरस्याज्ञानरूपस्य स्वार्थव्यवसितौ साधकतमत्वाभावात् प्रामाण्यं नोपपत्तिश्रियमशिश्रियत, तथा सन्निकर्षाऽऽदेरपि। प्रयोगः-संनिकर्षाऽऽदिर्न प्रमाणव्यवहारकभाक, स्वार्थव्यवसितायसाधकतमत्वाद्, यदेवं तदेवम्, यथापटः, तथा चायम्, तस्मात्तथा / / 4 / / (३)प सन्निकर्षोपरि विचारः ब अथाऽस्य साधनस्या सिद्धिसंबन्धवैधुर्य व्यञ्जयन्तः सूत्रद्वयं ब्रुवतेन खल्वस्य स्वनिर्णीतौ करणत्वं, स्तम्भाऽऽदेरिवाऽचेतनत्वात्, नाऽप्यर्थनिश्चितौ, स्वनिश्चितावकरणस्य कुम्भाऽऽदेरिव तत्राऽप्यकरणत्वात्।।।। अस्येति सनिकर्षाऽऽदेः, कारणत्वं साधकतमत्वम् / नाऽप्यर्थनिश्चिताविति. अस्य करणत्वमिति योगः। तत्राऽपीति, अर्थनिश्चितावपीत्यर्थः। शेषमशेषमुत्तानार्थम् / प्रयोगौ तु-सन्निकर्षाऽऽदिःस्वनिर्णीतौ करणं न भवति, अचेतनत्वात्, य इत्थं स इत्थम्, यथा स्तम्भः, तथा चायम, तस्मात्तथा / सन्निकर्षाऽऽदिरर्थनिश्चितौ करणं न भवति, स्वनिश्चितावकरणत्वात्, यएव स एवम्, यथा स्तम्भः,यथोक्तसाधनसंपन्नश्वायाम, तस्माद्यथोक्तसाध्यः। अत्र केचिद्यौगाः संगिरन्ते"सनिकर्षाऽऽदिर्न प्रमाणव्यवहार भाग" इत्यादि यदवादि, तत्राऽऽदिशब्दसूचितकारकसाकल्याऽऽदेःकाममप्रामाण्यमस्तु, सन्निकर्षस्य तु प्रामाण्यापकों नोऽमर्षप्रकर्षसिद्धये, तस्याओंपलब्धौ साधकतमत्वावधारणेन स्वार्थव्यवसितावसाधकतमत्वादित्यत्र हेत्वेकदेशस्य सिद्धेः / यत्तु तत्सिद्धौ साधनमधुनैवाभ्यधुः, तदसाधीयः, प्रदीपेन व्यभिचारात्, तस्य स्वनिश्चितावकरणस्याप्यर्थनिश्चिती करणत्वादिति / तदेतत् त्रपापात्रम् अर्थोपलब्धौ संनिकर्षस्य साधकतमत्वासिद्धेः / यत्र हि प्रमात्रा व्यापारिते सत्यवश्यं कार्यस्योत्पत्तिः, अन्यथा पुनरनुत्पत्तिरेव, तत्तत्र साधकतमम्, यथा छिदायांदात्रम्, न च नभसि नयनसं-निकर्षसंभवेऽपि प्रमोत्पत्तिः / रूपस्य सहकारिणोऽभावात् तत्र तदनुत्पत्तिरिति चेत। कथमसौ रूपेऽपि स्यात् ? न हि रूपे रूपमस्ति, निर्गुणत्वाद् गुणानाम्। नाऽपि तदाधारभूते द्रव्ये रूपाऽन्तरमस्ति, यावद्रव्यभाविसजातीयगुणद्वयस्य युगपदेकर त्वयाऽनभ्युपगमात्। अवयवगतं रूपमवयविरूपोपलब्धौ सहकारि समस्त्येवेति चेत्। कथं त्र्यणुकाऽवयविरूपोपलम्भो भवेत? न हि व्यणुकलक्षणाऽवयवत्रयवर्तिरूपमुपलभ्यते, यतः सहकारि स्यात् / अनुपलभ्यमानमपि तत्तत्र सहकारीति चेत्, तर्हि कथं न तप्तपाथसिपावकोपलम्भसंभवः? तदवयवेष्वनुपलभ्यमानस्य रूपस्य भावात् / यदि च रूपं सहकारि कल्पते, तदा समाकलितसकलनेत्रगोलकस्य दूराऽऽसन्नतिमिररोगावयविनः कथं नोपलब्धिः? अथाऽत्यन्ताऽऽसत्त्यभावोऽपि सहकारी, न चाऽसौ तिमिरेऽस्तीति चेत्। नन्विय- | मासत्तिरात्मापेक्षया, शरीरापेक्षया, लोचनापेक्षया, तदधिष्ठानापेक्षया वा विवक्षांचक्रे प्रेक्षादक्षेण? आद्य कल्पे, कथं कस्याऽपि पदार्थस्योपलब्धिः? व्यापकस्याऽऽत्मनः सर्वभावैरासत्तिसम्भवात् ! द्वितीये, कथं करतलतुलितमातुलिङ्गाऽऽदेरुपलम्भः ? तृतीये, कथं क्वाऽपि चाक्षुषप्रत्यक्षमुन्मजेत्?, चक्षुषः प्राप्यकारित्वकक्षीकारेण सर्वत्र स्वगोचरेणाऽऽसत्तिसद्भावात्। तुरीये, कथमधिष्ठानसंयुक्ताञ्जनशलाकायाः समुपलब्धिः? अथ येनांशेन तस्यास्तत्र संसर्गः स नोपलभ्यत एवा नैवम्, अवयविनो निरंशत्वेन स्वीकारात्। अपि च-कथ-मुदीची प्रति व्यापारितनेत्रस्य प्रमातुर्न काञ्चन काञ्चनाचलोपलब्धिमनुभवामः? न चदवीयस्त्वान्न तत्र नेत्ररश्यमः प्रसतुं शक्ताःतेषां शशाङ्गेऽपि प्रसरणाभावाऽऽपत्तेः / अथ तदालोकमिलितास्ते वर्द्धन्ते, तर्हि खरतरकरनिकरनिरन्तराऽऽपूरितविष्टपोदरे मरीचिमालिनि सति सुतरांसुराद्रिमभिसर्पता तेषां वृद्धिर्भवत् / न च दिनकरमरीचीनां नितरां कठोरत्वेन तैस्तेषां प्रतिघातः, तदाऽऽलोककलापाऽऽकलितकलशकुलिशाऽऽदिपदार्थानामप्यनुपलम्भाऽऽपत्तेः। ततो न सन्निकर्षसद्भावेऽप्यवश्यं संवेदनोदयोऽस्ति / नापि तदभावेऽभाव एव, प्रातिभप्रत्यक्षाणामार्षसंवेदनविशेषाणां च तत्कालाविद्यमानवस्तुविषयतया संनिक भावेऽपि समुद्भवात् / तन्न सन्निकर्षस्य साधकतमत्वं साधुत्वसौधाध्यासधैर्यमार्जिजत् / यं च प्रदीपन व्यभिचारमुदचीचरः, सोऽपि न चतुरचेतश्चत्कारचञ्चुः, प्रदीपस्य मुख्यवृत्त्या करणत्वानुपपत्तेः, नेत्रसहकारितया करणत्वोपचारात् / यथा चोपचारार्थव्यवसितो कारणमयं, तथा स्वव्यवसितावपि न हि प्रदीपोपलम्भे प्रदीपान्तरान्वेषणमस्ति / किं त्वात्मनैवाऽऽत्मानमयं प्रकाशयतीति क्व व्यभिचारः? तत्र सन्निकर्षस्यार्थव्यवसितावसाधकतमत्वमसिद्धम् / अनयैव दिशा कारकसाकल्याऽऽदेरप्यर्थव्यवसितावसाधकतमत्वं समर्थनीयम् / इति न हेत्वेकदेशासिद्धिः। रत्ना० 1 परि०। (4) नायनरश्मिविचार:अथ यद्यपि नायना रश्मयोऽध्यक्षतो न प्रतीयन्ते, तथाऽप्यनुमानतः प्रतीयन्ते। अनुमानंचतेजोरश्मिवत्चक्षुः,रूपाऽऽदीना, मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्, प्रदीपकलिकावदिति तद्रश्मिसत्त्वप्रतिपादक, नैव भास्करकरसत्त्वप्रतिपादक क्षपायामनुमानमस्ति, न निशायां बहुलान्धकारायां वृषदंशचक्षुर्बाह्याऽऽलोकसव्यपेक्षम्, अप्रकाशकचाक्षुषत्वात्, दिवा पुरुषचक्षुर्वदित्यस्याऽनुमानस्य रात्रौ तत्सत्त्वप्रतिपादकस्य भावात् / अथ वृषदंशाऽऽदेश्चाक्षुषं तेजोऽस्तीत्यर्थसिद्धेर्न किञ्चित् भास्करज्योतिषा अनुद्भूतरूपेण प्रकल्पितेन, तर्हि मनुष्याऽऽदीनामपि तदस्तीति किमुद्भूतरूपेण बाह्यतेजसा तेषां कृत्यम् ? अथ यद्यथा दृश्यते तत्तथाऽभ्युपगम्यत इति तु दिवा नायनं सौर्य भवेदेवं यदि तथा दर्शनं स्यात् यावता यथा रात्रौ भास्करकराऽऽदर्शनं तथा दिवा चाक्षुषरश्भ्यदर्शनं, यथावा दिवा भास्करावभासनं तथा क्षपायां वृषदर्शने लोकावलोकनम् / विशेषस्त्वयम्-एकदा भास्कररश्मयोऽन्यदा नायनास्तेऽनुमेया इति / अथान्धकारावष्टब्धनिशीथिनीसमयेऽपि भास्करकरसंभवे नक्तशराणामिव रूपदर्शनं स्यात्, न, संतोऽपि Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण तदा तत्करा न नराणां रूपदर्शनजननप्रकृताः यथा त एव वासरे उलूकाऽऽदीनाम्, भावशक्तीनां विचित्रत्वात्, तस्मादनुपलम्भात् क्षपायां यथा न भास्करकरास्तथा नायना रश्मयोऽन्यदेति स्थितम् / यदपि परेण प्रोक्तम्- दूरस्थितकुड्याऽऽदिप्रतिफलितानामन्तराले गच्छतां प्रदीपरश्मीनां सतामप्यनुपलम्भदर्शनान्नानुपलम्भात् तदभावसिद्धिरिति, तदप्यनेनैव निरस्तम् / रविरश्मीनामपि क्षपायामभावासिद्धिप्रसक्तेः। किं चयोगिन आत्ममन संयोगो यदा सदसद्वर्गाऽऽलम्बनमेकं ज्ञानं जनयति तदा सकल-सदसद्वर्गः तस्य चेत्सहकारी तीर्थवत् प्रमाणमित्यत्रार्थः सहकारी, यस्य विशिष्टप्रमितौ प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरं तदर्थवत्प्रमाणमिति विरुध्यते। सहकारी चेदसौ देशाऽऽद्यन्तरितोऽपि तर्हि तत्कुड्याऽऽदेः प्रभासुरतयोत्पत्तौ प्रदीपो देशव्यवहितोऽपि सहकारीति नान्तराले तद्रश्मिसिद्धिः। ततो न तैरनुपलम्भव्यभिचारः। अत एव ताप्यमानमुदकं तेज उखाऽऽदिव्यवहितमप्युष्णस्पर्शजनयिष्यतीति नोदके उष्णस्पर्शोपलम्भादनुभृतभास्वररूपस्य तेजसः सिद्धिः। यदपि चक्षुः स्वरश्मिसंबद्धार्थप्रकाशकं, तैजसत्वात् प्रदीपवदित्यनुमानम्, अनेन किं चक्षुषो रश्मयः साध्यन्ते, उतान्यतः सिद्धाना ग्राह्यार्थसंबन्धस्तेषां साध्यत इति? आद्ये पक्षे तरुणनारीनयनाना दुग्धबलक्षतया भासुररश्मिरहितानामध्यक्षतः प्रतीतरध्यक्षबाधितकर्मनिदेशान्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टो हेतुः। अथ यदध्यक्ष ग्रहण योग्य साध्यमध्यक्षत एव तत्र नोपलभ्यते तत्र तद्बाधः कर्मणः / यथाअनुष्णोऽग्निः, सत्त्वादिति, न चाध्यक्षग्रहणयोग्या नायना रश्मयः, सदा तेषामदृश्यत्वात, न / पृथिव्यादिद्रव्येऽप्येतेषां साध्यप्रसक्तेः (?) तथाहि-रश्मिवन्तो भूत्यादयः, सत्त्वात्प्रदीपवदित्यप्यवमातुं शक्यत्वात् / यथैव हि तैजसत्वं प्रदीपे रश्मिवत्तया व्याप्तिमुपलब्धं, तथा सत्त्वमप्यस्यान्यथाऽपि सम्भवेन तैजसत्वस्येति कुतो विभागः? अथ भूम्यादेस्तत्साधनेऽध्यक्षबाधः / न / दुग्धबलक्षाबलालोचनानामपि तत्साधनेतद्विरोधः समानः। अथ वृषदंशचक्षुषोऽध्यक्षतो वीक्ष्यन्ते रश्मय इति कथं तद्विरोधः? ननु यदितत्र ईक्षन्तेऽन्यत्र किमायातम्, त एवान्यत्र तत्साधने हेम्नि पीतत्वप्रतीतौरजते पीतत्वप्रसङ्गः प्रमाणसाधनमुभयत्र तुल्यम् / अथ तत्र तत्प्रतीयन्ते नान्यत्र सत्त्वेन ते साध्यन्ते, अपि च अनुमानतस्तत्तु दृष्टान्तमात्रम्, नन्वत्र नेत्रत्वादिति यदिहेतुः, तैजसत्वादित्यस्याऽऽर्नथक्यम् / अत एव प्रकृतसिद्धेरध्यक्षबाधा चात्रापि तदवस्थितेय, तेजसत्वादित्यस्य हेतुत्वे प्रदीपदृष्टान्तेनैवार्थसिद्धेः वृषदशनेत्रनिदर्शनमनर्थकम्, न च तस्य तैजसत्वं प्रतिसिद्धमिति तत्साधनविकल्पनात् तदपेक्षया दृष्टान्तदोषः न च रश्मिवत्त्वाद्विडाललोचनस्य तैजसत्वं सिद्धं मण्यादीनामपि तत्प्रसक्तेः। न च रश्मिवत्त्वान्मण्यादीनामपि तैजसत्वम्, उष्णप्रभाया एव तैजसत्यात् / अन्यथा तरुणतरुकिशलयानामपि तैजसत्वं स्यात् न च नारीनयनाना तैजसत्वं सिद्धमिति सिद्धो हेतुः। न च रश्मिवत्त्वादेव तेषां तत्साध्यते इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसक्तेः, सिद्धे भास्वरप्रभावत्त्वे तैजसत्वसिद्धिस्ततश्च भास्वरप्रभावत्त्वे च तत्सिद्धिरिति कथं नेतरेतराश्रयदोषः / अथ तैजसत्वं चक्षुषः, रूपाऽऽदीनां मध्यं रूपस्यैवप्रकाशकत्वात्प्रदीपवदित्यतोऽनुमानात् तेजसत्वसिद्धेर्ने तरेतराऽऽश्रयदोषः / नन्वत्र भास्वर- | रूपोष्णस्पर्शतजोद्रव्यसमवेतगोलकस्य भावकार्यद्रव्यं यदि शब्दवाच्यं तदा तस्य तेजसत्वसाधने अध्यक्षविरोध, तद्विपरीतरूपस्पर्शाऽऽधाररूपतया अध्यक्षतः प्रतिपत्तेः / तथा हि-अबलापारावतबलीवर्दाऽऽदीनां चक्षुषो धवललोहितनीलरूपतयोष्णस्पर्शविकलतया वाऽ5ध्यक्षतः प्रतिपत्तिः सिद्धेव / न च गोलकव्यतिरिक्तं चक्षुः तद्ग्राहक प्रमाणाभावात् सिद्धमित्या-श्रयासिद्धिः स्वरूपासिद्धिस्वरूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति हेतुरनैकान्तिकश्च / तुहिनकरनिकरण तस्य रूपस्यैव प्रकाशकत्वेऽप्यतेजसत्वात् / न / तस्यापि पक्षीकरणाददोषः व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणादेकान्तिकत्वे सर्वत्रानैकान्तिकहेत्वभावप्रसक्तेः। न चैवं, जलानलयोः विशेषगुणशङ्करादभेदसिद्धेः / नच तन्निकरान्तर्गत तेजस्तत्रापि रूपप्रकाशकमिति न व्यभिचारः प्रदीपेऽप्यन्यस्य तदन्तर्गतस्य तत्प्रकाशकस्य प्रकल्पनात् दृष्टान्तासिद्धिप्रसक्तेः प्रत्यक्षबाधोभयत्र च रूपसम्बन्धेन रूपस्यैव प्रकाशकेन च व्यभिचारः, नचाऽसौ रसाऽऽदेरपि प्रकाशक इन्द्रियान्तरपरिकल्पनाविफलप्रसक्तेः। रूपप्रकाशकत्वं च रूपज्ञानकत्वं, तच नीलरूपे विद्यते, अन्यथाऽर्थवत्प्रमाणमित्यत्रार्थसहकारित्वं तस्य न स्यादिति तेन व्यभिचारः / अथ द्रव्यत्वे सति तैजसत्वं करणस्य चक्षुषो रूपादीनांमध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति विशेषणान्न सम्बन्धरूपाऽऽभासनमनेकान्तः / ननु यथा सम्बन्धाऽऽदेरद्रव्यादेरप्यतैजसस्य रूपज्ञानजननं तथा चक्षषोऽपि कि स्यात् / न चादर्शनादित्युत्तरं समर्थम्, दर्शने निवृत्तेऽनिवर्तकत्वात्प्रदीपवदिति दृष्टान्तस्याऽपि रूपप्रकाशकत्वासिद्धेः साधनविकलता दृष्टान्तस्य। न च प्रदीपे सति प्रतिनियतप्राणिनां रूपदर्शनसम्भवात्तस्य रूपप्रकाशकत्वमञ्जनाऽऽदिसंस्कृतचक्षुषां तदभावेऽपि रूपदर्शनसद्धावात् / न च यदन्तरेणापि यद् भवति न तत्कार्यमितरत् तत्कारणम्, अन्वयव्यतिरेकनिबन्धनत्वात् तद्भावस्य / अथ प्रदीपे सति यद् दर्शन तत्तदभावे न भवति यत्तु तदभावे भवति न तत्तत्राऽपि तत्सदृशम्, न चान्यस्य च व्यभिचारे अन्यस्यासौ अतिप्रसङ्गात् / असदेतत् यतो यादृशमेव रूपदर्शनमालोके संस्कृतचक्षुषा तदभावेऽपि तादृशमेव तत्, भेदानवधारणात्। तथाहि-तद्भेदकल्पने न किञ्चित् कस्यचिद्व-स्तुनः सदृशमिति सौगतमतानुप्रवेशः स्यात्, रूपप्रदीपयोश्च सहोत्पन्नयोयुगपदर्शने प्रदीपवद्रूपस्याऽपि प्रदीपप्रकाशकत्वाद्रूप तैजसं भवेत्, अन्यथा न प्रदीपोऽपि तैजसःस्यात्, तज्जनकत्वाविशेषात्तयोः / न चान्यदा प्रकाशकत्वोपलब्धिसिद्धएव तदाऽपि प्रकाशकः, अन्यदाऽप्यञ्जनाऽऽदिसंस्कृतचक्षुषां तदभावेऽपि रूपदर्शनसद्भावात् तस्य तत्प्रकाशकत्वासिद्धेः अथ तस्मिन् सति कदाचित्कस्यचिद्रूपदर्शनात्तस्य तत्प्रदर्शकत्वं तर्हि नक्तञ्चराणां संतमसे रूपदर्शनात्, तदभावे तदभावात् हेतुफलभावस्य सर्वत्र तन्निबन्धनत्वात् तमोऽपि रूपप्रकाशत्वात्प्रदीपवत्तैजसं भवेत् अन्यथा हेतोरनेनैव व्यभिचारः स्यात् / आलोकाभाव एव तम इति चेत्, न, आलोकस्याऽपि तमोऽभावरूपताप्रसक्तेः। आलोकस्य तरतमादिरूपतयोपलम्भात् नाभावरूपतेति चेत्, न, तमस्यप्यस्य समानत्वा त् / यथा चाऽऽलोकः प्रतिभासविषयस्तथा तद्विषयः। न चाऽऽलोकप्रतिभासाभाव एव तमः प्रतिभासः, इतरत्राप्यस्य समानत्वात् न च चक्षुयापाराभावेऽपि तत्प्रतिभाससंवेदनादा Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 447- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण लोकप्रतिभासाभाव एव तमःप्रतिभासः, प्रतिनियतसामग्रीभवविज्ञानावभासित्यात प्रतिनियतभावानां तमसः तदतत्प्रभवविज्ञानावभासित्वात, आलोकस्य च तद्विपर्ययात्। यद्वाऽऽलोकस्याप्यचक्षुष्ट्ये सत्यपिस्वप्नज्ञाने प्रतिभासनात्तमोज्ञानाभावरूपता भवेत् / अथाऽऽलोकस्य रूपप्रतिपतौ हेतुभावान्न भावरूपता तर्हि तमसोऽपि नक्तञ्चररूपप्रतिपत्ती हेतुभावो विद्यत इति नाभावरूपता भवेत् तदेवमालोकस्य वस्तुत्वे तमसोऽपि तदस्त्विति तेन हेतोर्व्यभिचारः। भवतु चाऽऽलोकाभाव एव तमः, तथाऽपि न व्यभिचारापरिहारः, तदभावस्य तेजस्यापि तत्प्रकाशकत्वात्। अथ तमोऽभावेऽपि रूपदर्शनान्न तस्य तत्प्रकाशकत्वं, तर्हि नक्तञ्चराणामालोकाभावेऽपि रूपदर्शनादालोकस्यापि न तत्प्रकाशकत्वं भवेत् / अथास्मदादीनां किमालोकाभावे रूपदर्शनं न भवति, भवत्येव, कथमन्यथाऽन्धकारसाक्षात्करणम; घटरूपदर्शनं किं नेति चेत्, बहलतमोव्यवधानात्, तीव्राऽऽलोकतिरोहिताल्परूपवत्, प्रदीपोपादानं तुतस्य व्यवच्छेदार्थम्। अत एवान्यत्रोक्तम्- "तमोनिरोधे वीक्ष्यन्ते, तमसाऽनावृतं परम् / घटाऽऽदिमित्यादि / ' प्रदीपस्य च घटरूपयवधायकतमोऽपनेतृत्वेतैजसं चक्षुः रूपाऽऽदीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात्, प्रदीपवदिति साधनविकलत्वात् दृष्टान्तस्य निरस्त द्रष्टव्यम्।न चान्यत एव तस्य रश्मयः सिद्धाः, केवलमनेन प्राप्तार्थ प्रकाशकत्वे तेषां साध्यत इति वक्तव्यम्, तत्सद्भावप्रतिपादकस्य प्रमाण स्याआभावात्। अथ यद्यप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुरविशेषेण सर्व प्रकाशयेत्. तन्न, अर्थानां नियतशक्तित्वात्, यतोयएव तत्र योग्यः स एव तत्प्रकाशयति, अन्यथा संयुक्तसमवायाविशेषाञ्चक्षुर्यथा कुवलयरूप प्रकाशयति तथा तद्गन्धमपि प्रकाशयेत्, तथा चेन्द्रियान्तरवैफल्यम्। अथ योग्यताऽभावान्न तत्तद्गन्धमवभासयति तर्हि योग्याताभावात् प्राप्त्यभावेऽपि नातिव्यवहितमिति सन्निकृष्ट वा तद्रूपं प्रकाशयतीति सर्वत्र योग्यतैवाऽऽश्रयणीया नापरसंबन्धप्रकल्पनेन कृत्यम्, रश्मयो वा कुतो न लोकान्तरमुपयान्तीति प्रेरणायां परेणाप्ययोग्यतैव तरतरत्र तु योग्यता प्रतिविधानत्वेन वक्तव्या; तथा यस्य कारणाद् भिन्नमेव कार्य तस्य भेदाविशेषात् सर्वं सर्वस्मात् कुतो नोत्पद्यत इति चोद्ये योग्यतातो नापरमुत्तरमिति सैवात्राप्यभ्युपगमनीया। किं च-यदि प्राप्तार्थप्रकाशकं, चक्षुः स्फटिकाऽऽद्यन्तरितवस्तुप्रकाशकं न स्यात्, तद्रश्मीनां विषयं प्रति गच्छतां स्फटिकाऽऽदिना प्रतिबन्धात् / न च तैस्तस्य ध्वस्तत्वादयं न दोषः, तद्व्याहितदर्शनसमये स्फटिकाऽऽदिव्यवधायकस्यादर्शनप्रसगात्, तदुपरि व्यवस्थापितस्य चाऽऽधारविनाशोत्पातप्रसक्तेश्च न हि परमाणवो दृश्याः कस्यचिदाधारभूता वा, अवयविकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः, अन्यस्यावयविन आशूत्पत्तेरदोषश्चेत्, न, तदा तद्व्यवहितस्यादर्शनप्रसक्तेः। तथा च यदा व्यवधायकदर्शनं न तदा व्यवहितदर्शनं, यदा च व्यवहितदर्शनं न तदा व्यवधायकदर्शनमिति प्रसज्येत, न चैवम्, युगपद्वयोर्दर्शनात्। अथाशूत्पत्तेर्निरन्तरव्यवहितप्रतिपत्तिविभ्रमः, तर्हि तदभावस्याऽपि आशूत्पत्तेरभावप्रतिपत्तिविभ्रमस्तथा किं न भवेत्, भावपक्षस्य बलीयस्त्वादिति चेन्न, भावाभावयोः परस्परस्वकार्यकरणाविशेषात्। किं च-कलुषजलाऽऽद्यावृतस्यार्थस्य किं न ते प्रकाशकाः, स्फटिकाऽऽदेरिव जलाऽऽदेरपि भेदे तेषां सामर्थ्यप्रतिघातात्, न जलेन तेप्रतिहन्यन्ते। स्वच्छजलेनाऽपि तेषां प्रतिघातात्, तद्व्यवहितस्याऽप्यप्रकाशनप्रसङ्गात्, अथ तेषां तत्र प्रकाशनयोग्यता तर्हि तत एतेऽप्राप्तमप्यर्थः प्रकाशयिष्यन्तीति व्यर्थं संयुक्तसमवायाऽऽदिसन्निकर्षप्रकल्पनम् / अपि च-समवायसंबन्धिनिषेधे चक्षुषो घटरूपेण संयुक्तसमवायप्रतिबन्धस्याऽभावात् तद्रूपाप्रकाशकत्वात् कर्थनाऽसिद्धो हेतुः, रूपाऽऽदीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति। अथेह तन्तुषु पट इति बुद्धिः संबन्धनिबन्धनत्वादिह कुण्डे दधीति बुद्धिवदित्यतोऽनुमानात् समवायसिद्धेः, न, संयुक्तसमवायसंबन्धाभावः नेह बुध्या संबन्धमात्रसाधने, घटतद्रूपयोः कथञ्चित्तादात्म्यसंबन्धाभ्युपगमात् सिद्धसाध्यताप्रसङ्गात। अथ कथञ्चित्तादात्म्यसंबन्धः तबुद्धिनिमित्तत्वेन प्रतिपन्न इति कथञ्चित् तादात्म्यसंबन्धे विरोधो नेष्यते, तर्हि भावा-भावयोः कथञ्चित्तादात्म्यभावे समवायाऽऽदेरसंभवादसंबन्धः स्यात्। तथा चाभावे न अक्षाणां सन्निकर्षाभावाद् नाऽक्षतस्तत्प्रतिपत्तिः स्यात्, विशेषणविशेष्यभावस्य भावाऽभावायोः संबन्धस्य भावात् नाऽयं दोष इति चेत्। न। भावाऽभावाभ्यां तस्यानर्थान्तरत्वे तावेव स एव वा स्यात्, अर्थान्तरत्वे भावाभावयोः तद्भावेऽपिन विशेषणविशेष्यरूपता, ताभ्यां तस्याऽसंबन्धात संबन्धे वाऽऽभ्यां तस्य परेण संबन्धनिमित्तेन विशेषणविशेष्यभावेन भवितव्यं, तस्याऽपि संबन्धनिमित्तेनापरेण तेनेत्यनवस्था भवेत्, तस्मात्कथश्चित्तयोः तादात्म्यमभ्युपगन्तव्यम्। अन्यथा भावस्याध्यक्षप्रमाणग्राह्यता न भवेत, तदेवं समवायासिद्धेनाक्षस्य रूपेण संबन्ध इति न तेन तस्य ग्रहणं परपक्षे भवेदिति चक्षुषो घटेन संयोग एव, अयुतसिद्धत्वात्, द्रव्यसमवेतानांगुणाऽऽदीनां संयुक्तसमवाय एवेत्या दिषोढाः सन्निकर्ष प्रतिपादनमयुक्तम्, संयोगसमवायविशेषणविशेष्यभावसंबन्धानामभावेन तदनुपपत्तेः संयोगाऽऽदेश्चाभावः प्रतिपादतो यथाऽवसरमिति न पुनः प्रतिपाद्यते। अथवा-अस्माकं चक्षुषः प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं, प्रमाणाऽभावान्न सिद्ध, तथा भवतोऽप्यप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तस्य तत एव न सिद्धमिति कथं "रूपं पुणपासाई अपुटुं तु इत्यभिधानं युक्तिसङ्गतम्। न, तस्याप्राप्तार्थप्रकाशने अनुमानसद्भावात्। तथाहिअप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुरित्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वात्, यत्पुनः प्राप्तार्थप्रकाशकं तदत्यासन्नप्रकाशकमुपलब्ध, यथा श्रोत्रमत्यासन्नेऽर्थेऽप्रकाश च चक्षुस्तस्मादप्राप्तार्थप्रकाशमिति व्यतिरेकी हेतुः / न चायमसिद्धो हेतु गोलकस्थस्य कामलाऽऽदेः पक्ष्मपुटगतस्य चाञ्जनाऽऽदेस्तेना प्रकाशनात्, कथमन्यथा दर्पणाऽऽदेः परोपदेशस्य वा तत्प्रतिपत्त्यर्थमुपादानं भवेत अथ साध्यनिवृत्तौ नियमेन तत् निवर्तमानऽत्यासन्नार्थप्रकाशकत्वं नियमेन व्यावर्तते, चक्षुष इवतस्याप्यत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वात्तत्तो नायं व्यतिरेकी हेतुः न कर्णशष्कुलीप्रविष्टमशकाऽऽदिशब्दस्यतेन प्रकाशनात्, स्पर्शनाऽऽदौ त्वविवाद एव, चक्षुः श्रोत्रमनसामप्राप्तार्थकारित्वमिति च नादप्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमिति न साध्यनिवृत्तौ साधननिवृत्तिस्तद् नाय व्यतिरेकी हेतुरिति सौगतः। यथा सवर्गताऽऽत्मपक्षे साऽऽत्मकं जीवच्छरीरं, प्राणाऽऽदिमत्चा दितिहेतुः, न, प्राप्तकारित्वे श्रोत्रस्य चक्षुष इवात्यासन्नविषयप्रकाशकत्वं न स्यादिति मशकादिशब्दस्य प्राप्तप्रत्यक्षत Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 448 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण प्रकाशकत्वेन प्रतीयमानस्याप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तस्याध्यक्षबाधितम्, अग्नावनुष्णत्ववत् / अथ दूरे शब्दो निकटे शब्द इति प्रतीतेः प्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमिष्यते, न सदेतत्, यतःसाकारज्ञानपक्षेऽनाकारज्ञानपक्षे वाऽयमभ्युपगम इति वाच्यम् / न तावत्प्रथमः पक्षः शब्दाऽऽकारस्य ज्ञानगतस्याज्ञानावभासे दूरनिकटव्यवहारानुपपत्तेः / अन्यथा स्वसंवेदनाऽऽकारेऽपि तत्प्रसक्तिर्भवेदिति सर्वत्राऽऽसन्नदूरव्यवहारे घटमाने व्यावर्त्यः कः स्यात् / आकाराऽऽधायकस्याऽऽसन्नाऽऽदित्वात् तद्व्यवहारस्तर्हि परपक्षेऽप्येतदुत्तरं समानं भवेदिति किं तत्प्रतिपेक्षः, सक्यं हि परिणामप्येवमभिधातुं, कर्णशष्कुल्यनुप्रविष्टस्य शब्दस्य ग्रहणेऽपि तत् प्रथमकारणस्य दूरत्वात् दूरव्यवहारो, विपर्ययाच्च विपर्यय इति। द्वितीयपक्षस्तु न युक्तः,सौगतस्यानभिमतत्वात् / अथ परापेक्षया प्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमित्यभिधीयते दूराऽऽदिव्यवहारात् ते तद्विषये चक्षुर्वदिति नैवं परसिद्धनानुमानेन प्रमाणेतरसामान्यव्यवस्थाऽऽदेश्चार्वाकस्योत्पत्त्यनित्यत्वाऽऽदिनासुखाऽऽदेरचेतनत्वप्रसाधनं साड्ख्यस्य वा निषिद्धं भवेत्। बौद्धाभ्युपगतेनानुमानेनोत्पत्यादिना च तेनापि स्वाभिप्रेतसाध्य स्य साधयितुं शक्यत्वात् / यश्च वाताऽऽदेरागतस्य ग्रहणेऽपि दूराद्य व्यवहारं प्रतिपद्यते परः स कथं तत एव त्वदीयं साध्य प्रतिपद्येत। यदि च स्वोत्पत्तिदेशस्थ एव श्रोत्रेण गृह्येत नाऽऽगतस्तर्हि कथमनुवाते शब्दस्य तद्देशोत्पत्तिकस्यैव श्रवणं, शब्दाविनाशे अनुकूलवाते श्रवणं, मन्दवाते मनाक्श्रवणं भवेत् न च प्रतिकूलवाते शब्दस्य नाशितत्वात् श्रोत्रस्य वाऽभिहतत्वान्न श्रवणं, शब्दविनाशे अनुकूलवातस्थस्यापि तथा श्रवणप्रसक्तेः, शब्दस्य विनष्टत्वाद्यवहितदेशथस्य च तस्य श्रोत्राभिघातहेतुत्वानुपपत्तेः, अन्यथा भस्त्राऽऽदिव्यवस्थितस्यापि तस्य तदुपघातकत्वं स्यादनुकूलवातेन तस्य तत्प्रतिप्रेरणात्तेन तत् श्रवणे प्राप्तः शब्दः श्रूयत इति प्राप्त, तथाऽपि तत्र दूराऽऽदिव्यवहारे श्रोत्रमप्राप्तप्रकाशकमतः सिद्ध्यतीति कथं न व्यतिरेकी हेतुः न च चक्षुः शब्देन नायनरश्म्यभिधानादत्यासन्नप्रकाशकत्वाच तेषामऽत्यासन्नाप्रकाशकत्वादिति हेतुरसिद्धः तेषां प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणाविषयत्वेन सद्भावासिद्धेरिति प्रतिपादनात् तदसिद्धताऽऽदिदोषवैकल्याच्च हेतोरप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं चक्षुषः सिद्धमिति "रूपं पुण पासई अपुट्ट तु' इति न युक्तिविकलं वचः, तदेवमिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वं प्रत्यक्षरयासिद्धम्। यदपि तत्त्वतः करणेन्द्रियसम्बन्धस्य सुखाऽऽदिज्ञानोत्पत्तावसम्भवेन तस्याव्यापकत्वादभिधानमिति। तदप्यसम्बद्धम् / यथाहीन्द्रियार्थसन्निकर्षों यथोक्तन्यायेन रूपिज्ञानोत्पत्तौ न संभवीति न प्रत्यक्षलक्षणं तथाऽन्तःकरणे न्द्रियसंबन्धोऽप्यन्तःकरणस्य परिकल्पितस्यासिद्धत्वात्तत्संबद्ध्यस्य दूरापास्तत्वात् / यथा चान्तःकरणस्यासिद्धिः तथा स्वनिर्णयं ज्ञानस्यसाधयद्भिः प्रदर्शितम्। यदप्यव्यभिचाराऽऽदिकार्यविशेषणोपादानमन्तरेण सन्निकर्षस्य साधुत्वं ज्ञातुं न शक्यत इति अभिधानं, तदप्यसङ्गतम् / परपक्षे अव्यभिचाराऽऽदिधर्मोपतस्य ज्ञानकार्यस्यैवासिद्धेः कथं ततः सन्निकर्षस्य साधुत्वावगमः, कार्यत्वानवगमश्च। स्वसंविदितत्वानभ्युपगमे ज्ञानान्तरप्रत्यक्षतायामनवस्थाऽऽदिदोषोपपत्तेः प्राक् प्रतिपादनात् / यच्चार्थ- ग्रहण स्मृतिफलसन्निकर्षनिवृत्त्यर्थमित्युक्तम्। तदप्यसंगतम्। स्मृतिवत् ज्ञानस्याप्यर्थजन्यत्वासिद्धेस्तजन्यत्वात् तस्य तद् ग्राहकत्वे समये चिरातीतानागतार्थग्राहकत्वं तस्य न स्यात्, तथाभूतस्यार्थस्य तत्प्रत्ययजनकत्वात्, तथा च सर्वज्ञज्ञानं सकलपदार्थग्राहकं न भवेदिति प्राक् प्रतिपादितम् / यदपि ज्ञानग्रहणं सुखाऽऽदिनिवृत्त्यर्थमिति प्रतिपादितम् / तदप्यसङ्गतम्। सुखाऽऽदेनिरूपत्वानतिक्रमात् / अन्यथाहादाऽऽद्यनुभवो न स्यात्, तत्तद्ग्रहकस्यापरस्यानुभवस्यानवस्थाऽऽदिदोषतो निषिद्धत्वात्। यदपि भिन्नहेतुकत्वं सुखाऽऽदेः प्रतिपादितं, तदपि सुखाऽऽदेः सामान्यस्यासिद्धिसङ्गतम् / यश्च प्रत्यक्षविरोधः प्रतिपादितो ज्ञानसुखयोरेकत्वे ज्ञानमर्थावबोधस्वभावं सुखाऽऽदिकमाादास्वभावं ततो भिन्नमध्यक्षतोऽनुभूयत इति / सोऽप्यनुपपन्नः। यतः स्वावबोध एव विज्ञाने अव्यभिचरितो धर्मस्मरणाऽऽदिज्ञानरूपतायामप्यर्थावबोधरूपताया अभावात्। एतच्चर्थोपलब्धिरिति विशेषणमुपपादयता प्रमाणे परेणाप्यभ्युपगमे च स्वावबोधरूपताऽनुज्ञानाव्यभिचरिता सुखाऽऽदावप्यस्ति। अन्यथा तस्याऽनुभव एव न स्यादिति प्रतिपादितम् / ततश्चाक्षुषाऽऽदेानरूपतायां कथमध्यक्षविरोधः, अदृष्टविशेषप्रभवत्वेन च सुखाऽऽदे दे सुरूपज्ञानस्य विरूपज्ञानात् ज्ञानरूपतया भेदो भवेत्, अदृष्टविशेषजन्यताया अविशेषात् / तन्न सुखाऽऽदिव्यवच्छेदार्थ ज्ञानपदोपादानं युक्तम् / अव्यपदेश्यपदोपादानमप्यनर्थकम्। व्यवच्छेद्याभावात्। अथोभय ज्ञान व्यवच्छेद्यमिति चेत् / न / तस्याध्यक्षतायां दोषाभावात् / अथ शब्दजन्यत्वात्तस्य शब्देऽन्तर्भावः,नन्वक्षजत्वादध्यक्षे किमिति नान्तर्भावः ? शब्दस्य तत्र प्राधान्याच्छाब्दं तदिति चेत् / न / अध्यक्षलिङ्गातिक्रान्त एव शब्दस्य प्राधान्येन व्यापारोपगमात् अथोभयजज्ञानविषयस्यापि तदतिक्रान्तत्वं तीव्यपदेश्यपदोपादानमन्तरेणापिशाब्द एव तस्यान्वो भविष्यतीति तद्व्यवच्छे दार्थमव्यपदेश्यपदो पादानमनर्थकम् / अथोभयजत्वादस्य प्रमाणान्तरत्वं स्यादसत्यव्यपदेश्यग्रहणेनाक्षप्राधान्ये प्रत्यक्षता, शब्दप्राधान्ये तु शाब्दतेति कथं प्रमाणान्तरता / न चोभयोरपि प्राधान्यं, सामन्यामेकस्यैव साधकतमत्वात्तेनैव च व्यपदेशप्राप्तेः। यदपि व्यभिचारज्ञाननिवृत्त्यर्थमव्यभिचारिपदमुपात्तम् / तदप्ययुक्तम् / तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य परमतेनासङ्गतेः / तथाहिअदुष्टकरणप्रभवत्वं बाधारहितत्वं वा अव्यभिचारित्वं प्रवृत्तिसामर्थ्यावगमव्यतिरेकेण न ज्ञातुं शक्यमिति स्वतः प्रामाण्यनिराकरणप्रस्तावे प्रतिपादितमिति प्रवृत्तिसामर्थ्यमेवाव्यभिचारित्वं,तच्च विषयप्राप्त्या विज्ञानस्याव्यभिचारित्वं ज्ञायमानं किं प्रतिभातविषयप्राप्त्याऽवगम्यते, आहोस्विदप्रतिभातविषयप्राप्त्या? तदोदकज्ञाने किमुदकावयवी प्रतिभातः प्राप्यते, उत तत्सामान्यमाहोस्वि दुभयमिति पक्षाः तत्र यद्यवयवी प्रतिभातः प्राप्यत इति पक्षः, सन युक्तः, अवयविनोऽसत्त्वे प्रतिभास प्रति विषयताऽसम्भवात्, सत्वेऽपि न तस्य पराभ्युपगमेन प्रतिभातस्य प्राप्तिः, कृष्यादिविवर्तनाभिधातोपजातावयवक्रियाऽऽदिक्रमेण ध्वंससम्भवात् अथावस्थितव्यूहैरवयवैरारब्धस्य तस्य तज्जातीयतया प्रतिभातस्यैव प्राप्तिः, नन्वेवमप्यन्यःप्रतिभातोऽन्यश्च प्राप्यत इति कथं तदवभासिनो ज्ञानस्याव्यभिचारिता। न ह्यन्यप्रतिभासनेऽ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण न्यत्र प्राप्तावव्यभिचारिता / अन्यथा मरीचिकाजलप्रतिभासे दैवात् सत्यजलप्राप्तौ तदवभासिनस्तस्याव्यभिचारिता भवेत्। न च तद्देशजलप्रापकस्याव्यभिचारितेति नायं दोषः, यतो देशस्यापि भास्करकरानुप्रवेशाऽऽदिनाडवयवक्रियाक्रमेण नाशात् तत्त्वानुपपत्तिः, न चैवं व्यभिचारवादिनः चन्द्रार्काऽऽदिज्ञानं विनाऽस्य तदवस्थपदार्थोत्पादित - त्वात्तदव्यभिचारिभवेत्। अथ प्रतिभातोदकसामान्यतदव्यभिचारीति पक्षः / सोऽप्ययुक्तः। एकान्ततो व्यक्तितो भिन्नस्य वा सामान्यस्यासत्त्वेन प्रतिभासप्राप्त्यालम्बनत्यायोगात्; सत्त्वेऽपि तस्य नित्यतया रवप्रतिभासज्ञानजनकत्वायोगाद, अजनकस्य च परेण ज्ञानविषयत्वानभ्युपगमात्, ज्ञानविषयत्वेन तस्य पानावगाहनाऽऽद्यर्थक्रियानिवर्तकत्वान्नार्थक्रियार्थिनां तद्ज्ञानात् जलाऽऽधुपादानार्था प्रवृत्तिर्भवत्। न च समवायात्सामान्यावगमेऽपि व्यक्ता व्यक्त्यर्थज्ञानार्थिनां प्रवृत्तिः, अन्यप्रतिभासे अन्यत्र प्रवृत्तियोगात, योगे वाऽतिप्रवृत्त्ययोगात्, योगे वाऽतिप्रसङ्गात् / न च समवायस्यातिसूक्ष्मतया जातिव्यक्त्योरेकलोलीभावेन जातिप्रतिपत्तावपि भ्रान्त्या व्यक्तौ प्रवृत्तिः,तत्ज्ञानस्यातस्मिस्तद्ग्रहणरूपतया भ्रान्तिरूपत्वादव्यभिचारित्वायोगात् / न च समवायेऽपि जातेय॑क्तौ सम्भवति, संभवेऽपि तस्य व्यापितया सर्वत्र कस्य प्रतिनियतव्यक्तिनिमित्तत्वानुपपत्तिः / न च नित्यस्य तस्य ज्ञानजनकत्वमपि संभवीति स्वग्राहिणि ज्ञाने अप्रतिभासमानस्य कथं भ्रान्तिहेतुताऽपि तस्य संभवति, प्रतिभासनेऽपि स्वरूपेण प्रतिभासनात् कथं भ्रान्तिनिमित्तता? नच सामान्यस्य प्रतिपत्तौ सामान्यसाध्यार्थक्रियार्थितया तदर्थिनां प्रवृत्तिः, ज्ञानाभिधानलक्षणायास्तदर्थक्रियायास्तदैव निष्पत्तेः व्यापकत्वाच सामान्यस्य न प्रतिनियतदेशकालप्रवृत्तिविषयतेति प्रवृत्त्यभावात् तत्- सामर्थ्य तदभावात् न तदवभासिनो ज्ञानस्याऽव्यभिचारिताऽवगति / अथ प्रतिभाततद्वदर्थप्राप्त्या तदव्यभिचारित्वमिति पक्षः, सोऽप्यसंगतः / अवयविसामान्ययोरभावे तद्वत् पक्षस्य दूरापास्तत्वात् / अथ प्रतिभातार्थप्राप्त्या व्यभिचारिता, न अवयवानामपिट्यणुकंयावदवयवित्वात् परमाणूनां चार्वाग्दर्शने अप्रतिभासनान्न कथं चित्प्रतिभातार्थप्राप्त्या ज्ञानस्याव्यभिचारितासम्भवः। किं च-प्रवृत्तिसामर्थ्येनाव्यभिचारिता पूर्वोदितज्ञानस्य किं लिङ्गभूतेन ज्ञायते, उपाध्यक्षरूपेण? यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः / तेन सह संबन्धानवगतेः, अवगतौ वा न प्रवृत्तिसामर्थ्येन प्रयोजनम्। अथ द्वितीयः, सोऽपि न युक्तः।ध्वस्तेन पूर्वज्ञानेन सह इन्द्रियस्य सन्निकर्षाभावात्तद्विषयज्ञानस्याध्यक्षफलतानुपपतेः केशोन्दुकाऽऽदिज्ञानवत्तस्य निरालम्बनत्वाच्च कथमव्यभिचारिताव्यवस्थापकत्वम् / न चाविद्यमानस्य कथञ्चिदविषयभावःसम्भवति, जनकत्वाकारार्थकत्महत्त्वाऽऽ- 1 दिधर्मोपेतत्वसहोत्पादसत्वं पात्राऽऽदीनां विषयहेतुत्वेन परिकल्पितानामसति सर्वेषामभावात्। अथात्माऽन्तःकरणसम्बधिनं व्यभिचारिताविशिष्ट ज्ञानमुत्पन्नं गृह्यत इति तदव्यभिचारताऽवगमः। नन्यत्राप्यव्यभिचारित्वं किं ज्ञानधर्म उत तत्स्वरूपम्? यदि तद्धर्मस्तदा न नित्यसामान्यनिरूपणेनापादितत्वात्, अनित्योऽपि यदि ज्ञानात् प्रागुत्पन्नस्तदा च तद्धर्मों, धर्मिणमन्तरेण तस्य तद्धर्मत्वात् सङ्गोत्पादेऽपि तादात्म्यात्तदुत्पत्तिसमवायाऽऽदिसंबन्धाभावे तस्य धर्म इति व्यपदेशा नुपपत्तिः / पञ्चादुत्पादे पूर्व व्यभिचारि तद् ज्ञानं स्यात् / किं वा व्यभिचारिताऽऽदिको धर्मोज्ञानाद्व्यतिरिक्तोऽव्यतिरिक्तो वा ? यदि व्यतिरिक्तस्तदा तस्य ज्ञानेन सह सन्बम्धो वाच्यः स न समवायलक्षणः, तस्याऽसिद्धेः सिद्धावपि ज्ञानस्य धर्मतया अव्यभिचारिताऽऽदिधर्माधिकरणयोगात् धर्माणां धर्माधिकरणता त्विष्यत एव। अन्यथा ज्ञाने व्यभिचारीत्यादिव्यपदेशानुपपत्तिर्भवेत्, न ह्यव्यभिचारिताऽऽदीनामपि धर्माणां सत्त्वप्रमेयत्वज्ञेयत्वाऽऽधनेकधर्माधिकरणतया धर्मिरूपतैव प्रसवितरिति कस्यचिद्धर्मस्यापरधर्म स्यानधिकरणस्याभावात् धर्माभाविनो धर्मिणोऽप्यभावप्रसक्तिः। नाऽपि विशेषणविशेष्यभावलक्षणोऽसौ, तस्याप्यपरसंबन्धकल्पनया सम्बन्धित्वेऽनवस्थाप्रसक्तेः, असंबद्धत्वेतत्सम्बन्धा इति व्यपदेशानुपपत्तेः / नाऽप्यसावेकार्थसमवायः आत्मन्येवाव्यभिचारिताऽऽदयो धर्माऽर्थान्तरस्वरसप्रसक्तेः / न च समवायाभावे एकार्थसमवायः संभवी, न चान्यः सम्बन्धो न परैरभ्युपगम्यते। किञ्च-यदिअव्यभिचारिताऽऽदयो धर्मा अर्थान्तरभूता ज्ञानस्य विशेषणत्वे नो पेयन्ते, तदैकविशेषणावच्छिन्नज्ञानप्रतिपत्तिकाले परविशेषणावच्छिन्नस्य तस्य प्रतिपत्तिरित्यशेषविशेषणानवच्छिन्नं ततसामग्या वयवच्छेदकं भवेद्, अपरविशेषणावच्छिन्नतत्प्रतिपत्तिकाले ज्ञानस्य ज्ञानान्तरविरोधितया तस्याऽसत्त्वात्। अथ निर्विकल्पकयुगपदनेक विशेषणावच्छिन्नस्य तस्य प्रतिभासान्नायं दोषः, तर्हि व्यवसायाऽऽत्मकमिति पदमध्यक्षलक्षणेनोपादेयम्, अनिश्चयाऽऽत्मकस्याप्यध्यक्षफलत्वेनाऽभ्युपगमात् अथ विशेषजनितं व्यवसायाऽऽत्मकम्, नन्वेव सामान्यजनितं विशेषणं ज्ञानमध्यक्षफल न भवेत्, यदि वाऽनेकविशेषविच्छिन्नैकज्ञानाधिगतिरेकं ज्ञानं, कथमेकानेकरूपवस्तुनाऽभ्युपगतं भवेत्। अथाव्यतिरिक्तस्तर्हि ज्ञानमेव नाव्यभिचारिताऽऽदि, तदेव वा तदज्ञानमित्यन्यतरदिवसात्तत्सामग्रीव्यवच्छेदस्ततो भवेत। अथव्यभिचारिताऽऽदिज्ञानस्वरूपमेव, तदा विपर्ययज्ञानेऽप्यव्यभिचारिताप्रसक्तिः / अथ विशिष्ट ज्ञानमव्यभिचारिताऽऽदिस्वभावम् / ननु विशेषणमन्तरेण विशिष्टता कथमनुपपत्तिमती, विशेषणस्य चैकान्ततो भेदे सैव संबन्धासिद्धेरभेदेन विशिष्टता, कथञ्चित् भेदे परपक्षसिद्धिः। तन्नाध्यभिचारितापदोपादानमर्थवत् इतोऽप्यपार्थकम् इन्द्रिया-र्थसन्निकर्षपदेनैव तद्व्यवर्त्तस्यापोदितवत्, तथा मरीच्युदकज्ञानव्यवच्छेदायाव्यभिचारिपदोपादानं, तत्ज्ञाने च उदकं प्रतिभाति। नचनेन्द्रियसम्बन्धः अविद्यमानेन सह संबन्धानुपपत्तेः / विद्यमानत्वे वा न तद्विषयज्ञानस्य व्यभिचारिता, विद्यमानार्थज्ञानवत्। अथ प्रतिभासमानोदकसम्बन्धाभावेऽपि मरीचिभिः सम्बन्धादिन्द्रियस्य तत्सन्निकर्षप्रभवं तत् / अत एव मरीचीनां तदालम्बनत्वं, तस्य तदान्चयव्यतिरेकानुविधानात, तद्देशं प्रति प्रवृत्तेश्च, मिथ्यात्वमपि तत् ज्ञानस्योत्पादालम्बनमन्यत्प्रभातीति कृत्वा; नन्वप्रतिभासमानं कथमालम्बनम्। यदि ज्ञानजनकत्वादिन्द्रियाऽऽदेरप्यालम्बनत्वप्रसक्तेरव्यापकत्वम्, तदधिकरणत्वादिकं स्वालम्बनं त्वपरस्याभिमतम्, तस्मात्तदवभासित्वमेव आलम्बनत्वं च मरीच्युदकज्ञाने मरीचयः प्रतिभान्ति अथोदकाऽऽकारतया ता एव तत्र प्रतिभान्ति ननु तान्युदकाऽऽकारता यद्यव्यतिरिक्ता, परमार्थसती च तदा प्रतिपत्तेन व्यभिचारित्वम् / अथाऽपरमार्थसती, तदा तासामप्यपरमार्थसत्त्वप्रसक्तिः किं च Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 450 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण पारमार्थिकोदकतादात्म्ये मरीचीनां तदुदकज्ञानवत् मरीचिज्ञा-नमपि वितथं भवेत्। न च उदकाऽऽकार एकस्मिन् प्रतीयमाने मरीचयःप्रतीयन्त इति वक्तुं शक्यम्। अतिप्रसङ्गात् / अथ व्यतिरिक्ता ताभ्य उदकाऽऽकारता, तर्हि तत्प्रतिपत्तौ कथं मरीचयः प्रतिभान्ति, अन्यप्रतिभासेऽप्यन्यप्रतिभासाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात् / किञ्च-केशोन्दुकज्ञाने किमालम्बनं, किं वा प्रतिभातीति वक्तव्यम्। अथ केशोन्दुकाऽऽदिकमेवाऽऽलम्बनं, प्रतिभाति च तदेव तत्र, तर्हि मरीच्युदकज्ञानेऽपि तदेवाऽऽलम्बनं, तदेव प्रति-भातीति किं न भवेत् / न च तद्द्वानस्य प्रतीयमानाभ्यालम्बनत्वे मिथ्यात्वम्, अपितु प्रतिभासमानस्यासत्यत्वेन, अन्यथा केशोन्दुकज्ञानस्य मिथ्यात्वं न भवेत्,न मरीचिदेशं प्रति प्रवृत्तिः, मरीचिव्यालम्बनत्वं तद्देशस्यैवमालम्बनत्यप्रसक्तेः / न च प्रतिभासमानान्यार्थसन्निकर्षजत्वं तत्ज्ञानस्य सत्योदकज्ञाने अस्यादृष्टः न वा प्रतीयमानसन्निकर्षजत्वस्य तस्य तज्जत्वमभ्युपगन्तुं युक्तम्, अन्यथाऽनुमेयदहनज्ञानस्याऽपीन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वं स्यात्। अथ मन एव तत्रेन्द्रियं, तस्य च दहनेन सह प्रतीयमानेन नास्ति सम्बन्धः, इहापि तर्हि प्रतीयमानेनोदकेन न सम्बन्धः, चक्षुषो मरीचीनां तुन प्रतीयमानत्वमितिताभिरपि कथं तस्य सम्बन्धः? यच सामान्योपक्रम विशेषपर्यवसानमिदमुदकमित्येकं ज्ञानं तस्य सामान्यवानर्थः स्मृत्युपस्थापितविशेषापेक्षो जनकः तिरस्कृतस्वाऽऽकारस्य परिगृहीताऽऽकारान्तरस्य सामान्यविशिष्टस्य वस्तुनो जनकत्वे तथाविधस्येन्द्रियेण सम्बन्धोपपतेः / इन्द्रियार्थसन्निकर्षजो विपर्यय इति तदन्यतरसम्बद्धं, पराभ्युपगमेनास्याऽनुपपत्तेः / तथाहि-सामान्योपक्रममिति यदि सामान्यविषयमिति ज्ञानं तथा मरीच्युदकयोः साधारणमेकं सामान्यमिदमिति ज्ञानस्य विषयो वक्तव्यः। न चैकान्ततो व्यतिभिन्नमभिन्नं वा सामान्यं संभवति, सम्भवेऽपि सत्यद्रव्यत्वव्यतिरिक्तस्य मरीच्युदकसाधारणस्य तस्य न सद्भावः, सत्यद्रव्यत्वाऽऽदेश्च ज्वलनाऽऽदावपि सद्भाव इतिन मरीच्युदकसाधारणत्वम् तातरङ्गायमाणत्वं भयसाधारणं सामान्यं पराभ्युपगमेन न संभवत्येव, सत्त्वेऽपि न तस्य तदुभयनियतत्वम्, अन्यत्राऽपि सद्भावोपपत्तेः / विशेषपर्यवसानमित्येतदपि यदि विशेषग्राहिक तदा सामान्यग्राहकानुपपत्तिः। न हीदमित्येतस्य ज्ञानस्य विशेषग्राहिताऽनुभूयते, नन्वेवं सामान्यविषयो भिन्न-स्वरूपत्वात् कथं सामान्यग्राहिता अस्य। अथोदकमिति ज्ञानविशेषग्राहि, तर्हि भिन्नावभासमिदमुदकमिति ज्ञानद्वयं प्रसक्तं, प्रतिभासभेदस्याऽन्यत्रापि भेदनिबन्धनत्वात्, तस्य चाऽत्रापि भावात, ज्ञानद्वये भेदमिति सामान्यावभासि सत्यार्थविषयं सन्निकर्षप्रभवम्, उदकमिति त्वविद्यमानविशेषावभासि न तत्सन्निकर्षप्रभवं, यदसत्यार्थ न तद् व्यभिचारिपदोपादानव्यवच्छेद्यं युक्तसन्निकर्पोत्पन्नपदेनैवापोहितत्वात्। यच्च सन्निकर्षजं सामान्यज्ञानं तद्व्यभिचारिन भवतीति नाव्यभिचारिपदव्यवच्छेद्यम्। अथैवमुदकमित्युल्लेखद्वययुक्तमेकज्ञानं, तर्हि सामान्ये तत्प्रत्यक्ष प्रमाणं च विशेषे अनध्यक्षमप्रमाणं चेति कथमेकं ज्ञानमध्यज्ञानध्यक्षरूपं प्रमाणाऽप्रमाणरूपं च नाभ्युपगतं भवेत् / अथ सामान्येऽप्यध्यक्ष प्रमाणं चेदमभ्युपम्यते, तहीन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वाभावादस्य नाऽव्यभिचारिपदापोद्यता विशेषे ऽप्यस्य प्रामाण्येऽध्यक्षत्वे वाऽव्यभिचारिपदमपार्थकम्। अपोह्याभावात्। यदि च-सामान्यवानर्थः स्मृत्युपस्थापितविशेषापेक्षोऽस्य जनकः कथमस्य विपर्ययस्तता, विद्यमानविशेषविषयत्वात्। अथ स्मृत्युपस्थापितत्वाद्विशेषस्य, अविद्यमानविशेषत्वे विषयतया तस्य विपर्यस्तता, न तु तत्राऽविद्यमानः समृत्युपस्थापितो विशेषः कथं तज्जनको, येन सामान्यवानर्थस्तदपेक्षस्तजनकः परिगीयेत, तथाऽपि तजनकत्वे इन्द्रियस्य स्वदेशकालासन्निहितार्थापेक्षस्य ज्ञानजनकत्वादर्थेन सन्निकर्षकल्पनात् तस्य प्रमाणस्य चार्थवत्त्वकल्पना विशीर्येत / तथा चेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमित्यर्थवत्प्रमाणमितिचन वक्तव्यं स्यात्। अथ जनकस्य तत्र न प्रतिभास इति स्मृत्युपस्थापितस्य तस्य न जनकता , ती विद्यमानस्य न जनकत्वमिति विद्यमानविशेषविषयत्वेन तत्ज्ञानस्याऽपि पर्यस्तत्वे तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारिपदोपादानमनर्थकं भवेत्। सामान्यवतोऽर्थस्य केवलस्य तज्जनकत्वे तस्यैव तत्र प्रतिभासः स्यात्। यदपि तिरस्कृतस्वाऽऽकारस्य परिगृहीताऽऽकारान्तरस्य तस्य तज्जनकत्वं तत्राऽपि वस्तुनः स्वाऽऽकारतिरस्कारे वस्तुत्वमेव न स्यादिति कथं तस्य सामान्यविशिष्टता / तथाहि-मरीचीनां मरीच्याकारतापरित्यागे वस्तुत्वमेव परित्यक्तं भवेत्, स्वाऽऽकारलक्षणत्वाद्वस्तुनः / न चाऽऽकारान्तरस्य परिग्रहः सम्भवति, वस्त्वन्तरस्य वस्त्वन्तराऽऽपत्तिरूपत्वात्। तदा-पत्तिरूपत्वे वा मरीचय उदकरूपतामापन्ना इति तत्प्रतिभासज्ञानं सत्योदकज्ञानवदविपर्यस्तमिति तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारिपदोपादानं कार्य भवेत्, सामान्यविशिष्टस्य च वस्तुन इन्द्रियसंबद्धविपर्ययज्ञानजनकत्वे यत्रांशे तस्येन्द्रियसम्बन्धोत्पाद्यत्वं तत्राध्यक्षता प्रमाणता चान्यत्र तद्विपर्यय इत्येकज्ञानमध्यक्ष प्रमाणं, तद्विपर्ययरूपं च भवेदित्युक्तम् / यदपि यत्सन्निधाने यो दृष्ट इत्यादि। तदप्ययुक्तम् / शब्दावच्छेदेनोदकमिति ज्ञानस्यानुत्पत्तेः / न युदकवच्छेषोऽप्यत्र ज्ञाने विशेषणभूतो ग्राह्यतया प्रतिभाति, तथा प्रतीतेरभावात्। शब्दविशिष्टोदकप्रतिभासाभ्युपगमेऽपि यदि शब्दस्मरणाद्यन्तरेण नार्थनिश्चयस्तदाऽनस्थादोषप्रतिपादनात् न तद्ध्वनिस्मृतिभवेत् / अथ शब्दस्मरणाऽऽद्यन्तरेणाऽऽप्युयदकाऽऽदेर्निश्चयस्तदाजैनमतानुप्रवेशान्नदोषासक्तिः काचित् / एवं संशयज्ञानव्यवच्छेदार्थ व्यवसायाऽऽत्मकपदोपादानमपि न कर्त्तव्यम्-इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नपदेनैव तस्यापि निरस्तत्वात्। न हि पराभ्युपगमने स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संशयज्ञानमेकमुभयोल्लेखीन्द्रियार्थसन्निकर्षजसम्भवति, असम्भवप्रकारश्च पूर्ववदनुस्मृत्या त्रापि वक्तव्यः, सविकल्पकाध्यक्षप्रसाधनप्रकारश्चैकान्ताक्षणिकपक्षे न सम्भवत्येव / यः प्राग् जनको बुद्धरित्यादेर्दूषणस्य तत्राविचलितस्वरूपत्वात्। यथा वा क्षणिकैकान्तेसहकार्यपेक्षान सम्भवति भावानां, तथा प्राक् प्रतिपादितमितिन पुनरुच्यते यदपि संशयज्ञानव्यवच्छेदार्थ व्यवसायाऽऽत्मकपदमित्यभिधानम्, तत्र सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्व किंस्विदित्यनवधारणाऽऽत्मकः प्रत्ययसन्देहो व्यवच्छेद्यतयाऽभिमतः / तत्र च किं प्रतिभातिधर्मिमात्रं, धर्मो वा? यदि धर्मी वस्तु सन् प्रतिभाति, तदा नास्यापनेयता, सम्यग् ज्ञानत्वात् / अथावस्तु सन् सर्वत्र प्रतिभाति, तदाऽव्यभिचारिपदव्यावर्तितत्वान्न त Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 451 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण व्या वर्तनाय व्यवसायपदोपादानमर्थवत् असन् धर्मः प्रतिभाति तदाऽत्रापि वक्तव्यं, किमसौ स्थाणुत्वपुरुषत्वयोरन्यतरः, उभयं वा? यदि स्थाणुत्वलक्षणो वस्तु सत्कथमस्य ज्ञानस्य व्यवच्छेद्यता, सम्यग् ज्ञानत्वादिति / अथाऽपारमार्थिकोऽसौ तत्र प्रतिभाति, तथाप्यव्यभिचारिपदापोह्यतैव, मिथ्याज्ञानत्वात्। एवं पुरुषलक्षणप्रतिभासेऽप्येतदेव दूषणं वाच्यम् / उभयस्याऽपि तात्त्विकस्य प्रतिभासेन तत्ज्ञानस्य सन्देहरूपतेति नाऽपोह्यता, उभयस्याप्यतात्विकस्य प्रतिभासे तद्विषयज्ञानस्य विपयर्यरूपता न संदेहाऽत्मकतेत्यव्यभिचारिपदापोह्यतैव / अथैकस्य धर्मस्य तात्त्विकत्वमपरस्यतत्त्विकत्वमेवमपि तात्त्विकधर्मावभासित्वात्तत्ज्ञानमव्यभिचारितात्त्विकधर्मावभासि - त्वाच्च तदेव व्यभिचारीति एकमेव ज्ञानं प्रमाणमप्रमाणप्रसक्तम् / न च संदिग्धाऽऽकारप्रतिभासित्वात् सन्देहज्ञानमिति वाच्यम्, यतो यदि संदिग्धाऽऽकारता परमार्थतोऽर्थे विद्यते, तथा बाधितार्थगृहीतरूपत्वान्न सन्देहज्ञानता, सत्यार्थज्ञानवत्। अथ न विद्यते तदा अव्यभिचारिपदेन तद्ग्रहिज्ञानस्यापोदितत्वद्व्यवसायग्रहणं तद्व्यवच्छेदायोपादीयमानं निरर्थकम् / अथ न किञ्चिदपि तत्र प्रतिभाति, न तर्हि तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वमिति, न तद्व्यवच्छेदाय व्यवसायाऽऽत्मकपदोपादानमथवत्। तन्न। तदपि प्रत्यक्षलक्षणे उपादेयम् / यदपि स्वफलस्वरूपसामग्रीविशेषणत्वेनासम्भवात् नेदं लक्षणमिति। तदयुक्तमेवाभिहितम् / अस्य पक्षत्रयेऽप्यघटमानत्वात्। यदपि यत इत्यध्याहारात्फलविशेषणपक्षाऽऽश्रयणम्। तदप्यसङ्गतम् यतोऽपरिच्छेदसवरूपस्याध्यक्षप्रमाणताविशिष्टप्रमितिजनकं तत्कृत्यप्रत्यक्षमिति विशेषणात् प्रमातृप्रमेयव्यतिरिक्तस्य प्रमाणतासन्निकर्षाऽऽदिप्रमाणत्वाभिमतव्यतिरिक्तस्य तजनकस्य प्रमाणतेत्यपि वक्तुं शक्यत्वात्। न च सामग्यस्य सन्निकर्षस्य वा साधकतमत्वात् प्रमाणता,साधकतमत्वस्य प्रमाणसामान्यलक्षणप्रस्तावे निरस्तत्वात्। यदपीन्द्रियाऽऽदेरचेतनस्यं प्रमाणत्वं प्रतिपादितम्। तदप्यतिप्रसङ्गतोऽघटमानकम् / यदि ज्ञानसद्भावेन काचित्तजन्या विषयाधिगतिः, अक्षाऽऽदिसद्भावे तु विषयाऽधिगतिभिन्नोपजाय ते इत्यक्षाऽऽदेरेवाधिगतिजनकस्य प्रमाणतेति / तदप्यसमीक्षि ताभिधानम्। ज्ञानस्यैव यथास्थि तार्थाधिगतिस्वभावतया प्रमाणत्वात्, परिणामफलाभेदाविरोधस्य च प्रतिपादितत्वात्, प्रत्यक्षाऽऽदिसद्भाये तु विषयाधिगतेरसिद्धत्वात् / तथाहि-व्यापारवदक्षाऽदिसद्भावेऽपि व्यासक्तचेतसो न विषयाधिगतिः / सत्यस्वप्नज्ञाने त्वक्षाऽऽदिव्यापाराभावेऽपि यथावस्थिताधिगतिरुपलभ्यत इति न साऽक्षाऽऽदिकार्या, नचासावभिमतः, अक्षकार्यापरपरिकल्पितमनोऽक्षस्य प्रागेव निषिद्धत्वात्। अत एव चक्षुषाऽधिगतमिति तस्य साधकतमत्वाभिमानो न साधकतमताव्यवस्थापकः तदभावेऽपि विषयाधिगतिसद्भावात्। ज्ञानेनाधिगत इत्यभि- | मानस्तु ज्ञानस्य साधकतमताव्यवस्थापक एव, ज्ञानाभावे तदधिगतेरभावात्, परम्परयातूपचरितमाधिगतौ साधकतमत्वमक्षाऽदेर्न प्रतिषिध्यते, अस्मदादिप्रत्यक्षस्य साक्षात्स्वार्थाधिगतिस्वभावस्याक्षाऽऽदिप्रभवत्वात् तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमितिवचनात्। एतेन प्रातिभस्यानक्षप्रभवस्याऽपि स्वार्थावगतिरूपस्य विशदतयाऽध्यक्षप्रमाणता प्रतिपादिता द्रष्टव्या / तेन यन्नेत्रेन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वाभावप्रतिपादनेन मीमांसकैःदूषणमभ्यधायि, यच नैयायिकैर्मनोऽक्षार्थजत्वसमर्थनेनोत्तरं प्रतिपादितम् / तदुभयमप्ययुक्ततया व्यवस्थिते। शेषं त्वत्र यथास्थानं प्रतिविहितत्वान्न तत्प्रत्युचार्य दूष्यते। तन्नैकान्तवादिप्रकल्पितमध्यक्षलक्षणमनवद्यम् / किं पुनस्तदनवद्यम्। ''स्वार्थसंवेदनं स्पष्टमध्यक्ष मुख्यगौणतः।" इत्येतत्। अत्र च मुनीन्द्रियज्ञानमशेषविशेषाऽऽलम्बनमध्यक्षसर्वज्ञसिद्धौ प्रतिपादितम्, गौणं तु संव्यवहारनिमित्तमसर्वपर्यायद्रव्यविषयमिन्द्रियानिन्द्रियप्रभवमस्मदाऽऽद्यध्यक्ष विज्ञानमुच्यते। अस्य च स्वयोग्योऽर्थः स्वार्थः, तस्य संवेदनं विशदतया निर्णयस्वरूपं, तेन संशयविपर्ययानध्यवसायलक्षणस्याज्ञानस्य संव्यवहारानिमित्तस्य नाध्यक्षताप्रसक्तिः नाऽप्यज्ञानरूपस्येन्द्रियाऽऽदेरविकल्पजाऽसौ, परिकल्पितस्येन्द्रियजमानसयोगिज्ञानस्वसंवेदनरूपस्य स्वं चार्थश्च स्वार्थी, तयोः संवेदन स्वार्थसंवेदनमित्यस्यापि समासाऽऽश्रयणादर्थसंवेदनस्यैव जैमिनीयवैशेषिकाऽऽदिपरिकल्पितस्य परोक्षस्य तदेकार्थसमवेतानन्तरज्ञानग्राह्यस्यास्वसंविदितस्वभावस्याध्यक्षताव्युदासः / विज्ञानवादिपरिकल्पितस्य च स्वरूपमात्रग्राहकस्य प्रमाणप्रमेयस्वरूपस्य च सकलस्य क्रमाक्रमभावयनेकधर्माऽऽक्रान्तस्यैकरूपस्य वस्तुनः सद्भावेऽध्यक्षप्रमाणस्यैकस्य क्रमवर्तिपर्यायवशात्तथाव्यपदेशमासादयतश्चातुर्विध्यमवग्रहेहावायधारणरूपतयोपपन्नम् / तत्र विषयविषयिसंनिपातानन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः / विषयस्य द्रव्यपर्यायाऽऽत्मनोऽर्थस्य विषयिणश्च निवृत्त्युकरणलक्षणस्य द्रव्येन्द्रियस्यलब्ध्युपयोगस्वभावस्य भावेन्द्रियस्य विशिष्टपुद्गलपरिणतिरूपस्यार्थग्रहणयोग्यतास्वभावस्य च यथा-क्रमं सन्निपातो योग्यदेशावस्थानं, तदनन्तरोद्भूतं सत्तामात्रदर्शनस्वभावं दर्शनमुत्तरपरिणामं स्वविषयव्यवस्थापनविकल्परूपं प्रतिपाद्यम् अवग्रहः पुनरवगृहीतविषयाकाङ्क्षणम् / ईहा तदनन्तरं तदीहितविशेषनिर्णयः / वायोऽचेतनविषयस्मृतिहेतुः। तदन्तरधारणा अत्र च पूर्वपूर्वस्य प्रमाणता; उत्तरोत्तरस्य प्रमाणफलतेत्येकस्यापि मतिज्ञानस्य चातुर्विध्यम्, कथञ्चित्प्रमाणभेदश्चोपपन्नः। सम्म० 2 काण्ड। (5) निर्विकल्पकज्ञानप्रामाण्यवादिनः प्रतिपादनम्। अथव्यवसायीति विशेषणसमर्थनार्थमाहुःतव्यवसायस्वभावं,समारोपपरिपन्थित्वात, प्रमाणत्वादा।६। तत्प्रमाणत्वेन संमतं ज्ञानं, व्यवसायस्वभावं निश्चयाऽऽत्मकमित्यर्थः, समारोपः संशयविपर्ययानध्यवसायस्वरूपोऽनन्तरमेव निरूपयिष्यमाणः, तत्परिपन्थित्वं तद्विरुद्धत्वं, यथाऽवस्थितवस्तुग्राहकत्वमिति यावत्। प्रमाणत्वाद्वा तत्तथाविधं, वाशब्दो विकल्पार्थः, तेन प्रत्येकमेवामू हेतू प्रमाणत्वाभिमतज्ञानस्य व्यवसायस्वभावत्वसिद्धौ समर्थावित्यर्थः / प्रयोगौतु-प्रमाणत्वाभिमतं ज्ञानं व्यवसायस्वभावं, समारोपपरिपन्थित्वात, प्रमाणत्वाद्वा, यत् पुनर्नवं नतदेव, यथा-घटः, प्रोक्तसाधनद्वयाधिकरणं चेदं, तस्माद् व्यवसायस्वभावमिति। अत्रैकदेशेन पक्षस्य प्रत्यक्षप्रतिक्षेपमाचक्षते भिक्षवः। तथाहि-संहृतसकलविकल्पावस्थायां नीलाऽऽदिदर्शनस्य व्यवसायवन्ध्यस्यैवानुभवात् पक्षीकृतप्रमाणैकदेशस्य प्रत्यक्षस्य व्यवसायस्वभावत्वसाधनमसाधीयः। तदसाधिष्ठम्। यतः केन प्रत्यक्षेण तादृक्षस्यतस्यानुभवोऽभिधीयते ? ऐन्द्रियेण, Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 452 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण मानसेन, योगिसत्केन, स्वसंवेदनेन वा? नाऽऽद्येन, तत्रेन्द्रियकुटुम्बकस्य व्यापारपराङ्मुखत्वात् / न च द्वितीयेन, तस्येन्द्रियज्ञानपरिच्छिन्नपदार्थानन्तरक्षणसाक्षात्कारदक्षत्वात् / न तृतीयेन अस्मादृशा योगिप्रत्यक्षस्पर्शशून्यत्वात् / योगी तु तथा जानातीति कोशपानप्रत्यायनीयम्। नापितुर्येण, यतः-तत्स्वरूपोपदर्शनादेव प्रमाणं स्याद्, अनुरूपविकल्पोत्पादकत्वाद्वा? आद्ये पक्षे, प्रत्यक्ष क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्याऽऽदावपि प्रमाणतामास्कन्देत द्वितीयपक्षोऽप्यक्षमः, संहृतसकलविकल्पाऽवस्थाभाविनीलाऽऽदिदर्शनानन्तरं नीलाऽऽदिरय - मित्यर्थोल्लेखशेखरस्यैव विकल्पस्य प्रायेणानुभवात्। यत्राऽपि नीलाssदिज्ञानं ममोत्पन्नमिति ज्ञानोल्लेखी विकल्पः, तत्राऽपि ज्ञानमात्रोल्लेखित्वादस्य तत्रैव दर्शनस्य प्रामाण्यं स्यात्, न तु तन्निर्विकल्पकत्ये। अपि च, विकल्पस्यापि कथं सिद्धिः? स्वसंवेदनप्रत्यक्षादिति चेत्। तस्याऽपि स्वरूपोपदर्शनमात्रात प्रामाण्ये तदेव दूषणम्। विकल्पान्तरोपजननात् पुनरनवस्था। तथा च-कथं स्वसंवदेनस्य प्रामाण्यसिद्धिः? यतस्तेन बाधा पक्षाशे स्यात्। अथ यन्न निर्विकल्पकं तन्नैव विकल्पेन सहोत्पद्यते, यथा-विकल्पो विकल्पान्तरेण, विकल्पेनाऽपि सहोत्पद्यते च प्रत्यक्षम्। न चेदं न निषेधसाधनं, गन्धर्वविकल्पदशायामपि गोसाक्षात्कारणाद्, अन्यथा समयान्तरे तत्रस्मरणानुत्पत्तिप्रसङ्गाद, इत्यनुमानबाधितः पक्षकदेश इति चेत्। तदपि कवलितं कालेन। कालान्तरे स्मरणसद्धावात् व्यवसायाऽऽत्मकस्यैव प्रत्यक्षस्य प्रसिद्धेनिर्विकल्पकस्य संस्कारकारणत्वविरोधात्, क्षणिकत्वाऽऽदिवत्। अथाऽभ्यासप्रकरणबुद्धिपाटवार्थित्वेभ्यो निर्विकल्पकादपि प्रत्यक्षाद्, गवादौ संस्कारःस्मरणं च समगस्त / ननु क्षणक्षयाऽऽदौ, तदभावादिति चेत्। तदप्यल्पीयः। भूयोदर्शनलक्षणस्याभ्यासस्य क्षणक्षयाऽऽदावक्षोदीयसः सद्भावात्, पुनः पुनर्विकल्पोत्पादरूपस्य चाभ्यासस्य परं प्रत्यक्षसिद्धत्वात्, तत्रैव विवादात् / क्षणभिदेलिमभावाभिधानवेलायां क्षणिकप्रकरणस्याऽपि भावात् / बुद्धिपाटवस्य क्षणिकत्वाऽऽदो नीलाऽऽदौ च समानत्वाद, तत्प्रत्यक्षस्य निरंशत्वेन कक्षीकाराद्, अन्यथा विरुद्धधर्माध्यासेन तस्य भेदाऽऽपत्तेः / अर्थित्वस्याऽपि जिज्ञासितत्वलक्षणस्य क्षणिकवादिनः क्षणिकत्वे सुतरां सद्भावान्नीलाऽऽदिवत् / अभिलषितत्वरूपस्य तु तस्य व्यवसायजननं प्रत्यनिमित्तत्वाद्, अनभिलषितेऽपि वस्तुनि कस्यापि व्यवसायसम्भवात्। ततो नानंशवस्तुवादिनः क्वचिदेव स्मरण समगस्त। तथाच-यद्व्यवसायशून्यं ज्ञानं न तत् स्मृतिहेतुः, यथा क्षणिकत्वाऽऽदिदर्शनं, तथा चाऽश्ववि-कल्पकाले गोदर्शनमिति प्रसङ्गः, तथा च तत् स्मृतिहेतुर्न स्यात्, भवति च पुनर्विकल्पयतस्तदनुस्मरण, तस्मात्तद्व्यवसायाऽऽत्मकमिति प्रसङ्ग विपर्ययः / एवं च स्मरणात्तस्य व्यवसायाऽऽत्मकस्यैव सिद्धेर्व्यवसायस्य च व्यवसायान्तरेण समानकालत्वाभावाद्विकल्पनाऽपि सहोत्पद्यमानत्वादिति हेतुरसिद्धिबन्धकीसम्बन्धबाधित इति सिद्धम् / अथ न व्यवसायस्वभावत्वेन समारोपपरिपन्थित्वप्रमाणत्वहेत्वोयाप्तिरूपाऽपादि, तदभावेऽपि व्यवसायजनकत्वमात्रेण तयोः क्वचिद्भावाविरोधात् / अनुमानं हि व्यवसायस्वभावं सत्समारोपपरि- | पन्थि, प्रमाण च, प्रत्यक्ष तु व्यवसायजनकमिति को विरोधः? इति चेत्, इह तावत् प्रमाणत्वहेतोाप्तिरुपदर्श्यतेप्रमाणं खल्वविसंवादकमवादिषुः सौगाताः, अविसंवावदकत्वं चाऽर्थप्रापकत्वेन व्याप्तम्, अर्थाप्रापकस्याविसंवादित्वाभावात् निर्विषयज्ञानवत्, तदपि प्रवर्तकत्वं न व्यापि, अप्रवर्तकस्यार्थाप्रापकत्वात्,तद्वदेवातदपि विषयोपदर्शनकत्वेन व्यानशे, स्वविषयमुपदर्शयतः प्रवर्तकत्वव्यवहारविषयत्वसिद्धेः, न हि पुरुष हस्ते गृहीत्वा ज्ञानं प्रवर्त्तयति, स्वविषयं तूपदर्शयत् प्रवर्तकमुच्यतेऽर्थप्रापकं चेति। तत्रेदं चर्च्यते-किं दर्शनस्य व्यवसायोत्पत्तौ सत्यां विषयोपदर्शकत्वं संजायेत?, समुत्पन्नमात्रस्यैव वा संभवेत् ? प्राचिकविकल्पे, विकल्पकाले दर्शनस्यैव विनाशात् क्व नाम विषयोपदर्शकत्वं व्यवतिष्ठेत् ? द्वितीयकल्पनायां पुनः किमनेन कृतक्षौरनक्षत्रपरीक्षाप्रायेण पश्चात् प्रोल्लसता नीलाऽऽदिविकल्पेनापेक्षितेन कर्त्तव्यं ?, तमन्तरेणाऽपि विषयोपदर्शकत्वस्य सिद्धत्वात्। तथा च- "यत्रैव जनयेदेना, तत्रैवास्य प्रमाणता।" इति राद्धान्तविरोधः, व्यवसायं विनैव विषयोपदर्शकत्वसद्भावे प्रामाण्यस्यापितं विनैव भावात्, तन्मात्रनिमित्तत्वात्तस्य। कथं चैवं क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्यादावपि दर्शनस्य विषयोपदर्शकत्वं न प्रसज्यते ? अथाध्यवसानपर्यवसानोव्यापारो दर्शनस्य, इत्यध्यवसायव्यापारावत एवाऽस्य विषयोपदर्शकत्वमवतिष्ठते, न पुनस्तमन्तरेणेति चेत् तदप्यल्पम्, निर्विकल्पककार्यत्वेन व्यवसायस्य ततो भिन्नकालत्वात्तेन तस्य व्यापारवत्त्वानुपपत्तेः / अस्तु वैतत्, तथाऽपि तद्व्यापारभूतोऽसौ व्यवसायो दर्शनगोचरस्योपदर्शकः, अनुपदर्शको वा स्यात्? यधुपदर्शकः,तदा स एव तत्र प्रवर्तकः, प्रापकश्च स्यात्, ततोऽपि संवादकत्वात्प्रमाणं, न पुनस्तत्कारणीभूयमाभेजानंदर्शनम्। अथानुपदर्शकः, कथं दर्शन, तज्जननात् स्वविषयोपदर्शकम्, अतिप्रसङ्गात्संशयविपर्ययकारणस्याऽपि तस्य स्वविषयोपदर्शकत्वाऽऽपत्तेः / दर्शनविषयसामान्यव्यवसायित्वाद्विकल्पस्य तज्जनकं दर्शन स्वविषयोपदर्शक, नेतरदितिचेत्, तदशस्यम्, दर्शनविषयसामान्यापोहलणस्यावस्तुत्वात्, तद्विषयव्यवसायजनकस्य वस्तूपदर्शकत्वविरोधात्। अथदृश्यविकल्प्ययोरेकीकरणाद् वस्तूपदर्शक एव व्यवसाय इति चेत्, नन्चेकीकरणमेकरूपताऽऽपादनम्, एकत्वाध्यवसायो वा? प्राचि पक्षेऽन्यतरस्यैव स तत्त्वं स्यात् / द्वितीये तु उपचरितमेवानयोरक्यम्, तथा च कथमेष व्यवसायो विषयोपदर्शकः स्यात्? न हि षण्डः कुण्डोध्नीत्वेनोपचरितोऽपि पयसा पात्रीं पूरयति। किं च-तदेकत्वाध्यवसायो दर्शनेन विकल्पेन, ज्ञानान्तरेण वा भवेत् ? नाऽऽद्येन, दर्शनश्रोत्रियस्याध्यवसायश्वपाकसंस्पर्शसंभवात्, न च तस्य विकल्प्यं विषयतामेति। न द्वितीयेन, विकल्पकौणस्य दृश्यदाशरथि गोचरयितुमपर्याप्तत्वात् / नापि तृतीयेन, निर्विकल्पकसविकल्पकविकल्पयुगलातिक्रमेण दृश्यविकल्प्यद्वयविषयत्वविरोधात्। नचतदुभयागोचरं ज्ञानंतदुभयैक्वमाकलयितु कौशलमालम्बते। तथाहियद्यन्न गोचरयति न तत्तदैक्यमाकलयितु कुशलम्, यथा-कलशज्ञान वृक्षत्वशिशपात्वयोः, तथा प्रकृतिमिति। तन्न व्यवसायजननात्प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यमुपपादकम् / कथं चैतत् क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्यादाव Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 453 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण प्यनुरूपं विकल्पकदा चिन्नोत्पादयति। स्वविकल्पवासनाबलसमुज्जम्भमाणाक्षणिकत्वाऽऽदिसमारोपानुप्रवेशादिति चेत् / तदपेशलम्, नीलाऽऽदावपि तद्विपरीतसमारोपप्रसक्तेः, कथ-मन्यथा विरुद्धधर्माध्यासात्तद्दर्शनभेदोन भवेत् ? नह्यनंश दर्शनं कृचित्समारोपाऽऽक्रान्तं, कृचिन्नेति वक्तुं युक्तम्। अथ तत्तद्व्यावृत्तिवशादनंशस्यापि दर्शनस्य तथा परिकल्पनाददोषः, समारोपाऽऽक्रान्तेभ्यो हि व्यावृत्तमसमारोपाऽऽक्रान्तम्, असमारोपाऽऽक्रान्तेभ्यस्तु व्यावृत्तं समारोपाऽऽक्रान्त तदुच्यते इति तदप्यसूपपादम्। यतो व्यावृत्तिरपि वस्त्वंशंकञ्चिदाश्रित्य कल्प्येत, अन्यथा वा ? अन्यथा चेत्, चित्रभानुरप्यचन्द्रव्या-वृत्तिकल्पनया चन्द्रतामाद्रियेत। वस्त्वंशाऽऽश्रयणपक्षे तु, सिद्धो विरुद्धधर्माध्यासः। तथाहि-तद्दर्शनं येन स्वाभावेन समारोपाऽऽक्रान्तेभ्योऽपि व्यावर्त्तिष्ट, न तेनेवासमारोपाऽऽक्रान्तेभ्योऽपि, येन चामीभ्यो व्यावर्तत न तेनैव तेभ्योऽपि; तयोर्द्वयोरपि व्यावृत्तयोरैक्याऽऽपत्तेः / यदि पुनः स्वभावभेदोऽपि वस्तुनोऽतत्स्वभावव्यावृत्त्या कल्पित एवेति मतम्, तदा कल्पितस्वभावान्तरकल्पनायामनवस्था स्थेमानमास्तिघ्नुवीत। ततो नव्यवसायजननादस्य प्रामाण्यमनुगुणं, कि तुव्यवसायस्वभावत्वादेव। एवं प्रामाण्यसहचरं समारोपपरिपन्थित्वमपि वाच्यम्॥६॥ समारोपपरिपन्थित्वादित्युक्तमिति समारोप प्ररूपयन्तिअतस्मिस्तदध्यवसायः समारोपः // 7 // अतत्प्रकारे पदार्थ तत्प्रकारतानिर्णयः समारोप इत्यर्थः / / 7 / / अथैनं प्रकारतः प्रकटयन्तिसविपर्ययसंशयानध्यवसायभेदात्रेधा।।८।। उत्तानार्थमदः // 8 // अथोद्देशानुसारेण विपर्ययस्वरूपं तावत् प्ररूपयन्तिविपरीतैककोटिनिष्टङ्कनं विपर्ययः || विपरीताया अन्यथा स्थिताया एकस्या एव कोटेर्वस्त्वंशस्य निष्टङ्कनं | निश्चयनं विपर्यय इति // 6 // अत्रोदाहरन्तियथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति / / 10 / / यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, अग्रेऽपि सर्वत्र / शुक्तिकायामरजताऽऽकारायामिदं रजतमिति रजताकाऽऽरतया ज्ञानं विपर्ययो विपरीतख्यातिरित्यर्थः / इतिशब्द उल्लेखार्थः, अग्रेऽपि / उदाहरणसूत्रं चेदम् - अन्येषामपि प्रत्यक्षयोग्यविषयविपर्ययाणां पीतशङ्ख ज्ञानाऽऽदीनां, तदितरप्रमाणयोग्यविषयविपर्ययाणा हेत्वाभासाऽऽदिसमुत्थज्ञानानां चोपलक्षणार्थम्। अत्र विवेकाख्यातिवादी वदति-विवादाऽऽस्पदमिदं रजतमिति प्रत्ययो न वैपरीत्येन स्वीकर्तव्यः, तथा विचार्यमाणस्यतस्यानुपपद्यमानत्वात्, यद्यथा विचार्यमाणं नोपपद्यते, न तत् तथा स्वीकर्त्तव्यं, यथा स्तम्भः कुम्भरूपतयेति / न चेदं साधनमसिद्धिमधारयत् / रत्ना० 1 परि० / (साकारानाकारद्वयाऽऽत्मके उपयोगप्रमाणमिति 'उवओग' शब्दे द्वितीयभागे 860 पृष्ठे व्याख्यातम्) अथ प्रमाणलक्षणसूत्रोपात्तं परशब्द, व्याख्यान्तिज्ञानादन्योऽर्थः परः॥१५॥ ज्ञानाद्ग्राहकात्सकाशात्, अन्यो ग्राह्यतया पृथग्भूतोऽचेतनः, सचेतनो वा, अर्थोऽर्थक्रियार्थिभिरर्थ्यमानः, परः परशब्दवाच्यः। रत्ना० 1 परि०। (ज्ञाननस्य स्वप्रकाशत्वविचारः 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1666 पृष्ठादारभ्य कृतः) (६)ज्ञानस्य प्रामाण्यं स्वतः, परतश्चाप्रामाण्यम् / अथोत्पत्तौ स्वनिश्चये च ज्ञानानां स्वत एव प्रामाण्यम्, अप्रामाण्यं तु परत एव यज्जैमिनीया जगुः, तन्निराकुर्वन्तितदुभयमुत्पत्तौ परत एव, ज्ञप्तौ तु स्वतः, परतश्च // 20 // अत्र ल्यब्लोपे पञ्चमी, परं स्वं चाऽपेक्ष्येत्यर्थः, ज्ञानस्य हि प्रामाण्यमप्रामाण्यं च द्वितयमपि ज्ञानकारणगतगुणदोषरूपं परमपेक्ष्योत्पद्यते। निश्चीयते त्वभ्यासदशायां स्वतः, अनभ्यासदशायां तु परत इति। तत्र ज्ञानस्याभ्यासदशायां प्रमेयाव्यभिचारि, तदि-तरचास्मीति प्रामाण्याप्रामाण्यनिश्चयः संवादकबाधकज्ञानमनपेक्ष्य प्रादुर्भवन् स्वतो भवतीत्यभिधीयते, अनभ्यासदशायां तु तदपेक्ष्य जायमानोऽसौ परत इति। अत्रैव मीमांसका मीमांसामांसलतां दर्शयन्ति-स्वत एव सर्वथा प्रमाणानां प्रामाण्यं प्रतीतिकोटिमाटीकते। तथाहितदुत्पत्तिप्रगुणा गुणाः प्रत्यक्षेण, अनुमानेन वा प्रमीयेरन् ? यदि प्रत्यक्षेण, तत् किमन्द्रियेण, अतीन्द्रियेण वा? नैन्द्रियेण,अतीन्द्रि येन्द्रियाधिकरणत्वेन तेषां तद्ग्रहणायोग्यत्वात् / नाष्यतीन्द्रियेण, तस्य चारुविचारगोचरचरिष्णुत्वाभावात्। अनुमानेन तान् निरणेष्महीति चेत्। कुतस्तत्र नियमनिर्णयः स्यात् ? प्रत्यक्षाद् गुणेषु तत्प्रवृत्तेः परास्तत्वात् / तथा च"द्विष्ठसंबन्धसंवित्तिर्नेकरूपप्रवेदनात्। द्वयस्वरूपग्रहणे, सति संबन्धवेदनम् / / 1 / / " नाप्यनुमानात्, तत एव तन्निश्चितावितरेतराऽऽश्रयस्य, तदन्तरात पुनरनवस्थायाः प्रसक्तेः / ततो न गुणाः सन्ति केचिदिति स्वरूपावस्थेभ्य एव कारणेभ्यो जायमानं तत्कथमुत्पत्तौ परतः स्यात् ? निश्चयस्तु तस्य परतः कारणगुणज्ञानाद्, बाधकाभावज्ञानात, संवादिवेदनाद्वा स्यात्? तत्र प्राच्य प्रकार प्रागेव प्रास्थाम, गुणग्रहणप्रवीणप्रमाणपराकरणात्। द्वितीये तु, तात्कालिकस्य, कालान्तरभाविनो वा बाधकस्याभावज्ञानं तन्निश्चायकं स्यात्? पौरस्त्यं तावत् कूटहाटकन्धिड्नेऽपि स्पष्टमस्त्वेव। द्वितीयं तुनचर्मचक्षुषा संभवति। संवादिवेदनं तु सहकारिरूपं सत्तन्निश्चयं विरचयेद्, ग्राहकं वा? नाद्यभिद्, भिन्नकालत्वेन तस्य सहकारित्वासंभवात् द्वितीयपक्षे तु, तस्यैव ग्राहकं सत्, तद्विषयस्य, विषयान्तरस्य वा? न प्रथमः पक्षः, प्रवर्तकज्ञानस्य सुदूरनष्टत्वेन ग्राह्यत्वायोगात्। द्वितीये तु, एकसन्तानं, भिन्नसन्तानं वा तत् स्यात् ? पक्षद्वयेऽपि, तैमिरिकाऽऽलोक्यमानमृगाडूकमण्डलद्वयदर्शिदर्शनेन व्यभिचारः। तद्धिचैत्रस्य पुनःपुनमैत्रस्य चोत्पद्यत एव। तृतीय पुनः, अर्थक्रियाज्ञानम्, अन्यद्वा तद्भवेत् ? न पौरस्त्यं प्रवर्तकस्य प्रामाण्यानिश्चये प्रवृत्त्यभावेनार्थक्रियाया एवाऽभावात् / निश्चितप्रामाण्यात्तु प्रवर्तकज्ञानात् प्रवृत्तौ चक्रकम् निश्चितप्रमाण्यात्प्रवर्तकात् प्रवृत्तिः, प्रवृत्तेरर्थक्रियाज्ञान, तस्माच प्रवर्तकज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चय इति / कथं चार्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यनिश्चयः ? अन्यस्मादर्थक्रियाज्ञानाचेदः अनवस्था / प्रवर्तकज्ञानाचेद; अन्योन्याऽऽश्रयो दोषः / स्वतश्चेत्, प्रवर्तकज्ञानस्यापि तथैवास्तु। अन्यदपि विज्ञानमेक Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण सन्तान, भिन्नसन्तानं वा? द्वयमपि चैतदेक जातीय, भिन्नजातीयं वा? चतुष्टयमपि चैतद्व्यभिचाराभिचारदुःसंचरम् / तथाहि-एकसन्तानं भिन्नसन्तानं चैकजातीयमपि तरलतरतुङ्गत्तङ्गत्तरङ्गतरङ्गिणीतोयज्ञानं, भिन्नजातीयं च कुम्भाम्भोरुहाऽऽदिज्ञानं मरुवसुन्धराचारिचतुरतातरणिकिरणश्रेणिसंगिसलिलसंबदनस्य न संवादकमिति न ज्ञप्तावपि तत्परतः / अप्रामाण्यं तूत्पत्तौ दोषापेक्षत्वात्, ज्ञप्तौ तु बाधकापेक्षत्वात् परत एवेति / अत्राभिदध्महे-यत्तावद् गुणाः प्रत्यक्षेणानुमानेन वा मीयेरन्नित्यादि न्यगादि / तदखिलं न खलु न दोषप्रसरेऽपि प्रेरयितुं पार्यते / अथाध्यक्षेणैव चक्षुरादिस्थान दोषान्निश्चिक्यिरे लोकाः / किं न नैर्मल्याऽऽदीन गुणानपि?अथ तिमिराऽऽदिदोषाभावमात्रमेव नैर्मल्याऽऽदि, न तु गुणरूपमिति कथमध्यक्षेण गुणनिश्चयः स्यात् ? एवं तर्हि नैर्मल्याऽऽदिगुणाभावमात्रमेव तिमिराऽऽदि, नतुदोषरूपमिति विपर्ययकल्पना किं न स्यात् ? अस्तु वा दोषाभावमात्रमेव गुणः, तथापि नायं तुच्छः कश्चित् संगच्छते, "भावान्तरविनिर्मुक्ते, भावोऽत्रानुपलम्भवत्। अभावः सम्मतस्तस्य, हेतोःकिं न समुद्भवः // 1 // " इति स्वयं भट्टेन प्रकटनात् / तदपेक्षायामपि च कथं न परतः प्रामाण्योत्पत्तिः ? अथाऽऽसतां नैर्मल्य ऽऽदयो गुणास्तथाऽप्यधिष्ठानप्रतिष्ठानेव तान् प्रत्यक्ष साक्षात् करोति, न करणस्थान, तेषा परोक्षत्वात्। तर्हि तत एव दोषानपि तत्स्थानेव तत्साक्षात्कुर्यादिति कथं दोषा अपि प्रत्यक्षलक्ष्याः स्युः ? अथा-प्रामाण्यं विज्ञानमात्रोत्पादककारणकलापातिरिक्तकारकोत्पाद्यं, विज्ञानमात्रानुवृत्तावपि व्यावर्तमानत्वात, यदनुवृत्तावपि यद्व्यावर्त्तते तत् तन्मात्रोत्पादककारणकलापातिरिक्तकारकोल्पाद्यम्, यथा पाथः पृथ्वीपवनाऽऽतषानुवृत्तावपि व्यावर्तमानः कोद्रवाड् कुरस्तदतिरिक्तकोद्रवोत्पाद्यः, इत्यनुमामाद् दोषप्रसिद्धिरिति चेत् / चिरं नन्दतावान्, इदमेव ह्यनुमानमप्रामाण्यपदं निरस्य प्रामाण्यपदं च प्रक्षिप्य गुणसिद्धावपि विदध्याद, इति कथं न दोषवद् गुणा अपि सिद्ध्येयुः ? यतो नोत्पत्तौ परतः प्रामाण्यं स्यात् / प्रतिबन्धश्च यथा दोषानुमाने तथा गुणानुमानेऽपि निर्णेयः / कथं वाऽऽदित्यगत्यनुमाने तन्निर्णयः ? दृष्टान्ते तु यथाऽत्र साध्यसाधनसंबन्धोद्रोधोऽस्ति, तथा गुणानुमानेऽपि।यचा-वाचिनिश्चयस्तुतस्य परत इत्यादि। तत्र संवादिवेदनादिति ब्रूमः / कारणगुणज्ञानबाधकाभावज्ञानयोरपि च संवादकज्ञानरूपत्वं प्रतिपद्यामहे-यादृशोऽर्थः पूर्वज्ञाने प्रथापथमवतीर्णस्तादृश एवाऽसौ येन विज्ञानेन व्यवस्थाप्यते तत्संवादकमित्येतावन्मात्रं हि तल्लक्षणमाचचक्षिरे धीराः। यस्तुगुणग्रहणप्रवणप्रमाण-पराकरणपरायणातिदेशप्रयासः, प्रयास एव केवलमयमजनिभवतः, दोषसंदोहवद्गुणगणेऽपि प्रमाणप्रवृत्तेरनिवारणात् / यत्तु बाधकाभावज्ञानपक्षे विकल्पित तात्कालिकस्य कालान्तरभाविनो वेत्यादि / तत्राऽऽद्यविकल्पपरिकल्पनाऽल्पीयसी, न खलु साधननिर्मासिसंवेदनादेयकाले क्वाऽपि कस्याऽपि बाधकस्योदयः संभवी, उपयोगयोगपद्यासम्भवात्, भविष्यत्कालस्य तु बाधकस्याभावज्ञानात् प्रामाण्यनिर्णयो निरवद्य एवानच चर्मचक्षुषां तदभावो भवितुमर्हति, यदुदग्रसमग्रसामग्रीसंपाद्यसंवेदनं न तत्र भाविबाधकावकाश इत्येवं तन्निर्णयात् / यदि च भाविवस्तुसंवेदनमरमादृशां न स्यादेव, तदा कथं कृतिकोदयात् शकटोदयानुमान नास्तमियात् ? यत्पुनरवादिसंवादिवेदनं त्वित्यादि। तत्र संवादिवेदना- | त्साधननिसिप्रतिभासविषयस्य, विषयान्तरस्य वा ग्राहकात् प्रामाण्य निणर्य इति ब्रूमः / भवति हि तिमिरनिकुरम्बकरम्बिताऽऽलोकसहकारिकुम्भाऽवभासस्य तत्रैवैकसन्तानं भिन्नसन्तानं च निरन्तराऽऽलोकसहकारिसामर्थ्यसमुद्भूतं संवेदेन संवादकम्। न च तैमिरिकाऽऽदिवेदनेऽपि तत्प्रसङ्गः, तत्र परातो बाधकात्। स्वतः सिद्धप्रामाण्यादुत्तरस्याप्रामाण्यनिर्णयात् विषयान्तरग्राहमपि संवादकमेव, यथार्थक्रियाज्ञानम् / न चात्र चक्रकावकाशः, प्रवर्तकप्रमाणप्रामाण्यनिर्णयाऽऽदिप्रयोजनायाः प्रथमप्रवृत्तेः संशयादपि भावात् / अथैक्रियाज्ञानस्य तु स्वेत एव प्रामाण्यनिश्चयः, अभ्यासदशाऽऽपन्नत्वेन दृढतरस्यैवास्योत्पादात्। न च साधननिर्भासिनोऽपि तथैवायमस्त्विति वाच्यं, तस्य तद्विलक्षणत्वात् / अन्यदप्येकसन्तानं भिन्नसन्तान चैकजातीयं च यथैकदरदर्शनं दस्रान्तरदर्शनस्य, भिन्नजातीयं च यथा निशीथे तथाविधरसाऽऽस्वादनं तथाभूतरूपस्य संवादकं भवत्येव / न च मिथ्यापाथःप्रथायाःपाथोन्तरे कुम्भाऽऽदौ वा संवदनं संवादनं प्रसज्यते, यतो न खलु निखिलं प्रागुक्तं संवेदनं संवादकं संगिरामहे, किं तर्हि ?, यत्र पूर्वोत्तरत्र ज्ञानगोचरयोरव्यभिचारस्तत्रैव। किं च -स्वत एव प्रामाण्यनिर्णयवर्णनसकणेनानेन स्वशब्द आत्मार्थः, आत्मीयार्थो वा कथ्येत्? नाऽऽद्यः पक्षः, स्वावबोधविधानेऽप्यन्धया बुद्ध्या स्वधर्मास्य प्रामाण्यस्य निर्णेतुमशक्तेः / द्वितीये तु, प्रकटकपटनाटकघटनपाटवं प्राचीकटत्, प्रकारान्तरेणास्मन्मताऽऽश्रयणात् अस्माभिरपि आत्मीयेनैव ग्राहकेण प्रामाण्यनिर्णयस्य स्वीकृतत्वात् / अथ येनैव ज्ञानमात्र निणीर्यते तेनैव तत्प्रामाण्यमपि, इति स्वतः प्रामाण्यनिर्णयो वर्ण्यते / नन्वर्थप्राकट्योत्थापितार्थापत्तेःसकाशात् त्वया झाननिर्णीतिस्तावदभीप्सामासे / अर्थप्राकट्यं च यथार्थत्वविशेषणविशिष्टं, निर्विशेषणं वा अर्थापत्तिमुत्थापयेत्? प्राचिपक्षे, तस्य तद्विशेषणग्रहणं प्रथमप्रमाणात्, अन्यस्मात्, स्वतोवाभवेत् ? प्रथमपक्षे, परस्पराऽऽश्रवप्रसङ्गः निश्चितप्रामाण्याद्धि प्रथमप्रमाणाद्यथार्थत्वविशिष्टार्थप्राकट्यग्रहणं, तस्माच प्रथमप्रमाणे प्रामाण्यनिर्णय इति / द्वितीयविकल्पे तु, अनवस्थाअनयस्मिन्नपि हि प्रमाणे प्रामाण्यनिर्णायकार्थापत्त्युत्थापकस्यार्थप्राकट्यस्व यथार्थत्वविशेषणग्रहणमन्यस्मात्प्रमाणादिति / अथ स्वतस्तद्विशेषणग्रहणम्। तथाहि-स्वसंविदितमर्थप्राकट्यंतचाऽऽत्मानं निर्णयमान स्वधर्मभूतं यथार्थत्वमपि निर्णयते, तथा च-ततोऽनुमीयमाने ज्ञाने स्वतः प्रामाण्यज्ञप्तिरिति / तदेतदनवदातम् / एवं सत्यप्रामाण्यस्यापि स्वतो ज्ञप्तिप्रसक्तेः। स्वतो निश्चितवैतथ्यविशेषणादर्थप्राकट्याद्विज्ञानमनुमीयमानमारकन्दिता प्रामाण्यमेवानुमीयते / ततः कथं प्रामाण्यवदप्रामाण्यस्याऽपि स्वतो निर्णीतिर्न स्यात् ? अथ तत्र बाधकादेवाप्रामाण्यनिर्णयोन पुनर्ज्ञाननिणार्यकाद.एवं तर्हि संवादकादेव प्रामाण्यस्यापि निर्णयोऽस्तु, इति तदपि कथं स्वतो निर्णीतं स्यात् ? निर्विशेषणं चेत् तदर्थप्राकट्यमपित्त्युत्थापकं, तर्हाप्रमाणेऽपि प्रामाण्यनिर्णायकार्थापत्त्युत्यापनाऽऽपत्तिः, अर्थप्राकट्यमात्रस्य तत्रापि सद्भावात् / इति सूत्रोक्तैव व्यवस्था सिद्धि सौधमध्यमध्य-रुक्षत् / 20 / रत्ना०१ परि०। (7) विशेषतो मीमासकमतनिराकरणम् - अत्राऽऽहुर्मीमांसकाः अर्थतथात्वप्रकाशको ज्ञातृव्यापारः प्रमाणं, तस्यार्थ तथात्वप्रकाशकत्वं प्रामाण्यम् / तच स्वतः उत्पत्ती, स्व Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 455 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण कार्ये यथावस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणे, स्वज्ञाने च / विज्ञानोत्पादकसामग्रीव्यतिरिक्तगुणाऽऽदिसामा यन्तरप्रमाणान्तरस्वसंवेदनग्रहणाऽनपेक्षत्वात्। अपेक्षात्रयरहितं च प्रामाण्यं स्वत उच्यते। अत्र च प्रयोगः ये यद्भाव प्रत्यनपेक्षास्ते तत्स्वरूपनियताः, यथा-ऽविकला कारणसामग्यङ् कुरोत्पादने, अनपेक्ष्यं च प्रामाण्यमुत्पत्ती, स्वकार्ये, ज्ञप्तौ चेति। अत्र परतः प्रामाण्यवादिनः प्रेरयन्ति-अनपेक्षत्वमसिद्धम् / तथा हिउत्पत्ती तावत्प्रमाण्यं विज्ञानोत्पादक कारणव्यतिरिक्तगुणाऽऽदिकारणान्तरसापेक्षम्, तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् / तथा च प्रयोगः-यचक्षुराद्यतिरिक्तभावाभावानुविधायि, तत्तत्सापेक्षम्, यथाऽप्रामाण्य, चक्षुराद्यतिरिक्तभावाभावानुविधायि च प्रामाण्यामिति स्वाभावहेतुः, तस्मादुत्पत्तौ परतः / तथा स्वकार्ये च सापेक्षत्यात्परतः / तथाहि-ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदया न ते स्वतो व्यवस्थितधर्मकाः, यथाऽप्रामाण्याऽऽदयः / प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयं च प्रामाण्यं तत्रेतिविरुद्धव्यप्तोपलब्धिः। तथा ज्ञप्तौ च सापेक्षत्वात्परतः / तथाहि-ये संदेहविपर्ययाध्यासिततनवस्ते परतो निश्चितयथावस्थितस्वरूपाः, यथा स्थाण्वादयः, तथा च संदेहविपर्ययाध्यासितस्वभाव केषाश्चित्प्रत्ययानां प्रामाण्यमिति स्वभावहेतुः / अत्र यत्तावदुक्तम्-प्रामाण्यं विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणाऽऽदिकारणसव्यपेक्षमुत्पत्ती, तदसत्, तेषामसत्त्वात् / तदसत्त्वं च प्रमाणतोऽनुपलब्धेः / तथाहि न तावत् प्रत्यक्षं चक्षुरादीन्द्रियगतान् गुणान् ग्रहीतुसमर्थम्। अतीन्द्रियत्वेनेन्द्रियाणाम, तद्गुणानामपि प्रतिपत्तुमशक्तेः / अथाऽनुमानमिन्द्रियगुणान् प्रतिपद्यते। तदप्यसम्यक् / अनुमानस्य प्रतिबद्धलिङ्ग निश्वयबलेनोत्पत्त्यभ्युपगमात्। प्रतिबन्धश्च किं प्रत्यक्षणेन्द्रियगतगुणैः सह गृह्यते लिङ्गस्य, आहोस्विदनुमानेनेति वक्तव्यम्। तत्र यदि प्रत्यक्षमिन्द्रियाऽऽश्रितगुणैः सह लिङ्ग संबन्धग्राहकमभ्युपगम्ये / तदयुक्तम्। इन्द्रियगुणानामप्रत्यक्षत्वे तद्गतसंबन्धस्याऽप्यप्रत्यक्षत्वात्। "द्विष्ठसंबन्धसंवित्ति नैकरूपप्रवेदनात्।" इति वचनात्। अथानुमानेन प्रकृतसंबन्धः प्रतीयते / तदप्ययुक्तम्। यतस्तदप्यनुमानं किं गृहीतसंबन्धलिङ्गप्रभवम्, उताऽगृहीतसंबन्धलिङ्ग समुत्थम् ? तत्र यद्यगृहीतसंबन्धलिङ्गप्रभवं, तदा किं प्रमाणम्, उताऽप्रमाणम् ? यद्यप्रमाण, नातः संबन्धप्रतीतिः / अथ प्रमाणम्, तदपि न प्रत्यक्षम्, अनुमानस्य बाह्यार्थविषयत्वेन प्रत्यक्षत्वानभ्युपगमात्, प्रत्यक्षपक्षोक्तदोषाच ।किंतु अनुमानम्, तचानवगतसंबन्धन प्रवर्त्तत इत्यादि वक्तव्यम्। अथाऽवगतसंबन्धम, तस्याऽपि संबन्धः किं तेनैवानुमानेन गृह्येत, उताऽन्येन? यदि तेनैव गृह्यत इत्यभ्युपगमः / सन युक्तः / इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसङ्गात्। तथाहि-गृहीतप्रतिबन्धं तत्स्वसाध्वप्रतिबन्धग्रहणाय प्रवर्तते, तत्प्रवृत्तौ च स्वोत्पादकप्रतिबन्धग्रह इत्यन्योऽन्यासंश्रयो व्यक्तः / अथाऽन्ये नानुमानेन प्रतिबन्धग्रहाभ्युपगमः। सोऽपि नयुक्तः। अनवस्थाप्रसङ्गात्। तथाहि- तदप्यनुमानमनुमानप्रतिबन्धग्राहकमनुमानान्तराद गृहीतप्रतिबन्धमुदयमासादयति, तदप्यन्यतोऽनुमानाद् गृहीतप्रतिबन्धमित्यनवस्था। किं च-तदनुमानं स्वभावहेतुप्रभावितं, कार्यहेतुसमुत्थम्, अनुपलब्धिलिङ्ग प्रभवं वा प्रतिबन्धग्राहकं स्यात् / अन्यस्य साध्यनिश्चायकत्वेन सौगतैरनभ्युपगमात् / तदुक्तम्- 'त्रिरूपाणि च त्रीण्येव | लिङ्गानि, अनुपलब्धिः, स्वभावः, कार्य च।" इति। "त्रिरूपालिङ्गाल्लिङ्गि विज्ञानमनुमानम्।'' इति च / तत्र स्वभावहेतुः प्रत्यक्षगृहीतेऽर्थे व्यवहारमात्रप्रवर्तनफलः, यथा शिंशपात्वाऽऽदिवृक्षाऽऽदिव्यवहारप्रवर्त्तनफलः / न चाऽक्षाऽऽश्रितगुणलिङ्ग संबन्धः प्रत्यक्षतः प्रतिपन्नो, येन स्वभावहेतुप्रभवमनुमानं तत्संबन्धव्यवहारमारचयति / नापि कार्यहतुसमुत्थम्,अक्षाऽऽश्रितगुणलिङ्ग संबन्धग्राहकत्वेन तत्प्रभवति। कार्यहेतोः, सिद्धे कार्य कारणभावे, कारणप्रतिपत्तिहेतुत्वेनाभ्युपगमात् / कार्यकारणभावस्य च सिद्धिः प्रत्यक्षानुपलम्भप्रमाणसंपाद्या / न च लोचनाऽऽदिगतगुणाऽऽश्रितलिङ्ग संबन्धग्राहकत्वेन प्रत्यक्षप्रवृत्तिः, येन तत्कार्यत्वेन कस्यचिल्लिङ्ग स्य प्रत्यक्षतः प्रतिपत्तिः स्यात् / तन्न कार्यहतोरपि प्रतिबन्धप्रतिपत्तिः / / अनुपलब्धेस्त्वेवंविधे विषयेप्रवृत्तिरेव न सम्भवति, तस्या अभावसाधकत्वेन व्यापाराभ्युपगमात् / न चान्यल्लिङ्गमभ्युपगम्यत इत्युक्तम् / न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्त प्रमाणान्तरमिति नेन्द्रियगतगुणप्रतिपत्तिः / यन्न क्वचिदपि प्रमाणेन प्रतिभाति, न तत्सद्व्यवहारावतारि, यथा शशश्रृङ्गम्, न प्रतिभान्ति च क्वचिदपि प्रमाणेनाऽतीन्द्रियेन्द्रियगुणा भवदभ्युगता इति कुतस्तेषां विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तानां प्रामाण्योत्पादकत्वम् ? अथ कार्येण यथार्थोपलब्ध्यात्मकेन तेषामधिगमः। तदप्ययुक्तम्।यथार्थत्वायथार्थत्वे विहाय यदि कार्यस्य उपलब्ध्याख्यस्वरूपं निश्चितं भवेत, तदा यथार्थत्वलक्षणः कार्यस्य विशेषः पूर्वस्मात्कारणकलापादनिष्पद्यमानो गुणाऽऽख्यंस्वोत्पत्तौ कारणान्तरं परिकल्पयति / यदा तु यथार्थ - वोपलब्धिः स्वोत्पादककारणकलापानुमापिका, तदा कथमु-त्पादकव्यतिरेकिगुणसद्भावः / अयथार्थत्वं तूपलब्धेः कार्यस्य विशेषः पूर्वस्मात्कारणसमुदायादनुपपद्यमानः स्वोत्पत्ती सामर यन्तरं कल्पयति, अत एव परतोऽप्रामाण्यमुच्यते, तस्योत्पत्तौ दोषापेक्षत्वात् / न चेन्द्रियनैर्मल्याऽऽदिगुणत्वेन वक्तुं शक्यम् / नैर्मल्यं हि तत्स्वरूपमेव, नपुनरौपाधिको गुणः। तथाव्यपदेशस्तु दोषाभावनिबन्धनः। तथाहिकामलाऽऽदिदोषासत्त्वान्निर्मलमिन्द्रियमुच्यते, तत्सत्त्वे सदोषम् / मनसोऽपि मिद्धाऽऽद्यभावः स्वरूपम्, तत्सद्भावस्तु दोषः / विषयस्यापि निश्चलत्वाऽऽदिस्वभावः, चलत्वाऽऽदिकस्तु दोषः / प्रमातुरपि क्षुदाद्यभावः स्वरूपम्, तत्सद्भावस्तु दोषः / तदुक्तम्-"इयती च सामग्री प्रमाणोत्पादिका / " तदुत्पद्यमानमपि प्रमाणं स्वोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणानपेक्षत्वात् स्वत उच्यते / नाप्येतद्वक्तव्यम्, तज्जनकानां स्वरूपमयथार्थोपलब्ध्या समधिगतं, यथार्थत्वं तु पूर्वस्मात्कार्यावगतात्कारकस्वरूपादनिष्पद्यमानं किमिति गुणाऽऽख्य सामग्यन्तरं कल्पयति? प्रक्रियाया विपर्ययणाऽपि कल्पयितुं शक्यत्वात् / यतो न लोकप्रायशो विपर्ययज्ञानात्स्वरूपस्थं कारणमप्यनुमिनोति,किं तुसम्यग्ज्ञानात् / तथाविधे न कारकानुमानेऽशक्यप्रतिषेधा पूर्वोक्त प्रक्रिया / नाऽपि तृतीयं यथार्थत्वाऽयथार्थत्वे विहाय कार्यमस्तीत्युक्तम्। अपि च-अर्थतथाभावप्रकाशनरूप प्रामाण्यम्, तस्य चक्षुरादिकारणसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पत्त्यभ्युपगमे विज्ञानस्य किं स्वरूप भवद्भिरपरमभ्युपगम्यत इति वक्तव्यम् ? नतद्रूपव्यतिरेकेण विज्ञानस्वरूपं भवन्मतेन संभवति, येन प्रामाण्यं तत्र विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पन्नमुत्तरकालं तत्रैवोत्पत्तिमदभ्युपगम्येत, भित्ताविव चित्रम् / किं च-यदि Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण स्वसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावपिन प्रामाण्यं समुत्पद्यते, किंतु तद्व्यतिरिक्तसामग्रीतः पश्चाद्भवति, तदा विरुद्धधर्माध्यासात्, कारणभेदाच भेदः स्यात्। अन्यथा-'अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा, यदुत विरुद्धधर्माध्यासः, कारणभेदश्च, स चेन्न भेदको विश्वमेकं स्यात्।'' इति वचः परिप्लवेत। तस्माद्यत एव गुणविकलसामग्रीलक्षणात्कारणाद्विज्ञानमुत्पद्यते तत एव प्रामाण्यमपीति गुणवचक्षुरादिभावानुविधायित्वादित्यसिद्धो हेतुः / अत एवोत्पत्तौ समग्यन्तरानपेक्षत्वं नासिद्धम्। अनपेक्षत्वविरुद्धस्य सापेक्षत्वस्य विपक्षे सद्भावात् / ततो व्यावर्तमानो हेतुः स्वसाध्येन व्याप्यते इति विरुद्धानैकान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो हेतोः स्वसाध्यसिद्धिः। अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यम्। शक्तयश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति, नोत्पादककारणकलापाधीनाः / तदुक्तम्- "स्वतः सर्वप्रमाणानां, प्रामाण्यमिति गम्यताम् / न हि स्वतोऽसती शक्तिः, कर्तुमन्येन पार्यत।।१।।" एतच्च नैव सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणादभिधीयते, किंतुयः कार्यधर्मः कारणकलापेऽस्ति स एव कारणकलापादुपजायमाने कार्ये लत एवोदयमासादयति; यथा मृत्पिण्डे विद्यमाना रूपाऽऽदयो, घटेऽपि मृत्पिण्डादुपजायमाने मृत्पिण्डरूपाऽऽदिद्वारेणोपजायन्ते / ये पुनः कार्यधर्माः कारणेऽविद्यमाना न ते कारणेभ्यः कार्ये उदयमासादयन्ति, नतत एव प्रादुर्भवन्ति, किंतुस्वतः। यथा घटस्यैवोदकाऽऽहरणशक्तिः, तथा विज्ञानेऽप्यर्थतथात्वपरिच्छेदे शक्तिः चक्षुरादिषु विज्ञानकारणेष्वविद्यमाना न तत एव भवति, किं तु स्वत एव प्रादुर्भवति किं चोक्तम्-'आत्मलाभे हिभावानां, कारणापेक्षिता भवेत्। लब्धाऽऽत्मनां स्वकार्येषु, प्रवृत्तिः स्वयमेव तु / / 1 / / " तथाहि-"मृत्पिण्डदण्डचक्राऽऽदि, घटो जन्मन्यपेक्षते। उदकाऽऽहरणे तस्य, तदपेक्षा न विद्यते॥१॥" इति / अथ चक्षुरादेर्विज्ञानकारणादुपजायमानत्वात्प्रामाण्यं परत उपजायत इति यद्यभिधीयते, तदभ्युप गम्यत एव / प्रेरणाबुद्धरपि अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवायाः प्रामाण्योत्पत्त्यभ्युपगमात् / तथाऽनुमानबुद्धिरपि गृहीताविनाभावानन्यापेक्षलिङ्गादुपजायमाना तत एव गृहीतप्रामाण्योपजायत इति सर्वत्र विज्ञानकारण-कलापव्यतिरिक्तकारणान्तरानपेक्षमुपजायमानं प्रामाण्यं स्वत उत्पद्यत इति नोत्पत्तौ परतः प्रामाण्यम्। नापि स्वकार्येऽर्थतथाभावपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्त्तमानं प्रमाणं स्वोत्पादककारणब्यतिरिक्तनिमित्ता पेक्ष प्रवर्त्तत इत्यभिधातु शक्यम् / यतस्तन्निमित्तान्तरमपेक्ष्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं किं संवादप्रत्ययमपेक्ष्य प्रवर्त्तते, आहोस्वित्स्वोत्पादककारणगुणानपेक्ष्य प्रवर्तते ? इति विकल्पद्वयम्। तत्र यद्याद्यो विकल्पोऽभ्युपगम्यते, तदा चक्रकलक्षणं दूषणमापतति। तथाहि-प्रमाणस्य स्वकार्ये प्रवृत्तौ सत्यामर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिः, प्रवृत्तौ चार्थक्रियाज्ञानोत्पत्तिलक्षणः संवादः, तं च संवादमपेक्ष्य प्रमाण स्वकार्येऽर्थतथाभावपरिच्छेदलक्षणे प्रवर्तत इति यावत्प्रमाणस्य स्वकार्ये न प्रवृत्तिर्न तावदर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिः, तामन्तरेण नार्थक्रियाज्ञानसंवादः, तत्सद्धावं विना प्रमाणस्य तदपेक्षस्य स्वकार्ये न प्रवृत्तिरिति स्पष्टं चक्रकलक्षणं दूषणमिति। न च भाविनं संवादप्रत्ययमपेक्ष्य प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति शक्यमभिधातुम् / भाविनोऽसत्त्वेन विज्ञानस्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहाकारित्वासम्भवात् / अथ द्वितीयः: तत्रापि किं गृहीताः स्वोत्पादककारणगुणाः सन्तः प्रमाणस्य स्वकार्ये प्रवर्त्तमानस्य सहकारित्वं प्रपद्यन्ते, आहोस्विदगृहीता इत्यत्राऽपि विकल्पद्वयम् / तत्र यद्यगृहीता इति पक्षः / स न युक्तः। अगृहीतानां सत्त्वस्यैवासिद्धेः सहकारित्वं दूरोत्सारितमेव। अथ द्वितीयः / सोऽपि न युक्तः, अनवस्थाप्रसङ्गात् / तथाहि-गृहीतस्वकारणगुणापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तते, स्वकारणगुणज्ञानमपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षं प्रमाणकारणगुणपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्तते, तदपि स्वकारणगुणज्ञानापेक्षमित्यनवस्थासमवतारो दुर्निवार इति / अथ प्रमाणकारणगुणज्ञानं स्वकारणगुणज्ञानानपेक्षमेव प्रमाणकारणगुणपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्येप्रवर्त्तते, तर्हि प्रमाणमपि स्वकारणगुणज्ञानानपेक्षमेवार्थपरिच्छेदलक्षणे स्वकार्ये प्रवर्तिष्यत इति व्यर्थं प्रमाणस्थ स्वकारणगुणज्ञानापेक्षणमिति न स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं प्रमाणमन्यापेक्षम्। तदुक्तम् "जातेऽपि यदि विज्ञाने, तावन्नार्थोऽवधार्यते। यावत्कारणशुद्धत्वं, न प्रमाणान्तराद्गतम् / / 1 / / तत्र ज्ञानान्तरोत्पादः, प्रतीक्ष्यः कारणान्तरात्। यावद्धि न परिच्छिन्ना, शुद्धिस्तावदसत्समा।।२।। तस्याऽपि कारणाशुद्धे-र्न ज्ञानस्य प्रमाणता। तस्याप्येवमितीच्छंस्तु, न क्वचिद्वयवतिष्ठते॥३॥'' इति। तेन "ये प्रतीक्षितप्रत्ययान्तरोदयाः' इति प्रयोगे हेतोरसिद्धिः, तस्मात्स्वसामग्रीत उपजायमानं प्रमाणमर्थयाथात्म्यपरिच्छेदशक्तियुक्तमेवोपजायत इति स्वकार्येऽपि प्रवृत्तिः स्वत इति स्थितम् / नापि प्रमाणं प्रामाण्यनिश्वयेऽन्यापेक्षम्। तद्ध्यपेक्षमाणं किं स्वकारणगुणानपेक्षते, आहोस्वित्संवादमिति विकल्पद्वयम्। तत्र यदि स्वकारणगुणानपेक्षते इति पक्षः कक्षीक्रियते / सोऽसङ्गतः। स्वकारणगुणानां प्रत्यक्ष तत्पूर्वकानुमानाग्राह्यत्वेनाऽसत्त्वस्य प्रागेव प्रतिपादनात् / अथाभिधीयतेयो यः कार्यविशेषः स सगुणवत्कारणविशेषपूर्वको, यथा प्रासादाऽऽदिविशेषः / कार्यविशेषश्च यथावस्थितार्थपरिच्छेद इति स्वभावहेतुरिति / एतदसंबद्धम्। परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वासिद्धेः। तथाहि परिच्छेदस्य यथावस्थितपरिच्छेदत्वं किं शुद्धकारकजन्यत्वेन, उत संवादित्वेनाहो स्विद्वाधारहितत्वेन उतस्विदर्थतथात्वेनेति विकल्पाः / तत्र यदिगुणवत्कारणजन्यत्वेनेतिपक्षः। सनयुक्तः। इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसङ्गात् / तथाहि-गुणवत्कारणजन्यत्वेन परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्व, तत्परिच्छेदत्वाच्च गुणवत्कारणजन्यत्व मिति परिस्फुटमितरेतराऽऽश्रयत्वम् / अथ संवादित्वेन ज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वं विज्ञायते। एतदप्यचारु / चक्रकप्रसङ्गस्यात्र पक्षे दुर्निवारत्वात्। तथाहि-नयावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेद-लक्षणो विशेषः सिध्यति, न तावत्तत्पूर्विका प्रवृत्तिः, संवादार्थिनां यावचन प्रवृत्तिर्न तावदर्थक्रियासंवादः, यावच न संवादोन तावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थ परिच्छेदत्वसिद्धिरिति चक्रकप्रसङ्गःप्रागेव प्रतिपादितः।। अथ बाधारहितत्वेन विज्ञानस्य यथार्थपरिच्छेदत्वमध्यवसीयते। तदप्यसङ्गतम् / स्वाभ्युपगमविरोधात्।तदभ्युपगमविरोधश्च बाधाविरहस्य तुच्छस्वभावस्य सत्वेन, ज्ञापकत्वेन वाऽनङ्गीकरणात्। पर्युदासवृत्त्या तदन्यज्ञानलक्षणस्य तु विज्ञानपरिच्छेदविशेषाविषयत्वेन तद्व्यवस्थापकत्वानुपपत्तेः / / अर्थार्थतथात्वेन यथावस्थितार्थपरिच्छेदलक्षणो विशेषो विज्ञानस्य Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 457 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण व्यवस्थाप्यते / सोऽपि न युक्तः। इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसङ्गात्। तथाहिसिद्धेऽर्थतथाभावेतद्विज्ञानस्यार्थतथाभावपरिच्छेदत्वसिद्धिः, तसिद्धेश्वार्थतथाभावसिद्धिरिति परिस्फुटमितरेतराऽऽश्रयत्वम्। तन्न कारणगुणापेक्षा प्रामाण्यज्ञप्तिः। अथ संवादापेक्षः प्रमाण्यविनिश्चयः / सोऽपि न युक्तः। यतः संवादकं ज्ञानं किं समानजातीयमभ्युपगम्यते, आहोस्विदिन्नजातीयमिति पुनरपि विकल्पद्वयम् ? तत्र यदि समानजातीय संवादकमभ्युपगम्यते, तदाऽत्रापि वक्तव्यम् / किमेकसन्तानप्रभवं, भिन्नसन्तानप्रभवं वा? यदि भिन्नसन्तानप्रभवं समानजातीय ज्ञानान्तर संवादकमित्यभ्युपगमः / अयमप्यनुपपन्नः, अतिप्रसङ्गात्। अतिप्रसङ्गश्च देवदत्तघटविज्ञान प्रति यज्ञदत्तघटान्तरविज्ञानस्याऽपि संवादकत्वप्रसक्तेः। अथ समानसन्तानप्रभवं समानजातीयं ज्ञानान्तरं संवादकमभ्युपगम्यते, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किं तत्पूर्वप्रमाणाभिमतविज्ञानगृहीतार्थविषयम, उत भिन्नविषयमिति? तत्र यद्येकार्थविषयमिति पक्षः / सोऽनुपपन्नः / एकार्थविषयत्वे संवाद्यसंवादकयोरविशेषात्। तथा हिएकविषयत्वे सति यथा प्राक्तनमुत्तरकालभाविनो विज्ञानस्यैकसन्तानप्रभवस्य समानजातीयस्य न संवादकम्, तथोत्तरकालभाव्यपि न स्यात्। किं च तदुत्तरकालभावि समानजातीयमेकविषयं कुतः प्रमाणमेव सिद्ध, येन प्रथमस्य प्रामाण्यं निश्चाययति / तदुत्तरकालभाविनोऽन्यस्मात्तथाविधादेवेति चेत्, तर्हि तस्याप्यन्यस्मात्तथाविधादेवेत्यनवस्था। अथोत्तरकालभाविनस्तथाविधस्य प्रथमप्रमाणात्प्रामाण्यनिश्चयः, तर्हि प्रथमस्योत्तरकालभाविनः प्रमाणात्तन्निश्चयः, उत्तरकालभाविनोऽपि प्रथमप्रमाणादिति तदेवेतरेतराऽऽश्रयत्वम्। अथ प्रथमोत्तरयोरेकविषयत्वसमानजातीयत्वैकसन्तानत्वाविशेषेऽप्यस्त्यन्यो विशेषः,यतो विशेषादुत्तरं प्रथमस्य प्रामाण्यं निश्चाययति, न पुनः प्रथममुत्तरस्य / स च विशेष उत्तरस्य कारणशुद्धिपरिज्ञानानन्तरभावित्वम् / ननु कारणशुद्धिपरिज्ञानमर्थक्रियापरिज्ञानमन्तरेण न सम्भवति, तत्र च चक्रकदोषः प्राक् प्रतिपादित इति नार्थक्रियाज्ञानसंभवः / संभवे वा तत एव प्रामाण्यनिश्चयस्य संजातत्वात् व्यर्थमुत्तरकालभाविनः कारणशुद्धिज्ञानविशेषसमन्वितस्य पूर्वप्रामाण्यावगमहेतुत्वकल्पनम्। तन्न समानजातीयमेकसन्तानप्रभवमेकार्थमुत्तरज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम्। अथ भिन्नार्थ तत् ज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकम्। तदप्ययुक्तम् / एवं सति शुक्तिकायां रजतज्ञानस्य तथाभूतं शुक्तिकाज्ञानं प्रामाण्यनिश्चायकं स्यात् / तन्न समानजातीयमुत्तरज्ञानं पूर्वज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चायकम्। अथ भिन्नजातीयं प्रामाण्यनिश्चायकमिति पक्षः / तत्राऽपि वक्तव्यम् / किमर्थक्रियाज्ञानमुतान्यत् ? तत्रान्यदिति न वक्तव्यम्। घटज्ञानस्यापि पटज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकत्वप्रसङ्गात्। अथार्थक्रियाज्ञानं संवादकमित्यभ्युपगमः। अयमपि न युक्तः। अर्थक्रियाज्ञानस्यैव प्रामाण्यनिश्चयाभावे प्रवृत्त्याद्यभावतश्चक्रकदोषेणासंभवात् / अथ प्रामाण्यनिश्चयाभावेऽपि संशयादपि प्रवृत्तिसंभवान्नार्थक्रियाज्ञानस्यासम्भवः तर्हि प्रामाण्यनिश्चयो व्यर्थः / तथाहि-प्रामाण्यनिश्चयमन्तरेण प्रवृत्तो विसंवादभाक् मा भूवमित्यर्थक्रियार्थी प्रामाण्यनिश्चयमन्वेषते, सा च प्रवृत्तिस्तनिश्चयमन्तरेणापि संजातेति व्यर्थः प्रामाण्यनिश्चयप्रयासः / किं च अर्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यनिश्वायकत्वेनाऽभ्युपगम्यमानस्य कुतः प्रामाण्यनिश्चयः? तदन्यार्थक्रियाज्ञानादिति चेत्, अनवस्था / पूर्वप्रमाणादिति चेदन्योन्याऽऽश्रयदोषः प्राक् प्रदर्शितोऽत्रापि। अथार्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्यनिश्चयः / प्रथमस्य तथाभावे प्रद्वेषः किंनिबन्धनः ? तदुक्तम्"यथैव प्रथम ज्ञान, तत्संवादमपेक्षते। संवादेनापि संवादः, पुन ग्यस्तथैव हि // 1 // कस्यचित्तु यदीष्येत, स्वत एव प्रमाणता। प्रथमस्य तथाभावे, प्रद्वेषः केन हेतुना ?||2| संवादस्याऽथ पूर्वेण, संवादित्वात्प्रमाणता। अन्योऽन्याऽऽश्रयभावेन, न प्रामाण्यं प्रकल्पते / / 3 / / " इति। अथापि स्यादर्थक्रियाज्ञानमर्थाभावे न दृष्टमिति न तत्स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्ष साधनज्ञानं त्वर्थाभावेऽपि दृष्टमिति तत्प्रामाण्यनिश्चयेऽर्थक्रियाज्ञानापेक्षमिति / एतदप्यसङ्गतम् / अर्थक्रियाज्ञानस्याप्यर्थमन्तरेण स्वप्रदशाया दर्शनात्, न च स्वप्रजाग्रद्दशाऽवस्थायाः कश्चिद्विशेषः प्रतिपादयितुं शक्यः / अथार्थक्रियाज्ञानं फलावाप्तिरूपत्वान्न स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षं, साधनविनि सिपुननि नार्थक्रियाऽवाप्तिरूपं भवति तत्स्वप्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम् / तथाहि-जलावभासिनि ज्ञाने समुत्पन्ने पानावगाऽऽहनाद्यर्थिनः किमेतत् ज्ञानविभासि जलमभिमतफल साधयिष्यति, उत नेति जाताऽऽशङ्कास्तत्प्रामाण्यविचारं प्रत्याद्रियन्ते। पानावगाहनार्थावाप्तिज्ञाने तु समुत्पन्नेऽवाप्तफलस्वान्न तत्प्रामाण्यविचारणाय मनः प्रणिदधति / नैतत्सारम् / अवाप्तफलत्वादित्यस्यानुत्तरत्वात् / तथाहि-यथा ते विचारकत्वाजलज्ञानावभासिनो जलस्य किं सत्त्वमुतासत्त्वमिति विचारणाया प्रवृतास्तथा फलज्ञाननिर्भासिनोऽप्यर्थस्य सत्त्वासत्त्वविचारणायां प्रवर्त्तन्ते / अन्यथा तदप्रवृत्तौ तदवभासिनोऽर्थस्यासत्त्वाऽऽशङ्कया तज्ज्ञानस्याऽवस्तुविषयत्वेनाप्रमाणतया शक्यमानस्य न तज्जलावभासिप्रवर्तकज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थापकत्वम्। ततश्चान्यस्य तत्समानरूपतया प्रामाण्यनिश्चयाभावात्कथमर्थक्रियार्था प्रवृत्तिनिश्चितप्रामाण्यात् ज्ञानादित्यभ्युपगमः शोभनः / किं च-भिन्नजातीयं संवादकज्ञान पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चायकमभ्युपगम्यमानमेकार्थ, भिन्नार्थवा? यद्येकार्थमित्यभ्युपगमः / स न युक्तः। भवन्मतेनाघटमानत्वात् / तथाहिरूपज्ञानाद्भिन्नजातीयं स्पर्शाऽऽदिज्ञाानं, तत्र च स्पर्शाऽऽदिकमाभाति न रूपम्, रूपज्ञाने तु रूपं, न स्पर्शाऽऽदिकमाभाति; रूपस्पर्शयोश्च परस्परं भेदः, न चावयवी रूपस्पर्शज्ञानयोरेको विषयतयाऽभ्युपगम्यते, येनैकविषयं भिन्नजातीयं पूर्वज्ञानप्रामाण्यव्यवस्थापकं भवेत् / अपि चएकविषयत्वेऽपि कि येन स्वरूपेण व्यवस्थाप्ये ज्ञाने सोऽर्थः प्रतिभाति, कि तेनैव व्यवस्थापके, उतान्येन ? तत्र यदि तेनैवेत्यभ्युपगमः / सन युक्तः / व्यवस्थापकस्य तावद्धार्थविषयत्वेनं स्मृतिवदप्रमाणत्वेन व्यवस्थापत्वासंभवात् / अथ रूपान्तरेण सोऽर्थस्तत्र विज्ञग्ने प्रतिभाति / नन्वेवं संवाद्यसंवादकयोरेकविषत्वंनस्यादिति द्वितीय एव पक्षोऽभ्युपगतः स्यात्। स चाऽयुक्तः। पूर्वस्याऽपि भिन्नविषयस्यैकसन्तानप्रभवस्य विजातीयस्य प्रामा Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 458 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण ण्यव्यवस्थापकत्वप्रसङ्गात् / तथा किं तत्समानकालमर्थक्रिया-ज्ञानं पूर्वज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकमाहोस्विद्भिन्नकालम् ? यदि समानकालं, कि साधननिर्भासिज्ञानग्राहि, उत तदग्राही ति पुनरपि विकल्पद्वयम् ? यदि तद्ग्राहि / तदसत्। ज्ञानान्तरस्य चक्षुरादिज्ञानेष्वप्रतिभासनात् प्रतिनियतरूपाऽऽदिविषयत्वेन चक्षुरादिज्ञानानामभ्युपगमात्। अथ तद्ग्राहि, न तर्हि तज्ज्ञानप्रामाण्यनिश्वायकम् / तदग्रहे तद्गतधर्माणामप्यग्रहात्। अथ भिन्नकालम्। तदप्ययुक्तम्। पूर्वज्ञानस्य क्षणिकत्वेन नाशादुत्तरकालभाविविज्ञानेऽप्रतिभासनात् / भासने चोत्तरविज्ञानस्यासद्विषयत्वेनाप्रामाण्यप्रसक्तिस्तद्ग्राहकत्वेन न तत्प्रामाण्यनिश्चायकत्वम्।। तदग्राहकं तु भिन्नकालं सुतरां न तन्निश्चायकमिति न भिन्नकालमप्येकसन्तानजं भिन्नजातीय प्रामाण्यनिश्चायकमितिनसंवादापेक्षः पूर्वप्रमाणप्रामाण्यनिश्चयः / तेन ज्ञप्तावपि 'ये यद्भावं प्रत्यनपेक्षाः,' इति प्रयोग हेतो सिद्धिः / व्याप्तिस्तु साध्यविपक्षाऽतन्नियतत्वव्यापकात्सापेक्षत्वान्निवर्तमानमनपेक्षत्वं तन्नियतत्वेन व्याप्यते इति प्रमाणसिद्धवा यतश्च नपूर्वोक्तेन प्रकारेण परतः प्रामाण्यनिश्चयः संभवति, ततो "ये संदेहविपर्ययविषयीकृताऽऽत्मतत्त्वाः" इति प्रयोगे व्याप्त्यसिद्धिः, हेतोश्वासिद्धता। सर्वप्राणभृतां प्रामाण्यसंदेहविपर्ययाभावात्। तथा हि-ज्ञाने समुत्पन्ने सर्वेषामयमर्थ इति निश्चयो भवति / न च प्रामाण्यस्य संदेहे विपर्यये वा सत्येष युक्तः। तदुक्तम्- ''प्रामाण्यग्रहणात्पूर्व स्वरूपेणैव संस्थितम्। निरपेक्ष स्वकार्ये च." इति स्वार्थनिश्चयो हि प्रमाणकार्य, न च तत्र प्रमाणान्तरग्रहणं चापेक्षत इति गम्यते। न चैतत्संशयविपर्ययविषयत्वे सम्भवतीति अथ प्रमाणाप्रमाणयोरुत्पत्तौ तुल्यं रूपमिति न संवादविसंवादा वन्तरेण तयोः प्रामाण्याप्रामाण्ययोनिश्चयः / तदसत्। अप्रमाणे तदत्तरकालमवश्यंभाविनौ बाधककारणदोषप्रत्ययौ.तेन तत्राप्रामाण्यनिश्चयः / प्रमाणे तु तयोरभावः कुतोऽप्रामाण्याऽऽशङ्का / अथ तत्तुल्यरूपे तयोर्दर्शनात्तत्राऽपि तदाशङ्का / साऽपि न युक्ता / त्रिचतुरज्ञानापेक्षामात्रतस्तत्र तस्या निवृत्तेः। न च तदपेक्षातः स्वतः प्रामाण्यव्याहतिरनवस्था वेत्याशङ्कनीयम्। संवादकज्ञानस्याप्रामाण्याऽऽशङ्काव्यवच्छेदे एव व्यापारादपरज्ञानानपेक्षणाच / तथा हि-अनुत्पन्नबाधके ज्ञाने परत्र बाध्यभानप्रत्ययसाधादप्रामाण्याऽऽशङ्का, तस्यां सत्यां तृतीयज्ञानापेक्षा, तात्पन्नं यदि प्रथमज्ञानसंवादि, तदा तेन न प्रथमज्ञानप्रामाण्यनिश्चयः क्रियते, किं तु द्वितीयज्ञानेन यत्तस्याप्रामाण्य - माशङ्कितं तदेव तेनापाक्रियते; प्रथमस्य तु स्वत एव प्रामाण्यभिति एवं तृतीयेऽपि कथञ्चित् संशयोत्पत्तौ चतुर्थज्ञानापेक्षायामयमेव न्यायः / तदुक्तम्- "एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः। प्रार्थ्यते तावतैवैक, स्वतः प्रामाण्यमश्नुते / / 1 / / " इति। यत्र च दुष्ट कारण, यत्र च बाधकप्रत्ययः स एव मिथ्याप्रत्यय इत्यस्याप्ययमेव विषयः / चतुर्थज्ञानापेक्षा त्वर्थज्ञानापेक्षाऽभ्युपगमवादत उक्ता, न तु तदपेक्षाऽपि भावतो विद्यते। अथ तृतीयज्ञानं द्वितीयज्ञानसंवादि, तदा प्रथमस्याप्रामाण्यनिश्चयः, स तु तत्कृतोऽभ्युपगम्यत एव किं तु द्वितीयस्य यदप्रामाण्यमाशङ्कितं | तत्तेनापाक्रियते, न पुनस्तस्य द्वितीयप्रामाण्यनिश्चायकत्वे व्यापारः / यत्र त्वभ्यस्ते विषयेऽर्थत्तथात्वशङ्का नोपजायते तत्र बलादुत्पाद्यमाना शङ्का तत्कर्तुरनर्थकारिणीत्या-वेदितं वार्तिककृता-आशङ्केत हि यो मोहादजातमपि बाधकम् / स सर्वव्यवहारेषु, संशयाऽऽत्मा क्षयं व्रजेत् ||1 // " इति। न चैतदभिशापमात्रम्। यतोऽशङ्कनीयेऽपि विषयेऽभिशकिनां सर्वत्रार्थानर्थ प्राप्तिपरिहारार्थिनामिष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारसमर्थप्रवृत्त्यादिव्यवहारासंभवान्न्यायप्राप्त एवं क्षयः। स्वोत्प्रेक्षितनिमित्तनिबन्धनाया आशङ्कायाः सर्वत्र भावात् / प्रेरणाजनिता तु बुद्धिरपौरुषेयत्वेन दोषरहितात्प्रेरणालक्षणाच्छब्दादुपजायमाना लिङ्गाऽऽसोक्ताक्षबुद्धिवत् प्रमाण सर्वत्र स्वतः / तदुक्तम् - 'चोदनाजनिता बुद्धिः, प्रमाणं दोषवर्जितैः / कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिङ्गाऽऽप्तोक्ताक्षबुद्धिवत् ॥१॥इति / तस्मात्स्वतः प्रामाण्यम्, अप्रामाण्य परत इति व्यवस्थितम्। अतः सर्वप्रमाणानां स्वतः सिद्धत्वाद्युक्तमुक्तं स्वतः सिद्धं शासनं नातः प्रकरणात्प्रामाण्येन प्रतिष्ठाप्यम्। इदं त्वयुक्तम्- जिनानामिति (सिद्धं सिद्धत्थाणं, ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं / कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं / / 1 / / इतिगाथाया व्याख्येयम्) / जिनानामसत्त्वेन शासनस्य तत्कृतत्वानुपपत्तेः / उपपतावपि परतः प्रामाण्यस्य निषिद्धत्वादिति। अत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्तम्, अर्थतथाभावप्रकाशको ज्ञातृव्यापारः प्रमाणम्। तदयुक्तम। पराभ्युपगतज्ञातृव्यापारस्य प्रमाणत्वेन निषेत्स्यमानत्वात्। यदप्यन्यदभ्यधायि, तस्य यथार्थप्रकाशकत्वं प्रामाण्यं, तमोत्पत्ती स्वतः / विज्ञानकारणचक्षुरादिव्यतिरिक्तगुणानपेक्षत्वात्। तत्र प्रामाण्यस्योत्पत्तिरविद्यमानस्याऽऽत्मलाभः। साचेन्निर्हेतुका, देशकालस्वभावनियमो न स्यादित्यन्यत्र प्रतिपादितम्। किं च -गुणवचक्षुरादिसद्भावे सति यथावस्थितार्थप्रतिपत्तिर्दृष्टा, तदभावे न दृष्टति तद्धेतुका व्यवस्थाप्यते अन्वयव्यतिरेकनिबन्धनत्वादन्यत्राऽपि हेतुफलभावस्य। अन्यथा दोषवचक्षुराद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायिनी मिथ्याप्रतिपत्तिरपि स्वतः स्यात् / तथाऽभ्युपगमे "वस्तुत्वाद् द्विविधस्यात्र, सम्भवो दुष्टकरणाद्।" इति वचो व्याहतमनुषज्येत / यदपि, "अत्यक्षाऽऽश्रितगुणसद्भावे प्रत्यक्षाप्रवृत्तेः तत्पूर्वकानुमानस्यापि तद्ग्राहकत्वेनाव्यापारात् चक्षुरादिगतगुणानामसत्त्वात्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं प्रामाण्यस्योत्पत्तावयुक्तम्," इत्युक्तम्। तदप्यसंगतम्। अप्रामाण्योत्पत्तावप्यस्य दोषस्य समानत्वात् / तथा हि-अतीन्द्रियलोचनाऽऽद्याश्रिता दोषाः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयन्ते, उतानुमानेन ? न तावत्प्रत्यक्षेण / इन्द्रियाऽऽदीनामतीन्द्रियत्वेन तद्गतदोषाणामप्यतीन्द्रियत्वेन तेषु प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेः / नाप्यनुमानेन / अनुमानस्य गृहीतप्रतिबद्धलिङ्ग प्रभवत्वाभ्युपगमात्। लिङ्गप्रतिबन्धग्राहकस्य च प्रत्यक्षस्यानुमानस्य चाऽत्र विषयेऽसम्भवात्, प्रमाणान्तरस्य चाऽत्रान्तर्भूतस्यासत्त्वेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वाद्, इत्यादि सर्वमप्रामाण्योत्पत्तिकारणभूतेषु लोचनाऽऽद्याश्रितेषु दोषेष्वपि समान मिति तेषामप्यसत्त्वात्तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्यासिद्धत्वादप्रामाण्यमप्युत्पत्तौ स्वतः स्यात् / यदपि- "अथ कार्येण यथार्थोपलब्ध्यात्मकेन तेषामधिगमः" इत्यादि / 'यतो न लोकः प्रायशो विपर्ययज्ञानादुत्पादक कारणमात्रमनुमिनोति, किंतु सम्यगज्ञानाद, इत्यन्तमभ्यधायि। तदप्य Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण सङ्गतम् / यतो यदि लोकव्यवहारसमाश्रयणेन प्रामाण्याप्रामाण्ये व्यवस्थाप्येते, तदाऽप्रामाण्यवत्प्रामाण्यमपि परतो व्यवस्थापनीयम्। तथाहि-लोको यथा मिथ्याज्ञानं दोषवचक्षुरादिप्रभवमभिदधाति, तथा सम्यगज्ञानमपि गुणवचक्षुरादिसमुत्थमिति तदभिप्रायादप्रामाण्यवत्प्रामाण्यमप्युत्पत्तौ परतः कथं न स्यात् / तथाहि-तिमिराऽऽदिदोषावष्टब्धचक्षुष्को विशिष्टौषधोपयोगावाप्ताक्षिनर्मल्यगुणः केनचित्सुहृदा कीदृक्षे भवतो लोचने वर्तेते इति पृष्टः सन् प्राऽऽह- प्राक् सदोषे अभूतामिदानीं समासादित-गुणे संजाते इति। न च नैर्मल्यं दोषाभावमेव / लोको व्यपदिशतीति शक्यमभिधातुम्, तिमिराऽऽदेरपि गुणाभावरूपत्वव्यपदेशप्राप्तेः। तथा चाऽप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत्स्वतः स्यात्। यदप्यभ्यधायि, "नच तृतीयं कार्यमस्ति'' इति। तदप्यसम्यक्। तृतीयकार्याभावेऽपि पूर्वोक्तन्यायेन प्रामाण्यस्योत्पत्तौ परतः सिद्धत्वात् / यच्च "अपि चाऽर्थतथाभावप्रकाशनलक्षणं प्रामाण्यम्" इत्यादि, "विश्वमेक स्यादिति वचः परिपलवेत" इति पर्यवसानमभिहितम्। तदपि अविदितपराभिप्रायेण / यतो नपरस्योभयमभ्युपगमो विज्ञानस्य चक्षुरादिसामग्रीत उत्पत्तावप्यर्थतथाभावप्रकाशनलक्षणस्य प्रामाण्यस्य नैर्मल्याऽऽदिसामग्यन्तरात्पश्चादुत्त्पत्तिः, किन्तु गुणवचक्षुरादिसामग्रीत उपजायमान विज्ञानमागृहीतप्रामाण्यस्वरूपमेवोपजायते इति ज्ञानवत्तदव्यतिरिक्तस्वभाव प्रामाण्यमपि परत इति गुणवच्चक्षुरादिसामग्यपेक्षत्वादुत्पत्ती प्रामाण्यस्यान-पेक्षत्वलक्षणस्वभावहेतुरसिद्धोऽनपेक्षत्वस्वरूप इति "तस्माद्यत एवं गुणविकलसामग्रीलक्षणाद्" इत्याद्ययुक्तभिहितम्। 'अर्थत-थात्वपरिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यं, शक्तयश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति' इत्यादि यदभिधानम् / तदप्यसमीचीनम् / एवमभिधाने अयथावस्थितार्थपरिच्छेद-शक्तेरप्यप्रामाण्यरूपाया असत्याः केनचित्कर्तुमशक्तेस्तदपि स्वतः स्यात्। यदपि 'एतच्च नैव सत्कार्यप्रदर्शनसमाश्रयणादभिधीयते" इत्यादि "तदपेक्षा न विद्यते' इति पर्यन्तमभिहितम्। तदपि प्रलापमात्रम्। यतोऽनेन न्यायेनाप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत् स्वत एव स्यात्। तदपि हि विपरीतार्थपरिच्छेदशक्तिलक्षणं न तिमिराऽऽदिदोषसङ्गतिमत्सु लोचनाऽऽदिषु अस्तीति / अपि चज्ञानरूपतामात्मन्यसतीमाविर्भावयन्तीन्द्रियाऽऽदयो न पुनर्यथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्तिमिति न किञ्चिन्निमित्तमुत्पश्यामः / कुतश्चैतदैश्वर्य शक्तिभिः प्राप्तम्, यत इमाः स्वत एवोदयं प्रत्यासादितमाहात्म्या न पुनस्तदाधाराभिमता भावविशेषा इति। न च तास्तेभ्यः प्राप्तव्यतिरेकाः / यतः स्वाऽऽधाराभिमतभावकारणेभ्यो भावस्योत्पत्तावपि, न तेभ्य एवोत्यत्तिमनुभवेयुः, व्यतिरेके, स्वाश्रयैस्ततोऽभवन्त्योन संबन्धमाप्नुयुः / भिन्नानां कार्यकारणभावव्यतिरेकेणापरस्य संबन्धस्याभावादाश्रयाऽऽश्रयिसंबन्धस्या पि जन्यजनक भावभावेऽतिप्रसङ्ग तो निषेत्स्यमानत्वात् / धर्मत्वाच्छक्तेराश्रय इत्यप्ययुक्तम् / असति पारतन्त्र्ये, परमार्थतस्तदयोगात्। पारतन्त्र्यमपि न सतः सर्वनिराशम्। सत्त्वात्। असतोऽपि व्योमकुसुमस्येव न, तत्त्वादेव / अनिमित्ताश्वेमा न देशकालद्रव्यनियम प्रतिपद्येरन् / तद्धि किञ्चित् क्वचिदु पलीयेत, न वा? यद्यत्र कश्चिदायत्तमनायत्तं वा। सर्वत्र प्रतिबन्धविवेकिन्यश्चेच्छ क्तयो नेमाः कस्यचित्कदाचिद्विरमेयुरिति प्रतिनियतशक्तियोगिता भावाना प्रभाणप्रमिता न स्यात् व्यतिरेकाव्यतिरेकपक्षस्तु शक्तीनां विरोधानवस्थोभयपक्षोक्तदोषाऽऽदिपरिहाराद् विनाऽनुद्धोष्यः / अनुभयपक्षस्तु न युक्तः / परस्परपरिहारस्थितरूपाणामेकनिषेधस्यापरविधान-नान्तरीयकत्वात्। न च विहितस्य पुनस्तस्यैव निषेधः / विधिप्रतिषेधयोरेकत्र विरोधात् / ये त्वाः- उत्तरकालभाविनः संवादप्रत्ययान्न जन्म प्रतिपद्यते शक्तिलक्षणं प्रामाण्यमिति स्वत उच्यते, न पुनर्विज्ञानकारणान्नोपजायत इति। तेऽपि न सम्यक् प्रचक्षते। सिद्धसाध्यतादोषात्। अप्रामाण्यमपि चैव स्वतः स्यात्, न हि तदप्युत्पन्ने ज्ञाने विसंवादप्रत्ययादुत्तरकालभाविनः तत्रोत्पद्यत इति कस्यचिदभ्युपगमः। यदा च गुणवत्कारणजन्यता प्रामाण्यस्य शक्तिरूपस्य प्राक्तनन्यायादवस्थिता, तदा कथमौत्सर्गिकत्वम् / तस्य दुष्टकारणप्रभवेषु मिथ्याप्रत्ययेष्वभावात् / परस्परव्यवच्छेदरूपाणामेकत्रासम्भवात् / तस्माद गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावादप्रामाण्यद्वयासत्त्वेनोत्सर्गोऽनपोहित एवाऽऽस्त इति वचः परिफल्गुप्रायम् / इतश्चैतद्वचोऽयुक्तम्। विपर्ययणाप्यस्योद्घोषयितुं शक्यत्वात्। तथाहि-दोषेभ्यो गुणानामभावरतदभावात्प्रामाण्यद्वयासत्त्वेनाप्रामाण्यमौत्सर्गिकमास्त इति ब्रुवतो न वक्त्र वक्रीभवति / किं च-गुणेभ्यो दोषाणामभाव इति न तुच्छरूपो दोषाभावो गुणव्यापारनिष्पाद्यः / तत्र व्यतिरिवताव्यतिरिक्तविकल्पद्वारेण कारकच्यापारस्यासंभवात्, भवद्भिरनभ्युपगमाच / तुच्छाभावस्थाभ्युपगमे वा - भावान्तर-विनिर्मुक्तो 'भावोऽत्रानुलम्भवत्। अभावः सम्मतस्तस्य, हेतोः किं न समुद्भवः ||1||" इति वचो न शोभेत / तस्मात्पर्युदासवृत्त्या प्रतियोगिगुणाऽऽत्मक एव दोषाभावोऽभिप्रेतस्ततश्च गुणेभ्यो दोषाभाव इति ब्रुवता गुणेभ्यो गुणा इत्युक्तं भवति। न च गुणेभ्यो गुणाः कारणानामात्मभूता उपजायन्त इति / स्वात्मनि क्रियाविरोधात स्वकारणेभ्यो गुणोत्पत्तिसद्भावाच्च / तदभावाद प्रामाण्यद्वयासत्त्वमपि प्रामाण्यमभिधीयते। ततश्च गुणेभ्य प्रामाण्यमुत्पद्यत इति अभ्युपगमात् परतः प्रामाण्यमुत्पद्यत इति प्राप्तम्। ततश्च स्वार्थावबोधशक्तिरूपप्रामाण्याऽऽत्मलाभे चेत् कारणापेक्षा, काऽन्या स्वकार्ये प्रवृत्ति स्वयमेव स्यात्। तेनायुक्तमुक्तम्- "लब्धाऽऽत्मनां स्वकार्येषु, प्रवृत्तिः स्वयमेव तु / " इति / घटस्य जलोद्वहनव्यापारात्पूर्व रूपान्तरेण स्वहे तोरुत्पत्ते युक्तं मृदादिकारणनिरपेक्षस्य स्वकार्ये प्रवृत्तिरित्यतो विसदृशमुदाहरणम्। उत्पत्त्यनन्तरमेव च विज्ञानस्य नाशोप गमात्कुतो लब्धाऽऽत्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेव / तदुक्तम् - "न हि तत्क्षणमप्यास्ते, जायते वाऽप्रमाऽऽत्मकम्। येनार्थग्रहणे पश्चाद्, व्याप्रियेतेन्द्रियाऽऽदिवत्।।१।। तेन जन्मैव विषये, बुद्धयापार उच्यते। तदेव च प्रमारूपं, तद्वती करण च धीः / / 2 / / " इति। तस्माजन्मव्यतिरेकेण बुद्धेापाराभावात्तत्र च ज्ञानानां सगुणेषु कारणेष्वपेक्षावचनात्कुतः स्वातन्त्र्येण प्रवृत्तिरिति किं तज्ज्ञानस्य कार्य? यत्र लब्धाऽऽत्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेवेत्युच्यते / स्वार्थपरिच्छेदश्चेन्न / ज्ञानपर्यायत्वात् तस्याऽऽत्मानमेव करोतीत्युक्तं स्यात्। तच्चायुक्तम् / प्रमाणमेतदित्यनन्तरं निश्चयश्चेन्न। भ्रान्तिकारणसद्भावेन Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 460- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण क्वचिदनिश्चयाद्विपर्ययदर्शनाच / तस्माजन्मापेक्षया गुणवचक्षुरादिकारणप्रभवं प्रामाण्यं परतः सिद्धमिति "अथ चक्षुरादिज्ञानकारण" इत्याद्ययुक्ततया स्थितम्। अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवायास्तुबुद्धेः स्वतः प्रामाण्योत्पत्त्यभ्युपगमोनयुक्तः। अपौरुषेयत्वस्य प्रतिपादयिष्यमाणतद्ग्राहक प्रमाणाविषयत्त्वेनासत्त्वात् / सत्त्वेऽपि भवन्नीत्या तस्यैव गुणत्वात्। तथाभूतप्रेरणाप्रभवाया बुद्धेः कथं न परतः प्रामाण्यम् ? किं च-अपौरुषेयत्वे प्रेरणावच-सो, गुणवत्पुरुषप्रणीतलौकिकवाक्येषु तत्त्वेन निश्चितप्रामाण्यं, गुणाऽऽश्रयपुरुषप्रणीतत्वव्यावृत्त्या तत्तत्र न स्यात् / तथा च"प्रेरणाजनिता बुद्धिः,प्रमाणं दोषवजितः। कारणैर्जन्यमानत्वा-लिङ्गाऽऽप्तोक्ताक्षबुद्धिवत् / / 1 / / '' इति / अयं श्लोक एवं पठितव्यः"प्रेरणाजनिता बुद्धि-रप्रमा गुणवर्जितैः / कारणैर्जन्यमानत्वा-दलिङ्गाऽऽप्सोक्तबुद्धिवत् / / 1 / / " अथ प्रेरणावाक्यस्यापौरुषेयत्वे पुरुषप्रणीतत्वाऽऽश्रया यथा गुणा व्यावृत्तास्तथा तदाश्रिता दोषा अपि। ततश्च तव्यावृत्ताव-प्रामाण्यस्याऽपि प्रेरणाया व्यावृत्तत्वात्स्वतः सिद्धमुत्पत्तौ प्रामाण्यम्। नन्वेव सति गुणदोषाऽऽयपुरुषप्रणीतट्यावृत्तौ प्रेरणायां प्रामाण्याप्रामाण्ययोर्ध्यावृत्तत्वात्प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रामाण्याप्रामाण्यरहिता प्राप्नोति / ततश्च"प्रेरणाजनिता बुद्धि-न प्रमाण न चाऽप्रमा। गुणदोषविनिमुक्त कारणेभ्यः समुद्भवात्।।१।।" इत्येवमपि प्राक्तनः श्लोकः पठितव्यः, अत एव यथा''दोषाः सन्ति न सन्तीति, पौरुषेयेषु चिन्त्यते। वेदे कर्तुरभावात्तु, दोषाऽऽशबैच नास्ति नः / / 1 // " इत्ययं श्लोक एवं पठितः तथैवमपि पठनीयः''गुणाःसन्ति न सन्तीति, पौरुषेयेषु चिन्त्यते। वेदे कर्तुरभावात्तु, गुणाऽऽशझैव नास्ति नः / / 1 / / न च यत्रापि गुणाः प्रामाण्यहेतुत्वेनाऽऽशक्यन्ते तत्राऽपि गुणेभ्यो दोषाभाव इत्यादि वक्तव्यम् / विहितोत्तरत्वात् / अपि च-अपौरुषेयत्वेऽपि प्रेरणाया न स्वतः स्वविषयप्रतीतिजनकव्यापारः। सदा सन्निहितत्वेनततोऽनवरतप्रतीतिप्रसङ्गात्। किंतुपुरुषाभिव्यक्तार्थप्रतिपादक समयाऽऽविर्भूतविशिष्टसंस्कारसव्यपेक्षायाः। ते च पुरुषाः सर्वेरागाऽऽदिदोषाभिभूता एव भवताऽभ्युपगताः / तत्कृतश्च संस्कारो न यथार्थः / अन्यथा पौरुषेयमपि वचो यथार्थ स्यात्। अतोऽपौरुषेयत्वाभ्युपगमेऽपि समयकर्तृपुरुषदोषकृताऽप्रामाण्यसद्भावात्प्रेरणायाम-पौरुषेयत्वाभ्युपगमो गजरनानमनुकरोति / तदुक्तम्-"असंस्कार्यतया पुंभिः, सर्वेषां स्यान्निरर्थता। संस्कारो पगमे व्यक्तं, गजस्नानमिदं भवेत् // 1 // " यदप्यभाषि-"तथाऽनुमानबुद्धिरपि गृहीताविनाभावानन्यापेक्षा'' इत्यादि। तदप्यचारु। अविनाभाविनिश्चयस्यैव गुणत्वात्, तदनिश्चयस्य, विपरीतनिश्चयस्य च दोषत्वात्। तदेवमुत्पत्तौ प्रामाण्यं गुणापेक्षत्वात्परत इति स्थितम्। यदप्युक्तम्- "नापि स्वकार्य प्रवर्त्तमानं प्रमाण निमित्तान्तरापेक्षम्।" इति / तदप्यसङ्गतम्। यतो यदि कार्योत्पादनसामग्रीध्यतिरिक्तनिमित्तानपेक्षं प्रमाणमित्युच्यते. तदा सिद्धसाधनम् / अथ सामर येकदेशलक्षणं प्रमाणं निमित्तान्तरानपेक्षम् / तदप्यचारु। एकस्य जनकत्वासंभवात्। "न ह्येकं किञ्चिजनक, सामग्री वैजनिका'' इति न्यायस्यान्यत्र व्यवस्थापितत्वात्। किं च-नार्थपरिच्छेदमात्रं प्रमाणकार्यम्। अप्रमाणेऽपि तस्य भावात्। किं तर्हि ? अर्थतथात्वपरिच्छेदः / स च ज्ञानस्वरूपकार्यो, भ्रान्तज्ञानेऽपि स्वरूपस्य भावात्, तत्रापि सम्यगर्थपरिच्छेदः स्यात् / अथ स्वरूपविशेषकार्यो यथाऽवस्थितार्थपरिच्छेद इति नातिप्रसङ्गः। तर्हि स स्वरूपविशेषो वक्तव्यःकिमपूर्वार्थविज्ञानत्वम्, उत निश्चितत्वम्, आहोस्विद् बाधारहितत्यम्, उतस्विददुष्ट कारणाऽऽरब्धत्वम्, किं वा संवादित्वमिति ? तत्र यद्यपूर्वार्थविज्ञानत्वं विशेषः। स न युक्तः / तै-मिरिकज्ञानेऽपि तस्य भावात् / अथ निश्चितत्वम् / सोऽप्ययुक्तः। परोक्षज्ञानवादिनो भवतोऽभिप्रायेणासम्भवात् / अथ बाधारहितत्वं विशेषः / सोऽपि न युक्तः / यतो बाधावि विरहस्तत्कालभावी विशेषः, उत्तरकालभावी वा? न तावत्तत्कालभावी / मिथ्याज्ञानेऽपि तत्कालभाविनो बाधाविरहस्य भावात्। अथोत्तर-कालभावी। तत्राऽपि वक्तव्यम् - किं ज्ञातःस विशेषः, उताज्ञा-तः? तत्र नाज्ञातः। अज्ञातस्य तत्त्वेनाप्यसिद्धत्वात्। अथ ज्ञातोऽसौ विशेषः / तत्रापि वक्तव्यम् -उत्तरकालभावी बाधाविरहः किं पूर्वज्ञाने न ज्ञायते, आहोस्विदुत्तरकालभाविना ? तत्र न तावत्पूर्वज्ञानेनोत्तरकालभावी बाधाविरहो ज्ञातुं शक्यः। तद्धि स्वसमानकालं सन्निहितं नीलाऽऽदिकमवभासयतु, न पुनरुत्तरकालमप्यत्र बाधकप्रत्ययो न प्रवर्तिष्यत इत्यवगमयितुं शक्नोति पूर्वमनुत्पन्नबाधकानामप्युत्तरकालबाध्यत्वदर्शनात्। अथोत्तरज्ञानेन ज्ञायते। ज्ञायताम्, किं तूत्तरकालभावी बाधविरहः कथं पूर्वज्ञानस्य विनष्टस्य विशेषः / भिन्नकालस्य विनष्ट प्रति विशेषत्वायोगात् / किं च-ज्ञायमानत्वेऽपि केशोण्डुकाऽऽदेरसत्यत्वदर्शनाद्, बाधाभावस्य ज्ञायमानत्वेऽपि कथं सत्यत्वम् ? तज्ज्ञानस्य सत्यवादिति चेत्तस्य कुतः सत्यत्वम् ? तत्प्रमेयसत्यत्वाद, इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसङ्गात् / अपरबाधाभावज्ञानादिति चेत, तत्राप्यपरबाधाभावज्ञानादित्यनवस्था। अथ संवादादुत्तरकालभावी बाधाविरहः सत्यत्वेन ज्ञायते, तर्हि संवादस्याप्यपरसंवादज्ञानात्सत्यत्वसिद्धिः, तस्यापरसंवादज्ञानादित्यनवस्था / किं च-यदि रांवादप्रत्ययादुत्तरकालभावी बाधाभावो ज्ञायमानो विशेषः पूर्वज्ञानस्याभ्युपगम्यते, तर्हि ज्ञायमानस्वविशेषापेक्षं प्रमाण स्वकार्ये यथाऽवस्थितार्थपरिच्छे दलक्षणे प्रवर्तत इति कथमनपेक्षत्वात्तत्र स्वतः प्रामाण्यम् ? अपि च बाधाविरहस्य भवदभ्युपगमेन पर्युदासवृत्त्या संवादरूपत्वम् / बाधावर्जितं च ज्ञानं स्वकार्ये अन्यानपेक्षं प्रवर्तत इति युवता संवादापेक्षं तत्तत्र प्रवर्त्तत इत्युक्तं भवति / किं च-किं विज्ञानस्य स्वरूप बाध्यते, आहोम्वित्प्रमेयम्, उताऽर्थक्रियते विकल्पत्रयम् ? तत्र यदि विज्ञानस्य स्वरूपं बाध्यत इति पक्षः स न युक्तः, विकल्पद्वयानतिवृत्तेः / तथाहि-विज्ञानं बाध्यमानं किं स्वसत्ताकाले बाध्यते, उत उत्तरकालम् ? तत्र यदि स्वसत्ताकाले बाध्यत इति पक्षः / स न युक्तः। तदा विज्ञानस्य परिस्फुटरूपेण प्रतिभासनात्। न च विज्ञानस्य परिस्फुटप्रतिभासिनोऽभावस्तदैवेति वक्तुं शक्यम् / सत्याभिमतविज्ञानस्याप्यभावप्रसङ्गात्। अथोत्तर Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण कालं बाध्यत इति पक्षः / सोऽपि न युक्तः। उत्तरकाल तस्य स्वत एव नाशाभ्युपगमात्र तत्र बाधकव्यापारः सफलः, दैवरक्ता हि किंशुकाः।अथ प्रमेयं बाध्यते इत्यभ्युपगमः / सोऽप्ययुक्तः। यतः प्रमेयं बाध्यमानं किं प्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यते, उताऽप्रतिभासामानरूपसहचारिणा स्पर्शाऽऽदिलक्षणेनेति विकल्पनाद्वयम्? तत्र यदि प्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यते इति मतम्। तदयुक्तम्। प्रतिभासमानस्य रूपस्यासत्त्वासंभवात्। अन्यथा सम्यग्ज्ञानावभासिनोऽप्यसत्त्वप्रसङ्गः / अथाप्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यते इति मतम् / तदप्ययुक्तम् / अप्रतिभासमानस्य रूपस्य प्रतिभासमानरूपादन्यत्वात् / न चान्यस्याभावेऽन्यस्याभावः / अतिप्रसङ्गात्। अथार्थक्रिया बाध्यते / ननु साऽपि किमुत्पन्ना बाध्यते उतानुत्पन्ना? यद्युत्पन्ना, नतर्हि बाध्यते तस्याः सत्त्वात्। अथानुत्पन्ना / साऽपि न बाध्या अनुत्पन्नत्वादेव। किं च-अर्थक्रियाऽपि पदार्थादन्या। ततश्च तस्या अभावे कथम न्यस्यासत्त्वम् ? अतिप्रसङ्गादेव / व्यवच्छेद्यासम्भवे च बाधावर्जितमिति विशेषणस्याप्ययुक्तत्वात् न बाधाविरहोऽपि विज्ञानस्य विशेषः। अथादुष्टकारणाऽऽरब्धत्वं विशेषः। सोऽपिन युक्तः। यतस्तस्याप्यज्ञातस्य विशेषत्वमसिद्धम्। ज्ञातत्वेवा कुतोऽदुष्टकारणाऽऽरब्धत्वं ज्ञायते / अन्यस्माददुष्टकारणाऽऽरब्धाद्विज्ञानादिति चेत्, अनवस्था। संवादादिति चेत् / ननु संवादप्रत्ययस्याप्यदुष्टकारणाऽऽरब्धत्वं विशेषोऽन्यस्माददुष्टकारणाऽऽरब्धात् संवादप्रत्ययाद्विज्ञायत इति सैवानवस्था भवतः संपद्यत इति। किंच- ज्ञानसव्यपेक्षमदुष्टकरणाऽऽरब्धत्वविशेषमपेक्ष्य स्वकार्ये ज्ञान प्रवर्त्तमानं कथं न तत्र परतः प्रवृत्तं भवति। तथा कारणदोषाभावः पर्युदासवृत्त्या भवदभिप्रायेण गुणः / ततश्चाऽदुष्टकारणाऽऽरब्धमिति वदता गुणवत्कारणाऽऽरब्धमित्युक्तं भवति। कारणगुणाश्च प्रमाणेन स्वकार्ये प्रवर्त्तमानेनापेक्ष्यमाणनिश्वायकप्रमाणापेक्षा अपेक्ष्यन्ते, तदपि प्रमाणं सवकारणगुणनिश्चायक स्वकारणगुणनिश्चयापेक्षं स्वकार्ये प्रवर्तत इत्यनवस्थादूषणं "जातेऽपि यदि विज्ञाने, तावन्नार्थोऽवधार्यते / ' इत्यादिना ग्रन्थेन परपक्षे आसञ्ज्यमानं स्ववधाय कृत्योत्थापनं भवतः प्रसक्तम्। अथादुष्टकारणजनितत्वनिश्चयमन्तरेणाऽपि ज्ञानं स्वार्थनिश्चये स्वकार्ये प्रवर्तिष्यते / तदसत्। संशयाऽऽदिविषयीकृतस्य प्रमाणस्य स्वार्थनिश्चायकत्वासंभावात् / अन्यथाऽप्रमाणस्यापि स्वार्थनि श्वायकत्वं स्यात्। तन्नादुष्टकारणाऽऽधत्वमपि विशेषो भवन्नीत्या संभवति। अथ संवादित्वं विशेषः / सोऽभ्युपगम्यत एव। किंतु संवादप्रत्ययोत्पत्तिनिश्चयमन्तरेण सन ज्ञातुं शक्यत इति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्, तदपेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्त्तत इति तत्तत्र परतः स्यात्। अत एव निरपेक्षत्वस्यासिद्धत्वात्पूर्वोक्तन्यायेन "ये प्रतीक्षित-प्रत्ययान्तरोदयाः" इति प्रयोगेनासिद्धो हेतुः / एतेनैव यदुक्तम्- "तत्रापूर्वार्थविज्ञानं, निश्चितं बाधवर्जितम्। अदुष्टकारणाऽऽरब्धं, प्रमाणं लोकसम्मतम्॥१॥" इति। तदपि निरस्तम् यच्चोक्तम्-यदि संवादापेक्षं प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्त्तते तदा चक्रकप्रसङ्गः। तदसङ्गतम् / यथावस्थितपरिच्छेदस्वभावमेतत्प्रमाणमित्येवंनिश्चयलक्षणे स्वकार्ये यथा संवादापेक्षेप्रमाणे प्रवर्तते, न च चक्रकदोषः, तथा प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्। यदपि "अथ गृहीताः कारणगुणाः' इत्याद्य भिधानम्। तदपि परसमयानभिज्ञतां भवतः ख्यापयति। कारणगुणग्रहणापेक्ष प्रमाण स्वकार्ये प्रवर्तत इति परस्यानभ्युपगमात् / यथोक्तम्"उपजायमानं प्रमाणमर्थपरिच्छेदशक्तियुक्तम्," इति। तत्राविसंवादित्वमेव अर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिः , तच्च परतो ज्ञायते, तदपेक्ष प्रमाणं स्वकार्ये प्रवर्तत इति तत्तत्र परतः स्थितम् / 'नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽन्यापेक्षम्।'' इत्युक्त यत्। तदप्यसत्। यतो निश्चयस्तत्र भवन किं निर्निमित्तः, उत सनिमित्त इति कल्पनाद्वयम् ? तत्र न तावन्निर्निमित्तः / प्रतिनियतदेशकालस्वभावाभावप्रसङ्गात्। सनिमित्तत्वेऽपि किं स्वनिमित्तः,उत स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः? न तावत्स्वनिमित्तः / स्वसंविदितप्रमाणानभ्युपगमात् मीमांसकस्य / अथ स्वव्यतिरिक्तनिमित्तः। तत्रापि वक्तव्यम्- तन्निमित्तं किं प्रत्यक्षम्, उतानुमानम् ? अन्यस्य तन्निश्वायकस्यासम्भवात् / तत्र यदि प्रत्यक्षम् / तदयुक्तम् / प्रत्यक्षस्य तत्र व्यापारायोगात्।तद्धीन्द्रियसंयुक्त विषये तद्व्यापारादुदयमासादयत्प्रत्यक्षव्यपदेश लभते। न चेन्द्रियाणामपिरोक्षतालक्षणेन फलेन तत् -संवेदनरूपेण वा संप्रयोगः येन तयोर्यथार्थत्वस्वभाव प्रामाण्यमिन्द्रियव्यापारजनितेन प्रत्यक्षेण निश्चीयते। नाऽपि मनोव्यापारजेन प्रत्यक्षेण / एवंविधस्यानुभवस्याभावात्। नापि तयोरुत्पादकस्य ज्ञातृव्यापाराऽऽख्यस्य यथार्थत्वनिश्चायकत्वं प्रामाण्य बाह्येन्द्रियजन्येन मनोजन्येन वा प्रत्यक्षेण निश्चीयते। तेन सहेन्द्रियाणां संबन्धाभावात्।न चेन्द्रियासंबद्धे विषये ज्ञानमुपजायमानं प्रत्यक्षव्यपदेशमासादयतीत्युक्तम् / नाऽप्यनुमानतः प्रामाण्यनिश्चयः / पूर्वोक्तस्य फलद्वयस्य यथावस्थितार्थत्वलक्षणप्रामाण्यनिश्चये लिङ्गाभावात्। ज्ञातृव्यापारास्य तुपूर्वोक्तफलद्वयस्वभावस्वकार्यलिङ्गसम्भवेऽपि न यथार्थनिश्चायकत्वलक्षणप्रामाण्यनिश्चायकत्वम् / यतस्तल्लिङ्गं संवेदनाऽऽख्य, यथार्थत्वविशिष्ट तन्निश्वये व्याप्रियेत, निर्विशेषणं वा ? प्रथमपक्षे तस्य यथार्थत्वविशेषणग्रहणे प्रमाणं वक्तव्यम्, तब न संभवतीति प्रतिपादितम् / निर्विशेषणस्य फलस्य प्रामाण्यप्रतिपादकत्वे, मिथ्याज्ञाने फलमपि प्रामाण्यनिश्वायकं स्यादित्यतिप्रसङ्गः। तत्रैतत्स्यात् पूर्वोक्तं फलद्वयम-र्थसंवेदनार्थप्रकटतालक्षणम्, अनुभवान्निश्वीयते यथा तस्य स्वतः पूर्वोक्तस्वरूपनिश्चयः, तथा यथार्थत्वस्याऽपि / यथा हि तत्सवेद्यमानं नीलं संवेदनतया संवेद्यते, तथा यथार्थत्वविशिष्टस्यैवतस्य संवित्तिः। न हि नीलसंवेदनादन्या यथार्थत्वसवित्तिः। यद्येवम् शुक्तिकायां रजतज्ञानेऽपि अर्थसंवेदनस्वभावत्वाद्यथार्थत्वप्रसक्तिः / स्मृतिप्रमोषाऽऽदयस्तु निषेत्स्यन्ते इति नानुगनादपि तत्प्रामाण्यनि-श्चयः। किशप्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यनिश्चयनिमित्तत्वेऽभ्युपगम्य-माने, स्वतः प्रामाण्यनिश्चयव्याहतिप्रसङ्गः, तत्रान्यनिमित्तोऽपि प्रामाण्यनिश्चयः। यदुक्तम् - "नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽन्यापेक्षतद्ध्यपेक्षमाण किं कारणगुणानपेक्षते' इत्यादि / तदनभ्युपगमो पालम्भमात्रम् / न ह्यस्मदभ्युपगमः,यदुत स्वकारणगुणज्ञानात् प्रामाण्यं विज्ञायते कारणगुणानां संवादप्रत्ययमन्तरेण ज्ञातुमशक्यत्वात् संवादप्रत्ययात्तुकारणगुणपरिज्ञानाभ्युपगमे, ततएव प्रामाण्यनिश्चयस्याऽपि सिद्धत्वात् व्यर्थ गुणनिश्चयपरिकल्पनम् / प्रामाण्यनिश्चयोत्तरकालं Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण गुणज्ञानस्य भावात्तन्निश्चयस्य प्रामाण्यनिश्चयेऽनुपयोगाचनाप्येकदा संवादाद् गुणानिश्चित्य अन्यदा संवादमन्तरेणाऽपि गुणनिश्चयादेव तत्प्रभवस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चय इति वक्तुशक्यम्। अत्यन्तपरोक्षेषु चक्षुरादिषु कालान्तरेऽपि निश्चितप्रामाण्यस्वकार्यदर्शनमन्तरेण गुणानुवृत्तेर्निश्चेतुमश क्यत्वात् / न च क्षणक्षयिषु भावेषु गुणानुवृत्तिरेकरूमैव संभति। अपरापर-सहकारिभेदेन भिन्नरूपत्वात्। संवादप्रत्ययाच्चार्थक्रियाज्ञानलक्षणात् प्रामाण्यनिश्चयोऽभ्युपगम्यत एव। "प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्' इति प्रमाणलक्षणाभिधानात् / न च संवादित्वलक्षणं प्रामाण्यं स्वत एव ज्ञायते इति शक्यमभिधातुम्।यतः संवादित्वं संवादप्रत्ययजननशक्तिःप्रमाणस्य न च कार्यदर्शनमन्तरेण कारणशक्तिनिश्चेतु शक्या / यदाह- "न प्रत्यक्षे कार्ये कारणभावगतिः" इति। तस्मादुत्तरसंवादप्रत्ययात्पूर्वस्य प्रामाण्यं व्यवस्थाप्यतेनच संवादप्रत्ययात्पूर्वस्य प्रामाण्यावगमे संवादप्रत्ययस्याप्यपरसंवादात् प्रामाण्यावगम इत्यनवस्थाप्रसङ्गात् प्रामाण्यावगमाभाव इति वक्तुं युक्तम् / संवादप्रत्ययस्य संवादरूपत्वेनापरसंवादापेक्षाभावतोऽनवस्थाऽनवतारात्। न च प्रथमस्याऽपि संवादापेक्षा मा भूदिति वक्तव्यम्। यतस्तस्य संवादजनकत्वमेव प्रामाण्यं, तदभावे तस्य तदेव न स्यात्। अर्थक्रियाज्ञानं तु साक्षादविसंवादि। अर्थक्रियाऽऽलम्घनत्वात् तस्य स्वविषये संवेदनमेव प्रामाण्यम् / तत्र स्वतः सिद्धमिति नान्यापेक्षा / तेन 'कस्यचित्तु यदीष्येत" इत्यादिपरस्य प्रलापमात्रमान चार्थक्रियाज्ञानस्याप्यवस्तुवृत्तिशकायामन्यप्रमाणापेक्षयाऽनवस्थाऽवतार इति वक्तव्यम् / अर्थक्रियाज्ञानस्यार्थक्रियाऽनुभव स्वभावत्वेनार्थक्रियामात्रार्थिना भिन्नार्थक्रियात एतज्ज्ञानमुत्पन्नम्, उत तद्व्य तिरेकेणेत्येवंभूतायाश्चिन्ताया निष्प्रयोजनत्वात्। तथाहि-यथाऽर्थक्रिया किमवयवव्यतिरिक्तेनावयविनाऽर्थेन निष्पादिता, उताव्यतिरिक्तेन, आहोस्विदुभयरूपेण, अथाऽनुभयरूपेण, किं वा त्रिगुणाऽऽत्मकेन, परमाणुसमूहात्मकेन वा, अथ ज्ञानरूपेण आहोस्वित्संवित्तिरूपेणेत्यादिचिन्ताऽर्थक्रियामात्रार्थिनां निष्प्रयोजना, निष्पन्नत्वाद्वाञ्छितफलस्य, तथ्यमपि किं वस्तुसत्यामर्थक्रियायां तत्संवेदनज्ञानमुपजायते, आहोस्विदवस्तुसत्यामिति। तृड्दाहविच्छे दाऽऽदिकं हि फलमभिवाञ्छितम् / तच्चाभिनिष्पन्न तद्वियोगज्ञानस्य स्वसंविदितस्योदये इति तच्चिन्ताया निष्फलत्वम्, अवस्तुनि ज्ञानद्वयासंभवाच्च / यत्र हि साधनज्ञानपूर्वकमर्थक्रियाज्ञानमुत्पद्यते तत्राऽवस्तुशङ्का नैवास्ति। न ह्यनग्नावग्निज्ञाने संजाते प्रवृत्तस्य दाहपाकाऽऽद्यर्थक्रियाज्ञानस्य संभव इत्यागोपालाङ्ग नाप्रसिद्धमेतत् / न च स्वप्रार्थक्रियाज्ञानमर्थक्रियाऽभावेऽपि दृष्टमिति जाग्रदर्थक्रियाज्ञानमपि तथाऽऽशङ्काविषयः। तस्य तद्विपरीतत्वत्। तथाहि-स्वप्रार्थक्रियाज्ञानम्, अप्रवृत्तिपूर्व व्याकुलमस्थिरं च, तद्विपरीत तज्जाग्रदशाभावि, कुतस्तेन व्यभिचारः ? यदि चार्थक्रियाज्ञानमप्यर्थमन्तरेण जागद्दशायां भवेत्, कतरदन्यज्ञानमर्थाव्यभिचारि स्यात्, यद्वलेनार्थव्यवस्थाक्रियते। परतः प्रामाण्यवादिनो बौद्धस्य प्रतिकूलमाचरामीत्यभिप्रायवता तस्याऽनुकूलमेवाऽऽचरितम् / स हि निरालम्बनाः सर्वे प्रत्ययाः प्रत्ययत्वात् स्वप्रप्रत्ययवदित्यभ्युपगच्छत्येव। भवता तु जाग्रदृशास्वप्नदश-- योरभेदं प्रतिपादयता तत्साहाय्यमेवाऽऽचरितम्। न हि तद्व्यतिरिक्तः प्रत्ययोऽस्ति यस्यार्थसंसर्गः / न चावस्थाद्वयतुल्यताप्रतिपादनं त्वया क्रियमाणं प्रकृतोपयोगि / तथाहि-सांव्यवहारिकस्य प्रमाणस्य लक्षणमिदमभिधीयते- "प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्" इति। तच्च सांव्यवहारिक जाग्रद्दशाज्ञानमेव / तत्रैव सर्वव्यवहाराणां लोके परमार्थतः सिद्धत्वात् / स्वप्नप्रत्ययानां तु निर्विषयतया, लोके प्रसिद्धानां प्रमाणतया, व्यवहाराभावात् किं स्वतः प्रामाण्यमुत परत इति चिन्ताया अनवसरत्वात् / तच्च जाग्रत्ज्ञाने द्वितीय-दर्शनात्कि प्रमाणं, किं वाऽप्रमाणम्; तथा किं स्वतः प्रमाणं, किं वा परत इति चिन्तायाः / पूर्वोक्तलक्षणे जाग्रत्प्रत्ययत्वे सतीति विशेषणाभिधाने स्वप्रप्रत्ययेन व्यभिचारचोदन प्रस्तावानभिज्ञता परस्य सूचयति। अपि च-अर्थक्रियाऽधिगतिलक्षणफलविशेष-हेतुनि प्रमाणमिति लक्षणे, तत्फलं नैवं प्रमाणलक्षणानुगतमिति कथं तस्यापि प्रामाण्यमवसीयत इति चौद्यानुपपत्तिः / यथाऽड्कुरहेतु/जमिति बीजलक्षणे नाड्कुरस्यापि बीजरूपताप्रसक्तिः ततो न विदुषामेवं प्रश्नः, कथमडकुरे बीजरूपता निश्चीयत इति / यथा चाडकुरदर्शनाद्वीजस्य बीजरूपता निश्चीयते, तत्राप्यर्थक्रियाफलदर्शनात्साधनज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयः। न चाऽर्थक्रियाज्ञानस्याप्यन्यतः प्रामाण्यनिश्चयादनवस्था। अर्थक्रियाज्ञानस्य तद्रपतया स्वत एव सिद्धत्वात् / तदुक्तम्- "स्वरूपस्य स्वतो गतिः 'इति। न च स्वरूपज्ञानस्य भ्रान्तयः संभवन्ति। स्वरूपाभावे स्वसंवित्तेरप्यभेदेनाभावप्रसङ्गात् / व्यतिरिक्तविषयमेव हि प्रमाणमधिकृत्योक्तम् - "प्रमाणमविसंवादि-ज्ञानमर्थक्रियास्थितिः / अविसंवादनम्" इति। तथा- ''प्रामाण्यं व्यवहारणार्थक्रियालक्षणेन च'' इति च / तस्माद्यत्प्रमाणस्याऽऽत्मभूतमर्थक्रियालक्षणपुरुषार्थाभिधानं फलं, यदर्थोऽयं प्रेक्षावतां प्रयासः; तेन स्वतः सिद्धेदन फलान्तरं प्रत्यनङ्गीकृतसाधनान्तराऽऽत्मतया "प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्' इति प्रमाणलक्षणविराहणा साधननिर्भासिज्ञानस्यानुत्क्रान्तरूपफलप्रापणशक्तिस्वरूपस्य प्रामाण्याधिगमेऽनवस्थाप्रेरणा क्रियमाणा परस्यासङ्गतैव लक्ष्यते। यदुक्तम् - अनिश्चितग्रामाण्यादपि साधनज्ञानात्प्रवृत्तावर्थक्रियाज्ञानोत्पत्ताववाप्तफला अपि प्रेक्षावन्तो यथा साधनज्ञानप्रामाण्यविचारणायां मनः प्रणिदधति, अन्यथा तत्समानरूपापरसाधनज्ञानप्रामाण्यनिश्चयपूर्विकाऽन्यदा प्रवृत्तिर्न स्यात्, तथाऽर्थक्रियाज्ञानस्यापि प्रामाण्यविचारणायां प्रेक्षावत्तयैव ते आद्रियन्ते, अन्यथाऽसिद्धप्रामाण्यादर्थक्रियाज्ञानात्पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चय एव न स्यादित्यवाप्तफलत्वमनर्थकमिति / तदप्ययुक्तम् / अर्थक्रियाज्ञानस्य स्वत एव प्रामाण्य, साधनस्य तुतजनकत्वेन प्रामाण्यमिति प्रतिपादितत्वात्। यदभ्यधायियदि संवादात्पूर्वस्य प्रामाण्यं निश्चीयते तदा ''श्रोत्रधीरप्रमाणं स्यादितराभिरसंगतेः" इति। तदप्ययुक्तम्। गीताऽऽदिविषयायाः श्रोत्रबुद्धेरर्थक्रियाऽनुभवरूपत्वेन स्वत एव प्रामाण्यसिद्धेः / तथा चित्रगत बुद्धेरपि स्वत एव प्रामाण्यसिद्धि / अर्थक्रियाऽनुभवरूपत्वात् / गन्धस्पर्शरसबुद्धीना त्वर्थक्रियाऽनुभवरूपत्वं सुप्रसिद्धमेव। यदप्युक्तम् किमेकविषय, भिन्नविषयं वा संवादज्ञानं पूर्वस्य प्रामाण्य निश्चायकमित्यादि। तत्रैकसंघातवर्त्तिनो विषयद्वयस्य रूपस्पर्शाऽऽदिलक्षणस्यैकसामग्य Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण धीनतथा परस्परमव्यभिचारात्, स्पर्शाऽऽदिज्ञानं जाग्रदवस्थायामभिवाञ्छितस्पर्शाऽऽदिव्यतिरेकेणाासंभवद्भिन्नविषयमपि स्वविषयाभावेऽप्याशयमानरूपज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चाययतीति न तत्सङ्गतमेवम्। अत एव रूपाऽऽद्याविनाभावित्वाद् ध्वनीनां तद्विशेषशङ्कायां ववचिद्वीणाऽऽदिरूपप्रतिपत्तौ तद्विहशेषशङ्काव्यावृत्तेस्तद्रूपदर्शनसंवादादपि प्रामाण्यनिश्चयः सिद्धो भवति। यच्चोक्तम्-किं संवादज्ञानं साधनज्ञानविषयं तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति, उत भिन्नविषयमित्यादि / तदप्पविदितपराभिप्रायस्याऽभिधानम् / न हि संवादज्ञानं तद्ग्राहकत्वेन, तस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयति, किंतुतत्कार्यविशेषत्वेन, यथा धूमोऽग्रिमिति पराभ्युगमः / यच संवादज्ञानात्साधनज्ञानप्रामाण्यनिश्चये चक्रकदूषणमभ्यधायि / तदप्यससङ्गतम् / यदि हि प्रथममेव संवादज्ञानात् साधनस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तेत तदा स्यात्तदूषणं, यदातु वह्निरूपदर्शन सत्येकदा शीतपीडितोऽन्यार्थ तद्देशमुपसर्पस्तत्स्पर्शमनुभवति, कृपालुना वा केनचित्तद्देश वढेरानयने, तदाऽसौ वह्निरूपदर्शनस्पर्शनज्ञानयोः संबन्धमवगच्छति, एवंस्वरूपो भावएवंभूतप्रयोजननिर्वर्त्तक इति / सोऽवगतसंबन्धोऽन्यदाऽनभ्यासदशायामनुमानान्ममाऽयं रूपप्रतिभासोऽभिमतार्थक्रियासाधनः एवंरूपप्रतिभासत्वात्, पूर्वोत्पन्नवरूपप्रतिभासवत्, इत्य स्मात्साधननिर्भासिज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तत इति, कुतश्रककचोद्यावतारः ? अभ्यासदशायामपि साधनज्ञानस्यानुमानात्प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तत इत्येके। न च तदशायामन्वयव्यतिरेकव्यापारस्यासंवदेनान्नानुमानव्यापार इत्यभिधातुं शक्यम् / अनुपलक्ष्यमाणस्याऽपि तद्व्यापारस्याऽभ्युपगमनीयत्वात्; अकस्माद्भूमदर्शनात्परोक्षाग्निप्रतिपत्ताविव / अन्यथा गृहीतविस्मृतप्रतिबन्धस्यापि तद्दर्शनादकस्मात् प्रतिपत्तिः स्यात्। न चाध्यक्षैव साधनस्य फलसाधनशक्तिरिति कथमध्यक्षेऽनुमानप्रवृत्तिरिति चोद्यम्। दृश्यमानप्रदेशपरोक्षाऽग्रिसङ्गतेरिव तज्जननशक्तेरप्रत्यक्षत्वेन, अनुमानप्रवृत्तिमन्तरेण निश्चेतुमशक्यत्वात् / तदुक्तम्- "तदृष्टावेव दृष्टेषु, संवित्-सामर्थ्य भाविनः। स्मरणादभिलाषेण, व्यवहारः प्रवर्त्तते॥१॥" इति। अपरे तु मन्यन्ते-अभ्यासावस्थायामनुमानमन्तरेणाऽपि प्रवृत्तिः संभवति / अथानुमाने सति प्रवृत्तिर्दृष्टा, तदभावे न दृष्टत्यनुमानका सा। नन्वेवं सत्यभ्यासदशायां विकल्पस्वरूपानुमानव्यतिरेकेणाऽपि प्रत्यक्षा तत्प्रवृत्तिर्दृश्यते इति तदा तत्कार्या साकस्मान्न भवति? तथाहि-प्रतिपादोद्धारं न विकल्परूपानुमानव्यापारः संवेद्यते, अथचपुरः प्रतिभासमाने वस्तुनि प्रवृत्तिः संपद्यत इति। अथाऽऽदावनुमानात्प्रवृत्तिदृष्टति तदन्तरेण सा पश्चात्कथं भवति ? नन्वेवमादौ पर्यालोचनाद्व्यवहारो दृष्टः, पश्चात्पर्यालोचनमन्तरेण कथं पुरः स्थित वस्तुदर्शनमात्राद्भवतीति वाच्यम्। यदि पुनरनुमानव्यतिरेकेण सर्वदा प्रवृत्तिर्न भवतीति प्रवर्तकमनुमानमेवेत्यभ्युपगमः / तथा सति | प्रत्यक्षेण लिङ्गग्रहणाभावात्तत्राप्यनुमानमेव तन्निश्चयव्यवहारकारणं, तदप्यपरलिङ्गनिश्वयव्यतिरेकेण नोदयमासादयतीत्यनवस्थाप्रसङ्गतोऽनुमानस्यैवाप्रवृत्तेर्न क्वचित्प्रवृत्तिलक्षणो व्यवहार इत्यभ्यासाघ- 1 स्थायां प्रत्यक्ष स्वत एव व्यवहारकृत् अभ्युपेयम्। अनुमानं तुतादात्म्यतदुत्पत्ति प्रतिबन्धलिङ्ग निश्चयबले न स्वसाध्यादुपजायमानत्वादेव तत्प्रापणशक्तियुक्तं संवादप्रत्ययोदयात्प्रागेव प्रमाणाऽऽभासविवेकेन निश्चीयतेऽतः स्वत एव / तथाहि-यद्यत उपजायते तत्तत्प्रापणशक्तियुक्तम्। तद्यथा-प्रत्यक्ष स्वार्थस्य। अनुमेयादुत्पन्नं चेदं प्रतिबद्धलिङ्गदर्शनद्वाराऽऽयात लिङ्गि ज्ञानमिति तत्प्रापणशक्तियुक्तं निश्चीयत इति मूढ प्रति विषयदर्शनेन विषयी व्यवहारोऽत्रसाध्यते। सङ्केतविषयख्यापनेन समये प्रवर्तनात् / तथाहि-प्रत्यक्षेऽप्याव्यभिचारनिबन्धन एवानेन प्रामाण्यव्यवहारः प्रतिपन्नः / अव्यभिचारश्च नान्यस्तदुत्पत्तेः / सैव च ज्ञानस्य प्रापणशक्तिरुच्यते। तदुक्तम्-"अर्थस्यासंभवेऽभावात्प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता। प्रतिबद्धस्वभावस्य, तद्धेतुत्वे समं द्वयम्॥१॥” इति। तस्मात् मूढ प्रतिपरतः प्रामाण्यव्यवहारः साध्यते। अनुमाने प्रामाण्यस्य प्रतिबद्धलिङ्गनिश्चयानन्तरं स्वसाध्यव्यभिचारलक्षणस्य तत उत्पन्नत्वेन प्रत्यक्षसिद्धत्वात्, न परतः प्रामाण्यनिश्चये चक्रकचोद्यस्यावतारः। प्रत्यक्षे तु संवादात्प्रागदुत्पत्तिरशक्यनिश्चयेति संवादापेक्षैवानभ्यासदशायां तस्य प्रामाण्याध्यवसितिर्युक्ता। अत उत्पत्ती, स्वकार्ये, ज्ञप्तौ च सापेक्षत्वस्य प्रतिपादितत्वात् "ये यद्भाव प्रत्यनपेक्षाः" इति प्रयोगे हेतोरसिद्धिः / यतश्च संदेहवि-पर्ययविषयप्रत्ययप्रामाण्यस्य परतो निश्चयो व्यवस्थितोऽतो "ये संदेहविपर्ययाध्यासिततनवः" इति प्रयोगे न व्याप्त्यसिद्धिः / यदप्युक्तम्- सर्वप्राणभृतां प्रामाण्य प्रति संदेहविपर्ययाभावादसिद्धो हेतुरित्यादि। तदप्यसत्। यतः प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रमाणाऽप्रमाणचिन्तायामधिक्रियन्ते नेतरे / ते च कासाञ्चित् ज्ञानव्यक्तीनां विसंवाददर्शनाजाताऽऽशङ्कान ज्ञानमात्रादेवमेवायमर्थ इति निश्चिन्वन्ति, नापि तद्ज्ञानस्य प्रामाण्यमध्यवस्यन्ति / अन्यथैषां प्रेक्षावत्व हीयेत इति संदेहविषये कथं न संदेहः / तथा कामलाऽऽदिदोषप्रभवे ज्ञाने विपर्ययरूपताऽप्यस्तीति तद्बलाद्विपर्ययकल्पनाऽन्यज्ञानेऽपि संगतैवेति प्रकृते प्रयोगे नासिद्धो हेतुरिति भवत्यतो हेतोः परतः प्रामाण्यसिद्धिः / यदपि प्रमाणतदाभासयोस्तुल्यं रूपमित्याद्याशक्याऽप्रमाणे अवश्यंभावी बाधकप्रत्ययः, कारणदोषज्ञानं च इत्यादिना परिहृतम् / तदपिन चारुायतोबाधककारणदोषज्ञानं मिथ्यांप्रत्ययेऽवश्यभावि, सम्यक्-प्रत्यये तदभावो विशेषः प्रदर्शितः / स तु किं बाधकाग्रहणे, तदभावनिश्चये वा ? पूर्वस्मिन् पक्षे भ्रान्तदृशस्तद्भावेऽपि तदग्रहणं दृष्ट कश्चित्कालम्, एवमत्रापि तदग्रहणं स्यात्। तत्रैतत्स्याद्भ्रान्तदृशः किञ्चित्कालतदग्रहेऽपिकालान्तरे बाधकग्रहणम् / सम्यग्दृष्टौ तु कालान्तरेऽपि तदग्रहः / नन्वेतत्सर्वविदा विषयो नार्वाग्दृशां व्यवहारिणामस्मादृशाम् / बाधकाभावनिश्वयोऽपि सम्यग्-ज्ञाने किं प्रवृत्तेः प्राक् भवति, उत प्रवृत्त्युत्तरकालम् ? यदि पूर्वः पक्षः / स न युक्तः / भ्रान्तज्ञानेऽपि तस्य सम्भवात् प्रमाणत्वासक्तिः स्यात् / अथ प्रवृत्त्युत्तरकालं बाधकाभावनिश्चयः / सोऽपि न युक्तः / बाधकामावनिश्चयमन्तरेणैव प्रवृत्तरुत्पन्नत्वेन शनिश्चयस्याकिञ्चित्करत्वात् / न च बाधकाभावनिश्चये प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनि किश्चिन्निमित्तमस्ति। अनुपलब्धिनिमित्तमिति चेन्न। तस्या असम्भवात्। तथाहि-बाधकानुपलब्धिः किं प्रवृत्तेः प्राग्भाविनी बाधकामावनिश्चयस्य प्रवृत्युत्तरकाल Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण ४६४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण भाविनो निमित्तम्, अथ प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनीति विकल्पद्वयम्? तत्र यदि पूर्वः पक्षः स न युक्तः। पूर्वकालाया बाधकानुपलब्धेः प्रवृत्त्युत्तरकालभावनिश्चयनिमित्तत्वासम्भवात् / न ह्यन्यकालानुपलब्धिरन्यकालमभावनिश्चयं विदधाति / अतिप्रसङ्गात् / नापि प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनी बाधकानुपलब्धिस्तन्निश्चयनिमित्तम् / प्राक् प्रवृत्तेरुत्तरकाल बाधकोपलब्धिर्न भविष्यतीत्यर्वाग्दर्शिना निश्चेतुमशक्य त्वेन, तस्या असिद्धत्वात् / नापि प्रवृत्त्युत्तरकालभाविन्यनुपलब्धिस्तदैव निश्चीयमाना तत्कालभाविबाधकाभावनिश्वयस्य निमित्तं भविष्यतीति वक्तुं शक्यम् / तत्कालभाविनो निश्चयस्याऽकिञ्चित्करत्वप्रतिपादनात्। किं च-बाधकानुपलब्धिः सर्वसंबन्धिनी किं तन्निश्वयहेतुः, उताऽऽत्मसंबन्धिनीति पुनरपि पक्षद्वयम् ? यदि सर्वसंबन्धिनीति पक्षः / स न युक्तः। तस्या असिद्धत्वात् / न हि सर्वे प्रमातारो बाधक नोपलभन्त इति अग्दिर्शिना निश्चेतुं शक्यम् / अथाऽऽत्मसंबन्धिनीत्ययमभ्युपगमः / सोऽप्ययुक्तः / आत्मसंबन्धिन्या अनुपलब्धेः परचेतोवृत्तिविशेषेरनैकान्तिकत्वात्तन्न बाधाभावनिश्चयेऽनुपलब्धिनिमित्त, नापि संवादो निमित्तम् / भवदभ्युपगमेनानवस्थाप्रसङ्गस्य प्रतिपादितत्वात् / न च बाधाऽभावो विशेषः सम्यक्प्रत्ययस्य सम्भवतीति प्रागेव प्रतिपादितम्। कारणदोषाभावेऽप्ययमेव न्यायो वक्तव्य इति नासावपि तस्य विशेषः। किं च-कारणदोषबाधकाभावयोर्भवदभ्युपगमेन कारणगुणसवादकप्रत्ययरूपत्वस्थ प्रतिपादनात् तन्निश्चये तस्य विशेषेऽभ्युपगम्यमाने परतः प्रामाण्यनिश्चयोऽभ्युपगत एव स्यात्। न च सोऽपि युक्तः। अनवस्थादोषस्य भवदभिप्रायेण प्राक् प्रतिपादितत्वात् / यदप्युक्तम्- "एवं त्रिचतुरज्ञान'' इत्यादि / तत्रैकस्य ज्ञानरय प्रामाण्य, पुनरप्रामाण्यं, पुनः प्रामाण्यम्, इत्यवस्थात्रयदर्शनाद्वाधके, तबाधकाऽऽदौ वाऽवस्थावयमाशडमानस्य कथं परीक्षकस्य नापरापेक्षा, येनानवस्था न स्यात ? यदप्युक्तम्- 'अपेक्षातः' इत्यादि / तदप्यसङ्गतम्। यतो नाऽयं छलव्यवहारः प्रस्तुतो, येन कतिपयप्रत्ययमात्र निरूप्यते। न हि प्रमाणमन्तरण बाधकाऽऽ-शङ्कानिवृत्ति / न चाऽऽशङ्काथ्यावर्तक प्रमाणं भवदभिप्रायेण संभवतीत्युक्तम् / तथा कारणदोषज्ञानेऽपि पूर्वेण जाताऽऽशङ्कस्य कारणदोषज्ञानान्तरापेक्षायां कथमनवस्थानिवृत्तिः ? कारणदोषज्ञानस्य तत्कारणदोषग्राहकज्ञानाभावमात्रत : प्रमाणत्वान्नात्राऽनवस्था। यदाह-"यदा स्वतः प्रमाणत्वं, तदाऽन्यन्नैव मृग्यते। निवर्तते हि मिथ्यात्वं, दोषाज्ञानादयत्नतः॥१।।" इति। एतचानुद्धोष्यम् / प्रागेव विहितोत्तरत्वात्। नचदोषाज्ञानाघोषाभावः। सत्स्वपि दोषेषुतदज्ञानस्य संभवात् / सम्यग्ज्ञानोत्पादनशक्तिवैपरीत्येन मिथ्याप्रत्ययोत्पादनयोग्यं हि रूपं तिमिराऽऽदिनिमित्तमिन्द्रियदोषः / स चातीन्द्रियत्वात्सन्नपि नोपलक्ष्यते / न च दोषा ज्ञानेन व्याप्ताः, येन तन्निवृत्त्या निवर्तेरन् दोषाभावज्ञाने तु संवादाऽऽद्यपेक्षायां सैवाऽनवस्था प्राक् प्रतिपादिता / एतेनैतदपि निराकृतम् / यदुक्तं भट्टेन "तस्मात्स्वतः प्रमाणत्वं, सर्वत्रौत्सर्गिकं स्थितम्। बाधकारणदुष्टत्व ज्ञानाभ्यां तदपोद्यते / / 1 / / पराधीनेऽपि चैतस्मि-न्नानवस्था प्रसज्यते। प्रमाणाधीनमेतद्धि, स्वतस्तच प्रतिष्ठितम् / / 2 / / प्रमाण हि प्रमाणेन,यथा नान्येन साध्यते। न सिध्यत्यप्रमाणत्य-मप्रमाणात्तथैव हि // 3 // " इति स्यान्मतम्। यदप्यन्यानपेक्षप्रमितिभावो बाधकप्रत्ययः, तथाऽप्यबाधकतया प्रतीत एवान्यस्याप्रमाणतामाधातुं क्षमो नान्यथेति। सोऽयमदोषः। यतः"बाधकप्रत्ययस्ताव-दन्यित्वावधारणम्। सोऽनपेक्षप्रमाणत्वात, पूर्वज्ञानमपोहते / / 1 / / तत्राऽपित्वपवादस्य, स्यादपेक्षा क्वचित्पुनः। जाताऽऽशङ्कस्य पूर्वेण, साऽप्यन्येन निवर्तते / / 2 / / बाधकान्तरमुत्पन्नं, यद्यस्यान्विच्छतोऽपरम्। ततो मध्यमबाधेन, पूर्वस्यैव प्रमाणता / / 3 / / अथान्यदप्रयत्नेन , सम्यगन्वेषणे कृते। मूलाभावान्न विज्ञानं, भवेद् बाधकबाधनम् / / 4|| ततो निरपवादत्वा-तेनैवाऽऽद्य बलीयसा। बाध्यते तेन तस्यैव, प्रमाणत्वमपोद्यते // 5 // एवं परीक्षकज्ञान-त्रितय नातिवर्तते। ततश्चाजातबाधन, नाऽऽशङ्कक्यं बाधकं पुनः।।६।।" इति। तथाहि-एतेन सर्वेणापि ग्रन्थेन स्वतः प्रामाण्यव्याहतिः परिहता, परीक्षकज्ञानत्रितयाधिकज्ञानानपेक्षयाऽनव स्था च / एतद् द्वितयमपि परपक्षे प्रदर्शितं प्राक्तनन्यायेन / यच्चान्यत् पूर्वपक्षे परतः प्रामाण्ये दूषणमभिहितम्, तच्चाइनभ्युपगमेन निरस्तमिति न प्रतिपदमुच्चार्य दूष्यते / प्रेरणाबुद्धेस्तु प्रामाण्यं न साधननिर्भासि प्रत्यक्षस्येव संवादातस्य तस्यामभावात् / नाप्यव्यभिचारिलिङ्गनिश्चयबलात्स्वसाध्यादुपजायमानत्वादनुमानस्येव। किं च-प्रेरणाप्रभवस्य चेतसः प्रामाण्यसिद्ध्यर्थ स्वतः प्रामाण्यप्रसाधन प्रयासोऽयं भवताम्। चोदनाप्रभवस्य च ज्ञानस्य न केवल प्रामाण्यं न सिद्धयति, किं त्वप्रामाण्यनिश्चयोऽपि तव न्यायेन संपद्यते। तथाहि-यद् दुष्टकारणजनितं ज्ञानं, न तत्प्रमाणम् यथा तिमिराऽऽधुपद्रवोपहतचक्षुरादिप्रभवं ज्ञानम्, दोषवत्प्रेरणावाकयजनितं च- "अग्निहोत्रं जुहुयाद् ''इत्यादिवाक्यप्रभवं ज्ञानमिति कारणविरुद्धोपलब्धिः / न चासिद्धो हेतुः / भवदभिप्रायेण प्रेरणाया गुणवतो वक्तुरभावे, तद्गुणैरनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वस्य प्रेरणाप्रभवे ज्ञाने सिद्धत्वात्। अथ स्यादयं दोषो यदि वक्तृगुणैरेव प्रामाण्यापवादकदोषाणां निराकरणमभ्युपगम्यते / यावता वक्तुरभावेनाऽपि निराश्रयाणां दोषाणामसद्भावोऽभ्युपगम्यत एव। तदुक्तम्"शब्दे दोषोद्भवस्तावद्, वक्त्रधीन इति स्थितम्। तदभावः कचित्तावद्, गुणवन्द्वक्तृकत्वतः।।१।। तद्गुणैरपकृष्टानां, शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात्। यद्वा वक्तुरभावेन, न स्युर्दोषा निराश्रयाः॥२॥'' इति। भवेदप्येवं, यद्यपौरुषेयत्वं कुतश्चित्प्रामाण्यात्सिद्धं स्यात् / तच्च न सिद्धम् / तत्प्रतिपादकप्रमाणस्य निषेत्स्यमानत्वात्। अत एव चेदमप्यनुझोष्यम्- "तत्रापवादनिर्मुक्तिर्वक्त्रभावाल्लघीयसी। वेदेतेनाप्रमाणत्वं, नाऽऽ-- शङ्कामपि गच्छति // 1 // " तेन गुणवतो वक्तुरनभ्युपगमाद्भवद्धिः, अपौरुषे Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण यत्वस्य चासम्भवात्, अनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वं हेतुःप्रेरणाप्रभवस्य भवति। अपि च-तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसंबन्धाभावेऽपि नियमलक्षणचेतसःसिद्धः / दोषजन्यत्वाप्रामाण्ययोरविनाभावस्याऽपि मिथ्याज्ञाने- संबन्धप्रसादात्, कृत्तिकोदयचन्द्रोद्गमनाद्यतनसवित्रुगमगृहीताण्डऽन्यत्र निश्चितत्वात, तद्विरुद्धत्वानक्रान्तिकत्वयोरप्यभाव इति भवत्यतो पिपीलिकोत्सर्पणैकामफलोपलभ्यमानमधुररसस्वरूपाणां हेतूनां, हेतोः प्रेरणाप्रभवे ज्ञाने प्रामाण्याभावसिद्धिः / कि च-प्रामाण्ये सिद्धे यथाक्रमं भाविशकटोदयसमानसमयसमुद्रवृद्धिश्वस्तनभानूदयभाविसति, किं, तत् प्रामाण्यं स्वतः परतो वेति चिन्ता युक्तिमती। भवदभ्यु- वृष्टितत्समानकालसिन्दूरारुणरूपस्वभावेषु साध्येषु, गमकत्वं सुप्रसिपगमेन तु तदेव न संभवति। तथाहि-ज्ञातृव्यापारः प्रमाणं भवताऽभ्यु- द्धम् / संयोगाऽऽदिलक्षणस्तु संबन्धो भवतैव साध्यप्रतिपादनाङ्ग त्वेन पगम्यते; न चाऽसौ युक्तः। तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् / तथाहि-प्रत्यक्ष निरस्त इति तं प्रति न प्रयस्ते। वा तद्ग्राहकम, अनुमानम्, अन्यद्वा प्रमाणान्तरम् ? तत्र यदि प्रत्यक्ष "एवं परोक्तसंबन्ध-प्रत्याख्याने कृते सति। तद्ग्राहकमभ्युपगम्येत, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-स्वसंवेदनं, बाह्येन्द्रियजं, नियमो नाम संबन्धः, स्वमतेनोच्यतेऽधुना / / 1 / / मनःप्रभवं वा? न तावत्स्वसंवेदनं तद्ग्राहकम् / भवता तद्ग्राह्य- कार्यकारणभावाऽऽदि-संबन्धानां द्वयी गतिः। त्वानभ्युपगमात्तस्य / नाऽपि बाह्येन्द्रियजम् / इन्द्रियाणां स्वसंब- नियमानियमाभ्यां स्या-दनियमादतगता / / 2 / / वेऽर्थे ज्ञानजनकत्वाभ्युपगमात्। न च ज्ञातृव्यापारेण सह तेषां संबन्धः। सर्वेऽप्यनियमा ह्येते, नानुमोत्पत्तिकारणम्। प्रतिनियतरूपाऽऽदिविषयत्वात्। नापि मनोजन्यं प्रत्यक्ष ज्ञातृव्यापार- नियमाल्केवलादेव, न किञ्चिन्नानुमीयते / / 3 / / '' इत्यादि। लक्षणप्रमाणग्राहकम्। तथाप्रतीत्यभावात्, अनभ्युपगमाच्च / अथानुमान स च संबन्धः किमन्वयनिश्वयद्वारेण प्रतीयते, उतध्यतिरेकनिश्चयतद्ग्राहकमभ्युपगम्यते। तदप्ययुक्तम् / यतोऽनुमानमपि ज्ञातसंबन्ध- द्वारेणेति विकल्पद्वयम् ? तत्र यदि प्रथमो विकल्पोऽभ्युपगम्यते; तत्रापि स्यैकदेशदर्शनादसन्निकृष्टऽर्थे बुद्धिरित्येवं लक्षणमभ्युपगम्यते। संबन्ध- वक्तव्यम् किं प्रत्यक्षेणान्वयनिश्चयः, उतानुमानेनेति ? न तावत्प्रत्यश्वान्यसंबन्धव्युदासेन नियमलक्षणोऽभ्युपगम्यते। यत उक्तम्-संबन्धो क्षेणान्वयनिश्चयः। अन्वयस्य हि रूपंतगावे एव भावः। न च ज्ञातृव्यापारहि न तादाम्यलक्षणो गम्यगमकभावनिबन्धनम्।" ययोर्हि तादात्म्यं, स्य प्रमाणत्वेनाभ्युपगतस्य प्रत्यक्षेण सद्भावः शक्यते ग्रहीतुम् / तद्ग्राहनतयोः गम्यगमकभावः तस्य भेदनिबन्धनत्वात्। अभेदेवा, साधनप्रति- कत्वेन प्रत्यक्षस्य पूर्वमेव निषिद्ध त्वात्, त्वयाऽनभ्युपगमाघ / नाऽपि पत्तिकाल एव साध्यस्याऽपि प्रतिपन्नत्वात् कथं गम्यगमकभावः ? ज्ञातृव्यापारसद्भवि एवार्थप्रकाशनलक्षणस्य हेतोः सद्भायः प्रत्यक्षेण ज्ञातुं अप्रतिपत्तौ वा, यस्मिन् प्रतीयमाने यन्न प्रतीयते तत्ततो भिन्नं, यथा घटे शक्यः / तस्याऽपीन्द्रियव्यापारजेन प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तुमशक्तेः। तदशप्रतीयमोनऽप्रतीयमानः पटः। न प्रतीयते चेन्साधनप्रतीतिकाले साध्यं, क्तिश्च, अक्षाणां तेन सह संबन्धाभावात्। नाऽपि स्व संवेदनलक्षणेन तदा तत्ततो भिन्नमिति कथं तयोस्तादात्म्यम् ? किं च-यदि तादात्म्या- प्रत्यक्षेण पूर्वोक्तस्य हेतोः सद्भावः शक्योनिश्चेतुम्। भवदभिप्रायेण तत्र दम्यगमकभावोऽभ्युपगम्यते, तदा तादात्म्याविशेषाद्यथा प्रयत्नानन्तरी- तस्याव्यापारात्। तन्न प्रत्यक्षेण साध्यसद्भावे एव हेतुसद्भावलक्षणोऽन्वयो यकत्वमनित्यत्वस्यगमकम्, तथाऽनित्यत्वमपि प्रयत्नानन्तरीयक- निश्चेतुं शक्यः। नाप्यनुमानेन तनिश्चयः / अनुमानस्य निश्चिता न्ययत्वस्य गमकं स्यात्। अथ प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेव अनित्यत्वनियतत्वेन हेतुप्रभवत्वाभ्युपगमात्। नचतस्याऽन्वयः प्रत्यक्षसमधिगम्यः। पूर्वोक्तनिश्चित, नाऽनित्यत्वं तन्नियतत्वेन; निश्चयापेक्षश्च गम्यगकभाव इति, दोषप्रसङ्गात्। अनुमानात्तन्निश्चयेऽनवस्थेतरेतराऽऽश्रयदोषावनुपज्येते तर्हि "यस्मिन्निश्चीयमाने यन्न निश्चीयते।" इत्यादि पूर्वोक्तमेव दूषण इति प्रागेव प्रतिपादितम् न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्त प्रमाणान्तरं पुनरापतति / अपि च प्रयत्नानन्तरीयकत्वमेव अनित्यत्वनियतत्वेन सम्भवति। तन्न अन्वयनिश्चयद्वारेण ज्ञातृव्यापारे साध्ये पूर्वोक्तस्य हेतोनिनिश्चितमिति वदता स एवास्मदभ्युपगतो नियमलक्षणः संबन्धोऽभ्युपगतो यमलक्षणः संबन्धो निश्चेतुं शक्यः। नाऽपि व्यतिरेकनिश्चय द्वारेण / यतो भवति / नाऽपि तदुत्पत्तिलक्षणः संबन्धो गम्यगमकभावनिबन्धनम्। व्यतिरेकः साध्याभावे हेतोरभाव एवेत्येवं स्वरूपः / न च प्रकृतस्य साध्यतथाऽभ्युपगमे वक्तृत्वाऽऽदेरप्यसर्वज्ञत्वं प्रति गमकत्वं स्यात् / अथ स्याभावः प्रत्यक्षेण समधिगम्यः / तस्याऽमावविषयत्वविरोधादनसर्वज्ञत्वे, वक्तृत्वाऽऽदेवधिकप्रमाणाभावात्सर्वज्ञत्वादिभ्यो वक्तृत्वा- भ्युपगमात्, अभाव प्रमाणवैयर्थ्यप्रसङ्गाच्च। नाऽप्यनुमानाऽऽदिसद्भावऽऽदेव्यावृत्तिः संदिग्धेति संदिगधविपक्षव्यावृत्तिकत्वान्नायं गमकः; तर्हि ग्राहक प्रमाणनिश्चयः / अत एव दोषात्। अथादर्शननिश्चेय इति पक्षः। धूमस्याप्यनग्नौ बाधकप्रमाणाभावात्ततो घ्यावृत्तिः संदिग्धेति संदिग्ध- सोऽपि न युक्तः / यतोऽदर्शनं किमनुपलम्भरूपम्, आहोस्विदभावविपक्षव्यावृत्तिकत्वादग्निं प्रति गमकत्वं न स्यात् / अथ ''कार्य धूमो प्रमाणस्वरूपमिति वक्तव्यम् ? तत्र यद्याद्यः पक्ष सन युक्तः यतोऽत्राहुतभुजः, कार्यधर्मानुवृत्तितः / स तदभावेऽपि भवन, कार्यमेव न ऽपि वक्तव्यम् / अनुपलम्भः किं दृश्यानुपलम्भोऽभिप्रेतः, आहोस्विस्यात् / " इत्यनग्नौ धूमस्य सद्भावबाधकं प्रमाणं विद्यत इति नाऽसौ ददृश्यानुपलम्भ इति ? तत्र यद्य दृश्यानुपलम्भः प्रकृतसाध्याभावसंदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकः; तर्खेतत् प्रकृतेऽपि वक्तृत्वाऽऽदौ समानमिति निश्चायकोऽभिप्रेतः / तदाऽत्राऽपि कल्पनाद्वयम् किं स्वसंबन्ध्यनुतस्याऽप्यसर्वज्ञत्वं प्रति गमकत्वं स्यात्। किं च-कार्यत्वे सत्यपि वक्तृ- पलम्भस्तन्निश्चायकः, उत सर्व संबन्धी? यद्यात्मसंबन्धी त्वाऽऽदेः, संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेनासर्वज्ञत्व प्रत्यनियतत्वात् तन्निश्चायकः। स न युक्तः / परचेतोवृत्तिविशेषैस्तस्याऽनैकान्तियद्यगमकत्वं, तर्हि स एवास्मदभ्युपगतो नियमलक्षणः संबन्धोऽभ्युपगतो | कत्वात् अथ सर्वसंबन्धी अनुपलम्भस्तन्निश्चायक इत्यभ्युपगमः। अ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण यमप्ययुक्तः। सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्याऽसिद्धत्वात्। अथ दृश्यानुपलम्भस्तन्निश्चायक इति पक्षः / सोऽप्यसङ्गतः / यतो दृश्यानुपलम्भश्चतुर्दा व्यवस्थितः-स्वभावानुपलम्भः, कारणानुपलम्भो, व्यापकानुपलम्भो, विरुद्धविधिश्चेति / तत्र यदि स्वभावानुपलम्भस्तन्निश्चायकत्वेनाभिमतः / स न युक्तः / स्वभावानुपलम्भहहस्यैवंविधे विषये व्यापारासम्भवात्। तथाहि-एकज्ञानसंसर्गिणस्तुल्ययोग्यतास्वरूपस्य भावान्तरस्याभावव्यवहारसाधकत्वेन पर्युदासवृत्त्या तदन्यज्ञानस्वभावोऽसावभ्युपगम्यते। न च प्रकृतस्य साध्यस्य केनचित्सहैकज्ञानसंसर्गित्वं सम्भवतीति नाऽत्र स्वभावानुपलम्भस्य व्यापारः / नाऽपि कारणानुपलम्भः प्रकृतसाध्याभावनिश्चायकः। यतः-सिद्धे कार्यकारणभावे कारणानुपलम्भः कार्याभावनिश्चायकत्वेन प्रवर्तते / न च प्रकृतस्य साध्यस्य केनचित्सह कार्यत्वं निश्चितम्। तस्याऽदृश्यत्वेन प्रागेव प्रतिपादनात्। प्रत्यक्षानुपलम्भनिबन्धनश्च कार्यकारणभाव इति कारणानुपलम्भोऽपि न तनिश्चायकः। व्यापकानुपलम्भस्तु सिद्ध व्याप्यव्यापकभावे व्याप्याभावसाधकोऽभ्युपगम्यते। न च प्रकृतसाध्यव्यापकत्वेन कश्चित्पदार्थो निश्चेतुं शक्यः। प्रकृतसाध्यस्यादृश्यत्वप्रतिपादनात्। तन्न व्यापकानुपलम्भोऽपि तन्निश्चायकः / विरुद्धोपलब्धिरप्यत्र विषये न प्रवर्तते / तथाहि-एको विरोधोऽविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावात्सहानवस्थानलक्षणो निश्चीयते, शीतोष्णयोरिव / विशिष्टात् प्रत्यक्षात्। न च प्रकृतं साध्यमविकलकारणं कस्यचिद्भावे निवर्तमानमुपलभ्यते / तस्यादृश्यत्वादेव / द्वितीयस्तु परस्परपरिहारस्थितिलक्षणः / सोऽपि लक्षणस्य स्वरूपव्यवस्थापकधर्मरूपस्य दृश्यत्वाभ्युपगमनिष्ठो, दृश्यत्वाभ्युपगमनिमित्तप्रमाणनिबन्धनो न प्रकृतसाध्यविषये संभवति। तन्नततोऽपि प्रस्तुतसिद्धिः। तत्र साध्यस्याभावनिश्चयोऽनुपलम्भनिबन्धनः। साधनाभावनिश्चयोऽपि नादृश्यानुपलम्भनिमितः / उक्तदोषत्वात् / दृश्यानुपलम्भनिमित्तत्वेऽपि, न स्वभावानुपलम्भस्तन्निमित्तम् / उद्दिष्टविषयाभावव्यवहारसाधकत्वेन तस्य व्यापाराभ्युपगमात्। अनुद्दिष्टविषयत्वेऽपि, यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्र साधनाभाव इति, एवं न ततः साधनाभावनिश्चयः / तन्निश्चयश्च नियमनिश्चयहेतुरिति न स्वभावानुपलम्भोऽपि तन्नियमहेतुः / नापि कारणानुपलम्भः / यतः कारणं ज्ञातृव्यापार एवार्थप्रकटतालक्षणस्य हेतोर्भवताऽभ्युपगम्यते / न चाऽसौ प्रत्यक्षसमधिगम्य इति कुतस्तस्य सम्प्रति कारणत्वावगम इति न कारणानुपलम्भोऽपि तदभावनिश्चयहेतुः / व्यापकानुपलम्भेऽप्ययमेवन्यायः। यतो व्यापकत्वमपि पूर्वोक्तहेतु प्रति ज्ञातृव्यापारस्यैवाभ्युपगन्तव्यम्। अन्यथाऽन्यस्य व्यापकत्वे साध्यविपक्षाद् व्यापकनिवृत्तिद्वारेण निवर्त्तमानमपि साधनं न साध्यनियतं स्यात्। अथ यथा सत्त्वलक्षणो हेतुः क्षणिकत्वलक्षणसाध्यव्यतिरिक्तक्रमयोगपद्यस्वरूपपदार्थान्तरव्यापकनिवृत्तिद्वारेण, अक्षणिकलक्षणाद्विपक्षाव्यावर्त्तमानः स्वसाध्यनियतः, तथा प्रकृ तोऽपि हेतुर्भविष्यति / असम्यगेतत्। यतस्तत्रापि यद्यर्थक्रियालक्षणसत्त्वव्यापके क्रमयोगपद्ये कुतश्वित्प्रमाणातक्षणिके सिद्धे भवतस्तदा तन्निवृत्तिद्वारेण विपक्षात् व्यावर्त्तमानाऽपि सत्त्वलक्षणो हेतुः स्वसाध्यनियतः स्यात्। अन्यथा तत्र व्यापकवृत्त्यनिश्चये राश्यन्तरे क्षणिकाक्षणिकरूपे तस्याऽऽशङ्कयमानत्वेन तद्व्याप्यस्याऽपि नैकान्ततः क्षणिकनियतत्वनिश्चयः। न च प्रकृतसाध्येऽयं न्यायः। तस्यात्यन्तपरोक्षत्वेन हेतुव्यापकभावान्तराधिकरणत्वासिद्धेः तन्न व्यापकानुपलम्भनिमित्तोऽपि विपक्षे साधूनामावनिश्चयः / नाऽपि विरुद्धोपलब्धिनिमित्तः / प्रकृतसाध्यस्यात्यन्तपरोक्षत्वेन तदप्रतिपत्तौ तदभावनियतवि पक्षस्याप्यप्रतिपत्तितस्तेन सहार्थ-प्रकाशनलक्षस्य हेतोः सहानवस्थानलक्षणविरोधाऽसिद्धेः / पर-मपरपरिहारस्थितलक्षणस्तु विरोधोऽन्योन्यव्यवच्छेदरूपयोरर्थप्रकाशनाप्रकाशनयोः सम्भवति, न पुनरर्थप्रकाशनज्ञातृव्यापरोः अन्योऽन्यवच्छेदरूपत्वाभावात् / नापि ज्ञातृव्यापारनियतत्वादर्थप्रकाशनस्य साध्यविपक्षण विरोध इति शक्यमभिधातुम्। अन्योन्याऽऽश्रयदोषप्रसक्तेः / तथाहि-सिद्धे तन्नियतत्वे तद्विपक्षविरोधसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च तन्नियतत्वसिद्धिरिति स्पष्ट एवेतरेतराऽऽश्रयो दोषः / तन्न विरुद्धोपलब्धिनिमित्तोऽपि विपक्षे साधनाभावनिश्चयः / अथादर्शनशब्देनाभावाऽऽख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तममिधीयते। तदप्यनुपपन्नम्। तस्यतन्निमित्तत्वासंभवात्। तथाहि-निषेध्यविषयप्रमाणपशकस्वरूपतयाऽऽत्मनोऽपरिणामरूपं वा तदभ्युपगम्येत, तदन्यवस्तुविषयज्ञानरूपं वा? गत्यन्तराभावात् / तदुक्तम्-"प्रत्यक्षाऽऽदेरनुत्पत्तिः, प्रमाणाभाव उच्यते। साऽऽत्मनोऽपरिणामो वा, विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि / / 1 / / " तत्र यदि निषेध्यविषयप्रमाणपशकरूपत्वेनाऽऽत्मनोऽपरिणामलक्षणमभावाऽऽख्यप्रमाणं साधनाभावनियतसाध्याभावस्वरूपव्यतिरेकनिश्चयनिमित्तमित्यभ्युपगमः। सनयुक्तः। तस्य समुद्रोदकपलपरिमाणेनानैकान्तिकत्वात्। अथान्यवस्तुविषयविज्ञानस्वरूपमभावाऽऽख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमितमिति पक्षः / सोऽपि न युक्तः / विकल्पैरनुपपत्तेः तथाहि-किं तत्साध्यनियतसाधनस्यरूपादन्यद्वस्तु, यद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानमित्युच्यते ? यदि यथोक्तसाधनस्वरूपव्यतिरिक्त पदार्थान्तरं, तदा वक्तव्यम्-तदेकज्ञानसंसर्गि, साधनेन सह, उतान्यथेति? यदि यथोक्त साधनेनैकज्ञानसंसर्गि तदा तद्वि-षयज्ञानासिध्यति, यथोक्तसाधनस्याभावनिश्चयः प्रतिनियतविषयः। किंतु यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्रावश्यंतया साधनस्याप्यभाव इत्येवम्भूतो व्यतिरेकनिश्चयो न ततः सिद्ध्यति। सर्वोपसंहारेण साधनाभावनियतसाध्याभावनिश्चयस्य हेतोः साध्यनिय तत्वलक्षणनियमो निश्चायक इति नैकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भादभावाऽऽख्यात्प्रमाणाव्यतिरेकनिश्चयः / अथ तदसंसर्गि पदार्थान्तरोपलम्भस्वरूपमभावाऽऽख्यं प्रमाणं, साध्या भावे साधनाभावनिश्चयनिमित्तम्। तदप्यसंबद्धम्। अति प्रसङ्गात् / न हि पदार्थान्तरोपलम्भमात्रादन्यस्य तदतुल्ययोग्यतारूपस्य तेन सहकज्ञानासंसर्गिणः पदार्थान्तरस्याभावनिश्चयः / अन्यथा सह्योपलम्भाद्विन्ध्याभावनिश्चयः स्यात्। अथ तथाभूतसाधनादन्यस्तदभावः, तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं, तद्विपक्षे साधनाभावनिश्चयनिमित्तम्। ननु तदपि ज्ञानं किं यत्र यत्र साध्याभावस्तत्र तत्र साधनाभाव इत्येवं प्रवर्तते, उत कचिदेव साध्याभावे साधनाभाव इत्येवम् ? तत्र यद्याद्यः कल्पः। स न युक्तः। यथोक्तसाधनविविक्तसर्वप्रदेशकालप्रत्यक्षीकरणमन्तरेण एवम्भूतज्ञानोत्पत्त्यसंभवात् / Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण सर्वदेशप्रत्यक्षीकरणे च कालाऽऽदिविप्रकृष्टानन्तप्रदेशप्रत्यक्षीकरणवत्स्वभावाऽऽदिव्यवहितसर्वपदार्थसाक्षात्करणात्स एव सर्वदर्शी स्यादित्यनुमाऽऽनाश्रयण सर्वज्ञाभावप्रसाधनं चानुपपन्नम्। अथ द्वितीयपक्षाभ्युपगमः, तदा भवति ततः प्रतिनियतेप्रदेशे साध्याभावे साधनाभावनिश्चयः, घटविविक्तप्रत्यक्षप्रदेश इव घटाभावनिश्चयः, किं तु तथाभूतात्साध्याभावे साधनाभावनिश्चयान्न व्यतिरेको निश्चितो भवति। साधनाभावनियमसाध्याभावस्य सर्वोपसंहारेण निश्चये, व्यतिरेको निश्चितो भवति / अन्यथा यत्रैव साध्याभावे साधनाभावो न भवति तत्रैव साधनसद्भावेऽपिन साध्यमिति, न साधनं साध्यनियतं स्यादिति व्यतिरेकानश्चयनिमित्तो न हेतोः साध्यनियमनिश्चयः स्यात्। तन्न द्वितीयोऽपि पक्षः। अथ न प्रकृतसाधनाभावज्ञानं तद्विविक्तसमस्तप्रदेशोपलम्भनिमित्तं, येन पूर्वोक्तो दोषः, किं तु तद्विषयप्रमाणपञ्चकनिवृत्तिनिमित्तम्। तदुक्तम्- "प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपेनजायते। वस्त्वसत्ताऽवबोधार्थ, तत्राऽभावप्रमाणता ||1||" नन्वत्राऽपि वक्तव्यम्-किं सर्वदेशकालावस्थितसमस्तप्रमातृसंबन्धिनी तन्निवृत्तिः तथा भूतसाधनाभावज्ञाननिमित्तम्: उत प्रतिनियतदेशकालावस्थिताऽऽत्मसम्बन्धिनीति कल्पनाद्वयम् ? तत्र यद्याद्या कल्पना। सा न युक्ता। तथा भृतायास्तन्निवृत्तेरसिद्धत्वात् / नचासिद्धावपि तथाभूतज्ञाननिमित्तम्। अतिप्रसङ्गात् / सर्वस्यापि तथाभूतज्ञाननिमित्तं स्यात् / केनचित्सह प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावात्, अनभ्युपगमाच्च / न हि परेणाऽपि प्रमाणपञ्चकनिवृत्तेरसिद्धाया अभावज्ञाननिमित्तताऽभ्युपगता। कृतयत्नस्यैव प्रमाणपञ्चकनिवृत्तेरभावसाधनत्वप्रतिपादनात्। 'गत्या गत्वा तु तान् देशान् यद्यर्थो नोपलभ्यते / तदाऽन्यकारणाभावादसन्नित्यवगम्यते / / 1 // " इत्यभिधानात्। न चेन्द्रियाऽऽदिवदज्ञाताऽपि प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिरभावज्ञानं जनयिष्यतीति शक्यमभिधातुम् / प्रमाणपञ्चकनिवृत्तेस्तुच्छरूपत्वात् / न च तुच्छरूपाया जनकत्वम्। भावरूपताप्रसक्तेः। एवंलक्षणस्य भावत्वात्। तन्न सर्वसंबन्धिनी प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिर्विपक्षे साधनाभावनिश्चय-निबन्धनम्।नाऽप्यात्मसंबन्धिनी तन्निमित्तम्। यतः साऽपि कि तादात्विकी, अतीतानागतकालभवा वा? न पूर्वा / तस्या गङ्गा-पुलिनरेणुपरिसंख्यानेनानैकान्तिकत्वात्। नोत्तरा। तादात्यिकस्याऽऽत्मनस्तन्निवृत्तेरसंभवात्, असिद्धत्वाच्च / तन्न आत्मसंब-धिन्यपि प्रमाणपञ्चकनिवृत्तिस्तज्ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तम् / तन्न अन्यवस्तुविज्ञानलक्षणमप्यभावाऽऽख्यं प्रमाणं व्यतिरेकनिश्चयनिमित्तम्।यच्च- ''गृहीत्या वस्तुसद्भाव, स्मृत्वा च प्रतियोगिनम्। मानसं नास्तिताज्ञानं, जायतेऽक्षानपेक्षया / / 1 / / " इत्यभावप्रमाणोत्पत्तौ निमित्तप्रतिपादनम् / तत्र कि वस्त्वन्तरस्य प्रतियोगिसंसृष्टस्य ग्रहणम्, आहोस्वित् असंसृष्टस्य ? तत्र यद्याद्यः पक्षः। सन युक्तः। प्रतियोगिसंसृष्ट्वस्त्वन्तरस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणे, प्रति-योगिनः प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरे ग्रहणात्, नाभावाऽऽख्यप्रमाणस्य तत्र तदभावग्राहकत्वेन प्रवृत्तिः / प्रवृत्तौ वा प्रतियोगिसत्त्वेऽपि तदभाव ग्राहकत्वेन प्रवत्तेर्विपर्ययः / तत्त्वान्न प्रामाण्यम्। अथ प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणम्, तदा प्रत्यक्षेणैव प्रतियोभ्यभावस्य गृहीतत्वात्तत्राभावा ऽऽख्य प्रमाण प्रवर्तमान व्यर्थम् / अथ प्रतियोग्यसंसृष्टताऽवगमो वस्त्वन्तरस्याभावप्रमाणसंपाद्यः; तर्हि तदप्यभावाख्यं प्रमाण प्रतियोग्यसंसृष्टवस्त्वन्तरग्रहणे सति प्रवर्तते। तदसंसृष्टताऽवगमश्च पुनरप्यभावप्रमाणसंपाद्य इत्यनवस्था / तथा प्रतियोगिनोऽपि स्मरणं किं वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य, अथाऽसंसृष्टस्य? यदि संसृष्टस्य, तदा नाभावप्रमाणप्रवृत्तिरिति पूर्ववद्वाच्यम्। अथासंसृष्टस्य स्मरणम्। ननु प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरासंसृष्टस्य प्रतियोगिनो ग्रहणे, तथाभूतस्य तस्य स्मरणं, नान्यथा / प्रत्यक्षेण च पूर्वप्रवृत्तेन वस्त्वन्तरासंसृष्टप्रतियोगिग्रहणे पुनरप्यभावप्रमाणपरिकल्पनं व्यर्थम् 'वस्त्वसङ्करसिद्धिश्च, तत्प्रामाण्यसमाश्रया।'' इत्यभिधानात्तदर्थं तस्य परिकल्पनम् तच्च प्रत्यक्षेणैव कृतमिति तस्य व्यर्थता / अथात्राप्यभावप्रमाणसंपाद्यः प्रतियो-गिनो वस्त्वन्तरासंसृष्टताग्रहः, तर्हि तथाभूतप्रतियोगिग्रहणे तथा-भूतस्य स्मरणं, तत्सद्भावे चाभावप्रमाणवृत्तिः, तत्प्रवृत्तौ च तस्यासंसृष्टताग्रहः, तदग्रहे च स्मरणमित्येवं चक्रकचोद्यं भवन्तमनुबध्नाति / नाऽपि वस्तुमात्रस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणमित्यभिधातुं शक्यम्। तथाऽभ्युपगमे, तस्य वस्त्वन्तरत्वासिद्धेः / प्रतियोगिनोऽपि प्रतियोगित्वस्येतिन प्रतियोगिनो नियत रूपस्यस्मरणमिति सुतरामभावप्रमाणोत्पत्त्यभावः। किं च-यदि, अभावाऽऽख्यं प्रमाणमभावग्राहकमभ्युपगम्यते; तदा तमेव प्रतिपादयतु: प्रतियोगिनस्तु निवृत्तिः कथं तेन प्रतिपादिता स्यात् ? अथाऽभावप्रतिपत्तौ तन्निवृत्तिप्रतिपत्तिः / ननु साऽपि निवृत्तिः प्रतियोगि-स्वरूपा संस्पर्शिनी ततश्च तत्प्रतिपत्तौ, पुनरपि कथं प्रतियोगिनिवृत्तिसिद्धिः? तन्निवृत्तिसिद्धेरपरतन्निवृत्तिसिद्ध्यभ्युपगमे, अपरा तन्नि वृत्तिस्तथाऽभ्युपगमनीयेत्यनवस्था / किं च-अभावप्रतिपत्तौ प्रतियोगिस्वरूप किमनुवर्तते, व्यावर्त्तते वा ? अनुवृत्तौ, कथं प्रतियोगिनोऽभावः ? व्यावृत्तौ, कथ प्रतिषेधः प्रतिपादयितुं शक्यः ? तद्विविक्तप्रतिपत्तेस्तत्प्रतिषेध इति चेन्न। तदप्रतिभासने तद्विविक्तताया एव प्रतिपत्तुमशक्तेः प्रतियोगिप्रतिभासात् नायं दोष इति चेत् / क्व तर्हि वि ज्ञाने तस्य प्रतिभासः ? यदि प्रत्यक्षे।नयुक्तः। तत्सद्भावसिद्ध्या तन्निवृत्त्यसिद्धेः / स्मरणे तस्य प्रतिभास इति चेन्न / तत्राऽपि येन रूपेण प्रतिभाति, न तेनाभावः; येन न प्रतिभाति न तेन निषेधः; तदेवं यदि प्रतियोगिस्वरूपादन्योऽभावः, तथाऽपि तत्प्रतिपत्तौ न तन्निवृत्तिसिद्धिः / अनन्यत्वेऽपि तत्प्रतिपत्तौ प्रतियोगिनः प्रतिपन्नत्वात् न निषेधः / अपि चतदभावाऽऽख्यं प्रमाण निश्चितं सत्, प्रकृताभावनिश्चयनिमित्तत्वेनाभ्युपगम्यते, आहोस्वित् अनिश्चितमिति विकल्पद्वयम् ? यद्यनिश्चितमिति पक्षः। स न युक्तः / स्वयमव्यवस्थितस्य खरविषाणाऽऽदेरिव अन्यनिश्वायकत्वायोगात्। इन्द्रियाऽऽदेस्त्वनिश्चित स्यापि रूपाऽऽदिज्ञानं प्रति कारणत्वात् निश्चायकत्वंयुक्तम् न पुनरभावप्रमाणस्य। तस्यापरज्ञानं प्रति कारणत्वासम्भवात्। तदसम्भवश्व, प्रमाणाभावात्मऽऽकत्वेनावस्तुत्वात् / वस्तुत्वेऽपि, तस्यैव प्रमेयाभावनिश्चयरूपत्वेनाभ्युपगमाहत्वात् / नाऽपि द्वितीयः पक्षः / यतस्तन्निश्चयोऽन्यस्मादभावाऽऽख्यात्प्रमाणादभ्युपगम्येत; प्रमेयाभावाद्वा? तत्र यदि प्रथमः Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण पक्षः / स न युक्तः। अनवस्थाप्रसङ्गात्। तथाहि-अभावप्रमाणस्याभावप्रमाणानिश्चितस्याऽभावनिश्वायकत्वं, तस्याप्यन्याभावप्रमाणादित्यनवस्था। अथ प्रमेयाभावात्तन्निश्चयः। सोऽपि न युक्तः / इतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसङ्गात्। तथाहि-प्रमेयाभावानेश्चयात् प्रमाणाभावनिश्चयः, सोऽपि प्रमाणाभावनिश्चयादिति इतरेतराश्रयत्वम्। नाऽपि स्वसंवेदनात्प्रमाणाभावनिश्चयः / तस्य भवताऽनभ्युपगमात् तन्न अभावाऽऽख्यं प्रमाणं सम्भवति। सम्भवेऽपि न तत्प्रमाणचिन्ताऽहमिति प्रतिपादितम्। प्रतिपादयिष्यते च प्रमाणचिन्ताऽवसरे अत्रैव / तन्नाभावप्रमाणादपि विपक्षे साधनाभावनिश्चयः / अतो न अदर्शननिमित्तोऽपि प्रकृतव्यतिरेकनिश्चयः / तदभावात् न प्रकृतसाद्ध्ये प्रकृतहेतोर्नियमलक्षणसम्बन्धनिश्चयः / न चान्वयव्यतिरेकनिश्चयव्यतिरेकेणान्यतः कुतश्चित् तन्निश्चयः। नियमलक्षणस्य संबन्धस्य यथोक्तान्वयव्यतिरेकवयतिरेकेणासम्भवात् / तथाहि-य एव साधनस्य साध्यसद्भावे एव भावः, अयमेव तस्य साध्ये नियमः / साध्याभावे साधनस्यावश्यंतयाऽभाव एव यः, अयमेव वा तस्य तत्र नियमः। अतो यदेवान्वयव्यतिरेकयोर्यथोक्तलक्षणयोर्निश्चायकं प्रमाणं तदेव नियमस्वरूपसम्बन्धनिश्चायकम्। तन्निश्चायकं च प्रकृतसाध्यसाधने हेतोर्न सम्भवतीति प्रतिपादितम् / तन्नानुमानादपि ज्ञातृव्यापारलक्षणप्रमाणसिद्धिः। अथाऽपि स्याद्, बाहोषु कार-केषु व्यापारवत्सु फलं दृष्टम्, अन्यथा सिद्धिस्वभावानां कारकाणामेकं धात्वर्थ साध्यमनङ्गीकृत्य कः परस्परसम्बन्धः, अत-स्तदन्तरालवर्तिनी सकलकारकनिष्पाद्याऽभिमतफलजनिका व्यापारस्वरूपा क्रियाऽभ्युपगन्तव्या, इति प्रकृतेऽपि व्यापारसिद्धिरिति। एतदसम्बद्धम्। विकल्पानुपपत्तेः / तथाहि-व्यापारोऽभ्युपगम्यमानः, किं कारकजन्योऽभ्युपगम्यते, आहोस्वित् अजन्य इति विकल्पद्वयम्? तत्र यद्यजन्य इति पक्षः। सोऽयुक्तः। यतोऽजन्योऽपि किं भावरूपोऽभ्युपगम्यते, आहोस्विद् अभाव-रूपः ? यद्यभावरूप इत्यभ्युपगमः / सोऽप्ययुक्तः। यतोऽभावरूपत्वे तस्यार्थप्रकाशलक्षणफलजनकत्वं न स्यात् / तस्य फलजनकत्वविरोधात्। अविरोधेवा, फलार्थिनः कारकान्वेषणं व्यर्थ स्यात् / तत एवाभिमतफलनिष्पत्तेर्विश्वमदरिद्रं च स्यात् / तन्नाभावरूपो व्यापारोऽभ्युपगन्तव्यः अथ भावरूपोऽभ्युपगमविषयः। तदाऽत्राऽपि वक्तव्यम्। किमसौ नित्यः, आहोस्वित् अनित्य इति? तत्र यदि नित्य इतिपक्ष / सोऽसङ्गतः। नित्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमेऽन्धाऽऽदीनामप्यर्थदर्शनप्रसङ्गः, सुप्ताऽऽद्यभावः, सर्वसर्वज्ञताभावप्रसङ्गश्व / कारकान्वेषणवैयर्थ्य तु व्यक्तम् / अथाऽनित्यइत्यभ्युपगमः / सोऽप्यलौकिकः। अजन्यस्य भावस्याऽनित्यत्वेन केनचिदभ्युपगमात्। अथ वदेन्मयैवाभ्युपगतः / तत्रापि वक्तव्यम्। किं कालान्तरस्थायी, उत क्षणिकः ? यदि कालान्तरस्थायी, तदा 'क्षणिका हि सा न कालान्तरमवतिष्ठते'' इति वचः पनरिप्तवेत। कारकान्वेषणं चात्राऽपि पक्षे, फलार्थिनामसङ्गतम्। कियत्कालस्थाय्यजन्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमे, तत्कालं यावत्तत्फलस्याऽपि निष्पत्तेः, आव्यापार विनाशमर्थप्रकाशलक्षणकार्यसद्भावादन्धत्वमूर्जाऽऽदीनामभावः स्यात्। अथ क्षणिक इति पक्षः। सोऽपि न युक्तः / क्षणानन्तरं व्यापारासत्त्वेनार्थप्रतिभासाभावात् / अपगतार्थप्रतिभासं सर्वं जगत् स्यात् / अथ स्वत एव द्वितीयाऽऽदिक्षणेषु व्यापारोत्पत्ते यं दोषः। अजन्यत्वं तु तस्यापरकारकजन्यत्वाभावेन। नैतदस्ति। कारकानायत्तस्य देशकालस्वरूपप्रतिनियमाभावस्वभावतायाः प्रतिपादनात् / किं च-अनवरतक्षणिकाजन्यव्यापाराभ्युपगमे, तज्जन्यार्थप्रतिभासस्यापि तथैव भावात् सुप्ताऽद्यभावदोषस्तदवस्थः / तन्नाजन्यव्यापाराभ्युपगमः श्रेयान्। अथ जन्यो व्यापार इतिपक्षः कक्षीक्रियते। तदाऽत्रापि विकल्पद्वयम्-किमसौ जन्यो व्यापारः क्रियाऽऽत्मकः, उत तदनात्मक इति? तत्र यदि प्रथमः पक्षः। सन युक्तः / अत्रापि विकल्पद्वयानतिवृत्तेः तथाहि साऽपि क्रिया किं स्पन्दाऽऽत्मिका, उत अस्पन्दाऽऽत्मिका? यदि स्पन्दाऽऽत्मिका। तदाऽऽत्मनो निश्चलत्वादन्येषां कारकाणां व्यापारसद्भावेऽपि व्यापारो न स्यात्, यदर्थोऽयं प्रयासः; तदेवेत्युक्तं भवतैवमभ्युपगच्छता। अथापरिस्पन्दात्मिका क्रिया व्यापारस्वभावा / न / तथाभूतायाः परिस्पन्दाभावरूपतया फलजनकत्वायोगात्, अभावस्य जनकत्वविरोधात् / न च क्रिया कारणफलापान्तरालवर्तिनी परिस्पन्दस्वभावा,तद्विपरीतस्वभावा वा प्रमाणगोचरचारिणीति न तस्याः सव्यवहारविषयत्वमभ्युपगन्तुं युक्तमिति न क्रियात्मको व्यापारः / नापि तदनात्मको व्यापारोऽङ्गीकर्तुं युक्तः। तत्राऽपि विकल्पद्वयप्रवृत्तेः। तथाहि-किमसावक्रियात्मको व्यापारो बोधस्वरूपः, अबोधस्वभावो वा? यदि बोधस्वरूपः; प्रमातृवन्न प्रमाणान्तरगम्यताऽभ्युपगन्तुंयुक्ता। अथाबोधस्वभावः नायमपि पक्षः / बोधाऽऽत्मकज्ञातृव्यापारस्याबोधाऽऽत्मकत्वासंभवात्। न हि चिद्रूपस्याचिद्रूपो व्यापारो युक्तः। जानातीति च ज्ञातृव्यापारस्य बोधाऽऽल्मकस्यैवाभिधानात् / तन्न अबोधस्वभावोऽपि व्यापारः / किं च-असौ ज्ञातृव्यापारो धर्मिस्वभावः, उत धर्मस्वभाव इति पुनरपि कल्पनाद्वयम् ? धर्मिस्वरूपत्वे, ज्ञातृवन्न प्रमाणान्तरगम्यत्वमित्युक्तम् / धर्मस्वभावत्वेऽपि, धमिणो ज्ञातुर्व्यतिरिक्तो व्यापारः, अव्यतिरिक्तः, उभयम्, अनुभयम् इति चत्वारो विकल्पाः। न तावदव्यतिरिक्तः। तत्त्वे, संबन्धाभावेन ज्ञातुर्व्यापार इतिव्यपदेशायोगात्। अव्यतिरिक्ते, ज्ञातैव; तत्स्वरूपवनापरो व्यापारः। उभयपक्षस्तु, विरोधमपरिहृत्य नाभ्युपगमनीयः। अनुभयपक्षस्तु, अन्योऽन्यव्यवचछेदरूपाणामेकविधानेनापरनिषेधादयुक्त इति प्रतिपादितम्। किं च-व्यापारस्य कारकजन्यत्वाभ्युपगमे, तज्जनने प्रवर्त्तमाननि कारकाणि किमपरव्यापारभाञ्जि प्रवर्त्तन्ते, उत तन्निरपेक्षाणीति विकल्पद्वयम् यद्याद्यो विकल्पः, तदा तद्व्यापारजननेऽपि, तैरपरव्यापारभाग्भिः प्रवर्तितव्यम्; तजननेऽप्यपरव्यापारयुग्भिः प्रवर्तितव्यमित्यनवस्थितेर्न फलजननव्यापारोद्भूतिरिति तत्फलस्याप्यनुत्पत्तिप्रसंङ्गात् न व्यापारपरिकल्पनं श्रेयः। अथ अपरव्यापारमन्तरेणाऽपि फलजनकव्यापारजनने प्रवर्तन्ते, नायं दोषः, तर्हि प्रकृतव्यापारमन्तरेणाऽपि फलजनने प्रवर्तिष्यन्त इति किमनुपलभ्यमानव्यापारकल्पनप्रयासेन ? किं च-असौ व्यापारः फलजनने प्रवर्त्तमानः किमपरव्यापारसव्यपेक्षः, अथ निरपेक्ष इत्यत्रापि कल्पनाद्वयम ? तत्र यदयाद्या कल्पना। सा न युक्ता / अपरापरव्यापारजननक्षीणशक्तित्वेन व्यापारस्याऽपि फलजनकत्वायोगात् / अथ व्यापारन्तरानपेक्ष एव फलजनने प्रवर्तते, तर्हि कारकाणामपि व्यापारजनननिरपेक्षाणां फलजनने प्रवृत्तौ, न कश्चिच्छक्तिव्याधातः Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण सम्भाव्यते / अथ व्यापारस्य व्यापारस्वरूपत्वान्नापरव्यापारापेक्षः; संबन्धिनस्तु, अनैकान्तिकत्वादिति नाऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चयः / कारकाणां त्वव्यापाररूपत्वात्तदपेक्षा का पुनरियं व्यापारस्य व्यापार- | किं च-अर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थानुभूयमानतालक्षणस्यार्थधर्मस्य य एव स्वभावता? यदि फलजनकत्वं; तद्विहितप्रतिक्रियम्। अथ कारकाऽऽ- स्वप्रकल्प्यार्थाभावेऽवश्यन्तयाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चयः, स एव श्रितत्वम् / तदपि भिन्नस्य, तज्जन्यत्त्वं विहाय, न संभवतीत्युक्तम्। अथ स्वप्रकल्प्यार्थसद्भाव एवोपपद्यमानत्वनिश्चय इत्यर्थापत्त्युत्थापकस्याकारकपरतन्त्रत्वम्। तदपि न। अनुत्पन्नस्याऽसत्त्वात्। नाऽप्युत्पन्नस्य। र्थस्य, स्वसाध्यानुमापकस्य च लिङ्गस्य, न कश्चिद्विशेष इत्यनुमानअन्यानपेक्षत्वात्। तथाऽपि तत्परतन्त्रत्वे, कारकाणामपि व्यापारपर- निरासेऽर्थापत्तेरपि निरासः कृत एवेति नार्थापत्तेरपि ज्ञातृव्यापारलक्षणतन्त्रता स्यात् / अथैवं पर्यनुयोगः सर्वभावप्रतिनियतस्वभावव्यावर्तक प्रमाणनिश्चायकत्वम् / येऽपि संवित्त्याख्यं फलं ज्ञातृव्यापारसद्भावे इत्ययुक्तः। तथाहि-एवमपि पर्यनुयोगः सम्भवति: वहेर्दाहकस्वभावत्वे सामान्यतो दृष्ट लिङ्गमाहुः। तन्मतमप्यसम्यक्ा यतः संवेदनाऽऽख्यस्य आकाशस्याऽपि स स्यात्; इतरथा वह्वेरपिसनस्यादिति। स्यादेतद्यदि लिङ्गस्य किमर्थप्रतिभासस्वभावत्वम्, उततद्विपरीतत्वमिति कल्पनाप्रत्यक्षसिद्धो व्यापारस्वभावो भवेत्। स च न तथेति प्रतिपादितम् / तत द्वयम् ? तत्राऽर्थप्रतिभासस्वभावत्वेऽपि किमपरेण ज्ञातृव्यापारण एवोक्तम्- "स्वभावेऽध्यक्षतः सिद्धे, यदि पर्यनुयुज्यते / तत्रोत्तरमिद कथितेन, इति वक्तव्यम् / तदुत्पत्तिस्तेन विना न सम्भवतीति चेन्न / युक्तं, न दृष्टेऽनुपपन्नता॥१॥" तन्न तत्र व्यापारो नाम कश्चिद् यथाऽभ्युप- इन्द्रियाऽऽदेस्तदुत्पादकस्य सद्भावाद्ययं तत्परिकल्पनम्। क्रियामन्तरेण गतः परैः / अथानुमानग्राह्यत्वे स्यादयं दोषः; अत एवार्थापत्तिसमधि- कारककलापात्फलाऽनिष्पत्तेः तत्कल्पनेति चेत् / नन्विन्द्रियाऽऽदिगम्यता तस्याऽभ्युपगता / ननु दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत सामग्यस्य व व्यापार इति वक्तव्यम् ? क्रियोत्पत्ताविति चेत् / साऽपि इत्यदृष्टकल्पनाऽपत्तिः तत्र कः पुनरसौ भावो व्यापारव्यतिरेकेण क्रिया, क्रियान्तरमन्तरेण कथं कारककलापादुपजायते इति पुनरपि नोपपद्यते, यो व्यापार कल्पयति? अर्थ इति चेत् / का पुनरस्य तेन त- देव चोद्यम् / क्रियान्तरकल्पनेऽनवस्था प्राक् प्रतिपादितैव / तविनाऽनुपपद्यमानता ? नोत्पत्तिः; स्वहेतुतस्तस्याः भावात् / किं च- नार्थप्रतिभासस्वभावत्वेऽन्यो व्यापारः कल्पनीयः। निष्प्रयोजनत्वाद्। असावर्थः किमेकज्ञातृव्यापारमन्तरेण नुपपद्यमानस्तं कल्पयति, उत अथ द्वितीया कल्पनाऽभ्युपगम्यते। साऽपि न युक्ता / यतोऽर्थस्य संवेदनं सर्वज्ञातृव्यापारमन्तरेणेति वक्तव्यम् ? तत्र यदि सकलज्ञातृव्यापार- तद्भवत्ज्ञातृव्यापारलिङ्गता समासादयति। सा च तद संवेदनस्वभावस्य मन्तरेणेति पक्षः। तस्न्धानामपि रूपदर्शन स्यात; तद्व्यापारमन्त- कथं सङ्गता? शेषंतु पूर्वमेव निर्णीतमितिनपुनरुच्यते। किंच-अर्थप्रतिरेणार्थाभावात् सर्वज्ञताप्रसङ्गश्च / अथैकज्ञातृव्यापारमन्तरेणानुपपत्तिः भासस्वभावं संवेदनं ज्ञान, ज्ञाता, तद्व्यापारश्च बोधाऽऽत्मकः तर्हि यावदर्थसद्धावस्तावत्तस्यार्थदर्शनमिति सुप्ताऽऽद्यभावः / अथार्थ- नैतत्त्रितयं क्वचिदपि प्रतिभाति। अथघटमहं जानामीति प्रतिपत्तिरस्ति, धर्मोऽर्थप्रकाशतालक्षणो व्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानस्तंकल्पयति। ननु न येषा निह्रोतुं शक्या, नाऽप्यस्याः किञ्चिद्भाधकमुपलभ्यतेः; तत्कथं न साऽप्यर्थप्रकाशताऽर्थधर्मो, यद्यर्थ एव; तदाऽर्थपक्षोक्तो दोषः / अथ त्रितयसद्भावः? तथाहि-अहमिति ज्ञातुः प्रतिभासो, जानामीति तद्व्यतिरिक्तः। तदा तस्य स्वरूपं वक्तव्यम्? तस्याऽनुभूयमानता सा संवेदनम्य, घटमिति प्रत्यक्षस्यार्थस्य, व्यापारस्य त्वपरस्य प्रमाणाइति चेत न। पर्यायमात्रमेतत्, नतत्स्वरूपप्रतिपत्तिः, इति स एव प्रश्रः / न्तरतः प्रतिपत्तिरित्यभ्युपगमः / अयुक्तमेतत्। यतः कल्पनोद्-भूतशब्दकिं च-प्रकाशोऽनुभवश्व ज्ञानमेव, तदनवगमे तत्कर्मतायाः सुतरामनवगम मात्रमेत, न पुनरेष वस्तुत्रयप्रतिभासः / अत एवोक्त-माचार्येणइत्यर्थप्रकाशताऽनुभूयमानते स्वरूपेणानवगते, कथं ज्ञातृव्यापार- "एकमेवेदं संविद्रूपं हर्षविषादाऽऽद्यनेकाऽऽकारविवर्त समुत्पश्यामस्तत्र परिकल्पिके ? किं च-अर्थप्रकाशतालक्षणोऽर्थधर्मोऽन्यथाऽनुपपन्न- यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम् / किं च-व्यापारनिमित्ते कारकसंबन्धे त्वेनानिश्चितस्तं कल्पयति, अहोस्विनिश्चित इति ? तत्र यद्यानः कल्पः। विकल्पद्वयम्-किं पूर्व व्यापारः, पश्चात् संबन्धः; उत पूर्व संबन्धः, स न युक्तः / अतिप्रसङ्गात् / तथाहि-यद्यनिश्चितोऽपि तथात्वेन स तं पश्चाद्व्यापारः? पूर्वस्मिन् पक्षे न व्यापारार्थः संबन्धः / पूर्वमेव परिकल्पयति, तथा येन विनाऽपि स उपपद्यतेतमपि किं न कल्पयति? व्यापारसद्भावात् / उत्तरस्मिन् पुनर्विकल्पद्वयम्-संबन्धे सति किं विशेषाभावात्। अथाऽनिश्चितोऽपितेन विनाऽनुप-पद्यमानत्येन निश्चितः परस्परसापेक्षाणां। स्वव्यापार-कर्तृत्वम्, उत निरपेक्षाणाम् ? सापेक्षत्वे स तं परिकल्पयति, तर्हि लिङ्गस्याऽपि नियतत्वेनानिश्चितस्याऽपि स्वव्यापारकर्तृत्वानुपपत्तिः / अनेकजन्यत्वात्तस्य। निरपेक्षत्वे किं मीलनेनः स्वसाध्यगमकत्वं स्यात् / तथा चार्थापत्तिरेव परोक्षार्थनिश्चायिका, ततश्च संसर्गावस्थायामपि स्वव्यापारकरणादनवरत-फलसिद्धिः। न चैतत् नाऽनुमानमिति षट्प्रमाणवादाभ्युपगमो विशीर्येत। अथान्यथाऽनुपपद्य- दृष्टमिष्ट वा / तन्न युक्तं व्यापारस्याप्रतीयमानस्य कल्पनम् / कोऽह्यन्यथा मानत्वेन निश्चितः स धर्मस्तं परिकल्पयति, तदा वक्तव्यम्-क्व तस्याऽ- संभवति फलेऽप्रतीयमानकल्पनेनाऽऽत्मानमायासयति ? अन्यथा न्यथाऽनुपपन्नत्वनिश्चयः? यदि दृष्टान्तधर्मिणि, तदा लिङ्गस्याऽपि तत्र संभवश्च, इन्द्रियाऽऽदिषु सत्सु फलस्य प्रागेव दर्शितः / इन्द्रियाऽ5नियतत्वनिश्चयोऽस्तीत्यनुमानमेवार्थापत्तिः स्यात् / एवं चार्थाप- देस्तवाभ्युपगमनीयत्वात् / इतोऽपि सेवेदनाऽऽख्यं फलमपरोक्ष त्तिरनुमानेऽन्तर्भूतेति पुनरपि प्रमाणषट्काभ्युपगमो विशीर्येत / अथ व्यापाराऽनुमापकमयुक्तम् / स्वदर्शनव्याघातप्रसक्तेः / तथाहि भवता साध्यधर्मिणि, तन्निश्चय इत्यनुमानात्पृथगर्थापत्तिः / तदाऽत्रापि शून्यवादपरतःप्रामाण्यप्रसक्तिभयात् स्मृतिप्रमोषोऽभ्युपगतः / वक्तव्यम्-कुतः प्रमाणात्तस्यतन्निश्चयः ? यदि विपक्षेऽनुपलाभात्। तत्र विपरीतख्यातौ, तयोरवश्यंभावित्वात्। तथाहि-तस्यामन्यदेशकालोऽर्ययुक्तम् / सर्वसंबन्धितोऽनुपलम्भस्यासिद्धत्वप्रतिपादनात; आत्म- | स्तद्देशकालयोरसन् प्रतिभातिानचतद्देशऽऽद्यसत्त्वस्थाव्यन्तासत्त्वस्य चा Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 470 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण ऽसत्प्रतिभासे कश्चिद्विशेषः / यथाऽन्यदेशाऽऽद्यवस्थितमाकारं कुतश्चिद् भमनिमित्तात् ज्ञानं दर्शयति, तथाऽविद्यावशादत्यन्तासन्तमपि किन दर्शयति? तथा च कथं शून्यवादान्मुक्तिः? तथा परतः प्रामाण्यमपि मिथ्यात्वाऽऽशङ्कायां कस्य चित् ज्ञानस्य बाधकाभावान्वेषणाद्वक्तव्यम् / तदन्वेषणे च सापेक्षत्वं प्रमाणानामपरिहार्य विपरीतख्यातौ / ततो न कस्यचित् ज्ञानस्य मिथ्यात्वं तदभावान्नान्यदेशकालाकारार्थप्रतिभासो, नाऽपि बाधकाभावापेक्षा / भ्रान्ताभिमतेषु तु तथा व्यपदेशः, स्मृतिप्रमोषात्। तथाहि-इदं रजतमिति प्रतीताविदमितिपुरो व्यवस्थितार्थमतिभासं, रजतमिति पूर्वावगतरजतस्मरणं, सादृश्याऽऽदेः कुतश्चिन्निमित्तात्, तचच्स्मरणमपि, स्वरूपेण नाऽवभासते इति स्मृतिप्रमोष उच्यते / यत्र स्मरामीतिप्रत्ययस्तत्र स्मृतेरप्रमोषः, यत्र स्मृतित्वेऽपि स्मरामीति रूपाप्रवेदनं कुतश्चिद् कारणात, स्मृतिप्रमोषाऽभिधीयते / अस्मिन्मते रजतमिति यत्फलसंवेदनं; तत्किं प्रत्यक्षफलस्य सतः, किं वा स्मृतेः? यदि प्रत्यक्षफलस्य; तदा यथेदमिति प्रत्यक्षफलं प्रतिभाति, तथा रजतमित्यपि; ततश्च तुल्ये प्रतिभासे, एकं प्रत्यक्षम्, अपरं स्मरणमिति किं कृतो विशेषः ? अथोक्तं स्मरणस्याऽपि सतस्तद्रूपानवगमात्तेनाऽऽकारेणावगमः। तत्किं रजमित्यत्राप्रतिपत्तिरेव, तस्यां चाऽभ्युपगम्यमानायां कथं स्मृतिप्रमोषः ? अन्यथा मूछाद्यवस्थायामपि स्यात् / अथेदमिति तत्र प्रत्ययाभावान्नाऽसौ। नन्विदमित्यत्राऽपि वक्तव्यं; किमा-भाति? पुरोऽवस्थितं शुक्तिशकलमिति चेत्। ननु किं प्रतिभासमानत्वेन तत्तत्र प्रतिभाति, उत सन्निहितत्वेन ? प्रतिभासमानत्येन तथाभ्युपगमे, न स्मृतिप्रमोषः / शुक्तिकाशकले हि स्वगतधर्मविशिष्ट प्रतिभा समाने, कुतो रजतस्मरणसंभावना ? न हि घटग्रहणे पटस्मरणसंभवः / अथ शुक्तिकार जतयोः सादृश्यात् शुक्तिप्रतिभासे रजतस्मरणम् / न / तस्य विद्यमानत्वेऽप्यकिञ्चित्करत्वात् / यदाह्यसाधारणधर्माध्यासितं शुक्तिस्वरूपंप्रतिभाति, तदा कथं सदृशवस्तुस्मरणम् ? अन्यथा सर्वत्र स्यात् / सामान्यमात्रग्रहणे हि तत्कदाचिद्भवेदपि; नासाधारणस्वरूपप्रतिभासेतन्नेदमित्यत्र शुक्तिकाशकलस्य प्रतिभासनात्तथाव्यपदेशः। सन्निहितत्वेनाप्रतिभासमानस्याऽपितद्विषयत्वाभ्युपगमे, इन्द्रियसंबद्धानां तद्देशवर्तिनामण्वादीनामपि प्रतिभासः स्यात्। न चाऽप्रतिभासमानामिन्द्रियाऽऽदीनामिव प्रतीतिजनकानामपि तद्विषयता सङ्गच्छते / तन्नेदमित्यत्र शुक्तिकाशकलप्रतिभासः / नापि रजतमित्यत्र स्मृतित्वेऽपि तस्याः स्वरूपेणाऽनवगमात्प्रमोष इत्यभ्युपगमो युक्तः। अथ स्मृतिरप्यनुभवत्वेन प्रतिभातीति तत्प्रमोषोऽभ्युपगम्यते / नन्वेव सैव शून्यवादपरतःप्रामाण्यभयादनभ्युपगम्यमाना विपरीतख्यातिरापतिता। न चात्रा प्रतिपत्तिरेव / रजतमित्येवं स्मरणस्यानुभवस्य वा प्रतिभासनात् // इदमदम्पर्यम्-अर्थसंवेदनमपरोक्ष सामान्यतो दृष्ट लिङ्गं यदि ज्ञातृव्यापारानुमापकमभ्युपगम्यते, तदा स्मृतिप्रमोषे रजतमित्यत्र संवेदनम्, उतासंवदेनम् ? प्रतिभासोत्पत्तेः संवेदनेऽपि, रजतमनुभूयमानतया न संवेद्यते। स्मृतिप्रमोषाभावप्रसङ्गात्। नाऽपि स्मर्यमाणतया। प्रमोषाभ्युपगमात्। विपरीतख्यातिस्तुनाभ्युपगम्यते। तद्रजतभित्यत्र संवेदनस्यापरोक्षत्वाभ्युपगमेऽपि,प्रतिभासाभावः प्रसक्तः। किंच-स्मृतिप्रमोषः पूर्वोक्तदोषद्वयभयादभ्यपगतः; तच तदभ्यु पगमेऽपि समानम्। तथाहि-सम्यग्रजतप्रतिभासेऽपि आशङ्कोत्पद्यतेकिमेष स्मृतावपि स्मृतिप्रमोषः, उत सम्यगनुभव इति सापेक्षत्वाद्वाधकान्वेषणे परतः प्रमाण्यम् ? तत्र च भवन्मतेनानवस्था प्रदर्शितैव। यत्र हि स्मृतिप्रमोषस्तत्रोत्तरकालभावी बाधकप्रत्ययो, यत्र तु तदभावस्तर स्मृतिप्रमोषासंभव इति कथं न बाधकाभावापेक्षायां परतः प्रामाण्य - दोषभयस्यावकाशः ? शून्यवाददोषभयमपि स्मृतिप्रमोषाभ्युपगमेऽवश्यंभावि / तथा हि-ध्वस्तश्रीहर्षाऽऽद्याकारोऽनुत्पन्नशङ्खचक्रवाद्याकारश्च ज्ञाने यः प्रतिभाति, सोऽवश्यं ज्ञानरचितोऽसत्प्रतिभाति / रजताऽऽदिस्मृतेरप्यसन्निहितरजताऽऽकारप्रतिभासस्वभावत्वात्तत्सत्यं तदुत्पत्तावसन्निहितं नोपयुज्यत इति असदर्थविषयत्वे ज्ञानस्य, कथं शून्यवादभयाद्भवतः स्मृतिप्रमोषवादिनो मुक्तिः ? तन्न स्मृतिप्रमोषः। कश्वायं स्मृतिप्रमोषः-किं स्मृतेरभावः, उतान्यावभासः, आहोस्वित् अन्याऽऽकारवेदित्वामिति विकल्पाः? तत्र नासौ स्मृतेरभावः / प्रतिभासाभावप्रसङ्गात् / अथान्यावभासोऽसौ / तदाऽत्राऽपि वक्तव्यम्-किं तत्कालोऽन्यावभासोऽसौ, अथोत्तरकालभावी ? यदि तत्कालभावी अन्यावभासः स्मृतेः प्रमोषः,तदाघटाऽऽदिज्ञानं तत्कालभावि तस्याः प्रमोषः स्यात् / अथोत्तरकालभाव्यसौ तस्याः प्रमोषः / तदप्ययुक्तम्। अतिप्रसङ्गात्। यदि नामोत्तरकालमन्यावभासः समुत्पन्नः पूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वेनाभ्युपगतस्य, तत्त्वे किमायातम् ? अन्यथा सर्वस्यपूर्वज्ञानस्य स्मृतिप्रमोषत्वप्रसङ्गः। अथान्याऽऽकारवेदित्वं तस्या असो; तदा विपरीतख्याति : स्यात् ? न स्मृतिप्रमोषः / कश्चाऽसौ विपरीत आकारस्तस्याः। यदि स्फुटाविभासित्वं, तदाऽसौ प्रत्यक्षस्याऽऽकारः, कथं स्मृति संबन्धी? तत्संबन्धित्वे वा तस्याः प्रत्यक्षरूपतैव स्यात्, न स्मृतिरूपता। अत एव शुक्तिकायां रजतप्रतिभासस्य न स्मृतिरूपता तत्प्रतिभासेन व्यवस्थाप्यते / तस्य प्रत्यक्षरूपतया प्रतिभासनात् / नाऽपि बाधकप्रत्ययेन तस्याः स्मृतिरूपता व्यवस्थाप्यते / यतो बाधकप्रत्ययः तत्प्रतिभावस्यार्थस्यासद्रूपत्वमावेदयति, न पुरस्तद्ज्ञानस्य स्मृतिरूपताम् / तथाहि-बाधकप्रत्यय एवं प्रवर्ततेनेदं रजतं, न पुना रजतप्रतिभासःप्रकृतः स्मृतिरिति / तन्न स्मृतिप्रमोषरूपता भ्रान्तदशामभ्युपगन्तुं युक्ता / अतो नायमपि सत्पक्षः / तन्नार्थसंवदनस्वरूपमप्यपरोक्षं सामान्यतो दृष्टां लिङ्ग प्राभाकरैभ्युपगम्यमानं, ज्ञातृ-व्यापारलक्षणप्रमाणानुमापकमिति, मीमांसकमते प्रमाणस्यैवाऽसिद्धत्वात्कथं यथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्तिस्वभावस्य प्रामाण्यस्य स्वतः सिद्धिः ? न हि धर्मिणोऽसिद्धी तद्धर्मस्य सिद्धिर्युक्ता; अतो न सर्वत्र स्वतः प्रामाण्यसिद्धिरिति स्थितम् / सम्म०१ काण्ड। (साऽऽकारं ज्ञान प्रमाणम् / निराकाराज्ञानवादी ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1656 पृष्ठे निरस्तः) (मीमांसकानां ज्ञातृव्यापारः प्रमाणम् इति ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1663 पृष्ठे उक्तम्) (अनधिगताधिगन्तृत्वं प्रमाणम्, इति णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1663 पृष्ठे दर्शितम्) (संवादिज्ञानं प्रमाणम् सौगतानामिति 'णरण' शब्दे चतुर्थभागे 1664 पृष्ठे उक्तम्) (अव्यभिचारिविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणम्, इति 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1665 पृष्ठे उक्तम्) (8) द्रव्यादि चतुर्विधं प्रमाणम्से किं तं पमाणे णं ! पमाणे णं चउटिवहे पण्णत्ते / तं प"यु- 1 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 471 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण जहा-नामप्पमाणे, ठवणप्पमाणे, दब्वप्पमाणे, भावप्पमाणे / / (पमाणे चउविहे इत्यादि) प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तु निश्चीयतेऽनेनेति प्रमाणम् / नाम-स्थापना-द्रव्य-भावस्वरूपं चतुर्विधम्। अनु० / (नामप्रमाणव्याख्या 'णामप्पमाण' शब्दे चतुर्थभागे 2001 पृष्ठे गता) (स्थापनाप्रमाणव्याख्या 'ठवणप्पमाण', शब्दे चतुर्थभागे 1676 पृष्ठे समुक्ता) से किं तं दय्वप्पमाणे? दव्यप्पमाणे छविहे पण्णत्ते / तं जहाधम्मत्थिकाए. जाव अद्धासमए। से तं दव्वप्पमाणे। अयमत्र भावार्थ:-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय इत्यादीनि षड् द्रव्यविषयाणि नामानि द्रव्यमेव प्रमाणं तेन निष्पन्नाति द्रव्यप्रमाणनामानि, धर्मास्तिकायाऽऽदिद्रव्यं विहाय न कदाचिदन्यत्र वर्तन्त इति तद्धेतुकान्युच्यन्त इति तात्पर्यम् / अनादिसिद्धान्तनामत्वेनैवैतानि प्रागुक्तानीति चेत्, उच्यतां, को दोषः ? अनन्तधर्माऽऽत्मके वस्तुनि तत्तद्धर्मापेक्षयाऽनेकव्यपदेशताया अदुष्टत्वात्, एवमन्यत्रापि यथासम्भव वाच्यमिति / अनु० / (धर्मास्तिकायव्याख्या तदेकार्थिकानि च / 'धम्मत्थिकाय' शब्दे चतुर्थभागे 2718 पृष्ठे व्याख्यातानि) (अधर्मास्तिकायव्याख्या अधम्मत्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे 567 पृष्ठे गता) (अद्धासमय-व्याख्या 'अद्धासमय' शब्दे प्रथमभागे 565 पृष्ठे गता) से किं ते पमाणे? पमाणे चउविहे पण्णत्ते। तं जहा-दव्वप्पमाणे, खेत्तप्पमाणे, कायप्पमाणे, भावप्पमाणे // 232 / / अनु०। तत्र प्रमितिः प्रमीयते वा परिच्छिद्यते येनार्थस्तत्प्रमाणं, तत्र द्रव्यमेव प्रमाणं दण्डाऽऽदिद्रव्येण वा धनुरादिना शरीराऽऽदेर्द्रव्येर्वा दण्डहस्ताड् गुलाऽऽदिभिर्द्रव्यस्य वा, जीवाऽऽदेव्याणा वा, जीवधर्माधर्माऽऽदीना, द्रव्ये वा परमाण्वादौ पर्यायाणां द्रव्येषु वा तेष्वेव तेषामेव प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम् / एवं यथायोगे सर्वत्र विग्रहः कार्यः। तत्र द्रव्यप्रमाणं द्वेधा- | प्रदेशनिष्पन्न,विभागानिष्पन्नं च। तत्राऽऽद्यं परमाण्वाद्यनन्तप्रदेशिकान्त विभागनिष्पन्नं पञ्चधा मानाऽऽदि / तत्र मानं धान्यमानं सेतिकाऽऽदि।। रसमानं कर्षाऽऽदि 1, उन्मानं तुलाकर्षाऽऽदि 2, अवमानं हस्ताऽऽदि 3, गणितमे-काऽऽदि 4, प्रतिमानं गुञ्जावल्लाऽऽदीति 5 / क्षेत्रमाकाश तस्य प्रमाणं द्विधा प्रदेशनिष्पन्नाऽऽदि। तत्र प्रदेशनिष्पन्नमेकप्रदेशा- | वगाढाऽऽदि असंख्येयप्रदेशावगाढान्तम् / विभागनिष्पन्नमड्गुलाऽऽदि, कालःसमयस्तन्मानं द्विधा-प्रदेशनिष्पन्नमेकसमयस्थित्यादि असंख्येयसमयस्थित्यन्तम्। विभागनिष्पन्नं समयावलिकेत्याऽऽदि। क्षेत्रकालयोर्द्रव्यत्वे सत्यपि भेदनिर्देशो जीवाऽऽदिद्रव्यविशेषकत्येनानयोस्तत्पर्यायताऽपीति द्रव्याद्विशिष्टताख्यापनार्थः। भाव एव भावाना वा प्रमाण भावप्रमाणं गुणनयसंख्याभेदभिन्नं, तत्र गुणा जीवस्य ज्ञानदर्शनचारित्राणि / तत्र ज्ञानं प्रत्यक्षानुमानोपमानाऽऽगमरूपं प्रमाणमिति नया नैगमाऽऽदयः, संख्या एकाऽऽदिकेति। स्था०४ठा० 1 उ० / आव० / दर्शा नि०चू०। सूत्र० / आ०म० / व्य०। विशे०। उत्त०। ( ‘से किं तं पमाणे' इत्यादि) प्रमीयतेपरिच्छिद्यते धान्यद्रव्याऽऽद्यनेनेति प्रमाणम्असतिप्रसृत्यादि, अथवा इदं चेदं च स्वरूपमस्य भवतीत्येवं प्रतिनि- यतस्वरूपतया प्रत्येकं प्रमीयते-परिच्छिद्यते यत्तत्प्रमाणयथोक्तमेव, यदि वा धान्यद्रव्याऽऽदेरेव प्रमितिः-परिच्छेदः स्वरूपावगमः प्रमाणम्, अत्र पक्षेऽसतिप्रसृत्यादेस्तद्धेतुत्वात् प्रमाणता, तच प्रमाण द्रव्याऽऽदिप्रमेयवशाचतुर्विधम्। तद्यथा-द्रव्यविषयं प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम्। अनु० / से किं तं दवप्पमाणे? दव्वप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहापएसनिप्फण्णे अ, विभागनिप्फण्णे अ / से किं तं पएसनिप्फण्णे? पएसनिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा-परमाणुपोग्गले दुपएसिए.जाव दसपएसिए संखिज्जपएसिए असंखिज्जपएसिए अणंतपएसिए। से तंपएसनिप्फण्णे / से किं तं विभागनिप्फण्णे ? विभागनिप्फण्णे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहामाणे, उम्माणे, अवमाणे, गणिमे, पडिमाणे। तत्र द्रव्यप्रमाणं द्विविधम्-प्रदेशनिष्पन्नं विभागनिष्पन्नं च। तत्र प्रदेशाएकद्विपाद्यणवस्तैर्निष्पन्नं प्रदेशनिष्पन्नं, तत्रैकप्रदेशनिष्पन्नः परमाणुः, द्विप्रदेशनिवृत्तो द्विप्रदेशिकः, प्रदेशत्रयघटितस्त्रिप्रदेशिकः, एवं यावदनन्तैः प्रदेशैः सम्पन्नोऽतन्तप्रदेशिकः। नन्विदं परमाण्वादिकमनन्तप्रदेशिकस्कन्धपर्यन्तं द्रव्यमेव, ततस्तस्य प्रमेयत्वात् प्रमाणता न युक्तेति चेत्, नेवम् , प्रमेयस्यापि द्रव्याऽऽदेः प्रमाणतया रूढत्वात् / तथाहिप्रस्थकाऽऽदिप्रमाणेन मित्वा पुञ्जीकृत धान्याऽऽदि द्रव्यमालोक्य लोको वक्तारो भवन्तिप्रस्थकाऽऽदिरयं पुञ्जीकृतस्तिष्ठतीति, ततश्चैकद्वित्र्यादिप्रदेशनिष्पन्नत्वलक्षणेन स्वस्वरूपेणैव प्रमीयमाणत्वात्परमाण्वादिद्रव्यस्यापि कर्मसाधनप्रमाणशब्दवाच्यताऽदुदैव, करणसाधनपक्षे त्वेकद्वित्र्यादिप्रदेशनिष्पन्नत्वलक्षणं स्वरूपमेव मुख्यतया प्रमाणमुच्यते, द्रव्यं तु तत्स्वरूपयोगादुपचारतः, भावसाधनतायां तु प्रमितेः प्रमाणप्रमेयाधीनत्वादुपचारादेव प्रमाणप्रमेययोः प्रमाणताऽवगन्तव्या, तदेवं कर्मसाधनपक्षे परमाण्यादि द्रव्यं मुख्यतया प्रमाणमुच्यते, करणभावसाधनपक्षयोस्तूपचारत इत्यदोषः / इदं च यथोत्तरमन्यान्यसंख्योपेतैः स्वगतैरेव प्रदेशनिष्पन्नत्वात् प्रदेशनिष्पन्नमुक्तं, द्वितीयं तु स्वगत-प्रदेशान् विहाथापरो विविधो विशिष्टो वा भागो भङ्गो विकल्पः प्रकार इति यावत्तेन निष्पन्न विभागनिष्पन्नम् / तथाहि-न धान्यमानाऽऽदेः स्वगतप्रदेशाऽऽश्रयणेन स्वरूपं निरूपयिष्यते। अपितु "दो असईओ पसई" इत्यादिको यो विशिष्टः प्रकारस्तेनेति। तच्च पञ्चविधं, तद्यथामानम्, उन्मानम्,अवमान, गणिम, प्रतिमानम्,। अनु. / (परमाणुपुद्रलव्याख्या ‘परमाणुपोग्गल' शब्दे वक्ष्यते) (मानस्वरूपम् 'माण' शब्दे वक्ष्यते)(उन्मानव्याख्या 'उम्माण' शब्दे द्वितीयभागे 847 पृष्ठे गता) (अवमानव्याख्या 'ओमाण' शब्दे तृतीयभागे 6. पृष्ठे गता) (गणिमव्याख्या 'गणिम' शब्दे तृतीयभागे 824 पृष्ठे प्रतिपादिता) (प्रतिमानव्याक्या ‘पडिमाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 335 पृष्ठे गता) (क्षेत्रप्रमाणव्याख्या 'खेत्तप-माणं' शब्दे तृतीयभागे 770 पृष्ठे गता) से किं तं कालप्पमाणे ? कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहापएसणिप्फण्णे, विभागणिप्फण्णे अ॥१३५।। गतार्थमेव // 135|| Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 472 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण से किं तं पएसणिप्फण्णे ? पएसणिप्फण्णे एगसमयट्ठिईए, दुसमयट्ठिईए, तिसयमहिईए.जाव दससमयट्ठिईए असंखिज्जसमयट्टिईए ! से तं पएसनिप्फण्णे / 136 / नवरमिह प्रदेशाः कालस्य निर्विभागा भागाः, तैर्निष्पन्नं प्रदेशनिष्पन्नं, तत्रैकसमयस्थितिकः परमाणुः स्कन्धो वा एकेन कालप्रदेशेन निष्पन्नो, द्विसमयस्थितिकस्तु द्वाभ्याम्, एवं यावदसङ्ख्येयसमयस्थितिकोऽसङ्ख्ययैः कालप्रदेशैर्निर्वृत्तः, परस्त्वकेन रूपेण पुद्गलाना स्थितिरेव नास्ति, प्रमाणता चेह प्रदेशनिष्पन्नद्रव्यप्रमाणवद्भावनीया।।१३६।।।। से किं तं विभागनिप्फण्णे ? विभागणिप्फण्णे-अणेगविहे / पण्णत्ते / तं जहासमयावलिअमुहुत्ता, दिवसअहोरत्तपक्खमासा य। सवच्छरजुगपलिआ, सागरओसप्पिपरिअट्टा" |137 / विभागनिष्पन्नं तु समयाऽऽदि / तथा चाऽऽह-समयाऽऽवलियगाहा / / 137 / / अनु०। भायप्रमाणम्से किं तं भावप्पमाणे? भावप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते। तं जहागुणप्पमाणे, नयप्पमाणे, संखप्पमाणे।।१४६।। भवनं भावो वस्तुनः परिणामो ज्ञानाऽऽदिर्पणोऽऽदिश्च, प्रमिति प्रमीयते अनेन प्रमीयते वा इति प्रमाणम्, भाव एव प्रमाणं भावप्रमाणम् / भावसाधनपक्षे प्रमितिः वस्तुपरिच्छेदस्तद्धेतुत्वाद्भावस्य प्रमाणताऽवसेवा। तच भावप्रमाण त्रिविधं प्रज्ञप्तम् / तद्यथा- 'गुणप्रमाणभित्यादि।' गुणो ज्ञानाऽऽदिः, स एव प्रमाणं गुणप्रमाणं, प्रमीयते च गुणव्या गुणाश्च गुणरूपतया प्रमीयन्तेऽतः प्रमाणता / / 146 / / अनु०। (नयप्रमाणस्वरूपम् ‘णय' शब्दे चतुर्थभागे१८७६ पृष्ठे उक्तम् ) संख्यानं संख्या, सैव प्रमाणं संख्याप्रमाणमा अनु०। से किं तं गुणप्पमाणे? गुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते ? तं जहाजीवगुणप्पमाणे, अजीवगुणप्पमाणे य॥ तत्र गुणप्रमाणं द्विधा-जीवगुणप्रमाणं च, अजीवगुणप्रमाणं च। त्वाऽल्पवक्तव्यत्वादजीवगुणप्रमाणमेव तावदाहसे किं तं अजीवगुणप्पमाणे ? अजीवगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा- वण्णगुणप्पमाणे, गंधगुणप्पमाणे, रसगुणप्पमाणे, फासगुणप्पमाणे, संठाणगुणप्पमाणे। ('से किं तं अजीयगुणप्पमाणे' इत्यादि) एतत्सर्वमपि पावासिद्धम्। से किं तंवण्णगुणप्पमाणे ? वण्णगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णते। तं जहा-कालवण्णगुणप्पमाणे०जाव सुकिल्लवण्ण गुणप्पमाणे / से तं वण्णगुणप्पमाणे / से किं तं गंधगुणप्पमाणे ? गंधगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-सुरभिगंधगुणप्पमाणे, दुरभिगंधगुणप्पमाणे य / से तं गंधगुणप्पमाणे / से किं तं रसगुण प्पमाणे ? रसगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा- तित्तरसगुणप्पमाणे०जाव महुररसगुणप्पमाणे / से तं रसगुणप्पमाणे / से किं तं फासगुणप्पमाणे ? फासगुणप्पमाणे अट्ठविहे पण्णत्ते। तं जहा-कक्खडफासगुणप्पमाणे जाव लुक्खफासगुणप्पमाणे। से तं फासगुणप्पमाणे। से किं तं संठाणगुणप्पमाणे ? संठाणगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-परिमंडलसंठाणगुणप्पमाणे, वट्टसंठाणगुणप्पमाणे, तंससंठाणगुणप्पमाणे, चउरंससंठाणगुणप्पमाणे / से तं अजीवगुणप्पमाणे। (परिमंडलेति) नवरं परिमण्डलसंस्थानं बलयाऽऽदिवत्, वृत्तमयोगोलकवत्, त्र्यत्रं त्रिकोणं श्रृङ्गाटकफलवत्, चतुरस्रं समचतुष्कोम्, आयतंदीर्घमिति। से किं तं जीवगुणप्पमाणे ? जीवगुणप्पमाणे तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-णाणगुणप्पमाणे, दंसणगुणप्पमाणे, चरित्तगुणप्पमाणे / / जीवस्य गुणा ज्ञानाऽऽदयस्तद्रूपंप्रमाणं जीवगुणप्रमाणं, तच ज्ञानदर्शनचारित्रगुणभेदात्रिधा। से किं तंणाणगुणप्पमाणे ? णाणगुणप्पमाणे चउटिवहे पण्णत्ते / तं जहा-पचक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे / / तत्र ज्ञानरूपो यो गुणस्तद्रूपं प्रमाणं चतुर्विधम् / तद्यथा-प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, उपमानम्, आगमः / तत्र 'अशू' व्याप्तौ इत्यस्य धातोरश्नुते - ज्ञानाऽऽत्मना अर्थान् व्याप्रोतीति अक्षोजीवः। 'अश' भोजने इत्यस्य वा अनातिभुङ् के पालयति वा सर्वार्थानित्यक्षोजीव एव / आश्रितमक्ष प्रत्यक्षमिति, "अत्यादयः क्रान्ताऽऽद्यर्थे द्वितीयया / " (का० रू०४३०) इति समासः। जीवस्यार्थसाक्षात्कारित्वेन यद् ज्ञान वर्तते तत्प्रत्यक्षमित्यर्थः, अन्ये त्वक्षमक्ष प्रति वर्तत इत्यव्ययीभाव समासं विदधति, तच्चन युज्यते, अव्ययीभावस्य नपुंसकलिङ्गत्वात् प्रत्यक्षशब्दस्य त्रिलिङ्गता न स्यात्. दृश्यते चेयं, प्रत्यक्षा बुद्धिः, प्रत्यक्षो बोधः, प्रत्यक्ष ज्ञानमिति दर्शनात्, ततो यथादर्शितस्तत्पुरूष एवायम्। अनु० / (प्रत्यक्षप्रमाणम् ‘पञ्चक्ख' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरतो गतम्) (अनुमानगुणप्रमाणस्वरूपम्) 'अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे 403 पृष्ठे गतम्) अव (उप) मानप्रमाणस्वरूपनिरूपणम् 'ओमाण' शब्दे तृतीयभागे 60 पृष्ठे दर्शितम्) (आगमप्रमाणनिरूपणम् 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे 52 पृष्ठे कृतम्) (दर्शनगुणप्रमाणम् 'दसणगुणप्पमाण' शब्दे चतुर्थभागे 2428 पृष्ठे दर्शितम् ) चरित्रगुणप्रमाणम् 'चरित्तगुणप्पमाण' शब्दे तृतीयभागे 1147 पृष्ठे दर्शितम्) यथार्थहिंसाऽऽदिनिषेकमेव शासनम्। भ० 5 श० 4 उ०। (E) अनन्तरं वादा उक्तस्तिषां च मध्ये मुख्यवृत्त्या धर्मवाद एव विथेय इतितद्विष्ज्ञयमुण्दर्शयन्नाहविषयो धर्मवादस्य, तत्तत्तन्त्रव्यपेक्षया। प्रस्तुतार्थोपयोग्येव, धर्मसाधनलक्षणः।।१।। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 473 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण विषयो गोचरो, धर्मसाधनलक्षण इति योगः। कस्य ? -धर्मवादस्योक्तलक्षणस्य, कथमित्याह-तस्य तस्येति वीप्सायां द्विवचनम् / तन्त्रस्य शास्त्रस्य षष्टितन्त्राऽऽदेर्विशिष्टाऽपेक्षा निश्रा तत्त-तन्त्रव्यपेक्षा, तथा यद्यदर्शनं प्रति वादी समाश्रितस्तत्तदपेक्षयेत्यर्थः / किं यावांस्तदभ्युपगतदर्शनार्थोऽभिधीये तावदपेक्षोऽसौ धर्मवादविषयः ? नैवमित्याह प्रस्तुतार्थो मुमुक्षूणां मोक्षार्थ एव, तत्रोपयोगःप्रयोजनभावो यस्याऽस्ति सप्रस्तुतार्थोपयोगी, सएव नान्योऽपिधर्मवादविषयः। कश्वासावित्याहधर्मस्य कर्मानुपादाननिर्जरणलक्षणस्यसाधनानि हेतवोऽहिंसाऽऽदीनि, तानि लक्षणं स्वभावो यस्य स तथेति॥१॥ धर्मसाधनान्येवाऽऽहपञ्चैतानि पवित्राणि,सर्वेषां धर्मचारिणाम। अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम्।।२।। पञ्चेति संख्या, एतानि वक्ष्यमाणानि पवित्राणि पावनानि, सर्वसंमतत्वात्तेषाम् / सर्वेषां समस्तानां जैनसाङ् ख्यबौद्धवैशेषिकाऽऽदीना, धर्मचारिणां धार्मिकाणाम्। कानि तानीत्याह-अहिंसाप्राणबधविरतिः। सत्यम्-ऋतम्। अस्तेयम्-अचौर्यम्।त्यागः-सर्वसंत्यजनम्। मैथुनवर्जनम्-अब्रह्मविरतिरिति सर्वसंमतत्वं चैषामेवम्-जैनस्तावहेतानि महाव्रतान्यभिधीयन्ते, सांख्ययासमतानुसारिभिश्चयमाः। यस्तेआहुः‘‘पश्चयमाः, पञ्च नियमाः।" तत्र यमाः "अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमव्यवहारश्चेति''। नियमास्तु-"अकोधो गुरुशुश्रूषा, शौचमाहारलाघवम्। अप्रमादश्चेति।" पाशुफ्तैस्तुधर्मशब्देनोक्तानि। यतस्ते दश धर्मानाहुः / तद्यथा'अहिंसा सत्यवचन-मस्तैन्यं चाप्यकल्पना। ब्रह्मचर्य तथाऽक्रोधा ह्यार्जवे शौचभेव च / / 1 / / संतोषो गुरुशुश्रूषा, इत्येते दश कीर्तिताः।" भागेवतैस्तु व्रतशब्दे नोच्यन्ते-यदाहुस्ते- "पञ्चव्रतानिपञ्चोपव्रतानि।" तत्र व्रतानि-यमाः। उपव्रतानितु-नियमाः-बौद्धः पुनरेतानि कुशलधर्मा उक्ताः / यास्ते- "दश कुशलानि' / थातच "हिंसा स्तैन्योऽन्यथाकाम, पैशुन्यं पुरूषानृतं। संभिन्नाऽऽलापे व्यापाद-मभिध्यां दीग्वपर्ययम्।।१।। पापं कमेंति दशधा, कायवाङ् भानसैस्त्यजेत्।" अत्र च "अचान्यथाकाम'' पारदार्यम्, संभिन्नाऽऽलापोऽसंबद्धभाषणं, व्यापादः परपीडाचिन्तनम्, अभिध्या धनाऽऽदिष्वसन्तोषः, परिग्रह इति तार्पयम् / दृग्विपर्ययो मिथ्याभिनिवेशः, एतद्विपर्ययाश्च दश कुशलधर्मा भवन्तीति / वैदिकैस्तु ब्रह्मशब्देनैतान्यभिहितानीति / / 2 / / यद्येतानि पवित्राणि ततः किमित्याहक खल्वेतानि युज्यन्ते, मुख्यवृत्त्या क्व वा न हि। तन्त्रे तत्तन्त्रनीत्यैव, विचार्य तत्त्वतो ह्यदः // 3 // धर्मार्थिभिः प्रमाणाऽऽदे-र्लक्षणं न तु युक्तिमत् / प्रयोजनाऽऽद्यभावेन, तथा चाऽऽह माहमतिः॥४|| क्न कस्मिन्तन्त्र इति योगः। खलुक्यालङ्कारे। एतान्यनन्तरोदितान्यहिंसाऽऽदीनि,युज्यन्ते घटन्ते, मुख्यवृत्त्वाऽनुपचारेण, क्व वा कस्मिन्या तन्त्रे (न हि) नैव युज्यन्ते इत्यनुवर्तते / तन्त्रे बौद्धादिसिद्धन्ते, कथं युज्यन्ते कथं वा न युज्यन्त इत्याह-तस्यैव बौद्धादेस्तन्त्रस्य शास्त्रस्य नीतिरात्मादिपदार्थाना सत्त्वाखत्त्वनित्यानित्यत्वादिका व्यवस्था तत्तन्त्रनीतिः, तथैव न तु शास्त्रान्तरनीत्या, एकाशास्त्रोक्तप्रकाराणां ह्यहिंसाऽऽदीनामन्यशास्त्रन्यायेनायुज्यमानतायाः स्फुटमेव प्रतीयमानत्वादिति। किमित्याह-हिशब्दस्यैवकारार्थत्वात् अद एव, एतदेवानन्रोक्तं विचार्य विचारणीय, तत्त्वतः परमार्थेन, वस्त्वन्तरविचारणे धर्मवा-दाभावप्रसङ्गात्। कैर्विचार्यमित्याह-धर्मार्थिभिर्धार्मिकैः / उक्तविपर्ययमाह-प्रमाणस्य प्रत्यक्षाऽऽदेः, आदिशब्दात्प्रमेयस्य आत्माऽऽदेः लक्षणं तदन्यव्यवच्छेदकं स्वरूपम् / यथा- 'स्वपरावभासि ज्ञानं प्रमाणम्।' इत्यादि तुशब्दः पुनरर्थः, ननैव, युक्तिमत् उपपत्त्युपेतं, विन्त्रार्यमाणमिति शेषः / केन हेतुनेत्याह-प्रयोजनं फलं तदादिर्यस्योपायाऽऽदेः प्रयोजनाऽऽदिस्तस्याऽभावोऽसत्ता प्रयोजनाऽऽद्यभावस्तेन, प्रमाणलक्षणविचारणस्य प्रयोजनाऽऽद्यभावेन हेतुनेत्यर्थः / प्रयोगश्वात्रैवम्-प्रमाणाऽऽदिलक्ष्णविचारणं न युक्तिमत्-प्रयोजनाऽऽद्यभावात्, यद्यत्प्रयोजनाऽऽदिरहितं तत्तन्नविचारणक्षमम, प्रयोजनाऽऽदिरहितं च प्रमाणादिलक्षणविचारणमिति तन्न युक्तिमदिति। न चायमसिद्धो हेतुः, सिद्धसेनसूरिवचनप्रतिष्ठितत्वादस्य। एतदेवाह-तथा चाऽऽह महामतिःतथा च तेनैव प्रकारेण निष्प्रयोजनत्वेन, 'आह' ब्रूते, इह तत्कालापेक्षो वर्तमाननिदेशः / कोऽसावित्याह-महामतिः-अतिशयवत्प्रज्ञः सिद्धसेनाऽऽचार्य इत्यर्थः // 3 // 4 // एतदेवाऽऽहप्रसिद्धानि प्रमाणनि, व्यवहारश्च तत्कृतः। प्रमाणलक्षणस्योक्तौ, ज्ञायते न प्रयोजनम्।।५।। प्रसिद्धानि लोके स्वत एव रूढानि न तु प्रमाणलक्षणप्रमातृवचनप्रसाधनीयानि, प्रमाणानि प्रत्यक्षाऽऽदीनि / तथा-व्यवहरणं व्यवहारः स्नानपानदानदहनपाचनाऽऽदिका क्रिया। चशब्दः प्रसिद्धत्वसमुचयार्थः / तत्कृतः प्रमाणप्रसाध्यः, प्रमाणलक्षणप्रधीणानामपि गोपालबालाऽऽदीनां तथाव्यवहारदर्शनात् / ततश्चैवं सति प्रमाणलक्षणस्य विसंवादिज्ञानं प्रमाणमित्यादि उक्तौ प्रतिपादने, ज्ञायते उपलभ्यते (न) नैव, प्रयोजनं फलम्, उपलमभार्ह सत् यन्नोपलभ्येत तन्नास्तीत्यभिप्रायः / इह च नास्तीति मुख्यवृत्त्या वक्तव्य सत्यपि यत् ज्ञायते नेत्युक्तमाचार्येण तदपि वचनपारूष्यपरिहारार्थमिति / / 5 / / एवं तावत् प्रमाणलक्षणप्रतिपादने प्रयोजनाभाव उक्तोऽथ तत्रैवोपायाभावप्रतिपादनायाऽऽहप्रमाणेन विनिश्रत्य, तदुच्येत न वा ननु / अलक्षितात् कथं युक्ता, न्यायतोऽस्य विनिश्चितिः।६। नन्विति प्रमाणलक्षणप्रणायकमनाशङ् कायाम्. ततश्वाऽऽह-प्रमाणलक्षणम्, प्रमाणतः प्रमाणेन प्रत्यक्षादिना विनिश्चत्य निर्णीय, तत् प्रमाणलक्षणमुच्येताभिधीयेत त्वया न वेति अन्यथा वा? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदा यत्तत्प्रमाणलक्षणनिश्चायक प्रमाण तल्लक्षणतो निश्चितमनिश्चितं वा स्यात? यदि निश्चितं तत्तदा किं तेनैवाधिकृतप्रमाणेन, प्रमाणान्तरेण वा तत्र यदि तेनैव तदेतरेतराऽऽश्रयः। तथाहि-प्रमाणातल्लक्षणनिश्चयः तल्लक्षण निश्चये चतत्प्रमाणमिति यावत् तल्लक्षणं न निश्चितं न तावत् प्रमाणस्य प्रमाणत्वं, यावच्च न प्रमाणन्य प्रामाण्यं नतावल्लक्षणनिश्चय इति। नपि प्रमाणान्तरेण तल्लक्षणनिश्चयः, अन्वस्थापत्तेः तथाहि-यत्तत्प्रमाणान्तरंतन्निश्चिततल्लक्षणम्, अन्यथावा? अन्यथा वक्ष्यमाणदोषापत्तेः नाऽपि निश्चितलक्षणं, यत Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 474 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण स्तल्लक्षणनिश्चया कि तेनैव, उतान्येन ? यदि तेनैव, तदा पूर्ववदित- | रेतरऽऽश्रय अथ प्रमाणान्तरेण, तदा तदपि निश्चित लक्षणम्, अन्यथा वेत्यनवस्था / तन्न निश्चितलक्षणमिति पक्षः / नाप्यनिश्चितलक्षणमिति वाच्यम् / यत आह-अलक्षितादनिर्णीतिलक्षणात्प्रमाणलक्षणनिश्वायकात्प्रमाणात, कथं केन प्रकारेण, न कथञ्चिदित्यर्थः / युक्ता सङ्गता, न्यायतो नीत्याऽस्य प्रमाणलक्षणस्य, विनिश्चितिनिीतिः। अयमभिप्रायः-निश्चितलक्षणेन प्रमाणेन विनिश्चित्य प्रमाणलक्षणं वक्तव्यं भवतीति न्यायः। न च विकीर्षितं प्रमाणव्युत्पादकशास्त्रं विना प्रमाणलक्षणविनिश्चायकप्रमाणस्य लक्षणनिश्चयः, ततश्चानिश्चितलक्षणमेव तदित्यलक्षिणतात् प्रमाणान्न युक्ता तल्लक्षणविनिश्चितिरिति / / 6 / / अथानिश्चितलक्षणादपि प्रमाणात्प्रमाणलक्षणनिश्चिति भविष्यतीत्थस्यामाशङ्कायामाहसत्यां चास्यां तदुक्त्या किं, तद्विषयनिश्चिते। तत एवाविनिश्चित्य, तस्योक्तिन्ध्यिमेव हि।।७। सत्यां भवन्त्या, चशब्दः पुनरर्थः / अस्यामनन्तरोक्तयाम् , अनिणीतलक्षणात्प्रमाणात्प्रमाणलक्षणनिश्चितौ, तदुक्त्या प्रमाणलक्षणप्रतिपादनेन किं? न किञ्चित्प्रयोजनमित्यर्थः / कुत इत्याह-तद्वत्प्रमाणलक्षणवद्विषयनिश्चिते प्रमेयपरिच्छेदात्। यथाहि-अनिर्णीतलक्षणेनापि प्रमाणेन प्रमाणलक्षणं निश्चीयते, एवं चिकीर्षितलक्षणेन प्रमाणेन प्रमेयस्याऽपि निश्चितप्रसङ्गाद्व्यर्थं प्रमाणलक्षणप्रणयनमिति भावः / तदेवं प्रमाणेन विनिश्चित्य तदुच्येतेति पत्तो निराकृतः। अथानिश्चित्येतिपक्षस्य दूषणायाऽऽह-तत एवेति, यत एव प्रमाणेनविनिश्चित्य प्रमाणलक्षणमतिपादनमुक्तयुक्त्या मोहरूपं वर्तते, तत एवाविनिश्चित्य प्रमाणेनाविनिणीय तदुक्तिः प्रमाणलक्षणप्रतिपादनम्। किमित्याहधिया बुद्धेरान्ध्यमन्धत्वं संमोहो ध्यान्ध्यं तदेव वर्तते, प्रमाणलक्षणप्रति पादयितुर्मूढतैव, निप्फलाऽऽयासनिबन्धनत्वात्तस्या इति भावना। हिशब्दो यस्मादर्थे / तस्याश्वोत्तरश्लोके तस्मादित्यनेन संबन्ध इति / / 7 / / एवं प्रमाणलक्षणविचारस्य निष्प्रयोजनतामनुपायतां चोपदोपसंहारतः प्रक्रान्तां धर्मवादस्यैव विधेयतां दर्शयन्नाहतस्माद्यथोदितं वस्तु, विचार्य रागवर्जितैः। धर्मार्थिभिः प्रयत्नेन, तत इष्टार्थसिद्धितः॥८॥ यस्मात्प्रमाणाऽऽदिलक्षणविचार: प्रयोजनाऽऽदिविरहितस्तस्त्राद्धे तोर्यथोदितं पूर्वोक्तवस्तुनोऽनतिवृत्तं व खल्वेतानि युत्यन्त इत्यादिरूपं, वस्तु धर्मसाधनस्वरूपमर्थजातं, विचार्य विवेचनीयं किंविधैः कैरित्याहरागवर्जितः स्वदर्शनपक्षपातरहितैः उपलक्षणत्वाच्चाऽस्य परदर्शनद्वेषवियुक्तरित्यपि दृश्यम् / धर्मार्थिभिर्धर्मप्रयोजनिभिः, तदन्यैस्तु वस्त्वन्तरमपि वत्ताररणीयं स्यादिति विशेषणफलम्। कथम् ? प्रयत्नेनाऽऽदस्य। किमित्येवमित्याह ततो धर्मसाधनविषयविधारात्, इष्टार्थसिद्धितो धर्मलक्षणवाञ्छितार्थप्राप्तेः कारणादिति ॥८॥हा०१३ अष्टः / (10) प्रमाणसंख्या। एवं प्रमाणस्य स्वरूप प्रतिपाद्य संख्यांसमाख्यान्तितद दिसेदम प्रत्यक्ष परोक्षं, चेति / / 1 / / रत्ना०२ परि०। (अस्य सूत्रस्य व्याख्या 'पच्चक्ख' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे गता) से किं तं पमाणे ? पमाणे चउव्विहे पण्णत्ते / तं जहा-पचक्खे, अणुमाणे, ओवमे, आगमे जहा अणुओगदारे तहा णेयव्वं पमाणं० जाव तेण परंणो अत्ताऽऽगमे, णो अणंतरागमे, परंपरागमे। भ०५ श०४ उ०। ननु कथमेतद् द्वैतमुपपद्यते ? यावता प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति चार्वाकोऽवोचत्, अपरे तु प्रत्यक्षानुमानाऽऽगमोपमानार्थापत्यभावसंभवैति ह्यप्रातिभस्वभावान भूयसो भेदान् प्रमाणस्य प्रोचुः, तत्कथमेतत् ? इति चेत्। उच्यते-सप्तर्थयिष्यमाणप्रमाणभावेनानुमानेन तावच्चार्वाकस्तिरस्करणीयः / अपरे तु सम्भवत्प्रमाणभावनामत्रैवान्तर्भावने बोधनीयाः। तत्राऽनुमानागप्तौ परोक्षप्रकारावेव व्याख्यास्येते, उपमानं तु नैयायिकमते तावत् कश्चित्प्रेष्यः प्रभुणा प्रेषयांचफ्रे गवयमानयेति। स गवयशब्दवाच्यार्थमजानानः कञ्चन वनेचरं पुरूषमप्राक्षीत् कीदृग् गवय इति? स प्राऽऽह-यादृगु गौस्तादृगु गवय इति। ततस्तस्य प्रेष्यपुरुषस्यारण्यानीं प्राप्तस्याऽऽप्तातिदेशवाक्यार्थस्मरणसहपारि गोसदृशगवयपिण्डज्ञानम् 'अयं स गवयशब्दावाच्याऽर्थः' इति प्रतिपत्तिं फलरूपामुत्पादयत्प्रमाणमिति / मीमासकमते तु यत् प्रतिपत्त्रा गौरूपलब्धो न गवयो, न वाऽतिदेशवाक्यं गौरिव गवयः' इति श्रुतं, तस्य विकटाटवीपर्यटनलम्पटस्य गवयदर्शन प्रथमे समुत्पन्ने सति यत् परोक्षे गवि सादृश्यज्ञानमुन्मजति- 'अनेन सदृशः सगौः' इति, 'तस्य गोरनेन सादृश्यम्' इति वा तदुपमानम्- 'तस्माद्यत् स्मर्यते तत्स्यात्सादृश्ययेन विशेषितम्। प्रमेयमुपमानस्य, सादृश्य वा तदन्वितम् // 1 // इति वचनादिति / तदुच्यते-एतच्च परोक्षभेदरूपायां प्रत्यभिज्ञाया मेवान्तर्भावयिष्यते अर्थापत्तिरपि- ''प्रमाणषट्कविज्ञातो, यत्रार्थाऽनन्यथाभवन् / अदृष्ट कल्पयेदन्य, साऽर्थापत्तिरूदाहृता // 1 // " इत्यवलक्षणाऽनुमानान्तगतैव / तथाहि-अर्थापत्त्युत्थापकोऽर्थोऽन्यथाऽनुपपद्यमानत्वेनानवगतः, अवगतो वा दृष्टार्थपरिकल्पननिमितं स्यात् ? न तावदनवगतः, अतिमसद्भात् / अथावगतः, तर्धन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमोऽर्थापत्तरेव, प्रमाणान्तराद्वा ? प्राच्यप्रकारे परस्पराऽऽश्रयः। तथाहि-अन्यथाऽनुपपद्यमानत्वेन प्रतिपन्नादर्थादर्थापत्तिप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तेश्वास्यान्यऽथानुपपद्यमानत्वप्रतिपत्तिरिति / प्रमाणान्वरं तु भूयोदर्शनं, विपक्षे उनुपलम्भो वा ? भूयोदर्शनमपि साध्यधर्मिणि, दृष्टान्तधर्मिणि वा ? यदि साध्यधर्मिणि, तदा भूयोदर्शननैव साध्यस्याऽपि प्रतिपन्नत्यादर्थापतेयर्थ्यम् / अथ दृष्टान्तधर्मिणि, तर्हि तक प्रवृतं भूयोदर्शनं साध्यधर्मिण्यन्यथाऽनुपपद्यमानत्वं निश्चाययति, नत्रैव वा? तत्रोत्तरः पक्षोऽसन, न खलु दृष्टान्तधर्मिणि निश्चितान्यथ, नुपपद्यमानत्वोऽर्थः साध्यधर्मिणि तथात्वेनानिश्चितः स्वसाध्यं गमयति, अतिप्रसङ्गात / प्रथमपक्षे तु लिङ्गार्थापत्त्युत्थापकार्थयोर्भेदाभावः। विपक्षेऽनुपलम्भात् तदवगम इति चेत् / नन्वसावनुपलम्भमात्ररूपोऽनिश्चितो, निश्चितो वा तदवगमयेत् ? प्रथमपक्षे, तत्पुत्रत्वाऽऽदेरपि गमकत्वाऽऽपत्तिः / निश्चितश्चेत्, तहनुमानमेवार्था पत्तिरापन्ना, निश्चितान्यथाऽ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 475 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण योग नुपपत्तेरनुमानरूपत्वात् / न च सपक्षसद्भावासद्भावकृतोऽनुमानार्थापत्त्योर्भेदः, पक्षधर्मातासहितादनुमानात्तद्रहितस्य प्रमाणान्तरत्वानुषङ्गात् / न च पक्षधर्मत्ववन्ध्यमनुमानमेव नास्तीति वाच्यम्- "पित्रोच ब्राहाणत्वेन, पुत्रब्राह्मणताऽनुमा। सर्वलोकप्रसिद्धान, पक्षधर्ममपेक्षते // 1 // '' इति भट्टेन स्वयमेवाभिधानात्। रत्ना०२ परि० / भगवतीपञ्चमशतके चत्वारिप्रमाणान्युक्तानि, रत्नावतारिकायां तु द्वे कथम् ? इति प्रश्ने उत्तरम्-रत्नावतारिकायां तु परोक्षप्रमाणेऽनुमानोपमानाऽऽगमलक्षणप्रमाणत्रयस्यान्तर्भावविवक्षया प्रमाणद्यमुक्तमस्तीति बोध्यम् // 2 // ही०२ प्रका०। प्रत्यक्षानन्तर परोक्षं लक्षयन्तिअस्पष्टं परोक्षम् ||1|| प्राकसूत्रितस्पष्टत्वाभावभ्राजिष्णु यत् प्रमाणं तत्परोक्ष लक्षयितव्यम्। अथैतत् प्रकारतः प्रकटयन्तिस्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदतस्तत्पश्चप्रकारम् स्पष्टम्।।२।। रत्ना०३ परि०। सम्म०। सूत्र०। (11) प्रमाणफलम्-एवं प्रमाणस्य लक्षणसंख्याविषयानाख्याय फलं स्फुटयन्ति - यत्प्रमाणेन साध्यते तदस्य फलम्।।१।। यद् वक्ष्यमाणभज्ञाननिवृत्त्यादिकं प्रत्यक्षाऽऽदिना प्रमाणेन साधकतमेन साध्यते, तदस्य प्रमाणस्य फलमवगन्तव्यम्।।१।। अथैतत्प्रकारत्तो दर्शयन्तितद् द्विविधम्-आनन्तर्येण, पारपर्येण च / / 2 / / तत्राऽऽद्यभेदामादर्शयन्तितत्राऽऽनन्तर्येण सर्वप्रमाणानामज्ञाननिवृत्तिः फलम्।३। अज्ञानस्य विपर्ययाऽऽदेर्निवृत्तिः प्रध्वंसः स्वपरव्यवसितिरूपाफलं बोद्धव्यम्॥३॥ अथापरप्रकारं प्रकाशयन्तिपारम्पर्येण केवलज्ञानस्य तावत्फलमौदासीन्यम्॥४॥ औदासीन्सं साक्षात्समस्तार्थानुभवेऽपि हानोपादानेच्छाविरहान्माध्यस्थ्यमुपेक्षेत्यर्थः / कुत इति चेत्। उच्यते-सिद्धप्रयोजनत्वात् के वलिमा सर्वत्रौदासीन्यमेव भवति, हेयस्य संसारतत्कारणस्य हानादुपादेयस्य मोक्षतत्कारणस्योपादानात सिद्धप्रयोजनत्वं नासिद्धं भगवताम् // 4 // अथ केवलव्यतिरिक्तप्रमाणानां परम्पराफलं प्रकटयन्तिशेषप्रमाणानां पुनरूपादानहानोपेक्षाबुद्धयः / / 5 / / पारम्पर्येण फलमिति संबन्धनीयम्। तत उपादेये कुड्कुमका मिनीकपूराऽऽदावर्थे ग्रहणबुद्धिः, हेये हिममकराङ्गाराऽऽदी परित्यागबुद्धिः, उपेक्षणीयेऽर्थानाप्रसाधकत्वेनोपादानहानान] जरतृणादौ वस्तुन्युपेक्षाबुद्धिः पारम्पर्येण फलमिति॥५॥ प्रमाणात्फलस्य भेदाभेदैकान्तवादिनो यौगसौगतान्निराकर्तुं स्वमतं च व्यवस्थापयितुंप्रमाणयन्ति तत्प्रमाणतः स्याद् भिन्नमभिन्नं च प्रमाणफलत्वान्यथाऽनुपपत्तेः||६|| तदिति प्रकृतं फलं परामृश्यते / / 6 / / अथात्राऽऽशक्य व्यभिचारमपसारयन्तिउपादानबुद्धयादिना प्रमाणाद्भिन्नेन व्यवहितफलेन हेतोयभिचार इति न विभावनीयम्।।७।। प्रमाणफलं च भविष्यति, प्रमाणात् सर्वथा भिन्न च भविष्यति, यथोपादानबुद्धयादिकमिति न परामर्शनीय यौगैरित्यर्थः // 7 / / अत्र हेतुःतस्यैकप्रमातृतादात्म्येन प्रमाणादभेदव्यवस्थितेः॥८॥ एकप्रमातृतादात्म्यमपि कुतः सिद्धमित्याशङ्कयाहु:प्रमाणतया परिणतस्यै वाऽऽत्मनः फलतया परिणतिप्रतीतेः / / यस्यैवाऽऽत्मनः प्रमाणाऽऽकारेण परिणतिस्तस्यैव फलरूपतया परिणाम इत्येकप्रमात्रपेक्षया प्रमाणफलयोरभेदः / / 6 / / एतदेव भावयन्तियः प्रमिमीते स एवो पादत्ते परित्यजत्युपेक्षते चेति सर्वसंव्यवहा-रिभिरस्खलितमनुभवात् ||10|| न खल्वन्यः प्रमाता प्रमाणपर्यायतया परिणमतेऽन्यश्चोपादानहानोपेक्षाबुद्धिपर्यायस्वभावतयेति कस्याऽपि सचेतसोऽनुभवः समस्तीत्यर्थः // 10 // यथोक्तार्थानभ्युपगमे दूषणमाहुःइतरथा स्वपरयोःप्रमाणफलव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्ज्येत।११। इतरथेत्येकस्यैव प्रमातुः प्रमाणफलतादात्म्यानङ्गीकारे इमे प्रमाणफले स्वकीये, इमे च परकीये इति नैयत्यं न स्यादिति भावः / तदित्थमुपादानाऽऽदौ व्यवहितेफले प्रमाणादभेदस्याऽपि प्रसिद्धेन तेन प्रकृतहेतोर्व्यभिचार इति सिद्धम् // 11 // अथ व्यभिचारान्तरं पराकुर्वन्तिअज्ञाननिवृत्तिस्वरूपेण प्रमाणादभिन्नेन साक्षात्फलेन साधनस्यानेकान्त इति नाऽऽशङ्कनीयम्॥१२।। प्रमाणफलं च स्यात्, प्रमाणात् सर्वथाऽप्यभिन्नं च स्याद्यथाऽज्ञाननिवृत्तिरित्यनयो कान्कित्वं प्रमाणफलत्वान्यथाऽनुपपत्तेर्हेतोरिति न शङ्कनीय शाक्यैः / / 12 / / कुत इत्याहकथञ्चित्तस्याऽपि प्रमाणाद्भेदेन व्यवस्यानात्॥१३॥ कथञ्चिदिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण ||13|| तमेव प्रकार प्रकाशयन्तिसाध्यसाधनभावेन प्रमाणफलयोः प्रतीयमानत्वात् 14 ये हि साध्यसाधनभावेन प्रतीयते।तेपरस्परं भिद्येते. यथा कुठारच्छिदे, साध्यसाधनभावेन प्रतीयते च प्रमाणाऽज्ञाननिवृत्त्याख्यफले॥१४|| अस्यैव हेतोरसिद्धता परिजिहीर्पयः प्रमाणस्य साधनतां तावत्समर्थयन्तेप्रमाणं हि करणाऽऽख्यं साधनं, स्वपरव्यवसितौ साधकतमत्वात् // 15 // यत्खलु क्रियायां साधकतमं, तत्करणाऽऽख्यं साधनं, यथा परश्वधः, साधकतमं च स्वपरव्यवसितौ प्रमाणमिति।।१५।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाण अथ फलस्य साध्यत्वं समर्थयन्तेस्वपरव्यवसितिक्रियारूपाऽज्ञाननिवृत्त्याख्यं फलं तु साध्यं प्रमाणनिष्पाद्यत्वात्॥१६|| यत्प्रमाणनिष्पाद्य, तत्साध्यम्, यथोपादानबृद्ध्यादिक, प्रमाणनिष्पाद्यं च प्रकृतं फलमिति / तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्याभेदः साधीयान् / सर्वथा तादात्म्ये हि प्रमाणफलयोर्न व्यवस्था, तद्भावविरोधात् / न हि सारूप्यमस्य प्रमाणम्, अधिगतिः फलमिति सर्वथा तादात्म्ये सिद्धयति, अतिप्रसक्तेः / ननु प्रमाणस्यासारूप्यव्यावृत्तिः सारूप्यम्, अनधिगतिव्यावृत्तिरधिगतिरिति व्यावृत्तिभेदादेकस्याऽपि प्रमाणफलव्यवस्थेति चेत् / नैवम् / स्वभावभेदमन्तरेणान्यव्यावृत्तिभेदस्याप्यनुपपत्तेः / कथं च प्रमाणस्याप्रमाणाफलव्यावृत्त्या प्रमाणफलव्यवस्थावत्प्रमाणान्तरफलानतरव्यावृत्त्या अप्रमाणत्वस्याऽफलत्वस्थ च व्यवस्था न स्यात? इति // 16 // अथ प्रसङ्गतः कर्तुरपि सकाशात्प्रस्तुतफलस्य भेदं समर्थयन्तेप्रमातुरपि स्वपरव्यवसितिक्रियायाः कथञ्चिद् भेदः 17 कर्तुरात्मनः किं पुनः प्रमाणादित्यपिशब्दार्थः / / 17 / / अत्र हेतुमाहुःकर्तृक्रिययोः साध्यसाधकभावेनोपलम्भात्॥१८॥ ये साध्यसाधनभावेनोपलभ्येते, ते भिन्ने, यथा देवदत्तदारूच्छिदिक्रिये, साधसाधकभावेनोपलभ्यते च प्रमातृस्वपरव्यवसितिलक्षणक्रिये।।१८।। एतद्धत्वसिद्धतां प्रतिषेधन्तिकर्ता हि साधकः, स्वतन्त्रत्वात्; क्रि या तु साध्या, कर्तृनिर्वय॑त्वात् ||16 // स्वमात्मा तन्त्रं प्रधानमस्येति स्वतन्त्रस्तद्भावस्तत्त्वं तस्मात् / यः क्रियायां स्वतन्त्रः स साधको, यथा दारूच्छिदायां वश्वनः, स्वतन्त्रश्च स्वपरव्यवसितिक्रियायां प्रमातेति / स्वतन्त्रत्वं कर्तुः कुतः सिद्धम् ? इति चेत् / क्रियासिद्धावपरायत्ततया प्राधान्येन विवक्षितत्वात् / स्वपरव्यवसितिलक्षणा क्रिया पुनः साध्या, कर्तृनिर्वय॑त्वात, या कर्तनिर्वा क्रिया, सा साध्येतिव्यवहारयोग्या, यथा सम्प्रतिपन्ना,तथा च स्वपरव्यवसितिक्रियेति / तदेवं कर्तृक्रिययोः साध्यसाधकभावेन प्रतीयमानत्वादुपपन्नः कथञ्चि-द्भेदः / / 16 / / एनमेवार्थं द्रढयन्तिनच क्रिया क्रियावतः सकाशादमिन्नेव, भिन्नैव वा, प्रतिनियतक्रियाक्रियावद्रावभङ्गप्रसङ्गात्।।२०।। अभिन्नैवेत्यनेन सौगतस्वीकृतमभेदैकान्त, भिन्नैवेत्यनेनतु वैशेषिकाऽऽद्यभिमतं भेदैकान्तं प्रतिक्षिपन्तिक्रियायाः क्रियावत एकान्तेनाभेदे हि क्रियावन्मात्रमेव तात्त्विकं स्यात्, न तु द्ववम्, अभेदप्रतिज्ञाविरोधात्। एकान्तभेदे तु क्रिया क्रियाक्तोर्विवक्षितपदार्थस्यैवेयं क्रियेति संबन्धावधारण न स्यात् / भेदाविशेषादशेषवस्तूनामप्यसौ किं न भवेत् ? न च समवायोऽत्र नियामकतया वक्तुं युक्तः, तस्याऽपि व्यापकत्वेनतन्नि यामकतायामपर्याप्तत्वात् / तस्माद्भेदाभेदैकान्तपक्षयोः प्रतिनियतक्रियावद्भावभङ्गप्रसङ्गः सुव्यक्त इति कथञ्चिदविष्वग्भूतैव क्रिया क्रियावतः सकाशादङ्गीकर्तुमुचिता / / 20 / / कश्चिदाह-कल्पनाशिल्पिनिर्मिता सर्वाऽपि प्रमाणफलव्यवहुतिरिति विफल एवायं प्रमाणफलाऽऽलम्बनः स्याद्वादिनां भेदाभेदप्रतिष्ठोपक्रम इति तन्मतमिदानीमपाकुर्वन्ति संवृत्या प्रमाणफलव्यवहार इत्यप्रामाणिकप्रलापाः, परमार्थतः स्वाभिमतसिद्धिविरोधात्॥२१|| अयमर्थः-सांवृतप्रमाणफलव्यवहारवादिनाऽपि सांवृतत्वं प्रमाणफलयोः परमार्थवृत्त्या तावदेष्टव्यम् / तच्चाऽसौ प्रमाणादभिमन्यते, अप्रमाणाद्वा? न तावदप्रमाणात्, तस्या किञ्चित्करत्वात् / अथ प्रमाणात् / तन्न / यतः सांवृतत्वग्राहकं प्रमाणं सांवृतम्, असांवृतं वा स्यात् ? यदि सांवृतम् / कथं तस्मादपारमार्थिकात्पारमार्थिकस्य सकलप्रमाणव्यवहारसांवृतत्वस्य सिद्धिः? तथा च पारमार्थिक एव समस्तोऽपि प्रमाणफलव्यवहारः प्राप्तः। अथ प्रमाणफलसांवृतत्वग्राहक प्रमाणं स्वयमसांवृतमिष्यते, तर्हि क्षीणा सकलप्रमाणफलव्यवहारसांवृतत्वप्रतिज्ञा, अनेनैव व्यभिचारात्। तदेव सांवृतसकलप्रमाणफलवयवहारवादिनो व्यक्त एव परमार्थतः स्वाभिमतसद्धिविरोध इति॥२१॥ प्रस्तुतमेवार्थं निगमयन्तिततः पारमार्थिक एव प्रमाणफलव्यवहारः सकलपुरूषार्थसिद्धिहेतुःस्वीकर्तव्यः॥२२॥ रत्ना०६ परि०। स्या०| (12) इदानीं ये प्रमाणादेकान्तेनाभिन्नं प्रमाणफलमाहुः, ये च बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण ज्ञानाद्वैतमेवास्तीति ब्रुवते, तन्मतस्य विचार्यमाणत्वे विशरारूतामाहुः न तुल्यकालः फलहेतुभावो, हेतौ विलीने न फलस्य भावः। नसंविदद्वैतपथेऽर्थसंविद्विलूनशीर्ण सुगतेन्द्रजालम्।१६। बौद्धाः किल प्रमाणात्तत्फलमेकान्तेनाऽभिन्नं मन्यन्ते। तथा च तत्सिद्वान्तः- "उभयत्र तदेव ज्ञानं प्रमाणफलमधिगमरूपत्वात्।'' अस्य व्याख्या- (उभयत्रेति) प्रत्यक्षेऽनुमाने च, तदेव ज्ञानं प्रत्यक्षाऽनुमानलक्षणं फलं कार्यम् / कुतः ? अधिगमरूपत्वादिति परिच्छेदरूपत्वात्। तथाहि-परिच्छेदरूपमेव ज्ञानमुत्पद्यते / न च परिच्छेदादृतेऽन्यत ज्ञानफलम् अभिन्नाऽधिकरणत्वात्। इति सर्वथा न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां भिन्नं फलमस्तीति / एतच न समीधीनम्। यतो यद्यस्मादेकान्तेनाऽभिन्नं, तत्तेन सहैवोत्पद्यते, यथा घटेन घटत्वम्। तैश्च प्रमाणफलयोः कार्यकारणभावोऽभ्युपगम्यतेप्रमाणं कारणं, फलं कार्यमिति / स चैकान्ताऽभेदे न घटते। न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयोः सव्येतरगोविषाणयोरिय कार्यकारणभावो युक्तः नियतप्राक्कालभावित्वात्कारणस्य, नियतोत्तरकालभावित्यात्कार्यस्य। एतदेवाऽऽह-"नतुल्यकालः फलहेतुभावः'' इति / फलं कार्य, हेतुः कारणम्, तयोर्भावः स्वरूपं, कार्यकारणभावः स तुल्यकालः समानकालोन युज्यत इत्यर्थः। अथ क्षणान्तरितल्यात्तयोः क्रमभावित्वं भविष्यतीत्याशङ्कयाऽऽह- "हेतौ विलीने न फलस्य भावः'' Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाण 477 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाणकाल इति / हेतौ कारणे प्रमाणलक्षणे विलीने क्षणिकत्वादुत्पत्त्यनन्तर-मेव इत्यलम् / अथवा पूर्वार्द्धमिदमन्यथा व्याख्येयम्-सौगताः किलेत्थं निरन्वयं विनष्टे फलस्य प्रमाणकार्यस्य न भावः सत्ता, निर्मूलत्वात्। प्रमाणयन्ति- सर्व सत् क्षणिकं, यतः सर्वं तावत् घटाऽऽदिकं वस्तु विद्यमाने हि फलहेतावस्येदं फलमिति प्रतीयते, नान्यथा, अतिप्रस- मुद्राऽऽदिसन्निधौ नाशं गच्छद्दृश्यते। तत्र येन स्वरूपेणाऽन्त्यावस्थायां झात् / किं च-हेतुफलभावः संबन्धः, स च द्विष्ठ एव स्यात्। न चाऽनयोः घटाऽऽदिक विनश्यति तचेत् स्वरूपमुत्पन्नमात्रस्य विद्यते तदानीमुक्षणक्षयैकदीक्षितो भवान संबन्ध क्षमते। ततः कथमयं हेतुरिदं फलमिति त्पादानन्तरमेव तेन विनष्टव्यमिति व्यक्तमस्य क्षणिकत्वम् / स्या०। प्रतिनियता प्रतीतिः, एकस्य ग्रहणेऽप्यन्यस्याग्रहणे तदसम्भवात् ? सम्म० / स्था०। समस्तनयविषयीकृतानिकान्तवस्तुग्राहकत्वेन प्रकृष्ट "द्विष्ठसंबन्धसंवित्तिर्नेकरूपप्रवेदनात् / द्वयोः स्वरूपग्रहणे, सति मानं प्रमाणम् / इतरांशसव्यपेक्षस्वांशग्राहिणि नये, सम्म०१ काण्ड। संबन्धवेदनम् // 1 / / " इति वचनात् / यद्यपि धर्मोत्तरेण- "अर्थसारू- भक्तपानाभ्यवहारोपध्यादेर्नियोजने,स०१२ अङ्गामानमनतिक्रम्येपयमस्य प्रमाणं तद्-वशादर्थप्रतीतिसिद्धेः" इति न्यायबिन्दुसूत्रं त्यर्थे , ध०३ अधि०। पं०व०। पञ्चा०। 'पमाणाइरित्ते चउलहु।'' पं० विवृण्वता भणितम्- "नीलनिर्भासं हि विज्ञान, यतः तस्मान्नीलस्य व०१द्वार। पुरूषस्याष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रये,''माणुम्माणपमाणपत्ते।" प्रतितिरवसीयते। येभ्यो हि चक्षुरादिभ्यो ज्ञानमुत्पद्यते, न तद्वशात् तत् विपा०१ श्रु०२ अ०। नि०। जं०। नं०रा०। कल्प० / ज्ञा० / प्रव०। ज्ञान नीलस्य संवदेनं शक्यतेऽवस्थापयितुं, नीलसदृशं त्वनुभूयमानं औ०। भ०।युक्तौ, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। प्रकृष्ट मानं प्रमाणम्। सूक्ष्ममाने, नीलस्य संवेदनमवस्थाप्यते। नचाऽत्र जन्यजनकभावनिबन्धनः साध्य भ०५ श०६ उ०ा तीर्थकृ-त्सम्मतं सर्वेषां प्रमाणम् / व्य०३ उ० / साधनभावो, येनैकस्मिन् वस्तुनि विरोधः स्यात्, अपितु व्यव-स्थाप्य "परमरहस्समिसीणं सम्मत्तगणिपिडगभरियसाराणं / परिणामिय व्यवस्थापकभावेन, तत एकस्य वस्तुनः किश्चिद्रूपं प्रमाणं किञ्चित्प्र पमाण, णिच्छयमवलंवमाणाणं / / 1 / / " भ०६ श०८ उ०। प्रमत्तषष्ठमाणफलं न विरुध्यते, व्यवस्थापनहेतुर्हि सारूप्यं तस्य ज्ञानस्य गुणस्थानकवर्तिसाधूनां ''मजं विसयकसाया' इति गाथोक्तः पञ्चविधः व्यवस्थाप्यं च नीलसंवदनरूपम् " इत्यादि तदप्यसारम्, एकस्य प्रमादः कथं संभवतीति प्रश्रे, उत्तरम्-प्रमत्तषष्ठगुणस्थानकवर्तिसाधूनां 'मन्नं वियकसाया' इत्यादिगाथोक्तः पञ्चविधः प्रमादो मद्यस्य सदैवानिरंशस्य ज्ञानलक्षणस्य व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकत्वलक्षणस्वभाव भक्ष्यत्वेनाऽकल्प्यत्वाद् संभवतीति। 133 प्र०। सेन०४ उल्ला०। द्वयायोगात , व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावस्याऽपि च संबन्धत्वेन विषयसूचीद्विष्टज्वादेकस्मिन्न सम्भवात्। किं च-अर्थसारूप्यमर्थाऽऽकारता।तच (1) अथ प्रमाणस्याऽऽदौ लक्षणं व्याचक्षते। निश्चयरूपनिश्चयरूपं वा ? निश्चयरूपं चेत्तदेव व्यवस्थापकमस्तु, (2) अथात्रैव ज्ञानमिति विशेषणं समर्थयन्ते। कि मुभयकल्पनया ? अनिश्चितं चेत्, स्वयमव्यवस्थित कथं (3) सन्निकर्षोपरि विचारः। नीलाऽऽदिसंवेदनव्यवस्थापने समर्थम् ? अपिच-केयमर्थाऽऽकारता ? नायनरश्मिविचारः। किमर्थग्रहणपरिणमः, आहोस्विदर्थाऽऽकारधारित्वम् ? नाऽऽद्यः, सिद्ध (5) निर्विकल्पकज्ञानप्रामाण्यवादितः प्रतिपादनम्। अथ व्यवसायीति साधनात्। द्वितीयस्तु ज्ञानस्य प्रमेयाऽऽकारानुकरणात् जडत्वोपपत्त्या विशेषसमर्थनम्। दिदोषाऽऽघ्रातः / तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्याभेदः साधीयात सर्वथा ज्ञानस्य प्रामाण्य स्वतः परतश्चाप्रामाण्यम अथोत्पत्तौ स्वनिश्चये च तादात्म्ये हि प्रमाणफलयोर्न व्यवस्था तद्भावविरोधात्। न हि साख्य ज्ञातानां स्वत एव प्रामाण्यम् अप्रामाण्ये तु परत एव यज्जैमिनीया मस्य प्रमाणमधिगतिः फलमिति सर्वथा तदात्म्ये सिद्ध्यति, अतिप्र जगूः तन्निराकरणम्। सङ्गात् / ननु प्रमाणस्यासारूप्यव्यावृत्तिः सारूप्यम्, अनधिगतिव्या विशेषतो मीमांसकमतनिराकरणम्। वृत्तिरधिगतिरिति व्यावृत्तिभंदादेकस्याऽपि प्रमाणफलव्यवस्थेति चेत्। (8) द्रव्यादि चतुर्विधं प्रमाणम्। नैवम् / स्वभावभेदमन्तरेणाऽन्यव्यावृत्तिभेदस्याप्यनुपपत्तेः / कथं च (E) अनन्तर वादा उक्तास्तेषां च मध्ये मुख्यवृत्त्या धर्मवाद एव विधेयः / प्रमाणस्य फलस्य चाऽप्रमाणाफलव्यावृत्त्याऽप्रमाफलव्यवस्थावत् (10) प्रमाणसंख्या। एवं प्रमाणस्य स्वरूप प्रतिपाद्य संख्यां समाप्रमाणान्तरफलान्तरव्यावृत्याऽप्यप्रमाणत्वस्याऽफलत्वस्य च व्यवस्था ख्यान्ति। न स्यात्, विजातीयादिवसजातीयादपि व्यावृत्तत्वाद्धस्तुनः ? (11) प्रमाणफलम्। तस्मात्प्रमाणात्फलं कथञ्चिदिन्नमेवैष्टव्यं, साध्यसाधनभावेन प्रतीय- (12) प्रमाणदिकान्तेनाभिन्नं प्रमाणफलमाहुस्तन्मतनिराकरणम्। मानत्वात्। ये हि साध्यसाधनभावेन प्रतीयेते ते परसपरं भिद्येते, यथा- पमाणंगुल न० (प्रमाणाङ्गुल) सहस्रगुणितादुत्सेधागुलप्रमाणाजातं कुठारच्छिदिक्रिये इति / एवं यौगाभिप्रेतः प्रमाणात्फलस्यैकान्तभेदो- प्रमाणाड्गुलम्। अथवा-परसप्रकर्षरूपं प्रमाण प्राप्तमङ्गुल प्रमाणाड्ऽपि निराकर्तव्यः, तम्यैकप्रमातृतादात्म्येन प्रमाणात् कथञ्चिद भेदव्य- गुलम्। अड्गुलप्रमाणभेदे, अनु०। ("अगुल" शब्दे प्रथमभागे 44 पृष्ठे वस्थितेः, प्रमाणतया परिणतस्यैवाऽऽत्मनः फलतया परिणतिप्रतीतेः / स्वरूपमुक्तम्) यः प्रमिमीतेस एवोपादत्ते, परित्यजत्युपेक्षतेचेति सर्वव्यवहारिभिरस्खे- | पमाणकाल पु० (प्रमाणकाल) प्रमीयते परिच्छ द्यते येन लितमनुभवात्, इतरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्यते / वर्षशताऽऽदि तत्प्रमाणम् / स चासौ कालश्चेति प्रमाण (4) नायना Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाणकाल 478 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाणदोस कालः / प्रमाणं वा परिच्छेदनं / वर्षाऽऽदिस्तत्प्रधानं तदर्थो वा कालः चेव भवंति ? सुदंसणा ! चित्तासोयपुण्णिमासु णं दिवसा य प्रमाणकालः / कालभेदे, भ०। राईओ य समा चेव भवंति, पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता तत्स्वरूपम् राई भवइ, चउभागमुहुत्तभागूणा चउमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए से किं तं पमाणकाले ? पमाणकाले दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-] वा पोरिसी भवइ / से तं पमाणकाले। दिवसप्पमाणकाले य, रत्तिप्पमाणकाले य। चउपोरिसीए दिवसे, अनन्तरं चतुःपौरूषीको दिवसश्चतुःपौरूषीका चरात्रिर्भवतीत्युक्तम् / चउपोरिसीए राई भवइ / उक्कोसिया अद्धपंचममुहूत्ता दिवसस्स अथपौरूषीमेव प्ररूपयन्नाह- (उकोसियेत्यादि) (अद्धपंचममुहुत्त त्ति) वा, राईए वा पोरिसी भवइ / जहणिया तिमहत्ता दिवसस्स वा अष्टादशमुहूर्तस्य दिवसस्यरात्रेर्वा, चतुर्थो भागो यरमादर्द्धपञ्चममुहूर्ता, राईएवापोरिसी भवा जयाणं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता नवघटिका इत्यर्थः / ततोऽर्द्धपञ्चमा मुहूर्ता यस्याः सा तथा। (तिमुहुत्त दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तया णं कइभागमुहुत्त त्ति) द्वादशमुहूर्तस्य दिवसाऽऽदेश्चतुर्थो भागस्त्रिमुहूर्तो भवति। अतस्त्रयो भागेणं परिहायमाणी परिहायमणी जहणिया तिमुहुत्ता मुहूर्ताः षट्पटिका यस्यां सा तथा। (कइभागमुहुत्तभागेणं ति) कतिभागः दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ / जया णं जहणिया कतिथभागस्तदूतो मुहूर्तभागः कतिभागमुहूर्तभागस्तेन कतिथेन तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं मुहूर्ताशनेत्यर्थः / (वावीससयभागमुहत्तभागेणं ति) इह अर्द्धपञ्चमाना कइभागमुहुत्तभागेणं परिवड्डमाणी परिवड्डमाणी उक्कोसिया त्रयाणां च मुहूर्तानां विशेषः साऽद्धो मुहूर्तः / स च त्र्यशीत्यधिकेन दिवसशतेन वर्द्धते हीयतेच, सच साऽद्धों मुहूर्तः त्र्यशीत्यधिकशतभागअद्धपंचमुहत्ता दिवसस्स या राईएवा पोरिसी भवइ ? सुदंसणा ! तया व्यवस्थाप्यते, तत्र च मुहूर्ते द्वाविंशन्यधिकं भागशतं भवत्यजदाणं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्सवा राईएवा पोरसी तोऽभिधीयते-(वावीस इत्यादि) द्वाविंशत्यधिकशततमभागरूपेण भवइ, तदा णं वावीससयभागमुहत्तभागेणं परिहायमाणी मुहूर्तभागेनेत्यर्थः / (आसाढपुण्णिमाए इत्यादि) इहाऽऽषाढपौर्णपरिहायमाणी जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईएवा पोरिसी मास्यामिति यदुक्तंतत्पञ्चसांवत्सरिकयुगस्यान्तिमवपिक्षयाऽवसेय, भवइ / जया णं जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा यतस्तत्रैवाऽऽषाढपौर्णमास्यामष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवत्यर्द्धपञ्चममुहूर्ता पोरिसी भवइ, तदाणं वावीससयभागमुहुत्तभागेणं परिवड्डमाणी च तत्पौरूषी भवति, वर्षान्तरे तुयत्र दिवसे कर्कसंक्रान्तिर्जायते तत्रैवाऽसौ परिवड्डमाणी उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा भवतीति समवसेयमिति। एवं पौषपौर्णमास्यामप्यौचित्येन वाच्यमिति। पोरिसी भवइ / कया णं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचममुहत्ता अनन्तरं रात्रिदिवसयोवैषम्यमभिहितमथ तयोरेव समतां दर्शयन्नाहदिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, कदा णं जहणिया (अत्थि णमित्यादि) इह च-(चेत्तासोयपुषिणमासुणमित्यादि) यदुच्यते तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ? सुदंसणा ! तद्व्यवहारनयापेक्षं, निश्चयतस्तु कर्कमकरसंक्रान्तिदिनादारभ्य यद् जया णं उक्कोसिए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया द्विनवतितममहोरात्रंतस्यार्द्ध समा दिनरात्रिप्रमाणतेति। तत्र चपञ्चदशदुवालसमुहुत्ता राई भवइ, तया णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता मुहूर्ते दिने रात्री वा, पौरूषीप्रमाण त्रयो मुहूर्तास्त्रयश्च मुहूर्तचतुर्भागा दिवसस्स वा पोरिसी भवइ, जहणिया तिमुहुत्ता राईए पोरिसी भवन्ति, दिनचतुर्भागरूपत्त्वात्तस्याः। एतदेवाऽऽह- (चउभागेत्यादि) भवइ / जया वा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए चतुर्भागरूपो यो मुहूर्तभागस्तेनोना चतुर्भागमुहूर्तभागोना चत्वारो मुहूर्ता दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता यस्यां पौरूष्यां सा तथेति। भ०११श०११ उ०। आ०चू०। आ०म०। राईए पोरिसी भवइ, जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ / कया णं भंते ! उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, पमाणजुत्त त्रि० (प्रमाणयुक्त) स्वप्रमाणोपेते, औ०। जहणिया दुवाल-समुहुत्ता राई भवइ, कया वा उक्कोसिया प्रमाणणयतत्त न० (प्रमाणनयतत्त्व) प्रकर्षेण संशयाऽऽद्यभावस्वभावेन अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णएदुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ? | मीयते परिच्छिद्यते वस्तु येन तत्प्रमाणम् / नीयते गम्यते श्रुतप्रमाणसुंदसणा ! आसाढपुण्णिमाए णं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे परिच्छिन्नार्थंकदेशोऽनेनेति नयः / ततो द्वयोरपि द्वन्द्रे बह्व चत्वेऽपि भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ / पोसपुण्णिमाए णं प्रमाणस्याभ्यर्हितत्वेन "लक्षणहेत्वोः-" इत्यादिव-दल्पाच्तरादपि उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते नयशब्दात्प्रागुपादानम्। ततः प्रमाणनययोस्तत्त्वम्। प्रमाणनययोरसादिवसे भवइ / अत्थि णं भंते ! दिवसा य राईओ य समा चेत्र धारणस्वरूपे, रत्ना०१ परि०। भवंति ? हंता अस्थि / कया णं भंते! दिवसा य, राईओ य समा | पमाणदोस पु० (प्रमाणदोष) द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणातिरिक्त विशे०॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाणदोस 476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाय माहारमाहारयतः गासैषणादोषे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०। पर्ययसंशयानध्यवसाया: 1125 / / यावता यस्योदरं पूर्यत तावद् वा प्रमाणं, तदतिरिक्तभोजनदोषे, जीतः / अत्र सन्निकर्षाऽऽदिकमज्ञानाऽऽत्मकस्य दृष्टान्तः, अस्वसंविदिपमाणपक्ख पुं० (प्रमाणपक्ष) वर्षमासाऽऽदिप्रमाणकारिणि शुक्ले कृष्णे तज्ञानमनात्मप्रकाशकस्य, परानवभासकज्ञानं बाह्यार्थाऽऽपलापिज्ञावापक्षे, कल्प० / पपमाणपक्खंतरायलेह ति। ब प्रमाणपक्षौ वर्षमासाऽऽ- नस्य, दर्शन निर्विकल्पकस्य, विपर्ययाऽऽदयस्तु समारोपस्येति।।२५।। दिमानकारिणौ यौ पक्षौ शुक्लकृष्णपक्षौ, तयोः (अंत त्ति) अन्तर्मध्ये कथमेषां तत्स्वरूपाऽऽभासता? इत्यत्र हेतुमाहुःपूर्णिमाया मित्यर्थः / तत्र (राय त्ति) राजन्त्यः शोभमानाः (लेहं ति) तेभ्यः स्वपरव्यवसायस्यानुपपत्तेः॥२६|| लेखाः कलाः यस्य स तथा। कल्प० 1 अधि०३क्षण। यथा चैतेभ्यः स्वपरव्यवसायो नोपपद्यते, तथा प्रागुपदर्शितमेव / / 26 / / पमाणपत्त त्रि० (प्रमाणप्राप्त) अन्यूनातिरिक्ते, कल्प०१ अधि०६क्षण। रत्ना०६ परि०। द्वात्रिंशत्कवलमात्राऽऽहारिणि, भ०।"वत्तीसं कुक्कुडि-अंडगप्पमाणमेत्ते पमाणीकय त्रि० (प्रमाणीकृत) प्रमाणत्वेनाभ्युपगते, प्रति०। कवले आहारमाहारमाणे पमाणपत्ते।" भ०५ श०७ उ०। पमाय पुं० (प्रमाद) प्रकर्षण माद्यन्त्यनेनेति प्रमादः। उत्त० 4 अ०। पमाणसंवच्छर पुं० (प्रमाणसंवत्सर) प्रमाणं परिमाणं दिवसाऽऽदीना, सूत्र० / प्रमादतायाम्, स्या०। विषयक्रीडाभिष्वङ्गे. आचा०१ श्रु०२ तेनोपलक्षितो नक्षत्रसंवत्सराऽऽदिः प्रमाणसंवत्सरः / संवत्सरभेदे, अ०३ उ०। प्रमादोऽयत्न इति, आरब्धेऽप्यनुत्थानशीलता। द्वा० 16 स्था०। द्वा० 1 उत्त० / प्रचुरकर्मेन्धनप्रभवनिरन्तराविध्मातशारीरमानसानेपमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-णक्खत्ते १,चंदे 2, कदुः-खहुतवहज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवास गृहं पश्यंस्तउऊ३, आइच्चे 4, अभिवडिए 5 / / न्मध्यवर्त्यपि सति च तन्निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधर्मचिन्तामणौ यतो प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः / तत्र नक्षत्र इति नक्षत्रसंवत्सरः, स च विचित्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात्परिणामविशेषादपश्यन्निव तदुभयमउक्तलक्षणः, केवलं तत्र नक्षत्रमण्डलस्य चन्द्रभागमात्रं विवक्षि-तमिह विगणय्य विशिष्टपरलोकक्रियाविमुख एवाऽऽस्ते जीवः स खलु प्रभादः। तु दिनभागाऽऽदिप्रमाणमिति। तथा चन्द्राभिवर्द्धितावप्यु-क्तलक्षणावेव तस्य च प्रमादस्य ये हेतवो मद्याऽऽदयस्तेऽपि प्रमादाः। तत्कारणत्वात्। किं तु तत्र युगावयवतामात्रमिह तु प्रमाणमिति विशेषः / (उऊ इति) उक्त च- "मजं विषयकसाया, निद्या विगहा य पंचमी भणिया। एए पंच ऋतृसंवत्सरस्त्रिंशदहोरात्रप्रमाणेद्वीदशभिर्ऋतुमासैः सावनमासकर्म- पमाया, जीवं पार्डेति संसारे।।१।।" मासपर्यायौनिप्पन्नः षष्ट्यधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति 360 / (आइ- एतस्य च पञ्चप्रकारस्यापि प्रमादस्य फलं दारूणो विपाकः / चेति / आदित्यसंवत्सरः, स च त्रिशदिनान्यर्द्धचेत्येवंविधमासद्वादशक उक्तंचनिप्पन्नः षट्षष्ट्यधिकाहोरात्रशतत्रयमान इति 366 / स्था० 5 ठा०३ 'श्रेयो विषमुपभोक्तं, क्षमं भवेत् क्रीडितुं हुताशेन। उ०। जं०। सू० प्र०.। चं० प्र०। संसारबन्धनगतै-न तु प्रमादः क्षमः कर्तुम् / / 1 / / पमाणसोभंत त्रि० (प्रमाणशोभमान) यथोक्तमानेन शोभमाने, कल्प० अस्यामेव हि जाती, नरमुपहन्याद्विषं हुताशो वा। 1 अधि०२क्षण। आसेवितः प्रमादो, हन्याज्जन्मान्तरशतानि / / 2 / / पमाणाभाव पुं० (प्रमाणाभाव) प्रमाणानुत्पत्ती, 'प्रत्यक्षाऽऽदेरनुत्पत्तिः, यन्न प्रयान्ति पुरूषाः, स्वर्ग यच प्रयान्ति विनिपातम्। प्रमाणाभाव उच्यते।" सम्म०२ काण्ड। तत्र निमित्तमनार्यः, प्रमाद इति निश्चितमिदं मे // 3 // पमाणाभास पुं० (प्रमाणाऽऽभास) प्रमाणस्य स्वरूपाऽऽभासे, रत्ना० / संसारबन्धनगतो, जातिजराव्याधिमरणदुःखार्तः। प्रमाणस्य स्वरूपाऽऽदिचतुष्टयाद्विपरीतं तदाभासम् // 23 // यत्रोद्विजते सत्त्वः, सोऽप्यपराधः प्रमादस्य॥४॥ पूर्व परिच्छेदप्रतिपादितात्प्रमाणसंबन्धिनः स्वरूपाऽऽदिचतुष्टया- आज्ञाप्यते यदवश-स्तुल्योदरपाणिपादवदनेन। त्स्वरूपसंख्याविषयफललक्षणाद्विपरीतमपरं स्वरूपाऽऽदिचतुष्टयाऽऽ- कर्म च करोति बहुविध-मेतदपि फलं प्रमादस्य // 5 // भासं स्वरूपाऽऽभासं, संख्याऽऽभासं विषयाऽऽभासं, फलाऽऽभासं इह हि प्रमत्तमनसः, सोन्मादवदनिभृतेन्द्रियाश्चपलाः। चेत्यर्थः / तद्वदाभासत इति कृत्वा।।२३।। यत्कृत्यं तदकृत्वा, सततमकार्येप्वभिपतन्ति॥६॥ तत्र स्वरूपाऽऽभासं तावदाहु: तेषामभिपतिनाना-मुद्धान्तानां प्रमत्तहृदयानाम्। अज्ञानाऽऽत्मकानात्मप्रकाशकस्वमात्रावभासकनिर्विकल्प- वर्द्धन्त एव दोषाः, वनतरवश्वाम्बुसेकेन // 7 / / कसमारोपाः प्रमाणस्य स्वरूपाभासाः॥२४॥ दृष्ट्वाऽप्यालोक नैव विश्रसितव्यं, अज्ञानाऽऽत्मकं च, अनात्मप्रकाशं च, स्वमात्रावभासक च, निर्विक- तीरं नीता भ्राम्यते वायुना नौः / ल्पकं च, समारोपश्चेति प्रमाणसंबन्धिनः स्वरूपाऽऽभासाः प्रमाणाऽऽ- लब्ध्वा वैराग्यं भ्रष्टयोगप्रमादाद, भासाः प्रत्येयाः // 24 // भूयो भूयः संसृतौ बम्भ्रमन्ति / / 8 / / " इति। अथ क्रमेण दृष्टान्तमाचक्षते नं। आव० / आचा० / उत्त०। सूत्र० / पा० / ध०। यथासन्निकर्षाद्यस्वसंविदितपरानवभासकज्ञानदर्शनावे-1 पा० / जीवा। औ / आतु०। आलस्ये 0 औ 0 / Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाय 450 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमाय श्लाघतायाम,प्रभ०१ संब० द्वार / प्रमदनं प्रमादः / प्रमत्ततायाम्, सदुपयोगाभावे, स्था०। छविहे पमाएपण्णत्ते तं जहा- मज्जपमाए, णिद्दापमाए, विसयपमाए, कसायपमाए, जूयपमाए, पडिलेहणापमाए। षड्विधः षट्प्रकारः प्रमदनं प्रमादः, प्रमत्तता सदुपयोगाभाव इत्यर्थः। प्रज्ञप्तः / तद्यथा-मद्यं सुराऽऽदिस्तेदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादः / स्था / (तद्दोषः 'मन्ज' शब्दे दर्शयिष्यते) निद्रा प्रतीता। | (तद्दोषश्व 'णिद्दापमाय' शब्दे चतुर्थभागे 2072 पृष्ठे दर्शितः) विषयाः शब्दाऽऽदयस्तेषां चैवं प्रमादता (ताम् 'विसयपमाय' शब्दे वक्ष्यामि) कषायाः क्रोधाऽऽदयः, तेषामप्येवं प्रमादता "चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते / यस्य तन्मुषितं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः / / 1 / / " इति / द्यूतं प्रतीतं, तदपि प्रमाद एव / (तद्दोषः 'जूयप्पमाय' शब्दे चतुर्थभागे 1584 पृष्ठेदर्शितः) तथा-प्रत्युपेक्षणं प्रत्युपेक्षणा, सा चद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्दा / तत्र द्रव्यप्रत्युपेक्षणावस्त्रपात्राऽऽधुपकरणानामशनपानाऽऽद्याहाराणां चक्षुर्निरीक्षणरूपा / क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा-कायोत्सर्गनिषदनशयनस्थानस्य स्थण्डिलानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य च निरूपणा / कालप्रत्युपेक्षणा धर्मजागरिकाऽऽदिरूपा। यथा- "कि कय किं वा सेस, किं करणिज तवं च न करेमिः पुष्वावत्तरकाले, जागरओ भावपडिलेहा / / 412 // " इति / (अस्या गाथाया अर्थः 'पडिलेहणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 341 पृष्ठ गतः) तत्र प्रत्युपेक्षणायां प्रमादः शैथिल्यमाज्ञाऽतिक्रमो वा प्रत्युपेक्षणाप्रमादः / अनेन च प्रमार्जनाभिक्षाचार्याऽऽदिषु इच्छाकारमिथ्याकाराऽऽदिषु च दशविधसामाचारोरूपव्यापारेषु यः प्रमादोऽसात्रुपलक्षितः, तस्याऽपि सामाचारीगतत्वेन षष्टप्रमादलक्षणव्यभिचारित्वादित। स्था०६ठा०। अष्ट प्रमादाः-सम्प्रति ''अट्टाहा पमाय त्ति' सप्तोत्तरद्विशततम द्वारमाहपमाओ य मुणिंदेहि, भणिओ अट्ठभेयओ। अन्नाणं 1 संसओ चेव 2, मिच्छानाणं ३तहेव य॥१२२२|| रागो 4 दोसो 5 सइब्मंसो 6, धम्मम्मि य अणायरो 71 जोगाणं दुप्पणीहाणं 8, अट्ठहा वजियव्वओ॥१२२३।। प्रमाद्यति मोक्षमार्ग प्रति शिथिलीद्यगो भवत्यनेन प्राणीति प्रमादः। स / च मुनीन्द्रः तीर्थकृद्भिर्मणितः प्रतिपादितो भवत्यऽष्टभेदोऽष्टप्रकारः / तद्यथा-अज्ञानं मूढता, संशयः किमेतदेवं स्यादुतान्यथेति संदेहः, मिथ्याज्ञातं विपर्यस्तताप्रतिपत्तिः, रागोऽभिष्वङ्गः, द्वेषोऽप्रीतिः, स्मृतिभ्रंशो विस्मरणशीलता, धर्मे चाहत्प्रणीतेऽनादरोऽनुद्यमः, योगानां मनोवाक्कायाना दुष्प्रणिधानं दुष्टताकरणम्, अयं चाष्टविधोऽपि प्रमादः कर्मबन्धहेतुत्वाद्धर्जयितव्यः परिहर्तव्य इति। प्रव०२०७ द्वार। उत्त०। ध०। पञ्चा०1भा उणह पमायं / ' 'अमानोनाः प्रतिषेधे' मा कुर्वीथाः कषाययोगाऽऽदिभिः प्रमादम्। पं० चू०२ कल्प०। अप्रमादधुतनिक्षेपमभिधातुमाहनिक्खेवो अपमाए, चउव्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि। आगम नोआगमतो, नो आगमतो य सो तिविहो / / 504 / / / जाणगसरीरभविए, तव्वइतिरित्ते अमित्तमाईसु / भावे अन्नाणअसं-वराईसु होइणायव्यो / / 505 / / (अमित्तामाईसु त्ति) अमित्राः शत्रवः, अदिशब्दाव्यालाऽऽदिपरिग्रहः। तेषु योऽप्रमादः सः, तद्व्यतिरिक्तोऽप्रमाद उच्यते / द्रव्यत्वं चाऽस्य तथाविधाप्रमादकार्याप्रसाधकत्वात् द्रव्यविषयत्वाद्वा (भाये इति) भावे विचार्य अज्ञान मिथ्याज्ञानमसंवरोऽनिरूद्धाऽऽश्रवता, आदिशशब्दात्कषायाऽऽदिपरिग्रहः। एतेषु प्रक्रमादप्रमादः-एतज्जयं प्रति सदा सावधानतारूपो भवति ज्ञातव्यः / उत्त० 26 अ० / "निद्दापमायमाई-सु सई तु खलियस्स सारणा होइ। नणु कहियं ते पमाया, मा सीयसु तेसु जाणंतो॥४६६।।" बृ०१ उ०२ प्रक०। तं तह दुल्लहभं, विज्जुलयाचंचलं मणुस्सत्तं। लभ्रूण जो पमायइ, सो कापुरिसो न सुप्पुरिसो।। तत्माहनुषत्वंतथा पूर्वोक्तप्रकारेण दुर्लभलाभं दुष्प्रापलाभं विद्युल्लताचञ्चल लब्ध्वा यः प्रमाद्यति प्रमादं करोति स कापुरूषो, न सत्पुरुषः / आ०म०१ अ०। उत्त०। प्रमादस्यैव विशेषतोऽपायहेतुतामाहपव्वजं विजं पिव, साहंतो होइ जो पमाइलो। तस्स न सिज्झइ एसा, करेइ गरूयं च अवगारं / / 111 / / प्रव्रज्या जिनदीक्षां विद्यामिव स्त्रीदेवताऽधिष्ठितामिव साधयन् भवति यः (पमाइल्लो त्ति) प्रभादवान्, "आल्विल्लोल्लाल-वंत-मन्तेत्तेरमणा मतोः / / 8 / 2 / 166 / / इतिवचनात् / तस्य प्रमादवतो न सिद्ध्यति न फलदानाय संपद्यते, एषा पारमेश्वरी दीक्षा विद्येव। चकारस्य भिन्नकमत्वात्, करोति च गुरूं महान्तमपकारमनर्थमिति। भावार्थः पुनरयम्यथा अत्र प्रमादवतः साधकस्य विद्या फलदा न भवति, ग्रहसंक्रमाऽऽदिकमनर्थ च संपादयति, तथा शीतलविहारिणो जिनदीक्षाऽपि न केवलं सुगतिसंपत्तये न भवति, किं तु दुर्गतिदीर्घभवभ्रमणापायं च विदधाति, आर्यमङ्गोरिव। उक्तं च "सीयलविहारओ खलु, भगवंताऽऽसायणानिओएण। पत्तो भयो सुदीहो, किलेसबहुलो जओ भणियं / / 1 / / तित्थयरपवयणसुय, आयरियं गणहरं महिड्डीयं। आसायंतो बहुसो, अणंतसंसारिओ भणिओ // 2" इति। तस्मादप्रमादिना साधुना भवितव्यमिति। ध० 20 3 अधि० 4 लक्षा (आर्यमङ्गुकथा अजमंगु' शब्दे प्रथमभागे 211 पृष्ठे गता) प्रमादस्यैव युक्त्यन्तरेण निषेधमाहपडिलेहणाइ चिट्ठा, छक्कायविधाइणी पमत्तस्स। भणिया सुयम्मि तम्हा, अपमाई सुविहिओ हुज्जा / / 112 / / प्रत्युपेक्षणा प्रतिलेखना, आदिशब्दाद्भसनाऽऽदिपरिग्रहः / चेष्टा क्रिया व्यापार इत्येकार्थाः / पट्कायविघातिनी प्रमत्तस्य सार्धाभणितोक्ता श्रुते सिद्धान्ते। तद्यथा "पडिलेहणं कुणंतो, गिहिकहं कुणइ जणवयकह वा। देह व पचक्खाणं, वाएइ सयं पडिच्छइ वा / / 438 / / Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमाय 481 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण पुढवीआउक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाणं। विरहित इति-एकस्याः क्रियाया द्वितीया क्रिया क्रियान्तरं, तेन पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ // 436 / / विरहितःप्रत्युपेक्षणाऽऽदि-कुर्वन्न स्वाध्याय करोति, स्वाध्यायं कुर्वन्न घडगारपलुट्टणया. मट्टी अगणी य कुंथुवीयाई। वस्त्रापात्राऽऽदिपरिकर्म गमनाऽऽदि वेति। अत एवोक्तमा - "इंदियत्थे उदगगया य तसेयर-उम्मुयसंघट्टझावणया / / 440 // " विसञ्जिता, सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तप्पुरकारे, उवउत्तरियं रिए (ओघ०। आसां गाथानामर्थोऽस्मिन्नेव भागे 'पडिलेहणा' शब्दे 346 || 1 // " तथा-यथासूत्रमिति सूत्रस्यानितिक्रमेण यथासूत्र तत्पुनः "सुत्त पृष्ठे गतः) गणहररइय, तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च / सुयकेवलिणा रइयं, अभि"इय दव्वओ वि छण्हं, विराहओ भावओ इहरहा वि। नदसपुटिवणा रइयं // 1 // " इत्येषां च निश्चयतः सम्यगृ दृष्टित्वेन उवउत्तो पुण साहू, संपत्तीए अवहओ उ॥१५॥" इत्यादि। सदभूतार्थवादित्वादन्यग्रथितमपि तदनुयायि प्रमाणमेवन पुनः तरमात्सर्वव्यापारेष्वप्रमादी सुविहितः शोभनं विहितमनुष्ठानं यस्य स शेषमिति / आचरति सर्व क्रियाम्, अप्रमादी य इह चारित्रीति सुविहितो भवेजायेतेति। सुगममेवेति / इत्युक्त क्रियास्वप्रमाद इति। ध००३ अधि०५ लक्ष० / अथ कीदृक् प्रमादी स्यादित्याह रमण्या दिप्राप्त्यर्थमेव सर्वाऽऽम्मेषु प्रवर्त्तनरूपे असंप्राप्तकामभेदं प्रव० रक्खइ वएसुखलियं, उवउत्तो होइ समिइगुत्तीसु / 166 द्वार / दश०। वज्जेइ अवजहेउं, पमायचरियं सुथिरचित्तो॥११३|| पमायकय त्रि० (प्रमादकृत) प्रमादजनिते, दश०३ अ०। रक्षत्यकरणबुद्ध्या परिहरति व्रतेषु विषयभूतेषु स्खलितमतिचार, तत्र | पमायक्खलिय वि० (प्रमादस्खलित) प्रमादात्सकाशाद् दुश्चेष्टिते, प्राणातिपातविरातौ त्रसस्थावरजन्तूनां संघट्टनपरितापनोपद्रावणानिन ___पं०३०१ द्वार। करोति मृषावादविरतौ सूक्ष्ममनाभोगाऽऽदिना वादरं वचनाभिसंधि- पमायट्ठाण न० (प्रमादस्थान) द्वात्रिंशे उत्तराध्ययने, स० अङ्ग / नाऽलीक न भाषते, अदत्ताऽऽदानविरतौ सूक्ष्म स्थानाऽऽद्यननुज्ञाप्य न नामष्पिन्नविक्षेपाभिधानायाऽऽह नियुक्तिकृत्करोति, बादरं तीर्थङ्करगुरूभिरननुज्ञातं नाऽऽदत्ते, नापि परिभु क्ते निक्खेवो उपमाए, चउव्विझे दुविहो य होइ दव्वम्मि चतुर्थव्रते, "वसहि 1 कह 2 निसिर्जि 3 दिय 4 कुड्डतर 5 पुटवकालिय आगम नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो // 516 / / 6 पाणीए 7 / अपमायाऽऽहार 8 विभूसणाइँ ह नव वंभगुत्तीओ।।१।।" जाणगसरीरभवएि, तव्वइरित्ते अमज्जमाईसु / इति नवगुप्तिसनार्थ ब्रह्मचर्ये प्रतिपातयति / पशमव्रतं - सूक्ष्म निद्दाविकहकसाया, विसएसु भावओपमाओ॥१२०।। वालाऽऽदिममत्वं न करोति, वादरमनेपणीयाऽऽहाराऽऽदि न गृण्हाति, नामंठवणा दविए, खित्तद्धा उन उवरई वसही। "परिग्गहोऽणेमणग्गहणं "इत्याप्तवचनात् उपकरणं वा न मृच्छेया संजमपग्गहजोहे, अयलगणणसंधणा भावे // 121 / / समधिक धारयति," मुच्छा परिगहो वुत्तो।" इति वचनात्। रात्रिभक्त- "णिक्खेवो'' इत्यादिगाथास्तिस्रः सुगमा एव नवरं (मज्जमाईसु त्ति) विरतौ-सूक्ष्म शुष्कसन्निधिमपि न रक्षति, बादरं तु- दिवा गहियं दिवा मकारोऽलाक्षणिकः मदयतीति मद्यंकाष्ठपिष्ट निष्पन्नम, आदिशब्दाभुत्तं 1 / दिवा गहियं राओ भुत्तं शराओ गहिये दिवा भुत्त ३।राओ गहियं दासवाऽऽदिपरिग्रहः / एतानि, सुपव्यत्ययाच्च प्रथमार्थे सप्तमी, राओ भुत्त 4 / इति चतुर्विधमपि रात्रिभुक्तं न करोति। एवं सर्वव्रतेषु भावप्रमादहेतुत्वाद् द्रव्यप्रमादः, 'निद्राविकथाकषायाः' उक्तरूपाः स्खलितं रक्षति / तथोपयुक्तो दत्तावधानो भवति समितिषु प्रतीचार- (विसएसु त्ति) प्राग्वद्विषयाश्च भावतः' भावमाश्रित्य प्रमादः / तथा रूपासु। उक्तं च स्थाननिक्षेप प्रस्तावात्स्थानशब्दो नामाऽऽदिभिः प्रत्येकं योज्यते, तत्र "समिओ नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणम्मि भइयव्यो। च द्रव्यस्थानंनोआगमतोज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त यत्सचित्ताऽऽदिकुसलवइमुदीरंतो, जं वइगुत्तो वि समिओ वि॥१॥" इति। द्रव्याणामाश्रयः / क्षेत्र-स्थान-भरताऽऽदिक्षेत्रमूर्ध्वलकाऽऽदि वा / यत्र गुप्तिष्यप्रतीचाररूपासु, उपयुक्ता चासु प्रवचनमात्राध्ययनोक्त- वा क्षेत्रे स्थानं विचार्यते, अद्धा-कालः, सैव तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानमविधिना विज्ञेया / किं बहुनावर्जयत्यवद्यहेतुं परिहरति पापका-रणं, द्धास्थानम्, तच पृथिव्यादीनां भवस्थित्यादि, समयावलिकाऽऽदि प्रमादचरितं सुस्थिरचित्त इति स्पष्टार्थमेवेति॥११३॥ वा / ऊर्द्धस्थानकायोत्सर्गादि / उपरतिः-विरतिस्तत्स्थानं यत्रासौ तथा गृह्यते / वसतिः-उपाश्रयस्तत्रस्थान ग्रामाऽऽरामाऽऽदि। संयमःकालम्मि अणूणऽहियं, किरियंतरविरहिओ जहा सुत्तं / सामायिकाऽऽदिस्तस्य स्थान प्रकर्षाषकर्षवदध्यवसायरूपं यत्र आयरइ सव्वकिरियं, अपमाई जो इह चरित्ती // 114|| संयमस्यावस्थान, तचासंख्येयभेदभिन्नम् / तथाहि-सामायिककालेऽवसरे यो यस्याः प्रत्युपेक्षणाऽऽदिक्रियायाः प्रस्तावस्त- च्छेदोपस्थापनापपरिहारविशुद्धिकानां प्रत्येकमसंख्येयलोकास्मिन्नित्यर्थः / कालमन्तरेण कृष्यादयोऽपि नेष्टसिद्धये स्युरित्यतः काले, ऽऽकाशप्रदेशपरिमाणानि संयमस्थानानि सूक्ष्मसम्परायस्त्वासर्व करोतीनि योगः / कथंभूतामन्यूनाधिका-न प्रमादा-तिशयादूनां, न्तर्मा हर्तिक इत्यन्तर्मुहूर्तसमयपरिमाणानि तत्स्थानानि, यथानापि शून्यचित्ततया समधिकां, करोति। अवसन्नताप्रसङ्गात् / यदाहुः ख्यातसंयमन्तु प्रकर्षापकर्षरहित एकरूप एवेत्येकमेव तत्स्थानम् / श्रीमद्रस्वामिपादाः- "आवस्सयाइयाई, न करे अहवा विहीणमहियाई। एवं च सामायिकाऽऽदीनानामसंख्येयभेदत्वात्समुदायाऽऽत्मकस्य गुरुवयणवलाइ तहा, भणिओएसो हु ओसन्नो॥१॥" तथा-क्रियान्तर- स्यमस्थानस्याऽप्यसंख्येयभेदता, केवलमिह बृहत्तरमसंख्येय गृ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 452- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण ह्यते / असंख्यातानामसंख्यातभेदत्वात् / प्रग्रहरथानं तु-प्रकर्षण गह्यतेऽस्य वचनमिति प्रग्रहः-उपादेयवाक्योऽधिपतित्वेन स्थापितः, स च लौकिको, लोकोत्तरश्चा; तस्य स्थानम् / तच लौकिकं पञ्च वाराजयुवराजमहत्तरामात्यकुमारभेदात्। लोकोत्तरमपि पञ्चथैवआचार्योपाध्यायप्रवृत्तिस्थविरगणावच्छेदकभेदात्। 'योधस्थानम्' आलीढाऽऽदि। अवलस्थानंनिश्वलस्थितिरूपं, तत्र सादिसपर्यवसिताऽऽदि परमाण्यादीनाम्। गणनास्थानम्-एककाऽऽदि। सन्धानस्थानम्-द्रव्यतः कञ्चुकाऽऽदिगतम्।भावस्थानम्-औदयिकाऽऽदिको भावस्तिष्ठन्त्यत्र जन्तव इति कृत्वेति गाथात्रयार्थः।। सम्प्रति येनात्र प्रकृतं तदुपदर्शयन्नुपदेशसर्वस्वमाहभावप्पमायपगयं, संखाजुत्ते अमावठाणम्मि। चइऊण इय पमायं, जइयव्वं अप्पमायम्मि / / 522 // भावप्रमादेन उक्तरूपेण प्रकृतम्-अधिकारः, तथा (संख त्ति) सङ्। ख्यास्थानं, तद्युक्तेन, चस्य भिन्नक्रमत्वाद्भावस्थानेन च / कोऽर्थः?. संख्यास्थानेन भावस्थानेन च, सर्वत्र सुव्यत्ययेन सप्तमी। अत्र हि गुरुवृद्धसेवाऽऽद्यभिधानतः, प्रकामभोजताऽऽदिनिषेधतश्च भावप्रमादा निद्राऽऽदयोऽर्थात्परिहर्तव्यत्येनोच्यन्ते, ते चैकाऽऽदिसंख्यायोगित औदयिकभावस्वरूपाश्चेति भावः / त्यक्त्वा विहाय, इतीत्वेवंप्रकार प्रमादम / किमित्याह- "यतितव्यं " यत्नो विधेयः, क्व? 'अप्रमादे' प्रमादप्रतियोगिनि, धर्म प्रत्युद्यम इति गाथार्थः / अस्यैवार्थस्य दृढीकरणार्थमुत्तमनिदर्शनमाहवाससहस्सं उग्गं, तवमाइगरस्स आयरंतस्स। जो किर पमायकालो, अहोरतं तु संकलिअं॥५२३|| बारसवासे अहिए, तवं चरंतस्स बद्धमाणस्स। जो किर पमायकालो, अंतमुहुत्तं तु संकलिअं॥५२४|| वर्षसहस्रमिति कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया। ततश्च वर्षसहस्रप्रमाणं कालं यावत् 'उपम्' उत्कट'तपः' अनशनाऽऽदि आदिकरस्य' ऋषभनाम्नो भगवत आचरतो यः किलेतिपरोक्षाऽऽप्तवादसूचकः। 'प्रमादकालः' यत्र प्रमादोऽभूत, यत्तदोरभिसंबन्धात् सोऽहोरात्रं 'तुः' अवधारणे।ततोऽहारात्रमेव, किमयमेकावस्थाभाविनः प्रमादस्य काल उतान्यथेत्याशङ्याऽऽह-सङ्कलितः। किमुक्तं भवति? अप्रमादगुण स्थानस्यान्तीहूर्त्तिकत्वेनानेकशोऽपि प्रमादप्राप्तौ तदवस्थितविषयभूतस्यान्तर्मुहूर्तस्यासंख्येयभेदत्वात्तेषामतिसूक्ष्मतया सर्वसङ्कलनायामप्यहोरात्रमेवाभूत्। तथा द्वादशवर्षाण्यधिकानितपश्चरतो बर्द्धहमानस्य यः किल प्रमादकाल: प्राग्वत्सोऽन्तर्मुहूर्तमेव सङ्कलितः, इहाप्यन्तर्मुहूर्तानामसंख्येयभेदत्वात् प्रमादस्थितिविषयान्तर्मुहूर्तानां सूक्ष्मत्वं, सङ्कलनान्तर्मुहूर्तस्य च बृहत्तरत्वमिति भावनीयम्। अन्ये त्वेतदनुपपत्तिभीत्या निद्राप्रमाद एवायं विवक्षित इति व्याचक्षत इति गाथाद्वयार्थः / इत्थमुत्तमनिदर्शनेनाप्रमादानुष्ठाने दाढर्धमापाद्य विपर्यये दोषदर्शनद्वारेण पुनस्तदेवाऽऽपादयितुमिदमाह जेसिं तु पमाएणं, गच्छइ कालो निरत्थओ धम्मे / ते संसारमणंतं, हिंडंति पमायदोसेणं / / 525 / / 'येषां प्राणिनां, 'तुः' पूरणे, प्रमादेनोपलक्षितानां 'गच्छति' ब्रजति, कालः 'निरर्थकः 'निष्प्रयोजनः,' क्व? -धर्मे' धर्मविषये, धर्मप्रयोजनरहित इत्यर्थः / प्रमादतो हि नश्यन्त्येव धर्मप्रयोजननानि / ते, किमित्याह-संसारम् 'अनन्तम् ' अपर्यवसितं, 'हिण्डन्ते' भ्राम्यन्ति, 'प्रमाददोषेण हेतुनेतिगाथार्थः। यतश्चैवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याहतम्हा खलु प्पमायं, चइऊणं पंडिएण पुरिसेणं / दंसणनाणचरित्ते, कायव्वो अप्पमाओ उ॥५२६|| तस्मात् 'खलु' निश्चयेन, प्रमादं त्यक्त्वा, ‘पण्डितेन' बुद्धिमता पुरुषेण, उपलक्षणत्वात् स्त्र्यादिना च / दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं चेति समाहारस्तस्मिन् मुक्तिमार्गतया प्रागभिहिते, 'कर्त्तव्यः' विधेयः, 'अप्रमादः' उद्यमः, 'तुः' अवधारणार्थ इत्यप्रमाद एव, नतु कदाचित्प्रमादः, तस्यैव दोषदुष्टत्वादितिगाथार्थः / इत्य वसितोनामनिष्पन्ननिक्षेषः। सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयम् तच्चेदम्अचंतकालस्स समूलयस्य , सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो। तं भासओ मे पडिपुग्नचित्ता, सुणेह एगग्गहियं हियत्थं // 1 // अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तो, वस्तुनश्च द्वावन्तौ- आरम्भक्षणः, समाप्तिक्षणश्च / तथा चान्यैरप्युच्यते- "उभयान्ता परिच्छिन्ना वस्तुसत्ता नित्यतेति।" तत्रेहाऽऽरम्भलक्षणान्तः परिगृह्यते, तथा चात्यन्तः अनादिः कालो यस्य सोऽयमत्यन्तकालस्तस्य, सह मूलेन-कषायाऽऽदिविरतिरूपेण वर्त्तन इति समूलकः प्राग्वत्तस्य। उक्तं हि "मूलं संसारस्य उ, हुंति कसाया अविरती या" 'सर्वस्य निरवशेषस्य,दुःखयतीति दुःखं संसारस्तस्य, असातं चेह दुःखं गृह्यते, अत्र च पक्षे मूलं रागद्वेषौ यः प्रकर्षण मोक्षयति-मोचयतीतिप्रमोक्षः-आत्मनो दुःखापगमहेतुः, पूर्वत्र तुशब्दस्यावधारणार्थस्येह संबन्धात् प्रमोक्ष-एव / तं 'भाषमाणस्य' प्रतिपादयतः, यदि वा-प्रमोक्षः अपगमस्तं भाषमाणस्येति / कोऽर्थः ? -यथाऽसौ अवति तथा बुवाणस्य (मे) मम प्रतिपूर्ण विषयान्तराऽगमनेनाखण्डितं वित्तं चिन्ता वा येषां ते प्रतिपूर्णचित्ताः, प्रतिपूर्णचिन्ता वा। 'शृणुत' अकार्णयत, एकाग्रस्य एकाऽऽलम्बनस्यार्थाचेतसो भाव एकाग्य ध्यानं, तच प्रक्रमाद्धाऽऽदि, तस्मै हितमेकाग्रयहितं, पाठान्तरत एकान्तहितं वा, हितः तत्त्वतो मोक्ष एव, तदर्थमिति सूत्रार्थः। यथा प्रतिज्ञातमाहणाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखाएणं, एगंतसुक्खं समुवेइ मोक्खं / / 2 / / Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 483 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण मा . ज्ञानस्य आभिनिबोधिकाऽऽदेः, सर्वस्य निरवशेषस्य, पाठान्तरतः'सत्यस्य वा, अवितथस्य, 'प्रकाशनया' इति। प्रभासनया, निर्मलीकरणेनेत्यर्थः / अनेन ज्ञानाऽऽत्मको मोक्षहेतुरूक्तः। तथा अज्ञानंमत्यज्ञानाऽऽदि, मोहोदर्शनमोहनीयम् / अनमोः समाहारेऽज्ञानमोहं, तस्य विवर्जना परिहारो, मिथ्याश्रुतश्रवण-कुदृष्टिसङ्गपरित्यागाऽऽदिना तया, अनेन स एव सम्यग्दर्शनाऽऽत्मकोऽभिहितः / तथा 'रागस्य द्वेषस्य च' उक्तरूपस्य, 'संक्षयेण' विनाशेन, एतेन तस्यैव चारित्राऽऽत्मकस्याभिधानम्; रागद्वेषयोरेव कषायरूपत्वेन तदुपघातकत्वाभिधानात् / ततश्वायमर्थः-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रै३ 'एकान्तसौख्यं दुःखलेशाकलङ्कितसुखं, समुपैति मोक्षम् अपवर्गम्। अयं च दुःखप्रमोक्षाविनाभावीत्यतः स एवोपलक्षित इति सूत्रार्थः / नन्वस्तु ज्ञानाऽऽदिभिर्दुःखप्रमोक्षः, अमीषां तुकः प्राप्तिहे तुः?उच्यतेतस्सेस मग्गो गुरूविद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झायएगंतनिवेसणाय, सुत्तत्थसंचिंतणया धिई य॥३॥ तस्येति योऽयमनन्तरमोक्षोपाय उक्तः एषः' अनन्तरवक्ष्यमाणः मार्गः पन्थाः प्राप्तिहेतुः, यदुत गुरवो-यथावच्छास्त्राभिधायकाः वृद्धाश्च श्रुतपर्यायाऽऽदिवृद्धाः, तेषां से वा पर्युपासना गुरुवृद्धसेवा, इयं च गुरुकुलवासोपलक्षणं, तच न सुप्रापान्येव ज्ञानाऽऽदीनि युदक्तम्''णाणस्स होइ मागी विरहरणा दंसणं चरित्ते य धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुचंति / / 1 / / इति सत्यपि च गुरुकुलवासे च स सगतान स्यादव तत्प्राप्तिरित्याह- विवजेना विशेषेण परिहार वालजनस्यऽऽदेः दूरात दूरेन्य तत्सद्भस्यान्पीयसोऽपि महादोषनिबन्धनतवेनाभिहितत्वात् तत्परिहारेऽपि च न स्वाध्यायतत्परतां विना ज्ञानाऽऽद्यवामिरित्याह स्वाध्याये उक्तरूपे एकान्तेन-इतव्यासङ्गपरिहाराऽऽत्मकेन निवेशनास्थापना स्वाध्यायैकान्तनिवेशना। सा च मनोवाक्कायानामिति गम्यते। पठन्ति च ‘सज्झायएगंतणिसेवणा य' इति / स्वाध्यायस्यैकान्तनिषेवणा-निश्चयेनानुष्ठानं स्वाध्यायकान्तनिषेवणा, सा च तत्रापि 'वृथा श्रुतमचिन्तितम्' इति कृत्वा अमुप्रेक्षव प्रधानेत्यभिप्रायेणाऽऽहंसूत्रास्यार्थ:-अभिधेयः सूत्रार्थस्तस्य (संचिंतणय त्ति) सूत्रत्वात् संचिन्तना सूत्रार्थसंचिन्तना, असयामपि न चित्तस्वास्थ्यं विना ज्ञानाऽऽदिलाभ इत्याह- 'धृतिश्च' चित्तस्वास्थ्यमनुद्विगत्वमित्यर्थ इति सूत्रार्थः। यतश्चैवंविधो ज्ञानाऽऽदिमार्गस्तत एतान्यभिलषता प्राक् किंविधेयमित्याहआहारमिच्छे मियमेसणिजं, सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं / निकेयमिच्छिन्न विवेगजोग, समाहिकामे समणे तवस्सी॥४॥ 'आहारम्' अशनाऽऽदिकम् 'इच्छेत् अभिलषेत, मितमेषणीयम्, अपेर्गम्यमानत्वादिच्छेदप्येवंविधमेव, आदानभोजने तुदूरोत्सारिते एव, अनेवंविधस्य एवं विधाहार एव ह्यनन्तरोक्तं गुरुवृदसेवाऽऽदि ज्ञानाऽऽदिकारणमाराधयितुं क्षमः / तथा- 'सहाय' सहचरमिच्छेद्रच्छान्तर्वतीं सन्निति गम्यते, निपुणा-कुशला, अर्थेषु-जीवाऽऽदिषु बुद्धिः मतिरस्येति निपुणार्थबुद्धिस्तम् / पठ्यते च-(णिउणेहबुद्धि) तत्र निपुणासुनिरूपिता, ईहा-चेष्टा बुद्धिश्च यस्य स तथा।अनीदृशो हि सहायः स्वाच्छन्द्योपदेशाऽऽदिना ज्ञानाऽऽदिकारणगुरुवृद्ध-सेवाऽऽदिभ्रंशमेव कुर्यादिति। तथा 'निकेतम्' आश्रयमिच्छेद् विवेकः पृथग्भावः स्वयादिसंसर्गाभाव इति यावत्। तस्मै योग्यम् उचितं, तदापाताऽऽद्य-सम्भवेन विवेकयोग्यम्। अविविक्ताऽऽश्रये हि स्त्रयादिसंसर्गाचित्त-विप्लवोत्पत्ती कुतो गुरुवृद्धसेवाऽऽदिज्ञानाऽऽदिकारणं सम्भवेत् ? समाधि कामयतेअभिलषति समाधिकामः, अत्र च समाधिव्यभावभेदाद् द्विभेदः, तत्र द्रव्यसमाधिः क्षीरशर्कराऽऽदिद्रव्याणं परस्परमविरोधेना वस्थानम् / भावसमाधिस्तु ज्ञानाऽऽदीनां परस्परमबाधयाऽवस्थानं तदनन्यत्वाच ज्ञानाऽऽदीनाम, अयमेवेह गृह्यते। तथा च ज्ञानाऽऽद्यवाप्सुकाम इत्युक्तं भवति, श्रमणस्तपस्वीति प्राग्वदिति सूत्रार्थः। कालाऽऽदिदोषत एवंविधसहायाप्राप्तौ यत्कृत्यं तदाहन वा लमिज्जा निउणं सहायं, गुणहियं वा गुणओ समं वा। एक्को विपावाइँ विवजयंतो, विहरेज कामेसु असज्जमाणो॥शा 'न' निषेधे, वाशब्दश्चेदर्थे, ततश्च न चेत् 'लभेत्' प्राप्नुयात् 'निपुणम्' इति निपुणबुद्धि 'सहाय' गुणैः ज्ञानाऽऽदिभिरधिकम् अर्गलं गुणाधिकं वा 'गुणत' इति ज्ञानाऽऽदिगुणानाश्रित्य 'समं वा' तुल्यमुभयवाऽऽन्मन इति गम्यते। 'वेति विकल्पे। तत किमित्याह- 'एकोऽपि' असहायोऽपि 'पापानि पापहेतुभूतान्यनुष्ठानानि, 'विवर्जयन्' विशेषण परिहरन् / पठ्यते च- "अणायरंतो त्ति / ' अनाचरन् / 'विहरेत्' संयमाध्वनि यायात्, 'कामेषु ' विषयेषु असज्जन्' प्रतिबन्धमकुर्वन्, तथाविधगीतार्थयतिविषयं चैतत्, अन्यथैकाकि विहारस्याऽऽगमे निषिद्धत्वात् / एतदभिधाने च- "मध्यग्रहणे आद्यन्तयोरपि ग्रहणं भवति' इति न्यायादाहारवसतिविषयोऽप्यपवाद उक्त एव भवतीति मन्तव्यम्। इत्थं सप्रसङ्ग ज्ञानाऽऽदीनां दुःखप्रमोक्षोपायत्वमुक्तम्। इदानीं तेषामपि मोहाऽऽदिक्षयनिबन्धनत्वात्तत्क्षयस्यैव प्राधान्येन दुःखप्रमोक्षहेतुत्वख्याफ्नार्थम्, यथा तेषां संभवो यथा दुःखहेतुत्वं यथा च दुःखस्य प्रसङ्ग तस्तेषां चाभावस्तथाऽभिधातुमाह जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य। एमेव मोहाऽऽयतणं खु तण्हं, मोहं च तण्हाऽऽयतणं वयंति॥६|| यथा चेति ये नैव प्रकारेण, अण्डं - प्रतीतं, ततः प्रभव उत्पतिर्यस्याः साऽण्ड प्रभवा,'बलाका पक्षिविशेषः, अण्डं ब Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 484 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण लाकातः प्रभवतीति बलाकाप्रभवम्, यथा च, किमुक्तं भवति ? यथाऽनयोः परस्परमुत्पत्तिस्थानता 'एवमेव' अनेनैव प्रकारेण, मोहयति- मूढता नयत्यात्मानमिति मोहः-अज्ञानम् / तच्चेह मिथ्यात्वदोषदुष्ट ज्ञानमेव गृह्यते। उक्तं हि-"जह दुव्वयण-मवयणं" इत्यादि। आयतनम्-उत्पत्तिस्थानं यस्याः सा मोहाऽऽयतना, ता, 'खुः' अवधारणे, ततो मोहाऽऽयतनामेव (तण्हं ति) तृष्णा, वदन्तीति सम्बन्धः / यथोक्तमोहाभावे ह्यवश्यम्भावी तृष्णाक्षय इति / मोहं च तृष्णाऽऽयतनं यस्यासौ तृष्णायतनस्तं वदन्ति / तृष्णा हि सती मूर्छा, सा चात्यन्तदुस्त्यजा रागप्रधाना, ततस्तया, राग उपलक्षिते सति च तत्र द्वेषोऽपि संभवतीति सोऽप्यनयैवाऽऽक्षिप्यते / ततस्तृष्णाग्रहणेन रागद्वेषायुक्तौ, एतयोश्चानन्तानुबन्धिकषायरूपयोः सत्तायामवश्यम्भावी मिथ्यात्वोदयः, अत एवोपशान्तकषायवतिरागस्याऽपि मिथ्यात्वगमनम्। तत्र च सिद्ध एवाज्ञानरूपो मोहः, एतेन च परस्परं हेतुहेतुमद्भावाभिधानेन यथा रागाऽऽदीनां सम्भवस्तथोक्तम् // 6 // सम्प्रति यथैतेषां दुःखहेतुत्वं तथा वक्तुमाहरागो य दोसो विय कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुःखं च जाईमरणं वयंति // 7 // 'रागश्च मायालोभाऽऽत्मकः 'द्वेषोऽपि च,' क्रोधमानाऽऽत्मकः, कर्म ज्ञानाऽऽरणाऽऽदि, तस्य बीजं कारणं कर्मबीजम्, कर्म, चस्य भिन्नक्रमत्वान्मोहात्प्रभवतीति मोहप्रभवं च-मोहकारणं वदन्ति / 'चः' सर्वत्र समुच्चये / 'कर्म च' इति कर्म पुनः, जातयश्च मरणानि च जातिमरणं, तस्य 'मूलं' कारणम्, 'दुःखं' संसारम्,आसातपक्षे तु दुःखयतीति दुःखं, कोऽर्थः?-दुःखहेतु, चस्य पुनरर्थस्य भिन्नक्रमत्वात् जातिमरणं पुनर्वदन्ति, तीर्थकराऽऽदय इति गम्यते / जातिमरणस्यैवातिशयदुः खोत्पादकत्वात् / उक्तं हि- "मरमाणस्स जं दुःखं, जायमाणस्स जंतुणो / तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरति जातिमप्पणी ||1||" ||7|| यतश्चैवमतः किं स्थितमित्याहदुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तहा। तण्हा हया जस्स न होइ लोभो, लोभो हओ जस्स न किंचणाइं॥८|| 'दुःखम्' उक्तरूप, हतमिव हत, केनेत्याह-यस्य 'न भवति न विद्यते, कोऽसौ ?-मोहः, अस्यैव तन्मूलकारणत्वात्। ततो हि कर्म कर्मणश्च दुःखमित्यनन्तरमेवोक्तं, हतमिव हतमिति च व्याख्यातं, तत्क्षयेऽपि नारकाऽऽदिगतौ स्वतत्त्वभावनापरस्यापि कियतोऽपि दुःखस्य सम्भवात्, यदि दुःखहननं मोहाभावात्, असावपि कुत इत्याह-मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा / कोऽर्थः? तृष्णाया अभावान्मोहाभावः, तदायतनत्वेन तस्या अभिधानात्। तृष्णाया अपि कुतो हननमित्याह तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः। किमुक्तं भवति?-लोभाभावातृष्णाऽभावः, तृष्णाग्रहणे नोक्तनीत्या रागद्वेषयोरूक्तत्वात्तयोश्व लोभक्षये सर्वथैवाभावात्, अत एव प्राधान्याल्लोभस्य रागान्तर्गतत्वेऽपि पृथगुपादानम्। दृश्यते हि प्रधानस्य सामान्योक्तावपि विशेषतोऽभिधानं यथा ब्राह्मणा आयाताः, वसिष्ठोऽप्यायात इति। सतर्हि केनहत इत्याहलोभो हतो यस्य न किञ्चनानि, द्रव्याणि सन्तीति गम्यते। सत्सु हि तेषु संभवत्यभिकाङ्क्षा, तद्रूप एव च लोभः / यत्तु तत्सद्भावेऽपि लोभहननं भरताऽऽदीनां तत्कादाचित्कमित्यविवक्षितमेव, पठ्यते च-यस्य न किशनास्ति-न किञ्चिद्विद्यते, द्रव्याऽऽदिकमिति गम्यत इति सूत्रार्थः // 8 // सन्त्वेवं दुःखस्य मोहाऽऽदयो हेतवो, हननोपायास्तेषां किमयमेव, उतान्योऽप्यस्ति? इत्याशङ्कय सविस्तरं तदुन्मूलनोपायं विवदिषुः प्रस्तावमारचयति रागं च दोसं च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं। जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुटिव lll स्पष्टम्। नवरं यदिह रागस्य प्रथममुपादानं, पूर्व तु मोहस्य, तत् मोहस्य रागद्वेषयोश्च परस्पराऽऽत्तत्वेन पूर्वापरभावस्यानियमात्। तथा उद्धर्तुकामेन इति।' उन्मूलयितुमिच्छता, सह मूलानामिव मूलानां - तीब्रकषायोदयाऽऽदीनां मोहप्रकृतीना, जालेन-समूहेन, वर्त्तत इति समूलजालस्तम्, एतच्च रागाऽऽदीनां प्रत्येक विशेषणम्, 'उपायाः' तदुद्धरणहेतवः 'प्रतिपत्तव्याः' अङ्गीकर्तव्याः, कर्तुमिति गम्यते। पठ्यते च- "अपाया परिवज्जियव्वा'' इति / 'अपायाः' तदुद्धरणप्रवृत्तानां विघ्नकारिणोऽर्थाः 'परिवर्जयितव्याः' परिहर्त्तव्या इति सूत्रावयवार्थः / यथाप्रतिज्ञातमेवाऽऽहरसा पगामं न हु सेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं / दित्तं च कामा सममिडवंति, दुमं जहा सादुफलं च पक्खी // 10 // ‘रसाः' क्षीराऽऽदिविकृतयः 'प्रकामम्' अत्यर्थं 'न निषेवितव्याः' नोपभोक्तव्याः, प्रकामग्रहणं तु वा ताऽऽदिक्षोभनिवारणाय रसा अपि निपेवितव्या एव निष्नपरणनिषेवणस्य तुनिषेध इति ख्यापनार्थम्। उक्तं च- "अच्चाहारो न सहइ, अतिनिद्धेण विसया उदिज्जंति। जायामायाहारो, तं पि पगाम ण भुंजामि // 1 // " किमित्येवमुपदिश्यते?. इत्याह'प्रायः' बाहुल्येन रसाः, निषेव्यमाणा इतिगम्यते। दृाप्तेः-धातूद्रेकस्तत्करणशीला दृप्तिकराः, दृप्तकरा वा पाठान्तरतः। इह च भावे क्तप्रत्यय इति दर्प उच्यते / दृश्यत एवं हि कुर्वता दृप्तत्वममीषां प्राणिनामिति / यदि वा दीप्तं दीपनं, मोहानलज्वलनमित्यर्थः तत्करणशीला दीप्तकराः / केषाम् ?-नराणाम् / उपलक्षणत्वात् स्त्रयादीनां च, उदीरयन्ति हि ते उपभुक्तास्तेषां माहानलमिति / उक्तं हि- 'विग Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 485 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण ई परिणइधम्मो मोहो जमुदिज्जए उदिण्णे य। सुठु वि चित्तजयपरो, कह अकले ण वड्डिहिई ? ||1 // ' एवं च को दोषः?, इत्याह-दृप्तं यदि वा दीप्तं, नरमिति प्रक्रमः / 'चः पुनरर्थे, जातिविवक्षया च बहुवचनप्रक्रमेऽप्येकवचनं, कामाः विषयाः 'समभिद्रवन्ति' अभिभवन्ति, तथाविधस्य स्त्र्याद्यभिलषणीयत्वात्सुखाभिभावनीयत्वाचेति भावः / कमिव क इवेत्याह-द्रुमं वृक्ष, यथेत्यौपभ्ये, 'स्वादुफलं' मधुरफलान्वितं, च इति भिन्नक्रमः / ततश्च (पक्खि त्ति) पक्षिण इव। इह च द्रुमोपमःपुरूषाऽऽदिः, स्वादुफलतातुल्यं च दृप्तत्व, दीप्तत्वं वा, पक्षिसदृशाश्च कामा इति। अनेन रसप्रका-मभोजने दोष उक्तः। सम्प्रति सामान्येनैव प्रकामभोजने दोषमाहजहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारूओ नोवसमं उवेइ। एविंदियग्गी वि पगामभोइणो, न वंभयारिस्स हियाय कस्सई // 11 / / यथा दवाग्निः' दावालनः, प्रचुरेन्धने 'वने' अरण्ये, एतदुपादानं च वसतौ, कश्चिद्विध्यापकोऽपि स्यादिति। 'समारूतः' सवायुः 'नोपसमं न उपशम विध्यापनम्, 'उपैति' प्राप्रोति, 'एवम्' इति दवानिवत् नोपशमभाग भवति / (इंदियग्गि त्ति) इन्द्रियशब्देनेन्द्रियजनितो राग एवोक्तः, तस्यैवानर्थहेतुत्वनेह चिन्त्यमानत्वात्। सोऽग्निरिव धर्मवनदाहकत्वाद् इन्द्रियाग्निः, सोऽपि 'प्रकामभोजिनः' अतिमात्राऽऽहारस्य, प्रक्राममोजनस्य पवनप्रायत्वेनातीव तदुदीरकत्वाद्, अतश्चायं न ब्रह्मचारिणः ‘हिताय' हितनिमित्तं ब्रह्मचर्यविधातकत्वेन कस्यविद् अतिसुस्थितस्याऽपि, तदनेन प्रकामभोजनस्य काक्वा परिहार्यत्वमुक्तम्। इत्थं रागमुद्धकामेन यत्परिहर्तव्यं तद भिधाय यदतियत्नेन कर्त्तव्यं तदाहविवित्तसिज्जाऽऽसणजंतियाणं, ओमासणाणं दमिइंदियाणं / / नरागसत्तृ धरिसेइ चित्तं, पराइओवाहिरिवोसहेहिं / / 12 / / विविक्ता स्यादिविकला शय्या-वसतिः, तस्यामासनम् अवस्थानम्, तेन यन्त्रिता नियन्त्रिता विविक्तशय्याऽऽसनयन्त्रितास्तेषाम् 'अवमाशनानाम्' न्यूनभोजनानाम् / पठन्ति च-(ओमासणाए त्ति) अवमन्यूनमशनम् -आहारो येषां तेऽमी अवमाशनास्तद्भावोऽवमाशनता-अवमौदर्यरूपा, तया, दमितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि यैस्तै तथा तेषां दमितेन्द्रियाणां, पठ्यतेच- "ओमासणाईदमिइंदियाणं ति।'' अवममशनं यत्र तपसि तदवमाशनं तदादिभिस्तपोभेदैर्दमितानीन्द्रियाणि यैस्ते तथा तेषां, न नैव रागः शत्रुरिवाभिभवहेतुतया रागशत्रुः 'धर्षयति' पराभवात, किं तत् ?-चित्त, किंतु स एवेत्थं पराधृष्यत इति भावः। क इव? - 'पराजितः पराभूतः 'व्याधिरिव' कुष्ठाऽऽदिः औषधेः' गुडूच्या- दिभिर्देहमिति गम्यते / अनेनापि विविक्तशय्याऽऽसनाऽऽदीनां काक्का विधयत्वमुक्तम्। इदानीं तु विविक्तशयनाऽऽसने यत्नाऽऽधानाय विपर्यय दोषमाह जहा विरालाऽऽवसहस्समूले, नमूसगाणं वसही पसत्था। एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासो॥१३॥ यथा विडाला मार्जारास्तेषामावसथः-आश्रयो विडालाऽऽवसथस्तस्य 'मूले' समीपे न मूषकाणां वसतिः 'प्रशस्ता' शोभना, अवश्य तत्र तदपायसम्भवात्, एवमेव स्त्रीणां युवतीनां, पण्डकाऽऽद्युपलक्षणमेतत्। निलयोनिवास स्त्रीनिलयस्तस्थ 'मध्ये' अन्तर्न ब्रह्मचारिणः 'क्षमः' युक्तः, कोऽसौ?-निवासः-वसतिः, तत्र ब्रह्मचर्यबाधासम्भवादिति भावः। विविक्तशय्याऽवस्थितावपि कदाचित्स्त्रीसंपाते यत्कर्तव्य-तदाह नरूपलावण्णविलासहासं, न जंपियं इंगिय पेहियं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता, दलु ववस्से समणे तवस्सी॥१४॥ 'न' नैव रूपं-सुसंस्थानता, लावण्यं-नयनमनसामाह्लादको गुणो, विलासा विशिष्टनेपथ्यरचनाऽऽदयो, हासः-कपोलविकाशाऽऽदिरेषा समाहारे रूपलावण्यविलासहासं, नजल्पितमन्मथोल्लापाऽऽदि (इंगिय त्ति) बिन्दुलोपाद् 'इङ्गितम्' अङ्गभङ्गाऽऽदि वीक्षितं' कटाक्षवीक्षिताऽऽदि 'वा' समुच्चये। स्त्रीणां सम्बन्धि ('चित्तंसि’ त्ति) चित्ते' मनसि 'निवेश्य' -अहो ! सुन्द-रमिद चेति विकल्पतः स्थापयित्वा, 'द्रष्टुम्' इन्द्रियविषयता नेतुं 'व्यवस्येत्' अध्यवस्येत्, श्रमणस्तपस्वीति प्राग्वत्। चित्ते निवेश्येत्यनेन च रागाऽऽद्यभिसन्धिं विनैतदर्शनमपि न दोषायेति ख्याप्यते / उक्तं हि- "न सक्क रूपमद्दटुं" इत्यादि, निवेश्येति च समानकालत्वेऽपि क्त्वाप्रत्ययः / अक्षिणी निमील्य हसतीत्यादिवत् / किमित्येवमुपदिश्यते ? इत्याहअदंसणं चेव अपत्थणंच, अचिंतणं चेव अकित्तणं च। इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं // 15 / / 'अदर्शनम्' इन्द्रियाविषयीकरणं, 'चः समुचये / एव अवधारणे अदर्शनमेव च 'अप्रार्थनं च अनभिलषणम् 'अचिन्तनं चैव' रूपाssद्यपरिभावनम् 'अकीर्तनं च' असंशब्दनं, तच नाभतो गुणतो वा स्त्रीजनस्य, आर्यध्यान धर्माऽऽदि, तस्य योग्यंतद्धेतुत्वेनोचितमार्यध्यानयोग्य, हितं' पथ्यं, 'सदा' सर्वकालं, ब्रह्मव्रते। पाठान्तस्तो ब्रह्मचर्ये 'सतानाम् आसक्तानाम्। ततः स्थितमेतत्-स्त्रीणां रूपाऽऽदि मनसि निवेश्य द्रष्टुं व्यवस्येत्। ननु "विकारहे तो सति विक्रि यन्ते, येषां न चेतांसि व ए Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण व धीराः / " तत्किमिति रागमुद्धर्तुकामेन विविक्तशयनाऽऽसमता विधेयेत्युच्रुते? इत्याशझ्याऽऽह कामं तु देवीहिं वि भूसियाहिँ, न चाइया खोभइउं तिगुत्ता। तहा वि एगंतहियं ति नचा, विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो॥१६॥ (कामं तु त्ति) अनुमतमेवैतद् यदुत (देवीहिं वि त्ति) 'देवीभिरपि' अप्सरोभिरप्यास्तां मानुषीभिरत्यपिशब्दार्थः / 'भूषिताभिः अलड् कृताभिः (न) नैव (चाइय त्ति) शक्ताः 'क्षोभयितुं' चालयितु, संयमादिति गम्यते। 'तिसृभिः' मनोगुप्त्यादिगुप्तिभिर्गुप्ताः, अर्थान्मुनयः, 'तथाऽपि' यदप्येवंविधाश्चालयितुं न शक्यन्ते तदप्येकान्तहितमेतदिति ज्ञात्वा / किमुक्तं भवति ?-सम्भवन्ति हि केचिदभ्यस्तयोगिनोऽपि ये तत्सङ्गतः क्षुभ्यन्ति, येऽपि न क्षुभ्यन्ति, तेऽपि स्त्रीसंसक्तवसतिवासे "साहु तवोवणवासो'' इत्याद्यवर्णाऽऽदिदोषभाजो भवेयुरिति परिभाव्य 'विविक्तवासो' विविक्तशय्याऽऽसनाऽऽत्मको मुनीनां प्रशस्त इत्यन्तर्भावित ण्यतया 'प्रशंसितः' गणधराऽऽदिभिः लाधित इत्यर्थः अतः स एवाऽऽश्रयणीय इतिभावः। एतत्समर्थनार्थमेव स्त्रीणां दुरतिक्रमत्वमाहमुएक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स, संसारभीरूस्स ठियस्स धम्मे। नेयारिसंदुत्तरमत्थि लोए, जहडिओ बालमणोहराओ / / 17 / / 'मोक्षाभिकासि णोऽपि' मुक्त्यभिलाषिणोऽपि मानवस्य संसारात्चतुर्गतिरूपाद्भयनशीलो भीरूः संसारभीरूः, अपेरिहापि सम्बन्धनात्तस्याऽपि-तथा स्थितस्याऽपि धर्मे श्रुतधर्माऽऽदौ (न) नैव 'एतादृशम्' ईदृशम्, दुस्तरं-दुरतिक्रमम्, 'अस्ति' विद्यते, 'लोके' जगति यथा 'स्त्रियः युवतयः 'बालमनोहराः निर्विवेकचित्ताऽऽक्षेपिण्यो दुस्तराः। दुस्तरत्वे च बालमनोहरत्वं हेतुः, अतश्चातिदुस्तरत्वादासां परिहार्यत्वेन विविक्तशय्यऽऽसनमेव श्रेय इति भावः / नन्वेवं स्त्रीसङ्गातिकमार्थमयमुपाय उपदिष्टस्तथा शेषसङ्गाति- / क्रमार्थमपि किं न कश्वनोपाय उपदिश्यते ? इत्याह-यदि वा | स्त्रीसङ्गतिक्रमे गुणमाह एएय संगा समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव हवंति सेसा। जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ||18|| एतांश्च 'सङ्गान' सम्बन्धान, प्रक्रमात् स्त्रीविषयान्, 'समतिक्रम्य' उल्लङ्घय 'सुखोत्तराश्चैव' अकृच्छ्रोलड् ध्याश्चैव भवन्ति 'शेषाः' द्रव्याऽऽदिसङ्गाः, सर्वसङ्गानां रागरूपत्वे समानेऽपि स्त्रीसङ्गानामेवैतेषु प्रधानत्वादिति भावः / दृष्टान्तमाह-यथा 'महासागरं' स्वयम्भूरमणमुत्तीर्य 'नदी' सरित् 'भवेत्' स्यात्सुखोत्तरैवेति प्रक्रमः / वीर्यातिशय योगत इति भावः / (अवि गंगासमानेति) गङ्गा किल महानदी, तत्समानाऽपितत्सदृशाऽपि, आस्तामि-तरा-क्षुद्रनदीत्यपिशब्दार्थः। यदुक्तम्- "विवित्तसेज्जाऽऽसणतियाणं इत्यत्र विविक्तावसथमर्थतो व्याख्याय "ओमासणाणं दमिइंदियाणं'' इत्यात्रावमाशनत्वमनन्तरमेव प्रकामभोजननिषेधेन समर्थितं, दमितेन्द्रियत्वं तूत्तरत्र वक्ष्यत इत्युभयमुपेक्ष्य "नरागसत्तूधरिसेइ चित्तं' इत्यत्र किमिति रागपराजयं प्रत्येवमुपदिश्यते ? इत्याशय रागस्य दुःखहेतुत्वं दर्शयितुमाह कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जंकाइयं माणसियं च किंचि, तस्संतयं गच्छइ वीयरागो।।१६।। कामाः-विषयास्तेष्वनुगृद्धिः-सतताभिकाङ्गा, अनुभावानुबन्ध इत्यादिष्वनोः सातत्येऽपि दर्शनात् / तस्याः प्रभवो यस्य तत्कामानुगृद्धिप्रभवम् (खु त्ति) खुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्कामानुगृद्धिप्रभवमेव, किं तत्?-'दुःखम्' असातं, सर्वस्य लोकस्य प्राणिगणस्य, कदाचिद्देवानां विशिष्टानु भावक्त्तयैवं न स्यादत आह'सदेवकस्य' देवैः समन्वितस्य, कतरत्तद्दुःखमित्याह-यत् 'कायिक' रोगाऽऽदि, 'मानसिकंच' इष्टावियोगाऽऽदिजन्यं 'किञ्चित् स्वल्पमपि, कदाचिदेतदभावेऽप्येतत्स्याद् अत आह-तस्य द्विविधस्याऽपि दुःखस्यान्तमेव अन्तकंपर्यन्तं गच्छति 'वीतरागः' विगतकामानुगृद्धिरित्यर्थः। ननु कामाः सुखरूपतयैवानुभूयन्ते तत्कथं कामानुगृद्धि प्रभवमेव दुःखम् ? उच्यतेजहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुञ्जमाणा। ते खुद्दए जीविएँ पञ्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे // 20 // 'यथा च' इति यथैव, किम्पाको-वृक्षविशेषस्तत्फलानि, अपेर्गम्यमानत्वात् 'मनोरमाण्यपि हृदयङ्गमान्यपि, 'रसेन' आस्वादेन, 'वर्णेन च' रूचिररक्ताऽऽदिना,चशब्दाद् गन्धाऽऽदिना च, 'भुज्यमानानि' उपभुज्यमानानि (ते) इति 'तानि' लोकप्रतीतानि, क्षोदयितुम् अध्यवसानाऽऽदिभिरूपक्रमकारणैर्विनाशयितुं शक्यत इति क्षुद्रं, तदेवानुकम्प्यतया श्रुद्रकं, सोपक्रममित्यर्थः, तस्मिन्, जीविते-आयुषि पच्यमाननि-विपाकाऽवस्थाप्राप्तानि। मरणान्तदुःखदायीनीति शेषः / प्राग्वच लिङ्गव्यत्ययः। पठ्यतेच-'तेजीवियं खुदति पत्रमाणे' त्ति।तानि किम्पाकफलानि, जीवितम् आयुः, 'खुन्दति' आर्षत्वात् 'क्षोदयन्ति' विनाशयन्ति, विपच्यमानानि एतदुपसाः' किम्पाकफलतुल्पाः, कामगुणाः 'विपाके' फलप्रदानकाले। किमुक्तं भवति?-यथा किम्पाकफ्लान्युपभुज्यमानानि मनोरमाणि, विपाकावस्थायां तु सोपक्रमाऽऽयुष मरणहेतुतयाऽतिदारुणानि, एवं कामगुणा अपि उपभुज्यमाना मनोरमाः, विपाकावस्थायांतु नरकाऽऽदिदुर्गतिदुःखदायितयाऽत्यन्तदारूणा एव, ततः Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 487- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायद्वाण सुखरूपतया प्रतिभासनं सुखहेतुत्वेनैकान्तिकमेव किम्पाकफ-लानां | मनोरमत्वेन सुखप्रतिभासेऽप्यन्यथाभावादिति। इत्थं बहूत्तरगुणस्थानानुयायित्वेन रागस्य प्राधान्यात्केवलस्यैवोद्धरणोपायमभिधाय सम्प्रति तस्यैव द्वेषसहितस्य तमभिधि- / त्सुर्द मितेन्द्रियत्वं च सिंहावलोकितन्यायाऽऽश्रयणेन व्याचिख्यासुरिदमाह जे इंदियाणं विसया मणुएणा, न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न यामणुम्नेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी // 21 // ये 'इन्द्रियाणां' चक्षुरादीनां 'विषयाः' रूपाऽऽदयः मनोज्ञा' मनोरमाः न 'तेषु विषयेषु' 'भावम्' अभिसन्धिम् अपेर्गम्यमानत्वाद्भावमपि,प्रस्तावादिन्द्रियाणि प्रवर्त्तयित्तुं, किं पुनस्तत्प्रवर्तनमित्य - पिशब्दार्थः, 'निसृजेत्' कुर्यात् कदाचित् कस्मिंश्चित्काले, 'नच' नैव 'अमनोज्ञेषु' अमनोरमेषु 'मनोऽपि' चित्तमपि, अत्रापीन्द्रियाणि प्रवर्त्तयितुम् अपिशब्दार्थश्च प्राग्वत् / 'कुर्यात्' विदध्यात्, अनेन वाक्यद्वयेनापीन्द्रियदम उक्तः, समाधिः चित्तैकाग्य, स च रागद्वेषाभाव एवेति, स एवानेनोपलक्ष्यते, ततस्तत्कामो रागद्वेषोद्धरणाभिलाषी, श्रमणस्तपस्वीति च प्राग्वत् / नन्वेवमुभयोद्धरणहेतुत्वेनेन्द्रियदमस्य किमिति रागोद्धरणहेतुष्वभिधानम् ?, उच्यते हेतुप्रक्रमात् / न चोभयोद्धरणहेतुतयैकोद्धरणहेतुता विरूध्यते, यदि वा-तत्रापि रागस्य, द्वेषोपलक्षणत्वादुभयोद्धरणोपायेनैव विवक्षिता, किंतु तत्र विविक्तशय्यासामान्येनैकान्तशय्या गृह्यते, तदवस्थानस्य च प्रतीतैव तदुद्धरणोपायता, एवं प्रकामभोजिन एव दर्पतोद्वेषसम्भवादवमाशनत्वस्याप्यसौ भावनीयेत्यलं प्रसङ्गे नेति सूत्रार्थः / इत्थं रागद्वेषोद्धरणैषिणो विषयेभ्यो निवर्त्तनमिन्द्रियाणामुपदिष्टम्। अधुना त्वेतेषु तत्प्रवर्तन रागद्वेषानुद्धरणे च यो दोषस्तं प्रत्येकमिन्द्रियाणि तत्प्रसङ्गतो मनश्चाऽऽश्रित्य दर्शयितुमाह चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो उ जो तेसु स वीयरागो।।२२।। 'चक्षुषः' चक्षुरिन्द्रियस्य, रूप्यत इति रूपं वर्णः, संस्थानं वा, गृह्यतेऽनेनेति ग्रहण, कोऽर्थः-आक्षेपकं, विशिष्टेन हि रूपेण चक्षुराक्षिप्यते / तद् वदन्ति' अभिदधति, तीर्थकृदादय इति गम्यते। ततः किमित्याह-'तद्' इति रूपं, रागः-अभिष्वङ्गस्तद्धेतुः-तदुत्पादक 'तुः' पूरणे, मनोज्ञमाहुः / तथा- 'तद्' इति रूपमेव दोषो द्वेष स्तद्धेतुममनोज्ञमाहुः / ततस्तयोश्चक्षुःप्रवर्तने रागद्वेषसम्भवात्तदुद्धरणाशक्तिलक्षणो दोष इति भावः। आह-एवं न कश्चित् सति रूपे वीतरागः स्यादत आह-अरक्तदिष्टतया तुल्यः पुनर्यः 'तयोः' मनोज्ञेतररूपयोः सः, वीतराग' इति। तथाविध-रागभावतो वीतरागस्तदविनाभिवित्वाद् द्वेषस्य, तथैव वीतद्वेषश्च / इदमाकूतम्-यस्यैव रागद्वेषौ स्तस्तस्यैव तदुदीरकत्वेनान-योस्तजनकत्वमुच्यते, न तु यः सम एव, तथा च न तावचक्षुस्तयोः प्रवर्तयेत्, कथञ्चित् प्रवर्त्तने वा समतामेवाऽऽलम्बेतेत्युक्तं भवति। ननु यद्येवं रूपमेव रागद्वेषजनकं ततस्तदुद्धरणार्थिनस्तद्रतैव चिन्ताऽस्तु, रूपे चक्षुर्न प्रवर्त्तयेदित्येवं तु न युक्तैव चक्षुषश्चिन्ता, इत्याशड्क्याऽऽह रूवस्स चक्खू गहणं वयंति, चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति // रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुनमाहु / / 23 / / रूपस्यचक्षुः गृह्णातीति ग्रहणं, बहुलवचनात्कत्तरिल्युट्तद्वदन्ति, तथा चक्षुषो रूपं गृह्यत इति प्राग्वल्ल्युटि ग्रहणं ग्राह्यं तद्वदन्ति, अनेन रूपचक्षुषोाह्यग्राहकभाव उक्तः तथा च न ग्राहकं विना ग्राह्यत्वं नाऽपि ग्राह्यं विना ग्राहकत्व मित्यनयोः परस्परमुपकार्योपकारकभाव उक्तो भवति / एतेन त्वनयो रागद्वेषजनने सहकारिभावः ख्याप्यते। तथा च यथा रूपं रागद्वेषकारणं तथा चक्षुरपि, अत एवाऽऽह-रागस्य हेतु-कारणं, प्रक्रमाचक्षुः सह मनोज्ञेन ग्राह्येण रूपेण वर्त्तते इति समनोज्ञ, मनोज्ञरूपविषयमित्युक्तं भवति / आहुः' बुवते, यत्र तु "हेउ तमण्णुण्णं'' इति पाठः। तत्र (तंति तच्चक्षुर्मनोज्ञं मनोज्ञरूपविषयत्वेन ततो दोषो द्वेषः। उक्त हि- "ईर्ष्या रोषो द्वेषः' इत्यादि। तस्य हेतुममनो ज्ञम् अमनोज्ञरूपम् / पाठान्तरतश्च हेतुं तदमनोज्ञमाहु उभयप्रकमेऽपि चक्षुष एव विशेष्यत्वेनोपदर्शनं रूपस्य पूर्वसूत्रेणैव / एवं च रूपच-क्षुषोः सहितयोरेव रागद्वेषजनक त्वाद् युक्तमुक्तं तायुद्धर्तुकामो रूपे चक्षुर्न प्रवर्तयेत्, यदा तु पाश्चात्यपादवयं पूर्ववत् पठ्यते तदा पूर्वसूत्रे चक्षुषो रूपग्रहणं-ग्राह्यमिति व्याख्येयम्। ततश्चैहापि ग्राह्यग्राहक भाव उक्त तत्र चोक्त एवाभिप्रायः, तथा यदि चक्ष रागद्वेषकारण न कश्चिद्वीतरागः स्यादत आह-समश्चेत्यादि शेषं सुगमम्। आह-अस्त्वयं रागद्वेषोद्धरणोपायः, एतदनुद्धरणे च को दोषः? येन तदुद्धरणार्थमित्थमुपदिश्यत इत्याह रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ सो विणासं। रागाऽऽउरे से जह वा पयंगे, आलोअलोले समुवेइ मच्चु // 24 // रूपेषु यो 'गृद्धिं' गाऱ्या रागमित्यर्थः / उक्तं हि वाच के:"इच्छा मूच्छा कामः, स्नेहो गायं ममत्वमभिनन्दः अभिलाष इत्यने कानि रागपर्यायवचनानि / / 1 / / ' 'उपैति' गच्छति 'तीव्राम्' उत्कटां गृद्धेविशेषणं, स किमित्याह-अकाले भवम् आकालिकं -यथा-स्थित्या गुरुपक्रमादगिव प्राप्नोति स 'विनाशं' घातं , पाठान्तरतः 'क्लेश वा' मरणान्तबाधाऽऽत्मकं, रागेणाऽऽतुरोविह्वलो रागाऽऽतुरसन (से) इति स लोकप्रतीतः, 'यथा वा' इति वाश Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 488 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायद्वाण ब्दस्यैवकारार्थत्वाद् "यथैव'' येनैव प्रकारेण 'पतङ्गः' शलभः, आलोक:-अतिस्निग्धदीपशिखाऽऽदिदर्शन, तस्मिन् लोलो लम्पट आलोकलोलः समुपेति 'मृत्युं' प्राणत्याग, तस्यापि गृद्धाऽऽलोकलोलत्वं राग एवेति भावः। जे यावि दोसं समुवेइ निचं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुद्दतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रूवं अवरज्झई से // 25 // 'यश्व' इति यस्तु, अपीति च तस्मिन्नित्यनेन योक्ष्यते। 'दोष' द्वेष (समुवेइ त्ति) वचनव्यत्ययात् 'समुपैति' समुपगच्छति, रूपेष्विति प्रक्रमः / 'नित्य' सदा, न तु कदाचित्, स किमित्याह-तस्मिन्नपि 'क्षणे' प्रस्तावे यस्मिन् द्वेष उत्पन्नः 'से' इति सः 'तुः पूरणे उपैति 'दुःखं' / शारीराऽऽदि, द्विष्टो हि किमिदमनिष्ट मया दृष्टमिति मनसा व्याकुलीभवति, परितप्यते च देहेन, न तु यथारागमुपगच्छंस्तत्काले मनोज्ञविषयावलोकनजनितं सुखमभिमन्यते, उत्तरकालमेव तु दुःखमिति। पठन्ति च- "समुति सव्वं ति।" स्पष्टम्। यदि वा रूपदर्शनाद् द्वेषमुपगच्छन् दुःखमुपैति ततस्तथाविधरूपदोषेणैवास्य दुःखावाप्तिरिति प्राप्तमित्याशङ्कयाऽऽह-दुष्ट दमनं दुर्दान्तं, तच्च प्रक्रमाच्चक्षु षस्तदेव दोषो दुर्दान्तदोषस्तेन, 'स्वकेन' आत्मीयेन 'जन्तुः' प्राणी, न किञ्चित्' स्वल्पमपि, रूप प्रक्रमादमनोज्ञम्, अपराध्यति दुष्यति (से) तस्य, यदि हि रूपमेवापराध्येन्न कस्यचिद् द्वेषाभावः स्यात्, तथा च मुक्त्याभावाऽऽदयो दोषा इति भावः। इत्थं रागद्वेषयोयो रप्यनर्थहेतुत्वमुक्तमिदानीं तु द्वेषस्यापि रागहेतुकत्वात्स एव महानर्थमूलमिति दर्शयंस्तस्य विशेषतः परिहर्त्तव्यता ख्यापयितुमाह एगंतरत्तो रूइरंसि रूवे, अतालिसे से कुणई पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पते तेण मुणी विरागे॥२६।। 'एकान्तरक्तो' यो न कथञ्चिद्विराग याति, 'रूचिरे' मनोरमे रूपे, किमित्याह-(अतालिसे त्ति) मागधदेशीभाषया 'अतादृशे' अन्यादृशे। तथाच तल्लक्षणं-'रशयोर्लसौ' मागधिकायां (से इति) स करोति प्रदोषं' द्वेष, सुन्दरीनन्द इव सुरसुन्दरीरागतः सुन्दर्या तथा च दुःखस्य संपीड' संघातं,यद्वा-समिति भृशं, पीडा दुःखकृता बाधा संपीडा, तामुपैति 'बालः' अज्ञः। उक्तेवार्थ व्यतिरेकमुखेनाऽऽह-न लिप्यत इव लिप्यते, श्लिष्यत इत्यर्थः, तेन' द्वेषकृतदुःखेन, मुनिः 'विरागः' रागविरहितः, तस्यैव तन्मूलत्वादिति भावः। सम्प्रति रागस्यैव पापकर्मोषचयलक्षणमहानर्थहेतुता ख्यापयितुं हिंसाऽऽद्याश्रवनिमित्तता पुनरिहेव तद्द्वा रेण दुःखजनकत्वं च सूत्रषट्केनाऽऽहरूवाणुआसाऽणुगए यजीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे। चित्तेहि ते परियावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरु किलिटे ||27|| रूपप्रस्तावान्मनोज्ञमनुगच्छति रूपानुगा, सा चासावाशाच रूपानुगाऽऽशा, रूपविषयोऽभिलाष इति योऽर्थः, तदनुगतश्च जीवः / पठन्ति च 'रूवाणुवायाणुगए य जीवे" इति / तत्र रूपाणांमनोज्ञानामुपायैःउपार्जनहेतुभिरनुगतो युक्त उपायानुगतः, स च प्राणी जीवान् 'चराचरान्' उसस्थावरान् 'हिनस्ति' विनाशयति 'अनेक रूपान्' जात्यादिभेदतोऽनेकविधान, काश्चित्तु 'चित्रैः' अनेकप्रकारैः, स्वकायपरकायशस्त्राऽऽदिभिरूपायैरिति गम्यते। सुव्यत्ययायथासभवं चित्तेषु या। तानितिचराचरजीवान, परीति सर्वतस्तापयति दुःखयति परितापयति,बाल इव बालः-विवेकविकलतयाऽपरांश्च पीडयति, एकदेशदुःखोत्पादनेनाऽऽत्मार्थ गुरूः स्वप्रयोजननिष्ठः 'क्लिष्टः' रागबाधितः। अन्यच्चरूवाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसंनिओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे? // 28 // रूपानुपातो-रूपविषयोऽनुपातः अनुगमनमनुरागइति यावत्। तस्मिंश्व सति 'परिग्रहेण' मूर्छाऽऽत्मकेन हेतुना, 'उत्पादने' उपार्जने, रक्षणं च-अपायविनिवारणं, सन्नियोगश्च स्वपरप्रयोजनेषु सम्यग् व्यापारण, रक्षणसन्नियोग, तस्मिन् (वए त्ति) व्यये विनाशे 'वियोगे' विरहे सतोऽप्यनेककारणजनिते, सर्वत्र रूपस्येति प्रक्रमः। व सुखं? न कृचिद्, किंतु सर्वत्र दु खमेवेति भावः। (से इति) तस्य जन्तोः / इयमत्र भावनारूपमूञ्छितो हि रूपवत्करितुरङ्गमकलत्राऽऽदीनामुत्पादनरक्षणार्थ तेषु तेषु क्लेशहेतुषूपायेषु जन्तुः प्रवर्त्तते, तथा नियोज्याऽपि तथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ रूपवत्कलत्राऽऽदि तदपायशङ्कया पुनःपुनः परितप्यत एवेति सिद्धमेवास्योत्पादनरक्षणसंनियोगेषु दुःखम् / एवं व्ययवियोगयोरपि भावनीयम् / अन्ये तु पठन्ति- 'रूवाणुरागेण परिगहेणं' इति / तत्र रूपानुरागेण हेतुना यः परिग्रहस्तेन, शेषं प्राग्वत् / स्यादेतत् मा भूद्रत्पादनाऽऽदिषु रूपस्य सुखं, सम्भोगकाले तु भवष्यितीत्याशयाऽऽह-'सम्भोगकाले च' उपभोगप्रस्तावेच (अतित्तलाभेत्ति) तर्पणं तृप्तं, तृप्तिरिति यावत् / तस्य लाभः प्राप्तिस्तृप्तलाभो नतथाऽतृप्तलाभः / किमुक्तं भवति?-बहुधाऽपि रूपदर्शने रागिणां न तृप्तिरस्ति यतोऽन्यैरप्युक्तम्- "न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति / हविषा कृष्णवत्मय, भूय एवाभिवर्द्धते / 1 // " तथा "यथाऽभ्यासं विवर्द्धन्ते, विषयाः कौशलानि च। इन्द्रियाणम्।" इति। तस्मिन् सति व सुखमिति सम्बन्धः। उत्तरोत्तरेच्छया हि परितप्यत एव जन्तुरिति / पठन्ति च(अतित्तिलाभे त्ति) तृप्तिप्राप्त्यभावे। आह-एवं परिग्रहाद् दुःखमनुभवतस्तद्भीरूतया ततो निवृत्तिर्दोषान्तरानारम्भणं वा किमस्य सम्भवतीत्य, शङ्कयाऽऽह रूवे अतित्ते अपरिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि / / Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाऽऽविले आययाई अदत्तं // 26 / / रूपेऽतृप्तश्च, परिग्रहे च तद्विषयमूर्छाऽऽत्मके सक्तः-सामान्येनैवाऽऽसक्तिमान्, उपसक्तश्च-गाढमासक्तः, ततः सक्तश्च पूर्वमुपसक्तश्व पश्चात् सक्तोपसक्तः, 'नोपैति' नोपगच्छति, 'तुष्टि' परितोष, सन्तोषमिति यावत् / तथा चातुष्टिरेव दोषोऽतुष्टिदोषस्तेन दुःखी- यदि ममेदमिदं च रूपवद्वस्तु स्यादित्याकासातो - ऽतिशयदुःखवान्, स किं कुरूते?, इत्याह- 'परस्य' अन्यस्य, सम्बन्धि रूपवस्त्विति गम्यते। 'लोभाऽऽविलः' लोभकलुषः, यद्वा-परेषा स्वं परस्वं, प्रक्रमाद् यद्वपवद्वस्तु, तस्मिन् लोभोगायं, तेनाऽऽविलः परस्वलोभाऽऽबिलः, 'आदत्ते' गृहाति, अदत्तम्, 'अदत्तम्' अनिसृष्ट परकीयमेव, रूपवद्भस्त्विति गम्यते। अनेन रागस्यातिदुष्टता ख्यापयितुं परिग्रहाद्दोषदर्शनेऽपि विशेषतस्तत्राऽऽसक्तिर्दोषान्तराऽऽरम्भणं चाभिहितम्। तत्किमस्यैतावानेव दोष उतान्योऽपि? इत्याश इ क्योक्तदोषानुवादेन दोषान्तरमप्याहतण्हाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य॥ मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तन्थावि दुक्खा न विमुच्चइ से / / 30 / / 'तृष्णाभिभृतस्य' लोभाभिभूतस्य, तत एवाऽदत्तं हरति गृह्नितीत्येवंशीलोऽदत्तहारी तस्य, तथा रूपे-रूपविषयो यः परिग्रहस्तस्मिन्निति योगः / चस्य भिन्नक्रमत्वाद्, अतृमस्य च तवाऽसन्तुष्टस्य, मायाप्रधानं (मोसं ति) मृषाऽलीकभाषणं मायामृषा, वर्द्धत याति कुतः पुनरिदमित्थमित्याह- 'लोभदोवात् लोभापराधात् लुब्धो हि परस्वमा दत्त आदाय च तदोपनपरो मायामृषा वक्ति, तदनेन लोभ एष सर्वाऽऽश्रवाणामपि मुत्यो हेतुरित्यु क्त, तथा रागप्रक्रमेऽपि सर्वत्र लोभाऽभिधानं रागेऽपि लोभांशस्यैवावतिदुष्टताऽऽवेदनार्थम् तत्राऽपि को दोषः? इत्याह'तत्रापि' मृषाभाषणेऽपि, 'दुःखात्' असातात् 'न विमुच्यते' न विमुक्रिमालोनि सः, किं तु दुःखभाजनमेव भवतीति भावार्थः / / दुःखाविमुक्तिमेव भावयतिमोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते / एवं अदत्ताणि समायअंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्से॥३१॥ (मोसस्स ति) मृषा, कोऽर्थ ?- अमृतभाषणस्य, पश्चाच पुरस्ताच्च, 'प्रयोगकाले च तद्भापणप्रस्तावे च, दुःखी सन् तत्र-पश्चादिदमिदं च न मया सुसंस्थापितमकमिति पश्चात्ताएतः, पुरस्ताच्च कथमयं मया वञ्चनीय इति चिन्ताव्याकुलत्वेन, प्रयोगकाले च-नाऽसौ ममालीकमाषिता लक्षयिष्यतीति क्षोमतः, तथा दुष्टोऽन्तः-पर्यवसानं तज्जन्मन्यनेकविडम्बनातो विनाशेन, अत्यजन्मनि च -नरकाऽऽदिप्राप्त्या यस्याऽसौ दुरस्तो भवति, जन्तुरिति गम्यते / तदेवं मृषाद्वारेणादत्ताऽऽदानस्य दुःखहेतुत्वमुक्तम् / यदा च (मोसस्स त्ति) 'मोषस्य' स्तेयस्येति व्याख्या, तदा साक्षादेव तस्य दुःखहेतुत्वाभिधानम् / उपसंहारमाह'एवम्' अमुनोक्तप्रकारेणादत्तानि समाददानः' गृह्णन्, रूपेऽतृप्तः सन् दुःखितो भवति / कीदृशः सन्?, इत्याह- 'अनिश्रः' दोषवत्तया सर्वजनोपेक्षणीय इति कस्यचित्सम्बन्धिनाऽवष्टम्भेन रहितः, मैथुनरूपाऽऽश्रवोपलक्षणं चैतदतिप्रसिद्धत्वाच्च रागिणां तस्य सांज्ञादनभिधानम्। यद्वारूपसम्भोगोऽपि मिथुनकर्मकत्वाद् देवानामिव मैथुनमेव तथा च रागिवचनम्- "आलोए चिय सा तेण पियमाणेह निब्भरमणेण / आभासियव्व अवगहियव्व रमियव्व पीयव्व।।१।।" इति। स च प्रक्रान्तः, एवमुत्तरत्राऽपि स्त्रीगतशब्दाऽऽदि-सम्भोगानां मैथुनत्वं सम्भावनीयम्। उक्तमेवार्थं निगमयितुमाहरूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं हुन्ज कयाइ किंचि? तत्थोवभोगेऽवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कर ण दुक्खं // 32 // रूपानुरक्तस्य नरस्य एवम् अनन्तरसूत्रकदम्बकोक्तप्रकारेण, कुतः सुखं भवेत् ? कदाचित्किञ्चित्, सर्वदा दुःखमेवेति भावः / किमित्येवं ? यतः 'तत्र' रूपानुरागे 'उपभोगेऽपि' उपभोगावस्थायामपि क्लेदुःखम्' अतृप्तलाभतालक्षणवाधाजनितमसातम्, उपभोगमेव 'विशिनष्टिनिवर्तयति' उत्पादयति, यस्य इत्युपभोगस्य कृते यदर्थ 'णं' इति वाक्यालङ्कारे, 'दुःखं कृच्छ्रमात्मन इति गम्यते। उपभोगार्थं हि जन्तुः क्लिश्यति, तत्र सुखं स्यादिति, यदा च तदपि दुःखं तदा कुतोऽन्यदा सुखसम्भव इति भावः। इत्थं रागस्यानर्थहेतुतामभिधाय द्वेषस्याऽपि तामतिदे _ष्टुमाहएमेव रूवम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे / / 33 / / 'एवमेव' यथाऽनुरक्तस्तथैव रूपे गतः प्रदोष-द्वेषम 'उपैति प्राप्नोति, इहैवेति शेषः। 'दुःखौघपरम्पराः उत्तरोत्तरदुःखस-मूहरूपाः, तथा प्रदुष्ट प्रकर्षेण द्विष्ट चित्तयस्य स तथाविधः, चस्य भिन्नक्रमत्वात 'चिनोति च' वध्नाति कर्म, तत् शुभमपि सम्भवत्यत आह-यत् (से तस्य पुनर्भवति 'दुःख' 'दुःखहेतुः' 'विपाके' अनुभवकाले, इह परव चेति भावः / पुनर्ग्रहणमैहिक दुःखापक्षम्, अशुभकर्मोपचयश्च हिंसाऽऽद्याश्रवाविमाभावीति तद्धेतुत्वमने नाऽऽक्षिष्यते। इत्थं रागद्वेपयोरूद्धाणार्हतां ख्यापयितुं तदनुद्धरणे दोषमभिधाय तदुद्धरणे गुणमाहरूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण / Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 460 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण न लिप्पई भवमझेऽवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं // 34 / / रूपे विरवतः, उपलक्षणत्वादद्विष्टश्च 'मनुजः' मनुष्यः 'विशोकः' शोकरहितः संस्तन्निबन्धनयो रागद्वेषयोरभावात् / एतेन' अनन्तरमुपदर्शितेन (दुक्खोहपरंपरेण ति) दुःखानाम् - असातानामेघाः ससातास्तेषां परम्परासन्ततिर्दुःखौघपरम्परा, तया, 'लिप्यते' न स्पृश्यते, भवमध्येऽपि सन्' भवन्, संसारान्तरवर्त्यपीत्यर्थः / दृष्टान्तमाह जलेनेव, वाशब्दस्योपमार्थत्वात्, पुष्करिणीपलासं पद्मिनीपत्रं, जलमध्येऽपि सदिति शेषः / / 34 / / इत्थं चक्षुराश्रित्य त्रयोदश सूत्राणि व्याख्यातानि / एतदनुसारेणैव शेषन्द्रियाणां मनसश्च स्वविषयप्रवृत्ती रागद्वेषानुद्धरणदोषाभिधा-यकानि त्रयोदश सूत्राणि व्याख्येयानि। सोयस्स सई गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो अजो तेसु स वीयरागो / / 3 / / सदस्स सोयं गहणं वयंति, सोयस्स सदं गहणं वयंति।। रागस्स हेउं तु मणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु // 36 सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइसे विणासं। रागाउरे हरिणमिउ व्व मुद्धे, सद्दे अतित्ते स वेइ मुच्चुं // 37 / / जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि वखणे से उ उवेइ दुक्खं / दुदंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि सई अवरज्झई से // 38 // एगतरत्ते रूइरंसि सहे, अतालिसे से कुणई पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो // 36 // सद्दाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइडणेगरूवे। चित्तीहँ ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठ गुरु किलिट्टे / / 40|| सद्दाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे? ||11|| सद्दे अत्तिते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुह्रि। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाऽऽविले आययई अदत्तं / / 12 / / तण्हाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिगहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुबई से // 43 // मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥४४|| सदाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि? तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं // 45 // एमेव सद्दम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तोय चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥४६|| सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेणं। न लिप्पई भवमज्ञ वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं // 47 // घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो।।४८|| गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति। रागस्स हेउं तु मणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ||46il गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते॥५०॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि गंधं अवरज्झई से / / 51|| एगतरत्ते रूइरंसि गंधे, Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायद्वाण 461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण अतालिसे से कुणई पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो // 52|| गंधाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे। चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ट गुरु किलिट्टे / / 53|| गंधाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे? ||5|| गंधे अतित्ते य परिगहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुह्रि / अतुट्ठिदोसेण दही परस्स, लोभाऽऽविले आययई अदत्तं / / 5 / / तण्हाऽऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से // 56 / / मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिओ अणिम्मो // 57 / / गंधाणुरत्तम्म तरस्स एव, कओ सुहं होज्ज कयाइ किंचि? तस्योवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं / / 58|| एमेव गंधम्मि गओ पआसं , उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ||5|| गधे विरत्तो, मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण! न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥६०|| जीहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु सणुनमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो // 61|| रसस्स जीहं गहणं वयंति, जीहाए रसं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु / / 62 / / रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे वडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे // 63|| जे यावि दोसं समुवेइ तिव्यं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुईतदोसेण सएण जंतू, न किंचि रसं अवरज्झई से // 64 // एगंतरत्ते रूइरंसि रसे, अतालिसे से कुणई पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो // 65 / / रसाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे। चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठ गुरु किलिट्टे // 66|| रसाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से संभोगकाले य अतित्तलाभे? ||67 / / रसे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुह्रि। अतुढिदोसेण दुही परस्स, लोभाऽऽविले आययई अदत्तं // 68|| तण्हाऽभिभृयम्म अदत्तवारिसो, रसे अतित्तस्स परिग्गहेय। मयामुसं वड्ढा लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से // 69 / / मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो // 7 // रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि ? तत्थोक्भोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं / / 71 / / रसम्मि एमेव गओ पओसं, Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 492 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे |7|| रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण / न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं // 73|| कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो // 74|| फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु // 75 / / फासेसु जो गिद्धिमुवेई तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं / रागाउरे सीयजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे वारन्ने // 76|| जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुदंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि फासं अवरज्झई से 1 // 77|| एगंतरते रूइरंसि फासे, अतालिसे से कुणई पओसं! दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो // 78|| फासाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे। चित्तेहिँ ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठ गुरु किलिट्टे॥७६|| फासाणुवाएणा परिगहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे? ||8|| फासे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुडिं। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाऽऽविले आययई अदत्तं / / 81 / / तण्हाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से // 2 // मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥८३|| फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ||84 // एमेव फासम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे / / 8 / / फासे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं 186|| मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुनमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो।।८७|| भावस्स मणं गहणं वयंति, मणस्स भावं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु / / 88|| भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्यं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गावहिए व्व नागे ||8|| जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुदंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि भावं अवरज्झई से||१०|| एगंतरत्ते रूइरंसि भावे, अतालिसे से कुणई पआस। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ||1|| भावाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण चराचरे हिंसइऽणेगरूवे। चित्तेहिं ते परितावेइ बोले, पीलेइ अत्तट्ठ गुरु किलिट्टे ||2|| भावाणुवाएण परिग्गहेणं, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे? ||3|| भावे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहूिँ। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाऽऽविले आययई अदत्तं / / 14 / / तण्हाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिगहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से / / 65|| मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एव अदत्ताणि समाययंतो, भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो / / 6 / / भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुई होज कयाइ किंचि? तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ! 67|| एमेव भावम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरेपराओ पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे // 18 // भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं IEl नवरं 'श्रोत्रस्येति' श्रोत्रेन्द्रियस्य, शब्द्यत इति शब्दो-ध्वनिस्त, / 'मनोज्ञ' काकलीगीताऽऽदि, अमनोज्ञ' खरकर्कशाऽऽदि, तथा (हरिणभिय व्व मुद्धे त्ति) मृगः सर्वोऽपि पशुरूच्यते,यदुक्तम्- 'मृगशीर्षे हस्तिजातो, मृगः पशुकुरङ्गयोः।” इति। हरिणस्तु कुरङ्ग एवेति तेन विशेष्यते, हरिणश्चासौ मृगश्च हरिणमृगः, 'मुग्धः' अन-भिज्ञः सन्, 'शब्दे गौरिगीताऽऽत्मकेऽतृप्तः-तदाकृष्टचित्ततया तत्रातृप्तिमान् / 'ध्राणस्य' इति / घ्राणेन्द्रियस्य, गन्ध्यते घ्रायत इति गन्धस्तं मनोज्ञ' सुरभिम्, 'अमनोज्ञम् असुरभिम्, तथौष-धयो-नागदमन्यादिकास्तासा गन्धस्तत्र गृद्धो-गृद्धिमानौषधिगन्धगृद्धः सन् (सप्पे विलाओ विव त्ति) इवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात्सर्प इव बिलान्निष्क्रामन्, स ह्यत्यन्तमियतया तद्वन्धं सोढुमशक्नुवन् विलान्निष्क्रामति 3 / 'जिह्वायाः जिलन्द्रियस्य, रस्यते आस्वद्यत इति रसस्तं 'मनोज्ञ' मधुराऽऽदि, 'अमनोज्ञ' कटुकाऽऽदि, तथा बडिश प्रान्तन्यस्ताऽऽमिषो लोहकीलकस्तेन विभिन्नकार्याविदारितशरीरो बडिशविभिन्नकायः, 'मत्स्यः' मीनो यथाऽऽमिषस्य मांसाऽऽदेकोंगः अभ्यवहारस्तत्र गृद्ध आमिषभोगगृद्धः / काय इह स्पर्शनेन्द्रियं, सर्वशरीरगतत्वख्यापनार्थ वाऽस्यैवमुक्तं, तस्य, स्पृश्यत इति स्पर्शस्तं 'मनोज्ञ मृदुप्रभृति, 'अमनोज्ञ' कर्कशाऽऽदि, शीतं शीतस्पर्शवजल-पानीयं, तत्रावसन्नः अवमनः शीतजलावसन्नो, ग्राहे:-जलवरविशेषैर्गृहीतः-कोडीकृतो ग्राहगृहीतो महीष इवारण्ये, वसती हि कदाचित्केनचिदुन्मोच्येतापीत्यरण्यग्रहणम् 5 / 'मनसः चेतसो भावः अभिप्रायः स चेह स्मृतिगोचरस्तं, 'ग्रहण' ग्राह्य वदन्तीन्द्रि याविषयत्वात्तस्या 'मनोज्ञ' मनोज्ञरूपाऽऽदिविषयम् 'अमनोज्ञ तद्विपरीतविषयम्। एवमुत्तरग्रन्थोऽपि भावविषयरूपाऽऽद्यपेक्षया व्याख्येयः। यद्वा स्वप्नकामदशाऽऽदिषु भावोपस्थापितोरूपाऽऽदिरपि भाव उक्तः,स मनसो ग्राह्यः, स्पप्रकामदशाऽऽदिषु हिमनस एव केवलस्य व्यापार इति। 'कामगुणेषु मनोज्ञरूपाऽऽदिषु 'गृद्धः' आसक्तः (करेणुमग्गावहिए व णागे इति) इवार्थस्य चस्य भिन्नक्रमत्वात् करेण्वा करिण्या, मार्गेणनिजपथेनापहृतः- आकृष्टः करेणुमार्गापहृतः, 'नाग इव' हस्तीव / स हि मदान्धोऽप्यदूरवर्तिनी करेणुमुपदर्थ्य तद्रूपाऽऽदिमोहितस्तन्मार्गानुगामितया च गृह्यते, संग्रामाऽऽदिषु च प्रवेश्यते, तथा च विनाशमानोतीति दृष्टान्तत्वेनोक्तः। आह-एवं चक्षुरादीन्द्रियवशादेव गजस्य प्रवृत्तिरिति कथमस्याऽत्र दृष्टान्तत्वेनाभिधानम् ? उच्यते, एवमेतत् मनः प्रधान्यविवक्षया त्वेतन्नेयम्। यदिवा-तथाविधकामदशाया चक्षुरादीन्द्रियव्यापाराभावेऽपि मनसः प्रवृत्तिरिति न दोषः इह चानानुपृव्येपि निर्देशाङ्गमितीन्द्रियाणामित्थमुपन्यास इत्यष्टसप्तातसूत्रावयवार्थः / उक्तमेवार्थसड्क्षेपत उपसंहारय्याजेनाऽऽहएविंदियत्था य मणस्स अन्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, नवीयरागस्स करिति किंचि||१००|| एवम् उक्तन्यायेन, इन्द्रियाथौः चक्षुरादिविषया रूपाऽऽदयः, चशब्दो भिन्नक्रमः। ततो मनसोऽर्थाश्च-उक्तरूपाः, उपलक्षणत्वादिन्द्रियमनांसि चदुःखस्य (हेउंति) हेतवो मनुजस्य रागिणः, उपलक्षणत्वाद् द्वेषिणश्च / विपर्यये गुणमाह- "ते चैव' इन्द्रियग्नोऽर्थाः 'स्तोकमपि स्वल्पमपि,कदाचिद् दुःख (न) नैव वीतरागस्य, उपलक्षणत्वाद्वीतद्वेषस्य, कुर्वन्ति 'किञ्चिदिति' शारीरं मानसं चेति सूत्रार्थः।। ननु न कश्चन कामभोगेषु सत्सु वीतरागः संभवति, तत्कथमस्य दुःखाभावः?, उच्यते - न कामभोगा समयं उविंति, न यावि भोगा विगई उविंति। जे तप्पओसीय परिगही य, सो तेसु मोहा विगई उवेइ॥१०१॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 464 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण (न) नैव 'कामभोगाः' उक्तरूपाः, 'समता' रागद्वेषाभावरूपाम् 'उपयान्ति' उपगच्छन्ति, हेतुत्वेनेति, गम्यते / तद्धेतुत्वे हि तेषां न कश्चिद्रागद्वेषवान् भवेत् / न चाऽपि 'भोगाः' भुज्यमानतया सामान्येन शब्दाऽऽदयः 'विकृति' क्रोधाऽऽदिरूपाम्, इहापि हेतुत्वे-नोपयन्तीत्यन्यथा न कश्चन रागद्वेषरहितः स्यात्। कोऽनयोस्तर्हि हेतुः ?इत्याहयः 'तत्प्रद्वेषी च' तेषु विषयेषु प्रद्वेषवान् ‘परिग्रही च' परिग्रहबुद्धिमान्, तेष्वेव रागीत्युक्तं भवति, स तेषु विषयेषु, मोहात्' रागद्वेषाऽऽत्भकात् मोहनीयात् विकृतिमुपैति, रागद्वेषरहितस्तु समतामित्यर्थादुक्तम्। उक्त हि पूर्व - सतारेव रागद्वेषयोरूदीरकत्वेन शब्दाऽऽदयो हेतवः इति। आह"समो य जो तेसु स वीयरागो" इत्यनेनैव गतार्थमेतत्, सत्य, तस्यैव त्वयं प्रपञ्चः। उक्तं हि-'त एव विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपञ्चश्चोच्यते।' इति सूत्रार्थः। किंस्वरूपा पुनरसौ विकृतिर्या रागद्वेषवशादुपैतीत्याहकोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं दुगंछं अरई रइंच। हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं, नपुंसवेयं विविहे य भावे // 102 / / आवजई एवमणेग रूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो। अन्ने य एयप्पभवे विसेसे, कारूण्णदीणे हिरिमे वइस्सो // 103 / / क्रोधं च मानं च तथैव मायां लोभ-चतुष्टयमप्युक्तरूपं, 'जुगुप्सा' विचिकित्साम्, 'अरतिम्' अस्वास्थ्य, रतिं च विषयाऽऽसक्तिरूपा, 'हासं च' वक्त्रविकाशलक्षणं, "भयं' साध्वसं,शोकपुंस्त्रीवेदमिति समाहारनिर्देशः / ततः शोकप्रियविप्रयोज मनोदुःखाऽऽत्मकं. पुंवेदंस्त्रीविषयाभिलाषं, स्त्रीवेद-पुरूषाभिष्वङ्ग, (नपुंसवेयं ति) नपुंसकवेदम्उभयाभिलाष, 'विविधांश्च नानाविधान 'भावान्' हर्षविषादाऽऽदीनभिप्रायान् 'आपद्यते' प्राप्नोति, "एवम्' अमुना रागद्वेषवत्तालक्षणेन प्रकारेण 'अनेकरूपान्' बहुभेदाननन्तानुबन्ध्यादिभेदेन तारतम्यभेदेन च 'एवंविधान्' उक्तप्रकारान्, विकारनिति गम्यते, कामगुणेषु' शब्दाऽऽदिषु 'सक्तः' अभिष्वङ्गवान्, उपलक्षणत्वाद् द्विष्टश्च, अन्याश्व 'एतत्प्रभवान' क्रोधाऽऽदिजनितान् विशेषान् परितापदुर्गतिपाताऽऽदीन, कीदृशः सन्? इत्याह-कारूण्याऽऽस्पदीभूतोदीनः कारूण्यदीनो, मध्यपदलोपीसमासः / अत्यन्तदीन इत्यर्थः / (हिरिमे त्ति) 'हीवान्' लज्जवान कोपाऽऽद्यापन्नो हि प्रीतिविनाशाऽऽदिकमिहैवानुभवन् परत्र च तद्विपाकमर्तिकटुकं विभावयन् प्राप्नोति, दैन्य लज्जां च भजते, तथा (वइस्स त्ति) आर्षत्वात् 'द्वेष्यः तत्तद्दोषदुष्टत्वात्सर्वस्याप्रीतिभाजनमिति सूत्रद्वयार्थः / यतश्चैवं रागद्वेषावेव दुःखमूलमतः प्रकारान्तरेणाऽपि तयोरूद्धरणोपायाभिधानार्थं तद्विपर्यये दोषदर्शनार्थ चेदमाह कप्पन इच्छिज्ज सहायलिच्छू, पच्छाणुतावे य तवप्पभावं। एवं विकारे अमियप्पयारे, आवजई इंदियचोरवस्से।।१०।। कल्पते-स्वाध्यायाऽऽदिक्रियासु समर्थो भवतीति कल्पोयोग्यस्तम्, अपेर्गम्यमानत्वात्कल्पमपि, किं पुनरकल्पम्? शिष्याऽऽदीति गम्यते, 'नेच्छेत' नाभिलषेत् (सहायलिच्छु ति) विन्दोरलाक्षणिकत्वात् 'सहायं लिप्सुः' ममाऽसौ शरीरसंबाधनाऽऽदि साहाय्यं करिष्यतीत्यभिलाषुकःसन्, तथा पश्चादिति-प्रस्तावाद् व्रतस्य तपसो वाऽङ्गीकारादुत्तरकालमनुतापः-कि मेतावन्मया कष्टमङ्गीकृतमिति चित्तबाधाऽऽत्मको यस्य सतथाविधः चशब्दादन्यादृशश्च सम्भूतयतिवद् भवान्तरे भोगस्पृहयालुः, तपः प्रभावं, प्रक्रमान्नेच्छेद्, यथा न शक्यमङ्गीकृतं त्यक्त, परं यद्यस्य व्रतस्य तपसो वा फलमस्ति तत् एतस्मादिहैवामर्षांषध्यादिलब्धिरस्तु, तदन्यादृशापेक्षया तु भवान्तरे शक्र चक्रिविभूत्यादि भूयादिति किमेवं निषिध्यते ? इत्याह- 'एवम्' अमुना प्रकारेण, 'विकारान्' दोषान्, 'अमितप्रकारान्' अपरिमितभेदान् 'आपद्यते प्राप्रोति, इन्द्रियाणि चौरा इव धर्मसर्व स्वापहरणाद् इन्द्रिय-चौराः, तदश्यः-तदायत्तः। उक्तविशेषणविशिष्टस्य हि कल्पतपःप्रभाववाञ्छारूपेण स्पर्शनाऽऽदीन्द्रियवश्यता अवश्यसंभाविनी, ततश्चोत्तरोत्तरविशेषानभिलषतः संयम प्रति चित्तविप्लुत्यवधावनाऽऽदिदोषा अपि सम्भवन्त्येवेति / एवं च बुवतोऽयमाशयः-तदनुग्रहबुद्ध्या कल्पं, पुष्टाऽऽलम्बनेन च तपःप्रभाव च वाञ्छतोऽपि न दोषः / अथवाकल्पमुक्तरूपं नेच्छेत्सहायलिप्सुं यदि कथञ्चनामी मम धर्मसहाया भवन्तीत्येवमभिलाषुकमपि, आस्तामन्यमिति भावः, जिनकल्पिकापेक्ष चैतत्, एतेन च रागस्य हेतुद्वयपरिहरणमुद्धरणोपाय उक्तः, उपलक्षणं चैतदीदृशामन्येषामपि रागहेतूनां च परिहारस्य,ततः सिद्धं द्वयोरप्युद्धरणोपायानां तद्विपर्यये च दोषाणामभिसन्धानमिति सूत्रार्थः / / अनन्तरं रागद्वेषोद्धरणोपायविपर्यये यो दोष उक्तस्तमेव दोषान्तरहेतुताऽभिधा नद्वारेण समर्थयितुमाहतओ से जायंति पओअणाई, निमजिउं मोहमहन्नवंसि। सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा, तप्पच्चया उज्जमए अरागी॥१०॥ 'ततः' इति विकाराऽऽपत्तेरनन्तरं (से) तस्य 'जायन्ते' उत्पद्यन्ते 'प्रयोजनानि' विषयसेवनप्राणिहिंसाऽऽदीनि, 'निमज्जित' इत्यन्तर्भावितण्यर्थत्वान्निमजयितुभिव निमज्जयितुं, प्रक्रमात्तमेव जन्तुं, मोहो महार्णव इवातिदुस्तरतया मोहमहार्णवस्तस्मिन् / किमुक्तं भवति ?थर्मोहमहार्णवनिमग्रइव जन्तुः क्रियते, सह्युत्पन्नविकारतया मूढएवाऽऽसीत्, विषयाऽऽसेवनाऽऽदिभिश्च प्रयोजनैः सुतरां मुह्यतीति। कीदृशस्य पुनरस्य किमर्थं चैवंविधप्रयोजनानि जायन्ते? इत्याह-'सुखैषिणः' सुखाभिलषणशीलस्य 'दुःखविनोदार्थ दुःखपरिहारार्थं, पाठान्तरतोदुःखविमोचनार्थ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण वा, सुखैषितायां हि दुःखपरिहाराय विषयसेवनाऽऽदिप्रयोजनसम्भव इति भावः / कदाचिदेवंविधप्रयोजनोत्पत्तावपि तत्रायमुदासीन एव स्याद् ? अत्रोच्यते- 'तत्प्रत्यय्' उक्त रूपप्रयोजननिमित्तं, पाठान्तरतः-तत्प्रत्ययादुद्यच्छति, चशब्द स्यैवकारार्थत्वादुद्यच्छत्येव, कोऽर्थः 1 तत्प्रवृत्तावुत्सहत एव, 'रागी' रागवान्, उपलक्षणत्वाद् द्वेषी च सन्, रागद्वेषयोरेव सकलानर्थ-परम्पराकारणत्वादिति सूत्रार्थः / / किमिति रागद्वेषक्त एव सकलाऽप्यनर्थ परम्परोच्यते ? इत्याशक्याऽऽहविरज्जमाणस्स य इंदियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा। न तस्स सव्वे विमणुन्नयं वा, निव्वत्तयंती अमणुनय वा / / 106|| विरज्यमानस्येति, उपलक्षणत्वाद् द्विषतश्च, 'चः' पुनरर्थे , ततो विरज्यमानस्य द्विषतश्च पुनः, इन्द्रियार्थाः' शब्दाऽऽदिकाः। पाठान्तरतो / वर्णाऽऽदिका वा। तावन्त इति यावन्तो लोके प्रतीताः प्रकाराः खरमधुराऽऽदिभेदा येषां ते तावत्प्रकाराः, बहुप्रभेदा इत्यर्थः / न 'तस्य' इति मनुजस्य 'सर्वेऽपि समस्ता अपि, मनोज्ञता वा 'निर्वयस्ति' जनयन्त्यमनोझतां वा निर्वर्त्तयन्ति। किन्तु रागद्वेषवत् एव स्वरूपेण हि रूपाऽऽदयो न मनाज्ञताममनोज्ञतां वा कर्तुमात्मनः क्षमाः, किंतु रक्तरप्रतिपत्रध्यवसायबज्ञात् / उच्यते चान्यैरपि-''परिव्राट्कामुकशुनामेकस्यां प्रमदातनौ / कुणपं कामिनी भक्ष्यामिति तिस्त्रो विकल्पनाः॥१॥ ततो वीतरागस्य तन्निर्वर्तनहेत्वभावात् कथममी मनोज्ञतामनोज्ञतां वा निर्वतयेयुः ? इति पूर्व सति मनोज्ञत्वेऽमनोज्ञत्वे च समस्य रूपाऽऽदीनाकिञ्चित्करत्वमुक्तम्, इह तु मनोज्ञत्वामनोज्ञत्वे अपितादृशस्य न भवत एवेत्युच्यत इतिपूर्वस्माद्विशेष इति सूत्रगर्भाथः। तदेवं यदा 'जे जे उपाया पंडिवज्जियव्वा'' इति प्रतिज्ञा तदा रागद्वेषयोर्मोहस्य च परस्पराऽऽयतनत्वेऽपि रागद्वेषयोरतिदुष्टत्वात्साक्षात् मोहस्य च तदायतनत्वात्तद्वारेणोद्धरणोपादान् प्रतिपत्तव्यान्निरूप्य, यदा तु"जे जे अवाया परिवज्जिया" इति पाठः तदा रसनिषेवणाऽऽदीनपायानुक्तन्यायतोऽभिधायोपसंहरन्नाह एवं ससंकप्पविकप्पणासु, संजायई समयमुवट्ठियस्स। अत्थे च संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा ||107 / / 'एवम्' उक्तप्रकारेण, स्वस्य-आत्मनः, सङ्कल्पाः-प्रक्रमाद्रागद्वेषमोहरूपाध्यवसायाः, तेषां विकल्पनाः-सकलदोषमूलत्वाऽऽदिपरिभावनाः स्वसङ्कल्पविकल्पनाः तासूपस्थितस्य-उद्यतस्येति सम्बन्धः। किमित्याह 'संजायते' समुत्पद्यते, (समयं ति) आर्षत्वात् 'समता' माध्यस्थ्यम, अर्थान्-इन्द्रियार्थान्, रूपाऽऽदीश्वस्य भिन्नक्रमत्वात्, सङ्कल्पयतश्च यथा नैनवेऽपायहेतवः, किंतुरागाऽऽदय एवेत्युक्तनीत्या चिन्तयतः, यदि वा-समता-परस्परमध्यवसायतुल्यता, सा | चाऽनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थान एव, एतत्प्रतिपत्तृणां हि बहूनामप्येकरूप एवाध्यवसाय इत्यनयैतदुपलक्ष्यते। तथा-'अर्थान् जीवाऽऽदीन 'सङ्कल्प-यतश्च' शुभध्यानविषयतयाऽध्यवस्यतः 'ततः' इति समतायाः (से) तस्य जन्तोः (साधोः) प्रहीयते' प्रकर्षण हानि याति, काऽसौ? 'कामगुणेषु' रूपाऽऽदिषु 'तृष्णा' अभिलाषो, लोभ इति बावत्। समतायां हि द्विविधायामपि प्राप्तायामुत्तरोत्तरगुणस्थानावाप्त्या क्षीयत एव लोभ इति। अथवा- 'एवम्' उक्तप्रकारेण, 'समकम्' एककालम्, 'उपस्थितस्य' उद्यतस्य, रागाऽऽद्युद्धरणोपायेष्विति प्रकमः। यदि वा- 'समयम्' एतदभिधायकम्, सिद्धान्तं प्रति इति शेषः। 'उपस्थितस्य तदुक्तार्थानुष्ठानोद्यतस्येत्यर्थः / किमित्याह-स्वसङ्कल्पानाम् आत्मसम्बन्धिनां रागाद्यध्यवसायानां, विकल्पनाविशेषेण छेदन स्वसङ्कल्पविकल्पना, दृश्यते हि छेदवाच्यपि कल्पशब्दः। यथोक्तम्-''सामर्थ्यवर्णनायां च, छेदने करणे तथा। औपम्ये चाऽधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुद्धाः / / 1 / / " (आसु ति) 'आशु' शीघ्रं संजायते भवति / पठन्ति- "ससंकप्पावकप्पणासो''त्ति / तथा "अत्थे असंकप्पयतो" ति। तत्र च स्वस्य.. आत्मनः संकल्पः अध्यवसायस्तस्य विकल्पारागाऽऽदयो भेदास्तेषां नाशः अभावः स्वसङ्कल्पविकल्पनाशः, तथा च को गुणः? इत्याह'अर्थान्' रूपाऽऽदीन् सङ्कल्पयतः रागाऽऽदिविषयतयाऽनध्यवस्यतः 'ततः' इति स्वसङ्कल्पवि-कल्पनातः स्वसंकल्पविकल्पनाशाद्धा (से) तस्य प्रहीयते कामगुणेषु तृष्णेति सूत्रार्थः। ततः स कीदृशः सन् किं विधत्ते ? इत्याहसो वीयरागो कयसव्वकियो, स्ववेइ नाणाऽऽवरणं खणेणं / तद्देव जं दंसणमावरेइ, जं चेतरायं पकरेइ कम्मं // 108|| 'सेः' इति हेतुतृष्णो 'वीतरागः' वितरागद्वेषो भवति,तृष्णा हि लोभः, तत्क्षये च क्षीणकषायगुणस्य नावाप्तिरिति, तथा कृतसर्वकृत्य इव कृतर्वकृत्यः, प्राप्तप्रायत्वादनेन मुक्तेः। 'क्षपयति' क्षयं नयति 'ज्ञाना5ऽवरणं' वक्ष्यमाणस्वरूपं 'क्षणेन' समयेन, तथैव यद् 'दर्शन' चक्षुर्दर्शनाऽऽदि आवृणोति' स्थगयति. दर्शनाऽऽवरणमित्यर्थः, यच 'अन्तराय' दानाऽऽदिलब्धिविघ्नं प्रकरोति 'कर्म' अन्तरायनामकमित्युक्तं भवति, स हि क्षपितमोहनीय-स्तीर्णमहासागर इव श्रमोपेतो विक्षम्यान्तर्मुहूर्त तद् द्विचरमसमये निद्राप्रचले देवगत्यादिनामप्रकृतीश्च क्षपयति, चरमसमये च ज्ञानाऽऽवरणादित्रयमिति सूत्रार्थः / ननु तत्क्षयाच कं गुणववाप्नोति ? इत्याहसव्वं तओ जाणइ पासई य, अमोहणो होइ निरंतराए। अणासवे झाणसमाहिजुत्तो, आउक्खए मुक्खगुवेइ सुद्धे / / 106 / / 'सर्व' निरवशेष, 'ततः' ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिक्षयात् 'जानाति' विशेषरू पतयाऽवगच्छति, पश्यति च सामान्यरूपतया, 'चः' समुच्चयार्थः, तत एतेन भेदविषयत्वात् समुचयस्य Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायट्ठाण 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायायरिय पृथगुपयोगत्वमनयोः सूच्यते / ततश्च यदुक्तं युगपदुपयोगवादिना- खप्रमोक्षमार्ग 'समुपेत्य' सम्यक् प्रतिपद्य, 'सत्त्वाः प्राणिनः, क्रमेण' मणपज्जवणाणं नो, णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो। केवलणाणं पुण उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्तिरूपेणात्यन्तसुखिनो भवन्तीति सूत्रार्थः / इतिः दसणं ति नाणं ति य समाणं // 1 // " इति। तन्निराकृतं भवति। तथा च परिसमाप्तौ, ब्रवीनीति पूर्ववत्। अवसितोऽनुगमो, नयश्च प्राग्वत्। उत्त० प्रज्ञप्त्यामभिहितम्- "जं समयं जाणतिणोतं समयं पासंति।' तथा- पाई० 35 अ०। "केवलीणं भंते ! इमरयणप्पभं पुढवि आगारेहिं पमाणेहिं हेऊहि संठाणेहि पपायपच्चइय पुं० (प्रमादप्रत्यय) प्रमादलक्षणकारणे, भ०८ श०६ उ० / परिवारहिं जं समय जाणइ, नो तं समयं पासति? हंता गोयमा ! केवली पमायपडिलेहा स्त्री० (प्रमादप्रत्युपेक्षणा) शैथिल्येनाऽऽज्ञाऽतिक्रमणं'' इत्यादि। न चात्र केवलिशब्देन छद्मस्थ एव श्रुतकेवल्यादिर्विवक्षित लक्षणेन वा प्रमादेन प्रत्युपेक्षणायाम, स्था०। इति वाच्यं, यत इहाऽऽद्यसूत्रे स्नातक एव प्रस्तुतः, स च धातिकर्मक्षयादेव छव्विहा पमायपडिलेहा पण्णत्ता। तं जहा- (स्था०)भवतिति न तस्य छद्मस्थतासंभवः / द्वितीयसूत्रे तु परमाणुदर्शमेव "आरभडा संमद्दा, वजेयव्वा य मोसली तइया। प्रक्रान्तं, तस्य च केवलं विना परमाबधेस्ततो वा किञ्चिन्यूनस्यैव पप्फोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेइया छट्ठी॥४२७||" ओघ०। सम्भवः, तत्र चतौ व्यवच्छेदिताविति केवलमेवावशिष्यते। उक्तं च पूज्यैः- (अस्या गाथाया विशेषतो व्याख्या पडिलेहणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे "ते दोऽवि विसेसेउ, अन्नो छउमत्थ केवली को सो? जो पासइपरमाणु, 345 पृष्ठे गता) षष्ठी प्रमादप्रत्युपेक्षणेति प्रक्रमः / इह गाथेगहणमिह जस्स होजाहि / / 1 // न चैवमप्यस्मिन् विशेषवति "वितहकरणम्मि तुरियं, अण्ण अण्णं च गेण्ह आरभड़ा। सूत्रेपरवक्तव्यतैवेयमित्युपगन्तुमुचितम्। उक्त हि- ''एवं विसेसियम्मि अंतो व्व होज कोणा, निसियण तत्थेव सम्मदा / / 428|| वि, परमयमेगत-रोवओगो त्ति। ण पुण उभओवओगो, परवत्तव्व त्ति का मोसलि पुव्वुद्दिला, पप्फोडण रेणुगुंडिए चेव। बुद्धी ? ||1||" इत्यादि कृतं प्रसङ्गेन। प्रकृतमुच्यते-तथा चाऽमोहनः- विक्खेवं तुक्खेवो, वेइयपणगं च छद्दोसा / / 426 / / " इति। मोहरहितो भवति, तथा निष्क्रान्तोऽन्तरायात् निरन्तरायः, अनाश्रयः (ओघ०) स्था०६ ठा०। (आसां गाथानामर्थः 'पडिलेहणा' शब्देऽप्राग्वत्, ध्यानं शुक्लध्यानं, तेन समाधिः परमस्वास्थ्य, तेन युक्तः सहितो | स्मिन्नेव भागे 345 पृष्ठ गतः) ध्यानसमाधियुक्तः, आयुषः, उपलक्षणत्वान्नामगोत्रवेद्यानां च क्षय | पमायपडिसेवणा स्त्री० (प्रभादप्रतिसेवणा) परिहासविकथाऽऽदेभिराआयुः क्षयस्तस्मिन् सति मोक्षम् उपैति' प्राप्नोति, 'शुद्धः विगतकर्ममल सेवनायाम्, स्था० 10 ठा० / (प्रमादप्रतिसेवनायाःसर्वो विषयः इति सूत्रार्थः। 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे वक्ष्यते) . मोक्षगतश्च यादृशो भवति तदाह पमायपर त्रि० (प्रमादपर) प्रमादनिष्ठे, आव० 4 अ०। सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्कों जवाहई सययं जंतुमेयं / / पमायपरिहार पुं० (प्रमादपरिहार) प्रागुक्ताष्टविधप्रमादत्यागे, ध०४ दीहामयव्विप्पमुक्को पसत्थो,तो होइ अचंतसुही कयत्थो।११० / अधि०। "प्रमादपरिहाराय, महासामथ्येसम्भवे / कृतार्थानां निरपेक्षो, 'सः' इति मोक्षप्राप्तो जन्तुः 'तस्मात्' इति जातिजराभरणरूपत्वेन यतिधर्मोऽतिसुन्दरः ॥१॥"ध० 4 अधि०। प्रतिपादितात् 'सर्वस्मात्' निरवशेषाद् दुःखात्; सर्वत्र सुब-व्यत्ययेन पमायप्पमाय न० (प्रमादाप्रमाद) प्रागुक्तप्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफलषष्ठी / 'मुक्तः' पृथग्भूतः / यत् कीदृगित्याह-'यद्' दुःख 'बाधते' विपाकप्रतिपादकेऽध्ययने, तात्कालिकम् / नं०। पा०। पीडयति, सततम्' अनवरतं, 'जन्तुं प्राणिनम्, 'एन' प्रत्यक्षमनुभ- पमायमइरागत्थ त्रि० (प्रमादमदिराग्रस्त) प्रमादो निद्राविकथाऽऽदिवोपदर्शनमेतत्, दीर्घाणि यानि, स्थितितः प्रक्रमात्कर्माणि, तान्यामया रूपः, स एव मदिरा वारूणी प्रमादमदिरा, तया ग्रस्तः। तथाविधतत्त्वइव रोगा इव विविधबाधाविधायितया दीर्घामयाः, तेभ्यो विप्रमुक्तो ज्ञानरहिते, ग० 1 अधि०। दीर्घाऽऽमयविप्रमुक्तः, अतएव 'प्रशस्तः प्रशसाऽर्हः। ततः किमित्याह- पमायवसग त्रि० (प्रमादवशग) प्रमादपरवशे, ग०१ अधि०। (तो) इति ततः दीर्घाऽऽयविप्रमोक्षाद् भवति जायतेऽत्यन्तम् - पमायसंग पुं० (प्रमादसड़) मद्यविषयाऽऽदिके, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। अतिक्रान्तपर्यन्तं, सुखं शर्म, तदस्यास्तीत्यत्यन्तसुखी, तत एव च पमायसुत्त न० (प्रमादसूत्र) प्रमादप्रतिपादके सूत्रे, आचा०१ श्रु०६ अ० 'कृतार्थः कृत-सकलकृत्य इति सूत्रार्थः।। २उ०। सकलाध्ययनार्थ निगमयितुमाह पमायायरिय न० (प्रमादाऽऽचरित) प्रमादो मद्यविषयकषायनिअणाइकालप्पभवस्स एसो, द्राविकथालक्षणः, तेन तस्य वाऽऽचरितमनुष्ठानं प्रमादाऽऽचरितम् / सव्वस्स दुक्खस्स पमुक्खमग्गो। मद्याऽऽदिना कृत्यानुष्ठाने, आलस्योपहतकृत्ये, “पमायाऽऽयरिएहिं वियाहिओ जं समुवेच सत्ता, सप्पयाणपावोवएसे / " (23 गाथा) इह छन्दोभङ्ग भयात् “पमयाकमेण अच्चंतसुही भवंति।।१११।। त्ति बेमि॥ ऽऽयरिए" इत्युक्तम (पञ्चा०) अयं चानर्थदण्डभेदः तत्त्वं च-अस्योक्तअनादिकालप्रभवस्य अनादिकालोत्पन्नस्य, 'एषः' अनन्त रोक्तः | शब्दार्थद्वारेण स्वबुद्ध्या दृश्यम् / अथवा-प्रमादाऽऽचरितमालस्योसर्वस्स दुःखस्य 'प्रमोक्षमार्गः' प्रमोक्षोपायः, पाठान्तरतश्व-संसार- पहतकृत्यम्। तचास्थगिततैलघृतभाजनधारणाऽऽदि सत्त्वोपघातहेतुचक्रस्य विमोक्षमार्गो , व्याख्यातः, यः, कीदृशः? इत्याह- 'य' दु / भूतमिति। पञ्चा० 1 विव० / उपा० / ध०। आव०। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमायायरण 467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमेजरयणमंजूसा पमायायरण न० (प्रमादाऽऽचरण) प्रमादेन प्रमादस्य वाऽऽचरणे, ध०२ तत्साधनं तु गौणम् / ' इति-जयन्तवचनात् / प्रेत्याभावाऽपवर्गयोः आध०। (प्रमादश्च पञ्चविधः ‘पमाय' शब्देऽनुपदमेव गतः) पुनरात्मन एव परिणामान्तराऽऽयत्तिरूपत्वान्न पार्यक्यमात्मनः पमार पुं० (प्रमार) मृचाविशेष मारणस्थाने, स्था० 5 ठा०१ उ०) सकाशादुचितम्, वदेवं द्वादशविधं प्रमेयमिति वागविस्तरमात्रम् / मरणक्रियाप्रारम्भे, भ०१५ श०।। "द्रव्यपर्यायाऽऽत्मके वस्तु प्रमेयम्' इति तु समीचीनं लक्षणम्: पमारणा स्त्री० (प्रमारणा) कुमारणमारणायाम्, व्य०३ उ०। सर्वसङ्गाहकत्वात् ।एवं संशयाऽऽदीनामपि तत्त्वाऽऽभासत्वं प्रेक्षावापमिइ स्त्री० (प्रमिति) प्रमाणफले, स्या०। द्भग्नुप्रेक्षणीयम् अत्र तुप्रतीतत्वाद्ग्रन्थगौरवभयाच न प्रपञ्चितम् / (10 पमिलाण त्रि० (प्रम्लान) वर्णाऽऽदिना हीने, स्था० 3 ठा० 1 उ०। श्लोक) स्या०। सूत्र०। विशेष पमिल्लंत त्रि० (प्रमीलत) "प्राऽऽदेमीले" ||232 / / इति | पमेजरयणकोस पुं० (प्रमेयरत्नकोश) स्वनामख्याते प्रमाणग्रन्थे, लद्वित्वम् / प्रसङ्गच्छमाने, प्रा०४ पाद। जेश०। पमुइय त्रि० (प्रमुदित) प्रमोदाकारणवस्तूनां सद्भावात् (ज्ञा०१श्रु०१ अ०) | पमेज्जरयणमंजूसा स्त्री० (प्रमेयरत्नमञजूषा) विजयदेवसूरिवाचकहर्ष गते, ज०१ वक्ष०। ज्ञा० / प्रमोदवति, सू०प्र०१पाहु० / रा०।०।। विरचितजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीकायाम्, जं०। भ०। नि०। सुभिक्षाऽऽदिना हृष्टे, कल्प०१ अधि०४ क्षण। औ०। "जयति जिनः सिद्धार्थः, सिद्धार्थनरेन्द्रनन्दनो विजयी। पमुइयजणजाणवया स्त्री० (प्रमुदितजनजानपदा) नगरीविशेषे, अनुपहतज्ञानवचाः, सुरेन्द्रशतसेव्यमानो यः।।१।। प्रभुदिताः प्रमादवन्तः, तत्र प्रमोदहेतुवस्तुसद्भावात्। जना नगरीवा सर्वप्रयोगासिद्धान्, वृद्धान् प्रणि ध्महे महिमऋद्धान्। स्तव्या लोकाः, जानपदा जनपदोद्भवास्तत्र प्रयोजनवशादायाताः प्रवचनकञ्चिननिकषान्, सुरीन् श्रीगन्धहस्तिमुखान् / / 2 / / सन्तो यत्र सा प्रमुदितजनजानपदा। रा०। औ०। यज्जातवृत्तिमालयज राजिजिनाऽऽगमरहस्यरसनिवहः / पमुइयपक्कीलिया स्त्री० (प्रमुदितप्रक्रीडिया) प्रमुदितजनयोगातामुदिता, संशयतापमपोहति, जयति स सत्यो मलयगिरिः // 3 // प्रक्रीडितजनयोगात्प्रक्रीडिता, ततः कर्मधारयः / प्रभुःदितक्रीडिता। श्रीमद्गुरोर्विजयदानसहस्रभानोः, भ०११श०११उ०। प्रमुदिताश्च ते तोषवन्तप्रक्रीडिताश्च प्रकृष्टक्रीडाः सिद्धान्तधामधरणात् समवाप्तदीप्तिः। प्रमुदितक्रीडिताः / भ०१श० उ०। यो दुःषमारजानजातमपास्तपारं, पमुइयवरतुरगसीहवरवट्टियकडी स्त्री० (प्रमुदितवर-तुरगसिंहवरव प्राणाशयदरतभूमिगत तमिस्रम् / / 4 / / तितकटी) प्रमुदितो रोगशोकाऽऽद्युभद्रवाभावेन पुष्टो यौवनं प्राप्त इति दीपः स रत्नमय एव परानपेक्षं, गम्यते। वरः प्रधानो यस्तुरगोऽश्चः, सिंहवरः प्रधानसिंहः तद्वत् वर्तिता प्रोद्दीपयन् विशदयन् स्वपदं स्वभाभिः। कटी नितम्बप्रदेशो यासां ताः / सूक्ष्मकठ्या स्त्रियाम, जी०३ प्रति०४ गौरैगुणैरिह निदर्शितपूर्वसूरिः, श्रीसृरिहीरविजयो विजयाय वोऽस्तु // 5 // अधि०। यतप्रभावादश्मनीऽपि, मम वाणी रसोऽभवत्। पमुचंमाण त्रि० (प्रमुञ्चत्) क्षिपति, "जालासहस्साई पमुंचमाणाइ।" ते श्रीसकलचन्द्राऽऽख्याः, जीयासुर्वाचकोत्तमाः॥६॥ स्था०८ठा०॥ जम्बूद्वीपऽऽदि प्रज्ञप्ते-दृष्टशास्त्रानुसारतः। पमुक्क त्रि० (प्रमुक्त) प्रकर्षेण मुक्तः।"समासे वा" ||8|2|7|| इति प्रमेयान्तमञ्जूषा नग्नावृत्तिर्विधीयते // 7 // " कस्य द्वित्वम्। प्रा०२पाद। निःसङ्गे, निष्किञ्चने, सूत्र०१श्रु०१०अ०। इह तचिद्विकटमवाटवविषर्यटसमापतितशारीराऽऽद्यनेकदुःख देंतो देह, पमुह पुं० (प्रमुख) प्रगतं मुखं यस्य स तथा। आचा०१ श्रु०५ अ०३ अकामनिजर योगतः संजाकर्मलाघवस्तजिहसिया सकलकर्मजयलक्षण उ०। स्था० / पञ्चाशत्तमे महाग्रहे, "दो पमुहा" स्था० 2 ठा०३ उ०। परमपदमाकाक्षति; तच परमपुरुषार्थत्वेन सम्यग्ज्ञानाऽऽदिरत्नकल्प०।०प्र० आपाते, "आवायो पमुहं उरो" / पाइन्ना०१६२ त्रयगोचरपरमपुरुषकारोपार्जनीयम्. स चेष्टसाधनताजातीयज्ञानजन्यः, गाथा। तच्चाऽऽप्तोपदेशमूलकम, आप्तश्च परमःकेवलाऽऽलोकावलोकितलोपमुहत्त देशी वृक्षे, दे० ना०६ वर्ग 26 गाथा। कालोकनिष्कारणपरोपकारैकप्रवृत्त्यनुभूयमानतीर्थकृन्नामकर्मा पुरुष पमेज्ज त्रि० (प्रमेय) परिच्छेद्ये, बाह्येऽर्थे, स्या० / प्रमेयमपि तैः आत्म एव, तदुपदेशश्च गणधरस्थविराऽऽदिभिरङ्गोपाङ्गाऽऽदिशास्त्रेषु शरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखाऽपवर्गभेदाद प्रपञ्चितः / जं०। (कस्याङ्गस्य किमुपाड़ मिति ‘उवगं' शब्दे द्वितीयभागे द्वादशविधमुक्तम्। तच न सम्यग्। यतः शरीरेन्द्रियबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोष - 566 पृष्ठे गतम्) अत्र चोपाङ्गक्रमे सामाचार्यादौ कश्विद्भदोऽप्यस्ति। फलदुःखानामात्मन्येवन्तिर्भावो युक्तः, संसारिण आत्मनः कथाञ्चत्त- अङ्गानां च मध्ये द्वे आद्ये अङ्गे श्रीशीलाङ्गाऽार्य र्पिवृते स्तः, शेषाणि दविष्वग्भूतत्वात्। आत्मा च प्रमेय एव न भवति, तस्य प्रमातृत्वात्। नवाङ्गानि श्रीअभयदेव-सूरिपादैर्विवृतानि सन्ति / दृष्टिवादस्तु इन्द्रियबुद्धिमनसांतु करणत्वात्प्रमेयत्वाभावः / दोषास्तु राग-द्वेष-मोहाः, श्रीवीरनिर्वाणात् वर्षसहस्त्रे व्यवच्छिन्न इति न तद्विवरण-प्रयोजनम्। ते च प्रवृत्तेर्न पृथग्भवितुमर्हन्ति, वाङ्मनः कायव्यापारस्य शुभाऽशुभ- जं०। (उपाङ्गानि केन विवृतानीति'उवंग' शब्दे द्वितीयभागे 866 पृष्ठे फलस्य विंशतिविधस्यतन्मते प्रवृत्तिशब्दवाच्यत्वात्, रागाऽऽदिदोषाणां गतम्) तत्र प्रस्तुतोपाङ्गस्य वृत्तिः श्रीमलयगिरिकृताऽपि संप्रति च मनोव्यापाराऽऽत्मकत्वात्। दुःखस्य, शब्दाऽऽदीनामिन्द्रियार्थानां च कालदोषेण व्यवच्छिन्ना, इदं च गम्भीरार्थतयाऽतिगहनं, तेनाऽनुफल एवान्तर्भावः "प्रवृत्तिदोषजनित सुखदुःखाऽऽत्मकं मुख्य फलं, योगरहितं मुद्रितराजकीयकमनीयकोशगृहमिव न तदर्थार्थिनां ह Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमेज्जरयणमंजूसा 468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमेज्जरयणमंजूसा स्तानुयोगार्पितसिद्धिकं संजायत इति कल्पितार्थकल्पनकल्पद्रुमाणयुगप्रधानसमानसंप्रतिविजयमानगच्छनायकपरमगुरूश्रीहीरहविचयसूरीश्वरनिदेशेन कोशाध्यक्षाऽऽज्ञया प्रेष्येणेव उन्मुद्रणमिव मया तदनुयोगः प्रारभ्यते / स च चतुर्द्धधर्मकथानुयोग उत्तराध्ययनाऽऽदिकः, गणितानुयोगः सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकः, द्रव्यानुयोगः पूर्वाणि, सम्मत्यादिकश्च, चरणकरणानुयागश्चाऽऽचाराङ्गाऽऽदिकः / प्रस्तुतशास्त्रस्य क्षेत्रप्ररूपणाऽऽत्मकत्वात्, तस्याश्च गणितसाध्यत्वाद् गणितानुयोगेsन्तर्भावः। नन्वेवं चरणकरणाऽऽत्मकाऽऽवाराऽऽदिशास्त्राणामिव नाऽस्य मुक्त्यङ्गता / साक्षात् मोक्षमार्गभूतरत्नत्रयानुपदेशकत्वात्, इति चेन्न। साक्षादुपदेशकत्वाभावेऽपि तदुपकारितया शेषाणामपि त्रयाणामनुयोगानां मुक्त्यङ्गत्वाविरोधात्। तथा चोक्तम्"चरणपडिवत्तिहेऊ, धम्मकहा काले दिक्खाणदीया। दविए दसणसोही, दंसणसुद्धस्स चरणं तु॥१॥" अत्र व्याख्या-अत्रवृत्तावतिदेशोक्तसंमत्युक्त्यन्थयोर्दुर्गमपद-व्याख्याने अपरिसमाप्तिरत्र व्याख्या इति संकेतो बोध्यः / चरणप्रतिपत्तिहेतुर्धर्मकथाऽनुयोगः, काले गणितानुयोगे दीक्षाऽऽदीनि व्रत्तानि, कोऽर्थः?शुद्धगणितसिद्ध प्रशस्ते काले गृहीतानि प्रशस्तफलानि स्युः, कालश्च ज्योतिश्चराधीनः, स च जम्बूद्वीपाऽऽदिक्षेत्राधीनव्यवस्थाः, तेनायं कालापरपर्यायो गणितानुयोग इति। द्रव्ये द्रव्यानुयोगशुद्ध दर्शनशुद्धिभवति / कोऽर्थः ?-धर्मास्तिकायाऽऽदिद्रव्याणां द्रव्यानुयोगतः सिद्धौ सत्यां तदास्तिक्ये प्रतिपन्ने दर्शनशुद्धिर्भवतीति, दर्शनशुद्धस्य चरणानुयोगो भवति। इह यद्यपि श्रीमलयगिरिपादानां व परकृताऽऽक्षेपपरिहारप्रभविष्णु वचनरचनाचातुर्थ क्व च तथाविधसंप्रदायसाचिव्यं, क्व च तत्तन्निबन्धबन्धुरतानैपुण्यं, क्व कुश ग्रसमः प्रतिभाविभवश्व, क्व च मे तत्तत्पूर्वपक्षोन्तरप्रक्षरचनास्वकुशलत्वं, क्व च तादृक्संप्रदायराहित्य, क्व चाऽकठोरग्रन्थग्रगन्थनकर्मण्यकर्मठत्वं, क्व च मुशलागमतित्वमिति महति हेतिसंहतिविभेदे राभसिकी प्रवृत्तिरिव महती वृत्तिः करटिकठिनकुम्भकुण्ठनजहठग्रह इत्युपहासपात्रतामात्रफलतया चन्द्राऽऽकर्षकमगेन्द्रानुयायिता शृगालस्येव ममानौचितीमञ्चति, तथाऽपि लोहशालाविकीर्णानां लोहसारकणानां चुम्बकाश्मप्रयोगेणेव महता प्रत्यनेन प्रायस्तत्तत्प्राचीनजीवाभिगमाऽऽदिवृत्तिषु दृष्ट नामेव व्याख्यालवानामेकत्र मीलनमनुविचिन्त्य अन्वाख्यानरूपमेवेदं व्याख्यान विधीयत इति नानौचितीले शोऽयाति सर्व सुस्थम् / इति शास्त्रप्रस्तावना, तस्य चानुयोगस्य फलाऽऽदिद्वारप्ररूपणतः प्रवृत्तिर्भवति / यत उक्तम् "तस्स फलजोगमंगल-समुदायत्था तहेव दाराई / तब्भेयनिरूतक्कमपओयणाइं च वच्चाई / / 1 // " इति / तत्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तये तस्यानुयोगस्य फलमवश्यं वाच्यम्। अन्यथाऽस्य निष्फलत्वमा-कलय्य व्याख्यातारः श्रोतारश्च कण्टकशाखामर्दन इव नाऽत्र प्रवत्तेरनिति / तच द्विधा-कर्तु, श्रोतुश्च / एकैकमपि द्विधा-अनन्तरं, परम्परं च। तत्र कतुरनन्तरं द्वीपसमुद्राऽऽदिसंस्थान-परिज्ञानेऽतिपरिकर्मितमतिकत्वेन स्पष्टतया यथासंभवं संस्मरणात् स्वाऽऽत्मनः सुखेनैव विचयाभिधानधर्मध्यानसमवाप्तिर्मन्दमेधसामनुग्रहश्च, श्रोतुः पुनर्जम्बूद्वीपवर्तिपदार्थपरिज्ञानम्, परम्परं तुद्वयोरपि मुक्त्यवाप्तिः। यदाह"सर्वज्ञोक्तोपदेशेन, यः सत्त्वानामनुग्रहम्। करोति दुःखतप्तानां, स प्राप्नोत्यचिराच्छिवम् // 1 // " तथा"सम्यग भावपरिज्ञाना-द्विरक्ता भवतो जना:। क्रियाऽऽसक्ता ह्यविघ्नेन, गच्छन्ति परमां गतिम् / / 1 / / " तथा योगः संबन्धो वाच्यः, तेन हि ज्ञातेन फलव्यभिचारमनाशङ्कमानाः प्रेक्षावन्तःप्रवर्त्तन्त इति / सद्विधा-उपयोपेयभावलक्षणो, गुरुपर्वक्रमलक्षणश्च / तत्राऽऽद्यस्तर्कानुसारिणः प्रति, अनुयोग उपायोऽर्थावगमाऽऽदि चोपेयम् / स च फलाभिधानादेवाऽभिहितः। अन्यश्च केवलश्रद्धाऽनुसारिणः प्रति, स चैवमर्थतो भगवता बर्द्धमानस्वामिना जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरूपता, सूत्रतो गणधरैदशाङ्गयामुपनिबद्धा, ततोऽपि मन्दमेधसामनुग्रहाय सातिशयश्रुतधारिभिः षष्ठादगादाकृष्य पृथगध्ययनत्वेन व्यवस्थापिता। अमुमेव च संबन्धमनुविचिन्त्य सूत्रकृ दुपोद्धातमाधास्यति / अथवा शास्त्रकर्तुः प्रामाण्ये शास्त्राप्रामाण्यमिलि आद्यसंबन्धस्यैव प्रामाण्यग्रहार्थमपरसंबन्धनिरूपणम्। न हि विदितपरमतत्त्वाः सत्त्वानुग्रहैकप्रवृत्तिमन्तो भगवन्तो जातूपेयानुपयोगि भाषन्ते, भगवत्ताभङ्गादिति / अथवा-योगोऽवसरः, ततः प्रस्तुतोपाङ्गस्य दाने कोऽवसरः?, इत्युच्यते, उपाङ्गस्याङ्गार्थानुवादकतयाङ्गस्य सामीप्येन वर्त्तनाद्य एवैतदीयाङ्गस्याऽवसरः स एवाऽस्यापीति तत्राऽवसरसूचिका इमा गाथा:"तिवरिसपरियायस्स उ, आयारपकप्पनाममज्झयणं / चउवरिसस्स य सम्मं, सूअगडं नाम अंग ति॥१॥ दस कप्पव्ववहारा, संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव। ठाणं समवाओ विय, अंगेते अट्ठयासस्स।।२।। दसवासस्स विवाहो, एगारसवासगस्स य इमे उ। खुड्डियविमाणमाई, अज्झयणा पंच नायव्या / / 3 / / वारसवासस्स तहा,अरूणोवायाइपंच अज्झयणा / तेरसवासस्स तहा, उट्ठाणसुयाइया चउरो॥४॥ चउदसवासस्स तहा, आसीविसभावणं जिणा विति। पण्णरसवासगस्स य, दिट्ठीविसभावणं पुणो तह य॥५॥ सोलसवासाईसुय, एगुत्तरवुट्टिएसुजहसंखं। चारणभावणमह सुवि-णभावणा तेअगनिसग्गा / / 6 / / एगूणवीसगरस उ, दिट्ठीवाओ दुवालसं अंग। सपुण्णवीसवरिसो, अणुवाई सव्वसुत्तस्स // 7 // '' इति। अत्र पञ्चवस्तुकसूत्रे दशवर्षपर्यायस्य साधोः भगवत्यङ्गप्रदानेऽवसरस्य प्रतिपादनात् षष्ठाङ्ग तया ज्ञाताधर्मकथाङ्ग स्य प्रदाने तदनन्तरमवसरः, कारणविशेषे गुर्वाज्ञावशाद गपि, ततस्तदुपाङ्गत्वादस्य तदनन्तरमवसर इति संभाव्यते, योगविधानसामाचामिपि अङ्गयोगोद्वहनानन्तरमेवोपाङ्गयोगोद्वहनस्य विधिप्राप्तत्वादिति / तथेदमुपाङ्गमपि प्रायः सकलजम्बूद्वीपवर्तिपदा नुशासनाच्छास्त्रं, तस्य च सम्यगज्ञानद्वारा परमपदप्रापकत्वेन श्रेयोभूतता, अतो मा भूदव विघ्र इति तदपोहाय मङ्गलमुपदर्शनीयम्। यतः- "बहुविग्घाई सेयाइँ तेण कयमंगलोवयारेहिं / घेत्तव्वो सो सुमहा-निहि व्व जह वा महाविज्जा / / 1 / / '' इति / तच त्रिविधमादिमध्यावसानभेदात् / तत्राऽऽदिमङ्गलम्-"णमो अरिहंताणं" इत्यविघ्नतया शास्त्रस्य परिसमाप्त्यर्थम् / मध्यमङ्गलम् - "जया णं एक्कमेक्के चक्कवट्टिविजए भगवंतो तित्थगरा समुप्पज्जंति।'' इति तस्यैव स्थैर्यायः, अस्य च द्वितीयाधिकाराऽऽदिसूत्रस्य त्रिभुवनोत्सवभूतजिनजन्मकल्याणकसूत्रकत्वेन परममगलत्वात् / अ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमेज्जरयणमंजूसा 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमेज्जरयणमंजूसा न्त्यमगल तु 'समणे भगवं महावीरे मिहिलाए णगरीए।' इत्यादिनिगमनसूत्रे श्रीमहावीरनामग्रहणमिति / तस्यैव शिष्यप्रशिष्याssदिपरम्परया अव्यवच्छेदार्थम, नन्विदं सम्यग्ज्ञानरूपत्वेन निर्जररार्थत्वात्, अथवा- "जो जं पसत्थमत्थं, पुच्छइतस्सऽत्थसंपत्ती।" इति निमित्तशास्त्रे द्वीपसमुद्राभिधानग्रहणस्य परममङ्गलत्वेन निवेदनादस्य द्वीपप्ररूपणाऽऽत्मकत्वात् स्वयमेव सर्वाऽऽत्मना मङ्गलं, कि मङ्गलान्तरोपन्यासेन?अनवस्थाप्रसङ्गात्, मैवम् / मङ्गलतया हि परिगृहीतं शास्त्र मङ्गलमिति व्यवह्रियते, फलदं च भवति साधुवत्, अन्यथोपहासनमस्कराऽऽदेरपि मङ्गलत्वं स्यात् / न हि लोकेऽपि स्वरूपसतां दधिर्वाऽऽदीनां द्रव्यमङ्गलत्वं, किं तु मङ्गलाभिप्रायेण प्रयुक्तानाम् / अन्यथा तद्विषकदर्शनस्पर्शवाऽऽदीनां निर्मूलकताऽऽपातात्। इहाऽस्य शास्त्रस्य फलाऽऽदि निरूपित, तदनुयोगस्य द्रष्टव्यम्, तयोःकश्चिद् मेदा-दिति।।३।। अर्थदानी समुदायार्थश्चिन्त्यतेतत्र समुदायः सामान्यतः शास्वसंग्रहणा पिण्डस्तद्रूपोऽर्थो वक्तव्यः / किमुक्तं भवति?- अवयवविभागनिरपेक्षतया शास्त्रगतप्रमेयं प्रकटनीयं, तच्च वर्द्धमानाऽऽदिवसयार्थनामतो भवति, तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तौः, न तु पलाशाssदिवदयथार्थनामतः, डित्थाऽऽदिवदर्थशून्यनामतश्च, प्रस्तुते च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरिति नासः कः शब्दार्थः? इत्युच्यते-जम्ब्वा सुदर्शनापरनाम्त्याऽनादृतदेवाऽऽवासभूतयोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः (जं०) (अतोऽग्रे 'जंबूद्वी-पण्णत्ति' शब्द चतुर्थभागे 1376 पृष्ठे उक्तम् ) अथवा जम्बूद्वीप प्रान्ति पूरयन्ति स्वस्थित्येति जम्बूद्वीपप्राः जगतीवर्षवर्षधराऽऽद्याः, तेषां ज्ञप्तिर्थस्याः सकाशात् सा जम्बूद्वीप्रज्ञाप्तिरिति सान्वर्थशास्त्रनामप्रतिपादनेन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तयाः पिण्डार्थो दर्शितः; अत एवभिधेयशून्यतामाकलयन्तः शान्ता अत्र प्रवृत्तौ मा मन्दायन्तामित्यभिधेयसु चाऽपि कृ तैव / नामनिक्षेपचिन्ता तु द्वितीयानुयोगयोजनायां करिष्यत इति समुदायार्थः / / 4 / / जं०१वक्ष० / इति साऽतिशयधर्मदेशनारससमुल्लाससविस्मयमानऐदंयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमान श्री अकब्बरसुरत्राणप्रदतषाण्मासिकसर्वत्रजाताऽनयप्रदानशत्रुञ्जया-- ऽऽरिकमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमानयुगप्रधानापमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तौ रत्नमञ्जूषानाम्त्यां ज्योतिकाऽधिकारवर्णनो नाम सप्तमो वक्षस्कारः समाप्तः तत्समाप्तौ च समाप्तेयं श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्ग वृत्तिः। "श्रेयःश्रीप्रतिभूप्रभूततपसा यो मोहराजं रिपुं. दध्वंसे सहसाऽऽश्रितो गतमलज्ञानं च यः केवलम्। यो जुष्टश्च सदा त्रिविष्टपसदोवृन्दैस्तथा तथ्यवाक्, यस्तीर्थाऽधिपतिःश्रियं स ददता श्रीवीरदेवः सताम्।।१।। अर्हत्स्विवात्र निखिलेषु गणाधिपेषु, नाभेयदेव इव यो विदितो जगत्याम्। आदेयनाम दधदद्भुतलब्धिधाम्, श्रीगौतमोऽस्तु मम पूरितसिद्धिकामः // 2 // यं पञ्चमं प्रथमतोऽपि रतोपयेमे, श्रीवीर-पट्ट-पट्ट-लक्ष्मि-सरोरुहाक्षी। रूद्राऽङ्कितेषु गणभृत्सु सुधर्मनामा, भूयादयं सुभगतानिधिरिष्टसिध्यै / / 3 / / तस्य प्रभोः स्थविरवृन्दपरम्पराया, तत्तोल्लसत्कुलगणाऽवलिसम्भवायाम् / जातः क्रमाद्बटगणेन्द्रतपस्विसूरेः, श्रीमास्तपागण इति प्रथितः पृथिव्याम्॥४॥ पद्मावतीवचनतोऽभ्युदयं विभाव्य, यत्सूरिसंस्तवनरसप्तशती स्वकीयाम्। सूरिर्जिनप्रभ उपप्रदे (?) प्रथायै, सोऽयं सता तपगणो न कथं प्रशस्यः? / / 5 / / तत्राऽनेके बभूवुः सुविहितगुरवः श्रीजगचन्द्रमुख्याः , दोषायां वा दिवा वा सदसि रहसि वा स्वक्रियास्वेकभाषाः / आदिक्रोडैरिवोर्वी वृजिनभरगता दुःप्रमादावमग्ना, यैरूद्दध्र वितन्दैः स्वपरहिउकृते सत्क्रियासत्क्रियाऽर्हाः / / 6 / / अदुष्यं वैदुष्यचरणगुणवैदुष्यसहित, प्रमादाद्वैमुख्यं प्रवचनविधेः सत्कथकता। गुणोघो यस्येत्थ न खलुखलदुर्वाक्यविषयः, क्रमादासीदस्मिन् परमगुरुरानन्दविमलः / / 7 / / अन्तर्बाह्यमिति द्विधाऽपि कुमतं श्रद्धावता स्वागतं, निःश्रद्धस्तु यथाशयप्रकटितं विध्वस्यतेऽस्य प्रभोः। बाह्यध्वान्तविभेदिनो दिनमणेः साम्यं न रम्यं न वा, ध्वान्तद्वैतभिदोऽपि मन्दिरमणेः संरक्ष्यतेऽधस्तमः।।८।। स्वगच्छे स्वस्मिश्च प्रथयतितरां स्म प्रथमतस्तथा साधोश्चर्या ध्रुवसमय एव प्रस्तुतरसे। यथा सैतत्पट्टाऽधिपतिपुरुषे संयतगणे, क्रमादुर्वी गुर्वी प्रजनितयशस्का तु ववृते (?) IEL तत्पदृ-भूषणमणिः सुगुरूप्तधर्मवीज-प्रवर्द्धन-पटुर्भरतक्षमायाः। सूरीश्वरो विजयदानगुरुर्बभूव, के वादिनो विजयदा न बभूवुरस्य / / 10 / / नालीकनीर-निधि-निर्जर-सिन्धु-सेवा, चक्रुश्चतुर्भुज-चतुर्मुखचन्द्रचूडाः। यस्य प्रताप-परिताप-भृतो न भीता एते जडाऽऽश्रयिण इत्यपवादतोऽपि।।११।। तत्पदं गुरुवर्यहीरविजयो विभ्राजयामासिवान्, जाग्रद्धाग्यनिधिः प्रियाऽऽगमविधिश्चारित्रिणां चाऽवधिः / यं संप्राप्य जगत्त्रयैकसुभग मुक्तो मिथो मत्सरः, श्रीवाग्भ्यामिव दीर्घकालजनितो ज्ञानक्रियाभ्यामपि / / 12 / / सौभाग्यं यस्य नाम्नो नपसदसि गुणिष्वादितायां प्रसिद्धः, सौभाग्यं देशनाया अकबरनृपतिः पादयोः पादुकाऽर्चाः / सौभाग्यं यस्य पाणेरूपपदविजयः सेनसूरीश्वरोऽसौ सौभाग्यं दर्शनस्य त्वहमहमिकया स्वान्यलोकोपपातः / / 13 / / इदानीं तत्पट्टे गुरु-विजयसेनो विजयते, कलौ काले मूर्तः सुविहितजनाऽऽचारनिचयः। विरेजे राजन्वान् शशधरगणो येन विभुना, गुणग्रामो यस्माद् भवति विनयेनैव सुभगः।।१४।। खलास्तेजोराशिं चरणगुण-राशिं सुविहिताः, विनेयाश्चिद्राशिं प्रतिवचन-राशिं कुमतिनः। कविः कीर्ते राशिं वर-विनय-राशिं च गुरुवो, विदुः स्थाने जाने शुचिसुकृतराशिं पुनरमुम्॥१५|| गुरोरस्य श्रुत्वा श्रवणमधुरं चारूचरितं, Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमेज्जरयणमंजूसा 500 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमेज्जरयणमंजूसा स्वगन्धर्वोदीत शुचिगुणगणोपार्जनभवम्। चमत्कारोत्कर्षात् ससलिलसहस्राऽनिमिषदृक्पटक्लेदक्लेशं सुबहु सहते गिर्यसहनः / / 16|| तेषां गणे गुणवतां धुरि गण्यमानः, श्रीवाचकः सकल वन्द्रगुरुर्वभूव। मेधाविषु प्रथमतः प्रथमानकीर्तिः, स्फूर्तिदीयशुभकर्मणि सुप्रसिद्धा // 17|| पुनः पुनः संस्मृतिमीयुषीणां, प्रतिक्रियेयं यदुपक्रियाणाम्। पुनः पुनर्लोचनसार्द्रभावः, पुनः पुनर्विःश्वसनस्वभावः / / 18|| तेषां शिष्याऽणुनेयं गुरुजन-विहिताऽनुग्रहादेव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वृत्तिः स्वपर हितकृते शान्तिचन्द्रेण चक्रे। वर्षे श्रीविक्रमार्का-द्विधु-शर-शरभू-वक्वधात्रा प्रमाणे, राज्ये प्राज्ये श्रिया श्रीअकबरनृपतेः पुण्यकारूण्यसिन्धोः // 16 // अस्योपाङ्गस्य गाम्भीर्यन्मदीयमतिमान्यतः। संप्रदायव्यपायाच्च, पूर्ववृत्तिनिवृत्तितः॥२०॥ विरूद्धमागमाऽऽदिभ्यो, यदत्र लिखितं मया। धीलोवनैस्तदालोच्य, शोध्यं साऽनुग्रहैर्मयि / / 21 / / तुष्यन्तु साधवः सर्वे मा रूष्यन्तु खला मयि। नमस्कारोमि निःशेषान् प्रीत्या भीत्या क्रमादिमान् / / 22 / / गम्भीरमिदमुपाङ्गं यथामति विवृण्वताऽविशदमतिना। यदवापि मया कुशल, कुशाग्रमतयो भवन्तु जनाः।।२३।। अये यावल्लोकौकसिनभसि नक्षत्रकुसुमव्रजं राज्ञः श्यामाऽभिगमसमये पूरिततरम्। मृजाकारः सूर्यः करबहुकरेणोपनयति, ध्रुवं तावद्भूयादियमखिललाकैः परिचिता // 24 // अथ शोधनसमयगता,पुरोऽनुसन्धीयते प्रशस्तिरियम्। तपगण साम्राज्यरमां, अयति श्रीविजयसेनगुरौ / / 25 / / यत्सौभाग्यमनुत्तरं गुणगणी येषां वचोगोचरातीतः कोऽप्यभव पुराऽपि विनयाऽऽधारः सतां पूजितः। हित्वा येन पर्तिवरावदवरान् यानेव सच्चातुरीयुक्ताऽऽचार्यपदव्युदाररचितान् सौवाश्रियोऽशिश्रियन्।।२६।। यद्रूपं मदनं सदा विमदनं नििित रम्यश्रिया, यत्कीर्तिश्च पदातिकं वितनुते कान्त्या विशानायकम्। चित्रं संचिनुते च चेतसि सतां यद्देशनावाक् सुधा, देश्या शासन दीप्तिकृच सतपो यद्ध्यानमत्यद्भुतम्।।२७।। ते श्रीअकबरमहाधरदत्तमानविख्यातिमद्विजयसेनगणप्रधानाः / नन्दन्तिपट्टयुवराजपदंदधानाः, श्रीसूरयो विजयदेवयतिप्रधानाः॥२८|| श्रीविजयसेनसूरी-श्वरगणनायकनिदेशकरणचणाः। चत्वारोऽस्या वृत्तेः, शुद्धिकृते संगता निपुणाः / / 2 / / तथाहिश्रीसूरेविजयाऽऽदिदानसुगुरोः श्रीवीरसूरेरपि, प्राप्ता वाड्मयतत्त्वमद्भुततरं से संप्रदायाऽऽगतम्। ये जैनाऽऽगम सिन्धुतारणविधौ सत्कर्णधारायिताः, ये ख्याताः क्षितिमण्डले च गणितग्रन्थेज्ञरेखाभृतः / / 30 / / लुम्पाक-मुख्य-कुमतैकतमःप्रपञ्चे रोचिष्णुवण्डरूचयः प्रतिभासमानाः। श्रीवाचका विमलहर्षवराऽभिधानास्तेऽत्राऽऽदिमा गुणगणेषु कृताऽवधानाः / / 31 / / ये संविग्नधुरन्धराः समभवन्नाबालकालादपि, प्रज्ञावत्स्वपिये च बन्धुरतराः प्रापुः प्रसिद्धि पराम्। श्रीथारैगणधारिंगौतम इव श्रीहीरसूरौ गुरौ, ये राजद्विनयास्तदाननसुधामानो पपुर्वाक्सुधाम् // 32 // सत्तलक्षणविशालजिनाऽगमाऽऽदि, शास्त्राऽवगाहनकलाकुशलाऽद्वितीयाः / श्रीसोमयुगविजयवाचकनामधेयाः, ते सद्गुणैरपि परैर्धवमप्रमेयाः // 33 // किंचये वैरङ्गिकताऽऽदिकैर्वरगुणैः संप्राप्तसगौरवाः, सर्वाऽऽदेयागरः कलावपि युगे साम्नायजैनाऽऽगमाः। जशुः श्रीवरवानरर्षिविबुधास्तच्छिष्यमुख्याश्च ये, ते तन्मूर्त्तिरिवाऽपरेप्यभिमतास्तैर्गुणैर्धीमताम् // 34 // प्रज्ञागुणगुरुगह परिभावितभूरिशास्त्रवरतत्त्वाः। श्रीआनन्दविजयबुध-पुङ्गवास्ते वै तृतीयास्तु॥३५॥ अपिचयद्वैतस्मृतयः कुशाऽग्रधिषणाः सलक्षणाऽम्भोधयः, छन्दोऽलड् कृतिकाव्यवाङ्मयमहाभ्यासे भृशं विश्रुताः। सिद्धान्तोपनिषत्प्रकाशनपरा विज्ञावतंसायितास्तत्तन्नूतनशास्त्रशुद्धिकरणे पारीणतां संश्रिताः // 36 // श्रीकल्याणविजयवर-वाचकशिष्येषु मुख्यतां प्राप्ताः। श्रीलाभविजयविबुधा-स्ते तुर्या इह बहूद्युक्ताः // 37 / / एतेषां प्रतिभाविशेषविलसत्तीर्थप्रथामागते, नानाशास्त्रविचारसारसलिलाऽऽपूर्णे चतुण्णामपि। तत्तद्वाचक-वाच्यदूषणमलाद् मुक्ता सुवर्णाऽश्चिताः, सत्यश्रीरजनिष्ट शिष्टजनताकाम्येव वृत्तिः कृता॥३८।। श्रीमद्विक्रमभूपतोऽम्बरगुणक्ष्माखण्डदाक्षायणीप्राणेशाङ्कितवत्सरेऽतिरूचिरे पुष्येन्दुभूवासरे। राधे शुद्धातथौ तथा रसमिते श्रीराजधन्ये पुरे, पार्श्वे श्रीविजयाऽऽदिसेनसुगुरोः शुद्धा समग्राऽभवत्।।३६।। श्रीशान्तिचन्द्राऽभिधवाचकेन्द्रशिष्यष्वनेकेषु मणीयमानाः। ध्वस्ताऽन्तरध्वान्तजिनेन्द्रचन्द्रा, राद्धान्तरम्यस्मृतिलब्धमानाः / / 4 / / अस्यामनेकशो लिख-नशुद्धिगणनाऽऽदिविधिषु साहाय्यम्। गुरुभक्ताः कृतवन्तः,श्रीमन्तस्तेजचन्द्रबुधाः / / 41 / / देवादिन्द्राऽतिथिता, गतेष्विदंवृत्तिसूत्रधारेषु। तन्मन्त्रिनिजमनीषा-विशेषमिव वीक्षितुं व्यक्तम्॥४२॥ तेषां धुवन्तिषदा-मखिलशिष्यसमुदायमुख्यतां दधताम् / गुरुकार्ये धुर्याणां, पण्डितवररत्नचन्द्राणाम्॥४३॥ श्रीतपगणपूर्वगिरिसूरैः, श्रीविजयसेनसूरिवरैः / निजहस्तेन वितीर्णा, प्रवर्तनायै प्रसादपरैः / / 44 / / बहुभिः स्वसंमतेयं, कृता तदा विदितसमयतत्त्वार्थे / श्रीवियजदेवसूरि श्रीवाचकमुख्यगीतार्थः / / 4 / / रत्नानवि प्रमेयानि, नानाशास्त्रखनीनि चेत्। भूयांसि लिप्सवो यूयं, विज्ञरत्नवणिग्वराः॥४६।। श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ते-रूपाङ्गस्य सविस्तरा। प्रमेयरत्नमञ्जूषा वृत्तिरेषा तदेक्ष्यताम् / / 47 / / श्रीशान्तिचन्द्रवाचक-शिष्यवरो विबुधरत्नचन्द्रगणिः। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमेज्जरयणमंजूसा 501 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पम्हवियडणाभ अस्या बलादर्शानलिखद् हृदि भक्तियुक्तमनाः // 48 // वाच्यमानाः श्रूयमाणाः, गीतार्थः श्रावकोत्तमैः / शोध्यमाना लख्यमाना, जीयासुन्ते चिराद् भुवि / / 46 / / तच्छिष्यो धनचन्द्रः, कुशाऽग्रधीलिपिकलाबहूधुक्तः। अकरोत् प्रथमाऽऽदर्श, सूत्रार्थविवेचने चतुरः" ||50 / / इति श्रीशान्तिवन्द्रगणिवावकविरचितायाः श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ते प्रशस्तिः / ज०७ वक्ष। पमेयल त्रि० (प्रमेदस्विन्) प्रकर्षेण मेदः संपन्ने, दश०७ अ०। पमेह-पुं० (प्रमेह) रोगभेदे, नि०चू०१ उ० / प्रमेहाणां विंशतिर्भेदाः, तत्राऽस्याऽसाध्यत्वेनोपन्यासः, तत्र सर्व एव प्रमेहाः प्रायशः सर्वदोषोत्थास्तथाऽपि वाताऽऽयुत्कटभेदा द्विशतिर्भदा भवन्ति, तत्र कफाश, षट् पित्तात्, वातजाश्चत्वार इति / सर्वेऽपि चैतेऽसाध्याऽवस्थायां मधुमेहत्वमुपयान्तीति। उक्तञ्च- "सर्व एव प्रमेहास्तु, कालेनाऽप्रतिकारिणः / मधुमेहत्वमायन्ति, तदाऽसाध्या भवन्ति ते // 1 // " आचा० 1 श्रु०६अ०१ उ०॥ पमेहकण्णिया स्त्री० (प्रमेधकर्णिका) सरजस्काधिराजे, व्य०। पमेहकणियातो य, सरक्खं पाहु सूरओ। सो उ दोसकरो वुत्तो, तं च कज्जं न साहए / / 65|| प्रमेधकर्णिकाः सरजस्क, पदैकदेशे पंदसमुदायोपचारात्सरजस्काऽधिराजं प्राऽऽहुः सूरयः, स च सरजस्काधिराज आपीयमानो दोषकर उक्तः, तच्च कार्य रोगविमुक्तिलक्षणं न साधयति, ततः सोऽपि न पीयते। बहुगी होइ मत्ताओ, आइल्लेसु दिणेसु उ। कमेण हीयमाणीओ, अंतिमे होइ वा न वा / / 66|| आदिमेषु दिनषु कायिकी मात्रातो वही भवति, ततः क्रमेण हीयमाना अन्तिम दिने भवति वा, न वा। पडिणीयऽसुकंपा वा, मोयं वर्टेति गुज्झगं केइ। वीयाऽऽदिजुयं तं वा, विवरीयं उज्झइ सव्वं / / 17|| प्रत्यनीका अनुक्रम्प्यन्त इत्यनुकम्प्या वा केचित् गुहाक मोकं काविर्की वर्द्धयन्ति, यद्वा बीजाऽऽदिषु तं कुर्वन्तिसर्वमेतत् स्वाभाविक न भवति, किन्तु विपरीतम् अतस्त्यजन्ति / व्य. 6 उ.। पमातो अव्य० (प्रमादतस्) दकारस्य लोपः प्राकृतत्वात्। प्रमादवशेने त्यर्थे व्य०१ उ०। पमोक्ख पु० (प्रमोक्ष) प्रकर्षणापुनविन कर्मबन्धनान्मुक्तिः प्रमोक्षः। निर्वाणे, स्या० / सूत्र०। पमोय पु० (प्रमोद) हर्षे, नं० / आ०म० / नमनप्रसादाऽऽदिभिर्गुणाधिकष्वमिव्यज्यमानान्तर्भक्तावनुरागे, ध० 1 अधिवा "अपास्ताऽशेषदोषाणां, वस्तुतत्त्वाऽवलोकिनाम् / गुणषु पक्षपातो यः स प्रमोदः प्रकीर्तितः / / 1 / / '' अष्ट० 16 अष्ट / माल्यविधानदे कल्पवृक्षे, "आमोएसु य यज्ज, मल्लविहाओ पमोएसु।" ति०। पमोयमास पुं० (प्रमोदमास) प्रमोदहेतुर्मासः प्रमोदमासः। यस्मिन् मासे गृहीततताऽऽदिकप्रायश्चित्तः शुद्धः सन् प्रमोद कृत्या स्वजनैः सह भुङ्क्ते, पारिहारिको वा समाप्तपरिहारः साधुभिः सहैकत्र भुङ्के तस्मिन् व्य०२ उ०। पम्ह न० (पक्ष्म)"पक्ष्य-श्म-म-स्स-ह्यांम्हः" ||27|| इति सूत्रेण मकाराऽऽक्रान्तो हकाराऽऽदेशः / प्रा०२ पाद। पा०ा पद्मगर्ने, "कणगपुलगनिघसपम्हगोरे।" विपा०१ श्रु०१ अ०। ज्ञा०। केसरे,भ० 1 श० 1 उ०। ज०। ब्रह लोकस्थविमानभेदे, स०६ सम० जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महानद्या दक्षिणे चक्रवर्तिविजये, स्था० ८ठा०1 * पद्मना शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतिसरोजे, चं०प्र०२० पाहु०॥ दीर्घदशान दशमाध्ययनोक्तप्रतिबद्धवक्तव्यताके पुरुष, तत्कथा सम्प्रदायाभावादिदानीमप्रकटा / स्था०६ ठा०। "झंपणीओ पम्हाई।" पाइo ना० 250 गाथा। पम्हंतर न० (पक्ष्मान्तर) विशिष्टसौकुमार्याऽऽदिभिः पक्ष्मणोऽन्तरे, स्था० ठा०। पम्हकूड पुं० (पक्ष्मकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरंस्य पर्वतस्य पूर्वशीताया महानद्या उत्तरकू ले वक्षस्कारपर्वते, स्था० 8 ठा० / जम्बूद्वीपे विद्युप्प्रभवक्षस्कारपर्वतस्य चतुर्थे कूटे, स्था० 6 ठा० / केषाश्चिद्दीर्घवैताढ्यपतानां द्वितीयकूटेषु, स्था०६ ठा०।०। पम्हगंध पुं० (पद्मगन्ध) पद्मसमगन्धौ सुषमसुषमामनुष्ये, भ०६ श०७ उ० ज०। पम्हगावई स्त्री० (पक्ष्मावती) विजयपुरनगरीप्रतिबद्धविजय-क्षेत्रयुगले, 'पम्हगावई विजए, विजयपुरा रायहाणी, असोआ महाणई।" पक्ष्मावती विजयो, विजयपुरी राजधानी, शीतस्रोता महानदी। जं०४ वक्षः / "दो पम्हगावई।" स्था० 2 ठा० 3 उ०। पम्हगोर त्रि० (पक्ष्मगौर) पद्मगर्भवद्गौरवणे , भ० १श०३ उ०। विपा० / पम्हट्ट त्रि० (प्रस्मृत) विस्मृते, बृ०३ उ० / प्रश्न० 1 ज्ञा० / नि००। पतिते, ''पम्हट्ट ति या परिछवियं ति वा एगट्ठ।" व्य०१ उ०। पम्हय न० (पक्ष्मज) हंसगर्भाऽऽदौ कापसाऽऽदौ वा सूत्रे, 'पम्हयह सगभाई, अहवा कप्पासाइयं मुणेयव्वं।'' पं०भा०१ कल्प। पं० चू० / पम्हर (देशी) अपमृत्यौ, दे० ना०६ वर्ग 3 गाथा। पम्हल त्रि० (पक्ष्म) पक्ष्मवति, औ० / ज्ञा० / 'पम्हलसुकुमालाए।" पक्ष्मवत्या सुकुमालतया चेत्यर्थः। भ०६ श०३३ उ०। किञ्जल्के, दे० ना०६ वर्ग 13 गाथा। पं०व०। पम्हलय न० (पक्ष्मल) रोमशे, पाइ० ना०२४६ गाथा। पम्हवण्ण न० (पक्ष्मवर्ण) ब्रह्मलोकस्थे विमानभेदे, स०६ सम०ा "एवं जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावंतं पम्हप्पभं पम्हकंतं पम्हवण पम्हलेस्सं पम्हज्झयं पम्हसिगं पम्हसिद्ध पम्हकूड पम्हुत्तरवडिंसर्ग।" इत्येते ब्रह्मलोकविमानविशेषवाचकाः। स०६ सम०। पम्हवियडणाभ त्रि० (पद्मविकटनाभ) पद्मवद्विस्तीर्णनाभी, जी०३ प्रति०८ अधि० प्रश्न Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पम्हुह 502 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पम्हुह धा० (स्मृ) आध्याने, अधिगतविषयके संस्कारज-ज्ञाने, "स्मरेझर-झूर-भरम-भल-लढ-विम्हर सुमर-पयर-पम्हुहाः" / / 8 / 4 / 74 / / इति सूत्रेण 'पम्हुह' आदेशः। पम्हहइ। स्मरति। प्रा० 4 पाद। पम्हा स्त्री० (पद्मा) पद्मलेश्यायाम, उत्त०३४ अ01 अश्वपुराऽऽख्यपुरीयुगलविभूषिते विजयक्षेत्रयुगले, "दो पम्हाओ।" स्था०२ ठा० 3 उ०॥ पम्हार (देशी) अपमृत्यौ, दे० ना०६ वर्ग 3 गाथा। पम्हावई स्त्री० (पक्ष्मावती) शीतोदाया महानद्या दक्षिणे तटे चक्रवर्तिविजयराजधान्याम्, स्था०८ ठा०। "दो पम्हावई।" स्था०२ ठा०३ उ० / रम्यकाऽऽख्यविजयक्षेत्रवर्तिपुरीयुगले, स्था०२ ठा०३ उ०। पम्हु त्रि० (प्रस्मृत) "क्तेनाप्फुण्णाऽऽदयः" ||8/4 / 258|| इति निपातनम् / प्रा०४ पाद। विस्तृते, “पम्हुछदिसाभाए।" ज्ञा०१ श्रु० 18 अ01 *प्रमृष्ट त्रि० स्वच्छे, पाइ० ना० 160 गाथा। पम्हुस धा० (विस्मृ) तथाविधसंस्कारामुदयादनुवुद्धभूर्वाधिगले, "विस्मुः पम्हुस बिम्हर-वीसराः" ||11475 / / इति सूत्रेण विपूर्वकरय स्मृधातोः पम्हुसाऽऽदेशः / पम्हुसइ। विस्मरति। प्रा०४ पाद। *प्रमृश धा० (प्रमर्शने) "प्रान्मृशनुषोःम्हुसः" ||8|4||84|| इति सूत्रेण पम्हुसाऽऽदेशः। पम्हुसइ / प्रमृशति। प्रा० 4 पाद। प्रमुष धा० (प्रमोषे) प्रमुष्णाति / प्रा० 4 पाद। पय न० (पद) पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदम्। विशे०। अभिधाने, आचा० 1 श्रु०५ अ०६ उ०। परिच्छेदवाचके शब्दे, नि० चू०१ उ०। रत्ना०। वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षा संहतिः पदं, पादानां तु वाक्यमिति। 10 // वर्णी च वर्णाश्चत्येकशेपा ब्रह्मसम्बोधने क इत्यादी द्वयोः, गोरित्यादी बहूनां च वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां पदार्थ प्रतिपत्तौ कर्तव्यायां परस्पर सहकारितया स्थितानाम् / निरपेक्षा, पदान्तरवर्तिवर्णनिर्वर्तितोपकारपराङ्मुखी, संहतिः मेलकः, पदमभिधीयते, पद्यते गम्यते स्वयोग्योऽथोंऽनेनेति व्युत्पत्तेः / प्रायिकत्वाच्च वर्णद्वयाऽऽदेरेव पदत्वं लक्षितम् / यावतो विष्णुवाचकै काक्षराऽकाराऽऽदिकमपि पदान्तरवर्त्तिवर्णनिर्वर्तितोपकारपराङ्मुखत्वरूपेण निरपेक्षत्यलक्षणेन पदत्वेन लक्षितं द्रष्टव्यम्। पदानां पुनः स्वोचितवाक्यार्थप्रत्यायने विधेयेऽन्योन्यनिमितोपकारमनुसरतां वाक्यान्तरस्थपदाऽपेक्षारहिता संहतिर्वाक्यमभिधीयते, उच्यते स्वसमुचितोऽर्थोऽनेनेति व्युत्पत्तेः / / रत्ना० 4 परि० / पदावयवमधिकृत्याऽऽहणामपयं ठवणपयं, दव्वपयं चवे होइ भावपयं / एक्के के पि य एत्तो-उणेगविहं होइ नायव्वं / / 172 / / नामपद, स्थापनापदं, द्रव्यपदं चैव भवति भावपदम्, एकैकमपि चाऽत | एतेभ्योऽनेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति माथासमासार्थः / अवयवार्थं तुनामस्थापने क्षुण्णत्वादना दृत्य द्रव्यपदमभिधित्सुराह आकुट्टिम उक्किन्नं, उण्णेचं पीलिमं च रंगं च / गंथिय वेढिमपूरिम-वाइम संघाइमं छेज्जं / / 173 / / "आकुट्टि में जहा रूवओ हेट्टा वि उवरि पि मुहं काऊण आउट्टि जति।"उत्कीर्ण शिलाऽऽदिषु नामकाऽऽदि।''तहा चउलाऽऽदिपुप्फसंठाणाणि चिक्खल्लमयपडिबिंबगाणि काउं पचंति, तओ तेसु वग्धारित्ता मयणं छुभति, तओ मयणमया पुप्फा हवंति। एतदुपनेयम्। पीडावच्च संवेष्टितवस्त्रभङ्गावलीरूपम्। 'रत्तावयवछविविचित्तरूवं रंग।" चः समुचये। ग्रथितं मालाऽऽदि। वेष्टिमं पुष्पमयमुकुटरूपम्। चिक्खल्लमयं कुण्डिकारूपम् अणेणछिदं पुप्फथामं पूरिमम् / वातव्यं कुविन्दैवस्वविनिर्मितमश्वाऽऽदि। संघात्य कञ्चुकाऽऽदि। छेद्यं पत्रच्छेद्याऽऽदि। पदता चाऽस्य पद्यतेऽनेनेत्यर्थयोगात्, द्रव्यता च तद्रूपत्वादिति गाथाऽर्थः / युक्तं द्रव्यपदम्। अधुना भावपदमाहभावपयं पि य दुविहं, अवराहपयं च नो य अवराहं। णोअवराहं दुविहं, माउग नोमाउगं चेव / / 174 / / भावपदमपि च द्विविधम् / द्वैविध्यमेव दर्शयति-अपराधहेतुभूतं पदम अपराधपदमिन्द्रियाऽऽदि वस्तु, चशब्दः स्वगताऽनेकभेदसमुचयार्थः / (णो अवराह ति) चशब्दस्य व्यवहितोपन्यासान्नो-अपराधपदम्। चः पूर्ववत्। (नोअपराधमिति) नाअपराधपदं द्विविधम्। (माउअणोमाउअं चेव त्ति) मातृकापदं, नोमातृकापदं च। तत्र मातृकापदं मातृकाऽऽक्षराणि, मातृकाभूतं वा पदं मातृकापदं, यथा दृष्टिवादे उपन्नेति वेत्यादि। नोमातृकापदं त्वनन्तरगाथया वक्ष्यतीति गाथाऽर्थः / नोमाउगं पि दुविहं, गहियं च पन्नगं च बोधव्वं / गहियं चउप्पयारं, पइन्नग होइऽणेगविहं / / 17 / / (णो माउयं पित्ति) नोमातृकापदमपि द्विविधम् / कथमित्याह- ग्रथित च, प्रकीर्णकं च बोधव्यम् / ग्रथितं, रचित, बद्धमित्यनान्तरम् / अतोऽन्यत् प्रकीर्णकं प्रकीर्णककथोपयोगिज्ञानपदमित्यर्थः / ग्रथित चतुःप्रकारं गद्याऽऽदिभेदात्। प्रकीर्णकं भवत्यनेकविधम्, उक्तलक्षणत्वादेवेति गाथाऽर्थः / दश०२ अ०। (गद्यपदम् 'गज्ज' शब्दे तृतीयभागे 812 पृष्ठे व्याख्यातम्) (पद्य-पदम् 'पज्ज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 210 पृष्ठे गतम्) (गेयपदव्याख्या 'गेय' शब्दे तृतीयभागे 648 पृष्ठे गता) (चौर्णपदव्याख्या 'चुण्ण' शब्दे तृतीयभागे 1165 पृष्ठे गता) उक्त ग्रथितपदम् / प्रकीर्णकपदं लोकादवसेयम् / उक्तं नोअपराधपदम्। दश० 2 अ०। (अपराधपदम् 'अवराहपय' शब्दे प्रथमभागे 768 पृष्ठे व्याख्यातम्) नामनिवाउवसग्गं, अक्खाइय मिस्सयं च नायव्यं / पंचविहं होइ पयं, लक्खणकारेहिँ निद्दिर्टि॥३२६।। पञ्चविधं पञ्चप्रकारं पदं लक्षणकारैः पदलक्षणविद्धिनिर्दिष्ट व्याख्यातम् / तद्यथा अश्व इति नामिकम् / खल्विति नैपातिकम्, परीत्यौपसर्गिकम्, पचतीत्याख्यातिकम्। संयत इति मिश्रम् / बृ०१ उ०१ प्रक०। विशे०। आ० म०। आ०चू०। पा० / नामाऽऽख्यातनिपातोपसर्गतद्धितसमासस Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पय 503 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पयड न्धिपदहेतुयौगिकोणाऽऽदिक्रियाविधानधातुस्वरविभक्तिवर्णयुक्तम्। गच्छन्नुतप्लुत्य नियतया गत्या गच्छति, एवं गोचरभूमिरपि या पतङ्गोडुप्रश्न०२ संव० द्वार। सूत्र०। पदं द्विविधं भवत्यर्थस्य वाचकं, द्योतकं च। यनाऽऽकारा सा पतङ्गवीथिकेति। बृ०१ उ०२ प्रक०। ध०। ग०। विशे० पयंगसेणा स्त्री० (पतङ्गसेना) शलभसमूहे, उत्त०१२ अ०। पयमत्थवायगं जो-यगं च तं नामियाई पंचविहं / पयंजलि पुं० (पतञ्जलि) स्वनामख्याते सर्वप्रधाने योगाऽऽचार्य, द्रा० कारगसमासतद्धिय निरुत्तवचो विय पयत्थो / / 1003|| 23 द्वा०। पदं द्विविधं भवति-अर्थस्य वाचकं, द्योतकंचा तत्र वृक्षः तिष्ठ-तीत्यादि पयंड त्रि० (प्रचण्ड) रौद्रे, प्रश्र०३ आश्र द्वारा तीव्ररोषे, व्य० 1 उ०। वाचकम् / प्रादिकं, चादिकं च द्योतकम् / तथा पुनरपि पदं समान्येन * प्रकाण्ड त्रि० उत्कटे, स.।"पयंडदंडप्पयारा।' प्रचण्डः प्रकाण्डो वा पञ्चविधमनामिकाऽऽदि। तत्र अश्वः इति नामिकं, खल्विति नैपातिकं, दुःसाध्यसाधकत्वाद्दण्डप्रचारः सैन्यविचरणं, दण्डप्रकारो वा आज्ञापरीत्यौपसर्गिकम्, धावतीत्याख्यातिकं, संयत इति मिश्रम्। एवम्भूतानां विशेषो येषां ते तथा / प्रश्र०४ आश्र0 द्वार। "पयंडघोरवीहणगदारुपदानां विच्छेदो द्वितीयं व्याख्यानाङ्गम् / विशे० / पञ्चा० / आचा० / णाए।' प्रचण्डाः शीध्र शरीरव्यापिकाः, प्रचण्डाऽपरिवर्तितत्वाद्वा प्रचण्डा पद्यते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति पदम् / सूत्रे, उत्त०१८ अ०। शास्त्र, सूत्र०१ / घोरा झगिति जीवितक्षयकारिणी औदारिकवता परिजीवितानपेक्षा वा शु० अ०1 औ०। सूत्रावयवे, कर्म०1 पदंतु अर्थपरिसमाप्तिः पदमित्था- / येते, तथा घोरास्तत्प्रवृत्तित्वात्। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। द्युक्तिसद्भावेऽपि येन केनचित्पदेनाष्टादशपदसहस्राऽऽदिप्रमाणा आचरा- पयंडचंड त्रि० (प्रकाण्डचण्ड) अत्यर्थं रौद्रे, स०११ अङ्ग / ऽऽदिग्रन्था गीयन्तेतदिह गृह्यते। तस्यैव द्वादशाङ्ग श्रुतपरिमाणेऽधिकृत- / पयंत त्रि० (पचत्) विक्लित्यनुकूलव्यापारजनककृतिमति, "नपयइन त्वात्, श्रुतभेदानामेव चेह प्रस्तुतत्वात्. तस्य च पदस्य तथाविधाss- पयावेइ पयंतं नाणुजाणइ, पयंतो पयावंतो, एतेसु सटवेसु पत्तेग म्नायाभावात्प्रमाणं न ज्ञायते, तत्रैकं पदं पदमुच्यते // 5 / / (7 गाथा) संघबज्झो।' महा०१चू। स्था०। "अंबरं व कत्थइ पयंता क्वचित्प्रदेशे कर्म. 1 कर्म / गाथादिचतुर्थाश अनु० "सुप्तिङन्तं पदम् / / 1 / 4 / 14 / / अम्बरमाकाशं पचन्तमिवाझलिहत्वेन आकाशपचनसमर्थमिवेत्यर्थः / इति प्रतिपादिते सुवन्ते तिङन्ते, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०ा निमित्तकारणे कल्प०१ अधि०३क्षण। आदा० 1 श्रु०५ अ० 1 उ० / पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदम्। संख्या- पयकाय पुं० (पदकाय) पदसमूहे, पदसंघाते आव० 5 अ०। स्थाने स्था० 4 ठा०२ उ० / स्थाने आचा०२ श्रु० 4 चू० उत्त० / पयक्खेम न० (पदक्षेम) शिवे 'कुव्यइ सोपयक्खेममप्पणो।" (६गाथा) प्रति० / सूत्र०। दश०६ अ०४ उ०। पयस् न० जले, पाई० ना० 27 गाथा। दुग्धे, पाई० ना० 123 गाथा। | पयग पुं० (पतग) व्यन्तरभेदे, तेषामिन्द्रे च / स्था०२ ठा०३ उ०। * पाद पुं० "वाऽव्ययोत्खाताऽऽदावदातः" / / 8 / 1 / 67 / / इति पयगवइ स्त्री० (पतगपति) पतगव्यन्तराणामिन्द्रे, स्था० ठा०३ उ०। आकारस्याऽकारः / प्रा० 1 पाद / ज्ञा० / चरणे ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ० पयग्ग न० (पदाग्र) पदपरिमाणे, नं०। प्रव०। एकोनविंशगौणानुज्ञायाम्० नं०। पयच्चुल पुं० मत्स्यबन्धनविशेषे, विशे०। पयअ त्रि० (प्रयत) प्रकर्षेण यतः प्रयतः / आव०५ अ०। प्रयत्नवति, पयच्छिऊण अव्य० (प्रदाय) दत्त्वेत्यर्थे, स०११ अङ्गा सूत्र०। उत्त० 11 अ०। आ०चू०। पयट्ट त्रि० (प्रवृत्त) कृतप्रवृत्तिके, "भरहो सव्विड्डिए भगवंतं पदओ पयइ स्त्री० (प्रकृति ) स्वभावे नं० विशे०। अनु० / अष्टसु कर्मप्रकृतिषु, पयट्टो।" आ०म०१ अ०॥ आव०१ अ०। पयट्टचक्क पुं० (प्रवृत्तचक्र) प्रवृत्तराञ्यनुष्ठानसमूह, “एवंविधभिह चित्तं, पयंग पुं० (पतङ्ग) शलभे, उत्त०३ अ०। चतुरिन्द्रियजीवविशेष, उत्त० भवति प्रायः प्रवृत्तचक्रस्य।" पो०१४ विव०। 32 अ०। प्रज्ञा०। 'मुच्छितो पयंगो।" आ०म०१ अ०। सूर्ये, "अक्को पयट्टणी (देशी) प्रतिहारिण्याम्, आकृष्टौ, महिष्या च / दे० ना०६ वर्ग तरणी मित्तो, मत्तंडा दिणमणी पयंगो य। अहिमयरोपच्चूहो, दियसयरो 72 गाथा। अंसुमाली य / / 4 / / " पाइ० ना०४ गाथा। शलभे, “पयंगो सलहो" पयट्टमाण त्रि० (प्रवर्तमान) व्याप्रियमाणे पञ्चा०२ विव०। पाइ० ना०१३२ गाथा। आचा०। व्यन्तरभेदे, प्रज्ञा० 2 पद / प्रव० / पयट्टय त्रि० (प्रवृत्तक) चलिते, पाइ० ना० 236 गाथा। दाक्षिणात्यानां पतङ्गानामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ०। पयट्टियव्व न० (प्रवर्तितव्य) विधेयानां प्रवृत्ती, षो०१६ विव०। प्रवर्तितव्ये, पयंगवीथियास्त्री०(पतङ्गवीथिका) पतङ्गः शलभस्तस्य वीथिका उड्डयनं / पञ्चा०६ विव०। पतङ्गवीथिका तत्सदृशी गोचरभूमिका। ध०३ अधि० / स्था०। दश पयड त्रि० (प्रकट) प्रकाशे, "एसा य परा आणा, पयडा जं गुरुकुलं ण गोचरचर्याय शलभवद् गमने अर्द्धवितर्दे, पञ्चा० 18 विव०। मोत्तव्यं / " एषा वक्ष्यमाणा परा प्रकृष्टा प्रकृष्टार्थसाघकेनोपायोदर्श'पयंगवीहिया अणियया पंगुट्ठाणसरिसा / " पं०व०२ द्वार। यस्यां तु कत्वात् प्रकटा प्रकाशा यद् गुरुकुलं न मोक्तव्यम्। पञ्चा०११ विव०। त्रिचतुराऽऽदीनि गृहाणि विमुच्याग्रतः पर्यटन्ति सा पतङ्गवीथिका। पतङ्गः व्यक्तार्थे पञ्चा०२ विव० "विक्खाओ विस्सुओ पयडो।'' पाइ० ना० शलभस्तस्येव या वीथिका पर्यटनमार्गः सा पतङ्गवीथिका / पतङ्गो हि 108 गाथा। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयडत्थ 504 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पयत्थ पयडत्थ त्रि० (प्रकटार्थ) स्फुटाभिधेये पञ्चा०१८ विव०। पयडहरिभद्दसूरिवय न० (प्रकटहरिभद्रसूरिवचन) प्रकटार्थहरिभद्राभिधानाऽऽचार्यभणने, जी०१३ प्रति०। पयडि स्त्री० (प्रकृति) भेदे, विशे०। पं०सं० / यथा कर्मणः ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदयः, तेषां मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदयश्च प्रज्ञा० 23 पद। आ० म० / कर्मणां ज्ञानाऽऽवरकत्वाऽऽदिलक्षणे स्वभावे, पं०सं०५ द्वार। पयडिणिक्खेव पुं० (प्रकृतिनिक्षेप) मूलप्रकृत्यादिरूपे कर्मणि, उत्त० 33 अ०। पयडिभेय पुं० (प्रकृतिभेद) ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनां भेदेषु, कर्म०५ कर्म०। पयड्डअ त्रि० (प्रकर्षक) प्रवर्तक, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। पयण न० (पचन) पाके, प्रभ०१ आश्र० द्वार। आहाराऽऽदिपाके, उत्त० 12 अ० / आहारनिष्पादने, उत्त० 12 अ० / भक्तस्येव शरीरस्य वचनरूपे दण्डे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। अधिकरणे ल्युट् / कडिलकाऽऽकृतिभाण्डे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। पयणसाला स्त्री० (पचनशाला) पाकस्थाने, यत्र पाकस्थाने वर्षासु भाजनानि पच्यन्ते बृ० 2 उ०। पयणु त्रि० (प्रतनु) अल्पे, पं० चू०२ कल्प। अतिमन्दीभूते, "पयणुकोहमाणमायामोहा'' प्रतनवः अतिमन्दीभूता क्रोधमानमायालोभा येषां ते तथा। ज०२ वक्षः। ''पयणुएमससोणिए'' भ० 3 श० 4 उ० / पयत त्रि० (प्रयत) प्रकृष्टसंयमयुक्ते, स्था० 4 ठा० 3 उ०। प्रयत्नवति प्रमादरहिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। भ०। पयत्त पुं० (प्रयत्न) प्रयतनं प्रयत्नः, सर्वेष्वपि विहितानुष्ठानेष्वप्रमादे, विशे० / आदरे, जी०१ प्रति० / पाइ० ना० / समुद्यमे, पञ्चा० 16 विव०। ताल्यादिव्यापारविषये यत्ने, विशे० / सम्यक्त्वव्रतग्रहणोत्तरकाल तदनुस्मरणाऽऽदौ अन्त०१ श्रु०८ वर्ग 1 अ०। * प्रात्त त्रि० प्रगृहीते, "पयत्तेणं पाहिएणं कल्लाणेण।' अन्त०१श्रु०८ वर्ग 1 अ०। * प्रदत्त त्रि० गुरुभिरनुज्ञाते, अणु०३ वर्ग 1 अ०। पयत्तकड त्रि० (प्रयत्नकृत) प्रयत्नपूर्वके निष्पादिते, "सावज्जकडे त्ति वा पयत्तकडे त्ति वा भद्दयं भद्दए त्ति वा ऊसढ ऊसढे ति वा रासेयं रसिए त्ति वा माणुण्ण मणुण्णे ति वा तहप्पगारं भासं असाजवंजाव भासेजा।" आचा०२ श्रु०१चू० 4 अ०२ उ०। पयत्तपक्क त्रि० (प्रयत्नपक्व) यत्नपूर्वकपक्के, "पयत्तपक्कं तिय एक्कगालवे, पयत्तछिन्नं ति य छिन्नमालवे / " (42 गाथा) दश०७ अ०। पयत्थ पुं० (पदार्थ) 6 त० / पदबोध्येऽर्थे विशे०। भावे, "भावो वत्थु पयत्थो।" पाइ० ना०१५५ गाथा। फ्ययन परबोहहिओ वऽत्थो, किरियाकारगविहाणओ वच्चो। पज्जायवयणओ विय, तह भूयत्थाभिहाणेणं // 1004 / / पच्चक्खओऽहवा सो-ऽणुमाणओ लेसओ च सुत्तस्स। बच्चो व जहासंभव-मागमओ हेउओ चेव / / 1005|| तृतीयं तु व्याख्यानाङ्गं पदार्थः / स च कारकवाच्याऽऽदिभेदाच्चतुर्विधः / तत्र कारकेणाच्यत इति कारकवाच्यः, कारकविषय इत्यर्थः / यथा- 'पवतीति पाचकः' इत्यादि। समासेनोच्यतेसमासवाच्यः, 'राज्ञः पुरुषो राजपुरुषः' इत्यादि / तद्धितेनोच्यते तद्धितवाच्यः, वसुदेवस्यापत्यं वासुदेव इत्यादि / निरुक्तेनोच्यते निरुक्तवाच्यः-भ्रमति च रोति च भ्रमरः' इत्यादि। तदेव पदार्थस्य चातुर्विध्यमुक्तम्।।१००३।। अथ प्रकारान्तरेण त्रिविधोऽप्येष सम्भवतीति दर्शयति-(परबोहेत्यादि) वा इत्यथवा, परेषां श्रोतृणां बोधः परबोधः तत्र कर्तव्ये हितो योऽर्थः पदार्थः, स त्रिविधोऽपि वाच्यः / तद्यथा-क्रियाकारकविधानतः पर्यायवचनतः भूतार्थाऽभिधानेन च। तत्र क्रियाकारकभेदेन यथा घट' चेष्टायाम्, घटतेऽसाविति घटः। पर्यायवचनैर्यथाघटः, कुटः, कुम्भः, कलश इत्यादि। भूतः सद्भूतो यथावस्थितोऽर्थस्तदभिधानतस्तत्प्ररूपणेन च पदार्थो वाच्या तद्यथा यऊर्द्धकुण्डलोष्ट आयतवृत्तग्रीवः पृथ्बुध्नोदरः स घट उच्यत इत्यादि। अथवा-पद र्थः सूत्रस्यार्थस्विविधो वाच्यः / तद्यथा-प्रत्यक्षतः, अनुमानतः, लेशतश्च / अत्र प्रत्यक्षेणैव यादृशं पुस्तकाऽऽदिलिखितमुपलभ्यते, गुरुमुखादा यादृशं श्रूयते, तादृशमेव साक्षाद्यत्र प्ररूप्यते, स प्रत्यक्षत पदार्थ उच्यते / यथा-"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इति गुरुमुखाऽऽदेः श्रवणाऽऽदिप्रत्यक्षेणोपलभ्य सम्यग्दर्शनाऽऽदीनां मोक्षमार्गत्वं प्ररूपयति / अनुमानं त्विहार्थाऽऽपत्तिरूपं गृह्यते, तस्यामप्यन्यथा नुपपन्नार्थादतीन्द्रियस्य साध्यार्थस्याऽनुमीयमानत्वात् / तत्र प्रत्यक्षोपलब्ध एवार्थोऽयमापत्तिलब्धमर्थ कथयति सो नुमानतः पदार्थ उच्यते, यथा कथयन्ति मिथ्यादर्शनाऽऽदीन् पुनर्मोक्षमार्गो न भवतीत्यर्थादव गम्यत इति। तथालेशतः पदार्थो भवति; तत्र- 'लिश' श्लेषणे, लेशः श्लेषः। श्लिष्टं समस्तमिति यावत्। तन्निद्देशात् पदार्थो गम्यते / यथा- सम्यग्दर्शनज्ञानधारित्राणि इति त्रयाणामपि समस्तानां निर्देशात्समुदितानामेव मोक्षमार्गत्व, नैकैकश इति गम्यते। ततोऽसौ लेशेन श्लेषेण सूवितो लेशतः पदार्थोऽभिधीयते तदेवं प्रकारान्तरेणाऽप्युक्तस्त्रिविधः पदार्थः / अथवा यथासम्भवमागमतो, हेतुतश्च द्विविधः पदार्थो वाच्यः तत्र भव्याऽभव्यनिगोदाऽऽदिप्रतिपादकपदानामागमत आज्ञामात्रेणैवार्थः प्रतिपाद्यते / न हि भव्याऽभव्याऽऽदिभावप्ररूपणे आगमं विहाय प्रायः प्रमाणान्तरं प्रवर्तते / अतो यमागमतः पदार्थ उच्यते! यत्र च हेतुः सम्भवति, तत्र हेतुतः पदार्थोऽभिधीयते। यथा-कायप्रमाण आत्मा, न सर्वगतः, कर्तृत्वात्, कुलालाऽऽदिवत्, इत्यादि / ननु मूर्त आत्मा कर्तृत्वात्कुलालाऽऽदिवत्, इत्येवं मूर्तिमत्त्वमप्यात्मनोऽनेन हेतुना सिद्ध्यतीति चेत् / सत्यम् इष्यते एव संसार्यात्मनो मूर्तरवमपीति न कि शिनः सूयते / इति हेतुतोऽयं पदार्थोऽभिधीयते / तदनेन "आणगिज्झो अत्थो, आणाए चेव सो कहेयव्यो। दिट्ठतिओं दिट्ठता कहणविहिविराहणा इहरा" ||1|| इत्ययमर्थः समर्थितो भवतीति / तदेवमुक्तो विरतरतः पदार्थः / / 1003 / 1004 / 1005 / / विशे० / द्रव्याऽऽदि चतुर्धा। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयत्थ 505 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पयत्थ अधुना पदार्थद्वारमाहहोइ पयत्थो चउहा, सामासिय तद्धिओ य धाउकओ। नेरुत्तिओ चउत्थो, तिण्ह पयाणं पुरिल्लाणं // 330 / / त्रयाणां पूर्वाणां पदानां नामनिपातौपसर्गिकाणां चतुर्विधः पदार्थो भवति / तद्यथा-सामासिकः, तद्धितो, धातुकृतो, नैरुक्तश्च चतुर्थः। तत्र सामासिकः सप्तधादंदे य बहुव्वीही, कम्मधारय दिगू य एमेव। तप्पुरिस अव्वईभा-व एगसेसे य सत्तमए।।३३१।। तत्र द्वन्द्वो यथा-दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तोष्ठम् / बहुव्रीहिर्यथा-''फुल्ला इमम्मि गिरिम्मि कुडयकयंवा सो इमो गिरी फुल्लकुडयकयंबो / '' कर्मधारयः-श्वेतपटः। द्विगुः-त्रीणि मधुराणि त्रिमधुरम् / तत्पुरुषः-वने हस्ती वनहरती। अव्ययीभावः-गङ्गायाः समीपम् उपगङ्गम् / एकशेषो यथा-पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषाः / एवं-वृक्षा इत्यादि / उक्तः सामासिकः। संप्रति तद्धित उच्यते, सोऽष्टप्रकारः। उक्तं चकम्मे सिप्पेसिलोगे, संजोगें समीवओ य संजूहे। ईसारियाऽवच्चेण य, तद्धियअत्थो तु अट्ठविहो // 332 / / तत्र कर्मतो यथा-तृणहारकः / शिल्पतो यथा-तन्तुवायः / श्लोकतः श्लाघातो यथा - श्रमणः, संयत इत्यादि। संयोगतो यथा राज्ञः श्वशुरः। समीपे यथा-गिरिसमीपे नगरम् / संव्यूहतो यथा-मलयवतीकार इत्यादि / ऐश्वर्यतो यथा-राजा युवराज इत्यादि। अपत्यतः-तीर्थकस्माता, चक्रवर्ति माता इत्यादि / उक्तस्तद्धितः। सम्प्रति धातुकृत उच्यते-भूसत्तायां परस्मैभाषा इत्यादि। नैरुक्तोमह्या शेते महिष इत्यादि, आद्यानां त्रयाणां पदानामेष पदार्थः सम्प्रत्याख्यातिकपदस्य, मिश्रपदस्य च पदार्थमाहकारगकओ चउत्थे, मिस्सपदे मिस्सओ चउत्थो उ। सामासिओं सत्तविहो, हवइ पयत्थो उ नायव्वो॥३३३।। / चतुर्थे आख्यातिकपदे पदार्थः कारककृतःक्रियाकृतः / मिश्र पदे मिश्रपदार्थः, तत्र यः सामासिकः स पदार्थः सप्तविधो ज्ञातव्यः। स च प्रागेवोपदर्शितः / बृ०१उ०१ प्रक० / अनु०। आ०म०। तथाहिनेयायिकदर्शनेन तावत्प्रमाणप्रमेयसंशय-प्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वा-भासछलजातिनिग्रहस्थानानीत्येते षोडश पदार्था अभिहिताः / सूत्रः 1 श्रु० 12 अ०। आ०म० (कथं पुनश्चतुश्चत्वारिंशं शतं पृच्छानां भवति इति प्रश्ने, 'तेरासिय' शब्दे चतुर्थभागे 2365 पृष्टे पदार्थनिरूपणपरा "भूजल." (2460) इत्यादिगाथा उक्ताः) तथाहि-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाऽऽख्याः षडेव पदार्थाः, न्यूनाधिकप्रतिपदार्थादेकप्रमाणाभावे परस्परवक्तव्यस्वरूपषट् - पदार्थव्यवस्थापकप्रमाणविषयत्वात् / उभयाभिमतघटाऽऽदिषट्पदार्थवत्। (द्रव्यस्वरूपम् 'दव्व' शब्दे चतुर्थभागे 2466 पृष्ठे उक्तम् गुणस्वरूपं 'गुण' शब्दे तृतीयभागे 606 पृष्ठे विवृतम्) न चैवं उत्क्षेपणाऽऽदीनि पञ्चकर्माणि, परापरभेदभिन्नं द्विविधं सामान्यम् अनुगतज्ञानकारणं, नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा अत्यन्तव्यावृत्त बुद्धिहेतवः, अयुतसिद्धानां कार्याऽऽधारभूतानामिहेतिप्रत्ययहेतुर्यः सबन्धः समवायो व्यापकश्च / अत्र च पदार्थषट्के द्रव्याणि गुणाश्च केचिन्नित्या एव, कर्मनित्यमेव, सामान्यविशेषसमवायास्तुनित्या एवेति पदार्थव्यवस्था। ततश्चैतच्छास्त्रंतथापि मिथ्यात्वम्, तत्प्रदर्शितपदार्थषट्कस्य प्रमाणबाधितत्वात्। यतश्चतुसंख्य पृथिव्यादि द्रव्यं परमाणु रूपं यन्नित्यमुपवर्णितम् तदसंगतम् / एकान्ताक्षणिकत्वे क्रमयोगपद्यभावार्थक्रियाविरोधात्। तल्लक्षणं सत्त्वं ततो व्यावर्त्तते, ततश्चासत्त्वमेव तस्य। यदि च स्थलकार्यद्रव्यकारणभूतानामणूना तज्जनकैकस्वभावता तदा तत्कार्याणां सकृदेव सर्वेषामुत्पत्तिप्रसक्तिः , अविकलकारणत्वात्। तथा च प्रयोग:-येऽविकलकारणास्ते सकृदेवोत्पद्यन्ते, यथा समानोत्पादा बहवोऽड्कुराः, अविकलकारणाश्च परमाणुकार्यत्वेनाभिमता भावा इति स्वभावहेतुः / अविकलकारणस्याप्यनुत्पादे सर्वदा अनुत्पत्तिप्रसक्तिः, विशेषाभावादिति पर्याय बाधकं प्रमाणं स्यात्। एतत् समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात त्रिविध कारणम्। यत्र हि कार्य समवैति तत् समवायिकारणं, यथा व्यणुकस्याणुद्वयम्, यच कार्यकार्थसमवेत कार्य कारणैकार्थसमवेतं वा कार्यमुत्पादयति तदसमवायिकारणं, यथा पटावयविद्रव्याऽऽरम्भे तन्तुसंयोगः, पटसमये तद्पाऽऽद्यारम्भे पटोत्पादक तन्तुरूपाऽऽदि च। शेषं तूत्पादकं निमित्तकारणं, यथाऽदृष्टा55काशादि / तत्र संयोगाऽऽदेरपेक्षणीयस्यासन्निधेरविकलकारणत्वमसिद्धम्। असदेतत् संयोगाऽऽदिनाऽनाधेयातिशयत्वान्नित्यतया अणूनां तदपेक्षत्वायोगात् / न च तन्तुकारणाऽऽदीना कार्याणां सकृत्प्रादुर्भाव उपलभ्यतेतरमाद्विपर्ययः। तथा च प्रयोगये कर्मवत्कार्यहेतवस्तेऽनित्याः यथा क्रमवदडकुराऽऽदीनि, वर्तिकावीजावयवस्तथा, परमाणव इति स्वभावहेतुः / यद्यप्यविरुद्धकारणोक्त मणूनां नित्यत्वसाधकं प्रमाण परमाणूत्पादकाऽभिमतकारणं सधर्मोपेतं न भवति, सत्त्वप्रतिपादकप्रमाणाविषयत्वात् शश श्रृङ्गवदिति, तत्र कुविदाऽऽदेग्णूत्पादककारणस्य सत्त्वप्रतिपादकप्रमाणविषयत्वाद्दसिद्धो हेतुः / यथा च पटाऽऽदयः परमाण्वात्मकाः कुविन्दोत्पाद्यान्तथा प्रदर्शयिष्यामः / देशकालस्यभावविप्रकृष्टानां च भावानां सदुपलम्भकप्रमाणातिवृत्तावपि सत्त्वाविरोधात् अनैकान्तिकश्व हेतुः, ततो नाण्वनित्यत्वप्रसाधकाऽनुमानप्रतिज्ञाया अनुमानबाधाः न च यत एव प्रमाणात्परमाणवः प्रसिद्धास्तत एव नित्यत्वधर्मोपेता अपि त इति तद्ग्राहकप्रमाणबाधितत्वात्तदनित्यत्वप्रसाधकानुमान स्यानुत्थानं प्रमाणतोऽप्रसिद्धौ चाणूनामाश्रयासिद्धतया तदिति वाच्यं. सर्वस्य प्रमाणविषयस्यानित्यत्वधर्मोपेतस्यैव तद्विषयत्वात्, अन्यथाभूतस्य तज्जनकत्वेन तद्विषयत्वानुपपत्तेः नाकारण विषय इति प्रसाधितत्वात् / नित्यस्य चाकारणत्वान्न चतुःसंख्यं परमाण्वात्मकं नित्यद्रव्यं सम्भवति, नाऽपि तदारब्धमवयवि द्रव्यं सम्भवति, गुणावयवव्यतिरिक्तस्य तस्यानुपलम्भात् / न हि शुक्ला दिगुणेभ्यस्तन्त्वाद्यवयवेभ्यश्चार्थान्तरभूतपटाऽऽदि द्रव्यं चक्षुरादिज्ञाने अवभासते, न चावयविनो व्यणुकाऽऽदेरनुपलम्भे परमाणूनां विविक्तस्वरूपाणामुपलम्भाविषयत्वात् प्रतिभासाभावप्रसक्तेराश्रयासिद्धतयाऽवयव्यादिनिषेधक प्रसङ्ग साधनप्रयोगाऽनुपपत्तिरिति वक्तव्यम्, परमाणूनामेव विशिष्टाऽऽकारतयोत्पन्नानां प्रतिभासविषयतयाऽऽश्रयासिद्धताऽऽद्यनुपपत्तेन प्रयोगानुपप Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयस्थ 506 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पयत्थ त्तिः / एवं च यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं सत् यत्र नोपलभ्यते तत्तत्र नास्ति, यथा कृचित्प्रदेशविशेषघटाऽऽदिरनुपलम्भविषयःगुणावयवार्थान्तरभूतो गुण्यवयवीव दृश्यत्वेनाभिमतः नोपलभ्यते च तत्रैव देश इति स्वभावानुपलब्धिः / न च हेतोर्विशेषणमसिद्ध, महदनेकद्रव्यवत्त्वादूपाऽऽदिमत्त्वात् चोपलब्धिरिति वचनात् तयोर्दृश्यत्वेनाभ्युपगमात्। ननु गुणव्यतिरिक्तो गुण्युपलभ्यत एव, तद्रूपाऽऽदिगुणाग्रहणेऽपि तस्य ग्रहणात्। तथाहि-मन्दमन्दप्रकाशे तगतशिताऽऽदिरूपानुपलम्भेऽप्युपलभ्यते, बलाकाऽऽदिस्वगतशुक्रगुणाग्रहणेऽपिच तन्निहेतोपधानाव थानायां गृह्यते स्फटिकोयलः / तथा प्रदीपनकञ्चुकायच्छन्नशरीरपुंसां तद्गतश्यामाऽऽदिरूपाप्रतिभासेऽपि पुमानति प्रत्ययोपपतेः / प्रतिमात्येव कुडकुमाऽऽदिरक्तं च वस्त्र, तद्रूपस्यर्श,स्वरूपेणाभिभूतस्याप्रकाशेऽपि प्रकाशत एव वस्त्रमिति प्रत्ययोत्प तेरध्यक्षत एव गुणगुणिनोर्भेदः सिद्धः, तथाऽनुमानतोऽपि तयोर्भेदः तथाहि-यध व्यवच्छेदकत्वेन प्रतीयते तत् ततो भिन्न, यथा देवदत्ताऽऽदेश्वगुणिव्यवच्छेदकत्वेन प्रतीयन्तेनीलोत्पलस्य रूपाऽऽदय इति। तथा पृथिव्यपूते जोवायवो द्रव्याणि रूपरसगन्धस्पर्शेभ्यो भिन्नानि, एकवचनबहुवचनविषयत्वात् / यथाऽऽर्द्राणक्ष त्राणीति, तथा च पृथिवीत्येक वचनं, रूपरसनन्धस्पर्शा बहुवचननुयलभ्यत इति तद्दोर्भेदः / अथावयवावयविनोरप्पनुभानतः सिद्धो भेदः। तथाहि-तन्तुवायाविकरणेभ्यस्तन्तुभ्यो भिन्नःपटनुभिन्नकर्तृकत्वात्, घटाऽऽदिनत, भिन्नशक्तिकत्वाद्वा विषाद्ग्रदवत्, पूर्वोत्तरकालभावित्वाता पितापुत्रवत् विभिन्नपरिमाणत्वाद्वा कुवलयविल्ववदिति, विरुद्धधर्भाव्यासनिवन्धतो ह्यन्यलाभि भावानां भेदः, स चाऽत्राsप्यस्तीति कथं न भेदः? यदि चावयवेभ्यो भिन्नो न भवेत् स्थलप्रतिभासो न स्यात्, परमाणूनां सूक्ष्मत्वात्, न चान्यादृगभूतः प्रतिभासोऽन्यादृगर्थव्यवस्थापकः, अतिग्रसङ्गात् / न च स्थूलो भावः परमाणुरिति विवयदेशोऽपि संभवी स्थूलपिक्षित्वादणुत्वस्येत्युद्घातकराऽऽदयः। अत्र प्रतिविधी-येत-यदुक्तं स्वगतगुणानुपलम्भेऽपि बलाकास्फटिकाऽऽदयः उपलभ्यन्त इति। तदसङ्गताम्। तज्ज्ञानस्यायथार्थत्वे उद्भ्रान्ततया निर्विषयत्वात्। तथाहि-बलाकाऽऽदयः शुक्लाः सन्तः श्यामाऽऽदिरूपतयोपलभ्यन्ते / न च तेषां तद्रूयं तात्त्विक्रमस्ति तदूपाग्रहणेऽपि तेषां ग्रहणमित्यभ्युपगमप्रसक्तेः। न च तदा श्यामाऽऽदिरूपाव्यतिरिक्तोऽपरस्फटिकाऽऽदिस्वभाव उपलभ्यते, श्यामाऽऽदिरूपस्यैवापलम्भात्। न चातद्रूपा अपि बलाकाऽऽदयः श्यामाऽऽदिरूपेणोपलभ्यन्ते, यत आकारवशेन प्रतिनियतार्थज्ञानस्य व्यवस्था अन्याकारस्याऽपि तस्यान्यार्थतायां रूपज्ञान यापि रसविषयताप्रसक्तेरविशेषात्। न चान्याssकारस्यान्यविषयव्यवस्थापकत्वेऽपि तस्य परस्येष्टसिद्धिः यतः शुक्लाऽऽदय एव श्यामाऽऽदिरूपेण प्रतिभान्ति, तज्ज्ञानस्य भ्रान्तत्वान्न पुनस्त लतिरिकस्य गुणिनस्ततः सिद्धिर्भवेत् / यच कञ्चुकावच्छिन्ने पुंसि पुमानिति ज्ञानमध्यक्षमवयविव्यवस्थापकमुक्तम्। तदध्यक्षमेयन भवति / शब्दानुविद्धत्वादस्पष्टाऽऽकारत्वाच / अभि तु रूपाविसंवादमललक्षणपुरूषविषयमनुमानमेतदिति नातोऽवयविसिद्धिः / तथा-हि रूपाऽऽदिप्रत्ययाऽऽत्मकपुरुषहेतुकः कञ्चुक-सन्निवेशः उपलभ्यमानस्यकारणमनुमापयति, धूम इवानिः / यच्च कुडकुगाऽऽदिरक्ते वस्त्र तदूपाप्रतिपत्तावपि वस्त्रमिति ज्ञानं तत्-प्राक्तनशुक्लरूपविनाशे सामग्यन्तरोपजातरूपान्तरस्याध्यक्षेण ग्रहणे सत्युत्तरकालतत्पृष्ठभाविसमयवशाद्वस्वमिति समुदा-यविषयं सावृतपरमार्थतो निर्विषयभेव प्रत्यवमर्शज्ञानमित्य-सिद्धमस्य प्रत्यक्षत्वं, न चैतदनुमान, पूर्वाध्यक्षगृहीतविषयत्वात् अलिङ्गिकत्वात् समुदायविषयं सांवृतपरमार्थतो निर्विषयमेव / न चाभिभूतवस्तुरूपस्य तदवस्थायामभावे, धौतवस्त्रावस्थायां पुनः शुक्लरूपानुपलब्धिः स्यादिति वक्तव्यम् / यतोऽग्न्यादिसामग्रीप्रादुर्भूतभास्वररूपस्य लोहाऽऽदेः पुनः श्यामाऽऽदिरूपान्तरोत्पन्तिवत् तत्रापि साप्तम्यन्तरात् शुक्लरूपोत्पत्तेरविरोधात्। न च प्रक्तनमेव रूपमभिभूतत्वात् तत्रानुपलब्ध, पश्चादभिभवा-भावादुपलभ्यत इत्यस्य प्रतिवेधेन रूपान्तरमेव प्राक्तनरूपविनाशेनोपज्ञानमत्रोपलभ्यत इति भवतोऽपि किं प्रमाणभितिवक्तव्यम्, अनुमानस्य सद्भावात्। तथाहि- यदपरित्यक्तानभिभूतस्वभावं तस्य न परेणाभिभवः, यथा पूर्वावस्थाया तस्यैवापरित्यक्तः न हि भूतस्वभाव भेदासंभवावस्थायां रूपमिति व्यापकविरुद्धीपलब्धिः / परित्यक्तानभिभूतस्वभावत्वाभ्युपगमे पि सिद्धस्यान्यत्वं स्वभावभेदस्य भावभेदलक्षणत्वात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्। न च स्वतन्त्रेच्छामात्रभावितषष्ठीवचनभेदादेव बाह्यवस्तुगतभेदाव्यभि वारित्वं येन ततो गुणगुणिनोः भेदसिद्धिः स्यात्, तेन यदयदवच्छिन्नमित्यादिप्रयोगानुपपत्तिर्यदि न वस्तुगतभेदमन्तरेण षष्ठ्यादिवृत्तिर्न भवेत्. नस्वस्वभावः, षण्णा पदार्थानामस्तित्वं, दाराः शिकता इत्यादौ षष्ठयादेर्वृत्तिर्न स्था द्वावादेस्त्र व्यतिरिवतन्य भावे वण्णमितन्निबन्धतस्याभावात्। अथ सदुपलम्भकप्रमाणविषयत्वं धर्मान्तरं षण्णामस्तित्वभिष्यत इति न हेतोव्यभिचारः / सप्तमपदार्थयसक्तेः षट्पदार्थाभ्युपगमो, हीयते, अथषट्पदार्थव्यतिरिक्तानामपि पण्णामभ्युपगमान्नाय दोषः तेषां च पदार्थप्रवेशके ग्रन्थ एव धमैर्विनाधर्मिणामुद्देशः कृत इति असदेतत्। तैस्तेषां संबन्धानुपपतेः / तदन्तरेण व धर्मधर्मिभाषायोगात्। अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्। न च संयोगलक्षणोऽन्यसंबन्धः, संयोगस्थगुणत्वेन द्रव्येष्वेव भावात नापि समवायस्वरूपः, सत्तावतस्य सर्वत्रकत्वाभ्युपगमात्, समवायेन च सह समवायसंबन्धे द्वितीयसमवायाभ्युपगमः स्यात् / तत्र चानवस्था / न च षभिः पदार्थर्धर्माणामुत्पादनात् तेषां त इति ध्यपदेशः, तथाऽभ्युपगमे वदराऽऽदयोऽपि कुण्डाऽऽदिसंबन्धिनस्तथैव स्युरिति सयोग समवायाऽऽख्यसंबन्धान्तरकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिर्भवतु वा षण्णामस्तित्वं धर्मान्तर, तथाऽपि व्यभिचार एव, तदस्तित्वे अपरास्तित्वाऽऽद्यभावेऽपि तदस्तित्वन्यास्तित्वप्रमेयत्वाभिधेयत्वानीति षष्ठ्यादिप्रवृत्तेः / अथ तत्रापि परास्तित्वाभ्युपगमः तदाऽनवस्थाप्रसक्तिः। न चेष्टत्वाददोषः, सर्वेषामप्युत्तरोत्तरधर्माऽऽधारत्वाद् धर्मित्यप्रसक्तेः षडेव धर्मिणः प्रोक्ताः, इत्येतस्यानुपपत्तिः, षट्पदार्थव्यतिरिक्तानामन्येषामपि वा धर्मिणामस्तित्वाऽऽदीनां विशिष्टधर्माऽऽधाराणासंभावत्। न च धर्मिरूपा एव ये ते एव षट्केनावधारिता इति वक्तव्यं गुणाऽऽदीनामपि निर्देशप्रसङ्गात् न हि गुणाऽऽदीनां धर्मिरूपतैव, किंतुद्रव्याश्रितत्वाद्धर्मरूपत्वम्। यस्त्वाह-सदुपलम्भप्रमाणगम्यत्वं षण्णामस्तित्वमभिधीयते, तच षट्पदार्थविषयज्ञानंतस्मिन्सति सदिति व्यवहारप्रवृत्तेः / एवं ज्ञानजनित ज्ञानज्ञेयत्वमभिधान जनितमभिधेयत्वमित्येवं व्यतिरेक निबन्धना षष्ठी सिद्धा। नवाऽनवस्था न च षट्पदार्थव्यतिरिक्तपदार्था Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयत्थ 507 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पयला न्तरप्रसक्तिः , ज्ञानस्य गुणपदार्थेऽन्तर्भावात् / सोऽप्ययुक्तवादी। तत्सामयिकश्च कार्मणकाययोगो- भवति अथ प्रतरमिति कोऽर्थः? एवमप्यस्तित्वाऽऽदेः षट्पदार्थाः व्यतिरेके व्यभिचारस्य तदवस्थत्वाच्च प्रतरमिव प्रतरक म् उपमानार्थ यथा-घननिचितनिरन्तरप्रचिताव्यतिरेके सप्तमपदार्थप्रसक्तेः न्यायप्राप्तत्वात् / किं च यदि षण्णा वयवसंस्थितापरिवृत्तस्थाल-कफलकं लोकै : प्रतरभित्युच्यते / पदार्थानामर्थक्रियासमर्थपदार्थस्वरूपं स्वतत्त्व न स्यात् तदा शशशृड् तथाऽऽकाशमपि परस्परप्रदेशससर्गविच्छेदपरिवृत्तपर्यायेनावस्थित रूपता तेषा भवेत् अर्थक्रियासामात् / ततश्च कथ सदुपलम्भ- प्रतरमिति प्रसिद्धम् / अथ तृतीयसमये प्रतरपूरकाणां को विधिरिति प्रमाणगभ्यता तेषाम्। अथार्थक्रिया समर्थ रूपं तेषां विद्यते. तदा ते तद्रूपा प्रश्रे? प्रतिबूमहे ततो द्वितीयसमये निर्गताऽऽत्मप्रदेशसकाशात् एव, भेदान्तरप्रति क्षेपमात्रजिज्ञासायां तेषामस्तित्वमित्येवं यदि योऽसंख्येयभागो विशिष्टोऽवतिष्ठत इत्युक्तम् असावपि बुद्ध्या व्ययदेशव्यतिरेकविभक्त्या समासादयन्ति तदा न कश्चिद्विरोधः न हि पुनरसंख्येयभागाः कृताः। ततः तृतीयसमये प्रतरकाणामसंख्येयभागाद् तदव्यतिरिक्तमपि स्वरूपं बुद्ध्याऽपकृष्य ततो व्यतिरिक्तमिवा - निःक्रामन्ति असंख्येयभागोऽवतिष्ठते तैरसंख्येयगिर्निर्गतैरेतैः प्रतरं भिधीयमानं विरोधभाग भवति, इच्छामात्रानुविधायित्वाद्वा च उत्पाद्य- पूरयन्ति। तत्र ये निष्क्रान्ताऽऽत्मप्रदेशसकाशादसंख्येयगुणहीनाः ततश्चकथास्वायाति, सुन्दरपदार्थवचनवत् / सम्म० ३काण्ड / आचा० / चतुर्थसमये कार्मणकाययोगस्थान एव आकाशप्रदेशान्निष्कुटसंस्थान स्था०। जीवादीनि नव तत्त्वानीति। स्या०। सस्थितान् लोकव्यपदेशभाजः पूरितान् पूरयन्तीति लोकपूरकाः / पयत्थदोस पुं० (पदार्थदोष) सूत्रदोषभेदे, यत्र वस्तुपर्यायोऽपि सन् आ०चू० 10 / विश० ('केवलिसमुग्धाय' शब्दे तृतीयभागे 656 पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते, यथा सतो भावः सत्ता इति कृत्वा वस्तुपर्याय पृष्ठादारभ्य व्याख्यातम्) (खुड्डगपयर शब्दे तृतीयभागे 746 पृष्ठे एव सत्ता, सा च वैशेषिकैः षट्सु पदार्थेषु मध्ये पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते। क्षुल्लकप्रतरः समर्थितः) वृत्तप्रतरे, स्वर्णाऽऽदिमये पत्रिकाऽऽभिधाने एतच्चायुक्तम् / वस्तूनामनन्तपर्यायत्वेन पदार्थातन्त्यप्रसङ्गादिति / आभरणविशेष, औ०। ज्ञा० / जं०1"पयरगमंडिया।" सुवर्णप्रतरविशे०। कमण्डितानि। जी०३ प्रति०४ अधि०। पयत्थरसिग पुं० (पदार्थरसिक) आगमोक्तदेवतत्त्वगुरुतत्त्वाऽऽगम- पयरण न० (प्रतरण) प्रथमदातव्यभिक्षायाम्, बृ० 1 उ०३ प्रक०। तत्त्वजीवाऽऽदिभावप्रीतियुक्ते, पञ्चा०२ विव० / निचू०। पयदोस पुं० (पददोष) तथाविधे सूत्रदोषे, यत्र स्याऽऽद्यन्ते ति वाऽऽद्यन्तं पयरणवयण न० (प्रकरणवचन) अर्वाचीनसाधुविरचितवचने जीवा० 25 तिवाऽऽद्यन्ते स्याद्यन्तं करोति / बृ०१ उ०१ प्रक०। अधि०। पयबद्ध न० (पदवद्ध) एकाक्षराऽऽदिपदबद्ध गेये, ज०१ वक्ष०ा जी० / रा०। | पयरतव न० (प्रतरतपस्) श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतरः, तदुपलक्षित पयभूमि स्त्री० (पदभूमि) निजचरणन्यासभूमी, 'एअभूमिपमज्जणं च तपः प्रतरतपः / तपोभेदे, इह सुबोधार्थ चतुर्थषष्ठाष्ठमदशमाख्यतिक्खुत्तो।" संद्या०१ अधि०१प्रस्ता०। पदवतुष्टयाऽऽस्मिका श्रेणिर्विवक्षिता / सा च चतुर्भिर्गुणिता षोडशपयमग्ग पुं० (पदमार्ग) प्रचारे, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। पदाऽऽत्मकं प्रतराऽऽख्यं तपो भवति, तत् प्रतरतपः षोडशपदाऽऽत्मपयय त्रि० (प्रयत) प्रयत्नपरे, नं०ा व्य० / अनिशमित्यर्थे, दे०ना०६ वर्ग कमेव / उत्त०३० अ०। 6 गाथा। प्रकृष्टयत्नवति, अणु०३ वर्ग 1 अ०। अतिशयप्रयत्नवति, पयरमेय पुं० (प्रतरभेद) अभ्रपटलभूर्जपत्राऽऽदिवत् द्रव्यभेदे, प्रज्ञा०११ दश०२ चू०। पं०व०। व्यन्तरभेदे, स्था०२ ठा०३ उ०। पद। स्था०। पययमणन० (प्रयतमनस्) आदरपूरचेतसि, स०११ अङ्ग। पयरवट्ट न० (प्रतरवृत्त) घनभिन्ने वृत्तसंस्थाने, भ० 220 1 उ०। पयर धा० (स्मृ) चिन्तायाम्, "स्मरेः झर-झर-भर-भल-लढ- पयल (देशी) नीडे, दे०ना०६ वर्ग 7 गाथा। विम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः"!!८४७४॥ इति सूत्रेण स्मृधातोः पयलमाण त्रि० (प्रचलायमान) ईषत्स्वपति, आव०५ अ०। ''पवडेज पयराऽऽदेशः। 'पयरइ।' स्मरति। प्रा० 4 पाद। वा से तत्थ पयलमाणे या पयडमाणे वा हत्थंवा पाय वा।" आवा०१ श्रु० * प्रकरपुं० शरे, प्रदरशब्दभवे, देखना०६ वर्ग 14 गाथा। समूहे, कल्प० / १चू०२ अ०३ उ०। 1 अधि०१क्षण। पाइ० ना०। पयला स्त्री० (प्रचला) प्रचलति पूर्णयति यस्यां स्वापावस्थायां सा प्रचला। * प्रतर पुं० अघने, 'पतरा' इतिलोके, स्था० 1 ठा० / लोकाऽऽ- प्रज्ञा०२३ पद / उत्त०। पं०सं०। कर्म०। प्रचलायमानस्य स्वापावकाशप्रतराः / कर्म०५ कर्म०। स्थाभेदे, प्रव० 216 द्वार / स्था० / नि०चू० / प्रज्ञा० / सा च अधुना प्रतरं प्ररूपयितुमाह-प्रतरश्च / प्रतरः पुनः क इत्याह-तद्वर्गः, स्थितस्योर्ध्वस्थानेन उपविष्टस्याऽऽसीनस्य भवति / कर्म० 1 कर्म०। तस्याः शूचिस्वरूपायाः श्रेणेवर्गः शूच्याः शूचिगुणनलक्षणस्तद्वर्गः / निद्राप्रचलयोस्त्वयं विशेषः "सुहपडिबोहाणिद्दा, दुहपडिबोहाय पयलया कोऽर्थः ? -शूच्या शूचेर्गुणनं प्रतर उच्यते। तद्यथा-इहासंख्येययोजन- होइ।' सुखप्रबोधा स्वापावस्था निद्रा, ऊर्ध्वस्थितस्यापि, या कोटीकोटीदीर्घाऽपि श्रेणिरसत्कल्पनया त्रिप्रदेशप्रमाणा द्रष्टव्या- / पुनश्चैतन्यमस्कुटीकुर्वती समुपजायते निद्रा सा प्रचला। जी० 3 प्रति० तस्याश्च तयैव गुणने प्रतरो नवप्रदेशाऽऽत्मको भवति / स्थापना - 1 | 1 अधि०१ उ०। पञ्चा०। बृ०। ('दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे 2442 पृष्ठे इति / (67 गाथा) कर्म०१ कर्म०। अथ तृतीयसमये प्रतरं कुर्वन्ति। | प्रचला निषिद्धा) तद्विपाकवेद्यायां कर्मप्रकृती, स०६ सम० / Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयलाइया 508 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पयाग पयलाइया स्त्री० (प्रचलापिका) भुजपरिसर्पिणीभेद, सूत्र०२ श्रु० भवति, कृचित्समासनिषेधात्। यथा व्यासः पराशर्यः, रामो जामदग्न्य ३अ०। इत्यादि। अतः प्रायोग्रहणमिति॥१००६॥ विशे०। पयलापयला स्त्री० (प्रचलाप्रचला) प्रचलातोऽतिशायिन्यां स्वापाव- | पयविभागसामायारी स्त्री० (पदविभागसामाचारी) पदयोरुत्सर्गापस्थायाम्, स्था०६ ठा0। 'पयलापयला य चंकमओ / जो पुण वादयोर्विभागो यथास्थानं निवेशस्तेन युक्ता सामाचारी छेदसूत्ररूपा गतिपरिणओ णिवा से भवति सा य पयलापयला भण्णति।" नि०चू०१ पदविभागसामाचारीति। ध०३ अधि० / कल्पव्यवहाररूपायां सामाउ०ा चक्रमतश्चक्रमणमपि कुर्वतोजन्तोरुपतिष्ठते, अत्रः स्थानस्थि- चार्याम, ध०। तस्य प्रचलामपेक्ष्यातिशायिनीत्वमस्याः / तद्विपाकवेद्यायां कर्मप्रकृती भेदः पदविभागस्तु, स्यादुत्सर्गाऽपवादयोः॥३४॥ च / कर्म०१ कर्म०। उत्त०। पं० सं० स० पदविभागसामाचार्याः प्रस्तावः सा च कल्पव्यवहाररूपाबहुविस्तरा, पयलाय न० (प्रचलाय) धा० प्रचलावत्वेन भवने, व्यर्थविवक्षायां निद्राऽऽ- | स्वरूपमात्रं तु प्रदीत-"भेदः" इत्यादि श्लोकोत्तरार्द्धम् - उत्सर्गापदिभ्यो धर्मिणि, क्यप् 'पयलायइ।' प्रचलायते प्रचलायमानो भवति / वादयोरुक्तलक्षणयोर्यो भेदः स पदविभागः स्यात्, पदयोरुत्सर्गापजी०३ प्रति०१ अधि०१ उ०। वादयोर्विभागो विभजनमिति व्युत्पत्तेः / तुर्विशेषणार्थः / तद्विवेकश्व पयलायंत त्रि० (प्रचलायमान) ईषत्स्वपति, आव० 5 अ० / कल्पव्यवहाराऽऽदौ प्रसिद्ध इति तत एव ज्ञेयः। इह च सम्यगुत्सर्गापयलायण न० (प्रचलायन) निषण्णस्य सुप्तजागरावस्थायाम, बृ०३ उ०। पवादभेदनियोगरूपा पदविभागसामाचारीत्यर्थः / तन्निमित्तमालोचना पयलायभत्ता (देशी) मयूरे, दे० ना०६ वर्ग 36 गाथा। शुद्ध्याऽऽदिकं चोपस्थापनाधिकारानन्तरं प्रदर्शयिष्यत इति / (34 पयलिय त्रि० (प्रचलित) प्रस्खलिते, आतु०। किणकिणायमाने, औ०। गाथा) ध०३ अधि। “पयलियवरकडगतुडियकेऊरमउडकुंडले / " प्रचलितानि वराणि "सामाचारी तिविहा, ओहे दसहा पयविभागे // 665 // " पदविकटकानि कलाविकाऽऽभरणानि त्रुटितानि बाहुरक्षकाः केयूराणि बाह्रा- भागसामाचारी छेदसूत्राणीति। (आव.) पदविभागसामाचार्यपि छेदसूत्रभरणविशेषरूपाणि मुकुटो मौलिभूषणं कुण्डले कर्णाऽऽभरणे यस्य स लक्षणान्नवमपूर्वादव नियूदति। आव० 1 अ० / कुत इयं नियूंढा ? प्रचलितवर कटकत्रुटितकेयूरमुकुटकुण्डलः। रा० / प्रचलिताऽऽस्फोटिता। पदविभागसामाचारी छेदग्रन्थगतसूत्ररूपा नवमपूर्वादव नियूंढा। विशे०। कल्प० 1 अधि० 3 क्षण। पयवी स्त्री० (पदवी) 'मग्गो पंथो सारणी, अद्धाणं वत्तिणी पहो पयवी।" पयलियसण्णा स्त्री० (प्रचलितसंज्ञा) प्रचलिता प्रस्खलिता विषयकषा- पाइ० ना०५२ गाथा। याऽऽदिसन्मार्गाल्परिभ्रष्टा संज्ञा बुद्धिर्येषां ते प्रचलितसंज्ञाः / आतु०। पयसमास पुं०(पदसमास) व्यादिपदसमुदाये, कर्म०१ कर्म०। पयल्ल धा० (प्रसृत) प्रसरणे, "प्रसरेः पयल्लोवेल्लौ" || 77|| पयसमूह पुं० (पदसमूह) पदसङ्घाते, आव०५ अ०। इति सूत्रेण प्रपूर्वकस्य सरतेः पयल्लाऽऽदेशः। “पयल्लइ।" प्रा०४ पाद। पयहीण त्रि० (पदहीन) त्यक्तपदे, ध०३ अधि०। पादेनैव हीने, आव० विस्तृते, पाइ० ना० 186 गाथा। 4 अ०। *कृ धा० शैथिल्यकरणे, लम्बनकरणे च। "शैथिल्यलम्बने पयल्लः" पया स्त्री० (प्रजा) प्रजायन्त इति प्रजाः। स्थावरजङ्गमेषुजन्तुषु, सूत्र० 18470 / / इति शैथिल्यविषयस्य लम्बनविषयस्य च कृगः 'पयल्य' 1 श्रु०१४ अ० / आचा०। प्राणिषु, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ० / इत्यादेशः। 'पयल्लइ।' करोति / शिथीलीकरोति, लम्बते वा / प्रा०४ / उत्त०। पं०व०ालीके, जने, नं०। स्था०। प्रजायन्तऽस्यामिति प्रजा। पाद। अपत्यवत्या स्त्रियाम, आचा०१श्रु०३ अ०२ उ०। सूत्र०। चुल्ल्यांच। पयवई (देशी) सेनायाम्, देना०६ वर्ग १६गाथा। व्य०६उ०। पयविग्गह पुं० (पदविग्रह) अनेकपदानामेकत्वाऽऽपादनविषयसमासे, यथा | पयाग पुं० (प्रयाग) गङ्गायमुनासङ्गमस्थाने, आ००। सामायिकसूत्रे भयस्यान्तो भयान्तः। अनु० / विशे०| तदुत्पत्तिःअथ पदविग्रहमाह 'मृत्वाऽगादवनौ षष्ट्यामुदायी पाथिवोऽजनि। पायं पयविच्छे ओ, समासविसओ तयत्थनियमत्थं। तस्याधृतिरभूदत्र, नगरे मत्पिताऽभवत्॥६४।। पयविग्गहो ति भण्णइ, सो सुद्धपए न संभवइ / / 1006 / / ततो न्यनगर कर्तु, तज्ज्ञैः स्थानं व्यमार्गयत्। इह प्रायेण यः समासविषयः पदयोः पदानां वा अनेकार्थसभवे तदा व्यात्तमुखश्चाषः, प्रैक्षि तैः पाटलीतरौ // 65 // सतीष्टपदार्थ नियमाय विच्छेदः क्रियते स पदविग्रहः / यथा-राज्ञः पुरुषो प्राविशच मुखे तस्य स्वयमेत्यैत्य कटिकम्। राजपुरुषः, श्वेतः पटोऽस्येति श्वेतपटः, मत्ता बहवो मातङ्गायस्मिन्वने उच्यते पाटलीवृत्त-मभवन्मथुराद्वयम्॥६६॥ तन्मत्तबहुमातङ्ग वनमित्यादि। सच शुद्ध एकस्मिन्पदेन संभवति, अतः दक्षिणा चोत्तरा चेति, ततोऽगाद्वणिगोत्तमः। पदयोः, पदानां चेत्युच्यते। इह कश्चित्पदविच्छेदोऽपि समासविषयो न | दक्षिणायां मथुरायां, व्यवहर्तुं महर्द्धिकः // 67 / / Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयाग 506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पयारित श्रेष्ठिनैकेन तस्याभू-त्तत्र मैञ्यमथान्यदा। भुञ्जानेन गृहे, तस्य, गृहीतव्यजनाः पुर॥६८|| आपादमस्तकं तेन, दृष्टा तस्य स्वसाऽन्विका। तद्रक्तोऽमार्गयत्तां स तान्यूचुर्यदि तिष्ठसि // 66 // अपत्यजन्म यावत्त-वद्मः स स्वीचकार तत्। उदूढा सा स्थितस्तत्रा ऽऽपन्नसत्त्वाऽथ साऽभवत्।।७०।। अथान्यदा पितुलेंख-स्तस्याऽऽयातोऽभिवाच्य तम्। मुञ्चन्न श्रूणि पृष्टः स, कान्तयाऽऽख्यन्न किञ्चन // 71 / / साऽथ स्वयं तदादाय, चाचयामास तद्यथा। तयाऽदर्शनतोऽस्माक-मान्ध्यं जज्ञेऽश्रुभिर्देशोः ॥७सा जीवन्तौ प्रेक्षसे चेन्नो तदेयाः लेखदर्शनात्।। तद ज्ञात्वातमथो च सा, मा स्म प्राणेश ! खिद्यथाः // 73 तया स्वभित्रोराख्यातं. ताभ्यां स सप्रियोऽप्यथ। विसृष्टोऽर्द्धपधे याते. सूते स्म सुतमन्विका 74|| दास्यतः पितरौ नामे त्युक्रो ऽसावन्विकासुतः। याताना तत्र कालेना-ऽदाताऽतन्नाम तावपि // 75|| शैशवातिक्रमे सोऽथ, त्यक्तभोगोऽग्रहीद्गृतम्। वार्द्धक विहरन् गङ्गा-तटेऽस्थान् सपरिच्छदः // 76 / / पुष्यमद्रपुरेऽथासी-त्युष्पकेतुश्च तत्र राट्। तस्य पुष्पवती मार्या-ऽपत्ययुग्मं च युग्मजम् / / 77 / / पुष्पचूलः पुष्पचूला, चात्वन्योन्यानुरागभाक्। दध्यौ राजा वियोगो हि, मृत्युः स्यादनखोन्ततः // 7 // मिधो विवाहबाम्येता-विति पप्रच्छ नागरान। यदत्रोत्पद्यते रत्नं, तद्वशे कस्य जायते ?||76 / / ऊवुस्ते त्वद्वशे देव!, पुष्पकेतुस्ततो मिथः। राइया निषिध्यमानोऽपि परिणामयति स्म तौ / / 8 / / देवी निर्वेदतस्तस्मा-त्प्रवज्य त्रिदिवं ययौ। मृते रात्रि तचोरेवा भूदान्यं पुष्पचूलयोः / / 81 // मातृदेवः सुतां ज्ञात्वा-ऽधिकस्तेहां प्रियेऽवधेः / मा गान्नरकमेवेति, स्वमान्तस्तानदर्शयत्॥२॥ भीता साऽकथप्रद्राज्ञ स्तेन पापण्डिनोऽखिलाः। पृष्टा प्रभाते नरक-स्वरूपतेन्यवेदयन्।।८३|| तेषां सर्वं विसंवाद्य-थान्विकापुत्रसूरयः। तत्पृष्टान्नरकानाख्यन्, सोवे स्वभोऽध वोऽप्यभूत् // 84|| जिनोपदेशभत्हुस्ते-ऽन्यदा सा स्वर्गमैक्षत। तमप्यन्ये ऽन्यथा चख्यु-र्यथावतेतु सूरयः॥८॥ सोचे प्राप्याः कथममी, न गतिर्नरके कथम् ? साधुधर्ममथाऽऽख्यस्ते साऽथ बुद्धाऽवदन्नृपम्॥८६|| व्रतं गृह्यामि सोऽवादी दत्रस्था मरहेऽशनम्। चेददात्स तदाऽऽदत्स्व, प्राप्राजीत्तत्प्रपद्य सा॥८७।। जब्रावलपरिक्षीणा-स्तत्राऽऽस्थैरतेऽथ सूरयः। कृत्वाऽऽवार्य गणोऽन्यत्र, विहर्तृ प्रेषितोऽखिलः / / 88|| सरुजां साऽऽनयन्तेषां, भिक्षामन्तापुराततः। अन्यदा सा शुभध्याना-त्केवलज्ञानमासदत्।।६।। पूर्वं प्रवृत्तं विनयं, केवली न भनाक्ति यत्। तदिष्ट भक्तमानिन्येऽन्वर्यत्यप्यन्यदाऽभ्युहे ||6|| तेऽभ्यधुः कथमानिन्ये, वर्षत्यार्ये त्वयाऽशनम्। सोचेऽचित्तं जलं यत्रा-पतत्तेनाध्वनाऽऽगमम् / / 1 / / गुरुरूवे कथं वेत्सि? वेधि क्षायिकसंविदा। तां ततोऽक्षमयच्चके, खेदं च परमं गुरुः / / 12 / / झान्यूचे मा स्म खिद्यध्वं, केवलं योऽप्यदूरगम्। गङ्गामुतरतां भावि, तच्छुत्वाऽऽशूत्थितः प्रभुः / / 63 / / गङ्गाया नावमारूढो, यत्र यत्राकृत स्थितिम्। ततस्ततो मजति नौ-मध्ये सर्वोऽपि मजति॥६४|| लोकैः सोऽथाऽम्भसि क्षिप्त-स्तस्य कोऽप्यमरस्तदा। तत्राऽऽसीत्प्राग्भवाऽरातिः, स त्रिशूलमथो दधौ / / 65|| तद्विद्धो विषहन् पीडा, केवलं प्राप्य निर्वृतः। देवश्च महिमा चक्रे, गङ्गाऽथ प्राप तीर्थताम् // 66 // " आ० क० 4 अ० / आव० / संया० / आ०चू०। (अत्र विशेषः 'अग्णियाउत्त' शब्दे प्रथमभागे 465 पृष्ठे गतः) पयाण पुं०(प्रतान) प्रतननं प्रतानः। विस्तारे, तद्रूपे याथातथ्ये, तदस्मिन् वा स्वप्ने भ०१६श०६ उ०। * प्रदान न० प्रवितरणे, प्रदानलक्षणभिदम्- "यः सम्प्राप्ोधनोत्सर्गे, उत्तमाधममध्यमः / प्रतिदानं तथा तस्य, गृहीतस्याऽनुमोदनम् / / 1 / / स्था०३ ठा०३301 आव० / उपा०। * प्रयाण न० गमने, ज्ञा०१ श्रु०३ अ०। पयाणकाल पुं० (प्रदानकाल) साधुदानावसरे, पञ्चा० 13 विव०। *प्रयाणकाल पुं० अन्तसमये, वाच०। पयाणुफ पि (ण) त्रि० (प्रजानुऽकम्पिन्) प्रजायन्ते इति प्रजाः जन्तवस्तदनुकम्पी। जन्तूनां संसारे पर्यटतामनुकम्पनशीले, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। पयाणुसारि(ण)- पुं० (पदानुसारिन्) पदेन सूत्रावयवेनैकेनोप-लब्धेन तदनुकूलानि पदशतान्यनुसरतीति पदानुसारी।ओ०।ये गुरुमुखादेकसूत्रपदमनुसृत्य शेषमपि भूयस्तरपदनिकुरम्बमवगाहन्ते तेषु, बृ०१उ० १प्रक०। जो सुत्तपएण बहु,सुयमणुधावइ पयाणुसारी सो (1517) योऽध्यापक्रादेकेनापि सूत्रपदेनाधीतेन बहुपि सूत्रं स्वप्रज्ञयाऽ-भ्यूह्य तदवस्थमेव गृह्णाति, स पदानुसारी लब्धिमान्। (1517 गाथा) प्रव० 270 द्वार / पा०। औ०। नं0ग01 (पदानुसारिणः 'लद्धि' शब्दे दर्शविष्यन्ते) 'पयाणुसार नमसामि'' इति गाथा 'अजवइर' शब्दे प्रथमभागे 218 पृष्ठे गता) पयाणुसारिणी स्त्री० (पदानुसारिणी) बुद्धिभेदे, या पुनरेकमयि सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुतमपि तदवस्थमेव श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी। प्रज्ञा० 21 पद। नं०। पयाम (देशी) आनुपूर्ये, दे० ना०६ वर्ग 6 गाथा / पाइ० ना०। पयायत न० (प्रजायमान) प्रसवं कुर्वाणे, तं०। पयायसाल त्रि० (प्रजातसाल) प्रजातशाखे उत्पन्नडाले, दश०७ अ०। पयार पुं० (प्रकार) भेदे, ज्ञा० 1 श्रु०१अ०। अनु०। प्रचार पुं० प्रकर्षगमने, दश० 1 अ०। पयारित त्रि० (प्रतारित) छलिते, पाइ० ना० 187 गाथा। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयाल 510- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पर पयाल पुं० (पलाल) धान्यतुषे, 'किं ताए पढियाए, पयालभूयाएँ पुवकोडीए। जस्थित्तियं ण णायं, परस्स पीडान कायव्वा॥१।।'' सूत्र० 1 श्रु०१ अ01 पयावइ पुं० (प्रजापति) प्रथमवासुदेवपितरि, आव० 1 अ० 1 स च स्वदुहितरि त्रिपृष्टपं नाम वासुदेवमजीजनत् / अतो वेदेऽप्युक्तम्"प्रजापतिः स्वा दुहितरमकामयत् / " अत एव च प्रजाया दुहितुः पतित्वात्प्रजापतिरिति नामऽस्य पप्रथे। आ० म०१ अ०। आव० आ०चू० / रम० / 'पुत्तोषयावइस्सा, मियावईकुच्छि-संभवो भयवं। नामेण तिविठु त्ति।" ति०। 'दो पयावई।" स्था०२ ठा०३ उ०। ब्रह्मनामके देवे रोहिणिनक्षत्राधिपे, अनु०। ती जं०। जगन्नियन्तरि, दश० 1 अ०। पौराणिक-संमतेषु दक्षाऽऽदिषु कुलकरकल्पेषु पुरुषेषु, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। राजनि च। आ०० 1 अ० ब्रह्मणि, पाइ० ना०२ गाथा। पयावइत्तए अव्य० (प्रतापयितुम) पुनः पुनरातपेदातुमित्यर्थ, कल्प०१ अधि०५ क्षण। पयावण न० (पाचन) ओदनाऽऽदेर्विक्तृत्त्यापादने, प्रश्र० 1 आश्र द्वार। उत्त01 आचा०। *प्रतापनन० असकृदनीषदवतापने, दश० 4 अ०। आचा०। शरीराऽऽ द्यवयवस्यवाताऽऽद्यपनयनार्थे प्रकृष्ट तापने, आचा०१ श्रु०१ अ०४ उ०। पयावरुद्द पुं० (प्रतापरुद्र) स्वनामख्याते काकतीये राजनि, ती०४६ कल्प। पयावसंधि पुं० (प्रतापसन्धि) प्रकृष्टस्तापऊष्मा येषु एवंविधाः सन्धयो यस्य तत्प्रतापसन्धि / सोष्मसन्धिषु, प्रव० 4 द्वार। पयास पुं० (प्रयास) प्रयत्ने, पञ्चा०६ विव०॥ * प्रकाश पुं० उद्द्योते, "चंदाऽऽइचगहाणं, पहा पयासेइ परिभियं खेत्तं / केवलियनाणलंभो, लोयालोयं पयासेइ॥१॥" जै० गा०1 पाइ० ना०। पयासक्खेत्त न० (प्रकाशक्षेत्र) तापक्षेत्रे, मण्ड०। पयासण न० (प्रकाशन)प्रकाशकरणे, उद्द्योतकरणे, आचा०१ श्रु०१ / अ०४ उ०। पयासाला स्त्री० (प्रपाशाला) पानदानशालायाम्, “पयासालाइ वा विडिमसालाइ वा।" आचा०१ श्रु०१चू०४ अ०२ उ०। पयाहिण पुं० (प्रदक्षिण) परितो भ्राम्यतो दक्षिणे, भ० 1 श० 1 उ०। आ०म०। उत्त० पयाहिणा स्त्री० (प्रदक्षिणा) प्रकर्षण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमता दक्षिणमात्मनो दक्षिणाङ्गभागवर्तिमूलविम्बज्ञानाऽऽदित्रयाऽऽनुकूल्यकृते यत्र प्रतिपत्तिः तस्याम्, संघा० 1 अधि० 1 अस्ता०। पयाहिणावट्टपुं० (प्रदक्षिणाऽऽवत) यस्य हि प्रदक्षिणा आवर्ताः तस्मिन्, 'पयाहिणावडमुद्धसिरयं / ' प्रदक्षिणाऽऽवर्ताश्च प्रतीता मूर्द्धनि मस्तके शिरोजा बाला यस्य सः। औ० भ० / व्य०। पयाहिय न० (प्रजाहित) प्रजाऽर्थे, ''तिन्नि विपयाहियाए उवदिसइ।" प्रजाहिताय भगवानुपदिशति स्म। कल्प० 1 अधि०७ क्षण। पर त्रि० (पर) प्रकृष्ट, ज्ञा० 1 श्रु० 2 अ० / सूत्र० / प्रकर्षप्राप्ते, विशे०। सूत्र० स० / आचा० / भ० / षो०। प्रकर्षगत्यापन्ने, आचा०१ श्रु०३ अ० 4 उ० / प्रधाने, आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। आव०। विशे० / सूत्र० / 'नाऽऽर्हतः परमो देवो, न मुक्तेः परमं पदम् / न श्रीशत्रुजयात्तीर्थ, श्रीकल्पान्न परं श्रुतम्।।१॥" कल्प०१ अधि०१क्षणा उत्त० / आत्मव्यतिरिक्त, उत्त०१ अ०। सूत्रका रत्ना० / अस्वजने, नि०चू०२ उ० 1 शत्रौ, विशे० / उत्त० / सूत्र०ा आ०म० / स्या० / दूर, आरतः परतश्चेति लौकिकी युक्तिः - 'उरे परे।' इति / सूत्र० 1 श्रु०८ अ० / आचा०1"तेण परं ति।" ततश्चतुर्थकल्पात्परतः। परशब्दोऽत्र आरवाची। नि०चू०१ उ०। परनिक्षेपःनाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तदन्नमन्ने य। आएसकमबहुपहा-णभावओ परो होइ॥३८२।। नामपरः, स्थापनापरो, द्रव्यपरः, क्षेत्रपरः, कालपरः। एते चद्रव्यपराऽऽदयः प्रत्येक द्विविधाः / तद्यथा-(तदन्नमन्ने य ति) तद्रव्यान्यश्व तद्रव्यपरोऽन्यद्रव्यपरश्चेत्यर्थः / एवं तत्क्षेत्रपरोऽन्यक्षेत्रपरश्च। तत्कालपरोऽन्यकालपरश्च / तथा आदेशपरः, क्रमपरो, बहुपरः, प्रधानपरः, भावपरश्चेति दशधा मूलभेदापेक्षया परनिक्षेपो भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथास्या एव गाथाया भाष्यकारो व्याख्या कर्तुकामो नामस्थापने क्षण्णत्वादनादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यपरं तावदाहपरमाणुपुग्गलो खलु, तद्दव्वपरो भवे अणुस्सेव। अन्नद्दव्वपरा खलु, दुपएसियमाइणो तस्स॥३८३॥ द्रव्यपरो द्विधा / तद्यथा-तद्रव्यपरोऽन्यद्रव्यपरश्च / तत्राऽणोः परमाणुपुद्गलस्यापरः, परमाणुपुद्गलः परतया चिन्त्यमानस्तद्-द्रव्यपरः, तस्येव परमाणुपुद्गलस्य द्विप्रदेशिकाऽऽदयः स्कन्धाः परतया चिन्त्यमाना अन्यद्रव्यपराः। एमेव य खंधाऽणु वि, तद्दव्वपरा उ तुलसंघाया। जे तु अतुल्लपएसा, अणुया सव्वऽन्नदव्वपरा॥३८४|| एवमेव ड्यणुकप्रभृतीनां स्कन्धानामपि ये तुल्यसंघाताः परस्पर समानप्रदेशसंख्याकाः स्कन्धास्ते तद्रव्यपराः, ये पुनरतुल्यप्रदेशाऽऽदिसदृशप्रदेशसंख्याकाः स्कन्धाः अणवश्च एकाणुकाः ते सर्वेऽप्येकद्रव्यपरा भवन्ति। तद्यथा-व्यणुकस्कन्धो व्यणुक-स्कन्धस्य तद्रव्यपरस्य, व्यणुकाऽऽदयस्तुस्कन्धाः परमाणवश्च त्रसाश्च तद्रव्यपराः / एवं त्र्यणुकाऽऽदयोऽप्यनन्ताणुकपर्यन्ताः स्कन्धाः परस्पर तुल्यप्रदेशसंख्याकास्तद्रव्यपराः, विसदृशप्रदेशसंख्याकास्तु अन्यद्रव्यपरा मन्तव्याः, यावत्सर्वो-त्कृष्टाणुको महास्कन्धः। अथ क्षेत्रकालपरौ प्रतिपादयतिएगपएसोगाढा, खेत्ते एमेव जा असंखेजा। एगसमयाइठिइणो, कालम्भि वि जा असंखेज्जा / 385 / Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर 511 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परंतंतकर क्षेत्रे क्षेत्रविषयेऽपि परद्वारे चिन्त्यमाने एवमेव तत्क्षेत्रपरान्यक्षेत्रपरभेदेन एकप्रदेशावगाढाऽऽदयोऽसंख्येयप्रदेशावगाढ यावद् द्रष्टव्याः। तद्यथाएकप्रदेशावगाढःपरमाणुः स्कन्धो वा एकप्रदेशावगाढः स्यात् तत्क्षेत्रपरः / द्वित्रिप्रदेशावगाढादयः पुनः स्थान्यक्षेत्रपराः / तथाहि-प्रवेशावगाढस्य स्कन्धस्य तत्क्षेत्रपरस्तस्या एकःत्र्यादिप्रवेशावगाढास्तु तस्यान्यक्षेत्रपरः। एवं विस्तरेण सर्वायगाहना द्रष्टव्या। कालेऽप्येकसमयाऽऽदिस्थितयः पुद्गला यावदसंख्येयसमयस्थितयस्तावत् कालपरान्यकालपरभेदाद्वक्तत्याः तत्रैकसमयस्थितिकाना पुद्गलानाम् एकसमयस्थितिकास्तत्कालपराः, द्वित्र्यादिसमयस्थितिकाः पुनरन्यकालपराः / एवं यावदसख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीगतानां संख्येयसमयस्थितिकानां पुद्गलानां तावत्संख्याकसमयस्थितिका एव तत्कालपराः, शेषास्तु एकसमयस्थितिकाऽऽदयः सर्वेऽप्यन्यकालपरा अवसातव्याः। अथाऽऽदेशपरंव्याचष्टेभोअणपेसणमादी-सु एगखेत्तट्ठियं तु जं पच्छा। आदिसइ भुज कुणसु य, आएसपरो हवइ एसो // 356|| भोजनं प्रतीतं, प्रेषणं व्यापारणं, तदादिषु कारणेषु यं कञ्चन पुरुषमेकस्मिन् क्षेत्र स्थितमपि पश्चात्पर्यन्ते आदिशति, यथात्वं भोजनं विधेहि, कुरुवा कृष्यादि कर्म, एव आदेशपरो भवति, आदेश आज्ञपनं, तदाश्रित्य परः पाश्चात्य आदेशपर इतिव्युत्पत्तेः। अथ क्रमपरमाहदव्वाइकमो चउहा, दव्वे परमाणुमाइ जाऽणतं। एगुत्तरवुड्डीए, वड्डीयाणं परं होई॥३८७।। क्रमः परिपाटिरित्येकोऽर्थः। तमाश्रित्य परः क्रमपरः, स तु चतुर्थ्या द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्। तत्र द्रव्यतः परमाणुमादौ कृत्वा अनन्तप्रादेशिकस्कन्धं यावदकोत्तरप्रदेशवृद्ध्या वर्द्धितानां पुद्गलद्रव्याणां यो यदपेक्षया परः तस्माद्रव्यपरात्क्रमपरो भवति। तद्यथा-परमाणुपुद्गलात् द्विप्रदेशकस्कन्धो,द्विप्रदेशिकस्कन्धात् त्रिप्रदेशिकस्कन्धः, एवं यावदसंख्येयप्रदेशिकस्कन्धो द्रव्यक्रमपरः, क्षेत्रक्रमपरोऽप्येवमेव, नवरमेकप्रदेशाऽवगाढात द्विप्रदेशावगाढः द्विप्रदेशावगाढात्, त्रिप्रदेशावगाढः। एवं यावत् संख्येयप्रदेशावगाढादसंख्येयप्रदेशावगाढः क्षेत्रक्रमपरः / कालक्रमपरस्त्वेवम्-एकसमयस्थितिकात् द्विसमयस्थितिको, द्विसमयस्थितिकात् त्रिसमयस्थितिकः, एवं यावत् संख्येयसमयस्थितिकादसंख्येयसमयस्थितिकंः कालक्रमपरः / भावक्रमपरः पुनरेवमएकगुणकालाद् द्विगुणकालको, द्विगुणकालकाद् त्रिगुणकालकः, एवं यावत्संख्येयगुणकालादनन्तगुणकालको भावक्रमपरः। एवं काललोहितहारिद्रशुक्लरूपेषु शेषेष्वपि चतुषु वर्णेषु, सुरभिदुरभिलक्षणे च गन्धद्रये, तिक्तकटुकषायाम्लमधुराऽऽत्मकेरसपञ्चके, गुरुलघुमृदुकठिनस्रिग्धरूक्षशीतोष्णलक्षणे च स्पर्शाऽष्टके यथाक्रमं भावपरता भावनीया। अथ बहुपरं भावयतिजीवा 1 पोग्गल 2 समया 3, दव्व 4 पएसा य 5 पज्जवा चेव 6 / थोवाऽणंता 1-2 णंता 3, विसेसमहिया 4 दुवेऽणंता 5-6 // 38 // इह पूर्वार्द्धपश्चाद्धपदानां यथाक्रम योजना कार्या / तद्यथा- जीवाः सांसारिकमुक्तभेदभिन्नाः, ते सर्वस्तोकाः, जीवेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणाः, पुद्गलेभ्यः समया अनन्तगुणाः, समयेभ्यो द्रव्याणि विशेषाधिकानि, द्रव्येभ्यः प्रदेशा अनन्तगुणाः प्रदेशेभ्यः पर्याया अनन्तगुणाः। उक्तं च व्याख्याप्रज्ञप्तौएएसि णं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं अद्धासमयाणं सव्वदव्वाणं सव्वपएसाणं सव्वपज्जवाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला अणंतगुणा अद्धासमया अणतगुणा सव्वदव्वा विसेसाहिया सव्वपएसा अणतगुणा सव्वपज्जवा अणतगुणा / " अत्रामीषामित्थमल्पबहुत्वे हेतुभावना भगवतीटीकायां वृद्धरुपदर्शितास्ते, अतस्तदर्थिना सैवावलोकनीया। अथ प्रधानपरमाहदव्वे सचित्तमादी, सचित्तदुपएसु होइ तित्थयरो। सीहो चउप्पएसुं, अपयपहाणा बहुविहा उ॥३८६।। प्रधान एव परः प्रधानपरः, स च द्रव्यतो भावतश्च / तत्र द्रव्ये द्रव्यतविधासचित्ताऽऽदिः / आदिशब्दान्मिश्रोऽचित्तश्च / तत्र सचित्तप्रधानस्त्रिधाद्विपदचतुष्पदापदभेदात् / तत्र द्विपदेषु तीर्थकरः प्रधानो भवति, चतुष्पदेषु सिंहः, अपदेषु बहुविधाः सुदर्शनाभिधानजम्बूवृक्षप्रभृतयः, पनसाऽऽदयोऽप्रधानाः। प्रधानपरोऽनेकधा। तद्यथा-धातुषु सुवर्ण , वस्त्रेषु चीनांशुक, गन्धद्रव्येषु गोशीर्षचन्दनमित्यादि / मिश्रप्रधानपराणि तु सुवर्णकटकाऽऽद्यलंकृतविग्रहाणि तीर्थकराऽऽदि द्रव्याण्येव द्रष्टव्यानि भावप्रधानपरमाहवण्णरसगंधफासे-सु उत्तमा जे उ भूदगवणेसु / मणिखीरोदगमादी, पुप्फफलादीय रुक्खेसु // 360 // (वण्णरसगंधफासेसु त्ति) तृतीयाऽर्थे सप्तमी। वर्णेन रसेन गन्धेन स्पर्शन वा ये भूदकवनेषु पृथिवीकायाप्कायवनस्पतिकायेपूत्तमास्ते भावप्रधानपराः। तानेव पश्चार्द्धनोदाहरति-(मणिखीरोदग इत्यादि) पृथिवीकायेषु पद्मरागवज्रवैडूर्याऽऽदिमणयः प्रधानाः, अप्कायेषु क्षीरोदकाऽऽदिपानीयानि, वृक्षेषु पुष्पफलाऽऽदीनि। गतः प्रधानपरः / बृ०१ उ०३ प्रक०। आचा०। *भ्रम् धा०। भ्रमणे, "भ्रमेः टिरिटिल्ल-दण्दुल्ल-ढण्ढल्ल चक्कम्ममम्मड-भमड-भमाड-तलअण्ट-झण्ट-झम्प-भुम-गुम-फुम फुस-दुम-दुस-परी-पराः" ||8|4|161 // इति सूत्रेण भ्रमधातोः 'पर' आदेशः। परइ।' भ्रमति। प्रा०४ पाद। परइधा० (देशी) भ्रमतीत्यर्थे, दे०ना०६ वर्ग 4 गाथा। परउत्थिय पुं० (परयूथिक) शाक्यपरिव्राजकाऽऽदौ, बृ० 1302 प्रक० / परओवेइ(ण) पुं० (परतोवेदिन) गणधराऽऽदिके स्वतोवेदितीर्थकृदुप देशेन ज्ञातरि, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। परंतकर पुं० (परान्तकर) परस्य भवान्तं करोति मार्गप्रवर्त्तनेन परान्तकरः / मोचके, स्था० 4 ठा०२ उ०। परंतंतकर पुं० (परतन्त्रकर) परतन्त्रः सन्कार्याणि करोतीति परतन्त्रकरः / भिक्षी, स हि आचार्याऽऽदितन्त्र एव कार्याणि करोति / स्था०४ ठा०२ उ०॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंतम 512 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परंपरय परंतम पुं० (परतम) परं शिष्याऽऽदिकं तमयतीति परतमः / प्राकृतत्वादनुस्वारः / परस्मिन् तमोऽज्ञानं क्रोधो वा यस्य सः / परग्लायके पुरुषजति, स्था०४ ठा०२ उ०। परंदम पुं० (परन्दम) परंदमयति शभवन्तं करोति शिक्षयति वा परन्दमः / शिष्य स्याऽश्याऽऽदेर्वा दमके, स्था० 4 ठा०२ उ०। परानन्यान् दमयन्ति न्यत्कृत्याभिमतकृत्येषु प्रवर्तयन्तीति परन्दमाः / उत्त० पाइ०७ अ०। परपीडाकारके, आत्मार्थपरजीवोपघातके, उत्त०७ अ०॥ परंपर त्रि० (परम्पर) परे च परे चेति वीप्सायाम्-"पृषोदरा-ऽऽदयः" ||8/063 / / (हेम.) इति परम्परशब्दनिष्पतिः। परेषु परेषु, नं०। परंपरखेतोवगाढ पुं० (परम्परक्षेत्रावगाढ) आत्मक्षेत्रान्तरक्षेत्राद् यत्पर क्षेत्र तत्रावगाळे नैरयिकाऽऽदौ वैमानिकपर्यन्ते. भ०६ श० 10 उ०। परंपरखेदोववन्नग पुं० (परम्परखेदोपपन्नक) द्विवादिसमयताखेदेनोपपन्न उत्पादो येषां ते परम्परखेदोषपन्नकाः। खेदप्रधानोत्पतिद्वितीयाऽऽदिसमयवर्तिषु नैरयिकाऽऽदिषु, भ०१४ श० 1 उ०। परंपरगय पुं० (परम्परगत) परम्परयाज्ञानदर्शनचारित्ररूपया मिथ्यादृष्टि सास्वादनसम्यग् मिथ्यादृष्ट्यविरतसम्यग्दृष्टिविरताविरतप्रमत्तनिवृत्तिवादरसूक्ष्मोपशान्तक्षीणमोहसयोग्ययोगिगुणस्थानभेदभिन्नया गता मोक्ष प्राप्ताः / ल.। पुण्यवीजसम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमा तिपत्त्युपाययुक्तत्वेन सिद्धेषु, औ० / आ०म० / मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानकाना मनुष्याऽऽदिसुगतीनां च पारभ्यर्पण भवाम्भोधियार प्राते, भ०२ श० 1 उ०। परंपरपज्जत पुं० (परम्परापर्याप्त) द्वयादिसमयपर्याप्तके, स्था० 10 ठा० / परंपरप न० (परम्परक) पारम्पर्ये, आ०म० 1 अ० / परम्परको द्विधाद्रव्यतो भावतश्च / द्रव्यपरम्परक इष्टकानां पुरुषपारम्पर्येणाऽऽनयनम्। (आव०) भावपरम्परका स्वियमेव उपोद्वातनियुक्तिरेव। (आव०) ननु द्रव्यस्य इष्टकालक्षणस्य युक्तं पारम्पर्येण आगमनं, भावस्य तु श्रुतपयित्वात् वस्त्वन्तरसंक्रमणाभावात् पारम्पर्येणाऽगमनाऽनुपपतिरिति / नव तद्वीजभूतस्य अर्हदणधरशब्दस्याऽऽगमनमस्ति, तस्य श्रुत्यनन्तरभेवोपरमादिति। अत्रोव्यते-उपवाराददोषः यथा कार्षायणाद्घृतमागतं, घटाऽऽदिभ्यो वा रूपाऽऽदिविज्ञानमिति। (87 गाथा) आव० 1 अ०। तत्र द्रव्यपरम्परक इदमुदाहरणम्"साकेयं नाम नगर, तस्स उतरपुरच्छिने दिसीभागे सुरप्पिओ नामगो | जक्खो तस्साययण। सो य सुरप्पिओ जक्खो सन्निहिय-पाडिहरो, सो वरिसे वरिसे चित्तिज्जइ. महो य से परमो किज्जइ,सो य वितितो समाणो तं चेव वित्तगरं मारेइ, अह न वितिजइ तो पभूयजणमारिं करेइ, ततो चित्तगरा सव्ये पलाइउमारद्धा। पच्छा रण्णा नायं-जइ सव्वे पलाइस्सति तो एस जक्खो अचित्तिज्जतो अम्ह वहाए भविस्सइ। ततो तेण चित्तकरा सव्वे संकलियबद्धा पाहुडिएहिं कया, तेसिं सव्वेसिनामाई पत्तए लिहिऊण घडए छूढाणि / ततो वरिसे वरिसे जस्स नाम बालएण अयाणमाणेण कड्डिजमाणं निग्गच्छइ तेण चित्तेयव्यो / एवं कालो वचइ। अन्नया कयाइ कोसंबिओ चित्तकरदारको घरातो पलाइ तत्थाऽऽगतो सिक्खगो, सो भमतो सागेयस्स चित्तगरस्स घरं अल्लीणो, सो वि एगपुत्तगो थेरीपुत्तगो, सो से मित्तो जातो।एवं तस्स तत्स्थ अत्थं-तस्स कालो वचइ / अह तम्मि वरिसे तस्स थेरीपुत्तस्य वारओ जातो, पच्छा साथेरी बहुप्पगारं करुण रुयइ तं रुयमाणिं थेरि दटूण कोसबको जातकरुणो भणइ-कि अम्मो! रुयसि ? ताहे कहिय -जहा पुत्तस्स वारआ जातो। सो भणइ-मा रुयह, अहं एवं जक्खं चित्तिस्सामिताहे सा भणइ-तुमं मे पुत्तो कि न होहिसि? तेण भणियं-सच्च तव पुत्तोऽहं, तहा वि अहं चित्तेमि, अत्थह तुब्भे असोगाओ। ततो तेण छट्ठभत्तं काऊण अहतं वत्थजुयलं परिहित्ता अट्टगुणाए पोत्तीए मुहं बंधिऊण चोक्खेण पयत्तेण सुइभूएण नवएहिं कलसेहिं छहावित्ता नवगेहिं कुचेहिं नवगेहि मल्लसंपुडेहिं अलस्सेहिं वन्नेहि चित्तिऊण पायवडिओ भणइ-खमह मए जमवरद्धं / ततो तुट्टो जक्खो भणइ-वरेहि वरं। सो भणइ-एयं चेव मम वरं देहि मा लोग मारेह / जक्खो भणइ-एयं तावठियमेव ज तुमं न मारिओ, एवमन्ने वि न मारेमि / अन्नं मण / सो भणइ-जस्स एगदेसमवि पासामि दुपयस्स वा, चउप्पयन्स वा, अपयस्स वा, तस्स तयणुरूवं रूवं निव्वत्तमि / एवं होउ ति दिण्णो वरो। ततो सो लद्धवरो रण्णा सकारिता समाणो गतो कोसंविं नगरिं। तत्थ सयाणीतो नामराया, सो अन्नया कयाइ सुहासणगतो दूयं पुच्छइकिं मम नत्थि, जं अन्नराईण अस्थि? तेण भणि-यचित्तसभा नस्थि, "मणसा देवाणं वायाए पत्थिवाणं तितक्खणमेत्तमेव आणत्ता चित्तगरा, तेहिं सभाओ वासा विभइत्ता पचित्तिया / तस्स वरदिन्नगस्स जो रन्नो अंतउरे किड्डापदेसो सो दिन्नो। तेण तत्थ तयाणुरूवेसु निम्मिएसु कयाइ मिगावईए जालफडगंतरेण पायं पुट्टतो दिट्ठो, उवमाणेण नायं, जहाएसा मियावई / तेण पायंगुट्ठगाणुसारेण देवीए रूवं निव्वात्तियं, तीसे चक्खुम्मि उम्मिल्लिज्जत एगो मसिबिन्दूऊरूअंतरे पडितो, तेण फुसिओ पुणो वि जातो, एवं तिन्नि वारा; पच्छा तेण नायं-एएण एवं होयव्वमेव। तत्तो चित्तसभा निम्मिया। ततो राया चित्तसरूव पलोयतो त पएस पत्तो जत्थ सा देवी, तेण सो विंदू दिट्टो, तं दठूण रुट्ठो, एएण मम पत्ती धरिसिया इति काऊण / ततो बज्झो आणत्तो। चित्तगरखेणी उठ्ठियासामि ! एस वरलद्धो त्ति ततो से खुजाए मुहं दाइयं, तेण तयाणुरूवं निव्वत्तियं, तहावि तेण संडासगो छिं-दावितो निव्विसओ आणतो। सो पुणो जक्खस्स उववासेण ठितो, भणितो य-वामेण चिभिहिसि सयाणीयस्स पदोसं गतो। तेण चिंतियं-पज्जोतो एयस्स अप्पीइंठवेजा। ततोऽणेण मिगावतीए चित्तफलए रूवं चित्तेऊण पजोयस्स उवट्ठियं, तेण दिट्ट, पुच्छितोय तेण कहिय सविसेसं,ततो पज्जोएण सयाणीयस्स दूतो पेसिओ, मिगावइं देविं सिग्धं पट्टवेह, जइ न पट्टवेसि ततो सव्यसामग्गीए Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंपरय 513 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परंपरसिद्ध - - पहामि / गतो दूतो, तेण असक्कारितो, निद्धमणेण निच्छूढो। तेण कहियं पंच विसया चोरा जाया, एगम्मि पव्वए परिवसति / सो वि सुवण्णगारो पजोतस्स। पजोतो वि य दूयवयणेण आसुरुत्तो सव्वबलेण कोसंवि एइ। / कालमुवगतो तिरिक्खेसु उववन्नो / तत्थ जा सा पढम मारिया सा एक तं आगच्छंतं सोउं सयाणीओ अप्पबलो चित्ते खुहितो अतिसारेण भवं तिरिएसु, पच्छा एक्कम्मि बंभणकुले चेडो आयातो। सो य पंचवरिसो पंचत्तमुवगतो / ताहे मिगावतीए चिंतिय-मा इमो बालो मम पुत्तो जातो।सोय सुवण्णगारजीवो तिरिक्खेसु उव्वट्टिऊण तम्मि कुलेदारिया विणिस्सिहिति / एस खरेण न सक्कए, पच्छा दूतो पट्टवितो, भणितो य- जाया। सो चेडो तीसे वालग्गहो। साय निचमेव रोयइ। तेण उदरपोप्पयं एस कुमारो बालो अम्हेहिं गएहिं मा सीमंतराइणा केणइ अन्नेण करेंतेण किह वि जोणिहारे हत्थेण आहया तहा चेव ठिया रोइउं / तेण पिल्लिजिहिइ। सो भणइ-कोनम धरमाणे पेल्लिहिइ। साभणइ ओसीसए नायं-लद्धोमए उवाउत्ति। एवं सोनिच्चकालं करेइ। सो तेहि मायापिईहिं सप्पो जोयणसए विजो कि कीरहिइ ति नगरिं दढं करेइ। सो भणइ नातो / ताहे हणिऊण धाडिओ / सा वि अ पड़प्पन्ना चेव कामा उरेण आम करेमि। सा भणइ- उज्जेणीए इहागाओ वलियाओ ताएहिं कीरतु। विसहा / सो चेडो पलायमाणो चिर-नगरविणट्ठदुस्सीलायारो जातो। आम ति। तस्स य चउद्दस राइणो वसवत्तिणो / तेण ते सबला ठाविया। गतो एग चोरपल्लि, जत्थ ताणि एगूणाणि पंच चोरसयाणि परिवसंति।सा पुरिसपरंपरएण तेहिं इट्टगा आणीया, तो कयं नगरं दढ। ताहे ताए भण्णइ वि विणट्ठसीला पइरिक हिंडती एगं गामं गया / सो गामो तहिं चोरेहिं इयाणि धन्नस्स भेरहिं नगरिं। ततो तेण भरिया / जाहे न नगरी पेल्लिओ। सा अण्णेहिं गहिया / सा तेहिं पंचहिं वि चोरसएहिं परिभुत्ता। रोहगअसज्झा जाया ताहे सा विसंवइया। चिंतियं च णाएधन्ना णं ते तेसिं चिंता जाया-अहो ! इमा वरागी एत्तियाण सुक्खदणं सहइ.जइ अन्ना से विइजिया लभेजा तो से विस्सामो होजा / ततो तेहिं अन्नया गामागरनगरपट्टणमडंबसन्निवेसा जत्थ सामी विहरइ / पव्वजामि जइ कयाइ तीसे विइज्जिया आणीया, जं चेव दिवसं आणिया तहिवसं तीसे सामी एज्जा ततो भगवं समोसढो / तत्थ सव्ववेरा पसमंति। मिगावती छिद्राणि सा मग्गइ, केण उवाएण मारेज्जा ? ते य अन्नया धाडि घेत्तुं निग्गया / धम्मे कहिज्जमाणे एगो पुरिसो एस सव्वन्नु त्ति काउं पच्छन्नं पहाविया ताए सा भणियापेच्छ कूवे किं पि दीसइ ? सा दळुमारद्धा / मणसा पुच्छइ। ततो सामिणा भणितो-वायाए पुच्छ देवाणुप्पिया ! वरं ताए तत्थेव छूढा ते आगया पुच्छति। ताए भण्णइ-अप्पणो महिलं कीस बहवे सत्ता संबुज्झति त्ति एवमवि भणिए तेण भणिय-मयव ! जा सा सा न सारवेह / तेहिं नायं जहा एयाए मारिया, ततो तस्स बंभणचेडगस्स सा ? तत्थ भगवया आमं ति भणितो / ततो गोतमसामिणा भणियं हियए ठियं-जहा एसा मम पावकम्मा भगिणि त्ति / सुव्यइ य जहा भयवं भगवं ! किं एएण जा सा सा स त्ति भणियं? तत्थ तीसे उट्ठाणपरियावणियं महावीरो सव्वन्नू सव्वदारिसी य। ततो एस समोसरणे पुच्छइ ततो सामी सव्वं मगवं परिकहेइ-तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नगरी होत्था। भणइ-सा चेव सा तव भगिणी। एवं कहिए सो संवेगमावन्नो पव्वइओ। एवं तत्थ एगो सुवण्णगारो इत्यीलोसो, सो पंच पंच सुवण्ण सयाणि दाऊण सोऊण सव्वा सा परिसा पयणुरागा जाया। ततो मिगावई जेणेव समणे जा पहाणा कथा तं परिसेइ। एवं तेण पंचसया पिंडिया / एकेक्काए भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महा-वीरं तिणगचोहरसगं अलंकारं करेइ, जदिवसं जाए समं भोगे भुंजइ तद्दिवसं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-जं नवरं पजो-यं देइ अलंकारं, सेसकाल न देइ / सोइस्सालुगो तं घर न कयाइ सुयइ, न आपुच्छामि, तओ तुज्झ सगासे पटवयामि त्ति भणिऊण पज्जोयं वा अन्नस्स अलियावं देइ / सो अन्न या मित्तस्स एगते मित्तेण वाहिओ आपुच्छइ / ततो पज्जोतो तीसे महइमहालियाएसदेवमणुयासुराए परिसाए अणिच्छतो विबला जेमेउंनीतो। सो तहिं गउत्ति नाऊण ताहिं चिंतियं लज्जाए ण तरइ वारेउताहे विसज्जेइ। ततो मिगावई पज्जोयस्स उदयणं किं अम्हं एएण सुवण्णसएणं ति? अज पइरिक्क बहामो, समालभामो, कुमारं निक्खेवगनिक्खित्तं काऊणं पव्वइया / पज्जोयस्स वि अट्ट आविधामो पहायाओ पइरिक्कमजियव्वयविहीए तिलगचोहसगेण अंगारवईपमुहाओ देवीओ पव्वइयाओ ताणि वि पंच चोरसयाणि तेणं अलंकारेण अलंकरेऊण अद्यागं गहाय पेहमाणीओ चिट्ठति / सो यततो गंतूणं संबोहियाणि / एवं पसगेण भणियं / एत्थइट्टगापरंपरगेणाहिगारो। आगतो तं दठूण आसुरुत्तो तेण एक्का महिला ताव पिट्टिया जाव मय एस दव्वपरंपरगो। (87 गाथा आव०।) आ० म० 1 अ०। आ० चू०। त्ति / ततो अन्नाओ भणंति-एवं अम्हे वि एकेक्का निहंतव्वा, तम्हा एवं परंपरसमाण न० (परम्परसमान) दृष्टिवादस्य सूत्रभेदे, स०१२ अङ्ग। एत्थेव अद्दागपुंज करेमो। तत्थ एगणेहिं पंचहिं महिलासएहिं पंच एगूणाई परंपरसमुदाणकिरिया स्त्री० (परम्परसमुदानक्रिया) क्रियाभेदे, स्था० / अदागसयाई जमगसमगं पक्खित्ताई। तत्थ सो अदागपुंजो जातो। पच्छा (अर्थस्तु समुदाणकिरिया' शब्दे वक्ष्यते) पुणो वि तासिं पच्छातावो जातो-का गई अम्ह पइमारि-गाणं परंपरसिद्ध पुं० (परम्परसिद्ध) परम्परे च ते सिद्धाश्च परम्परसिद्धाः। भविस्सइ ?, लोए य उद्धसणाओ सहियव्वाओ। ताहे ताहि घणकवाडाई सिद्धत्वसमयाद् द्वयाऽऽदिसमयवर्तिषु, प्रज्ञा०। निरंतरं निच्छिद्दाई दाराइं ठवेऊण अग्गी दिन्नो सव्वओ समंतओ तेण अथ का सा परम्पसिद्धाऽसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना ? सूरिराऽऽहपच्छाणुता-वेण साणुक्कोसयाए यताए अकामनिज्जराए मणूसेसु उववण्णा से किं तं परंपरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा? परं Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंपरसिद्ध 514 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परकिरिया परसिद्ध असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता। शरीरे प्रवेशे, द्वा०। तं जहा-अपढमसमयसिद्धा, दुसमयसिद्धा, तिसमयसिद्धा, बन्धकारणशैथिल्यात, प्रचारस्य च वेदनात्। चउसमयसिद्धा० जावसंखेजसमयसिद्धा, असंखेजसमयसिद्धा, चित्तस्य स्यात्परपुर-प्रवेशो योगसेविनः / / 12 / / अणंतसमयसिद्धा / सेत्तं परंपरसिद्ध असंसारसभावण्णजीव- (बन्धेति) व्यापकत्वादात्मचित्तयोर्नियतकर्मवशादेव शरीरान्तपण्णवणा। र्गतयो ग्यभोक्कृभावेन यत्संवेदनमुपजायते स शरीरबन्ध इत्युच्यते / परम्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना अनेकविधा प्रज्ञप्ता, परम्पर- ततो बन्धस्य शरीरबन्धस्य यत्कारणं धर्माधर्माऽऽख्यं कर्म, तस्य सिद्धानामनेकविधत्वात् / तदेवाऽऽनेकविधत्वमाह-(तं जहेत्यादि) शैथिल्यात् तानवात् / प्रवारस्य च चित्तस्य हृदयप्रदेशदिन्द्रियद्वारेण तद्यथेत्यनेकविधत्वोपदर्शने, अप्रथमसमयसिद्धा इति-न प्रथमसमय- विषयाऽऽभिमुख्येन प्रसरस्य च वेदनात् ज्ञानात् "इयं चित्तवहा नाडी, सिद्धा अप्रथमसमयसिद्धाः, परम्परसिद्धविशेषणप्रथमसमयवर्तिनः अनया चित्त बहति इयं रसप्राणाऽऽदिवहाभ्यो विलक्षणा / '' इति सिद्धत्वसमयाद् द्वितीयसमयवर्तिन इत्यर्थः / व्यादिषु तु समयेषु स्वपरशरीर संचारपरिच्छेदादित्यर्थः / योगसेविनो योगाऽऽराधकस्य द्वितीयसमयसिद्धाऽऽदय उच्यन्ते। यद्वा-सामान्यतः प्रथमसमयसिद्धा चित्तस्य परपुरे मृते जीवतिव परकीयशरीरे प्रवेशः स्यात्। वित्तं च परशरीरं इत्युक्तम्, तत एतद्विशेषतो व्याचष्टेद्विसमयसिद्धास्त्रिसमयसिद्धाश्चतुः- प्रविशदिन्द्रियाण्यनुवर्तन्ते, मधुकरराजमिव मक्षिकाः / ततः परशरीरं समयसिद्धा इत्यादि, यावच्छब्दकरणात् पञ्चसमयसिद्धाऽऽदयः परि- प्रविष्टो योगी ईश्वरवत्तेन व्यवहरति, यतो व्यापकयोश्चित्तपुरुषयोर्भोगगृह्यन्ते। प्रज्ञा० 1 पद। संकोवकारणे कर्माभूत्, तचेत्समाधिना क्षिप्तं तदा स्वातन्त्र्यात् सर्वत्रैव परंपरसिद्धणाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-एकपरंपरसिद्धनाणे भोगनिष्पत्तिरिति तदुक्तम्- "बन्धकारणशैथिल्पात् प्रचारसंवेदनाच्च चेव, अणेक्कपरंपरसिद्धणाणे चेव / स्था० 2 ठा० 1 उ01 वित्तस्य परशरीराऽऽवेश इति।" (3-38)||12|| द्वा०२६ द्वा०। परंपरा स्त्री० (परम्परा) प्रवाहे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / निरन्तरतायाम्. परकिरिया स्त्री० (परक्रिया) परेषां सम्बन्धिन्यां क्रियायाम, परैः भ०६ श०१ उ०। क्रियमाणायां सेवायाम, आचा०। परपरागम पुं० (परम्पराऽऽगम) गणधरशिष्याणामागमे, आत्माऽऽगमो तत्र परशब्दस्य षड्डिधं निक्षेपं दर्शयितुं हि तीर्थकृताम्, अनन्तराऽऽगमो गणधराणाम्, परम्पराऽऽगमस्तच्छि: नियुक्तिकारो गाथाऽर्द्धमाहयाणाम्। सूत्र०१श्रु०१अ०१ उ०। छक्कं परइकिक, त-दन्न-माएसकमबहु पहाणे // 335 / / परंपराघाय पुं० (परम्पराघात) परम्परा निरन्तरता, तत्प्रधानो घात- षट्क 'पर' इति परशब्दविषये नामाऽऽदिः षड्डिधो निक्षेपः, तत्र स्ताडनं परम्पराघातः। उपर्युपरिघाते, भ०६ श०१ उ०। नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्याऽऽदिपरमेकैकं षड्डिधं भवतीति दर्शयति / परंपराहारग पुं० (परन्पराऽऽहारक) ये पूर्वव्यवहितान् सतःपुद्गलान् तद्यथा-तत्परम् 1, अन्यपरम् 2, आदेशपरं ३,क्रमपरं 4, बहुपरं 5, स्वक्षेत्रमागतानाहारयन्ति तेषु नैरयिकाऽऽदिवैमानिकपर्यन्तेषु स्था० प्रधानपरमिति 6 / तत्र द्रव्यपरं तावत्तद्रूपतयैव वर्तमान-परमन्यतत्पर १०ठा०। यथा परमाणोः परः परमाणुः 1, अन्यपरं त्वन्यरूपतया परमन्यद्, यथा परंपरोगाढ पुं० (परम्परावगाढ) द्वितीयाऽऽदिसमयावगाढे नैरयिकाऽऽदौ एकाऽणुकाद् व्यणुकत्र्यणुकाऽऽदि, एवं व्यणुकादेकाऽणुकत्र्यवैमानिकपर्यन्ते, स्था० 10 ठा। गुकाऽऽदिर, 'आदेशपरम्' आदिश्यते-आज्ञाप्यत इत्यादेशःपरंपरोवणिहा स्त्री० (परम्परोपनिधा) परम्परया उपनिधा मार्गण परम्प- यःकस्याशित्क्रयायां नियोज्यते कर्मकराऽऽदिः स चासौ परश्चाऽऽदेशपर रोपनिधा / परम्परयाऽल्पबहुत्वाऽऽदिमार्गणे, क०प्र०१ प्रक०। पं० सं०। इति 3 / क्रमपरं तु द्रव्याऽऽदि चतुर्दा तत्र द्रव्यतः क्रमपरमेकप्रदेशिपरंपरोववण्णग पुं० (परम्परोपपन्नक) परम्परया उपपन्नकाः परम्परोप- कद्रव्याद् द्विप्रदेशिकद्रव्यम्, एवं व्यणुकात् त्र्यणुकमित्यादि / क्षेत्रत पन्नकाः / "णेरइया दुविहा पण्णता। तं जहा-अणंतरोववण्णगा चेव, एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाढमित्यादि। कालत एकसमयस्थितिकाद् परंपरोववण्णगा चेव० जाव वेमाणिया।" स्था० 2 ठा०२ उ०। द्विसमयस्थितिकमित्यादि। भावतः क्रमपरमेकगुणकृष्णाद् द्विगुणकृष्णउत्पत्तिसमयापेक्षया द्वयादिसमयेषु वर्तमानेषु, भ० 13 श०१ उ०।। मित्यादि 4 / बहुपरं बहुत्वेन पर बहुपरं यद्यस्माद्रहु तद्रहुपरम् / तद्यथापरंभरि पुं० (परम्भरि) परं विभीति परम्भरिः। परोदरपूरके, स्था०४ "जीवा पुग्गल समया दव्व पएसा य पजवा चेव / थोवाऽणताऽणता ठा०३उ०। विसेसअहिया दुवेऽणला।।१।।" (अस्या व्याख्या)-तत्र जीवाः स्तोकाः, परंमुह त्रि० (पराङ्मुख) पृष्ठतो मुखे, दश०६ अ०३ उ०। तेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणा इत्यादि 5 / प्रधानपरं तु प्रधानत्वेन परः, परकड त्रि० (परकृत) परेण गृहिणाऽत्माऽर्थ परार्थ वा कृतं निर्वर्तित द्विपदानां तीर्थकरः, चतुष्पदानां सिंहाऽऽदिः, अपदानामर्जुनसुवर्णपरकृतम्। उत्त०१ अ०। परनिष्ठिते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। गृहस्थैः पनसाऽऽदिः, 6 / एवं क्षेत्रकालभावपराण्यपि तत्पराऽऽदिषड्डिपक्के, नि०चू०१ उ०। धत्वेन क्षेत्राऽऽदिप्राधान्यतया पूर्ववत्स्वधिया योज्यानीति, सामान्येन परकायप्पवेस पुं० (परकायप्रवेश) तथाविधसंयमाजीवतो मृतस्य वा | तु जम्बूद्वीपक्षेत्रात्पुष्कराऽऽदिकं क्षेत्रं परं, कालपरं तु प्रावृट्का Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रकिरिया 515 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परकिरिया लाच्छरत्कालः भावपरमौदयिकादौपशमिकाऽऽदिः। साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम्। तचेदम्परकिरियं अब्भत्थियं संसेसियं णो तं सायए णो तं णियमे, से सिया परो पाए आमजेज वा, पमज्जेज्ज वा, णो तं सायए णो तं णियमे / से सिया परो पायाई संवाहेज वा, पलिमद्देज्ज वा, णोतं सायए णोतं णियमे। से सिया परो पायाइं कुसिज्ज वा रहज वा नो तं सायए, नो तं णियमे / से सिया परो पादाई तेल्लेण वा घएण वा वसाए वामक्खेज वा, भिलिंगेज वा, णोतं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो पायाइं लोहेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा,उवलिंवेज वा णो तं सातिए णो तं णियमे से सिया परो पादाई सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोएज्ज वा, णोतं सातिए जो तं णियमे / से सिया परो पादाई अण्णयरेण विलेवणजातेण आलिंवेज वा, विलिंपेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो पादाइं अण्णवरेण धूवणजाएण धूवेज वा, पाधूवेज वाणोतं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो पादाओ खाणुं वा कंटयं वाणीहरेज वा, विसोहेज वा,णोतं सातिएणोतं णियमे। से सिया परो पादाओ पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज वा, विसोहेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे (972) से सिया परो कार्य आमजेज वा, पमजेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कायं लोहेण वा संवाहेज वा, पलिमद्देज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कार्य तेल्लेण वा घएण वा वसाए वामखेज वा, अब्भंगेज वा, णोतं सातिएणोतं णियमे। से सिया परो कायं लोहेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उलोलेज वा, उव्वलेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कायं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा, उच्छोलेज वा पहोएज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कायं अण्णयरेणं विलेवणजातेणं आलिंपेज वा, विलिंपेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कायं अण्णयरेणं धूवण-जातेण धूवेज वा, पधूवेज्जवा,णोतं सातिए णो तं णियमे (973) से सिया परो कार्यसि वण्णं आमजेज वा, पमज्जेज वा णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कायंसि वणं संवाहेज वा, पलिमद्देज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मंखेज वा मिलिंगेज वा, णोतं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कार्यसि वणं लोहेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उलोलेज वा, उव्वलेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से | सिया परो कायंसि वणं सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज वा, णो तं सातिए णोतं णियमे।से सिया परो कायंसि वणं वा गंड वा अरई वा पुलणं वा भगंदलं वा अण्णयरे णं सत्थजातेणं अच्छिदेज वा, विच्छिदेज वा णो तं सातिए णो तं णियमे। से सिया परो अण्णयरेणं सत्थजातेणं अञ्छिदित्ता वा विञ्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा णो तं सातिए णो तं णियमे (674) से सिया परो कार्यसि गंडं वा अरतियं वा पुलयं वा भगदलं वा आम ज्ज वा, पमज्जेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कायसि वणं गंड वा अरतियं वा पुलयं वा भगंदलं वा संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे से सिया परो कायंसि गंडं वा० जाव भगंदलं वा तेलेण वाधएण वा वसाए वा मंखेज्ज वा, मिलिंगेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कार्यसि वणं गंडं वा.जाव भगंदलं वा तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा मंखे-ज्ज वा, मिलिंगेज्ज वा,णोतं सातिए णोतं णियमे / से सिया परो कार्यसि वणं गंडं वा०जाव भगंदलं वा लोद्दे ण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लेलेज्ज वा,उव्वलेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / से सिया परो कार्यसि वणं गंडं वा० जाव भगंदलं वा सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे।से सिया परोकायंसि वण गंड वा. जाव भगंदलं वा अण्णयरेणं सत्थजाएणं अच्छिदेज्ज वा, विच्छिदेज वा, अण्णरेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता वा विच्छदित्ता वा पूर्य वा सोणियं वाणीहरेज्जा वा, विसोहेजा वा,णो तं सातिए णो तं णियमे (975) से सिया परो कायाओ सेयं वा जल्लं वा णीहरेज वा, विसोधेञ्ज वा, णो तं सातिए णोतं णियमे (976) से सिया परो अच्छिनलं वा कण्ण-वलं वा दंतमलं वा णहमलं ता णीहरेज वा, विसोहेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे (677) से सिया परो दीहाई वालाई दीहाइं रोमाइं दीहाई भमुहाई दीहाई कक्खरोमाइंदीहाई वत्थिरोमाई कप्पेज वा, संठवेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे (978) से सिया परो सीसाओ लिक्खं वा जूयं वा णीहरेज वा, विसोहेज वा, णो तं सातिएणो तं णियमे (976) से सिया परो अंकसि वा पलियंसि वा तुयट्टावेज वा, पादाई आमजेज वा, पमज्जेज वा, एवं हेट्ठिमो गमो पायादि भाणियव्वो। से सिया परो अंकंसिवा पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता हारं वा अद्धाहारं वा उरत्यं वा गेवेयं वा मउडं वा पालंवं वा सुवण्णसुत्तं वा आविधेज वा पिणिधेज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे (980) से सिया परो आ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया 516- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परकिरिया जे भिक्खू अप्पणो पाए तिल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मखंतं वा भिलिंगतं वा साइजइ॥१७॥ जे भिक्खू अप्पणो पाए सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ // 18 // सीतमुदगं सीतोदग, वियड त्ति व्यपगतजीवं, उसिणमुदगं उसिणोदग, तेण अप्पणा पादे एक्कासि उच्छोलणा, पुणो पुणो पधोवणा, एवं सव्वे सुत्ता उच्चारेयव्वा / अन्भंगा थोवेण, पहुणा मक्खणं, अहवा-एकस्सि, बहुसो वा। सूत्रम्जे भिक्खू अप्पणो पाए लोहेण वा कक्केण वा पोउमचुण्णेण वा उल्लोलेज वा, उव्वट्टेज वा, उल्लोलतं वा उव्वस॒तं वा साइजइ // 16 // कक्कसि प्रथमोद्देशके अंगादाणगमेण णेयं / रामंसि वा उज्जाणंसि वा णिहरित्ता वा विसोहित्ता वा पायाई आमजेज वा, पमजेज वा ,णो तं सातिए णो तं णियमे (981) एवं णेतव्वा अण्णमण्णकिरिया वि (982) से सिया परो सुद्धेणं वा असुद्धेणं वा वतिवलेणं तेइच्छं आउट्टे से सिया परो असुद्धेणं वइवलेणं तेइच्छं आउट्टे से सिया परो गिलाणस्स सचित्ताई। कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणेत्तु वा कड्वेत्तु वा कड्डावेत्तु वा तेइच्छं आउट्टाविजा णो तं सातिए णोतं णियमे (983) कडुवेयणा पाणभतूजीवसत्ता वयणं वेदेति (184) एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सवट्ठिहिं सहिते समिते सदा जए सेयमिणं मण्णेन्जासि त्ति वेमि। (185) (परकिरियमित्यादि) पर-आत्मनो व्यतिरिक्तोऽन्यस्तस्य क्रिया चेष्टा कायव्यापाररूपा ता परक्रियाम्। आध्यात्मिकीम् आत्मनि क्रियमाणां, पुनरपि विशिनष्टि- सांश्लेषिकी' कर्मसंश्लेषजननीं (नो) नैव, 'आसादयेद्' अभिलषेत्, मनसा न तत्राभिलाषं कुर्यादित्यर्थः / तथा न तां परक्रिया नियमयेत्' कारयेद्वाचा, नाऽपि कायेनेति। तां च परक्रिया विशेषतो दर्शयति- (से) तस्य साधोर्निष्प्रतिकर्मशरीरस्य सः 'परः' अन्यो धर्मश्रद्धया पादौ रजोऽवगुण्ठितौ आमृज्यात्कर्पटाऽऽदिना, वाशब्दस्तूत्तरपक्षापेक्षः, तन्नाऽऽस्वादयेन्नाऽपि नियमयेदिति / एवं स साधुस्तं परं पादौ संबाधयन्तं मर्दयन्तं वा स्पर्शयन्तंरञ्जयन्तम्,तथातैलाऽऽदिना मक्षयन्तमभ्यञ्जयन्तं वा, तथा-लोध्राऽऽदिना उद्वर्तनाऽऽदि कुर्वन्तं, तथा-शीतोदकाऽऽदिना उच्छोलनाऽऽदि कुर्वाणं, तथाऽन्यतरेण, सुगन्धिद्रव्येणालिम्पन्तं, तथा-विशिष्टधूपेन धूपयन्तं, तथापादात्कण्टकाऽऽदिकमुद्धरन्तम्, एवं शोणिताऽऽदिकं निस्सारयन्तं 'नाऽऽस्वादयेत्' मनसा नाभिलषेन्नाऽपि नियमयेत्-कारयेद्वाचा कायेनेति / शेषाणि कायद्रणगताऽऽदीनि अरामप्रवेशनिष्क्रमणप्रमार्जनसूत्रं यावदुत्तानार्थानि / एवममुमेवार्थमुत्तरसप्तकेऽपि तुल्यवात् संक्षेपरुचिः सूत्रकारोऽतिदिशति (एवमिति) याः पूर्वोक्ताः क्रियाःरजःप्रमार्जनाऽऽदिकाः ताः 'अन्योऽन्यं' परस्परतः साधुना कृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतव्योऽन्योन्यक्रियासप्लैकक इति। किञ्च (से) तस्य साधोः स परः शुद्धेनाऽशुद्धेन वा,बाग्वलेन मन्त्राऽऽदिसामर्थ्येन, चिकि-त्सां व्याध्युपशमम् (आउट्टे त्ति) कर्तुमभिलषेत्। तथा-स परः ग्लानस्य साधोश्चिकित्सार्थं सचित्तानि कन्दमूलाऽऽदीनि खनित्वा समाकृष्य स्वतोऽन्ये नवा खानयित्वा चिकित्सां कर्तुमभिलषेत्। तथ नाऽऽस्वादयेत् नाभिलषेन्मनसा, एतच भावयेत्-इह पूर्वकृतकर्मफलेश्वरा जीवाः कर्मविपाककृतकटुकर्वदनाः कृत्वा परेषां शारीरमानसा वेदनाः स्वतः प्राणिभूतजीवसत्त्वास्तत्कर्मविपाकजा वेदनामनुभवन्तीति। उक्त्तं च-पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तवाऽयं, न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चितानाम् / इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यक, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ?||1||" शेषमुक्तार्थ यावद्ध्ययनपरिसमाप्तिरिति / आचा०२ श्रु०२ चू०६ अ०। जे भिक्खू अप्पणो पाए फूमेजवा, रएज वा, मंखेज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइज्जइ // 20 // अलत्तयरंगं पादेसु लाएउ पच्छा फूगति, तं जो रयणि वा फूमति वा / एतेसिं पंचण्हं सुत्ताणं संगहगाहासंवाहणा पधोयण, कक्कादीणुव्वलण मंखे वा। फुसणं व राइणं वा, जो कुजा अप्पणो पादे / / 17 / / संवाहण ति विस्सामणं तं सीतोदगाइणा पधांवणं कक्काइणा उव्वलणं, तेल्लाइणा मक्खणं, अलत्तगाइणा रंगणं करेति, तस्स आणाइया दोसा। गाहाएतेसिं पढमपदा,सइंतु वितिया तु बहुसो वा। बहुणा संवाहणो तू, चतुधा फूमंत रागो सो // 58|| एतेसिं सुत्ताणं पढमपदा संवाहणाऽऽदि सकृत्कारणे द्रष्टव्याः वितियपदा परिमद्दणादि बहुवारकरणे, बहुणा वा करणे दट्ठव्वा / संवाहणचउविहा उक्ता। अलक्तकरंगो फूमिजंतो लग्गति। गाहा सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त विराधणं तहा दुविधं / पावति जम्हा तम्हा, एतेसु पदे विवजेज्जा // 56 // सव्येसुजहासंभवं विराहणाभाणियव्या, गाढसंवाहणा पंचमं अवणेज्ज, अट्ठिभंग च करेज्ज, एवं उव्वलणे वि, पधोवणे एवं चेव उप्पिलादयो। सा य अब्भंगे विमच्छिगातिसंपातिमवहो। गाहाआतपरमोहुदीरण, पाउसदोसाय सुत्तपरिहाणी। संपातिमादिधातो, विवजओ लोगपरिवाओ॥६०॥ रंगे पधावणाऽऽदिसु य आयपरमोहोदीरणं करेति, पाउसदोसो य भवति, सुत्तत्थाण च परिहाणी भवति / साधु क्रि - यायाः, साधु रूपस्य वा विपर्ययो विपरीतता भवति / साधु Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया 517 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परकिरिया श्रावके, मिथ्यादृष्टिलोके वा परिवादो, पादाभ्यङ्गकरणेन परिज्ञायते, न | साधुरिति। कारणतो करेजवितियपदं गेलण्णे, अद्धाणुवातवायवासासुं। आदी पंचपदाऊ, मोहतिगिच्छाएँ दोणितरे।।६१।। गिलाणस्स अद्धाणे वाउवायरस वा तेणेव महियस्सवासासु वा। (आइ ति) गिलाणपयं तम्मि संपाहादी पंच विपया पउत्तवाओ। वेजोवदेसेण पायतलरोगिणो ममदंतियादिलेवेण अण्णेण रंगो कायव्यो / सेसेसु अद्धाणादिसु जहासंभवं मोहतिगिच्छाए रयणं फूमणं वादो वि कायव्वा। अहवा-संवाहादियाण पंचण्ह पदाणं आदिल्ला चउरो पदा गिलाणाइसु संभवंति। दो फूमणरयणपदा मोहतिगिच्छाए संभवंति। चोदगाऽऽहगणु फूमणरयणे मोहवुड्डी भवति ? आयरियाऽऽह-सातिसओवदेसेण जस्सतहा कचंतेय उवसमो भवति तस्स कज्जति। कितिगादिआसेवणे वा अद्धाण-संवाहणाऽऽदी जहासंभवं / एवं याते वि संवाहसेयअभंगजाति / वासासु कद्दमलित्ताण धोवणेति अंगुलिमंतराय कुहिया कोद्दवपलालधूमेण रज्जति। सूत्रम्जे मिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज्ज था, पमन्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जं तं वा साइज्जइ।।२१।। एवं कायाभिलावेण छ सुत्ता भाणियव्वा। सुत्रम्जे मिक्खू अप्पणो कार्य संवाहेज्ज वा, परिमद्देज्ज वा,संवाहतं वा पलिमदंतं वा साइज्जइ / / 22 / / जे भिक्खू अप्पणो कायं तिल्लेण व घएण वा वण्णेण वा वसारण वाणवणीएण वा मंखेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा मंखंतं वा भिलिंगंतं वा साइजइ॥२३।। जे भिक्खू अप्पणो कायं लोद्वेण वा कक्केण वा पोउमचुण्णेण वा उल्लोलेज्जवा, उव्वट्टेज्जवा,उल्लोलंतंवाउव्वस॒तं वा साइज्जइ 1 // 24|| जे भिक्खू अप्पणो कायं सीओदगवियडे ण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्जवा, पधोएजवा, उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ // 25 // जे भिक्खू अप्पणो कार्य फूमेज्ज वा, रएज्ज वा, मंखेज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइज्जइ॥२६॥ एएछ सुत्ता पूर्ववत्। इमो अइदेसगंथोपादेसुं जो तु गमो, णियमा कायम्मि होति सचेव / णायव्यो तु मतिमता, पुवे अवरम्मिय पदम्मि // 2 // जो पायसुत्तेसुगमो कायसुत्तेसु विछसु सो चेव दट्ठव्वो। केण नायव्वो? , मतिमता मतिरस्यास्तीति मतिमान्। पुवं उस्सगपदं, अवरं अववातपदं / सूत्राणिजे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं आमजेज वा, पमजेज वा, आमजंतं वा पमजंतं वा साइजइ / / 27|| जे मिक्खू अप्पणो / कायंसि वणं संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज वा, संवाहंतं वा पलिमइंतं वा साइज्जइ।।२८|| जे मिक्खू अप्पणो कायंसि वणं तिलेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाए वा णवणीएण वा मंखेज वा, मिलिंगेज वा, मंखंतं वा मिलिंगतं वा साइजइ।।२६।। जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं लोद्देण वा कक्केण वा उल्लोलेज वा, उव्वट्टेज वा, सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोएज वा, उच्छोलंतं वा पधोयंतं वा साइज्जइ // 30 // जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं फूमेज वा, रएज वा, मंखेज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइजइ॥३१।। एवं वणाभिलावेण ते च छ सुत्ता वत्तव्वा। गाहादुविधं कायम्मि वणो,तदुब्भवाऽऽगंतु पत्तुणा तयो। तद्दोसाऽऽदितदुभवो, सत्थादागंतुओ भणिओ // 63 / / कायवणो दुविधो-तत्थेव काए उन्भवो जस्स सोतदुब्भवो। आगंतुएण सत्थादिणा कओ जो सो आगंतुगो। इमो तदुद्भवो तबोसो कुट्ट किडिभ दद्दू विचचिका पामा गंडादिया य। आगंतुगो सत्थेण खग्गातिण केटकेण वा खाणूतो वा सिसवेधा वा दीहेण वा सुणहडको वा। गाहाएतेसामण्णतरं, जो तु वणं मीसयं करे मिक्खू / मजणमादी तु पदे, सो पावति आणमादीणि / / 6 / / एतेसिं अण्णतरेण जो पमजणादिपदे करेज, तस्स आणादी दोसा, मासलहु च पच्छित्तं। सीस आह-वेयणद्वेण किं कायवं? आयरिय आहणच्चुप्पइतं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाएँ तिव्वाए। अद्दीणो अबिभितो, तंदुक्खऽहियासए सम्मं / / 6 / / (णच त्ति) ज्ञात्वा। किं ज्ञात्वा ? दुःखमुत्पन्न, वेद्यत इति वेदना, तिव्वाए वेयणाए सव्वं सरीरं व्याप्तमित्यर्थः / ण दीणो अदीणो, पसण्णमणो, स्वभावस्थ इत्यर्थः / णवा ओहयमणसंकप्पे अहवा-हा माते ! हा पिते! एवमादिण भासतेजो सो अदीणो।ण वेयणद्दो अप्पणो सिरोरुकुटुणादि करेति। अधवा णवेयणद्दो चिंतेति-अप्पाणं सारेमि त्ति / तं दुक्खं पत्तं सम्म अहिआसेयव्वं इत्यर्थः / कारणे पुण आमज्जणाऽऽदि करेजअवोच्छित्तिणिमित्तं,जीयट्ठी वा समाहिहेतुं वा। मजणमादी तु पदे, जयणाएँ समायरे भिक्खू // 66|| सुत्तत्थाणं अव्वोच्छित्तिं करिस्सामि त्ति, जीवितही वा जीवंतो संजमं करिस्सामो, चउत्थाइणा वा तवेण अप्पाणं भावेस्सामि, णाणदसणचरित्तसमाहिसाहणट्ठा वा। अधवासमाहिमरणेण वा मरिस्सामि त्ति आमजणादिपदे जयणाए समायरेज / जयणा जहा जीवोवधातो ण भवतीत्यर्थः। सूत्राणिजे मिक्खू अप्पणो कार्य सि गंडं वा पलियं वा अरियं Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया 518 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परकिरिया वा भगंदलं वा अन्नयरेण वा तिक्खेण सत्थजाएणं आछिंदित्ता वा विसोहित्ता वा अन्नयरेण वा आलेवणजाएणं अभिगेज्ज वा, मंखेज्ज वा, अभिगंतं वा मंखतं वा साइज्जइ // 36 / / चउरो वि सुत्तालापगे वोत्तुं इमे पंचमसुत्तारित्ता आलावगा। तेल्लण वा गतार्थम्। सूत्रम् वा अंसियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिदेज्ज वा, विच्छिदेज वा, अच्छिंदंतं वा विच्छिदंतं वा साइज्जइ // 32 // जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा अंसिथं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण सत्थ-जाएण अच्छिदेज वा विच्छिदेज वा, पूर्व वा सोणियं वा नीह-रेज वा, विसोहेज वा, नीहरंतं वा विसोहंतं वा साइजइ॥३३॥ गच्छतीति गंडतं गंडमाला, जंच अण्णं सुपादगं तं गंड, अरती तंजण पञ्चति, अंसी अरिसाऽऽदी य अहीणेणासाए वणेसु वा भवंति। पलिगा सियलिया, भगंदर अप्पण्णप्पत्तो अधिट्ठाणे क्षतं किमिय-जालसंपण्णं भवति / बहुसत्थसंभवे अण्णतरेण तिक्खं सहिणधारम, जातमिति प्रकारप्रदर्शनार्थ / एकसिं ईषद्वा आच्छिदणं, बहुवार सुटु वा छिंदणं विच्छिदणं। गाहागंडं च अरइयंसिं, विगलं व भगंदलं व कायंसि / सत्थेणऽण्णतरेणं, जो तं अच्छिदए भिक्खू // 67 / / गतार्था / पुष्वसुत्तं सव्वं उचारेऊण इमे अइरित्ता आलावगा। पुव्वं वा पक्कं सोणिय पुव्वं भणति। रुचिर सभावत्थं सोणिय भण्णति। णीहरति णाम णिग्गलति, अवरोसावयवा फडणविसो-हणं भण्णति। सूत्रम्जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा अंसियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण सत्थजाएणं अञ्छिदित्ता वा पूयं वा सोणियं वाणीहरित्ता वा विसोहित्ता वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइजइ॥३४॥ जे भिक्खू दो वि पुटवसुत्तअलावगे भणिउ इमे तइयसुत्तआलावगा। सीओदगवियर्ड गतार्थम्। जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अंसियं वा भगंदलं वा अन्नयरेण वा तिक्खेण सत्थजाएणं छिंदित्ता वा.जाव विसोहित्ता वा धूवणजाएण धूएज वा, पधूवेज वा, धूवंतं वा पधूवंतं वा साइजइ॥३७॥ जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंड वा जो अच्छिदित्ता पूअं वा सोणिय वा णीहरिता विसोधित्ता सीतोदगं.जाव पहोवित्ता अण्णतरेण वा आलेवणजाएण, जाव विलिंपित्ता तेल्लेण जावमंखित्ता अण्णतरेण, जाव धूवंतं वा सातिजति छटुं सुत्तं / एतेसिं इमा संगहणिगाहाजीणेज्ज पूयरुधिरं, उच्छोले सीतवीयडउसिणेणं। लेवेण व आलिंपति, मंखे धूवे व आणादी // 6 // णीणेज पूयातीतो उच्छोलति, ततो आलिपति, ततो मखेति, ततो धूवेति। एवं जो करेति सो आणादिदोसे पावति, आयविराहणासु थाती भवति, संजमे आउकायादिविराहणा। एवं ता जिणकप्पे, गच्छवासीण विणिक्कारणे एवं चेव। जतो भण्णतिणिक्कारणा ण कप्पति, गंडादीएस छेय धुवणादी। आसज्ज कारणं पुण, सो चेव गमो हवति तत्थ / / 66 // पुव्वद्ध कंठ, कारणे पुण आसज्ज एसेव कमो सत्थादिण। अछिंदति, जइ ण पण्णप्पइ, तो पूयादिणीहारेति / एवं अप्पणप्पते उत्तरोत्तरपयकरणं णच्चप्पइयं गाहा-अव्वोगाहा। सूत्राणि जे भिक्खू अप्पणो पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अप्पणो अंगुलीए निवेसिय णिवेसियणीहरइ,णीहरंतं वा साइजइ॥३८|| पालु अपानं, तम्मि किमिया समुच्छंति, कुक्खीए किमिया कुक्खिकिमिया, ते पज्जमा भवंति. ते जति सण्णं वोसिरउ पाणब्भंतरे थेक्केज्जतो ते पालुकिमिए अंगुलिए णिवेसिय प्रवेश्य, अप्पणो णीहरति, परित्यज्यतीत्यर्थः / इमा णिज्जुत्तीगंडादिएसु किमिए, पालुकिमिए व कुच्छिकिमिए वा। जो भिक्खू णीहरती, सो पावति आणमादीणि / / 7 / / गंडादिएसुवणेसु पालओ वा कुच्छिकिमिए वा जो भिक्खूणीहरति सो अणाऽऽदिदोसे पावति। णीहरणकप्पोवदरिसणत्थं भण्णतिणिक्कारणे सकारणे, अवधी विधि कट्ठमादिगा अविधी। अंगुलमादीउ विधी, कारणे अविधी तु सुत्तं तु // 71 / / जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा अंसियं व भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण सत्थजाएण अञ्छिदित्ता वा विञ्छिदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज वा, विसोहेज वा, अन्नयरेण वा आलेवणजाएण आलिंपेज्ज वा, विलिंपेज वा, आलिंपतं वा विलिंपतं वा साइजइ॥३५॥ जे भिक्खू तिण्ह वि सुत्ताणालावए वोत्तुं चउत्थसुत्ताइरित्ता इमे आलावगा। बहु आलेवसंभवे अण्णतरं गहणं आलिप्पतेऽनेनेत्यालेपः।। जातग्रहण प्रकारप्रदर्शनार्थ / सो आलावो तिविधोवेदनाप्रशमकारी, / पाककारी. वणाऽऽदिणीहरणकारी। सूत्रम्जे भिक्खू अप्पणो कायंसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया 516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परकिरिया णिकारणे अविधीए निकारणे विहीए, कारणे अविधीए कारणे विधीए, कट्ठमादिएहि जति णीहरति तो अविधी, अड् गुलिमादि-एहिं विधी भवति। ततियभंगे सुत्तं, चरिमो सुद्धो, दोसु आइल्लेसु चउलहुँ। उस्सग्गेणं विधीए अविधीए वा ण णीहरियव्वा, तेसु विराहिज्जतेसु संजमविराहणा, खेत्ते आयविराहणा, तत्थ गिलाणादिआरोवणा, तम्हा अधियासेयव्यं / गाहाणच्चुप्पइतं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाएँ तिव्वाए। अद्दीणो अविभितो, तंदुक्खऽहियासए सम्मं / / 72 / / अव्वोच्छित्तिणिमित्तं,जीवट्ठाए समाधिहेतुं वा। गंडादिसु किमिए, जतणाए णीहरे भिक्खू / / 73 / / तेसिंणीहरणे का जयणा ? पोमे पउमे वा अल्लचम्मे वा। सेस पूर्ववत्। सूत्रम्जे भिक्खू अप्पणो दीहाओणहसिहाओ कप्पेज्जवा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ॥३६|| जे भिक्खू अप्पणो दीहाओ णहसिहाओ कप्पेज वा,संठवेज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ // 40 // जे मिक्खू अप्पणो दीहाई जंघारोमाई कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ / / 41 / / जे भिक्खू अप्पणो दीहाई कक्खरोमाई कप्पेज्ज वा,संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ / / 42 / / जे भिक्खू अप्पणो दीहाइंसमसूरोमाई कप्पेज्ज वा,संठवेज्जवा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ // 43|| जे भिक्खू अप्पणो दीहाई कण्णरोमाई कप्पेज्ज वा,संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ // 44|| एवं नासिकारोमाई कप्पेज्ज वा,संठवेज्ज वा०जाव साइज्जइ // 45|| जे मिक्खू अप्पणो दीहाइं चक्खूरोमाई कप्पेज्ज वा,संठवेज्ज वा,कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ॥४६॥ जे भिक्खू अप्पणो दीहाई मंसूरोमाई कप्पेज्ज वा,संठवेज्जवा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ॥४७॥ जे भिक्खू अप्पणो दंते आघंसेज्ज वा,पघंसेज्ज वा, आघंसंतं वा पघंसंतं वा साइजइ॥४८|| जे भिक्खू अप्पणो दंते सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा, पधोवेज्ज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइजइ ।।४६|जे भिक्खू अप्पणो दंते फूमेज वा, रएज्ज वा, फूमंतं वा रयतं वा साइज्जइ।।५०।। जे भिक्खू अप्पणो उढे आमज्जेज वा, पमज्जेज्जवा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ।।५१||जे भिक्खू अप्पणो उट्टे संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, संवाहंतं वा पलिमहतं वा साइज्जइ // 52 // जे भिक्खू अप्पणो उट्टे तिल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाए वा णवणीएण वा मंखेज्ज वा, मिलिंगेज्ज वा. मंखंतं वा मिलिंगंतं वा साइज्जइ // 53 // जे मिक्खू अप्पणो उट्टे कक्केण वा लोद्देण वा उल्लोलेज्ज वा, उव्वट्टेल वा, उल्लोलंतं वा उव्वदृतं वा साइज्जइ / / 54|| जे मिक्खू अप्पणो उट्टे सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोएज वा, उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ // 55 // जे भिक्खू अप्पणो उद्दे फूमेज्ज वा, रएज्ज वा, मंखेज्ज वा, फूमंतं वारयंतं वा मंखंतं वा साइज्जइ // 56|| जे भिक्खू अप्पणो दीहाइं उत्तरउट्ठाई कप्पेज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ / / 57 / / जे भिक्खू अप्पणो दीहाई अच्छिपत्ताई कप्पेज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ / / 58|| जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज वा, अमज्जंतं वा पमजंतं वा साइजइ॥५६॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी संवाहिज्ज वा, पलिमद्देज वा, संवाहतं वा पलिमदंतं वा साइजइ // 60 / / जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाए वा णवणीएण वा मंखेज्ज वा, मिलिंगेज्ज वा, मंखंतं वा मिलिंगतं वा साइज्जइ // 61 // जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी कक्केण वा लोडेण वा उल्लोलेज्ज वा, उव्वटेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उव्वस॒तं वा साइज्जइ / / 6 / / जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा, पधोएज्ज वा, उच्छोलंतं वा पधोयंतं वा साइज्जइ॥६३|| जे भिक्खू अप्पणो अच्छिणी फूमेज्ज वा, रएज्ज वा, मंखेज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइज्जइ // 65 // जे भिक्खू अप्पणो दीहाई भुमगरोमाइं कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ // 65 // जे भिक्खू अप्पणो दीहाई वत्थिरोमाइं कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ॥६६॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वाणीहरेज वा, विसोहेज वा, णीहरंतं वा विसोहंतं वा साइज्जइ६७ तेरस सुत्ता उच्चारेयव्वा, सुत्तत्थो णिज्जुत्ती य लाघवत्थे जुगवं वक्खाणिजंति। गाहाजे भिक्खू णहसिहाओ, कप्पेज्जा अधव संठवेज्जा वा दीहं च रोमराई, मंसूकेसे तु उत्तरोट्टे वा / / 74 / / णहाणं सिहा णहसिहा, नखा इत्यर्थः / कल्पयति छिंदति संठवेति तीक्ष्णे करोति, चन्द्रार्धे सुकतुडे वा करेति रोमराई पोट्टे भवति, ते दीहे कप्पेति, संठवेति-सुविहिते अधोमुहे ओलिहति, मंसू चिवुकेजधासु गुज्झदेसे वा छिद्र Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया 520 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परकिरिया ति, संठवेति / केस त्ति सिरजादि छिंदति, संठवेति वा, उत्तरोट्ठरोमा दाढियाओ, ता छिंदति। संठवेति वा / गाहाभमुहाउ दंतसोधण, अच्छीण पमज्जणाइगाइं वा। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे / / 7 / / एवं णासिगाभमुगरोमे वि दंतेसु अङ्गुलीए सकृदामजणं, पुणो पमजणं | दंतधावणं। दंतकडे अचित्ते सुत्तंतेण एकदिणं आघसणं, दिणे दिणे पघसणं, दंते फूमति रयति वा पादसूत्रवत्। अच्छीणि वा आमज्जति णाम अक्खिपत्तरोमे संठवेति, पुणो पुणो करेंतस्स पमजणा। अहवा-वीयकणगादीण ] सकृत अवणयणे आमज्जणा, पुणो पुणो पमजणा / आदिसद्दातो जे अच्छीणि पधोवति उसिणा-इणा पउंछति णाम अंजणेणं अंजेति, अच्छीणि फुमणरयणा पूर्ववत्। विशेषो कणगादिसु फुवणं संभवति। एवं करेंतस्स आणाविराह-णादिया दोसा। गाहाआमज्जण सइ असई, पमजणं धोवणं तुऽणेगविधिं / पादादीण पमजण, फूमणपसइंजणे रागो / / 76|| उक्तार्था। पसयमिति पसती चुलुगो भण्णतिदव्वसंभारकयं तं चुलुगे छोढुं तत्थ णिच्छड अच्छि धरेंति, ततो उच्छुढं फूमति, रागो लगति, अंजिय वा फूमति, रागो लग्गति / अहवा-पसयमिति दोहिं तिहिं ठाणापूरेहि अच्छिं धोवति, ततो अंजेति, ततो फूमति रागो लग्गति। इमे दोसाआतपरमोहुदीरण, पाउसदोसाय सुत्तपरिहाणी। संपातिमादिधाते, विवज्जते लोगपरिवाओ॥७७।। पूर्ववत्। गाहावितियपदं सामण्णं, सव्वेसु पदेसु होज्जऽणाभोगो। मोहतिगिच्छाए पुण, एत्तोतु विसेसियं वोच्छं / / 78|| णहसियादि ततो सव्वे सुत्तपडिसिद्धे अत्थे अणाभोगतो करेन,मोहे तिगिच्छाए वा करेज अतो परं तेरसपयाण वइसेसियं वितियपदं भण्णति। गाहाचक्कम्मणभावडणो,लेवो देहखत असुइ णक्खेसु / वणगंडरती अंसिय, भगंदलादीसु रोमाइं // 76 / / चंकमंतो पायणहा उपले खणुगादिसु अफिडति पडिलोमो वाभञ्जति. हत्थणहा वा भायणलेवं विणासंति, देहं शरीरं, तत्थ खयं करेज, ताहे लोगो भणेज्ज-एस कामी, अविरयाए से णहपया दिण्णति, पयदोसपरिहरणत्थं छिंदतो सुद्धो, संठवणं झमेतादिणा घसति। लोगो य भणतिदीहणहतरे सण्णा चिट्ठति, असुइणो एते / अवि य पायणहेसु हीहेसु अंतरंतरे रेणु चिट्ठति। तीए चक्खू उवहम्मति बणगंड अरइयंसि भगंदरातिसु रोमा उवधायं करेंति, लवंवा अंतरेंति, अतो छिदंति, संठवेति वा। गाहादंताऽऽमय दंतेसु, णयणाणं आमया तु णयणेसु / भुमया अच्छिणिमित्तं, केसा पुण पव्वयंतस्स ||8|| दंतेसुदंतामयो दंतरोगो, तत्थ दंतवणादिणा आघसंति, एवं णयणामए वि णयणे घोवति, रयति, फूमति वा, भुमगरोमा वा अतिदीहा अइमहत्तणेण य अच्छीसु पडते छिदति, संठवेति वा, पव्वयंतस्स अतिदीहा केसा लोयं काउंण सक्कति, सिररोगिणो वा केसे कप्पिजंति। सूत्रम्जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मल्लं वा णीहरेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णहरंतं वा विसोहंतं वा साइज्जइ॥६८|| सेयो प्रस्वेदः, स्वच्छमलच्छिग्गलं जल्लो भणति, स एव प्रस्वेदः पंको भषणति, अण्णो वा जो कद्दमो लग्गो, मलो पुण उत्तरमाणो अच्छी रेणू वा सकृत उव्वट्टणं, पुणो पुणो पव्वट्टणं कक्काइणा वा। सूत्रम्जे भिक्खू अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा णीह-रेज्ज वा, विसोहेज्ज वा, णीहरंतं वा विसोहंतं वा साइज्जइ॥६६॥ अच्छिमलो दूसिकादि,कण्णमलो कण्णगूधादि, दंतकिणो दंतमलो, णहमलोणहविचरेणू णीहरति, अवणेति असेसविसोहणं / गाहासेयं वा जल्लं वा, जे भिक्खू णीहरिज्ज कायातो। कण्णच्छिदंतणहमल, सो पावति आणमादीणि / / 81|| पढमसुत्तत्थो पुव्वद्धन, वितियसुत्तत्थो पच्छद्धेण आणादिया दोसा। आयविराहणा। पंतदेवता छलेज, अप्परुत्तीए वा पाउसदोसा भवन्ति, सुत्तेसु य पलिमथो। गाहाजल्लो तु होति कमद, मलो तु हत्थादिघट्टितो सडति। पंको पुण सेउल्लो, विक्खेवो वा वि जो लग्गो // 2 // खरंटो उजो मालो तं कमद भण्णति, सेसं कंठं। गाहावितियपदमणप्पज्झे, णयणवणे ओसधामए चेव। मोहतिगिच्छाए पुण, णीहरमाणे णतिक्कमति॥८३|| अणप्पज्झो खित्तचित्तादि, सवे उव्वट्टणातिपदे करेज, णयणे वा दूसिओबद्धा अच्छिरोगेण वा किंचि अच्छीओउद्धरियव्यं,सरीरे वा धूणो, तस्स अ सासे मलादि फोडिज्जति, मा तेण वणो दज्झिहिति / अहवा खज्जू दद्दू किडिभं अण्णो वा कोवि ओम, आस ओसहेहिं उव्वट्टिजति, मोहतिगिच्छाएवापुणो विसेसेण अण्णहा मोहोणोवसमति त्ति। एवं विशेष इत्ति एवं करेंतो धम्मा-परिआणं वा णातिक्कमति / नि०चू० 3 उ० / (अन्ययूथिकैरात्मनः न पादप्रमार्जना कर्तव्यता 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 466 पृष्ठे 'अण्णमण्णकिरिया' शब्दे च तस्मिन्नेव भागे 480 पृष्ठे उक्ता)('कटयाइउद्धरण' शब्देतृतीयभागे 166 पृष्ठेनिर्ग-थानां कण्टकोद्धरणव्याख्यातम्) सुविशुद्धलेश्ये, "मेहावी, परकिरियं, च वज्जए नाणी, मण Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकिरिया 521 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परछंद सा वयसा कारण / "(21 गाथा) मेधावी मर्यादावर्ती , परस्मै / परक्कम्म अव्य० (पराक्रम्य) समीपमागत्य शीलस्खनयोग्यतापत्त्याऽस्त्र्यादिपदार्था क्रिया परक्रिया, ता च ज्ञानी विदितवेधो, वर्जयेत् भिभूयेत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०१ उ०। आसेव्येत्यर्थे, दश०८ अ०। परिहरेत् / एतदुक्तं भवति-विषयोपभोगोपाधिना नान्यस्य किमपि | परग न० (परग) तृणवनस्पतिभेदे, सूत्र०२ श्रु० 2 अ० / आचा० येन कुर्यान्नाऽप्यात्मनः स्त्रिया पादधावनाऽऽदिकमपि कारयेत् / एतच्च तृणविशेषेण पुष्पाग्राणि ग्रथ्यन्ते / आचा०१ श्रु०१ चू० 2 अ० 3 उ०। परक्रियावर्जन मनसा वचसा कायेन वर्जयेत् / तथाहि-औदारिक- परगणिचिया स्त्री० (परगणीया) परगणसत्कायां निर्गन्थ्याम्, स्था०५ कामभोगार्थ मनसा न गच्छति, नान्यं गमयति, गच्छन्तमपरं ठा०२ 30 / परगणे या साधी सा परसिस्सिणी परगच्छे णातव्वा नानुजानीते / एवं वाचा, कायेन च सर्वेऽप्यौदारिके नव नव भेदाः / एवं परगणिच्चिया। नि०चू० 8 उ०। / दिव्येऽपि। सूत्र०१ श्रु० 4 अ०२ उ०। परसत्कस्य ज्ञानाऽऽवरणीया परगरिहंझाण न०(परगाँध्यान) परस्य गर्दा परसमक्षं दोषोद्धट्टनं, तस्या ऽऽदिकर्मणि, पिं०। ध्यानम् / संघसमक्ष दुर्बलिकापुष्पमित्रं गर्हमाणस्य गोष्ठामाहिलस्येव परकिरियासत्तिक्कय पुं० (परक्रियासप्तैकक) परक्रियाप्रतिपादके दुर्व्याने, आतु०। आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्तैककानां षष्टे एककेऽध्ययने, स्था० परगरिहा स्त्री० (परगा) 6 त०। परसमक्षं दोषोद्धट्टने, आतु० ७ठा०। परगेह न० (परगेह) गृहस्थगृहे, सूत्र०१ श्रु० अ०। परक्क त्रि० (पराक्य) परकीये, विशे०।" द्वे वाससी प्रवरयोषिदपायशुद्धा, परघरप्पवेस पुं० (परगृहप्रवेश) गृहान्तरप्रवेशे, ध०२०। शय्याऽऽसनं करिवरस्तुरगो रथो वा / काले भिषड् नियमिताऽऽसन तत्र प्रवेशनिषेधमाहमानमात्रा, राज्ञः पराक्यमिव सर्वमवेहि शेषम् / / 1 / / " आचा०१ श्रु०१ संप्रति द्वितीयं परगृहप्रवेशवर्जनरूपं भेदमभिधित्सुर्गाथोअ०१ उ०। त्तरार्द्धमाहपरकंत न० (पराक्रान्त) तपोऽध्ययनयमनियमाऽऽदावनुष्ठिते, सूत्र० १श्रु० परगिहगमणं पि कलं-कपंकमूलं सुसीलाणं / (36) ८अ०॥ परगृहगमनमन्यमन्दिरगमनम्, अपिशब्द उपरि योक्ष्यते, कलकोऽपरक्कम पु० (पराक्रम) परेषामाक्रमः पराक्रमः। परपराजये, परो-च्छेदे, भ्याख्यानम्। स एव शुद्धस्वरूपस्य पुरुषस्य मलिनत्वोत्पादकत्वात्पङ्क आ०म० 1 अ० / ते च परे कषायाऽऽदयः। आ०चू० 6 अ०। आचा० / कर्दमः, तस्य मूलं निबन्धनमकलङ्कपङ्कमूलत- अभ्याख्यानप्राप्तिपरेषां क्रोधाऽऽदिशनृणां क्रमणं विक्षेपणं पराक्रमः। विशे०। वीयें, "वीरिय मूलमित्यर्थः / सुशीलानामपि सुदृढशीलानामपि, धनमित्रस्येव / इत्थं ति वा बल त्ति वा सामत्थं ति वा परक्कमो त्ति वा थामो त्ति वा एगट्ठा।" सामायारी - 'सावगो जइ वि वियत्त तेउरपरधरप्पवेसो वन्निज्जइ, नि०चू०१ उ०। योगः, पराक्रमः स्थाम इत्येते एकार्थाः / पं० सं०५ द्वार तहावितेण एगागिणा असहारण परगिहे न पविसियव्वं, कजे वि परिणविशे० / सूत्र०। सामर्थ्य, उत्साहे, चेष्टायाम्, "उच्छाह परक्कमो तहा ययओ सहाओ धित्तव्वे ति।' ध० र०२ अधि०२ लक्ष०। (अत्र चेट्टा सत्ती सामन्थ ति य जोगस्स हवंति पज्जाया।" आ०चू० 1 अ०। आ०म० / आचा० साधितन्वाभिमतप्रयोजने पुरुषकार, सू०प्र०२० धनमित्रोदाहरणम् 'धणमित्त' शब्दे चतुर्थभागे 2655 पृष्टे गतम्) पाहु० / निष्पादितस्वविषये अभिमानविशेषे बलवीर्ययोा -पारणे, परचक्क न० (परचक्र) अपरसैन्ये, आचा०२ श्रु०१ चू० 3 अ०२ उ०॥ स्था० 3 ठा० 3 उ० / परेषां वा शत्रूणामाक्रमणं, तत्तस्योन्नतत्यमप्रति आव०॥ हतत्वेन शोभनविषयत्वेन चेति उन्नतविषयेयः, सर्वत्र प्रणतत्वभावनीये, परचक्करज न० (परचक्रराज्य) अपरसैन्यनृपती, ज्ञा०१ श्रु०६अ। स्था० 4 टा० 1 उ०। ज्ञा० / विपा० / नि०चू० / बलं शरीरं सामर्थ्य , वीर्य परचित्तणाण न० (परचित्तज्ञान) परचित्तसाक्षात्करे, 'प्रत्यये जीव-शक्तिः , तदुभयमपि दर्शनस्य फलं पराक्रमः / बृ०६ उ०॥ शत्रुवि परचेतसः / " प्रत्यये परकीयचित्ते केनचिन्मुखरागाऽऽदिना लिड्न गृहीते नाशनशक्ती, जं० 3 वक्षः। संयमानुष्टाने उद्योगे, आचा० १श्रु० 3 अ० परचेतसो धीर्मवति तथा संयमवान् सरागस्य चित्तं वीतरागं चेति 130 / सामर्थ्य विवक्षितदेशगमने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। परचित्तगतान सर्वानव धर्मान् जानातीत्यर्थः / तदुक्तम्- प्रत्ययस्य परक्कमण्णु त्रि० (पराक्रमज्ञ) विवक्षितदेशगमनज्ञे, सामर्थ्यज्ञे, आत्मज्ञे, ''परचित्तज्ञानम्।" (३-१६)"नच सालम्बने, तस्याविषयीभूतत्वासूत्र०२ श्रु० 1 अ०। दिति।" (32 लिङ्गाचित्तमात्रमवगतं न तु नीलविषयं पीतविषयं वा त परक्कममाण त्रि० (पराक्रममाण) परानिन्द्रियकर्मरिपून आक्रममाणे, दिति, अज्ञति आलम्बने संयमस्य कर्तुमशक्यत्वात्तदनवगतिः / आचा०१ श्रु०६ अ० 1 उ०। नि०। सालम्वनचित्तप्रणिधानोत्थसंयमे तु तदवगतिरपि भवत्येवेति भोजः। परक्कमियव्व न० (पराक्रान्तव्य) शक्तिक्षयेऽपि तत्पालने, विधेये द्वा०२६ द्वा०। उत्साहातिरेके, स्था० 8 ठा० / कर्तव्ये सिद्धिफले, पुरुषत्वाभिमाने, | परच्छंद त्रि० (परच्छन्द) पराभिप्राये, स्था० 4 ठा०४ उ० पराधीने, भ०६श०३३ उ०। पाइ० ना०१८ गाथा। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परच्छंदाणुवत्तिअ 522 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परतत्त ठा० परच्छंदाणुवत्तिअन० (परच्छन्दाऽनुवृत्तिक) परच्छन्दस्य पराभिप्राय- थत्वात् पापिकैव दोषवत्येव। अथवा स्वस्थानादधमस्थनि पातिका। स्यानुवृत्तिरनुवर्त्तना यत्र तत्परच्छन्दानुवृत्तिकम् / पराभिप्रायजनके, तत्रेह जन्मनि सुकरो दृष्टान्तः / परलोकेऽपि पुरोहितस्यापि श्वाऽऽदिस्था० 4 ठा०४ उ०। षूत्पत्तिः, (इतिरिति) इत्येवं संख्याय परनिन्दा दोषवती ज्ञात्वा परच्छंदाणुवत्तित्त न० (परच्छन्दानुवर्तित्व) परस्याऽऽराध्यस्य मुनिर्जात्यादिभिर्यथाऽहं विशिष्टकुलोद्भवः श्रुतवान् तपस्वी भवास्तु मत्तो छन्दोऽभिप्रायस्तमनुवर्तयतीत्येवं शीलः परानुवर्ती, तद्भावः परच्छ- हीन इति न माद्यति / / 2 / / सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। न्दानुवर्तित्वम् / भ० 25 श०७ उ० / पराभिप्रायानुवर्तित्वे, स्था०७ | परणिवाय पु० (परनिपात) परस्मिन् देशे स्थापने, परनिपातपूर्वनि पातशब्दी व्याकरणे प्राय उपलभ्येते। आचा०१ श्रु० 4 अ०३ उ०। परजोइ (स्) न० (परज्योतिष) आत्मरूपे तत्त्वे, द्वा०२४ द्वा०। / परतंत त्रि० (परतन्त्र) पराधीनवृत्तौ, विशे / पराऽऽयत्ते पराभिप्रायगते. परज्झ (देशी) परवशे, रागद्वेषग्रहग्रस्तमानसे, उत्त० 4 अ०। परवशीकृते, व्य०१ उ०। बृ०४ उ० / परतन्त्रतायाम्, स्था० 10 ठा०। परतत्त न० (परतत्त्व) परब्रह्मणि परमाऽऽत्मनि, षो०। परट्ट पुं० (परावर्त) पुद्गलपरावर्ते, कर्म०१ कर्म०। अत्र षोडशकम्। किं पुनस्तत्र ध्याने ध्येयमित्याहपरट्ठपुं० (परार्थ) परोपकारे, परेषामुपदेशदानेन सम्यक्त्वादि-गुणप्रापणे, सर्वजगद्धितमनुपम-मतिशयसन्दोहमृद्धिसंयुक्तम् / ध०३ अधि०। परनिमित्ते, दश०६ अ०। आचाo! ध्येयं जिनेन्द्ररूपं, सदसि गदत्तत्परं चैव / / 1|| परट्ठकरण न० (परार्थकरण) परार्थः परोपकारः परेषामुपदेशदानेन (सर्वेत्यादि) सर्वजगत्प्राणिलोकोऽभिधीयते, तस्मै हितं, हितकारिगम्यक्त्याऽऽदिगुणप्रापणमित्यर्थः, तस्य करणं सम्पादनम् / परेषामु- त्वात्। हितकारित्वं च सदुपदेशदानात् / न विद्यते उपमा शरीरसन्निपदेशे, 'सापेक्षयतिधर्मोऽयं, परार्थकरणाऽऽदिना। तीर्थप्रवृत्तिहेतुत्वाद्, वेशसौन्दर्याऽऽदिभिर्गुणैर्यस्य तदनुपमम्, अतिशयात् संदुग्धे प्रपूरयति वर्णितः शिवसौख्यदः !!१!"ध०३ अधिol यत्तदतिशयसंदोहम् / यद्वा-अतिशयसमूह-संपन्नमिति यावत् / परट्ठरसिय पुं०(परार्थरसिक) परोपकारबद्धचित्ते, द्वा० १५.द्वा०। ऋद्धिसंयुक्तम्, ऋद्धयौ नानाप्रकारा आमर्षांषध्यादयो लब्धयस्ताभिः यो० वि०। संयुक्तं समन्वितं, ध्येयं ध्यातव्यं, जिनेन्द्ररूपं जिनेन्द्रस्वरूपं, सदसि परट्ठाणंतर न० (परस्थानान्तर) परमाणोर्यत्परस्थाने घ्यणुकाऽ5- सभायां समवसरणे, गदद् व्याकुर्वाणं सर्वसत्त्वस्वभाषापरिणामिन्या दावन्तभूतस्यान्तरं चलनव्यवधानं तत्परस्थानान्तरम् / अन्यस्था- भाषया, तत्परं चैव तस्मादुक्तलक्षणाजिनेन्द्ररूपात्परं मुक्तिस्थं धर्मनाऽन्तर्भूतत्वेन क्रियायाम्, भ०२५ श० 4 उ० / कायावस्थानन्तरभावि तत्त्वकायावस्थास्वभावं, चैवं ध्येयं भवति।।१।। परट्ठाणसण्णिगास पुं० (परस्थानसन्निकर्ष) विजातीययोगाऽऽश्रयणे, भ० तत्राऽऽद्यं जिनेन्द्ररूपमधिकृत्य कीदृशं तच्चेपमित्याह२५ श०६उ०॥ सिंहाऽऽसनोपविष्ट, छत्रत्रयकल्पपादपस्याधः। परठुज्जय त्रि० (परार्थोधत) परहितकरणोद्यमवति, हा० 31 अष्ट। सत्त्वार्थसंप्रवृत्तं, देशनया कान्तमत्यन्तम्।।२।। परडड न० (परडड) दशगुणितमध्ये, कल्प०१ अधि०७ क्षण। (सिंहासनेत्यादि) सिंहोपलक्षितमासनं सिंहाऽऽसनं देवनिर्मित, परडा (देशी) सर्पविशेष, दे० ना०६ वर्ग 5 गाथा। तत्रोपविष्ट, सिंहस्य मृगाधिपतेरासनमवस्थानविशेषरूपमूर्जितपरणिंदंझाण न (परनिन्दाध्यान) परस्य निन्दा परनिन्दा, तस्या मनाकुलंच, लेनोपविष्टमिति वा। आतपंछादयतीति छत्रं, तेषां त्रयमुपयुध्यानम्। कूरगडुकं प्रति क्षपकाणामिव दुनि, आतु०। परिष्टात्, कल्पपादपः कल्पद्रुमः, छत्रत्रयं च कल्पपादश्च, तस्याऽधोऽपरणिंदऽप्पुक्करिसविप्पजुत्तत्तन० (परनिन्दाऽऽत्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व) धस्तात्, सत्त्वाः प्राणिनस्तेषामर्थ उपकारस्तरिमन, सम्यक् प्रवृत्तं परगाँऽऽत्मप्रशंसाराहित्यरूपे सत्यवचनातिशये, स०३५ सम०। रा०। स्वगतपरिश्रमपरिहारेण, देशनया धर्मकथया कान्त कमनीयं मनोज्ञमपरणिंदा स्त्री० (परनिन्दा) परेषां गर्हणे, सूत्र० / त्यन्तमतिशयेन ध्येयमिति संबन्धः।।२।। साम्प्रतं परनिन्दादोषमधिकृत्याऽऽह पुनरपि कीदृक् तद्रूपमित्याहजे परिभवई परं जणं, संसारे परिवठ्ठई महं। आधीनां परमौषध-मव्याहतमखिलसंपदा बीजम्। अदुइंखिणिया उपातिया, इति संखाय मुणी ण मज्जई / / 2 / / चक्राऽऽदिलक्षणयुतं, सर्वोत्तमपुण्यनिर्माणम् / / 3 / / (जे परिभवइ इत्यादि) यः कश्चिदविवेकी परिभवत्यवज्ञयति, पर (आधीनामित्यादि) आधीनां शारीरमानसानां पीडाविशेषाणां, जनमन्य लोकमात्मव्यतिरिक्कम्, स तस्कृतेन कर्मणा संसारे चतुर्गति- परमौषधं प्रधानौषधकल्पं, तदपनेतृत्वेनाव्याहृतमनुपहतम, अखिललक्षणे भवोदधावरघट्टघटीन्यायन परिवर्तते भ्रमति, महदत्यर्थ, महान्तं संपदा सर्वसंपत्तीनां, बीजं कारण, चक्राऽऽदीनि यानि लक्षणानि वा कालम् / कृचित् चिरमिति पाठः / (अहति) अथशब्दो निपातः, चक्रस्वस्तिककमलकुलिशाऽऽदीनि, तैर्युत समन्वितं, सर्वोत्तमं च तत् निपातानामनेकार्थस्यात् अत इत्यस्यार्थे वर्तते / यतः परपरिभवा- पुण्यं च निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणं सर्वोत्तमं पुण्यनिर्माणं यस्येति दात्यन्तिकः संसारः अतः (इरिणिया) परनिन्दा / तुशब्दस्यैवकारा- सर्वोत्तमपुण्यनिर्मितमित्यर्थः / / 3 / / Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतत्त 523 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परतत्त तदेव विशिनष्टिनिर्वाणसाधनं भुवि, भव्यानामग्र्यमतुलमाहात्म्यम्। सुरसिद्धयोगिवन्द्यं, वरेण्यशब्दाऽभिधेयं च // 4 // (निर्वाणत्यादि) निर्वाणसाधनं परमपदप्रापक सुखसाधनं वा भुवि पृथिव्यां, भव्याना योग्यानामग्र यं प्रधानम्, अतुलमाहात्म्यमसाधारणप्रभावं, सुरा देवाः सिद्धा विद्यामन्त्रसिद्धाऽऽदयो योगिनो योगबलसंपन्नाः, तैर्वन्द्यं वन्दनीयं स्तुत्य, वरेण्यशब्देनाभिधेयं वाच्यं वरेण्यशब्दाभिधेयं च, जिनेन्द्ररूपं धयेयमित्यभिसंबध्यते / / 4 / / एवमाद्यं सालम्बनध्यानमभिधाय तत्फलमभिधित्सुराहपरिणत एतस्मिन् सति, सद्ध्याने क्षीणकिल्विषो जीवः। निर्वाणपदाऽऽसन्नः,शुक्लाऽऽभोगो विगतमोहः / / 5 / / (परिणत इत्यादि) परिणते सात्मीभूते एतस्मिन् सति प्रस्तुते, सद्ध्याने शोभनध्याने, क्षीणकिल्मिषः क्षीणपापो, जीव आत्मा, निर्वाणपदस्याऽऽसन्नः प्रत्यासत्तिमान्, शुक्लाऽऽभोगः शुक्लज्ञानोपयोगो, विगतमोहोऽपगतमोहनीयः / / 5 / / चरमावञ्चकयोगा-त्प्रातिभसंजाततत्त्वसंदृष्टिः। इदमपरं तत्त्वं तद्, यद्शतस्त्वस्त्यतोऽप्यन्यत्॥६॥ (चरमेत्यादि) चरमावञ्चकयोगात् फलावञ्चकयोगात् प्रागुक्तात् प्रतिभा मतिस्तत्र भवं प्रातिभ, प्रतिभैव वा प्रातिभ, तेन संजाता तत्त्वसंदृष्टिस्तत्वसदर्शनं यस्य स प्रातिभसंजाततत्त्वसंदृष्टिः, परिणत एतस्मिन् भवतीत्यवसयम्। इदमिति प्रत्यक्षीकृतं सालम्बनध्यानद्वारेण जिनेन्द्ररूपम्, अपरमर्वागभागवर्ति परस्मादन्यत्, तत्त्वं परमार्थरूपं, ध्येयं तद्वर्तते / यद्वशतस्तु यद्वशादेव, यत्सामर्थ्यादपरतत्त्वसामर्थ्यादित्यर्थः / अस्ति भवत्योऽप्यपरतत्त्वादन्यत्परतत्त्वं मुक्तिस्थम् / इदमुक्तं भवतिसर्वस्याऽपि ध्यानपरस्य योगिनोऽपरतत्त्ववशात्परंतत्वमाविर्भवतीति।६।। कस्मात्पुनः परं तत्त्वमेवं संस्तूयत इत्याहतस्मिन् दृष्टे दृष्टं, तद्भूतं तत्परं मतं ब्रह्म। तद्योगादस्याऽपि, ह्येषा त्रैलोक्यसुन्दरता |7|| (तस्मिन्नित्यादि) तस्मिन्परतत्त्वे सिद्धस्वरूपे, दृष्टे समुपलब्धे, दृष्ट सर्वमव वस्तु भवति, जीवाऽऽद्यमूर्त्तवस्त्वालम्बनस्य बोधस्य सर्वविषयत्वात् / तद्भूतं तदेव सिद्धस्वरूपं भूतं सत्यं संसारिजीवस्वरूपस्य ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकऽिऽवृतस्य सद्भूततत्त्ववियोगात्। कर्ममलमलिनस्य ह्यात्मनो न भूतं रूपमुपलक्ष्यते, तद्विकाररुपद्रूयमाणत्वात्, सिद्धस्थरूपस्य तु निरुपद्रवत्वात् भूतमेव स्वरूपं सर्वदा समुपलभ्यते, नेतरत, तदेव परमात्मस्वरूपं परं प्रकृष्ट मतमभिप्रेतं, ब्रह्म महत्, बृहत्तम न ततोऽन्यदस्ति, तद्योगात्परतत्त्वयोगात्, अस्याऽपि हि परतत्त्वविषयध्यानविशेषस्यानालम्बनयोगस्य, एषा लोके लोकोत्तरे च प्रसिद्धा, त्रैलोक्यसुन्दरता त्रैलाक्ये सर्वस्मिन्नपि जगति विशेषवस्तुभ्यः सुन्दरता शोभनता / / 7 / / कः पुनर्निरालम्बनयोगः कियन्तं कालं भवतीत्याहसामर्थ्ययोगितो या, तत्र दिदृक्षेत्यसङ्गशक्त्यादया। साउनालम्बनयोगः, प्रोक्तस्तदर्शनं यावत् // 8 सामर्थ्ययोगतः शास्त्रोक्तत्वात् क्षपक श्रेणीद्वितीयाऽपूर्वकरणभाविनः सकाशात्। सामर्थ्ययोगस्वरूपं चेदम्-"शास्त्रसन्दर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः / शक्त्युकाद्विशेषण, सामर्थ्याऽऽख्योऽयमुत्तमः / / 1 / / " या तत्र परतत्त्वे द्रष्टुमिच्छा दिदृक्षा, इत्येवस्वरूपाऽसङ्गा चाऽसौ शक्तिश्च निरभिष्वङ्गाऽनवरतप्रवृत्तिस्तयाऽऽढ्या परिपूर्णा दिदृक्षा। सा परमाऽऽत्मविषयदर्शनच्छा, अनालम्बनयोगः प्रोक्तस्तद्वेदिभिस्तस्य परतत्त्वस्य दर्शनमुपलम्भस्तद्यावत्। परमात्मस्वरूपदर्शन तु केवलज्ञानेन अनालम्बनयोगो न भवति, तस्य तदालम्बनत्वात् // 8 // कथं पुनरनालम्बनोऽयमित्याहतत्राऽप्रतिष्ठितोऽयं, यतःप्रवृत्तश्च तत्त्वतस्तत्र। सर्वोत्तमानुजः खलु, तेनानालम्बनो गीतः।।६।। तत्र परतत्त्वेऽप्रतिष्ठितोऽलब्धप्रतिष्ठः, अयमनालम्बनो, यतो यस्मात्प्रवृत्तश्च ध्यानरूपेण तत्त्वतो वस्तुतस्तत्र परतत्त्वे, सर्वोत्तमानुजः खलु सर्वोत्तमस्य योगस्यानुजः प्रागनन्तरवर्ती, तेन कारणेनानाऽलम्बनो, गीतः कथितः / / 6 / / किं पुनरनालम्बनाद्भवतीत्याहद्रागस्मात्तद्दर्शन-मिषुपातज्ञातमात्रतो ज्ञेयम् / एतच केवलं तज्-ज्ञानं यत्तत्परं ज्योतिः ||10|| (द्रागित्यादि) द्राक्शीघ्रमस्मात्प्रस्तुतादनालम्बनात्तद्दर्शन परतत्त्वदर्शनमिषोः पातस्तनिषयं ज्ञातमुदाहरणं तन्मात्रादिषुपातज्ञातमात्रतो, ज्ञेयं दर्शनम् / एतच परतत्त्वदर्शन केवल संपूर्ण , तदिति तत्प्रसिद्ध ज्ञानं केवलज्ञानमित्यर्थः। यत्तत्केवलज्ञानं, परं प्रकृष्ट, ज्योतिः प्रकाशरूपम् / इषुपातोदाहरणं च, यथा-केनचिद् धनुर्द्धरेण लक्ष्याभिमुखे वाणे तदविसंवादिनि प्रकल्पिते यावत्तस्य वाणस्य न विमोचनं तावत्तत्प्रगुणतामात्रेण तदविसंवादित्वेन च समानोऽनालम्बनो योगो, यदा तु तस्य वाणस्य विमोचनं लक्ष्याविसंवादिपतनमात्रादेव लक्ष्यवेधकंतदाऽऽलम्बनोत्तरकालभावी तत्पातकल्पः सालम्बनः केवलज्ञानप्रकाश इत्यनयोः साधर्ममङ्गीकृत्य निदर्शनम् / / 10 / / कीदृशं पुनस्तत्केवलज्ञानमित्याहआत्मस्थं त्रैलोक्य-प्रकाशकं निष्क्रियं परानन्दम्। तीताऽऽदिपरिच्छेदक-मलं ध्रुवं चेति समयज्ञाः।।११।। (आत्मस्थमित्यादि) आत्मनि तिष्ठतीत्यात्मस्थं जीवस्थंसत् त्रैलोक्यस्य त्रिलोकीव्यवस्थितस्य ज्ञेयस्यजीवाजीवस्वरूपस्य, प्रकाशकमयबोधकमात्मनः परेषां च पदार्थानां स्वरूपज्ञापकं वा, निष्क्रिय गमनाऽऽदिक्रियारहित, पर आनन्दोऽस्मिन्निति परानन्दम। पाठान्तरं वापरैरानन्धमभिनन्दनीयतत्प्राप्त्यर्थिभः श्लाधनीय, रोचनीयमिति यावत्। तीताऽऽदिपरिच्छेदकम् अतीतशब्दस्यार्थेऽतीतशब्दो वर्तते, सिद्धविनिश्चयाऽऽदिग्रन्थेषु दर्शनात् / इताऽऽदिपरिच्छेदकं वा; इतं गतमतिक्रान्तम् अतीतवर्तमानानागताना कालत्रयविषयाणां पदार्थाना, परिच्छेदक परिच्छेत्तृ, ज्ञातृस्वभावम्, अलं समर्थ, ध्रुवं चेति शाश्वतं चेति, समयज्ञा आगमज्ञा इत्थमभिदधति। कथपुनरतीताऽऽदिपरिच्छेदकत्वं केवलज्ञानस्य यावताऽतीतानागतवोर्विचार्यमाणयोर्वस्तुत्वमेव न घटां प्राशति, विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्वादसतश्च ज्ञानविषयत्वविरोधादिति। अत्रोच्यतेन वर्तमानकालविषयकपर्यायप्रतिबद्धस्वभाव वस्तु, तस्य क्षणमात्रवृत्तित्या Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतत्त 524 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परतित्थिय त्। वस्तुनस्तु सकलातीतानागतानाद्यनन्तपर्यायराशिसमनुगतेकाऽऽ- | त्यवर्ण, न विद्यते स्पर्शाष्टप्रकारो मृदुकर्कशाऽऽदिरस्येत्यस्पर्श, न विद्यते काररूपत्वात्, तत्र च वर्तमानपर्यायवत् स्वलक्षणभाविनामतीतानाग- गुरुलघुनी यस्मिस्तत्तथाऽगुरुलघुपरिणामोपेतममूर्त्तद्रव्यत्वादगुरुलघुपरं तपर्यायाणामपि प्रमाणेनोपलब्धर्वस्तुसत्त्वादन्यथा स्मृत्यादिज्ञानविषय- तत्त्वम्। त्वमतीताऽऽदिपर्यायाणां न भवेत,दृश्यते च तस्मात्तेऽपि वस्तुसन्तः, सर्वाऽऽबाधारहितं, परमाऽऽनन्दसुखसङ्गतमसङ्गम्। तैर्विना वस्तुन एवाखण्डरूपस्यासंभवत्तास्मात्तेषां सद्रूपत्वात्तद्विषय ज्ञान निःशेषकलातीतं, सदाशिवाऽऽद्यादिपदवाच्यम्॥१६॥ परिच्छेत्तृत्वेन सम्भवतीति निरवद्यम् / / 11 / / (सर्वेत्यादि) सर्वाऽऽबाधारहितं शारीरमानसाऽऽबाधावियुक्तं, परम एवं केवलज्ञानस्वरूपमभिधाय परतत्त्वयोजनायाऽऽह आनन्दो यस्मिन् सुखे तेन सङ्गतं युक्तमनेन परपरिकल्पितनिः एतद्योगफलं तत्, परापरं दृश्यते परमनेन / सुखदुःखमोक्षव्यवच्छेदमाह / न विद्यते सङ्गो यस्मिन्नित्यसङ्गमसङ्गतत्तत्त्वं यद् दृष्टा, निवर्तते दर्शनाऽऽकाङ्क्षा / / 12 / / तायुक्तम् / तल्लक्षणं चेदम्- "भये च हर्षे च मतेरविक्रिया, सुखेऽपि (एतदित्यादि) एतत्प्रस्तुतं केवलज्ञानं, तद्योगफलपरापरंपरयोगस्या दुःखेऽपि च निर्विकारता। स्तुतौ च निन्दासु च तुल्यशीलता, वदन्ति तां परयोगस्य च फलभूतं, नान्यद् दृश्यते समुपलभ्यते साक्षात्परमनेन तत्त्वविदोऽह्यसङ्गताम्॥१॥" निःशेषा याः कलास्ताभ्योऽतीत तथाभकेवलज्ञानेन तत्तत्व परमात्मस्वरूपं यद् दृष्ट्वा यत्सिद्धस्वरूपमुपलभ्य, व्यत्वाऽऽद्यात्मस्वभावभूतांशातिक्रान्तं भव्यत्वासिद्धत्वयोगसहवर्तिनिवर्तते व्यावर्त्तते, दर्शनाऽऽकाङ्क्षा दर्शनवाञ्छा, सर्वस्य वस्तुनो क्षायिक चारित्राऽऽधभावात् / सदा शिवमस्येति सदाशिवं, न हि दृष्टत्वात् // 12 // परतत्त्वमशिवं कदाचिद्भवति / आदौ भवमाद्यं प्रधानं सन्तत्या अधुना परतत्त्वमेव स्वरूपेण कारिकाचतुष्टयेन निरूपयन्निदमाह अनादिकालमाश्रित्याऽऽदिभावेनावस्थितं वा / आदिशब्दान्नितनुकरणाऽऽदिविरहितं, तच्चाचिन्त्यगुणसमुदयं सूक्ष्मम्। रञ्जनाऽऽदिग्रहः / सदाशिवाऽऽद्यादिभिः पदैर्वाच्यमभिधेयं परं तत्त्वं त्रैलोक्यमस्तकस्थं, निवृत्तजन्माऽऽदिसंक्लेशम्।१३। सर्वत्राऽभिसंबन्धनीयम् // 16|| षो० 15 विव०॥ (तनुकरणेत्यादि) तनुः शरीरं, करणं द्विधा-अन्तःकरणं, बहिष्करणं परतत्तवावड त्रि० (परतत्त्वव्यापृत) परकृत्यचिन्तनाक्षणिकेषु, प्रश्न०२ आश्र०द्वार। च / अन्तःकरण मनो बहिष्करण पञ्चेन्द्रियाण्यादिशब्दाद् योगाध्यव परतत्ति स्त्री० (परतप्ति) परकृत्ये, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। सायस्थानपरिग्रहस्तैर्विरहितं वियुक्त, तच्च परंतत्त्वमचिन्त्यो गुणसमुदयो परतत्तिपवित्त त्रि० (परतप्तिप्रवृत्त) गृहस्थप्रयोजनेषु करणकारणानुज्ञानाऽऽदिसमुदयो यस्य तदचिन्त्यगुणसमुदयं, सूक्ष्म सूक्ष्मस्वभावम मतिभिः प्रवृत्ते, व्य० 1 उ० / आव०। दृश्यत्वात्केवलविरहेण त्रैलोक्यस्य मस्तकं सर्वोपरिवर्ती सिद्धिक्षेत्र परतारग पुं० (परतारक) परं तारयन्तीति परतारकाः। तपः कर्तुमसमर्थषु विभागः, तस्मिस्तिष्ठतीति त्रैलोक्यमस्तकस्थं, निवृत्ता जन्माऽऽदयः आचार्याऽऽदीनां वैयावृत्त्यकारकेषु, व्य०१ उ०। संक्लेशा यस्मात्तन्नि-वृत्तजन्माऽऽदि संक्लेशम्।।१३।। परतित्थिय पु० (परतीर्थिक) कपिलकणभक्षाक्षपादसुगताऽऽदिमताज्योतिःपरं परस्ता-त्तमसो यद् गीयते महामुनिभिः / वलम्विषु अन्ययूथिकेषु, नं०। सूत्र० / बृ०। (मिश्रपक्षोधर्माधर्मसमा - आदित्यवर्णममलं, ब्रह्माऽऽद्यैरक्षरं ब्रह्म / / 14 / / श्रयणेन, अनयोरन्तर्वर्ती भवतीति 'मिस्स' शब्दादवगन्तव्यम्) (परती(ज्योतिरित्यादि) ज्योतिः प्रकाशस्वभावं प्रधान परस्तात्तमसो थिकाणां सर्वा वक्तव्यता 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 445 पृष्ठादारद्रव्यभावरूपादन्धकारात् अद्गीयते यत्संशब्द्यते, महामुनिभिज्ञान भ्योक्ता) संपन्नैः, आदित्यवर्णममलं निदर्शनमात्राङ्गीकरणेन भावस्वरूपं, न पुनः एते जिया भो न सरणं, बाला पंडियमाणिणो। परमार्थतस्तस्य पुद्गलाऽऽत्मकः परिणामोऽस्ति, ब्रह्माऽऽद्यै रिति हिचा णं पुव्वसंजोगं, सिया किचोवएसगा|१|| विशेष्यपद, महामुनिभिरित्यनेनाभिसंबध्यते। न क्षरतीत्यक्षर स्वभावा (एत इति) पञ्चभूतैकाऽऽत्मतज्जीवतच्छरीराऽऽदिवादिनः कृतवादिनश्च कदाचिन्न प्रच्यवत इति कृत्वाऽक्षरं परं तत्त्वं, तथा ब्रहा महत् 'बृहत्वा गोशालकमतानुसारिणश्च त्रैराशिकाश्च जिता अभिभूता रागद्वेषाऽऽदिभिः, हूँ हकत्वाच्च, ब्रह्मेति परिकीर्तितम् / " इत्यभिधानात्। अथवाऽक्षर ब्रह्म शब्दाऽऽदिविषयैश्च, तथा प्रबलमहामोहोत्थज्ञानेन च / भो इति तत् परं तत्त्वम्॥१४|| विनेयाऽऽभन्त्रणम्। एवं त्वं गृहाण-यथैते तीथिका असम्यगुपदेशप्रवृत्तनित्यं प्रकृतिवियुक्तं, लोकालोकावलोकनाऽऽभोगम्। त्वान्न कस्यचिच्छरण भवितुमर्हन्ति, न कश्चित्त्रातु समर्था इत्यर्थः / स्तिमिततरङ्गोदधिसम-मवर्णमस्पर्शमगुरुलघु / / 15 / / किमित्येव ?-यतस्ते बाला इव बालाः / यथा शिशवः सदसद्विवेक(नित्यमित्यादि) नित्यं धुवं, प्रकृतिवियुक्तं स्वतन्त्रपरिभाषया वैकल्याद्यत्किश्चनकारिणो भाषिणश्च, तथैतेऽपि स्वयमज्ञाः सन्तः परानपि सकलज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिभूभोलरभेदप्रकृतिवियुक्तं, परतन्त्रपरिभा- मोहयन्ति / एवं-भूता अपि च सन्तः पण्डिलमानिन इति। वचित्पाठःषया सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिरित्यनया वियुक्तं, सांसारिक- "जत्थ वालोऽवसीयइ त्ति।" यत्राऽज्ञाने बालोऽज्ञो लग्नः सन्नवसीदति सर्वप्रकारैर्वा लोकालोकयोः समयप्रसिद्धयोरवलोकन आभोग उपयोगो- तत्र ते व्यवस्थिताः, यतस्ते न कस्यचित्त्राणायेति। यच तैर्विरूपमाचरित ऽस्येति लोकालोकावलोकनाऽऽभोगं स्तिमिततरङ्ग श्वासावुदधिश्च तेन तदुत्तरार्द्धन दर्शयति-हित्या त्यक्त्वा, णमिति वाक्यालङ्कारे, पूर्वसंयोगो समं निस्तरङ्ग महोदधिकल्पं, न विद्यते वर्णः पञ्चविधः सिताऽऽदिरस्ये- | धनधान्यस्वजनाऽऽदिभिः संयोगस्तं त्यक्त्वा किल वयं निःसङ्गाः Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतित्थिय 525 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परत्थका प्रव्रजिता इत्युत्थाय पुनः सिता बद्धाः परिग्रहेच्छाऽऽरम्भेष्वासक्ताः, ते स्थविर विप्रकृष्टबुद्धिरुत्पद्यते, तामपेक्ष्य परेण कालप्रदेशेन योगात्पगृहस्थास्तेषां कृत्यं करणीयं पचनपाचनकण्डनपेषणाऽऽदिको रत्वस्योत्पत्तिः / स्थविरं चावधिं कृत्वा यस्याऽऽरूढश्मश्रुनाऽदिनाऽनुभूतोपमर्दकारी व्यापारः, तस्योपदेशः तं गच्छन्तीति कृत्योपदेशगाः, मितमादित्योदयास्तमयानामल्पत्वम्-तत्र यूनि सन्निकृष्टबुद्धिरुत्पद्यते, कृत्यापदेशका वा / यदि वा- (सिया इति) आर्वत्वाद्वहुवचनेन तमपेक्ष्य परेण कालप्रदेशेनयोगादपरस्योत्पत्तिरिति। अत्र परत्वापरत्वव्याख्यायते-स्युर्भक्युः, कृत्यं कर्तव्यं सावद्यानुष्ठानं. तत्प्रधानाः कृत्या साधनमनेकान्तिक, साध्यविपक्षेऽपि हेतोवृत्तेः / तथाहि-यथा गृहस्थाः , तेषामुपदेशः संरम्भसमारम्भाऽऽरम्भरूपः स विद्यते येषां ते क्रमणोत्पादान्नीलाऽऽदिषु कालोपाधिक्रमेण च व्यवस्थानाद, दिगुपाधिश्व कृत्योपदेशिकाः प्रव्रजिता अपि सन्तः कर्तव्यैहस्थेभ्यो न भिद्यन्ते पर नीलमपरं चेति प्रत्ययोत्पत्तिरसत्यपि परत्वापरत्वलक्षणे, गुणाना गृहस्था इव तेऽपि सर्वावस्थाः पञ्चसूनाव्यापारोपेता इत्यर्थः 111|| निर्गुणत्वात् तथा एटाऽऽदिष्वपि भविष्यतीति। यद्यर्थान्तरनिमित्तत्वामात्र एवंभूतेषु च तीर्थिकेषु सत्सु भिक्षुणा परेणह साघयितुमिष्ट, तदा कथं नानैकान्तिकताहेतोः। अथ नित्यदिक्कायत्कर्तव्यं तद्दर्शयितुमाह लपदार्थहतुगुणविशेषनिबन्धनत्वं प्रकृतप्रत्ययस्य, तदा दृष्टान्ताभावोतं च मिक्खू परिन्नाय, वियं तेसु ण मुच्छए। ऽनुमानबाधा च प्रतिज्ञायाः। तथाहि-यः परापरादिप्रत्ययः स परपरिकअणुक्कसे अप्पलीणे, मज्झेण मुणि जावए / / 2 / / ल्पितगुणरहितार्थमात्रकृतक्रमोत्पादनिबन्धनः, परापरप्रत्ययत्वात् (तं च भिक्खू इत्यादि) तं पाखण्डिकलोकमसदुपदेशदानाभिरतं रूपादिषु परापरप्रत्ययवत्ता, परापरप्रत्ययश्चायं घटादिष्विति स्वभावपरिज्ञाय सम्यगवगम्ययथैते मिथ्यात्वोपहतान्तराऽऽत्मानः सद्विवेक हेतुः। नच नीलादिकेष्वेकार्थसमवायादुपचरितोऽयं परत्वाऽऽदिप्रत्यय शून्या नाऽऽत्मने हितायालं नात्यस्मा इत्येवं पर्यालोच्य, भावभिक्षुः इत्यनैकान्तिकता भवत्प्रयुक्तस्याऽपि हेतोः पारम्पर्येण / नच नीलाssसंयतो विद्वान् विदितवेद्यस्तेषु न मूर्छयेत् न गायं विदध्यात्, न तैः सह दिष्वपि परत्वाऽऽदेनिमित्ताभावोपगमात् साध्यविकलता दृष्टान्तस्येति संपर्कमपि कुर्यादित्यर्थः / किं पुनः कर्तव्यमिति पश्चार्द्धन दर्शयति वक्तव्यम्, अस्खलवृत्तित्वेनास्योपचरितत्वाभावात्, स्वाश्रयेऽपि च अनुत्कर्षवानित्यष्टमदस्थानानामन्यतमेनाऽप्युत्सेकमकुर्वन् / तथा तयोरुपलब्ध्यभावात् न तद्वलेन प्रत्ययो युक्त इति कुतो रूपाऽऽदिषु तन्निबन्धनतो भविष्यति, सुखाऽऽदिषु वा पूर्वोत्तरकालभाविषु तन्निबन्धअप्रलीनोऽसंबद्धस्तीर्थिकषु गृहस्थेषु पार्श्वस्थाऽऽदिषु वा संश्लेषमकुर्वन् नोऽयं भवेत्, तत्रैकार्थसमवायाऽऽदि स्तन्निबन्धनस्याभावात्। किं च - मध्येन रागद्वेषयोरन्तरालेन संचरन मुनिर्जगत्त्रयवेदी, यापयेदात्मानं दिक्कालयोः पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वात् तद्धेतुकयोः परत्वापरत्वयोरभाव इति वर्तयेत्। इदमुक्तं भवति-तीर्थिकाऽऽदिभिः सह सत्यपि कथञ्चित्संबन्धे कुतस्तस्मिन्नित्तत्वाऽऽशङ्का, यतो हेतोरनैकान्तिकता स्यात् / न च त्यक्ताहङ्कारेण तथाभावतस्तेष्वप्रलीयमानेनारक्तद्विष्टन तेषु निन्दामा परमार्थतो दिकालयोः प्रदेशाः सन्ति, यतस्तत्सयोगादपेक्षाबुद्धिसहितात्मनश्च प्रशंसा परिहरता मुनिनाऽऽत्मा यापयितव्य इति / / 2 / / सूत्र०१ दुत्पत्तिस्तयोर्भवेत,दिक्षालयोरेकाऽऽत्मकत्वेन निरवयवत्वात्। न चाश्रु०१ अ०४ उ०। (अन्यतीर्थिकाः सारम्भाः, तस्मात्त्राणाय नस्युरिति ऽर्थक्रियानिबन्ध उपचरितोऽवयवभेदो युक्तः, यथोक्तार्थक्रियावस्तुस्व'आरम्भ' शब्दे द्वितीयभागे 370 पृष्ठ गतम्) भावप्रतिबद्धत्वादुपचारस्य चापारमार्थिकत्वात्, तत्कुतोऽनैकान्तिकता परत्त न०(परत्व) इदमस्मात्परमिति प्रत्ययहेतौ नैयायिकसंमतमुपभेदे, प्रकृतहेतोः / सम्म०३ काण्ड। सम्म० / इदं परम, इदमपरमिति यतोऽभिधान प्रत्ययौ भवतस्वद् परतीर न०(परतीर) परे, पाइ०ना० 226 गाथा। यथाक्रमं परत्वमपरत्वं च सिद्धम् / प्रयोगश्चात्र योऽयं परमपरमिति च परत्थ अव्य०(परत्र) जन्मान्तरे इत्यर्थे , स्था० 4 ठा०३ उ०1 विशे01 प्रत्ययः सघटाऽऽदिव्यतिरिक्तार्थान्तरनिबन्धन तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् उत्त०। सूत्र०। सुखाऽऽदिप्रत्ययवत् / तथा हि-पकस्यां दिशि स्थितयोः पिण्डयोः परार्थ पुं० परो मोक्षस्तदर्शः। आ०० 1 अ० / मोक्षार्थे, विशे० / परम्परमिति च प्रत्ययोत्पत्तेर्न तावदयं युक्तयोः परमपरमिति च प्रत्ययो परत्थकरण न०(परार्थकरण) परस्यार्थ उपकारस्तत्करणम् / परोपदेश निबन्धनो, नाप्ययं कालनिबन्धनः, तदविशेषेऽपि प्रत्ययविशेषात् / कारकरणे, षो०॥ न चान्यदस्य निबन्धनमभिधातुं शक्यं, तस्माद्यन्निबन्धनोऽयं प्रत्यय परार्थकरणमाहस्तत्परत्वमपरत्वं चाभ्युपगन्तव्यम्। एतच द्वितयप्रपिदिगकृतं, कालकृतं विहितानुष्ठानपरस्य तत्त्वतो योगशुद्धिसचिवस्य। च। दिगकृतस्य तावदियमुत्पत्तिः-एकस्यां दिश्यवस्थितयोः पिण्डयोरे- भिक्षाऽटनाऽऽदि सर्वं, परार्थकरणं, यतेयिम् / / 5 / / / कस्य द्रष्टुः संनिकृष्टमवधिं कृत्वैतस्माद्विप्रकृष्टोऽयमिति परत्वाऽऽधारे (विहितेत्यादि) विहितानुष्ठानपरस्य शास्त्रविहिताऽऽसेवनपरस्य, बुद्धिरुत्पद्यते, ततस्तामपेक्ष्य परेण दिक्प्रेदेशन योगात्परत्वमुत्पद्यते, तत्त्वतः परमार्थेन, योगशुद्धिसचिवस्य मनोवाक्कायविशुद्धिसहिविप्रकृष्ट चावधिं कृत्वैतस्मात्सन्निकृष्टोऽयमित्य परान्वाऽऽधारे बुद्धिरु- तस्य,भिक्षाऽटनाऽऽदि भिक्षाऽटनवस्त्रपात्रैषणाऽऽदि, सर्वमनुष्ठाने, त्पद्यते, तामपेक्ष्यापरेण दिक्प्रदेशेन योगादपरत्वस्योत्पत्तिः। कालकृत- परार्थकरणं परोपकारकरण, यतेः साधोज्ञेयं ज्ञातव्यम् भवत्याहारवस्त्रयोस्त्वयमुत्पत्तिक्रमः / तथाहि-वर्तमानकालयो रनियतदिग्देश- पात्राऽऽदि यतिना गृह्यमाणस्य दातृणां पुण्यबन्धनिमित्तत्वात्तस्य च संयुक्तयोर्युवस्थविरयोर्मध्ये यस्य वलीपलितरूढश्मश्रुनाऽऽदिनाऽ- साधुहेतुकत्वादिति / / 5 / / षो०१३ विव० / धo नुमितमादित्यादेयानां भूयस्त्वं / तत्रैकस्य द्रष्टुर्युचा, तभवधिं कृत्वा | परत्थका स्त्री०(परार्थता) परप्रत्यायकत्वे, विशे०। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परत्थकाभोवभोगि (ण) 526 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परदारगमण परत्थकामोवभोगि(ण) त्रि० (परत्रकामोपभोगिन्) विरक्त्याऽस्वार्थ कामभोगेषु प्रवृत्तिमति, ध००। सम्प्रति परार्थकामोपभोगीति षोडशं भेदमभिधित्सुराहसंसारविरत्तमणो, भोगुवभोगो न तित्तिहेउ त्ति। नाउं पराणुरोहा, पवत्तए कामभोगेसु // 75|| संसारोऽनेकदुःखाऽऽश्रयोऽयम् यतः"दुःख स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनु स्त्रीपयःपानमिश्रम्। तारुण्यं चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्याः वदत यदि सुखं स्पल्पप्यस्ति किञ्चित् // 1 // इति / तस्माद्विरक्तमनाः / अभी भोगाः- “सइ भुज्जइ त्ति भोगो, सो पुण आहारपुप्फमाईओ। उवभोगोय पुणो पुण, उवभुजइ भवणविलयाइ // 1 // " इत्येवमागमप्रतीतास्ते न तृप्तिहेतवो भवन्ति प्राणिनामिति ज्ञात्वाऽवधार्य परानुरोधादन्यजनदाक्षिण्याऽऽदिना प्रवर्तते कामेषु शब्दरूपेषु भोगेषु गन्धरसस्पर्शेषु भावभावकः, पृथिवीचन्द्रनरेन्द्रवत्। ध० 202 अधि० 6 लक्ष। (तत्कथा 'पुहवीचंद' शब्दे वक्ष्यते) परत्थकारि (ण) त्रि०(परार्थकारिन्) परोपकारकरणैकशीले, षो०१३ विव०। परत्थणियय त्रि० (परार्थनियत) परोपकारनियतवृत्ती, षो०१४ विव०। परदत्तभोइ(ण) पुं० (परदत्तभोजिन्) परैगृहस्थैरात्मार्थ निर्वर्तितमाहारजातं तैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्य परदत्तभोजी। सूत्र० 1 श्रु०१६ अ० / स्वतः पचनपाचनाऽऽदिक्रियारहितत्वात् गृहस्थैः स्वार्थ निष्पाद्य दत्तस्याऽऽहारस्य भोजिनि, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। आचा०। परदव्व न० (परद्रव्य) परकीयद्रव्ये, प्रश्र०१आश्र० द्वार। सूत्र०। परदव्वहर पुं० (परद्रव्यहर) परस्वामिकद्रव्यहारके चौरे, प्रश्र० 3 आश्र० द्वार। परदार पुं०(परदार) "परदारस्स य।" (15 गाथा) परे आत्मव्यतिरिक्ताः पुरुषास्तथा मनुष्यजात्यपेक्षया देवास्तिर्यशश्च, तेषां दाराः परिणीतसंगृहीतभेदानि कलत्राणि देव्यः तिरश्च्यश्चेति परदाराः / परकलत्रेषु, यद्यपि अपरिगृहीतदेव्यस्तिरश्च्यश्च काश्चित्सङ् ग्रहीतुः परिणेतुश्वाभाव द् वेश्याकल्पा भवन्ति, तथाऽपि प्रायः परजातीयभोग्यत्वात्परदारा एव ताः। पञ्चा० 1 विव०। आतु०। परदारगमण न०(परदारगमन) आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परः, तस्य | दाराः कलत्रम् परदारास्तत्र गमनम्। परकलाऽऽसेवायाम्. आव०। परदारगमणं समणोवासओ पच्चक्खाइ, सदारसंतोसं वा | पडिवज्जइ / से अ परदारगमणे दुविहे पन्नत्ते / तंजहाओरालिअपर-दारगमणे, वेउव्विअपरदारगमणे अ। आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परः, तस्य दारा:-कलत्रं परदाराः, तत्र | गमन परदारगमन, गमनमासेवनारूपतया द्रष्टव्यम्। स श्रमणोपासकः / प्रत्याख्यातीति पूर्ववत् / स्वकीया दाराः स्वकलत्रमित्यर्थः / तेषु वा संतोषः स्वदारसतोषस्तं वा प्रतिपद्यते / इयमत्र भावनापरदारगमनप्रत्याख्याता यास्वेव परदारशब्दः प्रवर्तते ताभ्य एव निवर्तते, स्वदारसन्तुष्टस्त्वेकानेकस्वदारव्यतिरिक्ताभ्यः सर्वाभ्य एवेति / 'से' शब्द पूर्ववत्, तच परदारगमनं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथेति पूर्ववत्, औदारिकपरदारगमनं स्त्र्यादिगमनं, वैक्रियपरदारगमनं देवाङ्गनागमनम्। "तत्थ चउत्थे अणुव्वए सामनेण अनियत्तस्स दोसा मातरमवि गच्छेजा। उदाहरणं-गिरिणगरे तिन्नि वयंसियाओ, ताओ उज्जेतं गयाओ, चोरेहिं गहिताओ, नेतुं पारसकूले विक्कियाओ, ताण पुत्ता डहरगा घरेसु उज्झियगा, ते वि मित्ता जाया, माउसिणेहेण वाणिजेणं गया पारसकूलं, ताओ य गणियाओ सहदेसियाओ त्ति भाडि देति, ते वि संपत्तीए सयाहिं गया, एगो सावगो ताहि अप्पप्पणियाहिं मातमा-सियाहिं समं बुच्छा। सड्डो नेच्छति, महिला अणिच्छंतं नाउंतुण्हिक्का अत्थइ। सड्ढो भणइकओ तुम्भे आणीया ?ताए सिटुं / तेण भणिय-अम्हे चेव ते तुब्भ पुत्ता, इयरेसिं सिटुं, मोइया पव्वइया। एते अणिवित्ताणं दोसा। विइयं धूयाए वि समं वसेजा। जहा गुठिवणीए भजाए संदिसावनं पेसिओ, जहा ते धूया जाया, सो जाव ववहरइ ताव जोव्वर्ण पत्ता, अन्ननगरे दिन्ना, सो न याणइ जहा दिन्न त्ति, सो पडिएलो तम्मि नगरे मा भंडं विणिस्सिहिति त्ति वरिसारत्त ठिओ। तस्स तीए धूयाए समं घडियं, तह विन याणइ, वत्ते वासारत्ते गतो सनगर, धूयागमणं दठूण विलियाणि य / ताए अप्पा मारिओ। इयरो वि पव्वइओ। ततिय गोट्ठीए समं चेडो अत्थइ, तस्स माता हिंडई। सुण्हा से नियगपइणा साहइ-पती, से न पत्तियइ / सा तस्स माता देवकुले ठिएहिं धुत्तेहिं गच्छंती दिट्ठा, तेहिं परिभुत्ता, माया पुत्ताणं पोत्ताणि परियत्तियाणि ।तीए भन्नइ महिलाए-कस्स एवं उवरिल्ल पोत्तं गहियं? हा पाव ! किं ते कयं ? सो नट्ठो पव्वइओ / चउत्थंजमलाणि गणियाए उज्झियाणि, पत्तेयं मित्तेहिं गहियाणि वडंति, तेसिं पुवसंथुइओ संजोगो कओ। अन्नया सोदारगो ताए गणियाए पुव्धमायाए सह लग्गो, सागणिया धम्म सोउं पव्वइया, ओहिनाणं समुप्पन्न, गणिया घरं गया, तेण गणियाए पुत्तो जाओ, अजा गहाय परिवंदइ कहं पुत्तो-ऽसि मे भतिजोऽसि मे दारगदेवरो सि मे भायरो सिमे, जो तुब्भ पिया सो मज्झ पिया, पतीय ससुरोय भाआय मे, जातुज्झ माया सा मे माया भाउज्जाइया सा वत्तिणी सासू य / एवं नाऊण दोसे वज्जेयव्वं / एए इह लोगे दोसा। परलोगे पुण नपुंसगत्तविरूवत्तपियविप्पओगाऽऽदिया दोसा हवंति, नियत्तस्स इहलोए परलोए य गुणा, इहलोए कच्छे कुलपुत्तगाणि सड्ढाणि, आनंदपुरे एगो य धिजाइओ दरिद्दो,सो सूलेसरे उववासेण वरं मग्गइ। को वरो ? चाउव्वेन, भत्तरस मोल्लं देहि, जा पुन्नं करेमि / तेण बाण-मंतरेण भणित-कच्छे सावगाणि कुलपुताणि भजप्पझ्याणि, एताण भत्तं करेहि, ते से महप्फलं होहिइ, दोन्नि वारे भणिओ, गओ कच्छ, दिन्नं दाणं सावयाण भत्तं दक्षिण च, भणइ-साहह किं तुभंतवचरणं, जेण तुब्भे देवस्स पुजाणि? Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परदारगमण 527 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परदारगमण तेहि भणियं-अम्हे बालभावे एगतरं मेहुणं पचक्खायं, अन्नया अम्हाण कह वि संजोगो जाओ, तं च विवरीय समावडियं, यदिवसं एगस्स बंभचेरपोसहो तदिवसं वीयस्स पारणगं, एवं अम्हे जरं गयाणि चेव कुमारगाणि चेव / धिजाइओ संबुद्धो / एए इहलोए गुणा, परलोए पहाणपुरिसत्तं, देवत्ते पहाणाओ अच्छराओ, मणुयत्ते पहाणाओं माणुसीओ, विउला य पंचलक्खणा भोगा य पियसंपओगा य, आसण्णसिद्धिगमणं चेति।" इदं चातिचाररहितमनुपालनीयम् / / 3 / / तथा चाऽऽहसदारसंतोसस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्या, ण समायरियव्वा / तं जहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे 1, अपरिग्गहियागमणं 2, अणंगकीडा 3, परवीवाहकरणे 4, कामभोगतिव्वाभिलासे 5 ||4|| स्वदारसंतोषस्य श्रमणोपासकेनामी पश्चातिचारा ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः / तद्यथा-इत्वरपरिगृहीतागमनं 1, अपरिगृहितागमनं २,अनङ्गक्रीडा 3, परविवाहकरणम् 4, कामभोगतीव्राभिलाषः। आव० 6 अ० / पञ्चा० 4 विव० / आ०चू० / ध०। (अपरिगृहीतागमनम् 'अपरिग्गहियागमण' शब्दे प्रथमभागे 600 पृष्टे गतम्) इत्वरपरिगृहीतागमनम् ‘इत्तरपरिग्गहियागमण' शब्दे द्वितीयभागे 584 पृष्ठे व्याख्यातम्) अनङ्ग क्रीडावर्जनम् 'अणंगकिड्डा' शब्दे प्रथमभागे 256 पृष्ठे दर्शितम्। (परविवाहकरणस्वरूप, तद्वर्जन च 'परविवाहकरण' शब्दादवगन्तव्यम्) (''कामभोगतिव्वाभिलास'' शब्दे तृतीयभागे 443 पृष्ठे तत्पदव्याख्यानं गतम्) मैथुनदोषमुक्त्वाऽऽहतारिसो विणिवित्तंसो, परदारस्स जइ करे। सावगधम्मं च पालेइ, गई पावेइ मज्झिमं / / भयवं ! सदारसंतोसे, जइ भवे मज्झिमं गई। ता सरीरे वि होमंतो, कीस सुद्धिं ण पावइ ? / / सदारं परदारं वा, इत्थी पुरिसो व गोयमा ! रमंतो बंधए पावं,णो णं भवइ अबंधगे। सावगधम्म जहुत्तं जो, पाले परदारगं चए। जावजीवं तिविहेणं, तमणुभावेण सा गई। णवरं नियमविहूणस्स, परदारगमणम्स उ। अणियत्तस्स भवे बंध, णिवित्तीए महाफलं / / घेत्ता णं पि निवित्तिं, जो मणसा वि विराहए। सो मओ दुग्गइं गच्छे, मेघमाला जहऽनिया / / मेघमालऽजिया नाहं, जाणिमो भुवणबंधव! मणसा वि अणुनिवित्तिं जा, खंडितुं दुग्गइं गया / / वासुपुज्जस्स तित्थम्मि, भोलाकालगच्छे वि। मेघमालऽजिया आसी, गोयमा! मणदुब्बला। सा नियमा सपक्खं, दातुं तिक्खा य निग्गया। अन्नओ णत्थि नीसारं, मंदिरोवरि संठिया !! आसन्नमंदिरं अन्नं, लंघित्ता गंतुमिच्छुगा। मणसा पि तहेव जा-ता व पज्जलिया दुवे / / नियमभंगतियं सुहम, तीए तत्थ ण निंदियं / तन्नियमभंगदोसेणं, दुब्भेत्ता पढमियं गया / / एयं नायं सुहुमं पि, नियमं मा विराहिह / जं छिज्जा अक्खयं सोक्खं, अणंतं च अणोवमं / / तवसंजमे वएसुच, नियमा दंडमागया। तमेव खंडमाणस्स, ण वए णोवसंजमे / / आजम्मेणं तु जं पावं, बंधिज्जा मिच्छबंधगा। वयभंग काउमाणस्स, तं चेवऽट्ठगुणं मुणे। सयसहस्सं सलद्धीए, जोवसामित्तु निक्खमे। वयतियमखंडतो, जं सो तं पुन्नमज्जिणे॥ पवित्तीय नियत्ती य, गारत्थीसंजमे तवे। जमणुट्ठिया तयं लाभ, जाव दिक्खा ण गिण्हिया। ताव साहुणिवग्गेणं, विनायव्वमिह गोयमा ! जेसिं मोत्तूण ऊसासं, नीसासं नाणुजाणियं / / तमवि जयणाए ण सव्वहाअजयणाए ऊससंतस्स, कओ धम्मो को तवो / / भयवं ! जावइयं दिलु, तावइयं कह णु पालिया। जे भवे अविइयपरमत्थे, किच्चाकिच्चमयाणगे / / एगंतेणं हियं वयणं, गोयम ! दिस्संति केवली। णो बलबोंडीइ कारेंति, हत्थे घेत्तूण जंतुणो। तित्थयरभासिए वयणे, जे तह त्ति अणुवालिया। सेंदा देवगणा तस्स, पाएहि य णमंति हरिसिया॥ जे अविइयपरमत्थे, कियाकिच्चमजाणगे। अंधो अंधीए तेसि समं, जलथलंगद्ददिकुरं (?) || गीयत्थो य विहारो, वीओ गीयत्थमीसओ। समणुन्नाओ सुसाहूणं, नत्थि तइयं ठियप्पणं / / गीयत्थे जे सुसंविग्गे, अणालसी दढव्वए। अखलियचारित्ते सययं, रागदोसविवजिए। निद्वविय अट्ठमयट्ठाणे, समयकसाए जिइंदिए। विहरिजा तेसि सद्धिं तु, ते दउमत्थे वि केवली।। सुहमस्स पुढविजीवस्स, जत्थेगस्स किलामणा। अप्पारंभं तयं बिंति, गोयमा ! सव्वकेवली / / सुहमस्स पुढविजीवस्स, वावत्ती जत्थ संभवे। महारंभं तयं बिंति, गोयमा ! सव्वके वली॥ पुढविकाइयं एक्वं, दरमले तस्स गोयमा ! आसाय कम्मबंधे, दुहुव्विमोक्खे समुल्लिए। एव च आउ तेऊ, वाऊ तह वणस्सई। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परदारगमण 528 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परपरिवायझाण 120 तसकायं मेहुणे तह य, विक्कणं चिणइ पावगं / / जनास्तेषां धनं वित्तं परधनम्, तस्य परि समन्ताद् वर्जन परिहरणं तम्हा मेहुणसंकप्पं, पुढवादीण विराहणं। परधनपरिवर्जनम् / परादत्ताऽऽदानविरतो, दर्श०२ तत्व / जावजीवं दुरंतफलं, तिविहं तिविहेण वज्जिए / / परपइट्ठिअत्रि० (परप्रतिष्ठित) क्रोधभेदे, स्था० 2 ठा०२ उ०। ('कोह' ता जे अविदियपरमत्थे,गोयमा ! णो णं मुणे। शब्दे तृतीयभागे 683 पृष्ठे व्याख्या) तम्हा ते विवज्जेज्जा, दोग्गईपंथदायगे / / महा० ६अ। परपओग पु० (परप्रयोग) स्वव्यतिरिक्तजनव्यापारे, प्रश्न०१ आश्र० (गीतार्थवचनमेव कर्तव्यं नान्यत्किमपीति गीयत्थ' शब्दे तृतीयभागे द्वार। 602 पृष्ठे गतम्) परपओगोदीरणा स्त्री० (परप्रयोगोदीरणा) स्वव्यतिरिक्तजनपरदारवेरमण न०(परदारविरमण) परदारगमनविरतौ, चतुर्थेऽणुव्रत, ध० व्यापारदुःखोत्पादनायाम्, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। 2 अधि०। परपंडिय पु० (परपण्डित) परः प्रकृष्टः पण्डितः परपण्डितः। बहुशास्त्रज्ञे, परदूसण न० (परदूषण) परस्यानपराधिनोऽप्यात्मकृतदोषचटापने, परो वा मित्राऽऽदिः पण्डितो यस्य स तथा। पण्डितमित्रे, स निपुण - आतु०। संसर्गानिपुणो भवति वैद्यकृष्णकवदिति नैपुणिकत्वं तस्य / स्था० परदूसणज्झाण न० (परदूषणध्यान) परस्यानपराधिनोऽप्यात्मकृत ६ठा०। दोषचटापनं परदूषणम् / अङ्गऋषि प्रति ज्योतिर्यशा अनेन हता इति | परपक्ख पुं० (परपक्ष) वैधर्मिकलोके, ध०२ अधि०। मिथ्यादृष्टी, नि०चू० स्वदोष चटापयतो रुद्रकस्येव दुर्व्याने, आतु०। 1 उ०। चरकपरिव्राजकाऽऽदिषु, बृ०१ उ०२ प्रक०। परदेसियत्त- न० (परदेशिकत्व) परेषां मार्गोपदेशकत्वे, बृ०। परपक्खिय-पुं० (परपाक्षिक) वैधर्मिकपक्षसमाश्रिते, ही० / महोअथ परदेशकत्वद्वारमाह पाध्यायश्रीविमलर्षिगणिकृतप्रश्नः परपाक्षिकसंपादितस्तोत्राऽऽदिक आयपरसमुत्तारो, आणा वच्छल्ल दीवणा भत्ती। मातङ्गतुरुष्कसंपादितरसवतीवदनादेयमेव कश्चिद्विशेषो वा? इति प्रश्रे, होंति परदेसियत्ते,अव्वोच्छित्तीय तित्थस्स॥३७१।। उत्तरम्परपाक्षिकसंपादितस्तोत्राऽऽदीनां मातङ्गतुरुष्काऽऽदिसंपादितपठितः सन परेषा देशकत्वं मार्गदेशकत्वं करोति, तस्मिन् आत्मनः रसवत्युपमानं सतां वक्तुमेवानुचितमिति किं प्रतिवचनेन / / 13 / / ही०१ परस्य च समुत्तारो भवति / तथाहि-स साधुरनधीतसाधूनध्यापय- प्रका०। नात्मनो ज्ञानाऽऽवरणीयं कर्मोपहन्ति. ते च साधवो ज्ञातोपदेशेना | परपच्चयकारण न० (परप्रत्ययकारण) परेषां प्रत्ययोत्पादने, व्य०४ उ०। चिरादेवापारसंसारमहोदधेरुत्तरन्ति / एवं च कुर्वता तीर्थकृतामाज्ञा, परपज्जव पुं० (परपर्याय) वर्तमानपर्यायव्यतिरिक्तभूतभविष्यपअथात्मनः साधूनां च वात्सल्य, तथा दीपना प्रभावना, भक्तिश्च परमेश्व- / येषु, सम्म०३ काण्ड। रप्रवचनस्य, एतानि कृतानि भवन्ति, तीर्थस्य चाव्यवच्छित्तिरासूत्रिता | परपत्त न० (परपात्र) परपतद्ग्रहे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। भवति, एते गुणाः परदेशकृते भवन्तीति। गत परदेशिकत्वद्वारम् / वृ०१ ) परपत्तिय त्रि० (परप्रत्यय) परहेतुके, ध०२ अधि० / उ०२ प्रक०। (परदेशिकत्वद्वारे वर्णिताः-आत्मसमुत्तारः, परसमुत्तारः, परपरिग्गहिय त्रि० (परपरिगृहीत) अन्यवंशीयैरधिष्ठितेषु, ब०१ उ०१ तीर्थकृतामाज्ञा, तस्याऽऽज्ञाया भेदाः 'आणा' शब्दे द्वितीयभागे 115 प्रक०। पृष्ठादारभ्य विस्तरतो दर्शिताः)। (तथा वात्सल्यस्वरूपं वच्छल' शब्द परपरिभवकारण न० (परपरिभवकारण) अपमाननाहेतो. प्रश्न० 2 वक्ष्यते) तथा-दीपना प्रभावना (सा च पभावणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे संब० द्वार। 438 पृष्ठे गता) तथा-(भक्तिः ‘भत्ति' शब्दादवगन्तव्या) (तथा- परपरिवाइय त्रि० (परपरिवादिक) परेषा परिवादोऽस्ति येषां ते परपरि अव्यवच्छित्तिश्च 'अव्वोच्छित्ति' शब्दे प्रथमभागे 818 पृष्ठे गता) वादिकाः। परदोषविकत्थकेषु, औ०। परदोस पु० (परदोष) परस्य दूषणे, प्रश्न०३ संब० द्वार। परपरिवाय पुं० (परपरिवाद) काक्वा परदोषाऽऽपादने, सूत्र०१ श्रु०१६ परद्वेष पुं० पराऽप्रीती, प्रश्र०३ संव० द्वारा। अ० विकत्थने, 'एगे परिपरिवाए।' स्था० 1 ठा० / प्रश्न० / प्रव० / परदोसपगासय त्रि० (परदोषप्रकाशक) अन्यदोषप्रकटकारके, तं०। परदोषपरिकीर्तने, स्था०४ ठा०४ उ० विप्रकीर्णपरकीयगुणदोषप्रकटने, परदोसवत्तिय न० (परदोषप्रत्ययिक) परदोषान् दृष्ट्वाऽऽत्मसमुत्कर्षनि- कल्प०१ अधि० 6 क्षण। दशा०ा परेषामपवदने, भ० 12105 उ०। बन्धने मानप्रत्ययिकाऽपरनामके नवमे क्रियास्थाने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। परेषां सद्गुणनाशने, पं० चू०।। * परद्ध त्रि०पीडिते, पाइ० ना० 160 गाथा। पतिते, भीरौ च / देवना० परपरिपात पुं० परेषा गुणेभ्यः परिपातने, भ० 12 श०५ उ० / मानक६ वर्ग 70 गाथा। षायभेदे, स०५२ सम०। परधण न० (परधन) परद्रय्ये, प्रश्न० 3 आन० द्वार।''परधणम्मि गेही' | परपरिवायझाण न० (परपरिवादध्यान) परं प्रत्यसद्भूतदोषा परधने गृद्धिः / सप्तमं गौणादत्ताऽऽदानम्। प्रश्न०३ आश्र० द्वार। ऽऽविष्करणं परपरिवादः, तस्य ध्यान, सुभद्रां प्रतितच्छुभूननादृणामिव परधणपरिवञ्जण न० (परधनपरिवर्जन) परे आत्मव्यतिरिक्त- | परदोषध्याने, आतु। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परपरिवायप्पिय 526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परपासंडपसंसा परपरिवायप्पिय त्रि० (परपरिवादप्रिय) इष्टान्यदूषणाभिधाने, प्रश्न०२ आश्रद्वार। परपासंड पुं० (परपाखण्ड) सर्वज्ञप्रणीतपाखण्डव्यतिरिक्त, आव० ६अ०। परपाखण्डानां -सर्वज्ञप्रणीतपाखण्डव्यतिरिक्तानाम् (आव०) ओघतरचीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि भवन्ति / यत उक्तम्'असिइसय किरियाण, अकिरियवाईण होइ चुलसीति। अण्णाणिएँ सत्तट्ठी, वेणइयाणं च वत्तीसं / / 1 / / " इयमपि गाथा विनेयजनानुग्रहार्थ ग्रन्थान्तरप्रतिबद्धाऽपि लेशतो व्याख्यायते -(असिइसयं किरियाणं ति) अशीत्युत्तरं शतं क्रियावादिना, तत्र न कर्तारं विना क्रिया सम्भवति, तामात्मसमवायिनीं वदन्ति ये तच्छीलाश्वते क्रियावादिनः। ते पुनरात्माऽऽद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अनेनोपायेनाशीत्यधिकशतसङ्ख्या विज्ञयाः-जीवाजीवाऽऽश्रवबन्धसंवरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षाऽऽख्यान् नव पदार्थान् विरच्य परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ, तयोरधो नित्यानित्यभेदौ, तयोरप्यधः कालेश्वराऽऽत्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः / पुनश्चेत्थं विकल्पाः कर्त्तव्याः-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः। विकल्पार्थश्वायम्-विद्यते खल्वयमात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्व कालतः कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरवादिनः, तृतीयो विकल्प आत्मवादिनः ''पुरुष एवेदं सर्वम्' इत्यादि, नियतिवादिनश्चतुर्थो विकल्पः, पञ्चमविकल्पः स्वभाववादिनः, एवं स्वत इत्यत्यजता लब्धाः पञ्च विकल्पाः ।परत इत्यनेनाऽपि पञ्चैव लभ्यन्ते / नित्यत्वाऽपरित्यागेन चैते दश विकल्पाः। एवमनित्यत्वेनाऽपि दशैव, एकत्र विंशतिर्जीवपदार्थेन लब्धाः, अजीवाऽऽदिष्वप्यष्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनामिति / (अकिरियाणं च भवति चुलसीति त्ति) अक्रियावादिनां च भवति चतुरशीतिर्भेदा इति / न हि कस्यचिदवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया समस्ति, तद्भाव एवावस्थितेरभावादित्येवं वादिनोऽक्रियावादिनः। तथा चाऽऽहुरेके- "क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, अस्थिताना कुतः क्रिया ? भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते // 1 // " इत्यादि। एते चाऽऽत्माऽऽदिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन चतुरशीतिर्द्रष्टव्याः, एतेषां हि, पुण्यापुण्यवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपरविकल्पभेदद्वयोपन्यासः, असत्त्वादात्मनो नित्यानित्यभेदी न स्तः, कालाऽऽदीनांतु पश्चानां षष्ठी यदृच्छान्यस्यते, पश्चाद्विकल्पभेदाभिलापः, नास्ति जीवः स्वतः कालत इत्येको विकल्पः / एवमीश्वराऽऽदिभिरति यदृच्छावसानैः सर्वे च षड् विकल्पाः, तथा नास्ति जीवः परतः कालत इति षडेव विकल्पाः, एकत्र द्वादश। एवमजीवाऽऽदिष्वपि षट्सु प्रतिपदं द्वादश विकल्पाः, एकत्र सप्त द्वादशगुणाश्चतुरशीतिर्विकल्पा नास्तिकानामिति / (अण्णाणिऍसत्तट्टि त्ति) अज्ञानिकानां सप्तषष्टिर्भ दा इति / तत्र कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं, तदेषामस्तीति अज्ञानिकाः। नन्वेवं लघुत्वात् प्रक्रमस्य प्राक् बहुव्रीहिणा भवितव्यं, ततश्चाज्ञाना इति स्यात् / नैष दोषः, ज्ञानान्तरमेवाज्ञान, मिथ्यादर्शनसहचारित्वात्. ततश्च जातिशब्दत्वात् गौरखरवदरण्यमित्यादिवदज्ञानिकत्वमिति। अथवा-अज्ञानेन चरन्ति तत्प्रयोजना वा अज्ञानिकाः-असंचिन्त्य कृतवैफल्याऽऽदिप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन सप्तषष्टितिव्याः। तत्रजीवाऽऽदिनवपदार्थान् पूर्ववत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादय उपन्यसनीयाः, सत्त्वमसत्त्वं, सदसत्त्वम्, अवाच्यत्वं, सदवाच्यत्वम्, असदवाच्यत्वंसदसदवाच्यत्वमिति चैकैकस्य जीवाऽऽदेः सप्त सप्त विकल्पाः, एतेनव सप्तकाः त्रिषष्टिः, उत्प-त्तेस्तु चत्वार एवाऽऽद्या विकल्पाः / तद्यथा सत्त्वमसत्त्वं, सदसत्वम, अवाच्यत्वं चेति त्रिषष्टिमध्ये क्षिप्ताः सप्तषष्टिर्भवन्ति, को जानाति जीवः सन्नित्येको विकल्पः, ज्ञातेन वा किम् ? एवमसदादयोऽपि वाच्याः / उत्पत्तिरपि किं सतोऽसतः, सदसतोऽवाच्यस्येति को जानातिति ? एतन्न कश्चिदपीत्यभिप्रायः। (वेण-इयाणं च बत्तीस त्ति) वैनयिकानां च द्वात्रिंशद् भेदाः, विनयेन चरन्ति विनयो वा प्रयोजनमेषामिति वैनयिकाः, एते चानवधृतलिङ्गाचारशास्त्रा विनयप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन द्वात्रिंशदवगन्तव्याः-सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधाममातृपितृणां प्रत्येक कायेन वचसा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इत्येते चत्वारो भेदाः सुराऽऽदिष्वष्टसु स्थानकेषु, एकत्र मिलिता द्वात्रिंशदिति, सर्वसङ्ख्या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि / न चैतत् स्वमनीषिकाव्याख्यानम्। यस्मादन्यैरप्युक्तम् "आस्तिकमतमात्माऽऽद्याः, नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः / कालनियतिस्वभावे-श्वराऽऽत्मकृतकाः स्वपरसंस्थाः।।१।। कालयदृच्छानियती-श्वरस्वभावात्मऽऽनश्चतुरशीतिः। नास्तिकवादिगणमतं, न सन्ति भावाः स्वपरसंस्थाः / / 2 / / अज्ञानिकवादिमतं, नव जीवाऽऽदीन् सदादिसप्तविधान्। भावोत्पत्तिं सदसद्-द्वैतावाच्या च को वेत्ति? ||3|| वैनयिकमत विनयश्चेतोवाक्कायदानतः कार्यः। सुरनृपतियतिज्ञाति-स्थविराधममातृपितृषु सदा / / 4||" इत्यलं प्रसङ्गेन। आव०६ अ०। परपासंडपडिमा स्त्री० (परपाखण्डप्रतिमा) परपाखण्डलिङ्गे, व्य०१ उ०। (परपाखण्डप्रतिमाकरणम् ‘उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 1005 पृष्ठे गतम्) परपासंडपसंसा स्त्री०(परपाखण्डप्रशंसा) परपाखण्डानां सर्वज्ञप्रणीतपाखण्डव्यतिरिक्तानां प्रशंसा, प्रशंसनं प्रशंसा, स्तुतिरित्यर्थः / आव०६ अ० / परदर्शनिनां गुणोत्कीर्तने, उत्त० 2 अ०। परपासंडपसंसा, सक्काइणमिह वन्नवाओ उ॥(८८) परपाखण्डानां सर्वज्ञप्रणीतव्यतिरिक्तानां प्रशंसेति समासः। प्रशंसनं प्रशंसा, स्तुतिरित्यर्थः / तथा चाऽऽह-शाक्याऽऽदीनामिह वर्णवादस्तु। शाक्या रक्तभिक्षवः,आदिशब्दात्परिव्राजकाऽऽदिपरिग्रहः / वर्णवादः प्रशंसोच्यते- पुण्यभाज एते, सुलब्धमेभिर्मानुषं जन्म, दयालव एत इत्यादि। (88 श्रा०) अत्र चोदाहरणम्- "पाडलिपुत्ते चाणक्को, चंदगुत्तेणं भिक्खुगाणं वित्ती हरिता, ते तस्स धम्मं कहेंति, राया तूसति, चाणकं पलोएति, ण य पसंसति, ण देति, तेण चाणक्कमज्जा ओ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परपासंडपसंसा 530- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परभव लग्गिता, तीए सो करणं गाहितो, तेहिं कथिते भणितं तेण-सुभासिय परबंभ नं० (परब्रह्मन्) ज्ञानामृतसमुद्ररूपे परमात्मनि, अष्ट०२ अष्ट० / ति। रण्णा त अण्णं च दिण्णं, वितियदिवसे चाणक्को रायाणं भणति- | परभव पुं० (परभव) जन्मान्तरे, दशा० 10 अ० + सूत्र० / अ०म०। कीस दिन्नं ? राया भणइ-तुज्झेहिं पसंसितं। सो भणइ-ण मे पसंसितं, | (आत्मनः 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 176 पृष्ठे परलोकयायित्व अहो सव्वारंभपवित्ता कहं लोग पत्तियाविति ति? पच्छा ठितो, केत्तिया / मभिहितम्) एरिसा. तम्हा ण कायव्वा।" आव०६अ। बालविज्ञानस्य विज्ञानान्तरपूर्वकत्वसाधनेन परभवतहा य जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा पासडीणं पसंसं करेज्जा, सिद्धिःजे यावि णं निण्हगाणं पसंसं करेज्जा, जे णं णिण्हगाणं विण्णाणंतरपुव्वं, बालण्णाणमिह नाणभावाओ। अणुकूलं भासेज्जा, जे णं णिण्हगाणं आययणं पविसिज्जा, जल बालनाणपुव्वं, जुवनाणं तं च देहहिअं॥१६६१।। जे णं निण्हगाणं गंथसत्थपयक्खरं वा परूवेज्जा, जे णं अन्यविज्ञानपूर्वकमिदं बालविज्ञानम्, विज्ञानत्वात्, इह यद् विज्ञान निण्हगाणं संतिए कायकिलेसाइए तवेइ वा, संजमेइ वा, जाणेइ तदन्यविज्ञानपूर्वक दृष्टम्, यथा-बालविज्ञानपूर्वकं युवविज्ञानम्, वा, विन्नाणेइ वा, सुएइ वा, पडिच्चेइ वा, आभिमुहसुद्ध यद्विज्ञानपूर्वक चेदं बालविज्ञानं तच्छरीरादन्यदेव, पूर्वशरीरत्यागेऽपीपरिसामज्झ णिए सलाहेज्जा, से विणं परमाहम्मिएसु उवव हत्यविज्ञानकारणत्वात्, तस्य च विज्ञानस्य गुणत्वेन गुणिनमात्मानज्जेज्जा, जहा सुमती। महा० 4 अ० मन्तरेणासंभवात, तच्छरीरव्यतिरिक्तमात्मानं व्यवस्यामः, न तु परपासंडसंथव पुं० (परपाखण्डसंस्तव) परपाखण्डः सह संवा-सजनिते शरीरमेवाऽऽत्मेति। विज्ञानत्वादिति प्रतिज्ञार्थकदेशत्वादसिद्धो हेतुरिति परिचये, आव० 6 अ०1 चेत्। न ।विशेषस्य पक्षीकृतत्वात्। भवति च विशेषे पक्षीकृते सामान्य परपासंडपसंसा, सक्काइणमिह वण्णवाओ उ। हेतुः, यथाऽनित्यो वर्णाऽत्मकः शब्दः, शब्दत्वात्, मेघशब्दवत्। एवमितेहिं सह परिचओ जो, स संथओ होइ नायव्यो / / 8 / / हापि बालविज्ञानमन्यविज्ञानपूर्वकमिति विशेषः पक्षीकृतः, न तु सामान्य (गाथापूर्वार्द्धम् 'परपासंडपसंसा' शब्दे 526 पृष्ठे व्याख्यातम्) तैः विज्ञानमन्यविज्ञानपूर्वकमिति पक्षीकृतं, येन विज्ञानत्वादिति प्रतिज्ञापरपाखण्डैरनन्तरोदितैः सह परिचयो यः स संस्तवो भवति ज्ञातव्यः, र्थकदेशः स्यात्, यथाऽनित्यः शब्दः, शब्दत्वादित्यादि।।१६६१॥ अथान्यदनुमानम्परपाखण्डसंस्तव इत्यर्थः / संस्तव इह संवासजनितः परिचयः संवसन पढमो थणाहिलासो, अण्णाऽऽहाराहिलासपुव्वोऽयं / भोजनाऽऽलापाऽऽदिलक्षणः परिगृह्यते, न स्तवरूपः, तथा च लोके प्रतीत जह संपयाहिलासो-ऽणुभूइओ सो य देहहिओ॥१६६२।। एव संपूर्वः स्तौतिः परिचय इति। "असंस्तुतेष प्रसभं भयेषु।" (किरा० गौतम ! आद्यःस्तनाभिलाषो बालस्यायमन्याभिलाषपूर्वकः, 3 सर्ग) इत्यादौ इति / / 86 // (श्रा०) अयमपि च न समाचरणीयः / अनुभूतेः-अनुभवाऽऽत्मकत्वात्, साम्प्रताभिलाषवदिति / अथवातथाहि-एकत्र संवासे तत्-प्रक्रियाऽऽश्रयणात्, तक्रियादर्शनाच 'अभिलाषत्वात्' इत्ययमनुक्तोऽपि हेतुर्द्रष्टव्यः / इह योऽभिलाषः, तस्यासकृदभ्यस्तत्वादवाप्तसहकारिकारणात् मिथ्यात्वोदयतो दृष्टिभेदः सोऽन्याभिलाषपूर्वको दृष्टः, यथा साम्प्रताऽभिलाषः, यदभिलाषपूर्वकसंजायते, अतोऽतिचारहेतुत्वान्न समाचरणीयोऽयमिति। आव०६ अ० / श्वायमाद्यः स्तनाभिलाषः स शरीरादन्य एव, पूर्वशरीरपरित्यागेऽपीअत्र चोदाहरणम्- "सोरट्ठसडगो पुव्वणितो। सो दुभिक्खे भिक्खु हत्याभिलाषकारणत्वात् / ज्ञानगुणश्चाभिलाषो न गुणिनमन्तरेण एहि समपइट्ठो, भत्तं से देंति अन्नया विसूइयाए मओ, चीवरेण पच्छाइओ, संभवति / अतो यस्तस्याऽऽश्रयभूतो गुणी स शरीरातिरिक्त आत्मेति। अविसुद्धोहिणा पासणं भिक्खुगाणं, बाहाए आहारदाणं, सावगाणं खिंसा, आह-नन्वनैकान्तिकोऽयम्, सर्वस्याऽप्यभिलाषपूर्वकन्वानुपपत्तेः / न जुगपहाणाण कहणं विराहियगुण त्ति, आलोयणं नमोकारपढण, हि मोक्षाभिलाषो मोक्षाभिलाषपूर्वको घटते / तदयुक्तम्। अभिप्रायापडिबोहो, केत्तिया एरिसं ति " / 88 गाथा। श्रा०। परिज्ञानात्, यो हि स्तनाभिलाषः स सामान्येनेवाभिलाषपूर्वक इत्येतपरपासंडि (ण) पुं० (परपाखण्डिन्) मिथ्यादृष्टौ, परपाखण्डिलक्षणम् देवास्माभिरुच्यते, न पुनर्विशेषेण ब्रूमः- 'स्तनाभिलाषोऽन्यस्त'जो आणाणं मिच्छत्तं कुटवंतो कुतित्थिए वा एति जिणवयणं वण गच्छइ, नाभिलाषपूर्वकः' इति। एवं च सामान्योक्ती मोक्षाभिलाषपक्षेऽपि घटत सो परपासंडी। जो पुण गिही अण्णतिथिओ वा इमेरिसो।' नि०चू० / एव, मोक्षाभिलाषस्याऽपि सामान्ये नाऽन्याभिलाषपूर्वकत्वा१६उ०। दिति // 1662 / / परपुट्ठ पुं०(परपुष्ट) कोकिले, स्था० 10 ठा० / जी० / जं० / रा०। अनुमानान्तरमाहपरपुर न०(परपुर) शत्रुनगरे, आव०५ अ०। बालसरीरंदेहं-तरपुध्वं इंदियाइमत्ताओ। परप्पवाइ (ण) पुं०(परप्रवादिन) परतीर्थिक, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। जुवदेहो बालादिव, स जस्स देहो स देहि त्ति / / 1663 / / परप्पवित्तिदोस पुं० (परप्रवृत्तिदोष) सूत्रदोषभेदे, यत्र सुबहु-मप्यर्थ बालशरीरं शरीरान्तरपूर्वकम्, इन्द्रियाऽऽदिमत्त्वात्, इह यदि वर्णयित्वा निदर्शनं करोति। बृ०१ उ०१ प्रक०। न्द्रियाऽऽदिमत्, तदन्यदेहपूर्वकं दृष्टम्, यथा युवशरीर बा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव 531 - अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 5 परभव लदेहपूर्वकम, यत्पूर्वकं चेदं बालशरीरं तदस्मात् शरीरादर्थान्तरम्, तदत्ययेऽपीहत्यशरीरोपादानात, यस्य च तच्छरीरं स भवान्तरयायी शरीरादान्तरभूतो देहवानस्त्यात्मा, न पुनः शरीरमेवाऽऽत्मेति सिद्धमिति / / 1663 / / अनुमानान्तरमाहअण्णसुहदुक्खपुव्वं, सुहाइ बालस्स संपइसुहं व। अणुभूइमयत्तणओ, अणुभूइमओ य जीवो त्ति / / 1664 / / अन्यसुखपूर्वकमिदमाद्यं बालसुखम्, अनुभवाऽऽत्मकत्वात्, साम्प्रतसुखवत, यत्सुखपूर्वकचेदमाद्यं सुखम्, तच्छरीरादन्यदेव, तदत्ययेऽपीहत्यसुखकारणत्वात्। गुणश्चायम्, स च गुणिनमन्तरेण न संभवति, अतो यस्तस्याऽऽश्रयभूतो गुणी स देहादर्थान्तरम्, इति सुखानुभूतिमयो जीव इति सिद्धम / एवं दुःख-राग-द्वेष-भय-शोकाऽऽदयोऽयायोजनीया इति / / 1664 // अथ प्राग् जीवकर्मसिद्धावुक्तान्यप्यनुमानान्यत्राऽपि जीव सिद्धिप्रस्तावाद् मन्दस्मृत्यनुग्रहार्थं पुनरप्याहसंताणोऽणाई उ, परोप्परं हेउ-हेउभावाओ। देहस्स य कम्मस्स य, गोयम ! बीयंऽकुराणं व 111665 / / यदि नाम देह-कर्मणोरनादिः सन्तानः, तर्हि जीवसिद्धौ किमायातम् ? इत्याहतो कम्म-सरीराणं, कत्तारं करण-कज्जभावाओ। पडिवज्ज तदन्भहि, दंड-घडाणं कुलालं व / / 1666 / / अत्थि सरीरविहाया, पइनिययागारओ घटस्सेव। अक्खाणं च करणओ, दंडाईणं कुलालो व्व / / 1667 / / अत्थिंदियविसयाणं,आयाणाऽऽदेयभावओऽवस्सं। कम्मार इवादाया, लोए संडास-लोहाणं // 1668 / / भोत्ता देहाईणं, भोज्जत्तणओ नरो व्व भत्तस्स। संघायाइत्तणओ, अस्थि य अत्थी घरस्सेव॥१६६६।। जो कत्ताइ स जीवो, सज्झविरुद्धो त्ति ते मई होज्जा। मुत्ताइपसंगाओ, तं नो संसारिणो दोसो।।१६७०।। आसां व्याख्या पूर्ववदेवेति।।१६६६।१।१६६७।। / / 1668 / / / / 1666 / / // 1670 / अथ सुगतमतानुसारी कश्चिदाह-ननु सर्वपदार्थानां क्षणनश्वरत्वाज्जीवस्याऽपि क्षणिकतया शरीरेण सहैव विनष्टत्वाद् वस्तुतः शरीरात्तस्यानन्तरतैव, इति किं तद्व्यतिरिक्तत्वसाधनप्रयासेन ? इत्यत्राऽऽहजाइस्सरो न विगओ, सरणाओ बालजाइसरणो व्व। जह वा सदेसवत्तं, नरो सरंतो विदेसम्मि।।१६७१।। इह यो जातिस्मरो जीवः स प्रारभविकशरीरविगमेऽपि सति न विगत | इति प्रतिज्ञा / (सरणाउ त्ति) स्मरणादिति हेतुः / यथा-बालजातौ बालजन्मनि वृत्तं स्मरतीति बालजातिस्मरणो वृद्ध इति दृष्टान्तः / यथा वा-स्वदेशे मालवकमध्यदेशाऽऽदौ वृत्तं विदेशेऽपि गतो नरः स्मरन् न विगतः / इन्दमुक्त भवति-योऽन्यदेशकालाऽऽद्यनुभूतमर्थ स्मरति सोऽविनष्टा दृष्टः, यथा बालकालानुभूतानामर्थानामनुस्मर्त्ता वृद्धाऽऽद्यवस्थायां देवदत्तः / यस्तु विनष्टो नासो किश्चिदनुस्मरति, यथा जन्मानन्तरमेवोपरतः / न च पूर्वपूर्वक्षणानुभूतमाहितसंस्कारा उत्तरोत्तरक्षणाः स्मरन्तीति वक्तव्यम्, पूर्वपूर्वक्षणानां निरन्वयविनाशेन सर्वथा विनष्टत्वात्, उत्तरोत्तरक्षणानां सर्वथाऽन्यत्वात् / न चान्यानुभूतमन्योऽनुस्मरति, देवदत्तानुभूतस्य यज्ञदत्तानुस्मरणप्रसङ्गादिति / 1671 / अथ पराभिप्रायमाशय प्रतिविधातुमाहअह मन्नसि खणिओ वि हु, सुमरइ विन्नाणसंतइगुणाओ। तह वि सरीरादण्णो, सिद्धो विण्णाणसंताणो / / 1672 / / अथैवं मन्यसे त्वम्-क्षणिकोऽपि क्षणभङ्गुरोऽपि जीवःपूर्ववृत्तान्तं स्मरत्येव / कुतः? इत्याह-विज्ञानानां विज्ञानक्षणानां सन्ततिः सन्तानस्तस्या गुणस्तत्सामर्थ्यरूपस्तस्मादिति, क्षणसन्तानस्यावस्थितत्वात् क्षणनश्वरोऽपि स्मरतीत्यर्थः / अत्रोत्तर-माह-ननु तथाऽप्येवमपि सति ज्ञानलक्षणसन्तानस्यागेतनशरीरसंक्रान्तेर्भवान्तरसद्भावः। सिद्ध्यति, सर्वशरीरेभ्यश्च विज्ञानसन्तानस्येत्थमन्तरता साधिता भवति, अविच्छिन्नविज्ञानसन्तानाऽऽत्मकश्चैवं शरीरादर्थान्तरभूत आत्मा सिद्धो भवतीति / तदेवं परभवमङ्गीकृत्याविनष्ट स्मरणमावेदितम् / / 1672 / / विशे! अदृष्टपूर्वकपरलोकसिद्धिः / तथाहि-नास्तिकस्तावन्नादृष्टमिष्टवान्। सप्रष्टव्यः-किमाश्रयस्य परलोकिनोऽभावात्, अप्रत्यक्षत्वात्, विचाराऽक्षमत्वात्, साधकाभावाद्वाऽदृष्टाभावो भवेत् ? न तावत्प्रथमात्, परलोकिनः प्राक् प्रसाधितत्वात्। नाप्यप्रत्यक्षत्वात्, यतस्तवाऽप्रत्यक्ष तत्, सर्वप्रमातृणां वा? प्रथमपक्षे त्वत्पितामहाऽऽदेरप्यभावो भवेचिराsतीतत्वेन तस्य तवाप्रत्यक्षत्वात्, तदभावे भवतोऽप्यभावो भवेदित्यही नवीना वादवैदग्धी। द्वितीयकल्पोऽप्यल्पीयान्, सर्वप्रमातृप्रत्यक्षमदृष्टनिष्टकनिष्णातं न भवतीति वादिना प्रत्येतुमशक्तेः, प्रतिवादिना तु तदाऽऽकलनकुशलः केवली कक्षीकृत एव / विचाराक्षमत्वमप्यक्षम, कर्कशतर्कस्तय॑माणस्य तस्य घटनात् / ननु कथं घटते ? तथाहितदनिमित्तं, सनिमित्तं वा भवेत् ? न तावदनिमित्तं, सदा सत्त्वासत्त्वयोः प्रसङ्गात्। "नित्य सत्त्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात्।" यदि पुनः सनिमित्तं, तदाऽपि तन्निमित्तमदृष्टान्तरमेव, रागद्वेषाऽऽदिकषायकालुष्यं, हिंसाऽऽदिक्रिया वा? प्रथमे पक्षेऽनवस्थाव्यवस्था। द्वितीये तु न कदाऽपि कस्यापि कर्माऽभावो भवेत् / तद्धेतोः रागद्वेषाऽऽदिकषायकालुष्यस्य सर्वसंसारिणां भावात्। तृतीयपक्षोऽप्यसूपपादः, पाप-पुण्यहेतुत्व-संमत-योर्हिसाऽर्हत्पूजाऽऽदि-क्रिययोर्व्यभिचारदर्शनात्-कृपणपशुपरम्पराप्राणप्रहाणकारिणां कपट-घटना-पटीयसां पितृमातृमित्रपुत्राऽऽदिद्रोहिणामपि केषाञ्चिच्चपलचारुचामर श्वेताऽऽपपत्रपात्रपार्थिव श्रीदर्शनात्। जिनपति-पद पङ्कज-पूजा-परायणानां निखिलप्राणिपरम्पराऽपारकरुणाऽकू पाराणामपि के षाशिदने कोपद्रवदारिद्र्यमुद्राऽऽक्रान्तत्वाऽऽलोकनादिति / अत्र ब्रूमः-पक्षत्रयमप्येतकक्षीक्रियत एव / प्राच्याऽदृष्टान्तरवशगो हि प्राणी रागद्वेषाऽऽदिना प्राणव्यपरोपणाऽऽदि कुर्वाणः कर्मणा बध्यते / न च प्रथमपक्षेऽनवस्था दौस्थ्याय, मूलक्षयकरत्याभावात्, वीजाड्कुराऽऽदिस Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव 532 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परभव न्तानवत् तत्सन्तानस्याऽनादित्वेनेष्टत्वात्। द्वितीयेऽपि यदि कस्यापि काऽभावो न भवेम्मा भूत्सिद्ध तावददृष्टम् / मुक्तिवादे तदभावोऽपि प्रसाधयिष्यते / तृतीये तु या हिंसावतोऽपि समृद्धिः, अर्हत्पूजावतोऽपि दारिद्र्याऽऽप्तिः, सा क्रमेण प्रागुपात्तस्य पापाऽनुबन्धिनः पुण्यस्य, पुण्यानुबन्धिनः पापस्य च फलम् / तत्कियोपात्तं तु कर्म जन्मान्तरे फलिष्यतीति नात्र नियतकार्यकारणभावव्यभिचारः। साधकाभावादपि नादृष्टाभावः, प्राकृ प्रसाधितप्रामाण्ययोरागमाऽनुमानयोस्तत्प्रसाधकयोर्भावात्। तथा च शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्येत्यागमः। अनुमानं तु-तुल्यसाधनाना कार्ये विशेषः सहेतुकः, कार्यत्वात, कुम्भवत् / 'दृष्टश्च साध्वी-सुतयोwमयोस्तुल्यजन्मनोः। विशेषो वीर्यविज्ञानवैराग्याऽऽरोग्यसंपदाम् / / 1 / / " न चाऽयं विशेषो विशिष्टमदृष्टकारणमन्तरेण। यदूचुर्जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणमिश्राः- "जो तुल्बसाहणाणं, फले विसेसो न सो विणा हेउ / कज्जत्तणओ गोयम !, घडुव्व हेऊ य से कम / / 1 / / " अथ यथैकप्रदेशसम्भवानामपि वदरीकण्टकानां कौटिल्याऽऽजधाऽऽदिविशेषः, यथा वैकसरसीसम्भूतानामपि पङ्कजानां नीलधवल-पाटल-पीत-शतपत्र-सहरत्रपत्राऽऽदिर्भेदः, तथा शरीरिणामपि स्वभावादेवाऽयं विशेषो भविष्यति / तदशस्यम् / कण्टकपङ्कजानाऽऽदीमपि प्राणित्वेन परेषां प्रसिद्धेस्तदृष्टान्ताऽवष्टम्भस्य दुष्टत्वात्, आहारक्षतरोह दोहदाऽऽदीनां वनस्पतीनामपि प्राणित्वेन तैः प्रसाधनात्। अथ गगनपरिसरे मकरकरितुरङ्गकुरङ्गभृङ्गाराऽङ्गाराऽऽद्याकाराननेकप्रकारान् विभ्रत्यभ्राणि, नचतान्यपि चेतनानि वः संमतानि। तद्वत्तनुभाजोऽपि राजरङ्काऽऽदयः सन्त्विति चेत् / तदसत् / तेषामपि जगददृष्टवशादेव देवपदवीपरिसरे विचरतां विवित्राऽऽकारस्वीकारात्। कश्चार्य स्वभावो यद्वशाज्जगद्वैचित्र्यमुच्यते ? किं भिर्हेतुकत्वं, स्वाऽऽत्महेतुकत्वं, वस्तुधर्मो, वस्तुविशेषो वा ? आद्ये पक्षे सदा सत्त्वस्याऽसत्त्वस्य वा प्रसङ्गः / द्वितीये-आत्माऽऽश्रयत्वं दोषः; अविद्यमानो हि भावाऽऽत्माकथं हेतुः स्यात् ? विद्यमानोऽपि विद्यमानत्वादेव कथं स्वोत्पाद्यः स्यात्? वस्तुधर्मोऽपि दृश्यः कश्चिददृश्यो वा? दृश्यस्तावदनुपलम्भवाधितः / अदृश्यस्तु कथं सत्त्वेन वक्तुं शक्यः ? अनुमानात्तु तन्निर्णयेऽदृष्टानुमानमेव श्रेयः। वस्तुविशेषश्चेत् स्वभावो भूताऽतिरिक्तो, भूतस्वरूपो वा?. प्रथमे मूर्तोऽमूर्तो वा ? मूर्तोऽपि दृश्योऽदृश्यो वा? दृश्यस्तावत् दृश्याऽनुपलम्भवाधितः। अदृश्यस्त्वदृष्टमेव स्वभावभाषया वभाषे। अमूर्तः पुनः परः परलोकिनः को नामास्तु? न चादृष्टविघटितस्य तस्य परलोकस्वीकारः, इत्यतोऽप्यदृष्ट स्पष्ट निष्टक्यते। भूतस्वरूपस्तु स्वभावो नरेन्द्रदरिद्रताऽऽदिवैसदृश्यभाजोर्यमलजातयोरुत्पादकस्तुल्य एव विलोक्यते, इति कौतस्कुतस्तयोर्विशेषः स्यात् ? तद्दर्शनात्तत्राऽदृष्टभूतविशेषाऽनुमानेन नामान्तरतिरोहितमदृष्टमेवाऽनुमितिसिद्धं दृष्टम्, इतोऽपि बालशरीरं शरीरान्तरपूर्वकमिन्द्रियाऽऽदिमत्त्वात्तरुणशरीरवत्। न च प्राचीनभवातीततनुपूर्वकमेवेदं, तस्य तद्भवाऽवसान एव पटु पवनप्रेरितातितीव्रचिताज्वलनज्वालाकलापप्लुष्टतया भरमसादावादपान्तरालगतावभावेनतत्पूर्वकत्वाऽनुपपत्तेः। न चाशरीरिणो नियत गर्भ-देश-स्थान-प्राप्तिपूर्वकः शरीरग्रहो युज्यते, नियामककारणाभावात्। स्वभावस्य तु नियामकत्वं प्रागेव व्यपास्तम्। ततो यच्छरीरपूर्वक बालशरीरं तत्कर्ममयमिति / पौगलिकं चेदमदृष्टमेष्टव्यम्, आत्मनः पारतन्त्र्यमिति तत्त्वान्निगडाऽऽदिवत्। क्रोधाऽऽदिनाव्यभिचार इति चेन्न, तस्याऽऽत्मपरिणामरूपस्य पारतन्त्र्यस्वभावत्वात्, तन्निमित्तभूतस्य तु कर्मणः पौगलिकत्वात् / एवं सीधुस्वादनोद्भवचित्तवैकल्यमपि पारतन्त्र्यमेव, तद्धेतुस्तु सीधु पौद्गलिकमेवेति नैतेनाऽपि व्यभिचारः। ततो यद्यौगैरात्मविशेषगुणलक्षणं, कापिलैः प्रकृतिविकारस्वरूपं, सौगतैर्वासनास्वभाव, ब्रह्मवादिभिरविद्यास्वरूपं, चाऽदृष्टमवादि / तदपास्तम् / विशेषतः पुनरमीषां निषेधो विस्तराय स्वादिति न कृतः / रत्ना०७ परि०॥ विस्तरतश्चैतत्सम्मतिग्रन्थे प्रतिपादितम्अत्र बृहस्पतिमताऽनुसारिणः स्वभावसं सिद्धज्ञानाऽऽदिधर्मकलापाध्यासितस्य स्थाणोरभावप्रतिपादनं जैनेन कुर्वताऽस्माक साहाय्यमनुष्ठितमिति मन्वानाः प्राहुः / युक्तमुक्तं यत् स्वभावसंसिद्धज्ञानाऽऽदिसंपत्समन्वितस्येश्वरस्थाभावः / नारकतिर्यगनराऽमररूपपरिणतिस्वभावतया उत्पद्यन्ते प्राणिनोऽस्मिन्नित्येतचायुक्तमभिहितम् / परलोकसद्भावे प्रमाणाभावात् / तथाहि-परलोकसद्धावाऽऽवेदकं प्रमाण प्रत्यक्षम्, अनुमानम्, आगमो वा जैनेनाभ्युपगमनीयः / अन्यस्य प्रमाणत्वेन तेनाऽनिष्टेः। न चात्रैतद्वक्तव्यम् / भवतोऽपि किं तत्प्रतिक्षेपक प्रमाणम्, यतो नाऽस्माभिस्तत्प्रतिक्षेपकप्रमाणात्तद्वादः प्रतिपाद्यते, किंतु परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयोगमात्रमेव क्रियते। अत एव 'सर्वत्र पर्यनुयोगपसण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः' इति चार्वाकरभिहितम्।स च परोपन्यस्तप्रमाणपर्यनुयोगः, तदभ्युपगमस्य प्रश्नाऽऽदिद्वारेण विचारणा, न पुनः स्वसिद्धप्रमाणोपन्यासः। येनातीन्द्रियार्थप्रतिक्षेपकत्वेन प्रवर्त्तमान प्रमाणमाश्रयासिद्धत्वाऽऽदिदोषदुष्टत्वेन कथं प्रवर्तत इत्यस्मान्प्रति भवताऽपि पर्यनुयोगः क्रियते / अत एव परलोकप्रसाधकप्रमाणाऽभ्युपगमं परेण ग्राहयित्वा तदभ्युपगमस्याऽनेन प्रकारेण विचारः क्रियते / तत्र न तावत्परले कप्रतिपादकत्वेन चक्षुरादिकरणव्यापारसमासादिताऽऽत्मलाभं सन्निहितप्रतिनियतरूपाऽऽदिविषयत्वात्प्रत्यक्ष प्रवर्तते। नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं तत्र प्रवर्तत इति वक्तुं शक्यम्। परलोकाऽऽदिवत्तस्याप्यसिद्धेः / नाप्यनुमानं प्रत्यक्षपूर्वकं तत्र प्रवृत्तिमासादयति। प्रत्यक्षाप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्याऽनुमानस्यपि तत्राप्रवृत्तेः / अथ यद्यपि प्रत्यक्षाऽवगतप्रतिबन्धलिङ्ग प्रभवमनुमान न तत्र प्रवर्तत, तथाऽपि सामान्यतो दृष्ट तत्र प्रवर्तिष्यते। तदपि न युक्तम् / यतस्तदपि सामान्यतो दृष्टमवगतप्रतिबन्धलिङ्गाद्भवम्, आहोस्विद् अनवगप्रतिबन्धलिङ्गसमुत्थम्। यद्यनवगतप्रतिबन्धलिङ्गोद्भवमिति पक्षः। सनयुक्तः। तथाभूतलिङ्गप्रभवस्य स्वविषयव्यभिचारिणश्वदर्शनानन्तरोद्भूतराज्यालाप्तिविकल्पस्येवाप्रमाणत्वात् / अथ प्रतिपन्नसंबन्धलिङ्गप्रभवं तत्तत्र प्रवर्त्तत इति पक्षः। सोऽपि नयुक्तः / प्रतिबन्धावगमस्यैव तत्र लिङ्गस्यासंभवात् / तथाहि प्रत्यक्षस्य तत्र लिङ्गसंबन्धावगमनिमित्तस्याभावेऽनुमान लिङ्गसंबन्धग्राहकमभ्युपगन्तव्यम्। तत्र यदि तदेव पर लोकस Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव 533 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परभव द्भावाऽऽवेदकमनुमानं स्वविषयाऽभिमतेनार्थेनाऽऽत्मोत्पादकलिङ्गसंबन्धग्राहकं, तदेतरेतराऽऽश्रयत्वदोषः / अथाऽनुमानान्तराद् गृहीतप्रतिबन्धाल्लिङ्गादुपजायमानं तद्विषयं तदभ्युपगम्यते, तदाऽनवस्था; तथा सर्वमप्यनुमानमस्मान्प्रत्यसिद्धम् / तथाहि-बृहस्पतिसूत्रम् - "अनुमानमप्रमाणमिति। अनेन प्रतिज्ञाप्रतिपादनं कृतम्। अनिश्चिताऽर्थप्रतिपादकत्वाद, असिद्धप्रमाणाऽभासवदिति हेतुदृष्टान्तावभ्यूह्यौ। विषयविचारेण वाऽनुमानप्रामाण्यमयुक्तम्।धर्मधर्म्युभयस्वतन्त्रसाधने सिद्धसाध्यता यतः / अतो विशेषणविशेष्यभावः साध्यः प्रमेयविशेषविषयां प्रमां कुर्वत्प्रमाणं प्रमाणतामश्नुते। इतरेतराऽवच्छिन्नश्च समुदायोऽत्र प्रमेयः तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वाऽऽदीनामन्यतमस्याऽपि रूपस्याऽप्रसिद्धिः / न हि समुदायधर्माता हेतोः / नापि समुदायेनान्वयो व्यतिरेको वा, धम्मिमात्राऽपेक्षया पक्षधर्मत्वे साध्यधर्माऽपेक्षया चव्याप्तौ गौणतेति / उक्तं च- "प्रमाणस्याऽगौणत्वादनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः।" इति, धर्मिधर्मताग्रहणेऽपि न गौणतापरिहारः प्रतीयमानापेक्षया गौणमुख्यव्यवहारस्य चिन्त्यत्वात्, समुदायश्च प्रतीयते / एकदेशाऽऽश्रयणेनापि त्रैरूप्यमयुक्तम्। व्याप्त्यसिद्धेः। न हि सत्तामात्रेणाऽविनाभावा गमकः अपि त्ववगतः / अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / स च सकलसपक्षविपक्षाऽप्रत्यक्षीकरणे दुर्विज्ञानोऽसर्वविदा। न चात्र भूयोदर्शन शरणम् / सहस्रशोऽपि दृष्टसाहचर्यस्य व्यभिचारात् / अतएव दर्शनादर्शनमापे। तदुक्तम्-''गोमानित्येव म]न, भाव्यमश्ववताऽपि किम् ?" इति। देशकालाऽवस्थाभेदेन च भावानां नानात्वावगमादनाश्वासः। तदुक्तम्- "अवस्थादेशकालानां, भेदा भिन्नासु शक्तिषु। भावानामनुमानेन, प्रतीतिरतिदुर्लभा / / 1 / " इत्यादि। आह चअविनाभावसंबन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्। यच सामान्यस्य तद्विषयस्याऽभावात् स्वार्थपरार्थभेदासम्भवात्, विरुद्धानुमानविरोधयोः सर्वत्र संभवात्; क्वचिच्च विरुद्धाव्यभिचारिण इत्यादि दूषणजालम् / तदनुदघोषणीयमेव / यतोऽनिश्चितार्थप्रतिपादकत्वादनुमानमप्रमाणनित्यनुमानाऽप्रमाणताप्रतिपादने कृते शेषदूषणजालस्य मृतमारणकल्पत्वात् / ततोऽनुमानस्याप्रमाणत्वादतीन्द्रियपरलोकसद्भावप्रतिपादने कुतस्तस्य प्रवृत्तिः ? अथेदमेव जन्म पूर्वजन्मान्तरमन्तरेण न युक्तमिति जन्मान्तरलक्षणस्य परलोकस्य सिद्धिरिष्यते, तत्किमियम पत्तिः, अथाऽनुमानं वा ? न तावदापत्तिः, तल्लक्षणाऽभावात् / "दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोस्न्यथा नोपपद्यते / " इति हि तस्या लक्षणं विचक्षणरिष्यते न तु जन्मान्तरमन्तरेण नोपपत्तिमदिदं जन्मेति सिद्धम्। माता-पितृसामग्रीमात्रकेण तस्योपपत्तेः तन्मात्रहेतुकत्वे चाऽन्यपरिकल्पनायामतिप्रसङ्गात्। अथ प्रज्ञामेधाऽऽदयो जन्माऽऽदावभ्यासपूर्वका दृष्टाः कथमतत्पूर्वका भवेयुः, न वह्निपूर्वको धूमः तत्पूर्वकतामन्तरेण कदाचिदपि भवन्नुपलब्धः / तदप्यसत् / अविनाभावसंबन्धस्य देशकालव्याप्तिलक्षणस्य प्रत्यक्षेण प्रतिपत्तुमशक्तेः। सन्निहितमात्रप्रतिपत्तिनिमित्तं हि प्रत्यक्षमुपलभ्यते; न हि सकलदेशकालयोर्विना वह्निमसंभव एव धूमस्येति प्रत्यक्षतः प्रतीतिर्युक्ता, अतो न धूमोऽपि वह्निपूर्वकः सर्वत्र प्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां सिद्ध इति कुतस्तेन दृष्टान्तेन जन्मान्तरस्वरूपपरलोकसाधनम् / तस्मात्के चित्प्रज्ञामेधाऽऽदयस्तथाभूताभ्यासपूर्वकाः, केचिन्मातापितृशरीरपूर्वका इति / न च प्रज्ञाऽऽदयः शरीरतो व्यतिरिच्यमानस्वभावाः संवेदन विषयतामुपयान्ति / शरीरशतदन्वयव्यतिरेकानुवृत्तिमदेव दृष्टामिति कथमन्यथा व्यवस्थामर्हति ? अथ पूर्वोपात्तादृष्टमन्तरेण कथं माता-पितृविलक्षण शरीरम, नत्वेतेनैव व्यभिचारो दृश्यते। न हि सर्वदाकारणाऽनुरूपमेव कार्यम्। तेन विलक्षणादपि मातापितृशरीराद्यदि प्रज्ञामेधाऽऽदिभिर्विलक्षणं तदपत्यस्य शरीरमुपजायेत, कदाचित्तदाकारानुकारि तत्कथं वाऽत्र विरोधः / यथा कश्चिच्छालूकादेव शालूकः, कश्चिद्रोमयात्; तथा कश्चिदुपदेशाद्विकल्पः, कश्चित्तदाकारपदार्थदर्शनात् / अथ दर्शनादपि विकल्पः पूर्वविकल्पवासनामन्तरेण कथं भवेत्, तर्हि गोमयादपि शालूकः कथं शालूकमन्तरेणेति एतदपि प्रष्टव्यम् / तस्मात्कार्यकारणभावमात्र-मेव तत्। तत्र च नियमाभावादविज्ञानादपि मातापितृशरीराद्विज्ञानमुपजायताम्। अथवायथा विकल्पाद्व्यवहितादपि विकल्प उपजायते, तथा व्यवहितादपि मातापितृशरीरत एवेति न भेदं पश्यामः / यथा चैकमातापितृशरीरादनेकापत्योत्पत्तिस्तथैकस्मादेव ब्रह्मणः प्रजोत्पत्तिरिति न जात्यन्तरपरिग्रहः कस्यचिदिति नपरलोकसिद्धिः / न हि मातापितृसंबन्धमात्रमेव परलोकः / तथेष्टावभ्युपगमविरोधात्। अथानाद्यनन्त आत्माऽस्ति, तमाऽश्रित्य परलोकः साध्यते। न ह्येकानुभवितव्यतिरेकेणाऽनुसंधानं सम्भवति। भिन्नाऽनुभवितर्यनुसन्धानादृष्टः / तदयुक्तम् / ''परलोकिनोऽभावात्, परलोकाऽभावः' इति वचनात् / न ह्यनाद्यनन्त आत्मा प्रत्यक्षप्रमाणप्रसिद्धः अनुमानेन चेतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसङ्गः। सिद्धे आत्मन्येकरूपेणाऽनुसंधानविकल्पस्याऽविनाभूतत्वे आत्मसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चाऽनुसंधानस्य तदविनाभूतत्वसिद्धिरितीतरेतराऽऽश्रयसद्रावान्नकस्यापि सिद्धिः न चाऽसिद्धमसिद्धेन साध्यते। किञ्च-दर्शनाऽनुसंधानयोः पूर्वाऽपरभाविनोः कार्यकारणभावःप्रत्यक्षसिद्धस्तत्कुतोऽनुसंधानस्मरणादात्मसिद्धिः। अपि च शरीरान्तर्गतस्य ज्ञानस्याऽमूर्त्तत्वेन कथं जन्मान्तरशरीरसंचारः / अथान्तराभवशरीरसन्तत्या संचरणमुच्यते, तदपि परलोकान्न विशिष्यते / सञ्चारश्वन दृष्टो जीवत इह जन्मनि, मरणसमये भविष्यतीति दुरधिगमभेतन्न परलोकसिद्धिः / अथवा सिद्धेऽपि परलोके प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धाऽसिद्धेयर्थमेवाऽनुमानेन परलोकास्तित्वसाधनम् / अथाऽऽगमात्प्रतिनियतकर्मफलसंबन्धसिद्धिः / तथा सति परलोकास्तित्वमप्यागमादेव सिद्धमिति किमनुमानप्रयासेन ? न चाऽऽगमादपि परलोकसिद्धिः / तस्य प्रामाण्यासिद्धेः / न चाऽप्रमाणसिद्धं परलोकाऽऽदिकमभ्युपगन्तुं यक्तुम् / तदभावस्यापि तथाऽभ्युपगमप्रसङ्गात् / तन्न परलोसाधकप्रमाणप्रतिपादनमकृत्वा भवशब्दव्युत्पत्तिरर्थसंस्पर्शिन्यभिधातुं युक्ता डित्थाऽऽदि शब्दव्युत्पत्तितुल्या तु यदि क्रियेत, तदा नाऽस्माभिरपि तत्प्रतिपादकप्रमाणपर्यनुयोगे मनः प्रणिधीयत इति पूर्वपक्षः। अत्रोच्यते-यदुक्तं पर्यनुयोगमात्रमस्माभिः क्रियत इति। तत्र वक्तव्यम्पर्यनुयोगोऽपि क्रियमाणः किं प्रमाणतः क्रियते, उताऽप्रमाणतः? यदि प्रमाणतः तदंयुक्तम्। यतस्तत्कार्यपि प्रमाणं किं प्रत्यक्षं, उतानुमानाऽऽदि ? Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव 534 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परभव यदि प्रत्यक्षम् / तदयुक्तम् / प्रत्यक्षस्याऽविचारकत्वेन पर्यनुयोगस्वरूपविचाररचनाऽचतुरत्वात् / न च प्रत्यक्षस्यापि प्रमाणत्वं युक्तम्। भवदभ्युपगमेन तलक्षणाऽसंभवात् / तदसंभवश्च स्वरूपव्यावस्थापकधर्मस्य लक्षणत्वात् / तत्र प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यस्वरूपव्यवस्थापको धर्मोऽविसंवादित्वलक्षणोऽभ्युपगन्तव्यः / तचाऽविसंवादित्वं प्रत्यक्षप्रामाण्येनाऽविनाभूतमभ्युपगम्यम्। अन्यथाभूतात्ततः प्रत्यक्षप्रामाण्याऽसिद्धेः। सिद्धौ वा यतः कुतश्चिद्यत्किञ्चिदनभिमतमपि सिद्धयेदित्यतिप्रसङ्गः। स चाऽविनाभावस्तस्य कुतश्चित्प्रमाणादवगन्तव्यः / अनवगतप्रतिबन्धादर्थान्तरप्रतिपत्तौ नालिकेरद्वीपवासिनोऽप्यनवगतप्रतिबन्धात् धूमात्, धूमध्वजप्रतिपत्तिः स्यात्। अविनाभावावगमश्चाखिलदेशकालव्याप्त्या प्रमाणतोऽभ्युपगमनीयः / अन्यथा यस्यामेव प्रत्यक्षव्यक्ती संवादित्वप्रामाण्ययोरसाववगतस्तस्यामेवाविसंवादित्वात्तत्सिद्धयेत्, न व्यक्त्यन्तरे / तत्र तस्यानवगमात् / न चावगतलक्ष्यलक्षणसंबन्धा व्यक्तिर्देशकालान्तरमनुवर्तते / तस्याः। प्रत्यक्षव्य क्तेस्तदैवध्वंसात्; ध्यक्त्यन्तराननुगमात् / अनुगमे वा व्यक्तिरूपताविरहाऽनुगतस्य सामान्यरूपत्वात् तस्य च भवताऽनभ्युपगमात् / अभ्युपगमे वा न सामान्यलक्षणाऽनुमानविषयाऽभावप्रतिपादनेन लत्प्रतिक्षेपो युक्तः। स च प्रमाणतः प्रत्यक्षे लक्ष्यलक्षणयोाप्त्याऽविनाभावावगमो यदि प्रत्यक्षादभ्युपगम्यते। तदयुक्तम्। प्रत्यक्षस्य सन्निहितस्वविषयप्रतिभासमात्र एव भवता व्यापाराऽभ्युपगमात् / अथैकत्र व्यक्तौ प्रत्यक्षेण तयोरविसंवादित्वप्रामाण्ययोरविनाभावाऽवगमादन्यत्राऽप्येवंभूत प्रत्यक्ष प्रमाणमिति प्रत्यक्षेणाऽपि लक्ष्यलक्षणयोर्याप्त्या प्रतिबन्धाऽवगमः, तन्यित्राऽप्येवंभूतं ज्ञानलक्षणं कार्यमेवभूतज्ञानकार्यप्रभवमिति तेनैव कथं न सर्वोपसंहारण कार्यलक्षणहेतोः स्वसाध्याऽविनाभावाऽवगमः? येनाऽनुमानमप्रमाणमविनाभावसम्बन्धस्य व्याप्त्या ग्रहीतुमशक्यत्वादिति दूषणमुनमानवादिन प्रति भवता सज्यमानं शोभते / किश्वअविसंवादित्वलक्षणो धर्मः प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्ष्यव्यवस्थापकः प्रत्यक्षप्रतिबद्धत्वेन निश्चयः / अन्यथा तत्रैव ततः प्रामाण्यलक्षणलक्ष्यव्यवस्था न स्यात् / असंबद्धस्य केनचित्सह प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाऽभावात्, तदन्यत्राऽपिततस्तदव्यवस्थाप्रसङ्गः। तथाऽभ्युपगमे च यथा संवादित्वलक्षणो धर्मो लक्ष्यानवगमेऽपि प्रत्यक्षधर्मिसंबन्धित्वेनाऽवगम्यते, तथा धूमोऽपि पर्वतैकदेशे अनलानवगतावपि प्रदेशसंबन्धितयाऽवगम्यत इति कथं समुदाय: साध्यः तदपेक्षया च पक्षधर्मत्वं हेतोरवगन्तव्यम् / न च पक्षधर्मत्वाऽप्रतिपत्तौ साध्यधर्मानलविशिष्टत्प्रदेशप्रतिपत्तिः / प्रतिपत्ती वा पक्षधर्मत्वाऽऽद्यनुसरणं व्यर्थम् / तत्प्रतिपत्तेः प्रागेव तदुत्पत्तेः / समुदायस्य साध्यत्वेनोपचारात्तदेकदेशर्मिधर्मत्वावगमेऽपि पक्षधर्मत्वाऽवगमाददोषे उपचरित पक्षधर्मत्वं हेतोः स्यादित्यनुमानस्य गौणत्वाऽऽपत्तेः प्रमाणस्याऽगौणत्वादनुमानादर्थनिर्णयो दुर्लभ इति चोद्यावसरः / प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणेऽपि क्रियमाणेऽस्य सर्वस्य समानत्वेन प्रतिपादितत्वात् / यदा चाविसंवादित्वलक्षणप्रत्यक्षप्रामाण्यलक्ष्ययाः सवापसहारण व्यासिरभ्युपगम्यत, अक्सिवादिचलक्षणश्च प्रामाण्यव्यव- स्थापको धर्मस्तत्राङ्गीक्रियते पूर्वोक्तन्यायेन तदा कथमनुमान नाऽभ्युपगम्यते प्रमाणतया? तथाहि-यत्किञ्चिदृष्ट, तस्य यत्राऽविनाभावस्तद्विदस्तस्य तद्गमकं तत्रेत्येतावन्मात्रमेवाऽनुमानस्याऽपिलक्षणम्। तच प्रत्यक्षप्रामाण्यलक्षणमभ्युपगच्छताऽभ्युपगम्यते देवानां प्रियेण / तथा-प्रामाण्यमप्यनुमानस्याभ्युपगतमेव, यतो यदेवाविसंवा-दित्वलक्षणं प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यं, अनुमानस्याऽपि तदेव / तदुक्तम्- "अर्थस्याऽसम्भवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता / प्रतिबद्धस्वभावस्य, तद्धेतुत्वे समंद्वयम्।।१।।" इति। अर्थाऽसंभवेऽभावः प्रत्यक्षस्य संवादस्वभावः प्रामाण्यनिमित्तम्। स च साध्याऽर्थाऽभावेऽभाविनो लिङ्गादुपजायमानस्यानुमानस्यापि समान इति कथ न तस्यापि प्रामाण्याऽभ्युपगमः / किञ्चअयं चार्वाकः प्रत्यक्षकप्रमाणवादी यदि परेभ्यः प्रत्यक्षलक्षणमनवबुध्यमानेभ्यस्तत्प्रतिपादयति, तदा तेषां ज्ञानसंबन्धित्वं कुतः प्रमाणादवगच्छति? न तावत्प्रत्यक्षात्। परचेतोवृत्तीनां प्रत्यक्षतो ज्ञातुमशक्यत्वात्; किं तर्हि स्वाऽऽत्मनि ज्ञानपूर्वको व्यापारव्याहारी प्रमाणतो निश्चित्य परेष्वपि तथाभूतात्तद्दर्शनात्तत्संबन्धित्वलक्षणमवबुध्यते, ततस्तेभ्यस्तत्प्रतिपादयति।तथाऽभ्युपगमे चव्यापारव्याहाराऽऽदे लिङ्गस्य ज्ञानसंबन्धित्वलक्षणस्वसाध्याऽव्यभिचारित्वं पक्षधर्मत्वं चाऽभ्युपगतं भवतीति कथमनुमानोत्थापकस्याऽर्थस्य त्रैरूप्यमसिद्धं, येन नाऽस्माभिरनुमानप्रतिक्षेपः क्रियते, किं तु विलक्षण यदनुमानवादिभिर्लिङ्गमभ्युपगतं, तत्र लक्षणभाग्भवतीति प्रतिपाद्यत इति वचः शोभामनुभवति / प्रत्यक्षलक्षणप्रतिपादनार्थ परचेतोवृत्तिपरिज्ञानाऽभ्युपगमे, त्रिलक्षणहेत्वभ्युपगमस्याऽवश्यंभावित्वप्रतिपादनात् / अथ नाऽस्माभिः प्रत्यक्षमपि प्रमाणत्वेनाऽभ्युपगम्यते; येन तल्लक्षणप्रणयनेऽवश्यंभाव्यनुमानप्रामाण्याऽभ्युपगन इत्यस्मान्प्रति भवद्भिः प्रतिपाद्येत। यत्तु प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति वचनं तत्तान्त्रिकलक्षणालक्षितलोकसंव्यवहारिप्रत्यक्षाऽपेक्षया / अत एव लक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकाऽनुमानस्य, अनुमानमप्रमाणमित्यादिग्रन्थसंद-भैणाऽप्रामाण्यप्रतिपादन विधीयते; न पुनर्गोपालाऽऽद्यज्ञलोकव्यवहाररचनाचतुरस्य धूमदर्शनमात्राऽऽविर्भूताऽनलप्रतिपत्तिरूपस्य। नैतचारु / तस्यापि महानसाऽऽदिदृष्टान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाणाऽवगतस्वसाध्यप्रतिबन्धनिश्चितसाध्यधर्मिधर्मधूमबलोद्भूतत्वेन तान्त्रिकलक्षणलक्षितप्रत्यक्षपूर्वकत्वस्य वस्तुतः प्रदर्शितत्वात् / एतत्पक्षधर्मत्वमियं चाऽस्य धूमस्य व्याप्तिरिति साङ्केतिकव्यवहारस्य गोपालाऽऽदिमूर्खलोकाऽसम्भविनोऽकिञ्चित्करत्वात्। प्रत्यक्षस्य चाऽविसंवादित्वं प्रामाण्यलक्षण तद्यथा सम्भवति, तथा परतःप्रामाण्य व्यवस्थापयद्भिः "सिद्ध " इत्येतत्पदव्याख्यायां दर्शितं, न पुनरुच्यते / तत् स्थितमेतन्न प्रत्य-क्षस्य भवदभिप्रायेण प्रामाण्यव्यवस्थापकलक्षणसंभवः। तद्भावेचाऽनमानस्यापि प्रामाण्यप्रसिद्धिरिति न प्रत्यक्ष पर्यनुयोगविधायि / नाप्यनुमानाऽऽदिक पर्यनुयोगकारि। अनुमानाऽऽदेः प्रमाणत्वेनाऽनभ्युपगमात् अथाऽस्माभिर्यद्यप्यनुमानाऽऽदिक न प्रमाणतयाऽभ्युपगम्यते, तथापि परेण तत्प्रमाणतयायुपगतामीले तत्माननपतचाप या विधायिने नमुबाय Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव 535 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परभव तत्प्रमाणतः प्रामाण्याऽभ्युपगमविषयः, अथाऽप्रमाणतः? य दि | प्रमाणतः,तदा भवतोऽपि प्रमाणविषयस्तत्स्यात्। न हि प्रमाणतोऽभ्युपगमः कस्यचिद्भवति, कस्यचिन्नेति युक्तम् / अथाऽप्रमाणतोऽनुमानाऽऽदिकं प्रमाणतयाऽभ्युपगम्यते परेण, तदाऽप्रमाणेन न लेन पर्यनुयोगो युक्तः / अप्रमाणस्य परलोक साधनवत्तत्साधकप्रमाणपर्यनुयोगेऽप्यसामर्थ्यात् / अथ तेन प्रमाणलक्षणाऽपरिज्ञानात्तत्प्रामाण्यमभ्युपगतमिति तत्सिद्धेनैव तेन परलोकाऽऽदिसाधनाभिमतप्रमाणपर्यनुयोगः क्रियते। नन्वज्ञानात्तत्परस्य प्रमाणत्वेनाऽभिमतं; न चाऽज्ञानादन्यथात्वेनाऽभिमन्यमानं वस्तु तत्साध्यामर्थक्रिया निर्वर्त्तयति / अन्यथा विषत्वेनाऽर्मन्यमानं महौषधाऽऽदिकमपि तान्मारयितुकामेन दीयमानं स्वकार्यकरणक्षम स्यात्। अथ नाऽस्माभिः परलोकप्रसाधकप्रमाणपर्यनुयोगोऽनुमानाऽऽदिना स्वतन्त्रप्रसिद्धप्रामाण्येन, पराभ्युपगमावगतप्रामाण्येन वा क्रियते, किं तर्हि यदि परलोकाऽऽदिकोऽतीन्द्रियोऽर्थः परेणाभ्युपगम्यते, तदा तत्प्रतिपादकं प्रमाणं वक्तव्यम् / प्रमाणनिबन्धना हि प्रमेयव्यवस्थितः / तस्य च प्रमाणस्य तल्लक्षणाऽऽद्यसम्भवेन तद्विषयाभिमतस्याप्यभाव इति; एवं विचारणालक्षणःपर्यनुयोगः क्रियते इति न स्वतन्त्राऽनुमानोपन्यासपक्षधर्म्यसिद्ध्यादिलक्षणदोषाऽवकाशो बृहस्पतिमताऽनुसारिणाम्। नन्वेवमप्यनया भङ्ग्या भवता परलोकाऽऽद्यतीन्द्रियार्थप्रसाधकप्रमाणपर्यनुयोगे प्रसङ्गसाधनाऽऽख्यमनुमानं, तद्विपर्ययस्वरूपं च स्ववाचैव प्रतिपादितं भवति / तथाहिप्रमाणनिबन्धना प्रमेयव्यवस्थितिरिति एवं वदता प्रमेयव्यवस्था प्रमाणनिमित्तैव प्रतिपादिता भवति एतच प्रसङ्गसाधनम् / तच व्याप्यव्यापकभावे सिद्धे यत्र व्याप्याऽभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः प्रदर्श्यते इत्येवंलक्षणम् / तेन प्रमे यव्यवस्था प्रमाणप्रवृत्त्या व्याप्ता प्रमाणतो भवता प्रदर्शनीया। अन्यथा प्रमाणप्रवृत्तिमन्तरेणापि प्रमेयव्यवस्था स्यात् / ततश्च कथं परलोकाऽऽदिसाधकप्रमाणपर्यनुयोगेऽपि परलोकव्यवस्था न भवेत् ? व्याप्यव्यापकभावग्राहकप्रमाणाऽयुपगमे च कथं कार्यहेतोः स्वभावहेतोर्वा परलोकाऽऽदिप्रसाधकत्वेन प्रवर्त्तमानस्य प्रतिक्षेपः ? व्याप्तिप्रसाधकप्रमाणसद्भावेऽनुमानप्रवृत्तेरनायाससिद्धत्वात् / प्रमाणाभावे तन्निबन्धनायाः प्रमेयव्यवस्थाया अप्यभाव इति प्रसङ्ग विपर्ययः। स च घ्यापकाऽभावे व्याप्यस्याऽप्यभाव इति एवम्भूतव्यापकाऽनुपलब्धिसमुद्भूताऽनुमानस्वरूपम्। एतदपि प्रसङ्गविपर्ययरूपमनुमानं प्रमाणतो व्याप्यव्यापकसिद्धौ प्रवर्तत इति व्याप्तिप्रसाधकस्य प्रमाणस्य तत्प्रसादलभ्यस्य चाऽनुमानस्य प्रामाण्ये स्ववाचैव भवता दत्तः स्वहस्त इति नानुमानाऽऽदिप्रामाण्यप्रतिपादनेऽस्माभिः प्रयस्यते। अतो यदुक्तम् - "सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः" इति। तदभिधेयशून्यमिव लक्ष्यते। उक्तन्यायात्। यत्तूक्तम्-प्रत्यक्ष सन्निहि तविषयत्वेन चक्षुरादिप्रभवं परलोकाऽऽदिग्राहकत्वेन न प्रवर्तते / तत्र सिद्धसाधनम् / यच्चोक्तम्-नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं, परलोकवत्तस्याऽसिद्धेरिति। तद्विस्मरणशीलस्य भवतो। वचनम्। अतीन्द्रियार्थप्रवृत्तिप्रवणस्य योगिप्रत्यक्षस्या नन्तरमेव प्रतिपादितत्वात्। यत् पुनरिदमुच्यतेनाऽपि प्रत्यक्षपूर्वकमनुमानं तदभावे प्रवर्तते। तदसङ्गतम्। प्रत्यक्षेण हि संबन्धग्रहणपूर्व परोक्षे पावकाऽऽदौ यथाऽनुमानं प्रवर्तमानमुपलभ्यते, स एव न्यायः परलोकसाधनेऽप्यनुमानस्य किमित्यदृष्टो, दृष्टो वा? तथाहि-यत्कार्यं तत्कार्यान्तरोद्भुत, यथा पटाऽऽदिलक्षणं कार्य, कार्य चेदं जन्म इति भवत्यतो हेतोः परलोकसिद्धिः / तथाहि- "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा, हे तोरन्याऽनपेक्षणात् / अपेक्षातो हि भावाना, कादाचित्कवसम्भवः॥१॥" इति न तावत्कार्यत्वमिहजन्मनोन सिद्धम् / अकार्यत्वे हेतुनिरपेक्षस्य नित्यं सत्त्वाऽसत्त्वप्रसङ्गात् / अथ स्वभावत एव कादाचित्कत्वं पदार्थानां भविष्यति / न हि कार्यस्य कारणभावपूर्वकत्वं प्रत्यक्षत उपलब्ध, येन तदऽभावान्निवर्तेत, प्रत्यक्षतः कार्यकारणभावस्यैवाऽसिद्धेः / यद्येवं बाह्येनाप्यर्थेन सह कार्यकारणभावस्याऽसिद्धेः, स्वसंवेदनमात्रत्वे सत्यद्वैत, विचारतस्तस्याऽप्यभावे सर्व:शून्यत्वमिति सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः / तस्माद्यथा प्रत्यक्षेण बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वमात्मनः प्रतीयते, अन्यथेहलोकस्याप्यप्रसिद्धेः, प्रत्यक्षतस्तज्जन्यस्वभावत्वानवगमेतस्य तदग्राहकत्वाऽसंभवात्, तथा चेहलोकसाधनार्थमङ्गीकर्तव्य प्रत्यक्षं स्वार्थेनाऽऽत्मनः प्रतिबन्धसाधकम्, तथा परलोकसाधनार्थमपि तदेव साधनमिति सिद्धः परलोकोऽनुमानतः। यथा च बाह्यार्थप्रतिबद्धत्वं प्रत्यक्षस्य कादाचित्कत्वेन साध्यते, धूमस्यापि वह्निप्रतिबद्धत्वम्:तथेहजन्मनोऽपि कादाचित्कत्वेन जन्माऽन्तरप्रतिबद्धत्वमपि / ततोऽनलबाह्यार्थवत्परलोकेऽपि सिद्धमनुमानम् / अथेहजन्माऽऽदिभूतमातापितृसामग्रीमात्रादप्युत्पत्तेः कादाचित्कत्वंयुक्तमेवेहजन्मनः / नन्वेवं प्रदेशसमनन्तरप्रत्ययमात्रसामग्रीविशेषादेव धूमप्रत्यक्षसंवेदनयोः कादाचित्कत्वमिति न सिद्ध्यति वह्नियाह्यार्थप्रतीतिरिति सकलव्यवहाराऽभावः / अथाऽऽकारविशेषादेवानन्यथात्वसंभविनोऽनलबाह्यार्थसिद्धिः, तर्हि इहजन्मनोऽपि प्रज्ञामेधाऽऽद्याकारविशेषत एव मातापितृव्यतिरिक्तनिजजन्मान्तरसिद्धिः / तथा-यथाऽऽकारविशेष एवाऽयं तैमिरिकाऽऽदिज्ञानव्यावृत्तः प्रत्यक्षस्य बाह्यार्थमन्तरेण न भवतीति निश्चीयते, अन्यथा बाह्या सिद्धेबर्बोद्धाऽभिमतसंवेदनाऽद्वैतमेवेति पुनरपि व्यवहाराऽभावः तथेहजन्माऽऽदिभूतप्रज्ञाविशेषाऽऽदिजन्मविशेषाऽऽकारो निजजन्मान्तरप्रतिबद्ध इति निश्चीयतामनुमानतः / अथ प्रत्यक्षमेव सविकल्पक परमार्थतः प्रतिपत्तुः "ततः परं पुनर्वस्तुधर्मः'' इत्यादि मीमांसकाऽऽदिप्रसिद्ध साधकं बहिबाह्यार्थपूर्वकत्वस्य धृमजाग्रत्पुरोवृत्तिस्तम्भाऽऽदिप्रत्ययस्याऽत्राभ्युपगमे, परलोकवादिनः स्वपक्षमनायाससिद्धमेव मन्यन्ते। "न हि दृष्टऽनुपपन्नम्' इति न्यायात्। यथैव हि निश्चयरूपा मातृपितृजन्मप्रतिबद्धत्वसिद्धिः, तथैवेहजन्मसंस्कारव्यावृत्ताऽऽदिजन्मप्रज्ञाऽऽद्याकारविशेषान्निजजन्मान्तरप्रतिबद्धत्वसिद्धिरपि प्रत्यक्षनिश्चिता स्यादिति नपरलोकक्षतिः। न च निश्चयप्रत्ययोऽनभ्यासदशायामनुमानतामतिक्रामति, "पूर्वरूपसाधर्म्यात्तत्तथाप्रसाधितां नाऽनुमेयतामतिपतति'' इतिन्यायात्, अन्वयव्यतिरेकपक्षधर्मताऽनुसरणस्याऽनभ्यासदशायामुपलब्धेः / अभ्या सदशायां च पक्षधर्मत्वाऽऽद्यनुसरणस्याऽन्यत्राप्यसंवेदनात्, सिद्धमनुमानप्रतीतत्वं परलोकस्य। अथेतरेतराऽऽश्र यदोषादनुमानं नास्त्येवैवंविधे विषय इत्युच्येत। नन्वेवं सति सर्वभेदाभावतो व्यवहारोच्छेद इति तदुच्छेदमनभ्युपगच्छता व्यवहारार्थिनाऽवश्यमनुमानमभ्युपगन्तव्यम् / एतेन प्रत्यक्ष Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव 536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परभव पूर्वकत्वाभावेऽप्यनुमानस्य प्रामाण्यं प्रतिपादितम्। न चानुमानपूर्वकत्वेऽपीतरेतराऽऽश्रयदोषानुषङ्गः। तस्यैवेतरेतराऽऽश्रयदोषस्य व्यवहारप्रवृत्तितो निराकरणात् / यदप्युक्तम् - अनुमानपूर्वकत्वेऽनवस्थाप्रसङ्गान्नानुमानप्रवृत्तिरिति / तदप्यसङ्गतम् / एवं हि सति प्रत्यक्षगृहीतेप्यर्थे विप्रतिपत्तिविषये नानुमानप्रवृत्तिमन्तरेण तन्निरास इति बाहोऽर्थे प्रत्यक्षस्याव्यापारात्पुनरप्यद्वैताऽऽपत्तेः, शून्यताऽऽपत्तेर्वा व्यवहारोच्छेद इति व्यवहारबलात्सैवानवस्था परिहियत इत्यभ्युपगमवादेन चैतदुक्तम्। अन्यथा बाह्यार्थव्यवस्थापनाय प्रत्यक्ष प्रवर्त्तते, तथा प्रदर्शितहेतोयाप्तिप्रसाधनाथ केषाश्चिन्मतेन निर्विकल्पकम्, अन्येषां तु सविकल्पकं चक्षुरादिकरणव्यापारजन्यम्, अपरेषां मानस, केषाश्चि-यावृत्तिग्रहणोपयोगि ज्ञानम्, अन्येषां प्रत्यक्षानुपलम्भबलोद्भूतालिङ्ग जोहाऽऽख्य परोक्ष प्रमाणं तत्र च्याप्रियत इति कथमनुमानेन प्रतिबन्धग्रहणेऽनवस्थेतरेतराऽऽश्रयदोषप्रसक्तिः परलोकवादिनः प्रति भवता प्रेर्यंत ? यदप्युक्तम्- सर्वमप्यनुमानमस्मान्प्रति प्रमाणत्वेनासिद्धमित्यादि / तदप्यसङ्गतम् / यतः कि-मनुमानमात्रस्याप्रामाण्यं भवता प्रतिपादयितुमभिप्रेतम्, अनुमानमप्रमाणमित्यादिग्रन्थेन; अथतान्त्रिकलक्षणक्षेपो - ऽतीन्द्रियार्थानुमानप्रतिक्षेपो वा ? न तावदनुमानमात्रप्रतिषेधो युक्तः / लोकव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् / यतःप्रतियन्ति कोविदाः कस्यचिदर्थस्य दर्शने नियमतः किञ्चिदर्थान्तरं, न तु सर्वस्मात्सर्वस्यावगमः / उक्त चान्येन-"स्वगृहान्निर्गतो भूयो, न तदाऽऽगन्तुमर्हति।" अतः किञ्चिद दृष्टा कस्यचिदवगमे निमित्तं कल्पनीयम्। तच नियतसाहचर्यमविनाभावशब्दवाच्यं नैयायिकाऽऽदिभिः परिकल्पितम्। तदवगमश्च प्रत्यक्षानुपलम्भसहायमानसप्रत्यक्षतः प्रतीयते / सामान्यद्वारेण प्रतिबन्धावगमादेशाऽऽदिव्यभिचारो न बाधकः / नाऽपि व्यक्त्यानन्त्यम् / उभयत्रापि सामान्यस्यैकत्वात् / सामान्याऽऽकृष्टाशेषव्यक्तिप्रतिभानं च मानसे प्रत्यक्षे; यथा शतसंख्याऽवच्छेदेन शतमिति प्रत्यये विशेषणाऽऽकृष्टानां पूर्वगृहीतानां शतसंख्याविषयपदार्थानाम्। तथाहि-एते शतमिति प्रत्ययो भवत्येव / सामान्यस्य च सत्त्वमनुगताऽबाधितप्रत्ययविषयत्वेन व्यवस्थापितं, तदेवं नियतसाहचर्यमर्थमर्थान्तरं प्रतिपादयदुपलब्ध सत्प्रतिपादयति / उपलम्भाश्चावश्यं क्वचिस्थितस्य, संव पक्षधर्मता। ततः सम्बन्धानुस्मृतौ ततः साध्यावगमः / यस्तु प्रतिबन्धं नोपेति, तस्याऽपि कथं न सर्वस्मात्सर्वप्रतिपत्तिः / अभ्युपगमे चाऽप्रतिपन्नेऽपि संबन्धे प्रतिपत्तिप्रसङ्गः। प्रमातृसंस्कारकारकाणां पूर्वदर्शनानामभावादित्यनुत्तरम् / संबन्धाप्रतिपत्तौ प्रमातृसंस्कारानुपपत्तेः / दर्शनजः संस्कारोऽप्यनभिव्यक्तः सत्तामात्रेण न प्रतिपत्त्युपयोगी। न च स्मृतिमन्तरेण तत्सद्भावोऽपि।न चानुभवप्रध्वंसनिबन्धना स्मृतिः / कृचिद्विषये संस्कारमन्तरेण तदनुपपत्तेः / प्रध्वंसस्य च निर्हेतुकतासंभवात्। यत्राप्यभ्यस्ते विषये वस्त्वन्तरदर्शनादव्यवधानेन वरत्वन्तरप्रतिपत्तिः, तत्राऽपि प्राक्तन क्रमाऽऽश्रयणेन वस्त्वन्तरावगमः। इयांस्तु विशेषःएकत्रानभ्यस्तत्वादन्तराले स्मृतिसंवेदनम; अन्यत्राऽभ्यासाद्विद्यमानाया अप्यसंवित्तिः / के चित्तु योगिप्रत्यक्षं संबन्धग्राहकमाहुः / व्याप्तेः / सकलाऽऽक्षेपेणावगमात्। तथा च यत्र यत्रेति देशकालविक्षिप्ताना व्यक्तीनामनवभासेऽनुफ्पत्तिः / अत एकत्र क्षणे योगित्वं प्रतिवन्धग्राहिणः, एतत्पूर्वस्मादविशिष्ट, तल्लोके अर्थान्तरदर्शनात्। अर्थान्तरसुदृढप्रतीती तार्किकाणां निमित्तचिन्तायां पक्षधर्मत्वाऽऽद्यभिधानम्, अतो न तान्त्रिकलक्षणप्रतिक्षेपोऽपि / उत्पन्नप्रतीतीनामस्तु प्रामाण्यम् / उत्पाद्यप्रतीतीनां तु अतीन्द्रियादृष्टपरलोकसर्वज्ञाऽऽद्यनुमानानां प्रतिक्षेप इति चेत् / तदसत्। यद्यनवगतसंबन्धान् प्रतिपत्रीनधिकृत्यैतदुच्यते, तदा धूमाऽऽदिष्वपि तुल्यम् / अथ गृहीताविनाभावानामप्यतीन्द्रियपरलोकाऽऽदिप्रतिभासानुत्पत्तेरेवमुच्यते / तदसत् / ये हि कार्यविशेषस्य तद्विशेषेण गृहीताविनाभावास्ते तस्मात्परलोकाऽऽद्यवगच्छन्त्येव। अतो न ज्ञायते केन विशेषेणातीन्द्रियार्थानुमानप्रतिक्षेपः / साहचर्याविशेषेऽपि व्याप्यगता नियतता प्रयोजिका, न व्यापकगता। अतः समव्याप्तिकानामपि व्याप्यमुखेनैव प्रतिपत्तिः नियतताऽवगमे चार्थान्तरप्रतिपत्तौ न बाधा; न प्रतिबन्धः / एकस्य रूपभेदानुपपत्तेः, ततो न विशेषविरुद्धसम्भवः, नाऽपि विर द्धाव्यभिचारिण इति। यदुक्तम्- विरुद्धाऽनुमानविरोधयोः सर्वत्र सम्भवात्, कृचिच्च विरुद्धाव्यभिचारिण इति। एतदप्यपास्तम्। अविनाभावसंबन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात्। अवस्थादेशकालाऽऽदिभेदादित्यादेश्व पूर्वनीत्याऽनुमानप्रमाणत्वेऽनुपपत्तिः। परोक्षस्यार्थस्य सामान्याऽऽकारेणाऽन्यतः प्रतिपत्तो लोकप्रतीतायां बौद्धस्तु कार्यकारणभावाऽऽदिलक्षणः प्रतिबन्धस्तन्निमित्तत्वेन कल्पितः। तदुक्तम्"कार्यकारणभावाद्वा, स्वभावाद्वा नियामकात्। अविनाभावनियमो, दर्शनान्न न दर्शनात्।।१।।'' इत्यादि। तथा"अवश्यंभावनियमः,कः परस्यान्यथा परैः। अर्थान्तरनिमित्तौ वा, धम्मो वाससि रागवत्।।१।।'' इति च। तथाहि-वचित्पर्वताऽऽदिदेशे धूम उपलभ्यमानो यद्यग्निमन्तरेणैव स्यात्तदा पावकधर्मानुवृत्तितस्तस्य तत्कार्यत्वं यन्निश्चितं विशिष्टप्रत्यक्षाऽनुपलम्भाभ्यां तदेव न स्यादित्यहेतोस्तस्याऽसत्त्वात् क्वचिदप्युपलम्भो न स्यात्. सर्वदा सर्वत्र सर्वाऽऽकारेण वोपलम्भः स्यात्। अहेतोः सर्वदा सत्त्वात् / स्वभावश्च यदि भावव्यतिरेकेण स्यात्. ततो भावस्य निःस्वभावत्वाऽऽपत्तेः स्वभावस्याप्यभावाऽऽपत्तिः। तत्प्रतिबन्धसाधक च प्रमाण कार्यहतो विशिष्ट प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दवाच्य प्रत्यक्षमेव, सर्वज्ञसाधकहेतुप्रतिबन्धनिश्चयप्रस्तावे प्रदर्शितम् / स्वभायहेतोस्तु कस्यचिद्विपर्यये बाधकं प्रमाण व्यापकानुपलब्धिस्वरूपं, कस्यचित्तु विशिष्ट प्रत्यक्षमभ्युपगतम्। सर्वथा सामान्यद्वारेण व्यक्तीनामतद्रूपपरावृत्तव्यक्तिरूपेण वा तासां प्रतिबन्धोऽभ्युपगन्तव्यः / अन्यथा प्रतिबद्धादन्यतोऽन्यप्रतिपत्तावतिप्रसङ्गात्। प्रतिबन्धप्रसाधकं च प्रमाणमवश्यमभ्युपगमनीयम् / अन्यथाऽगृहीतप्रतिबन्धत्वादन्यतोऽन्यप्रतिपत्तावपि प्रसङ्गस्तदवस्थ एव यत्र / गृहीतप्रतिबन्धोऽसावर्थ उपलभ्यमानः साध्यसिद्धिं विदधाति, तद्धर्मता तस्य पक्षधर्मत्वस्वरूपा; तदग्राहक च प्रमाण प्रत्यक्षमनुमानं वा ? तदुक्तं धर्मकीर्तिना- “पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा'' अतो लोकप्रसिद्धतान्त्रिकलक्षणलक्षि Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव 537 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परभव तानुमानयोर्मेशभावादतीन्द्रियपरलोकाऽऽद्यर्थसाधकत्वमपि तस्यैदेति तत्प्रामाण्याऽनभ्युपगमे इहलोकस्यापि अभ्युपगमाभावप्रसङ्गः / न च किमत्र निर्विकल्पक मानसं योगिप्रत्यक्षमूहो वा प्रतिबन्धनिश्चायकं, प्रतिबन्धोऽपि नियतसाहचर्यलक्षणः, कार्यकारणभावाऽऽदिर्वति चिन्ताऽवोपयोगिनी / धूमादग्रिप्रति-पत्तिवत्प्रज्ञामेधाऽऽदिविज्ञानकार्यविशेषान्निजजन्मान्तरविज्ञानस्वभावपरलोकप्रतिपत्तिसिद्धेः / अतोऽनुमानाऽप्रामाण्यप्रतिपादनाय पूर्वपक्षवादिना यधुक्तिजालमुपन्यस्तं, तन्निरस्तं द्रष्टव्यम् / प्रतिपदमुच्चार्य न दूष्यते, ग्रन्थगौरवभयात् / यदप्युक्तम्- परलोके, प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेराऽऽपत्तिरेवेयमिहजन्मान्यथाऽनुपपत्त्या परलोकसद्भाव इति। तदपिन सम्यक् / पूर्वानुसारेण सर्वस्य नियतप्रत्ययस्य प्रवृत्तेरनुमानत्वप्रतिपादनात्। अविनाभावसम्बन्धस्य ग्रहीतुमशक्यत्वान्नात्रानुमानमिति चेत्, नन्वेवं तदेवाद्वैत शून्यत्वं वा कस्य केन दोषाऽभिधानम् / तस्मात्संव्यवहारकारिणा प्रत्यक्षेणोहेन वा प्रतिबन्धसिद्धिरिति कथं नानुमानात्परलोकसिद्धिः? यदप्युक्तम्मातापितृसामग्रीमात्रेणेहजन्मसम्भवान्न तज्जन्मव्यतिरिक्तभूतपरलोकसाधनं युक्तमिति। तदपि प्रतिविहितमेव / समनन्तरप्रत्यक्षस्य भावात्। स्वप्राऽऽदिप्रत्ययवन्न प्रत्यक्षा बाह्यार्थसिद्धिरपीति बौद्धाभिमतपक्षसिद्धिप्रसङ्गः / अतस्तत्त्वात्। यदपि प्रतिपादितम्-सन्निहितमात्रविषयत्वात् प्रत्यक्षस्य देशकालव्याप्त्या प्रतिबन्धग्रहणाऽसामर्थ्य - मिति। तदपि न किञ्चित्। एवं सति अतिसन्निहित विषयत्वेन प्रत्यक्षस्य स्वरूपमात्र एव प्रवृत्तिप्रसङ्ग इति तदेव बौद्धाऽऽद्यभिमतं स्वसंवेदनमात्रं सर्वव्यवहारोच्छेदकारि प्रसत्कमिति प्रतिपादितत्वात्। तस्माल्लोकव्यवहारप्रवर्तनक्षमसविकल्पक प्रत्यक्षबलादूहाऽऽख्यप्रमाणादा देशकाल यथोक्त लक्षणस्य व्याप्त्य हेतोः प्रतिबन्धग्रहणे प्रवृत्तिरनुमानस्येतिन व्याहतिः प्रकृतस्येति / एतदपि निरस्तम् / केचित्प्रज्ञाऽऽदय इति इत्यादि / न च प्रज्ञामेघाऽऽदयः शरीरस्वभावार्तंगता इत्यादि चोद्य युक्तम् तदन्तर्गतत्वेऽपि परिहारसम्भवादन्वयव्यतिरेकाभ्यां तेषां मातापित्रोः पितृशरीरजन्यत्वस्यपितृशरीरं तर्हि हेतुभेदान्नभेदो मातापितृशरीरादपत्यप्रज्ञाऽऽदीनाम्। अयमपरो बृहस्पतिमतानुसारिण एव दोषोऽस्तु, यः कार्यभेदेऽपि कारणभेदं नेच्छति। अस्माकं तु हर्षविषादाऽऽद्यमेकविरुद्धधर्माऽऽक्रान्तस्य विज्ञानस्यान्तर्मुखाऽऽकारतया वेद्यस्य रूपरसगन्धस्पर्शाऽऽदियुगपगाविबालकुमारयौवनवृद्धावस्थाऽऽधनेकक्रमभाविविरुद्धधर्माध्यासिततच्छरीराऽऽदे बर्बाह्येन्द्रियप्रभवविज्ञानसमधिगम्याद्भेदः / सिद्ध एव / विरुद्धधर्माध्यासः, कारणभेदश्व पदार्थाना भेदकः / स च जलाऽनलयोरिवशरीरविज्ञानयोर्विद्यत एवेति कथं न तयोर्भेदः? तद्भेदादप्यभेदे ब्रह्माद्वैतवादाऽऽपत्तेस्तदवस्थ एव पृथिव्यादितत्त्वचतुष्टयाभावाऽऽपत्त्या व्यवहारोच्छेदः / अथवा मातापितृपूर्वजन्मैकसामग्राजन्यमेतत्कार्यम् / एतत् न दोषो व्यतिरिक्तपक्षऽपि विज्ञानशरीरयोः / पूर्वमप्युक्तं विलक्षणादप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां मातापितृशरीराद्विज्ञानमुपजायता; न हि कारणाऽऽकारमेव सकलं कार्यमिति / तदप्यसत् / यतो न हि कारणविलक्षणं कार्यं न भवतीत्युच्यते, अपि तु तदन्वयव्यतिरेकाऽनुविधानात् तत्कार्यत्वम्। तथाहि-यद् यद् | विकारान्वयव्यतिरेकानति तत् तत् कार्यमिति व्यवस्थाप्यते / यथाऽगुरु राणादाह्यदाहकपावकगतसुरभिगन्धाऽऽद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायी धूमस्तत्कार्यतया व्यवस्थितः। एकसन्तत्यनुपतितशास्त्रसंस्काराऽऽदिसंस्कृतप्राक्तनविज्ञानधर्मान्वयव्यतिरेकाऽनुविधायि च प्रज्ञामेधाऽऽद्युत्तरविज्ञानमिति कथं नतत्कार्यमभ्युपगम्यते ? तदनभ्युपगमे धूमाऽऽदेरपि प्रसिद्धवयादिकार्यस्य तत्कार्यत्वाप्रसिद्धिरिति पुनरपि सकलव्यवहारोच्छेदः। "तस्माद्यस्यैव संस्कार, नियमेनाऽनुवर्तते / तन्नान्तरीयकं चित्त-मत-श्चित्तसमाश्रितम्"।।१।। प्रतिपादितश्च प्रमाणतः प्रतिनियतः कार्यकारणभावः सर्वज्ञसाधने "कुसमयविसासण "इति पदव्याख्यां कुर्वद्भिर्न पुनरिहोच्यते / योऽपि शालूकदृष्टान्तेन व्यभिचारः। यथा गोमयादपि शालूकः, कश्चित्समानजातीयादपि शालूकादेव; तथा केचित्प्रज्ञामेधाऽदयस्तदभ्यासात; कोचत्तु रसायनोपयोगात्, अपरे मातापितृशुक्रशोणितविशेषादेवेति। सोऽपि न सम्यका तत्राऽपि समानजातीयपूर्वाऽभ्याससम्भवात् / अन्यथा समानेऽपि रसायनाऽऽधुपयोग यमलकयोः कस्यचित् क्वाऽपि प्रज्ञामेधाऽऽदिकमिति प्रतिनियमो न स्यात् / रसायनाऽऽधुपयोगस्य साधाहरणत्वादिति। न च प्रज्ञाऽऽदीनां जन्माऽऽदौ, रसायनाभ्यासे च विशेषः / शालूक गोमयजन्यस्य तु शालूकाऽऽदेस्तदन्यस्माद्विशेषो दृश्यते, कृचिजातिस्मरणं च दर्शनमिति न युक्ता दृष्टकारणादेव मातापितृशरीरात्प्रज्ञामेधाऽऽदिकार्यविशेषोत्पत्तिः। न च गोमयशालूकाऽऽदेर्व्यभिचारविषयत्वेन प्रतिपादितस्यात्यन्तवैलक्षण्यम्। रूपरसगन्धस्पर्शवत्पुरलपरिणामत्वेन द्वयोरपि अवैलक्षण्यात्। विज्ञानशरीरयोश्वान्तर्बहिर्मुखाऽऽकारविज्ञानग्राह्यतया स्वपरसंवेद्यतया स्वसंवेदनबाह्यकरणाऽऽदिजन्यप्रत्ययाऽनुभूयमानतया च परस्पराऽननुयाय्येनकविरुद्धधर्माध्यासतोऽत्यन्तवैलक्षण्यस्य प्रतिपादितत्वात्, नोपादानोपादेयभावो युक्तः शरीरवृद्ध्यादेश्चैतन्यवृद्धयादिलक्षण उपादानोपादेयभावधर्मोपलम्भः प्रतिपद्यते / असौ महाकायस्यापि मातङ्गाज गराऽऽदेश्चैतन्याल्पत्वेन व्यभिचारीति न तद्गावसाधकः / यस्तु शरीरविकाराच्चैतन्यविकारोपलम्भलक्षणस्तद्धर्मभावः प्रतिपाद्यतेऽसावपि सात्त्विकसत्त्वानामन्यगतचित्तानांवा छेदाऽऽदिलक्षणशरीरविकारसद्भावेऽपि तचित्तविकारानुपलब्धरसिद्धः। दृश्यते च सहकारिविशेषादपि जलभूम्यादिलक्षणाद्वीजोपादनस्याड्कुराऽऽदेर्विशेष इति सहकारिकारणत्वेऽपि शरीराऽऽदेर्विशिटाऽऽहाराऽऽधुपयोगाऽऽदौ, यौवनावस्थायां वा शारवाऽऽदिसंस्कारोपात्तविशेषपूर्वज्ञानोपादानस्य विज्ञानस्य विवृद्धिलक्षणो विशेषो नाऽसंभवी / यदप्युक्तम्- अनादिमातापितृपरम्परायां तथाभूतस्यापि बोधस्य व्यवहितमातापितृगतस्य सद्भावात्ततो वासनाप्रबोधेन युक्त एव प्रज्ञामेधाऽऽदिविशेषस्यसंभव इति / तदप्ययुक्तम् / अनन्तरस्यापि मातापितृपाण्डित्यस्य प्रायः प्रबोधसभवात्। ततश्चक्षुरादिकरणजनितस्य स्वरूपसंवेदनस्य चक्षुरादिज्ञानस्य वा युगपत्क्रमेण चोत्पत्तौ मयैवोपलब्धमेतदिति प्रत्यभिज्ञानं सन्तानान्तरतदपत्यज्ञानानामपि स्यात्। न च मातापितृज्ञानोपलब्धेः तदपत्याऽऽदेः कस्यचित्प्रत्यभिज्ञानमुपलभ्यते। अनेनैकस्माद्ब्रहाणः प्रजोत्पतिः प्रत्युक्ता। एकप्रभवत्वे हि सर्वप्राणिना परस्परं प्रत्यभिज्ञाप्रसङ्गः / एकसन्तानोद्भूतदर्शनस्पर्शनप्रत्यययो Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परभव 538 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परभट्टि (ण) रिव। सम्म०१ काण्ड। (अग्रे परलोग' शब्दो वीक्ष्यः) (यादृश एवेहलोके तादृश एव परलोके, अन्यथा वेति 'इहभव' शब्दे द्वितीयभागे 647 पृष्ठे गतम्) परभवविणिवाय पुं० (परभवविनिपात) पराभिभवसंपर्के, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। परभवसंकमकारअपुं० (परभवसंक्रमकारक) प्राणातिपाते, प्राणवियो जितस्यैव परभवे संक्रान्तिसद्भावत्। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। परभवियाउय न० (परभविकाऽऽयुष) परभवो विद्यते यस्मिस्तत्परभविकम्। तच तदायुश्चेति परभविकाऽऽयुः स्था०। णेरइया छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पगरेंति। एवमसुरकुमारा वि०जावथणियकुमारा / असंखेज्जवासाउया सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णियम छम्मासावसेसाउया परमवियाउयं पगरेंति। असंखेज्जवासाउया सन्निमणुस्सा णियमं०जाव पगरेंति। वाणमंतरजोइसिया वेमाणिया जहा जेरइया / / (नियमं ति) अवश्यभावादित्यर्थः / (छम्मासावसेसाउय त्ति) षण्मासा अवशेषा अवशिष्टा यस्य तत्तथा तदायुर्वेषां तेषण्मासावशेषाऽऽयुष्काः। परभवो विद्यते यस्मिँस्तत्परभविकं, तच तदायुश्चेति परमविकाऽऽयुः, प्रकुर्वन्तिबध्नन्ति। असंख्येयानि वर्षाण्यायुर्येषां ते तथा, तेचते संज्ञिनश्च समनस्काः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेत्यसंख्येयवर्षाऽऽयुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। इह च संज्ञिग्रहणमसंख्येयवर्षाऽऽयुष्कासंज्ञिन एव भवन्तीति नियमदर्शनार्थ, न त्वसंख्येयवर्षाऽऽषायुमसंज्ञिनाम्, व्यवच्छेदार्थं तेषामसंभवादिति।इह च गाथे "निरइ सुर असंखाऊ तिरि मणुया सेसए उ छम्मासे। इग विगला निरुवक्कम, तिरि मणुया आउयतिभागे।।१।। अवसेसा सोवक्कम, तिभागनवभागसत्तवीस इमे। बंधति परभवाओ, निययभवे सव्वजीवायो / / 2 / / '' इति। इदमेवान्यैरित्थमुक्तमिहतिर्यग्मनुष्या आत्मीयाऽऽयुषस्तृतीयत्रिभागे परभवायुऽऽषो बन्धयोग्या भवन्ति / देवनारकाः पुनः षण्मासे शेषे, तत्र तिर्यग्मनुष्यैर्यदि तृतीयत्रिभागे आयुर्नबद्ध, ततः पुनः तृतीयविभागस्य तृतीयत्रिभागे शेषे बध्नन्ति / एवं तावत् संक्षिपन्त्यायुर्यावत्सर्वजघन्य आयुर्वन्धकालः, उत्तरकालश्च शेषस्तिष्ठति / इह तिर्यग्मनुष्या आयुर्बध्नन्ति अयं वा संक्षेपकाल उच्यते / तथा दवेनैरयिकैरपि यदि षण्मासे शेषे आयुर्न बद्धं तत आत्मीयस्याऽऽयुषः षण्मासशेष तावत्संक्षिपन्ति यावत्सर्वजघन्य आयुर्बन्धकाल उत्तरकालश्चावशेषोऽवतिष्ठते, इहपरभवाऽऽयुर्देवनैरयिका बध्नन्तीत्ययमसंक्षेपकालः। स्था० 6 ठा० / पूर्वभवबद्धे परभवप्रायोग्ये आयुषि, परभवप्रायोग्यं यद् वर्तमानभवे निबद्धं तच्च परभवे गतो यदावेदयति तदा व्यपदिश्यते। भ० 5 श०३उ। परभाअ (देशी) सुरते, देवना०६ वर्ग 27 गाथा। परभाववंकणया स्त्री० (परभाववङ्कनता) परभावस्य वडूनतावञ्चनता / या कूटलेखकरणाऽऽदिभिः सा परभाववङ्कनता। कूटलेखकरणा ऽऽदिना परवचने, मायाप्रत्ययिक्याः क्रियाया भेदे, "तं तं भावमायरइ, जेण परो वंचिजइ कूडलेहकरणाईहिं।'' इति वृद्धव्याख्यानात स्था०२ ठा०१ उ०। परभोयण न० (परभोजन) पराऽऽहारे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। परम त्रि० (परम) उत्कृष्ट, द्वा०१७ द्वा। प्रकृष्ट, पञ्चा०१८ विव०। सूत्र० / उत्त०। जीतका प्रधाने, दश०१अ० आचा०विशे०। प्रधानभूते मोक्षे, संयमे च। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। परमत्थे परमउलं, परमाययणं ति परमकप्पो त्ति / परमुत्तमतित्थयरो, परमगई परमसिद्धि ति॥१७|| परमार्थे मोक्षेपर प्रकृष्टमतुलं तुलनाऽतिक्रान्तं सांसारिकलक्षणं कारण (परमाययणं ति) परममायतनं स्थानं ज्ञानाऽऽदीनामेतदित्यर्थः / (परमकप्पो त्ति) स्थविराऽऽदीनामेष प्रधानकल्पः पर्यन्तकृत्यविधिः संस्तारक इत्यर्थः / (परमुत्तमतित्थयरो परमगई परमसिद्धि त्ति) पूर्ववत् / / 17 / संथा०। परमंग न० (परमाङ्ग) मानुष्यधर्मश्रद्धाधर्मश्रुतिसंवेगलक्षणेषु मोक्षाङ्गेषु, ध००१ अधि० 18 गुण। ('चउरंग' शब्दे तृतीयभागे 105 पृष्ठे व्याख्याऽपि) परमगुण पुं० (परमगुण)प्रधाने गुणे, पं०व० 1 द्वार। परमगुरु पुं० (परमगुरु) तीर्थकृति, पं० 0 4 द्वार। परमग्गसूर पुं० (परमानशूर) दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानशूरेजितेन्द्रिये, दश०६अ०३उ०। परमघोर न० (परमघोर) क्लीवैर्दुरनुचरे, संथा०। परमचक्खु न० (परमचक्षुष्) परमं ज्ञानं चक्षुर्यस्याऽसौ परमचक्षुः। मोक्षकदृष्टौ, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। परमचरणपुरिस पुं० (परमचरणपुरुष) प्रधानचारित्रलक्षणनरे, पञ्चा० 16 विव०। परमट्ठ पुं० (परमार्थ) सद्भूतार्थे अकृत्रिमपदार्थे, पा० / “परमट्ठणिटिअत्था।" परमार्थेन न कल्पनामात्रेण निष्ठिता अर्था येषां ते तथा। ध०२ अधि०। मोक्षे, उत्त०२१ अ०। सारे, आव० 4 अ०। ब्रह्मणि, आ०म०१ अ01 परमट्ठपय न० (परमार्थपद) परमार्थस्य मोक्षस्य पदानि स्थानानि परमार्थपदानि। ज्ञानदर्शनचारित्रेषु, उत्त० 18 अ०। परमट्ठभेयग त्रि० (परमार्थभेदक) मोक्षप्रतिघातके, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। परमट्ठसंथव पुं० (परमार्थसंस्तव) परमार्था जीवाऽऽदयस्तेषां संस्तवः परिचयः / ध० 1 अधि०। जीवाऽऽदिभावानां स्वरूपज्ञादुत्पन्नपरिचये, उत्त०२८ अ०। परमट्ठाणुगामिय पुं० (परमार्थानुगामुक) परमः प्रधानभूतो मोक्षः संयमो वा तमनुगच्छतीति तच्छीलश्च परमार्थानुगामुकः / सम्यग्दर्शनाऽऽदौ, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। परमट्ठि (ण) त्रि० (परमार्थिन) कल्याणकट क नगरराजे , 'पुव्वं किर कल्लाणकडए नयरे परमट्ठी नाम राया रज्ज करेइ / तेण जिणभत्तेण तत्थ पासाए चंदकं तमणिबिबं सोऊण Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमट्टि (ण) 536 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परमहम्म चिंतियं-अहमेयं बिम्ब नियघरे आणिऊण देवयावसरे पूइस्लामि।" ती०२७ कल्प। परमणाणि (ण) पुं० (परमज्ञानिन्) सर्वेभ्योऽधिकज्ञाने, यस्मात्परो ज्ञानी नास्ति। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। परमणिरुद्ध त्रि० (परमनिरुद्ध) परमनिकृष्ट, ज्यो०१ पाहु०। परमण्ण न० (परमान्न) पायसे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। पञ्चा० आ०म०।। क्षैरेय्याम्, भ०१५ श०। परमतिलोगणाह पुं० (परमत्रिलोकनाथ) परमाश्च ते दुर्गतिभयसंरक्षणेन त्रिलोकनाथाश्च / अत्र त्रिलोकवासिनो देवाऽऽदयः परिगृह्यन्ते, तन्नाथाश्च उपदेशदानेन तीर्थकृत्सु, पं० सं०१ द्वार। परमत्थ न० (परमार्थ) तथ्ये, पाइ० ना०२६० गाथा। परत्थसंथव पुं० (परमार्थसंस्तव) 'परमट्ठसंथव' शब्दार्थे, ध०१ अधि०। परमदंसि(ण) पुं० (परमदर्शिन) परमो मोक्षस्तत्कारण वा संयमस्तं द्रष्टु शीलमस्येति परमदर्शी। मोक्षकारणद्रष्टरि, आचा०१श्रु०३ अ०२ उ०। परमदुच्चरिय त्रि० (परमदुश्वर) अत्यन्तदुष्करे, दश०६ अ०। परमपय न० (परमपद) मोक्षे, पं०व०१ द्वार। पाइ० ना०। आचा। माक्ष एवान्यैः परमपदसंज्ञयाऽभिहित इति तल्लक्षणमाहयन्न दुःखेन संमिन्नं, न च भ्रष्टमनन्तरम् / अभिलाषापनीतं च, तज्ज्ञेयं परमं पदम् // 2 // यत् पदं न नैव दुःखेनासुखेन संभिन्नं व्यामिश्र, न च नैव च भ्रष्ट क्षीणम्, | अनन्तरमुत्पत्तिलक्षणानन्तरम्। अथवा-अनन्तरमव्यवच्छिन्नम्। तथाअभिलाषेभ्यो विविधवाञ्छाभ्योऽपनीतमपेतमभिलाषापनीत यत् पदं तदिति तदेव ज्ञयं ज्ञातव्यं परमं सर्वोत्तमं पदमास्पदं सर्वगुणानामिति गम्यम् : हा०३२ अष्ट। परमपयबीय न० (परमपदबीज) निर्वाणहेतौ, पञ्चा०१४ विव० परमपसाहग त्रि० (परमप्रसाधक) मुक्तिनिर्वर्तके, पञ्चा० 4 विवा परमप्पय पुं० (परमाऽऽत्मन्) केवलज्ञानभाजिनिध्यानभाव्ये वा आत्मनि, द्वा०२० द्वा०। परमफल न० (परमफल) प्रकृष्टफले, षो०७ विव०। परमबंध पु० (परगबन्धु) परमोपकारिणि, आव० 2 अ० / ' 'जो बोहेइ | सुपंत, सो तस्स जणो परमबंधू।" सूत्र०१ श्रु०१४ अ० परमवल्लभ पुं० (परमवल्लभ) सर्वार्थसंप्राप्तिकारके, त०। परमभाव पु० (परमभाव) ज्ञानाऽऽदिपरमतत्वभावे, द्रव्या०२ अव्या०। / परमभूसणतव न० (परमभूषणतपस्) परमाण्युत्तमानि भूषणान्याभर- | णानि यतोऽसौ परमभूषणः / पञ्चा० 16 विव०। स चाऽसौ तपश्चेति। जिनाय तिलाकाऽऽद्याभरणदानसारे चित्रतपसि। | पञ्चा० 16 विव० / प्रव०। परमभूषणतपः प्राऽऽहसो परमभूसणो हो-इ जम्मि आयंबिलाणिं बत्तीसं / अंतरपारणयाइं, भूसणदाणं च देवस्स / / 1560 / / परमाणि शक्रचक्रवर्त्याधुचितानि प्रकृष्टानि हारकेयूरकुण्डलाऽऽदीनि भूषणान्याभरणानि यस्मादसौ परमभूषणः तस्मिन् द्वात्रिंशदाचाम्लानि पारणकान्तरितानि शक्तिसद्भावे निरन्तराणि वा करोति तत्समाप्तौ च देवस्य मुकुटतिलकाऽऽद्याभरणवितरणं यथाशक्ति यतिदानाऽऽदिकंच कर्तव्यमिति // 1560 // प्रव० 271 द्वार। परममंगल न० (परममङ्गल) प्रधानमङ्गले, दश० 1 अ०। परममुत्ति स्त्री० (परममुक्ति) सकलकर्माशप्रहाणौ, पञ्चा०२ विव०। परमरहस्स न० (परमरहस्य) प्रधानतत्त्वे, "परमरहस्समिसीणं, संमत्त गणिपिडगतत्तसाराणं / परिणामियं पमाण, णिच्छयभवलम्बमाणाण // 81 // " जी०१४ अधि०। परमरिसि पुं० (परमर्षि) तीर्थकरे, गणधरे च / पा०। परमरिसिदेसिय पु० (परमर्षिदेशित) परमर्षिभिस्तीर्थकराऽऽदिभिरेव देशितं भव्योपकाराय कथितम्। पा०। तीर्थकराऽऽदि-कथिते, "इमस्स धम्मस्स परमरिसिदेसियस्स।" ध०३ अधि०। परमरुद्द त्रि० (परमरुद्र) अत्यर्थदारुणे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। परमवच्छल्ल न० (परमवात्सल्य) प्रधानगौरवे, पञ्चा० 8 विव०। परमसिद्धि स्त्री० (परमसिद्धि) अणिमाऽऽदिसिद्ध्यपेक्षया प्रधाना पुरुषार्थनिष्पत्तिः / निर्वाण, पञ्चा०३ विव०। संथा० / परमसुइभूय त्रि० (परमशुचिभूत) अत्यन्तं शुचिभूते, विपा० 1 श्रु०६ अ०1 औ० भ० / अत्यर्थ शुचीकृते, औ०। रा०। परमसुक्किय न० (परमशौक्लिक) परमशुक्लप्रधानध्याने, संथा०। परमसुहसाहग त्रि० (परमसुखसाधक) पारम्पर्येण निर्वाणाऽऽवहे पं० सू० १सूत्र०। परमसोमणस्सिय त्रि० (परमसौमनस्थित) शोभनं मनो यस्य सुमनास्तस्य भावः सौमनस्य, परमं च सौमनस्य च परमसौमनस्यम् / तत्सजातमस्येति परमसौमनस्यितः। रा०। कल्प०। परमसौमनस्यिक त्रि० (परमसौमनस्य) तद्वाऽस्येति परमसौमनस्यिकः / औ०भ० / दशा० / सन्तुष्टचित्ततां गते, कल्प० 1 अधि० १क्षण। परमहंस पु० (परमहंस) वानप्रस्थभेदे, ये नदीपुलिनसमागमप्रदेशेषु वसन्ति चीरकोपीनकुशांश्च त्यक्त्वा प्राणान् परित्यजन्ति। औ० / परमहम्म त्रि० (परमधर्मन्) परमं सुखं तद्धर्मा। सुखधर्मणि सुखाभिलाषिणि, दश०४ अ०। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाउ 540 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परमाणु परमाउन० (परमायुष) संपूर्णाऽऽयुषि, "अड्डाइजाई वाससयाई परमाउय | नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, सत्थेण सुतिक्खेण विछित्तुं भेत्तुं च पालइत्ता।" विपा०१ श्रु०१अ०। जं किर न सक्का तं परमाणु सिद्धा वयंति। परमाणंद पुं० (परमाऽऽनन्द) प्रकृष्टाऽऽहादे,-''परमाऽऽनन्दरूपं तद परमाणुर्द्विविधः प्रज्ञप्तः-सूक्ष्मो, व्यावहारिकश्च। तत्र सूक्ष्मस्तत्स्वरूपागीयतेऽन्यैर्विचक्षणैः।" प्रकृष्टाऽऽह्लादस्वभावंतदिति मोक्षसुखं गीयतेऽ- ऽऽख्यानं प्रति स्थाप्यः, अनिधकृत इत्यर्थः / (से किं तं ववहारिए भिधीयते अन्यराहतैः परैर्विचक्षणैः पण्डितैः / हा०३२ अष्टा द्वा० / इत्यादि) ननु कियद्भिः सूक्ष्मैनैश्चयिकपरमाणुभिरेको व्यावहारिकः 'परमाऽऽनन्द इति यामाहुः" यां समरसापत्तिं परमाऽऽनन्द इत्यनेन परमाणुनिष्पद्यते? अत्रोत्तरम्-(अणंताणमित्यादि) अनन्तानां सूक्ष्मपरशब्देन ब्रुवते वेदान्तवादिनः। षो०१५ विव०॥ माणुपुद्गलानां संबन्धिनो ये समुदायाः द्वयादिसमुदायाऽऽत्मकानिवृन्दानि परमाणंदकंदभू स्त्री० (परमाऽऽनन्दकन्दभू) परमाऽऽनन्दरूपस्य कन्द- तेषां याः समितयो बहूनि मीलनानि तासा समागमः-संयोग एकीभवनं स्योत्पत्तिस्थाने, द्वा० 8 द्वा०। समुदयसमितिसमागमः, तेन व्यावहारिकपरमाणुपुद्रलएको निष्पद्यते। परमाणंदचच्चा स्त्री० (परमाऽऽनन्दचर्चा) महोदयमीमांसायाम, द्वा० इदमुक्तम्भवतिनिश्वयनयः- "कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति 32 द्वा०। परमाणुः।" एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च / / 1 / / " इत्यापरमाणंदसुहसंगय न० (परमाऽऽनन्दसुखसङ्गत) परम आ नन्दो यस्मिन् दिलक्षणसिद्ध निर्विभागमेव परमाणुमिच्छति / यस्त्वेतैरनेकैर्जायते तं सुखे तेन सङ्गतं युक्तम् / निर्वाण, षो० 15 विव०। साशत्वात् स्कन्धमेव व्यपदिशति, व्यवहारस्तु तदनेकतानिष्पन्नोऽपि परमाणंदसूरिपुं०(परमानन्दसूरि) विक्रमसंवत्सराणां त्रयोदशशतके जाते यः शस्त्रच्छेदाग्निदाहाऽऽदिविषयो न भवति तमद्यापि तथाविधस्थूलतासोमप्रभसूरिशिष्ये, ग० 3 अधि० / परमानन्दसूरिरभयदेवसूरिशिष्यो प्रतिपत्तेः परमाणुत्वेन व्यवहरति, ततोऽसौ निश्चयतः स्कन्धोऽपि व्यवगङ्गाचार्यकृतकर्मविपाकटीकाकृत। जै०३०। हारनयमतेन व्यवहारिकः परमाणुरुक्तः, न च वक्तव्यम्-अयं तर्हि शस्त्रच्छेदाऽऽदिविषयो भवति, यतस्तन्निषेधार्थमेव प्रश्रमुत्पादयति- (से परमाणु पुं० (परमाणु) परमश्चासावात्यन्तिकोऽणुश्च सूक्ष्मः परमाणुः / व्यणुकाऽऽदिस्कन्धानां कारणभूते अप्रदेशे पुगले, 'एगे परमाणू / ' णं भंते ! इत्यादि) स भदन्त! व्यावहारिकः परमाणुः कदाचिदसिः खड्ग, परमाणुः स्वरूपत एक एवाऽन्यथा परमाणुरेवासौ न स्यादिति। अथवा तद्धारां वा, क्षुरो नापितोपकरणं तद्धारां वा अवगाहेत आक्रामेत् ? अत्रोप्रत्येकमनन्तानामपि तुल्यरूपापेक्षयैकत्वम्। स्था० 1 ठा० / केषाश्चि तरम् - (हंतावगाहेतेति) हन्तेति कोमलाऽऽमन्त्रणे / अभ्युपगमद्योतने नानाऽऽदिके संबन्धात्परमाणोरप्येकता असंगतैवाऽ ह वाऽऽचार्यः वा। (अवगाहेतेति) शिष्यपृष्टार्थस्याभ्युपगमवचनम्। पुनः पृच्छति-स तत्रावगाढः संश्छिद्येत वा द्विधा क्रियेत्, भिद्येत वा-अनेकधा विदार्येत, "षट्केन युगपद्यौगात्परमाणोः षड़शता।" सम्म०१ काण्ड। सूच्यादिना वस्खाऽऽदिवद्वा सच्छिद्रः क्रियते ? उत्तरमाह-नायमर्थः परमाणुर्द्विविधः-सूक्ष्मो, व्यावहारिकश्च समर्थः, नैत देवमिति भावः। अत्रोपपत्तिमाह-नखलु तत्र शस्त्र क्रामति / से किं तं परमाणू ? परमाणू दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुहुमे इदमुक्तं भवति-यद्यप्यनन्तैः परमाणुभिर्निष्पन्नाः काष्ठाऽऽदयः शस्त्रच्छेअ, ववहारिए अ। तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे, तत्थ णं जे से दाऽऽदिविषया दृष्टास्तथाऽप्यनन्तकस्यानन्तभेदत्वात्तावत्प्रमाणेनैव ववहारिए से णं अणंताणताणं सुहमपोग्गलाणं समुदयसमिति परमाण्वनन्तकेन निष्पन्नोऽसौ व्यावहारिकः परमाणुग्राह्यो यावत्प्रमाणेन समागमेणं ववहारिए परमाणुपोग्गले निप्फज्जइ / से णं भंते ! निष्पन्नोऽद्यापि सूक्ष्मत्वान्न शस्त्रच्छेदाऽऽदिविषयतामासादयतीति असिधारं वा खुरधार वा ओगाहेजा? हंता ओगाहेज्जा / से णं भावः / पुनरप्याह-स भदन्त ! अनिकायस्य वडूमध्य मध्येनान्तरे तत्थ छिज्जेज वा, भिज्जेज वा ? णो इणट्टे समढे, नो खलु तत्थ व्यतिव्रजेद्गच्छेत् ? हन्तेत्याधुत्तर पूर्ववत्, नवरं शस्त्रमिहानिशस्त्रं ग्राह्यम्। सत्थं कमइ / से णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं पुनः पृच्छति-(से णं भंते ! पुक्खेरत्यादि) इदमपि सूत्र पूर्ववद्भावनीय, वीइवएज्जा ? हंता वीइवएज्जा / से णं मंते ! तत्थ डहेज्जा ? णो नवर पुष्करसंवर्तस्य महामेघस्येयं प्ररूपणा-इहोत्सपिण्यामेकइणढे समढे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ। से णं भंते ! पुक्खर विंशतिवर्षसहरनमाने दुःषमदुःषमालक्षणे प्रथमारके ऽतिक्रान्ते संवट्टगस्स महामेहस्स मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा? हंता द्वितीयस्याऽऽदौ सकलजनस्याभ्युदयार्थ क्रमेणामी पञ्च महामेघाः वीइवएज्जा / से णं तत्थ उदउल्ले सिआ ? नो इणढे समढे, णो प्रादुर्भविष्यन्ति, तद्यथा-पुष्करसंवर्तक उदकरसः प्रथमः, द्वितीयः खलु तत्थ सत्थं कमइ। से णं भंते ! गंगाए महाणदीए पडिसोयं क्षीरोदः, तृतीयो घृतोदः चतुर्थोऽमृतोदः, पञ्चमो रसोदः / तत्र पुष्कर - हव्वमागच्छेज्जा ? हंता हव्वमागच्छेज्जा से णं तत्थ विणिधाय संवर्तोऽस्य भरतक्षेत्रस्य पुष्करं प्रचुरमपि सर्वमशुमानुभावं भूमिरूक्षमावज्जेज्जा ? नो इणढे समढे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ / से तादाहाऽऽदिकं प्रशस्तोदकेन संवर्तयति नाशयति / एवं शेषमेघव्याणं भंते ! उदगावत्तं वा उदगबिंदु वा ओगाहेजा ? हंता ओगाहेजा, पारोऽपि प्रथमानुयोगादवगन्तव्यः, (उदए उल्ले सियत्ति) उदकेनाऽऽर्द्रः से णं तत्थ कुच्छेज वा, परियावज्जेज वा ? णो इणढे समढे, स्यादित्यर्थः / शस्त्रता चात्रोदकस्यावसेया। (सेणं भंते ! गंगाए इत्यादि) Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणु 541 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परमाहम्मिय गङ्गाया महानद्याः प्रतिस्त्रोतः,'हव्व' शीघ्रभागच्छेत्, पूर्वाऽऽद्यभिमुखे गङ्गाप्रवाहे वहति सति पश्चिमाऽऽद्यभिमुखः स आगच्छेत् तन्मध्येनेति भावः / (विणिहायमित्यादि) विनिघातः-तत्नोतसि प्रतिस्खलनं, तमापद्येत प्राप्नुयात्। शेषं पूर्ववत् / (से णं भंते ! उदगावत्तमित्यादि) उदकाऽऽवर्तोदकबिन्दोर्मध्ये अवगाह्य तिष्ठेदित्यर्थः / स च तत्रोदकसंपर्कात् कुत्थ्येद्वापूतिभावं यायात्पर्यापद्येत वा जलरूपतया परिणमेदित्यर्थः / शेषं तथैव / पूर्वोक्तमेवार्थ संक्षेपतः प्राह- "सत्थेण गाहा।' गतार्था, नवरं लक्षणमेवास्येदमभिधीयते, न पुनस्त कोऽपि छेत्तुं भेत्तुमारभते इत्येतत्किलशब्देन सूचयति, (सिद्ध त्ति) ज्ञानसिद्धाः केवलिनो न तु सिद्धाः सिद्धिगताः, तेषां वदनस्यासम्भवादिति। अनु० जी०। ज्यो०। प्रव० / स्था० / 'कारणमेव तदन्त्य, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च / / 1 / / '' स्था० 1 ठा०। जी०। भ० / उत्त० / विशे० / (परमाणूनां चलनम् 'चरमंत' शब्दे तृतीयभागे 1140 पृष्ठ गतम्) गमनसामर्थ्य परमाणोस्तथास्वभावत्वाद् मन्तव्यमिति। भ०१६श०८ उ० आचा०। परमाणूनां प्रत्यक्षविषयत्वम्-नच चक्षुरादिविज्ञाने परमाणवो नावभासन्ते, तेषां तुल्यातुल्यरूपत्वात्, तुल्यरूपस्य च चक्षुरादिविज्ञाने प्रतिभासनात्, न च तुल्यं रूपं नास्त्येव, तदभावें खल्वेकपरमाणुव्यतिरेकेणान्येषामणुत्वाभावप्रसङ्गात् / न च तदन्यव्यावृत्तिमात्रं परिकल्पितमेव, स्वरूपाभावेऽन्यव्यावृत्तिमात्रतायां तस्य खपुष्पकल्पत्वप्रसङ्गात, तथा चाशेषपदार्थव्यावृत्तमपि खपुष्पं स्वरूपाभावान्न सत्तां धारयति, न च तद्रूपमेव राजातीयेतरासाधारण तदन्यव्यावृत्तिः, तस्य तेभ्यः स्वभावभेदेन व्यावृत्तेः, स्वभावभेदानभ्युपगमे च सजातीयेतरभेदानुपपत्तेः सजातीयैकान्तव्यावृत्तौ च विजातीयव्यावृत्तावनणुत्ववदणुत्वाभावप्रसङ्गः, भावे च तुल्यरूपसिद्धिरिति, न चेयमनिमित्ता तुल्यबुद्धिः, देशाऽऽदिनियमेनोत्पत्तेः, न च स्वप्रबुद्ध्या व्यभिचारः, तस्या अध्यनेकविधिनिमित्तबलेनैव भावात् / आह च भाष्यकार:- "अणुभूय दिट्ट चिंतिय, सुय पयइवियार देवयाऽणूया। सुमिणस्स निमित्ताई. पुन्नं पावं च नामावो ||1 // ॥६१२शा आव०१ अ०। उत्त०। आ० क०। (मानुषत्वदौर्लभ्ये परमाणुदृष्टान्तो 'माणुसत्त' शब्दे द्रष्टव्यः) परमाणुपोग्गल पुं० (परमाणुपुद्गल) परमाश्च तेऽणवश्च परमाणयः निर्विभागद्रव्यरूपास्तेचते पुद्गलाश्च परमाणुपुद्गलाः। स्कन्धत्वमावमनापन्नेषु केवलेषु परमाणुषु, प्रज्ञा० 1 पद। स्था०। भ०। सूत्रका कइविहे णं मंते ! परमाणुपोग्गले पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे परमाणुपोग्गले पण्णत्ते / तं जहा-दव्वपरमाणू खेत्तपरमाणू कालपरमाणू भावपरमाणू 4 / दव्वपरमाणू णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते / तं जहा-अच्छे , अभेजे, अडज्झे, अगेज्झे / खेत्तपरमाणू णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-अणड्डे, अमज्झे, अपएसे, अविभागे। कालपरमाणू पुच्छा? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते / तं जहा-अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे / भावपरमाणू णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते / तं जहा-वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते।। (कइ इत्यादि) तत्र द्रव्यरूपः परमाणुर्द्रव्यपरमाणुरेकोऽणुर्वर्णाऽदिभावानामविवक्षणाद् द्रव्यत्वस्यैव च विवक्षणादिति / एवं क्षेत्रपरमाणुराकाशप्रदेशः कालपरमाणुःसमयः, भावपरमाणुः परमाणुरेव, वर्णाऽऽदिभावाना प्राधान्यविवक्षणात्सर्वजघन्यकालत्वाऽऽदिर्वा (चउव्विहे त्ति) एकोऽपि द्रव्यपरमाणुर्विवक्षया चतुःस्वभाव। (अच्छेज्ज ति) छेद्यः शस्त्राऽऽदिना लताऽऽदिवत्, तन्निषेधादच्छेद्यः। (अभेज ति) भेद्यः सूच्यादिना चर्मवत्तन्निषेधादभेद्यः / (अडज्झे ति) अदाह्योऽनिना सूक्ष्मत्वात्, अत एवाग्राह्यो हस्ताऽऽदिना / (अणद्धे ति) समसड़ ख्याऽवयवाभावात् (अमझे त्ति) विषमसंख्याऽवयवाभावात् (अपएसे त्ति) निरंशोऽवयवाभावात् / (अविभाइमे त्ति) अविभागेन निर्वृत्तो अविभागिमः, एकरूप इत्यर्थः / विभाजयितुमशक्यो वेति। भ० 20 श० 5 उ०1 ('चलमाणे चलिए'' इति 'कम्म' शब्दे चिन्तितम्। 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 450 पृष्ठे तद्विप्रतिपत्तिरुक्ता) परमाणु वग्गणा स्त्री० (परमाणुवर्गणा) असंख्यातानामनन्तानां च परमाणूना समुदाये, क०प्र०१ प्रक० 1 पं० सं०। परमाणुसंजोग पुं० (परमाणुसंयोग) परमाणूनामितरेतरसंयोगे, उत्त०१ अ०। ('संजोग' शब्देऽस्य व्याख्या दर्शयिष्यते) परमार पु०(परमार) क्षत्रियजातिविशेषे, "महारेरस्य नेतारः, परमारनरेश्वराः। पुरी चन्द्रावती तेषा, राजधानी निधिः श्रियाम्॥१॥' ती०७ कल्प। परमाराम पुं० (परमाऽऽराम) आरामयतीत्यारामः, परमश्वासावारामश्च परमाऽऽरामः। ज्ञाततत्त्वस्य जनस्य हासविलासापाङ्ग निरीक्षणाऽऽदिभिर्वियोकैहिके स्त्रीजने, ब्रह्याऽऽनन्दे च। आचा०१श्रु०४ अ०५ उ०। परमाहम्मिय पुं० (परमाधार्मिक) परमाश्च ते अधामिकाश्चसं - विखष्टपरिणामत्वात् परमाधार्मिकाः। असुरविशेषेषु, ये तिसृषु पृथिवीषु नारकान कदर्थयन्ति। स०१५ सम० भ०। तेसिंवा जमकाइयाणं देवाणं सक्कस्स जमस्स इमे देवा अहावच्चा अभिण्णाया होत्था / तं जहा "अंबे 1 अंबरिसे चेव २,सामे 3 सबले त्ति यावरे / रुद्दे 5 वरुद्दे 6 काले य 7, महाकाले त्ति यावरे ||1|| असिपत्ते / धणू 10 कुम्भे ११,बालुया 12 वेयरणीत्ति य 13 खरस्सरे 14 महाघोसे 15, एमे पण्णरसाहियार" अम्ब इत्यादयः पचादशाऽसुरनिकायान्तर्वर्तिनः परमाधार्मिकनिकायाः, तत्र यो देवो नारकानम्बरतले नीत्वा विमुञ्चत्यसावम्ब इत्यभिधीयते 1 / (एमे पण्णरसाहिय त्ति) एवमुक्तन्यायेन एतेयमापत्यदेवाः पञ्चदश आख्याता इति। भ०३श०७ उ० प्रव०। उत्त० आव०। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाहम्मिय 542 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परलोग (अम्बाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थानेषु) तथा परमाधार्मि का भव्या एव, इति प्रघोषः सत्योऽसत्यो वेति ? अत्र असत्य एवेति ज्ञेयम्।। उभयथाऽपि तेषासविरोधात् / न च जन्मान्तरीयकृतदुष्कृतोक्तिपूर्वक ते नारकान् कदर्थयन्तीति अभव्यानां तत्कथं संगच्छते इति वाच्यम, यतस्तेऽपि स्वर्गकामास्तपस्यां कुर्वाणाआगमे श्रूयन्ते इति / ही०३ प्रका० / भ०। सूत्र०। परमाहोहिय पुं० (परमाधोऽवधिक) परमाधोवधिकज्ञानिनि, परमे नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानयुक्ते, भ०। अयं च चरमशरीर एव भवतीत्यत आहपरमाहोहिए णं भंते ! मणूसे, जे भविए तेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए,जाव अंतं करित्तए / से णूणं भंते ! से खीणभोगी, सेसं जहा छउमत्थस्स / भ०७श०७ उ०! परमिट्टि(ण) पुं० (परमेष्ठिन्) ब्रह्मणि, अर्हत्सिद्धाऽऽचार्योपाध्याय सर्वसाधुषु पञ्चसु, पाइ० ना०२ गाथा। परमेसर पुं० (परमेश्वर) जगदीश्वरे, सर्वस्यापि त्रिजगद्गतस्य वस्तुनः परिभोगाच्च जीवे, विशे०। परमोदारिय न० (परमौदारिक) केवलिशरीरे, द्वा० 30 द्वा०। परमोहि पुं० (परमावधि) परमश्चासाववधिश्च परमावधिः / उत्कृष्टावधौ, "एगपएसोगाढ़, परमोही लहइ कम्मगसरीरं। लहइय अगुरुलहुयं, तेय सरीरे भवपुहुत्तं // 675 // " विशे०। आ०चून परम्मुह त्रि० (पराङ्मुख) निवृत्ते, अष्ट०७ अष्ट०। आ०म० / मार्गपराड् मुखाः संसारभिष्वङ्गिणो जैनमार्गविद्वेषिणः। सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० 4 उ०। परयत्त त्रि० (परायत्त) पराधीने, पाइ० ना० 108 गाथा। परलाभ पुं० (परलाभ) परस्माद् द्रव्याऽऽगमे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। परलिंग न० (परलिङ्ग) असाधुलिङ्गे तचेह द्विधा-गृहलिङ्गं, परतीर्थलिङ्गं च / व्य०४ उ०। जीत० / (परलिङ्गधारणं कृत्वा कालक्षेपं कुर्यात् इत्यादि 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 105 पृष्ठादारभ्योक्तम्) परलोग पु० (परलोक) जन्मान्तरे, दश०६ अ०। पञ्चा० / भ० / प्रश्नः / स्था०। उत्त० / आत्मव्यतिरिक्ते लोके,संथा० / इहास्मि-प्रज्ञापकमनुष्यापेक्षया मानुषत्वपर्याय यो वर्तते लोकः प्राणिवर्ग:स इहवर्गः स इहलोकः, तद्व्यतिरिक्तस्तु परलोकः / स्था० 10 ठा०। भवान्तरगतो, आ०म० 1 अ० / प्रव०। (अदृष्टसाधनपूर्वक-परलोकसिद्धिः प्रतिपादिता 'इहभव' शब्दे द्वितीयभागे 647 पृष्ठे) इह तत्रानुक्तोऽर्थः प्रदीत। अथ दशमगणधरवक्तव्यता माहते पव्वइए सोउं, मेअज्जो आगच्छई जिणसयासं। वचामिण वंदामी, वंदित्ता पज्जुवासामि ||1946|| मेतार्यनामा दशमो द्विजोपाध्यायः श्रीमजिनसकाशमागच्छति, शेष गतार्थमिति / / 1646 // तत्किमित्याह आभट्ठो य जिणेणं, जाइ-जरा मरणविप्पमुक्केणं / नामेण य गोत्तेण य, सव्वण्णू सव्वदरिसी णं / / 1950|| सव्याख्याना तथैव।।१६५०॥ आभाष्य ततः किमुक्तोऽसौ ? इत्याहकिं मन्ने परलोओ, अत्थि नत्थि त्ति संसओ तुज्झ। वेयपयाण य अत्थं, न याणासी तेसिमो अत्थो :1651 / आयुष्मन् मेतार्य ! त्वमेवं मन्यसे - किं भवान्तरगमनलक्षणः परलोकोऽस्ति, नाऽस्ति वेति? अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदपदश्रुतिनिबन्धनो वर्तते / तानि च "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः" इत्यादीनि प्रथमगणधरोक्तानि द्रष्टव्यानि। तेषां चार्थ न जानासि इत्यादि तथैवेति ||1651 // यथा च युक्त्या मेतार्यः परलोकनास्तित्वं मन्यते, तां भगवान् व्यक्तीकुर्वन्नाहमण्णसि जइ चेयण्णं, मजंगमउ व्व भूयधम्मो त्ति / तो नत्थि य परलोगो, तन्नासे जेण तन्नासो // 1952 / / सौम्य ! त्वमेवं मन्यसे-यदि तावचैतन्यं पृथिव्यादिभूतधर्मः-- भूतेभ्योऽनन्तरमित्यर्थः, यथा गुडधातक्यादिमद्याङ्गेभ्योऽनन्तरं मदधर्मः, तर्हि नास्त्यवान्तरगमनलक्षणः परलोकः, येन तन्नाशे भूतनाशे तस्याऽपि चैतन्यस्य नाशो ध्वंसो जायते। यो हि यदनान्तरभूतो धर्मः सतद्विनाशे नश्यत्येव, यथा पटाऽऽदिधर्मःशुक्लत्वाऽऽदिः, ततो भूतैरेव सह प्रागेव नष्टस्य चैतन्यस्य कुतो भवान्तरगमन मिति / / 1652 / / अथ भूतेभ्योऽर्थान्तरं चैतन्यं, तथाऽपि न परलोक इत्याहअह वि तदत्थंतरया,नय निचत्तणमओ वि तदवत्थं / अनलस्स वाऽरणीओ,भिन्नस्स विणासधम्मस्स / / 1653 / / अथाऽपि तदर्थान्तरता भूतेभ्योऽर्थान्तरता चैतन्यस्याऽभ्युपगम्यते, नन्वतोऽपि तदवस्थं भवान्तरगामित्वाभावलक्षणं दूषणं, चशब्दो यस्मादर्थे, यतोऽर्थान्तरभूतस्याऽपिचैतन्यस्य न नित्यत्वम्। कथम्भूतस्योत्पत्तिमत्त्वेन विनाशधर्मकस्य। कस्य यथा अनित्यत्वम् ? इत्याहअनलस्य। कथंभूतस्य ?-भिन्नस्य। कस्य?-अरणीतोऽरणेः / इदमुक्तम्भवति-भूतेभ्योऽर्थान्तरत्वेऽप्यनित्यं चैतन्यम्, उत्पत्तिधर्मकत्वाद, अरणिकाष्ठोत्पन्नतद्-भिन्नानलवदिति, यचानित्यं तत्किमपि कालं स्थित्वाऽनलवदत्रापि ध्वंसते, इति न तस्य भवान्तरयायित्वम्, अत इत्थमपि न परलोकसिद्धिरिति / / 1653 / / अथ प्रतिपिण्ड भिन्नानि भूतधर्मरूपाणि बहूनि चैतन्यानि नेष्यन्ते, किं त्वेक एव समस्तवैतन्याऽऽश्रयः सर्वत्रिभुवनगतो निष्क्रियश्चाऽऽत्माऽभ्युपगम्यते / यत उक्तम्- “एक एव हि भूताऽऽत्मा, भूते भूते व्यवस्थितः / एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत्॥१॥" ननु तथाऽपि न परलोकसिद्धिरिति दर्शयन्नाहअह एगो सव्वगओ, निकिरिओ तह विनत्थि परलोओ। संसरणाभावाओ, वोमस्स व सव्वपिंडेसु / / 1658|| अथैकः सर्वगतो निष्क्रियश्चाऽऽत्माऽभ्युपगम्यते, ननु तथाऽपि Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोग 543 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परलोग न परलोकगमनासिद्धिः, तस्याऽऽत्मनः सर्वेषु गोमनुष्याऽऽदिपिण्डेसु सर्वगतत्वेन निष्क्रयत्वेन च संसरणभावात्, व्योमवदिति॥१६५४।। इतोऽपि च परलोकाऽऽशङ्का, कुतः? इत्याहइहलोगाओ व परो, सुराइलोगो न सो वि पच्चक्खो। एवं पिन परलोगो, सुव्वइ य सुईसु तो संका / / 1955 // अथवा- इहलोकापेक्षया सुरनारकाऽऽदिभवः परलोक उच्यते, स चन प्रत्यक्षो दृश्यते, अतएवमपि न परलोकः सिद्ध्यति, श्रूयते चाऽसौ श्रुतिषु शास्त्रेषु, ततस्तच्छडाकिमस्ति, नास्ति, वा? इति दर्शितः पूर्वपक्षः / / 1655|| अत्र प्रतिविधीयते-यदुक्तम्-भूतधर्मश्चैतन्यं, तत्राऽऽहभूइंदियाइरित्तस्स चेयणा सो य दव्वओ निच्चो। जाइस्सरणाईहिं, पडिवजसु वाउभूह व्व / / 1656 / / इह भूतेन्द्रियातिरिक्तस्य पूर्वाभिहितानुमानाऽऽदिप्रमाणसिद्धस्याऽऽत्मन एव संबन्धिनी चेतना मन्तव्या, नतु भूतधर्मः / स चाऽऽत्मा जातिस्मरणाऽऽदिहेतुर्द्रव्यतो नित्य इति वायुभूतिरिव प्रतिपद्यस्व अतोनैकान्तानित्यत्वपक्षोक्तो दोषः, पर्यायत एवास्याऽनित्यत्वादिति भावः / / 1656 / / अथैकः सर्वगतो निष्क्रियश्चाऽऽत्मा कस्मान्नेष्यते? इत्याहन य एगो सव्वगओ, निकिरिओ लक्खणाइभे आओ। कुंभादउ व्व बहवो, पडिवज्ज तमिदभूइ व्व / / 1657 / / न चास्माभिरेक आत्मा इष्यते, किं तु बहवोऽनन्ताः / कुतः?लक्षणभेदात उपयोगलक्षणो हि जीवः, स चोपयोगो रागद्वेषकषायविषयाऽध्यवसायाऽऽदिभिर्भिद्यमान उपाधिभेदादानन्त्यं प्रतिपद्यत इत्यनन्ता जीवाः लक्षणभेदात घटाऽऽदिवदिति / तथा-न सर्वगत आत्मा, किं तु शरीरमात्रव्यापक, तत्रैव तद्गुणोपलब्धेरित्यादिशब्दोपात्तो हेतुः। स्पर्शनवदिति दृष्टान्तश्च / एवं न निष्क्रिय आत्मा, भोक्तृत्वादेवदत्तवदिति। तदेतदिन्द्रभूतिप्रथमगणधरवत्प्रतिपद्यस्वेति।।१६५७।। यदुक्तम्- "देवनारकाणां प्रत्यक्षाऽविषयत्वात्संदिग्धः परलोकः।" इति।तदयुक्तम्,मौर्याऽकम्पितवादयोर्देवनारकाणां साधितत्वात्, इति दर्शयन्नाहइहलोगाओ य परो, सोम्म ! सुरा नारगा य परलोओ। पडिवज मोरियाऽकंपिउव्व विहियप्पमाणाओ।।१९५८|| गतार्था / / 1658|| अथ प्ररेकःप्राहजीवो विण्णणमओ, तं चाणिच्चं ति तो न परलोगो। अह विण्णाणादण्णो, तो अणभिण्णो जहाऽऽगासं ||1656 / / इत्तो च्चिय न स कत्ता, भोत्ता अ अओ वि नत्थि परलोगो। जं च न संसारी सो, अण्णाणाऽमुत्तिओ खं व / / 1960 / / जीवो विज्ञानमयस्तावद्युष्माभिरिष्यते, विज्ञानादभिन्न इत्यर्थः। तच विज्ञानमनित्यं विनश्वरम, अतस्तदभिन्नस्य जिवस्याऽपि विनश्वरत्वान्न भवान्तरगमनलक्षणः परलोकः / अथ विज्ञानादन्यो जीवस्ततोऽनित्ये विज्ञाने जीवाद्भिन्ने सति स्वयं नित्योऽसावितिन परलोकाभावः / यद्येवं, तर्हि अनभिज्ञो जीवः, विज्ञानादन्यत्वाद, आकाशवत, काष्ठाऽऽदिवद्वा। अत एव च नित्यत्वादेवाऽसौ जीवो न कर्ता, नाऽपि भवता, नित्यस्य कर्तृत्वाऽऽद्यभ्युपगमे हि सर्वदैव तद्भावप्रसङ्गः, तस्य सदैवैकरूपत्वात्। कर्तृत्वाभवि च न परलोकः, अकृतस्य तस्याऽभ्युपगमे सिद्धानामपि तत्प्रसङ्गात्, भोक्तृत्वाभावेऽपिन परलोकः, अभोक्तुः परलोकहेतुभूतकर्मभोगायोगात्। इतोऽपि च न परलोकः। कुतः? इत्याह-(जे चेत्यादि) यस्माच नाऽसौ संसारी, नाऽस्य ज्ञानाद्भिन्नस्य जीवस्य भावाद्भवान्तरगमनलक्षणं संसरणमस्तीत्यर्थः / कुतः? इत्याह-स्वयमज्ञानत्वाकाष्ठखण्डवत्तथा-अमूर्त्तत्वाद् आकाशवदिति।।१६५६||१६६०।। अत्रोत्तरमाहमन्नसि विणासि चेओ, उप्पत्तिमदादिओ जहा कुंभो। नणु एवं चिय साहणमविणासित्ते वि से सोम्म ! / / 1961 // ननु "जीवो विण्णणमओतं चाणिच्च' इति ब्रुवाणो नूनं त्वमेवं मन्यसेविनाशि विनश्वरं चेतश्चेतना चैतन्यं विज्ञानमिति यावत्। उत्पत्तिमत्त्वादिति हेतुः / यथा कुम्भइति दृष्टान्तः / आदिशब्दात्पर्यायत्वाद् इत्यादिकोऽपि हेतुर्वक्तव्यः / यो हि पर्यायः स सर्वोऽप्यनित्यः, यथा स्तम्भाऽऽदीनां नवपुराणाऽऽदिपर्यायः / ततश्चाऽनित्याचैतन्यादभिन्नत्वे जीवास्याप्यनित्यत्वात्परलोकाभाव इति तवाऽभिप्रायः / न चाऽयं युक्तः, यतो हन्त नैकान्तेन विज्ञानमनित्यं, यतोऽविनाशित्वेऽपि (से) तस्य विज्ञानस्य एतदेव सौम्य! त्वदुक्त साधनं प्रमाणं वर्तते / ततोऽनैकान्तिकस्त्वदुक्तो हेतुरिति भावः / इदमुक्तम्भवतिउत्पादव्ययधौय्याऽऽत्मकं वस्तु। ततश्च यथोत्पत्तिमत्त्वाद्विनाशित्वं सिद्ध्यति, तथा धौव्याऽऽत्मकत्वाद्वस्तुनः कथञ्चिन्नित्यत्वमपि सिद्ध्यति। ततश्चेदमपि शक्यते वक्तुम-नित्यं विज्ञानम्, उत्पत्तिमत्त्वाद् घटवत् / ततश्च कथञ्चिन्नित्याद् विज्ञानादभिन्नस्य जीवस्य नित्यत्वान्न परलोकाभाव इति // 1661 // अथवा-विरुद्धाव्यभिचार्यप्ययमुत्पत्तिमत्त्वरूपो हेतुः, प्रत्यनुमानसद्भावात्। किं पुन स्तत्प्रत्यनुमानम् ? इत्याहअहवा वत्युत्तणओ, विणासि चेओ न होइ कुंभो व्व। उप्पत्तिमदादित्ते, कहमविणासी घडो वुद्धी // 1962 / / एकान्तेन विनाशि विनश्वरं चेतो विज्ञानं न भवति, वस्तुत्वात्, कुम्भवत्। ततोऽस्य प्रत्यनुमानस्योपस्थानाद्विरुद्धव्यभिचार्यप्यु-त्पत्तिमत्त्वलक्षणो हेतुः यदुक्तम्- "नणु एयं चिय साहणमविणासिते वि" इत्यादि, तत्र परस्येयं बुद्धिः स्यात् / कथंभूता बुद्धिरित्याहकथमुत्पत्तिमत्त्वात् दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तो घटोऽविनाशी सिद्ध्यति?-न कथञ्चित्, घटस्य विनाशित्वेन सुप्रतीतत्वात्। ततश्च दृष्टान्ते अविनाशित्वस्यासिद्धार्शन्तिके विज्ञाने तन्न सिद्ध्यतीति परस्याऽभिप्राय इति ॥१६६२सा अत्रोत्तरमाहरूवरसगंधफासा, संखा संठाणदव्वसत्तीओ। कुंभो त्तिजओ ताओ, पसूइविच्छित्तिधुवधम्मा।।१६६३।। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोग 544 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परलोगभय इह रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणो गुणसमुदायः, एकलक्षणा संख्या, विवक्ष्यते, नापि सुराऽऽदिपरलोको विवक्ष्यते, किंतु निष्पर्याय जीवद्रव्यपृथुबुध्नोदराऽऽद्याकारलक्षणं संस्थान, मृद्रव्यं, जलाऽऽहरणाऽऽदि- मात्रमेव विवक्ष्यते 1 तदेवमुत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावत्वे जीवस्य न शक्तिश्चेत्येतानि समुदितानि यतः कुम्भ इत्युच्यते, ताश्च रूपरस- परलोकाभाव इति / / 1666 / / / / 1667|| गन्धस्पर्शसंख्यासंस्थानद्रव्यशक्तयः प्रसूतिविच्छित्तिध्रौव्यधर्मिण्य आह-ननु कथं सर्वस्याऽपि वस्तुन इयं त्रिस्वभावता ? / इत्यत्र उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूपास्तत उत्पत्तिमत्त्वादविनाश्यपि घटः सिद्ध्य युक्तिमाहतीति ||1663 // असओ नत्थि पसूई, होज व जइ होउ खरविसाणस्स। एतदेव विस्तरतो भावयन्नाह न य सव्वहा विणासो, सव्युच्छेयप्पसंगाओ।।१६६६|| इह पिंडो पिंडाऽऽगा-रसत्तिपज्जायविलयसमकालं / तोऽवत्थियस्स केण वि, विलओ धम्मेण भवणमन्नेण। उप्पज्जइ कुम्भाऽऽगा-रसत्तिपज्जायरूवेण / / 1664|| सवुच्छेओ न मओ, संववहारोवरोहाओ॥१९६६।। रूवाइं दव्वयाए, न जाइ न य वेइ तेण सो निचो। इहैकान्तेन सर्वथाऽसतो वस्तुनः प्रसूतिरुत्पत्ति स्ति न घटते। अथ एवं उप्पायव्यय-धुवस्सहावं मयं सव्वं / / 166 // भवति, तर्हि खरविषाणस्यापि भवतु, असत्त्वाविशेषात्। तस्मात्केनापि इह मृत्पिण्डः कर्ता / योऽयं वृत्तसंस्थानरूपः स्वकीयो मृत्पिण्डा- | रूपेण सदेवोत्पद्यते / न च सतः सर्वथा विनाशः, क्रमशः सर्वस्याऽपि ऽऽकारः, शक्तिश्च या काचिदात्मीया, एतदुभयलक्षणो यः पर्यायः तस्य नारकतिर्यगादरुच्छेदप्रसङ्गात्। ततस्तस्मात्तस्यावस्थितस्य जीवाऽऽयो विलयो विनाशस्तत्समकालमेवाऽसावुत्पद्यते, मृत्पिण्डः / केन? देरस्ति केनापि मनुष्याऽऽदिधर्मेण विलयो विनाशः, अन्येन तु सुराऽऽइत्याह-पृथुबुध्नोदराऽऽदिको यः कुम्भाऽऽकारः, तच्छक्तिश्च या दिरूपेण भवनमुत्पादः, सर्वोच्छेदस्तुन मतस्तीर्थकृता, संव्यवहारोपरोजलाऽऽहरणाऽऽदिविषया,एतदुभयलक्षणो यः पर्यायस्तेनोत्पद्यते / धाद, अन्यथा व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गादित्यर्थः / तथाहि-राजपुत्र्याः रूपरसगन्धस्पर्शरूपतया मृद्रव्यरूपतया चाऽसौ मृत्पिण्डो न जायते, क्रीडाहेतुभूतं सौवर्णकलशक भडूक्त्वा राजतनयस्य क्रीडार्थमेव कन्दुको नाऽपि व्येति विनश्यति। ततस्तदृपतया नित्योऽयमुच्यते, तेन रूपेण घटितः, ततो राजपुत्र्याः शोकः, कुमारस्य तु हर्षः, सुवर्णस्वामिनश्च तस्य सदैवावस्थितत्वात् / तदेव मृत्पिण्डो निजाऽऽकारस्वशक्ति- नृपतेरौदासीन्यं, सुवर्णस्योभयावस्थायामप्यविनष्टत्वाद, इत्यादिको रूपतया विनश्यति, घटाऽऽकारतच्छक्तिरूपतयोत्पद्यते, रूपाऽऽदि- योऽसौ लोकव्यवहारस्तस्य सर्वस्याप्युत्पादव्ययध्रौव्याऽऽत्मकवभावेन मृद्रव्यरूपतया चावतिष्ठते, इत्युत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावोऽ- स्त्वनभ्युपगमे समुच्छेदः स्यात्। तस्मात्कथञ्चिदवस्थितत्वे जीवस्य न यमुच्यते। एवं घटोऽपि पूर्वपर्यायेण विनश्यति, घटाऽऽकारतया तूत्पद्यते, परलोकाभाव इति // 1668|| // 1666|| रूपाऽऽदित्वेन मृद्रव्यतया चावतिष्ठत इत्यसावप्युत्पादव्ययध्रौव्य- किं च-स्वर्गाऽऽदिपरलोकाभावेऽग्निहोत्रदानाऽऽदीनामानर्थक्यं स्वभावः / एवमन्यदपि यदस्ति वस्तु तत्सर्वमप्युत्पादव्ययध्रौव्यस्व- स्यादिति दर्शयन्नाहभावमेवाभिमतं तीर्थकृताम् ततश्च यथोत्पत्तिमत्त्वाद्विनाशित्वं घटे सि- असइ व परम्मि लोए, जमग्गिहोत्ताइँ सग्गकामस्स। ध्यति तथा अविनाशित्वमपि / तथा च सति साध्यधर्मिणि चैतन्येऽपि तदसंबद्धं सवं, दाणाइफलं च लोयम्मि।।१६७०।। तत्सिद्धिरिति / तदेवं चैतन्यादव्यतिरिक्तो जीवः कथञ्चिन्नित्य एव गतार्था / / 1670 // ||1964 // // 1665|| तदेवं छिन्नस्तस्यापि संशयः। ततः किं कृतवानसौ ? इत्याहततश्च न परलोकाभाव इति दर्शयन्नाह छिन्नम्मि संसयम्मी, जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं। घडचेयणया नासो, पडचेयणया समुब्भवो समयं / सो समणो पव्वइओ, तिहि ओसह खंडियसएहिं / / 1671 / / संताणेणावत्था, तहेहपरलोयजीवाणं / / 1666 / / अर्थः स एव। विशे०१०। सूत्र० आ० म०। ('उसभ' शब्दे द्वितीयभागे मणुएहलोगनासो, सुराइपरलोगसंभवो समयं / 1133 पृष्ठादारभ्य पूर्वभवव्याख्याऽवसरे श्रेयासेन स्वभवपरम्पराजीवतयाऽवत्थाणं, नेहभवो नेय परलोओ।।१९६७।। वर्णनावसरे स्वयंबुद्धसंवादेऽप्येषोऽर्थः साधितः) स्वर्गाऽऽदौ, आचा०२ घटविषय विज्ञानं घटचेतनोच्यते, पटविषयं तु विज्ञानं पटचेतना। यदा श्रु०४ चू०१ अ०। "संदिग्धे परलोकेऽपि, त्याज्यमेवाशुभ बुधैः / यदि च घटविज्ञानानन्तरं पटविज्ञानमुपजायते जीवस्य, तदा घटचेतनया नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः" / / 1 / / आचा० 1 श्रु०२ घटविज्ञानरूपेण तस्य नाश उच्यते, पटचेतनया तु पटविज्ञानरूपेण अ०३उ०॥ (समय) युगपदेव समुद्भव उत्पादः, अनादिकालप्रवृत्तेन तु चेतनासन्तानेन | परलोगणिप्पिवास त्रि० (परलोकनिष्पिपास) जन्मान्तरनिराकाक्षे, निर्विशेषणेन जीवत्वमात्रेणावस्थानमिति / एवं च यथेहभवेऽपि तिष्ठतो | प्रश्न०२ आश्र० द्वार। जीवस्योत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावत्रयं दर्शितं, तथा परलोकं गता जीवाः परलोगपडिबद्ध त्रि० (परलोकप्रतिबद्ध) स्था० 3 ठा०२ उ०। (अर्थस्तु परलोकजीवास्तेषामप्येतत्स्वभावत्रयं द्रष्टव्यम् तद्यथा-यदा मनुष्यो 'पव्वज्जा' शब्दे) मृत्वा सुरलोऽऽकादावुत्पद्यते तदा मनुष्यरूप इहलोको मनुष्येहलोक- परलोगभय न० (परलोकभय) विजातीयादन्यस्मात्तिर्यग्देवाऽऽदेः स्तस्य नाशस्तत्समकालमेव च सुराऽऽदिपरलोकस्य संभव उत्पादः, सकाशान्मनुष्याऽऽदीना भये, स्था०७ठा०। आवायथा मनुजाऽऽदीनां जीवतया त्ववस्थानम्। तस्यां च जीवत्वावस्थायां विवक्षितायां नेहभवो सिंहाऽऽदिभ्यः / दर्श०१ तत्त्व / स० / स्था०। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोगमग्ग 545 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परवादिवयण परलोगमग्ग पु० (परलोकमार्ग) स्वर्गाऽऽदिवीथ्याम्, जीवा० 1 अधि०। परलोगविरुद्ध न० (परलोकविरुद्ध) खरकर्माऽऽदौ, तद्यथा ''बहुधा खरकर्मित्व, सीरपतित्वं च शुक्लपालत्वम् / विरतिं विनाऽपि सुकृती, करोति नैवंप्रकारमकार्यम् ।।१।।ध० 20 1 अधि० 4 गुण / परलोगवेरि (ण) पुं० (परलोकवैरिन्) अन्यजन्मशत्रौ, पं०व०३ द्वार। परलोगसमावण्ण त्रि० (परलोकसमापन्न) समापन्ने, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। परलोगहिय न० (परलोकहित) जन्मान्तराय प्रधानजन्मने वा पथ्ये, पञ्चा०१ विव०। परलोगासंसापओग पुं० (परलोकाऽऽशंसाप्रयोग) देवोऽहं स्यामित्यादि रूपे परलोकविषयकाऽऽशंसालक्षणे अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाऽऽराधनाजाषेणाऽतिचारे, उपा०१ अ० श्रा० आवा परवंचण न० (परवञ्चन) परच्छलने, ध०। तद्वय॑ता चैवम् कूटतुलामान न्यूनाधिकवाणिज्यरसमेलावस्तुमेलानुचित मूल्यवृद्ध्यनुचितकलान्तरग्रणलञ्चाप्रदानग्रहणकूटकरकर्षणकूटदृष्टनाएकाऽऽघर्पणपरकीयक्रयविक्रयभञ्जनपरकीयग्राहकव्युद्ग्राहणवर्णिकान्तरदर्शनसान्धकारस्थानवस्त्राऽऽदिवाणि ज्यमषीभेदाऽऽदिभिः सर्वथा परवञ्चनं वय॑म् / यतः 'विधाय मायां विविधैरुपायैः, परस्य ये वञ्चनमाचरन्ति / ते वञ्चयन्ति त्रिदिवापवर्गसुखान्यहो मोहविजृम्भितानि ||1 // " ध०२ अधिक। परवक न० (देशी) अल्पचेतसि दे० ना० 6 वर्ग 8 गाथा। परवक्ख पुं० (परपक्ष) अपरवर्गे भिक्षाचरे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० 1 उ01 परवडिया स्त्री० (परप्रतिज्ञा) पराऽऽनीतस्याशनाऽऽदेर्दानप्रतिज्ञायाम, ''णो चेव णं परवडियाए ओगिज्झिय ओगिज्झिय उवणिमंतेजा।" आचा०२ श्रु०१चू०७ अ० 1 उ०। परवत्थ न० (परवस्त्र) साध्वपेक्षया गृहस्थस्य वस्त्रे, सूत्र० 1 श्रु०६ अ० / प्रधानवस्त्रे, आचा०१ श्रु०६ अ०।१ उ०। परवयण न० (परवचन) परश्वोदकस्तस्य वचनम्। प्रच्छकवचने, नि०चू० 2 उ01 परववएस पुं० (परव्यपदेश) परस्याऽऽत्मव्यतिरिक्तस्य व्यपदेशः परकीयमिदमन्नाऽऽदिकमित्येवमदित्सावतः साधुसमक्ष भणनं परव्यपदेशः। पञ्चा० 1 विव० / जानन्तु साधवो यस्यै तद् भक्ताऽऽदिकं भवेत् तदा कथमस्मभ्यं न दद्यादिति साधुसंप्रत्ययार्थ परकीयमेतत्तेन साधुभ्यो न दीयते इति साधुसमक्ष भणने, अस्माद्दानान्ममाऽन्नाऽऽदेः पुण्यमस्त्विति वा भणने, एष यथासम्बिभागस्य चतुर्थोऽतिचारः / उपा० 1 अ० ध०। आव०। परवस त्रि० (परवश) पराऽऽयत्ते, "परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते।" | उत्त० 1 अ०। अस्वतन्त्रे,प्रश्न०२ आश्र० द्वार। परवाइपमहण त्रि० (परवादिप्रमर्दन) वादिना मतप्रमर्दनात् ध्वसने, औ०। परवागरण न० (परव्याकरण) परस्तीर्थकृत्तस्य तेन वा व्याकरणं यथाऽवस्थितार्थप्रज्ञापनमागमः परव्याकरणम्। सर्वज्ञप्रवचने, आचा० 1 श्रु०५ अ०६ उ०। परवादिवयण न० (परवादिवचन) मिथ्यादृष्टीनां परेषा वादिनामुक्ती, तच सूत्रकृताङ्गप्रथम श्रुतस्कन्धे तृतीयाऽध्ययने तृतीयोद्देशे द्वितीयार्थाऽधिकारत्वेनोक्तम्। सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। इदानीं परवादिवचन द्वितीयमर्थाधिकारमधिकृत्याऽऽहतमेगे परिभासंति, भिक्खुयं साहुजीविणं / जे एवं परिभासंति, अंतए ते समाहिए||८|| (तमेगे इत्यादि) तमिति साधुम, एके ये परस्परोपकाररहितं दर्शनमापन्ना अयःशलाकाकल्पाः, ते च गीशालकमतानुसारिण आजीविका दिगम्बरा वा, तएवं वक्ष्यमाणं, परिसमन्ताद्वाषन्ते। तं भिक्षुकं साध्वाचार, साधुशोभनं परोपकारपूर्वक जीवितुं शीलमस्य स साधुजीविनमिति, 'ये' तेऽपुष्टधर्माणः (एवं ) वक्ष्यमाणं परिभाषन्ते' साध्वाचारनिन्दा विदधति, त एवम्भूता अन्तके पर्यन्ते दूरे 'समाधेः मोक्षाऽऽख्यात्सम्यग् ध्यानात्सदनुष्ठानात् वा वर्तन्त इति।।८।। यत्ते प्रभाषन्ते तद्दर्शयितुमाह संबद्धसमकप्पा उ, अन्नमन्नेसु मुच्छिया। पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह दलाह य / / 6 / / 'सम् एकीभावेन परस्परोपकार्योपकारितया च 'बद्धाः' पुत्रकलत्राऽऽदिस्नेहपाशैः संबद्धाः-गृहस्थास्तैः समः तुल्यः कल्पोव्यवहारोऽनुष्ठानं येषां ते संबद्धसमकल्पाः, गृहस्थानुष्ठान-तुल्यानुष्ठाना इत्यर्थः / तथाहि-यथा गृहस्थाः परस्परोपकारेण माता पुत्रे पुत्रोऽपि मात्रादावित्येवं मूञ्छिता अध्युपपन्नाः, एवं भवन्तोऽप्यन्योन्यं परस्परतः शिष्याऽऽचार्याऽऽधुपकारक्रियाकल्पनया मूञ्छिताः / तथाहि-गृहस्थानामयं न्यायो यदुतपरस्मै दानाऽऽदिनोपकार इति, नतुयतीनां, कथमन्योन्यं मूर्च्छिता इति दर्शयति-'पिण्डपातं' भैक्ष्य, ग्लानस्य अपरस्य रोगिणः साधोः, यत्-यरमात् (सारेह त्ति) अन्वेषयन्ते। तथा-(दलाहय त्ति) ग्लानयोग्यमाहारमन्विष्य तदुपकारार्थ ददध्वं चशब्दादाचार्याऽऽदेः वैयावृत्यकरणाऽऽद्युपकारेण वर्तध्वं, ततो गृहस्थसमकल्पा इति / / 6 / / साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन दोषदर्शनायाऽऽहएवं तुब्भे सरागत्था, अन्नमन्नमणुव्वसा। नट्ठसप्पहसब्भावा,संसारस्स अपारगा॥१०॥ (एवमित्यादि) (एवं) परस्परोपकाराऽऽदिना यूयं गृहस्था इव सरागस्थाःसह रागेण वर्तत इति सरागः-स्वभावस्तस्मिन् तिष्ठन्तीति ते तथा, 'अन्योऽन्य' परस्परतो वशमुपगताः-परस्पराऽऽयत्ताः, यतयो हि निःसङ्गतया न कस्यचिदायत्ता भवन्ति, यतो गृहस्थानामयं न्याय इति / त Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवादिवयण 546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परवादिवयण था नष्टः-अपगतः, सत्यथः -सद्भावः-सन्मार्गः परमार्थो येभ्यस्ते तथा। एवंभूताश्च यूयं 'संसारस्य' चतुर्गतिभ्रमणलक्षणस्य 'अपारगाः' अतीर- 1 गामिन इति // 10 // __ अयंतावत् पूर्वपक्षः, अस्य च दूषणायाऽऽहअह ते परिभासेजा, भिक्खू मोक्खविसारए। एवं तुन्भे पभासंता, दुपक्खं चेव सेवह / 11 / / (अहते परिभासेज्जा इत्यादि) अथ' अनन्तरं 'तान् एवं प्रतिकूलत्वेनोपस्थितान् भिक्षुः परिभाषेत' ब्रूयात्, किंभूतः? - ‘मोक्षविशारदः' - मोक्षमार्गस्यसम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्ररूपस्य प्ररूपकः, एवम्' अनन्तरोक्तं यूयं प्रभाषमाणाः सन्तः दुष्टः पक्षो दुष्पक्षोऽसत्प्रतिज्ञाऽभ्युपगमः तमेव सेवध्वं यूयम्।यदि वा-रागद्वेषाऽऽत्मकं पक्षद्वयं सेवध्वं यूयम्। तथाहिसदोषस्याप्यात्मीयपक्षस्य समर्थनाद्रागो, निष्कलङ्कस्याप्यस्मदभ्युपगमस्य दूषणाद् द्वेषः, अथैवं पक्षद्वयं सेवध्वं यूयम्। तद्यथा-वक्ष्यमाणनीत्या बीजोदकोद्दिष्टकृतभोजित्वाद् गृहस्थाः यतिलिङ्गाभ्युपगमात्किल प्रव्रजिताश्चेत्येवं पक्षद्वयाऽऽसेवनं भवतामिति / यदि वास्वतोऽसदनुष्ठानमपरं च सदनुष्ठायिनां निन्दनभिति भावः।।११।। आजीविकाऽऽदीनां परतीथिकानां दिगम्बराणां वा सदाचारनिरूपणायाऽऽहतुम्भे भुंजह पाएसु, गिलाणो अमिहडम्मि य। तंच बीओदगं भोचा, तमु हिस्सादि जंकडं / / 12 / / (तुरभे भुंजह इत्यादि) किल वयमपरिग्रहतया निष्किञ्चना एवमभ्युपगमं कृत्वा यूयं भुध्वं पात्रेषु' कांस्यपात्र्यादिषु गृहस्थभाजनेषु तत्परिभोगाच तत्परिग्रहोऽवश्यंभावी, तथा-आहाराऽऽदिषु मूछी कुरुध्वमित्यतः कथं निष्परिग्रहाभ्युपगमो भवतामकलङ्क इति / अन्यच्चग्लानस्य भिक्षाऽटनं कर्तुमसमर्थस्य यदपरैर्गृहस्थैरभ्याहृतं कार्यते भवद्भिः यतेरानयनाधिकाराभावाद् गृहस्थाऽऽनयने च यो दोषसद्धायः स भवतामवश्यंभावीति तमेव दर्शयतियच्च गृहस्थैर्षीजोदकाऽऽधुपमर्देनाऽऽपादितमाहारं भुक्त्वा तं ग्लानमुद्दिश्योद्देशकाऽऽदि 'यत्कृतं' यन्निष्पादितं तदवश्यं युष्मत् परिभोगायावतिष्ठते / तदेवं गृहस्थगृहे तद्भाजनाऽऽदिषु भुञ्जानास्तथा ग्लानस्य च गृहस्थैरेव वैयावृत्त्यं कारयन्तो यूयमवश्यं वीजोदकाऽऽदिमोजिन उद्देशिकाऽऽदिकृतभोजिनश्चेति।।१२।। किञ्चान्यत्लित्ता विव्वमितावेणं, उज्झिआ असमाहिया। नातिकंडूइयं सेयं, अरुयस्सावरज्झती // 13 // योऽयंषड्जीवानेकायविराधनयोद्दिष्टभोजित्वेनाभिगृहीतमिथ्यादृष्टितया च साधुपरिभाषणेन च तीव्रोऽभितापः-कर्मबन्धरूपस्तेनोपलिप्ताः-संवेष्टितास्तथा (उज्झिय त्ति) सद्विवेकशून्या भिक्षापात्राऽऽदित्यागात्परगृहभोजितयोद्देशकाऽऽदिभोजित्वान्। तथा- 'असमाहिताः' शुभाध्यवसायरहिताः सत्साधुप्रद्वेषित्वात्। साम्प्रतं दृष्टान्तद्वारेण पुनरपि तद्दोषााभिधित्सयाऽऽह-यथा 'अरुषः' व्रणस्यातिकण्डूयितं नस्वैर्वि लेखनं न श्रेयोन शोभनं भवति, अपि त्वपराध्यतितत्कण्ड्रयनं व्रणस्य दोषमावहति, एवं भवन्तोऽपि सद्विवेकरहिता वयं किल निष्किञ्चना इत्येवं निष्परिग्रहतया षड्जीवनिकायरक्षणभूतं भिक्षापात्राऽऽदिकमपि संयमोपकरण परिहृतवन्तः, तदभावाचावश्यंभावी अशुद्धाऽऽहारपरिभोग इत्येवं द्रव्यक्षेत्रकालभावानपेक्षणेन नातिकण्डूयितं श्रेयो भवतीति भावः।।१३।। अपिचतत्तण अणुसिट्टा ते, अपडिन्नेण जाणया। ण एस णियए मग्गे, असमिक्खा वती किती॥१४॥ 'तत्त्वेन' परमार्थेन मौनीन्द्राभिप्रायेण यथावस्थितार्थप्ररूपणया ते गोशालकमतानुसारिण आजीविकाऽऽदयः, वोटिका वा अनुशासिताः' तदभ्युपगमदोषदर्शनद्वारेण शिक्षा ग्राहिताः, केन? 'अप्रतिज्ञेन' नास्य मयेदमसदपिसमर्थनीयमित्येवं प्रतिज्ञा विद्यते इत्यप्रतिज्ञोरागद्वेषरहितः साधुस्तेन 'जानता' हेयोपादेयपदार्थपरिच्छेदकेनेत्यर्थः, कथमनुशासिता इत्याह योऽयं भवद्भिरभ्युपगतो मार्गो यथा यतीनां निष्कञ्चनतयोपकरणाभावात् परस्परत उपकार्योपकारकभाव इत्येषन नियतो न निश्चितो न युक्तिसङ्गतः, अतो येयं वाग् यथा-ये पिण्डपातं ग्लानस्याऽऽनीय ददति ते गृहस्थकल्पा इत्येषा असमीक्ष्याभिहिताअपयोलोच्योक्ता, तथा 'कृतिः' करणभूपि भवदीयमसमीक्षितमेव, यथा चाऽपर्यालोचितकरणता भवति भवदनुष्ठानस्य तथा नातिकण्डूयित श्रेय इत्यनेन प्राग्लेशतः प्रतिपादितं, पुनरपि सदृष्टान्तं तदेव प्रतिपादयति॥१४॥ यथाप्रतिज्ञातमाहएरिसा जावई एसा, अग्गवेणु व्व करिसिता। गिहिणो अमिहडं सेयं, मुंजिउ न तु भिक्खुणं / / 15 / / येयमीक्षा वाक् यथा यतिना ग्लानस्याऽऽनीय न देयमित्येषा अग्रे वेणुवत्-वंशवत्कर्षिता तन्वी युक्त्यक्षमत्वात् दुर्बलेत्यर्थः / तामेव वाचं दर्शयति- 'गृहिणाम्' गृहस्थानां यदभ्याहृतं तद्यते क्तुं 'श्रेयः' श्रेयस्कर, नतु भिक्षूणां संबन्धीति, अग्रेतनुत्वं चास्या वाचएवंद्रष्टव्यम्यथा गृहस्थाभ्याहृतं जीवोपमर्दैन भवति, यतीनां तूद्रमाऽऽदिदोषरहितमिति / / 15 // किञ्चधम्मपन्नवणा जा सा, सारंभा ण विसोहिआ। ण उ एयाहिँ दिट्ठीहिं, पुव्वमासिं पगप्पियं // 16|| धर्मस्य प्रज्ञापना देशना, यथा-यतीनां दानाऽऽदिनोपकर्तव्यमित्येवम्भूता या सा 'सारम्भाणां' गृहस्थानां विशोधिका, यतयस्तु स्वाऽनुष्ठानेनैव विशुध्यन्ति, न तुतेषां दानाधिकारोऽस्तीत्येतद्दूषयितुं प्रक्रमते'नतु' नैवैताभिर्यथा गृहस्थेनैव पिण्डदानाऽऽदिनायतेग्लानाऽऽद्यवस्थायामुपकर्त्तव्यम्, न तु यतिभिरेव परस्परमित्येवंभूताभिर्युष्मदीयाभिः 'दृष्टिभिः धर्मप्रज्ञापनाऽऽदिभिः पूर्वम् आदौ सर्वज्ञैः प्रकल्पितं प्ररूपितं प्रख्यापितमासीऽऽदिति, यतो न हि सर्वज्ञा एवंभूतं परिफल्गुप्रायमर्थं प्ररूपयन्ति यथा-असंयतैरेषणाऽऽद्यनुपयुक्तैग्लानाऽऽदेवयावृत्त्यं विधेय,नतूपयुक्तेन संयतेनेति।अपिच भवद्भिरपिग्लानोपकारोऽभ्युपगत ए Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परवादिवयण 547 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परविम्हावग आपच व, गृहस्थप्रेरणादनुमोदनाच्च, ततो भवन्तस्तत्कारिणस्तत्प्रवेषिण- जेणऽन्ने णो विरुज्झेज्जा, तेण तं तं समायरे / / 16 / / श्वेत्यापन्नमिति // 16 // 'बहवो गुणाः' स्वपक्षसिद्धिपरपक्षदोषोद्भावनाऽऽदयो माध्यस्थ्याअपिच ऽऽदयो वा प्रकल्पन्तेप्रादुर्भवन्त्यात्मनि येष्वनुष्ठानेषु तानि बहुगुणप्रकसव्वाहिं अणुजुत्तीहि,अचयंता जवित्तए। ल्पानिप्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनाऽऽदीनि माध्यस्थ्यवचनप्रकाततो वायं णिराकिचा, ते भुजो वि पगडिभया / / 17 / / राणि वा अनुष्ठानानि साधुर्वादकाले अन्यदा वा 'कुर्यात्' विदध्यात्, स ते गोशालकमतानुसारिणो, दिगम्बरा वा सर्वाभिरानुगताभिर्युक्तिभिः, एवं विशिष्यते-आत्मनःसमाधिश्चित्तस्वास्थ्यं यस्य स भवत्यात्मसवैरेव हेतुदृष्टान्तैः प्रमाणभूतैरशक्नुवन्तः स्वपक्षे आत्मानं यापयितुं समाधिकः। एतदुक्तं भवति-येन येनोपन्यस्तेन हेतुदृन्ताऽऽदिना आत्मसंस्थापयितुं ततः तस्माद्युक्तिभिः प्रतिपादयितुंसामर्थ्याभावात् 'वाद' समाधिः स्वपक्षसिद्धिलक्षणो माध्यस्थ्यवचनाऽऽदिना वा परानुपघातनिराकृत्य' सम्यग्हेतुदृष्टान्तर्यो वादोजल्पस्तंपरित्यज्यतेतीर्थिका भूयः लक्षणः समुत्पद्यते तत्तत् कुर्यादिति, तथा येनाऽनुष्ठितेन वा भाषितेन पुनरपि वादपरित्यागे सत्यपि प्रगल्यिता धृष्टतां गता इदमूचुः, तचथा- वा, अन्यतीर्थिको धर्मश्रवणाऽऽदौ वाऽन्यः प्रवृत्तो 'न विरुध्येत' न "पुराणं मानवो धर्मः, साङ्गो वेदश्चिकित्सितम्। आज्ञासिद्धानि चत्वारि, विरोधं गच्छेत्, तेन पराविरोधकरणेन तत्तदविरुद्धमनुष्ठानं वचनं वा न हन्तव्यानि हेतुभिः / / 1 / / " अन्यच्च-किमनया बहिरङ्गया युक्त्याऽ - 'समाचरेत् कुर्यादिति // 16 // नुमानाऽऽदिकयाऽत्र धर्म परीक्षेणे विधेये कर्त्तव्यमस्ति, यतः प्रत्यक्ष एव तदेवं परमतं निराकृत्योपसंहारद्वारेण स्वमतस्थापनायाऽऽहबहुजनसंमतत्वेन राजाऽऽद्याश्रयणाचायमेवास्मादभिप्रेतो धर्मः इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं / श्रेयान्नापर इत्येवं विवदन्ते, तेषामिदमुत्तरम्-न ह्यत्र ज्ञानाऽऽदिसार- कुजा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए।।२०।। रहितेन बहुनाऽपि प्रयोजनमस्तीति। (इम चेत्यादि) इममिति वक्ष्यमाणं दुर्गतिधारणांद्धर्मम्, 'आदाय' उक्तं च उपादाय आचार्योपदेशेन गृहीत्वा, काश्यपेन श्रीमन्महावीरवर्द्ध"एरंडकट्ठरासी, जहाय गोसीसचंदनपलस्स। मानस्वामिनोत्पन्नदिव्यज्ञानेन सदेवमनुजायां पर्षदि प्रकर्षणयथाऽवमोल्ले न होज सरिसो, कित्तियमेत्तो गणिज्जंतो / / 1 / / स्थितार्थनिरूपणद्वारेण वेदित प्रवेदित, चशब्दात्परमतं च निराकृत्य, तह वि गणणातिरेगो, जह रासी सो न चंदनसरिच्छो। भिक्षणशीलो भिक्षुः ग्लानस्य अपटोरपरस्य भिक्षोयावृत्याऽऽदिकं तह निविण्णाणमहा-जणो वि मोले विसंवयति / / 2 / / कुर्यात्, कथं कुर्यादतदेव विशिनष्टिस्वतोऽप्यग्लानतया यथाशक्ति एक्को सचक्खुगो जह, अंधलयाण सएहिँ बहुएहिं। 'समाहितः समाधि प्राप्त इति / इदमुक्तं भवति-यथा यथाऽऽत्मनः होइ वरं दट्ठव्यो, न हु ते बहुगा, अपेच्छंता॥३।। समाधिरुत्पद्यते न तत्करणेन अपाटवसंभवात् योगा विषीदन्तीति, तथा एवं बहुगा वि मूढा, ण पमाणं जे गइ ण याणंति। यथा तस्य च ग्लानस्य समाधिरुत्पद्यते तथा-पिण्डपाताऽऽदिक संसारगमणगुविलं, णिउणस्स य बंधमोक्खस्स // 4 // " विधेयमिति // 20 // इत्यादि। कि कृत्वैताद्विधेयमिति दर्शयितुमाह__ अपिच संखाय पेसलं धम्म, दिहिमं परनिव्वुडे / रागदोसाभिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभिद्दता। उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाएपरिव्वए।।२१।। आउस्से सरणं जंति, टंकणा इव पव्वयं // 18 // (संखाए इत्यादि) संख्याय-ज्ञात्वा, कं? - 'धर्म' सर्वज्ञप्रणीतं रागश्च प्रीतिलक्षणो, द्वेषश्च-तद्विपरीतलक्षणः,ताभ्यामभिभूत-आत्मा श्रुतचारित्राऽऽख्यभेदभिन्नं 'पेशलम्' इति सुश्लिष्टं प्राणिनामहिंसायेषां परतीथिकानां ते तथा, "मिथ्यात्वेन' विपर्यस्तावबोधेना- ऽऽदिप्रवृत्त्या प्रीतिकारण, किंभूतमिति दर्शयतिदर्शनं दृष्टिः सद्भूततत्त्वाऽध्यवसायरूपेण 'अभिद्रुताः' व्याप्ताः सधुक्तिभिवदिकर्तुम- पदार्थगता सम्यग्दर्शनमित्यर्थः, सा विद्यते यस्याऽसौ दृष्टिमान् यथावसमर्थाः क्रोधनुगाः 'आक्रोशान्' असभ्यवचनरूपांस्तथादण्डमुष्ट्या- स्थितपदार्थपरिच्छेदवानित्यर्थः, तथा-परिनिर्वृतो रागद्वेषविरहाच्छादिभिश्च हननव्यापारं 'यन्ति आश्रयन्तो-अस्मिन्नेवार्थे प्रतिपाद्य न्तीभूतस्तदेवं धर्म पेशलं परिसंख्याय दृष्टिमान् परिनिर्वृत उपसर्गाननुदृष्टान्तमाह यथा 'टङ्कणाः' म्लेच्छविशेषा दुर्जया यदा परेण बलिना कूलप्रतिकूलान्नियम्य संयम्य सोढा, नोपसर्गरुपसर्गितोऽसमञ्जसं स्वानीकाऽऽदिनाऽभिद्रूयन्ते तदा ते नानाविधैरप्यायुधैर्योद्धुमसमर्थाः विदध्यादित्येवम् 'आमोक्षाय' अशेषकर्मक्षयप्राप्तिं यावत्, परिसमन्तात् सन्तः पर्वतं शरणमाश्रयन्ति, एवं 'तेऽपि कुतीर्थिका वाद पराजिताः व्रजेत्ससमानुष्ठानोधुक्तो भवेत् परिव्रजेत्॥२१॥ सूत्र०१श्रु०३ अ०३ उ०। क्रोधाऽऽद्युपहतदृष्ट्य आक्रोशाऽऽदिकं शरणमाश्रयन्ते, न च ते इदमाक- परवाय पुं० (परवाद) मिथ्यादृष्टीनां मतवादे, आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। लय्य प्रत्याक्रोष्टव्याः, तद्यथा- "अक्कोसहणणमारणधम्मभंसाण | परविम्हावग पुं० (परविस्मापक) परचित्तविभ्रमकारके, बृ०॥ बालसुलभाणं / लाभं मन्नइ धीरो, जहुत्तराणं अभावम्मि।।१।।'' ||18|| अथ परविस्मापकमाहकिञ्चान्यत् सुरजालमाइएहिं, तु विम्हियं कुणइ तविहजणस्स। बहुगुणप्पगप्पाइं, कुजा अत्तसमाहिए। तेसु न विम्हयइ सयं, आहट्टकुहेडएहिं वा / / 503 / / Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परविम्हावग 548 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परहियट्ठकारि (ण) सुरजालमिन्द्रजालम्, आदिशब्दादपरकौतुकपरिग्रहः, तैस्तथा | परसामण्ण न०(परसामान्य) महासामान्ये सत्तायाम्.द्रव्यत्वाऽऽद्यवाआहर्ताः प्रहेलिकाः कुहेटकाः वक्रोक्तिविशेषरूपाः, तैश्च तथावि-धजनस्य न्तरसामान्यापेक्षया महाविषयात्वात् सत्तायाः / स्या०। तादृशस्य बालिशप्रायलोकस्य विस्मयं चित्तविभ्रगं करोति, स्वयं | परसु पुं० (परशु) कुठारे, ज्ञा०१ श्रु०२ अ० / बृ० / अनु० / ''परसुंगहाय पुनस्तेषु न विस्मयते। एष परविरमापकः / बृ० 1 उ०२ प्रक० / दंतमोत्तियगइंदसंतपमाणो।' आ०म०१ अ०। परविलायण न० (परविचालन) परविषयोत्खनने, सम्म०१ काण्ड। / परसुणियत्त त्रि०(परशुनिकृत्त परशुच्छिन्ने, भ०६ श०३३ उ०। परविवाहकरण न० (परविवाहकरण) परेषां स्वापत्यव्यतिरिक्तानां परसुराम पुं० (परशुराम) यमदग्निसुते पशुधारके, सच यमदग्नेः रेणुकाया जनानां विवाहकरणं कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धाऽऽदिना वा जातः खेचरात्पशुविद्यां प्राप्य स्वगोहार कस्य कृतवीर्यस्य वधं कृत्वा परिणयनविधानं परविवाहकरणम्। पञ्चा० 1 विव०। परकीयापत्यानां ततः स्वपितृहन्तारं कार्तवीर्य हत्वा महाक्रोधपरीतः त्रिः सप्तकृत्वो स्नेहाऽऽदिना परिणायने, ध०२ अधि०। आव०। इदं च स्वदारसन्तोष निःक्षत्रियां पृथिवीं व्यधात्। आ० क० 4 अ०। आ०म० / आ०चू०। स्याऽतिचारः / अयमभिप्रायः-स्वदारसंतोषिणो हि न युक्तं परेषां परसुहत पुं० (देशी) वृक्षे, 6 वर्ग 26 गाथा। विवाहाऽऽदिकरणेन मैथुननियोगोऽनर्थको, विशिष्टविरतियुक्तत्वा परस्सर पुं० (पराशर) गण्डे, 'गैंडा' इतिख्याते (प्रज्ञा०११ पद। जी० / ) दित्येवमनाकलयतः परार्थकरणोद्यनतयाऽतिचारोऽयमिति / उपा०१ आटव्यजीवविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। जी०। भ०। स्त्रियाम्- "परस्सरी / ' प्रज्ञा०११ पद। अ०। पञ्चा०1 परविसय पुं० (परविषय) परदेशे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। परहत्थ पुं० (परहस्त) दातृहस्ते, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ० 130 / परवेयावच्चकर पुं० (परवैयावृत्त्यकर) स्वार्थनिरपेक्षे परेषां वैयावृत्त्यकरे, परहत्थपारियावणिया स्त्री० (परहस्तपारितापनिका) परहस्ते- नतथैव तत्कारयतः परहस्तपारितापनिकी। तस्याम, स्था० 2 टा० 1 उ०। स्था० 4 ठा०३ उ०। परसंतिग त्रि० (परसत्क) परकीये, "परसतिगाभिज्झालोभमूल काल परहिय न० (परहित) परोपकारे, ध०२ अधि० / पञ्चा० / "ते तावत्कृतिनः परार्थघटकाः स्वार्थस्य नाशेन ये, विसयसंसियं।'' पर सत्के धने योऽभिध्यालोभो रौद्रध्यानान्विता मूर्छा, स मूलं निबन्धनं यस्याऽदत्ताऽऽदानस्य तत्तथा तचेति कर्मधारयः। प्रश्न० सामान्यास्तु परार्थमुद्यतधियः स्वार्थाविरोधेन ये। तेऽभी मानुषराक्षसाः परकृतिर्हन्यते स्वार्थती, ३आश्र० द्वार। ये निघन्ति निरर्थक परकृतं ते के न जानीमहे ? ||1 // " समा०१ परसंसट्ठ न० (परसंसृष्ट) गृहस्थाऽऽदिपरिवेषणनिमित्ते हस्ते, मात्रके वा / अधि०१प्रस्ता०। बृ०१ उ०३ प्रक०। परहियट्ठकारि(ण) पुं० (परहितार्थकारिन्) परेषामन्येषां हितानर्थान परसमय पुं० (परसमय) कपिलाऽऽद्यभिप्रायानुवर्तिग्रन्थरूपे, उत्त० प्रयोजनानि कर्तुं शीलं यस्य स परहितार्थकारी। स्वत एव परप्रयोजन१०। परतीर्थिकसिद्धान्ते, विशे० / स्था० / अपरिशब्दनयवादे, प्रसाधनप्रवणे, दर्श० 2 सत्त्व / ध011०र० / प्रव० / गुणवच्छू वके. "जावइया वयणपहा, तावइया चेव होंतिणयवाया। जावइया णयवाया, घ०र०। तावइया चेव परसमया // 1 // " सम्म०३ काण्ड। तत्फलम्। संप्रति विंशतितमगुणः परहितार्थकारी, तत्स्वरूपं नामत परसमयण्णु त्रि०(परसमयज्ञ)शास्त्रान्तरज्ञे, परसमयज्ञतायाः प्रयोजनम् एव सुगमम्, तस्य धर्मप्राप्तौ फलमाहग्रीष्ममध्याह्नतीव्रतरणिकरनिकरावलीढगलत्-खेदविन्दुकः क्लिन्नव परहियनिरओ धन्नो, सम्मं विनायधम्मसम्भावो। पुष्कस्साधुः केनचित् द्विजातिनाऽभिहितः-किमिति भवतां सर्वजनाऽऽ अन्ने विठवइ मग्गे, निरीहचित्तो महासत्तो॥२७॥ वीर्ण स्नान न सम्मतमिति? स आह-प्रायः सर्वेषामेव यतीनां कामाग यो हि प्रकृत्यैव परेषां हितकरणे नितरा रतो भवति स धन्यो धर्मत्वात जलस्नानं प्रतिषिद्धम् / "स्नानं मददर्पहरं, कामाङ्ग प्रथम धनार्हत्वात् सम्यग विज्ञातधर्मसद्भावो यथावद् बुद्धधर्मतत्त्वो, गीतार्थीभूत स्मृतम् / तस्मात्कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः।।१।।" आचा० इति यावत् / अनेनाऽगीतार्थस्य परहितमपि चिकीर्ष-तस्तदसंभवमाह। 1 श्रु०२ अ०५ उ०। तथा चाऽऽगमः- "किं इत्तो कट्टयर, जसम्ममना य समयसब्भावो। अन्न परसमुत्तार पुं० (परसमुत्तार) परस्य मोक्षप्रापकत्वे, बृ०१३०२ प्रक० / कुदेसणाए, कट्ठयरागम्मि पाडेइ।।१।।" इति। अन्यानपि अविज्ञातधर्मान् (व्याख्या परदेसियत्त' शब्दे 528 पृष्ठे गता) सद्गुरुपाश्वेसमाकर्णिताऽऽगमवचन-रचनाप्रपञ्चैः स्थापयति प्रवर्त्तयति परसमुत्थ त्रि० (परसमुत्थ) परस्माज्जाते, आव० 4 अ०। ज्ञातधर्माश्च सीदतः स्थिरीकरोति मार्गे शुद्धधर्मे / भामकुमारवत्। अनेन परसरीर न० (परशरीर) परकीयशरीरे, मृतकशरीरे च / स्था०४ ठा० यति-श्राद्धसाधारणेन परहितगुणव्याख्यानपदेन साधोरिव श्रावकरयाऽपि 2 उ०। स्वभूमिकाऽनुसारेण देशनायां व्याप्रियमाणस्यानुज्ञामाह। तथा चोक्तं परसरीरअणवकंखवत्तिया स्त्री० (परशरीरानवकालाप्रत्यया) परशरीर श्रीपञ्चमाङ्गद्वितीयशतकपञ्चमोद्देशके-"तहारूव णं भते ! समणं वा क्षति कराणि कुर्वत्याम्, स्था० 2 ठा०१ उ०। माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किं फला पज्जुवासणा ? गोयमा ! सवण Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परहियट्ठकारि (ण) 546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पराणंद फला। से ण भंते ! सवणे किं फले ? नाणफले। से णं भंते ! नाणे किं समाधिनिष्ठा तु परा, तदासङ्गविवर्जिता। फले ? विन्नागफले। सेणं भंते ! विन्नाणं किं फले? पचक्खाणफले / से सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च, तदुत्तीर्णाऽऽशयेति च // 26|| ण भंते ! पचक्खाणे किं फलं? संजमफले। से णं भंते ! संजमें किं (समाधीति) परा तु दृष्टिः समाधिनिष्ठा वक्ष्यमाणलक्षणसमाध्याफले ? अणण्हयफलं एवं अणण्हएतवफले, तवे वोदाणफलं, वोदाणे सक्ता,तदासङ्गेन समाध्यासनेन विवर्जिता, सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च सर्वाअकिरियाफले / सेणं भंते! अकिरिया किं फला? सिद्धिपञ्जवसाणफला ङ्गीणैकत्वपरिणतप्रवृत्तिश्च, चन्दनगन्धन्यायेन / तदुत्तीर्णाऽऽशयेति च पन्नत्ता गोयमा ! गाहा-"सवणे नाणे य विन्नाणे, पञ्चक्खाणे य संजमे। सर्वथा विशुद्ध्या प्रवृत्तिवासकचित्ताभावेन !|26|| द्वा० 24 द्वा०। अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया चेव॥१॥" पराअपुं० (पराग) रजसि, "रेणू पंसू रओ पराओ या" पाइ० ना० 137 अस्य सूत्रस्य वृत्तिः-(तहारूवं इत्यादि) तथारूपमुचितस्वभावं, कश्शन | गाथा। पुरुष श्रमणं वा तपोयुक्तम्, उपलक्षणत्वादस्योत्तरगुणवन्तमित्यर्थः / | पराइय त्रि० (पराजित) पराभग्ने, संथा। आ०म० / सूत्र० / निराकृते, माहनं वा स्वयं हनननिवृत्तत्वात् परं प्रतिमाहनेति वादिनम्, उपलक्षण- स्था० 10 ठा०॥ त्वादेव मूलगुणयुक्तमितिभावः / वाशब्दोऽत्र समुच्चये / अथवा श्रमणः पराइयसत्तु त्रि० (पराजितशत्रु) पराभग्नशत्रौ, यद्विधविजयवत्त्वात् साधुः, माहनः श्रावकः, श्रवणफलेति सिद्धान्तश्रवणफला-(नाणफल (स्था०६ ठा०) तद्विधराज्योपार्जने कृतसम्भावनाभङ्गान् शत्रूनकृत। ति) श्रुतज्ञानफल, श्रवणाद्धि श्रुतज्ञानमवाप्यते। (विण्णाणफल त्ति) औ०। सूत्रकारा०। विशिष्टज्ञानफलं, श्रुतज्ञानाद्धि हेयोपादेयविवेककारि विज्ञानमुत्पद्यते | परागम पुं०(पराऽऽगम) उत्कृष्टाहऽऽगमे,जैनशास्त्र, पराक्ये कापिलाssएव / (पञ्चक्खाण त्ति) विनिवृत्तिफलं, विशिष्टज्ञानो हि पापं प्रत्याख्याति। दिशास्ने च। अट०१६ अष्ट०। (संज-मफल त्ति) कृतप्रत्याख्यानस्य हि संयमो भवत्थेव। अणण्हयफल | परागार न० (परागार) परगृहे, दश०८ अ०। त्ति) अनाश्रवफलः, संयमवान् किल नव कर्म नोपदत्त। (तवफल त्ति) पराघाय पुं० (पराऽऽघात) गर्तपाताऽऽदिसमुत्थेदुःखे, स्था०७ ठ०। अनाश्रवो हि लघुकर्मत्वात्तपस्यतीति / (वोदाणफल त्ति) व्यवदानं पराधायणाम(ण) न० (पराघातनामन्) नामकर्मभेदे, यदुदयात् कर्मानर्जरणं, तपसाहि पुरातनं कर्म निर्जरयति / (अकिरियाफल त्ति) परेषामुपधातको / भवति जीवः / स०४२ सम० / प्रव० / उत्त०। योगनिरोधफल कर्मनिर्जराते हि योगनिरोधं कुरुते। (सिद्धिपज्जवसाण- "परघाउदया पाणी, परेसि बलिणं पि होइ दुद्धरिसो। (43)" फल ति) सिद्धिलक्षणं पर्यवसानफलं, सकलफलपर्यन्तवर्ति फलं यस्याः परानाहन्ति परिभवति, परैर्वा न हन्यते नाभिभूषते इति पराघातं, सा तथा। (गाह त्ति) संग्रहगाथा। एतल्लक्षणम्-विषमाक्षरपादं चेत्यादि तन्निबन्धनं नाम पराघातनाम / ततः पराघातोदयात्पराधातनामकर्मछन्दःशास्त्रप्रसिद्धमिति। श्रीधर्मदासगणिपूज्यैरुपदेशमालायामप्युक्तम्- विपाकात्प्राणी जन्तुः परेषामन्येषां बलिनामपि बलवतामपि, आस्तां "वंदइ पडिपुच्छइ पज्जुवासए सावुणो य सयमेव। पढइ सुणेइ गुणेइय, दुर्बलानामित्यपिशब्दार्थः / भवति जायते दुर्धर्षो ऽसभिभवनीयमूर्तिः जणस्स धम्म परिकहेइ // 1 // " इति। अयमर्थः-यदुदयात्परेषां दुसवर्षो महौजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्रसौष्ठवेन वा किं विशिष्टः सलित्याह-गिरीहचित्तो निःस्पृहमनाः, सस्पृहो हि महाभूपसमामपि गतः सभ्यानामपि क्षोभमापादयति, प्रतिपक्षप्रतिभाशुद्धमार्मोपदेष्टाऽपि न प्रशस्यते। तथा चोक्तम्- "परलोकतिगं धाम, प्रतिघातं चकरोति तत्पराघातनामेत्यर्थः। कर्म०१ कर्मा पं०सं० श्रा०। तपः श्रुतमिति द्वयम् / तदेवार्थित्वनिलुप्तसारं तृणलवायते // 1 // " पराजय पुं० (पराजय) अभिभवे, विजये, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। किमित्येवविध इत्याह-महासत्त्व इति कृत्वा, यतः सत्त्ववताममी गुणाः | नि०। विशे०। संभवन्ति / तथाहि- "परोपकारैकरतिनिरीहता, विनीतता सत्यमतु- पराजिणित्तए अव्य० (पराजित्य) परानभिभवितुमित्यर्थे, भ०७ श० च्छचित्तता। विद्याविनोदोऽनुदिन न दीनता, गुणा इमे सत्त्ववतां भवन्ति ६उ01 ||1||" ध० २०१अधि०२० गुण (भीमकुमारकथा 'भीमकुमार' शब्दे पराजिणित्ता अध्य० (पराजित्य) भृशं जित्वेत्यर्थे, परिभङ्ग प्राप्येत्यर्थे वक्ष्यते) च / स्था०३ ठा०२ उ०। आ०म० / पराजेतृरिसुबलाद् भज्यमाने, परहियणिरय त्रि० (परहितनिरत) परोपकाराभिरते, षो०५ विया स्था० 4 ठा०२ उ०। परहियरय त्रि०(परहितरत) परे आत्मवयतिरिक्ता जीवास्तेषां हितं सम्य- | पराजिय त्रि० (पराजित) पराभिभूते, उत्त०१३ अ० / वशीकृते, आचा० क्त्वाऽऽदिगुणाऽऽधान, तव रतश्चाऽऽसक्तः। परोपदेशाऽऽसक्ते, जी०१ १श्रु०२ अ०४ उ०। सूत्र०। अरनाथाय प्रथमभिक्षादायके, आ०म०१ प्रति०१ अधि०। अ० / अपराजित इति नाम संभाव्यते। स०। परहुअ पुं० (परभृत) परेण स्वपितृव्यतिरिक्तेन भृतः पोषितः / / पराणंद न० (पराऽऽनन्द) पर आनन्दोऽस्मिन्निति पराऽऽनन्दम् / "उदृत्वादो" |8/1 / 131 / / इति ऋकारस्योकारः / प्रा०१ पाद। परब्रह्मणि, षो०१५ विव०। भस्य हः / कोकिले, कल्प०१ अधि०३ क्षण। पाइ० ना०। ज्ञा०। जंग। * पराऽऽनन्द्य न० परैरानन्द्यमभिनन्दनीयं तत्प्रार्थिभिः श्लाघनीयं, परा स्त्री० (परा) योगदृष्टिभेदे, द्वा०। रोचनीयमिति यावत्। परब्रह्मणि, षो०१५ विव०। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराणीय 550 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिअल - - सूत्र पराणीय न० (परानीक) शत्रुसैन्ये, तं०। कसंस्थानषट्कसंहननषट्काऽऽनुपूर्वीचतुष्काऽऽनपोदयोतविहापराणुकंपय पुं० (परानुकम्पक) निष्ठितार्थतया परमात्रानुकम्पकतीर्थकरे, योगतिद्विकत्रसाऽऽदिषोडशकपेदत्रिकहास्यरत्यरतिशोकयुलद्वयसाआत्मानपेक्षे च। स्था० 4 ठा० 4 उ०। तासातोचनीचाऽऽयुश्चतुष्टयलक्षणाः षट्षष्टिःप्रकृतयो बन्धोदयाभ्यामपि पराणुपति स्त्री० (परानुवृत्ति) आत्मव्यतिरिक्तप्रधानाऽऽवृत्तौ, दश०६ परस्पर विरुद्धा अतः परावर्तमाना इत्युक्ताः। कर्म०५ कर्म०। अ० 1 उ०। पराववाद पुं० (परापवाद) परेषां दोषोद्भावने, नि०चू० ११उ०॥ परामय पुं० (पराभव) पराजये, अनादरे, विपा० 1 श्रु०१० असतामेव दोषाणामुद्धोषणे परापवादः, न च वस्तुस्वरूपाऽऽविर्भावने पराभिसित्त पुं० (पराभिषिक्त) परेण पित्रादिना राज्येऽभिषिक्ते राजनि, परापवादः, 'कुज्ञानकुश्रुतिकुमार्गकुदृष्टिदोषान्, सम्यग् विचारयति यथा भरतेनाभिषिक्त आदित्ययशोः। व्य०५ उ०। कोऽत्र परापवादः?" सूत्र०२ श्रु०५ अ०। परामरिस पुं०(परामर्श)"शर्षतप्तवजे"||८।२।१०।। इति सत्रेण / परावेक्खा स्त्री०(परापेक्षा) स्वातिरिक्तहेत्वपेक्षायाम, द्वा०१७ द्वा०। शपूर्वाभकारः। विचारे, प्रा०२ पाद। पराऽऽश्रयतायाम, पराधीनतायाम, अष्ट०१७ अष्ट। परामुट्ठ पुं० (परामृष्ट) "उद्त्वादौ" ||8/1 / 131 // इति ऋकार-- परासर पुं० (परासर) शरभे, आटव्यपशुविशेषे, भ०३ श०५ उ०। ज्ञा० / स्योकारः। प्रा०१ पाद। गृहीते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। "अणेण पाणिणा आचा० / स्वनामख्याते ब्राह्मणपरिव्राजके, औ०1 प्रति०। परामुट्ठो।" आ०म०१अ०। विषयाभिलाषविषयतया स्पृष्ट, आचा०१ परासु त्रि० (परासु) मृते, आ०क० 110 / ज्ञा०। पराहिगरणि(न) पुं० (पराधिकरणिन्) परतः परेषामधिकरणे प्रवर्त्तनेश्रु०२ अ०५ उ०। परामुसिअ त्रि० (परामृष्ट) आश्लिष्टे, "आलुखिअं आलि , छिक्क छित्तं नाधिकरण। पराधिकरणी। परेषामधिकरणप्रवर्तके, भ०१६ श०१ उ०। पराहीण त्रि० (पराधीन) गुर्वाद्यायत्ते, विशे०। परामुसि।' पाइ० ना०८५ गाथा। परायग त्रि० (परकीय) परसम्बन्धिनि, "सय भंड अणुगवेसइ। नो परायगं पराहुत्त त्रि० (पराङ्मुख) अन्यतो मुखे,पं०व०२ द्वार। आवळा आ०म० / भंड अणुगवेसयइ।" भ०८ श०५ उ०। पराहूअ त्रि० (पराभूत) अभिभूते, ''परिहूअं अहिलिअं पराहूअ।" परायण त्रि० (परायण) धर्मध्यानतत्पर, उत्त. 14 अ० / धर्मकनिष्ठे, पाइ०ना० 161 गाथा। उत्त०१४ अ०। उद्युक्ते, आव० 4 अ०! परि अव्य० (परि) सामस्त्ये, रा०। सर्वतो भावे, आ०म० १अ स्था० / परायत्त त्रि० (पराऽऽयत्त) अस्वाधीने,आचा० 1 श्रु०३ अ० 1 उ०। समन्तादर्थे सूत्र०१ श्रु०६ अ०। आचा०। आतु०। सर्वप्रकारे, उत्त० / परारि अव्य० (परारि) विगतवर्षे, आचा० 1 02 अ० 3 उ०। 1 अ० / अभ्यावृत्तौ, आव० 6 अ० / सर्वत इत्यर्थः, वर्जने, व्याधौ, शेषे, परावत्तमाणा स्त्री० (परावर्तमाना) याः प्रकृतयोऽन्यस्थाः प्रकृतेर्बन्ध कश्चित् प्रकार प्राप्ते, निरसने, पूजायाम्, भूषणे, उपरमे, शोके, मुदयमुभयं वा विनिवार्य स्वकीयं बन्धमुदयमुभयं वा दर्शयन्ति / तासु सन्तोषभाषणे, अतिशये, त्यागे, नियमे च / वाचा कर्मप्रकृतिषु, कर्म०५ कर्म। परिअट्ट पुं० (देशी) रजके, दे०ना०६ वर्ग 15 गाथा। साम्प्रतं परावर्त्तमामप्रकृतीराह परिअट्ठलिअ (देशी) परिच्छिन्ने, दे० ना०६ वर्ग 36 गाथा। तणुअट्ट वेय दुजुयल, कसाय उज्जोयगोयदुग निदा। परिअडी (देशी) वृतिमूर्खयोः, दे० ना०६ वर्ग 73 गाथा। तसवीसा उपरित्ता, खित्त विवागाणुपुवीओ।।१६।। *परिअत्तधा० (श्लिष) श्लेषणे,"श्लेषैः सामग्गावयासपरि-अत्ताः" (तन्वष्टकव्याख्या 'तणुअट्ठ' शब्दे चतुर्थभागे 2178 पृष्ठे गता) वेदाः |||||160 // इति श्लिषेः परिअत्ताऽऽदेशः। परिअत्तइ।' श्लिष्यति / स्त्रीपुनपुंसकरूपास्त्रयः, द्वियुगलं हास्यरत्यरतिशोकरूपम्, कषायाः प्रा०४ पाद। षोडश. (उज्जोयगायदुगंति) द्विकशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धादुद्द्योतद्विकम् / परिअत्तणा स्त्री० (परिवर्तना) सूत्रस्य घोषाऽऽदिविशुद्धगुणेन प्रव०६ "उज्जोयायवेति'' वचनादुद्योताऽऽतपाऽऽख्यम्। (द्विगोत्रव्याख्या / द्वार। पुनः सूत्रार्थभ्यासे, अनु०। औ० / विशे० 'दुगोय' शब्दे चतुर्थभागे 2554 पृष्ठे गता) निद्रापञ्चक, जसविंशति- परिअद्धय त्रि० (परिवर्द्धक) वृद्धिकारिणि, "समणगविंदपरिस्वसदशकस्थावरदशकरूपाः, आयूंषि चत्वारि इत्येता एकनवतिप्र- अद्धए।" औ०। कृतयः / (परित ति / प्राकृतत्वात्परिवृत्तााः परावर्त्तमाना भवन्तीति * परिकर्षक त्रि० अग्रे गामिनि, औ०। शेषः / तत्र षोडश कषायाः, निद्रापञ्चकं च। यद्यष्येता एकविंशतिप्रकृतयो परिअर (देशी) लीने, देवना०६ वर्ग 24 गाथा। धुवबन्धित्वाद् बन्धं प्रति परोपरोध न कुर्वन्ति, तथाऽपि स्वोदये परिअरबंध पुं०(परिकरबन्ध) विशिष्टनेपथ्यरचनायाम्, अशु०। स्वजातीयप्रकृत्युदयनिरोधात्परावर्त्तमाना भवन्ति / स्थिरशुभास्थि- परिअल(ल्ल)गम् धा० गतो, 'गमेः अई- अइच्छाणु वज्जाराशुभप्रकृतयश्चतस्रश्च यद्यप्युदयं प्रति न विरुद्धास्तथापि बन्धं प्रतिपरा- वजसोकुसाकुस-पच्चड्डु-पच्छन्द-णिम्भह णी-णीण-णीलुक्क पदवर्तमानाः, शेषाश्च गतिन तुष्कजातिपशकशरीरत्रिकाङ्गोपाङ्गत्रि अ-रम्भ परिअल्ल-वाल-परिअल-णिरिणास-णिबहाव-सेहाव Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिअल 551 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिक्खेव हराः" / / 4 / 162 / / इति सूत्रेण गमधातोःपरिअलपरिअल्ल आदेशी भेदे, स्था०१० ठा०। भवतः। परिअलइ। परिअल्लइ।' गच्छति। प्रा० 4 पाद। परिकम्मिन्जमाण त्रि० (परिकर्ममाण) क्रियमाणशोधनार्थोपक्रमे, भ० परिअली स्त्री० (देशी) स्थाले, भोजनभाण्डमिति यावत् / दे०ना०६ ६श०३ उ०। वर्ग 12 गाथा। परिकम्मिय त्रि० (परिकर्मित) सुष्टकृतपरिकर्मणि, व्य० १उ० ज्ञा० परिआइत्ता अव्य० (पर्यादाय) समन्ताद् गृहीत्वेत्यर्थे, स्था० 1 ठा०। आहितसंस्कारे विशे०। 'परिकम्मियजन्त्रकमलकोमलमा-इयसोहंतपरिआल धा० (वेष्टि) "वेष्टेः परिआलः" ||8||51 / / इति सूत्रेण लट्ठउर्दु।" पारकर्मित कृतपरिकर्म यज्ञात्यकमलं तद्वत् कोमलौ मात्रिको 'परिआल' आदेशः / वेष्ठने, प्रा० 4 पाद। प्रमाणोपपन्नौ शोभमानानां मध्ये लष्टौ मनोज्ञौ ओष्ठौ दशनच्छदौ यस्य परिउत्था स्त्री० (देशी) प्रोषिते, देवना०६ वर्ग 13 गाथा। स तथा तम्। भ०११श० 11 उ०। परिएसिज्जमाण त्रि० (परिवेष्यमाण) दीयमानाऽऽहारेण भोज्यमाने, | परिकम्मोवघाय पुं० (परिकर्मोपधात) परिकर्म वस्त्रपात्राऽऽदिसमारचनं, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ०२ उ०। तेनोपघातः / स्वाध्यायस्य श्रमाऽऽदिना शरीरस्य संयमस्य वोपघातः परिकंखिय त्रि० (परिकाक्षित) प्रतीक्षिते, उत्त०७ अ०। परिगृहीते, परिकर्मोपघातः। उपधातभेदे, स्था० 10 ठा०। रा० / इष्ट, उत्त०७ अ०। परिकर पुं० (परिकर) सन्नाहे, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। परिकट्ठलिय त्रि० (परिकर्षित) एकत्र पिण्डीकृते, पिं०। परिकल्ल न० (परिकल्य) अलाञ्छितमुद्रिते, “परिकल्लाईं करेत्ता, परिकड्डिऊण अव्य० (पर्याकृष्य प्रारम्भं कृत्वेत्यर्थे, 'परिकड्डि-ऊण किलिंजकडएहि पिहिताई।" (परिकल्लाई ति) यानि नापि लापडिकमण।"पं०व०२ द्वार। ञ्छितानि नापि मृद्रितानि किं तु तदुभयप्रकारबाह्यानि कृत्वा विवक्षितपरिकड्डेमाण त्रि० (परिकर्षत्) पार्श्वभागे समाकर्षिते, नं०। प्रदेशे स्थापयित्वा किलिञ्जकटरेवमेव स्थगितानि तानि पिहितान्युपरिकप्पिय त्रि० (परिकल्पित) कल्पनामात्रनिर्मितशरीरे, षो०१६ विव० च्यन्ते। बृ०२ उ०। समन्तानिष्पादिते, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। परिकहणा स्त्री० (परिकथना) प्रज्ञापनायाम, नि०चू०१ उ०। समन्तात् परिकप्पियंगमंग त्रि० (परिकल्पिताङ्गोपाङ्ग) छिन्नावयवे, प्रश्र० 3 अ० कथनायाम, आ०म०१ अ०। श्र० द्वार। परिकिण्ण त्रि० (परिकीर्ण) परिवृत्ते, उत्त० 11 अ० / व्याप्ते, आ०म० परिकम्म(ण) न० (परिकर्मन्) द्रव्यस्य गुणविशेषपरिणामकरणे, 10 // आ०म०१ अ०। ध्य० / स्था० अवस्थितस्यैव वस्तुनो गुणवि- | परिकिलेस पुं० (परिक्लेश) बाधोत्पादने, औ०। उपतापने, आचा०१ शेषाऽऽधाने, आतु० / “परिकम्म किरियाए, वत्थूणं गुणविसेसपरि- श्रु०६ अ०३ उ० / परितापने, प्रश्र०१ सम्ब० द्वार। "परिकिलेसणामो / / " (623) परिकर्मोच्यते, किम्?, इत्याह-क्रियया क्रिया- किच्छदुक्खसज्झं।" परिक्लेशेन महामानसाऽऽयासेन कृच्छ्रदुःखेन च विशेषेण यो वस्तूनां गुणविशेषपरिणामो गुणविशेषाऽऽधानामित्यर्थः / गाढशरीराऽऽयासेनये साध्यन्ते वशीक्रियन्ते तथा। भ०६ श०३३ उ०। विशे०। (अत्र विशेषः 'उवक्कस' शब्दे द्वितीयभागे 870 पृष्ठादारभ्य परिकुंठिय त्रि० (परिकुण्ठित) जडीभूते, विशे. / दर्शितः) ("पाणिपडिमाहेण य, सचेल-निचेलओ जहा भविया।" इति परिकुविय त्रि० (परिकुपित) समन्ताद्दर्शितकोपविकारे,भ०७ श०६ पाणिप्रतिग्रहविषयं परिकर्म 'जिणकप्प' शब्दे चतुर्थभागे 1471 पृष्ठे उ०। सर्वथा क्रुद्धे, स्था० 10 ठा०। व्याख्यातम्) योग्यताऽऽपादने तद्धेतौशास्त्रे चापूर्वगतानुयोगसूत्रार्थपरि- परिक्खण न० (परीक्षण) द्रम्माऽऽदीनां परीक्षायाम,प्रव०३८ द्वार। कर्मग्रहणयोग्यतासंपादनसमर्थानि परिकर्माणि / यथा-गणितशास्त्रे परिक्खभासि (ण) त्रि० (परीक्ष्य भाषिन्) आलोचितवक्तरि, दश० संकलनाऽऽद्यादीनि। नं०1 ('दिहियाय' शब्दे चतुर्थभागे 2515 पृष्ठे 7 अ०। परिकर्मप्ररूपकाणि सूत्राण्युक्तानि) संकलिताऽऽद्यनेकविधे गणितज्ञ- | परिक्खा स्त्री० (परीक्षा) विचारणायाम्, पं०व० 4 द्वार। निचूला विशे०। प्रसिद्ध गणिते, तेन संख्येयस्य परिगणने च / स्था० 10 ठा०। युक्तविचारणायाम, आचा०१ श्रु० 4 अ०१ उ०। षण्मासाऽऽदिकालतुलनायाम, भावनायाम्, विशे०। (शिष्यपरिकर्म ‘एगलविहार' शब्दे | मानविनयाऽऽदिभिस्तदयोग्यता-निरूपणायाम, पञ्चा० 10 विव० / तृतीयभागे 23 पृष्ठे उक्तम्) अश्वाऽऽदीनां शिक्षापणे नि०चू० 1 उ०। परिक्खाविहिदुटिवदद्ध त्रि० (परीक्षाविधिदुर्विदग्ध) अधिकृतगुणसीवने, बृ०३ उ०। नि०चू०। विशेषपरीक्षणविधौ दुर्विदग्धे पण्डितमन्ये, स्या०। परिकम्मणा स्त्री० (परिकर्मणा) उपधेः प्रमाणेन संयतप्रायोग्यकरण, | परिक्खित्त त्रि० (परिक्षिप्त) परि सामस्त्येन क्षिप्त यत् परिक्षिप्तम्। आ०म० नि०चू०५ उ०। १अ01 सर्वतो व्याप्ते, रा०। जंकावेष्टिते ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। विपा० / परिकम्मसंखाण न० (परिकर्मसंख्यान) परिकर्म सङ्कलिताऽऽद्यनेक- औ०। कृतपरिवेशे,"कयपरिवेसं परिक्खित्ते।'' पाइ० ना० 16 गाथा। विधं गणितप्रसिद्धं, तेन यत्संख्येयस्य संख्यानं परिगणनस्।संख्यान- परिक्खे व पु० (परिक्षेप) परिरये, जी० 3 प्रति० 5 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिक्खेव 552 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गह अधि० / भित्यादेः परिधी, नगरपरिखाऽदौ च / अनु० / संक्षेपे, आचा० परिभाव्य तदीयं नगरं यदन्ये राजानः परिहरन्ति तत्तदीयेन सत्त्वसारा१श्रु०८अ०२ उ०। ऽऽदिना भावेन परिक्षिप्त प्रतिपत्तव्यम्। व्याख्यातं परिक्षेपपदम् / बृ०१ अथ परिक्षेपपदं निक्षिपन्नाह उ०२ प्रक०। नामं ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य। परिगमण न० (परिगमन) परि समन्ताद् गमनम् / गृहभावगमने, नि०चू० एसो उ परिक्खेवे, निक्खेवो छव्विहो होइ॥३१६।। ३उ० नामपरिक्षेपः, स्थापनापरिक्षेपो, द्रव्यपरिक्षेपः,क्षेत्रपरिक्षेपः, काल- परिगय त्रि० (परिगत) व्याप्ते, उत्त०२ अ० परिवेष्टिते, औ०। परिक्षेपो, भावपरिक्षेपः / एष परिक्षेचे निक्षेपः षड्विधा भवति, तत्र परिगलंत त्रि० (परिगलत्) क्षरति, "परिगलंतसोया" / आचा०१ श्रु० नामस्थापने गतार्थे / 5 अ०५ उ०॥ द्रव्यपरिक्षेपं प्रतिपादयति परिगालण न० (परिगालन) शुक्तिशङ्खमत्स्याऽऽदिग्रहणार्थ जलनि:सचित्ताऽऽदी दव्वे, सचित्तो दुपयमादिगो तिविहो। सारणे,प्रश्न०१ आश्र० द्वार। मीसो देसचिताऽऽदी, अचित्तो होइमो तत्थ।।३१७।। परिगिज्झिय अव्य० (परिगृह्य) अङ्गीकृत्वेत्यर्थे, उत्त० 510 द्रव्यपरिक्षेपस्त्रिविधः सचित्ताऽऽदिः-सचित्तः, अचित्तो, मिश्रश्चेत्यर्थः। / परिगिलायमाण त्रि० (परिग्लायत्) ग्लायति, आचा०१ श्रु०८ अ० सचित्तरित्रविधोद्विपदचतुष्पदापदभेदात्। तत्र ग्रामनगराऽऽदेर्यन्मनुष्यैः ३उ। परिवेष्टितं स द्विपदपरिक्षेपः, यत्र तुरङ्गमहस्त्यादिभिः स चतुष्पदपरि- | परिगुवंत त्रि०(परिगुप्यत्) व्याकुलीभवति सततं भ्रमति, परि-गु-यत् क्षेपः / यत्पुनर्वृक्षः सोऽपदपरिक्षेपः / मिश्रोऽप्येवमेव त्रिविधः / पर 'गुड्' धातोः शब्ार्थत्वात्। संशब्दमाने, स्था० 10 ठा०। (देसचिताऽऽदि त्ति) देशे एकदेशे उपचितः सचेतनः, आदिशब्दाद्देशे परिग्गह पुं० (परिह) परिगृह्यते आदीयतेऽस्मादिति परिग्रहः / परिग्रहणं अपचितो व्यपगतचैतन्यः। किमुक्तं भवति? यथैके मनुष्याश्च हस्त्यादयो वा परिग्रहः / प्रव०६३ द्वार। धनधान्याऽऽदिस्वीकारे, औ०। प्रश्नः / जीवन्ति, अपरे तु मृताः, परं ग्रामाऽऽदिक परिक्षिप्य व्यवस्थिताः / स सूत्र०। द्विपदचतुष्पदधनधान्याऽऽदिके, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। आन्तरमिश्रपरिक्षेपस्त्वयं भवति। ममरूपत्वे, सूत्र० 1 श्रु०६ अ० / धन्यधान्याऽऽदिद्विपदचतुष्पदाऽऽतमेवाह दिसंग्रहे. सूत्रः 1 श्रु० 5 अ० / साधुमर्यादाऽतिक्रमेण ग्रहे, आ०चू० 4 पासाणिट्टगमट्टिय-खोडगकडगकंटिगा भवे दव्वे। अ० / स च बाह्याऽऽभ्यन्तरभेदाद् द्विधा। तत्र बाह्यो धर्मसाधनव्यतिखाइयसरनइअगडा, पव्वयदुग्गाणि खेत्तम्मि // 318|| रेकधनधान्यभेदादनेकधा आभ्यन्तरस्तु मिथ्याविरतिकषायप्रमादाssपाषाणमयः प्राकारो यथा द्वारिकायाः, इष्टकामयः / प्राकारो यथा दिरनेकधा। परिग्रहणं वा परिग्रहो, मूछेत्यर्थः / स्था०१ ठा० / प्रश्न / नन्दपुरे, मृत्तिकामयो यथा सुमनःसुखनगरे (?) (खोड नि) काष्ठमयः उत्तका आचा०। व्या धर्मसाधनव्यतिरेकेण धनधान्याऽऽदौ, स्था०२ प्राकारः कस्यापि नगराऽऽदेर्भवति, कटकोवंशबलाऽऽदिमयः कण्टिका ठा०१ उ०। पं०व०। आचा०1 सूत्र०। परिग्रह्यत इति परिग्रह, तस्य, बब्बुलाऽऽदिसंबन्धिन्यः, तन्मयो वा परिक्षेपो ग्रामाऽऽदेर्भवति एष सर्वोऽपि कीदृशस्य? कृत्स्नस्य नवविधस्येत्यर्थः / स चायम्-धनं 1, धान्यं 2, द्रव्यपरिक्षेपः, तथा खातिका वा सरो वा नदी वा गर्ता वा पर्वतो वा क्षेत्र३, वास्तु 4, रूप्यं 5, सुवर्ण 6, कुप्यं 7. द्विपदः८, चतुष्पदश्च इति दुर्गाणि वा जलदुर्गाऽऽदीनि, पर्वता एव दुर्गाणि वा / एतानि नगराऽऽदिक अतिचाराधिकारे व्याख्यास्यमानः। श्रीभद्रबाहुस्वामिकृतदशवकालिपरिक्षिप्य व्यवस्थितानि क्षेत्रपरिक्षेप उच्यते। कनिर्युक्तौ तु-गृहिणामर्थपरिग्रहो धान्य 1 रत्न २-स्थावर ३-द्विपद कालपरिक्षेपमाह 4 - चतुष्पद 5 - कुप्य ६-भेदात् सामान्येन षड्डिधोऽपि तत् प्रभेदैश्चतुः वासारत्ते अइपा-णियं ति गिम्हे अपाणियं नच्चा। षष्टिविधः प्रोक्तः। (ध.)(धान्यानि चतुर्विंशतिः 'धण्ण' शब्दे चतुर्थभागे कालेन परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरति / / 616 / / 2656 पृष्टे गतानि) वर्षाराचे अतिपानीयमिति कृत्वा, ग्रीष्मे उष्णकाले अपानीयमिति रत्नानि चतुर्विशतिर्यथाकृत्वा रोढुं न शक्यते इति ज्ञात्वा तेन कारणेन तन्नगरादिकमन्ये "रयणाइँ चउव्वीस, परराष्ट्रराजानः परिहरन्ति तत्कालपरिक्षिप्तम्। सुवन्न 1 तउ 2 तंब 3 रयय 4 लोहाई 5 / भावपरिक्षेपमाह सीसग 6 हिरण्ण ७पासानचा नरवइणो सत्तसारबुद्धीपरक्कमविसेसे। ण 8 वइरह मणि 10 मोत्तिअ 11 पवाल 12 // 1 // भावेण परिक्खित्तं, तेण तमन्ने परिहरंति // 620 / / संखो 13 तिणिसा 14 ऽगुरु 15 चंसत्त्वं धैर्य सारो द्विधा-बाह्यः, आभ्यन्तरश्च / बाह्यो बलवाहनाऽऽदिः, दणाणि 16 वत्था 17 ऽमिलाणि कट्ठाई 16 / आभ्यन्तरो रत्नसुर्वणाऽऽदिः / बुद्धिरौत्पत्तिक्यादिभेदाचतुर्विधा, यथा तह चम्म०२० दंत 21 वाला 22. अभयकुमारस्य। पराक्रम औरसबलाऽऽत्मकः। एतान सत्त्वसारबुद्धिपरा- गंधा 23 दब्बोसहाई 24 च / / 2 / " क्रमविशेषान्, विवक्षितनरपतेः संबन्धिनो ज्ञात्वा, यद्यनेन सार्द्ध विग्रह- प्रसिद्धान्यमूनि, नवरं रजतं रूप्य, हिरण्यं रूपकाऽऽदि, मारस्यामह तत उत्खनिष्यन्ते सपुत्रगोत्राणामस्माकमनेन कन्दा इति पाषाणा विजातिरत्ना नि, मणयो जात्यानि, तिनिसो वृक्षवि Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गह 553 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गह णेरः / अमिलान्यूर्णावस्त्राणि, काष्ठानि श्रीपर्णाऽऽदिफलकाऽऽदीनि, चर्माणि सिंहाऽऽदीना, दन्ता गजाऽऽदीनां, बालाश्चमर्यादीनां द्रव्यौषधानि पिप्पल्पादीनि। (स्थावरम् 'थावर' शब्दे चतुर्थभागे 2408 पृष्ठे गतम्) (द्विपदं 'दुपय' शब्दे चतुर्थभागे 2560 पृष्ठे द्रष्टव्यम्) (चतुष्पदम् 'चउप्पद' शब्दे तृतीयभागे १०५०पृष्ठ गतम्) (कुप्यस्वरूपम् 'कुम्प' शब्दे तृतीयभागे 586 पृष्ठ गतम्) नानाविधमपि कुप्यमेकमेव, यथा- "नाणाविहोवगरण, णेगविहं कुप्पलक्खण होद्द। एसो अत्थो भणिओ, छव्विह चउसहिभेओ उ॥१॥" चतुःषष्टिभेदोऽप्येष नवविधपरिग्रहेऽन्तर्भवति। ध०२ अधि० / प्रव०। नं0 आतु०। आचा०/बृ०॥ (परिगहं अममायमाणे) परिगृह्यत इति परिग्रहः-संयमातिरिक्तमुपकरणाऽऽदिः, तमममीकुर्वन्-अस्वीकुवन्मनसाऽप्यनाददान इति यावत् / स एवंविधो भिक्षुः कालज्ञो बलज्ञो, मात्रज्ञः, क्षेत्रज्ञः,खेदज्ञः, क्षणज्ञो, विनयज्ञः, समयज्ञो, भावज्ञः, परिग्रहमममीकुर्वाणश्च / आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। "बहु पि लब्धंण णिहे ति।" (60 सूत्र) (बहुं पि) बहपिलब्ध्वा (न निहे त्ति) न स्थापयेन्न सन्निधिं कुर्यात्, स्तोकं तावन्न सन्निधीयत एव, बहुपि न सन्निदध्यादित्यपिशब्दार्थः न केवलमाहारसन्निधिं न कुर्याद, अपरमपि वस्त्रपात्राऽऽदिक संयमोकरणातिरिक्तं न विभृयादित्याह-परिगृह्यत इति परिग्रहो धर्मोपकरणातिरिक्तमुपकरणं, तस्मादात्मानमपष्वष्केद पसर्पयद्, अथवा संयमोपकरणमपि मूर्च्छया परिग्रहो भवति, "मूर्छा परिग्रहः।' (तत्त्वात अ०८ सूत्र०) इति वचनात्, तत आत्मानं परिग्रहादपसर्पयन्नुपकरणे तुरगवद् मूर्छा न कुर्यात् / आचा०१ श्रु०२ अ० 5 उ० / (धर्मोपकरणं न परिग्रहे गृहीतमिति 'धम्मोवगरण' शब्दे चतुर्थभागे 2763 पृष्ठे गतम्) कर्मशरीरभाण्डपरिग्रहो:कइविहे णं भंते ! परिग्गहे? गोयमा! तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते।। तं जहा-कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तोवगरणपरिग्गहे। णेरइयाणं भंते ! एवं जहा उवहिणा दो दंडगा भणिया तहेव परिग्गहेण वि दो दंडगा भाणियव्वा / (परिगहे त्ति) परिगृह्यत इति परिग्रहः / अथैतस्योपधेश्च को भेदः? उच्यते-उपकारकः, उपधिर्ममत्वबुद्ध्या परिगृह्यमाणस्तु परिग्रह इति। भ०१८ श०७ उ०। तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते / तं जहा कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडणमत्तपरिग्गहे / एवमसुरकुमाराणं एवं एगिंदियनेरइयवजंजाव वेमाणियाणं / अहवा-तिविहेपरिग्गहे पण्णते / तं जहा-सचित्ते, अचित्ते, मीसए! एवं नेरझ्याणं निरंतरं.जाव वेमाणियाणं। परिगृह्यते स्वीक्रियत इति परिग्रहो मूर्छाविषय इति / इह चैषामयमिति व्यपदेशभागो ग्राह्यः। स च नारकैकेन्द्रियाणां कर्माऽऽदिरेव संभवति, न भाण्डाऽऽदिरिति। स्था०३ ठा० 1 उ०। दश०। द्रव्याऽऽदिवतुर्विधपरिग्रहेषु जघन्यतोऽतिचारे सत्येकाशनम्, मध्ये आचाम्लम्, उत्कृष्ट क्षपणम् / जीतः / "विभूसावतिएण वा परिग्गहं सुहुमं वा, वायरं वा / तत्थ सुहुमंकम्मट्ठगरक्खणसमत्थो, बादरं हिरण्णमादीणं गहणे धारणे वा।" प्रवृत्तः चारित्रकुशीलो भवति।महा०३ अ० / “जत्थ व अज्जालद्ध, पडिग्गहमादिवि-विहउवगरण। परिभुंजइ साहूहि, तं गोयम ! केरिसं गच्छ ? ||1||" महा०५ अ०। परिग्रहःअत्थेगे गोयमा ! पाणी, जे णो चयइ परिग्गहं / जावइयं गोयमा! तस्स, सचित्ताचित्तमीसग / / पभूयं वाणुजीवस्स, भवेजा उ परिग्गहं। तावइएणं तु सो पाणी, ससंगो मुक्खसाहणं / / णाणातिगंण आराहे, तम्हा वजे परिग्गह। अत्थेगे गोयमा! पाणी, जे य हित्ताएँ परिग्गहं / / आरंभं नो विवजेजा, जंतिय भवपरंपरं / महा०२ अ०। जंबू ! एत्तो परिग्गहो पंचमो नियमा णाणामणिकणगरयणमहरिहपरिमलसपुत्तदारपरिजणदासीदासभयगप्पेसहयगयगोमहिसउट्टखरअथगवेलगसिवियासगडरहजाणजुगासंदणसयणाऽऽसणवाहणकुवियधणघण्णपाणभोयणआच्छायणगंधमल्लभायणभवणविहि चेव बहुविहियं भरहं नगनगरनिगमजणवयपुरवरदोणमुहखेडकव्वडमडंबसंवाहपट्टणसहस्समंडियं थिमियमेयणीयं एगच्छत्तं ससागरं भुंजिऊण वसुहं अपरिमियमणंततण्हमणुगयमहिच्छासारनिरयमूलो लोभकलिकसायमाहखंधो चिंताऽऽयासनिचियविपुलसालो गारवपविरेलियग्गविडवो नियडितया पत्तपल्लवधरो पुप्फफलं जस्स कामभोगा आयासविसूरणाकलहपकंपियग्गसिहरो नरवइसंपूजिओ बहुजणस्स हिययदइओ इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स फलिहभूओ चरिमं अहम्मदारं / / (जंबू ! इत्यादि) जम्बूरिति शिष्याऽऽमन्त्रणम्। (एतो ति) इतश्चतुर्थाऽऽश्रवद्वारादनन्तर परिग्रहणं परिग्रह्यत इति परिग्रहः / इह च परिग्रहशब्दोपादानेऽपि वक्ष्यमाणविशेषणाऽन्यथाऽनुपपत्त्या परिग्रहतरूरिति द्रष्टव्यम्। पञ्चमस्तु पञ्चमः पुनराश्रवो भवतीति गम्यते / पञ्चमत्वं चाऽस्य तत्र क्रमाऽऽश्रयणात् नियमान्निश्चयेन नान्यः पञ्चमत्वमाग्रवाणां लभते मध्ये कथम्भूतोऽसावित्याह-(नानामणी यदि) तत्र नानामण्यादि-विधेः भारत वसुधां च भुक्त्वाऽपि या अपरिमितानन्ततृष्णा अनुगता च महेच्छा सैव मूलं यस्य परिग्रहतरोः स तथेति सम्बन्धः / तत्र नानाविधा ये मणयः चन्द्रकान्ताऽऽद्याः, कनक च सुवर्ण रत्नानिच कर्केतनाऽऽदीनि, महार्हयरिमलाः महार्हसुगन्धद्रव्याऽऽमोदाथे सपुत्रदाराः सुतयुक्तकलत्राणि, तेच परिजनश्व परिवारा दासीदासाश्व चेटीवेटाः,भृतकश्चराः,प्रेष्याश्च प्रयोजनेषु प्रेषणीयाः हयगजगोमहिषोष्ट्रखराजगवेलकाश्च प्रतीताः / शिविकाश्च कूटाऽऽच्छादितजम्पानवेशेषाः शक्टानि चगन्त्र्य, स्थाश्च प्रतीताः, यानानि च गन्त्रीविशेषाः, युग्यानि च वाहनानि गोलदेशप्रसिद्धजम्पानविशेषा वा, स्यन्दनाश्व रथविशेषा, शयनाऽऽसनानि च प्रतीतानि, वाहनानि यानपा Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गह 554 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गह वाणि। (कुविय त्ति) कुप्यानि च गृहोपस्काराः खट्वा तुलाऽदयः, धनानि च गणिमाऽऽदीनि, धान्यपानभोजनाऽऽच्छादनगन्धमाल्यभाजनभ नानि च प्रतीतानि इति द्वन्द्वः / ततस्तेषां विधेः कार्यसाध्यमिति तत्पुरुषः / अतस्तं चैव बहु विधिकमनेकप्रकारं, तथा भरतं क्षेत्रविशेषो, नगाः पर्वताः, नगराणि करवर्जितानि निगमा वणिजां स्थानानि, जनपदा देशाः, पुरवराणि नगरैकदेशभूतानि, द्रोणमुखानि जल स्थलपथोपेतानि, खेटानि धूलीप्राकारोपेतानि, कर्वटानि कुनगराणि, मडम्बानि दूरस्थितसीमान्तराणि, संवाहाः स्थापन्यः पत्तनानि जलस्थलपथयोरन्यतरयुक्तानि, तेषां यानि सहस्राणि तैर्मण्डितं यत्तत्तथा, स्तिमितमेदिनीक निर्भयमेदिनीनिवासिजनम्, एकच्छत्रम् एकराजकमित्यर्थः / ससागरं समुद्रान्तमित्यर्थः / भुक्त्वा परिभुज्य, तथा वसुधां पृथ्वी भरतैकदेशभूतां च भुक्त्वा , एतद्भोगेऽपीत्यर्थः / (अपरिमितमणंततण्हमणुगयमहिच्छासारनिरयमूलो त्ति) अपरिमितानन्ता अत्यन्तानन्ता तृष्णा प्राप्तार्थसंरक्षणरूपा या चानुगता सतती महती चेच्छा अप्रातार्थाभिलाषरूपा ते एव साराणि अक्षय्याणि निरया निर्गतशुभफलानि मूलानि जटा यस्य परिग्रहतरोः / अथवा-अपरिमिता अनन्ततृष्णाया या अन्तुगता महेच्छासारा निरया च नरकहेतुर्विशिष्टवेगा वा सैव मूल यस्य स तथा / इह च मकारौ प्राकृतशैलीप्रभवौ चैवावधसमासश्चेति। लोभः प्रतीतः, कलिःसंग्रामः, कषायक्रोधमानमाया एत एव महान् स्कन्धो यस्य स तथा / इह च कषायग्रहणेऽपि यल्लोभग्रहणं तत्तस्य प्रधानत्वापेक्षम् / तथा चिन्ताश्च चिन्तनानि आयासाश्च मनःप्रभृतीना खेदाः त एव / पाठान्तरेणचिन्ताशतान्येव विनिचिता निरन्तरा विपुला विस्तीर्णा शाला शाखा यस्य स तथा / तथा (गारव त्ति) गौरवाणि ऋद्धयादिनाऽऽदरकरणानि, तान्येव (पविरेलिय ति) विस्तारवत् अग्रविटपं शाखामध्यभागाग्रं विस्तारं ग्रीवा यस्य स तथा। पाठान्तरेगौरवप्रविरेल्लिताग्रशिखरः। तथा (नियडियतया पत्तपल्लवधरो) निकृततयाऽभ्युपचारकरणेन वचनानि मायाकर्माऽऽच्छादनार्थानि वा मायाऽन्तराणि ता एव त्वक्पत्रपल्लवास्तान् धारयति यः स तथा पल्लव स्नेहकोमलं पत्रम् / तथा पुष्पं फलं यस्य (कामभोग त्ति) प्रतीतमेव / तथा (आयासवित्थरेण कलहपकंपियग्गसिहरो) आयासः शरीरखेदः,विसूरणा चित्तखेदः, कलहो वचनभण्डनम् / एत एव प्रकम्पितं प्रकम्पमानभनशिखरं शिखराग्रं यस्य स तथा / नरपतिसंपूजितो, बहुजनस्य हृदयदयित इति प्रतीतम् / अस्य प्रत्यक्षस्य मोक्षवरस्य भावमोक्षस्य मुक्तिरेव निर्लोभतैव मार्ग उपायो मोक्षवरमुक्तिमार्गस्तस्य परिघोपमो, विघातक इति यावत् / चरममधर्मद्वारम्, इति व्यक्तम् / अनेन च यादृश इति द्वारमुक्तम्। यन्नामेत्युच्यतेतस्स यनामाणि इमाणि गोणाणि हुंति तीसं। तं जहा परिग्गहो / 1 संचयो 2 चयो 3 उवचयो 4 निहाणं 5 संभारो ६संकरो / एवं आयारोप पिंडोह दव्वसारो 10 तहा महिच्छा 11 पडिबंधो 12 लोहप्पा 13 महिद्दी 14 उवकरणं 15 संरक्खणा य 16 भारो 17 संपायुप्पायको 18 कलिकरंडो 16 पवित्थरो 20 अणत्थो 21 संथवो 22 अगुत्ती 23 आयासो 24 अविओगो 25 अमुत्ती 26 तण्हा 27 अणत्थको 28 आसत्ती 29 असंतोसे त्ति विय 30 // तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि हुंति तीसं॥ तस्य च नामानि गौणानि भवन्ति त्रिंशत् / तद्यथा-परिगृह्यत इति परिग्रहः शरीरोपध्यादिः, परिग्रहणं वा परिग्रहः स्वीकारः 1, संवीयत इति सञ्चयः 2 एवं चयः 3, उपचयो 4, निधानं 5, संभ्रियते धार्यते सम्भरणं वा धारणसंभारः 6, सङ्कीर्यते सम्पिण्ड्यते संकरणं वासम्पिण्डन वा संकरः 7 एवमादरः 8, पिण्डः पिण्डनीय पिण्डनं वा 6, द्रव्यलक्षणः सारः / तथा- महेच्छा अपरिमितवाञ्छा 11, प्रतिबन्धोऽभिष्यङ्ग : 12, लोभाऽऽत्मा लोभस्वभावः 13, महती इच्छा / क्वचित् 'महिद्दी'' इतिपाठास्तत्र- 'अई' गतौ याचने चेति वचनादर्दिर्याचा महती ज्ञानोषम्भाऽऽदिकारणविकलत्वादपरिमाणा अर्दिमहार्दिः 14, उप-करणम् उपधिः 15, संरक्षणाचाभिष्वङ्गवशाच्छरीराऽऽदिरक्षणं 16, भारो गुरुताकारणं 17. संपातानामनर्थमीलकानामुत्पादकःसम्पातोत्पादकः 18, कलीनां कलहानां करण्ड इव भाजनविशेष इव कलिकरण्डम् 16, प्रविस्तरो धनधान्याऽऽदिप्रविस्तारः 20, अनर्थोऽनर्थहतुत्वात् 21, संस्तवः परिचयः, स चाऽभिष्वङ्गहेतुत्वात्परिग्रहः 22, अगुप्तिरिच्छाया अगोपनम् 23, आयासः खेदः, तद्धेतुत्वात्परिग्रहोऽप्यायास उक्तः। आह च- "वहबंधणमाहणगाहा।" 24 अवियोगो धनाऽऽदेरत्यजनम् 25, अमुक्तिः सलोभता 26, तृष्णा धनाऽऽद्याकाङ्क्षा 27. अनर्थकः परमार्थवृत्त्या निरर्थकः 28 आशक्तिर्घनाऽऽदावासङ्गः 26, असन्तोषः 30, इत्यपि च, तस्य परिग्रहस्य एतानि प्रत्यक्षाणि एवमादीनि उक्तप्रकारवन्ति नामधेयानि भवन्ति त्रिशदिति। अथ ये परिग्रहं कुर्वन्ति, तानाहतं च पुण परिग्गहं ममायंति लोभघत्था भवणवर-विमाणवासिणो परिग्गहराई परिग्गहे विविहकरणबुद्धी देवनिकाया य असुरभुयगरारुलविज्जुजलणदीवउदहिदिसिपवणथणिअअणपन्नियपणपन्नियइसिवाइयभूयवाइयकं दियमहाकंदियकुहंडपतंगदेवा पिसायभूयजक्खरक्खसकिंनरकिं पुरिसमहोरगगंधवा य तिरियवासी पंचविहा जोइसिया य देवा बहस्सती चंदसूसुक्कसणिच्छरा राहू धूमकेऊ बुधा य अंगारका य तत्ततवणिज्जकणगवणा जे य गहा जोइसियम्मि चारं चरंति, के ऊ य गतिरतिया अट्ठावीसतिविहा य नक्खत्तदेवगणा णाणासंठाणसंठियाओ य तारगाओ ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साममंड लगती उवरिचरा उड्डलोगवासी दुविहा वेमाणिया य देवा सोहम्मीसाणसणंकु मारमाहिंदबंभलोगलंतकमहासुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणच्चुया कप्प Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गह 555 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गह वरत्रिमाणवासिणो सुरगणा गेवेज्जा अणुतराय दुविहा कप्पातीया विमाणवासी महिड्डीया उत्तमा सुरवग एवं चेते चउव्विहा सपरिसा वि देवा ममायंति भवणवाहणजाणविमाणसयणासणाणि य णाणाविहवत्थभूसणाणि य पवरपहरणाणि य णाणामणिपंचचाणदिव्वं च भायणविहं नाणाविहकामरूववेउव्वियअच्छरगणसंघाए दीवसमुद्दे दिसाओ चे इयाणि य वणसंडे पव्वते गामनगराणि य आरामजुाणकाणणाणि य कूवसरतला य वाविदीहा य देवकुलसभप्पवावसहिमाइयाई बहुयाई कित्तणाणि य पगिण्हित्ता परिग्गहं विपुलदव्वसारं देवा वि सइंदगा न तत्तिं न तुर्हि उवलब्मति अञ्चंतविपुललोभाभिभूयासन्ना वासहरइक्खुगारवट्टपव्वयकुंडलरुयगवरमाणुसुत्तरकालोदधिलवणसलिलदहपतिरतिक रअंजणक से लदहिमुहउवउप्पायकं चणकविचित्तजमकवरसिहरिकूडवासी वक्खारअकम्मभूमीसु सुविभत्तभागदेसासुकम्मभूमीसु जे वि य नरा चाउरंतचक्कवट्टी वासुदेवा बलदेवा मंडलिया इस्सरा तलवरा सेणावई इन्भा सेट्ठीया पुरोहिया कुमारा दंडणायगा माडं बिया सत्थवाहा कुडुबिया अमचा एए अण्णे य एवमादी परिग्गहं संचिणंति अणंतमसरणं दुरंतं अधुवमणिचं असासयं पावकम्मनेमं अयकिरियव्वं विणासमूलं वहबंधपरिकिलेसबहुलमणंतसंकिलेसकरणं ते तं धणकणगरयणनिचयपिंडिया चेव लाभघत्था संसारं अतिवयंति सव्वदुक्खसंनिलयणं परिगहस्सेवय अट्ठाए सिप्पसयं सिक्खाए बहुजणो कलाओ य बावत्तरिसु निपुणाओ लेहादियाओ सउणरुयावसाणाओ गणियप्पहाणाओ चउसर्व्हि च महिलागुणे रतिजणणे सिप्पसेवं असिमसिकिसिवाणिजं ववहारं अत्थसत्थं इसुसत्थं च्छरुप्पगयं विविहाओ य जोगजुंजणाओ य अण्णेसु य एवमादिएसु बहुकारणसएसु जावजीवं नहिजए संचिणंति मंदबुद्धी परिग्गहस्सेव अ अट्ठाए करेति पाणाण वहकरणं अलियनियडि सातिसंपओगे परदव्वअमिज्झा सपरदारगमणसेवणाए आयासविसूरणं कलहभंडणवेराणि य अवमाणविमाणणाओ इच्छमहिच्छप्पिवाससतततिसिया तण्हगेहिलोभघत्या अत्ताणअनिग्गहिया करेंति कोहमाणमायालोभे अकित्तणिज्जे परिग्गहे चेव हंति नियमा सल्ला दंडाय गारवा य कसाया समाय कामगुणअण्हगाय इंदियलेसाओ सयणसंपओगा सचित्ताचित्तमीसगाईदव्वाइं अणंतकाई इच्छंति परिघेत्तुं सदेवमणुयासुरम्मिलोएलोभपरिग्गहो जिणवरेहिं भणिओ नत्थि एरिसो पासो पडिबंधा अस्थिसव्वजीवाण सव्वलोए पर-लोगम्मि य नट्ठातमपविट्ठा महया मोहमोहियमती तमिसंधकारे तसथा वरसुहुमबायरेसु पज्जत्तमपज्जत्तग०जाव परियमुति दीहमद्धं०जाव लोभवससन्निविट्ठा एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महत्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुञ्चती नय अवेदयित्ता अस्थि हुमोक्खो त्ति एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो वरवीरनामधेजो कहेसी य परिग्गहस्स फलविवागं एसो सो परिग्गहो पंचमो नियमा णाणामणिकणगरयणमहरिह०जाव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स फलिहभूयो चरिमं अहम्मदारं सम्मत्तं। "एएहिँ पंचहिँ असं-वरेहिं रयमाचिणुत्तु अणुसमय। चउविहगतिपेरंतं, अणुपरियटृति संसारं 111 / / सव्वगतीपक्खंदे, काहिंति अणंतगे अकयपुण्णा। जे यन सुणंति धन्म, सोऊण य जे पमायंति / / 2 / / अणुसिटुं पि बहुविहं, मिच्छदिट्ठिया जे नरा अबुद्धीया। बद्धनिकाइयकम्मा, सुणति धम्मं न य करेंति // 3 // किं सका काउंजे, जं नेच्छह ओसहं मुहा पाउं। जिणवयणं गुणमहुरं, विरेयणं सव्वदुक्खाणं // 4|| पंचेव य उज्झिऊणं, पंचेव य रक्खिऊण भावेणं / कम्मरयविप्पमुक्का, सिद्धिवरमणुवरं जंति // 5 // " पदमात्रार्थप्रदेर्शिनीति टीकोपेक्षिता। "किं सक्का गाहा'' -किं शक्यं कर्तु, न शक्यमित्यर्थः / ज इति पादपूरणे / यत् यस्मान्नेच्छय नेत्सथ औषधं मुधा प्रत्युपकारानपेक्षितया, दीयमानमिति गम्यम्। पातुमपातुम्। किंरूपमित्याह-जिनवचनं गुणमधुरं, विरचेनं त्यागकारि सर्वदुःखानाम् // 4 // "पंचेव य गाह'- पञ्चैव प्राणातिपाताऽऽद्याश्रवद्वाराणि उज्झित्या त्यक्त्वा पञ्चैव प्राणातिपातविरमणाऽऽदिसंबरान् रक्षित्वा पालयित्वा भावेनान्तःकरणवृत्त्या कर्मरजोविप्रमुक्ता इति प्रतीतम्। सिद्धानां मध्ये वरा सिद्धिवरा, सकलकर्मक्षयलभ्या भावसिद्धिरित्यर्थः। ताम्, अत एव अनुत्तरां सर्वोत्तमा यान्ति गच्छन्ति। प्रश्न०५ आश्र० द्वार। बहुपरिग्रहो गच्छः / अथ गाथात्रयेण हिरण्यसुवर्णाऽऽद्यधिकृत्य प्रस्तुतमेव द्रढयतिजत्थ हिरण्णसुवण्णे, धणधण्णे कंसतंबफलिहाणं / सयणाण आसणाण य, झुसिराणं चेव परिभोगो||८|| जत्थ य वारडियाणं, तत्तडियाणं च तह य परिभोगो। मुत्तुं सुक्किलवत्थं, का मेरा तत्थ गच्छम्मि?||८|| अनयोर्व्याख्या-यत्र गणे (हिरण्णसुवणे त्ति) विभक्तिव्यत्यायात् हिरण्यसुवर्णयोः, तत्र हिरण्यं रूप्यम्, अप्पटितसुवर्ण या, सुवर्ण च सामान्येन स्वर्ण, घटितस्वर्ण वा। तथा विभक्तिव्यत्ययादेव धनधान्ययोस्तत्र धनं नाणकमाणिक्याऽऽदि। धान्यं सवित्तं यवाऽऽदि चतुर्विशतिधा (ग०) (धान्यानि 'धण्ण' शब्दे चतुर्थभागे 2656 पृष्ठे गतानि) Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गह 556- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहणिविट्ठ तथा कांस्यं च स्थालकच्योलकाऽऽदिरूप, तामं च कमण्डलुकल- येन केनचिदुपायभूत परिग्रहमेव प्रकर्षेण कुर्वाणः पाप कर्म समुचिनोशिकाऽऽदिरूपं, स्फटिकरत्नमयभाजनाऽऽदीति द्वन्द्वः, तेषामुपलक्षण- तीति / सूत्र०१ श्रु०१० अ०। त्वात् का वकपर्दिकादन्ताऽऽदिपात्राणां काष्ठपात्रेऽपि पित्तलकाऽऽदि- परिग्रहग्रह एव परमार्थतोऽनर्थमूलं भवति। तथा बन्धनानां च। (ग०) चैवशब्दात् तथाविधानां तूलिकागुप्तदवरकशीर्ष चोक्तम्पिधानीगल्लमसूरिकाचक्कलकगद्दिकाऽऽदिना परिग्रहः / परिभोगों "ममाहमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः, व्यापारणं, क्रियत इति शेषः / तथा यत्र च गच्छे (वारडियाणं ति) कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः।" रक्तवस्त्राणाम् (तत्चडियाणं ति) नीलपीताऽऽदिरहितवस्त्राणां च यशः सुखपिपासितैरयमसावनर्थोत्तरैः, परिभोगः क्रियते, किं कृत्वेत्याह मुक्त्वा परित्यज्य, किम्? शुक्लवस्त्रं परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते"||१|| यलियोग्यं वरामेन्यर्थः, तत्र (का मेर त्ति) का मर्यादा न काचिदपीति तथा च "द्वेषस्याऽऽयतनं धृतेरपचयः, क्षान्तेः प्रतीपो विधिवस्त्राऽऽदिभ्यः स्वर्णाऽऽदिकं बह्वनर्थ व्यक्षिपस्य सृहन्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः / __ कारीत्यतस्तद्विशेषयन्नाह दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधन, पापस्य वासो निजः, जत्थ हिरण्ण सुवणं, हत्थेण पराणगं पिनो छिप्पे। प्राज्ञस्याऽपि परिग्रहो गृह इव क्लेशाय नाशाय च // 2 // " कारणसमप्पियं पिहु, निमिसखणद्धं पितं गच्छं ||10|| सूत्र 1 श्रु०१ अ० 1 उ०। (परिग्रहदोषा अन्यत्राप्यन्ययूथिकनियत्र गच्छे हिरण्यसुवर्णे (पराणगं पित्ति) अपेरेवकारार्थत्वात् परकीये न्दाऽऽवसरे)। एव न त्वामवि, यतेस्तयोरसम्भवात्। कथम्भूते (कारणसमप्पियं पिहु परिग्रहत्यागाष्टकम्त्ति) हु निश्चितं, कारणे ग्लानत्वविषग्रस्तत्वाऽऽदिकेनामि नागारिणा न परावर्तते राशे-र्वक्रतां जातु नोज्झति / समर्पित अपि, किं पुनरसमर्पिते इत्यपिशब्दार्थः / अस्ति च साधोरपि परिग्रहो ग्रहः कोऽयं, विडम्वितजगत्त्रयः? ||1|| कारणे हिरण्यसुवर्णयोहणसम्भवः यत उक्तं निशीथपीठे परिग्रहप्रति- परिग्रहग्रहाऽऽवेशाद्, दुर्भाषितरजःकिराः। सेवनाऽधिकारे-"यहा गिलाणभंगीकिच वेजट्टयाए हिरण पि गेण्हेज, श्रूयन्ते विकृताः किन्न, प्रलापा लिङ्गिनामपि ? ||2|| उरालस्यापवादः'' "वि कणगांते' विषग्रस्तस्य कनक सुवर्ण तं घेत्तुं यस्त्यक्त्वा तृणवद्धाह्य-मान्तरं च परिग्रहम् / घसिऊण विसणिग्घायणट्ठा तस्स पाणं दिनति, अतो गिलाणट्ठा उदास्ते तत्पदाम्भोज, पर्युदास्ते जगत्त्रयी ||3|| ओरालियग्गहणं भवेज त्ति, एवंविधे अपि ते साधुः, (निमिसखणद्धं पि चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने, बहिर्निर्ग्रन्यता वृथा। ति) निमेषस्य क्षणोऽवसरो वेलेति यावत् / तस्या निमेषक्षणार्द्ध , त्यागात् कञ्चुकमात्रस्य, भुजगो न हि निर्विषः / / 4 / / निमेष क्षणार्द्ध निमेषवेलार्द्धमित्यर्थः / तदपि यावत्कार्यकरणानन्तरं त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः। कौतुकमोहाऽऽदिना हस्तेन करेण न स्पृशेत्। (तं गच्छत्ति) हे गौतम ! स पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा||५|| गच्छः स्यादितिः / ग०२ अधि०। (परिग्रह विषया दर्पिका कल्पिका च त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, मूर्खामुक्तस्य योगिनः / प्रतिसेवना 'मूलगुण पडिसेवणा' शब्दे वक्ष्यते) अपरिग्रहाभ्यासवतश्च चिन्मात्रप्रतिबन्धस्य, का पुगलनियन्त्रणा ? ||6|| जनुष उपस्थितिः- "कोऽहमास, कीदृशः, किं कार्यकारी" इति चिन्म, दीपको गच्छेत्, निर्वातस्थानसन्निभैः। जिज्ञासायां सर्वमेद सम्यग जानातीत्यर्थः। न केवलं भोगसाधनपरिग्रह निः परिग्रहतास्थैर्य, धर्मोपकरणैरपि / 7|| एव परिग्रहः, किंतु आत्मनः शरीरपरिग्रहोऽपि तथा, भोगसाधनत्वाच्छ- मूर्छाछिन्नधियां सर्व, जगदेव परिग्रहः। रीरस्य, तस्मिन् सति रागानुबन्धाद्बहिर्मुखायामेव प्रवृत्तौ न तात्त्विक- मूर्छया रहितानां तु, जगदेवाऽपरिग्रहः ||8|| ज्ञानप्रादुर्भावः। यदा पुनः शरीराऽऽदिपरिग्रहनैरपेक्ष्येण माध्यस्थ्य- अष्ट०२५ अष्ट। मवलम्बते तदा मध्यस्थस्य रागाऽऽदित्यागात् सम्यग्ज्ञानहेतुर्भवत्येव (नैरयिकाः किं साऽऽरम्भाः सपरिग्रहा इति 'आरंभ' शब्दे द्वितीयपूर्वापरजन्मसंबोध इति। तदाह- "अपरिग्रहस्थैर्यजन्मकथन्तासंबोध भागे 363 पृष्ठे उक्तम्) इति / (2-36) // 6|| द्वा०२ द्वा० / न बैहिकसुखैषिणां दासीदास- परिग्गहकिरिया न०(परिग्रहक्रिया) परिग्रहिक्या क्रियायाम् आ०चू० धनधान्याऽऽदिपरिग्रहवतां धर्मध्यानं भवतीति / तथा चोक्तम्' 4 अ०। "ग्रामक्षेत्रगृहाऽऽदीनां गृहक्षेत्रजनस्य च / यस्मिन्परिग्रहो दृष्टो, ध्यान | परिग्गहझाण न० (परिग्रहध्यान) परिग्रहो धनधान्याऽऽदिरूपस्तस्य तत्र कुतः शुभम् ? ||1||" सूत्र०१ श्रु०११ अ०। ध्यानम् / गतविभवस्य विभवार्थं चारुदत्तस्येव मुनिपतिमु निरुन्धनइत्थीसु सत्ते य पुढो य बाले, परिग्गहं चेव पकुव्यमाणे (8) कुश्चिकस्येव दुर्व्याने, आतु०। (चारुदत्तकथा'चारुदत्त' शब्दे तृतीयभागे 'स्त्रीषु रमणीषु आसक्त अध्युपपन्नः पृथक् पृथक् तद्भाषितह- | 1176 पृष्ठे गता) सितविव्वोकशरीरावयवेष्विति। बालवद्' 'बालः' अज्ञः सदसद्विवेकवि- | परिग्गहणिविट्ठत्रि० (परिग्रहनिविष्ट) परि समन्ताद् गृहाते इति कलस्तव्वसक्ततया च नान्यथा-द्रव्यमन्तरेण तत्सम्प्राप्तिर्भवतीत्यतो | परिग हो द्विपदचतुष्पदधनधान्यहिरण्य सुवर्णाऽऽदिषु म Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहणिविट्ठ 557- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण भीकारः, तत्र निविष्टः / परिग्रहेषु ममत्वाभिनिविष्ट, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। परिग्गहरुइ त्रि० (परिग्रहरुचि) परिशहो रोचते यस्य सः। परिग्रहविषय करुचिशालिनि, प्रश्न०१ सम्ब० द्वार। परिग्गहविरइ स्त्री० (परिग्रहविरति) परिग्रहाद् विरमणे, "परिग्ग-1 हविरइए पंचिदियनिग्गहं विहिणा उज्जमियव्वं / ' महा०१०।। परिग्गहविरयाविरय पुं० (परिग्रहविरताविरत) अनन्तात्परिग्रहाद विरते | यावत् आकारस्ततोऽविरते, आ०चू०६ अ०। परिग्गहवेरमण न० (परिग्रहविरमण) परिग्रहाद् विरतो, परिग्रहस्य ज्ञपरिज्ञया ज्ञानेन प्रत्याख्यानपरिज्ञया त्यागे, तथाणुमहदभेदेन द्विविधम् / तत्र-अणु श्रावकाणाम् इच्छापरिमाणाऽऽख्यम्। पं०व०४ द्वार / ('इच्छापरिमाण' शब्दे द्वितीयभागे 577 पृष्ठारभ्य सातिचार व्याख्यातम्) “एगे परिग्गहवेरमणे / " स्था० 1 ठा० / आ०चू० / ध० र० / श्रा०। आव०। तयाऽणंतरं च णं इच्छापरिमाणं करेइ, हिरण्णसुवण्णविहिपरिमाणं करेइ / णऽण्णत्थ चउहिं हिरण्णकोडीहिं णिहाणपत्ताहिं, चउहिं वुड्डि पत्ताहिं, चउहिं वित्थरमाणं पत्ताहिं, अवसेसं सव्वं हिरण्णसुवण्णविहिं पञ्चक्खामि। तयाऽणंतरं च णं चउप्पयवीहिपरिमाणं करेइ / णण्णत्थ चउहिं वएहिं दसगोसाहस्सिएणं वएणं अवसे सं सध्वं चउप्पयविहिं पचक्खामि / तयाऽणंतरं च णं खेत्तवत्थुपरिमाणं करेइणऽण्णत्थ पंचहिं हलसएहिं णियत्तणसइएहिं हलेणं अवसेसं सव्वं खेत्तवत्, पञ्चक्खामि / तयाऽणंतरं च णं सगडविहि परिमाणं करेइ / णऽण्णत्थ पंचहिं सगडसएहिं दिसाजत्तिएहिं पंचहिं सगडीसएहिं संवहणिएहिं अवसेसं सव्वं सगडविहिं पचक्खामि / तयाऽणतरं च णं वाहणविहिपरिमाणं करेइ / णण्णत्थ चउहिं वाहणेहिं दिसाजत्तिएहिं चउहिं वाहणे हिं संवाहणिएहिं अवसेस सव्वं वाहणविहिं पञ्चक्खामि ! उपा०१ अ०। महन्महाव्रतिनां साधूनां सर्वस्मात् परिग्रहाद् विरमणम् / रथा० 10 ठा०। 'परिग्रहस्य सर्वस्य, सर्वथा परिवर्जनम्। आकिञ्चत्यव्रतं प्रोक्तमहद्भिर्हितकाक्षिभिः / / 1 / / '' ध०२ अधि०। दश०। पा०। अस्य प्रश्नव्याकरणोक्तदशाना पञ्चमेऽध्ययने इत्थं प्रतिपादनम्जंबू ! अपरिग्गहं संवुडे य समणे आरंभपरिग्गहाओ विरते, विरते कोहमाणमायालोभा। जम्बूरित्यामन्त्रणे, अपरिग्रहो धर्मोपकरणवर्जपरिग्राह्यवस्तुध(पकरणमूच्छापरिवर्जित, तथा संवृतश्चेन्द्रियकषायसम्वरणे यः स तथा, स च श्रमणो भवति / चकाराद् ब्रह्मचर्याऽऽदिगुणयुक्तश्चेति / एत्तदेव प्रपञ्चयन्नाहआरम्भः पृथिव्याधुपमईः / परिग्रहो द्विधा-बाह्यः, आभ्य- | न्तरश्च। तत्र बाह्योधर्मसाधनवज्यो, धर्मोपकरणमूर्छा च। आन्तरस्तुमिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमादुष्टयोगरूपः। आह च 'पुढवाइसु आरम्भो, परिग्गहो धम्मसाहणं मोत्तु। मुच्छा यतत्थ बज्झो, इयरो मिच्छत्तमाईओ / / 1 / " इति। अनयोश्च समाहारद्वन्द्वः / अतः तस्माद्विरतो निवृत्तो यः सः, श्रमण इति वर्तते / तथा विरतो निवृत्तः क्रोधमानमायालोभात्। इह समाहारद्वन्द्वत्वादेकवचनम्। अथ मिथ्यात्वलक्षणाऽऽन्तरपरिग्रहविरतत्वं प्रपञ्चयन्नाहएगे असंजमे, दो चेव रागदोसा, तिण्णि य दंडा, गारवा य, गुत्तीओ तिण्णि, तिणि य विराहणाओ, चत्तारि कसाया, झाणसण्णा विगहा तहा य हुंति चउरो, पंच किरियाओ समितिइदियमहव्वयाइय५, छज्जीवनिकाया छच्च लेसाओ, सत्त भया, अट्ठ मया नव चेव य बंभचेरगुत्ती, दसप्पकारे य समणधम्मे, एक्कारस उवासगाणं, वारसय भिक्खुपडिमा, तेरस किरियावाणाए, चउद्दस भूयगामा 14, पन्नरस परमाधम्मिया 15, सोलस गाहासोलसाय 16, असंजम 17 अबंभ १८णाय 16 असमाहिट्ठाणा 20 सवला य 21 परीसहा य 22 सूयगडज्झयणा 23 देव 24 भावणा 25 उद्देस 26 गुण 27 कप्प 28 पावसुय 26 मोहणिजे 30 सिद्धातिगुणा य 31 जोगसंगह 32 तित्तीसाऽऽसायणा 33 सुरिंदा, आदि एकाइयं करेत्ता एकुत्तरियाए वुड्डिएसु तीसाओ जाव य भवे तिकाहिका विरतीपणिहिसु य अविरतीसु य अण्णेसु य एवमादिएसु बहुसु ठाणेसु जिणपसत्थेसु अवितहेसु सासयभावेसु अविट्ठएसुसंकं कंखं निराकरित्ता सद्दहति सासणं भगवंतो अणिदाणे अगारवे अलद्धे अमूढे मणवयणकायगुत्ते / अपरिग्रह संवृतः श्रमण इत्युक्तम् / अधुनाऽपरिग्रहत्वमेव प्रक्रान्ताध्ययनाभिधेयं वर्णयन्नाहजो सो वीरवरवयणविरतियवित्थरबहुविहपगारो सम्मत्तविमुद्धबद्धमूलो धितिकंदो विणयवेइओ निग्गयतेल्लोक्कविपुलजसनिचियपीणपीवरसुजायखंधो पंचमहत्वयविसालसालो भावणातयं तज्झाणसुभगजोगनाणपल्लववरंकुरघरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणणहवफलो पुणो य मोक्खवरबीयसारो मंदरगिरिसिहरचूलिया इव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स सिहरभूओ संवरवरपायवो चरिमं संवरदारं। (जो सो ति) योऽयं वक्ष्यमाणविशेषणः सम्वरवरपादपः,चरमसंवरद्वारमिति योगः। किंभूतः सम्बरवरपादपः ? इत्याह वीर-वरस्य श्रीमन्महावीरस्य यद्वचनमाज्ञा ततः सकाशाद् या विरतिः परिग्रहानिवृत्तिः, सैव प्रविस्तारो यस्य सम्वरपादपस्य स तथा बहुविधोऽनेकप्रकारः स्वरूपविशेषो यस्य सतथा, तत्र सम्वरपक्षे बहुविधप्रकारत्वं विचिं Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 558 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण वविप्यापेक्षया, क्षयोपशमाऽऽद्यपेक्षया च; पादपपक्षे च मूलक - न्दाऽऽदिविशेषापेक्षयेति / ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः / सम्यक्त्वमेव सम्यग्दर्शनभेव विशुद्ध निर्दोष बद्ध मूल कन्दस्याऽधोवर्ति यस्य स तथा / धृतिः वित्तस्वास्थ्यं सैव कन्दः स्कन्दाधोभागरूपोयस्य स तथा। विनय एव वेदिका पार्श्वतः परिकररूपा यस्य स तथा / (निग्गयतेल्लोक त्ति) प्राकृतत्वात्यैलोक्ये निर्गतं त्रैलोक्यनिगतं भुवनत्रयव्यापकमत एव विपुलं विस्तीर्ण यद्यशः ख्यातिस्तदेव निचितो निविडः पीनं स्थूलं पीवरो महान् सुजातः सुनिष्पन्नः स्कन्धो यस्य स तथा। पञ्चमहाव्रतान्येव विशालाः विस्तीर्णाः शालाः शाखा यस्य स तथा। भावनैवानित्यत्वाऽऽदिविन्ता त्वक् वल्कलं यस्य वाचनान्तरभावनैव त्वगन्तो वल्कलावसान यस्यस तथा / ध्यानं च धर्मध्यानाऽऽदि शुभयोगाश्च सद्व्यापारा ज्ञानं च बोधविशेषः तान्येव पल्लववराकुराः प्रबालप्रवरप्ररोहाः तानिधारयति यः स तथा / ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। बहवो ये गुणा उत्तर गुणाः शुभफलारूपाः त एव कुसुमानि तैः समृद्धो जातिसमृद्धिर्यस्य स तथा। शीलमेवैहिकफलानपेक्षप्रवृत्ति स्वसमाधानमेव वा सुगन्धः सद्गन्धो यत्र स तथा। (अणण्हवफलो त्ति) अनाश्रवो नवकर्मानुपादानः स एव फलं यस्य स तथा। पुनश्च पुनरपि माक्ष एव वरबीजसारो मिजालक्षणः सारो यस्य स तथा। मन्दरगिरिशिखरे मेरुधराधरशिखरे या चूलिका चूड़ा सा तथा सा इव, अस्य प्रत्यक्षस्य, मोक्षवरे वरमोक्षे भावमोक्षे सकलकर्मक्षयलक्षणे गन्तव्ये, मुक्तिरेव निर्लोभतैव मार्गः पन्था मोक्षवरमुक्तिमार्गस्तस्य शिखरभूतः शेखरकल्पः / कोऽसावित्याह-सम्बर एवाऽऽश्रवनिरोध एव वरपादपः प्रधानद्रुमः सम्वरवरपादपः पञ्चप्रकारस्यापि संवरस्य उक्तस्वरूपे सत्यपि प्रकृताध्ययनमनुसरन्नाह चरमं पञ्चम सम्बरद्वारम्। आश्रवनिरोधमुखमिति पुनर्विशेषयन्नाह - जत्थ न कप्पइ गामाऽऽगरणगरखेड कव्वड मडं बदोणमुहपट्टणाऽऽसमगयं वा किंचि अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा तसथावरकायदव्वजायं मणसा वि परिघेत्तूण हिरण्णसुवण्णखेत्तवत्थू न दासीदासमयकपेसहयगयगवेलगंवा ण जाणजुगसयणासणाई न छत्तकं न कोडिंका न उवाणहे, न पेहुणवीयणतालियंटका ण यावि अयतउयतंबसीसकंसरययजायरूवमणिमुत्ताधारपुडकसंखदंतमणिसिंगसेलकाचवरवेलचम्म-पत्ताई महारिहाई परस्स अज्झोववायलोभजणणाई परियट्टि (1) / यत्र चरमसंवरद्वारे परिग्रहविरमणलक्षणे सति, न कल्पते न युज्यते, परिग्रहीतुमिति सम्बन्धः / किं तदित्याह-ग्रामाऽऽकरनगरखेटककर्वटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाऽऽश्रमगतं वा / ग्रामाऽऽदिव्याख्यानं पूर्ववत्। वाशब्द उत्तरपदापेक्षया विकल्पार्थः / किञ्चिदित्यानर्दिष्टस्वरूपं सामान्यं, सर्वमेवेत्यर्थः / अल्पं वा स्वल्पतः बहु वा मूल्यतः। एवं (अणुवा ) स्तोक प्रमाणतः, स्थूलं वा महत्प्रमाणतः। (तसथावरकायदव्वजायं ति) त्रसकायरूपं शङ्खाऽऽदि सचेतनमचेतनं वा / एवं स्थावरकायरूपं रत्नाऽऽदि द्रव्यजातं वस्तुसामान्यं मनसाऽऽपि चेतसाऽपि आस्तां कायेन, परिग्रहीतुं स्वीकर्तुम् / एतदेव विशेषेणाऽऽह-न हिरण्यसुवर्णक्षेत्रवस्तु, परिकल्पते परिगृहीतुमिति प्रकमः / न दासीदासभृतकप्रेष्यहयगजगवेलकं वा / दास्यादयः प्रतीताः / न यानयुग्यशयनाऽऽसनानि, यानं रथाऽऽदिकं, युग्यं वाहनमात्रं, गोल्लकदेशप्रसिद्धो वा जम्पानविशेषः / न छत्रकमातपवारणं, न कुण्डिका कमण्डलू, नोपानही प्रतीतौ, न पेहुणव्यञ्जनतालवृन्तकानि, पेहुणं मयूरपिच्छं, व्यजनं वंशाऽऽदिमयं तालवृन्तकं व्यजनविशेष एव न चापि च अयो लोह, अपुकं वङ्ग, ताम शुल्वं सीसकं नाग, कांस्यं त्रपुकताम्रसंयोगजं, रजतं रूप्यं, जातरूपं सुवर्ण मणयश्चन्द्रकान्ताऽऽद्याः, मुक्ताऽऽधारपुटकं शुक्तिसंपुटं, शङ्खः कम्यूः, दन्तमणिः प्रधानदन्तो हस्तिप्रभृतीनां, दन्तजो वा मणिः, शृङ्गं विषाणं, शैल, पाषाणः। पाठान्तरेण- "लेस त्ति' तत्र श्लेषः श्लेषद्रव्यं काचवरः प्रधानकाचः, चेलं वस्त्रं, चौजिनमेतेषां द्वन्द्वः / तत एषां सक्तानि यानि पात्राणि भाजनानि तानि तथा महार्हाणि महानि, बहुमूल्यानीत्यर्थः परस्याऽन्यस्याध्युपपातं च ग्रहणैकाग्रचित्तता लोभं च मूर्छा जनयन्ति यानि तानि अध्युपपातलोभजनानि (परियाट्टिउंति) परिकर्षयितु वा, परिपालयितुमित्यर्थः / न कल्पन्त इति योगः (1)| गुणवओ न यावि पुप्फफलकंदमूलाऽऽदिकाई सणसत्तरसाई सव्यधण्णाई तिहिं वि जोगेहिं परिघेत्तुं ओसहभेसज्जभोयणट्ठयाए संजएणं (2) किं कारणं अपरिमिपणाणदंसणधरेहिं सीलगुण-विणयतवसंजमनायकेहिं तित्थंकरहिं सव्वजगजीववच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरिंदेहिं एस जोणी जंगमाणं दिट्ठा, न कप्पइ जोणीसमुच्छेदो त्ति तेण वज्जंति समणसीहा। जं पिय ओदणकुम्मा-सगंजतप्पणमं पुभुंजियपललसूपसक्कुलिवेडिमवरसंखचुण्णकोसगपिंडसिहरणीवट्टगमोयकखीरदहिसप्पिनवणीयतेलगुडखंडमच्छंडितमधुमज्जमसखज्जकवंजणविहिमाइकं पणितं उवस्सए परघरे वऽरण्णे न कप्पइ तं पि संनिहिं काऊण सुविहियाणं (3) / (गुणवउ त्ति) गुणवतो मूलगुणाऽऽदिसम्पन्नस्येत्यर्थः / न चाऽपि पुष्पफलकन्दमूलाऽऽदिकानि सणः सप्तदशो येषां व्रीह्यादीनां तानि तथा सणसप्तदशकानि, सर्वधान्यानि, त्रिभिरपि योगैः मनः प्रभृतिभिः परिग्रहीतु कल्पन्ते इति प्रकृतमेव। किमर्थमित्याह- औषधभेषज्यभोजनार्थायतत्रौषधमेकाङ्ग, भैषज्यं द्रव्यसंयोगरूप, भोजनं प्रतीतमेव / (संजएण ति) विभक्ति परिणामात् संयतस्य साधोः (2) / किं कारणं को हेतुरकल्पने ? उच्यते -अपरिमितज्ञानदर्शनधरैः सर्वविद्भिःशील समाधानं गुणाः मूलगुणाऽऽदयो, विनयोऽभ्युत्थानाऽऽदिकः, तपः-संयमौ प्रतीतौ, तान्नयन्ति वृद्धिप्रापयन्तियेतेतथा तैस्तीर्थकरैः शासनप्रवर्तकः, सर्वजगजीववत्सलैः सर्वैस्त्रैलोक्यमहितैर्जिनाश्छद्मस्थवीतरागाः तेषां वराः केवलिनस्तेषामिन्द्रास्तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तित्वाद्ये ते तथा, तैः एषा पुष्फफलधान्यरूपा, योनिरुत्पत्तिस्थानं जगतां जगमाना त्रसानामित्यर्थः / दृष्टोपलब्धा केवलज्ञानेन, ततश्चन कल्पते न सगच्छते, योनिसमुच्छेदो योनिध्वं सः, कर्तुमिति गम्यते। परिग्रहे औषधाऽऽधुपयोगे च तेषां Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण सोऽवश्यं भवतीति। इति-शब्द उपदर्शने, येनैवं तेन वर्जयन्तिपरिहरन्ति, पुष्पफलधान्यग्रहणभोजनाऽऽदिकम् / के ? श्रमणसिंहा मुनिपुङ्गवाः / यदपि च ओदनाऽऽदि तदपि न कल्पते संनिधीकर्तुं सुविहितानामिति सम्बन्धः / तत्र ओदनः कूर, कुल्पाषा माषाः, ईषत् म्विन्ना मुद्राऽऽदय इत्यन्ये / (गंज त्ति) भोज्यविशेषः तर्पणाः शक्तवः (मंथु त्ति) वदराऽऽदिचूर्णः (भुजि यत्ति) धानाः (पलल त्ति) तिलपिष्ट, सूपो मुद्राऽऽदिविकारः शष्कुली तिलपर्पटिका, वेष्टिमा च प्रतीता। वरशङ्खाणि चूर्ण कोशकानि च रूढिगम्यानि। पिण्डा गुडपिण्डाः शिखरिणी गुडमिश्र दधि, वट्ट त्ति) घनीभूतं तीमनं, मोदका लड्डुकाः / क्षीरं, दधि च व्यक्तम्। सर्पिः घृतं नवनीतं म्रक्षणम् तैलं गुडं, खण्ड च कंठ्यानि / मत्स्यण्डिका खण्डविशेषः मधुमद्यमांसानि प्रतीतानि,खाद्यकानि प्रतीतानि व्यञ्जनानि तक्राऽऽदीनि शालकानि वा तेषां ये विधयः प्रकारास्तेषामनेकव्यजनविधयस्तत एतेषामोदनाऽऽदीनां द्वन्द्वः / तत एते आदिर्यस्य तत्तथा। प्रणीतं प्रापितं उपाश्रये, वसतौ, परगृहे वा, अरण्ये अटव्यां, न कल्पते न सङ्गच्छते तदपि सन्निधीकर्तुं सशीकर्तुं सुविहितानां परिग्रहपरिवर्जनेन शोभनानुष्ठानानां, सुसाधूनामित्यर्थः / आह च विडमुझे (?) इमं लोण, तेल्लं सप्पिच फाणियं / ण ते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्तवएरआ" ||1|| इति। (3) / जंपि य उद्दिट्टड वियरचितक पनवजातपकिण्णपाउकरणपामि भीसं कीयकडं पाहुडं वा दाणटुं पुण्णपगडं समणवणीवगट्ठयाए वा कयं पच्छाकम्मं पुरेकम्म नित्तिक मुदकमक्खियं अइरितं मोहरं सयं गाहमाहडं मट्टिओवलितं अच्छिज्जं चेव अणिसिटुंजं तं तिहिसुजण्णेसुउस्सवेसु य अंतो वा बहिं वा होञ्ज समणट्टयाए ठवियं हिंसासावजसंपउत्तं न कप्पइ तं पि य परिघेत्तुं (5) यदपि चोद्दिष्टाऽऽदिरूपमोदनाऽऽदि, न कल्पते तदपि च ग्रहीतुमिति सम्बन्धः / उद्दिष्ट -यावदर्थिकान् पाषण्डिनः श्रम णान् साधूनुद्दिश्य दुर्भिक्षोपगमाऽऽदौ यद्भिक्षावितरणं तदौ ।शिकमुद्दिष्टम् आह च - "उद्दिसिय साहुमाई, ओमे चिय भिक्खवियरणं जंच" इति।स्थापितंप्रयोजने याचितं गृह स्थेन च तदर्थ स्थापितं यत्तत् स्थापितम्। आह च - "सो हो ही सियखीरा - इठावणं ठवण साहणऽट्टाए।" रचितकंमोदकचूर्णाऽऽदि साध्वाद्यर्थ प्रताप्य पुनर्मोदकाऽऽदितया विरचितम् / औद्दोशिकभेदोऽयं कर्माभिधान उक्तः / पर्यवजातं पर्यवोऽवस्थान्तरं जातो यत्र तत्पर्यवजातं, कूराऽऽदिकमुद्वरितं दध्यादिना विमिश्रितं करम्बाऽऽदिकं पयोयान्तरमापादितमित्यर्थः / अयमप्यौद्देशिकभेदकृताभिधान उक्तः / प्रकीर्णविक्षिप्तं विच्छर्दितं, परिसाटीत्यर्थः। अनेन नवच्छर्दिताभिधान एषणादोष उक्त। (पाउकरणं ति) प्रादुःक्रियते अन्धकारादपवरकाऽऽदेः साध्वर्थं बहिष्करणेन दीपमण्यादिधरणेन वा प्रकाश्यते यत्तत्प्रादुःकरणमशनाऽऽदि / आह च-''णीयदुवारधारे, व / गवक्खकरणा पाउइ करण तु / " (पामिच्चं ति) अपमित्यकम् उत्पज्जकमुच्छिन्नमित्यर्थः / आह च-"पामिचं जं साहूणऽट्ठा उच्छिदिउं विपाविति।" इति। एषां च समाहारद्वन्द्वः / (मीसक नि) मिश्रजातं साध्वर्थ गृहस्थार्थ वाऽऽदित उपस्कृतम् / आह च- "पढम चिय गिहिसंजयमीसो-वक्खडाइ मीसं तु।'' (कीरागड त्ति) क्रीतेन क्रयेण कृतं साधुदानाय क्रीतकृतम्। आह च-"दव्वाइपडुचहिं किणणं साहूणहाए कीयं तु पाहुड वा।'' प्राभृतिकेत्यर्थः / तल्लक्षणं चेदम् - "सुहुमेयरमुस्सक्कण मवस द्रण सो य पाहुडिया।" ततः पदत्रयस्य समाहारद्वन्द्वः / चशब्दः पूर्ववाक्यापेक्षया विकल्पार्थः। दानमर्थो यस्य तद्दानार्थ पुण्यार्थ प्रकृतं साधित पुण्यप्रकृतम्। पदद्वयस्य द्वन्द्वः। तथा श्रमणाः पञ्चावेधाः - "निग्गंथमुत्ततापस-गेरुय-अजीव पंवहा समणा / ' वनीपकाच तर्कुकास्त एवार्थ प्रयोजनं यस्य तत्तथा तद्भावस्तत्ता तया / वा विकल्पार्थः / कृतं निष्पादितम्। इह कश्चिद्दाता दानमेवाऽऽलम्बते दातव्यं मयोत, अन्यस्तु पुण्यं मम भूया-दित्येवम् अन्यस्तु श्रमणान् अन्यस्तु वनीपकानिति चत्वारोऽपि औद्देशिकस्य भेदा एते उक्ता इति। (पच्छाकम्मं ति) पश्चाद्दानानन्तरं कर्म भाजनधावनाऽऽदि यत्राशनाऽऽदौ तत्पश्चात्कर्म (पुरेकम्म ति) पुरो दानात्यूर्वं कर्म हस्तधावनाऽऽदि यत् तत्पुरःकर्म (णित्तियं ति) नैत्विकं सार्वदिकमवस्थित मनुष्यपोषाऽऽदिप्रमाणम् / (उदकमक्खियं ति) उदकाऽऽदिना संसृष्टम् / यदाह"मक्खियमुदगाइणा उ जं जुन्न।" अयमेषणादोष उक्तः। (अति-रित्तं ति) "वत्तीस किर कवला, आहारो कुक्खिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला ||1 // " एतत्प्रमाणा-तिक्रान्तमरिरिक्तम्। अयं च मण्डलीदोष उक्तः। (मोहरं ति) मौखर्वेण पूर्व संस्तवः पश्चात् संस्तवाऽऽदिना बहुभाषित्वेन यल्लभ्यते तन्भौखरम्, अयमुत्पा-. दनादोष उक्तः (सयं गाहं ति) स्वयमात्प्रता दत्तं गृह्यते यत् तत् स्वयं आहम् अवमपरिणताऽभिधानदोष उक्तः,दायकस्य दाने अपरिणतत्वादिति। (आहडं ति) स्वप्राभाऽऽदेः साध्वर्थमानीतमाहृतम्। आह च- "सग्गामपरग्गाममाणीय, आहडं ततं होइ।" (मट्टिउवलितं ति) उपलक्षणत्वान्मृतिकाग्रहणस्य मृत्तिकाजतुगोमयाऽऽदिना उपलिप्तं सत् यदुद्भिद्य ददाति तं मृतिकोपलितम्, उद्भिन्नमित्यर्थः / आह"छगणाइणोवलितं, उभिदिय ज तभुब्भिन्ना" (अच्छिज्जं चेव ति) आच्छेद्यं यदाच्छिद्य भृत्याऽऽदिभ्यः स्वामी ददाति। आह च-"अच्छिज्ज अच्छिदिया जं सामी भिचमाईणं / ' अनिसृष्टं बहुसाधारणं सत् यदेक एव ददाति। आह च- 'अणिसट्ठ सामलं, गोडियभत्ताइ ददउ एगस्स।' एतेषूद्दिष्टाऽऽदिषु यत् प्राय उद्गमदोषा उक्ताः / तत्प्रायः नियततियिषु मदनत्रयोदश्यादिषु, यज्ञेषु नागाऽऽदिपूजासूत्सवेषु च शक्रोत्सवाऽऽदिषु अन्तर्बहिर्वा उपाश्रयात् भवेत् श्रमणार्थं स्थापितं दानायोमस्थापित हिंसालक्षणं यत्सावातत्-सम्प्रयुक्तंन कल्पतेतदपिच परिग्रहीतुम(४) / अह के रिसयं पुणो तं कप्पति ? जंतं एकारसपिंडवाय सुद्धं किणणहणणपयणकयकारियाणुं मोयणनवकोडीहिं सुपरिसुद्धं दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्कं उग्गमउप्पायणेसणाए सुद्धं ववगयचुपचइयचतदेहं च फासुयं च ववगयसंजोगमणिंगालं विगयधूम छद्वाणनिमित्तं छक्कायपरिरक्खणट्ठा दिणे दिणे फासुकेण मिक्खेण वट्टियव्वं (5) / Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 560- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण अर्थति परप्रश्ने। कीदृशं किंविधं (पुणो इति) पुनः तत कल्पते संगच्छते परिगृहीतमोदनाऽऽदीनि प्रकृतम् ? उच्यते यत्तदेकादशपिण्डपातशुद्धम्-आचारागस्य द्वितीय श्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनस्यैकादशभिः पिण्डपाताभिधायिकैरुद्देशैर्विशुद्धं तदुक्तदोषविमुक्तं यत्तत्तथा। तथा क्रयणं मूल्येन ग्रहणं, हननं विनाशनं, पचनं चाग्निना पाक इति द्वन्द्वः। एषां यानि कृतकारितानुमोदनानि स्वयंकरणकारणानुमतयः तानि तथा, ता एव नवकोट्यो विभागा इति समासः ताभिःसुपरिशुद्ध निर्दोषम् / दशमिश्च दोषैर्विप्रमुक्तम्; ते च शङ्किताऽऽदय एषणादोषाः / उगम आधाकर्माऽऽदिषोडशविधः, उत्पादना धात्र्यादिषोडशविधैव, एतत् द्वयम्. एषणा गवेषणाऽभिधाना उद्गमोत्पादनैषणा, तया शुद्धम्। (वव-गयचुयचइयचत्तदेहं च त्ति) व्यपगतमोघतश्चेतनापर्यायादचेतनत्वं प्राप्तं, च्युत जीवनाऽऽदिक्रियाभ्यो भ्रष्ट, च्यावितं तेभ्य एव आयुः क्षयेण भ्रंशितं त्यक्तदेहं च त्यक्तजीवसंसर्गसमुत्थशक्तिजनिताऽऽहाराऽऽदिपरिणामप्रभवापचय यत्तत्तथा, चः समुच्चये, प्रासुकं च निर्जीवमित्येतत्पूर्वोक्तस्यैव व्याख्यानम् / कल्पते ग्रहीतुमिति प्रक्रमः / तथा व्यपगतसंयोगमनङ्गार विगतधूमं चेति पूर्ववत् / षट् स्थानकानि निमित्त यस्य भैक्ष्यवर्त्तनस्य तत्तथा। तानि चामूनिद्वेयण 1 वेयावच्चे, 2 इरियट्ठाए व 3 संजमट्ठाए ! तह पाणवत्तियाए 5, छटुं पुण धम्मचिंताए / / 1 / / " इति षटकायपरिरक्षणार्थमिति व्यक्तम्- (दिणे दिणे त्ति) अहनि 2, प्रतिदिनं, सर्वदाऽपीत्यर्थः। प्रासुकेन भैक्ष्येण भिक्षासमूहेन, वर्तितव्यं वृत्तिः कार्या (5) / जं पि य समणस्स सुविहियस्स उ रोगाऽऽयंके बहुप्पगारम्मि | समुप्पन्ने वायाहिकपित्तसिंभअइरित्तकुवियतहसंण्णिवायजाते तह उदयपत्ते उज्जलबलविउलकक्खडपगाढदुक्खे असुहकडुयफरुसचंडफलविवागे महब्भए जीवियंतकरणे सव्वसरीरपरितावणकरणे न कप्पइतारिसे वि तह अप्पणो परस्सव ओसहभेसज्जभत्तपाणं च तं पि सण्णिहिकयं (6) / तथा-यदपि च औषधाऽऽदि, तदपि संनिधिकृत न कल्पत इत्यक्षरघटना / कस्य न कल्पते ? इत्याह-श्रमणस्य साधोःसुविहितस्य पार्श्वस्थाऽऽदेः, तुक्यालङ्कारे / कस्मिन् सतीत्याह-रोगाऽऽतङ्के रोगो ज्वराऽऽदिः, स चासावातङ्कश्च कृच्छ्रजीवितकारी रोगाऽऽतङ्कः, तत्र बहुप्रकारे विविधे, समुत्पन्ने जाते, तथा (वायाहिक ति) वाताऽऽधिक्यम् (पित्तसिंभाइरित्तकुविय त्ति) पित्तसिंभयोर्मायुश्लेष्मणोरतिरिक्तकुपितमतिरेककोपः पित्तसिंभातिरिक्तकुपितम् / तथेति तथाप्रकार औषधाऽऽदिविषयो यः सन्निपातो वाताऽऽदित्रयसंयोगः, जातः स तथा। ततः पदवयस्य द्वन्द्वकत्वम्। ततस्तत्र वासति। अनेन च रोगाऽऽतङ्कनिदानमुक्तम्। तथा उदयप्रति उदिते सति। केत्याह-उज्ज्वलं सुखलेशमलवजित बलं बलवत् कष्टोपक्रमणीयं विपुलं विपुलकालवेद्य, त्रितुलं वा त्रीन् मनः प्रभृतीन तुलयति तुलामारोपयति कष्टावस्थां करोतीति त्रितुलं कर्कशं कर्क शद्रव्यमिवानिष्ट, प्रगाढं प्रकर्षवत् यत् दुःखमसुखं तत्तथा तत्र / किंभूते? इत्याह-अशुभः असुखो वा कटुकः, कटुक द्रव्यमिवानिष्टः, परुषः परुषस्पर्शद्रव्यमिवानिष्टः, एवं चण्डो दारुणः फलविपाकः कार्यनिष्ठो दुःखानुबन्धलक्षणो यस्य तत्तथा तत्र, महद्भय यस्मात्तन्महाभयं तत्र, जीवितान्तकरणे; सर्वशरीरपरितापनकरणे, न कल्पते न युज्यते, तादृशेऽपि रोगाऽऽतकाऽऽदौ, यादृशो न सोढुं शक्यते (तह त्ति) तेन प्रकारेण पुष्टाऽऽलम्बनम् विनाशाऽऽलम्वनस्य पुन: कल्पत एवा यतः- 'काहिं अतित्ति, अदुवा अहीहं, (?) तवोवहाणेसु य उज्जमिस्स। गणं व नीईए उसारविस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्ख / / 1 / / " आत्मने परस्मै वा निमित्तम्. औषधं भेषजं, भक्तं पानं च, तदपि सन्निधिकृतं सञ्चयीकृतम्, परिग्रहविरतत्वात् (6) जं पि य समणस्स सुविहियस्स तु पडिग्गहधारिस्स भवइ भायणभंडोवहिउवकरणपडिग्गहो पायबंधणपायकेसरियापायट्ठवणं च पडलाइं तिण्णि च रयत्ताणं गोच्छओ तिन्नि य पच्छगा रओहरणचोलपट्टकमुखणंतकमादीयं (7) / एय पिय संजमस्स उवबिंहणट्टयाए वायाऽऽतवदंसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिवहियव्वं संजएण णिचं (8) यदपि च श्रमणस्य सुविहितस्य, तुशब्दो भाषामात्रे पतद् ग्रहधारिणः सपात्रस्य सम्भवति, भाजनं च पात्रं, भाण्ड मृन्मयं तदेव, उपधिश्व औपधिकः, उपकरणं चौपग्रहिकम्। अथवाभाजनं च भाण्ड चोपधिश्चेत्येवंरूपमुपकरणं भाजनभाण्डोपध्युपकरणम्, तदेवाऽऽह-पतद्ग्रह पात्रं, पात्रबन्धनं पात्रबन्धः, पात्रकेशरिका पात्रप्रमार्जनपोत्तिका, पात्रस्थापन यत्र कम्बलखण्डे पात्रं निधीयते, पटलानि भिक्षाऽवसरे पात्रप्रच्छादकानि वस्वखण्डानि / तानि च यदि सर्वस्तोकानि तदा त्रीणि भवन्ति अन्यथा पश्च सप्त केति / रजस्त्राणं च पात्रवेष्टनं चीवर, गोच्छकः पात्रवस्त्रप्रमार्जनहेतुः कम्वलश कलरूपः, त्रय एव प्रच्छदौ द्वौ सौत्रिको, तृतीय और्णिकः, रजोहरण प्रतीतं, चोलट्टकः परिधानवस्त्र मुखानन्तकं मुखवस्त्रिका। एषां द्वन्द्वः / तत एतान्यादिर्यस्य तत्तथा (7) / एतदपि च संयमस्योपबृहणार्थमुपष्टम्भार्थ, न परिग्रहसंज्ञया। आह च "ज पि वत्थं व पायं वा, कंबल पायपुंछणं / तं पि संजमलजट्ठा, धारेंती परिहरंति य // 1 // " परिभुञ्जत इत्यर्थः। "नय सो परिगहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गही वुत्तो, इइवुत्तं महेसिणा॥१॥" अस्मद्गुरुणेत्यर्थः। तथा वाताऽऽतपदंशमशकशीतपरिरक्षणार्थतया उपकरणं रजोहरणाऽऽदिक रागद्वेषरहितं यथा भवतीत्येवं परिवो ढव्य परिभोक्तव्यं संयतेन नित्यम् (8) / पडिलेहणपप्फोडणपमज्जणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेणं हंति सययं निक्खिवियव्वं च गिण्हियव्वं च भाययणभंडोवहिं उवकरणं / एवं से संजए विमुत्ते निस्संगो निप्परिग्गहरुई निम्ममे निसिनेहबंधणे सव्वपावविरए वासीचंदणसमाणकप्पो समतिणमणिभुत्तलेठुकं चणसमे समे य माणावमाणणाए समियरए समियरागदेसे समिते समिइसुसम्मविट्ठी समे यजे सव्वपाणभूएसु से हु समणे सुयधारए उज्जुए संजए सुसाहू सरणं सव्वभूयाणं सव्यजगवच्छले सच्चभासके य संसारते वितेयसंसारसमुच्छिन्ने Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण सययं मरणाणं पारए पारके य सव्वेसिं संसयाणं पवयसमायाहिं अट्ठहिं अट्ठकम्मगंठीविमोयके अट्ठमयमहणे ससमयकुसले य भवइ (8) / एवमपरिग्रहताऽस्य भवति / आह च- 'अज्झत्तविसोहीए, उवकरण बाहिर परिहरतो / अपरिगहो त्ति भणितो, जिणेहिँ तेलोकदसीहिं / / 1 / / ' | तथा-प्रत्युपेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणं, प्रस्फोटनम् आस्फोटनम्, आभ्या सह या प्रमार्जना रजोहरणाऽऽदिक्रिया सा तथा, तस्याम् / (अहो य राओ यत्ति) रात्रिन्दियम् अप्रमत्तेना-प्रमादिना भवन्ति, सततं निक्षेप्तव्य च मोक्तव्य,ग्रहीतव्यं चेति / किं तदित्याह- "भायणभंडोवहिउवकरणं / ' एवमनेन न्यायेन संयतः संयमी, विमुक्तत्यक्तधनाऽऽदिनिः सङ्गोऽभिष्वङ्गवर्जितः, निर्गता परिग्रहरुचिर्यस्य स तथा निर्ममो ममेतिशब्दवर्जी, निःस्नेहबन्धनश्च यः स तथा, सर्वपापविरतः, वास्यामपकारिकायां चन्दने वोपकारके समानस्तुल्यः समाचारो विकल्पो वा यस्य स तथा, द्वेषरागविरहित इत्यर्थः / समा उपेक्षणीयत्वेन तुल्यास्तृणमणिमुक्ता यस्य स तथा, लोष्टौ च काञ्चने च सम उपेक्षकत्वेन तुल्यो यः स तथा ततः कर्मधारयः समश्च हर्षदैन्याभावात, मानेन पूजया सहापमानना न्यत्कारो मानापमानना तस्यां शमितमुपशमितं रजः पापं रतं वा रतिर्विषयेषु रयो वौत्सुक्यं येन स शमितरजः, शमितरयो वा शमितरागद्वेषः, समितःसमितिषु पञ्चसु, सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दर्शनी, समश्व यः सर्वप्राणिभूतेषु, तत्र प्राणा द्वीन्द्रियाऽऽदित्रसाः भूतानि स्थावराः (स हु समण त्ति) स एव श्रमण इति वाक्यनिष्ठा। किंभूतोऽसावित्याह-श्रुतधारकः, ऋजुकोऽवक्र, उद्यतो वाऽनलसः,संयतः संयमी, सुसाधुः सुष्ट निर्वाणसाधनपरः, शरणं त्राणं सर्वभूतानां पृथिव्यादीनां रक्षणाऽऽदिना, सर्वजगद्वत्सलो वात्सल्यकर्ता, हित इत्यर्थः / सभ्यभाषकश्च, संसारान्ते स्थितश्च (संसारसमुच्छिन्ने त्ति) समुच्छिन्नसंसारः, सततं सदा मरणानां पारगः सर्वदैव तस्य न बालाऽऽदिमरणानि भविष्यन्तीत्यर्थः / पारगश्च सर्वेषां संशयानां, छेदक इत्यर्थः / प्रवचनमातृभिरष्टभिः समितिपञ्चकगुप्तित्रयरूपाभिः करणभूताभिरष्टकर्मरूपो या ग्रन्थिस्तस्या विमोचकोऽएमदमथनोऽष्टमदस्थाननाशकः, स्वसमय कुशलश्च स्वसिद्धान्तनिपुणश्च भवति (6) / सुहदुहनिव्विसेसे अभितरबाहिरम्मि सदा तवोवाहणम्मि य सुठुज्जुए खंते दंते य हियनिरए इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी बाई लज्जूपण्णो तवस्सी खंतिखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे अबहिलेस्से अममे अकिं चणे छिन्नगथे निरुवलेवे सुविमलवरकंसभायणं चेव मुक्कतोए संखे विव निरंजणे विगयरागदोसमोहे कुम्मो इव इंदिएसु गुत्ते जचकणगं व जावरूवे पुक्खरपत्तं व निरुवलेवे चंदो इव सोम्मभावयाए मूरो व्व दित्तत्तेए अचले जह मंदरे गिरिवरे अक्खोभे सागरो व्व थिमिये पुढवी वि य सव्यफासविसहे तवस्साइ य भासरासिछन्नेव जाततेए जलियहुयासणो विव तेयसा जलंते गोसीसहचंदणं पि व सीयले सुगंधी य हदए विव समियभावे उग्घसियसुनिम्मलं आर्यसमंडलतल व पागडभावेण सुस्सभावे सोंडीरी कुंजरो व्व वसभो व जायथामे सीहो व्व जहा मिगाहिवे इइ होइ दुप्पधरिसे (10) / सुखदुःखनिर्विशषा, हर्षाऽऽदिरिहित इत्यर्थः / (अभिंतरबाहिरे त्ति) आभ्यन्तरस्यैव शरीरस्य कार्मणलक्षणस्य तापकत्वादभ्यन्तरं प्रायश्चित्ताऽऽदिषद विधं, बाह्यस्याप्यौदारिकलक्षणस्य शरीरस्य तापकत्वाद्वाह्यमशनाऽऽदिषविधम् अनयोश्च द्वन्द्वः तत आभ्यन्तरबाही सदा नित्य तप एव उपधानश्च गुणोपष्टम्भकारि तप उपधानं तत्र च सुष्टद्युक्तः अतिशयेनोद्यतः, क्षान्तः क्षमावान्, दान्तश्च इन्द्रियदमेन (हि यनिरए त्ति) आत्मनः परेषां च हितकारीत्यर्थः / पाठान्तरेधृतिनिरतः। "इरिए' इत्यादीनि दश पदानि पूर्वोक्तार्थप्रपञ्चरूपाणि प्रतीतार्थान्येव / तथा त्यागी सर्वसङ्गत्यागात्संविज्ञमनोज्ञसाधुदामाद्वा / (लज्जु त्ति) रज्जुरिव रज्जुः,सरलत्वात् धन्यो धनलाभयोग्यत्वात् तपस्वी प्रशस्ततपो-युक्तत्वात्।क्षान्त्या क्षमतेनत्वसामादिति क्षान्तिक्षमः, जितेन्द्रिय इति व्यक्तम् / शोभितो गुणयोगात, शोधिदो वा शुद्ध-कारी, सुहृद् वा सर्वप्राणिमित्रम् ।अनिदानो निदानपरिहारी, संयमात् अबहिर्लेश्याऽन्तःकरणवृत्तिर्यस्य सोऽबहिर्लेश्यः, अममो ममकारवर्जितः, अकिञ्चनो निर्द्रव्यः, छिन्नग्रन्थिः त्रुटितस्नेहः / पाठान्तरत:"छिन्नसोय त्ति'' छिन्नशोको अथवा छिन्नश्रोताः, तत्र श्रोतो द्विविधम्द्रव्यश्रोतो, भावश्रोतश्च / तत्र द्रव्यश्रोतो नद्यादिप्रवाहः / भावश्रोतश्च संसारसमुद्रपात्यशुभो लोकव्यवहारः, सछिन्नो येन स तथा / निरुपलेपोऽविद्यमानकर्मानुलेपः, एतच विशेषणं भाविनि भूतवदुपचारमाश्रित्योच्यते। सुविमलवरकांस्यभाजनमिव विमुक्ततोयः, श्रमणपक्षे तोयमिव तोय सम्बन्धहेतुः स्नेहः (संखे विव त्ति) शङ्खइव निरञ्जनः, साधुपक्षे रजनं जीवस्वरूपोपरञ्जनकारि रागाऽऽदिकं वस्तु अत एवाऽऽह-वीतरागद्वेषमोहः, कूर्म इव इन्द्रियेषु गुप्तः। यथाहि कच्छपः ग्रीवापञ्चमैश्चतुर्भिः पादैः कदाचित् गुप्तो भवतीत्येवं साधुरपीन्द्रियेष्विन्द्रियाण्याश्रित्येत्यर्थः / जात्याकाश्चनमिव जातरूपः रागाऽऽदिक्षुद्रव्यपोहालब्धस्वस्वरूप इत्यर्थः, पुष्करपत्रमिव पद्मदलमिव निरुपलेपो भोगगृद्धिलेपापेक्षया, चन्द्र इव सौम्यतया, पाठान्तरेणसौम्यभावतया सौम्यपरिणामेन अनुपतापकतया, सूर इव दीप्ततेजाः, तपस्तेजः प्रतीत्य, अचलो निश्चलः परीषहाऽऽदिभिः, यथा मन्दरो गिरिवरो, मेरुरित्यर्थः / अक्षोभः क्षोभवर्जितः, सागर इव स्तिमितः भावकलोलरक्षितः / तथा-पृथिवीव सर्वस्पर्शविषहः, शुभाशुभस्पर्शषु समचित्त इत्यर्थः / (तवसा इव त्ति) तपस ऽपि च हेतुभूतेन भस्मराशि छन्न इव जाततेजा बह्निभावनेह यथा भस्मच्छन्नो वह्निरन्तवलति बहिलानो भवतीत्येव श्रमणः शरीरमाश्रित्य तपसा म्लानो भवति, अन्तस्तु शुभलेश्ययादीप्यत इति ज्वलितहुताशन इव तेजसा ज्वलन्, साधुपक्षतेजो ज्ञान, भावतमोविनाशकत्वात् , गोशीर्षचन्दनमिव शीतलो मनःसन्तापोपशमनात्, सुगन्धिश्च शीलसौगन्ध्यात्, हृदक इव नद इव Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण सम एव समिकः समभावो यस्य स तथा / यथाहि वाताभावे हदः समो भवति अनिम्नोन्नतजलोपरिभाग इत्यर्थः / तथा-साधुः सत्कारव्य - त्कारयोः अमुन्नतानिम्नभावतया समा भवतीति / उद्धृष्टसुनिर्मलमिवाऽऽदर्शमण्डलतलं, प्रकटभावेन निर्मायितया अनिगूहितभावेन सुस्वभावः शोभनस्वरूपः, शुद्धभावो वेति। शौण्डीरश्चाऽऽरभटः कुञ्जर इवपरीषहसैन्यापेक्षया वृषभ इव जातस्थामा अङ्गीकृतमहाव्रतभारोबहने जातसामर्थ्यः, सिंह इव यथा मृगाधिपः, इति स्वरूपविशेषणं भवति, दुःप्रधृष्टः अपरि-भवनीयो मृगाणामेवं साधुः परीषहाणामिति / / 10 / / सारयसलिलं व सुद्धहियए भारंडे चेव अप्पमत्ते खग्गिविसाणं व एगजाए खाणू विव उड्डकाए सुण्णागारे व्व अप्पडिकम्मे सुण्णागाराऽऽवणस्संऽतो निवापसरणपदीवज्झाणमिव निप्पकंपे जहा खुरे चेव एगधारे जहा अही चेव एगदिट्ठी आगासं विव णिरालंबे विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के कयपरनिलए जहा चेव उरए अपडिबद्धो अनिलो व्व जीवो व्व अपडिहूयगई गामे गामे य एगरायं नगरे णगरे पंचरायं दूइज्जंते य (11) / शारदसलिलमिव शुद्धहृदयो, यथा शारदजलं शुद्धं भवती त्येवमयं शुद्धहृदय इति भावना भारण्ड इव अप्रमत्तः, यथा भारण्डाभिधानः पक्षी अप्रमतश्चकितो भवतीत्येवमयमपीति खनि: आटव्यः चतुष्पदविशेषः, स ह्येकशृङ्गो भवतीत्युच्यते, खङ्गिविषाणभिवैकजातो रागाऽऽदिसहायवकल्यादकीभूत इत्यर्थः। स्थाणुविवोर्द्धकायः कायोत्सर्गकाले, शून्यागारमिवाप्रतिकर्मा इति व्यक्तम्। (सुन्नागाराऽऽवणस्संतो ति) शून्यागारस्य शून्याऽऽपणस्य चान्तर्मध्ये वर्तमानः। किमिवकिम्विध इत्याहनिर्वातः शरणप्रदीपध्यानमिव वातवर्जितगृहदीपज्वलनमिव निःप्रकम्पो दिव्याऽऽद्युपंसर्गसंसर्गेऽपि शुभध्याननिश्चलः (जहाखुरे घेव एगधारे त्ति) चेवशब्दः समुचये / यथा क्षुर एकधार एवं साधुरुत्सर्गलक्षणेकधारः / (जहा अही चेव एगदिट्ठित्ति ) यथा अहिरेकदृष्टिद्धिलक्ष, एवं साधुर्मोक्षसाधनकदृष्टिः / (आगासे चेव निरालंबे त्ति) आकाशमिव निरालम्बो, यथाऽऽकाशमनालम्बनं तथा साधुः न किशिदालम्बते, एवं साधुग्रामदेशकुलाऽऽद्यालम्बनरहित इत्यर्थः। विहग इव सर्वतो विप्रमुक्तः,निःपरिग्रह इत्यर्थः। तथा परकृतो निलयो वसतिर्यस्य स परकृतनिलयो, यथोरगः सर्पः, तथाऽप्रतिबद्धः प्रतिबन्धरहितोऽनिल इव वायुरिव, जीव इव अप्रतिहतगतिः अप्रतिहतविहार इत्यर्थः / ग्रामे ग्रामे चैकरात्रि यावत्, , नगरे नगरे च पञ्चरात्रिम्। (दूइज्जते इति) विहरंश्चेत्यर्थः एतश्च भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्नसाध्वपेक्षया सूत्रमवगन्तव्यम् (11) / कुत एवंविधोऽसावित्याहजिइंदिए जियपरिसहे जओ निभए विऊ सचित्ता- | चित्तमीसके हिं दव्वे हिं विरागयं गए संचयतो विरए मुत्ते | लहुके निखकंखे जीवियमरणाऽऽसविप्पमुक्के निस्संघं निव्वर्ण | चरित्तं धीरे कारण फासयंते सययं अज्झप्पज्झणजुत्ते निहुके एगे चरेज धम्मं / इमंच परिग्गहवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेचाभाविकं आगमेसि भदं सुद्ध नेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउसमणं (12) जितेन्द्रियो जितपरिषहो यत इति निर्भयो भयरहितः (वि उत्ति) विद्वान् गीतार्थः / पाठान्तरेण-विशुद्धो निरतिचारः। सचित्ताचित्तमिश्रकेषु द्रव्येषु विरागतां गतः, संचयाद्विरतः, मुक्त इव मुक्तः,लघुकः गौरवायत्यागात्, निरवकाक्षः आका-ड्क्षावर्जितः, जीवितमरणयोराशया वाञ्छ्या विप्रमुक्तो यः स तथा, निःसन्धि चारित्रपरिणामव्यवच्छेदाभावेन निःसन्निधानं निणं निरतिचारं चारित्रं संयम, धीरो बुद्धिमान, अक्षोभी वा, कायेन कायक्रियया, न मनोरथमात्रेण स्पृशन्, सततमनवरतमध्यात्मनाशुभमनसा ध्यानं यत्तेन युक्तो यः स तथा निभृत उपशान्तः, एको रागाऽऽदिसहायाभावात्, चरेदनुपालयेद्धर्म चारित्रलक्षणमिति // 12 // भावनातस्स इमा पंच भावणाओ चरिमस्स वयस्स हुंति (अ) परिग्गहवेरमणरक्खणाट्ठयाए / पढमं सोइंदिएण सोचा सहाई मणुण्णभद्दगाई, किं ते वरमुरयमुइंगपणवदद्दुरकच्छभिवीणविपंचिवल्लयिवद्धीसकसुघोसणंदीसूसरपरिवादिणिवं सतूणकपवायतंतीतलतालतुडियनिग्रोसगीयवाइयाइं णडणट्टगजलमल्लमुडिकवेलंवककहकपवकलासआइक्खकलंखमंखतूणइल्लतुंववीणियतालायरपकरणाणि य बहूणि महुरसरगीयसुस्सराई कं चीमेहलाकलावगपतरकपतरेकपायजालकघंटि यखिं खिणिस्यणोरुजालयछु दियनेउरचलणमालियकणगनियलजालकभूसणसद्दाणि लीलाचंदकम्ममाणाणुदीरियाइ तरुणीजणहसियभणियकलरिभियमंजुलाइं गुणवयणाणि य बहूणि महुरजणभासियाई अण्णेसु य एवमाइएसु सद्देसु मणुण्णभद्दएसुन तेसु समणेण सज्जियव्वं न रजियव्वं न गज्झियव्वं न मुच्छियव्वं न विनिघायं आवजियव्यं न लुलियव्यं नतुसियव्वं न हसियव्वं न सतिं च मतिं च तत्थ कुआ। पुणरवि य सोइंदिएण सोचा सहाई अमणुण्णपावकाइं, किंते ? अक्कोसफरुसखिंसणअवमाणणतज्जणनिब्भत्थणदित्तवयणतासणउक्कू जिणरुण्णरडियकं दियनिरघुट्ठरसियकलुणविलवियाई अण्णेसु य एवमाइएसु सद्देसु अमणुण्णपावएसुन तेसु समणेणं रुसियव्वं न हीलियव्वं न निंदियव्वं न खिंसियध्वं न छिंदियव्वं न पिंदियव्वं न वहेयव्वं न दुगुंछावत्तिया वि लम्भा उप्पाएउ / एवं सोइंदियभावणाभाविओ भवइ अंतरप्पा मणुण्णामणुण्णे सुबिभदुडिभरागदोसे पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संवुडे पहिइंदिए चरेज्ज धर्म? (13) / (इमा पंचेत्यादि) "रक्खणट्टयाए'' इत्येतदन्तं सुगमम्, Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण - नवरम् अपरिग्रहरूपं विरमणं यत्तत्तथा (पढमं ति) पञ्चाना मध्ये प्रथम भावनावस्तु शब्दनिस्पृहत्वं नाम / तच्चैवम्श्रोत्रेन्द्रियेण श्रुत्वा शब्दान् मनोज्ञाः सन्तो ये भद्रकास्ते मनोज्ञभद्रकास्तान्। (किं ते ति) तद्यथावरमुरजा महामईला, मृदङ्गा मर्दला एव, पणवा लघुपटहाः, (ददुर त्ति) दर्दुरटः चविनद्धमुखः कलशः, कच्छमी वाद्यविशेषः, वीणा विपञ्ची वल्लकी च वीणाविशेषाः वद्धीशकं वाद्यविशेष एव, सुघोषा घण्टाविशेषः, नन्दी द्वादश-तूर्यनिर्घोषः / तानि चामूनि- ''भभा मउद्द मद्दल हुडुक्क तिसिला य करड कंसाला। काहल वीणा वंसो, संखो पणवो य बारसभो / / 1 // " तथा-सूसरपरिवादिनी वीणाविशेष एव, वंशो वेणुः, तूणको वाद्यविशेषः, पवाकोऽप्येवम्, तन्त्री वीणाविशेष एव, तला हस्ताः, ताला कसिकाः, तलताला वा हस्ततालाः, एतान्येव तूर्याणि वाद्यानि, एषां यो निर्घोषो नादः, तथा गीत गेय, वादितं च वाद्यं सामान्यमिति द्वन्द्वः / ततः श्रुत्वेति योगाद् द्वितीया / तथा नटनर्तकजल्लमल्लपौष्टिकविडम्बककथकप्लवकलाशकाऽऽख्यायकलङ्क मङ्ख तूणइल्लतुम्बबीणकतालाचरैः पूर्व व्याख्यातैः प्रक्रियन्ते विधीयन्ते यानि तानि नटाऽऽदिप्रकरणानि तानि च / कानि तानीत्याह-बहूनि अनेकानि, मधुरस्वराणां कलध्वनीनां गायकानां यानि गीतानि सुख स्वराणि, तानि श्रुत्वा तेषु श्रमणेन न सक्तव्यमिति सम्बन्धः / तथा काञ्ची कट्याभरणविशेषः, मेखलाऽपि तद्विशेष एव, कलापको जीवाऽऽभरण, प्रतरकाणि प्रतरेकश्वाऽऽभरणविशेषः, पादजालकं पादाऽऽभरणं, घण्टिका प्रतीता, किड् किण्यः क्षुद्रप्पण्टिकास्तत्प्रधानम्, (रयण त्ति) रत्नसम्बन्धि ऊऊहजड्ने योर्जालक यत्तत्तथा। (छुद्विय त्ति) क्षुद्रिकाऽऽभरणविशेषः, नूपुरं पादाऽऽभरण, चलनमालिकाऽपि तथैव, कनकनिगडानि जालकं चाऽऽभरणविशेषः / एतान्येव भूषणानि तेषां ये शब्दास्ते तथा / किंभूतानीत्याह-लीलाचड् क्रम्यमाणानां हेलया कुटिलगमनं कुर्वाणानामुदीरितान् संजातान्, लीलासंचलनसंजनितानीत्यर्थः / तथा तरुणीजनस्य यानि हसितानि भणितानि च कलानि माधुर्यविशिष्टध्वनिविशेषरूपाणि रिभितानि स्वरवोलनान्यतिमञ्जुलानि च मधुराणि तानि तथा, गुणवचनानि च स्तुतिवादाश्च, बहूनि प्रचुराणि मधुरजनभाषितान्यमत्सरलोकभणितानि श्रुत्वा / किमित्याह-तेष्वित्युत्तरस्येह संबन्धात् तेषु अन्येषु चैवमादिकेष्वेवप्रकारेषु शरदेषु मनोज्ञभद्रकेषु न तेष्विति योजितमेव, श्रमणेन न सक्तव्यमिति सम्बन्धः / वाऽपि न रक्तव्यं न रागः कार्यः, न गर्द्धितव्यम् अप्राप्तेष्वाकाङ्गान कार्या, न मोहितव्यं तद्विपाकपर्यालोचनाया न मूड्डेन भाव्यम्, न विनिवातं तदर्थमात्मनः परेषां वा विनिहननम् आफ्तव्यं प्राप्तव्यं, न लोब्धव्यं सामान्येन लोभो न विधेयः,न तोष्टव्यं प्राप्ती न तोषो विधेयः, न हसितव्यं प्राप्तौ विस्मयेन हासो न विधेयः, न स्मृति वा स्मरणं मतिं वा तद्विषय ज्ञान (तत्थ त्ति) तेषु शब्देषु कुर्यात् / पुनरपि चेति शब्दगतं प्रकारान्तरं पुनरन्यदपि चोच्यत इत्यर्थः / श्रोत्रेन्द्रियेण श्रुत्वा शब्दान् अमनोज्ञाःसन्तो ये पापकारस्ते अमनोज्ञपापकाःतान्। (किं ते त्ति) तद्यथा-आक्रोशो मियस्वेत्यादि वचनं, | परुषरे मुण्ड ! इत्यादि खिंसनं निन्दावचनम् अशीलोऽसावित्यादिकम्, अपमाननमपूजावचन-यूयमित्यादि वाच्ये त्वमित्यादि, तथा तर्जनं ज्ञास्यसि रे ! इत्यादि वचनं, निर्भर्सनम् अपसर मे दृष्टिमार्गादित्याऽऽदिकं, दीप्तवचनं कुपितवचनं, त्रासनं फेल्काराऽऽदिकं भयकारि, उत्कूजितम् अव्यक्तमहाध्वनिकरणं, रुदितम् अश्रुविमोचनयुक्तं शादित, रटितमारटीरूपं, क्रन्दितमाक्रन्दिः इष्टवियोगाऽऽदाविव, निधुष्ट निर्घोषरूप, रसितं शूकराऽऽदिशब्दितमिव, करुणं, करुणोत्पादक, विलपितमार्तस्वरुपामिति / एषां द्वन्द्वः / ततस्तानि श्रुत्वा, तेष्विति सम्बन्धात्तथाऽऽक्रोशाऽऽदिशब्देषु अन्येषु चैवमा दिषु शब्देष्वमनोज्ञपापकेषु न तेष्वितियोजितमेव, श्रमणेन रोषितव्यं, न हीलितव्यं नाऽवज्ञा कार्या, न निन्दितव्यं निन्दा न कार्या, न खिसितव्यं लोकसमक्षं निन्दा न कार्या न छेत्तव्यम् अमनोज्ञहेतुतो द्रव्यस्य छेदो न कार्यः, न भेत्तव्यं तस्यैव भेदो न विधेयः / (न वहेयव्वं ति) न वधो विधेयः, न जुगुप्सा वृत्तिका वा जुगुप्सावर्त्तनं, लभ्या उचितोत्पादयितुं जनयितुं. स्वस्य परस्य वा। प्रथमभावनानिगमनार्थमाह-एवमुक्तनीत्या श्रोत्रन्द्रियविषया भावना श्रोत्रेन्द्रिय निरोद्धव्यमन्यथाऽनर्थ इत्येवंरूपा परिभावना आलोचना, तया भावितो वासितो, भवति जायतेऽन्तरात्मा, ततश्च मनोज्ञाऽमनोज्ञत्वाभ्यां ये (सुडिभदुभि त्ति) शुभाऽशुभाः, शब्दा इति गभ्यते, तेषु क्रमेण यो रागद्वेषो तयोर्विषये प्रणिहितः संवृत आत्मा यस्य स तथा, साधुनिर्वाणसाधनपरः, मनोवचनकायगुप्तः, संवृतः संवरवान्, पिहितेन्द्रियो निरुद्धहषीकः, प्रणिहितेन्द्रियो वा तथाभूतः सन्, चरेदनुचरेदनुपालयेद्धर्म चारित्रम / प्रश्न०५ सं० द्वार। अहावरं पंचमं भंते ! महव्वयं सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि, से अप्पं वा बहु वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतमचित्तं वा णेव सयं परिग्गहं गिण्हेजा, णेवऽण्णेहिं परिग्गहं गिण्हावेजा, अण्णं पि परिग्गहं गेण्हतं ण समणुजाणेज्जाजाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तत्थिमा पढमा भावणासोयओ णं जीवे मणुण्णामणुण्णाई सद्दाई सुणेइ, मणुण्णा-मणुण्णेहिं सद्देहिं णो सञ्जञ्जा, णो र ज्जा, णो गिज्झेज्जा, णो मुच्छेज्जा, णो अज्झोववजेज्जा, णो विणिग्यायमावजेज्जा, केवली बूयाणिग्गंथे णं मणुण्णामणुणे हिं सद्देहिं सज्जमाणे रज्जमाणे०जाव विणिग्घायमावञ्जमाणे संति भेया संति विभंगा संति केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा, "ण सका णं सोउंसद्धा, सोयविसयमागया। रागद्दोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू पडिवज्जए / 11 / / " सोयओ जीवे मणुण्णा-मणुण्णाई सद्दाइंसुणेति पढमा भावणा ||1|| आचा०२ श्रु०३ चू०! विइयं चवखुइंदिएण पासिय रूवाणि मणुण्णभद्दकाई सचित्ताचित्तमीसकाई, कटे पोत्थे य चित्तकम्मे लेप्पकम्मे सेले य दंतकम्मे पंचहिं वण्णे हिं अणेगसंठाणसंठियाई गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमाणि मल्लाइं बहुविहाणि य अहियं Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण नयणमणसुहकराई वणसंडे पव्वए य गामाऽऽगरनगराणि अभिरामाश्च रम्यास्त तथा तान् अनेकशकुनिगणाना मिथुनानि यखुड्डियपुक्खरणिवावीदीहियगुजालियसरसरपंति- विचरितानि सञ्चरितानि येषु ते तथा तान् तथा वरमण्डपा प्रतीताः सागरविलपंतियखातियनदीसरतलागवप्पीणि फुल्लुप्प- विविधानि भवनानि गृहाणि, तोरणानि प्रतीतानि चैत्यानि प्रतिमाः. लपउमपरिमंडियाभिराम अणे गसउणिगणमिहुणविचरिते देवकुलानि प्रतीतानि सभा बहुजनोपवेशन्थानं प्रपा जलदानस्थानम् वरमंडवविविहभवणतोरणचेइयदेवकुलसभापवाऽऽवसहसु- आवसथः परिव्राजकवसतिः, सुकृतानि शयनानि शय्या आशनानि च कयसयणाऽऽसणसीयरहसगडजाणजुग्गसदणनरनारीगणे य सिंहाऽऽसनाऽऽदीनि शिविका जम्पानविशेष पार्वती येदिका उपरि च सोम्मपडिरूवदरिसणिज्जे अलंकियविभूसिए पुवकयतव- कूटाऽऽकृतिः, रथः प्रतीतः शकटं गन्त्री यानं गन्तीविशेष एव युग्यं बाहन, प्पभावसोइग्गसंपउत्ते नट्टनहगजलमल्लमुट्ठियवेलंबक कह- गोल्लदेशप्रसिद्ध वा जम्पानं, स्यन्दनो रथविशेषः, नरनारीगणश्चेति कपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंववीणियतालायग्प- द्वन्द्वरतांश्च, किम्भूतान् ? सौम्या अरौद्राः प्रतिरूपा द्रारं प्रति रूपं येषां करणाणि य बहूणि सुकरणाणि अण्णेसु य एवमाइएसु रूवेसु ते, दर्शनीयाश्च मनोज्ञा ये ते तथा तान्, अलङ्कृतविशेषितान् क्रमेण मणुण्णभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियवं, न रजियवं, न मुकुटाऽऽदिभिर्वस्वाऽऽदिभ्यश्व, पूर्वकृतस्य तपसः प्रभावेन यत सौभाग्य गिज्झियव्वं, न मुज्झियव्वं, न विनिग्धायमावज्जियव्वं, न जनाऽ देयत्वं तेन सम्प्रयुक्ता ये ते तथा तान्, तथा नटनर्सकयल्लम लुभियव्वं, न रुसियव्वं,न हसियव्वं,न सतिं च मतिं च तत्थ ल्लमौष्टिक विडम्वककथकप्लवकलासकाऽऽख्यायकलव मसतूणयिल्लकुजा / पुणरविचक्खिदिएण पासिय रूबाणि अमणुण्णपावकाई; तुम्बवीणिकतालाचरैः पूर्वव्याख्यातैः प्रक्रियन्ते यानि तानि तथा। तानि किं ते?, गंडिकोढिकुणिउदरिकच्छुल्लपइलकुज्जपंगुलवामण- च कानीत्याह-बहूनि सुकरणानि शोभनकर्माणि, दृष्टुति प्रकृतम, तेष्विति अंधिल्लगएगचक्खुविणिहयसपिसल्लगवाहिरोगपीलियं विगताणि सम्बन्धात्तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु रूपेषु मनोज्ञभद्रकेषुन श्रमणेन सक्त्तव्यं, य मतककलेवराणि सकिमिणकुहियं च दव्वरासिं अण्णेसु य न रक्तव्यं, यावत्करणान्न गर्द्धितव्यमित्यादीनि षट्पदानि दृश्यानि, न एवमाइसु अमणुण्णपावएसुन तेसु समणेण रुसियव्वं० जाव न स्मृति वा मतिं वा तत्र तेषु रूपेषु कुर्यात् / पुनरपि चक्षुरिन्द्रियेण दृष्ट्वा दुगुंछावत्तिया विलब्भा उप्पाएउं, एवं च चक्खिदियभावणा- रूपाणि अमनोज्ञपापकानि (किं तेत्ति) तद्यथा- (गंडीत्यादि) वातपित्तभावितो भवइ अंतरप्पा मणुण्णामणुण्णेसु सुब्भिदुब्मिरागदोस- श्लेष्मरान्निपात चतुर्दा गण्ड, तदस्या स्तीति गण्डी गण्डमालावान् / पणिहिअप्पा साहुमणवयणकायगुत्ते सवुडे पणिहिदिए चरेज कुष्टमष्टादशभेदमस्यास्तीति कुष्ठी / तत्र सप्त महाकुष्ठानि / तद्यथाधम्म (14) / अरुणा-१ दुम्बर 2 रिश्यजिह्न 3 काकपाल 4 काक्न 5 पौण्डरीक 6 बिइयं ति) द्वितीय भावनावस्तु चक्षुरिन्द्रियसंवरो नाम / तच्चैवम्- द[७ कुष्ठानीति। महत्व चैषां सर्वधात्वनुप्रवेशादसाध्यत्वाचेति। एकादश चक्षु रिन्द्रियेण दृष्ट्वा रूपाणि नरयुग्माऽऽदीनि मनोज्ञभद्रकाणि क्षुद्राणि / तद्यथा-म्थूलामारुक्कमहाकुष्ठककुष्ठा 3 चर्मदलविसर्पपरिसर्प सचित्ताचितमिश्रकाणि / त्याह-काष्ठे फलकाऽऽदौ, पुस्ते च वरचे, 6 विचर्चिका 7 सिध्मः 8 किटिभः हपामा 10 शतारुक 11 संज्ञानीति / चित्रकर्मणि प्रतीते, लेप्ये मृत्तिकाऽऽदिविशेष, शैले च पाषाणे सर्वाण्यप्यष्टादश सामान्यतः कुष्ठं सर्वसन्निपातजमपि वाताऽऽदिदोषोदन्तकर्मणि-च गजविषाणविषयायां रूपनिर्माणक्रियायो, पक्ष- त्कटतया भेदभाग्भवतीति। (कुणि त्ति) गर्भाऽऽधानदोषान् ह्रस्वैकपादो मिर्वणैर्युक्तानीति गम्यते / तथा अनेकसंस्थानसंस्थितानि ग्रन्थिम न्यूनैकपाणिर्वा कुणिकुण्ट इत्यर्थः। (उदरित्ति) जलोदरी तत्राष्टावुदराणि ग्रन्थनेन निष्पन्न मालावत्, वेष्टिमं वेष्टनेन निवृत्त पुष्पगेन्दुकवत्, पूरिमं तेषां मध्ये जलोदरमसाध्यमिति तदिहं निर्दिष्टम्। शेषाणित्वचिरोत्थानि पूरणेन तिवृत्तं पुष्पपूरितवंशपञ्जरकरूपशेखरकवत्, संघातिम सघातेन साध्यानि, तानि चाऽष्टावेव पृथक् पृथक् समस्तैरपि चाऽनिलाद्यैः 4 निष्पन्नम् इतरेतरनिवेशितजालपुष्पमालावत्, एषां द्वन्द्वः। कानि प्लीहोदरं ५वद्धगुदं तथैव आगन्तुकं सप्तमभष्टम जलोदरं चेति भवन्ति चैतानीत्याह-माल्यानि मालासु साधूनि, पुष्पाणीत्यर्थः / बहुविधानि यानि (कच्छुल्ल त्ति) कण्डूतिमान् (पइल्ल त्ति) पदं श्लीपदं, पदादौ चाऽधिकमत्यर्थ नयनमनसां सुखकराणि यानि तानि तथा / तथा काठिन्यम्, यदुक्तम्-प्रकुपिता वातपित्तश्लष्मणाऽधः प्रपन्ना वंक्षणोरुवनखण्डान् पर्वतांश्व ग्रामाऽऽकरनगराणि च प्रतीतानि / क्षुद्रिका जडास्ववतिष्ठमानाः कालान्तरेण पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोकमुपजलाऽऽशयविशेषः, पुष्करिणी पुष्करवती वर्तुला वा, वापी चतुष्कोणा, जनयन्ति यत् तत् श्लीपदमाचक्षते; दीर्घिका ऋजुसारणी, गुञ्जालिका वक्रसारणी, सरःपङ्क्तिका ''पुराणोदकभूयिष्ठाः, सर्वर्तुषु च शीतलाः। क्वैकस्मात् सरसोऽन्यस्मिन् अन्यस्मादन्यत्र सञ्चारकपाटकेनोदकं ये देशास्तेषु जायन्ते श्लीपदानि विशेषतः / / 1 / / सञ्चरति सा सरसरपङ्क्तिका, सागरः समुद्रो, बिलपड् क्तिका धातुख- पादयोर्हस्तयोश्वाऽपि, जायते श्लीपदं नृणाम्। निपद्धतिः / (खाइय त्ति) खातवलयं, नदी निम्नगा, सरः स्वभा-वजो कर्णोष्ठनासास्वपि च, क्वचिदिच्छन्ति तद्विदः / / 2 / " जलाऽऽश्रयविशेषः, तडागः कृतकः (वप्पिण त्ति) केदाराः, एतेषां द्वन्द्वः / कुब्जः पृष्ठाऽऽदौ कुब्जयोगात्, पड् गुलः पङ्गु :, चड् क्रमणाततस्तान् दृष्टेति प्रकृतम् / किम्भूतान्? फुल्लैर्विकसितैरुत्पलैर्नी- समर्थः, वामनः खर्व शरीरः। एते च माता पितृशोणित शुक्र दोषेण लोत्पलाऽऽदिभिः पद्यैः सामान्यैपुण्डरीकाऽऽदिभिः, परिमण्डिता ये | गर्भस्य दोषो द्वात् कुडजवामनकाऽऽदयो भवन्ति / उक्तं च Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण 'गर्भ वातप्रकोपेण दोहदे वाऽपमानित भवेत्कुब्जः कुणिः पडद्को मन्मन एव वा।।१॥ (अधल्लग त्ति) अन्ध एवाऽन्धिङ्कको जात्यन्धः, (एगचक्खु त्ति) काणः। एतच दोषद्वयं गर्भगतस्योत्पद्यते, जातस्य च तत्र गर्भस्थस्य दृष्टिगगमप्रतिपन्न तेजो जात्यन्धत्वं करोति, तदेवाऽक्षिगतं काणत्व विधन, तदेव रक्तानुगतं रक्ताक्षि, पित्ताऽनुगतं पिङ्गाक्षं, श्लेष्माऽनुगतं शुक्लाक्षमिति। (विणिहय त्ति) विनिहतचक्षुरित्यर्थः / तत्र पथा तस्य चक्षुर्विनिहननेनान्धकत्वं काणत्वं वा तदनेन दर्शितमिति / (सपिसल्लग त्ति) सह पिसलकेन पिशाचकेन वर्तते यत्स तथा, ग्रहग्रहीत इत्यर्थः / अथवा-सर्पगीति सर्पि, स च गर्भदोषात्कर्मदोषाद्वा भवति स किल पाणिगृहीतकाष्टः सर्पतीति। शल्यकः शल्यवान्, शूलाऽऽदिशल्यभिन्न इत्यर्थः / व्याधिना विशिष्टचित्तपीडया, चिरस्थायिगदेन वा, रोगेण रुजरा, सद्योघातिगर्दन वा पीडितो यः स तथा। ततो गण्ड्यादिपदानामेकत्वद्वन्द्वः / तद् दृष्ट्वेति प्रकृतम्। विकृतानि च मृतककडेवराणि (सकिभिणकुहिरा वनि) सह कृमिभिर्यः कुथितश्च स तथा, तवा द्रव्यराशि पुरीषाऽऽदि द्रव्यसमूह. दृष्ट्वति प्रकृतम् तेष्विति सम्बन्धात् तेषु गण्ड्यादिषु रूपेषु अमनोज्ञपापकेषु न श्रमणेन रोषितव्यं,यावत्करणान्न हीलितव्यमित्यादीनि पट्पदानि दृश्यानि, न जुगुप्सावृत्तिका अपि लभ्या उचिता योगत्यर्थः, उत्पादयितुं निगमयन्नाह-एवं चक्षुरिन्द्रियभावनाभावितो भवति अन्तरात्मेत्यादिव्यक्तमेव / प्रश्न०५ संब० द्वार। अहावरा दोचा भावणा चक्खूओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई रूवाइंपासइ, मणुण्णामणुण्णेहिं रूवेहिं सज्जमाणे रज्जमाणे. जाव विणिघायमावजामाणे सति भेया. जाव मंसेज्जा- "ण सक्का रूवमदह, चक्खूविसयमागयं / रागदोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए / / 1 / / " चक्खूओ जीवा मणुण्णामणुण्णाई रूवाई पासति, दोचा भावणा। आचा०२ श्रु०३ चू०) तइयं घाणिदिएण अग्वाइय गंधाई मणुण्णभद्दगाई, किं ते?जलयथलयसरसपुप्फफलपाणभोयणकोद्वतगरपत्तचोयदमणकमरुयएलारसपक्कम सिगोसीससरसचंदणकप्पूरलवंगअगरकुंकुमकक्कोलउसीरसेयचंदणसुगंधसारंगजुत्तिवरधूववासेसु उउयपिंडिमणीहारिमगंधेसु अण्णेसु य एवमाइएसुगंधेसु मणुण्णभद्दएसुनतेसु समणेण सजियव्वं०जाव नसतिं च मतिं च तत्थ कुञ्जा, पुणरवि घाणिदिएण अग्धाइय गंधाणि अमणुण्णपावकाई, किं ते ? अहिमडआसमड हत्थिमडगोमडविगसुणगसियालमणुपमज्जारसीहदीविमयकुहियविणट्टकिमिणबहुदुरभिगंधेसु अण्णेसुय एवमाइएसु अमणुण्णपावएसुन तेसु समणेण रुसियव्वं न हीलियव्यं० जाव पणिहियपंचिंदिए चरेज धम्म / (तइय ति) तृतीयं भावनावस्तु सुगन्धसंवृतत्वम् / तच्चैवम् - घ्राणेन्द्रियेणाऽऽध्राय गन्धान मनोज्ञभद्रकान् (किं ते त्ति) तद्यथाजलजस्थलजसरसपुष्पाणि फलपानभोजनानि प्रतीतानि, कुछ- मुत्पलकुष्ठ (तगर त्ति) गन्धद्रव्यविशेषः, पत्रंतमालपत्राऽऽदि. (चोय त्ति) गन्धद्रव्यविशेषः, दमनकः पुष्पजातिविशेषः, मरुकः प्रतीतः, पलारस: सुगन्धिफलविशे, परसः / (पक्कमंसि ति) पक्का संस्कृता मासीति गन्धद्रव्यविशेषः, गोशीर्षाऽभिधानं सरसं यच्चन्दन तत्तथा, कर्पूरो घनसारः, लवङ्गानि फलविशेषाः अगुरुदारुविशेषः, कुड्कुम काश्मीरज, कक्कोलानि फलविशेषाः, उशरीरंवारणीमूलं, श्वेतचन्दनं श्रीखण्ड, श्वेदो वा स्यन्दश्चन्दनं मलयज, सुगन्धानां सद्गन्धानां साराङ्गानां प्रधानदलाना युक्तिों जनं येषु वरधूपवासेषुतत्तथा, तेचते वरधूपवासाश्चेति समासः। ततस्तानाघ्राय तेष्विति योगात्तेषु / (उउयपिंडिमनीहारिमगंधिएसु त्ति) ऋतुजः कालोचित इति भावः। पिण्डिमो वहलः, निर्हारिमो दूरनिर्यायी, यो गन्धः स विद्यते येषु ते तथा, तेषु, अन्येषु चैवमादिकेषु गन्धेषु मनोज्ञभद्रकेषु न श्रमणेन सक्तव्यमित्यादि / “किं ते' इत्येतदन्तं पूर्ववत् / तथा-अहिमृताऽऽदीन्येकादश प्रतीतानि, नवरं वृक ईहामृगः, द्वीपी चित्रक एषां चाऽऽहिमृतकाऽऽदीनां द्वन्द्वः। द्वितीया बहुवचनं दृश्य, तत आघ्रायेति क्रिया योजनीया। ततस्ते ष्विति योगात्तेषु किम्विधेष्वित्याहमृतानि जीवविमुक्तानि कुथितानि कोथमुपगतानि विनष्टानि पूर्वाऽऽकारविनाशेन (किमिण त्ति) कृमिवन्ति बहुदुरभिगन्धानि चात्थन्तामनोज्ञगन्धानि यानि तानि तथा तेषु, अन्येषु चैवमादिकेषु गन्धेषु अमनोज्ञपापकेषु न श्रमणेन रोषितव्यमित्यादि पूर्ववत्। प्रश्न०५ संवन्द्वार। अहावरा तच्चा भावणा-घाणओ जीवे मणुण्णा-मणुण्णाई गंधाई अग्घाइ, मणुण्णामणुण्णेहिं गंधेहिं णो सञ्जेज्जा, णो रोजा०जाव णो विणिघायमावज्जेज्जा / केवली बूयामणुण्णामणुण्णेहिं गंधेहिं सज्जमाणे०जाव विणिघायमावजमाणे संति भेदा संति विभंगा० जाव भंसेज्जा'णो सक्का गंधमग्घाउं,णासाविसयमागयं / रागदोसाउजे तत्थ, ते मिक्खू परिवजए।।१।।" घाणओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई गंधाई अग्घायइ त्ति तच्चा भावणा। आचा०२ श्रु०३ चू०। (चतुर्थजिढे न्द्रियसंवरविषयकं प्रश्रव्याकरणमूलं 'जिभिदियसंवर' शब्दे चतुर्थभागे 1510 पृष्ठे गतम्)तन्मूलव्याख्या त्विहोच्यते (चउत्थं ति) चतुर्थ भावनावस्तु जिह्वेन्द्रियसम्वरः। तच्चैवम्-जिह्वेन्द्रियेणाssस्वाध रसांश्च मनोज्ञभद्रकान् / (किं भूते त्ति) तद्यथा -अवगाहः स्नेहवोल नं, तेन पाकतो निर्वृत्तमवगाहिमं पक्वान्नं खण्डखाद्याऽऽदि, विविधं पानं द्राक्षापानकाऽऽदि, भोजनं ओदनाऽऽदि, गुडकृतं गुडसंस्कृतं, खण्डकृतं खण्डसंस्कृतं, लड्-डुकाऽऽदि, तैलघृतकृतपूपा5ऽदि आस्वाद्येति प्रकृतम्, तेष्विति सम्बन्धात् तेषु भक्ष्येषु शष्कुलिकाप्रभृतिषु, वहुविधेषु विचित्रेषुलवणरससंयुक्तेषु तथा मधुमंसि प्रतीते, बहुप्रकारा मज्जिका, निष्ठानक प्रकृष्टमूल्यनिष्पादितम् / यदाह"णिट्ठाणं जा सयसहस्सं।" दालिकाम्लमिट्ठरिकाऽऽदि, सेन्धाम्लं सेन्धानेनाऽऽम्लीकृतमामलकाऽऽदि, दुग्धं दधि च प्रतीते, सरको गुड Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहवेरमण घातकीसिद्ध मद्य, वरवाराणी मदिरा, सीधुकापिशायेन मद्यविशेषौ, तथा शाकमष्टादशं यत्राऽऽहारे स शाकाष्टाऽऽदशः ततः एषांद्वन्द्वः, ततस्ते च ते बहुप्रकाराश्चेति कर्मधारयः, ततस्तेषु / शाकाष्टादशता चैवमाहारस्य "सूपो 1 -दणा २य जावण 3. तिन्नि य मंसाइँ 6 गोरसो 7 जूसो 8 / भक्खो 6 गुललावणिया 10, मूलफला 11 हरितयं 12 डागो 13 / / 1 / / होइरसालू य 14 तहा, पाण 15 पाणीय 2 पाणगं 3 चेव। अट्ठारसमो सागो, निरुवहओ लोइओ पिंडो // 2 // " इति। अनयोथियोयाख्या(तिन्नि य मंसाइ त्ति) जलचनाऽऽदिसत्कानि (जूसो त्ति) मुद्रतन्दुलजीरककडुभाण्डाऽऽदिरसः (भक्ख त्ति) खण्डखाद्यानि (गुललावणिय त्ति) गुलपर्पटिका लोकप्रसिद्धा, गुडधाना वा। मूलफलान्येकमेव पदम्। (हरितगति) जीरकाऽऽदिहरित, (डागो ति) वस्तुलाऽऽदिभर्जिका।।१।। (रसालु त्ति) मज्जिका (पाणं ति) मद्यं (पाणीयं ति) जलम् (पाणगं ति) द्राक्षापानकाऽऽदि (सागो त्ति) तक्रसिद्धशाक इति // 2 // तथा भोजनेषु च विविधेषु शालनकेषु मनोज्ञवर्णगन्धरसस्पानि च तानि बहुद्रव्यैः संभृतानि चोपस्कृतानि तानि तथा तेषु, अन्येषु चैवमादिकेषु रसेषु मनोज्ञभद्रकेषु श्रमणेन न रक्तव्यमित्यादि पूर्ववत् / तथा पुनरपि जिह्वेन्द्रियेणाऽऽस्वाद्य रसान अमनोज्ञपापकान् (किं ते त्ति) तद्यथा अरसानि अविद्यमानाऽऽहार्यरसानि हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतानीत्यर्थः। विरसानि पुराणजत्वेज विगतरसानि शीतानि अनौचित्येन शीतलानि, रूक्षाणि निस्नेहानि, (निज्जय त्ति) निर्याप्यानि च निर्यानकारकाणि निर्बलानीत्यर्थः / यानि पानभोजनानि तानितथा (दोसीणं ति) दोषान्नं रात्रिपर्युषितं व्यापन्नं विनष्टवर्णं कुथितं कोथवत् पूतिकमपवित्रं कुथितपूतिकं वाऽत्यन्तकुथितम्, अत एवामोजमसुन्दरं विनष्टमत्यन्तविकृताऽवस्थाप्राप्तं, ततः प्रसूतः बहुदुरभिगन्धो येन तत्तथा, तत एतेषां द्वन्द्वोऽस्तीति / तथा तिक्तं च निम्बवत्, कटुकं च शुण्ठ्यादिवत्, कषायं च विभीतकवत्, आम्लरसंच तक्रवत् लिद्रं च सशैवलपुराणजलवत् नीरसं च विगतरसमिति द्वन्द्वः / अतस्तानि आस्वाद्य, तेष्विति योगात्तेष्वन्येषु चैव मादिकेषु रसेष्वमनोज्ञपापकेषु न श्रमणेन रोषितव्यमित्यादि पूर्ववत् प्रश्न०५ संव० द्वार। अहावरा चउत्था भावणा-जिब्भाओ जीवो मणुण्णा-मणुण्णाई रसाई अस्सादेति, मगुण्णामणुण्णेहिं रसेहिं णो सज्जेज्जा०जाव णो विणिघायमावजेजा, केवली बूयाणिग्गंथे णं मणुण्णामणुपणे हिं रसेहिं सज्जमाणे०जाव विणिघायमावज्जमाणे संति / भेदा० जाव भंसेज्जा-"णो सक्का रसमस्सातुं, जीहाविसयमागतं / रागदोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिदजए // 1 // "/ जीहाओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई रसाइं अस्साएइ त्ति चउत्था भावणा आचा०२ श्रु०३ चू०। पंचमगं फासिंदिएणं फासिय फासाइं मगुण्णभद्दकाइं, किं ते?-दगमंडवहारसेयचंदणसीयलविमलजलविविहकुसुमसत्थरउसीरमुत्तिगमुणालदोसिणा पेहुणउक्खेवगतालियंटवीयणगजणियसुहसीयले य पवणे गिम्हकाले सुहफासाणि य बहूणि सयणाणि य पाउरणगुणे य सिसिरकाले अंगारपतावणा य आयवनिद्धम-उयसीयउसिणलहुया य जे उउसुहफासा अंगसुहनिव्विति करा से अण्णेसु य एवमाइएसु फासेसु मणुण्णभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रज्जियव्वं न गिज्झियव्वं न मुच्छियव्वं न विनिग्घायमावज्जियव्वं न लुभियव्वं नतुसियव्वं न हसियव्वं न सतिं च मतिं च तत्थ कुञ्जा, पुणरवि फासिंदिएण फासिय फासाई अमणुण्णपावकाई, किं ते ?अणेगवंधवहतालणाकण्णअइभारारोहणअंगभंजणसूईनखप्पवेसगायपच्छारणलक्खारसखारतेल्लकलकलतउयसीसककाललोहसिंचणहडीबंधणरज्जूणिगलसंकलहत्थंदुयकुंभिपागदहणसीहपुंछणउव्वंधणसूलभेयगयचलणमलणकरचरणकन्ननासोट्ठसीसच्छे यणजिब्भच्छेयणविसणनयणहिययंतदंतमंजणजोत्तलयकसप्पहारपादपण्हिजाणुपत्थरनिवायपीलणकविकच्छु अगणिविच्छु यडकवायाऽऽतवदंसमसकणिवाए दुट्टणिसजदुन्निसीहिया कक्खडगुरुसीयउसिणलुक्खेसु बहुविहेसु अण्णेसु य एवमाइएसु फासेसु अमणुण्णपावएसुन तेसु समणेण रुसियव्यं ण हीलियव्वं न किंदियव्वं न खिंसियव्वं ण छिंदियव्वं ण भिंदियव्वं न वहेयव्वं न दुगुछावत्तियव्यं लब्भा उप्पाएउं, एवं फासिंदियभावणाभाविओ भवइ अंतरप्पा मणुण्णामणुण्णसुभिदुभिरागदोसपणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संबुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्मं / / 5 / / (पंचमग ति) पञ्चमकं भावनावस्तु स्पर्शनन्द्रियसंवरः / तचैवम्स्पर्शनन्द्रियेण स्पृष्ट्वा स्पर्शान् मनोज्ञभद्रकान् (किं ते त्ति) तद्यथा(दगमडव ति) उदकमण्डपा उद्रकक्षरणयुक्ताहाराः प्रतीताः, श्वेतचन्दन श्रीखण्ड शीतलं विमलं च जलं पानीयं विविधाः कुसुमानां सस्तराः शयनानि उशीरं वीरणीमूलं, मौक्तिकानि मुक्ताफलानि, मृणालं पद्मनालं, (दोसिण त्ति) ज्योत्सा चेति द्वन्द्वोऽतस्तान् / तथा पेहुणानां मयूराङ्गाना य उत्क्षेपकः सन् तालवृन्तं वीजनकं चेतानि वायूदीरकाणि वस्तूनि, तैर्जनिताः सुखाः सुखहेतवःशीतलाश्च शीता ये ते तथा तांश्व पवनान यायून, क? ग्रीष्मकाले, तथा सुखस्पर्शानि च बहूनि शयनानि आसनानि च प्रावरणगुणांश्च शीताऽपहारकस्थात, शिशिरकाले शीतकाले चाङ्गारेषु प्रतापना शरीरस्याङ्गारप्रतापनाश्व, आतपः सूर्यतापः, स्निग्धमृदुकशीतोष्णलघुकाश्च ये ऋतुसुखाहेमन्ताऽऽदिकालविशेषषु सुखकाराः स्पर्शाअङ्गसुखच निवृतिचमनःस्वाथ्यकुर्वन्तिये नेतथा।/सेनि तान Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहवेरमण 567- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिग्गहावंत स्पृष्ट्वा इति प्रकृतं, तेष्विति सम्बन्धात् तेषु अन्येषु चैवमादिकेषु स्पर्शेषु मनोज्ञमद्रकेषु न श्रमणेन सक्तव्यमित्यादि पूर्ववत् / तथा पुनरपि स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृष्ट्वा स्पर्शान् अमनोज्ञपापकान (किं ते ति) तद्यथाअनेको बहुविधो बन्धो रज्ज्वादिभिः संयमन, बधो विनाशः, ताडनं चपेटाऽऽदिना, अङ्कन तप्ताऽयःशलाकयाऽङ्ककरणम्, अतिभाराऽऽरोहणम्, अङ्गभजनं शरीरावयवप्रमोटनं शूचीनां नखेषु प्रवेशो यः स तथा, गात्रस्य शरीरस्य प्रक्षणनं चीरणं गात्रप्रक्षणनं, तथा लाक्षारसेन क्षारतैलेन तथा (कलकल त्ति) कलकशब्दं करोति यत्तत्कलकलम्, अतितप्तमित्यर्थः / तेन वपुणा ससिकेन काललोहेन च यत्सेचनमभिषेचनं तत्तथा, हडीबन्धनं खोटकक्षेषः रज्ज्या निगडैः सङ्कलेन हस्तान्दुकेन च यानि बन्धनानि तानि तच्छब्दरेवोक्तानि, तथा कुम्भ्यां भाजनविशेषे पाकः पचनं, दहनमग्निना सिंहपुञ्छनं सेपस्त्रोटनम्, उद्वन्धनमुल्लम्बनं शूलभेदः, शूलिकाप्रपतनं, गजचरणमलनं, करचरणकर्णनासौष्ठशीर्षच्छेदन प्रतीतम्, जिह्वाछेदन जिह्वाकर्षणं, वृषणनयनहृदयान्त्रदन्तानां यद्भञ्जननामर्दन तत्तथा, योक्त्रं यूपे वृषभसंयमन, लताकं च कशा बर्धः, एषां ये प्रहारास्ते तथा। पदपाष्णि जानु अष्ठीवत् प्रस्तराः पाषाणा एषां यो निपातः पतनं स तथापीडनं यन्त्रपीडन, कपिकच्छस्तीब्रकण्डूतिकारकः फलवि शेषः, अग्निर्वह्निः(विच्छुयडक त्ति) वृश्चिकदंशः, याताऽऽतपदंशमशकानिपातश्चेति द्वन्द्वः / ततस्तान् स्पृष्ट्वा, दृष्टनिषद्या दुरासनानि दुर्निषधिका कष्टस्वाध्यायभूमीः स्पृष्ट्वा तेष्विति सम्बन्धात् तेषु कर्कशगुरुशीतोष्णरूक्षेषु बहुविधेषु अन्येषु चैवमादिकेषु स्पर्श - ध्वमनोज्ञकेषु न तेषु श्रमणेन रोषितव्यमित्यादि पञ्चमभावनानिगमनं पूर्ववत्। इह पञ्चमसंवरे शब्दाऽऽदिषु रागद्वेषनिरोधनं यद्भावनात्वेनोक्तं तत्तेषु लदनिरोधो परिग्रहः स्यादिति मन्तव्यम्, तद्विरत एव चाऽपरिग्रहो भवतीति / आह च-'जे सद्दरूपरसगंधमागए फासए य संपप्प मणुण्णपायए गेहीए ओसन्नं करेज पंडिए, से होति दंते विरए अकिंचणे त्ति।" प्रश्न०५ संव० द्वार। अहावरा पंचमा भावणाफासओ जीवो मणुण्णा-मणुण्णाई फासाइं पडिसंवेदेति, मणुण्णामणुण्णहिं फासेहिं णो सज्जेज्जा, णो रज्जेज्जा णो पिज्झेज्जा, णो मुच्छेज्जा, णो अज्झोववजेज्जा, णो विणिधायमावजेज्जा / केवली बूयाणिग्गंथे णं मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं सज्जमाणे०जाव विणिधायमावजमाणे संति भेदा संति संति विभंगा संति केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा"णो सक्का फासमवेएउं, फासविसयमागयं / रागद्दोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए।।१।।" फासओजीवो मणुण्णामणुप्रणाइं फासाइं पडिसंवेदेति पंचमा भावणा एतावया पचमे महव्वते सम्म अवहिते आणाए आराधिते यावि भवति, पंचम भंते ! महत्वयं / इच्चेएहिं पंचमहव्वएहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपण्णे अणगारे अहासुयं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं कारण फासित्ता पालित्ता तीरिता किट्टित्ता आणाए आराहित्ता यावि भवति / आचा०२ श्रु०३ चू०। निगमनम्एवमिणं संवरस्सदारं सम्म संवरियं होति सप्पिणिहियं इमेहिं पंचहि विकारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं णिचं आमरणं तंच एस जोगो नेयव्यो धितिमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्साई असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमण्णुण्णाओ। एवं पंचमं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तिरियं किट्टियं अणुपालि यं आणाए आराहियं भवति एवं नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धिवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं। पंचमं संवरदारं सम्मत्तं त्ति बेमि॥१०॥ (एवमिणमित्यादि) पञ्चमं संवराध्ययननिगमनं पूर्ववदिति / प्रश्र०५ संब०द्वार। परिग्गहसण्णा स्त्री० (परिग्रहसंज्ञा) लोभोदयात्प्रधानभवकारणाभिष्वङ्ग पूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति परिग्रहसंज्ञा। भ०७ श०८ उ० / स्था०। प्रज्ञा० / तीव्रलोभोदयात्परिग्रहाभिलाषे, ध० 3 अधि०। लोभविपाकोदयसमुत्थमूपिरिणामे, जी०१ प्रति०। आ वा०। आ००। चारित्रमोहोदयजनितपरिग्रहाभिलाषे, स्था०४ ठा० 4 उ०। चउहिं ठाणेहिं परिग्गहसन्ना समुप्पज्जइ। तं जहा-अविमुत्तयाए लोभवेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मईए तदहोवओगेणं / अविमुक्ततया सपरिग्रहतया मत्या सचेतनाऽऽदिपरिग्रहदर्शनाऽऽदिजनितबुद्ध्या, तदर्थोपयोगेन परिग्रहानुचिन्तनेनेति। स्था० 4 ठा० 4 उ०। आव०। परिग्गहावंत त्रि० (परिग्रहवत्) परिग्रहयुक्ते, आचा०। अविरतवादी परिग्रहवानिति युदक्तं तत्प्रतिपादयन्नाहआवंती केयावंती लोगंसि परिग्गहावंती, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा एतेसु परिग्गहावंती, एतदेव एगेसिं महब्मयं भवति, लोगवित्तं च णं उवेहाए, एए संगे अविजाणओ॥१४॥ (आवंतीत्यादि) यावन्तः केचन, लोके परिग्रहवन्तः परिग्रहयुक्ताः स्युस्तत्र, एवंभूतपरिग्रहसद्भावादित्याह- (से अप्पं वा इत्यादि) तद् द्रव्यं यत्परिगृह्यते तदल्पं वा स्तोकं वा स्यात्कपर्दकाऽऽदि, बहु वा स्यात धनधान्यहिरण्य ग्रामे जनपदाऽऽदि, अणु वा स्यात् मूल्यतस्तृणकाष्ठाऽऽदि, प्रमाणतो वजाऽऽदि, स्थूलं वा स्यात् मूल्यतः प्रमाणतश्च हस्त्यश्वाऽऽदि। एतच्च चित्तवद्वा स्यादचित्तवद्वेति / एतेन च परिग्रहेण परिग्रहवन्तः सन्त एतेन्वेव यरिग्रहवत्सु गृहस्थेष्वन्तर्वर्तिनो व्रतितोऽपि स्युः, यदि वैतेष्वेव षट्सु जीवनिकायेषु विषयभूतेष्वल्पाऽऽदिषु वा द्रव्येषु मूर्छा कुर्वन्तः परिग्रहवन्तो भवन्ति, तया चाविरतो विरतिवादं वदन्नल्पादपि परिग्रहात् परिग्रहवान् भवति, एवं शेषेष्वपि व्रतेष्वायोज्यम्, एकदेशापरापादमि सर्वापराधितासम्भवः, अनिवारिताऽऽश्रवत्वात् / यद्यंवमल्पेनापि परिग्रहेण परिग्रह - Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहावंत 568 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिचिय वचमतः पाणिपुट भो जिनो दिगम्बराः सरजस्कयो टिकाऽऽदयो - मोक्षस्तथा अध्यात्मन्येव' ब्रह्मचर्य व्यवस्थितस्थैवेति। किंच- 'इत्थ' ऽपरिग्रहाःस्युः, तेषां तदभावात्, नैतदास्त, तदभावादित्यसिद्धो हेतुः। इत्यादि, अत्र' अस्मिन् परिग्रहे जिघृक्षिते विरतः, कोऽसौ ? नास्यागारं तथाहि-सरजस्कानामस्थ्यादिपरिग्रहाबोटि कानामपि पिच्छिकाऽऽदि- गृहं विद्यत इत्यनगारः, स एवम्भूतो 'दीर्घरान्नं' यावज्जीव परिग्रहाभावात परिग्रहादन्ततश्च शरीराऽऽहाराऽऽदिपरिग्रहसद्भावात, धर्मोपष्टम्भकत्वा- यत् क्षुत्पिपासाऽऽदिकमा गच्छति तत् 'तितिक्षेत' सेहत। पुनरप्युपदेददोष इति चेत् तदितरत्राऽपि समानं किं दिगम्बराऽऽग्रहेग्रहणेति / शदानायाऽऽह 'पमत्ते' इत्यादि, प्रमत्तान-विषयाऽऽदिभिः प्रमादैर्वडिएतचाल्पाऽऽदिपरिग्रहेण परिग्रहवत्त्वमपरिग्रहाभिमानिना चाऽऽहार- र्द्धर्माद्व्यवस्थितान् पश्य गृहस्थतीर्थकाऽऽदीन् / दृष्ट्वा च किं कुर्यादिति शरीराऽऽदिक महते अनथोयेति दर्शयन्नाह -(एतदेवेत्यादि) एतदेव दर्शयति-अप्रमत्तः सन् संयमाऽनुष्ठाने परिव्रजे-दिति / किं च- 'एय' अल्पबहुत्वाऽऽदिपरिग्रहेण परिग्रहवत्त्वमेकेषां परिग्रहवतां नरकाऽऽदि मित्यादि, 'एतत्' पूर्वोक्तं संयमाऽष्टानं मुनेरिदं मौनंसर्वज्ञोक्तं सम्यग् गमनहेतुत्वात सर्वस्याविश्वासकारणाद्वा महाभयं भवति, प्रकृतिरिय 'अनुवासयेः' प्रतिपालयेः 'इति' अधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीति परिग्रहस्य, यदुत तद्वान् सर्वस्माच कति, यदि वैतदेव शरीराऽऽहारा पूर्ववत् / आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। ऽऽदिकमपरस्या ल्पस्यापि पात्रत्ववत्त्राणाऽऽदेड़ापकरणस्याभावात् परिग्गहि (ण) त्रि० (परिग्रहिन्) परिग्रहयुक्ते, सूत्र०१ श्रु०६ अ गृहिगृहे सम्यगुपायाभावादविधिनाऽशुद्धमाहाराऽऽदिकं भुंजानस्य परिग्गहिय त्रि० (परिगृहीत) परिवष्टिते, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। स्वीकृते, कर्मबन्धजनितमहाभयहेतुत्वात् महाभयं तथैतद् धर्मशरीरं समस्ता सूत्र०२ श्रु०१ अ०। आत्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। रा०ा बृला नि०चू०। ऽऽच्छादनाभावाद्वीभत्सं परेषां महाभयं, तन्निरवद्यविधिपालनाभावाच (परिगृहीत ग्रहणम् 'पलंब' शब्दे वक्ष्यते) परिग्गहिया रस्त्री० (परिग्रहिका) परिग्रहो धर्मोपकरणवर्जवस्तु-स्वीकारो महाभयभिति / यतः परिग्रहो महाभयमतोऽपदिश्यते-(लोग इत्यादि) धर्मोपकरणमूर्छा च, स प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी भ०१ श०२ लोकस्थासंयतलोकस्य वित्तं द्रव्यमल्पाऽऽदिविशेषणविशिष्ट, चशब्दः उ०। स्था० / क्रियाभेदे, साच "जीवे परिगिण्हइ अजीते परिगिण्हइ।" पुनःशब्दार्थे, णमिति, वाक्यालङ्कारे, लोकवित्तं लोकवृत्तं वा आहा आ०चू०१ अ०नि००। रभयमैथुनपरिग्रहोल्कटसंज्ञाऽऽत्मक महते भयाय पुनरुत्प्रेक्ष्यज्ञात्वा परिघट्टण न० (परिघट्टन) बहिरन्तो वा निर्माण, नि०चू०१ उ०। ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् / तत्परिहर्तुश्व परिघट्टिया स्त्री० (परिघट्टिता) संस्पृष्टायां (वीणायाम) जी०३ प्रति०४ यत्स्यात्तदाह- (एए संगेत्यादि) एतान् अल्पाऽऽदिद्रव्यपरिग्रहसङ्गान अधि०। शरीराऽऽहाराऽऽदिसङ्गान् वा आवजानतोऽकुर्वाणस्य वा तत्परिग्रह परिघट्ट त्रि० (परिधृष्ट) खरशाणयेव पाषाणप्रतिमावत् कृतपरिधर्षे, रा०। जनितं महाभयं न स्यात्। जी०। किञ्च परिघाय पुं० (परिघात) निर्घातने, प्रव० 65 द्वार। से सुपडिबद्धं सूवणीयं तिणचा पुरिसा परमचक्खू विपरिक्कया, परिघासिय त्रि० (परिघर्षित) कृतपरिघर्षे, आचा० 2 श्रु०१ चू०१ एतेसु चवे बंभचेरं ति बेमि, से सुयं च मे अज्झत्थयं च मे - अ०३उ०। बंधपमोक्खो अज्झत्थेव, एत्थ विरते अणगारे दीहरायं परिघासेउं अव्य० (परिधासयितुम्) साधुभोजनार्थे, आचा० 1 श्रु०८ तितिक्ख-ए, पमत्ते बहिया पास, अपमत्तो परिव्दए, एतं मोणं अ०२ उ०। सम्म अणु-वासिञ्जासि त्ति बेमि // 150|| परिघेत्तव्व त्रि० (परिग्राह्य) परिग्रहीतव्ये, आचा० 1704 अ०१ उ०। (से) तस्य परिग्रहपरिहर्तुः सुष्टु प्रतिबद्धंसुप्रातबद्ध, सुष्टूपनीतं सूपनीतं / परिघोलन न० (परिघोलन) विचारे, नं० / आ०म०। ज्ञानाऽऽदि इत्येतत् ज्ञात्वा हे पुरुष ! हे मानव ! परम ज्ञानं चक्षुर्यस्याऽसौ / परिघोलेमाण त्रि० (परिपूर्णत) परिभ्रमति, नं०। परमचक्षुर्मोक्षकदृष्टिा सन् विविधंतपोऽनुष्ठानविधिना सयमे कर्मणि वा परिचत्त त्रि०(परित्यक्त) परिहते, पञ्चा०१० विव० / विमुक्ते, पञ्चा० पराक्रमस्वेति। अथ किमर्थ पराक्रमणोपदेश इत्यत आह- (एतसु चे व 11 विव०। औ०।"तेण य परिचत्तेण संजमोवहिओ।" नि०चू०११ इत्यादि) य इमे परिग्रहविरताः परमचक्षुषश्चेतेष्वेव परमार्थतो बहाचर्य उ० / “परिचत्तणिस्सीलकुसीला।" निःशीला गृहस्थाः कुशीलानाऽन्येषु नवविधबृह्मचर्यगुप्त्यभावात् यदि वा ब्रह्मचयोऽऽस्योऽयं स्त्वन्यतीर्थिकाः पार्श्वरथाऽऽदयो वा ते परित्यक्ता येन साधुना स श्रुतस्कन्धः, एतद्वाच्यमपि बहाचर्य तदेतेष्वेवापरिग्रहवत्सु, इतिरधिकार- परित्यक्तनिः शीलकुशीलः। सूत्र० 1 श्रु०१ अ०१३० परिसमाप्तौ, ब्रवीम्यहम्, यदुक्तं वक्ष्यमाणं च सर्वज्ञोपदेशादित्याह- "से | परिचिंतिय पुं०(परिचिन्तित) मनसेप्सिते. विशे०। से सुअंच में'' इत्यादि तद्यत् कथितं यच्च कथयिष्यामि तच्छुत च मया परिचिय त्रि० (परिचित) अभ्यस्तै, प्रश्न०२ आश्रद्वार। साङ्गतिके, स्था० 4 तीर्थकरसकाशात्, तथा आत्मन्यधि अध्यात्म ममैतच्चेतसिध्यवस्थित, ठा०३ उ०।व्या आवका अभ्यस्ते, व्य०१ उ०। पुनः पुनः कृते, औ०। 'जो किं तदध्यात्मनि स्थितमिति दर्शयतिबन्धात्सकाशात्प्रमोक्षः बन्धग- उगधव्वं च से अतिपरिचय।" आव०४ अ०। "सगनामवपरिचिय, उक्त Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचिय 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिझसिय म कमतो बहहिं वि गमेहिं / ' यस्य श्रुतम् उत्क्रमतः क्रमेण च, तथा परिजविय अव्य०। (परिजल्प्य परेण सार्द्ध भृशमुल्लापं कृत्वेत्यर्थे आचा० क्रमेण उत्क्रमेण वा ‘एकैकपदाऽसावनेन' इत्यादि भिरपि बहुभिर्गमः १श्रु०१ चू०३ अ०३ उ०। नि०चू०। स्वनामेव स्वाभिधानमिव परिवितं स परिचितः। व्य० 10 उ०। आ०म०। परिविच्य अव्य० पृथक् कृत्वेत्यर्थे, 'परिजविय परिजविय हता० जाव परिचियपुव्वसुत पुं० (परिचितपूर्वश्रुत) परिचितं पूर्वस्मिन् पूर्वपर्याय श्रुतं उवक्खाइत्ता भवइ।" सूत्र०२ श्रु०२ अ०। यस्य स परिवितपूर्वश्रुतः / यदि वाप्रत्याख्यानगतस्यापि स्वाभिधानमिव परिजाणंत त्रि० (परिजानत) अनुभवति,प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। परिचितं पूर्वभुतं पूर्वपठितं यस्य स तथा। ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः / परिजिय न० (परिजित) परि समन्तात्सर्वप्रकारेजितं परिजितम् / अभ्यस्तपूर्वाधीते, व्य०३ उ०। परावर्त्तनं कुर्वतो यत्क्रमेणोत्क्रमेण वा समागच्छति तादृशे अवश्यकापरिचियसुत्त त्रि० (परिचितसूत्र) उत्क्रमक्रमवाचनाऽऽदिभिः स्थिरसूत्रे, ऽऽदौ, अनु०। विशे०। आ०म०। पं०चू० / आ०चू० ! उत्त०१ अ० दशा० परिजुण्ण त्रि० (परिजीर्ण) असारे, व्य०। परिचियसुत्तया स्त्री० (परिचितसूक्ता) उत्क्रमक्रमवाचना 5 दिभिः सम्प्रति परिजीर्णशब्दार्थमाहस्थिरसूत्रतायाम, उत्त०१ अ०। श्रुतसंपर्दोदे, व्य०१ उ०। परिजुण्णो उदरिद्दो, दव्वे धणरयणसारपरिहीणो। परिचियसुय पुं० (परिचितश्रुत) परिचितमत्यन्तमभ्यस्त स्वीकृतं श्रुतं भावे नाणाऽऽदीहि, परिजुणो एस लोगो उ।।३।। येन स परिचितश्रुतः : अभ्यस्तश्रुते, व्य०१3०। परिजीर्णोऽपि चतुर्विधः। तद्यथा-नापरिजीर्णः, स्थापनापरिजीर्णा, परिचइऊण अव्य० (परित्यज्य) परित्यागं कृत्वेत्यर्थे, "लोगसारीणि द्रव्यपरिजीणों, भावपरिजीर्णश्च। तत्र नामस्थापने प्रतीते। द्रव्ये द्रव्यतः परिचइऊण पव्वइया।" दश०२ अ०। परिजीर्णो नोआगमतो ज्ञशरीरमध्यशरीव्यतिरिक्तिो धनरत्नसारपरिपरिच्चज्ज अव्य० (परित्यज्य) परित्यागं कृत्वेत्यर्थे, "हासं परिच्चज्ज हीनो दरिद्रः / भावे भावतः परिजीर्णो ज्ञानाऽदिभिः परिहीनः एष अलीणगुत्तो परिव्वए।" आचा०१श्रु०३ अ०३ उ०। समस्तोऽपि लोकः। व्य० 4 उ० / स्फटिवस्त्रे ‘‘परिजुण्णे मे वत्थे।" परिचयंत त्रि० (परित्यजत्) अनाददति, आचा०१ श्रु०२ अ०४ उ०। आचा०१श्रु०६ अ०३ उ०। उत्तला दारिद्रये, स्था०१०ठा०। अपरिपेपरिचाय पुं० (परित्याग) दाने, अनु० / विमोचने, पक्षा० 11 विव०। लवे निःसारे, "अट्टे लोए परिजुण्णे।" आचा० 1 श्रु०१ अ०२ उ०। उत्त० ! संयम, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ० 1 उ०। * परि-न- त्रि० असारे, व्य० / (एतत्सूत्रगतपरिधून शब्दार्थः 'पुढपरिच्छण्ण पु० (परिच्छन्न) परिवारोपेते, व्य० 5 उ० / परिच्छन्नः वीकाय' शब्दे वक्ष्यते) द्रव्यपरिच्छदोपेतः, परिवारसहित इत्यर्थः। भावपरिच्छदेन पुनर्द्वयोरपि | परिजुण्णा स्त्री० (परिधूना) परिघूनादारिद्यात्काष्ठाऽऽहार-कस्येव या परिच्छदोऽस्ति। शिष्याऽऽचार्ययो, (व्य०४ उ०) नैयत्येन व्यवस्थापिते, सा परिघुना। प्रव्रज्याभेदे, स्था०१०ठा०। परिजुण्णेहिंसा भणिता।" विशे०। आच्छादिते. रा०। पं०भा०१ कल्प०। पं० चू०। परिजुण्णाए सदमओ सावएण पव्वाविओ परिच्छद पुं० (परिच्छद) शिष्याऽऽदिपरिवारे, व्य०३ उ० / उपकरणे, धम्म सुणेइ साहूण सगासे भइया ते दीसंति।' पं०चू०१ कल्प। ज्ञा० 1 श्रु०५ अ० वरवविशेषे, औ०। परिजूरिअ त्रि० (परिजीर्ण) परिपक्के, "परिजूरिअपेरतचलंतविंट।" परिच्छिदिय अव्य० (परिच्छिद्य) ज्ञात्वेत्यर्थे, आचा० 1 श्रु०२ | परिजीर्ण पर्यन्तं स्वपरिपाकत एव प्रचलद्वन्तं वृक्षात्यत भ्रश्यत् अ०३ उ०। प्रसवबन्धनं यस्य तत् पत्रम्। अनु०॥ परिच्छिण्ण त्रि० (परिच्छिन्न) गृहीते, आ०म०१अज्ञाते, आव०४ अ०। परिज्झामिय त्रि० (परिध्यामित) कृष्णीकृते कृतप्रभाशे, नि०० परिच्छित्ति स्त्री० (परिच्छित्ति) विज्ञप्तौ, विशे०। १उ०। परिच्छूह (देशी) उत्क्षिप्ते, देना०६ वर्ग 25 गाथा। परिझुसियसंपन्न पुं० (पर्युषितसंपन्न) पर्युषितं रात्रिपरिवसनं तेन संपन्नः परिच्छेज्जन० (परिच्छेद्य)परिच्छेदव्यवहार्थे, ज्ञा०ा यद्गुणतः परिच्छद्यते पर्युषितसंपन्नः / इदुरिकाऽऽदौ आहारभेदे ता हि पर्युषितकलनीकृता परीक्ष्यते, यथा-वस्त्रमण्यादि। ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। आ०चू०। आम्लरसाः भवन्ति, आरमनास्थिरताऽऽमफलाऽऽदि वेति / स्था०४ परिच्छेय त्रि० (परिच्छेक) लघुनि, औ०। ज्ञा० / ज्ञानधर्मे, आ०म०१ ठा०२ उ०। अ० / ग्रहणप्रकारे, आ०चू०१ अ०। स्था०। परिझूसिय त्रि० (परिजूषित) सेविते, प्रीते च / “परिझूसियकापरिजण पुं० (परिजन) दासीदासाऽऽदिद्वन्द्वे, विपा० 1 श्रु०३ अ०। मभोगसंपओगसपउत्ते।" 'जुषी' प्रीतिसेवनयोरिति वचनात् सेवितः नि०० दासाऽऽदिपरिकरे, औ०। प्रश्ना शिष्यवर्गे, स्था०८ ठा०। प्रीता वा यः कामभोगः शब्दाऽऽदिभोगा मदनसेवा वा तत्संप्रयोगसंय"मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्मसुदारुणम्।" सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ युक्तः। भ०२५ श०७ उ०। निषेविते. स्था० 4 ठा०३ उ०। उ० ज्ञा०। / *पर्युषित न० रात्रिपरिवसने,स्था० 4 ठा०२ उ०। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा ५७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा परिहवणा स्त्री० (परिष्ठापना) परि सर्वैः प्रकारैः स्थापनं परिष्ठापना। अपुनर्ग्रहणतयान्यासे, आव० 4 अ० परित्यागे, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०६ उ01 ("उच्चारं 18" इत्यादि (दश०८ अ०) गाथा 'पडिलेहणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 348 पृष्ठे व्याख्याता) (1) परिष्ठापनाविधिःपारिट्टावणियंविहिं,वोच्छामी धीरपुरिसपण्णत्तं। जंणाऊण सुविहिया, पवयणसारं उवलहंति||१|| परितः सर्वैः प्रकारेः स्थापन परिस्थापनम्, अपुनर्ग्रहणतया न्यास इत्यर्थः / तेन निर्वृत्ता पारिस्थापनिका, तस्या विधिः प्रकारः पारिस्थापनिकाविधिः, तं वक्ष्ये' अभिधास्ये। किं स्वबुद्ध्योत्प्रेक्ष्य? नेत्याह- | 'धीरपुरुषप्रज्ञप्तम्' अर्थसूत्राभ्यां तीर्थकरगणधरप्ररूपितमित्यर्थः / तत्रैकान्ततो वीर्यान्तरायापगमाद्धीरपुरुषः-तीर्थकरो गणधरस्तु धीः बुद्धिस्तया राजत इति धीरः / आह-यद्ययं पारिस्थापनिकाविध/रपुरुषाभ्यां प्ररूपित एव, किमर्थं प्रतिपाद्यत इति? उच्यते-धीरपुरुषाभ्यां / प्रपञ्चेनप्रज्ञप्तः,सएव संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहायेह संक्षेपेणोच्यत इत्यदोषः। किंविशिष्ट विधिमत आह-यं 'ज्ञात्वा' विज्ञाय 'सुविहिताः' शोभनं विहितम् अनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः, साधव इत्यर्थः / किं ? प्रवचनस्य सारः प्रवचनसन्दोहस्तम्, 'उपलभन्ति' जानन्तीत्यर्थः। सा पुनः पारिस्थापनिक्योघत एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपरिस्थाप्यवस्तुभेदेन द्विधा भवति आहएगिंदिय नोएगिं दियपरिठावणियसमासओ दुविहा। एएसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं / / 2 / / एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः, नोएकेन्द्रियाः-त्रसाऽऽदयः, तेषां पारिस्थापनिकी एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपारिस्थापनिकी, समासतः संक्षेपेण 'द्विधा' द्विप्रकारा प्रज्ञप्तोक्ता अनेनैव प्रकारेण, "एएसिंतुपयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं।" अनयोः पदयोरेकेन्द्रियनोएकेन्द्रियलक्षणयोः 'प्रत्येकं पृथक् पृथक् 'प्ररूपणां' स्वरूपकथनां, वक्ष्ये-अभिधास्ये, इतिगाथार्थः / / 2 / / तत्रैकेन्द्रियपारिस्थापनिकीप्रतिपिपादयिषया तत्स्वरूपमेवाऽऽदौ प्रतिपादयन्नाहपुढवी आउकाए, तेऊ वाऊ बणस्सई चेव। एगोंदिय पंचविहा, तज्जाय य तहा अतज्जाया ||3|| पृथिव्यप्कायस्तेजो वायुर्वनस्पतिश्चैव, एवमेकेन्द्रियाः पञ्चविधाः, एकं | त्वागन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः पञ्चविधा' पञ्चप्रकाराः, एतेषां चैकेन्द्रियाणां पारिस्थापनिकी द्विविधा भवति। कथमित्याह- 'तजाय तहा अतज्जाया' तज्जातपारिस्थापनिकी, अतज्जातपारिस्थापनिकी च / 'अनयोर्मावार्थमुपरिष्टावक्ष्यतीति गाथार्थः // 3 // आह-सति ग्रहण सम्भवेऽतिरिक्तस्य परिस्थापनं भवति, तत्र पृथिव्यादीनां कथं ग्रहणमित्यत आहदुविहं च होइ गहणं आयसमुत्थं च परसमुत्थं च / एकेकं पिय दुविहं, आभोगे तह अणाभोगे ||4|| 'द्विविधं तु' द्विप्रकारं च भवति 'ग्रहणं' पृथिव्यादीनां, कथम् ?'आत्मसमुत्थंपरसमुत्थंच।' 'आत्मसमुत्थंच स्वयमेव गृह्णतः परसमुत्थं परस्माद् गृह्णतः। पुनरेकैकमपि द्विविधं भवति कथमित्याह- आभोए तह अणाभोए।" आभोगनम् आभोगः उपयोगविशेष इत्यर्थः तस्मिन्नाभोगे सति, तथाऽनाभोगे अनुपयोग इत्यर्थः, अयं गाथाऽक्षरार्थः // 4 // अयं पुनर्भावार्थो वर्तत"तत्थताव आयसमुत्थं कहंच आभोएण होज ? साहू अहिणा खइओ, विसंवा खझ्यं, विसप्फोडिया वा उट्ठिया, तत्थ जो अचित्तो पुढविकाओ केणइ आणीओ सो मग्गिजइ, णत्थि अ णिल्लओ ताहे अप्पणा वि आणिज्जइ तत्थ विण होज्ज अचित्तोताहे मीसो अंतो हलखणणकुड्डुमाईसु आणिज्जइ, ण होज ताहे अडवीओ पंथ वम्मिए वा दवदडए वा ण होज्ज पच्छा सचित्तो वि घेप्पइ आसुकारी वा कजं होज्जा, जो लद्धा सो आणिज्जइ, एवं लोणं पिजाणंतो अणाभोइएण तेण लोणं मग्गियं अचित्तं तिकऊण मीसं सचित्तं वा घेत्तूण आगआ, पच्छा णायं, तत्थेव छड्डुयव्द, खंडे वा मम्गिए एयं खंडं ति लाणं दिन्नं, तं पितहिं चेव विगिंचियव्वं, ण देज ताहेतं अप्पणा विगिंधियव्वं, एयं आयसमुत्थं दुविहं पि। परासमुत्थं आभोगेण ताव सवित्तदेसमट्टिया लोणं वा कज्जनिमित्तेण दिण्णं, मगिएण अणाभोगेणं खड मग्गिणं लोणं देज, तस्सेव दायव्वं, नेच्छेज, ताहे पुच्छिज्जइ-कओ तुम्भेहिं आणीयं? जत्थ साहइ तत्थ विगिंचिज्जइ, न साहेज न जाणामो त्ति वा भणेज्जा ताहे उवलक्खेयव्वं वण्णणंधरसफासेहि, तत्थ आगरे परिढविजइ, नत्थि आगरा, पंथवा वहृति, विगालो वा जाओ, ताहे सुक्कगं महुरगं कप्परं मग्गिज्जइ, ण होज कप्परं, ताहे वडपत्ते पिप्पलपत्ते वाकाऊण परिद्वविजइ।।१।। आउक्काए दुविहं गहणंआयाएणायं अणायचा एवं परेण विणायं, अणायं च। आयाए जाणंतस्स विसकुम्भो हणियव्वो, विसफोडिया वा सिंचियव्वा विसंवाखइयंमुच्छाए वा पडिओ, गिलाणोवा, एवमाइसुकज्जेसु पुव्यमवित्तं पच्छामीसं, अहुणा धोयं तं दुलवियाइ आउरे कज्जे सचित्तं पि, कए कज्जे सेसं तत्थेद परिहविज्जइन देज्जताहे पुच्छिज्जइ कओ आणीयं? जइ साहेइ, तत्थ परिठवेयव्वं आगरे, नसाहेज्जान वा जाणेज्जा, पच्छावण्णाईहिं उवलक्खेउं तत्थ परिद्ववेइ। अणाभोगा कोंकणेसु पाणियं अंविलं च एगत्थ वेइयाए अत्थए, अविरइया मंग्गिया भणइएत्तो गिण्हाहि, तेण अंबिलं ति पाणिथ गहियं, णाएतत्थेवछुभेजा, अहण देइ ताहे आगरे, एवं अणाभोगा आथसमुत्थं, परसमुत्थं जाणंती अणुकंपाए देह, ण एते भगवंतो पाणियस्स रसं जाणंति हदोदगं दिज्जा, पडिणीययाए वा देज्जा, एयाणि से वयाणि भज्जंतु त्ति णाए तत्थेव साहरियव्वं न देज्ज जओ आणिय तं ठाणं पुच्छिजइ, तत्थ नेउं परिझविजइ, न जाणेज्जा, वण्णाईहिं लक्खिज्जइ, ताहे णइपाणियं णईए विगिचेञ्जा, एवं तलाग पाणियं तलाए, अगडवाविसरमाइसु सट्टणिसु विगिविज्जइ, जइ सुक्कं तडागपाणियंवडपतं पिप्पलपतंवा अड्डेऊण सणियं विगिचइ, जह उज्जरा न जायंति, पत्ताणं असईए भायणस्स कण्णा जाव हेट्ठा सणियं उदयं अल्लियाविज्जइताहे विर्गिविज्जइ, अह कूओदयं ताहेजइ कूवतडा उल्ला Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 571 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा तत्थ सणियं निसिरइ, अणुल्लसिओ सुक्कतडा होजा उल्लगं च ठाणं नस्थि, तहि भाणं सिक्कएण जडिज्जइ, मूले दोरो बज्झइ, उसक्वविउ पाणिय ईसिमसंपत्तं मूलदोरो उक्खिप्पइ, ताहे पलोट्टइ, नस्थि कूचो, दूरे वा, तेणसावयभय होज्जा, ताहे सीयलए महुररुक्खस्स वा हेट्ठा सपडिग्गहं बोसिरइ, न होज्ज पाय, ता उल्लियं पुहविकायं मन्गित्ता तेणे परिट्टवेइ, असइ सुक्क पिउण्होदएण उल्लेता पच्छा परिदृविज्जइ निव्वाघाए विक्खाले खड्डु खाणऊण पत्तपणालेण विगिंचइ, सोहिं च करें ति, एसा विही, जं पडिनियत्ताएआउन्मएण मीसउंदिण्णं तं विगिचेइ, जं संजयस्स पुष्वगहिए पाणिए आउक्काओ अणाभोगेण दिण्णो जइ परिणओ भुंजइ, न वि परिणमइजेण कालेण थडिल पावइ विगिंचियध्वं जत्थ हरतणुया पडेज्जा तं कालं पडिच्छित्ता विर्गिचिजह // 2 // ते उक्काओ तहेव आयसमुत्थो आहोएण संजयस्स अगणिक्काएण कज्जं जायअहिडक्को वा डभिजइ. फोडिया वा वायगंठी वा अन्त्रवृद्धिर्वा वसहीएदीहजाईओपविष्ठो, पाट्टसूलं वा तावेयव्यं, एवमाईहिं आणिए कज्जे कए तत्थेव पडिछुडभइ, ण देति तो ते हिं कठेहिं जो अंगणी तज्जाइओ तत्थेव विगिंचिजइ, न होज, सोविन देज्ज वा, ताहे तज्जाएण छारेण उच्छाइजइ, पच्छा अण्णजाइएण वि: दीवएसु तेल्लं गालिज्जइ वत्ती य निप्पोलिजइ, मल्लगसंपुडए कीरइ, पच्छा अहाउग पालेइ भतपचक्खायगाइसु मल्लणसंपुडए काऊण अत्यत्ति, सारक्खिज्जइकए कज्जे तहेव विवेगो अणाभोगेण खेलमल्लगालोयरछाराऽऽदिसु, तहेव परो आभोएण छारेण दिज्ज वसहीए अयणि जोइक्खं वा करेज्ज, तहेव विवेगो अणाभोएण वि, एए चेव पूयलियं वा सइंगालं देज्जा, तहेव विवेगो // 3 // वाउक्काए आयसमुत्थं आभोएण, कह? वत्थिणा दिइएण वा कजं, सो कयाइ सचित्तो अचित्तो वा मीसो वा भवइ। कालो दुविहोनिद्धो, लुक्खो य। णिद्धा तिविहोउक्कोसागइ / लुक्खो वि तिविहो उक्कोसाऽऽइ उक्कोसए सीएजाहे धंतो भवइ ताहे जावपढमपोरिसी ताव अचित्तो वितियाए मीसो, ततियाए सचित्तो, मज्झिमए सीए वितियाए आरद्धो, चउत्थीए सचित्तो भवइ मंदसीए तइयाए आरद्धो पंचमाए पोरिसीए सचित्तो उपहकाले मंदउण्हे मज्झ उक्कोसे दिवसा नवरि दो तिण्णि पंच य; एवं वत्थिस्स दइयस्स पुव्वद्धतस्स एसेव कालविभागो, जो पुण दाहे चेव धमित्ता पाणियं उत्तारिजइ, तस्स य पढमे इत्थसए अचित्तो वितिए मीसो, तइए सचित्तो, कालविभागो नत्थि जेण पाणिय पगतीए सीयलं, पुव्वं अचित्तो मग्गिजइ, पच्छा मीसो, पच्छा सचित्तो त्ति / अणाभोएण एस अचित्तो तिमीसगसचित्ता गहिया, परो वि एवं चेव जाणतो वा देजा, अजाणतोवा, णाए तस्सेवअणिच्छंते उव्वरगं सकवाड पविसित्ता सणियं मुंचइ, पच्छा सालाए वि, पच्छा वणणिगुंजे महुरे, पच्छा संघाडियाओ वि जयणाए, एवं दइयस्स वि, सचित्तो वा अचित्तो वा मीसो वा होउ सव्वरस वि एस विही, माअण्णं विराहेहि त्ति // 4|| वणस्सइकाइयस्स वि आयसमुत्थं आमाएण गिलाणाइकब्जे मूलाईण गहणं होज्जा, अणाभोएण गहियं भत्ते वा लोट्टो पडिओ, पिट्टगं वा कुक्कुसा वा, सो चेव पोरिसिविभागो दुकुट्टिओ चिरं पि होजा, परो अल्लगेण मिसियर्ग चवलगमीसियाणि वा पीलूणि कूरओडियाए वा अंतो छोढूणं करमद्दएहि वा समं कंजिओ अन्नयरो वीयकाओ पडिओ होजा, तिलाण वा एवं गह णं होजा, निब तिलमाइसु होजा, जइ आभोगगहियं आभोगेण वा दिन्नं विवेगो अणाभोगगहिए अणाभागदिण्णे वा जइतरइ विगिचिउं पढम परपाए सपाए संथारएलडीए वापणओ हवेज्जा, ताहे उण्हं सीयवणाऊण विर्गिचणा एसो वि वणरसइकाओ पच्छा अंतोकाए एसि विगिचणाविही, अल्लग अल्लगखेत्ते, सेसाणि आगरे, असइ आगरस्स निव्वाघाए महुराए भूमीए, अंतो वा कप्परे वा पत्ते वा एस विहि त्ति" अत्र तज्जातातजातपारिस्थापनिकी प्रत्येक पृथिव्यादीनां प्रदर्शितैव, भाष्यकारः सामान्येन तल्लक्षण प्रतिपादनायाऽऽहतज्जायपरिट्ठवणा, आगरमाईसु होइ बोद्धव्वा। अतजायपरिट्ठवणा, कप्परमाईसु बोद्धव्वा / / 20 / / तजाते तुल्यजातीये पारिस्थापनिका 2 सा आकराऽऽदिषु परिस्थापनां कुर्वतो भवति ज्ञातव्या, आकराः-पृथिव्याद्याकराः प्रदर्शिता एव, अतजातीवेभिन्नजातीये परिस्थापनिका 2 सा पुनः कर्पराऽऽदिषु यथायोग परिस्थापनं कुर्वतो बोद्धव्यति गाथाऽर्थः। गतैकेन्द्रियपरिस्थापनिका। अधुना नोएकेन्द्रियपारिस्थापनिका प्रतिपादयन्नाहणोएगिदिएहिँ जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुव्वीए। तसपाणेहिँ सुविहिया!, नायव्या नोतसेहिं च / / 5 / / एकेन्द्रिया न भवन्तीति नोएकेन्द्रियाः त्रसाऽऽदयस्तैः करणभूतैरिति तृतीया / अथवा-तेषु सत्सु, तद्विषया वेति सप्तमी / एवम-न्यत्रापि योज्यम् / याऽसौ पारिस्थापनिका सा द्विविधा द्विप्रकारा 'भवति'' आनुपूर्व्या परिपाट्या / द्वैविध्यमेव दर्शयति (तसपा-णेहिं सुविहिया णायव्वा णोतसेहिं च) त्रसन्तीति त्रसाः त्रसाश्च ते प्राणिनश्चति समासस्तैः करणभूतैः सुविहितेति सुशिष्याऽऽमन्त्रणम्, अनेन कुशिष्याय न देयमिति दर्शयति, ज्ञातव्या विज्ञेया (नोतसेहिं च) त्रसा न भवन्तीति नोत्रसा आहाराऽऽदयस्तैः करणभूतैरिति गाथाऽऽर्थः / / 5 / / तसपाणेहिं जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुव्वीए। विगलिंदियतसेहिं, जाणे पंचिंदिएहिं च / / 6 / / त्रसप्राणिभिर्याऽसो सा द्विविधा भवति आनुपूा, 'विकलेन्द्रियाः' द्वीन्द्रियाऽऽदयश्चतुरिन्द्रियपर्यन्तास्तैस्त्रसैश्च, (जाणे त्ति) जानीहि पञ्चेन्द्रियैश्चेति गाथाऽर्थः // 6 // विगलिंदिएहिं जा सा, सा तिविहा होइ आणुपुटवीए। बियतियचउरो यावि य,तजाया तह अतज्जाया।७।। विकलेन्द्रियैर्याऽसौ सा त्रिविधा भवति आनुपूर्व्या, (बियतियचउरो याविय) द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियांश्चाधिकृत्य, सा च प्रत्येकं द्विभेदा, तथा चाऽऽह-(तज्ञाया तहा अतजाया ) तज्जाते तुल्यजातीये या क्रियते सा तज्जाता, तथा अतजाता या क्रियत इति गाथाऽऽर्थः / / 7 / / Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 572 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा भावार्थस्त्वयम्''बेइंदियाणं आयसमुत्थं जलोगा गंडाइसु कलेसु गहिया तल्थेव विगिविजइ, सत्तुया वा आलेवणनिमित्तं ऊरणियास सत्ता गहिया | विसोहित्ता आयरे विगिचंति, असइ आगरस्स सत्तुएहिं समं निब्बाधाए, संसत्तदेसे वा कत्थइ होज्ज अणाभोगगहणं तं देसं चेव न गतव्यं, असिवाईहिं पभेज्जा जत्थ सत्तुया तस्थ कूरं मग्गइ न लहइ तद्देवसिए सतुए भग्गइ, असईए बितिए जाव ततिए, असइ पडिलेहिय 2 गिण्टइ, देला वा अइकमइ, अद्धाणं वा, संकिया वा मत्ते घेप्पति बाहि उज्जाणं देउले पडिसयस्स वा बाहिं रयत्ताणं पत्थरिऊणं उपरि एक घणमसिणं पडलं तत्थ पल्लच्छिज्जति, तिन्निऊरणयपडिलेहणाओ, नत्थि जइ ताहे पुणो पडिलेहणाओ तिण्णि मुहिओ गहाय जइ सुद्धा परिभुजंति, एगम्मि दिढे पुणो वि मूलाओ पडिलेहिज्जति,जे जत्थ पाणा ते मल्लए सत्तुएहि समं ठविज्जति, आगराइसु विगिचइ, नत्थि बीयरहिएसु विगिंचइ. एवं जत्थ पाणयं पि बीयपाए पडिलेहिता उग्गाहिए छुटभइ, संसलं जायं रसएहिं ताहे सपडिग्गह वोसिरउ, नत्थि पाय ताहे अंबिलिं पाडिहारियं मग्गउ, णो लहेज्ज सुक्कयं अबिंलि उल्लेऊणं असइ अण्णमि वि अंबिलिबीयाणि छोणं विगिंधइ. नत्थि बीयराहएसु विगिचइ, पच्छा पडिस्सए पाडिहारिए वा अपाडिहारियं वा तिकालं पाडलेहेइ दिणे दिणे, जया परिणय तहा विगिचइ, भायण च पडिअप्पिज्जइ, नत्थि भायण ताहे अडवीए अणगमणपहे छाहीए जो विक्खल्लो तत्थ खड्डु खणिऊण निच्छिडु लिंपित्ता पत्त णालेणं जयणाए छुड़भइ, एक्कसि पाणएणं भमडिइ, तं पि तत्थेव छुडभइ, एवं तिन्नि वारे, पच्छा कप्पेइ सण्हकट्टेहि य मालं करेंति चिविख-ल्लेणं लिपई, कंटयछ याए य उच्छाएइ, तेण य भाणएणं सीयलपा-णयंण लयइ, अवसावणेण कूरेण य भाविजइ, एवं दो तिणि वा दिवसे, संसत्तगं च पाण 1 असंसत्तगं च एगो न धरे, गंधेण विसंखिज्जइ, संसत्तं च गहाय न हिडिजइ, विराहणा होज, संसत्तं गहाय न समुद्दिसिज्जइ, जइ परिस्संता जे ण हिडति ते लिंति, जे य पाणा दिट्ठा ते मया होजा, एगेण पडिलेहियं बीएण ततिएणं सुद्धं परिभुजति एवं चेव महियस्स वि गालियदहियस्स नवणीयस्स य का विही ? महीए एगा उट्ठी छुन्भइ, तत्थ तत्थ दीसंति, असइ महियस्स का विही? गोरसधोवणे, पच्छा उणहोदयं सियलावि-जइ, पच्छा महुरे चाउलोदए तेसु सुद्ध परिभुज्जइ, असुद्ध तहेव विवेगो दहियस्स, पच्छओ उयन्ता णियते पडिलेहिज्जइ, तीराए सुत्तेसु वि एस विही परो वि आभोगणाभोयाए ता णि दिल्जा। तेइंदियाण गहणं सत्तुयपाणाण पुव्वभणिओ विही तिलकीडिया वितहेव दहिए वारल्ला तहेव छगणकिमिओ वितहेव सधारगो वा गहिओ घुणाइणा णाएतहेब तारिसए कट्टे संकामिज्जइ, उद्देहियाहिं गहिए पेत्ति णत्थि तस्स विगिचणया, ताहे तेसि वि लोढाइज्जइ, तत्थ अइंति लोए, छप्पइयाउ विसामिजंति सत्तदिवसे, कारणगमणं ताहे सीयलए निव्वाघाए / एवमाईण तहेव आगरे निव्वाघाए विवेगो कीडियाहिं संसत्ते पाणाइ जइ जीवति खिप्पं गलिजइ, अहे पडिया लबाडेणेव हत्थेण / उद्धरेयव्वा, अलेवडयं चेव पाणय होइ, एवं मक्खिया वि, संघाडएण पुण एगो भत्तं गेण्हइ, मा चेव छुडभइ बीआ पाणय, हत्था अलेगडओ चेव, जइ वि कीडिमाउ मइयाउ तह वि गालिजति इहरहा मेहं उवहणंति, मच्छिगहि वमी हवइ जइ तं दुलोयगमाइसु पूयरओ ताहे पगासे भायणे युहित्ता पोत्तेण दद्दरओ कीरइ, ताहे कोसएणं खोरएण वा उक्कडिजइ, थोवएण पाणएण समं विगिविज्जइ, आउक्कायं गमित्ता कट्टेण गहाय उदयस्स ढोइज्जइ, ताहे अप्पणा चेव तत्थ पडइ, एवमाइ तेइंदियाण, पूयलिया कीडियाहिं संसत्तिया होजा, सुक्कओ वा कूरो, ताहे झुसिरे विक्खिरिजइ तहव तत्थ ताओ पविसंति, मुहत्तयं च रक्खिजइ जाव विप्पसरियाओ। चउरिदियाणं आसमक्खिया अक्खिाम्म अक्खरा उकड्डिज्जइ तिघेप्पइ, परहत्थे भत्ते पाणएवा जइ मच्छिया त अणेसणिज्ज संजयहत्थे उद्धरिजइ, नेहँ पडिया छारेण गुंडिजइ, कोत्थलगारिया वा वच्छेत्थे पाए वा घरं करेजा सव्वविवेगो, असइ छिदित्ता अह अन्नम्मिय घरए संकामिजंति, संथारए मकुणाणं पुव्वगहिएतहवघेप्पमाणे पायपुछाो वा जइ तिनि वेलाउपडिलेहिज्जतो दिवसे 2 संसज्जइ, ताहे तारिसएहि चेव कट्ठहिं संकमिजंति, दंडए एवं चेव, भमरस्स वितहेव विवेगो, सअंडए सकट्ठस्स विवेगो, पूतरयस्स पुव्वभणिओ विदगो, एवमाइ जहासंभव विभासा कायव्या।' गता विकलेन्द्रियत्रसपरिस्थापनिका / आव० 4 अ०। (अशुद्धस्य गृहीतस्याऽऽहारस्य परिष्ठाप्यत्व गोयरचरिया शब्दे तृतीयभागे 666 पृष्ठे उक्तम्) (2) उदकंससक्तस्याऽऽहारस्य परिष्ठापनिका। तत्र सूत्रम्निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतो पडिग्गहंसि दगे वादगरए वा दगफुसिए वा परियावएज्जा, से य उसिणे भोयणजाते भोत्तव्ये सिया, से य सीए भोयणजाते, तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पदेजा, एगंते बहुफालुए थंडिले पडिलेहित्ता,पमज्जित्ता परिट्टवेयच्येसिया।।१२। अस्य संबन्धमाहआहारविही वुत्तो, अयमण्णो पाणगस्स आरंभो। कायचउक्काऽऽहारे, कायचउक्कं च पाणम्मि।।२१७।। आहारविधिः पूर्वसूत्रे उक्तः / अयं पुनरन्यः पानकस्य विधि-प्रतिपादनाय सूत्राऽऽरम्भः क्रियते। तथा आहारोऽनन्तरसूत्रे प्राणग्रहणन त्रसाः बीजग्रहणेन वनस्पतिकायो, रजोग्रहणेन पृथिव्यशिकायाविति कायचतुकमुक्तम् / इहापि पानककायचतुष्कमुच्यते-तत्र शीतोदकमप्कायः, उष्णोदकमनिकायो, नालिकेरपानकाऽऽदि वनस्पतिकायो दुग्धं त्रसकायः, एवं चत्वारोऽपिकाया अत्राऽपि संभवन्तीति। अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्याख्यानिन्थस्य गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टस्यान्तः प्रतिग्रहे भक्तपानमध्योदकं वा प्रभूताष्कायसूपं, दरकजो वा, उदके बिन्दुकस्य शतं वा, उदकशीकराः पर्यापतेयुः, तोष्ण भोजनजातं ततो भोक्तव्यम् / अथ शीतं तत् भोजनजातं ततस्तन्नाऽऽत्मना भुञ्जीत, नान्येषां प्रदद्यात् / एकान्ते बहुप्राशुके प्रदेशे परिष्ठापयितव्यं स्यादिति सूत्रार्थः। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 573 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा अथ भाष्यम्परिमाणे णाणत्तं, दगविंदु दगरयं वियाणादि। सीभरमो दुगफुसितं, सेसं तु दगं दव खरं वा / / 218 / / दकरजःप्रमृतीनां परिमाणकृतं नानात्वम् / तथाहि-यरतावदकबिन्दुस्तं दकरजो विजानीहि। ये तु सीभराः पानीये अन्यत्र क्षिप्यमाणे उदकशीकरा आगत्य प्रपतन्ति ते दकस्पर्शितम्। शेषं तु यत्प्रभृतमुदक तहकमिति भण्यते। तच द्रव वा, खर वा भवतीति विषमपदव्याख्यान भाष्यकृता कृतम्। सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः - एमेव वितियसुत्ते, पलोगण गिण्हणे य गहिते य। अणभोगा अणुकंपा, पंतत्ता वा दगं देज्जा / / 216 / / अधस्तनाऽऽहारसूत्रादिव द्वितीयसूत्रमुच्यते / तत्र द्वितीयसूत्रेऽप्येवमेव विधिद्रष्टव्यः / ग्रहणे, ग्रहीतेच, पानके प्रलोकना प्रत्युपेक्षणा पिण्डस्येव मन्तव्या। तबोदकं त्रिभिः कारणैर्दद्यात्। तद्यथा; (अणभोगा इत्यादि) अनाभांगेन काचिद गारी एकत्रैव काञ्जिकं पानीयं नास्तीतिकृत्वा काजिक दास्यामीति बृद्ध्याऽपि स्मृतिवशात् शीतलं जलं दद्यात् / अनुकम्पया वा ग्रीष्मसमये तृषाऽऽकान्तं साधुं दृष्ट्वा शीतलं जलं पिबेदित बुद्ध्या काचिदुदकं दद्यात् / प्रान्ततया प्रत्यनीकतया वा काचित् भिक्षुकाऽऽद्युपासि-का एतेषामुदकं न कल्पते, अतो व्रतभङ्ग करोमीति बुद्ध्या साधू-नामुदकं दद्यात्। अथात्रैव विधिमाहसुद्धम्मि य गहियम्मी, पच्छा णाते विगिंचए विहिणा। मीसे परूविते उ-बहसीतसंजोगें चउभंगो।।२२०।। यदि तदुदकं शुद्धे रिक्तेप्रतिग्रहे गृहीतं पश्चाद् ज्ञात्वा ग्रहणानन्तरं ज्ञानयथोदकमिदं, ततो विधिमवेक्ष्यमाणेन विविच्यात् परिष्टापयेत् / (मीसे ति) यत्र प्रतिग्रहे पूर्वमन्यद्रव्यं गृहीतं पश्चात् तु पानीयं पतितम्, एतन्मिश्रमुच्यते / तत्र मिश्रे उष्णशीतसंयोगे चतुर्भङ्गचाः प्ररूपणा कर्त्तव्या। तत्र रिक्ते प्रतिगृहे यद् गृहीतं तस्याऽयं परिष्ठापनविधिःतत्थेव भायणम्मी, अलब्भमाणे व आगरसमीवे / सपडिग्गहं विगिंचइ, अपरिस्सएँ उल्लभाणे वा // 221 / / यतो भाजनादविरतिकया दत्तं तत्रैवेदमुदकं प्रक्षिपति ।अथ सा तत्र प्रक्षेप्तुंन ददाति, तत एवमलभ्यभाने सा पृच्छते-कुतस्त्वयेदमानीतम्? ततो यस्मात् कूपसरःप्रभृतेराकरसमीपात् नीतं तस्य समीपे गत्वा परिष्ठापनिकानियुक्ति भणितेन विधिना परिष्ठापयेत् / अथवा - सप्रतिग्रहमपि क्षीरदुमस्य छायायामेकान्तं स्थापयति / अथ प्रतिग्रहोऽन्यो न विद्यते ततो यदपरिश्राविघट्यादिकमाजलभावित तत्र प्रक्षिपति। अथ पूर्वमन्यद्रव्ये गृहीते पतितंतत इयं चतुर्भङ्गीदव्वं तु उण्हसीतं, सीतुण्डं चेव दो वि उण्हाई। दोहि वि सीताईचा-उलोद तह चंदणघते य / / 222 / / इह द्रव्य चतुर्दा / तद्यथा-किश्चिदुष्णं शीतपरिणाम् 1, अपर शीतमुष्णपरिणामन् 2. अन्यदुष्णमुष्णपरिणामम् 3, अपरं शीतंशीतपरिणामम 4 / अथाऽऽसन्नत्वात्प्रथमं चतुर्थभङ्ग व्याख्याति (चाउलोदक इत्यादि) तन्दुलोदकं चन्दनघृताऽऽदीनि द्रव्याणि शीतानि शीतपरिणाभानि। तृतीयभङ्गभाहआचामंअंबकंजिय, जति उसिणाणुसिसें तो विवागे वी। उसिणोदगपेज्जाऽऽदी, उसिणा वितणू गता सीता / / 223 / / आचामाऽऽम्लकाञ्जिकाऽऽदीनि द्रव्याणि यद्युष्णानि ततो विपाके परिणामेऽपि तान्युष्णान्येव भवन्तीति कृत्वा तृतीयो भङ्गः / यानि पुनरुष्णोदकपयाऽऽदीनि द्रव्याणि तान्युष्णान्यपि तनुं शरीरं गतानि शीतानि भवन्तीत्यनेन प्रथमो भङ्गो व्याख्यातः। अथ द्वितीयभङ्ग व्याचष्टेसुत्ताऽऽइ अंब कंजिय, घणोदसी तेल्ललोणगुलमादी। सीता वि होंति उसिणा, दुहतो उण्हा व ते होति / / 22 / / सुतं मदिराखोलो, देशविशेषप्रसिद्धो वा कश्चित् द्रव्यविशेषः, तदादीनि यानि द्रव्याणि, यचाऽऽन्लं काश्चिकं म स्ता च धनविकृतिरम्लं चोदश्वित्तकं यच्च तैलं लवणं गुडो वा, एवमादीनि द्रव्याणि शीतान्यपि परिणामत उष्णानि भवन्तीति द्वितीयभने अवतरन्ति / अथ तान्युष्णानि, तत उष्णान्युष्णपरिणामानीति तृतीये भङ्गे प्रतिपत्तव्यानीति। आह-कतिविधः पुनः परिणाम इति?, उच्यतेपरिणामो खलु दुविहो, कायगतो बाहिरो ये दठूणं / सीउ सिणत्तणं पि य, आगंतु तदुम्भवं तेसिं / / 225 / / द्रव्याणां परिणामो द्विविधः-कायगतो बाह्यगतश्च / तत्र का येन शरीराणाऽऽहारितानां द्रव्याणां यः शीताऽऽदिकः परिणामः स कायगतः। पुनरनाहारितानां स बाह्यः परिणामः शीतो वा स्यादुष्ण्णो वा; तदपि च शीतोष्णत्व च तेषा द्रव्याणां द्विधा-आगन्तुकं, तदुद्यं च / उभयमपि व्याचष्टसाभाविया च परिणा-मिया च सीताऽऽदओ तु दव्वाणं। असरिससमागमेण उ, णियमा परिणामओ तेसिं।२२६|| स्वाभाविका वा परिणामिका वाशीताऽऽदयः पर्यायाः द्रव्याणां भवन्ति / तत्र स्वाभाविका यथा हिम स्वभावशीतलम्, तापोद के स्वभावादेवोष्णम्। पारिणामिकास्तु पर्याया द्रव्यान्तराऽऽदिबाह्यकारणजनिताः / तथा चाऽऽह-(असरिस इत्यादि) अंसदृशेन वस्तुना सह यः समागमो मीलकस्तेन नियम्मात्तेषां द्रव्याणां परिणामः पर्यायान्तरगमनं भवति / यथोदकाऽऽदेः शीतलस्याप्यग्नितापेनाऽऽदित्यरश्मितापेन वा उष्णतागमनम्। तदेव सुव्यक्तमाहसीया विहाँति उसिणा, उसिणा वि यं सीयगं पुणरुति। दव्वंतरसंजोगं, कालसभावं व आसज्ज / / 227 / / द्रव्यान्तरेणाग्निजलाऽऽदिना संयोग संबन्धं, कालस्य च ग्रीष्महेमन्ताऽऽदेः स्वभावमासाद्य, शीतान्यपि द्रव्याण्युष्णानि भवन्ति, उष्णान्यपि च सीततां पुनरुपयन्ति / अयमागन्तुकपरिणामो मन्तव्यः। अयंपुनस्तदुद्भवःतावोदगंतु उसिणं,सीया मीसे य सेसगा आवो। एमेव सेसगाई, रूवीदव्वाइँ सव्वाइं।।२२८|| Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 574 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा तापोदकं स्वभावादेवोष्णं, शेषा आपोऽप्कायद्रव्याणि शीतानि, मिश्राणि वा शीतोष्णोभ स्वभावानि मन्तव्यानि / एवमेव शेषाण्यप्कायविरहितानि यानि यानि सर्वाण्यपि रूपिद्रव्याणि तानि कानिचिदुष्णानि, यथाऽग्निः, कानिचित् शीतानि, यथा हिम, कानिचित्तु शीतोष्णानि, यथा पृथिवी। एएण सुत्त न गतं, जो कायगताण होइ परिणामो। सीतोदगमिस्सियम्मि उ,दव्वम्मि उमग्गणा होति // 226 / / य एष कायगतानामोहारिताना द्रव्याणां परिणाम उक्तो, नैतेन सूत्रं गतं, किं तु शीतोदकमिश्रितेन सचित्तोदकमिश्रेण द्रव्येणेहाधिकारः। तत्र चेयं मार्गणा भवतिदुहतो थोवं एकेक्कएण अंतम्मि दोहि वी बहुगं। भावुगमभावुगं पि य, फासाऽऽदिविसेसितं जाण / / 230 // इह पूर्वगृहीते द्रव्ये यथा शीतोदकं पतति तदेयं चतुर्भङ्गी (दुहतो थोवं ति) स्तोकं पतितमिति प्रथमो भगः। (एक्किक्कएणं ति) स्तोके बहुकं पतितमिति द्वितीयः / बहुके स्तोकं पतितमिति तृतीयः। (अंतम्मि दोहि वी बहुगं ति) बहुके बहुपतितमिति चतुर्थः। यद्रव्यं पतति यत्र वा पतति तद्भावुकमभावुकं वा स्पर्शाऽऽदिविशे-षितंजानीयात्। किमुक्तं भवति ?स्पर्शरसगन्धैरुत्कटमयानि यदपराणि द्रव्याणि स स्याऽऽदिभिः भावयति परिणामयति तद्भावुकम्, तद्विपरीतमभावुकम्। ये च स्तोकबहुपदाभ्यां चत्वारो भङ्गाः कृतास्तेषु प्रत्येकममी चत्वारो भङ्गा भवन्ति-उष्णमुष्ण पतितम् 1 उष्णे शीतपतितं 2, शीते उष्णं पतितं 3. शीते शीतपतितम् / / एतेषु विधिमाहचरिमे विगिंचियव्वं, दोसु तु मज्झिल्ल पडिएँ भयणा उ। खिप्पं विगिंचियव्वं, मायविमुक्केण समणेणं // 231 / / चरमं नाम यत् शीते शीतं पतितं तत्पुनः स्तोके चाऽस्तोक पतितं, बहुलं पतितं भवेत् उभयमपि क्षिम विवेक्तव्यं परिष्ठापयितव्यम्। द्वयोस्तु मध्यमयोर्भङ्गयांरुष्णे शीतं पतितं, शीते उष्णं पतितमिति लक्षणयोर्वक्ष्यमाणा भजना भवति। यः पुनरुष्णे उष्णं पतितमिति प्रथमो भङ्ग, तत्र तत्क्षणादेव सचित्तभावो नापगच्छतीतिकृत्या क्षिप्रमेव मायाविमुक्तेन श्रमणेन तत् विवेचनीयम् / मायाविमुक्तग्रहणेनेदं ज्ञापयात-श धं परिष्ठापयितुकामोऽपि यावत् स्थण्डिलं गच्छति तावत्तत् अचित्तभूतं, ततः परिभुङ्क्ते, न परिष्ठापयति। अथ मातृस्थानेन मन्दं मन्दं गच्छति, चिन्तयति च तिष्ठतुं तावत्पश्चात्परिणतं परित्यक्ष्ये, एवं मायां कुर्वतः स्थण्डिलादर्वाक् परिणतमपि न कुरुते। अथमध्यमभङ्गद्वयभजनामाहथोवं बहुम्मि पडियं, उसिणे सीतोदकं ण उज्झंती। हंदिहु जाव विगिवति, भावेजति तावती तेणं // 232|| बहुके पूर्वगृहीते स्तोकं पतितमित्यत्र याष्णे बहुके शीतोदगं स्तोक पतितं तदा नोज्झंति कुत इत्याह-हन्दीत्युपदर्शते, यावत् विविनक्ति / तावत्तत् स्तोकं शीतोदकं तेन बहुकेनोष्णेन भाव्यते परिणमितं क्रियते, ततः परिभोक्तव्य तदिति भावः। जं पुण दुहतो उसिणे, सममतिरेगं च तक्खणा वेव / मज्झिल्लभंगएसुं, चिरं पि चिट्टे बहुं छूढं // 233 / / यत्पुनर्द्विधाऽप्युष्णं, उष्णे उष्ण पतितमित्यर्थः। तत्परिणामतः परस्पर समं तुल्य भवेत् / अतिरिक्तं वा द्वयोरेकतरमधिकतरं, तत्राऽपि तत्क्षणादेव, सचित्तभावो नापगच्छतीति वाक्यशेषः / यौ तु मध्यमौ द्वी भङ्गावूष्णे शीतं पतितं, शीते वा उष्णं पतितमिति लक्षणी, तयोः स्तोक बहु प्रक्षिप्तं चिरमपि सचित्तं तिष्ठत्, ततस्तदपि क्षिप्रं चिरेण वा विवेचनीयम्। अथोदकस्यैव परिणमनलक्षणमाहवण्णरसगंधफासा, महदव्वे जम्मि उक्कडा होति। तह तह चिरं न चिट्ठइ, असुमेसु सुभेसु कालेणं / / 234|| यस्मिन् द्रव्ये यथा वर्णगन्धरसस्पर्शा उत्कटतरा भवन्ति, तथा तथा तेन द्रव्येण सह मिश्रितमुदक चिरं न तिष्ठति, क्षिप्रं क्षिप्रतर परिणमतीति भावः / किमविशेषेणेत्याह-ये अशुभा वर्णाऽऽदय उत्कटास्तेष्वेव क्षिप्रं परिणमति, ये तु शुभा वर्णाऽऽदयस्तेषूत्कटेषु कालेन परिणमति, चिरादित्यर्थः। अत्रेद निदर्शनम्जो चंदणे कडुरसो, संसट्ठजले य दूसणा जा तु / सा खलु दगस्स सत्थं, फासो उ उवग्गहं कुणति // 235 / / इह तन्दुलोदकं चन्दनेन क्वाऽपि मिश्रितं, तत्र चन्दनस्य यः कटुको रसः स तन्दुलोदकस्य शस्त्रं, परं यस्तदीयः स्पर्शः शीतलः स जलस्योपग्रहं करोतीति कृत्वा चिरेण परिणमति, एवं संसृष्टजलस्याऽपि या दूषणा अम्लरसता, साउदकस्य शस्त्र, स्पेशेषु शीतलत्वादुपग्रहकारी, अतश्चिरेण परिणमात। घयकिट्टविस्सगंधो, दगसत्थं मधुरसीतलं ण घतं / कालंतरमप्पुण्णा, अंविलया चाउलोदगस्स।।२३६|| घृतस्य संबन्धी यः किट्टस्तेन यश्च विश्रोगन्धस्तावुदकस्य शस्त्रं, या रसेन मधुरं स्पर्शन च शीतलं घृतं, तदुपग्रहं करोतीति शस्त्रं न भवति। अतश्चिरात्परिणमति, तथा कुकुसैरभिगुलिकैस्तन्दुलोदकस्योष्णता यत्कालान्तरेणोत्पन्ना साऽप्युदकस्य शस्त्रं भवति। अव्वुक्कं ते जति चा-उलोदए छुज्झते जलं अण्णं / दोणि वि चिरपरिणामा, भवंति एमेव सेसा वि // 237|| अव्युत्क्रान्ते अपरिणते तन्दुलोदके पंद्यन्यदपरं सचित जलं प्रक्षिप्यते, ततो द्वे अप्युदके चिरपरिणामे भवतः, शेषाण्यपि यानि संसृष्टपानके (?) पानकाऽऽदीनि तेष्वपि सचित्तोदकं यदि प्रक्षिप्यते, तत एवमेव तान्यपि चिरात्परिणमन्तीति। अथ द्वितीयपदमाहथंडिल्लस्स अलंभे, अद्धाणोमअसिवे गिलाणे य। सुद्धा अविचिंता आ-उट्टिया गेण्हमाणा वा / / 238|| स्थण्डिलस्यालाभे अपरिणतपानकमपरिष्ठापयन्तोऽपि शुद्धाः / अध्वामाशिवग्लानाऽऽदिकारणेषु पानकस्य दुर्लभतायामविगिचयन्तोऽपरिष्ठापयन्त आकुट्टिकया वा जानन्तोऽपि गृह्णन्तः शुद्धाः। बृ० 5 उ०। अधुना पञ्चेन्द्रियत्रसपारिस्थापनिका विवृण्यन्नाहपंचिंदिएहिँ जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुवीए। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 575 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा मणुएहिं च सुविहिया !, नायव्वा नो य मणुएहिं / / 8|| पशपऽऽदीनीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः मनुष्याऽऽदयस्तैः करणभूतैरतेषु वा सत्सु तद्विषयाऽसौ पारिस्थापनिका सा द्विविधा भवाय नुप्रयोभनुष्यैस्तु सुविहिताः ! ज्ञातव्या, 'नोमनुष्यैश्व तिर्यग्भिः, शब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः / इति गाथाऽक्षरार्थः / / 8 / / भावार्थ ट्रपरिणावश्यामः। मणुएहिं खलु जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुदीए। संजयमणुएहिं तह, नायव्वाऽसंजएहिं च / / 6 / / भनुष्यैः खलु याऽसौ सा द्विविधा भवति आनुपूर्व्या-संयत-मनुष्यैः, तथा ज्ञातव्याऽसंयतैश्चेति गाथाऽर्थः / / 6 / / भावार्थ तूष-रिष्टाद्वक्ष्यामः। संजयमणुएहिँ जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुव्वीए। सचित्तेहिं सुविहिया!, अच्चित्तेहिं च नायव्वा ||10|| 'संयलमनुष्यैः' साधुभिः करणभूतैर्याऽसौ पारिस्थापनिका सा द्विविधा भवत्यानुपूर्यासह चित्तेन वर्तन्त इति सचित्तास्तैः, जीवाद्भिरित्यर्थः / सुविहितोति पूर्ववत्। "अचित्तेहिं च णायव्व त्ति" / अविद्यमानचित्तैश्च, मृतरित्यर्थः / ज्ञातव्या विज्ञेयेति गाथाऽक्षरार्थः // 10 // इत्थं तावदुद्देशः कृतः / अधुना भावार्थः प्रतिपाद्यते, तत्र यथा सचित्तसंयताना ग्रहणपरिस्थापनिकासम्भवस्तथा प्रतिपादयन्नाहअणभोग कारणेण व, नपुंसमाईसु होइ सचित्ता। वोसिरणं तु नपुंसे,सेसे कालं पडिक्खिजा // 11 // आभोगनमाभोगः उपयोगविशेषः, न आभोग अनाभोगस्तेन, कारणेन वा' अशिवाऽऽदिलक्षणेन, 'नपुंसकाऽऽदिषु दीक्षितेषु सत्सु, भवति 'सचित्ता' इति व्यवहारतः सचित्तमनुष्यसंययतपरिस्थापनिकेति भावना। आदिशब्दाजड्डाऽऽदिपरिग्रहः / तत्र चायं विधिः योऽनाभोगेन दीक्षितः स आभागित्वे सति व्युत्सृज्यते, तथा चाऽऽह-"वोसिरणं तु नपुंसे ति।" व्युत्सृजनं परित्यागरूपं नपुंसके, कर्तव्यमिति वाक्यशेषः / तुशब्दोऽनाभोगदीक्षित इति विशेषयति, "सेसे कालं पडिक्खिज्ज त्ति' शेषः कारणदीक्षितो, जड्डाऽऽदिर्वा, तत्र "कालं ति" यावता कालेन कारणसमाप्तिर्भवत्येतावन्तं कालं जड्डाऽऽदौ वक्ष्यमाणं च प्रतीक्ष्येत, न तावद् व्युत्सृजेत्। इति गाथाऽक्षरार्थः / / 11 / / अथ किं तत्कारणं येनासौ दीक्ष्यत इति ? तत्रानेकभेदं कारणमुपदर्शयन्नाहअसिवे ओमोयरिए, रायदुढे भए व आगाढे / गेलन्ने उत्तिमढे, नाणे तवदंसणचरित्ते // 12 // 'अशिव' व्यन्तस्कृत व्यसनम्, 'अवमौदर्य 'दुर्भिक्षं, 'राजद्विष्ट' राजा द्विष्ट इति, 'भयं' प्रत्यनीकेभ्यः, 'अगाढ' भृशम्, अयं चागाढशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते अशिवाऽऽदिषु। 'ग्लानत्वं' ग्लानभावः, 'उत्तमार्थः' कालधर्मः, ज्ञानं श्रुताऽऽदि, तथा 'दर्शन' तत्प्रभावकशास्खलक्षणं, 'चारित्रं' प्रतीतम्, एतेष्वशिवाऽऽदिषूपकुरुते यो नपुंसकाऽऽदिरसौ दीक्ष्यत इति। उक्तंच''रायदुट्टभएसं ताण? णिवस्स वाऽभिगमण छा। वेज्जो व सरां तरस व. लप्पिरसइ वा गिलाणस्स / / 1 / / गुरुणो व अप्पणो का, णाणाई गिण्हमाणि तप्पिहिई। अचरणादेसा णिते, तप्पे ओमासिवेहिं वा // 2 // एएहिं कारणेहि, आगाढेहिं तु जो उ पव्याबे। पंडाई सोलसयं, कए उ कज्जे विगिंचणया // 3 // " जो सो असिवाइकारणेहिं पव्वाविजइ नपुंसगो सो दुविहो-जाण-ओ य, अजाणओ, य, जाणओ जाणइजह साहूर्ण न वट्टइनपुंसओ पव्वावेउं, अयाणओ न जाणइ, तत्थ जाणओ पण्णविजइ-जह ण वट्टइ तुज्झ पव्वजा, णाणाइमग्गविराहणा ते भविस्सइ, ता घरत्थो चेव साहूर्ण वसु, तो ते विउला निज्जरा भविस्सइ, जइ इच्छइ लटुं अह न इच्छइ.तो तस्स, अयाणयस्स य कारणे पव्वा-विज्जमाणाणं इमा जयणा कीरइकडिपट्टए य छिहली, कत्तरिया मंडु लोय पाढे य। धम्मकहसन्निराउल, ववहारविकिंचणं कुज्जा / / 13|| कटिपट्टकं चास्य कुर्यात्, शिखा चानिच्छतः कर्तरिकया केशा-पनयनं (भंडु त्ति) मुण्डनं वा, लोचं का,पाढं च विपरीतां धर्मकथा संज्ञिनः कथयेत्, राजकुले व्यवहारम्, इत्थं विगिञ्चनं कुर्यादिति गाथाऽक्षरार्थः // 13 // भावार्थस्त्वयम्- ''पव्ययंतस्स कडिपट्टओ से कीरइ, भणइ यअम्हाण पव्ययंताण एवं चेव कयं, सिहली नाम सिहा, सान मुंडिज्जइ, लोओण कीरइ, कत्तरीए सेकेसा कप्पिखंति, बुरेण बा मुंडिजइ, नेच्छमाणे लोओ वि कीरइ, जो नजइजणेण जहा एस नपुंसगो, अनज्जते वि एवं चेव कीरइ जणपञ्चयनिमित्तं, वरं जणो जाणतो जहा एस गिहत्थो चेव। पादग्गहणेण दुविहा सिक्खागहणसिक्खा, आसेवणसिक्खा य, तत्थ गहणसिक्खाए भिक्खुमाईणं मयाई सिक्खविजंति, अणिच्छमाणे जाणि ससमए परतिस्थियमयाइं ताणिपाढिजंति, तं पि अणिच्छंते ससमयवत्तव्वयाए वि अन्नाभिहाणेहिं अत्थविसंवादणाणि पाढिजंति, अहवा कमेण उल्लत्थपल्लत्था से आलावया दिज्जति, एसा गहणसिक्खा, आसेवणसिक्खाए चरणकरणं ण गाहिज्जइ. किं तु-" "वीयारगोयरे थेरसंजुओ रत्तिँ दूरे तरुणाणं। गाहेह मम पि तओ, थेरा गाहिंति जत्तेणं | 1|| वेरगकहा विसयाण य जिंदा उट्ठणिसियणे गुत्ता। चुक्कखलिए य बहुसो, सरोसभिव तज्जए तरुणा।।२॥" सरोसं तज्जिज्जइ वरं विप्परिणमंतो- "धम्मकहा पार्हिति व, कयकज्जा वा से धम्ममक्खंति / मा हण परं पि लोयं, अणुव्वया दिक्ख णो तुज्झं / / 1 / / " सन्नित्ति दारं / एवं पन्नविओ जाहे नेच्छइ, ताहे- "सन्निखरकम्मिया वा, भेसिंति कओ इहेस संविग्गो ? निवसढे वा दिक्खिओं, एएहिं अन्नाएँ पडिसेहो / / 1 / / " सण्णीसावओ खरकंमिओ अह भद्दओ वा पुव्वगमिओ तं भेसेइक ओ एस तुज्झ मज्झे नपुंसओ? सिग्धं नासउ, मा णं ववरोवेहामो त्ति, साहुणो वितं नपुंसगं वयंतिहरे ! एस अणारिओ मा ववरो-विजिहिसि, सिग्धं नस्ससु, जइ नट्ठो लट्ठ, अह कयाइ सो रायउलं उवट्ठावेज्जा-एए मम दिक्खिऊण धाडति एवं, सो य यवहारं करेजा 'अन्नाए' इति जइ रायउलेणणणाओ एएहिं चेव दिक्खिओ अन्ने वा जाणतया नत्थिताहे भ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 576 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 5 परिट्ठवणा ण्णइ-नएस समणो, पेच्छह से नेवत्थं चोलपट्टकाऽऽइ, कि अम्ह एरिस नेवत्थं ति? अह तेण पुव्वं चेव ताणि नेच्छियाणि ताहे भण्णइ-एस सवं गिहीतलिंगी। ताहे सो भण्णइ अज्झाविओ मि एएहि चेव पडिसेहों किं च ही तंतो। छलियकहाई कड्डइ,कत्थ जई कत्थ छलियाई ? ||14|| पुव्वावरसंजुत्तं, वेरग्गकरं सतंतमविरुद्धं / पोराणमद्धमागहभासानिययं हवइ सुत्तं / / 15 / / जे सुत्तगुणा वुत्ता, तव्विवरीयाणि गाहए पुट्विं / निच्छिण्णकारणाणं, सा चेव विगिंचणे जयणा ||16|| गाथात्रयं सूत्रसिद्ध, अह कयाई सो बहुसयणो रायवल्लहो वा न सक्कइ विगिंचिड, तत्थ इमा जयणाकावालिए सरक्खे, तव्वण्णियवसहलिंगरूवेणं / वेडुंबगपध्वइए, कायव्व विहीऐं वोसिरणं / / 17 / / (कावालिए त्ति) वृथाभागीत्यर्थः / कापालिकलिङ्गरूपेण ते न सह भवति, (सरक्खो त्ति) सरजस्कलिङ्गरूपेण, भीतलिङ्ग रूपेणेल्यर्थः / (तव्यपिणए त्ति) रक्तपट्टलिग रूपेण इत्थं (वेडुबगपव्वइए) नरेन्द्राऽऽदिविशिष्टकुलोद्गतो वेडुम्बगो भण्यते, तस्मिन् प्रव्रजिते सति कर्त्तव्यं 'विध्रिना' उक्तलक्षणेन व्युत्सृजनं परित्याग इति गाथाऽर्थः / / 17|| भावार्थस्त्वयम्निववल्लभबहुपक्खम्मि वावितरूणवसहामिणं ति / भिन्नकहाओभट्ठाण घडइ इह वच्च परतित्थी / / 8 / / तुमए समगं आमंति निग्गओ भिक्खमाइलक्खेणं / नासइ भिक्खुकमाइसु, छोहूण तओ वि विपलाइ।१६। गाथाद्वय निगदसिद्धम् / एसा नपुंसगविगिचणा भणिया। (जडुभेदाः 'जड्ड' शब्दे चतुर्थभागे १३८३पृष्ठे गताः) (3) जड्डो दीक्षाऽनर्हःएसो विन दिक्खिज्जइ, उस्सग्गेणमह दिक्खिओ होना। कारणगएण केणइ, तत्थ विहिं उवरि वोच्छामि // 28|| गाथा निगदसिद्धा। तत्थ जो सो मम्मणो, सो पव्वाविज्जइ। तत्थ विही भण्णइमोत्तुं गिलाणकचं, दुम्मेहं पडियरइ जाव छम्मासा / एकेके छम्मासा, जस्स व दडं विगिचणया / / 26 // एकाके कुले गणे संघे छम्मासा पडिचरिज्जइ, जस्स वदलु विगिचणया जहुत्तस्स भवइ, तरसेव सो! अहवा जस्सेव दळु लट्ठो भवइ तरस सो होइ, न होइ तओ विचिंचणया। सरीरजड्डो जावज्जीव पि परियरिज्जइ। जो पुण करणे जड्डो, उक्कोसं तस्स हों ति छम्मासा। कुलगणसंघनिवेयण, एवं तु विहिं तहिं कुज्जा // 30 // इय प्रकटाथैव, एसा सचित्तमणुयसंजयविगिचणया। इयाणिं अचित्तसंजयाणं पारिट्ठावणविही भण्णइ, ते पुण एवं होजाआसुक्कार गिलाणे, पञ्चक्खाए व आणुपुच्चीए। अचित्तसंजयाणं, वोच्छामि विहीइ वोसिरणं / / 31 / / करणं कारः, अचित्तीकरणं गृह्यते, आशु शीघ्रं कार आशुकारः, / तद्धेतुत्वादहिविषविशूचिकाऽऽदयो गृह्यन्ते, तैर्यः खल्वचित्तीभूतः' (गिलाण त्ति) ग्लानः मन्हश्च सन् य इति / प्रत्याख्याते वा-ऽनुपूर्व्या कारणशरीरपरिकर्मकरणानुक्रमेण भक्तेवा प्रत्याख्याते सति योऽचित्तीभूत इति भावार्थः / एतेषामचित्तसंयताना, 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, 'विधिना' जिनेक्तिन प्रकारेण, 'व्युत्सृजन' परित्यागमिति गाथार्थः / / 31 / / एव य कालगयम्मी, मुणिणा सुत्तत्थगहियसारेणं / नहु कायव्व विसाओ, कायव्व विहीऐं वोसिरणं / / 32|| एवं च एतेन प्रकारेण, 'कालगते' साधौ मृते सति, 'मुनिना' अन्येन साधुना, किम्भूतेन ? सूत्रार्थगृहीतसारेण, गीतार्थनेत्यर्थः। 'नहु' नैव, कर्तव्यः 'विषादः स्नेहाऽऽदिसमुत्थः सम्मोह इत्यर्थः / कर्तव्यं किन्तु 'विधिना' प्रवचनोक्तेन प्रकारेण 'व्युत्सृजन' परित्यागरूपमिति गाथाऽर्थः // 32 // आव० 4 अ०। (5) कालगतसाधुपरिष्ठापनिकामिक्खू य राओ वा वियाले वा आहच वीसुमिञ्जा, तं च सरीरगं केइ वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छिज्जा एगते बहुफासुए थंडिले परिदुवित्तए, अत्थि याई केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे, कप्पइ से सागारिकर्ड गहाय तं सरीरगं एगंते बहुफासुए पएसे परिद्ववित्तातत्थेव उवनिक्खिवियट्वे सिया॥२४॥ अस्य संबन्धमाहतिहिं कारणेहिँ अण्णं, आयरियं उद्दिसिज्ज तहिँ दुण्णि। मुत्तुं तइए पगयं, वीसुंभणसुत्तजोगोऽयं / / 567 / / त्रिभिः कारणैरवसन्नताऽऽदिभिरन्यमाचार्यमुद्दिशेदित्युक्त, तत्राऽऽद्ये द्वे अवसन्नावधावितलक्षणे मुक्त्वा तृतीयेन कालगठरूपेण कारणेन प्रकृतं, तद्विषया विधिरनेनाभिधीयते इति भावः / एष विष्वग्भवनसूत्रस्य योगः संबन्धः / अहवा संजमजीवियभवगहणे जीविया उ विगए वा। अण्णुद्देसो वुत्तो, इमं तु सुत्तं भवचाए / / 568|| अथवा संयमजीवितभवग्रहणे, जीविताद्वा विगते, अन्यस्याऽऽचार्यस्योद्देशः पूर्वसूत्रे उक्तः, इदं तु सूत्रं भवस्य जीवितस्य परित्यागविषयमारभ्यते। अनेन संबन्धेनाऽऽवातस्याऽय (24 सूत्रस्य) व्याख्याभिक्षुः, चशब्दादाचार्योपाध्यायौ च, रात्रौ वा, विकाले वा (आहच) कदाचिद्विष्वग्भूतश्चेत् जीवः शरीरात पृथगभावमाप्नुयाद्, म्रियते इत्यर्थः / तत्र शरीरकं कश्चिद्वैयावृत्त्यकरो / भिक्षुरिच्छेदेकान्ते विविक्ते बहुपाशुके कीटकाऽऽदि सत्त्वरहिते प्रदेशे परिष्ठापयितुम्। अस्ति चार किञ्चित्सागारिकसक्तमचित्तमजीवं परिहरणार्ह परिभोगयोग्यमुपकरणजातं, वहनकाष्ठमित्यर्थः / कल्यते (से) तस्य भिक्षोः सत्काष्ठ सागारिककृत, सागारिकस्यैव सत्कमिद नास्माकमित्येवं गृहीत्वा तत् शरीरमेकान्ते बहुप्राशुके प्रदेशे परिष्ठापयितु, तच्च परिष्ठाप्यते गृहीतसत्काष्ट तत्रैवोपनिक्षेप्तव्यं स्यादिति सूत्रार्थः। सम्प्रति नियुक्तिविस्तरःपुव्वं दव्वाऽऽलोयण, नियमा गच्छे उवक्कमनिमित्तं / Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 577 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा भत्तं परिणगेलण, पुव्वगहो थंडलिस्सेव !|56ell यत्र साधवो मासकल्पं वर्षावासं वा कर्तुकामास्तत्र पूर्वमेव तिष्टतो दव्यम्य वहनकाष्ठाऽऽदेरवलोकन नियमाद्गच्छवासिनः कुर्वन्ति। विमित्याह-उपक्रमा मरणं, तत्कस्याऽपि संयतस्य भवेदित्येवमर्थः / तच मरणं कदाचित् भक्तपरिज्ञानतो भवेत्. कदाचित्तु ग्लानस्य। उपलक्षणभिदम्-तेनाऽऽशुकारेण वा मरणं भवेत्। ततः पूर्वमेव महास्थण्डिलस्य, वहनकाष्टाऽऽदेश्वावग्रहः प्रत्युपेक्षणं विधेयम्। अधुनाऽधिकृतविधिप्रतिपादनाय नियुक्तिकारो द्वारगा थात्रयमाहपडिलेहणा दिसा णंतए य काले दिया य रातो य। जग्गण वंधण छेदण, एतं तु विधिं तहिं कुजा॥६००। कुसपडिमाए णियत्तणमत्तग मीसे तणाई उवकरणे। काउस्सग्गपदाहिण, अब्भुट्ठाणे य वाहरणा // 601 // काउस्सग्गे य सज्झाइए य खमणस्स मग्गणा होति। वोसिरणे आलोयणसुभासुभं ठावती निमित्तट्ठा।६०२। (टिस त्ति) दिग्भागो निरूपणीयः! (णंतपय त्ति) औपग्रहिकानन्तकं मृतच्छेदनार्थ गच्छे सदैव धारणीयम्। जातिप्रधानश्वायं निर्देशः, ततो जघन्यतोऽपि त्रीणि वस्त्राणि धारणीयानि। (काले दिया यराओ अत्ति) दिवा रात्रौ वा कालगते विषादो न विधेयः रात्रौ च स्थाप्यमाने मृतके जागरणं बन्धनं छेदनं च कर्त्तव्यम् / एवं विधिं तत्र कुर्यात् / तथा-नक्षत्रं विलोक्य कुशप्रतिमाया एकस्या द्वयोर्वा करणमकरणं वा (नियत्तण त्ति) येन प्रथमतो गता न तेनैव पथा निवर्तनीयम् / मात्रके पानकं गृहीत्वा सुरत एकेन साधुना गन्तव्यं, यस्यां दिशि ग्रामस्ततःशीर्ष कर्त्तव्यं, तृणानि समानि प्रस्तरणीयानि, उपकरण रजोहरणाऽऽदिकं तस्य पार्श्वे धारणीयम, अविधिपरिष्ठापनायाः कायोत्सर्गः स्थण्डिले स्थितैर्न कर्तव्यः / निवर्तमानैः प्रादक्षिण्यं न विधेयम्। शवस्य चाभ्युत्थानेन वसत्यादिक परित्यजनीयम्। यस्य च संयतस्य व्याहरणं नामग्रहणं स करोति तस्य लोचः कर्त्तव्यः, गुरुसकाशमागतैः कायोत्सर्गो विधेयः, स्वाध्यायिकस्य च मार्गणा कर्तव्या। उच्चाराऽऽदिमात्रकाणां व्युत्सर्जन कर्त्तव्यम, अपने अहि तस्यावलोकन, शुभाशुभगतिज्ञानार्थं निमित्तग्रहनार्थ च विधेयमिति द्वारगाथा-बयसमासार्थः। अथैनामेव विवरीषुराहजंदव्वं घणमसिणं, वावारजुयमवहमाणए बलियं। वेणुमय दारुगं वा, तं वहणट्ठा पलोयंति॥६०३|| यद् व्यं वेणुमयं दारुकं वा घनमसृणं व्यापार युक्तमवहमानकं वलायो दृढतरं सागारिकस्य गृहे तिष्ठति तत्कालगतस्य वहनार्थ प्रथममेव प्रलोकयन्ति, महास्थण्डिलं च प्रत्युपेक्षणीयम्। अथन प्रत्युपेक्षन्तेतत इमे दोषाःअत्थंडिलम्मि काया, पवयणघाओ य होइ आसपणे। छदवणे गहणाई, परुग्गहे तेण पेहिज्जा / / 604 / / अस्थाण्डले परिष्टापयन्न् षट्कायान् विराधयति, प्रवचनघातश्च ग्रामाऽऽदेरासन्ने परिष्ठापयतो भवति, परावग्रहे च परिष्ठापयतश्छापन भवेत्। छपिनं नाम ते छलादपि साधुपादिन्यत्र द्रुतं शबं परित्यजेयुः, ततो ग्रहणाऽऽकर्षणाऽऽदयो भवेयुः। ततो महास्थण्डिलमवश्यं प्रागेव प्रत्युपेक्षेत। गत प्रत्युपेक्षणाद्वारम्। (५)अथ दिग्द्वारमाहदिसि अवरदक्खिणा दक्खिणाय अवरा य दक्खिणा पुव्वा। अवरुत्तरा य पुवा, उत्तर पुवुत्तरा चेव॥६०५।। प्रथममपरदक्षिणा नैऋत्या दिग् निरीक्षणीया, तदभावे दक्षिणा, तस्या अभाव अपरा दिक, तदप्राप्तौ दक्षिणपूर्वो आग्नेयी, तदलाभे अपरोत्तरा वा। एवं तस्या अभावे पूर्वा, तदभावे उत्तरा, तदभावे उत्तरपूर्वा / सम्प्रति प्रथमाया दिशि सत्यां शेषदिक्षु परिष्ठापने दोषानाहसमाही न भत्तपाणे, उवकरणे तुमंतुमा य कलहो य। भेदो गेलन्नो वा, चरिमा पुण कढए अन्नं / / 606 // प्रथमायां दिशिशवस्य परिष्ठापने चतुरानपानवस्वपात्रलाभतः समाधिर्भवति, तस्यां सत्यां यदि दक्षिणस्यां परिष्ठापयन्ति तदा भक्तपानं न लभन्ते, अपरस्यामुपकरणं न प्राप्नुवन्ति, दक्षिणपूर्वस्यां 'तुमंतुमा' परस्परं साधूनां भवति। अपरोत्तरस्यां कलहः संयतगृह स्थान्यतीर्थिकः समं भवति, पूर्वस्यां गणभेदश्चारित्रभेदो वा भवेत्; उत्तरस्यांग्लानत्वम् / चरमा पूर्वोत्तरा, सा कृतमृतकपरिष्ठापना अन्यं साधुभाकर्षति, मारयतीत्यर्थः। आसन्नमज्झदूरे, वाघातट्ठा, तु थंडिले तिण्णि। खेत्तुदगहारेयपाणाणिविट्ठमादी व वाधाए॥६०७।। प्रथमायामपि दिशि त्रीणि स्थण्डिलानि प्रत्यवेक्षणीयानि, ग्रामाऽऽदेरासन्ने मध्ये दूरे वा / किमर्थ पुनस्त्रीणि प्रत्यवेक्षन्ते ? इत्याहव्याधातार्थ, व्याघातं कदाचिद्वेदित्यर्थः। स चायम्-क्षेत्र तत्र प्रदेशे कृष्टम् , उदकेन वा भावित, हरितकायाद् वा जातः, त्रसप्राणिभिर्वा संसक्तं समजानि, ग्रामो वा निविष्टः, आदिग्रहणेन सार्थो वा आवासितः, एवमादिको व्याघातो यद्यासन्ने स्थण्डिले भवति तदा मध्ये परिष्ठापयन्ति, तत्रापि व्याघाते दूरे परिष्ठापयन्ति, अथ प्रथमायां दिशि विद्यमानायां द्वितीयायां तृतीयायां वा प्रत्यवेक्षन्ते ततश्चतुर्गुरुकाः। एतेच दोषाःएसण पेलण जोगा-ण व हाणी भिण्ण मासकप्पो वा। भत्तोवधी अभावे, इति दोसा तेण पढमम्मि // 608 / / भक्तपानलोभादुपधेरलाभावा प्रेरणं कुर्युः / अथैषणां न प्रेषयेषुस्ततो योगानामावश्यकव्यापाराणां हानिः, अपरं वा क्षेत्रं गच्छतां मासकल्पो भिन्नो वा भवेत्। एवमादयो दोषा भक्तोपध्यादेरभावे भवन्ति, ततः प्रथमे दिग्भागे महास्थण्डिलं प्रत्यवेक्षणीयम्। एमेव सेसियासु वि, तुभंतुमा कलह भेदमरणं वा। जं पावंति सुविहिया, गणाहिवो पावें तिविहं तु // 606 / / यथा द्वितीयायां तृतीयायां च दोषा उक्ताः, एवं शेषेष्वपि चतुर्थ्यादिषुः यत्तुमतुमा कलह गणभेदं मरणं वा सुविहिताः प्राप्नुवन्ति, तद्गणाधिपः सर्वमपि प्राप्स्यति अथ प्रथमायां व्याघातस्ततो द्वितीयायामपि प्रत्यवेक्षणीयं, तस्यां च स एव भक्तपानलक्षणो गुणो भवति यः प्रथमायामुक्तः। अथ द्वितीयस्यां विद्यमानायां तृतीयायां प्रत्यवेक्षन्ते। ततः स एव प्रागुक्तो दोषः। एवमष्टमी दिशं यावन्नेतव्यम्। द्वितीयस्यां व्याघातस्ततः तृतीवस्यां प्रत्यवेक्षणीयं, तस्यां च स एव गुणो भवति / एवमुत्तरोत्तरदिक्ष्वपि भावनीयम्। गतं दिग्द्वारम्। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 578 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा (6) अथणंतकद्वारमाहवित्थाराऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भती समतिरेगं / चोक्खं सुचिगं च सेतं, उवक्कमट्ठा धरेयव्वं / / 610 / / विस्तारेण, आयामेन च यद्वस्वप्रमाणम् अर्द्धतृतीयहस्ताऽऽदिक तृतीयोद्देशके भणितं, ततो यद्वस्त्र समतिरेक लभ्यते, कथम्मृतम्? (चोक्खं) धवलितं, शुचिक नाम सुगन्धि,श्वेतं पाण्डुरम् / एवं-विधं जीवितोपक्रमार्थ गच्छे धारयितव्यम्।। गणनाप्रमाणेन तु तानि त्रीणि भवन्ति / तद्यथाअत्थरणट्ठा एगं, विइयं छोढुं उवरि घणं बंधे। उक्किट्ठयरं उवरिं, बंधाऽऽदिच्छादणट्ठाए॥६११।। एकं तस्य मृतस्याध आस्तरणार्थ, द्वितीयं पुनः प्रक्षिप्योपरि घनबधीयात्। किमुक्तं भवति? द्वितीयेनत मृतकं प्रावृत्योपरि दव रकण घनं बध्यते। तृतीयमृत्कृष्टतरमतीवोज्ज्वलं बन्धाऽऽदिछादनार्थ तदुपरि स्थापनीयम् / एवं जघन्यतस्त्रीणि वस्त्राणि ग्रहीतव्यानि, उत्कर्षतस्तु गच्छ ज्ञात्वा बहून्यपिगृह्यन्ते। एतेसिं अवगहणे, चउगुरु दिवसम्मि वण्णिया दोसा। रत्तिं व पडिच्छंते, गुरुणा उट्ठाणमादीया // 612 / / एतेषामेवं विधानां त्रयाणां वस्त्राणामवग्रहणे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त, मलिनवस्त्रप्रावृते च तस्मिन् वसतौ नीयमाने दोषा अपर्णवादाऽऽदयो वर्णिताः / अथैतद्दोषभयाद्रात्रौ परिष्ठापयिष्यामीति बृद्ध्या मृतकं प्रतीक्षापयति ततश्चतुर्गुरुकाः, उत्थानोऽऽदयश्च दोषाः। कथं पुनरवर्णवादाऽऽदयो दोषाः ? इत्याहउज्झाइए अवण्णो, दुविह णियत्ती य मइलवसणाणं / तम्हा तु अहतकमिणं, धरेति पक्खस्स पडिलेहा / / 613 / / (उज्झाइए) मलिनकुचेले तस्मिन्नीयमाने अवर्णो भवति अहो अमी वराका मृता अपि शोभां न लभन्ते / मलिनवस्त्राणां च दर्शने द्विविधा निवृत्तिर्भवति। सम्यक्त्वं प्रव्रज्यां च गृहीतुकामाः प्रतिनिवर्तन्ते / शुचि श्वेतवस्त्रदर्शने तु लोकः प्रशंसति-अहो शोभनो धर्म इति ; यत एवं तरमादहतमपरिभुक्तं, कृत्सं प्रमाणतः प्रतिपूर्ण वस्त्रत्रिकं धारणीयम् / पक्षस्यान्ते तस्य प्रत्यवेक्षणा कर्तव्या। दिवसे दिवसे प्रत्यवेक्षमाणं हि मलिनीभवेत्। गतं णन्तकद्वारम् / बृ०४ उ०। (7) इयाणिं णोमणुयपरिट्ठावणिया भण्णइणोमणुएहिं जा सा, तिरिएहिं साय होइ दुविहा उ। सचित्तेहि सुविहिया!, अचित्तेहिं च नायव्वा / / 6 / / निगदसिद्धा। दुविहं पि एगगाहाण भण्णइचाउलोयणमाईहिं, जलचरमाईण होइ सचित्ता। जलथलखहकालगए, अचित्तें विगिंचणं कुजा 70 / / इमीए वक्खाणणोमणुस्सा दुविहासचित्ता अचित्ता य / सचित्ता चाउलोदयमाइसु, चाउलोदयगहणं जहा ओघनिजुत्तीएतत्थ निवुड्डओ आसि मच्छओ मंडुक्कलिया वा, तं घेत्तूण थोवेण पाणि-एण सह निजइ, पाणियमंडुक्को पाणियं दद्रूण उद्देइ, मच्छओ बला छुडभइ, आइग्गहणेण संसद्वापाणएण बा गोरसकुंडए वा तल्लभावणे वा एवं सचित्ता / अचित्ताअणिमिसओ केणइ आणीओ पक्खिणा पडिणीएण वा, थलयरी उंदुरो घरकोइलो एवमाई, खहचरो हंसवायसमयूराऽऽई, जत्थ सदोस तत्थ विवेगो अप्पसागारिए बोलकरण वा, निहोसे जाहे रुचई ताहे विगिचइ / तसपाणपारिद्यावणिया गया। इयाणिं णोतसपाणपारिद्यावणिया भण्णइणोतसपाणेहिं जा, सा दुविहा होइ आणुपुव्वीए। आहारम्मि सुविहिया!, नायव्वा नो अ आहारे // 71 / / (णोत से) निगदसिद्धा, नवरं नोआहारो उवगरणाइ, तत्थआहारम्मि उजा सा, सादुविहा होइ आणुपुव्वीए। जाया चेव सुविहिया!, नायव्वा तह अजाया य७२।। 'आहारे' आहारविषये याऽसौ पारिस्थापनिका सा 'द्विविधा द्विप्रकार भवति अनुपूर्व्या' परिपाट्या, द्वैविध्यं दर्शयति, जाया चेव सुविहिया ! णायव्या तह अजाया य। तत्र दोषात् परित्यागार्हाऽऽहारविषया या सा जाता, ततश्च जाता चैव 'सुविहिता!' इत्यामन्त्रणं प्राग्वत्, ज्ञातव्या, तथाऽजाता च तत्रातिरिक्तनिव-द्याऽऽहारपरित्यागविषयाऽजातोच्यत इति गाथाऽर्यः / / 72 / / तत्र जाता स्वयमेव प्रतिपादयन्नाहआहाकम्मे य तहा, लोहविसे आमिओगिए गहिए। एएण होइ जाया, वोच्छं से विहीऍ वोसिरणं // 73 // आधाकर्म प्रतीतं, तस्मिन्नाधाकर्मणि च तथा (लोहविसे आभि-ओगिए गहिए त्ति) लोभाद् गृहीते (धिसे त्ति) विषकृते गृहीते (आभिओगिए त्ति) वशीकरणाय मन्त्राभिसंस्कृते गृहीते सति कथचिन्मक्षिकाव्यापत्तिचेतोऽन्यथात्वाऽऽदिलिङ्गतश्च ज्ञाते सति 'एतेन' आधाकर्माऽऽदिनादोषेण भवति 'जाता' पारिस्थापनिका दोषात्परित्यागार्हाऽऽहारविषयेत्यर्थः / (वोच्छ सँ विहीऍ वोसिरणं ति) वक्ष्येऽस्या विधिना जिनोक्तेन व्युत्सर्जन परित्यागमित्यर्थः। एर्गतमणावाए, अघिते थंडिले गुरुवइटे। छारेण अक्कमित्ता, तिट्ठाणं सावणं कुज्जा 174|| एकान्ते 'अनापाते' स्त्र्याद्यापातरहिते 'अचेतने' चेतनाविकले 'स्थाण्डिल्ये' भूभागे 'गुरूपदिष्ट' गुरुणा व्याख्याते, अनेनाविधिर्शन परिस्थापन न कार्यमिति दर्शयति-(छारेण अक्कमित्ता) भस्मना सम्मिश्रय (तिहाणं सावणं कुज्ज त्ति) सामान्येन तिस्रो वाराः श्रावण कुर्यात्-अमुकदोषदुष्टभिद व्युत्सृजामि एवं, विशेषतस्तु विषकृताभियोगिकाऽऽदेरेवापकारकस्यैष विधिः, न त्वाधाकर्माऽऽदेः, तद्गत प्रसङ्गे नेहैव भणिष्याम इति गाथाऽर्थः / / 74|| अजातपारिस्थापनिकी प्रतिपादयन्नाहआयरिए य गिलाणे, पाहणए दुलहे सहसलाहे। एसा खलु अजाया, वोच्छं से विहीऐं वोसिरणं / / 7 / / आचार्ये सत्यधिकं गृहीतं किश्चिद्, एवं ग्लाने प्राघूर्णके दुर्लभे वा विशिष्टद्रव्ये सति सहसलाभे-विशिष्टस्य कथश्चिल्लाभे सति अतिरिक्तग्रहणसम्भवः, तस्य च या पारिस्थापनिका एषा खलु 'अजाता' अदुष्टाधिकाऽऽहारपरित्यागविषयेत्यर्थः / (वोच्छं से विहीए वोसिरण) प्राग्वदिति गाथाऽर्थः / / 75 // Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 576 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5. परिट्ठवणा एगतमणावाए, अचिते थंडिले गुरुवइटे। शक्यते, नगरद्वाराणि वा तदानीं पिहितानि, महानिनादो महाजआलोएँ तिण्णि पुंजे, तिट्ठाणं सावणं कुजा / / 76 / / नजातः, शब्दः तत्र ग्रामे नगरे वा, स्थापना वा तत्र ग्रामाऽऽदावीदृशी पूर्वार्द्ध प्राग्वत्। (आलोए त्ति) प्रकाशे त्रीन् पुञ्जान् कुर्यात्. अत एव व्यवस्था, यथा रात्रौ मृतकं न निष्काशनीय; निजका वा स्वज्ञातिकास्तत्र मूलगुणदुष्ट त्वेकमुत्तरगुणदुष्ट तु द्वाविति प्रसङ्गः / लथा (तिट्टाणं सावणं सन्ति, ते भणन्ति-अस्माकमनापृच्छया न निष्काशनीयः आचार्या वा कुज ति) पूर्ववदयं गाथाऽऽर्थः / / 76|| गता आहारपरिस्थापनिका / स तत्र नगरे अतीवलोकविख्यातः, महातपस्वी वा प्रभूतकालपालिआव०४ अ०। तानशनो, रागाऽऽदिक्षपको वा, एतैः कारणैः रजन्या प्रतीक्ष्यते, दिवा (8) अथ दिवा रात्रौ कालगत इति द्वारमाह पुनरेतैः कारणैः प्रतीक्षा-पयेत्। आसुक्कार गिलाणे, पञ्चक्खाए व आणुपुथ्वीए। णंतग असती राया, व नीति संतेउरो पुरवती तु। दिवसस्स व रत्तीइ उ, एगतरे होञ्जऽवक्कमणं // 614 / / णीति व जणणिवहेणं, दारणिरुद्धाणि णिसि तेणं / / 620 / / आशु शीघ्र जीवस्य निर्जीवकरणत्वादहिविषविशूचिकाऽऽदयो- गन्तकानां शुचिश्वेतवस्त्राणामभावे, दिवा न निष्काश्यते, राजा वा ऽप्याशुकारा उच्यन्ते, तैरपक्रमणं मरणं कस्याऽपि भवेत्, ग्लानत्वेन वा सान्तः पुरः पुरपतिर्वा नगरमतियाति प्रविशति जननिवहेन वा महता मान्येन कोऽपि म्रियते, आनुपूर्व्या वा शरीरपरिकर्मणा क्रमेण भक्ते नरतोलिकाऽऽदिवृन्देन नगरान्निर्गच्छति, तद्दारातो निरुद्धानितेन निशि प्रत्याख्याते सति कश्चित्कालधर्म गच्छेत्, एवं दिवसरजन्योरेक- न निष्काश्यते / एवं दिवाऽपि प्रतीक्षापणं भवेत्। तरस्मिन् काले जीवितापदक्रमणं भवेत्।। अत्र चाऽयं विधिएवं कालगयम्मी, मुणिणा सुत्तत्थगहितसारेणं / वातेण अणक्कते, अभिणवमुक्कस्स हत्थपादे उ। नहु मंतव्वों विसाओ, कायव्वों विहीऐं वोसिरणं / / 615 / / कुव्वंति ते पणिहिते, मुहणयणाणं च संपुडणं // 621 // एवमेतेन प्रकारेण कालगते सति साधौ सूत्रार्थगृहीतसारेण मुनिना न वातेन यावदद्यापि शरीरकमाक्रान्तं स्तब्ध न भवति तावदभिनवजीविषादो मन्तव्यः, किंतु कर्त्तव्यं तस्य कालगतस्य विधिभाव्युत्सर्जनम्। वितमुक्तस्य हस्तपादान् यथाप्रणिहितान् प्रगुणतयाऽलम्बमानान् कथमित्याह कुर्वन्ति, मुखनयनानां च संपुटनं संमीलनं कुर्वन्ति। आयरिओ गीतो वा, जो व कडाई तहिं भवे साहू। जागराऽऽदिविधिमाहकायव्वो अखिलविही, न तु सोगभया व सीदेज्जा // 616 / / जितणिढुवायकुसला, ओरस्सबली य सत्तजुत्ताय। यत्सूत्राऽऽचार्योऽपरो वा गीतार्थो यो वा अगीतार्थोऽपि कृताऽऽदिरीदशे कतकरण अप्पमादी, अभीरुगा जागरंति तहिं॥६२२।। कार्ये कृतकरणः, आदिशब्दाद्वैर्याऽऽदिगुणोपेतः साधुर्भवति, तेनाखि- जितनिद्राः, उपायकुशलाः, औरसबलिनो महापराक्रमाः, सत्त्वयुक्ताः लोऽपि विधिः कर्तव्यो, न पुनः शोकाद् भयाद्वा तत्र सीदेत् यथोक्त- धैर्यसंपन्नाः, कृतकरणा अप्रमादिनः अभीरुकाश्च ये साधवस्ते तत्र तदा विधिविधाने प्रमादं न कुर्यात् / जाग्रति। . किमालम्ब्य शोकभयौ न कर्त्तव्यौ ? इत्याह जागरणट्ठाएँ तहिं, अण्णेसिं वा वि तत्थ धम्मकहा। सव्वे वि मरणधम्मा, संसारी तेण कासि मा सोगं / सुत्तं धम्मकहं वा, मधुरगिरो उच्चसद्देणं // 623 / / जं चऽप्पणो वि होहिति, किं तत्थ भयं परगयम्मि? // 617 / / जागरणार्थ तत्र तैरन्योऽन्यमन्येषां वा श्राद्धाऽऽदीनां धर्मकथा सर्वेऽपि संसारिणो जीवा मरणधर्माण इत्यालम्ब्य शोक मा कर्मः, कर्तव्या। स्वयं वा सूत्रं धर्मकथांवा धर्मप्रतिबद्धामाख्यायिकां मधुरगिर यच मरणमात्मनोऽपि कालक्रमेण भविष्यति, तत्र परस्य गते परस्य उच्चशब्देन गुणयन्ति। संजाते किं नाम भयं विधीयते, न किञ्चिदित्यर्थः / गतं दिवा रात्रौ चेति बन्धनच्छेदनपदे व्याख्यातिद्वारम्। करपायंगुढे दोरकेण बंधिउ पुत्तीमुहं छाए। (6) अथ जागरणबन्धनच्छेदनद्वारमाह अक्खयदेहे खणणं, अंगुलिविचे ण बाहिरओ // 624 / / जं वेलं कालगतो, निकारण कारणा भवे निरोधो य / करपादाङ्गुष्ठान कराङ्गुष्ठद्वयान् पादाङ्गुष्ठद्वयं च दवरकेण बद्ध्या जग्गण बंधणछेदण एतं तु विहिं तहिं कुज्जा // 618|| मुखपोत्तिकया मुखं छादयेदेतद्वन्धनमुच्यते। तथा अक्षतदेहे तस्मिन् / दिवा रजन्यां वा यस्यां वेलायां कालगतस्तस्यामेव वेलायां (अंगुली विच्चे) अड् गुलिमध्ये चीरके खननम् ईषत्फलनं क्रियते, न निष्काशनीयः। एवं निष्कारण उक्तम्। कारणे तु निरोधो नाम कियन्त- बाह्यतः एतच्छेदनं मन्तव्यम्। मपि कालं प्रतीक्ष्यते / तत्र च जागरणं, बन्धन, छेदनम्, एतमेवमादिक अण्णाइट्ठसरीरे, पंता वा देव तत्थ उद्विजा। विधि वक्ष्यमाणनीत्या कुर्यात्।। परिणामि इव्वहत्थेण बुज्झ गुज्झ व मा मुज्झ॥६२५।। कैः पुनः कारणैः स प्रतीक्ष्यते?, इत्याह एवमपि क्रियमाणे यद्यन्याऽऽविष्टशरीराः सामान्येन व्यन्त - हिमतेणसावयभया, पिहितद्दारो महाणिणादो वा। राधिष्ठितदेहः, प्रान्ता वा प्रत्यनीका काचिद्दे वताऽत्रावसरे ठवणा णियगा व तहिं, आयरिय महातवस्सी वा // 616 / / तत्कले वरमनुप्रविश्योतिष्ठेत, ततः परिणामिनी कायिकीम् रात्रौ दुरधिसहं हिम पतति, स्तेनभयात् स्वापदभयाद्वा न निर्गुन्तुं | (डव्वहत्थेण त्ति) वामहस्तेन, गृहीत्वा तत्क डे बरं सेवनीयं, Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 580 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा इदं च वक्तव्यम्-बुध्यस्वबुस्यस्व गुह्यक ! मा मुह्य मा प्रमादीः संस्तार- | कान्मोत्तिष्ठेति भावः। वित्तासेज रसेज व, भीमं वा अट्टहास मुंचेजा। अभिएण सुविहिएणं, कायव्व विहीऍ वोसिरणं॥६२६|| अन्याधिष्ठितं तत्कडेवरं वित्रासयेत् विकरालरूपं दर्शयित्वा भापयेत् / रसेगा आरर्टि मुश्चेत्, भीमं वा रोमहर्षजनकमट्टहासं मुश्चेत्, तथाऽपि तत्राऽभीतेन सुविहितेन विधिना पूर्वोक्तेन, वक्ष्यमाणेन च व्युत्सर्जन कर्तव्यम् / गतं जागरणाऽऽदिद्वारम्। (10) अथकुशप्रतिमाद्वामाहदोण्णि जदि सडखेत्ते, दन्भमया पुत्तगा तु कायव्वा / समखेत्तम्मि य एको, अवड्ड अत्तिईण कायव्वो // 627 / / कालगते सति संयते नक्षत्रं विलोकयति ततश्चतुर्गुरु, ततो नक्षत्रे / विलोकिते यदि सार्द्धक्षेत्रं तदानीं नक्षत्र, सार्द्धक्षेत्रं नामपञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्तभोग्यं, सार्द्ध, दिनभोग्यमिति यावत् / तदा दर्भमयौ द्वौ पुत्तलको कर्त्तव्यौ, यदि न करोति तदाऽऽश्वपरं साधुद्वयमाकर्षति, तानि च सार्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणि षट् भवन्ति / तद्यथा-उत्तराफाल्गुन्यः, उत्तराषाढाः, उत्तराभद्रपदाः, पुनर्वसू, रोहिणी, विशाखा चेति / अथ समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्लभोग्यं यदा नक्षत्रं तत एकः, पुत्तलकः कर्त्तव्यः, एष ते द्वितीय इति वक्तव्यम्। अकरणे अपरमेकमाकर्षति। समक्षेत्राणि चामूनि पञ्चदश-अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरः, पुष्यो, मघाः, पूर्वाफाल्गुन्यो, हस्तः, चित्रा, अनुराधा, मूलं, पूर्वाषाढाः, श्रवणो, धनिष्ठाः, पूर्वभद्रपदा, रेवती चेति / अथापार्द्धक्षेत्रं पञ्चदशमुहूर्तभोग्यं तन्नक्षत्रम् अभीचिर्वा तत एकोऽपि पुत्तलको न कर्त्तव्यः / अपार्द्धक्षेत्राणि चामूनिषट् शतभिषक, भरणी आर्द्रा, अश्लेषा स्वातिः, ज्येष्ठा चेति। (11) अथ निवर्तनद्वारमाहथंडिलवाघाएणं, अहवा वि अनिच्छिए अणाभोगा। भमिऊण उवागच्छे, तेणेव पहेण न नियत्ते // 628|| यत्र मृते नीयमाने स्थण्डिलास्याऽऽढकहरिताऽऽदिभिव्यया॑धातो भवेत्, अनाभोगेन वा स्थण्डिलमतिक्रान्त भवेत्, ततो भ्रमित्वा प्रदक्षिणं कुर्वाणा उपागच्छेयुः, तेनैव पथान निवर्तेरन् 'जइ तेणेव मग्गेणं, निवत्तंतिततो असमायारी कया उद्दुल्ला, सो यजओ चेव उद्देइ, तओ, चेव उट्ठइ, तओ चेव पहावइ, तत्थ जओ गामो तओ धाविजा।" तत एवं कर्त्तव्यम् - बाघायम्मि उवेउं, पुव्वं च अपोहियम्मि थंडिल्ले। तह णीति जह से कमा,ण होंति गामस्स पडिहुत्ता // 626 / / स्थण्डिलस्य व्याघाते पूर्व वा स्थण्डिलं न प्रत्यवेक्षितं ततस्तन् मृतकमेकान्ते स्थापयित्वा स्थण्डिलं च प्रत्युपेक्ष्य तथा च भ्रमयित्वा नयति यथा मृतस्य क्रमौ पादौ ग्रामाभिमुखै न भवतः। (12) अथ मात्रकद्वारमाहसुत्तत्थतदुभयविऊ, पुरतो घेत्तूण पाणग कुसे य / गच्छति जइ सागारिय, परिट्ठवेऊण आयमणं // 630 / / सूत्रार्थतदुभयवेदी मात्रके असंसृष्टपानक कुशांश्च दर्भान् समच्छेदान् / परस्परमसंबद्धान् हस्तचतुरड्डलप्रमाणान् गृहीत्वा पृष्ठतोऽनवेक्षमाणः पुरतोऽग्रतः स्थण्डिलाभिमुखो गच्छति, दर्भणामभावे चूर्णानि कैशराणि वा गृह्यन्ते, यदि सागारिकंततः शबं परिष्ठाप्याऽऽचमनं हस्तपादशौचाऽsदिकं कर्त्तव्यम्, आचमनग्रहणेनेदं ज्ञापयति-यथा यथा प्रवचनोजड्डाहो न भवति तथा तथा अपरमपि विधेयम्। (13) अथ शीर्षद्वारमाहजत्तो दिसाएँ गामो, तत्तो सीसं तु होइ कायव्वं / उठेतरक्खणट्ठा, अमंगलं लोगगरिहा य / / 631 / / यस्यां दिशि ग्रामस्ततः शीर्ष शवस्य प्रतिश्रयाद् नीयमानस्य परिष्ठाप्यमानस्य च कर्त्तव्यम्। किमर्थमित्याह-उत्तिष्ठतो रक्षणार्थ, यदि नाम कथञ्चिदुत्तिष्ठते तथापि प्रतिश्रयाभिमुखं नागच्छतीति भावः / अपि च-यस्यां दिशि ग्रामस्तदभिमुखं पादयोः क्रियमाणयोरमङ्गलं भवति, लोकश्व गहाँ कुर्यात्-अहो अमी श्रमणका एतदपि न जानन्ति,यद् ग्रामाभिमुखं शब न क्रियते। (14) अथ तृणाऽऽदिद्वारमाहकुसमुट्ठिण एकेणं, अव्वोच्छिन्नाए तत्थ धाराए। संथार संथरेजा, सव्वत्थ समो य कायव्यो॥६३२॥ यदा स्थण्डिलं प्रमार्जितं भवति तदा कुशमुष्टिनैकेनाव्युच्छिन्नया धारया संस्तारकं संस्तरेत्, स च सर्वत्र समः कर्त्तव्यः। विषमे एते दोषाःविसमा जदि होज तणा, उवरिं मज्झे तहेव हेढे य। मरणं गेलण्णं वा, तिण्णं पि उ णिदिसे तत्थ // 633 / / विषमाणि तृणानि यदितस्मिन् संस्तारके, उपरिच मध्ये वा अधस्ताद्वा भवेयुः, तदा त्रयाणामपि मरणं ग्लानत्वं वा निर्दिशेत्। केषां त्रयाणांमित्याहउवरिं आयरियाणं, मज्झे वसभाण हेढे भिक्खूणं / तिण्हं पिरक्खणट्ठा, सव्वत्थ समा य कायव्वा // 634 / / उपरि विषमेषु तृणेषु आचार्याणां मध्ये वृषभाणामधस्ताद्भिक्षूणां मरण ग्लानत्वं वा भवेत् / अतस्त्रयाणामपि रक्षणार्थ सर्वत्र समानि तृणानि कर्त्तव्यानि। जत्थ य नत्थि तिणाई, चुण्णेहिं तत्थ केसरहिं वा / कायव्योऽत्थ ककारो, हेट्ट नकारं च बंधिज्जा / / 635 / / यत्र तृणानि न सन्ति तत्र चूर्णैर्वा नागकेशरै :वा अव्युच्छिन्नया धारया ककारः कर्त्तव्यः, तस्य चाधस्तान्नकारं च बध्नीयात् क्रइत्यर्थः, चूर्णाना केशराणानां चाभावे प्रलेपकाऽऽदिरपि क्रियते। (14) अथोपकरणद्वारमाहचिंधट्ठा उवगरणं, दोसा तु भवे अचिंधकरणम्मि। मिच्छत्तं सो व राया, कुणंति गामाण वहकरणं // 636|| परिष्ठाप्यमाने चिह्नार्थ यथाजातमुपकरणं पार्श्वे स्थापनीयम् / तद्यथा-रजोहरण, मुखपोत्तिका, चोलपट्टकाः, यद्येतन्न स्थापयन्ति ततश्वतुर्गुरु, आज्ञाऽऽदयश्च दोषा चिह्नस्याकरणे भवन्ति / स च कालगतो मिथ्यात्वं गच्छे त्, राजा वा Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 581 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा जनपरम्परया तं ज्ञात्वा कश्चिन्मनुष्योऽमीभिरपद्रावित इति बद्ध्या कुपितः प्रत्यासन्नवर्तिनां द्वित्र्यादीनां ग्रामाणां बधं कृर्यात्। अथैतदेव भावयतिउवगरणमहाजाते, अकरणे उज्जेणिभिक्खुदिट्ठतो। लिंगं अपेच्छमाणे, काले वइरं तु पाडेति / / 637 / / यथाजातमुपकरणं यदितस्य पार्श्वे न कुर्वन्ति ततोऽसौ देवलोकगतः प्रत्युक्तावधेरहमनेन गृहिलिङ्गेन, परलिङ्गेन वा देवो जात इति मिथ्यात्वं गच्छेत् / उज्जयिनीभिक्षुदृष्टान्तश्चात्र भवन्ति, स चाऽऽवश्यकटीकातोऽवगन्तव्यः। (५३गाथा आव० 4 अ०) यस्य वा ग्रामस्य पार्श्वे परिष्ठापितस्तत्र तत्पाबें लिङ्गमपश्यन् लोको राजानं विज्ञापयेत्, स च केनाऽप्यपद्रावितोऽयमिति मत्वा काले नयति वैरं पातयति, वैरं निर्यातीति भावः। (16) कायोत्सर्गद्वारमाहउट्ठाणाऽऽई दोसा, हवंति तत्थेव काउसग्गम्मि। आगम्मुवस्सयं गुरु-समीव अविहीऍ उस्सग्गे // 638|| तत्रैव परिष्ठापनभूमिकायां कार्योत्सर्गे क्रियमाणे उत्थानाऽऽदयो दोषा भवन्ति, अत उपाश्रयमागम्य गुरुसमीपे अविधिपरिष्टापनिकाकायोत्सर्गः कर्त्तव्यः। (17) प्रादक्षिण्यद्वारमाहंजो जहियं सो तत्तो, णियत्तइ पयाहिणं न कायव्यं / उट्ठाणाऽऽदी दोसा, विराहणा बालवुड्डाणं॥६३६।। शबं परिष्ठाप्य यो यत्र भवति ततो निवर्तते, प्रादक्षिण्यं न कर्तव्यं, यदि / कुर्वन्ति तत उत्थानाऽऽदयो दोषाः, बालवृद्धानां च विराधना भवति / (18) अथाऽभ्युत्थानद्वारमाहजइ पुण अणीणिओ वा, णीणिज्जतो विवित्तिओ वा वि। उद्वेज समाइट्ठो, तत्थ इमा मग्गणा होति / / 640 / / यदि पुनः स कालगतोऽनिष्काशितो वा निष्काश्यमानो वा विविक्तो वा परिष्ठापितो व्यन्तरसमाविष्टः तिष्ठेत, ततस्तत्रेयं मार्गणा भवतिवसहि निवेसण साहीऐं, गाममज्झे य गामदारे य। अंतर उज्जाणंतर-णिसीहिया उद्वितो वोच्छं।।६४१।। वसतौ वा स उत्तिष्ठेत्, निवेशने वा पाटके, साहिकायां वा गृहपङ् क्तिरूपायां, ग्राममध्ये वा, ग्रामद्वारे वा,ग्रामोद्यानयोरन्तरे वा, उद्याननषेधिक्योरन्तरा वा, नैषेधिक्यां शवपरिष्ठापनभूम्यामेतेषूस्थिते यो विधिस्तं च वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव करोतिउवसय निविसण साही, तामद्धे दारे गाम मोत्तव्यो। मंडल खंड देसे, णिसीहियाए य रज्जंतु // 642 / / तत्कडेवरं नीयमानं यदि वसतात्तिष्ठति तत उपाश्रयो मोक्तव्यः। अथ निवेशने उत्तिष्ठति ततो निवेशनं मोक्तव्यं, साहिकायामुत्थिते साहिका, ग्राममध्ये उत्थिते ग्रामार्द्ध,ग्रामद्वारे उत्थिते ग्रामो मोक्तव्यः / ग्रामस्य चोद्यानस्य चान्तरा यद्युत्तिष्ठति तदा विषयमण्डलं मोक्तव्यम् / उद्याने उस्थिते खण्ड देशखण्ड मण्डलाद् बृहत्तरं परित्यक्तव्यम् / उद्यानस्य नैषधिक्यां चान्तराले उत्तिष्ठति देशः परिहर्तव्यः, नैषधिक्यामुत्थिते राज्य परिहरणीयम् / एवं तावन्नीयमानस्योत्थाने विधिरुक्तः। परिष्ठापिते च तस्मिन् गीतार्था एकस्मिन् पार्चे मुहूर्त प्रतीक्षन्ते, कदाचित्परिष्ठापितोऽप्युत्तिष्ठेत्। तत्र चाऽयं विधिःवचंतो जो उ कमो, कलेवरठावणम्मि वोचत्थो। नवरं पुण णाणत्तं, गामदारे निबोद्धव्वं / / 643 / / व्रजतां निर्गच्छतां कडेवरोस्थाने यः कमो भणितः, स एव विपर्यम्तः कडेवरस्य-परिष्ठापितस्य भूयः प्रविशने विज्ञेयो, नवरं पुनरत्र नानात्वं ग्रामद्वारे बोद्धव्यं, तत्र वैपरीत्यं न भवति, किं तु तुल्यतै-वेति भावः / तथा चात्र वृद्धसंप्रदायः- "निसीहियाए परिढवित्तु जइ उद्वेत्ता तत्थेव पडिज्जा ताहे, उवस्सओ मोत्तव्यो, निसीहियाए उजाणस्स य अंतरा पडइ निवेसणं मोत्तव्यं, उजाणे पडइ साही मोत्तव्वा, उज्जाणस्स य अंतरा पडइ गामद्धं मोत्तव्वं, गामबारे पडइ गामो मोत्तव्यो, गाममज्झे पडइ मंडल मोत्तव्वं, साहीए पडइ देसखंड मोत्तव्वं, निवेसणे पडइ देसो मोत्तव्यो, उवस्सए पडइ रज्जमोत्तव्व।'' अत्र निर्गमने प्रवेशनेच ग्रामद्वारस्थाने ग्रामत्याग एवोक्त इति ग्रामद्वारे तुल्यतैव भवति, न वैपरीत्यम्। अथ परिष्ठापितो द्व्यादिवारान् वसतिं प्रविशति ततोऽयं विधिःविइयं वसहिमिति ते, तगं च अण्णं च पुव्वतो रजं। तिप्पभितिमिति सैव उ, मुयंति रजाइँ पविसंते // 644 / / निर्ग्रन्थो यदि द्वितीय वारं वसतिप्रविशति तदा तच्चान्यच राज्यं मुच्यते, राज्यद्वयमित्यर्थः / अथ त्रीन चतुरो बहुशो वारान् वसतिं प्रविशति तदा त्रीण्येव राज्यानि मुञ्चति। असिवाई बहिया का-रेणहिँ तत्थेव वसंति जो उ तवो। अभिगहियाणभिगहितो, सा तस्स उ जोगपरिवुड्डी॥६४५।। यदि बहिरशिवाऽऽदिभिः कारणैर्न निर्गच्छन्ति, ततस्तत्रैव वसन्ति, यस्य यत्तपो अभिग्रहीतमनभिगृहीतं वा, तेन तस्य वृद्धिः कर्तव्या, सा च योगपरिवृद्धिरभिधीयते / किमुक्तं भवति?-ये नमस्कारप्रत्याख्यायिनस्ते पौरुषीं कुर्वन्ति, पौरुषीप्रत्याख्यायिनः पूर्वार्द्धं कृत्वा शक्तौ सल्यामाचाम्ल पारयन्ति, शक्तेरभावे निर्विकृतिकमेकाशनक यावदशनकमपि / यदाह चूर्णिकृत- "सइ सामत्थे आय-बिलं च पारेति, असइ निव्वीयं / एकासणयं असणयमसमत्था सवीइयं पि त्ति / / 1 / / " एवं पूर्वार्द्धप्रत्याख्यायिनश्चतुर्थ, चतुर्थप्रत्याख्यातारः षष्ठ, षष्ठप्रत्याख्यायिनोऽष्टमम् / एवं विस्तरेण विभाषा कर्तव्या। एवं योगपरिवृद्धिं कुर्वतामपि यदि कदाचिदुत्थाय आगच्छेत्, तदाऽयं विधिःअण्णाइट्ठसरीरे, पंता वा देव तत्थ उद्वेजा। काइयं डव्वहत्थेण,भेणज्ज मा गुज्झया ! गुज्झा // 646 / / गतार्था। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 582 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा (१६)अथव्याहरणद्वारमाहगिण्हइ णाम एगस्स दोण्ह अहवा वि होज सव्वेसिं। खिप्पं तु लोयकरणं, परिण्ण गणभेद वारसमं / / 647 / / एकस्य, द्वयोः, सर्वेषामसौ नाम गृह्णाति भवेत्कदाचिदप्येवं, तदा तेषा क्षिप्र लोचः कर्तव्यः। (परिण्ण त्ति) प्रत्याख्यानं तपस्तत्र द्वादशमुपवासपञ्चकरूपते कारापणीयाः। अथ द्वादशं कर्तुं कश्चिदसहिष्णुर्न शक्तोति, ततो दशममष्टमं षष्ठं चतुर्थ वा काराप्यते, गणभेदश्च क्रियते, गच्छान्निगम्यते, पृथग्भवन्तीति भावः। (२०)अथ कायोत्सर्गद्वारमाहचेइघरुवस्सए वा, हायंतीओ थुईउते बिति। सारवणं वसहीए, करेति सव्वं वसहिपालो / / 658 / / अविधिपरिट्ठवणाए, काउस्सग्गो य गुरुसमीवम्मि। मंगलसंतिनिमित्तं, थओ तओ अजियसंतीणं / / 646 / / चैत्यगृहे उपाश्रये वा परिहीयमानाः स्तुतीस्ते बुवते भणन्ति,यावच्च ते अद्यापि नाऽऽगच्छन्ति तावद्वसतिपालो वसतेः सारवणं प्रमार्जनं, तदादिकं सर्वमपि कृत्यं करोति। अविधि परिष्ठापनानिमित्तं च गुरुसमीपे कायोत्सर्गः कर्त्तव्यः, ततो मङ्गलार्थ शान्तिनिमित्तं चाऽजितशान्तिस्तवो भणनीयः / अत्र चूर्णिः- "ते साहुणो चेइयवरे वा उवस्सए वा ठिया होता जइ चेझ्यघरे ता परिहायंतीहिं थुईहिं चेइयाइं वंदित्ता आयरियसगासे इरियाबहिए पडिक्कमिउं अविहिपरिट्ठावणियाए काउरसग करेंति, ताहे मंगल संतिनिमित्तं अजियसंतिथओ ओसन्नेठिदे चेवपहायंते कडेति, उवस्सए वि एवं चेव चेइयवंदणवजं / ' विशेषचूर्णिः पुनरित्थम्- 'तओ आगम्म चेइयवरं गच्छति, चेइयाणं वदित्ता सतिनिमित्त अजियसंतिथुई परिवड्डिजइ, तिनि थुईओ परिहायंतीओ कड्डिजति, तओ आगंतु अविहिपरिट्टावणियाए काउस्सग्गो कीरइ।' (21) अथ क्षपणस्वाध्यायमार्गणाद्वारमाहखमणे वा सज्झाए, रातिणिय महाणिणाय णियए वा। सेससु नत्थि खमणं, णेव असज्झाइयं होइ॥६५०|| यदि रात्निक आचार्याऽऽदिरपरो वा महानिनादोलोकविश्रुतः कालगतो भवति, निजका या स्वज्ञातिकास्तत्र सन्ति, ते महतीं न धृतिं कुर्वन्ति, तत एतेषु क्षपणक स्वाध्यायिकं च कर्त्तव्यं, शेषेषु साधुषु कालगतेषु क्षपणकं नास्ति, स्वाध्यायिकं न च भवति। (22) व्युत्सर्जनद्वारमाहउच्चारपासवणमत्तगाय अत्थरणकुसपलालाऽऽदी। संथारया बहुविहा, उज्झंति अणण्णगेलण्णे // 651|| यानि तस्योचारप्रस्रवणखेलमात्रकाणि, ये चाऽऽस्तरणार्थ कुशलपलालाऽऽदिमया बहुविधा संस्तारकास्तान् सर्वानप्युज्झन्ति (अणन्नगेलन्न त्ति) यद्यन्यस्य ग्लानत्वं नास्ति, अथाऽपरोऽपिस्लानः कश्चिदस्ति, ततस्तदर्थ तानि मात्रकाऽऽदीनि ध्रियन्ते इति भावः। अहिगरणं मा होही, करइ संथारगे विकरणं आसु / उवहिं विगिंचती जो,छेवइ तस्सा विछेवइओ॥६५२।। अशिवगृहीतःस यदि मृतस्तदा येन संस्तारकेन स नीतस्तं विकरणं कुर्वन्ति षण्डशः कृत्वा परिष्ठापयन्तीत्यर्थः / कुत इत्याह-अधिकरणं गृहस्थेन गृहीते प्रान्तदेवतया वा पुनरप्यानीते भवेत्, तन्माभूदिति कृत्वा विकरणी क्रियते यश्च तदीय उपधिरपरोवा तेन स्ववपुषा सुप्तस्तं सर्वमपि परिष्ठापयन्ति। असिवम्मि णत्थि खमणं, जोगविवड्डी य व उस्सग्गो। उवओगट्टे तोले णेव, अहाजाय करणं तु / / 653| अशिवे मृतस्य क्षपणं न कर्त्तव्यं, योगवृद्धिस्तु क्रियते, नैव साधुभिः परिष्ठापनायाः कायोत्सर्गः क्रियते (उपओगट्ठ ति) मुहूर्तमानं तोलयित्वा यथाजात तस्य नैव कर्त्तव्यम्। किमुक्तम्भवति?-अशिव मृतस्य समीपे यथाजातं न स्थाप्यते अतो देवलोकं गतो यावदुपयुक्तो भवति तावत्तदीयं वपुः प्रतिश्रय एव प्रतीक्षाप्यते, येन प्रतिश्रयस्थित स्ववपुर्दृष्ट्वा संयतोऽहमिति जानीते। (23) अथाऽवलोकनद्वारमाहअवरूजगस्स तत्तो, सुत्तत्थविसारएहि थेरेहिं / अवलोयण कायव्वं, सुभासुभगतोनिमित्तट्ठा // 654 / / तस्य कालगतस्य अपरेधुर्द्वितीये दिवसे सूत्रार्थविशारदैः स्थविरैः शुभाशुभगतिनिमित्तज्ञानार्थमवलोकनं कर्त्तव्यम्। कथमित्याहजं दिसि विगिट्ठतो खलु, देहेणं अक्खएण संचिढ़े। तं दिसि सिवं वदंती, सुत्तत्थविसारया धीरा // 655 / / यस्यां दिशि शिवाऽऽदिभिराकर्षितोऽक्षतेन देहेन संतिछेत, तस्यां दिशि सूत्रार्थविशारदा धीराः शिवं सुभिक्षं सुस्वविहारं च वदन्ति। जति दिवसे संचिट्ठति, तति वरिसे धातगं च खेमं च / विवरीए विवरीतं, अकड्डिए सव्वहिं उदितं / / 656|| यति यावतो दिवसान् यस्यां दिशि अक्षतदेहस्तिष्ठति तति तावन्ति वर्षाणि तस्यां दिशि ध्रातं च क्षेमं च भवति / अथ क्षतदेहःसंजातः ततो विपरीते क्षतदेहे विपरीतं मन्तव्यं, यस्यां दिशि क्षतदेहो नतिस्तस्यां दुर्भिक्षाऽऽदिक भवतीति भावः / अथ नान्यत्राकृष्टः किं तु तत्रैवाक्षतस्तिष्ठति ततः सर्वत्रोदितं सुभिक्षं, सुखविहारं च द्रष्टव्यम्। एतन्निमित्तं कस्य गृह्यते ? इत्याहखमगस्साऽऽयरियस्सा, दीहपरिणस्स वा निमित्तं तू। सेसे तथऽण्णथा वा, ववहारवसा इमाय गती।।६५७॥ क्षपकस्याऽऽचार्यस्य वा दीर्घपरिज्ञानिनो वा प्रभूतकालपालितानशनस्येदं निमित्तं ग्रहीतव्यम्। शेष एतद्व्यतिरिक्तः तथा वा अन्यथा वा भवेत्। न कोऽपि नियमः व्यवहारवशाच्चेयं गतिः प्रतिपत्तव्या। थलकरणा वेमाणिओं, जोतिसिओवाणमंतर समम्मि। गड्डाएँ भवणवासी, एस गती से समासेणं॥६५८|| यदि तस्य शरीरकं स्थले कृतं शिवाऽऽदिभिरारोपितं तदा वैमानिक : संजात इति मन्तव्यम् / समभू भागे नीतस्य ज्योतिष्केषु व्यन्तरेषु वा उपपातो ज्ञेयः / गर्तायां नीते भवनवासि Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 583 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा षु गत इत्यवगन्तव्यम् / एषा गति : समासेन तस्याभिहिता / व्याख्यातास्तिस्रोऽपि द्वारगाथाः। अथात्रैव प्रायश्चित्तमाहएकिकम्मि उठाणे, हंति विवच्चासकारणे गुरुगा। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए॥६५६।। एषां प्रत्युपेक्षणाऽऽदीनामेकैकस्मिन् स्थाने विपर्यासं कुर्वतां चत्वारो गुरुकाः, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः, संयमाऽऽत्मविराधना चंद्रष्टव्या। एतेन सुत्त न गतं, सुत्तनिवातो उ दव्वसारे उ। उट्ठणम्मि वि चउलहुगा, छडण लहुगा अभिगमे / / 660 / / यदेतद् द्वारकदम्बकमनन्तरं व्याख्यातम्, एतेन सूत्रं न गतं, किं तु सामाचारीज्ञापनार्थं सर्वमेतदुक्तम्। किं पुनस्तह्यत्र सूत्रे प्रकृतमित्याहसूत्रनिपातः पुनः सागारिकसत्के वहनकाष्ठलक्षणे द्रव्ये भवति, रात्री कालगते यदि वहनकाष्ठानुज्ञापनाय सागारिकमुत्थापयति तदा चतुर्लघु, अरहट्टयोजनाऽऽदयश्व दोषाःतस्मान्नोत्थापनीयः, किं तु यद्येकोऽपि कश्चित् वैयावृत्यकरः समर्थस्तद्वोदु ततस्तत्काष्ठं न गृह्यते, अथासमर्थस्ततो यावन्तः शक्भुवन्ति तावन्तस्तेन काष्ठेन वहन्ति, अथ वहनकाष्ठ तत्रैव परिष्ठाप्याऽऽगच्छन्ति तदाऽपि चतुर्लयु, अपरेण च गृहीते अधिकरणं, सागारिको वा तदपश्यत्, एतैः शरीर्वहनार्थ काष्ठं नीत्वा तत्रैव परित्यक्तमिति मत्वा प्रतिष्ठाव्यवच्छेदकं गर्हाऽऽदिकं कुर्यात्, तस्मादानेतव्यं, यदि पुनरानीते गृहीतेनैव अभिगमनं प्रवेशं कुर्वन्ति तदाऽपि चतुर्लधु। एतेच दोषाःमिच्छत्तऽदिएणदाणं, समलाऽवण्णो जुगुच्छितं चेव। दिव रातों अभियावण, वोच्छेओ होति वसहीए॥६६१।। सागारिकस्तत्काष्टं प्रवेश्यमानं दृष्ट्वा मिथ्यात्वं गच्छेत् एते भणन्ति अस्माकमदत्तस्याऽऽदानं न कल्पते, यथैतदलीक तथाऽन्यदप्यलीकमेव / अथवा ब्रूयात्-समला अमी अस्थिसरजस्कानामप्युपरिवर्तिनः, एवमवर्णा भूयात्, जुगुप्सितं वा जुगुप्सामपि कुर्यात्-मृतकं हतका मम गृहमानयन्ति; ततो यदि दिवा रात्रौ वा साधूनाम् (आभियावणं) निष्काशनं कुर्यात्, वसतेश्च व्यवच्छेदनाऽतः परं ददानीत्येकस्यानेकेषां वा कुर्यात्। यत एते दोषा अतोऽयं विधिःअइगमणं एगेणं, अण्णाए पति ट्ठवंति तत्थेव / णाए अणुतोसण त, स्स वयणबितियउट्ठाणमसिवे वा // 662 / / एकेन साधुना तत्स्थानमतिगमनं, यदि सागारिको नाद्याप्युत्तिष्ठते ततः स एतेनाज्ञाते काष्ठमानीय यतो गृहीत तत्रैव प्रतिष्ठापयति। अथ सागारिक उत्थितस्तस्यांग्रे निवेद्यतेयूयं प्रसुप्ता इति कृत्वा नाऽस्माभिरुत्थापिताः, रात्रौ साधुः कालगतः युष्मदीयकाष्ठेन निष्काशितः / साम्प्रतं तदानीयतामुपनीय परिष्ठाप्यतामेवमुक्ते यदसौ भणति ततः प्रमाणम्। अथ स्थापिते सागारिकेन कथमपि ज्ञातं, ततः कुपितस्यानुतोषण विधेयम् / अथवा ज्ञाते कुपितस्यापि तस्य वक्ष्यमाणं वचनं भवति, तदा गुरुभिः स साधुनिष्काशनीय इति शेषः। द्वितीयपदे उत्थितोऽसौ आमः / अशिवगृहीतो वाऽसौ ततस्तत्रैव परिष्ठापयेत्।न सागारिकस्य प्रत्यर्पयेत्। अथ सागारिकवचनं दर्शयतिजइ नीयमणा पुच्छा, आणिज्जति किं पुणो घरं मज्झ। दुगुणो एसऽवराधो, ण एस पाणाऽऽलओ भगवं!॥६६३।। यद्यस्माकमनापृच्छ्य नीतं, ततः किमर्थमिदानीं पुनरपि सदीयगृहमानीयते, एष वृद्धिगुणोऽपराधः, न चैष भगवन् ! मदीय आवा-सः पाणानां मातङ्गानामालयो,यदेवं मृतकोपकरणमत्राऽऽनीतम्। एवमुक्तैर्गुरुभिर्वक्तव्यम्। किमियं सिट्ठम्मि गुरू, पुरतो तस्सेव णिच्छुभति तं तु / अविजाणताण कयं, अम्ह वि अण्णे विणं बेंति // 664 // किमिदं दृष्टान्तजातमभूत, ततः शेषसाधुभिः शय्यातरेण वा गुरूणां शिष्टम्-अमुकेन साधुना अनापृच्छया काष्ठ नीतम्, ततो गुरवस्तस्यैव शय्यातरस्य पुरतस्तं साधु किमनापुच्छया नयसीति निर्भय॑ कैतवेन निष्काशयन्ति, अन्येऽपि साधवो ब्रुवते-अस्माकमप्यविजानतामेवममुना कृतम्। अन्यथा जानन्तो न कर्तु दद्म इति। वारेते अणुछुभणं, इहरा अण्णाएँ ठाति वसहीए। मम णीतो निच्छु भई,कइतव कलहेण वा वितिओ // 665 / / यदि सागारिको वारयति मा निष्काशयेति, नैवं, भूयः करिष्यति, ततोऽनिष्काशन, निष्काश्यते इतरथा अवारयति सागारिकेऽन्यस्यां वसतौ तिष्ठति, द्वितीयश्च साधुः कैतवेन मातृस्थनिन भणति-मम निजको यदि निष्काश्यते ततोऽहमपि गच्छामि, सागारिकेण वा समं कोऽपि कलहयति, ततः सोऽपि निष्काश्यते, स च तस्य द्वितीयो भवति। बृ० ४उ०। (23) असंजतपरिस्थापना / साम्प्रतं तस्मिन्नेव द्वारगाथाद्वितये यो विधिरुक्तः, स सर्वः क्व कर्तव्यः, क्ववान कर्तव्यः? इति प्रतिपादयन्नाहएसा उ विही सव्वा, कायव्या सिवम्मि जो जहिं वसइ। असिवे खमण विवड्डी, काउस्सग्गं च वज्जेज्जा / / 6 / / (एस त्ति) ''अणंतरवक्खायाविही मेरा सीमा आयरणा इति एगट्ठा। (कायव्वा) करेयव्वा, तुशब्दोऽवधारणे, ववहियसम्बन्धओ कायव्यो एवं, कम्मि ? (सिवम्मि त्ति) प्रान्तदेवताकृतोपसर्गवर्जिते, काले, 'जो ' साहू, 'जहिं ' खेत्ते वसइ, असिवे कह? असिवे खमणं विवज्जइ, किं पुण ? जोगविवड्डी कीरइ, 'काउस्सग्गं च वज्जेज्जा' काउस्सग्गो यन कीरइ। साम्प्रतमुक्तार्थोपसंहारार्थ गाथामाहएसो दिसाविभागो, नायव्वो दुविहदव्वहरणं च। वोसिरणं अवलोयण, सुहासुहगईविसेसो य / / 6 / / (एसो ति) अणंतरदारगाहादुगस्सऽत्थो, किं ? दिसाविभागो णायव्वो दिसिविभागो नाम अचित्तसंजयपरिट्ठावणियविहिं पइ दिसिप्पदरिसणं संवेण दिसिपडिवज्जा यणं ति भणिय होइ। अहवा-दिसिविभागो मूलदारगहणं, सेसदारोवलक्खणं चेयं दट्ठव्वं, अचित्तसंजयपरिट्ठावणियं पइ एसो दारविवेओ णायव्वो त्ति भणियं होइ। (दुविहदव्वहरणं चेति) दुविहदव्वं णाम-पुव्वकालगहिय कुसा Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 584 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा इ णायव्वमिति अणुवहए, (बोसिरणं ति) संजयसरीरस्स परिवणं, अह कोइ पडियरइ तस्सेव उवरि छुडभइ, एवं विप्पजहणा, विगिंचणा 'अवलोयण' बिइयदिणे निरिक्खणं ति। (सुहासुहगतीविसेसो य त्ति) णामंजं तत्थ तस्स भंडोवगरणं तरस विवेगो, जइरुहिरंताहेन छड्डेज्जइ, सुहासुहगतिविसेसो वंतराइसु उववायभेया यत्ति भणिय होइ। एसा | एकहा वा विहा वा मग्गो नजिहि ति, ताहे वोलकरणविभा-सा। अचित्तसंजयपारिट्ठावणिया भणिया। अचित्तासंजयमणुयपारिट्ठावणिया गया। आव० 4 अ०। इयाणिं असंजयमणुस्साणं भण्णइ। तत्थ गाहा (24) भोजनजातं परिगृह्य सुरभिं भुङ्क्ते, दुरभिं परिष्ठापयति, तस्य अस्संजयमणुएहिं,जा सा दुविहाय आणुपुव्वीए। प्रायश्चित्तम्सचित्तेहिं सुविहिया ! अच्चित्तेहिं च नायव्वा॥६६।। जे मिक्खू अण्णयरं भोयणजायं पडिग्गहित्ता सुभिं भुंजइ, इयं निगदसिद्धैव। तत्थ सचित्तेहि भण्णइ। दुन्भिं परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ // 43|| कह पुण तीए संभवो त्ति ? आह सुभं सुब्भी, असुभं दुब्भी, शेषं पूर्ववत्। कप्पट्ठगरूयस्स उ, वोसिरणं संजयाण वसहीए। वण्णण य गंधेण य, रसेण फासेण जंतु उववेतं / उदयपह बहुसमागम विपज्जहाऽऽलोयणं कुज्जा / / 67 / / तं भोयणं तु सुन्भिं, तव्विवरीतं भवे दुन्भिं // 322 / / काइ अविरझ्या संजयाण वसहीए कप्पट्टगरूवं साहरेज्जा, सा तिहिं जं भोयणं वण्णगंधरसफासेहिं उवयेतं तं सुभि भण्णति, इतरं दुभिं। कारणेहिं छुटभेजा, कि ?-एएसिं उड्डाहो भवउत्ति छुहेजा पडिणीययाए, अहवाकाइ साहम्मिणी लिंगत्थी एएहिं मम लिंग हरियं ति एएण पडिणिवेसेण रसालमवि दुग्गंधिं, भोयणं तु न पूजियं / कप्पट्टगरूवं पडियस्सयसमीवे साहरेज्जा। अहवाचरिया तव्वण्णिगिणी सुगंधिमरसालं पि, पूइयं तेण सुब्भि तु // 323 / / वोडिगिणी पाहुडिया वा मा अम्हाणं अजसो भविस्सइ, तओ संजओव- गसेण उववेयं पि भोयण दुढिभगंधे ण पूजितं, दुनिभमित्यर्थः / अरसालं स्सगसमीवे ठवेजा, एएसिं उड्डाहो होउ त्ति, अणुकंपाए काइ दुक्काले पि भोयणं सुभगंधजुतं पूजितमित्यर्थः / दारयरूवं छड्डिउंकामा चिंतेइ-एए भगवंतो सत्तहियट्ठाए उवट्ठिया, एतेसिं घेत्तूण भोयणदुर्ग, पत्तेयं अहव एकातो चेव। वसहीए साह-रामि, एए सिं भत्तं पाणं वा दाहिति / अहवा -कहिं वि जे सुभिं भुंजित्ता, दुब्भिं तु विगिचणं कुज्जा / / 324 / / सेज्जायरेसु वा इयरघरेसु वा छुभिस्संति, अओ साहुवस्सए परिट्ट- सुभि दुभिंच भोयणं एकतो पत्तेयं वा घेत्तु जो साहू सुब्भि भोचा दुर्भि वेज्जा,भएण काइय रंडा पउत्थवइया साहरेज्जा, एए अणुकपिइहिति; परिवेति, तस्स मासलहु। तत्थ का विही? दिवसे 2 वसही वसहेहिं चत्तारि वारा परियचियव्वा, इमे य दोसापच्चूसे पओसे अवरहे अड्डरत्ते, मा मा एए दोसा होहिंति, जइ विगिचंती सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तथा दुविधं / दिद्रा ताहे बोलो कीरड-एसा इत्थिया दारयरूवं छडुऊण पलाइया, पावति जम्हा तेणं, दुब्भिं पुवेतरं पच्छा / / 325 / / ताहे लोगो एइ, ऐच्छइ यतं, ताहे सो लोगो जं जाणउतं करेउ, अह न कंठा। दिट्ठा ताहे विगिंचिज्जइ, उदयपहे जणो वा जत्थ पएसे पए निग्गओ इमे य दोसाअत्थइ,तत्थ ठवेत्ता पडिचरइ. अण्णओमुहो जहा लोगो नजाणइ, जहा रसगेहि अधिकखाए, अविधिखइंगालुपक्कमे माया। किंचि पडिक्खंतो अत्थइ, जहा तं सुणएण कारण वा मज्जारेण वा न लोभे एसणवाधातो, दिटुंतो अजमंगूहिं॥३२६|| मारिज्जइ, जाहे केणइ दिट्ठ ताहे सो ओसरइ / सचित्तासंजयम- रसेसु गेही भवति, अण्णसाहूहिंतो अहिग खायति-भोयणपमाणातो णुयपरिट्ठावणिया गया। अहिंगं खायति, एगओ गहियस्स उव्वरितु सुभं खायति, इतरं छड्डुटि, इयाणिं अचित्तासंजयमणुयपरिट्ठावणिया भण्णइ कागसियालगखइयं / कारगगाहा / एवं अविही भवति, इंगालदोसो य पडिणीयसरीरछुहणे, वणीवगाईसु होइ अचित्ता। भवति, रसगिद्धो गच्छे अधिति अलभंतो गच्छा उपक्कमति, तोऽवेक्ख कालकरणं, विप्पजहविगिचणं कुज्जा !|6|| अपक्रमतीत्यर्थः / मायी मंडलीए रसालं अलभंतो भिक्खागओ रसालं पडिणीओ कोइ वणीमवसरीरं छुहेज जहा एएसिं उड्डाहो भवउ त्ति, भोत्तुमागच्छति, भद्दकं भदगंभोचा विवण्णं विरसभाहारेत्यादि रसभोयणे वणीवगो वा तत्थागतूण मओ, केणइ वा मारेऊण एत्थ निघोसं ति लद्धो। एसणं पि पेल्लेति / एत्थ दिट्टतो- "अज्जमंगू'। जहा अज्जमंगू छडिओ, अविरइयाए मणुस्सेण वा उक्कलंबियं होज्जा, तत्थ तहेव बोल आयरिया बहुस्सुया बहुपरिवारा मधुरं (पुर) आगता, तत्थ सड्वेहि करेंति, लोगस्स कहिज्जइ-एसो णडो ति, उक्कलंबिए निविणेण वारेताणं धरिज्जति,ता कालंतरेण ओसण्णा जाता, कालं काऊण भवणवासीसु रडताणं मारिओ अप्पा होज्जा ताहे दिट्टे ण कालक्खेवो कायव्वो, उववण्णो, सो बहु-पडिबोहणट्ठा आगओ सरीरमहिमाए अद्भुकंताए जीह पडिलेहिऊण जइ कोइ नत्थि ताहे तत्थ कस्सइ निवेसण न होइ तत्थ णिल्लालेति। पुच्छिओ-को भवं? भणाति-अज्जमंगूहं साधू सवा य विगिंचिज्जइ उपेक्खेज्ज वा, पओसो वट्टइ संचरइ लोगो ताहे निस्संचरे अणुसासिउ गतो / एते दोसा पडिपक्खे अज्जसमुद्दा, ते रसगेहीभीता विवेगो जहा एत्थ आएसे ण उवेक्खेयव्यो ताहे चेव विगिंचिजइ, अइपहाए / एकतो सव्वं मेलेउ भुंजति, तं च अरसं विरसं वावि सव्व भुंजे ण छड्डुए। संचिक्खावेत्ता अप्पसागारिए विगिंचिज्जइ, जइ नस्थि कोइ पडियरइ. | सूत्राभिहितं च कृतं भवति। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 585 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा "रसगेहि त्ति" अस्य व्याख्यासुब्भीदडगजीहो, णेच्छति छातो वि मुंजितुं इतरं / आवस्सयपरिहाणी, गोयरदीहो उउज्झिमिया।।३२७।। इतरं दुभि ति लभतो वि सुब्भि भत्तणिमित्तं दीहं भिक्खाऽऽयरिय | अडति, सुत्तत्थमादिएसु आवस्सएसु परिहाणी भवति, दुटिभयस्स उज्झिमिया परिठ्ठावणिया। “अधिक्खाए त्ति' अस्य व्याख्यामणुण्णं भोयणज्जायं, भुंजंताण तु एकतो। अधिकं खादए जो तु, अधिक्खाए स वुच्चति // 328 / / मनसो रुचितं मनोज्ञं भोअणं जातमिति प्रकारवाचकः, साधुभिः सार्द्ध भुञ्जतां जो अधिकतरं खाए सो अधिक्खाओ भण्णइ। जम्हा एते दोसातम्हा विधीऐं भुंजे, दिण्णम्मि गुरूण सेस रातिणिए। भुंजति करम्विऊणं, एवं समता तु सव्वेसिं / / 326 / / का पुण विही ? जाए आयरियगिलाण बालवुड्डआदेसमादियाणं उक्किट्ठियं पत्तेयगहियं वा दिण्णं, सेसं मंडलिरातिणिओ सुभिदुभिदव्वाऽविराहेण करं वेत्तु मंडलीए भुजति, एवं सव्वेसिं समता भवति। एवं पुव्युत्ता दोसा परिहरिया भवंति। कारणओ परिट्टवेज्जा - वितियपदे दोण्णि व बहु, मीसे च विगिचणारिहं होना। अविगिचणारिहे वा, जवणिज गिलाणमायरिए।।३३०॥ पूर्ववत् कंट। जं होज्ज अभोजं जं, वऽणेसियत्तं विगिचणरिहं च / विसकयमंतकयं वा, दवविरुद्धं कयं वा वि // 331 / / पूर्ववत्। (25) मनोज्ञं भोजन परिगृह्य तद् बढपि। साधर्मिकेभ्योऽदत्वा परिष्ठापयतिजे भिक्खू मणुण्णभोयणजायं पडिग्गहित्ता बहु परियावणं अदूरे तत्थ साहम्मिया संभोइया से समणुण्णा अपरिहारिया संता | परिवसइ, जे अणापुच्छित्ता अण्णणिमंतियं परिट्ठवेइ, परिहवंतं वा साइजइ॥४४॥ जंचेव सुडिभसुत्ते सुभि भोयणं वुत्तं तं चेव मणुण्णं। अहवा भुक्खत्तस्स पंतं पि मणुण्णं भवति / अहमछट्टचउत्थआयंबिलेगासणिआणउम छगपरिहाणीए हिंडताणं असहूण जहा विधीए स्वग्रामे वा संभुजते जे,ते संभोइया,सभणुण्णाउज्जय विहारी। चोदगाऽऽह संभोइयगहणातो चेव अपरिहारिगहणसिद्ध, किं पुण अपरिहारिगहण ? आचार्याऽऽह-चउभंगे द्वितीयभंगे सातिचरिपारहरणार्थ, संत इति विद्यमानः। जं चेव सुब्मिसुत्ते, वुत्तं तं भोयणं मणुण्णं तु / अहवा वि परिज्झुसिए, समणुण्णं होति पंतं पि॥३३२।। परिझूसितोबभुक्षितः, शेष गतार्थम्। आचार्यो विधिमाहजावतियं उवउज्जति, जत्तियमेत्ते तु भोयणे गहणं। अतिरेगमणट्ठाए गहणे आणाऽऽदिणो दोसा // 333 // परिमाणतो जावतियं उवउज्जति तप्पमाणं घेत्तव्यं, अतिरेगं गिण्हन्तो लोभदोसो, परिठ्ठाव णियदोसो य, आणाइणो य दोसा, संजमे पिपीलियादी मरती, आयाए अतिबहुए भुत्ते विसूचियादी, तम्हा अतिप्पमाणंण घेत्तव्वं। चोदगाऽऽहतम्हा पमाणगहणे, परियावण्णं णिरत्थयं होति। अथवा परियावण्णं, पमाणगहणं ततो अजुतं / / 334|| तस्मादिति जति पमाणजुत्तं घेत्तव्वं तो परियावण्णगहणं णो भवति सुत्त णिरत्थय, अह परियावण्णगहण तो पमाणगहणमजुत्त, अत्थो णिरत्थओ। अह दोण्ह वि गहणंएवं उभयविरोधे, दो वि पया तू णिरत्थया होति। जह हुंति ते सयत्था, तह सुण वोच्छं समासेणं // 335|| अहवा दो विपदा णिरत्थया। आचार्याऽऽह पच्छद्धं / आयरिए य गिलाणे, पाहुणए दुल्लभे सह अदाणे। पुटवगहिते व पच्छा, अभत्तछंदो भवेजाहि॥३३६|| जत्थ सड्ढाइठवणाकुला णत्थि तत्थ पत्तेयं सव्वसंघाडिया आयरियस्स गेण्हंति, तत्थ य आयरिओ एगसंघाडगाणीतं गेण्हति, सेसं परिट्ठावणियं भवति। एवं गिलाणस्स विसव्वे संदिट्टा सव्वेहिं गहियं, एवं पाहुणे वि। अहवा कोइ संघाडओ दुल्लभदव्वखीराऽऽदिणा णिमतिओ सहसा दातारेण महंतं भायणं भरियं, एवं अतिरित्तं / अहवा भत्ते गहिए पच्छा अभत्तछंदो जातो वा एवं वा अतिरेग होजा एतेहि कारणेहिं, अतिरेगं होज पज्जयावण्णं / तमणालोएत्ता णं, परिट्ठवे तम्मि आणाऽऽदी॥३३७।। जं तुब्भे चोइयं पज्जत्तावण्णं तमेतेहिं कारणेहिं हवेज, तमेवं पञ्जशावण्णं अणालोएत्ता अणिमतेत्ता परिहवेति, तस्स आणादी, मासलहुं चपच्छित्त। इमे य परिचत्ता - बाला वुड्डा सेहा, खमग गिलाणा महोदगऽऽएसा! सव्वे विपरिचत्ता, परिट्ठवंतेण ऽणापुच्छ॥३३८|| बाला वुड्डा य तिक्खछुहा पुणो विजेभेजा, सेहा वा अभाविता पुणो वि जेमज्जा, खमगो वा पारणगे पुणो जेमेज्जा, गेलाणस्स वा तं पाउरगं, महोदरा वा मंडलीएण उवट्ठा जेमेज्जा,आदेसावा तेंसि आगता होज्जा, अद्धाणखिन्ना, वा ण जिमिता, पुणो जेमेज्जा; तत्थ अणापुच्छा परिट्ठावेंतो एते सव्वे परिच्चयति। इमं पच्छित्तंआयरिए य गिलाणे, गुरुगा लहुगा य खमगपाहुणए। गुरुगो य बालवुड्डे, सेहे य महोयरे लहुओ // 336 / / जति तेण भत्रोण विणा आयरियगिलाणाण विराहणा भवति तो आणितस्स अणापुच्छा परिहवेंतस्स चउगरुगा, खमए पाहुणए य चउलहुगा, बाले वुड्डे गुरुगो, सेहे महोदरे लहुओ। चोदगाऽऽहजदि तेण विणा आबाधा होज्जा तो भवे वेत्ता। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा णीते बहुपरिभोगो, भइतो तम्हा अणेगंतो // 340 / / जति तेसिं आयरियाऽऽदीणं तेण भत्तेण विणा परितावणाऽऽदी पीला हवेज्ज, ततो वेत्ता हवेज्ज, जति णीए परिभोगः स्यात् तो पायच्छित्तमपि स्यात्, तस्मादनेकान्तत्वात्तेषामानीयमानेनाऽवश्य दोष इत्यर्थः / आचार्याऽऽहमुंजंतु मा व समणा, आतविसुद्धीए णिज्जरा विउला / तम्हा छउमत्थेणं,णेयं अतिसेसिए भयणा ||341 / / अभुक्रेऽपि साधुभिः आत्मविशुद्ध्या नयतः विपुलो निर्जरालाभो भवत्येव, छद्मनि स्थितः छद्मस्थः अनतिशयी, तेनावश्य नेय। सातिसई पुण जाणित्ता जति भुंजइ ता णेति, अण्णहा ण णेति। चोदगाऽऽह-आयविसुद्धीए अपरिभुंजते कह निर्जरा? आचार्यो दृष्टान्तमाहआतविसुद्धीएँ जती, अवहिंसापरिणए जदि बधेति। सुज्झति जतणाजुत्तो, अवधेतो वि हु लग्गति पमत्तो॥३४२।। यथा आत्मविशुझ्या यतिः प्रव्रजितः न हिंसा अहिंसा तद्धावपरिणतः यद्यपि प्राणिनां बाधयति तथाऽपि प्राणातिपातफलेन न युज्यते, यतनायुक्तत्वात् / पमत्तो पुण भावस्सऽविशुद्धत्वात् अवहेंतो वि पाणातिपातफले लग्गतित्ति। दिद्वतोवसंहारमाहएमेव अगहितम्मि वि, णिज्जरलाभो तु होति समणस्स। अलसस्स सो ण जायति, तम्हा णेज्जा सति बलम्मि॥३४३।। अगहिते वि भत्तपाणे आयसुद्धीओ णेतस्स णिज्जरा विउला भवति / जो पुण अलसदोसजुत्तो अविशुद्धमणो, तस्स सो णिज्जरालाभो ण भवति / तस्मानिर्जरालाभार्थिना सति बले णेयं तत्थिमो कमो भण्णतितम्हा आलोएजा, सक्खेत्ते सालए इतरें पच्छा। खेत्तंते अण्णगामे, खेत्तबहिं वा अवोच्चत्थं // 344|| आलोएति कहयति स्वक्षेते स्वग्रामे सालए स्वप्रतिश्रथे जेट्ठिया संभोतिया ते भणाति- इमं भत्तं जइ अट्टो भेतो घेप्पउ, जइ ते णेच्छति ताहे अण्णे भणाति, इतरे पच्छा स्वग्रामे वा अण्णप्रतिश्रये, जति ते वि णेच्छति ताहे सखेत्ते अण्णगामे, जति ते वि णेच्छति ताहे खेत्तवहिं अण्णगाम कारणतोणिज्जति, एवं अवोच्चत्थंणेति, कारणे अण्णसंभोतिए स चेव कमो उत्क्रमकरणप्रतिषेधार्थम्। आसण्णुवणए मोत्तुं, दूरद्वाणं तु जो गए। तस्स सच्चेव बालादीपरचायविराधणा।।३४५।। आसपणे मोत्तुं जो दूरत्थाणं पक्खवाएण णेति, तस्स सा चेव बालातिविराहणा पुव्वुत्ता। स्वजनममीकारप्रतिषेधार्थम्ण पमाणं गणो एत्थ, सीसो णेव ण वा सओ। समणुण्णता पमाणं तु, कारणे वा विवज्जओ // 346|| मूलभेदो गणो, गच्छो वा गणो, सो अत्र प्रमाणं ण भवति, मम सीसो | स्वजन इदमपि प्रमाण ण भवति। समणुण्णता संभोगो, सो अत्र प्रमाण, कारण पुण आसपणे मोत्तुं दूरे णेति, संभोतिए वा मोत्तुं अण्णसंभोइयाण विणेति, त पुण गिलाणाऽऽदिकारणं बहुविध / अववाएण आणेतो सुद्धोवितियपद होज्जमप्पं, दूरद्धाणे सपञ्चवाए य। कालो वा अत्थमती, सुब्भी जंभे व तं दुभी / / 347 / / अप्पं स्तोक अण्णेतो विसुद्धो, दूरं वा अद्धाणं, दूरे आसपणे वा सपच्चवाए पणेति.जावणेति ताव आदिच्चो अत्थमेति, तेहिं वा सुभिं लद्ध, तं च पारिट्ठावणिय दुन्भि, एवमादिकारणहिं अणेतो वि सुद्धो अपच्छित्ती। नि०चू०२ उ०। (26) अधुना नोआहारपारिस्थापनिका प्रतिपादयतिणोआहारम्मी जा सा, सा दुविहा होइ आणुपुवीए। उवगरणम्मि सुविहिया!, नायव्वा नो य उवगरणे / / 77|| निगदसिद्धा, नवरं नोउपकरणं श्लेष्माऽऽदि गृह्यते। उवगरणम्मि उजा सा, सा दुविहा होइ आणुपुवीए। जाया चेव सुविहिया ! नायव्वा तह अजाया य / / 78| निगदसिद्धैव, नवरमुपकरणं वस्त्राऽऽदि। जाया य वत्थपाए, वंका पाए य चीवरं कुज्जा। अज्जाय वत्थपाए, वोचत्थे तुच्छपाए य / / 1 / / (प्र०) जाता च वरखे पात्रे च वक्तव्या, चोदनाऽभिप्रायस्तावद्वस्खे मूलगुणाऽऽदि दुष्टे वङ्कानि पात्रे च चीवरं कुर्यात्, अजाता च वक्तव्यावस्खे पात्रे च (वोच्चत्थे तुच्छपाए य) चोदनाऽभिप्रायो वस्त्र विपर्यस्तंऋजु स्थाप्यते पात्रं च ऋजु स्थाप्यत इति, सिद्धान्तं तु वक्ष्यामः, एष तावद् गाथाऽर्थः / इयं चान्यकर्तृकी गाथा दुविहा जायमजाया, अभिओगविस य सुद्धऽसुद्धाय। एगं च दोण्णि तिण्णि य, मूलुत्तरसुद्धजाणट्ठा 76 / / द्विविधा जाता अजाता पारिस्थापनिकाअभियोगिकी विषे च अशुद्धा शुद्धा च, तत्र शुद्ध अजाता भविष्यति, अयं च प्रानिर्दिष्टः सिद्धान्तः"एणंच दोण्णि तिणिय, मूलुत्तरसुद्धि जाणाहि।“ मूलगुणाऽशुद्धे एको ग्रन्थिः , पात्रे च रेखा, उत्तरगुणाशुद्धे द्वौ शुद्ध त्रय इति गाथाऽर्थः / अवयवार्थस्तु गाथाद्वयस्याप्ययम्-सामाचार्यभिज्ञैर्गीत इति-उवगरणे णोउवगरणे य। उवगरणे जाया अजाया य, जाया वत्थे पाएय, अजाया वि वत्थे पत्ते य, जाया णामवत्थपायं मूलगुणअसुद्धं उत्तरगुणअसुद्धं वा अभिओगेण वा विसेण वा, जई विसेण आभिओगियं वा वत्थ पायं वा खंडा-खंडि काऊण विगिंचिंयव्वं, सावणा य तहेव, जाणि अइरित्ताणि वत्थपायाणि कालगए वा पडिभग्गे वा साहारणगहिए वा जाएज एत्थ का विगिचणविही ? चोयओ भणइ- आभिओगविसाणं तहेव खंडाखंडिं काऊण विगिचणं मूलगुणअसुद्धवत्थस्स एक वकं कीरइ, उत्तरगुणअसुद्धरस दोण्णि वंकाणि, सुद्धं उज्जुयं विगिचिजइ, पाए मूलगुणअसुद्धे एणं चीरं दिजइ, उत्तरगुणअसुद्धे दोन्नि चीरखंडाणि पाए छुब्भंति, सुद्ध तुच्छ कीरइरित्तयं ति भणिय होइ। आयरिया भणंति-एवं सुद्धं पि असुद्ध भवइ, कह ? उज्जुब टवियं, एगेण वंकण मूलगुणअसुद्धं जायं, दोहि Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 587 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा उत्तरगुणअसुद्ध, एकवकं दुर्वकं वा होजा, दुवंक एकवकं वा होजा, एवं मूलगुणे उत्तरगुणे होजा, उत्तरगुणे, वा मूलगुणो होजा, एवं चेव पाए वि होज्जा, एगं चीवरं निग्गय मूलगुणासुद्ध जायं, दोहिं विणिगएहिं सुद्ध जायं, जे य तेहिं वत्थपाएहिं परिभुजिएहिं दोसा तेसिं आवत्ती भवइ, तम्हा जे भणियं ते तं न जुत्तं, तओ कहं दाउं विगिचियव्वं ? आयरिया भणंति-मूलगुणे असुद्धे वत्थे एगो गंठी करिइ, उत्तरगुणअसुद्धे दोण्णि सुद्धे तिण्णि, एवं वत्थे,पाए मूल-गुणअसुद्धे अंतो अट्ठए एगसहिया रेहा कीरइ, उत्तरगुणअसुद्धे दोषिण, सुद्धे तिण्णि रेहाओ, एवं णाय होइ, जाणएण कायव्वाणि, कहिं परिट्टवेयव्वाणि ? एगंतमणावाए सह पत्ताबंधरयत्ताणेण, असइ पडिलेहणियाए दोरेण मुहे बज्झइ, उद्घमुहाणि ठविजंति, असइ ठाणस्स पासल्लियं ठविजइ, जओ वा आगमो तओ पुप्फयं कीरइ. एयाए विहीए विगिचिजइ, जइ कोइ आगारो पावइ तहा विवोसट्ठाऽहिगरणा सुद्धा साहुणो, जेहिं अण्णेहिं साहूहि गहियाणि जइ कारणे गहियाणि ताणि य सुद्धा जावज्जीवाए परि जति, मूलगुणउत्तरगुणेसु उप्पण्णे ते विगिंचइ। गतोपकरणपारिस्थापनिका। अधुना नोउपकरणपारिस्थापनिका प्रतिपाद्यते आह चनोउवगरणे जा सा, चउव्विहा होइ आणुपुव्वीए। उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए चेव / / 8 / / व्याख्या निगदसिद्धव। विधि भणतिउच्चारं कुव्वंतो, छायं तसपाणरक्खणवाए। कायदुयदिसाभिग्गहे य दो चेव अभिगिण्हे ||8111 पुढविं तसपाणसमुट्ठिएहिं एत्थं तु होइ चउभंगो। पढमपयं पसत्थं, सेसाणि उ अप्पसस्थाणि||८| इमीणं वक्खाणं-जस्स गहणी संसज्जइ तेण छायाए वोसिरियव्वं, केरिसियाए छायाए ? - जो ताव लोगस्स उवभोगरुक्खो तत्थ न वोसिरिज्जइ, निरुवभोगे वोसिरिज्जइ, तत्थ विजा सयाओ पमाणाओ निग्गया तत्थेव वोसिरिज्जइ, असइ पुण निग्गयाए तत्थेव वोसिरिज्जइ, असति रुक्खाणं कारणं छाया कीरइ, तेसु परिणएसु वचइ, काया दोणितसकाओ, थावरकाओ य / जइ पडिलेहेइ वि पमजइऽवि तो एगिंदिया वि रक्खिया तसा वि, अह पडिलेहेइ न पमज्जइ तो थावरा रक्खिया तसा परिच्चत्ता, अह न पडिलेहेइ पमज्जइ थावरा परिचत्ता तसा रक्खिया, इयरत्थ दोवि परिचत्ता, सुप्पडिलेहियसुप्पमज्जिएसु वि | पढम पयं पसत्थं, विइयतइए एक्कक्केण चउत्थं दोहि वि अप्पसत्थं,पढम आयरियव्वं, सेसा परिहरियव्या। दिसाभिग्गहे- "उभे मूत्रपुरीषे च दिवा कुर्यादुदडूमुखः। रात्रौ दक्षिणतश्चैव, तस्य चाऽऽयुर्न हीयते / / 1 / / ' दो चेव एयाउ अभिगेण्हंति, डगलगहणे तहेव चउभंगो, सूरिए गामे एवग्गइ / विभासा कायव्वा जहासंभव। अधुना शिष्यानुशास्तिपरां परिसमाप्तिगाथामाहगुरुमूले वि वसंता, अनुकूला जे न होंति उ गुरूणं / एएसिं तु पयाणं, दूर दूरेण ते होंति / / 83|| 'गुरुमूले' गुन्तिकेऽपि 'वसन्तः' निवसमाना अनुकूला येन भवन्त्येव गुरूणाम, एतेषां पदानाम् उक्तलक्षणानां, तुशब्दादन्येषां च, दुरंदूरेण ते भवन्ति, अविनीतत्वात्तेषां श्रुतापरिणतेरिति गाथाऽर्थः / आव० 4 अ०। (27) गृहवर्चाऽऽदिषु उच्चारप्रश्रवणे परिष्ठापयतिजे भिक्खू गिहंसि वा गिहमुहंसि वा गिहदुवारंसि वा गिहपडिदुवारंसि वा गिहलोयंसि वा गिहंऽगणंसि वा गिहवच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, परिट्ठवंतं सा साइज्जइ / / 72 / / थंडिल्लं उवधाती, गिह तस अगणीए पुढविसंबद्धं / आऊवणस्सतीए, विभासितव्वं जहा सुत्ते ||3|| थंडिलं तिविहोवघातियं आयपवयणे संजमगिहे आउवधाओ, तसअगणिपुढविआउवणस्सतिसंबद्धं संजमोवघातियं, विभाषा विस्तारण कर्त्तव्या, जहा सुत्ते आयारवितियसुतक्खंधे थंडिलसत्तिक्कए। इमो सुत्तत्थोअंतोगिहं खलु गिह, कोट्ठग सुविधी व गिहमुहं होति। अंगण मंडवथाणं, अग्गद्दारं दुवारं तु // 64|| गिहवच्चं पेरंता, पुरोहडं वा वि जत्थ वा वच्चं / घररस अतो गिह भण्णति, गिहगहणेण वा सव्वं चेव घर घेप्पति। कोट्टओ अग्गिमालिंदओ सुविही छदारुआलिंदो, एते दो वि गिहमुहं गिहस्स अग्गतो अज्झावगासं, मंडवथाणं, अंगणं भण्णति, अगदार पावेसिततं गिहदुवार भण्णति, गिहस्स, समंततो वच्चं भण्णति, परोहडं वा वच्चं पच्छंत ति वुत्तं भवति, जं वा वच्चं करेति तं वच्चं समोभूमि भण्णति। जे भिक्खू मडगगिहंसि वामडगच्छारियंसि वा मडगथूमियंसि वा मडगसुयंसि वा मडगलेणं सि वा मडगथंडिलंसि वा मडगवचंसि वा उच्चारं वा पासवणं परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ // 73 // इमो सुत्तत्थोमडगगिह मेच्छाणं, थूभा पुण विचगा होति / / 65|| छारो तु अपुंजकडो, छारचिताविरहितं तु थंडिल्लं / वचं पुण पेरंता, सीताणं वावि सव्वं तु // 66| मडगगिह णाम मेच्छाणं घरभंतरे मतयं छोढ़ विज्जति, न डज्झति, तं मंडगगिह, अभिणवडड्ढे अपुंजकय छारो भण्णति, इट्टगाऽऽदिठिया विच्चा थूभो भण्णति, मडाणं आश्रयो मडाऽऽश्रयः, स्थानमित्यर्थः। मसाणाssसण्णे अणेतुमडयं जत्थ सुव्वतितमडासयं, मडयस्स उवरिंज देवकुलं तंलेण भण्णति, छारचितावज्जितं केवलं मडयं दड्डट्टाणं थंडिल भण्णति, मडयं पेरंत वचं भण्णति, सव्वं वा सीवाणं सीताणस्स वा पेरत वर्ष भण्णति। नि०चू० 3 उ०! (28) रात्री विकाले वा उच्चार कृत्वा पात्रे स्थापयित्वा प्रातः परिष्ठापयन्ति जे भिक्खू सगपायं सि वा परपायंसि वा दिया वा राओ वा वियाले वा उव्वाहिज्जमाणे सपायं गहाय परपायं Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 588 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा जायइ, जाइत्ता उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवित्ता अणुग्गए सूरिए पाडेइ, पाडतं वा साइजइ॥१॥ राउत्ति निसा, वियालो त्ति संझावगमो, उत्प्राबल्येन बाधा उब्बाहा, अप्पणिओ सण्णामत्तओ सगपाय भण्णति, अप्पणियस्स अभावे परपाते वा जाइत्ता वोसिरइ, पर अजाइओ वोसिरंतस्समासलहुं, अणुग्गए सूरिए छड्डेति मासलहुं, मत्तगे णिक्कारणे वोसिरति मासलहु / णिज्जुत्तीणो कप्पति भिक्खुस्सा, णियमत्ते तह परायण वा वि। वोसिरिऊ णुच्चारं, वोसिरमाणे इमे दोसा / / 104|| णिअयमत्तए, परायत्तए वा णो कप्पति भिक्खुस्स वोसिरिउं / जो वोसिरति तस्स इमे दोसा। सेहाऽऽदीण दुगुंछा, णिसिरेज्जतं व दिस्स ऽगारीणं। उड्डाहभाणभेयणतिसुपावणमादिपलिमंथो॥१०५।। रोहा गंधेणं वा दळूण वा विपरिणमेज्ज, दुगुंछ करेज्ज, इमेहि हडसरक्खा वि जिता अगारिणो वा णिसिरिज्जंतं दटुं उड्डाहं करेज्ज"अहो इमे असुइणो सव्वलोग विट्टालेति।" भाणभेय करेज्ज, उदभेदिते आइये जाव परिहवेति तिसुआवेति त्ति जाव उव्ववेति जाव सुत्तत्थे पलिमथो भवति : आदिसद्दातो परेण घिट्ट संकाभोतिगाऽऽदिपसंगो। चोदगाऽऽहएयं सुत्तं अफलं, अत्था वा दो वि वा विरोधेणं / चोदग दो वि असत्था, जह होंति तहा णिसामेहि।।१०६।। सुत्ते वोरिसरणं न पडिसिद्धं तुम पुण अत्थेण पडिसेहसि, एवं एगतरेण अफलेण भवितव्वं, दो वि वा परोप्पर विरोधेन ठिता। आयरिआऽऽहचोदग पच्छद्ध कंट। सुत्त कारणीयं, के ते कारणा? इमेगेलण्णमुत्तमढे, रोहण अद्धाण सावए तेणे। मेहे दुविधरुयाए कहगदुग अभिग्गहाऽऽसण्णे / / 107 / / गिलाणो काइयसण्णाभूमी गंतु ण तरति, अणासगमुत्तिमट्ट, तं ] पडिवण्णो ण तरति गंतुं. रोधगे काइयसण्णाभूमीणत्थि, सागारियपङिबद्धावा, अद्धाणे सचित्तादी पुढवी, राओ वा, वसहीओ णिग्गच्छतस्स सावयभयं पि य, मेहे मुत्तसुक्कराए य एयाए दुविधरुजाए पुणो पुणो वो सिरति, अणिओगकहणे धम्मकहणे य, अभिग्गहे मोहपडिम पडिवण्णो, भावाऽऽसण्णो वा काइयसण्णाभूमी गंतुण तरति। अप्पे संसत्तम्मिय, सागरऽवियत्तभावपडिबद्धे। पाणिदयाएँ मणो वा, वोसिरणं मत्तए भणियं / / 108|| अप्पा काइयभूमी, संसत्ता वा काइयभूमी, साधुस्स वा बाहिरे सण्णायगादि सागारियं, सेज्जायरस्स वा अंतो वोसिरिज्जमाणे अवियत्तं इत्थीहिं वा सम भावपडिबद्धा काइयभूमी, पाणिदयट्ठा वा वासमिहियासु पडतीसु विज्जाए डवयारो काइयाए आयमियव्वं काउं, एतेहिं कारणेहि मत्तए वोसिरिउ बाहिं जयणाए उदिते सूरिए पट्टवेति। अभिग्गह अप्पदाराणं इमा दोण्ह वि व्याख्या अभिग्गहिय त्ति कए, कहणं पुण होति मोहपडिमाए। अप्पो त्ति अप्प मोहं, मोदमभी भवति अप्पा / / 106 / / पुव्वद्ध कंठ, अप्पमिति मोह अप्पं पुणो भवति, काइयभूमी वा अप्पा, तेण मत्तए वोसिरति। एतेहिं कारणेहिं, वोसिरणं दिवसतो व रत्ती वा। पगतं तु ण होति दिवा, अधिकारो, रत्तिवोसट्टे // 110 / / इह सूत्रे दिवसतो णाधिकारो, रातो वोसिरितेणाहिकारो। सगपातम्मि य रातो, अधवा परपायगंसि जो मिक्खू / उचारमायरित्ता, सूरम्मि अणुग्गए राओ / / 111 / / उचारो सण्णा, पासवणं काइया, जो राओ वोसिरिउ अणुग्गए सूरिए परिट्वेति, तस्सेयमुत्तम्। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविधं / पावति जम्हा तेणं, सूरम्मि उग्गए राओ / / 11 / / कंटा। रातो परिहवेंतस्य इमे दोसातेणाऽऽरक्खिय सावयपडणीयणपुंसइत्थितेरिच्छा। ओहाणपेहि पेहाणासे य वाले य मुच्छा य / / 113|| राओ णिग्गओ तेणाऽऽरक्खिएहिं थेप्पेज्ज, सीहमाइणो वा सावया, तेहि सखज्जेज्जा पडिणीओ वा पडियरिउराओ असागारिते पतावेज्ज, पडिणीओ वा भणेज्ज एस चोरोपारदारिओ, जेण राओ णिग्गच्छति, णपुसगो वा रातो बला गेण्हेज्ज, इत्थी वा गेण्हेज्जा। अहवा-अहभावेणं साधू इत्थी य जुगवं णिग्गता, तत्थ संकाइया दोसा, एवं महासद्दियादितिरिक्खीए वि संकेज्ज, अधवा णपुंसकइत्थीतिरिच्छीए वा कोवि अणायार सेविज्ज, ओहाणपेही वा दिवसतो छिदं अलभमाणो रातो समाहिपरिट्टवणलक्खेण ओहावेज्जा, एवं वेहाणसं पि करेज्जा, सप्पाऽऽदिणावा बालेणखइतोणतरति अक्खाउं. मुच्छा वा से होज्ज। जम्हा एते दोसा तम्हा ण परिट्टवेयव्यो। समाहिमत्तओ अणुगए विपरिहवेतिबितियपदे सागारो, संसत्तप्पेच्छणाण हेतुं वा। एतेहिं कारणेहिं, सूरम्मि अणुग्गए राओ॥११४|| उग्गए सुरिए परिवेज्जमाणे सागारियं भवति, अंतो वा कायभूमी, अप्पा संसत्तो वा, ताहे दिवसतो वि मत्तए वोसिरिउराओ अप्पसागारिए परिहविज्जति, उग्गते सूरिए जाव परिठ्ठवेति वि सुवावेति वा सुत्तपरिमंथो महतो भवति त्ति अणुग्गए सूरिए परिहवेति, परिहवेंतो सुद्धो भवतीत्यर्थः / नि०चू०३ उ०। (26) अङ्गारदाहाऽऽदिषु स्थण्डिलेषु उच्चारप्रश्रयणे करोतिजे भिक्खू इंगालदाहंसि वा खारदाहंसि वा भुसदाहंसि या उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ // 74|| इमो सुत्तत्थोइंगालखारदाहे, खदिरादी वत्थुलादिया होति। गोमाऽऽदिरोगसमणो, दहति गच्छे तहिं जासिं ||17|| Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा खइराऽऽदी इंगाला, वत्थुलमादी खारो, जराऽऽदिरोगमरंताणं गोरुआणं रोगपसमणत्थं जत्थ गाओ डब्भंति तं गायदाहं भण्णति कुंभकारा जत्थ बाहिरओ तुसे डहतितं तुसडाहट्ठाणं, प्रतिवर्ष खलगट्टाणे ओसण्ण जल्थ भुसं डहतितं भुसडाहट्टाण। जे भिक्खू णवासु गोलेहणियासु वा, णवियासु वा मट्टियाखाणीसु वा, परि जमाणियासु वा, अपरिभुज-माणियासु वा, उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ / / 76 / / इमे सुत्तत्थोऊसच्छाणे गाओ, लिहंति भुजंति अभिणवा सातु। अचियत्तमण्णलेहण, एमेव य मट्टियाखाणी॥६८|| जत्थ गावो ऊसच्छाणा लिहंति, सा भुज्जमाणी णिरुद्धा नवा भण्णति, तत्थ दोसा सचित्तमीसो पुढविकायो, अचियत्तं गोसामियस्स वा णवा, तत्थ गायो लेहवेति, अंतरायदोसो, अण्णत्थ वा लेहवेति पुढविवहो, महियाखाणीए वि सचित्तमीसा पुढवी जणवयस्स अचियत्तं अण्णं वा खाणि पवत्तेति। जे भिक्खू से आययणंसिवा, पंकसि वा, पणगंसिवा, उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ॥७५|| इमो सुतत्थो - पंको पुण चिक्खल्लो, पणगो पुण जत्थ मुच्छते ठाणे। सोओ कद्दमबहुलो, आवयणं तस्स णिका तू ||6|| सचित्ताचित्तविसेसणे पुणसद्दो, आयतनमिति स्थानं, पणओउलीसो जत्थट्ठाणे संमुच्छति, तं पणगहाणं, कद्दमबहुलं पाणीय सोओ भण्णति, तस्स आययणं णिया। जे मिक्खू उंबरवचंसि वा, नग्गोहवचंसि वा, आसत्थवचंसि वा पिलक्खुवचंसिवा, पिप्पलीवच्चंसिवा, डागवचंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ // 77|| उंबरस्स फला जत्थ किरिवडे उव्वविज्जतितं उंबरवच्चं भण्णति, एवं जग्गोहो वडो, आसत्थो पिप्पलो, पिलक्खू पिप्पलभेदो, सो पुण इत्थियाभिहाणा पिप्परी भण्णति, डागो पत्रसागो; एतेसां सुकंति फला जहिं चेव। एतेसामण्णतरे, थंडिल्ले जो तु वोसिरे भिक्खू / पासवणुचारं वा, सो पावति आणमादीणि / / 10 / / कंठा। सूत्रम्जे भिक्खू इच्छुवणंसि वा, सालिवणंसिवा, कुसुंभवणंसि वा, कप्पासवणंसि वा, उच्चारं पासवणं वा, परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ / / 78 // जे भिक्खू मडगवचंसि वा सागवञ्चंसि वा, मूलयवचं सि वा, कोत्थंभरिवचंसि वा, खारवचंसि वा, जीरियवच्चंसि वा, दमणयवचंसिवा, मरुगवचंसिवा, उच्चारं पासणं वा परिट्टवेइ पारिट्ठवंतं वा,साइज्जइ ॥७६|जे मिक्खू अभोगवणंसि वा, संतिवण्णवणंसि वा, चंपगवणं मि वा, चूयवणंति वा, अण्णयरेसु तहप्पगारेसु पत्तोवएसु पुप्फोवएसु / फलोवएसु छाउवएसु उच्चारं वा पासणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा सा-इज्जइ।।८० देसाऽऽहिंडकेन जनपदप्रसिद्धा ज्ञेया। एते पुण सव्वे विथंडिला तिविधे उवधाए पडंतिआया संजम पवयण, तिविधं उवघाइयं तु णायव्वं / गिहमादिंगालाऽऽदी, सुसाणमादी जहा कमसो।।१०१।। गिह आउवाधातो, तं गिह अपरिग्गहमितरं वा अपरिगहे मासलहु, सपरिगहे चउलहु, गेण्हण कड्डणाऽऽदयो दोसा, एवं मडगाऽऽदि-एसुवि सुसाणमादिएसु फ्वयणोवघातो-असुतिट्ठाणासेविणो एते कापालिका इव चउलह, अविसेसा प्रायसो संजमोवघातिणोउवउज्ज अप्पणा जो जत्थ उवघातो स तत्थ वत्तव्यो। इमे दोसाछट्ठावण पंतावण, तत्थेव य पाडणाऽऽदयो दिढ़े। अहिट्ठ अण्णकरणे, काया कायाण वा उवरि / / 102|| गिहाऽऽदिविरुद्धट्ठाणे वोसिरंतो छठविज्जति, पंताविज्जति वा, तत्थ वा पाडेइ, एते दि? दोसा, अदिट्ठ पुण अण्णं इंगालादीदाहरुट्टाणं करेति, कायविराहणा भवति, तं वा सण्णं कायाण उवरि छड्डेति। वितियपदमणप्पज्झे, ओसण्णाऽऽईण रोहणट्ठाणे। दुव्वलगहणि गिलाणे, जयणाए वोसिरेज्जाहि // 103 / / अणप्पज्झे खित्ताऽऽदीए ओसण्णमिति चिरायणं अपरिभोगट्टाणं आइण्णं आयरिय सव्वो जणो जत्थ वोसिरति रोहगे वा अण्णं थंडिल्ल णत्थि, अद्धाणपडिवण्णो वा बोसिरति, दुव्वलगहणी वा अण्णं थंडिलं गतुन राकति, गिलाणो वाजं अप्पदोसतरं तत्थ वोसिरति। एस जयणा। अथवा- अण्णो अवलोएति, अण्णो वो सिरति, पउरद्दवेणं कुरुकुयं करोति / नि०चू० 3 उ०। (30) आगन्तारेषु परिष्टापयतिजे मिक्खू आगंतारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ.परिट्ठवंतं वा साइज्जइ॥७०॥ इच्चाइसुत्ता उच्चारेयव्वा जाव महाकुलेसु वा महागिहेसु वा उच्चारं पासवण परिहवेति। सुत्तत्थो जहा अट्ठमउद्देसगे, इह णवरं उच्चारपासवण त्ति वत्तवं। एतेसु ठाणेसु उच्चारमादीणि वोसिरतस्स गाहाआगंतारादि ठाणा, जेत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते। तेसुच्चाराऽदीणिं, आयरमाणम्मि आणाऽऽदी॥२६२|| कंठा। एतेसु ठाणेसु आगन्तस्स इमे दोसाअयसो पवयणहाणी, विप्पराि मो तहेव य दुगुच्छा। आगंतरादीसुं, उच्चाराऽऽदी आयरतो॥२६३।। असुइसमायारो लोगाऽऽयारबाहिरा, अलसगावि सलसगा लोगोवभोगढाणाणि असुईणि भुजमाणः यहरंति, एवमादि अयसो लोगाववादेण य अयसोवहएसुण कोइ पर तित्ति पवयणहाणी दंडिगादि वा णिवारेज, तारिसर्ग वा समायारं दट हिणवधम्मा सङ्खगाऽऽदिविपरिणवेज्ज, सेहे वा विपरिणवेज्ज, छत्तं वा थिरीकरेज्ज असुई एते त्ति महाजणमझे दुगुंछेज्ज, दुगुंछार वा तं काएस परिहाविजा, तम्हा ण कप्पति आयरि। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 560 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा - इमो अववातोवितियपदमणप्पज्झे, ओसण्णाईण रोहगट्ठाणे। दुब्बल गहणि गिलाणे, वोसरिणं होति जयणाए।।२६४।। एतीए गाहाए इमा वक्खाणसिद्धट्टाणेसु अणप्पज्झो आयरेज्जा। उस्सण्णाऽपरिभोगा, आइण्णो जत्थ अण्णमण्णेहिं। अद्धाणे वडिवजति, महाणिवेसे व सत्थम्मि॥२६५।। लोग अपरिभोग ओसण्णं भण्णइ, जहिं अण्णमण्णो जणो वहुं वोसिरइ तं आइण्ण तं वा ठाणं रोधगे अणुण्णातं. अद्धाणपवण्णा वा वोसिरंति, छड्डति वा। अहवा-महल्लसत्थेण अद्धाण पवण्णा, तं सत्थणिवेसं जाव वाले जति एंति य, ताव महतो कालो गच्छति, अतो तत्थेव वोसिरति / दुव्वलगहणिगिलाणे, अतिसारमादी व थंडिल्लं / गंतुं नवतिदं पुण, सिदिजति अत्थं समतिरेगं // 266 / / दुब्बलगहणी ण सक्केत्ति थंडिल गतु गिलाणो वा बोसिरेज्जा, अतिसारेण वा गहिओ कित्तिए वारे गमिस्सति, एवमादिकारणेहि थंडिल गंतुमसमत्था वोसिरइ, जयणाए एगो सागारिओ णिरिक्खति, एगो वोसिरइ। अथवासागारियं हवेजा तो से अत्थं बहु दवं दिजति, अचित्तपुढवीकुरुकुयं करेति। जे भिक्खू उज्जाणंसि वा उज्जाणगिहंसि वा उज्जाणसालंसि वा निजाणंसि वा निजाणसालंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिद्ववेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ / / 71 / / जे भिक्खू अहसि वा अट्टालयंसि वा वरियसि वा दारगंसि वा गोपूजरगंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ।।७२|| जे भिक्खू दगंसि या दगमग्गंसि वा दगपहंसि वा दगतीरंसि वा दगठाणंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिद्ववेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ॥७३|| जे भिक्खू सुण्णगिहंसि वा सुण्णसालंसि वा भिण्णगिहंसि वा भिण्णसालंसि वा कूडागारगिहंसि वा कूडागारसालंसि वा कोट्ठागारंसि वा कोट्ठागारगिहंसि वा कोट्ठागारसालंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेई, परिट्ठवंतं वा साइजइ // 74 / / जे भिक्खू तणगिहंसि वा तणसालंसि वा तुसगिहंसि वा तुससालंसि वा भुसगिहसि वा भुससालंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ / / 75|| जे भिक्खू जाणगिहंसि वा जाणसालंसि वा जुग्गगिहंसि वा जुग्गसालंसि वायुसगिहंसि वा वुससालंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ / / 76|| जे भिक्खू पणियगिहसि वा पणियसालंसि वा कुवियगिहंसि वा कुवियसालंसिवा उच्चारं पासवणं वा परिट्टवेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ // 77 // जे भिक्खू गोणरिहंसि वा गोणसालंसि वा महाकुलंसि वा उच्चारं पासवर्ण वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ॥७८|| गाहाउजाणट्ठाणादिसु, उदगपहसुण्णधरमादिएसुं च / जाणासालाऽऽदीसु, महाकुलेसुं च एस गमो॥२६७।। एसा गाहा कंठा। नि०चू० 15 उ०। (31) अनन्तरहितायां पृथिव्यामुच्चारप्रश्रवण परिष्ठापयतिजे भिक्खू अणंतरहियाए पुढवीए उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ / / 43 / / जे भिक्खू ससरक्खाए पुढवीए उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ // 44 // जे भिक्खू ससणिद्धाए पुढवीए उच्चारंपासवणं या परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ।।४५|| जे भिक्खू चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुए कोलावासंसि वा दारुएन्जाव पइट्ठिए सअंडे सपाणे सवीए सहरिए सउस्से सउत्तिंगपणगदगमट्टिमक्कडासंताणए उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ।।४६|| जे भिक्खू थूणंसि वा गिहएलुयंसिवा उसकालंसि वा कामजलंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ परिट्ठवंत, वा साइज्जइ॥४७॥ जे मिक्खू कुलियंसि वा सित्तिसि वा लेसुंसि वा अंतरिक्खजायंसि वा उच्चारं पासवणं वा परिद्ववेइ. परिट्ठवंतं वा साइज्जइ / / 48|| जे भिक्खू संधंसि वा थंभंसि वा दुबद्धे दुनिक्खित्ते चलावचलं उच्चारं पासवणं वा पारिट्ठवेइ, परिवंतं वा साइज्जइ / / 46 // जे भिक्खू खंधंसि वा थभंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अण्णयरंसि वा अंतरिक्खजायंसिवा उच्चार पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ / / 5 / / ते सेवमाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहाराहाणं उग्धाइयं 6 / णिसीहे अज्झयणे सोलसमो उद्देसो संमत्तो।।१६।। एवं ससणिद्धादि उच्चारेयव्वा गाहापुढवीमादी कुलमादिएसुथूणाऽऽदि खंघमादीसु। तेसूक्करादीणिं परिट्ठवंतम्मि आणादी 780|| आदिसघातो ससणिद्धससरक्खाऽऽदी जे सुत्तपदा भणिता तेसु उच्चार पासवणं परिट्ठवेंतस्स आयसंजमविराहणा भवति, आणाऽऽदिया य दोसा / चउलहुं पच्छित्तं / एते पुढवादी पदा जहा तेरसमे उद्देसगे वक्खाया तहा भाणियव्याः णवरं तत्थ ठाणाऽऽदी भणिया इह उच्चारपासवर्ण भाणियव्व। इमो अववातोबितियपदमणप्पज्झे, ओसण्णाईणि रोहगट्ठाणे। दुब्बलगहणगिलाणे, वोसिरणं होति जयणाए / / 781 // अणवज्झो खित्तचित्ताऽऽदी, ओसण्णं ति विरायणं अपरिभाग आइण्णं, जणोवि तत्थ वोसिरति रोहगे वा तं अणुण्णाय, दुब्वलो वा साधू, गहणिदुब्बलो वा थंडिलं गंतु न समत्थो, गिलाणो वा असमत्थो, एते वोसिरंति, जयणाए वोसिरंति, जहा आयसंजम-विराहणा ण भवतीत्यर्थः / ''देहडो सीहथो राया, ततो जेट्ठा सहोयरा / कणिवा देउलोऽणण्णो, सत्तमो य जतिज्जगो'" एतेसिं मज्झिमो जो ओम देवी तेण चितिया। नि०चू०१६ उ० / दश०। स्था०। (उदकतीरे उच्चारप्रश्रवणे न परिष्ठापयेदिति 'दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे 2442 पृ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्ठवणा 561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा ष्ठे उक्तम्) (आचार्य उपाध्यायो वाऽन्तरुपाश्रये उच्चारप्रश्रवणे परिष्टापयन्नातिक्रामतीति 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 12 पृष्ठ 17 पृष्ठे च उक्तम्) "सहसा पडिवुच्छं पडिग्गासियंतं तक्खणपरिगा-सियंत तक्खणाणं परिट्ठवेति निरुवदवे थडिले खवणं / ' महा० 1 चू०। (सचित्तवृक्षमूले स्थित्वा परिस्थापना 'सचित्तरुक्ख' शब्दे वक्ष्यते) जे भिक्खू वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्जं पलिच्छिंदिय पलिच्छिंदिय परिट्टवेइ, परिट्ठवंतं साइज्ज // 65 // / ख्यामियकप्पासादि वत्थं, उण्णियकप्यासादि कंबलं रयहरण पायपुंछणं उवग्गहियं वा पलिच्छिंदिय शस्त्राऽऽदिना। जे भिक्खू दंडगं वा जाव. वेणुसुयं वा पलिभंजिय पलिभंजिय परिट्ठवेइ, परिवंतं वा साइज्जइ।।६६।। हत्थेहिं आमोडणं पलिभंजण। गाहापायम्मि य जो उ गमो, णियमा वत्थम्मि होति सो चेव। दंडगमादीसु जहा, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि।।२६५।। नि०चू० 5 उ०। अप्रत्युपेक्षिते स्थण्डिलेदिया थंडिले हिं एगओसन्नं वोसिरिज्जा समाहीए वा एगासणं गिलाणस्स अन्ने सिं तु छट्टमेव जईणं दिया णं थंडिलं पच्चुप्पेहियं णोणं समाही संजमिया अपच्चुपेहिए थंडिले पेहिया चेव समाहीए रयणीए मत्तं वा काइयं वा वोसिरिज्जा एगासणं गिलाणस्स (महा०१०) अपच्चुप्पेहिय थंडिले उच्चारं वा पासवणं वा सिंघाणं परिट्ठवेज्जा निट्विगइयं / महा०१ चू०। (32) अविधिपरिष्ठापने दोषाःजे भिक्खू खुड्डुगंसि थंडिलंसि उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइजइ।।१४०।। रयणिपमाणतो आरतो तं खुड़, तत्थ जो वोसिरति, तस्स मासलहूं, आणाऽऽदिया दोसा। वित्थाराऽऽयामेणं, थंडिलं जं भवे रयणिमेत्तं / चतुरंगुलमोगाढं, जहण्णयं तं तु वित्थिण्णं / / 264|| वित्थारो मोहच्च, आयामो दिग्धत्तणं रयणी हत्थो तम्माणे ठितं रयणिमेतं, जरस थंडिलस्स चत्तारि अंगुला अहे सवित्ता, तं च उरंगुलोवगाद, एयप्पमाणं जहण्णयं वित्थिण्णं। एत्तो हीणतराग, खुड्डागं तं तु होति णातव्वं / अतिरेगतरं पत्तो, वित्थिण्णं तं तु णायव्वं / / 265 / / सव्वक्कोसं वित्थिणं बारसजोयणं तं च जत्थ चक्कवट्टिखंधावारो ठिओ। पासवणुचारं वा, खुड्डाए थंडिलम्मि जो भिक्खू / जति वोसिरती पावति, आणा अण्णवत्थमादीणि / / 296 / / छक्कायाण विराधण, उभएणं झावणा तसाणं च। . जीवितचक्खुविणासो, उभयणिरोहेण खुड्डाए।।२९७|| आसपणे छकाया, ते उभएण काइयसण्णाएझावंति, तसाणं च मनसा खुड्डयं काऊण वोसिरति जीवियचक्खुविणासो भवति। वितियपदंथंडिल्लअसतिअद्धाण, रोधए संभमे भयासण्णे / दुब्बलगहणि गिलाणे, वोसिरणं होति जतणाए||२६|| असति पमाणजुत्तस्स थंडिलस्स, चोरसावयभया पमाणजुत्त ण गच्छति, आसपणे ति अणधियासओ पमाणजुत्तं गंतु ण सक्कति, दुष्बलगहणी वा ण तरति गंतुइमा जयणा, एत्थं सण्ण वोसिरति, काइय अण्णत्श, अह काइय पि, ताहे काइयं मत्तए पडिच्छति। जे मिक्खू उच्चारं वा पासवणं वा अविहीएपरिट्ठवेइ,परिट्ठवंतं वा साइज्जइ।।१४१।। थडिलसामायारी ण करति, एस अविधीए वोसिरति, तस्स मासलहुं आणाऽऽदिया य दोसा। पासवणुच्चारं वा,जे भिक्खू वोसिरेज्ज अविधीए। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे // 26 // इमा विधीपडिलेहणा दिसाणं, पाए य पमज्जणट्ठ कायदुवे / भयणा छाया दिसऽभिग्गहे य जतणा इमा तत्थ / / 300|| दिसि पवण गाम सूरिय, छाया य पमज्जितूण तिक्खुत्तो। जस्सोग्गहो त्ति कुज्जा,राउ दिए पमज्जणा जतणा॥३०१।। सागारियसंरक्खणट्ठा उड्ढमहो तिरियं च दिसावलोगो कायवो, अहण करेति तो दय्वकप्पकलुसादिएहिं उड्डाहो भवति, पढमं पदं जत्थ वोसिरिउ कामो तट्ठाणस्स पासे संडासगं पादेय पमज्जति, अहण पमज्जति तो रयाऽऽदिविणासणा भवति, असमायरी य , चसद्दातो थंडिलं च, बितियपदं (कायदुवे भयण त्ति) भयणसद्दो उभयपदीपकः, इय कायभंगभयणा कज्जति, जति पडिलेहेति ण पमज्जति / एत्थ थावर रक्खति, ण तसे, अधण पडिलेहेति, पमज्जति, एत्थऽण्णत्थ वा रभसे रक्खति, पडिलेहेति, ण पमज्जति एत्थ वि दोवि काए रक्खति, ण पडि-लेहेति,ण पमजति, एत्थ दोविण रक्खति, अहवा इमा चउव्विहा भयणा-थंडिलं तसपाणविरहियं, थंडिलं तसपाणसहितं, अथंडिलं तसपाणविरहियं, अथंडिल तसपाणसहियं एवं ततियपयं (भयणा छाय त्ति) असंसत्तगहणी उण्हे वोसिरति, संसत्तगहणी छायाए वोसिरति, तो चउलहुं, एयं चउत्थपदं, दिसाभिग्गहो दिवसे उत्तराहुत्तो राओ दक्खिणाहुत्तो। अह अण्णत्तो सुहो वसइ ततो मासलहु, दिवसपवणगामसुरियादी य सव्वं अविवरीयं कायव्वं विवरीए मासलहुँ। वितियपदेसंकाऽऽगारं अइं, गरहमसंस असति दोसे य। पंचसु वि पदेसु एते, अवरपर होंति णातव्वा / / 302 / / दिसालोअणं करेज, तत्थ गामे गमयं, दिसालोअं करेंतो संकि जति, एस तेणो वारि हो वा पादे वि ण पमन्जेज्जा सागारिय त्ति काउं, अद्दमिति आई थंडिलं ण पमज्जति, अधवा-तं थंडिलं गरहणिज्जं ते ण पमज्जति, असं सत्त गहणी, तेण ण छायाए वो सिरति. सति दोसाणं दिसामिग्गहणं ण क रेज्जा, वट्टियसण्णो उगलगं पिण गेण्हेज्जा, गामसूरियादीण वि पिष्टुिं देजा, जत्थ लोगो दोसंण गेण्ह Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिट्टवणा 592 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम ति। पंचसु वि पएसु एते अवरपदा भणिता। नि०चू० 4 उ० / ग० / विषयसूची(१) परिष्ठापनाविधिः। उदकसंसक्तस्याऽऽहारस्य परिष्टापनिका। जड्डो दीक्षाऽनहः। कालगतसाधुपरिष्ठापनिका। दिग्द्वारम्। णतकद्वारम्। (7) णोमणुयपरिट्ठावणिया / (6) दिवा रात्रौ कालगत इति द्वारम्। (6) जागरणबन्धनच्छेदनद्वारम्। (10) कुशप्रतिमाद्वारम्। (11) निवर्तनद्वारम्। (12) मात्रकद्वारम्। (13) शीर्षद्वारम्। (14) तृणाऽऽदिद्वारम्। (15) उपकरणद्वारम्। (16) कायोत्सर्गद्वारम्। (17) प्रादक्षिण्यद्वारम्। (18) अभ्युत्थानद्वारम्। (16) व्याहरणद्वारम्। (20) कायोत्सर्गद्वारम् / तत्र स्तुतित्रयम्। (21) क्षपणस्वाध्यायमार्गणाद्वारम्। (22) व्युत्सर्जनद्वारम्। (23) अवलोकनद्वारम् / असंजतपरिट्टवणा च। (24) भोजनजातं परिगृह्य सुरभि भुडते दुरभि परिष्ठापयति तत्र प्रायश्चित्तम। (25) मनोज्ञ भोजनं परिगृह्य तद् बहपि साधर्मिकेभ्योऽदत्त्वा परिष्ठा पयति। (26) नोआहारपरिस्थापनिका। (27) गृहवर्चादिषु उचार-प्रश्रवणे परिष्ठापयति। (28) रात्रौ विकाले वा उच्चार कृत्वा पात्रे स्थापयित्वा प्रातः परिष्ठापयन्ति। (26) अङ्गारदाहादिषु स्थण्डिलेषु उच्चार-प्रश्रवणे। (30) आगन्तारेषु परिष्ठापना। (31) अनन्तरहिताया पृथिव्यामुचारप्रश्रवणपरिष्ठापना। (32) अविधिपरिष्ठापने दोषाः। परिट्ठवणियसमिइ स्त्री० (परिष्ठापनासमिति) समितिभेदे, सम्प्रति परिष्ठापनसमितिमाहउच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लियं / आहारं उवहिं देहं, अपणं वाऽवि तहाविहं / / 15 / / उच्चारं पुरीषं, प्रश्रवणं मूत्रं, खेलं मुखविनिर्गतं श्लेष्माणम्. (सिंघाणं | ति) नासिकानिष्क्रान्तं तमेव, (जल्लियं ति) आर्षत्वात् जल्लो मलस्तम्, आहारमशनाऽऽदिमुपधि वर्षाकल्पाऽऽदि, देहं शरीरम्, अन्यद्वा कारण तो गृहीतं गोमयाऽऽदि, अपिः पूरणे, तथाविध परिष्ठापनाऽह प्रक्रमात् स्थण्डिले व्युत्सृजेदित्युत्तरेण संबन्धः / उत्त०२४ अ०। नि०चू०। परिट्ठवणिया स्त्री० (पारिष्ठापनिकी) परिष्ठापनं प्रदानभाजन-गतद्रव्यान्तरोज्झनलक्षणम, तेन निवृत्ता पारिष्ठापनिकी आव० 4 अ०ा त्यागे, स्था० 4 ठा०४ उ० / अपुनर्गहणतयान्यासेन निवृत्तक्रियायाम, आव० 4 अ०। परिट्ठविअ त्रि० (परिष्ठापित) त्यक्तपूर्वे , आचा०२ श्रु०१ चू० 2 अ० 1 उ०॥ परिद्वविजमाण त्रि० (परिष्टाप्यमान) त्यज्यमाने, क्षिप्यमाणे, आचा० 201801 अ०५ उ०।। परिट्ठा स्त्री० (प्रतिष्ठा) "निष्प्रती ओत्परी माल्य-स्थो / ' ||1138|| इति सूत्रेण प्रतेः परिः। सद्गुणस्थापने, प्रा०१पादा परिट्ठावियव्व त्रि० (परिष्ठापितव्य) साधुना सम्यग्विज्ञाय परिहर्त्तव्ये, आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०३ उ०। परिद्विय त्रि० (प्रतिष्ठित) "निष्प्रती ओत्परी माल्य-स्थोर्वा" ||1 / 38 / / इति सूत्रेण प्रतेः पर्यादेशः / उपरि स्थिते, प्रा०१ पाद। "उअ णिच्चल णिप्पंदा, भिसिणीपत्तम्भि रेहइ वलाया। णिम्मलमरगअभायण-परिहिआ संखसुत्ति व्व" ||1|| प्रा०२ पाद। परिणइ स्त्री० (परिणति) परिणमने, परिणामे, विशे०। परिणइमंजुल न० (परिणतिमञ्जुल) परिणती मञ्जुलम् / परिणाम सुन्दरे, दर्श०३ तत्त्व। परिणद्ध त्रि० (परिणद्ध) परिगते, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। वेष्टिते, नपुसके क्तः। परिणहने, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। परिणममाण त्रि० (परिणमत्) पूर्यमाणे, परिपूर्णप्राये, "अट्ठमभत्तेणं परिणममाणे।" ज्ञा०१ श्रु०१अ०। परिणामान्तराणि गच्छति। भ०७ श०१० उ०। परिणय त्रि० (परिणत) अवस्थान्तरमापन्ने, ज्ञा०१ श्रु०१२ अ०। परिणति गते, भ०१ श०१ उ०। स्वकायपरकायशस्त्राऽऽदिना परिणामान्तरमापादिते अचित्तीभूते, स्था०२ ठा० 1 उ०। आचा०ा परिणतमुदकदायकावस्था प्राप्तम्, स्था० 3 ठा०३ उ०। "परिणयजलदलविसुद्धिरूवा। 'परिणतं प्रासुकंतजलं पानीय, दलं च दूर्वाऽऽदितयोर्या विशुद्धिरनवद्यता, दोषरहितत्वाऽऽदिलक्षणा, सैव रूपं स्वभावो यस्याः सा परिणतजलदलविशुद्धिरूपा। पञ्चा०७ विव० / परिपक्के, पाइ० ना० 143 गाथा। परिणयण न० (परिणयन) विवाहे, भगवता ऋषभेण युगलधर्मव्यवच्छेदाय भरतेन सह जाता ब्राह्मी बाहुबलिने दत्ता, बाहुबविना सह जाता सुन्दरी भरताय दत्ता, तत आरभ्य प्रायो लोकेऽपि कन्या पित्रादिना दत्ता सती परिणीयते इति प्रवृत्तम्। आ०म०१ अ०। परिणयवय पुं० रत्री० (परिणतवयस्) संपन्नावस्थाविशेषे, तरुणे, प्रश्न० आश्र० द्वार। अतिक्रान्तयौवने, मध्यमवयः प्राप्ते, बृ०१उ०३ प्रक०। स्थविररित्रयाम, बृ०१ उ०२ प्रक०। त्रि०। विगतयौवने, ज्ञा०१ श्रु० ६अ। परिणाम पुं० (परिणाम) परि समन्तानमनं परिणामः / सुदीर्घकालपूर्वापरपर्यालोचनजन्ये आत्मनोधर्मविशेषे, नं०। स्थानापरीति सर्वप्रकारं नमन जीवानामजीवानां च जीवत्वाऽऽदिस्वरूपानुभवनं प्रति प्रह्वीभवने, उत्त०१ अ० / परिणमन परिणामः, कथञ्चिदवस्थितस्य वस्तुनः पूर्वाऽवस्थाप Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम रित्यागेनोत्तरावस्थागमने, “परिणामो ह्यान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् / न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः / / 1 / / '' पं० सं०२ द्वार। सं०। पतञ्जलिटीकाकारोऽप्याह- "अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्ती धर्मान्तरोत्पत्तिःपरिणामः।" स्या०। कथशित् पूर्वरूपत्यागेनोत्तररूपाऽऽपत्ती, आ०म०१ अ०। ध० / अने० / स्या०। स्था०। पो०। पर्यायान्तराऽऽपत्तौ, दश०८ अ० / तत्तद्भावगमने, स्था०१० डा० / द्रव्यस्य तेन तेन रूपेण वर्त्तने, अनु० / विपरिवर्तने, विशे० / आचा०ा तत्थ सव्वदव्वपरिणामोणाम, दव्वं दुविहं भवति-तं जीवदय, अजीवदव्वं च, तस्स दुविहस्स वि दव्वस्स जो उप्पायट्टितिभंगेहि पज्जायभावो सोदव्यपरिणामो भण्णति, तत्थ खेत्तग्गहणेण आगासस्थिकायस्स गहणं कय, तस्स खेत्तस्स परिणामो परपच्चइओ पोग्गलस्थिकायादिणो दव्वे पडुच्च भवति त्ति / तत्थ कालपरिणामो णामसमयावलियमुहुत्ताऽऽदी अणेगभेदो हवइ / भावपरिणामो नाम-एगगुणकालगादी अणेगभेदो ददुव्वो त्ति / एतेसि चउण्हं वि दव्वखेत्तकालभावाणं जो परिणामो तस्स सव्वपरिणामस्स विन्नत्तिकारण अणंत केवलणाणं भवति त्ति / आचू०१ अ०। आ०म०। (1) जीवाजीवपरिणामाःकइविहे णं भंते ! परिणामे पण्णत्ते ? गोयमा! दुविहे परिणामे पण्णत्ते / तं जहा-जीवपरिणामे य, अजीवपरिणामे य॥१८१।। (कइविहे गं भंते ! परिणामे पण्णत्ते इत्यादि) कतिविधः कतिप्रकारो, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! परिणामः प्रज्ञप्तः, परिणमनं परिणामः, "अकर्त्तरि० ॥३1३।१६।।(पाणि.) इति भावे घञ्प्रत्ययः, परिणमनं च नयभेदेन विचित्रं, नयाश्च नैगमाऽऽदयोऽनेके तेषां च समस्तानामपि संग्राहको प्रवचने द्वौ नयौ / तद्यथा-द्रव्याऽऽस्तिकनयः, पर्यायाssस्तिकनयश्च / तथा चाहुः श्रीमल्लवादिनः- "तित्थयरवयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वढिओ य पञ्जवनओ य सेसा विगप्पा सिं (तीर्थकरंयचन-सामान्यविशेषप्ररूपणामूलव्याकर्तारौ / द्रव्यार्थिकः पर्यायादिकच, शेषा भेदा अनयोः / / 1 / / )" तत्र द्रव्वास्तिकनयमतेन परिणमनं नाम यत् कथंचित्सदेवोत्तरपर्यायरूपं धर्मान्तरमधिगच्छति, न च पूर्वपर्यायस्यापि सर्वथावस्थानं नाऽप्येकान्तेन विनाशः, तथा चोक्तम्- "परिणामी ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् / न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः / / 1 // ' पर्यायाऽऽस्तिकनयमतेन पुनः परिणमनं पूर्वसत्पर्यायापेक्षया विनाश उत्तरेण चासता पर्यायेण प्रादुर्भावः, तथा चामुमेव नयमधिकृत्यान्यत्रोक्तम्- "सत्पर्यायेण विनाशः प्रादुर्भावोऽसतोऽथ पर्ययतः। द्रव्याणां परिणामः, प्रोक्तः खलु पर्यवनयरस्य / / 1 / / " भगवानाह गौतम ! द्विविधः परिणामः प्रज्ञप्तः / तद्यथा-जीवपरिणामश्चाऽजीवपरिणामश्च, तत्र जीवस्य परिणामो जीवपरिणामः, स प्रायोगिकः, अजीवस्य परिणामः अजीवपरिणामः, स वैश्रसिकः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ, तांश्च भेदान् अग्रे सूत्रकृदेव वक्ष्यति / / 181 / / (जीवपरिणामस्य दशविधत्वे सूत्रम्- (182) 'जीवपरिणाम' शब्दे | चतुर्थभागे 1557 पृष्ठे गतम्) तद्व्याख्या चेत्थन्- (जीवपरिणामे ण भंते ! इत्यादि) दशविधो जीवपरिणामः। तद्यथा-गतिपरिणाम इत्यादि, तत्र गम्यते नरयिकाऽऽदिगतिकर्मोदयवशादयाप्यत इति गतिः - नरयिकत्वाऽऽदिपर्यायपरिणतिः गतिरव परिणामो गतिपरिणामः 1, तथा इन्दनादिन्द्रः-आत्मा ज्ञानलक्षणपरमैश्चर्ययोगात् तस्येदम्-इन्द्रियमिति निपातनादिन्द्रशब्दादियप्रत्ययः, इन्द्रियाण्येव परिणाम इन्द्रियपरिणामः 2, तथा कर्षन्तिहिंसन्ति परस्पर प्राणिनोऽस्मिन्निति कषःसंसारस्तमयन्ते-अनतर्भूतण्यर्थत्वात् गमयन्तिप्रापयन्ति येते कषायाः / "कर्मणोऽण् / / 5 / 1 / / 72 / / (सिद्ध०) इत्यणप्रत्ययः, कषाया एव परिणामः कषाय परिणामः कषायपरिणामः 3, लेश्याऽऽदिशब्दार्थों वक्ष्यमाणः, लेश्या एव परिणामः लेश्यापरिणामः 4, योग एव परिणामो योगपरिणामः 5, उपयोग एव परिणाम उपयोगपरिणामः६, एवं ज्ञानपरिणाम 7 दर्शनपरिणाम 8 चारित्रपरिणाम 6 वेदपरिणामेष्वपि भावनीयम् 10 / (2) गतिपरिणामःगतिपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-नेरइयगतिपरिणामे, तिरियगतिपरिणामे, मणुयगतिपरिणामे, देवगतिपरिणामे 1 / इंदियपरिणामे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहासोइंदियपरिणामे, चक्खिंदियपरिणामे, घाणिंदियपरिणामे, जिभिदियपरिणामे, फासिंदियपरिणामेश कसायपरिणामे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ? चउविहे पण्णत्ते / तं जहाकोहकसायपरिणामे, माणकसायपरिणामे, मायाकसायपरिणामे, लोभकसायपरिणामे 3 / लेस्सापरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे पण्णत्ते / तं जहा-कण्हलेसापरिणामे, नीललेसापरिणामे, काउलेसापरिणामे, तेउलेसापरिणामे, पम्हलेसापरिणामे, सुक्कलेसापरिणामे 4 जोगपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-मणजोगपरिणामे, वइजोगपरिणामे, कायजोगपरिणामे 5 / उवओगपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सागारोवओगपरिणामे य, अणागारोवओगपरिणामे य 6 / नाणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते तं जहा-अभिणिबोहियनाणपरिणामे, सुयनाणपरिणामे, ओहिनाणपरिणामे मणपञ्जवनाणपरिणामे, केवलनाणपरिणामे। अन्नाणपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहामतिअन्नाणपरिणामे, सुयअन्नाणपरिणामे, विभंगनाणपरिणामे ७.दसणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मइंसणपरिणाम, मिच्छादसण-परिणामे, सम्मामिच्छादसणपरिणामे / चारित्तपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-सामाइअचारित्तपरिणामे, छे दोवट्ठावणियचारित्तपरिणामे, परिहार Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम विसुद्धियचारित्तपरिणामे, सुहुमसंपरायचारित्तपरिणामे, अह- के वलनाणी वि / अन्नाणपरिणामेणं तिण्णि वि अन्नाणा, क्खायचारित्तपरिणामे 9 / वेदपरिणामे णं भंते ! कतिविहे दंसणपरिणामेणं तिन्नि वि दंसणा, चरित्तपरिणामेणं चरित्ती वि पण्णत्ते? गोया! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-इत्थिवेदपरिणामे, अचरित्ती वि चरित्ताचरित्ती वि। वेदपरिणामेणं इत्थीवेदगा वि पुरिसवेदपरिणामे, नपुंसगवेदपरिणामे 10 // पुरिसवेदगा वि नपुंसगवेदगा वि अवेदगा वि, वाणमंतरा नेरइया गतिपरिणामेणं निरयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचिं- गतिपरिणामेणं देवगतिया, जहा असुरकुमारा, एवं जोइसिया दिया,कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि०जाव लोभकसाई वि वि, नवरं तेउलेस्सा। वेमाणिया वि एवं चेव, नवरं लेस्सापरिलेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा वि नीललेस्सा वि काउलेस्सा णामेणं तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सा वि / सेत्तं वि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि वइजोगी वि कायजोगी वि। जीवपरिणामे / / 183 / / उवओगपरिणामेणं सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि, 'गइपरिणामे ण भंते ! कइविहे'' इत्यादि पाठसिद्धम् / संप्रति नाणपरिणामेणं आभिणिबोहियनाणी वि सुयनाणी विओहिनाणी नैरयिकाऽऽदयो यैः परिणामविशेषैर्विशिष्टास्ताँस्तथाप्रतिपादयतिवि, अन्नाणपरिणामेणं मतिअन्नाणी विसुयअन्नाणी वि विभंगनाणी "नेरझ्या इत्यादि'' सुगम, नवरं नैरयिकाणां कृष्णनीलकापोतरूपाः वि दंसणपरिणामेणं सम्मादिट्ठी वि मिच्छादिट्ठी वि सम्मामि- तिस्र एव लेश्या नशेषाः, ता अपि तिस्रः पृथिवीक्रमेणैवम् -आद्ययोर्द्वयोः च्छादिट्टि वि, चरित्तपरिणामेणं नो चरित्ती नो चरित्ताचरित्ती पृथिव्योः कापोतलेश्या, तृतीयस्यां कापोतलेश्या नीलेश्या च, चतुर्थ्याअचरित्ती,वेदपरिणामेणं नो इत्थीवेदगानो पुरिसवेदगा नपुंसग- नीललेश्या, पशम्या नीललेश्या कृष्णलेश्या च, षष्ठीसप्तम्योः वेदना। असुरकुमारा वि एवं चेव, नवरं देवगतिया कण्हलेस्सा कृष्णलेश्यैव। तत उक्तम्-"कण्हलेस्सा वि नीललेस्सा वि काउलेस्सा विजाव तेउलेस्सा वि। वेदपरिणामेणं इत्थीवेदगा वि पुरिस- वि।" तथा तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यतिरेकेणान्यत्र चारित्रपरिणामः वेदगा वि नो नपुंसवेदगा, सेसंतं चेव, एवं०जाव थणियकुमारा। सर्वथा न भवति, भवस्वाभाव्यात्, ततः कृतश्चारित्रपरिणामनिषेधः, पुढवीकाइया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया इंदियपरिणामेणं वेदपरिणामचिन्तायां च नैरयिका नपुंसका एव न स्त्रियो, नापि पुरुषाः। एगिदिया, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं लेस्सापरिणामेणं "नारक-सम्मूञ्छिनो नपुंसकानि।" (तत्त्वा अ० 2 सूत्रम् 50) इति तेउलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं कायजोगी, नाणपरिणामे नत्थि, वचनात् एवमसुरकुमाराणामपि, नवरं गतिमधिकृत्य देवगतिकास्तेषां च अन्नाणपरिणामेणं मइअन्नाणी सुयअन्नाणी, दंसणपरिणामेणं महर्द्धिकानां तेजोलेश्याऽपि भवति, तत उक्तम्- "तेउलेस्सा वि" मिच्छादिट्ठी सेसं तं चेव / एवं आउवणप्फइकाइया वि, तेऊ इति / वेदपरिणामचिन्तायां स्त्रियः पुरुषा वा न नपुंसकाः, देवानां वाऊ वि एवं चेव, नवरं लेस्सापरिणामेणं जहा नेरइया, बेइंदिया नपुंसकत्वम्याऽसंभवात्। तथा पृथिवीकायिकसूत्रे, नवरं (लेस्सापरिणामे गतिपरिणामेणं तिरियागतिया, इंदियपरिणामेणं बेइंदिया, सेसं णं इत्यादि) इह पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां तेजोलेश्याऽपि सम्भवति, येन जहा नेरइयाणं, नवरं जोगपरिणामेणं वयजोगी कायजोगी, सौधर्मेशानपर्यन्तानां देवानामेतेषूत्पादसंभवात्। तत उक्तम्-"तेउलेनाणपरिणामेणं आमिणिबोहियणाणी वि सुयणाणी वि, स्सावित्ति' एतेषां च पृथिव्यादीनां पञ्चानामपि सासादनसम्यक्त्यमपि अन्नाणपरिणामेणं मतिअन्नाणी वि, सुयअन्नाणी वि णो न भवति, आगमे निषेधात् ततो ज्ञाननिषेधः सम्यक्त्वनिषेधश्च कृतः, विभंगणाणी, दंसण परिणामेणं सम्माद्दिट्ठी वि मिच्छादिट्ठी वि सम्यगमिथ्यात्वपरिणामस्तु सङ्गिपञ्चेन्द्रियाणामेव भवति, नशेषाणामनो सम्मामिच्छादिट्ठी वि, सेसं तं चेव, एवंजाव चउरिंदिया, तस्तनिषेधः, द्वीन्द्रियाऽऽदीनां पुनः केषाञ्चित् करणापर्याप्तावस्थाना नवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सासादनसम्यक्त्वमवाप्यते, ततस्ते ज्ञानपरिणता अपि सम्यगइपरिणामेणं तिरियगतिया, सेसं जहा नेरइयाणं, नवरं क्दृष्योऽप्युक्ताः, तिर्यगपञ्चेन्द्रियाणां च षडपि लेश्याः सम्भवन्ति। ततः लेस्सापरिणामेणं.जाव सुक्कलेस्सा वि, चरित्तपरिणामेणं नो सूत्रे उक्तम्- "०जाव सुक्कलेस्सा वि इति / " तथा-देशतश्चारित्रचरित्ती अचरित्ती वि चरित्ताचरित्ती वि, वेदपरिणामेणं इत्थीवेदगा परिणामोऽपि तेषामुल्लसति। तत उक्तम्- "चरित्ताचरित्ती वि इति।" वि पुरिसवेदगा वि नपुंसगवेदगा वि / मणुस्सा गतिपरिणामेणं तथा ज्योतिष्काणां तेजोलेश्यैव केवला, न शेषा लेश्याः। ततोऽभिमणुयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचिंदिया अणिं दिया वि, हितम्-"लेस्सापरिणामे ण तेउलेस्स त्तिा' कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि०जाव अकसाई वि,लेस्सा (3) अजीवपरिणामःपरिणामेणं कण्हलेस्सा विजाव अलेरसा वि, जोगपरिणामेणं / अजीवपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! मणजोगी वि०जाव अजोगी वि, उवओगपरिणामेणं जहा दसविहे पण्णत्ते / तं जहा-बंधणपरिणामे 1 गइपरिणामे नेरइया, नाणपरिणामेणं आमिणिबोहियनाणी वि०जाव | 2, संठाणपरिणामे 3, भेदपरिणामे 4, वनपरिणामे 5, Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम गंधपरिणामे 6, रसपरिणामे 7, फासपरिणामे 8, अगुरुलहुय- समगुणस्निग्धेन परमाण्वादिना सह सम्बन्धोन भवति, तथा समगुणपरिणामे, सहपरिणामे 10 // 184|| क्षस्यापि परमाण्वादेः समगुणरूक्षेण परमाण्वादिना सह संबन्धो न भवति, बंधणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे किं तु यदि स्निग्धः स्निग्धेन रूक्षः रूक्षेण सह विषमगुणो भवति तदा पण्णत्ते / तं जहा-णिद्धबंधणपरिणामे य, लुक्खबंधणपरिणाम विषममात्रत्वाद्भवति तेषां परस्परं सम्बन्धः / विषममात्रया बन्धो भवतीत्युक्तम्, ततो विषममात्रानिरूपणार्थमाह-(णिद्धस्स णि ण "समणिद्धयाएँ बंधो, न होइ समलुक्खयाएँ वि ण होइ। दुयाहिएणेत्यादि) यदि स्निग्धस्य परमाण्वादेः स्निग्धगुणेनैव सह वेमाणि-यद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं / / 1 / / परमाण्वादिना बन्धो भवितुमर्हति तदा नियमाद्व्यादिकाधिकगुणेनैव, णिद्धस्स णि ण दुयाहिएणं, परमाण्वादिनेति भावः, रूक्षगुणस्यापि परमाण्वादेः रूक्षगुणेन परमाण्यालुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं / दिना सह यदि बन्धो भवति तदा तस्याऽपि तेन व्याघधिकादिगुणेनैव णिद्धस्स लुक्खेण उवेइबंधो, नान्यथा, यदा पुनः स्निग्धरूक्षयोः बन्धस्तदा कथमिति चेदत आहजहन्नवज्जो विसमो समो वा // 2 // " (निद्धस्स-लुक्खेणेत्यादि) स्निग्धस्य रूक्षेण सह बन्ध उपैति उपपद्यते गतिपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे जघन्यव| विषमः समोवा। किमुक्तं भवति? - एकगुणस्निग्धमेकगुणपण्णत्ते। तं जहा-फुसमाणगतिपरिणामे य, अफुसमाणगतिप- रूक्षं च मुक्त्वा शेषस्य द्विगुणस्निग्धाऽऽदि द्विगुणरूक्षाऽऽदिना सर्वेण बन्धो रिणामे य 1 / अहवा-दीहगइपरिणामे य, हस्सगइपरिणामे य भवतीति / उक्तो बन्धनपरिणामः / अधुना गतिपरिणाममाह / संठाणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! (गइपरिणाम ण भंते ! इत्यादि) द्विविधो गतिपरिणामः / तद्यथापंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-परिमंडलसंठाणपरिणामे०जाव स्पृशद्दतिपरिणामोऽस्पृशद्गतिपरिणामश्च / तत्र वस्त्वन्तरं स्पृशतो या आयतसंठाणपरिणामे 31 भेदपरिणामे णं भंते ! कतिविहे गतिपरिणामः स स्पृशगतिपरिणामो, यथा-ठिक्करिकाया जलस्योपरि पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-खंडभेदपरिणामे० यत्नेन तिर्यग प्रक्षिप्तायाः / सा हि तथा प्रक्षिप्ता सती अपान्तरालेजल जाव उक्करियाभेदपरिणामे | वनपरिणामे णं भंते ! कतिविहे स्पृशन्ती 2 गच्छति, बालजनप्रसिद्धमेतत्, तथा अस्पृशतो गतिपरिपण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-कालवन्नपरि- णामोऽस्पृशद्रतिपरिणामः, यद्वस्तु न केनापि सहापान्तराले संस्पर्शनणामेजाव सुकिलवनपरिणामे 5 / गंधपरिणामे णं भंते ! मनुभवति तस्यास्पृशदतिपरिणाम इति भावः। अन्ये तुव्याचक्षतेस्पृशकतिविहे पण्णत्ते / गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुडिभगंध- दतिपरिणामो नाम येन प्रयत्नविशेषत् क्षेत्रप्रदेशान् स्पृशन् गच्छति, परिणामे य, दुब्भिगंधपरिणामे य 6 रसपरिणामे णं मंते ! अस्पृशगतिपरिणामो येन क्षेत्रप्रदेशान् अस्पृशन्नेव गच्छति, तन्न कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा- बुद्ध्यामहे, नभरनः सर्वव्यापितया तत्प्रदेशसंस्पर्शव्यतिरेकेण गतेरसम्भतित्तरसपरिणामे०जाव महुररसपरिणामे 7t फासपरिणामे णं | वात् / बहुश्रुतेभ्यो वा परिभावनीयम्। अत्रैव प्रकारान्तरमाह- (अहवा मंते ! कतिविहे पण्णत्ते / गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते / तं जहा- दीहगति परिणामे य, हस्सगतिपरिणामे य इति) अथवेति प्रकारान्तरे। कक्खडफासपरिणामे य.जाव लुक्खफासपरिणामे याअगुरु- अन्यथा वा गतिपरिणामो द्विविधः। तद्यथा-दीर्घगतिपरिणामो, लहुयपरिणामे णं भंते / कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे हस्वगतिपरिणामश्च / तत्र विप्रकृष्टदेशान्तरप्राप्तिपरिणामो दीर्घगतिपरिपण्णत्ते / सद्दपरिणामे णं मंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! णामस्तद्विपरीतोहस्वगतिपरिणामः 2, परिमण्डलाऽऽदिसंस्थानविशेषाः दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-सुब्भिसहपरिणामे य, दुब्भिसद्दपरिणामे खण्डभेदाऽऽदयश्च प्रागेव व्याख्याता इति न भूयो व्याख्यायन्ते 3, य 10 / सेत्तं अजीवपरिणामे / / 18 / / अगुरुलघुपरिणामो भाषाऽऽदिपुगलानां 'कम्मगमणभासाई, ए याई (बंधणपरिणामे णं भंते ! इत्यादि) स्निग्धबन्धनपरिणामो रूक्षब- अगुरुलहुयाई।" इति वचनात् / तथा अमूर्तद्रव्याणां चाऽऽकाशाऽऽन्धनपरिणामश्च / तत्र स्निग्धस्य सतो बन्धनपरिणामः स्निग्धयन्धन- दीनाम्, अगुरुलघुपरिणामग्रहणमुपलक्षणं, तेन गुरुलघुपरिणामोऽपि परिणामः / तथा रूक्षस्य सतो बन्धनपरिणामः रूक्षबन्धनपरिणामः / द्रष्टव्यः, स चौदारिकाऽऽदिद्रव्याणां तैजसद्रव्यपर्यन्तानामवसेयः, चशब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ / अथ कथं स्निग्धस्य सतो बन्धनपरि- "ओरालिय वेउव्विय-आहारग तेय गुरुलहू दय्या," इति वचनात्। णामो भवति, कथं वा रूक्षस्य सत इति बन्धनपरिणामस्य लक्षणमाह- (सुब्भिसद्दे इति ) शुभशब्दः (दुब्भिसद्द इति) अशुभशब्दः / प्रज्ञा० 13 (समनिद्धयाए इत्यादि) परस्परं समस्निग्धतायां समगुणस्निग्धतायाम्, पद। स्था० / आ०म०। सूत्र०।आ००। तथा परस्परं समरूक्षतायां समगुणरूक्षतायां बन्धो न भवति, किंतु यदि (4) स्कन्धाः पुद्गलाश्च परिणामवन्तःपरस्परं स्निग्धत्वस्य रूक्षत्वस्य च विषममात्रा भवति तदा बन्धः एस णं भंते ! पोग्गले तीतमणंतं सासयं समयं लुक्खीस्कन्धानामुपजायते / इयमत्र भावनासमगुणस्निग्धस्य परमाण्वादेः | समयं अलुक्खीसमयं लुक्खी वा अलुक्खी वा पुच्विं च णं Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 596 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम करणेणं अणेगवण्णं अणेगरूवं परिणामं परिणमइ, अहे से परिणामे णिज्जिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगवण्णे एगरूवे सिया ? हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले तीतं तं चेवजाव एगरूवे सिया। एस णं भंते ! पडुप्पण्णं सासयं समयं एवं चेव / एवं अणागयमणंतं पि / एस णं भंते ! खंधे तीतमणंतं एवं चेव / खंधे वि जहा पोग्गले। एस णं भंते ! जीवे तीतमणतं सासयं समयं दुक्खीसमयं अदुक्खीसमयं दुक्खी वा अदुक्खी वा पुट्विं च णं करणेणं अणेगभावं अणेगभूतं परिणामं परिणमइ / अहे से विय णिज्जिपणे भवइ, तओ पच्छा एगभावे एगभूते सिया? हंता गोयमा ! एस णं जीवे० जाव एगभूए सिया। एवं पडुप्पण्णं सासयं समयं, एवं अणागय-मणंतं सासयं समयं / परमाणुपोग्गलेणं भंते ! सासए असासए? गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए। से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासए, सिय असासए ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासए, वण्णपज्जवेहिं.जाव फासपनवेहिं असासए, से तेणटेणं. जाव सिय असासए।। ''पोग्गल १खधे 2 जीवे 3, परमाणू सासए य 4 चरमे य५। दुविहे खलु परिणामे, अज्जीवाणं च जीवाणं / / 6 / / " अस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति / (पुग्गले त्ति) पुद्गलः परमाणुः स्कन्धरूपश्च / (तीतमणतं सासयं समयं ति) विभक्तिपरिणामादतीते अनन्ते अपरिणामत्वात् शाश्वते अक्षयत्वात् समये काले / (समयं लुक्खी ति) समयमेकं यावत् रूक्षस्पर्शसद्भावाद् रूक्षी। तथा-(समयं अलुक्खी ति) समयमेकं यावदरूक्षस्पर्शसद्भावादरूक्षी, स्निग्धस्पर्शवान बभूव / इदं च पदद्वयं परमाणौ स्कन्धे च सम्भवति। तथा (समयं लुक्खी वा अलुक्खी व त्ति) समयमेव रूक्षश्वारूक्षश्च, रूक्षस्निग्धलक्षणस्पर्शद्वयोपेतो बभूव। इद च स्कन्धापेक्षं, यतो व्यणुकाऽऽदिस्कन्धे देशो रूक्षो, देशश्वारूक्षो भवतीति / एवं युगपद्रूक्षस्निग्धस्पर्शसम्भवो, वाशब्दौ चेह समुचयार्थी , एवं रूपश्च सन्नसौ किमनेकवर्णाऽऽदिपरिणामं परिणमति / पुनश्चैकवर्णाऽऽदिपरिणामः स्यादिति पृच्छन्नाह- (पुट्विं च णं करणेणं अणेगवण्णं अणेगरूवं परिणामं परिणामइ इत्यादि) पूर्वच एकवर्णाऽऽदिपरिणामात्प्रागेव करणेन प्रयोगकरणेन विस्र साकरणेन वा, अनेकवर्ण कालनीलाऽऽदिवर्णभेदेन अनेकरूपं, गन्धरसस्पर्श संस्थानभेदेन परिणामं पर्यायम् / (परिणमइ ति) अतीतकालविषयत्वादस्य परिणतयानिति द्रष्टव्यम्। पुद्गल इति प्रकृतम्,सचयदि पर परमाणुस्तदा समयभेदेनानेकवर्णाऽऽदित्वं परिणतवान, यदि च स्कन्धरतदा यौगपधेनापीति (अह से त्ति)अथ अनन्तरं सएष परमाणो स्कन्धस्य चानेकवर्णाऽऽदिपरिणामो निर्जीर्णः क्षीणो भवति, परिणामान्तराऽऽधायककारणोपनिपातवशात्ततः पश्चान्निर्जरणानन्तरम् एकवर्णोपेतवर्णान्तरत्वादेक रूपो विवक्षितगन्धाऽऽदिपर्यायापेक्षयाऽपरपर्यायाणामपे - तत्वात् / (सि यत्ति) बभृव, अतीतकालविषयत्वादस्येति प्रश्रः / इहोत्तरसेतदेवेति-अनेन च परिणामिता पुगलद्रव्यस्य प्रतिपादितेति। (एस णमित्यादि) वर्तमानकालसूत्र, तत्र च (पडुप्पण्णं ति) विभक्तिपरिणामात्प्रत्युत्पन्ने वर्तमाने शाश्वते सदैव तस्य भावात्समये कालमात्रे / (एवं चेय त्ति) करणात्पूर्वसूत्रोक्तमिदं दृश्यम्-(समयं लुक्खी समय अलुक्खी समयं लुक्खी वाऽलुक्खी वेत्यादि) यचेहानन्तमिति नाधीत, तद्वर्तमानसमयस्यानन्तत्वासम्भवात् अतीतानागतसूत्रयोस्तु अनन्तामत्यधीतं तयोरनन्तत्वासम्भवात् / अनन्तरं पुद्गलस्वरूपं निरूपितं, पुगलश्च स्कन्धो भवतीति। पुद्गलभेदभूतस्य स्कन्धस्य स्वरूप निरूपयन्नाह-(एस ण भंते ! खंधे इत्यादि) स्कन्धश्च स्वप्रदेशापेक्षया जीवोऽपि स्यादितीत्थमेव जीवस्वरूपं निरूपयन्नाह-(एसणं भंते! जीये इत्यादि) एष प्रत्यक्षो जीवोऽतीतेनन्ते शाश्वते समये समयमेकं दुःखी, दुःखहेतुयोगात्समयं चादुःखी, सुखेहेतुयोगाद्वभूव। समयमेव च दुःखी वा, अदुःखी वा, वाशब्दयोः समुचयार्थत्वात्-दुःखी च सुखी च, तद्धेतुयोगान्न पुनरेकदा दुःखसुखवेदनमरत्येकोपयोगत्वान्जीवस्येति / एवंरूपश्च सन्नसौ स्वहेतुतः किमनेकभावपरिणाम परिणमति, पुनश्चैकभावपरिणामः स्यादिति पृच्छन्नाह-(पुट्विं च णं करणेणं अणेगभावं अणेगभूयं परिणामं परिणईत्यादि) पूर्वं च एकभावपरिणामात्प्रागेव करणेन कालस्वभावाऽऽदिकारणसंवलितया शुभाशुभकर्मबन्धहेतुभूतया क्रियया अनेको भावः पर्यायो दुःखित्वाऽऽदिरूपो यस्मिन् स तथा, तमनेकभावं परिणाममिति योगः / (अणेगभूयं ति) अनेकभावत्वादेवानेकरूपं परिणाम स्वभावम् / (परिणमइ त्ति) अतीतकालविषयत्वादस्य परिणतवान् प्राप्तवान् इति। (अहे सत्ति) अथ तदुःखित्वाऽऽद्यनेकभावहेतुभूतम्। (वियणिजे ति) वेदनीय कर्म, उपलक्षणत्वाच्चास्य ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदि च निर्जीण क्षीणं भवति, ततः पश्चात्। (एकभावे त्ति) एको भावः सांसारिकसुखविपर्ययात्स्वाभाविकसुखरूपो यस्यासावेकभावोऽत एव च एकभूत एकत्वं प्राप्तः। (सिय त्ति) बभूव, कर्मकृतधमन्तिरविरहादिति प्रश्नः / इहोत्तरमेतदेव, एवं प्रत्युत्पन्नाऽऽगतसूत्रे अपीति। पूर्व स्कन्ध उक्तः, स च स्कन्धरूपत्यागाद्विनाशो भवति, एवं परमाणुरपि स्यान्न वेत्याशङ्कायामाह-(परमाणु इत्यादि) (परमाणुपाग्गलेणं ति) पुद्रलः स्कन्धोऽपि स्यादतः परमाणुग्रहणम् (सासए ति) शश्वद्भवनाच्छाश्वतो नित्य :, अशाश्वतस्त्वनित्यः। (सिय सासए त्ति) कथञ्चिच्छाश्वतः। (दव्वट्ठयाए त्ति) द्रव्यमुपेक्षितपर्यायं वस्तु. तदेवार्थो द्रव्यार्थस्तद्भावस्तत्ता, तया द्रव्यार्थतया, शाश्वतः, स्कन्धान्तर्भावेऽपि परमाणुत्वस्याविनष्टत्वात्प्रदेशलक्षणव्यपदेशान्तरव्यपदेश्यत्वात् / (वण्णपज्ज वेहिं ति) परि सामस्त्येनावन्ति गच्छन्ति ये ते पर्यवा विशेषा धर्मा इत्यनर्थान्तरम्।तेच वर्णाऽऽदिभेदादनेकधेत्यतो विशष्यते-वर्णस्य पर्यवा वर्णपर्यवा अतस्तैः (असासए त्ति) विनाशी पर्यवाणां पर्यवत्वेनैव विनश्वरत्वादिति भ०१४ श० 4 उ० / (देवो बाह्यपुद्गलानादाय परिणामयितु शक्त इति 'विउवणा' शब्दे वक्ष्यते) (लेश्याना परस्परपरिणामः 'लेस्सा' शब्दे वक्ष्यते) (5) पुद्गलपरिणामः___ कइविहे गं भंते ! पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते ? गोयमा ! पं Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 567 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम शीतस्पर्शपरिणता मृणालाऽऽदिवत् उष्णस्पर्शपरिणता वयादिवत्, स्निग्धस्पर्शपरिणता घृताऽऽदिवत् रूक्षस्पर्शपरिणता भस्माऽऽदिवत् / ये संस्थानपरिणतास्ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-परिमण्डलसंस्थानपरिणता वलय वत्, वृत्तसंस्थानपरिणताः कुलालचक्राऽऽदिवत्, त्र्यसंस्थानपरिणताः शृङ्गाटकाऽऽदिवत्, चतुरससंस्थानपरिणता कुम्भिकाऽऽदिवत्, आयतसंस्थानपरिणता दण्डाऽऽदिवत् एतानि च परिमण्डलाऽऽदीनि संस्थानानिधनप्रतरभेदेन द्विविधानि भवन्ति, पुनः परिमण्डलमपहाय शेषाणि ओजः प्रदेशजनितानि युग्मप्रदेशजनितामीति द्विधा / तत्रोत्कृष्ट परिमण्डलाऽऽदिसर्वमनन्ताणुनिष्पन्नमसंख्येयप्रदेशावगाढं चेति प्रतीतमेव, जघन्यं तु प्रतिनियत संख्यपरभाण्वात्मकम् अतो नानिर्दिष्टं ज्ञातुं शक्यते इति विनेयजना-नुग्रहाय तदुपदीततत्रौजःप्रदेशप्रतरवृत्तं पञ्चपरमाणुनिष्पन्न पञ्चाऽऽकाशप्रदेशावगाढ च / तद्यथा-एकः परमाणुमध्ये स्थाप्यते, चत्वारः क्रमेण पूर्वाऽऽदिषु चतसृपु दिक्षु / स्थापना चविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते / तं जहा-वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे। वण्णपरिणाये णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-कालवण्णपरिणामे.जाव सुकिल्लवण्णपरिणामे / एवं एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे, रसपरिणामे पंचविहे। फासपरिणामे अट्ठविहे 1 संठाणपरिणामे णं मंते ! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णते। तं जहा-परिमंडलसंठाणपरिणामेजाव आययसंठाण-परिणामे / / (परिमंडलसंठाणपरिणामे त्ति) इह परिमण्डल संस्थानं वलयाऽऽकार / यावत्करणाच- "वसंताणपरिणाने, तससंठाणपरिणामे, चउरससंठाणपरिणामे," त्ति दृश्यम् / भ०८ श० 10 उ०। (6) वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानपरिणताः पुद्गलाः(से किं तं रूविअजीवपण्णवणा इत्यादि 'अजीवपण्णवण्णा' शब्दे प्रथमभागे २०६पृष्ठे "संठापपरिणया" इत्यन्तं गतम्) जे वण्ण परिणया ते पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा-कालवण्णपरिणया नीलवण्णपरिणया लोहियवण्णपरिणया हालिद्दवप्रणपरिणया सुकिल्लवण्णपरिणया / जे गंधपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुब्मिगंधपरिणया य, दुन्मिगंधपरिणया य। जे रसपरिणया ते पंचविहा पष्णता / तं जहा-तित्तरसपरिणया कडुयरसपरिणया कसायरसपरिणया अंबिलरसपरिणया महुररसपरिणया / जे फासपरिणया ते अट्ठविहा पण्णत्ता / तं जहाकक्खडफासपरिणया मउयफासपरिणया गुरुयफासपरिणया लहुयफासपरिणया सीयफासपरिणया उसिणफासपरिणया णिद्धफासपरिणया लुक्खफासपरिणया / जे संठाणपरिणया ते पंचविहा पण्णता। तं जहा-परिमंडलसंठाणपरिणया वट्टसंठाणपरिणया तंससंठाणपरिणया चउरंससंठाणपरिणया आयतसंठाणपरिणया / (जे वण्णपरिणया इत्यादि) ये वर्णपरिणतास्ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-कृष्णवर्णपरिणताः कज्जलाऽऽदिवत्, नीलवणे परिणताः नील्यादिवत्, लोहितवर्णपरिणताः हिड्गुलकाऽऽदिवत्, हारिद्रवर्णपरिणताः हरिद्राऽऽदिवत्, शुक्लवर्णपरिणताः शङ्काऽऽदिवत्। ये गन्धपरिणतास्ते द्विविधाः प्रज्ञाताः / तद्यथा-सुरभिगन्धपरिणताश्व, दुरभिगन्धपरिणताश्च / च शब्दौ परिणामभवनं प्रति विशेषाभावख्यापनार्थी। तथाहि-यथा कथञ्चिदवस्थिता : सामग्रीयशतः सुरभिगन्धपरिणाम भजन्ते तथा कथञ्चिदवस्थिता एव सामग्रीवशतो दुरभिगन्धपरिणाममपीति, सुरभिगन्धपरिणताश्च यथा श्रीखण्डाऽऽदयः, दुरभिगन्धपरिणताः लशुनाऽऽदिवत् / ये रसपरिणतास्ते पञ्चविधाः प्रज्ञाााः / तद्यथा-तिक्तरसपरिणताः कोशातक्यादिवत्, कटुकरस - परिणताः शुण्ठ्यादिवत्, कषायरसपरिणता अपक्वकपित्थाऽऽदिवत्, अम्लरसपरिणता अम्लवेतसाऽऽदिवत्, मधुररसपरिणताः शर्कराऽऽदियत् / ये स्पर्शपरिणतास्तेऽष्टविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-कर्कशस्पर्शपरिणताः पाषाणाऽऽदिवत्, मृदुस्पर्शपरिणता हंसरुताऽऽदिवत् गुरुकस्पर्शपरिणता वजाऽऽदियत्, लघुकस्पर्शपरिणता अर्क तूलाऽऽदिवत्, | युग्मप्रदेशप्रतरवृत्तं द्वादशपरमाण्वात्मकंद्वादशप्रदेशावगाढं च, तत्र निरन्तरं चत्वार परमाणवश्चतुकिाशप्रदेशेष रुचकाऽऽकारेण व्यवस्थाप्यन्ते, ततस्तत्परिक्षेपेण शेषा अष्टौ ओजः प्रदेशं घनवृत्तं सप्तप्रदेशं सप्तप्रदेशावगाढं च / तयेवम् तत्रैव पञ्चप्रदेशे प्रतरवृत्ते मध्यस्थितस्य परमाणोरुपरिष्टादधस्ताच एकैकोऽणुरवस्थाप्यते, तत एवं सप्तप्रदेशं भवति / युग्म प्रदेशं धनवृत्तं द्वात्रिंशत्प्रदेश द्वात्रिंशत्प्रदेशायगाढ च तच्चैवम्- पूर्वोक्तद्वादशप्रदेशाऽऽत्मकस्य प्रतरवृत्तस्योपरिद्वादश, तत उपरिष्टादधश्चान्ये चत्यारश्चत्वारः परमाणव इति १,१/ओजःप्रदेशं प्रतरत्र्यसं त्रिप्रदेशं त्रिप्रदेशावगाढंच तच्चैयम्पूर्व तिर्यगणुद्वयं न्यस्यते, तत आद्यस्याध एकोऽणुः। स्थापना२. युग्मप्रदेशं प्रतरत्र्यस्र षट्परमाणुनिष्पन्न षट्प्रदेशावगाढं च तत्र तिर्यग निरन्तरं त्रयः परमाणवः स्थाप्यन्ते, तत आद्यस्या धउपर्यधोभावेनाणुद्वयं द्वितीयस्याध एकोऽणुः / स्थापनाओजः प्रदेशं धनत्र्यत्रं पञ्चत्रिंशत्परमाणु-निष्पन्नं पञ्चत्रिंशत्प्रदेशावगाढ च। तचैवम्-तिर्यग्-निरन्तराः पञ्च परमाणवः स्थाप्यन्ते, तेषां चाधोधः क्रमेण तिर्यगेव चत्वारस्त्रयो द्वावेकश्चेति पञ्चदशात्मकः प्रतरो जात स्था० |lolol अस्यैव च प्रतरस्योपरि सर्वपक्ति ध्वन्त्यान्त्यपरित्यागेन दश 10, तथैव तदुपयुपरिषट् त्रय एकश्चेति क्रमेणाण-वः स्थाप्यन्ते स्थापना-बान व मीलिताः पञ्चत्रिंशद्भवन्ति 3 युग्म प्रदेशं घनत्र्यस Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 598 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम चतुष्परमाण्वात्मकं चतुष्प्रदेशावगाढं च प्रतरत्र्यस्रस्यैव त्रिप्रदेशाऽऽत्मकस्य सम्बन्धिन एकस्याणोरुपर्येकोऽणुः स्थाप्यते, ततो मीलिताश्चत्वारो भवन्ति, ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं नवपरमाण्वात्मकं नवप्रदेशावगाढं च, तत्र तिर्यनिरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिस्रः पङ् तयः स्थाप्यन्ते / स्थापना- 3. युग्मप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं चतुष्परमाण्वात्मकं च-तुष्प्रदेशावगाढञ्च, तत्र तिर्यद्विप्रदेशे द्वेपङ्क्ती स्थाप्येते / स्थापना- 3. ओजः प्रदेशं घनचतुरस्र सप्तविंशतिपरमाण्वात्मकं सप्तविंशतिप्रदेशावगाढं च। तत्र नवप्रदेशाऽऽत्मकस्यैवपूर्वोक्तस्य प्रतरस्याध उपरि च नव नव प्रदेशाः स्थाप्यन्ते ततः सप्तविंशतिप्रदेशाऽऽत्मकमोजः प्रदेशं घनचतुरस्रं भवति, अस्यैव युग्मप्रदेशं घनचतुरस्रमष्टपरमाण्वात्मकमष्टप्रदेशावगाढं च / तच्चैयम्चतुष्प्रदेशाऽऽत्मकस्य पूर्वोक्तस्य प्रतरस्योपरि चत्वारोऽन्ये परमाणवः स्थाप्यन्ते 3,3 / ओजःप्रदेशं श्रेण्यायतं त्रिपरमाणु त्रिप्रदेशा-ऽवगाढं च, तत्र तिर्यनिरन्तरं त्रयः स्थाप्यन्ते-गगन,युग्मप्रदेशं श्रेण्यायतं द्विपरमाणु द्विप्रदेशाऽवगाढं च, तथैवाणुद्वयं स्थाप्यते- निक, ओजःप्रदेशंप्रतराऽऽयतं पञ्चदशपरमाण्यात्मकं पञ्चदशप्रदेशावगाढंच, तत्र पञ्चप्रदेशाऽऽत्मिकास्तिस्रः पङक्तयः तिर्यक् स्थाप्यन्ते pload , युग्मप्रदेशं प्रतराऽऽयतं षट्परमाण्वात्मकंपट्प्रदेशdo da वगाद च, तत्र त्रिप्रदेशं पङ्क्तिद्वयं स्थाप्यते / स्थापना-RMA ओजःप्रदेशंघनाऽऽयतं पञ्चचत्वारिंशत्परमाण्वात्मकंतावत्प्रदेशाव- गाढं च, तत्र पूर्वोक्तस्यैव प्रतराऽऽयतस्य पञ्चदशप्रदेशाऽऽत्मकस्याध उपरि तथैव पञ्चदश परमाणवः स्थाप्यन्ते युग्मप्रदेशं घनाऽऽयतं द्वादशपरमाण्वात्मकं द्वादशप्रदेशाऽवगाढंच, तत्र प्रागुक्तस्य षट्प्रदेशस्य प्रतराऽऽयतस्योपरि तथैव तावन्तः परमाणवः स्थाप्यन्ते ।४।प्रतरपरिमण्डलं विंशतिपरमाण्वात्मकं विंशतिप्रदेशावगाढं च, तच्चैवम्, प्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु प्रत्येकंचत्वारश्वत्वारोऽणवः स्थाप्यन्ते, विदिक्षु च प्रत्येकमेकैकोऽणुः स्थाप्यते प्रज्ञा०१ पद / परिमण्डलमुक्तन्यायतो द्विभेदमेव, तत्र प्रतरपरिमण्डलं विंशतिप्रदेश विंशतिप्रदेशावगाढं च, तत्र च प्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु चत्वारश्चत्वारो, विदिक्षु चैकैकः "परिमंडले यवट्टे, तसेचउरंसें आयए चेव। घणपयर पढमवज्जं, ओजपएसे यजुम्मे य॥३८|| पंचग वारसगं खलु, सत्तम वत्तीसगं च वट्टम्मि। तिय छक्कग पणतीसा, चत्तारि य होति तंसम्मि॥३६।। नव चेव तहा चउरो, सत्तावीसाय अट्टचउरंसे। तिगद्गपन्नरसेव य, छच्चेव य आयए होति // 40 // पणयालीसा वारस, छब्भेया आययम्मि संठाणे। बीसा चत्तालीसा, परिमंडलए, य संठाणे // 41 // " इत्यादि। (७)संप्रत्येतेषामेव वर्णाऽऽदीनां परस्परं संवेधमाहजे वण्णओ कालवण्णपरिणया ते गंधओ सुब्मिगंधपरिणया वि, दुब्मिगंधपरिणया वि। रसओ तितरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणया वि / फासओ-कक्खडफासपरिणया वि मउयफसपरिणता वि गुरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता विसीतफासपरिणता विउसिणफासपरिणता विणिद्धफासपरिणता विलुक्खफासपरिणता वि।संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता विवट्टसंठाणपरिणता वितंससंठाणपरिणता विचउरंससंठाणपरिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि२०॥जे वण्णओ नीलवण्णपरिणता ते गंधओ सुब्मिगंधपरिणता वि दुब्मिगंधपरिणता वि। रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणता विलहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता विउसिणफासपरिणता विणिद्धफासपरिणता विलुक्खफासपरिणता वि,संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता विवहसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि 20 / जे वण्णओ लोहि-यवण्णपरिणता ते गंधओ सुब्मिगंधपरिणता वि दुब्मिगंधपरि-णता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंविलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता विणिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणतावि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता वि वदृसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता विआयतसंठाणपरिणता वि २०।जे वण्णओ हालिद्दवण्णपरिणया ते गंधओ सुब्मिगंधपरिणता वि दुन्मिगधपरिणता वि, रसओ त्तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता विकसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि सीयफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि 1010 स्थाप्नः, मीलिताश्चैते विंशतिर्भवन्ति / स्थापना-१, उत्त० 1 अ० / घनपरिमण्डलं चत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं चत्वारिंशत्परमाण्वात्मकं च, तत्र तस्या एव विंशतेरुपरि तथैवान्या विंशतिरेव स्थाप्यते / 5 / / प्रज्ञा० विंशतिश्च द्विगुणा चत्वारिंशद्भवन्ति उत्त०१ अण इत्थं चैषां प्ररूपणमितोऽपि न्यूनप्रदेशतायां यथोक्तसंस्थानाभावात्, एतत्सग्राहिकाश्चेमा उत्तराध्ययन (प्रथमाऽध्ययन) नियुक्तिगाथाः Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 566 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम लुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि 20, जे वण्णओ सुकिल्लवण्णपरिणता ते गंधओ सुब्भिगंधपरिणता विदुब्भिगंधपरिणता थि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउसफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणता विसीयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्ख-. फासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता विवट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि 20, 100 / जे गंधओ सुडिभगंधपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहितवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणता विलहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि,संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि 23, जे गंधओ दुब्भिगंधपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणता वि नीलवणपरिणता विलोहितवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणया वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणता विलुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठणपरिणता वि, तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि 26,46 / जे रसओ तित्तरसपरिणता ते वण्णओ हालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता विमउयफासपरिणता विगुरुयफासपरिणता विलहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि | णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वितंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठापरिणता वि आयतसंठाणपरिणता वि २०,जे रसओ कडुयरसपरिणताते वण्णओ कालवण्णपरिणता विनीलवण्णपरिणता विलोहितवण्णपरिणता वि हालिदवण्णपरिणता वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणता वि दुब्भिगंधपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणया विसीयफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि 20, जे रसओ कसायरसपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया वि लोहितवण्णपरिणया वि हालिबवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणता वि दुब्भिगंधपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणया विसीयफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया विलुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडल संठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वितंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणया वि 20, जे रसओ अंबिलरसपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया वि लोहियवण्णपरिणया वि हालिद्दवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणया वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि दुब्भिगंधपरिणया वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया विगुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणया वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वितंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आययसंठाणपरिणया वि 20, जे रसओ महुररसपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया वि लोहियवण्णपरिणया वि हालिद्दवण्णरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया विवट्टसंठाणपरिणया वितंसठाणपरिणया विचउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणया वि Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 600 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम 20,100 / जे फासओ कक्खडफासपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया विनीलवण्णपरिणया विलोहियवण्णपरिणया वि हालिदवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणया वि, फासओ गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि सतिफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया विलुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि 23, जे फासओ मउयफासपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया विनीलवण्णपरिणया विलोहितवण्णपरिणया वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुकिल्लवण्णपरिणया वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि दुब्भिगंधपरिणया वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडु यरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणतावि, फासओ गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणवा वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि 23, जे फासओ गुरुयफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया वि लोहितवण्णपरिणया वि हालिद्दवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुडिभगंधपरिणया वि दुडिभगंधपरिणता वि रसओ तित्तरसपरिणया वि कडयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि सीयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि 23, जे फासओ लहुयफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया वि लोहितवण्णपरिणया वि हालिद्दवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि / गंधओ सुब्भिगंधपरिणया विदुब्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंविलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि,संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठागपरिणया वि तंससंठाणपरिणया विचउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि 23, जे फासओ सीतफासपरिणताते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया विलो हितवण्णपरिणया वि हालिदवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि / गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि दुडिभगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि / फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणता वि। संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया विवट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि 23, जे फासओ उसिणफासपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणया विनीलवण्णपरिणया वि लोहितवण्णपरिणया विहालिद्दवण्णपरिणया विसुकिल्लवण्णपरिणतावि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि दुडिभगंधपरिणता वि। रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंपिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणया विणिद्धफासपरिणया विलुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वितंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणता वि 23, जे फासओ णिद्धफासपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणया वि लोहितवण्णपरिणया वि हालिदवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुडिभगंधपरिणया विदुब्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंविलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणया विसीयफासपरिणया विउसिणफालपरिणता विसंठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणया वि 23, जे फासओ लुक्खफासपरिणता ते वण्णओ कालवग्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया विलोहितवण्णपरिणया वि हालिद्दवण्णपरिणया वि सुकिलवण्णपरिणता वि, गंधओ सुडिभगंधपरिणया वि दुडिभगंधपरिणया वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरि Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 601 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम णया वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणया विमउयाफासपरिण्या वि गुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणता वि, | संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि आयतसंठाणपरिणया वि 23, 184 जे संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता तेवण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया विलोहितवण्णपरिणया विहालिद्दवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुटिभगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरणिया वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणया विमउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया विलुक्खफासपरिणता वि 20 / जे संठाणओ वट्टसंठाणपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता विसुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्मिगंधपरिणता वि दुब्भिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरपरिणया वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता विसीयफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि 20 / जे संठाणओ तंससंठाणपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया वि लोहितवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणता विदुब्मिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणया विलहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया विणिद्धफासपरिणया विलुक्खफासपरिणया वि 20 ! जे संठाणओ चउरससंठाणपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता विलोहियवपणपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणता वि दुब्भिगंधरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कडुधरसपरिणता वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणता विमहुररसपरिणता वि, फासओ कक्खफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गुरुयफासपरिणता वि | लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता विणिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणया वि 20 / जे संठाणओ आयतसंठाणपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया विलोहियवण्णपरिणया वि हालिद्दवण्णपरिणया वि सुकिल्लवण्णपरिणता वि, गंधओ सुब्भिगंधपरिणया वि दुब्मिगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता विकडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया दि अंबिल. रसपीरणया वि महुररसपरिणया वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि मउयफासपरिणया वि गुरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणया वि सीतफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया विणिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणया वि 20, 100 / (जे वन्नतो इत्यादि) ये स्कन्धाऽऽदयो वर्णतो वर्णमाश्रित्य कालवर्णपरिणता अपि भवन्ति, ते गन्धतो गन्धमाश्रितत्य सुरभिगन्धपरिणता अपि भवन्ति, दुरभिगन्धपरिणता अपि। किमुक्तं भवति? गन्धमधिकृत्य ते भाज्याः, केचित्सुरभिगन्धपरिणता भवन्ति, केचिद् दुरभिगन्धपरिणताः, न तु प्रतिनियतैकगन्धपरिणामपरिणता एवेति। एवं च रसतः स्पर्शतः संस्थानतश्च वाच्याः, तत्र द्वौ गन्धौ, पञ्च रसाः, अष्टौ स्पर्शाः, पञ्च संस्थानानि। एते च मीलिता विंशतिरिति कृष्णवर्णपरिणता एतावतो भङ्गान् लभन्ते 20, एवं नीलवर्णपरिणता अपि 20, लोहितवर्णपरिणता अपि 20, हारिद्रवर्णपरिणता अपि 20, शुक्लवर्णपरिणता अपि 20, एवं पञ्चभिर्वर्णलब्धं शतम् 100 गन्धमाधिकृत्याऽऽह-(जे गंधओ इत्यादि) ये गन्धतो गन्धमधिकृत्य सुरभिगन्धपरिणामपरिणतास्ते वर्णतः कालवर्णपरिणता अपि नीलवर्णपरिणता अपि लोहितवर्णपरिणता अपि हारिद्रवर्णपरिणता अपि शुक्लवर्णपरिणता अपि५, एवं रसतः 5. स्पर्शतः 8, संस्थानतः 5 / एते च मीलितास्त्रयोविंशतिः 23, इति सुरभिगन्धपरिणतास्त्रयोविंशतिभङ्गान् लभन्ते, एवं दुरभिगन्धपरिणता अपि 23, ततो गन्धपदेन लब्धा भङ्गानां षट्चत्वारिंशत् 46 / रसमधिकृत्याऽऽहये रसतो रसमधिकृत्य तिक्तरसपरिणतास्ते वर्णतः 5, गन्धतः 2, स्पर्शतः 8, संस्थानतः५। एते सर्वेऽपि एकत्र मीलिता विंशतिरिति तिक्तरसपरिणता विंशतिभड़ावूलभन्ते 20, एवं कटुकरसपरिणताः 20, कषायरस-परिणताः 20, अम्लरसपरिणताः 20, मधुररसपरिणताश्च 20. एवं रसपञ्चकसंयोगे लब्धं भङ्गकानां शतम्-१००। (इत्यादि) स्पर्शमधिकृत्याऽऽह-(जे फासतो कक्खडफासपरिणया इत्यादि) ये स्पर्शतः कर्कशस्पर्शपरिणतास्ते वर्णतः 5, गन्धतः 2, रसतः 5, स्पर्शतः 6, प्रतिपक्षस्पर्शयोगाभावात् संस्थानतः 5 / एते सर्वेऽप्येकत्र मीलितास्त्रयोविंशतिः 23, एतावतो भङ्गान् कर्क शस्पर्शपरिणता लभन्ते 23, एतावत एव मृदुस्पशापरिणताः 23. गुरुस्पर्शपरिणताः २३,लघुस्पर्शपरिणताः 23. शीतस्पर्शपरिणताः 23, उष्णस्प Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 602 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम शंपरिणताः 23. स्निग्धस्पर्शपरिणताः 23, रूक्षस्पर्शपरिणताः 23 / एतेषामकत्र मीलने जातं भड़कानां चतुरशीत्यधिकं शतम्-१८४। (इत्यादि) संपन्थानमधिकृत्याऽऽह-(जे संठाणओ परिमंडल संठाण परिणया इत्यादि) ये संस्थानतः परिमण्डलसंस्थानपरिणतास्ते वर्णतः 5 गन्धतः 2 रातः 5 स्पर्शतः 8: एते सर्वेऽप्येकत्र मीलिता विंशतिः 20. एतावतो भङ्गान् परिभण्डलसंस्थानपरिणताः लभन्ते / एवं वृत्तसंस्थानपरिणताः 20 त्र्यस्त्रसंस्थानपरिणताः 20 चतुरस्त्रसंरथानपरिणताः 20 आयतसंस्थानपरिणताः 20 अमीषा चैकत्र मीलने लब्धं भङ्गकानां शतम्। एतेषां च वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानानां सकलभङ्गसङ्कलने जातानि पञ्चशतानि त्रिंशदधिकानि 530 / इह यद्यपि बादरेषु स्कन्धेषु पञ्चापि वर्णा द्वावपि गन्धौ पञ्चापि रसाः प्राप्यन्ते, ततोऽवधिकृतवर्णाऽsदिव्यतिरेकेण शेषवर्णाऽऽदिभिरपि भङ्गाः सम्भवन्ति, तथाऽपि तेष्वत्र बादरेषु स्कन्धेषु ये व्यवहारातः के वल कृष्णवर्णाऽऽतथुिपेता अपान्तरालस्कन्धा यथा देहस्कन्ध एव लोचनस्कन्धः कृष्णस्तदन्तर्गत एक कश्चिल्लोहितोऽन्यस्तदन्तर्गत एव शुक्ल इत्यादि ते इह विवक्ष्यन्ते, तेषाचा न्यद्वर्णान्तराऽऽदिन सम्भवति, स्पर्शचिन्तायां लवधिकृतस्पर्श प्रति प्रतिपक्षव्यतिरेकेणाऽन्ये स्पर्शा लोकेऽप्यविरोधिनो दृश्यन्ते, ततो यथोक्तैव भङ्गसंख्या, साऽपि च परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्याभिहित्या, अन्यथा प्रत्येकमप्येषां तारतम्येनानन्तत्वात् अनन्ता भङ्गाः सम्भवन्ति, एतेषां च वर्णाऽऽदिपरिणामानां जघन्यतोऽवस्थानमेकं समयमुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालम् / प्रज्ञा०१ पद। (8) द्वीपसमुद्राणां पुद्गलपरिणामत्वात्तेषां च पुद्गलानां विशिष्टपरिणामपरिणतानामिन्द्रियग्राह्यत्वादतीन्द्रियविषयपुद्गलपरिणाममाह-- कतिविहे णं भंते! इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पन्नत्ते। तं जहासोइंदियविसए० जाव फासिंदिविसए। सोइंदियविसरणं भत्ते! पोग्गलपरिणामे कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते। तं जहा--सुब्भिसद्दपरिणामे य, दुब्भिसद्दपरिणामे य। एवं चक्खिदियविसएहिं वि सुरूवपरिणामे य, दुरूवपरिणामे य / एवं सुब्भिगंधपरिणामे य, दुब्भिगंधपरिणामे या एवं सुरिसपरिणामे य, दुरिसपरिणामे य। एवं सुफासपरिणामे य, दुफासपरिणामे य। से णूणं भंते ! उच्चावएसु सद्दपरिणामेसु उच्चावएसु रूवपरिणामेसु, एवं गंधपरिणामेसु रसपरिणामेसु य, फासपरिणामसु परिणममाणापोग्गला परिणमतीति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! उच्चावएसु सद्दपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्तव्वं सिया से गुणं भंते ! सुब्भिसद्दा पोग्गला दुढिभसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा वा पोग्गला सुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा ! सुब्भिसद्दा दुडिभसद्दत्ताए परिणमंति, दुनिभसद्दा | सुब्भिसत्ताए परिणमंति। से नूणं भंते! सुरूवा पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा ! सुब्भिगंधा पोग्गला दुब्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुब्भिगंधा पोग्गला सुब्भिगंधत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा ! एवं सुरसा दुरसत्ताए, दुरसा सुरसत्ताए? हंता गोयमा! एवं सुफासा दुफासत्ताए, दुफासा सुफासत्ताए? हंता गोयमा! ते चेव णं भंते ! सुडिभसदा पोग्गलादुब्धिसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा पोग्गला सुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा ! एवं सुरूवा दुरूवत्ताए, एवं गंधा रसा वि फासा वि, तं चेव णं सुफासा दुफासत्ताए परिणमंति। हंता गोयमा ! जाव परिणमंति। (कइविहे गं भंते! इति) कतिविधो भदन्त! इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्रज्ञप्तः? भगवानाह-गौतम! पञ्चविधः इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्रज्ञप्तः। तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियविषय इत्यादि सुगमम्। (सुब्भिसहपरिणामे इति) शुभः शब्दपरिणामः (दुडिभसद्दपरिणाम इति) अशुभः शब्दपरिणामः (से णूण भंते! इत्यादि) अथ नूनं निश्चितमेतत् भदन्त। उच्चावचैरुत्तमाधमैः शब्दपरिणामैर्यावत् स्पर्शपरिणामैः परिणमन्तः पुद्गला परिणमन्तीति वक्तव्यं स्यात् परिणमन्तीति ते वक्तव्या भवेयुरित्यर्थः। भगवानाह-(हंता गोयमा ! इत्यादि) हन्तेति प्रत्यवधारणे, स्थादेव वक्तव्यमिति भावः, परिणामस्य यथावस्थितस्य भावात्, तथा द्रव्यक्षेत्रसामग्रीवशतस्तद्रूपाऽऽस्कन्दन हि परिणामः, स च लत्राऽस्तीति न काश्चेत्तथाऽभिधाने दोषः। (से णूणं भंते! इत्यादि) अथ नूनं निश्चितमेतद्भदन्त! शुभशब्दरूपाः पुद्गला अशुभशब्दतया परिणमन्ति, अशुभशब्दरूपा वा पुद्गलाः शुभशब्दतया। भगवानाह-(हंता गोतमेत्यादि) सुप्रतीतमेतेन सान्वयपरिणाममाहान्यथा तदयोगात् असतः सत्ताऽनुपपत्तरतिप्रसङ्गात्। एवं रूपसगन्धस्पर्शष्वपि आत्मीयात्मीयाभिलापेन द्वौ द्वावालापको वक्तव्यौ। जी०४ प्रति०१ उ०। विस्त्रसाभजन्येषुत्पादाऽऽदिषु, नं०। (E) प्रयोग-मिश्र-विश्रसा परिणताः पुद्गलाः-- रायगिहे 0 जाव एवं बयासी-कइविहा णं भंते ! पोग्गला पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा पोग्गला पण्णत्ता / तं जहापओगपरिणया० मीसपरिणया, वीससापरिणया य! (पओगपरिणय त्ति) जीवव्यापारेण शरीराऽऽदितया परिणताः (मीसपरिणय ति) मिश्रकपरिणताः-प्रयोगविस्त्रसाभ्या परिणताः, प्रयोगपरिणाममत्यजन्तो विस्वसया स्वभावान्तरमापादिता मुक्तकलेवराऽऽदिरूपाः। अथ वौदारिकाऽऽदिवर्गणारूपा विस्त्र सया निष्पादिताः सन्तो ये जीवप्रयोगेणैकेन्द्रियाऽऽदिशरीरप्रभृतिपरिणा-- मान्तरमापादितास्ते मिश्रपरिणताः / ननु प्रयोगपरिणामोऽप्येवंविध एव ततः क एषा विशेषः? सत्यम्, किन्तु प्रयोगपरिणतेषु विस्त्रसा सत्यपि न विवक्षितेति / (वीससापरिणय त्ति) स्वभावपरिणताः / Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 603 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम अथ-‘पयोगपरिणताणं'' इत्यादिना ग्रन्थेन नवभिर्दण्डकैः प्रयोगपरिणतपुद्गलान्निरूपयतिपओगपरिणतया णं भंते ! पोंग्गला कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा-एगिदियपओगपरिणया, बेइंदियपओगपरिणया० जाव पंचिदियपओगपरिणया य / एगिदियपओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! पंचविहा पण्णता / तं जहापुढविकाइयएगिंदियपओगपरिणया जाव० वणस्सइकाइयएगिदियप-ओगपरिणया। पुढविकाइयएगिदियपओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता?गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुहमपुढविकाइयएगिदियपओगपरिणया य, बादरपुढविकाइयएगिंदियपओगपरिणया य / आउकाइय-एगिदियपओगपरिणया वि एवं चेव / एवं दुयओ भेओ० जाव वणस्सइकाइयएगिदियपओगपरिणया। बेइंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा?गोयमा! अणेगविहा पण्णत्ता / एवं तेइंदियपओगपरिणया, चउरिदियपओगपरिणया वि। पंचिंदियपओगपरिणया णं भंते! पुच्छा? गोयमा! चउविहा पण्णत्ता / तं जहा-नेरइयपंचिंदियपओगपरिणया, तिरिक्खपंचिंदियपओगपरिणया, एवं मणुस्सदेवपंचिंदियपओगपरिणया य। नेरइयपंचिदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा ! सत्तविहा पण्णत्ता / तं जहा रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियपओगपरिणया य० जाव अहे सत्तमपुढ विनेरइयपंचिंदियपओगपरिणया य। तिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-जलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया, थलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया, खहयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया य / जलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा ! दुविजा पण्णत्ता / तं जहा-सम्मुच्छिमजलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया य, गब्भवक्कं तियजलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया य / थलचरतिरिक्खपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-चउप्पयथलचरपंचिंदियतिरक्खिजोणियपओगपरिणया य, परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियपओगपरिणया य / चउप्पयथलचरपंचिंदियतिरक्खिजोणियपओगपरिणयाणं पुच्छा ! गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा- | सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरतिक्खिजोणियपंचिंदियपओगपरिणया, गब्भवक्कं तियलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओग- पणिया य। एवं एएणं अभिलावणं परिसप्पथलयरतिरिक्खजो- | णियपंचिंदियप-ओगपरिणया दुविहा पण्णत्ता / तं जहाउरपरिसप्पथलयर-तिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणयाय, भुयपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया य। उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचिदियपओगपरिणया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-सम्मुच्छिमउरपरि-सप्पयलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया, गब्भवकं तियउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदिय-पओगपणिया य / एवं भुयपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणिय-पंचिदियपओगपरिणया वि। एवं खहयरतिरिक्खजोणिय-पंचिंदियपओगपरिणया वि। मणुस्सपंचिंदियपओग-परिणयाणं पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-संमुच्छिममणुस्सपंचिदियपओगपरिणया, गब्भवकं-तियमणुस्सपंचिदियपओगपरिणया। देवपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा! चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहाभवणवासीदेवपंचिदियपओगपरिणया, एवं० जाव वेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया / भवणवासीदेवपंचिंदियपओगपरिणया / पुच्छा? गोयमा! दसविहा पण्णत्ता / तं जहा-- असुरकुमारदेवपंचिंदियपओगपरिणया० जाव थणियकुमारदेवपंचिंदियपओगपरिणया। एवं एएणं अभिलावेणं अट्ठविहा वाणमंतरदेवपंचिंदियपओगपरिणया, पियासदेवपंचिंदियप ओगपरिणया० जाव गंधव्वदेवपिंचिंदियपओगपरिणया य / जोइसियदेवपंचिंदियपओगपरिणया पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा चंदविमाण-जोइसियदेवपंचिदयिपयोगपरिणया० जाव ताराविमाण-जोइसियदेवपंचिदियपओगपरिणया / वेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-कप्पोववण्णवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया, कप्पातीयवेमाणियदेवपिंचिंदियपओगपरिणया, कप्पोववण्णगवेमाणियदेवपंचिंदियप ओगपरिणया दुवालसविहा पण्णत्ता। तं जहा-सोहम्मकप्पोववण्णगेवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया, एवं० जाव अचुयकप्पोववण्णगेवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया। कप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया दुविहा पण्णत्ता। तं जहागेवेजगकप्पातीदेवपंचिंदियपओगपरिणया, अणुत्तरोववाइयवेमाणियदेवपंचिंदिय-पओगपरिणया। गेवेज्जगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदिय-पओगपरिणया णवविहा पण्णत्ता। तं जहाहिट्ठिमगेवेञ्जगकप्पातीयवणमणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया० जाव उवरिमगेवजगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया। अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणयाणं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा-विजयअणुत्तरोववाइयकप्पा Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 604 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम तीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया० जाव सव्वट्ठसिद्ध- | अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया य१॥ तत्रचैकेन्द्रियाऽऽदिसर्वार्थसिद्धदेवान्तजीवभेदविशेषितप्रयोगपरिणतानां पुद्गलानां प्रथमो दण्डकः / तत्र च-(आउकाइय एगेदिय एव चव त्ति) पृथिवीकायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणता इव अप्कायिकेकेन्द्रियप्रयोगपरिणता वाच्या इत्यर्थः / (एवं दुयओ त्ति) पृथिव्यप्कायप्रयोगपरिणतेष्विव द्विको द्विपरिणामो द्विपदो वा भेदः सूक्ष्मवादरविशेषणकृतस्तेजस्कायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणताऽऽदिषु वाच्य इत्यर्थः। (अणेगविह त्ति) पुलाककृमिकाऽऽदिभेदत्वाद् द्वीन्द्रियाणां त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणता अप्यनेकविधाः कुन्थुपिपीलिकाऽदिभेदत्वात्तेषां चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणता अप्येनकविधा एव मक्षिकामशकाऽदिभेदत्वात्तेषामेतदेव सूचयन्नाह-(एवं तेइंदीत्यादि) अपर्याप्तपर्याप्तसूक्ष्मबादरविशेषणेनसुहुमपुढविकाइयएगिदियपओगपरिणया णं भंते! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहाके इ अपजत्तगं पढम भणंति पच्छा पञ्जत्तगं / पजत्तसुहुमपुढविकाइयएगिं दियपओगपरिणया, अपज्जतसुहुमपुढ विकाइयएगिदियपओगपरिणया। बादरपुढविकाइयएगिदियपओगपरिणया वि एवं चेव / एवं० जाव वणस्सइकाइयएगिदियपओगपरिणया एक्केका दुविहा--सुहुमा य, बादरा य,पजत्तगा य, अपज्जत्तगा य भाणियव्वा / बेइंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्तगबेइंदियपओगपरिणया, अपजत्तगबेइंदियपओगपरिणया य / एवं तेइंदियपओगपरिणया वि एवं चउइंरियपओगपरिणया वि। रयणप्पभापुढविणेइरइयपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहापज्जत्तगरयणप्पभापुढविणे रइय-पंचिं दियपओगपरिणया, अपज्जत्तगरयणप्पभापुढविणेरइय-पंचिंदियपओगपरिणपा / एवं० जाव अहे सत्तमपुढ-विणेरइयपंचिंदियपओगपरिणया / संमुच्छिमजलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पज्जत्तगसम्मुच्छिमजलयर-तिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया, अपज्जत्तगसम्मुच्छिमजलयरतिक्खिजोणियपंचिंदियपओगपरिणया य। एवं गब्भवक्कं तियजलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया वि / सम्मुच्छिमचउप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया वि एवं चेव / एवं गब्भक्कंतियचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया वि / एवं० जाव संमुच्छिमखहयरतिरिक्खजोणियपंचिं दियपओगपरिणया वि, गम्भवक्कं तियखहयरतिरिक्खजोणिय पंचिंदियपओगपरिणया वि। एक्कक्के पज्जत्तगा य / अपज्जत्तगा य भाणियव्वा 1 सम्मुच्छिममणुस्सपंचिं दियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्तगसम्मुच्छिममणुस्सपंचिं दियपओगपरिणया अपजत्तगसम्मुच्छिममणुस्सपंचिंदियपओगपरिणया य / गम्भवक्रतियमणुस्सपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्तगगडभवक्कं तियमणुस्सपंचिंदियपओगपरिणया, अपञ्जत्तगगडभवकं तियमणुस्सपंचिंदियपओगपरिणया य / असुरकुमारभवणवासीदेवपंचिंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहापजत्तगअसुरकुमारदेवपंचिंदियपओगपरिणया, अपज्जत्तगअसुरकु मारदेवपंचिंदियपओगपरिणया य / एवं० जाव पज्जत्तगथणियकुमारदेवपंचिंदियपओगपरिणया, अपज्जत्तगथणियकु मारदेवपंचिंदियपओगपरिणया य / एवं एएणं अभिलावेणं दुपएणं भेएणं विसाया य० जाव गंधव्वदेवपंचिंदियपओगपरिणया य। एवं पञ्जत्तापजत्तगचंद-जोइसियदेवपंचिंदियपओगपरिणया० जाव पञ्जत्तापज्जत्तगताराविमानदेवपंचिंदियपओगपरिणया य। पज्जत्तगसोहम्मकप्पो ववण्णगदेवपंचिंदियपओगपरिणया, अपञ्जत्तग-सोहम्मकप्पो ववण्णगदेवपंचिंदियपओगपरिणया एवं० जाव पञ्जत्तापउत्तगअचुअकप्पोववण्णगदेवपिंचिंदियपओगपरिणया वि / पज्जत्तगायजत्तगहेहिमहेहिमगवेजग-कप्पातीयदेवपिंचिदियपओगपरिणया० जाव पञ्जत्तापजत्तग-उवरिमउवरिमगेवेज्जकप्पातीयदेवपंचिंदियपओगपरिणय वि। एवं चेव पज्जत्तापज्जत्तगविजयअणुत्तरोववाइयक प्पातीयवेमाणियदेवपंचिं दियपओगपरिणया० जाव पज्जत्तापज्जत्तगसव्वट्ठसिद्धाणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेभाणियदेव-पंचिंदियपओगपरिणया य 2 // जे अपज्जत्तगसुहुमपुढविकाइयएगिंदियपओगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मासरीरप्पओगपरिणया, जे पज्जत्तासुहमपुढविकाइयएगिदियप्पओगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मासरीरपओगपरिणया, एवं० जाव पज्जत्तगचउरिदियप्पओगपरिणया। नवरं, जे पज्जत्तगबादरवाउकाइयएगिदियप्पओगपरिणया ते ओरालियबेउव्वियतेयाकम्मासरीरप्पओगपरिणया, सेसंतंचेव, जे अपज्जत्तगरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियप्पओगपरिणया ते वे उदिवयतेयाकम्मासरीरप्पओंगपरिणया, एवं पज्जत्तगरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियप्पओगपरिणया वि, एवं जाव अहे जे पज्जत्तापज्जत्तगसत्तभापुढविनेरइयपंचिंदियप्पओ-गपरिणया ते वेउवियतेयाकम्मसरीरप्पओगपरिणया / जे अपज्जत्तगसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियप्पओगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मसरीरप्पओगपरिणया,एवं जेपज्जत्तगसमुच्छिमजलयरपंचिंदियप्पओगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्म Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम सरीरप्पओगपरिणया / एवं चेव अपज्जत्तगगब्भव तियजलयरपंचिंदियप्पओगपरिणया वि, पञ्जत्तगगब्भवक्कंतिया वि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं / एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भाणिया तहा चउप्पयउरपरिसप्पभुयपरिसप्पखहयरेसु वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा / जे संपुच्छिममणुस्सपंचिंदियप्प-ओगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मसरीरप्पओगपरिणया, एवं गब्भवक्कं तिया वि। अपज्जत्तगपज्जत्तगा वि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि पंच भाणियव्याणि, जे अपज्जत्ता असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिंदियपओगपरिणया जहा णेरइयपंचिंदिय-पओगपरिणया वि तहेव, एवं पज्जत्तगा वि, एवं दुपएणं भेएणं जाव थणियकुमारभवणवासिदेवपंचिंदियपओगपरिणया / एवं पिसारादेवपंचिंदियपओगपरिणया० जाव गंधव्वदेवपंचिंदियपओगपरिणया। चंदविमाणजोइसियदेवपिंचिंदियपओगपरिणया० जावताराविमाणजोइसियदेवपंचिंदियपओगपरिणया, एवं सोहम्मकप्पोववण्णवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया० जाव अचुअकप्पोववण्णवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया / एवं हेट्ठिमगेवेजगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया० जाव उवरिमगेवेज्जगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया / एवं विजयअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिं दियपओगपरिणया० जाव सव्वट्ठसिद्धणुत्तरोववाइकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया एक्के के दुयभेया भाणियव्वा० जाव जे य पज्जता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया ते वेउवियतेयाकम्मासरीरपओगपरिणया दंडओ 3 / / जे अपजत्तगा सुहुमपुढवीकाइयएगिदियपओगपरिणया ते फासिं दियपओगपरिणया; जे पज्जत्ता सुहुमपुढविकाइय-एगिंदियपओगपरिणया एवं चेव / जे अपज्जत्ता बादरपुढ-विकाइयएगिदियपओगपरिणया एवं चेव, एवं पज्जत्तगा वि, एवं चउक्कभेएणं० जाव वणस्सइकाइयएगिं दियपओगपरिणया। जे अपज्जत्ता वेइंदियपओगपरिणया ते जिमिंदियफासिंदियपओगपरिणया, जे पञ्जत्ता वेइंदियपओगपरिणया एवं चेव, एवं० जाव चउरिंदियपओगपरिणया, नवरं एकेक इंदियं वड्डेयव्वं / जे अपज्जता रयणप्पभापुढविनेरइय-पंचिंदियपओगपरिणया ते सोइंदियचक्खिंदियघाणिंदियाजिभिदियफासिंदियपओगपरिणया / एवं पञ्जत्तगा वि, एवं सव्वे भाणियव्वा / तिरिक्खजोणियपंचिंदियपओगपरिणया भणुस्सपंचिंदियपओगपरिणया देवपंचिंदियपओगपरिणया० जाव सव्वट्ठसिद्ध- | अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया 4 / / जे अपज्जत्ता सहुमपुढविकाइयएगिदियओरालियतेयाकम्मासरीरपओगपरिणया ते फासिंदियपओगपरिणताजे पत्ता सुहमपुढविकायएगिदियओरालियतेयाकम्मासरीरपओग-- परिणया एवं चेव, अपज्जत्ता बादरपुढविकाइय-एगिंदियओरालियतेयाकम्मासरीरपओगपरिणया एवं चेव, एवं पज्जत्त // वि, एवं एएणं अभिलावेणं जस्स जइ इंदियाणि सरीराणि ताणि भाणियव्वाणि० जाव जे अपज्जता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउवियतेयाकम्मासीरपओगापरिणया ते सोइंदियवघाणिंदियचक्खिं दियजिभिंदियफासिंदियपओगपरिणया 5 / / जे अप्पज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयएगिदियपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया णीलवप्रणपरिणया लोहियवण्णपरिणया हालिबवण्णपरिणया सुक्किल्लवण्णपरिणया, गंधओ सुडिभगंधपरिणया दुभिंगधपरिणया वि, रसओ तित्तरसपरिणया वि कडुयरसपरिणया वि कसायरसपरिणया वि अंबिलरसपरिणया ति महुररसपरिणया वि, फासओ कक्खडफासपरिणया वि० जाव लुक्खफासपरिणया वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टतंसचउरंसआयतसंठाणपरिणया वि / जे पज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयएगिदियपओगपरिणया वि एवं चेव जहाणुपुवीएणेयव्वं० जाव जे पञ्जत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि० जाव आयतसंठाणपरिणया विघा जे अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइयएगिं दियओरालियतेयाकम्मासरीरपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि० जाव आयतसंठाणपरिणया वि, जे पञ्जत्ता सुहुमपुढविकाइयएगिदिय-ओरालियतेकम्मासरीरपओगपरिणया एवं चेव / एवं जहाणुपुव्वीए जस्स जइ सरीराणिक जाव जे पज्जता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउव्वियतेयाकम्मासरीरपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया विः जाव आयतसंठाणपरिणया वि 7 / / जे अपञ्जत्ता सुहुमपुढविकायइयएगिदियफासिंदियपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया० जाव आयतंसठाणपरिणया वि। जे पज्जत्ता सुहमपुढविकाइय-एगिंदियफासिंदियपओगपरिणया एवं चेव एवं जहाणुपुव्वीएजस्सजइइंदियाणितस्स तत्तियाणि भणियव्वाणिजाव जे पज्जत्ता सव्व सिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियसोइंदिय० जाव फासिंदियपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि० जाव आ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम यतसंठाणपरिणया विजे अपज्जत्ता सुहुमपुढविका-इयएगिदियओरालियतेयाकम्मासरीरफासिंदियपओग-परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया० जाव आयात-संठाणपरिणया, जे पज्जत्ता सुहमपुढविकाइयएगिंदिय-ओरालियतेयाकम्मासरीरफासिंदियपओगपरिणया एवं चेव, एवं जहाणुपुव्वीए जस्स जइ सरीराणि इंदियाणि य तस्स तत्तियाणि भाणियव्वाणि जाव जे पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्ध-अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउव्विय-कम्मासरीरसोइंदिय० जाव फासिंदियपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया० जाव आयतसंठाणपरिणया वि, एए नवदंडगा // (सुहुमपुढविकाइयेत्यादि) सर्वार्थसिद्धदेवान्तः पर्याप्तकापर्याप्तकविशेषणो द्वितीयो दण्डकस्तत्र (एक्कक्केत्यादि) एकैकस्मिन्निकाये सूक्ष्मबादरभेदाद् द्विविधाः पुद्गला वाच्याः, ते च प्रत्येक पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात्पुनर्द्विविधा वाच्या इत्यर्थः / (जे अपञ्जत्ता सुहमपुढवीत्यादि) औदारिकाऽऽदिशरीरविशेषणस्तृतीयो दण्डकस्तत्र च (ओरालियतेयाकम्मसरीरपओगपरिणय त्ति) औदारिकतैजसकामणशरीराणां यः प्रयोगस्तेन परिणता ये ते तथा / पृथिव्यादीनां हि एतदेव शरीरत्रयं भवतीति कृत्वा तत्प्रयोगपरिणता एव ते भवन्ति, बादरपर्याप्तकवायूनां त्वाहारकवर्जं शरीरचतुष्टयं भवतीति कृत्वाऽऽह-(नवरंजे पज तेत्यादि) (एवं गब्भवक्कतिया वि अपजत्तगि त्ति) वैक्रियाऽऽहारकशरीराभावाद्गर्भव्युत्कान्तिका अप्यपर्यात्पका मुनष्यारित्रशरीरा एवेत्यर्थः (जे अपज्जत्ता सुहुमपुढवीत्यादि) इन्द्रियविशेषणश्चतुर्थो दण्डकः / (जे अपनत्ता सुहमपुढवीत्यादि) औदारिकाऽऽदिशरीरस्पर्शाऽऽदीन्द्रियविशेषण: पञ्चमः / (जे अपज्जत्ता सुहमपुढवीत्यादि) वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्था नविशेषणः षष्ठः। एवमौदारिकाऽऽदिशरीरवण्णाऽऽदिभावविशेषणः सप्तमः। इन्द्रियवर्णाऽऽदिविशेषणोऽष्टमः। शरीरेन्द्रियवर्णादिविशेषणो नवम इति। अत एवाह-एते नव दण्डकाः। अथ मिश्रपरिणतपुद्गलांश्चिन्तयतिमीसापरिणया णं भंते! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा- एगिंदियमीसापरिणया० जाव पंचिंदियमीसापरिणया। एगिदियमीसापरिणयाणं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता? एवं जहा पओगपरिणहिं नव दंण्डगा मणिया, एवं मीसापरिणएहिं नव दंडगा भाणियब्वा, तहेव सव्वं निरवसेस, नवरं अभिलावो मीसपरिणया भाणियव्वो, सेसं तं चेव० जाव जे पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्ध-अणुत्तरोववाइय० जाव आयतसंठाणपरिणया। मिश्रपरिणतेष्वप्येत एव नव दण्डका इति। अथ विस्त्रसापरिणतपुद्गलाँश्चिन्तयति वीससापरिणया णं भंते! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! पंचविहा पण्णता। तं जहा-वण्णपरिणया गंधपरिणया रसपरिणया फासपरिणया संठाणपरिणया जेवण्णपरिणयाते पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा-कालवण्णपरिणया० जाय सुकिल्लवण्णपरिणया। जे गंधपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-सुगंधपरिणया, दुग्गंधपरिणया वि / एवं जहा पण्णवण्णापए तहेव निरवसेसं० जाव संठाणओ आयत-संठाणपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि० जाव लुक्खफासपरिणया वि। (विस्ससापरिणयाणमित्यादि।) (एवं जहा पन्नवणाए त्ति) तत्रैवमिदं सूत्रम्-'"जे रसपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता। तं जहा-तित्तरसपरिणया एवं कडुयकसायअविलमहुररसपरिणया जे फासपरिणया ते अट्टविहा पन्नत्ता / तं जहा-कक्खडफासपरिणया, एवं मउयगरुयलहुयसीयउसिणनिद्धलुक्खफासपरिणया ये।'' इत्यादि। अथैकं पुद्गलद्रव्यमाश्रित्य परिणामाँश्चिन्तयन्नाहएते भंते! दव्वे किं पयोगपरिणए, मीसापरिणए, वीससापरिणए? गोयमा पओगपरिणए वा, मीसापरिणए वा, वीससापरिणए वा। जइपओगपरिणए किं मणपओगपरिणए, वइपओगपरिणए, कायपओगपरिणए? गोयमा ! मणप्पओगपरिणए वा, वयप्पओगपरिणए वा, कायप्पओगपरिणए वा। जइ मणप्पओगपरिणए किं सच्चमणप्पओगपरिणए, मोसमणप्पओगपरिणए, सच्चमोसमणप्पओगपरिणए, असच्चमोसमणप्पओगपरिणए ? गोयमा ! सच्चणप्पओगपरिणए वा, मीसमणप्पओगपरिणए वा, सच्चामोसमणओगपरिणए वा, असचामोसमणप्पओगपरिणए वा। जइ सच्चमणप्पओगपरिणए किं आरंभसच्चमणप्प-ओगपरिणए, अणारंभसच्चमणप्पओगपरिणए, सारंभ-सचमणप्पओगपरिणए, असारंमसच्चमणप्पओगपरिणए, समारंभसचमणप्पओगपरिणए. असमारंभसच्चमणप्प-ओगपरिणए? गोयमा ! आरंभसचमणप्पओगपरिणए वा० जाव असमारंभसचमणप्पओगपरिणए वा / जइ मोसमणप्पओगपरिणए किं आरंभमोसमणप्पओगपरिणए वा, एवं जहा सच्चेण तहा मोसेण वि; एवं असचामोसमणप्पओगेण वि। जइ तइप्पओगपरिणए कि सच्चवइप्पओगपरिणए, मोसव-इप्पओगपरिगए? एवं जहा मणप्पओगपरिणएतहा वइप्पओगपरिणए० जाव असमारंभवइप्पओगपरिणए वा / जइ कायप्पओगभरिणए किं ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए, वेउव्वियसरीरकायप्पओगपरिणए वेउव्वियमीसासरीकयप्पओगपरिणए, आहारगसरीरकायप्पओगपरिणए, आहारागमीसासरीरकायप्पओगपरिणए, कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए? गोयमा! ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा, Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 607 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम जाव कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए वा / जइ ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिं दियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए, एवं० जाव पंचिंदियओरालिय०जाय परिणए? गोयमा! एगिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा, बेइंदिय० जाव परिणए वा, पंचिंदिय० जाव परिणए वा। जइ एगिं दियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं पुढविकाइयएगिदिय० जाव परिणए वा० जाव वणस्सइकाइयएगि दियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए? गोयमा ! पुढविकाइयएगिदिय० जाव पओगपरिणए वा०जाव वणस्सइकाइयएगिदिय० जाव परिणए वा / जइ पुढविकाइयएगिदिय ओरालियसरीर० जाव परिणए किं सुहुमपुढविकाइय० जाव 'परिणए, बादरपुढविकाइयएगिंदिय० जाव परिणए? गोयमा ! सुहुमपुढविकाइयएगिदिय० जाव परिणए वा, बादरपुढविकाइय० जाव परिणए वा। जइसुहमपुढविकाइय० जाव परिणए किं पजत्तसुहुमपुढविकाइय० जाव परिणए० अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइय० जाव परिणए? गोयमा ! पज्जत्तासुहुमपुढविकाइय० जाव परिणए वा, अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइय० जाव परिणए वा / एवं बादरा वि, एवं० जाव वणस्सइकाइयाणं चउक्कभेदो, वेइंदियतेइंदियचउरिदियाणं दुयओ भेदो पज्जत्तगा, अपज्जत्तगा य / जइपंचिंदियओरालियकायप्पओगपरिणए किं तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए, मणुस्सपंचिंदिय० जाव परिणए? गोयमा ! तिरिक्खजोणिय० जाव परिणए वा, मणुस्सपंचिंदिय० जाव परिणए वा / जइ तिरिक्खजोणिय० जाव परिणए किं जलचतिरिक्खजोणिए० जाव परिणए, थलचरखहचर० जाव परिणए? एवं चउक्कभेदो। जाव खहयराणं / जइ मणुस्सपंचिंदिय० जाव परिणए किं सम्मुच्छिममणुस्सपंचिंदिय० जाव परिणए, गभवकं तियमणुस्स० जाव परिणए? गोयमा! दोसु वि। जइगभवतियमणुस्स० जाव परिणए किं पञ्जत्तगगब्भवक्कंतिय० जाव परिणए, अपज्जत्तगगब्भवकंतिय० जाव परिणए? गोयमा! पज्जत्तगगम्भवकंतिय० जाव परिणय दा / जइ ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिंदियओरालियमीसासरीकायप्पओगपरिणए, बेइंदिय० जाव परिणए० जाव पंचिंदियओरालिय० जाव परिणए? गोयमा ! एगिदियओरालिय० जाव परिणए। एवं जहा ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणएणं आलावगो भणिओ तहा ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए वि आलावगो भाणि यव्वो, नवरं बादरवाउकाइयगब्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियगब्भबक्कं तियमणुस्साण य, एएसिं पज्जत्तापञ्जत्तगाणं सेसाणं अपञ्जत्तगाणं जइवेउव्वियसरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिंदियवेउव्वियसरीर० जाव परिणए, पंचिंदियवेउव्वियसरीर० जाव परिणए? गोयमा! एगिंदिय० जाव परिणए वा, पंचिदिय० जाव परिणए वा / जइ एगिदिय०जाव परिणए किं वाउकाइयएगिदिय० जाव परिणए, अहवा अवाउकाइयएगिदिय० जाव परिणए? गोयमा! वाउकाइयएगिदिय० जाव परिणए, नोअवाउकाइय० जाव परिणए / एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणासंठाणवेउव्वियसरीरं भणियं तहा इह भाणियव्वं० जाव पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरकायप्पओगपरिणए वा, अपज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव परिणए। जइ वेउविमीसासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियमीसासरीर० जाव परिणए, जाव पंचिंदियमीसासरीर० जाव परिणए। एवं जहा देउव्वियं तहा वेउव्वियमीसगं पि, णवरं देवनेरइयाणं अपजत्तगाणं सेसाणं पज्जत्तगाणं तहेव० जाव नोपज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव परिणए, अपज्जत्तासवसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियवेउव्वियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए / जइ आहारगसरीरकायप्पओगपरिणए किं मणुस्साहारगरसरीरकायप्पओगपरिणए, अमणुस्साहारग० जाव परिणए? एवं जहा ओगाहणसंठाणे० जाव इड्डिपत्तमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठीपज्जत्तासंखेजवासाउय० जाव परिणए, नोअणढिपत्त० जाव परिणए। जइ आहारगमीसासरस्रकायप्पओगपरिणए किं मणुस्सआहारगमीसासरीर० जाव परिणए? एवं जहा आहारगं तहेव भीसगं पि निरवसेसं भाणियव्वं / जइ कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिं दियकम्मासरीरकायप्पओगपरिणए० जाव पंचिंदियकम्मासरीर० जाव परिणए? गोयमा! एगिंदियकम्मासरीर० जाव परिणए / एवं जहा ओगाहणसंठाणे कम्मगस्स भेदो तहेव इह वि० जाव पजत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पओगपरिणए वा, अपञ्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव परिणए वा / जइमीसापरिणए किंमणभीसापरिणए, वयमीसापरिणए, कायमीसापरिणए? गोयमा ! मणमीसापरिणए वा वयमीसापरिणए वा, कायमीसापरिणए वा / जइ मणमीसापरिणए वा किं सच्चमणमीसापरिणए वा, मोसमणमीसापरिणएवा? जहापओगपरिणएतहामीसापरिणएविभाणियव्यं, Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम निरवसे सं० जाव पञ्ज तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरमीसापरिणए वा, अपज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव कम्मासरीरमीसापरिणए वा / जइ वीससापरिणए किं वण्णपरिणए, गंधपरिणए, रसपरिणए, फासपरिणए, संठाणपरिणए? गोयमा ! वण्णपरिणए वा० जाव संठाणपरिणए वा / जइ वण्णपरिणए किं कालवण्णपरिणए, नीलवण्ण जाव सुकिल्लवण्णपरिणए? गोयमा ! कालवण्णपरिणए वा०जाव सुकिल्लवण्णपरिणए वा। जइ गंधपरिणए किं सुब्भिगंधपरिणए, दुन्भिगंधपरिणए? गोयमा! सुब्भिगंधपरिणए वा, दुब्भिगंधपरिणए वा / जइ रसपरिणए किं तित्तरसपरिणए पुच्छा? गोयमा ! तित्तरसपरिणए जाव महुरसपरिणए वा / जइ फासपरिणए किं कक्खडफासपरिणए० जाव लुक्खफासपरिणए? गोयमा! कक्खङकासपरिणए वा० जाव लुक्खफास-- परिणए वा / जइ संठाणपरिणए पुच्छा? गोयमा ! परिमंडलसंठाणपरिणए० जाव आययसंठाणपरिणए वा। (एगेत्यादि) (मणपओगपरिणए त्ति) मनस्तया परिणतमित्यर्थः / (वयप्पओपरिणए ति) भाषाद्रव्य काययोगेने गृहीत्वा वाग्योगेन निसृज्यमानं वाक्प्रयोगपरिणतमित्युच्यते। (कायपओगपरिणए त्ति)। औदारिकाऽऽदिकाययोगेन गृहीतमौदारिकाऽऽदिवर्गणाद्रव्यमौदारिकाऽऽदिकायतया परिणतं कायप्रयोगपरिणतमित्युच्यते / (सचमणेत्यादि) सद्भुतार्थचिन्तननिबन्धनस्य मनसः प्रयोगः सत्यमनःप्रयोग उच्यते / एवमन्येऽपि, नवरं मृषा असद्भूतोऽर्थः सत्यमृषामिश्रो, यथा पञ्चसु दारकेषु जातेषु दश दारका जाता इति असत्यमृषासत्यमृषास्वरूपमतिक्रान्तो यथा देहीत्यादि। (आरंभसच्चेत्यादि) आरम्भो जीवोपघातस्तद्विषयं सत्यमारम्भसत्यं तद्विषयो यो मनःप्रयोगस्तेन परिणतं यत्तत्तथा, एवमुत्तस्त्रापि, नवरमनारम्भो जीवानुपघातः। (सारंभ त्ति) सरम्भो वधसङ्कल्पः, समारम्भस्तु परिताप इति / (ओरालिएत्यादि)। औदारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्धरूपत्वेनोपचीयमानत्वात् काय औदारिकशरीरकायस्तस्य यः प्रयोग औदारिकशरीरस्य वा० यः कायप्रयोगः स तथा, अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यस्तेन यत्परिणतं तत्तथा। (ओरालियमिस्सासरीरकायप्पओगपरिणए त्ति)। औदारिकमुत्पत्तिकाले असंपूर्ण सन् मिश्र कार्मणेनेति औदारिकमिश्र, तदेवौदारिकमिश्रक, तल्लक्षणं शरीरमौदारिकमिश्रकशरीर, तदेव कायस्तस्य यः प्रयोग औदारिकमिश्रकशरीरस्य वा य कायप्रयोगः स औदारिकमिश्रकशरीरकायप्रयोगस्तेन परिणतं यत्त तथा, अयं पुनरौदारिकमिश्रकशरीरकायप्रयोगो पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यो, यत आह-"जोएण कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो। तेण परं मीलेणं, जाव सरीरस्य निप्फत्ती।।१।।" एवं तावत् कार्मणेनौदारिकशरीरस्य मिश्रतोत्पत्तिमाश्रित्य तस्य प्रधानत्वात्, यदा पुनरौदारिकशरीरो वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः, पर्याप्तबादरवायुकाविको वा; वैक्रियं करोति तदौदारिककाययोग एव वर्तमानः प्रदेशान्विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् | पुगलानुपादाय यावद्वैक्रियशरीरपर्याप्त्या न पर्याप्ति गच्छति तावद्वैक्रियेणौदारिकशरीरस्य मिश्रताप्रारम्भकत्वेन तस्य प्रधानत्वादेवमाहारकेणाप्यौदारिकशरीरस्य मिश्रता वेदितव्येति / (वेउव्वियसरीरकायप्पओगपरिणए ति) / इह वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्येति (वेउब्वियमीसाशरीरकायप्पओगपरिणए त्ति)। इह वैक्रियमिश्रकशरीरकायप्रयोगो देवनारकेषूत्पद्यमानस्यापर्याप्तकस्य, मिश्रता चेह वैक्रियशरीररस्य कार्मर्णनैव, लब्धिवैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्ते वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि वैक्रियस्य मिश्रतेति / (आहारगसरीरकायप्पओगपरिणए त्ति) इहाऽऽहारकशरीरकायप्रयोग आहारकशरीरनिवृत्तौ सत्या तदानीं तस्यैव प्रधानत्वात्। (आहारगमीसासरीरकायप्पओगपरिणए त्ति) इहाऽऽहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग आहारकस्यौदारिकेण मिश्रतायां, सा च आहारकत्यागेनौदारिकग्रहणाभिमुखस्य। एतदुक्तं भवति-यदाहारकशरीरीभूत्वाकृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाहारकस्य प्रधानत्यादौदारिकप्रवेश प्रति व्यापारभावान् परित्यजति यावत्सर्वथैवाऽऽहारकं तावदोदारिकेण सह मिश्रतेति। ननुन तत्तेन सर्वथा मुक्तं पूर्वनिर्वर्तितं तिष्ठत्येव तत्कथं गृह्णाति? सत्य तिष्ठति तत् तथाप्यौदारिकशरीरोपादानार्थ प्रवृत्त इति गुह्मत्येवेत्युच्यत इति। (कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए त्ति) इह कार्मणशरीरकायप्रयोगे विग्रहे समुद्धातगतस्य च केवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भवति / उक्त च- "कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च'' इति। एवं प्रज्ञापनाटीकाऽनुसारेणौदारिकशरीरकायप्रयोगाऽऽदीनां व्याख्याशतकटीकाऽनुसारतः पुनर्मिश्रकायप्रयोगणामेवम् औदारिकमिश्र औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्र दधिन गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते, तद् द्वाभ्यामपरिपूर्णत्वादेवमौदारिक मिश्र कार्मणेन नौदारिकतया नापि कार्मणतया व्यपदेष्टु शक्यमपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमिश्रव्यपदेशः, एवं वैक्रियाऽऽहारकमिश्रावपीति, नवरम्(वायरवाउकाइय इत्यादि) यथौदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाऽऽदिप्रतीत्यालापकोऽधीतस्तथौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणतेऽपि वाच्यो नवरमयं विशेषः तत्र सर्वेऽपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकाऽऽदयः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणा अधीता इह तु बादरवायुकायिका गर्भजपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याश्च पर्याप्तकाsपर्याप्तकविशेषणा अध्येतव्याः शेषास्त्वपर्याप्तकविशेषणा एव यतो बादरवायुकायिकाऽऽदीना पर्याप्तकावस्थायामनि वैक्रियाऽऽरम्भणत औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगोलभ्यते, शेषाणां पुनरपर्याप्तकाऽवस्थायामेवेति। (जहा ओगाहणसंढाणे ति) प्रज्ञापनाया एकविंशतितमेपदे तत्र चैवमिदं सूत्रम्-"जइ वाउकाइयएगिदियवेउटिवयसरीरकायप्पओ - गपरिणए किं सुहुसयाइकाइयएगिदिय० जाव परिणय, वायरवाउकाइयएगिदिय० जाव परिणए ? गोयमा ! नोसुहुम जाव परिणए वायर० जाव परिणए'' | इत्यादीति / (एवं जहा ओगाहणसंठाणे त्ति) तत्र चैवमिदं सूत्रम्- ''गोयमा ! नोअमणुस्साऽऽहारगसरीरकायप्पओ-'' Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम गपरिणए मणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए इत्यादि) (एवं जहा | मीसापरिणया, वीससापरिणया? गोयमा ! पओगपरिणया, ओगाहणसंठाणे कम्मगरस भेओ त्ति) स चायं भेदः- "वेइदियकम्मा- } मीसापरिणया, वीससापरिणया। अहवा-एगे पओगपरिणए, दो सरीरकायप्पओगपरिणए वा, एवं तेइंदियचउरिदिय०" इत्यादिरिति / मीसापरिणया१। अहवा-एगे पओगपरिणए, दो वीससापरिणया अथ द्रव्यद्वयं चिन्तयन्नाह 2 / अहवा-दो पओगपरिणया, एगे मीसापरिणए 31 अहवादो भंते ! दव्वा किं पओगपरिणया, मीसापरिणया, वीससा-1 दो पओगपरिणया, एगे वीससापरिणए 4 / अहवा-एगे परिणया? गोयमा ! पओगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, मीसापरिणए, दो वीससापरिणया 5 / अहवा-दो मीसापरिणया, वीससापरिणया वा। अहवाएगे पओगपरिणए, एगे मीसापरिणए। एगे वीससापरिणए 6 अहवा-एगे पओगपरिणए, एगे मीसाअहवा-एगे पओगपरिणए, एगे वीससापरिणए / अहवा एगे | परिणए, एगे वीससापरिणए। जइपओगपरिणया किं मणप्पओगमीसापरिणए, एगे वीससापरिणए / जइ पओगपरिणया किं परिणया, वयप्पओगपरिणया, कायप्पओगपरिणया? गोयमा ! मणप्पओगपरिणया, वयप्पओगपरिणया, कायप्पओगपरिणया? मणप्पओगपरिणया वि, एवं एक्कासंजोगो, दुय संजोगा, गोयमा ! मणप्पओगपरिणया वा, वयप्पओगपरिणया वा, तियसंजोगो य भाणियव्वो। जइ मणप्पओगपरिणया किं सचमकायप्पओगपरिणया वा / अहवा-एगे मणप्पओगपरिणए, एगे णप्पओगपरिणया? गोयमा ! सचमणप्पओगपरिणया० जाव वयप्पओगपरिणए। अहवा एगे मणप्पओगपरिणए, एगे कायप्प- असचामोसमणप्पओगपरिणया वा / अहवा एगेसचमणप्पओगपरिणए वा। अहवा-एगे वयप्पओगपरिणए, एगे कायप्पओ- ओगपरिणए, दो मोसमणप्पओगपरिणया। एवं दुयसंजोगो गपरिणए। जइमणप्पओगपरिणया किं सच्चमणप्पओगपरिणया, तियसंजोगो य भाणियव्वो; एत्थ वि तहेव० जाव अहवा--एगे किं असचमणप्पओगपरिणया, किं सचमोसमणप्पओगपरिणया, तंससंठाणपरिणए, एगे चउरंससंठाणपरिणए, एगे आययसंठाणकिं असच्चमोसमणप्पओगपरिणया? गोयमा ! सच्च-मणप्पओग- परिणए वा / चत्तारि भंते! दव्वा वि पओगपरिणया? गोयमा! परिणया वा जाव असचामोसमणप्पओगपरिणया वा। अहवा- पओगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा / एगे सच्चमणप्पओगपरिणए, एगे मोसमणप्पओगपरिणए। अहवा- अहवा-एगे पओगपरिणए, तिण्णि विवीससापरिणया। अहवाएगे सचमणप्पओगपरिणए, एगे सचामोसमणप्पओगपरिणए / दो पओगपरिणया, दो मीसापरिणया। अहवा दो पओगपरिणया, अहवा-एगे सच्चमणप्पओगपरिणए, एगे असचामोसमणप्पओग- दो वीससापरिणया। अहवा तिण्णि पओगपरिणया, एगे परिणए। अहवा--एगे मोसमणप्पओगपरिणए, एगे सधामोसमण- मीसापरिणए। अहवा-तिण्णि पओगपरिणया, एगे वीससापरिणए। प्पओगपरिणए / अहवा-एगे मोसमणप्पओगपरिणए, एगे अहवा-एगे मीसापरिणए, तिण्णि वीससापरिणया। अहवा-दो असच्चामोसमणओगपरिणए। अहवा एगे सच्चमोसमणप्पओग- मीसापरिणया, देवीससापरिणया। अहवा-तिणि मीसापरिपरिणए, एगे असच्चामोसमणप्पओगपरिणए 10 / जइ सच्चमण- णया, एगे वीससापरिणए / अहवा-एगे पओगपरिणए, एगे प्पओगपरिणया किं आरंभसचमणप्पओगपरिणया० जाव मीसापरिणए, दो वीससापरिणया। अहवा-एगे पओगपरिणए, असमारंभसच्चमणप्पओगपरिणया? गोयमा! आरंभसचमणप्प- दो मीसापरिणया, एगे वीससापरिणए। अहवा-दो पओगपरिओगपरिणया वा० जाव असमारंभसच्चमणप्पओगपरिणया वा। णया, एगे मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए। अहवा-एगे आरंभसच्चमणप्पओगपरिणए, एगे अणारंभसचमण- इह प्रयोगपरिणताऽऽदिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः / द्विकयोगेऽप त्रय प्पओगपरिणए वा, एवं एएणं गमएणं दुयसंजोगो नेयध्वो, सव्ये एवेत्येवं षट् / एवं मनःप्रयोगाऽऽदित्रयेऽपि / सत्यमनः प्रयोगपरिणतासंजोगा जत्थ जत्तिया उट्ठति ते भाणियव्वा० जाव सव्वट्ठसिद्ध ऽऽदीनि तु चत्वारिपदानि, तेष्वेकत्वे चत्वारः, द्विकयोगे तुषट्, एवं सर्वेऽपि त्ति / जइ मीसा परिणया कि मणमीसापरिणया? एवं मीसापरिणया दशा आरम्भसत्यमनः प्रयोगपरिणताऽऽदीनिचषट्पदानि तेष्वेकत्वेषट्, वि। जइ वीससापरिणया किं वण्णपरिणया, गंधपरिणया? एवं द्विकयोगे तुपञ्चदश सर्वेऽपिर्विशतिः। सूत्रे च-(अद्दवेगे आरंभसचमणवीससापरिणया वि० जाव अहवाएगे चउरंससंठाणपरिणए, एगे प्पओगेपरिणएइत्यादि)नेह द्विकयोगे प्रथम एव भङ्गको दर्शितः,शेषास्तआययसंठाणपरिणए वा। तिण्णि मंते! दव्वा किं पओगपरिणया, दन्यपदसम्भवांश्चातिदेशेनपुनर्दर्शयतोक्तम्-(एवंएएणंगमएणमित्यादि) एव Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 610 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम मेतेन गमेनाऽऽरम्भसत्यमनःप्रयोगाऽऽदिपदप्रदर्शितेन द्विकसंयोगेन नेतव्यं समस्तं द्रव्यत्रयसूत्रम्, द्विकसंयोगस्य चैकत्वविकल्पाभिधानपूर्वकत्वादेकत्वैर्विकल्पैश्चेति दृश्यम् तत्रच यत्राऽऽराम्भसत्यमनःप्रयोगाऽऽदिपदसमूहे यावन्तो द्विकसंयोगा उत्तिष्ठन्ते सर्वे ते तत्र भणितव्याः। तत्र चाऽऽम्भसत्यमनः-प्रयोगाऽऽदिषु प्रदर्शिता एव, आरम्भाऽऽदिपषट्कविशेषितेषु पुनरित्थमेव त्रिषु मृषामनःप्रयोगाऽऽदिषु चतुर्ष चसत्यवाक्प्रयोगाऽऽदिषु प्रत्येकमेकत्वे षट् षड् किल्पाः, द्विकसंयोगे तु पञ्चदशेत्येवं प्रत्येकमेव सर्वेष्वप्येकविंशतिरौदारिकशरीरकायप्रयोगाऽऽदिषु तु सप्तसु पदेष्वेकत्वे सप्ताद्विकयोगे त्वेकविंशतिरित्येवमष्टविंशतिरकत्येवमेकेन्द्रियाऽऽदिपृथिव्यादिपदप्रभृतिभिः पूर्वोक्तक्रमेणौदारिकाऽऽदिकायप्रयोगपरिणतद्रव्यद्वयं प्रपञ्चनीयम् / कियदूरं यावदित्याह-(जाव सव्वट्ठसिद्ध त्ति) एतच्चेवम्-"जइ सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमणिदेवपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पओगपरिणया किं पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्ध० जावपरिणया, अपज्जत्ता सव्वट्ठसिद्ध० जाव परिणया वा? गोयमा ! पन्ज ता सव्वसिद्ध० जाव परिणया वा, अपजत्ता सव्वट्ठसिद्ध० जाव परिणया वा / अहवेगे पज्जत्ता सचट्ठसिद्ध० जाव परिणए, एगे अपजत्ता सव्वट्ठसिद्ध० जाव परिणए त्ति।" (एवं वीससापरिणया वि त्ति) एवमिति प्रयोगपरिणतद्रव्यद्वयवत्प्रत्येकविकल्पैर्द्विकसंयोगैश्च विस्त्रसापरिणते अपि द्रव्ये वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानेषु पश्चाऽऽदिभेदेषु वाच्ये / कियद् दूरं यावदित्याह-(जाव अहवेगे इत्यादि) अयं च पञ्चभेदसंस्थानस्य दशानां द्विकसंयोगाना दशम इति। अथ द्रव्यत्रय चिन्तयन्नाह (तिन्नीत्यादि) इह प्रयोगपरिणताऽऽदिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः, द्विकसंयोगे तु षट् / कथमाद्यस्यैकत्वे शेषयोः क्रमेण द्वित्ये द्वौ, तथाऽऽद्यस्य द्वित्वे शेषयोः क्रमेणैकत्वेऽन्यौ द्वौ० तथा द्वितीयस्यैकत्चे तृतीयस्य च द्वित्वेऽन्यः,तथा द्वितीयस्य द्वित्वे तृतीयस्य चैकत्वेऽन्यः, इत्येवं षट्, त्रिकयोगे त्वेक एवेत्येवं सर्वे दश / एवं मनःप्रयोगाऽऽदिपदत्रयेऽपि। अतएवाऽऽह (एवमेक्कासंजोगोइत्यादि) सत्यमनःप्रयोगाऽऽदीनि तु चत्वारि पदानि इत्यम एकत्वे चत्वारो, द्विकसंयोगे तु द्वादश, कथमाद्यस्यैकत्वेन शेषाणां त्रयाणां क्रमेणानेकत्वेन त्यो लब्धाः, पुनरन्ये त्रय आद्यस्यानेकत्वेन शेषाणां क्रमेणैवैकत्वेन, तथा द्वितीयस्यैकत्वेन शेषयौः क्रमेणानेकत्वेन द्वौ, पुनर्द्वितीयस्यानेकत्वेन शेषयोः क्रमेणैवैकत्वेन द्वावेव, तृतीयचतुर्थयोरेकत्वानेकत्वाभ्यामेकः, पुनर्विपर्ययेणैक इत्येवं द्वादश। त्रिकयोगे तु चत्वारः, इत्येवं सर्वेऽपि विंशतिरिति। सूत्रे तु कॉश्चिदुपदर्थ्यशेषानतिदेशत आह-(एवं दुयासंयोगो इत्यादि)(इत्थवि तहेव त्ति) अत्रापि द्रव्यत्रयाधिकारे तथैव वाच्यं सूत्र, यथा द्रव्यद्वयाधिकारे उक्तम् / तत्र च मनोवाकायभेदतो यः प्रयोगपरिणामो मिश्रतापरिणामो वर्णाऽऽदिभेदतश्च विस्त्रसापरिणाम उक्तः स इहाऽपि वाच्य इति भावः। किमन्तंतत्सूत्रं वाच्यमित्याह-(जावेत्यादि) इह च परिमण्डलाऽऽदीनि पञ्च पदानि, तेषु चैकत्वे पञ्च विकल्पाः द्विकसयोगे तु विंशतिः, कथमाद्यस्यैकत्वे शेषाणां च क्रमेणानेकत्वे तथा आद्यस्यानेकत्वे, शेषाणा तुक्रमेणैवैकत्वेऽष्टो। एवं द्वितीयस्यैकत्वे अनेकत्ये चशेषत्रयस्य चानेकत्वे एकत्वे च षट्, तथा तृतीयस्यैकत्वेऽनेकत्वे च द्वयोश्चानेकत्वे एकत्येच चत्वारः / तथा चतुर्थस्यैकत्वेऽनेकत्वे च पञ्चमस्य चानेकत्वे एकत्वे च द्वावित्येवं सर्वेऽपि विंशतिस्त्रिकयोगे तु दश / तत्र च-"अहवा एगे तंससंठाणे" इत्यादिना त्रिकयोगाना दशमो दर्शित इति। अथ द्रव्यचतुष्कमाश्रित्याऽऽह-(चत्तारि भंते! इत्यादि) इह च प्रयोगपरिणताऽऽदित्रये एकत्वे त्रयो० द्विकयोगे तु नव / कथमोद्यस्यैकत्वे द्वयोश्च क्रमेण त्रित्वे द्वौ, तथाऽऽद्यस्य द्वित्वे द्वयोरपि क्रमेणैव द्वित्वेऽन्यौ द्वौ, तथाऽऽद्यस्य त्रित्वे द्वयोश्च क्रमेणैकत्वेऽन्यौ द्वौ, तथा द्वितीयस्यैकत्वेऽन्यस्य त्रित्वे, तथा द्वयोरपि द्वित्ये तथा द्वितीयस्य त्रित्वेऽन्यस्य चैकत्वे त्रयोऽन्ये इत्येवं सर्वेऽपि नव। त्रययोगे तु त्रय भव एव भवन्तीत्येवं सर्वेऽपि पञ्चदशेति। "जइ पओगपरिणया किं मणपओग'' इत्यादिना चोक्तशेषं द्रव्यचतुष्कप्रकरणमुपलक्षितम् / तच पूर्वोक्तानुसारेण संस्थानसूत्रान्तमुचितभङ्गकोपेतं समस्तमध्येयमिति। (10) अथ पञ्चाऽऽदिद्रव्यप्रकरणान्यतिदेशतो दर्शयन्नाहएवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त० जाव दस संखेज्ज असंखेज अणंता दव्वा भाणियव्वा / दुया संजोएण तिया संजोएणं० जाव दससंजोएणं वारससंजोएणं उवउंजिऊणं जत्थ जइया संजोगा ते सवे भाणियध्वा / एए पुण जहा नवमसए पवेसणए भणिहामि तहा उवउंजिऊणं भाणियव्वा० जाव असंखेजा अणंता एवं चेव, नवरं एकं पदं अब्भहियं० जाव अहवा अणंता परिमंडलसंठाण परिणया० जाव अणंता आययसंठाणपरिणया। (एवं एएणमित्यादि) एवं चाऽभिलापः--"पंच भंते! दटव किं पओगपरिणया? गोयमा, पओगपरिणया वा 3 / अहवा-एगे पओगपरिणए, चत्तारि मीसापरिणया' इत्यादि। इह च द्विकसंयोगे विकल्पा द्वादश / कथम्?- एकं चत्वारि च 1 / द्वे त्रीणि च 2 / त्रिणि द्वे च 3 / चत्वार्येक चेत्येवं चत्वारो विकल्पा द्रव्यपञ्चकमाश्रित्यैकत्र द्विकसंयोगे पदत्रयस्य त्रयोद्विकसंयोगाः। तेच चतुर्भिर्गुणिता द्वादशेति। त्रिकयोगेतु षट् / कथम् त्रीण्येकमेकं च 1, एकं त्रीण्येकं च 2, एकमेकं त्रीणि च 3, द्वे द्वे एक च४, द्वे एक द्वे च 5, एक द्वे द्वे चेत्येवं षट्। (जाव दस संजोएणं ति) इह यावत्करणाचतुष्काऽऽदिसंयोगाः सूचिताः, तत्र च द्रव्यपञ्चकापेक्षया सत्यमनःप्रयोगाऽऽदिषु चतुर्षु पदेषु द्विकत्रिकचतुष्कसंयोगा भवन्ति / तत्र च द्विकसंयोगाश्चतुर्विंशतिः। कथम्? चतुर्णा पदानां षट्, द्विकसंयोगाः, तत्र चैकैकस्मिन् पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो विकल्पाः, षण्णां चचतुर्भिर्गुणने चतुर्विशतिरिति। त्रिकसंयोगा अपि चतुर्विंशतिः / कथम्?चतुर्णा पदानां त्रिकसंयोगाश्चत्वार एकै कस्मिंश्च पूर्वोक्तक्रमेण षड्विकल्पाश्च / चतुर्णा चषभिर्गुणने चतुर्विशतिरिति / चतुष्कसंयोगे तु चत्वारः / कथम्?-आदौ द्वे त्रिषु चैकैकं 1, तथा द्वितीयस्थाने द्वे शेषेषु चैकैकं २,तथा चतुर्थं द्वेशेषेषु चैकैकमित्येवं चत्वार इति। एकेन्द्रियाऽऽदिषु तु पञ्चसु पदेसु द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगा भवन्ति / तत्र च Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 611 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम द्विकसंयोगाश्चत्वारिंशत्। कथम्?-पञ्चानां पदानां दशद्धिक-संयोगाः, एकैकस्मिंश्च द्विकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो विकल्पाः, दशानां च चतुर्भिर्गुणने चत्वारिंशदिति। त्रिकसंयोगे तु षष्टिः / कथम्?-पञ्चानां पदानां दशत्रिकसंयोगाः, एकै कम्भिश्च त्रिकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण षड्विकल्पाः, दशानां च षड्भिर्गुणने षष्टिरिति / चतुष्कसंयोगास्तु विंशतिः / कथम्?-पञ्चानां पदानां तु चतुष्कसंयोगे पञ्च विकल्पाः, एकैकर्मिश्च पूर्वोक्तक्रमणे चत्वारो भङ्गाः / पञ्चानां च चतुर्भिर्गुणने विशतिरिति। पञ्चकसंयोगे त्वेक एवेति। एवं षट्काऽऽदिसंयोगा अपि वाच्याः, नवरं षट्कसंयोग आरम्भसत्यमनःप्रयोगाऽऽदिपदान्याश्रित्य सप्तसंयोगस्त्वौदारिकाऽऽदिकायप्रयोगमाश्रित्य / अष्टकसंयोगस्तु व्यन्तरभेदान, नवकसंयोगस्तु ग्रैवेयकदेवभेदान्, दशकसंयोगस्तु भवनपतिभेदानाश्रित्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगापेक्षया समवसेयः / एकादशसंयोगस्तु सूत्रे नोक्तः, पूर्वोक्तपदेषु तस्यासम्भवात्। द्वादशसंयोगस्तु कल्पोपपपन्नदेवभेदानाश्रित्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगापेक्षयैवे त्ति / (पवेसणए त्ति) नवमशतसत्कतृतीयेद्दिशके गाङ्गेयाभिधानानगारकृतनरकाऽऽदिगतिप्रवेशनविचारे कियन्ति तदनुसारेण द्रव्याणि वाच्यानीत्याह-(जाव असंखेज त्ति) असङ्ख्यातान्तनारकाऽऽदिवक्तव्यताऽऽश्रयं हि तत् सूत्रम्। इह तुयो विशेषस्तमाह (अणंता इत्यादि) एतदेवाभिलापतो दर्शयन्नाह-(जाव अणंतेत्यादि) अथैतेपामेवाऽल्पबहुत्वं चिन्तयन्नाहएएसि णं भंते! पोग्गलाणं पओगपरिणयाणं मीसापरिणयाणं वीससापरिणयाणय कयरे कयरेहिंतो० जीव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्गला पओगपरिणता मीसापरिणता अणंतगुणा वीससापरिणता अणंतगुणा। सेवं भंते ! भंते ! ति। (एएसिणमित्यादि) (सव्वत्थोवा पोग्गला पओगपरिणय त्ति) कायाऽऽदिरूपतया जीवपुद्गलसम्बन्धकालस्य स्तोकत्वात्। (मीसपरिणया अणंतगुण त्ति) कायाऽऽदिप्रयोगपरिणतेभ्यः सकाशान्मिश्रकपरिणता अनन्तगुणाः / यतः प्रयोगकृतमाकारमपरित्यजन्तो विस्त्र सया ये परिणामान्तरमुपागता मुक्तकलेवराऽऽद्यवयवरूपास्तेऽनन्ताः। विस्वसापरिणतास्तु तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः परमाण्वादीना जीवग्रहणप्रायोग्याणामप्यनन्तानन्तत्वादिति / भ० ८श०१ उ०। अह भंते! पाणाइवाए, मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले पाणाइवायवेरमणे मिच्छादसणसल्लविवेगे उप्पत्तिया० जाव पारिणामिया उग्गहे० जाव धारणा उट्ठाणे कम्मे बले बीरीए पुरिसक्कारपरक्कमे णेरइयत्ते असुरकुमारत्ते० जाव वेमाणियत्ते णाणावरणिज्जे० जाव अंततराइए कण्हलेस्स० जाव सुक्कलेस्सासा सम्मदिट्ठिए 3 / चक्खुदंसणे / आभिणिबोहियणाणे० जाव विभंगणाणे आहारसण्णाए / ओरालियसरीरे 5 / मणजोगे 3 / सागारोवओगे अण्णागारोवओगे, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते णण्णत्थ आताएपरिणमंति? हंता गोयमा! पाणाइवाए० जाव सव्वे ते णण्णत्थ आताए परिणमंति। जीवे णं भंते! गम्भ वक्कडमाणे कइवण्णे, कइगंधे? एवं जहा वारसमए पंचमुद्देसएक जाव कम्मओ णं जए णो अकम्मतो विभत्तिभावं परिणए / सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (अहेत्यादि) (णऽण्णत्थ आयाए परिणमंति त्ति) नान्यत्रात्मनः परिणमन्त्यात्मानं वर्जयित्वा नान्यत्रैते वर्तन्ते, आत्मपर्यायत्वादेषां पर्यायाणां च पर्यायिणा सह कथञ्चिदेकत्वादात्मरूपाः सर्व एवैते नाऽऽत्मनो भिन्नत्वेन परिणमन्तीतिभावः। अनन्तरं प्राणातिपाताऽऽदयो जीवधर्माश्चिन्तिताः / अथ कथञ्चित्तद्धा एव वर्णाऽऽदयश्चिन्त्यन्ते(जीवे णमित्यादि)। जीवो हि गर्भे उत्पद्यमानस्तैजसकार्मणशरीरसहित औदारिकशरीरग्रहणं करोति, शरीराणि च वर्णाऽऽदियुक्तानि। तदव्यतिरिक्तश्च कथञ्जिीवोऽत उच्यते (कतिवण्णमित्यादि)"एवं जहा'' इत्यादिना चेदं सूचितम्-'कतिरसं कतिफासं परिणाम परिणमंति? | गोयमा ! पंचवण्णं पंचरसं दुगंधं अट्ठफासं च परिणाम परिणमति / " इत्यादि / व्याख्या चाऽऽस्य पूर्ववदेवेति / भ०२श०३ उ०। "उप्पजति चयंति य, परिणमंति य गुणा नदव्वाई।" आ०चू०१ अ०। परिणमनं परिणामः / णिजन्ताद्घप्रत्ययः। परिणामाऽऽपादने, क०प्र०१ प्रक० / कर्म० / 'कवोयपरिणामे / ' कपोतस्येव परिणाम आहारपाको यस्य स तथा। कपोतस्य हि पाषाणलवानपि जठराग्निर्जरयति केवलश्रुतिः। औ०। "दोहिं ठाणेहिं आया परिणामेइदेसेण वि सवेण वि।" परिणमयति परिणाम नयति खलरसविभागेन भक्ताऽऽश्रयदेशस्य प्लीहाऽऽदिना रूद्धवात् देशतः, अन्यथा सर्वतः / स्था०२ ठा०२ उ०। (11) जीवोऽकर्मतो विभक्तिभावं परिणमतिकम्मओ णं भंते ! जीवो णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ? हंता गोयमा! कम्मओ णं तं चेव० जाव परिणमइ, णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, सेवं भंते! भंते ! ति। कर्मतः सकाशात्, नो अकर्मतःन कर्माणि विना जीवो विभक्तिभावं विभागरूपं नारकतिर्यग्मनुष्यामरभवेषु नानारूपं परिणाममित्यर्थः / परिणमति गच्छति। तथा-(कम्मओ णं जए त्ति) गच्छति ताँस्तान्नारकाऽऽदिभावानिति जगत् जीवसमूहो जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जङ्गमाभिधानः, "जगन्ति जङ्गमान्याहुः / " इति वचनादिति / भ०१२ श० ५उ० / (द्रव्याणां शीतोष्णपरिणामः ‘परिट्ठवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 573 पृष्ठ उदकसंसृष्टाऽऽहारपरिष्ठापनाप्रस्तावे प्रतिपादितः) (निर्गन्थानां परिणामद्वारम् ‘णिग्गंथ शब्दे चतुर्थभागे 2040 पृष्ठे गतम्) (संयतानां च परिणाममद्वारम् 'संजय' शब्दे वक्ष्यते) (मूलप्रकृतेर्महदादिक्रमेण परिणामः 'संख' शब्दे परीक्षिष्यते) स्वभावे, परिणामः पर्यायः स्वभावो धर्म इति यावत्। स्था० 6 ठा० / अध्यवसाने, स०११ अङ्ग / क०प्र०। पञ्चा०। अध्यवसायविशेषे विशे०। भावे, व्य०६ उ०। चित्तभावे, द्वा० ७द्वा०। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 612 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम (12) परिणामानुसारेण कर्मबन्धः सम्यग्ज्ञानसंपन्नः (अहिंसत्थमुडिओ ति) अहिंसायामुत्थितः अभ्युद्यतः अज्झत्थविसोहीए, जीवनिकाएहि संथडे लोए। किंतु सहसा प्रयत्नं कुर्वतोऽपि प्राणियधः संजातः; स चैवविधोऽवधकः, देसियमहिंसयतं, जिणेहिं तेलुक्कदंसीहिं / 70 / / शुद्धभावत्वात्। नन्विदमुक्तमेव यदुताध्यात्मविशुध्दया सत्यप्युपकरणे निर्ग्रन्थाः | तस्स असंचेअयओ, संचेअयओ य जाइँ रात्ताई। साधवः / किं च-यद्यध्यात्मविशुद्धिर्निष्पद्यते ततः (जीवनिकाएहि संथडे जोगं पप्प विणस्सं-ति नत्थि हिंसाफलं तस्स / 74 / / लोए त्ति) जीवनिकायैः जीवसंघातैरयं लोकः संसृतो वर्तते ! ततश्च तस्यैवप्रकारस्य ज्ञानिनः कर्मक्षयार्थमभ्युद्यतस्य असंचेत यतोऽजाजीवनिकायैः संसृते व्याप्ते लोके कथं नग्नकश्चक्रमन् वधको न भवति नानस्य, किं? सत्यानि, कथमपि? प्रयत्नवताऽपि न दृष्टः, प्राणी यद्यध्यात्मशुद्धिनिष्ठ्यते तस्मादध्यात्मविशुद्ध्या देशितमहिंसकत्वं व्यापादितश्च। तथा संचयतो जानानस्य कथम्? अस्त्यत्र प्राणी ज्ञातो जिनैस्त्रैलोक्यदर्शिभिरिति। दृष्टश्च, न च प्रयत्नं कुर्वताऽपि रक्षितुं पारितः, ततश्च तस्यैवंविधस्य ___ व प्रदर्शितं तदित्यत आह यानि सत्त्वानि योग कायऽऽदिप्राप्य विनश्यन्तितस्य साधोः हिंसाफलउचलियम्मि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए। सांपरायिकसंसारजनन, दुःखजननमित्यर्थः। यदि परमीप्रित्ययं कर्म वावेजेज कुलिंगी, मरिज्जतं जोगमासज्ज // 71 // भवति तच एकस्मिन् समये बद्धमन्यस्मिन् समये क्षपयति। उच्चालिते उत्पाटिते पादे सति ईर्यासमितस्य साधोः संक्रमार्थम् जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता। उत्पाटिते पादे इत्यत्र संबन्धः / व्यापद्येत संघटनाऽऽदिना परिताप्येत। वावज्जते नियमा, तेसिं सो हिंसओ होइ। 75 / / कः? कुलिङ्गी कुत्सितानि लिङ्गानि इन्द्रियाणि यस्याऽसौ कुलिङ्गी यश्च प्रमत्तः पुरुषः तस्यैवंविधस्य संबन्धिनं योग कायाऽऽदिकं प्रतीत्य दीन्द्रियादि स परिताप्येत। उत्पाटितपादे सति नियेत वाऽसौ कुलिङ्गी प्राप्य ये सत्वा व्यापाद्यास्तेषां सत्त्वानां नियमादवश्यं स पुरुषः हिंसको तद्व्यापादनयोगमासाद्य प्राप्य। भवति, तस्मात्प्रमत्तभाजितानि कर्मबन्धकारणानि / नय तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो विदेसिओ समए। जे वि न वावजंती, नियमा तेसिं पि हिंसओ सो उ। अणवजो उवओगे ण सव्वभावेण सो जयउ॥७२।। सावजो उवओगे-ण सव्वभावेण सो जम्हा।।७६।। न तस्य तन्निभित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये सिद्धान्ते? किं येऽपि सत्त्वा न व्यापाद्यन्ते तेषामप्यसौ नियमात् हिंसको भवति। कथं? कारणं, यतः अनवद्योऽसौ साधुस्तेन व्यापादनव्यापारण, कथम्?, (सावज्जो उवओगेन) सह अवद्येन वर्तते इति सावद्यः, सपाप इत्यर्थः / सर्वभावेन सर्वाऽऽत्मना मनोवाकायकर्मभिरनवद्योऽसौ यस्मात् ततश्च सावद्यो यतः प्रयोगे कार्यादिना सर्वभावेन सर्वैः कायवाङ्मसूक्ष्मोऽपि तस्य बन्ध इति। किंच नोभिरतः अव्यापादयन्नपि व्यापादकः स एवाऽसौ पुरुषः, स पापयोग त्वादिति। णाणी कम्मस्स खय-मुट्ठिओ नो ठिओ उ हिंसाए। जयइ असढं अहिंस-त्थमुट्ठिओ अबहओ सो उ।७३ / / यतश्चैवमतःज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी, सम्यग्ज्ञानेन युक्त इत्यर्थः। कर्मणः क्षयार्थ आया चेव अहिंसा, आया हिंसंति निच्छओ एसो। चोत्थित उद्यत इत्यर्थः, तथा हिंसायै न स्थितः / प्राणिव्यपरोपणे न जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो। 77 / / व्यवस्थित इत्यर्थः / तथा जयति कर्मक्षपणे प्रयत्नं करोतीत्यर्थः / (असद आत्मैवाहिंसा, आत्मैव हिंसति इत्ययं निश्चयः, परमार्थ ति) शउभावरहितो यत्नं करोति, न मिथ्याभावेन, सम्यग्ज्ञानयुक्त इत्यर्थः / कथं चाऽसौ अहिंसकः, कथं वा हिंसकः? इत्यत आह-(जो इत्यर्थः। तथा-(अहिंसत्थमुट्ठिय त्ति) अहिंसार्थमुत्थितः उद्युक्तः, किं होइ अप्पमत्तो त्ति) यो भवति अप्रमत्तः, प्रयत्नवानित्यर्थः / स तु सहसा कथमपि, प्रयत्नं कुर्वतोऽपि प्राणिबधः सञ्जातः। स एवंविधः खल्वेवंविधः अहिंसको भवति (हिंसओ इयरो त्ति) इतरः प्रमत्तो यः स अवधक एव साधुरिति। तत्राऽनया गाथया भङ्गकाष्टौ सूविताः। तद्यथा हिंसको भवतीत्ययं परमार्थ इति / अथवा-नयाभिप्रायेणेयं गाथा "नाणी कम्मस्स खयर्ल्ड उडिओ, हिंसाएयण विडिओ१ नाणी कम्मस्स व्याख्यायते-ततो नैगमस्य जीवेषु अजीवेषु च हिंसा, तथा च वक्तारो खयट्ठ उडिओ हिंसाए य ठिओ 2 / नाणी कम्मस्स खयटुं नो ठिओ, लोके दृष्टा यतो जीवाऽनेन हिंसितो विनाशितः ततश्च हिंसा शब्दानुगहिंसाए पुण पगत्तो विन ठिओ, देवजोगेण कहवि तप्पएसे पाणिणो नासी। माजीवेष्वजीवेषु च हिंसा नैगमस्य, अहिंसाऽप्येवमेवेति / एस तइओ अशुद्धोय 3 / यत्र नाणी कम्मस्स खयटैनो ठिओ, हिंसाएय संग्रहव्यवहारयोः षट्षुजीवनिकायेषु हिंसा; संग्रहश्चात्र देशग्राही द्रष्टव्यः, ठिओ 4 / "तथा-"अन्नाणी' मिथ्याज्ञानयुक्त इत्यर्थः / "कम्मस्स सामान्यरूपश्चनैगमान्तर्भावी। व्यवहारश्च स्थलविशेषगाही,लोकव्यवखयट्ठमुडिओ, हिंसाए न ठिओ, 5 / अन्नाणी कम्मस्स खयह उहिओ, हरणशीलश्चाऽयम्, तथा च लोको बाहुल्येन षट्स्वेव जीवनिकायेषु हिंसाए य ठिओ 6 / अन्नाणी कम्मक्खयट्ट नो ठिओ, हिंसाए य न टिओ हिंसामिच्छतीति / ऋजुसूत्रश्च प्रत्येकं 2 जीवहि-साव्यतिरिक्त७। अन्नाणी कम्मक्खयह नो ठिओ, हिंसाए न ठिओ 8 / एस अहमो।' मिच्छतीति शब्द-समभिरूढ एवं भूतनयाश्चाऽत्मैव अहिंसेच्छन्ति, तत्र गाथाप्रथमाध्न शुद्धः प्रथमो भगकः कथितः, पश्चार्द्धन व द्वितीयो एतदभि-प्रायेणैवाऽऽह-"आया चेव अहिंसा इत्यादि" आत्मैव अहिंसा भगकः कथितः / कथं?-(जयइ त्ति) कर्मक्षपणोद्यतः / (असढ ति) | इत्यवं निश्चयनयाभिप्रायः / कुतो? यो भवति अप्रमत्तो जीवः Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 613 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणाम स खल्वहिंसकः, इतरश्च प्रमत्तः, ततश्च स एव हिंसको भवति, तस्मात् अन्यस्मिन्समये क्षपयति इति। किंविधस्य? अध्यात्मविशोधियुक्तस्य आत्मैव अहिंसा, आत्मैव हिंसा, अयं निश्चयः परमार्थ इति। विशुद्धभावस्य इत्यर्थः। इदानी प्रकारान्तरेण तथाविधविशेषात् हिंसाविशेष प्रति किंचपादयन्नाह परमरहस्समिसीणं, समग्गगणिपिडगझरियसाराणं / जो य पओगं जुंजइ, हिंसत्थं जो य अन्नभावेणं / परिणाभियं पमाणं, निच्छयमवलंबमाणाणं / / 3 / / अमणो य जो पउंजइ, एत्थ विसेसो महं वुत्तो // 78 // परम प्रधानमिदं रहस्यंतत्त्वं, केषाम् ? ऋषीणां सुविहितानां, समग्रंच यश्च जीयः प्रयोगं मनोवाकायकर्मभिः हिंसार्थ युनक्ति प्रयुञ्जीत, तत् गणिपिटकं च समग्रगणिपिटकं तस्य क्षरितः पतितः सारः प्राधान्य यश्चान्यभावेन। एतदुक्तं भवति-लक्ष्यविन्धनार्थ काण्डं क्षिप्तं, यावता यैस्ते समग्रगणिपिटकक्षरितसारास्तेषामिदं रहस्ययदुत परिणामिकं अन्यस्य मृगाऽऽदेर्लग्न, ततश्चान्यभावेन यः प्रयोगं प्रयुक्ते , तस्माद- प्रमाणपरिणामे भवं परिणामिकं, शुद्धोऽशुद्धश्च परिणाम इत्यर्थः / नदन्तरोक्तात पुरुषविशेषात् महान्विशेषः। तथा अमनस्कः मनरहितः किविशिष्टानां सतां परिणामिक प्रमाण? निश्चयनयमवलम्बमानानां, सन् मूर्च्छत् इत्यर्थः / स चायम्-प्रायोग्य कायाऽऽदिकं प्रयुक्तम्, अत्र यतः शब्दाऽऽदिनिश्चयनयानामिदमेवदर्शनं यदुत परिणामिकमिच्छन्ति। विशेषो महानुक्तः / एतदुक्तं भवति- यो जीवः मनोवाक्कायकर्मभिः आह-यद्ययं निश्चयस्ततोऽयमेवालम्ब्यतां किमन्येनेति? हिंसार्थ प्रयोग प्रयुक्ते तस्य महान्कर्मबन्धो भवति, यश्चान्यभावेन उच्यतेप्रयुक्ते तस्याल्पतरः कर्मबन्धः, यश्चामनस्कः प्रयोगं प्रयुक्ते निच्छयमवलंबंता, निच्छयओ निच्छयं अयाणंता। तस्याल्पतरतमः कर्मबन्धः, ततश्चात्र विशेषो महान् दृष्ट इति। नासंति चरणकरणं, बाहिरकरणालसा केइ / / 4 / / एतदेव व्याख्यानयन्नाह निश्चयमवलम्बमानाः पुरुषाः निश्चयतः परमार्थतः निश्चयमजानानाः हिंसत्थं जुजंतो, सुमहं दोसो अणंतरं इयरो। सन्तः नाशयन्ति चरणकरणं / कथं? बाह्यकरणालसा बाह्य अमणो य अप्पदोसो, जोगनिमित्तं च विन्नेओ / / 76 / / वैयावृत्याऽऽदिकरणं तत्र अलसाः प्रयत्नरहिताः सन्तः चरणकरणं हिंसार्थ प्रयोगं युञ्जतः सुमहान दोषो भवति, इतरश्च योऽन्यभावेन नाशयन्ति केचन इदंचाङ्गीकुर्वन्ति यदुत परिशुध्दः परिणाम एव प्रधानो, प्रयुवते तस्य मन्दतरो दोषो भवति, अल्पतर इत्यर्थः। तथा अमन नतु बाह्यक्रियारहितः एतचानाङ्गीकर्तव्यम्परिणाम एव बाह्यक्रियारहितः स्कश्च सन्मूर्च्छनः प्रयोगं युजन् अल्पतरतमो दोषो भवति, अतो शुद्धो न भवति, ततश्च निश्चयव्यवहारमतम् उभयस्वरूपमेवाङ्गीयोगनिमित्तं जोगकरणिकः कर्मबन्धो विज्ञेय इति। कर्तव्यमिति / उक्तमुपधिद्वारम्। किंचरत्तो वा दुट्ठो वा, मूढो वा जं पउंजए पओगं / इदानीमायतनद्वारव्याचिख्यासया संबन्धं प्रतिपादयन्नाह-- हिंसा वि तत्थ जायइ, तम्हा सो हिंसओ चेव / / 80 // एवमिणं उवगरणं, धारेमाणो विहीसु परिसुद्धो। रक्त आहाराऽऽद्यर्थं सिंहाऽऽदि द्विष्टः सर्पाऽऽदि मूढो वेदिकाऽऽदि, य हवइ गुणाणाययणं, अविहियसुद्धे अणाययणं / / 85 / / एवंविधः रक्तो वा द्विष्टो वा मूढो वा यः प्रयोग कार्याऽऽदिकं प्रयुक्ते तत्र एवमुक्तन्यायेन उपकरणं धारयन् विधिना परिशुध्दः दोषवर्जितं, किं हिंसाऽपि जायते, अपिशब्दादनृताऽऽदि वा जायते। अथवा हिंसाऽप्येव भवति?-गुणानामायतनं भवति / अथ पूर्वोक्तविपरीत क्रियते यदुत रक्ताऽऽदिभावोन उपजायते, न तु हिंसामात्रेणेति वण्टति तस्मात्स अविधिना धारयति, अविशुद्धं तदुपकरणं, ततः अविधिना अशुध्द हिंसको भवति / यो रक्ताऽऽदिभावयुक्तः / इह न च हिंसयैव हिंसको ध्रियमाणं तदेवोपकरणमनायतनमस्थानं भवतीति। ओघालाद्वा०। भवति। श्रा०।०। दर्श० आ० म०। प्रति / पञ्चा० / परिणामश्चाऽऽकातथा चाऽऽह रबोधक्रियाभेदात्त्रिधा। (अत्र पुरुषजातसूत्राणि, 'पुरिसजाय' शब्दे) नय हिंसामित्तेणं, सावजेणा वि हिंसओ होइ। (अभिनिर्वगडायां वसतौ शुभोऽशुभे वा भाव उपजायते इति 'वसहि' सुद्धस्स उ संपत्ती, अफला भणिया जिणवरेहिं॥१॥ शब्दे वक्ष्यते) थंभा कोहा अणाभोगा, अणापुच्छा असंतई। परिणामाउ नच हिंसामात्रेण सावोनापि हिंसको भवति, कुतः?-शुद्धस्य पुरुषस्य असुद्धो, भावो तम्हा वि उपमाणं॥३५॥ ('पचक्खाण' शब्देऽस्मिन्नेव कर्मसंप्राप्तिरफला भणिता जिनवरैरिति। भागे 102 पृष्ठे व्याख्याता) ऐहिकाऽऽमुष्मिकाऽऽशंसायाम, सूत्र०१ किं च श्रु०/८ अ०। जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। विषयसूचीसा होइ निजरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स / / 82 // (1) जीवाऽजीवपरिणामाः। या विराधना यतमानस्य भवेत्, किंविशिष्टस्य सतः? सूत्रविधिना | (2) गतिपरिणामः। समग्रस्ययुक्तस्य, गीतार्थस्य इत्यर्थः / तस्यैवंविधस्यया भवति विराधना | (3) अजीवपरिणामः / सा निर्जराफला भवति / एतदुवतं भवति एकस्मिन्समये बध्दं कर्म | (4) स्कन्धाः पुद्गलाश्च परिणामवन्तः। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणाम 615- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणामग (5) पुद्गलपरिणामः। (6) वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानपरिणताः पुद्गलाः। (7) वर्णादीनां परस्परं संवेधः। (8) अतीन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः! (8) प्रयोग-मिश्र-विश्रसा-परिणताः पुद्गलाः। (10) पञ्चादिद्रव्यप्रकरणानि। (11) जीवाऽकर्मते विभक्तिभावं परिणमति। (12) परिणामाऽनुसारेण कर्मबन्धः! परिणामकडन० (परिणामकृत) दध्यादिकृतपरिणामे, आव०१ अ०। परिणामगपुं०(परिणामक) यथास्थानमपवादपदपरिणमनशीले बृ०। परिणामकस्वरूपम्। अथा भावतः परिणामकातिपरिणामको व्याख्येयाविति चेतसि व्यवस्थाप्य सूरिरिमां नियुक्तिगाथामाहपरिणामे अइअपरिणा-म परूवणा पडिसेह चरिमदुगे। अंबाई दिटुंतो, कहणा य इमेहि ठाणेहिं / / 801 // परिणामकातिपरिणामकानां प्ररूपणा कर्त्तव्या, प्रतिषेधश्चरमद्विकस्यापरिणामकस्य युगलस्य कर्त्तव्यः / अनयोश्छेदश्रुतं न दातव्यमिति भावः / एषां च त्रयाणामपि परिक्षार्थमाम्राऽऽदिदृष्टान्तो वक्तव्यः। आदिशब्दावृक्षबीजपरिग्रहः / तया च परीक्षया तेषामभिप्राये गृहीते सति कथना प्रतिवचनमेभिर्वक्ष्यमाणैः स्थानैः प्रकारैराचार्येण कर्त्तव्येति। अथैनामेव गाथायां विवृणोतिजो दय्वखित्तकयका-लमावओ जंजहा जिणऽक्खायं। तंतह सद्दहमाणं, जाणसु परिणामयं साधु ||802 / / अत्र तुलादण्डमध्यग्रहणन्यायेन कृतशब्दो मध्येऽभिहितोऽपि सर्वत्रापि संबध्यते।यः कश्चित् द्रव्यकृतं क्षेत्रकृतं कालकृतंभावकृतं, द्रव्याऽऽदिभिः भेदैः सूत्रे विहितमित्यर्थः / यद्वस्तु यथा येनोत्सर्गापवादरूपेण प्रकारेण जिनैराख्यातं तत्तथा श्रद्दधाति, तमेवं श्रद्दधानं रोचयन्तं जानीहि परिणामकं साधुम् / इयमत्र भावनाद्रव्यतः सचित्ताचित्तमिश्राणि द्रव्याणि यादृशे कार्ये कल्पन्ते, न वा क्षेत्रतोऽध्वनि वा जनपदे वा यद्यथाऽध्वकल्पाऽऽदिकमाचरणीयं, कालतो दुर्भिक्षसुभिक्षाऽऽदौ यो यादृशः कल्पः, भावतो ग्लानाऽऽदिष्वागाढानागाताऽऽदिको यादृक् विधिस्तदेवं सर्वमपि श्रद्दधानो यथाऽवसरं 'युञ्जानश्च परिणामको ज्ञातव्यः। बृ०१ उ०१ प्रक०। पं०व०। व्य०नि० चू०। (अस्य सदृष्टान्तप्ररूपणा अइपरिणा-1 मग' शब्दे प्रथमभागे 4 पृष्ठे गता) परिणामओं जं भणियं, जिणेहि अह कारणं न जाणामि। दिलुते परिणामेण, परिवाडी उक्कमकमाणं // 70 // अथं यदुक्तं जिनैः परिणामतः संसारिणामिन्द्रियविभागस्तत्र कारणं नजानामि। एवं तेनोक्तेन दृष्टान्तेन परिणाममधिकृत्य क्वचिदुत्क्रमपरिपाटी क्वचित्क्रमपरिपाटी वक्तव्या। / एतदेव सविस्तरं भावयतिचरिएण कप्पिएण व, दिलुतेण व तहा तयं अत्यं / उवणेइजहाणु परो, पत्तियइ अजोग्गरूवमवि // 71 // चरितेन कल्पितेन वा दृष्टान्तेन तथा तं विवक्षितमर्थमुपनयति। यथा परः अयोग्यरूपमपि प्रत्येति। दिटुंता परिणामे कहिजते उकमेण वि कयाइ। जह ऊ एगिंदीणं० वणस्सई कत्थई पुव्वं // 72 // दृष्टान्तात्परिणामयतीतिपरिणामस्तस्मिन् दृष्टान्तपरिणामके इत्यर्थः / कदाचिद् बोधोत्पादानुगुण्येन उत्क्रमेणाऽपि कथ्यते, यथा शस्त्रपरिज्ञायामेकेन्द्रियाणां जीवत्वप्रसाधन विधौ पूर्व प्रथमोद्देशके वनस्पतिः कथ्यते, अन्तिमेचोद्देशके वायुकायिकः। तत्र प्रथम उत्क्रमेण वनस्पतीनां जीवत्वख्यापनार्थमाहपत्तंति पुष्पंति फलं वदंती, कालं वियाणंति तहिंदियत्थे। जातीय बुद्धीय जरा य जेसिं, कहं न जीवा उ भवंति ते ऊ? ||73 // ये पत्रयन्तिपत्राणि मुञ्चन्ति, पुष्पभाजो भवन्ति, पुष्पं च ददति, कालं च तत्र पत्रपुष्पफलनिमित्तं जानन्ति, इन्द्रियार्थाश्च गीताऽऽदीन ये विजानन्ति, वकुला ऽऽदीनां तथा दर्शनात् / तथा तेषां जातिवृद्धिर्जरा च ते कथं न जीवा भवन्ति, भवन्त्येवेति भावः / पुरुषाऽऽदिधर्माणां सर्वेषामपितत्रोपलभ्यमानत्वात्। प्रयोगश्च वनस्पतयो जीवाः, जातिजराबृध्दयाद्युपेतत्वात्, मुनष्यवत्। जाहे ते सहहिया ताहें कहिअंति पुठविकाईया। जह वा पेलगलोणा, उवलगिरीणं च परिपुडी॥७॥ यदा ते वनस्पतयो जीवत्वेन श्रद्धिता भवन्ति, तदा पृथिवीकायिका जीवाः कथ्यन्ते (?)प्रचोलाऽऽदिषुपरिवृद्धिदर्शनात्। कललंडरसाऽऽदीया,जह जीव तहेव आउजीवा वि। जोइंगण जह जीवो, हवई तह तेउजीवा वि 75 // यथा कललं गर्भप्रथमावस्थारूपमण्डरस इत्येवमादयो जीवास्तथैवाप्कायजीवा अपि प्रतिपत्तव्याः। प्रयोगः-अप्कायिका जीवाः, अनुपहतत्वे सतिद्रवत्वात्, कललाण्डरसाऽऽदिवत्तथा। यथा ज्योतिरिङ्गणो जीवस्तथा तेजस्कायिकाः अपि। प्रयोगस्त्वेवम्-तेजस्कायिका जीवाः स्वभावात् आकाशे गमनात् ज्योतिरिङ्गणवत् ज्योतिरिङ्गणः खद्योतकः / यथा वा ज्वरिते ऊष्मेति सजीवस्तथा तेजोतीवा अपि। प्रयोगभावनात्वेवम्-तेजस्कायिका जीवाः असूर्यकिरणत्वे सत्यूष्मधर्मोपेतत्वात्। जह सद्दहिते तेऊ, वाऊ जीवा तहा य सीसंति।। सत्थपरिण्णाए विय, उकमकरणं तु एयट्ठा / / 76 // यदा तेजस्कायिकान् जीवत्वेन श्रद्दधाति, तदा तस्य वायवो जीवाः शिष्यन्ते, तथा वायवो जीवा अपरप्रेरितत्वे सति तिर्यगगतिगमनात्, गवादिवत् / शस्त्रपरिज्ञायामप्युत्क्रमकरणं पूर्ववनस्पत्युद्देशस्यान्ते वायुकायिकोद्देशस्य करणमित्यथः / व्य०१० उ०। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामट्ठाण 615 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणामिय परिणामट्ठाण न०(परिणामस्थान) अध्यवसाने, "संजमट्ठाणं ति वा / अज्झवसाण ति वा परिणामट्ठाणं ति वा एगटुं' नि० चू० 2070 / परिणामणया स्त्री० न० (परिणामन्) परिणत्युत्पादने, प्रज्ञा० 34 पद। परिणामित्तए अव्य० (परिणामयितुम्) परिणाम कारयितुमित्यर्थे, भ०३ श०४ उ०1 परिणामविहिण्णु पुं० (परिणामविधिज्ञ) पुद्गलानां परिणामविधि जानातीति परिणामविधिज्ञः। बृ०३ उ०। परिणामालंबणगहणसाहण न०(परिणामाऽऽलम्बनग्रहणसाधन) परिणमनं परिणामः, अन्तर्भूतणिजर्थात् व्यञ्जनात् घञ् 5-3-132 इति पत्र प्रत्ययः / परिणामाऽऽपादनमित्यर्थः / आलम्व्यत इत्यालम्बानम्, भावेऽनट्प्रत्ययः / गृहीतिर्ग्रहणम्, तेषां साधनम् साध्यतेऽनेनेति साधनम् / योगसंधिवीर्यम् "करणाऽऽधारे" (513 // 126) इत्यनट्प्रत्ययः / वीर्ये, कर्म 5 कर्म० ('जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1614 पृष्ठे व्याख्यातम्) परिणामि(ण)त्रि० (परिणामिन) अन्यथा चान्यथा च भवतोऽप्यन्वयित्वं परिणामः, स विद्यते यस्य स परिणमी / षो० 16 विव० / परिणमनं प्रतिसमयमपरापरपर्यायेषु गमनं परिणामः / स नित्यमस्यास्तीति परिणामी। परिणामस्वभावे, यथा-जैनसम्मत आत्मा। रत्ना०७ परि। परिणन्तुं प्रवर्तितु शीलं यस्य तत् / आविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामशालिनि, यथा सुवर्ण कटकाऽऽदिरूपेण / स्था० 10 ठा० परिणामिय त्रि० (परिणामित) परिणामान्तरमापादिते, भः 12 श० 430 / अचित्तीकृते, कल्प 3 अधि०६ क्षण। शस्त्रपरिणामितानि शस्त्रेण स्वकायपरकायाऽऽदिना निर्जीवीकृतं वर्णगन्धरसाऽऽदिभिश्च परिणमितं हिंसाप्राप्तम्। सूत्र०२ श्रु०१ अ० / आतु०। * परिणामिक पुं० परिणमनं द्रव्यस्य तेन तेन रूपेण वर्तनं भवन परिणामः, स एव पारिणामिकः, तत्र भवस्तेन वा निवृत्त इति वा पारिणामिकः / अनु० अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्यैव तद्भावगमनलक्षणे तन्निर्वृत्तलक्षणे वा भावभेदे, स च साधनाऽऽदिभेदेन द्विविधः, तत्र सादिर्जीर्ण वृतांऽऽदिना तदभावस्य सादित्यात्। अनादिपारिणामिकस्तुधर्मास्तकायाऽऽदीनाम्, तद्भावस्य तेषामनादित्वात् / स्था० अ० ठा० / भ० / अनु० / स च द्विविधः-सादिरनादिश्च / तत्र धर्मास्तिकायाऽऽद्यरूपिद्रव्याणामनादिः परिणामः, अनादिकालात्तद्रव्यत्वेन तेषां परिणतत्वाद, रूपिद्रव्याणां तु सादिः परिणामः / अनु०। से किं तं पारिणामिए? पारिणामिए दुविहे पण्णत्ते / तं जहासादिपारिणामिए अ, अणादिपारिणामिए अ / से किं तं सादिपारिणामिए? साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा"जुण्णसुरा जुण्णगुलो, जुण्णघयं जुण्णतंदुला चेव। अब्भा य अब्भरुक्खा, संझा गंधव्वणगरा य॥१॥" उक्कावाया दिसादाहा गज्जियं विजू णिग्घाया जूवया जक्खादित्ता धूमिया महिआ रयुग्धाया चंदोवरागा सूरोवरागा चंदपरिवेसा सूरपरिवेसा पडिचंदा पडिसूरा इंदधणू उदगमच्छा कविहसिआ अमोहा वासा वासधरा गामा णगरा घरा पटवता पाताला भवणा निरया रयणप्पहा सक्करप्पहा बालुअप्पहा पंकप्पहा धूमप्पहा तमप्पहा तमतमप्पहा सोहम्मे० जाव अचुते गवेज्जे अणुत्तरे इसिप्पभारा परमाणुपोग्गले दुपएसिए० जाव अणंतपएसिए। से तं साइपारिणामिए / से किं तं अणाइपारिणामिए? अणाइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, अद्धसमए, लोके, अलोके भवसिद्धिआ, अभवसिद्धिआ। से तं अणादिपारिणामिए / से तं पारिणामिए। (से किंतं इत्यादि) सर्वथा अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्य यद्रूपान्तरेण भवने परिणमनं सपरिणामः / तदुक्तम्-"परिणामो ह्यन्तिरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम्। न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः / / 1 / / " इति। स एव तेन वा निवृत्तः, परिणामिकः। सोऽपि द्विविधः-सादिरनादिश्च / तत्र सादिपरिणामिको (जुण्णसुरेत्यादि) जीर्णसुराऽऽदीनां जीर्णत्वपरिणामास्य सादित्वात् सादिपारिणामिकता। इह चोभयावस्थयोरप्यनुगतस्य सुराद्रव्यस्य नव्यतानिवृत्तौ जीर्णतारूपेण भवनं परिणाम इत्येवं सुखप्रतिपत्त्यर्थं जीर्णानां सुराऽऽदीनां ग्रहणम्, अन्यथा सूरेष्वपि तेषु सादिपारिणामिकता अस्त्येव, कारणद्रव्यस्यैवनूतनसुराऽऽदिरूपेण परिणतेः, अन्यथा कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गाद्, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, स्थानान्तरवक्तव्यत्वादस्यार्थस्येति। अभ्राणि सामान्येन प्रतीतान्येव, अभवृक्षास्तु तान्येव वृक्षाऽऽकारपरिणतानि, सन्ध्याकालनीलाऽऽद्यभ्रपरिणतिरूपा प्रतीतैव, गन्धर्वनगराण्यपि सुरपद्मप्रासादोपशोभितनगराऽऽकार तया तथाविधनभः परिणतपुद्गलराशिरूपाणि प्रतीतान्येव। उल्कापाता अपि व्योमसंमूर्छितज्वलनपतनरूपाः प्रसिद्धा एव, दिग्दाहास्त्वन्यतरस्यां दिशि छिन्नमूलज्वलनज्वालाकरालिताम्बरप्रतिभासरूपाः प्रतिपत्तव्याः, गर्जितविद्युन्निर्घाताः प्रतीताः। यूपकास्तु"संझाछ्यावरणो, य जूयओ सुक्कदिण तिन्नि।'' इति गाथादलप्रतिपादितस्वरूपा आवश्यकादवसेया, यक्षादीप्तकानि नभोदृश्यमानाग्निपिशाचाः, धूमिका रूक्षा प्रविरला धूमामा प्रतिपत्तव्या, महिका तु स्निग्धा घना, सिन्धत्वादेव भूमौ पतिता सार्द्रतृणाऽऽदिदर्शनद्वारेण लक्ष्यते, रजउद्धातो रजस्वला दिशः, चन्द्रसूर्योपरागा राहुग्रहणानि, बहुवचनं चाऽत्रार्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रवर्तिचन्द्रार्काणां युगपदुपरागभावात् मन्तव्यमिति चूर्णिकारः। चन्द्रसूर्यपरिवेषाश्चन्द्राऽऽदित्ययोः परितो वलयाऽऽकारपुद्गलपरिणतिरूपाः सुप्रतीता एव, प्रतिचन्द्रः उत्पाताऽऽदिसूचको द्वितीयश्चनद्रः, एवं प्रतिसूर्योऽपि / इन्द्रधनुःप्रसिद्धमेव, उदकमत्स्यास्त्विन्द्रधनुः खण्डान्येव, कपिहसितान्यकस्मान्नभ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामिय 616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणामिया सि ज्वलभीमशब्दरूपाणि, अमोघाः सूर्यबिम्बादधः कदाचिदुपलभ्यमानशकटोर्द्धिसंस्थितश्यामाऽऽदिरेखाः, वर्षाणि भरताऽऽदीनि, वर्षधरास्तु हिमवदादयः, पातालाः पातालकलशाः, शेषास्तु ग्रामाऽऽदयःप्रसिद्धा एव। अत्राऽऽहननु वर्षधराऽऽदयः शाश्वतत्वात्न कदाचितद्भावं मुञ्चन्ति तत्कथं सादिपारिणामिकभाववर्तित्वं तेषाम्? नैतदेवम्, तदाकारमात्रतयैव तेऽवतिष्ठमानाशाश्वता उच्यन्ते, पुद्गलास्त्वसंख्येयकालादूर्व न तेष्वेवावतिष्ठन्ते, किं त्वपरापरे तद्भावेन परिणमन्ति, तावत्कालादूर्द पुद्रलानामेकपरिणामेनाऽवस्थितेः प्रागेव निषिद्धत्वादिति सादिपारिणामिकता न विरुध्यते, अनादिपारिणामिके तु धर्मास्तिकायाऽऽदयः, तेषां तद्रूपतया अनादिकालात्परिणतः, वाचनान्तराण्यपि सर्वाण्यक्तानुसारतो भावनीयानि / (से तं इत्यादि) निगमनद्वयम्। अनु०। आभ्यन्तरचित्ते, "परिणामियं पमाणं, णिच्छयमवलंबमाणाणं (81)" जी०१४ अधि०। परिणामिया स्त्री० (पारिणामिकी) परिसमन्तानमनं परिणामः / सुदीर्घकालपूर्वापरपर्यालोचनजन्य आत्मनो धर्मविशेषः स प्रयोजनमस्थाः पारिणामिकी / नं० / परिणामजन्ये बुद्धिभेदे, आ०म० 1 अ०। संप्रति पारिणामिकया लक्षणमाहअणुमाणउद्दिटुं-तसाहिया वयविवागपरिणामा। हियनिस्सेसफलवई, बुद्धी परिणामिया नाम / / 11 / / "अणुमाण'' इत्यादि। लिङ्गात् लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानं, तच स्वार्थानुमानमिह द्रष्टव्यम्, अन्यथा हेतुग्रहणस्य नैरर्थक्याऽऽपत्तेः। अनुमानप्रतिपादकं ववो हेतुः, परार्थानुमानमित्यर्थः / अथवा-ज्ञापकमनुमान कारकं हेतुः, दृष्टान्तः प्रतीतः। आह अनुमानग्रहणेन दृष्टान्तस्य गतत्वादलमस्योपन्यासः। न अनुमानस्य क्वचिद्दृष्टान्तमन्तरेणाऽन्यथानुपपत्तिग्राहकप्रमाणवलनप्रवृत्तेः / यथा सात्मकजीवच्छरीरं प्राणाऽऽदिमत्त्वान्यथानुपपत्तेः, न च दृष्टान्तोऽनुमानस्याङ्गम्। यत उक्तम्-"अन्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत् त्रयेण किं ततः पृथग्दृष्टान्तस्योपादानम्। तत्र साध्यस्योपमाभूतो दृष्टान्तः। तथा चोक्तम्-"यः साध्यस्योपमाभूतः स दृष्टान्त इति कथ्यते।" अनुमानहेतुदृष्टातैः साध्यमर्थ साधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका / तथा कालकृतो देहावस्थाविशेषो वयः, तद्विपाके परिणामः पुष्टता यस्याः सा वयोविपाकपरिणामा / तथा हितमभ्युदयो निःश्रेयसं मोक्षः ताभ्यां फलवती, ते द्वे अपि तस्याः फले इत्यर्थः / बुद्धिः पारिणामिकी नाम। नं०। (आव० 1 अ०६४८ गाथा)। अस्या अपि शिष्यगुणहितायोदाहरणैः स्वरूपं प्रकटयति "अभये' इत्यादि गाथा त्रयम्अभए सेट्ठि कुमारे, देवी उदिओइए हवइ राया। साहू य नंदिसेणे, धणदत्ते सावय अमचे / / 12 / / खमए अमच्चपुत्ते, चाणक्के चेव थूलिभद्दे य / नासिक्कसुंदरीनं-दे वइरे परिणामिया बुद्धी।।१३।। चलणाहए आमडे, मणी य सप्पे य खग्गि थूभिंदे। परिणामियबुद्धीए, एवमाई उदाहरणा ।।१४।।नं०। (अभए त्ति) अभयकुमारस्य यचण्डप्रद्योतादरचतुष्टय मार्गण, यत्तु चण्डप्रद्योतं वध्वा नगरमध्येनाऽऽरटन्तं नीतवानित्यादि सा पारिणामिकी बुद्धिः / (सेट्टि त्ति) काष्ठ श्रेष्ठी, तस्य यत् स्वभार्यादुश्चरितमवलोक्य प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकरणं, यच पुत्र राज्यमनुशासति वर्षाचतुर्मासिकानन्तरं विहारक्रमं कुर्वतः पुत्रसमक्ष धिग्जातीयैरूपस्थापिताया व्यक्षरिकाया आपन्नसत्त्वायास्त्वदीयोऽयं गर्भः त्वं च ग्रामान्तरं प्रति चलितः ततः कथमहं भविष्यामीति वदन्त्याः , प्रवचनापयशोनिवारणाय यदि मदीयो गर्भः ततो योनेविनिर्गच्छतु, नो चेदुदरं भित्त्वा निर्गच्छत्विति यद् शापप्रदानं सा परिणामिकी बुद्धिः / (कुमारे ति) मोदकप्रियस्य कुमारस्य प्रथमे वयसि वर्तमानस्य कदाचिद् गुणन्या (?) गतस्य प्रमदाऽऽदिभिः सह यथेच्छ मोदकान् भक्षितवतो जीर्णरोगप्रादुर्भावादतिपूतगन्धि वातकायमुत्सृजतो या उद्भूता चिन्ता / यथा अहो तादृशान्यपि मनोहराणि कणिकाऽऽदीनि द्रव्याणि शरीरसंपर्कवशात् पूतिगन्धानि संजातानि, तस्मात् धिग् इदम् अशुचि शरीरं, धिग्व्यामोहो, यदेतस्यापि शरीरस्य कृते जन्तुः पापान्यारभते, इत्यादिरूपा सा परिणामिकी बुद्धीः तत ऊर्द्ध तस्य शुभशुभतराध्यव्यवसायभावतोऽन्तर्मुहूर्तेन केवल ज्ञानोत्पत्तिः। (देवी त्ति) देव्याः पुष्पवत्यमिधानायाः प्रव्रज्यां परिपाल्य देवत्वेनोत्पन्नायाः यत्पुष्पचूलाऽभिधानायाः स्वपुत्र्याः स्वप्ने नरकदेवलोकप्रकटनेन प्रबोधकरणं सा पारिणामिकी बुद्धिः / (उदिओदए ति) उदितोदयस्य राज्ञः श्रीकान्तपतेः पुरिमतालपुरे राज्यमनुशासतः श्रीकान्तानिमित्तं वाराणसीवास्तव्येन धर्मरुचिना राज्ञा सर्वबलेन समागत्य निरुद्धस्य प्रभूतजनपरिक्षयभयेन यत् वैश्रणमुपवासं कृत्वा समाहूय सनगरस्याऽऽत्मनोऽन्यत्र संक्रामणं सा परिणामिकी बुद्धिः / (साहू य नंदिसेण त्ति) साधोः श्रेणिकपुत्रस्य नन्दिषेणस्य स्वशिष्यस्य व्रतमुज्झितुकामस्य स्थिरीकरणाय भगवद्वर्द्धमानस्वामिवन्दननिमित्तचलितमुक्ताऽऽभरणश्वेताम्बरपरिधानरूपरमणीयकविनिर्जितामरसुन्दरीकस्वान्तः पुरदर्शनं कृतं सा परिणामिकी बुद्धिः, स हि नन्दिषेणस्य तादृशमन्तः, पुरं नन्दिषेणपरित्यक्तं दृष्ट्वा दृढतरं संयमे स्थिरो बूभव। (धणदत्ते ति) धनदत्तस्य सुंसुमाया निजपुत्र्याश्चिलातीपुत्रेण मारितायाः कालमपेक्ष्य यन्मांसभक्षणं सा पारिणामिकी बुद्धिः / (सावगो त्ति) कोऽपि श्रावकः प्रत्याख्यातपरस्त्रीसंभोगः कदाचिन्निजजायासखीमवलोक्य तत्रातीवाध्युपपन्नः, तं च तादृशं दृष्ट्वा तद्भार्याऽचिन्तयत्, नूनमेवं यदि कथमप्येतस्मिन्नध्यवसाने वर्तमानो म्रियते तर्हि नरकगति तिर्यग्गतिं वा याति, तस्मात्करोमि किञ्चिदुपायमिति / तत एवं चिन्तयितत्वा स्वपतिमभाणीत् मात्वमातुरी भूरहमेतां विकालवेलायां संपादयिष्यामि, तेन प्रतिपन्न, ततो विकालवेलायामीषदन्धकारे जगति प्रसरति स्वसख्या वस्त्राण्याभरणानि च परिधाय सास्वसखीरूपेण रहसि तमुपासृपत् / स च सेयं मद्भार्यासनीत्यवगम्य तां परिभुक्तवान्, परिभोगेच कृतेऽपगतकामाध्यवसायोऽस्मरचप्राग्गृहीतंव्रतं, ततो व्रतभङ्गो मे समुदपादीति खेदं कर्तुं प्रवृत्तः, ततस्तद्भार्या तस्मै यथावस्थित निवेदयामास ततो मनाक् स्वस्थीबभूव गुरुपादमूल च गत्वा दुष्टमनः संकल्पनिमित्तव्रतभङ्गशुद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं व्रतिपन्नवान् श्राविकायाः पारि Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामिया 617 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणामिया णाभिकी बुद्धिः / (अभव्वे त्ति) वरधभुपितुरभात्यस्य ब्रह्मदत्त कुमारविनिर्गमनाय यत्सुरङ्गाखाननं सा परिणामिकी बुद्धिः / (खमए | ति) क्षपकस्य कोपवशेन मृत्वा सर्पत्वेनोत्पन्नस्य ततोऽपि मृत्वा जातराजपुत्रस्य प्रव्रज्याप्रतिपतो चतुरः क्षापकान् पर्युपासीनस्य यद्भोजनवेलायां तैः क्षपकैः पत्रि निष्ठयूतनिक्षेयेऽपि क्षभाकरणमात्मनिन्दनं क्षपकगुणप्रशंसा। पारिणामिकी बृद्धिः। (अमच्चपुते त्ति) अभात्यपुत्रस्य वरधनुनाम्नो ब्रह्मदत्तकुमारविषये दीर्घपृष्टस्वरूपज्ञापनाऽऽदिषु तेषु तेषु प्रयोजनेषु पारिणामिकी बुद्धिः / (चाणक्के त्ति) चाणक्यस्य चन्द्रगुप्ते राज्यमनुशासति भाण्डगारे निष्ठिते सति यदेकादेवसाऽश्वाऽऽदिवाचन सा पारिणामिकी बृद्धिः / (थूलभद्दे त्ति) स्थूलभद्रस्वामिनः पितरि मारिते नन्देनामात्यपदपरिपालनाय प्रार्थ्यमानस्यापि यत्प्रव्रज्याप्रतिपात्त करणं सा पारिणामिकी बुद्धिः / (नासिक्कसुंदरीनंदे त्ति) नासिक्यपुरे सुन्दरीभर्तुः नन्दस्य भ्रात्रा साधुना यन्मरुशिरसि नयनं, यच देवमिथुनकदर्शनं सा पारिणामिकी बुद्धिः / (वइर त्ति) वज्रस्वामिनो बालभावेऽपि वर्तमानस्य मातरमवगणय्य संघवहुमानकरणं सा परिणामिकी बुद्धिः / (चलणाऽऽहए ति) कोऽपि राजा तरुणैर्युद्ग्राह्यते, यथा-देव! तरुणा एव पार्वे ध्रियन्तां, किं स्थविरैर्वलोपलित-विशोभितशरीरैः? ततो राजा तान् परीक्षानिमित्त ब्रूते-यो मां शिरसि पादेन ताडयति तस्य को दण्ड इति! प्राहुः-तिल तिल मात्राणि खण्डानि स विकृत्य मार्यते इति / ततःस्थविरान पप्रच्छ / तेऽवोचन्-देव ! परिभाव्य कथयामः / ततस्तैरकान्ते गत्वा विन्तितम्-फो नाम हृदयवल्ल तां देवीं व्यतिरिव्यान्यो देवं शिरसि ताडयितुमईष्ट हदयवल्लभा देवी विशेषतः संमाननीया, ततस्ते समागत्य राजान विज्ञपयामासुः स विशेषतः सत्कारणीय इति / ततो राजा परितोषमुपागतः तान् प्रशंसितवान् को नाम वृद्धान्विहायान्य एवंविधबुद्धिभाग्भवति / ततः सदैव स्थविरान् पायें धारयामास, न तरुणानिति राज्ञः स्थविराणा च परिणाभिकी बुद्धिः / (आमड ति) कृत्रिममामलकमति-कठिनत्वादकात्वाच केनापि यथावस्थितं ज्ञानं तस्य पारिणाभिकी बुद्धिः / (मणि त्ति) कोऽपि सर्पो वृक्षमारुह्य सदैव पक्षिणामण्डानि भक्षयति, अन्यदा च वृक्षस्थितो निपातितः, मणिश्च तस्य तत्रैव क्वधित्प्रदेशे स्थितः, तस्य च वृक्षास्याधस्तात्कूपोऽस्ति, उपरिस्थितमणिप्रभाविच्छुरितं सकलमपि कूपोदकं रक्तीभूतभुपलक्ष्यते कूपादाकृष्टमुदकं स्वाभाविकं दृश्यते एतच्च वालकेन केनापि निजयितुः स्थविरस्य निवेदितं, सोऽपि तत्र समागत्य सम्यक् परिभाव्य मणि गृहीतवान्, तस्य पारिणामिकी बुद्धिः। (सप्पे त्ति) सर्पस्य चण्डकौशिकस्य भगवन्तं प्रति या विनडत्-ईदृगयं महात्मेत्यादिका पारिणाभिकी बृद्धिः / (खग्ग त्ति) कोऽपि श्रावकः प्रथमयौवनमदमोहितमना धर्मभकृत्वा पञ्चत्वमुपगतः खङ्गः समुप्तन्नः यस्य गच्छतोयोरपि पार्श्वयोः चर्माणि लम्बन्ति स जीवविशेषः स चाटव्यां वतुः पथे जनं मारयित्वा खादयति अन्यदा च तेन पथा गच्छन् साधून दृष्टवान्, स चा ऽऽक्रभितुं न शक्रोति, ततस्तस्य जातिस्मरण भक्तप्रत्याख्यानं देवलोकगमनं तस्य पारिणा- | मिकी बुद्धिः / (थूभति) विशालायां पुरि कूलबालकेन विशालाभङ्गाय यन्मुनिसुवतस्वाभिपादुकास्तूपोत्खनन सा तस्य पारिणामिकी बुद्धिः। नं विशेषत आसामर्थः कथानकेभ्य एवायसेयः / तानि चामूनि"अभयस्स कह परिणामिया बुद्धी? जया पजोओ रायगिह ओरोहति णवर, पच्छा तेण पुवं निक्खित्ता खंधावारनिवेसजाणएणं, कहिएणट्ठो, एसा। अहवा-जाहे गणियाए छलेण णीओ बद्धो जाव तोसिओ चत्तारि वरा चितियं चऽणेण मोयावेमि अप्पगं, वरो माग्गओअग्गी अइमित्ति, मुक्को भणइ अहं छलेण आणीओ, अहं नं दिवसओ पञ्जओ हीरद त्ति कदंत नेमि, गओ प रायगिह, दासो उम्मत्तओ, वाणियदारियाओ, गहिओ, रडतो हिओ, एवमाइयाओ बहुयाओ अभयरस परिणामियाओ बुद्धीओ 1 / / "सेटि" ति / कट्ठोणामे सेट्टी एगत्थ णयरे वसइ, तस्स वज्जा नाम भजा, तस्स नेचइल्लो देवसम्मो गाम वंभणो, सेट्टी दिसाजत्ताए गओ, भज्जा से तेण समं संपलग्गा, तस्स य घरे तिन्नि पक्खीसुओ य, मयणसलागा, कुक्कुडगो यत्ति। सो ताणि उवणिक्खिविता गओ सोऽवि धिजाइओ रत्ती अईइ. मयणसलागा भणइ, को तायस्स न वीहेइ?, सुयओ वारेइजो अंबियाए देइओ अम्हं पि तायओ होइ, सा मयणा अणहियासिया धिज्जाइयं परिवसइ, मारिया तीए, सुयओ ण मारिओ। अण्णया साहू मिक्खस्सतं गिह अइयया, कुकुडयं पेच्छिऊण एगो साहू दिसालोथं काऊण भण्णइ-जो एयस्स सीसं खाइ सो राया होइ ति, तं कहिं वि तेण धिज्जाइएणं अंतरिएणं सुयं, तं भणइ-मारेहि खाभि, सा भणइ-अन्नं आणिजइ, मा पुत्तभंड संवट्टियं, निब्बंधे कए मारिओ जाव पहाउंगओ, ताव तीसे पुत्रो लेहसालाऔ आगओ, तं च सिद्धतम्मंसं सो रोवइ सीसं दिपणं, सो आगओ भाणए छूट, सीसं भग्गइ भणइ-वेडस्स दिण्णं, सो रूडो एयस्स कजे मए माराविओ, जइ परंएयस्ससीसंखाएज्जा तो राया होज्ज, कथं निब्वधे ववसिया, दासीए सुयं, तओ चेव दारयं गहाय पलाया अण्णं णयरं गयाणि, तत्थ अपुत्तो राया मओ, आसेण परिक्खिओ सो राया जाओ / इआ य कट्ठो आगओ, णिययघरं सडियपडियं पासइ, सा पुच्छिया, ण कहेइ, सुभएणं पंजरमुक्केण कहियं वंभणाइसंबंधा सो तहेव, अलं संसारववहारेण, अहं एतीसे कएण किलेसमणुहवाभि एसा वि एवंविह त्ति पव्वइओ, इयराणि तं चेव णयरं गयाणि जत्थ सो दारओ राया जाओ, साहू वि विहरंतो तत्थेव गओ, तीए पव्वभिन्नाओ, निक्खाए समं सुवण्णं दिण्णं, कूवियं गहिओ, रायाए मूलंणीओ, धावीएणाओ, ताणि निव्विसयाणि आण ताणि, पिया भोगोहे निमंतिआ, नेच्छइ, राया सड्ढो कओ, वरिसारत्ते पुण्णे वपंतस्स अकिरियाणिमित्त धिजाइएहिं दुवक्खरियाए उवट्टविआ.परिभट्टियारूवं कय, सा गुठ्विणीया अणुभवइ, तीए गहिओ, मा पवयणस्स उड्डाहो होउ त्ति भणइ-"जइमर तो जोणीए णीउ'' अह ण मए तो पोट्ठ भिंदिता णोउ, एवं भणिए भिन्न पोटु मया वन्नो य जाओ, सेट्टिस्स पारिणाभिगीइयं, जीए वा पव्वइओ त्ति० 2 / / 'कुमारो'-खुडुगकुमारो, सो जहा जोगसंगहेहिं, तस्स विपरिणामिगी 3 // "देवी 'पुप्फभद्दे णयरे पुप्फसेणो राया पुप्फबई देवी० तीसे दो पुत्तभंडाणिपुप्फचूलो, पुष्पचूला य / ताणि अणुरताणि भोगे भुजति, देवी पव्वइया, देवलोगे देवो उववण्णो, सो चिंतेइ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामिय 618 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणामिया जइ एयाणि एवं मरंति तो नरयतिरिएसु उववजिहिंति सुविणए सो तीसे नेरइए दरिसेइ, सा भीया पुच्छइ पासंडिणो, ते न याणंति, अन्निपुत्ता तत्थ आवरिया० ते सद्दाविया, ताहे सुत्तं कडंति।सा भणइ-किं तुम्हेहि वि सुविणओ दिट्ठो? सो भणइ-सुत्ते अम्ह एरिस दिट्ठपुणोऽवि देवलोए दरिसेइ० तेऽवि से अन्नियापुत्तेहिं कहिया, पव्वइया, देवस्स पारिणामिया बुद्धी, 4 / / "उदिओदए"पुरिमयाले णयरे ओदिओदओ राया सिरिकता देवी, सावगाणि दोण्णि वि, परिवाइया पराजिया दासीहि मुहमक्कडियाहिं वेलविया निछूढापओसमावण्णा, वाण्णरसीए धम्मरुई राया, तत्थ गया, फलयपट्टियाए सिरिकताए रूवं लिहिऊण दाएइ धम्मरुइस्स रणो, सो अज्झोववन्नो, दूयं विसज्जेइ, पडिहओ अवमाणिओ निच्छूढो, ताहे सव्वबलेणागओ, एयरं रोहेइ, उदिओदओ चिंतेइ-किं एवड्डण जणक्खएण कएण? उववासं करेइ, वेसमणेण देवेण सणयरं साहरिओ। उदिओदयस्स परिणामिया बुद्धी, 5 // "साहू य नंदिसेणो "त्ति। सेणियपुत्तो नंदिसेणो, सीसो तस्स ओहाणुप्पेही, तस्स चिंता (जाया)-भगवं जइ रायगिह जाएजा तो देवीओ अन्ने य पिच्छिऊण साइसए जइ थिरो होज त्ति, भट्टारओय गओ, सेणीओ उणणीति संते पुरो, अन्ने य कुमारा सअंतेउरा, णं दिसे णस्स अंतेउर सेतंवरवसणं पउमिणि मज्झे हंसीओ वा मुक्काभरणाओ सव्वासिं छायं हरति, सो ताओ दटूण चितेइ-जह भट्टारएण मम आयरिएण एरिसियाओ मुक्काओ किमंग पुण मज्झ मंदपुनस्स असंताण परिचइयं? तव्यियाणइ, णिव्वेयमावण्णो आलोइयपडिकतो थिरो जाओ। दोण्ह वि परिणामिगी बुद्धी, 6 // धणदत्तो सुसुमाए पिया परिणामेइ-जइ एयं न खामो तो अंतरा मरामो ति, तस्स परिणामिगीबुद्धी, 7 // सावओ मुच्छिओ अज्झोववण्णो सावियाए वयंसियाए, तीसे परिणामो-मा मरिहि त्ति अट्टवसट्टो नरएसु तिरिएसुवा (मा) उववजिहि ति तीसे आभरणेहिं विणीओ संवेगो कहणं च, तीए पारिणामिया बुद्धी, 8 11 आमच्चोवरधणुपिया जउघरे कए चिंतेइ-मा मारिओ होइएस कुमारो, कहिं पिरक्खिज्जइ, सुरंगाए नीणिओ, पलाओ, एयस्स वि परिणामिया बुद्धी, 6 / / अन्ने भणंति-एगो राया देवी से अइप्पिया कालगया, सो य मुद्धो, सो तीए वियोगदुक्खिओ न स सरीरठिई करेइ, मंतीहि भणिओ-देव! एरिसी संसारहिइ ति किं कीरइ? सो भणइ-नाहं देवीए सरीरट्टिइं अकरेंतीए करेमि, मंतीहिं परिचिंतयंन अन्नो उवाओ त्ति। पच्छा भणियं-देव! देवी सगं गया तं तत्थ द्विइयाए चेव से सव्वं पेसिज्जउ, लद्धकयदेवीट्ठिईपउत्तीए पच्छा करेजसुति, रना पडिसुय, माइहाणेण एगो पेसिओ, रण्णो आगंतूण साहइ-कया सरीरट्टिई देवीए, पच्छा राया करेइ, एवं पइदिणं करेंताण कालो वचइ, देवीपेसणववएसेण बहु कडिसुत्तगाइ खज्जइ रया, एगेण चिंतियं अहं पि खत्तिं करेमि, पच्छा राया दिह्रो, तेण भणिओ कुतो तुमं? भणइ देव! सग्गाओ, रण्णा भणियं देवी दिट्ट ति, सो भणइ-तीए चेव पेसिओ कडिसुत्तगाइनिमित्तं ति, दवावियं से जहिच्छियं किं पिण संपडइ, रण्णा भणियं कया गमिस्ससि? तेण भणियं-कल्लं, रण्णा भणियं-कल्लं ते संपाडेरस, मंती आदिवासिग्घं संपाडेह, तेहिं चिंतियंविनद्वं कर्ज, को एत्थ उवाओ त्ति विसण्णा, एगेण भणियं-धीरा होह अहं भलिस्सामि, तेण तं संपाडिऊण राया भणिओ-देव ! एस कहं जाहि त्ति? रण्णा भणियंअन्ने कहं जंतगा? तेण भणियं--अम्हे जं पहवेंता तं जलणप्पवेसेण, न अण्णहा सग्गं गमिस्सइ, रण्णा भणियं-तहेव पेसेह, तहा आढत्ता, सो विसण्णो, अण्णो य धुत्तो वायालो रण्णो समक्खं बहुं उवहसइ० जहा-- देविं भणिज्जसि-सिणेहवंतो ते राया, पुणो वि जं कजं तं संदिसेन्जासि, अण्णं च इमंच बहुविहं भणेज्जासि, तेण भणियं-देव ! णाहमेत्तिगं अविगलं भणि जाणामि, एसो चेव लट्ठो पेसिज्जउ, रण्णा पडिसुयं, सो तहेव णिजिउमाढत्तो, यरो मुक्को, अवरस्स माणुसाणि, से विसण्णाणि पलवतिहा! देव! अम्हेहिं कि करेजामो? तेण भणियं नियतुंड रक्खेजह, पच्छा मंतीहिं खरंडियमुक्को, मडगं द४, मंतिस्स पारिणामिया,६ // "खमए'' त्ति, खमओ चेल्लएण समं भिक्खं हिंडइ, तेण मंडुक्कलिया मारिया, आलोयणवेलाए णालोएइ, खुड्डएणं भणियं-आलोएहि त्ति, रुटो आहाणामि त्ति थंभे अब्भडिओ मओ, एगत्थ विराहियसामण्णाणं कुले दिविविसो सप्पो जाओ, जाणंति परोप्पर, रत्तिं चरति मा जीवे मारेहामि त्ति, फासुगं आहारेमित्ति। अण्णयारण्णो पुत्तो अहिणा खइओ मओ य, राया पओसमावण्णो, जो सप्पं मारेइतस्स दीणारं देइ, अण्अया आहिँडिएण ताणं रेकाओ दिवाओ, तं बिलं ओसहीहिं धमति, सीसाणि णिताणि छिदइ, सो अभिमुहो न णीइ, मा मारेहामि किंचि त्ति जाइस्सरणतणेण, तं निग्गयं छिंदइ, तेण पच्छा रायाए उवणीयाणि, सो राया णागदेवयाए बोहिजइ, बरो दिण्णोकुमारो होहि त्ति, सो खमगसप्पो मओ समाणो तत्थ राणियाए णागदत्तो पुत्तो जाओ, उम्मुक्कबालभावो साहु दटुंजाई संभरित्ता पव्वइओ। सोय छुहालुगो अभिग्गहं गेण्हदमएण रूसियव्वं ति, दोसीणस्स हिंडइ, तस्स य आयरियस्स गच्छे चत्तारि खमग्गा, मासिओ दोमासिओ तिमासिओ चउमासिओ, रत्तिं देवया आगया, ते सव्वे खमए अइक्कमित्ता खुड्डयं वंदइ, खमएण निग्गच्छंती हत्थे गहिया, भणिया य–कडगपूयणे! एयं तिकालभोइयं वंदसि, इमे महातवस्सी न वंदसि त्ति, सा भणइ-भावखमगं वंदामि न दव्यखमए त्ति, गया, पभाए दोसीणगस्स गओ, निमंते त्ति, एगेण गहाय पाए खेलो छूढो, भणइ-'मिच्छा मि दुक्कड' खेलमल्लो तुम्भं णोवणीओ, एवं सेसेहि वि०जे मेउमारद्धो, तेहिं वारिओ० निव्वेगमावण्णो, पंचवि सिद्धा, विभासा, सव्वेसिं परिणामियाबुद्धी, 10 / / अमचपुत्तो वरधणू, तस्स तेसु तेसु पओयणेसु पारिणामिआ, जहा माया मोयविया, सो पलाइओ, एवमाइ सव्वं विभासियव्वं / अण्णे भणंतिएगो मंतिपुत्तो कप्पडियराय-कुमारण समं हिंडइ, अण्णया निमित्तिओ घडिओ, रत्तिं देवकुंडिसंठियाणं सिवा रडइ, कुमारेण नेमित्तिओ पुच्छिओ किं एसा भणइ त्ति, तेण भणियं इम भणइ-इमसि नदितित्थस्मि पुराणियं कलेवरं चिट्ठइ, एयस्स कडीए सतं पायंकाणं, कुमार! तुमं गिण्हाहि, तुज्झपायंका मम य कडे वरं ति, मुद्दियं पुण न सक्कुणोमि त्ति, कुमारस्स कोडु जायं, ते वंविय एगागी गओ, Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामिया 616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणामिया तहेव जायं, पायंके घेत्तूण पच्चागओ, पुणो रडइ, पुणो पुच्छिओ सो भणइ, चप्फलिगाइयं कहेइ, एसा भणइ कुमार ! तुज्झ वि पायंकसयं जायं मज्झ वि कलेवरं ति, कुमारो तुसिणीओ जाओ, अमच्चपुत्तेण चिंतियंपेच्छामि से सत्तं किं किवणत्तणेण गहिय आउ सोंडीरयाए? जइ किवणत्तणे कयं न एयस्स रजति नियत्तामि। पञ्चूसे भणइ-वचह तुब्भे, मम पुण सूल कजइन सक्कुणामि गंतु, कुमारेण भणियन जुत्त तुमं मोत्तूण गंतु, किं तु मा कोइ एत्थ मे जाणेहि त्ति तेण वच्चामो, पच्छा कुलपुत्तगघर णीओ समप्पिओ, तंच सध्वं पेजामोल्लं दिन्नं, मंतिपुत्तस्स उवयं जहासोंडीरयाए त्ति, भणियं चऽणेण–अस्थि मे विसेसो अओ गच्छामि, पच्छा गओ, कुमारेण रज पत्तं, भोगा वि से दिण्णा, एयस्स पारिणामिगी बुद्धी 11 / / चाणक्को, गोल्लविसए चणयग्गामो, तत्थ य चाणग्गो माहणो, सो य सावओ, तस्स घरे साहू ठिया, पुत्तो से जाओ सह दाढाहिं, साहूण पाएसु पाडिओ, कहियं च-राया भविस्सइत्ति, मा दुग्गई जाइ स्सइ त्ति दंता घट्ठा, पुणोऽवि आयरियाणं कहियं, भणइ, किं कजउ? एताहे बिंबतरिओ भविस्सइ, उम्मुक्कबालभावेण चोद्दसविजाठाणाणि आगमियाणि, सोय सावओ संतुट्टो, एगाओ भद्दमाहणकुलाओ भज्जा से आणिया। अण्णया कम्हि वि कोउते भाइघरं भज्जा से गया, केइ भणंति-भाइविवाहे गया, तीसे य भगिणीओ अण्णेसिं खद्धा दाणियाणं दिण्णेल्लियाओ, ताओ अलंकियधिभूसियाओ आगयाओ, सव्वोऽविपरियणो ताहिं समं संलवए त्ति, साएगते अत्थइ, अद्धृई जाया, घरं आगया, ससोगा, निब्बंधे सिट्ट, तेण चितियंनदो पाडलिपुत्ते देइ तत्थ वचामि, तओ कत्तियपुण्णिमाए पुटवण्णत्थे आसणे पढमे णिसण्णो, तं च तस्स सल्लीपतियस्स सया ठविजइ, सिद्धपुत्तो य णंदेण सम तत्थ आगओ भणइ एस बंभणो णंदवंसस्स छायं अक्कमिऊण टिओ, भणिओदासीएभगवं! वितीए आसणे णिवेसाहि, अत्थु वितिए आसणे कुडियं ठवेइ. एवं ततिए दंडयं, चउत्थे गणित्तियं, पंचमे जण्णो वइयं, धिट्टो त्ति निच्छूढो, पाओ उक्खित्तो, अण्णया य भण्णइ-"कोशेन भृत्यैश्च निवद्धमूलं, पुत्रैश्च मित्रैश्च विवृद्धशाखम्। उत्पाठ्य नन्दं परिवर्त्तयामि, महाद्रुमं वायुरिवोगवेगः / / 1 / / " निग्गओ मग्गइ पुरिसं, सुयं चऽणेण विवंतरिआ राओ होहामि त्ति नंदस्स मोरपोसगा, तेसिं गामं गओ परिव्वायगलिंगेणं, तेसिं च महत्तरधूयाए चंदपियणे दोहलो, सो समुदाणितो गओ, पुच्छंति, सो भणइ जइ इमं मे दारगं देह तो णं पाएमि चंद, पडिसुणेति, पडमंडवे कए तद्दिवसं पुण्णिमा, मज्झे छिडु कयं, मज्झगए चंदे सव्वरसालूहिं दव्वेहिं संजोएत्ता दुद्धस्स थालं भरियं, सदाविया पेच्छइ पिबइय, उवरिपुरिसो अच्छाडेइ, अवणीए जाओ पुत्तो चंदगुत्तो से नामंकयं, सोऽवि ताव संवड्डइ चाणक्को य धाउविलाणि मग्गइ। सो य दारगेहिं समं रमइ रायणीईए, विभासा, चाणको पडिएइ, पेच्छइ तेण विमग्गिओ अम्ह वि दिजउ, भणइ गावीओ लएहि, मा मारेला कोई, भणइ-"वीरभोजा पुहवी "णातं जहा विण्णाणं पि से अन्थि, पुच्छिओ कस्स त्ति? दारएहिं कहियं-परिव्वायगपुत्तो एसो, | अहं सो परिव्वायगो, जानुजा ते रायाण करेमि, पलाओ, लोगो मिलिओ, पाडलिपुत्तं रोहियं / णंदेण भग्गो परिव्वायगो, आसे हिं पिट्ठीओ लग्गो चंदगुत्तो पउमसरे निब्वुडो, इमो उपस्पृशति, सण्णाए भणइ बोलीणो त्ति। अन्ने भणंति-चंदगुत्तं पउमिणीसरे छुभित्ता रयओ जाओ, पच्छा एगेण जच्चवल्हीककिसोरगएण आसवारेण पुच्छिओ भणइएस पउमसरे निविट्ठो, तओ आसवारेण दिट्ठो, तओऽणेणघोडगो चाणकारस अल्लितो, खग्गं मुक्क, जाव निगुडिउं जलोयरणट्टयाए कंचुगं मिल्लइ, तावऽणेण खग्गं घेत्तूण दुहाकओ, पच्छा चंदगुत्तो हक्कारिय चडाविओ, पुणो पलाया, पुच्छिओऽणेण चंदगुत्तो ज वेलं तंसि सिट्ठो तं वेलं किं तुमे चिंतिय? तेण भाणयं धुवं एवमेव सोहणं भवइ, अज्जो चेव जाणइ त्ति, तओऽणेण चिंतियं-जोगो एसन विपरिणमइ ति। पच्छा चंदगुत्तो छुहाइओ चाणक्को तंठवेत्ता भत्तस्स अइगओ, वीहेइ य-माएत्थ नजेज्जा मोडोडस्स बाहिं निग्गयस्स पोट्ट फालियं, दहिकरं गहाय गओ, जिमिओ दारओ। अण्णया अण्णत्थ गामे रत्तिं समुयाणेइ, थेरीए पुत्तगभंडाणं विलेवी वट्टिया, एक्कण मज्झे हत्थो छूटो, दड्डो रोपइ. ताए भण्णद-चाणक्कमंगलयं, पुच्छिय, भणइ–पासाणि पढ़मं घेप्पति, गआ हिमवंतकूड, पव्वइओ राया, तेण समं मित्तया जाया, भणइ-समं समेण विभजामो रज्ज, उपवेंताण एगत्थ णयरं न पडइ, पविट्ठो तिदंडी, वत्थूणि जोएइ, इंदकुमारियाओ दिट्ठाओ, तासि तणएणण पडइ, मायाए णीणावियाओ, पडियं नयर पाइलिपुत्तं रोहियं नंदो धम्मवारं मग्गइ, एगेण रहेण जं तरसि तं नीणाहि, दो भजाओ एगा कणा दव्वं च णीणेइ, कण्णा चंदगुत्त पलोएइ, भणिया जाहि त्ति, ताहे विलग्गंतीए चंदगुत्तरहे एव अरगा भग्गा, तिदंडी भणइ-मा वारेहि, नवपुरिसजुगाणि तुज्झ वंसो होहि त्ति, अइयओ, दोभागीकयं रज्जा एगा कण्णमा विसभाक्यिा. तत्थ पव्वयगस्स इच्छा जाया, सा तस्स दिण्णा० अग्गिपरियं चणे विसपरिगओ मरिउमारद्धो भणइ-वयंस! मरिज्जइ, चंदगुत्तो रुभामि त्ति ववसिओ, चाणकण भिउडी कया, णियत्तो, दोवि रजाणि तस्स जायाणिानंदमणुस्सा चोरियाए जीवंति, चोरगाह मग्गइ, तिदंडी बाहिरियाए नलदाड मुइंगमारणे ददुआगओ, रण्णा सद्दाविओ, आरक्खं दिण्णं, वीसत्था कया, भत्तदाणेण सकुडुवा मारिया। आणाए--- वंसीहिं अंबगा परिक्खित्ता, विवरीए रुट्ठो, पलीविओ सव्यो गामो, तेहिं गामिल्लएहिं कप्पडियत्ते भत्तं न दिण्णं ति काउं। कोसनिमित्त पारिणामिया बुद्धीजूयं रमइ कूडपासएहि, सोयण्णं थाल दीणाराणं भरियं, जो जिणइ तस्स एयं, अहं जीणामि एगो दीणारो दायव्वो। अइचिर ति अन्नं उवायं चिंतेइ, णाणागराण भत्तं देइ मज्जपाणं च, मत्तेसु पणचिओ भणइ-"दो मज्झ धाउरत्ता, कंचणफुधिया तिदंड च। रायावियवसवत्ती, एत्थ विता मे होलं वाएहि। अएणो असहमाणो भणति गयपायेयस्स मत्तस्स उप्पइयस्स जोअणसहस्सं पए पए सयसहस्सं एत्थ वि ताभे होलं वाएहिं / अन्ना भणइ-तिलआढयस्स वुतस्स निष्फण्णस्स बहुसइयस्स तिले तिले सयसहस्संता मे होल वारहि। अण्णो भणइनवपाउसम्मि पुण्णाए गिरिणईयाए सिग्धवेगाए एगाहम Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामिया 620 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणिट्ठिय हियमेत्तेण नवणीएण पालि बंधामि एत्थ वि ता मे होलं वाएहि। अन्नो पारिणामिगी 16 // "खग्गी ति" सावयपुत्तो जोव्वणबलुम्मत्तो धम्म न भणइ जच्चाण नवकिसोराण तदिवसेण जायमेत्ताण केसेहिं नह छाएमि गिहराइ, मरिऊण खगिसु उव्ववण्णो, पिट्ठिस्स दोण्हिं वि पासेहिं जहा एत्थ विता मे होलं वारहि। अन्नो भणइ-दो गज्झ अस्थि रयणा सालि | पक्खरा तहा चम्माणि लंबंति अडवीए चउप्पहे जणं मारेइ, साहुणो य पसूई य गद्दभिया य छिन्ना छिन्ना वि रुहंति एत्थ वि ता मे होलं वारहि। तेणेव पहेण अइक्कमति, वेगेण आगओ, तेएणण तरइ अल्लिङ, चिंतेइ.अन्नो भणइ-सयसुकिलनिचसुयंधो भज्ज अणुव्वय नत्थिपवासो निरिणो / जाई संभरिया, पञ्चक्खाणं, देवलोगगमण। एयस्स पारिणामिगी 20 / / यदुपंघसओ एत्थ विता मे होलंवाएहि। एवं णाऊण रयणाणि मग्गिऊण थूभे-वेसालाए णयरीए णाभीए मुणिसुव्वयस्स थूभो, तस्स गुणेण कोहाराणि सालीण भरियाणि, गद्दभियाए पुच्छिआ छिन्नाणि 2 पुणो कूणियरस ण पडइ, देवया आगासे कूणियं भणइ-''समणो जइ पुणो जायंति, आसा एगदिवसजाया मग्गिया एग दिवसिय णवणीयं, एस कूलबालए मागहियं गणिय लभिस्सति। लाया य असोगचंदए, वेसालि पारिणामिया चाणकस्स बुद्धी 12|| यूलमद्दरस पारिणामिया पिइम्मि नगरिंगहेस्सइ।।१।।' सो मग्गिजा तस्स का उप्पत्ती?-एयरस आयरिमारिए णंदेण भणिओअमञ्चो होहि त्ति असोगवणियाए चिंतेइ-केरिसा यस्स चेल्लओ अविणीओ, तं आयरिओ अंबाडेइ, सो वेरं वहइ। अन्नया भोगा वाउलाणं ति पव्वइओ / रण्णा भणिया-पेच्छह मा कवडेण आयरिया सिद्धसिलं तेण समं वंदगा विलग्गा० उत्तरंताण वधाए सिला गणियाघर जाएजा, नितस्स सुणगमडेण वावण्णेण णासं ण गेण्हइ, मुक्का० दिट्टा आयरिएण, पाया ओसारिया इहरा मारिओ होतो, सावो पुरिसेहिं रण्णो कहिय, विरत्तभोगो त्ति सिरिओ ठविओ. थूलभद्दसा दिण्णो दुरात्मन्! इत्थीओ विणस्सिहिसि त्ति, मिच्छावाई एसो भउत्ति मिस्स पारिणामिया रणो य १३॥णासिक ण्वरं, णंदो वाणियगो, सुन्दरी काउं तावसाऽऽसमे अत्थइ, नईए कूले आयावेइ, पंथब्भासे जो सत्थो एइ तओ आहारो होइ, णईए केले आयावेमाणस्स सा गई अण्णओ से भजा, सुंदरिनंदो से नाम कय, तस्स भाया पव्वइयओ, सो सुणेइजहा सो तीए अज्झविवन्नो, पाहुणओ आगओ, पडिलाभिओ, भाणं पवूढा, तेण कूलवारओ नामंजायं, तत्थ अत्यंतो आगमिओ, गणियाओ सद्दावियाओ, एगा भणइ अहं आणेभि कवडसाविया जाया, सत्थेण तेणं गहियं, इह पत्थवियउ ति उजाणं निणिओ, लोगेण य भायणहत्थो गया, वंदइ उद्दाणे होइयम्मि चेइयाइं वंदामि तुब्भे य सुया, आगयामि, दिहो, तओ ण उवहसंतिपव्वइओ सुंदरिनंदो, तओ सो तहविगओ उज्जाणं, पारणगे मोदगा संजोइया दिन्ना, अइसारो जाओ, पओगेण ठविओ, साहुणा से देसणा कया, उमट्ठरागो तिन तीरइ मग्गे लाइउं, वेउव्विय उव्वत्तणाईहिं संभिन्नं वित्त, ओणिओ, भणिओण्णो वयणं करेहि, कह?, लाद्धिभं च भगवं साहू, तओऽणेण चिंतियन अण्णो उवाओ ति अहिंगयरेणं जहा वेसाली घेप्पइ, थूमो नीणाविओ, गहिया। गणिया कूलबालगाणं उवलेभिति, पच्छा मेरू पयट्टाविओ, न इच्छइ, अविओगिओ, मुहुत्तेण दोण्ह वि पारिणामिगी 21 / / इंदपाउयाओ चाणक्केण पुखभणियाओ, अणिपि, पडिसुए पयट्टो, मक्कजुयलं विठव्वियं। अन्ने भणतिसचक चेव, एसा पारिणामिया 22 // आव०१ अ०। परिणामज्ञायाम्, 'परिणामिय दिटुं, साहुणा भणिओ-सुंदरीए वानरीओ य का लट्ठयरी? सो भणइ परिणाम, जा जाणइ पुग्गलाणंतु।' पुद्गलानां विचित्रं परिणाम जानाति भगवं! अवडती सरिस व्व मेरुवमत्ति, पच्छा विज्जाहरनिहुण दिट्ट, तत्थ सा पारिणामिकी। व्य०५ उ०॥ पुच्छिओ भणइ तुल्ला चेव, पच्छा देवमिहुणं दिट्ट, तत्थ वि पुच्छिओ परिणाह पुं० (परिणाह) परिघौ, स्था० 2 ठा०३ उ०। शरीरविस्तरे, भणति-भगवं ! एईए अग्गओ वानरी सुंदरि त्ति, साहुणा भणियं थोवेण स्था० 8 ठा०। नातिस्थौल्ये, नातिदुर्बलतायाम्, बृ० 130 2 प्रक० धम्मेण एसा पाविज्जइ त्ति, तओ से उवगय, पच्छा पव्वइओ। साहुस्स विस्तारे, पाइ० ना०१६८ गाथा। परिणामिया बुद्धी 14 / वइरसामिस्स पारिणामिया-माया णाणुवत्तिया, परिणिज्जमाण त्रि० (परिणीयमान) दुःखं प्राप्यभाणे, "एगे रूवे सुगिद्धे मा संघो अवमन्निजिहिति त्ति, पुणो देवेहि उज्जेणीए वेउव्वियलद्धी दिन्ना, / परिणीयमाणे।" आचा०१ श्रु०५अ० 1 उ०। पाडलिपुत्ते मा परिमाविहि त्ति वेउव्वियं कयं, पुरियाए पवयणओहावणा परिणिट्ठा स्त्री० (परिनिष्ठा) संपूर्ती, सिद्धौ, "परिणद्विसत्तमए'' सप्तमे मा होहिति त्ति सव्वं कहेयव्वं 15|| चल णाहए राया तराणेहिं वुग्गाहिज्जइ, श्रवणे परिनिष्ठा भवति। एत दुक्तं भवति-गुरुवदनुभाषत एव सप्तमे श्रवणे। जहा थेरा कुमारम चा अयणिजंतु, सो तेसिं परिक्खणणिमित्तं भणइ- विशे०। आ० म०। जो रायं सीसे पारण आहणइ तरस को दंडो? तरुणा भणति, तिलं तिलं परिणिट्ठाण न०(परिनिष्ठित)अवसाने, विशे०। छिंदियव्वओ, थेरा पुच्छ्यिा -वितेमो त्ति ओसरिया। चिंतेति-नूण देवीए | परिणिट्ठिय त्रि० (परिनिष्ठित)संपूर्णे सिद्धे, उत्त० 2 अ०। आव०। परि को अण्णीआहणत ति आगया भणंति सक्कारेयवा। रण्णो तेसिं च समन्तान्निष्ठां गतः परिनिष्ठितः। ज्ञाननिष्ठां गते, आ० म०।'' पडुच मिट्ठ पारिणामिया 16 / / (आमहे ति)आमलगं, कित्तिम एगेण णायं अइकढिणं / गतो परिणिहिता। " आ० चू०१ अ० / परिन्नओ।' परिनिष्ठितो नामअकालि बिंबो होइ ति। तस्स वि पारिणामिया 17 / / (मणि ति)* गतम् / यथायोग विधेयतया सम्यक् परिज्ञातः / व्य० 10 अ० / निष्पन्नकृत्ये, 18 // सप्पो चंडकीसिओ वितइएरिसो महप्पा इचाइविभासा, एयरस / असाधनीये सिद्धे, विशे० / Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणिट्टिया 621 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिण्णा परिणिट्ठिया स्त्री० (परिनिष्ठिता) द्विस्विर्वा तृणाऽऽदिशोधनेन कृषिभेदे, पुनः पुनरतिचाराऽऽलोचनेन प्रव्रज्याभेदे, स्था० 4 ठा०४ उ०। परिणिव्वप्पवायणया स्त्री० (परिनिर्वाप्यवाचनता) परीति सर्वप्रकारं निर्वापयतो निरो निर्दग्धाऽऽदिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयतः पूर्वदत्ताऽऽलापकाऽऽदि सर्वाऽऽत्मना स्वाऽऽत्मनि परिणामयतः शिष्यस्य सूत्रगताशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्तयनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य वाचनता / पूर्वदत्ताऽऽलापकानधिगमय्य शिष्याय पुनः सूत्रदाने, स्था० 8 ठा०। वाचनासंपर्दोदे, उत्त०१ अ०। परिनिव्वविय वायणा, जेत्तिय मेत्तं तु तरइ उग्घेउं। जोहगदिटुंतेणं, परिचिते ताव तमुद्दिसति।। परिनिर्वाप्य वाचयति, किमुक्तं भवति? जोहकदृष्टान्तेन यावन्मात्रमवग्रहीतु शक्रोति तावन्मात्रमग्रेतनपरिचितेतामुद्विशति। एषा परिनिर्वाप्य वाचना। व्य० 10 उ०। परिणिध्वयंत त्रि० (परिनिर्बजत्) परिसमन्ताद्वजत्। संयमानुष्ठानोद्युक्ते, सूत्र०१ श्रु०३ अ० 330 / परिणिव्वाण न० (परिनिर्वाण) परि समन्तान्निर्वातीति निर्वाणम् / सकलकर्मकृतविकारनिराकरणतः स्वस्थीभवनं परिनिर्वाणम्। स्था०१ ठाण अनिवृत्तिरूपे, आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। सर्वकर्मक्षयरूपे (संथा०) सुखे, आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ०। सर्वदुःखानामन्ते, ए०सू०४ सूत्र। कल्प०। मोक्षगमने, आव०४ अ०। स्वस्थीभवने, नि०१ श्रु०५ वर्ग 1 अ०।"एगे परिणिव्वाणे।" परिनिर्वाणम् एकमेकदा तस्य संभवे पुनरभावादिति। स्था० 1 ठा०। कर्मकृतसन्तापाभावेन शीतीभवने, औ०। उपरती, मरणे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ01 परिणिव्वाणचरियणिबद्ध न० (परिनिर्वाणचरितनिबद्ध) तीर्थप्रवर्तन चरमपरिनिर्वाणनिबद्ध नाट्यविधौ, रा०। परिणिव्वाणपुर न० (परिनिर्वाणपुर) सिद्धिपत्तने, आव० 4 अ०) परिणिव्वाणमग्ग पुं० (परिनिर्वाणमार्ग) कर्माभावप्रभवसुखोपाये, उत्त० 2 अ०। निवृत्तिनगरीपथे, स्था० 6 ठा०। परिणिव्वाणवत्तिय पुं० (परिनिर्वाणप्रत्ययिक) परिनिर्वाणं मरणं, तत्र यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव, तदेव प्रत्ययो हेतुर्यस्य सः। मृतपरिष्ठापननिमित्तके कायोत्सर्गे, 'तएणं ते थेरा भगवंतो खंदयं अणगारं कालगयं जाणित्ता परिणिव्वाणवत्तियं काउस्सगं करेइ भ०२ श० १उ०। परिणिव्वुइस्त्री० (परिनिर्वृति) परिनिर्वाण, आनन्दसुखावाप्ती, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। परिणिव्युय त्रि० (परिनिर्वृत) परि समन्तान्निर्वृतः। अशेषकर्भक्षयं कृतवति, सूत्र० 2 श्रु०१ अ० / कर्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूते, स्था०१ ठा० / निर्वाणं गते, पञ्चा० 16 विव० / स्था०। जं०। कर्मक्षयसिद्धे, सर्वतः शारीरमानसा स्वास्थ्यविरहिते, 'एगे परिणिव्वुए।'' परिनिर्वृत एकः, द्रव्यार्थतया परिनिर्वृतशब्दाभिधेयत्वसाम्यात् वा / अन्यथा स्वनन्ताः / स्था०१ ठा०। कषायोपशमाच्छीतीभूते, परिनिर्वृत (सिद्ध) कल्पे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। आचा०ा रागद्वेषविरहाच्छान्तीभूते, सूत्र०१श्रु०३ उ०। स्वास्थ्यातिरेकात् (ज्ञा०१ श्रु०५ अ०) सर्वसन्तापवर्जित, कल्प० 1 अधि०६ क्षण / परि समन्तात्सर्वप्रकारैर्निर्वृतः। सकलसमीहितार्थलाभ-प्रकर्षप्राप्तत्वात् शीतीभूते, अनु०। परिणीआ स्त्री० (परिणीता) विवाहितकुमारिकायाम्, पाइ० ना०२२२ गाथा। परिण त्रि० (परिज्ञ) परि समन्ताद् विशेषतो जानातीति परिज्ञः / ज्ञानयुक्ते, "ण इत्थी ण पुरिसे ण अण्णहा परिणे।" आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। परिणचारिण त्रि० (परिज्ञाचारिन्) परिज्ञानं परिज्ञा सदसद् विवेकः, तया चरितु शीलमस्येति परिज्ञाचारी। ज्ञानपूर्वक्रियाकारिणि, "तहा विमुक्कस्स परिणचारिणो, धितीमतो दुक्खखमस्स भिक्खुणो / ' आचा०२ श्रु०४ चू०१ अ० परिण्णा स्त्री० (परिज्ञा) परिज्ञानं परिज्ञा। अवबोधे , षो०५ विवा ज्ञाने, स्था०८ ठा० / सदसद्विवेके, आचा०२ श्रु० 4 चू०१ अ०। सूत्र० / ध० र०। आव०। केवलेन मनसा पर्यालोचने, सूत्र०१ श्रु०१०१ उ०। ज्ञानपूर्वके प्रत्याख्याने, स्था०६ ठा०। परिज्ञानिक्षेपःणाम ठवणपरिन्ना, दव्वे भावे य होइ नायव्वा / दव्वपरिन्ना तिविहा, भावपरिन्ना भवे दुविहा / / 10 / / (णाममित्यादि) तत्रनामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्परिज्ञा चतुर्धा। तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यपरिज्ञा प्रतिपादयन् गाथापरार्द्धमाह-द्रव्यपरिक्षेति / द्रव्यस्य द्रव्येण वा परिज्ञा द्रव्यपरिज्ञा, सा च परिच्छेद्यद्रव्यप्राधान्यात्तस्य च सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रैविध्यात्रिविधेति / भावपरिज्ञाऽपि ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदेन द्विविधेति, शेषस्त्वागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ताऽऽदिको विचारः शस्त्रपरिज्ञावद्रष्टव्यः। सूत्र०२ श्रु०३ अ०। परिज्ञा चतुर्धेत्याहदव्वं जाण पञ्च-क्खाणे दविए सरीर उवगरणे। भावपरिण्णा जाणण, पच्चक्खाणं च भावेणं // 37 // (दव्वे सञ्चित्ताऽऽदी, भावे अणुभवण जाणा सण्णा या मति होई जाणा पुण, अणुभवणा कम्मसंजुत्ता॥३८|| आहारभयपरिग्गह-मेहुणसुहदुक्खमोहवितिगिच्छा। कोहमाणमायलोभे, सोगे लोगे य धम्मोहे // 36 // *) तत्र द्रव्यपरिज्ञा द्विधा-ज्ञपरिज्ञा,प्रत्याख्य नपरिज्ञा च।ज्ञपरिज्ञा आगमनोआगमभेदाद् द्विधा, आगमतो ज्ञातानुपयुक्तः, नोआगमतस्त्रिधा० तत्र व्यतिरिक्ताद्रव्यपरिज्ञा यो यत् द्रव्य जानीते सचित्ताऽऽदिसा परिच्छेद्यद्रव्यप्राधान्यात द्रव्यपरिक्षेति, प्रत्याख्यानपरिज्ञाऽप्येवमेव, तत्र व्यतिरिक्तद्र Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिण्णा 622 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिणावचिय व्यप्रत्याख्यानपरिज्ञा देहोपकरणपरिज्ञानम्, उपकरणं च रजोहर परिज्ञामाहणाऽऽदि, साधकमत्वात्, भावपरिज्ञाऽपि द्विधैवज्ञपरिज्ञा, प्रत्याख्यान- / पंचविहा परिन्ना पण्णत्ता / तं जहा-उवहिपरिन्ना, उवपरिज्ञा च! तत्राऽऽगमतो ज्ञातोपयुक्तश्च, नोआगमतस्त्विदमेवाऽध्ययन स्सयपरिन्ना, कसायपरिन्ना, जोगपरिन्ना, भत्तपाणपरिन्ना। ज्ञानक्रियारूपम्, नोशब्दस्य मिश्रवाचित्वात्, प्रत्याख्यानभावपरिज्ञाऽपि (पंचविहेत्यादि) सुगमम् / नवरं, परिज्ञान परिज्ञा–वस्तु-स्वरूपस्य तथैव, आगमतः पूर्ववत्, नोआगमतस्तु प्राणातिपातनिवृत्तिरूपा ज्ञानं० तत्पूर्वकं प्रत्याख्यानम्, इयं च द्रव्यतो भावतश्च, तत्र मनोवाक्कायकृतकारितानुमतिभेदाऽऽत्मिका ज्ञेयेति। आचा० 1 श्रु०१ द्रव्यतोऽनुपयुक्तस्य० भावतस्तूपयुक्तस्येति, आह च-''भावपरिन्ना अ०१ उ० / सूत्र० / उत्त० / स०। आ० चू० / जाणण पचक्खाणं च भावेणं / " इति तत्रोपधी रजोहरणाऽऽदिस्ततत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया / / 10 / / स्यातिरिक्तस्याशुद्धस्य सर्वस्य वा परिज्ञा उपधिपरिज्ञा० एवं शेषपदातत्र कर्मणि व्यापारेऽकार्षमहङ्करोमि करिष्यामीत्यात्मपरिणतिस्व न्यपि, नवरम् उपाश्रीयते सेव्यते संयमाऽऽत्मपालनायेत्युपाश्रयः / स्था० भावतया मनोवाक्कायव्यापाररूपे भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं 5 ठा०२ उ०। परिज्ञा, सा प्रकर्षेण प्रशस्ताऽऽदौ वा वेदिता प्रवेदिता। एतच्चसुधर्मस्वामी परिणाण न० (परिज्ञान) परि समन्ताद्ज्ञानम्। घटपटशब्दाऽऽदिविषये जम्बूस्वामिनाम्ने कथयति / सा च द्विधाज्ञपरिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञा ज्ञाने, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। अयमेवविध इतिज्ञाने, ज्ञा०१ श्रु० च / तत्र ज्ञपरिज्ञया सावधव्यापारेण बन्धो भवतीत्येवं भगवता परिज्ञा १अ०। परिण्णाय त्रि० परिज्ञात-परीति सर्वप्रकारं ज्ञातः परिज्ञातः। ज्ञपरिज्ञयेह प्रवेदिता प्रत्याख्यानपरिज्ञया च सावधयोगा बन्धहेतवः प्रत्याख्येया इत्येवंरूपा चेति। परत्र च महानर्थतया विदिते प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्याने, उत्त० 13 अ०1 आचा०। अमुमेवार्थ नियुक्तिकृदाहतत्थ अकारि करिस्सं-ति बंधचिंता कया पुणो होइ। परिज्ञाय अव्य० / सम्यगवबुध्येत्यर्थे० सूत्र० 1 श्रु० 15 अ० / परिच्छिद्येत्यर्थे, आचा० 1 श्रु०२ अ०३ उ० / सूत्र० हेयोपादेयतया सहसम्मइया जाणइ, कोइ पुण हेतुजुत्तीए // 67 / / बुद्धेवत्यर्थे, सूचः 1 श्रुः 3 अ०४ उ०। तत्र कर्मणि क्रियाविशेषे, किम्भूत इत्याह-(अकारिकरिरसंति) परिण्णायकम्म त्रि० (परिज्ञातकर्मन्) परि समन्ताज्ज्ञातं कर्म स्वरूपतो अकारीति कृतवान् (करिस्सति) करिष्यामीत्यनेनातीतानागतोपा विपाकतस्तदुपादानतश्च येन स परिज्ञातकर्मा / सूत्र०२ श्रु०१ अ०। दानेन तन्मध्यवर्तिनो वर्तमानस्य कारितानुमत्योचोपसंग्रहान्नवापि भेदा सावधकरणकारणानुमतिनिवृत्ते, स्था० 4 टा०३ उ०। परिज्ञातानि आत्मपरिणामत्वेन योगरूपा उपात्ता द्रष्टव्याः। तत्रानेनाऽऽत्मपरिणाम ज्ञपरिज्ञया स्वरूपतोऽवगतानि प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृतानि रूपेण क्रियाविशेषेण 'बन्धचिन्ता कृता भवति' बन्धस्योपादानमुपातं कर्माणि कृष्यादीनि येन स परिज्ञातकर्मा / परिज्ञातकृष्यादिसावद्यभवति, 'कर्मयोगनिमित्त' बध्यते इति वचनात् / एतच कश्चिजानाति व्यापारे, स्था० 4 ठा०३ उ०। आत्मना सह या सन्मतिः स्वमतिर्वाऽवधिमनःपर्यायकेवलजाति परिणाकिरिय पुं०(परिज्ञातक्रिय) परिज्ञातकर्मणि, आचा०१ श्रु०१ स्मरणरूपा तया जानाति, कश्चिच पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणया अ० 1 उ०। हेतुयुक्त्येति। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। परिणायगिहावास पुं० (परिज्ञातगृहाऽऽवास) परिज्ञातो निःसारतया श्रुताध्ययने परिज्ञारूपो गुणो भवति गृहवासो येन स तथा। सूत्र०२ श्रु०१ अ० / प्रव्रजिते, स्था० 4 ठा० सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य। 3 उ०॥ होति य एगग्गमणो, विणएण समाहितो साहू। परिण्णायसंग पुं० (परिज्ञातसङ्ग) परिज्ञात सङ्ग सम्बन्ध० सबाह्याअत्र च 'सज्झायं जाणतो ' इत्यनेन ज्ञपरिज्ञया, "पंचिंदियसवुडो'' | भ्यन्तरो येन सः / गृहसङ्गान्निर्गते। प्रव्रजिते, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। इत्यादिना तु प्रत्याख्यानपरिज्ञाऽभिहितेतिद्रष्टव्यम्। बृ० 1 उ०२ प्रक० / परिण्णायसग्ण त्रि० (परिज्ञातसंज्ञ) परिज्ञाताः संज्ञा आहारसंज्ञाऽऽद्या परि समन्तात् ज्ञानं पापपरित्यागेन परिज्ञा। सामायिके, विशे / (तत्र येन सः परिज्ञातसंज्ञः। त्यक्तसंज्ञे, स्था० 4 ठा०३ उ०। कथानकमिलापुत्रस्थ, तच्च 'इलापुत्त' शब्दे द्वितीयभागे 632 पृष्ठ गतम) परिण्णाविवेग पुं० (परिज्ञाविवेक) परिज्ञाविशिष्टतायाम् अध्यवसायगाथोच्यते विशेषे, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। परिजाणिऊण जीवे, अञ्जीवे जाणणापरिन्नाए। परिणासमय पुं० (परिज्ञासमय) सम्यगज्ञानविषये, "से हुप्परिण्णासावजजोगकरणं, पडिजाणइ सो इलापुत्तो।। समयम्मि वट्टइ, णिराससे उवरयमेहुणे चरे। भुजंगमे जुण्णतयं जहा परिज्ञाय जीवान् अजीवाँ श्च (जाणणापरिणणाए इति) ज्ञपरिज्ञया, जहे, विमुज्झती से दुहसेज माहणे // 6 // " आचा०२ श्रु०४ चू० / सावद्ययोगकरण सावद्ययोगक्रियाम् (परिजाणइ त्ति) प्रत्याख्यान- परिणोवचिय न० (परिज्ञोपचित) केवलमनोव्यापारेण केवलकायपरिज्ञया परिजानाति, स इलापुत्रः / गतं परिज्ञाद्वारम् / आ० म०१ | क्रियोच्छेदेन वोपचिते हिंसाकर्मणि० सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ० / अ०। आ० चू०। भक्तप्रत्याख्याने, बृ०१ उ०३ प्रक०। अनशने, नि० (परिज्ञोपचित कर्म न बध्यते भिक्षुसमये इति 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे चू०१उ०। 331 पृष्ठ चिन्तितम्) Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परितंत 623- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परित्तकायसंजुत्त परितंत त्रि० (परितान्त) सर्वतः खिन्ने, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। विपा०।। 'अणंतजीव' शब्दे प्रथमभागे 265 पृष्ठे उत्कम्)। निर्विण्णे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। विशे०ज्ञा०नि०। विश्रान्ते, अणु०३ परितकायसंजुत्त त्रि० (परीतकायसंयुक्त) परीतकायेन वनस्पतिनायुक्ते, वर्ग 1 अ० नि० चू०। परितप्पमाण त्रि० (परितप्यमान) परि समन्तात् तप्यमानः / आचा०१ सुत्तंश्रु०२ अ०१3०। अतिदुःखेन पीड्यमाने, सूत्र०१श्रु०५ अ०२ उ०। जे भिक्खू परित्तकायसंजुत्तं आहारेइ, आहारंतं वा "मम्मण" वणिग्वदार्तध्यायिनि, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। ('मम्मण' साइजहा। शब्दे कथां वक्ष्यामि) परित्तवणस्सइकाइएणं संजुत्तं जो असणाइ भुंजइ, तस्स चउलहुं, परितलियन०(परितलित) सुकुमालिकाऽऽदिकेतैलाऽऽदितलिते, औ०। आणाइणो य दोसा भवंति। परिताव पुं० (परिताप) परि समन्तात्तापः परितापः / उत्त० पाई०२ गाहाअ० / गाढोष्मणि, उत्त०२ अ०। परितस्तापोत्पादने, ध०३ अधि०। जे मिक्खू असणाऽऽदी, मुंजेज परित्तकायसंजुत्तं / सूत्र०। आचा० / अन्तदहि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। शोचे, पश्चात्तापे, सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 16 // सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। आचा०। कंठा। ति हिं ठाणेहिं देवे परितप्पेजा। तं जहा-अहो णं भए संते इमा संजमविराहणाबले संते वीरिए संते पुरिसकारपरकामे खेमंसि सुभिक्खंसि तं काय परिचयती, तेण य चत्तेण संजमंचयते। आयरियउवज्झाएहिं विजमाणेहिं कल्लसरीरेणं णो बहुए सुए अतिखाइ अणुचितेण य, विसूइगादीणि आताए // 17 // अहीए।।१।। अहो णं मए इहलोगपडिबद्धेणं परलोगपरंमुहेणं तंति परित्तं कायं परिचयइ,नरक्षति, व्ययतीत्यर्थः। तेणय परिचत्तेण विसयतिसिएणं णो दीहे सामनपरियाएअणुपालिए॥२॥ अहो संजमो चइओ, विराहिओ त्ति वुत्तं भवति। एसा संजमविराहणा, तेण य णं मए इडिरसायासगुरुएणं भोगासंसगिद्धेणं णो विसुद्धे चरित्ता तिगदुयसंजुतेण अइप्पमाणेण भुत्तेण, अणुचिएणय अजिन्नं, विसूइयाए आयविराहणा। फासिए॥३॥ स्था०३ ठा०३ उ०। टीकासुगमा। तत्थ इमे उदाहरणापरितावकर त्रि० (परितापकर) परमार्थेन दुःखानुभवकरे, षो०१६ भूतणगादीणि असणे पाणे सहकारपाडलादीणि। विव०। प्राणिनामुपताहेतौ, ग०१ अधि०। औ०। खाइम फलसुत्तादी, साइमें तंबोलें पंचजुयं // 18 // परितावण त्रि० (परितापन) परिताप्यतेऽत्र / प्रश्न०१ आ० अ० द्वार। भूतृणं अज्जगो भन्नइ. तेण संजुत्तं असणं भुंजइ, आइसहाओ सर्वतः पीडने, ग० 2 अधि०। करमद्दियाऽऽदिफला, मूलगपत्तं, आसुरिपत्तंच, अन्नेय बहुपत्तपुप्फफला परितावणकरपुं० (परितापनकर) प्राणिनामुपतापहेतौ, अप्रशस्तमनो देसंतरपसिद्धा, पाणगं सहगारपाडला, नीलुप्पलाईहिं संजुत्तं पिवइ, विनये, औ०। खइमे सुत्ते अंबफला पसिद्धाई तेहिं स खायइ, कविट्ठचिंचाइ वा परितावणकरी स्त्री० (परितापनकरी) प्राणिनां दुःखकृद्भापायाम, लोणसहियं साइमे जाइफलं कक्कोलयं कप्पूरं लवंगं पूगफलं / एते पंच आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। दव्वा तंबोलपत्तसहिया खायइ एत्थ तिन्नि अच्छिन्ना। अहवा-पूगफलं परिताणस्सव पुं० (परितापनाऽऽश्रव) परितापनपूर्वक आश्रवे हिंसायाम, खदिरवत् तं न गणिज्जइ, वीयपूरगतया पंचमा छुब्भइ / सा दुविहाप्रश्न०१ आश्र० द्वार। चित्ताचित्ता संभवइ / अहवासंखचुण्णो, पूगफलं खइरो, कप्पूरं जाइपरिताविय त्रि० (परितापित) सर्वतः पीडिते, ध०२ अधि०। भ०। पत्तिया। एते पंच अचित्ता / एतेहिं सहियं तंबोलपत्तं साइमे। परितावेंत त्रि० (परितापयत्) समन्ताजातसन्तापे भ०८ श०७ उ०। कारणे परत्त सहियं भुजेजा-- परितावेयव्व त्रि० (परितापयितव्य) शारीरमानसपीडोत्पादनतोऽपद्राव वितियपदं गेलण्णे, अद्धाणे चेव तह य ओमम्मि। यितव्ये, आचा०१श्रु०४ अ०१3०। सूत्र०। एएहि कारणेहिं,जयण इमा तत्थ कायव्वा ||19|| परितोस पुं० (परितोष) आनन्दे,पञ्चा०७विव० प्रीतिविशेषे,षो०६ / गेलन्ने वेजोवएसा अद्धाणे अन्नम्मि अलब्भंते, ओमे असंथरंता, विव०॥ एवमाइकारणेहिं इमा जयणा कायव्वा / परित्त पुं० (परीत) परि समन्तादितो गतः। प्रभ्रष्ट सूत्र०२ श्रु०६ अ०। एकप्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमिते, भ० 12 श०२ उ०।०। ओमे तिभागमद्धे, तिभागमायंबिले चउत्थाई। नियतप्रमाणे, भ०५ श०९ उ01"पासेणं अरहया पुरिसादाणिएणं णिम्मिस्से मिस्से वा, परित्तकायम्मि जाजयणा // 20 // सासएपरित्ते।" भ०५ श०९ उ०। प्रत्येकशरीरिणि परीतीकृतसंसारे णिम्मिस्सं सुद्धं, मिस्सं परित्तकायसंजुत्तं, सेसं जहा पेटे तहा वत्तव्वं च जीवे, विशे० / स्था० / बृ० / नि० चू०। (द्रव्यतः परीतलक्षणम् | नि० चू०१२ उ०। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्तजीव 624 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिमाए परित्तजीव पु० (परीतजीव) प्रत्येकजीवे, "जस्स जीवरस भग्गस्स, समो २उ० भंगो य दिस्सए। परित्तजीओ से मूले, जेयावन्ने तहाविहे // 1 // " बृ०१ | परिपोसिज्जंत त्रि० (परिपोष्यमाण) उपचीयमाने, पं० सू०१ सूत्र। उ०२ प्रक०। परिप्पवंत त्रि० (परिल्पवत्) परिप्लवने, पाइ० ना० 267 गाथा। परित्तजोणि पुं० (परीतयोनि) परीता योनिर्यस्य स परीतयोनिः। प्रत्येक- | परिप्पुय वि० (परिप्लुत) आप्लुते, स्था० 4 ठा०४ उ०। जीवे, नि० चू०१ उ०। परिप्पुथा स्त्री० (परिप्लुता) घृताऽऽदिभिः परिप्लुतभोजनः परिप्लुत एव परित्ततिग न० (परीतत्रिक) प्रत्येकस्थिरशुभाऽख्ये प्रत्येकत्रिके, कर्म० तं कृत्वा परिप्लुतयित्वा सुहस्तिनो रङ्कवत्या सा तथोच्यते। प्रव्रज्या२ कर्मः। भेदे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। परित्तमीसिया स्त्री० (परीतमिश्रिका) प्रत्येकवनस्पतिवनस्पति। संघात- | परिप्फंदपुं० (परिस्पन्द) देशाद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणे क्रियाभेदे, सूत्र०१ मनन्तकायिकेन सह राशीकृतमवलोक्य प्रत्येकवनस्पतिरयं सर्वोऽपि श्रु०१ अ०१ उ०। वदति। भाषायाम्, प्रज्ञा० 11 पद। परिफग्गु त्रि० (परिफल्गु) निष्फले, बृ०३ उ०। आ०म०। परित्तसंसारिय पुं०(पीरतसंसारिक) परीतः परिमितः स चासौ संसारः परिफासिय त्रि० (परिस्पृष) व्याप्ते, दश०५ अः 1 उ०। परीतसंसारः, सोऽस्यास्तीति परीतसांसारिकः।"अतोऽनेकस्वराद्" परिभट्ठ त्रि० (परिभ्रष्ट) संसारगर्तायां पतिते, उत्त०७ अ०। // 7 / 2 / 6 / / (हैम०) इतीकणप्रत्ययः / सान्तसंसारे, परिमितसंसारे परिब्भत (देशी) निषिद्धे, भीरौ, च / दे० ना०६ वर्ग 72 गाथा। प्रति०। “दुविहो नेरझ्या पण्णत्ता। तं जहापरित्तसंसारिया चेव, अपरित्त परिब्भमंत त्रि० (परिभ्रमत्) पर्यटति, "एत्थ परिब्भमंतो हु वेप्पं / ' संसारिया चेव / स्था० 2 ठा०२ उ० / प्रा०४ पाद। परिदेवणता स्त्री० (परिदेवनता) पुनः पुनः क्लिष्टभाषणे, स्था० 4 ठा० / परित्भमिय त्रि० (परिभ्रान्त) पर्यटिते, "अणंतखुत्तो समणुभूओ।" 1 उ०। आर्तध्यानलक्षणे, द०। सघा०१अधि०१प्रस्ता०। परिदेविअ त्रि०(परिदेवित) विलपिते, पाइ० ना० 166 गाथा। परिभव पुं० (परिभव) जुगुप्सायाम्, गर्हायाम्, सूत्र० 2 श्रु०२ अ०। परिपास पुं० (परिपार्श्वक) रात्रिक्षेत्ररक्षके, "परिपासउ त्ति छेत्ते, जो परिभवण न० (परिभवन) आभाव्यार्थपरिहारेण न्यक्रियायाम, औ०। पुरिसो सुअइराईए।" पाइ० ना०२१६ गाथा। परिपिंडिय त्रि० (परिपिण्डित) ऐक्यमापादितेषु बहुषु वस्तुषु, आव०३ परिभवणिज त्रि० (परिभवनीय) अनभ्युत्थानाऽऽदिभिः। (ज्ञा०१ श्रु०३ अ० / वन्दनदोषभेदे, न०।"परिपिंडिअं वयणकरणओ वावि। परिपि अ०) अवज्ञायमाने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ01 परिभवविणिवाय पुं० (परिभवविनिपात) पराभिभवसंपर्के, औ०। ण्डितं प्रभूतानां युगपद्वन्दनम् / यद्वा / कुक्ष्योरुपरि हस्तौ व्यवस्थाप्य परिपिण्डितकरचरणस्याव्यक्तसूत्रोचारणपुरस्सरं वन्दनम् / ध०२ परिझुसियसंपन्न पुं० (पर्युषितसंपन्न) पर्युषितं रात्रिपरिवसनं तेन संपन्नः अधि० / आ० चू०। पर्युषितसंपन्न / इदुरिकाऽऽदौ आहारभेदे, ता हि पर्युषितकलनीकृता परिपिहित्ता अव्य० (परिपिधाय) क्षुपित्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ चू०२ आम्लरसा भवन्ति, आरमनास्थिताऽऽम्रफलाऽऽदि वेति। स्था० 4 ठा० अ०३ उ०। 2 उ० परिपीलिअत्रि० (परिपीडित) दुःखिते, निर्गलिते, प्रन० 3 आश्र द्वार। | परिभाईत त्रि० (परिभाजयत) विभज्य ददति, "परिभुजंताणि वा परिपीलिअ अव्य० (परिपीड्य) यूपरुधिराऽऽदिकं निर्गाल्येत्यर्थे, सूत्र० परिभाईताणि विच्छड्डुमाणाणि वा।' आचा०२ श्रु०२ चू०११ अ०। 1 श्रु०३ अ०४ उ०। नि० चू० ज्ञा०। परिपुण्ण त्रि० (परिपूर्ण) अनुपहते, उत्त० 1 अ०। परिभाइजमाण त्रि० (परिभाज्यमान) पार्श्ववर्तिभ्यो मनाग्मनाग दीयमाने, परिपुणिंणदियया स्त्री० (परिपूर्णेन्द्रियता) अनुपहतचक्षुरादि- रा०। आचा० / जी०। करणतारूपे शरीरसंपर्दोदे, स्था०८ ठा०। परिभाइत्ता अव्य० (परिभाज्य) विभागैर्दत्वेत्यर्थे, कल्प० 1 अधि०५ परिपूणग पु० (परिपूणक) घृतक्षीरगालने, सुगृहाभिधानचटका- क्षण। कुलालये, नं०। आ० म०। विशे०। सुगृहाचटिकाविरचिते नीडविशेषे, परिभाव्य अव्य० आलोच्येत्यर्थे, कल्प०१ अधि० 5 क्षण। विशे०। आ० क०। परिभाइय त्रि० (परिभाजित) पूर्वमेव परेभ्यः परिकल्पिते, आचा०२ श्रु० परिपूय त्रि० (परिपूत) गालिते, "दूसपट्टपरिपूर्य घरपट्टगा लितमित्यर्थः। / 1 चू०२ अ०३ उ०। त०। ज्यो०। औ०। कल्प० परिभाएउ अव्य० (परिभाजयितुम् ) दायाऽऽदिषु विभज्य परिपेलव त्रि० (परिपेलव) अदृढे, निःसारे, वराके, आचा०१ श्रु०१ अ० | दातुमित्यर्थे , ''पकामं दाउं परिभाएउ / ' परिभाजयितुं दायाऽऽ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभाएउं 625 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिभोगेसण्णा दीना प्रकामं दानाऽऽदिषु यावत् चापि देयमलं तावदस्तीति हृदयम्। नाऽऽदिके, आतु०। (एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां परिभोगः "पिंड' शब्दे भ०६ श०३३ उ०। वक्ष्यते) परिभाएत्ता अव्य० (परिभाज्य) विभागीकृत्येत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ चू० तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे० जाव भगवं गोयमे एवं 6102 उ01 वयसी-अह भंते ! पाणाइवाए मुसावाए० जाव मिच्छादंसपरिभाएमाण त्रि० (परिभाजयत्) परस्परं यच्छति, कल्प०१ अधि० 5 सल्ले पाणाइवाए वेरमणे जाव मिच्छादसणसल्ले वेरमणे क्षण / ददति, भ० 12 श०१ उ० / आचा०। पुढविकाइए० जाव वणस्सकाइए धम्मत्थिकाए आधम्मत्थिकाए परिभाएमाणी स्त्री० (परिभाजयन्ती) ददत्यात्, विपा०१ श्रु०२ अ०। आगासस्थिकाए जीवे असरीरपडि बद्धे परमाणुपोग्गले आचा० सेलेसिपडिवण्णए अणगारे सव्वे या वादरवोंदिधरा कडेवरा परिभायंतिया स्त्री० (परिभाजयन्तिका) पर्वदिनेषु स्वजनगृहेषु खण्ड एएणं दुविहा जीवदव्वाय, अजीवदव्वाय। जीवदव्वाणं परिभोगखाद्याऽऽदेः परिभाजनकारिकायाम्, ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। त्ताए हव्वमागच्छंति? गोयमा ! पाणाइवाए० जाव एएणं दुविहा परिभायण न० (परिभाजन) दाने,अनुप्रदाने च। व्य०२ उ० / नि० चू० / जीवदव्वा य अजीवदव्वा य, अत्थेगइया जीवाणं परिभोगत्ताए परिवेषणे० नि० चू०१ उ०। हव्वमागच्छंति, अत्थेगइया जीवाणं० जाव णो हव्वमागच्छंति। परिभावइत्ता त्रि० (परिभावयितृ) प्रभावके, स्था० 4 ठा० 4 उ०। से केणटेणं पाणाइवाए जाव णो हव्वमागच्छन्ति? गोयमा ! परिभावणीय त्रि० (परिभावनीय) पर्यालोचनीये, पञ्चा० 4 विव०। पाणाइवाए० जाव मिच्छादंसणसल्ले पुढवीकाइए० जाव परिभासण न० (परिभाषण) परि समन्तात् भाषणम्। प्रतिपादने, सूत्र० वणस्सइकाइए सव्वे य बादरवोंदिधरा कडेवरा एएणं दुविहा जीवदव्वा य, अजीवदव्याय, जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छं० 1 श्रु० 3 अ० 3 उ० / वचने, सूत्र०१ श्रु० 3 अ० 3 उ०। साध्वाचार ति। पाणाइवायवेरमणे० जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे धम्मनिन्दाया विधाने, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। त्थिकाए अधम्मत्थिकाएक जाव परमाणुपोग्गले सेलेसिं परिभासा स्त्री० (परिभाषा) परिभाषणं परिभाषा / अपराधिन प्रति पडिवन्नए अणगारे एएणं दुविहा जीवदव्वा य, अजीवदव्वा य कोपाऽऽविष्कारेण मा यासीरित्यभिधाने, स्था०७ ठा०। परिभाष्यतेऽ जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति / से तेण?णं जाव णो प्यनयेति परिभाषा / चूर्णी, नि० चू० 20 उ०। हव्वमागच्छंति। परिभासि(ण) त्रि० (परिभाषिन) परिभवकारिणि, स०२० सम० / (तेणमित्यादि) (जीवे असरीरपडिबद्धे ति) त्यक्तसर्वशरीरो जीवः / परिभुजंत त्रि० (परिभुञ्जान) अभ्यवहरति, नि० चू०१ उ०। "असणं (बादरबादिधरा कलेवर त्ति) स्थूलाऽऽकारधराणि न सूक्ष्माणि पाणं खाइमं साइमं परिभुजंताणि वा परिभाइंताणि वा।' आचा०२ कडेवराणि निश्चेतना देहाः, अथवा, बादरबोदिधरा बादराऽऽकारधाश्रु० 2 00 / 4 अ। नि० चू०। अभ्यवहारं कुर्वति, नि० चू० 1 उ०। रिणः कडेवराव्यतिरेकात्कडेवरात द्वीद्रियाऽऽदयो जीवाः (एएणमित्यादि) परिभुजेमाण त्रि० (परिभुञ्जान) परिभोग कुर्वाणे, भ०३ श०१ उ०। एतानि प्राणातिपाताऽऽदीनि सामान्यतो द्विविधानि, न प्रत्येकं, तत्र परिभुजमाण त्रि० (परिभुज्यमान) परिभोगायोपयुज्यमाने, ज०१ वक्ष० / पृथिवीकायाऽऽदयो जीवद्रव्याणि,प्राणातिपाताऽऽदयस्तु न जीवद्रव्या"अग्गपिंड परिभुजमाणं। आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ०५ उ०। णि, अपि तु तद्धर्मा इति न जीवद्रव्याण्यजीवद्रव्याणि धर्मास्तिकाया - परिभुत त्रि० (परिभुक्त) कृतपरिभोगे, आसेविते, 'परिभुत्तं वा अपरिभुत्त ऽऽदयस्तु अजीवरूपाणि द्रव्याणीतिकृत्वाऽजीवद्रव्याणीति जीवानां या।" आचा०२ श्रु०१चू०१अ०१ उ०। स्था०। परिभोग्यत्वायाऽऽगच्छन्ति, जीवैः परिभुज्यन्त इत्यर्थः तत्र प्राणातिपरिभुत्तपुव्व त्रि० (परिभुक्तपूर्व) पूर्वपरिभुक्ते, आचा०२ श्रु०१ चू०२ / पाताऽऽदीन यदा करोति तदा तान् सेवते, प्रवृत्तिरूपत्वात्तेषामित्येवं अ०३ उ01 तत्परिभोगः / अथवा-चारित्रमोहनीयकर्मदलिकभोगहेतुत्वात्तेषां परिभूय त्रि० (परिभूत) तिरस्कृते, स्था० 8 ठा० / प्रश्न० / चारित्रमोहाणुभोगः प्राणातिपाताऽऽदिपरिभोग उच्यते, पृथिव्यादीनां तु परिभोग पुं० (परिभोग) परिभुज्यते इति परभोगः। पुनः पुनर्वस्त्वादेर्भोगे, परिभोगे गमनशोचनाऽऽदिभिः प्रतीत एव, प्राणातिपातविरमणाऽऽदीना परिशब्दस्याभ्यावृतौ वर्त्तमानत्वात् / वसनालङ्काराऽऽदेहि गे च / तु न परिभोगोऽस्ति, बधाऽऽदिविरतिरूपत्वेन जीवस्वरूपत्वात्तेषा, परिशब्दस्य बहिर्वाचकत्वात्। आव०६ अ०। ध०। स्था०। 'पुणो पुणो धर्मास्तिकायाऽऽदीनां तु चतुर्णममूर्तत्वेन परमाणोः सूक्ष्मत्वेन शैलेशीपरिभोगो वत्थाऽऽभरणाऽऽदीणं पुप्फतंबोलाईणं / " आ० चू०६ अ०। प्रतिपन्नाऽनगारस्य च प्रेषणाऽऽद्यविषयत्वेनानुपयोगित्वान्न परिभोग उपा०आसेवने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। पञ्चा०। स्वेवेलायां वस्त्राऽऽदेः इति / भ०१८ श०३ उ०। परिभोगे बृ०३ उ०॥ परिभुज्यत इति परिभोगः। पुनः पुनर्मोज्ये गृहाग- | परिभोगेसरणा स्त्री० (परिभोगेष्टणा) ग्रासैषणायाम्, उत्त०२४ अ०। गता Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिभोत्तुं 626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिमोक्ख परिभोत्तुं अव्य० (परिभोक्तुम्) पानाऽऽदिपरिभोग कर्तुमित्यर्थे, "सिया कालिअसुअपरिमाणसंखा, दिठिवायसुअप-करमाणसंखाय। यगोयरग्गगओ इच्छेला परिभोत्तु य। पकोट्टगं भितूपूल वा, पडिलेहिताण से किं तं कालिअसुअपरिमाणसंखा? कालिअसुअपरिमाणफासु।।२।।"दश०५ अ०१उ०। संखा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जवसंखा अक्खरसंखा परिमंडण न० (परिमण्डन) भूषायाम्, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। संघायसंखा पयसंखा पायसंख्या गाहासंखा सिलोगसंखा परिमंडल न० (परिमण्डल) बहिस्ताद् वृत्ताऽऽकारे मध्ये सुधिरे वलयस्येव वेढसंखा निजुत्तिसंखा अणुओगदारसंखा उद्देसगसंखा अज्झयसंस्थानभेदे, भ०१४ श०७ उ०। प्रज्ञा०। स्था०। "एणे परिमंडले।" | णसंखासुअखंधसंखा अंगसंखा। से तं कालिअसुअपरिमाणपरिमण्डलं संस्थानं वलयाऽऽकारं प्रतरघनभेदाद् द्विविधमिति तदैक्यं संखा। से किं तं दिट्टिवायसुअपरिमाणसंखा? दिट्ठिवायसुअपरिमण्डलत्वसाम्यात् / स्था० 1 ठा०। वृत्तभावे, औ० 1 गोलाऽऽकारे, परिमाणसंखा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-पज्जवसंखा० जाव "पेढालनिअक्कलवटुटुलाइँ परिमंडलत्थम्मि। "पाइ० ना० 84 गाथा। अणुओगदारसंखा पाहुडसंखा पाहुडिआसंखा पाहुडपाहुडियापरिमंडलसंठाण न०(परिमण्डलसंस्थान) वलयऽऽकारे, भः 8 श० संखा वत्थुसंखा / से तं दिट्ठिवायसुअपरिमाणसंखा / से तं १०उ० अनु०॥ परिमाणसंखा। परिमंडिय त्रि० (परिमण्डित) परिसामस्त्येन मण्डितम्। भूषिते, औ०। संख्यायते अनयेति संख्या, परिमाणं पर्यवाऽऽदि तद्रूपा संख्या रा०। परिमाणसंख्या, सा च कालिक श्रुतदृष्टिवादविषयत्वेन द्विविधा, तत्र परिमद्दण न० (परिमर्दन) पृष्ठाऽऽदेर्मलनमात्रे, परिशब्दस्य धात्वर्थमात्र- कालिकसूत्रपरिमाणसंख्यायां पर्यवसंख्या इत्या दि पर्यवाऽऽदिरूपेणवृत्तित्वात् / स्था० 4 ठा०३ उ०। औ०। परिमाणविशेषेण कालिकश्रुतं संख्या यत इति भावः। तत्रपर्यवाःपर्याया परिमल पुं० (परिमल) सुगन्धे, पाइ० ना० 147 गाथा / धाइति यावत्। तद्रूपा संख्या पर्यवसंख्या।सा च कालिकश्रुते अनन्तपरिमाइय त्रि० (परिमात्रिक) सर्वतो मात्रावति, भ०३ श०६ उ०।। पर्यायाऽऽत्मिका द्रष्टव्या, एकैकस्याप्यकाराऽऽद्यक्षरस्य तदभिधेयस्य परिमाण नं० (परिमाण) संख्याने, स्था० १०ठा०। इयत्तायाम्, सूत्र०१ च जीवाऽऽदिवस्तुनः प्रत्येकमनन्तपर्यायत्वात् एवमन्यत्रापि भावना श्रु०१अ०४ उ०ातच महदणु दीर्घ हस्वमिति चतुर्विधं व्यवहारकरणम्। कार्या नवरं संख्येयान्यकाराऽऽद्यक्षराणि, द्वयाद्यक्षरसंयोगरूपाः सम्म० 3 काण्ड। (निर्गन्थानां परिमाणद्वारम् 'निग्रोथ शब्दे चतुर्थभागे संख्येयाः संघाताः, सुप्तिडन्तानि समयप्रसिद्धानि वा संरयेया नि पदानि 2044 पृष्ठे गतम्) (संयतानाच 'संजय' शब्दे वक्ष्यते) गाथाऽऽदिचतुर्थाशरूपाः संख्येयाः पादाः, संख्येया गाथाः संख्येयाश्च परिमाणकड न० (परिमाणकृत) परिमाणं संख्यानं दत्तिकवलगृह- श्लोकाः प्रतीताः, एवं छन्दोविशेषरूपाः संख्येयवेष्टकाः निक्षेपनियुक्तभिक्षाऽऽदीनां कृतं यस्मिंस्तत परिमाणकृतम्, इत्यादिभिःकृतपरिमाणे, युयोद्धातनियुक्तिसूत्रस्पर्शकनियुक्तिलक्षणा त्रिविधा नियुक्तिः व्याख्योभ० 8 श० 2 उ० / स्था० / ल० प्र०ध०। कृतपरिमाणे, "रन्ति पायभूतानि सत्पदप्ररूपणताऽऽदीन्युपक्रमाऽऽदीनि वा संख्येयान्यनुपरिमाणकडे।" मैथुनसेवनं प्रति कृतयोषिद्भोगपरिमाणे, पञ्चा० 10 योगद्वाराणि संख्येया उद्देशाः, संख्येयान्यध्ययनानि, संख्येया। विव० आव०। श्रुतस्कन्धाः संख्येयान्यङ्गानि। एषा कालिकश्रुतपरिमाणसंख्या। एवं दत्तीहि व कवलेहि व, घरेहिँ भिक्खाहिँ अहव दव्वेहिं। दृष्टिवादेऽपि भावना कार्या, नवरं प्राभृताऽऽदयः पूर्वान्तर्गताः श्रुताधिजो भत्तपरिचायं, करेइ परिमाणकडमेयं / / 1576 // कारविशेषाः / (सेतमित्यादि) निगमनद्वयम्। अनु० / दत्तिभिर्वाकवलैर्वा गृहैर्भिक्षामिः / अथवा द्रव्यैरोदनाऽऽदिभिराहा- | परिमासपुं०(परिमर्श) जलधिजलस्पर्श, नाविकप्रसिद्ध चनौगतकाष्ठराऽऽयामितमानैयाँ भक्तपरित्याग करोति (परिमाणकडमेयं ति) विशेषे, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ01 कृतपरिमाणमेतदिति गाथासमासार्थः / / 1576 / / परिमिय त्रि० (परिमित) परिमाणतो मिते आःम०१ अ०। "अवयवत्थो पुण-दत्तीहिं अज्जमए एगा दत्ती दो वा 3-45 दत्ती, किं / परिमियपिंडवाइय पु० (परिमितपिण्डपातिक) परिमितो द्रव्याऽऽदिः वादत्तीए परिमाणं? वचगं (सित्थगं पि) एक्कसिंछुब्भइ एगा दत्ती, डोवलियं परिमाणतः पिण्डपातो भक्ताऽऽदिलाभो यस्याऽस्ति स परिमितपिण्डपि जत्तियाओ वाराओ पप्फोडेइ तावइयाओ ताओ दत्तीओ। एवं कवले पातिकः / स्था० 5 ठा० 1 उ० / अर्द्धयोगाऽऽदिलाभ प्रति कृतपरिमाणे, एक्के ग० जाव वत्तीसं दोहिं ऊणिया कवलेहि, घरेहिं एक्कादिएहिं 2-3 सूत्र०२ श्रु०२ अ०। 4 / भिक्खाओ एक्काइगाओ २-३-४।दव्यं अतुगं ओदणे खज्जगविही वा परिमियभत्तदाण न० (परिमितभक्तदान) परिमितानां भक्तकमेभितिआयविल वा अमुगंवा कुसण एवमाइ विभासा' गतं कृतपरिणामद्वारम्।। व्यमिति निश्चये, वय०६ उ०। आव०६ अ०। परिभोक्ख पुं० (परिमोक्ष) परित्यागे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ / समन्तान्मोक्षे परिमाणसंखा स्त्री० (परिमाणसंख्या) संख्याभेदे, अनु० / "अणुवरया अविजाए परिमोक्खमाहु।' आचा०१ श्रु० 5 अ० 1 उ०। से किं तंपरिमाणसंखा? परिमाणसंखा दुविहापण्णत्तातं जहा- | प्रतिमोक्षे पुं० / ऋणनोक्षे, स्था०३ ठा०३ उ०। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियंत 627 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परियट्टियं परियंत पुं० (पर्यन्त) सकलान्तिमे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। परियच्छिय त्रि० (परिकक्षित) परिगृहीते, आ०म०१ अ०। परियट्ट पुं० (परावर्त) पुद्गलपरावर्ते, विशे० / आ० म०। पं० चू०। पं० भा। (तस्य चन्द्राऽऽदिभेदभिन्नस्य प्ररूपणा 'पोग्गलपरियट्ट' शब्दे वश्यते) पुनः पुनः स्थापनेन परिवर्तन० ज्ञा०१ श्रु०३ अ०। परियट्टगपु० (परिवर्तक) वस्त्रपरावर्तग्राहके, नि० चू० 10 उ०। परियट्टण न०(परिवर्तन) परिपालने, व्य०६ उ०। द्विगुणत्रिगुणाऽऽदिभेदे, वर्तने, आचा० 1 श्रु०२ अ० 1 उ० / वामपार्श्वेन वर्तने, स्वार्थेऽनट् / आद०४ अ०॥ परियट्टणा स्त्री० (परिवर्तना) पुनः पुनर्भवने, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। सूत्रपाठस्य मुहुर्मुहुर्गुणने, उत्त० 26 अ०। सूत्रस्य गुणने, स्था०५ ठा 3 उ०। पूर्वाधीतस्यैव सूत्राऽऽदेरविस्मरणनिर्जरार्थे अभ्यासे० स्था० 5 टा० 3 उ० / आव० / 'परियट्टणा नाम परियट्टणं ति अज्झावसाणं ति गुणण तिवा एगट्ठा।" दश०१अ०। आ० चूला आ०म०। एष स्वाध्यायभेदः / स्था०५ ठा०३ उ०। उत्त०। परिवर्तनाविधिरेषः"इरियं सुपडिक्कतो, कडसामइओ व सुटुंपिहियमुहो। सुत्तं दोसविमुत्तं, सपयच्छेयं गुणइ सड्ढो॥१॥" इति। ध००२ अधि० 3 लक्ष०। परियट्टणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? परियट्टणयाए एं वंजणाइं जणयइ वंजणलद्धिं च उप्पाएइ // 21 // हे पूज्य हे स्वामिन् ! परिवर्तनया शास्त्रस्य गुणनेन जीवः किं जनयति? गुरुराह-हे शिष्य ! परिवर्तनया जीवो व्यञ्जनानि अक्षराणि जनयति, विस्मृतान्यक्षराण्यानयति, तथाविधकर्मक्षयोपशमात्, व्यञ्जनलब्धि व्यञ्जनसमुदायरूपां पदलब्धि पदानुसारिणी लब्धिं जनयति॥२१ / / उत्त०२६ अ०॥ परियट्टतिग न० (परिवर्तत्रिक) प्रव्रज्यापर्यायपरिवर्त्तत्रिके, तच्चछेदत्रिक, मूलनिकमनवस्थाप्यत्रिक च। व्य०१ उ०। परियट्टिय न० (परावर्तित) साधुनिमित्ते कृतपरावर्ते, पिं० / आचा० / यदि प्रतिवेशिकगृहे परिवर्त्य ददाति। आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ०८ ऊ1 ग०। ध०। पं० सू०। पं०भा०। अब सीवति दशमे उद्गमदोष, पिं०। अधुना परिवर्तितद्वारमभिधित्सुराहपरियट्टियं पि दुविहं, लोइय लोगुत्तरं समासेण / एकेक पि य दुविहं, तद्दव्ये अन्नदव्वे य॥३२३।। परिवर्तितमप्युक्तशब्दार्थ समासेनसंक्षपेण द्विविधम् / तद्यथालौकिक, लोकोत्तरं च। एकैकमपि द्विविधम्। तद्यथा तद्रव्ये तद्रव्यविषयं, अन्यद्रव्येऽन्यद्रव्यविषयं च। तत्र तद्रव्यविषयं यथा कुथितं घृतं दत्वा साधुनिमित्तं सुगन्धि घृतं गृह्णाति इत्यादि। अन्यद्रव्यविषयं यथा कोद्रवकूर समर्पयित्वा साधुनिमित्तं शाल्योदनं गृह्णातीत्यादि / इदं च लौकिकम् / एवं लोकोत्तरमपि भावनीयम्। संप्रति लौकिकस्योदाहरणं गाथात्रयेणाऽऽहअवरोप्परसज्झिलगा, संजुत्ता दो वि अन्नमन्नेणं। पोग्गलिय संजयट्ठा, परियट्टण संखडे बोही।।३२४ / / अणुकंप भगिणिगेहे, दरिद्द परियट्टणा य कूरस्स। पुच्छा कोद्दवकूरे, मच्छर णाइक्ख पंतावे // 325 / / इयरो वि य पंतावे, निसि ओसवियाण तेसि दिक्खा य। तम्हा उ न घेत्तव्वं, कइ वा जे ओसमेहिंति? ||326 / / वसन्तपुरे नगरे निलयो नाम श्रेष्ठी, तस्य सुदर्शना नाम भार्या, तस्या द्वौ पुत्रौ / तद्यथा क्षेमकरो, देवदत्तश्च लक्ष्मी नाम च दुहिता, तत्रैव वसन्तपुरे तिलको नाम श्रेष्ठी, सुन्दरी नाम तस्य महेला, तस्य धनदत्तः पुत्रो, बन्धुमती दुहिता, तत्र क्षेमङ्करः समितिसूरीणामुपकण्ठे दीक्षा गृहीतवान्, देवदत्तश्चेन च बन्धुमती धनदत्तेन च लक्ष्मीः परिणीता अन्यदा च कर्मवशतो धनदत्तस्य दारिद्रयमुपतस्थे, ततः स प्रायः कोद्रयकूर भुक्ते, देवदत्तेश्वरः, ततः स सर्वदैव शाल्योदनं भुक्ते, अन्यदा च सक्षेमङ्करः साधुर्यथा विहारक्रमं तत्राऽऽजगाम / स च चिन्तयामास-यदि देवदत्तस्य भ्रातर्गहे गमिष्यामि ततो मे भगिनी दारिद्रयेणाहमभिभूता ततो न मम गृहे साधुरपि भ्राता समुत्तीर्ण इति परिभवं मस्यते इति / ततोऽनुकम्पया तस्या एव गृहे प्रविवेश० भिक्षावेलायां च तथा लक्ष्म्या चिन्तितम्-यथा एकं तावदयं भ्राता द्वितीय साधुः तृतीयं प्राघूर्णकः, मम च गृहे कोद्रवरकूरः, ततः कथमसावस्मै दीयते शाल्योदनश्च मम गृहे न विद्यते ततो भ्रातृजायायाबन्धुमत्याः सकाशात कोद्रवौदनपरावर्तनेन शाल्योदनमादाय ददामीति तथैवं कृतम्। अत्रान्तरे च देवदत्तो भोजनार्थ स्वगृहमागतः, बन्धुमत्या च पप्रच्छेयथाऽद्य क्रोद्रवौदनो जेमितव्यः, कृपणतया कोद्रवौदनो राद्धो न शाल्योदनः, ततस्ता ताडयितुमारेभे, सा च ताङ्यमाना प्राहाकिं मां ताड़यसिं, तवैव भगिनी कोद्रवौदनं मुक्त्वा शाल्योदनं नीतवती० धनदत्तस्याऽपि च भोजनार्थमुपविष्टस्य यः शाल्योदनः क्षेमकरस्य दीयमान उदरितः स गौरवेण लक्ष्म्या परिवेषितः, ततस्तेन या पुष्टा-- कुतोऽयं शाल्योदनः? ततः कथितः सर्वोऽपि तया वृत्तान्तः, श्रुत्वा च तं वृत्तान्तं चुकोप धनदत्तो-यथा हा पापे! किमिति तथा मनामक शाले: पक्त्वा साधवेशाल्योदनो न दत्तो यत्परगृहादानयनेन मालिन्यमापादितं, ततस्तेनापि सा ताडिता, साधुना चायं वृत्तान्तो गृहद्वयवर्ती सर्वोऽपि जनपरम्परातः शुश्रुवे, ततो निशि सण्यिपि तानि प्रतिबोधितानी, यथेरथमस्माक न कल्पते, परमजानता मया गृहीतम्, अत एव च कलहाऽऽदि-दोषसंभवात् भगवता प्रतिषिद्धं ततो जिनप्रणीतं धर्म सविस्तरं कथितवान् जातः सर्वेषामपि / संवेगो,दत्ता च दीक्षा तेषां सर्वेषामिति / सूत्रं सुगमम्, नवरम्-(अवरोप्पर-सज्झिलगा इति) लक्ष्मीदेवदत्तौ बन्धुमतीधनदत्तौ परस्पर सज्झिलगौ भातरौ, ते च द्वे अपि लक्ष्मीबन्धुमत्यौ। ( अन्नमन्त्रेणं ति) अन्योन्यमपिसंबंद्धे, देवदत्तस्य भगिनी लक्ष्मीर्धनदत्तेन, धनदत्तस्यापि भगिनी बन्धुमती देवदत्तेन परिणीता इत्यर्थः ।(पोग्गलिय त्ति) पौद्रलिकस्य शाल्योदनस्य, संय-- Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियट्टिय 628 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परियाय तार्थ झूमकरसाधुनिमित्तं, परिवर्तनं कृतं, ततः 'सखड' कलहः, ततो | परियत्तणा स्त्री० (परिवर्तना) घोषदिशुद्धगुणने, ध०३ अधिक। 'बोधि प्रव्रज्या / / 224 / / अन्या एव गाथाया विवरणभूतमुत्तर परियत्तमाणा स्त्री० (परावर्तमाना) तदा तदा प्रतिबन्धोदयसंभवे यथायोग गाथाद्वयम्, तदपि च सुगम, नवरम् (मच्छर त्ति) विमक्तिलोपातमत्सरेण स्वबन्धोदयहेतुसन्निधानतो बन्धमुदयं वाऽऽश्रित्य परावर्तन्ते, न भूयो (णाइक्ख ति) परिवर्तन अकथिते (पंतावे) अताडयत्। (ओसवियाण भवन्तीति परावर्तमानाः। पं० सं०३ द्वार। अपरावर्तिनीषु कर्मप्रकृतिषु० ति) उपशमिताना, ननु परिवर्तनमपीदं प्रव्रज्यायाः कारणं बभूव ततो पं० सं०३ द्वार। (एतासां स्वरूपम् ‘परावृत्तमाणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विशेषतः साधुभिरिदमाचरणीयमत आह-(कइव त्ति) कति वा कियन्तो 550 पृष्ठे उपदर्शितम्। वा क्षेमङ्करसाधुसदृशा भविष्यन्ति। ये इत्थं परिवर्तनसमुत्थं कलहम- | परियत्तिय त्रि० (परिवर्तित) परावृत्ते, 'बालिअयं परिवत्तिअं / ' दे० पनीय प्रव्रज्यां ग्राहयिष्यन्ति, तस्मान्नैवेदमाचरणीयम्। उक्त लौकिक | ना०२६५ गाथा। परिवर्तनम् / अथ लोकोत्तरं तद् वक्तव्यं, तत्र यत्साधुः साधुना सह | परियत्तेउं अव्य० (परावर्त्य) परावर्त कृत्वेत्यर्थे, त०। वस्त्राऽऽदिपरिवर्तनं करोति तल्लोकोत्तरं परिवर्तनम्। परियर पुं० (परिकर) परिवारे, स्था० 4 ठा० 4 उ० / रा०। तत्र दोषानुपदर्शयति परियाइत्तकंडकलाव त्रि० (पर्याप्तकाण्डकलाप) विचित्रकाण्डकलापऊणऽहिय दुब्बलं वा, खर गुरु च्छिन्न मइलं असीयसहं / योगात् संपूर्णकाण्डकलापे, रा०। जी०। दुव्वन्नं वा नाउं, विपरिणमे अन्नभणिओ वा // 327 // परियाइत्ता अव्य० (पर्यादाय) गृहीत्वेत्यर्थे, स्था०७ ठा०. वस्त्रपरिवर्तन कृते सति इदं न्यून, यत्तु मदीयं वस्त्रं बभूव तत् मानयुक्त परियाइयण न० (पर्यायान) अङ्गप्रत्यङ्गै समन्ताद्याने, स०। प्रमाणोपपन्नम्। यद्वा-इदमधिक मदीयं पुनर्मानयुक्तम्। एवं सर्वत्र भावना। पर्यादान न० शरीरनिष्पत्तरारभ्य यथायोगमङ्गप्रत्यङ्गै र्लोमाहाराऽऽदीनां नवरं दुर्बलं जीर्णप्राय, खरं कर्कशस्पर्श , गुरु स्थूलसूत्रनिष्पन्नतया समन्ततः पुद्गलदाने, प्रज्ञा०३४ पद। भ०। भारयुक्तं, छिन्नं निपुष्पक मलिनं मलाऽऽविलम्, अशीलसह शीतरक्षणा- | परिमाईय त्रि० (पर्यायातीत) विवक्षितपर्यायमतीते, स्था०२ ठा०३ उ०। क्षम, दुर्वर्ण विरूपच्छायम्, इत्थंभूतं स्वयमेव ज्ञात्या विपरिणमेत्। | पर्याप्त त्रि० सामस्त्यगृहीते, स्था०२ ठा० 3 उ०॥ घृष्टोऽहमिति विचिन्तयेत् / यदा-अन्येन साधुना खग्गूढेन भणित परियाग त्रि० (पर्यायाऽऽगत) सर्वतो निष्पन्नतां गते ज्ञा० 1 श्रु० उत्पासितो विपरिणमेत्। ७अ०। अत्रैवापवादमाह परियाण न० (परियान) परि-या-ल्युट् / 'अधिपरी अनर्थको" एगस्स माणजुत्तं, न उ बिइए एवमाइ कजेसु / ||14|63 // इति (पा०) कर्मप्रवचनीयसंज्ञाया उपसर्गसंज्ञानिषेधान्न गुरुपामूले ठवणं, सो दलयइ अन्नहा कलहो // 328 / / णत्वम्।देशान्तरगमने स्था० 10 ठा० / तिर्यग्लोकावतरणाऽऽदौ, स्था० एकस्य साधोर्यस्य सत्कं तं न भवति तस्य मानयुक्त प्रमाणोपपन्नं 3 ठा० 3 उ० / परियायते गम्यते येनेति परियानम् / परियानकरणे वस्त्राऽऽदि, न द्वितीये द्वितीयस्य साधोर्यस्य सत्कं तस्य मानयुक्त, किं स्था०८ठा०। तु ? न्यूनमधिकं वा० तत एवमादिषु कार्येषु समत्मपन्नेषु परिवर्तनस्य | परित्राण न० परित्रायत इति परित्राणम् / रक्षणीये, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० संभवो भवति, तत्र परिवर्तनस्य संभवे यस्य सत्कं तत् वस्वाऽऽदि तेन २उ०। गुरुपादमूले तस्य वस्त्राऽऽदेः स्थापन कर्तव्यं, गुरुपादमूले मोक्तव्य- | परियाणियविमाण न० (परियानिकविमान) परियायते गम्यते यैस्तानि मित्यर्थः / ततो वृतान्तः कथनीयो वृत्तान्ते चकथिते सतिस गुरुर्ददाति० परियानानि तान्येव परियानिकानि / परियानं वा गमन प्रयोजन येषां अन्यथा गुरुपादमूलस्थापनाऽऽद्यभावे कलहः परस्परं राटिः संभपतीति। तानि परियानिकानि, तानि च विमानानि। यानकारकाभियोगिकपालउक्तं परिवर्तितद्वारम् // 328 / / पिं०॥ काऽऽदिदेवकृतेषु पालकाऽऽदिषु० स्था०। एएसु णं अट्ठसु कप्पेसु अट्ठ इंदा पण्णत्ता / तं जहा-सक्के० जे भिक्खू परिग्गाहं परियट्टेइ, परियट्टावेइ, परियट्टियमाहट्ट जाव सहस्सारे / एएसिं अट्ठणहं इंदाणं अट्ठ परियाणिया विमाणा दिजमाणं पडिग्गहेइ, पडिग्गहतं वा साइज्जइ।।३।। पण्णत्ता / तं जहा-पालए, पुप्फए, सोमणसे, सिरिवच्छे, अप्पणिज देति, परसंतियं गेणहति त्ति परियट्टिरसं, एत्थ चउलहुं / णंदियावत्ते, कामकमे, पीइमणे, विमले / स्था० 8 ठा० / नि० चू०१४ उ०। परियाय पुं०(पर्याय) कथञ्चित्प्रागवस्यात्यागेनाावस्थान्तराऽऽपतौ, परियडण न० (पर्यटन) इतश्चेतश्च गमने, विशे०। आ०म० 1 अ० 1 (वस्तुमः स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च 'अक्खर' शब्द परियण पुं० (परिजन) स्वजनवर्गे, उत्त०६ अ०। प्रथमभागे 142 पृष्ठे गताः)"परियाओ दुविहो-जम्मणओ, पवजाए य / " परियंतजुग न० (पर्यन्तयुग) सकलयुगान्तिमयुगे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। नि० चू० 16 नु० / पर्यायो द्विधा-जन्मनः, प्रव्रज्यया च / जन्मना परियत्तणन० (परिवर्तन) इतरस्यां दिशि स्थापने,बृ०३ उ०नि० चू० / जन्मपर्यायः प्रव्रज्यया प्रव्रज्यापर्याय इति। तत्र जन्मपर्यायः जन्मलक्ष Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियाय 626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परियारणा साताthi) णः जन्मकालः / स्था०६ ठा०। प्रव्रज्याप्रतिपत्तिलक्षणः / आ० म०१ अ० स्था०। आचा० / संयमानुष्टानलक्षणो वा। आचा०१ श्रु०५ अ० 5 उ० अधुना पर्यायद्वारमाहगिहि सामन्ने य तहा, परियाओ दुविह होइ नायव्यो। इगुतीसा वीसा य, जहन्न उक्कोस कोडूणा।। पर्याया भवति द्विधा ज्ञातव्यः / तद्यथा-गृहे गृहविषयः / जन्मन आरभ्वेत्यर्थः / तथा श्रामण्ये श्रामण्यविषयः। श्रमणभावप्रतिपत्तेरारभ्य इति भावः / इयमत्र भावना द्विविधः पर्यायः / तद्यया-जन्मपर्यायौ, दीक्षापर्यायश्च / इगुतीसा वीसा य जहएण त्ति) यथासंख्येन योजनाजन्मपर्यायो जघन्यतो जन्मत एकोनत्रिंशद्धर्षाणि विज्ञेयः / दीक्षापर्यायो विंशतिः वर्षाणि उत्कर्षतः / उभयत्रापि देशोना पूर्वकोट / उक्तं च"परियातो दुविहो-जम्मपरियातो य, दिक्खापरियातो य। जम्मपरियातो जहण्णेण इगुणतीसे ठाणं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। दिक्खापरियातो जहणणेणं वीस वासा, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी " / गत पर्यायद्वारम् / व्य० 1 उ०। आ० म० / ब्रह्मचर्ये, आव० 4 अ०।अभिप्राये, युक्तिविशेषे,सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। द्रव्यस्य क्रमभाविनि धर्मे, रत्ना० 5 परि० / ('पजव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 211 पृष्ठादारभ्य सर्वा वक्तव्यतोक्ता) परियायंतकडभूमि स्त्री० (पर्यायान्तकृभूमि) तीर्थकरस्य केवलित्वकालमाश्रित्यान्तकरभूमौ, कल्प १अधि० 6 क्षण / ज्ञा० / (कस्य तीर्थकृतोऽन्तकृद् भूमयः कियत्य इति 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2271 पृष्ठे उक्तम्) परियायजिट्ठपुं० (पर्यायज्येष्ठ) चिरप्रव्रजिते. दश० 10 अ०। परियायथेर पुं० (पर्यायस्थविर) प्रव्रज्यातः स्थविरे वृद्धे, स्था०३ ठा० 2301 परियायसंगइय पुं० (पर्यायसागतिक) तापसपर्यायवर्तिनि, मित्र, भ० 7 श०६उ01 परियायाय त्रि० (पर्यायायात) पर्यवाऽऽगते, अवस्थान्तरं प्राप्ते, भ०१४ श०७उ०1 परियारग त्रि० (परिचारक) परिचरन्ति सेवन्ते स्त्रियमिति परिचारकाः। स्था० 2 ठा० 4 उ० / मैथुनाभिष्वङ्गकर्तरि, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। रोगिपरिचारकारके वैद्ये, स्था० 4 ठा०४ उ०। परियारणया स्त्री० (परिचारणता) यथायोगं शब्दाऽऽदिविषयोपभोगे, प्रज्ञा०३४ पद। परियारणा स्त्री० (परिचारणा) देवमैथुनसेवायाम्, स्था०। तिविहा परियारणा पण्णत्ता। तं जहा-एगे देवे अन्ने देवे अन्नेसिं देवाणं देवीओ य अभिजुंजिय अभिजुंजिय परियारेइ ! अप्पणिजित्ताओ देवीओ अभिजुजिय अभिमुंजिय परियारेइ / अप्पाण मेव अप्पाणं विउव्विअ विउव्विअ परियारेइ। एगे देवे णो अन्ने देवे णो अन्ने सिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय अभिजु जिय परियारेइ / अप्पणिज्जित्ताओ देवीओ अभिजुंजिय अमिजुंजिय परियारेइ। अप्पाणमेव अप्पाणं विउव्विय विउव्विय परियारेइ। एगे देवे णो अन्ने देवे णो अन्नेसिंदेवाणं देवीओ णो अप्पणिजियाओ अप्पाणमेव अप्पाणं विउव्विय विउव्विय परियारेइ / / परिचारणा देवमैथुनसेवेति। एकः कश्चिद्देवो, न सर्वोऽप्येवमिति किम् (अन्ने दैवे त्ति) अन्यायन्देवानल्पद्धिकान् तथाऽन्येषां देवानां सत्का देवीश्चामिथुज्याऽभियुज्याश्लिष्याश्लिष्य वशीकृत्य वा परिचारयति परिभुङ्क्ते वेदबाधोपशमायेति / न च न सम्भवति देवस्य देवसेवा पुंस्त्वेनेत्याशङ्कनीयम्, मनुष्येप्पपि तथाऽऽश्रयणात् / न चात्रार्थे नरामरयोः प्रायोविशेषोऽस्तीत्येक एवायं प्रकारो देवदेवीनामन्यत्वसामान्यात्। अत एवं द्वयोरपि पदयोरेकः क्रियाभिसबन्ध इति / एवमात्मीया देवीः परिवारयतीति द्वितीयः, तथाऽत्मनमेव परिनारयति, कथाम्? अत्मना विकृत्य विकृत्य, परिचारणायोग्यं विधायेतितृतीयः। एवंप्रकारयरूपाऽज्ञयेकेयंपरिचारणा, प्रभविष्णूत्कटकामैकपरिचारकवशादिति। अथान्यो देव आद्यप्रकारपरिहारेणान्त्यप्रकारद्वेन परिचारयतीति द्वितीयेयमद्रभविष्णूवितकामपरिचारकदेवविशेषात् / तथाऽत्वो देव आद्यप्रकारद्वयेवर्जननात्यप्रकारेण परिचारयतीति तृतीया-ऽनुत्कटकामाल्पर्द्धिकदेवविशेषस्वामिकत्वादिति / स्था० ३ठा० 1 उ०। संग्रति परिचारणां प्रतिपादयिषुरिदमाहदेवाणं भंते ! किसदेवीया सपरियारा, सदेवीया अपरियारा, अदेवीया सपरियारा, अदेवीया अपरियारा ? गोयमा! अत्येगतिया देवा सदेवीया सपरियारा, अत्थेगति या देवा अदेवीया सपरियारा, अत्थेगतिया देवा अदेवीया अपरियारा / नो चेव णंदेवा सदेवीया अपरियारा / से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइअत्थेगतिया देवा सदेवीया सपरियारा तं चेव० जाव नो चेवणं देवा सदेवीया अपरियारा?गोयमा! भवणवइवाणमंतरजोइससोहम्मीसाणेसु कप्पेसुदेवासदेवीया सपरियारा! सणंकुमारमाहिंदबंभलोगलंतगमहासुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणचुएसु कप्पेसु अदेवीया सपरियारा। गेविजाणुत्तरोववाइया देवा अदेवीया अपरिचारा नो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुचइ-अत्थेगतिया देवा सदेवीया सपरियारा तं चेव नो चेवणं देवा सदेवीयाअपरियारा। सुगम, नवरं भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मशानकल्पेषु देवाः सदेवीकाः देवीना तत्रोत्पादात्। अत एव सपरिचाराः परिचारणासहिताः, देवीनां तत्परिग्रहे यथायोग भावतः कायप्रवीचारभावात्। सनत्कुमारमाहेन्द्रयोब्रहर्मलोकलान्तकयोर्महाशुक्रसहस्त्रारयोरानताऽऽदिचतुर्ष कल्पेषु देवाश्चादेवीकाः, तत्र देवीनामुत्पादाभावात् / अथ च परिचारणासंहिताः, सौधर्मेशानगठदेवीभिः सह यथाक्रम स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवी Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियारणा 630 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परियारणा चारभावात्। गैवयकानुत्तरोपपातिनो देवा अदेवीकाः, देवीनां तत्रोत्पा- नुत्तरोपपातदेवा अपरिचारका न विद्यते परिचारो मिथुनोपसेवन दाभावात् / अपरिचारा अप्रवीचाराः अत्यन्तमन्दपुरुषवेदोदयतया मनसाऽपि येषां ते तथा, तेषां प्रतनुमाहोदयतया प्रशमसुखान्तीमनसाऽपि प्रवीचारासंभवात, न पुनस्ते देवाः सदेवीका अपरिचाराः, नत्वात, यद्येवं कथं नाते ब्रह्मचारिणः? उच्यते-चारित्रपरिण माभावात्। तथाभवस्वाभाध्यात्। (से तेणमित्यादि) निगमनवाक्यम्। प्रज्ञा०३४ "से तेण?णं" इत्यादि निगमनवाक्यम्। पद। वेदोदयप्रतीकारे, स्था० 5 टा०२ उ01 तत्र ये कायपरिचारका देवास्तेषां कायपरिचारं देवाः सदेवीकाः सपरिवारा इत्युक्तं, तत्र परिचार विभावयिषुरिदमाहणामेव जिज्ञासुः पृच्छति तत्थ णं जे ते कायपरियारगा देवा, तेसि णं इच्छामणे कतिविहा णं भंते ! परियारणा पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा समुप्पज्जइ, इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारं करेत्तए; पण्णत्ता / तं जहा-कायपरियारणा, फासपरियारणा, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसी कए समाणे खिप्पामेव ताओ रूवपरियारणा, सद्दपरियारणता, मणपरियारणता से केण?णं अच्छराओ उरालाई सिंगाराइं मणुन्नाई मणोहराई मणोरमाई भंते! एवं वुचइपंचविहा परियारणता पण्णत्ता / तं जहा उत्तरविउव्वियाई रूवाइं विउव्विंति, विउव्वंतित्ता तेसिं देवाणं कायपरियारणया० जाव मणपरियारणता? गोयमा ! भवणव अंतियं पाउडभवंति / तण णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं इवाणमंतरजोइससोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा, कायपरियारणं करंति, करंतित्ता से जहानामए सीता पोग्गला सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा, बंभलोय सीतं पप्प सीतं चेव अइवइत्ता णं चिट्ठति, उसिणा वा पोग्गला लंतगेसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा, महासुक्कसहस्सारेसु देवा उसिणं चेव अइवइत्ता णं चिट्ठति / एवमेव तेहिं देवेहिं ताहिं सद्दपरियारगा, आणयपाणय-आरणाचुएसु कप्पेसु देवा अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणे कए समाणे इच्छामणे मणपरियारगा, गेविजाणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा, से खिप्पामेवावेति / अत्थि णं भंते! तेसिं देवाणं सुक्कपुग्गला? तेणतुणं गोयमा ! तं चेव० जाव मणपरियारगा। हंता अस्थि / तेणं भंते ! तासिं अच्छराणं कीसत्ताए भुजो भुञ्जो (कइविहाणमित्यादि) सुगमम् / भगवानाह-(गोयमेत्यादि) गतार्थम, परिणमंति? गोयमा! सोइंदियत्ताए चक्खिांदियत्ताए घाणिंदियनवरम् (कायपरिचारगा इति) कायेन शरीरेण मनुष्यस्त्री पुं० सानामिव ताए रसिंदियत्ताए फासिंदियत्ताए इतृत्ताए कंतत्ताए मणुण्णत्ताए परिचारो मैथुनोपसेवनं येषां ते कायपरिचारकाः / किमुक्तं भवति? मणामत्ताए सुभगत्ताए सोभग्गरूवजोव्वणगुणलावण्णत्ताए तेतासिं भवनपत्यादय ईशानदेवलोकपर्यन्ताः संक्लिष्टोदयपुरुषवेदकर्मप्रभावतो भुजो भुञ्जो परिणमंति / तत्थ णं जे ते फासपरियारगा देवा मनुष्यवत् मैथुनसुखप्रतीयमानाः सर्याङ्गीण कायक्लेशजं संस्पर्शसुख तेसि णं इच्छा मणे समुप्पञ्जइ; एवं जहेव परियारगा तहेव मवाप्य प्रीतिमासादयन्ति, नान्यथेति।सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयो निरवसेसं भाणियव्वं / तत्थ णं जे ते रूवपरियारगा देवा तेसि देवाः स्पर्शपरिचारकाः स्पर्शन स्तनभुजोरुजघनाऽऽदिगात्रसंस्पर्शन णं इच्छा मणे समुप्पज्जइइच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं परिचारः प्रवीचारो येषां ते तथा / ते हि यदा प्रवीचारमभिलषन्ति तदा रूवपरियारणं करेत्ताए; तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसी कए समाणे प्रवीचाराभिलाषरुक्तया प्रत्यासन्नीभूताना देवीनां स्तनाऽऽद्यवयवान् संस्पृश्यन्ति, तावन्मात्रेणैव तेषां काथप्रवीचारादनन्तगुणसुखं वेढोप तहेव० जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउदांति, विउव्वंतित्ता शान्तिश्चोपजायते। ब्रह्मलोकलान्तकयोः कल्पयोर्देवा रूपपरिचारका जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, उवामच्छित्ता तेसिंदेवाणं रूपेण रूपमात्रदर्शनेन परिचारो मैथुनोपसेवनं येषां ते तथा / ते हि अदूरसामंते ठिचा ताई उरालाइं० जाव मणो रमाई सुरसुन्दरीणां मनोभवराजस्थानीयं दिव्यमुन्मादजनक रूपमुपलभ्य उत्तरवेउव्वियाई रूवाइं उवदंसेमाणी उवंदसेमाणी उवचिट्ठति / कायप्रवीचारादनन्तगुणं सुरतसुखमासादयन्ति,तावनमात्रेणैवापशान्त तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धि रूवपरियारणं करंति, वेदा उपजायन्ते। महाशुक्रसहस्त्रारेषुकल्पेषु देवाः शब्दपरिचारकाः शब्देन सेसं ते चेव० जाव भुजो भुजो परिणमंति / तत्थ णं जे ते शब्दमात्रश्रयणेन परिचारो येषां ते तथा। ते हि इच्छाविषयीकृतदैवीस- सद्दपरियारगा देवा ते सिं इच्छा मणे समुप्पाइइच्छामो णं त्कगीतहसितसविकारभाषितनूपुराऽऽदिध्वनिश्रवणमात्रत एव काय- अच्छराहिं सद्धिं सहपरियारणं कस्तिए; तए णं तेहिं देवे हिं प्रवीचारादनन्तगुणं सुखमुपभुजते, तावन्मात्रेणैव च तेषां वेद उपशा- मणसी कर समाणे तहेव० जाव उत्तरवे उब्वियाइं रूवाई न्तिमेति। आमतप्राणतारणाच्युतेषु कल्पेषु देवाः मनःपरिचारकाः मनसा विउव्वंति विउटिवत्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, मनोभवविकारोपष्टम्भितपरस्परोचावचमनःसंकल्पेन परिचारो मैथुनोप- उवागच्छित्ता ते सिं देवाणं अदूरसामंते ठिचा उच्चावयाई सेवन येषां ते तथा। तेहि परस्परोचावचमनःसंकल्पमात्रेणैव कायप्रवीवा- सद्दाइं समुदीरेमाणीओ समुदीरेमाणीओ चिट्ठ ति। तए णं रादन्तगुणं सुखमाप्नुवन्ति, तृप्ताश्चतावन्मात्रेणैवोपजायन्ते। श्रवयका- | ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं सहपरियारं करं Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियारणा 631 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परियारण्णा ति, सेसं तं चेव० जाव भुजो भुजो परिणमंति। तत्थ णं जे ते मणपरियारगा देवा, तेसिं इच्छामणे समुप्पज्जइइच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसी कए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ तत्थ गयाओ चेव समाणीओ अणुत्तराई उच्चावयाई मयाइं पहारेमाणीओ पहारेमाणीओ चिटुंति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करंति; सेसं निरवसे सं० जाव भुजो भुज्जो परिणमंति। (तत्थ णमित्यादि) तत्र तेषु कायपरिचारकाऽऽदिषु देवेषु मध्ये ये ते पूर्वमुक्ताः कायपरिचारका भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवास्तेषाम् णमिति वाक्यालङ्कारे, इच्छामनःकायपरिचारेच्छाप्रधान मनः समुत्पद्यते / केनोल्लेखनसमुत्पद्यते? इच्छामोऽभिलषामो; णमिति पूर्ववत् अप्सरोभिः सार्द्ध कायचारं कर्तुमिति / (तए णमित्यादि) ततस्तैर्देवैरेव मुक्तेन प्रकारेण कायपरिचारे मनासि कृते सति क्षिप्रमेव शीघ्रमेव ता अप्सरसः स्वस्वोपभोगयोग्यदेवाभिप्रायमुपेत्य परिचाराभिलाषुकतया उत्तरवैक्रियाणि रूपाणि,विकुर्वन्तीति संबन्धः / कथंभूतानीत्यत आह-उदाराणि, स्फाराणि, न तु हीनावयवानि, तानि अपि शृङ्गाराणि / शृङ्गारो विभूषणाऽऽदिभिर्मण्डनं स विद्यते येषां तानि शृङ्गाराणि। 'अभ्राऽऽदिभ्यः // 7246 // इति अप्रत्ययः। विभूषणाऽऽदिकृतोदारशृङ्गाराणीत्यर्थः / तानि च कदाचित्कस्यचिदमनोज्ञा न भवेयुः। अत आह-मनोज्ञानि स्वस्वोपभोग्यदेवमनोविषयभावपेशलानि, तानिलेशतो संभाव्यन्ते, तत् मनोहराणि स्वस्वोपभोग्यस्य देवस्य मनो हरन्ति आत्मवशं नयन्तेति मनोहराणि / लिहाऽऽदित्वादच् / ततः स्वमनोहरत्वं प्रथमसमयापातमात्रभाव्यपि भवति, तत आह-मनोरमाणि मनः स्वस्वोपभोग्यदेवसम्बन्धि रमयन्ति क्रिडयन्ति प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरानुरागसंपृक्तं जनयन्तीति मनोरमाणि, तानि इत्थंभूतानि उत्तरवैक्रियाणी रूपाणि विकुर्वित्वा तेषां देवानामन्तिक समीपं प्रादुर्भवन्ति / (तए णमित्यादि) ततो, णमिति पूर्ववत् / ते देवास्ताभिरप्सराभिः सार्द्ध कायपरिचारणं मनुष्य इव मनुष्यस्त्रीभिः सर्वाङ्गीणकायक्लेशपूर्वक मैथुनोपसेवनं कुर्वन्ति। एवमेव तेषां वेदोपशान्तिभावात्। तथा चामुमेवार्थ दृष्टान्तेन दृढयति-(से जहानामएत्यादि) (से इति) अथ शब्दार्थः, रस चार वाक्योपन्यासे, यथा नाम ते विवक्षिताः शीताः पुद्गलाः शीत शीतयोनिक प्राणिनं प्राप्य शीतमेव शीतत्वमेवातिव्रज्यातिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति / किमुक्तं भवति?-विशेषतः शीतीभूतस्य शीतयोनिकस्य प्राणिन सुखित्वायोपकल्पन्ते, उष्णा वा पुद्गला उष्णयोनिक प्राणिन प्राप्य उष्णमेव उष्णत्वमेवातिव्रज्यातिशयेन गत्वा तिष्ठन्ति। विशेषतः स्वरूपलाभसंपत्त्या तस्य सुखित्वायोपतिष्ठन्ति इति भावः / एवम्अनेनैव प्रकारेण ते देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्द्ध यथोक्तरूपैः कायपरिचारणे कृते सति इच्छामनकामविषये प्रधान मनः क्षिप्रमेवातितृप्तिभावात् शीतीभवति। इयमत्र भावना यथा शीतपुद्गलाः शीतयोनिकस्य प्राणिनः संस्पर्श शीतत्वं विशेषत आसादयस्तस्य सुखित्वायोपकल्पन्ते / उष्णपुदला वा उष्णयोनिकस्य प्राणिनः संस्पर्श उष्णत्वमिति प्रभूतमासादयन्ते सुखाय घटन्ते। तथा देवीशरीरपुद्गला अपि देवीशरीरमवाप्य परस्पर तद्गुणता भजमानाः परस्परं सुखित्वायोपकल्पन्ते / ततः सुखमुपजायते, आहोश्विदन्यथेति संशयानो देवानां शुक्रपुद्गलास्तित्वं पृच्छति-(अस्थि णमित्यादि) अस्तीति निपातोऽत्र बव्हर्थे, णमिति पूर्ववत्, भदन्त ! तेषां देवानां शुक्रपुद्गला यत् सम्पर्कतो देवीनां सुखमुपजायते / भगवानाह-(हंता ! अत्थि गौतम !) सन्ति के वलं वैक्रियशरीरान्तर्गता इति, न गर्भाधानहेटवः / (ते णं भंते ! इत्यादि) शुक्रपुद्गला णमिति पूर्ववत् / भदन्त! तासामप्सरसां कीदृक् स्वरूपतया भूयो भूयो यदा क्षरन्ति तदा तदा इत्यर्थः / परिणमन्ति? भगवानाह(गोयमेत्यादि) श्रोत्रेन्द्रियं यावत्सपर्शनेन्द्रियतया तेऽपि कदाचिदनिष्टतथा परिणमन्तः सम्भाव्यन्ते / तत आह-इष्टतः सौभाग्याय सौभाग्यहेतवे रूपयौवनलावण्यरूपा गुणा यस्य तत्सौभाग्यरूपयौवनलावण्यगुणं, तद्भावरतत्ता, तया, तत्र रूपसौन्दर्यवती आकृतिविन परमस्तरुणिमा लावण्य मतिशयमनोभवविकारहेतुः परिणतिविशेषो, यतः सौभाग्यहेतुरूपाऽऽदिगुणनिबन्धनतया परिणमन्ति ततः सुभगतया परिणमन्तीत्युच्यते / एवं ते शुक्रपुद्रलास्तासामप्सरसां भूयः भूयः परिणमन्ति। तदेव कायपरिचार उक्तः। सम्प्रति-''भंते! तासिं अच्छराणं कीसत्ताए भुजो 2 परिणमन्ति? गोयमा ! सोइंदियत्ताए इहृत्ताए कतत्ताए भुजो भुजो परिणमंति / अस्यापि पात-निकाय्याख्या प्राग्यत् / नवरमरिमन् स्पर्शशुक्र पुद्गलक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः / एवं रूपपरिचारऽऽदावपि भावनीयम् / तदेवमुक्ताः स्पर्शपरिचारकाः / सम्प्रति रूपपरिचारणां विभावयिषुराह-(तत्थ णमित्यादि) सुगमम् / यावत्तावद्विकुर्वित्वा / (जेणामेव त्ति) यत्रैव देवलोक विमाने प्रदेशे च ते देवाः सन्ति तत्रैव स्थाने ता अप्सरस उपागच्छन्ति, उपागम्य च तेषा देवानाम् (अदूरसामते इति) अदूरसमीपे स्थित्वा तानि पूर्व विकुर्वितानि उदाराणि यावदुत्तरवैक्रियाणि रूपाणि उपदर्शयन्त्यस्तिष्ठन्ति / ततस्ते देवास्ताभिरप्सरोभिः सार्द्ध रूपपरिचारणां परस्परसविलासदृष्टिविक्षेपां प्रत्यङ्गनिरीक्षणनिजनिजानुरागप्रदर्शनप्रदिष्टचेष्टाप्रकटनाऽऽदिरूपा कुर्वन्ति। (सेसं तं चैव त्ति) शेषम् (से जहानामए इत्यादि) तदेव यावत् (भुजो भुञ्जो परिणमंठीति) वाक्यम् / तदेवं भाविता रूपपरिचारणा / संप्रतिशब्दपरिचारणां भावयितुकाम आह-(तत्थ णमित्यादि) कण्ठ्यम / नवरमदूरसमीपे स्थित्वा अनुत्तरान् सर्वमनः प्रल्हादजनक तया अनन्यसदृशान् उच्चावचान् प्रबलप्रबलतरमन्मथोद्दीष कसभ्यासभ्यरूपान् शब्दान्, नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात्। समुदीरयन्त्यस्तिष्ठन्ति। शेषं तथैवा (एवं तत्थ णमित्यादि) मनःपरिचारकसूत्रमपि तथैव यावन्मनःपरिचारे मनसि कृते सति क्षिप्रमेव ता अप्सरसस्तत्र स्थिता एव सौधर्मशानदेवलोकान्तर्गतस्वस्वविमानस्थिता एव सत्योऽनुत्तराणि परमसन्तोषजनकतया अनन्यसदृशानि उचावचानि कामानुषक्तसभ्यासभ्यरूपाणि मनांसि प्रवीचारयन्त्यस्तिष्ठन्ति। इह (तत्थ गया चेव समाणीओ) इति वदता देव्यः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति, न परत इत्यावेदितं द्रष्टव्यम्। तथा चाह संग्रहणिमूलटीकाकारो हरिभद्रसूरिःसनत्कुमाराऽऽदि देवानां र Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियारणा 632 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परियारण्णा ताभिलाषे सति देव्यः स्वल्पपरिगृहिता सहस्रारं यावद्गच्छन्तीति। तथा चारका असंख्येयगुणाः, ते हि महाशुक्रसहस्रारकल्पवासिनः, ते च स एव प्रदेशान्तरे आह-."इह सोहम्मे कप्पे जार्सिं देवीणं पलिओवमाओ घनीकृतस्या लोकस्य एकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसंख्येयतमे भागे यावन्त गंताओ तद्देवाणं चेव हवंति, जासिं पुण पलिओवयाइसममाहिया ठिई आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः, तेभ्योऽपि रूपपरिचारका देवा दुसमयतिसमयसंखेज्जा असंखेजसमवाहिया० जाव दसपलिया सोहम्भ- असंख्येयगुणाः, ते हि ब्रह्मलोकलान्तककल्पनिवासिनः, तेच पूर्वदेवागदेवीओ ताओ सणंकुमाराणं गच्छंति, एवं दसपलियो वरि जासिं नधिकृत्यासंख्येगुणश्रेण्यासंख्येयभागगतनभः प्रदेशराशिप्रमाणाः, समाहिया ठिई० जाव वीसं पलिया ताओ बंभलोगगयाणं गच्छति, एवं तेभ्योऽपि स्पर्शपरिचारका देवा असंख्येयगुणाः, तेषां सनत्कुमारमहिन्द्रवीसपलिओवरि जासिं समयाहिया ठिई० जाव तीस पलिया ताओ कल्पवर्तित्वात्, तद्वर्तिनां च ब्रह्मलोकलान्तकदेवानपेक्ष्यासंख्येयमहासुकदेवाणं गच्छति, एवं तीस पलिओवरि जासिं समयाहिया ठिई० गुणश्रेण्या संख्येयभागवाकाशप्रदेशपरिमाणतयाऽधीतत्वात् 0 तेभ्यः जाव चतालीस पलिया ताओ आणयदेवाणं तत्थ ठिया नेव झाणालबंण काय-परिचारका देवा असंख्येगुणा भवनपत्यादीनामीशानान्ठानां सर्वेषा हुंति, एवं चत्तालीसंपलिओवरि जासिं समयाहिया ठिई० जावपंचास- कायपरिचारकत्वात्, तेषां सर्वसंख्यया प्रतरासंख्येयभागवर्त्तिनभः पलिया ताओ आरणदेवाणं, तत्थ ट्ठिया चेव झाणालवण हुंति, तथा प्रदेशराशिप्रमाणत्वादित्ति। प्रज्ञा० 34 पद। स्त्रिया बनात्कारोणोपभागे, ईसाणे जासिं देवीण पलिओवममहियमाउम ताओ तद्देवाणं चेव हवंति, व्य०२ उ०1"दोहि ठाणेहिं आया ओभासेइ देसेण वि, सव्वेण वि।" जासि पुण अहियपलिओक्माइ समयाहिया ट्ठिई दुसमयतिसमयसखिज्जा (परिचारय त्ति) मैथुनं सेवते देशेन मनोयोगाऽऽदीनामनयतमेन, सर्वेण संखेजसमयाहिया० जाव पन्नरसपलिया ताओ माहिदेदेवाणं गच्छति योगत्रयेणापि / स्था० रठा० 2 उ० / आसिवनायाम, आचा०२ श्रु०१ एवं पण्णरस पलिओवरि समयाहिया टिई० जाव पणवीसपलिया ताओ चू०२ अ०१ उ०। वतंगदेवाण जासिं पुण पणवीसपलिओवरि समयीहिया ठिई० जाव परियारणासद्द न० (परिचारणाशब्द) पुरुषेण भुज्यमाना स्त्री यं शब्द पंचतीस पलिया ताओ सहस्सारदेवाणं जासिं पुण पंचतीसपलिओवर करोति तस्मिन्, “परियारणसदं वा / पुरिसेणित्थि परिभुजमाणा जं समयाहिया ठिई० जाव पणयालीस ताओ पाणयदेवाण, तत्थ ठियाओ सई करेति एस परियारणासद्दो अण्णति। नि० चू० 1 उ०। चेव झाणालवणे हुति, जासिं पुण पणयालीसं पलिओवरि समयाहिया परियारणिड्डि स्त्री० (परिचारणर्द्धि) अन्यान् देवानन्यसंस्का-देवीरभिठिई० जाव पणपन्नपलिया ताओ अच्चुयदेवाणं तत्थ ठियाओ चेव युज्याऽऽल्मानं च विकृत्य परिचारयन्तीत्येवं लक्षणायां देवानां झाणालंबणे हुंति इति।" (तए णमित्यादि) ततो णमिति पूर्ववत. ते कामसेवी, स्था०३ ठा०४ उ०। देवाः ताभिरप्सरोभिः सार्द्ध मनः परिचारणसुरतानुबन्धि परस्परसभ्या- परियारसह पुं० (परिचारशब्द) पुरुषेण परिभुज्यमानायाः शब्दे बृ०१ सभ्यमनःसंकल्पकरणरूपं कुर्वन्ति। (सेसमित्यादि) शेषम् (सेजहानामए उ०३ प्रक० / नि० चू०। सीया पोग्गला इत्यादि) निरवशेषं तावद्वक्तव्यं यावत् “भुजो भुजो / परियारेमाण त्रि० (परिचारयत्) परकीयदेवीनां भोगं कर्तुकामे; भ०३ परिणमंतीति'' सर्वान्तिम वाक्यम् / व्याख्या चास्य प्राग्वत्। तत ऊर्द्ध श०२ उ० / कामक्रीडा कुर्वति, भ०१२ श०६ उ० / तु ग्रैवेयकदेवा मनसाऽपि योषितो न प्रार्थयन्ते, प्रतनुवेदोदयत्वात्।। परियाल पुं० (परिवार) वृत्तौ, खड्गाऽऽदिकोशे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। यथोत्तरं वा तेऽनन्तगुणसुखभ जः / तथाहि-कायप्रवीचारेभ्योऽन- शिष्याऽऽदि वर्ग, स्था०६ ठा० / न्तगुणसुखाः स्पर्शपरिचारिकाः, तेभ्योऽनन्तगुणसुखा रूपपरिचारकाः, परियालिय त्रि० (परिचालित) वेष्टिते, "वेढिअयं परियालियं।'' पाइ० तेभ्योऽप्यनन्तगुणसुखा मनःपरिचारकाः, तेभ्योऽपि अपरिचारकाः। / ना० 166 गाथा। साम्प्रतमेतेवामेव परस्परमल्यबहुत्वमभिधित्सुराह- परियालोयण न० (पर्यालोचन) अनुचिन्तने, आव० 4 अ०। एएसिणं भंते! देवाणं कायपरियारगाणं० जाव मणपरियारगाणं | परियावजणा स्त्री०न० पर्यापादन पर्यापत्तो, आसेवायाम्, "तिविहा अपरियारगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! परियावजणा पण्णत्ता / तं जहा-जाणू, अजाणू, वितिगिच्छा। तत्र सव्वत्थोवा देवा अपरियारगा, मणपरियारगा संखिज्जगुणा० जानतो जाणू, अजानतोऽजाणू संशववतो विचिकित्सा / स्था०३ ठा० सद्दपरियारगा असंखिजगुणा, रूवपरियारगा असंखिज्जगुणा, 4 उ०। फरिसपरियारगा असंखिज्जगुणा, कायपरियारगा असंखेज्जगुणा। | परियावण न० (परितापन) ताडनाऽऽदिदुःखविशेषे, स्था०२ ठा० 130 / सर्वस्तोका देवा अपरिचारकाः, ते हि अवेयकानुत्तरोपपातिनः, ते च पीडोत्पादने, आचा०२ श्रु०३ उ०। सर्वसंख्यया क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवर्तिनः प्रदेशराशिप्रमाणा इति, परियादणा स्त्री०न० परियापन वृत्तौ, स्थिती, " एगविहा अविसेसमतेभ्योऽपि मनःपरिचारका देवाः संख्येयगुणाः, तेषामानताऽऽदिकल्प / णाणता सव्वलोए परियावणा।" भ० 34 श०२ उ०। चतुष्ट्यवर्तित्वात, तद्वर्तिनां च पूर्वदेवापेक्षया संख्येयगुणक्षेत्रपल्योप- | परियावण्ण स्त्री० (पर्यायापन) विस्मृते. बृ०३उ०। कुपर्यायमाप्ते, "जहा मासंख्येयभागगताकाशप्रदेशराशिपरिमाणत्वात्, तेभ्यः शब्दपरि- रूहिर चेव यूयपरिणामेण ठितं।'' नि० चू०१६ उ०। आव०। आ० चू० / Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परियावत्ति 633 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिवाडी परियावत्ति स्त्री० (पर्यापत्ति) सम्मूर्छने, ऊष्माभिभूताया मू या आपत्तौ, | परिवच्छि (देशी) निर्णय, 'परिवच्छि त्ति' देशीशब्दोऽयं निर्णये वर्तते / आचा० 1 श्रृ० 1 अ०५ उ० / पर्यापादने, स्था० 3 ठा० 4 उ०। बृ०१ उ०३ प्रक०। परियावसह पुं० (पर्यावसथ) ये गृहपर्यायं मुक्त्वा प्रव्रज्यापर्यायेण | परिवच्छिय त्रि० (परिपक्षित) परिगृहीते, परिवृते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। स्थितास्तेषामावसथः पर्यावसथः। नि० चू०३ उ० भिक्षुकाऽऽदिमठे, परिवजंत त्रि० (परिवर्जयत्) परिहरति० पा० / अचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८ उ०। परिवजण न० (परिवर्जन) परि समन्ताद् वर्जनं परिवर्जनम् / दर्श० 1 परियाविजमाण त्रि० (परिताप्यमान) अग्न्यादौ समन्ततः पीड्यमाने, तत्त्व ! परित्यागे, आव०६ अ० / आचा० / सूत्र०। सूत्र०२ श्रु०१०। परिवजयंत त्रि० (परिवर्जयत) परकृतान् दोषान् परिहरति, सूत्र०१ श्रु० परियाविय त्रि० (परितापित) समन्ततः पीडिते, आव० 4 अ०। 13 अ०। परियास पु० (पर्यास) परिक्षेपे, अरघट्टघटीन्यायेन परिभ्रमणे सूत्र०१ / परिवञ्जिय अव्य० (परिवयं) अपमानमविगणय्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु० भु०१२ अ०। अ०१ उ०। परिरंभण न० (परिरम्भण) आलिङ्गने, "परिरंभणमवरुंडणं / पाइ० | परिवट्टण न० (परिवर्तन) पुनः पुनर्देहीद्वर्त्तने, नि० चू०१3०1 ना० 168 गाथा। परिवट्टिय (देशी) प्रवर्तिते, दे ना०६ वर्ग 26 गाथा। परिरक्खण न० (परिरक्षण) पालने, प्रश्न०३ संब० द्वार। परिवट्टिय न० (परिवर्तित) साधुनिमित्ते कृतपरावर्ते उद्गमदोषभेदे, परिरय पुं० (परिरय) पर्याय, आ० चू०१ अ०। पर्याहारे, परिधौ व्य०१ ) प्रव०६७ द्वार। उ०। पजाहारो त्ति वा परिरउ त्ति वा एगटुं।'' परिरयो भवति गिरिन- | परिवडिय त्रि० (प्रतिपतित) भ्रष्ट, "सुहं अणुट्ठाणं परिवडियं।" प्रतिपतितं द्यादीनां विषये। इयमत्र भावना यद् गिरिनदीनामाऽऽदिशब्दात समुद्रवी- तथाविधकर्मदोषाद् भ्रष्टम्। पञ्चा० 4 विव०। चिपरिग्रहः। व्य०१ उ०। परिवत्त पुं० (परिवर्त) मत्स्याऽऽदीनां परिवर्तने, अनेकधा सञ्चरणे, स० परिरयपरिहरणा स्त्री० (परिरयपरिहरणा) गिरिसरित्परिहरणायाम्० ___11 अङ्ग। औ० / भ्रमणे, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० 2 उ०। आव०३ अ०। व्य०। परिवत्तयंत त्रि० (परिवर्त्तयत्) उत्तानमवाङ्मुखान् वा कुर्वति, सूत्र०१ परिलिअ (देशी) लीने, दे ना० 6 वर्ग 24 गाथा। श्रु०५ अ० 1 उ०। परिलिंत त्रि० (परिलीयमान) लयं याति, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। प्रश्न०।। परिवद्धमाणय त्रि० (परिवर्धमानक) समन्ताद् वर्धमाने, नं०। परिली स्त्री० (परिली) आतोद्यभेदे, आ० चू०१०। परिवयंत त्रि० (परिवदत्) निन्दति, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार / आचा० परिलीण त्रि० (परिलीन) निलीने, "परिलीणं च निलीणं / ' पाइ० ना० समन्ताद्वदति, आचा० 1 श्रु०२ अ०१ उ०। 166 गाथा। परिवसणन० (परिवसन) आवासे, जं०२ वक्ष०। परिलीयमाण त्रि० (परिलीयमान) अन्यत आगत्याऽऽगत्याऽऽश्रयति लयं ] परिवसणा स्त्री० (परिवसना) परि समन्ताद् वसन्त्यत्र परिवसनाः / याति, "परिलीयमानमत्तछप्पयकुसुमाऽऽसवलोल-महुरगुमगुमाय- पर्युषणायाम्, वर्षाऽऽवासे, नि० चू० / "जम्हा उदुबद्धिया दव्वखेत्तमाणगुजुतदेसभाया।'' परिलीयमाना अन्यत आगत्याऽऽश्रयन्तो मत्ताः कालभावपज्जाया एत्थ परिसमंताओ सविखंति परित्यजतीत्यर्थः; अण्णे षट्पदाः कुसुमाऽऽसवलोलाः किंजल्फपानलम्पटाः मधुरगुमगुमायमाना यदव्वादिया पुरिसकालपाओग्गा घेत्तुं आयरजंति, तम्हा एगरखेत्ते चत्तारि गुजन्तश्च शब्दविशेषं च विदधाना देशभागेषु तस्मिन् तस्मिन् देशभागे मासा परिवसंतीति तम्हा परिवसणा भण्णति।" नि० चू० 10 उ०। येणं ते परिलीयमानमत्तषट्पदकुसुमाऽऽसवलोलमधुरगुमगुमाय- परिवहण न० (परिवहन) पृष्ट्याऽऽरोपणपुरस्सरं नयने, स्था० 3 ठा०१ मानगुञ्जद्देशभागाः1 गमकत्वादेवमपि समासः। जी०३ प्रति० 4 अधिक। उ०। नि० चू०। ज्ञा०। औ०। रा० परिवाग पु० (परिपाक) निष्पत्ती, सूत्र०२ श्रु० 3 अ०। परिल्ल त्रि० (पर) "स्वार्थे इल्लः।।।"चरमे परिणिव्याणं परिल्लाणं।' | परिवाडधा० (घट) चेष्टायाम्, "घटेः परिवाड;" ||8|4 // 50 // इति आव० 4 अ०। सूत्रेण घटधातोः परिवाडाऽऽदेशः। परिवाडइ। घटने, प्रा० 4 पाद। परिल्लवास (देशी) अज्ञातगतौ, दे ना० 6 वर्ग 3 गाथा। परिवाडी स्त्री० (परिपाटी) पद्धतौ, बृ०-१ उ०३ प्रक० / आ० म० / परिवइत्ता त्रि० (परिव्रजत्) परिव्रजितुं शक्ते, स्था० 4 ठा०४ उ०। प्रज्ञा० / आ० क० / विशे० श्रेण्याम, संथा० / क्रमः परिपाटी वर्गणा वर्गो परिवंदण न० (परिवन्दन) परिसंस्तवे, आचा० 1 श्रु०३ अ० 3 उ०। | राशिरिति पर्यायाः। आ० म०१ अ० / आनुपूाम, विशे० / गृहपक्ती, प्रशसाया आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। उत्त० 1 अ० / 'अणुपुव्यि परंपरा उ परिवाडी।'' पाइ० ना० 166 गाथा। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवादिणी 634 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिव्वायग परिवादिणी स्त्री० (परिवादिनी) वीणाविशेषे, प्रश्न० 5 संव० परिखुसिय त्रि० (पर्युषित) संयमे, उद्युक्तविहारिणि, 'जे अचेले परिवुसिए द्वार / रा०। संचिक्खति।' आचा०१श्रु०६ अ०२ उ० / व्यवस्थिते, "तिहिं वत्थेहि परिवाय पुं० (परिवाद) परिवदनं परिवादः / अयशोगुणकीर्तने, नि० चू० परिवुसिए।' आचा०१ श्रु०८ अ०७ उ०। 10 उ० / विकत्थने स्था०१ ठा०। दोषपरिकीर्तने, स्था०४ टा०४ / परिवूढ त्रि० (परिवृद्ध) युद्धाऽऽदौ समर्थे, उत्त०२४ अ०। प्रभौ, उ० / असद्भूतदोषाऽऽविष्करणे, आतु० / दस्युरवं पिशुनो वेत्येवं | उपचितमांसशोणिततया तत्तत्क्रियासमर्थ उत्त०७ अ०। आचा०॥ मर्मोद्घट्टने, आचा०१ श्रु० 3 अ०२ उ०। परिवूहण न० (परिवृहण) उपचये. सूत्र०२ श्रु०२ अ०। परिवार पुं० (परिवार) दासीकर्मकराऽऽदिके, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। रा०। | परिवेढिय त्रि० (परिवेष्टित) असकृद्वेष्टिते, स्था० १ठा० / प्रज्ञा०। भ01 आ०म०। 'परिवारपूयेहेउं पासत्थाणं च आणुवत्तीए। “परिवार आत्म- / पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतश्च वेष्टिते, नि० चू० 1 उ०।०। व्यतिरिक्तः ततः परिवारेण पूजा परिवारस्य वा पूजा। -हस्वत्वं प्राकृत- | परिवेष्टय अय्य० पुरतः पार्श्वतः पृष्ठतश्च वेष्टिते। "असणं पाणं खाइम प्रभवं, तस्या हेतु निमित्तम् / दर्श०३ तत्त्व / खड्गनिवासवर्भमयगृहे, साइमं अणुवित्तिय परिवेढिय परिवेढिय जायइ।" नि० चू० 1 उ०। "कलह परिवारं।" पाइ० ना०२३४ गाथा। परिवेवमाण त्रि० (परिवेपमान) असकृत्कम्पमाने, "भिक्खुसीयफासपपरिवारण न० (परिवारण) निराकरणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। रिवेवमाणं गायं तं उवसंकमित्तु गाहावती बूया।' आचा०१ श्रु०८ अ० परिवारिअ (देशी) घटिते,दे ना०६ वर्ग 30 गाथा। ३उ०॥ परिवारिय त्रि० (परिवारित) परिवारः परिकरः संजातोऽस्येति परिवेस पुं० (परिवेष) चन्द्राऽऽदित्ययोः परितो बलयाऽऽकारायां पुद्गलपरिवारितः / उत्त०११ अ०। समन्ततो वेष्टिते, प्रज्ञा०२ पद। परिकरिते, | परिणता, अनु०॥ स०। 'सव्वओपरिवारिओ।" सर्वतः परिवृत इत्यर्थः / उत्त०११ अ०1 परिवेसण त्रि०(परिवेषण)परिविष्यते तत् भोजनं दीयते यस्मै स परिवार्य अव्य० / वेष्टयित्वेत्यर्थे सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। परिवेषणः / भुञ्जाने, पिं०। परिवालिय अव्य० (परिवाल्य) सूत्रोक्तेन विधिना परिपालनं कृत्वेत्यर्थे, परिवेसयंतिया स्त्री० (परिवेषयन्तिका) भोजनपरिवेषणकारि-कायाम, पं०व०५ द्वार। ज्ञा०१ श्रु०७उ०1 परिवाविया स्त्री० (परिवापिता) द्विस्त्रिा उत्पाद्य स्थानान्तराऽऽरौपणतः परिव्ययंत त्रि० (परिव्रजत) परि समन्ताद् व्रजत् गच्छत् परिव्रजत्। परिवपनवती शालिकृषिवत् कृषिभेदे, महाव्रताऽऽरोपणेन निरति वारस्य गुरूपदेशाऽऽदिना संयमयोगेषु वर्तमाने, दश० 2 अ०। संयमानुष्ठायिनि, सातिवारस्य वा मूलप्रायश्चित्तदानतः प्रव्रज्याभेदे, स्था०४ ठा०४ उ०। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। आचा० / उद्यच्छति, आचा० 1 श्रु०५१०५ परिवास (देशी) क्षेत्रशायिनि, दे ना०६वर्ग 26 गाथा। उ०। सूत्र० / समन्तात् मूलोत्तरगुणेषु उद्यम कुर्वति, सूत्र०१ श्रु०६ परिवासिय पुं० (परिवाहक) पृष्ट्यारोपके, स्था० 3 ठा० 1 उ०। अ०। आचा०। परिवाह (देशी) दुर्विनये, दे० ना०६वर्ग 23 गाथा। परिवाइया स्त्री० (परिव्राजिका) व्रतिनीविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० परिविच्छय त्रि० (परिविक्षत) परि समन्तात् अनेकप्रकार हते छिन्ने च। आ०म०|आचा० सूत्र०१ श्रु०३ अ० 1 उ०। "मायापुत्त नयाणाइजेएण परिविच्छर।" परिव्वायग पुं० (परिव्राजक) परि समन्तात्पापवर्जनन ब्रजति गच्छतीति सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०।। परिव्राजकः दश०२ अ० / पापवर्जिते श्रमणे, दश०१० अ०। द्वा०। परिविट्ठ त्रि० (परिवेषित) भोजिते, "ते मुग्गडा हराविआ,जे परिविट्टा आव०। आचा०। आ० म०! नाहं / अवरोप्पह जोहंता-हे सामिउ गजिउ जाहं / ' प्रा०४ पाद। ये लौकिकपरिव्राजकानामाचारःतेषां परिवेपितास्ते मुधा हारिताः मुधा जाताः येषां परस्परं युध्यता से जे इमेजाव सन्निवेसेसु परिव्वायगा भवंति।तं जहासंखा स्वामी गञ्जितः पीडित इत्यर्थः / दं०४ पाद। जोई कविला भिउच्चा हंसा परमहंसा बहुउदया कुडिव्यया परिविनगन न० (परिवित्रसन) उद्वेगपूर्वकमधे, आचा० 1 श्रु० कण्हपरिव्वायगा।तत्थ खलु इमे अट्ठमाहणपरिव्वायगा भवंति। 6 अ०५ उ०॥ तं जहा- "कण्हे अ करकंडे य, अंबडे य परासरे / कण्हे परिवीलिय अव्य० (परिपीडा) पुनः पुनः पीडवित्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु० दीवायणे चेव, देवगुत्ते य णारए॥१॥" तस्य खलु इमे अट्ठ १चू०१ अ०८ उ०। खतिअपरिव्वायया भवंति।तं जहा-"सीलई ससिहारे य, णगई परिवुड त्रि० (परिवृत) संयुक्ते० उत० 22 अ०। रा०ा परिकरिते, ज्ञा०१ भग्गई ति अ। विदेहे राया-राया, राया रामे बले ति अ॥१॥" श्रु०१ अ० आ०म० भ०। श्रेण्यन्तरैः परिकरित० भ०१श०६उ०। ते णं परिव्वायगा रिउव्वेदजजुव्वेद सामवेद अहव्वणवेदइ परिवारिते, औ०। तिहासपंचमाणं णिवंटुछट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिव्वायग 635 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिव्वायग ग्रह वेदाणं सारगा पारगा धारका वारका सडंगवी सद्वितंतविसारदा संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे णिरुत्ते जोतिसामयणे अण्णेसु य वंभण्णएसु अ सत्थेसु सुपरिणिहितायावि हुत्था। ते णं परिव्वायगादाणधम्मच सोअधम्मं च तित्थाभिसेअंच आघवेमाणा पण्णवेमाणा परूवेमाणा विहरति / जंणं अम्हे किंचि असुई भवति तं णं उदएण य मट्टिआए अपखालिअं सुई भवति, एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवेत्ता अभिसे अजलपूअऽप्पाणो अविग्घेण ससणं गमिस्सामो, तेसिणं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अगडं वा तलायं वा णई वा वाविं या पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालिअंवा सरं ठा सागरं वा ओगाहित्तए, णण्णऽत्थ अद्धाणगमणे, णो कप्पइ सगड वा० जाव संदमाणिवा दुरूहित्ताणं गच्छित्तए, तेसिणं परिष्वायगाणं णो कप्पइ आसं वा हत्थिं वा उर्ल्ड वा गोणिं वा महिसं वा खरं वा दुरूहित्ता णं गमित्तए, तेसि णं परिव्वायगाणं गो कप्पइ नडपेच्छाइवाजाव! मागहपेच्छाइ वा पिच्छित्तए, तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ हरिआणं लेसणया वा घट्टणया वा थंभणया वा लूसणया वा उप्पाड्या वा करित्तए, तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ इत्थिकहाइवा भत्तकहाइवा देसकहाइ वा रायकहाइ वा चोर कहाइ वा जणवयकहाइ वा अणत्थदंड करत्तिए, तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अयपायाइ वा तउअपायाणि वा तंवपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रूप्पपायाणि वा सुवणपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि वा धारित्तए, गण्णत्थलाउपाएण वा दारुपाएण वा मट्टिआपाएणवा, तेसिणं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अयवंधणाणि वा तउअवंधणाणि वा तंवबंधणाणि० जाव बहुमुल्ल्लाणि धारित्तए, तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइणाणाविहवण्णरागरत्ताई वत्थाई धारित्तए० णण्णत्थ एकाए धाउरत्ताए, तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पइ हारं वा अद्धहारं वा एकाबलिं वा मुत्तावलिं कण्गावलिं वा रयणावलिं वा मुरविं वा कंठमुरविं वा पालंबं वा तिसरयं वा कडिसुत्तं वा दसमुद्दिआणंतकं वा कड्याणि वा तुणियाणि वा अंगयाणि वा केऊराणि या कुंडलाणि वा मउड वा चूलामणिं वा पिणद्धितए, णण्णत्थ एकेण तंबिएणं पवित्तएणं, तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पइ गंथिमवेढिमपूरिमसंघातिमे चतुविहे मल्ले धारित्तए, णण्णत्थ एगेण कण्णपूरेणं, तेसिणं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अगलुएण वा चंदणेण वा कुकुडेण वा गायं अणुलिंपित्तए, णण्णत्थ एक्काए गंगामट्टिआए, तेसि णं परिव्वायगाणं कप्पइ मागहए पलाए जलस्सपडिगाहित्तए, सेऽवि यवहमाणे णो चेव णं अवहमाणे सेऽवि य थिमिओदए णो चेव णं कद्दमोदए, सेऽवि अ बहुपसण्णे णो चेव णं अबहुपसणे, सेऽवि अ परिपूते णो चेव णं अपरिपूते सेऽवि अण दिण्णे णो चेवणं अदिपणे, सेऽवि अ पिवित्तए णो चेवणं हत्थपायचरुचमसपक्खालणट्ठाए सिणाइत्तए वा, तेसि णं परिव्यायगाणं कप्पइ मागहए अद्धाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, सेऽवि य वहमाणे णो चेवणं अवहमाणे० जाव णो चेवणं अदिण्णे, सेऽवि य हत्थपायचरुचमसपक्खालणट्ठयाएणो चेवणं पिवित्तए सिणाइत्तएवा, ते णं परिव्वायगा एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई परियाय पाउणंति, बहूइं वासाइं परियायं पाउणित्ता कालमासे कालं किचा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई दससागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, सेसं तं चेव // 12 // (परिचायग त्ति) मस्करिणः। (संख त्ति) सांख्याः--बृद्ध्यहङ्काराऽऽदिकार्थग्रामवादिना प्रकृतीश्वरयोः जगत्कारणत्वमभ्युपगताः। (जोइति) योगितः-अध्यात्मशास्त्रानुष्ठाथिनः (कविल त्ति) कापिलो देवता येषां त कपिलाः, सांख्या एव निरीश्वरा इत्यर्थः / (भिउच्च त्ति) भृगुः लोकप्रसिद्ध ऋषिविशेषः, तस्येते शिष्या इति भार्गवाः। "हंसा परमहंसा बहुउदगा कुडिव्वया'' इत्येते चत्वारोऽपि परिव्राजकम ते यतिविशेषाः / तत्र हंसाये पर्वतकुहरपथाऽऽयमदेवकुलाऽऽरामवासिनो भिक्षार्थ च ग्राम प्रविशन्ति / परमहंसास्तुये नदीपुलिनसमागमप्रदेशेषुवसन्ति चीरकोपीनकुशाँश्च त्यक्त्वा प्राणान् परित्यजन्ति / बहूदकास्तुगामे एकरात्रिका नगरे पञ्चरात्रिकाः प्राप्तभोगांश्च ये भुञ्जन्त इति। कुटीव्रताः। ते च गृहे वर्तमाना व्यपगतक्रोधलोभमोहा अहङ्कार वर्जयन्तीति। (कण्हपरिव्वायग ति) कृष्णपरिव्राजकाः परिव्राजकविशेषा एव, नारायणभक्तिका इति केवित्। कण्ड्वादयः पोडश परिव्राजका लोकतोऽवसेया। (रिउव्वेदजजुव्वेदसामवेदअहव्वणवेद त्ति)इह षष्ठीबहुवचनलोपदर्शनात् ऋग्वेदयजुर्वेदसामवदाथर्ववेदानामिति दृश्यम्। (इतिहासपंचमाणं ति) इतिहासः पुराणमुच्यते / (निघंटुछट्ठाणं ति) निघण्टुः नाम कोशः / (संगोवंगाणं ति) अङ्गानि शिक्षाऽऽदीनि, उपाङ्गानि तदुक्तप्रपञ्चमपराः प्रबन्धाः। (सरहस्साणं ति) ऐदम्पर्ययुक्तानामित्यर्थः। "चउण्हं वेयाणं ति' 'व्यक्तम् / (सारय त्ति) अहयापनद्वारेण प्रवर्तकाः स्मारका वा० अन्येषां विस्मृतस्य स्मारणात् / (पारय त्ति) पर्यन्तगामिनः (धारय त्ति) धारयितुं क्षमाः (सडंगयी ति) षडविदः शिक्षाऽऽदिविचारकाः / (सट्टितंतविसारय त्ति)कापिलीयतत्वपण्डिताः। (संखाणे त्ति) संख्यानि गणित स्कन्धेषु, परिनिछिता इति योगः। अथ षडङ्गानि दर्शयन्नाह(सिक्खाकप्पे त्ति) शिक्षा च अक्षरस्वरूपनिरूपक शास्त्र कल्पश्च तथाविध-समाचारनिरूपकं शास्त्रमेवेति शिक्षाकल्पस्तत्र / (वागरणे ति) शब्दलक्ष Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिव्वायग 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसप्पिणी णशास्त्र (छदे त्ति) पद्यवचनलक्षणशास्त्रे (निरुत्ते ति) शब्दनिरुक्ति- त्ति) ग्रन्थिम-गन्थनेन निर्वृत्तं मालारूपं, वेष्टिममालावेष्टननिर्वृत्तं प्रतिपादके (जोइसामयणे त्ति) ज्योतिषामयनेज्योतिःशास्त्रे, अन्येषु च पुष्यलम्बूसकाऽऽदि, पूरिमपूरणनिवृत्त वंशरालाकाजालकपूरणमयबहुषु (बंभण्णएसु य त्ति) बाह्मणकेपु च वेदव्याख्यानरूपेषु ब्राह्मणस- मिति, संधातिमंसघातेन निवृत्तम् इतरेतरस्य नालगवेशनेन। (मल्ले म्बन्धिशारनेष्वागमेपु वा, वाचनाऽन्तरे-'परिव्वायएसु य नएसु त्ति' त्ति) माल्यानि मालायां साधूनि, तस्यै हितानि वेति पुष्पाणीत्यर्थः / परिव्राजकसम्बन्धिषु च नयेषुन्यायेषु (सुपरिनिट्टिया यावि होत्थ ति) (कण्णपूरएणं ति) कर्णपूरकःपुष्पमयः कर्णाऽऽभरणविशेषः / (मागहए सुपरिनिष्णाताश्चाप्यभूवन्निति / (आघवेमाणे त्ति) आख्यायन्तः- | पत्थए त्ति) "दो असईओ पसई, दोहिं पसईहिं सेइया होइ। चेउसेइओ कथयन्तः / (पण्णवेमाण त्ति) बोधयन्तः (परूवेमाण त्ति) उपपत्तिभिः उकुलओ, चउकुलओ पत्थओ होइ॥१॥ चउपत्थमाढयंतह चत्तारिय स्थापयन्तः / (चोक्खा चोक्खायार त्ति) चोक्षाविमलदेहनेपथ्याः, आढया भवे दोणो।" इत्यादिमानलक्षणलक्षितो मागधप्रस्थः। (सेऽवि चोक्षाऽऽचारा निरवद्यव्यवहाराः / किमुक्तं भवतीत्याह-(सुई सुइस मायर य वहमाणए त्ति) तदपि जलं वहमानं नद्यादिश्रोतोवर्ति व्याप्रियमाणं त्ति) (अमिसेयजलपूयप्पाणो त्ति) अभिषेकतो जलेन (पूय त्ति) पवित्रित वा / (थिमिओदए त्ति) स्तिमितोदकं यस्वाधः कर्दमो नास्ति, (बहुपसन्ने आत्मा यैस्ते तथा (अविग्घेणं त्ति) विघ्नाभावेन. (अगडं व त्ति) अवट त्ति) बहुप्रसन्नम् अतिस्वच्छम् / (परिपूए त्ति) परिपूतं वस्त्रेण गालितम् कूपं (वाविं व त्ति) वापीचतुरखजलाऽऽशयविशेषः / (पुक्खरिणी व ति) (पवित्तए ति) पातुम् (चरुचमस त्ति) चरुः स्थालीविशेषश्चमसो दर्विकति // 12 // 38 / / औ० ज्ञा० / परिव्राजामिदम् परिव्राजकम् / परिव्राजकपुष्करिणी वर्तुलः स एव, पुष्करयुक्तो वा / (दीहियं व त्ति) दीर्घिका सम्बन्धिनि, ''बहुसु परिव्वायएसु नएसु'' औ०। परिव्राजकसम्बन्धिषु सारणी (गुंजालिय व ति) गुजालिकावक्रसारणी "सरसिं व ति" वचिदृश्यते। तत्र महत्सरः सरसीत्युच्यते, (नण्णत्थ अद्धाणगमणेणं नयेषु, आचारशास्त्रेषु, कल्प०१ अधि०१क्षण। परिसंकमाण त्रि०(परिशङ्कमान) सर्वतो भयाऽऽकुले, सूत्र०१ श्रु०१० ति) न इति यो निषेधः सोऽन्यत्राध्वगमनादित्यर्थः। 'सगड वा'' इत्यत्र अ०। यावत्करणदिदं दृश्यम्-"रहं वा जाणं वा जुग्गं वा गिल्लि या थिल्लिं या परिसंकियजण पुं० (परिशङ्कितजन) भीतजने, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। पवहणं वा सीयं वेति। एतानि च प्रागिव व्याख्येयानीति / (हरयाणं परिसंखाय अव्य० (परिसङ्ख्याय) सम्यग्ज्ञात्वेत्यर्थे, सूत्र०२ श्रु०१ लेसणया व ति) संश्लेषणता (घट्टणया व त्ति) सङ्घ हनम् (थभणया व अ०। आचा० / सर्वैः प्रकारैत्वेित्यर्थे, दश०७ उ०। त्ति) स्तम्भनम् ऊध्वीकरण (लूसणया वत्ति) क्वचित्तत्र लूषणहस्ताऽऽ परिसंठाविय त्रि० (परिसंस्थापित) परि समन्तात्सर्वत्र सम्यक दिना पनकाऽऽदेः सम्माजनम् (उप्पाडण्या व ति) उन्मूलनम् स्थापितम् / रक्षिते, त०। "अयपायाणि वा' इत्यादिसूत्रं यावत्करणात् त्रपुकसीसकरजतजात परिसंत त्रि० (परिश्रान्त) अङ्गप्रत्यङ्गापेक्षया श्रान्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। रूपकाः (चवेडति य) वृत्तलोहकंसलोहहारपुटकरीतिकामणिशङ्खदन्त परिसंथव पु० (परिसंस्तव) परिवन्दने, आचा०१ श्रु०३ अ० 3 उ०। चर्मचेलशैलशब्दविशेषितानि पात्राणि दृश्यानि / 'अण्णयराणि वा परिसंवेयण न० (परिसंवेदन) अनुभवे, आचा० 1 श्रु०२ अ०३ उ०। तहप्पगाराणि महणमोल्लाई' इति च दृश्यम् / तत्रायो लोह, रजतं परिसक्किर त्रि० (परिष्वष्किन) परिष्वष्कितुं शीलमस्येति / परिसर्पणरूप्य, जातरूपं सुवर्ण, काचः पाषाणविकारः। (वेडंति यत्ति) रूढिगम्यम्, शीले, "विपुलगगणचवलपरिसक्किरेसु।" ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। वृत्तलोहं त्रिकुटीति यदुच्यते, कास्यलोहं कांस्यमेव, हारपुटक परिसडण न० (परिशटन) निःशरणे, स्था० 1 ठा०। मुत्काशुत्किपुट, रीतिका पीतला, अन्यतराणिवा येषां मध्ये एकतराणि परिसडिय त्रि० (परिशटित) कुष्ठाऽऽधुपहताङ्ग इव विध्वस्ते, प्रश्न०४ एतातिरिक्तानि वा तथाप्रकाराणि भोजनाऽऽदिकार्यकारणसमर्थानि, | संवा दार। महत् प्रभूतं, धनं द्रव्य, मूल्य प्रतीतं, येषां तानि तथा। (अलावुपारणं | परिसडि यकं दमूलतयपत्तपुप्फफलाहार पुं० (परिशटिलति) अलावुपात्रात तुम्बकभाजनादित्यर्थः। तथा-"अयबंधणाणि वा'' कन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलाऽऽहार) परिशटितकन्दाऽऽदिभक्षके इत्यत्र यावत्करणात् उपुकबन्धनाऽऽदीनि शैलबन्धनान्तानि पात्राणि वानप्रस्थेभेदे, नि० चू०१ उ०। दृश्यानि / "अण्णयराई तह पगाराइं महद्धणमुल्लाई'' इत्येतच्च परिसप्प पुं० (परिसर्प) परिसर्पतीत्येवंशीलः परिसी / परिसर्पणशीलेषु दृश्यमिति। पुस्तकान्तरे समगमिद सूत्रद्वयमस्त्येवेति। (णण्णत्थ एगाए भुजोरःपरिसर्पषु जीवभेदेषु, अनु० / जी० / प्रज्ञा०। धाउरत्ताए त्ति) इह युगलिकयेति शो दृश्यः। हाराऽदीनि प्राग्वत्, नवरम् | परिसप्पिणी स्त्री० (परिसर्पिणी) परिसर्पणशीलायाम्, तिर्यकस्त्रियाम्, (दसमुद्दियार्णतयं ति) रुढशब्दत्वादस्य हस्ताङ्गुलीमुद्रिकादशकमित्यर्थः। "से किं तं परिसप्पिणीओ? परिसप्पिणीओ दुविहाओ पण्णत्ताओ।तं (पवित्तएणं त्ति) पवित्रकम अडगुलीयकम् (गंथीमवेढिमपूरिमसंघाइमे जहा-उरपरिसप्पिणीओ. भुयपरिसप्पिणीओ य।" जी०२ प्रति०। . Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसर 637 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह परिसर पुं० (परिसर) प्रान्ते, औ०। 'नगरपरिसरेइ वा।' आ० म०१ अ।" परिसरो मृत्यौ, देवोपान्तप्रदेशयोः। है। 'परिसरापासा।" पाइ० ना० 236 गाथा। परिसह पुं० (परिषह) परीति समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यजननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्ते इति परिषहाः / उत्त० 2 अ० / साधुभिः सहनीयेषु क्षुदादिषु, भ० 1 श०६ उ०। औ० विशे०। सूत्र० / आ० चू०। आव०। ननु केऽमी परीषहाः? किंरूपाः? किञ्चाऽऽलम्बनमुररीकृत्यैतेषु सत्स्वपि न विनयलिङ्घनमित्याशङ्काऽऽपोहाय परिषहास्तत्-रूपाऽऽदि चाभिधेयमित्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य महार्थस्य महापुरम्येव चतुरनुयोगद्वार स्वरूपमुपवर्णनीयं, तत्र च नाम निष्पन्ननिक्षेपस्य परीषह इति नाम, अतस्तन्निक्षेपदर्शनायाऽऽह भगवान्नियुक्तिकारःणासो परिसहाणं, चउविहो दुव्विहो उदव्वम्मि। आगम नोआगमतो, नोआगमओ य सो तिविहो // 65 / / नियतं निश्चितं वाऽऽसनं नामाऽऽदिरचनाऽऽत्मक क्षेपणं न्यासो निक्षेप इत्यर्थः / अयं च केषामित्याहपरीति समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थं साध्वादिभिः सह्यन्त इतिपरीषहास्तेषां, चत्वारो विधाः प्रकारा अस्येति चतुर्विधो, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् / तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, इत्यनादृत्य द्रव्यपरीषहमाह-'द्विविधो द्विभेदः तुः पूरणे, भवति 'द्रव्ये' इति द्रव्यविषयः, प्रक्रमात्परीषहः / स च (आगम णोआगमतो त्ति) आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतो ज्ञाता, तत्र चानुपयुक्त इत्यागमस्वरूपमतिपरिचितमिति परिहृत्य नोआगमत आह नो आगमतस्तु नोआगमं पुनराश्रित्य 'स' इति परीषहः 'त्रिविधः' विप्रकार इति गाथाऽर्थः / / 65 / / त्रैविध्यमेवाऽऽहजाणगसरीर भविए, तव्वइरित्ते य से भवे दुविहे। कम्मे नोकम्मे या, कम्मम्मि य अणुदओ भणिओ॥६६॥ / (जाणगसरीर त्ति) ज्ञायको ज्ञो वा तस्य शरीरं ज्ञायकशरीरं, ज्ञशरीरं वा जीवरहित सिद्धशिलातलगतं निषीधिकागतं वा, अहो ! अमुना शरीरसमुच्छ्रयेणोपात्तेन परीषह इति पदं शिक्षितम्, अयं घृतघटोsभूदितिवत्संभाव्यमानं, तथा (भविय त्ति) शरीरशब्दस्य काकाक्षिगोलकन्यायेनोभयत्र सम्बन्धात् भव्यशरीर, तत्र भविष्यतितेन तेनावस्थाऽऽत्मना सत्ता प्राप्स्यति यः स भव्यो जीवस्तस्य शरीरं यदद्यापि परीषह इति पदं न शिक्षते, एप्यति तु शिक्षिष्यते, तदयं घृतघटो भविष्यतीतिकसंभाव्यमानम्। नोआगमतो द्रव्यपरीपहः (तब्वइरित्ते य त्ति) ताभ्यां ज्ञशरीरभव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्तः पृथग्भूतः तह्यतिरिकक्तः, स च प्रकृतत्वाद् द्रव्यपरीषहो भवेत्, 'द्विविध' द्विभेदः। कथमित्याह-क्रियते मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगानुगतेनाऽऽत्मना निवर्त्यत इति कर्म, तत्र | ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिरूपे, 'नोकर्मणि च तद्विपरीतरूपे, चः समुच्चये, दीर्घत्वं च 'हस्वदीर्घा मिथो वृत्तौ / / 811 / 4 / / इति प्राकृतलक्षणात्। तत्राऽऽद्यमाह-कर्मणि विचार्य, चः पूरणे, द्रव्यपरीषहः अनुदयः उदयाभावः, प्रक्रमात् परीषवेदनीयकर्मणामेव, ‘भणितः' उक्त इति गाथाऽऽर्थः // 66 // . द्वितीयभेदमाहणोकम्मम्मिय तिविहो, सच्चित्ताचित्तमीसओ चेव। भावे कम्मस्सुदओ, तस्स उ दाराणिमे हुंति // 67 / / नोकर्मणि पुनर्विचार्ये ; चस्य पुनरर्थत्वाद् द्रव्यपरिषहः त्रिविध: त्रिभेदः, (सचित्ताचित्तमीसओ त्ति) लुप्तर्निद्दिष्टत्वाद्विभक्तेः सचित्तोऽचित्तो मिश्रक इति, समाहारो वा सचित्ताचित्तमिश्रकमिति, प्राकृतत्वाच पुल्लिङ्गता; चः स्वगतानेकभेदसमुच्चये, एवोऽवधारणे इयन्त एवामी भेदाः, तत्र नोकर्मणि सचित्तद्रव्यपरीषहो गिरिनिर्झरजलाऽऽदिः, अचित्तद्रव्यपरीषहश्चित्रकचूर्णाऽऽदिर्मिश्रद्रव्यपरीषहो गुडाऽऽर्द्रकाऽऽदि० त्रयस्यापि कर्माभावरूपत्वात् क्षुत्परीषहजनकत्वाच्च, इत्थं पिपासाऽऽदिजनक लवणजलाऽऽद्यप्यनेकधा नोकर्मद्रव्यपरीषह इति स्वधिया भावनीयम्। भावपरीषह आगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु नोशब्दस्यैकदेशवाचित्वे आगमैकदेशभूतमिदमेवाध्ययन, निषेधवाचित्वे तु तदभावरूपः परीषहवेदनीयस्य कर्मण उदयः / तथा चाऽऽह-(भावे कम्मरस उदओ त्ति) कर्मण इति परीषहवेदनीयकर्मणां बहुत्वेऽपि जात्यपेक्षयैकवचननिर्देशः / 'तस्य च भावपरीषहस्य 'द्वाराणि' व्याख्यानमुखानि 'इमानि' अनन्तरवक्ष्यमाणानि० भवन्तीति गाथाऽर्थः // 67 // तान्येवाऽऽहकत्तो कस्स व दव्वं, समोआर अहिआसए नय वत्तणा कालो। खित्तुद्देसे पुच्छा, निद्देसे सुत्तफासे य॥६८।। 'कुतः' इति कुतोऽङ्गाऽऽदेरिदसुद्धृत 1, (कस्स इति) कस्य संयताऽऽदेरमी परीषहाः 2, 'द्रव्यम्' इति किममीषामुत्पादकं द्रव्यं 3, 'समवतार' इति क्त कर्मप्रकृती पुरुषविशेषे वाऽमीषां सम्भवः? 4, 'अध्यास' इति कथममीषामध्यासना सहनाऽऽत्मिका? 5, 'नय इति को नयः कं परीषहमिच्छति? 6 चः समुच्चये, 'वर्तना' इति कति क्षुदादयः एकदैकरिमन स्वामिनि वर्तन्ते ७'काल' इति कियन्तं कालं यावत् परीषहास्तित्वम् 8, (खेत्ते त्ति) कतरस्मिन्कियति वा क्षेत्र 6, 'उद्देशो' गुरोः सामान्यभिधायि वचनं 10, 'पृच्छा' तजिज्ञासोः शिष्यस्य प्रश्नः 11, 'निर्देशः' गुरुणा पुष्टार्थविशेषभाषणम् 12, सूत्रस्पर्शः सूत्रसूचितार्थवचनम् 13, 'चः समुच्चये। इति गाथासमासार्थः // 68 // तत्र कुत इति प्रश्नप्रतिवचनमाहकम्मप्पवायपुव्वे, सत्तरसे पाहुडम्मि जं सुत्तं। सणयं सोदाहरणं, तं चेव इह पि णायव्दं / / 66 / / कर्मणः प्रवादः प्रकर्षेण प्रतिपादनमस्मिन्निति कर्मप्रवादं, तच्च तत्पूर्व च तस्मिन्, तत्र बहूनि प्राभृतानीति कतिथे प्राभृते इत्याह-सप्तदशे प्राभृते प्रतिनियतार्थाधिकाराभिधायिनि, यत् 'सूत्र' गणधरप्रणीतश्रुतरूपं 'सनयं' नैगमाऽऽदिनयान्वितं, 'सोदाहरणं' सदृष्टान्तं, (तं चेव त्ति) चः Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 638 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह पूरणे, एवोऽवधारणे, ततस्तदेव 'इहापि' परीषहाध्ययने, 'ज्ञातव्यम अवगन्तव्यं, न त्वधिकम्। किमुक्तं भवति?-निरवशेषं तत एवेदमुद्धृत न पुनरन्यत इति गाथाऽर्थः / / 66 / / कस्येति यदुक्त तदुत्तरमाहतिण्हं पिणेगमणओ, परीसहो जाव उज्जुसुत्ताओ। तिण्हं सद्दणयाणं, परीसहो संजए होइ। 170 / / 'त्रयाणामपि' अविरतविरताविरतविरताना, नतु विरतस्यैव नैगमनयः, 'परिषहः' क्षुदादिरिति, मन्यत इति शेषः / त्रयाणामपि परीपहवेदनीयासाताऽऽदिकर्मादयजनितस्य क्षुधादेस्तत्राहनस्य च यथायोगं सकामाकामनिर्जराहेतोः सम्भवाद्अनेकगमत्वेन चास्य सर्वप्रकारसड्ग्राहित्वात, (जाव उज्जुसुत्ताउ त्ति) सोपस्कारत्वादस्यैवं यावदृजुसूत्रः / कोऽर्थः?-संग्रहव्यवहारऋजुसूत्रा अपि त्रयाणामपि परीषहं मन्यन्ते एकैकनयस्य शतभेदत्वेनैतद्भेदानामपि केषाञ्चित् परीषहं प्रति नैगमेन तुल्यमतत्वात, 'त्रयाणां त्रिसङ्ख्याना, केषाम्?-शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः, शाकपार्थिवाऽऽदिवत् समासः, तेषां शब्दसमभिरूदैवम्भूतानां, मतेनेति शेषः। परीषहः संयते विरते भवति। 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः। (तत्त्वा०६ अ०८ सू०) इति लक्षणोपेतनिरुपचरितपरीषहशब्दवृत्तेस्तत्रैव सम्भवात्, इति गाथाऽर्थः / / 70 / / द्रव्यद्वारमधिकृत्य नयमतमाहपढमम्मि अट्ठ भंगा, संगहें जीवो व अहव नोजीवो। ववहारे नोजीवो, जीवदव्यं तु सेसाणं / 71 / / 'प्रथम' प्रक्रमान्नैगमनये अष्टौ भङ्गा, स हि-''णेगेहि माणेहि, मिणइत्ती णेगमस्स नेरुत्ती।" इति लक्षणादनेकधा करणमिच्छन् यदेकेन पुरुषाऽऽदिना चपेटाऽऽदिना परीषह उदीर्यते तदा परीषहवेदनीयकर्मोदयनिमित्तत्वेऽपि तस्य तदविवक्षया जीवेनाऽसौ परीषह उदीरित इति वक्ति१, यदा बहुभिस्तदा जीवैः 2, यदा अचेतनेनैकेन दृषदादिना जीवप्रयोगरहितेन तदाऽजीवेन 3, यदा तैरेव बहुभिस्तदा अजीवैः४, यदैकेन लुब्धकाऽऽदिना वाणाऽऽदिनैकेन तदा जीवेन वाऽजीवेन च 5, यदा तेनकेनैव बहुभिः वाणाऽऽदिभिस्तदा जीवेनाजीवश्च 6, यदा बहुभिः पुरुषाऽऽदिभिरेक शिलाऽऽदिकमुत्क्षिप्य क्षिपद्भिस्तदा जीवरजीवेन च 7. यदा तु तैरव मुद्राऽऽदीन् बहून मुञ्चद्भिस्तदा जीवैश्चाजीवश्वति 8 // 'संग्रहे' संग्रहनाम्नि नये विचार्यमाणे जीवो 'वा' अथवा-नीजयो हेतुरिति प्रक्रमः किमुक्तं भवति?-जीवद्रव्येणाजीवद्रव्येण वा परीषह उदीर्यत। स हि "संगहियपिंडियत्थं, संगहवयण समासतो ति।" इति वचनात् सामान्यग्राहित्वेनैकत्वमेवेच्छति, न पुनर्द्वित्वबहुत्ये। अस्यापि च शतभेदत्वाद्यदा चिद्रूपतया सर्व गृह्णाति तदा जीवद्रव्येण, यदा त्वचिद्रूपतया तदा अजीवद्रव्येण / 'व्यवहारे' व्यवहारनये (नोजीव इति) अजीबो हेतुः / कोऽर्थः? अजीवद्रव्येण परीषह उदीर्यत इत्येकमेव भङ्गमयसिच्छति। तथाहि-'वाइ विणिच्छियत्थ ववहारो सव्वदध्वेसुं।' इति तल्लक्षणम् / तत्र च 'विनिश्चितम्' इत्यनेकरूपत्वेऽपि वस्तुनः / सांव्यवहारिकजनप्रतीतमेव रूपमुच्यते तदाहकोऽयम्। उक्तंच "भमराइ पंचवण्णाइँ विच्छिए जम्मि वा जणवयस्स। अत्थे विनिच्छओ जो, विनिच्छियत्थु त्ति सो गेज्झो।।१।। बहुयरउत्ति व तं चिय, गमेइ संतेऽवि सेसए मुयइ। संववहारपरतया, ववहारो लोगमिच्छतो।।२।।" इति। ततोऽयमाशयः"कालो सभाव नियई, पुवकयं पुरिसकारणेगंता। मिच्छतं ते चेव उ, सभासओ होंति सम्मत्तं / / 1 / / " इत्यागमवचनतः सर्वस्यानेककारणत्वेऽपि कर्मकृतं लोकवैचित्र्यमिति प्रायः प्रसिद्धेर्यत् कर्म कारयिष्यति तत्करिष्याम इत्युक्तेश्च कर्मव कारणमित्याह-तचाचेतनत्वेनाजीव एवेति। (जीवदव्य) तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् जीवद्रव्यमेव, शेषाणाम्-ऋजुसूत्रशब्दसमभिरुदैवम्भूताना पर्यायनयानां मतेन, हेतुरिति गम्यते। अयमर्थः-जीवद्रव्येण परीवह उदीर्यत इत्येष एवैषां भङ्गोऽभिमतः, ते हि पर्यायास्तिकत्वेन परीषहयमाणमेव परीषहमिच्छन्ति, परीषहणं चोपयोगाऽऽत्मकम् उपयोगस्य च जीवस्वाभाव्यात जीवद्रव्यमेव सन्निहितमव्यभिचारि च कारणं तद्विपरीत तुअजीवद्रव्यं दण्डाऽऽदीत्यकारण, जीवद्रव्यमिति तु द्रव्यग्रहणं पर्यायनयस्याऽपि गुणसंहतिरूपस्य द्रव्यस्पेष्टत्वात्। तदुक्तम्-"पर्यायनयोऽपि द्रव्यामिच्छति गुणसन्तानरूपम्।" इति गाथाऽर्थः 71 / सम्प्रति समवतारद्वारमाहसमों यारो खलु दुविहो, पयडीपुरिसेसु चेव नायव्वो। एएसिंनाएत्तं, वुच्छामि अहाणुपुवीए।७२।। 'समवतारः खलु द्विविधः' इति खलुशब्दस्येवकारार्थत्वात विविध एव, द्वैविध्यं च विषयभेदत इति। तमाह-प्रकृतयश्च पुरुषाश्च प्रकृतिपुरुषास्तेषु, कोऽर्थः?- प्रकृतिषु ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिरूपासु, पुरुषेषु, चशब्दात् स्त्रीपण्डकेषु च, तत्तद्गुणस्थानविशेषवर्तिषु, एवेतिपूरण, 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्यः, 'एतेषां प्रकृत्यादीनां 'नानात्व' भेदं वक्ष्ये, 'अथ' अनन्तरम् 'आनुपूा क्रमेणेति गाथाऽर्थः 72 / / उत्त०२ अ०॥ एए णं भंते ! वावीसं परीसहा कइसु कम्मपगडीसु समोयरंति? गोयमा ! चउसु कम्मपगडीसु समोयरंति / तं जहा--णाणावरणिजे, वेयणिज्जे, मोहणिज्जे, अंतराइए। णाणावरणिजे णं भंते। कम्मे कइ परीसहा समोयंरति? गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति / तं जहा-पण्णापरीसहे, णाणपरीसहे। वेयणिज्जे णं भंते ! कइ परीसहा समोयरंति? गोयमा ! एक्कारस परीसहा समोयरंति-''पंचेव आणुपुव्वी, चरिया सेजा वहे य रोगे यतणफास जल्लमेव य, एक्कारस वेपणिज्जम्मि।।१।।"दंसणमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोयरंति? गोयमा! एगे दंसणपरीसहे समोयरइ / चरित्तमोहणिज्जे णं भंते! कइ परीसहा समोयरंति? गोयमा ! सत्त परीसहा सभोयरंति। तंजहा- "अरई अवेलइत्थी, निसीहिया जायणा य अक्कोसे / सक्कार पुरकारे, चरित्तमोहम्मि सत्तेते // 1 // " अंतराइए णं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोयरंति? गोयमा! एगे अलाभपरीसहे समोयरइ।। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह (कइसु कम्मपगडीसु समोयरंति त्ति) कतिषु कर्मप्रकृतिषु विषये परीपहाः समवतारं व्रजन्तीत्यर्थः / (पन्ना परीसहेत्यादि) प्रज्ञापरीषहो जानाऽऽवरणे मतिज्ञानाऽऽवरणरूपे समवतरति प्रज्ञाया अभावमाश्रित्य तदभावस्य ज्ञानाऽऽवरणोदयसम्भवत्वात् / यत्तु तदभावे देन्यवर्जन तत्सद्भावे च मानवर्जन तच्चारित्रमोहनीयक्षयोपशमाऽऽदेरिति / एवं ज्ञानपरीषहोऽपि, नवरं मल्यादिज्ञाना-ऽऽवरणेऽवतरति ''पंचेत्यादि गाथा। (पंचेव आणुपुव्वी ति) क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकपरीषहा इत्यर्थः / एतेषु च पीडव वेदनीयोत्था, तदधिसहनं तुचारित्रमोहनीयक्षयोपशमाऽऽदिसम्भवमधिसहनस्य चारित्ररूपत्वादिति / (एगे दसणपरीसहे समयरइति) यतो दर्शनं तत्वश्रद्धानरूपदर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशमाऽऽदौ भवत्युदये तु न भवतीत्यतस्तत्र दर्शनपरीषहः समवतरतीति / "अरई' इत्यादि-गाथा / तत्र चारतिपरीषहोऽरतिमोहनीये, तज्जन्यत्वादचेलपरीषहो जुगुप्सामोहनीये लज्जापेक्षया, स्त्रीपरीषहः पुरुषवेदमोहो, स्त्र्यपेक्षया तुपुरुषपरीषहः स्त्रीवेदमोहे, तत्त्वतः स्त्र्याद्यभिलाषरूपत्वात्तस्य, नैषेधकीपरीषहो भयमोहे उपसर्गभयापेक्षया, याञ्चापरीपहो मानमोहे तदुष्करत्वापेक्षया, आक्रोशपरीषहः क्रोधमोहे क्रोधोत्पपेक्षया, सत्कारपुरस्कारपरीषहो मानमोहे मदोत्पत्त्यपेक्षया समवतरति। सामान्यतस्तु सर्वेऽप्येते चारित्रमोहनीये समवतरन्तीति। (एगे अलाभपरीसहे समोयरइ त्ति) अलाभपरीषह एवान्तराये समवतरत्यन्तरायं चेह लाभान्तरायं तदुदय एव लाभाभावात्, तदधिसहनं च चारित्रमोहनीयक्षयोपशम इति। भ०८ श०८ उ०। तत्र प्रकृतिनानात्वमाहणाणावरणे वेए, मोहम्मि य अंतराइए चेव। एएसुं बाबीसं, परीसहा हुंति णायव्वा / / 73|| ज्ञानाऽवरणे वेद्ये मोहे चानन्तरायिके चैव, एतेषु चतुर्षु कर्मसु / वक्ष्यमाणस्वरूपेषु द्वाविंशतिः परीषहा भवन्ति॥७३ / / अनेन प्रकृतिभेद उक्तः। सम्प्रति यस्य यत्रावतारस्तमाहपन्नान्नाणपरिसहा, णाणावरणम्मि हुंति दुन्नेए। इक्को य अंतराए, अलाहपरिसहो होइ॥७४ / / प्रज्ञा चाज्ञानं च प्रज्ञाऽज्ञाने, तेएवोत्सेकवैक्लव्याकरणतः परीषह्यमाणे परीषही, 'ज्ञानाऽऽवरणे' कर्मणि भवतो 'द्रौ' एती, तदुदयक्षयोपशमाभ्यामनयोः सद्भावात्, एकश्च अन्तराये' अन्तरायकर्मण्यलाभपरीषहो भवति, तदुदयनिबन्धनत्वादलाभस्य इति गाथाऽर्थः // 74 / / मोहनीयं द्विधेति यत्र तन्देदे वेदनीये च यत्परिषहाव-- तारस्तमाहअरई अचेल इत्थी, निसीहिया जायणा य अक्कोसे। सक्कारपुरकारे, चरित्तमोहम्मि सत्तेए॥७५ / / अरईऍ ढुंगुछाए, पुंवेय भयस्स चेव माणस्स। कोहस्स य लोहस्सय, उदएण परीसहा सत्त॥७६॥ दंसणमोहे दंसणपरीसहो नियमसो भवे इक्को। सेसा परीसहा खलु, इक्कारस वेयणिजम्मि॥७७।। 'अरतिः' इति अरतिपरीषहः, एवमुत्तरेष्वपि परीषहशब्दः सम्बन्धनीयः (अचेल त्ति) प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः अचेलं, 'स्त्री नैषेधिकी याचना चाऽऽक्रोशः सत्कारपुरस्कारः सप्तैते वक्ष्यमाणरूपाः परीषहाः चरित्रमोहे' चरित्रमोहनाम्नि मोहनीयभेदे भवन्तीति गम्यते / तदुदयभावित्वादेषाम् / / चारित्रमोहनीयस्यापि बहुभेदत्वाद्यस्य तद्भदस्योदयेन यत्परीपहसद्धावस्तमाह-'अरतेः' अरतिनाम्नश्चारित्रमोहनीयभेदस्य, अचेलस्य जुगुप्सायाः, (पुंवेय त्ति) सुपो लोपात् पुंवेदस्य, भयस्य चैवं मानस्य क्रोधस्य लोभस्य च उदयेन परीषहाः सप्त / इह चाऽरत्युदये नारतिपरीषहः जुगुप्सोदयेनाचेलपरीषह इत्यादि यथाक्रम योजना कार्येति / तथा दर्शनमोहे 'दर्शनपरीषहः वक्ष्यमाणरूपो, (णियमसो त्ति) आपत्वेन नियमात् भवेद्, 'एकः अद्वितीयः शेषाः एतदुद्धरिताः, परीषहाः पुनः एकादश ‘वेदनीये' वेदनीयनाम्नि कर्मणि संभवन्तीति गाथात्रयार्थः // 75-76-77 // के पुनस्ते एकादशेत्याहपंचेव आणुपुव्वी, चरिया सिञ्जा वहे य रोगे य। तणफास जल्लमेव य, इक्कारस वेयणिज्जम्मि // 78 // पञ्चैवपञ्चसंख्या एव, तेच प्रकारान्तरेणापि स्युरित्याह-'आनुपूर्व्या' परिपाट्या क्षुत्पिपासाशीतोण्णदंशकमशकाऽऽख्या इति भावः / चर्या शय्या वधश्च रोगश्च तृणस्पर्शो जल्ल एव च इत्यमी एकादश वेदनीयकर्मण्युदयवति परीषहा भवन्तीति शेषः, इति गाथाऽर्थः // 78 / / सम्प्रति पुरुषसमवतारमाहबावीसं वायरसं--पराऐं चउदस य सुहुमरागम्मि। छउमत्थवीयराए, चउदस इक्कारस जिणम्मि // 76 // 'द्वाविंशतिः' द्वाविंशतिसंख्याः प्रक्रमात्परीषहाः 'बादरसंपराये' बादरसम्परायनाम्नि गुणस्थाने / किमुक्तं भवति?-बादरसम्परायं यावत्सर्वेऽपि परीषहाः सम्भवन्ति, चतुदर्श चतुर्दशसंख्याः , चः, पूरणे, सूक्ष्मसंपराये, सूक्ष्मसम्परायनाम्नि गुणस्थाने, 'सप्तानां चारित्रमोह-- नीयप्रतिबद्धानां, दर्शनमोहनीयप्रतिबद्धस्य चैकस्य तत्राऽसम्भवादिति भावः। छद्मस्थवीतरागे' छद्मस्थवीतरागनाम्नि गुणस्थाने, 'चतुर्दश' उक्तरूपा एव, 'एकादश' एकादशसंख्याः जिने केवलिनि, वेदनीयप्रतिबद्धाना क्षुदादीनामेव तत्र भावाद्, इति गाथाऽर्थ / 76 / / अधुना अध्यासनामाहएसणमणेसणिज्जं, तिण्हं अग्गहणऽभोयण नयाणं। अहिआसण बोद्धव्वा, फासुय सदुजुसुत्ताणं / / 80| एष्यत इत्येषणम्-एषणाशुद्धम्, अनेषणीयं तद्विपरीत, सोपरस्कारत्वाद्यदन्नाऽऽदि तस्य, यदा-'सुपां सुपो भवन्ति' इति न्यायादेषणीयस्य अनेषणीयस्य च, (अग्गहणऽभोयण त्ति) अग्रहणम्अनुपादान, कथञ्चिद् ग्रहणे वाअभोजनम्-अपरिभोगाऽऽत्मक 'प्रयाणाम' अर्थान्नंगमसङ्ग्रहव्यवहाराणां नयानां मत्तेनाध्यासना बोद्धव्येते सम्बन्धः / अमी हि स्थूलदर्शिनःबुभुक्षाऽऽदिसहनमन्नाऽऽदिपरिहाराऽऽत्मकमेवेच्छन्ति। (फासुग सदुज्जुसुत्ताणं ति) शब्दन Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 640 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह थानां त्रयाणामृजुसूत्रस्य च मतेन प्रासुकमन्नाऽऽदि, उपलक्षणत्वात् न चर्यया विरुध्यते? उच्यते। निरोधबाधाऽऽदितस्त्वनिकाऽऽदेरपि कल्प्यं च गृह्णतो भुजानस्याप्यध्यासनेति प्रक्रमः। तेहि भावप्रधानतया तत्र सम्भवान्नैषेधिकी तुस्वाध्यायाऽऽदीनां भूमिः, ते च प्रायः स्थिरताभावाध्यासनामेव मन्यन्ते, सा च ना भुजानस्यैव, किं तु शास्त्रानुसा- यामेवानुज्ञाता इति तस्या एव चर्यया विरोधः, इति गाथाऽर्थः / / 12 / / रिप्रवत्त्या समताऽवस्थितस्य प्रासुकमेषणीयं च धर्मवूर्वहनार्थ कालद्वारमाहभुजानस्यापीति गाथाऽर्थः / / 80 // वासग्गसो अतिण्हं, मुहुत्तमंतं च होइ उजुसुए। सम्प्रति नयद्वारमाह सदस्स एगसमयं, परीसहो होइ नायव्वो।।८३ / / जं पप्प नेगमनओ, परीसहो वेयणा य दुण्हं तु। (वासग्गसो यत्ति) आर्षत्वाद्वर्षाऽग्रतः, कोऽर्थः?-वर्षलक्षणं कालपरिवेयण पडुच्च जीवे, उज्जुसुओं सदस्स पुण आया।॥१॥ माणमाश्रित्य, परीषहो भवति इति गम्यते। चः पूरणे 'त्रयाणां' नैगमसङ्ग'यद्' वस्तु गिरिनिर्झरजलाऽऽदि 'प्राप्य' आसाद्य क्षुदादिपरीषहा हव्यवहारनयानां मतेन, ते ह्यनन्तरोक्तन्यायतस्तदुत्पादकं वस्त्वपि उत्पद्यन्ते नैगमो नैगमनयो, यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् तत्परिषह इति, परीषहमिच्छन्ति, तचैतावत्कालस्थितिकमपि सम्भवत्येवेति, वक्तीति शेषः / स होवं मन्यते-यदि तत् क्षुदाधुत्पादकं वस्तुन भवेत्तदा (भुहुत्तमंतं च इति) प्राकृतत्वादन्तर्मुहूर्त पुनर्भवति, प्रक्रमात्परीषहः, क्षुदादय एव न स्युः, तदभावाच किं केन सात इति परीषहाभाव एव ऋजुसूत्रे वा विचार्यमाणे, स हि प्रागुक्तनीतितो वेदनापरीषह इति वक्ति। स्यात्, ततस्तद्भावभावित्वात् परीषहस्य तत् प्रधानमिति तदेव परीषहः, सा चोपयोगाऽऽत्मिका, उपयोगश्च-''अंतुमुहुत्ता उ परं, जोगुवओगा न प्रस्थकोत्पादककाष्ठप्रस्थकवत्। आह-नैकगमत्वान्नैगमस्य कथमेक- संतीति'' इति वचनात् आन्तर्मुहूर्तिक एव; 'शब्दस्य' साम्प्रताऽऽदिरूपतव परीषहाणामिहोक्ता? उच्यते-शशाखत्वादस्यन सर्वभेदाभिधानं त्रिभेदस्य मतेनैकसमयं परीषहो भवति ज्ञातव्य अवबोद्धव्यः, सयुक्तशक्यमिति कश्चिदेव क्वचिदुच्यते / एवं शेषनयेष्वपि यथोक्ताऽऽशङ्काया नीतितो वेदनोपयुक्तमात्मानमेव परीषह मनुते, सचैतस्य पर्यायाऽऽत्मवाध्यमिति / वेदना' क्षुदादिजनिता असातवेदना, चशब्दात्तदुत्पादकं च कतया प्रतिसमयमन्यान्यएव भवतीति समयमेवेतन्मतेन परीषहो युक्तः / परीषहः, 'द्वयोस्तु' पारिशेष्यात सङ्ग्रहव्यवहारयोः पुनर्मतनेतिगम्यते / इति गाथाऽर्थ // 3 // अयं चानयोरभिप्रायः-यदि तावद्भिरिनिर्झरजलाऽऽदिक्षुदादिवेद 'वर्षाग्रतः त्रयाणां परीषह' इति यदुक्तं तदेव दृष्टानाजनकत्वेन परीषहः, कथमिव क्षुदादिवेदना न परीषहो, निरुपचरित न्तेन द्रढयितुमाहपरीषह्यत इति परीषहलक्षणं वेदनाया एव सम्भवति, उपचरितं तु कंडू अभत्तछंदो, अच्छीणं वेयणा तहा कुच्छी। गिरिनिर्झरजलाऽऽदौ, तात्त्विकवस्तुनिबन्धश्चोपचार इति तदभावे कासं सासंच जरं, अहिआसे सत्त वाससए।।८।। तस्याप्यभाव एव स्यात् / 'वेदना' क्षुदाद्यनुभवाऽऽत्मिकां 'प्रतीत्य' (कण्डू) कण्डूतिम्, 'अभक्तछन्द' भत्कारुचिरूपम्, 'अक्ष्णोः' आश्रित्य जीवे परीषह इति ऋजुसूत्रः मन्यत इतीहापि गम्यते / लोचनयोः; वेदनां दुःखानुभवं; सर्वत्र द्वितीयार्थ प्रथमा; तथेति समुचये; अयमस्याऽऽशयः- सति हि निरुपचरितलक्षणान्वितेऽपि परीषहे स एव (कुच्छि त्ति) सुब्यत्ययात् कुक्ष्योर्वेदनां-शूलाऽऽदिरूपा 'काश श्वास परीषहोऽस्तु, किमुपचरितकल्पनया?, ततो निरुपचरितलक्षणयोगाद्वे- च ज्वरं त्रयमपि प्रतीतमेव। अध्यास्त' इति अधिसहते. सप्त वर्षशतानि दनैव परीषहः, सा च जीवधर्मत्वाज्जीवेनाजीव इति वेदना प्रतीत्य जीवे यावत् / अनेन तु सनत्कुमार-चक्रवर्युदाहरणं सूचितं; स हि महात्मा परीषह उच्यते, नतुपूर्वेषामिवाजीवेऽपीति, 'शब्दस्य' इति शब्दाऽऽख्य- सनत्कुमारचक्रवर्ती शक्रप्रशंसाऽसहनसमायातामरद्वयनिवेदितशरीरनयरुप साम्प्रतसमभिरूलैवम्भूतभेदतस्विरूपस्य मतेनाऽऽत्मा जीवः, विकृतिरुत्पन्नवैराग्यवासनः पटप्रान्तावलगतृणवदखिलमपि राज्यमपरीषह इति प्रक्रमः। पुनशब्दो विशेष द्योतयति, विशेषश्च परीषहोपयु- पहायाभ्युपगतदीक्षः प्रतिक्षणमभिनवाभिनवप्रवर्द्धमानसंवेगो मधुकरतत्वम्, अयं छुपयोगप्रधानः, उपयोगश्चाऽऽत्मन एवेति परीषहोपयुक्त / वृत्त्यैव यथोपलब्धानपानोपरचितप्राणवृत्तिरनन्तरोक्तसप्तोद्दण्डआत्मैव परीषह इति मन्यते इति गाथाऽर्थः / / 81 // कण्ड्वादिवेदनाविधुरितशरीरोऽपि संयमान्न मनागपि सञ्चचाल, इदानी वर्तनाद्वारमाह पुनस्तत्त्सत्वपरीक्षणाऽऽयातभिषग्वेषामरोपदर्शितद्वादशां-शुमालिसवीसं उक्कोसपए, वटुंति जहन्नओ हवइ एगो। माङ्गुल्यवयवश्च तत्पुरतः "पुव्विं कडाणं कम्माणं वेयइत्ता'' इत्यादि सीउसिण चरियं निसी-हिया जुगवं न वटुंति / / 2 / / संवेगोत्पादकमागमवचः प्ररूपयन् स्वयमागत्य शक्रेणाभिवन्दित विंशतिः उत्कृष्टपदे चिन्त्यमाने परीषहाः वर्तन्ते, युगपधदेकत्र प्राणि- उपबृंहितश्च / इति गाथार्थः // 84 // तीति गम्यते / 'जधन्यनः 'जघन्यपदमाश्रित्य भवेदेकः परीषहः, सम्प्रति क्व परीषह इति क्षेत्रविषयप्रश्नप्रतिवचनमाहननूक्तृष्पदे द्वाविंशतिरपि किं नैकत्र वर्तन्त इत्याह (सीउसिण त्ति) लोए संथारम्मि य, परीसहा जाव उज्जुसुत्ताओ। शीतोष्णे चर्यानपेधिवयौ च 'युगपद्' एककाल न वर्तेते' न भवतः, तिण्हं सदनयाणं, परीसहा होइ अत्ताणे / / 5 / / परस्परं परिहारस्थितिलक्षणत्वादमीषाम्, तथाहि-न शीतमुषण न चोष्णं लो के संस्तारके च परीषहाः (जाव उजुसुत्ताओ त्ति) शीतेन चर्यायानषेधिकी नैषेधिक्यां वा चर्येत्यतो योगपद्येनामीषामेकत्रा- सूवत्वात् ऋजु सूत्रं यावद्, अस्य च पूर्वार्द्धस्य सूचक - सम्भवान्नोत्कृष्टतोऽपि द्वाविंशतिरिति। आह नैषेधिकीवत्कथं शय्याऽपि | त्वादविशुद्धनै गमस्य मते न लोके परीषहाः, तत्सहिष्णु Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 641 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह यतिनिवासभूतक्षेत्रस्यापि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकानान्तरत्वात्, सकलजन्तभाषाऽभिव्याप्त्या कथितम् / उक्तं च-देवा देवी नरा नारी, इत्थमपि च व्यवहारदर्शनाद, एवमुत्तरोत्तराऽऽदिविशुद्धविशुद्धतर- शवराश्चापि शाबरीम् / तिर्यञ्चोऽपि हि तैरश्ची, मेनिरे भगवगिरम् तद्भेदापेक्षया तियग्लोकजम्बूद्वीपभरतदक्षिणार्द्धपाटलीपुत्रोपावयाऽऽ- // 1 // " फिमत आह-इहेति लोके प्रवचने वा 'खलुः' वाक्यालङ्कारे, दिषु भावनीय, यावदत्यन्तविशुद्धतमनगमस्य यत्रोपाश्रयैकदेशे अमीषा अवधारणे वा, तत इहव जिनप्रवचन एव द्वाविंशतिः परीषहाः, सन्तीति सोढा यतिस्तत्रानी इति, एवं व्यवहारस्यापि, लोकव्यवहारपरत्वादस्य, गम्यते / अत्र च श्रुतमित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेव लोकच नेह वसति प्रोषित इति व्यवहारदर्शनात, सग्रहभ्य संस्तारक अन्यस्गे प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भावात्। परीषहाः, स हि संगृह्णातीति संग्रह इति निरुक्तिवशात् सड् ग्रहोपलक्षित- उक्तं च-''कि एत्तो पावयर, सम्म अणहिगयधम्मसभावो / अन्नं मेवाऽऽधार मन्यते, संस्तारकेएव च यतिशरीरप्रदेशः सगृह्यते न पुनरुपा- कुदेसणाए, कढ़तरायम्मि पाडेइ // 1 // ' इति / मयेत्य-नेनार्थतोऽनश्रयैकदेशाऽऽदिरिति संस्तारक एवास्य परीषहाः, ऋजुसूत्रस्य तु न्तराऽऽगमत्वभाह- भगवतेत्यनेन च वक्तुः केवलज्ञानाऽऽदिगुणवत्त्वसूचयेष्वाकाशप्रदेशेष्वात्माऽवगाढस्तेष्वेव परीषहाः, संस्तारकाऽऽदि- केन प्रकृतवचसः प्रामाण्यं ख्यापयितुवक्तः प्रामाण्यमाह-वक्तृप्रामाण्यप्रदेशानां तदणुभिरेव व्याप्तत्वात्, तत्रावस्थानाभावत्, त्रयाणां शब्द मेव हि वचनप्रामाण्ये निमित्तम् / यदुक्तम्-"पुरुषप्रामाण्यमेव शब्दे नयाना परीषहो भवति आत्मनि, स्वात्मनि व्यवस्थित्वात्स र्वस्य / दर्पणसङ्क्रान्तं मुखमिवा-पचारादभिधीयते। "तेनेति च गुणवत्त्वप्रसितथाहि-सर्व वस्तु स्वाऽऽत्मनि व्यवतिष्ठते सत्त्वाद यथा चैतन्य जीवे। ट्यभिधानेन प्रस्तुताध्ययनस्य प्रामाण्यनिश्चयमाह; संदिग्धे हि आह-किमेवं नयेव्याख्या? निषिद्धा ह्यसौ / यदुक्तम्-''त्थि पुहुने वक्तुर्गणवत्त्वे वचसोऽपि प्रामाण्ये संदिह्येतेति, समुदायेन तु आत्मौद्धसमोयारा' इति / उच्यते-दृष्टिवादोद्भदत्वादस्य न दोषः / तथा च त्यपरिहारेण गुरुगुणप्रभावनापरेरेव विनेयेभ्यो देशना विधेया, एतद् प्रागुक्तम्-''कम्प्पवायव्ये'' इत्यादि। दृष्टिवादे हि नयाख्येत्यत्रापि भक्तिपरिणामे च विद्याऽऽदेरपि फलसिद्धिः। यदुक्तम्-"आयरियभत्तितथवा निधानम्। इति गाथार्थः॥८५ // राएण विजा मताय सिजाति।" अथवा-'आउसंतेणं ति" भगवद्विइदानमुद्देशाऽऽदिद्वारत्रयमल्पवक्तव्य शेषणम,आयुष्मता भगवता, चिरजीविनेत्यर्थः मङ्गलवचनमतेत्। यद्वा-- मित्येकगाथया गदितुमाह-- आयुष्मतेति परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुरियता, न तु मुक्तिमवा - उद्देसो गुरुवयणं,पुच्छा सीसस्स उ मुणेयव्वा। प्याऽपि तीर्थनिकाराऽऽदिदर्शनात्युनरिहाऽऽयातेन। यथोच्यते कैश्चित्-- निद्देसो पुणिमे खलु, वावीसं सुत्तफासे य॥८६॥ "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम्। गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयाऽपि, उद्दिश्यत इति उद्देशः, क इत्याह-गुरुवचनम् गुरोः विवक्षितार्थ- भवं तीर्थनिकारतः / / 1 / / " सामान्याऽभिधायकं वचो, यथा प्रस्तुतमेव (इह खलु वावीसं परीसह एवं हि अनुन्मूलितनिःशेषरागाऽऽदिदोषत्वात्तद्वचसोऽप्रामाण्यमेव त्ति) 'पृच्छा शिष्यस्य तु' गुरुद्दिष्टार्थविशेषजिज्ञासोर्विनेयस्य, तुः पुनः स्यात, निःशेषोन्मूलने हि रागाऽऽदीनां कुतः पुनरिहाऽऽगमनसम्भव प्रक्रमाद्वचनम् ‘मुणितव्या' ज्ञातव्या। यथा-(कयरे खलु ते वावीरा इति / यदि वा-(आवसंतेण ति) मयेत्यस्य विशेषणं, तत आडितिगुरुपरीसहा? इति) निर्देशश्चति निर्देश:पुनः इमे खलुदाविशंतिः, परीषहा दर्शितमर्यादया वसता, अनेन तत्त्वतो गुरुमर्यादावर्तित्वरूपत्वाद् इति गम्यते, अनेन च शिष्यप्रश्नानन्तरं गुरोर्निर्वचनं निर्देश इत्यर्थादुक्त गुरुकुलवासस्य तद्विधानमर्थत उक्तं, ज्ञानाऽऽदिहेतुत्वात्तस्य। उक्तं च भवति, अत्र चैवमुदाहरणद्वारेणाभिधानं पूर्वयोरप्युत्कोदाहरणद्वय- "णाणस्स हाइ भागी, थिरयरतो दंसणे चरित्ते य / धन्ना आवकहाए सूचनार्थ वैचित्र्यख्यापनार्थ चेति किञ्चिन्यूनगाथाऽर्थः // 86 // गुरुकुलवासं न मुवंति // 1 // ' अथवा-(आमुसंतेणं) आमृशता इत्थं 'कुतः' इत्यादि द्वादशद्वारवर्णनादवसितो नामनिप्पन्ननिक्षेपः, भगवत्यादारविन्दं भक्तितः करतलयुगाऽऽदिना स्पृशता अनेनैतदाहसम्प्रति 'सूत्रस्पर्शः' इति चरमद्वारस्य सूत्राऽऽलापकनिप्पन्ननिक्षेपस्य अधिगतसमस्तशास्त्रेणापि गुरुविश्रामणाऽऽदिविनयकृत्यं न मोक्तय्यम्। चावसरः, तचोभय सूत्रे सति भवतीति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयम् / उक्तं हि-"जहाऽऽहिअग्गी जलणं नमसे, णाणाहुईमंतययाहिसि तं / तचेदम् एवाऽऽयरियं उवविठ्ठएजा, अणतणाणोवगतोऽवि संतो॥१।। 'इति। यद्वासुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु वावीसं (आउसंतेण ति) प्राकृतत्वेन तिव्यत्ययादाजुषमाणेन श्रवणपरीसहा समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे विधिमर्यादया गुरुन्न सेवमानेन, अनेनाप्येतदाह-विधिनैवोचितदेशस्थेन भिक्खू सुचा नचा जिचा अभिभूय भिक्खयारियाए परिव्ययंतो गुरुसकाशात् श्रोतव्यं, न तु यथाकथञ्चित्, गुरुविनयभीत्या गुरुपर्षपुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा। दुस्थितेभ्यो वा सकाशात् / यथोप्यते–'परिसुट्ठियाण पासे, सुणेइ सो श्रुतम् आकर्णितमवधारितमिति यावत्। (मे) मया आयुष्मन !' इति विणयपरिभसी।" इति / यदुक्तं भगवता आख्यातं द्वाविंशतिः परीषहाः शिष्याऽऽमन्त्रणं कः कमेवमाह? -सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं, किं तत् सन्तीति, तत्र किं भगवता अत्यतः पुरुषविशेषादपौरुषेयाऽऽगमात् स्वतो श्रुतभित्याह-तेनेति त्रिजगत्प्रतीतेन भगवता' अष्टमहाप्रातिहार्यरूप- वा अभी अवगताः, इत्याह-श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन (पवेश्य समग पर्याऽऽदियुक्तेन, एवभित्यमुना वक्ष्यमाणन्यायेन 'आख्यात' | त्ति) सूत्रत्वात् प्रविदिताः, तत्र श्राम्यतीति श्रमणः-तपस्वी, तेन, नतु Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 642 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्य च जगत्पतेः। ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसिद्ध चतुष्टयम् / / 1 / / " इति कणादाऽऽदिपरिकल्पितसदाशिववदनाऽऽदिसंसिद्धेन, तस्य देहाऽऽदिविरहात तथाविधप्रयत्नाभावेनाऽऽख्यानायोगात। उक्त च-"वयणं नकायजोगाभावेण य सो अणादिसुद्धस्स।। / गहणम्मि य नो हेतू, सत्थं अत्ताऽऽगमो कह णु?१:1" भगवतंति च समग्रज्ञानश्वर्याऽऽदिसूचकेन सर्वज्ञतागुणयागित्वमाह / तथा च यत् कैश्चिदुध्यते- "हेयोपादेयतत्त्वस्य,साध्योपायस्य वेदकः / यः प्रमाणमसाविष्टो, नतु सर्वस्य वेदकः॥१॥" इति, तद्व्युदरतं भवति, असर्वज्ञा हिन यथावत्सोपायहेयोपादेयतत्वविद्भवति, प्रतिप्राणि भिन्ना हिमावानामुपयोगशक्तयः, तत्र कोऽपि कस्यापि कथमपि क्वाप्युपयोगीति कथं सोपायहेयोपादेयतत्त्ववेदन सर्वज्ञता विना सम्भवतीति, महावीरेणति शक्रकृतनाम्ना घरमतीर्थकरण, 'काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण अनेन च नियतदशकालकुलाभिधायिना सकलदेशकालकलाव्यापिपुरुषाद्वैतनिराकरणं कृतं भवति। तत्र हि सर्वस्यैकत्वादयमाख्यालाऽरगै व्यारररोयमित्यादिविभागाभावत आख्यानरयैवाराम्भव इति, प्रविदिताः प्रकर्षण स्वयं साक्षात्कारित्वलक्षणेन ज्ञाताः, अनेन बुद्धिव्यवहितार्थपरिच्छेदवादः परिक्षिप्तो भवति, स्वयमसाक्षात्कारी हि प्रदीपहस्तान्धपुरुषव व्यतिरिक्तबुद्धियोगोऽपि कथ कञ्चनार्थ परिच्छेत्तुं क्षमः स्याद् ? एवं चैतदुक्तं भवति-नान्यतः धुरुषविशेषादेतेऽवगताः, स्वयं सम्बुद्धत्वादगवतः, नाप्यपौरुपेयाऽऽगमात् तस्यैवासम्भवाद, अपौरुषेयत्वं ह्यागमस्य स्वरूपापेक्षमर्थप्रत्यायनापेक्षं वा?, तत्र यदि स्वरुपापेक्षं तदा ताल्वादिकरणव्यापार विनवास्य सदोपलम्भप्रसङ्गः न चाऽऽवृतत्वात नोपलम्भ इति वाच्य, तरय सर्वथा नित्यत्वे आवरणस्याकिञ्चत्करत्वात, किञ्चित्करत्वे वा कथञ्चिद-नित्यत्वप्रसङ्गाद् अथार्थप्रत्यायनापेक्षम्, एवं कृतसङ्केता बालाऽऽदयोऽपि ततोऽर्थ प्रतिपद्येरन्निति नापौरुषेयाऽऽगमसम्भव इति। ते च कीदृशा इत्याह-यानिति परीपहान 'भिक्षुः' उक्तनिरुक्तः श्रुत्वा' आकर्ण्य, गुर्वन्तिक इति गम्यते। ज्ञात्वा' यथावदवबुद्ध्य, जिल्वा पुनः पुनरभ्यारोन परिचितान कृत्वा अभिभूय' सर्वथा तत्सामर्थ्यमुपहत्य, भिक्षाश्चर्या विहितक्रियासेवन भिक्षुचर्या, तया 'परिव्रजन्' समन्ताद्विहरन स्पृष्ट आश्लिष्टः, प्रक्रमात्परीपहरव, 'नो' व 'विनिहन्येत' विविधैः प्रकारैः संयमशरीरोधधातेन विनाश प्राप्नुयात्। पठन्ति च--'भिक्खायरियाए परिष्वयंता ति। भिक्षाचर्यायां-- भिक्षाऽटने परिव्रजन, उदीर्यन्ते हि भिक्षाऽटने प्रायः परीषहाः। उक्तं हि-- "भिक्खायरियाए वावीसं परीराहा उदीरिजंति।" इति, शेष प्राग्वत्॥ इत्युक्तउद्देशः। पृच्छामाहकयरे ते खलु वावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे मिक्खू सुच्चा नचा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिटायंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेजा / / (कयरे) किं नामानः 'ते' अनन्तरसूत्राद्दिष्टाः 'खलुः वाक्यालङ्कार, शेष प्राग्वदिति। निर्देशमाह इमे खलु ते वावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सुच्चा नच्चा जिचा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेजा। 'इमे' अनन्तर वक्ष्यमाणत्वाद् हदि विपरिवर्त्तमानतया प्रत्यक्षा इमे 'ने इति ये त्वया पृष्टाः, शेष पूर्ववत्॥ तं जहा-दिगिंछापरीसहे१, पिवासापरीसहे 2, सीयपरीसहे 3, उसिणपरीसहे 4, दंसमसगपरीसहे 5, अचेलपरीसहे 6, अरइपरीसहे 7, इत्थीपरीसहे 8, चरियापरीसहे 6 निसीहियापरीसहे 10, सिजापरीसहे 11, अक्कोसपरीसहे 12, वहपरीसहे 13, जायणापरीसहे 14, अलाभपरिसहे 15, रोगपरीसहे 16, तणफासपरीसहे 17, जल्लपरीसहे 18, सकारपुरकारपरीसहे 16, पण्णापरीसहे 20, अन्नाणपरीसहे 21, सम्मत्तपरीसहे 22 तथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, दिगिञ्छापरीषहः 1, पिपासापरीषहः 2, शीतपरीपहः 3, उष्णपरीषहः 4. देशमशकपरषिहः 5, अचेलपरीषहः 6, अरतिपरीषहः 7, स्वीपरीषहः 8, चर्यापरीषहः 6, नैषेधिकीपरीवहः 10, शय्यापरीषहः 11, आक्रोशपरीषहः१२, वधपरीषह:१३, याचनापरीषहः 14, अलाभपरीषहः 15. रोगपरीषहः 16, तृणस्पर्श-परीषहः 17, जल्लपरीषहः 18, सत्कारपुरस्कारपरीषह:१६, प्रज्ञापरीषहः 20, अज्ञानपरीषहः 21, दर्शनपरीषहः 22 / इह च-दिगिछति' देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते, सेवात्यन्तव्याकुलत्वहेतुरप्यसंयमभीरुतथा आहारपरिपाकाऽऽदिवाञ्छाविनिवर्तनेन परीतिसर्वप्रकारं सह्यत इति परीषहः दिगिञ्छापरीषहः१, एवं पातुमिच्छा पिपासा, सैव परीषहः पिपासापरीषहः 2, 'श्यैड्' गतावित्यस्य गत्यर्थत्वात्कर्तरिक्तः, तता "द्रवमूर्तिस्पर्शयोःश्यः" (पा०६-१-२४) इति संप्रसारणे स्पर्शवाचित्वाच "स्योऽस्पर्श" (पा०८२-७) इति नत्वाभावे शीतं शिशिरः स्पर्शः तदेव परीषहः शीतपरीषहः 3, 'उष' दाहे इत्यस्यौणाऽऽदिकनकप्रत्ययान्तस्य उष्णं निदाघाऽऽदितापाऽऽत्मक तदेव परीपहः उष्णपरीषहः 4, दशन्तीति दंशाः पचाऽदित्वादध, मारायेतुं शक्नुवन्ति मशकाः, दंशाश्च मशकाश्च दंशमशकाः; यूकाऽऽद्युपलक्षणं चैतत् त एव परीषहो देशमशकपरीषहः 5; अचेलं चेलाभायो जिनकल्पिकाऽऽदीनाम, अन्येषां तु भिन्नमल्पमूल्य च चेलमप्यचेलमेव, अवस्त्राशीलाऽऽदीवत्, तदेव परीषहोऽचेलपरीषहः 6, रमणं रतिः संयमविषया धृतिः, तद्विपरीता त्वरतिः, सैव परीषहः अरतिपरीषहः 7. स्स्यायतेः स्तृणोतेर्वा टि टित्वाच डीपि स्त्री, सैव तद्गतरागहेतुगतिविभ्रमनिताऽऽकारविलोकनेऽपि "त्वगुधिरमांसमेद-स्नाय्वस्थिशिरावणैः सुदुर्गन्धम्। कुचनयनजघनवदनो-रूमूर्छितो मन्यते रूपम्॥१॥" तथा"निष्ठीवतं जुगुप्स-त्यधरस्थं पिबति मोहितः प्रसभम्। कुचजधनपरिश्रावं, नेच्छति तन्मोहितो भजते / / 2 / / " Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 643 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह इत्यादिभावनाताऽभिधारयमाननीतितश्च परिषह्यमाणत्वात्परीषहः रबीपरीषहः 8, चरण चर्या गामानुग्राम विहरणाऽत्मिका, सेव परीषहः वर्यापरीषहः 6, निषेधन निषेधः पापकर्मणां गमनाऽऽदिक्रियायाय सप्रयाजनमच्या नषेधिकिस्मशानाऽऽदिका स्वाध्यायाऽऽदिभूमिः, निषेधति यावत सैव परीषहो नैषैधिकीपरीषह: १०.तथा--शेरतेऽस्यामिति शय्या उपाश्रयः / सैव परीषहः शय्यापरीषहः 11, आक्रोशमाक्रोशः असत्यभाषाऽऽत्मकः, राएव परीषहः आक्रोशपरीषहः 12, हननं वधः... ताडन, स एव परीषहा वधपरीषहः 13, याचनं याञ्चा, प्रार्थनेत्यर्थः, संवादरीषहो सञ्चापरीषहः 14, लभनंलाभो न लाभोऽलाभः, अभिलपितविषयाप्राप्तिः स एव परीषहः अलाभपरीषहः 15, रोगः कुष्ठाऽऽदिरूपः स परीषही रागपरीषहः 16, तरन्तीति तृणानि, औणाऽऽदिको ना हत्य चंच रेषा स्पर्शः तृणस्पर्शः, स एव परीषहस्तृणस्पर्शपरीषहः 17, जल्द इति मलः, स एव परीषहो जल्लपरीषहः 18, सत्कारो वस्त्राऽsदेशिः पूजन पुरस्कारः अभ्युत्थानाऽऽसनाऽऽदिसम्पादनम / यद्वासकलवाभ्युत्थानाभिवादनदानाऽऽदिरूपा प्रतिपत्तिरिह सत्कारस्तन पुरस्सरण सरकारपुरग्कारः, ततस्तावेव स एव वा परीषहः सत्कारपुर - स्वारपरीषहः 16, प्रज्ञापरीषहः अज्ञानपरीषहश्च प्रागभावितायो, नवर प्रज्ञायतेऽनय वस्तुतचमिति प्रज्ञा, स्वयं विमर्शपूर्वको बस्तुपरिच्छेदः, तथा ज्ञायते वस्तुतत्त्वमनेनेति ज्ञान, सामान्येन मत्यादि, सदभावोऽ-- ज्ञानम् 20-21 दर्शनं सम्यग्दर्शनं तदेव क्रियाऽऽदिवादिना विचित्रगलाश्रवणेऽपि सभ्यक परीषामाणनिश्चलचित्ततया धार्यमाणं परीवही दर्शनपरीषहः / यदा-दर्शनशब्देन दर्शनव्यागोहहेतुरैहिकाऽऽमुष्णिकफलानुपलन्भादिरिह गृह्यते, ततः स एव परीषहो दर्शनपरीषहः२२ / इत्थं नामतः परीषहानभिधाय तानेव स्वरूपतोऽभिधित्सुः सम्बन्धार्थमाहपरीसहाणं पविभत्ती, कासवेण पवेइया। तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुट्विं सुणेह मे / / 1 / / 'परीषहाणान्' अनन्तरोक्तनाम्नां प्रविभक्तिः प्रकर्षण स्वरूपसम्मोहाभावलक्षणेन 'वभागः-पृथक्ता 'काश्यपेन काश्यपगोत्रेण, महावीरणेति यावत / प्रवेदिता' प्ररूपिता 'तामिति काश्यपप्ररुपिता परीषहप्रविभक्ति (भे इति भवताम, उदाहरिष्यामि प्रतिपादयिष्यामि, आनुपूर्त्या' क्रमेण शृणुत (मे) मम प्रक्रमादुदाहरतः, शिष्याऽऽदरख्यापनार्थ च काश्यपेन प्रवेदितेति वचनम् / इति सूत्रार्थ // 1 // उत्त०२ अ०। संप्रत्यध्ययनार्थोपसंहारमाहएए परीसहा सव्वे, कासवेणं पवेइया। जे भिक्खू न विहन्नेजा, पुट्ठो केणइ कण्हुइ / / 46 / / 'एत' अनन्तरमुपदर्शितस्वरूपाः, परीषहाः क्षुदादयः सर्वे' द्वाविंशतिसंख्या अपि न तु क्रियन्तएव 'काश्यपेन' श्रीमन्महावीरेण 'प्रवेदिताः' प्ररूपिताः (जे इति) यानुक्तन्यायेन ज्ञात्वेति शेषः, भिक्षुर्यतिन चैव 'विहन्येत' पराजीयेत / कोऽर्थः?-संयमात्पात्येत, 'स्पृष्टो' वाधितः कनापि प्रक्रमात द्वाविंशतरेकतरण दुर्जयनापि परीषहेण (कराहु इति कचित दश कालवा इति सत्रार्थः / उत्त० 2 अ०। खुहं पिवासं दुस्सिनं, सीउणहं अरई भयं / अहियासे अव्वहिओ, देहे दुक्खं महाएपलं / / 27 / / शुध बुभुक्षा, पिपासा तृष, दुःशय्या विषभूय्यादिरूपा, शीतोष्ण प्रतीतम, अरति माहनीयोगवा, भय व्याघ्राऽऽदिसमुत्थमतिसहेत्, एत सवमा अत्यथितोऽदीनमनाः सन् देहे दुखं महाफलं, संचिन्त्यति वाययशेषः / तथा च-शरीरे सत्येतत् दुःखं शरीरं वाऽसारं सम्यगतिसहामान च मोक्षफलमवेदम, इति सूत्रार्थः / दश०८ अ0/व्य०! स्था०। अथ बन्धस्थानान्याश्रित्य परीषहान विचारयन्नाह-- सत्तविहबंधगस्स णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता? गोयमा ! वावीसंपरीसहा पण्णत्ता। वीसं पुण वेएइ / जं समयं सीयपरीसह वेएइनो तं समयं उसिगपरीसहं वेएइ,जं समयं उसिणपरीसहं वेएइ नो तं समयं सीयपरीसहं वएइ, जं समयं चरियापरीसह वेएइ नो तं समयं निसीहियापरीसहं वेएइ, जं समयं निसीहियापरीसहं वेएइ नो तं समयं चरियापरीसहं वेएइ। अट्ठविहबंधगस्स णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता? गोयमा ! वावीसं परीसहा पण्णत्ता ! तं जहा-छु हापरीसहे पिवासापरीसहे सीयपरीसहे जाव अलाभपरीसहे। एवं अट्ठविहबंधगस्स वि / छविहबंधगस्स णं भंते! सरागछमत्थस्स कइ परीसहा पण्णत्ता? गोयमा! चोद्दस परीहा पण्णत्ता / वारस पुण वेएइ / जं समय-सीयपरीसहं वेएइ नो तं समयं उसिणपरीसहं वेएइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेएइ नो तं समयं सीयपरीसहं वेएइ / जं समयं चरियापरीसहं वेएइ नो तं समयं सेजापरीसहं वेएइ,ज समयं सेनापरीसहं चेव वेएइ नो तं समयं सेज्जापरीसह वेएइ, जं समयं सेज्जापरीसहं चेव वेएइ नो तं समयं चरियापरीसहे वेएइ / एक्कविहबंधगस्स णं भंते ! वीयरागछउमत्थस्स कइ परीसहा पण्णत्ता? गोयमा ! एवं जहेव छविहबंधगस्स / एगविहबंधगस्स णं भंते ! सजोगिभवत्थकेवलिस्स कइ परीसहा पण्णत्ता? गोयमा ! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता / नव पुण वेएइ। सेसं जहा छव्विहबंधगस्स। अबंधगस्सणं भंतं! अजोगिभवत्थकेवलिस्स कइ परीसहा पण्णत्ता? गोयमा ! एक्कारस-परीसहा पण्णत्ता। नव पुण वेएइ / जं समयं सीयपरीसहं वेएइ नो तं समयं उसिणपरिसहं वेएइ,जं समयं उसिणपरीसहं वेएइ नो तं समयं सीयपरीसहं वेएइ, जं समयं चरियापरीसहं वेएइ नो तं समयं सेजापरीसहं वेएइ, जं समयं सेज्जापरीसहं वेएइ नो तं समयं चरियापरीसहं वेएइ। समविश्ववन्धक आयुर्वजशषकर्मबन्धकः। (जंसमय सीयपरीसहमित्यादि) यत्र समये शीतपरिषह वेदयते न तत्रोष्णपरीषह, शीतोष्णयोः परस्परम त्यन्तविराधेनैकदैकत्रासम्भवात् / अथ यद्यपि शीतोष्णयोरेकदेवत्रास___ भिवस्तथाप्यात्यन्तिक शीत तथाविधाग्निसन्निधौ युगपदेवैकस्य पु Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 644 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह स एकस्यां दिशि शीतमन्यस्यां चोष्णमित्येवं द्वयोरपि शीतोष्णपरीषहयोरस्ति सम्भवः / नैतदैवम्, कालकृतशीतोष्णाऽऽश्रयत्वादविकृतसूत्रस्यैवंविधव्यतिकरस्य वा प्रायेण तपस्विनामभावादिति। तथा-(जं समयं चरियापरीसहमित्यादि) तत्र चर्या ग्रामाऽऽदिषु सञ्चरणं, नैषेधिकी च ग्रामाऽऽदिषु प्रतिपन्नमासकल्पाऽऽदेः स्वाध्यायाऽऽदिनिमित्तं शय्यातो विविक्तोपाश्रये गत्वा निषदनम् ! एवं चानयोर्विहारावस्थानरूपत्वेन परस्परविरोधान्नैकदा संभवः / अथ नैषेधिकीवच्छय्याऽपि चर्यया सह विरुद्धेति न तयोरेकदा सम्भवः, ततश्चैकोनविंशतेरेव परीषहाणामुत्कर्षेणैकदा वेदनं प्राप्तमिति। नैवम्। यतो ग्रामाऽऽदिगमनप्रवृत्तो यदा कश्चिदौत्सुक्यादनिवृत्ततत्परिणाम एव विश्रामभोजनाऽऽद्यर्थमित्वरं शम्यायां वर्तते तदोभयभप्यविरूद्धेमेव, तत्वतश्चर्याया असमासत्वादाश्रयस्य चाश्रयणादिति / यद्येवं तर्हि कथं षड्विधबन्धकमाश्रित्य वक्ष्यति। (ज समय चरियापरीसह वेएइ नो तं समयं सेज्जापरीसह वेएईत्यादि) अवोच्यतेषड्विधबन्धको मोहनीयस्याविद्यमानकल्पत्वात्स-र्वत्रौत्सुक्याभावेन शय्याकाले शय्यायामेव वर्तते, न तु बादररागवदौत्सुक्येन विहारपरिणामाविच्छेदाचर्यायाभप्पतस्तदपेक्षया तयोः परस्परविरोधायुगपदसम्भवस्ततश्चासाध्वेवं (जं समयं चरिएत्यादि) (छविहबंधत्यादि) षड़िवबन्धकस्याऽऽयुर्मोहवर्जानां बन्धकरय सूक्ष्मसम्परायस्येत्यर्थः, एतदेवाऽऽह- (सरागछउमत्थस्सेत्यादि) सूक्ष्मलोभाणूतां वेदनात्सरागोऽनुत्पन्नकेवलत्वाच्छद्मस्थस्ततः कर्मधारयोऽतस्तस्य / (चोद्दसपरीसह त्ति) अष्टानां मोहनीसम्भवानां तस्य मोहाभादेनाभावाद् द्वाविंशतः शेषाश्चतुदर्श परीषहा / इति / ननु सूक्ष्मसम्परायस्य चतुर्दशानामेवाभिधानात् मोहनीयसम्भवानामष्टानामसम्भव इत्युक्तं, ततश्च सामर्थ्यादनिवृत्तिबादरसम्परायस्य मोहनीयसम्भवानामष्टानामपि सम्भवः प्राप्तः, कथं चैतधुज्यते, यतो दर्शनसप्तकोपशमे बादरकषायस्य दर्शनीयोद्दयाभावेन दर्शनपरीषहाभावात्सप्तानामेव सम्भवो, नाष्टानाम् / अथ दर्शनमोहनीयसत्ताऽपेक्षयाऽसावपीष्यत इत्यष्टावेव, तर्युपशमकत्वे सूक्ष्मसम्परायस्यापि मोहनीयसत्ता-सद्भावात् कथं तदुत्थाः सर्वेऽपि परीषहा न भवन्तीति, न्यायस्य समानत्वादिति / अत्रोच्यते-यस्माद्दर्शनसप्तकोपशमस्योपर्येव नपुंसकवेदाऽऽद्युपशमकाले अनिवृत्तिवादरसम्परायो भवति, स चाऽऽवश्यकाऽऽदिव्यतिरिक्तग्रन्थानतरमतेनदर्शनत्रयस्थ बृहतिभागे उपशान्ते शेषे चानुपशान्ते एव स्यात् / नपुंसकवेदं चाऽसौ तेन सहोपशमयितुमुक्रमते, ततश्च नपुंसकवेदोपशमावसरे अनिवृत्तिबादरसम्परायस्य सतो दर्शनमोहस्य प्रदेशत उदयोऽस्ति, न तु सत्तैव, ततस्तत्प्रप्रत्ययो दर्शनपरीषहस्तस्यास्तीति। ततश्चाष्टावपि भवन्तीति; सूक्ष्मसम्परायस्य तु मोहसत्तायामपि न परीषहहेतुभूतः सूक्ष्मोऽपि मोहनीयोदयोऽस्तीति न मोहजन्यपरीषहसंभवः / आह च''मोहनिमित्ता अट्ठ वि, बायररागे परीसहा किह णु / किहि वा सुहुमसरागे, न हुँति उवसामए सव्वे / / 1 / / आचार्य आह 'सत्तगपरउचिय जे-ण बायरो जं च सावसेसम्मि। मग्गिल्लम्मि पुरिल्ले. लग्गइ तो दसणस्सावि।।२।। लब्भइ पएसकम्म, पहुच सुहमोदओ तओ अट्ट। तरस भणिया न सुहुमे, न तस्स सुहुमोदओ विजओ / / 3 / / " इति। यश्च सूक्ष्मसम्यरायसूक्ष्मलोभकिट्टिकानामुदयो नासौ परीषहहेतुलॊभहेतुकस्य परीषहस्यानभिधानात्। यदिच कोऽपि कथञ्चिदसी स्यात्तदा तस्यहात्यन्ताल्पन्वेनाविवक्षेति / (एगविहबंधगास ति) वेदनीयबन्धकस्येत्यर्थः / कस्य तस्येत्यत आह-(वीअराग्छउमत्थस्स त्ति)। उपशान्तमोहस्य, क्षीणमोहस्य चेत्यर्थः / (एवं चेवेत्यादि)। चतुर्दश प्रज्ञप्ता द्वादश पुनर्वेदयतीत्यर्थः / शीतोष्णयोश्चर्याशय्ययोश्चो पर्यायण वेदनादिति / भ०८ श०८ उ०। प्रव०। पं० सं०। (जिनस्यैकादश 11 परीषहा वेद्या इति केवल्याहारचिन्तायामुक्ताः) द्रव्यभावपरीषहेषु उदाहरणम्। एते च परीषहा द्विविधाः। तद्यथा-द्रव्यपरीषहा भावपरीषहाश्च / तत्र द्रव्यपरीषहा नाम य इहलोकनिमित्तं वन्धनाऽऽदिषु वा परवशेनाधिसह्यन्ते / तत्रोदाहरणं यथा-सामायिकेवक्रदृष्टान्ते इन्द्रपुरे इन्द्रदतपुत्रस्या भावपरीषहा ये संसारव्यवच्छेदमन-सानाऽकुलेना स नाधिसह्यन्ते तैरेव वासाधिकारः। आ० म०१ अ०। आ० चू० / पञ्चभि प्रकारैः छद्मस्थपरीसहाःपंचहिं ठाणे हिं छउमत्थेणं उदिण्णे परीसहोवसग्गे सम्म सहेजा, खमेजा,तिक्खेिज्जा, अहियासेजा। तं जहा-उदिन्नकम्मे खलु अयं पुस्सेि उम्मत्तगभूए तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा, अवहसइ वा, णिच्छोडइ वा, णिब्भत्थेइ वा, वंधइ वा, रुधइ वा, छविच्छेयं करेइवा, पमारंवा,णेइ उद्दवेइवा, वत्थपडिग्गह कंबलं पायपुंछणमाच्छिंदइ वा, विच्छिंदइ वा, भिंदइ वा, अवहरइ वा // 1 // जक्खाइट्टे खलु अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा, तहेव० जाव अवहरइ वा / / 2 / / ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिन्ने भवइ तेरा मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा० जाव अवहरअवाइ॥३॥ ममं च णं सम्मं असहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिक्खे माणस्स अणहियासेमाणस्स किम्मन्ने कजइ एगंतसो मे पावकम्मे कज्जइ / / 4 || ममं च णं सम्म सहमाणस्स० जाव अहियासेमाणस्स किम्भन्ने कन्जइ? एगंतसोमे निज्जरा कज्जइ॥५॥ इच्चेएहिं पंचहिं ठाणेहिं छउमत्थे उद्दिन्ने परीसहोवसग्गे सम्म सहेज्जा० जाव अहियासेजा।। (पंचहीत्यादि) स्फुट, किंतु छाद्यते येन तत् छ्य ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिघातिकर्मचतुष्टय, तत्र तिष्ठतीति छदास्थः, सकषाय इत्यथः। उदीर्णानुदितान् परीषहोपसर्गानभिहितस्वरूपान् सम्यक्ततकषायोदयनिरोधाऽऽदिना सहेत भयाभावेनाविचलनाद्भट भटवत् क्षमेत, क्षान्त्या तितिक्षेत अदीनतया, अध्यासीनपरीषहाऽऽदावेवाऽऽधिक्येनासीनं न चलेदिति, उदीर्णमुदितप्रबल वा कर्म मिथ्यात्वमोहनीयाऽऽदि यस्य स उदीर्णकर्मा, खलुक्यालङ्कारे, अयं प्रत्यक्ष पुरष उन्मत्तको मदिराऽऽदिना विप्लुतवित्तः स इव उन्मतकभूतोभूतशब्दस्योपमानार्थचात उन्मत्तकएववाउन्मत्तकभूतो भूत Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 645 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह शब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वात्। (रोण त्ति) उदीर्णकर्मा यतोऽयमुन्मत्तक- भूतः पुरुषस्तेन कारणेन / (मे इति) माम् एषोऽयमाक्रोशति, शपति, अपहसति, उपहासं करोति, अपघर्षति वा अपघर्षणं करोति, निच्छोटयति सम्बन्धान्तरसंबद्धहस्ताऽदौ गृहीत्वा बलात् क्षिपति, निर्भयति दुर्वचनैर्वध्नाति रज्ज्वादिना, रुणद्धि कारागारप्रवेशनाऽऽदिना, छ्वेः शरीरावयस्य हस्ताऽऽदेश्छदं करोति, मारणप्रारम्भः प्रमारो मूर्छाविशेषो मारणस्थानं वा तं नयति प्रापयतीति अपद्रावयति मारयति, अथवाप्रमार मरणमेव / (उद्दवेइ त्ति) उपद्रवयति उपद्रवं करोतीति। पतद्ग्रह पात्रं, कम्बल प्रतीतं, पादप्रोञ्छनं रजोहरणम् आछिनत्ति बलादुद्दालयति / विचिनति विच्छिन्नं करोति दूरे व्यवस्थापयतीत्यर्थः / अथवा वस्त्रभीषाच्छिनत्ति आच्छिनत्ति। विशेषेण छिनत्ति विच्छिनत्ति, भिनत्ति पात्रं स्फोटयति, अपहरति चोरयति, वाशब्दाः सर्वे विकल्पार्था इत्येक परीषहाऽऽदिसहनाऽऽलम्बनस्थानम्, इदञ्चाऽऽक्रोशाऽऽदिकनिह प्राय आक्रोशवधामिधानपरीषहद्वयं रूपं मन्तव्यम्, उपसर्गविवज्ञायां तु मानुष्यकप्राषिकाऽऽधुपसर्गरूपमिति। तथा यज्ञाऽऽविष्टो देवाधिष्ठितोऽय तेनाऽऽक्रोशतीत्यादि द्वितीयम् / तथा अयं हि परीषहोपसर्गकारी मिथ्यात्वाऽऽदिकर्मवशवर्ती (ममंचणं ति) मम पुनस्तेनैव भानुष्यकेण वेन जन्मना वेद्यतेऽनुभूयते यत्तद्भववेदनीय कर्म, उदीर्ण भवत्यस्ति तेनैव मामाक्रोशतीत्यादि तृतीयम् / यथा एष बालिशः पापाभीतत्वात् करोतु नामाक्रोशनाऽऽदि मम पुनरसहमानस्य (कि मन्ने त्ति) मन्ये इति निपातो वितर्कार्थः (कज्जइ त्ति) संपद्यते, इह विनिश्चयमाह-(एगंतसो त्ति) एकान्तेन सर्वथा पापं कर्माऽसाताऽऽदि क्रियते संपद्यत इति चतुर्थः / तथा अयं तावत्पापं बध्नाति मम चेदं महती निर्जरा क्रियत इति पञ्चमम् / (इचेएहीत्यादि)निगमनमिति। शेष सुगमम्। ___ छद्मस्थविपर्ययः केवलीति तत्सूत्रमपंचहिं ठाणेहिं केवली उदिन्ने परीसहोवसग्गे सम्मं सहेज्जा० जाव अहिया सेज्जा / तं जहा खित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे अक्कोसइ वा तहेव० जाव अवहरइ वा।।१।। दित्तचित्ते खलु अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे० जाव अवहरइ वा / / 2 / / जक्खाइट्टे खलु अयं पुरिसे तेण मे एस पुरिसे० जाव अवहरइ वा॥३ / / ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिन्ने भवइ तेण मे एस पुरिसे०जाव अवहरइ वा // 4 || ममं च णं सम्म सहमाणं खममाणं तितिक्खमाणं अहियासेमाणं पासित्ता बहवे अन्ने छउमत्था समणा निग्गंथा उदिन्ने परीसहोवसग्गे एवं सम्म सहिस्संति० जाव अहियासिस्संति॥५॥ इचेएहिं पंचहिं ठाणेहिं केवली उदिन्ने परीसहोवसग्गे सम्म सहेजा जाव अहियासेजा। तत्र च क्षिप्तचित्तः पुत्रशोकाऽऽदिना, नष्टचित्तः पुत्रजन्माऽऽदिना दर्पवचित उन्मत्त एवेति। मां च सहमानं दृष्ट्वा अन्येऽपि सहिष्यन्त्युत्तमानुसारित्वात् प्राय इतरेषाम् / यदाह-"जो उत्तमेहिँ मागो, पहओ सो दुक्करो न सेसाणं। आयरियम्मि जयंते, तयणुवरा केण सीएज?' / / 1 / / इति (इच्चेएहीत्यादि) अत्राऽपि निगमनम्। शेषं सुगममिति। स्था०५ ठा०१ उ०। परीषहाः सोढव्या इत्युपदेश:संवुडकम्मस्स भिक्खुणो, जं दुक्खं पुढें अबोहिए। तं संजमओऽवचिज्जई, मरणं हेच वयंति पंडिया / / 1 / / संवृतानि निरुद्धानि कर्माण्यनुष्ठानानि सम्यगुपयोगरूपाणि वा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगरूपाणि वा यस्य भिक्षोः साधोः स तथा तस्य यत् दुःखम् असद्वेद्यं तदुपादानभूतं वा अष्टप्रकारं कर्म स्पृष्टमिति बद्धपृष्टनिकाचितमित्यर्थः, तच अत्र 'अबोधिना'' अज्ञानेनोपपंचित सत संयमतो मानीन्द्रोक्तात् सप्तदशरूपादनुष्ठानादपचीयते प्रतिक्षणं क्षयमुपयाति / एतदुक्त भवति-यथा तटाकोदरसंस्थितमुदकं निरुद्धारप्रवेशद्वारं सदाऽऽदित्यकरसंपर्कात् प्रत्यहमपचीयते, एवं संवृताऽऽअवद्वारस्य भिक्षोरिन्द्रिययोगकषायं प्रति संलीनतया संवृताऽऽत्मनः सतः संयमानुष्ठानेन चाऽनेकभवाज्ञानोपचितं कर्म क्षीयते, ये च संवृताऽऽत्मानः सदनुष्ठायिनश्च ते हित्वा त्यक्त्वा मरणं' मरणस्वभावम्, उपलक्षणत्वात् जातिजरामरणशाकाऽऽदिकं त्यक्त्वा मोक्ष व्रजन्ति पण्डिताः सदसद्विवेकिनः, यदि वा-पण्डिताः सर्वज्ञ एवं वदन्ति यत् प्रागुक्तमिति // 1 // येऽपि च तेनैव भवेन न मोक्षमाप्नुवन्ति तानधिकृत्याऽऽहजे विनवणाहिजोसिया, संतिन्नेहिँ समं वियाहिया। तम्हा उर्द्धति पासहा, अदक्खु कामाइ रोगवं / / 2 / / ये महासत्त्वाः कामार्थिभिर्विज्ञाप्यन्ते यास्तदर्थिन्यो वा कामिन विज्ञापयन्ति ता विज्ञापनाः स्त्रियस्ताभिः अजुष्टा असेविताः क्षयं वाअवराायलक्षणमतीतास्ते सन्तीर्णमुक्तः समं व्याख्याताः, अत्तीर्णा अपि सन्तो यतस्ते निष्किञ्चनतया शब्दाऽ दिषु विषयेष्वप्रतिबद्धाः संसारोदन्वतस्तटोपान्तवर्तिनो भवन्ति० तस्मादूर्वमिति मोक्ष योषित् परित्यागादूर्ध्व यद्भवति तत्पश्यत यूयम्। ये च कामान् रोगद्व्याअधिकल्पान् "अद्राक्षुः" दृष्टावन्तस्ते संतीर्णसमा व्याख्याताः / तथा चोक्तम्- 'पुप्फफलाणं च रस, सुराइ मंसस्स महिलियाणं च। जाणता जे विरया, ते दुक्करकारए वंदे॥१॥' तृतीयपादस्य पाठान्तरं वा-'उड्ढे तिरियं अहे तहा' ऊर्ध्वमिति सौधर्माऽऽदिषु (तिरियमिति) तिर्यक्लोके अघ इति-भवनपत्यादौ० ये कामास्तान् रोगवदद्राक्षुर्ये ते तीर्णकल्पा व्याख्याता इति // 2 // पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याऽऽहअग्गं वणिएहिँ आहियं, धारती राईणिया इहं / एवं परमा महव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा / / 3 / / 'अय' वयं प्रधान रत्नवखाऽऽ भरणाऽऽदिकम् / तद्यथावणिभिर्द शान्तरादाहितं ढौ कि तं राजानस्तत्क ल्पा ईश्वराऽऽदयः इहाऽस्मिन्मनुष्यलो के धारयन्ति विभूति, एवमेता Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह न्यापे महाप्रतानि रत्नकल्पानि 'आचार्यैः' आख्यातानि प्रतिपादितानि नियोजितानि सरात्रिभोजनानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि साधवो विभ्रति, तुशब्दः पूर्वरत्नेभ्यो महाव्रतरत्नानां विशेषाऽऽपादक इति / इदमुक्तंभवतियथा प्रधानरत्नानां राजान एव भाजनम एवं महाव्रतरत्नानामपि महासत्या एव साधवो भाजनं, नान्ये इति॥३॥ किञ्च-- जे इह सायाणुगा नरा, अज्झोववन्ना कामेहि मुच्छिया। किवणेण सभ पगम्भिया, न विजाणंति समाहिमाहितं // 4|| ये नरा लघुप्रकृतयः, इहाऽस्मिन् मनुष्यलोके, सातं सुखमनुगच्छगतीति सातानुगाः ... सुखशीला ऐहिकाऽऽमुष्मिकाऽपायभीरवः समृद्धिरासातागौरोष्यध्युपपन्नाः गृद्धाः / तथा... 'कामेषु' इच्छामदनरूपेषु 'मूर्छिताः कामोत्कटतृष्णाः। कृपणो दीनो बराकक इन्द्रियैः पराजितस्तेन समास्तद्वत्कामाऽऽसेवने 'प्रगल्भिताः धृष्टतां गताः / यदि वाकिमनेन स्तोकेन दोषेणाऽसम्यक् प्रत्युपेक्षणाऽऽदिरूपेणाऽस्मत्संयमस्य विराधन भविष्यत्येरा प्रभादवन्तः कर्तव्येष्ववसीदन्तः समस्तमपि संयम पटवन्मणिकुदिमवद्वा मलिनीकुर्वन्ति, एवंभूताश्च ते समाधि धर्मध्याऽऽदिकम 'आख्यातं' कथितमपि न जानन्तीति। पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याऽऽह-- वाहेण जहा व विच्छए, अबले होइ गवं पचोइए। से अंतसो अप्पथामए, नाइवहइ अबले विसीयति / / 5 / / व्याधेन लुब्धकेन (जहा व ति) यथा (गवं ति) मृगाऽऽदिपशुर्विविधमनेकप्रकारेण कूटपाशाऽऽदिना क्षतः परवशीकृतः श्रम वा ग्राहितः प्रणोदितोऽप्यबलो भवति, जातश्रमत्वात् गन्तुसमर्थः, यदि वा-वाहयतीति वाहः शाकटिकस्तेन यथावद् वहन् गौर्दिविध प्रतोदाऽऽदिना क्षतः प्रचोदितोऽसबलो विषमपथाऽऽदो गन्तुमसमर्थो भवति, स चाऽन्तशो मरणान्तमपि यावदल्पसामथ्र्यो माऽतीवावोढुं शक्रोति एवंभूतश्चाऽदलो भारं दोढुमसमर्थस्तत्रैव पाऽऽदौ विषीदतीति। दाष्टान्तिकमाहएवं कामेराणं विऊ, अज सुए पयहेज संथवं / कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलङ्ग कण्हुई॥६॥ एवमनन्तरोक्तया नीत्या कामानं शब्दाऽऽदीनां विषयाणा या गवेषण्ण ! प्रार्थना तस्यां कर्तव्याया विद्वान् निपुणः कामप्रार्थनासक्तः शब्दाऽऽदिपङ्के मग्नः स चैवंभूतोऽद्य श्यो वा संस्तवं परिचयं कामसंबन्ध प्रजह्यात् किलेति, एवमध्यवसाय्येव सर्वदाऽवतिष्ठते, न च तान् कामान् अबलो बलीवर्दवत् विषमं मार्ग त्यक्तुनलं, किञ्च न चैहिकाऽऽमुष्मिकापायदर्शितया कामी भूत्वोपनतानपि कामान् शब्दाऽऽदिविषयान पैरस्यामिजम्बूनामाऽऽदिवद्वा कामायेत् अभिलषेदिति / तथा क्षुल्लककुमारवत् कुतश्विन्निमित्तात् "सुट्ठ गाइय" इत्यादिना प्रतिबुद्धो लब्धानपि प्राप्तानपि कामान् अलब्धसमान् मन्यमानो महासच्चतया तनिस्पृहो भवेदिति।।६।। किमिति कामपरित्यागो विधेय इत्याशक्याऽऽह मा पच्छ आसाधुता मवे, अचेही अणुसास अप्पगं। अहियं च असाहु सोयती, से थणती परिदेवती बहुं // 7 // मा पश्चान्मरणकाले भवान्तरे वा कामानुषङ्गादसाधुता कुगतिगमनाऽऽदिकरुपा भवेत् प्राप्नुयादिति, अतो विषयाऽऽसङ्गादात्मानम् अत्येहि त्याजय, तथाऽऽत्मानं च अनुशाधि आत्मनोऽनुशास्तिं कुरु, यथा हे जीव! यो ह्यसाधुः असाधुकर्मकारी हिंसाऽनृतस्तेयाऽऽदौ प्रवृत्तः सन् दुर्गती पतितोऽधिकम् अत्यर्थमेवं शोचति, सच परमाधार्मिकैः कदऱ्यामानस्तिर्यक्षु या क्षुदादिवेदनाग्रस्तोऽत्यर्थ स्तनति सशब्द निः श्यसिति, तथापरिदेवते क्लिपत्याक्रन्दति सुबह्निति-"हाभातः मियत इति, त्राता नैवाऽस्ति सांप्रत कश्चित्। किं शरण मे स्यादिह. दुष्कृतचरितस्य पापस्य? / / 1 / / '' इत्येवमादीनि दुरखान्यसाधुकारिणः प्राप्नुवन्तीत्यतो विषयानुषड़ो न विधेय इत्येवमात्मनोऽनुशासनं कुर्विति संबन्धनीयम् // 7 // किञ्च इह जीवियमेव पासहा, तरूणेव वाससयस्स तुट्टती। इत्तरवासे य बुज्छाह, गिद्धनरा कामेसु मुच्छिया / / 8 / / इहाऽस्मिन् संसारे, आस्तां तावदन्यज्जीवितमेव सकलसुखाऽऽ-- स्पदमनित्यता:ऽघ्रातम् आवीचिमरणेन प्रतिक्षणं विशरारुस्वभावं, तथा-सर्वाऽऽयुःक्षयः एव वा तरुण एव युवैव वर्षशताऽऽयुरप्युपक्रमतोऽध्यवसाननिमित्ताऽऽदिरुपादायुषस्वुठ्यति प्रच्यवते, यदि वा सांप्रतं सुबलप्यायुर्वर्षशतं तच तस्य तदन्ते त्रुटयति, सागरोपमापेक्षया कतिपयनिमेषप्रायत्वात् इत्वरवासकल्पवर्ततेस्तोकनिवासकल्पमित्येवं बुध्यध्यं यूयं, तथैयंभूतेऽप्यायुषि नराः पुरुषा लघुप्रकृतयः कामेषु शब्दाऽऽदिषु विषयेषु गृद्धा अध्युपपन्ना मूर्छिताः तत्रैवाऽऽसक्तचेतसो नरकाऽऽदियातनास्थानमाप्नुवन्तीति शेषः // 8 // अपिचजे इह आरंभनिस्सिया, आतदंडा एगंतलूसगा। गंता ते पावलोगयं, चिररायं आसुरियं दिसं |||| ये केचन महामोहाऽऽकुलितचेतसः 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके आरम्भे हिंसाऽऽदिके सायद्यानुष्ठानरूपे निश्चयेन श्रिताः-संबद्भा अध्युपपन्नास्ते आत्मानं दण्डयन्तीत्यात्मदण्डकाः, तथैकान्तेनैव जन्तूनां लूषका हिसकाः सदनुष्ठानस्य वा ध्वंसकाः, ते एवंभूता गन्तारो यास्यन्ति 'पापं लोक' पापकर्मकारिणां यो लोको नरकाऽऽदिः "चिररात्रमिति" प्रभूतकाल तन्निवासिनो भवन्ति / तथा बालतपश्चरणाऽऽदिना यद्यपि तथायिधदेवत्वा- ऽऽपत्तिस्तथाऽप्यसुराणामियमासुरी तां दिन यान्ति, अपरप्रेष्याः किल्विषिका देवाऽधमा भवन्तीत्यर्थः || किञ्च ण य संखयमाहु जीवितं, तह वि य बालजणो पगमई। पचुप्पन्नेण कारियं, को दट्ट परलोकमागते? // 10 // ( य संखयेत्यादि) न च नैव त्रुटितं जीवितमायुः संस्कर्तु संधातुं शक्यते एवमाहुः सर्वज्ञाः / तथाहि- "दंडकलिय करिता, वयंति हु राइओ य दिवसा य / आउंसं Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 647 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसह वेल्लंता, गया य न पुणो नियतंति // 1 // " तथाऽप्येवमपि व्यवस्थिते जीवानामायुपिबालजनः अज्ञोलोको निर्विवेकतया असदनुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वन प्रगल्भते धृष्टता थाति, असदनुष्टानेनाऽपि न लज्जत इत्यर्थः / स धजा जनः पापानि कर्माणि कुर्वन परेण चोदितो धृष्टतया अलीकपाण्डित्याभिमानेनेदमुत्तरमाहप्रत्युत्पन्न वर्तमानकालभाविना परमाशंसता अर्त तानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनाऽविद्यमानत्वात् कार्य प्रयोजन, प्रधापूर्वकारेभिस्तदेव प्रयोजनसाधकत्वादादीयते, एवं च सदीहलोक एव विद्यते न परलोक इति दर्शयति कः परलोकं दृष्टाहाऽऽयतः, तथा चोचुः- "पिव खाद च साधुशोभने!, यदतीत वरगात्रि! सन्न नहि भीरु ! गतं निवर्तत, समुदयमात्रमिदं कलेवरम्॥१॥" तथा-- एतावा व पुरुष यानिन्द्रियगोचरः। भट्रे' वृकपद पश्य, यद्वक्यबहुश्रुताः।।१।।" इति।।१०।। सूत्र०१ श्रु० :03 उ० विष ननाश्रयन कथं भावसमाधिमाप्नुयादित्याहअरई रइं च अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सीयफासं। उण्हं च दंसं चऽहियासएजा, मुभि व दुभि व तितिक्खएज्जा // 14 // स भावभिक्षुः परमार्थदर्शी शरीराऽऽदो निस्पृहो मोक्षगमनेकप्रवणश्च या संयमेऽरतिरसंयमे च रतिर्वा तामभिभूय एत दधिसहेत / तद्यथानिष्किशनतया तृणाऽऽदिकान् स्पर्शनाऽऽदिग्रहणान्निम्नांन्नतभूप्रदेशस्पर्शाश्च सम्यगधिसहेत, तथा शीतोष्णदेशमशकक्षुत्पिापासाऽऽदिकान परीषहानक्षोभ्य तया निर्जरार्थम् अध्यासयेत् अधिसहेत, तथा गन्धं सुरभिमितरं च सम्यक् तितिक्षयेत्सह्यात, चशब्दादाक्रोशवधाऽऽदिकाँश्च परिषहान्मुमुक्ष-स्तितिक्षयेदिति॥१४॥ सूत्र०१ श्रु०१० अ०। णवि ता अहमेव लुप्पए, लुप्पंती लोअंसि पाणिणो। एवं सहिएहिँ पासए, अणिहे से पुढे अहियासए।१३।। परीपहोपसर्मा एतद्भावनापरेण सोढव्याः, नाहमेवैकस्तावदिह शीताणाऽऽदिदुःखविशेषैः 'लुप्ये पीड्ये, अपित्वन्यपि 'प्राणिनः' तथाविधास्तिर्यड्मनुष्याः अस्मिल्लोके लुप्यन्ते' अतिदुःसहैर्दुःखैः परिताप्रान्त, तेषां च राम्यग्विवेकाभावान्न निर्जराऽऽख्यफलमस्ति। यतः-- "क्षान्त नक्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः। साढा दुःसहत पशीतपवनक्लेशान तप्तं तपः / ध्यात वित्तम्हर्निशं नियमित द्वन्द्वैर्न तत्वं परं, तत्तत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो तरतैः फलैर्वञ्चिताः / / 1 / / " तदेवं क्लेशाऽऽदसिहन सनिवेकिना संयनाभ्युपगमे सति गुणायैवेति। तथाहिकाय क्षुत्प्रभवं कदन्नमशन शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्य च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवले। एतान्येव गृहे वहन्त्यवनति तान्युन्नतिं संयमे, दोषाश्चपि गुणा भवन्ति हि नृणां योग्ये पदे योजिताः / / 1 / / ' एवं | सहितो ज्ञानाऽऽदिभिः स्वहितो वा आत्महितः सन् ‘पश्येत' कुशाग्री यथा वृद्ध्या पयालोचयेदनन्तरोदितं० तथा निहन्यत इति निहः न निहोऽनिहः क्रोधाऽऽदिभिरपीडितः सन् स महासत्त्वः परीषहैः स्पृष्टोऽपि तान् अधिसहेत' मनःपीडा न विदध्यादिति / यदि वा-'अनिह' इति तपःसंयमे परीषसहने वाऽनिगृहितबलवीर्यः शेषं पूर्ववदिति॥१३॥ अपि चधुणिया कुलियं व लेववं, किसए देहमणासणा इह। अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो॥१४॥ (धुणिया इत्यादि) 'धूत्वा विधूय (कुलिय) कडणकृत कुड्यं लेपवत्' सलेपम, अयमत्रार्थः-यथा कुड्यं गोमयाऽऽदिलेपेन सलेपं जाधव्यमानं ले पापगमात् कृशं भवति, एवम् अनशनाऽऽदिभिर्देहं 'कर्शयेत्' अपचितमांसशोणितं विदध्यात्, तदपचयाच्च कर्मणोऽपचयो भवतीति भावः / तथा विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा, तामेव प्रकर्षण व्रजेत्, अहिंसाप्रधानो भवेदित्यर्थः / अनुगतो मोक्ष प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिंसालक्षणः, परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मो 'मुनिना' सर्वज्ञेन प्रवेदितः कथित इति।।१४ // सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। संतत्ता के सलोएणं, बंभचेरपराइया। तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा विट्ठा व केयणे / / 13 / / समन्तात तप्ताः सन्तप्ताः केशानां 'लोचः उत्पाटनं तेन, तथाहिसरुधिरकेशोत्पाटने हि महती पीडापपद्यते तया चाल्पसत्त्वाः विस्त्रोतसिकां भजन्ते, तथा 'ब्रह्मचर्य ' वस्तिनिरोधस्तेन च पराजिताः पराभग्नाः सन्तः 'तत्र' तस्मिन केशोत्पाटनेऽतिदुर्जयकामोद्रेके वा सति 'मन्दाः' जडा लघुप्रकृतयो विषीदन्ति संयमानुष्ठानं प्रति शीतलीभवन्ति, सर्वथा संयमाद वा भ्रश्यन्ति, यथा मत्स्याः केतने' मत्स्यबन्धने प्रविष्टा निर्गतिकाः सन्तो जीविताभृश्यन्ति, एवं तेऽपि वराकाः सर्व कषकामपराजिताः संयमजीवितात् भ्रश्यन्ति // 13 // किञ्चआयदंडसमायारे, मिच्छासंठियभावणा। हरिसप्पओसमावन्ना, केईलूसंतिऽनारिया॥१४॥ आत्मा दण्ड्यते-खण्ड्यते हितात् भ्रश्यते येन स आत्मदण्डः 'समाचारः अनुष्ठानं येषामनार्याणां ते तथा, तथा मिथ्याविपरीता संस्थिता स्वाऽऽग्रहाऽऽरूढा भावनाअन्तःकरणवृत्तिर्यषां ते मिथ्यासंस्थितभावनामिथ्यात्वोपहतदृष्टय इत्यर्थः। हर्षश्च प्रद्वेषश्च हर्षप्रद्वेष, तदापन्नारागद्वषसमाकुला इति यावत्। त एवम्भूता अनार्याः सदाचार साधु क्रीडया प्रद्वेषेण वा क्रूरकर्मकारित्वात् 'लूपयन्ति' कदर्थयन्ति दण्डाऽऽदिभिर्वाग्भिवेति॥१४॥ एतदेव दर्शयितुमाहअप्पेगे पलियंते सिं, चारो चोरो त्ति सुव्वयं / बंधंति भिक्खुयं बाला, कसायवयहणेहि य // 15 // अपिः संभावने, एके, अनार्या आत्मदण्डसमाचारा मिथ्यात्वोपहतबद्धयो रागद्वेषपरिणताः साधु (पलियते सिं ति) अनार्यदेशपर्यन्ते वर्तमान (चारो त्ति) चरोऽ,य'चौर. अयं स्तेन इत्येवं मत्वा सुब्रतं कदर्थयन्ति, तथा Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसह 648 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा हि--'बध्नन्ति रज्ज्वादिना संयमयन्ति 'भिक्षुक भिक्षणशीलं 'याला' अज्ञाः सदसद्विवेकविकलाः, तथा कषायववनैश्च क्रोधप्रधानकटुववनतिर्भसंयन्तीति // 15 // अपि च-- तत्थ दंडेण संवीत, मुट्टिणा अदु फलेण वा। नातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी / / 16 / / 'तत्र' तरिमननार्यदशपर्यन्ते वर्तमानः साधुरनार्थः दण्डन यष्टिना मुष्टिना वा 'संवीतः प्रहतोऽथ वा 'फलेन वा' मातुलिङ्गाऽऽदिना खड्गाऽऽदिना वा स साधुरेवं तैः कदय॑मानः कश्चिदपरिणतः बाल:' अज्ञा 'ज्ञातीना' स्वजनानां स्मरति / तद्यथा-यद्यत्र मम कश्चित सम्बन्धी स्यात् नाहमेवम्भूतां कदर्थनामवाप्नुयामिति / दृष्टान्तमाह.... यथा स्त्री क्रुद्धा सती स्वगृहात् गमनशीला निराश्रया मासपेशीव सर्वस्पृहजीया तस्कराऽऽदिभिरभिद्रुता सती जात पश्चात्तापा ज्ञातीनां स्मरति, एवमसावपीति // 16 // उपसंहारार्थमाह-. एते भो! कसिणा फासा, फरूसा दुरहियासया। हत्थी वा सरसंवित्ता, कीवाऽवस गया गिह / / 17 / / भो इति शिष्याऽऽमन्त्रण, य एत आदितः प्रभृति देशमशकाऽऽदयः पीडोत्पादकत्वेन परीषहा एवोपसर्गा अभिहिताः 'कृत्स्ना सम्पूर्णा वाहुल्रोन स्पृश्यन्तेस्पर्शन्द्रियेणानुभूयन्त इति स्पर्शाः / कथम्भूताः?'परुषाः परूपरनार्यः कृतत्वात पीडाकारिणः, ते चाल्पसत्वदुःखेनाधिसह्यन्ते ताँश्चासहमाना लघुप्रकृतयः केचनालाधामड़ी हस्तिन इव रणशिरसे 'शरजालसंवीताः शरशताऽऽकुला भड़मपयान्ति एवं 'क्लीवाः असमर्थाः अवशाः परवशाः काऽऽयत्ता गुरुकमणिः पुनरपि गृहमेव गताः / पाठान्तरं वा 'तिब्वसङ्कत्ति'' तीव्ररूपरागैरभिद्रु।: शिक्षाः' शठानुष्ठानाः संयम परित्यज्य गृहं गताः। सूत्र०१ श्रु०३ अ० 130 परिसहचमू स्त्री० (परिषहचम्) परीषहसैन्य, भ०६ श०३३ उ०। कल्प० / परिसहजय पु० (परिषहजय) परिपहजय इति माध्यिावननि जरा परिषह्यते इति परीषहः क्षुत्पिपासाशीतोष्णशमशक्कामा दतिः तेषां जयः अभिभवः परीपहाणां सहनेन / स चव योगशास्त्रवृत्त :"क्षुधाऽऽतः शक्तिभाक साधुरेषणां नातिलड्डयेत् / अदीनो विहलो विद्वान्, यात्रामात्रोद्यतश्चरेत्।।१।। अयं क्षुत्परीषहजयः। ध०३ अधि० / (एवं पिपासाऽऽदिपरीषहजया अपि पिवासा' आदिशब्देषु दृश्याः) परिसहवत्तिय त्रिः (परिषहप्रत्यय) शीतोष्णमशकाऽऽदीना परीषहाणा संपाद्ये, परीषहाः शीतोष्णशकाऽऽदयः प्रत्ययो यत्र स्तशति यत्पत्तेः / स्था०३टा०३ उ०। परिसा रखी (पर्षत) आस्थान्याम, "अत्थाणी तह सहा परिसा "पाई ना० 167 गाथा। सभायाम् आचा० 1701 अ०१०। लिस्वः पर्षदः .. सिंहपरिषद, मृगपरिषद्, वृषभपरिषच्च / ब०। अथ सिंहाऽऽदिनां पर्षदां व्याख्यानमाह-- कड़जोगि सीहपरिसा, गीयत्थ चरा य वसभपरिसा उ। सुत्तकडगऽगीयत्था, मिगपरिसा होइ नायव्वा / / 757 / / कृतयोगिनः संयमगीतार्थाः परतथा समर्थास्ते सिहपर्षदुच्यन्ते, यद्गीतार्था अपरं च स्थिरा बलवन्तस्ते बृषभपर्षदः, ये तु कृलसूत्राः सूत्रे अधीतिनः परमगीतार्थास्ते मृगपरिषदिति ज्ञातव्या भवति / बृ०१ उ०३ प्रक०। ज्ञा, अज्ञा, दुर्विदग्धा 3 पर्षतसा समासओ तिविहा पण्णत्ता / तं जहाजाणिया अजाणिया दुव्विअढा। जाणिया जहाखीरमिव जहा हंसा, जे घुटुंति इह गुरुगुणसभिद्धा। दोसे य विवजंती, तं जाणसु जाणियं परिसं // 1 // अजाणिया जहा-- जा होइ पगइमहुरा, मियसावयसीहकु कुडभूया। रयणमिव असंठविया, अजाणिया सा भवे परिसा / / 2 / / दुविअड्डा जहा-- न य कत्थइ नियमाओ, न य पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं / वस्थि व्व वायपुनो, पुट्टइ गामिल्लय दुवियड्ढो।।३।। (सा सम्हासतो तिविहेत्यादि) सा पर्षत् समासतः संक्षेपेण त्रिविधा त्रिप्रकारा प्रज्ञप्ता, तीर्थङ्करगणधरैरिति गम्यते / पर्षदिति कथं लभ्यते इति चेत्? उच्यते- इह प्रागुक्तं प्रारम्भणीयः प्रवचनानुयोग इति, अनुयोगश्च शिष्यमधिकृत्य प्रवर्तते, निरालम्बनस्य तस्याभावात् ततः सामर्थ्यात्सेत्युक्ते पर्षदिति लभ्यते, तद्यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थम्(जाणय त्ति) 'ज्ञा' अवबोधने, जानातीति ज्ञा। "इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः / / 3 / 1 / 135 / / इति (पाणि) कप्रत्ययः। इटिच-"स्तो लोपः" 1 / 6 / 4 / 48 / / इति (पाणि०) अकारलोपः। ततः-'अजाऽऽद्यतः टा ।।४।१।४।।इति (पाणि०)स्बियामाप। जैवज्ञिका स्वार्थिकः कप्रत्ययः / ततः ''भरवैषाजाज्ञाद्वास्वा नञपूर्वाणामपि / / 7 / 3 147 / / इत्यापः स्थाने इकाराऽऽदेशः, कप्रत्ययाच परतस्त्रियामाप; ततः सिद्ध शिकेसि / डाका नाम परिज्ञानवती। किमुक्तं भवति?-कुपथप्रवृत्तपाखण्डम-तेनानिधान्तःकरण। गुणदोषविशेषपरिज्ञानकुशला सतामपि दोषाणामपरिग्राहिका केवल गुणग्रहणयल्ल्वतीति। उक्तं च "गुणदोसविरोसण्णू, अभिग्गहिया य कुस्सुइमा सु। एसा जाणगपरिसा, गुणतत्तिल्ला अगुणवज्जा / / 1 // " अत्र (गुणतत्तिल्ले त्ति) गुणेषु अत्रवती० गुणग्रहणपरायणा इत्यर्थः / (अगुणवने ति) अगुणान दोषान वर्जयति सतोऽपिन गृहाती यगुणवर्जा. तथा अज्ञिका शिकविलक्षणा सायकपरिज्ञानरहिता। किमुकं भवति? सातामत्तू डकण्ठीरवकोतवता प्रकत्या मुग्धस्वभाव! अरस्थापित - जाल्यरत्नमिवान्तर्गुणावेशिगुणसमृद्धा सुखप्रज्ञापनीय' पषत सा अज्ञिका / उक्त ध-'पगई सुद्धअयाणिय, मिगछावासीहकुकुडगभूया। रयणभिव असंठविया, सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा॥१॥" इह भिगसावगसीहकुक्कडगभूय त्ति) सा चशब्दोऽग्र संबध्यते, ततो "मिगसीहकुल Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा डसावभूता" इत्यर्थः, (असंठविय त्ति) असंस्थापिता असंस्कृता इत्यर्थः / सुखसंज्ञाप्या सुखेन प्रज्ञापनीयाः / तथा (टुब्धियड्ड त्ति) दुर्विदग्धा मिथ्याऽहङ्कारविडम्बिताः / किमुक्तं भवति?-या तत्तद्गुणझाचाोधगमनेन कतिपयपदान्युपजीव्य पाण्डित्याभिमानिनी किञ्चिमात्रगर्थपदंसारपल्लवमात्र वा श्रुत्वा तत ऊर्द्ध निजपाण्डित्यख्यापनायाभिमानतोऽवज्ञयाऽपत्रपति। अर्द्ध कथ्यमानं चाऽऽत्मनो बहुज्ञतासूतनायाग्रे त्वरित पठति, सा पर्षद् दुर्विदग्धेत्युच्यते। उक्तं च - "किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाही य। दुविड्डिया उ एसा, भणिया तिविहा भदे परिसा // 1 // " अमूषां च तिसृणां पर्षदा मध्ये आधे द्वं पर्षदावनुयोगयोग्ये तृतीया त्वयोग्या। यदाह चूणिर्णकृत्-"एत्थ जाणिया अजाणिया य अरिहा, दुब्वियड्डा अणरहिया।" इति। तत आद्य एव द्वे अधिकृत्यानुयोगः प्रारम्भणीयो न तु दुर्विदधाम, मा भूदाचार्यस्य निष्फलः परिश्रमः, तस्याश्च दुरन्तसंसारोपनिपातः। सा हि तथास्वाभाव्यात् यत्किमप्यर्थं पदं श्रृणोति तदप्यवज्ञया श्रुत्वा च सारपदमन्यत्र सर्व जनातिशायिनिजपाण्डित्याभिमानतो महतो महीयसोऽयमन्यते, तदधज्ञया च दुरन्तसंसाराभिष्वड़ इति स्थितम्। न० अनु० / 0 / आठ चू० / आव० (पर्षदा शैल घनाऽऽधुदाहरणानि 'सीस' शब्दे वक्ष्यन्त द्विविधा पर्षत् लौकिकी, लोकोत्तरा च / वृ०॥ संप्रति ये अस्थाध्ययनस्य योग्यास्तानाहखीरमिव रायहंसा, जो घुटुंति उगुणे गुणसमिद्धा। दोसे वि य छबुता, ते वसभा धीरपुरसे त्ति // 370 / / यगुणसभृद्धा अवितथाऽऽदिगुणसमन्विताः क्षीरमिव राजहंसा गुणान घोटयन्ति आस्वादयन्ति, येऽपि केचनानुपयोगे प्रभवा दोषास्तानपि ते | छर्दयन्ति परित्यजन्ति / ते वृषभा निशीथेन गीतार्था धीरपुरुषा अधिकृतस्याध्ययनस्य योग्याः। ___ अजानता पर्षदमाहजे हो ति पगइमुद्धा, मिगच्छावगसीहकुकुगभूया। रयणमिव असंठविया, सुहसण्णप्पा गुणसमिद्धा॥३७१॥ ये प्रकृत्या स्वभावेन मुग्ध मृगसिंहकुक्कुरशावभूताः, गाथायां शावशब्दस्यान्योपनिपातः प्राकृतत्वाद्भूतशब्द औपम्भे। ततोऽयमर्थ:-यथा मृगाऽऽदिशावा अरण्यादानीय यदि रोवते तर्हि भद्रका क्रियन्ते, अथवाक्रूराः, एवं ये प्रकृत्या मुग्धाः परतीर्थिकैश्च अभावितास्ते यथा भण्यन्ते तथा कुर्वन्तिः; तथा रत्नमिव असंस्थापिता यथा रत्नमसं०स्थापित यादृशोऽभिप्रायस्तादृशं घटित्वा क्रियते, एवमेतेऽपि यथा रोचन्ते तथा क्रियन्ता तथा चाऽऽहसुखप्रज्ञापनीयाः गुणसमृद्वो विनयाऽऽदिगुणनिधयः / जे खलु अभाविया कु-स्सुतीहिँ न य ससमए गहियसारा। अकिलेसकरा सा खलु, भावयरं छकोडिपरिसुद्धं // 372 / / ये खलु कुश्रुतिभिः कुसिद्धान्तैरभाविता न च स्वसमय गृहीतसाराः सा खल्वक्लेराकरा अजानती पर्षत् षट्कोटिशुद्धं च ज्ञभिव, गुणनिधानषट् कोटिशुद्ध नामयत् स्वभावतः षड्स्वपि दिक्षु शुद्धम्। संप्रति दुर्विग्धां पर्षदमहा किंचिम्मत्तग्गाही, पल्लवगाही य तुरियगाहीय। दुवियड्डगा उ एसा, भणिया परिसा भवे तिविहा / / 373 / / किञ्चिन्मात्रग्राहिणः पल्लवग्राहिणः त्वरितग्राहिणः, एवमेषा दुर्विदग्धा पर्पत त्रिविधा त्रिप्रकारा भणिता। तत्र किञ्चित्मात्रग्राहिणीमाहनाझण किंचि अन्न-स्स जाणियव्वेन देति ओगासं। न य निजितो वि लज्जइ, इच्छइ य जयं गलरवेण // 373 / / ज्ञात्वा किञ्चिदन्यस्य ज्ञातव्येनावकाशं ददाति, न च निर्जितोऽभि लज्जते, केवलं गलरवेण महागलप्रमाणेनाऽऽरटनजयमिच्छति। पल्लवग्राहिणीमाहन य कत्थइ निम्मातो, ण य पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं / वत्थीव वायपुण्णे, फुट्टइ गामिल्लवियड्डो / / 374 / / ग्रामेयकेषु विदग्धो ग्रामेयकविदग्धोनच कुत्रचित् निर्मातः, सर्वत्र पल्लवमात्रग्राहित्वात, न च पर पृच्छति, परिभवो मे भविष्यतीति परिभवस्य दोषण केवलं वस्तिरिव धातपूर्णः पण्डितोऽयमिति लोकप्रवादगर्वितः स्फुटति स्फुटन्निवातेष्ठति। त्वरितग्राहिणीमाहदुरहियविज्जो पचं-तनिवासो वावदूक इइ काको। खलिकरण भोइपुरतो, लोगुतर पेढियागीते / / 375 / / एक: पुरुषो व्याकरणसूत्राणि किञ्चित्पठितानि कृत्वा प्रत्यन्तग्रामे गत्वा ब्रूते-अहं वैयाकरणः, तत्र स ग्राभेयकैराभीरैः परिगृहीतो, वृत्तिः पुष्टा कृता ततः सखेन तत्र निवसति / अन्यदा तत्र वावदूकः छात्रैः परिवृतः पुस्तकभारेण रामागतः, ततस्तेः प्रत्यन्तग्रामवासिभिस्तस्य शिष्याः पृष्टाः क एप समागतः, तैरवादि-वैयाकरणः ततस्ते प्रत्यन्तग्रामवासिनो ब्रुवर्त-अस्माकमप्यस्ति वैयाकरणः, तेन सह शब्दगोष्ठी भवतु, तैः प्रतिश्रुतम्, जात एकत्र मेलापकः, ततो दुरधीतविद्येनोक्तम्-काग इति कथ भण्यते? वैयाकरणेनोक्तम्-काक इति; एवमुक्ते स मौन प्रध्यतिष्ठत्। दुरघीतविद्येनोत्कम्-अन्योऽपि लोकः काकमेव भणति को विशेषो व्याकरणस्य? अहंभणामि काकाः / ततोः ग्रमियकैर्हसितमुक्तृष्टिश्व कृतः, अस्माकंपण्डितेनेष पराजित इति। पश्चात् स वैयाकरणः प्रद्वषमापन्नो नगरं गत्वा यस्य भोजिकस्य स ग्राम स्तेन कर्षयित्वा तस्य पुरतः खलीकृत्य ग्रामान्निष्काशितः एष दृष्टान्तः। एवं लोकोत्तरेऽपि कस्याप्या वार्यः शिष्यः किश्चित् पीठिकामात्र शिक्षयिव्वा एकाकी प्रत्यन्तनगर गत्या तद्गतानत्वान गीतार्थान् द्रावयति, अकरणीयान्यपि च करोति अप्रायश्चित्तेऽपि च प्रायश्तित्तं ददातिअन्ये पूजासत्कारगौरवाणि भक्षयन्ते, न च पृच्छति पश्चादन्ते गीतार्थास्तत्राऽऽगतास्तावितः, प्रायश्चितं व ताय दत दीक्षा तस्यापहृता / / गाथाऽक्षरयोजना त्वियमदुरधीतविद्यः कोऽपि प्रत्यन्तनिवासः तत्रैको वावदूको महाविद्रान् वैयाकरणः समागतः तस्य तेन विवादे काकारुत्कृतः, उपहासपूर्वकमुस्कृष्टिः कृता, ततः स वैयाकरणो वावदूको नगरं गत्वा भोजिकपुरतरतस्य खलीकरणमकार्षित् / एवं लोकोत्तरेऽपि पीठिकागी Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 650 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा से पीठिकामात्रेण गीतार्थकर्तव्यं या करोति सैषा दुर्विदग्धा पर्षत। आयरियत्तण तुरितो पच्चं सीसत्तणं अकाऊणं। हिंडइ चोक्खाऽऽयरिओ, निरंकुसो मत्तहत्थि व्व // 375 / / कोऽपि शिष्यो दशवकालिकमात्रं पठित्वा आचार्यः त्यरितः अत्यन्त राग नगरं वा गल्दा पीठिकाणां निवि आत्मानमाचार्यमभिमन्यात रा। शिष्य वकृत्वा निरडशो मत्तहस्तीच चाष्यो चाक्षो मूसः सन आचार्या हित परिभमति। कीदृशस्य भूखं वमत आहछन्नालयम्मि काऊ-ण कुंडियं अभिमुहं जलीसुढितो। गेरु पुच्छति पसिणं, किं तु हु सा वागरे किंचि / / 377 / / गरूका परिवाजकः षड्नाले विदण्ड कुण्डिकां कृत्वा कृता जजलिरभिमुखं यष्वादृतः पादपतित पृच्छति प्रश्नयति किन्तु सा कुणिका तथा पृच्छ्यमाना किञ्चित्परिव्राजकस्यव्याश्रृणोति नैव किञ्चन यादर्श तस्याः कृण्डिकाया आचार्यत्वं तादृशमेत-स्यापि। सीसा वि य तुरंती, आयरिया विहु लहुँ पसीयंति। तेण दरि सिक्खियाणं, भरितो लोगो पिसायाणं // 376 // शिष्या अप्यालार्यपदपरिपालनारा स्वरन्ति आवायर्या अपि लघु शीघ्र प्रसीदन्ति, न पुनः परिभावयन्ति, यथा नारापि परिपूर्णमवीतामेति. तत ईपत शिक्षितानाम्, अत एव पिशाचानां ग्रहिलानां लोकोऽत्र भृतः। तेगिच्छे मते पुच्छा, अत्तहिं बालुंक देवि कहि चिन्ना। तोसत्थेण कहंति य, विजनिसिद्धे ततो दंडो।।३७६ / / "एगो विजो राउल ओलग्गइ, सो मतो. रन्ना पुच्छियं अस्थि से पत्तो. कहिय-अस्थि, नवरं विजयमसिक्खितो रण्णा भणियंत पलाहि तदवत्था चेव ते भोगा० ततो अन्नत्थ गंतुं पढितुमारब्ध, सत्य अइयाए पुरोहडे चरंतीए गलए बालुंकलम चिर्भटमित्यर्थः / सा विकासमीयमाणिया, विजेण पुच्छियं-कहिं चिणा एसा / कहियं-पुरोहडे, तेण नाय चिन्भड लग्गं ति। पोत्तं गलए बंधिउ तहा वलियं जहा तं सतिभाग निग्गयं गलिया। ता तेण विजपुत्तेण वितियं-एस उवाता वितियाए किारेशा पडिनियत्ता ! राणो अल्लीणो, पुच्छितो रण्णासिविखयं चिअयं नि: तेण भनियं-लिक्विय / ततो रणा सिक्खियं अहो महावी ति राकारो कतो। अवया रण्णो अ महादेवीए गलगंड उट्टितं सांवाहितो भणइ, कहि चिण्णेल्लिया। तहिं भणियं पुच्छामो, इयरेण भणिवंभण पुरोहडे० तेहि विनियंनूणं वेज़रहस्तमयं / ततो भाणिव-पुरोहडे विण्णा पच्छा तेण गलए साडगण अवाढित्ता मारिया० पच्छा रणा अण्ण गिजा मुछिया कि सत्थनिद्देसेण कया किरिया, उयाहु ओसत्थेण? तत्थ विवाद विजेहि निसेहिओ, पच्छा सारीरेण दंडण दडितो।' अक्षरगडनिकाचिकित्सक वैद्यो मृते राज्ञः पृच्छा-अस्ति तस्य पुत्रः कथितम्-अस्ति, परमशिक्षितो वैहाकाय राज्ञा भणितम्-अन्यत्र गत्वा पठसि गतः तत्र बाल ड्रमजागल वस्त्राऽऽवेष्टनेन भिद्यमानं दृष्ट्वा लब्धं वैद्यरहस्यमिति विचिन्न्य प्रतिनिवृत्तः, तत्र देव्या गलगण्डमभवत, स आकारितः पृथ्वान् / चीर्णा? तोषार्थिना तोषनिमित्तं कथयन्तिपुरोहडे, ततः सा पोताऽऽवेष्टनेन मारिता, स विवादे वैद्येन निषिद्धः, ततः शारीरो दण्डस्तस्य राज्ञा कृतः। एष दृष्टान्तः। उपनयमाहकारणनिसेवि लहुसग, अगीयपचय विसोहि दह्ण / सव्वत्थ एव पच्चं-तगमण गीया गते दंडे // 30 // आचार्येणान्यस्य कस्यापि साधोः कारणनिषेविणोऽगीतप्रत्ययनिमित्त विञ्चित यथा लघु प्रायश्चित्तं दत्तं, विशोधिः प्रायश्चित्तमित्यनान्तरम। तत दृष्ट्वा चिन्तयति-सर्वत्रैव प्रायश्चित्त दातव्यं, ततः प्रत्यन्ते ग्रामे नगरे वा (रा) तरय गमनं, तत्र गते स बूते अहमपि जानामि प्रायश्चित्त, सत्र निष्कारण प्रतिसंविते भणति-भण मया कारणे प्रतिसेवित, सत एवमुक्ते स ब्रूतेत्वं शुद्धः, तथापि किञ्चिद् गीतार्थप्रत्ययं प्रायश्चित्तं ददामि, एवं कुर्वन पश्चादन्येषां गीतार्थानामागमनं, तैरन्यैर्गीतार्थरपद्रावितो, दीक्षा तस्याऽपहता। ईदृशा ये पुरुषाः सा दुर्विदग्धा पर्षद एतस्या यो ददाति सूत्रमर्थ था तस्य प्रायश्चित चतुर्गुरु, जानन्त्याच सूत्रार्थप्रदान चतुर्लधु / अथवा द्विविधा पर्षत-लौकिकी, लोकोत्तरा च। तत्र लौकिकी पञ्चविधा। तामेवाऽऽहपूरती छत्तंतिय, बुद्धि मंती रहस्सिया चेव / पंचविहाखलु परिसा, लोइय लोउत्तरा चेव // 381 / / पुरयन्ती, छत्रवती, बुद्धिर्मन्त्री, राहस्यिकी च / एवं लौकिकी लोकोत्तरा च खलु पञ्चविधा पर्षत्। तत्र लौकिकी पञ्चप्रकारामपि दर्शयतिपूरयंतिया महाजणो, छत्तविदिन्ना उ ईसरा वितिया। समयकुसला उमंती-लोइय तह रोहिणिज्जाया / / 382 / / महाजनः पूरयन्तिका पर्षत, वितीर्णछत्रा ईश्वरा द्वितीया छत्रान्तिका, स्वसमयकुशला तृतीया बुद्धिपर्षद्, चतुर्थी मन्त्री, पञ्चमी राहस्यिका रोहिणियानामवधिनका अन्तःपुरमहत्तरिका, एषा लौकिकी पञ्चप्रकारा पर्षत्। तत्र पूरयन्तिकामाहनीहम्मियम्मि पूरयति, रण्णो परिसा न जा परमतीति। जे पुण छत्तवितिन्ना, अयंति ते वाहिरं सालं // 383 / / यदा राजा निर्गच्छति तस्मिन् निर्गत यः कोऽपि महान् जनः स सर्वोऽपि राज्ञा ढौकते यावत् गृहं नायाति सा पर्षत् पूरयन्तिका / ये पुनस्तत्र वित्तीर्णछत्राः प्रदनछत्रा राजानो भटभोजिकाश्च ते बाह्यशालायां यावदानगच्छन्ति, शेषा वार्यन्ते, एषा छत्रान्तिका छत्रवती तृतीया पर्षदमाहजे लोगवेयसमए-हिँ कोविया तेहिँ पत्थिवो सहिओ। समयमतीय परिच्छइ, परप्पवायाऽऽगमे चेव // 385 // ये लोके, वेदे समये चेत्यर्थः, कोविदाः कुशलास्तैः सहितः Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 651 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा पार्थिवः समयमवसरमतीतः प्राप्तः सन परप्रवादीनामागमाः परप्रवादाऽगमास्तान परीक्षते / एषा बृद्धिपर्षत्। मन्त्रिपर्षदमाहजे रायसत्यकुसला, अत्तकुलीया हिता परिणया य / माइकुली या वसिया, मंतेति निवो रहे तेहिं // 356 // | ये राजशास्त्रेषु कौटिल्याप्रभृतिषु कुशला राजशास्त्रकुशलाः, आत्मकुलीया राजकुले भवाः जैकेण संबन्धेन संबद्धा इत्यर्थः / हिताऽहितान्येषिणः परिणताः वयसा, मातृकुलीया मातृकेण संबन्धेण संबद्धा वरिका आयत्त : तैः सह रहसि नृपो मन्त्रयति / एषा मन्त्रिपर्षत्। रोहिणीयां पर्षदमाहकुविया तोसेयव्वा, रयस्सला वार अण्णमासत्ता। छण्णपगासे य रहे, मंतयते रोहणिजे हिं॥३८७।। या देवी राइ: कुपिता तो रोहिणीया निवेदयन्ति, ततो दूतत्धेन प्रसादनिमित्त प्रष्यन्ते, यथा युष्माभिः सा देवी तोषयितव्या, तथा या रजस्वला ऋतरनाता, ततो रोहिणीया कथयन्ति, यस्याश्च यस्मिन् दिवसे वारकरतं राज्ञस्तस्याः कथयन्ति, याऽपि कन्या यौवनप्राप्ता सामपि परिणयनीयराजे निवेदन्ति (अन्नमासत्त ति) अन्याऽऽसता, व्यभिचारिणीत्यर्थः तामपि राज्ञः कथयन्ति-यथेषा देव! दुश्चारिणीति। आयानपि या'ने छन्नानि प्रकाशानि च रहांसि रतिकार्याणि तानि राहिणीयैः सह राजा मन्त्रयत। एषा पञ्चमी राहस्यिका पर्षद्।तदेवमुक्ता पञ्चप्रकाराऽगि लौकिकी पर्षत्। संप्रति लोकोतरे पञ्चविधां पर्षदमाहआवस्सगमादीया, सुत्तकडा पूरयंतिया भवे परिसा। दसामादि उवरिमसुया, हवति उ छतंतिया परिसा / 388 | लोइयवेइयसामा-इएसु सत्थेसु जे समोगाढा। ससमयपरसमयविसा-रया य कुसला य बुद्धिमती।३८६ / आवश्यकमादिं कृत्वा यावत सूत्रकृतमङ्गं तावदधीश्रुता पूरयन्ती पर्षद, न खल्वत्र कश्चनापि साधुः पठन् निरुध्यते, दशाश्रुतस्कर धमादिं कृत्वा रोषामुपरितनानि श्रुतानि सा छत्रन्तिका पर्षद् / तत्र हि ये परिणामका अतिपरिणामकाश्च निवार्यन्ते, ये च लौकिकेषु वैदिकेषु सामायिकेषु च शास्त्रे समवादाः स्वसमयपरसमयविशारदाः कुशलाः सा बुद्धिमती मन्त्रिपर्षदमाहपुव्वं पच्छा जेहिं, सिंगणादितविही समणुभूतो। लोए वेदे समए, कयागमा मंतिपरिसा उ॥३६१।। यैः पूर्व गृहवासः पश्चात श्रमणभावे शृङ्गनादतिविधिः, सर्वेषु कार्येषु मध्ये श्रृङ्गभूतं यत कार्य तत शृङ्गनादितमुच्यते, तद्विधिः समनुभूतः, स लोके वेदे समय च कृताऽऽगमा मन्त्रिपर्षद्। एतदेव व्याचिख्यासुराहगिहवासें अत्थसत्थेहिं कोविया केइ समणभावम्मि। कजेसु सिंगभूयं, तु सिंगनादिं भवे कजं // 362 / / पूर्वगृहवासे अर्थशास्त्रेषु,पश्चात् श्रमणभावे स्वसमयपरसमयेषु ये केचित् कोविदाः सा मन्त्रिपर्षद, कार्येषु शृङ्गभूतं यत्कार्य तत्शृङ्गनादितं भवति / किं तदित्याहतं पुण चेइयनासे, तद्दव्वविणासणे दुविहभेदे। भत्तोवहिवोच्छेदे, अभिवायणबंधपिट्टादि। 363 / / तत्पुनः शृङ्गनादित कार्य चैत्यविनाशो लोकोत्तमभवनप्रतिमाविनाशः, सद द्रव्यविनाशनं चैत्यद्रव्यविद्रावणं , तथा द्विविधा भदो भरणमुत्प्रधाजनवा यावा म भिक्षा वारयति उपधिं वा, यथा मा कोऽप्यमीषां भक्तमुपधि वा दद्यादिति भक्तव्यवच्छेद उपधिव्यवच्छेदो वा, तथा कोऽपि धिग्जातीयो बूतेव्राहाणानभिवादयत, वन्दध्वमिति यो बन्धापयति पिट्टयति, आदिग्रहणाद्यो निर्विषयानाज्ञापयति आक्रोशयति वा, प्रद्विष्टो राजाऽऽदि तत् अभिवादन बन्धाताऽऽदि च श्रृङ्गनादित कार्य तद्विधिर्यः समनुभूतः सा मन्त्रिपर्षद। वितह ववहरमाणं, सत्येण वियाणतो निहोडेइ। अम्हं सपक्खदंडो, न चेरिसो दिक्खिए दंडो॥३६४।। राजाऽऽदि वितथ व्यवहरन्तं मन्त्रिपर्षदन्तर्गतो विज्ञायकः स्वरामयपरसमयत्वात् शास्त्रकुशलः शास्त्रेण निहोडयति सुखं वारयति, यथाअस्माकं स्वपक्षे दण्डो भवति, संघो दण्ड करोतीत्यर्थः / न च राजा प्रभवति, नाऽपि प्रपन्नदीक्षाकस्यैतादृशो दण्डः / एषा मन्त्रिपर्षत्। रांप्रति राहरियकी पर्षदमाहसल्लुद्धरणे समण-स्स चाउकण्णा रहस्सिया परिसा। अजाणं चउकण्णा, छकन्ना अट्ठकन्ना वा // 365 / / द्विविध शल्यम्-द्रव्यशल्यं, भावशल्यं च / द्रव्यशल्यं कण्टकाऽऽदि, भावशल्यं मायानिदानमिथ्यात्वानि। अथवा भावशल्यं मूलोत्तरगुणातिचारः ततः श्रमणस्य भावशल्योद्धरणे, आचार्यसमीपे आलोचयत इत्यर्थः / राहरियकी पर्षद् भवति कथंभूतेत्यत आह-चतुष्कर्णा द्वावार्यस्य द्वौ साधारिति चत्वारः कर्णा यत्र सा तथा, आचार्याणां चतुःकर्णा, पटकण्णा वा, तत्र यदा निर्ग्रन्थी निन्थ्याः पुरतः ओलोचयति तदा चतुःकर्णा, यथा निर्गन्थस्य निर्ग्रन्थपावें आलोचयतः, यदा त्वद्वितीयस्थविरगुरुसमीपे आलो चयति सद्वितीया भिक्षुकी तदा षटकण्र्णा, सद्वितीयतरुणगुरुसमीपे सद्वितीयायाभिक्षुक्या आलोचयन्त्या अष्टकण्र्णा। पर्षत् आह-किं प्रयोजन बृद्धिपर्षदा? तत आहआसन्नपतीभत्तं,खेयपरिस्सा जओ तहा सत्ये। कहमुत्तरं च दाहिसि, अमुगो किर आगतो वादी। 360 / बृद्धिपर्षदा लह श्रमं कुर्वत आसन्न प्रतिभत्वमुपजायते, तथा यः शाररी निरन्तरव्यार याकरणतः खेदः परिश्रमरतस्य जयो भवति, कदाचित्परिश्रम जाते व्याख्याकरणतस्तं परिश्रममपनयति, तथा सा बुद्धिपर्षदव शिक्षयते-अमुकः किल आगतो वादी ततः कथं त्वमुत्तरं दास्यसि? एवं बुद्धिपर्षदा सह कृतःऽऽभ्यासः सुखं परप्रवादिनं निगृह्णाति / उक्ता बुद्धिगर्षत्। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 652 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा तत्र प्रथमतः संयतस्य चतुष्कर्णा भावयतिआलोयणं पंउजइ. गारवपरिवजितो गुरुसगासे। एगतमणावाए,एगो एगस्स निस्साए।। 366 // एकान्ते अनापाते एकोऽद्वितीय एकस्याद्वितीयस्याऽऽवार्यस्य निश्चया, तत्पुरत इत्यर्थः / गौरवपरिवर्जित ऋशिरससातगौरवपरित्यक्तो गौरवाद्धिरराम्यगालायेचयितव्यं भवति तत्प्रतिषेधः गुरुरामीपे आलोचना प्रयुक्त। कथमित्याहविरहम्मि दिसाभिग्गह, उक्कुडुतो पंजली निसेज्जा वा। एस सपक्खे परपक्खें मोत्तु छण्णं निसिज्जा वा // 366 / / एकान्ते यत्र कोऽपि तिष्ठति तत्र विरहे छन्ने प्रदेशे पूर्व गुरोर्निषद्यां कृत्वा पूर्वामुत्तरां चरन्तिकां वा दिशमभिगृह्य वन्दनकं दत्वा उत्कुटुकः प्रबद्धा जलीः अथासौ व्याधिमान् प्रभूतं वाऽऽलोचनीय ततो निषधामनुज्ञाप्याऽलोचयति, एष स्वपक्षे आलाचनाविधिः / परपये कम संयती तत्र छन्न मुक्त्वा आलोचना दातव्या, निषद्या चन कार्यते। इयमत्र भावनायदा संवती संयतस्य पूरत आलोचयति तदा छन्नं दर्जयति, किंतु यत्र लोकस्य संलोकस्तत्राऽऽलोवयति निषद्या वाऽऽचार्यस्य न करोति, आत्मनाsप्युत्थिता आलोचयति। श्रमणीमधिकृत्याऽऽलोचनाविधेश्चतुष्कर्णत्वमाह--- आलोयणं पउंजइ, गारवपरिवज्जिया उ गणिणिए। एगंतमणावाए, एगाए निस्सिया समणी // 368 / / या श्रमणी गौरवपरिवर्जिता गणिन्याः पुरत आलोचनां प्रयड्वते क्वेत्याह-एकान्ते अनापाते एका अद्वितीया एकस्या अद्वितीयाया गणिन्या निश्रया ततो गुरुसमीपे श्रमणस्येव श्रमण्या अपि गणन्याः पुरतः आलोचयन्त्या चतुःकरा पर्षद भवति। षट्कपणामाहआलोयणं पउंजइ, एगंते बहुजणस्स संलोए। अव्वितियथेस्गुरुणो, सविईया भिक्खुणी निहुया।३६६ 1 अद्वितीयस्यविरगुरुसमीप सद्वितीया भिक्षुकी निभृता नियापारा न दिशो नापि विदिशः आलोकयति, नापि यत्किञ्चिदुल्लापयति इत्यर्थः / एवंभूता सती एकान्ते बहुजनस्य संलोके आलोचनां प्रयुङ्कते। अथ कीदृशीतस्या द्वितीया भवतीत्यत आहनाणदंसणसंपन्ना, पोढा वयसभरिणया। इंगियायारसंपन्ना, भणिया तीसे विइजिया // 400 / / ज्ञानदर्शनसंपन्ना प्रौढा समर्था या संयतस्य तस्या वा भावं विज्ञाय तं | मन्त्रणं कर्तु ददाति, किंतु वदति-यद्यालोचितं तर्हि व्रजामो, ना चेदालोचनयाऽपि न प्रयोजनमिति, तथा वपसा परिणता परिणतवयाः, तथा इङ्गिताऽऽकारसं पन्ना इङ्गितेनाऽऽकारेण च यस्य यादृशो भावस्तस्य तं जानातीत्यर्थः / एवंभूता सा तस्या द्वितीया गणिन्या सा पुनः कियद् दूरे तिष्ठति। उव्यते-एके सूरयो वदन्तियत्रोभयोराकारा दृश्यन्ते तावन्मात्रे, परे बुवते-यत्र श्रवणं शब्दस्येति। __अष्टकर्णमाह-- आलोयणं पंउजइ, एगते बहुजणस्स संलोए। सव्वितियतरणगुरूणो, सव्विइया भिक्खुणी निहुया॥४०१॥ एकान्ते बहुजनस्य संलोके सद्वितीयस्य तरूणगुरुः समीपे सद्वितीया तादृशी पागुक्ता। __संप्रति यादृशस्य आचार्यस्य द्वितीयस्तादृशमाहनाणेण दंसणेण य, चरित्ततवविणयालयगुणेहिं। वयपरिणमेण य अभिगमेण इयरो हवइ जुत्तो / / 402 // ज्ञानेन दर्शनन चारित्रेण तपसा विनयेन आलयगुणैर्वहिथेष्वभिः प्रतिलेखनाऽऽदिभिरूपशमगुणेन च यथा वयः परिणामेन अभिगमेन सम्यक्त्वशास्त्रार्थकौशलेन युक्तो भवत्याचार्यस्थेतरो द्वितीयः। उक्ताः पञ्चप्रकारा अपि पर्षदः / बृ०१ उ०१ प्रक०। आव० राजाऽऽदिलोके, 'सामी समोसढे परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ परिसा पडिगया।" नि० 1 श्रु०१ वर्ग 1 अ० / मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो लोकः समस्तोऽपि भगवन्तमागतं श्रुत्वा भगवद्वन्दनार्थ स्वरमादाश्रया दिनिर्गत इत्यर्थः / सू० प्र०१ पाहु० / भ० / परिवारे, जी०। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो कति परिसाओ पन्नत्ताओ? गोयमा! तओ परिसाओ पन्नत्ताओ / तं जहा-समिता चंडा जाया, अभिंतारिया समिया, मज्झे चंडा वाहिं जाया। चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो अब्भंतरपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ, मज्झिमपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ, बाहिरपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स अभिंतरपरिसाए चउवीसं देवसाहस्सीओ पन्नताओ, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसाहस्सीओ पन्नताओ, बहिरयाए परिसाए बत्तीसंदेवसाहस्सीओ पन्नताओ। चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुररणण्णो अभिंतरियाए परिसाए कइ देवीसया पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए कइ देवीसया पन्नत्ता, वाहिरियाए परिसाए कइ देवीसया पण्णत्ता? गोयमा! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररन्नो अभिंतरियाए परिसाए अद्धट्ठादेवीसया पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि देवीसया पन्नता, वाहिरियाए परिसाए अड्डाइज्जा देवीसया पन्नता।। (चमरस्स गमित्यादि) चमरस्य भदन्त असुरेन्द्रस्याऽसुरराजस्य कति कियत्संख्याकाः पर्षदः प्रज्ञताः? भगवानाह- गौतम ! तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा समिता चण्डा जाता। तत्राऽऽभ्यन्तरिका पर्षद् समिताभिधाता। एवं मध्यमिका चण्डा, बाह्याजाता। (चमरस्यणमित्यादि) चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्याऽसुरराजस्य अभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्ताति? मध्यमिकायां पर्षदि कति देवसहस्त्राणि प्रज्ञप्तानि ? बाह्यायां पर्षदिकति देवसहस्त्राणि प्रज्ञप्तानि? भगवानाह-गौतम ! चमरस्य असु Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 653 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा रेन्द्रस्य असुरराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि चतुर्विंशतिदेवसहस्राणि प्रजातानि, मध्यमिकायामष्टविंशतिदेवसहसाणि, बाह्याया द्वात्रिंशत देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि (चभररस णं भंते! इत्यादि) चभरस्य भदन्त! असुरेन्द्रस्य असुरेन्द्रराजस्याऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि? मध्यमिकायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि? बाहायां / पदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि? भगवानाह-गौतम! अभ्यान्तरिकायां प्रर्षदि अर्द्धतृतीयानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, मध्यमिकाया पर्षदि त्रीणि देवीशतानि पज्ञप्तानि, बाह्यायां पर्षदि अर्द्धचतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि जी०३ प्रति० 4 अधि०।"एवं तायतीसगाण विलोगपालाणं तुदा तुडिया पच्चा, एवं अग्गमहिसीण वि।" स्था०३ ठा०२ उ०। पर्षदि देवीस्थितिः-- चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो अभिंतरियाए परिसाए देवाणं के वइयं कालं ठिई पन्नत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? अभिंतरियाएपरिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स अभिंतरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइजाई पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं दिवड्डपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, अभितरियाए परिसाए देवीणं दिवड्डपलिओवमं ठिई पन्नत्ता,मज्झिमियाए परिसाए देवीणं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाएपरिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता। (चमरस्सणं भंते इत्यादि) चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुरराजस्य अभ्यान्तरिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? मध्यमिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थिति प्रज्ञप्ता? एवं बाह्यपर्षद्विषयमपि प्रश्नसूत्रं वक्तव्यम्-तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीना, कियन्त कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? एवं मध्यमिकाबाह्यपर्षद्विषये अपि प्रश्नसूत्रे वक्तव्ये / भगवान्नाह- गौतम ! चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरराजस्य अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामर्धतृतीयानि पल्यापमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। मध्यमिकायां पर्षदि देवाना द्वेपल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता। बाह्मयां पर्षदि देवानां व्यर्ध पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता / तथाऽऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां व्यर्ध पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता / मध्यमिकायां पर्षदि देवीनां पल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता / बाह्यायां देवीनामर्धपल्यापमं स्थितिः प्रजाता। इह भूयान् वावनाभेद इति यथावस्थितसूत्रे पाठनिर्णयार्थं सुगममनि सूत्रमक्षरसंस्कारमात्रेण विव्रियते। ___ संप्रत्यभ्यन्तरिकादिव्यपदेशकारणं पिपृच्छिषुरिदमाहसे केणतुणं भंते! एवं वुचइ- चमरस्स असुरिंदस्स तओ परिसाओ पन्नत्ताओ।तंजहा-समिया चंडाजाया, अभिंतरिया समिया, मज्झिमिया चंडा, बाहिरिया जाया? गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अभिंतरपरिसा देवा णं वाहित्ता हव्वमागच्छंति गोयमा! णो अव्वाहित्ता; मज्झिमपरिसाए देवा वाहित्ता हव्वमागच्छंति, अव्वाहिया वि3; वाहिरपरिसा देवा अव्वाहित्ता हव्वमागच्छंति। अदुत्तरं च णं गोयमा ! चरमे असुरिंदे असुरराया अन्नयरेसु उचावएसु कन्जकोडं बेसु समुप्पन्नेसु अभिंतरियाए सद्धिं संमइसंपुच्छणाबहुले विहरइ, मज्झिमियाए परिसाए सद्धिं पियं पवंचेमाणे 2 विहरति, बाहिरयाए परिसाए सद्धिं पयं पंचडेमाणे 2 विहरइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो तओ परिसाओ पन्नताओसमिया चंडा आया, अभितरिया समिया, मज्झिमिया चंडा, बाहिरिया जाया। (से केणट्ठणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरराज तिसः पर्षदः प्रज्ञप्ताः? तद्यथा-समिता चण्डा जाया. अभ्यन्तरा समिता मध्यमिका चण्डा बाह्या जाया। भगवानाहगौतम ! चमरस्य असुरेनद्रस्य असुरराजस्य अभ्यन्तरपर्षत्का देवा (वाहिता) आहूता (हव्बं) शीघ्रमागछन्ति। (नोअव्वाहित्ता) अनाहूता अनेन गौरवमाह, मध्यगपर्षद्गा देवा आहूता अपि शीघ्रमागछन्ति, अनाहूता अपि मध्यमप्रतिपत्तिविषयत्वात् बाह्यपर्षद्गा देवा अनाहूताः शीघ्रमागच्छन्ति / तेषामाकारेण लक्षणगौरवानहत्यात् / ( अदु तरं च णमित्यादि) अथोत्तरमथान्यत् अभ्यन्तरत्वाऽऽदिविषये कारणं गौतम! चमरोऽसुरेन्द्रोसुरराजोऽन्यतरेषु उच्चावयवेषु शोभनेषु 'कञ्जकोंडुवे सु" इति) कौटुम्बेषु कार्येषु, कुटुम्बे भवानि कौटुम्बानि, स्वराष्ट्रविषयाणीत्पर्थः / तेषु कार्येषु समुत्पन्नेषु अभ्यन्तरिकया परिषदा सार्द्ध संमतिसंप्रश्नबहुलश्चापि विहरति, सम्मत्या उत्तमया मत्या यः संप्रश्नः पर्यालोचनं तद्बहुलश्चापि विहरत्यास्ते, स्वल्पमपि प्रयोजन प्रथमस्तया सह पर्यालोच्य विदधातीति भावः / मध्यमिकया पर्षदा सार्द्ध यदभ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्यालोच्य कर्त्तव्यतया निश्चितं पदं तत् प्रपञ्चयन् 2 विहरति। एवमिदमस्माभिः पर्यालोचितभिद वा कर्त्तव्यमिदं वा न कर्त्तव्यमन्यथा दोष इति विस्तरयन् 2 आरते, बाह्यया पर्षदा सह यदभ्यन्तरिकया पर्षदा सह पर्यालोचितं मध्यमिकया सह गुणदोषप्रञ्चकथनतो विस्तारितं पदं तत् प्रचण्डयन् 2 विहरति / आज्ञाप्रधानः सन्नवश्यं कर्त्तव्यतया निरूपयन् तिष्ठति, यथा इदं युष्माभि कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति तदेवं या एकान्तेन गौरवमेव केवलमर्हति, यया च सहोत्तमतित्यात स्वल्पमपि कार्य प्रथमतः पयौलोचयति सा गौरवविषये पर्यालोचनायां चात्यन्तमभ्यन्तरा वर्तते इति अभ्यन्तरिकायां तु गौरवार्ता पर्यालोचितं चाभ्यान्तरिकया पर्षदा सहावश्यं कर्त्तव्यतया निश्चितं, न तु प्रथमतः सा किल गौरवपर्यालोचनायां च मध्यमे भावे वर्तते इति मध्यमिका, या तु गौरखं न जातुचिदप्यर्हति, न च यया सह कार्य पर्यालो चयति, केवलम् आदेश एव यस्यै दीयते सा गौरवात् पर्यालोचनायाश्च बहिविवर्तते इति बाह्या तदेवाऽऽभ्यन्तरिकाऽऽदिव्यपदे Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 654 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा शनिबन्धनमुक्तम् / संप्रत्येतदेवोसंहरन्नाह-(से तेणखूणमित्यादि) पाठसिद्धम्। यानि तु 'समिया चण्डा जाता' इति नामानि तानि कारणान्तरनिबन्धतानि कारणान्तरं च ग्रन्थादवसातव्यम्। अत्र संग्रणिगाथा"चउवीसहाऽवीसा बत्तीससहरस देव चमरस्स। अधुट्टा तिन्नि तहा, आड्डाइज्जा य देविसया।।१।। अड्डाइजा दोन्नि दि-वड्वपलियं कमेण देवतिई। पलिअंदिवड्डमेगं, आद्धा देवीण परिसासु // 2 // " बल्यादीनाम्बलिस्स णं भंते! वइरोयणरन्नो कइ परिसाओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! दिण्णि परिसाओ पण्णत्ताओ तं जहा-समिया, चंडा, | जाया। अभिंतरिया समिया, मज्झिमिया चंडा, बाहिरिया जाया / बलिस्सणं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरन्नो अडिमंतरियाए परिसाए कइ देवसहस्सा? मज्झिमियाए परिसाए कइ देवसहस्सा० जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता? गोयमा बलिस्सणं वइरोयणिंदस्स अभिंतरियाएपरिसाए वीसं देवसहस्सा पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए चउवीसं देवसहस्सा पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसहस्सा पन्नत्ता, अभिंतरियाए परिसाए अट्ठपंचमा देविसया पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए चत्तारिदेविसया पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठदेविसया पन्नत्ता। बल्यादीनां स्थितिःबलिस्स ट्ठिए पुच्छा? जाव वाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! बलिस्स बइरोयणिंदस्स अभितरियाए परिसाए देवाणं अट्ठपलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता० मज्झिमाए परिसाए तिन्नि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए अड्डाइजाइं पलिओवमाई ठिई पन्नता, अभिंतरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइजाइंपलिओवमाइं ठिई पन्नता० मज्झिमियाए परिसाए देवीणं दोपलिओवमाई ठिई पन्नता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं दिवढे पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, सेसं जहा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो। धरणाऽऽदीनाम्धरणस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स नागकुमारन्नो कइ परिसाओ पण्णताओ? गोयमा ! तिन्नि परिसाओ ताओ चेव जहा चमरस्स / धरणस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो अभिंतरियाएपरिसाए सर्द्धि देवसहस्सा पण्णत्ता,मज्झिमियाए सत्तरि देवसहस्सा पण्णत्ता, बाहिरियाए असीतिं देवसहस्सा पण्णत्ता, अभिंतरपरिसाए पन्नत्तरं देविसय पन्नत्तं, मज्झिमियाए परिसाए पन्नासं देविसयं पन्नतं, बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविसयं पन्नत्तं / / "महिड्डीए जाव पभासेमाणे से णं तत्थ वायालीसाए भवणावा- 1 ससयसहस्सा छण्हं सामाणियसाहस्सीणं वावत्तीसाए तावत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं छाहं अग्महिसीण सपरिवाराणं तिण्हं परिसाण सतह अशिणया० हिवईण चउवीसाए आयरक्खदेवसाहस्सोण अण्णसिं च बहूगा दाहिल्ला नागकुमाराणं देवाणं देवणिय आहेवच जाव विहरतीति पाठसिद्धम्। स्थितिः-- धरणस्सणं रन्नो अभिंतरियाए परिसाए देवाणं केवई कालं ठिई पण्णता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवईयं कालं ठिई पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? अभिंतरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? गोयमा ! धरणस्स रन्नो अभिंतरियाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओवर्म ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नता बाहिरियाए परिसाए देवाणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, अभितरियाए परिसाए देवीणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं साइरेग चउब्भागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं चउभागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, अट्ठो जहा चमरस्स। भूतानन्दस्यभूयाणंदस्स णं भंते ! नागकुमारस्स रन्नो अभिंतरिया ये परिसाए कइ देवसाहस्सियाओ पन्नत्ताओ? मज्झिमाए परिसाए कइ देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ? बाहिरियाए परिसाए कई देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? अभिंतरियाए परिसाए कइ देवीसया पन्नत्ता? मज्झिमाए परिसाए कइ देवीसया पन्नत्ता?, बाहिरियाए परिसाए कइ देवीसया पन्नत्ता? गोयमा! भूयाणंदस्स णं नागकुमारन्नो अभिंतरियाएपरिसाए पन्नासं देवसहस्सीओ पन्नत्ताओ०मज्झिमियाएपरिसाए सट्ठिदेवसाहस्सीओपन्नत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए सत्तरि देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ, अभिंतरियाए परिसाए दोपणवीसा देविसया पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए दो देविसया पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए दो देविसया पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तरदेविसयं पन्नत्तं। स्थितिःभूयाणंदस्स णं भंते! नागकु मारिंदस्स नागकु मारनो अभिंतरियाए परिसाए देवाणं के वइयं कालं ठिई पन्नत्ता? मज्झिमाए परिसाए देवाणं के वइयं कालं ठिई पन्नत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवाणं के वइयं कालं ठिई पन्नत्ता? अभिंतरियाए परिसाए देवीणं के वइयं कालं ठिई पन्नत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं के वइयं कालं ठिई पन्नत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं के वइयं कालं ठिई पन्नत्ता? Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 655 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा गोयमा! भूयाणंदस्स णं अभिंतरियाए परिसाए देवाणं देसूणं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं अद्धपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नता, अभिंतरियाए परिसाए देवीणंअद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं देसूर्ण अद्धपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं सातिरेगं चउन्भागपलिओवमं ठिई पन्नता, अट्ठो जहा चमरस्स अवसेसा वि देवादीणं महाघोसपज्जवसाणाणं ठाणपयवत्तव्वया णिरवसेसं भाणियव्वा, परिसाओ जहा धरणिंदभृयाणदाणं दाहिणिल्लाणं जहा भूयाणंदस्स परिमाणं पि, ठिई वि। कालस्यकालस्सणं भंते! पिसायकुमारिंदस्स पियासकुमाररण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तिण्णि परिसाओ पण्णत्ताओ। गोयमा ! ईसा तुडिया दढरहा, अभिंतरिया ईसा, मज्झिमिया तुडिया, बाहिरिया दढरहा / कालस्स णं भंते! पिसायकुमारिंदस्स पिसासकुमारण्णो अभिंतरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ० जाव बाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णता? गोयमा ! कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररायस्य अभिंतरपरिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, अभिंतरियाए परिसाए एकं देविसयं पण्णत्तं, मज्झिमियाए परिसाए एक देविसयं पण्णत्तं, बाहिरियाएपरिसाए एवं देविसयं पण्णत्तं। स्थिति:कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररन्नो अभिंतरपरिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? अभिंतरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाएपरिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? बाहिरियाए परीसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभिंतरपरिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं चउब्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अभिंतरियाए परिसाए देवीणं सातिरेगं चउब्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमपरिसाए देवीणं चउन्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देसूणं चउन्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अट्ठो० जाव चमरस्स एवं उत्तरिल्लस्स वि, एवं निरंतरं० जाव गीयजसस्सा जी० 3 प्रति० 4 अधिo संप्रतिज्योतिष्काणाम्। तत्र सूर्यस्यसूरस्स णं भंते! जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! तिण्णि परिसाओ पण्णत्ताओ। तं जहातुंवा तुडिया पव्वा / अभिंतरिया तुंवा, मज्झिमिया तुडिया, बाहिरिया पव्वा। सेसं जहा कालस्स परिमाणं, ठिती वि, अट्ठो जहा चमरस्स चंदस्स ति एवं चेव। जी०३ प्रति०४ अधि०। शक्ररय पर्षदः स्थितिश्चसक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरणो कति परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ। तं जहासमिता चंडा जाता। अभिंतरिया समिता, मज्झिमिया चंडा, बाहिरिया जाता। सक्कस्सणं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो अभिंतरियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ?, मज्झिमियाए बाहिरियाए तहेव पुच्छा? गोयमा ! सकस्स देविंदस्य देवरन्नो अभिंतरियाए परिसाए वारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए चोहसदेवसाहस्सीओ पण्ण-- त्ताओ, बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। एवं देवीणं पुच्छा? गोयमा! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अभिंतरियाए परिसाए सत्त देविसया पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए छच्च देविसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए पंच देविसयाणि पण्णत्ताई। शवरय भदन्तः देवेन्द्रस्य देवराजस्य कति पर्षद प्रज्ञप्ताः? भगवानाहगोलम शिस्त्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-शमिका चण्डा जाता, अभ्यन्तरिका शमिका मध्यमिका चण्डा बाह्या जाता-(सकस्सणभंते ! देविंदस्स देवराणो अभितरियाए) इत्यादि प्रश्नषट्कं सुप्रतीतम् / भगवानाहगौतम! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अभ्यान्तरिकायां पर्षदि द्वादश देवसहराणि प्रज्ञप्तानि, मध्यमिकायां चतुर्दश देवसहस्त्राणि, बाह्यायो षोडश देवसहरवाणि तथा अभ्यान्तरिकायां पर्षदि सप्तशतानि देवीना प्रज्ञप्तानि, मध्यमिकायां देवीनां षट्शतानि, बाह्याया देवीना पञ्चशतानि / सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो अभिंतरियाए परिसाए देवाणं के वइयं कालं ठिती पण्णता? एवं मज्झिमियाए बाहिरियाए वि? गोयमा ! सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो देवाणं अभिंतरियाए परिसाए पंच एलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं तिमिण पलिओवमाइंठिती पण्णत्ता, अभिंतरियाएपरिसाए देवीणं तिन्नि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए दोण्णि पलिओवमाइं ठिती पण्णता, वाहिरियाए परिसाए एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अट्ठो सो चेव जहा भवणवासीणं। Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा 'सक्कस्स ण भते! देविंदस्स देवरपणो अभिंतरियाए परिसाए देवाण केवइय कालं' इत्यादि प्रश्नषट्कं सुप्रतीतम् / भगवानाह-गौतम ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चपल्योपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता / मध्यमिकायां चत्वारि पल्योपमानि, बाह्यायां त्रीणि पल्योपमानि, तथा अभ्यान्तरिकायां पर्षदि देवीना त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, मध्यमिकायां व पल्योपमे, बाह्यायामेकं पल्योपमम् / "से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-सक्कस्स ण देविदस्स देवरन्नो तओ परिसाओ" इत्यादि सकलमपि सूत्रं चमरवक्तव्यतायमिव भावनीयम् / जी०४ प्रति०२ उ०। ईशानस्यईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ। तं जहासमिता चंडा जाता, तहेव सव्वं, एवरि अभिंतरियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए वारस देवसाहस्सीओ, बाहिरियाए परिसाए चोद्दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। देवीणं पुच्छा? गोयमा ! अभिंतरियाए परिसाए णव देवीसया पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए सत्त देवीसया पण्णत्ता। देवाणं ठितीपुच्छा? गोयमा! अभिंतरियाए परिसाए देवाणं सत्त पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए छपलिओक्माइं, बाहिरियाए पंचपलिउवमाइं ठिती पण्णत्ता। देवीणं पुच्छा? गोयमा! अभिंतरियाए परिसाए पंच पलिओवमाई, मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि पलिओवमई ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए तिण्णि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, अट्ठो तहेव भाणियव्वो। अभ्यन्तरिकायां पर्षदि दश देवसहस्त्राणि, मध्यमिकायां द्वादश, बाह्यायां चतुर्दश, तथा अभ्यन्तरिकाया पर्षदिनव देवीशतानी, मध्यमिकायामष्टो देवीशतानि, बाह्यायां सप्त देवीशतानि, तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां सप्त पल्योपमानि, मध्यमिकाया बाह्यायां षट्, पञ्च तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां पञ्च पल्योपमानि, मध्यमिकायां चत्वारि, बाह्यायां त्रीणि, शेषं शक्रवत् / जी०४ प्रति०२ उ01 सनत्कुमाराऽऽदीनाम्सणंकुमाराणं पुच्छा तहेव ठाणपदगमेणं० जाव सणंकुमारस्स तओ परिसाओ समिताऽऽदीतहेय,नवरिं अभिंतरियाए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णताओ, मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए वारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, अभिंतरियाए परिसाए देवाणं ठिती अद्धपंचमापई सागरोवमाइं पंच पलिओयमाई ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरोवमाइं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाइ सागरोवमाइं तिण्णि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, अट्ठो सो चेव। अभ्यान्तरिकाया पर्षदि अष्टौ देवसहस्त्राणि मध्यमिकायां दश, बाह्यायां द्वादश, देवीपर्षदो न वक्तव्याः। तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामपञ्चमानि सागरोपमाणि पञ्चपल्योपमानि स्थितिमध्यमिकाया अर्द्धपञ्चगानि सागरोपमाणि चत्वारि पल्योपमानि, बाह्यायामर्द्धपञ्चमानि सागरोपमाणि त्रिणि पल्योपमानि। शेष सर्व शकवत जी०५ प्रति०२ उ०। एवं माहिंदस्स वि तहेव० जाव तत्थ अभिंतरियाए परिसाए छ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ठिती, देवाणं अभितरियाएपरिसाए अद्धपंचमाइं सागरोवमाई सत्त पलिओवमाइं ठिती, मज्झिमियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरोवमाइं छच्च पलिओवमाई बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरोवमाइं पंचपलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। जी०४ प्रति०२ उ०। अभ्यन्तरिकायां पर्षदि षट् देवसहस्त्राणि, मध्यमिकायाम् अष्टी देवसहस्त्राणि, वाह्यायां दश देवसहस्त्राणि, तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवनामर्द्धपञ्चमनि सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि / शेषं सर्व यथा सनत्कुमारस्य। जी० 4 प्रति०२ उ०। बंभस्स वि तओ परिसाओ पण्णत्ताओ अभिंतरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ, मज्झिमियाए परिसाए छदेवसाहस्सीओ, बाहिरियाए अट्ठ देवसाहस्सीओ। देवाणं ठिती अभिंतरियाए परिसाए अद्धणवमाइं सागरोवमाई पचपलिओवमाई, मज्झिमियाए परिसाए अद्धणवमाइंसागरोदमाई, बाहिरियाए अद्धनवमाई सागरोवमाइं तिणि पलिओवमाई, अट्ठो सो चेव। अभ्यन्तरिकायां पर्षदि चत्वारि देवसहस्त्राणि, मध्यमिकाया षदेवसहस्त्राणि, बाह्यायामष्टौ देवसहस्त्राणि, तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानामर्द्धनवमानि सागरोपमाणि पञ्चपल्योपमानि स्थितिः, मध्यमिकायां पर्षदि अद्धनवमानि सागरोपमाणि चत्वारि पल्योपमाणि, बाह्यायामर्द्धनवमानि सागरोपमाणि त्रीणि पल्योपमानि, शेषं यथा सनत्कुमारस्य। जी०४ प्रति०२ उ०। लंतगस्स वि० जाव तओ परिसाओ० जाव अभिंतरियाए दो देवसाहस्सीओ, मज्झिमियाए चत्तारि देवसाहस्सीओपण्णत्ताओ, बाहिरियाए छदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, ठिती भाणियव्वा, अभिंतरियाए परिसाए देवाणं बारस सागरोवमाई सत्त पलिओवमाइं ठिती, मज्झिमियाए, परिसाए बारस सागरोवमाई पंच पलिओवमाई ठिती बाहिरियाए परिसाए बारस सागरोवमाई पंच पलिओवमाई ठिति पण्णत्ता, अट्ठो सो चेव। अभ्यन्तरिकायां पर्षदि द्वे देवसहस्त्रे, मध्यमिकायां चत्वारि. बाह्यायां षट्, तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवाना द्वादश Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 657 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसाववहारि (णा) सागरोपमाणि सप्त च पल्योपमाणि स्थितिमध्यमिकायां द्वादश कहि णं भंते! आरणऽचुयए देवाणं? तहेव अचुए परिवारे० सागरोपमाणि षट् पल्योपमाणि, बाह्यायां द्वादश सागरोपमाणि पञ्च जाव विहरति / अचुयस्स णं देविंदस्स तओ परिसाओ पल्योपमाणि / जी०४ प्रति०२ उ०। पण्णत्ताओ-अभिंतरपरिसाए देवाणं पणुवीससयं, मज्झिमियाए महासुक्कपुच्छा? गोयमा! ०जाव अभिंतरियाए एगदेव- अड्डाइजसया, बाहिरपरिसाए पंचसया, अभिंतराए एकवीसं साहस्सीओ, मज्झिमियाए परिसाए दो देवसाहस्सीओ सागरोवमा सत्त पलिओवमा,मज्झिमियाए एकवीसं सागरोवमा पण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए चत्तारि देवसाहस्सीओ, ठिती छपलिओवमा, बाहिराए एकवीसं सागरोवमा पंच पलिओवमा अभिंतरियाए परिसाए अद्धसोलससागरोवमाइं पंच ठिती पण्णत्ता। पलिओवमाइं, मज्झिमियाए अद्धसोलससागरोवमाइं चत्तारि अभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चविंशं देवशतं, मध्यमिकायाम् अर्द्धतृतीपलिओवमाई, बाहिरियाए अद्धसोलससागरोवमाई तिण्णि यानि, देवशतानि, बाह्यायां पञ्च देवशतानि / तथा अभ्यन्तरिकाया पलिओवमाइं, अट्ठो सो चेव! पर्षदि देवानामेकविंशतिः सागरोपमाणि सप्त च पल्योपमानि, अभ्यन्तरिकायां पर्षदि एकं देवसहस्रं. मध्यमिकायां द्वे देवसहसे, मध्यामिकायां पर्षदि एकविंशतिः सागरोपमाणि षट् पल्योपमाणि, बाह्यायां चत्वारि देवसहस्राणि।तथा अभ्यन्तरिकाया पर्षदि अर्द्धषोडश बाह्यायामेकविंशतिः सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमाणिः शेष पूर्ववत् / सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि स्थितिः, मध्यमिकायामर्द्धषोडश जी० 4 प्रति०२ उ० औ० / स्था०। (सूर्याभस्य देवस्य सामानिकसागरोपमाणि चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः, बाह्यायामर्द्धषोडश सागरो- परिषदुपपन्नकदेवानां स्थितिः 'ठिइ' शब्दे चतुर्थभागे 1726 पृष्ठे गता) पमाणि त्रीणि पल्योपमानि। शेषं पूर्ववत्। जी०४ प्रति०२ उ०। (प्रायश्चितदानयोग्या पर्षद् "तदरिहपरिसा य" इति द्वारम् पच्छित' सहस्सारे पुच्छा? ०जाव अमितरियाएपरिसाएपंच देवसया, शब्दऽस्मिन्नेव भागे 136 पृष्ठे गतम्) मज्झिमियाए परिसाए एगा देवसाहस्सीओ, बाहिरियाए दो ! परिसाइ(ण) त्रि० (परिस्राविन्) दुष्पक्वत्वाऽऽदिना क्षरके, स्था० 4 ठा० देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, ठिती अभिंतरियाए अद्धट्ठारस 4 उ०। सागरोवमाई सत्त पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता। एवं मज्झिमियाए परिसाइय अव्य० (परिश्राव्य) निर्गाल्येत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अट्ठारस सागरोवमाइं छपलिओवमाई, बाहिरियाए अद्धवारस अ०८ उ०। सागरोवमाइं पंच पलिओवमाइं, अट्ठो सो चेय। परिसागय त्रि० (पर्षद्गत) साधुसंहतिमध्यगते, पा०। अभ्यन्तरिकायां पर्षदि पञ्चदेवशतानि, मध्यमिकायामेकं देवसहस्त्र, परिसाड पुं० (परिशाट) उज्झने, आव०४ अ०। 'शट' रुजाविशरणबाह्यायां द्वे देवसहने, तथा अभ्यन्तरिकाया पर्षदि देवानामर्दाष्टादश गत्यवसादनेष्वितिधातोः पुद्गलानां परिशाट नमवसादनं परिशाटः / सागरोपमाणि सप्त च पल्योपमानि, मध्यमिकायां पर्षधद्धाष्टादश पुद्गलानामवसादने, विशेष सागरोपमाणि षट् पल्योपमानि, बाह्यायाम ष्टादश सागरोपमाणि पञ्च परिसाडकरण न० (परिशाटकरण) करपत्राऽऽदिना शङ्खस्येव निष्पादने, पल्योपमानि। शेषं पूर्ववत्। जी०४ प्रति०२ उ०। सूत्र० 1 श्रु० 101 उ०। विशे०। आ०म०। आ० चू० / (एतच 'करण' आणयपाणयस्स विपुच्छा? जाव तओ परिसाओ, णवरिंअ- शब्दे तृतीयभागे 361 पृष्ठ दर्शितम्) भिंतरिया अड्डाइजा देवसया० मज्झिमियाएपंच देवसया, बाहि- | परिसाडणा स्त्री० (परिशाटना) जीवप्रदेशेभ्यः पृथक्करणे, सूत्र० 1 श्रु०१ रिया एगा देवसाहस्सीओ, ठिती अभिंतरियाए एगूणसागरोवमाई अ०१ उ०। पंच पलिओवमाइं, मज्झिमियाए परिसाए एगूणवीससागरोवमाइं। परिसाडणिया स्त्री० (परिशाटनिका) अर्चनिकायाम् बृ० 1301 प्रक०। चत्तारि पलिओवमाई, बाहिरियाए परिसाए एगूणवीससागरोवमाइं | परिसाडिअत्रि०(परिशाटित) पृथक्कृते, कल्प०१ अधि० 2 क्षण / तिण्णि पलिओवमाइं ठिती, अट्ठो सो चेव। परिशाठ्य त्यक्त्वेर्थे, कल्प०१ अधि०२क्षण। अभ्यन्तरिकाया पर्षदि अर्द्धतृतीयानि देवशतानि, मध्यमिकायां पञ्च परिसाडि (ण) त्रि० (परिशाटिन्) कुशाऽऽदितृणसंस्तारकान्परिभुञ्जादेवशतानि, बाह्यायामेकं देवसहसं, तथा अभ्यन्तरिकायां पर्षदि नस्य यस्य न किञ्चित्परिशटतिसपरिशाटी। वंशकल्पाऽदौ संस्तारके, देवानामर्दुकोनविंशतिः सागरोपमाणि पञ्च पल्योपमानि स्थितिः, नि० चू०२ उ०। मध्यमिकायामर्द्धकोनविंशतिः सागरोपमाणि, चत्वारि पल्योपमानि | परिसामिय त्रि० (परिश्यामित) कृष्णीकृते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। बाह्यायाम कोनविंशतिः सागरोपमाणि त्रीणि च पल्योपमानि, शेष परिसाववहारि (ण) पुं० (पर्षद्व्यवहारिण) पर्षन्नाम व्यवहारयो द्वेषेऽऽपि पूर्ववत् / जी०४ प्रति०२ उ०। पक्षो तो ब्रूते यदिद्वावऽऽपि पक्षो मध्यस्थौ भवत इति स्वरूपे व्यवहारिणि, आरणाऽच्युताऽऽदीनाम् व्य०३उ०। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिट्ट 658 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहरणा परिसिह त्रि० (परिशिष्ट) उद्वरिते, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। / दे० ना० 6 वर्ग 21 गाथा। परिसित्तन० (परिषिक्त) नपुंसके क्तः। परिषेके, प्रश्न०१आश्र० द्वार। | परिहण(देशी) वसने, दे० ना० 6 वर्ग 21 गाथा। परिसित्तपाणग न० (परिषिक्तपानक) यत उष्णोदकेन दधिमृत्तिका नित्यं परिहणय न० (परिधानक) परिधानिये, "जाण सिचयं कडिडिल्लं, गाल्यते तस्मिन्, नि० चू० 4 उ०। निअसणं साहुली य परिहणयं।'' पाइ ना०६६ गाथा। परिसिल्ल त्रि० (पर्षद्वत्) पर्षद्युक्ते, बृ०३ उ०। परिहत्थ (देशी) दक्षे, आव० 4 अ०। आचा०। "परिहत्थो दच्छो' पाइ० परिसीसग न० (प्रतिशीर्षक) स्वशिरःप्रतिरूपके पिष्टाऽऽदिमयशिरसि | ना०२४४ गाथा। "परिसीसयं च दलाहि।" प्रतिशीर्षकाणि च दत्त स्वशिरःप्रतिरूपाणि परिहरंत त्रि० (परिहरन्) "धातवोऽन्तिरेऽपि" ||8||256 // पिष्टाऽऽदिमयशिरांसि आत्मशिरोरक्षार्थ यच्छत् चण्डिकाऽऽदिभ्य इति परिहरतेस्त्यागे वृत्तेः। त्यजति, प्रा० 4 पाद। इत्यर्थः / प्रश्न०२ आश्र० द्वार। परिहरण न० (परिहरण) आसेव्यस्य वस्तुनोऽनासेवने, स्था० 10 ठा०। परिसुक्क त्रि० (परिशुष्क) स्वतःशोषमुपागते, विपा० १श्रु० 2 अ०।। परिहरणदोस पुं० (परिहरणदोष) दोषभेदे, स्था० / परिहरणमा-सेवा, परिसुक्कमुह त्रि० (परिशुष्कमुख) परिशुष्कं निर्गतनिष्ठीवनतयाऽना स्वदर्शनस्थित्या लोकरूढ्या वा अनासेव्यस्य तदेव दोषः परिहरणदोषः। र्द्रतामुपगत मुख्यमस्येति परिशुष्कमुखः / उत्त०२ अ०। गतनिष्ठिवनत्वेन अथवा-परिहरणमनासेवनं, समारूढ्याऽसेव्यस्य वस्तुनस्तदेव तस्माद्वा शुष्कतालुजिह्रौष्ठ, उत्त०२ अ०। दोषः परिहरणदोषः। अथ वादिनोपन्यस्तस्य दूषणस्यासम्यक्परिहारो परिसुद्ध त्रि० (परिशुद्ध) निर्दोष, पञ्चा० 4 विव०। सर्वप्रकारशुद्धे, षो०१ जात्युत्तरं परिहरणदोष इति। यथा बौद्धनोक्तम्-अनित्यः शब्दः कृतक त्वात् घटवदिति / अत्र मीमासंकः परिहारमाह ननु घटगतं कृतकत्व विव० / विशुद्धिप्राप्ततया निश्चिते, पञ्चा०२ विव०। शब्दस्यानित्यत्व-साधनायोपन्यस्यते, शब्दगतं वा? यदि घटगतं तदा परिसुद्धग त्रि० (परिशुद्धक) अपगतदोषे, पञ्चा०१६ विव०। तच्छब्दे नास्तीत्यसिद्धता हेतोः। अथ शब्दगतं तत्रानित्यत्वेन व्याप्तमुपपरिसुद्धजलग्गहण न० (परिशुद्धजलग्रहण) वस्त्रपूतत्रसरहितजलग्रहणे, लब्धमित्यसाधारणानैकान्तिको हेतुरित्ययं सम्यक् न परिहारः / एवं हि श्रा०॥ सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्गः, अनुमानं हि साधनधर्म-मात्रात्साध्यधर्ममात्रपरिसुद्धि स्त्री० (परिशुद्धि) दोषविशुद्धौ, पञ्चा० 16 विव०। निर्णयाऽऽत्मकम्, अन्यथा धूमादनलानुमानमपि न सिध्येत्। तथा हिपरिसेय पुं० (परिषेक) दुष्टव्रणाऽऽदेरुत्थितस्योपरिषेचने, पिं०। ओघ०। अग्रिरत्र धूमाद्यथा महानसे। अत्र विकल्पतिकिमत्रेति शब्दनिर्दिष्टपर्वतकपरिसोववण्णग पुं० (पर्षदुपपन्नक) परिहारोपपन्नके, स्था०३ ठा० 1 उ० / प्रदेशाऽऽदिगतधूमोऽनिसाधनायोपात्तः, उत महानसगतः? यदि पर्वतापरिसोसिय त्रि० (परिशोषित) परि समन्ताच्छोषितमपचितीकृतम्। उत्त० ऽऽदिगतः सोऽग्निना नव्याप्तः सिद्ध इत्यसाधारणानैकान्तिको हेतुः / अथ 1 अ०।तपसा दुर्बलीकृते, उत्त०१ अ०। महानसगतस्तदा नाऽसौ पर्वतैकदेशे वर्तत इत्यसिद्धो हेतुरिति / अयं परिस्सम पुं० (परिश्रम) समन्तामे, "खुहं पिवास परिस्समं न विंदइ।" परिहरणदोष इति। स्था० १०टा०। आ०म०१ अ०। परिहरणा स्त्री० (परिहरणा) 'हज' हरणे, अस्याः परिपूर्वस्यैव ल्युडन्तस्यैव पारस्सप पु० (पारश्रव) कमानजराऽऽस्पदषु अनुष्ठानषुपारसमन्ताच्यात परिहरणं परिहरणा। सर्वप्रकारैर्वर्जनायाम, प्रतिक्रमणशब्दाथ, आव०। गलति थैरनुष्ठानविशेषस्ते परिश्रवा इति व्युत्पत्तेः / आचा० 1 श्रु०४ अ० निक्षेपः२ उ०। ("जे आसवा ते परिस्सवा।" इति आसव' शब्दे द्वितीयभागे नामं ठवणा दविए, परिरय परिहार वजणाए य। 475 पृष्ठे व्याख्यातम्) अणुगह भावे अ तहा, अट्ठविहा होइ परिहरणा // 1236 // परिस्सवंत त्रि० (परिश्रवत्) गलति, तं० / सर्वतो गलति, त०। नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यपरिहरणा-हेयं विषयमधिकृत्य अनुपयुक्तस्य, परिसाइ (ण) पुं० (परिस्राविन्)गिरति, स्था० 1 ठा०। सम्यग्दृष्टलब्ध्यादिनिमित्त वा उपयुक्तस्य वा निवस्य कण्टकाऽऽदिपरिह पुं० (परिव) अर्गलायाम्, अनु०! परिहरणा वेति / परिरयपरिहरणागिरिसरित्परिरयपरिहरणा / परिहारपरिहट्ट धा० (मृद) क्षोदे, "मृदो मलमढपरिहट्ट०" ||8|4|126 / / परिहरणालौकिकलोकोत्तरभेदभिन्ना, लौकिकी मात्रादिपरिहरणा, लोकोत्तरा इत्यादिसूत्रेण मृद्धातो परिहट्टाऽऽदेशः। 'परिहट्टइ।' प्रा० 4 पाद। पार्श्वस्थाऽऽपरिहरणा / वर्जनापरिहरणा अपि लौकिकलोकोत्तरभेदैव० परिहट्टिअ त्रि० (परिवट्टित) मर्दिते, “पन्नाडिअयं परिहट्टि।" पाइ० | लौकिका इत्वरा यावत्कथिका च, इत्वरा प्रसूतसूतकाऽऽदिपरिहरणा, ना० 178 गाथा। यावत्कथिका डोम्बाऽऽदिपरिहरणा। लोकोत्तरापुनरित्वरा शय्यातरपिण्डऽऽपरिहट्ठी-(देशी) प्रतिहारिण्याऽऽकृष्टौ, दे०ना०६ वर्ग 72 गाथा। आकृष्टी. | दिपरिहरणा, यावत्कथिका तुराजपिण्डाऽऽदिपरिहरणा। अनुग्रहपरिहरणाअ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहरणा 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार वेशे०। क्खोडभङ्गपरिहरणा। भावपरिहरणाप्रशस्ता, अप्रशस्ता चा अप्रशस्ता | परिहरित्तए अव्य० (परिहर्तुम्) आसेवितुमित्यर्थे, स्था० 5 टा० 3 उ०। छ / अप्रशस्ता ज्ञानाऽऽपरिहरणा, प्रशस्ता क्रोधाऽऽपरिहरणा। अथवा आचा०। ओघत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टः, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता परिहरिय अव्य० (परिहत्य) निक्षिप्येत्यर्थे, उत्त०१२ अ०। शारण प्रतिक्रमणमप्पशुभयोगपरिहारेणवेति) आव० 4 अ०) आ० चू० ) परिहरियव्व त्रि०(परिहर्तव्य) सर्वैः प्रकारैर्वजनीये, आ०। नि० चू०। परिहरिस पुं० (परिहर्ष) आनन्दे, "आमोओ परिहरिसो तोसो।" अथ परिहाराणां दुग्धकायेन दृष्टान्तः-दुग्धकायो दुग्ध पाइ०ना०१६८ गाथा। कायायष्टिः परिहलाविअ (देशी) जलनिर्गम, दे ना०६ वर्ग 26 गाथा। "एकः कोऽप्यभवद् ग्रामे, कुत्रापि कुलपुत्रकः / परिहवंत पुं० (परिभवत्) पार्श्वस्थाऽऽदौ अयतमाने, “परिहवंतो नाम अन्यान्यग्रामयोस्तस्यो-दूढमस्तिस्वसृद्वम् / / 11 // पासत्थो"। व्य०१ उ०। तस्याभूद दुहिता जाम्योः, पुत्रौ तेषां च यौवने। परिहा स्त्री० (परिखा) अघ उपरि च समखाते, भ०५ श०७ उ०ा नि० स्वस्वसूनृकृते जान्यौ, पुत्र्यर्थं सममागते॥२॥ चू०। ज्ञा०। अनु०। "खायं तह खाइआ परिहा।" पाइ० ना० 158 सोऽवदत्कस्य यच्छामि, पुत्र्येका तधुवां सुतौ। गाथा रोषे, दे० ना०६ वर्ग 7 गाथा। अत्र प्रेषयतं दास्ये, ततः कृत्यविदः सुताम्॥३॥ परिहाअ (देशी) क्षीणे, दे० ना०६ वर्ग 25 गाथा। गते ते प्रेषितौ पुत्रौ, मातुलेन तदैव तौ। परिहाएमाण त्रि०(परिहीयमान) परिहाणिमुपनीयमाने, "मायाए परिहाअर्पयित्वा घटावुक्ती, दुग्धमानयतं व्रजात्॥४॥ एमाणा।" स्था०४ ठा०२ उ०। जंग। काययष्टिं गृहित्वा तौ, गतौ भृत्वा पयो घटान्। परिहाण न० (परिधान) वस्त्रे, सूत्र० १श्रु० 4 अ० 1 उ०। निवृत्तौ तानथाऽऽदाय, तत्र चास्ति पथद्वयम् // 5 // परिहाणि स्त्री० (परिहानि) अपचये, आव० 1 अ०। सूत्रार्थविस्मरणे, नेदीयान् विषमः पन्थाः, दवीयाँ श्च समः पुनः। ओघा सर्वथा त्यागे,ध०२ अधि०। पं०भा०। पं० चू०। विषम परिहृत्यैक स्तत्राचालीत्समाध्वना / / 6 / / परिहाय त्रि० दुर्बले 'परिहाय दुब्बलं हीण।'' पाइ० ना० 181 गाथा / विषमेणापि नैकट्या-चलति स्म द्वितीयकः। परिहार न० (परिहार) परिहियते परित्यजते गुरुमूलं गत्वा यत् तत् स्खलत्पदस्य तस्यैको, भग्नः कुम्भोऽपरोऽपि च / / 7 / / परिहारम्। "अकर्तरि च करके०-"||३३।१६।। इति (पाणि) कर्मणि घञ्। विषये, व्य०१ उ० अभाजि पतता तेन, रिक्त एवाऽथ सोऽभ्यगात् / (1) संप्रति परिहारशब्दनिक्षेपप्ररूपणार्थमाहसभाध्वना शनैरन्यो, गृहीत्वा दुग्धमाययौ / / 8 / / नाम ठवणा दविए, परिरय परिहरण वज्जऽणुग्गहता। तुष्टस्तस्मै ददौ पुत्रीं, द्वितीयं प्रेषयत्पुनः। भावाऽऽवन्ने सुद्धे, नव परिहारस्स नामाई॥२७॥ मयोक्तं दुग्धमानेयं, शीघ्रात् शीघ्रगतिर्न तु॥६॥ परिहारशब्दो विभक्तिपरिणामेन सर्वत्र संबध्यते। तद्यथानामपरिहारः, द्रव्ये परिहरणेय, भावे वोपनयः पुनः। स्थापनापरिहारः, (दविए त्ति) द्रव्यविषयः परिहारो द्रव्यपरिहारः, तीर्थकृत्कुलोपुत्रोऽभू-द्यारित्रं पयसः पदे॥१०॥ परिरयपरिहारः, परिहरणपरिहारः, 'वृजा' वर्जने, वृज्यते इति वर्जनं, तद्रक्षद्भिः प्रयत्नेन, प्राप्या कन्येव निवृतिः। कर्मण्यनट, वय॑मित्यर्थः / वर्जनपरिहारः। अनुगृह्यते इति अनुग्रहः, गोकुलं मानुषं जन्म, पन्थास्तत्र परं तपः॥११|| कर्मण्यच् तस्य भावोऽनुग्रहताऽनुग्रहणमित्यर्थः / अनुग्रहतया परिहारोस्थविराणामनिकटो, निकटो जिनकल्पिनाम्। ऽनुग्रहतापरिहारः। (भाव त्ति) भावचिन्तायामापन्ने आपन्नस्य परिहारः रक्षेन्न चारित्रपयोऽ-गीतार्थो जिनकल्पिकः // 12 // आपन्नपरिहारः, शुद्ध शुद्धस्य परिहारः। एवं परिहारस्य नामाऽऽदिविदुष्प्रापा निर्वृत्तिस्तस्य, स्खलितस्य कथञ्चन। शेषणतो नव नामानि भवन्ति। एष गाथाऽक्षरार्थः। अधुना भावार्थ उच्यतेप्राप्याऽन्यैस्तु शनैः सिद्धिश्चारित्रक्षीररक्षकैः।।१३। आ००४ अ०। तत्र नामस्थापने प्रतीते, द्रव्यपरिहार उच्यते-द्रव्यपरिहारो द्विधाआआसेवायाम्, स्था० 5 ठा०२ उ०। बृा परिभोगे व्यापारणे, बृ० 1 उ० गमतो, नोआगमतश्चा तत्राऽऽगमतः परिहारशब्दार्थज्ञाना, तत्र चानु३ प्रक०। पं० चूला स्था० आ० म०। युक्तः / नोआगमतस्त्रिधाज्ञशरीरं भव्यशरीरं तह्यतिरिक्तः। तत्र परिहरणिज्ज त्रि० (परिहरणीय) अकार्ये, आ०चू०१ अ०! ज्ञशरीरभव्यशरीरे प्राग्वत्। परिहरणोवघाय पुं० (परिहरणोपघात) अलाक्षणिकस्याकप्यस्य तह्यतिरिक्तपरिहारपरिरयपरिहाराऽऽदिप्रतिपादनार्थमाहवोपकरणस्य सेवा, तया यः स परिहरणोपघातः। उपघातभेदे, स्था० कंटगमादी दवे, गिरिनइमाईण परिरओ होइ। 10 ठा० / परिहरणा आसेवा, तयोपध्यादेरकल्प्यता, तत्रोपधेर्यथा परिहरणधरणभोगे, लोउत्तर वज्ज इत्तरिए।।२८।। एकाकिना हिण्डकसाधुना यदासेवितमुपकरणं तदुपहतं भवतीति समय- द्रव्ये इति द्वारपरामर्श: / नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिव्यवस्था। स्था०५ ठा०२ उ०। (अत्र विशेषः उवघाय'शब्दे द्वितीयभागे रिक्तो, द्रव्यपरिहारो नामयत् कण्टकाऽऽदि, कण्टकम्, आदि८८० पृष्टगतः) शब्दात्। स्थाणु विषसऽऽदिकं च परिहरति, द्रव्यस्य परिहारो परिहरमाण त्रि० (परिहरत) परिभोगयति, व्य०६ उ०। द्रव्यपरिहार इति व्युपत्तेः / परिरया नाम पर्याहारः, परिधि Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार ६६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार रिति यावत् / उक्त च-"पज्जाहारो ति वा परिरओ ति वा एगट्ट।" परिरयेण परिहारः, सच परिरयो भवति संभवति गिरिनद्यादीनां विषये। इयमत्र भावनायत् गिरिनदीम्, आदिशब्दात् समुद्रमटवीं वा परिरयेण परिहरति, एष परिरयपरिहारः / तथा परिन्हियते इति परिहरणं, भावे अनट्। तच द्विधा-लौकिकं, लोकोत्तर च। तत्र लौकिकं यथा--माता पुत्रं परिहरति, भ्रातरं परिहरति, न परिभुङ्क्ते इत्येवमादि / लोकोत्तरं साक्षादाहपरिहरणधरणभोगेलोकोत्तरं परिहरणं द्विधा-धरणभोगे धरणपरिहरणं, परिभोगपरिहरणं चेत्यर्थः / तत्र धरणपरिहरणं नामयत्किमप्युकरण संगोपयति, प्रतिलेखयति च, न परिभुङ्क्ते। परिभोगपरिहरणंयत्सूत्रिककल्पाऽऽदि परिभुङ्क्ते, प्रावृणोतीत्यर्थः / उक्तं च-''लोगे जह माता ऊपुत्तं परिहरइ एवमादीओ। लोगुत्तरपरिहारो दुविहो परिभोग धरणे य।।१।।"अत्रैवं व्युत्पत्तिः-परिहरणमेव परिहारः (लोगुत्तर वज इत्तरिए) वर्ज वर्ज तत् द्विधा-(लोग त्ति)लौकिकम् (उत्तर त्ति) लोकोत्तरम्। लौकिकं द्विधा-इत्वरं, यावत्कथितं च / तत्रेत्वरं यत् सूतकमृतकाऽऽदि दशदिवसान् यावत् वय॑ते इति / यावत्कथिकम्"वरूडविंडकचम्मकारडोंबाऽऽदि, एतेहि'' यावजीवं शिष्टेः संभोगाऽऽदिना वय॑न्ते / लोकोत्तरमपि वयं द्विधा-इत्वरं, यावत्कथिकं च / तत्रेत्वरं 'दाणे अभिगमसड्डे" इत्यादि / यावत्कथिकम् "अट्ठारस पुरिसेसुं, वीस इत्थीसु दस नंपुसेसु।" इत्यादि / वज्ज इत्तरिए' इत्यत्र ग्रहणमुपलक्षणं, तेन यावत्कथिकमित्यपि द्रष्टव्यम्, तस्य परिहारः परित्यागो वर्जनपरिहारः। खोडाऽऽदिभंगऽणुग्गह, भावे आवण्ण-सुद्धपरिहारो। मासाऽऽदि आवण्णे, तेण उ पगयं न अन्नेहिं / / 26 / / "खोडभंग इति वा उक्कोडभंग इति वा अक्षोटभङ्ग इति वा एकार्थम्। उक्तं च निशीथचूर्णी-"खोटभंगो त्ति वा उक्कोडभंगो त्ति वा अक्खोडभंगो त्ति एगट्ठ।" खोट नाम यत् राजकुले हिरण्याऽऽदि द्रव्यं दातव्यम् / आदिशब्दात् वेष्टिकरण चारभटाऽऽदीनां भोजनाऽऽदिप्रदानमित्यादिपरिग्रहः / खोटाऽऽदेर्भङ्गः खोटाऽऽदिभङ्गोऽनुग्रह परिहारः / एतदुक्तं भवतिराजकृतानुग्रहवशेन एकद्विव्यादिवर्षामर्यादया यथोक्तरूपं खोटाऽऽदिभञ्जन एक द्वे त्रीणि वर्षाणि यावत् वसति तावन्तं वा कालं यावत् राज्ञाऽनुग्रहः कृतः तावन्तं कालं वसति, न च हिरण्याऽऽदि प्रददाति, नाभि वेष्टिं करोति, नचापि चारभटाऽऽदीना भोजनाऽऽदिप्रदान विधत्ते / एषा खोटाऽऽदिभङ्गोऽनुग्रहपरिहारः / (भावे इति) भावविषयः परिहारो द्विधा / तद्यथा-आपन्नपरिहारः, शुद्धपरिहारश्च / तत्र यत् विशुद्धः सन् पञ्चयामममनुत्तरं धर्म परिहरति, परिहारशब्दस्य पारभोगेऽपि वर्तमानत्वात् स शुद्धपरिहारः, शुद्धस्य सतः परिहारः पञ्चयामानुत्तर धर्मकरणं शुद्धपरिहार इति व्युत्पत्ते / यदि वा-यो विशुद्धकल्पव्यवहारः क्रियते स शुर्दधपरिहारः, शुद्धश्चासौ परिहारश्च इति व्युत्पत्तेः / तथा यन्मासिकं यावत्वाणमासिकं वा प्रायश्चित्तमापपन्नस्तत् आपन्ने अपरिभोगेऽपि वर्तते, परिन्हियते इति परिहारः। कर्मणि घ। आपन्नमेव परिहार आपन्नपरिहार इति व्युत्पत्तेः / तथा चाऽह(मासाऽऽदी आवन्ने इति) मासाऽऽदिकं यत्प्रायश्चित्तस्थानमापन्नं तत् आपन्ने परिहार इति भावः / अथवा-परिहरणं परिहार इति भावे घञ्. आपन्नेन प्रायश्चित्तस्थानेन परिहारो वर्जन, साधोरिति गम्यते। आपन्नपरिहारः। तथाहि-प्रायश्चित्ती अविशुद्धत्वात् विशुद्धचरणैः साधुभिर्यावत्प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या ने शुद्धो भवति तावत् प्रतिहियते, इह तेन आपन्नपरिहारेण प्रकृतमधिकारो न शेषैः परिहारैः तदेवं परिहारशब्दनिक्षेपप्ररूपण्णा कृता / व्य०१ उ०। नि० चू०। (मासिकाऽऽदिपरिहारस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत् इति पच्छित' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 142 पृष्ठगतम्) परिहरण परिहारः। पुं०। तपोविशेषे, स्था० 5 ठा०२ उ०। प्रव०। विशे०! अनेषणीयाऽऽदेस्त्यागे च। अनु० मासिकाऽऽदिपरिहारस्थानं प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत् / तत्र परिहारतपोदनाम् जे भिक्खू चाउम्मासियं वा सातिरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं वा सातिरंगपंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अन्नयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा अपलिउंचियमाणे।।४।। इत्यस्य सूत्रावयस्य व्याख्या प्राग्वत्। ('पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 145 पृष्ठ कृतः परिहारतपोवक्तव्यतासंग्रहः) अधस्तनसूत्रे परिहारतपो नोक्तमिह परिहारतपो विभाव्यते इति तत्र येन वक्तव्यक्रमेण परिहारतपो वक्तव्यं भवति वद्वक्तव्यक्रमसंसूविका द्वारगाथामाहको भंते! परियाओ, सुत्तत्थाभिग्गहो तवोकम्म। कक्खडमकक्खडे वा, सुद्धतवे मंडवा दोन्नि / / 350 / / प्रथमतः परिहारतपोयोग्यतापरिज्ञानाय को भदन्त ! त्वमसीति पृच्छा कर्तव्या, तदनन्तरं परिहारतपोयोग्यस्य पर्यायो वाच्यः, ततः सूत्रार्थी, तदनन्तरमभिग्रहः, तथा तपःकर्म, तत्र यदि तपसा कर्कशो भवति। किमुक्तं भवति?-कर्कशे तपसि सदा कृताभ्यासतया न कर्कशेन तपा परिभूते ततः परिहारतपस्तस्मै दीयते, इतरस्मिँस्त्वककर्श शुद्ध तपः। अत्रार्थे द्वौ मण्डपावेरएण्डशिलानिष्पन्नौ दृष्टान्तौ। एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। व्यासार्थ तु प्रतिद्वारं विवक्षुः प्रथमतः पृच्छाद्वारं विवृणोतिसगणाम्मि नऽत्थि पुच्छा, अन्नगणा आगतं तु यं जाणे। अण्णयं पुण पुच्छे, परिहारतवस्स जोगट्ठा / / 351 / / स्वगणे स्वगणसम्बन्धिनि पृच्छा उक्तस्वरूपा, वक्ष्यमाणा वा नास्ति, स्वगणवास्तव्यतया परिचितत्वात्। अन्यगणादपि, तुशब्दोऽपिशब्दार्थः / स च भिन्नक्रमत्वादत्र संबध्यते; आगतं य जानाति गीताऽऽदिरूपमाकारोगिताऽऽदिभिः, तस्मिन्नपि नास्ति पृच्छा, अज्ञज्ञतं पुनः परगणादागतं परिहारतपसो योग्यार्थ योग्योऽयं न वेति परिज्ञानार्थ पृच्छेत्। कथमित्याहगीतमगीतो गीतो, अहं ति किं वत्थु कास वऽसि जोग्गो। अविगीए त्ति व भणिए, थिरमथिर तवे य कयजोग्गो // 352 / / स प्रायश्चित्तस्थान प्राप्त आलो चयितुमुपस्थितः पृछय - ते कि त्वं गीतो गीतार्थ:? मकारोऽलाक्षणिकः / अगीतोऽगी Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 661 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार तार्थः / तत्र यदि ब्रूते-अहं गीतो-गीतार्थः। ततः पुनरपि पृच्छ्यतेत्व किं वस्त्विति आचार्य उपाध्यायो वृषभाऽऽदिर्वा / तत्राऽन्यतरस्मिन्कथिते भूपः पृच्छ्यते-(कास वऽसि जोग्गो त्ति) कस्य वा तपसस्त्वमसि योग्यः / किमुवतं भवति? किं तपः कर्तुमुत्सहसे, कस्य वा तपसः समर्थ इति पृच्छनीय इति। अथ स ब्रूते-अहमविगीतो, न विशिष्टो गीतः, अगीतार्थ इत्यर्थः / ततोऽविगीत इति भणिते पुनः पृच्छ्यते (थिरमथिर त्ति) किं त्वं स्थिरो वा अस्थिरो वा / तत्र स्थिरो नामधृतिसंहननाभ्यां बलवान, तद्विपरीतोऽस्थिरः / तत्र यदि ब्रूयादहमस्थिरः, ततः पुनः परिपृच्छा कार्या-(तवे य कयजोगो त्ति) तपसि कृतयोगो नामकर्कशतपोभिरनेकधा भाविताऽऽत्मा, इतरस्तु नेति। तत्र यदि तपसि कृतयोगस्तस्तस्मै परिहारतपो दीयते, इतरस्मै शुद्धतपः / गतं पृच्छाद्वारम्। (2) अधुना पर्यायद्वारमाहगिही सामन्ने य तहा, परियाओ दुविह होइ नायव्वो। इगुतीया वीसा य, जहन्न उक्कोस देसूणा / / 353 / / पर्यायो भवति द्विधा ज्ञातव्यः / तद्यथा गृहिणि गृहविषयः, जन्मन आरभ्येत्यर्थः / तथा श्रामण्ये श्रामण्यविषयः, श्रमणभावप्रतिपत्तेरारभ्य इति भावः / इयमत्र भावना-द्विविधः पर्यायः / तद्यथा-जन्मपर्यायो, दीक्षापर्याश्च / (इगुतीसा वीसा य जहन्न त्ति) यथासंख्येन योजनाजघन्यतो जन्मत एकोनत्रिंशद्वर्षाणि विज्ञेयो, दीक्षापर्यायो विशतिवर्षाणि। उत्कर्षत उभयत्राऽपि देशोना, पूर्वकोटी। उक्तंच- 'परियाओ दुविहोजम्मपरियाता य, दिक्खापरियातो य / जम्मपरियातो-जहण्णेणं इगुणतीसं ठाणं, उक्कोसेणं देसूणा पुष्चकोडी दिक्खापरियातोजघण्णेणं वीसं वासा, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी ति।" (अत्र बहु वक्तव्यता ‘परियाय'शब्देऽरिमन्नेव भागे 628 पृष्ठे गता) गतं पर्यायद्वारम्। (3) संप्रति सूत्रार्थमाहनवमस्स तइवत्थू, जहण्ण उक्कोस ऊणगा दसओ। सुत्तत्थाणिअभिग्गह-दव्वाऽऽदितवोरयणमादी।।३५४ // जघन्यतः सूत्रमर्थश्च यावत् नवमय पूर्वस्य तृतीयमाचारनामकं वस्तु, उत्कर्षतो यावदूनानि किञ्चिन्यूनानि दशपूर्वाणि परिपूर्णदशपूर्वघराऽऽदीनां परिहारतपोदनायोगात् / तेषां हि वाचनाऽऽदिपञ्चविधस्वाध्यायविधानसेव सर्वोत्तमं कर्म्म निर्जरास्थानम्। गतं सूत्रार्थद्वारम्। (4) इदानीमभिग्रहद्वारमाह अभिग्रहा द्रव्यादिकाः / तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च तत्र द्रव्याभिग्रहाः अद्य मया कुल्माषा ग्राह्याः / यदि वा तक्राऽऽदिकमेकं द्रव्यमिति / क्षेत्रतोऽभिग्रहाःदेहलीमाक्रम्येत्यादिकाः / कालतोऽभ्रिहाः-तृतीयस्यां पौरुष्याम भावतोऽभिग्रहाः यदि हसन्ती रूदन्ती वा भिक्षां ददातीत्येवमादिकाः / गतमभिग्रहद्वारम्। (5) अधुना तपोद्वारमाह-(तपोरयणमादी) तषो रत्नाऽऽदिकम्, पदैकदेशे पदसमुदाोपचारात् रत्नाऽऽवऽऽल्यादिकम् / आदिशब्दात्कनकाऽऽवलिमुक्ताऽऽवलिसिंहविकीडिताऽऽदितपःपरिग्रहः / एवं गीतार्थत्वं यथोक्तं पर्यायसूत्रार्थाभिग्रहककशतपःकर्मलक्षणगुणसमूहयुक्तस्य परिहारतपो दीयते, एतद्गुणविहीनस्य पुनः शुद्धं तपो देयम्। अत्र शिष्यः पृच्छतिएयगुणसंजुयस्स उ, किं कारण दिज्जए उ परिहारो। कम्हा पुण परिहारो, न दिज्जए तविहूणस्स? ||355 / / भगवन् ! किं कारणमेतैरनन्तरोदितैर्गीतार्थत्वादिभिर्गुणैर्युक्तस्य परिहारः परिहारतपो दीयते / कस्मात्पुनस्तद्विहीनस्य गीतार्थत्वाऽऽदिगुणविकलस्य परिहारो न दीयते? अत्राऽऽचार्यो द्वौ मण्डपौ दृष्टान्तीकरोति शैलमण्डपमेरण्डमण्डपञ्च / तथा चाऽऽहजं मायति तं छुब्मति, सेलमए मंडवे न एरंडे / उभयबलियम्मि एवं, परिहारो दुब्बले सुद्धो॥३५६ // शैलमये पाषाणमये मण्डपे यत्किमपि माति तत्सर्वं छुभ्यते इति क्षिप्यते / तस्य तावत्यपि प्रक्षिप्ते भङ्गासंभवात् / एरण्डे एरण्डमये पुनर्मण्डपे न यन्माति तत्सर्व क्षिप्यते, भङ्गसंभवात्, किं तु यावत् क्षमते तावत्प्रक्षिप्यते / एवं उभये धृत्या शरीरसंहनेन च बलिके बलिष्ठे गीतार्थत्वाऽऽदिगुण्णयुक्ते परिहारः परिहारतपो दीयते / दुर्बले धृत्या, संहननेन वा, उभयेन वा बलविहीने शुद्धतपो दीयते। एते च परिहारशुद्धतपसी तुल्यायामप्यापत्तौ पुरुषविशेषाऽऽश्रयणेन दीयते। तथा चाऽऽहअविसिट्ठा आवत्ती, सुद्धतवे तह य चेव परिहारे। वत्थु पुण आसज्जा, दिजइ इयरो व इयरो वा !|357 / / शुद्धतपसि दातुमिष्टे परिहारेच अविशिष्टा तुल्या आपत्तिस्तथाऽपि वस्तु धृतिसंहननसंपन्नं पुरुषवस्तु आसाद्य अपेक्ष्यइतरत् परिहारतपोदीयते, धृतिसहननविहीनं पुरुषवस्तु आसाद्य इतरत् शुद्धतपो दीयते। किमुक्तं भवति?-यद्यपि द्वावपि जनौ तुल्यमापत्तिस्थानमापन्नौ, तथाऽपि यो धृतिसंहनन-संपन्नस्तस्मै परिहारतपो देयम्, इतरस्मैतुल्यायामप्यापत्ती शुद्धतपः। अत्र दृष्टान्तमाहवमण विरेयणमाइं, कक्खड किरिया जहाऽऽउरे बलिए। कीरइ न दुब्बलम्मी, अह दिटुंतो भवे दुविहे // 358 / / यद्यपि द्वावपि पुरुषौ सह रोगाभिभूतौ तथापि तयोर्मध्ये यः आतुरः शरीरेण बलवान् तस्मिन् बलिके यथा वमनविरेचनाऽऽदिका कर्कशा क्रिया क्रियते, न तु दुर्बले तस्मिन् यथा संहते तथा अकर्कशा क्रिया क्रियते। (अह त्ति) एष दृष्टान्तः तपसि द्विविधे परिहारशुद्धतपोलक्षणे। इदमुक्तं भवति-अयमत्रोपसंहारः-बलवत्यातुरे कर्कशक्रियेवधृतिसंहननसंपन्ने परिहारतपो दीयते, बलहीने त्वकर्कशक्रियेव धृतिसंहननविहीने शुद्धतप इति। (6) संप्रति येभ्यो नियमतः शुद्धतः परिहारतपो वा शुद्धतपः परिहारतपोयोग्याऽऽपत्तिस्थानाऽऽपत्तौ तपो देयं तत्प्रतिपादनार्थमाहसुद्धतवो अजाणं, अगियत्थे दुब्बले असंघयणे / Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसा 662 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिसा धितिबलिए य समन्ना-गए य सव्वेसि परिहारो।।३५६ / / परिहारतपोयोग्येऽप्यापत्तिस्थाने समापतिते आर्याणामाथिकाणां शुद्धतपो देयम्, आर्यिकाणां धृतिसंहननदुर्बलतया पूर्वानधिगमाच परिहारायोग्यत्वात्। तथा योऽगीतार्थो, यश्च धृत्या दुर्बलो रोगाऽऽदिना अनुपचितदेहो दुर्बलो, यश्चासहनन आदिमानां त्रयाणां संहननानामन्यतमेनाऽपि संहननेन विकलः, एतेभ्यो नियमतः शुद्धं तपो दातव्यम् अगीतार्थत्वाऽऽदिना परिहारायोग्यत्वात्। यः पुनर्धत्या बलिको बलवान् वज्रकुड्य समानो, यश्च समन्वागतः, आदिमानां त्रयाणां संहननानामन्यतमेन संहननेन गीतार्थत्वाऽऽदिगुणैश्च युक्तः, एतेभ्यः सर्वेभ्यो नियमतः परिहारतपोयोग्याऽऽपत्तिस्थानप्राप्तौ परिहारतपो देयम् / तस्याऽयं विधिः-"ठवणिज्ज ठवइत्ता।" यत्तेन सह नाऽऽचरणीयं तत् स्थानीयमुच्यते, तत् सकलगच्छसमक्ष स्थापयित्या। कथं स्थापयित्वेत्यत आहविउसग्गो जाणणट्ठा, ठवणा तीए य दोसु ठविएस / अगडे नदीय राया, दिटुंतो गीय आसत्थो // 360 / / परिहारतपोदानात् प्राक् आदावेव कायोत्सर्गः क्रियते। कथमिति चेत्? उच्यते-गुरुः पूर्वदिगभिमुखः, उत्तरदिगभिमुखो वा, चरन्तीदिगभिमुखोः वा, चैत्यानां चाभिमुखः, एवं परिहारतपस्यपि, नवरं गुरोवमिपाचे ईषत्पृष्टतस्तौ द्वावपि भणतः-"परिहारतवपज्जावणट्ठा करेमि काउस्सग्ग निरुवसग्गवत्तियाए सद्धाए मेहाए धिइए धारणाए० जाव वोसिरामि, पणुवीसुस्सासकालं सुभज्झवसायी च उवीसत्थवं वा वितेजा, नमोझारेण पारेत्ता अक्खलियं चउवीसत्थयं उच्चरंति। अत्र शिष्यः प्राऽऽह-किमर्थमेष कायोत्सर्गः कियते? उच्यते-(जाणणट्टा) साधूनां परिज्ञानार्थम् / अथवा-निरुपसर्गनिमित्तम् / एतचानन्तरगाथायां वक्ष्यति / (ठवण त्ति) कल्पस्थितस्य अनुपारिहारिकस्य च स्थापना कर्तव्या। ततो (दोसु ठविएसु) कल्पस्थिते अनुपारिहारिके च स्थापिते सति स पारिहारिकः / कदाचिगीतो भवेत्-कथमहमालपनादिपरिवर्जितः सन्नुग्रं तपः करिष्यामीति? तत एवं स भीतः सन् आश्वासयितव्यः। तत्रावटः, कूपो, नदी, सरित राजा च दृष्टान्तः। तथाहि यथा कोऽप्यवटे पतितः सन् भयमगमत्-कथमुत्तरिष्यामि? ततः स तटस्थैराश्वास्यते-मा भैस्त्वं, वयं त्वामुत्तारयिष्यामः, तथा च रज्जुरियमानीता वर्त्तते इति। एवमाश्वासितो निर्भयः सन् स्ताधां बघ्नाति, यदि पुनस्तः प्रत्येवमुच्यते-मृत एष वराको न कोऽप्युत्तारयिष्यति, ततः स निराशः सन्ननिस्सह मुक्त्वा म्रियते, ततः स यथा नियमत आश्वासनीयस्तथा पारिहारिकोऽप्याश्वासनीयः / यथा वा कोऽपि नद्या अनुश्रोतसो ह्यमानो भयभायासीत्, ततः स तटस्थैराश्वास्यते, आश्वासितश्च सन् स्ताघां प्राप्नोति, अनाश्वासितो निराशो भयेनैव मियते / यथा वा कस्यचित् राजा रुष्टः, ततः स भीतो नूनमहं मारयिष्ये इति। ततः सोऽन्यैराश्वास्यते-मा भैर्वयं राजानं विज्ञपयिष्यामो, न च राजाऽपन्यायं करोति। एवं पारिहारिक आश्वासनीयः आश्वासनदानेन च तस्मिन् भीते आ समन्तात् स्वस्थे जाते अधिकृततपसः प्रतिपत्तिः क्रियते। (7) संप्रति कायोत्सर्गकरणाय कारणान्तरमाहनिरुवस्सग्गनिमित्तं, भयजणणट्ठाएँ सेसगाणं च। तस्सऽप्पणो य गुरुणो, य साहए होइ पडिवत्ती॥३६१ / / कायोत्सर्गकरणमादौ निरुपसर्गनिमित्तम्-निरुपसर्ग परिहारतपः समाप्तिं यायादित्येवमर्थम् / तथा शेषाणां साधूनां भयजननार्थम्यथाऽमुकमापत्तिस्थानमेष प्राप्त इत्यस्मै महाघोरं परिहारतपो दास्यते, तस्मान्नेतदापत्तिस्थान सेवनीय, किं तु यत्नतो रक्षणीयमिति / ततः कायोत्सर्गस्य करणानन्तरं तस्य परिहारतपः प्रतिपत्तुर्गुरीश्च साधके अनुकूले शुभे तिथिकरणमुहूर्ताऽऽदिके शुभे ताराबले शुभे चन्द्रबल परिहारतपसः प्रतिपत्तिर्भवति। अन्यत्र कायोत्सर्गकरणानन्तरम् आदावेवतं परिहारिकमिदं गुरुबूतकप्पद्वितो अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीतो। पुध्वं कयपरिहारो, तस्सऽसतीयरोऽवि दढदेहो // 362 / / यावत्तव कल्पपरिहारसमाप्तिस्तावदहं तवकल्पस्थितः वन्दनवाचनाऽऽदिषु कल्पभावे स्थितो, नतु परिहार्यः शेषाः पुनः साधवः परिहार्याः / अन्यच एष साधुर्गीतो गीतार्थः / पूर्व कृतपरिहारत्वेन सकलमाचारीज्ञाता तवायमनुपरिहारी-यत्र यत्र भिक्षाऽऽदिनिमित्तं परिहारी गच्छति तत्र अनु पश्चात् पृष्टतो लग्नः सन् गच्छतीत्यनुपरिहारी। अथवा--अणुपरिहारीत्यापिशब्दसंस्करः / तत्राऽयमन्वर्थः-परिहारिणोऽणु स्तोकं प्रतिलेखनाऽऽदिषु साहाय्यं करोतीत्यणुपरिहारी, तत्र यदि पूर्व कृतपरिहारोऽनुपहारी नलभ्यते, ततस्तस्य असति अभावे, इतरोऽपि अकृतपरिहारतपा अपि दृढदेहो दृढसंहननो गीतार्थोऽनुपहारी स्थाप्यते। एवं कल्पस्थितमनुपरिहारिणंच स्थापयित्वा स्थापना स्थापनीया। तां च स्थापना स्थापयान्नाचार्यः शेषसाधूनिद वक्तिएस तंवं पडिवाइ, न किंचि आलवति मा य आलवह। अत्तट्टचिंतगस्सा, वाघातो मे न कायव्वो।।३६३ / / आचार्यः समस्तमपि सबालवृद्धं गच्छमामन्त्र्य ब्रूते एषः 'साधुः' परिहारतपः प्रतिपद्यते, ततः कल्पस्थितिरेषा, न किञ्चित्साधुमितर वा आलापयति / “वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवता' // 3 // 3 / 131 / / इति (पाणि०) वचनतो भविष्यति वर्तमाना। ततोऽयमर्थः-न कञ्चिदालपयिष्यति, मा च यूयमपि एनमालापयथ आलापयिष्यथा तथा आत्मन एव केवलस्याऽर्थ भक्ताऽऽदिलक्षणं चिन्तयति, न बालाऽऽदीनाम्, तथा कल्पसमाचारादित्यात्मार्थचिन्तकः।यदिवा-आत्मार्थो नामअतीचारमलिनस्याऽऽत्मनो यथोत्केन प्रायश्चित्तविधिना निरतिचारकरणं विशोधनमिन्यर्थः / चिन्तयतीत्यात्मार्थ चिन्तकस्तस्य (भे) भवद्भिरतः पदैव्याधातो न कर्तव्यः। तान्येव पदान्याहआलावण पडिपुच्छण-परियट्ठाण वंदणग मत्ते। पडिलेहण संघाडग-भत्तदाण संभुंजणा चेव // 364 / / एष न कञ्चिदप्यालापयिष्यति युष्माभिरप्येष नालपयितव्यः / तथा सूत्रमर्थमन्यद्वा किंचिदेष न युष्मान् प्रक्ष्यति Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 663 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार युष्माभिरप्येष सूत्रार्थाऽऽदौ न प्रष्टव्यः, तथा युष्माभिः सह नैष सूत्रमर्थ वा परिवर्तयिष्यति नाऽपि युष्माभिरनेन सह सूत्राऽऽदि परिवर्तनीयम् / तथैष कालवेलाऽऽदिषु युष्मान्नोत्थापयिष्यति युष्माभिरप्येष नोत्थापयितव्यः / तथा न वन्दनं युष्माकमेष करिष्यति, नापि युष्माभिरेतस्य कर्तव्यम् / तथा उचारप्रश्रवणखेलमात्रकाण्येष युष्मभ्यं नदास्यति नापि युष्माभिरेतस्मै दातव्यम् / तथा-न किञ्चिदुपकरणमेष युष्माकं प्रतिलेखयिष्यति नापि युष्माभिरूपकरणमेतस्य प्रतिलेखनीयम् / तथा नैष युष्माकं संघाटकभावं यास्यति न च युष्माभितरेतस्य संघाटकैर्भवितव्यम् / तथा न युष्मभ्यमेष भक्तं पानं वा आनीय दास्यति न च युष्माभिरेतस्याऽऽनीय दातव्यम् / तथा नायं युष्माभिः सह भोक्ष्यते नापि युष्माभिरेतेन सह भोक्तव्यम्, तथा कल्पसमाचारात् / तस्मात् आलापने प्रतिप्रच्छन्ने परिवर्तन उत्थापने वन्दनदापने मात्र उचारप्रश्रवणखेलमात्रकानयने प्रतिलेखने संघाटके संघाटककरणे भक्तदाने संभोजने च सहभोजनविषये व्याघातो न कर्तव्य इति सबन्धः, आलापनाऽऽदिभियाघातो न कार्य इत्यर्थः / एवमेतैर्दशभिः पदैर्गच्छेन सपरिहतः सोऽपि गच्छमेतैः पदैः परिहरति / (7) यदिपुनर्गच्छवासी एतानि पदान्यतिचरति तत इदं प्रायश्चित्तम्। संघाडगो उ जाव य, लहुओ मासो दसण्ह उ पयाणं। लहुगा य भत्तपाणे, भुंजाणे होतऽणुग्धाया // 365 / / दशानां पदानां मध्ये आलापनपदादारभ्य यावदष्टमं पदं संघाटकरूपं तावदकैकस्मिन्पदेऽतिचर्यमाणे लघुको मासः प्रायश्चितम्। यदि पुनर्भक्तं पानं च गच्छवासिनः प्रयच्छन्ति ततो भक्तदाने भक्तपानदानविषये लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः प्रायश्चितम्। संभोजने सहभोजने भवन्त्यनुद्धाताः, चत्वारो गुरुमासा इत्यर्थः। साम्प्रतमेतेष्वेव पदेषु परिहारिणः प्रायश्चित्तमाहसंघाडगो उ जाव य, गुरुगो मासो दसण्ह उपयाणं। भत्तप्पयाणे संभुं-जणे य परिहारिगे गुरुगा // 366 / / दशानां पदानामालापनपदादारभ्य यावत्संघाटकः संघाटकपदं तावदेतेषु पदेष्वतिचर्यमाणेषु प्रत्येकं पारिहारिके गुरुको मासः, यदि पुनर्गच्छवासिभ्यो भक्तप्रदानं करोति, तैः सह भक्ते वा तदा प्रत्येक भक्तदाने संभोजने च प्रायश्चित्तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। यः पुनः कल्पस्थितः स इदं करोतिकितिकम्मं च पडिच्छा, परिण्ण पडिपुच्छयं पि से देइ।। सो वि य गुरुमुवइट्ठइ, उदंतमवि पुच्छितो कहए॥३६७ // कृतिकर्म वन्दनकं तत् यदि पारिहारिको ददाति तदा गुरुः प्रतीच्छति / उनलक्षणमेतत्-आलोचनमपि प्रतीच्छती। (परिण्ण त्ति) प्रत्युषसि अपराण्हे च परिज्ञा प्रत्याख्यानं तस्मै ददाति / तथा सूत्रे अर्थे वा यदि पृच्छति ततः प्रतिपृच्छांच ददाति। सोऽपि च परिहारिको गुरुमाचार्यमागच्छन्तमभ्युत्थानाऽऽदिना विनयेनोपतिष्ठते / उदन्तः शरीरस्य वार्त्तमानिकी वार्ता, तामपि गुरुणा पृष्टः सन् कथयति। एवं स्थापनाया स्थापितायां भीतस्य च पूर्वोक्तप्रकारेणाऽऽश्वासनायां च कृताया स पारिहारिकः तपो वोढुं प्रवर्तते, तपो वहश्च क्लमं गतो वीर्याऽऽचारमनिगूहयन् यद्यन्तरां क्रिया कर्तुमसमर्थो भवति तदा तु पारिहारिक: करोति। तथा चाऽऽहउद्विज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडिज मंडयं पेहे। कुवियपियबंधवस्स व, करेइ इयरो वितुसिणीओ॥३६५॥ यद्युत्थातुं न शक्रोति ततो ब्रूते-उतिष्ठामि तदनन्तरमनुपारिहारिकः समागत्योत्थापयेत्। तथा यदि निषीदनं कर्तुमसमर्थस्तदा निषीदामीति वचनान्तरं सत्वरमागत्य निषीदयेत्। यच भिक्षां गतः सन् कर्तुं न शक्नोति तदपि भिक्षाग्रहणाऽऽदिकं करोति। अथ ब्रूतेभिक्षामेव हिण्डितुमसमर्थः तदा भिक्षामनुपारिहारिकः केवलो हिण्डेत ! एवं भण्डकप्रत्युपेक्षणेऽपि साहाय्य करोति, समस्तं वा भण्डक प्रत्युपेक्षते / कथमेतत् सर्व करोतीत्यत आह-(कुवियेत्यादि) यथा कोऽपि कुपितप्रियबान्धवस्य यत्करणीयं तत्सर्व तूष्णीकः करोति / एवमितरोऽप्यनुपारिहारिकस्तस्य पारिहारिकस्य तूष्णीकः सन् सर्व करोति। अत्र पर आहअवसो व रायदंडो, न एव एवं तु होइ पच्छित्तं। सक्करसरिसवसगडे-मंडववत्थेण दिटुंतो॥३६६ / / 'अवसो' इत्यत्र प्रथमा तृतीयाऽर्थे, आर्षत्वात् / ततोऽयमर्थः-यथा राजदण्डोऽवश्यवशेनापि वोढव्यः, किमेवमध्यवसानं कृत्वा प्रायश्चित्तं वोढव्यम्, उतान्यदालम्बनं कृत्वा? सूरिराह-नवरं राजदण्डन्यायेन वोढव्यं, किंतु चरणविशुद्धिनिमित्तमेतत् प्रायश्चित्तमित्येवमध्यवसायेन भवति प्रायश्चित्तं वोढव्यम्।अथवा यथा राजदण्डोऽवश्यमवशेनाप्युह्यते यदि पुनर्नेति नोह्यते ततः शरीरविनाशो भवति। एवशब्द एवंशब्दात्परतो द्रष्टव्यः। एवमेव राजदण्डन्यायेनैव प्रायश्चित्तमप्यवश्यं भवति वोढव्यम्, तद्वहनाभावे चारित्रशरीरविनाशाऽऽपत्तेः। पुनरप्याह-प्रभूतं प्रायश्चित्तस्थानमापन्नमुह्यतां किं स्तोकमापन्नमुह्यते, न खलु किमपि तावता प्रायश्चित्तस्थानेनाऽऽपन्नेन भवति? अत्राऽऽचार्यः प्राऽऽह-"संकरेत्यादि पश्चार्द्धम् / सर्करस्तृणाऽऽद्यवस्करः, तेन, तथा सर्षपाः प्रतीताः, सर्षपग्रहणं पाषाणोपलक्षणम् / ततोऽयमर्थशकटे पाषाणेन, मण्डपे सर्षपेण, वस्त्रेण चात्र दृष्टान्तः / तथाहि-यथा सारण्या क्षेत्रे पाप्यमाने सारणीस्रोतसि तृणशूकमेकं तिर्यग्लग्नं, तैर्नाऽपनीतं, तन्निश्रया अन्यान्यपितृणशूकानि लग्नानि, तन्निःश्रया प्रभूतः पङ्को लग्नः। तत एवं तस्मिन् स्रोतसिरुद्ध क्षेत्रं समस्तमपिशुष्कम्। एवं स्तोकेनाऽऽपन्नेन पडेनाशोध्यमानेन चरणकुल्यानिरोधचरणक्षेत्रविनाशो भवति, तत एवं ज्ञात्वा स्तोकमपि प्रायश्चित्तस्थानमापन्नं वोढव्यमिति।शकटदृष्टान्तो यथा-एकः पाषाणः शकटे प्रक्षिप्तः सनापनीतः अन्यः प्रक्षिप्तः, सोऽपिनापनीतः, एवं प्रक्षिप्यमाणेषु भविष्यति स कोऽपि गरीयान् पाषाणो यस्मिन् प्रक्षिप्ते तच्छकट भक्ष्यति। एवं स्तोकेन स्तोकेन समापन्नेन प्रायश्चित्तस्थानेन शोध्यमानेचरणक्रमेण चारित्रशकटभज्यते। अथवाऽन्यथा शकटदृष्टान्तभावनाशक्टेएकं दारु भग्न तन्न संस्थापितमेवमन्यदन्यत्भग्रंनस्थापित Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 664 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार मिति सर्वं भग्नम् / एवं चारित्रशकटेप्युसंहारो भावनीयः। तथा एरण्डमण्डपे एकः सर्षपः प्रक्षिप्तः, स नापनीतः अन्यः, प्रक्षिप्तः, सोऽपि नापनीतः / एवं प्रक्षिप्यमाणेषु सर्षपेषु भविष्यति सर्षपो येन प्रक्षिप्तेन सोऽल्पीयानेरण्डमण्डपो भज्यते / एवं स्तोकेन स्तोकेनाऽऽपन्नेनाशोध्यमानेन कालक्रमेण चारित्रमण्डपो भज्यते। वस्त्रदृष्टान्तभावना यथा-शुद्धे वस्त्रे कर्दमबिन्दुः पतितः स न प्रक्षालितः, अन्यः पतितः, सोऽपि न प्रक्षालितः / एवं पतत्सु कर्दमबिन्दुषु अप्रक्षाल्यमानेषु कालक्रमेण सर्वं तद्वस्त्रं कर्दमवर्ण संजातम्. एवं शुद्धचारित्रं स्तोकायां स्तोकायामापतितायामापत्तौ प्रायश्चित्तेनाशोध्यमानायां कालक्रमेणाचारित्रं सर्वथा भवति। एवं दृष्टान्तैः प्रायश्चित्तस्य दाने करणे च प्रसाधिते पर आहअनुकंपिया य चत्ता, अहवा सोहीन विजए तेसिं। कप्पट्ठभंडीए, दिट्ठतो धम्मया सुद्धो।।३७०।। तुल्यायामप्यापत्तौ यस्य शुद्धतपः प्रयच्छत स युष्माभिरनुकम्पितः, तद्विषये च भवतामवश्यं रागोऽन्यथेत्थमनुकम्पाकरणानुपपत्तेः / यस्य पुनः परिहारं प्रयच्छत स परित्यक्तः कर्कशतपोदानेन तथा वसतितस्मिन् व्यक्तं प्रद्वेषः / अथवा-परलोकमपेक्ष्य परिहारतपश्चानुकम्पितः, परिहारतपोदानेन तवरणशुद्धिकरणात् शुद्धतपस्वी च परित्यक्तः, शुद्धतपसा तच्चारित्रस्य शुद्धयभावात् / एवं विवक्षातो द्वावप्यनुकम्पिती यदि त्यक्ताविति। (अहवा सोहीत्यादि) अथवा तयोः शोधिः सर्वथा न विद्यते। तथाहि यदि परिहारतपसा शुद्धिस्ततः शुद्धतपस्विनो न शुद्धिः तस्य परिहारतपोऽभावात्। अथ शुद्धतपसा शुद्धिस्तर्हि पारिहारिकस्य यत् परिहारतपसः कर्कशस्य करणं तत् सर्वं निरर्थक, शुद्धतपसा शुद्धयभ्युपगतौ तेन शुद्ध्यभावात्। अत्राऽऽचार्य आह-(कप्पट्टगेत्यादि) कल्पस्थका बालाः, तेषां भण्डी गन्त्री तया दृष्टान्तः। कल्पस्थकग्रहण महदुपलक्षणं, तेन महद्न्या दृष्टान्त इत्यपि द्रष्टव्यम्। इयमत्र भावनाअत्र बालकगन्त्र्या बृहत्पुरुषगन्त्र्या च दृष्टान्तः / तथाहि-डिम्भा आत्मीयया गन्त्र्या क्रीडन्ति स्वकार्यनिष्पत्तिं च साधयन्ति / न पुनः शक्नुवन्ति बृहत्पुरूषगन्त्र्या कार्य कर्तुम् तथा बृहत्पुरुषा अपि आत्मीयया बृहद्गन्त्र्या कार्यं कुर्वन्ति न डिम्भकन्त्र्या। अथ डिम्भकगन्त्र्या कुर्वन्ति ततो भूयान् पलिमन्थदोषो, न चाऽभिलषितस्य कार्यस्य परिपूर्णा सिद्धिः / अथ बृहद्न्त्र्या भारस्तस्या मारोप्यते तर्हि सा भज्यते, मूलत एव कार्य न सिद्धयति। एवं शुद्धतपस्विनां शुद्धतपसा शुद्धिर्भवति, परिहारतस्विनां परिहारतपसा, यदि पुनः शुद्धतपस्विना परिहारतप आरोप्यते ततस्तत्र तेषां शक्त्यभावात् मूलत एव भ्रंशः। अर्थ च परिहारतपस्विनां शुद्धतपस आरोपस्तर्हि चरणशुद्ध्यभावः, तावता तेषां चरणशुद्ध्ययोगात् / अथ कथं शुद्धतपस्वी, परिहारतपस्वी च स्वस्वतपसा शुद्ध्यति, नान्येन, तत आह-(धम्मया सुद्धो) इह शुद्धतपस्वी परिहारतपस्वी वा शुद्धो भवति 'धम्मया' स्त्रीत्व प्राकृतत्वात् धर्मेण स्वशक्तिलक्षणेन स्वभावेन, तत एवमेव शुद्धिर्नान्यथा। एतदेव स्पष्टतरं भावयति जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसुज्झए असढभावो। गूहियबलो न सुज्झइ, धम्म सहावो त्ति एगहुँ / / 371 / / यः साधुर्यत् शुद्धतपः परिहारतपो वा कर्तु समर्थः स साधुरशठभावः स्वकीय प्रति मायामकुर्वाणः स्वधर्मव्यवस्थितत्वात्तेन तपसा शुद्ध्यति / यः पुनर्गृहितबलः स्ववीर्य निगृहति सन शुद्ध्यति / स्वधर्मगृहनात्धर्मः स्वभाव इति द्वयमप्येकार्थम् / एतेन "धम्मया सुद्धो'' इति धर्मशब्दस्य पर्यायण व्याख्या कृता पादत्रयेण त्वादिमेन तत्त्वत इति। (8) अथ शुद्धतपःपरिहारतपसोः कतरत् कर्कशं तपः? सूरिराहआलवणाऽऽदी उपया, सुद्धतवे अस्थि कक्खडो न भवे / इयरम्मि उ ते नऽत्थी, कक्खडओ तेण सो होइ॥३७२।। यस्मात् शुद्धतपसि दशप्यालपनाऽऽदीनि सन्ति, तेन कारणेन तत्तपः कर्कश न भवति, इतरस्मिंस्तु परिहारतपसि यस्मात्तान्या-लापनाऽऽदनिपदानि न सन्ति, तेषां पूर्वमेव सकलगच्छसमक्ष स्थापितत्वात्। तेन तद्भवति कर्कशमिति / यः पुनस्तपःकालो, यच तपःकरणं तत् द्वयोरपि तुल्यम्। तम्हा ऊ कप्पट्ठिय अणु-परिहारिं च तो ठवेऊण। कजं वेयावच्चं, किच्चं तं विजवच्चं तु / / 373 // यस्मादेव परिहारतपः स्थितिः तस्मात्कल्पस्थितम् अनुपरिहारिकं च स्थापयेत, स्थापयित्वा च तौ ततस्तदनन्तरं स्वमापन्नं परिहारतपो वोढव्यं, तच्चाऽऽपन्न परिहारतपः प्रपन्नस्य ताभ्यां कल्पस्थितानुपरिहारिकाभ्यां स्थापिताभ्याम्-'करणिज्जं वेयावचं' इति सूत्रपदम्, एतदेवानुवदति कार्य वैयावृत्यम् / एतदेव व्याचष्टे-कृत्यं करणीयं तत् स्वोचितं ताभ्यां वैयातृत्यम्। कि तद् वैयावृत्यं यत्ताभ्यां कर्त्तव्यभित्यत आहवेयावचे तिविहे, अप्पाणम्मि य परे तदुभए य। अणुसट्ठि उवालंभे, उवग्गहे चेव तिविहम्मि // 374 / / वैयावृत्यं त्रिविधम्। तद्यथा अनुशिष्टिरुपालम्भोऽनुग्रहश्च। त्रिविधेऽपि तस्मिन् वैयावृत्ये प्रत्येकं त्रयो भेदाः तद्यथा-अनुशिष्टिरात्मनि आत्मविषया, परस्मिन्परविषया, तदुभयस्मिन्तदुभयविषया, आत्मपरतदुभयविषया इत्यर्थः / एवमुपालम्भोपग्रहावपि प्रत्येकमात्मपरतदुभयविषयौ भावयितव्यौ / तत्र उपदेशप्रदानमनुशिष्टिं स्तुतिकरणं वा अनुशिष्टः, तत्र यत् आत्मानमात्मना अनुशास्ति सा आत्मानुशिष्टिः / यत्पुनः परस्य परेण वाऽनुशासनं सा परानुशिष्टिः। तत्रोदाहरणम्-चम्पायां नगर्या सुभद्रा, सा हि सर्वरपि नागरिकजनैरनुशिष्टा, यथा धन्याऽसि त्वं, कृत पुण्यासि त्वमिति / यत्पुनरात्मानं परं वाऽनुशास्ति सा उभयानुशिष्टिः / तथा--अनाचारे कृते सति यत्सा तु नयोपदेशदानमेव उपालम्भः / सोऽपि त्रिविधः, तद्यथा-आत्मनि परे, तदुभये च / तत्र यदात्मानमात्मनैवोपालम्भते, यत्र त्वयैवेदं कृतं, तस्मात्सम्यक् सहस्वेति स आत्मोपालम्भः / परेणाऽऽचार्याऽऽदिना यदुपालम्भनं स परोपालम्भः / तत्रोदादहरणम्-मृगावती देवी, सा हि आर्यचन्दनया अकालपारिणीति कृत्वा उपलब्धा / उभयोपालम्भनो नामयत्प्रथमत आ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 665 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार त्मानमात्मनोपालभते, पश्चादाचार्याऽऽदीना परेणोपालभ्यते। यदिवागुराणा उपालभ्यमानस्तत् गुरुवचनं सम्यक् प्रतिपद्यमानः प्रत्युचरति, एष उभयोपालम्भः / तथा उपग्रहणमुपग्रहः, उपष्टम्भकरणमित्यर्थः / सोऽपि त्रिविधः / तद्यथा-आत्मोपग्रहः, परोपग्रहः, उभयोपग्रहश्च। तत्र यदात्मन उपष्टम्भकरणं स आत्मोपग्रहः, यत्पुनः परमुपगृह्णाति स परोपग्रहः, आत्मनः परस्य चोपष्टम्भकरणमुभयोपग्रहः / उपग्रहश्च स्वरूपतो द्विधाद्रव्यतो, भावतश्च / अत्र चतुर्भड्किाद्रव्यतो नामैक उपग्रहो, न भावतः 1 / भावत एको, न द्रव्यतः 2 / एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि 3 / एको नाऽपि द्रव्यतो नापि भावतः / अत्र चतुर्थो भङ्गः शून्यः! तृतीयभड़े उदाहरणमाचार्यः। तथा च उक्तानेव दृष्टान्तानुपदर्शयतिअणुसट्ठीएँ सुभद्दा, उवालंभम्मिय मिगावती देवी। आयरिओ दोसुव-गहे य सव्वत्थ वाऽऽयरिओ।।३७४ / / अनुशिष्टौ परानुशिष्टावुदाहरणं सुभद्रा, उपालम्भे परोपालम्भे उदाहरणे मृगावती देवी। एते च द्वे अप्युदाहरणे प्रागेव भाविते, परस्य द्रव्यभावयोर्विषये उपग्रहे उदाहरणमाचार्यः / स हि द्रव्यमन्नपानाऽऽदिकं दापयति, भावतः प्रतिपृच्छाऽऽदिकं करोति / (अथवा दोसु उवग्गहे यत्ति) द्वयोः पारिहारिकानुपारिहारि-कयोरुपग्रहे आचार्यो वर्तते / तस्मात्परोपग्रहे आचार्य उदाहरणम् / अथवा सर्वत्र अनुशिष्टौ उपालम्भे उपग्रहे च उदाहरणमाचार्यः / यतः सपरिहारिकस्यानुपारिहारिकस्य समस्तस्याऽपि च गच्छरयानुशिष्ट्यादीनि करोतीति। व्य०१ उ०। (सर्वोऽप्यनुशिष्टिविषयः 'अणुसट्ठी' शब्दे प्रथमभागे 420 पृष्ठ गतः) संप्रत्यात्मोपालम्भोल्लेखं दर्शयतितुमए चेव कयमिणं, न सुद्धगारिस्स दिज्जए दंडो। इह मुक्को वि न मुच्चइ, परत्थ अह होउपालंभो // 377 / / त्वयैव स्वयं कृतमिदं प्रायश्चित्तस्थानं, तस्मान्न कस्याप्युपर्यन्यथाभावः कल्पनीयः, न खलु शुद्धकारिणो लोकेऽपि दण्डो दीयते। किंचयदि इह भवे कथमप्याचार्येणैवमेव मुच्यते। तथा इह भवे मुक्तोऽपिपरत्र परलोके न मुच्यते / तस्मात्प्रमादाऽऽपन्नं प्रायश्चित्तमवश्यं गुणवृद्ध्या कर्तव्यमिति। अथ एष भवत्युपलम्भः / एषः आत्मोपलम्भः, एतदनुसारेण परोपालम्भः, उभयोपालम्भोऽपि भावनीयः। संप्रति परोपग्रहे युदक्तम्-"आयरिओ दोसुवगहे य'' इति / तत् व्याख्यानयति-- दवेण य भावेण य, उवग्गहो दव् अण्णपाणाई। भावे पडिपुच्छाई, करेति जं वा गिलाणस्स // 37811 उपग्रहो द्विविधः-द्रव्येण, भावेन च। तत्र "दव्ये' इति तृतीयार्थे सप्तमी, द्रव्येणोपग्रहः, कल्पस्थितोऽनुपारिहारिको वा असमर्थस्य सतोऽन्नपानाऽऽद्यानेतुं ददाति / भावे भावेनोपग्रहो यत् सूत्रेऽर्थे वा प्रतिपृच्छाऽऽदि करोति। अथवा यत् ग्लानस्य क्रियते समाधानोत्पादनमेव भावोपग्रहः / अधुना 'दोसुवग्गहे य" इत्यस्य व्याख्यानान्तरमाह परिहाराणुपरिहारी, दुविहेण उवग्गहेण आयरिओ। उवगेण्हइ सव्वं वा, सबालबुड्डाऽऽउलं गच्छं / / 376 / / व्यरूपेण भावरूपेण वोपग्रहेणाऽऽचार्य उपगृह्णाति, ततः आत्मोपग्रहे आचार्य उदाहरणम्। 'सव्वत्थ वाऽऽयरिओ'' इत्यस्य व्याख्यानमाह(सव्वं वा इत्यादि) वाशब्दः पूर्वार्धोक्तपक्षापेक्षया पक्षान्तरसूचने, सर्व पारिहारिकमनुपारिहारिक सबालवृद्धाऽऽकुलं च गच्छमाचार्यो द्रव्यतो भावतश्चोपगृह्णाति, ततः सर्वत्र समस्तेऽपि गच्छे आचार्य उपग्रहे वर्तते, तस्मात्परोपग्रह स उदाहरणम्। अत्रैव व्याख्यानान्तरमाहअहवाऽणुसछ्वालं-भुवग्गहे कुणति तिन्नि वि गुरू से। सव्वस्स वि गच्छस्स, अणुसट्ठाईणि सो कुणति॥३०॥ अथवेति प्रकारान्तरे, अनुशिष्ट्यपालम्भोपग्रहान् त्रीनपि गुरुराचार्यः (से) तस्य पारिहारिकस्य यथायोगं करोति, न केवलं पारिहारिकस्य यथायोग करोति किं तु सर्वस्याऽपि गच्छस्य अनुशिष्ट्यादीनि त्रीण्यपि स आचार्यः करोति। व्य०१ उ०। नि० चू०। (बहवः पारिहारिका इच्छन्ति अभिनिषद्यां गन्तुमिति तद्वक्तव्यता 'अभिणिसज्जा' शब्दे प्रथमभागे 715 पृष्ठे दर्शिता) (8) परिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोरन्यवाऽऽचार्याणां वैयावृत्याय गमनम्परिहारकप्पद्विते भिक्खू बहियाथेराणं येयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा, कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए, जंणं जंणं दिसि अण्णे साहम्मिया विहरंतितं णं तं णं देसं उवलातुं णो से कप्पइ, तत्थ विहारवत्तियं वत्थए, कप्पइसे तत्थ कारणवत्तिय वत्थए, तस्सिं च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएजा-वसाहि अञ्जो! एगरायं वा दुरायं वा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा परं वत्थए, जं तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतराए छेदे वा परिहारे वा // 23 / / परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराण वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेराय से णो सरेजा, कप्पइसे णिविसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जंणं जं णं दिसिं० जाव तत्थ एगराओ वा दुराओ वा परं वसति, से संतरा छेदे वा परिहारे वा // 24 || परिहारकप्पट्टिते भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेजा, थेरा य से सरेजावा, णो सरेजावा, कप्पइसे णिविसमाणस्स एगराइयाए० जाव छेदे वा परिहारे वा।।२५।। परिहारस्य कल्पः समाचारी परिहारकल्पस्तत्र स्थितः परिहारकल्पस्थितः, प्रायश्चित्ततपःप्रकारे व्यवस्थित इत्यर्थः / भिक्षुर्वती, बहिरन्यत्र नगराऽऽदौ स्थविराणामाचार्याऽऽदीनां, वैयावृत्त्याय वैयावृत्त्यकरणाय गच्छेत। स्थविराश्य येषां समीपे तिष्ठन्ति ते स्मरेयुर्यथैष परिहारकल्पस्थितो वर्तते, स्मरद्धि स्थविरैः स वक्तव्योयावत्प्रत्यागच्छसि तावन्नि Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार ६६६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार क्षिप परिहारतपः / तत्र यदि सामर्थ्यमस्ति, ततः परिहारतपः प्रपन्नो गच्छति, अथ नास्ति, ततो निक्षिपति० निक्षिप्प च (से) तस्य कल्पते एकरात्रिक्या प्रतिमया, अत्र प्रतिमाशब्दोऽभिग्रहवाची, एकराविकेणाभिग्रहेण / किमुक्तं भवति?-यत्रापान्तराले वसामि तत्र गोकुलाऽऽदी प्रवुरगोरसाऽऽदिलाभेऽपि प्रतिबन्धमकुर्वता कारणमन्तरेण मयैकरात्रमेव वस्तव्यं० नाधिकमित्येवंरूपेणाभिग्रहेण (जणं जंणं दिसमित्यादि) अत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे, यस्यां यस्यां दिशि, णशब्दो वाक्यालङ्कारे। अन्य साधर्मिकाः-(लिङ्गसाधर्मिकाः) प्रवचनसाधर्मिका वा सविनसांभोगिकाऽऽदयो वक्ष्यमाणास्तिष्ठन्ति / (तणं त णं दिसमिति) तां तां दिशं, णंशब्दौ प्राग्वत् / उपलातुं ग्रहीतुम्, आश्रवितुमित्यर्थः / 'ला आदाने' इति वचनात्। (नो से कप्पइ इत्यादि) (नो) नैव (से) तस्य परिहारकल्पस्थितस्य, निक्षिप्तपरिहारतपसो वा कल्पते, तत्रेति गच्छन् यत्र दसति भिक्षा वा करोति, तत्र सुन्दर आहारः, सुन्दर उपधिः, सुन्दरा शय्येति समीचीनो विहार इति विहारप्रत्ययं वस्तुम् (कप्पइ से इत्यादि) कल्पते (से) तस्यानन्तरोदितस्य यत्र भिक्षां कृतवान् उषितवान् वा, तत्र कारणप्रत्यय वक्ष्यमाणसूत्रार्थप्रतिपृच्छादानाऽऽदिकरणनिमित्तं वस्तुम, (तस्सिं च णमित्यादि)। येन कारणेनोषितस्तस्मिन् कारणे निष्ठित परिसमाप्ते यदि ब्रूयात्-अहो आर्थ! वंस एकरावं द्विराव वा तत एवं तदुपरोधतः (से) तस्य कल्पते एकरात्रं, द्विरात्र वा वस्तुं, न पुनः(से) तस्य कल्पते एक रात्रात् द्विरात्राद् नापरं वस्तु, यत्पुनस्तत्रैकरात्रात् द्विरात्राद्वा परं वसति निष्कारणवसनरूपात वा (से) तस्य प्रायश्चित्त छेदो वा परिहारो वा परिहारतपो वेति / एष सूत्रसंक्षेपार्थः / / 23 / / (परिहारकप्पटिए) एतदपि सूत्रत्रयं तथैव नवरमेतावान् विशेषः--(थेरा य से सरिज्जा वा नो सरिजा वा नो कप्पइ से निविसमाणरस त्ति) अस्याऽयमर्थःस्थविराः (से) तस्य परिहारकल्पं स्मरेयुः / यदि वाव्यक्षेपान्न स्मरेयुः, वाशब्दादुभावपि न स्मरेयाताम्, तथाऽपि यदि निविशमानको गच्छति ततः (से) तस्य निविशमानकस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया एकरात्रिकेण दा साभिग्रहेण कदाचिदपि प्रतिबन्धमन्तरेण गच्छत इत्यादि / तथा चाऽऽह-इह त्रीणि सूत्राणि, तद्यथा-प्रथम स्मरणसूत्र, द्वितीयस्मरणसूत्रम, तृतीयं मिश्रकसूत्रम् स्मरणास्मरणसूत्रमित्यर्थः // 24 // 25 // __ साम्प्रतमेतदेव सूत्रं विवरीषुः प्रथमतो भि क्षुशब्दविषये चालनाप्रत्यवस्थाने आहपरिहारियगहणेणं, भिक्खुग्गहणं तु होइ किं पगयं / किंच गिहीण विभणित्ति, गणिआयरियाण पडिसेहो? 167 / अथवा-परिहारिकग्रहाणेन परिहारकल्पस्थितग्रहणेन भिक्षुग्रहणं किन भवतीति भावः, परिहारिकस्य भिक्षुत्वाव्यभिचारात् न खलु पारिहारिकत्वं गृहस्थस्याऽपि भवति। एतदेव काका आह-(किं च गिहीणं वि ति) कि वा गृहिणामपि गृहस्थानामपि भवति पारिहारिकत्व, येन तद् व्यवच्छेदकरणतो भिक्षुग्रहणं सफलतामश्नुवीत? नैव भवतीति भावः / ततो निरर्थक भिक्षुग्रहणम् / अत्राह-मण्यते उत्तरं दीयतेगण्याचार्ययोर्गणी गच्छाधिपतिराचार्यस्तयोः, उपलक्षणमेतत्-उपाध्यायस्य च प्रतिषधो भिक्षुग्रहणेन, आचार्योपाध्यायप्रतिषेधार्थ भिक्षुग्रहणमिति भावः / पुनरप्यत्राऽऽक्षेपपरिहारावाहवेयावचुज्जमणे, गणिआयरियाण किन्नु पडिसेहो। भिक्खुपरिहारिओ विहु, करेइ किमु आयरियमादी? / / 6 / / वैयावृत्योद्यमने वैयावृत्त्यविषयोद्यतकरणे, किंन खलु गण्या चार्ययोर्गच्छाधिपत्यनुयोगाऽऽचार्योपाध्यायानां प्रतिषेधः, नैवाऽसो युक्त इति भावः / यतो भिक्षुरपि, अभिशब्दो भिन्नक्रमत्वादत्रोपात्तोऽप्यन्यत्र संबध्यते / पारिहारिकः करोति। संघवैयावृत्त्यं किमुताऽऽचार्याऽऽदिन करोति, सुतरां तेन कर्तव्यम्, गुणोत्तमतया विशेषतस्तस्य तत्करणाधिकारत्वात्। अत्र सूरिराहजम्हा आयरियाऽऽदी, निक्खिविज्झणं करेइ परिहारं ! तम्हा आयरियाऽऽदि, विभिक्खुणो होंति नियमेण // 66 // यस्मादाचार्याऽऽदिकः परिहारं परिहारतपः करोति आचार्याऽऽदिपर्द निक्षिप्य मुक्त्वा, तस्मादाचार्याऽऽदयोऽपि भवन्ति नियमेन भिक्षव इति / भिक्षुग्रहणेन तेऽपि तदवस्थोपगता गृहीता इति। (E) अथ स्थविराणां वैयावृत्त्याय गच्छतीत्युक्तं, तत्र किं वैयावृत्त्यं, येन हेतुभूतेन स गच्छति? तत आहपरिहारिओ उ गच्छे, सुत्तत्थविसारओ सलद्धीओ। अन्नेसिं गच्छाणं, इमाइ कजाई जायाई॥७०।। यस्मात्स पारिहारिकः सूत्रार्थविशारदः सम्यक सूत्रार्थतदुभयकुशलः। तथा सलब्धिकोऽनेकलब्धिसंपन्नः / ततः सूत्रार्थप्रतिपृच्छाप्रदाननिमित्तम्, तथाऽन्येषां गच्छाऽऽदीना षष्ठी सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्, अन्येष गच्छेषु, इमानि वक्ष्यमाणानि, कार्याणि जातानि, ततः साधनार्थ च गच्छेत्। इदं तु महत्प्रवचनस्य वैयावृत्त्यं यत् सूत्रार्थप्रदानादि करोति। अथ कान्यन्येषु जातानि कार्याणि, यदर्थ स व्रजेत्? अत आहअकिरिय जीए पिट्टण-संजम बंधे य भत्तमलभंते। भत्तपरिण्ण गिलाणे, संजमऽतीए य वादी य॥७१।। अक्रियावादी नास्तिको वादी स राजसमक्षं वादं याचते। (जीए त्ति) जीविते वा साधूना प्राणेषु वा राजा केनपि कारणेन प्रद्विष्टः (पिट्टण त्ति) पिट्टयति वा लकुटाऽऽदिमिः साधून (संयम त्ति) संयमाद्वा च्यावयति, उत्प्रवाजयतीति भावः / (बंध त्ति) बधाति वा साधून, बन्धे च कृते साधवो राज्ञः सकाशाद्भक्तपानं लभन्ते वा, न वा / किमुक्तं भवति? बन्धयित्वा स्वयं ददाति वा, वारयति वा यदेतेभ्यो हिण्डमानेभ्यः कोऽपि मा भिक्षा दद्यादिति। (भत्ते त्ति) दुर्भिक्षे वा समापतिते भक्तमतीव दुर्लभ जातमिति गत्वा स संपादयति। (भत्तपरिण त्ति) भक्तप्रत्याख्यानं वा केनाऽपि साधुना कृतं, सच परिहारिकः शोभनो निर्यामकः (गिलाण त्ति) ग्लाने वा कोऽप्याचार्याऽऽदिकः प्रवचनाऽऽधारभूतो जातः स च पारिहारिकः सम्यक् वैद्यक्रियाकुशलः / (सं जमतीत ति) संजमातीताः उत्प्रव्रजिताः ते राज्ञा कृताः, कृत्वा च धृता वर्तन्ते इति तन्मोचनार्थ गच्छति (वादि त्ति) नास्तिकवादिव्यतिरिक्तो दर्शनान्तरस्थः कोऽपि वाद याचते / एतेषां कारणानामन्यतमस्मिन्नपि Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 667 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार कारणे जाते अन्यगच्छवर्तिभिः संघाटकः प्रेषितः, तेन च संघाटकेन यत्तीक्ष्णकार्यम्। अत्र तरलोपो द्रष्टव्यः। तीक्ष्णतरं कार्य, तत्प्रथम कर्तव्यं, आचार्यस्य निवेदितम्। पश्चादितरत / उक्तं च-"युगपत्समुपेताना, कार्याणां यदतिपाति तत आचार्यस्तस्य परिहारिकस्य माहात्म्यमवगच्छिन्निद तत्कार्यम् / अतिपातिष्वपि फलद, फलदेष्यपि धर्मसंयुक्तम् // 1 // माह (सहमाणेसु य त्ति) सहमान गुरुकमनतिपाति च, तेषु सहमानेषु पुनः नविय समत्थो अण्णो, अहयं गच्छामि निक्खिविय भूमि। / कार्येषु समुत्पन्नेषु, तद्यथा-देशकालाऽऽद्यौचित्येन युज्यते' तत्तथा क्रमेण सुरमाणेहिँ वि भणियं, आयरिया जाणिया तुज्झं // 72 // | कर्तव्यम्। (न या नाम न कायव्वं ति) न च नाम तीक्ष्णतर कार्ये कृत्वा पारिहारिक मुक्त्वा नैव, अपिशब्दोऽवधारणार्थः 1 अन्यः कोऽपि तं पञ्चात्सहमानक न कर्तव्यं, किंतु कर्तव्यमेव। (कायव्वं वा उवादायेति) वादिनं निवारयितुम्, अन्यद्वा प्रयोजनं साधयितुं समर्थः / यदि वा-स यदि वा-द्वयोरतिपातिनोः कार्ययोः समुत्पन्नयोर्गुरुलाघवचिन्तामुपाएव पारिहारिको ब्रूते-प्रचण्डः सवादी, न मां मुक्त्वा अन्यः कोऽपि | दाय यत् गुरुकं प्रवचनोपकारि सकलसंघसाधारणं च तत्तत् कर्तव्यम् निवारयितुं समर्थः, न वा राजानं पिट्टनाऽऽदि कारयन्तम्, ततो यदि इतरदतिपात्युपेक्षते। गुरवोऽनुजाति, ततोऽहं गच्छामि। एवं स्वयं तन्माहात्म्ये ज्ञातेऽन्येन वा तत्र युदक्तं तीक्ष्णतरं प्रथमतः कृत्वा पश्चात्सहमानकं कर्तव्यम्, न च कथिते तैराचार्यरेष परिहारतपो वहतीति स्मरगिस्जं प्रांत भणितं तन्न कर्तव्यमिति तत्र दृष्टान्तो व्रणक्रिया। कर्तव्यम्, एतत् ब्रूयात् तं प्रतीत्यर्थः / यथा आर्य! निक्षिप मुञ्च, तामेवाऽऽहभूमिमात्मीयां भूमिका, यावत् प्रत्यागमनमिह भवति तावत् मुच्यतां वणकिरियाए जा हो-इ वावडा जरधणुग्गहाऽऽदीया। परिहारतपइति। एवमुक्ते यदि निक्षिपति ततो निक्षेपं कार्यत। अथ बूते काउमुवद्दवकिरियं, समिति तो तं वणं विज्जा // 76 // पारिहारिको भगवान्! शक्रोमि प्रायश्चित्तं वोढुं, तदपि च प्रयोजनं व्रणक्रियायां प्रारब्धयामपान्तराले या भवति व्यापत् उपद्रवः / काऽप्याकर्तुम् / तत आचार्यक्तव्यम्-(आयरिया जाणगा तुज्झमिति) तव पदित्याज्वरधनुर्ग्रहाऽऽदिका, ज्वरो वा समुत्पन्नो, धनुर्ग्रहो वा वातआचार्या ज्ञकाः / किमुक्तं भवति?-यत्र त्वं गच्छसि तत्र ये आचार्यास्ते विशेषः, आदिशब्दात्तदन्येषां गुरुकव्याधिविशेषाणां जीवितान्त-- यत् ब्रुवते तत् कुर्या इति। कारिणपिरिग्रहः। तस्य व्यापल्लक्षणस्य उपद्रवस्य क्रियां कृत्वा पश्चात्तं अत्र यदुक्तम्-'नविय समत्थो अन्नो अहयं गच्छामि त्ति'' तद्विभाव- व्रण वैद्याःशमयन्ति उपशमयन्ति एष दृष्टान्तः। यिषुरिदमाह अयमर्थोपनयःजाणता माहप्पं, कहेंति सो वा सयं परिकहेइ। जह आरोग्गे पगर्य, एमेव इमम्मि कम्मखवणेण। तत्थ स वादी हु मए, वादेसु पराजितो बहुसो // 73 / / इहरा उ अवच्छल्लं, ओहावण तित्थहाणी य 77 // तस्य पारिहारिकस्य माहात्म्यमद्भुतां शक्तिं स्वयं जानाना इदं तस्मै यथा वैद्यक्रियायामारोग्ये, प्रकृतं येनाऽऽरोग्यं भवति तत् प्रथम क्रियते, कथयन्ति- यथा नान्यः कोऽपि समर्थस्त्वां मुक्त्वा / अथवा स एव शेप पश्चदित्यर्थः / एवमेव अनेनैव प्रकारेण, अस्मिन्नपि मोक्षानुष्ठाने पारिहारिकः स्वयं गुरुभ्यः परिकथयति / यथा-तत्र तस्मिन् गन्तव्ये कर्मक्षपणन प्रकृतं, येनानुष्ठानेन कर्मक्षपणमचिराद्भवति तत्प्रथमतः स्थाने यो वादी वर्तत समया (हु) निश्चितंबहुशोऽनेकवारं वादेष्वक्रिया- कर्तव्यमिति भावः / इयमत्र भावनामोक्षार्थ क्रियमाणायां क्रियायामवादाऽऽदिषु पराजितः, प्रचण्डश्च स न मां मुक्ताऽन्येन निवारयितु पान्तराले यदन्तरायमुपजायते येनक्रियमाणेन प्रायश्चित्तमुपजायते, शक्यते, नापि राजा पिट्टनाऽऽदि कारयन् / ततो यदि गुरूणामनुज्ञा तत्प्रथमतः कर्तव्यमिरत्पश्चात्, तथऽत्रापि परिहारतपस्युह्यमाने अन्तरा भवति, ततोऽहं गच्छामीति शेषं पूर्वगाथागतमुत्तानमिति न व्याख्यातम्। संघाऽऽदिकार्यमुयस्थितं, ततः परिहारतपो निक्षिप्य तत् क्रियते, अन्यथा अत्रं चोदक आह प्रायश्चिताऽऽपत्तितः कर्मक्षपणासंभवः / तथा चाऽऽह-इतरथा चोएइ कहं तुज्झे, परिहारतवं तगं पवण्णं तु। अधिकृतसंघाऽऽदिप्रयोजनाकारणे अवात्सल्यं संघावात्सल्यप्रत्ययम्, निक्खिविउं पेसेहा?, चोयग! सुण कारणमिणं तु। 74 / / अपभ्राजनाप्रत्यय, तीर्थहानिश्च तीर्थहानिप्रत्ययं च प्रायश्चितमापद्यते चोदयति प्रश्नयति परो,यथा-कथं यूयं तकं परिहारितपःप्रतिपन्नं इति। परिहारतपो वहन्तं (निक्खिविउमिति) परिहारतपो निक्षिप्य निक्षेप अप्परिहारी गच्छति, तस्स असतीऍ जो उ परिहारी। परिहारतपसः कारयित्वा प्रेषयत्? स हि महातपस्वी दुष्करकारी, ततो उभयम्मि वि अविरुद्धे, आदरहेतुं तु तग्गहणं // 78 / / न युक्तमेतस्य तपो मोचयित्वा प्रेषणमिति। अत्राऽऽचार्य आह-चोदक! अवेयं सामाचारी-यद्यपारिहारिकः सूत्रार्थसंपन्नः सलब्धिकश्च श्रृणु कारणमिदं, येन कारणेन स तपो निक्षिप्य प्रेष्यते। तत्कार्य साधयितुं समर्थः ततः स गच्छति। तस्य तथाभूतस्यापारितदेव कारणमाह हारिक स्यासत्यविद्यमानत्वे यः परिहारी पारिहारिकः स वा तिक्खेसु तिक्ख कजं, सहमाणेसु य कमेण कायव्वं / गच्छति / एवमुभयस्मिन्नपि पारिहारिके अपारिहारिके च गमने न य नाम न कायव्वं, कायव्वं वा उवादाय / / 75 // अविरुद्ध यत्सूत्रे तदहणं तस्यैव पारिहारिकस्य ग्रहणं कृतं तदादरतीक्ष्णं नाम-यद् गुरुकमतिपाति च, तेषु तीक्ष्णेषु कार्येषु समुत्पन्नेषु, | हेतोः / सूत्रे द्वितीया पञ्चम्यर्थे, आदरख्यापनार्थमित्यर्थः। विमुक्तं भवति? Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार यदि पारिहारिकोऽपि गच्छति ततः सुतरामपारिहारिकेण गन्तव्यमिति स्थापनार्थ पारिहारिकग्रहणम्: न चोभयग्रहणमुपपत्तिमत, पारिहारिकग्रहणेनेवोक्तयुक्तित उभयग्रहणस्य सिद्धत्वात्। यदि पुनपारिहारिकग्रहणमेव केवलं स्यात्ततः पारिहारिको न यातीति प्रतिपत्तिः स्यात्। न चैव तत्समीचीनम् अतो यथान्यासः श्रेयानिति। संप्रति तस्य संस्थितस्य सहायचिन्तां करोतिसंविग्गमणुण्णजुओ, असती अमणुण्ण मीस पंथेणं / समणुण्णेसु भिक्खं, काउं वसएऽमणुण्णेसु / / 76 / / स पारिहारिकः संविग्नमनोज्ञयुक्तोऽसति मनोज्ञे संविग्नामनोज्ञसहायो गच्छेत् / इयमत्र भावना-तस्य पारिहारिकस्य गन्तुं प्रस्थितस्य संविग्नो मनोज्ञश्च सहायो दातव्यः / मनोज्ञः सांभोगिकः, तदभावे सविनोऽसांभोगिकः / एवंभूतसहायस्य च यदि सामर्थ्यमस्ति तत उत्सर्गतः कल्पते निर्विशमानकस्य सतो गन्तुम, निर्विशमानको नामपरिहारकल्पस्थितः। अथ नास्ति सामर्थ्य, ततः परिहारतपो निक्षिप्य गोकुला ऽऽदिषु प्रतिबन्धमकुर्वन गच्छति। तत्र यदुक्तम्-"जण्णं जण दिस साहम्मिया तण्ण तण्णं दिसं उवलित्तए'' इति / तद्व्याख्यानमाह--(मीसपथेण) मिश्रेण साधर्मिकयुक्तेन पथा गन्तव्यम् / तस्यैव व्याख्यानमाह(समणुण्णेसु इत्यादि) स पारिहारिकः समनोज्ञेषु वसति 1, एष प्रथमो भङ्गः साक्षादुपात्तः। एतस्यासंभवे साभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा असाभोगिकेषु वसति 2 / एतस्याप्यभावे तृतीयः--असांभोगिकेषु भिक्षा कृत्वा साभोगिकेषु वसति३ / एतस्याप्यसंभवे चतुर्थ:-असांभोगिकेषु भिक्षा कृत्वा असांभोगिकेषु वसति 4 / एवमेते संविग्रसांभोगिकेषु चत्वारो भड़ा उक्ताः। एवं संविनासांभोगिकाऽऽदिष्वपि द्रष्टव्याः। तथा चाऽऽहएमेव य संविग्गे, असंविग्गे चेव एत्थ संजोगा। एमेव य पच्छाकड-सावगसंविग्गपक्खा य॥८०।। यथा संविग्रसांभोगिकासांभोगिकेषु चतुर्भया भिक्षा वसतय उक्ताः, एवमेव अनेनैव प्रकारेण संविग्ने असविग्ने वा सांभोगिके भिक्षावसतिविचारे संयोगा वक्तव्याः। एवमेव असविनाः सांभोगिकाः पश्चात्कृतसाभिग्रहनिरभिग्रहश्रावकेषु, तदभावे पश्चात्कृतनिरभिग्रहश्रावकसंविग्नपाक्षिकश्रावकेषु, तेषामप्यसंभवे संविग्नपाक्षिकासविग्नपाक्षिकश्रावकेषु प्रत्येक चत्वारः संयोगाः / सर्वत्र च पूर्वपूर्वचतुर्भङ्गी उत्तरोत्तरचतुर्भद्या प्रथमो भङ्गः। तद्यथा संविग्नासंभोगिकेषु भिक्षा कृत्वा संविनासांभोगिकेषु वसति 1 / एतस्य भङ्गस्याभावे सविग्नासांभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा असंविनासांभोगिकेषु वसति / असविनासांभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा संविनासांभोगिकेषु वसति 3 / अस्यासंभवे असंविग्नासांभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा असविग्नासांभोगिकेषु वसति / तदेवं सविनासंविग्नासांभोगिकचतुर्भङ्गी भाविता। सांप्रतमसंविग्रासांभोगिकपश्चात्कृतसाभिग्रह चतुर्भङ्गी भाव्यतेअसंविग्रासांभोगिकेषु भिक्षां कृत्वा असं विग्नासांभोगिकेषु वसति 1 / एष पूर्वचतुर्भङ्गाश्चतुर्थो भङ्गः / एतस्यासंभवे असंविग्नासांभोगिकेषु भिक्षा कृत्वा पश्चात्कृतसामिग्रहश्रावकेषु वसति / पश्चात्कृतो व्रतपर्यायैस्तैः पश्चाकृताः मुक्तव्रतपर्यायाः, पुराणा इत्यर्थः / एतस्यापि भङ्गस्याऽभावे पश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा असविना सांभोगिकेषु वसति 3 / एतदभावे पश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा पश्चात्कृतसाभिग्रहाकेषु वसति 4 / इदानीं पश्चात्कृतसाभिगृहनिरभिग्रहश्रावकचतुर्भङ्गी भाव्यतेपश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा पश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु वसति 11 एष पूर्वचतुर्भङ्गयाश्चतुर्थो भगः। एतस्याभावे पश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा पश्चात्कृतनिरभिग्रहश्रावकेषु वसति 2 / एतस्याभावे पश्चात्कृतनिरभिग्रहश्रावकेषु भिक्षांकृत्वा पश्चात्कृतसाभिग्रहश्रावकेषु वसति 3 / एतदभावे पश्चात्कृतनिरभिग्रह-श्रावकेषु भिक्षां कृत्वा पश्चात्कृतनिरभिग्रहश्रावकेषु वसति 4 / संप्रति पश्चात्कृतनिरभिग्रहसंविग्नपाक्षिकश्रावकेषु चतुर्भणीभावनापश्चात्कृतनिरभिग्रहश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा पश्चात्कृतनिरभिग्रहश्रावकेषु वसति 1 / एष प्राकृतचतुर्भझ्याश्चतुर्था भङ्गः एतस्याभावे पश्चात्कृतनिरभिग्रहश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा संविग्नपाक्षिकश्रावकेषु वसति 2 / एतस्याप्यसंभवे संविग्नपाक्षिकश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा सविग्नपाक्षिकश्रावके षु वसति 1 / एष पूर्वश्चतुर्भझ्याश्चतुर्थो भङ्गः / एतस्याभावे संविनपाक्षिकश्रावकेषु भिक्षां कृत्वाऽसंविग्नपाक्षिकश्रावकेषु वसति 2 / एतस्याभावे असंविग्नपाक्षिकश्रावकेषु भिक्षां कृत्वा संविनपाक्षिकश्रावकेषु वसति 3 / अस्याऽप्यसंभवे असंविनपाक्षिक श्रावकेषु भिक्षां कृत्वा असंविग्नपाक्षिकश्रावकेषु वसति / संप्रति यदुक्तम्-"नो से कप्पइ विहारवत्तियं वत्थए'' इति। तत्र विहारं व्याख्यानयन्नाहआहारोवहिजातो, सुंदर सेजा वि होइ हु विहारो। कारणतो उ वसेजा, इमे उ ते कारणा हुति।।१।। आहारः खल्वत्र शोभनो लभ्यते, यदि वा-उपधिः, स्वाध्यायो वा तत्र सुखेन निर्वहति / अथवा-सुन्दरा शोभना शय्या वसतिरिति / एष आहाराऽऽदिर्विहारहेतुत्वाद्भवति विहारः, तत्प्रत्ययं न कल्पते वस्तुम, कारणतः पुनः चशब्दस्य पुनः शब्दार्थत्वात् / एतेन "कारणवत्तिय वत्थए'' इति व्याख्यानयति / तानि पुनःकारणानि इमानि वक्ष्यमाणानि भवन्ति। तान्येवाऽऽहउभतो गेलने वा, वास नदी सुत्तअत्थपुच्छा वा। विज्जा निमित्तगहणं, करेइ आगाढपन्ने व // 2 // उभयता द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां ग्लान्यं ग्लानत्वं भवेत्। किमुक्तं भवति?स एव परिहारिको गच्छन् अपान्तराले ग्लानोजानः ततो वसेत् / यदि वाऽन्यः कोऽपि साधुग्लानस्तं दृष्ट्वा श्रुत्वा वा तत्परिचरणार्थ तिष्ठेत् / यदि वा-वर्ष पतति, नदी वा पूरेण समागता / (सुत्तअत्थपुच्छा वा इति) केचिदाचार्याः सूत्रमर्थ प्रतिपृच्छेयुः, ततः सूत्रार्थप्रतिपृच्छादाननिमित्त वसेत् / (विजेति) परवादिनो मुखबन्धकारणी कस्यापि पायें विद्या समस्ति, यदि वामायूरी नाकुली इत्यादिकाः कस्यापि विद्याः सन्ति, निमित्तं वा अतिशायि कस्यचित्सकाशेऽस्ति, ततो यावद् विद्याग्रहणं वा करोति तावदास्ते / तथा (आगाढ त्ति) आगाढ्योपप्रविष्टाः केचन साधवः, तेषामाचार्याः / यदि वा–यस्तं निर्वाहयति वाचनाप्रदा Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार नाऽऽदिना, स वा कालगतः, ततो यावत्तान् वाचयति तावदव तिष्ठते। (पण्ण ति) ईदृशं किमपि शास्त्रमपान्तराले तेन लब्ध यस्मिन्नधीते गाढ ज्ञावान्भवति, ततः प्राज्ञोऽहं भूयामिति वसेत्। समूलादारभ्य कथं व्रजतीति? अत आहवहमाण अवहमाणो, संघाडगेण वा असति एगो। असती मूलसहाए, अन्ने वि सहासए देंति।।३।। परिहारलया वहन्, यदि वा अवहन् निक्षिप्तपारहारतपाः (संघाडगेणेति) संघाटकेन संघाटसाधुनैकेन सह व्रजेत्। तथा आचार्येण ग्लानाऽऽदिप्रयोजनव्यापृततया तस्य संघटसाधुः सहायो न दत्तः, ततोऽसति संघाटकसाधाविकाकी व्रजेत् / एकाकिनश्च गच्छतः सतोरसति मूलसहाये अविद्यमाने मूलादारभ्य संघटकसाधाबन्येऽपि यषामाचार्याणां मध्येन गच्छति, तेऽपि तस्य सहायान् ददति। मुत्तूण भिक्खवेलं, जाणि य कजाई पुव्वभणियाई। अप्पडिबद्धो वच्चइ, कालं थामं च आसज्ज ! // 84 / / मुक्त्वा भिक्षावेलां थानि च कार्याणि पूर्वभणितानि "उभजोगे लत्ते वा'' इत्यादिरूपाणि, तानि च मुक्त्या अप्रतिबद्धो गोकुलाऽऽदिषु प्रचुरगोरससपिरादिलाभेऽपि प्रतिबन्धकुर्वन्काल विहारोचितं स्थाम च प्राणमात्मीयं गमनविषयमासाद्य, विहारक्रमकालौचित्येन स्वशक्त्यौचित्येन चेत्यर्थः, व्रजेत्। गंतूण य सो तत्थ य, पुट्विं संगिण्हए ततो परिसं। संगिण्हित्ता परिसं, करेइ वादं समं तेणं // 15 // यस्मिन् स्थानेषु प्रयोजनं तत्र सोऽधिकृतः परिहारकल्पस्थितो निक्षिप्तपरिहारतयो वा गत्वा पूर्वमेव संगृह्णाति आत्मीकरोति परिषद, संगृह्य च परिषदं पटहे नाऽऽघोषयतियस्य वादं कर्तुं शक्तिरस्ति स तदभिकाङ्क्षः सत्वरं समागच्छतु, एवं च घोषणायां कारितायां तेन सम वादं करोति। कथमित्याहअबंभचारि एसो, किं नाहिति कोट्ठ एस उवगरणं / वेसित्थी' पराजितो निव्विसयपरूवणा समए / / 86 // वादात् पूर्वमेव निमित्तमुपयुज्य तस्य स्वरूपमवगच्छति, ततस्तस्मिन्ननागते इद ब्रूते-एष तावदब्रह्मणोऽपि दोषान्न जानाति, अत एषोऽब्रह्मचारी अब्रह्मप्रतिसवी पशुवदब्रह्मणोऽपि दोषानजानन् कथमन्यत् ज्ञास्थति? एवमुक्त सभ्याः प्रेक्षका वा ब्रूयुः- कथमवसितमेषोऽब्रहा वारीति? स प्राऽऽह-गच्छत प्रेक्षध्वं यूयं यत्रासाववस्थितः तास्मन् कोष्ठके आश्रयविशेषे उपकरण द्वयादि अमुकप्रदेशे संगोपितमस्तीति। तथा अमुकया वेश्यया सममेष अमुकदिवसे द्यूतेन रममाणः पराजितस्ततः एतस्य सत्वं वरचं ग्रहणगृहीतम्, एवमादिभिश्चिचहरवगच्छत यथैषोऽब्रह्म वारीति ते गत्वा सर्व सवेदितं कथितं राज्ञः। “निविसपरूवणा'' इत्यादि पश्चात् व्याख्यास्यते / तदेवं निमित्ताऽऽभोगबलवतो यत् कर्त्तव्यं तदुक्तम्। सांप्रतमतिशयविशेषमधिकृत्याऽऽहजो पुण अतिसयनाणी, सो भणती एस भिन्नवत्तो त्ति। कोऽणेण समं वादो, दटुं पि न जुज्जए एस / / 87 / / यः पुनरतिशयज्ञानी अवधिज्ञानाऽऽदिकलितः, स च बहुतरं तस्य दुःशीलत्वमवगम्य सर्वमुच्चैनिःशङ्कितं भणति-यथैष भिन्नव्रत इति / ततःकोऽनेन सममस्माकं वादो य एष दृष्टमपि न युज्यते इति। अथ केन समं युज्यते वादः? उच्यते-आर्थत्वाऽऽदिगुणोपेत्तेन / न था चोक्तम्"अजेण भव्वेण वियाणएण, धम्मप्पयण्णेण अलीयभीरुणा। सीलंकुलाऽऽयारसमन्निएणं, वायं च तेणं सममायरेज्जा / / 1 / / आर्य आर्यकर्मकारी, अजुगुप्सितकारीत्यर्थः / तेन, भव्योऽनेकगुणसंभावनीयः, विज्ञो वादाभिज्ञः, धर्मप्रतिज्ञो धर्मकरणाभ्युगमपरः, अलीकभीरुः सत्यवादी, तथा शीलाऽऽचारसमन्वितः, शीलदोषरहितः, कुलाचारसमन्वितः कुलदोषरहितः / तेन सम वादं समाचरेत् / तत ईहशेन सम वादस्तीर्थकरैरनुज्ञातो, नान्यादृशेनेति / अथ स शून्यवाद / भवेत न दर्शनी, ततः स्वशक्तिबलेन यया हन्तुमुच्चरति सस प्रत्युचार्यासिद्धत्वविरुद्धत्वानेकान्तिकत्वदोषैर्दूषयितव्यः, प्रतिज्ञाऽऽदिकमपि दूषयितव्यम्। अथ कदाचित्तेनास्मदीय एव सिद्धान्तो जगृहे-यथा द्वौ जीवाजीवलक्षणो राशी जगतीति मम प्रतिज्ञेति / अत्र पूर्णगाथाखण्डस्याऽवकाशः-(पराजितो निस्विसयपरूवणा समए इति) तेन पारिहारिके ण त्रीन् राशीन् प्रस्थापयित्या वादी पराजे तव्यः, एतच निदर्शनमात्रम् / अन्यथापि सिद्धान्तोत्तीर्णमुचैर्भाषित्वा पराजेतव्यः, पराजितश्च स यदि भवेत् राज्ञा च निर्विषय आदिष्टः, ततः पश्चात्सकलपर्षत्सभक्ष समये स्वसमयविषया प्ररूपणा कर्तव्या। कथमित्याहपरिभूय मतिं एय स्स एतदुत्तं न एस णे समओ। समएण विणिग्गहिए, गज्जइ वसभो व्व परिसाए।८८ | यदुक्तं मया त्रयो राशया-जीवोऽजीवो नोजीव इत्यादि, न एषोऽस्माकं समयः, किं त्वेतस्यवादिनो मतिपरिभवितुमेतदुक्तम् यदि पुनः स्वसमयेन परो विनिगृहीतः स्यात्ततस्तस्मिन्विनिगृहीते वृषभ इव प्रतिवृषभ निर्जित्य पर्षदि पर्षन्मध्ये गर्जति गर्जन्विशेषतः स्वसमयप्ररूपणां कुरूते। तदेवमक्रियावादीति गतम्। (10) संप्रति "जीए त्ति' द्वारव्याख्यानार्थमाहअणुमाणेउं रायं, सण्णातीयग गेम्हमाण विज्ञाऽऽदि। पच्छाकडे चरित्ते, जहा तहा नेव सुद्धो उICE || यदि राजा ब्रूते-मया सह वादो दीयतामिति तदा राजानमनुमानयेत् अनुकूलवचसा प्रतिबोधयेत / यथा राजा पृथिवीपतिः, तच्छयाश्रिताः प्रजाः सर्वे च दर्शनिनः, ततः कथ र सह विवादः? अत्रार्थ चेदमुक्तं च किं तदित्याहअत्थवतिणा निवतिणा, पक्खवता बलवता पयंडेण / गुरुणा नीएण तव-स्सिणा य सह वजए वादं / / 10 / / अर्थपतिना धनपतिना नृपतिना राज्ञा. क्षवना नृपवर्गीयपक्षसमन्वितेन, तथा बलवता विद्यामन्त्रचूण्णऽ गोपेतेन, प्रचण्डेन तीव्रशेषेण, तथा गुरुणा विद्य दायिना, धर्मप्रद, ना वा तथा नीचेन नीचजातीयेन, तथा तपस्विना विकृष्टतपःकारिण। च सह वर्जयेत् वादमिति। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 670 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार एवमनुमानितोऽपि तदा न तिष्ठति यदा ये राज्ञा सज्ञातिकाः, स्वजना इत्यर्थः / तैरनुमानयेत् / तैरपि प्रतिबोध्यमानी यदि न तिष्ठति तदा विद्याऽऽदिना वश्य कुर्यात् / आदिशब्दात् मन्त्रेण योगचूर्णवा वश्यं कुर्यादिति परिग्रहः / विद्याऽऽदिनाऽप्यगृह्यमाणे चारित्रविषये पश्चात्कृतो भूयात् स्वलिङ्ग परित्यज्य गृहिलिङ्ग च गृहीत्वा तथा कर्त्तव्यं यथा नैव स राजा भवति। एतदपि स कुर्वाणःशुद्ध एवं, प्रवचनरक्षार्थं तस्य प्रवृत्तेः। यथा च स राजा उत्पाटनीयः तथा तद्विषय मत्कोटकोच्छेदि चाणक्यप्रयुक्तं नन्दसत्कचौरसमूलघाति नलदामकुविन्ददृष्टान्तमुपदर्शयतिनन्दे भोइय खण्णा, आरक्खियघडण गेरु नलदामे / मूइंगगेहडहणा, ठवणा भत्तेसु कत्तसिरा ||1|| नन्दे चाणक्येनोत्पाटिते चन्द्रगुप्ते च राज्ये संस्थापिते नन्दसत्का ये भोजिकास्ते चाणक्येन, "खण्णा" इति / देशीपदमेतत् / सर्वात्मना लूषिताः, ततस्ते अजीवन्तश्चद्रगुप्तारक्षकैः सह संघट्टन कृतवन्तः, कृत्वा घ क्षेत्रखननाऽऽदिना नगरमुपद्रवन्ति, येऽप्यन्ये आरक्षिकाः स्थाप्यन्ते तानपि संवलयत्विा तथैव नगरोपद्रवं कुर्वते / ततश्चाणक्येन चिन्तयित्वा गेरुकवेषेण 'मुबंगो ति देशीपदं मत्कोटवाचकम् / मत्कोटगेहदहने प्रवृतं नलदामनामानं दृष्ट्वा तस्मिन्नारक्षकपदस्य स्थापना कृता / तेन च नन्दसत्कभोजिकानां समस्तानामपि सपुत्राणां भक्ते भक्तदानवेलायां शिरांसि लूनानि / एष गाथासक्षेपार्थः / भावार्थः कथानकादवसेयः / तच्चेदम्-'नंदे निच्छूढरज्जे परिठ्ठाविते चंदगुत्ते नंदस्स जे भोइया ते चाणक्केण लूसिया, ताहे ते अजीवमाणा चंदगुत्तारक्खिएहिं समं संवलिया खेत्तखणणाऽऽदीहिं उवद्दवंति, जे वि अन्ने आरक्खिया ठविचति ते वि संवलंति, ताहे चाणक्केण चिंतिय-कोलभिजा चौरगाहो जो न संवलिज्जा, जो य समूले चोरे उप्पाडेइ, ताहे चाणको परिवायगवेसं काऊण नयरवाहिरियाए हिंडइ. हिंडमाणेण दिवो नलदामकु विदो तंतुवायसालाठितो, तम्मि वेलाए नलदमाकोलियस्स पुत्तो रममाणो मझोडएण खइ तो, रोयंतोऽपि उस्सग्गसमल्लीणो कहियं-मक्कोडएण अहं खइतो, नलदामेण भण्णइ दसेहि जत्थोगासे खतितोऽसि / दसितो सो आयासो, ततो तेण नलदामेण जे विलातो निग्गया दिट्टा मक्कोडया ते विलं खनित्ता, जे विलस्संतो अंडया दिट्टा तेसु तणाणि परिखवित्ता पलीवित्ता अंडयाणि दड्ढाणि / चाणक्केण सो पुच्छितो किं कारणं खण्टा अंतो विलस्स पलीवियं? नलदामो भणइएए अंडया निष्फन्ना खाइरसंति। ततो चाणक्केण चितियएस चोरगाहो कतो संतो समत्थो मुइंगपरिदाह व्व चोरा उच्छेदइउं। ततो सो चोरगाहो ठवितो ताहे केइ नंदपक्खिया चोरा नलदाम मंतर्वेति, सुबहुं चोरभागं दाहामो, मा रक्खेह / नलदामेण भणिय-एवं होउ त्ति, इम च भणियं अन्ने वि एवमुवलभेह, तो सवे पत्तेज्जावेत्ता मसकसमाणेहिं तेंहि तह ति कय सव्वे सम्माणिया नलदामेण। अन्नया तेण नलदामेण तेसिं चोराणां विपुलं भत्त सज्जियं, जाहे सव्वे सपुत्ता आगया, ताहे सव्वेसिं सपुत्ताणं सिराणि छिन्नाणि / तदेवं यथा चाणक्येन नन्द उत्पाटितो, यथा च नलदाम्ना मत्कोटकाश्चौराश्च सूला उच्छेदि० तास्तथा प्रवचनप्रद्विष्ट राजान समूलमुत्पाटयति / ये च तस्य साहाय्यं कुर्वते, ये च तटस्थिता अनुमोदन्ते, ते सर्वे शुद्धाः, प्रवचनोपघातरक्षणे प्रवृत्तत्वात् / न केवल शुद्धिमात्रं, किं त्वचिरान्मोक्षगमनम् / तथा चात्र दृष्टान्तः प्रवचनोपघातरक्षको विष्णुकुमार इति। समतीतम्मि उ कले, परे वयंतम्मि एग दुविहं वा। संवासो न निसिद्धो, तेण परं छेय परिहारो // 11 // समतीते पुनः कार्ये यदि परो वदति-एकरात्रं द्विरात्रं वा संयासः क्रियतामिति / एवं परिस्मिन वदति एकरात्रं द्विरात्रं त्रिरात्रं वा वासो न निषिद्धः, तथा संवासेऽपिन किमपिप्रायश्चित्तमिति भावः। ततो द्विरात्राद् त्रिरात्राद्वा परं यदि वसति ततस्तस्य प्रायश्चित्तं छेदः, परिहारो वा। यदि पुनः सूत्रार्थप्रतिपृच्छादानाऽऽदिलक्षणं कारणं भवेत् तर्हि ततः परमाप वसेत् यावत्प्रयोजनपरिसमाप्तिः / तथा चाऽऽहसुत्तत्थपाडिपुच्छं, करेंति साहू उ तस्समीवम्मि। आगाढम्म उ जोगे, तेसि गुरू होज कालगतो ||2|| सूत्रार्थप्रतिपृच्छां कुर्वन्ति तस्य समीपे साधवः / यदि वाआगाढे योगे व्यवस्थिताना तेषां साधूनां गुरुः, उपलक्षणमेतत्, यो वाचनाप्रदानेन तेषां निस्तारकः सोऽपि कालगतः, ततः स तान् सूत्रार्थप्रदानाऽऽदिना निर्वाहयति, तथा यावत्सूत्रार्थप्रतिपृच्छा यावच तेषामवगाढयोगाना परिसमाप्तिस्तावदवतिष्ठते ततः परंतु नेति / अथ सूत्रे-“से संतरा छेदे वा परिहारे वा।' इत्युक्तम्, तत्र परिहारात् छेदो गरीयान् / प्रथम च लघु वक्तव्यं, पश्चात् गुरु, ततः से संतरा परिहारे वा छेदे वा' इति वक्तव्ये किमर्थ प्रथमः? __उच्यतेबंधाणुलोमयाए, उक्कमकरणं तु होति सुत्तस्स। आगाढम्मि य कज्जे, दप्पेण ठिते भवे छेदो ||3|| एवंरूपो हि पाठो ललितपदविन्यासतस्ततो बन्धानुलोमतया, तथा आगाढे प्रयोजने समुपस्थिते यदि कथमपि दर्पण स्थिते छेद एव प्रायश्चित्ते, तस्य भवति परिहारतप इति, एतदर्थं च सूत्रस्याप्यत्क्रमकरणमिति। तत्र यदि प्रद्विष्ट राजानं समूलमुत्पाटयितुमीशः तर्हि स सलब्धिकः समस्तं संघं निस्तारेत्, अथ नसमस्तं संघ निस्तारयितुमीष्ट, तत इमान् पञ्च निस्तारयेत्। तानेवाऽऽहआयरिए अभिसेए, भिक्खू खुढे तहेव थेरे य। गहणं तेसिं इणमो, संजोगगमंच वोच्छामि // 64 || आचार्या गच्छाधिपतिः, अभिषेकः सूत्रार्थदुभयोपेत आचार्यपदस्थापनार्हः, भिक्षुः प्रतीतः, क्षुल्लको बालः, स्थविरो वृद्धः। एतेषां पञ्चानामपि ग्रहणमिदं वक्ष्यमाणं संयोगगम संयोगतो गमः प्रकारो यस्य तत्तथा वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतितरुणे निप्फन्ने परिवारे लद्धीजुते तहेव अब्भासे। अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा||५|| Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 671 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार यदि शक्तिस्तिततः पञ्चापि आचार्याऽऽदीन् युगपन्निस्तारयेत् / अथ न शक्तिस्ततः स्थविरवनि चतुरः, तत्राप्यशक्तौ क्षुल्लकस्थविरवर्जान, तत्राप्यसामर्थ्य आचार्यमेकं, सोऽप्येकः स्थविरो यदि दर्तते अपरन्तरुणस्तर्हि तयोर्मध्ये तरुणो निस्तारणीयः, द्वयोस्तरुपयोर्वा मध्ये निष्पन्नः सम्यक् सूत्रार्थकुशलः द्वयोरनिष्पन्नयो सपरिवारः, द्वयोः सपरिवारयोर्वा लब्धियुक्तयोर्वा अभ्यासे समीपे स्थितः / अत्र संप्रदाय:-द्वयोरभ्यासे स्थितयोर्यो नंष्टुमशक्तः स निस्तारणीयः / एतेषां पञ्च गमा आचार्ये भवन्तिा अभिषेकस्तु नियमान्नि ष्पन्न एव भवति, अन्यथा तत्त्वत आचार्यपदस्थापनायोग्यत्वानुपपत्तेः। ततस्तस्मिन्नभिषेके निष्पन्नानिष्पन्नगमाभावात्० शेषास्तु चत्वारो गमाः। तद्यथा- स्थविरतरुणयोर्मध्ये तरुणः द्वयोस्तरुणयोर्वा सपरिवारः, द्वयोः सपरिवारयोर्वा लब्धियुक्तः, द्वयोर्लब्धियुक्तयोरलब्धियुक्तयोवाऽभ्यासे स्थितः। इति शेषाणां भिक्षुक्षुल्लकस्थविराणां पञ्चैव गमा भवन्ति। ते यथा-अनन्तरमाचार्यो भावितस्तथा भावनीयाः। तथा चैतदेव व्याचिख्यासुर्गाथाद्वयमाहतरुणे बहुपरिवारे, सलद्धिजुत्ते तहेव अब्भासे / एते वसहस्स गमा, निप्फण्णो जेण सो नियमा॥६६॥ तरुणे निप्फन्ने वा, बहुपरिवारे सलद्धि अब्भासे / भिक्खूखुड्डाथेरा--ण होंति एए गमा पंच / / 67 / / गाथाद्वयमपीदं व्याख्यातार्थ, नवरं वृषभोऽभिषेकः, स परिवारश्च, वृषभाऽऽदीनामाचार्यप्रदत्तः, प्रव्रजितस्वजनवर्गो वा द्रष्टव्यः / तदेवं साधूनां निस्तारणविधिरुक्तः। इदानीं साध्वीनां तमाहपवित्तिणि भिसेयपत्ता, भिक्खुड्डा तहेव थेरी य। गहणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि // 18 // प्रवर्तिनी समस्तसाध्वीनां नायिकाऽऽचार्यस्थानीया, अभिषेकप्राप्ता प्रवर्तिनीपदयोग्या, भिक्षुल्लिका, स्थविरा च प्रतीता। एतासां पञ्चानामपि ग्रहणमिदं वक्ष्यमाणं संयोगगमं संयोगतोऽनेकप्रकारं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतितरुणि निप्फन्न परिवार सलद्धिया जाय होति अब्भासे। अभिसेयाणं चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।|६६ / यदि शक्तिरस्ति ततः पञ्चापि प्रवर्त्तिन्यादयो युगपन्निस्तारणीयाः, अशक्तौ चतस्रः तत्राप्यशक्तौ तिस्रः तदभावे द्वे प्रवर्तिन्यभिषेके, तत्राप्यशक्तौ प्रवर्त्तिन्येका तत्रापि यद्येका प्रवर्तिनी स्थविरा भवति अपरा च तरुणी तरुणीस्थविरयोर्मध्ये तरुणी निस्तारणीया, द्वयोस्तरुपओः स्थविरयोर्या मध्ये निष्पन्ना द्वयोर्निष्पन्नयोर्वा मध्ये सपरिवारा, द्वयोः सपरिवारयोरपरिवारयोर्वा मध्ये लब्धियुक्ता, द्वयोर्लब्धियुक्तयोरलब्धिकयोर्वा या भवत्यभ्यासे सा निस्तारणीया / एते पञ्च गमाः प्रवर्त्तिन्याम, अभिषेकायां चत्वारो गमाः, तस्या निष्पन्नतया निष्पन्नानिष्पन्नगमासंभवात् / शेषाणां भिक्षुकीक्षुल्लिकास्थविराणां पञ्च गमा भवन्ति / तेऽपि पञ्चापि गमाः प्रवर्त्तिन्या एव भावनीयाः। तदेवं साधूनां साध्वीनां च प्रत्येक निस्तारणविधिरूक्तः। सांप्रतमुभयेषा संयोगत आहआयरिय गणिणि वसभे, कमाण गहणं तहेव अभिसेया। सेसाण पुव्वमित्थी, मीसगकरणे कमो एस / / 100 / / यद्यस्ति शक्तिस्ततो द्वावपि वर्गी युगपन्निस्तारयेत्, अथा-समर्थस्तत एवं यतना आचार्यप्रवर्त्तिन्योर्मध्ये प्रथमत आचार्य निस्तारयेत् ततः प्रवर्तिनीम्, प्रवर्तिनीवृषभयोर्मध्ये पूर्व प्रवर्तिनी पश्चात् वृषभम्, वृषभाभिषेकयोर्मध्ये पूर्व वृषभं पश्चादभिषेकम् / (सेसाण पुष्वमित्थी ति) शेषेषु षष्ठी सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्, पूर्व स्त्री निस्तारणीया, अनुकम्प्यत्वात्पश्चात्पुरुषाः। तद्यथा-भिक्षुभिक्षुक्योर्मध्ये पूर्व भिक्षुकी पश्चाद्भिक्षुः, क्षुल्लिकाक्षुल्लकयोर्मध्ये प्रथमतः क्षुल्लिका, पश्चात् क्षुल्लकः, स्थविरास्थविरयोः पूर्व स्थविरा, पश्चात् स्थविरः। अत्रापि सुनिपुणेन भूत्वा अल्पबहुत्वचिन्ता कर्तव्या। कृत्वा च यद् बहुगुणं तत्समाचरणीयम्। उक्तंच-"बहुवित्थरमुस्सग, बहुतरमुववायवित्थर नाउं / जह जह संजमवुड्डी, तह जयसू निजरा जह य // 1 // एष मिश्रकरणे युगपत्साधुसाध्वीवर्गनिस्तारणकरणे एषोऽनन्तरोदितःक्रमः / गत 'जीय त्ति' द्वारम्। (11) अधुना पिट्टनद्वारमाहभिक्खू खुडुग थेरे, अमिसेगे चेव तह य आयरिए। गहणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वुच्छामि / / 101 / / भिक्षुः क्षुल्लकः स्थविरोऽभिषेक आचार्यः, तेषामेवं क्रमेण व्यवस्थिताना पञ्चानामपि ग्रहणमिदं वक्ष्यमाणं संयोगगम संयोगतोऽनेकप्रकारं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतितरुणे निप्फन्ने परिवारे सलद्धिए जे अहोति अब्भासे / अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।।१०२।। यदि शक्तिस्ततः पञ्चापि युगपन्निस्तारयेत्, तदशक्तावेकैकहान्या यावेदक भिक्षु सोऽपि यदेकः तरुणोऽपरश्च स्थविरः तदा तरुणो निस्तारणीयः / द्वयोस्तरुणयोरतरुणयोर्वा निष्पन्नो, द्वयोर्निष्पन्नयोर्वा सपरिवारः, द्वयोः सपरिवारयोर्वा सलब्धिकः, द्वयोः सलब्धिकयोर्वा यो भवत्यभ्यासे समीपे स निस्तारणीयः / एते पञ्च गमा भिक्षौ भवन्ति, अभिषेकगमाश्चत्वारो निष्पन्नतया तस्य निष्पन्नानिष्पन्नगमाभावात् / शेषाणं तु क्षुल्ल्कस्थविराऽऽचार्याणां च भिक्षोरिव पञ्चैव गमाः। तत्र भिक्षुकाऽऽदिक्रमकरणे कारणमाहअसंहते पचासू, रणम्मि मा होज्ज सव्वपत्थारो। खुड्डो भीरु णुकंपो; असहो घायस्स थेरा य / / 103 / / गणि आयरिया उसहू, देहविओए वि साहसविवजी। एमेव भंसणम्मि वि, उइण्णवेदो त्ति नाणत्तं // 104 / / भिक्षवो हि यदा राज्ञा पिट्टयितुमारभ्यन्ते तदा ते किञ्चिदगीतार्थ त्वेनासह माना: प्रत्यास्तरये यु: / प्रत्यास्तरणं नामसंमुखीभूय युद्धक रणम् / ततोऽसहमाने, जातावेक वचन Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 672 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार म्, षष्ठ्यर्थे सप्तमी। असहमानानां प्रत्यास्तरणे प्रतिकूलमभिमुखी-भूय स्तरत्वकरणे मा सर्वप्रस्तारः समस्तसंघोपद्रवो भूयात् / किमुक्तं भवति?-आगाढतरं प्रद्विष्टः सन् राजा सर्वमपि सङ्घमुपद्रवेत, अनेन कारणेन पिट्टनद्वारे भिक्षुः प्रथममुपात्तः, तदनन्तरं क्षुल्लकः, स हि बालत्वागीरुरनुकम्प्यश्च / ततः स द्वितीये स्थाने स्थापितः, तदनन्तरं स्थविरो, यतः स्थविरत्वेनाङ्गप्रत्याङ्गानां श्लथीभूततया तस्य पिट्टनस्यासहः / (गणि आयरिया उ सहू इत्यादि) गणी गच्छाधिपतीराचार्य आचार्यपदार्हः, एतौ द्वावपि सहौ समर्थी घातस्येति संबध्यते, अपि च देहवियोगेऽपि देहदंशे अपि, तुशब्दोऽपिशब्दार्थे; साध्वसविवर्जना, अविमुश्य प्रवृत्तिः साध्वसं, तद्विवर्जनौ, संमुखीभूय युद्धप्रदानलक्षणसाध्वसरहिताविति भावः / ततः स्थवरानन्तरं तौ द्वावप्युपात्ती, तत्राप्यभिषेकादतिशयेन सहो गच्छाधिपतिरित्यभिषेकानन्तरं गणिन उपदानम्। (एमेवेत्यादि) भंशेन संयमच्यवनद्वारेऽप्येवमेव अनेनैव प्रकारेण भिक्षुका-ऽऽदिक्रमकरणाकरणमभिधानीयम, नवरं भिक्षुरादीपर्णवदोऽपि संभवतीति नानात्वम् / किमुक्तं भवति?यदि भिक्षो स्तरुणतया प्रचुरमोहनीयोदयतया वा उत्प्रव्राजनमनुकूलं भवेत, ततः सक्षिप्रमुत्प्रव्रजेत् इति. प्रथमं भिक्षुग्रहणम्, तदनन्तरं क्षुल्लकाऽऽदिक्रमकरणे प्रयोजनं प्रागुक्तमवसातव्यम् / तासां पञ्चानामपि करणं निस्तारणकरणमिदं वक्ष्यमाणं संयोगगमं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतितरुणी निष्फण्णा ऊ, परिवार सलशिया य अडभासे। अभिसेयाए चउरो,सेसाणं पंच चेव गमा।१०५ / / अस्याः साधुगतगाथाया इव व्याख्या। संप्रतिद्वयोरपि साधुसाध्वीवर्गयोः संयोगेन निस्तारणविधिमाहपंतावण मीसाणं, दोण्हं वग्गाण होइ करणं तु। पुव्वं तु संजईण, पच्छा पुण संजयाण भवे // 106 / / "पंतावणं' नाम पिट्टन, तत्र मिश्रयोर्द्वयोरपि वर्गयोः साधुसाध्वी रुपयोः करणं निस्तारणकरण भवति / पूर्व संयतीनां पश्चात्पुनर्भवति / संयतानाम् तद्यथा-भिक्षुभिक्षुक्योः पूर्व भिक्षुकी, पश्चाद्विक्षुः, एवं क्षुल्लिकाक्षुल्लकयोः पूर्व क्षुल्लका, क्षुल्लकास्थविरयोः, स्थविरा, अभिषेकाभिषेकयोरभिषेका, आचार्यप्रवर्तिन्योः पूर्व प्रवर्तिनी, पश्चादाचार्यः / गतं पिट्टनद्वारम्। अधुना संयमच्यावनद्वारमाहभिक्खू खुडे थेरे, अभिसेयाऽऽयरिएँ संजमे पडुप्पण्णे। करणं तेसिं इणमो, संजोगजमं तु वुच्छामि / / 107 / / भिक्षुः, क्षुल्लकः, स्थविरोऽभिषेक आचार्यः, कथंभूत एकैक इत्याहसंयमे प्रत्युत्पन्नो वर्तमानः, तेषां भिक्षुप्रभृतीना पश्चानां निस्तारणकरणमिदं वक्ष्यमाणं संयोगगम संयोगतोऽनेकप्रकारं वक्ष्यामि। ___ यथाप्रतिज्ञातमेव करोतितरुणे निप्फन्न परिवारे सलद्धिए जे य होइ अब्भासे / अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।।१०८ / / अस्या व्याख्या प्राग्वत्। संप्रति यदुक्तम्-"उदिन्नवेदो त्ति नाणत्तमिति" तद्व्याचिख्यासुराहअपरिणतो सो जम्हा, अन्नं भावं वएज तो पुव्वं / अपरीणामो अहवा, न निजई किं वि काहीइ / / 106 / / स भिक्षुर्यस्मादपरिणतोऽपरिणामत्वाद् चाऽन्यं भावमुत्प्रव्राजनाभिप्रायलक्षणं, व्रजेत्, ततः स सत्वरमेवोत्प्रव्राज्यते। अन्यच अथवा न ज्ञायते सोऽपरिणामः सन्(किंवीति) किमपि सम्मुखीभूय युद्ध करिष्यति, येन सकलस्यापि संघस्योपद्रवो भवेत्, तत एव तद्दोषभयात् पूर्व भिक्षुर्निस्तारणीय इति पूर्वं तस्योपादानं, शेषाणां तु ०क्रमोपन्यासे प्रयोजनं पिट्टनद्वारवदवसेयमिति। अत्रैव साध्वीरधिकृत्य निस्तारणविधिमाहभिक्खुणि खुड्डी थेरी, अमिसेग पवत्तिणि संजमे पडुप्पण्णा। करणं वा सिं इणमो, संजोगगमं तु वुच्छामि।।११०॥ तरुणी निप्फन्न परिवारा, सलद्धिया जा य होइ अब्भासे। अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा / / 111 / / इदं गाथाद्वयमपि प्राग्वत्। संप्रति संबन्धे लभन्ते इति द्वारव्याख्यानार्थमाहखुड्डे थेरे भिक्खू, अभिसेयाऽऽयरिएँ भत्तपाणं तु / करण तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वुच्छामि // 112 // क्षुल्लकः, स्थविरो, भिक्षुरभिषेक आचार्यः, तेषां पञ्चानामप्येव क्रमव्यवस्थितानां राज्ञा निरुद्धं भक्तपानमधिकृत्य करणं निस्तारणकरण संयोगगर्म संयोगतोऽनेकप्रकारं वक्ष्यामि। यथाप्रतिज्ञातमेव करोतितरुणे निप्फन्नपरिवारे, सलद्धिए जे य होइ अब्भासे। अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।।११३।। शक्ती सत्यां पञ्चापि युगपन्निस्तारयेत्, शक्त्यभावे एकैक-हान्या यावत्पूर्व क्षुल्लकं निस्तारयेत् सोऽपि यदैकस्तराणोऽपरोऽतरुणः। तरुणो नामप्रथमकुमारत्वे वर्तमान इति। निष्पन्नता वज्रस्वामिन इव भावनीया ! द्रयोर्निष्पन्नयोर्वा सपरिवारः, द्वयोः सपरिवारयोरपरिवारयोर्वा सलब्धिकयोरलब्धिकयो यो भवत्यभ्यासे स निस्तार्यः / एते पञ्च गमाः क्षुल्लकस्य, अभिषेके चत्वारः निष्पन्नतया अस्य निष्पन्नानिष्पन्नगमाभावात्। शेषाणां स्थवरिभिक्ष्वाऽऽचार्याणां पञ्च गमाः। संप्रति साध्वीरधिकृत्य निस्तारणमाहखुड्डिय थेरी भिक्खुणि, अभिसेय पवित्ति भत्तपाणं तु / करणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि / / 114 // तरुणी निप्फन्नपरिवारा, सलद्धिया जा य होइ अब्भासे / अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।।११५॥ इदं गाथाद्वयं साधुगतगाथाद्वयमिव व्याख्यातव्यम्। अधुना क्षुल्लकाऽऽदिक्रमकरणे प्रयोजननाहअणुकंपा जणगरिहा, तिक्खखुहो होइ खुडुओ पढमं / इइ भत्तपाणरोहे, दुल्लभभत्ते वि एमेव // 116 // Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 673 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार क्षुल्ल्कस्य यदा प्रथमतो भक्तपानविषये निस्तारण क्रियते तदा तस्थानुकम्पा कृता भवति, यदि पुनस्तस्य प्रथमं निस्तारो न क्रियते किं त्वाचार्याऽऽदीनां तदा जनगरे / यथाधिगेतान् मुण्डान् यद् बाल बुभुक्षाक्लान्तं मुक्त्वा आत्मानं चिन्तितवन्त इति। अपि चबालत्वादेव स तीक्ष्णक्षुत्वाच, स्तोककालेनापि भक्तपाननिरोधेन क्लमुपयाति / तेन कारणेन क्षुल्लकः प्रथमं निस्तार्यते, तदनन्तरं स्थविरः, सोऽपि हि बालवत् स्तोककालेनाऽपि भक्तपान निरोधेन क्लाम्यति० केवलं क्षुल्लकापेक्षया मनाक् सहत इति तदनन्तरं तस्योपादानम्। स्थविरादपि भिक्षुश्चिरकालसह इति तदनन्तरं तस्योपादानम् / ततोऽप्यभिषेकः समर्थस्तस्मादाचार्य इति तदनन्तरं तौ क्रमेणोपात्ताविति / इति प्रथम भक्तपाननिरोधक्षुल्लकाऽऽदिक्रमकरणे प्रयोजनगतं विधिं लभत इतिद्वारम् / अधुना क्षुल्लकभक्तद्वारमाह (दुल्लभभत्ते वि एमेव) एवमेव अनेनैव प्रकारेण दुर्भिक्षत्वेन दुर्लभे भक्ते निस्तारणविधिर्वक्तव्यः। तद्यथा खुड्डे थेरे भिक्खू, अभिसेयाऽयरिऍ दुल्लभं भत्तं / करणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वुच्छामि / / 117 / / तरुणे निष्फन्त्रपरिवारे, सलद्धिए जे य होइ अब्भासे। अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा॥११६॥ खुड्डिय थेरी भिक्खुणि, अभिसेय पवित्ति दुल्लभ भत्तं / करणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वुच्छामि ||116 / / तरुणी निप्फन्न परिवारा, सलद्धिया जा य होइ अब्भासे। अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।।१२०॥ क्षुल्लकाऽऽदिक्रमकरणप्रयोजनमपि तथैव वक्तव्यम् / गतं दुर्लभभक्तद्वारम्। ___ अधुना भक्तपरिज्ञाद्वारं ग्लानद्वारं च युगपदाहपरिण्णाय गिलाणस्स य, दोण्ह वि कयरस्स होति कायव्वं / असतीएगिलाणस्स य, दोण्ह विसंते परिणाए।१२१॥ परिज्ञातेति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् भक्तपरिज्ञातशब्दः प्रत्याख्यानवाची क्तान्तस्य च परनिपातः, प्राकृतत्वात्सुखाऽऽदिदर्शनाद्वा। प्रत्याख्यातभक्तस्य, ग्लानस्य च संभवेद्वयोर्मध्ये कतरस्य भवति कर्तव्यम्? उच्यते शक्ती सत्या द्वयोरपि कर्तव्यम्, अथन शक्तो द्वयोरपि कर्तुं ततो ग्लानस्य कर्तव्यं, तस्य जीवितसापेक्षत्वात्। शक्तों सत्यां द्वयोरपि वैयावृत्त्ये क्रियमाणे सति परिज्ञाते प्रत्याख्यातभक्तस्येत्यर्थः, विशेषतर कर्तव्यमिति वाक्यशेषः। अथ शक्तावसत्यां ग्लानस्य कर्तव्यमित्युक्तमकारणमत आहसावेक्खो उ गिलाणो, निरवेक्खो जीवियम्मि उ परिणी। इइ दोण्ह वि कायव्वे, उक्कमकरणं करे असहू // 122 / / ग्लानो जीविते जीवने सापेक्षः, परिज्ञी भक्तपरिज्ञानवान् जीविते निरपेक्षः, ततोऽवश्यं ग्लानो जीवयितव्य इति।द्वयोरपि कर्तव्ये 'असहू' अशक्तः, उत्क्रमेण भक्तपरिज्ञावन्तं मुक्त्वा ग्लानस्य करणं वैयावृत्त्यं कुर्यात् / यदुक्तं शक्ती सत्यां द्वयोरपि कर्तव्यं, प्रत्याख्यातभक्तस्य विशेषतः कर्तव्यमिति। तत्र कारणमाहवसहे जोहे य तहा, निजामगविरहिए जहा पोए। पावति विणासमेवं, भत्तपरिण्णाएँ संमूढो // 123 / / यथा वृषभो बलीवर्दः सुसारथिरहितः, यथा वा योधाः सुस्वामिविरहिताः, यथा च निर्यामकविरहितः पोतः प्राप्नोति विनाशम्, एवं भक्तपरिज्ञाया सम्यग्निर्यामकाभावतः संमूढः सन् समाधिलाभलक्षणं प्राणविनाशमाप्नोति। तत्र प्रथमं वृषभदृष्टान्तं भावयतिनामेणं गोएण य, विपलायंतो वि सावितो संतो। अवि भीरू विनियत्तइ, वसहो अप्फालिओ पहुणा / / 124 / / यथा वृषभः प्रथमं सारथिरहितः सन् प्रतिवृषभेण युद्धे पराजितो विपलायते, न युद्धाऽभिमुखो भवति, विपलायमानश्च कथमपि प्रभुणा सारथिना दृष्टः सन् नाम्ना गोत्रेण च शापितः शब्दितः, आकारित इत्यर्थः / तथा प्रसादपुरस्सरमास्फालितश्च स्कन्धाऽऽदिप्रदेशेषु हस्तेन, तत एवं प्रोत्साहितसत्त्वः सन् अपिः संभावने, भीरुरपि विपलायमानोऽपि पुनरपि प्रतिवृषभेण सह युद्धदानाय प्रतिनिर्वर्तते। एवं कृतप्रत्याख्यानोऽपि सम्यग्निर्यामकभावतो जातमन्दपरिणामोऽपि निर्यामकेन प्रोत्साहितः सन प्रतिवर्तते स परीषहचमूमभिभवितुमिति वृषभदृष्टान्तः। संप्रति योधदृष्टान्तभावनामाहअप्फालिया जह रणे, जोहा भंजंति परबलाणीयं / गीयजुतो उ परिण्णी, तह जिणइ परीसहाणीयं / / 125 / / प्रभुणा नाम्ना गोत्रेण गुणप्रशंसनेन च आस्फालिताः-आसमन्तात् स्फारं प्रापिता यथा योधाः सुभटा रणे संग्रामे परबालनीकं परेषां वैरिणा बलं परवलं, तच तत् अनीकं च परबलानीकं भञ्जन्ति। तथा परिज्ञी भक्तपरिज्ञावान गीतयुतः सम्यग्निर्याभकोपेतो जयति अभिभवति परीषहानीकमिति / उक्ता योधदृष्टान्तभावना। संप्रति पोतदृष्टान्तभावनामाहसुणिउणनिजागमविर-हियस्स पोयस्स जह भवे नासो। गीयत्थविरहियस्स उ, तहेव नासो परिणस्स // 126 / / सुनिपुणः सम्यगजलमार्गकुशलः तेन निर्यामकेन विरहितस्य पोतस्य यथा भवति विनाशः, तथैव गीतार्थविरहितस्य परिज्ञिणः कृतभक्तपरिज्ञानस्य भवति विनाशः, प्रत्याख्यानफलस्य सुगतिलाभस्याभावात्। निउणमतीनिजामग, पोतो जह इच्छियं वए भूमिं / गीयत्थेणुववेतो, तह य परिण्णी लहइ सिद्धिं // 127 // यथा पोतः प्रवहणं, निपुणमतिः निर्यामकः कर्णधरी यस्य स तथा ईप्सिता भूमि व्रजति, एवं गीतार्थेनौपेतो युक्तः सन्परिज्ञी लभते सिद्धिं मोक्षमिति / उक्ता पोतद्दष्टान्तभावना। अथ किं तस्य विशेषतरं करणीयमित्यत आहउव्वत्तणा य पाणग, धीर वणा चेव धम्मकहणा य / अंतोबहिनीहरणं, तम्मि य काले नमोकारो / / 128 / / तस्य कृ तभक्तप्रत्याख्यानस्य स्वयमुर्त्तनं कर्तुमशक्नुवत Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 674 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार उद्वर्तना वक्तव्या, तस्यां च क्रियभाणायां महानाश्वासो भवति, समाधि च परमं लभते, ततः साधयति परममुत्तमार्थम् / तथा तृषापीडितस्य सतः पानकं पानं समर्पणीयम् (धीरवणा चेव त्ति) दुःखेन परिताप्यमानस्य धीरापना कर्त्तव्या, यथा-धीरो भव अहं तवैतत् दुःखं विश्रामणाऽऽदिना अपनेष्यामि / अपि च पुण्यभागिन्! सहस्यैतद् दुःखं सम्यग्यत एव तत्सहनानन्तरमचिरात्सर्वदुःख-प्रहीणो भविष्यसीति इत्यादि / तथा धर्मकथना पूर्वपरमदुष्कर-कारिमुनिचरितरूपा कथयितव्या, मध्ये धर्ममसहमानस्य बहिर्निर्हरणं बहिर्नयनं, बहिर्वाताऽऽदिकम सहमानस्य अन्ते निर्हरणम् / तथा तस्मिन् काले मरणसमये नमस्कारो दातव्यः / गतं परिज्ञाद्वारं, ग्लानद्वारं वा। संप्रति संयमातीतद्वार वादिद्वारम्, तथा चाऽऽहजो चिय भंसिञ्जते, गमओ सो चेव भंसियाणं पि। हेट्ठा अकिरियवादी, मणितो इणमो किरियवादी / / 126 // य एव चारित्राद् भ्रंश्यमाने संयमप्रत्युत्पन्नद्वारे गमक उक्तः स एव भ्रंशितानामुत्प्रताजितानामपि ध्रियमाणाना वेदितव्यः, न पुनः किञ्चिदपि नानात्वम् / गतं संयमातीतद्वारम्। अधुना वादिद्वारमाह-(अकिरियवादी इत्यादि) य एवं प्राक्परवादिनि गम उक्तः स एवात्रापि द्रष्टव्यः, केवलं सोऽक्रियावादी भणितोऽयं तु क्रियावादीति विशेषः। यत्र स्थाने वादो दातव्यः तत्र गतस्य यत्कर्त्तव्यम, तथा चाऽऽहवादे जेण समाही, विजागहणं च वादिपडिवक्खे / न सरइ दिक्खेवेणं, निव्विसमाणो तहिं गच्छे // 130 // वादे वादविषये येन तस्य समाधिरूपजायते तत्सर्व क्रियते / तद्यथा वादी भणति-वाक्पाटवकारि ब्राह्मयाद्यौषधं दीयताम्, इति तबीयते। शरीरजाड्यापहारि तदुपदिष्ट वैद्योपदिष्ट वा किञ्चिद्वस्तु / यदि वा दुग्धाऽऽदिविकृतिप्रणीतभक्तम् / अथवा-देशस्नानं सर्वस्नान वस्त्राऽऽदिविभूषा वा। विद्याग्रहाणं च (वादिपडिवक्खे त्ति) विद्याग्रहणं वा वादिप्रतिपक्षे वादिभिर्विद्याप्रतिपक्षभूत कार्यते / किमुक्तं भवति?, याः प्रतिवादिज्ञाताः, तासां प्रतिपन्थिन्यो या अन्या विद्याः / यथा-"मोरी नउलि विराली" इत्यादि। तासां ग्रहण कार्यते। करमादेतत्सर्व : क्रियते इति चेत्? उच्यते-गुणदर्शनात् / तथाहि-ब्राह्म्याऽऽद्यौषधोपयोगतो वाक्पाटवं, शरीरजाड्यापहार्योषधाभ्यवहारतः शरीरलघुता, दुग्धप्रणीताऽऽहाराभ्यवहारतो मेधाविशिष्ट च धारणाबलं, सर्पिः सन्मिश्रभोजने भुक्ते तु ऊर्जा,"घृतेन पाटवम्' इति वचनात्। देशतः सर्वतो का स्नानेन वस्वाऽऽदिभूषायां च तेजस्विता, प्रतिपक्षविद्याग्रहणतो महान्मानसिकोऽवष्टम्भः / एतत्सर्वं वादवेलायामुपयोगि। तथा चाऽऽहवाया पुग्गललहुया, मेहा उज्जा य धारण बलं च। तेजस्सिया य सत्तं, वायामइयम्मि संगामे / / 131 / / वाग्व्यत्काक्षरा, पुद्गललघुता शरीररपुद्गलाना जाड्यापगमः, मेधा अपूर्वापूर्वऊहाऽऽत्मको ज्ञानविशेषः, ऊर्जा बलं प्रभूततरभाषणेऽपि प्रवर्द्धमानस्वबलः, आन्तर उत्साहविशेष इत्यर्थः। धारणाबलं प्रतिवादिनः शब्दतदर्थावधारणबलं तेजस्विता प्रतिवादिक्षोभाऽऽदिका शरीरस्थ स्फूर्तिमती देदीप्यमानता, सत्त्वं प्राणव्यपरोपणसमर्थविद्याप्रयोगेऽप्यविचलितस्तन्मानोपमर्दहेतुरवष्टम्भः / एतत्सर्व वाड़मये संग्राम उपयुज्यते। सूत्रम्-(परिहारकप्पट्टिते भिक्खू बहिया थेराण वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से नो सरेजा, कप्पइ से निविसमाणस्रा एगराइयाए पडिमाए // 24 / / इत्यादि) अत्र 'नो सरेज्जा'' इति विशेषः / शेष समस्तमपि पूर्ववत् / 'नो सरेजा" इत्यस्यायमर्थः-एष परिहारतपो वहन, तिष्ठतीति स्थविरा आचार्या न स्मरेयुः / कस्मान्न स्मरेयुरिति चेत्? उच्यते-व्याक्षेपात् / तथा चाऽऽह- "नसरइ" इत्यादि पूर्वगाथापश्चार्द्धम् / विद्याना निमित्तानां प्रत्युत्तराणां च कथनतो, बहुविधसंदेशकथनतो वा आचार्यो न स्मरति, ततस्तस्मिन्नस्मरणे सति स निर्विशमानक एव गच्छेत्, गत्वा च यत्र गन्तव्यम्, नत्र यत्करोति तदाहतत्थ गतो वि य संतो-पुरिसं थामं च नाउ तो ठवणं / साहीणमसाहीणे, गुरुम्मि ठवणा असहणाओ।।१३२॥ तत्र गतोऽपि च सत्पुरुष प्रतिवादिलक्षणं प्रचण्ड वा स्थाम च प्राणमात्मनो ज्ञात्वा तदनन्तरं यदि समर्थमात्मान संभावयति तदा न निक्षिपति / अथाशक्तिः संभाव्यते ततः स्थापना निक्षेपणं परिहारतपसः कर्तव्यम् / किमुक्तं भवति?-दुर्जयः खलु प्रतिवादी न यथा कथञ्चन जेतुं शक्यते, अहं च क्षामतया बहुविधनुत्तरं दातुमशक्तो मतिमोहो वा तदानीं मम क्षामतया भवेत्, इति यदि संभावयति तर्हि निक्षिपति। अथ कथं स निक्षिपतीत्यत आह-(साहीणेत्यादि) स्वाधीने सन्निहिते अस्वाधीने असन्निहिते गुरौ च सहस्य स्थापना परिहारतपसो निक्षेपण भवति / इयमत्र भावना-यद्याचार्यः सन्निहितो भवति ततः स एव तं निक्षेपयति; अथ नास्ति सन्निहितः ततोऽशक्तः क्षामत्वेन परवादिन जेतुमित्यालम्बनतः स्वयमेव निक्षिपति। अत्र पर आह-ननु यदि स्वयं निक्षिपति ततः स आत्मच्छन्दसा निक्षिपन यदि उद्धातितं वहति ततोनुद्धातित प्राप्नोति, अथानुद्घातितं ततः परतरं स्थानमाप्नोति इति / सूरिराहकामं अप्पच्छंदो, निक्खिवमाणो उदोसवं होइ। तं पुण जुजइ असढे, वीरियकज्जे पुण वाहेजा।।१३३ / / कामशब्दो मकरध्वजे, अवधृतौ च / इहावधृते काममवधृतमेतत् / आत्मच्छन्दसा निक्षिपन दोषवान् भवति, परं निष्कारणे यदि पुनरशठः सन् एवं चिन्तयति-न शक्तः क्षामतया परवादिन जेतुमिदानी वीरितकार्यः समाप्तकार्यः पुनर्भूयो वहेयमिति ततस्तद् निक्षेपणं युज्यते एच, अदुष्टमेट, पुष्टाऽऽलम्बनत्वात् / सूत्रम्-(परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेजा, थेरा य से सरिजा वा नो सरिजा वा नो कप्पइ, से निविसमाणस्स // 25 / / इत्यादि) एतदपि सूत्रं तथैव, नवरमेतावाविशेषः-(थेरा य से सरिजावा नो सरिता था नो कप्पड़ से निविसमा Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 675 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार णस्सेति) अस्यायमर्थः-स्थविराः(से) तस्य परिहारकल्पं स्मरेयुर्यदि वा व्याक्षेपान्न स्मरेयुः, वाशब्दादुभावपि न स्मरेयाता, तथापि यदि निर्विशमानको गच्छति ततः (से) तस्य एकरात्रिक्या प्रतिमया एकरात्रिकण वा साभिग्रहेण कचिदपि प्रतिबन्धमन्तरेण गच्छत इत्यादि। तथाचाऽऽहसरमाणे जो उ गमो, अस्सरमाणे वि होइ एमेव / एमेव मीसगम्मि वि, देसं सव्वं च आसज्ज / / 134 / / इह त्रीणि सूत्राणि / तद्यथा-प्रथम स्मरणसूत्र, द्वितीयमस्मरणसूत्रम, तृतीय मिश्रकसूत्र, स्मरणास्मरणसूत्रमित्यर्थः / तत्र य एव गमः स्मरणे स्मरणसूत्रे उक्तः, एवमेव अनेनैव प्रकारेण प्रथमसूत्रप्रकारेणेत्यर्थः / अस्मरणे अस्मरणसूत्रे भवति गमः, एवमेव अनेनैव प्रकारेण मिश्रकसूत्रेऽपि तत्र सूत्रत्रयेऽपि वहनं निक्षेपणं झोषो वा देशं सर्वं वा आसाद्य प्रतीत्य द्रष्टव्यः। तत्र द्वयोरपि विस्मरण सूचितं, तत्र कारणमाहविजानिमित्तउत्तर कहणे अप्पाहणा य कहियाओ। अतिसंभम तुरियविणिग्गयाण दोण्ह पि विस्सरियं // 135 / / | विधान प्रतिवादिप्रतिपक्षभूतानां निमित्तानामनेकप्रकाराणाम्, उत्तराणां प्रतिवादिविषयाणां यथा यदिसवादी एवं ब्रूयात. ततो भवानित्थं वेदेदित्येवमादिरूपाणा, कथने, तथा "अप्पाहणा य' संदेशकाः | कथितास्तत आचार्यस्यातिसंभमेण इतरस्यापि वाऽतिसंभ्रमादेव त्वरितविनिर्गतस्य द्वयोरिप विस्मृतम् यथा-परिहारतपो निक्षेपणीयभिति / तत्र यदि आचार्याः स्मरेयुः, स वा स्मारयति, तदा निक्षिप्य गच्छति, अथ द्वयोरपि विस्मृतं तदा निर्विशमानक एव याति। यदा तुपूर्व स स्मृतवान् विस्मृतवान् पश्चात्तदा का वार्तेत्यत आहपुव्वं सो सरिऊणं, संपत्थिऍ विज्जमादिक हिं। जस्स पुणो विस्सरियं, निव्विसमाणो तहिं वि वए॥१३६।। पूर्व स परिहारिकः स्मृत्वा परिहारतपो निक्षिप्य मया गन्तव्यमिति विविन्त्य संप्रस्थिते संप्रस्थानकाले विद्याऽऽदिकार्यविद्यागहणाऽऽदिकार्याकुलीभूततया यस्य पुनर्विस्मृतं, यो वा विस्मरणं गतवान्, तत्रापि पूर्व स्मरणे निर्विशमानो व्रजेत्। संप्रति यदुक्तम्-देशं सर्व वा आसाद्येति तद्व्याख्या नयतिदेसं वा वि वहेज्जा, देसं वठवेज अहव झोसिज्जा। सव्वं वाविवहेजा, सव्वं ठवेज सव्व झोसिज्जा।।१३७।। त्रिष्वपि सूत्रेषु देशं वा वाहयेदपि, देशं वा स्थापयेदपि, अथवा-देशं | झोषयेदपि / वाशब्दाः सर्वं चैत्याद्यपेक्षया विकल्पार्थाः / अपिशब्दाद् वहनाऽऽदिषु परस्परसमुच्चयार्थः / तथा–त्रिष्वपि सूत्रेषु सर्व वा स्थापयदपि, सर्व वा झोषयेदपि / अत्र वाशब्दो देश वेत्याद्यपेक्षया / विकल्पार्थः / अपिशब्दाः पूर्ववत्। अथ कथं देशस्य वहनाऽऽदि? उच्यतेपरिहारतपः प्रायः पूर्वव्यूढ स्तोक तिष्ठति, अत्रान्तरे चगमनकार्यमधिकृतं समुत्पन्नम्, तत आचार्यैरूक्तम्निक्खिव न निक्खिवामी, पंथि चिय देसमेव योज्झामि। असहू पुण निक्खिदए, भोसंति मएऽज्जतवसेसं // 13 // निक्षिप मुञ्च अधिकृतं परिहारतपः, यत इदं गमनकार्यमिदानीं समुत्पन्नम्। तत्र समर्थः सन्प्राह-न निक्षिपामि न मुञ्चामि, यत एव देश पथ्येव मार्ग एव वोक्ष्यामि, न च पथि क्लमं गमिष्यामि, शक्तत्वात्। असहोऽसमर्थः पुनर्नूनमहं गमिष्यामीति विचिन्तयन्त देशं निक्षिपति। अथवा (स) तस्य यदवशेष स्तोकमव्यूढमवतिष्ठते, तत्तस्यसंप्रस्थितस्य वाऽऽचार्याः प्रसादबुद्ध्या समस्तं झोषयन्ति मुञ्चन्ति / यथा महति प्रयोजने त्वं संप्रस्थितो वर्तसे इति मुक्तं प्रसादतस्तवैतत्तपः शेषमिति / तदेवं देशस्य वहननिक्षेपणझोषा भाविताः। संप्रति सर्वस्य तान् भावयतिएमेव य सव्वं पि व, दूरद्धाणम्मि तं तवे नियमा। एमेव सव्वदेसे, वाहणझोसा पडिनियत्ते / / 136 / / एवमेव अनेनंव प्रकारेण सर्वमपि बाह्यं निक्षेपणीयं च भावनीयम्। नवरं तद्भवति याह्याऽऽदिकं नियमात्तद्दूराध्वनि / तथाहि-कस्यापि परिहारतपो।दत्तं, वोढु च स प्रवृत्तः, अत्रान्तरे च गमनप्रयोजनमुपजातं, तत आचार्या ब्रुवते--भद्र! समुत्पन्नमिदं गमनप्रयोजनं तस्मान्निक्षिप परिहारतप इति / स समर्थः सन् प्राऽऽह-भगवन्! गच्छन्नपि समर्थोऽहं वोढुमध्वनो दूरत्वाच मार्गे एव समस्त वोक्ष्यामि / तथाहि सर्वजघन्य परिहारतपो मासिकं तदापन्नोऽसौ, गन्तव्यं चाऽऽनन्दपुरात् मथुरायां, ततस्तत्तपो मार्ग एव समाप्तिमुपयातीति असमर्थः पुनर्निक्षिपति, यदि था-महत्प्रयोजनमुपस्थितं, गरीयांश्चाध्या. एतस्य च प्रयोजनस्यायमेव गुणगरीयस्त्वात् कर्ता, ततः सम्यक्प्रवचनभक्तोऽयं परमदुष्करकारीति विचिन्त्य सूरयः सर्वमपि तस्य प्रसादतो मुञ्चन्ति / एवं सर्वस्य वहननिक्षेपझोषा(एमेवेत्यादि) एवमेव अनेनैव प्रकारेण, प्रतिनिवृत्ते प्रत्यागतस्य देशस्य सर्वस्य वाहनाझाषौ वेदितव्यौ। तद्यथा यदिगच्छता देशो निक्षिास्ततः सदेशःप्रत्यागते वोह्यते, अथसमस्तंततः सर्वमिति। यदि वा-अहो दुष्करमिदं कार्यमेनन कृतमिति परितुष्टाः सूरयो निक्षिप्त देशं सर्वं वा मञ्चन्ति। एवं प्रत्यागतस्य देशसर्ववाहनझोषौ / अथ कथं देशस्य सर्वस्य वा प्रसादतो झोषकरणं? न खलु प्रसादतः पापमुपयातीति। तत आहवेयावच्चकराणं, होति अणुग्धातिए वि उग्घायं / सेसाण अणुग्घाया, अप्पच्छंदोववेताणं // 140 / / यथा अनुद्घातिते परिहारतपसि प्राप्ते वैयावृत्यकराणां संघाऽऽदिवैयावृत्त्यप्रवृत्तानासुद्धाति परिहारतपो भवति दानयोग्य, वैयावृत्त्याऽऽलम्बनेन तेषामवलम्बितत्वात् / एवं कदाचित् देशकालाऽऽद्यपेक्षया देशस्य सर्वस्य वा झोषोऽपि क्रियते, तथा तीर्थकरानुज्ञाप्रवृत्तेः / तथा चोक्तम्--"तित्थगरेहिं भणियं, वेयावचकराणां झोसो भवति, अणुग्धातितकजइ।" इति। शेषाणं वैयावृत्त्याऽऽलम्बनरहितानामु Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार द्घतिते प्राप्ते उद्घातितमेव दीयते, तथाऽऽदी वैयावृत्त्याऽऽलम्धनरहिता कश्च, भवतीति वाक्यशेषः। ततस्तेन विशिष्ट परिहारतपसि कृते इतरो आत्मछन्दसा निक्षिपन्तो यदि उद्घातित वहन्त आसीरन् तदा द्वितीयो निर्विशति कृतपरिहारतपःकर्मा तु तस्य कल्पस्थितोऽनुपारिअनुद्घातितं निक्षिप्तवन्तस्तत उपरितनं तेषां प्रायश्चित्तमिति / व्य० हारिकश्चोपजायते। यदि पुनरेकतरोऽगीतोऽगीतार्थो भवति ततः शोधिः, १उछ। शुद्धतपः प्रायश्चित्तदानम् / अथ द्वयोरपि अगीतार्थयोः सतोः (12) द्वयोरेकत्र विहरतोन्यतरस्य परिहारतपोदानम् प्रायश्चित्तस्थापनाऽऽपत्तौ स्वगणे इतरस्मिन् परगणे वा गीतार्थानां दो साहम्मिया एगओ विहरंति, एगे तत्थ अण्णतरं अकिच्चट्ठाणं मिलित्वा गताभ्यां शोधिं शुद्ध तपः प्रतिपद्यते, अगीतार्थत्वेन परिहारतपडि सवित्ता आलो एज्जा ठवणिज ठ व इत्ता क रणि पोयोग्यताया अभावात्। वेयावडियं // 1 // (13) सूत्रम्द्वौ साधर्मिको संविग्रसांभोगिकाऽऽदिरूपावेकत एकस्मिन् स्थाने बहवे साहम्मिया एगओ विहरंति, एगे तत्थ अण्णयरं समुदितौ विहरतः। तत्रैकोऽन्यतरत् अकृत्यं स्थानं प्रतिसेव्य आलोचयेत्। अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, तत्थ ठवणिजं च ठवइत्ता तत्र यद्यगीतार्थः प्रतिसेवितवान् ततस्तस्मै शुद्धतपो दातव्यम् / अथ करणिजं वेयावडियं // 3 // गीतार्थस्तर्हि यदि परिहारतपोयोग्यमापन्नस्ततः परिहारतपो दद्यात्, (बहवे साहम्मिया मातो विहरंति इत्यादि) बहवः साधर्मिका एकतःएकत्र तदनन्तरंस्थाप्यते विविक्तं कृत्वा प्ररूप्यते इति स्थापनीयं परिहारित स्थाने विहरन्ति / तत्र तेषां मध्ये एको गीतार्थोऽन्यतरदकृत्यस्थान पोयोग्यमनुष्ठानं तत् स्थापयित्वा प्ररूप्य य आपन्नः स परिहारतपः प्रतिरोव्य आलोचयेत्, आलोचनानन्तरं परिहारतपो दाने स्थापनीय, प्रतिपद्यते, इतरः कल्पस्थितो भवति / स एव च तस्यानुपारिहारिकः, प्रागुक्तस्वरूपं स्थापयित्वा अनुपारिहारिकेण तस्य करणीय वैयावृत्त्यततस्तने तस्य करणीय वैयावृत्यमित्येष सूत्रसंक्षेपार्थः / मित्येष सूत्रार्थः / / 3 / / अधुना नियुक्तिविस्तरः एनमेव भाष्यकृत्सविशेषमाहदो साहम्मिय छ व्वा-रसेव लिंगम्मि होइ चउभंगो। एमेव तइयसुत्ते, जइ एगो बहुग मज्झें आवजे / चत्तारि विहारम्मि उ, दुविहो भावम्मि भेदा तु / / 141 / / आलोयणगीयत्थे, सुद्धे परिहार जइ पुट्विं / / 58 / / द्विशब्दस्य साधर्मिकशब्दस्य च यथाक्रम षट् द्वादश नामाऽऽदयो एवमेव अनेनैव प्रागुक्तेन प्रकारेण यद्येको बहुषु मध्ये अवतिष्ठमानः निक्षेपाः, द्विशब्दस्य षट्कः साधर्मिकशब्दस्य द्वादशको निक्षेप इत्यर्थः / प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते, ततस्तेन तत्क्षणं गीतार्थस्य पुरत आलोचना लिङ्गे लिङ्गविषये चतुर्भेङ्गी, भवति। सूत्रे च पुस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात। दातव्या / तत्र यदि सोऽगीतार्थो भवति तदा शुद्धं तपस्तस्मै दातव्यम्। तथा विहारे चत्वारो नामाऽदयो निक्षेपाः। तत्र भावे द्विविधो भेदः / एष अथ गीतार्थस्ततः परिहारतपः तच यथा स्थापनीयस्थापनापुरस्सर द्वारगाथासंक्षेपार्थः / व्य० 2 उ० / (द्वयोर्विहारसंभवो विहार' शब्दे पूर्वमुक्तं, तथाऽत्रापि वक्तव्यम् / इयमत्र भावना-ते बहवः साधर्मिका वक्ष्यते) गीतार्था अगीतार्थाः वा भवेयुः, गीतार्थमिश्रा वा / तत्र गीतार्थमिश्रेषु दो साहम्मिया एगतो विहरंति, दो विते अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं जघन्येनैको गीतार्थो भवेत्, उत्कर्षतो द्वित्राऽऽदिकाः, तत्र यदि सर्वे पडिसे वित्ता आलोएज्जा, एकं तत्थ कप्पागं ठावइत्ता एगे गीतार्थाः / यदिवा-द्वित्राऽऽदिका गीतार्थाः प्राप्यन्ते. तदा एकः णिव्विसेज्जा, अह पच्छा से वि णिवि-सेजा॥२॥ (दोसाहम्मिआ एगओ विहरंति इत्यादि) द्वौ साधर्मिकावेकत्र एकत्र कल्पस्थितः क्रियते, एकोऽनुपारिहारिकः / अथ सर्वे आचार्यव्यतिस्थाने विहरतः, तौ द्वावप्यन्यतरदकृत्यं स्थानं प्रतिसेव्य आलोचये रेकेणागीतार्थाः, ततः शुद्धतपो देयम् / अथाऽऽचार्य एवं प्रायश्चित्तयाताम् / तत्र यदि द्वावपि गीतार्था० ततस्तत्र तयोर्द्वयोर्मध्ये एक स्थानमापन्नस्ततः सोऽन्यत्र गच्छे गत्वा परिहारतपः प्रतिपद्यते अथ कल्पस्थित स्थापयित्वा एको निर्विशेत्, परिहारतपः प्रतिपद्यत। यश्च समस्ता अप्याचार्यप्रभृतयोगीतार्थास्ततोऽन्यत्र गच्छान्तरे ते सर्वे गत्वा कल्पस्थितः स एव चानुपरिहारको भवति, अन्यस्याभावात्। ततः स यः प्रायश्चित्तमापन्नः स शुद्धं तपः प्रतिपद्यते। तस्य वैयावृत्त्यं करोति। अथ परिहारतपः समाप्त्यनन्तरं सकल्पस्थितः सूत्रम्पश्चानिर्विशत्परिहारतपः प्रतिपद्येत, इतरस्तु कृतपरिहारतपःकर्मा बहवे साहम्मिया एगओ विहरंति, सव्ये ते अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं कल्प-स्थितोनुपरिहारकश्च भवति, एष सूत्रार्थः। पडिसेवित्ता आलोएजा, एगं तत्थ कप्पगं ठवइत्ता अवसेसा एनमेव सूत्रार्थं भाष्यकृत्सविशेषमाह णिव्विसिञ्जा, अह पच्छा सेवि निव्विसेजा।।४।। वितिए निट्विसएगो, निदिवढे तेण निविसे इयरो। बहवः साधर्मिकाः एकतो विहरन्ति, ते च तथा विहरन्तः, सर्वेऽप्यन्यएगतरम्मि अगीते दोसु य सगणेयरे सोही / / 57 / / तरत् अकृत्यस्थान प्रतिसेव्याऽऽलोचयेयुः, आलोच्य एकं तत्र कल्पस्थित द्वितीये सूत्रे द्वयोरपि गीतार्थयोरन्यतरत् अकृत्यस्थानमापन्न-योरेको / कृत्वा अवशेषाः सर्वेऽपि निर्विशन्ति, परिहारतपः प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः / निर्विशति परिहारतपः प्रतिपद्यते / द्वितीयः कल्पस्थितोऽनुपारिहारि- | ततः तेषा परिहारतपः समाप्त्यनन्तर पश्चात्स कल्पस्थितोऽपि निर्विशेत। Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 677 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार स परिहास्तपः प्रतिपद्येतेति भावः। तस्यैकोऽनुपारिहारको दीयते / एष तव्यः, तेन तस्य करणीय वैयावृत्यमितीदमेकं सूत्रम् // 5 / / द्वितीयं सूबसंक्षेपार्थः / / 4 / / सूत्रमाह-(से य णो संथरेज्जा इत्यादि) सोऽधिकृतः पारिहारिको व्यासार्थ तु भाष्यकृदाह-- ग्लायन्नकृत्यप्रतिसेवनेनाऽपि न संस्तरेत, न परिहारतपोयोग्यमनुष्ठान सव्वे वा गीयत्था, मीसा व जहन्न एगों गीयत्थो। विधातुमलम्, ततस्तस्यानुपारिहारिकेण वैयावृत्यं करणीय, तच्च यथा परिहारिऐं आलवणा, इय भत्तं देंति गेण्हती॥५६ / / करणीय तथा भाष्यकृदर्शयिष्यति। यदि पुनःसत्यपि बलेऽनुपारिहारिकेण लहु गुरु लहुगा गुरुगा, सुद्धतवाणं व होइ पण्णवणा। क्रियमाणं वैयावृत्यम्, (साइजेज त्ति) स्वादयेत् अनुमन्येत, तदापि अह होति अगीयत्था, अन्नगणे सोहणं कुज्जा // 60 // प्रायश्चित्तं कृत्स्नम् तत्रैव उह्यमाने परिहारतपसि अनुग्रहकृत्स्नेनाऽऽरोते बहवः साधर्मिकाः कदाचित्सर्वेऽपि गीतार्था भवेयुः, कदाचिद् पयितव्यं स्यादिति सूत्रद्वयसंक्षेपार्थः।।६।। गीतार्थमिश्वाः / तत्र यदि जघन्येनैको गीतार्थः, शेषाः सर्वेऽगीतार्था इति व्यासार्थ तु भाष्यकृत्प्रतिपादयतिरएको गीतार्थः प्रायश्चित्तस्थानमापन्नस्तस्य एवाऽऽचार्यः कल्पस्थितः, परिहारियाहिगारे, अणुवत्तंते अयं विसेसो उ। स एव चानुपारिहारिकः / यदि पुनर्बहवो गीतार्थाः प्राप्यन्ते, यदि वा- आवण्णदाणसंथर-मंसथरे चेव नाणत्तं // 61 // सर्वे गीतार्थाः, तत एक कल्पस्थितं कृत्वा बहवः पारिहारिका भवन्ति, परिहारिक प्रकृतेऽनुवर्तमाने अयं वक्ष्यमाणलक्षणो विशेषः पारिहारिलेषां च पारिहारिकी कर्तव्या, पारिहारिकैश्च परिहारतपसि व्यूढे कविधिगत आभ्यां सूत्राभ्यामभिधीयते। को विशेषः?, इत्यत-आहअनुपारिहारिकाः परिहारतपः प्रतिपद्यन्ते। कृतपरिहारतपः-कर्माणस्तु (आवण्णदाणसथरे त्ति) परिहारतपः प्रायश्चित्तमापन्नस्य परिहारततेषामनुपारिहारिका भवन्ति। कल्पस्थिोऽपि परिहारतपो वहति, तस्या- पोदाने कृते सति तत् वहतो ग्लानिमुपगतस्य अन्यतरदकृत्यस्थान प्यनुपारिहारिक एको दातव्यः / यदि पुनराचार्यः परिहारतपोयोग्य प्रतिसेव्यते, न संस्तरतः। प्रथमसूत्रेण विधिरभिधीयते, द्वितीयसूत्रेण प्रायश्चित्तस्थानमापन्नो भवति, शेषास्तु सर्वेऽप्यगीतार्थाः, ततः पुनस्तेनाप्यसरतरत इति सूत्रद्वयस्य परस्पर पूर्वानन्तरसूत्राच नानात्वं सोऽन्यगण गत्वा परिहारपतः प्रतिपद्यते, पारिहारिकस्य यदि शेषाः विशेषः। साधव आलापनाऽऽदिकं कुर्वन्ति। आदिशब्दात्सूत्रवाचनाऽऽदिपरिग्रहः / पर आहततस्तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो लथवः। अथ भक्तं ददति, तदा चत्वारो उभयवले परियायं, सुत्तस्थाभिग्गहे य वण्णेत्ता। गुरवः / तथा पारिहारिकाद्भक्तं गृह्णन्तितदा चत्वारो लधवः / पारिहारिक नहु जुजइ वृत्तुं जे, जं तदवत्थो वि आवजे // 62 / / एवाऽऽलापनाऽऽदिकं करोति भक्तं वा ददातिगृह्णाति वा तदा सर्वत्र ननु तस्य पारिहारिकरन्य पूर्वमुभयं धृतिसंहननबलरूपं वर्णितं, प्रत्येक चत्वारो गुरवः / ये पुनरगीतार्थास्तेभ्यः शुद्धतपो दातव्यम्। पर्यायश्च गृहयतिपर्यायरूप उभयतो वर्णितः, सूत्राविपि तस्य अगीतार्थतया तेषां परिहारतपो योग्यत्वाभावात् / अथ कीदृशाः परि- यावत्प्रमाणौ भवतस्तावत्प्रमाणौ वर्णितौ० अभिग्रहा अपि च तस्य हारतपोर्हाः, कीदृशाः शुद्धतपोयोग्या इति शिष्यप्रश्नावकाशात् परिहार- क्षेत्राऽऽदिविषयाः पूर्वमधस्तात् व्यावर्णितास्तत उभयबलमुभयं पर्याय तपोयो ग्यानां च प्रज्ञापना प्ररूपणा कर्तव्या। अत्रापि तत्प्ररूपणायाः सूत्रार्थावभिग्रहांश्च वर्णयित्वा (नहु) नैव युष्माकंयुज्यते वतुम्। 'जे' स्थानत्वात् / सा च प्रागेव कृतेति न भूयः क्रियते। अथ सर्वेऽप्यगीतार्था इति पादपूरणे / यत्तदवस्थेऽपि परिहारतपः प्रतिपन्नोऽप्यापद्यते, भवेयुस्ततस्ते अन्यस्मिन् गणे गत्वा शोधनं कुर्युरालोचनां दत्त्वा शुद्धतपः प्रायश्चित्तस्थानाऽऽपत्तिसंभवात्।। प्रतिपद्येरन्निति भावः। अत्र सूरिराह(१४) परिहारकल्पस्थितंग्लायन्तम् दोहि वि गिलायमाणे, पडिसेवंते मिगेण दिटुंतो। परिहारकप्पट्ठिते भिक्खू गिलायमाणे अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं आलोयणा अफरिसे, जोहे वसहे य दिटुंते // 63 / / पडिसे वित्ता आलोएजा, से य संथरेजा ठवणिज्जं ठवइत्ता द्वाभ्यामाभ्यां परिषहाभ्यां क्षुत्पिपासालक्षणाभ्यां ग्लायन् ग्लानिमुपकरणिज्जं वेयावडियं / / 5 / / से य णो संथरेजा अणुपारिहारिएणं गच्छन् गुरुलाघवचिन्तया अनेषणाऽऽदिकमपि प्रतिसेवेत, तस्मिंश्चतथा करणिज्ज वेयावडियं, से य संते बले अणुपरिहारिएणं कीरमाणं प्रतिसेवमाने दृष्टान्तो मृगेण वेदितव्यः। सच तथा प्रतिसेव्याऽऽलोचयेत्। वेयावडियं साइज्जेज्जा से य कसिणे तत्थेव आरूहेयवे / आलोचनायाचतेन दीयमानायामपरूषं भाषणीयम्। यदि पुनः परुष भाषन्ते सिया // 6 // प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका मासाः, आज्ञाऽनवस्थामिथ्यात्व-विराधनाश्च "परिहारकप्पहिए भिक्खू गिलायमाणे'' इत्यादि सूत्रद्वयम्-परिहार- दोषाः / अत्राऽर्थे योधान् दृष्टान्तीकुर्याद्, यदिवा-वृषभेण दृष्टान्तः कर्त्तव्य कल्पस्थितो भिक्षुग्लथिन् ग्लानिमुपपन्नः अन्यतरदकृत्यस्थान प्रतिसेव्य इति। तत्र मृगदृष्टान्तोऽयम्-''एगो मिगो गिम्हकाले संपत्तेतण्हाए अभिभूतो आलोचयेत्। स च तेनाकृत्यप्रतिसेवनेनसंस्तरेतपरिहारतपोवहने समर्थो पाणियहाणं गतोपासइ-कोदंडकंधरियहत्थं वाहं / ततो भिगो इमं चिंतेइ-जइ भवेत्, ततः स्थापनीय स्थापयित्वा अनुपारिहारिकस्तस्य स्थापवि- | न पियामि तो खिप्पं मरिहामि / पीते सुहेण मरिजाभि। अवि य पीए क्याइ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 678 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार बलियत्तणगुणेण पलाइजा वि। एवं चिंतिऊण सो अन्नेण ओगासेणं खिप्पं पाणियं पाउं लग्गो / जाव सो वाहं तं ओगासं पावइ ताव कइ वि घोट्टे करेत्ता पलातो एवं सो वि पारिहारिओ चितेइ-जइ न पडिसेवामि तो मरामि अबूढे च पायच्छित्ते अन्नमवि कम्मनिजरणं न काहामि। पडिसेविए पुण पच्छित्तं च, जं च अबूढं च वहिस्सामि अन्नं च कम्मनितरणं चिरं जीवंतो करेस्सामि भवसत्तमदेवदिट्टतेणं कथाइ सिज्झहामि विवेयं / जतो भणिय"अप्पेणं बहुमेसेञ्जा, एय पंडियलक्खणं। सव्वासु पडिसेवायु, एयं अट्ठावयं विदू॥१॥ अत्रोत्तरार्धाक्षरगमनिका सर्वासु प्रतिसेवासु प्रतिसेवनासु एतदनन्तरोदितमल्पेन च षट्के षण्मासार्थपदं सार्थकमपवादपदं विदुर्जानन्ति पूर्वमहर्षयः। एनमेव मृगदृष्टान्तं भावयतिगिम्हे स मोक्खिएV, दटुं वाहं गतो जलोयारे। चिंतेइ जइ न पाहं, तोयं तो मे धुवं मरणं / / 64 / / पाउं मरणं पि सुहं, कयाइ चेट्ठिओ पलाएज्जा। इति चिंतेउं पाउं, नोल्लेउं तो गतो वाहं / / 65 / / ग्रीष्मे ग्रीष्मकाले स मृगोऽवतारे गतो व्याधं मोक्षतेषु मोक्षितो मोकुमिष्ट इषुर्वाणो येन स तथा तं, दृष्ट्वा चिन्तयतियदिन पास्यामि तोयं जल ततो मे ध्रुवं मरणम् / अपि च पानीयं पीत्वा मरणमपि मे सुख,तथा कदाचित्पानीयपानेन चेष्टितः सचेष्टाकः सन् पलायेयमपि, इति चिन्तयित्वा पानीयमन्यस्मिन्नवकाशे पीत्वा वेगवलेन व्याधं मुदित्वा प्रेर्य गतो मृगः स्वस्थानम् / उक्तो मृगदृष्टान्तः। संप्रति दान्तिकयोजनामाहमिग्गसमाणो साहू, दगपाणसमा अकप्पपडिसेवा। वाहोवमो य बंधो, सेविय पीतं पणोल्लेइ॥६६ / / मृगसमानो मृगसदृशः साधुः, उदकपानरामा उदकाभ्यवहारसमा अकल्पप्रतिसेवा, व्याधोपमो व्याधस्थानीयोबन्धः / कर्मबन्धमकल्पं प्रतिसेव्य मृग इव पानीयं पीत्वा व्याधं प्रणुदति प्रेरयति / संप्रति आलोचनाया अपरुषभाषणे योधदृष्टान्त उपन्यरत्तः। स भाव्यते-- ''एगो राया, सो परबलेणं अभिभूतो, तेण जोहा दिट्ठा जुज्झता परबलेन पहारेहि परिताविया भग्गा, ततो आगया अप्पणिज्जगस्स रन्नो पायमूलं, तेणवायसरेहिं तज्जियातुज्झे मम वित्तिं खाइत्ता किं पहाराणं भीया पडिआगता? ताहे ते जोहा परबलमभिभविउमसमत्था इमं विततिजुज्झंताणं आउहपहारेण भग्गाणं पडिआगथाणं वायारसपहारा बंधणमरणादीणि विसेसति कीस अप्पा न परिवत्तो ति चिंतेऊण तेहि जोधेहिं राया बंधिउ परबलरण्णो दिण्णो।' एनमेवार्थमाहपरबलपहारचइया, वायासरतोइया य ते पहुणा। परपच्चूहासत्ता, तस्सेव हवंति घायाय // 67 / / योधाः परबलकृतैः प्रहारैस्त्याजिताः संग्रामाध्यवसायमो चिनाः, ततः / प्रत्यागताः सन्तस्ते प्रभुणा स्वकीघेन राज्ञा वाक्सरैस्तोदिता अतिशयेन पीडिताः परप्रत्यूहासक्ताः परबलप्रतिक्षेपकर्तुमसमर्थाः तस्यैवाऽऽत्मीयस्य राज्ञो व्याघाता य भवन्ति। "अपणो राया परबलेणाभिभूतो तहेव जोहे पेसेइ. परबलपहारेहिं भग्गो पडिआगतो प्रोत्साहयति।" कथमित्याहनामेण य गोएण य, पसंसिया चेव पुव्वकम्मे हिं। भग्गवणिया वि जोहा, जिणंति सत्तुं उदिण्णं पि॥६८ / / ते योधाः प्रत्यागताः सन्तः तेन राज्ञा नाम्ना अभिधानेन गोत्रेणान्वयेन तथा पूर्वकर्मभिः पूर्वकृतैरनेकैः संविधानकैः प्रशंसिताः सम्यक्रस्तुताः, ततस्तया प्रशंसया उत्कर्ष ग्राहिताः सन्तो व्रणिताः सन्तो भग्ना भावणिताः, राजदन्ताऽऽदिदर्शनाद्भग्रशब्दस्य पूर्वनिपातः। तथाभूता अपि उदीण्णमपि प्रबलमपि शवु जयन्ति। उक्तो योधदृष्टान्तः संप्रति दान्तिकयोजनामाहइय आउरपडिसेवं त चोदितो अहव तं निकाए तो। लिंगाऽऽरोवण चागं, करेज्ज घायं व कलह वा // 66 // एतेनयोधृगतेन प्रकारेणाऽऽतुरः प्रथमः, द्वितीयः परीषहाभिभूतेनाऽऽकुलीभूतोऽनेषणाऽऽदि प्रतिसेवमानः सन् चोदितोऽथवातत्प्रतिसेवितंनिकाचयन आलोचयन् चोदितो, यथा-हे निर्धर्मिन!किमीदृश त्वया कृतमित्यादि / स च तथा परुषभाषणेन रोषं ग्राहितः सन् तां प्रतिचोदनामसहमानो लिङ्गस्य वा रजोहरणमुखवस्त्रिकारूपस्य आरोपणं वा, प्रायश्चित्तस्य त्यांग वा कुर्यात्। यदि चाघात चोदकस्य कुर्यात्, घातग्रहणमुपलक्षणम्-पिट्टनं वा लकुटाऽऽदिभिजीविताह्यपरोपणं वा कुर्यात, कलह वा राटिरूपं विदध्यात्, कोपाऽऽवेशतः सर्वस्याप्यकृत्यसंभवात्। संप्रति वृषभदृष्टान्त उच्यते-''केदारेसु साली वाविता, ते य केयारा वितीए परिक्खित्ता कया,तेसिं एवं वारं कयं, अन्नया तेण वारेण वसभो पविट्ठो केयारेसु चरइ, केयारसामी आगतो तं वसभं पविट्ठ पसिऊण तं वारं ढक्वियं, ततो सरमादीहिं तं वसभं परितावेति-ताहे तेण परिताविएण इमं कयं।" जंपिन चिण्णं तं तेण चमढियं पेल्लियं सराईहिं! केयारेक्कदुवारे, पेयालेणं निरुद्धणं / / 7 / / केदारसत्के एकस्मिन् द्वारे सति तेन द्वारस्थगनतो निरुऽद्धेन पेयालेन साण्डवृषभेण यदपरेषु केदारेषु न चीपर्ण तदपि शराऽऽदिभिः परिताप्यमानेन इतस्ततः परिभ्रमता (चमढियं ति) विनाशितं (पेल्लियं बेति पातितं च शीघ्रम / एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयः-- तणुयम्मि वि अवराहे, कयम्मि अणुवायचोइएणं वा। सेस चरणं पि मलियं, असमत्थ पसत्थ विइयं तु // 71 / / एवं वृषभदृष्टान्तप्रकारेण स्तोकेऽप्यपराधे कृते अनुपायेन उपायाभावेन यश्चेदितस्तेनानुपायचोदितेनाधिकृतप्रतिसेवनातः शेष यच्चारित्रमवतिष्ठते तदपि लिङ्गत्यागाऽऽदिना मलिनं क्रियते / इदमप्रशस्तमुदाहरणम्। द्वितीय तदाहरण प्रशस्तम्। तचेदम्-"अन्नो केयारसामी वसभं केया Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार रसुं सालिं चरतं पासिऊण दुवारस्स एगपासे मिच्छा सबै करेइ, ततो सो वसभी नीतो तेण दुवारेण निप्फडति, निप्फडतो य लेटुमादीहिं आहतो. एवं तस्स खेत्तमलणादिया पुव्वुत्ता दोसा न जाया। एवं आयरिएण वि सो उवाएण चोएयव्वो जहान रूसति, ततो पुव्वुत्तो एगो विदोसोन संभवति / व्याख्यातं प्रथमसूत्रम्। अधुना द्वितीय व्याविख्यासुःप्रथमतः सूत्रेण सह संबन्धमाहतेणेव सेविएणं, असंथरंतो वि संथरो जातो। वितिओ पुण सेवंतो, अकप्पियं नेव संथरति / / 72 / / अनन्तरसूत्राभिहितोऽसंस्तरन्नपि तेनैव प्रामुक्तेनाकल्पिकेन सेवितेन संस्तरो विवक्षितानुष्ठानवहनसमर्थो जातः। द्वितीयः पुनरधिकृतसूत्रोकोऽकल्पिकमपि प्रतिसेवभानो नैव संस्तरति नैवाधिकृतानुष्ठानवहनसमर्थ उपजायते। ततोऽसंस्तरतो व्याचिख्यासनार्थमधिकृतसूत्राऽऽरम्भःएमेव वीयसुत्ते, नाणत्तं नवरमसंथरतम्मि। करणं अणुपरिहारी, चोयगगोणीऍ दिट्ठतो।।७३ / / यथा प्रागुक्तसूत्रेऽभिहित्तम्-"उभयबले परियाय"(६२) इत्यादि, एवमेव अनेनैव प्रकारेणास्मिन्नप्यधिकृते द्वितीये सूत्रे वक्तव्यं, नवरमत्र नानात्वमिदमसंस्तरति अकल्पिकप्रतिसेवने-नापि संस्तरणमप्राप्नुवति करणमनुपरिहारिणः यन्न शक्रोति परिहारिकः कर्तु तद्भणितः, स न करोत्यनुपरिहारिक इति भावः / 'चोयगगोणीऍ दिहतो'' इति पश्चाद व्याख्येयम्। संप्रति यदनुपरिहारिणा कर्तव्यं तदाहपेहा भिक्खग्गहणे, उटुंतनिवेसणे य धुवणे य। जं जं न तरह काउं, तं तं से करेइ वितिओ उ७४ / / प्रेक्षा या भिक्षाग्रहणे उत्तिष्ठति उत्थानं कर्तुमारभमाणो निवेशते चानुपरिहारिणः, करणं भवतीति शेषः / इयमत्र भावना-यदि परिहारिको भाण्ड प्रत्युपेक्षितुं न शक्नोति ततोऽनुपरिहारिकं ब्रूते-प्रत्यवेक्षस्वेद भाण्डकमिति। ततोऽनुपरिहारिकस्तस्य भाण्ड प्रत्यवेक्षते। तथा यदि भिक्षानिमित्त हिण्डितुन शक्नोति ततोऽभिधत्ते, भिक्षामटित्वा ददाति। एवमुत्थानं यदि कर्तुं न शक्तस्तत उत्थापयति, उपवेष्टुमशक्तमुपवेशयति, लेपकृदादिना खरण्टितं पात्रबन्धाऽऽदि यदि प्रक्षालयितुमशक्तरस्तदा तदपि प्रक्षालयति। अत्र ''चोयगगोणीऍदिट्टतो' इत्यस्यावकाशः / चोदक आयदि नाम तस्यानुपरिहारिणा कर्तव्यं, ततः किमुक्तमेव करोति, सर्व करमान्न कुरुते? तथाहि-यथा भिक्षाहिण्डनार्थमुत्थातुमशक्नुवता परिहारिकेणोक्ते मामुत्थापयेतितमनुपरिहारिक उत्थापयति। तथा भिक्षामटित्वा कस्माद्भक्तमानेतुंददाति / यथा वा भणितः सन् भिक्षामटित्वा भक्तमानेतुं तस्मै प्रयच्छति। तथा भाण्डप्रत्युपेक्षणाऽऽदिकमप्यभणित एव करमान्न करोति? सूरिराहगोण्या दृष्टान्तः यथा कस्यापि गौर्वाताऽऽदिना लगशरीरा, तामुपविष्टामुत्थातुमशक्नुवतीं पृच्छे गृहीत्वा गोनायक उत्थायति, सा चोत्थिता स्वयमेव चारि चरितुं याति, यदि पुनरसमर्था चारिचरणाय गन्तुं तदा चारं पानीयं चाऽऽनीय | ददाति, एवं चतावत् कारिता यवदलिष्ठोपजायते। एवं च पारिहारिकोऽपि यत् यत्कर्तुं न शक्नोति तत्तत्(से) तस्य द्वितीयोऽनुपारिहारिकः करोति, यत्पुनः कर्तुमलं तत्स्वयमेवानिगृहितबलवीर्यः करोति / एवं नाम तेन वीर्याचारोऽ-नुचीर्णो भवति। संप्रति यदुक्तम्-''अणुपरिहारिएण कीरमाणं वेयावच्चं जे साइजति।" तत्र साइजणामाहजं से अणुपरिहारी, करेइ तं जइ बलम्मि संतम्मि। न निसेहेई साइ-जणा उ तहियं तु संठाणं // 75 / / यत् (से) तस्य परिहारिणोऽनुपरिहारी करोति, तद्य दि तेन क्रियमाणं सत्यपि बले, अपिशब्दोऽत्रानुक्तोऽपि सामर्थ्यागम्यते / न निषेधते न निवारयति। सा नाम "साइजणा'' स्वादना० तत्र चतस्यां च स्यादनायां क्रियमाणायां प्रायश्चित्तं स्थानम् / किमुक्तं भवति?-प्रथमोद्देशके येषु स्थानेष्वालपनाऽऽदिलघव उक्तास्तेषु स्थानेष्वस्य गुरुका दातव्याः, अनुमननाध्यवसायस्याति-प्रमादहेतुत्वादिति। सूत्रम्परिहारकप्पट्ठियं भिक्खुं गिलायमाणं णो कप्पइ तस्स गणावच्छे इयस्स णिज्जू हित्तए, अगिलाए तस्स करणिचं वेयावडियं० जाव ततो रोगायंकाओ विप्पमुक्को ततो पच्छा तस्स अहालहुस्सयं नामं ववहारे पट्टवेयव्वे सिया // 7 // ___ अथास्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह कः संबन्धः? उच्यतेतवसोसियस्य वाऊ, खुभेज पित्तं व दोवि समगं वा। सण्णग्गि पारणम्मी, गेलण्णमयं तु संबंधो // 76 // तपःशोषितस्य यो हि परिहारतपसा शोषमुपगतस्य वातः क्षुभ्येत, यदि वा पित्तम् / अथवा द्वयमपि वातपित्तं समकं क्षुभ्येयाताम् / ततो वातेन पित्तेन वा सन्ने विध्याते अग्नौ पारणे कृते सति ग्लानत्वमुपजायते। ततो ग्लानस्य सतो विधिख्यापनार्थभेतत्सूत्रमुपगतमित्येष सूत्रस्य संबन्धः। अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्याऽस्य सूत्रस्य(७) व्याख्यापरिहारकल्पस्थितं भिक्षुग्लायन्तं यस्य सकाशभागतस्तस्य गणावच्छेदिनो नकल्पते निथुहितुमपाकर्तु वैयावृत्त्यकरणाऽऽदिना, किं त्वग्लान्या तस्य करणीय वैयावृत्त्यं तावद्यावत्स रोगाऽऽतङ्काद्विप्रमुक्तो भवति, ततः पश्चात्तस्य परिहारिणो (लहुस्सग त्ति) स्तोको नाम व्यवहारः प्रायश्चितं प्रस्थापयितव्यो दातव्यः स्यादिति सूत्रसंक्षेपार्थः। व्यासार्थ तु भाष्यकृद्विवक्षुर्यः कारणैः सग्लायतितान्य भिधित्सुराहपढमविइएहिं न तरइ, गेलण्णेणं तवोकिलंतो वा। निज्जूहणा अकरणे, ठाणं व न देइ वसहीए।।७७ / / प्रथमद्वितीयाभ्यां क्षुत्पिपासालक्षणाभ्यामभिभूतः सन् परिहारी ग्लायति। यदि वाग्लानत्वेन, अथवा-तपसा क्लान्तः सन् / एतावता "गिलायमाणं'' इति पदं व्याख्यातम्। अधुना "निज्जूहित्तए" इति व्याचिख्यासुराहनि!हना नाम वैयावृत्त्यख्याकरणे, यदि वावसतौ दोषाऽभावे यत्स्थानं न ददाति एषा नियूहना। वैयावृत्त्याकरणाऽऽदिना यत्तस्य तपोऽकरणं सा नियूहनेति भावः / यदुक्तम्-'अगिलाए तस्स करणिज्ज' इति। तत्र गिलाप्रतिषेधेन अगिला ज्ञायते, इति गिलाव्याख्यानार्थमाह Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 680 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार निववेटिं व कुणतो, जो कुणई एरिसा गिला होइ। संप्रति प्रथमाऽऽदिषु भङ्गेषु प्रतिषिद्धमपि प्रवेशन कुर्वतः पडिलेहुट्ठवणाई, वेयावडियं तु पुव्वुत्तं / / 7 / / प्रायश्चित्तविधिमाहयो नाम नृपवेष्टि राजवेष्टिभिव कुर्वन् वैयावृत्त्यं करोति एतादृशी भवति अइगमणे चउगुरूगा, साहू सागारि गामबहि ति। गिला ग्लानिः, तस्याः प्रतिषेधोऽगिला, तया करणीयं वैयावृत्त्यम्। कि कप्पट्ट सिद्ध सन्नी, साहु गिहत्थं व पेसेति।।३।। तदित्यत आह-प्रतिलेखोत्थापनाऽऽदिकं भाण्डस्य प्रत्युपेक्षणमुपविष्ट- प्रथमाऽऽदिषु प्रतिषेधमतिक्रम्य गमनं प्रवेशनमतिगमन, तस्मिन्प्रायस्योत्थापनम्, आदिशब्दात् भिक्षानयनाऽऽदिपरिग्रहः / एतत्पूर्वोक्त / श्चित्तं चतुर्गुरुका मासाः, आज्ञाऽनवस्थामिथ्यात्वविराधनाश्च दोषाः। वैयावृत्त्यम्। तथा यदि प्रथमाऽऽदिषु भङ्गेषु प्रतिषिद्धेऽपि प्रवेशने कृते साधुरेकोऽपि अत्र नियुक्तिविस्तरः काल करोति, तदा चरमं पाराजितं नाम प्रायश्चित्तम्। अथ शय्यातरस्य परिहारि कारणम्मी, आगमें निज्जूहणाम्मि चउ गुरुगा। कालकरण ततश्चत्वारो गुरुकाः, यत एवं प्रायश्चित्तमतः परिहारिकेण आणाइया य दोसा, जं सेवइ तं च पाविहिती॥७६ || ग्रामस्य बहिः स्थित्वा यदि कल्पस्थकं पश्यति / यदि वा(सिद्ध त्ति) परिहारिणः कारणे वक्ष्यमाणलक्षणे आगते सति यदि नियूहना क्रियते सिद्धपुत्रम्। अथवा संज्ञिनं श्रावकं साधु वा विचाराऽऽदिविनिर्गतं गृहस्थं तदा तस्य गणावच्छेदिनो निर्वृहितुः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः मासाः, वाच्यम्, ततः संदेश कथयित्वा प्रेरयति / यथा गत्वा साधूनामाचक्ष्व तथा आज्ञाऽऽदयश्च आज्ञाऽनवस्थामिथ्यात्वविराधनारूपाश्च तस्य बहिः प्रव्रजितो युष्मान् द्रष्टकामस्तिष्ठति, स तथा प्रेषितः साधूनामादोषाः। तथा यद्वैयावृत्याकरणतः स्थानलाभेन वा प्रतिसेवते परिहारी, ख्याति। तच तन्निमित्तमपि च प्रायश्चित्तं स प्राप्नोतीति। / ततः किमित्याहसंप्रति यैः कारणैः परिहारिण आगमनं भवति, तान्य गंतूण पुच्छिऊणं, तस्स य वयणं करें ति न करेंति। भिधित्सुराह एगाऽऽभोयण सव्वे, बहिठाणं वारणं इयरे / / 4 / / कालगतो सें सहाओ, असिवे राया व बोहिसभए वा। ग्रामाभ्यन्तरवर्तिनः साधवः परिहारिणः समीपं गत्वा पृच्छन्तिनिरावा, एएहि कारणे हिं, एगागी होज्ज परिहारी||८|| भवतो वर्तत। तत्र यदिबूते-गृहीतोऽहमशिवेनेति, तदा (तस्स य वयणं (स) तस्य परिहारिणः सहाय एको अनेको या कालगतः / यदि वा करेंति न करेंति त्ति) तस्य परिहारिकस्य वचनं प्रवेशलक्षणं ते कुर्वन्ति। साधूनामशिवमुपस्थितम् / अथवा राजा प्रद्विष्टः (बोहिय त्ति) म्लेच्छाः किमुक्तं भवति? प्रथमे द्वितीये वा भङ्गे न कुर्वन्ति। तृतीये भङ्गे चतुर्थे तद्भयवा समुपजातं, ततः साधूनां वृन्दस्फोट उपजायते, एतैः कारणः स परिहारी एकाकी भवेत्, एकाकिनश्च सतः परिहारतपो न निर्वहति तृतीये यतनामाह--(एगाभोयणेत्यादिका तृतीये भने यदि सदृशमशिवं विशेषतो ग्लानस्तस्य आगमनमिति। तत एकस्मिन्नुपाश्रये तं कुर्वन्ति / अथ विसदृशं तर्हि नैकस्मिन्नुपाश्रये तम्हा कायव्वं से, कप्पट्ठियमणुपरिहारियं ठवेऊण। स्थापनीयोऽन्यतरस्यानर्थसंभवात्, किंतु भिन्ने, तस्मिन्नप्यसंबद्धे अथ वितियपदे असिवादी, गहियागहियम्मि आदेसो॥८१|| व्यवच्छिन्नं गृहं न किमपि लभ्यते, ततः संबद्धेऽपि गृहे पृथगद्वारे यस्मादेवं कारणे समागतस्तस्मात् (से तस्य परिहारिणः प्रायश्चित्त स्थापनीयः(एगाभोयण सव्वे त्ति) एकस्य साधोराभोगनं प्रतिजागरणभ् / परिज्ञाननिमित्तं सकलगच्छसमक्ष कल्पस्थितमनुपरिहारिणं च स्थाप किमुक्तं भवति?-एकः साधुस्तंग्लायन्तं प्रतिहारिणं प्रति जागर्ति, शेषाः यित्वा कर्त्तव्यं यत्करणीय, द्वितीय पदे अशिवाऽऽदिलक्षणऽधवादन निर्वृहितोऽपि परिहारिणं स गणावच्छेदी अशिवाऽऽदिभिश्च गृहिता सर्वेऽपि साधवः तत्प्रयोग्यमौषधाऽऽदिकं याचन्ते। (बहिट्ठाणभिति) यदि गृहीतविषये आदेशः प्रकारश्चतुर्भङ्ग्यात्मकः।) पुनः परिहारिणो वसतावानयने शय्यातरोऽप्रीतिं करोति, तदा ग्रामस्य बहिर्वसतेः दूरे वा योऽन्यो वाटकाऽऽदिस्तत्र परिहारिणः स्थानं कर्त्तव्यम् / तमेव प्रकारमाहगहियागहिए भंगा, चउरो न उवसति पढमवितिएसुं। (वारणं इयरे इति) अथ सागारिको यस्तं प्रतिचरति, यश्च तत्र गत्वा इच्छाएँ तइयभंगे, सुद्धो उचउत्थओ भंगो // 2 // शरीरवार्ता पृच्छति, तस्मिन् वारण प्रतिषेधं करोति। यथा--यूयमशिवगृहीताऽगृहीते वा गृहीतविषये भङ्गाश्चत्वारः / तद्यथा अशिवेन गच्छो गृहीतस्य समीपं गच्छत, आगच्छत, एवं च तेन सह संपर्क कुर्वाणा गृहीतो न परिहारीति प्रथमो भङ्गः। परिहारी गृहीतो न गच्छ इति अस्माकमप्यशिवं संचारिष्यतस्तस्मान्मा कोऽपि युष्मन्मध्ये तत्र द्वितीयः / परिहार्यपि गृहीतो गच्छोऽपीति तृतीयः। न गच्छो न परिहारीति यासीत, तदा यतना कर्तव्या। सा चाग्रे स्वयमेव वक्ष्यते। चतुर्थः / तत्र प्रथमे द्वितीये वा भङ्गेन प्रविशति प्रथमभङ्गे परिहारिणो, सांप्रतम्-"एगाऽऽभोयण सवे" इति व्याख्यानयन्नाहद्वितीयभङ्गो वास्तव्यानामनर्थ संभवात्, तृतीयभङ्गे पुनरिच्छया प्रवेशः / वुच्छिन्नधरस्सासइ,पिहद्वारे व संबद्धे। यदि सदृशेनाशिवेन गृहीतः परिहारी, गच्छश्च ततः प्रवेश्यते, अथ एगो तं पडिजग्गइ, जोग सव्वे वि झोसंति / / 5 / / विसदृशेन एकः सौम्यमुखीभिरपरः कालमुखीभी रक्तमुखीभिर्वा तदा व्यवच्छिन्नगृहस्यासंबद्धस्योपाश्रयस्य असति अभाव असंबद्धेन प्रवेश्यते / अन्यतरस्यानर्थसंभवात्। यस्तु चतुर्थो भङ्गः स शुद्ध एव। / ___ऽप्युपाश्रये वसन्ति / कथं भूते? इत्याह-पृथग्द्वारे विभिन्न कुर्वन्ति। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 681 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार द्धार ततः (एगा तमिति) तं परिहारिणं प्रतिजागर्ति प्रतिचरति, शेषाः सर्वेऽपि साधवो योग्यमोषधाऽऽदिकं झोषयन्ति मार्गयन्ति, आभोगनं मार्गण झोषणमिति होकार्थः / उक्तंच-"आभोगणं ति वा मग्गणं तिवा झोषण ति वा एगट्टनिति / " संप्रति 'बहिट्ठाण' इति व्याख्यानयतिसागारियअचियत्ते, बाहिं पडियरण तह विनेच्छते। अदि8 कुणइ एगो, न य भूयो वेंति दिट्टम्भि||८७॥ सागारिकः शय्यातरः तस्य "अचियत्ते'' अप्रीतौ ग्रामस्य बहिर्वसतेर्दूर वा योऽन्य उपाश्रयस्तं याचित्वा तत्र तं परिहारिणमुन्मुच्य एकः साधुः प्रतिचरति। "धारण इयरे'' इत्यस्य व्याख्यानमाह-(तह वि नेच्छंते इत्यादि) तथापि एवमपि यदि शय्यारो नेच्छति / यथा-किमिति यूय गमनाऽऽगमनकारणेनाऽस्माकमप्यशिवं संचारयथ, तस्मात्मा कोऽपि तत्र गच्छेदिति, तदा एकः साधुर्यथा शय्यातरो न पश्यति न जानाति वा तथा प्रतिचरति। यदि पुनः कथमपि शय्यातरेण स्वयं दृष्टो भवेत् ज्ञातो वा, ततो वदत् यदा यूयं वारिता अपि न तिष्ठथ, तदा तददृष्टे, उपलक्षणमेतत्-ज्ञाते चारित्रे चैवं वक्तव्यम्-न भूयो गमिष्यामः क्षमस्य त्वमिति। अथ सागारिकस्य गाढमप्रीतिकरणं ततः सर्वेऽप्यन्यवसति याचयित्वा च तिष्ठन्ति। बहुपाउग्गउवस्सय, असती वसहा दुवेऽहवा तिपिण। कइतवकलहेणऽण्णहिँ, उप्पायण वाहिँ संछोभो॥८८ / बहुप्रायोग्योपाश्रयस्थासतिअभावे, किमुक्तं भवति?-यत्र सर्वसाधवो मान्ति स उपाश्रयोऽन्यो न लभ्यते ततो द्वौ वृषभावथवा त्रयः केतवेन कलह कृत्वा अन्यत्र वसत्यन्तरे गच्छन्ति, तत्र स्थिताः परिहारिणः परिचेष्टां कुर्वन्ति, अन्यतरकैरपि औषधाऽऽदीनामुत्पादनं कृत्वा औषधाऽऽदीनि याचयित्वा बहिः संक्षोभः क्रियते, बहिः परिहारिणः समीपे प्राप्यते. येऽपि च कैतवकलह कृत्वा न विनिर्गतास्तेऽप्यन्यतरकैः सह विविक्तप्रदेशे मिलित्वा पारिहारिकयोग्यं गृह्णन्ति। संप्रति तद्वतप्रतिचरणविधिमाहते तस्स सोहियस्स य, उव्वत्तण संयरं व धोवेज्जा। अच्छिक्कोवहि पेहे, अच्चियलिंगेण जा पउणो ||8|| ते अभ्यन्तरकाः कलहव्याजेन विनिर्गताः,तस्य शोधितस्य प्रतिपन्नपरिहारतपःप्रायश्चित्तस्य, उद्वर्त्तनम , उपलक्षणमेतत्-परावर्त्तनमौषधाऽऽदिप्रदानं च वरखान्तरितेन हस्ते न कुर्वन्ति, वस्त्राणि च तस्य सत्कानि सान्तरमेकोऽनन्तरितानि गृह्णाति, सोऽन्यस्मै समर्पयति, सोऽन्यस्मायित्यन्तरितं धावयन्ति प्रक्षालयन्ति, उपधिमपि तस्य प्रत्युपेक्षन्ते (अच्छिक्का) अस्पृष्टाः सन्तः, बहुवचनप्रक्रमेऽप्येकवचनं गाथायां प्राकृतत्वात्, वचनव्यत्ययोऽपि हि प्राकृते यथालक्ष्यं भवतीति, एवं तावत्प्रतिजागरति यावत्स प्रगुणो भवति। राजप्रद्वेषे तु यत् यत्रार्चित लिङ्ग तेन यावत्प्रगुणो भवतितावत्प्रतिजागरति।व्य०१3०1 (यथालस्वको व्यवहारः अहालहुस्सय शब्दे प्रथमभागे 870 पृष्ठे गतः) (15) अथ कं व्यवहार केन तपसा पूरयतीति प्रतिपादनार्थमाहगुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होइ दसमं तु / अहगुरुग दुवालसम, गुरूगपक्खम्मि पडिवत्ती॥१६॥ गुरुकं व्यवहारं मासपरिमाणं अष्टमं कुर्वन् पूरयति, गुरुकं व्यवहार मासपरिमाणमष्टमेन वहति, तथा गुरुतरकं चतुर्मासप्रमाण व्यवहारं दशम कुर्वन् पूरयति, दशमेन वहतीत्यर्थः / यथागुरुकं कुर्वन् द्वादशत्वेनेत्यर्थः / एषा गुरुकपक्षे गुरुकव्यवहारपूरणविषये ततः प्रतिपत्तिः / छ8 च चउत्थं वा, आयंबिल एगठाणपुरिमटुं। निव्वीयं दायव्वं, अहालहुस्सम्मि सुद्धो वा // 7 // लघुकं व्यवहारं त्रिंशदिनपरिमाणं षष्ठकुर्वन् पूरयति, लघुतरकंपञ्चविंशदिवसपरिमाण व्यवहारं चतुर्थं कुर्वन्, यथालघुकव्यवहारं विंशतिदिनभाचाम्लं कुर्वन्, एषा लघुकत्रिविधव्यवहारपूरणे तपःप्रतिपत्तिः / तथा लघुकस्वभावव्यवहारं पञ्चदशदिवसपरिमाणमेकस्थानकं कुर्वन् पूरयति, लघुकतरस्वकव्यवहारं दशदिवसपरिमाणं पूर्वार्द्धकं कुर्वन्, यथालघुस्वकव्यवहारं पञ्चदिनपरिमाणं निर्विकृतिकं कुर्वन्पूरयति / तत एतेषु गुरुकगुरुतरकाऽऽदिषु व्यवहारेष्वनेनैव क्रमेण तपो दातव्यत्। यदि वा यथालघुस्वके व्यवहारे प्रस्थापयितव्ये स प्रतिपन्नव्यवहारतपःप्रायश्चित्तः, एवमेवाऽऽलोचनाप्रदानमात्रतः शुद्धः क्रियते, करणे यतनया प्रतिसेवनात्। व्य० 270 / बहवे परिहारिया इच्छेज्जा-एगतो एगमासंवा दुमासंवा तिमासं वा चाउम्मासं वा पंचमासं वा छमासं वा वत्थए, ते अन्नमन्नं संभुंजति, अन्नभन्नं नो संभुंजइ मासंतें, तओ पच्छा सव्वे वि एगओ संभुंजति // 25 11 "बहवे परिहारिया" इत्यादि। अथास्य सूत्रस्य कः संबन्धः? इति संबन्धप्रतिपादनार्थमाहअसरिसपक्खे ठाविऍ,परिहारो एस सुत्तसंबंधो। काऊण व तेगिच्छं, साइज समागते सुत्तं // 355 / / असदृशपाक्षिको नाम-द्वितीयभगवर्ती० चतुर्थभगवर्ती वा तस्मिन् स्थापित किल चतुर्गुरु नाम प्रायश्चित्तं परिहारः / प्रस्तावादधिकृत परिहारसूत्रास्यायं निक्षेपः / एष पूर्वसूत्रेण सहाधिकृतसूत्रस्य सम्बन्धा। अत्रैव प्रकारान्तरमाह-(काऊण वेत्यादि) रोगचिकित्सां कुर्वता मनोज्ञभौषधं मनोजू वा भोजनमनुरागेणाऽऽस्वादितं, तत्र च प्रायश्चित्तं परिहार तपः, ततो रोगचिकित्सां कृत्वा मनोज्ञ च भोजनाऽऽदिकमास्वाद्य समागतस्य प्रायश्चित्त परिहारतपो भवतीतिज्ञापनार्थमधिकृतं परिहारविषयसूत्रम्। एष द्वितीयः संबन्धप्रकारः। अधुना तृतीयमाहअहवा गणस्स अप्प-त्तियं तु ठावेंतें होइ परिहारो। एसो त्ति न एसो त्ति व, वजेऊ भंडणं सगणे ||356 / / यो मणधरः स्वाभिप्रेतं गणासम्मंतं गुणरहितमपि स्थापयितुकामोऽभिमानवशे नैष योग्यो, न पुनरेष गणसम्मतो योग्य Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 682 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार इत्येवं स्वगणे भण्डनं कृत्वा स्थापयति तस्मिन्गणस्य गच्छस्रा अप्रीतिक यथा भवति एवं स्वाभिप्रेतमाचार्य स्थापयति प्रायश्चित्तं भवति परिहारः परिहारतपः, तत एतदर्थप्रतिपादनार्थदिग्बन्धसूत्रानन्तरंपरिहारसूत्रम्। एष तृतीयः सम्बन्धप्रकारः। सम्प्रति चतुर्थ पञ्चमंचसम्बन्धप्रकारमाहपरिहारो वा भणितो, न तु परिहारम्मि वणिया मेरा। ववहारे वा पगते, अह ववहारो भणे तेसिं // 357 / / वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतनार्थः, अघस्तात्परिहार उक्तो, नतुतरिमन्परिहारो वोढव्यो व्यावर्णितो मर्यादा विधिरित्यर्थः / व्यवहारार्थ किल व्यवहाराध्ययनं प्रकृतं . ततस्तस्मिन् नदीस्रोतोवदनुवर्तमाने कृते व्यवहारे ‘अह' एष तेषां परिहारिकाणां च व्यवहारो भण्यते / अनेन सम्बन्धपञ्चकेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य(२५) व्याख्या-बहवः प्रभूताः पारिहारिकाः, बहवोऽपरिहारिकाः कारणवशतः तीर्थकरोपदेशेच्छया, नस्वच्छन्देच्छया इच्छेयुरेकत एकत्र स्थाने एकमासं वा द्विमासं वा त्रिमास वा चतुर्मासं वा पञ्चमासं वा षण्मासं वस्तु तेऽन्योन्यं परस्परमपि, परिहारिका इति शेषः / संभुञ्जते सर्वप्रकारैः भुञ्जन्ति परिहारिका यावत्तपो वहन्ति तावत्ते परस्परमपरिहारिकैः वा समं न संभुञ्जति। यैः षण्मासाः सेविताः तेषां यः षण्मासोपरिवर्ती मासस्तं यावत्ते परिहारिकाः परस्परं परिहारिकैः, सममुपलक्षण-मेतत्अपरिहारिकैर्वा सममेकत्र न संभुजन्ते, आलपनाऽऽदीनि कुर्वन्ति, तत उपरितनमासपरिपूर्णीभवनान्तरं पश्चात्सर्वेऽपि पारिहारिका अपारिहारिकाश्च एकत एकत्र स्थाने सर्वप्रकार-भुञ्जते / एष सूत्रसंक्षेपार्थः / अत्र पर आह-ननु बहवः पारिहारिकाः, अपारिहारिकाश्च कथमेकत्र संभवन्ति, येनाधिकृतं सूत्रमुपपद्येत? तत आहकारणिगा ते भोगा, बहुगा परिहारिका भवेज्जाहि। अप्पपरिहारिऍ भोगो, परिहारिन भुंजए बहओ॥३५॥ बहवः पारिहारिका एकत्र मिलिता भवेयुः, कारणिकाः कारणवशेनेति भावः। ततो नाधिकृतसूत्रानुपपत्तिः / तत्रापारिहारिकाणामेकात्र परस्पर भोगो भवति / एतावता "ते अण्णमण्णं संभुजंति' इति व्याख्यातम् / यस्तु परिहारी परिहारतपो वहन् परिहारिभिर्वा समं न भुक्ते, एतेन "अन्नमन्नं तो संभुंजति'' इति व्याख्यातं, पारिहारिका नाम- ये परिहाररूपं प्रायश्चित्तं प्रपन्नाः ते अपरिहारिकास्तत्र परिहारतपः प्रतिपादनविधिः, परिहरणविधिश्च निशीथाध्ययने कल्पे च व्यावर्णितः / यस्तु तत्र नोक्तस्तमिदानी प्रतिपिपादयिषुराह-- गिम्हाणं आवन्नो, चउसु वि वासासु दें ति आयरिया। पुण्णम्मि मासवज्जण, अप्पुण्णे मासियं लहुयं / / 356 / / इह ग्रीष्मग्रहणेन ऋतुबद्धकालग्रहणं, तेषामृतुबद्धाना मासानां मध्ये एकमासं यावत्षण्मासं तावत्परिहारतपः समापनस्तद्वर्षारात्रे चतुर्वपि मासेषु दीयते / अत्रार्थे च कारणं स्वयमेव वक्ष्यति / यस्तु षण्मास | पारिहारतपः प्रपन्नस्तस्य पूर्णेषण्मासे उपरिमासवर्जन मास यावदेकत्र भोजनवर्जनम्, एतेन मासाऽऽदिके परिपूर्ण पञ्चरात्रिन्दिवाऽऽदिभोजनवर्जनमुपलक्षितम्, तचानन्तरगाथायां स्वयमेव वक्ष्यति / तत्र यावद् भोजन प्रतिषिद्ध तत्र तावत्परिपूर्णभोजनं कुर्वतः प्रायश्चित्तं मासिक लघु। ___संप्रति "पुण्णम्मि मासवज्जणं" इत्येतद्व्याचिख्यासुराहपणगं मासे मासे, वजेजइ मास छह मासाणां। न य भद्दपंतदोसा, पुव्वुत्तगुणा य तो वासे // 360 // मासे मासे पश्चक परिवर्द्धमानं तावत्पर्यन्ते यावत्षण्णां मासानामुपरि मासो धज्यते / इयमत्र भावना-यो मासिक परिहारतप अपन्नस्तस्य मासं बहतः पूर्वोक्तो विधिरालापनवर्द्धमानऽऽदिको वेदितव्यः। मासेतु व्यूढे उपरि पञ्चरात्रिन्दिवानि यावदालापनाऽऽदीनि सर्वाणि क्रियन्ते, नवरमेकं भोजनमेकत्र वय॑ते, एवं यो द्वौ वा मासावापन्नस्तस्य दशरात्रिंदियानि त्रीन्मासान् तस्य विंशतिः, यः पञ्चमासान् तस्य भिन्नमासं यावत्, यस्तु षण्मासानापन्नस्तस्य षण्मासेषु व्यूढेषु उपरि मास यावेदकत्र भोजनमेक वय॑ते, शेषं त्वालापनाऽऽदिक सर्व दशरात्रिन्दिवाऽऽदौ क्रियते / अथ करमादृतुबद्धेषु मासेषु प्रपन्नस्यापि रात्रेः तपो दीयते तत आह-(न य भद्दपंतदोसा इत्यादि) ऋतुबद्धे काले यदि परिहारतपो दीयते ततस्मिन् दते सति यदि मासकल्पे परिपूर्णे सति विहरन्ति तर्हि पारिहारिकाणां परितापनाऽऽदिदोषप्रादुर्भावः / अथ न विहरन्ति ततो भद्रकप्रान्तकृतदोषसम्भवः / भद्रकृता उद्गमाऽऽदिकरण, प्रान्तकृतदोषा अतिचिरावस्थानेन चमढनाऽऽदिका वर्षाकाले त्वेते दोषाः प्रयोजनतः संभवन्ति, सर्वदर्शिनां वर्षाकालस्य तपोऽनुष्ठानाऽऽश्रयतया सम्मतत्वेन कस्यचिदपि विशेषतः प्रतिद्वेषस्य वा संभवात् / तथा पूर्वोक्लगुणाश्च कल्पाध्ययनप्रतिपादिताः गुणाश्च वर्षाकाले अवाप्यन्ते, ततो वर्षासु परिहारतपो दीयते। अथ के ते पूर्वोक्ता गुणा इति विस्मरणशीलान् प्रति तान् भूय उपदर्शयतिदासासु बहू पाणा, बलिओ कालो चिरं च ठायव्वं / सज्झायसंजमतवे, धणियं अप्पा निओत्तव्यो॥३६॥ वर्षाकाले सर्वतः प्रायो बहवः प्राणाः, ततो दीर्घाभिवर्या न भवन्ति / तथा स्निग्धतया स कालो बलिको बलीयान्, तपः कुर्वता बलावष्टम्भ करोति इति भावार्थः / तथा चिरं च प्रभूतं कालं चैकत्र स्थातव्यम्। अत एव स्वाध्यायसंयमे तपसि च धणियमत्यर्थमात्मा नियोक्तव्यो भवति। तत एवं प्रभूतगुणोपदर्शनता वर्षाकाले परिहारतपः प्रतिपत्तिः कार्यते। एतेन गिम्हाणं आवन्नो, चउसु वि वासासु देंति आयरिया / " इत्यत्र यदुक्तं तत्र कारण स्वयमेव वक्ष्यतीति तत्समर्थितम्। संप्रति षण्मासवहनानन्तरमुपरियन्मात्रोऽसौ भोजनमधिकृत्य वय॑ते तत्र कारणमाक्षेपपुरस्सरमभिधित्सुराहमासस्स गोणनाम, परिहरणा पूतिनिब्बलणमासो। तत्तो पमोयमासो, भुंजणवजो न सेसेहिं // 362 / / Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 683 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार अथ षण्णां मासानामुपरि मासस्य परिहरणं भोजनमधिकृत्य क्रियते। उच्यते--निर्बलनार्थ प्रमोदार्थ वेति वाक्यशेषः / तथाहि-कुथितमद्याऽऽदिगन्धं मृत्तिकाभाजनं यावदद्यापि निर्बलितं न भवति. तावत्तत्र क्षाराऽऽदिप्रक्षेपः एवमेषोऽपि दुश्वरितदुरभिगन्धभावितो नियमादेतावता कालेन निर्बलितो भवति नान्यथा, तथा जिनप्रवचनप्रवृत्तेः, तथा कश्चित् केनाप्यगम्यगामित्वेनालीकेनातिशयितुं राजकुले च निवेदितः / स तप्तमासाऽऽदिकं गृहीत्वा शुद्धः सन् तप्तकालाऽऽदिकं गृहीत्वा शुद्धः सन मिथः भाषणादिभिः प्रमोदं कृत्वा परस्परं स्वजनैः सह भुङ्क्ते, एवमेषोऽपि परिहारिक आत्मनामपराधमलिन प्रायश्चित्तेन विशोध्य मासं यावत् मिथः संभाषणादिभिः प्रमोदमादाय तैः सहकत्र भुक्ते, तदेवमुक्ते कारणवशाद्यतोऽन्यः समभुजानो मासं यावदवतिष्ठते, तस्मादेतस्य मासस्य गौणं गुणनिष्पन्नं नाम द्विधा / तद्यथा-पूतिनिर्वलितः मास इति प्रमोदमास इति / पूतिर्दुरभिगन्धिः, तस्य निर्वलितमास्फेटनं तत्प्रधानो माराः पूतिनिर्वालितमासः / तथा प्रमादहेतुर्मासः स च मासो भोजनेन वर्त्यः परिहर्तव्यो, न पुनः शेशैरालापाऽऽदिभिः / यथाऽऽभ्यां कारणाभ्यां मासपरिवर्जनमेवं पञ्चरात्रिन्दिवाऽऽदि परिवर्जनमपि भावनीयम्। किच--अन्यदपि कारणमस्ति पञ्चरात्रिन्दिवाऽऽदिपरिवर्जन। ततस्तदभिधित्सुराहदिज्जइ सुहं व वीसुं, तवसोसिययस्स जं बलकरं तु। पुणरविय होज जोग्गो, अचिरा दुविहस्स वितवस्स॥३६३।। इह यद्यैकत्र भुक्ते ततः सहैव स्वसंघाटकेनैष भुङ्क्ते इत्यनादरबुद्ध्या यत्तपःशोषितस्य बलवर्द्धनकरंतस्य दानं न भवति तेष्वपृथक्प्रतिभोजने पुनस्तपःशाषितगात्रोऽयमद्यापि न मण्डल्यां भुड्क्ते, इत्यादरबृद्धिभावतः तपसा शोषितस्य तद्वलवर्द्धनकरमशनाऽऽउितत्सुखेनैव सर्वैरपि साधुभिरपि दीयते। तस्यापि दाने को गुण इत्याह-बलवर्द्धनकराऽशनाऽऽदिप्रदाने पुनरप्यचिरात्स्तोकेन कालेन द्विविधस्यापि तपसः परिहारतपसः शुद्धतप-सश्वेत्यर्थः, योग्यो भवति। सूत्रमपरिहारकप्पट्ठियस्स भिक्खुस्स णो कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, थेरा य णं वा देज्जा इमं ते अञ्जो! तुम एतेसिं देहि वा अणुप्पदेहि वा, एवं से कप्पई दाउं वा अणुप्पदाउं वा, कप्पइ से लेवं अणुजाणवित्तिए अणुजाणह भंते! लेवाए, एवं से कप्पइ लेवं समासेवित्तए।।२६।। (परिहारकप्पट्टियस्स भिक्खुस्स इत्यादि) अथास्य सूत्रस्य कः संबन्धः? उच्यतेएसा बूढे मेरा, होइ अबूढे अयं पुण विसेसो। सुत्तेणेव निसिद्धे, होइ अणुण्णा उसुत्तेण // 364 / / एषा अनन्तरसूत्रप्रतिपादिता मर्यादा स्थितिर्भवति व्यूढे परिहारतपसि, अव्यूढे पुनः परिहारतपसि अयमधिकृतसूत्रेण्ण प्रतिपाद्यमानो मर्यादाया | 'विहारकप्पट्ठियस्स' विशेषः / एष पूर्वसूत्रेण सहाधिकृतसूत्रस्य संबन्धः / अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य(२६) व्याख्यापरिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोर्न कल्पते अशनं पानं खादिमं वा अन्यस्मै साक्षात्स्वहस्तेन दातुमनुप्रदातुं वा परम्परकेण प्रदातुमनुशब्दस्य परम्परद्योतकत्वात्। अत्रैवानुज्ञामाह-(थे रा य ण मित्यादि) यदि पुनः स्थविराः, णमिति वाक्यालकृतौ / वदेयुरिमं परिहारकल्पस्थितं भिक्षुम / अहो आर्य! त्वमेतेभ्यो देहि परिभाजय, अनुप्रदेहि वा / एवं स्थविररैनुज्ञाते सति(से) तस्य कल्पते दातुमनुप्रदातुवा, दानेऽनुप्रदाने च तस्य हस्तो विकृतिप्रश्रेणिखरण्टितो भवति, ततः (से)तस्य कल्पते लेपं विकृतिहस्तगतमनुज्ञापयितुम् / यथा-भदन्त ! यूयमनुजानीथ लेपखरण्टितं हस्तम्। (लेवाए इति) समासेवितुमेवमनुज्ञापने कृते सति (से) तस्य कल्पते लेप विकृति हस्तगतां समोसेवितुम्, उपलक्षणमेतदन्यदपि यदुद्वरितं तदप्यनुज्ञातं सत् कल्पते समासेविवितुमिति, इति सूत्रसंक्षेपार्थः / व्यासार्थ तु भाष्यकृद्विवक्षुः प्रथमतःसामान्यत आह चेत्यादि सूत्रेणैव प्रदानेऽनुप्रदानेच प्रथमतो निषिद्धे तदनन्तर तेनैव सूत्रेण दानेऽनुप्रदाने च भवत्यनुज्ञा। एवं संक्षेपतः सूत्रार्थे कथितेकिह तस्स दाउ कप्पइ, चोयग! सुत्तं तु होइ कारणियं / सो दुब्बलो गिलायइ, तस्स उवाएण देंते य / / 365 / / (किह) कथं केन प्रकारेण तस्य परिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोतुं क्रियतेऽशनाऽऽदिक, तदानकरणस्य तत्कल्पविरुद्धत्वात् / अत्र सूरिराह-हे चोदकः सूत्रमिदं भवति कारणिक कारणेन निवृत्तं कारणिक, कारणमधिकृत्य प्रवृत्तमित्यर्थः / तदेव कारणमाह-(तो दुव्वलो इत्यादि) स परिहारकल्परिथतो भिक्षुः दुर्बल-स्तपःशोषितशरीरत्वादत एव पदे प्लायति / ततस्तस्यानुकम्प-नार्थमेवमनेनोपायेन दानानुप्रदानकाऽsरोपणलक्षणेन विकृति स्थविरा ददति प्रयच्छन्ति। तत एषाऽपि परिहारकल्पसमाचारी, कश्चिद्दोषः। संपत्ति यथा तस्य दानमनुप्रदानं वा करणीयं भवति, येन च कारणेन स्थविरा अनुजानते, तदभिधित्सुराहपरिमिय असई अण्णे, सो विय परिभायणम्मि कुसलो उ। उच्चूरपउरलंभे, अगीयवामोहणनिमित्तं / / 366 / / तवसोसियमज्झोवा-अओय तब्भाविओ भवे अहवा। थेरा नाऊणेवं, वदंति भाएहि तं अञ्जो! / / 367 / / इह यधानमनुप्रदान वा परिभाजन उच्यते, तच्च यथा संभवति तथोपपाद्यतेसाधुभिः सर्वैस्तपोविशेषप्रतिपन्नवर्जितरेकत्र मण्डल्या भोक्तव्यम् / किं कारणमिति चेत्? उच्यते / इह द्विविधाः साधवो लब्धिमन्तो लब्धिरहिताश्च / तत्र ये लब्धिरहितास्ते बहिर्गतास्तथाविधं प्रायोग्यं न लभन्ते, मण्डल्या तुपविष्टानां लब्धिमत्साधुसंधाटकाऽऽनीतपरिभाजनेन तेषामन्येषामपि च बालशैक्षवृद्धग्लानाऽऽदीनां प्रायोग्यं भवतीति तेषामनुग्रहाय मण्डलीबन्धकरणं मण्डलीबन्धे च कृते कस्यचिदजीर्ण भवति, जीर्णेऽपि च काश्चित विकृती(क्ते, न सर्वः सर्वाः, ततः प्रचुरविकृतिलाभे सर्वजनानुग्रहाय परिभाजनं क्रियते, तत्र स परिहारकल्पस्थितो भिक्षुरतपःशोधितशरीर इति तस्य विकृतिविषयेऽध्युपपातः श्रद्धा जाता। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 684 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार अथवा-पूर्व सदैव तस्यां विकृतौ भावित इति तद्भावनया तस्यामध्युपपातो जातस्तत एतत् स्थविरा ज्ञात्वा तदनुग्रहाय परितो विकृतिलाभे सति असत् अविद्यमानोऽन्यः परिभाजनकुशलो यः सर्वेषामौचित्येनाऽऽपूरयति तस्याऽपि पारहिरकल्पस्थितः परिभाजनकुशल इति सर्वसाधूनां वचनेन प्रकाश्यैवं वदति-अहो आर्याः! गाथायामोकारान्तता प्राकृतलक्षणवशात्। त्वमेतेभ्यः साधुभ्यः परिभाजय, यदि पुनः (उच्चूर) नानाविधं प्रचुरमंतिप्रभूतं घृताऽऽदि लब्धं भवति तदा उच्चूरप्रचुरलाभे अगीतव्यामोहननिमित्तम् अगीतार्था मा विपरिणमन्विति / यद्वा तद्वा कारणं वचसा प्रकाश्य तद्व्यामोहननिमित्तमेवं ब्रुवते-आर्य! त्वं साधुभ्यः परिभाजय। परिभाइऍ संसट्टे, जो हत्थो संलेहावए परेण / फुसइ व कुडे लहुओ, अणणुण्णाए भवे लहुओ।।३६८ || आचार्योपदेशेन परिभाजिते सतितस्य हस्तः संसृष्टो घृताऽऽदिना लिप्तो भवति, तस्मिन्संसृष्ट यदितथैव संसृष्टन हस्तेनावतिष्ठते तर्हि प्रायश्चित्तं मासलहुको वा। हस्तं परेण संलेहापयति तस्यापि प्रायश्चित्तं मासलघु। अथवा कृड्ये हस्तं स्पृशति तदापि मासलघु। अथवा काष्ठेन निघृष्य छर्दयति तत्रापि मासलघु / अथवा-अननुज्ञातः सन् स्वयं लेढि हस्तं तदाऽपि तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः। कप्पति य वियण्णम्मी, चोयगवयणं स सेस सूवस्स। एवं कप्पइ अप्पा-यणं तु कप्पट्टिती चेसा॥३६६ / / वितीर्णे अनुज्ञाते सति कल्पस्थे स्वयं हस्तं परिलेढुम् / इयमत्र भावना-यद्याचार्याः समादिशन्तितं स्वहस्तं घृताऽऽदिविकृतिखरण्टितं स्वयमेव लेढि, चशब्दादन्यदपि यत्परिभाजितशेषं तदप्याचार्येणानुज्ञात भुङ्क्ते (चोयगवयणं ति) अत्र चोदकवचनम्-यथारूपं परिहारिकस्य विकृतेरनुज्ञापन युक्तमिति। सूरिराह-(सेस सूवस्स) सूपस्य सूपकारस्य यथा शेषाऽऽभाव्यं भवति तथा तस्यापीति भावः / एतदुक्तं भवति-यथा सूपकारः केनापि स्वामिना संदिष्ट एतावत्प्रमाणैस्तन्दुलमुद्गाऽऽदिभिभक्षं निष्पाद्यैतावत्तपुरुषान् भोजयेत्यादेशे लब्धे साधिते भक्ते भोजितेषु पुरुषेषु यच्छेषमुदरतितत्सर्वं सूपकारस्याऽऽभाव्यम्। एवमाचार्योपदेशतः परिहारिकेण परिभाजिते यच्छेवमुद्रतितत्तस्य पारिहारिकस्याभाव्यम् / सूपकारदृष्टान्त उपलक्षणं, तेनाऽऽपूपिकदृष्टान्तोऽपि वेदितव्यः / स | चैवम्-केनाप्यापूपिक आदिष्ट एतावता कणिकाऽऽदिना द्रव्येण एतावत्प्रमाण मण्डकाऽऽदि कर्तव्यमेवमादेशे लब्धे तथैव मण्डकाऽऽदिकेनिष्पादिते शेष यदुद्वरति मण्डकाऽऽदितदापूपिकस्य भवत्येवं पारिहारिकस्यापि, तत एवं तपःशोषितशरीरस्याऽऽप्यायननिमित्तमाचार्यास्य कल्पते अनुज्ञापनमित्यदोषः। कल्पस्थितिरेषा यत् ग्लायत आप्यायननिमित्तमेवमनुज्ञापनं कर्त्तव्यं, येन शेषं प्रायश्चित्ततपः सुखेन वहतीति। सूपकारदृष्टान्तमेव सविस्तरं भावयतिएवइयाणं भत्तं, करेहि दिण्णम्मि सेसयं तस्स। इय भाइय पज्जंते, सेसुवरियं च देंतस्य // 370 / / एतावद्धिस्तन्दुलाऽऽदिकैरेतावद्भक्तं कुर्विति समादेशे लब्धे निष्पादिते भक्ते दत्त चोक्तप्रमाणेभ्यः पुरुषेभ्यो भोजने यच्छेषं तस्याऽऽभवति, इत्येवममुना प्रकारेणाऽऽचार्योपदेशतः पर्याप्त भाजिते शेषमुदरितमस्य पारिहारिकस्य परिवेषस्याऽऽचार्यो ददाति। संप्रति येन प्रमाणेनाऽऽचार्यमुपदिशति तत्प्रमाणमभिधित्सुराहदव्वप्पमाणं तु विदित्तु पुव्वं, थेरा से दाए ततियं पमाणं / जुत्ते वि सेसं भवते जहा उ, उच्चूरलंभे तु पकामदाणं // 371 / / इहाऽऽचार्यः पूर्व द्रव्यं प्रमाणयितव्यम्-यथेदं किं युक्लप्रमाणमाहोश्वित्सपरिस्थापनमेवं पूर्व द्रव्यप्रमाणं विदित्वा ज्ञात्वा स्थविरा आचार्याः (से) तस्य परिहारिकस्य तकत्प्रमाणं दर्शयन्ति यथा युक्तेऽपि युक्तप्रमाणेऽपिशेष भवति (उच्चूरलाभे) प्रचुरनानाविधघृताऽऽदिलाभे प्रकामदान यावत् यस्मै रोचते तावत्तस्मै दीयतामित्येवंरूपमनुज्ञाप्यते। सूत्रम्परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू सएणं पडिग्गहेणं बहिया अप्पणो वडियावेयाए गच्छिज्जा, थेरा तं वएज्जा-परिग्गहेहि अजो! अहं पि भोक्खामि वा पाहामि वा, एवं णं से कप्पइ पडिग्गहित्तए, तत्थ णो कप्पइ अपरिहारिएणं परिहारिस्स पडिग्गहम्मि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा, पातए वा, कप्पइ से सकंसिवा पडिग्गहगंसि वा सकसि वा पलासगंसि वा सकसि वा कमढगंसि वा सकंसि वा खुवगंसि वा उट्ठ भोत्तए वा पायए वा, एस कप्पे अपरिहारियस्स पारिहारियओ।।२७।। (परिहारकप्पट्ठियं भिक्खू सएणं पडिग्गहेणमित्यादि) अस्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह संबन्धप्रतिपादनार्थमाहआयाणाऽऽदिऽवसाणे,संपुडितो एस होइ उद्देसो। एगाहिगारियाणं, वारेइ अतिप्पसंग वा।।३७२।। आदानमादिः, अवसानंपर्यन्तः,तयोः साधर्मिकाधिकारप्रति-पादनादेष उद्देशः संपुटितः, संपुट सञ्जातमस्येति संपुटितः / तारकाऽऽदिदर्शनादितः प्रत्ययः / इयमत्र भावना-अस्योद्देशकस्याऽऽदावन्ते च प्रत्येकं द्वे द्वे सूत्रे साधर्मिकाऽऽद्यधिकारप्रतिपादके तत एष उद्देशकः, साधर्मिकाधिकारेण संपुटितः, संपुटितत्वाच संपुटनकरणमेवास्य सूत्रस्य संबन्धः / अथवा एकाधिकारिकानि यान्यनन्तरमुद्दिष्टानिपारिहारिकसूत्राणि तेषामेकाधिकारिकाणां यो भक्तदानैकत्रभोजनप्रतिषेधेऽतिप्रसङ्गस्तंवारयत्यधिकृते सूत्रद्वयेनेत्येष पूर्वसूत्रेण सहास्य संबन्धः / अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य(२७) सूत्रस्यव्याख्यापरिहारकल्पस्थितो भिक्षुः स्वकीयेन पतद्ग्रहेण प्रतिग्रहणेन वा वसतेर्वहिरात्मः स्वशरीरस्य वैयावृत्याय, भिक्षाऽऽनयनायेत्यर्थः / गच्छेत् स्थविराश्च तथा गच्छन्तं दृष्ट्वा वदेयुरस्मद्योग्यमपि स्वपात्रके गृह्णीया अहमपि भोक्ष्ये पास्या Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 685 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार मि वा एवमुक्ते (से) तस्य कल्पते स्थविरयोग्य प्रतिगृहीतुम् / तत्र तस्मिन्परिगृहीते सति नो कल्पते अपरिहारिकेण सता पारिहारिकस्य पतद्गृहे अशनं पानं खादिमं स्वादिम वा भोक्तुं वा पातु वा, किंतु कल्पते(से) तस्यापारिहारिकस्य स्वकीये पतद्ग्रहे तुम्बाऽऽदिमये स्वकीये वा पलाशपात्रकै स्थाले स्वकीये वा(खुव्वर त्ति) पलाशाऽऽदिपत्रमये दोन्निके (उझुट्ठ उद्भुटठु इति) अवकृष्यावकृष्य भोक्तुं वा पातु वा। उपलक्षणगेतत-दुर्लभपानीयभावे कालाप्रापणे वा तत्पात्रे एव पारिहारिकेण, सम कल्पते भोक्तुंवा पातुं वा / उपसंहारमाह-एष कल्पोऽपारिहारिकस्य, पारिहारिकतपः पारिहारिकमधिकृत्याएष प्रथमसूत्रसंक्षेपार्थः / परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू थेराणं पडिग्गहएणं बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा णं वदेज्जा-पडिग्गहेहि अनो! अत्थ तुमं पिएत्य भोयसि वा पाहसि वा, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, तत्थ णो कप्पइ पारिहारिएणं अपारिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोयए वा पायए वा, कप्पइ से सयंसि पडिग्गहंसि सयंसि वा पलासगंसि वा सयं सि वा कमढगंसि सयंसि वा खुव्वगंसि वा पाणिसि उद्धृठ्ठ उद्धृतु भोयए वा पायए वा, एस कप्पे पारिहारियस्स अपारिहारियओ त्ति बेमि // 28 // द्वितीयसूत्रसंक्षपार्थस्त्वयम्-परिहारिकल्पस्थितो भिक्षुः स्थविराणां पतद्ग्रहेण वसतेबहिः स्थविराणां वैयावृत्याय, भिक्षाऽऽनयनायेत्यर्थः / गच्छेत्, स्थविराश्च तं तथा गच्छन्तं दृष्ट्वा नून सर्वगृहेषु भिक्षाकालः समक वर्तते, ततोऽस्मद्योग्यमानीय पश्चादेष आत्मनो योग्याऽऽनयनाय प्रविष्टो म किमपि लप्स्यते इति कारणवशतो वदेयुः-प्रतिगृह्णीयाः? त्वमप्यत्र भोक्ष्यसे, पास्यसि वा, एवमुक्ते(से) तस्य कल्पते प्रतिगृहीतुंतत्रतस्मिन् आत्मयोग्यग्रहणे सति न कल्पते पारिहारिकेणापारिहारिकस्य पतदग्रहे अशनं पानं खादिम स्वादिम वा भोक्तुं वा पातुवा, किं तु कल्पते तस्य स्वकीये वा पलाशके स्वकीये वा कमठे स्वकीय वा खुव्वके भोक्तुं या पातुंवा, उपलक्षणव्याख्यानमत्राऽपि द्रष्टव्यम्। एष कल्पः पारिहारिकस्य पारिहारिकतपोऽपारिहारिकमधिकृत्य इति ब्रवीमि तीर्थकरोपदेशतो न / स्वमनीषिकयेति। संप्रति नियुक्तिभाष्यविस्तरःसपडिग्गाहे परपडि-गहे य बहि पुव्व पच्छ तत्थेव। आयरियसेहऽभिग्गह-सम संडासे अहाकप्पो।।३७३ / / / पूर्व वसतेर्बहिर्भिक्षाऽऽनयनाय निष्क्रम्य स्वपतग्रहे स्वयोग्यमानीय पश्चात्परपतद्गृहे आचार्ययोग्यमानयति / अथवा-पूर्व परपतद्ग्रहे आवार्ययोग्यमानीय पश्चात्स्वपतद्ग्रहे स्वयोग्यमानयति / अथवाकारणवशतः तत्रैव एकस्मिन्पतद्गृहे उभययोग्यमानयति / आनीते च स्थविरेण पूर्व भुक्तपश्चात् पारिहारिकेण भोक्तव्यम्। अथ कालोन प्राप्यते तत आचार्यः स्थविरः, शैक्षाभिग्रहः पारिहारिकः एतौ द्वावपि सममेक कालमेकस्मिन् पतद्ग्रहे भुजाते। तत्र च संडासोपलक्षितः शुनकमांसदृष्टान्तो वक्तव्यः / एष यथाकल्पोऽयं यथावस्थिता सामाचारी। साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतः "सपडिग्गहे परपडिग्गहे य बहि पुव्वं'' इति व्याख्यानयतिकारणिय दोन्नि थेरो, व सो गुरु अह च केणई असहू / पुव्वं सयं व गेण्हइ, पच्छा घेत्तुं च थेराणं / / 374 / / अथवाऽपि कारणवशतो द्वौ आचार्यपरिहारिको कारिणिको जाती। किमुत्तं भवति?-अशिवाऽऽदिकारणवशतः शेषसाधून देशान्तरे प्रेष्य तावेव केवलावेकत्र स्थाने स्थिती, तत्र योऽसौ गुरुःस स्थविर इति कृत्वा / अथवा केनापि रोगेण ग्रस्त इति भिक्षामटितुमसहोऽसमर्थः, यः पुनस्तस्य सहायः सपरिहारतपः प्रतिपन्नो वर्तते, ततस्तत्रेयं सामावारीपारिहारिकः पूर्वमात्मीयेन पतद्ग्रहेणाऽऽत्मनो योग्यमानीय मुक्त्वाआत्मीयपतद्ग्रहं स्थापयित्वा पश्चात्स्थविरसत्कं एतद्ग्रहं गृहीत्वा स्थविराणां योग्य ग्रहीतुमटति। अथवा पूर्व स्थविरसत्क पतद्ग्रहं कृत्वा स्थविरयोग्यमानीय स्थविराणां समर्प्य पश्चादात्मीयेन पतद्ग्रहेन हिण्डित्वा आत्मना भुक्ते। अत्र परस्यावकाशमाहजइ एस समाचारी, किमट्ट सुत्तं इमं तु आरद्धं / सपडिग्गहेतरेण व, परिहारी वेज्जवचकरो।।३७५ / / यदि नाम एषा सामाचारी, यथा-पारिहारी पारिहारिकः स्वपतद्ग्रहण इतरेण वाऽऽचार्यपतद्ग्रहेण यथाक्रमं स्वस्याऽऽचार्यस्य च वैयावृत्त्यकर इति तत इदं 'सूत्र' सूत्रद्वयं किमर्थमारब्धं, सूत्रोक्तस्याऽसंभवात् / आचार्यः प्राऽऽह-न सूत्रोक्तार्थासंभवः, कारणतः सूत्रद्वयस्य पतितत्वात् / अथ कानि कारणानि यद्वशादिदं सूत्रद्वय पतितम्। आह दुल्लहदवं पडुच्चं, तवखेयवियं समं च सति काले। चोयग! कुव्वंति तयं,जं वुत्तमिहेव सुत्तम्मि // 376 / / हे चोदका दुर्लभंद्रवं पानीय प्रतीत्य, यदि वा तपसा खेदितं परिहारिकम् अथवा समकमेककालं सर्वगृहेषु सति भिक्षाकाले आचार्यपरिहारिको न कुर्वतः, यदुक्तमिहैव सूत्रे / तथाहि-स परिहारिकस्तपसा खेदितः सन् आत्मनः स्थविरस्य वाऽर्थाय द्वौ वारौ भिक्षामटितुमसमर्थः, ततस्तं पारिहारिक स्वकीयेन पतद्ग्रहेणाऽऽत्मनोऽर्थाय हिण्डित्वा पश्चात्स्थविराणामर्थाय स्थविरपतद्ग्रहेण हिण्डिष्ये इति बृद्ध्या संप्रस्थित स्थविराः समर्थ ज्ञात्वा बुवते अस्माकमपि योग्यमात्मीयेन पतद्ग्रहेण गृह्णीयाः, तत उपरि एकस्मिन्या पार्श्वे स्थविरयोग्यं गृह्णाति, गृहीते च तथा तस्मिन् स्थविरस्ततः समाकृष्य समाकृष्य भुक्ते एषा स्थविरस्य सामाचारी। परिहारिकस्य पुनरियम्-तं परिहारिक स्थविराणां पतद्ग्रहं गृहीत्वा स्थविरस्यार्थाय हिण्डित्वा पश्चादात्मनोऽर्थाय हिण्डष्ये, एवं बृद्ध्या संस्थितं दृष्ट्वा गृहाऽऽदिकंपरिमितं ज्ञात्वा स्थविरा भाषन्ते। आत्मनोऽप्ययास्मदीयेएव पात्रेप्रतिगृह्णीथा एवंसंदिष्टः सन्सतथैव च गृहीत्वा समागतः, Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 686 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार परिहार ततः स्थविरः पतद्ग्रहादात्मीये पतद्ग्रहे पलाशभाजने कमठके वा समाकृष्य समाकृष्य भुक्ते, परिहारिकस्य सामाचारी, एतावता ''तवखेयवियं" इति भावितम्। सम्प्रति "समं च सइकाले " इति भाव्यते। यत्र ग्रामे नगरे वा तौ स्थविरपारिहारिकाऽववस्थितौ तत्र सर्वगृहेषु समकालं भिक्षाकालोऽजनिष्ट, तं स्थविराज्ञात्वा मा द्वितीयवारं प्रविष्टः सन्नेष न लभेतेति संप्रस्थितंभाषन्तेएकत्रैवाऽऽत्मनो मम च योग्यं गृह्णीया इति। तत्र चोभयोरपि मृग्यमाणं स्तोक पानीयं लभ्यते, ततः पारिहारिक: पतद्ग्रहस्य च प्रक्षालनाय पानीयं पूर्यते, तत एतत् ज्ञात्वा स्थविरास्त पारिहारिक संदिशन्ति–एकस्मिन्नेव पतद्ग्रहे द्वयोरपि योग्यं गृह्णीथाः, एवं सदीष्ट पारिहारिकस्येयं सामाचारीतस्मिन्पतद्ग्रहे स्थविरयोग्य भक्त तद्विष्वक् गृह्णाति, द्वितीये पार्वे आत्मीययोग्यम्, अथवाऽऽत्मयोग्यमधस्ताद् गृह्णाति, स्थविरयोग्यमुपरिष्टात्. एवं गृहीत्वा वसतावागच्छति, तत्राऽऽचार्यभोजनविधिःतस्य चैकस्य पतदग्रहस्य एकस्मिन्पाचे उपरिष्टात् यदाचार्ययोग्यं गृहीतं तस्मिन्नाचार्यों भुवते, पश्चात्यारिहारिको यदन्यस्मिन्पार्थेऽधस्तदात्मयोग्यं गृहीतं तबुड्यते, अथवायावत् स्थविरेण भुज्यते तावत् सूरोऽस्तमुपयाति, ततो द्वावपि समकं भुजाते / एतावता "सम त्ति' भावितम्। एतदेव व्याचिख्यासुराहपासे उवरि व गहणं, कालस्स दवस्स वावि असतीए। पुव्वं भोत्तुं थेरा, दलंति समगं च भुंजंति / / 377 // द्रवस्य पानीयस्यासति अभावे एकस्मिन्पावें उपरि वा यद् ग्रहीतमाचार्ययोग्य, ततः पूर्वं स्थविरा भुक्त्वा पश्चाच्छेषं पारिहारिकाय ददति, कालस्यद्वयोः क्रमेण भोजनकालस्यासतिसमकं एककालं तौ भुञ्जाते। संप्रति संडासोपलक्षितः शुनकमांसदृष्टान्तभावना क्रियते-यथा कोऽप्यलर्केण शुना खादितः, स यदि तस्यैव शुनकस्य मांसं खदति ततः प्रगुणी भवति / अनेन कारणेन शुनकमासं खाद्यते. स च तं खादितुकामः कथमहं सर्वास्पृश्यं शुनकमासं स्पृशामीति संदंशकेन मुखे प्रक्षिपति, एवं पारिहारिकोऽपि कारणत एकस्मिन्पाचे उपरि वा गृहीतं स्थविरसत्क जुगुप्समान इव तत् परिहरन् आत्मीयं समुद्दिशति / व्यः 2 उ०। अन्यस्मै वसतिदानाऽऽदि, अन्यस्मै अशनाऽऽदिदानम्जे भिक्खू अपरिहारियं वएजा-एहि अजो ! तुमं च अहं च एगओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गहेत्ता, तओ पच्छा पत्तेयं पत्तेयं भोक्खामो वा पेहामो वा पञ्जत्तं एवं वदेइ, वदंतं वा साइज्जइ / / 146 / / पायच्छित्तमणावण्णो अपरिहारिओ श्रावण्णो मासाति० जाव छम्मासियं सो परिहारिओ बूया ब्रवीति-अज्ज ! इति आमंत्रणे एगतओ संघाडएण भत्तं भोक्खामो, पाणगं पाहामो, उग्घाए त्ति मासलहुं / सीसा भणति-भगवं! सो कहिं आउत्तो श्रावण्णो? आयरिओ आह / नि० चू० ४उ०॥ परिहारकप्पट्ठियस्स णं भिक्खुस्स कप्पइ आयरि-ओवज्झा एण तदिवसं एगगिहंसि पिंडवायं दवावित्तए, तेण परं नो से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउंवा अणुप्पयाउं वा, कप्पइ से अन्नयरं वेयावडियं करित्तए। तं जहा-उट्ठावणं वा वि निसीयावणं वा तुयट्टावणं वा उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणविगिंचणं वा विसोहणं वा करित्तए, अह पुण एवं जाणिज्जाछिन्नावाएसु पंथेसु आउरे झिंझिए पिवासिए तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा, पवडिज्ज वा, एवं से कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा॥२६।। . अस्य संबन्धमाहपच्छित्तमेव पगतं, सहस्स परिहार एव न उ सुद्धे। तं वहतो का मेरा, परिहारियसुत्तसंबंधो // 686 / / प्रायश्चित्तमेवाऽनन्तरसूत्रे प्रकृतं, तच्च सहिष्णोः समर्थस्य प्रथमसंहननाऽऽदिगुणयुक्तस्य परिहारतपो रूपमेव दातव्यं, नपुनः शुद्धतपोरूमम. अतस्तत्परिहारतपो वहतः का मर्यादा का सामाचारीत्यस्या जिज्ञासायामिदं परिहारिकसूत्रमारभ्यते, एष संबन्धः।। वीसुंवणसुत्ते वा, गीतो बलवं च नं परिट्टप्पा। चोयण कलहम्मि कते, तस्स उ नियमेण परिहारो॥६६०॥ अथवा विष्वग्वनसूत्रे मरणसूत्रे गीतार्थो बलवांश्च प्रथमसंहननयुक्तः तन्मृतकं परिष्ठाप्य काष्ठमानयन् गृहस्थने नोदितो यदि कलह करोतीति तदा तस्य नियमेन परिहारो दातव्यः। तस्य च विधिरनेनाभिधीयतेअनेन संबन्धेनाऽऽयातस्याय सूत्रस्य(२६)व्याख्यापरिहारकल्पस्थितस्य भिक्षोः कल्पते आचार्योपाध्यायेन तद्धिवसमिन्द्रमहाऽऽद्युत्सवदिने एकस्मिन् गृहे पिण्डपातं विपुलमवगाहनाऽऽदिभक्तलाभं दापयितुम्, ततः पर (से) तस्य न कल्पते अशनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिम वा दातुमनुप्रदातुम्। दातुम् एकशः, अनुप्रदातुं पुनः पुनः, किंतु कल्पते(से) तस्य परिहारिकस्यान्यतरद् द्वैयावृत्यं कर्तुम् / तद्यथा--उत्थापनं वा निषीदनं वा / त्वग्वपिनं वा, उच्चारप्रस्रवणखेलसिंघानाऽऽदीनां च विवेचन परिष्ठापनं विशोधनं वा उच्चाराऽऽदिखरण्टितोपकरणाऽऽदेः प्रक्षालन कर्तुम् अथ पुनरेवंजानीयाच्छिन्नाऽऽपातेषु व्यवच्छिन्नसमागमेषु पथिषु आतुरो ग्लानः (झिंझितो) बुभुक्षाऽऽतः पिपासितस्तृषितो न शक्नोति विवक्षितं ग्रामं प्राप्तुम् / अथवा-ग्रामाऽऽदावपि तिष्ठतां सतपस्वी षष्टाष्टमाऽऽदिपरिहारतपःकर्म कुर्वन् दुर्बलो भवेत्, ततो भिक्षाचर्यया क्लान्तः सन् मूद्वा, प्रपतेद्वा, एवं (से) तस्य कल्पते अशनाऽऽदिकं दातुमनुप्रदातुं वा / एष सूत्रार्थः। - अथ नियुक्तिविस्तरःकंटकमादिसु जहा, आदिकडिल्ले तहा जयंतस्स। अवसंछणणाऽऽलोयण-ठवणाजुत्तोववोस्सग्गो॥६६१।। ननु भगवान् प्रमादो न कर्तव्य इत्युपदिशति संयमाध्वनि गच्छन कथं परिहारिकत्वं प्राप्त इति? उच्यते-तथा क Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 657 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार घटकाऽऽकीर्णो मार्ग उपयुक्तस्याऽपि कण्टको लगति, आदिशब्दाद्विषमे वा पथ्युपयुक्तोऽप्यागच्छन् प्रपतति, कृतप्रयत्नो वा यथा नदीवेगेन न्हियते, सुशिक्षितोऽपि यथा खगन लुज्यते, एवं कण्टकाऽऽदिस्थानीयमादिकडिल्लकम, आदिग्रहणाद् यदुद्गमोत्पादनैषणारूपं ज्ञानाऽऽदिरूपं वा, तत्र यतमानस्याप्यवश्य कस्याऽपिछलना भवति, छलितेन वाऽवश्य-मालोचना दातव्या, ततो यः संहननाऽऽगमाऽऽदिभिर्गुणैर्युक्तः सहितस्तस्य स्थापना परिहारतपःप्रायश्चित्तदानं कर्त्तव्यम्। तत्र चाय विधिः-प्रशस्तेषु द्रव्यक्षेत्रकालभावेषुतस्य साधोनिविघ्नतपः कर्मसमाप्त्ये शेषसाधूनां च भयजननार्थं सकलेनाऽपिगच्छेन व्युत्सर्गःकर्तव्यः। तत्राऽऽचार्यो भणति-"तस्स साधुस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि काउस्सगंजाव वासिरामि। ततश्चतुर्विशतिसूत्रमनुप्रेक्ष्य-''नामो अरिहताणं' भणित्वा चतुर्विंशतिसूत्रं सुखेनोचार्य भणतिएस तवं पडिवञ्जति, ण किंचि आलवति मा णमालवहा। अत्तट्ठचिंतगस्स, वाघातो ते ण कायव्यो।।६६२।। एष आत्मविशुद्धिकारकपरिहारतपः प्रतिपद्यते, अतो न किश्चिद् युष्मानालपति। अत्र ''सतसामीये सद्वद्वा // 5 / 4 / 1 / / (हैम०) इति सूत्रेण भविष्यदर्थे वर्तमाना। ततो नालप्स्यतीत्यर्थः। तथा न एष युष्मान् सूत्रार्थोभयं, शरीरोदन्तवा न पृच्छति, यूयमप्येनं मा पृच्छत्। एवमन्येष्यपि परिवर्तनाऽऽदिपदेषु भावनीयम्। इत्थमात्मार्थचिन्तकस्यास्य ध्यानस्य परिहारतपसश्च व्याघातो 'ते' भवद्भिर्न कर्त्तव्यः। अथ यानि पदानि तेन साधुभिश्च परस्परं परिहर्तव्यानितानि दर्शयतिआलावण पडिपुच्छण, परिदृट्ठाण बंदणग मत्ते। पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव।।६६३|| आलापनं संभाषणमनेन युष्माकं न कर्तव्यं, युष्माभिरप्यस्य न विधेयम् / एवं सूत्रार्थयोः, शरीरवार्ताया वा प्रतिप्रच्छनं, पूर्वाधीतस्य | परिवर्तनं कालग्रहणनिमित्तम् (उट्टाणं ति) उत्थापनं, रात्रौ सुप्तोत्थितैर्वन्दनकरणं, खेलकायिकसंज्ञामात्रकाणां समर्पणम्, उपकरणस्य प्रत्युपेक्षण भिक्षाविचाराऽऽदौ गच्छतः संघाटकेन भवनं, भक्षस्य पानकस्य वा दानं एकभण्डल्यां वा समेकीभूय भोजनं न कर्तव्यम्। अथ कुर्वन्ति तत इदं प्रायश्चित्तम्संघाडगा उजाव उ, लहुओ मासो दसह उपयाणं। लहुगा य भत्तपाणा, संभुंजण होतऽणुग्घाता।।६६४।। एतेषामालपनाऽऽदीनां दशानां पदाना मध्यादालापनादारभ्य यावत् संघाटकपदं तावदष्टाना पदानां कारणे गच्छसाधूना प्रत्येक मासलघु, अथ भक्तदानं कुर्वन्ति ततश्चतर्लघु, एकमण्डल्यां संभुञ्जते ततस्तेषामेव चत्वारोऽनुद्धाता मासाः। परिहारकस्य इदं प्रायश्चित्तम्अट्ठण्हं तु पदाणं, गुरुओ परिहारियस्स मासा उ। भत्तपदाणे संभु जणे य चउरो अणुग्घाया।।६६५।। परिहारकस्याष्टानां पदानां संघाटकान्तानां करणे मासगुरु, भक्तदानं संभोजनं वा कुर्वन्तश्चत्वारो मासा अनुद्वाताः। इमे च दोषाःकुव्वंताणेयाणि उ, आणाऽऽदि विराहणा दुवण्हं पि। देव, पमत्तछलणा, अधिगरणाऽऽदी उदेतम्मि|६६६।। एतान्यालपनाऽऽदीनि कुर्वतामाज्ञाऽऽदयो दोषाः, विराधना द्वयोरपि पारिहारिकगच्छसाधुवर्गयोर्भवति, प्रमत्तस्य च दवतया छलनमन्येन वा साधुना भणितः-किमित्यालपनाऽऽदीनि करोषि, एवमुदिते भणिते सत्यधिकरणाऽऽदयो दोषा भवन्ति। अथ "कप्पइ एगगिहम्मि' इत्यादि सूत्रं व्याख्यानयतिविउलं च भत्तपाणं, दवणं साहुवजणं चेव। नाझणं तस्सं भावं, संघाडं देंति आयरिया।।६६७।। संघबाह्यमुत्सवे वा विपुलं भक्तपानं साधुभिरानीतं दृष्ट्वा तद्विषय ईषदभिलाषो भवेत, साधुवर्जनां च साधुभिः सुदुश्चरितैः परित्यक्रोऽहमित्येवं मनसि चिन्तयेत, एवं ज्ञात्वा तदीयभावमाचार्याः संघाटददति। अथेदमेव भावपदं व्याचष्टेभावो देहावत्था, तप्पडिबद्धो व ईसिभावो से। अप्पाइय हयतण्हो, बहति सुहं सेस पच्छित्त।।६६८| भावो नाम देहावस्था देहस्य दुर्बलता, तत्प्रतिबद्धा वा विपुलभक्तपानविषय ईषत् भावाऽभिलाषस्तस्य सञ्जातः, ततश्च यथाऽभिलषिताऽऽहारेणाऽऽप्यायितो हततृष्णश्च सन् सुखेनैव शेष प्रायश्चित्तं वहतीति मत्या संघाटको दीयते। अमुमेवार्थमन्याऽऽचार्यपरिपाट्या किश्चिद्विशेषयुक्तमाहदेहस्स उ दोब्बल्लं, भावो ईसिंच तप्पडीबंधे। अगिलाऐं सोधिकरणे--ण वा वि पावं पहीणं से||६६६|| देहस्य दौर्बल्यम्, ईषता मनोज्ञाऽऽहारविषयप्रतिबन्ध एष भाव उच्यते। यद्वा--अग्लान्या शोधिकरणेन पापं तस्य प्रक्षीणप्रायम् एवंविधा भावमाचार्या जानीयुः कथं पुनरेतत् जानन्ति?, इत्युच्यतेआगंतु-एयरो वा, भावं अतिसेसिओ उजाणिज्जा। हेऊअहि वेसभावं, जाणित्ता अणतिसेसी वि। 700|| आगन्तुक इतरो वास्तव्योऽतिशयी नवपूर्वधराऽऽदिरवधिज्ञानाऽऽदियुक्तो वा स एवंविधं भावं (से) तस्य जानीयात्। अथवाऽत्ततिशयज्ञान्यपि बाौरादिभिहेतुभिस्तस्य भावं चेतो जानीयात्। सक्कमहादी दिवसो, पणीयमत्ता व संखडी विपुला। धुवलंभिग एगघरं, तं सागकुलं असागं वा ||701 / / शक्र महाऽऽदेर्दिवसो यदा संजातस्तदा तं वापि श्राद्धगृहे नयन्ति, प्रणीतभक्ता वा काचिद्विपुला संखडिस्तत्र वा विसर्जयन्ति / तच्च धुवलम्भिकमवश्यसंभावनीयलाभमेकमेव गृहं विद्यते, इह च श्रावक-गृहमश्रावकगृह वा भवेत् उभयत्राऽपि गुरवः स्वयं प्रथमतो गच्छन्ति, तं च परिहारिक बुवते-आर्य ! समागन्तव्यममुकगृहे पात्रक मुद्ग्राह्य त्वयेति, ततस्तत्र प्राप्तस्य विपुलमवगाहिमाऽऽदिक भक्तं दापयन्ति / अथाऽसौ तत्र गन्तुं न शक्रोति ततो भाजनानि Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 688 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार गृहीत्वा स्वयमानीय गुरवो ददाति / एतावता "कप्पइ आयरिओ उवज्झाएणं तद्दिवस एगगिहसि पिंडवायं दवावित्तए।" इति सूत्र व्याख्यातं / मन्तव्यम्। ___ अथ "तेण पर से नो कप्पइ'' इत्यादि सूत्रं व्याख्यातिभत्तं वा पाणं वा, ण दिति परिहारियस्स ण करेंति। कारणे उट्ठवणाऽऽदी, चोयग गोणीऍ दिटुंतो।।७०२॥ भक्तं वा पानं वा ततः परं परिहारिकस्य निष्कारणे न प्रयच्छन्ति, नवा | किमप्यालपनाऽऽदिकं कुर्वन्ति, कारणे तु यदा स्थानाऽऽदिकं कर्तुं क्षीणदेहतया न शक्नोति तत उत्थापनाऽऽदिक कारयन्ति / अत्र चोदक: प्राह--कि प्रायश्चित्तं राजदण्ड इवावशेन वोढव्यं, येनेदृशीमवस्था प्राप्तस्यापि भक्तपानमानीय नदीयते। सूरिसह-गौर्दृष्टान्तोऽत्र क्रियते। यथा-नवप्रावृषि या गौरुत्थातुं न शक्नोति, तां गोप उत्थापयति, अटवीं च चारिचरणार्थ नयति, या तु गन्तुं न शक्रोति, तस्या गृहे आनीय प्रयच्छति / एवं पारिहारिकोऽपि यत्कर्तुं शक्रोति तत्कार्यत, यत्पुनरुत्थानाऽऽदिकं कर्तुं न शक्नोति तदनुपरिहारिकः करोति। कथं पुनरसौ करोतीत्याहउद्वेज निसीएज्जा, भिक्खं गेण्हेज भंडगं पेहे। कुवियपियवंधवस्सव, करेइ इयरो वितुसिणीओ // 703 // / स परिहारिकस्तपसा क्लान्तो ब्रवीति-उत्तीष्ठेय, निषीदेयं, भिक्षां हिण्डेयं, भाण्डकं प्रत्युपेक्षथम, एवमुक्त अनुपारिहारिक उत्थापनाऽऽदिक सर्वमपि करोति / कथमित्याह-यथा प्रियबाधवस्य कुपितः कुश्चिन्दन्धुर्यत्करणीयं तत्तूष्णीकः करोति। एवमितरोऽप्यनुपरिहारिकः सर्वमपि तूष्णीकभावेन करोति। अथ भिक्षाहिण्डनाऽऽदौ विधिमाहणीणेति पवेसेति य, भिक्खगए उग्गह ते उग्गहियं / रक्खति य रीयमाणं, उक्खिवइ करे य पेहाए / / 704 / / भिक्षां गतस्य पारिहारिकस्थावग्रहं प्रतिग्रहं तेन पारिहारिकेण गृहीत- / मनुपारिहारिकः पात्र बन्धते निष्काशयति रीयमाणं च पर्यटन्तं तं गवाद्युपद्रवात प्रपतनाऽऽदेवो रक्षयति, भाण्डप्रत्युपेक्षणायामशक्तस्य करौ हस्तावनुपरिहारिक उत्क्षिपति येन स्वयमेव प्रत्युपेक्षते। आह-यदि नामाशक्तस्तर्हि कस्मादसौं भिक्षाहिण्डनाऽऽदिकं | विधीयते ? इत्याहएवं तु असढभावो, इरियायरियाविअणुचिण्णो। भयजणणं सेसाण य, तवो य सप्पुरिसचरियं वा // 705 // एवं यथाशक्ति कुर्वतस्तस्याशठभावो भवति, वीर्याऽऽचारश्चानुचीर्ण भवति, शेषाणामपिसाधूनां भयजननं कृतं भवति, तपः सम्यगनुपालितं भवति, सत्पुरुषचरित च कृतं भवति।। "अथ छिन्नावाएसुपंथेसु'' इत्यादिसूत्रं व्याचष्टछिन्नापाते किलंते, ठवणा खेत्तस्स पालणा दोण्हं। असहुस्स भत्तदाणं, कारणे पंथे व भत्ते वा // 706 / / छिन्नाऽऽपाते अव्वनि गच्छन् परिहारिको यदि बुभुक्षया तृषा क्लान्तो ग्राम प्राप्तुं न शक्रोति, ततोऽनुपरिहारिको भक्तपानं गृहीत्वा तस्यान्तरगाने ददाति / अथवा–स भगवान् अभिगूहितबलवीर्यो यथा काम भिक्षा पर्यटति, तत्र हिण्डित्वा तपः- क्लान्तो यदा न शक्नोत्यागन्तुम, तत आगन्तुमसमर्थे तस्मिन् क्षेत्रस्य स्थापना कर्त्तव्या / मूलग्राम एव स हिण्डते न बहिर्भिक्षाचर्या गच्छतीत्यर्थः / (पालणा दोण्हं ति) द्वयोरपि पारिहारिकानुपारिहारिकयोः पालना कर्तव्या। कथमित्याह (असहुस्स भत्तदाणं कारण त्ति) यदि स पारिहारिकः स्वग्रामेऽपि हिण्डितुं न शक्रोति ततोऽनुपारिहारिको हिण्ड्यिा तस्य प्रयच्छति, अनुपारिहारिकस्तु मण्डलीतः समुद्दिशति / तथाऽनुपारिहारिकोऽपि ग्लानत्वेनासहिष्णुमिक्षां गन्तुं न शक्नोति, तत एवंविधकारणे द्वयोरपि गच्छसत्काः साधवः प्रयच्छन्ति / एवं द्वावपि पालितावनुकम्पिती भवतः। एवं स्थानस्थितानां यतना भणिता। संप्रति पूणे मासे वर्षावासे वा ग्रामानुग्रामौ विहरतां पथि ग्रामे प्राप्तानां वा यतनाऽभिधीयतेठवयंति डहरगाम,पत्ता परिहारिए अपावंते। तस्सऽद्धा तं गाम, ठवेंति अन्नेसु हिंडते // 707|| पथिव्रजन्तो डहरं लघुतरं ग्रामं प्राप्ताः परिहारिकस्यार्थाय स्थापयित्वा द्वितीयम स्वयमटन्तिा एवं तावत्पथि वर्तमाने परिहारिक भणितं यत्र तु साधवःपरिहारिकश्च समकमेव प्राप्तास्तत्राप्य ग्रामे साधको हिण्डन्ते, अर्धे पारिहारिकः। अथ साधूनामार्द्ध पर्यटतांन पूर्यते ततस्तैः सर्वस्मिन् ग्रामे पर्यटिते पारिहारिकः पश्चात्पर्यटति। अथ पारिहारिको यथा कारणे गच्छसाधूनां वैयावृत्त्यं करोति तथाऽभिधीयतेविइयपयकारणम्मि, गच्छे वाऽऽगाढे सो तु जतणाए। अणुपरिहारिउ कप्पट्ठितो व आगाढ संविग्गो ||708|| द्वितीयपदे कारणे कुलाऽऽदिकार्ये पारिहारिकोऽपि साधूनां वैयावृत्त्यं करोति / यथा पाराश्चिकः "अत्थर पदाणुभंगो, महासु पुण सयागरो संघो।'' इत्यादि भणित्वा वैयावृत्यं कृतवान् / तथा गच्छे वा आगाढं कारण समजनि ततः सोऽपि यतनया वक्ष्यमाणया भक्तपानीयाऽऽहरणाऽऽदिवैयावृत्त्यं करोति। (अणुपरिहारिए) इत्यादि पश्चार्द्धम् / अथ गच्छसाधवः प्रज्ञप्तिमहाश्रुताऽऽदीना-मन्यतरमागाढयोग प्रतिपन्ना, उपाध्यायश्च ग्लानः कालगतो वा, ततोऽनुपारिहारिकः कल्पस्थितो वा वाचनां गच्छस्य ददाति। अथ तावप्यशक्ती ततः परिहारिकोऽपि वाचनां ददाति, स च तां ददानोऽपि संविग्न एव मन्तव्यः / इह मा भूत्कस्यापि मतिः-पूर्वसूत्रेण प्रतिषिद्धं, पूर्वसूत्रार्थदानाऽऽदिकमनेनानुज्ञातम्। एवं पूर्वापरविरुद्धमाचरन्नसविनोऽसाविति तन्मतिव्यपोहार्थं संविनग्रहणं व्याचष्टमयणच्छवगविसो मे, देति गणो वा तिरो व अतिरो वा। तज्झाणेसु सएसु व, तस्स वि जोग्गं जणो देति / / 706 / / मदनः कोद्रवः तस्य कू रेण भक्ते न गच्छ: सवो पि ग्लान' जातः / शवकमशिव तेन वा गृहीतः, प्रत्यनीकेन वा विषो दत्तः, अ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 686 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार यमौदयों वा न संस्तरति, ततः परमगाढेन कारणेन, पारिहारिको भक्तपानमौषधानि वा तद्भाजने गच्छसत्केषु पात्रकेषु, तेषामभावे स्वभाजनेषु, वा गृहीत्वा तिरोहितमतिरोहित वा गच्छस्य प्रयच्दति / तिरोहितं नामआनीयानुपारिहारिकस्य ददाति, सोऽपि गच्छस्यार्पयति, अथानुपारिहारिकोऽपि ग्लानः, तदा कल्पस्थितस्यापि ग्लानत्वे अतिरोहित तिरोहित वा स्वयमेव गच्छस्य ददाति। यच्च तेषां योग्य जनो ददाति तत्तेषामर्थाय गृह्णाति, यत्तु तस्य योग्यं तदात्मनो गृह्णाति। एवं ता पंथम्मी, तत्थ विय ठिया तहिं पि एमेव / बाहिं अडती डहरे, इयरे अद्धद्ध अडते वा // 710 / / एवं तावत्पथि गच्छतामभिहितं, तत्रापि च ग्रामाऽऽदौ स्थिताः, तत्राप्येवमेव मन्तव्यम् / मार्गे च यत्र गच्छो न प्राप्तः, तत्र बहिः डहरेणान्तःपुरे धर्मकथनार्थ (2) कृतेत्यक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-'पाडलिपुते मुरुंडा नाम राया गंगाए नावारूढो उदगे एहायंतो अभिरमइ / साहुणो परकूले पासिता सयमेव नावं नेउं साहुणो विलागविता भणइकह कहेह, जाव नई उत्तरामो / अक्नेवणाइकहालद्धिजुत्तो साहू कहिउमारद्धो / तेण कहितेण अक्खित्तो नावियं सन्नेइसणियं कड्केहि, जेण एस साहू चिरं कहेइ / साहूण कारणे सणिय गच्छंताणं जत्तिया अवेल्लखेवा तत्तिया चउलहुगा / उत्तिण्णेण रण्णा अंतेउरे कहिया कहा, सुदराओ कहाओ तरङ्गवत्याद्याः कथयन्ति साधवः / अंतेउरियाणं कोउग जायं, रायाणं विन्नवेति जइ ते साहुणो इहमाणिजिज्जा ता अम्हे वि सुणेज्जागो / रन्ना गवेसित्ता पवेसिता साहुणो अंतेउरे।" तत्र च प्रविष्टानामेते दोषाःसुत्तत्थे पलिमंथो-ऽणेगा दोसाय णिवघरपवेसे। सइकरण कोउएण च, भुत्ताऽभुत्ताण गमणाऽऽदी।।७११|| सूत्रार्थयोः पलिमन्थः, स्मृतिकरणेन कौतुकेन च भुक्ताभुक्तानां प्रतिगमनाऽऽदयोऽनेके दोषा नृपगृहप्रवेशे भवन्ति / एते अनुकम्पायां दोषा उक्ताः / अथ प्रत्यनीकतायां दोषानाहबुज्झण सिंचण बोलण, कंबलसबला य घाडिते मित्ते। अनुसट्ठी कालगता, णागकुमारेसु उववण्णे |712 / / वाहनं सेचनं बोलनं वा प्रत्यनीकेन साधुना क्रियेत / तत्र सामान्येन दृष्टान्तोऽयम्-मथुरायां भण्डीरयक्षयात्रायां कम्बलशबलौ वृषभौ घाटिकेन मित्रेण जिनदासस्यानापृच्छया वाहितौ तन्निमित्त सञ्जातवैराग्यो श्रावकेणानुशिष्टौ भक्तं प्रत्याख्याय कालगतौ नागकुमारेषूपपन्नौ। ततस्ताभ्यां किं कृतमिति?, आहवीरवरस्स भगवतो, नावारूढस्य कासि उवसग्गं / मिच्छद्विट्ठिपरद्धो, कंबलसबलेहिँ तारिओ भगवं / / 713 // वीरवरस्य भगवतो नावारूढस्य सुदीढो नागकुमार उपसर्गमकार्षीत्, तेन मिथ्याद्दष्टिना प्रारब्धो जले बोलयितुं कम्बलशबलाभ्यां मोचितो भगवान् / कथानकमावश्यकादवधारणीयम्। एवं नावारूढस्य साधोबोलनाऽऽदिकं सम्भवतीति। अथ वाहनाऽऽदिपदानि व्याचष्टेसीसगता वि ण दुक्खं, करेह मज्झं ति एवमवि वोत्तुं / जो छुब्भंतु समुद्देसुं वति णावं विलग्गेसु 714 // सिद्धार्थका इव शिरसि गता अपि मम दुःखं न कुरुष्व एवमप्युक्त्वा कश्चित्प्रत्यनीको यदा साधवो नावं विलनास्तदा नावं नदीमुखेषु मुञ्चति / येन समुद्रे प्रक्षिप्यन्ते, तत्र पतिताःक्लिश्यन्ता भियन्तां चेति कृत्वा। गतं वाहनम्। अथ सेचनं बोलनं चाऽऽहसिंचति ते उवहिं वा, ते चेव जले छुभेज उवधिं वा। मरणोवधिनिप्फन्नं, अणेसग तणानि तरपण्णं // 715 / / नाविकोऽन्यो वा प्रत्यनीकस्तान् साधूनुपधिं वा सिञ्चति, तानेव साधूनुपधिं वा जले प्रक्षिपेत्, बोलयेदित्यर्थः / तत्र चाऽऽत्मविराधनायां मरणनिष्पन्नम्, उपधिनाशे उपधिनिष्पन्नम् यच्चाऽनेषणीयमुपधिंग्रहीष्यन्ति, तृणानि वा सेविष्यन्ते, तन्निष्पन्नं सर्वमपि प्राप्नोति।तरपण्यं वा स मार्गयेत, अदीयमाने चिरं निरुन्ध्यात्, दीयमाने अधिकरणम्। गताः प्रत्यनीकदोषाः। अथ बहवः प्रत्यपाया इतिव्याचष्टेसंघट्टणा य सिंचण, उवकरणे पडण संजमे दोसा। सावयतेणे तिण्हेगतर विराहणा संजमाऽऽताए / 716 / / त्रसाऽऽदीनां संघट्टना जलेन वा सेचनमुपकरणऽऽस्यात्मनो वा पतनं वा एते संयमे दोषाः / श्वापदकृता स्तेनकृता वा आत्मविराधना (तिण्हेगयर त्ति) अनुकम्पाप्रत्यनीकतातदुभयाऽऽदिरूपाणां त्रयाणामेकतरस्मिन् संयमविराधनाऽऽत्मविराधना च भवति। एष संग्रहगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतितसउदगवणे घट्टण, सिंचण लोगे अणावि सिंचणता। बुज्झण उवधी तुभये, मगराऽऽदि समुह तेणे य॥७१७।। जलोद्भवानां त्रसानामुदकस्य वा सेवालाऽऽदिरूपस्य वनस्पतेर्वा संघट्टनं भवेत, लोकेन नाविकेन वा साधोरुपकरणस्य वा सेचन क्रियते, अतिसंबाधे वा उपधेरात्मनस्तदुभयस्य वा स्ताघे अस्ताघे वा जले (बुज्झणं) बोलनं भवति / मकराऽऽदयः श्वापदाः समुद्रे स्तनाश्च तत्र भवेयुः। इदमेव व्याचष्टओहार मगराऽऽदिवा, घोरा तत्थ उसावया। सरीरोवहिमद्दीया, णावा तेणा य कत्थई // 718 / / ओहारमकराऽऽदयस्तत्र तथा घोराः श्वापदा भवन्ति / ओहारो मत्स्यविशेषः, स किलनावमधस्तले जलस्य नयति। शरीरहरा उपधिहरा वा नौस्तेनाः कुत्रापि भवेयुः / एतैरात्मन उपधेर्वा विनाशे तन्निष्पन्न प्रायश्चित्तम्। अथ 'तिण्हेगयर ति" पदं व्याख्यातिसावय तेणा उभयं, अणुकंपादी विराहणा तिपिण! संजम आतुभयं वा; उत्तरणावुत्तरंते य॥७१९ / / अना Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 660 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहार श्वापदा: १,स्तेनाः २,श्वापदा अपि स्तेना अपि 3, एतत्रयमा अथवाअनुकम्पया 1, प्रत्यनीकतया 2, अनुकम्पाप्रत्यनीकाभयार्थतया वा 3 / अथवा-तिस्रो विराधनाः, तद्यथा-स ग्रामे पारिहारिकः प्राप्तो बहिमि पर्यटति उत्तरति। अथ वेलाऽतिक्रमो दूरे वा स ग्रामस्न्ततस्तत्रैव मूलग्रामे अर्द्ध परिहारिकः पर्यटति अर्द्ध गच्छसाधवः, तेन अटिते वा गच्छः पर्यटति। किंबहुना? पक्षद्वयस्याप्ययं परमार्थः / उच्यतेकप्पट्ठिएँ परिहारी, अणुपरिहारी व भत्तपाणाणं। पंथे खित्ते व दुवे, सो वि य गच्छस्स एमेव / / 720 / / पथि वा क्षेत्रे वा द्वयोरपि वर्त्तमाने ग्लानत्वाऽऽदौ कारणे कल्पस्थितः परिहारी अनुपरिहारिको वा पारिहारिकस्य भक्तपानौपग्रहं करोति, सोऽपि च पारिहारिको गच्छस्यैवमेवोपग्रह करोति। बृ० 4 उ०। परिहारिकप्पट्टिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, से य आहच अइक्कमिजा, तं च थेरा जाणिज्जा अप्पणो आगमेण अन्नेसिं वा अंतिए सुचा, तओ पच्छा तस्स अहालहुस्सए नाम ववहारो पट्टवेयव्ये सिया।।५३ / / अस्य संबन्धमाहनिक्कारणपडिसेवी, अजयणकारी व कारणे साहू। अहवा चिअतकिच्चे, परिहारं पाउणे जोगो॥३५२ / / निष्कारणे मात्रम्रक्षणाऽऽदिकं प्रतिसेवितुं शीलमस्येति निष्कारणप्रतिसेवी स तथा, कारणे वा योऽयतनाकारी पूर्वोक्तयतनां विना गात्रम्रक्षणविधायी साधुः। अथवा-यस्त्यक्तकृत्यो नीरुगभूतोऽपि तदेव मक्षणाऽऽदिकमुपजीवति, स परिहारतपः प्राप्नुयादिति योगः संबन्धः। अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य (53) व्याख्यापरिहारकल्पस्थितो भिक्षुर्बहिरन्यत्र नगराऽऽदौ स्थविराणामाचार्याणामादेशेन वैयावृत्यर्थं गच्छेत् / किमुक्तं भवति? अन्यस्मिन् गच्छे केषाश्चिदाचार्याणां वादी नास्तिकोऽऽदिक उपसंस्थितः तेषां च नास्तिवादलब्धिसंपन्नस्ततस्ते येषामाचार्याणां सपरिहारिकस्तेषामन्तिके संघाटक प्रेषयन्ति / स च संघाटको ब्रूतेवादिनं कमपि मुत्कलयत / एवमुक्ते ते आचार्याः परिहारक परवादिनिग्रहक्षम मत्वा प्रेषयन्ति, ततस्तदा देशादसौ परिहारतपो वहमान एव गच्छेत् / इदं च महत्प्रवचनस्य वैयावृत्यं यदग्लानया परवादिनिग्रहणं, ततस्तदर्थ गतः स परिहारिकः (आहच) कदाचिदतिक्रमेत् पादधावनाऽऽदिक प्रतिसेवितुम्, तत् स्थविरा मौलाऽऽचार्या आत्मन आगमनावध्याद्यतशयज्ञानेन अन्येषां वा अन्तिके श्रुत्वा जानीयुः / ततः पश्चात् तत्परिज्ञानानन्तरं तस्य पारिहारिकस्य यथालघुस्वको नाम स्तोकप्रायश्चित्तरूपो व्यवहारः प्रस्थापयितव्यः स्यादिति सूत्रार्थः। अथ भाष्यम्परिहारिओ य गच्छे, आसण्णे गच्छे वाइणा कजं / आगमणं तहिँ गमणं, कारणपडिसेवणा वाए ||353 / / परिहारिकः क्वापि गच्छे विद्यते; क्वचित्त्वासन्नेऽन्यगच्छ वादिना कार्यमुत्पन्नं, ततस्तत्र गच्छे आगमनम्। अन्यगच्छात् संघाटक आगतस्तेन च वादी प्रेष्यतामित्युक्ते गुरोरादेशात् परिहारतपो वहमानस्यैव तस्य तत्र गमनम्। तत्र गतेन तेन परवादी राजसभासमक्षं निःपिष्टप्रश्नव्याकरणः कृतस्ततःप्रवचनस्य महती प्रभावना समजनि, तेन च वादस्य करणे अमूनि प्रतिसेवितानि भवेयुःपाया व दंता व सिया उधोया, वा बुद्धहेतुं च पणीयभत्तं। तं वातिगं वा मइसत्तेहेओ, सभाजयट्ठा सुवयं च सुक्कं // 354 !! पादौ वा दन्ता वा प्रवचनजुगुप्सापरिहारार्थ धौताः स्युर्भवेयुः, प्रणीतभक्त वा घृतदुग्धाऽऽदिकं वागहेतोर्बुद्धिहेतोश्च भुक्तं भवति,''घृतेन वर्द्धते मेधा'' इति वचनात्। वातिकं नामविककट, तद्वा मतिहेतोः सत्त्वहेतोर्वा सेवितं भवेत् / मतिर्नाम परिवाद्युपन्यस्तस्य साधनस्याऽपूर्वापूर्वदूषणोहाऽऽत्मको ज्ञानविशेषः / सत्त्वं प्रभूतप्रभूततरभाषणे प्रवर्धमान आन्तर उत्साहविशेषः सभाजयार्थ वा शुक्लं 'सुवयं' वस्त्रं प्रावृतं भवेत् "जिता वस्त्रवता सभा।" इति वचनात्। थेरा पुण जाणंती, आगमओ अहव अण्णओ सुच्चा। परिसाए मज्झमिए, ठवणा वा होइ पच्छित्ते / / 355 / / एवमादिक तेन प्रतिसेवितं स्थविराः सूरयः पुनरागमतो जानीयुः / अथवा अन्यतः श्रुत्वा, ततस्तस्य भूयः समागतस्य पर्षन्मध्ये प्रायश्चितस्य स्थापना कर्तव्या भवति। इदमेव व्याचष्टेनवदसचउदसओही, मणणाणी केवली य आगमओ। सो चेवऽण्णो उ भवे, तदणुचरो वा वि ओगो वा // 356 // नवपूर्विणो, दशपूर्विणश्चतुर्दशपूर्विणः, अवधिज्ञानिनो, मनःपर्यवज्ञानिनः, केवलज्ञानिनोवा, ते आगमातिशयेन ज्ञात्वा प्रायश्चित्तं दद्युः / अन्यो नाम स एव परिहारिकः सन्मुखादालोचनाद्वारेण श्रुत्वा / यता-ये तस्य परिहारिकस्यानुचराः सहायाः प्रेषितास्तैःकथितम्। उवको नामअन्यः कोऽपि तिर्यगापतितो मिलितः तेषां गच्छसत्को न भवतीत्यर्थः / तेन वा कथितम् यथैतनामुकं पादधावनाऽऽदिकं प्रतिसेवितम्। ततःतेसिं पच्चयहेउं, जे पेसविया सुयं व तं जेहिं। भयहेउं सेसगणे, इमाउ आरोवणारयणा / / 357 / / ये तेन सार्द्ध प्रेषिताः, यैर्वा प्रेषितैरपि तत्प्रतिसेवनं श्रुतं, तेषामुभयेषामप्यपरिणामकाना प्रत्ययहेतोः, शेषाणां च अतिपरिणामिकानां प्रत्ययहेतोः, शेषाणां च अतिपरिणामिकाना भयोत्पादनहेतोरियमारोपणा रचना व्यवहारस्थापना सूरिभिः कर्तव्या। (बृ०) (यथालघुस्वको व्यवहारः अहालहुस्सय'शब्दे प्रथमभागे 870 पृष्ठे विस्तरतो गतः) (कं व्यवहार केन तपसा पूरयतीति अस्मिन्नेव शब्दे 681 पृष्ठे गतम्) एवं प्रस्तारं पूरयित्वा सूरयो भणन्तिजं इत्थं तुह रोयइ, इमे व गिण्हाहि अंतिमे पंच। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहार 661 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहारविसुद्धिय हत्थं च भमाडेउ, जं अक्कमते तगं वहइ / / 363 / / यदत्रामीषां प्रायश्चित्तानां मध्ये तव रोचते तद् गृहाण, अमूनि वा अन्तिमानि पञ्च रात्रिन्दिवानि गृहाण / एवमुक्ते स यथालघुस्वकं प्रायश्चित्तं गृह्णाति / अथवा-हस्तं भ्रामयित्वा यत्प्रायश्चित्तं गुरव आत्मन्ति तकं गृह्णाति। सूरयश्चेदं तं प्रतिभणन्तिउन्भावियं पवयणं, थोवं ते तेण मा पुणो कासि। अइपरिणए मुत्तं, वेइ वहंतो वयं एअं / / 364 / / ल्या परवादिनं निगृह्णता प्रवचनमुद्भावित तेन स्तोक, ते प्रायश्चित्तं, मा पुनः भूयोऽप्येव कार्षी : 1 अथातिपरिणताश्चिन्तयेयुः-एष तावन्मात्रेण मुक्त इति / ततो यदि तस्यान्यदपरं प्रदान तपोऽपूर्ण तदा तदेव बहमानोऽतिपरिणामिकाऽऽदीना पुरतो गुरून् भणतिएतत्प्रायश्चित्तं युष्माभिर्दत्तं वहामीति। बृ०५ उ०। वर्जने च। प्रव० 10 द्वार। नि० चू० / विषयसूची१, परिहारशब्दनिक्षेपप्ररूपणम्। से पर्यायद्वारम्। 3. सूत्राथद्वारम्। 4) अभिग्रहद्वारम् / (5) तपोद्वारम्। (6) येभ्यो नियमतः शुद्धतपः परिहारतपो वा देयं तत्प्रतिपादनम्। यदि गच्छवासी एतानि पदान्यतिचरति तत इदं प्रायश्चित्तम्।। 8) शुद्धतपःपरिहारतपसोः कतरत् कर्कशं तपः। परिहारकल्पस्थि तस्य भिक्षोरन्यत्राचार्याणां वैयावृत्याय गमनम्। (8) स्थविराणां वैयावृत्याय गच्छतीत्युक्तं, तत्र किं वैयावृत्त्यं, येन हेतुभूतेन स गच्छति। (10) "जीए ति" द्वारव्याख्यानम् / (11) पिट्टनद्वारम्। (12) द्वयेरिकत्र विहरतोरन्यतरस्य परिहारतपोदानम्। (13) तृतीयं सूत्रम्। (14) परिहारकल्पस्थितंग्लायन्तम्। (15) के व्यवहार केन तपसा पूरयतीति। परिहारकप्पट्ठियपुं० (परिहारकल्पस्थित) परिहारस्य कल्पः सामाचारी परिहारकल्पस्तत्र स्थितः। प्रायश्चित्ततपः प्रकारैर्व्यवस्थिते, व्य० १उ०। परिहाट्ठाण न० (परिहारस्थान) परिहारो विषयः, तिष्ठन्ति जन्तवः कर्मकलुषिता अस्मिन्निति स्थानम् / परिहारश्च तत् स्थान परिहारस्थानम्। प्रायश्चित्तार्हकार्यविषये, व्य०१ उ०। नि० चू० / परिहारग पुं० (प्रतिहारक) पारिहारिके, उत्त० 28 अ०। परिहारविसुद्धिय पुं० (परिहारविशुद्धिक) परिहरणं परिहारस्तपोविशेषस्तेन विशुद्धं, परिहारो वा विशेषेण शुद्ध यस्मिँतत् परिहारविशुद्ध, तदेव परिहारविशुद्धिकम् / स्था० 5 ठा० 2 उ० / परिहरणं परिहारस्तपोविशेषस्तेन कर्मनिर्जरारूपा विशुद्धिर्यस्मिन् चारित्रे तत्परिहार- | विशुद्धिकम् / संयमविशेषे, बृ०६ उ० / पञ्चमहाव्रतानां परिहारे, आ० चू० 1 अ० / तृतीये चारित्रभेंदे, एतदपि द्विभेदम्-निर्विशमानकं, निविष्टकायिकं च। तत्रास्यैव चारित्रस्यासेवकाः साधवो निर्विशमानका उच्यन्ते, तदव्यतिरेकादिदमपि चारित्रं निर्विशमानकं भण्यते आसेवितंतचारित्रकायास्तु मुनयो निर्विष्टकायाः, त एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादान्निर्विष्टकायिकाः, तदभेदादिदमपि चारित्रं निर्विष्टकायिकम्, एतत्स्वरूपं च विस्तरतो भाष्येऽभिधास्यत इति।।१२६० / / विशे० / (अत्र "से किं तं परिहारविसुद्धियचरित्तारिया / " इत्यादि सूत्रम् 'चरित्तारिय' शब्दे तृतीयभागे 1152 पृष्ट गतम्) अथ निर्विशमान-निर्विष्टकायिककल्पस्थितिद्वयं विवरीषुराहपरिहारकप्पं पवक्खामि, परिहरंति जहा विऊ। आदिमज्झऽवसाणेसु, आणुपुट्विं जहक्कम // 366 / / परिहारकल्पं प्रवक्ष्यामि / कथमित्याह-यथा विद्वांसो विदितपूर्वगतश्रुतरहस्याः, तं कल्पं परिहरन्ति, धातूनामनेकार्थत्वादासेवन्ते, कथं पुनर्वक्ष्यसीत्यत आह आदिमध्यावसानेषु यथाक्रममानुपूयेति। पंचहिं अग्गहो भत्ते, तत्थेगाए अमिग्गहो। उवहिणो अग्गहो देसे, इयरो एकतरीयओ।।३७०।। भक्ते, उपलक्षणत्वात्-पानके च संसृष्टासंसृष्टाऽऽख्यमाद्यमेषणाद्वयं वर्जयित्वा पञ्चभिरुपरितनाभिरेषणाभिराग्रहः, स्वीकारस्तत्राप्येकस्यामेकतरस्यामभिग्रहः, एकया कयाचिद्भक्तमपरया क्तपरया पानकमन्वेषयन्तीत्यर्थः। आह च वृहद्भाष्यकृत''संसट्ठमाइयाणं, सव्वण्ह एसणाण उ। आइल्लाहिँ उदोहिं तु, अग्गहो गह पंचहि / तत्थ वि अन्नतरीए, एगाएँ अभिग्गहं तु काऊणं / / " इति। उपधिर्वस्वाऽऽदिरूपस्तपस्योदिष्टाःप्रेक्षा अंतरा उज्झितधर्मकाख्याः पीठिकयां व्याख्याता, याश्चतस्र एषणास्तत्र द्वयोरुप-रितनयोराग्रहः स्वीकारः, इतरोऽभिग्रहः, स एकतरस्यामुपरितन्यां भवति, यदा चतुर्थ्यां न तदा तृतीयायां, यदा तृतीयायां न तदा चतुर्थ्यां गृह्णातीति भावः / कदा पुनस्तेऽमुंकल्पं प्रतिपद्यन्ते इत्याह-- अइरुग्गयम्मि सूरे, कप्पं देसंति ते इमं / आलोइय पडिक्कंता, ठावयंति तओ गणे।।३७१।। अचिरोद्गते सूर्ये ते भगवन्तः कल्पमिमं देशयन्ति, स्वयं प्रतिपन्ना अन्येषा दर्शयन्ति, तत आलोचितप्रतिक्रान्ता आलोचनाप्रदानपूर्व प्रदत्तमिथ्यादुष्कृतास्त्रीन् गणान स्थापयन्ति। तेषु च त्रिषु गणेषु कियन्तः पुरुषा भवन्तीत्याह-- सत्तावीसं जहण्णेण, उक्कोसेण सहस्ससो। निग्गंथसूरा भगवंतो, सव्वम्गेणं वियाहिया।।३७२।। सप्तविंशतिः पुरुषा जघन्येन भवन्ति, एककैस्मिन् गणे, उत्कर्षतः सहस्रशः सहस्रसंख्याः पुरुषा भवन्ति, शताग्रशो गणानामुत्कर्षतो वक्ष्यमाणत्वात् / एवं ते भगवन्तो निर्ग्रन्थसूराः सर्वाग्रेण सर्वसंख्यया व्याख्याताः। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविसुद्धिय 662 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहारविसुद्धिय गणमङ्गीकृत्य प्रमाणमाह एवं शिष्येण पृष्टे सति सूरिराहसयग्गसो य उक्कोसा, जहण्णेणं तओ गणा। पुव्वसयसहस्साइं, पुरिमस्स अणुसज्जति। गणो य णवओ वृत्तो, एमेता पडिवत्तिओ / / 373 / / वीसग्गसो य वासाई, पच्छिमस्साणुसञ्जति॥३०॥ शताग्रशः शतसंख्या गणा उत्कर्षतोऽमीषां भवन्ति, जधन्येन त्रयो / पूर्वशतसहस्राणि पूर्वस्य ऋषभस्वामिनस्तीर्थे परिहारकल्पोऽनुसगणाः, गणश्च नवको नवपुरुषमान उक्तः, एवमेताः प्रतिपत्तयः प्रमाणा- जति० तत्र ऋषभस्वामिनः तीर्थ यानि पूर्वशतसहस्राण्युक्तानि ताग्ने ऽऽदिविषयप्रकारा मन्तव्याः। देशोने द्वे पूर्वकोटी मन्तव्ये। कथमिति चेत्? उच्यते-इह पूर्वकोट्यायुषो एग कप्पट्ठियं कुजा, चत्तारि परिहारिए। मनुष्या जन्मत आरभ्य सञ्जाताटवर्षाः प्रव्रजितास्तेषां च नवमे वर्ष अणुपरिहारिगा चेव, चउरो तेसिं तु ठावए / / 374 / / उपस्थापना संजाता, एकोनविंशतिवर्षपर्यायाणां च दृष्टिवाद उद्दिष्टः, नवानां जनानां मध्यादेकं कल्पस्थितं गुरुकल्पं कुर्यात्, चतुरः तस्य वर्षेण योगः समाप्तिं नीतः, एवं नवविंशतिश्च मिलिता एकोनत्रिंशपरिहारिकान् कुर्यात्, तेषां शेषाश्चतुरोऽनुपरिहारिकान् स्थापयेत्। वर्षाणि, एतावत्सु वर्षेषु गतेषु ऋषभस्वामिनः पावें परिहारकल्प ण तेसिं जायती विग्धं, जा मासा दस अट्ठय। प्रतिपन्नाः, तत एकोनविंश-द्वर्षन्यूनां पूर्वकोटी परिहारकल्पे तैरनुपालिते ण वेयणा ण वाऽऽतंका, णेव अण्णे उवदवा / / 375 / / सतिये वाऽन्ये तेषां मूले परिहारकल्पं प्रतिपद्यन्ते, तेऽप्येवमेवैकोनत्रिंशअट्ठारससु पुण्णेसु, होज एते उवद्दवा। द्वर्षन्यूनां पूर्वकोटीमनुपालयन्ति। एवं देशोने द्वे पूर्वकोटी भवतः, पश्चिमऊणिए ऊणिए यावि, गणमेरा इमा भवे / / 376 // स्य तु यानि विंशत्यग्रशो वर्षाण्युक्तानि तानि देशोने द्वे वर्षशते भवतः / तेषामेवंकल्पं प्रतिपन्नानां न जयते विघ्नोऽन्यत्र संहरणाऽऽदियावन्मासा तथा चाऽऽहदशाष्टौ च, अष्टादशेत्यर्थः / न वेदना न वाऽऽतो नवान्यैः केचनोपद्रवाः पवजा अहवासस्स, दिद्विवादो जवीसहि। प्राणव्यपरोपणकारिण उपसर्गाः, अष्टादशषु मासेषु पूर्णेषु भवेयुरप्येते इति एकूणतीसाए, सयमूणं तु पच्छिमे // 381 / / उपद्रवाः, उपद्रवैश्च यदि तेषामेके डम्बा नियन्ते। अथवा तेषां कोऽपि पालइत्ता सयं झणं, वासाणं ते अपच्छिमे। स्थविरकल्पात् जिनकल्पे च गतो भवति, शेषास्तु तमेव कल्पम्- काले देसिंति अण्णेसिं, इति ऊणा तु वे सता॥३२॥ "अनुपालकम्मे तउ पवनंति तेऊ णिते गणा जाते' इयं गणमर्यादा श्रीवर्द्धमानस्वामिकाले वर्षशतऽऽयुषो मनुष्याः, तत्राष्टवर्षस्य जन्मनः गणसामाचारी भवति। इहोनितेऊनिते इति द्विरुच्चारण भूयोडप्यष्टादशसु प्रभृति संजातवर्षाष्टकस्य कस्याऽपि प्रव्रज्या संजाता, पूर्वोक्तरित्या च मासेषु पूर्णेषु एष एव विधिरिति ज्ञापनार्थः। विंशत्या वर्षे दृष्टिवादो योगतः समर्थितः, ते श्रीमन्महावीरसकाश एवं तु ठविए कप्पे, उवसंपञ्जति जो तहिं / परिहारकल्पं नव जनाः प्रपिपद्य देशोनवर्षशतमनुपालयन्ति इत्येवमेएगो दुवे अणेगे वा, अविरुद्धा भवंति ते॥३७७ / / कोनत्रिंशतं पश्चिमे पश्चिमतीर्थङ्करकाले भवति। ततस्ते वर्षाणां शतमून एवमन्तरोक्तनीत्या कल्पे स्थापिते सति यद्येकादयो निषेवन। अन्यत्र तं कल्पं पालयित्वा पश्चिमे काले निजाऽऽयुषा पर्यन्ते अन्येषां तं कल्प वा गच्छेयुः ततो यस्तत्रोपसंपद्यते स एको वाद्वौ वाऽनेके वा भवेयुः। तथा | दिशन्ति, प्ररूपयन्ति, प्रवर्तयन्तीति भावः / तेऽप्येवमेकैकोनन्यून शत प्रतिपद्यमानानां मध्ये प्रतिपन्नानामवसाने प्रस्तुतकल्पसमाप्तौ या / पालयन्ति। इत्येवं द्वेशते ऊने वर्षाणा भवत इति। आनुपूर्वी साभाचार्याः परिपाटिस्ता, यथाक्रम वक्ष्यामिति संटङ्कः। किमर्थ तृतीया पूर्वकोटी तृतीयं वा वर्षशतं न भवतत्र कतरस्मिन् तीर्थ एवं कल्पो भवतीति जिज्ञा तीत्याहसायामिदमाह पडिवन्नजिणिंदस्स, पादमूलम्मि जे विऊ। भरहेरवएसु वासेसु, जदा तित्थगरा भवे। ठावयंति अतेअण्णे, ण उठावितठावगा||३८३ / / पुरिमा पच्छिमा चेव, कप्पा दंसंति ते इमं // 378 / / जिनेन्द्रस्य पादमूले ये विद्वांसः प्रस्तुतं, कल्पं प्रतिपन्नास्त एवान्यान भरतैरवतेषु वर्षेषु दशष्वपि यदा तृतीयचतुर्थाऽऽरकयोः पश्चिमे भागे तर कल्पे स्थापयन्ति, न तु स्थापितस्थापकाः, जिनेन स्थापिताः पूर्वाः पश्चिमाश्च तीर्थकरा भवेयुः, तदा ते भगवन्त इमं प्रस्तुतं कल्पं स्थापका येषां ते स्थापितस्थापकास्ते अमुंकल्पमन्येषां न स्थापयन्ति। दिशन्ति प्ररूपयन्ति / अर्थादापन्नमध्यमतीर्थकृता महाविदेहेषु नास्ति इदमत्र हृदयम्-इयमेवास्य कल्पस्य स्थितिर्यत्तीर्थकरसमीपे वा अमुं परिहारकल्पस्थितिरिति। प्रतिपद्यन्ते तीर्थकरसमीपप्रतिपन्नसाधुसकाशे वा नान्येषामतस्तृतीये आह-यद्येवंततः-- वर्षे पूर्वकोटिवर्षशते न भवत इति। केवइयं काल संजोगं, गच्छो तु अणुसज्जती। अथ कीदृगगुणोपेता अमी भवन्ति? इत्याहतित्थयरेसु पुरिमेसु, तहा पच्छिमएसु य / / 376 / / सव्वे चरितमंता य, दंसणे परिनिट्ठिया। कियन्त कालं संयोग परिहारकल्पिकानां गच्छः पूर्वेषु पश्चिमेषु च णवपुट्विया जहण्णेणं, उक्कोसं दसपुब्विया॥३५४११। तीर्थङ्करेषु अनुसजति परम्परयाऽनुवर्तते। पंचविहे ववहारे, कप्पे ते दुविहम्मि य / Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविसुद्धिय 693 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहारविसुद्धिय दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे विपरिनिट्ठिया / / 385 / / सर्वेऽपि भगवन्तः चारित्रवन्तो दर्शने च सम्यक्त्वे परिनिष्ठिताः परमकोटिमुपगताः ज्ञानमगीकृत्य तुनवपूर्विणो जघन्येनोत्कर्षतो दशपूर्विणः, किचिन्न्यूनदशपूर्वधरा मन्तव्याः, तथा पञ्चविधे व्यवहारे आगमश्रुताज्ञाऽऽधारणाजीतलक्षणे, द्विविधे च कल्पे अकल्पस्थापनाकल्परूपे जिनकल्पस्थविरकल्परूपे वा दशविधे प्रायश्चित्ते आलोचनाऽऽदौ णराक्षिकान्ते सर्वेऽपि परिनिष्ठिताः परिज्ञायां परां निष्ठा प्राप्ताः। अप्पणो आउगं सेसं, जाणित्ता ते महामुणी। परक्कमं च बलविरियं, पच्चवाए तहेव य॥३८६॥ आत्मन आयुः शेषं सातिशयश्रुतोपयोगेन ज्ञात्वा ते महामुनयो बलं शारीरं सामर्थ्य, वीर्य जीवशक्तिः , तदुभयमपि दर्शितस्वफलं पराक्रमः, एतान्यात्मनो विज्ञायाऽमुं च कल्पं प्रतिपद्यन्ते / प्रत्यपाया जीवितोपट्रटकारिणो रोगाऽऽदयस्तानपि तथैव प्रथममेव भोगयति, किं प्रतिपन्नानां भविष्यन्ति न वेति, यदि न भवन्ति ततः प्रतिपद्यन्ते, अन्यथा तुनेति। आपुच्छिऊण अरहंते, मग्गं देसंति ते इमं / पमाणाणि य सव्वाइं, अभिग्गहे य बहुविहे / / 387 // अर्हतस्तीर्थकृत आपृच्छय तेषामनुज्ञया अमुकल्पं प्रतिपद्यन्ते। ते च / तीर्थकृतस्तेषां प्रन्तुतकल्पस्य इमम् अनन्तरमेव वक्ष्यमाणं मार्ग सामाचारी देशयन्ति / तद्यथा-प्रमाणानि च सर्वाणि, अभिग्रहांश्च बहुविधान्। एतान्येव व्याचष्टेगणोवहिपमाणाई, पुरिसाणं च जाणितुं। दव्वं खेत्तं च कालं च, भावमण्णे य पज्जवे // 385 / / गणप्रमाणानि उपधिप्रमाणानि पुरुषाणां च प्रमाणानि यानि प्रस्तुते काले जघन्याऽऽदिभेदादनेकधा भवन्ति / यच तेषां द्रव्यमशनाऽऽदिक कल्पनीयं, यच्च क्षेत्र मासकल्पप्रायोग्यं च वर्षावासप्रायोग्यं वा यतश्च तयोरेव मासकल्पवर्षावा सयोः प्रतिनियतः कालो, यश्च भावः क्रोधनिग्रहाऽऽदिरूपो, ये चान्येऽपि निष्प्रतिकर्मताऽऽदयो लेश्याध्यानाऽऽदयो वा पर्यायास्तेषां संभवन्ति तान् सर्वानपि भगवन्तस्तेषामुपदिशन्ति, स एको वा द्वौ वा अनेके वा भवेयुः। तत्र यावद्भिः परिहारिकगण ऊनस्तावता उपसंपदर्थमागतानां मध्यात गृहीत्वा गणः पूर्यत, ये शेषास्ते पारिहारिक तपस्तुलनां कुर्वन्तः तिष्ठन्ति, ते च पारिहारिकः सार्द्ध तिष्ठन्तोऽविरुद्धा भवन्ति, पारिहारिकाणामकलनीया भवन्तीत्यु-क्तं भवति; तेच तावत् तिष्ठन्ति यावदन्ये उपसंपदर्थमुपतिष्ठन्ति, तैः पूरयित्वा पृथग् गणः क्रियते। इदमेव व्याख्यातितत्तो य ऊणए कप्पे, उपसंपज्जति जो तहिं। जत्तिएण गणो ऊणो, तत्तिए तत्थ पक्खिवे / / 386 / / ततश्च पूर्वोक्तकारणादूनके एक व्यादिभिः साधुभिरूने कल्पे यस्तत्रोपसंपद्यते तत्रायं विधिर्यावद्भिरेकाऽऽदिसंख्याकैः स गणः ऊनस्तावत्संख्याकान् तत्र गणे प्रक्षिपेत् प्रवेशयेत्। ततो अणूणए कप्पे, उवसंपज्जति जे तहिं / उवसंपज्जमाणं तु, तप्पमाणं गणं करे / / 360 / / अथ कोऽप्युपद्रवैर्न कालगतस्तत एवमन्यूनके कल्पे ये तत्रोपसंपद्यन्ते ते यदि नव जनाः पूर्णास्ततः पृथग् गणो भवति / अथाऽपूर्णास्ततः प्रतिक्षिप्यन्ते यावदन्ये उपसंपदर्थमागच्छन्ति, ततस्तमुपसंपद्यमान साधुजन मीलयित्वा तत्प्रमाणं नवपुरुषमान गणं कुर्यात् स्थापयेत्। पमाणं कप्पट्ठितो तत्थ, ववहारं ववहरित्तए। अणुपरिहारियाणं पि, पमाणं होति से विऊ // 361 // तेषां परिहारिकाणां तत्र कल्पे वचित् स्खलिताऽऽदौ आपन्ने व्यवहारप्रायश्चित्तं व्यवहर्तुं दातुं कल्पस्थितःप्रमाणं, यदसौ प्रायश्चित्तं ददाति तत्तैर्वोढव्यमिति भावः / एवमनुपरिहारिकाणामप्यपराधपदमापन्नानास एव विद्वान् गीतार्थः प्रायश्चित्तदाने प्रमाणम्। आलोयण कप्पठिते, तवमुजाणोवमं परिवहंते। अणुपरिहारिऐं गोवा-लऐं णिचं उज्जुत्तमाउत्तो॥३६२॥ ते परिहारिकानुपरिहारिकाः, आलोचनमुपलक्षणत्वात् वन्दनक प्रत्याख्यानं च कल्पस्थितस्य पुरतः कुर्वन्ति। (तवमुजाणोवमं परिवहते त्ति) यथा किल कश्चिदुद्यानिकां गत एकान्तरतिप्रसक्तस्वच्छन्दसुखं विहरमाण आस्ते, एवं तेऽपि पारिहारिका एकान्तसमाधिसिन्धुनिमग्नमनसस्तत्तप उद्यानोपमम् उद्यानिकासदृशं परिवहन्ति, कुर्वन्तीत्यर्थः। अनुपरिहारिकाश्च चत्वारोऽपि परिहारिकाणां भिक्षाऽऽदौ पर्यटतां पृष्ठतः स्थिता नित्यमुद्यतकाः प्रयत्नवन्त आयुक्ताश्च उपयुक्ता हिण्डन्ते, यथा गोपालको गवां पृष्ठतः स्थित उद्युक्त आयुक्तश्च हिण्डते। पडिपुच्छं वायं णं, मोत्तूणं एत्थि संकहा। आलावो अत्तणिद्देसो, परिहारस्स कारणे // 363!! तेषां च पारिहारिकाऽऽदीनां नवानामपि जनानां सूत्रार्थयोः प्रतिपृच्छां वाचं मृक्त्वा नास्त्यन्योन्यं परस्परं संकथा, पहारिकस्य च कारणे उत्थाननिषीदनाऽऽद्यशक्तिरूपे आलापआत्मनिर्देशरूपो भवति, यथा उत्थास्यामि, उपवेक्ष्यामि, भैक्ष्यं हिण्डिमात्रकं प्रेक्ष्ये इत्यादि। वारस दसऽट्ठ दस अट्ठ छच्चऽट्ठछचउरो य उक्कोसं। मज्झिमजहन्नगा ऊ, वासासिसिरगिम्हे उ॥३६४ || पारिहारिकाणां वर्षाशिशिरग्रीष्मरूपे त्रिविधे काले उत्कृष्ट-मध्यमजघन्यानि तपांसि भवन्ति / तत्र वर्षारात्रे उत्कृष्ट तपो द्वादशं, शिशिरे दशमम् उत्कृष्ट ग्रीष्मे अष्टमं वर्षाराचे मध्यमं दशमं शिशिरे अष्टम, ग्रीष्मे षष्ठ वर्षारात्रे जघन्यमष्टम, शिशिरेषष्ठ, ग्रीष्मे चत्वारि भक्तानि, चतुर्थमित्यर्थः। आयंबिलवारसगं, पत्तेयं परिहारगा परिहरंति। अभिगहितएसणाए, पंचण्ह वि एगों संभोगो।।३६५ || परिहारिका: उत्कर्ष तो द्वादशतपः कृत्वा आचाम्ले न पारयन्ति, ते च परिहारिकाश्चत्वारोऽपि प्रत्येक पृथक परिहरन्ति, न परस्परं समुद्देशनाऽऽदिसंभोगं कुर्वन्तीत्यर्थः / Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविसुद्धिय 694 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहारविसुद्धिय ते च पारिहारिका अभिगृहीतया पश्चानामुपरितनानामप्येषणया / भक्तपानं गृह्णन्ति,येतु चत्वारोऽनुपारिहारिका एकत्र कल्पे स्थितास्तेषां पञ्चानामप्येक एव संभोगः / ते च प्रतिदिवसमाचाम्लं कुर्वन्ति / यस्तु कल्पस्थितः स स्वयं न हिण्डते, तस्य योग्यं भक्तपानमनुपारिहारिका आनयन्ति। परिहारिओं छम्यासे, अणुपरिहारिओ वि छम्मासा। कप्पद्वितो वि छम्मासे, एते अट्ठारस उ मासे / / 366 / / / परिहारिकाः प्रथमतः षण्मासान् प्रस्तुतं तपो वहन्ति, ततोऽनुपरिहारिका अपि षण्मासान् वहन्ति, इतरे तु तेषामनुपरिहारिकत्वं प्रतिपद्यन्ते, तैरपि व्यूढे सति कल्पस्थितः षणमासान् वहति, ततः शेषाणामेकः कल्पस्थितो भवति, एकः पुनरनुपरिहारिकत्वं प्रतिपद्यते, एवमेते अष्टादश मासा भवन्ति। अणुपरिहारिगा चेव, जया ते परिहारिगा। अण्णमण्णेसु ठाणेसु, अविरुद्धा भवंति ते // 367 / / अनुपरिहारिकाश्चैव ये च ते पारहारिकास्ते अन्योऽन्येषु स्थानेषु कालभेदेन परस्परमेकैकस्य वैयावृत्य कुर्वन्तोऽविरुध्दा एव भवन्ति। तत्रगएहि छहिँ मासेहि, निविट्ठा य भवंति ते। ततो पच्छा य ववहारं,पट्ठवंति अणुपरिहारिया / / 368 // गएहिं छहिं मासेहि, निविट्ठा य भवंति ते। वहइ कप्पट्ठिओ पच्छा, परिहारं तहाविहं / / 366 / / ते परिहारिकाः षद्भिमसिंर्गतैस्तपसिव्यूढे सति निविष्टा निर्विष्टकायिका भवन्ति, ततः पश्चादनुपरिहारिका व्यवहार परिहारतपसः समाचार प्रस्थापयन्ति कर्तुं प्रारभन्ते / तेऽपि षड्भिमौसैर्गतैर्निविष्टा भवन्ति, पश्चात्कल्पस्थितोऽपि तथाविधं परिहारं तावदेव मासं वहति। एवंचअट्ठारसीहँ मासेहिं, कप्पो होति समाणितो। मूलढवणाए समं, छम्मासा उ अणूणगा।।४०० / / अष्टादशभिर्मासरयं कल्पः समापितो भवतिः कथमित्याह-(मूलढवणा इत्यादि) मूलस्थापना नामयत्परिहारिकाः प्रथमत इदं तपः प्रतिपद्यन्ते, तस्यां षण्मासा अन्यूनास्तपो भवति, एवममुं पारिहारिकाणां कल्पस्थितस्य च मूलस्थापनया समं तुल्यं तपः प्रत्येकं ज्ञेयं, षण्मासान् यावदित्यर्थः / एवं त्रिभिः षद्भिरष्टादश मासा भवन्ति। ते च द्विधाजिनकल्पिकाः, स्थविरकाल्पकाश्च। उभयेषामपि व्याख्यानमाहएवं समाणिए कप्पे,जे तेसिं जिणकप्पिया। तमेव कप्पं ऊणावि, पालए जावजिवियं / / 401 / / एवमनन्तरोक्तविधिना अष्टादशभिर्मासैः कल्पे समापिते सति ये तेषा मध्यात् जिनकल्पिकास्ते तमेव कल्पमूना अपि अष्टाऽऽदिसंख्याका अपि यावद्धीवं पालयन्ति। अट्ठारसेहिँ पुण्णेहिं,मासेहिं थेरकप्पिया। पुणो गच्छं नियच्छंति, एसा तेसि अहाठिती।।४०२।। ये स्थविरकल्पिकास्ते अष्टादशभिर्मासैः पूर्णः पुनः भूयोऽपि (गच्छ ति) गच्छं नियच्छन्ति आगच्छन्तीत्यर्थः / एषा तेषां यथास्थि तिर्यथाकल्पः। अथ षड्धायां कल्पस्थितौ का कुत्रावतरतीत्याहतइयचतुत्या कप्पा, समोयरंति तु ठियम्मि कप्पम्मि। पंचमछट्टटितीसुं, हेठिल्लाणं समोयारो॥४०३ // तृतीयचतुर्थी निर्विशमानकनिर्विष्टकायिकाऽऽख्यौ द्वितीये छेदोपस्थापनीयनास्तिककल्पे समवतरतः। तथा सामायिकच्छेदोपस्थापनीयनिर्विशमानकनिर्विष्टकायिकाऽऽख्या आद्याश्चतस्त्रः स्थितयोरधस्तन्य उत्पद्यन्ते / तासां परमाषष्ठस्थित्योर्जिनकल्पस्थविरकल्पस्थितिरूपयोः समवतारो भवति / गतं निर्विशमानकनिर्विष्टकायिककल्पस्थितिद्वयम्। बृ०६ उ०। स्था० / अनु०। उत्त०। कर्म० प्रज्ञा०। अर्थत परिहारविशुद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रे काले वा भवन्ति? उच्यते-इह क्षेत्राऽऽदिनिरूपणार्थं विंशतिद्वाराणि। तद्यथा-क्षेत्रद्वारम् 1, कालद्वारम 2, चारित्रद्वारम् 3, तीर्थद्वारम् 4, पर्यायद्वारम् 5, आगतद्वारम् 6, वेदंद्वारम् 7, कल्पद्वारम्,लिङ्गद्वारम् ,लेश्याद्वारम् १०,ध्यानद्वारम 11, गणद्वारम् 12, अभिग्रहद्वारम् 13, प्रव्रज्याद्वारम् 14, मुण्डापनाद्वारम् 15, प्रायश्चित्तविधिद्वारम् १६,कारणद्वारम् 17, निःप्रतिकर्मताद्वारम् 18, भिक्षाद्वारम् 16, बन्धद्वारम् 20 // तत्र क्षेत्रे द्विधा मार्गणाजन्मतः, सदभावतश्च, यत्र क्षेत्रे जातस्तत्र जन्मतो मार्गणा। यत्र च कल्पे स्थितो वर्तते तत्र सद्भावतः। उक्तंच-"खेत्ते दुहेह मग्गण, जम्मणओ चेव संति भावे य जम्मणओ जहिँ जातो, सतीभावो जहिं कप्पो॥१॥"तत्र जन्मतः सद्भावतश्व पञ्चसु भरतेषु पञ्चस्वैरावतेषु, न तु महाविदेहेषु,न चैतेषां संहरणमस्ति. येन जिनकल्पिका इव संहरणतः सर्वासु कर्मभूमिष्वकर्मभूमिषु वा प्राप्येरन्। उक्तं च-"खित्ते भरहेरवए, सुहोति संहरणवज्जिया नियमा।" कालद्वारे-अवसर्पिण्यांतृतीये चतुर्थे वाऽऽरके जन्मसद्भावः, पञ्चमेऽपि उत्सर्पिण्यां द्वितीये तृतीये चतुर्थे या जन्मसद्भावः, पुनस्तृतीये चतुर्थे वा / उक्तं च "ओसप्पिणीऍ दोसुं, जम्मणओ तीसु संतिभावेणं / उस्सप्पिणिविवरीओ, जम्मणओ संतिभावे य॥१॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपे तु चतुऽऽरिकप्रतिभागकाले न सम्भवति, महाविदेहक्षेत्रे तेषामसम्भवात्। चारित्रद्वारेसंयमस्थानद्वारेण मार्गणा, तत्र सामायिकस्य छेदोपस्थापनस्य च चारित्रस्य यानि जघन्यानि संयमस्थानानि, तानि परस्परतुल्यानि, समानपरिणामत्वात्, ततोऽसङ्ख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानान्यतिक्रम्योर्द्ध यानि संयमस्थानानि तानि परिहारविशुद्धिकयोग्यानि तान्यपि च केवलिप्रज्ञया परिभाव्यमानानि असङ्ख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि, तानि प्रथमद्वितीयचारित्राविरोधीनि, तेष्वपि संभवात्, तत ऊध्र्व यानि संख्यातीतानि संयमस्थानानि तानि सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रयोग्यानि। उक्तं च-"तुल्ला जहन्नठाणे, संयमठाणेण पढमविइ-याणं। तत्तो असंखलोए, गंतुं परिहारियट्ठाणा // 1 // ते वि असंखा लोगा, अविरुद्धा चेव पढमविइयाणं। उवरि वि ततोऽसंखा, संयमठाणा उदोण्हं पि" // 2 // तत्र परिहारविशुद्धिक कल्पप्रतिपत्तिः स्वकीयेष्वेव संयमस्थानेषु वर्तमानस्य भवति, न शेषेषु, यदा त्वतीतनयमधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो विवक्ष्यते तदा शेषेष्वपि स यमस्थानेषु भवति, परिहारविशुद्धिकल्पसमाप्त्यनन्तरमन्येष्वपिचारित्रेषु संभवात्, Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविसुद्धिय 695 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिहारविसुद्धिय तष्वपि च वर्तमानस्यातीतनयमपेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नत्वाविरोधात् / उक्त च-''सट्टाणे वडिवत्ती, अन्नेसु वि होज पुव्वपडिवन्नो / तेसु वि वस॒तो सोऽतीतनयं पप्प युञ्चति उ॥३॥ तीर्थद्वारेपरिहारविशुद्धिको नियमतस्तीर्थप्रवर्त्तमान एव सति भवति, न तच्छेदो नानुत्पत्या वा तदभावे जातिस्मरणाऽऽदिना / उक्तं च-"तित्थ त्ति नियमतो च्चिय, होइ स तिथिमि न ऊण तद्दभावे / विगएऽणुप्पन्ने वा, जाईसरणाइएहिं तु " 1.1 / पर्यायद्वारेपर्यायो द्विधा गृहस्थपर्यायो, यतिपर्यायश्च / एकैकोऽपि द्विधा-जधन्यतः, उत्कर्षतश्च। तत्र गृहस्थपर्यायो जघन्यतः एकोनत्रिंशद्वाणि, यतिपर्यायो विंशतिः, द्वावपि चोत्कर्षतो देशोनपूर्वकोटीप्रमाणी। उक्तं च- ''एगस्त एस नेओ, गिहिपरियाओ जहन्न गुणतीसा जइपरियाओ वीसा, दोसु वि उक्कोसदेसूणो" / / 1 / / आगमद्वारे-अपूर्वगमागम सनाधीत यस्मात्तत्कल्पमधिकृत्य प्रगृहीतोचितयोगाऽऽराधनत एव स कृतकृत्यतां भजते, पूर्वाधीतं तु विस्रोतसिकाक्षयनिमित्तं नित्यमेवैकाग्रमनाः सम्यकप्रायोऽनुस्मरति। आह च-- ''अप्पु वं न अहिजइ, आगममेसो पडुच्च कप्पं तु। जमुचियपगहियजोगा-राहणओ चेव कयकिच्चो // 1 // पुव्वाहीपं तु तयं, पायं अणुसरइ निच्चमेवेस। एगग्गमणो सम्म, विस्सोयसिगाएँ खयहेऊ॥२॥' वेदद्वारे -नित्यं प्रवृत्तिकाले वेदे पुरुषवेदो भवेत्, नपुंसकवेदो वा, न सीवेदः, स्त्रियाः परिहारविशुद्विकल्पप्रतिपत्यसंभवात्। अतीतनयमधिकृत्य पुनः पूर्वप्रतिपन्नश्चिन्त्यमानः सवेदो वाऽवेदो वा, तत्र सवेदं श्रणिप्रतिपत्त्यभावे, उपशमश्रेणिप्रतिपत्तौ त्ववेद इति / उक्तं च--''वेदो प्रवित्तिक ले, इत्थीवेदो उ होइ एगयरो / पुव्वपडिवन्नगो पुण, होज्ज सवेदो अवेदो वा / / 1 / / " कल्पद्वारे-स्थितकल्पे एवायं, नास्थितकल्पे, "ठियकप्पम्मि य नियमा' इति वचनात्। तत्राचेलक्याऽऽदिषु दशस्वपि स्थानेषु य स्थिताःसाधवस्तत्कल्पः स्थितकल्प उच्यते। ये पुनश्चतुर्यु शय्यातरपिण्डेष्वेवावस्थितेषु कल्पेषु स्थिताः शेषेषु चाचेलेक्याऽऽदिषु षट्सु अस्थितास्तत्कल्पोऽस्थितकल्पः / उक्तं च-''छिय अट्ठिओ य कप्पो, आचेलुक्काइएसु ठाणेसु / सब्वेसु ठिया पढमो, च उ ठिय छसु अद्विया बीओ।१।।' आचेलक्याऽऽदीनि च दश स्थानान्यमूनि / "आचेलकुदृसिय, सिज्जायर रायपिंड कियम्मं / वयजेट पडिक्कमणं, मासं पलोसवणकप्पो // 1 / / " चत्वारश्चावस्थिताः कल्पा इमे"सेज्जारपिंडम्मी, चाउज्जामे य पुरिसजे? या किइकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवडिया कप्पा ॥२॥“लिङ्गद्वारे-नियमतो द्विविधेऽपि लिने भवते। तद्यथा-द्रव्यालिङ्ग, भावलिङ्ग च, एकेनापि विना विवक्षितकल्पोचितसामाचार्ययोगात् / लेश्याद्वारे-तेजःप्रभृतिकास्वितरासु तिसुषु विशुद्धासु लेश्यासु परिहारविशुद्धिक कल्पं प्रतिपद्यते पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सर्वास्वपि कथञ्चिद्भवति, तत्राऽपीश्वराविशुद्धिलेश्यासुनात्यन्तसंक्लिशासु वर्तते, तथाभूतासु वर्तमानो न प्रभूतं कालमवतिष्ठते, किंतु स्तोकं, अतः स्ववीर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्त्तते। अथ प्रथमत एव कस्माप्रवर्तते? उच्यते-कर्मवशात्। उक्तंच"लेसासु विसुद्धासुय, पडिवज्जइतीसुन उण सेसासु / पुव्वपडिवन्नओ पुण, होज्जा सव्वासु वि कहिं चि।।१।। णचंतसंकिलिट्टासु, थोवं कालं च वहति न इयरासु / विचित्तकम्माण गई, तहा वि वीरियफलं देइ॥२॥" ध्यानद्वारे-धर्मध्यानेन प्रवर्द्धमानेन परिहारविशुद्धिक प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनरातरोतद्वयोरपि भवति, केवलं प्रायेण निरनुबन्धः / आह च'झाणम्मि वि नियमेणं, पडिवज्जइ सो पवड्डमाणेण / इयरेसु वि झाणेसु, पुटवपडिवन्नो न पडिसिद्धो॥१॥ एवं च झाणजोगे, उद्दामे तिव्वकम्मपरिणामा। रोद्वद्देसु वि भावो, इमरन पायं निरणुबंधो // 2 // " गणनाद्वारे-जघन्यतस्रयो गणाः प्रतिपद्यन्ते, उत्कर्षतः शतसङ्ख्याः , पूर्वप्रतिपन्नाः / जघन्यत उत्कृष्ठतो वा शतशः, पुरुषगणनया जघन्यतः प्रतिपद्यमानाः सप्तविंशतिः, उत्कर्षतः सहस्त्र, पूर्वप्रतिपन्नाः पुनर्जधन्यतः शतशः उत्कर्षतः सहस्त्रशः। आह च"गणओ तिन्नेव गणा, जहन्नपडिवत्ति सयस्स उक्कोसा। उक्कोसजहण्णेणं, सयसो चिय पुव्वपडिवन्ना।।१।। सत्तावीस जहन्ना, सहस्स मुक्कोसओ य पडिवत्ती। सयसो सहस्ससोवा,पडिवन्न जहन्न उक्कोसा।।२।।" अन्यत्र यदा पूर्वप्रतिपन्नकल्पमध्यादेको निर्गच्छति, अन्यः प्रविशति तदोनप्रक्षेपप्रतिपत्तौ कदाचिदेकोऽपि भवति पृथकत्वं वा, पूर्वप्रतिपन्नोऽप्येवं भजनया कदाचिदेकः प्राप्यते, पृथक्त्वं वा / उक्तं च"पडिवज्जमाणभयणा-ए होज्ज एक्को विऊणपक्खेवे। पुव्वपडिवन्नया वि य, भइया एक्को पुहुत्तं वा / / 1 / / '' अभिग्रहद्वारे-अभिग्रहाश्चतुर्विधाः / तद्यथा-द्रव्याभिग्रहाः, क्षेत्राऽभिग्रहाः कालभिग्रहाः, भावभिग्रहाश्च / एते चान्यत्र चर्चिताः इति न भूयश्चर्च्यते / तत्र परिहारविशुद्धिकद्धिस्यैतेऽभिग्रहा न भवति। यस्मादेतस्य कल्प एव यथोदितरूपोऽभिग्रहो वर्त्तते। उक्तंच 'दव्वाई अभिग्गह, विचित्तरूवा न होंति पुण केइ। एयस्स जीयकप्पो, कप्पो चियऽभिग्गहो जेण // 1 // एयम्मि गोयराई, नियया नियमेण निरखवादा य। तप्पालणे वि य परं, एयस्स विसुद्धिठाणं तु॥२॥" प्रव्रज्याद्वारे-नासावन्य प्रव्राजयति कल्पस्थितिरेषेति कृत्वा आह च'पव्वावेइ न एसो, अन्नं कप्पट्टिइ त्ति काऊणं / " इति / उपदेश पुनर्यथाशक्ति प्रयच्छति। मुण्डापनद्वारेऽपि नासावन्यं मुण्डयति / अथ प्रव्रज्याऽनन्तर नियमतो मुण्डनमिति प्रव्रज्याग्रहणेनैव तद्गृहीतमिति किमर्थ पृथक् द्वारम्? तदयुक्तम् / प्रव्रज्याद्वारे नियमतो मुण्डनस्यासम्भवात् अयोग्यस्य कथविद् दत्तायामपि प्रव्रज्यायां पुनरयोग्यतापरिज्ञाने मुण्डनायोगादतः पृथगिदं द्वारमिति / प्रायश्चित्तविधिद्वारेमनसाऽपि सूक्ष्ममप्यतिचारमा-पन्नस्य नियमतश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमस्य, यत एष कल्प एकाग्रताप्रधानः, ततस्तद्भङ्गे गुरुतरदोष इति / कारणद्वारे-तथ कारणं नाम आलम्बन, यत्पुनः सुपरिशुद्ध ज्ञानाऽऽदिक, तचास्य न विद्यते ये न तदाश्रिन्यापवादपदसेविता स्यात्। एष हि सर्वत्र द्विरपेक्षक्लिष्टकर्मक्षयनिमित्तं प्रारब्धमेव स्वकल्पे यथोक्तविधिना समापयन महात्मा वर्त्तते। उक्तंच''कारणमालंबण मोत्तुं, पुण नाणाई य सुपरिसुद्धं / एयस्स तं न विजइ, उचियतपसाहणोपायं / / 1 / / सव्वत्थ निरवयक्खो, आढत्त चिय दढसमाणंतो। वट्टइ एस महप्पा, किलिट्ठकम्मक्खयनिमित्तं / / 2 / / " Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिहारविसुद्धिय 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परूवणा निःप्रतिकर्मताद्वारे-एष महात्मा निष्प्रतिकर्मशरीरोऽक्षिमलाऽऽ- सणा उ पढमा।" प्रथमा स्वल्पापराधविषया परिभाषणा प्रागुक्तस्वरूपा दिकमपि कदाचिन्नापनयति, न च प्राणान्तिकेऽपि समापतिते व्यसने भगवता आदिनाथेन प्रवर्तिताऽऽसीद् दण्डनीतिः। आ० म०१ अ०। द्वितीयं पदं सेवते। परिहि पुं० (परिधि) परिणहि, स्था०२ ठ० 3 उ० / परिवेषे, है। उक्तंच परिहिअ त्रि० (परिहित) "ओलइ परिहिअपिणद्धं च।" पाइ० ना० "निप्पडिकम्म्सरीरो, अच्छिमलाई विनावणेइ सया। 174 गाथा। पाणंतिए विय महा, वसणम्मि न वट्टए वीए॥१॥ परिहित्ता अव्य० (परिधाय) परिधान कृत्वेत्यर्थे, सूत्र०१श्रु० 4 अ०१३०। अप्पबहुत्ताऽऽलोयण, विसयादीओ उ होइ एस त्ति / परिहिय त्रि० (परिहित) विवसिते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। औ०। प्रज्ञा०। अहवा सुहभावाओ, व गफ्यं चिय इमस्स / / 2 / / " स्था०। प्रति०। उत्त०। निवसनीकृते, दशा० 10 अ०। भिक्षाद्वारे--एतदेव चारित्रंतथा विहारक्रमश्च तृतीयस्यां पौरुष्यां भवति, शेषासु च पौरुषीषु कायोत्सर्गो निद्राऽपि चास्याल्पा द्रष्टव्या / यदि पुनः परिहीण न० (परिहीन) भावे क्तः / परिहाणौ, रा०। क्षीणे, "जहा य कथमपि जवाबलमस्य परिक्षीणं भवति, तथाऽप्येषो विहरन्नपि परिहीणकम्मा सिद्धा। सू०प्र०१ पाहु०। महाभागो न द्वितीयपदमापद्यते। किं तु तत्रैव यथाकल्पमात्मीयं योगं परिहीणधण वि० (परिहीनधन) दरिद्र, नि० चू० 2 उ०। विदधातीति। परिहूअत्रि० (परिभूत) अनादृते, “परिहूअं अहिलिअंपराहूअं / ' पाइ० उक्तं च ना०१६१ गाथा। "तइयाएँ पोरिसीए, भिक्खाकालो विहारकालो उ। परिहेरग न० (परिहेरक) आभरणविशेषे, औ०। सेसासु उ उस्सग्गो, पाय अप्पा य निहति // 1 // परीधा० (क्षिप्) क्षेपणे, "क्षिपेर्गलत्था दुक्ख-सोल्ल--पेल्ल-बुहजंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नवरमावजे / हुल-परी-घत्ताः / / 84 | 143 / 1 इति सूत्रेण क्षिपधातोः तत्थेव अहाकप्प, कुणइ उ जोगं महाभागो।।२।।" परीत्यादेशः। 'परीइ। क्षिपति / प्रा०४ पाद। एतेच परिहारविशुद्धिका द्विविधाः। तद्यथा-इत्वराः, यावत्कथिकाश्च! * भ्रम धा० भ्रमेष्टिरिटिल्ल-मुण्डल्लु ढंढल्ल-चक्कम्म-भमडतत्र ये कल्पसमाप्त्यनन्तरंतमेव कल्पं गच्छवासमुपयास्यन्ति ते इत्वराः, भमाड-तलअण्ट-भण्टझम्प-भुम-गुम-फुड-फुस-ढुमये पुनः कल्पसमाप्त्यनन्तरमव्यवधानेन जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते दुस-परी--पराः।।८।४।१६१ / / इति सूत्रेण परीत्यादेशः। परीइ।' यावत्कथिकाः / उक्तं च-"इत्तरिय थेरकप्पे, जिणकप्पे आवकहिय भ्राम्यति। प्रा० 4 पाद। त्ति। अत्र स्थविरकल्पग्रहण उपलक्षणम्-स्वकल्पे चेति द्रष्टव्यम् / परीत त्रि०(परीत) परिमिते, रा०प्रत्येकशरीरिणि, पुं० आ० म०१ अ०। तत्रेत्वराणां कल्पप्रभावाद्देवमुनष्यतैर्यग्योनिकृता उपसर्गाः सद्योधातिनः आतङ्का अतीवविषह्याश्च वेदनान प्रादुष्यन्ति, यावत्कथिकानां सम्भवे परीयसंसारिय पुं० (परीतसांसारिक) परीतः परिमितः-, स चाऽसौ युरपि / ते हि जिनकल्पं प्रतिपत्स्यमाना जिनकल्पभावमनुविदधति, संसारश्च परीतसंसारः। "अतोऽनेकस्वरात्।७।२६॥ इतीकप्रत्ययः / जिनकल्पिकानां चोपसर्गाऽऽदयः सम्भवन्तीति / उक्तं च-"इत्तरिया सान्तसंसारे, रा०। गुवसग्गा, आतंका वेयणा य न हवंति। आवकहिया ण भइया।'' इति। पर अव्य० (परुत्) पूर्वस्मिन् वर्षे उत् परश्चान्तादेशः / गतवर्ष, वाच०। प्रज्ञा०१ पद। पञ्चा०पं० सं०। आ० म०। पं० भा०। औ० / बृ०। / आचा०१ श्रु० 2 अ०२ उ०। परिहारविसुद्धिलद्धि स्त्री० (परिहारविशुद्धिलब्धि) परिहारस्तपो- - *परूढ त्रि०। प्ररूढ वृद्धिमुपगते, औ०। विशेषः, तेन विशुद्धिर्यस्मिरतत्परिहारविशुद्धिकम, तस्य लब्धिः।। परूवइत्ता (अव्य०) प्ररुप्य भेदतः (स्था० 3 टा० 1 उ०।) उपपत्तिकथततो परिहारविशुद्ध्याख्यचारित्रल धो, भ० 8 श०२ उ०। वा निरूप्येत्यर्थे, भ०६ श०३१ उ०। परिहारिणी (देशी) चिरप्रसूतमहिष्याम्, दे० ना०६ वर्ग 31 गाथा। परूवण न० (प्ररूपण) प्रकर्षेण रूपणं प्ररूपणम्। स्वरूपकथने, नि० चू० परिहारिय पुं० (परिहारिक) परिहारं परित्यागमहतीति व्युत्पत्त्या 1 उ० प्रभेदाऽऽदिकथनतः (स्था०३.ठा०२ उ०। विशे०1) नामाऽऽदिपारिहारिकाः / भिक्षाग्रहणे परिहर्त्तव्येषु, बृ०२ उ०नि० चू०। परिहारत भेद स्वरूपकथने, नं01 प्रज्ञापने, अनु० / व्यक्तपर्यायवचनतः प्ररूपणे, पोऽनुपालकेषु, ५०व० 4 द्वार। उत्त० / अनु०। स्था०। ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / अनु० / असंख्यातप्रदेशाऽऽत्मकाऽऽदिस्वरूगो परिहाल (देशी) जलनिर्गमे, दे० ना० 6 वर्ग 26 गाथा। धर्मास्तिकाय इत्यादिरूपे, अनु०ा दर्पण इव श्रोतृहृदये संक्रामगे, कल्प० परिहाविय त्रि० (परिहापित) परिहाणिं नीते, व्य०४ उ०। परिहास पुं० (परिहास) सर्वत उपहासे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। हास्ये, 3 अधि०६ क्षण / गत्यादिषु द्वारेषु विचारणे, आ० म०१ अ.। "केली नम्मं च परिहासो1" पाइ० ना० 166 गाथा। परूवणा स्त्री० (प्ररूपणा) प्रकृष्टा प्रधाना प्रगता वा रूपणा प्ररूपणा / परिहासडि स्त्री० रीती, 'ढोल्ला एह परिहासडी, अहिइ मन कवणेहि / वर्णनायाम्, विशे० आ०म०। पञ्चविधा प्ररूपणा०"आरोवणा य भयणा, देसि।" प्रा० 4 पाद। पुच्छा तह वायणाय णिज्जवणा / एसा वा पंचविहा, परूवणातत्थ नायव्या परिहासणा स्त्री० (परिभाषणा) परिभाषणं परिभाषणा / कोपाऽऽ- | // 1 // " (णमोकार' शब्दे तृतीये भागे 1833 पृष्ठे व्याख्यात) विशे०। विष्करणेन मा याखीरित्यपराधिनोऽभिधाने, आव०१ अ०। 'परिहा- 1 आ०म०। आ० चू०। नि० चू०। प्रकथने, आव० 4 अ० / परूषण त्ति वा Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परूवणा 667- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंघण कहण त्ति वा धक्खाणमग्गे त्ति वा एगट्ठा।"आ० चू०१अ०।"पन्न ति वा / से किं तं परोक्खनाणं? परोक्खणाणं दुविहं पण्णत्तं / तं पन्नवण त्ति वा विनवण त्ति परूवण त्ति वा एगट्ठी' नि० चू०१ उ०। जहा-आभिणिवोहियनाणपरोक्खं च, सुयनाण-परोक्खं च। "परुवण ति वा कप्पण त्ति वा एगट्ठा।“नि० चू०१उ०। पदार्थकथनायां (से किं तमित्यदि) अथ किं तत् परोक्षज्ञानम्? परोक्षज्ञानं द्विविध च! आव० 4 अ०। विशे०। बृ०। प्रज्ञप्तम् / तद्यथा-आभिनिवोधिकज्ञानपरोक्षं च श्रुतज्ञानपरोक्ष च / परूविय (त्रि०) प्ररूपित नामाऽऽदिस्वरूपकथनतः (स० 1 अङ्ग) चशब्दो स्वगतानेकभेदसूचकौ परस्परं सहभावभेव तयोर्दर्शयतः। नं०। सूत्रार्थकथनतः (ग०२ अधिक। स्था० अनु०) रवनामकथनेन (उत्त० वृ० / स्था० / (एतत् सर्व 'अत्तीकरण' शब्दे प्रथमभागे 504 पृष्ठे 26 अ०) भेदानुभेदकथनेन कथिते, प्रश्न०१ सम्ब० द्वार / प्रतिसूत्रम- न्यक्षेणादर्शि) र्थकथनतः प्रोके, अनु०। परोक्खवयण (न०) परोक्षवचन स देवदत्त इत्यादिरूपे परोक्षार्थप्रतिपरूवेंत (त्रि०) प्ररूपयत् उपपत्तिभिः स्थापयति, औ०। पादके वचनभेदे, आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०१ उ०। परेअ देशी) पिशाचे, दे० ना० 6 वर्ग 12 गाथा। परोप्पर (त्रि०) परस्पर पर-वीप्सायाम् द्वित्त्वम्, सुद च / परेय-त्रि० प्रेत पिशाचे, "ढयरा पुयाइणो पिप्पया परेया पिल्लसया "नमस्कारपरस्परे द्वितीयस्य" ||8/162 // इति द्वितीयस्यात भूया :" पाइ० ना०३० गाथा। ओत्वम्। 'परोप्परं।' प्रा०१पाद। "ष्पस्पयोः फः" ||812153 // परवेय (देशी पादपतने, दे० ना०६ वर्ग 18 गाथा। इति सूत्रस्य बाहुलकत्वात्तस्य भागस्य प्फः / प्रा०२ पाद / अन्योन्यपरोक्ख (न०) परोक्ष परेभ्योऽक्षापेक्षया पुद्गलमयत्वेन द्रव्येन्द्रियमनोभ्योऽ- रिगन्, प्रश्न०१आश्र० द्वार। "तासिं परोप्परं पीई"। आ० म०१ क्षस्य जीवन्य यत्तपरोक्षम, निरुक्तिवशात् / अथवा-परैरक्षसम्बन्धनं अ०। प्रश्नः / सूत्र०। जन्यजनकभावलक्षणमस्येति परोक्षम्। इन्द्रियमनोव्यवधानेनाऽऽत्म- परोवक्कम (पुं०) परोपक्रम परकृतमरणे, भ०२० श० 10 उ०। स्था०। नोऽर्थप्रत्ययकर्मसाक्षात्कारिणी, स्था०२ ठा० 1 उ०। परोवगइ (स्त्री०) परोपकृति परोपकारे, परोपकारपरो हि पुमान् सर्वस्य परोक्खणाण (न०) परोक्षज्ञान क० स०। अप्रत्यक्षाऽऽत्मके ज्ञाने, विशे०। नेवाञ्जनम्। ध०१ अधि०। अथ परोक्षज्ञानस्वरूपमाह परोवगार (पुं०) परोपकार परस्मै अशनाऽऽदिप्रदाने, संघा० / तत्राऽपि अक्खस्स पोग्गलकया, जं दविंदियमणा परा तेणं / विशेषतः परोपकारकरणे प्रवर्तितव्यं, तस्यैवान्वयव्यतिरेकाभ्यामपि तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व // 10 // पुण्यवन्धनिबन्धनत्वात्। उक्तंच-"संक्षेपात्कथ्यते धर्मो जनाः ! किं यद्यस्माद् द्रव्येन्द्रियाणि, द्रव्यमनश्च, अक्षस्य जीवस्य पराणि भिन्नानि विस्तरेण वः? परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् / / 1 / / '' स वर्तन्ते। कथंभूतानि पुनर्द्रव्येन्द्रिादिव्यन्द्रिव्यमनासीत्याहपुद्गलकृतानि चोपकारो द्वेधा-द्रव्यतो, भावतश्च। तत्रद्रव्यत उपकारो भोजनशयनापुगलस्कन्धनिचयनिष्पन्नानि, हेतुद्वारेण चेढ विशेषणं द्रष्टव्यम्, ऽऽच्छादनप्रदानाऽऽदिलक्षणः / स चाल्पतयाऽनात्यन्तिकश्चैहिकार्थपुद्गलकृतत्वाद, येन द्रव्येन्द्रियमनांसि जीवस्य परभूतानि, तेन तेभ्यो स्याऽपि साधनेनैकान्तेन साधीयानिति / भावोपकारस्त्वध्यापनश्रावयन्मतिश्रुतलक्षणं ज्ञानमुत्पद्यते, तत्तस्य साक्षादनुत्पत्तेः परोक्षम् णाऽऽदिस्वरूपी गरीयानित्यात्यन्तिक उभयलोकसुखावह श्वेत्यतो अनुज्ञानवदिति। इदभुक्तं भवति-अपौलिकत्वादमूर्तो जीवः, पौदाल- भावोपकार एव यतितव्यम्। स च परमार्थतः पारमेश्वरप्रवचनोपदेश एव, कत्वात्तु मूर्तानि द्रव्येन्द्रियमनांसि, अमूर्ताच मूर्त पृथगभूतं. ततस्तेभ्यः तस्यैव भवशतोपचितदुःखक्षयक्षमत्वात् / आह च-'नोपकारो पौगलिकन्द्रियमनोभ्यो यन्मतिश्रुतलक्षणं ज्ञानमुपजायते, तद्भूमाऽऽ- जगत्यस्मिंस्तादृशो विद्यते क्वचित् / यादृशी दुःखविच्छेदाद्देहिना देरन्यादिज्ञानवत्परनिमित्तत्वात् परोक्षमिह जिनमते परिभाष्यते। इति / धर्मदेशना॥१॥" संघा०१ अधि०१ प्रस्ता०॥ गाथार्थः / / 60 // विशे०। बृ०॥ परोवताव (पुं०) परोपताप परेषां प्रतिपत्तिविघ्ने, पं० सू०३ सूत्र। परोक्ष लक्षयन्ति- . परोहड (न०) अज्ञाते भूमिगृहे, "घरवाड्यं परोहडं। 'पाइ० ना०२६४ अस्पष्टं परोक्षम् // 1 // गाथा। इति प्राक्रसूत्रितस्य स्पष्टत्वाभावभ्राजिष्णु यत्प्रमाणं तत्परोक्ष लक्षयि- | *पल त्रि० पर "रसोर्ल-शौ"111४२८८ || इति रस्य लः / तव्यम्॥१॥ "एदु भवं शमणे भयवं महावीले। भयवं कदंते, ये अप्पणोपक्खं उज्झिय अथैतत्प्रकारतः प्रकटयन्ति पलस्स पक्खं पमाणीकलेशि" प्रा० 4 पाद। स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्वानुमानाऽऽगमभेददतस्तत्पञ्चप्रकारम्।। पलन० मांसे, अनु० औ० / कर्षचतुष्टये,ज्यो २पाहु०।अनु० / गुञ्जात्रयेण स्पष्टम् रत्ना०३ परि० / आ० चू०।"परोक्खणाणे दुविहे पण्णते। तं पल स्यात् गद्याणस्ते च / “पलं च दशगद्याणैस्तेषां सार्द्धशतैर्भणम्।" जहो आभिणिवोहियणाणे चेव, सुअनाणे चेव।" स्था०३ ठा० 1 उ०। / तं०। नशमदेवलोकस्थे विमानभेदे, स०२० सम०। स्वेदे, दे० ना०६ आ० म० / नं०। विशे०। सम्म०। (व्याख्या स्वस्थस्थाने) (नैयायिक- वर्ग१ गाथा सम्मताना प्रत्यक्षज्ञानानां परोक्षत्वम् 'पच्चक्ख' शब्दे ऽरिमन्नेव भागे | पलअन० प्रलय नाशे, "पलओ निहणं नासो।' पाइ० ना० 167 गाथा। दर्शितम्। पलंघण न०प्रलड्धन पौनःपुन्येन कर्दमाऽऽदीनामतिक्रमणे, परोक्षज्ञानभेदाः ग० 1 अधि० / स्था०। अति विकटे पादविक्षेपे, प्रज्ञा०३६ - Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंघण 668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब झिज्झिरी वल्ली पलाशकः, सुरभिः किंशुकस्तयोः प्रलम्ब मूलम् / एवं तालप्रलम्बं च, सल्लकीप्रलम्ब, च शब्दादन्यदपि मूलं यल्लोकस्योपभोगमायाति तदेतद् मूलप्रलम्ब ज्ञातव्यमानुपूर्व्या। अथाऽग्रप्रलम्बं विवृणोतितलनालिएरलउए, कविट्ठ अंबाड अंबए चेव / एअं अग्गपलंब, नेयव्वं आणुपुव्वीए।।४५ / / तालफलं, नारिकेरफलं, लकुचफलं, कपित्थफलम. आम्रफलम्, चशब्दस्यानुक्तसमुचयार्थत्वादन्यदपि कदलीबीजपूराऽऽदिकम् एतदग्रप्रलम्ब ज्ञातव्यमानुपूर्व्या। अथ परः प्राऽऽहजइ मूलग्गपलंबा, पडिसिद्धान हु इयाणि कंदाई। कप्पंति न वा जीवा, को व विसेसो तदग्गहणे? // 46 / / यदि मूलप्रम्बागप्रलम्बे प्रतिषिद्धे, न पुनरिदानीमस्मिन् सूत्रे कन्दाऽऽदयः-कन्दस्कन्धत्वशाखाप्रबालपत्रपुष्पबीजानि प्रतिषिद्धानि, यतेश्चैतेषां प्रतिषेध न करोति सूत्रं ततो मदीयायां मतो प्रतिभासते.-- अवश्यमेते कन्दाऽऽदयः कल्पन्ते प्रतिगृहीतुंजीवा अपि सन्तः। अथवा-- तत्त्वतो नामी जीवा भवन्ति, यदि हिजीवा भवेयुस्ततः प्रतिषेधोऽप्यमीषामस्मिन सूत्रे कृतः स्यात, अथेत्थं भणिष्यन्ति भवन्तः--जीवा एवामी न कल्पन्ते ततः सूत्रं दुर्बद्धम्। अथववीध्वं जीवा अमीन चकल्पन्ते सूत्र च सुबद्ध, ततः को वा विशेषहेतुः, तेषां। कन्दाऽऽदीनामग्रहणे तेन गृहीता इति। पद / विस्तीर्णभूखाते, (प्रकृष्ट) पुनःपुनर्लङ्घने, भ०२ श०५ उ०। / उत्त०। पलंघंतिए अव्य०(प्रलड्धयितुम) पुनः पुनर्लङ्घययित्वेत्यर्थ, भ०। पलंडु पु०( पलाण्डु) (काँदा-प्याज) इतिख्याते कन्दविशेषे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। उत्त०। पलंब त्रि० (प्रलम्ब) प्रलम्बते इति प्रलम्बः / प्रलम्बमाने, राof "पलम्बकोरंटमल्लदामविसोहियं / " प्रलम्बते इति प्रलम्ब, तेन प्रलम्बमानेन कारण्टमाल्यादाम्ना कोरण्टपुष्पमालया उपशोभित प्रलम्बकोरण्टमाल्यदामोपशोभितम् / रा०। ईषल्लम्बमाने, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार।। ध० / जी० आ०म० / चले ओघ०।ज्ञा०। दीर्घ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। रा०। अतिदीर्घ, औ०। प्रलम्बत इति प्रलम्बः / आभरणविशेषे, आ० म०१०। झुम्बनके,ज०२वक्ष०ा औ०। कल्प०। नि० चूछ। उपा० / त्रयःषष्टितमे महाग्रहे, "दो पलंबा।" स्था०२ ठा० 3 उ० / कल्प० / चं० प्र०ा सू०प्र० / एकादशदेवलोकस्थविमानभेदे, स०१७ सम०। ओघ०। अहोरात्रस्याष्टमे मुहूर्ते, स०३० सम० शकटाऽऽदिकृते धान्याऽऽगारविशेषे, बृ० 2 उ०। ('मूलगुणपडिसेवणा' शाब्दे वनस्पति प्रतिसेवनाप्रस्तावे शुद्धपद्धलम्बभक्षण वक्ष्यते)"अकर्त्तरिच कारके संज्ञायाम्। / 3 / 3 / 16 / / इति घजप्रत्ययः / प्रलम्बते प्रकर्षण वृद्धिं याति वृक्षोऽस्मादिति / मुले. व्य०१ उ०। फले, स्था०४ ठा०१ उ०। (1) प्रलम्बग्रहणनिषेधःनो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए।।१।। बृ० 1 उ०३ प्रक० / नि० चू०। (निर्गन्थाऽऽमशब्दानां सनिक्षेपा व्याख्या स्वस्थाने) (2) अथ प्रलम्बपदं विवृणोतिनाम ठवणपलंब, दव्वे भावे अ होइ बोधव्वं / अट्टविहकम्मगंठी, जीवो उ पलंबए जेणं // 2 // नामप्रलम्ब, स्थापनाप्रलम्यं द्रव्यप्रलम्ब भावप्रलम्बं च भवति बोद्धव्यम् नामस्थापने सुगमे / द्रव्यप्रलम्बम् एकभविकबद्धाऽऽयुष्काभिमुखनामगोत्रभेदभिन्नं मूलोत्तरगुणभेदभिन्नं च; द्रव्यतालवद् भावप्रलम्ब च वक्तव्यम् / यद्वा-अष्टविधः कर्मग्रन्थिर्भावप्रलम्ब उच्यते इत्याह-येन कर्मणा जीवः, तुशब्दः संसारीति विशेषणार्थः / तालवत् प्रलम्बते नैरयिकाऽऽदिकां गतिं प्रति लम्बत इति तद्भावतः प्रलम्बम्। अत्र परः प्राऽऽह.. तालं तलो पलंब, तालं तु फलं तलो हवइ रूक्खो / पलंबं तु होइ मूलं, झिज्झिरिमाई मुणेयव्वं / / 43 / / किमिदं तालं, को वा तलः किं वा प्रलम्बम्? अत्र सूरिराह तालं च तावत्फलं, तलं वृक्षसंबन्धि, तच्चाग्रफलं प्रलम्बमुच्यते तलः पुनस्तदाधारभूतो वृक्षः / प्रलम्ब पुनर्मूलं भवति, प्रलम्बशब्देन इह मूलप्रलम्ब गृहीतमिति भावः / तच क्रियाऽऽदिक झिज्झिरिप्रभृति वृक्षसंबन्धि (मुणेयव्वं) ज्ञातव्यम्। / तदेव मूलप्रलम्बमाहझिज्झिरिसुरमिपलंवे, तालपलंबे अ सल्लइपलंवे। एवं मूलपलंब, नेयव्वं आणुपुव्वीए।।४४ / / अत्र सूरिः प्रतिवचनमाहचोयग! कन्नसुहे हिं, सद्देहिँ अमुच्छितो विसहें फासे। मज्झम्मि अट्ठ विसया, गहिया एवऽट्ठ कंदाई॥४७॥ हे नोदकः यथा दशवैकालिके-"कन्नसोक्खेहिँ सद्देहिं पेम नाभिनिवेसए। दारुणं ककसं फासं, कारण अहियासए।।१।।" इत्यस्मिन् श्लोक कर्णसुखैः सुश्रवः शब्दरमूर्छितो भवेदिति शब्दविषयो राग: प्रतिषिद्धः, विषहेत स्पर्श दारुणमित्यनेन तुस्पर्शविषयो द्वेष इति शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानामिष्टानिष्टरूपतया दशविधानां मध्यादिष्टशब्दानिष्टस्पर्शयोराद्यन्तयोरेतत्सूत्रलाघवार्थ ग्रहण कृतम् / अन्यथा ह्येवमभिधातव्यं स्यात्"कन्नसोक्खेहि सद्देहिं, पेमं नाभिनिवेसिए। दारुणं कक्कसं सह, सोएण अहियासए॥१॥ चक्खुसोक्खेहिँ रूपेहि, पेमं नाभिनिवेसए। दारूण कक्कसं रूवं, चक्खुणा अहियासए॥२॥" इत्यादि परमाद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणमितिन्यायादष्टावपि मध्ययर्तिनोऽनिष्टशब्दाऽऽद्या इष्टस्य शान्ता विषयागृहीता भवन्ति / एवमत्रापि सूत्र बृहत्तरमा भूदितिहेतोराद्यन्तयोरणमूलप्रलम्बयोहणे मध्यवर्तिनः कन्दाऽऽदयोऽष्टावपि गृहीता द्रष्टव्याः। एतेषां च मूलकन्दाऽऽदीनां दशानामपि भेदानां सुखप्रतिपत्त्यर्थमिय गाथा लिख्यते"मूले कंदे खंधे, तया य साले पवाल पत्ते य / Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब पुष्फे फले य बीए, फलंबसुत्तम्मि दस भेया॥१॥" प्रकारान्तरेण प्रतिवचनमाह-- अहवा एगग्गहणे, गहणं तजातियाण सव्वेसिं। तेणऽग्गपलंबेणं, तु सूइया सेसगपलंबा // 48 // अथवा 'एकग्रहणे तज्जातीयानां सर्वेषां ग्रहणं भवति' इति न्यायो यतः समस्ति, तेनाग्रप्रलम्बग्रहणेन, तुशब्दान्मूलप्रलम्बग्रहणेन च शेषाणि कन्दाऽऽदीनि प्रलम्बनानि सूचितानि / अथपुनरपि परःप्राहतलगहणा उ तलस्सा, न कप्पेसेसाण कप्पई नाम। एगग्गहणा गहणं, दिद्रुतो होइ सालीणं / / 46 // तलग्रहणादिति, उपलक्षणत्वात्तालप्रलम्बग्रहणात्तालस्यैव संबन्धीनि मूलकन्दाऽऽदीनि प्रलम्बानि न कल्पन्ते, शेषाणां पुनराम्राऽऽदीनां चलम्बानि कल्पन्त इत्यर्थादापन्नं, नामेति संभावनाया, सभाव्यते अयमर्थ इति भावः। सूरिराह-"एकग्रहणात् तज्जातीयानां सर्वेषा ग्रहणं भवति" दृष्टान्तः शालिसंबन्धी अत्र भवति-यथा निष्पन्नः शालिरित्युक्ते नेकएव शालिकणो निष्पन्नः प्रतीयते किं तु शालिजातिः, तथाऽत्रापि लालप्रलम्बग्रहणे न केवलस्यैव तालस्य, किं तु सर्वेषां वृक्षजातीयाना प्रलम्बा-युपात्तानि प्रतिपत्तव्यानि। अथपुनरपि प्रश्नयतिको नियमो उ तलेणं, गहणं अन्नेसिँ जेण न कयं तु। उभयमवि एइ भोग, परित्त साऊच तो गहणं // 50 // को नाम नियमस्तलेन तस्यैव ग्रहणं कृतं नान्येषां वृक्षाणाम्? सूरिराहतालस्य संबन्धि मूलाग्रप्रलम्बरूपमुभयमपि भोगमुपयोगमेति, तथा परीतं प्रत्येकशरीरं स्वादुच मधुरंतत् भवति, अतस्तत्प्रतिषेधे सुतरामनन्तकायिकाऽऽदीनां प्रतिषेधः कृतो भवति, ततस्तालस्य ग्रहणं कृतम् / इति गत प्रलम्बपदम् / बृ० 1 उ०२ प्रक०। (अथ भिन्नपदव्याख्या 'भिन्न' शब्दे करिष्यते) अत्र चतुभङ्गीमाह-- भावेण य दव्वेण य, भिन्नाभिन्ने चउक्कभयणाओ। षढमं दोहिं अमिन्नं, बिइयं पुण दव्वतो भिन्नं / / 51 / / तइयं भावतों भिन्नं,दोहि विभिन्नं चउत्थंग होइ। एएसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्दीए॥५२॥ भावेन च द्रव्येन च भिन्नाभिन्नयोश्चतुष्कभजनाचतुर्भङ्गीरचना कर्तव्या।। तत्र च प्रथमं प्रथमभङ्गवर्ति प्रलम्बं द्वाभ्यामपि भावेन द्रव्येण च अभिन्न, द्वितीय पुनर्रव्यतो भिन्न भावतस्त्वभिन्न, तृतीयं भावतो भिन्नं द्रव्यतः पुनरभिन्नं, चतुर्थं द्वाभ्यामपि भावतो द्रव्यतश्च भिन्न भवति / एतेषां चतुर्मामपि प्रायश्चित्तं यथानुपूर्व्या यथोक्तपरिपाट्या वक्ष्यामि भणिष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिलहुगा य दोसु दोसु य, लहुओ पढमम्मि दोहि वी गुरुगा। लवगुरुअ कालगुरुओ, दोहि वि लहुओ च उत्थो उ।।५३ / / प्रथमद्वितीययोर्द्धयोर्भङ्ग योश्चत्वारो लघुकाः, भावतोऽभिन्नतया | सचेतनत्वात् द्वयोस्तुतृतीयचतुर्थयोसिलघु, तथा प्रथमे भङ्गे ये चत्वारो लघुकारते द्वाभ्यामपि लघुकः-तपसा कालने चलधुकं. तत्र मासलघु द्रष्टव्यमित्यर्थः। उग्घाइया परित्ते, होति यऽणुग्घाइया अणंतम्मि। आणाऽणवत्थमिच्छा, विराहणा कस्सऽगीयत्थे? ||54 / / एतानि प्रायश्चित्तान्युद्धातिकानि लघुकानि परीते प्रत्येकप्रलम्बे भणितानि, अनन्ते अनन्तकार्य पुनरेतान्येवानुद्धातिकानि गुरुकाणि ज्ञातव्यानि, प्रथमद्वितीययोश्चत्वारो गुरुकाः, तृतीयचतुर्थयोस्तु - भड़योर्मासगुरु प्रायश्चित्तं, तपःकालविशेषितं पूर्ववद्वक्तव्यमिति भावः। तथा प्रलम्बं गृह्णता तीर्थकृताऽऽज्ञाभङ्ग कृतो भवति, अनवस्था मिथ्यात्वं विराधना च संयमाऽऽत्मविषया कृता भवति। शिष्यः पृच्छतिकस्यैतत्प्रायश्चित्तमाज्ञाऽऽदयश्च दोषाः? गुरुराह-अगीतार्थस्य निक्षोरित्येतच सप्रपञ्चमुपरिष्टाद-भावयिष्यते। अथ प्रलम्बग्रहणे विस्तरेण प्रायश्चित्त वर्णयितुकाम इमां द्वारगाथामाहअन्नत्थ तत्थ गहणे, पडिते अचित्तमेव सचित्ते। छुभणाऽऽरुहणा पडणे, उवही तत्तो य उड्डाहो / / 55 / / प्रलम्बग्रहण द्विधा अन्यय ग्रहणं, तत्र ग्रहणं च ! वृक्षादन्य-वान्यस्मिन् प्रदेशे ग्रहणम् अन्यत्रग्रहणम् / तत्रैव वृक्षप्रदेशे ग्रहण तत्रग्रहणम् / तथा पतितं वृक्षस्याधस्तात् यद् गृह्णाति तद् द्विधा अचित्त, सचित्तं च / तस्य पतितस्य प्राप्तौ वृक्षोपरिस्थित-प्रलम्बपातनाय (छुभण ति) काष्ठाऽऽदेः प्रक्षेपणम् / तथा प्राप्तौ-(आरुहण त्ति) तस्मिन् वृक्षे आरोहणं करोति, आरूढस्यच कदाचित्पतनं भवेत्, प्रलम्बं गृहन्तं दृष्ट्वा प्रान्तेन केनचिदुपाधिरपहियते, ततश्चोड्डाहः संजायत इतिगाथाऽर्थः। विस्तरार्श प्रतिद्वार विभणिषुः प्रथमतोऽन्यत्र ग्रहण वि-वृणोतिअण्णगहणं तु दुविहं, वसमाणे अडवि वसति अंतों बहिं / अंताऽऽवण तव्वजे, रत्थागिह अंतों पासे वा॥५६॥ अन्यत्र ग्रहणं द्विविधम्, तद्यथा-वसतौ, अटव्यांचा तत्र यद्वसतिप्रदेशे तद् द्विधा-ग्रामाऽऽदीनामन्तः, बहिश्च / यद् ग्रामाऽऽदीनामन्तस्तत् पुनर्द्विविधम्-आपणे, तद्वर्ये च / आपणे हट्टे, तत्र स्थितस्य प्रलम्बस्य यद् ग्रहणं तदापणविषयमा यत् पुनरापणवर्जे गृहे वा रथ्यायां वा गृह्णाति तत्तद्वर्जविषय, तत्र यदापणविषयं, तत्र यदापणस्यान्तर्वा भवेत् पार्श्वतो वा, यत्तद्वर्जविषयं तदपि रथ्याया गृहस्य वा अन्तर्वा भवेत्, पार्श्वतो वेति / एतच सर्वमपि द्विधा अपरिग्रह, सपरिग्रहं च। तत्राऽऽपणे तद्वर्जे वा अपरिग्रहे गृह्णानस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्विधं प्रायश्चित्तम्। तत्र द्रव्यतस्तावदाहकप्पट्ट दिढे लहुओ, अट्ठपत्ती य लहुग ते चेव / परिवड्डमाणे दोसे, दिट्ठाई अन्नगहणम्मि / / 57 / / कल्पस्थः समयपरिभाषया बालक उच्यते, तेन प्रलम्बमचित्तै गृह्णानो यदि दृष्टस्तदा मासलघु / अथ संयतं प्रलम्बं गृहन्तं दृष्टवा कल्पस्थकस्योत्पत्तिरहमपित्तिरहमपि गृह्णामीत्येवंलक्षणा भवति ततश्चतुर्लघवः / अथ न कल्पस्थेन, किंतुमहतापुरुषेणप्रलम्बंगृह्णानोदृष्टस्तदा (तेचेवत्ति)तएव चत्वारो Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 700 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब लघवः / अथ तस्यात्पर्थोपयत्तरेहमपि गृह्णामीति ततोऽपि चत्वारो लघवः / अत्र च ये दृष्टाऽऽदयः परिवर्द्धमाना दोषा अन्यत्र ग्रहणे भव- | न्तिताननन्तरगाथया वक्ष्यमाणान् श्रृणुत। तानेवाऽऽहदिद्वे संका भोइऍ, घाडिनियाऽऽरक्खिसेट्टिराईणं। चत्तारि छच लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च / / 56 / / युवादिना महता पुरुषेण प्रलम्बानि गृह्णन् दृष्टः चतुर्लघु, तस्तस्य शङ्का / जायते--कि सुवर्णाऽऽदिकं गृहीतं उत प्रलम्ब, तदाऽपि चतुर्लघु, निःशङ्किते चत्वारो गुरवः / अथ असौ(भोइय ति) भोजति भरिमिति भोजिका भार्या, तस्याः कथयति-प्रिये! मया संयतः फलानि गृह्णानो दृष्टः इत्युक्ते यदि तया प्रतिहतोमैवं वादी संभवत्येवेदृशं महात्मनि साधाविति। ततश्चतुर्गुरुकमेव। अथ तया न प्रतिहतस्ततः षड् लघयवः, अस्तीतरः संबन्ध इति कृत्या प्रथम भोजिकाया अग्रे कथयतीति एवं मित्रादिष्वापि मन्तव्यम् / ततो (घाडि त्ति) घाटः संघाटः सौहृतमित्येकोऽर्थः / स विद्यतेऽस्येति घाटी सहजा ताकऽदिर्वयस्य इत्यर्थः / तस्याग्रे तथैव कथयति, तेनापि यदि निहतस्तदा षड् लघव एव / अथ न प्रतिहतस्ततः षड् गुरवः ततो निजमातापित्रादयस्तेषां कथयति, तैः प्रतिहतः षड् गुरव एव अप्रतिहते पुनः छेदः, तत आरक्षिकेनाऽऽरक्षिकपुरूषैर्वा तस्य सकाशादन्यतो वा प्रलम्बग्रहणवृत्तान्ते श्रुते ततः प्रतिहते एव अप्रतिहते पूनमूलं, तत श्रेष्ठिनः श्रीदेव्याध्यासितसौवर्णपदृविभूषितोत्तमाङ्गस्य तस्य बृत्तान्त श्रवणे तेन च प्रतिहते मूलभेव, अप्रतिहतेऽनवस्थाप्यम्, ततो राज्ञोपलक्षणत्वादमात्येन च ज्ञाते ततः प्रतिहतेऽनवस्थाप्य, प्रतिहते पाराश्चिकं, पश्चार्द्ध यथाक्रमममीषामेव प्रायश्चित्तान्यभिहितान्येव, नवरं (दुर्ग ति) अनवस्थाप्यपाराश्चिकद्वयम्।। एवं ता अदुगंछिअ, दुगुंछिए लसुणमाइ एमेव।। नवरिं पुण चउलहुगा, परिग्गहे गिण्हणादीया / / 56 / / एवं तवादजुगुप्सिते आमाऽऽदौ प्रलम्बे गृह्यमाणे प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यं, जुगुप्सिते पुनरिदं नानात्वम्। जुगुप्सितं द्विधाजातिजुगुप्सितं, स्थानजुगुप्सितं च / तत्र जातिजुगुप्सितं लशुनाऽऽदि,आदिग्रहणे पलाण्दप्रभृतिपरिग्रहः / स्थानजुगुप्सितं पुनरशुचिस्थाने कर्दमरऽऽदौ पतितम द्विविधेऽपि जुगुप्सिते एवमेव जुगुप्सितवत् प्रायश्चित्तं वक्तव्यं, नवरं केवलं पुनः कल्पस्थकदृष्ट जुगुप्सितं, गृह्णानस्य चतुर्लघवोऽत्र ज्ञातव्याः, अजुगुप्सितं पुनः कप्पट्टे दिढे लहुग त्ति लघुमास एवोक्त इति विशेषः / एतच्च सर्वमप्यपरिग्रहमधिकृत्योक्तम् / (परिग्गहे गिग्रहणादीय ति) यत्पुनः प्रलम्ब कस्याऽपि परिग्रहे वर्तते, तस्मिन् जुगुप्सिते वा अजुगुप्सिते वा प्रायश्चित्तं तथैव वक्तव्यं, पर यस्य शिष्याऽऽदेः परिग्रहे तानि प्रलम्बानि वर्तन्ते, तत्कृतो ग्रहणाऽऽकर्षणव्यवहाराऽऽदयो दोषा अत्राधिका भवन्तीति / गतं द्रव्यतः प्रायश्चित्तम्। अथ क्षेत्रतः कालतश्च प्ररूपयतिखेत्ते निवेसणाई, जा सीमा लहुगमाइ जा चरिमं / केसिंची विवरीयं, काले दिण अट्ठहिं सपदं // 60 / / क्षेत्रतो निवेशनमादौ कृत्वा यावत् ग्रामस्य सीमा, एतेषु स्थानेषु गृह्णानस्य लघुकाऽऽदिकां यावचरिमं पाराश्चिकम् / किमुक्तं भवति? निवेशने महापरिवारभूतग्रहसमुदायरूपे गुह्णाति चत्वारो लघवः, पाटके गृह्णते चत्वारो गुरवः, संहि कायां गृहपतिरूपायां गृह्णति, षट् लघवः एवं ग्राममध्ये षट् गुरवः, ग्रामद्वारे छेदः ग्रामस्य बहिर्मूलम्, उद्याने अनवस्थाप्य, ग्रामसीमायां पाराश्चिकं केषाशिदाचायाणां मतन विपरीतमुक्तविपर्यस्त प्रायश्चित्तम्। तद्यथा-सीमायामन्यग्रामे वा गृह्णाति चतुर्लघु, उद्याने चतुर्गुरु, ग्रामबहिर्षड् लघु, ग्रामद्वारे षड्गुरु ग्राममध्ये छेदः, साहिकायां मूलं, पाटके अनवस्थाप्यं, निवेशने पाराश्चिकमिति। तथा काले कालविषयं प्रायश्चित्तम् अष्टमे दिने स्वपदं पाराञ्चिकम् / इयमत्र भावनाप्रलम्बानि गृह्णतः प्रथमे दिवसे चत्वारो लघवः, द्वितीये चत्वारो गुरवः तृतीये षड् लघवः चतुर्थे षड्गुरवः, पञ्चमे छेदः, षष्ठे मूलं, सप्तमे अनवस्थाप्यम्, अष्टमे पाराश्चिकम्। अथ प्रकारान्तरेण क्षेत्रत एव प्रायश्चितमाहनिवें सणवाडगसाही, ग्राममज्झे अगामदारे य। उजाणे सीमाए, अन्नग्गामे य खेत्तम्मि।।६१॥ क्षेत्रे प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमिदम्-निवेशने चतुर्लघु, पाटके चतुर्गुरु, साहिकायां षड् लघु, ग्राममध्ये षड् गुरु, ग्रामद्वारे छेदः, उद्याने मूलं, सीमायाम् अनवस्थाप्यम्, अन्यग्रामे पाराश्चिकम्। अथ भावतः प्रायश्चित्तमाहभावाट्ठवारसपदं, लहुगाई मीस दसहि चरिमं तु / एमेव य बहिया वी, सत्थे जत्ताइठाणेसु॥६२ / भावे अष्टभिर्वा पदैः स्वपदं पाराश्चिकम् / किमुक्तं भवति? एकं वार प्रलम्बानि गृह्णाति चत्वारो लघवः, द्वितीयं वारं चत्वारो गुरवः, तृतीय वारं षड् लघवः, चतुर्थं वारं षड् गुरवः, पञ्चमं वारं छेदः, षष्ट धारं मूलं, सप्तमं वारम् अनवस्थाप्यम्, अष्टमं वारं गृह्णतः पाराश्चिम् / एतका सर्वमपि सचित्तप्रलम्बविषयं भणितं, मिश्रप्रलम्बे तु गृह्यमाणे लघुमासाऽऽदिक दशभिः: स्थानः चरम पाराश्चिकम् / तद्यथा-मिश्रप्रलम्ब गृह्णाति, कल्पस्थकेन दृष्टमासलघु, महता पुरुषेण दृष्ट शङ्कायां मासलघु, निशङ्के मासगुरु, भोजिकायाः कथने चतुर्लघु, घाटिनो निवेदने चतुर्गुरु ज्ञातीनां ज्ञापने षड्लघु, आरक्षिकाणां निवेदने षड्गुरु, सार्थवाहज्ञाते छेदः, श्रेष्टिकथने मूलम्, अमात्यस्य निवेद्यते अनवस्थाप्यं, राज्ञो ज्ञापिले पाराञ्चिकम् / एतद् द्रव्यतः प्रायश्चित्तम् / क्षेत्रतः पुनरिदम् निवेशने मासलघु, पाटके मासगुरु, साहिकायां चतुर्लधुग्राममध्ये चतुर्गुरु ग्रामद्वारे षडलघु ग्रामबहिः षड्गुरु, उद्याने छेदः, उद्यानसीम्नोरन्तरे मूलं. सीमायामनवस्थाप्यं सीमायाः परतोऽन्यग्रामाऽऽदौ पाराश्चिकम् कालतः पुनः प्रथमे दिवसे मासलघु, द्वितीये मासगुरु, एवं यावद्दशभिर्दिवसैः पाराश्चिकम् / भावतः प्रथम वारं गृह्णतो मासलघु द्वितीय मासगुरु / एवं यावद्दशभिवरिः पाराश्चिकम् / गतसापणतद्वर्जभेदात द्विविधमपि ग्रामान्तर्विषयं ग्रहणम्। अथ ग्रामबहिभावि ग्रहणमाह-“एमेव य" इत्यादि पश्चार्द्धम् / एवमेव बहिरपि ग्रामस्य गहण भणितथ्य, त पुन Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 701 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब बहिर्ग्रहणम / (सत्थे त्ति) सार्थो वासस्थाने वा भवेत्, यान्नाऽऽदिस्थाने वा यात्रास्थानं तत्र लोक उद्यानिकाऽऽदियात्रया गच्छति। आदिशब्दादन्यस्याप्येवंविधस्थानस्य परिग्रहः / अथ बलिग्रहणे प्रायश्चित्तमिति दर्शयन्नाहअंतो आवणमाई, गहणे जा वणिया सवित्थारा। बहिया उ अन्नगहणे, पडियम्मी होइ सचेव // 63 / / ग्रामाऽऽदीनामतमध्ये आपणाऽऽदौ आपणे आपणवर्ज वा जुगुप्सिते अजुगुप्सिते वा सपरिग्रहे अपरिग्रहे वा सविस्तारा "दिट्टे संका भोइ'' इत्यादि लक्षणप्रपासहिता वर्णिता, शोधिरित्युपस्कारः। सैव ग्रामाऽऽटोना बहिः पतितप्रलम्बविषयेऽन्यत्र ग्रहणे निरवशेषा द्रष्टव्या / उक्तं बहिग्रहण तणनेच समर्थितं च सत्प्रदेशविषयं ग्रहणम्। अथाटवीविषयमाहकोट्टगमाई रणे, एमेव जणो उ जत्थ पुंजेइ। तहियं पुण वच्चंते, चउपयभयणा उछद्दसिया॥६४|| जनो लोकः प्रचुरफलायामटव्यां गत्वा फलानि यावत् पर्याप्तं गृहीत्वा यत्र गत्या शोषयति पश्चाद् गन्त्रीपोट्टलकाऽऽदिभिरानीय नगराऽऽदौ विक्रीणाति तत्कोट्टकमुच्यते, ततश्चारण्ये कोट्टकाऽऽदौ प्रदेशे यत्र जनः फलानि शोषणार्थ पुञ्जयति पुञ्जीकरोति, तत्र प्रलम्बग्रहणे एवमेव यथा- ''वसिमे दिले संका भोइए''इत्यादिकमुक्तं तथैव प्रायश्चित्त - भवसातव्यम् / विशेषः पुनरयम्-तत्र पुनः कोट्टकाऽऽदौ ब्रजतः चतुर्भिः पदैर्भजना भङ्ग करचना षट्दशिका षोडशभङ्गप्रमाणा कर्त्तव्या। कथमिति चेत्? उच्यतेवचंतस्स य दोसा, दिया य राओ य पंथ उप्पंथो। उवउत्त अणुवउत्ते, सालंव तहा निरालंबे // 65 // तत्र व्रजतो बहवो दोषा भवन्ति, ते चोपपरिष्टादश भणिष्यन्ते; दिवा च, रात्रिश्च, पन्था उत्पथश्च, उपयुक्तः,अनुपयुक्तः, सालम्बस्तथा निरालम्बश्चेति अक्षरयोजना। अथ भावार्थ उच्यते-दिवा गच्छतिपथा उपयुक्तः सालम्बः१, दिवा गच्छति पथा उपयुक्तो निरालम्बः२, दिवा गच्छति पथा अनुपयुक्तः सालम्बः३, दिवा गच्छति पथा अनुपुयक्तो निरालम्बः 4 / एव-मुत्पथपदेनापि चत्वारो भङ्गाः प्राप्यन्ते। जाता अष्टौ भङ्गाः / एते दिवा पदममुञ्चता लभ्यन्ते / एवं रात्रिपदममुञ्चताऽप्यष्टौ भङ्गाः लभ्यन्ते। सर्वसंख्यया षोडश भङ्गाः। अमीषां रचनोपायमाहअट्ठग चउक्क दुग ए- क्वगं च लहुगा य होति गुरुगा य / सुद्धा एगंतरिया, पढमरहिय सेसगा तिण्णि // 66 // इहाक्षाणां चतरत्रः पड़ क्तयः स्थाप्यन्ते-तत्र प्रथमपट् तौ प्रथममष्टौ लघुकाः, ततोऽप्यष्टौ गुरुका इत्येवं षोडशाक्षा निक्षेपणीयाः। द्वितीयपङ् क्तौचत्वारः प्रथम लघुकाः, ततश्चत्वारो गुरुकाः, पुनश्चत्वारो लघुकाः, तदनु चत्वारो गुरुकाः। तृतीयपड् क्तावपि षोडशाक्षाःद्वौलघुको, द्वौ गुरुकावित्यनेन क्रमेण निक्षेप्याः चतुर्थपड़ क्त येको लघुक एको गुरुक एवमेकान्तरितलधुगुरुरूपाः षोडशैवाक्षाः स्थापयितव्याः। एवमन्यत्रापि भङ्गकारतारे यत्र यावन्तो भड़कास्तत्र तावदायामः चरमपङ्क्तावेकान्तरितानामर्वाक्तनपड्क्तिषु पुनर्द्विगुणद्विगुणानां लघुगुरूणामक्षाणां निक्षेपः कर्त्तव्यः उक्तं च- ''भंगपमाणाऽऽयामो, लहुओ गुरुओ य अक्खनिक्खेवो / आरउ दुगुणा दुगुणा, पत्थारे होइ निक्खेयो / / 1 / / " एतेष्वेव शुद्धाशुद्धस्वरूपं दर्शयति-(सुद्धा एगंतरिया इत्यादि) प्रथमे भङ्ग काष्टके प्रथमभङ्ग रहिताःशेषास्त्रयो भङ्ग का एकान्तरिताः शुद्धाः। इदमुक्त भवति-प्रथमो भङ्ग कश्चतुर्ध्वपि पदेषु निरवद्यत्वादेकान्तेन शुद्ध इति न काचित् तदीया विचारणा। तं मुक्त्वा ये प्रथमाष्टके शेषा भङ्गकास्तेषाम् एकान्तरितस्तृतीयपञ्चमसप्तमरूपास्त्रयः क्वचिदुत्पथाऽऽदौ पदे अशुद्धा अपि सालम्बनत्वात् शुद्धाः प्रतिपत्तव्याः। अर्थादापन्नं द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमभङ्ग का दिवाऽऽदौ पदे शुद्धा अपि निरालम्बनत्वादशुद्धाः। एवं द्वितीयाष्टकेऽपि प्रथमो भङ्गः शुद्धः शेषास्त्रय एकान्तरिता अशुद्धाः, सालम्बनत्वात्। अत एवाऽऽहपढमे एत्थ उ सुद्धो, चरिमो पुण सव्वहा असुद्धो उ। अवसेसा वि य चउदस, भंगा भइयव्वगा हों ति॥६७|| प्रथमो भङ्गोऽत्रैषां षोडशानां भङ्गानां मध्ये शुद्धः सर्वथा निर्दोषश्वरमः अशुद्धः, अवशेषाश्चतुर्दश भङ्गा भक्तव्या विकल्पयितव्या भवन्ति, केचित्पुनरशुद्धा इति भावः। कथमिति चेत्? उच्यतेआगाढम्मि उ कजे, सेस असुद्धो वि सुज्झए भंगो। न विसुब्भे अणगाढे, सेसपदेहिं जइ वि सुद्धे // 68|| आगाढे कार्ये पुष्टे आलम्बने गच्छतः शेषेराव्युत्पथानुपयुक्तल-क्षणैः पदैरशुद्धोऽपि भङ्ग शुद्ध्यति, अनागाढे आलम्बनाभावे शेषैर्दिवापथोपयुक्तलक्षणैः पदैर्यद्यपि शुद्धस्तथापि न विशुद्ध्यति। अथ किं तत्र प्रायश्चित्तं भवतीति ? उच्यतेलहुगा य निरालंबे, दिवसतो रत्तिं हवेति चउगुरुगा। लहुगो य उप्पहेणं, रायादी चेवऽणुवउत्तो // 66 // यत्र यत्र निरालम्बस्तत्र तत्र दिवसे गच्छतःचत्वारो लघुकाः, रात्रौ चत्वारो गुरुकाः, यत्र यत्र दिवसत उत्पथेन गच्छति तत्र तत्र मासलघु, यत्र यत्र दिवसत ईप्रिभृतिसमितिष्वनुपयुक्तो गच्छति तत्र तत्र मासलघु रात्रावुत्पथगमने अनुपयुक्तगमने च भासगुरु / अथ प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमाहदियओ लहुगा गुरुगा, आणा चउगुरुग लहुगा य / संजमआयविराहण, संजमें आरोवणा इणमो॥७०।। अशुद्धेषु भङ्गेषु सर्वेष्वपि दिवसतो गच्छतश्चत्वारो लघुकाः, रात्रौ पुनश्चत्वारो गुरुकाः, तीर्थकराणामाज्ञाभङ्गे चतुर्गुरूकाः,अनवस्थायां चत्वारो लघुकाः, मिथ्यात्वेऽपि चत्वारो लघुकाः अत्र चानवस्थामिथ्यात्वे प्रक्रमाद् द्रष्टव्ये / विराधना द्विविधा-संयमे, आत्मनि च / तत्र संयमविराधनायामियं वक्ष्यमाणा आरोपणा प्रायश्चित्तम्। तामेवाऽऽहछक्काएँ चउसु लहुगा, परित्ते लहुगा य गुरुग साहारे। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 702 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब अथ महादुःखमुत्पद्यते ततः षड्लघु, मूर्छा-मूर्छषड्गुरु कृच्छ्रप्राणे छेदः, कृच्छ्रे मूल, मारणन्तिकसमुद्धाते अनवस्थाप्य, कालगते पाराञ्चिकम्। अथाऽऽतमविराधनायामेव सामान्यतः प्रायश्चित्तमाहकंटऽट्ठिमाइएहिं, दिवसतो सव्वत्थ चउगुरु होति। रत्तिं पुण कालगुरु, जत्थ व अन्नत्थ आयवहो / / 7 / / कण्टकास्थिकाऽऽदिभिः परितापनायां सर्वत्र दिवसतश्चतुर्गुरवो भवन्ति / रात्रौ पुनस्तएव चतुर्गुरवः कालगुरूका ज्ञातव्याः, अन्यत्राऽपि यत्राऽऽत्मवध आत्मविराधना भवति तत्र सर्वत्राऽपि चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तम्। तथा संघट्टणे “परितावणे, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं / 71|| षट्कायाः पृथिव्यपतेजोवायुवनस्पतिरत्रसरूपाः, तेषां मध्ये चतुर्षु पृथिव्यप्तेजोवायुषु संघटनाऽऽदौ लघुकपर्यन्तं प्रायश्चित्तम् / परीत्ते' प्रत्येकवनस्पतिकायेऽपि लघुकान्तं,साधारणे अनन्तवनस्पती गुराकान्तम्। तथा द्वीन्द्रियाऽऽदीनां संघट्टने परितापने च यथायोग लघुका गुरुकाश्च प्रायश्चित्तम् / अतिपातने विनाशने मूलम् इयमत्र भावनापृथिवीकार्य संघट्टपति मासलघु, परितापयति मासगुरु, अपद्रावयति चतुर्लघु, एवमप्काये तेजःकाये वायुकाये प्रत्येकवनस्पतिकाच द्रष्टव्यम् / अनन्तवनस्पति यदि संघट्टयति तदा मासगुरु, परितापयति चतुर्लधु, आपद्रावयति, चतुर्गुरु, द्वीन्द्रियं संघट्टयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, जीविताव्यपराग तिषड्लघु, त्रीन्द्रियं संघट्यतश्वतुर्गुरु, परितापयतः षड्लघु, जीविताव्यपरोपयतः षड्गुरु, चतुरिन्द्रियं संघट्टयतः षट्लघु, परितापयतः षड्गुरु, जीविताद्व्यपरोपयतः छेदः पञ्चेन्द्रियं संघयतः षड्गुरु, परितापयतो लघुमासिकःछेदः, अपद्रावयतो मूलम्। अथैतदेव प्रायश्चित्तं रात्रौ विशेषयन्नाहजहिँ लहुगा तहिँ गुरुगा, जीहँ गुरुगा कालगुरुग तहिँ ठाणे। छेदो य लहुय गुरुओ, काए साऽऽरोवणा रत्तिं / / 72 / / यत्र दिवसतो लघुकानि मासलघुचतुर्लघुषट्लघुरूपाणि, तत्र रात्रावतान्येव गुरुकाणि मासगुरूचतुर्गुरूषड्गुरुरूपाणि कर्तव्यानि।यत्र पुनरग्रेऽपि गुरुकाणि मासाऽऽदीनि तत्र स्थाने तान्येव कालगुरुकाणि दातव्यानि। यत्र च छेदो लघुकस्तत्र स एव गुरुकः कर्तव्यः / काये कायविषया एषा आरोपणा रात्री ज्ञातव्या। अथाऽऽत्मविराधनामाहकंटऽट्ठिखाणुविजल-विसमदरीनिन्नमुच्छसूलविसे। वालऽच्छभल्लकोले, सीहविगवराहमेच्छित्थी॥७३।। तेणे देवे मणुस्से, पडिणीए एवमाइआएसुं। मास चउ छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च // 74|| स साधुः कोट्टकाऽऽदौ व्रजन् कण्टकेन वा अस्थ्ना वा स्थाणुना वा पादयोः परिताप्येत; (विजल) पङ्किलं, विषमं निम्नोन्नतं, दरी कुसाराऽऽदिका निमं गम्भीरा गर्ता; एतेषु पतितस्य मूर्छा भवेत्, शूलं वा अनुधावेत, (विसं ति) विषकण्टकेन वा विध्येत, विषफलं वा भक्षयेत्. तथा व्यालेन सर्पाऽऽदिना अच्छभल्लेन वा ऋक्षेण कोलेन वा सूकरेण सिंहेन वा वृकेण वा वराहेण वोपरूद्वयेत, म्लेच्छपुरुषः अप्रीतितया प्रहाराऽऽदिकं दद्यात् स्त्री वा तं साधुमुपसर्गयेत् / अथवा-म्लेच्छस्त्री पुलिन्दीप्रभृतिका तमुपसर्गयेत्, तन्निमित्तं म्लेच्छः कुपितो बधबन्धाऽऽदि कुर्यात्। स्तेनो द्विविधः-शरीरस्तेनः, उपधिस्तेनश्चातेनोपद्रवः क्रियते देवता वा प्रान्ता तं साधु प्रमत्तं दृष्ट्वा छलयेत्। अपरो वा कोऽपि प्रत्यनीको मनुष्यो विजनमरण्यं मत्वा मारणाऽऽदि कुर्यात् / एवमादिका आत्मनि विराधना भवति / तत्रेदं प्रायश्चित्तम्- "मास चउ' इत्यादि पश्वार्द्धम् / कण्टकाऽऽदिभिरगाढ़ परिताप्यते चतुर्लघु, आगाढे परिताप्यत चतुर्गुरुः | पोरिसि नासणपरिता-वठावणं तेण देहउवहिगतं। पंतादेवयछलणं, मणुस्सपडिणीयवहणं च // 76|| कण्डकाऽऽदिना पीडितः सन सूत्रपौरूषी न करोति मासलघु, अर्थपौरूषी न करोतिमासगुरु, सूत्रं नाशयति चतुर्लघु अर्थनाशयति चतुर्गुरु। (परितावत्ति) अनागाढपरितापे चतुर्लघु, आगाढपरितापे चतुर्गुरु, (ठावण त्ति) अनाहारं परिस्थापयति चतुर्लघु, आहारं परिस्थापयति चतुर्गुरु परीत्तं स्थापयति चतुर्लघु, अनन्तं स्थापयतिचतुर्गुरु, अस्नेह स्थापयति चतुलघु, सस्नेह स्थापयति चतुर्गुरु। तथा (तेण त्ति ) उपधिरनेनास्तैरुपधेराहियमाणे उपधिगत जघन्यभध्यमोत्कृष्टोपधिनिष्पन्न प्रायश्चित्तम्। देहस्तेनाः शरीरापहारिण स्तैरेकः साधुः हियते मूलं, द्वयोहियमाणयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु हियमाणेषु पाराश्चिकम् प्रान्तया देवतया यदि छलनं क्रियते ततश्चतुर्गुरू, प्रत्यनीकमनुष्येण पुरुषेण स्त्रिया नपुंसकेन वा हन्येत चत्वारो गुरवः। अथ प्रकृतमर्थमुपसंहरन्नर्थान्तरमुपन्यम्यन्नाहएवं ता असहाए, सहायसहिए इमे भवे भेदा। जय अजय इत्थि पंडे, अस्संजयसंजईहिं वा / / 77 / / एवं तावदसहायस्य एकाकिनो व्रजतो दोषा उक्ताः, सहायसहितेव्रजति विचार्यमाणे एते सहायरय भेदा भवन्ति।तद्यथा-यताः संयताः अयताः असंयताः (इत्थि त्ति) पाखण्डिस्त्रियः, पण्डका नपुंसकाः, असंयत्यो गृहस्थस्त्रियः, संयत्थः साध्व्यः, एतैः सार्द्ध गच्छति। इदमेव व्याचष्टे - संविग्गाऽसंविग्गा, गीया ते चेव होंति अग्गीया। लहुगा दोहि विसिट्ठा, तेहि समं रत्ति गुरुगाओ // 78) संविग्ना गीतार्थाः, असंविना अगीतार्थाः, एतैः सम गच्छता द्वाभ्या तपःकालाभ्यां विशिष्टा लघुकाः प्रायश्चितं / तद्यथा-संविग्नैर्गीतार्थः सम व्रजति चत्वारो लघवस्तपसा कालेन च गुरुलधुकाः। असंविगैर्गीतार्थः समं गच्छति चतुर्लघवः, तपसा लघुकाः कालेन गुरुकाः संविगैरगीतार्थःसार्द्ध याति चतुर्लघु, कालेन लघु तपसा गुरु, असंविगैरगीतार्थः समं व्रजति चतुर्लघु, तपसा कालेन च गुरु। एतद्विवसतो ज्ञातव्यं, रात्री तैः समं व्रजत एवमेव तपःकालविशेषिताश्चतुर्गुरुकाः। अस्संजयलिंगीथिउ, पुरिसागिइपंडएहि य दिवा उ। अस्सोय सोय छल्लहु, ते चेव उ रत्ति गुरुगाओ // 76|| Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 703 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब अरुंधता द्विविधाः- गृहिणो, लिङ्गिनश्च / लिङ्ग मेषां विद्यत इति लिङ्गिनः, अन्ये पाखण्डिन इत्यर्थः / तथा पुरुषाऽऽकृतयःपुरुषनेपथ्यधारिणः पण्डकाः, एते त्रयोऽपि प्रत्येक द्विविधाः - शोचवादिनः,अशीचवादिनश्च / तत्र शौचवादिभिः समं व्रज ति षडलघु, उभयलघुक, शौचवादिभिः सम व्रजति षड्लघु, कालगुरुकम्, अन्यलिङ्गिभिरशौचवादिभिः सार्द्ध व्रजति षड्लघु, काललघुकं, शौचयादिभिः समं व्रजति षड्लघु, तपोगुरुक पुरुषाऽऽकृतिभिः पण्डकैरशाचवादिभिः समं व्रजतिषड्लघु, तपोगुरुकं, शौचवादिभिः समं द्रजतिषड्लधु,तपसा कालेन च गुरुकम्: एतदिवस-तः प्रायश्चित्तमुक्तम्, रात्रौ तु त एव षण्मासा गुरुकाः षड्गुरवस्त-पःकालविशेषिता एवमेव दातव्या इति भावः। पासंडिणित्थि पंडे, इत्थीवसेसु दिवसतो छेदो। तेहिं चिय निसि मूलं, दियरत्ति दुगं तु समणीहिं / / 8 / / तापसीपरिव्राजकाऽऽदिभिः पापण्डिनीभिः (इत्थि त्ति) गृहस्थस्त्रीभिः, स्त्रीवेषधारिभिश्च पण्डकरशौचवादिभिः सह दिवसतो गच्छतो लघुकः छेदः, शौचवादिभिः सह गुरुकश्च्छेदः, तैरेव सह निशि रात्री गच्छतो मूल, श्रमणीभिः समं दिवा गच्छतोऽनवस्थाप्य, रात्रौ श्रमणीभिः सह गच्छति पाराञ्चिकम्। प्रकारान्तरेणाऽत्रैव प्रायश्चित्तमाह-संयतास्तैः सार्द्ध दिवा गच्छति चतुर्लघु, रात्रौ गच्छति चतुर्गुरु, असंयतैः सार्द्ध दिवा गच्छति षड्लघु, रात्रौ गच्छति षड्गुरु, असंयतीभिः समं दिवा व्रजति छेदः, रात्री गच्छति मूलं, संयतीभिः सह दिवसतो गच्छति अनवस्थाप्यं, रात्रौ गच्छति पाराश्चिकम् / तदेवमुक्तमटवीविषय ग्रहणं, तदुक्ती चावसिलमन्यत्र ग्रहणम् प्रलम्बग्रहणम्। अथ तत्र ग्रहण विभावयिषुरुक्तार्थसदृशं विधिमतिदिशन्नाहजह चेव अन्नगहणेरण्णे गमणाऽऽइ वणियं एयं। तत्थ गहणे वि एवं, पडियं जं होइ अच्चित्तं / / 1 / / यथैवान्यत्र ग्रहणे अरण्यविषयं षोडशभङ्गरचनया गमनम्, आदिशब्दात्संयमाऽऽत्मविराधनासमुत्थं दोषजालं प्रायश्चित्तं चैतदनन्तरमेव वर्णितं, तत्र ग्रहणेऽपि विवक्षितप्रलम्बाऽऽधारभूतं वृक्षस्याधः पतितं यदचित्त प्रलम्बं तद्ग्रहानस्याप्येवमेव निरवशेष वर्णनीयं यावत् श्रमणीभिः सह गमनमिति। यस्तु विशेषस्तमुपदिदर्शयिषुराहतत्थ ग्गहणं दुविहं, परिग्गहमपरिग्गहं दुविहभेयं / दिट्ठादपरिगहीए, परिगहिएँ अणुग्गहं कोइ / / 2 / / तत्र ग्रहणं द्विविधम् / तद्यथा-सपरिग्रहम, अपरिग्रहं च / यद्देवताऽऽदिभिः परिगृहीतं वृक्षाऽऽदि तद्विषयं सपरिग्रहम, तद्विपरीतमपरिग्रहम, तदुभयमपि द्विविधभेदं द्विविधेन सचित्ताचित्तभेदपार्थक्यं यस्य तत् द्विविधभेदं, सचित्ताचित्तभेदभिन्नमिति भावः। तत्र यदि परिगृहीतमचित्तं तद् गृह्णानस्य (दिट्ठा इति)"दिढे संका भोइए' इत्यादिका आरोपणा सर्वाऽपि प्राग्वद् द्रश्व्या / यत्पुनः परिगृहीतमचित्तं तद् गृह्णतः कश्चिद् भद्रकः परिगृहीता अनुग्रहं मन्येत, एतदग्रतो भावविष्यते। अथ सपरिग्रहस्यैव स्वरूप निरूपयितुमाह तिविह परिग्गह दिव्वे, चउलहु चउगुरुग छल्लहुक्कोसो। अहवाछल्लहुग चिय, अंतगुरू तिविहदव्वम्मि।।८३॥ सपरिग्रह त्रिविधम् / तद्यथा-देवपरिगृहीतं, मनुष्यपरिगृहीतं, तिर्यक परिगृहीतम् / तत्र दिव्यं देवपरिगृहीतं तत्त्रिविधम् जघन्यं, मध्यमम्, उत्कृष्ट च / व्यन्तरपरिगृहीतं जघन्यं, तत्र चतुर्लघु, भवनपतिज्योतिष्कपरिगृहीतं मध्यमम, तत्र चतुर्गुरु. वैमानिकपरिग्रहीतम् उत्कृष्टम् / तत्र षड्लघवः / अथवा त्रिष्वपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टषु षड लघव एव प्रायश्चित्तं, केवल तपःकालविशेषितं, जघन्ये तपोलघु कालगुरुक, मध्यमे काललघु तपोगुरुकम्, अन्त्ये चोत्कृष्ट द्वाभ्यामपि गुरुकं कर्त्तव्यमिति त्रिविधं दिव्यविषयं प्रायश्चित्तम्। अथ मनुष्यपरिगृहीतमाहसम्मेतर सम्म दुहा, सम्मे लिंगि लहु गुरु उ गिहिएसुं / मिच्छा लिंगि गिही वा, पागयलिंगीसु चउलहुगा / / 4 / / भनुष्यपरिगृहीतं द्विधासम्यग्दृष्टिपरिगृहीतम्, (इयर त्ति) मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतं च / तत्र यत्सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तद् द्विधापार्श्वस्थाऽऽदिलिङ्गस्थपरिगृहीतं च, गृहस्थपरिगृहीतं च / लिङ्गस्थपरिगृहीते मासलघु, गृहिभिः सम्यग्दृष्टिभिः परिगृहीते मासगुरु, यत्पुनर्मिथ्यादृष्टिपरिगृहीत तद् द्विविधम्-(लिंग त्ति) अन्य-पाखण्डिपरिगृहीतं, गृहस्थपरिगृहीतं च / तत्र गृहस्थपरिगृहीतं त्रिधा-प्राकृतपरिग्रहीतं, कौटुम्बिकपरिगृहीतं, दण्डिकपरिगृहीतं च / तत्र प्राकृतपरिगृहीते च चतुर्लधु। गुरुगा पुण कोडुंबे, छल्लहुगा होंति दंडियाऽऽरामे / तिरिया य दुट्ठऽदुहे. गुरुगा इयरे य चउ लहुगा / / 8 / / कौटुम्बिकपरिगृहीते पुनश्चत्वारो गुरुकाः, दण्डिकाऽऽरामे दण्डिकपरिगृहीते उद्याने षट् लघुकाः / गतं मनुष्यपरिगृहीतम् / अथ तिर्यकपरिगृहीत भाव्यतेतिर्यञ्चः द्विविधाः-दुष्टाः, अदुष्टाव। दुष्टा हस्तिशुनकाऽऽदयः,अदुष्टा शृगालहरिणाऽऽदयः। दुष्टतिर्य-कपरिगृहीते चतुर्गुरुकाः, इतरैरदुष्टः परिगृहीते चतुर्लघुकाः / गतं तिर्यक्परिगृहीतम्। अथ यदुक्तम्-'परिगहिए अणुग्गह कोइ" इति। तदेतद्भवयतिभवेतर सुरमणुया, भद्दे धिप्पंति दठुणं भणइ। अन्ने वि साहु ! गिण्हसुं, पंतो छण्हेगयर कुज्जा / / 6 / / यस्य सुरस्य मनुजस्य वा परिगहे सा आरामो वर्तते स भद्रको भवेदितरो वा प्रान्तः / तत्र भद्रः प्रलम्ब गृह्यमाणं दृष्ट्वा तं साधु भणति-साधु त्वया कृतं, तारिता वयं संसारसागरात्,अन्यान्यपि हे साधो! पर्याप्तानि गृहाण इत्यादि। प्रान्तः पुनः षण्णां प्रकाराणामेकतरं कुर्यात्। __ अथक एते षट् प्रकाराः? उच्यतेपडिसेहणा खरंटण, उवलभ पंतावणा य उवहिम्मि। गिण्हणकवणववहा-रपच्छकडुड्डाहनिव्विसए।।७।। प्रतिषेधनं प्रतिषेधना, निवारणेत्यर्थः 1 खरण्ट ना खरपरुष वचनै निर्भत्सना 2, उपालम्भः सपिपासवचनैः शिक्षा 3. प्रान्तापना यष्टि मुष्ट्यादिभिस्ताडना, (उवहिम्मि त्ति) उपधिह Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 704 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब रणम् 5 इति पञ्च भेदाः / ग्रहणाऽऽकर्षणव्यवहारपश्चात्कृतोड्डाहनिर्विषय | इत्येक एवषष्ठो भेदः / इति संग्रहगाथासभासार्थः / अथैनामेव विवरीषुराहजं गहियं तं गहियं, बिइयं मा गिण्ह हरइ वा गहियं / जायसु ममं व कज्जे, मा गिण्ह सयं तु पडिसेहो // 88|| यद् गृहीतं प्रलम्ब तद्गृहीतं नाम द्वितीय पुनरि मा गृहीरिति वयन यद्वक्ति, यद्वा-गृहीतं सत्प्रलम्बं तस्य प्रव्रजितस्य हस्तात् हरति उद्दालयति, भणति वा कार्य समापतिते मामेव याचस्व, स्वयं पुनर्मा गृहाणेत्येष सर्वोऽपि प्रतिषेध उच्यते। अथ खरण्टनामाहघी मुंडितो दुरप्पा, धिरत्थु ते एरिसस्स धम्मस्स।। अन्नत्थ वा विलजिसि, मुक्कोऽसि खरंटणा एसा / / 8 / / धिग् मुण्डितो दुरात्मा, धिगस्तु ते तव संबन्धिन ईदृशस्य धर्मस्य, यत्र चौर्य क्रियय इति भावः / यद्वा-मया मुक्तोऽसि परमन्यत्रापि त्वमीदृशैश्चेष्टितैर्विडम्बना लप्स्यसे, एषा निष्पिपासनिर्भर्सना खरण्टना भण्यते। उपालम्भमाहआमफलानि न कप्पं-ति तुम्ह मा सेसए वि दूसेहि। मा य सकले मुज्झसु, एमाई होउवालंभो / / 60|| आम्रफलानि युष्माकं ग्रहीतुं न कल्पन्ते, अतः शेषानपि साधून मा दूषय निजदुश्चरितेन सकलङ्कितान् कुरु, मा च स्वकार्य निरवद्यप्रवृत्यात्मके चारित्रे मुहः, एवमादिक: सपिपासशिक्षारूप उपालम्भो भवति। प्रान्तापनोपधिहरणे भावयतिकरपायदंडमाइसु,पंतावणि गाढमाइ जा चरिमं / अप्पो अ अहाजाओ, सव्वो दुविहो विजं च विणा !||1|| करपाददण्डाऽऽदिभिः, आदिशब्दात लताऽऽदिभिश्च ताडनं प्रतापना, तस्यां चानागाढपरितापाऽऽदिषु चरमं पाराश्चिकं यावत्प्रायश्चित्तम्। अल्पं वा बहुं वा स उपधिं हरेत् / अल्पो नाम यथा-जातः, निषद्याद्वयोपेतं रजोहरणं मुखवस्त्रिका चोलपट्टश्चेत्यर्थः / बहुः पुनः सर्वश्चतुर्दशविध उपधिः / अथवा-द्विविध औधिकौपरिग्रहिकरूपः। यच तृणग्रहणाऽऽदिकम् उपधिं विना भवेत्तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। संप्रत्यनुग्रहाऽऽदिपदेषु प्रायश्चित्तमाहलहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिऐं गुरुग तीस ठाणेसुं। पंतावणे चउगुरुगा, अप्पबहुम्मी हिए मूलं / / 12 / / यस्य संबन्धी स आरामः स यदि चिन्तयति-अनुग्रहो मे यन्मदीयानि प्रलम्बानि साधवो गृह्णन्ति, इत्यनुग्रहे मन्यमाने चतुर्लघवः। अथ प्रीतिक करोति तूष्णीकस्तिष्ठति ततश्चतुर्गुरुकाः / अथाप्रीतिकवशात्प्रतिषेधं खरण्टनामुपालम्भं वा कुर्यात्ततस्त्रिष्वपि स्थानेषु प्रत्येक चतुर्गुरुकाः / अल्पे वा बहौ वा उपधौ हृते मूलम् / यद्वा-उपधिनिष्पन्नम् / तद्यथाउत्कृष्ट उपधौ चतुर्लधवः, मध्यमे मासलघु, जघन्ये रात्रिन्दिवपञ्चकम्। आह-कथ-मेकत्रैव मूलमुपधिनिष्पन्नं चा? उच्यते-प्रमादतः प्रलम्बानि गृह्णत उपधिहरणे उपधिनिष्पन्नं, दर्पतस्तु प्रलम्बानि गृह्णानस्यो- पकरणापहारे मूलम्। अथ 'पंतावणिगाढमाइ चरमं पि" पदव्याचष्टपरितावणा य पोरिसि, ठवणा महऍ मुच्छकिच्छकालगए। मास चउ छच लहु गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च / / 3 / / प्रान्तापितस्य सतोऽनागाढा परितापना भवति चतुर्लघु, आगाढा भवति चतुर्गुरु परितापनाभिभूतः सन् सूत्रपौरुषी न करोतिमासलघु, अर्थपौरुषी न करोति मासगुरु, सूत्र नाशयति चतुर्लघु, अर्थ नाशयति चतुर्गुरु, प्राशुकं स्थापयति चतुर्लघु, अप्राशुकं स्थापयति चतुर्गुरु, प्रत्येकस्थापने चतुर्लघु, अनन्तस्थापने चतुर्गुरु, इत्यादि प्राग्वद्वक्तव्यम् / (महय त्ति) महादुःखेषड्लघु, मूछाया षड्गुरु कृच्छ्रमाणे छेदः, कृच्छोच्छ्वासे मूलं, समवहते अनवस्थाप्यं, कालगते पाराञ्चिकम्। अथ यच्च तृणग्रहणाऽऽदिकमुपधिना विना भवेदिति पदं विवृणोतितणगहणे सुसिरेतर, अग्गी सट्ठाण अभिनवे जं च। एसण पेलण गहणे, काया सुय मरणओहाणे ||14|| वर्षाकल्पाऽऽदावुपकरणे हृते शीताभिभूतास्तृणानि गृह्णन्ति सेवन्ते, तत्र शुषिरतृणसेवने चतुर्लघु, अशुपिरतृणसेवने मासलघु, अग्नि सेवन्ते तत्र स्वस्थानप्रायश्चितं चतुर्लघु इत्यर्थः। अथाभिनवमग्निं जनयन्ति मूलं, यचाग्निसमारम्भे अन्येषां जीवानां विराधनं तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चितम्। अथोपकरण भावे उद्गमाऽऽदिदोषदुष्ट वस्त्राऽऽदि गृह्णन्त एषणां प्रेरयन्ति ततस्तन्निष्पन्न (गहणे ति) शीताऽऽदिभिः परिताप्यमाना गृहस्थैरदत्तमपि वस्त्राऽऽदि गृह्णीयुस्तन्निष्पन्नम्। निशीथचूर्णिकृता तु 'गमणे ति" पाठो गृहीतस्तत्र चोपधिं विना शीताऽऽदि परीषहमाणो जघन्यवीर्थिकष्येकः मार्ग गच्छति मूलं, द्वयोर्गच्छतोरनवस्थाप्यं, त्रिषु धाराञ्चिकम् (काय त्ति) अग्निं सेवमाना एषणां प्रेरयन्तो यावत्पृथिव्यादिकायान विराधयन्ति तन्निष्पन्नम्। (सुय त्ति) श्रुतं सूत्रं तस्य पौरूषीं न कुर्वन्ति, उपलक्षणत्वादर्थपौरूषीं न कुर्वन्ति, सूत्रं नाशयन्ति अर्थ नाशयन्ति, तन्निष्पन्नम् / (मरण त्ति) उपकरणं विना योकोऽपि म्रियते तथाऽपि पाराञ्चिकम् / (ओहाण त्ति) यद्येकः साधुरवधावति मूलं, द्वयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु पाराञ्चिकम्। अथ ग्रहणाऽऽकर्षणाऽऽदिरूपं षष्ठं प्रकार भावयतिगेण्हण गुरुगा छम्मास कड्डणे छेदों होइ ववहारे। पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण विरुंगणे नवमं / / 5 / / उद्दवणे निव्विसए, एगमणेगे पदेस पारंची। अणवट्ठप्पा दोसु अ, दोसु च पारंचिओ होइ॥६६|| प्रलम्बानि गृह्णानो यदि प्रलम्बस्वामिना दृष्ट्वा गृहीतस्ततो ग्रहणे चतुर्गुरूकाः, अथ तेनोपकरणे हस्ते वा गृहीत्वा राजकुलाभिमुख.. माकृष्टस्तत आकर्षणे षण्मासा गुरवः, अथ कारणिकानां समीपे व्यवहारे कारयितुमारब्धः ततः छेदः व्यवहारे विधीयमाने यदि पश्चात्कृतः पराजितः ततो मूलम्, अथ चतुष्कचत्वराऽऽदिष्वेप प्रलम्वचौर इति घोषणापुरस्सरमुद्दग्धः हस्तपादाऽऽदौ वा अवयवे व्यङ्गितस्तत एवमुद्दहने (विरुंगणे त्ति) व्यङ्गने वा नवममनवस्थाप्यम्। अथान्यायोदीर्ण के योऽनलेन राजाऽऽदिना अपद्रावितो निर्वि Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 705 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब षयो वा आज्ञप्तः, ततोऽपद्रावणे निर्विषये वा कृते पाराञ्चिकम् / अथवाएकस्यानेकेषां वा साधूनामुपरि प्रदेषं यदि व्रजति तदा पाराञ्चिकम् / अत्र चद्वयोरुद्दहनव्यङ्गनयोरनवस्थाप्यो भवति, द्वयोश्वापद्रावणनिर्विषययोः पाराञ्चिक इति। अथ परिग्रहविशेषेण प्रायश्चित्तविशेषमाहआरामें मोलकीए, परतित्थिय भोइएण गाम वणी। घडकोडुं वियराउल-परिग्गहे चेव भद्वितरा ||7|| इहाऽऽरामः कश्चिदादित एवाऽऽत्मीयो वा भवेत, मूल्येन क्रीतो वा, यो / मूल्येन क्रीतः स केन क्रीती भवेत् ? उच्यते परतीर्थिकन वा 1, भोगिकेन वा 2, ग्रामेण वा 3, वणिजा वा 4, घटया वा, गौष्ट्या इत्यर्थः 5, कौटुम्बिकेन वा 6, आरक्षिकेण वा 7, राज्ञा वा 8 / एतद् द्वयमपि राजकुलशब्देन गृहीतम् / एतेषां परिग्रहे वर्तमानादारामात्प्रलम्बानि गृह्णतो यथाक्रमं प्रायश्चितं चतुर्लघु 1, चतुर्गुरू २,षड्लघु 3, षड्गुरु 5, छेदा 5 मूलम् 6, अनवस्थाप्यं 7, पाराञ्चिकम् / अत्रापि त एवं भद्रेतरा भद्रकप्रान्तकृता अनुग्रहप्रतिषधाऽऽदयो दोषा वक्तव्याः / एतत्सर्वमयाचिते प्रलम्बे द्रष्टव्यं, याचिते तु ग्रहणाऽऽकर्षणाऽऽदिदोषान् विना शेषमिति / एतावता वृक्षस्याधः प्रपतितमचित्तं व्याख्यातम्। अथसचित्ताऽऽदिद्वारचतुष्टयमभिधित्सुराहएमेव य सचित्ते, छुमणा अरोहणा य पडणा य। जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं / / 6|| यथा-अचित्ते "दिव संका" (56) ग० / इत आराभ्य "आरामे मोल्ल०" (67) ग० / इतिपर्यन्तं भणितम् / एवमेव सचित्तेऽपि द्रष्टव्यम्। प्रक्षेपणमारोहणं पतनमित्येतान्यपि द्वाराणि तथैव वक्तव्यानि यत्पुनरत्र नानात्वं विशेषस्तदहं वक्ष्ये समासेन। तत्र सचित्ते तावद्विशेषमाहतं च सचित्त दुविहं, पडियापडियं पुणो परित्तियरं / पडितऽसति अपावंते, छुभई कट्ठाइए उवरि ||6|| तत्पुनः सचित्तं द्विविधम्-पतितमपतितं च। पुनरेकैकं च द्विधा-परीत प्रत्येकम्, इतरत् अनन्तं च / अत्र पतितस्यासत्यभावे वृक्षप्रतिष्ठितेऽपि हस्ताऽऽदिना अप्राप्यमाणे ततः प्रलम्बपातनार्थ काष्ठाऽऽदीन्युपरि क्षिपति। तत्र यद् वृक्षोपरि स्थितं भूमिस्थितो हस्तेन गृह्णाति,तत्र प्रायश्चित्तमाहसजियपयट्ठिएँ लहुगो, सजिए लहुगा य जत्तिया गाहा। गुरुगा होति अणंते, हत्थप्पत्तं तु गेण्हते॥१००। सजीववृक्षप्रतिष्ठितमचित्तफलं गृह्णाति मासलघु, अत्र च यावतो ग्राहान् करोति तावन्ति मासलघुकानि। अथ सजीवं सचित्तवृक्षप्रतिष्ठितंगृह्णाति चतुर्लधु, सचित्तप्रतिष्ठितप्रत्ययं च मासलघु, तत्रापि यावतो ग्राहान् करोति तावन्ति चतुर्लघूनि, मासलघूनि च, एतत्प्रत्येके भणितम्। अनन्ते पुनरेतान्येव प्रायश्चितानि गुरुकाणि, मासगुरुचतुर्गुरुरूपाणि भवन्ति, एवं भूमिस्थितस्य वृक्षस्थितं हस्तप्राप्त प्रलम्बं गृह्णतः प्रायश्चित्तमुक्तम् / अथ यदुक्तम् - "छुभई कट्ठाईए उवरि ति" तदेतद्विवरीषुराह छुभमाण पंचकिरिए, पुढवीमाई तसेसु तिसु चरिमं / तं काय परिचयई, आवडणे अप्पगं चेव / / 101 / / प्रलम्बपातनार्थ काष्ठलेष्टुशुष्कंगोमयाऽऽदिकं गवेषयति चतुर्लघु, काष्ठाऽऽदिकं लब्ध्वा वृक्षाभिमुखं क्षिपति, चतुर्लघव एव / स च क्षिपन्नेव पञ्चक्रियः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः / तद्यथा-कायिक्या 1, आधिकरिणिक्या 2, प्रादेषिक्या 3, पारितापनिवया 4, प्राणातिपातिक्रियया चेति 5 / पृथिव्यादिषु च जीवेषु संघट्टनापरितापनाऽपद्रावणैर्लघुमासाऽऽदिक प्रायश्चित्तं यथास्थानं ज्ञातव्यम्। (तसेसु तिसु चरिमं ति) त्रिषु पञ्चेन्द्रियरूपेषुत्रसेषु व्यपरोपितेषु चरम पाराशिकम्। तथा काष्ठाऽऽदिकं क्षिपन तं कायं वनस्पतिलक्षणं नियमादेव परित्यजति, स च लगुडाऽऽदिरूद्ध क्षिप्तः शाखाऽऽदौ प्रतिस्खलान्निवृत्तस्तस्यैव शरीराभिमुखमायाति तस्यापतना / आत्मानं परित्यज्यतीति। कथं पुनः पृथिव्यादिकायानां विराधको भवतीति ? उच्यतेपावंते पत्तम्मि उ, पुणो पडते य भूमिपत्ते य। रयवासविज्जुमाई, वायफले मच्छिगाइ तसे // 102 / / तत् काष्टाऽऽदिकं हस्ताच्च्युतं सत् याववृक्षेनाऽऽस्फालति, तावत्प्राप्नुवत् भण्यते, तस्मिन् प्राप्नुवति तथा वृक्ष प्राप्ते पुनः पतति च भूमिप्राप्ते च षट्कायविराधना ज्ञातव्या / कथमिति चेदित्याह-(रय इत्यादि) आदिशब्दः प्रत्येकंसंबध्यते। ततश्च रजःप्रभृतिकं पृथिवीकार्य, वर्षोदकाऽऽदिकमकाय, विद्युदादिक तेजःकाय, वातं च तत्रैव वान्त, फलानि तस्यैव वृक्षस्य सत्कानि, उपलक्षणत्वात्पत्राऽऽदीन्यपि, मक्षिकाऽऽदीश्च त्रसान् विराधयति। इदमेव स्पष्टयन्नाहखोल्लतयाईसु रओ, महिवासोस्साऽऽइ अग्गि दवदड्डे। तत्थेवऽनिल वणस्सइ, तसा उ किमिकीडसउणाई॥१०३।। "खोल्लं ति" देशीशब्दत्वात् कोटरं, त्वक् प्रतीता, तदादिषु स्थानेषु वृक्षे रजः प्रभृतिकं पृथिवीकायविराधना, महिकायां निपतन्त्यां वर्षे, अवश्याये वा निपतति, आदिग्रहणेन हरतन्तुकाऽऽदिसंभवे अप्कायविराधना च, दवाऽऽदिनाऽग्रिना दग्धे वृक्षे, उपलक्षणत्वात् विद्युति वाऽग्निकायविराधना, तत्रैवानौ नियमादनिलो वायुः संभवतीति वायुकायविराधना, वनस्पतिः स एव प्रलम्बलक्षणः पत्रपुष्पाऽऽदिच त्रसास्तु कृमिकीटशकुनाऽऽदिका विराध्यन्ते, कृमयो विष्ठाऽऽदिसमुद्भवाः, कीटिका घुणाऽऽदयः शकुनाः काककपोताऽऽदयः, आदिग्रहणेन सरटाऽऽदिपरिग्रहः / एवं वृक्षमप्राप्ते काष्ठाऽऽदौ षट्कायविराधना, एवमेव प्राप्ते पुनः पतिते भूमि प्राप्तेऽपि ज्ञातव्यम्। यत आहअप्पत्ते जो उगमो, सो चेव गमो पुणो पडतम्मि। सो चेव य पडियम्मी,निकंपे चेव भोमाऽऽई॥१०४।। य एवाप्राप्ते गमः प्रकार: स एव गमः पुनः पतति, उपलक्षणत्वात्प्राप्ते ऽपि भूयो गमः, एवशब्दो चारणं षट् कायविराधनां प्रतीत्याऽऽत्यन्तिक तुल्यताख्यापनार्थम् / स एव च भूमी Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 706 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब पतितेऽपि काष्ठाऽऽदौ प्रकारः प्रतिपत्तव्यः केवलम् (निक्कपे चेव भोमाई ति) तत्काष्ठाऽऽदिकं महता भारगौरवेण "निकं पं निस्सह'' पृथिव्या यन्निपतति तेन भूम्यादीनां पृथिव्यादीनां महती विराधनेति चूर्णिकृदभिप्रायः / निशीथचूर्णिणकाराऽभिप्रायेण तु 'निळपे चेव भूमीए" इति पाठः / अस्य व्याख्यायस्यां भूमौ स्थितः काष्ठाऽऽदिक्षेपणाय विशिष्ट स्थानबन्धमध्यास्ते तत्राऽपि पादयोर्निष्कम्पत्वेन षण्णां कायानां विराधको भवति। एवं दव्वतों छण्णं, विराघओ भावओ उ इहरा वि। चिन्नइ हु धणं कम्म, किरियग्गहणं भयनिमित्तं / / 105 / / एवमेतेन प्रकारेण चतुर्ध्वप्यप्राप्ताऽऽदिपदेषु द्रव्यतः षण्णां कायानां विराधकः प्रतिपत्तव्यः, भावतस्तु इतरथाऽपि द्रव्यतो विराधना विनाऽप्यसौ षट्कायविराधको लभ्यते, संयम प्रति निरपेक्षतया तस्य भावतः प्राणातिपातसद्भावात् / भावप्राणातिपाते च यथा घनं निविड कर्म चीयते न तथा द्रव्यप्राणातिपातेन / आह-यदु-क्तम्-पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टरतत्कथं संवादमश्नुते, यावता यदि निवारयति तदा कायिकी अधिकरिणिकी च क्रिये संभवतः, अथ विराधयति तदेताश्चतस्रो भवेयुः, प्रादेषिकी पुनः कथं भवेत् ? सूरिराह-क्रियाग्रहण भयनिमित्तं भयजननार्थ क्रियते येन साधवः क्रियापञ्चकाऽऽपत्तिदोषभीता मूलत एव प्रलम्बग्रहणे न प्रवर्त्तन्ते। यद्वा-दृष्टिवादनयाभिप्रायनैपुण्यात् यत्रैका क्रिया तत्र पञ्चापि क्रियाः संभवन्तीति नदोषः। यदाह निशीथचूर्णिणकृत "अहवा अत्थ एगो किरिया तत्थ दिट्टिणयनयसुहुमत्तणओ पंच किरियाओ भवति, अतो पंचकिरियागहणे न दो सा।" एवं तावत्संयमविराधना भाविता। (3) अथाऽऽत्मविराधनां भावयतिकुवणउ पत्थर लेट्ठू, पुव्वं छूढे फले व पवडते / पञ्चप्फालणें आया, अच्चायामेण हत्थाऽऽई॥१०६।। अन्येन केनचित्प्रलम्बार्थिना पूर्वं (कुवणउत्ति)लगुडः क्षिप्तः, स तत्रैव वृक्षशाखायां विलग्नः सन् वायुप्रयोगेण, विवक्षितसाधुक्षिप्तकाष्ठाऽऽदिप्रयोगेण वा सञ्चालितस्तस्यैव सा धोरुधरि निपतन विराधना कुर्यात्, एवं प्रस्तरः पाषाणो, लेष्टुरिष्टकाशकलं, मृत्तिकापिण्डो वा पूर्व क्षिप्तः पतेत्. फलं वृन्तच्युतं वृक्षात्प्रपतेत्, तस्यैव काष्ठाऽ देः प्रतिनिवृत्तस्वस्वसंमुखं प्रत्यास्फालने आत्मविराधना भवेत्, अत्यायामेन चातीव हस्तमुच्छ्रयाणेन लगुडाऽदौ क्षिप्यमाणे हस्ताऽऽदेः परितापना भवेदिति / गत क्षेपणद्वारम्। अथाऽऽरोहणाखिवणेऽवि अपावंतो, दुरुहइ तहिँ कंटविच्छु अहिमाई। पक्खितरच्छाइवहो, देवत खित्ताऽऽइकरणं च / / 107 / / तत्थेव य णिट्ठवणं, अंगेहिँ समोहएहिँ छक्काया। आरोवण सच्चेव य, गिलाणपरितावणाऽऽईया।।१०८।। काष्ठाऽऽदेः क्षेपणे कृतेऽपि यदा प्रलम्बानि न पतन्ति तदाऽधः स्थितस्तान्यप्राप्नुवन्नलभमानस्तं वृक्षं (दुरुहइत्ति) आरोहति, स च यावद्धि बहुक्षेपकैरारोहति तावन्ति चतुर्लघुकानि, अगन्ते पुनश्च जुर्गरुकाणि, तत्र वृक्ष आरोहतो यत्कण्ट कैर्विध्यते, यच वृश्चिकेन अहिना वा, आदिशब्दानकुलाऽऽदिना वा दश्यते, यच पक्षिभिः श्येनाऽऽदिभिग्तर दवादिभिश्वाटव्यजीवेर्बधो भवति, यया वा देवतया अधिष्ठितोऽसौ वृक्षस्तया यदसौ साधुः क्षिप्तचित्तः क्रियते / आदिग्रहणेनापरया कयाचिद्विडम्बनया विडम्ब्यते / यद्वा-सा देवता स्वाधिष्ठितवृक्षाऽऽरोहा कुपिता तत्रैव निष्ठापनम् आयुषः समापन तस्य यत् कुर्यात् / अथवा-तं साधुमारोहन्तमेव यत्पातयेत् एषा सर्वाऽऽप्यात्मविराधना, पातितरच च तस्याङ्गानि समवहन्यन्ते, भज्यन्त इत्यर्थः / तैरङ्गैर्हस्तपादाऽऽदिभिः समवहतैर्यत्रभूमावसौ पतति तत्र षट्काया विराध्यन्ते, तेषां च संघटनाऽऽदिभिरारोपणा सैव द्रष्टव्या। या 'छकायचउसु लहुगा'' इत्यादिगाथायामुक्ता आत्मविराधना, या च ग्लानविषया परितापनाऽऽदिनिष्पन्नाया आरोपणा, साऽपि प्राग्वदवसातव्या। गतमारोहणद्वारम्। (4) अथ पतनद्वारमाहमरणगिलाणाऽऽईया, जे दोसा होंति गेण्हमाणस्स। ते चेव य साऽऽरुवणा, पवडते होंति दोसा उ||१०६।। कदाचिदसौ तं वृक्षमारोहन् पतेत्, ततश्च मरणग्लानत्वाऽऽदिका ये दोषा आरोहतो भवन्ति, प्रपततोऽपि त एव दोषाः साऽऽरोपणाः सप्रायश्चित्तनिरवशेषा वक्तव्याः। ''पवडते होति सविसेसा'' इति निशीथचूर्णिलिखितपाठः / तत्रायमर्थः आरोहतो दोषाणां संभव एव भणितः, एतत् पुनरवश्यंभाविनो गात्रभङ्गाऽऽदयो दोषा इति सातिशेषग्रहणम् / गत पतनद्वारम्। (5) अथोपधिद्वारं विवृणोतितम्मूल उवहिगहणं, पंतो साहूण कोइ सव्वेसिं / तणअग्गिगहण परिता-वणा य गेलन्न पडिगमणं / / 110 // यस्य परिग्रहे तानि प्रलम्बानि तन्मूलं च ग्रहणनिमित्तं, तस्यैव साधोरुपधिग्रहणं कुर्यात् / यद्वा-कश्चित् प्रान्तः सर्वेषां साधूनामुपछि गृह्णीयात्। तत्र यथा जाते रजोहरणाऽऽदिके उपधौ हृतं मूलं, शेषे पुनरुत्कृष्ट चतुर्लघु, मध्यमे मासलघुजघन्ये पञ्चकम्, उपधिं विना तृणानि गृह्णीयात्, अग्निग्रहणं वा कुर्यात्, अग्नि सेवेतेति भावः। अथाग्नि न सेवते ततः शीतेन परितापः तस्य भवेत्, शीतेन वा भुक्ते अजीर्यमाणे ग्लानत्वं भवेत् शीताभिभूता वा साधवः पार्श्वस्थाऽऽदिषु प्रतिगमनं कुर्युः। संप्रत्यत्रैव प्रायश्चित्तमाहतणगहण अग्गिसेवण, लहुगा गेलण्ण होइ तं चेव। मूलं अणवठ्ठप्पो, दुग तिग पारंचिओ होइ।।१११।। अशुषिरतृणानि गृह्णीयात् चतुर्लघु, परकृ तमग्निं सेवते चतुर्लघु अभिनवमग्रिं जनयति मूलम्, अग्निशकटिकायां वा तापयन् यावतो वारान् हस्त वा संचालयति तावन्ति चतुर्लघूनि,यस्तु धर्मश्रद्धालुग्निं न सेवते स शीतेन ग्लानः सजायते, ग्लानत्वे चाऽनागाढपरितापनाऽऽदी तदेव प्रायश्चित्तम्। अथ शीतपरीषहमसहिष्णुः पार्श्वस्थाऽऽदिषु व्रजति चतुर्गुरु, यथा छन्देषु व्रजति चतुर्गुरू / यद्येकोऽवधावति अन्यतीर्थिकषु वा गति ततो मूलं, द्वयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु पाराशिकम् / गलमुपधिद्वारम् / Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 707- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब (6) अथोड्डाहद्वारं विवृणोतिअपरिग्गहिएँ पलंबे, अलभंतों समणजोगमुक्कधुरो। रसगेहीपडिबद्धो, इतरे गिण्हतो गहिओ य॥११२।। अपरिगृहीतानि प्रलम्बान्यलभमानः श्रमणयोगमुक्तधुरः परित्यक्तश्रमणव्यापारभार इति भावः / रसगृद्धिप्रतिबद्धः, इतराणि परिगृहीतप्रलम्बानि गृह्णन् प्रलम्बस्वामिना दृष्ट्वा गृहीतः। ततश्च महजणजाणणया पुण, सिंघाडगतिगचउक्कगामेसुं। उड्डहिऊण विसज्जितें, महजणणाए ततो मूलं / / 113 / / तेन प्रलम्बस्वामिना गृहीत्वा शृङ्गाटकत्रिकचतुष्करथानेषु ग्रामेषु वा | बहुगु नीत्य महाजनस्य पौरजनपदरूपस्य ज्ञापना कृता / यथा-एतेन नदीयानि प्रलम्बानि चोरितानीत्यादि महाजनस्य पुरत उड्डाहात् विसर्जिलो मुक्तस्तत एवं महाजने ज्ञाते सति मूलं नाम प्रायश्चित्तम् / कथमुद्दग्ध इत्याहएस उपलबहारी, सहोढ गहिओ पलंबठाणेसु। सेसाण वि बाधाओ, सविहोढविडंबिए होइ॥११४।। येनाऽऽरामाधिपतिना संप्रलम्बानि गृह्वानो गृहीतः, स रासभाऽऽरोपितं शृङ्गाटकत्रिकचतुष्काऽऽदिषु सर्वतः परिभ्रामयन्नेवमुद्धोषयतिभा भोः पौराः श्रूयतामस्य प्रव्रजितकस्य दुश्चरितम्-एष प्रलम्बहारी मदीयाऽऽरामसत्कप्रलम्सचौरः सहोढः सोपलब्धो गृहीतो, मया दुरात्मा प्रलम्बस्थानेष्वा रामप्रदेशेविष्वत्यादिघोषणापुरस्सरमितश्च नीयमानो महाजनेन सखेदमवलोक्यमानः स कृतेन कर्मणा विडम्व्यते / ततश्च सविहोर्ट सजुप्सनीयं यथा भवतीत्येवं विडम्च्यते, तस्मिन शेषाणामपि साधूनां व्याघातः-सर्वेऽप्यमी एवंविधा एवेति प्रभापरिभ्रंशो भवतीति व्याख्यातमुड्डाहद्वारम्। तह्याख्याने च समर्थिता 'अन्नत्थ तत्थ गहणे' इत्यादि-द्वारगाथा / अथ यदुक्तमधस्तात्- "आणाऽणवत्थमिच्छा, विराहणा कस्स गीयत्थो / ' तदिदानीं प्राप्तावसरं व्याख्यायते - तत्राऽऽझेतिद्वारं भगवता प्रतिषिद्धं यत्प्रलम्बन कल्प्यते तद्ग्रहणं कुर्वता भगवतामाज्ञाभङ्गः कृतो भवति, तम्मिश्चाऽऽज्ञाभङ्गे चतुर्गुरुकाः / वृ०१ उ०२ प्रक०। (आज्ञाद्वारम् आणा' शब्दे द्वितीय-भागे 121 पृष्ठे गलम्) | (7) अथानवस्थाद्वारमाहएगेण कयमकन्जं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो। सायाबहुल परंपर, वोच्छेदो संजमतवाणं / / 123 / / एकेन केनचिदाचार्याऽऽदिना किमप्यकार्य प्रमादस्थानं कृतं प्रतिसेवितं, ततोऽन्योऽपि तत्प्रत्ययादेव आचार्याऽऽदिः श्रुतधरोऽप्येवं करोति, नूनं नास्त्यत्र दोष इति तदेवाकार्य करोति, ततोऽपरोऽपि तथैव करोति, तदन्योऽपि तथैवेत्येवं सातबहुलानां सातगौरवप्रतिबद्धानां प्राणिनां परम्परया प्रमादस्थानमा-सेवमानानां संयमतपसो व्यवच्छेदः प्राप्नोति, यद्धि संयमस्थानं वा पूर्वाऽऽचार्येण सातगौरवगृध्नुतया वर्जित तत्पाश्चात्यैरदृष्टमिति कृत्वा व्यवच्छिन्नमेवेति। गतमनवस्थाद्वारम। (8) अथ मिथ्यात्वद्वारं विवृणोतिमिच्छत्ते संकाऽऽई, जहेय मोसिं तहेव सेसं पि। मिच्छत्ते थिरीकरणं, अब्भुवगमें वारणमसारं / / 12 / / मिथ्यात्व विचार्यमाणे शङ्काऽऽदयो दोषा वक्तव्याः / शङ्का नाम-किं मन्ये अमी यथा वादिनस्तथा कारिणो न भवन्ति, येन प्रलम्बानि गृह्णन्ति, आदिशब्दात्काक्षादयोदोषाः। तथा यथैतदनृतं, तथैव शेषमन्यदप्येतेषा मिथ्यारूपमेवेति चित्तविप्लुतिः स्यात्, मिथ्यात्वाद्वा चलितभावस्य राम्यक्वाभिमुखस्य प्रलम्बग्रहणदर्शनात् पुनरपि मिथ्यात्वे स्थिरीकरण भवति, अभ्युपगमं वा प्रव्रज्यायाः अणुव्रतानां वा, सम्यग दर्शनस्य वा कर्तुकामस्यापरः कश्चिद्वारण कुर्यात्-नैतेषां समीपे प्रतिपद्यस्व असारं निस्सारममीषा प्रवचनं मयेदं च दृष्टमिति / गतं मिथ्यात्वद्वारम्। (E)अथ विराधना। सा च द्विविधा-संयमे, आत्मनि च। द्वे अपि प्रागेव सप्रपञ्च भाविते, तथाऽपि विशेषमुपदर्शयितुमाहतं काय परिचयई, नाणं तह दंसणं चरित्तं च / वीयाऽऽईपडिसेवग, लोगो जह तेहिं सो पुट्ठो।।१२।। प्रलम्बं गृह्णन्तं तं कायं वनस्पतिलक्षणं परित्यजति, तथा-ज्ञानं दर्शन चारित्रं चेति बीजाऽऽदिप्रतिसेवको लोको यथा असंयमेन स्पृष्टः, तथा सोऽपि साधुस्तैः प्रलम्बैरासेवितैरसंयमेन स्पृष्ट इति नियुक्तिगाथाsक्षरार्थ। अथैनामेव विवरीषुराहकायं परिच्चयंतो, सेसे काए वए य सो चयई। णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो उ अन्नाणी // 126 / / प्रलम्बानि गृह्णानो वनस्पतिकार्य परित्यजति, तंच परित्यजन् शेषानपि कायानसौ भावतः परित्यजति, तत्परित्यागे च प्रथमव्रतपरित्यागः, प्रथमव्रतपरित्यागे च शेषव्रतपरित्यागोऽप्युपजायत इति व्रतान्यप्यसौ परित्यजतीत्युक्तम्। तथा ज्ञाने ज्ञानविषये परित्यागे चिन्त्यमाने ज्ञानोपदेशे क्रियाद्वारेणावर्तमानोऽसौ ज्ञान्यपि अज्ञानी मन्तव्यः। दंसणचरणा मूढस्स, नत्थि समया व नत्थि संमं तु / विरईलक्खण चरणं, तदभावे नत्थि वा तं तु // 127 / / ज्ञानाभावादसौ मूढो भवति, मूढस्य दर्शनचारित्रे न स्तः / यद्वाप्रलम्बग्रहणादस्य जीवेषु समतान विद्यते, समताया अभावाच सम्यक्तमपि नास्ति, तस्यापि सामायिकभेदतया समतारूपत्वात् विरतिलक्षण चरणं भणितं, तच लक्षणं प्रलम्बानि गृह्णतोन विद्यते, तदभावे लक्षणाभावे तत्तु तत्पुनश्चारित्रं नास्ति, वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतकः / अथ 'बीयाई" इत्यादि व्याख्यायतेफलाद्वीजं भवतीति कृत्वा बीजग्रहणम्। आदिशब्दारफलपुष्पपत्रप्रवालशाखात्वक स्कन्धकन्दमूलानि गृह्यन्ते / शिष्यः प्राऽऽहसर्वेऽपि वनस्पतयः मूलादेव एव भवन्ति, अतो 'मूलाई पडिसेवग' इति कर्तुमुचितं किमिति "बीयाई पडिसेवग" इति कृतम् ? सूरिराहपाएण बीयभोई, चोयग ! पच्छाऽणुपुटिव वा एवं ! Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 708 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब जोणिग्याते व हतं, तदादि वा होइ वणकाओ।।१२८|| लोकः प्रायेण बीजभोजी, तने कारणेन बीजमादौ कृतम् / यदा-हे नोदक! समये त्रिविधाऽनुपूर्वी प्ररूप्यते। तद्यथा-पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी च / त्रिविधाऽपि च यथावसरं व्याख्याङ्गमित्यत्र पश्चानुपूर्वी गृहीता / अथवा-बीजं वनस्पतिनो योनिरुत्पत्तिस्थानम्, अतस्तस्य घाते विनाशे सर्वमपि मूलाऽऽदिकं निरपेक्षतया हतं भवति / यदि वातदादिर्वनस्पतिकायो भवति, तबीजमादिर्यस्य स तदादिः, सर्वेषामपि वनस्पतीनां तत एवं प्रसूतेः, अतो बीजाऽऽदिग्रहणं कृतम्। ततश्चविरइसभावं चरणं, बीयासेवी हु सेसघाती वि। अस्संजमेण लोगो, पुट्ठो जह सो वि हु तहेव // 126 // यो बीजाऽऽसेवी स नियमात् शेषाणां मूलाऽऽदीनामपिघाती विज्ञेयो, यश्च मूलाऽऽदीनि घातयति तस्य विरतिस्वभाव यचरणं चारित्रं तन्न भवति। यथा च बीजाऽऽदिप्रतिसेवको लोकोऽसंयमेन स्पृष्टस्तथैवासावपि तैः प्रलम्बैरासेवितैरसंयमेन स्पृष्ट इति। गता संयमविराधना। (10) आत्मविराधनामाहतं चेव अभिहणेजा, आवडियं अहव जीहलोलुपता। बहुगाइं मुंजित्ता, विसूचिकाईहिँ आयवहो / / 130 / / तैलगुडाऽऽदिकं क्षिप्त पुनरापतितं सत् तमेव साधुमभिहन्यात, इदं च प्रागुक्तमपि स्थानाशून्यार्थमत्रोपात्तमिति न पुनरुक्तदोषः। अथवाजिह्वालोलुपतया बहुकानि प्रलम्बानि भुक्त्वा विसूचिकाऽऽदिभी रोगैरुत्पन्नैरात्मवधो भवति / उक्ताऽऽत्मविराधना। तदुक्तौ च व्याख्याता आज्ञाऽऽदयश्चत्वारोऽपि दोषाः। बृ०१उ०२ प्रक० / (गीतार्थेन गच्छसारणा न कर्तुं शक्यते इति 'गच्छसारणा' शब्दे तृतीयभागे 806 पृष्ठे उक्तम्) (प्रलम्बाधिकारे द्रव्यतः परीतमनन्तं वा येन लक्षणेन जानाति तदभिहितम्, 'अणंतजीव' शब्दे प्रथमभागे 263 पृष्ठे) (11) अथ ग्रहणद्वारम्चउभंगि गहणे पक्खे-वए अ एगम्मि मासियं लहुयं / गहणे पक्खेवम्मी, होति अणेगा अणेगेसु // 176| चतुर्भङ्गी ग्रहणे प्रक्षेपके च द्रष्टव्या। तद्यथा एकं ग्रहणम् एकः प्रक्षेपकः 1. एकं ग्रहणमनेके प्रक्षेपकाः 2, अनेकानि ग्रहणानि एकः प्रक्षेपकः 3, अनेकानि ग्रहणानि अनेके प्रक्षेपकाः४ / अत्रच हस्तेन यत् प्रलम्बमादानं तद् ग्रहणम्, यत्पुनर्मुखे प्रवेशनं स प्रक्षेपकः / तत्र प्रथमभङ्गे एकस्मिन् ग्रहणे प्रक्षेपके च प्रत्येकं मासलघु। द्वितीयभङ्गे एकस्मिन् ग्रहणे मासलघु, प्रक्षेपस्थाने यावतः प्रक्षेपकान करोति तावन्तिमासलघूनि। तृतीयभङ्गे तु यावन्ति ग्रहणानि तावन्ति मासलघुकानि,प्रक्षेपकविषयस्त्वेको मासलघु। चतुर्थभङ्गे अनेकेषु ग्रहणेषु प्रक्षेपकेषु वाऽनेकान्येव मासलघुकानि, एतच सामाचारनिष्पन्नं मन्तव्यम् / यत्पुनर्जीवघातनिष्पन्नं चतुर्लधुकाऽऽदिकं तत् स्थितमेव / एतच ग्रहणप्रक्षेपकनिष्पन्न प्रायश्चित्तं / यथा केवली जानाति तथा गीतार्थोऽपीति / गतं ग्रहणद्वारम्। (12) अथ तुल्ये रागद्वेषाभाव इति द्वारम्। तत्र शिष्यः प्राऽऽहपडिसिद्धा खलु लीला, विइए चरिमे य तुल्लदव्येसुं। निद्दयता वि हु एवं, बहुघाए एगें पच्छित्तं / / 177 / / अहो भगवन्तो रागद्वेषाध्यासितमनसः। तथाहि-तुल्यद्रव्येषु, समानेऽपि प्रलम्बद्रव्याणां जीवत्वे इत्यर्थः द्वितीयभने एकफलस्य, चरमभङ्गे बहूनां फलानां बहून् वारान प्रक्षेपं करोतीति बहूनि मासिकानि, इत्थं तृतीयभड्ने तु बहूनि वनफलानि गृहीत्वा वा एकः प्रक्षेपक इति कृत्वैकं मासिकं च दद्धे तन्मम मनसि प्रतिभा-सते-नूनं लीलैव युष्माभिः प्रतिषिद्धा न पुनर्जीवोपघातः। एवं च भगवतां द्वितीये भङ्गे प्रलम्बजीवानामुपरि रागो, बहुमासिकदा-नात् तृतीयभने तु द्वेषः,एकस्यैव मासिकस्य दानात् / यद्वा-द्वितीये भङ्गे गृह्णतां शिष्याण मुपरि द्वेषः। तृतीये तु रागः, कारणं प्राग्वदेव / किं च-युष्माकमेवं बहुधाते युगपद्हूनां मुखे प्रक्षिप्य भक्षणे एकमेव मासिक ददतां निर्दयता भवति। अथरागद्वेषाभावं समर्थयन सूरिः परिहारमाहचोयग ! निद्दयतं चिय, णेच्छंता विडसणं पिनेच्छामो। निवमेच्छछगलसुरकुड-मतामते लिंपभक्खणता // 178|| हे चोदक ! निर्दयतामेव नेच्छन्तो वयं विदशनमपि नेच्छामः, विविध दशन भक्षणं विदशनं, लीला इत्यर्थः / म्लेच्छद्वयदृष्टान्त वर्णयति"जहा एगस्स रनो दो मेच्छा ओलग्गगा, तेण रन्ना तेसि मेच्छाणं तुटेण दो सुरकुडा दो य छगला दिण्णा, ते तेहि य तुट्ठा, तत्थ एगेणं छगलो गलप्पहारेण मारितूण खाइओ दोहिं तिहिं वितिओ एकेक अंग छेत्तुं खायति, तं पिसो छेदे थामं लोणेणं आसुरीहिं वा छगणेण वा लिंपइ।एवं तस्स छगलस्स जीवंतस्सेव गाताणि घेत्तुं खझ्याणि, मतो य पढमस्स एगप्पहारेण एक्को वधो, वितियस्स जत्तिएहिं छेदेहिं मरति तत्तिया वधा, लोगे य पावो गणिजति / एवं जेण पलंबस्स एको पक्खेवो कओ, तस्स एकं मासियं, जो विडसंतो खायति तस्स तत्तिया पच्छित्ता घणचिक्कजाए य पारितावणियाए किरियाए वट्टति। विउसणा णाम-आसादेतो थोवं खायति।" अत एवाऽऽह-"निवभेच्छ' इत्यादि। कस्यचिद् नृपस्य द्वौ म्लेच्छाववलगको, तेन तुष्टन तयोः छगलको सुराकुटौ च दत्तौ, तत्रैकेन छगलकस्य मृतस्य द्वितीयेन पुनरमृतस्यैवैकैकमनं छित्त्वा लक्षणाऽऽदिभिरालिम्प्य भक्षणं कृतमिति। किंचअच्चित्ते वि विदसणा, पडिसिद्धा किमु सचेयणे दवे ? कारणे पक्खेवम्मि तु, पढमो तइओ अजयणाए / / 176 // अचित्तेऽपि द्रव्ये विदशना प्रतिषिद्धा, किं पुनः सचेतने द्रव्ये?, सचित्तं प्रलम्ब सुतरा विदशनया न भक्षणीयमिति भावः। यत्र पुनः कारणे सचित्तं मुख प्रक्षिपति, तत्राऽपि प्रथमभङ्गः एकग्रहणकप्रक्षेपरूपः, तृतीयो भङ्गस्त्वनेकग्रहणैकप्रक्षेपरूपो यतनया सेवितव्यः। अथानन्तकायस्य वर्जनति द्वारम् / यतः प्रथमतो द्वारगाथामाहपायच्छित्ते पुच्छा, उच्छुकरणमहिड्डिदारुयथलीय। Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 706 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब दिटुंतों चउत्थपदं, विकडुभ पलिमंथणाचिन्नं / / 10 / / प्रथमं प्रायश्चित्ते पृच्छा कर्त्तव्या, तत इक्षुकरणेनेचुवाटेन, महर्द्धिकन राज्ञा (दारु ति) दारुभारेण स्थल्या च देवद्रोण्या दृष्टान्तः कर्तव्यः। / चतुर्थ द्रव्यतो भावतोऽपि भिन्नमिति यत्पदं तत्र त्रीणि द्वाराणिविकडुभ, परिमन्थः, अनाचीर्णमिति समासार्थः। अथ विस्तरार्थमाहचोएइ अजीवत्ते, तुल्ले कीस गुरुगो अणंतम्मि। कीस य अचेयणम्मी, पच्छित्तं दिज्जए दवे ?||181 / / शिष्यो नोदयति-भावतो भिन्न द्रव्यतोऽभिन्नं, भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽपि भिन्नमिति तृतीयचतुर्थयोर्भङ्गयोः परीत्ते अनन्ते च अजीवत्वे तुल्येऽपि कस्मात् अनन्ते गुरुमासः, परीत्ते लघुमासो दीयते? कस्माचाचेतने द्रव्ये परीत्ते अनन्ते वा जीवोपधातं विनाऽपि प्रायश्चित्तं दीयते ? अपरं च रागद्वेषवन्तो यदचेतने परीने मासलघु, अनन्ते अचेतनेऽपि मासगुरु प्रायच्छन्। तत्र यत्तावन्नोदितं कस्मात्परीत्ते मासलघु, अनन्ते मासगुरु, तद्विषय समाधानमाहसाऊ जिणपडिकुट्ठो, अणंतजीवाण गायनिप्फन्नो। गेहीपसंगदोसा, अणंतकाए अतो गुरुगो॥१५२।। परीत्तादनन्तकायः स्वादुः स्वादुतरः, तथा जिनैस्तीर्थकरैः प्रतिकुष्टः / कारणेऽपि परीत्त ग्रहीतव्यं नानन्तमिति जिनोपदेशात्। अनन्तानां च जीवानां च गात्रेण स निष्पन्नः सुस्वादुत्वाचाधिकतरा तत्र गृद्धिर्भवति, तस्याश्च प्रसङ्गेनानेषणीयमपि गृह्णीयादित्यादयो बहवो दोषा अतोऽनन्तकाये अचित्तेऽपि गुरुको मासः प्रायश्चित्तम् / एवं च द्रव्यानुरूप प्रायश्चित्तं ददतामस्माकं रागद्वेषावपि दुरापास्तप्रसराविति। यचोक्तं कस्मादचित्ते प्रायश्चित्तं प्रयच्छतेति, तत्राऽपि समाधीयते-अनवस्थाप्रसङ्गनियारणार्थ, सजीवग्रहणपरिहारार्थ वाऽचित्तेऽपि प्रायश्चित्तप्रदानमुपपन्नमेवा तथा चात्राऽऽचार्या इक्षुकरणदृष्टान्तमुपदशर्यतिन वि खाइयं नावि वति,न गोणपहियाइए निवारेइ। इतिकरणभईछिण्णो, विवरीऍ पसत्थुवणओ य / / 183|| ''एगेण कुटुंबिणा उच्छुकरणं रोवियं, तस्सपरपेरंतो न वि खाझ्या न वि वईए फलिहियं न वि गोणाई निवारेइ, नावि पहिए खायंते वारेइ, ताहे तेहिं गोणाईहिं अवारिज्जमाणेहिं तं सव्वं उच्छाइयं, एवं करेंतो सो कम्मकरणे भईए छिन्नो, जंच पराइयं खित्त वावि तेण वुत्त-एत्तिय ते दाह तितं पि दायव्यं / एवं सो उच्छुकरणे विणढे मूले छिण्णे जं जस्स देयं तं अदितो बद्धो विणटोय। एस अपसत्थो। अण्णेण वि उच्छुकरणं कयं, सो विवरीतो भाणियट्यो, खाइयादि सव्वं कयं, जे य गोणाई पडति ते तहा अन्ने वि न ढुक्कति। एस पसत्थो।" अथाक्षरार्थः-कश्चित् कुटुम्बी इक्षुकरणं रोपयित्वा नापि खातिकां नापि वृति कृतवान्, न वा गोपथिकाऽऽदीन् खादतो निवारयति, इत्येवं कुर्वन् इक्षुकरणस्य संबन्धिनी या भूतिः कर्मकराऽऽदिदेयं द्रव्यं, तया छिन्नस्त्रुटितः सन् विनष्टः / एतद्विपरीतश्च प्रशस्तदृष्टान्तो वक्तव्यः। उपनयश्च द्वयोरपि दृष्टान्तयोर्भवति। सचाऽयम्को दोस दोहि मिन्ने, पसंगदोसेण अणरुई भत्ते। भिन्नाभिन्नग्गहणे,न तरइ सजिए विपरिहरिउं॥१८४।। कश्चिन्निर्द्धर्मा प्रलम्बानि गृहीतुकामः को दोषः स्यात् द्वाभ्यां द्रव्यभावाभ्यां भिन्ने प्रलम्बे गृह्यमाणे इति परिभाव्य द्रव्यभावभिन्नानि प्रलम्बान्यानोतवान्। यदिच-तस्य प्रायश्चितं न दीयते तदास निर्विशा भूयो भूयस्तानि गृह्णाति, ततश्च लब्धप्रलम्बरसाऽऽस्वादस्य प्रसङ्गदोषेण तैः प्रलम्बैरलभ्यमानैस्तस्य भक्ते अरुचिररोचको भवति, ततो यानि भावतो भिन्नानि द्रव्यतोऽभिन्नानि तेषां ग्रहणे प्रवर्तते, यदा तान्यपि न लभते तदाऽसौ प्रलम्बरसगुद्ध सजीवान्यपि प्रलम्बानि न शक्नोति परिहर्तुमिति। विशेषयोजना त्वेवम्-कुटुम्बिस्थानीय साधुः, इक्षुकरणस्थानीय चारित्रं, परिखास्थानीया अचित्तप्रलम्बाऽऽदिनिवृत्तिः, वृतिस्थानीया गुर्वाज्ञा, गोपथिकाऽऽदिस्थानीया रसगौरवाऽऽदयः, तैरुपद्र्यमाणं प्रलम्बग्राहिणश्चारित्रमचिरादेव विनश्यति, येनाऽसौ कर्षक एकभविकं मरण प्राप्तस्तथाऽयमप्यनेकानि जन्ममरणानि प्राप्नोतीत्येष अप्रशस्त उपनयः / प्रशस्तः पुनरयम्-यथा तेन द्वितीयकर्षकेण कृतं सर्वमपि परिखाऽऽदिकम्, उत्रासिता गवादयः, रक्षितं स्वक्षेत्र, संजातोऽसावहिकानां कामभोगानामाभागी, एवमत्रापि केनाऽपि साधुना द्रव्यभावभिन्नं प्रलम्बमानीतमाचार्याणामालोचितं तैराचार्यः स साधुरत्यर्थ खरण्टितः। ततश्चछड्डाविय कयदंडे, ण कमेति मती पुणो वितं घेत्तुं / न य से बड्डइ गेही,एमेव अणंतकाए वि।।१८।। स साधुराचार्यः प्रलम्बानि छापितः त्याजितः, प्रायश्चित्तदण्डश्च तस्य कृतः, ततश्च छापितकृतदण्डस्य पुनरपि तत्प्रलम्बजातं गृहीतु मतिर्न क्रमते नोत्सहते। न च नैव (से) तस्य प्रलम्बे गृद्धिर्वद्धत, ततश्वाऽसौ विरतिरूपया परिखया गुर्वाज्ञारूपया वृत्त्या परिक्षिप्तमिक्षुकरणकल्पं चारित्रं रसगौरवाऽऽदिगोपथिकैरूपद्रूयमाणं सम्यक् परिपालयितुमीष्ट, जायते चैहिकाऽऽमुष्मिककल्याणपरम्पराया भाजनमेवं तावत्प्रत्येके भणितम्, अनन्तकायेऽप्येवमेव द्रष्टव्यमिति। अथ महर्द्धिकदारूभरदृष्टान्तद्वयमाहकन्नतेपुर ओलोयणेण अनिवारियं विणटुं तु। दारुभरो य विलुत्तो, नगरवारे अवारिंतो // 186|| वितिएणोलोयंती, सव्वा पिंडित्तु तालिता पुरतो। मयजणण सेसाणं वि, एमेव य दारुहारी वि॥१८७|| महिड्डिओ, राया भण्णइतस्स कन्नतेपुरवायायणेहिं ओलोएइतनकोऽवि वारेइ, ताहे तेणं पसंगेणं निग्गंतुमाढत्ताओ तह विण को वि निवारेइ, पच्छा विडपुत्तेहिं समं आलावं काउमाढत्ताओ। एवं अवारिजंतिओ विणट्ठाओ। दारुभरदिढतो- एगस्स सेहिस्सदारुभरिया भंडी पविसति, नगरदारे एक दारुअंसयंपड़ियं तं गेण्हतं पासित्ता नवारिय ति काउं अण्णेण चेडरूवेण भंडीओचेवगहिय, तं अवारिजमाणं पासित्ता सव्यो दारुभरो विलुत्तोलोगेणं। एते अपसस्था / इमे पसत्था वितिएण अंतेपुरपालगेण एगा ओलोपती Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 710 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब दिहा, ताहे तेण सव्वाओ पिंडित्ता तासि पुरतो सा तालिता, ताहे | चित्तीभूतो निद्धधसपरिणामो अप्पणा वि मारेउ खायति निसग्गोजाओ, सेसियाओ वितीयाओ ण पलायति / एवं अंतेउरं रविखप / एवं जहा सो सोंडओ विलकेण विणा न सक्केई अच्छि एवं तस्स विपलंबेहि पढमदारुहारी वि पिट्टित्ता दारुभरो वि रक्खितो / ' अथाऽक्षरग- | विणा कूरो न परिहाइ, तस्स परिसी गेही तेसु जायइ, जीए एगदिणमवि भनिका-कन्याऽन्तःपुरमवलोकनेन वातायनेनावलोकमागमनिवारिता तेहिं विणा न सक्केइ अत्थितुं, पच्छा सणियं चेव रुक्खेहिता गिण्हइ ति सत् क्रमेण विट्पुत्रैः सार्द्धमालापकरणाद्विनष्टम् / एवं दारुभरोऽपि, तथा मुग्गछिवाडी कोमला मुग्गफली, उपलक्षणत्वादिक्षुखण्डतिन्दुनगरद्वारे दारुणि गृह्णाति, चेटरूपाण्यवारयति शाकटिके सर्वोऽपि विलुप्तो काऽऽदिकमपि यत्तुच्छौषधिरूप तस्मिन् भक्ष्यमाणे परिमन्यः सूत्रार्थमुषितः। द्वितीयेन पुनरन्तःपुरपालकेनैका कन्यका अवलो कमाना दृष्टा, व्याधातो भवति, न पुनः काचित् तृप्तिमात्रा संजायते / अपि चततः सर्वा अपि कन्यकाः पिण्डीकृत्य तासां पुरतस्ताडिता, यथा कदाचिदात्मविराधनाऽपि भवेत्। तथा चात्र दृष्टान्तः- "एक्का अविरइया शेषाणामपि भयजननं भवति / एवमेव च दारुहार्यपि प्रथमः कुट्टितो यथा मुग्गखेते कोमलाओ मुग्गफलिवा खायंती रन्ना आहेडएण वचंतेण दिट्टा, शेषा बिभ्यतीति। एतेणं वि दिट्टा सा, तहेव तस्स कोउयं जायं, केत्तियाओ पुण खत्तिया स्थलीदृष्टान्तमाह होज त्ति पेट्ट से फाडियं जाव नवरं दिट्ट फणरसो, एवं विराहणा होना। थलगोणि सयं मुयभ क्खणेण लद्धपसरा थलिं तु पुणो। गते विकडुभपरिमन्थद्वारे! वातेसु वितिएहिउ, कोट्टगवंदिग्गहनियत्ती॥१८८|| अथानाचीपर्णद्वारमाहथली नाम देवदोणी ततो गावीणं गोयरंगयाणं एका जरगवी मया, सा अविअहु सव्वपलंबा, जिणगणहरमाइएहिं णाइन्ना। पुलिंदेहिं सयं मय त्ति खइया, कहिय गोबालएहिं देवदोणीपरिवारगाणं। लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेण ते एवं / / 16 / / ते भणंति-जइ खइया नाम ता खइया / पच्छा ते पसंगणं अवारिज्जता तथा अपिचेति दूपणाभ्युच्चये, पूर्वोक्ता दोषास्तावत् स्थिता एव, अप्पणा चेव मारेउमारद्धा, पच्छा तेहिं लद्धपसरेहिं थली चेवघातिता। दूषणान्तरमस्तीति भावः / हु निश्चितं, सर्वाणि सचित्ताचित्ताऽऽदिभेदएस अपसत्थो। इमो पसत्थो-तहिं च गावीण गोयरं गयाणं एका मया, सा भिन्नानि मूलकन्दाऽऽदिभेदाद्दशविधानि वा प्रलम्बानि जिनैस्तीर्थकरै गणधरैश्व गौतमाऽऽदिभिरादिग्रहणेन जम्बूप्रभवशय्यंभवाऽऽदिभिः पुलिदेहि खइया, गोवालेहिं सिट्ठ परिचारगाणं, तेहिं गंतूणं बिइयदिवसे स्थविरैरप्यनाचीण्ान्यनासेवितानि, लोकोत्तरिकाश्च ये केचन धर्माः तंको भाग मा पसंग काहित्ति त्ति का तत्थ वंदिग्गहो कओ।" अक्षरार्थः समाचारास्ते सर्वेऽप्यनुगुरवो यद्यथा पूर्वगुरूभिराचरित तत्तथैव पाश्चात्यैरस्थली-संबन्धिनीनां गवां गोचरगतानामेका जरद्गवी स्वयं मृता, तस्या प्याचरणीयमिति गुरुपारम्पर्यव्यवस्थया व्यवहरणीया इति भावः / येनैय भक्षणेन लब्धप्रसङ्गाः पुलिन्दाः म्वयमेवाऽऽगम्वस्थली घातितवन्तः / तेन तानि प्रलम्बानि वानि परिहर्त्तव्यानीति / बृ० 1302 प्रक०। द्वितीयैः पुनर्देवद्रोणीपरिचारकैः कोदकं पुलिन्दपल्ली तरुर्वा भगं मा (अत्र विधिः अणाइण्ण' शब्दे प्रथमभागे 305 पृष्ठ गतः) अयं सर्वोऽपि भूत्प्रसङ्ग इति कृत्वा तेषां पुलिन्दाना वन्दिग्रहणे निवृत्तिः कृता। उपनय विधिर्निर्ग्रन्थानाश्रित्योक्तः। योजना- "कोदोसो दोहि भिन्ने, पसंगदोसेण अणरूई भत्ते।" इत्यादि (13) अथ निर्ग्रन्थीरधिकृत्यामुमेवातिदिशन्नाहप्रागुक्तानुसारेण सर्वत्राऽपि द्रष्टव्या! एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। अथ विकडुभ-पलिमथद्वारे" व्याख्यानयति सविसेसतरा दोसा, तासिं पुण गिण्हमाणीणं // 195|| विकडुभयमग्गणे दीहगोयरं एसणं व पेल्लिज्जा। एष एव सर्वोऽपि गमः प्रकारो निर्ग्रन्थीनामपि भवति ज्ञातव्यः, तासां निप्पिसिय सोंडनायं, मुग्गछिवाडीऍ पलिमंथो॥१८६।। पुनहतीनां प्रलम्बन हस्तकर्मकरणाऽऽदिना सविशेषतरा दोषा वक्तव्या इह प्रलम्बरसभिन्नदाढतया प्रलम्बैर्विना केवलः कूरो यदा न प्रतिभासते, ततोऽन्यस्मिन् भक्तपाने लब्धेऽपि वि कडुभं शालनकं, सूत्रम्तन्मार्गयन्नलभमानो दीर्घ गोचरं करोति, एषणीय वा अलभमानाऽनष-- कप्पइ निरगंथीण वा आमे तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए / / 2 / / णीय विकडुभं गृह्णन्भेषणां प्रेरयेत् / अत्र च निष्पिशितः पिशितवीं शौण्डो अस्य व्याख्या प्राग्वत् / नवरं भिन्न भावतो व्यपगतजीवं द्रव्यतो भिन्न मद्यपो ज्ञातम् उदाहरणम्-"जहा एगो अमंसभक्खी पुरिसो, तस्स य वा, तृतीयचतुर्थभगवर्तीत्यर्थः सूत्रेणानुज्ञातं, यथा-आमं भिन्नं कल्पते, मज्जपाएहि सह संसग्गो, अन्नदा तेहिं भणिओ-मज्जे णिज्जीवे को दोसो, अर्थतः पुनः प्रतिषेधयति-न कल्पते। आह-यदि न कल्पते ततः कि ते हि य सो सवहं गाहितो, तओ लज्जमाणो एगते परेण आणीय पिबइ, सूत्रे निबद्ध कल्पत इति ? उच्यतेपच्छा लद्धपसरो बहुजणमझे वीहीए वि चत्तलञ्जो पाउमादत्ता, तेसि जइ वि निबंधो सुत्ते, तह वि जईणं न कप्पई आमं। पुण मंस विलको उपदस इत्यर्थः / इयरस्स पुण चिबिभडवाण यपप्पल- जइ गिण्हइ लग्गति सो, पुरिमपदनिवारिए दोसे / / 196|| गाईणि भाणिय सव्वकालंन भवंति, पुणो तेहिं भणियंकेरिस मज्जपाण यद्यपि सूत्रे निबन्धः कल्पते भिन्नभितिलक्षणस्तथापि यतीनांन कल्पते विणा विलंकेणं ? परमारिए य मंसे को दोसो खाइसु / इमं तत्थ विसेसे आम भिन्नमपि यदि गृह्णाति, ततः स पूर्वपदे पूर्वसूत्र निवारिता ये वह गाहितो परमारिए नत्थि दोसो त्ति खायति पच्छा लद्धरसा कढिण- | दोषास्तान लगति प्राप्नोति। इति। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 711 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब आह-यदि सूत्रे अनुज्ञातमपि न कल्पते, तर्हि सूत्र निरर्थकम् ? सूरिराहसुत्तं तू कारणियं, गेलन्नद्धाणओमभाईसु / जह नाम चउत्थपदे, इयरे गहणं कहं होजा?||१९७|| सूत्रं कारणिक, तानि च कारणान्यभूनिग्लानत्वमध्या, अवमौदर्यम्, एवमादिषु कारणेषु कल्पते, तत्र प्रथमतश्चतुर्थभने, तदलाभे तृतीयद्वितीयप्रथमभङ्गे प्यपि / आह-यथा नाम चतुर्थपदे चतुर्थभड़े ग्रहण तथेतस्मिन् भनत्रये कथं ग्रहणं भवेत् ? उच्यते-तथापिकारणतो ग्रहणं भवत्येव यथा च भवति तथोत्तरत्राभिधास्यते। बृ०१ उ०२ प्रक०। (दृष्टान्तफलम् दिट्टत' शब्दे चतुर्थभागे 2506 पृष्ठे गतम्) कथमिति चेत् ? उच्यतेएसेव य दिटुंतो, विहि अविहीए जहा विसम दोसं। होइ सदोसं च तहा, कन्जितर जयाजयफलाइ।।२०३।। एष एव त्यदुक्तो दृष्टान्तोऽरमाभिः प्रस्तुतसूत्रार्थेऽवतार्यत, तथा विधिना विषमुषभुज्यमानमदोषमविधिना भुज्यमानं तदेव सदोष, तथा कार्ये यतन्या फलाऽऽदीनि आसेव्यमानानि न दोषायोपतिष्ठन्ते (इअरे त्ति) इतरस्मिन् कायें यतनया वा अयतनया वा सेव्यमानानि निर्दोषायोपकल्पन्ते। अपि चआयुहे दुन्निसिट्ठम्मि, परेण बलसा हिए। वेताल इव हुअत्तो, होइ पञ्चंगिराकरो।।२०४।। यथा केनापि शरीरबलदर्पोद्धतेन परवधायाऽऽयुधं निसृष्ट मुक्तं, तच दुर्निसृष्ट कृत, येन तदेव परेण हृतं गृहीतम्। यद्वा- अनिसृष्टमेवाऽऽयुधं परेण (वलस त्ति) छान्दसत्वाद् बलात्कारेण हृतं, ततस्तस्मिन् आयुधे दुर्निसृष्ट परेण बलात्कारेण अहिते सति तस्यैव तेन प्रतिघातः क्रियते। एवं त्वयाऽप्यस्मदभिप्रेतदृष्टान्तप्रतिघाताय विषदृष्टान्त उपन्यस्तः, अस्माभिस्तु तेनैव दृष्टान्तेन न सर्वत्र दृष्टान्तः क्रमत इति भवत्पतिज्ञायाः प्रतिघातः कृतः स्वाभिप्रेतश्वार्थः प्रसाधित इति / यथा केनचिन्मन्त्रवादिना होमजापाऽऽदिभिर्वेताल आहूत आगतश्च, सच वेतालः किश्चित्त - दीयस्खलितं दृष्ट्वा दुर्युक्तो दुःसाधितो न केवलं तस्य साधकस्याभीष्टमर्थ न साधयति, किंतु कुपितः सन् प्रत्यङ्गिराकरः, प्रत्युत तस्यैव साधकस्योन्मत्तत्वाऽऽदिलक्षणाऽपकारकारी भवति, एवं भवताऽपि स्वपक्षसाधनार्थ विषदृष्टान्त उपात्तः स च दुष्प्रयुक्तत्वात्प्रत्युत भवत एव प्रतिज्ञोपघातलक्षणमपकारमादधाति स्मेति। किंचनिरुजस्स विकडुभोगो, अपत्थों अकारणे य अविहीए। इय दप्पेण पलंबा, अहिया कज्जे य अविहीए।।२०५।। यथा नीरुजस्य विशेषेण कटुकं विकटुकमौषधमित्यर्थः। तस्य यो भोग उपयोगस्तथा कारणे च रोगाऽऽदौ यस्तस्यैव वाविधिना भोगः स उभयोऽप्यपथ्योऽहितो विनाशकरणं जायते इत्येवं दर्पण कारणाभावेना55सेव्यमानानि प्रलम्बान्यहितानि संसारवर्द्धितानि भवन्ति,कारणे चावमौदर्याऽऽदावविधिना अयतनया गृहीतानीह परत्र चाहिलानि जायन्ते। अथ दृष्टान्तमेव समर्थयन्नाहजइ कुसलकप्पिआओ, उवमाउन होज जीवलोगम्मि। छिन्नभं पि व भयणे,मयिज लोगो निरुवमाओ / / 206 / / कुशलैः पण्डितैः कल्पितास्तेषु तेषु ग्रन्थेषु विरचिता उपमा दृष्टान्ता अस्मिन् जीवलोके यदि न भवेसुरतर्हि छिन्नाभ्रमिव छिन्नं व्यवच्छिन्नमेकीभूतं यदभ्रं तद्यथा प्रचण्डपवनेन गगने इतस्ततो भ्राम्यते, एवमयमपि लोको निरुमिकस्तदर्थप्रसाधकदृष्टान्तविकलो दोलायमानमानसः संघाऽऽदिभिरितस्ततो भ्राम्येत, न कस्याप्यर्थस्य निर्णय कुर्यादिति भावः। उक्तंच- "तावदेव चलत्यर्थो, मन्तुर्विषयमागतः। यावन्नोत्तम्भवेनेव, (?) दृष्टान्तो नावलम्च्यते॥१॥" एवं च बहुभिः प्रकारैर्व्यवस्थापितं दृष्टान्तं प्रमापयन् शिष्यः प्राऽऽह-भगवन् / यद्येवं ततः क्रियता दृष्टान्तः। उच्यते ?-कुर्म आकर्ण्यता दत्तकर्णेन भवतामरुएहिँ य दिढतो, कायव्यो चउहिँ आणुपुव्वीए। एवमिहं अद्धाणे, गेलन्ने तहेव ओमम्मि // 207|| मरुकैः ब्राहाणः चतुर्भिर्दृष्टान्तः कर्त्तव्य आनुपा, एवं मरुकदृष्टान्तानुसारेणेहाध्वनि ग्लानत्वे तथैवावमे द्वितीयपदं द्रष्टव्यमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथ पूर्वार्द्ध ताव व्याख्यातिचउमरुग विदेसं साहपारए सुणग सत्थवाहे य। ततियदिणपूतिमुदगं, पारगों सुणयं हणिय खामो / / 20 / / परिणामत्थउ एगो, दो अपरिणया तु अंतिमोऽतीव / परिणामो सद्दहती, कण्णपरिणओ मतो वितिओ।।२०६।। ततिओ एतमकिच्चं, दुक्खं मीरंउ ति तं समारद्धो। किं एचिरस्स सिटुं, अइपरिणामो हियं कुणति // 210 // पच्छित्तं खु वहिज्जह, पढमो अहालहुस धाडितो ततिओ। चउत्थो अतिपसंगा, जाओ सोवागचंडालो।।२११।। जहा चत्तारि मरुआ अज्झाइस्सामो त्ति काउं विदेसं पत्थिता,तेहि य एगो साहापारगो दिट्टो, पुच्छिओकत्थवचसि ? सोभणइ-जत्थेव तुज्झे, ताहेतेएगम्मिपचंते अदाणसीसए सत्थं पडि-च्छति, सोयसत्थो मिलइ, साहापारगो सुणयं सारवेइ। तेहिं भणियंकिं तुभं एएणं? सो भणइअहमेय जाणामि कारणं, तओ ते सत्थेणं समं अडविंपविट्ठा, तेसिं अरण्णे पवन्नाण सो सत्थो मओ अन्नो दिसो दिसि पलाइतो, इतरे वि मरुया पंचजणा सुणगछट्ठा एक्कतो पडिता अईव तिसियभुखिया तइयदिणे पिच्छंति पूइमुदगं मयगकलेवराउलं, तत्थ ते साहापारगेण भणिता एवंसुणग मारेउ खामो, एयं च सरुहिरं पाणिय व पिवामो, अण्णहा मरिज्जामो, एयं च वेदरहस्सं आवत्तीए भणियं चेव न दोसो. एवं तेण ते भणिता / तेसिं मकया एक्को परिणामगो, दो अपरिणामगा चउत्थो तु अतिपरिणामओ। तत्थ जो सो परिणामगोतेणतंसाहापारगवयणं सदहियं, अब्भुवगयं च, जे ते दो अपरिणामगा तेसि एक्कण साहापारगवयणं सोउ कण्णा किया तइयो अहो अकज्ज कण्णा विमेणसुणंति,सो अपरिणामगो तिसियमुक्खितो मतो / जो सो बितिओ अपरिणामगो सो भणति-एयं एयमवत्थाए वि अकिरचं किं पुण दुक्खं मरिज्जति त्ति काउं खइयं गेण। जो सो अतिपरिणामगो सो भणति-किह चिरस्स सिट्ठ ठवियामो अतीते Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 712 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब काले जंण खतियं / एवं तेहिं फाडित्ता खइओ। तत्थ जेहिं खातियं ते साहापारगेण भणिता-इतो णित्थिन्ना समाणा पच्छित्तं वहेज्जइ, तत्थे जो सो परिणामगो तेण अप्पसागरियं एगस्स अज्झावगस्स आलोइय तेण सुद्धो त्ति भणियं पंचगब्भं वा दिन्नं। तत्थ जो सो अपरिणामओ सो णित्थिन्नो समाणो सुणगक त्ति सिरे काउंमाह-णमिलिता चाउव्वेजस्स पादेहि पडित्ता साहति, सो चाउव्वेज्जेण घिद्धिकतो णिच्छूडो / जो सो अइपरिणामगो णत्थि किंचि अभ-क्खं अपेयं वा अतिपरिणामपसंगेण सो मायगचंडालो जातो।" अथाक्षरार्थः-चत्वारो मरुका विदेश प्रस्थितास्ततः शाखापारगो वेदाध्ययनपारगतो मरुकस्तेषां मिलितस्तेन च शुनकः सार्द्ध गृहीतः, अरण्ये च गतानां सार्थस्य वधो, मोषणं ततस्तैर्मरुकैरेका दिश गृहीत्वा पलायितैः तृतीयदिने पूतिकुथित मृतकडेवराऽऽकीर्णमुदकं दृष्ट, शाखापारगो वक्ति-एनं शुनकं हत्वा भक्षयामः। अत्र चैकः परिणामको,द्वौ अपरिणती अपरिणामको, अन्तिमश्चतुर्थोऽतीवपरिणामकः प्रथमः शाखापारगवचनं श्रद्दधते, द्वितीयः पुनरपरिणातः कर्णी स्थगितवान्, न श्रृणुम एनां वार्तामपीति कृत्वा मृतः। तृतीयोऽप्यपरिणतश्चिन्तयति-एतदेतस्यामप्यवस्थायामकृत्यं परं किं क्रियते दुःसहं मर्तुमिति शुनकभक्षणं कर्तुं समारब्धः / चतुर्थस्त्यतिपरिणामकःकिमियतः कालात् शिष्टं कथितमित्युक्त्वा अधिक करोति, गोगर्दभाऽऽदिमासान्यपि भक्षयतीति / शाखापारगेण च ते भणिताःअटव्या उत्तीर्णाः प्रायश्चित्तं वहध्वं, तत्र यः प्रथमः परिणामकः स यथालघुकप्रायश्चित्तेन शुद्धो, द्वितीयस्तु मृत एव, तृतीयो निर्धाटितश्चातुर्विद्यैः पङ्क्तेर्बहिष्कृत इत्यर्थः / चतुर्थश्चातिप्रसङ्गात् नास्ति किश्चिदभक्ष्यमपेयं चेति श्वपाकरूपश्चण्डालो जात इति। अथोपयोजनमाहजह पारगो तह गणी, जह मरुगा एव गच्छवासी उ। सुणगसरिसा पलंबा, मडतोयसमंदगमफासं // 212 / / यथा शारखापारगस्तथा गणी आचार्यो, यथा चत्वारो मरुका एव-ममुना प्रकारेण गच्छवासिनः साधवः शुनकसदृशान्यत्र प्रलम्बानि, विप्रकृष्टाध्वाऽऽदिकारणं विना साधूनामभक्षणीयत्वात्। मृततोयसमं मृतकडेवराकुऽऽलोदकतुल्यमप्रासुकोदकं ज्ञातव्यम्, अपेयत्वात्। अथ यदुक्तम्- "एवमिह अद्धाणो, गेलण्णे तहेव ओमम्मि।" तत्राध्यद्वारं विवृणोतिउद्ददरे य सुभिक्खे, अद्धाण पवजणं तु दप्पेणं। लहुगा पुणऽद्धपदे, जं वा आवज्जती तत्थ / / 213 / / ऊर्द्ध दरः पूर्यते यत्र काले तदूर्द्धदरं, प्राकृतशैल्या उद्ददरं, ते दरा / द्विविधाः-धान्यदरा उदरदराश्च / धान्यानामाधारभूता दरा धान्यदराः, कटपल्ल्यादय उदराण्येव दरा उदरदराः / ते उभयेऽपि यत्र पूर्यन्ते तदूर्द्धदरम् / तथा-सुभिक्षं भिक्षाचरैः सुलभभिक्षम् / अत्र चतुर्भङ्गीऊर्द्धदरं सुभिक्षं च 1, ऊर्द्धदरं न सुभिक्षं 2, सुभिक्षं नोर्द्धदरम् 3, नोर्द्धदर नो सुभिक्षम् 4 / तत्र प्रथमभङ्गे तृतीयभङ्गे वा यदाध्वानं दर्पण प्रतिपद्यते यदा यद्यपि न मूलातरगुणविराधनाऽऽदिकं किमप्यापद्यते, तदापि शुद्धपदे चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तम्, कस्मादप्र्पणाध्वानं प्रतिपद्यते इति ? यद्वा-आत्मविराधनाऽऽदिकं यत्राऽऽपद्यते तत्र तन्निष्पन्न प्रायश्चित्तम् अर्थादापन्नं शेषभङ्गद्वये दुर्भिक्षत्वादध्वगमनं प्रतिपत्तव्यमिति प्रथमतृतीययोरपि भङ्गयोः कारणतो भवेदध्वगमनम्। आह-किं तत्कारणम् ? उच्यतेअसिवे ओमोयरिए, रायडुट्टे भए वऽनागाढे। गेलण्ण उत्तिमढे, नाणे तह दंसणचरित्ते / / 214 // विवक्षितदेशे आगाढमशिवमौदर्य राजद्विष्टं भयं वा प्रत्यनीकाऽऽदिसमुत्थमागाढशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, तथा तत्र वसता ग्लानत्वं भूयो भूय उत्पद्यते / यद्वा-देशान्तरे ग्लानत्वं कस्यापि समुत्पन्नं, तस्य प्रतिजागरणं कर्त्तव्यम् / उत्तमार्थं वा कोऽपि प्रतिपन्नस्तस्य निर्यापनं कार्यम् / तथा विवक्षित देशे ज्ञान वा दर्शनं चारित्रं वा नोत्सर्पति। एएहिं कारणेहिं, आगाढेहिं तु गम्ममाणेहिं। उवगरण पुटवपडिले-हिएण सत्थेण गंतव्वं / / 215 / / एतैरनन्तरोक्तैः कारणैरागाद्वैः समुत्पन्नैः सद्भिर्गम्यते, गच्छद्भिश्वाध्वप्रायोग्यमुपकरणं गुलिकाऽऽदिकं गृहीत्वा सार्थः पूर्वमेव प्रत्युपेक्षणीयस्तेन पूर्वप्रत्युपेक्षितेन सार्थेन सार्द्ध गन्तव्यम्। अत्र विधिमाहअद्धाणं पविसंतो, जाणगनीसाए गाहए गच्छं। अह तत्थ न गाहेज्जा, चाउम्मासा भवे गुरूगा / / 216|| अध्वानं प्रविशन्नाचार्यो ज्ञायको गीतार्थस्तन्निश्रया गच्छं सकलमप्यध्वकल्पस्थितिं ग्राहयति। अथ तत्राध्वप्रवेशेऽध्वकल्पस्थितिमाचार्या न ग्राहयेयुस्ततश्चतुर्मासा गुरवः प्रायश्चित्तं भवेयुः / स्यान्मतिः कथं वा गच्छमध्वकल्पं ग्राहयतीति? उच्यतेगीयत्थेण सयं वा, गाहइ छडितो य पचयनिमित्तं / सारिंति तं सुयत्था, पसंग अप्पच्चओ इहरा // 217 / / यद्याचार्य आत्मना केनाऽपि कार्येण व्यापृतस्ततोऽन्येनोपाध्यायाऽऽदिना गीतार्थेन, अथ न व्यापृतस्ततः स्वयमात्मनैवान्यगीतार्थान पुरतः अर्द्धकल्पसामाचारी गच्छ ग्राहयति, स च कथको ग्राहयन्नन्तरान्तरा अर्थपदज्ञातं छईयन् परित्यजन् कथयति,ततो येते श्रुतार्था गीतार्थास्ते तदर्थं यदर्थपदजातं त्यक्तं तत् स्मारयन्ति, यथा विस्मृतं भवतामेव तचैतचार्थपदमिति। किनिमित्तमेवं क्रियते? इत्याह-अगीर्थानां प्रत्ययनिमित्तं-यथा सर्वेऽप्येते यदेनां सामाचारी मित्थमेव जानन्ति, तत् नूनं साऽन्यैवेयामिति: इतरथा यद्येवं न क्रियते, ततस्तेषामगीतार्था ना मध्ये ये अतिपरिणतास्ते अध्वन उत्तीर्णा अपि तत्रैव प्रसङ्ग कुर्युः / ये त्वपरिणामकास्तेषामप्रत्ययो भवेत्, यथैते इदानीमेव स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितामेवंविधां स्थितिं कुर्वन्तीति शिष्यः प्राह-या काचिदध्वनि प्रलम्बग्रहणे सामाचारी तामिदानीमेव भणत। Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 713 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब गुरुराहअद्धाणे जयणाए, परूवणं वक्खती उवरि सुत्ते। ओमे वुवरि वोच्छइ, रोगायंकेसिमा जयणा // 218|| अध्वनि गच्छता या प्रलम्बग्रहणे यतना सामाचारी, तस्याः प्ररूपणमुपरि अधः सूत्रे इहैवोद्देशके वक्ष्यति, अवमेऽपि यः कोऽपि विधिः स सर्वोऽप्युपरि इहैव प्रलम्बप्रकृते वक्ष्यते। अत्र पुनर्यग्लानत्वद्वारं तदभिधीयते / तच ग्लानत्वं द्विधा-रोगः, आतङ्कश्च / तयोः रोगाऽऽतङ्कयोयोरपीयं वक्ष्यमाणलक्षणा यतना। अत्र तिष्ठतु तावद्यतना, रोगाऽऽतङ्कयोरेव कः परस्परं विशेषः? उच्यतेगंडीकोढखयाऽऽदी, रोगो कासाइओय आयंको। दीहरूया वी रोगो, आतंको आसुघाती उ॥२१६।। गण्डी गण्डमालाऽऽदिकः, कुष्ठं पाण्डुरोगः, गलतकुष्ठ वा, क्षयो राजयक्ष्मा, आदिशब्दात् श्लीपदश्वयथुगुल्माऽऽदिकः सर्वोऽपि रोग इति ध्यपदिश्यते।कासाऽऽदिकस्तुआतङ्कः, आदिग्रहणेन श्वासशूलहिक्काज्वरातिसाराऽऽदिपरिग्रहः / अथवा-दीर्घकालभाविनी सर्वाऽपि रुक रोग उच्यते। यस्तु आशुधाती विसूचिकाऽऽदिकः स आतङ्कः। अथ सामान्येन ग्लानत्वे विधिमाहगेलण्णं पि य दुविहं, आगाढं चेव नो अ आगाढं। आगाढे कमकरणा, गुरुगा लहुगा अणागाढे // 220 / / ग्लानत्वमपि द्विविधम्-आगाढं चैव, नो आगाढम, अनागाढमित्यर्थः। आगाढ यदि क्रमेण पश्चकपरिहाण्या करोति ततश्चत्वारो गुरवः, अनागाढे तु यदि आगाढकरणीयं करोति तदा चत्वारो लघवः / एतदेव स्पष्टयन्नाहआगाढमणागाद, पुटवुत्तं खिप्पगहणमागाढे। फासुगमफासुगं वा, चउ परियटुंतऽणागाढे // 221 / / आगाढम्, अनागाढंच पूर्वोक्तम्-“अहिडक्कविसविसूई' इत्यादिना पूर्वमेव व्याख्यातं, तत्राऽऽगाढे शूलविसूचिकाऽऽदौ ग्लानत्वे समुत्पन्ने प्राशुकम्, अप्राशुकं वा-एषणीयमनेषणीय वा क्षिप्रमेव गृहीतव्यम्, आगाढे त्रिःपरिवर्तनरूपया, पञ्चकपरिहाणिरूपया वा यतनया क्रमेण गृह्णन्ति, ततश्चत्वारो गुरवः, अनागाढे पुनस्विकृत्वः परिवर्तने कृतेऽपि यदिशुद्धं न प्राप्यते ततश्चतुर्थे परिवर्ते पञ्चकाऽऽदियतनया अनेषणीयं गृह्णाति / अथ "अनागाढे त्ति' परिवर्तनं पञ्चकपरिहाणिं वा न करोति ततश्चतुर्लघवः / अथ ग्लानत्वविषयां यतनामाहविजे पुच्छा जयणा, पुरिसे लिंगे य दव्वगहणे य। पिट्ठमपिढे आलो-यणा य पन्नवण जयणा य / / 222 / / प्रथमतो वैद्यस्वरूपं वक्तव्यं, ततस्तत्पार्चे यथा प्रच्छने यतना क्रियते तथा वाच्य, पुरुष आचार्याऽऽदिकोऽभिधातव्यः,लिङ्गेनवायथा प्रलम्बग्रहणं भवति यथा वक्तव्यं, द्रव्यग्रहणं वा लेपाऽऽदिद्रव्योपादानमभिधानीयम्, पिष्टस्य च प्रलम्बग्रहणे विधिर्वक्तव्यः, तत आलोचना प्रज्ञापना यतना वाऽभिधातव्या / इति नियुक्तिगाथासमासार्थः / अथ तस्या एव भाष्यकृत् व्याख्यानमाह विजऽट्ठग एगदुगाऽऽ-दिपुच्छणे जा चउक्कउवएसो। इह पुण दव्वपलंबा, तिन्नि य पुरिसाऽऽयरियमाई // 223 / / वैद्याष्टकमष्टौ वैद्याः-"संविग्गमसविगा २,लिंगी 3 तहसावए 4 अहाभद्दे 5 / अणभिग्गह मिच्छे 6 तर 7, अट्ठमए अन्नतित्थी य 8 // 1 // '' इति गाथोक्ताः प्रष्टव्याः। एते च मासकल्पप्रकृते ग्लानद्वारे व्याख्यास्यन्ते। एतेषां च प्रच्छने इयं यतना-वैद्यस्य समीपे एकः प्रच्छको न गच्छति, मा यमदण्ड आगत इति निमित्तं ग्रहीत्। द्वावपिन व्रजतः, यमदूतावेताविति मननात्। आदिशब्दात् चत्वारोऽपि न व्रजन्ति नीहरणकारिण एते इति कृत्वा, यत एवं ततस्त्रयः पञ्च वा गन्तव्या इति, इत्यादिको विधिस्तावद् ज्ञेयो यावत् किमस्मिनोगेप्रतिकर्तव्यमिति पृष्टः सन्स वैद्यश्चतुष्कोपदेश दद्यात् / तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च / एते ग्लानद्वार एव व्याख्यास्यन्ते। इह पुनर्रव्यतः प्रलम्बानि पुरुषाश्च त्रय आचा-याऽऽदय आचार्योपाध्यायभिक्षुरूपा द्रष्टव्या इति / तत्र वैद्यः पृष्टः कदाचिदेवमभिदध्यात्-यादृशं रोगं यूयं कथयत ईदृशस्योपशमनार्थमिदं वनस्पतिजातंग्लानस्य दातव्यम्। सच वनस्पतिर्यो यस्य रोगस्योपशमनाय प्रभवति तद्विषयं तमभिधित्सुराहपउमुप्पलें माउलिंगे, एरंडे चेव निवपत्ते य। पित्तुदऍ संनिवाए, वायकोवे य सिंभे य॥२२४।। पित्तोदये पद्मोत्पलमौषधं सन्निपाते मातुलिङ्ग वीजपूरकं, वातप्रकोपे एरण्डपत्राणि, (सिंभ ति) श्लेष्मोदये निम्बपत्राणि / अथ यदुक्तम्"तिन्नि य पुरिसाऽऽयरियमाइ त्ति'' तदेतद्भावयतिगणि वसभ गीय परिणा-मगा य जाणंति तं जहा दव्वं / इयरेसिं वाउलणा, नायंसि य मंडिपोउवमा / / 225 // योऽसौ ग्लानः स गणी आचार्यो, वृषभ उपाध्यायो, भिक्षुश्चेति त्रयः पुरुषाः। अत्र भिक्षुर्द्विधा-गीतार्थागीतार्थश्च, परिणामकोऽपरिणामको वा तत्र गणीवृषभगीतार्थभिक्षूणां त्रयाणां पुरुषाणां प्राशुकैषणीयेन द्रव्येणाऽऽलेपाऽऽदिना कर्त्तव्यं, यदा प्राशुकमेषणीयं वा न प्राप्यते तदा तदितरेणापि कर्त्तव्यम् / एतेषां च यद् यथा गृहीतं तत्तथैव निवेद्यते, निवेद्यन्ते च ते तथैवाऽऽगमप्रामाण्येन सचित्तमचित्त वा शुद्धमशुद्ध वा द्रव्यं यद्यस्मिन्नवसरे कल्पते तद्यथावद् जानन्ति। यस्तु अगीतार्थः पर परिणामकः सोऽपि यद्यथा क्रियते तत्तथैव, परिणामकत्वात्कथितं सञ्जानीते, इतरे अपरिणामकाः सन्तो ये अगीतार्थास्तेषां न कथ्यते। यथा अप्राशुकमनेषणीयं वा गृहीतं, किं तु तेषां व्याकुलना क्रियते। तथा अभुकगृहादात्मार्थ कृतमानीतमिदम्; अथ कथमपि तैज्ञति, यथाएतदप्राशुकमनेषणीयं वा, ततो ज्ञाते सति भण्डी गन्त्री, पोतः प्रवहणं, तदुपमा कर्तव्या। यथा"जा एगदेसे अदढा उभंडी, सीलप्पए सा उ करेति कजं / जा दुब्बला सीलविया वि संती, नतं तु सीलेंति विसिन्नदारु"॥१॥ शीलाप्यते, समारच्यते इत्यर्थः। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 714 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब तथा"जो एगदेसे अदढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ करेइ कज। जे दुब्बलो सीलविओ वि संतो न तं तु सीलेंति विसिन्नदारू।२" एवं / त्वमपि जानीपे अह प्रगुणीभविष्यामि, प्रगुणीभूतश्च प्रायश्चित्तं वोढास्मि / अपरं च स्वाध्यायवैयावृत्यतपःप्रभृतिभिरधिक लाभसुपाजयिष्यामीति तत इद प्रतिसेवस्वाकल्पनीयम् / अथैतेषामसमर्थरत्ततो मा प्रतिसेवस्वेति गत वैद्यप्रच्छनयतनापुरुषलक्षण द्वारत्रयम्। अथ लिङ्गाऽऽदीनि सर्वाण्यपि द्वाराणि गाथाद्वयेन भावयतिसो पुण आलेवो वा, हवेज आहारिमं व मिस्सियरं / पुव्वं तु पिट्ठगहणं, विगरणजं पुव्वछिन्नं वा / / 226 / / भावियकुलेसु गहणं, तेसऽसति सलिंगगेण्हणाऽवन्नो। विकरणकरणाऽऽलोयण, अमुगगिहे पचओऽगीते / / 227|| यो वनस्पतिभेदो व्रणाऽऽदौ पित्तोदयाऽऽदौ वा. उपयुज्यते, सपुनरालेपो वा स्याद् बहिः पिण्डीप्रदानाऽऽदिक इत्यर्थः / आहारिमं वा / बीजपूराऽऽदिकं, तच्चोभयमपि प्रथमतोऽचित्तं, तदलाभे मिश्रम्, अस्याप्यभावे इतरत् सचित्तम्। अथ वा मिश्रं नामयदालेप आहारयितव्यं च भवति, इतरन्नामयन्नालेपो नाहारयितव्यं तच्च स्पर्शन स्पर्शनीय वा स्यात् पद्मोत्पलवत्, नासिकया आघ्रातव्यं भवेत्पुष्पाऽऽदिवत् / एतावता द्रव्यग्रहणद्वारं व्याख्यातम् / अथ पिष्टापिष्टद्वारम् - तत्राऽऽलेपाऽऽदिक सर्वमपि यत्पूर्व पिष्ट लभ्यते तस्य ग्रहण कर्त्तव्यम्, पूर्वपिष्टस्यालाभे तृतीयेनाऽपि भनेन, तस्याप्यलाभे द्वितीयेन, तस्याप्यसति प्रथमभङ्गेन यत् पूर्वच्छिन्नं तद्विकरणं कृत्वा ग्राह्य, विविधमनेकप्रकारं करणं खण्डनं यस्य तद्विकरणं, तत्तादृशं चाऽऽनीय पेषणीयम् / एतेन च यदधस्तादुक्तम् "इयरे गहणं कह होजा? इति, तदेवं भवेदिति प्रतिपत्तव्यम् / अथ पूर्वच्छिन्नं न लभ्यते तत आत्मनाऽपि छिन्दन्ति, तच पूर्वच्छिन्न भावित - कुलेषु ग्रहीतव्यम्, तत्र यानि श्राद्धकुलानि मातापितृसमानानि साधूनामपवादपदे प्राशुकाऽऽदिकं गृह्णतामनुड्डाहकारीणि तानि भावितकुलान्युघ्यन्ते, तेषामसति यद्यभावितकुलेषु स्वलिडेन गृह्णाति ततो महानवों भवति, अतस्तेष्वन्यलिङ्गेनग्रहीतव्यम्। इति लिङ्गद्वारमपिव्याख्यातम् / अथवा भावितकुलानामभावे यानि सुप्रज्ञापनीयानि कुलानि तानि प्रज्ञाप्य मार्गयति गृह्णाति च एषा प्रज्ञापना मन्तव्या। एतानि पुनः प्रथमद्वितीयभगवर्ती नि प्रलम्बानि यत्र गृहीतानि तत्रैव विकरणानि कृत्वा आनीय गुरुसमीपे आलोचयति अगीतार्थप्रत्ययनिमित्तं, यथा- अमुकस्य गृहे स्वार्थे कृतानि मया लब्धनीति / एषा आलोचना / यतना तु सर्वथा पूर्वच्छिन्नानामलाभे स्वयमपि छेत्तव्यानि च प्रथमं परीत्तानि, ततोऽनन्तान्यपि पूर्व स्वलिङ्गेन, तत इतरेणापि, एतच निर्गन्थानाश्रित्य भणितम्। अथ निर्ग्रन्थीनां विधिमतिदिशन्नाहएसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि छडभंगा। आमे भिन्नाभिन्ने, जाव पउमुप्पलाईणि / / 227 / / एष एवग मो नियमात् निर्ग्रन्थीनामपि ज्ञातव्यो, यावत्पद्मोत्पलाऽऽदीनि "पउमुपलमाउलिंगे" इत्यादिगाथा यावत् एतच्च नियुक्तिमङ्गीकृत्योक्तम्। भाष्यमाश्रित्य तु- 'अमुगगिहे पच्चओऽगीए' इति पर्यन्तं द्रष्टव्य, नवरं तासामाम प्रलम्बे भिन्नाभिन्नपदाभ्यां विधिभिन्नाविधिभिन्नपदसहिताभ्यांषड्भङ्गाः कर्त्तव्याः,तेचानन्तरसूत्रे स्वस्थान एव भावयिष्यन्ते। (14) सूत्राणिकप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे मिन्ने वा पडिगाहित्तए॥३॥ नो कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए॥४|| कप्पइ निग्गंथीणं पक्के तालपलंबे भिन्ने पढिगाहित्तए, से वि य विहिमिन्ने, नो चेव णं अविहिमिन्ने / / 5 / / एतानि त्रीणि सूत्राणि समकमेव व्याख्यायन्ते- कल्पते निर्ग्रन्थीना पक्वं तालप्रलम्ब द्रव्यतो भिन्नं वा प्रतिगृहीतुम, नो कल्पते निर्गन्थीनां पक्व तालप्रलम्बमभिन्न प्रतिगृहीतुम्; कल्पते निर्ग्रन्थीनां पक्वं तालप्रलम्ब च द्रव्यो भिन्न प्रतिग्रहीतु, तदपि च विधिभिन्न विधिना वक्ष्यमाणलक्षणेन भिन्न विदारितं, नैव, णं वाक्यालङ्कारे। अविधिभिन्नमिति सूत्रार्थः / वृ० १उ०२ प्रक०। ('पक्क 'शब्देऽस्मिन्नेव भागे तन्निक्षेपः कृतः) अथ भिन्नाभिन्नपदे व्याचष्टेपक्के भिण्णे समणा-ण वि दोसे किं तु समणीणं / समणे लहुओ मासो, विकडुभमाई य ते चेव // 236 / / पक्वं यन्निर्जीव तद् द्रव्यतो भिन्नं वा स्यादभिन्न वा / तत्रोभयेऽपि श्रमणानामपि दोषा भवन्ति, किं तु किं पुनः श्रमणीनां, श्रमणा यदि गृह्णन्ति ततो मासलघु, द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघुक विकडुभपलिमन्थाऽऽदयश्चत एव दोषा:। इदमेव स्फुटतरमाहआणाऽऽदिरसपसंगा, दोसा ते चेव जे पढमसुत्ते। इह पुण सुत्तनिवाओ, ततियचउत्थेसु भंगेसु // 237 / / आज्ञाऽऽदयो रसप्रसङ्गाऽऽदयश्च दोषास्त एव पक्कप्रलम्यग्रहणेऽपि भवन्ति ये प्रथमसूत्रेऽभिहिताः / यद्येवं ततः सूत्रमपार्थकमित्याह-इह पुनः सूत्रनिपातस्तृतीयचतुर्थयोर्भङ्गयोर्भवति, भावतो भिन्नमिति कृत्वा तृतीयचतुर्थरूपं भङ्गद्वयमधिकृत्य सूत्रं प्रवृत्तमिति भावः। एमेव संजईण वि, विकडुभपलिमंथमाइया दोसा। कम्माईया य तहा, अविभिन्ने अविधिभिन्ने च / / 238 / / एवमेव संयतीनामपि विकटुभपलिमन्थाऽऽदयो दोषाः। तथा अविभिन्ने अविधिभिन्नो च प्रलम्बे हस्तकर्माऽऽदयः सर्शिवषा दोषा मन्तव्याः, अतस्तासां विधिभिन्नमेव कल्पते नाविधिभिन्नम्। अत्रचषड्भङ्गीमाहविहिअविहीभिन्नम्मि य, समणीणं होंतिमे तु छन्भंगा। पढमं दोहि अभिन्नं, अविहिविही दव्वविइ तइए॥२३६।। एमेव भावतो विय, भिन्ने तत्थेक्क दव्वतोऽभिन्नं / पंचमें छठे दोहि वि, नवरं पुण पंचमे अविही // 24 // "से वि य विहिभिन्ने नो चेव णं अविहिभिन्ने' इत्यत्र श्रमणीनां सूत्रे इमे षड् भङ्गा भवन्ति / 'पढम" इ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 715 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब त्यादी। प्रथम द्वाभ्यामपि भावद्रव्याभ्यां वा भावतोऽभिन्नं, द्रव्यसोऽप्यभिन्नम्। द्वितीयं भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽविधिभिन्न, तृतीयं भावतोभिन्न, द्रव्यतो विधिभिन्नम्। एवमेव भावतो भिन्नेऽपि भङ्ग त्रयं, तत्रैकं चतुर्थ भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽभिन्नं, पञ्चमषष्ठौ भङ्गौ द्वाभ्यामपि भिन्नौ, नवर केवलं पञ्चमे अविधिभिन्न, भावतो भिन्नं द्रव्यतोऽविधिभिन्नमिति भावः / अर्थादापन्नं षष्ठे भावतो भिन्न, द्रव्यतो विधिभिन्नभिति। अथ षट्स्वपि भङ्गेषु यथाक्रमं प्रायश्चित्तमाहलघुगा तीसु परित्ते, लघुओ मासो उतीसु मंगेसु / गुरुगा होति अणंते, पछित्ता संजईणं तु // 241 / / आद्येषु त्रिषु भने षु परीत्तवनस्पती चत्वारो लघुकाः प्राग्वत्तपः कालविशेषिताः भावतोऽभिन्नत्वात् / उत्तरेषु त्रिषु भङ्गेषु परीत्तवनस्पतावेव लघुको मासस्तपःकालविशेषितः प्राग्वत्, भावतो भिन्नत्वात्। अनन्तवनस्पती तु, त एव गुरुकाः कर्तव्याः, चत्वारो गुरवो गुरुमासश्चेति भावः / इत्थं षट्स्वपि भङ्गेषु संयतीनां प्रायश्चित्तानि द्रष्टव्यानि। अथ हस्तकर्मसंभवासंभवौ चेतसि व्यवस्थाप्य प्रकारान्तरेणाव प्रायश्चितमाहअहवा गुरुगा गुरुगा, लहुगा गुरुगाय पंचमे गुरुगा। छटुंसि हवति लहुओ, लहुगत्थाणे गुरूऽणते // 242|| अथवा प्रथमे भङ्गे गुरुका अभिन्नत्वात्, द्वितीयेऽपि गुरुका अविधिभिनत्वात, तृतीय लघुका विधिभिन्नत्वात्, चतुर्थे गुरुकाः अभिन्नत्वात. पञ्चमेऽपि गुरुकाः अविधिभिन्नत्वात् , षष्ठे लघुको मासो विधिभिन्नत्वात् अचित्तत्वाच्च। एतच्च परीत्ते भणितम्, अनन्ते तुलघुकस्थाने गुरुक, यत्र पुनः श्रमणीनामिति वक्तव्यम् ? ताश्च श्रमण्यो द्विविधाः-भुक्तभोगिन्योऽभुक्तभोगिन्यश्चेति समासार्थः। अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते- तत्र प्रथमभिन्ने महाव्रतपृच्छाद्वार शिष्यः पृच्छतिनिर्ग्रन्थानां भिन्नमभिन्न वा एक्क कल्पते, निर्गन्थीना पुनर्भिन्नमेव कल्पते, नाभिन्न, तदपि विधिभिन्नमित्यत्र यथा भेदस्तथा किमेवं महाव्रतेष्वपि तासा भेदः? यथा किल तत्र नग्निकाना मते भिक्खूणामर्द्धतृतीयानि शिक्षापदशतानि भिक्षुणीनां पञ्च शिक्षापदशतानि; एवं किं निन्थीनामपि षट् महाव्रतानि, दश वा, येनैवमभिधीयते? उच्यतेन वि छ महव्वया ने-व दुगुणिया जह उ भिक्खुणीवग्गे। बंभवयरक्खणट्ठा, न कप्पती तं तु समणीणं // 246 / / नाऽपि निर्ग्रन्थीनां षट् महाव्रतानि, नैव साधूनां संबन्धिभ्यः पञ्चमहाव्रतेभ्यो द्विगुणितानि, दशेत्यर्थः / यथा सौगतानां मते भिक्षुणीवर्ग द्विगुणानि शिक्षापदानि भवन्ति न तथाऽत्र, किं तु पञ्चैवेति भावः / यद्येवं तर्हि किमर्थभत्र निर्गन्थीनामभिन्न कल्पते? उच्यते-ब्रहाव्रतरक्षणार्थ तत्तु अभिन्न श्रमणीनां न कल्पते, मा करकर्माऽऽदिकमनेन का रिति कृत्वा / न केवलमत्रैव प्रलम्बे श्रमणीनां विशेषः, किं त्वन्यत्रापीति दर्शयतिअन्नत्थ वि जत्थ भवे, एगयरे मेहणुब्भवो तं तु। आयरिउ पवत्तिणीए, पवत्तिणी भिक्खुणी न कहेइ। गुरुगा लहुगा लहुओ, तत्थ वि आणाइणो दोसा / / 243 / / गेण्हतीणं गुरुगा, पवित्तिणीए पवित्तिणी जइवा। न सुणेती गुरुलहुगा, मासलहू भिक्खूणी जाव // 244|| एतत्प्रलम्बसूत्रमाचार्यः प्रवर्त्तिन्या न कथयति चत्वारो गुरवः, प्रवर्तिनी भिक्षुणीनां न कथयति चत्वारो लघवः, यदि भिक्षुण्यो न शृण्वन्ति ततो | लघुमासः। तत्राप्यक थने अश्रवणे वा आज्ञाऽऽदयो दोषाः। यदि भिक्षुणीना प्रलम्वं गृह्णतीनां प्रवर्तिनी सारणाऽऽदिक न करोति तदा प्रवर्त्तिन्याश्चत्वारो गुरवः प्रवर्तिनी यद्याचार्याणां कथयतां न शृणोति तदा चरवारो गुरवः, प्रवर्त्तिन्याः पार्चे गणावच्छेदिनी न शृणोति चत्वारो लघवः, अभिषेका न शृणोति मास गुरु, भिक्षुणी न शृणोति मासलघु। अथ निर्ग्रन्थीरधिकृत्य द्वारगाथामाहअभिन्ने महव्वयपुच्छा, मिच्छत्तविराहणा य देथीए। किं पुण ता दुविहाओ, मुत्तभोगा अभोगा य // 245 / / अभिन्ने महाव्रतपृच्छा कर्तव्या, तथा अङ्गादानसदृशमभिन्न प्रलम्ब गृह्णन्तीं निर्ग्रन्थीं दृष्ट्वा कश्चित् मिथ्यात्वं व्रजेत्-यदेया अङ्गादानाssकारमेवंविधफलं गृह्णाति, तद् नूनमेतासा तीर्थकृता नैष दोषो दृष्टः, असर्वज्ञ एवामूषां गुरुरित्यादिविराधना या भवेत्। तत्र च देव्या दृष्टान्तो अन्यत्राऽपि यत्र भुङ्क्ते स्पृष्टे वा (एगयरे इति) षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदादेकतरस्य साधुपक्षस्य साध्वीपक्षस्य तु तदैवान्येनासंयमलक्षणेन दोषेण प्रतिषिध्यते।। निदर्शनमाहनिल्लोमसलोमऽजिणे, दारुगदंडे सडेंटपाए य। बंभवयरक्खणट्ठा, वीसुं वीसुं कया सुत्ता॥२४८।। यथा निर्गन्थानां निर्लोमाजिनं स्मृतिकरणकौतुकाऽऽदिदोषपरिहारार्थ प्रतिषिद्ध, निर्गन्थीनां पुनः प्राणिदयानिमित्तमतिरिक्तोपधिभारपरिहारार्थ च तदेव प्रतिषिध्यते / एवं सलोमाजिनं निम्रन्थीनां स्मृतिकरणाऽऽदिदोषनिवारणार्थ निर्ग्रन्थाना पुनस्तदेव प्राणिदयानिमित्तं प्रतिषिद्धम् / दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनं संवृतपात्रं च निर्ग्रन्थीनां ब्रहाव्रतानुपालनार्थ, निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थानां पुनरतिरिक्तोपधिदोषपरिहरणार्थ नानुज्ञातम् / एवं ब्रह्मवतरक्षणार्थ निम्रन्थाना निर्गन्थीनां च विष्वक् पृथक् पृथक् सूत्राणि कृतानि। आह-कर्मोदयादेव प्राणिनां मैथुनोद्भवो भवति ततः किमेवं सलोमाऽऽदिपरिहारः क्रियते ? उच्यतेनत्थि अनिदाणओ हो-इ उन्भवो तेण परिहर निदाणं। ते पुण तुल्लाऽतुल्ला, मोहनिदाणा दुपक्खे वि // 246 / / निदानं कारणमित्येकोऽर्थः। तच्चेहेष्टशब्दरूपरसगन्धस्पर्शऽऽत्मक, यत्प्रतीत्य पुरुषवेदाऽऽदि मोहनीयमुदयमासादयति। तदुक्तम् - "कालं भावं च भव, दव्वं खेत्तं तहा समासज्ज / तस्स समामुद्दिट्टो, उदओ कम्मस्स पंचविहो / / 1 / / ' ततश्च नास्ति न Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 716 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब विद्यते एतत् यदनिदानको निदानमन्तरेण मोहनीयोद्भयो भवति, तेन धाना भुक्तानामितरासा वा अभुक्तानाम् / कारणेन परिहर निदानमिष्टशब्दाऽऽदिरूपं, ते पुनः शब्दाऽऽदयो मोहनि इदमेव स्पष्टयन्नाहदानभूता द्वयोः पक्षयोः समाहारो द्विपक्षं स्त्रीपुरुषवर्गद्वय, तस्मिन् द्विपक्षेऽपि कसिणाविहिमिन्नम्भिय, गुरुगा भुत्ताण होइ सइकरणं / मोहोद्भवं प्रति केचित् तुल्याः केचित्त्वतुल्याः। इयरासिं कोउगाई, धिप्पंते जंच उड्डाहो // 252 / / तानेवाऽऽह कृत्स्नमभिन्नं, तत्र, अविधिभिन्ने च श्रमणीनां चत्वारो गुरुकाः, भुक्तरसगंधा तहिँ तुल्ला, सद्दाई सेस भय दुपक्खे वि। भोगिनां स्मृतिकरणम्, इतरासांतु कौतुकाऽऽदयो दोषा भवन्ति तस्मिंश्चासरिसे वि होइ दोसो, किं पुण ता विसमवत्थुम्मि? ||250 / / | ङ्गादानाऽऽकारे गृह्यमाणे यच्चोडाहो भवति- यथा नूनमेतेनैषा पादकर्म स्त्रीणां पुरुषाणां च तत्र मोहोद्भवे रसगन्धास्तुल्याः। कि मुक्तं भवति? करिष्यति, तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तम्। यथा स्निग्धमधुराऽऽदिरसैः सचन्दनाऽऽदिगन्धैश्च पुरुषाणामिन्द्रि तेन च प्रलम्बेन पादकर्म कृत्वा चिन्तयतियाणि मोहोद्रेकभाजि भवन्ति, तथा स्त्रीणामपीति मोहोद्भवं प्रति जह ताव पलंबाणं, सहत्थणुन्नाण एरिसो फासो। रसगन्धास्तुल्याः / शेषान् शब्दरूपस्पर्शान् भज विकल्पय द्विपक्षेऽपि किं पुण गाढालिंगण, इयरम्मि य निद्दओ छुद्धो ?||253 / / उभयपक्षयोरपि, यतः पुरुषस्य पुरुषसंबन्धिनि शब्दे श्रुते रूपे दृष्टे स्पर्श यदि तावत्प्रलम्बानां स्वहस्तेन नुन्नाना, णुदप्रेरणे। प्रेरिताना मित्यर्थः / विस्पृष्ट मोहोदयो भवेद्वा न वा यदि भवेन्न तादृशस्तीतः / पुरुषसंबन्धिषु ईदृशः स्पर्शः, किं पुनर्गाढाऽऽलिङ्गनेन इतरस्मिन्नङ्गादाने पुरुषेण (निदओ प्रायो भवेत्येव, तीव्रश्च भवति, तदेवं सदृशेऽपि स्पर्शाऽऽदौ वस्तुनि दोषो / छुद्धे त्ति) निर्दयं यथा भवत्येवमुत्प्राबल्येन क्षिप्ते सति स्पर्शो भविष्यतीति / ततश्चेत्थं विचिन्त्योदीर्णप्रबलमोहनीयकर्मा सा इदं कुर्यात्भवति, किं पुनस्तावद्विषमे विसदृशे वस्तुनीति। यतश्चैवमतः सलोमनि पडिगमणमन्नतिथिग, सेवे संजयं लिंग हत्थे य। र्लोमाऽऽदीन्यतुल्यानि वा तानि विशेषतः परिव्हियन्ते, अत एव चात्राभि-1 वेहायसो उहाणे, एमेव अभुत्तभोगी वि॥२५४|| नमविधिभिन्नं च न कल्पते। गतमभिन्ने महाव्रतपृच्छति द्वारम्, सुबोधत्वात् काचित् पार्श्वस्थाऽऽदिभ्यः समागता भवेत्, साऽपि तत्रैव प्रतिगच्छेत्, भाष्यकृतान भावितम्। अथ विराधनाद्वारम्। अभिन्नं गृह्णतीना निर्गन्थी अन्यतीर्थिकेनवा सिद्धपुत्रेण वा आत्मानं प्रतिसेवयेत्, संयतं वा उपसर्गयेत् नामात्मनो ब्रह्मव्रतस्य वा विराधना भवेत् / अत्र च देव्या दृष्टान्तः। एतानि स्वलिङ्गे स्थिता कुर्यात्, हस्तकर्म वा भूयो भूयः कुर्यात् / यतातमेवाऽऽह मया व्रतानि भग्नानीति, कथङ्कार वा द्राधीयसं कालं परिपालितं शीलरत्नचीयत्ति कक्कडी को उ-कंटकं विसप्प समिय सत्थे य। महं भड्क्ष्यामीति निर्वेददू-नमानसा वैहायसं मरणं विदध्यात्। अथवापुणरवि निवेस फोडण, किमु समणि निरोह भुत्तितरा।।२५१।। प्रलम्बमोहवशा अवधावनं विदध्यात् / एतानि पदानि भुक्तभोगिनी "एणस्स रन्नो महादेवी, तीसे कक्कडियाओ पियाओ, ताओ अ एगो / कुर्यात् / अभुक्तभोगिन्यप्येवं कुर्यात्। णिउत्तपुरिसो दिणे दिणे आणेति, अन्नया तेण पुरिसेण अहा-पवित्तीए शिष्यः प्रश्रयति न जानीमहे वयं कीदृशमविधिभिन्नं अंगादाणसंठिया कक्कडिया आणीता तीसे देवीए तं कक्कडियं पासित्ता कीदृशं विधिभिन्नमिति? सूरिराहकोतुयं जायं-पेच्छामि ताव केरिसो फासो त्ति एयाए पडिसेवियाए ? ताहे भिन्नस्स परूवणया, उज्जुत तह चक्कली विसमकोट्टे / ताए सा ककडिया पादे बंधिउं सागारियट्ठाणं पडिसेविउमाढत्ता। तीसे ते चेव अविहिभिन्ने, अभिन्न जे वनिया दोसा / / 255 / / ककडियाए कंटओ आसी, से तम्मि सागारिए लग्गो, विसप्पिय तं, ताहे। असंयमदोषनिवर्तनार्थविधिना विधिना च विभिन्नस्य प्ररूपणा क्रियतेबेजस्स सिड, ताहे वेज्जेणं समिआ मदिया तत्थ निवेसाविया उहवेत्ता तत्र यत् चिर्भटाऽऽदिकं विदार्यऊर्द्धफालिरूपाः पेश्यं कृतं, तदृजुकभिन्न, सुसियप्पदेसम्मिपदेसे तीए अपेच्छमाणीए सत्थउप्परासुहधार खोहियं, यत्पुनस्तिर्यक् बृहत्यः कत्तलिकाकृतं तत् चक्कलिकाभिन्नम् / एते द्वे पुणो तेणेव आगारेण णिवेसाविया, फोडियं पूरण समं निग्गओ कंटओ, अप्यविधिभिन्ने मन्तव्ये। यत्तु पेश्यः कृत्वा पुनः श्लक्ष्णश्लक्ष्णतराऽऽदिभिः पउणा जाया / जति ताव तीसे देवीए दंडिएण पडिसेविजमाणीए कोउयं | खण्डैरनेकशः कृत्वा तथा भूयस्तदाकारं कर्तुंन पार्यते तदेवंविधं विषमजायं, किमंग पुण समणीणं णिचनिरुद्धाण भुत्तभोगीणं अभुत्तभोगीण य", कुट्टभिन्नमुच्यते। विषमैः पुनस्तथा कर्तुमशक्यैः कुट्टैः श्लक्ष्णखण्डर्भिन्नअथ गाथाऽक्षरार्थः-राज्ञः कस्यचिद्देव्याः कर्कटिका (चियत्ता इति)। मिति व्युत्पत्तेः। एतच विधिभिन्नम्, अत्र चाऽविधिभिन्नेत एव दोषा द्रष्टव्याः, प्रीतिकरा राच्या इत्यर्थः / अङ्गादानाकारा च कर्कटिकां दृष्ट्वा कौतुकमुत्पन्नं, | | ये अभिन्ने देवीदृष्टान्तेन वर्णिताः। ततः प्रतिसेव्यमानायास्तस्याः कण्टकः सागारिक लग्नः, विसर्पितं च कथमिति चेत् ? इच्युतेतत् सागारिक, ततो वैद्येन समिता कणिक्का, तस्यां मर्दितायां निवेशित्वा कट्टेण स सुत्तेण व, संदाणिते अविहिभिन्ने ते चेव / ततः शुष्कप्रदेशे शस्त्रकं प्रक्षिप्तम्, ततः पुन रपि तथैव निवेश्यते, तेन सविसेसतराय भवे, वेउव्विय भुत्तइत्थीणं // 256|| शस्त्रकेण सागारिकस्य पाटने कृते पूयेन समं कण्टके निर्गते प्रगुणीकृता।। काष्ठे न वा शलाकाऽऽदिना, सूत्रेण वा दवरकाऽऽदिना सन्दायदि तस्या अप्येवविध कौतुकमजनिष्ट, किं पुनः श्रमणीनां नित्यनिरो- | निते संधातिते, पूर्वाऽऽकारं स्थापिते इत्यर्थः / अविधिभिन्ने Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 717 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब तएव दोषा ज्ञातव्या ये अभिन्ने भणिताः सविशेषतरा भवेयुः कथ-मित्याहविकुर्वन्ति तं चेटकाऽऽद्याभरणेनालङ्कृतं यदङ्गादानं तेन याः स्त्रियो भुक्तपूर्वास्तासां प्रव्रजितानां तत्र काष्ठादिसन्दानितप्रलम्बे विकुर्विताङ्गादानकल्पे दृष्ट समधिकतरा दोषा उपढौकन्ते। अथाऽर्थतः कारणिक सूत्रमुपदर्शयन्नाहविहिमिन्नं पिन कप्पइ, लहुओ मासो उदोस आणाई। तं कप्पती न कप्पइ, निरत्थगं कारणं किं तं ? ||257 / / यदपि सूत्रे विधिभिन्नमनुज्ञातं तदपि न कल्पते, यदि गृह्णन्ति ततो मासलघु, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः / आह- ननु सूत्रे भणितं-तद्विधिभिन्न कल्पते। गुरुराह- यद्यपि सूत्रे अनुज्ञातं तथाऽपि न कल्पते। यद्येवं तर्हि निरर्थक सूत्रम् / नैवम् / कारणिकं सूत्रम् / आह- किं पुनस्तत्कारण यदद्यापि नाभिधीयते? उच्यते-ब्रूमःगेलन्नद्धाणोमे, तिविहं पुण कारणं समासेण / गेलने पुवुत्तं, अद्धाणुवरिं इमं ओमे / / 258|| ग्लानत्वमध्वा अवमौदर्यमेतत् समासेन संक्षेपेण त्रिविधं कारणम्। तत्र ग्लानत्वे इहैव प्रलम्बप्रकृते "विज्जे पुच्छण जयणा'' इत्यादि-पूर्वोक्तं द्रष्टव्यम्। अध्वनितुउपरि अध्वसूत्रे इहैवोद्देशके भणिष्यते, इदमनन्तरमेव वक्ष्यमाणमवमे द्रष्टव्यम्। निग्गंधीणं भिन्नं, निग्गंथाणं च भिन्न भिन्नं तु। जह कप्पइ दोहं पी, तमहं वोच्छं समासेणं // 256 / / निर्गन्थीनां नियमाद्विधिना षष्ठे भङ्गे भिन्नं, निर्ग्रन्थानां चतुर्थतृतीययोभङ्गयोः भिन्नमभिन्नं वा यथा द्वयोरपि वर्गयोः कल्पते तदहं वक्ष्ये समासेन। यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिओमम्मि तोसलीए, दोण्ह वि वग्गाण दोसु खेत्तेसु। जयणट्ठियाण गहणं, भिन्नाभिन्नं च जयणाए।।२६०।। अवमकाले साधवः साध्व्यश्च तोसलिविषयं गत्वा स्थिताः, तत्र द्वावपि वर्गोद्वयोः क्षेत्रयोः स्थितौ, एकस्मिन् क्षेत्रे संयताः द्वितीयस्मिन् संयत्य इत्यर्थः / तथा यदुत्सर्गत एकत्र क्षेत्रे मिलितौ नावतिष्ठते एषैव यतना, तया स्थितौ यतनास्थितौ / यद्वा-साधुसाध्वीप्रायोग्य विधिंग्राहयित्वा यौ स्थितौ तौ यतनास्थितौ, तयोरेवं स्थितयोर्यतनया वक्ष्यमाणभिन्नस्याभिन्नस्य वा ग्रहणं कल्पते। आह- कोऽयं नियमो येन तोसलेरेव ग्रहणं कृतम् ? उच्यते - आणुवऽजंगलदेसे, वासेण विणा वि तोसलिग्गहणं / पायं च तत्थ वासति, पउरपलंबो अ अन्नो वि॥३६१।। देशो द्विधा- अनूपो, जङ्गलश्च। नद्यादिपानीयबहुलो अनूपः, तद्विपरीतो जङ्गलः, निर्जल इत्यर्थः / यथा अनूपोऽजङ्गल इति पर्यायौ, तत्रायं तोसलिदेशो यातोऽनूपो, यतश्चास्मिन् देशे वर्षणं विनापि सारणीपानीयैः सस्यनिष्पत्तिः / अपरं चतत्र तोसलिदेशे प्रायो बाहुल्येन वर्षति, ततोऽतिपानीयेन विनष्टसु सस्येषु प्रलम्बोपभोगो भवति। अन्यच्चतोसलिः प्रचुर- | प्रलम्बः / तत एतैः कारणैस्तोसलिग्रहणं कृतम्। अन्योऽपि य ईदृशः प्रचुरप्रलम्बस्तत्राप्येष एव विधिः / पुच्छ सहुभीयपरिसे, चउथउ भंगे पढमएँ अणुम्नाओ। सेसतिए नाऽणुन्ना, गुरुगा परियट्टणे जं च // 262 / / पृच्छति-यदुक्तं भवद्भिर्द्वयोः वर्गयोः क्षेत्रद्वयस्थितयोरित्यादि, तत्र संयतीना पृथक् क्षेत्रे स्थिताना व्यापारो वोढु दुःशको भवति, दोषदर्शिनश्च यूयं पृथक् क्षेत्र स्थापयत, यतश्च दोषाः समुत्पद्यन्तेतत्प्रेक्षावतां नोपादातुमुचितम्, प्रभुवचने च तत्र तत्र प्रदेशे संयत्यः प्रव्राजनीया उक्ता एव, अतः पर्यनुयुज्यते- किं परिवर्तयितव्याः संयत्यः, उत नेति ? गुरुराहनास्त्यत्र कोऽपि नियमो यदवश्यमेव परिवर्तयितव्या न वेति / यदि पुनः प्रव्राज्य न्यायतः परिवर्त्तयति ततो महतीं कर्मनिर्जरामासादयति / अथान्यायतः परिवर्त्तयति ततो महामोहमुपचित्य दीर्घसंसारसंपातभाग्भवति / तर्हि कीदृशेन परिवर्तयितव्याः? उच्यते (सहुभीयपरिसे त्ति) सहिष्णुभीतपर्षदि पदद्वयेन चतुर्भङ्गी। सा चेयम्-सहिष्णुरपि भीतपरिषदपि 1, सहिष्णुर्न भीतपरिषत् 2, असहिष्णुः परं भीतपरिषत् 3 असहिष्णुरभीतपरिषञ्चेति तत्रेन्द्रियनिग्रहसमर्थः संयतीप्रायोग्यक्षेत्रवस्त्रपात्राऽऽदीनामुत्पादनायो प्रभविष्णुः सहिष्णुरुच्यते, यस्य तु सर्वोऽपि साधुनाध्वीवर्गो भयान्न कामप्यक्रियां करोति स भीतपरिषत्, तत्र प्रथमभङ्गेषु वर्तमानो नानुज्ञातः, यदि परिवर्त्तयति तदा चत्वारो गुरुकाः। (जं च ति) द्वितीयभङ्गे आत्मना सहिष्णुः परमभीतपरिषत्तया स्वच्छन्दप्रचाराः सत्यो यत् किमपि ताः करिष्यन्ति तत्सर्वमयमेव प्राप्रोति / तृतीयभङ्गे तु स्वयमसहिष्णुतया तासामङ्गप्रत्यङ्गाऽऽदीनि दृष्ट्वा यदाचरतितन्निष्पन्नम्। चतुर्थे भने द्वितीयतृतीयभङ्गदोषानेव प्राप्नोति। प्रथमभङ्गवर्त्तिनमुद्दिश्याऽऽहजइ पुण पव्वावेत्ती, जावजीवाएँ ताओं पालेइ। अन्नासति कप्पे विहु, गुरूगा जं निज्जरा विउला / / 263 / / यदीत्यभ्युपगमे, ततश्चायमर्थः-ताः प्रथमतोऽपि यतस्ततः प्रव्राजयितु न कल्पते,यदि पुनः प्रव्राजयति ततो यथोक्तविधिना यावजीवं ताः पालयति, योगक्षेमविधानेन सम्यक् निर्वाहयतीत्यर्थः / स प्रथमभङ्गवर्ती यदि जिनकल्पं प्रतिपित्सुरपरं चाऽऽर्यिकाः परिवर्त्तयिव्याः, ततः किं करोतु ? इति चिन्तायां यद्यस्ति तदीये गच्छे कोऽप्यार्यिकाणां विधिना परिवपिकस्ततस्तस्य समर्प्य जिनकल्पं प्रतिपद्यताम्। अथ नास्त्यन्यो वर्तापकस्तर्हि मा जिनकल्पप्रतिपत्तिं करोतु, किं त्वार्यिका एव परिवतयतु / कुत इत्याह-अन्यस्य वर्तापकस्यासत्यभावे जिनकल्पेऽपि प्रतिपद्यमाने, हुनिश्चये, चत्वारो गुरुकाः / आह-सकलकर्मक्षयकारणे जिनकल्पेऽपि प्रतिपद्यमाने किमेवं प्रायश्चित्तमाह-यद्यस्मात्कारणाजिनकल्पं प्रतिपन्नस्य या निर्जरा, तस्याः सकाशाद्विपुला निर्जरा यथावत् संयती परिपालयतो भविष्यतीति युक्तियुक्तमेव प्रायश्चित्तम्। अथ 'जयणट्ठियाण गहणं' इति यदुक्तं तत्र यया यतनया स्थितास्तामाहउभयगणी पेहेऊ, जइ सुद्धं तत्थ संयती णेति। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 718 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब असती व जहिं भिन्ना, अभिन्न अविहीइमा जयणा / / 264 / / (उभय त्ति) उभयः साधुसाध्वीवर्गद्वयरूपो गणोऽस्यास्तीत्युभयगणी, स आचार्योऽवमकाले तोसलिप्रभृतिके प्रचुरप्रलम्बदेशे गत्वा गीतार्थेनाऽऽत्मना वा क्षेत्रद्वयं प्रत्युपेक्ष्य ययोः शुद्धं भक्तं लभ्यते, न प्रलम्बमिश्रितमित्यर्थः। तयोः क्षेत्रयोःपृथक् द्वावपि वर्गौ स्थापयति। यदि क्षेत्रे ईदृशे न स्तस्ततो यत्र शुद्धं भक्तं प्राप्यते तत्र संयतीर्नयति स्थापयति, यत्र पुनःप्रलम्बमिश्रितं तत्राऽऽचार्या आत्मना तिष्ठन्ति, अथ नास्ति सर्वथा निर्मिश्रभक्तक्षेत्रं ततो यत्र प्रलम्बमिश्रितं भक्तं लभ्यते तत्र साध्वीः स्थापयति, स्वयं तु निर्मिश्रप्रलम्बक्षेत्रे तिष्ठन्ति / अथ सर्वेष्वपि क्षेत्रेषु निर्मिश्रप्रलम्बानि प्राप्यन्ते ततः (असइ त्ति) प्रलम्बमिश्रस्याभावे यत्र विधिभिन्नानि प्राप्यन्ते तत्र संयत्यः स्थापनीयाः, स्वयं पुनरभिन्नाविधिभिन्नक्षेत्रे तिष्ठन्ति। अथ सर्वेष्वपि क्षेत्रेष्वभिन्नान्यविधिभिन्नानि वा प्राप्यन्ते तत इयं यतना कर्त्तव्या। तामेवाऽऽहभिन्नाणि देह भित्तू-णि वा वि असति पुरतो सिं भिंदंति। ठाविति तहिं समणी, ता चेव जयंति तेसऽसती // 265|| यत्र क्षेत्रे संयतीः स्थापयितुकामस्तत् क्षेत्र साधवः पूर्वभत्थं भावयन्तियदा गृहस्थैः प्रलम्बान्यानीतानि भवन्ति तदा साधवो भणन्ति - यानि भिन्नानि तान्यस्मभ्य दत्त; अथ न सन्ति भिन्नानि, सन्ति वा परं स्तोकानि, तैश्च संस्तरणं न भवतीति परिभाव्य साधवो भणन्तिअस्मभ्यमेतानि भित्त्वा प्रयच्छत, न कल्पन्ते अस्माकमीदृशानीति / अथ ते गृहस्थाः- यदि रोचतेतत ईशान्येव गृह्णीत इत्युक्या अभिन्नान्येव प्रयच्छन्ति,ततोऽसत्यभावे सति तेषां गृहस्थानां पुरतस्तानि प्रलम्बानि भिन्दन्ति, भित्त्वा च गृह्णन्ति, एवं विधीयमाने गृहस्थानां चेतसि गाढतरं निश्चय उत्पद्यते, यथा-नूनं न कल्पते अमीषामभिन्नानीति, ततस्ते भिन्नान्येव प्रयच्छन्तीत्येव तदा तत् क्षेत्रं भावितं भवति, तदा तत्र श्रमणीः स्थापयन्ति। तेषां संयतानामसत्यभावे व्यापृतेषु वा तेषु क्वापि प्रयोजनान्तरे ता एव संयत्यो या तत्र स्थविरास्ता एवमेव यतन्ते। भिन्नासति वेलाऽति-कमे च गेण्हंति थेरियाऽभिन्ने / दारे भित्तु एंतिव, ठाणाऽसति भिंदती गणिणी।।२६६।। विधिना भिन्नानामसति, यावद्वा गृहस्थैर्भेदयन्ति, आत्मना वा यावत्तत्र | भिन्दन्ति तावद्वेलाऽतिक्रमो भवति, ततो याः स्थविरास्ता अभिन्नानि अविधिभिन्नानि वा, यास्तु तरुणास्ता विधिभिन्नानि गृह्णन्ति, ततः प्रतिनिवृत्ताः स्थविरा अभिन्नाविधिभिन्नान्युपाश्रयद्वारे भित्त्वा विधिभिनानि कृत्या वसतिं यान्ति, प्रविशन्ति इत्यर्थः। अथ बहिः स्थानं नास्ति / ततः स्थानस्यासत्यभावे गणिनी प्रवर्तिनी तस्यास्ताति समय॑न्ते, ततः सा गणिनी तानि भिन्नत्ति, विधिभिन्नानि करोतीत्यर्थः / कृत्वा च तरुणीनां समुद्देष्टु ददाति। आह-किं कारणं तरुणीनां प्रतिग्रहीतुं समुद्देष्टुवा अभिन्नानि अविधिभिन्नानि न दीयन्ते ? उच्यतेकक्खंतरुक्खवेकच्छिया-ऽऽइमाईसु णूमए तरुणी। तउ भिन्न छुभति पडि-ग्गहेसु न य दिजए सयलं / / 267 / / कक्षायाः अन्तरं कक्षान्तरम् "उक्खो त्ति'' परिधानवस्यैकदेशः। आह च निशीथचूर्णिकृत्- "परिधाणवत्थस्स अभिंतरचूलाए उवरि कण्णे नाभिहेट्टा उक्खो भण्णइ।" वैकक्षिकी संयतीनामुपकरणविशेषः ! एतेष्वादिशब्दादन्यत्राऽपि वस्त्रान्तरे तरुणी सा (णूमए त्ति) "छदेणेणुम -नूम-सन्नुम-ढ कौम्बाल-पव्वालाः" / / 8 / 4 / 21 / / इति प्राकृतलक्षणात् समाच्छादयेत्, ततो भिक्षाग्रहणकाले तस्याः प्रतिग्रहेषु भिन्न प्रक्षिप्यते, न च सकलमभिन्नमविधिभिन्नं वा तस्या भोजनकाले दीयते। एवं एसा जयणा, अपरिग्गहेसु होति खेत्तेसु। तिविहेहिं परिगहिए, इमा उजयणा तहिं होइ॥२६८|| एवमेषा अनन्तरोक्ता यतना अपरिगृहीतेषु क्षेत्रेषु कर्त्तव्या भवति त्रिविधैः संयतसंयतीतदुभयैः परिगृहीते इमा वक्ष्यमाणा यतना तत्र क्षेत्रे भवति। इदमेव स्फुटतरमाहपुव्वे गहिए खित्ते, तिविहेण गणेण जइ गणो तिविहो। एज्जा इमयं खेत्तं, ओमे जयणा तहिं काणू ? // 266 / / त्रिविधेन संयतसंयतीतदुभयरूपेण गणेन त्रिविधस्य वा अन्यतरेण पूर्वमेव गृहीते क्षेत्रे यदि त्रिविध एव गणो अवमकाले असंस्तरन् इमकं क्षेत्रामयात् आगच्छेत्ततस्तेषामागतानां स्थातव्ये, वास्तव्याना वा अवग्रहे दातव्ये का नुरिति वितर्के, यतना? अत आहआयरिय वसभ अभिसे-गभिक्खुणो पेल्ललन य देति / गुरुगा दोहि विसिट्ठा, चउगुरुगा दिज जा लहुगो॥२७०।। यत संयतपरिगृहीतं क्षेत्रं तदेषामन्यतरेण परिगृहीतं चेत् / तद्यथाआचार्येण वा वृषभेण वा अभिषेकण वा भिक्षुणा वा, ये आगन्तुकास्तेऽप्येवं चत्वारो द्रष्टव्याः / संयत्योऽपि वास्तव्या आगन्तुकाश्चैवमेव चतुविधाः, नवरमाचार्यस्थाने प्रवर्तिनी वृषभस्थाने गणावच्छेदिनी वक्तव्या। अत्र चाऽऽचार्यः प्रसिद्धः, उपाध्यायो वृषभानु इति कृत्या दृषभ उच्यते, यः पुनरित्वराभिषेकेणाऽऽचार्यपदेऽभिषिक्तः स इहाभिषेकः / अथवागणवच्छेदक इहाभिषेकः। शेषाःसामान्यसाधवो भिक्षवः / एतेषां चेय चारणिका-आचार्य-परिगृहीते क्षेत्रे यदन्य आचार्य आगतो, यदि च स वास्तथ्य आचार्यः क्षेत्रे पूर्यमाणे भक्तपाने चालभ्यमाने आगन्तुकरय स्थातुं नददाति, तदा चत्वारो गुरवः / अथन पूर्यते क्षेत्र, सचागन्तुको बलात्प्रेर्यते तस्यापि चतुर्गुरुकाः। एतच प्रायश्चित्तं तपसा कालेन चद्वाभ्यामपि गुरूस एव वास्तव्य आचार्यो वृषभस्याऽऽगन्तुकस्य न ददाति, वृषभो वा बलात्तिष्ठति, उभयोरपि चत्वारो गुरुकाः, तपसा गुरवः कालेन लघवः, स एव वास्तव्य आचार्य आगन्तुकभिक्षोरेव स्थातुं न प्रयच्छति, स वाभिक्षुर्वास्तव्यमाचार्य बलादवज्ञाय तिष्ठति, द्वयोरपि चत्वारो गुरवः, तपसा कालेन च लघवः / एवमाचार्ये पूर्वस्थिते भणितम् / एवं वृषभाभिषेके भिक्षुभिरपि पूर्वस्थितैः प्रत्येकं चत्वारो गमाः कर्तव्याः, प्रायश्चित्तम येवमेव चतपः कालविशेषितम् / एवमेते सर्वसंख्यया षोडश गमाः। अथ तेष्वे Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 716 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब वोडशसु गमेषु प्रायश्चित्तम् / प्ररूपणायामयमादेशः-(चउगुरुगा दिज्ज जा लहुगो ति) अस्य भावना- आचार्यस्याऽऽगतस्य स्थातु न ददाति, आगन्तुको वा प्रेरयति, द्वयोरपि चत्वारो गुरवः, उभयगुरुकाः, आचार्यो वृषभस्य न प्रयच्छति, वृषभो वा बलात्तिष्ठति चतुर्लघवः, तपसा गुरुकाः,आचार्य एवाभिषेकस्य न ददाति, अभिषेको बलात्प्रेरयति मासगुरु, कालेन गुरुः, आचार्यः सामान्यभिक्षोरायातन्य स्थातुं नानुजानीते आगन्तुको वा भिक्षुर्बलादेवावतिष्ठते मासलघु, उभवतो लघुकम्। एवं शेषेष्वपि द्वादशसु गमेषु चतुगुरुकाऽऽदिकं लघुमासान्त तपःकालविशेषितमेवमेव प्रायश्चित्तम् / तदेव संयतानां संयतः सह चारणिकया षोडश विकल्पा उक्ताः। अथ शेषविकल्पप्रदर्शनायाऽऽहएमेव य भयणा वी, सोलसिया एक्कमेकपक्खम्मि। उभयम्मि वि नायव्या, पेलमदेंते च ज पावे // 271 / / एवमेथ एककस्मिन् पक्षे षोडशिका भजना भङ्गरचना कर्तव्या। यस्तदुभयरूपो गणो न भवति किं तु केवल एव संयतपक्षः, संयतीपक्षो वा, स एकैकपक्षोऽभिधीयते। तत्र संयतानां संयतैः सह प्रथमा षोडश भगी। सा च सप्रपञ्चं भाविता / अथ संयतीभिः परिगृहीते क्षेत्रे अपराः संयत्यः समागच्छन्ति,तत्रापि प्रवर्तिनीगणावच्छेदिन्यभिषेकाभिक्षुणीभिः पूर्वस्थिताभिः सह प्रत्येकमागन्तुकप्रवर्तिनीगणावच्छेदिन्यभिषेकाभिक्षुणीरूपाणां चतुण्णा पदानां चारणिकां कुर्वाणैरेवमेव द्वितीया षोडशभनी संयतीभिश्चतुर्विधाभिरागच्छन्तीभिरेवमेव तृतीया षोडशभङ्गी, संयतीनां चतुर्विधानां पूर्व स्थितानां संयतैश्चतुर्विधैरेवाऽऽगच्छद्भिरेवमेव तुरीया पोडशभङ्गी। सर्वसंख्यया जाता भङ्गानां चतुःषष्टिः / एतेन केवलसंयतसंयतीपक्षचारणिकया लब्धः / अथोभयपक्षमधिकृत्याऽऽह (उभवम्मि विनायव्य त्ति) उभयशब्देनोभयगणाधिपतिः परिगृह्यते, तत्राऽप्येवमेव भङ्गरचना ज्ञातव्या / तथाहि- चतुर्विधोभयगणाधिपतिभिः परिगृहीते क्षेत्रे चतुर्विधैरेवाऽऽगन्तुकसंयतैरागच्छद्भिःपूर्वोक्तनीन्यैव षोडश भङ्गाः। तथा- तैरेव परिगृहीते प्रवर्त्तिन्यादिभेदाचतुर्विधाः संयत्यो यदागच्छेयुस्तदाऽपि षोडश भङ्गाः, चतुर्विधेषु तदुभयगणाधिपतिषु पूर्वस्थितेषु चतुर्विधानामेवोभयगणाधिपतीनामागमनेऽप्येवमपि षोडश भङ्गाः / चतुर्विधसंयतेषु पूर्वस्थितेषु चतुर्विधा उभयगणाधिपतय आगच्छेयुः। अत्रापि षोडश भङ्गाः / एवं चतुर्विधसंयतीषु चतुर्विधानामेवोभय - गणाधिपतीनामगमने षोडश भङ्गाः / एवमेताः पक्ष षोडशभड्ग्यः संजाताः, पञ्चभिश्च षोडशभङ्गीभिलब्धा भङ्गानामशीतिः पूर्वोक्ताः, एकैकपक्षविषयया भङ्गकचतुःषष्ट्या मील्यते जातं, चतुश्चत्वारिंशं शतं भङ्गानाम् प्रायश्चित्तं च सर्वत्र प्राग्वद् द्रष्टव्यम्। (पेल्लमदिते य ज पावे त्ति) एतत्पदं सर्वभङ्गानुपाति प्रतिपत्तव्यम्। आपूर्यमाणे क्षेत्रे आगन्तुको यदि बलात्मेर्य तिष्ठति ततो वास्तव्या निर्गच्छन्तोऽवमौदर्यसमुत्थमात्मसंयमविराधनां यत्प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तमागन्तुकानाम्। अथ वास्तव्याः पूर्यमाणे क्षेत्रे आगन्तुकानां स्थातुं न ददति, ततो यदागन्तुका बहिः पर्यटन्तो भक्ताऽऽदिकमलभमाना विराधनां प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्न वास्तव्यानामापद्यते। आह यद्येवं कुर्वतमितत्प्रायश्चित्तकदम्बमुपढोकतेतर्हि सांप्रतं स्यपक्षस्य दूर दूरेणैव स्थातुं युक्तम् / अत्रोच्यतेचउवग्गो विहु अत्थउ, असंथराऽऽगंतुगा य वच्चंतु। वत्थव्वा व असंथर, मोत्तु गिलाणस्स संघाड / / 272|| चतुर्वर्गो नाम वास्तव्याः संयताः,संयत्यश्च; आगन्तुकाः संयताः, संयत्यश्च / एते चत्वारोऽपि वर्गा एकस्मिन् क्षेत्रे यदि संस्तरन्ति तर्हि तिष्ठन्तु, न केनाऽपि परस्परं मत्सरः कर्तव्यः,यदि संस्तरण न भवति तत आगन्तुका व्रजन्तु; अथाऽऽगन्तुकभद्रकं तत् क्षेत्रमागन्तुका वा आदेशिका आखेदज्ञानवन्तः, ततो वास्तव्या आत्मनस्तेषां का असंस्तरणे निर्गच्छन्ति। एवमागन्तुका वास्तव्या वा ये निर्गच्छन्ति तेषां यदि कश्चित् ग्लानो भवेत् ततो ग्लानः संघाटकस्तिष्ठति, तं मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि गच्छन्ति। एमेव संजईणं, वुड्डीतरुणीण जुंगितकमाई। पायादिविगल तरुणी, य अत्थए वुडिओ पेसे॥२७३॥ एवमेव संयतवत् संयतीनां निर्गमनविधिरभिधातव्यः, परमत्र द्विकभेदः कर्तव्यः / कथमित्याह-वृद्धाना तरुणीनां च मध्ये यदि प्रत्यपायं ततस्तरुण्यो गच्छन्ति, वृद्धा आसते, तथा जुङ्गितानामजुड़ितानां च जुङ्गितास्तिष्ठन्ति, अजुङ्गिका व्रजन्ति / जुङ्गिता द्विविधाः-जातिजुङ्गिताः, शरीरजुङ्गिताश्च / तत्र जातिजुङ्गिता गच्छन्ति, शरीरजुङ्गिताः पादाऽऽदिविकलास्तत्रैवाऽसते, तरुण्योऽपि यदि सप्रत्यपायं मार्गाऽऽदौ ततस्तत्रैवाऽऽसते. वृद्धास्तु प्रेषयत्। एवं तेसि ठियाणं, पत्तेगं वावि अहव मिस्साणं। ओमम्मि असंथरणे,इमा उजयणा उजहिं पगयं / / 274|| एवमनन्तरोक्तप्रकारेण तेषामाचार्याऽऽदीनां तत्र क्षेत्रे प्रत्येकं वा एकतरवगेरूपेण, मिश्राणां वा द्विवर्गचतुर्वर्गरूपतया स्थितानाम् अवमकाले असंस्तरणे इयं यतना यस्यामिदं प्रलम्बसुत्रं प्रकृतम्। तामेवाऽऽहओयणमीसे निम्मी-सुवक्खडे पक्क आमपत्तेगे। साधारण सग्गामे, परगामे भावतो विभए / / 275|| ओदनम 1 मिश्रोपस्कृतम् 2 निर्मिश्रोपस्कृतम् 3 पक्कम 4 आमम 5 प्रत्येकम् 6 साधारणम् / एतानि सप्तापि यथाक्रमं प्रथमं स्वग्रामे ततः परग्रामे ग्रहीतव्यानि, भावतोऽपि यान्यपि भिन्नानि तान्यपि यतनापरिपाटिप्राप्तानि भजेत सेवेत. गृह्णीयादित्यर्थः / इति द्वार-गाथासमासार्थः / अथ प्रतिद्वारं विस्तरार्थमभिधित्सुरोदनद्वारमाहवत्तीसाई जा ए-को घास खवणं वन विय से हाणी। आवासएसु अत्थउ, जा छम्मासे न य पलंबे / / 276 / / ओदनस्य द्वात्रिंशत्कवलाः पुरुषस्य प्रमाण आहारः, यदि ते एकेन कवलेन न्यूनाः द्वात्रिंशत्कवला लभ्यन्ते तैस्तिष्ठतु, यदि तस्याऽऽवश्यकयोगा न परिहीयन्ते, एवमेकैकं कवलं परिहापयता तावद्वक्तव्या यावत् यद्येको ग्रासः कवलः प्राप्यते, ततस्तेनैवास्ता यदि तस्याऽऽवश्यकयोगा न परिहीयन्ते, मा च प्रलम्बानि गृह्णातु / अथैकोऽपि कवलो न प्राप्यते तत एक दिवसं क्षपणमुपवासं कृत्वा, आस्तां द्वितीये दिवसे द्वात्रिंशत्कवलैः पारयतु। यदि तावन्तो न लभ्यन्ते,एकैककवलपरिहाण्या तावद्वक्तव्यं यावत् यद्येकोऽपि कवलो न लब्धस्ततः षष्ठ कृत्वा स Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 720 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलंब माधिमध्यास्तां, षष्ठस्य च पारणके प्रमाणप्राप्तमाहारमुपादत्त / अथ न लभ्यते, ततः पूर्वोक्तयुक्त्या यावदेकोऽपि कवलो न लभ्यते ततोऽष्टमं कृत्वा तिष्ठतु, मा च प्रलम्बान्याददीत। एवमनयैव दिशा दशमाऽऽदिकमुत्तरोत्तरक्षपणं वर्द्धयता तावन्नेतव्यं यावत्षण्मासक्षपणम्। अथ षण्मासक्षपणे धर्माऽऽवश्यकयोगाः परिहीयन्ते, तत एकदिनन्यून षण्मासक्षपण करोतु, तदपिन शक्नोति निर्वोढुंतत एकैकं क्षपणं परिहापयता तावद्वक्तव्य यावदेकमपि क्षपणं कर्तुं न शक्रोति। ततः किं करोतीत्याहजावइयं वा लब्मइ, सग्गामे सुद्धसेस परगामे। मीसं च उवक्खडियं, सुद्धऽज्झवपूरगं गिण्हे // 277 / / वाशब्दः पातनायां, सा च कृतैवेति, यावत् शुद्धौदनं स्वग्रामे लभ्यते यदि तावता न संस्तरति ततो यावता न्यूनं तावत्परग्रामात् शेषं शुद्धौदनमानयति / गतमोदनद्वारम् / अथ मिश्रोपस्कृतद्वार-माह-(मीसं च इत्यादि) यदा स्वग्रामपरग्रामयोः पर्याप्त शुद्धोदनं न प्राप्यते, तदा यदीदनं प्रलम्बैर्मिश्रमुपस्कृतं तत् शुद्धौदनस्याध्यवपूरकं गृह्णाति। इदमेव विशेषयन्नाहतत्थ वि पढमं जं मी-सुवक्खडं दव्वभावतो भिन्नं / दव्वाभिन्न विभिन्नं, तस्सऽसति उवक्खडं ताहे // 278|| तत्रापि मिश्रोपस्कृते गृह्यमाणे प्रथमं यद् द्रव्यतो भावतश्च भिन्नैः प्रलम्बैर्मिश्रमुपस्कृतं तत् स्वग्रामपरग्रामयोहाति, तस्याप्यसत्यलाभे यदोदनं द्रव्यतोऽभिनैर्भावतो भिनैः प्रलम्बैर्विमिश्रमुपस्कृतं तत्तदा शुद्धौदनस्याध्यपूरकं प्रथमं स्वग्रामे तद् गृह्णाति / गतं मिश्रोपस्कृतम्। अथ निर्मिश्रोपस्कृतमाहपणगाइ मासपत्तो, ताहे निम्मिस्सुवक्खडं भिन्नं / निम्मीसउवक्खडियं, गिण्हति ताहे ततियभंगे॥२७६।। येषु सूक्ष्मप्राभृतिकाऽऽदिदोषेषु पञ्चकप्रायश्चित्तं तेष्वादिशब्दादशरात्रिन्दिवाऽऽदिस्थानेषु च यतित्वा यदा भिन्नमासमतिक्रान्तो लघुमासं च प्राप्तो भवति, तदा यत् द्रव्यतो भावतश्च भिन्नं निर्मिश्च प्रलम्बजातमुपस्कृतं तत् शुद्धौदनस्य मिश्रोपस्कृतस्य वाऽध्यवपूरकं स्वग्रामपरग्रामयोर्गृह्णाति, यदा चरमभङ्गे न लभ्यते तदा निर्मिश्रीपस्कृतमेव तृतीयभङ्गे द्रव्यतोऽभिन्नं गृह्णाति / गतं निर्मिश्रोपस्कृतम्। अथ पक्वमासंच व्याख्यानवतिएमेव पउलियापउ-लिते य चरिमततिया भवे भंगा। ओसहिफलमाईसुं, जं चाइण्णं तगंणेयं // 280 // एवमेव पक्वापक्वयोश्वरमतृतीयौ भङ्गौ भवतः, पक्वं नाम यदग्निना सं कृतं यथेङ् गुदीबीजविल्वाऽऽदि, अपक्वं यदग्निना अन्येन बन्धनधूमाऽऽदिना प्रकारेण न पक्वं परं निर्जीवावस्थं, यथा परिपक्वकदलीफलपुष्पाऽऽदि, तत्र निर्मिश्रोपकृतस्यालाभे प्रथम पक्वं चतुर्थभने, ततस्तृतीयभङ्गे अपक्वमपि चतुर्थतृतीयभङ्गयोरेवमेवाध्यवपूरकं गृह्णातिय। अत्र चौषधिफलाऽऽदिषु यच्च पूर्वसाधुभिरवमाऽऽदिकारणं विनाऽप्याचीर्णं तन्नेयं नवनीयं, ग्रहीतव्यमित्यर्थः / यद् वा- तत् ज्ञेयं ज्ञातव्यं, तन्नौषधया धान्यानि, तेष्वाचीण यथा चणका माषा वा, फलेषु आचीर्ण यथा त्रिफलाऽऽदि, आदिशब्दान्मूलकन्दाऽऽदिष्वपि यथा योगमाचीर्णमनाचीपर्णव्यवस्थाऽनुसतव्या। तत्रौषधीषु यदाचीर्ण तव्याचष्टेसगलासगलाऽऽइन्ने, मीसोवक्खडिय नत्थि हाणी उ। जइउं अमिस्सगहणं, चरिमदुए जं अणाइन्नं / / 281|| चणकमाषाऽऽदिषु पूर्वाऽऽचार्यराचीर्णेषु सकलेषु असकलेषु वा मिश्रेषु निर्मिश्रेषु वा उपस्कृतेषु नास्ति पञ्चकपरिहाणिः / यच्च पूर्वाऽऽचायैरनाचीर्णं तत्र पञ्चकपरिहाण्या यतित्वा लघुमासं प्राप्तश्चरमद्वयोः चतुर्थतृतीयभङ्गयो: अमिश्रस्यनिर्मिश्रोपस्कृतस्य ग्रहण कार्य नार्वागिति। आह-यन्निर्जीवंतत्कथमनाचीण्णंम् ? उच्यते - जइ ताव पिहुगमाई, सत्थोवहया वि होतऽणइन्ना। किं पुण असत्थुवहया, पेसी य फला य सरडू य॥२८॥ इह ये व्रीहयः परिपक्वाः सन्तो भ्राष्ट्राऽऽदौ भृज्यन्ते, ततः स्फुटिता अपनीतत्वचः पृथुका इत्युच्यन्ते, आदिग्रहणेनान्यदपि वदेवं निष्पद्यते तत्परिग्रहः / यदि तावत्पृथुकाऽऽदयो अग्निशस्त्रोपहता अप्यनाचीपर्णा भवन्ति किं पुनरशस्त्रोपहताः पेश्यः प्रलम्बानामूयिताः, फलाफलानि तथा प्रम्लानानि म्लानवृन्तादीऽऽनि यानि सरडूनि अबद्धास्थिकफलानि तान्यशस्त्रोपहतानि कथमाचीपर्णानि भविष्यन्तीत्यर्थः ? एतत् सर्वमपि परीत्तविषयमुक्तम् / गतं परीत्तद्वारम् / अथ साधारणद्वारमाहसाधारणे वि एवं, मीसामीसे वि हॉति भंगा उ। पणगाऽऽदी गुरुपत्तो, सव्यविसोही य जय ताहे / / 283|| साधारणमनन्तं, तत्राप्येवं प्रत्येकवत्, मिश्रोपस्कृते- चतुर्थतृतीयभङ्गो भवतः, नवरं यदा तृतीयभङ्ग प्रत्येकप्रलम्बं निर्मिश्रोपस्कृतं न लभ्यते तदा मासलघुकादुपरि यत्रोद्रमाऽऽदौ लघुपञ्चरात्रिन्दिवान्यभ्यधिकान्यापद्यन्ते, ततः स्वग्रामे वा परग्रामे वा गृह्णाति, एवं यदा पञ्चकाऽऽदिहान्या गुरुमास प्राप्तो भवति तदा साधारण निर्मिश्रोपस्कृतं प्रथमं चतुर्भड्ने स्वग्रामपरग्रामयोर्गृह्णाति। यदा तृतीयभड्ने नापि न प्राप्यते, तदा सर्वेषु विशोधिकोटिदोषेषु यतस्व प्रयत्नं कुरु, तत्र आधाकर्मकर्मोद्देशकत्रिक आहारपूर्तिकर्ममिश्रजातान्यद्रिकबादप्राभृतिका अध्यवपूरकचरमद्विकरूपानऽविशोधिकोटिदोषान् मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽप्यौद्देशिकाऽऽदय उद्गमदोषा विशोधिकोटयः, तेष्वपि गुरुलाधवाऽऽलोचनतो यद्यदाल्पदोषतरतत्पूर्व पूर्वप्रतिसेवमानास्तावद्यतते यावच्चतुर्लघुस्थानानि, तेष्वपि यदा न लभ्यते तदा चतुर्लघुकादुपरि पञ्चपरिहाण्या यत्तित्वा यदा चतुर्गुरु प्राप्नोति भवति तदा किमाधाकर्म गृह्णातु, उतप्रथमद्वितीयभङ्गाविति? अत्रोच्यतेकम्मे आदेसद्गं, मूलुत्तरे ताहि वि कलि पत्तेगे। दावरकली अणंते, ताहे जयणाएँ जुत्तस्स // 284|| अत्राऽऽधाकर्मणि प्राप्ते आदेशद्विकम् / तद्यथा- आधाकर्मणि चत्वारो गुरवः, प्रत्ये के प्रथम द्वितीययोर्भङ्गयोश्चत्वारो लघवः, एवं च प्रायश्चिऽऽत्तानुलोम्येनाऽऽधाकर्मगुरुकं , व्रतानुलोम्येन Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलंब 721 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पललिय प्रथमद्वितीयभङ्गौ गुरुकी, तयोः प्रतिषेव्यमाणयोः प्राणातिपातव्रतस्य | पलंबं वा सुरमिपलंबं वा सल्लरपलंबं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं लोपसद्भावादिति / अथवा- आधाकर्म उत्तरगुणोपघातित्वात् लघुतरं पलंबजातं आमगं असत्थपरिणतं अफासुयं अणेसणिजं. जाव प्रथमद्वितीयभङ्गो मूलगुणोपघातित्वाद्गुरुतरौ; एवमादेशद्वये कृतेऽप्या- लाभे संते णो पडिगाहेज्जा (55) / आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० धाकर्मव प्रथमतो ग्रहीतव्यम् / न च प्रथमद्वितीयभङ्गो, कुतः? इति 8 उ०। चेत, उच्यते- आधाकर्मणि जीवाःपरेण व्यपरोपिता इतितत्र गृह्यमाणे न विषयसूचीतादृशी निःशूकतोपजायते, यादृशी प्रथमद्वितीययोर्भङ्गयोरध्यक्षवीक्ष्य- | (1) प्रलम्बग्रहणनिषेधः। माणानां जीवानामात्मनैव मुखे प्रक्षिप्य भक्ष्यमाणानां व्यपरोपणा प्रलम्बपदविवरणम्। भवति / अत आधाकर्मैव प्रथमतो ग्राह्यं, न प्रथमद्वितीयभङ्गाविति (3) आत्मविराधनभावना। स्थितम्। (ताहे वि कलि पत्तेगे त्ति) यदा आधाकर्माऽपि न लभ्यते तदा (4) पतनद्वारम्। प्रत्येकद्वितीयभङ्गे ग्रहीतव्यम्, तदभावे कलिः प्रथमो भङ्गः तत्राऽपि ग्राह्यम् उपधिद्वारविवरणम्। (दायरकली अणंते त्ति) यदा प्रत्येकस्याऽपि प्रथमो भङ्गो न प्राप्यते तदा उड्डाहदारविवरणम्। द्वापर इति समयपरिभाषया द्वितीयः, कलिरिति तुप्रथम उच्यते। ततश्च अनवस्थाद्वारम्। प्रथममनन्तकायिके द्वितीयेन भङ्गेन तदभावे प्रप्रथमेनाऽपि ग्रहीतव्यं, (8) मिथ्यात्वद्दवारम। यदा अनन्तस्याऽपि प्रथमो भगों न प्राप्यते तदा यतनया युक्तस्य यत्र (E) विराधनायां विशेषः। (10) अथात्मविराधना। यत्राल्पतरः कर्मबन्धो भवतितत्तत् गृह्णानस्याशठपरिणामस्य संयम एव (11) ग्रहणद्वारम्। भवतीति वाक्यशेषः / एवं तावत् संयतानधिकृत्य यतनोक्ता। (12) तुल्ये रागद्वेषाभाव इति द्वारम्। अथसंयतीरूद्दिश्याऽऽह (13) निग्रन्थीरधिकृत्य प्रलम्बग्रहणम् / एमेव संजईण वि, विहि अविही नवरि तेसि नाणत्तं / (14) निग्रन्थीरधिकृत्य प्रलम्बग्रहणविषयाणि सूत्राणि। सव्वत्थ वि सग्गामे, परगामे भावओ विभए / / 285 / / (15) प्रलम्बन गृह्णीयात्। यथा संयतानां स्वग्रामपरग्रामऽऽदिविभाषापुरस्सरं भिन्नाभिन्न पलंबकूडपुं० (प्रलम्बकूट) जम्बूद्वीपे रूचकवरपर्वतस्य षष्ठे कूटे, स्था० योर्यतना भणिता, एवमेव संयतीनामपि वक्तव्या, नवरं तासां ना-नात्वं ठा०॥ विशेषो, विधिभिन्नान्यविधिभिन्नानि च संभवन्ति / विधिभिन्नानि पलंबजाय न० (प्रलम्बजात) प्रलम्बत्वावच्छिन्ने, आचा०२ श्रु०१ चू० मुख्यपदे सर्वत्रापि गृह्यन्ते, स्वग्रामपरग्रामयोश्च प्रथम षष्ठो भङ्गस्तदभावे १अ०८ उ०। पशमस्तस्याप्यलाभे चतुर्थस्तस्याप्यप्राप्तौ भावतोऽप्यभिन्नानि पलंबपाग पुं० (प्रलम्बपाक) फलाना पचने, नि०चू०१3०1 तृतीयद्वितीयप्रथमभङ्गवर्तीनि यथाक्रम भजेत् प्रतिसेवेत, न कश्चि पलंबमाण त्रि० (प्रलम्बमान) प्रकर्षण लम्बमानम् / इतस्ततोमनाक् दोषः / इति कल्पटीकायां प्रलम्बप्रकृतं समाप्तम्। चलनेन लम्बमाने, रा० / ज्ञा० / औ०। आ०म० / “पालंबपलंबमाण"दुर्गस्थानबहुत्वभीरुकत्या मन्दाऽपि दातुंपदा - कडिसुत्तसु कयासोहं।'' कल्प०१ अधि०३ क्षण। न्येतच्चूर्णिनिशीथचूर्णियुगलीयष्टिद्वयीदर्शनात्। पलंबवणमालाधर त्रि० (प्रलम्बवनमालाधर) प्रलम्बेत इति प्रलम्बा या प्रेर्य प्रेर्य पदे पदे निजगवी क्षिमप्रचारं मया, वनमाला तां धरतीति प्रलम्बवनमालाधरः / जी०३ प्रति० 4 अधि० / कल्पे यत्प्रकृतं प्रलम्बविषयं नद्रोचरे चारिता / / 1 / / " आपादलम्बिन्या वनमालया युक्ते, कर्म०१ कर्मा स्था०। उपा० जी०। बृ०१ उ० २प्रक०नि०चू०। पलग पुं० (पलक) विनाशे, दर्श० 4 तत्त्व (15) प्रलम्बन गृह्णीयात् पलज्जण त्रि० (प्रलज्जन) प्ररज्यते इति प्ररञ्जनः। अनुरागवति, विपा० कंदं मूलं पलंबं वा, आमं छिन्नं व सन्निरं / 1 श्रु० 2 अ०। सूत्र० / ज्ञा०। तुंबागं सिंगवेरंच, आमग परिवज्जए / 70 / / पलत्त न० (प्रलप्त) शब्दे, औ०। भाषणे, रा०। कन्दं सूरणाऽऽदिलक्षणं, मूलं विदारिकारूपं, प्रलम्ब वा तालफ- पलय पुं० (प्रलय) ब्रम्हणः स्वापावस्थायाम्, सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ० / लाऽऽदि आम छिन्नं वा (सन्निरमिति) पत्रशाकं, तुम्बाकं त्वग्मि- जगतः स्वकारणे लये, सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। जान्तवर्ति, आर्द्रा तुलसीमित्यन्ये, शृङ्गवेरं चाकम्,आम परिवर्जये- पलयघण न० (प्रलयधन) प्रलयकालिकमेधे, प्रा०१ पाद। दिति सूत्रार्थः / / 70 // दश०५ अ०१ उ०। पलल न० (पलल) पल-कलच् / मांसे, पङ्गे, तिलचूर्णं च / पलं लाति से भिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण पलंबगजातं जाणेज्जातं | ला-कः / राक्षसे, पुं०। प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। विशे०11 जहा-अंबपलंबं वा अंबाडगपलंबं वा तालपलंबं वा झिज्झिरि- | पललिय त्रि० (प्रलपित) प्रक्रीडिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलवण 722 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलिउंचणा द्वार पलवण न० (प्रलपन) उक्तौ, प्रव०४ द्वार। पलासी देशी भल्लके, दे० ना०६ वर्ग 14 गाथा। द्रुमे, वाच०। पलवण पुं० वृक्षविशेषे, तस्य त्वगनन्तजीवा, न त्वन्येऽवयवाः। प्रव०४ | पलिअंक पुं० (पर्यङ्क) शयनविशेषे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। आचा०। आसनविशेषे, प्रति० / रा० / ज०। पलविय न० (प्रलपित) अनर्थकभाषणे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। पलिय न० (पलित) कर्मणि, जुगुप्सते, अनुष्ठाने,आचा०१ श्रु०६ अ०२ पलस (देशी) कसिफले, स्वेदे च / देवना०६ वर्ग 70 गाथा। उ०। पलसू (देशी) सेवायाम. दे०ना०६ वर्ग 3 गाथा। पलिउंचग पुं० (प्रतिकुञ्चक) निहवे कुर्वाण, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। पलहि (ही) पुं० (कास) कसिशब्दस्य पलहीत्यादेशः (कपास) , पलिउंचण न० (प्रतिकुञ्चन) सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्या-खण्डने, भ० इतिख्यातं सूत्रयोनिफलके वृक्षभेदे, प्रा०२ पाद / दे०ना०६ वर्ग 4 12 श०५ उ०। गाथा। 'पलही ववणं तूलो रूवो।" पाइ० ना० 255 गाथा। परिकुधन न० परि समन्तात् कुञ्च्यते वक्रतामापद्यते क्रिया येनेति। पलाअ (देशी) चौरे, देखना०६ वर्ग 8 गाथा। मायानुष्ठाने, 'पलिउंचणं च भयण च, -डिल्लुस्सयणाणिय / ' सूत्र० 1 पलाइ (ण) त्रि० (पलायिन) पलायनकत्तेषु, ये भट्टाऽऽदयो राज्ञः पृच्छां श्रु०६ अ०। स०। मायायाम, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०| विना सकुटुम्बाः प्रणश्य गणान्तरं गच्छन्ति। बृ० 1 उ०३ प्रक० / (गच्छात् पलिउंचणा स्त्री० (परिकुचना) परिकुञ्चनमपराधस्य क्षेत्रकाल-भावानां पलायिनां साधूनां प्रतिक्रिया 'ओहावण' शब्द तृतीयभागे 130 पृष्ठे ___ गोपायनमन्यथा सतामन्यथा भणनं परिकुञ्चना परिवञ्चना वा / स्था० दर्शिता) 4 ठा०१उ०। गुरुदोषस्य मायया लघुदोषकथने, यथा सचित्तं प्रतिषेव्य पलाइय न० (पलायित) कुतश्चिद् नाशने, दश० 4 अ० / कर्तरि क्तः। मयाऽचित्तं प्रतिषेवितमित्याहेति। व्य०१ उ०। देशान्तरं गते, नि०चू०१ उ०। नष्टे, ओघ०॥ प्रतिकुञ्चना स्त्री० प्रायश्चित्तविशेष, व्य०। पलायमाण त्रि० (पलायमान) नश्यति, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। इदानी प्रतिकुञ्चनाप्रायश्चित्तमाहपलाल न० (प्रलाल) प्रकृष्टा लाला यत्र तत्पलालम्। लालाप्रकर्षशा दव्वे खेत्ते काले, भावे पलिउंचणा चउविगप्पा। लिनि, "अलालं पलालं" अनु / इह प्रकृष्टा लाला यत्रतत्प्रलालं वस्तु चोयग कप्पारोवण, इह इंभणिया पुरिसजाया / / 150|| प्राकृते पलालमुच्यते, यत्र तुपलालाभावस्तत्कथं तृणविशेषरूपं पलाल प्रतिकुञ्च्यते अन्यथा प्रतिसेवितमन्यथा कथ्यते, यया सा प्रतिमुच्यत इति प्राकृतशैलीभङ्गीकृत्यात्राऽयथार्थना मन्तव्या, संस्कृते तु कुचना / सा चतुर्विधा / तद्यथा- द्रव्ये द्रव्यविषया, एवं क्षेत्रे काले भावे तृणविशेषरूपं पलाल नियुत्पत्तिकर्मवोच्यते इति न यथार्थाऽय च / अत्र परस्य प्रश्नमभिधित्सुराह- (चोयग त्ति) अत्र चोदको बूते ननु थार्थचिन्ता संभवति / अनु० / आ००। सूत्र०। आ०म० / आचा० / कल्पेऽपि प्रायश्चित्तमभिहितं. व्यवहारेऽपि तदेव प्रायश्वि-तमभिधीयते, "छिप्पीरं च पलाल।" पाइ० ना० 142 गाथा। इति द्वयोरप्यध्ययनयोर्विशेषाभावः / अत्रार्थ सूरिवचनम्-(कप्पारोवपलालपीढय न० (पलालपीठक) पलालमये आसने, नि०चू०१२ उ०। णेत्यादि) कल्पे कल्पाध्ययने कल्पितानां मूलोत्तरगुणापराधप्रायश्चित्तापलालपुंज न० (पलालपुज) मञ्चोपरि व्यवस्थिते पलालवाते, आच०१ नामारोपणं दानमिह व्यवहाराध्ययने भणितम् / इं इति पादपूरणे / इति श्रु०६ अ०२ उ०। पलाव पुं० (प्रलाप) अनर्थक वचसि, ज्ञा०१ श्रु०१०॥ वचनात, सानुस्वारता प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि पदान्ते सानुस्वारता *नश् धा० अदशेने, "नशेर्विउड-नासव-हारव-विप्पगा-ल भवतीति। किमुक्तं भवति? कल्पाध्ययने आभवत्। प्रायश्चित्तमुक्त नतु पलावाः" / / 8 / 4 / 31 / / इति नशेः पलावाऽऽदेशः / 'पलावइ / ' दानम्, इह तु दानं भणितमिति विशेषः। तथा कल्पाध्ययने प्रायश्चित्तार्हाः नश्यति / प्रा० 4 पाद। पुरुषजाता न भणिता इह तु भणिता इति महान् विशेषः / एष गाथासंक्षेपलावि (ण) त्रि० (प्रलायिन) अनर्यकवादिनि, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। पार्थः। पलास पुं० (पलाश) पलमश्नातीति पलाशः। मांसभक्षके, "नोपतं असइ साम्प्रतमेनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतो त्ति पलासो।" पलं मांसमश्नन्नपि पलाश इति गौणनामरीत्या पलाशः / द्रव्याऽऽदिभेदभिन्न प्रतिकुञ्चनां व्याख्यानयतिपत्रे, कर्म०३ कर्म०। अनु०। आचा० / ज्ञा०। आ०चू०। अणु०। दले, सचित्ते अच्चित्तं, जणवयणपडिसेवियं तु अद्धाणे। ज्ञा० 1 श्रु०३ अ०। किंशुके, प्रज्ञा०१ पद। अनु० / नि०चू०। भ०। सुभिक्खम्मि दुभिक्खे, हटेण तहा गिलाणेणं / / 151 / / ('वणप्फई' शब्दे एतदुपपाताऽऽदिवक्तव्यता) स्वनामख्याते नीलवद् द्रव्यविषया प्रतिकुचना नाम सचित्ते, उपलक्षणमेतत्-मिश्रेवा प्रतिसेविते वर्षधरस्य कूटे, स्था० 8 ठा०।"दलं पलासं छयं पत्तं / " पाइना० अचित्तं मया प्रतिसेवितमित्यालोचयति। क्षेत्रप्रतिकुञ्चना जनपदे प्रतिसेव्य 137 गाथा। यदध्वनि प्रतिसेवितमित्यालोचयति / कालप्रतिकुञ्चना यत्सुभिक्षे काले पलाससमुग्गय पुं० (पलाशसमुद्रक) सुगन्धभृतसमुद्रके, जी०३ प्रति० सेवित्वा दुर्भिक्षे मया प्रतिसेवितमित्यावेदयति। भावप्रतिकुचना यत् हटेन 4 अधि०। सता प्रतिसेव्य म्लानेन सता मया प्रतिसेवितमित्यालोचयति / उक्ता Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिउंचणा 723 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलिओवम पतिकुचना / व्य० 1 उ० / (मासिकाऽऽदिपरिहारस्थानाऽऽपन्नस्य एहिं अद्धासागरोपमपलिओवमेहिं किं पओअणं? एएहिं ववहाप्रतिकुञ्चकस्य दृष्टान्तः 'पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 145 पृष्ठे रिएहिं अद्धापलिओवमसागरोवमे हिं नत्थि किंचि पओयणं, व्याख्यातः) केवलं पण्णवणा पण्णविजइ। से तं ववहारिए अद्धापलिओवमे / पलिउंचमाण त्रि० (प्रतिकुञ्चमान) गोपयति, आचा०२ श्रु०१ च०५ | से किं तं सुहमे अद्धापलिओवमे? सुहमे अद्धापलिओवमे से अ०२ उ०। जहाणामए पल्ले सिआ जोअणं आयाविक्खंभेणं जोअणं उद्धं पलिउंचिय अव्य० (प्रतिकुञ्च्य) कुश कुञ्च' कौटिल्याल्पीभावयोः / परि उव्वेहेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिअबेसर्वतो भाये परि समन्तात् कुञ्चित्वा कौटिल्यमाचर्य परिकुञ्च्य / सूत्रे आहिअतेआहिअ०जाव भरिए बालग्गकोडीणं, तत्थ णं एगमेमे "डनक्रपिण्डाऽऽदीनाम्" इति विकस्पवचनतो रेफस्य लकारभावः / बालग्गे असंखेजाइं खंडाई कञ्जइ, ते णं वालग्गा दिट्ठी कौटिल्यमापाद्येत्यर्थे, व्य०१ उ०। गोपयित्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ ओगाहणाओ असंखेज्जइ-भागमेत्ता सुहुमस्स पणगसुहुमसरीरोचू० 1 अ० 11 उ०। नि०चू०। गाहणाओ असंखेज्ज-गुणा, ते णं बालग्गा जो अग्गी०जाव नो पलिउंजिय पु० (परियौगिक) परि समन्ताद् यौगिकाः / परिज्ञानिनि, पलिविद्धंसिज्जा नो पूइत्ताए हव्वमागच्छिज्जा, ततो णं वाससए भ०२ श० 5 उ०। वाससए एगमेगं बालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे पलिओवम न० (पल्योपम) पल्येनोपभा येषु तानि पल्योपभानि। नीरए निल्लेवे णिट्ठिए भवइ, से तं सुहुमे अद्धापलिओवमे / "एएसिं पल्लाणं, कोडाकोडी भवेज दसगुणिआ। तं सुहुमस्स असंख्यातवर्षकोटीकोटिप्रमाणेषु कालविशेषेषु, स्था०२ ठा०४ उ०। अद्धासागरोवमस्स एगस्स भदे परिमाणं / / 1 / / " एएहिं सुहुमेहिं से किं तं पलिओवमे ? पलिओवमे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा अद्धापलिओवमसागरोवमेहिं किं पओअणं ? एएहिं सुहुमेहिं उद्धारपलिओवमे, अद्धापलिओवमे,खेत्तपलिओवमे अ। अद्धापलिओवमसागरोवमेहिनेरइअतिरिक्खजोणि-अमणुस्सतत्र पल्योपमं त्रिधा / तद्यथा-(उद्धारपलिओवमे इत्यादि) तत्र देवाणं आउअंमविजति (136) वक्ष्यमाणस्वरूपबालाग्राणां, तत्खण्डानां वा, तद्द्वारेण द्वीपसमुद्राणां (से किं तं अद्धापलिओवमे इत्यादि) इदमप्युद्धारपल्योपमवत्सर्व वा प्रतिसमयसमुद्धारणमपोद्धरणमुद्धारः, तद्विषयं तत्प्रधान वा पल्योप भावनीयं, नवरमुद्धारकालस्येह वर्षशतमानत्वाद् व्यावहारिकपल्योपमे भमुद्धारपल्योपमम् / तथा-अद्धति कालः, स चेह प्रस्तावाद्वक्ष्यमाण संख्येया वर्षकोट्योऽवसेथाः, सूक्ष्मपल्योपमे त्वसंख्येया इति। अनु० / बालाग्राणा, तत्खण्डानां वा प्रत्येक वर्षशतलक्षण उद्धारकालो गृह्यते। (नरयिकाऽऽदीनां स्थितिपरिमाणम् 'ठिइ' शब्दे चतुर्थभागे 1717 पृष्ठे अथवा-यो नारकाऽऽद्यायुःकालः प्रकृतपल्योपममेयत्वेन वक्ष्यते स उक्तम्) एवोपादीयते, ततस्तत्प्रधानं पल्योपममद्धापल्योपम, तथा क्षेत्रम् से तं सुहुसे अद्धापलिओवमे। से तं अद्धापलिओवमे (142) / आकाशं तदुःद्वारप्रधानं पल्योपमं क्षेत्रपल्योपमम्। अनु०। (उद्धारपल्यो उक्तं सप्रयोजनमंडापल्यापमम्। अनु०। पनव्याख्या 'उद्धारपलिओवम' शब्दे द्वितीयभागे 822 पृष्ठादारभ्य गता) से किं तं खेत्तपलिओवर्म? खेत्तपलिओवमे दुविहे पण्णत्ते / अथाऽद्धापल्योपमं निरूपयितुमाह तं जहा-सुहमे अ, वावहारिए अ / तत्थ णं जे सुहुमे से ठप्पे, से किं तं अद्धापलिओदमे ? अद्धापलिओवमे दुविहे पण्णत्ते। तत्थ णं जे से ववहारिए से जहानामए पल्ले सिआ जोअणं तं जहा- सुहुमे अ, वावहारिए अ / तत्थ णं जे से सुहुमे से आयाम-विक्खं भेणं जोअणं उब्वेहेणं तं तिगुणं सविसेसं ठप्पे, तत्थ णं जे से वावहारिए से जहानामए पल्ले सिआ जोअणं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिअबेआहिअतेआहिअजाव० भरिए आयमविक्खं भेणं जोअणं उन्हेणं तं तिगुणं सविसेसं बालग्गकोडीणं, ते णं बालग्गा णो अग्गी डहेज्जा०जाव णो पूइत्ताए परिक्खेवेणं से णं पल्ले एगाहियवेआहिअतेआहिअ०जाव भरिए हव्वमागच्छेज्जा, जे णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं बालग्गेहिं बालग्गकोडीणं, ते णं बालग्गा णो अग्गी डहेजा०जाव नो अप्फुन्ना तओ णं समए समए एगमेगं आगास-पएसं अवहाय पलिविद्धंसिज्जा नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा, ततो णं वाससए जावइएणं कालेणं से पल्लेखीणे०जाव निट्ठिए भवइसेतं ववहारिए वाससए एगमेगं बालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे खेत्तपलिओवमे। "एएसिंपल्लाणं, कोडाकोडी भवेज दसगुणिआ। नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ, से तं वावहारिए अद्धापलिओवमे। तं ववहारिअस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं / / 1 / / " "एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भविज दसगुणिता! तं ववहारिअस्स एएहिं ववहारिएहिं खेत्तपलिओवमसागरोवमेहिं किं पओअणं? अद्धसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं / / 1 / / " एएहिं ववहारि- | एएहिं ववहारिएहिं नत्थि किंचि पओअणं, केवलं पण्णवणा प Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालओवम 724 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलिच्छिदिय - एणपविजइ / से तं ववहारिए / से किं तं सुहुमे खेत्तपलि- किमस्त्येतद्यदुत तस्य पल्यस्यान्तर्गतास्ते केचिदप्याकाशप्रदेशा विद्यन्ते ओवमे ? खेत्तपलिओवमे से जहाणामए पल्ले सिआ जोअणं ये तैर्बाला|रस्पृष्टाः? पूर्वोक्तप्रकारेण बालाग्राणां तत्र निविडतयाऽवआयामजाव परिक्खेवेणं से णं पल्ले एगाहिअबे आहियते स्थापनाच्छिद्रस्य क्वचिदप्यसंभवाद् दुरुपपादमिदं यत्तत्रास्पृष्टा आहिय०जाव भरिए बालग्मकोडीणं तत्थ णं एगमेगे बालग्गे नभःप्रदेशाः सन्तीति प्रच्छकाभि-प्रायः, तत्रोत्तरम्-हन्तास्त्येतन्नात्र असंखिजाइं खंडाई कज्जइ, ते णं बालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ संदेहः कर्त्तव्यः, इदं च दृष्टान्तमन्तरेण बाङ्मात्रतः प्रतिपत्तुमशक्तः असंखेज्जइभागमेत्ता सुहुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ पुनर्विनेयः पृच्छति। यथा-कोऽत्र दृष्टान्तः? प्रज्ञापक आह (से जहानामए असंखेनगुणा, ते णं बालग्गा णो अग्गी डहेज्जाजाव णो पूइत्ताए इत्यादि) अयमत्र भावार्थ:- कूष्माण्डानां पुस्फलानां भृते कोष्ठके हव्वमागच्छिज्जा, जेणं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं बाल- स्थूलदृष्टीनां तावद् भृतोऽयमिति प्रतीतिर्भवति / अथ कूष्माण्डाना ग्गेहिं अप्फुन्ना वा अणाफुन्ना वा तओ णं समए समए एगमेगं बादरत्वात्परस्परं तानि छिद्राणि सम्भाव्यन्ते येष्वद्यापि मातुलिङ्गानि आगासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे०जाव वीजपूरकाणि मान्ति, तत्प्रक्षेपे च पुन तोऽयमिति प्रतीतावपि मातुलिड्निट्ठिए भवइ / से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे // गछिद्रेषु विल्वानि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मान्तीत्येवं तावद्यावत्सर्षपच्छिद्रेषु क्षेत्रपल्योपममप्युक्तानुसारत एव भावनीयम्, नवरं व्यावहारिकप- गङ्गावालुका प्रक्षिप्ता साऽपि माता। एवमर्वाग्दृष्टयो यद्यपि यथोक्तपल्ये ल्योपमे (जे णं तस्स पल्लस्सेत्यादि) तस्य पल्यस्यान्तर्गता नभः शुषिराभावतोऽस्पृष्टनभःप्रदेशान्न सम्भावयन्ति तथापि बालाग्राणां प्रदेशास्तैर्षालाग्रैर्ये (अप्फुण ति) आस्पृष्टा व्याप्ता आक्रान्ता इति यावत, बादरत्वादाकाशप्रदेशानां तु सूक्ष्मत्वात् सन्त्येवाऽसंख्याता अस्पृष्टा तेषां सूक्ष्मत्वात् प्रतिसमयमेकैकापहारे असंख्येया उत्सपिण्यव- नभःप्रदेशाः, दृश्यते च निविडतया संम्भाव्यमानेऽपि रस्तम्भाऽऽदौ सप्पिण्योऽतिक्रामन्त्यतोऽसंख्येयोत्सपिण्यवसप्पिणीमानं प्रस्तुतप- आस्फालितायः कीलकानां बहूनां तदन्तःप्रवेशो, न चासौ शुषिरमन्तरेण ल्योपमं ज्ञातव्यं, सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमे तु सूक्ष्मै लाग्रेः स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च संभवति, एवमिहापि भावनीयम्।।१४३।। नभः प्रदेशा गृह्यन्ते, अतस्त-व्यावहारिकादसंख्येयगुणकालमान (द्रव्यशरीरवक्तव्यता स्वस्वस्थाने) द्रष्टव्यम् / आहयदि स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च नभःप्रदेशा गृह्यन्ते, तर्हि बालागः से तं सुहमखेत्तपलिओवमे / से तं खेत्तपलिओवमे। किं प्रयोजने? यथो-क्तपल्यान्तर्गतनभःप्रदेशापहारमात्रतः सामान्येनैव अनु०। आ०म०। प्रव० भ० / कर्म०। जं०। प्रश्न०। विशे० / स्था०॥ वक्तुमुचितं स्यात्, सत्यं, किं तु प्रस्तुतपल्योपमेन दृष्टिवादे द्रव्याणि पल्यवत्पल्यस्तेनोषमा यस्मिस्तत्पल्योषमम् / स्था०२ ठा०४ उ०। मीयन्ते, तानि कानिचिद्यथोक्तबालाग्रस्पृष्टरेव नभ प्रदेशैर्मीयन्ते कानि- आ०म०। 'पलिओवमं वाससयसहस्समभहिय।' मकारस्य प्राकृतचिदस्पृष्टरित्यतो दृष्टिबादोक्तद्रव्यमानोपयोगित्वाद्वालाग्रप्ररूपणाऽत्र प्रभवत्वाद्वर्षशतसहस्राभ्यधिकमित्यर्थः। अथवा-पल्योपमं वर्षशतप्रयोजनवतीति / / सहस्रमभ्यधिकं पल्योपमादित्येवं गमनिका / औ०। तत्थ णं चोअए पण्णवर्ग एवं वयासी-अत्थि णं तस्स पल्लस्स | पलिंत त्रि० (प्रलीयमान) प्रकर्षेण लीयते प्रलीयते यः स प्रलीयमानः / आगासपएसा जे णं तेहिं बालग्गेहिं अणाफुण्णा? हंता अत्थिा शोभनभावयुक्ते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। समन्ताद् गच्छति, सूत्र० जहा को दिटुंतो? से जहाणामए कोट्ठए सिआ कोहंडाणं भरिए १श्रु०१अ०४ उ०। तत्थणं माउलिंगा पक्खित्ता ते विमाया, तत्थणं बिल्ला पक्खित्ता पलिगोव पुं० (परिगोप) परिगोपनं परिगोपः। द्रव्यतः पाकाऽऽदौ भावतोते वि माया, तत्थ णं आमलगा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं ऽभिष्वङ्गे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। बयरा पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं चणगा पक्खित्ता ते वि महयं पलिगोव जाणिया, जा वि य वंदणपूयणा इहं। माया, तत्थ णं मुग्गा पक्खित्ता ते विमाया, तत्थ णं सरिसवा महान्तं संसारिणं दुस्त्यजत्वान्महता वा संरमेण परिगोपनं परिगोपो, पक्खित्ता ते वि माया, तत्थ णं गंगावालुआ पक्खित्ता सा वि द्रव्यतः पाकाऽऽदिर्भावतोऽभिष्वङ्गस्तं ज्ञात्वा स्वरूपतस्तद्विपाकतो वा माया। एवमेव एएणं दिट्टतेणं अस्थि णं तस्स पल्लस्स आगास- परिच्छिद्य याऽपि च प्रव्रजितस्य सतो राजाऽऽदिभिः कायाऽऽदिभिर्वन्दना पएसा जे णं तेहिं बालग्गेहिं अणाफुण्णा / "एएसिं पल्लाणं, वस्त्रपात्राऽऽदिभिश्च पूजना तां च इहाऽस्मिन् लोके मौनीन्द्र वा शासने कोडाकोडी भवेज दसगुणिआ। तं सुहुमस्स खेत्तसागरोवमस्स व्यवस्थितेन कर्मोपशमजं फलमित्येवं परिज्ञायोत्सेको न विधेयः।।११।। एगस्स भवे परिमाणं / / 1 / / " एएसिं सुहुमेहिं खेत्तपलिओवम- सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। सागरोवमेहिं किं पओअणं? एएहिं सुहमपलिओवमसागरोव- पलिच्छण्ण त्रि० (परिच्छन्न) परिच्छदोपेते, व्य०३ उ०। प्रतिनिरुद्धे, मेवमेहिं किं पओअणं ? एएहिं सुहमपलिओवमसागरोवमेहिं आचा०१श्रु०४ अ०४ उ०। दिट्ठिवाए दव्वा मविजंति। (143) पलिच्छिदिय अव्य० (परिच्छिद्य) शस्त्राऽऽदिना (नि०चू० 5 उ०) (तत्थ णं चोयए पण्णवगमित्यादि) तत्र नभःप्रदेशानां स्पृष्टास्पृष्टत्व- छित्त्वेत्यर्थे, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। अपनीयेत्यर्थे, आचा०१ श्रु० प्ररूपणे सति जातसन्देहः प्रेरकः प्रज्ञापकमाचार्यमेवमवादीद्भदन्त ! 4 अ०४ उ०। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलित्त 725 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलिस्सयण पलित त्रि० (प्रदीप्त) "प्रदीपिदोहदे लः" ||8|1221 / / इत्यनेन | पलियस्सओ अव्य० (परिपार्श्वतस्) समीरे, 'पलियस्सओ पुण दस्य लः / प्रा० 1 पाद। प्रज्वलिते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। अस्थि / " भ०६ श०५ उ०॥ पलित्तणेह त्रि० (पर्याप्तस्रोह) पर्याप्तः परिपूर्णः स्नेहस्तैलाऽऽदिरूपो यस्य / पलियाम त्रि० (पलिताऽऽम) परिपक्वतां प्राप्याऽऽमे यत्परिपक्वं पर्याय तत्पर्याप्तस्नेहम्। पूर्णस्नेहे, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। वा प्राप्तम्, तथाऽऽप्यामम्। नि०यू०१५ उ०। पलिबाहिर न० (परिबाह्य) समन्ताबाह्ये, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०1 | पलिल त्रि० (पलित) "पलिते वा" ||1212 / / इति सूत्रेण तकापलिभाग पुं० (परिभाग) सादृश्ये, कर्म०५ कर्म०। रस्य वैकल्पिकः लकारः / जराग्रस्ते, प्रा०१ पाद। पलिभिंदिय अव्य० (परिभिद्य) परिज्ञाप्येत्यर्थे, परिभिद्येत्यर्थे च / पलिबग त्रि० (प्रदीपक) प्रदीपनकर्तरि, प्रश्न० 1 आश्र0 द्वार। "पलिभिंदियाणं तो पच्छा पादुद्धठुमुद्धिपहाणं ति।" ||2|| सूत्र०१ / पलिविय त्रि० (प्रदीपित)"पानीयाऽऽदिष्वित्" // 1 / 101 / / इति श्रु८४ अ०२ उ०। दीर्घकारस्य हस्वकारः / ज्वलिते. प्रा०१ पाद। पलिभेय पुं० (प्रतिभेद) खण्डाखण्डीकरणे, नि०चू०५ उ० / पलिह पुं०(परिघ) अर्गलादण्डे, औ०। पलिमंथ पुं०(परिमन्थ) परिमनन्ति इति परिमन्थाः। व्याघातकेषु, स्था० / पलिस्सइउ अव्य० (परिष्वक्तुम) परिष्वङ्गं कर्तुमित्यर्थे , बृ०४ उ०। 5 ठा० / 'विलोडनाय व्याघाताय स्थिते, सूत्र०२ श्रु०७ अ० / विघ्ने, पलिस्सयण न० (परिष्वजन) आश्लेषैर्निर्गन्धैर्निग्रन्थीपरिष्वङ्गः। वृ० / नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-'' ''पलिमंथमहं वियाणिया, जा वि य सूत्रम्वंदणपूयणा इह / '" सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। निगंथिं च णं गिलायमाणिं पिया वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सपलिमंथग पुं० (परिमन्थक) वृत्तचणके, कालवणके च / भ०६ श०७ एजा, तं च निग्गंथेसाइज़ेजा मेहुणपडिसेवणपता आवजइ चाउउ | बिलम्बे, स्था०७ उ०। म्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं / / / णिग्गंथं च णं गिलायमाणं पलिमंथु पुं० (परिमन्थु) परिमथ्नन्तीति परिमन्थवः / उणाऽऽदित्वाद् माया वा भगिणीवा धूता वा पलिस्सएज्जा, तं च निग्गंथी साइउप्रत्ययः / स्था० 6 ठा० / सर्वतो विलोडयितरि, ओज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं छ कप्पस्स पलिमंथू पण्णत्ता / तं जहा- कुकुइए संजमस्स | अणुग्घाइयं // 10 // पलिमंथू, मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू, चक्खुलोले अथास्य सूत्रद्वयस्य कः सम्बन्ध इति? आहइरियावहियाए पलिमंयू, तितिणिए एसणागोयरस्स पलिम), उवहयभावं दव्वं, सच्चित्तं इय णिवारियं सुत्ते। इच्छालोले मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू, भुजो भुज्जो णियाणकरणे भावासुभसंवरणं, गिलाणसुत्ते वि जोगोऽयं // 352 / / सिद्धिमरगस्स पलिमंथू, सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था दुष्टताऽऽदिभिर्दोषैरुषहतो दूषितो भावः परिणामो यस्य तदुपहतभावं // 13 / / बृ०६ उ०। पञ्चविधं सचित्तद्रव्यं प्रव्राजनाऽऽदौ (इय) एवमनन्तरसूत्रे निवारितम्। ('कप्प' शब्दे तृतीयभागे 226 पृष्ठे सूत्रं व्याख्यातम्) इहापि ग्लानसूत्रेऽशुभभावस्य परिपूजनानुमोदनलक्षणस्य संचरणं पलिमद्द पुं० (परिमर्द) परिमर्दयन्ति, ये ते परिमर्दकाः। परिमर्दोपजीवके, निवारण विधीयतेऽयं योगः संबन्धः। अनेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य (६नि०चू० 6 उ०। 10) व्याख्यानिर्ग्रन्थीं प्रागुक्तशब्दार्थां, चशब्दो वाक्यान्तरोपन्यासे, पलिमद्दवंत त्रि० (पलिमर्दयत्) शरीरमर्दन कारयति, नि०चू० 17 उ०। णमिति वाक्यालङ्कारे / (गिलायमाणि ति) ग्लायन्ती, 'ग्लै' हर्षक्षये, पलिय न० (पलित) कर्मणि, आचा० 1 श्रु० 4 अ० 3 उ० / पलभावे शरीरक्षयेण हर्षक्षयमनुभवन्ती पिता वा भ्राता वा पुत्रो वा निर्ग्रन्थः सन् क्तः / केशाऽऽदी जरया जातायां श्वेततायाम, मांसाऽऽदेवलिपरीतभावे परिष्वजेत् / प्रधनन्तीं धारयन् निवेदयन् स्थापयन् वा शरीरे स्पृशेत्। च। कतरिक्तः / वृद्धे, स्त्रियां पलिता / योषिति तु पलिक्नीत्युक्तम् / तत्र पुरुषस्पर्श सा निर्गन्थी मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता स्वादयेत् अनुमोदवाच०। आ० म०। आचा०। येत्, तत आपद्यते चातुर्मासिक परिहारस्थानमनुद्घातिकम् / एवं पलियंक पुं० (पर्यङ्क) शय्याविशेषे, व्य०१० उ०॥ दश० / जीत। भ०। निर्ग्रन्थसूत्रमपि व्याख्येयम्, नवरं तं माता वा भगिनी वा दुहिता वा ज्ञा०नि००। कल्प०।जी। परिष्वजेत्। इति सूत्रार्थः। पलियंकबंध पुं० (पर्यबन्ध) आसनविशेष, षो०१४ विव०। अथ नियुक्तिविस्तरः / तत्र परः प्राऽऽह- तत्र पुरुषोत्तमो धर्म इति पलियंत त्रि० (पर्यन्त) परि समन्तादन्तो यस्येति पर्यन्तः। सान्ते, सूत्र० | कृत्वा प्रथमं निर्गन्थस्य सूत्रमभिधातव्यं, ततो निर्गन्थ्याः , अतः 1 श्रु०२ अ०१उ०। किमर्थं व्यत्यास इति? आहपल्यान्त न० त्रिपल्योपमान्ते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१उ०। कामं पुरिसाऽऽदीया, धम्मा सुत्ते विवज्जतो तह वि। पलियत्तयकण्णहत्थ त्रि० (पलितत्वकर्णहस्त) जराग्रस्तत्वकर्णहस्ते, / दुब्बलवलस्सभावा, जेणित्थी तो कता पढमं / / 353 / / 'न हि दिजइ आहरणं, पालय तयफण्णहत्थस्सा'' विशे०। काममालमतमिदं यत्पुरूषाऽऽदयः पुरुषमुख्या धर्मा भवन्ति, Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिस्सयण 726 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलिस्सयण - तथाऽपि सूत्रे विपर्ययः कृतः / कुतः? इत्याह- दुर्बला धृतिबलविकलस्वभावा स्त्री येन कारणेन भवति ततः प्रथममसौ कृता इत्यदोषः। वइणि त्ति णवरिणम्मं, अण्णा विण कप्पती सुविहियाणं।। अवि पसुजाती आलिं गिउं पि किमुता पलिस्सइउं / / 354 // / इह सूत्रे यत प्रतिनी निर्ग्रन्थी भणिता तन्नवरं नर्म चिह्नमुपलक्षणं द्रष्टव्य, तेनान्याऽपि रखी सुविहीतानां न कल्पते परिष्वक्तुम् / इदमेव व्याचष्ट, पशुजातिरपि पिकीप्रभृतिपशुजातीयस्त्रीरप्यालिनितुन कल्पते किमुत यत् परिष्वक्तुम् / यत् सूत्रे परिष्वजनमभिहितं तत्कारणिकम् / अत एवाऽऽहनिग्गंथो निग्गंथिं, इत्थिं गिहित्थं व संजयं चेय। पलिसयमाणे गुरुगा, दो लहुगा आणमादीणि / / 355 / / निम्रन्थो निर्गन्थी परिष्वजति चतुर्गुरूकाः, तपसा कालेन च गुरवः, स्त्रियमविरतिका परिष्वजति त एव तपसा गुरवः, गृहस्थं परिष्वजति चतुर्लघुकाः, कालेन गुरवः, संयतं परिष्वजतित एव. द्वाभ्यामपि लघवस्तपसा कालेन च; सर्वत्र चाऽऽज्ञाऽऽदीनि दूषणानि भवन्ति / इदमेव व्याचष्टेनिग्गंथी गुरुगा गिहि-पासंडिसमणा य चउलहुगा। दोहिं गुरुगा य लहुगा, कालगुरु दोहि वी लहुगा / / 356 / / / निग्रन्थस्य निर्गन्थी परिष्वजतश्चतुर्गुरवो द्वाभ्यामपि गुकाः, स्त्रियं परिष्वजत एव तथोगुरवः, गृहस्थं परिष्वजतश्चतुर्लघवः कालगुरवः, पाखण्डिपुरुष श्रमणं वा साधु परिष्वजतश्चतुर्लघवः / एवं द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्या लधयः। मिच्छत्तं उड्डाहो, विराहणा फास भावसंबंधो। आतंको दोण्ह भवे, गिहिकरणे पच्छक्रम्म वा // 357 / / निर्ग्रन्थं निर्ग्रन्थ्या परिष्वजन्तं दृष्ट्वा यथा भद्रकाऽऽदयो मिथ्यात्व गच्छयुः / एते यथा-वादिनस्तथा कारिणो न भवन्ति। उड्डाहो वा भवेत्एते संयतीभिरपि सममब्रह्मचारिणः / एवं शङ्कयां चतुर्गुरू, निःशङ्किते मूलम् / एवं च प्रवचनस्य विराधना भवेत् / तेन वा स्पर्शन द्वयोरपि मोहोदये संजाते भावसंबन्धोऽपि स्यात्, ततश्च प्रतिगमनाऽऽदयो दोषाः। आतङ्को वा द्वयोरन्यतरस्य भवेत् स परिष्वजनं संक्रमेत् / गृहस्थस्य च परिष्वजनकरणात्पश्चात्कर्मदोषो भवेत्। इदमेव पश्चार्ट्स व्याचष्टेकोढुखए कच्छुजरे, अ परोवरसंकमते चउभंगो। इत्थीणातिसुहीण य, अवियत्ती गेण्हणाऽऽदीय य॥३५८।। कुष्टक्षतकच्छज्वरप्रभृतिके रोगे परस्परं संक्रामति चतुर्भङ्गी भवतिसंयतस्य संबन्धी कुष्ठाऽऽदिः संयत्याः संक्रामति संयत्याः संबन्धी वा संयतस्य संक्रामते, द्वयोरप्यन्योऽन्य संक्रामति, अत्राऽऽद्यभड़त्रये रोगसंक्रमणकृताः परितापनाऽऽदयो दोषाः / (इत्थी इत्यादि) तस्याः स्त्रियः संवन्धिनो ये ज्ञातयो ये च सुहृदस्तेषामप्रीतिकं भवति, ततश्च ग्रहणादऽऽयो दोषाः। गिहिएसु पच्छकम्म, भंगो ते चेव रोगमादीया। संजात असंखडाऽऽदी, भुत्ताभुत्ते य गमणाऽऽदी॥३५६।। गृहिषु परिष्वज्यमानेषु पश्चात्कर्म भवति, संयतेन स्पृष्टोऽऽयमिति कृत्वा गृहस्थः स्नानं कुर्यादिति भावः। अविरतिकाः। परिष्वङ्गे भावसंबन्धोऽपि जायेत। ततश्च व्रतभड्गो ब्रह्मचर्यविराधना भवेत्, रोगसंक्रमणाऽऽदयश्च तएव दोषाः, संयतंतु परिष्वजतः तेन सहा-संखडदयो दोषाः। भुक्तभोगिनश्च स्मृतिकरणेनाभुक्तभोगिनः कौतुकेन प्रतिगमनाऽऽदयो दोषाः / एवं तावन्निष्कारणे अग्लानयोश्चोक्तम्। एमेव गिलाणाए, सुत्तऽफलं कारणे तु जयणाए। कारणे गएऽगिलाणा, गिहकुल पंथे व पत्ता वा // 360 // एवमेव ग्लानाया अपि संयत्याः परिष्वजने क्रियमाणे दोषजालं मन्तव्यम् परः प्राह- नन्वेदं सूत्रमफलं प्राप्नोति, तत्र हि परिष्वजनमनुज्ञातं, स्वादनं पुनः प्रतिषिद्धम्। सूरिराह- कारणे यतनया क्रियमाणे परिष्वजने सूत्रमवतरति। कथं पुनस्तस्थसंभव इत्याह-कारणे काचिदार्यिका (एग त्ति) एकाकिनी संवृता सा च पश्चादग्लानीभूता, (गिहिकुल त्ति) गृहस्थकुला निश्रया सा स्थिता / अथवा- (गिहिकुल त्ति) माताऽस्यैककुलसमुदभूता भगिन्यादिसंबन्धेन जिनका गृहस्थतां परित्यज्य तदन्तिके प्रव्रजिता, सा चानीयमाना पथि वा वर्तमाना विवक्षितग्रामं वा प्राप्ता ग्लाना जाता। तत्रेयं यतनामाता भगिणी धूता, तधेव सण्णातिगा य सड्डीए। गारत्थि कुलिंगी वा, असोय सोए य जयणाए // 361 / / तस्याः संयत्या या माता भगिनी दुहिता वा तया तस्या उत्थापनाऽऽदिकं कार्यते / एतासामभावे या सज्ञातिका भागिनेयीपौत्रीप्रभृतिका, तया कार्यते / तस्या अभावे श्राद्धिकया, तदभावे गृहस्थया तथा भद्रिकया, कुलिङ्गिन्या वा कार्यते, तास्वपि प्रथभमशौचवादिनीभिस्ततः शौचवादिनीभिरपि यतनया कारयितव्यम्। एयासिं असतीए, अगार सण्णाय णालबद्धो य। समणो अणालबद्धो, तस्सऽसति गिही अवयतुल्लो // 362 / / एतासां रवीणामभावे योऽगारः सज्ञातकस्तस्याः स्वजनः, स च मातुलपुत्राऽऽदिरपि स्यात्, अतस्तत्प्रतिषेधार्थमाहनालबद्धो वल्लीबद्धः, पितृभ्रातृपुत्रप्रभृतिक इत्यर्थः / स उत्थापनाऽऽदिक तस्याः कार्यते, तदभावे श्रमणोऽपि यस्तस्या नालबद्धो असमानतया, तस्यासति अनालबद्धोऽपि गृही वयसा अतुल्यः स कार्यते। दोन्नि वी णालबद्धासु, जुजंती एत्थ कारणे। किढी कण्णा वि मज्झा वा, एमेव पुरिसेसु वि॥३६३।। नालबद्धाभावे द्वावपि स्त्रीपुरुषावनालबद्धावपि कारणे आगाढे उत्थापनाऽऽदिकं कारयितुं युज्यते / तत्रापि प्रथम (किढि त्ति) स्थविरा स्त्री कार्यते, तदभावे कन्यका, तदप्राप्तौ मध्यमा। एवं पुरुषेष्वपि वक्तव्यम् / अमुमेवार्थ पुरातनगाथया व्याख्यानयतिअसई य माउवग्गे, पिता व भाता व सो करेजाहि। दोण्ह वि तेसिं करणं, जति पंथे तेण जतणाए॥३६४।। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिस्सयण 727 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पलिस्सयण मातृवर्गो नाम स्वीजनस्तस्याभावे य अस्याः संबन्धी पिता भ्राता वा स उत्थापनाऽऽदिकं करोति। (दोण्ह वि इत्यादि) द्वयोरपि तयोः करणम् / 'कमुक्तं भवति? पथि वर्तमानायाः प्राप्ताया वा। अथवा-निजकाया वा अनिजकाया वा अनन्तरोक्तविधिना तस्या उत्थापनाऽऽदिकं कर्तव्यम् / यदा च पथिन्लाना संवृत्ता तदा स्वयमेव यतनया गोपालकञ्चुकतिरोधने विधूय तस्याः परिकर्म करोति / अथवा- (दोहि वित्ति) विभक्तिव्यत्ययाद्वाभ्यामपि द्रष्टव्यम्। तत्राऽयमर्थःथीपुरिसणालऽणाले, सपक्खपरपक्खु सोयऽसोए य। आगाढम्म उ कन्जे, करेंति सव्वे वि जतणाए॥३६५।। आगाढे कायें स्त्रिया पुरुषेण वा नालबद्धेन वा अनालबद्धेन वा / स्वपरपक्षेण वा शौचवादिना अशौचवादिना वा सर्वेऽपि यतनया कुर्वन्तिं / पंथम्मि अपंथम्मि व, अण्णस्स, सती सती व कुणमाणो। अंतरियकंचुकादी, सच्चिय जयणा उ पुव्वुत्ता / / 366 / / पथि अपथि वा वर्तमानाया अन्यस्याभावे यद्वा अस्ति अन्यः परं स भणितोऽपि न करोति, ततः स्वयमेव कुर्वन् गोपालकञ्चुकाऽऽदिभिरन्तरितं करोति। अत्र च सैव पूर्वोक्ता यतना मन्तव्या या तृतीयोद्देशके प्रथमसूत्रे ग्लानसंयत्याः प्रतिचरणे प्रतिपादिता / एवं तावदेकाकिनः साधोर्विधिरुक्तः। ____ अथ गच्छे तमेवाऽऽहगच्छम्मि पिता पुत्तो, भाता वा अजगो व णत्तू वा। एतेसिं असतीए, तिविहा वि करेंति जयणाए॥३६६१ गच्छे वसतां यदि तस्या पिता पुत्रो भ्राता वा आर्यको वा पितामहाऽऽदिर्नता वा पौत्रोऽस्ति, ततः संयतीनामपरस्य वा स्वीजनस्याभावे तैः कर्त्तव्यम् / एतेषां पितृप्रभृतीनामभावे त्रिविधा अपि स्थविरमध्यमतरूणाः साधवो यतनया कञ्चुकतिरोहितं कुर्वन्ति, इदं गच्छे प्राप्ताया अभिहितम। अथ पथि वर्तमानाया उच्यतेदोण्णि वि वयंति पंथं, एक्कतरा दोण्णि वा न वच्चंती। गच्छ विसए व जतणा, जा वुत्ता णायगादीया ||367 / / ये अपि द्वे निजकानिजकसंयत्यौ पन्थानं व्रजतः-एकतरा वा व्रजति, द्वे अपिनद्रजतः, एवमेते त्रयः प्रकाराः। अत्र तृतीयः प्रकारः शून्यस्थानस्थितानां वा अशक्नुवतां गच्छमप्राप्तानां भवति, ........ ? त्रिष्वपि चामीषु या पूर्व ज्ञातकाऽऽदिक्रमेण प्रोक्ता। एवं पि कीरमाणे, साइजणे चउगुरु ततो पुच्छा। तम्मि अवत्थाऐं भवे, तहिगं च भवे उदाहरणं // 36 // एवमपि यतनया क्रियमाणे परिकर्मणि यदि पुरुषस्पर्श स्वादयति तदा चतुर्गुरु, ताभ्यामपि तपःकालाभ्यां गुरवः। ततः शिष्यः पृच्छति- यस्यां ग्लानावस्थायामुत्थातुमपि न शक्यते तस्यामपि मैथुनाभिलाषो भवतीति कथं श्रद्धेयम् ? सूरिराह- तत्रेति तादृगवस्थायामपि मोहोदये इदमुदाहरणं भवेत्। कुलवंसम्मि पहीणा, ससमभसएहिं होइ आहारणं / सुकुमालियपव्वज्जा, सपच्चवाता य फासेणं / / 366 / / शशकमसकाभ्यामाहरणं भवति / कथमित्याह- कुले वंशे सर्वस्मिन्नशिवेन प्रक्षीणे सति सुकुमारिकायाः प्रव्रज्या ताभ्या दत्ता, सा चातीव सुकुमारा रूपवती च ततस्तेन स्पर्शदोषणालक्षणतया रूपदोषेण च सप्रत्यपाया ज्ञाता। एतामेव नियुक्तिगाथा व्याख्यातिजियसत्तु नरवरिंद-स्स अंगया ससभसे य सुकुमाली। धम्मे जिणपन्नत्ते, कुमारगा चेव पव्वइता ||370 / / तरुणाइन्ने निचं, उवस्सए सेसिगाण रक्खट्ठा। गणिणिगुरुभातुकहणं, वीसुवस्सएँ हिंडए एक्को / / 371 / / इक्खागे दसभागं, सव्वे विय वण्हिणो उ छन्भागं / अम्हं पुण आयरिया, अद्धं अद्धेण विभयंति // 372 / / हतमहितविप्परद्धे, वण्हिकुमारेहिं तुरुमिणीनगरे / किं काहिति हिंडतो, पच्छा ससग भसगओ चेव // 373 / / भायणुकंपपरिण्णा, समोहयं एगों भंडगं वितिओ। आसत्थवणियगहणं, भातुकसारिक्खदिक्खाय / / 374 / / "इहेव अद्धभरहे वणवासीए नयरीए जिट्ठभाउणो जरकुमारस्स मए जियसत्तू राया, तस्स दुवे पुत्ता, सेसओ अधूया य सुकुमालिया नामेण / अन्नया ते भाउणो दो वि पव्वइया गीयत्था जाया। सा भायगदंसणत्थं आगया, नवरं सव्वे वि कुलवंसपहीणा सुकुमालियं एक मोत्तुं / सा तेहिं पटवाविया तरुमिणि नगरिं गया, महयरिया पडिन्ना, सा अतीव रूववई जओ जओ भिक्खावियाराऽऽदिसु वच्चइ तओ तओ तरुणजुवाणा पिट्ठतो वचंति, वसहीए पविट्टाए वितरुणा उवस्सयं पविसित्ता चिट्ठति, संजईओ नतरति पडिलेहणाई किंचि काउं, ताहे ताए महयरियाए गुरूणं कहियंसुकुमालिपत्तएणं समं अन्नाओ वि विणिस्सिहंति,गुरुणा ससग-भसगा भणिता-सारक्खह एतं भगिणि, ते तां घेत्तुं वीसुं उवरस-एट्टिया, तेसि एगो भिक्खं हिंडइ, एगोतं पयत्तेण रक्खइ, दो वि भायरो साहस्समल्ला, जे तरूणा अहिवडंति ते हतमहिते काउंघाडेंति, ते य विराहिया भिक्खं नदिति, तओ स एगो हिंडतो तिण्हं पजत्तं न लहइ, पच्छा देसकाले फिडिए हिंडितो न संथरइ, ताहे सा भणइ, तुब्भे दुक्खिया माहोह, अहं भत्तं पचक्खामि, पचक्खाए मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया, तेहिं नायं कालगय तिताहे एगेणं उवगरणं गहियं, बीएण वासा गहिया, गच्छंताणं ताएईसित्ति पुरिसफासो वेइओ, साइज्जियं चतओतेतं परिहवित्ता गया गुरुसगासं, इयरी रत्तीए सीयलवाएणं समासत्था सर्वयणा जाया, गोसे एगेण सत्थवाहपुत्तेणं दिवा,ताएसो भणिओ-जड तेमएकजं तो सारवेहि. सा तेण सारविया महिला से जाया। ते भायरो अन्नया भिक्खं हिडते दटुं पाएसु पडियाए रुन्ना, सा तेहिं सारिक्खेण पञ्चभिन्नाया पुणो पव्वाविया एवं। जइ तावतीए समुग्घायगयाए साइज्जियं किमंग! पुण इयरी गिलाणी साइजिज्जा।'' अथाऽक्षरार्थः जितशत्रुनरवरेन्द्रस्याङ्गजौ पुत्री शशकभसको सुकुमारिका च दुहिता। ततो जिनप्रणीते धर्मे कुमारकावेव तौ प्रव्रजितौ, क्रमेण च ताभ्यां भगिन्यपि प्रव्रजिता। ततस्तस्या रूपदोषेण Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिस्सयण 728 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पल्लग तरुणैराकीर्णे नित्यमुपाश्रये शेषसाध्वीनां रक्षणार्थ गणिन्या गुरवे ततः समवहतः कालगत इति विज्ञायोज्झन परिष्ठापन, तस्य च स्त्रीस्पर्शण निवेदितम्, गुरुभिश्च भ्रात्रोः कथितं, ततः पृथगुपाश्रये तां गृहीत्वा स्थिती, समाश्वासितस्य पुनश्चैतन्ये संजाते पुरुषद्वेषिण्या गणिकया ग्रहणं, तयोर्मध्यादेको भिक्षार्थं हिण्डते, एकस्ता रक्षति / किमर्थं पुनस्तस्या ततस्तस्याः पतिः संजातः, कियत्यपि काले गते समागताभ्यां भगिनीभ्या रक्षणमेव तौ कृतवन्तावित्याह-(इक्खागा इत्यादि) इक्ष्वाकव इक्ष्वाकु- प्रत्यभिज्ञाय भूयः प्रव्राजित इति। बृ० 4 ग०। वंशनृपतयः प्रजाःसम्यग् पालयन्तोऽपालयन्तश्च यथाक्रमं तदीयपुण्य- पलिहअ (देशी) मूर्खे, देना०६ वर्ग 20 गाथा। पापयोर्दशभाग लभन्ते, सर्वेऽपि च वृष्णयो हरिवंशनृपतय एवमेव षट्भागं पलिहस्स (देशी) ऊर्ध्वदारौ, देवना० 6 वर्ग 16 गाथा। लभन्ते, अस्माकं पुनः प्रवचने आचार्याः साधुसाध्वीजनं संयमाऽऽत्म- पलिहा (देशी) ऊर्ध्वदारौ, दे०ना० 6 वर्ग 16 गाथा। प्रवचनविषयप्रत्यपायेभ्यः सम्यक् पालयन्तो वा यथाक्रमं पुण्यपापं पलीण त्रि० (प्रलीन) प्रकर्षेण लीने, भ० 25 श०७ उ० / सूत्र०। सम्बद्धे, चार्द्धमर्द्धन विभजन्ति, अत एव तौ तारक्षितवन्ताविति भावः / ततश्च सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। (अस्य विस्तरतो व्याख्या धारणाववहार' (वण्हिकुमारेहि त्ति) वृष्णयो यादवास्तेषां कुमारौ वृष्णिकुमारी, शब्दे 2756 पृष्ठे 653 व्यवहारगाथायां गता) वृष्णिकुमारौ शशकभसकावित्यर्थः। ताभ्यां तुरुमिणीनगर्यामुपसर्गकारी पलीवणया स्त्री० (प्रदीपनता) संधुक्खिअमुद्दीविय-मुजालिअंपलीविरं तरुणजनो भूयान् हथमथितविप्ररब्धः कृतस्तत्र हतश्चपेटाऽऽदिना मथितो | जाण। संदुमिअंऊसिक्किअं, उन्भुत्तिअयं च तेअविअं॥१६|| पाइ० ना० नाम भ्रान्तिं प्रापितो विप्ररब्धो विविधखरपरुषवचनैः प्रकर्षण निवारितः। / 16 गाथा। स्वार्थे तल् ! नाशने, नि०चू०१६ उ०। एवं प्रभूतलोकैर्विराधिते सति किं करिष्यति पश्चाद्भिक्षां हिण्डमानः शशको | पल्लुत्तरा स्त्री० (पल्योत्तरा) एकैकपलवृद्धिसूचिकायां रेखायाम, ज्यो० भसको वा; भक्तपानलाभाभावान्न किमपीति भावः / ततः सुकुमारिकया / 2 पाहु०॥ भात्रोरनुकम्पया परिज्ञा भक्तप्रत्याख्यानं, ततां मरणसमुद्धातेन | पलेमान त्रि० (प्रलीयमान) प्रकर्षण लीयते प्रलीयमानः। सूत्र० 1 श्रु०१३ समबहतां कालगतेयमिति ज्ञात्वा एको भाण्डमुपकरणं द्वितीयस्तस्या / अ०। पौनःपुन्येन कृतजन्माऽऽदिसन्धाने, आचा०१ श्रु० 4 अ० 1 उ०। गृहीतवान्, ततः शीतलवातेन आश्वस्तायास्तस्या वणिजा ग्रहणं, / पलोएमाण त्रि० (प्रलोकयत्) दीर्घा दृष्टि दिक्षु प्रक्षिपति, भ० 15 श०। कालान्तरेण च भ्रातृभ्यां साक्ष्येण प्रत्यभिज्ञाय दीक्षा प्रदत्तेति व्याख्यातं / उपादेयतया प्रेक्षमाणे, औ०। निर्ग्रन्थीसूत्रम्। पलोट्टण न० (प्रत्यागमन) उत्थाने, व्य० 1 उ० / अथ निर्ग्रन्थसूत्रं व्याचष्टे पलोट्टफेणाउल त्रि० (प्रत्यागतफेनाऽऽकुल) प्रवृत्युत्पन्नेन फेनेन व्याप्ते, एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ णायव्यो। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ तासिं कुलपव्वज्जा, भत्तपरिण्णा य भातुम्मि॥३७६।। पलोट्ट धा० (प्रति आ-गम्) यतो गतस्तत्रैवाऽऽगमने, "प्रत्याङा एष एव गमो निर्ग्रन्थस्य परिष्वजनं कुर्वन्तीनां निर्ग्रन्थीनां ज्ञातव्यो / पलोट्टः।" ||4|166 / / इति प्रत्यापूर्वस्य गमधातोः पलोट्टाभवति, नवरं तासां निर्ग्रन्थीनां संबन्धी (कुल त्ति) एककुलोद्भवो भ्राता ___ऽऽदेशः / 'पलोट्टइ। पञ्चागच्छड़।' प्रत्यागच्छति। प्रा०४ पाद। रूपवान प्रवजितस्तस्यापि क्रमेण भक्तपरिज्ञा संजाता। पलोट्ठजीह (देशी) रहस्यभेदिनि, दे०ना० 6 वर्ग 35 गाथा। इदमेव व्याचष्ट पलोभिय त्रि० (प्रलोभित) प्रकृष्ट लोभं कारिते, "णियदसणेण पलोभिया विउलकुले पव्वइते, कप्पट्ठक किढिय कालकरणं च / कयणियाणा।" आ०म०१ अ०। जोव्वण तरुणीपेल्लण, भगिणी सारक्खणे वीसुं / / 377 / / पलोय पुं० (प्रलोक) प्रलोक्यत इति प्रलोकः / लोके, आ० म०२ अ०। सो चेव य पडियरणे, गमतो जुवतिजणवारणपरिण्णा। पलोयण न० (प्रलोकन) पर्यालोचने, आचा०२ श्रु०४ चू० 1 अ०१ कालगतो त्ति समोहतो, उज्झण गणिया पुरिसदेसी // 378|| अधि०। क्वापि विपुलकुले समुद्भूतं भगिनीद्वयं प्रव्रजितं, ततः कुल वंशस्तथैव | पलोयणा स्त्री० (प्रलोकना) प्रलोकनं प्रलोकना / प्रकर्षणाऽऽलोके, सर्वोऽपि प्रक्षीणो, नवरमेकः कल्पस्थको जीवति, ततः ज्ञानदर्शनाय ओघ० / "जे भिक्खू संखडिपलोयणाए असणं पाणं खाइमं साइम गतेन तेनार्यिकाद्वयेन किटिका स्थविरा, मातेत्यर्थः। तत्प्रभृति कुटुम्बस्य पडिग्गाहेइ।" नि०चू० 3 उ०। कालकरण श्रुतं स च कल्पस्थकः प्रव्रज्य गुरूणां दत्तः, यौवनं च पल्ल न० (पल्य) शकटकाऽऽदिकृते धान्याऽऽधारविशेष, स्था० प्राप्तोऽसावतीव रूपवान् समजनि, ततस्तरुणीति प्रेर्यते,ततो गुरूणा- | 3 ठा० 1 उ० / अनु० / रा०। माज्ञया ते भगिन्यौ विष्वगुपाश्रये नीत्वा संरक्षितवत्यौ। कथमित्याह- स | पल्लंक पुं० (पल्यङ्क) शाकभेदे, प्रव०४ द्वार। एव प्रतिचरणे रक्षणे गमो भवति, यः सुकुमारिकाया उक्तः / एवं पल्लग पुं० (पल्यक) (पाल-खंव) लाटदेशप्रसिद्धे,धान्याऽऽधारविशेषे, युवतिजनवारणे क्रियमाणे तस्य भगिनीदुःखं तथाविधं दृष्ट्वा भक्तपरिज्ञा, | प्रज्ञा०३३ पद। आ०म० विशे०/०। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लट्ट 726 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवंचण पल्लट्ट धा० (पर्यस्) पतने, घाते, विक्षपे च / वाच / पर्यसः पलोट्टपल्लट्ट- इतिर्यस्यल्लः / उष्टाऽऽदिपृष्ठोपरिरथे विशिष्टसंस्थाने आसनविशेषे, प्रा० पल्हत्थाः // 8 / 4 / 200|| इति सूत्रेण पर्यस्यतेः पल्लट्टाऽऽदेशः पल्लट्टइ' २पाद। पर्यस्यति / प्रा० 4 पाद। पल्लिय त्रि० (पल्लित) आक्रान्ते, नि०यू० 2 उ० / "अतिणिद्यापपल्लट्टिउं अव्य० (परिवर्त्य) स्वकीयकोद्रवीदनाऽऽदिसमर्पणे न परकीय- लिओ।' अतिनिद्राथस्तः / नि०चू० 1 उ० / पाल्यन्तेऽनया शाल्योदनाऽऽदि गृहीत्वेत्यर्थे, पञ्चा० 13 विव०। दुष्कृतविधायिनो जना इति पल्ली नैरुक्तो विधिः / उत्त० 30 अ०। पल्लत्थ नि० (पर्यस्त) "पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्ये लः" | पल्ली स्त्री० (पल्ली) वृक्षवंशाऽऽदिगहनाऽऽश्रितेप्रान्तजनस्थाने, उत्त० ||श६८।। इति र्यस्य नः। प्रा० 2 पाद / “पर्यस्ते थटौ" 30 अ०। नि०चू०। / / 8 / 2 / 47 / / इति स्तभागस्य थकारटकारी। प्रा०२ पाद / प्रक्षिते, | पल्लीण त्रि० (प्रलीन) प्रकर्षेण लीनः प्रलीनः / कल्प०१ अधि०४ विक्षिप्ते, पर्वतशैलाद् गण्डशैल इव स्वाश्रयाच्चलिते, प्रश्न०४ सम्ब० क्षण। बहुतरं लीने, जीत०। द्वार। "करयलपल्लत्थमुहे।'' करतले पर्यस्तं मुखं यस्य स तथा। सूत्र० पल्लीवइपुं० (पल्लीपति) पल्लीराजे चौरपत्यादौ, स्था० 4 ठा० 4 उ०। 2702 अ०। पर्यस्ते, पर्यस्तशब्दभवे / देखना० 6 वर्ग 14 गाथा। पल्लोट्ट त्रि० (पर्यस्त)"क्तेनाप्फुण्णाऽऽदयः" ||814 / 258 / / इति पल्लत्थयंत त्रि० (पर्यस्तयत्) पर्यस्तं कुर्वति. 'अण्णया वग्गणाणि निपातः। विक्षिप्ते, प्रा० 4 पाद। पवत्थयंतीए रयणाणि जायाणि।" निचू०१ उ०। पल्हत्थ त्रि० (पर्यस्त) "क्तेनाप्फुण्णाऽऽदयः" ||8 / 4 / 258|| इति पल्लय पुं० (पल्ल्यक) अनुत्तरोपपातिकदशाना दशमाऽध्ययनोक्तवक्त निपातः / पतिते, विक्षिप्ते, प्रा०४ पाद। व्यताके साधौ, स्था० 10 ठा०। पर्यस् धा० विक्षेपे, 'पर्यसः पलोट्ट-पल्लदृ-पल्हत्थाः '' पल्लल न० (पल्वल) लघुतडागे, 'पल्ललं अखायतल्लं / ' पाइ० 130 ||6|200 / / इति सूत्रेण परिपूर्वकस्यासूधातोः पर्यसादेशः / पल्हगाथा पुं०। प्रल्हादनशीले जलस्थानविशेषे, भ०५ श०७ उ०। प्रज्ञा० / त्थइ।' पर्यस्यति। प्रा०४ पाद। पल्हत्थिय त्रि० (पर्यस्तित) पर्यस्तीकृते, सर्वतः क्षिप्ते, ज्ञा० 1 श्रु० ज्ञा० / प्रश्न १६अ। पल्लव पुं० (पल्लव) संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपे वराड्कुरे, जी०३ प्रति० विरचित त्रि० विरविते, "पल्हत्थियमुलंडियं।' पाइ० ना०२०१ गाथा। 4 अधि०। स०। औ०। जी०। "किसलयाइँ पल्लवा पवाला य।" पाइ० पल्हत्थिया स्त्री० (पर्यस्तिका) जनोपरि वस्त्रवेष्टनाऽऽत्मके, उत्त०१ ना० 138 गाथा / रा० / जं० / किशलये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। अ०। जडोपरि पादमोचने, उत्त०१ अ० / पर्यव पुं० प्राकृतत्वात्तथाऽऽदेशः। वस्तुधर्मे, स० 4 अङ्ग। पल्हत्थियावट्ट पुं० (पर्यस्तिकापट्ट) योगपट्टे,बृ०३ उ०। पल्लविअ त्रि० (पल्लवित) लाक्षारसरक्ते, "लक्खारुणि पल्लविअं।" पल्हाइय त्रि० (प्रह्लादित) आपन्नसुखे, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। पाइ० ना०२६८ गाथा। पल्हाय पुं० (प्रल्हाद) "हो ल्हः" ||8|2|76 / / सूत्रेणास्य पल्लविय त्रि० (पल्लवित) संजातपल्लवे, जी०३ प्रति०४ अधि० लाक्षा हकाराऽऽक्रान्तलकारस्य लकाराऽऽक्रान्तो हकारः / प्रा०२ पाद। "अहो रक्ते, न० / देवना० 6 वर्ग 11 गाथा। अभिरूपा एता'' इत्यादि विकल्पजे आनन्दे, उत्त०१६ अ०। पल्लवंकुर पुं० (पल्लवाड्कुर) सञ्जातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपेऽड्कुरे, पल्हायजणण न० (प्रह्लादजनन) प्रह्लादोत्पादेशीतीभवने, व्य०१० उ० / जी०३ प्रति०४ अधि०। अन्तःकरणस्य हर्षोत्पादके उत्त०१६ अ०। पल्लवग्ग न० (पर्यवाग्र) पर्यवप्रमाणे अभिधेयाऽऽदितद्धर्मसंख्याने, यथा पल्हायणिज्ज त्रि० (प्रह्लादनीय) आह्लादके, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० "परित्ता तसा।'' इत्यादि। स० 4 अङ्ग। पवअ पुं० (प्लवग) वानरे, "साहाभिओ वलिमुहो, पयंगमो वानरो कई पल्लवगाहिणी स्त्री० (पल्लवग्राहिणी) "न य कत्थइ निम्मातो, ण य पवओ।" पाइ० ना० 43 गाथा। पुच्छइ परिभवस्स दोसिणं। वत्थीव वायपुण्णो, फुट्टइगामिल्लगविपक्खेसु पबंग पुं० (प्लवग) वानरे, पाइ० ना० 43 गाथा। / / 375 // " इत्युक्तलक्षणे दुर्विदग्धपर्षभेदे, वृ०१ उ०२ प्रक० / पबंगम पुं० (प्लवङ्गम) वानरे, "साहामिओ वलिमुहो, पयंगमो वाणरो पल्लवाय (देशी) क्षेत्रे, देवना०६ वर्ग 26 गाथा। कई पवओ।" पाइ० ना० 43 गाथा। पल्लविल्ल पुं० (पल्लव) "स्वार्थे कश्च वा" ||8/2 / 164| इति / पवंच पुं० (प्रपञ्च) प्रपञ्च्यते बहुधा नटवद्यस्मिन् स प्रपञ्चः / संसारे, सूत्रेण स्वार्थ इल्लप्रत्ययः / किशलये, प्रा०२ पाद / जातिजरामरणरोगशोकाऽऽदिके. सूत्र०१ श्रु०७ अ०। विस्तारे, प्रश्र० पल्लाउत्त पुं० (पल्ल्यागुप्त) वंशकटाऽऽदिकृते धान्याऽऽधारविशेष, स्था० 1 आथ० द्वार। औ०। पर्याप्तापर्यातकसुभगाऽऽदिद्वन्द्वविकल्पे, आचा० 3 ठा०१ उ०। 1 श्रु०३ अ०३ उ०। बृ०॥ पल्लाण न० (पर्याण) पर्यस्त-पर्याण-सौकुमार्ये लः / / 8 / 268 / / | पवंचण न० (प्रपञ्चन) विप्रतारणे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवंचा 730 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा पवंचा स्त्री० (प्रपञ्चा) प्रपञ्चयति विस्तारयति खेलकासाऽऽदीनि प्रपञ्चा। सप्तम्यां पुरुषस्य दशायाम, तं०। सत्तमीउ पवंचाओ, जं नरो दसमस्सिओ। निच्छुभइ चिक्कणं खेलं,खासई य खणे खणे / / 7 / / सप्तमी प्रपञ्चा दशा, या दशामाश्रितः (निच्छुभइ त्ति) बहिर्निः क्षिपति / यत्र कुत्रापि बहिर्निस्सारयति चिक्का पिच्छिल, चेपकतुल्यमित्यर्थः / खेल श्लेष्माणं च पुनः क्षणे क्षणे वारं वारं (खासइत्ति) कासित करोतीत्यर्थः / तं। दश०। पवंचियण्णु पुं० (प्रपञ्चितज्ञ) विस्तरगदितज्ञे विनये, न०।। पवग पुं० (प्लवक) उत्प्लुत्य गर्ताऽऽदिलड्डनकारिषु, ये उत्प्लवन्ति गर्ताऽऽदिक क्रियाभिर्लधयन्ति नद्यादिकंवा तरन्ति तेषु, अनु० / ज० ! कल्प० / जी० / औ० / प्रश्न०। रा०। ज्ञा०। निचूला प्लवको वा प्रथम वंशे विलग्नः सन् प्लवते, ततः पश्चादभ्यस्यन्नाकाशेऽपि तानि तानि करणानि करोति / बृ०१ उका पवजा रत्री० (प्रव्रज्या) प्रव्रजनं पापेभ्यः प्रकर्षेण / चरणयोगेषु गमने, ध० 3 अधि०। महाव्रतप्रतिपत्तौ, पञ्चा० 16 विव०। पव्वयणं पव्वज्जा, पावाओ सुद्धचरणजोगेसुं। इअ मुक्खं पइ वयणं, कारणकजोवयाराओ / / 5 / / प्रव्रजतं प्रवज्या प्रकर्षण व्रजन प्रव्रज्या, कुतः त्यत आहपापाच्छुद्धचरणयोगेषु, इह पापशब्देन पापहेतवो गृहस्थानुष्ठानविशेषा उच्यन्ते, कारणे कार्योपचारान्, यथा-दधित्रपुषी प्रत्यक्षो ज्वर इति। शुद्धचरणयोगास्तु संयतव्यापारा: मुखवस्त्रिकाऽऽदिप्रत्युपेक्षणाऽऽदय उच्यन्ते / (इय) एवं मोक्ष प्रति व्रजनं प्रव्रज्या। कथमित्याह- ''कारणे कार्योपवारात्'' कारणे शुद्धचरणयोगलक्षणे मोक्षाऽऽख्यकार्योपचारात्। यथा- ''आयु घृतम्' इत्यायुषः कारणत्वाद् धृतभेवाऽऽयुरित्थं मोक्षकारणत्वात् शुद्धवरणयोग एव मोक्ष इति। ततश्च मोक्ष प्रति प्रव्रजन प्रव्रज्या इति गाथार्थः / एष तावत्प्रव्रज्यातत्त्वार्थः। (1) अधुना भेदत एनां व्याचिख्यासुराहनामाइचउब्मेआ, एसा दव्वम्मि चरगमाईणं। भावेण जिणमयम्मि उ, आरंभपरिग्गहचाओ।।६।। नाभाऽऽदिचतुर्भेदा एषा इय च प्रव्रज्या नामाऽऽदिचतुर्भेदा भवति। तद्यथा- नामप्रव्रज्या स्थापनाद्रव्यभावप्रव्रज्या चेति। तत्र नामरस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य नो आगमत एव ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तां द्रव्यप्रव्रज्यामाह-द्रव्ये चरकाऽऽदीनां द्रव्य इति द्वारपरामर्शः / द्रव्यप्रव्रज्या चरकाऽऽदीना चरकपरिव्राजकभिक्षुमीताऽऽदीना, द्रव्यशब्दश्वेहाप्रधानवाचको वर्तमानभूतभविष्यद्रावयोग्यतावाचक इति नोआगमन एव भावप्रव्रज्यामाह- भावेनेति भावतः परमार्थतः जिनमत एव रागाऽऽदिजेतृत्वाजितः तन्मत एव, वीतरागशासन एवेत्यर्थः। आरम्भपरिग्रहत्यागः | वक्ष्यमाणाऽऽरम्भपरिग्रहवर्जन जिनशासन एव, अन्यशासनेष्वारम्भपरिग्रहस्वरूपानवगमात्सम्यक्त्वाभाव इति गाथाऽर्थः। आरम्भपरिग्रहस्यरूपप्रतिपादनायाऽऽह पुढवाइसु आरंभो, परिग्गहो धम्मसाहणं मुत्तुं / मुच्छा य तत्थ बज्झा, इयरो मिच्छत्तमाईओ।।७।। पृथिव्यादिषु कार्येषु विषयभूतेषु आरम्भ इत्यारम्भणमारम्भः संघट्टनाऽऽदिरूपः परिग्रहणं परिग्रहः / असौ द्विविधः-बाह्यः, आध्यन्तरश्च। तत्र धर्मसाधनं मुखवस्त्रिकाऽऽदि मुक्त्वा बाह्य इति संबन्ध / अन्यपरिग्रहणमिति गम्यते / मूर्छा च तत्र धर्मोकरणे बाह्या एव परिग्रह इति / इतरस्त्वान्तरपरिग्रहो मिथ्यात्याऽऽदिरेव। आदिशब्दादविरतिदुष्टयोगा गृह्यन्ते परिगृह्यन्ते, तेन कारणभूतेन कर्मणाजीव इति गाथार्थः / पं०व० द्वार। नि०चू० (2) प्रव्रज्यापर्यायाः। अधुनैतत्पर्यायानाहपव्वजा निक्कमणं, समया चाओ तहेव वेरग्गं / धम्मचरणं अहिंसा, दिक्खा एगट्ठिया इंतु ||6|| प्रव्रज्या निरूपितशब्दार्था, निष्क्रमणं द्रव्यभावसङ्गात्, समता सत्त्वेष्विष्टानिष्टषु त्यागो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहस्य, तथैव वैराग्यं विषयेषु, धर्मचरण क्षान्त्याद्यासेवनम्, अहिंसा प्राणिघातवर्जनम्, दीक्षा सर्वसत्त्वाभयप्रदानेन भावसत्रम्। एकार्थिकानितु एतानि प्रव्रज्यायाः, तुः विशेष - णार्थः शब्दनयाभिप्रायेण, समभिरूढनयाभिप्रायेण तु नानार्थान्येव, भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तल्वात्सर्वशब्दानाम्। इति गाथाऽर्थः / पं० व० 1 द्वार। (3) त्रिविधा प्रव्रज्यातिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता। तं जहा-इहलोगपडिबद्धा, परलोगपडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा / / सूत्रचतुष्टयं सुगम, केवलं प्रव्रजनंगमनं पापाचरणव्यापारेष्विति प्रव्रज्या, एतचरणयोर्गमन मोक्षगमनमेव कारणे कार्योपचारात, तन्दुलान्वर्षति पर्जन्य इत्यादिवदिति। उक्तंच पञ्चवस्तुके- "पव्वयणं पव्वञ्जा, पावाओ सुद्धचरणजोगेसु / इय मोक्खं पइ गमणं, कारणकजोवयाराओ" / / 5 / / इति।। (अस्याः व्याख्याऽनुपदमेव गता) इहलोकप्रतिबद्धा ऐहलौकिकभोजनाऽऽदिकार्यार्थिना, परलोकप्रतिबद्धा जन्मान्तरकामाऽऽद्यर्थिनां, द्विधा प्रतिबद्धा इहलोकपरलोकप्रतिबद्धा, सा चोभयार्थिनामिति / स्था०३ ठा०२ उ०। चतुर्विधा प्रव्रज्याचउविहा पव्यज्जा पण्णत्ता। तं जहा-इहलोगपडिबद्धा, परलोगपडिबद्धा, दुहओ लोगपडिबद्धा अप्पडिबद्धा / / इहलोकप्रतिबद्धा निर्वाहाऽऽदिमात्रर्थिनाम्, परलोकप्रतिबद्धा जन्मान्तरकामाऽऽद्यर्थिनाम, द्विधालोकप्रतिबद्धा, उभयार्थिनाम्। अप्रतिबद्धाविशिष्टसामायिकवताम् / स्था० 4 ठा० 4 उ०। तिविहा पध्वजा पण्णत्ता / तं जहा-पुरओ पडिबद्धा, मग्गओ पडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा। पुरतोऽग्रतः प्रतिबद्धाः प्रव्रज्यापर्यायभाविषु शिष्याऽऽदिष्वाशंसनतः प्रतिबन्धत्वात, मार्गतः पृष्ठतः स्वजनाऽऽदिषु सेहाच्छेदात, तृतीया द्विधाऽपीति / स्था० 3 ठा०२ उ०। चउव्विहा पव्वजा पण्णत्ता। तं जहा-पुरओ पडिबद्धा, मग्गओ पडिबद्धा, दुहओ पडिबद्धा अपडिबद्धा।। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा पवज्जा 731 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुरतोऽग्रतः प्रव्रज्यापर्यायभाविषु शिष्याऽऽहाराऽऽदिषु या प्रतिबद्धा सा तथा उच्यते, एवं मार्गतः पृष्ठतः स्वजनाऽऽदिषु, द्विधा-ऽपि काचित् अप्रतिबद्धा पूर्ववत् / स्था० 4 ठा० 4 उ० / तिविहा पव्वज्जा पण्णत्ता / तं जहा-तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, वुयावइता॥ (तुयावइत्त ति) 'तुद' व्यथने इति वचनात् / तोदयित्वा तोदं कृत्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते। (पुयावइत्त त्ति) 'प्लुड्गताविति वचनात्।प्लावयित्वाऽन्यत्र नीत्वाऽऽर्यरक्षितवत्या दीयते सा तथेति। (वुवावइत्ता) संभाष्य गौतमेन कर्षकवदिति। स्था०३ ठा०२ उ०। चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता / तं जहा-तुयावइत्ता, पुयावइत्ता, मोयावइत्ता परिपुयावइत्ता।। (तुयावइत्त ति) तोदं कृत्वा तोदयित्वा व्यथामुत्पाद्य या प्रव्रज्या दीयते, मुनिचन्द्रपुत्रस्य सागरचन्द्रेणेव सा तथोच्यते / (ओया-वइत्त त्ति) क्वचित्पाटस्तत्र ओजो बलं शारीरं विद्याऽऽदिसत्कं वा तत् कृत्वा प्रदW दीयते सा ओजयित्वेत्यभिधीयते। (पुयावइत्त ति) प्लुड्गतावितिवचनात्, प्लावयित्वा, अन्यत्र नीत्वाऽऽर्यरक्षितवत्, पूतं वा दूषणव्यपोहेन कृत्वा या सा पूतयित्वेति / (वुयावइत्त त्ति) संभाष्य गौतमेन कर्षकवत् वचन वा पूर्वपक्षरूप कारयित्वा निगृह्य च प्रतिज्ञावचनं वा कारयित्वा या सा तथाक्ता। क्वचित् ''मोयावइत्त त्ति'' पाठस्तत्र मोचयित्वा साधुना तैलार्थ-त्वादासम्नप्राप्तभगिनीवदिति। (परिपुयावइत्त त्ति) घृताऽऽदिभिः परिप्लुतभोजनः परिप्लुत एव, तं कृत्वा परिप्लुतयित्वा सुहस्तिनो रडवत् या सा तथोच्यते। स्था०४ ठा०४ उ०। तिविहा पध्वजा पण्णत्ता / तं जहा-उवायपटवजा, अक्खायपव्वजा, संगारपव्वजा।। अवपातः सेवा सद्गुरूणां, ततो या सा अवपातप्रव्रज्या, तथा आख्यातस्य वा प्रव्रज्येत्यभिहितस्य गुरुभिर्या साऽऽख्यातप्रव्रज्या फल्गुरक्षितस्येवेति / (संगार ति) संकेतस्तरभाद्या सा संगारप्रव्रज्या, मेतार्याऽऽदीनामिवेति। अथवा-यदि त्वं प्रव्रजसि तदा मया प्रव्रजितव्यमित्येवं या सा। स्था०३ ठा०२ उ०। चउठिवहा पव्वज्जा पण्णत्ता / तं जहा-उवायपव्वजा, अक्खायपव्वज्जा, संगारपव्वज्जा, विहगगइपव्वजा। (उवाय त्ति) अवपातः सद्गुरूणां सेवा, ततो या प्रव्रज्या साऽवपातप्रव्रज्या, आख्यातस्य प्रव्रज्येत्याधुक्तस्य या स्यात् साऽऽख्यातप्रव्रज्या, आयरक्षितभ्रातुः फल्गुरक्षितस्येवेति। (संगार त्ति) संकेलस्तम्मात् या सा तथा, मेतार्याऽऽदीनामिव / यदि वा-यदि त्वं प्रव्रजरि तदाऽहमपि इत्येव संकेततो या सा तथेति। (विहगगइ ति) विहगगत्या पक्षिन्यायेन परिवाराऽऽदिवियोगेनैकाकिनो देशान्तरगमनेन च या सा विहगगतिप्रव्रज्या, क्वचिद्वि-हगप्रव्रज्येति पाठः, तत्र विहतगस्यवेति दृश्यम्, विहतस्य वा दारिद्यादिभिररिभिर्वेति। स्था०४ ठा०४ उ०। / चउठिवहा पव्वज्जा पण्णत्ता। तं जहा- णडक्खइत्ता, भडक्खइत्ता, सीहक्खइत्ता, सियालक्खइत्ता। नटस्येव संवेगविकलधर्मकथाकरणोपार्जितभोजनाऽऽदीनाम्. (खइय त्ति) खादितं भक्षणं यस्यां सा नटखादिता, नटस्येव वा (खइ त्ति) संवेगशून्यधर्मकथनलक्षणो हेवाकः स्वभावो यस्यां सा तथा; एवं भटाऽऽदिष्वपि, नवरं भटस्तथाविधबलोपदर्शनलब्धभोजनाऽऽदेः खादिता आरभटवृत्तिलक्षणहेवाको वा, सिंहः पुनः शौर्यातिरेकादवज्ञयोपात्तस्य यथारब्धभक्षणेन वा, खादिता तथाविधप्रकृतिर्वा, शृगालस्तुन्यगवृत्त्योपात्तस्यान्यान्यस्थानभक्षणेन वा खादिता तत्स्वभावो वेति / / 4 / / कृषिदृष्टान्तःचउव्विहा किसी पण्णत्ता / तं जहा-वाविया, परिवाविया, निंदिया, परिणिंदिया। एवामेव चउव्विहा पव्वज्जा पण्णत्ता। तं जहा-वाविया, परिवाविया, जिंदिया, परिणिंदिया। कृषिर्धान्यार्थ क्षेत्रकर्षणम् (वाविय त्ति)। सकृद्धान्यवपनवती। (परिवाविय ति) द्विस्सिर्वा उत्पाद्य स्थानान्तराऽऽरोपणतः परिवपनवती, शालिकृषिवत् / (णिदिय त्ति) एकदा विजातीयतृणाऽऽद्यपनयनेन शोधिता निन्दिता / (परिनिंदिय त्ति) द्विस्वि, तृणाऽऽदिशोधनेनेति प्रव्रज्या तु (वाविया) सामायिकाऽऽरोपणेन / (परिवाविया) महाव्रताऽऽरोपणेन निरतिचारस्य सातिचारस्य वा मूलप्रायश्चित्तदानतः (निदिया) सकृदतिचाराऽऽलोचनेन (परिणिंदिया) पुनः पुनरिति। ___धान्यपुञ्जसमानाचउव्विहा पव्वजा पण्णत्ता / तं जहा-धण्णपुंजिय-समाणा, धण्णविरल्लियसमाणा, धण्णविक्खित्तसमाणा, धण्ण-संकड्डियसमाणा। (धण्णपुंजियसमाण त्ति) खले लूनपूतविशुद्धपुजीकृतधान्यसमाना सकलातिचारकचवरविरहेण लब्धस्वस्वभावत्वात एकाऽन्या तु खलक एव यद्विरेलित विसारित वायुना पूतपुजीकृतं धान्यं तत्समाना, या हि लघुनाऽपि यत्नेन स्वस्वभावं लप्म्यत इति। अन्या तुयद्विकीर्ण गोखुरक्षुण्णतया विक्षिप्त धान्य तत्समाना, या हि सहसमुत्पन्नातिचारकचवरयुक्तत्वात्सामग्रयन्तरापेक्षितया कालक्षेपलभ्यस्वस्वभावा सा धान्यविकीर्णसमानोच्यते। अन्या तु यत्संकर्षित क्षेत्रादाकर्षितं खलमानीत धा-यं तत्समाना, या हि बहुतरातिचारोपेतत्वाद्बहुतरकालप्राप्तव्यस्यस्वभावा, सा धान्यसङ्कर्षितसमानेति। इह च पुञ्जिताऽऽदेान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वादिति / इयं च प्रव्रज्या एवं विचित्रसंज्ञावशाद्रवतीति / स्था०४ ठा०४ उ०। दशविधा प्रव्रज्यादसविहा पव्वज्जा पण्णत्ता। तं जहा- "छंदा रोसा परि-जुण्णा, सुविणा पडिस्सुया चेव / सारणिया रोगणिया, अणाढिया देवसन्नत्ती / / 1 / / " वच्छानुबंधिया। 'छ दागाहा" - (छंद त्ति) छन्दात् स्वकीयादभिप्रायविशेषाद्रो विन्दवाचक स्येव सुन्दरीनन्दनस्ये व वा परकीयाद्व। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 732 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा भ्रातृवशभवदत्तस्येव या सा (रोस त्ति) रोषात् शिवभूतेरिव या सा रोषा। (परिजुण्ण ति) परिङ्ताद्दारिद्रयात्काष्ठाऽऽहारकस्येव या सा परिघुना। (सुविण ति) स्वप्नात् पुष्पचूलाया इव या स्वप्ने वा या प्रतिपद्यते सा स्वप्ना। (पडिस्सुया चेव त्ति) प्रतिश्रुतात् प्रतिज्ञाताद्या सा प्रतिश्रुता, शालिभद्रभगिनीपतिधन्यकस्येव। (सारणिय ति) सारणाद्या सा सारणिका, मल्लिनाथरमारितजन्मान्तराणां प्रतिबुद्ध्याऽऽदिराजानामिव / (रोगणिय ति) रोग आलम्बनतया विद्यते यस्यां सा रोगिणी, सेव रोगिणिका, सनत्कुमारस्येव / (अणाढिय ति) अनादृतादनादराद्या सा अनादृता, नन्दिपेणस्येव, अनादृतस्य वा शिथिलस्य या सा तथा (देवसन्नत्ति त्ति) देवसंज्ञप्तेर्दैवप्रतिबोधनाद्या सा तथा, मेतार्याऽऽदेरिवेति / (वत्थाणुबंधिय त्ति) गाथाऽतिरिक्तम्- वत्सः पुत्रस्तदनुबन्धो यस्यामस्ति सा वत्सानुबन्धिका, वैरस्वामिमातुरिवेति। स्था० 10 ठा० / (इत्येतांसां मिलितानां षोडशानामच्छन्दाऽऽदीनां प्रव्रज्यानां छन्दाऽऽदिशब्देषु व्याख्या) पं०भा०। पं०चू० (4) धर्मश्रवणतोऽभिसमागमतश्च दीक्षामेव तत्वत आह तत्र दीक्षामेव तावत्स्वरूपतो निरूपयन्नाहदिक्खा मंडणमेत्थं, तं पुण चित्तस्स होइ विण्णेयं / ण हि अप्पसन्नचित्तो, धम्मऽहिगारी जओ होइ।।२।। दीक्षण दीक्षा, सा च मुण्डनं द्रव्यतः केशापनयनं, भावतस्तु क्रोधाऽऽद्यपनयनम् / यदाह- ''पंचमुडा पण्णत्ता / तं जहा कोहमुंडे सिरमुंडे।'' पठ्यते च धातुपाठ-'दीक्षा' मौण्ठ्ये इति / तदिह किं द्रव्यमुण्डनमपि दीक्षा, नेत्याह-(एत्थं ति) अत्र जिनदीक्षाऽधिकारे तदिति मुण्डनं, पुनःशब्दः पूर्वोक्तार्थस्य विशेषणार्थः। चित्तस्य भावस्य मिथ्यात्वक्रोधकण्डू इत्यादिरूपस्य, भवति वर्तते, विज्ञेयं ज्ञातव्यं, सर्वविरतिदीक्षा तु शिरोमुण्डनमपीति भावः / कुत एतदेव मित्याह-न हि नैव, हिशब्द एवकारार्थो, दीक्षाया मुण्डनविशेषस्वरूपताभावनार्थो वा, अप्रशान्तचित्त उत्कटक्रोधाऽऽदिदूषितभावो, धर्मे सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपे कुशलकर्मण्यधिकारी नियोगवान् धर्माधिकारी, यतो यस्मात्कारणात्, भवति जायते। यदाह- "तन्नास्य विषयतृष्णा, प्रभवत्युच्चैर्न दृष्टिसंमोहः / अरूचिर्न धर्मपथ्ये, न च पापा क्रोध-कण्डूतिः।।१।।'' ''अप्पसत्तचित्तो त्ति" वा पाठः / तत्र आपत्स्वऽवैक्लव्यकरमध्यवसानकरं च सत्त्वभुक्तं, ततश्चाल्पं तुच्छ सत्त्वं यत्र तदल्पसत्त्वं, तचित्तं यस्य सौऽल्पसत्त्वचित इति, शेषं तथैवा इति गाथाऽर्थः / / 2 / / इयं च भावमुण्डनरूपा दीक्षा यदा यस्य च भवतीत्येतदभिधित्सु-राहचरिमम्मि चेव भणिया, एसा खलु पोग्गलाण परियट्टे। सुद्धसहावस्स तहा, विसुज्झमाणस्स जीवस्स / / 3 / / चरम एवानादित्वादधजीवधारनन्तानां पुद्गलपरावर्तानां सर्वान्तिम एव नान्यत्रापि भणिता अभिहिता जिने रेषा भावमुण्डनरूपा दीक्षा, खलुक्यालङ्कारे, पुद्गलानां परमाण्वादीना, परिवर्त एकजीवापेक्षया खिलपुद्गलग्रहणप्रमित कालरूपे, स च समयप्रसिद्धोऽनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपः / यदाह 'ओरालविउब्धियते-यकम्मभासाणुपाणमणएहिं। जीवस्स सयलपोग्गल-गहणद्धा थूलपरियट्टो।।१।। ओरालियाऐं एके-कभेयओसव्वपोग्गलग्गहणं। कालेण जेण सो पुण, भण्णति इह सुहुमपरियट्टे" / / 2 / / इत्यादि शुद्धस्वभावस्य यथाप्रवृत्तिकरणेनापचितदीर्घकर्मस्थितिकत्वेन निर्मलस्वरूपस्य, तथेति विशेषणान्तरसमुच्चयार्थः ।अथवातथा तेन प्रकारेण तत्कालोचितशुद्ध्येति भावः, विशुद्धमानस्योत्तरोत्तरां विशुद्धिमनुभवतो न पुनः संक्लिश्यमानस्य जीवस्य प्राणिनः / यदाह"वडते परिणामे, पडिवजइ सो चउण्हमण्णयरं / एमेव वनियम्मि वि, हायंति न किंचि पडिवजे // 1 // " इति गाथाऽर्थः / पञ्चा०२ विव० / व्य० / अवयवार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुःप्रथमतःप्रव्रज्याद्वारमाहसोचाऽभिसमेचा वा, पव्वजा अभिसमागमो तत्थ। जाइस्सरणाईओ, सनिमित्तमनिमित्तओ वावि॥३३१।। श्रुत्वा तीर्थकरगणधराऽऽदीनां धर्मदेशानां निशम्य, अभिसमेत्य वा सह सन्यस्याऽऽदिना स्वयमेवावबुध्य, प्रव्रज्या भवेत्, तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथममभिसमागम उच्यते, सोऽपि समागमो जातिस्मरणाऽऽदिकः सनिमित्तकोऽनिमित्तको वा द्रष्टव्यः / तत्र यद्बाह्यं निमित्तमुद्दिश्य जातिस्मरणमुपजायते तत्सनिमित्तक, यथा वल्कलचीरप्रभृतीनां, यत् पुनरेव तदाचारकर्मणां क्षयोपशमेनोत्पद्यते तदनिमित्तकं, यथा स्वयंबुद्धकपिलाऽऽदीनाम् / एतेन जातिस्मरणेन, आदिग्रहणात् श्रावकस्य गुणप्रत्ययप्रभवेणावधिज्ञानेन अन्यतीर्थिकस्य वा विभङ्ग ज्ञानेन प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः संभवति / गतमभिसमेत्य द्वारम्। __अथ श्रुत्वेति द्वारं विवरीषुराहसोच्चा उ होइ धम्म,स के रिसो केण वा कहेयव्यो? के तस्स गुणा वुत्ता दोसा अणुवायकहणाए।।३३२॥ धर्ममाचार्याऽऽदीनामन्तिके श्रुत्वा प्रव्रज्या भवति / अत्र शिष्यः पृच्छति-स धर्मः कीदृशः केन वा कथयितव्यः, के वा तस्योपायकथने गुणाः प्रोक्ताः, के वा अनुपायकथने दोषा इति। तत्र कीदृशः केन वा कथयितव्यः इति प्रश्ने निर्वचनमाहसंसारदुक्खमहणो, विवोहओ भवियपुंडरीयाणं / धम्मो जिणपन्नत्तो, पगप्पजइणा कहेयव्वो // 333 / / संसार एव जन्मजरामरणाऽऽदिदुःखनिबन्धनत्वाद् दुःखं, संसारस्य वा दुःखानि शारीरमानसिकलक्षणानि, तस्य तेषां वा मथनो विनाशकः, तथा भव्या एव विनयाऽदिविमलगुणपरिमलयोगात् ज्ञानाऽऽदिलक्ष्मीनिवासयोग्यतया च पुण्डरीकाणि श्वेतसरोरुहाणि तेषां विशेषेण मिथ्यात्वाऽऽदिविद्रावणलक्षणेन बोधकः सम्यगदर्शनाऽऽदिविकाशकारी इदृशो जिनप्रज्ञप्तो धर्मः प्रकल्पयतिना निशीथाध्ययनसूत्रार्थधारिणा साधुना कथयितव्यः, स हि संविग्नगीतार्थतयोत्सर्गापवादपदानि स्वस्थाने स्वस्थाने विनियुञ्जानो न विपरीतप्ररूपणायाऽऽत्मानं वा दीर्घभवभ्रमणभाजनमातनोतीति। परः प्राह-किमेवंविधोऽपि भगवतो धर्ममुपदिश्य Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 733 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा मानः केषाशिद योधनं जनयति येनैवमभिधीयते भव्यपुण्डरीकाणां | विडो इति। अत्रोच्यतेजह सूरस्स पभावं,दळु वरकमलपोंडरीयाई / बुझंति उदयकाले, तत्थ उ कुमुदा न बुज्झंति // 334 / / एवं भवसिद्धीया, जिणवरसूरस्स थुइपभावेणं / बुझंति भवियकमला, अभवियकुमुदा न बुज्झंति // 335 / / यथा सूर्यस्य प्रभावं प्रभापटलरूपं दृष्ट्वा सरसि स्थितानि वरकमलपुण्डरीकाणि उदयकाले प्रभाते बुद्ध्यन्ते, तत्रैव च सरसि कुमुदान्यपि सन्ति, परं तानि न बुद्ध्यन्ते, एवमेतेनैव दृष्टान्तेन जिनवरसूर्यस्य या स्तुतिरागमः प्रभापटलकल्पः, तत्प्रभावेन भव्यकमलानि बुद्ध्यन्ते सम्यक्त्वाऽऽदिविकाशमासादयन्ति / तानि च "भव्या वि ते अर्णता, जे मुत्तिसुहं न पावंति।" इति वचनादसंभावनीयसिद्धिगमनान्यपि भवेयुरित्यतस्तदव्यवच्छेदार्थमाह-भवा भाविनीति सिद्धिर्येषां तानि भवसिद्धिकानि, यस्मॅिश्च जीवलोकसरसि भगवतः प्रभावेन भव्यकमलानि बोधमश्नुवते, तरिमन्नभव्यकुमुदान्यपि कालसौकरिकप्रभृतीनि सन्ति, परं तानि न प्रतिबुझ्यन्ते, तथास्वाभाव्यात्। यदवादि वादिमुख्येन 'सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव! तवापि खिलान्यभूवन (अप्रतिहत क्षेत्राऽऽदि खिलमुच्यते ) / तन्नाद्भुत खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः / / 1 / / " (6 स्या०) अत्र परः प्राहपुव्वं तु होइ कहओ, पच्छा धम्मो उ उक्कमो किं नु ? तेण वि पुव्वं धम्मो, सुतो उ तम्हा कमो एसो॥३३६।। पूर्व तावत्कथको धर्मोपदेष्टा भवति पश्चात्तदुपदेशं श्रुत्वा धर्म उत्पद्यते, ततः किमेवं कीदृश इति प्रथमं धर्मस्वरूपमुद्दिश्य केन वा कथयितव्य इति कथकस्वरूपं पश्चादुद्दिश द्विरुत्क्रमः क्रियते? गुरूराह-तेनापि कथकेन पूर्व गुरूणां समीपे धर्मः श्रुत एव तस्मात्क्रम एष नोत्क्रम इति। अयं च धर्म उपायेनैव कथयितव्यो नानुपायेन / आह-के दोषा अनुपायकथने ? उच्यतेजइधम्मं अकहेत्ता, अणु दुविधं सम्म मंसविरई वा। अणु वा सए कहिंते, चउजमला कालगा चउरो॥३३७॥ यो खलु मिथ्यादृष्टिरनुपासकस्तत् प्रथमतया धर्मश्रवणार्थमुपतिष्ठते, तस्य यतिधर्मः कथयितव्यो, यदि यतिधर्ममकथयित्वा श्रावकसंबन्धिनमणुधर्म कथयति तदा चत्वारो गुरवः, तपसा कालेन च द्वाभ्यामपि गुरुकाः, यदा यतिधर्म प्रतिपत्तुंनोत्सहते तदा मूलोत्तरगुणभेदात् द्विविधः श्राद्धधर्मः कथनीयः, सम्यक्त्वमूलानि द्वादश व्रतानीत्यर्थः / यदि श्राद्धधर्ममकथयित्वा सम्दग्दर्शनमात्रं कथयति तदा चत्वारो गुरवः, तपसा गुरवः, कालेन लघवः / यदा श्राद्धधर्म ग्रहीतुन शक्रोति तदा यदि सम्यग्दर्शनमनुपदिश्य मद्यमांसविरतिं कथयति तदा चत्वारो गुरवः तपसा लघवः, कालेन गुरवः, यदा सम्यगदर्शनमप्यङ्गीकर्तुं न शक्रोति तदा यदि मद्यमांसविरतिमप्ररूप्यैहिकमामुष्मिक वा तद्विरतिफलं कथयति तदाऽपि चत्वारो गुरवः तपसा कालेन लघवः / (चउजमला कालगा चउरो त्ति) चत्वारि यमलानि तपः कालयुगललक्षणानि येषु ते चतुर्यमलाः, चत्वारः कालकाश्चत्वारश्चतुर्गुरूका इत्यर्थः / आज्ञाभङ्गाऽऽदयश्च दोषाः। अपि चजीवा अन्भुद्वित्ता, अवहीकहणा विरंजिया संता। अभिसंछूढा हों ति उ, संसारमहन्नवं तेण / / 338 / / ते जीवाः प्रव्रज्यायामभ्युत्तिष्ठन्तोऽपि तदीयया अविधिकथन्या रञ्जिताः सन्तश्चिन्तयन्ति-यदि श्रावकधर्मणाऽपि कामभोगान् भुञ्जानैः सुगतिरवाप्यते ततः किमनया सिकताकवलनिरास्वादया प्रव्रज्यया? एवं यदि सम्यग्दर्शनमात्रेणापि सुगतिरासाद्यते तर्हि को नामाऽऽत्मानं विरतिशृङ्खलाया प्रक्षेस्यतीत्यादि / एवं ते विपरिणामिताः प्रव्रज्यामगृह्णन्तः षट्कायान् विराधयेयुः अतस्तेन कथकेन संसारमहार्णवमभि आभिमुख्येन प्रक्षिप्ता भवन्ति, चिरेण मुक्तिपदप्राप्तः। एसेव य नूण कमो, वेरगगओ न रोयए तं च / दुहतो य निरणुकंपा, सुणिपायसतरच्छअठुवमा / / 336 / / ते जीवा इत्थं चिन्तयेयुः-नूनमेष एवात्र क्रमः परिपाटिः यत्पूर्व श्रावकधर्म स्पृष्ट्वा पश्चाद्यतिधर्म प्रतिपद्यते / अथवा-पूर्व सम्यगदर्शनमात्रमुररीकृत्य ततो देशविरतिरूपा दीयते। यद्वा-मद्यमांसविरतिं स्पृष्ट्वा पश्चात् सम्यक्त्वं गृह्यते इति। स चाऽऽराभबहुलतया गृहवासस्योपरि वैराग्यमुपगतः प्रव्रज्यां प्रतिपत्तुमायातः, सच धर्मकथां श्राद्धधर्मा प्ररूपयितुं लगः,तं चासौ वैराग्याधिरूढमानसत्वात् न रोचयति. ततो विपरिणम्य तचनिकाऽऽदिषु (?) गच्छेत्. ते चैवमविधिना धर्म कथयन्तो द्विधाऽपि निरनुकम्पाः, षण्णां कायानां तस्य चोपरि अनुकम्पारहिताः। (सुणि ति) वीरशुनिकादृष्टान्तो, यथा-सा वीरशुनिका पूर्वमालपमाना परिखेदिता पश्चात्सद्भूतमपि नेच्छति; एवमत्रापि पूर्व श्राद्धधर्मे कथिते पश्चात् यत्नतोऽऽभिधीयमानमपि श्रमणधर्ममसौ न प्रतिपद्यते / तथा (पायस त्ति) यथा-कस्यापि प्राघूर्णकस्य पूर्व वासितभक्तं दत्तं, ततः सउदरपूरं तदुक्ताम् पश्चात् घृतमधुसंयुक्तंपायसमपि दीयमानं तस्य न रोचते / (तरच्छअटुवम ति) यथा तरक्षो व्याघ्रविशेषः, स पूर्व अस्वाऽऽघ्रातः पश्चादामिषमपिन रोचयति, एवमस्यापि श्रावकधर्मघ्रातस्य यतिधर्मो न प्रतिभासते यत एते दोषा अतो विधिनैव कथनीयम्। के पुनर्विधिकथने गुणाः? उच्यतेतित्याणुसज्जणाए, आयहियाए परं समुद्धरति। मग्गप्पभावणाए, जइधम्मकहा अओ पढमं // 340 / / यतिधर्मकथा प्रथमतः क्रियमाणा तीर्थस्यानुसज्जना भवति, बहूनां जन्तूनां प्रव्रज्याप्रतिपत्तेः / तीर्थानुसज्जना च कृता आत्महिताय जायते; परं च प्रव्रज्याप्रदानेन संसारसागरादसौ समुद्धरति; अत एव भार्गस्य सम्यग्दर्शनाऽऽदेः प्रभावनाये सा प्रभवति, यत एते गुणा अतो यतिधर्म-कथा प्रथम स्वरूपतो गुणतश्व कर्तव्या। तत्र स्वरूपतो यथा- ''खंती य मद्दवजव मुत्ती' इत्यादि / गुणतां यथा- ''ना दुष्कर्मप्रसासो न कुयुवतिसुतस्वामिदुर्वाक्यदुःखं राजाऽऽदी न प्रणामोऽसनवस नधनस्थानचिन्ता न चैव। ज्ञानाऽऽतिपर्लोकपूजा प्रशमसुखरसः Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 734 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा प्रेत्य मोक्षाऽऽद्यवाप्तिः, श्रामण्येऽमी गुणाः स्युस्तदिह सुमतयः! किं न यत्नं कुरुध्वम ?||1||'' इत्यादि / यदा यतिधर्ममङ्गीकर्तुं न शक्नोति तदा सम्यक्त्वमूलः श्राद्धधर्मः कथयितव्यः, यदा तमपि न प्रतिपद्यते तदा राम्यग्दर्शन, तस्याप्यप्रतिपत्तौ मद्यमांसविरतिः। एवं चानुपासकपुरतो धर्मकथायां विधिः / उपासकस्य तुयथा स्वरूचि, धर्मकयां करोतु न कश्चिद्दोषः / गतं प्रव्रज्याद्वारम्। बृ०१ उ०२ प्रक०। (5) अधुना केनेत्येतद व्याख्यायते। तत्र योग्येन गुरुणा सचेत्थभूत इत्याहपव्वज्जाजुग्गगुणे-हि संगओ विहिपवण्णपव्वजो। सेवियगुरुकुलवासो, सययं अक्खलियसीले अ॥१०।। प्रव्रज्यायोग्यस्य प्राणिनो गुणाः प्रव्रज्यायोग्यगुणाः आर्यदेशोत्पन्नऽऽदयो वक्ष्यमाणाः। तथाऽन्यत्राप्युक्तम्-अथ प्रव्रज्याह आर्यदेशोत्पन्नः विशिष्टजातिकुलान्वितः क्षीणप्रायकर्ममलः / तत एव विमलबुद्धिर्दुर्लभ मानुष्यं जन्ममरणनिमित्त दुःखं संपदश्चलाः विषयाः दुःखहेतवः संयोगे वियोगः प्रतिक्षणं मरणं दारुणो विपाक इत्यवगतसंसारनिर्गुण्यः, तत एव तद्विरिक्तः प्रतनुकषायोऽल्पहास्याऽऽदिःकृतज्ञो विनीतः प्रागपि राजामात्यपौरजनबहुमतोऽद्रोहकारी कल्याणाङ्गः श्राद्धः स्थिरः समुपसंपन्नश्चेति / एभिः संगतो युक्तः समेतः सन् किमित्याह-विधिप्रपन्नप्रव्रज्यः-विधिना वक्ष्यमाणलक्षणेन प्रपन्नाऽङ्गीकृता प्रव्रज्या येन स तथा-विधः / तथा सेवितगुरूकुलवासः समुपासितगुरुकुलवास इत्यर्थः। सततं सर्वकाल प्रव्रज्याप्रतिपत्तेरारभ्याऽस्खलितशीलो वाऽखण्डितशीलच, चशब्दात् परद्रोहविरतिभावश्चेति गाथाऽर्थः। सम्म अहीअसुत्तो, तत्तो विमलयरबोहजोगाओ। तत्तण्णू उवसंती,पवयणवच्छल्लजुत्तो अ॥११।। सम्यग् यथोक्तयोगविधानेन अधीतसूत्रो गृहीतसूत्रः ततो विमलतरबोधयोगादितिततःसूत्राध्ययनाद्यःशुद्धतरो बोधस्तत्संबन्धादित्यर्थः / किमित्याह-तत्त्वज्ञः वस्तुतत्त्ववेदी / उपशान्तः क्रोधविपाकावगमेन, प्रवचनवात्सल्ययुक्तश्च प्रवचनमिह सङ्घः सून वा, तद्वत्सलभावयुक्त इति गाथाऽर्थः। सत्तहिअरओ अतहाऽऽदेओ, अणुवत्तगो अगंभीरो। अविसाई परलोए, उवसमलद्धाइकलिओ अ॥१२।। सत्त्वहितरतश्च सामान्येनैव जीवहिते सक्तश्च, तथा न के बलमित्थविधः, किं त्वादेयोऽनुवर्तकश्च गम्भीरः। तत्राऽऽदेयो नाम ग्राह्यवाक्यः, अनुवर्तकश्च भावानुकूल्येन सम्यक् पालकः गम्भीरो विपुलचित्तः, अविषादी परलोकेन परीषहाऽऽद्यभिद्रुतः कायसंरक्षणाऽऽदौ दैन्यमुपयाति / उपशमलब्ध्यादिकलितश्व उपशम-लब्ध्यपकरणलब्धिस्थिहस्तलब्धियुक्तश्चेति गाथाऽर्थः। तह पवयणत्थवत्ता, सुगुरूअणुन्नायगुरुपओ चेव। एआरिसो गुरु खलु, भणिओ रागाइरहिएहिं / / 13 / / तथा प्रवचनार्थवक्ता, सूत्रार्थवक्तेत्यर्थः / स्वगुर्वनुज्ञातगुरुपदश्चैव असति तस्मिन दिने सम्यगाचर्याऽऽदिना स्थापितगुरुपद इत्यर्थः, ईदृशो / गुरुः / खलुशब्दोऽवधारणार्थः, ईदृश एव, कालदोषादन्यतरगुणरहि तोऽपि बहुतरगुणयुक्त इति वा विशेषणेत्यर्थः। भणितो रागाऽऽदिरहितैः प्रतिपाऽऽदितो, वीतरागैरिति गाथार्थः। एआरिसेण गुरुणा, सम्म परिसाइकज्जरहिएणं / पव्वज्जादायव्वा, तयणुग्गहनिज्जराहेओ॥१४॥ ईदृशेन गुरूणा एवंविधनाऽऽचार्येण, सम्यगविपरीतेन विधिना पर्षदादिकार्यरहितेन पानकाऽऽौहिककार्यनिरपेक्षेण प्रव्रज्या दातव्या दीक्षा विधया, किंतहङ्गीकृत्येत्यत्राऽऽह-तदनुग्रहनिर्जराहेतोरिति, विनेयानुग्रहार्थ कर्मक्षयार्थ चेति गाथाऽर्थः। ईदृशि गुरौ गुणमाहभत्तिबहुमाणसद्धा, थिरया चरणम्मि होइ सेहाणं / एआरिसम्मि नियमा, गुरुम्मि गुणरयणजलहिम्मि 15|| भक्तिबहुमानाविति- भक्तिर्बाह्यविनयरूपा, बहुमानो भावप्रतिबन्धः, एतौ भवतः, शिक्षकाणामभिनवप्रव्रजितानामिति योगः। क्तेत्याहईदृश्येवंभूते गुरौ आचार्य नियमान्नियमेन / पुनरपि स एव विशेष्यतेगुणरत्नजलधौ गुणरत्नसमुद्र इति / ततः श्रद्धा स्थिरता च चरणे भवतीति / तथाहि-गुरुभक्तिबहुता न भावत एव चारित्रे श्रद्धा स्थैर्य च भवति, नान्यथेति गाथाऽर्थः / गुणान्तरमाहअणुवत्तगो अ एसो, हवइ दढं जाणइजओ सत्ते। चित्ते चित्तसहावे, अणणुव्वत्ते तह उवायं च / / 16 / / अनुवर्तकश्व एषोऽनन्तरोदितो गुरुर्भवति दृढमत्यर्थम् / कुत इत्याहजानाति यतः सत्त्वान् प्राणिनश्चितान् नानारूपाश्चित्रस्वभावान्नानास्वभावान्, अनुवानिति अनुवर्तनीयान्, तथोपायं चानुवर्तनोपायं च जानातीति गाथाऽर्थः। अनुवर्तनागुणमाहअणुवत्तणाएँ सेहा, पायं पावंति जोगयं परमं / रयणं पि गुणुक्करिसं, उवेइ सोहम्मणगुणेण / / 17|| अनुवर्तनया करणभूतया शिक्षकाः प्रायो बाहुल्येन, कटुकल्प दुःख विहाय प्राप्नुवन्ति योग्यतामपवर्ग प्रति परमा प्रधानाम्। स्यादेतद्योग्या एव प्रव्रज्याऽर्हा इति किं गुरुणेत्येतद्दाशङ्क्याऽऽहरत्नमपि पद्मरागाऽऽदि गुणोत्कर्ष कान्त्यादिगुणप्रकर्षमुपैति (सोहम्मणगुणेण) रत्नशोधकप्रभावेण, वैकटिकप्रभावेणेत्यर्थः / एवं सुशिष्या अपि गुरुप्रभावेणेति गाथाऽर्थः। किंचएत्थ पमायक्खलिआ, पुव्वडभासेण कस्स व न हुंति / जो ताइऽवणेइ संम, गुरुत्तणं तस्स सफलं ति / / 18|| अत्र च प्रव्रज्याविधाने, प्रमादस्खलितानीति-प्रमादात्सकाशाद् दुश्चेष्टितानि पूर्वाभ्यासेन कस्यवान भवन्ति / अनादिभवाभ्यस्तो हि प्रमादान झटित्येव त्यक्तं पार्यत, यस्तानि स्खलितान्यपनयति सम्यक् प्रवचनोक्तेन विधिना गुरुत्वं तस्य सफलम्। गुण-गुरुत्वेनेति गाथाऽर्थः। एतदेव लौकिकोदाहरणेन स्पष्टयतिको णाम सारहीणं, स होज जो भद्दवाजिणो दमए। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 735 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा दुढे वि अ जो वाऽऽसे, दमेइतं सारहिं विति / / 16 / को नाम सारथीना स भवेत् यो भद्रवाजिनः शोभनाऽश्वान दमयेत्, न कश्चिदसौ, असारथिरेवेत्यर्थः / दुष्टानपि तु योऽश्वान् दमयति शोभनान करोति तं सारथिं ब्रुवते लौकिकाः। पाठान्तरं वा-तमाश्विक ब्रुवत इति गाथाऽर्थः / शिष्यानुपालनेन गुरोर्दोषमाहजो आयरेण पढम, पव्वावेऊण नाणुपालेइ। सेहे सुत्तविहीए, सो पक्यणपचणीउ त्ति।।२०।। यो गुरुरादरेण बहुमानेन प्रथमं प्रव्राज्य प्रव्रज्यां ग्राहयित्वा पश्चान्नानुपालयति शिष्यकान् सूत्रविधिना, स किमित्याह-स प्रवचन-प्रत्यनीकः शासनप्रत्यनीक इति गाथाऽर्थः / एतदेवाऽऽहअविकोविअपरमत्था, विरूद्धमिह परभवे अ सेविंता। जं पावंति अणत्थं, सो खलु तप्पचओ सव्वो / / 21 / / अविकोपितपरमार्थाः अविज्ञापितसमयसद्भावाः, विरुद्ध, सेवमाना इति योगः। इह परभवे च यं प्राप्नुवन्त्यनर्थ , स खलुतत्प्रत्ययःसर्वः, अननुवतकगुरुनिमित्त इति गाथाऽर्थः / जिणसासणस्सऽवण्णो, मिअंकधवलस्स जो अते दट्टुं / पावं समायरंतो, जायइ तप्पचओ सो वि।।२२।। जिनशासनस्यावर्णोऽश्लाघा मृगाधवलस्य चन्द्रधवलस्य, यश्चतान् दृष्ट्वा पापं समाचरतः सेवमानान् जायते जनितो भवति / तत्प्रत्ययोऽसावपि अननुवर्तकगुरुनिभितोऽसावपीति गाथाऽर्थः। अनुवर्तकस्य तु गुणमाहजो पुण अणुवत्तेई,हिए य निप्फायइ अ विहिणा उ। सो ते अन्ने अप्पा-णयं च पावेइपरमपयं / / 23 / / यः पुनरनुवर्तते स्वभावानुकूल्येन हिते योजयति, क्रियां निष्पादयति चज्ञानक्रियाभ्यां विधिना आगमोक्तेन स गुरुस्तान् शिष्यान्यान् प्राणिनः आत्मानं च प्रापयति परमपदं नयति मोक्षमिति गाथाऽर्थः / एतदेव दर्शयतिणाणाइलामओ खलु, दोसा हीयंति वडई चरणं / इअ अन्भासाइसया, सीसाणं होइ परमपयं // 24 // ज्ञानाऽऽदिलाभतः खलु अनुवर्तमाना हि शिष्याः स्थिरा भवन्ति, ततो ज्ञानदर्शने लभन्ते, ततो लाभात, खलुशब्दोऽवधारणे, तत एव दोषा रागाऽऽदयो हीयन्ते त्यज्यन्ते, क्षीयन्ते वा, ततो वर्द्धते चरणं चारित्रम् (इय) एव अभ्यासातिशयादभ्यासातिशयेन तत्रान्यत्र वा जन्मनि कर्मक्षयभावाच्छिष्याणां भवति परमपदं मोक्षाऽऽख्यभिति गाथाऽर्थः। | एआरिसा इहं खलु, अण्णेसिं सासणम्मि अणुराओ। वीअंसवणपवित्ती, संताणे तेसु विजहुत्तं / / 25|| तान ज्ञानाऽऽदियुतान् दृष्ट्वा ईदृशा ज्ञानाऽऽदियुक्ता इह खलु इहैव जिनशासने इत्यन्येषा गुणपक्षपातिनां शासने अनुरागो भवति, भावत एव शोभनमिद शासनं, बीजमित्येतदेव सम्यक्त्वापवर्गबीजं केषाश्चित, केषाचित् त्वनुरागातिशयाच्छ्रवणप्रवृत्तिरहो शोभनमेतदिति शृण्वन्त्येव, | अपरे अङ्गीकुर्वन्ति च, सन्तान इत्येव कुशलसन्तानप्रवृत्तिः तेषामप्यन्येषां सन्तानिना यथोक्तमिति ज्ञानाऽऽदिगुणलाभतः परमपदमेवेति गाथाऽर्थः / इअ कुसलपक्खहेऊ, सपरुवयारम्मि निचमुज्जुत्तो। सफलीकयगुरुसद्दो, साहेइ जहिच्छिअंकजं / / 26 / / (इय) एवं कुशलपक्षहेतुः पुण्यपक्षकारणं स्वपरे नित्योद्युक्तो नित्योद्यतः सफलीकृतगुरुशब्दो गुणत्वेन साधयति यथेप्सितं कार्य परमपदमिति गाथाऽर्थः। विपर्ययमाहविहिणाऽणुवत्तिआ पुण, कहिं वि सेविंति जइ व पडिसिद्धं / आणाकारि त्ति गुरू, न दोसवं होइ सो तह वि।।२७।। विधिनाऽनुवर्तमानाःपुनः कश्चित्कर्मपरिणामतः सेवन्ते यद्यपि प्रतिषिद्धं सूत्रे आज्ञाकारीति गुरुर्न दोषवान् भवत्यसो तथाऽपि भगवदाज्ञाऽनुवर्तनासंपादनादिति गाथाऽर्थः / आहऽण्णसेवणाए, गुरुस्स पावं ति नायवज्झमिणं। आणाभंगाउ तयं,न य सो अण्णम्मि कह वज्झं? ||28|| आह पर:-अन्यसेवनया अनुवर्तितशिष्यपरावसेवनया गुरोः पापमिति न्यायबाहामिदं, ततश्च स खलु तत्प्रत्ययः सर्व इत्याद्ययुक्तमित्यस्योत्तरमाह-आज्ञाभङ्गात्तद् भगवदाज्ञाभङ्गेन पापं न चासावन्यस्मिन्, किं तु गुरवे, कथम् ? बाह्यं नैव न्यायबाह्यमिति गाथाऽर्थः। तम्हाऽणुवत्तियव्वा, सेहा गुरुणा उ सो अगुणजुत्तो। अणुवत्तणासमत्थो, जं तो एआरिसेणेव / / 29 // यस्मादेव तस्मादनुवर्तितव्याः शिष्यका गुरुणैन, स च गुणयुक्तश्च सन् अनुवर्त्तनासमथों यद्यस्मात्तत्तस्मादीदृशेनैव गुरुणा प्रव्रज्या दातव्येति गाथाऽर्थः / अपवादमाहकालपरिहाणिदोसा, इत्तो एगाइगुणविहीणेणं / अन्नेण वि पव्वज्जा, दायव्वा सीलबंतेणं // 30 // कालपरिहाणिदोषादतोऽनन्तरोक्त उदितगुणोपेताद् गुरोरेकाऽऽदिगुणविहीने नान्य नापि प्रव्रज्या दातव्या शीलवता शीलयुक्तेनेति गाथाऽर्थः / केणं ति दारं गयं। विशेषतः कालोचितं गुरुमाहगीतत्थो कडजोगी, चारित्ती तह य गाहणाकुसलो। अणुवत्तगोऽविसाई, वीओ पव्वावणाऽऽयरिओ॥३१॥ गीतार्थो गृहीतसूत्रार्थः, कृतयोगी कृतसाधुव्यापारः, चारित्री शीलवान्, तथा च-ग्रहणाकुशलः क्रियाकलापपलः शिक्षणानिपुणः, अनुवर्तकः स्वभावानुकूल्येन प्रतिजागरकः, अविषादी भावापत्सु, द्वितीयः अपवादिकः प्रव्राजनाऽऽचार्यः प्रव्रज्याप्रयच्छको गुरुरिति गाथाऽर्थः / केनेति व्याख्यातम्। (6) अधुना केभ्य इति व्याख्यायतेकेभ्याः प्रव्रज्या दातव्या। के पुनस्तदर्हा इत्येतदाहपव्वजाए अरिहा, आरियदेसम्मि जे समुप्पन्ना। जाइकुलेहिं विसुद्धा, तह खीणप्पायकम्ममला॥३२॥ प्रवज्याया अहाँ योग्याः। क इत्याह -आर्य देशे ये समुत्पन्ना Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा अर्द्धषड्विंशतिजनपदेष्वित्यर्थः / जातिकुलाभ्यां विशिष्टाः, मातृसमुत्था जातिः, पितृसमुत्थ कुलं, तथा क्षीणप्रायकर्ममलाः, अल्पकर्माण इति गाथाऽर्थः / तत्तो अ विमलबुद्धी, दुल्लहमणुअत्तणं भवसमुद्दे / जम्मो मरणनिमित्तं,चवलाओ संपयाओ अ॥३३॥ ततश्च कर्मणयाद्विमलबुद्धयः, विमलबुद्धित्वादेव च दुर्लभं मनुजत्वं भवसमुद्रे संसारसमुद्रे, तथा जन्म मरणनिमित्तं, चपलाः संपदश्चेति गाथाऽर्थः। विसया य दुक्खहेऊ संजोगे निअमओ विओगो त्ति / पइसमयमेव मरणं, एत्थ विवागो अ अइरुद्दो।।३४।। विषयाश्च दुःखहेतवः, तथा संयोगे सति नियमतो वियोग इति, तथा प्रतिसमयमेव मरणमवीचिमाश्रित्य, अत्र विपाकश्चातिरौद्रः परभव इति गाथाऽर्थः। एवं पयईए चिों, अवगयसंसारनिगुणसहावा। तत्तो अतव्विरत्ता, पयणुकसायाऽप्पहासाय॥३५|| एवं प्रकृत्यैव स्वभावेनैव अवगतसंसारनिर्गुणस्वभावाः ततश्च नैर्गुण्यावगमात्तद्विरक्ताः संसारविरक्ताः प्रतनुकषाया अल्पहास्याश्च, हास्यग्रहणं रत्याधुपलक्षणमिति गाथाऽर्थः। सुकयण्णुआ विणीया, रायाईणमविरुद्धकारी य। कल्लाणंगा सड्ढा, थिरा तहा समुवसंपण्णा // 36|| सुकृतज्ञाः, विनीताः, राजऽऽदीनामविरुद्धकारिणश्च, आदिशब्दादमात्याऽऽदिपरिग्रहः,कल्याणाङ्गाः, श्राद्धाः, स्थिराः, तथा समुपसंपन्ना इति गाथाऽर्थः। उत्सर्गत एवंभूता एव, अपवादतस्त्वाहकालपरिहाणिदोसा, एत्तो एक्काऽऽदिगुणविहीणा वि। जे बहुगुणसंपन्ना ते, जुग्गा हुंति नायव्वा / / 37 / / कालपरिहाणिदोषा इतोऽनन्तरादितगुणगणान्वितेभ्यः एकाऽऽदिगुणविहीना अपि ये बहुगुणसंपन्नास्ते योग्या भवन्ति ज्ञातव्याः,प्रव्रज्याया इति गाथाऽर्थः। नणु मणुअमाइएहिं, धम्मेहिं जुत्त एत्तिएणेव। पायं गुणसंपन्ना, गुणपगरिससाहगा जेण // 38 / / ननु मनुजाऽऽदिभिर्धर्म : युक्ता इत्येतावतैव योग्या, इति आदिशब्दादार्यदेशोत्पन्नग्रहः / किमेतदित्थमित्यत्राऽह प्रायो बाहुल्येन गुणसंपन्नाः सन्तः गुणप्रकर्षसाधका येन, गुणप्रकर्षश्व प्रव्रजितेन साधनीय इति गाथाऽर्थः। निगमयन्नाहएवंविहाण देआ, पव्वज्जा भवविरत्तचित्ताणं। अचंतदुक्करा जं, थिरं च आलंबणमिमेसिं // 36 / / एवंविधेभ्यो बहुगुणसंपन्नेभ्यो देया दातव्या प्रव्रज्या दीक्षा भवविरक्तचित्तेभ्यः संसारविरक्तचित्तेभ्यः। किमित्यत्राऽऽह-अत्यन्तदुष्करा यत् यस्मात स्थिर चाऽऽलम्बनममीषा भवविरक्तचित्तानामतोऽमी सदा वैराग्यभावेन कुर्वन्तीति गाथाऽर्थः / दुष्करत्वनिबन्धमाह अइगरुओ मोहतरू, अणाऽभवभावणाविअयमूलो। दुक्खं उम्मूलिज्जइ, अचंतं अप्पमत्तेहिं / / 40 / / अतिगुरुरतिरोद्रो मोहतरमोहस्तरुरिवाशुभपुष्पफलदानभावेन मोहतरुरनादिभवभावनाभावितमूलः, अनादिमत्यो याः संसारभावना विषयस्पृहाऽऽद्यास्ताभिर्व्याप्तमूलः, यतश्चैवमतो दुःखमुन्मूल्यते अपनीयते, अत्यन्तमप्रमत्तैः सद्भिरिति गाथाऽर्थः / संसारविरत्ताण य, होइ तओ न उण तयभिनंदीणं / जिणवयणं पिन पायं, तेसिं गुणसाहगं होइ॥४१।। संसारविरक्तानां च भवति तक इत्यसावप्रमादो न पुनस्तदभिनन्दिना संसाराभिनन्दिनां जिनवचनाद्भविष्यतीति चेदेतदाशङ्कयाऽऽह जिनवचनमपि. आस्तां तावदन्यत् न प्रायस्तेषां संसाराभिनन्दिना गुणसाधक भवति शुभनिर्वर्तकं भवतीति गाथाऽर्थः। किमित्यत आहगुरुकम्माणं जम्हा, किलिट्ठचित्ताण तस्स भावत्थो। नो परिणामइ त्ति सम्म, कुंकुमरागो व्व मलिणम्मि / / 4 / / गुरुकर्मणां प्रचुरकर्मणां यस्मात् क्लिष्टचित्तानां मलिनचित्तानां तस्य जिनवचनस्य भावार्थोऽविपरीतार्थो न परिणमति न प्रतिभासते सम्यग अविपरीतः। दृष्टान्तमाह-कुडकुमराग इव मलिने, वाससीति गम्यते।न चापरिणमतोऽसावप्रमादप्रसाधक इति गाथाऽर्थः। किंचविट्ठाएँ सूअरो जह, उवएसेण विन तीरए धरिओ। संसारसूअरो इअ, अविरत्तमणो अकञ्जम्मि।१४३।। विष्ठायां पुरीषलक्षणायां सूकरः पशुविशेषो यथा उपदेशेनापि निवारणालक्षणेन, अपिशब्दात् प्रायः क्रिययाऽपि, न शक्यते धर्तुं , किंतु बलात् प्रवति, एवं संसारसूकरः प्राणी, इति एवमविरक्तमनाः, संसार एवेति गम्यते / अकार्य इत्यनासेवनीये न शक्यते धर्तुमिति गाथाऽर्थः / ता धन्नाणं, गीओ, उवाहिसुद्धाण देह पव्वजं / आयपरपरिचाओ, विवजएमा हविज्ज ति॥४४|| यस्मादेवं तस्माद्धन्येभ्यः पुण्यभाग्येभ्यः गीत इति गीतार्थः उपाधिशुद्धेभ्यः आर्यदेशसमुत्पन्नाऽऽदिविशेषणशुद्धेभ्यो, ददाति प्रव्रज्या प्रयच्छति दीक्षाम, आत्मपरपरित्यागो विपर्यये मा भूदिति। तथा ह्यधन्येभ्योऽनुपाधिशुद्धेभ्यः प्रव्रज्यादाने आत्मपरपरित्यागो नियमात् एव इति गाथाऽर्थः। एतदेव भावयतिअविणीओ न य सिक्खइ, सिक्खं पडिसिद्धसेवणं कुणइ। सिक्खावणेण तस्स हु, सइ अप्पा होइ परिचत्तो।।४।। अविनीत इति स ह्यधन्यः प्रव्रजितः प्रकृत्यैवाविनीतो भवति, न च शिक्षति शिक्षा ग्रहणाऽऽसेवनारूपा, प्रतिषिद्ध सेवन करोति अविहितानुष्ठाने च प्रवर्त्तने, शिक्षणेन तस्येत्थंभूतस्य सदा सर्वकालमात्मा भवति परित्यक्तः,अविषयप्रवृत्तेरिति गाथाऽर्थः / तस्स वि य अट्टझाणं, सद्धाभावम्मि उभयलोगेहिं.। जीविअमहलं किरियाणाएणं तस्स चाओ त्ति॥४६|| तस्यापि चाऽधन्यस्य शिक्षायां प्रवर्त्तमानस्याऽऽध्यानं भ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 737 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा पति। किमित्यत आह-श्रद्धाभावे सति श्राद्धस्य हि तथा प्रवर्त्तमानस्य सुख, नेतरस्य / ततश्चोभयलोकयोरिहलोके परलोके च जीवितमफलं तस्य, इहलोके तावद्भिक्षाऽटनाऽऽदियोगात्परलोके च कर्मबन्धात् क्रियाज्ञातेन ति वैद्यक्रियादाहरणेन, तस्य त्याग इत्यनेन प्रकारण परित्याग इति गाथाऽर्थः। क्रियाज्ञातमाहजह लोअम्मि वि विज्जा, असज्झवाहीण कुणइ जो किरिया। सो अप्पाणं तह वा-हिए अपाडेइ केसिम्मि।॥४७॥ यथा लोकेऽपि वैद्यः असाध्यव्याधीनामातुराणां कराति यः क्रिया, स आत्मानं तथा व्याधितोंश्च पातयति क्लेशे, व्याध्यपगमाभावादिति गाथाऽर्थः। तह चेव धम्मविजो, एत्थ असज्झाण जो उ पव्वजं / भावकिरिअं पउंजइ, तस्स वि उवमा इमा चेव॥४८|| तथैव धर्मवैद्य आचार्यः अत्राधिकारे असाध्यानां कर्मव्याधिमाश्रित्य यस्तु प्रव्रज्या भावक्रियां प्रयुक्त कर्मरोगनाशनाय, तस्यापि धर्मवैद्यरय उपमा इयमेव, आत्मानं ताँश्च क्लेशे पातयतीति गाथाऽर्थः / चोदक आह-जिनक्रियाया असाध्या नाम न सन्ति / सत्यम् / इत्याहजिणकिरियाऍ असज्झा, ण इत्थलोगम्मि केइ विजंति। जे तप्पओगऽजोग्गा, तेऽसज्झा एस परमत्थो 46|| जिनाना संबन्धिनी क्रिया तत्प्रणेतृत्वेन जिनक्रिया, तस्या असाध्या अचिकित्स्या नात्र लोके प्राणिलोके केचन प्राणिनो विद्यन्ते. किं तु ये तत्प्रयोगाऽयोग्या जिनक्रियाप्रयोगानुचितास्ते असाध्याः कर्मव्याधिमाश्रित्य, एष परमार्थः, इदमत्र हृदयमिति गाथाऽर्थः। एएसि वयपमाणं, अट्ठसमाउत्ति वीअरागेहिं। भणियं जहन्नयं खलु, उक्कोसं अणवगल्लो त्ति।।५०।। एतेषां प्रव्रज्यायोग्याना वयःप्रमाणं शरीरावस्थाप्रमाणमष्टौ समा इत्यष्टवर्षाणि वीतरागेजिनर्भणितं प्रतिपादितं जघन्यकं खलु सर्वस्तोकमेतदेव द्रव्यलिङ्गप्रतिपत्तिरिति / उत्कृष्ट वयःप्रमाणम् (अनवगल्ल इति) अनत्यन्तवृद्ध इति गाथाऽर्थः / अतः को दोषः? इति चेदुच्यतेतदहो परिभवखित्तं, ण चरणभावो वि पायमेएसिं। आहच्च भावकहगं, सुत्तं पुण होइ नाहचं // 51|| तदधः परिभवक्षेत्रमित्यष्टभ्यो वर्षेभ्य आरादसौ परिभवभाजनं भवति। न चरणभावोऽपि न चारित्रपरिणामोऽपि प्रायो बाहुल्येनामीषां तदधोवर्तिना बालानामिति / आह-एवं सति सूत्रविरोधः "छम्मासियं छसु जीय' इत्यादि-श्रवणान्नैव चरणपरिणाममन्तरेण भावतः षट्सु यतो भवतीति (?)1 अत्रोत्तरमाहकेई भणंति बाला, किल एएँ वयंजुआ विजे भणिया। छुलगभावाओ चिय, न हुंति चरणस्स जुग्ग त्ति // 52 // कचन भणन्ति तन्त्रान्तरीयास्त्रविद्यवृद्धाऽऽदयो बालाःकिल एते। क इत्याह-वयोयुक्ता अपि ये भणिता अष्टवर्षा अपि ये उक्ताः, यतश्चैवमतः क्षुल्लकभावादेव बालात्वादेव, किमित्याह- न संभवन्ति चरणस्य योग्या इति, न चारित्रोचिता इति गाथाऽर्थः / अन्ने उ भुत्तभोगाणमेव पव्वजमणघमिच्छति / संभावणिजदोसा, वयम्मि जं खुड्डगा होंति // 53 / / अन्ये तु विद्यवृद्धा भुक्तभोगानामेवातीतयौवनानां प्रव्रज्यामनघामपापामिच्छन्ति प्रतिपद्यन्ते। किमित्यत्राऽऽह-संभावनीयदोषाः संभाव्यमानविषया ऽसेवनापराधाः, वयसि यौवने, यद्यस्मात्क्षुल्लका भवन्ति। संभवी च दोषः परिहर्तव्यो यतिभिरिति गाथाऽर्थः / किं च - विण्णायविसयसंगा, सुहंच किल ते तओऽणुपालिंति। कोउअनिअत्तभावा, पव्वज्जमसंकणिज्जाय॥५४|| विज्ञातविषयराङ्गा अनुभूतविषयसङ्गाः सन्तः सुखं च किल ते अतीतवयसः, ततो विज्ञातविषयसङ्गत्वात्कारणादनुपालयन्ति, प्रव्रज्यामिति योगः / करमाद्धेतोरित्यत्राऽऽह कौतुकनिवृत्तभावा इति कृत्वा। "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासा प्रायो दर्शनम्' इति वचनात्। विषयाऽऽलम्बनकौतुकनिवृत्तभावत्वादित्यर्थः / गुणान्तरमाह-अशङ्कनीयाश्चेति अतिक्रान्तवयसः सर्वप्रयोजनेष्वेवाशङ्कनीयाश्च भवन्तीति गाथाऽर्थः। किंचधम्मऽत्थकाममोक्खा, पुरिसत्था जं चयार लोगम्मि। एए आसेविअव्वा, निअनिअकालम्मि सव्वे वि।।५५।। धर्मार्थकाममोक्षाःपुरुषार्थाः यस्माचत्वारो लोके, तत्र हिंसाऽ5दिलक्षणो धर्मः, हिरण्याऽऽदिरर्थः इच्छामदनलक्षणः कामः, अनाबाधो मोक्षः एते चत्वारः पुरुषार्थाः सेवितव्याः, निजनिजकाले आत्मीयाऽऽत्मीयकाले सर्वेऽपि, अन्यथा अक्षीणकामनिबन्धनकर्मणस्तत्परित्यागदोषोपपत्तेरिति गाथाऽर्थः। गुणान्तरमाहतहऽभुत्तभोगदोसा, कोउगकामगहपत्थणाईआ। एए वि होति विजढा, जोग्गाहिगयाण तो दिक्खा // 56 // तथा अभुक्तभोगदोषा इतिन भुक्ता भोगा यैस्ते अभुक्तभोगास्तद्दोषाः कौतुककामग्रहप्रार्थनाऽऽदयः, तत्र कौतुकं सुरतविषयमौत्सुक्य, कामग्रहस्तदनासेवनोद्रेकाद्विभ्रमप्रार्थना योषिदभ्यर्थना, आदिशब्दादलाग्रहणाऽऽदिपरिग्रहः / एतेऽपि भवन्ति विजढाः परित्यक्ता अतिक्रान्तवयोभिः प्रव्रज्या प्रतिपद्यमानैरिति योग्याधिकृताभामतिक्रान्तवयसामेव प्रव्रज्या, इतरे त्वयोग्या एवोक्तदोषोपपत्तेरितिगाथाऽर्थः / एष पूर्वपक्षः। अत्रोत्तरमाहभण्णइ खुडुगभावो, कम्मखउवसमभ वपभवेणं / चरणेण किं विरुज्झइ, जेणमजोग त्ति सग्गाहो // 57 / / भण्यतेऽत्र प्रतिवचनेक्षुल्लक भावो बालभावः कर्मक्षयो - Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 738 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा पशमभावप्रभवेन कर्म कयोपशमभावात्प्रभव उत्पादो यस्य तथेत्थंभूतेन चरणेन 'सहार्थे तृतीया' इति सह, किं विरुध्यते ? येन अयोग्याः क्षुल्लका इत्यसद्ग्रहः? न विरुध्यत इति गाथाऽर्थः। एतदेव स्पष्टयन्नाहतक्कम्मखओवसमो, चित्तनिबंधणसमुब्भवो भणिओ। नउ वयनिबंधणो चिय, तम्हा एआणमविरोहो / / 5 / / तत्कर्मक्षयोपशमः चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशम चित्रनिबन्धनसमुद्भवो नानाप्रकारकारणादुत्पादो यस्य स तथाविधो, भणितः उक्तोऽहंदादिभिर्न तु वयोनिबन्धन एवमविशिष्टशरीरावस्थाकारण एव, यस्मादेवं तस्मादेतयोर्वयश्वरणपरिणामयोरविरोधोऽबाधेति गाथाऽर्थः / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमिति दर्शयतिगयजोव्वणा वि पुरिसा, बालु व्व समायरंति कम्माणि / दोग्गइनिबंधणाई, जोव्वणवंता विण य केइ / / 5 / / गतयौवना अप्यतिक्रान्तवयसोऽपि पुरुषा बालः इव यौवनोन्मत्ता इव समाचरन्ति आसेवन्ते कर्माणि क्रियारूपाणि / किविशिष्टानीत्याहदुर्गतिनिबन्धनानि कुगतिकारणानि, यौवनवन्तोऽपि यौवनसमन्विता अपि केऽपि न समावरन्ति तथाविधानि कर्माणि, ततो व्यभिचारि यौवनमिति गाथाऽर्थः / ततश्चजोव्वणमविवेगो चिअ, विण्णेओ भावओ उ तपभावो। जोव्वणविगमो सो उण, जिणेहिँ न कयावि पडिसिद्धो६० यौवनमविवेक एव विज्ञेयः भावतस्तुपरमार्थत एव तदभावः अविवेकाभावो, यौवनविगमः स पुनरविवेकाभावो जिनैर्न कदाचित्प्रतिषिद्धः, सदैव संभवादिति गाथाऽर्थः / अत्राऽऽहजइ एवं तो कम्हा, वयम्मि निअमा कओ उ नणु भणिये। तदहो परिहवखित्ता इ कारणं बहुविहं पुव्वं / / 61 / / यद्येवं बौवनं व्यभिवारि ततः करमाद्वयसि नियमः कृत एव अष्टौ समा | इत्येवंभूतः? अनोत्तरमाह-ननुभणितमत्र तदधःपरिभवक्षेत्राऽऽदि कारण बहुविधमनेकप्रकारं पूर्वमिति गाथाऽर्थः। पूर्वपक्षमुलिख्य व्यभिचारयन्नाहसंभावणिजदोसा, वयम्मि खुन त्ति जं पितं भणि। तं पिन अणहं जम्हा,सुभुत्तभोगाण वि समं तं // 62 / / कर्माणां संभावनीयदोषाः वयसि क्षुलका इति यदपि भणितं पूर्व तदपि तद्भणितं नानघं न शोभनम् / कुत इत्याह-यस्मात्सुभुक्तभोगानामप्यतीतवयसामृप्यशृङ्गषितृप्रभृतीना सम तुल्यं तत्संभावनीयदोषत्वमिति गाथाऽर्थः। किञ्चकम्माण रायभू, तंजाव य मोहणिजंतु। संभावणिज्जदोसा, चिट्ठइ ता चरमदेहा वि।।६३|| कर्मणां राजभूतमशुभतया प्रधानमित्यर्थः। ओघत एव मिथ्यात्वाऽऽ- | देरारभ्य वेदान्तं यावन्मोहनीय तु, तिष्ठतीति योगः। तुर्विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि स्वप्रक्रियामाश्रित्य? एवं तत्रोत्तरं त्वाश्रित्य भवाभिनन्दिनी अविद्या परिगृह्यते। संभावनीयदोषास्ताधचरमदेहा अपि पश्चिमशरीरा अपि तिष्ठन्तु तदन्य इति गाथार्थः। यतश्चैवम्तम्हान दिक्खिअव्वा, केई अणिअट्टिबायरादारा। ते न य दिक्खाविअला, पायं जं विसममेअंति॥६४|| यस्मादेवं तस्मान्न दीक्षितव्या इति स्वप्रक्रियानुसारेण स्वसमयपरिभाषया वादरशक्त्यानुरोधेनावाप्ताणिमाऽऽदिभावेभ्य अरादिति (?) / ते चानिवृत्तिबादराः अवाप्ताणिमाऽऽदिभावा वा न दीक्षादिकलाः न प्रव्रज्याशून्याः प्रायस्तत्रान्यत्र वाजन्मनिद्रव्यदीक्षामप्याश्रित्य मरुदेवीकल्पाश्चर्यभावव्यवच्छेदार्थ प्रायोग्रहणम् / एतच तन्त्रान्तरेऽपि स्त्रपरिभाषया गीयत एव, अत्यन्तमनवाप्तकल्याणोऽपि कल्याणं प्राप्त इति वचनात्। यद्यस्मादेवं विषममेतन्न ततस्तस्माद्विषमं संकटमेतत्। क्षिमुक्त भवति ?- दीक्षाव्यतिरेण विशिष्टगुणा न भवन्ति तद्व्यतिरिकेषु च न दीक्षतीतरेतराऽऽश्रयविरोध इति गाथाऽर्थः / अन्यदुच्चार्य समतां दर्शयन्नाहविण्णायविसयसंगा, जमुत्तमिच्चाइ तं पिण हि तुल्लं / अण्णायविसयसंगा, वि तग्गुणा केइ जं हुंति // 65 / / विज्ञातविषयसङ्गा यदुक्तमित्यादि पूर्वपक्षवादिनस्तदपि न तुल्ये, प्रत्यक्षेऽपि कथमित्याह-अज्ञातविषयसङ्गा अपि तद्गुणाः विज्ञातविषयसङ्गगुणाः केचन प्राणिनो यद्यस्माद्भवन्तीति गाथाऽर्थ। स्पपक्षे योजयन्नाहअब्भासजणियपसरा, पायं कामा य तब्भवब्भासो। असुहपवित्तिणिमित्तो, तेसिंनो सुंदरतराते॥६६|| अभ्यासजनितप्रसरा आसेवनोद्भूतवेगा : प्रायः कामश्च बाहुल्येन कामा एवंविधा वर्तन्ते, तद्भवाभ्यास अशुभप्रवृत्तिनिमित्तस्तेषां न विद्यते / अन्यभवाभ्यासस्तु मनागपि प्रकृष्ट इति सुन्दरतराः शोभनतरास्ते अज्ञातविषयसङ्गाइति गाथाऽर्थः। परोपन्यस्तमुपपत्त्यन्तरमुच्चार्य परिहरन्नाहधम्मऽत्यकाममोक्खा,जमुत्तमिच्चाइ तुच्छमेअंतु। संसारकारणं जं,पयईए अत्थकामा उ॥६७।। धर्मार्थकाममोक्षा यदुक्तमित्यादि पूर्वपक्षवादिना, तुच्छमेतदप्यसारमित्यर्थ। कुतः? इत्याह-संसारकारण यत् यस्मात्प्रकृत्या स्वभावेतार्थकामौ, ताभ्यां बन्धादिति गाथाऽर्थः / तत् किमिति चेत्? उच्यतेअसुहो अमहापावो, संसारो तप्परिक्खयणिमित्तं / बुद्धिमया पुरिसेणं, सुद्धो धम्मो अ कायव्वो // 68|| अशुभश्च महापापः संसारस्तत्परिक्षयनिमित्तं बुद्धिमता पुरुपेण शुद्धो धर्मस्तु कर्त्तव्यः, शुद्ध एव चारित्रधर्मः स्वप्रक्रियया अप्रपृत्तिरूप युततन्त्रान्तरानुसारेणेति गाथाऽर्थः। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा अन्नं च जीविअंज, विज्जुलयाऽऽडोअचंचलमसारं / पिअजणसंबंधो वि अ, सया तओ धम्ममाराहे // 66 / / अन्यच जीवितं यद्यास्मात विद्युल्लताऽऽटोपचञ्चलं स्थितितः असारं, स्वरूपतः प्रियजनसंबन्धोऽपि च एवंभूत एव, यतश्चैवं सदा ततो धर्ममाराधयेद्धर्म कुर्यादिति गाथाऽर्थः / किं च - मोक्खे वि तत्फलं चिय, नेओ परमत्थओ तयत्थं पि। धम्मो चिअ कायव्वो, जिणभणिओ अप्पमत्तेण // 70|| मोक्षोऽपि तत्फलमेव धर्मफलमेव ज्ञेयः परमार्थतः, यतश्चैवमतस्तदर्थमपि मोक्षार्थमपि धर्म एव कर्तव्यो जिनभणितः चारित्रधर्मः अप्रमत्तेनेति गााऽर्थः। अन्यदप्युच्चार्य तिरस्कुर्वन्नाहतहऽभुत्तभोगदोसा, इचाइ जमुत्तमुत्तिमित्तमिदं। इअरेसिं दुट्ठयरा, सइमाईया जओ दोसा / / 71 / / तथा अभुक्तभोगदोषा इत्यादि यदुक्तं पूर्वपक्षवादिना, उक्तिमात्रमिद, वचनमात्रमिदमित्यर्थः / किमित्यत आह-इतरेषां तु भुक्तभोगानां दुष्टतराः स्मृत्यादयो यतो दोषा इति गाथाऽर्थः। स्वपक्षोपचयमाहइअरेसिं बालभाव-प्पमिइं जिणवयणभाविअमईणं। अणभिण्णाणं पायं, विसएसुन हुंति ते दोसा।।७२।। इतरेषामभुक्तभोगाना बालभावप्रभृति बालादारभ्य जिनवचनभावितमतीनां सतां वैराग्यसंभवादनभिज्ञानां च विषयेषु प्राया न भवन्ति, ते दोषाः कौतुकाऽऽदय इति गाथार्थः। उपसंहरन्नाहतम्हा उ सिद्धमेअं,जहण्णओ भणियवयजुआ जोग्गा। उक्कोस अणवगल्लो, भयणा संथारसामण्णे / / 73|| यस्मादेवं तस्मात् सिद्धमेतज्जघन्यतो भणितवयोयुक्ताःअष्टवर्षा योग्याः प्रव्रज्याया उत्कृष्टतोऽनवकल्पो योग्यः। अवकल्पमधिकृत्याऽऽह-भजना संस्तारकश्रामण्ये, कदाचिद्भावितमतिरवकल्पोऽपि संस्तारकश्रमणः क्रियत इति गाथाऽर्थः। अन्ने गिहासमं चिय, वुच्चंति पहाण मंदबुद्धीओ। जं उवजीवंती तं, नियमा सव्वे वि आसमिणो / / 74|| अन्ये वादिनो गृहाऽऽश्रममेव गृहस्थमेव ब्रुयते प्रधानमिति अभिदधति श्लाध्यतरमिति मन्दबुद्धयः अल्पमतय इति / उपपत्तिं चाभिदधतियद्यस्मादुपजीवन्ति त, कं? गृहस्थम् अन्नलाभाऽऽदिना नियमान्नियमेन सर्वेऽप्याश्रमिणो लिङ्गि इति गाथाऽर्थः / अत्रोत्तरमाहउवजीवणाकयं जइ, णइण्णं तो तओ पहाणयरा। हलकरिसगपुढवाई प्रणं उवजीवंति तो ते वि॥७५।। उपजीवनाकृते यदि प्राधान्यमुपजीव्यं प्रधानमुपजीवकस्त्वप्रधान- 1 मित्याश्रीयते (तो इति) ततस्तस्मात्तत इति गृहाश्रमात्प्रधानतराः श्लाध्यतराः हलकर्षकपृथिव्यादयः पदार्था इति / आदिशब्दाजल परिग्रहः। किमित्यत्राऽऽह-यद्यस्मादुपजीवन्तितेभ्यो धान्यलाभेन तान् हलाऽदीरतेऽपि गृहस्था अपीति गाथाऽर्थः / सिय णो ते उवगारं, करेमु एतेसि धम्मनिरयाणं / एवं मण्णंति तओ, कह पाहण्णं हवइ तेसिं? 76 / / स्यादित्याशङ्कायामथैवं मन्यसे-नो ते हलाऽऽदयः एवं मन्यन्त इति योगः / मन्यन्ते जानन्ति / कथं न मन्यन्त इत्याह उपकारं कुर्मो धन्यप्रदानेन एतेषां धर्मनिरतानां गृहस्थानामिति / यतश्चैवं ततः कथं प्राधान्यं भवति तेषां हलाऽऽदीनां, नैव प्राधान्यं, तथा मननाभावादिति गाथाऽर्थः। अत्रोत्तरमाहते चेव तेहिँ अहिया, किरियाए मंतिएण किं तत्थ। णाणाइविरहिया अह, इइ एतेसि होइ पाहण्णं / / 77|| त एव हलाऽऽदयस्तेभ्यो गृहस्थेस्योऽधिकाः क्रियया, प्राधानाः करणेनैव, यतरतेभ्यो धान्याऽऽदिलाभतस्तु उपजीव्यते गृहस्थैरतो मन्त्रितेन ज्ञातेन किं तत्र / क्रियया एव प्राधान्ये सति, ज्ञानाऽऽदिविरहिता अथ तेहलाऽऽदय इति मन्यसे एतदाशयाऽऽह-(इति) एवमेतेषां ज्ञानाऽऽदीनां भवति प्राधान्यं, नोपजीव्यस्येति गाथाऽर्थः / ततः किमिति चेदुच्यतेताणि य जईण तम्हा, हुंति विसुद्धाणि तेसिं तु / तं जुत्तं आरंभो, अ होइ जं पावहेउ ति / / 7 / / सानि च ज्ञानाऽऽदीनि यतीना प्रव्रजतानां यस्माद्भवन्ति विशुद्धानि निर्मलानि, तेन हेतुना तेषामेव यतीनां तत्प्राधान्ययुक्तम्, आरम्भश्च भवति यद्यस्मात्पापहेतुरित्यतोऽपि तन्निवृत्त्यैकत्वात्तेषामेव प्राधान्य युक्तमिति गाथाऽर्थः। अण्णे सयणविरहिआ, इमीऍ जोग त्ति एत्थ मण्णंति। सो पालणीयगो किल, तच्चाए होइ पावं तु // 76 / / अन्ये वादिनः स्वजनविरहिता भ्रात्रादिवन्धुवर्जिता अस्याः प्रव्रज्याया योग्याः इत्येवमत्र लोके मन्यन्त्ये। कया युक्त्येति तांयुक्तिमुपन्यस्यतिस पालनीयो रक्षणीयः किल, तत्त्यागे स्वजनत्यागे भवति पापमेवेति गाथाऽर्थः। सोगं अक्कंदणविलवणं च जं दुक्खिओ तओ कुणइ। सेवइ जं च अकजं, तेण विणा तस्स सो दोसो // 8 // शोकमाक्रन्देन विलपनं, चशब्दादन्यच ताडनाय दुःखितस्तक इत्यसौ स्वजनः करोति, सेवते यचाकार्य शीलखण्डनाऽऽदि,तेन विना तेनेति पालकेन प्रव्रज्याभिमुखेन, तस्यासी दोष इति यः स्वजनं विहाय प्रव्रज्यां प्रतिपद्यत इति गाथाऽर्थः / एष पूर्वपक्षः / अत्रोत्तरमाहइअ पाणवहाईआ, ण पावहेउ त्ति अह मयं ते वि। णणु तस्स पालणे तह, ण होति ते चिंतणीयमिणं // 81|| इति एवं स्वजनत्यागाहोषे सति प्राणिवधाऽऽद्या न पापहेतव इति / आदिशादाद् मृषावादाऽऽदिपरिग्रहः स्वजनत्यागादेव पापभावादित्यभिप्रायः। अथ मतं तेऽपि प्राणिवधाऽऽदयः पापहे तव एव / एतदाशङ्कयाऽऽह-ननु तस्य स्वजनस्य पालने त Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 740 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा थेत्यारम्भयोगे न भवन्ति ते प्राणवधाऽऽदयः चिन्तनीयमिदमेतद्भवत्येवेति गाथाऽर्थः। एतदेव प्रकटयन्नाहआरंभमंतरेणं, ण पालणं तस्स संभवइ जेणं / तम्मि अ पाणवहाई, नियमेण हवंति पयडमिणं // 82|| आरम्भमन्तरेण न पालनं तस्य स्वजनस्य संभवति येन तस्मिश्चाऽऽरम्भे प्राणवधाऽऽद्या नियमेन भवन्ति, प्रकटमिदं / लोकेऽपीति गाथाऽर्थः। अण्णं च तस्स चाओ, पाणवहाई व गुरुतरा होजा। जइ ताव तस्स चाओ, को एत्थ विसेसहेउत्ति? ||83|| अन्यच तस्य स्वजनस्यत्यागः प्राणवधाऽऽदयो वा पापचिन्तया गुरुतरा | भवेयुरिति विकल्पौ। किं चतइत्याह-यदि तावत्तस्य स्वजनस्यत्यागो गुरुतर इत्यत्राऽऽह-कोऽत्र विशेषहेतुरिति यतोऽयमेवेति गाथाऽर्थः। अह तस्सेव उ पीडा, किं णो अपणे सि पालणे तस्स? अह तेऽपराइ सो वि हु, सतत्तचिंता इमे चेवव / / 84|| अथेत्यथैवं मन्यसे-तस्यैव तु स्वजनस्य पीडा विशेषहेतु रित्यत्रोत्तरमाह-किं नो अन्येषां सत्त्वानां पालने तस्य पीडा? पीडवेति भावः / अथ तेऽपरादय इति, अपरे, आदिशब्दादेकेन्द्रियाऽऽदयश्च, अत्रोत्तरम्असावपि स्वजनः स्वतत्वचिन्तायां परमार्थचिन्तायामेवमेव पराऽऽदेरेव, अनित्यत्वात् ततसंयोगस्येति गाथाऽर्थः / पक्षान्तरमाहसिअ तेण कयं कम्म, एसो नो पालगो त्ति किं ण भवे ? ता नूणमण्ण पालग, जोग्गं वि अतं कयं तेण ||8|| स्यादित्यथैवं मन्यसे-तेन स्वजनेन कृतं कर्मादृष्ट, किं फलमित्याहएष प्रविव्रजिषुनः अस्माकं पालक इत्येवं फलम्, अत्रोत्तरम्-किं न भवति ? कर्मणः स्वफलदानात् न च भवति, तन्नूनमवश्यमन्यः पालक इत्येतदुचितमेव तत्कर्म कृतं तेन स्वजनेनेति गाथाऽर्थः। किंचबहुपीडाए अ कहं, थोवसुहं पंडिआणमिटुं ति ? जलकट्ठाइगयाण य, बहूण घाओ तदच्चाए।।८६|| बहुपीडायां च अनेकजलाऽऽधुपमर्दने च कथं स्तोकसुखं स्तोकाना स्वजनानां स्तोक वा स्वल्पकालभावेन सुखं स्तोकसुखं पण्डितानामिष्टमिति? बहुपीडामाह-जलकाष्ठाऽऽदिगतानां च, प्राणिनामिति गम्यते। बहूनांघातस्तदत्यागे स्वजनात्यागे, आरम्भमन्तरेण तत्परिपालनाभावादिति गाथाऽर्थः। एवंविहा उ अह ते, सिट्ठ वि न तत्थ होइ दोसो उ। इअ सिट्ठिवायपक्खे, तच्चाएणं कह दोसो ? ||7|| एवंविधा एव तथा मरणधर्माणः, अथ ते जलकाष्ठाऽऽदिगता प्राणिनः रम्पृष्टा इति न तत्र स्वजनभरणार्थं तजिघांसने भवति दोषस्तु। अत्रोत्तरमाह-इति एवं सृष्टिवादपक्षेऽङ्गीक्रियमाणे तत्त्यागेन स्वजनत्यागेन कथ दोषो ? नैव दोष इति, यतोऽसौ स्वजनस्तथाविध एव सृष्टः,येन त्यज्यत इति गाथाऽर्थः। यतश्चैतदित्थं च घटतेता पाणवहाईआ, गुरुतरगा पावहेउणो नेआ। सयणस्स पालणम्मि अ, निअमाए इति भणियमिणं / / 5 / / यस्मादेवं तस्मात्प्राणिवधाऽऽद्या गुरुतराः पापहेतवो ज्ञेयाः रस्वजनत्यागात्सकाशात्। ततः किमिति चेत् ? उच्यते-स्वजनस्य पालने च नियमादिति प्राणिवधाऽऽद्या इति भणितमिदं पूर्वमिति गाथाऽर्थः / एवं पिपावहेऊ, अप्पयरोणवर तस्स चाउत्ति। सो कह ण होइ तस्सा, धम्मत्थं उज्जयमइस्स ? ||8|| एवमपि पापहेतुरेष अल्पतरो,नवरं तस्य स्वजनस्य त्याग इति स पापहेतुः कथं न भवति तरय प्रविद्रजिषोर्धर्मार्थमुद्यतमतेः भवत्येवेति गाथाऽर्थः। अत्रोत्तरमाहअब्युवगमेण भणिअं,ण उ विहिचाओ वि तस्स हेउ त्ति। सोगाइम्मि वितेसिं, मरणेव विसुद्धचित्तस्स ||6|| अभ्युपगमेन भणितम्-अन्यच तस्य त्याग इत्यादौ, न तु विधित्यागोऽपि, स्वजनस्येति गम्यते / तस्य हेतुरिति, तस्येति पापस्य हेतुर्विधित्यागकथनाऽऽदिना अन्यत्र निर्गमस्य शोकाऽऽदावपि तेषां स्वजनानां मरण इव विशुद्धचित्तस्य रागाऽऽदिरहितस्य, मरण इवेति च सिद्धः परस्य दृष्टान्तोऽन्यथा तत्रापि स्वजनशोकाऽऽदिभ्यः पापप्रसङ्ग इति गाथाऽर्थः। अण्णे भणंति धण्णा, सयणाइजुआ उ होंति जोग त्ति / संतस्स परिच्चागा, जम्हा ते चाइणो हुंति / / 61|| अन्ये वादिनो भणन्ति अभिदधति-धन्याः पुण्यभाजः स्वजनाऽऽदियुक्ता एव स्वजनहिरण्याऽऽदिसमन्विता एव भवन्ति। योग्याः, प्रव्रज्याया इति गम्यते। उपपत्तिमाह-अन्ये वादिनो सतो विद्यमानस्य परित्यागात्स्वजनाऽऽदेर्यस्मात्कारणात्ते स्वजनयुक्तास्त्यागिनो भवन्ति, त्यागिना च प्रव्रज्येष्यत इति गाथाऽर्थः। / जे पुण तप्परिहीणा, जाया देवाओ चेव भिक्खागा। तह तुच्छभावउ चिय, कहं णु ते होंति गंभीरा ? ||62 // येन पुनस्तत्परिहीणा जाता दैवादेव कर्मपरिणामे चैव भिक्षाकाः भिक्षाभोजिनः, ततश्च तथा तेन प्रकारेण तुच्छभावत्वादेवासारतत्त्वादेव, कथं नु ते भवन्ति गम्भीराः, नैव ते भवन्त्युदारचित्ता अनुदारचित्ताश्वायोग्या इति गाथाऽर्थः। किंचमजंति अ ते पायं, अहिययरं पाविऊण पज्जायं। लोगम्मी उवधाओ, भोगाभावाण चाई य||३|| मजन्ति च मन्दं गच्छन्ति ते अगम्भीराः प्रायो बाहुल्येनाधिकतरमिहलोक एव शोभनतरं प्राप्यपर्यायमासाद्यावस्थाविशेषम्, अधिकश्चेह लोकेऽपि तथाविधगृहस्थपर्यायात्प्रव्रज्यापर्यायः लोके चोपघालः क्षुद्रप्रव्रज्याप्रदानेन तथा भोगाभावानात्यागिनश्चते, अगम्भीराः त्यागिनश्च प्रव्रज्योक्त्या (?) "से हु चाई त्ति वुचति।" इत्यादिवचनादिति गाथाऽर्थः / एष पूर्वपक्षः। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 741 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा अत्रोत्तरमाहएयं पि न जुत्तिखम, विण्णेअं मुद्धविम्हयकरं तु / अविवेगपरिचागा, चाई जंनिच्छयनयस्स|४|| एतदपि न युक्तिक्षम विज्ञेयं न युक्तिसमर्थं ज्ञातव्यं, यदुक्तं पूर्व- | पक्षवादिना, मुग्धविस्मयकर तु मन्दमतिचेतोहारि त्वेतत् / कथमित्याह-अविवेकपरित्यागाद्भावतोऽझानपरित्यागेन, त्यागी यद्यस्मानिश्चयनयस्याभिप्रेत इति गाथाऽर्थः / किमित्येतदेवमत आहसंसारहेउभूओ, पवत्तगो एस पावपक्खम्मि। एअम्मि अपरिचत्ते, किं कीरइ बज्झचागेण? ||6|| संसारहेतुभूतः संसारकारणभूतः प्रवर्तकः एषोऽविवेकः पाएपक्षेऽकुशलण्यापारे, यत श्वेयमतः-एतस्मिन्नविवेके अपरित्यक्ते किं क्रियते बाह्यत्यागेन स्वजनाऽऽदित्यागेनेति गाथाऽर्थः। किंचपालेइ साहुकिरिअं, सो सम्मं तम्मि चेव चत्तम्मि। तब्भावम्मि अविहलो, इअरस्स कओ विचाउ त्ति / / 66|| पालयति साधुक्रियां यतिसामाचारी स प्रव्रजितः सम्यगविपरीतेन मार्गेण तस्मिन्नेवाविवेके त्यक्ते इति तद्भाये चाविवेकसत्तायां च सत्या विफलः परलोकमङ्गीकृत्य, इतरस्य स्वजनाऽऽदेः कृतोऽपित्यागो विवेक इति गाथाऽर्थः। एतदेव दर्शयतिदीसंति अकेइ इहं, सइ तम्मी बज्झचायजुत्ता वि। तुच्छपवित्ती अफलं, दुहा वि जीवं करेमाणा ||17|| दृश्यन्ते केचिदिहलोके सति तस्मिन्नविवेके बाह्यत्योगयुक्ता अपि स्वजनाऽऽदित्यागसमन्विता अपि तुच्छप्रवृत्त्या अविवेकात्तथाविधरसाऽऽद्यसारप्रवृत्त्या अफलं द्विधाऽपि इहलोकपरलोकापेक्षया जीवित कुर्वन्तः सन्त इति गाथाऽर्थः। तथा चचइऊण घरावासं, आरंभपरिग्गहेसु वटुंति / जं सण्णाभेएणं, एअं अविवेगसामत्थं / / 68|| त्यक्त्वाऽपि गृहवासं प्रव्रज्याऽङ्गीकरणेनाऽऽरम्भपरिग्रहयोरुक्तलक्षणयोर्वर्तन्ते यद्यस्मात्संज्ञाभेदेन एवं त्यक्त्वा देवाऽऽद्यर्थोऽयमित्येवंशब्दभेदेन एतदित्थंभूतमविवेकसामर्थ्यमज्ञानशक्तिरिति गाथाऽर्थः। एतदेव दृष्टान्तद्वारेणाऽऽहमंसनिवित्तिं काउं, सेवइ दंभिक्कयं ति धणिभेआ। इअ चइऊणाऽऽरंभ, पर ववएसा कुणइ बालो ||6|| मांसनिवृत्तिं कृत्या कश्चिदविवेकात्सेवते दम्भिकमितिध्वनिभेदाच्छब्दभेदेन (इय) एवं त्यक्त्वाऽऽरम्भम् ‘‘एकग्रहणे तज्जालीयग्रहणम्" इति न्यायात्परिग्रहं च, परव्यपदेशात परवादिव्यपदेशेन करोति बालोऽज्ञ इति गाथाऽर्थः। किमित्येतदेवमित्यत आहपयईए सावजं, संतं जं सव्वहा विरुद्धं तु। धणिभेअम्मि वि महुरग-सीअलिगाइ व्व लोगम्मि / / 100 / / प्रकृत्या स्वभावेन सावा सपाप सदवद्यं यद्यस्मात्सर्वथा सर्वैः प्रकारविरुद्धमेव दुष्टमेव ध्वनिभेदेऽपि शब्दभेदऽपि सति, किं तदित्याहमधुरकशीतलिकाऽऽदिवल्लोक इति / न हि विषं मधुरकमित्युक्तं न व्यापादयति, स्फोटिका वा शीतलिकेत्युक्ता न तद् दुनोतीतिगाथाऽर्थः / अत्राऽऽहता कीस अणुमओ सो, उवएसाइम्मि कूवणाएणं / गिहिजोगो उ जइस्स उ, साविक्खस्सा परवाए।।१०१।। यद्यवं तत्किमित्यनुमतोऽसावारम्भः / वेत्याह-उपदेशाऽऽदावितिउपदेशे श्रावकाणामादिशब्दात्वचिदात्मनाऽपि लूताऽऽद्यपनयनमाप्यत इति। अत्रोत्तरमाह-कूपज्ञातेन प्रवचनप्रसिद्धकूपोदाहरणेन गृहयोग्यस्तु श्रावकयोग्य एवेति, मध्यस्थस्य शास्त्रार्थकथने नानुमतिः यतेः प्रजितस्य सापेक्षस्य गच्छवासिनः परार्थ सत्त्वार्हगुणमाश्रित्य निरीहस्य यतनया विहितानुष्ठानत्वान्नानुमतिरिति गाथाऽर्थः / तथा चासऽऽहअण्णाभावे जयणा- ऐं मग्गणाणो हविज मा तेणं / पुवकया जइणाइसु. ईसिं गुणसंभवे इहरा / / 102 / / अन्याभावे श्रावकाऽऽद्यभावे, यतनया आगमोक्तया क्रियया, मार्गनाशस्तीर्थनाशो मा भूदित्यर्थः / तेन कारणेन पूर्वकृतायतनाऽऽदिषु महति सन्निवेशे सचरितलोकाऽऽकुले अर्द्धपतितायतनाऽऽदिषु ईषद् गुणसंभवे च कस्यचित्प्रतिपत्त्यादिस्तोकगुणसंभवे च सति एतदुक्तम्, इतरथाऽन्यथा। चेइअकुलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणसुए य। सव्वेसु वि तेण कयं, तबसंजममुजमंतेणं / / 103 / / चैत्यकुलगणसघेषु-चैत्यान्यर्हतप्रतिमाः, कुलं चन्द्राऽऽदिः परस्परसापक्षोऽनेककुलसमुदायो गणः, बालुकापर्यन्तः सङ्घः, तथा आचार्याणां प्रसिद्धतत्त्वानां, प्रवचनश्रुतयोश्च-प्रवचनमर्थः, श्रुतं तु सूत्रमेव, एतेषु सर्वेष्वपि, तेन साधुना कृतं यत्कर्त्तव्यं, केनेत्याह-तपःसंयमयोरुधुक्तेन तपसि संयमे चोद्यम कुर्वता, इति गाथाऽर्थः। एत्थ अविवेगचागा, पवत्तई जेण तम्ह सो पवरो। तस्सेव फलं एसो, जो सम्म बज्झचाउत्ति / / 104 / / अत्र चतपआदौ, अविवेकत्यागात्प्रवर्तते, येन कारणेन, तस्मादसावविवेकत्यागः प्रवरः, तस्यैवाविवेकत्यागस्यफलमेषः, कः? यः सम्यगबाह्यत्याग इति गाथाऽर्थः। यतश्चैवम् - ता कसिणमिअंकज्जं, सयणाइजुओन वेति सइ तम्मि। एत्तो चेव य दोसा, ण हुंति सेसा धुवं तस्स / / 10 / / ततः कृत्स्नो लोको भुवनमिदं कार्य स्वजनाऽऽदियुक्तो न वेति सति तस्मिन्नविवेकत्यागे अत एव चाविवेकत्यागात् दोषान भवन्ति, शेषा धुवं तस्य अगम्भीरमदाऽऽदय इतिगाथाऽर्थः / यतस्तत्र उक्तम्- "जय कंते पिए'' इत्यादौ "से हु चाइ त्ति वुचति।" तत्कथं नीयत इति चेतसि निधायाऽऽहसुत्तं पुण ववहारे, साहीणत्ता तवाइभावेणं। बहु अविसहत्थम्मी, अन्नो वितओ हवइ चाई।।१०६|| Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 742 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा सूत्र पुनः 'से हु चाई" इत्यादिव्यवहारनयविषयं व्यवहारतस्तावदेव स्वाधीनत्वात्तपआदिभावेन तपसा अनिदानेन, आदिशब्दात कोटित्रयोधमपरित्यागेन बहुः सूत्रोक्तः, अपि शब्दार्थे वा सोऽप्यन्योऽपि ततो भवति, त्यागीति गाथाऽर्थः। किचको वा कस्स न सयणो, के वा केणं न पाविआ भोगा। संतेसु वि पडिबंधो, दुट्ठो त्ति तओ चएअव्यो / / 107 / / को वा कस्यन स्वजनः के वा केन न प्राप्ताभोगा अनादी संसारे इति। तथा सत्स्वपि स्वजनाऽऽदिषु प्रतिबन्धो दुष्ट इत्यसौ त्यक्तव्यः, असत्स्वपि तत्संभवादिति गाथाऽर्थः। उभययुक्तानां तु गुणमाहवण्णा य उभयजुत्ता, धम्मपवितीइ हुँति अन्नेसिं। जं करणमिहं पायं, केसिं चि कयं पसंगेणं / / 10 / / केसि ति दारं रायं / वन्याश्चोभययुक्ता बाह्यत्यागविवेकत्यागद्वयसंपन्नाः, किमित्यत आह-धर्मप्रवृत्तेर्भवन्ति, अन्येषां प्राणिनां, यद्यस्मात्कारणदिह प्रायेण केषाश्चिदन्येषामिति कृतं प्रसङ्गेनेति गाथाऽर्थः ! केभ्य इति व्याख्यातम् / इदानी कस्मिन्निति व्याख्यायते। (7) कस्मिन् क्षेत्राऽऽदी प्रव्रज्या दातव्येत्येतदाहओसरणे जिणभवणे, उच्छुवणे खीररुक्खवणसंडे। गंभीरसाणुणाएँ,एमाइपसत्थखित्तम्मि।।१०६।। समवसरणे भगवदध्यासिते क्षेत्रे, वृत्ततद्भावे वा, जिनभवने अर्हदायतने, इक्षुवने प्रतीते, क्षीरवृक्षवनखण्डे अश्वत्थाऽऽदिवृक्षसमूहे. गम्भीरसानुनादे महाभोगप्रतिशब्दे वा, एवमादी प्रशस्तक्षेत्र, आदिशब्दाप्रदक्षिणाऽऽवर्तजलपरिग्रह इति गाथाऽर्थः / दिज्ज ण उ भग्गझामिअ-सुसाणसुण्णामणुण्णगेहेसुं। छारंगारवयारा-मेज्झाईदव्वदुट्टे वा / / 110 // एवंभूत क्षेत्रे दद्यान्न तु भनध्यामितश्मशानशून्याभनोज्ञहषु दद्यात्, ध्यामितं दग्धं, तथा क्षारागारावकारामेध्याऽऽदिद्रव्यदुष्ट वा क्षेत्र न दद्यात् / आदिशब्दोऽमेध्यत्वस्येहख्यापक इति गाथाऽर्थः: (8) व्यतिरेकप्राधान्यतः कालमधिकृत्याऽऽ.. चाउद्दसि पण्णरसिं, च वज्जए अट्ठमिं च नवमिं च। छट्टि च चउत्थिं वा-रासिं सेसासु दिज्जाहि|१११।। चतुर्दशी पञ्चदशीं च वर्जयेदष्टमी च नवमीं च षष्ठी च चतुर्थी द्वादशींच। शेषासु तिथिषु दद्यादन्यदोषरहितास्विति गाथाऽर्थः। नक्षत्राण्यधिकृत्याहतिसु उत्तरासु तहा रो-हिणीसु कुजा उ सेहनिक्खमणं / गणिवायए अणुण्णा, महव्वयाणं च आरुहणा ||112 // तिसृषूत्तरासु आषाढाऽऽदिलक्षणासु, तथा रोहिणीषु कुर्यात शिष्यकनिष्क्रमणं, दद्यात् प्रव्रज्यामित्यर्थः। तथा गणिवाचकयारनुझाए नेष्वेव क्रियते, महाव्रतानां चाऽऽरोपणेति गाथाऽर्थः / वयनक्षत्राण्याहसंझागयं रविगयं, विड्डेरं सग्गहं विलंविंच। राहुहयं गहभिन्नं, च वजए सत्त नक्खत्ते / / 113 / / संध्यागतरविगतं विड्डेर सद्ग्रहं विलम्बिच राहुहतं ग्रहभिन्नं च वर्जयेत्सप्त नक्षत्राणि। "अत्थमणे संज्झागय, रविगय जहिय ठिओ उ आइछा। विदुरमवहीरिय, सग्गह कूरग्गहठियं जंतु / / 1 / / आइचपिडओज, विलंवितं राहुहयं तु जहिं गहणं / मज्झेणं जस्स गहो, गच्छइतं होइ गहभिन्नं / / 2 / / संझागयम्मि कलहो, आइच्चगते य पवयणे हाणी। विड्डेरे परविजओ, सगहम्मि य विग्गही होइ / / 3 / / दोसो अभंगयत्तं होइ कुभत्तं विलविनक्खते। राहुहयम्मि य मरण, गनिन्ने सोणउग्गालो // 4 // '' इति गाथाऽर्थः। उपसंहरन्नाहएसा जिणाणम, खित्ताईआ य कम्मणो हुंति। उदयाइकारणाम, तम्हाए एस जइअव्वं / / 114 / / कम्मिति दारं गय। एषा जिनानामाज्ञा यदुक्तोक्तलक्षणेष्वेव क्षेत्राऽऽदिषु दातव्यति / क्षेत्राऽऽदयश्व कर्मणो भवन्ति उदयाऽऽदिकारणे यद्यस्मात् / यत उक्तम्- "उदयक्खओ य खउवरसमोवसम्मा जं च कम्मुणो भणिया। दव्वं खित्त कालं, तथं च भावंच संपप्पा।१।" यस्मादेव तस्मादेतेषु क्षेत्राऽऽदिषु यतितव्यं शुद्धेषु यत्नः कार्यः / इति गाथाऽर्थः / पं०व०१द्वार। (6) चरमपुद्गलपरावर्त्त विशुध्यमानस्य च दीक्षा भवतीत्येवमस्याः सामान्यतोऽधिकारी निरूपितोऽथ तमेव विशेषतो निरूपयन्नाहदिक्खाएँ चेव रागो, लोगविरुद्धाण चेव चाउत्ति। सुंदरगुरुजोगो विय, जस्स तओ एत्थ उचिओ त्ति / 14|| दीक्षायामेव प्रागुक्तस्वरूपदाक्षणक एव, चैवशब्दोऽवधारणार्थः। तेन न पुनर्दीक्षाप्रतिपक्षेऽपि, रागोऽनुरागो वक्ष्यमाणलक्षणः। तथालोकविरुझाना बहुजनविरोधहेतुभूतानुष्ठानविशेषाणां वक्ष्यमाणरूपाणाम, चशब्दः समुच्चयार्थः, एवशब्दस्त्ववधारणार्थः। तस्य चैवं प्रयोगःत्यागः एव परिहार एव। अथवा-चैवेत्यवधारणे / तेन लोकविरुद्धानामेव, न तु तदविरोधवता त्यागः, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः / ततश्च इत्येवंरूपो वक्ष्यमाणविषयभेद इत्यर्थः। अथवा-इति शब्दः परिसमाप्तौ / ततश्च इति एतावदेव दीक्षणीयजीवस्य स्वगतं दीक्षारागलोकविरुद्धत्यागरूपं दीक्षाऽधिकारित्वस्य लक्षणम् / अतोऽन्यत्सायोगिकमिति दर्शितं भवति / तथा सुन्दरगुरुयोगः सम्यग्ज्ञानसदनुमानरूपन्नदीक्षादायकार्यसम्बन्ध / अपिशब्दोऽवधारणे। चशब्दःरामु तेन सुन्दरगुरुयोग एच न पुनरसुन्दरगुरुयोगोऽपि / अथवा-अपिचेत्येतत्समुच्चय एव: यस्यानिर्दिष्टविशेषस्य दीक्षणीयजीवस्य, अस्तीति गम्यमातकोऽसावत्र जिनदीक्षायामुचितो योग्यः। इतिशब्दो दीक्षाऽधिकारिजीवलक्षणसमाप्तिद्योतकः। एतावदेवतस्य लक्षणमिति हृदयमिति द्वारगाथाऽर्थः / / 4 / / Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 743 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा दीक्षाराग लक्षयितुं गाथात्रयमाहपयतीए सोऊण व, दटठूण व केइ दिक्खिए जीवे / मग्गं समायरंते, धम्मियजणबहुमए निचं / / 5 / / एई चेव सद्धा, जायइ पावेज कहमहं एयं ? भवजलहिमहाणावं, णिरवेक्खा साणुबंधा य // 6 // विग्धाणं चाभावो, भावे विय चित्तथेजमच्चत्थं / एयं दिक्खारागो, णिघिटुं समयके ऊहिं / / 7 / / प्रकृत्या निसर्गेण, स्वतः सम्भूततथाविधकर्मक्षयोपशमेनेत्यर्थः। एतस्यां | श्रद्धा जायत इति सम्बन्धः / तथा श्रुत्वाऽऽकर्ण्य दीक्षागुणाऽऽदिप्रतिपादनपरं श्रुतधर्ममिति गम्यते। अथवा-दीक्षितान्जीवानिति सम्बध्यते। वाशब्दो विकल्पार्थः / दृष्ट्वा वा चक्षुषोपलभ्य, कानित्याह-(केइ ति) कांश्चित्, न सर्वान्, सर्वेषां दीक्षितत्वासम्भवात्। अथवा-कांश्चित्सामान्यान् स्वजातिभिः स्वदेशाऽऽदिभिरविशेषितान्। अनेनाविशेषेण गुणिषु प्रमोदमावेश्यति। दीक्षितान् प्रतिपन्नजिनदीक्षान् / ततः किंभूतास्तान ?-मार्ग सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपं निर्वाणनगरगमनपथम्, समाचरतो विद-धतः। तथा धार्मिकजन बहुमतान् धर्मचारिलोकसंमतान्, नित्यं सर्वदेति / इह च प्रकृत्येत्यनेन निसर्गतःसम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिरुक्ता, श्रुत्वा वा दृष्ट्वा वेत्यनेन चाधिगमत इति प्रकारद्वयमेव चास्य प्रतिपत्तौ स्यात्। य दाह- तन्निसर्गादधिगमाद्वेति / " (तत्त्वार्थः) / / 5 / / एतस्यामेव प्रस्तुतदीक्षायां, न दीक्षान्तरे, श्रद्धा रुचिः, जायते प्रादुर्भवति। श्रद्धामेयोल्लेखतो दर्शयतिप्राप्नुयां लभयम्, कथं केन प्रकारेण ? अहमेतां दीक्षाम। किम्भूतां? भवजलधिमहानावं संसारसमुद्रतरणमहाद्रोणीम्। किभूता श्रद्धेत्याह-निरपेक्षा निःस्पृहा, सांसारिकफलानि प्रति लौकिकधर्मदेवगुरुत्वाप्रतीत्याविद्यमानापेक्षेत्यर्थः / यत एतत्त्याग एव दीक्षा / यदाह- "समणोवासओ पुटवामेव मिच्छत्ताओपडिक्कमति सम्मत्तं उवसंपनति, नो से कप्पति अजप्पभिई अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थियदेवयाणि या।" इत्यादि। सानुबन्धाऽव्यवच्छिन्नतद्भावसन्ताना, चशब्दः समुचय इति।।६।। तथा-विघ्नानां दीक्षाप्रतिपत्तिप्रत्यूहानाम् / चशब्दः समुचये। अभावोऽविद्यमानता, श्रद्धालक्षणशुभभावव्यपोहित्वात्तेपाम्। भावेऽपि च निरुपक्रमल्किष्टकर्मदोषाद्विघ्नानां सद्भावेऽपिच; अपि चेति समुच्चयार्थः / चित्तस्थैर्य दीक्षां प्रति मनोदायम्, अत्यन्तम्, यदिति शेषः / एतदनन्तरोक्त श्रद्धाविघाभावचित्तदायरूपं त्रयम्। किमित्याहदीक्षारागा दीक्षाऽनुरागः, निर्दिष्ट कथितम्। कैरित्याह-समयकेतुभिः प्रकाशकत्वेन सिद्धान्तचिह्नभूतैः समयज्ञैरिति यावत्। इति गाथात्रयार्थः // 7 / / उक्तो दीक्षारागोऽथ लोकविरुद्धत्यागाभिधित्सया लोक विरुद्धानुष्ठानोपदर्शनायाऽऽहसव्वस्स चेव जिंदा, विसेसओ तह य गुणसमिद्धाणं। उजुधम्मकरणहसणं, रीढा जणपूयणिज्जाणं / / 8 / / बहुजणविरुद्धसंगो, देसादाचारलंघणं चेय। उल्लणभोगो य तहा, दाणाइ वि पगङमण्णे तु | साहुवसणम्मि तोसो, सइ सामत्थम्मि अपडियारो य / एमाइयाणि एत्थं, लोगविरुद्धाणि णेयाणि / / 10 / / सर्वस्यैव समस्तस्यैव लोकस्य, चैवशब्दोऽवधारणे। तेन न पुनः करयचिदेव / निन्दा जुगुप्सा, लोकविरुद्धमिति सर्वत्र योज्यम्। निन्द्यमानो हि लोको निन्दक प्रति विरुद्धो भवत्यतो लोकविरुद्धम्। एवं सर्वत्र भावना कार्या। तथा विशेषतो विशेषेण नितरामित्यर्थः / तथा चेति पुनरर्थः / गुणसमृद्धानां ज्ञानाऽऽदिगुणर्द्धिमतामाचार्याऽऽदीनाम् / निन्देति प्रकृतमेव / गुणवतां हि बहुलोकः पक्षपाती भवत्यतस्तन्निन्दा विशेषतो लोकविरुद्धमिति भावः। ऋजूनामव्युत्पन्नवुद्धीनांधर्मकरणे स्वबुद्ध्यनुसारेण कुशलानुष्ठानाऽऽसेवने हसनमुपहासो धूर्तर्विडम्बिताः खल्वेत इत्यादिरूप ऋजुधर्मकरणहसनम् / वहवो ह्यव्युत्पन्ना एव लोकाः, तेच तवर्माऽऽचारहसने सति विरुद्धा एव भवन्ति। तथा रीढा हीला, जनपूजनीयानां राजामात्यश्रेष्ठितद्गुरुप्रभृतीनाम् / भावनाभिप्रायः प्रतीत एव // 8|| तथा बहुजनैः प्रभूतलोकैः सह ये विरुद्धास्तदपकारकत्वेन विरोधवन्तस्तैः सार्ध यः सङ्गः सम्पर्कः स तथा देशाऽऽद्याचारलङ्घनमेव च जनपदग्रामकुलप्रभृतिसमाचारातिक्रम एव च। पुनस्तदनुलड्घनमपि। चशब्दः समुच्चये। एवकारश्वावधारणे। अनयोश्च प्रयोगों दर्शित एव / तथोल्ल्वणः खिड्गजनाऽऽचरितो भोगो वस्त्रपुष्पाऽऽदिभिर्देहसत्कार उल्ल्वणभोगः / तथा तेन प्रकारेण देशकालविभववयोऽवस्थाssधनौचित्यलक्षणेन / तथा दानाऽऽद्यपि वित्तवितरणतपःप्रभृतिकमपि, न केवलमुल्ल्वणभोग इवेत्यपिशब्दार्थः / किम्भूतं दानाऽऽदीत्याहप्रकटमगम्भीरतया लोकप्रकाशम् / अन्ये त्वपरे पुनराचार्याः लोकविरुद्धमाहुरिति गम्यम्। तथाविधदानाऽऽदिविधावकस्य हि लोक उपहासकारी स्यादिति लोकविरुद्धतेति॥६॥ तथासाधुव्यसने दुष्टराजाऽऽदिजनितायां शिष्टजनानामापदि, तोषःप्रमोदः। अत्र हि साधवस्तत्पाक्षिकाश्च विरुद्धा भवन्ति / तथा सति विद्यमाने, सामर्थ्य साधुव्यसनपरित्राणबले, अप्रतिकारो व्यसनापरित्राणम्। चशब्दः समुच्चये।लोकविरुद्धमितियोगः। शेषलोकविरुद्धोपलक्षणार्थमाह-एवमेतानि सर्वजननिन्दाऽऽदीनि, आदिः प्रकारो येषां तात्थेवमादिकानि। आदिशब्दात्पैशुन्याऽऽदिग्रहः / (एत्थं त्ति) अत्र जिनदीक्षाऽधिकारे, लोके वा, लोकविरुद्धानि लोकविरोधवन्त्यनुष्ठानानि, ज्ञेयानि ज्ञातव्यानि जपपरिज्ञया, प्रत्याख्यानपरिणया तु परिहर्त्तव्यानीति गाथात्रयार्थः।।१०।। अथ सुन्दरगुरुयोगं दर्शयन्नाहणाणाइजुओ उगुरू, सुविणे उदगादितारणं तत्तो। अचलाइरोहणं वा, तहेव वालाइरक्खा वा // 11 // ज्ञानाऽऽदियुतश्च गुरुः / इह चशब्दस्तुशब्दो वा पुनरर्थः / तस्य चैवं प्रयोगः-लोकविरुद्धानि, तावत्सर्वजननिन्दाऽऽदीनि, गुरुश्च दीक्षाऽऽचार्यः पुनानादियुतः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र युक्तः सुन्दरो अवतीति हृदयम्। अथवा-ज्ञानाऽऽदियुत एव गुरुर्भवतीत्येवमयधारण व्याख्येयम् / अथ तद्योगः क इत्याह-स्वमे निद्रासंवलितमनोविज्ञानविशेषरूपे, उदकाऽऽदिभ्यो जलानलगाऽऽदिभ्यस्तारणम् / ततो गुरोःसकाशात् दीक्षाकामस्य / एतच सुन्दरगुरुयोगपरिज्ञानहेतुत्वात्सुन्दरयो Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 744 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा गोऽभिधीयते / एवमचलाऽऽदिषु पर्वतप्रसादवृक्षशिखरप्रभृतिषु, रोहणमारोपणमचलाऽऽदिरोहणम्। वाशब्दः पूर्वोक्तपक्षापेक्षया विकल्पार्थः। तथैव तेनैव प्रकारेण स्वप्ने ततः सकाशादित्येवलक्षणेन, व्यालाः श्वापदा भुजगा वा तदादिभ्यः / आदिशब्दाद्गजाऽऽदिभिश्च रक्षा व्यापाद्यमानस्य वाणं व्यालाऽऽदिरक्षा।वाशब्दो विकल्पार्थ एवेति गाथाऽर्थः / / 11 / / उक्ता दीक्षा / पञ्चा० 2 विव०। (10) समवसरणान्तःपुष्पपाते योग्यतानिर्णयाद्दीक्ष्यतेऽ सौ, बहिस्तत्पाते तु को विधिरित्याहबाहिं तु पुप्फपाए, वियडणचउसरणगमणमाईणि। काराविज्जइ एसो, वारतिगमुवरि पडिसेहो // 27 // बहिर्बहिस्तात्समवसरणात, तुशब्दः पुनःशब्दार्थः, सच पूर्वोक्तार्थापक्षयोत्तरार्थस्य विलक्षणतासूचनार्थः / पुष्पपाते कुसुमपतने सति, विकटन च शङ्काऽऽद्यतिचाराऽऽलोचना स्वाभिप्रायनिवेदनमात्र था, चतुःशरणगमनं ‘चत्तारि सरणं पवजामि' इत्यादिरूपमादिर्येषां तानि विकटनचतुःशरणगमनाऽऽदीनि। मकारश्वेहाऽऽगमिकः, आदिशब्दात् पञ्चनमस्काराऽऽदिपरिग्रहः(कारा-विजति त्ति) कार्यते विधाप्यते गुरुणा एष दीक्षाधिकृतजीवः। कियतीर्वारा इत्याह-(वारतिग) श्रीन वारान्यावत, उपरि तस्योर्ध्व प्रतिषेधो निषेधो दीक्षायाः / इदमुक्तं भवति- बहिः पुष्पपाते सत्यालोचनाऽऽदि कारयित्वा तथैव पुष्पपातः कार्यते, पुनर्बहिः पाते पुनरपि स एव विधिरावर्त्यते। ततो वारत्रयेऽपि यदिबहिरेव पुष्पपातो भवति, तदा त्रिनिश्चितत्वात्तद्दीक्षाऽनहत्वस्य प्रतिषिध्यत एवारा। दीक्षाग्रहणं प्रति भद्र! प्रस्तावान्तरे तव दीक्षा दास्यते, नाधुनेत्यादिभिः कोमलवचनैरिति गाथाऽर्थः / 27 उक्तविपर्ययमाहपरिसुद्धस्स उ तह पुप्फपायजोगेण दसणं पच्छा। ठितिसाहणमुवबूहण, हरिसाइपलोयणं चेव।।२८|| परिशुद्धस्य दीक्षोचितविशुद्धिप्राप्ततया निश्चितस्य रातो दीक्षणीयस्य, तुशब्दः पुनःशब्दार्थः / कथमित्याह-तथेति तथाविधः पूर्वोक्तन्यायतः समवसरणमध्यभावी यः पुष्पपातयोगः कुसुभपतनव्यापारः स तथा तेन पुष्पपातयोगेन / किमित्याह-दर्शनं नयनाऽऽवरणवसनापनानेन जिनप्रतिमा प्रति तस्य दर्शनक्रियायां प्रयोजन गुरुणा कार्यम्। पश्वादिति पुष्पपातेन तद्विशुद्धिनिश्वयानन्तरम् / अथवा-दर्शनमिति सम्यग्दर्शन तस्याऽऽरोपणीयमेतदारोपणमेव च दीक्षोच्यते / उक्ता वासक्षेपाऽऽदिलक्षणा सामाचारी। तत्र चावश्यकचूर्ण्यनुसारी सम्प्रदायोऽयम् - चैत्यवन्दनाऽऽदिना तदुचितेन सर्वविरतिसामायिकाऽऽरोपणक्रमेण गुरुणेदगुधारयितव्य दीक्षणीयेन चैतदेव प्रत्युचारयताऽभ्युपगन्तव्यम्। तद्यथा- ''अहं भंत! तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिकमामि, सम्मत्तं उपसंपवाभि, नो में कप्पइ अजप्पभिई अन्नउत्थिए वा, अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नरस्थि- | यपरिगहियाई अरहंतचेयाणि वा वंदितएवानमंसित्तए या पछि अनप्लरण आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असण वा पाणं वा खाइम वा साइम वा दाउं वा अणुप्पदाउँ वा नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभि ओगेण देवयाभिओगेण गुरुनिग्गहेणं वित्तीकतारेणं दवाओ खेत्तओ कालओभावओ, दव्वओ ण दंसणदव्वाई अंगीकाऊणं, खेत्तओणं सव्यलोए, कालओणं जावज्जीवाए, भावओ णं जाव गहेणं न गहिज्जामि, जाव छलेण न छलिजामि, जाव संनिवारणं न मुंजामि (नाभिभ-विजामि) जाव केण वि परिणामवसेण परिणामो मे न परिवडति ताव मे एसा दसणपडिम त्ति।" ततश्च वासप्रक्षेपपूर्वकं सर्वविरतिसामायिकाऽऽरोपणे इव "नित्थारगपारगो होहि गुरुगुणेहि वड्डाहि त्ति" आशिषं प्रयुज्ये। अयमेवार्थोऽन्यत्राऽऽचार्येणवमुक्तः- "इय मिच्छाओ विरमिय, सम्म उवगम्म भणति गुरुपुरओ। अरहतो निरसंगो, महदेवो दक्खिणा साहू // 1 // " इति / ततश्च (ठितिसाहण नि दीक्षितमर्यादाकथनं कार्यम् / यथा- "अज्जप्पभिई तु अरहं देवो साहयो गुरू, जीवाइपराच्छसदहाण सम्मत्वं, नो ते कप्पति लोइयतित्थे णहाणणपिंडपयाणाइ, कप्पइ पुण तिकाल देववंदणाइयं अणुट्ठाणं / " अथवा-स्थितिसाधनं दीक्षासमावारप्रकाशनं कार्यम्। यथा- ''भो भद्र ! दीक्षाप्रतिपत्तिक्रमोऽयमस्थिस्थगनपुष्पप्रक्षेपाऽऽदिरितिनत्वयाऽन्यथा संभावनीयः। तथा-(उवबूहण त्ति) इह प्राकृतत्वेन निरनुस्वारः पाठः। ततश्चोपवृंहणं तस्यानुमोदन कार्यम्। यथा-" "धन्यस्त्वं धर्माधिकारी क्षीणप्रायक्लेशः यतो भगवतो भुवनबान्धवस्याऽऽसन्नकुसुमनिपातेन निश्चितोऽसि समासन्नकल्याण इति / ' अथवा- ''धन्यस्त्वं येन सकलकल्याणवल्लरीकन्दकल्पा भागवती दीक्षाऽवाप्ता, तदवाप्ती चावप्तानि सकलकल्याणानि / ' अपि च- "धण्णाण निवेसिजति, धण्णा गच्छति पारमेयस्स / गंतु इमस्टर पारं, पारं दुक्खाण वचति // 2 // " इति। तथा-हर्षाऽऽदीना तगतप्रमोदप्रभृतीनाम् / आदिशब्दादैन्योदासीनताऽऽदिग्रहः प्रलोकनमवलोकन हाऽऽदिप्रलोकनं तदाचार्येण मुखप्रसन्नताऽऽदिभिलक्षणैस्तस्य कार्यम्, किमयमेतत्समाचारदर्शन हृष्टोऽन्यथा वेत्यवगन्तव्यमित्यर्थः / चैवेति समुच्य इति गाथाऽर्थः // 28|| पञ्चा०२ विवा (11) कथं चेति प्रकारेण दातथ्येत्येतदाहपुच्छ कहणा परिच्छा, सामाइअमाइसुत्तदाणे च / चिइवंदणाइआए, विहीऍ सम्म पयच्छिज्जा / / 115|| प्रश्नः प्रव्रज्याऽभिमुखविषयः, कथनं कथा साधुक्रिययोः, परीक्षा सावधपरिहार, सामायिकाऽऽदिसूत्रदाने च विशुद्धाऽऽ लायकेन, ततश्चैत्यवन्दनाऽदिविधिना वक्ष्यमाणलक्षणेन, सम्यगसंभ्रान्तः, प्रयच्छेत्प्रव्रज्या ददादितिमाशासमदायार्थः अगरावार्थ "न्यकार एवाऽऽहधम्मकहाअक्खित्तं, पव्वज्जाअपिमुहं तु पुच्छिजा। कत्थ तुमं सुंदर ! पव्वयसी वा किं निमित्तं ति॥११६।। धर्मकशाऽऽद्याक्षिप्तमिति धर्मकथया अनुष्ठानेन वा अवर्जितं प्रव्रज्याऽभिमुखं तु सन्तं पृच्छत् कथमित्याह-क: कुत्रत्वं सुन्सर ! करवं कुत्र वा त्वमायुयान ! प्रजसि वा किं निमित्तमिलि गाथाsof.. Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 745 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा . सखल्वाहकुलपुत्तो तगराए, असुहभवक्खयनिमित्तमेवेह। पव्वामि अहं भंते !, इह गज्झो भयण सेसेसु / / 117 / / कुलपुत्रोऽहं तगरायां नगर्यामित्येतद्ब्रह्मणमथुराऽऽद्युपलणं वेदितव्यमिति / अशुभभवक्षयनिमित्तमेवेह, भवन्त्यस्मिन्कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः संसारस्तत्परिक्षयनिमित्तमित्यर्थः / प्रव्रजामि अहं भदन्त! इति एवं ब्रुवन् ग्राह्यः, भजना शेषेषु अकुलपुत्रान्यनिमित्ताऽऽदिषु / इयं च विशिष्टसूत्रानुसारतो द्रष्टव्या / उक्तं च- "जे जहिँ जुगुच्छिया खलु, पव्यावणवसहिभत्तपाणेसुं। जिणवयणे पडिकुजा, वज्जेयव्वा पयत्तण 111 / / '' इत्यादिति गाथाऽर्थः / प्रश्न इति व्याख्यातम्। (12) कथामधिकृत्याऽऽहसाहिज्जा दुरणुचरं, कापुरिसाणं सुसाहुकिरिअंति। आरंभनियत्ताण य, इह परभविए सुहविवागे॥११८॥ साधयेत् कथयेत् दुरनुचरांकापुरुषाणां क्षुद्रसत्त्वाना सुसाधुक्रियामिति, तथा आरम्भनिवृत्तानां च इहपरभविके शुभविपाकान् प्रशस्तभवदेवलोकगमनाऽऽदीनि इति गाथार्थः। जह चेव उ मोक्खफला, आणा आराहिआ जिणिंदाणं। संसारदुक्खफलया, तह चेव विराहिआ होइ / / 116 / / यथैव तु मोक्षफला, भवतीति योगः ! आज्ञा आराधिता अखण्डिता सती जिनेन्द्राणां संवन्धिनीति, संसारदुःखफलदा तथैव च विराधिता खण्डिता भवतीति गाथाऽर्थः। किंचजह वाहिओ उ किरिअं, पवत्तिउं सेवई अपत्थं तु। अपवण्णगाउ अहियं, सिग्धं च स पावइ विणासं / / 120|| यथा व्याधितस्तु कुष्ठाऽऽदिग्रस्तः क्रियां प्रतिपत्तुं चिकित्सामाश्रित्य सेवते अपथ्यं तु। स किमित्याह-अप्रपन्नात्सकाशादधिकं शीघ्रं च स प्राप्नोति, विनाशमपथ्यसेवनेन प्रकटितव्याधिवृद्धरितिगाथाऽर्थः / एमेव भावकिरिअं, पवत्तिउं कम्मवाहिखयहे। पच्छा अपत्थसेवी, अहियं कम्मं समज्जिणइ॥१२१|| एवमेव भावक्रियां प्रव्रज्या प्रतिपत्तुं. किमर्थमित्याह-कर्मव्याधिक्षयहेतोः पश्चादपथ्यसेवी प्रव्रज्याविरुद्धकारी अधिकं कर्म समार्जयति, भगवदाज्ञाविलोपनेन कूराऽऽशयत्वादिति गाथाऽर्थः / कथति व्याख्याता। (13) परीक्षामाहअन्भुवगयं पि संतं, पुण परिखिज्जइ पवयणविहीए। छम्मासं जाऽसज्ज व, पत्तं अद्धाए अप्पबहुं / / 122 / / अभ्युपगलमपि अङ्गीकृतमपि सन्तं पुनः परीक्षेत प्रवचनविधिना स्ववर्याप्रदर्शनाऽऽदिना, कियन्तं कालं यावदित्याहषण्मासं यावदासाद्य वा पात्रमदायाः अल्पबहुत्वमद्धा कालः, सपरिणामके पात्रके विशेष अल्पतर इतरस्मिन् वहुतरोऽपीति गाथाऽर्थः / परीक्षेति व्याख्यातम्। (14) साम्प्रतं सामायिकाऽऽदिसूत्रदानमाहसोभणदिणम्मि विहिणा, दिज्जा आलावगेण सुविसुद्धं / सामाइआइसुत्तं, पत्तं नाऊण जं जोग्गं / / 123 / / शोभनदिन विशिष्टनक्षत्राऽऽदियुक्त विधिना चैत्यवन्दननमस्कारपाटनपुरस्सराऽऽदिना दद्यादालापकेन, न तु प्रथमेव पट्टिकालिखनेन सुविशुद्ध स्पष्ट सामायिकाऽऽदिसूत्रं, प्रतिक्रमणेपिथिकाऽऽदीत्यर्थः / पात्र ज्ञात्वा यद्योग्यं तद्दद्यान्न व्यत्ययेनेति गाथाऽर्थः / उक्तं सत्रदानम् / (15) शेषविधिमाहतत्तो अ जहाविहवं, पूअं स करिग्ज वीयरागाणं / साहूण य उवउत्तो, एअंच विहिं गुरू कुणइ / / 124 / / ततश्च तदुत्तरकालं यथाविभवं शो यस्य विभवः, विभवानुरूपमित्यर्थः, पूजा स प्रवद्रजिषुः कुर्याद्वीतरागाणां जिनानां माल्याऽऽदिना, साधूना वस्त्राऽऽदिना, उपयुक्तः सन्निति / एनं च वक्ष्यमाणलक्षणं विधि गुरुराचार्यः करोति / सूत्रस्य त्रिकालगोचरत्वप्रदर्शनार्थं वर्तमाननिर्देश इति गाथाऽर्थः। चिइवंदणरइहरणं, अट्ठा सामाइयस्स उस्सग्गो। सामाइयतियकवण, पयाहिणं चेव तिक्खुत्तो।।१२५|| चैत्यवन्दनं करोति रजोहरणमर्पयति, अष्टां गृह्णाति, सामायिकस्यात्सर्ग इति कायोत्सर्ग च करोति, सामायिकत्रयाऽऽकर्षणमिति त्रिस्नो वाराः सामायिक पठति, प्रदक्षिणां चैव त्रिः तिस्रो वाराः शिष्यं कारयतीति गाथासमुदायाऽर्थः। अथावयवार्थ त्वाहसेहमिह वामपासे, ठवित्तु तो चेइए पवंदति / साहूहिँ समं गुरवो, थुइवुड्डी अप्पणो चेव / / 126 / / शिष्यक मिह प्रव्रज्याऽभिमुखं वामपाचे स्थापयित्वा ततश्चैत्या - न्यहतप्रतिमालक्षणानि प्रवन्दन्ते साधुभिः समं गुरवः, रतुतिवृद्धिरात्मनैवेति आचार्या एवछन्दःपाठाभ्या प्रवर्त्तमानाः स्तुतीर्ददतीतिगाथाऽर्थः। (16) वन्दनविधिमाहपुरओ वजंति गुरवो, सेसा वि जहक्कम तु सट्ठाणे। अक्खलिआइकमेणं,विवज्जए होइ अविही उ॥१२७॥ पुरतएव तिष्ठन्ति गुरव आचार्योः, शेषा अपि सामान्यसाधवः यथाक्रममेव ज्येष्ठार्थतामङ्गीकृत्य स्वस्थाने तिष्ठन्ति, तत्रास्खलिताऽऽदिन स्खलितं न मिलितमित्यादिक्रमेण परिपाट्या, सूत्र-मुच्चारयन्तीति गम्यते / विपर्यय स्थानमुच्चारणं वा प्रति भवति। अविधिरवन्दन इति गाथाऽर्थः / एतदेवाऽऽहखलियमिलियवाइद्धं, हीणं अच्चक्खराइदोसजुअं। वंदंताणं नेआऽसामायारित्ति सुत्ताणं / / 128 // स्खलितमुपताऽऽकुलायां भूमौ लाङ्गलवत्. मिलित विसदृशधान्याऽऽमलकवत, व्याविद्ध विपर्यस्तरत्नमालावत्, हीनन्यूनम, अल्यक्षराऽऽदिदोषयुक्तमिति, अत्यक्षरमधिकाक्षरम्, आदिशब्दादप्रतिपूर्णाऽऽदिग्रहः / इत्थं वन्दमानानां ज्ञेया असामाचारी अस्थितिसूत्राऽऽज्ञा आगमार्थ एवंभूत इति गाथाऽर्थः / व्याख्यातं चैत्यवन्दनद्वारम्। प्रव्रज्यां व्याचिख्यासुराहवंदिय पुणुट्ठिआणं, गुरूण ता वदणं समं दाउं। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 746 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा सेहो भणइ इच्छाकारेणं पव्वयावेह / / 126 / / वन्दित्वा द्वितीयप्रणिपातदण्डकावसानवन्दनेन पुनरस्थितेभ्यः प्रणिपातान्निषण्णोत्थानेन गुरुभ्यः आचार्येभ्यस्ततेस्तदनन्तरं वन्दन सम देवाऽऽद्यभिमुखमेव दत्त्वा शिक्षको भणति। किमिति तदाह-इच्छाकारण प्रव्राजयत, अस्मानिति गम्यत / एष गाथा-ऽर्थः। इच्छामो त्ति भणित्ता, उट्टेउं कड्डिऊण मंगलयं / अप्पेइ रओहरणं, निणपन्नत्तं गुरू लिंगं / / 130 / / इच्छाम इति णित्वा विशुद्धवचसा उत्थातुमूर्द्धस्थानेन आकृष्य मङ्गलक पठित्वा पञ्चनमस्कारमयति रजोहरणं जिनप्रज्ञप्तं गुरुः लिडमिति गाथाऽर्थः। (17) लिङ्गदान एव विधिमाहपुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व देज्जाऽहवा पडिच्छिज्जा। जाए जिणाऽऽदओ वा, दिसाए जिणचेइआइंवा / / 131|| पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुखो वा दद्याद् गुरुः। अथवा-प्रतीच्छेच्छि-व्यः, यस्या जिनाऽऽदयो वा दिशि, जिनाः मनःपर्यायज्ञानिनः अवधिसंपन्नाश्वतुर्दशपूर्वधराश्च, जिनचैत्यानि वा यस्यां दिशि आसन्नानि तदभिसुखो दद्यात्, अथवा-प्रतीच्छेदिति गाथाऽर्थः। रजोहरणं लिङ्गमुक्तम्। साम्प्रतं तच्छब्दार्थमाहहरइ,रयं जीवाणं, बज्झं अभंतरं च जं तेणं / रयहरणं ति पवुच्चइ, कारणकज्जोवयाराओ।।१३२।। हरत्यपनयति रजो जीवाना बाह्यं पृथिवीरजःप्रभृति, अभ्यन्तरं च वध्यमानकर्मरूपं यद्यस्मात्तेन कारणेन रजाहरणमिति प्रोच्यते, रजो हरतीति रजोहरणम् / अभ्यन्तररजाहरणमाशड्क्याऽऽह-कारणे कार्योपचारात्संयमयोगा रजोहरास्तत् कारण चेदमिति गाथाऽर्थः। एतदेव प्रकटयतिसंजमजोगा एत्थं, रयहरणा तेसि कारणं जेणं / रयहरणं उवयारो, भण्णइ तेणं रओकम्मं / / 133|| संयमयोगाः प्रत्युपेचितप्रमृष्टभूभागस्थानाऽऽदिव्यापाराः, अधिकार, रजोहरणा बध्यमानकर्महरा इत्यर्थः / तेषां संयमयोगानां कारण येन कारणेन रजोहरणमित्युपचारस्तेन हेतुनेति। रजः स्वरूपमाह-भण्यते रजःकर्म बध्यमानकमिति गाथाऽर्थः / केई भणंति मूढा, संजमजोगाण कारणं नेवं / रयहरणं ति पमज्जणमाईहुवघायभावाओ / / 13 / / केचन भणन्ति मूढा दिगम्बरविशेषाः संयमयोगाना युक्तलक्षणानां कारणं नैवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण रजोहरणमिति / यथा न कारण तदाह प्रमार्जनाऽऽदिभिःप्रमार्जनेन संमार्जनेन च उपघातभावात्प्राणिनामिति गाथाऽर्थः। एतदेवाऽऽहमूइंगलिआईणं, विणाससंताणभोगविरहाई। रयदरिथगणसंसज्जणाऽऽइणा होइ उववाओ।।१३।। प्रमार्जन सति मूङ्गालिकाऽऽदीनां पिपीलिकामत्कोटकप्रभृतीनां | विनाशसन्तानभोग्यविरहाऽऽदयो, भवन्तीति वाक्यशेषः। रजोहरण संस्पर्शनादल्पकायानां विनाश एव, सन्तानः प्रबन्धः गमन भोग्य सिक्थाऽऽदि, एतद्विरहरतु भवत्येवेत्युपश्चातः। तथा-रजोदरिस्थगनसंलजंनाऽऽदिना भवत्युपश्चात इति। संभवति च प्रमार्जने सति रजसा दरिस्थगर्न, तत्संसर्जन च सत्त्वोपघात इति गाथाऽर्थः / एष पूर्वपक्ष: / अत्रोत्तरमाहपडिले हिउं पमजणमुपाधाओ कह णु तत्थ होजा उ? अपमज्जउंच दोसा, वजाऽऽदागाढवोसिरणे // 136|| प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा पिपीलिकाऽऽद्यमुपलब्धौ सत्यामुपलब्धावपि प्रयोजनविशेष यतनवा प्रमार्जनसूत्रे उक्तं, यतश्चैवमत उपघातः कथं नु तत्र भवेत्? नैव भवतीत्यर्थः / सत्त्वानुपलब्धौ किमर्थ प्रमार्जनमिति चेत्? उच्यते-सूत्रोक्ततथाविधसत्त्वसंरक्षणार्थमुपलब्धावपि प्रयोजनं तत्तु अप्रमार्जन तु दोषः। तथा चाऽऽह-अप्रमृज्य च दोषाः वा आदावागाढव्युत्सर्गे, आदि-शब्दान्निश्येकाङ्गुलिकाऽऽदिपरिग्रह इति गाथाऽर्थः / (18) अप्रमार्जनदोषमाहआयपरपरिधाओ, दुहा वि सत्थस्संऽकोसलं नूगं / संसजणाइदोसा, देहे व्व विहीऍ णो हुंति / / 137 / / यो हि कथञ्चित्पुरीषोत्सर्गमङ्गीकृत्व असहिष्णुः, संसक्त धस्थण्डिलं, तेन दयालुना स तत्र न कार्यः, कार्यो वेति दयी गतिः / किं चात उभयवादीच दोषः / तथा चाऽऽह-आत्मपरपरित्यागोऽकरणे आत्मपरित्यागः, करणे परपरित्याग इति। किं चात इत्याह द्विधाऽपि शासितुः त्वदभिमततीर्थकरस्या कौशल नूनमवश्यं, कुशलस्य चाकुशलताऽऽवादने आशातनेति। पक्षान्तरपरिजिहीर्षयाऽऽह-संसज्जनाऽऽदिदोषाः पूर्वपक्षवाद्यभिहिता अविधिनाऽपरिभोगेन (?) भवन्ति देह इव शरीर इव, अविधिना त्वसमंजसाऽऽहारस्य देहेऽपि भवन्त्येवेति गाथाऽर्थः / रजोहरणमिति व्याख्यातम्। अष्टा इति व्याचिख्यासुराहअह वंदिउं पुणो सो, भणइ गुरुं परमभत्तिसंजुत्तो। इच्छाकारेणऽम्हे, मुंडावेहि त्ति सपणाम // 138|| अथानन्तरं वग्इित्था पुनरपि स शिष्यको भणति गुरुमाचार्ये परमभक्तिसंयुक्तः सन्। किमित्याह-इच्छाकारणास्मान् मुण्डयेति सप्रणाम भणतीति गाथाऽर्थः। इच्छामो त्ति भणित्ता, मंगलमं कड्डिऊण तिक्खुत्तो। गिण्हइ गुरु उवउत्तो, अट्ठा से तिन्नि अच्छिन्ना / / 136 / / इच्छाम इति भणित्वा गुरुर्मङ्गलकमाकृष्य पठित्वा त्रिःकृत्यः, तिस्रो वारा इस्यर्थः / गृह्णाति गुरुः, उपयुक्तः तस्य अष्टाः स्तोकके शग्रहणरूपास्तिस्रः, अच्छिन्ना अस्खलिता इति गाथाऽर्थः / अष्टा इति व्याख्यातम्। अधुना सामाविककायोत्सर्ग इति व्याख्यानयन्नाहवंदित्तु पुणो मेहो, प्रज्झाऽऽरोवेह नवरमायरियं / इइ भणई संविग्गो, सामाइयमिच्छकारेणं // 140 / / इच्छाकारेण स्वासायिकं ममत्यारोपयतेति भणति संविनः सन्नवरमाचार्यमिति गाथाऽर्थः। इच्छामो त्ति भणित्ता, सो वि असामईअरोवणनिमित्तं / सेहेण समं सुत्तं, कड्डित्ता कुणइ उस्सग्गं // 141 / / Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 747 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा इलाम इति णित्वा सोऽपि च गुरुः सामायिकाऽऽरोपणनिमित्त तिच्छकण सार्द्ध सूत्र सामायिकाऽऽरोपणनिमित्तम्- 'करेमि काउस्सग्ग भण्णत्थ सरिएण'' इत्यादि पठित्वा करोति कायोत्सर्गमिति गाथाऽर्थः। पुतश्चलोगस्सुजोयगरं, चिंते उस्सारए असंभंतो। नवकारेणं तप्पुव्वगं च वारे तओ तिण्णि॥१४२॥ तत्र लोकस्वोदद्योतकर चिन्तयित्वा उत्सारथति संयमयोग, तदनन्तर भाविद्रियासेवनेन असंभ्रान्तः सन्नमस्कारेण 'नमो अरहताणं'' इत्यनेन ........ (?) कायोत्सर्ग' इति व्याख्यातम्। पं०व० 1 द्वार / (16) साधुधर्मे परिभाविते यत्कर्त्तव्यं तदभिधातुमाह - परिभाविए साहुधम्मे जहोदिअगुणे जइज्जा सम्ममेअं पडिवज्जित्तए अपरोवतावं परोवताओ हि तप्पडिवत्तिविग्वं, अणुपाओ खु एसो न खलु अकुसलारभओ हि अप्पडिबुद्धे कहिंचि पडिवोहिज्जा अम्मापिअरे / उभयलोगसफलं जीविअं समुदायकडा कम्मा समुदायफल त्ति / एव सुदीहो अविओगो। अण्णहा एगरुक्खनिवासिसउणतुल्लमेअं। उद्दामो मच्चू पच्चासण्णो अ / दुल्लहं मणुअत्तं समुद्दपडि अरयणलागतुल्लं / अइप्पभूआ अण्णे भवा दुवखबहुला मोहंधवारा अकुसलाणुवंधिणो अजुग्गा सुद्धधम्मरस / जुग्गं च एअंपोअभूअं भवसमुद्दे जुत्तं सकज्जे निउंजिउं संवरट्ठइअच्छिदं नाणकण्णधारं तवपवणजवणं।खणे बुल्लहे सव्वकजोवमाईए सिद्धिसाहगधम्मसाहगत्तेण / उवादेआ य एसा जीवाणं; जंन इमीए जम्मो, न जरा, न मरणं, न इट्ठविओगो, नाणिट्ठसंपओगो, न खुहा, न पिवासा, न अण्णो कोइ दोसो, सव्वहा अपरतंतं जीवावत्थाणं असुभरागाइरहि संतं सिवं अव्वाहं ति। परिभाविते साधुधर्मे अनन्तरसूत्रोदितेन विधिना यथोदितगुण: संसारविरक्तः सविग्नः अमगः अपरोपतापी विशुद्धः विशुद्ध्यमानभाषः सन, यद्वेत सम्यग्विधिनाऽमुंधर्ने प्रतिपत्तुम्। कथ? इत्याह-अपरोपतापमिति क्रियाविशेषणम् / किमेतदाश्रीयते? इत्याह''''परोपतापो हि तत्प्रतिपत्तिविघ्नः परोपतापो यस्माद्धर्मप्रतिपत्त्यन्तरायः। एतदेवाऽऽहअनुपाय एक्य धर्मपतिपत्तौ परोपतापः / कथम्? इत्याह-न खण्यकुशलाऽऽरडगतो हितम्। अकुशलाऽऽरम्भश्च धर्मप्रतिपत्तावपि परोपतापतिम चान्यत्रत प्रायाऽसमवतीति। संभविपरिहारार्थमाहअप्रतिबुद्धौ कथञ्चित्कर्मवैचित्र्यतः प्रतिबोधयेन्मातापितरौ / न तु प्रायो महासत्त्वस्यैताबप्रतिबुद्धौ भवत इति। कथञ्चित्? इत्याह-उभयलोकसफल जीवित. प्रशस्वत इति शेषः / तथा समुदायकृतानि कर्माणि, प्रक्रमाच्चुभानि समुदायफलानीति / अनेन भूयोऽपि योगाऽऽक्षेपः / तथा चाऽऽह-एवं सुदीर्घा नियोगः, भवपरम्परया सर्वेषामस्माकमिति प्रक्रमः / अन्यथैवमकरणे एकवृक्षनिवासिशकुनतुल्यमेतत्, चेष्टितमिति शेषः / यथोक्तम्"वास्ववृक्ष समागम्य, विगच्छन्ति यथाऽऽण्डजाः। नियत विप्रयोगान्त स्तथा भूतसमागमः / / 1 / / " इत्यादि / एतदेव स्पष्टनाहउद्दामा मृत्युः अनिवारितप्रसरः, प्रत्यासन्नश्वाल्पाऽऽयुष्टुन / तथा दुर्लभं मनुजत्वं, भवाब्धाविति शेषः / अतएवाऽऽह-समुद्रपतितरत्नलाभतुल्यम, अतिदुरापमित्यर्थः / कुतः? इत्याह- अतिप्रभूता अन्ये भवाः पृथिवीकाया:दिसंबन्धिनः कायस्थित्या / यथोक्तम्- "अस्संखोसप्पिणिसप्पिणीउ एगिदयाण उचउण्हं। ताचेवऊ अणंता, वणस्सतीए न बोधव्वा / / 1 / / '' एते च दुःखबहुला उत्कटासातवेदनीया मोहान्धकाराः तदुदयतीव्रतया. अकुशलानुबन्धिनः प्रकृत्याऽसच्चेष्टाहेतुत्वेन, यत एवमतः-अयोग्याः शुद्धधर्मस्य चारित्रलक्षणस्य, योग्यं चैतन्मनुजत्वम् / किविशिष्टम् ? इत्याह-पोतभूतं भवसमुद्रे तदुत्तारकत्वेन / यत एवमतो युक्तं स्वकार्ये नियोक्तुं धर्मलक्षणे / कथम् ? इत्याह-संवरस्थगितच्छिद्र. छिद्राणि प्राणातिपातःऽविरमणाऽऽदीनि। तथा ज्ञानकर्णधारमभीक्ष्णं तदुपयोगतः / तपःपवनजवनम्, अनशनाऽऽद्यासेवनतया / एवं युक्त स्थकार्य नियोक्तुम् किम्? इत्यत आह-क्षण एष दुर्लभः। क्षणः प्रस्तावः सर्वकार्योपमातीत एषः। कथम्? इत्याह-सिद्धिसाधकधर्मसाधकत्वन हेतुना, उपदेया चषा जीवाना सिद्धिरेवा यन्नास्यां सिद्धैः जन्म प्रादुर्भावलक्षणम, न जरा ववोदनिलक्षणा, न मरण प्राणत्यागलक्षणम्, भष्टवियोगः, तदभावात्। नानिष्ठसंप्रयोगोऽत एव हेतोर्न क्षुद्, बुभुक्षारूपा / न पिपासा, उदकेच्छारूपानि चान्यः कश्चिद्दोषः शीतोष्णाऽऽदिः। सर्वथाऽपरतन्त्रं जीवावस्थानम्, अस्या सिद्धाविति प्रक्रमः, अशुभरागाऽऽदिरहितमेतदवस्थानम्। एतदेव विशेष्यतेशान्त शिवमव्यावाधमितिशान्त शक्तितोऽपिक्राधाऽऽद्यभावेन, शिव सकलाऽशिवाऽभावतः, अव्यावा, निष्क्रियत्वेनेति। विवरीओ असंसारो इमीए अणवट्ठिअसहावो / इत्थ खलु सुही वि असुही, संतमसंतं, सुविणु व्व सव्वमालमालं ति / ता अलमित्थ पडिबंधेणं / करेह मे अणुग्गह। उज्जमह एअंवुच्छिंदित्तए। अहं पि तुम्हाणुमईए साहेमि एअं। निविण्णो जम्ममरणेहिं / समिज्झइ अ मे समीहिअंगुरुपभावेणं / एवं सेसे वि बोहिआ। तओ सममेएहिं सेविज्ज धम्म / करिजोचिअकरणिज्ज़ निरासंसो उ सव्वदा एअं परममुणिसासणं // विपरीतश्च संसारोऽस्याः सिद्धेर्जन्माऽऽदिरूपत्वात् सर्वोपद्रवाऽऽलयो, यथाऽऽह-"जरामरणदीर्गत्यव्याधयस्तावदासताम् / मन्ये जन्मापि वीरस्य, भूयो भूयस्त्रपाकरम्॥१॥" अत एवाऽऽह-अनवस्थितस्वभावः संसारः / अत्र खलु सुख्यप्यसुखी पर्यायतः, स्वदप्यसत्पयांयत एव / स्वप्र इव, सर्वमालमालमास्थाऽभावेनेति। यत एवं तदलमत्र प्रतिबन्धेन संसारे, कुरुत ममानुग्रहम् / कथम् ? इत्याह- उद्यच्छतैनं व्यवच्छेत्तु संसार यूयम् / अहमपि युष्माकमनुमत्या साधयाम्येतद्व्यवच्छेदनम्। किमिति? अत आह-निर्विण्णो जन्ममरणाभ्यां संसाराऽऽगामिभ्याम्। समृद्ध्यति च मम समीहित संसारव्यवच्छेदनं, गुरुप्रभावेन। एव शेषाण्यपि भार्याऽऽदीनि बोधयेदौचित्योपन्यासेन। ततः सममोभमातापित्रादिभिः सेवेत धर्म चारित्रलक्षणम् कथम् ? इत्याहनिरा / माता Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 748 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा शंस एव सर्वदा, इहलोकपरलोकाभ्याम।एतत्परममुनिशासन, वीतराग- एतद्दर्शिनः, निपुणबुझ्या फलदर्शिनः। वचनमित्यर्थः। सते ओसहसंपायणेण जीवाविजा। संभवाओ पुरिसोचिअमे अबुज्झमाणेसु अ कम्मपरिणईए विहिज्जा जहासत्तिं तदुवकरणं एवं सुक्कपक्खिए महापुरिसे संसारकंतारपडिए अम्मापिइसंगए आओवायसुद्धं समईए / कयण्णुआ खु एसा / करुणा य धम्मपडि बद्ध विहरिज्जा / ते सिं तत्थ निअमविणासगे धम्मप्पहाणजणणी जणम्मि!तओ अणुण्णाए पडिविअन्ज धम्मं / अपत्तबीजाइपुरिसमित्तासज्झे संभवंतसम्मत्ताइओसहे अण्णहा अणुवहे चेव उवहिजुत्ते सिआ। धम्माराहणं खु हिअं मरणाइविवागे कम्मायंके सिआ। तत्थ से सुक्कपक्खिए पुरिसे सव्वसत्ताणं / तहा तहेअंसंपाडिज्जा / सव्वहा अपडिवजमाणे धम्मपडिबंधाओ एवं समालोचिअ विणस्संति एए अवस्सं चइज्जा ते अट्ठाणगिलाणोसहत्थचागनाएणं / / सम्मत्ताइओसहविरहेण / तस्स संपाडणे विभासा / कालसहाणि अत्युध्यमानेषु च मातापित्रादिषु कर्मपरिण या हेतुभूतया. विध्यारा अ एआणि ववहारओ! तहा संठविअ संठविअ इहलोगचिंताए यथाशक्ति शत्तयनुसारेण तदुपकरणमर्थजातादीत्यर्थः / किम्? 'कारणे तेसिं सम्मत्ताइओसहनिमित्तं विसिट्ठगुरुमाइभावेण सवित्तिकार्गोपचारात्।" किम्भूतम्? इत्याह-आयोपायशुद्ध रचनत्या। ततः- निमित्तं च किच्चकरणेण चयमाणे संजमपडिवत्तीएते साहु सिद्धीए न्यसम्भतिरायः कलान्तराऽऽदिरुपायः। किमेतदेव कुर्यात् ? इत्याह- एस चाए अचाए तत्तभावणाओ। अचाए चेव चाए मिच्छाभावकृतज्ञतैवैषा वर्तता करुणा च किंविशिष्टयम्? इत्याह-धर्मप्रधानजननी णाओ। तत्तफलमित्थ पहाणं बुहाणं परमत्थओ / धीरा जने, शासनोन्नतिनिमित्तमित्यर्थः / ततोऽनुज्ञातः सन् मातापित्रादिभि. एअदंसिणो आसन्नभव्वा / / रिति प्रक्रमः प्रतिपद्येत धर्म चारित्रलक्षणम् ! अन्यथैवमपि, तदनुहा- स पुरुषः तो मातापितरौ औषधसंपादनेन जीवयेत् / रभवत्येतदत भावे। अनुपध एव भावतः। उपधियुक्तः स्याद्, व्याजवान्यादित्यर्थः / एवाऽऽह-संभवात्पुरुषोचितमेतद्यदुतेत्थ त्याग इति। एष दृष्टान्तोऽयमउक्तं व- "निर्भाय एव भावेन, मायावांस्तु भवेत्कचिन्। पश्येत्स्वपर- थोपनय इन्याह-एवं शुक्लपाक्षिको महापुरुषः, परीत्तसंसार इत्यर्थः / योयंत्र, सानुबन्धहितोदयम्॥१॥"एवं च धर्माऽऽराधनमव हितं सर्वस- यथोक्ता - "जस्स अवड्डो पोग्गलपरियट्टो सेसओ अ संसारी / सा चानानिति / तथा तथैव दुःस्वप्नाऽऽदिकथनेन संपादयधर्माऽऽराधनं, सुद्याक्खिओ खलु, अहिगे पुण कण्हपक्खीओ // 1 // " किमयम? सर्वथाऽपतिपद्यमानान् / अमुनाऽपि प्रकारेण त्यजेत्तान् मातापित्रादीन / इत्याह-संसारकान्तारपतितः सन मातापितृसङ्गतः / उपलक्षणमेतत अस्थानालानौषधार्थत्यागज्ञातेन ज्ञातमुदाहरणम् / भार्यादीनां, धर्मप्रतिबद्धो विहरेत् / तयोर्मातापित्रोस्तात्र संसारकान्तार एतदेवाऽऽह नियमविनाशकः, अप्राप्तबीजाऽऽदिपुरुषमात्रासाध्यः, सभवत्सम्यसे जहा नामए केइ पुरिसे कहंचि कंतारगए अम्मापिइसमेए क्त्वाऽऽद्यौषधः, भरणाऽऽदिविपाकः कर्मान्तङ्कः स्थात; क्लिष्ट करेंतप्पडिबद्ध वञ्चिज्जा / तेसिं तत्थ नियमघाई पुरिसमित्तासज्झे त्यर्थः। तत्राऽसौ शुल्कपाक्षिकः पुरुषः, धर्मप्रतिबन्धाद्धेतोः, एवं संभवओसहे महायंके सिआ। तत्थ से पुरिसे तप्पडिबंधाओ समालोच्य विनश्यत एतौ मातापितरौ, अवश्यं सम्यक्त्वाऽऽद्यौषधएवमालोचिअन भवंति एए निअमओ ओसहमंतरण, ओसहभावे विरहेण सम्यक्त्वाऽऽद्यौषधाभावेना तत्सम्पादने सम्यक्त्वाऽऽद्योषधअ संसओ कालसहाणि अ एआणि / तहा संठविअ संठविअ संपादने विभाषा, कदाचिदेतत्संपादयितु शक्यते, कदाचिन्न इत्येवरूपा। तदो-सहनिमित्तं सवित्तिनिमित्तं च चयमाणे साहु / एस चाए कालसही चैतौ व्यवहारतः / तथा जीवनसंभवान्निश्चयतस्तु न / अचाए, अचाए चेव चाए। फलमित्थ पहाणंबुहाणं धीरा एअदं- यथोक्तम्- "आयुषि वहूपसर्ग, वाताऽऽहत-रालिलबुद्धदानित्यतरे / सिणो।। उच्चस्य निश्वसिति यः, सुप्तो वा यद्वि-बुध्यते तचित्रम् / / 1 / / " तथा तथा नाम कश्चित्पुरुषो विवक्षितः कथञ्चित्कान्तारगतः सन मातापित तेन साहित्याऽऽपादनप्रकारेण संस्थाप्य संस्थाप्य इहलोकचिन्तया रसमेतः, भार्याऽऽद्युपलक्षणमेतत्। तत्प्रतिबद्धो व्रजेत्। तयोमातापित्रोरतत्र तयोर्मातापित्रोः सम्यक्त्वाऽऽद्यौषधनिमित्तं, विशिष्ट गुर्वादिभावेन कान्तारे निण्मघाती पुरुषामात्रासाध्यः राम्भवदौषधः महातः स्यात्। धर्मकथाऽऽदिभावात्। स्ववृत्तिनिमित्तं च कृत्यकरणे न हेतुना त्यजन्संयआतङ्कः सद्योधाती रोगः। तत्रा-सौ पुरुषः तत्प्रतिबन्धामातापितृप्रति- मप्रतिपत्त्या तौ मातापितरौ साधुधर्मशीलः सिद्धौ सिद्धिविषये / बन्धन, एधमालोच्य न भवत एतौ मातापितरौ नियमत औषध- किमित्येत-देवम् ? इत्याह-एष त्यागोऽत्यागस्तत्त्वभावनातस्तद्धितमन्वरेणौषधं विना। औषधभावे च संशयः-कदाचिद्भवतोऽपि, कालसही प्रवृत्तेः / अत्याग एव त्यागो, मिथ्याभावनातस्तदहितप्रवृत्तः। तत्त्वफलं चैतो मातापिरौ / तथा तेन वृत्याच्छादनाऽऽदिना प्रकारेण संस्थाप्य सानुबन्धमत्र प्रधान बुधाना परमार्थतः परमार्थेन / धीरा एतद्दर्शिन संस्थाप्य तदौषधनिमित्तं तयोर्मातापित्रोरोषधार्थ, स्ववृतिनिमित्त च आसन्नभव्या नाऽन्ये। आत्मवृत्यर्थं च त्यजन् साधुः शोभनः / कथम् ? इत्याह-एष त्यागोऽ- स ते सम्मत्ताइओसहसंपाडणेण जीवाविज्जा अच्चंतिअं त्यागः, संयोगफलत्वात् / अत्याग एव त्यागो, त्रियोगफलत्यात ! यदि अमरणाबंझबीअजोगेणं / संभवाओ सुपुरिसोचिअमे अं नानैवं ततः किम् ? इत्याह-फलमत्र प्रधानं बुधानां पण्डितानाग। धीरा | दुप्पडिआराणि अ अम्मापिईणि / एस धम्मो सयाणं Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 746 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा भगवं इत्थ नायं परिहरमाणे अकुसलाणुबंधि अम्मापिइसोगं ति। एवमपरोवतावं सव्वहा सुगुरुसमीवे पूइत्ता भगवंते वीअरागे साहू अ तोसिऊण विहवोचिअंकिवणाई सुप्पउत्तावस्सए सुविसुद्धनिमित्ते समहिवासिए विसुज्झमाणो महया पमोएणं सम्म पव्वइज्जा लोअधम्मेहिंतो लोगुत्तरधम्मगमणेण। एसा जिणाणमाणा महाकल्लाण त्ति न विराहिअव्वा बुहेणं महाणत्थभयाओ सिद्धिकं खिणा। राशुक्लपाक्षिकः पुरुषः तौ मातापितरी सम्यक्त्वाऽऽौषधसम्पादनेन जीवयेदात्यन्तिकम् / कथम्? इत्याह-अमरणाबन्ध्यवीजयोगेन, चरममरणाबन्ध्यकारणसम्यक्त्वाऽऽदियोगेनेत्यर्थः। संभत्येतदत प्रवाऽऽह-संनवात्पुरुषोचितमेतद, यदुतैवं तत्याग इति / किमिति? अर आह-दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ, इति कृत्वा एष धर्मः सतां सत्पुरुषाणां भगवानत्र ज्ञातं महावीर एव परिहरन् गर्भाभिग्रहप्रतिपत्याऽकुशलानुबन्धिनम् / तथा कर्मपरिणत्या मातापितृशोक प्रव्रज्याग्रहणोद्भवामिति / उक्त च- "अह सत्तमम्मि मासे, गब्भत्तो चेवऽभिग्गहं गेण्हे। णाहं समणो होह, अम्मापियरे जियंतरिम ||1||" प्रस्तुतनिगमनायाऽऽह-एवमपरोपतापं सर्वथा सम्यक् प्रव्रजेदिति योगः। विधिशेषमाह-सुगुरुसमीपे, नान्यत्र, पूजयित्वा भगवतो वीतरागान् जिनान्, तथा साधून यतीन तोष-यित्वा, विभवोचितं कृपणाऽऽदीन् दुःखितसत्त्वानित्यर्थः / सुप्रयुक्ता ऽऽवश्यकः समुचितेन नेपथ्याऽऽदिना सुविशुद्धनिमित्तः प्रतियोग समभिवासितो गुरुणा गुरुमन्त्रण विशुद्ध्यमानो महता प्रमोदेन लोकोत्तरेण सम्यग्भाववन्दनाऽऽदिशुद्ध्या प्रव्रजेत् / किमुक्तं भवति ? लोकधर्मभ्यः सबलेभ्यः लाकोत्तरधर्मगगनेन, प्रकर्षण व्रजेदित्यर्थः / एषा जिनानामाज्ञा यदुतैवं प्रव्रजितव्यम् / इयं च महाकल्याणेति कृत्वा न विराधितच्या बुधेन्न, नान्यथा कर्त्तव्येत्यर्थः / कस्मात? इत्याह-महानर्थभयात्। नाज्ञाविराधनतोऽन्योऽनर्थः / अर्थवत्तदाराधना इति। अतएवाऽऽह-सिद्धिकाङ्गिणा मुक्त्यर्थिनति / न खल्वाज्ञाराधनातोऽन्यः सिद्धिपथ इति भावनीयम्। पं० सू०३ सूत्र। (20) पालनासूत्रम्विधिना प्रव्रज्या ग्राह्येश्येतत् अस्य चर्यामभिधातुमाहस एवमभिपव्वइए समाणे सुविहिभावओ किरिआ-फलेण जुज्जइ। विसुद्धचरणे महासत्ते न विवज्जयमेइ / एअअभावेऽभिप्पेअसिद्धी उवायपवित्तीओ नाविवज्जत्थोणुवाए पयट्टइ। उववाओ अ साहगो निअमेण / तस्स तत्तच्चाओ अण्णहा अइप्पसंगाओ निच्छयमयमेअं। स प्रस्तुतो मुमुक्षुः, एवमुक्तेन विधिनाऽभिप्रव्रजितः सन सुविधिभावतः कारणात क्रियाफलेन युज्यते, सम्यक क्रियात्वादधिकृतक्रियायाः स एव विशेष्यतेविशुद्धचरणे महासत्त्वः, यत एवम्भूतः, अतोन विपर्ययमेति मिथ्याज्ञानरूपम / एतदभावे विपर्ययाभावेऽभिप्रेतसिद्धिः सामान्येव / कतः? इत्याह-उपायप्रवृने। इयमेव कुतः? इत्याह-नांतिपर्यस्तोऽनुपारी भगर्त्तते : इय-मेवाविपर्यस्तस्याविपर्यस्तता। यदुलोपाये प्रवृत्तिरन्यथा परिव विपर्ययः / एवमपि किम ? इत्याह --उपाय श्वोऐगसाधयो नियमेन कारण कार्याव्यभिचारीत्यर्थः / अतजननस्वभावस्य तत्कारणत्वायागादतिराहात्। एतदेवाऽऽह-तत्स्चतत्वत्याग एवोपायरवर-- स्याग एवान्यथा रवमुपेयमसाधयतः कुतः? इत्याह-अतिप्रसमा / तसाधकत्वाविशेषणानुपायस्याऽप्युपायत्वप्रसङ्गात्। न देवं व्यवहारोछन आशङ्कनीय इत्याह-निश्चयमतमेतदिति सूक्ष्मबुद्धिगम्यम् / से समलिट्ठुकंचणे समसत्तमित्ते निअत्तग्गहदुक्खे पसमसुहसमेए सम्मं सिक्खमाइअइ। गुरुकुलवासी गुरुपडिबद्धे विणीए मूअत्थदरिसी न इओ हि तत्तं ति मन्नइ सुस्सूसाइगुणजुत्ते तत्ताभिनिवेसाविहिपरे / परममंतो त्ति अहिजइ सुत्तं वद्धलक्खे आसंसाविप्पमुक्के आययट्ठी। स तमवेइ सव्वहा / तओ सम्म निउंजइ / एअंधीराण सासणं / अण्णहा अणिओगो। अविहिगहिअमंतनाएण अणाराहणाए न किंचि तदणारंभाओ धुवं / इत्थ मग्गदेसणाए दुक्खं अवधीरणा अप्पडिवत्ती। नेवमही-अमहीयं अवगमविरहेण न एसा मग्गगामिणो विराहणा अणत्थमुहा / अत्थहेऊ तस्सारऽऽम्भाओ धुवं / इत्थ मग्गदेसणाए अणभिनिवेसो / पडिवत्तिमित्तं किरिआरंभो / एवं पि अहीअं अहीअं अवगमलेसजोगओ। अयं सवीओ नियमेण ! मग्गगामिणो क्खु एसा / अवायबहुलस्स निरवाए जहोदिए सुत्तुत्तकारी हवइ पवयणमाइसंगए पंचसमिए तिगुत्ते अणत्थपरे / एअचाए अविअत्तस्स सिसुजणणिचायनाएण / विअत्ते इत्थ के वली एअफलभूए सम्ममेअं विआणइ दुविहाए परिण्णाए।। स एव समभिप्रव्रजितः समलोष्टकाञ्चनः सन् सर्वथा समशत्रुमित्रः। एवं निवृत्ताऽऽग्रहदुःखः, अतः स प्रशमसुखसमेतः। अधिकारितया सम्यक् शिक्षामादत्ते, ग्रहणाऽऽसेवनारूपाम / कथम् ? इत्याह - गुरुकुलबासी, तदनिर्गमनेन / गुरुप्रतिबद्धः, तद्वदुप्मानात् / विनीतो बाह्यविनयेन / भूतार्थदर्शी तत्त्वार्थदर्शी, न इतो गुरुकुलवासात् हितं तत्त्वमिति मन्यते, वचनानुसारित्वात्। वचनं च- ‘‘णाणस्स होइ भागी, थिरयरओदसणे चरिते वाधण्णा आवकहाए, गुरुकुलवासण मुंचति॥१॥'' स खल्वत्र शुश्रूषाऽऽदिगुणयुक्तः शुश्रूषा 1 श्रवण 2 ग्रहण 3 धारणा 4 विज्ञान 5 ह ६ऽपोह 7 तत्त्वाभिनिवेशाः 8 प्रज्ञागुणा इत्येतद्युक्तः / तत्त्वाभिनिवेशाद्विधिपरः सन्, किम्? इत्याह-परममन्त्रो रागाऽऽदिविषघ्रतयेति कृत्वाऽधीते सूत्रं पाठश्रवणाभ्याम् / किंविशिष्टः सन्? इत्याह बद्धलक्षोऽनुष्टेयं प्रति / आशंसाविप्रमुक्तः इहलोकाऽऽद्यपेक्षया आयतार्थी मोक्षार्थी, अत एव स एवम्भूतः तत्सूत्रमवैति / सर्वथा याथातथ्येन / ततः किम्? इत्याहततोऽवगमात्सम्यनियुक्ततत्सूत्रम्, एतद्धीराणांशासन, यदुतैवमधीतंसम्य Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 750 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा नियुक्तमिति / अन्यथाऽविध्यध्ययनेऽनियोगः, नियोगादन्योऽनियोगः पिपर्ययानियोग इत्यर्थः / अत एवाऽऽह- अविधिगृहीतमन्त्रज्ञातेन तत्रापि ग्रहाऽऽदिभावाद्विपर्ययात् योग एव / अनाराधनायामेकान्तेन प्रवृत्तस्य न किञ्चिदिष्टमनिष्ट वा फलम्। मोक्षोन्मादाऽऽदिसदनुष्ठान हि मोक्षफलमेव / यथोक्तम्- 'श्रामण्यस्य फलं मोक्षः, प्रधानमितरत् पुनः / तत्त्वतोऽफलमेवेह, ज्ञेय कृषिपलालवत् / / 1 / / ' भङ्गस्याप्युन्मादाऽद्येव / यथोक्तम्- "उम्मादं च लभेजा, रोगातकं वपाउणो दीहं / केवलिपण्णताओ, धम्माओ वावि भंसेज्जा // 1 // ' न पुनरसम्यक्त्वमेव कथमत्रानाराधनायां न किञ्चित् ? इत्याह-तदनारम्भतो ध्रुवं तत्त्वतस्तस्यानारम्भात् / न चान्यस्मिन्नेवोद्भवत्यतिप्रसङ्गात् / इहैव लिगमाहअत्रानाराधनायां मार्गदशनायां तात्त्विकायां दुःखं शृण्वतो भवति। उक्तं च- "शुद्धदेशना हि क्षुद्रसत्त्वमृगयूथसंत्रासनसिंहनादः" तथा अवधीरणा मनाग्लघुतरकर्मणो नदुःखम्। तथा अप्रतिपत्तिस्ततोऽपि लधुतरकर्मणो नावधीरणा। ततः किम्? इत्याह-नैव मनाराधनयाऽधीतमधीतं सूत्रतत्त्वतः / कुतः? इत्याह-अवगमविरहेण सम्यगवबोधाभोवन / नैषा मार्गगामिन एकान्तमनाराधना भवति / सम्यक्त्वाऽऽदिभावे सर्वथा सत्क्रियायोगात्। अत एवाऽऽह-विराधना प्रक्रमादध्ययनस्य अनर्थमुखा उन्मादाऽऽदिभावेन / अयं च गुरुतरदोषापेक्षयाऽर्थहेतुः / पारम्पर्येण मोक्षागमेवेत्यर्थः / कुतः? इत्याह-तस्याऽऽरम्भाद् ध्रुवं मोक्षगमनस्यैवाऽऽरम्भात् / कण्टकज्वरमोहोपेतमार्गगन्तृवत्। उक्तं च- "मुनेमर्गिप्रवृत्तियो, सा सदोषाऽपि सैव हि / कण्टकज्वरसंमोहयुक्तस्येव सदध्वनि।।१।। एतद्भावे लिङ्गमाह अत्र विराधनाया सत्या मार्गदेशनायां पारमार्थिकायामनभिनिवेशः शृण्वतो भवति, हेयोपादेयतामधिकृत्य यथाह-समेषु स्खलन्नन्धबधिरवन्मूकवच रूपाऽऽदिषु तथा संमोहादिति। तथा प्रतिपत्तिमात्रं मनाविराधकस्य नानभिनिवेशः। तथा क्रियाऽऽरम्भोऽल्पतरविराधकस्य न प्रतिपत्तिमात्रम्। एवं किम्? इत्याह-एवमपि विराधनयाऽधीतमधीतं सूत्र भावतः। कुतः? इत्याह-अवगमलेशयोगतः सम्यगवबोधलेशयोगेन। अयं सवीजो नियमेन / विराधकः सम्यग्दर्शनाऽऽदियुक्त इत्यर्थः / कुतः? इत्याह-मार्गगामिन एवैषा विराधना, प्राप्तबीजस्येति भावः / न सामान्येनैव / किं तहपायबहुलस्यानिरुपक्रमक्लिष्टकर्मवतः, निरपायो यथोदितः मार्गगामीति प्रक्रमः / एतदेवाऽऽह-सूत्रोक्तकारी भवति सबीजो निरपायः प्रवचनमातृसङ्गतः सामान्येन तद्युक्तः / विशेषेणैतदेवाऽऽह-पञ्च-समितःत्रिगुप्तः / ईर्यासमित्याद्याः समितयः पञ्च / मनोगुप्त्याद्याश्च तिरस्रो गुप्तय इति / सम्यग्ज्ञानपूर्वकमेवमित्याह-अनर्थपरश्चारित्रमाणक्षरणेन। एतत्त्यागः प्रवचनमातृत्यागः / सम्यगेतद्विजानातीतियोगः। कस्यानर्थपर एतत्त्यागः? इत्याह-अव्यक्तस्य भावबालस्य। केनोदाहरणेन? इत्याह-शिशुजननीत्यागज्ञातेन, शिशोर्बालस्य जननीत्यागोदाहरणेन. स हि तत्त्यागाद्विनश्यति। व्यक्तोऽत्र कः? इत्याह-व्यक्तोऽत्र भावचिन्तायां केवली सर्वज्ञ एतत्फलभूतः प्रवचनमातृफलभूतः, सम्यग्भावपरिणत्या। एत-द्विजानात्यनन्तरोदितम्। एतदेवाऽऽह-द्विविधया परिज्ञयाज्ञ-परिज्ञया, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च। ज्ञपरिज्ञाऽवबोधमात्ररूपा, प्रत्याख्यानपरिज्ञा तदर्भक्रियारूपा। तहा आसासपयासदीवं संदीणाऽथिराइभेअं(?) असंदीणथिरत्थमुज्जमइ / जहासत्तिमसंभंते अणूसुगे असंसत्तजोगाराहए भवइ उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए मुच्चइ पावकम्मुण त्ति / विसुज्झमाणे आभवं भावकिरिअमाराहेइ। पसमसुहमणुहवइ अपीडिए संजमतवकिरिआए अवहिए परीसहोवसग्गे हिं बाहिअसुकिरिआनाएणं। तथा आश्वासप्रकाशद्वीपं दीपं वा सम्यग्विजानातीति वर्त्तते। किविशिएम् ? इत्याह-स्पन्दनस्थिराऽऽदिभेदम् (?) / इहभवाब्धावाश्वासद्वीपो, मोहोन्धकारे दुःखगहने प्रकाशदीपश्च। तत्राऽऽद्यः स्मन्दनवानस्पन्दनवॉश्च, प्लावनवानप्लावनवांश्चेत्यर्थः / इतरोऽपि स्थिरोऽस्थिरश्च / अप्रतिपाती, प्रतिपाती चेत्यर्थः। अयं च यथासंख्य मानुष्ये क्षायोपशमिकक्षायिकचारित्ररूपः, क्षायोपशमिकक्षायिकज्ञानरूपश्च / उभत्राऽऽद्योऽनाक्षेपेणेष्टसिद्धये, सप्रत्यपायत्वात् / चरमस्तु सिद्धये, निष्प्रत्यपायत्वात् / सम्यगेतद्विजानाति, न केवलं विजानाति / अस्पन्दनवत् स्थिरार्थमुद्यमं करोति सूत्रनीत्या। कथम् ? इत्याह-यथाशक्तिशक्त्यनुरूपम्, असंभ्रान्तो भ्रान्तिरहितः, अनुत्सुक औत्सुक्यरहितः, फलं प्रति / असंसक्तयोगाऽऽराधको भवति / निःसपत्नश्रामण्यव्यापारकर्ता, सूत्रानुसारित्वात्। सूत्रं च- "जोगो जोगो जिणसासणम्मि दुक्खक्खया पउंजतो। अण्णोण्णमवाहतो, असवत्तो होइ कायव्यो / / 1 / / ' एवमुत्तरोत्तरयोगसिद्ध्या, धर्मव्यापारसिद्धयेत्यर्थः / किम ? इत्याहमुच्यते पापकर्मणा तत्तद्गुणप्रतिबन्धकेन इति / एवं विशुद्ध्यमानःसन् आभवं आजन्माऽऽसंसारं वा भावक्रियां निर्वाणसाधिकामाराधयति निष्पादयत्यौचित्याऽऽरम्भनिर्वहणरूपाम् / तथा प्रशमसुखमनुभवति। तात्त्विकं कथम् ? इत्याह-अपीडितः संयमतपक्रियया आश्रवनिरोधानशनाऽऽदिरूपया / तथा अव्यथितः सन् परीषहोपसर्गः क्षुद्दिव्याऽऽदिभिः / कथमेतदेवम्? इति निदर्शनमाह-व्याधितस्य सुक्रियाज्ञातेन रोगितस्य शोभनक्रियोदाहरणेन। एतदेवाऽऽहसे जहानामए केइ महावाहिगहिए अणुहूअतटवेअणे विण्णाया सरूवेण निविण्णे तत्तओ। सुविञ्जवयणेण सम्मं तमवगच्छिअ जहाविहाणओ पवण्णे सुकिरिअं। निरुद्धजहिच्छाचारे तुच्छपत्थभोई मुच्चमाणे वाहिणा निअत्तमाणवेअणे समुवलब्भारोग्गं पवड्डमाणतब्भावे तल्लाभनिव्वुइए तप्पडिबंधाओ सिराखाराइजोगे विवाहिसमारुगविण्णाणेण इट्ठनिप्फत्तीओ अणाकुलभावयाए किरिओवओगेण अपीडिए अव्वहिए सुहलेस्साएवढए। विजं च बहु मण्णइ। तद्यथा- कश्चित्सत्त्वो महाव्याधिगृहीतः, कुष्टाऽऽदिग्रस्त इत्यर्थः। अनुभूततवेदनः अनुभूतव्याधिवेदनः। विज्ञाता स्वरूपेण वेदनायाः, न कण्डगृहीतकण्डूयनकारिवद्विपर्यस्तः। निर्विण्णस्तत्त्वतः, तद्वेदनयेति प्रक्रमः / ततः किम्? इत्याह- सुवैद्यवचनेन हेतुभूतेन सम्यगवैपरीत्येन तंव्याधिमक्गभ्य यथाविधानतो यथाविधानेन देवतापूजाऽऽदिलक्षणेन, Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 751 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा प्रपन्नः सुक्रियां परिपाचनाऽऽदिरूपां, निरुद्धयदृच्छाचारः सन् प्रत्य- चित्तस्थैर्येण हेतुना। तथा धर्मोपयोगात् इतिकर्तव्यताबोधात् कारणात पायभयात्तथा तुच्छपथ्यभोजी व्याध्यानुगुण्यतः। अनेन प्रकारेण मुच्य- सदा स्तिमितः भावद्द्वन्द्वविरहात् प्रशान्तः / किम्? इत्याह- तेजोलेश्यया मानो व्याधिना खसराऽऽद्यपगमेन, निवर्तमानवेदनः कण्डाद्यभावात्, शुभप्रभावरूपया वर्द्धते बृद्धिमनुभवति, गुरुंच बहु मन्यते भाववैद्यकल्पम्। समुपलभ्याऽऽरोग्यं सदुपलम्भेन / प्रवर्द्धमानतद्भावः प्रवर्द्धमानाऽऽरो - कथम ? इत्याह यथोचितमौचित्येन, असङ्गपतिपत्त्या स्नेहर.. ग्यभावः, तल्लाभनिवृत्त्या आरोग्यलाभनिवृत्या, तत्प्रतिबन्धात् आरोग्य हिततद्भावप्रतिपत्त्या / किमस्या उपन्यास? इत्याह-निसर्गप्रवृत्तिभावेन प्रतिबन्धाद्धेतोः शिराक्षाराऽऽदियोगेऽपि शिरावेधक्षारपातभावेऽपीत्यर्थः / सासिद्धिक प्रवृत्तित्वेन हेतुना, एषाऽसङ्ग प्रतिपत्तिणुर्वी व्याख्याता व्याधिशमाऽऽरोग्यविज्ञानेन व्याधिशमाहादारोग्यं तदवबोधेनेत्यर्थः / भगवद्भिः / किमिति ? अत आह-भावसारा तथोदयिकभावविरहेण किम्? इत्याह-इष्टनिष्पत्तरारोग्यनिष्पत्तेहे तोरनाकुलभावतया विशषतः असङ्ग प्रतिपत्तेः / इहैव युक्त्यन्तरमाहभगवद्वहुमान अचिन्त्यनिबन्धनाभावात / तथा क्रियोपयोगेन इतिकर्तव्यताना बोधेन हेतुना चिन्तामणिकल्पतीर्थकरप्रतिबन्धेन / कथमयम् ? इत्याह- यो मा अपीडितः अव्यथितो निवातस्थानाऽऽसनौषधपानाऽऽदिना / किम्? प्रतिमन्यते भावतः स गुरुमित्येवं तदाज्ञा भगवदाज्ञा इत्थं तत्त्व इत्याह-शुभलश्यया प्रशस्तभावरूपया वर्द्धते वृद्धिमाप्नोति। तथा वैद्य व्यवस्थितम् / अन्यथा गुरुबहुमानव्यतिरेकेण क्रियाऽप्यक्रिया प्रत्युपेव बहु मन्यते महापायनिवृत्तिहेतुरयं ममेति सम्यग्ज्ञानात् / एष दृष्टान्तः क्षणाऽऽदिरूपा, अक्रिया सक्रियातोऽन्या / किविशिष्टा? इत्याहअयमर्थोपनयः कुलटानारीक्रियासमा दुःशीलवनितोपवास क्रियातुल्या। ततः किम्? एवं कम्मवाहिगहिए अणुभूअजम्माइवेअणे विण्णाया दुक्ख- इत्याह-गर्हिता तत्ववेदिनां विदुषाम्। करमात्? इत्याह अफलपोगतः। रूवेणं निविण्णे तत्तओ / तओ सुगुरुवयणेण अणुट्ठाणाइणा इष्टफलादन्यदफलं, मोक्षात्सांसारिकमित्यर्थः / तद्योगात् / एतदेव तमवगच्छिअपुव्वुत्तविहाणओ पवन्ने सुकिरिअंपध्वजं निरुद्ध- स्पष्टयन्नाह-विषान्नतृप्तिफलमत्र ज्ञातमल्पं विपाकदारुणं, विराधनापमायायारे असारसुद्धभोई मुच्चमाणे कम्मवाहिणा निअत्तमा- | ऽऽसेवनात् एतदेवाऽऽह-आवर्त एव तत्फलम्, आवर्तन्ते प्राणिनोऽस्मिणिट्ठविओगाइवेअणे समुवलब्मचरणारुग्गं पवड्डमाणसुहभावे नित्यावर्तः संसारः, स एव तत्त्वतः तत्फलं विराधनाविषजन्यम् / तल्लाभनिव्वुइए तप्पडिबंधविसेसओ परीसहोवसग्गभावे वि किंविशिष्ट आवर्तः? इत्याह-अशुभानुबन्धः। तथा तथा विराधनोत्कर्षण। तत्तसंवेअणाओ कुसलासयवुड्डी थिरासयत्तेण धम्मोवओगाओ एवं सफल गुर्वबहुमानमभिधाय तद्वहुमानमाहसया थिमिए तेउलेस्साए पवड्डइ / गुरुं च बहु मन्नइ / जहोचिअं आयओ गुरुबहुमाणो अवंझकारणत्तेण / अओ परमगुरुसंअसंगपडिवत्तीए निसग्गपवित्तिभावेण / एसा गुरुई विआहिआ जोगो। तओ सिद्धी असंसयं / एसेह सुहोदए पगिट्ठतयणुबंधे भावसारा विसेसओ भगवंतबहुमाणेणं / जो म पडिमन्नइ से भववाहितेगिच्छी। न इओ सुंदरं परं। उवमा इत्थ न विजइ। स गुरुं ति तदाणा / अन्नहा किरिआ अकिरिआ कुलडा-नारीकिरि- एवं पण्णे एवं भावे एवं परिणामे अप्पडिवडिए वड्डमाणे आसमा गरहिआ तत्तवेईणं अफलजोगओ विसण्णतत्ती फल- तेउलेस्साए दुवालसमासिएणं परिआएणं अइक्कमइ सव्वदेवतेमित्थ नायं आवट्टे खु तत्फलं असुहाणुबंधे / उलेस्सं एवमाह महामुणी ! तओ सुक्के सुक्काभिजाई भवइ / एवं कर्मव्याधिगृहीतः प्राणी / किंविशिष्टः? इत्याह- अनुभूतज - पायं छिण्णकम्माणुबंधे खवइ लोगसण्णं / पडिसोअगामी न्माऽऽदिवेदनः। आदिशब्दाजरामरणाऽऽदिग्रहः / विज्ञाता दुःखरूपण अणुसोअनिवित्ते सया सुहजोगे एस जोगी विआहिए / एव जन्माऽऽदिवेदनायाः। न तु तत्रैवाऽऽसक्त्या विपर्यस्त इति। ततः किम् ? आराहगे सामण्णस्स, जहा गहिअपइण्णे सध्वोवहासुद्धे संघइ इत्याह-निर्विष्णस्तत्त्वतः / ततो जन्माऽऽदिवेदनायाः। किम्? इत्याह- सुद्धगं भवं सम्मं अभवसाहगंभोगकिरिआ सुरूवाइकप्पं / तओ सुगुरुवचनेन हेतुनाऽनुष्ठानाऽऽदिना तमवगम्य सुगुरुं कर्मव्याधि च ता संपुण्णा पाउणइ अविगलहेउभाओ असंकिलिहसुहरूवाओ पूर्वोक्तविधानतस्तृतीयसूत्रोक्तेन विधानेन प्रपन्नः सन्, सुक्रिया प्रव्रज्या अपरोवताविणो सुंदरा अणुबंघेणं न य अण्णा संपुण्णा / / निरुद्धप्रमादाऽऽचारो यदृच्छया, असारशुद्धभोजी संयमाऽऽनुगुण्येन, आयतो गुरुबहुमानः साद्यपर्यवसितत्वेन, दीर्घत्वादायतो मोक्षः स अनेन विधिना मुच्यमानः कर्मव्याधिना निवर्तमानेष्टवियोगाऽऽदिवेद- / गुरुबहुमानः, गुरुभावप्रतिबन्ध एव मोक्ष इत्यर्थः / कथम् ? इत्याहनस्तथा मोहनिवृत्त्या किम्? इत्याह-समुपलभ्य चरणाऽऽरोग्यं सदुप- अबन्ध्यकारणत्वेन मोक्षं प्रत्यप्रतिबद्धसामर्थ्य हेतुत्वेना एतदेवाऽऽहलम्भेन, प्रवर्द्धमानशुभभावः प्रवर्धमानचरणाऽऽरोग्यभावः। बहुतरकर्म- अतःपरमगुरुसयोगः, अतो गुरुबहुमानात्तीर्थकरसंयोगः। ततः संयोगाव्याधिविकारनिवृत्त्या तल्लाभनिवृत्त्या, तत्प्रतिबन्धविशेषात्। चरणाऽऽ- दुचिततत्सम्बन्धत्वात् सिद्धिरसंशय मुक्तिरेकान्तेन, यतश्चैवमत एषोऽत्र रोग्यप्रतिबन्धविशेषात् स्वाभाविकात् कारणात् परीषहोपसर्गभावेऽपि शुभोदयो गुरुबहुमानः, कारणे कार्योपचारात् यथाऽऽयुतमिति। अयमेव क्षुद्दिव्याऽऽदिप्यसनभावेऽपि तत्त्वसंवेदनात्सम्यग्ज्ञानाद्धेतोः / तथा विशेष्यतेप्रकृष्टतदनुबन्धःप्रधानशुभोदयानुबन्धः, तथा तथाऽऽराधनोकुशलाऽऽशयवृद्ध्या क्षायोपशमिकभाववृद्ध्या, स्थिराऽऽशयत्वेन / त्कर्षेण / तथा भवव्याधिचिकित्सकः गुरुबहुमान एव हेतुफलभावात्। न Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 752 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा इनः सुन्दरं परं, गुरुबहुमानात्। उपमाऽत्र न विद्यते; गुरुबहुमानेसुन्दरत्वेन भगबहुमानादित्यभिप्रायः / स एवं प्रज्ञः स तावदधिकृतप्रव्रजित एवं प्रज्ञो विमलविवेकात एवं भावः विवेकाभावेऽपि प्रकृत्या। एवं परिणामः सामान्येन गुर्वभावेऽपि क्षयोपशमान्माषतुषवत् / यथोक्तम- विवेकशुभभावपरिणामा वचनगुरुतदभावेषु यमिनामिति / एवमप्रतिपतितः सन वर्द्धमानस्तेजोलेश्यया नियोगतः, शुभप्रभावरूपया। किम्? इत्याहद्वादशमासिकेन पर्यायेण एतावत्कालमानया प्रव्रज्यरोत्यर्थः / अतिक्रामति सर्वदेव तेजोलेश्या सामान्येन शुभप्रभावरूपाम् / क एवभाहमहामुनिर्भगवान् महावीरः / तथा चाऽऽगमः- "जे इमे अज्जत्ताए समणा णिग्गथा एतेणं कस्स तेउलेस्सं वीतीवयति? गोयमा ! मासपरियाए समणे णिग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेउलेस्सं वीइ-वयइ / एवं दुमासपरियाए समणे णिग्गत्थे असुरिंदवजियाणं भवणवासीण देवाणं तेउलेस्सं वीतीवयति / तिमासपरियाए समणे णिग्गंथे असुरकुमारिंदाणं देवाणं तेउलेस्सं वीतीवयति। चउमासपरियाए समणे णिगंथे गहाणणक्खततारारूवाणं जोतिसियाण तेउलेस्संवीतीवयति। पंचमासपरियाए समणे शिगंथे चंदिनसूरियाण जोतिसिंदाण लेउलेस्सं बीतीवयति। छामासपरियाए समणे जिग्गथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं तेउलेस्सं वीतीययति / सत्तमासपरियाए समणे निग्गंथे सणकुमारसाहिंदाणं देवाण तेउलेस्स वीतीक्यति / अट्टमासपरियाए समणे णिग्गथे बंभलोगलतगाणं देवाण तउलेस्सं वीतीवयति / णवमासपरियाए समणे णिग्गंथे महासुक्कसहस्साराणं देवाणं तेउलेस्सं वीतीवयति। वसमासपरियाए समणे णिग्गथे आणयपाणयआरणाच्चुयाणं देवाणं तेउलेस्सवीतीवयति। एकारसमासपरियाए समणे णिग्गंथे गेविजाणं देवाणं तेउलेस्सं वीतीवयति। बारसमासपरियाए अणुत्तरोववातियाण तेउलेस्सं वीतीवयति / तेण पर सुक्के सुक्काभिजाती भवित्ता सिज्झतिजाव अंत करेति। अत्र तेजोलेश्या चित्तसुख-लाभलक्षणा / अत एवाऽऽह-ततः शुक्लशुक्लाभिजात्या भवति। तत्र शुक्लो नामा भिन्नवृतोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति / शुक्लाभिजात्यश्चैतत्प्रधानः / प्रायश्छिन्नकर्मानुबन्धः। न तद्वेदयंस्तथाविधमन्यद् वध्नाति / प्रायोग्रहणमचिन्त्यत्वात्कर्मशक्तेः कदाचिद् बध्नात्यपि। स एवम्भूतः क्षपयति लोकसंज्ञा भगवद्वचनप्रतिकुला, प्रभूतसंसाराभिनन्दिसत्त्वक्रियाप्रीतिरूपामिति / अत एवाऽऽहप्रतिस्रोतोगामी लोकाऽऽचारप्रवाहनदी प्रति / अनुस्रोतो निर्वृत्तः। | एनामेवाधिकृत्यैतदभ्यासत एव न्याय्यं चैतत् / यथोक्तम"अणुसोयपडिए बहुजणम्मि पडिसो लद्धलक्खेणं। पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेण / / 1 / / अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोओ आसवो सुविहियाणं। अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स णिप्फेण // 2 // " एवं सदा शुभयोगः श्रामण्यव्यापारसङ्गतः, एष योगी व्याख्यातः। एवंभूतो | भगवद्भिोगी प्रतिपादितः। यथोक्तम्- सम्यक्त्वज्ञानचारित्रयोगः सद्योग उच्यते। एतद्योगाद्धि योगी स्यात्, परमव्रहासाधकः // 1 // एष एवम्भूत आराधकः श्रामण्यस्य निष्पादकः श्रमणभावस्य। यथा गृहीतप्रतिज्ञः, आदितआरभ्य सम्यक्प्रवृत्तेः / एवं सर्वोपधाशुद्धो. निरतिचारत्वेन। किम्? इत्याह-संधत्तै घटयति, शुद्धं भवं जन्मविशेषलक्षणं भवैरेव / अयमेव विशेष्यतेसम्यगभवसाधकं,सत्क्रियाकरणेन, मोक्षसाधकमित्यर्थः। निदर्शनमाह-भोगक्रिया सुरूपाऽऽदिकल्पं न रूपाऽऽ दिविकलस्यैताः सम्यग भवन्ति / यथोक्तम रूपवयोवैचक्षण्यसौभाग्यमाधुर्यश्वर्याणि भोगसाधनमिति / ततस्ताः संपूर्णाः प्राप्रोति सुरूपाऽऽदिकल्पाद्भवाद्भोगक्रिया इत्यर्थः / कुतः? इत्याह-अविकलहेतुभावतः कारणादिति / किंविशिष्टाः? इत्याह-असंक्लिष्टसुखरूपाः, शून्यताऽभावेन संक्लेशाभावात / तथा अपरोपतापिन्यो वैचक्षण्याऽऽदिभावेन तथा सुन्दरा अनुबन्धेनाऽत एव हेतोः / न चान्याः संपूर्णाः, उक्तलक्षणाभ्यां भोगक्रियाभ्यः। कुतः? इत्याहतत्तत्तखंडणेणं एअं नाणंति वुचई / एअम्मि सुहजोगसिद्धी उचिअपडिवत्तिपहाणा / इत्थ भावो पवत्तगो / पायं विग्यो न विजइ निरणुबंधासुहकम्मभावेण / अक्खित्ताओ इमे जोगा भावाराहणाओ। तहा तओ सम्म पवत्तइ निप्फायइ अणाउले। एवं किरिआ सुकिरिआ एगंतनिक्कलंका निक्कलंकत्थसाहिआ। तहासुहाणुबंधा उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए। तओ से साहइ परं परत्थं सम्मं / तक्कुसले सया तेहिं तेहिं पगारेहिं साणुबंधं महोदए बीजबीजाऽऽदिट्ठावणेणं / कत्तिविरिआइजुत्ते अबंझसुहचिट्ठे समंतभद्दे सुप्पणिहाणाइहेऊ मोहतिभिरदीवे रागामयविज्जे दोसानलजलनिही संवेगसिद्धिकरे हवइ अचिंतचिंतामणिकप्पे स एवं परंपरत्थसाहए तहा करुणाइभावओ अणेगेहिं भवेहिं विमुच्चमाणे पावकम्मुणा पवड्डमाणे असुहभावेहिं अणेगभविआए आराहणाए पाउणइ सव्वुत्तमं भवं चरमं चरमभवहेलं अविगलपरंपरत्यनिमित्तं तत्थ काऊण निरवसेसं किचं विहूअरयमले सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ। तत्तत्त्वखण्डनेन सङ्क्लेशाऽऽदिभ्यः उभयलोकापेक्षया, भोगक्रियास्वरूपखण्डनेनेति भावः / एतद् ज्ञानमित्युच्यते यदेवमिष्टवस्तुतत्त्वनिरूपकम् / एतस्मिन् शुभयोगसिद्धिः। एतस्मिन् ज्ञाने सति शुभव्यापारनिष्पत्तिः लोकद्वयेऽपीष्टप्रवृत्तौ / किं विशिष्टा? इत्याह-उचितप्रतिपत्तिप्रधाना संज्ञानाऽऽलोचनेन, तत्तदनुबन्धेक्षणात् / न ज्ञस्तदारभते, यद्विनाशयति, अतएवाऽऽह-अत्र भावः प्रवर्तकः प्रस्तुतप्रवृत्तौ सदन्तःकरणलक्षणो न मोह इति / अत एवाऽऽह- प्रायो विघ्नो न विद्यते। अत्राधिकृतप्रवृत्ती, सदुपाययोगादित्यर्थः / एतद्वीजमेवाऽऽह-निरनुबन्धाशुभकर्मभावेन न ह्यनीदृश इत्थं प्रवर्त्तते, इति हृदयम् सानुबन्धाशुभकर्मणः सम्यक् प्रव्रज्यायोगात्। आक्षिप्ताः स्वीकृता एवैते योगा: सुप्रव्रज्याव्यापाराः / कुतः? इत्याह- भावाऽऽराधनातः / तथा जन्मान्तरे तद्बहुमानाऽऽदिप्रकारेण। ततः किम् ? इत्याह-तत आक्षेपात्सम्यक् प्रव Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 753 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवजा तत, नियमनिष्पादकत्वेन। ततः किम् ? इत्याह-निष्पादयत्यना-कुलः सन् इष्टम् / एवमुक्तेन प्रकारेण क्रिया सुक्रिया भवति; सम्यग्ज्ञानादौचित्यारब्धेत्यर्थः / इयमेव विशेष्यते-एकान्तनिष्कलङ्का, निरतिचारतया। निष्कलङ्कार्थसाधिका, मोक्षसाधिकेत्यर्थः / यत-स्तथा शुभानुबन्धा, अव्यवच्छेदेनोत्तरोत्तरयोगसिद्ध्या ततः शुभानुबन्धायाः सुक्रियायाः सकाशात् स प्रस्तुतः प्रव्रजितः साधयति निष्पादयति, परं प्रधान, परार्थं सत्यार्थ, सम्यगविपरीतम्। तत्कुशलः, सदा सर्वकालम्। कथम् ? इत्याह-तैस्तैः प्रकारैर्वीजबीजन्यासाऽऽदिभिः सानुबन्धं परार्थ महोदयोऽसौ परपरार्थसाधनात्। एतदेवाऽऽह-बीजबीजाऽऽदिस्थापेन बीजं सम्यक्त्वं बीज-बीजं तदापेक्षकशासनप्रशंसाऽऽदि, एतन्न्यासेन / किंविशिष्टोऽयम् ? इत्याह-कर्तृवीर्याऽऽदियुक्तः परंपरार्थ प्रति। अबन्ध्यशुभचेष्टः, एतमेव प्रति। समन्तभद्रः, सर्वाऽऽकारसंपन्नतया। सुप्रणिधानाऽऽदिहेतुः क्वचिदप्यन्यूनतया / मोहतिमिरदीपस्तदपनयनस्वभावतया। रागाऽऽमयवैद्यस्तचिकित्सासमर्थयोगेन। द्वेषानलजलनिधिस्तद्विध्यापनशक्तिभावात्। संवेगसिद्धिकरो भवति, तद्धेतुयोगेत। अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पः, सव्वसुखहेतुतया। सोऽधिकृतः प्रव्रजितः। एवमुक्तनीत्या परपरार्थसाधकः, धर्मदानेन।कुतो हेतो? इत्याह-तथा करुणाऽऽदिभावतः, प्रधानभव्यतया। किम् ? इत्याह-अनेक वैर्जन्माऽऽदिभिर्विमुच्यमानःपापकर्मणा, ज्ञानाऽऽदिलक्षणेन। प्रवर्द्धमानश्च शुभभावैः संवेगाऽऽदिभिः / अनेकभविकयाऽऽराधनया पारमार्थिकया प्राप्नोति सर्वोत्तम भवं तीर्थकराऽऽदिजन्मा किंविशिष्टम् ? इत्याह-चरमं पश्चिममचरमभव-हेतु मोक्षहेतुमित्यर्थः / अविकलपरपरार्थनिमित्तम् , अनुत्तरपुण्यसंभारभावेन तत्र कृत्वा निरवशेष कृत्यं यदुचितं महासत्त्वानां विधूतरजोमलः बध्यमानप्रारबद्धकर्मरहितो व्यवहारतः सिद्ध्यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोतीति / अत्र सिद्ध्यति सामान्येनाणिमाऽऽद्यैश्वर्य प्राप्नोति / बुध्यते केवली भवति / मुच्यते भवोपग्राहिकर्मणा। परिनिर्वाति सर्वतः कर्मविगमेन। कि-मुक्तं भवति? सर्वदुःखानामन्तं करोति, सदा पुनर्भवाऽभावात्। यद्वा-सिध्यति सर्वकार्यपरिसमाप्त्या। बुध्यते तत्राऽपि केवलाप्रतिघातेन। मुच्यते। निरवशेषकर्मणा / परिनिर्वाति समग्रसुखाऽऽप्त्या / एवं सर्वदुःखानामन्तं करोतीति निगमनम्।नयान्तरमतव्यवच्छेदार्थमेतदेवम्। इति प्रव्रज्यापरिपालनासूत्रं समाप्तम् / पं० सू०४ सूत्र। (21) प्रव्रज्याविधिः - जंबू ! परंपराए पव्वावणविहीए दिक्खिया से गुरू परंपरागमे त्ति वुच्चइ / का सा भंते ! पव्वावणविही। एवं खलु जंबू ! पुच्वं पत्तपरिक्खा णपुंसगादिदोसरहिया। सुमुहुत्ततिहिनक्खत्तकरणजोगेणं सूरिणा विहिणा दहदिसाण बंधणं काऊण वासा अमिमंतियव्वा / पंचमुद्दापओगेण सत्तमुद्दापओगेण वा यतस्स सिरम्मि खिवति / तओ पच्छा सीसस्स खमासमणदुगं दावेऊणं देवे वंदावेइ० जाव" जय वीअराय त्ति" पाठो / तओ णियमं तेण वासे अभिमंतिय दत्तखमासमणं सीसं भणावेइ। ममं पव्वावेह, ममं वेसं समप्पेह। तओ सूरी उट्ठाय णमुक्कारपुवं सुग्गहियं करेहि त्ति भणंतो सीसदक्खिणवाहो सम्मुहं रओहरणदसिआओ करितो पुव्याभिमुहो उत्तराभिमुहोवा सीसस्स वेसं समप्पेइ / सीसो इत्थं ति भणइ / ईसाणदिसिभागे गंतुं आभरणाइअलंकारं मुयइ, वेसं परिग्गहेइ। पुणो सूरीसमीवमागम्म वंदित्ता भणइ-इच्छाकारेण भंते ! पुणो सूरीसमीवमागम्म वंदित्ता भणइ-इच्छाकारेण भंते ! ममं मुंडावेह, सव्वविरइसामाइयं ममारोवेह। तओ सीसो वारसावत्तं वंदणं देइ। तओ दो वि सव्वविरइसागाइयरोवणत्थं सत्तावीसूसासकाउस्सगं करिति; पारित्ता उचउदीसत्थयं भणंति। तओ पत्ताए लग्गवेलाए अभिंतरपविसमाणं सीसं णमुक्कारतिगमुचरितु सूरी उद्धट्ठिओ तस्स तिन्नि अट्ठाओ अक्खलियाओ गिण्हइ, गिण्हित्ता सणमुकारं तिन्निवारं सामाइयं भणइ। सेहो वि उद्घट्ठिओ चेव भावियप्या अप्पाणं कयत्थं मन्नमाणो अणुकड्डइ।तो जइ पुट्विं संखेवेणं वासा अभिमंतिया तो इत्थ वित्थरेणं वासाभिमंतणं / संघवासदाणं / तओ खमासमणपुव्वं इच्छकारि तुम्हे सव्यविरई सामाइयं आरोवेह / इचाइयं च खमासमणाणि दाउं पुट्विं च समवसरणं गुरू भणइ / संघो तस्सोवारे सिरे वासे खिवइ / एवं जाव तिन्निवारा। तओखमासमणं दाउं भणइ-तुम्हाणं पवेइयं साहूण य पवेइयं संदिसह काउस्सगं करेमि / पुणो वि वंदित्ता भणइ-सव्वविरइसामाइयथिरीकरणत्थं करेमि काउस्सग्गं सत्तावीसुस्सासचिंतणं चउवीसत्थयं भणइ / तओ खमासमणपुव्वं सीसो भणइ-इच्छकारि भंते ! मम णामट्ठवणं करेह / तओ सूरी नियनामवग्गाइदोसरहियं गंधे खिवंतो णामं ठवेइ। तओ सीसो जहारायणियाए साहू वंदइ / सावयसावियासाहुणीओ यतं बंदंति। तओ सूरी माणुस्सखित्तजाइत्ति वा, अहवा चत्तारि परमंगाणि त्ति इचाइ देसणं देइ / आयंविलाई जहासत्तीए तवो कायव्वो। एअंसामाइयं चरित्तु उक्कोसं जाव छम्मासं पच्छा उट्ठावणिया किजति / सा इमा विही। तत्थ पढियाइ१। "वास 2 चिइ३ वय तिवेला 4 खमासमणंच सत्तहा५ दिसाबंधो। दुविहि तिविहा तहानयंदेसेणं मंडली सत्त // 1 // पढियकहियअहिगयपरिहरउट्ठावणा य कप्पो त्ति / छक्कं तीहिं विसुद्धं, परिहर नवएण मेयणं // 2 // अप्पत्तं अकहित्ता, आणाहिगयपरिच्छणे य आणाई। दोसा जिणेहिँ भणिया, तम्हा पत्तादुवट्ठावे // 3 // " एवं सुपरिक्खियगुणसीसो तिहिनक्खत्तमुहुत्तरविजोगाइय पसत्थदिवसे अप्पाणं वोसिरामि जिणभवणाइपहाणखि Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 754 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा त्ते गुरुं वंदित्ता भणइ-इच्छकारि तुम्हे अम्ह पंच महव्वयाई राइभोअणवेरमणछट्ठाई आरोवावणिया, णंदिकरावणियं वासाणिक्खेवं करेइ / तओ पुव्वं वासक्खेवं करिय देवे वंदिय / वंदणं दाउं महव्वयाइआरोवणत्थं सत्तावीसुस्सासं काउस्सग्गं देवि करिति / तओ सूरीहिँतिहा तुन्नएहिं पिट्ठोवरि कुप्परिचिट्ठिएहिं करेहिं रयहरणं ठावित्ता वामकराऽनामियाए मुहपुत्तिं लंबंति धरित्तु सम्म उवओगपरो सीसं अद्धोवणयकयं इक्विक वयं नमुक्कारपुव्वं तिन्निवारं उच्चारावेइ / तत्थ खलु पढम भंते ! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि, से सुहमं वा वायरं वा तसं वा थावरं या नेव सयं पाणे अइवाइजा, नेवऽन्नेहिं पाणे अइवायाविजा, पाणे अइवाइयंते वि अण्णे ण समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं करेमि, ण कारवेमि, करंतं पि अन्नं न / समणुजाणामि। तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, | अप्पाणं वोसिरामि / पढमे भंते ! महत्वए अब्भुट्ठिओ-मि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं // 1 / / अहावरे दोचे भंते ! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं, परिग्गहं परिगिण्हते वि सव्वं भंते ! मुसावयं पचक्खामि / से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं वएजा, नेवऽन्नेहिं मुसं वायावेज्जा, मुसं वयंते वि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए०जाव वोसिरामि / दुचे भंते ! अब्भुट्ठिओ मि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं / / 2 / / अहावरे तचे भंते ! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! अदिन्नादाणं पञ्चक्खामि, से गामे वा णगरे वाऽरन्ने वा अप्पं वा बहु वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमतं वा नेव सयं अदिन्नं गिण्हेज्जा, नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गिण्हावेज्जा, अदिन्नं गिण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न० जाव वोसिरामि। तचे भंते ! महव्वए अब्भुट्ठिओमि सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं / / 3 / / अहावरे चउत्थे भंते ! महव्यए मेहुणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! मेहुणं पच्चक्खामि, से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सयं मेहुणं से विजा, नेवऽन्नेहिं मेहुणं सेवावेजा, मेहुणं सेवंतं वि अन्नं न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं० जाव अप्पाणं वोसिरामि / चउत्थे भंते ! महव्वए अब्भुट्टिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं // 4 // अहावरे पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! परिग्गइं पञ्चक्खामि, से अप्पं वा बहु वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिण्हिज्जा, नेवऽन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविजा, परिग्गहं परिगिण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिवि- | हेणं मणेणं०जाव वोसिरामि। पंचमे भंते ! महव्वए अब्भुट्टिओमि सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं / / 5 // अहावरे छट्टे भंते ! वए राइभोयणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! राइभोअणं पचक्खामि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव सयं राई भुंजिजा, जाव वोसिरामि / छटे भंते ! वए अब्भुटिओमि सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं / / 6 / / ( एतेषां सूत्राणां व्याख्या ' पडिक्कमण ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 284 पृष्यदारभ्य गता) तओ पत्ताए लग्गवेलाए इच्चेइयाइं पंचमहव्वयाई राईभोयणवेरमणछट्ठाई अत्तहिअट्ठाए उवसंपञ्जित्ता णं विहरामि। एयं तिनिवारेण भणावेइ। तओ वंदित्ता सीसो भणइ-इच्छकारि भगवं ! तुम्हे अम्ह पंच महव्वयाइं राइभोयणवेरमणछट्ठाई अत्तहिअट्ठाए उवसंपज्जित्ता णं विहरामि / इसाइ खमासमणपुध्वं पयाहिणा समवसरणे कायव्वा, तओ सीसस्स आयरियउवज्झायओ दुविहो दिसीबंधो कीरइ / अमुगगणो अमुगसाहा अमुगकुलं अमुगो गुरू अमुगा आयरिया अमुगा व उवज्झाया अमुगाओ पवत्तिणीओ महत्तराओ साहुणीओ सिरिसोहम्मसाहम्मियाओ अमुगअमुगा आयरिया परंपराएणं जहा दसासुअक्खंधे अट्ठमज्झयणे थेरावलीओ बूझ्या। (सा च स्थविरावलिः ' थविरावलि शब्दे चतुर्थभागे 2364 पृष्टादारभ्य द्रष्टव्या) तहा तस्स सीसस्स गणो ठावेइयव्यो / जहा जंबू ! ममं परंपराए कोडिगणे वइज्झरी साहा चंदकुलं ठवियस्संति एवं पव्वावणविहीए दिक्खिऊण पंचमहव्वयरक्खणट्ठा देसणं दिति, गुरुणो उज्झिया-भोगीया-रक्खिया-रोहिणीपंचसालिअक्खएणं जहा नायाधम्मकहाए। एसा पव्वावणविही जंबू! ममं पुरो समणेणं भगवया महावीरेणं विआहिया / एआए विहीए इंदभूइपामोक्खाणं चउद्दससमणसाहस्सीयाए पव्वाविया, छत्तीसअज्जियासाहस्सीओ पव्वाविया, जहा तुमं पिमए पव्वाविओ तहा ममं पिअत्था अन्ने वि आयरियउवज्झाया सीसाणं सीसिणीणं पव्वाविस्संति०जाव दुप्पसहसूरी वि एवं पव्वावइस्सइ। एसा परंपरा सुद्धा / एसा पव्वावणविही पव्वइअकालाइदेसेणं बलमेहाबुद्धीण हाणीएपमायं सेवमाणा वि सुद्धा जिणमयं पयासयंता साहुणो णेयव्या। अङ्ग। (22) गुरवे आत्मनिवेदनम् - उक्तो गुरुव्यापारः / अथ शिष्यव्यापार दर्शयन्नाह - अह तिपयाहिणपुव्वं,सम्म सुद्धेण चित्तरयणेण / गुरुणो णिवेयणं सव्वहेण दढमप्पणो एत्थ / / 26 / / Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 755 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवजा अथोक्तविधानादनन्तरं तिसृणां प्रदक्षिणानां समाहारस्त्रिप्रदक्षिणम् , तत्पूर्व प्रथमं यत्र तत्तथा क्रियाविशेषणमिदम् / गुरुं त्रि:प्रदक्षिणीकृत्येत्यर्थः / सम्यक् शुद्धेन तष्वतो निर्मलेन, न कल्पनयेत्यर्थः / चित्तं मनस्तदेव रत्न माणिक्यं प्रकाशस्वभावसाधयाचित्तरत्न, तेन / गुरोर्धमोऽऽचार्यस्य निवेदनीयम्-' भवदीयोऽहं किङ्करो, यूयं मे भवोदधिनिमग्रस्य नाथाः " इत्येवं समर्पणम् / सर्वथैव समस्तैरपि प्रकारैद्धिपदचतुष्पदधनाऽऽद्यर्पणलक्षणैर्मनःप्रभृतिभिर्वा, नतुकथञ्चिदनिवेदनम्। दृढमत्यर्थमय्यभिच रितया। कस्य निवेदनम् ? इत्याह-आत्मनः स्वस्य / अत्र दीक्षायां दत्तायां सत्यामिति गाथाऽर्थः / / 26 // अथ तदात्मनिवेदनं गुरुः प्रतिपद्यते, नवा?; यदिन प्रतिपद्यते तदान युक्त, निष्फलत्वात्तस्येत्याशङ्कां परिहरन्नाह - एसा खलु गुरुभत्ती, उक्कोसो एस दाणधम्मो उ। भावविसुद्धीऍ दर्ड, इहरा वि य बीयमेयस्स / / 30 // यदेतद् गुरूणां सर्वथाऽऽत्मनिवेदनमनन्तरोक्तमेषा इयं, खलुक्यालवारेऽथवाऽवधारणे, तेनैषैव न त्वन्याऽपि / यदाह-" का भक्तिस्तस्य येनाऽऽत्मा, सर्वथा न नियुज्यते। अभक्तेः कार्यमवाऽऽहुरंशेनाप्यनियोजनम् // 1 // " गुरुभक्तिधर्माचार्यबहुमानः / गुरुभक्तिश्च सदा विधेया दुष्प्रतिकारत्वाद् गुरोः तस्याश्च महार्थसाधकत्वात्। उक्तं चानन्तरोतार्थद्वयसंवादि ' तिण्हं दुष्पडियारं समणाउसो ! तं जहा-अम्मापियरस्स, गुरुस्स, भत्तिस्स।" तथा - "गुरुभक्तेः श्रुतज्ञानं भवेत् कल्पतरूपमम् / लोकद्वितयभाविन्यस्ततः स्युः सर्वसम्पदः / / 1 / / " तथा उत्कृष्यत इत्युत्कर्ष उत्कृष्टः। (एस त्ति) इहोत्तरस्यैवकारार्थस्य तुशब्दस्य सम्बन्धादेष एवा-यमेव गुरोरात्मनिवेदनरूपो नान्यः। वस्त्वन्तरदाने हि तदेवकं दत्त स्यात् , आत्मदाने तु सर्वमपीत्यात्मदानधर्मस्यैवोत्कृष्टता। दानधर्मो वितरणरूपं कुशलानुष्ठानम्। विधेयश्चासौ महार्थसाधकत्वात् / यदाह- " दानात्कीर्तिः सुधाशुभ्रा, दानात्सौभाग्यमुत्तमम्। दानात्कामार्थमोक्षाः स्युर्दानधर्मो वरस्ततः॥ 1 // " किं यथाकथञ्चिदपि आत्मनिवेदनमुत्कृष्टदानधर्मो भवति?, नेत्याह-भाववि-शुझ्या परिणामनिष्कलङ्कतया, दृढमत्यन्तम्, परिणामकलद्धं च कीाद्यपेक्षेति। तर्हि भावशुद्ध्यभावे किं स्यादित्याह-(इहरा वि य त्ति) इतरथाऽन्यथाभावविशुद्धिव्यतिरेकणेत्यर्थः / अपि चेति पुनःशब्दार्थ / बीजमिव बीज हेतुर्भवतीति। द्रव्यतोऽपि सदनुष्ठानस्य प्रायो भावानुष्ठानकारणत्वादेतस्योत्कृष्टदानधर्मस्याऽऽत्मनिवेदनमिति प्रकृतम्। इति गाथाऽर्थः / / 30 / / कथमिदं भावविशुद्ध्यभावपूर्वकमात्मनिवेदमुत्कृष्टदानधर्मबीज भवनीत्याहजं उत्तमचरियमिणं, सोउं पि अणुत्तमा ण पारेति / ता एयसगासाओ, उक्कोसो होइ एयस्स / / 31 // यद्यस्मात्कारणात् उत्तमचरितं सत्पुरुषचेष्टितम् इदमनन्तरदर्शितमात्मनिवेदनम् , श्रोतुमप्याकर्णयितुमपि, आस्तामनुष्ठातुम् अनुत्तमा असत्पुरुषाः, न पारयन्ति न शक्नुवन्ति, तथाविधबीजरहितत्वात्तेषाम् / तत्तस्मात्कारणादेतत्सकाशादेतस्माद्भावविशुद्धिविरहविहितोत्त मपुरुषचरितरूपाऽऽत्मनिवेदनादवधेः। तुशब्द एवकारार्थः। तत्प्रयोग च दर्शयिष्यामः / प्रकर्ष उत्कर्षो भवत्येव जायत एव / एतस्यानन्तरगाथोक्तदानधर्मस्य / इदमुक्तं भवति-यद्यप्यात्मनिवेदनरूपो दानधर्मो विशुद्धभावाऽभावे विधीयमानोऽनुत्कृष्टो भवति तथाऽप्युत्तमचरितरूपात्वात्तस्योत्कृष्टतानिमित्तभूताया भावविशुद्धेर्जनकत्वादुत्कृष्टदानधर्मबीजं भवतीति, अतः साधूक्तम्-" इहरा वि य वीयमेयरसत्ति।" अतो गुरुणाऽप्रतितिपन्नत्वेऽपिन निष्फलताऽऽत्मनिवेदनस्येति गाथाऽर्थः / / 31 / / ___ अथ यदि तदात्मनिवेदनं गुरुः प्रतिपद्यते, तदाऽधिकरणदोषो गुरोः स्यादित्याशङ्का परिहरन्नाह - गुरुणो वि णाहिगरणं, ममत्तरहियस्स एत्थ वत्थुम्मि। तब्भावसुद्धिहे, आणाएइ पयट्टमाणस्स / / 32 // गुरोरपि न केवल दीक्षितस्याऽऽत्मनिवेदननिष्फलत्वलक्षणो दोषोऽभिहितयुक्तेन भवति धर्माचार्यस्याऽपि, न नैव / अधिक्रियते दुर्गतावनेनाऽऽत्मेत्यधिकरणम् / दीक्षितेनाऽऽत्मनि निवेदिते परिग्रहाऽऽरम्भानुमतिरूपो दीषो भवतीति गम्यते / किम्भूतस्येत्याह-ममत्वरहितस्य निःसङ्गस्य। क्वेत्याह-अत्रैतस्मिन्ननन्तरोक्ते, वस्तुनि पदार्थ दीक्षितसत्त्वतदीयाऽऽपष्यवित्ताऽऽविरूपे / पुनः किम्भूतस्येत्याह-प्रवर्तमानस्य व्याप्रियमाणस्य / कया?, आज्ञया आप्तोपदेशेन। किमर्थम् ?, तद्भावशुद्धिहेतुं दीक्षितसत्त्वपरिणामविशोधनहेतोः / एवं हि प्रवृत्तौ तस्य भावविशुद्धिरुपजायत इति / एवं चेहानुमानप्रयोगो यदुतदीक्षिताऽऽत्मनिवेदनं गुरोरधिकरणं न भवति, ममत्वरहितत्वात्, शरीराऽऽदिवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूह्यः / न च ममत्वरहितत्वमसिद्ध, तदुपकारायाऽऽज्ञया प्रवृत्तत्वाचारित्रोपकाराय भोजनाऽऽदावियेति गाथाऽर्थः / / 32 // एवं दीक्षाविधिं परिसमाप्य दीक्षितोपदेशं प्रत्याचार्य स्योपदेशमाहगाऊण य तब्भावं, जह होइ इमस्स भाववुड्डि त्ति। दाणादुवदेसाओ, अणेण तह एत्थ जइयव्वं / / 33 // ज्ञात्वा च विज्ञाय पुनः, तद्भावं दीक्षितपरिणाममाकाराऽऽदिभिः / यदाह" आकाररिद्भितेर्गत्या, चेष्टया भाषणेन च। नेत्रवक्त्रविकारैश्च, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः / / 1 / / " यथा येन प्रकारेण भवति जायते। (इमरस त्ति) अस्य दीक्षितस्य, धर्मवृद्धिीक्षार्थ समृद्धिः / इति-शब्दः समाप्तौ / तस्य च"जइयव्वं ' इत्यत्र गाथान्ते प्रयोगः / दानाऽऽदीनां वितरणप्रभृतीनाम् / आदिशब्दाद् गुरुसेवातपःप्रभृतीनां चोपदेशः / प्रवर्तनमादिर्यस्य कुसंसर्गनिषेधाऽऽदेः स तथा तत्र दानाऽऽद्युपदेशाऽऽदौ, अनेन दीक्षाऽऽचार्येणः तथा तेन प्रकारेण, अत्र दीक्षायां दत्तायां सत्याम् , यतितव्यं यत्नो विधेयः। तत्र दानोपदेशो, गुरुसेवोपदेशश्च यथा " न्यायात्तं स्वल्पमपि हि, भृत्यानुपरोधतो महादानम्। दीनतपस्व्यादौ गु-र्वनुज्ञया दानमन्यत्तु // 1 // एवं गुरुसेवाऽऽदिच, काले सद्योगविघ्नवर्जनया। इत्यादिकृत्यकरणं, लोकोत्तरतष्वसंप्राप्त्यै // 2 // " इति गाथार्थः // 33 // Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 756 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवजा पवज्जा इदं च मिथ्यात्वप्रतिक्रमणाऽऽद्यात्मनिवेदनाऽऽद वा दीक्षाविधानं यादृशौ शिष्याऽऽचार्यो कुरुतस्तादृशावथ दर्शयितुमाह - णाणाइगुणजुओ खलु, णिरभिस्संगो पदत्थरसिगो जो। इय जयइन उण अण्णो, गुरू वि एयारिसो चेव / / 34 / / ज्ञानाऽऽदिगुणयुतः खलु सम्यग्ज्ञानश्रद्धानगुरुभक्तिसवप्रभृतिगुणसंपन्न एवेति, यतत इति सम्बन्धः / खलुरवधारणे / निरभिष्वङ्गो मिथ्यादृष्टिव्यवहारेषु बाह्यद्रव्ये च निःस्पृहः / पदार्थरसिक आगमोतदेवतष्वगुरुतत्त्वाऽऽगमतत्त्वजीवाऽऽदिभावप्रीतियुक्तः / चशब्दः समुचये / यो दीक्षितजीवः, स इति गम्यते। इत्यनेन प्रकारेणाऽनन्तरोक्तमिथ्यात्वप्रतिक्रमणसम्यक्त्वप्रतिपत्त्यात्मनिवेदनाऽऽदिलक्षणेन / यतते यत्नं करोति, न पुनरन्यो ज्ञानाऽऽदिगुणयुतादपरः, एवंविधयत्नस्य ज्ञानाऽऽदिगुणयोगसाध्यत्वात्। तथा गुरुरपि न केवलं शिष्य एवंविध एव एवं यलते धर्माऽऽचार्योऽप्येतादृश एव ज्ञानश्रद्धानचारित्रशिक्षाऽनुग्रहबुद्धिसत्त्वाप्रमादाऽऽदिगुणयुतो निःसङ्गः पदार्थरसिकश्चेत्यर्थः न पुनरन्यो ज्ञानाऽदिशून्यस्य प्रागुक्तविधावशक्तत्वात् , ससङ्गस्य दीक्षितेनाऽऽत्मनिवेदने कृतेऽभिष्यङ्गसंभवेन तद्भावशुद्ध्यर्थमाज्ञया प्रवर्त्तनासम्भवात्, पदार्थरसिकताशून्यस्य च देवतत्त्वाऽऽदिप्रतिपादकत्वाभावादिति / चैवशब्दोऽवधारणार्थः / दर्शितं चावधारणम्। इति गाथाऽर्थः / / 34 // यथाविधौ दीक्षकदीक्षितौ यथावद्दीक्षासाधको ख्यातां तथाविधायुक्तो, (प्रथम प्रव्रजतः उपधिग्रहणम्' उवहि शब्दे 1068 पृष्ठ "णिग्गंथस्स" 15 इत्यादिना सूत्रेण प्रतिपादितम्) अथ यथावद्दीक्षितानां प्रशंसामाह - भण्णाणमेयजोगो, धण्णा चेटुंति एयणीईए। धण्णा बहु मण्णंते, धण्णा जे ण प्पसंति / / 35 / / धन्याना भावधनलब्घृणां तत्साधूनां वा, सत्त्वानामिति गम्यते / एतद्योगो जिनदीक्षया सह सम्बन्धः / तथा तद्योगेऽपि धन्याः पुण्यवन्तः, चेष्टन्ते प्रवर्त्तन्ते, एतन्नीत्या दीक्षाऽवसराभ्युपगतन्यायेन त्रिकालं जिनवन्दनपूजनाऽऽदिना / तथा धन्याः पुण्या बहु मन्यन्ते बहुमानविषयीकुर्वन्ति, दीक्षितान दीक्षां वा स्वयं तां कर्मदोषादप्रतिपन्ना अपीति / तथा धन्याः पुण्या ये जीवाः, न प्रदुःष्यन्तिन प्रद्विष्टा भवन्ति, दीक्षायामिति गम्यते / क्षुद्रसत्त्वा हि न केवलं तां न प्रतिपद्यन्ते, मोहान्धतया तस्यामेव द्वेषिणो भवन्तीति / वक्ष्यति च- '' विहिअपओसो जेसि, आसन्ना ते वि सुद्धपत्त त्ति / खुद्दमिगाणं पुण सुद्धदेसणा सिंहनायसमा // 1 // '' इति गाथाऽर्थः / / 35 / / अथ दीक्षितानन्तरं दीक्षितेन यद्विधेयं तदुपदिशन्नाह - दाणामह जहासत्ती, सद्धासंवेगकमजुयं णियमा। विहवाणुसारओ तह, जणोवयारो य उचिओ त्ति / / 36 // दान प्रासुकैषणीयवस्त्रपात्रान्नपानाऽऽदीना सजाऽऽदिभ्यो वितरणम्।। यतः सर्वविरतिदीक्षामधिकृत्योक्तम्- " ऽणतयधयगुलगोरसफासुगपडिलाहणं समणसंघे। असइ गणिवायगाणं, तदसइ सव्वस्स गच्छस्स ||1|| " (अनन्तकं वस्त्र) अपेति दीक्षाग्रहणानन्तरम्। यथाशक्ति शक्तर नतिक्रमेण, चित्तवित्तानुरूपमित्यर्थः / दातव्यमिति शेषः / किम्भूतं तदित्याह-श्रद्धा स्वकीयोऽभिलाषः, पराननुवृत्तिरित्यर्थः / संवेगो मोक्षाभिलाषः, क्रमो देयद्रव्यपरिपाटिलॊकरूढा यथा-ज्येष्ठता वा, एभिर्युत संयुक्तं यत्तथा। नियमादवश्यंभावेन। तथा विभवानुसारतो विभवापेक्षया / तथाशब्दो विध्यन्तरप्रतिपादनपरवाक्योपक्षेपार्थ उत्तरार्धस्याऽऽदौ द्रष्टव्यः। अथवा-तथेति तेन प्रकारेण लोकरूढेन, जनोपचारः स्वजनाऽऽदिलोकपूजा। चशब्दः समुच्चये। उचितः स्वपरयोग्यताऽनुरूपो, विधेय इतिगम्यम्। इतिशब्दः समाप्तौ। तेनैतावदेव दीक्षाऽनन्तरकृत्यमित्यर्थः स्यादिति गाथाऽर्थः // 36 // एतावत्प्रयत्नकृताऽपि दीक्षा सम्यगन्यथा च स्यात्तत्रेयं सम्यग्- दीक्षेति कथमवसेयम् ? उच्यते-लिङ्गतोऽतस्तान्येवाऽऽह अहिगयगुणसाहम्मिय पीईबोहगुरुभत्तिवुड्डी य। लिंगं अव्वभिचारी, पइदियई सम्मदिक्खाए / / 37 / / अधिकृता दीक्षाप्रतिपत्त्याऽङ्गीकृताः प्रस्तुता वा अधिगता वा प्राप्तास्ते च ते गुणाश्च सम्यक्त्वतत्सहभवप्रशमसंवेगनिर्वेदाऽऽस्तिक्यानुकम्पाशुश्रूषाधर्मरागदेवाऽऽदिवैयावृत्त्यकरणाऽऽदयोऽधिकृतगुणाः, ते च साधर्मिकप्रीतिश्च समानधार्मिकानुरागः, बोधश्च तत्त्वावगमो, गुरुभक्तिश्च धर्माऽऽचार्याऽनुराग इति द्वन्द्वः / अतस्तासां वृद्धिदीक्षाऽवसरादारभ्य वर्धनमिति समासः / चशब्दः पुनरर्थः। तद्भावना चैवम्-सम्यग्दीक्षाया दानाऽऽदिकं तावदनन्तरकृत्यमधिकृतगुणसाधर्मिकप्रीतिबोधगुरुभक्तिवृद्धिः पुनर्लिङ्ग गम-कं चिह्नमव्यभिचार्यकान्तिकम्, प्रतिदिवसमहर्निशम, एतचाधिकृतगुणाऽऽदिवृद्धेर्विशेषणम् / कस्या लिङ्गमियमित्याह-सम्यग्दीक्षाया अमिथ्यादीक्षणस्य, एतद्विपर्ययस्तु सामर्थ्यादसयंग्दीक्षायाः। इति द्वारगाथाऽर्थः / / 37 / / अथ सम्यग्दीक्षाया यथाधिकृतगुणबृद्धिर्लिङ्गं भवति, तथा दर्शयन्नाहपरिसुद्धभावओ तह, कम्मखओवसमजोगओ होइ। अहिगयगुणवुड्डी खलु, कारणओ कज्जभावेण / / 38 // . परिशुद्धभावतोऽतिशुद्धाध्यवसायात तथेति तथाप्रकाराद्दीक्षाप्रतिपत्तिरूपादित्यर्थः / वक्ष्यमाणकारणापेक्षया वा समुच्चयार्थस्तथाशब्दः / कर्मणोऽधिकृतगुणाऽऽवरणस्य क्षयोपशमो दीक्षाप्रतिपत्तिरूपपरिशुद्धभावजन्यो विगमविशेषस्तेन यो योगः सम्बन्धः स तथा ततः कर्मक्षयोपशमयोगतः। किमित्याह-भवति जायते। काऽसौ ? अधिकृतगुणवृद्धिः सम्यक्त्वाऽऽदिगुणवर्धनम् / खलुक्यिालङ्कारेऽवधारणे वा। अवधारणार्थत्ये चास्य भवत्येवेत्येवं प्रयोगो दृश्यः / केन कारणेनैतदेवमित्याहकारणतो हेतोः सकाशात् कार्यभावेन फलसद्भावात्। तत्र दीक्षारूपविशुद्धभावः कारणकारण, कर्मक्षयोपशमस्तु कारणम्। तथा शब्दद्वितीयव्याख्यानपक्षे तुं परिशुद्धभावः, कर्मक्षयोपशमश्वेति कारणद्वयम्, अधिकृतगुणवृद्धिश्च कार्यम्। अतः परिशुद्धभावरूपसम्यगदीक्षायामधिकृतगुणवृद्धिः कार्यत्वाद् लिङ्गं भवति। इति गाथाऽर्थः / / 38 / / अथ साधर्मिकप्रीतिवृद्धिर्यथा सम्यग्दीक्षाया लिङ्ग भवति तथा दर्शयन्नाह - धम्मम्मि य बहुमाणा, पहाणभावेण तदणुरागाओ। Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 757 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवजा साहम्मियपितिए ऊ, हंदिवुड्ढी घुवा होइ।। 39 / / धर्मे दीक्षारूपे दीक्षितजनानुष्ठयश्रुतचारित्ररूपे च, चशब्दः समुच्चयार्थो भिन्नक्रमक्ष / बहुमानात्पक्षपातात , प्रधानभावेन प्राधान्याच धर्मप्रधानत्वात् साधर्मिकाणामिति हृदयम् / तदनुरागात् साधार्मिकस्नेहात्। इह यद्यपि साधर्मिकशब्दः परपदे समस्तश्च वर्तते. तथापि तच्छब्देन स एवं संस्पर्शनीयः, वक्त्रा तथैव विवक्षितत्वात, ववत्राधीनत्वाच्छब्दप्रवृत्तेः, दृश्यते चैवंविधः प्रयोगस्तत्र तत्रेति। किं स्यादित्याह-साधर्मिकप्रीतः समानधर्मजनविषयप्रेमजन्यवात्सल्यस्य। कार्ये कारणोपचारात्। तुशब्दः पुनरर्थः / तदा-वना चैवम्-परिशुद्धभावतोऽधिकृतगुणानां वृद्धिर्भवति, साधर्मिकप्रीतिः पुनर्धर्मबहुमानतः साधर्मिकानुरागादिति। अथवा-धर्मे बहुमानात्प्रीतिमात्रात् प्रधानभावेन धर्मस्योतमत्वबुद्ध्या तदनुरागाच धर्मभक्तेश्चेत्यर्थः / धर्मविषययोः प्रीतिभक्त्योश्चायं विशेषो यथा" यत्रोदराऽस्ति परमः, प्रीतिश्च हितोदया भवति कर्तुः / शेषत्यागेन करोति यच तत्प्रीत्यनुष्ठानम् // 1 // गौरवविशेषयोगाद-बुद्धिमतो यद्विशुद्धतरयोगम्। क्रिययेतरतुल्यमपि, ज्ञेयं तद्भक्त्यनुष्ठानम् // 2 // अत्यन्तवल्लभा खलु, पत्नी तद्वद्धिता च जननीति। तुल्यमपि कृत्यमनयो-ज्ञति स्यात्प्रीतिभक्तिगतम् // 3 ॥''इति। साधर्मिकपीतेस्तु साधर्मिकानुरागरय। हन्दीत्युपप्रदर्शने, वृद्धिर्वर्धनम् ध्रुवा निश्चिता, भवति जायते / इति गाथाऽर्थः / / 36 / / अथ बोधवृद्धेर्लिङ्गतादर्शनायाऽऽह - विहियाणुट्ठाणाओ, पाएणं सव्वकम्मखउवसमो। गाणावरणावगमा, णियमेणं बोहवुड्डित्ति४०॥ विहितानुष्ठानाद् दीक्षादीक्षितसमाचाररूपसद्वृत्तात् , प्रायेण बाहुल्येन, कस्यापि जीवस्य भावविशेषादेव क्षयोपशमो भवतीति प्रायेणेत्युक्तम्। सर्वकर्मक्षयोपशमो निखिलज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिघातिकर्मणा विगमविशेषो, भवतीति गम्यम्। घातिकर्मणामिति व्याख्यानम्- ''मोहस्सेवोवसमो, खाओवसमो चउण्ह घाईणं / उदयक्खयपरिणामा, अट्टण्ह वि होंति कम्माणं / / 1 / / '' इति वचनात् / ततश्च ज्ञानाऽऽवरणापगमात् घातिकर्मान्तर्गतस्य ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मणः क्षयोपशमाऽऽदेः सकाशानियमेन नियोगेन, बोधवृद्धिर्ज्ञानवर्धनं भवति / इतिशब्दो बोधवृद्धिवक्तव्यतासमाप्तिसंसूचनार्थः / इति गाथाऽर्थः / / 40 / / अथ गुरुभक्तिवृद्धेर्लिङ्गतादर्शनायाऽऽह - कल्लाणसंपयाए, इमिए हेऊ जओ गुरू परमो। इय बोहभावओ चिय, जायइ गुरुभत्तिवुड्डी वि।। 41 // कल्याणानामैहिकाऽऽमुष्मिकश्रेयसां संपत्सपत्तिः कल्याणसंपत्तदबन्ध्यहेतुत्वाद्दीक्षादीक्षितसमाचारश्च कल्याण संपदुच्यतेऽतस्तस्याः / (इमिए त्ति) अस्या अनन्तरोक्तायाः, हेतुः कारणम्, यतो यस्मात् , गुरुर्धर्माऽऽचार्यः, परमः प्रधानो वर्तते / ततः कारणान्महाभक्तिविषयोऽयमिति शेषः / इत्यनेन प्रकारेण कल्याणहेतुत्वेन भक्तिविषयो गुरुरित्येवलक्षणेन यो बोधो ज्ञानंतस्य यो भावः सत्ता स तथा तस्मादिति बोधभावादेव नान्यथा / 'चिय' शब्दोऽवधारणार्थः / जायते भवति गुरुभक्तिवृद्धिरपि धर्माचार्यबहुमानवर्धनमपि, न केवलं स्वहेतोर्बोधवृद्धिरिति गाथाऽर्थः / / 41 / / अथानन्तरोक्तदीक्षागुणानामनन्तरफलं दर्शयन्नाह - इय कल्लाणी एसो, कमेण दिक्खागुणे महासत्तो। सम्म समायरंतो, पावइ तह परमदिक्खं पि।। 42 / / इति एक्तन्यायेन सम्यग्दीक्षाकृतगुणवृझ्यादितल्लिङ्गप्राप्तिलक्षणेन / कल्याणी कल्याणवान् लोकद्वयभाविकल्याणहेतुभूतदीक्षाऽवाप्तेः / भवतीति गम्यते / एषोऽनन्तरोक्तरूपो दीक्षितजीवः / तथा क्रमेण परिपाट्या शुद्धशुद्धतरशुद्धतमयेत्यर्थः / दीक्षागुणान् जिनदीक्षाधर्मान् जिनसाध्वागमभक्तिप्रभावाऽऽदीन् ; समाचरन्निति योगः / महासत्त्वो महानुभावः / सम्यग्भावसारं, समाचरन्ना सेवमानः, प्राप्नोति लभते। तथेति फलान्तरसमुचयार्थः / परमदीक्षामपि सर्वविरतिदीक्षामपि न केवलं कल्याण्वेव भवति इत्यपिशब्दार्थः / अथवा-कल्याणी सन्नेष प्राप्नोति तथा परमदीक्षामपि यथेतरदीक्षां प्राप्त इति हृदयम्। शेषं तथैव / इति गाथाऽर्थः / / 42 // अथ जिनदीक्षाया एव परम्परफलोपदर्शनायाऽऽह - गरहियमिच्छायारो, भावेणं जीवमुत्तिमणुहविउं। णीसेसकम्ममुक्को, उवेइ तह परममुत्तिं पि / / 43 / / गर्हिता निन्दिता मिथ्याऽऽचारा मोक्षमार्गविपरीतसमाचारा मिथ्यात्वाविरतिकषायदुष्टयोगलक्षणा अतीतकालाऽऽसेविता येन स तथा परमदीक्षाऽवाप्त्या। उपलक्षणत्याचास्य वर्तमानानां मिथ्याऽऽचाराणां संवरणम् , अनागतानां च प्रत्याख्यानमिह द्रष्टव्यम् / अन्ये तु मिथ्याऽऽचारलक्षण वदन्ति- " बाह्येन्द्रियाणि संयम्य, य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान् विमूढाऽऽत्मा मिथ्याऽऽचारः स उच्यते / / 1 / / " इति। कथं गर्हितमिथ्याऽऽचार इत्याह-भावेन परमार्थतो न द्रव्यतएव, उपैति परममुक्तिमपीति योगः / अथवा-भावत इत्येतत्पदमनुभूयेत्यनेन सम्बन्धनीयम्। जीवतः प्राणान् धारयतो मुक्तिर्मोक्षो निःसङ्गताप्रकर्षण जीवन्मुक्तिस्ताम् . अनुभूय संवेद्यः अनुभवन्ति च जीवन्त एव परमदीक्षावन्तो मुक्तिम्। यदाह-" निर्जीतमदमदनाना, वाकायमनोविकाररहितानाम् / विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् // 1 // " निःशेषकर्ममुक्तः क्षीणसकलकर्मा, उपैत्युपगच्छति, तथा तेन प्रकारेण जिनदीक्षाजनितगुणप्रकर्षपर्यन्तवृत्तिलक्षणेन, परममुक्तिमपि सकलकौशग्रहणमपि, न केवलं परमदीक्षामपि प्राप्नोतीत्यपिशब्दार्थः। इति गाथाऽर्थः // 43 // अथ प्रकरणोपसंहारायाऽऽह - दिक्खाविहाणमेयं, भाविजंतं तु तंतणीतीए। सइअपुणबंधगाणं, कुग्गहविरहं लहुं कुणइ / / 44 / / दीक्षाविधानं जिनदीक्षाविधिः, एतदनन्तरोक्तम् , (भाविजतं तु त्ति ) भाव्यमानमपि पर्यालोच्यमानमपि, आस्तामासेव्यमानम्, सकृद्वन्धकापुनर्बन्धकाभ्यामिति गम्यम्। अथ भाव्यमानमेव नाभाव्यमानमपि, तुशब्दोऽपिशब्दार्थः, एवकारार्थो वा / तन्त्रनीत्याऽऽगमन्यायेन / कयो Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 758 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा रित्याह-सकृदेकदा न पुनरपि बन्धो मोहनीयकर्मोत्कृष्टस्थितिबन्धनं ययोस्ती सकृदपुनर्बन्धको तयोः, सकृद्वन्धकस्यापुनर्बन्धकस्य चेत्यर्थः / तत्र यो यथाप्रवृत्तकरणेन ग्रन्थिप्रदेशमागतोऽभिन्नग्रन्थिः सकृदेवोत्कृष्टा सागरोपमकोटीकोटीसप्ततिलक्षणां स्थिति भन्त्स्यत्यसौ सकृद्भन्धक उच्यते / यस्तु ता तथैव क्षपयन् ग्रन्थिप्रदेशमागतः पुनर्नता भन्त्स्यति भेत्स्यति च ग्रन्थि सोऽपुनर्बन्धक उच्यते। एतयोश्चाभिन्नग्रन्थित्वेन कुग्रहः सम्भवति, न पुनरविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनां, मार्गाभिमुखमार्गपतितयोस्तु कुग्रहसंभवेऽपि तत्त्याग एव तद्भावनामात्रसाध्य इत्यत उक्त सकृद्वन्धकापुनर्बन्धकयोरिति। एतयोश्च भावसम्यक्त्वाभावादीक्षाया द्रव्यसम्यक्त्वमेवमारोप्यत इति / कुग्रहविरहमसदभिनिवेशविशेषवियोग, लघु शीघ्रं, करोति विघत्ते। इह विरहशब्देन हरिभद्राऽऽचार्यकृतत्वं प्रकरणस्यास्याऽऽवेदितं विरहाङ्कत्वात्तस्यत्येवं सर्वत्र / इति गाथाऽर्थः / / 44 / / पञ्चा०२ विव०। (23) इह तु परं तत्फलमभिधातुमाह - स एवममिसिद्धे परमवंभे मंगलालए जम्मजरामरणरहिए पहीणासुहे अणुबंधसत्तिवजिए संपत्तनिअसरूवे अकिरिए सहावसंठिए अणंतनाणे अणंतदंसणे।। स प्रक्रान्तः प्रव्रज्याकारी, एवमुक्तेन सुखपरम्पराप्रकारेणाभिसिद्धः सन / किम्भत इत्याह-परमब्रह्म, सदाशिवत्वेन / मङ्गलाऽऽलयः, गुणोत्कर्षयोगेन / जन्मजरामरणरहितो निमित्ताभावेन / यथोक्तम् - "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः / कर्मबीज तथा दग्घे, न रोहति भवाडुरः।। 1 / / " इति। प्रक्षीणाशुभ एकान्तेन अनुबन्धशक्तिवर्जितः अशुभमङ्गीकृत्याऽत एव संप्राप्तनिजस्वरूपः केवलो जीवः, अक्रियो गमनाऽऽदिशून्यः, स्वभावसंस्थितः सांसद्धिकधर्मवान् / अत एवाऽऽह-अनन्तज्ञानोऽनन्तदर्शनः, ज्ञेयानन्तत्वात्। स्वभावश्चास्यायमेव / यथोक्तम्-'" स्थितः शीता-शुवजीवः, प्रकृत्या भावशुद्धया। चन्द्रिकावच विज्ञानं, तदावरणमभवत्।।१।।" अथ कीदृशोऽसौ वर्णरूपाभ्याम् ?, इत्याशङ्काऽपोहायाऽऽह - से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे, अरूवी सत्ता अणित्थंथसंठाणा अणंतविरिआ कयकिच्चा सव्वाबाहविवजिआ सव्वहा निरविक्खा थिमिआपसंता। असंजोगिए एसाणंदे अओ चेव परे मए / अविक्खा अणाणंदे, संजोगो विओगकारणं, अफलं फलमेआओ विणिवायपरं खु तं, बहुमयं मोहाओ अबुहाणं, जमित्तो विवज्जओ, तओ अणत्था अपज्जवसिआ, एस भावरिऊ परे। अओ वुत्ते उ भगवया / नागासेण जोगो ए-अस्स। से सरूवसंठिए। नागासमण्णत्थ। न सत्ता सदंतरमुवेइ / अचिंतमेअं के वलिगम्मं तत्तं निच्छयमयमेअं / विजागवं च जोगो त्ति | न एस जोगो भिण्णं लक्खणमेअस्स / न इत्याविक्खा सहावो खु एसो अणंतसुहसहावकप्पो / उवगा इत्थ न विजइ / तब्भावेऽणुभवो परं तस्सेव / आणा एसा जिणाणं सवण्णूणं | अवितहा एगंतओ।न वितहत्ते निमित्तं / नचानिमित्तं कर्ज ति। निदंसणमित्तं तु नवरं। स सिद्धः न शब्दो, न रूप, नगन्धो, न रसो, न स्पर्शः, पुद्गलधर्मत्वादमीषाम् / अभावस्तीत्येतदपि नेत्याह-अरूपिणी सत्ता ज्ञानवत् / अनित्थंस्थसंस्थापना, इदंप्रकारमापन्नमित्थम् / इत्थं स्थितमित्थंस्थं, न इत्थंस्थम् अनित्थस्थम् , संस्थानं यस्य। अरूपिण्याः सत्तायाः सा यथोक्ता। अनन्तवीर्या इयं सत्ता प्रकृत्यैव। तथा कृतकृत्यातन्निप्पादनेन निवृत्ततच्छक्तिः, सर्वाऽऽबाधाविवर्जिता द्रव्यतो भावतश्च / सर्वथा निरपेक्षा, तच्छक्त्यपगमेन। अत एव स्तिमिता प्रशान्ता सुखप्रकर्षादनुकूला निस्तरङ्गमहोदधिकल्पा। एतस्याएव परमसुखत्वमभिधातुमाहअसायोगिक एष आनन्दः, सुखविशेषः। अत एव निरपेक्षत्वात् परो मतः प्रधान इष्टः / इहैव व्यतिरेकमाह-अपेक्षाऽनानन्दः, औत्सुक्यदुःखत्वात्। अपेक्ष्यमाणाऽऽप्त्या तन्निवृत्तौ दोषमाह-संयोगो वियोगकारणं, तदवसानतया स्वभावत्वात्। अफलं फलमेतस्मात् संयोगात् / किमिति ? अत आह-विनिपातपरमेव तत्सायोगिकफलम् / कथमिदं बहुमतम् ? इत्याह-बहुमतं मोहादबुधानां पृथग्जनानाम् / तत्रापि निबन्धनमाहयदतो विपर्ययः, मोहादत एवाफले फलबुद्धिः / ततो विपर्यथादना असत्प्रवृत्त्या अपर्यवसिताः सानुबन्धतया। एवमेष भावरिपुः परो मोहः, अत एवोक्तो भगवता तीर्थकरेण। यथोक्तम्-" अण्णाणतो रिपू अण्णो, पाणिणं णेव विजइ। एत्तोऽसक्किरिया तीए, अणत्था विस्सतो सुहा।। 1 / / "यदि संयोगो दुष्टः कथं सिद्धरयाऽऽकाशेन न स दुष्टः ? इत्याशङ्ख्याऽऽहनाऽऽकाशेन सह योग एतस्य सिद्धस्य। किमिति।, अत आह-स स्वरूपसंस्थितः सिद्धः / कथमाधारमन्तरेण स्थितिः ? इत्याशयाऽऽहनाकाशमन्यत्राऽऽधारे। अत्रैव युक्तिर्न सत्ता सदन्तरमुपैति, नवाऽन्यथाऽन्यदन्यत्र / अचिन्त्यमेतत्प्रस्तुतं केवलिगभ्यं तत्त्वम् / तथा निश्चयमतमेतद्यवहारमतं त्वन्यथा सत्यपि तस्मिन्निदं तत्संयोगशक्तिक्ष-यात् सूपपन्नमेव। अभ्युच्चयमाह-वियोगवाँश्च योग इति कृत्वा नैष योगः सिद्धाssकाशयोरिति भिन्नं लक्षणमेतस्याधिकृतयोगस्य,न चात्रापेक्षासिद्धस्य। कथं लोकान्ताऽऽकाशगमनम् ? इत्याह-स्वभाव एवैष तस्य / अनन्तसुखस्वभावकल्पः कर्मक्षयव्यङ्ग्यः। कीदृशमस्यानन्तं सुखम् ? इत्याहउपमाऽत्र न विद्यते, सिद्धसुखे / यथोक्तम्- "स्वयं वेद्यं हि तद्ब्रह्म, कुमारी स्त्रीसुखं यथा। अ-योगी न विजानाति, सम्यक् जात्यन्धवद्धटम् ॥१॥अत एवा-5ऽह-तद्भावे सिद्धसुखभावे अनुभवः परं तस्यैव / एतदपि कथं ज्ञायते ? इत्याह-आज्ञा एषा जिनानां, वचनमित्यर्थः / किंविशिष्टानाम् ? इत्याह-सर्वज्ञानाम् / अत एव अवितथा, एकान्ततः सत्येत्यर्थः / कुतः? इत्याह-न वितथतत्वे निमित्त रागाऽऽद्यभावात्। उक्तं च-" रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। यस्त तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति // 1 // " न चानिमित्त कार्यमित्यपि / तथा जिनाऽऽज्ञा / एवं स्वसंवेद्यं सिद्धसुखमित्याप्तवादः। निदर्शनमात्र तु नवरं सिद्धसुखस्येदं वक्ष्यमाणलक्षणम्। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 756 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा सव्वसत्तुक्खए सव्ववाहिविगमे सव्विच्छासंजोगेणं सच्चिच्छासंपत्तीए जारिसमेअं, इत्तोऽणंतगुणं तं तु भावसत्तुक्खयादितो। रागादओ भावसत्तू , कम्मोदयावाहिणो, परमलद्धीओ उ अट्ठा, अणिच्छेच्छा इच्छा। एवं सुहुममेअंन तत्तओ इयरेण गम्मइ / जह सुहं व अजइणा / आरुग्गसोहं व रोगिण त्ति विभासा। अचिंतमेअं सरूवेणं / साइअपञ्जवसिअं एगसिद्धाविक्खाए। पवाहओ अणाई। ते विभगवंतो एवं / तहा भव्वत्ताइभावओ। विचित्तमेअंतहाफलभेएण। नाविचित्ते सहकारिभेओ तदवि-क्खो तओ त्ति अणेगंतवाओ तत्तवाओ / स खलु एवं इहरहेगतो मिच्छत्तमेसो न इत्तो ववत्था / अणारिहमेअं। संसारिणो उ सिद्धत्तं / नाबद्धस्स मुत्ती सहत्थरहिआ / अणाइमं बंधो पवाहेणं अईअकालतुल्लो / अवद्धबंधणे वा मुत्ती पुणो बंघपसंगओ अविसेसो अबुद्धमुक्काणं / अणाइजोगे विविओगो कंचणोवलनाएणं। न दिदिक्खा अकरणस्स।नयादिट्ठम्मि एसा। न सहजाए निवित्ती।न निवित्तीए आयट्ठाणं। सर्वशत्रुक्षये सति तथा सर्वव्याधिविगमे, एवं सर्वार्थसंयोगेन सता तथा सर्वेच्छासप्राप्त्या यादृशमेतत्सुखं भवति, अतोऽनन्तगुणमेव सिद्धसुखम्। कुतः ?, इत्याह-भावशत्रुक्षयाऽऽदितः / आदिशब्दाद्भावव्याधिविगमाऽऽदयो गृह्यन्ते। तथा चाऽऽह-रागाऽऽदयो भावशत्रवः रागद्वेषमोहाः, जीवापकारित्वात्। कर्मोदया व्याधयः, तथा जीवपीडनात्। परमलब्धरास्त्वर्थाः, परार्थहेतुत्वेन। अनिच्छेच्छा इच्छा सर्वथा तन्निवृत्या। एवं सूक्ष्ममेतत्सुखं न तत्त्वतः परमार्थेन इतरेण गम्यते / असिद्धन निदर्शनमाह-यतिसुखमिवाऽयतिना विशिष्टक्षायोपशमिकभाववेद्यत्वादस्य, एवमारोग्यसुखमिव रोगिणेति। उक्तंच-" रागाईणमभावे, जं होइ सुह तयं जिणो मुणइ / ण हि सण्णिवायगहिओ, जाणइ तदभावज सोक्खं // 1 // " इति विभावा कर्त्तव्या। सर्वथाचिन्त्यमेतत्स्वरूपेणा सिद्धसुखं न तत्त्वतो मतेरविषयत्वात्। साद्यपर्यवसितं प्रमाणत एकसिद्धापेक्षया न तु तत्प्रवाहमधिकृत्य, प्रवाहतस्त्वनादितदोघमाश्रित्य / तथा चाऽऽ३-तेऽपि भगवन्तः सिद्धा एवं एकसिद्धापेक्षया साद्यपर्यवसिताः प्रवाहापेक्षया अनाद्यपर्यवसिता इति / समाने भव्यत्वाऽऽदौ कथमेतदेवम् ?, इत्याह-तथाभव्यत्वाऽऽदिभावात् तथाफलपरिपाकीह तथाभव्यत्वम्। अतएवाऽऽह-विचित्रमेतत्तथाभव्यत्वाऽऽदि कुतः?, इत्याहतथा फलभेदेन कालाऽऽदिभेदभाविफलभेदेनेत्यर्थः / समाने भव्यत्वे सहकारिभेदात्फलभेद इत्याशङ्काऽपोहायाऽऽह-नाविचित्रे तथाभव्यत्वाऽऽदौ सहकारिभेदः / किमिति ?, इत्याह-तदपेक्षस्तक इति तदतत्स्वभावत्ये तदुपनिपाताभादिति / अनेकान्तवादस्तत्त्ववादः सर्वकारणसामर्थ्याऽऽपादनात् स खल्वनेकान्तवाद एवम्। तथाभव्यत्वाऽऽदिभावे इतरथैकान्तः सर्वथा भव्यत्वाऽऽदेस्तुल्यतायाम्। ततः किम् ?, इत्याह मिथ्यात्वमेष एकान्तः / कुतः ?, इत्याह-नातो व्यवस्था एकान्तात् भव्यत्वाभेदे सहकारिभदेस्यायोगात् तत्कर्मताभावात् / कर्मणोऽपि कारकत्वात् अतत्स्वभावस्य च कारकत्वासम्भवादिति भावनीयम् / अत एवाऽऽह-अनार्हतमेतदेकान्ताऽऽश्रयणम् / प्रस्तुतप्रसाधकमेव न्यायान्तर-माह-संसारिण एव सिद्धत्वं, नान्यस्य / कोऽयं नियमः?, इत्याह-नाबद्धस्य मुक्तिः तात्त्विकी, इत्याह-शब्दार्थरहिताबन्धाभावेन। अयं चानादिमान् बन्धःप्रवाहेण संतत्या। कथं युक्तिसङ्गतोऽभूतिभावेन इत्याह-अतीतकालतुल्यः स हि प्रवाहणानादिमाननुभूतवर्तमानभावश्च / यथोक्तम्-" भवति स नामातीतः, प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वम्। एष्यंश्च नाम स भवति, यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम्॥१॥" किं वाऽबद्धबन्धने प्रथम अमुक्तिर्मुक्क्यभावः / कुतः?, इत्याह-पुनर्बन्धप्रसङ्गात् अबद्धत्येन हेतुना / तथा चाऽऽह-अविशेषो बद्धमुक्तयोरिति / अनादिमति बन्धे मोक्षाभावः। तत्स्वाभाविकत्वेनेत्याशङ्कानिराशायाऽऽह-अनादियोगेऽपि सति वियोगोऽविरुद्ध एव काञ्चनोपलज्ञातेन लोके तथादर्शनात, योगो बन्ध इत्यनान्तरम्। आदावबद्धस्य दिदृक्षा, बद्धमुक्तस्य तु न सेति दोषाभावादादिमानेव बन्धोऽस्त्वित्याशङ्काव्यपोहायाऽऽह-न दिदृक्षाऽकरणस्येन्द्रियरहितस्याऽबद्धस्य चैतानि। तथा नचादृष्ट एषा दिदृक्षा, द्रष्टुमिच्छा दिदृक्षेति कृत्वा सहजैवैषेत्यारेकानिराकरणायाऽऽह-न सहजाया निवृत्तिर्दिदृक्षायाश्चैतन्यवत्। अस्तु वेयमित्यभ्युपेत्य दोषमाहन निवृत्तौ दिदृक्षाया आत्मनः स्थानं, तदव्यतिरेकात्। तथा चाऽऽह - न यऽण्णहा तस्सेसा, न भव्यत्ततुल्ला, नाएणं, न केवबलजीवरूवमेअं, न भाविजोगाविक्खाए तुल्लत्तं, तया केवलत्तेणं सया विसेसओ, तहा सहावकप्पणमप्पमाणमेव / एसेव दोसो परिकप्पिआए, परिणामभेआ बंधाइभेउ त्ति साहू / सव्वनयविसुद्धिए निरुवचरिओभयभावेणं / न अप्प भूअंकम्मं न परिकप्पिअमेअं। न एवं भदादिभेओ। न भवाभादो उ सिद्धी / / नान्यथा तन्यैषा आत्मनो दिदृक्षायोगात्। तदव्यतिरेकेऽपि भव्यत्वस्यैव तन्निवृत्तौ दोषाभाव इत्याशङ्काऽपोहायाऽऽह-न भव्यत्वतुल्या न्यायेन दिदृक्षा। कुतः?, इत्याह-न केवलजीवरूपमेत-द्रव्यत्वम्। दिदृक्षा तु केवलजीवरूपेत्यर्थः / न भावियोगापेक्षया महदादिभावे तदा केवलत्वेन तुल्यत्व दिदृक्षाया भव्यत्वेन / अत्र युक्तिमाह-तदा केवलत्वेन भावियोगाभावे सदा अविशेषात्तथा सांसिद्धिकत्वेन तदूर्ध्वमपि दिदृक्षाऽऽपतिरिति हृदयम् / एवं स्वभावैवेयं दिदृक्षा या महदादिभावाद्विकारदर्शने केवलावस्थायां निवर्तते, इत्येतदाशङ्कयाऽऽह-तथा स्वभावकल्पनं कैवल्याविशेष प्रक्रमादिदृक्षाया भावाभावस्वभावकल्पनमप्रमाणमेव / आत्मनस्तद्भेदाऽऽपत्तेः प्रकृतेः पुरुषाधिकत्वेन तद्भावापत्त्येति गर्भः / अत एवाऽऽह-एष एव दोषः प्रमाणाभावलक्षणः परिकल्पितायां दिदृक्षायामभ्युपगम्यमानाया तथाहि परिकल्पिता न किञ्चित्, कथं तत्र प्रमाणवृत्तिरिति / तदेवं व्यवस्थिते सति परिणामभेदादा Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 760- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा त्मन इति प्रक्रमः। बन्धाऽऽदिभेदो बन्धमोक्षभेद इत्येतत्साधु प्रमाणोपपन्नम् / न खल्वन्ययोगवियोगी विहाय मुख्यः परिणामभेदः, भावाच मुक्तिरनादिमाँ च भव इति नीत्या। अत एवाऽऽह-सर्वनयविशुद्ध्या / अनन्तरोदितसाधुफलोपदर्शनायाऽऽह-निरुपचरितोभयभावेन प्रक्रमात मुख्यबन्धमोक्षभावेन, एवं द्रव्यास्तिकमतमधिकृत्य कृता निरूपणा / पर्यायास्तिकमतमधिकृत्याऽऽह-नाऽऽत्मभूतं कर्म, न बोधस्वलक्षणमेवेत्यर्थः / तथा न परिकल्पितमसदेवैतत्कर्मवासनाऽऽदिरूपम्। कुतः ? इत्याह-नैवं भवाऽऽदिभेदः / आत्मभूतेपरिकल्पिते वा कर्मणि बोधमात्राविशेषेण क्षणभेदेऽपि मुक्तक्षणभेदवन्न भवापवर्गविशेषः। तथा न भवाभाव एव सिद्धिः, सन्तानोच्छेदरूपा प्रध्यातप्रदीपोपमा। अत्र युक्तिमाह - न तदुच्छेदेणुप्पाओ।न एवं समंजसत्तं / नाऽणाइमंतभवो। न हेउफलभावो / तस्स तहा सहावकप्पणमजुत्तं निराहारन्नयकओ निओगेणं / तस्सेव तहाभावे जुत्तमेअं सुहुममट्ठपयमेअं। विचिंतिअव्वं महापण्णाए त्ति। न तदुच्छेदेऽनुत्पादः, न सन्तानोच्छेदेऽनुत्पादस्तस्यैव किं तर्जुत्पाद एव यथाऽसौ सन्नुच्छिद्यते, एवगसन्नप्पुत्पद्यतामिति को विरोधः ? यद्येवं ततः किम् ? इत्याह-नैवं समज्जसत्वं न्यायोपपन्नत्वम् / कथम् ?, इत्याह-एवं हि नानादिमान भवः संसारः कदाचिदेव सन्तानोत्पत्तेः / तथा न हेतुफलभावः। चरमाऽऽद्यक्षणयोरकारणकार्यत्वात्। पक्षान्तरनिरासायाऽऽह-तस्य तथास्वभावकल्पनमयुक्तम् / कुतः ? इत्याहनिराधारोऽन्वयः कृतो नियोगेन, अयमत्र भावाऽर्थः / स्वो भाव इत्यात्मीया सत्ता स्वभावः / एवं च स निवृत्तिस्वभाव इति स्वभाविकी आत्मीया सत्तेति निराधारत्वम्। यद्वा-अन्वयाभावस्तन्निवृत्तेस्तष्वादिति नियोगग्रहणमवश्यमिदमित्थमन्यथा शब्दार्थायोगादिति ख्यापनार्थम् , एवमाद्यक्षणेऽपि भावनीयम्। अत एवाऽऽह-तस्यैव तथाभावे युक्तमतत्तथास्वभावकल्पनमिति सूक्ष्ममर्थपदमेतद्भावगम्यत्वात, विचिन्तितव्यं महाप्रज्ञया, अन्यथा ज्ञातुमशक्यत्वादिति। आनुपनिकमभिधाय प्रकृतमाह - अपज्जवसिअमेव सिद्धसुक्खं / इत्तो चेवुत्तमं इमं / सव्वहा अणुस्सुगत्तेणंतभावाओ।लोगंतसिद्धिवासिणो एए / नत्थ य एगो तत्थ निअमा अणंता / निअमो अओ चेव अफुसमानगईए गमणं उक्करिसविसेसओ इअं / अव्वुच्छेओ भव्वाण अणंतभावेण / एअमणंताणंतयं समया इत्थ नायं / भव्वत्तं जोगयामित्तमेव केसिं चि पडिमाजुग्गदारुनिदसणेणं / ववहारमयमे। एसो-ऽवि तत्तंग पवित्तिविसोहणेण अणेगंतसिद्धीओ निच्छयंगभा-वेण / परिसुद्धो उ केवलं एसा आणा इह भगवओ समंतभद्दा तिकोडिपरिसुद्धीए अपुणबंधगाइगम्मा। अपर्यवसितमेवमुक्तेन विधिना सिद्धसौख्यम् / अत एव कारणादुत्तम- / मिदम्। एतदेव स्पष्टमभिधातुमाह-सर्वथाऽनुत्सुकत्वे सति अनन्तभावात्कारणात / का निवास एषाम् ? इत्याह-लोकान्तसिद्धिवासिन एते।। चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकान्ते या सिद्धिः प्रशस्तक्षेत्ररूपा तद्वासिन एते सिद्धाः। कथं व्यवस्थिताः? इत्याह-यत्रैकः सिद्धस्तत्र क्षेत्रे नियमान्नियोगेनानन्ताः सिद्धाः / उक्तं च- "जत्थ य एगो सिद्धो,तत्थ अणता भवक्खयविमुक्झा। अण्णोण्णमणावाह, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता।।१।।" कथमिह कर्मक्षये लो कान्तगमनम् ? इत्याह-अकर्मणः सिद्धस्य गतिरितो लोकान्तं पूर्वप्रयोगेण हेतुना तत्स्वभाव्यात् / कथमेतदेवं प्रतिपत्तव्यम् ? इत्याह-अलावुप्रभृतिज्ञाततः, अष्टमृल्लेपलिप्तजलक्षिप्ताधोनिमगतदपगमोर्द्धगमनस्वभावाऽलाबुवत् प्रभृतिग्रहणादेरण्डफलाऽऽदिग्रहः / ऊर्द्धगमनं तत्रैव चासकृगमनागमनं किं न? इत्येतदाशइक्याऽऽह-नियमोऽत एवालाबुप्रभृतिज्ञाततः एकसमयाऽऽदिः, उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्तेन एकसमयेन तदतियुक्तत्याशङ्काऽषोहायाऽऽहअस्पृशगत्या गमनं सिद्धस्य सिद्धिक्षेत्र प्रतिस्पृशद्दतिमदपेक्षया चोत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्तः। कथमियं सम्भवति ? इत्याह-उत्कर्षविशेषत इयं गत्युत्कर्षविशेषदर्शनादेवमस्पृशदतिः सम्भवतीति भावनीयम्। सिद्धस्यापुनरागमनात्कालस्य चानादिस्यात् , षण्मासान्तः प्रायोऽनेकसिद्धेभव्योच्छेदप्रसङ्ग इति विभ्रमनिरासार्थमाह-अव्यवच्छेदो भय्यानामनन्तभावेन, तथा सिद्धिगमनाऽऽदावपि वनस्पत्यादिषु कायस्थितिक्षयदर्शनादनन्तस्याऽपि राशेः क्षयोपपत्तेः पुनः संशय इति तद्व्यवच्छित्यर्थमाह-एतदनन्तानन्तकम् एतद्भव्यानन्तकमनन्तानन्तकं न युक्तानन्तकाऽऽदिसमया अत्र ज्ञातं, तेषां प्रतिक्षणमतिक्रमेऽनुच्छेदोऽनन्तत्वात्। कथं तर्खेतत् ?. उच्यते-"ऋतुर्व्यतीतः परिवर्त्तते पुनः, क्षयं प्रयातः पुनरेति चन्द्रमाः / गतं गतं नैव तु संनिवर्तते, जलं नदीनां च नृणां च जीवितम् / / 1 / / " इति / उच्यत एतद् व्यवहारतस्तूच्यते, अन्यथा तस्यैव परावृत्तौ बाल्याऽऽद्यनिवृत्तिः। तस्य तद्वालयाऽऽद्यापादनस्वभावत्यादिति परिभावनीयम् / अतो न क्षयो भव्यानामिति स्थितम् / एवं च सति भव्यत्वं योग्यतामात्रमेव सिद्धि प्रति के षाञ्चित्प्राणिनां ये न कदाचिदपि सेत्स्यन्ति। तथा चाऽऽगमः- " भव्या वि न सिज्झिस्संति केइ' इत्यादि। भव्यत्वं सिद्धगमनयोग्यत्वम् / फलगम्या च योग्यता। को वा एवमभव्येभ्यो विशेषो भव्यानाम् ? इत्याशङ्काव्यपोहायाऽऽहप्रतिमायोग्यदारुनिदर्शनन / तथाहि-तुल्यायां प्रतिनिष्पत्तौ तथाप्येक दारु प्रतिमायोग्यं ग्रन्थ्यादिशून्यतया न तदन्यद्युक्ततयेत्यादिविद्वदइनाऽऽदिसिद्धमेतत् / न चात्राऽपि तत्र स्वभावत्वाऽऽदिविकल्पचिन्ता कार्या / कुतः? इत्याह-व्यवहारमतमेतत् ,अयं चैव व्यवस्थितः, इति भावितमेव / न चायं संवृत्तिरूप इत्याह-एषोऽपि तत्त्वाङ्गमेषो-ऽपि व्यवहारनयः परमार्थाङ्गम इह प्रक्रमे, तथा योग्यताबुद्धेरपि सन्निबन्धनत्वात् / तत्स्वभावाविशेषे तु दार्वन्तरवदयोग्यदारुण्यपि, तथा बुद्ध्यसिद्धेरित्यादि निर्लोठितमन्यत्र। इत्यनुष्ठानमेवाधिकृत्याऽऽह-एषोऽपि तत्त्वाङ्गम् / यथोक्तम्-" जइ जिणमयं पवजह, ता मा ववहारनिच्छए मुयइ / ववहारणउच्छए, तित्थुच्छेओ जतोऽवस्सं / / 1 / / " अत एषोऽपि व्यवहारनयस्तत्त्वाङ्गम्, प्रवृत्तौ मोक्षाङ्गमित्यर्थः / कुतः ? इत्याह-प्रवृ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 761 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा त्तिविशोधनेन तन्मतेन प्रव्रज्याऽऽदिप्रदानात्परलोकप्रवृत्तिविशोधनेन, इत्थमनेकान्तसिद्धितः सन्नीत्या, तथा निश्चयाङ्गभावेन / एवं प्रवृत्त्याऽपूर्वकरणाऽऽदिप्राप्तेः / परिशुद्धस्तु केवलमाज्ञाऽपेक्षी पुष्टाऽऽलम्बनः / एषाऽऽज्ञह भगवत उभयनयगर्भा / अथवा-सर्वैव पञ्चसूत्रोक्ता / किंविशिष्टा ?, इत्याह-समन्तभद्रा, सर्वतो निर्दोषा / कथम् ?. इत्याहत्रिकोटिपरिशुद्ध्या कपच्छेदतापपरिशुद्ध्या। इयं च भागवती सदाज्ञा सर्वच अपुनर्बन्धकाऽऽदिगम्या। अपुनर्बन्धकाऽऽदयो ये सत्त्वा उत्कृष्टा कर्मस्थिति, तया अपुनर्बन्धकत्वेन ये क्षपयन्ति ते खल्वपुनर्बन्धकाः। आदिशब्दान्मार्गाभिमुखमार्गपतिताऽऽदयः परिगृह्यन्ते। दृढप्रतिज्ञाऽऽलोचकाऽऽदिलिङ्गा एतद्गम्येयं न संसाराभिनन्दिगम्या, तेषां ह्यतो विषयप्रतिभासमात्रं ज्ञानमुदेति न तदद्वेषत्वाऽऽदिवेदकमिति। उक्तं च'न यथाऽवस्थितं शास्त्रं, खल्वडो वेत्ति जातुचित् / ध्यामलादपि बिम्बात्तु, निर्मलः स्यात्स्वहेतुतः / / 1 / / " अपुनर्बन्धकत्वाऽऽदिलिङ्गमाह एअप्पिअत्तं खलु इत्थ लिगं ओचित्तपवित्तिविन्नेअं संवेगसाहगं निअमा। न एसा अन्नेसिं देआ। लिंगविवजयाओ तप्परिण्णा। तयणुग्गहट्टयाए आमकुंभोदगनासनाएणं एसा करुण त्ति वुचई, एगंतपरिसुद्धा अविराहणाफला तिलोगनाहबहुमाणेणं निस्सेअससाहिग त्ति पव्वजाफलसुत्तं। एतत्प्रियत्वं खल्वपत्र लिङ्गम। आज्ञाप्रियत्वमपुनर्बन्धकाऽऽदिलिङ्गम् / प्रियत्वमुपलक्षणं, श्रवणाभ्यासाऽऽदेः / एतदप्यौचित्यप्रवृत्तिविज्ञेय, तदाराधनेन तद्बहुमानात्। औचित्यवाधया तु प्रवृत्तौ न तत्प्रियत्वं मोह एवासामिति / एतत्प्रियत्वमेव विशेष्यते-संवेगसाधकं नियमात् / यरय भागवती सदाज्ञा प्रिया तस्य नियमतः संवेग इति / यत एवमतो नैषा अन्येभ्यो देया / नैषा भागवती सदाज्ञा, अन्येभ्योऽपुनर्बन्धकाऽऽदिव्यतिरिक्तेभ्यः संसाराभिनन्दिभ्यो देया। कथं ते ज्ञायन्ते?. इत्याहलिङ्गविपर्ययात्तत्परिज्ञा। प्रक्रमादपुनर्बन्धकाऽऽदिलिङ्गविपर्ययात् संज्ञा, न द्वेषाऽऽदिलक्षणात्तत्परिज्ञा संसाराऽभिनन्दिपरिज्ञा। उक्तं च- " क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः / अज्ञो भवाभिनन्दी स्यात्, निष्फलाऽऽरम्भसङ्गतः॥ 1 // " किमिति न तेभ्यो देया ?, इत्याहतदनुग्रहार्थ संसाराभिनन्दिसत्त्वानुग्रहार्थम्। उक्तंच-" अप्रशान्तमती शास्त्र-सद्भावप्रतिपादनम् / दोषायाभिनवोदीणे, शमनीयमिव ज्वरे / / १॥"इहैव निदर्शनमाह-आमकुम्भोदकन्यासज्ञातेन / उक्तं च-" आमे घडे, निहत्त, जहा जलं तं घड विणासेइ / इय सिद्धतरहस्स, अप्पाहारं विणासेइ।।१॥" एषा करुणोच्यते, अयोग्येभ्यः सदाज्ञाऽप्रदानरूपा। कि विशिष्टा?.इत्याह एकान्तपरिशुद्धा, तदपायपरिहारेण / अत एवेयमविराधनाफला, सम्यगोलोचनेन। न पुनलानापथ्यप्रदानेन निबन्धनकराणाबत्तदाभासेति / इयं चैव-भूता त्रिलोकनाथबहुमानेन हेतुना निः श्रेयससाधिकेति। किमुक्तं भवति ? नानागमिकस्येयं भवति, किं तु परिणताऽऽगमिकस्य / अस्य च भगवत्येवं बहुमानः / एवं चेय मोक्षसाधिकैव सानुबन्धसुप्रवृत्तिभावेन / पं० सू०५ सूत्र। (24) प्रव्रजितस्यार्यिकाभिर्वन्दनम् - वंदंति अजियाओ, विहिणा सङ्घा य सावियाओ य। आयरियसमीवम्मी, अनुपविसइ तओं असंभंतो / / 15 / / ततस्तं प्रव्रजितं वन्दन्ते आर्यिकाः, पुरुषोत्तमो धर्म इति कृत्वा / कथमित्याह-विधिना प्रवचनोक्तेन, किं ता एव, नेत्याह-श्रावकाः श्राविकाश्च वन्दन्ते आचार्य समीपे चोपविशति / ततस्तदुत्तरकालं, किंविशिष्टः सन्नित्याह-असंभ्रान्तः अनन्यचित्त इति गाथाऽर्थः / प्रव्रजितं प्रति तथोपदेशो यथाऽन्यः प्रव्रजेत्। ततश्च - भवजलहिपोअभूअं, आयरिओ तह कहेइ से धम्म / जह संसारविरत्तो, अन्नो वि पवजए दिक्खं / / 155 / / भवजलधिपोतभूतं संसारसमुद्रबोहित्थकल्पमाचार्यस्तथा कथयति, तस्य प्रव्रजितस्य धर्म यथा संवेगातिशयात्संसारविरक्तः सन्नन्योऽपि तत्पर्षदन्तर्वर्ती सत्त्वः प्रपद्यते दीक्षां प्रव्रज्यामिति गाथाऽर्थः / भूतेसु जंगमत्तं, तेसु वि पंचिंदिअत्तमुक्कोसं। तेसु वि अ माणुसत्तं, माणुस्से आरिओ देसो।। 156 / / भूतेषु प्राणिषु जङ्गमत्वं द्वीन्द्रियाऽऽदित्वं, तेष्वपि जङ्गमेषु पञ्चेन्द्रियत्वमुत्कृष्ट प्रधान, तेष्वपि पञ्चेन्द्रियेषु मानुषत्वमुत्कृष्टमिति वर्तते। मनुजत्वे आर्यो देश उत्कृष्ट इति गाथाऽर्थः / देसे कुलं पहाणं, कुले पहाणे अ जाइमुक्कोसा। तीए रूवसमिद्धी, रूवे अ बलं पहाणयरं / / 157 / / देशे आयें कुलं प्रधानमुप्राऽऽदि कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा मातृसमुत्था, तस्यामपिजातौ रूपसमृद्धिमत्कृष्टा सकलाङ्गनिष्पत्तिरित्यर्थः / रूपे च सति बल प्रधानतरं सामर्थ्यमिति गाथाऽर्थः / होइ बले वि अ जी, जीए वि पहाणयं तु विण्णाणं। विण्णाणे सम्मत्तं, सम्मत्ते सीलसंपत्ती।। 158 / / भवति बलेऽपि च जीवितं प्रधानमिति योगः, जीवितेऽपि प्रधानतरं विज्ञान, विज्ञाने सम्यक्त्वं, क्रिया पूर्ववत् / सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः प्रधानतरेति गाथाऽर्थः। सीले खइअभावो, खाइअभावे वि केवलं नाणं / केवल्ले पडिपुन्ने, पत्ते परमक्खरे मोक्खे / / 156 // शीले क्षायिकभावः प्रधानः, क्षायिकभावे च केवलं ज्ञानं, प्रतिपक्षयोजना सर्वत्र कार्येति / कैवल्ये प्रतिपूणे प्राप्ते परमाक्षरे मोक्ष इति गाथाऽर्थः। पण्णरसंगो एसो, समासओ मोक्खसाहणोवाओ। एत्थ बहु पत्तं ते, थोवं संपावियव्वं ति / / 160 / / पञ्चदशाङ्गः पञ्चदशभेद एष अनन्तरोदितः समासतः संक्षेपेण मोक्षसाधनोपायः सिद्धिसाधनमार्गः / अत्र मोक्षसाधनोपाये बहप्राप्त त्वया शीलं यावदित्यर्थः स्तोक संप्राप्तव्यंक्षायिकभावः केवलज्ञानद्वयमिति गाथाऽर्थः। ता तह कायव्वं ते, जह तं पावेसि थोवकालेणं / सीलस्स नत्थिऽसज्झं, जयम्मि तं पावितुमए।। 161 / / Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 762 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा तत्तथा कर्त्तव्यं त्वया यथा तच्छेषं प्राप्नोषि स्तोक कालेन। किमित्यत आह शीलस्य नारन्यसाध्यं जगति तत्प्राप्तं त्वया, प्रव्रज्या प्रतिपन्नेति गाथाऽर्थः। लझूण सीलमेअं, चिंतामणिकप्पपायमभहि। इह परलोए अतहा, सुहावह परममुणिचरिअं। 162 // लब्ध्वा शीलमेतत्किविशिष्टमित्याह-चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिक निर्वाणहेतुत्वेन / एतदेवाऽऽह-इहलोके परलोके च तथा सुखावह परममुनिभिश्चरितमासेवितमिति गाथाऽर्थः / एअम्मि अप्पमाओ, कायव्वो सइ जिणिंदपन्नत्ते। भावेअव्वं च तहा, विरसं संसारणेगुण्णं / / 163 // एतस्मिन् शीले अप्रभादो यत्नातिशयः कर्तव्यः सदा सर्वकालं जिनेन्द्रप्रज्ञप्ते तीर्थकरप्रणीते अप्रमादोपायमेवाऽऽह-भावयितव्यं च तथा शुभान्तःकरणेन विरसं संसारनैर्गुण्यं वैराग्यसाधनमिति गाथाऽर्थः / आह विरइपरिणामो, पव्वज्जा भावओ जिणाएसो। जंता तह जइअव्वं, जह सो होइ त्ति किमणेणं ? / / 164 / / आह परः, किमाह-विरतिपरिणामः सकलसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपः प्रव्रज्ज्या भावतः परमार्थतो जिनाऽऽदेशः अर्हद्ववनमित्थं व्यवस्थितमिति यद्यस्मादेवं तत्तस्मात्तथा यतितव्यम् तथा प्रयत्नः कार्यो यथाऽसी विरतिपरिणामो भवतीति किमनेन चैत्यवन्दनाऽऽदिक्रियाकलापेनेति गाथाऽर्थः! परश्य स्वपक्षं समर्थयन्नाह - सुव्वइ अ एअवइअरविरहेणं भरहमाईणं / तयभावम्मि अभाओ, जं भणिओ केवलस्स सुए। 165 / / श्रूयते च एतद्यतिकरविरहेणाऽपि चैत्यवन्दनाऽऽदिसंबन्धमन्तरेणापि स विरतिरूपपरिणाम इह जिनशासने भरताऽऽदीनां महासत्पुरुषा- | णामिति / कथमिति चेदुच्यते-तदभावे विरतिपरिणामाभाये भावतः अभावोऽसंभवः यहारमाणित उक्तः केवलस्य श्रुते प्रवचन इति गाथाऽर्थः। संपादिए वि अतहा, इमम्मि सो होइ नत्थि एअंपि। अंगारमद्दगाई, जेण पवजंत अभव्वा वि // 166 // संपादितेऽपि च तथा तस्मिँ श्वेत्यवन्दनाऽऽदौ व्यतिकरे सति स विरतिपरिणामो भवति। नास्त्येतदप्यत्राप्यनियम एवेति। एतदेवाऽऽहअङ्गारमईकाऽऽदयो येन कारणेन प्रतिपाद्यन्ते अधिकृत्य व्यतिकरमभव्या अपि आसतां तावदन्य इति गाथाऽर्थः। किंच-तचैत्यचन्दनाऽऽदि विधिना सामायिकाऽऽरोपणे सति वा विरतिपरिणामे क्रियेत नेति वा, उराथाऽपि दोषमाहसइ तम्मि इमं विहलं, असइ मुसावायगो गुरुस्सावि। तम्हा न जुत्तमेअं, पव्वजाए विहाणं तु / / 167 / / सति तस्मिन्विरतिपरिणाम, इदं वेत्यवन्दनाऽऽदि विधिना सामायिकाऽरोपणं, विफलं, भावत एवं रिय विद्यमानत्वादन्यथा ताविव असत्यविद्यमाने विरतिपरिणामे सामायिकाऽऽरोपणं कुर्वतः मृषावाद एव गुरोरपि असदभ्यारोपणादपिशब्दाच्छिपस्यापि। अयताविव प्रतिपत्ते- / र्यस्मादेवंतस्मान्न युक्तमेतचैत्यवन्दनाऽदि विधिना सामायिकाऽऽरोपणरूपं प्रव्रज्याया विधानमेवमुभयथाऽपि दोषदर्शनादिति गाथाऽर्थः / एष पूर्वपक्षः। अत्रोत्तरमाहसच्चं खु जिणाएसो, विरईपरिणामओ उ पव्वज्जा। एसो तस्स उवाओ, पायं ता कीरइ इमं तु / / 168 / / सत्यमेव जिनाऽऽदेशो जिनवचनमित्यंभूतमेव, यदुत विरतिपरिणाम एव प्रव्रज्या नाऽन्यथाभावः / तथाऽप्यधिकृतविधानमवन्ध्यमेवेत्येतदाह-एष पुनश्चैत्यवन्दनाऽऽदिविधिना सामायिकाऽऽरोपणव्यतिकरस्तस्य विरतिपरिणामस्यापायो हेतुःप्रायोबाहुल्येन यद्यस्मात् तस्मात्क्रियत एवेद चैत्यवन्दनाऽऽदिप्रव्रज्याविधानमिति गाथाऽर्थः / उपायतामाह - जिणपण्णत्तं लिंगं, एसो उ विही इमस्स गहणम्मि। पत्तो मए त्ति सम्म, चिंतेंतस्सा तओ होइ।। 166 / / जिनप्रज्ञप्त लिङ्ग तीर्थकरप्रणीतमेव तत्साधुविहं रजोहरणमिति / एष च चैत्यवन्दनाऽऽदिलक्षणो विधिरस्य लिङ्गस्य ग्रहणे अङ्गीकरणे प्राप्तो मयाऽत्यन्तदुराप इत्येवं चिन्तयतः सतः शुभभावत्वादसौ विरतिपरिणामो भवतीति गाथाऽर्थः। कथं गम्यत इति चेदुच्यते - लक्खिजइ कज्जेणं, जम्हा तं पाविऊण सप्पुरिसा। नो सेवंति अकज, दीसइ थोवं पि पाएणं / / 170 / / लक्ष्यते गम्यते कार्येणाऽसौ विरतिपरिणामः, कथमित्याह-यस्मात्त चैत्यवन्दनपुरस्सरं सामायिकाऽऽरोपणविधिं संप्राप्य सत्पुरुषाः महासत्त्वाः प्रव्रजिताः, वयमिति, न सेवन्ते अकार्य परलोकविरुद्ध किशित दृश्येतत्प्रक्षेपेणैवोपलभ्यत एतत् स्तोकमप्यकार्य प्रायशो बाहुल्येन न सेवन्ते, अतो विपरिणामसामर्थ्यमेतदिति गाथाऽर्थः / साम्प्रतं यदुक्तं श्रूयते चैतद्यतिकरविरहेणापि स इह भ रताऽऽदीनामित्येतत्परिजिहीषुराह - आहच भावकहणं, नय पाओ जुज्जए इहं काउं। ववहारनिच्छया जं, दोनि वि सुत्ते समा भणिया / / 171 / / कदाचित्कभावकथनं भरताऽऽदिलक्षणं न च प्रायो युत्यते इह विचारे कर्तुम् किमित्यत आह-व्यवहारनिश्चयौ यतो नयौ द्वावपि सूत्रेसमौ भणितौ प्रतिपादितौ भगवद्भिरिति गाथाऽर्थः। एतदेवाऽऽहजइ जिणमयं पवजह, तो मा ववहारणिच्छए मुयह। ववहारणउच्छेए, तित्थुच्छेओ जओऽवस्सं / / 172 / / यदि जिनमतं प्रपद्यध्वं यूयं ततो मा व्यवहारनिश्चयौ मुश्चत महाशिष्टाः / किमित्याह-व्यवहारनयोच्छेदे तीर्थोच्छेदो यतोऽवश्यमतो व्यवहारतोऽपि प्रव्रजित एव गाथाऽर्थः। ___एतदेव समर्थयति - ववहारपवत्तीअवि, सुहपरिणामो तओ अ कम्मस्स। निअमेणमुवसमाई, णिच्छयणयसम्मयं तत्तो।। 173 / / Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 763 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा व्यवहारप्रवृत्त्याऽपि चैत्यवन्दनाऽदिविधिना प्रव्रजितोऽहमित्या - दिलक्षणो यः शुभपरिणामो भवति, ततश्च शुभपरिणामात्कर्मणः ज्ञानाऽ5 - वरणीयाऽऽदेर्नियमेनोपशमाऽऽदयो भवन्ति। आदिशब्दात क्षयक्षयोपशमाऽऽदिपरिग्रहः / निश्वयनयसम्मतं तत इति तत उपशमाऽऽदेर्विरतिपरिणामो भवतीति गाथाऽर्थः / यचोक्तं सति तस्मिन्निदं च फलमित्यादि, तन्निराकरणार्थमाह - होति वि तस्सिं विहलं, न खलु इमं होइ एत्थऽणुट्ठाणं / सेसाणुढाणं पि अ, आणाआराहणाए उ॥ 174 / / भवत्यपि तरिमन्विरतिपरिणामे विफलं न खल्विति चैत्यवन्दनं चेदं चैत्यवन्दनाऽऽदि भवत्यत्र प्रक्रमेऽनुष्ठानं, किंतुसफलमेव शेषानुष्ठानमिवोपाधिप्रत्युपेक्षणाऽऽदिवत् / कुत इत्याह-आज्ञाऽऽराधनात एव तीर्थकरोपदेशानुपालनादेव, भगवदुपदेशश्चाग्रज्ञानमिति गाथाऽर्थः / द्वितीयं पक्षमधिकृत्याऽऽह - असह मुसावाओ वि अ, इसिं पिन जायते तहा गुरुणो। विहिकारगस्स आणा-आराहणभावओ चेव / / 175 / / असति विरतिपरिणामे मृषावादोऽपि ईषदपि मनागपि न ज्ञायते गुरोरुक्तलक्षणस्य / किंविशिष्टस्येत्यत्राऽऽह-विधिकारकस्य सूत्राऽऽज्ञासंपादकस्येति / कुत इत्याह-आज्ञाऽऽराधनभावत एव भगवदाज्ञासंपादनादेवेति गाथाऽर्थः। विधिप्रव्राजने गुणानाह - होंति गुणा निअमेणं, आसंसाईहिँ विप्पमुकस्स। परिणामविसुद्धीओ, अजुत्तकारिम्मि वि तयम्मि / / 176 / / भवन्ति गुणा नियमेन कर्मक्षयाऽऽदयो विधिप्रव्राजने सति आसंसाऽऽदिभिर्विप्रसुक्तस्य गुरोरादिशब्दात्संपूर्णपर्षदादिपरिग्रहः / कुतो भवन्तिपरिणामविशुद्धः सांसारिकदुःखेभ्यो मुच्यतेऽयमित्यध्यवसायादयुक्तकारिण्यपि कुतश्चित्कर्मोदयात् तस्मिन् शिष्ये / इति गाथाऽर्थः। तम्हा न जुत्तमेअं, पव्वजाए विहाणकरणं तु। गुणभावओ अकरणे, तित्थुच्छे आइसा दोसा / / 177 / / यस्मादेवं तस्मान्न युक्तमेतदनन्तरोदितं प्रव्रज्यायाः विधानकारण तु चैत्यवन्दनाऽऽदि / कुत इत्याह-गुणभावत उक्तन्यायात्कर्मक्षयाऽऽदिगुणभावादकारणे प्रस्तुतविधानस्य तीर्थाच्छेदाऽऽदयो दोषाः, तीर्थोच्छेदसत्त्वे प्रव्रज्या न कल्पते इतिं गाथाऽर्थः। एतदेव भावयतिछउमत्थो परिणाम, सम्मं नो मुणइ ताण देइ तओ। न य अइसओ वि तीए, विणा कहं धम्मचरणं तु / / 178 / / छास्थसत्त्वः परिणाम विनेयसंबन्धिनं सम्यक् न मनुते न जानाति, ततो न ददात्यसौ दीक्षा परदर्शनेन, ततोऽतिशयी दास्यतीति चेदत्राऽऽहंन चातिशयोऽप्यवध्यादिः, तया भावतो दीक्षया विनैव कथं धर्मचरणमिति सामान्येनैव धर्मचरणाभावः / इति गाथाऽर्थः / " यच्चाओ' भरताऽऽद्युदाहरणमुक्तं तदङ्गीकृत्याऽऽह - आहचभावकहणं, तं पि हु तप्पुव्वयं जिणा बिति। तयभाये ण य जुत्तं,तयं पि एसो विही तेणं / / 176 / / कादाचित्कभावकथनं भरताऽऽदीनामतिशयाऽऽदिरूपं यत्तदपि तरपूर्वक जन्मान्तराभ्यस्तप्रव्रज्याविधानपूर्वकं जिना बुवते। तदभावे च जन्मान्तराभ्यस्तप्रव्रज्याविधानाभावे च, न युक्तं, तदपि कादाचित्कभावकथन यत एवमेष विधिरनन्तरोदितः प्रव्रज्यायाः ततोऽन्याय्या। इति गाथाऽर्थः। अण्णे अगारवासं, पावाओ परिचयंति इह बिंति। सीओदगाइभोगं, अदिन्नठाण त्ति न करिति / / 180 / / अन्ये वादिन इति ब्रुवत इति संबन्धः। किमित्याह-अगारवासं गृहवासं पापात्परित्यजन्ति, पापोदयेन तत्परित्यागबुद्धिरुत्पद्यते। ........(?) इति गाथाऽर्थः। एतदेव समर्थयति - बहुदुक्खसंविढत्तो, नासइ अत्थो जहा अभव्वाणं / इअ पुन्नेहिँवि पत्तो, अगारवासो वि पायाणं / / 181 // (बहुदुक्खस विढत्तो त्ति) बहुदुःखसमर्जितः सन्नश्यत्यर्थो यथा अभव्यानामपुण्यवताम्। (इय) एव पुण्यैरपि प्राप्तः अगारवासोऽपि पापानां नश्यति, क्षुद्रपुण्योपात्तत्वादिति गाथाऽर्थः। चत्तम्मि घरावासे, ओआसविवजिओ पिवासत्तो। खुहिओ अपरिअडतो, कहं न पावस्स विसउत्ति? || 182 // त्यक्त गृहाऽऽवासे प्रव्रजितः सन्नित्यर्थः / अवकाशविवर्जितः आश्रयरहितः पिपासाऽऽर्त तृट्परीतः क्षुधार्तश्च पर्यटन् कथन पापस्य विषय इति पापे येन सर्वमतद्भवतीत गाथाऽर्थः। तथा चाऽऽह - सुहझाणाओ धम्मो, सव्वविहीणस्सतं कओ तस्स ? / अण्णं पि जस्स निच्चं, नत्थि उवटुंभहेउ त्ति / / 183 / / शुगध्यानात धर्मध्यानाऽऽदेधर्म इति सर्वतन्त्रप्रसिद्धः, सर्वविहीनस्य सर्वोपकरणरहितस्य तच्छुभध्यानं कुतस्तस्य प्रव्रजितस्य, अन्नमपि भोजनमपि, आस्ता शीतत्राणाऽऽदि, यस्य नित्यं सदोचितकालं, नास्त्युपष्टम्भहेतुः शुभध्यानाऽऽश्रयस्य कायस्येति गाथाऽर्थः / तम्हा गिहासमरओ, संतुट्ठमणो अणाउलो धीम। परहिअकरणेकरई, धम्म साहेइ मज्झत्थो / / 184 / / यस्मादेवं तस्माद गृहाश्रमरतः सन् संतुष्टमना न तु लोभाभिभूतः, अनाकुलो न तु सदा गृहकर्तव्यतामूढः, बुद्धिमान तत्त्वज्ञः, परहितकरणकरतिर्न त्वात्मभरिधर्म साधयति मध्यस्थो न तु क्वचिद्रक्तो द्विष्टो वति गाथाऽर्थः / एष पूर्वपक्षः। अत्रोत्तरमाह - किं पावस्स सरूवं, किं वा पुन्नस्स संकिलिटुं जं। वेइज्ज य तेणेव य, तं पावं पुण्णमिअरं ति / / 185 / / पापात्परित्यजन्ति पुण्योपात्त गृहाश्रममिति परमतम् / आचार्यरत्वाह-किं पापस्य स्वरूप किं वा पुण्यस्येति पुण्यपापयोर्यथा सम्यग्लक्षणं तथा कुशलानुबन्धिनः पुण्यात्परित्यजन्ति पुण्योपात्त गृहाश्रममिति परमकुशलानुबन्धिनः पापात् परित्यजन्ति गृहवास - मित्येतच वक्ष्यति / परमस्तु तयोः स्वरूपमाह-संक्लिष्ट मलिनं यत्स्वरूप तद् वेद्यते चानुभूयते तेनैव संक्लेशेन तल्पापम्। पुण्यमि Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 764 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा तरदिति यदसंक्लेशेनैव च वेद्यते। इति गाथाऽर्थः / एवमनयोः स्वरूपे उक्ते सत्याह - जइ एवं किं गिहिणो, अत्थोवायाणपालणाईसु / विअणा ण संकिलिट्ठा, किं वा तीए सरूवंति ? / / 186 / / यद्येवं पुण्यपापयोः स्वरूपं यथाऽभ्यधायि भवता, नन्वेवं किं गृहिणः अर्थोपादानपालनाऽऽदिषु सत्सु आर्तध्यानाऽऽदिष्वादिशब्दान्नाशाऽऽदिपरिग्रहः / वेदना न संक्लिष्टा, संक्लिष्टवेत्यभिप्रायः। किंवा तस्याः संक्लिष्टाया वेदनायाः स्वरूपं, योषाऽपि संक्लिष्टा न भवतीति गाथाऽर्थः / पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरन्नाह - गेहाईणमभावे, जातं रूवं इमइ अह इटुं / जुज्जइ अ तयभिसंगे, तदभावे सव्वहाऽजुत्तं / / 187 // गेहाऽऽदीनां गृहधनाऽऽदीनामभावे या वेदना, तद्रूपमस्याः संक्लिष्टाया वेदनायाः / अथेष्टमभ्युपगतं भवता / एतदाशयाऽऽह-युज्यते एतद्रूपं तस्याः तदभिष्वङ्ग गेहाऽऽदिष्वभिलाषे सति, तदभावेऽभिष्वङ्गाभावे | सर्वथा एकान्तेनायुक्तं तद्रूपमस्य निरभिष्वङ्गस्य संक्लेशयोगादिति गाथाऽर्थः एतदेव समर्थयतिजो एत्थ अभिस्संगो, संतासंतेसु पावहेउ त्ति / अट्टज्झाणविअप्पो, स इमीए संगओ रूवं / / 188 / / योऽत्र लोके अभिष्वङ्गो मूर्छालक्षणः सदसत्सु गेहाऽऽदिषु पापहेतुरिति पापकारणमार्तध्यानविकल्पः अशुभध्यानभेदोऽभिष्वङ्गः स खल्वस्या संक्लिष्टाया वेदनायाः संगतो रूपमिति गाथाऽर्थः / ततः किमित्याह - एसो अ जायइ दर्द, संतेसु वि अकुसलाणुबंधाओ। पुण्णाओ ता तं पिहु, नेअं परमत्थओ पावं / / 186 / / एषो वाऽभिष्वगोजायते दृढमत्यर्थं, सत्स्वपि गेहाऽऽदिष्विति गम्यते। कुत इत्याह-अकुशलानुबन्धिनः मिथ्यानुष्ठानोपात्तात्पुण्याद्यरमादेवं तत्तस्मात्तदप्यकुशलानुबन्धि पुण्यं ज्ञेयं परमार्थतः पापं संक्लेशहेतुस्वादिति गाथाऽर्थः। तथा च - कइया सिज्झइ दुग्गं, को वामो मज्झ वट्टए कहं वा? जायं इमं ति चिंता, पावा पावस्स य निदाणं / / 160 / / कदा सिध्यति दुर्ग बलदेवपुराऽऽदि, को वामः प्रतिकूलो मे नरपतिर्वर्तते, कथं वा जातनिटमस्थ वामत्वमिति / एवंभूता चिन्ता पापा संक्लिष्टाऽऽर्तध्यानत्वात्। पापस्य च निदानं कारणमार्त्तध्यानत्वादेवेति गाथाऽर्थः। इइ चिंताविसधारिअ देहो विसए वि सेवइ न जीवो। चिट्ठउ अताव धम्मोऽसंतेसु वि भावणा एवं / / 161 / / इति एवं चिन्ताविषधारितदेहो चिन्ताविषव्याप्तशरीरः सन् विषयानपि सेवते, न जीवः / तथा आकुलत्वात् तिष्ठतु च तावद्धर्मो विशिष्टाप्रमादसाध्यः असत्स्वपि, गेहाऽऽदिष्विति गम्यते / अभिष्वङ्गे सति भावना एवमिति अशुभचिन्ता धर्मविरोधिनी यायादेवेति गाथाऽर्थः। | एतदेवाऽऽह - दीणो जणपरिभूओ, असमत्थो उदरभरणमित्ते वि। वित्तेण पावकारी, तह वि हु पावस्स फलं एअं / / 192 / / दीनः कृपणः, जनपरिभूतो लोकगर्हितः, असमर्थ उदरभरणमात्रेऽपिआत्मभरिरपि न भवति। वित्ते न पापकारी तथापितु एवंभूतोऽपि सन्नसदिच्छया पापचित्त इत्यर्थः / पापफलमेतदितिजन्मान्तरकृतस्य कार्यभाविनश्च कारणमिति गाथाऽर्थः। यद्येवं किं विशिष्ट तर्हि पुण्यमित्यत्राऽऽह - संतेसु वि भोगेसुं , नाभिस्संगो दढं अणुट्ठाणं / अत्थि य परलोगम्मि वि, पुन्नं कुसलाणुबंधिमिणं / / 163 / / इह यदुदयात् सत्स्वपि भोगेषु शब्दाऽऽदिषु नाभिष्वङ्गो दृढमत्यर्थमनुष्ठानमस्ति च परलोकेऽपि दानध्यानाऽऽदि पुण्यं कुशलानुबन्धादि जन्मान्तरेऽपि कुशलकारणत्वादिति गाथाऽर्थः / परिसुद्धं पुण एयं, भवविडविनिबंधणेसु विसएसु / जायइ विरागहेऊ, धम्मज्झाणस्स य निमित्तं / / 164 / / परिशुद्ध पुनरेतदभ्यासवशेन कुशलानुबन्धि पुण्यं भवक्टिपिनिबन्धनेषु विषयेषु संसारवृक्षबीजभूतेष्वित्यर्थः / जायते विरागहेतुर्वैराग्यकारणं धर्मध्यानस्य च निमित्त महापुण्यवतां महापुरुषाणां तथोपलब्धेरिति गाथाऽर्थः। एतञ्च विषये विरागाऽऽदि महत्सुखमित्याह - जं विसयविरत्ताणं, सुक्खं सज्झायमाविअमईणं। तं मुणइ मुणिवरो चिअ, अणुहावओ पुण अन्नो वि / / 165 / / यद्विषयविरक्तानामसदिच्छारहितानां सौख्यं सद्ध्यानभावितमतीनां च धर्मध्यानाऽऽदिभावितचित्तानां तन्मनुते जानाति मुनिवर एव साधुरेवानुभावतोऽनुभवनेन पुनरन्योऽप्यसाधुः तथानुभवभावादिति गाथाऽर्थः / एतदेव समर्थयति - कंखिज्जइ जो अत्थो, संपत्तीए न तं सुहं तस्स। इच्छाविणिवित्तीए, जं खलु बुड्ढप्पवाओऽयं / / 166 / / काक्ष्यतेऽभिलष्यते योऽर्थः संप्राप्त्या न तत्सुखं तस्यार्थस्य इच्छाविनिवृत्त्या यत्खलु सुखं वृद्धप्रवादोऽयमाप्तप्रवादोऽयमिति गाथाऽर्थः / मुत्तीए वभिचारो, तं णो जंसा जिणेहिँपन्नत्ता। इच्छाविणिवित्तीए, चेव फलं पगरिसं पत्तं / / 167 / / मुक्त्या व्यभिचारस्तत्काङ्गणे तत्प्राप्त्यैव सुखभावादेतदाशङ्कयाऽऽहतन्न यद्यस्मादसौ मुक्तिर्जिनः प्रज्ञप्ता तीर्थकरैरुक्ता इच्छाविनिवृत्तेरेव फलं न पुनरिच्छापूर्वकमिति प्रकर्ष, प्राप्त सामायिक संयताऽऽदेरारभ्योत्कर्षण निष्ठाप्राप्तमिति गाथाऽर्थः। किं च - जस्सिच्छाए जायइ, संपत्ती तं पडुचिमं भणि। मुत्ती पुण तदभावे, जमणिच्छा केवली भणिया / / 198 / / यस्यार्थस्येच्छया प्रवृत्तिनिमित्तभूतया जायते संप्राप्तिस्तमर्थ विलयाऽऽदिकं प्रतीत्ये दं भणितं, कासयत इति / मुक्तिः पुनस्तदभावे इच्छाभावे जायते / क्तः? इत्याह-यद्यस्मादनि Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 765 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा च्छाः केवलिनो भणिताः "अमनस्काः केवलिनः' इति वचनात। इति च तस्मिन सतीयं भवतीति विरोधादिति गाथाऽर्थः / गाथाऽर्थः। एतदेवाऽऽह - एवं तर्हि प्रथममपि प्रव्रज्याऽऽदौ तदिच्छाऽशोभना प्राप्नोतीत्येतदा- आरंभपरिग्गहओ, दोसान य धम्मसाहणे ते उ। शङ्कयाऽऽह तुच्छत्ताऽपडिबंधा, देहाहाराइतुल्लत्ता / / 205 / / पढम वि जा इहेच्छा, सा वि पसत्थ त्ति नो पडिकुट्ठा। आरम्भपरिग्रहतो दोषाः संक्लेशाऽऽदयः, अगारवासे चाऽवश्यंभावी सा चेव तहा हेऊ, जायइ जमणिच्छभावस्स / / 166 / / आरम्भपरिग्रह इति। अत्रान्तरे लब्धावसरः परः क्षपणकः कदाचिदेव प्रथममपि प्रव्रज्याऽऽदिकाले या इच्छा मुक्तिविपया साऽपि त- बूयात-उपकरणग्रहणेऽपि तुल्यमेतदित्याशङ्कयाहन च धर्मसाधने स्यामवस्थायां प्रशस्तेति कृत्वा नो प्रतिकुष्टा न प्रतिषिद्धा। किमित्यत वस्त्रपात्राऽऽदौ त एव दोषाः / कुतः? तुच्छत्वादसारत्वात्तस्य / तथा आह-सा चेच्छा तथा तेन प्रकारेण सामायिकसंयताऽऽद्यनुष्ठानरूपेणा अप्रतिबन्धात्प्रतिबन्धा भावात् देहाऽऽहाराऽदितुल्यत्वात्स्वल्पा भवभ्यस्यमाना हेतुजार्यत यद्यस्मादनिच्छभावस्य केवलित्वस्येति गाथाऽर्थः / न्तोऽपि दोषाः संमूच्र्छनजाऽऽदयो देहाऽऽहा-राऽऽदितुल्यत्वाद् बहुगुणा एवेति गाथाऽर्थः। इतश्च प्रव्रजितस्यैव सुखमित्यावेदयन्नाह - तम्हा अगारवासं, पुन्नाउ परिचयंति धीमंता। भणिअंच परममुणिहिं, मासाइदुवालसप्परीआए। सीओदगाइभोग, विवागकडुअंति न करिति / / 206 / / वंतरअणुत्तराणं, वीईवइ तेअलेस्सं ति / / 200 // यस्मादेवं तरमादगारवासं निगडबन्धबन्धवत्पुण्यात्परित्यजन्तिधृतिभणित परममुनिभिः, किमित्यत्राऽऽह-महाश्रमणो महातपस्वी मासा मन्तः / परित्यक्ते तस्मिन् सुखभावाच्छीतोदकाऽऽदिभोग विषान्नऽऽदिद्वादशपर्याय इति। मासाऽऽदिकं कृत्वा द्वादशमासपर्याय इत्यर्थः / भोगवद्विपाककटुकमिति कृत्वा न कुर्वन्ति तपस्विन इति गाथाऽर्थः / व्यन्तराऽऽद्यनुत्तराणामिति व्यन्तराऽऽदीनामनुत्तरोपपातिकपर्यन्तानां एतदेव समर्थयतिव्यतिक्रामति तेजोलेश्या सुस्वप्रभावलक्षणामनुक्रमेणेति गौतमपृष्टन यथोक्तं भगवता-"जे मे अज्जत्ताए समणा णिग्गंथा विहरति० जाव अंत केइ अविजागहिआ, हिंसाईहिं सुहं पसाहिति। करेइ।" (इति पाठोऽस्मिन्नेव शब्दे 752 पृष्ठे गतः) नो अन्ने ण य एए, पडुच्च जुत्ता अपुण्ण त्ति / / 207 / / "जाव अंतं करेइ।" एतदेवाऽऽह - केचित्प्राणिनोऽविद्यागृहीता अज्ञानेनाभिभूता हिंसाऽऽदिभिः करण - तेणं परं सुक्केसु-कभिजाई तहा य होऊण / भूतैः, आदिशब्दादनृतसंभाषणाऽऽदिपरिग्रहः / सुखं विषयो पभोगलक्षण प्रसाधयन्त्यात्मन उपभोगतया नान्य इति / न पुनरन्ये प्रसाधयन्न्यपि पच्छा सिज्झइ भयवं, पावइ सव्वुत्तमं ठाणं / / 201 / / तु तेन विनैव तिष्ठन्ति। न च त एवंभूता क्वेिकिनः सुखभोगरहिता अपि तेन इति द्वादशभ्यो मासेभ्य ऊर्द्धमप्रतिपतितचरणपरिणामः सन्नसौ तान् हिंसाऽऽदिभिः सुखप्रसाधकान् प्रतीत्याऽऽश्रित्य युक्ता अपुण्या शुक्लः कर्मणा शुक्लाभिजात्य आशयेन तथा च भूत्वा समाप्रशम- इति / तेषां हि विपाकदारुणे प्रवृत्तत्वात्परस्यापि सिद्धमेतदिति गाथाऽर्थः / सुखसमन्वितः पश्चात्सिद्ध्यति भगवानएकान्तनिष्ठितार्थो भवतिप्राप्नोति एतेन बहुदुःखेत्याद्यपि परिगृह्यता गृहवासस्य वस्तुतोऽनसर्वोत्तमं स्थानं, परमपदमिति गाथाऽर्थः / र्थत्वादिदानीं त्यक्ते गृहवारस इत्यादि परिहरन्नाह - प्रकृतयोजनां कुर्वन्नाह - चइऊणगारवासं, चरित्तिणो तस्स पालणाहेउं। लेसा य सुप्पसत्था, जायइ सुहियस्स चेव सिद्धमिणं / जं जं कुणंति चिहूं, सुत्ता सा सा जिणाणुमया / / 208 / / इअ सुहनिबंधणं चिअ पावं कह पंडिओ भणइ ? / / 202 / / त्यक्त्वा अगारवासं द्रव्यतो भावतश्च चारित्रिणः संयतस्य तस्य चारित्रस्य लेश्या च सुप्रशस्ता जायते सुखितस्यैव नेतरस्येति सिद्धमिदं विपश्चि- पालनहेतोः पालननिमित्तं यां यां कुर्वन्ति चेष्टा देवकुलवासाऽऽदिलक्षणां ताम् इति एवं सुखनिबन्धनमेवागारवासपरित्यागं पापं कथं पण्डितो सूत्रादागमानुसारेण सा सा जिनानुभता, गुर्वनुमतपालने च सुखायैवेति विपश्विद्भणति। अतोऽयुक्तमुक्तम्-"अगारवासं पावाओ परिचयंति।" गाथाऽर्थः।। इति गाथाऽर्थः। किचतम्हा निरभिस्संगा, धम्मज्झाणम्मि मुणिअतत्ताणं / अवगासो आय चिय, जो वा सो व त्ति मुणिअतत्ताणं। तह कम्मक्खयहेऊ, विअणा पुन्ना उ निद्दिट्ठा / / 203 / / निअकारिओ उ मज्झं, इमो त्ति दुक्खस्सुवायाणं / / 206 / / तस्मान्निरभिष्वङ्गा, सर्वप्रशंसाविप्रमुक्ता धर्मध्याने तथाऽऽह्लादक सति अवकाशोऽपितष्वत आत्मैव 'जो वा सो व त्ति 'ज्ञाततत्त्वाना देवकुलाज्ञाततत्त्वाना मोहरहितानां तथा तेन प्रकारेणान्यानपादानलक्षणेन ऽऽदिः निजकारितस्तु ममायमिति जीवस्वाभाच्याद् दुःखस्योपादानकर्मक्षयहेतुः वेदना तथाविधाऽऽत्मपरिणामरूपाऽऽपादिनी पुण्या मिति गाथाऽर्थः। निर्दिष्टा तत्त्वतः पुण्यफलमेवंविधमिति गाथाऽर्थः / तवसो अपिवासाई,संतो वि ण दुक्खरूवगाणेआ! तइ एसा संजायइ, अगारवासम्मि अपरिचत्तम्मि। जं ते खयस्स हेऊ, निद्विट्ठा कम्मवाहिस्स / / 210 / / नाभिस्संगेण विणा, जम्हा परिपालणं तस्स / / 204 / / तपसश्च पिपासाऽऽदयः सन्तोऽपि भिक्षाटनाऽऽदौन दुःखरूपा ज्ञेयाः। तथैषा वेदनोक्तलक्षणा संजायते अगारवासे गृहवासेऽपरित्यक्तं भावतः / किमित्यत्राऽऽह-यद्यस्मात्ते पिपासाऽऽदयः क्षयस्य हेतवो निर्दिष्टा किमिति ? नाभिष्वङ्गेण विना यस्मात्प्रतिपालनं तस्यागारवासस्य; न | भगवद्भिः कर्मव्याधेरिति गाथाऽर्थः / Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा तथावाहिस्स य खयहेऊ, सेविजंता कुणंति धिइमेव / कडुगाई वि जणस्सा, ईसिं दंसिंतगाऽऽरोग्गं / / 211 / / व्याधेरपि कुष्ठाऽऽदेः क्षयहेतवः सेव्यमानाः कुर्वन्ति घृतिमेव, कटु. काऽऽदयोऽपि जनस्य ईषद्दर्शयन्त आरोग्यमनुभवसिद्धमेतदिति गाथाऽर्थः / एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःइअ एए वि अ मुणिणो, कुणंति धिइमेव सुद्धभावस्स। गुरुआणासंपाडण-चरणाइ सयं ति दंसित्ता।। 212!! (इय) एवमेतेऽपि च क्षुदादयो सुनेः कुर्वन्ति घृतिमेव, न तु दुःखं, शुद्धभावस्य रागाऽऽदिविरहितस्याकिंदर्शयन्तः सन्त?..........! (?) | इति गाथाऽर्थः। ण य ते वि होंति पायं, अविअप्पं धम्मसाहणमइस्स। न य एगंतेण वि अ, ते कायव्वा जओ भणियं / / 213 / / न चे तेऽपि भवन्ति प्रायः क्षुदादयः अविकल्प मातृस्थानविरहेण धर्मसाधनमतेः प्रव्रजितस्य धर्मप्रभावादेवान चैकान्तेनेव तेक्षदादयः कर्त्तव्या मोहोपशमाऽऽदिव्यतिरेकेण यतो भणितमिति गाथाऽर्थः / किं तदित्याह - सो हु तवो कायव्यो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ। जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा ण हीयते / / 214 / / तद्धि तपः कर्त्तव्यमनशनाऽऽदियेन मनोऽमङ्गलमसुन्दरं न चिन्तयति, शुभाध्यवसायनिमित्तात्कर्मक्षयस्य / तथा येन नेन्द्रियहानिः, तद्भवि प्रत्युपेक्षणाऽऽधभावात्। येन च योगाः चक्रवालसामाचार्यन्तर्गता व्यापारा न हीयन्ते। इति गाथाऽर्थः। देहे वि अपडिबद्धो, जो सो गहणं करेइ अन्नस्स। विहियाणुट्ठाणमिणं, ति कइ तओ पावविसउ त्ति / / 215 / / देहेऽप्यप्रतिबद्धो यः विवेकात्स ग्रहण करोत्यन्नस्यौदनाऽऽदेर्विहितानुष्ठानमिति, नतुलोभाद्यतश्चैवमतः कथमसौ पापविषय इति नैव पापविषयः / एतेन कथं न पापविषय इत्येतत्प्रत्युक्तमिति गाथाऽर्थः / किञ्चतत्थ वि अधम्मझाणं,नय आसंसा तओ असुहमेव। सव्वं इय अणुठाणं, सुहावहं होइ विन्नेअं / / 216 // तत्राऽपि चान्नग्रहणाऽऽदौध्यिानं, सूत्राऽऽज्ञासंपादनात्। न चाऽऽशंसा, सर्वत्रैवाभिष्वगनिवृत्तेः / यतश्चैवं ततश्च सुखमेव तत्राऽपि सर्व वस्त्रपात्राऽऽदि (इय) एवमुक्तेन न्यायेन सूत्राऽऽज्ञासंपादनाऽऽदिना अनुष्ठानं साधुसंबन्धि सुखाऽऽवहं भवति विज्ञेयमिति गाथाऽर्थः। एवंभावयतः सूत्रोक्ता चेष्टा सुखदैव, तदन्यस्य तु दुः खदेति सिद्धसाध्यता। तथा चाऽऽह - चारित्तविहीणस्सा, अभिसंगपरस्स कलुसभावस्स। अण्णाणिणो अजा पुण, सा पडिसिद्धा जिणवरेहिं / / 217 / / चारित्रविहीनस्य द्रव्यप्रव्रजितस्याभिष्वङ्गपरस्य भिक्षाऽऽदावेव कलुषभावस्य यो द्वेषाऽऽत्मा तस्याऽज्ञानिनश्च मूर्खस्य या भिक्षाऽटना ऽऽदिचेष्टा सा प्रतिषिद्धा जिनवरैः, प्रत्युत बन्धनिबन्धनमसाविति गाथाऽर्थः। तथा च - मिक्खं अडति आरंभसंगया अपरिसुद्धपरिणामा। दीणा संसारफलं, पावाओ जुत्तमेअंतु // 218 / / भिक्षामटन्त्युदरभरणार्थमारम्भसङ्गतास्तथा षड्जीवनिकायोपमईनप्रवृत्त्या अपरिशुद्धपरिणामाः उक्तानुष्ठानगम्यमहामोहाऽऽदिरञ्जिताः, दीना अल्पसत्त्वाः संसारफला भिक्षा, नतुसुयतिवद्दातृगृहीघोरपवर्गफला, पापाद्युक्तमेव तदिति / एतदित्थंभूतमकुशलानुबन्धिना पापेन भवतीति न्याय्यमेतदिति गाथाऽर्थः / ___ कस्य पुनः कर्मणः फलमिदमित्याह - ईसं काऊण सुह, निवाडिया जेहिंदुक्खगहणम्मि। मायाएँ केइ पाणी, तेसिं एआरिसं होइ।। 216 / / ईषत्कृत्वा सुखं गलप्रव्रजिताऽविधिपरिपालनाऽऽदिना निपातिता यैर्दुःखगहने दुःखसङ्कटमायया केचित्प्राणिन ऋजवस्तेषां सत्वानामीदृश भवति ईदृक्फलदायि पापं भवतीति गाथाऽर्थः / तथा च - चइऊण धरावासं, तस्स फलं चेव मोहपरतता। ण गिही ण य पव्वइआ, संसारविवडगा भणिआ।। 220 / / त्यक्त्वा गृहवासं दीक्षाऽभ्युपगमेन, तस्य फलं चैव गृहवासत्यागस्य फलं प्रव्रज्या, तां च त्यक्त्वा विरुद्धासेवनेन, मोहपरतन्त्राः सन्तो न गृहिणः, प्रकटवृत्त्या तस्य त्यागान्न च प्रव्रजिताः, विहिता-नुष्ठानाकरणात्। त एवम्भूताः (संसारपवड्डग त्ति) संसाराऽऽकर्षकाः, दीर्घसंसारिण इत्यर्थः / भणितास्तीर्थकरगणधरैतिति गाथाऽर्थः। उपसंहरन्नाह - एएणं चिअ सेसं, जं भणिअंतं पि सव्वमक्खित्तं / सुहझाणाइअमाका, अगारवासम्मि विणणेअं।। 221 // एतेनैवानन्तरोदितेन शेषमपि शुभध्यानाद्धर्म इत्यादि यद्भणितं तदपि सर्वमाक्षिप्तमागृहीतं, विज्ञेयमितियोगः / कुतः ? इत्याह-शुभध्यानाऽ5द्यभावात् आगारवास इति। न हागारवासे उक्तवत्कदा सिद्ध्यति दुर्गमित्यादिना शुभध्यानाऽऽदिसम्भव इति गाथाऽर्थः / यद्योक्तं परहितकरणैकरतिरित्यत्राऽऽह - मुत्तूण अभयकरणं, परोवयारो वि नत्थि अण्णो त्ति। ' दंडिगतेणगणायं, न य गिहिवासे अविगलं तं / / 222 / / मुक्त्वाऽभयकरणमिहलोकपरलोकयोः परोपकारोऽपि नास्त्यन्य इति अत्र दृष्टान्तमाह-दण्डिकस्तेनकज्ञातमत्र द्रष्टव्यम्। न च गृहवासे अविकलं तदभयकरणमिति गाथाऽर्थः। यच्चोक्तं परहितकरणैकरतिरित्यत्र दण्डिकीस्तेनो दाहरणमाह - तेणस्स वज्झनयणं, विद्वाणग रायपत्तिपासणया। निवविण्णवणं कुणिमो, उवयारं किं पि एअस्स / / 223 / / रायाणुण्णा एहवणग, विलेवणं भूसणं सुहाऽऽहारं / Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 767 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा अभयं च कयं ताहिं, किं लद्धं पुच्छिए अभयं / / 224 / / अनयोरर्थः कथानकेनैवोच्यते-"वसंतउरे नयरे जियसत्तू राया पियपत्तीहिं सद्धिं निजूहगराओ चिट्ठइ। इओय तेणगो वज्झो निजइ। सोय / मचुभएण विद्वाणगो रायपत्तीहि दिहो। कारुणिगाहिं विण्णत्तो रायामहाराय ! कुणिमो एयरस एयावत्थगस्स य किं पि उवगारंति। राइणाऽ - गुण्णाया ते / ताओ एगाए मिल्लावेऊण एवं पि ताव पावओ तिव्वं पागतिल्लाइणाऽभंगावेऊण ण्हविओ परिहाविओ विलित्तो य। दससाहस्सीए णीअपरिवएणं अण्णाए भूसिऊणाराऽऽदिणा भुंजाविओ अद्वारस वि खंडप्पगारे वीससाहस्सीएणं परिवएणं / अण्णाए भणियं-महाराए ! स्थि मे विहवे जेण एयरस उवगरेमि / राइणा भणिय-मएं हवति कि तुज्झ नत्थि, देह ज रोयतीति। तीए भणियं-जह एवं ता अभयं एयस्स। इयरीहि भणियं-मोग्गडा एसा। तीए भणिय-जं भए दिन्नं संतन तुज्झेहि। एत्थ एसो पमाणं / पुच्छिओ तेणगोभण किमेत्थ लद्धं ति? तेण भणियंसेसं ण याणामि, अभवदाणे मे वेयणापसमुत्ति।" अतोऽभयकरणमेव परोपकार इति गाथाद्वयाऽर्थः / गृहिणस्ते तदविकलं न भवतीत्याह - गिहिणो पुण संपज्जइ, भोअणमित्तं पि निअमिओ चेव। छजीवकायधारण ता तओ कह णु लद्धो ति? // 225 / / गृहिणः पुनः संपद्यते भोजनमात्रमप्यारतां तावदन्यद्रागादि नियमत एव। केनेत्याह-षट्जीवकायघातेन यतश्चैवंततस्तस्मादसौ गृहाऽऽश्रमः कथं नु लब्धो, नैव शोभनः / इति गाथाऽर्थः।। अनेन वादस्थानान्तरमपि परिहृतं द्रष्टव्यमित्येतदाह - गुरुणो वि कह न दोसो, तवाइदुक्खं तहा करितस्स। सीसाणभेदमाइ वि, पडिसिद्ध चेव एएण // 226 // गुरोरपि प्रव्राजकस्य कथन दोषः तपआदिना दुःखं तथा तेन प्रकारेणानशनाऽऽदिना कुर्वतः, केषामित्याह-शिष्याणा मेवमाद्यपि, कुतोऽयमादिशब्दात् स्वजनवियोगाऽऽदिपरिग्रहः / प्रतिषिद्धमेव एतेनान्तरोदितेन ग्रन्थेनेति गाथाऽर्थः। कथमित्याह - परमत्थओ न दुक्खं, भावम्मि वितं सुहस्स होउत्ति। जह कुसलविजकिरिआ, एवं एअंपि नायव्वं / / 227 / / 'कह व ति दारं गयं।' परमार्थतो न दुःखं तप इत्युक्तं भावेऽपि दुःखस्य तत् तथा दुःखं सुखस्य हेतुरिति / निर्वृतिसाधकत्वेनात्र दृष्टान्तमाहयथा कुशलवैद्यक्रिया दुःखदाऽप्यातूरस्य न वैद्यदोषायेवमेतदपि सांसारिकदुःखमोचकं तपोऽनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति गाथाऽर्थः / पं०व०१द्वार। (दीक्षाषोडशकम् दिक्खा ' शब्दे चतुर्थभागे 2506 पृष्ठे उक्तम्) (25) परीक्ष्य प्रव्राजयतिसे भयवं ! कहं परिक्खा ? गोयमा ! णं जे केइ पुरिसे इवा, इत्थियाओ वा सामन्नं पडिवजिउकामे कंखेज वा, निसीएज्ज वा, छडिं वा पकरेज वा, सगेण वा परगेण वा आसंतेइ वा सनिएइ वा, ते बहुत्तं गच्छेन्ज वा, अनालोइज्ज वा, पलोइज्ज वा, वेसग्गहणे ठाइज्जमाणे कोइ उप्पाएइ वा असुहे दुन्निमित्ते इ वा भवेज्जा; से णं गीयत्थे गणी अन्नइयरेइ वा मयहरादी महयाऽनेणं निरूविज्जा, जस्स णं एयाइंपरकज्जा, सेणं णो पव्वावेज्जा, से णं गुरुपडिणीए भवेजा, से णं निद्धम्मसवले भवेजा, से णं सव्वहा सव्वपयारेसुणं केवलं एगतेणं अइज्जकरणुज्जए भवेजा, से णं जेणं वा तेणं वा सुएण वा विन्नाणेण वा गारवेए भवेज्जा, से णं संजइवग्गस्स चउत्थवयखंडणसीले भवेज्जा, से णं बहुरूवे भवेजा। से भयवं! कयरेणं से बहुरूवे वुचइ? जे णं ओसन्नविहारीणं ओसन्ने उज्जुयविहारी णं निद्धम्मसवलाणं निद्धम्मसवले बहुरूवी रंगगए वारणे इव, णडे खणेणं रामो खणेण लक्खणे खणेणं दसग्गीवरावणे खणेणं दप्परयत्तुदंतुरजराजुत्तगत्तपंडुरकेसबहुपवंचभरिए विदूसगे खणणं तिरियंचजाती वाणरहणुमंतकेसरी; जहा एस गोयमा! तहाणं से बहुरूवे। एवं गोयमा ! जे णं असई कयाइ चुक्कखलिएणं पव्वावेज्जा से णं दूरहाणववहिए करेजा, सेणं सन्निहिए णो धरेञ्जा, सेणं आयारेणं नो आलवेजा, से णं भंडमत्तोवगरणेणं नो पडिलाहावेजा, से णं तस्स गच्छसत्थं नो उदिसेजा, सेणं गंथसत्थं नो अणुजाणेजा, से णं तस्स सद्धिं गुज्झरहस्सं वाणो मंतिज्जा / एवं गोयमा ! जे केइ एयदोसविप्पमुक्के से णं पव्वावेजा। तहा णं गोयमा ! मिच्छद्देसुप्पन्नं अणारियं णो पवावेजा, एवं वेस्सासुयं नो पव्वावेजा, एवं गणिगं नो पव्वावेजा, एवं चक्खुविगलं, एवं विगप्पियकरचरणं, एवं छिन्नकन्ननासोटुं, एवं कुट्ठवाहीए गलमाणं सडहडंतं, एवं पंगुं अयंगमं भूयं वहिरं, एवं अच्चुकडकसायं, एवं बहुपासंडसंसटुं, एवं धणरागदोसमोहमिच्छत्तमलखवलियं, एवं अज्जियउत्तयं, एवं पोराणनिक्खुडं, एवं जिणालयाइबहुदेववलीकरणभोइयं चक्कायरं, एवं णडणट्टच्छत्तवारणं, एवं झयजडु चरणकरणजडुं जड्डुकायं णो पव्वावेज्जा, एवं तु जाव णं नामहीणं थामहीणं कुलहीणं जाइहीणं बुद्धिहीणं पन्नाहीणं गामउडमयहरं वा गामउडं मयहरसुयं वा अन्नरयरं वा निंदियाणमहीणजाइयं वा अविनायकुलसहावं गोयमा ! सव्वहा णो दिक्खे, णो पव्वावेजा। महा०५ अ०। (26) एकादशप्रतिमाप्रतिपन्नस्य श्रावकस्य प्रव्रज्या अथ तदनन्तरं यत्तस्य विधेयं स्यात्तदभिधित्सुराह - भावेऊणऽत्ताणं, उवेइ पव्वजमेव सो पच्छा। अहवा निहत्थभावं, उचियत्तं अप्पणो नाउं / / 36 / / भावयित्वा वासयित्वा प्रतिमाऽनुष्ठानेनाऽऽत्मानं स्वमुत्युपगच्छति, प्रव्रज्यामेवानगारत्वमेव, तदुचितमात्मानं ज्ञात्वेत्यु Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 768 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा त्सर्गः। स इति श्रावकः। पश्चात्प्रतिमाऽनुष्ठानामन्तरम्। अथवेति प्रकारान्तरद्योतनार्थः / गृहस्थभावं गृहित्वमेवोपैतीति वर्तते। किं कृत्वेत्याहउचितत्वं योग्यता गृहिभावस्यैवाऽऽत्मनः स्वस्य ज्ञात्वाऽवगम्येति गाथाऽर्थः। अथ कस्मात्प्रतिमाभिर्भावयित्वैवाऽऽत्मानमुपैति प्रव्रज्यामित्याशयाऽऽहगहणं पव्वजाए, जओ अजोग्गाण णियमतोऽणत्थो। तो तुलिऊणऽप्पाणं, धीरा एवं पवजंति / / 40 / / ग्रहणं स्वीकरणं प्रव्रज्यायाः श्रामण्यस्य यस्मादयोग्यानामनुचिताना नियमतोऽवश्यमेवानर्थोऽपायस्तस्मात्तुलयित्वा भावनया परीक्ष्य, योग्यतां निश्चित्येत्यर्थः / आत्मानं स्वं धीरा धीमन्तः एता प्रतिषद्यन्तेऽङ्गीकुर्वन्तीति गाथाऽर्थः। तुलयित्वाऽऽत्मानमित्युक्तमथ तुलनैव कथमित्यत आह - तुलणा इमेव विहिणा, एतीय हंदि नियमतो णेया। णो देसविरइकंडयपत्तीए विणा जमेस त्ति / / 41 // तुलना आत्मनो योग्यता परीताऽनेनानन्तरोक्तेन विधिना विधानेन प्रतिमाऽनुष्ठानलक्षणेन एतस्याः प्रव्रज्यायाः हन्दीत्युपप्रदर्शन, नियमतो नियोगेन विज्ञेया अवसेया / अथ कस्मादेवमित्याह-(नो) नैव देशविरतिरणुव्रताऽऽदिप्रतिपत्तिपरिणामस्तस्य कण्डकान्यध्यवसायस्थानानि, तेषां या प्राप्तिाभः सा तथा तया देशविरतिकण्डकप्राप्त्या, विना तदभावे, यद्यस्मात्कारणादेषा प्रव्रज्या भवति / इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ। प्रायिक चैतत्-यतोऽसंख्याततमो भागः सिद्धानामप्राप्तदेशविरतिकोऽपि सिद्धत्वमुपगतोऽभिधीयते / यदाह- " भागेहि असंखेजेहिं फासिया देसविरईउत्ति" तथा तुलनाऽनेन विधिनेत्यपि प्रायिकम्। एतच स्वयमेवाग्रे दर्शयिष्यतीति गाथाऽर्थः / एवं तुलनापूर्वक प्रव्रज्याया सत्यां यद्भवति तद्दर्शयितुमाह - तीए य अविगलाए, वज्झा चेट्ठा जहोदिया पायं। होति णवरं विसेसा, कत्थति लक्खिज्जए ण तहा / / 42 / / तस्यामुक्ततुलनापुरस्सरप्रव्रज्यायां, चशब्दः पुनरर्थः / अविक-लायां परिपूर्णायां तद्योग्यतानिश्चयपूर्वकत्वेन प्रतिपन्नत्वात् , बाह्या बहिर्वर्तिनी, चेष्टा प्रत्युपेक्षणाऽऽदिसामाचार्यनुपालनारूपा, यथोदिताऽऽगमोक्ता, प्रायो बाहुल्येन, प्रायोग्रहण चोक्तविपरीतकारिभिगुरुकर्मप्राणिभिर्व्यभिचारोऽभिहितार्थस्यमा भूदिति कृतमिति भवति स्यात् ननु कदाचित ग्लानत्वाऽऽदौ तथा प्रव्रज्यायामप्यसौ न दृश्यते इत्याशङ्कयाऽऽह-नवर केवलं भवत्यपि सामान्येन सा विशेषतो विशेषेण क्वचिद्देशे काले पुरुष वा पुष्टाऽऽलम्बनादाश्रिता-पवादे लक्ष्यते निश्चीयते स्थूलदृष्टिभिर्न नैव तथा तद्वद्यथा स्वस्थावस्थायां बाह्यचेष्टति प्रकृतमिति गर्दभिल्लराजगृहीतसाध्वीविमोचनार्थमुजयिन्यामानीतषण्णवतिसामन्तकटककालिकाऽऽचार्य-श्वेहोदाहरणमिति गाथाऽर्थः / (कालिकाचार्यवृत्तम् कालगज 'शब्दे तृतीयभागे 460 पृष्ठे विरतरतो गतम्) अथ करमादिह यथोक्तैव चेष्टा स्यादित्याह - भवणिव्वेयाउ जतो, मोक्खे रागाउ णाणपुवाओ। सुद्धासयस्स एसा, ओहेण विवणिया समए।। 43 / / भवनिर्वेदात्संसारविरागाद्यतो यस्मात्कारणात्तथा मोक्षे निर्वाण रागादभिलाषात् / किं भूतात् ? ज्ञानपूर्वात् सम्यक्ज्ञानपुरस्सरात् न तु मिथ्याज्ञानपूर्वकात् शुद्धाऽऽशयस्य निर्मलाध्यवसायस्य जीवस्य एषा प्रव्रज्या ओघेनाऽपि सामान्यतोऽपि सामायिकमात्रप्रतिपत्त्यपेक्षयाऽप्यास्ता विशेषतोऽप्रमत्ताऽऽदिसामायिकप्रतिपत्तितो वर्णिता भणिता समये सिद्धान्ते, अतः कथमस्यामयथोक्तार्था चेष्टा / इति गाथाऽर्थः। येन वचनेन समये सा तथा वर्णिता तद्दर्शयन्नाह - तो समणो जह सुमणो, भावेण य जइण होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसु / / 44 / / इह प्राकृतशैल्यपेक्षया श्रमणशब्द व्युत्पादयति-(तो इति) ततस्तस्माद्धेतोः "सह मणेण चित्तेण वद्दइ ति" समणो, न चेह मनोमानास्तित्वं विवक्षितशब्दस्य सामायिकविशेषप्रतिपादनार्थस्य व्युत्पत्तिनिमित्ततया विवक्षितं, सकलसंज्ञिसाधारणत्वात् तस्येत्यतस्तद्विशेषणार्थमाह यदीत्यभ्युपगमे, शोभनं धर्मध्यानाऽऽदिप्रवृत्ततया मनश्चित्तं यस्य स सुमनाः / अनेन सद्गुणान्वितमनस्कत्वं विवक्षितशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तत्वेनोक्तम्। अथ दोषरहितमनस्कतामाह-भावेनाऽऽत्मपरिणामेन तत्त्वतो वा निरुपचरितत्वेन, चशब्दः समुच्चये, यदीत्यभ्युपगमे, न भवति नैव स्यात् पापं प्राणातिपाताऽऽदिमत्सनिदानं वा मनो यस्य स पापमनाः, तथा स्वजने च पुत्राऽऽदिके जने चान्यस्मिन् समस्तुल्यः प्रेमाप्रेमयजनन / तथा समश्च तुल्य एव मानापमानयोः पूजेतरयोरिति उत्तरार्धापेक्षया त्वेवं व्युत्पत्तिः-समः सन् सम्यग् वा अणति वर्तते योऽसौ निरुक्तविधिना ' समण इति स्यादित्येवं शुद्धाऽऽशयस्यैवा वर्णितेति गाथाऽर्थः। अथ कस्याऽपि प्रतिमाऽनुष्ठानं विनाऽपि प्रव्रज्या यथोदि तैव स्यादिति दर्शयन्नाह - ता कम्मखओवसमा, जो एयपगारमंतरेणावि। जायति जहोइयगुणो, तस्स वि एसा तहा णेया।। 45 / / (ता इति) यस्माद्भवनिर्देदाऽऽदेः सकाशाद्विशुद्धाऽऽशयस्यैषा वर्णिता तस्मात्कारणात् क्षयोपशमात् ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मविगमविशेषात् कारणाद्यः प्राण्येतत्प्रकारमन्तरेणाऽपि बालत्वाऽऽदिकारणात्प्रतिमाऽऽनुष्ठानव्यतिरेकेणाऽपि एतत्प्रकारेण तावज्जायत एवेत्यपिशब्दार्थः, जायते संपद्यते यथोदितगुणः प्रव्रज्योचितगुणस्तस्याऽपि प्राणिनो, न केवलं प्रतिमाकारिण एव, एषा प्रव्रज्या, तथा तद्वत् प्रतिमाकारिण इव जेयाऽवशेया, कर्मक्षयोपशमादेवेति गाथाऽर्थः / प्रतिमाप्रतिपत्तिव्यतिरेकेणाऽपि प्रव्रज्या जायते इत्येत स्यैव समर्थनार्थमाह - एत्तो चिय पुच्छाऽऽदिसु, हंदि विसुद्धस्स सति पयत्तेणं / दायव्वा गीतेणं, भणियमिणं सव्वदंसीहिं।। 46 // (एतो चिय ति) यत एतत्प्रकारमन्तरेणाऽपि उचितगुणस्य प्रव्रज्याप्रतिमाकर्तुरिव यथोक्ता भवति, अत एव कारणात पृच्छाऽऽदिषु पृच्छाकथनापरीक्षासु / तत्र पृच्छा- 'कोऽसि तुम, कत्तो वा, पव्वयसि वा किंनिमित्तं ति / एवमादिरूपा। कथना पुनः प्रविव्रजिषोः प्रव्रज्यास्वरूपकथनम् / यथा-"जह Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवजा चेव मोक्रूफलया, आणा आराहिया जिणिंदाणं / संसारदुक्खफलया, तह चेव विराहिया होइ।।१॥" इति। परीक्षा तुषण्मासाऽऽदिकालमाना विनयाऽऽदिभिस्तद्योग्यतानिरूपणा / एतेषु पदेषु, हन्दीत्युपप्रदर्शने, दिशुद्धस्य निर्दोषतां गतस्य सकृत्सदा प्रयत्नेनाऽऽदरेण दातव्या देया, पव्रज्येति प्रकृतम् / गीतेन" पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्" गीतार्थेन सूत्रार्थविदा, नान्येनेति, भणितमुक्तमिदमेतत्सर्वदर्शिभिः केवलभिरिति माथाऽर्थः। पुनरपि सामान्यतोऽपि प्रव्रज्याग्रहणमस्तीति समर्थयन्नाह - तह तम्मि तम्मि जोए, सुत्तुवओगपरिसुद्धभावेणं / दरदिण्णाए विजओ, पडिसेहो वण्णिओ एत्थ / / 47 / / तथेति ज्ञापकान्तरसमुचयार्थः। तरिमस्तस्मिन् तत्र तत्र प्रव्राजनमुण्डनाऽऽदौ योगे प्रव्रज्यादानव्यापारे विषयभूते, प्रतिषेधो वर्णित इति योगः / सूत्रोपयोगेनाऽऽगमोपयुक्ततया परिशुद्धो विशुद्धो भावोऽध्यवसायो यस्य स तथा तेन, गुरुणा, किमित्याह-दरदत्तायामपीषद्वितीर्णायामपि, दीयमानायामित्यर्थः / आस्तामदत्तायां प्रव्रज्यायामिति प्रकृतम् / यतो यस्भात्कारणात् , प्रतिषेधो निषेधोऽयोग्यानाम् , वर्णित उक्तः, अत्रेति वक्ष्यमाणे प्रव्रज्याभिधानसूत्रे प्रव्रज्यायां चेति। अतो ज्ञायतेप्रतिमानुष्टानमन्तरेणाऽपि प्रव्रज्याभिधानमस्तीति गाथाऽर्थः।। अथ कथ सूत्रे प्रव्राजनायां प्रतियोगनिषेध उक्त इत्यवसि तमित्याह - पव्वाविओ सिय त्ति य, मुंडावेउमाइ जं भणियं / सव्वं च इमं सम्म, तप्परिणामे हवति पायं // 48 // प्रवाजितः स्यादिति च मुण्डापयितुमित्येतद्वाक्यमादिर्यस्य सूत्रस्य तत्तथा तत् यद्यस्माद्भणितमुक्तं कल्पभाष्ये, तस्मात्प्रतियोगं प्रव्रज्यायां निषेधो वर्णित इत्यवसीयते। तच्चेदं सूत्रम्- "पटवाविओ सिय तिय, मुडावेउं अणायरणजाग्गो / ते चिय मुंडावेंते. पुरिमपयनिवारिया दोसा / / 1 / / " तथा-" मुंडाविओ सिय त्तिय, सिक्खावेउं अणावरणजोग्गो। ते चिय सिक्खावेंते, पुरिमपयनिवारिया दोसा।। १।।""एवं उट्टावेउ, एवं भुंजावेउ, एवं संवासेउं, एवं संवाहेउं / " अयमर्थः-प्रताजितः प्रवाजयिष्यामस्त्वामित्येवमभ्युपगतो रजोहरणाऽऽदिसाधुवेषदानत इत्यन्ये / ततश्च प्रवाजित इति च एतदप्ययोग्यप्रव्राजनलक्षणमसंभाव्य वस्तु स्याद्भवेत् / छद्मस्थतयाऽनाभोगवशात् ततः किंमुचितमित्याहमुण्डापयितुमष्टाग्रहणतो लुश्चयितुम् / अनाचरणयोग्यः अनासेवनाहः, तथाऽपि मुण्डापयत्याचार्येत एवाऽऽज्ञाभङ्गाऽऽदयः। पूर्वपदस्य प्रव्राजनस्य संबन्धिनो दोषा अनिवारिता भवन्तीति। एवमन्यगाथाऽपि बोद्धव्या इति। अथ प्रस्तुतार्थं निगमयतिसर्वच समस्तं पुनरिदं पृच्छाऽऽदिविशुद्धस्य प्रव्रज्यादानाऽऽदिकभागमिकं वस्तु, सम्यग समोचीन भवति। अथवा- सम्यक्त्वपरिणामे यथावत्प्रव्रज्यापरिणतौ सत्यां भवति स्यात्, प्रायो बाहुल्येन / प्रायोग्रहणं चाङ्गारमर्दकाऽऽदिव्यभिचारपरिहारार्थमिति। ततः प्रतिमाकरणमन्तरेणाऽपि प्रतिमाकर्तुरिव प्रव्रज्या स्यादिति हृदयमिति गाथाऽर्थः। ननु यदि प्रतिमाकरणमन्तरेणाऽपि प्रव्रज्या सम्यग् भवति तदा किं तेनेत्यत आह - जुत्तो पुण एस कमो, ओहेणं संपयं विसेसेण / जम्हा असुहो कालो, दुरणुचरो संजमो एत्थ / / 46 || यद्यपि प्रक्रमान्तरेणाऽपि प्रव्रज्या स्यात्तथाऽपि युक्तः सङ्गतः। पुनरिति विशेषार्थः / एषोऽनन्तरोक्तः प्रतिमानुष्ठानाऽऽदिः, क्रमः प्रव्रज्याप्रतिपत्तो परिपाटिः / कथमित्याह-ओघेन सामान्येन, न तु सर्वथैव, तं विनाऽपि बहूनां प्रव्रज्याश्रवणात्। कालापेक्षया विशेषमाह-सांप्रतं वर्तमानकाले विशेषेण विशेषतो युक्त एष क्रमः / कुत एतदेवमित्याह-यस्मात्कारणाद् अशुभोऽशुभानुभावः कालो दुःषमालक्षणो वर्त्तते / ततश्च दुरनुचरो दुःखाऽऽसेव्यः, संयमः संयतत्वम्, अत्राऽशुभकाले, अतः प्रव्रजितुकामेन प्रतिमाऽभ्यासो विधेय इति भावः। इति गाथाऽर्थः / तन्त्रान्तरप्रसिद्ध्या प्रतिमापूर्वकत्वं प्रव्रज्याया योग्यत्वं स मर्थयन्नाहतंतंतरेसु वि इमो, आसमभेओ पसिद्धओ चेव / ता इय इह जाइयव्वं, भवविरह इच्छमाणेहिं / / 50 / / तन्त्रान्तरेष्वपि दर्शनान्तरेष्वपि, आस्तां जिनप्रवचने। अयमनन्तरोक्तः, आश्रमभेदो भूमिकाविशेषः, "ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथा।" इत्यादिनोक्तस्वरूपः / " इओ' इति पाठान्तरम्। तत्र इतोऽशुभकालदुरनुचरसंयमलक्षणाद्धेतुद्वयात् . अथवा इतो जैनप्रवचनात्तन्त्रान्तरेष्विति / प्रसिद्धकश्चैव सिद्ध एव न तु साध्यः / यस्मादेवं तत्तरमाद् , इत्युक्तन्यायेन, इह प्रतिमापूर्वकप्रव्रज्यायां यतितव्यं यत्नो विधेयः, भवविरहं संसारवियोगम, इच्छद्भिर्वाञ्छद्भिनिखिलशासनप्रवरपारगताऽऽगमावलम्बिभिरिति गाथाऽर्थः / पञ्चा० 10 विव० / ('सेहभूमि' शब्दे जडस्यापरिणामस्य दीक्षा) (27) पण्डक-वातिक-क्लीवप्रव्रज्यानिषेधः - ततो नो कप्पंति पव्वावित्तए। तं जहा-पंडए, वाइए, कीवे।। 4 / / अस्य संबन्धमाह - न ठविजई वएसुं, सज्जं एएण होइ अणवट्ठो। दुविहम्मि विन ठविज्जइ, लिंगे अयमन्न जोगो उ।। 258 / / येन तद्दोघपरतोऽपि सद्यः तत्क्षणादेवानाचरिततपोविशिष्टो भावलिङ्गरूपेषु महाव्रतेषु न स्थाप्यते, एतेन कारणेनानवस्थाप्य इत्युच्यते। स चाऽनन्तरसूत्रे भणितः / अयं पुनरन्यः पण्डकाऽऽदिर्द्विविधेऽपि द्रव्यभावलिड़े यो न स्थाप्यते प्रतिपद्यते, एष योगः संबन्धः / अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य (4) व्याख्यात्रयो नो कल्पन्ते प्रव्राजयितुम् / तद्यथा-पण्डको नपुंसको वातिको नाम-यदा स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा मेहनं कषायित भवति तदा न शक्नोति वेदं धारयितुम्। क्लीवोऽसमर्थः, स च दृष्टिक्लीबाऽऽदिलक्षण एष सूत्रार्थः / अथ भाष्यविस्तरःवीसं तु अपव्वज्जा, निजुत्तीए उवन्निया पुट्विं / इह पुण तिहिँ अधिकारो, पंडे कीवे य वाई य / / 256 / / विशतिलिवृद्धाऽऽदिभेदादिशतिसंख्या अप्रव्राज्याः पूर्व Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 770 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा नामनिष्पन्न निक्षेपे नियुक्तौ पञ्चकल्पे सप्रपञ्च वर्णिताः / इह पुनरित्रभिरेवाधिकारः -पण्डकेन क्लीवेन वातिकेन चेति गुरुतरा दोषदुष्टा अमी इति कृत्वा। अथ प्रव्राजनाविधिमेव तावदाह - गीयत्थे पव्वावण, गीयत्थेऽपुच्छिऊण चउगुरुगा। तम्हा गीयत्थस्स उ, कप्पइ पव्वावणा पुच्छा / / 260 // गीतार्थनव प्रव्राजना कर्त्तव्या नागीतार्थन, यद्यगीतार्थः प्रव्राजयति तदा / चतुर्गुरुकम्। गीतार्थोऽपि यदि अपृष्ट्वा पृच्छामन्तरेण प्रव्राजयति तदा तस्यापि चतुर्गुरुकाः। तस्मात् गीतार्थस्य पृच्छा शुद्धं कृत्वा प्रव्राजना कर्तुं कल्पते / पृच्छाविधिश्चायम् कोऽसि त्वं को वा ते निर्वेदो येन प्रव्रजसि? एवं पृष्ट सति - सयमेव कोइ साहति, मित्तेहिँ व पुच्छिओ उवाएणं। अहवा वि लक्खणेहिं, इमेहिँ नाउं परिहरेज्जा / / 261 / / स्वयमेव कोऽपि पण्डकः कथयति-यथा सदृशे मनुष्यत्वे ममेदृशस्त्रैराशिके वेदः समुदीर्ण इति / यद्वा-मिस्तस्य निर्वेदकारणमभिधीयते / प्रव्राजकेन वा स एवोपायपूर्व पृष्टः कथयेत् / अथवालक्षणैर्महिलास्यभावाऽऽदिभिरभिर्वक्ष्यमाणैत्विा परिहरेत्। तत्रपृच्छां तावद्भावयति - नजंतमणज्जंते, निव्वेयमसढे पढमया पुच्छे। अन्नातो पुण भन्नइ, पंडाइ न कप्पई अम्हं / / 262 / / यः प्रव्रजितुमुपस्थितः स ज्ञायमानो वा स्यादज्ञायमानो वा। ज्ञायमानो नाम-अमुकोऽमुकपुत्रोऽयं , तद्विपरीतोऽज्ञायमानः ; स यदि श्राद्धः श्रावको न भवति, ततः प्रथमतस्तं निर्वेद पृच्छेत् / यः पुनरज्ञातः स समासेन भण्यते-न कल्पते अस्माकं पण्डकाऽऽदिः प्रव्रजयितुम् / सच यदि पण्डकस्तत एवं चिन्तयति - नाओ मि त्ति पणासइ, निव्वेयं पुच्छिया व मे मित्ता। साहंति एस पंडो, सयं व पंडो त्ति निव्वेयं / / 263 / / ज्ञातोऽस्म्यहममीभिरिति मत्वा प्रणस्यति। अथवा यानितस्य मित्राणि तानि पृच्छ्यन्ते एष तरुण ईश्वरो नीरोगश्च विद्यते. ततः केन निर्वेदन प्रव्रजति? एवं पृष्टानि तानि बुवते-एष पण्डक इति।स्वयंवा सपण्डकोऽस्म्यहमिति निर्वेदं कथयति। बृ० 4 उ० / दश०। (28) अथैतेषां प्रव्राजने प्रायश्चित्तमाह - दससु विमूलायरिए, वयमाणस्स वि हंवति चउगुरुगा। सेसाणं छह वी, आयरिए वदंति चउगुरुगा / / 278| पण्डकाऽऽदीन आसिक्तांस्तान् दशापि नपुंसकान् यः प्रव्राजयति तस्याऽऽचार्यस्य दशस्वपि प्रत्येकं मूलम् / तेष्वेव दशसु यो वदति प्रव्राजयति तस्याऽपि चतुर्गुरुका भवन्ति / शेषाणां बर्द्धिताऽऽदीनां षण्णामपि च प्रतिसेकानां प्रव्राजने आचार्यस्य चतुर्गुरुकं, यो वा प्रव्राजयति तस्याऽपि चतुर्गुरुकम्। अथ शिष्यः प्रश्नयति - थीपुरिसा जह उदयं, घरेंति झाणोववासणियमेहिं। एवमपुमं पि उदयं, धरिज जति को तहिं दोसो ? / / 276 / / यथा स्त्रीपुरुषा ध्यानोपवासनियमैरुपयुक्त चोदयं धारयन्ति, एवं नपुंसकोऽपि यदि धारयेत् , ततः प्रताजिते को दोषः स्यात् ? अहवा ततिए दोसो, जायइ इयरेसु किं न सो भवति? एवं खु नत्थि दिक्खा, सवेययाणं न वा तित्थी / / 280 / / अथवा युष्माकमभिप्रायो भवेत्-तृतीये नपुंसके वेदोदये चारित्रभइलक्षणो दोषो भवेत् , ततः स उच्यते, इतरयोः स्त्रीपुरुषयोरपि वेदोदये स दोषः किं न भवति? अपिच-क्षीणमोहाऽऽदीन् मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि संसारस्था जीवाः सवेदकास्तेषां च दोषदर्शनादेव भवदुक्तनीत्या नास्ति दीक्षा, तदभावाचन तीर्थनस्तीर्थस्य संत-तिर्न वेति। सूरिराह - थीपुरिसा पत्तेयं, वसंति दोसरहिएस ठाणेसु। संवासें फासदिट्ठी, इयरे वच्छंबदिट्ठतो।। 281 / / स्त्री प्रव्रजितास्त्रीणां मध्ये निवसति, पुरुषः प्रव्राजितः पुरुषमध्ये वसति / एवं तौ प्रत्येक दोषरहितेषु स्थानेषु वसतः / इतरस्तु पण्डको यदि स्त्रीणां मध्ये वसति तदा संवासे स्पर्शतो दृष्टिश्च दोषा भवन्ति / एवं पुरुषेष्वपि संवसतस्तस्य दोषा भवन्ति। वत्साऽऽम्रदृष्टान्तश्चात्र भवतियथा वत्सो मातरं दृष्ट्वा खाद्यमानं दृष्ट्वा यथा मुखं क्लिन्ति, एवं तस्य संवासाऽऽदिना वेदोदयेनाभिलाष उत्पद्यते, भुक्ताभुक्तभोगिनः साधवस्तमभिलषेयुः / यत एवमतः पण्डकौ न दीक्षणीयः / द्वितीयपदे एतैः कारणैः प्रव्राजयेदपि - असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए आगाढे। गेलन्ने उत्तमढे, नाणे तवदसणचरित्ते / / 282 / / स प्रवाजितः सन् अशिवमुपशमयिष्यति, अशिवगृहीतानां वा प्रतितर्पणं करिष्यति / एवमवमौदर्ये राजद्विष्टे बोधिकाऽऽदिभये वा आगाढे ग्लानत्वे उत्तमार्थे वा ज्ञाने दश्रने चारित्रे वा सहाय करिष्यति / एतैः कारणैः पण्डकं प्रव्राजयेत्। अथैनामेव गाथा व्याख्याति - रायट्ठभयेसुं, ताणट्ठ निवस्स चेव गमणट्ठा। विजो व सयं तस्स उ, तप्पिस्सति वा गिलाणस्स / / 283 // गुरुणो व अप्पणो वा, नाणादी गिण्हमाणे तप्पिहिति। चरणा देसावक्कमि, तप्पे ओमासिदेहिं वा / / 284 / / राजद्विष्ट बोधिकाऽऽदिभये च त्राणार्थ, नृपस्य वा अभिगमनार्थम् / किमुक्तं भवति? राजद्विष्ट समापतिते देशान्तरं गच्छतां तन्निस्तारणक्षम भक्तपानाऽऽद्युपष्टम्भं करिष्यति; राजवल्लभो वा स पण्डकस्ततो राजानमनुकूलयिष्यति, बोधिकाऽऽदिभये वा स बलवान् गच्छस्य परित्राणं विधास्यति / ग्लानत्वद्वारे स पण्डकः स्वयमेव वैद्यो भवति, ततो ग्लानस्य चिकित्सा करिष्यति / यद्वा-स तस्य ग्लानस्य वा वेतनभेषजाऽऽदिना प्रतितर्पिष्यति उपकरिष्यति, वाशब्दादुत्तमार्थ प्रतिपात्रस्य वा मम साहाय्यं करिष्यति, स्वयमेव वाऽसावुत्तमार्थ प्रतिपत्स्यति। तथा गुरोरात्मनो वा ज्ञानम् आदिशब्दादर्शनप्रभावकानि शास्त्राणि गृहृतोऽसौ भक्तपानाऽऽदिभिर्वस्वाऽऽदिभिश्वोपकरिष्यति / चरणात् , चारित्रं पालयितुं न शक्यते ततो देशादपक्रमणं कुर्वतां मार्गा Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 771 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवञ्जा ऽऽदिषु स्वजनाऽऽदिबलाद्भक्तपानाऽऽदिभिस्तस्कराऽऽदिभिः रक्षणतश्वोपकरिष्यते। अवमाशिवयोर्वा प्रतितर्पिष्यति / अत्र च नानुपूर्व्या, अपितु वस्तुत्वख्यापनार्थमवमाशिषद्वारयोः पर्यन्ते व्याख्यानम्। एएहिँ कारणे हिं, आगाढेहिं तु जो उ पव्वावे। पंडाईसोलसगं, कए उ कज्जे विगिचणया / / 285 / / एतरागाद्वैः समुपस्थितैः कारणैः यः पण्डकाऽऽदिषोडशकस्यान्यतरं नपुंसक प्रव्राजयति, तेनाऽऽचार्येण कृते समापिते कार्ये तस्य नपुंसकस्य विवेचन परिष्ठापन कर्तव्यम्। तत्र प्रव्राजनायां तावद्विधिमाह - दुविहो जाणमजाणी, अजाणगं पन्नति उ इमेहिं। जणपच्चयट्ठयाए, नजंतमणजमाणे वि // 286 // 'द्वविधो नपुंसको-ज्ञायकोऽज्ञायकश्च / तत्र यो जानाति-साधूनां राशिकः प्रनाजयितुन कल्पते स ज्ञायकः, तद्विपरीतोऽज्ञायकः / तत्र ज्ञायकमुपस्थितं प्रज्ञापयन्तिभवान् दीक्षाया अ, योग्यः, ततोऽवक्तवेषधारी श्रावकधर्म प्रतिपद्यस्व, अन्यथा ज्ञानाऽऽदीनां विराधना ते भविष्यति। अज्ञायकमप्येवमेव प्रज्ञापयन्ति। अथैनां नेच्छति, प्रव्रज्यामेवाभिलषति, आत्मनश्च किश्चिदशिवाऽऽदिकं कारणमुपस्थित, ततस्तमज्ञायकं जनप्रत्ययार्थममीभिः कटीपट्टकाऽऽदिभिः प्रज्ञापयन्ति / स चाज्ञायकस्तत्र जनेन ज्ञायमानोऽज्ञायमानो वा स्यादुभयत्राप्ययं विधि: कर्तव्यःकडिपट्टए य छिहली, कत्तरिया मुंड लोय पाढे ऽय। वन्यकह सन्नि राउलववहार विगिचणा विहिणा / / 287 / / कटीपट्टकं स परिधाप्यः, छिहली शिखा तस्य शिरसि धारणीया; अथ नेच्छति ततः कर्तर्या क्षुरेण वा मुण्डन विधेयं, लोचो वा विधातव्यः / (पाढि त्ति) परतीर्थिकमताऽऽदीनि स पाठनीयः / कृते कार्ये धर्मकथा कर्तव्या येन लिङ्गपरित्यज्य गच्छति। अथैव लिङ्गं न मुञ्चति ततः संज्ञिभिः श्रावकैः प्रज्ञापनीयः / अथ राजकुलं गत्वा कथयति ततो व्यवहारोऽपि कर्त्तव्यः / एवं तस्य विगिञ्चना परिस्थापना विधिना वक्ष्यमाणनीत्या विधेया। एष द्वारगाथासमासार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिकडिपट्टओ अभिनवे, कीरइ छिहली य अम्ह चेवाऽऽसी। कत्तरिया मुंडं वा, अणिच्छे एक्कक्कपरिहाणी॥ 288 || कटीपट्टकोऽभिनवप्रव्रजितस्य तस्य क्रियते, नपुनरग्रावपूरकः शिरसि च छिहली शिखा घ्रियते। यदि ब्रूयात्-किं मम अग्रावपूरक, सर्वमुण्डन वा न कुरुत? ततो वृषभा भणन्ति अस्माकमपि प्रथममेवं कृतमासीत् , ततश्च मुण्डनं कर्ता कर्त्तव्यम् / अथ नेच्छति ततो क्षुरेण, क्षुरमप्यनिच्छतो लोचः कर्त्तव्यः / एवमेकैकपरिहाणिर्मन्तव्या, शेषा तु सर्वत्रापि धारणीया। छिंहलि तु अणिच्छंते, भिक्खुगमादी मतं पि णेच्छंते। परतित्थियवत्तव्यं, उक्कमदाणं ससमए वि।। 286 / / अथ शिखामपि नेच्छति ततः सर्वमुण्डनमपि विधीयते। सा च द्विविधा शिक्षाग्रहणे, आसेवन च। आसेवनाशिक्षायां क्रियाकलापमसौन ग्राह्यते। ग्रहणशिक्षायां भिक्षुकाः सौगतास्तेषामादिशब्दात्कापिलाऽऽदीनां च परतीथिकानां मतमध्याप्यत / अथ तदपि नेच्छति ततः शृङ्गारकाव्यं पाठ्यते, तदप्यनिच्छन्तं द्वादशाहै यानि परतीर्थिकवक्तव्यतानिबद्धानि सूत्राणि तानि पाठयन्ति / तान्यप्यनिच्छतः स्वसमयस्याऽऽलापका उत्क्रमेण विलुप्ता दीयन्ते। आसेवनाशिक्षायां विधिमाह - वीयारगोयरे थेरसंजुओ रत्ति दूरे तरुणाणं / गाहेण ममं पि ततो, थेरा गाहेंति जत्तेणं / / 260 / / विचारभूमि गच्छन् गोचरं वा पर्यटन स्थविरसाधुसयुक्तो हिण्डाप्यते, रात्रौ तरुणाना दूरे क्रियते, ते च साधवो न पाठयन्ति / ततो यदि ब्रूतेमामपि पाट ग्राहयत, ततः स्थविराः साधवो यत्रेन ग्राह्यन्ति। किं तदित्याह - वेरग्गकहा विसयाण जिंदणा उट्ठनिसीयणे गुत्ता। चुक्खलिए य बहुसो, सरोसमिव नोदए तरुणा।। 261 // यानि सूत्राणि वैराग्यकथायां विषयनिन्दायां च निबद्धानि तानि ग्राह्यन्ते। अथवा-बैराग्यकथा विषयनिन्दा च तस्य पुरतः कथनीया, उत्तिष्ठन्तो निषीदन्तश्च साधवो गुक्ताः संवृता भवन्ति, यथा-ऽङ्गादानं स न पश्यति, तस्य यदि सामाचार्यां चुक्कस्खलितानि भवन्ति / चुकं नाम विस्मृतं किं चित्कार्य, स्खलितं तदेव विनष्ट, ततो ये तरुणास्ते तं सरोषमिव परुषं वचोभिर्बहुशो नोदयन्ति येन तरुणेषु नानुबन्धं गच्छति। अथधर्मकथापदं व्याचष्टे - धम्मकहा पाढिजति, कयकजो वा से धम्ममक्खंति। मा हण परं पिलोगे, अणुध्वता दिक्ख नो तुज्झं / / 262 / / धर्मकथा वा सपाट्यते कृतकार्यो वा सपठ्यते, ततः कार्येण दीक्षितस्तत् समाप्यते, तस्य धर्ममारख्यान्ति, यथा मर्दितो न रजोहरणाऽऽदिलिङ्ग धारयेत् / तदभावे बोधनमपघातकरणाय त्वं वर्तसे, ततो मा परमपि लोकं हन विनाशय मुञ्च रजोहरणाऽऽदिलिङ्गम्। तवाणुव्रतीनि धारयितुं युज्यन्ते, न दीक्षा / एवं प्रज्ञापितो यदि मुञ्चति तदा लष्टम्। ___ अथ न मुञ्चति ततः - सन्नि खरकम्मिओ वा, मेसेति कतो इहेस कंचिक्को। णिदसिटे वा दिक्खितों, एतेहिंअणातें पडिसेहो। 263 / / यः खरकर्मिकः संज्ञी स पूर्वप्रज्ञाप्यते-अस्माभिः कारणैः त्रैराशिकः प्रव्राजितः, स इदानीं लिङ्गं नेच्छति परित्यक्तं ततो यूयं प्रज्ञापयत / एवमुक्तो असावागत्य गुरून् वन्दित्वा सर्वान् साधून निरीक्षते। ततः तं पण्डकं पूर्वकथितचिह्ररुपलक्ष्य भूमितलस्फालनशिर कम्पनखरदृष्टिनिरीक्षणपरुषवचनैर्भेषयति। कुत एव इह युष्माकमध्ये कश्चित्को नपुंसक इति / तं च ब्रवीति अपसर साम्प्रतमितः, अन्यथा व्यपरोपयिष्यामि भवन्तम् / एवमुक्तोऽपि यदि न मुञ्चति, खरकर्मिकस्य वा श्रावकस्याभावे यदि नृपस्य कथयतिअहमेतैर्दीक्षितः, सांप्रतं पुनः परित्यजन्ति / ततो व्यवहारेण जेतव्यः, कथमित्याह-यद्यसौ जनेनाज्ञातो दीक्षितस्ततः प्रतिषेधः क्रियते, नास्माभिर्दीक्षित इति अपलप्यत इत्यर्थः / ___ अथाऽसौ ब्रूयात् - अज्झाविओ मि एतेहिँ चेव पडिसेधों किं वऽधीयंते। छलियादिकहा ककृति, कत्थ जती कत्थ छलियाई ? || 264 / / Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 772 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवजा - अहमेतैरेवाध्यापितस्ततोऽत्रापि प्रतिषेधः कार्यो, न किमप्यस्माभिरध्यासित इत्यर्थः / अथवा व्यक्तव्यम्-किं त्वया अधीतम? ततोऽसौ छलितकाव्याऽऽदिकथामाकर्षेत्। तत्र वक्तव्यम्-कुत्र यत-यः, कुत्र च छलिताऽऽदि काव्यकथा ? साधवो वैराग्यमार्गस्थिताः शृङ्गारकथां न पाठयन्ति। पठामो वयमीदृशं सर्वज्ञभाषितं सूत्रम् - पुव्वावरसंजुत्तं, वेरग्गकरं सतंतमविरुद्धं / पोराणमद्धमागधभासानियतं हवति सुत्तं / / 265 / / यत्र पूर्वसूत्रनिबन्धः पाश्चात्यसूत्रेण न व्याहन्यते तत्पूर्वापरसंयुक्तं, वैराग्यकर विषयसुखवैमुख्यजनक, स्वतन्त्रेण स्वसिद्धान्तेन सहाविरुद्धं, सर्वथा सर्वकालं सर्वत्र नास्त्यस्मा इत्यादिस्वसिद्धान्तविरोधरहितमित्यर्थः। पौराणं नाम पुराणैस्तीर्थकरगणधरलक्षणैः पूर्वपुरुषैः प्रणीतम् अर्द्धमागधभाषानियतमिति प्रकटार्थम् / एवंविधमस्मदीयं सूत्रं भवति। किंच - जे सुत्तगुणा भणिया, तव्विवरीयाइँ गाहए पुट्विं / नित्थिन्नकारणेणं, सा चेव विगिचणे जयणा / / 266 / / ये सूत्रस्य गुणाः पीठिकायां भणितास्तद्विपरीतानि वर्णविकलानि सूत्राणि तंग्राहयेत्। ततो निस्तीर्णकारणेन मया पूर्व विवक्षितप्रयोजनाभावतः सैविकथापरिष्ठापने यतना भवति / एवं व्यवहारेण परिष्ठापनविधिरुक्तः। येषु व्यवहारेण न शक्यते परित्यक्तं तस्याऽयं विधिः - कावालिए सरक्खे, तव्वण्णियवेसलिंगरूवेणं / कोडुंवग पव्वइए, कायव्वॉ विहीऍ वोसिरणं // 267 / / गीतार्था हि विकर्षणाद् वृषभा उच्यन्ते, ते कापालिकसरजस्कास्तद्वर्णिकवेषग्रहणेन तं परिष्ठापयन्ति / यो वा कोम्बिको बहुस्वजन: प्रवाजितस्तस्य संबन्धिनो विधिना व्युत्सर्जन कर्त्तव्यम्। एतदेव भावयति - निववल्लहें बहुपक्खम्मि यावि तरुणवसमा इमं विति। भिन्नकहाओभट्ठा, न घडइ इह वच्च परतिव्थं // 298 // यो नृपस्य वल्लभो बहुपाक्षिको वा प्रभूतस्वजनमित्रवर्यस्तयोरयं परिष्ठापने विधिः। यदा नपुंसको रहसि तरुण भिक्षुमवभाषते, भि-नकथां वा करोति, तदा ते तरुणवृषभा इदं बुवते-इह यतीनां मध्ये ईदृशं न घटते, यदि त्वमीदृशं कर्तुकामोऽसि ततः निष्क्रमण कुरा, परतीर्थिकषु वा व्रज। ततो यदि ब्रूयात् - तुमए समगं आमं, ति निग्गओ भिक्खमाइलक्खेणं। नासति भिक्खुगमादिसु, छोडण तत्तो वि हि पलाइ / / 266 // | त्वया सममह परतीर्थकेषु गमिष्यामि-एवमुक्तः सतरुण वृषभ आममिति भणित्था निर्गच्छति, निर्गतश्च भिक्षुकादिवेषेण गत्वा तेषु भिक्षुकाऽऽदिषु प्रक्षिप्य नश्यति, यः पुनस्तत्र नाभिप्रैति, तं साधुं न मुञ्चति, तं रात्रौ सुप्तं मत्वा पलायते, भिक्षाऽऽदिलक्ष्येण चा निर्गतो नश्यति। सूत्रम् __ एवं मुंडावित्तए सिक्खावितए उवट्ठावित्तए संभुंजित्तए संवसित्तह।। 5 यथा एते पण्डकाऽऽदयः प्रव्राजयितुं न कल्पन्ते / एवमेत एव कथचिच्छलितेन प्रवाजिता अपि सन्तो मुण्डापयितुं शिरोलोचने लुश्चितुंन कल्पते / एवं शिक्षापयितुं प्रत्युपेक्षणाऽऽदिसामाचारी ग्राहयितुम्, उपस्थापयितुं महाव्रतेषु व्यवस्थापयितु, संभोक्तुमेकमण्डलीसमुद्देशाऽऽदिनाऽभ्यवहारयितु, संवासयितुमेकत्र समीपे आसयितुमिति सूत्रार्थः / अथ भाष्यम् - पव्वाविओ सिय त्ति उ, सेसं पणगं अणायरणजोग्गो। अहवा समायरंते, पुरिमपदणिवारिता दोसा॥ 300 // स पण्डकश्चेत्कदाचिदनाभोगाऽऽदिना प्रव्राजितो भवेत्। इति-शब्दः स्वरूपपरामर्शार्थः / एवं प्रवाजितोऽपि यदि पश्चात् ज्ञातस्तदा (सेसंपणगं ति) विभक्तिव्यत्ययात् शेषपञ्चकस्य मुण्डापनाऽऽदिलक्षणस्याऽऽचरणयोग्येन तदाचरणीयमिति भावः। अथलोभाऽऽद्यभिभूततया तदपि समाचरति ततः पूर्वपददोषाः पूर्वस्मिन् प्रवचनाऽऽख्यपदे ये प्रवचनापयशः प्रवादादयो दोषा उक्तास्ते अनिवारितास्तदवस्था एव मन्तव्या इति भावः। मुंडाविओ सिय त्ती, सेसचउक्कं अणायरणजोग्गो। अहवा समायरंते, पुरिमपदनिवारिया दोसा / / 301 / / अनाभोगाऽऽदिना मुण्डापितोऽपि स्यात्ततः शेषचतुर्धाऽस्य शिक्षापनादिलक्षणस्याऽऽचरणेऽयोग्यः / अथ समाचरति ततः पूर्वपददोषा अनिवारिताः। एवं तिस्त्रो गाथा वक्तव्याः। यथासिक्खाविओ सियत्ती, सेसतिगस्सा अणायरणजोग्गो। अहवा समायरंते, पुरिमपदनिवारिया दोसा / / 302 / / उवठाविओ सियत्ती, सेसदुगस्सा अणायरणजोग्गो। अहवा समायरंते, पुरिमपदनिवारिया दोसा / / 303 / / संभुंजिओ सियत्ती, संवासेउं अणायरणजोग्गो। अहवा संवासित्ते, पुरिमपदनिवारिया दोसा।। 304 / / एवं षड्विधसचित्तद्रव्यकल्पसूत्राणि क्रमेण भवन्ति / तथा चात्रामी दृष्टान्ताः - मूलातो कंदादी, उच्छुविकारा य जह रसा वीय। मिप्पिंडगोरसाण य, होति विकारा जहकमेणं / / 305 / / जह वा णिसेगमादी, गब्भे जातस्स णाममादीया / होंति कमा लोगम्मी, तह छव्विहकप्पसुत्ताओ / / 306 / / यथा मूलात् कन्दस्कन्धशाखाऽऽदयो भेदाः क्रमेण भवन्ति / इक्षविकाराश्च रसकक्काऽऽदयो यथाक्रमेण जायन्ते। मृत्पिण्डस्य वा यथा स्थासकोशकुशूलाऽऽदयो, गोरसस्य च दधिनवनीताऽऽदयो विकारा यथाक्रमेण भवन्ति / यथा वा गर्ने प्रविष्टस्य जीवस्य निषेक ओजःशुक्रपुद्गलाऽऽहरणलक्षणस्तदादयः, आदिशब्दात्कललावुदपेशीप्रभृतयः पर्याया भवन्ति, जातस्य वा तस्यैव नामाऽऽदयो नामकरणचूडाकरणप्रभृतयः क्रमाद्यथा लोके भवन्ति तथा षविधकल्पसूत्राणि यथा क्रमभाविप्रताजिताऽऽदिषविषयाणि क्रमेण भवन्ति / बृ०४ उ० / स्था०। ग०। पं० भा०। 50 चू० / नि० चू०। आव० / पं०व० / (परिष्ठापना पण्डकाऽऽदीनां परिझवणा 'शब्देऽस्मिन्नेव भागे 575 पृष्ठे विस्तरत उक्ता) Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदज्जा 773 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवजा (षड्वर्षस्य अतिमुक्तककुमारस्य प्रव्रज्या ' अइमुत्तय शब्दे प्रथमभागे 6 पृष्ठादवगन्तव्या) षड्वर्षजातस्य तस्य प्रव्रजितत्वम् / आह च-" व्यरिसो पव्वइओ, निगाथ रोचिऊण पावयणं / " एतदेव चाऽऽश्चर्यमिहान्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति। भ०५ श०४ उ०। षड्वर्षप्रव्रज्या कारणिकीयो देशोनपूर्वकोट्यायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते, तदपेक्षमिति। ऊनता च पूर्वकोट्या अष्टाभिर्वरष्टवर्षस्यैव प्रव्रज्याईवात्। यच्चषड्वर्षस्त्रिवर्षों वा प्रव्रजितोऽतिमुक्तको वैरस्वामी वा, तत्कादाचित्कमिति न सूत्रावतारीति। भ० १२श०६ उ०। (26) नायकमनायकं या प्रव्राजयति, अनलं वा प्रव्राजयति - जे मिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं पव्वावेइ, पव्वावंतं वा साइज्जइ / / 160 / / जे भिक्खू अणलं पव्वावेइ, पव्वावंतं वा साइज! 161 / / णायगो स्वजनः, अथवा नातगो प्रज्ञायमानः, अनायगो अप्रज्ञायमानः, उपासकः श्रावकः, अनुपासकः मिथ्यादृष्टिः; न अलं पर्याप्तः अनल अपर्याप्तः, अयोग्य इत्यर्थः / पव्वावेतस्स चउगुरु आणादिया य दोसा। इमा निजुत्ती न सुत्तक्कमेण अणाणुपुटवीए वक्खाणेति - साहू वा समणो वा, उवासओ वती व अवती वा। सो पुण णायग इतरो, एवडणुवासे वि दो भंगा / / 220 / / काम खलु अलसद्दो, तिविहो पज्जत्तमत्तहिं पगतं / अनलो अपचलो त्ति य, होति अजोग्गो व एगहुँ / / 221 // उवासगो दुविहां-वती, अवती वा। अवती सो परदेसण संपन्नो। एक्कक्को पुणो दुविहोणायगो, अणायगी वा। अणु वासगे विनायगमनायगो य एते चेव दो वि। तथा अनलमित्यपर्याप्तः / चोदकाऽऽह-ननु अलंशब्दः त्रिष्वर्थेषु दृष्टः / तद्यथा-पर्याप्त, भूषणे, वारणे। आचार्याऽऽह-यद्यपि त्रिष्वर्थेषु दृष्टः तथापि अर्थवशादत्र पर्याप्त द्रष्टव्यः, न अलो अनलः, अपचल अयोग्य एकार्थाः। तेय पव्वजाए अजोग्गा इने - अवारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु / पव्वावणा अणरिहा, इति अणलो इत्तिया भणिया / / 222 // सब्वे अडयालीसं। जे ते अट्ठारस पुरिसेसु ते इमे - बाले बुड्ढे णपुंसे य, जडे कीवे य वाइए। तेणे रायावकारी य, उम्मत्ते य अदंसणे // 223 / / दोसे दुढे य मूढे य, अणभे जुंगिए इय। उव्वद्धए तरुयए, सेहणिप्फडिया इअ॥ 224 / / जो पुरिसणसगो सो पडिसेवति पडिसेवावेति जातं वीसं। इत्थीसुता इमाबाला पुड्डी० जाव सेहणिप्फडिया, एते अट्ठारस। इमाओ य दो गाहा - गुढिवणी बालवच्छा य, पव्वावेउं न कप्पती। एएसिँतु परुवणा, कायव्वा दुपयसंजुत्ता / / 225 / / णपुंसदारे विसेसो-इत्थी णपुंसिया इस्थिवेदो वि से, नपुंसगवेदमपि वेदेति एतेसि गाहापच्छद्धं' दुपदनपुंस त्ति। अस्य व्याख्या - कारणमकारणे वा, जयणेतरा पुणो दुविहा। एस परूवण दुविहा, गयं तु दप्पेणिमं सुत्तं / / 226 / / कारणे णिक्कारणे वा पव्वावेति, कारणे जयणाए, अजयणाए वा जो दप्पेण पटवावेति तस्स चउगुरुगं, आणादिया य दोसा / नि० चू०११ उ०। (बालभेदान् ' बाल शब्दे वक्ष्यामि) इयाणि नपुंसया दस, ते पुरिसेसु चेव वुत्ता नपुंसगदारे जे जति पुरिसेसु वुत्ता ते चेव इहं पि। किं कतो भेदो? भन्नति-तेहिं पुरिसाकिती इह गहणं, सेसया ण भवे। इयाणिं बीस इत्थीओ, तस्स वालादी अट्ठारस इथीओ जहा पुरिसा। इयाणिं गुठ्विणी बालवच्छा य - जे केइ अणलदोसा, पुव्वं भणिता मए समासेणं / ते चेव अपरिसेसा, गुव्विणि तह बालवच्छाए।। 444 // जे एते हेट्ठा अनलाणं बालादी दोसा वन्निया ते गुम्विणी बालच्छाए भाणियव्वा / कहं? उच्यते-गुविणीए बालदोसा भविस्सा,बालवच्छाए पुण वट्टमाणो चेव बालदोसो, नपुंसगा वि ते होज्जा, सेसा वि भइयव्वा। इमो मोत्तुं - मोत्तूण णवरि बुद्धं, सरीरजडुं च चोरमवगारिं। दोसमणत्तं च तहा, उव्वद्दाती यजे पंच।। 445 // उव्वद्दाई पंच इमे-उवद्दगो, सेहनिप्फेडिया, गुम्विणी, बालवच्छा थ। एतेसुसब्वेसु बालेसुन भवन्ति। अवसेसा पुण अणला, भइअव्वा तह य गुठ्विणीऐं भवे / कायभवत्थो विवं, विकितं पसवम्मि व मरेज्जा / / 446 / / अविसेसा सिय अस्थि सिय नत्थि इमे गुविणीए चेव दोसा स्त्रीकाये न भवन्ति, अथवा कायभवस्थो उक्कोसेण द्वादशवर्षाणि गर्भत्वेन तिष्ठतीत्यर्थः / हस्तपादकर्णनासाक्षिविवर्जितं विंवं मृगावतिपुत्रवत् , विकृतं सप्पाऽऽदिवद्भवेत्। प्रसवकाले वेदणाए वा मरेज्ज। एतेसामण्णतरं, अणलं जो णाइगाइ पव्वावे। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे / / 447 // . अणलं पव्वार्वेतस्स इमं पच्छित्तं - तेणे कीवे रायावगारि दुढे य जुंगितादी य / सेहे गुव्विणि मूलं, सेसे चउरो सवित्थारा / / 448 / / कंठा, नवर सेहि त्ति सेहणिप्फेडियाइएसु जहुद्दिढेसु मूलं, सेसेसु सव्वेसु चउगुरुगा सवित्थारा। अहवा अन्नपरिवाडीए इमं भन्नइ - कीवे दुढे तेण्णे, विगुव्विणि रायावगारि सेहे य। मूलं तू पारंची, मूलं वा होति चउगुरुगा / / 446 / / कीवे मूलं, दुहादिएसु चउसु पारंचियं, अहवा दुट्ठादिएसु गुरुगा सव्वित्थारा। अहवा अन्नपरिवाडीए इमं भन्नइ - बाले वुड्ढे कीवे, जडुमत्ते य जुंगियसरीरे। गच्छे पव्वइयाणं, संवासो एगतो भणितो / / 450 / / बाल बूढा कारणे पव्वाविया, कीवो अभिभूतो शरीरजे Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 774 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा ड्डो उम्मत्ता शरीरजुगिती अयंसणो / एते सव्वे पव्वाविया संता एरिसा जाता। एतेसिं संवासो एक्कतो चेव, न पुढो जदि ते अन्नवसहीए छविजंति, तो ते विषादं गच्छन्ति। तम्हा गच्छगता चेव विधीए परिविजति / गुठ्विणी कह वि अण्णाता पव्वाविता, जहा करकंडुमाता पउमावती। पडिणीएण वा, जहा पेढाले जिट्ठा, सा विहीए भावितसङ्घकुलेसुसंगुप्पति, सञ्जणिससव्व वट्टमाणिं च वहति, अंतरंतरे सेहोवायं। जिणवयणपडिकुटे, जो पव्वावेति लोभदोसेणं। चरियट्ठी य तवस्सी, सो लोपनि तमेव तु चरित्तं / / 451 / / अड्यालीसं पडिकुट्टा सिस्सलोभेण अप्पणो चरित्तवुविनिमित्त परो पव्वाविवति, ते पुण पव्वाविता अप्पणो वि चरितघायं करेंति। इमं वितियपदं - पव्वाविओ सिय त्तिय, सेसं पणगं अणायरणजोग्गं / अहवा समायरंते, पुरिमपदनिवारिता दोसा / / 452 / / जति अणलो पव्वावितो सिअ त्ति अजाणया जाणया कारणेणं सेस पणगं णायराविति, तं च इमं-मुंडावणसिक्खावणउट्टावणसं जणसंवासे त्ति, सो एयरूस पणगस्स णायरणजोग्गो, अथ आयरावेति, तो पव्वावणपदे पुव्ववण्णिए दोसे पावति / नि० चू० 11 उ० / (अङ्गारदाहकाऽऽदीन न प्रव्राजयेत्। इति ' आयरिय ' शब्दे द्वितीयभागे 322 पृष्ठे गतम्) (अवग्रहे यदि कश्चिद् गृहस्थः प्रवव्रजिषुरागच्छेत् तत्प्रतिबोधः 'अवग्गह' शब्दे प्रथमभागे 704 पृष्ठे उक्तः) (30) निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थैरात्मार्थ न प्रव्राजनीया - णो कप्पति णिग्गंथाणं णिग्गंथिं अप्पणो अट्ठाए पव्वावित्तएवा मुंडावित्तए वा सिक्खावित्तए वा सेहावित्तए वा उवट्ठावित्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा तीसे इत्तिरियं दिसंवा अणुदिसंवा उदिसित्तए वा धारित्तए वा / / 4 / / कप्पति निग्गंथाणं निग्गथिं अण्णेसिं अट्ठाए पव्वावित्तए वा मुंडावित्तए वा सिक्खावित्तए वा सेहावित्तए वा उवट्ठावित्तए वा संभुंजित्तए वा संवसित्तए वा तीसे इत्तिरियं दिसंवा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारित्तए वा / / 5 / / णो कम्पति निग्गंथीणं निग्गंथं अप्पणो अट्ठाए पव्वावित्तए वा मुंडावित्तए वा० जाव धारित्तए वा॥ 6 // कप्पति निग्गंथीणं णिग्गंथं अण्णस्स अवाए पव्वावित्तए वा० जाव धारित्तए वा / / 7 / / न कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीमात्मनोऽर्थाय प्रव्राजयितुं सामायिकाऽऽरोपणतो, मुण्डापयितु लोवकारापणतः, शिष्यापयितुमासेवनाशिक्षाग्रहणप्रदानतः, उपस्थापयितुमुत्थापनाकरणतः, संभोक्तुं षण्णां सांभोगिकानामन्यततेन, यथायोग संभोगेन वस्तुंवा, तथा तस्या इत्वरदिशमाचार्यलक्षणामनुदिशं वा उपाध्यायाऽऽदिरूपामुद्देष्टुं वा / कल्पते निर्ग्रन्थानां निन्थीनामन्यार्थमित्यादि प्राग्वन्नवरमन्येषामित्याचार्यस्योपाध्यायस्य वा प्रवर्तिन्या अर्थाय ते एतस्या उपसंग्रह करिष्यन्तीत्यभिप्रायेण / शेषं सुगमम्। अण्णट्ठमप्पणो वा, पव्वावणे चउगुरू च आणादी। मिच्छत्त तेणसंकट्ठ मेहुणे गाहणे जं च / / 67 / / शिष्यस्य मे च सर्वकार्येषु सहायिनी भविष्यतीत्येवमन्यार्थमेवमात्मनो वाऽर्थाय यदि प्रव्राजयति निर्ग्रन्थी तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः, तथा मिथ्यात्वं तीर्थकरवचनातिक्रमात् / तथा स्तैन्यार्थ शङ्कायां किं मन्ये प्रव्राज्याऽऽहरिष्यति, उत धर्मश्रद्धया प्रव्राजयतीत्येवंरूपायां यत्प्रायश्चित्तं चतुर्लघुकम् / उपलक्षणमेतत्निःशङ्कितमेष प्रव्रज्याऽऽहरिष्यतीति निश्चयेऽपि यत्प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / तथा-मैथुने शङ्किते यथा कि मैथुनार्थमेष प्रव्राजयति, उत धर्मश्रद्धयेति यत्प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम्। नूनमेष मैथुनार्थ प्रव्राजयतीत्येवं निःशङ्किते यन्मूलं प्रायश्चित्तम् / यच्च ग्रहणे कञ्चकाऽऽदिसंधाटपावरणोपदेशदाने कक्षान्तराऽऽदिदृष्ट्वाऽऽत्मपरोभयसमुत्थदोहाचर्यविराधना तन्निमित्तमपि प्रायश्चित्तमापद्यते / एतदेवोत्तरार्ध व्याचिख्यासुराह - तेणट्टे मेहुणे वा, हरइ अयं संकऽसंकिए सोही। कक्खादभिक्खदंसणमथक्कमाऽऽतोभए दोसा / / 68 / / अयं प्रव्राजनाव्याजेन हरतीत्येवं शङ्कायामशविते वास्तैन्यस्यार्थे, तथा मैथुनशङ्कायामशविते वा मैथुन, वा शोधिः प्रायश्चित्तं तदापद्यते। तथा कक्षाऽऽदीनामथक्रम प्रस्तावमभीक्ष्णदर्शने आत्मोभयदोषाः। उपलक्षणमेतत्-परदोषाश्चायतनेऽपि प्राप्नोति। एतदेव सविशेषमाह - हरति त्ती संकाए, लहुगा गुरुगा य होति नीसंके। मेहुणसंके गुरुगा, निस्संकिएँ होइ मूलं तु / / 66 || अथ प्रव्रज्या दातव्या येन हरतीत्येवं शङ्का प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः निःशङ्कहरणे नूनमेष निश्चित्तं हरिष्यतीत्येवं निश्चये भवन्ति चत्वारो गुरुकाः / तथा मैथुनाऽऽशङ्कायां चत्वारो गुरुकाः, निःशङ्किते मैथुने वा भवति मूलम्। अमुमेवार्थ सूत्रकृतागालापकेन संवादयति - ' अवि धूयराहिँ वासो, पडिसिद्धो तह य वासें सतिहिक्का ? वीसत्थादी दोसा, विजहट्ठा एव पुवुत्ता / / 100 / पूर्व सूत्रकृताङ्गे 13 गाथा। 4 अ०१ उ०। एवोक्ता अभिहिताः पूर्वोक्ताः। पव्वावणा सपक्खे, परिपुच्छिऍ दोसवजिए दिक्खा। एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो व कारणिओ / / 101 / / यरमादेते दोषा स्वस्मात् सपक्षे प्रव्राजना कर्त्तव्या / तद्यथा-पुरुषाः संयतैः प्रव्राजनीयाः, स्त्रियः संयतीभिः संयतैरनुज्ञाताभिः। सा च दीक्षा परिपृच्छ्य किं प्रव्रजसि इति पृष्टा यद्यभ्युपगच्छति तदा दातव्या, पर दोषवर्जिते " अट्ठारस पुरिसेसु " इत्येवमादिदोषरहिते। अत्र पर आहयद्येतत्तत्त्वं तहिं सूत्रमफलं, सूत्रे परपक्षेऽपि दीक्षाया अभ्यनुज्ञानात्त - स्याश्वासंभवात्। आचार्यः प्राह-सूत्रनिपातः कारणिकः कारणमपेक्ष्येदं सूत्रं प्रवृत्तमिति भावः। अत्र भाष्यम् Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 775 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा किं तत्कारणमत आह - कारणमेगमडवे, खंतियमादीसु मेलणा होइ। पव्वज्जमब्भुवगए, अप्पाण चउव्विहा तुलणा।। 102 / / कारणमशिवाऽऽदिलक्षणमधिकृत्य कोऽपि साधुरेकाकी जातः, कथमप्येकमडम्बे गतः। एकमडम्बं नाम यस्य निवेशस्य सर्वासु दिक्षु च नास्ति कोऽप्यन्यो ग्रामो नगरं वातस्मिन्नेकमडम्बे गतस्तत्र च संयत्यो न विद्यन्ते / अथ च तम्मिन्नेकमरुम्बे तस्य साधोर्माता भगिनी अन्या वा काचन नालसंबद्धा स्वजनाऽस्ति, कोऽप्यन्योतासां मात्रादीनां मेलापकः साधोर्भवति। सच मात्रादिकः स्त्रीजनोधर्मे कथिते अकथिते वा प्रव्रज्या प्रतिपतुमभ्युपगतः। यथा वयं प्रव्रज्या प्रतिपद्यामहे-एवं प्रव्रज्यामभ्युपगते मात्रादावशङ्कनीय स्त्रीवर्गे यतना कर्तव्या। सा चेयम्-तेन साधुना च चलनया तोस-यितव्यः। तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च। तत्र द्रव्यतो यदि समर्थ आहारमुपधि भेषजाऽऽदिकं चोत्पादयितं समर्थः / तथा कस्याप्येवं स्वभावो भवति यथा न शक्नोति स्थातुं प्रथमालिका विना, चतुर्थरसिकाऽऽदिकं वा पानकं न शक्रोति पातुं, ततस्तद्योग्य पानकं प्रथमालिकां वा नेतुं समर्थः। तथा कस्याप्येवं स्वभावो भवति क्षेत्रतो यदि शक्नोति पथि पादाभ्यां गन्तुमध्वनि वा यदि शक्नोति आहाराऽऽदिमुत्यादयितुं, कालतो ग्रीष्मकाले पानक, शीतकाले तत्कालप्रयोग्यमाहाराऽऽदिकं तदुत्पादयितुं समर्थः, रात्री मध्याह्ने यदि गन्तुं प्रभुर्भावतो यदि क्रोधाऽऽदीनां दहनं कर्त्त क्षमा, ज्ञानदर्शनचारित्राणि सामाचारी च ग्राहयितुमास्ते, ततो या-वदाचार्याणां प्रवर्त्तिन्या वा मूलं न प्राप्नोति तावदनया चतुर्विधया तुलनयाऽऽत्मानं तुलयित्वा यदि समर्थो जातस्ततः प्रव्राजयति। एतदेवाऽऽह - असिवाऽऽदिकारणगतो, वोच्छिन्नमडंव संजतीरहिते। कहियाकहिएँ उवट्ठिएँ, असंक इत्थीसिमा जयणा / / 103 / / अशिवाऽऽदिभिः कारणैरेकाको, व्यवच्छिन्ना ग्रामनगराऽऽदयो दिक्षु विदिक्षु च यस्मात्तस्मिन्थ्यच्छिन्ने संयतीरहिते प्रडम्बे गतस्तत्र च धर्मे कथिते अकथिते वा मात्रादयो व्रतग्रहणार्थमुपस्थितास्तासु अशङ्कासु अशङ्कनीयास्वियं वक्ष्यमाणा यतना। तामेवाऽऽह - आहारादुप्पायण, दव्वे समुइंच जाणते तीसे। जइ तरइ गंतु खेत्ते, आहारादीणि अद्धाणे ! 104 / / द्रव्ये द्रव्यतो यद्याहाराऽऽदीनाम् / आदिशब्दादुपघ्यादिपरिग्रहः / उत्पादने समर्थः। 'समुइ 'नामस्वभावः,ततस्य जानीति यथा प्रथमालिकां विना न शक्नोति चतुर्थराशिकाऽऽदिकं च पानीयं पातुं न शक्नोति, ततस्तद्योग्य पानं प्रथमालिकां चोत्पादयितुं क्षमः / तथा क्षेत्रतो यदि पथि पादाभ्यां गन्तुं तरति, अध्वनि चाऽऽहाराऽऽदिकमुत्पादयितुम्। गिम्हाइकाले पाणग, निसिगमणोमेसु वा वि जइ सत्तो। भावे कोहाइजओ, गहणे णाणे य चरणे य / / 105 / / काले ग्रीष्माऽऽदौ यदि पानकमुत्पादयितुं शक्तः / उपलक्षणमेतत्शीतकाले च प्रायोग्यं तत्संपादयितुं शक्तः / मावे यदि क्रोधाऽऽदि जयः | कर्तुं शक्यते, ज्ञाने चरणे च तस्या ग्रहणे समर्थस्तदा यावदाचार्यमूलं प्रवर्तिनीमलं च न प्राप्नोति तावदेतया चतुर्विधयाऽऽत्मानं तोलयित्वा यद्यात्मनः समर्थता मम्यते तदा प्रव्राजयति, यावत्कथासमर्थो वा प्रव्राजयति। अत्रेयं मार्गणा-यो यावत्कथं परिपालयितुं समर्थः स नियमात्प्रवाजयति, इतरस्मिस्तु भजना / तथाहि-यो यावत्कथं परिपालयितुं समर्थस्तस्य यद्याचार्यः सलब्धिकः परिपालने समर्थोऽन्यो वा स्वगणसक्तः परिपालयितुं क्षमस्ततः प्रव्रज्य तस्य समर्पयति / अथाऽऽचार्योऽन्यो वा स्वगणसक्तस्ता परिपालयितुं न समर्थस्तदा न प्रव्राजयति। इयमितरस्मिन् भजना - अब्भुञ्जयमेगयरं, पडिवञ्जिउकामों जो उ पव्वावे। गुरुगा अविजमाणे, अन्ने गणधारणसमत्वे / / 106 / / योऽभ्युद्यतमेकतरं नाम लब्धिक आर्यिकाणां परिपालने च समर्थस्तस्य मात्रादिका वनग्रहणार्थमुपस्थिताः, स यद्युद्यतविहारं मरणं या प्रतिपत्तुकामस्तर्हि यदि तस्याऽऽचार्योऽन्यो वा स्वगणसक्तः परिपालने समर्थस्तदाताः परिव्राज्य तस्य समर्पयति, समर्प चाऽभ्युद्यतविहारं मरणं वा प्रतिपद्यते। अथ नास्त्याचार्यः स्वगणसक्तो वा तासां परिपालकस्तदा अन्यस्मिन् गणधारणसमर्थे अविद्यमाने योऽभ्युद्यतमेकतरं विहारं मरण वा प्रतिपत्तुकामः प्रव्राजयति तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। जो वि य अलद्धिजुत्तो, पव्वावे तस्य होंति गुरुगा उ। तम्हा जो उ समत्थो, सो पव्वावेइ ताओ वा / / 107 / / योऽप्पलब्धियुक्तो न तत्प्रायोग्यमाहारयितुमीशस्तस्याऽपि प्रव्राजयतो भवन्ति चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तं, यत एवमसमर्थतायां प्रायश्चित्तं तस्माद्यः समर्थः स ता मात्रादिकाः स्त्रीः प्रव्राजयति। एवं तुलेउणऽप्पं, सा वि तुलिज्जइ उ दव्वमाईहिं। कायाण दंसणं दिक्ख सिक्ख इतरदिसा नयणं / / 108 / / एवमुक्तेन प्रकारेणाऽऽत्मानं द्रव्याऽऽदिरूपया चतुर्विधया तुलनया तोलयित्वा याऽसौ प्रव्राजनीया साऽपि द्रव्याऽऽदिभिस्तोलयितव्या / सा च तुलनाऽगे भणिष्यते / यदि तुलनायामुक्तायां सा व्रतेसर्वमह कर्तुं समर्था इति / तदा सा दीक्षणीया। सा च तुलना तस्याः कर्त्तव्या यस्याः स्वभावो न ज्ञायते / यस्याः पुनः स्वभावो ज्ञातो वर्त्तते तत्राऽऽत्मतुलनैव प्रागुक्ता कर्तव्या। अथ यदि तस्य माता भगिनी वा ततः कथं तस्याः स्वभावोन ज्ञायते? उच्यते-सलघुक एव नष्टः प्रव्रजितो वा ततः स्वभावापरिज्ञानम्। (कायाण दंसणमिति) कायानां पृथिवीकायाऽऽदीना दर्शनं कर्त्तव्यम् / यथा- एष पृथिवीकाय उच्यतेऽयमप्कायोऽयं तेंजस्काय एव वायुकायोऽयं वनस्पतिकाय एव चलनधर्मा द्वीन्द्रियाऽऽदिवसकायः / तत्र प्रथिव्याम आलिखनाऽऽदिनकर्त्तव्यमा अप्कायेन स्वमात्रसेवनादि, तेजस्कायेन प्रतापनाऽऽदि, वनस्पतिकायेन दन्तधावनाऽऽदि, उसकायस्य परितापनाऽऽदि। यदि पुनः कायैः कार्यमुपजायते तदा उत्कारणे प्रासुकेन परिमितैन कर्त्तव्यम् / एवमभ्युपगते तस्या दीक्षा दातव्या, तदनन्तरं ग्रहणशिक्षा, आसेवनाशिक्षा च शिक्षणीया। तत्र ग्रहणशिक्षासा दशबैकालिकाऽऽदिसूत्र पाठनीया। आसेवनाशिक्षायत् परिधापनाऽऽदिशिक्षा; तत्तत्र परिधापनविधिमुपदर्शयित्रुकामेन पूर्व लघु Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवजा 776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवज्जा बालकः सयतीनेपथ्येन परिधाप्यते, तत उच्यते-एवमायें ! त्वमपि परिधान कुर्याः / तथा भिक्षाटनसामाचारी संक्षेपेण कथयति / तत इत्वरदिक्करणम्-यावदाचार्यसकाशं नव्रजामितावदहमेव ते आचार्योsहमेव च प्रवर्तिनी, आचार्यसमीपं गतातां त्वाचार्या ज्ञातारः / ततो वक्ष्यमाणविधिना गुरुसमीपे नयनम् / एष नियुक्तिगाथा समासार्थः।। साम्प्रतमेनामेव विवरीषुर्भाष्यकारः प्रथमत रन्तस्या द्रव्याऽऽदिमिस्तुलनामाह - पेज्जादि पायरासा, सयणासणवत्थपाउरण दव्ये। दोसीण दुव्वलाणि य, सयणादि असक्कया एम्हि / / 106 / / गृहस्थावस्थायां प्रातराशा प्रथमालिका पेयाऽऽदिरूपा पेया प्रतीता, आदिशब्दान्मण्डकमोदकाऽऽदिपरिग्रहः / तथा शयनाऽऽसनवस्त्राणि शोभनानि प्रावरणानि कालोचितान्यासीरन, इदार्नी तु व्रतप्रतिपत्ती प्रथमालिकायां भक्तं (दोसीणमिति) पर्युषित भविष्यति, दुर्बलानि च शयनाऽऽदीनि शयनाऽऽसनवस्त्राणि प्रावरणानि च, एतेषां कर्तुमशक्यता, इयं द्रव्ये द्रव्यविषया प्रतिपृच्छा। पुनरपि द्रव्यविषयामेव तामाह - पडिकारा य बहुविहा, विसयमुहा आसि भे ण पुण इहि। वत्थाणि ण्हाणधूवा-विलेवणा ओसहाइं च / / 110 / / तथा (मे) भगवतीनां गृहस्थावस्थायां व्याधेः प्रतीकारा बहुविधा आसीरन्, विषयसुखानि च बहुविधानि / तथाहि-गृहस्थावस्थायां मनोज्ञानि वस्त्राणि, शरीरमनःप्रहत्तिकरं स्नान, प्राणमनोनिवृतिकरा घृणाः, शरीरसुभगानि विलेपनानि, एतेन विषयसुखानि भावितानि / तथा औषधानि गृहस्थावस्थायां नानाप्रकारसंगृहीतानि, इदानीं पुनर्न विषयसुखानि, नापि प्रतीकारा बहुविधाः, ततः परं दुष्करं व्रतमेतदिति। क्षेत्रतः प्रतिपृच्छामाह - अद्धाण दुक्ख सेजा, करेणु तमसा य वसहिओ खेत्ता। परपाएहिँ गयाणं, उसियाण य उउसुहघरेसुं / / 111 / / युष्माक सदैव परपादैर्गतानां सदैव च ऋतुसुखेषु गृहेषूषितानां प्रव्रज्याप्रतिपत्त्यनन्तरमध्वनि स्वपादाभ्यां गमने महद् दुःखं भविष्यति, शप्या वसतिः, करेणुका तथा दीपो रात्रौ न प्रज्वाल्यते, वसतयो वसनानि तमसा कष्टानि भविष्यन्ति, एषा क्षेत्रे प्रतिपृच्छा। कालत आह - आहाराउवओगो, जोग्गो जो जम्मि होइ कालम्मि। सो अन्नहा न य निसिं, अकालेऽजोग्गो य हीणो य / / 112 // योयस्मिन्काले योग्य आहाराऽऽधुपयोगः स गृहस्थावस्थायां समपद्यत, व्रतप्रतिपत्त्यनन्तरं तु स आहाराऽऽधुपयोगोऽन्यथा भवति, तथा न रात्रावाहाराऽऽधुपयोगो, न च कालेऽपि च, कदाचिदयोग्यो भवति, सोऽपि च न परिपूर्णः, किं तु हीनः / इति गतः कालः। प्रतिपृच्छामाह - सव्वस्स पुच्छणिज्जा, न य पडिकूलेन सइरमुदिताऽसि / खुड्डा वि पुच्छणिज्जा, चोयण फरुसा गिरा भावे / / 113 / / ) गृहस्थावस्थायां त्वं सर्वस्य प्रच्छनीया वर्तसे, तत्रापि न प्रतिकूलेन, तथा स्वैर स्वेच्छाया मुदिता प्रमोदवती गृहस्थावस्थायामसि भवसि / व्रतप्रतिपत्त्यनन्तरं तुक्षुल्लिकाऽपि त्वया प्रच्छनीया, तथा चोदना शिक्षणं परुषया गिरा भविष्यति। एतच्च परमदुस्सहमित्येषा भावे भावविषया प्रतिपृच्छा। जइ जेण वएण तहा, व लालिता तं तदनहा भणति। सोयादिकसायाण य, जोगाण य निग्गहो समिती॥ 114 / / या यस्मिन्वयसि, गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्, यथा येन प्रकारेण लालिता, वाशब्दो भावविषयप्रतिपच्छाप्रकारान्तरोपदर्शने, तां तदन्यथा इदं व्यक्ति, श्रोत्रादीनामिन्द्रियाणां कषायाणां योगानां च कायप्रभृतीनां निग्रहः कर्त्तव्यः, समितयश्च ईर्यासमित्यादयः पञ्चपरिपालनीयाः। तदेवं तस्या द्रव्याऽऽदिभिस्तुलनोक्ता। संप्रति कायानां च दर्शनमाह - आलिहणसिंचणतावण-वीयणदंतधुवणादिकज्जेसु। कायाण अणुवभोगो, फासुयभोगो परिमितो वा / / 115 / / पृथिव्याः काष्ठाऽऽदिना आलिखनमुदकेन सेचनमनिना तापन वायोर्वीजनं दन्तप्रक्षालनमित्यादिकार्येषु कायानामनुपभोगः / यदि पुनः कायैः प्रयोजनमुपजायते तदा प्रासुकेन परिभोगः कर्त्तव्यः, सोऽपि च परिमित इति। संप्रति दीक्षाऽऽदिद्वारप्रतिपादनार्थमाह - अब्भुवगयाएँ लोओ, कप्पट्टगलिंगकरणदंसणया। भिक्खग्गहणं कहती, तावदहं ते दिसं तिण्णि / / 116 // पूर्वोक्तं सर्व यद्यभ्युपगतवती भवति, तदा तस्या अभ्युपगताया अभ्युपगमवत्या लोचः कर्तव्यी, यदातु निवसनविधिमुपादेष्टुमुपक्रान्तो भवति तदा कल्पस्थकस्य बालकस्य संयतीनेपथ्यपरिधापनेन निवसनस्य दर्शनं कर्त्तव्यम्। तथा भिक्षःग्रहण भिक्षाऽटनसामाचारी कथयति, वदति च यावदाचार्यसमीपं न व्रजामि तावदह ते तवं तिस्त्रो दिशः / अहमेव तवाऽऽचार्योऽहतेवोपाध्याया अद्धमेव प्रवर्तिनीति। आचार्यपादमूल गतानां त्वाचार्याः प्रमाणम्। नयनविधिमाह - माऊण एक्कियाए, संबंधीइत्थिषुरिससत्थे य। एमेव संयतीण वि, लिंगकरणें मोत्तु वितियपदं / / 117 // एकस्था मातुः, उपलक्षणमेतत्, भगिन्या वा-नयनं नालबद्धवासंबन्धिना पुरुषसार्थेन, तस्याप्यभावेऽन्येन भद्रकेन सार्थेन सह, गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् / सूत्रम्" नो कप्पइ निग्गंथीणं निग्गथं अप्प० / / 6 / / कप्यति निग्गथीणं अप्प० / / 7 / / "इत्यादिसूत्रद्वयम्। अस्याक्षरगमनिका प्राग्वत्। अत्र भाष्यकारः प्राह- ''एमेव'' इत्यादिगाथापश्वार्द्धम् / एवमेव अनेनेव प्रकारेण, संयतीनामपि संयतं प्रव्राजयन्तीनां निरवशेषं वक्तव्यम्। नवरंलिङ्गकरणे द्वितीयपद मुक्त्वा लिङ्गकरणे द्वितीयपदमधिकं वाऽऽसेवनीयमिति भावः / एतदेव दर्शयतिउटुंत निवेसंते, सइ करणादी य लज्जनासे य / तम्हा उसकडिपट्ट, गाहें ति तयं विहसिक्खं / / 11 / / Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवज्जा 777 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवण्ण अग्रपरकमात्रणे उत्तिष्ठति, निविसति, सकृत्करणाऽऽदौ च यस्मात (24) प्रव्रजितस्याऽऽर्यिकाभिर्वन्दनम् / गजानाशो भवति तस्मात्तकं संयतं द्विविधमपि शिक्षा ग्राहयति, सकटी (25) परीक्ष्य प्रव्राजनम्। पट्टवं स्न्तं कटीपट्टकपरिधानोपेत सन्तम्। (26) एकादशप्रतिमाप्रतिपन्नस्य श्रावकस्य प्रव्रज्या। आयरिएँ उवज्झाओ, तइया य पवत्तिणी उसमणीणं / (27) पण्डक-वातिक-क्लीवप्रव्रज्यानिषेधः। अण्णेसिं अट्ठाए, त्ति होइ एएसि तिण्हंपि / / 116 / / (28) पण्डकादीनां प्रव्राजने प्रायश्चित्तम्। श्रमणी-नाचार्य उपाध्यायस्तृतीया च प्रवर्तिनी भवति, श्रमणानां त्वाचा (26) नायकम् , अनायकं वा अनलं वा प्रव्राजयति। तत्र प्रायश्चित्तम्। योपाध्यायौ / ततोऽन्येषामर्थायेति यदुक्तं सूत्रद्वयेऽपि व्याख्यातम्। व्य० (30) निर्गन्थी निन्थैरात्मार्थ न प्रव्राजनीया। 7 उ० "कषाया यस्य नोच्छिनाः यस्य नाऽऽत्मवशं मनः। इन्द्रियाणि पवजियव्व त्रि० (प्रतिपत्तव्य) स्वीकर्त्तव्ये,'' एया पवजियव्वा, एयासिं, न गुप्तानि, प्रव्रज्या तस्य जीवनम्॥१॥" सूत्र० 1 श्रु०८ अ०। येन वाज्यायाः पूर्व लघुधान्यानि प्रत्याख्यातानि भवन्ति. तस्य तदग्रहणे जोग्गय उवगएणं।" पञ्चा०१६ विव०। तानि कल्पन्ते, न वेति? प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र पूर्व येन लघुधान्यानि पवट्ट त्रि०(प्रवृत्त)" वृत्त-प्रवृत्त-मृत्तिका-पत्तन-कदर्थिते टः " प्रत्याख्यातानि तस्य प्रव्रज्याग्रहणे सति अन्यान्नाप्राप्तौ तानि कल्पन्ते / / 8 / 2 // 26 / / इति तस्य टः / उपक्रान्ते, प्रा० 2 पाद। इति।। 118 // ही०३ प्रका०। ('मूलगुणपडिसेवणा'शब्दे कल्यिकाप- पवट्टण न०(प्रवर्तन) प्ररूपणे, विशे०। पुनःपुनर्देहमलने, नि० चू० 3 उ०। रिग्रहप्रतिषेवणाप्रस्ताव कुष्ठप्रव्राजनाविचारः) (पर्युषणायां दीक्षादानम् पवट्टय पुं०(प्रवर्तक) प्रवर्त्तयतीति प्रवर्तकः / प्रवर्त्तमानस्य प्रेरके, प्रव० 'पजुसवणाकप्प' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 250 पृष्ठेगतम) २द्वार। विषयसूची - पवट्ठ पुं०(प्रकोष्ठ)" ओतोऽद्वाऽन्योऽन्य-प्रकोष्ठाऽऽतोद्यशिरोवे(१) भेदतः प्रव्रज्याव्याख्यानम्। दना-मनोहर-सरीरुहे क्तोश्च चः।।" ||1 / 156 // इति सूत्रण को इति भागस्य वः / गृहद्वारपिण्डे, प्रा०१पाद। (2) प्रव्रज्यापर्यायाः। पवडत त्रि०(प्रपतत् ) प्रकर्षेणाधः पतिते,"पवडते व सेतत्थ, पक्खलंते (3) त्रिविधा प्रव्रज्या। व संजए।" दश०५ अ०१ उ०॥ (4) धर्मश्रवणतोऽभिसमागमतश्च दीक्षाया एव स्वरूपता निरूपणम्। पवडण न०(प्रपतन) भूमौ पाते, स्था०५ ठा०२ उ० / "पवडणं भूमीए (5) योग्येन गुरुणा। गत्तेहिं / ' भूमौ प्राप्तं सर्वगात्रैश्च यत् पतनम् / बृ०६ उ०। (6) कभ्य प्रव्रज्या दातव्या, के पुनस्तदर्हा इति निरूपणम्। पवडणया स्त्री०(प्रपतनता) प्रपतनशब्दप्रवृत्तिनिमित्ते, प्रज्ञा०१६ पद। (7) कस्मिन् क्षेत्राऽऽदौ प्रव्रज्या दातव्या / आ० म०। (8) यतिरेकप्राधान्यतः कालनिरूपणम्। पवडणा स्त्री०(प्रपतना) भूमौ पाते, स्था०५ ठा०२ उ०। (E) चरमपुद्गलपरावर्ते विशुद्ध्यमानस्य च दीक्षा भयवतीत्येवमस्याः पवडमाण त्रि० (प्रपतत्) प्रकर्षण भूमौ सर्वैरपि गात्रैः पतति, बृ०६ उ०। सामान्यतो विशेषतश्चाधिकारिनिरूपणम्। पवडण न०(प्रवर्धन) प्रकर्षण वर्धन प्रवर्धनम् / सूत्र० 1 श्रु०२ अ०१ (10) समवसरणान्तः पुष्पाते योग्यतानिर्णयाद्दीक्ष्यतेऽसौ, बहिस्त- | उ० / विवर्धने, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। त्पाते तु यो विधिस्तन्निरूपणम् / पवण पु०(पवन) पवते पुनातीति वा पवनः। पिं०। वायौ, आव०४ अ०। (11) कथं केन प्रकारेण दातव्या। प्रश्नः / स्वातीनक्षत्रदेवतायाम् , स्था०२ ठा०३ उ०। आ० म० / 'अणिलो गंधवहो मारुओ समीरो पहंजणो पवणो।" पाइ० ना०२५ (12) कथामधिकृत्य। गाथा। (13) परीक्षा। *प्लवननातरणे,ज्ञा०१ श्रु०१४ अ० जलोपरि गमने, सूत्र०१ श्रु० (14) सामायिकाऽऽदिसूत्रदानम् / 14 अ० उत्प्लवने, उत्त०२ अ०।"लंघणजवणपमद्दणसमत्थे।' (15) शेषविधिः / जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। (16) वन्दनविधिः। पवणकिचन०(प्लवनकृत्य)प्लवनं तरणं कृत्यं कार्य यस्येति। तरकाण्डे, ज्ञा०१श्रु०१४ अ०। (17) लिङ्गदान एव विधिः। (18) अप्रमार्जनदोषाः। पवनकुमार पु०(पवनकुमार) वायुकुमारे भवनपतिविशेष, स्था० 10 ठा०॥ पवणबलसमाहय त्रि०(पवनबलसमाहत) वातसामथ्यात्प्रेरिते, ज्ञा०१ (16) साधुधर्मे परिभाविते यत्कर्तव्यं तन्निरूपणम्। श्रु०८ अ०। (20) पालनासूत्रम्। पवणाहय त्रि०(पवनाऽऽहत) वायुप्रेरित, औ०। (21) प्रव्रज्याविधिः / पवण्ण त्रि०(प्रपन्न) अभ्युपगते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। उत्त० / (22) गुरखे आत्मनिवेदनम्। "अवेलगों य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो / एक कजप(२३) प्रव्रज्याफलम। वन्नाणं, विसे से किं नु कारण ? / / 13 / / ' उत्त०२३ अ०। Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवण्ण 778 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवत्तिणी (अरया गाथाया व्याख्या ' गोयमकेसिज्ज 'शब्दे तृतीयभागे 660 पृष्ठे / ___ रूपम् / व्य०१3०1 गता) पवत्तिणी स्त्री०(प्रवर्तिनी) गणमहत्तरिकायाम् आचार्यस्थानीयायां पवत्तग पुं०(प्रवर्तक) प्रशस्तयोगेषु साधून प्रवर्त्तयतीति प्रवर्तकः / गणे सकलसाध्वीनां नायिकायाम् बृ०३ उ०। व्य०। पं०व०नि० चू०। प्रवृत्तिनिवृत्तिविधायके, ध०। अथ प्रवर्तिनीगुणानाह - अथ प्रवर्तकगुणानाह - गीतार्था कुलजाऽभ्यस्तसत्क्रिया पारिणामिकी। तपःसंयमयोगेषु, योग्यं यो हि प्रवर्त्तयेत्। गम्भीरोभयतो वृद्धा, स्मृताऽऽऽपि प्रवर्तिनी।। 126 / / निवर्तयेदयोग्यं च, गणचिन्ती प्रवर्तकः / / 143 // गीतार्था श्रुतविभागमधिकृत्य, तथा कुलजा विशिष्टकुलजाता, तथा गणचिन्तीति गणचिन्ताकारकः / शेष सुगमम् / प्रशस्तयोगेषु साधून अभ्यस्ता सत्क्रिया यया सा तथा, तथा परिणामामिकी उत्सर्गापप्रवर्तयतीति प्रवर्तकः / प्रवर्तकपदयोग्य इत्यर्थः / / 143 / / ध०३ वादविषयज्ञा। तथा गम्भीरा अलब्धमध्या। तथा उभयतो दीक्षावयोभ्यां अधि० / आव० / प्रयोजके, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। रा०। ज्ञानाऽऽदिषु वृद्धा स्थविरा, चिरदीक्षिता परिणतेत्यर्थः / ईदृशी आर्माऽपि संयत्यपि प्रवर्तयितरि, कल्प०३ अधि०६ क्षण / प्रवर्त्तयतीत्येवं शीलः प्रवर्तकः / प्रवर्तिनी स्मृता प्रोक्तति संबन्धः / ध०३ अधि०। धर्मे विषीदता प्रोत्साहके. व्य०१ उ०। अथवृत्तद्वयेन गणिनीस्वरूपं दर्शयति - पवत्तचक्क त्रि०(प्रवृत्तचक्र) योगिभेदे, द्वा०। समा सीसपडिच्छीणं, चोअणासु अणालसा। प्रवृत्तचक्रास्तु पुनर्यमट्टयसमाश्रयाः। गणिनी गुणसंपन्ना, पसत्थपुरिसाणुगा।। 127 // शेषद्यार्थिनोऽत्यन्तं,शुश्रूषाऽऽदिगुणान्विताः।।२३।। स्वशिष्याणां प्रातीच्छिकानां च समा तुल्या, तथा चोदनासु अनलसा (प्रवृत्तचक्रास्त्विति) प्रवृत्तचक्रास्तु पुनर्यमद्वयस्य इच्छायमप्रवृ कृतोद्यमा, प्रशस्तपुरुषाऽनुगा प्रशस्तपुरुषानुसारिणी, एवं-विधा गणिनी त्तियमलक्षणस्य समाश्रया आधारीभूताः / शेषद्वयार्थिनः स्थिरय महत्तरिका गुणसंपन्ना ज्ञानादिगुणसहितेति। अउप्छन्दः / / 127 // मसिद्धियमद्वयार्थितः, अत्यन्तं सदुपायप्रवृत्त्यिा, सुश्रूषाऽऽदयो गुणाः संविग्गा भीयपरिसाय, उग्गदंडा य कारणे। सुश्रूषाश्रवणग्रहणधारणविज्ञानोहापोहलक्षणास्तैरन्यितायुक्ताः // 23 // सज्झायज्झाणजुत्ता य, संगहे अविसारया / / 128 / / द्वा०१६ द्वा०। संविना संवेगवती, तथा भीतपर्षद्, यतः कारणे उग्रदण्डा, तथा स्वापवत्तण न०(प्रवर्तन)"तस्याऽधूर्ताऽऽदौ " ||8|2 / / / इति ध्यायध्यानयुक्ता, तत्र स्वाध्यायः पञ्चधा, ध्यानं च धर्म शुक्लल सूत्रेणाऽधूर्ताऽऽदाविति पर्युदासात् तस्य टो न / प्रा०२ पाद / उद्यमे, क्षणमिति, चकारः समुचयार्थः / तथा संग्रहे शिष्याऽऽदिसंग्रहणे, उत्त०३१ अ०। चकारादुपग्रहे च, विशारदा कुशलेति। विषमाक्षरेतिगाछन्दः // 128 // पवत्तय न०(प्रवर्तक) प्रथमरामारम्भादुर्ध्वमाक्षेपपूर्वकं प्रवर्त्तमाने, जं० ग०३ अधि०। (प्रवर्तिनीरहिताभिर्निग्रन्थीभिर्न स्थातव्यमिति ' उद्देस 'शब्दे द्वितीयभागे 808 पृष्ठे गतम्) (निर्ग्रन्थ्या नवडहरतरुण्या नोद्देष्टव्यम् १वक्ष। इति' आयारपकप्प शब्दे द्वितीयभागे 353 पृष्ठे उक्तम्) (निर्ग्रन्थ्याः पवत्ति(ण) पुं०(प्रवर्त्तिन ) प्रवर्त्तयति साधूनाचार्योपदिष्टषु वैयावृत्याऽऽदिषु क्षताऽऽचारायाः प्रवर्तिनीत्वं न कल्पते इति खयायार 'शब्देतृतीयभागे प्रवर्ती / प्रवर्तके, स्था०४ ठा०३ उ०। 718 पृष्ठे उक्तम्) प्रवर्तिस्वरूपमाह - अयोग्यप्रवर्तिनी - तवनियमविणयगुणनीहिपवत्तया नाणदंसणचरित्ते। अहुणा पवत्तिणी तासिं, अजोग्गा तु इमा भवे / संगहुवग्गहकुसला, पवत्ति एयारिसा हुति॥ 336 / / वासग्गामविहारे य, वीयाराऽऽदेक्क दीहिया / / तपो द्वादशप्रभदं, नियमा विचित्रा द्रव्याऽऽद्यभिग्रहाः, विनयो ज्ञानाऽ5- अजुत्तोवहि अणाउत्ता, अप्पछंदा य काहिया। दिविनयः, तपोनियमविनयानां गुणानां निधय इव तपोनियमविनय - पडिणी थद्धसुहसीला, गिहिवेयावचकारिया।। गुणनिधयस्तेषां प्रवर्तकाः / तथा ज्ञानदर्शनचारित्रषु उद्युक्ताः सततोप संसत्तटवियभत्ता, पाउसी अप्पणट्ठया। योगवन्त इति वाक्यशेषः / तथा सग्रहः शिष्याणा संग्रहणम, उपग्रहस्तेषामेव ज्ञानाऽऽदिषु सोदतामुणकरणे, तयोः संग्रहोपग्रहयोः कुशलाः, अणायतणगवेसी य, छण्हंगाणं पलोइया / / एतादृशा एवंरूपाः प्रवर्तिनो भवन्ति / यथोचितप्रशस्तयोगेषु साधून जाऽऽयऽण्णा एवमादीया, अज्जा अण्णेण कड्डिया। प्रवर्तयन्तीत्येवं शीलाः पवर्तिन इति व्युत्पतः। आहारे उवहिम्मि य, गतीऍ सयणाऽऽसणे सरीरे य। तथा चाऽऽह - भासाएँ पाउसाणं जा जहिँआरोवणा भणिता / / (दाएं) तवसंजमनियमेसु , जो जुग्गो तत्थ तं पवत्तेइ। वासा वासं वसती, तु एक्किया तह य गामअणुगाम। असहू य नियत्तेती, गणतत्तिल्लो पवत्तीओ।। 340 / / दूइज्जती वियारं, विहारभिक्खादि एक्का य॥ तपःसंयमयोगेषु मध्ये यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रवर्त्तयन्ति, असहांश्चा- दीहं करेति गोयरमुक्कस्संदोचगाणि मग्गेति। समर्थाश्व निवर्तयन्ति / एवं गणतप्तिप्रवृत्ताः प्रवर्तिनः / उक्त प्रवत्तिस्य- चित्तलगाइ णिवंसण, अजुत्तउवही भवति एसा / / Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवत्तिणी 776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवत्तिणी इरियाभासेसणादाणणिक्खेवसमिईअनाउत्ता। अणपुच्छाए गच्छति, जत्थिच्छाए य सच्छंदा।। गेहेसु गिहत्थाणं, गंतूण कहा कहेति काहीया। तरुणादि अहिपडते, अणुजाणति जा उ सा पडिणी।। थद्धा जबादिमयादिएहिँ सुहसील दुट्ठसील त्ति। सिव्वणबंधणमादिसु, वेयावच्चं गिहीण करे।। उक्कस्सवत्थपत्तादिएहिँसंसत्त भावसंसत्ता। अहवा वि गिहत्थेसु, पाउरणादीसु अविभत्ती।। भत्तं वा पाणं वा, णिक्खिवती पाउसी उ जा धुवति। अमिक्खं तु हत्थपादे, कक्खंतरगुज्झमादीणि / / सण्हिहि सणिव्वए चेव कुणति जा अप्पणो अणट्ठाए। अणं वा वि अणट्ठा, संचययं जा करेती तू॥ जंतादिसाल तह वदृकोट्ठए में ठसालठाणाणि / जा गच्छति एतेसिं, अणायतणगवेसिता सा तु॥ गुज्झंगाणि पलोए अप्पणो अहवा वि जा तु पुरिसाणं / उक्कोसगमाहारं, एसति उवहिं च उक्कोसं / / गच्छति सविलासगती, सयणिज्ज सतूलियं सविव्वोयं / उव्वट्टेति सरीरं, सिणाणमादी व जा कुणति / / भमुहुक्खेवादीहिं, सविकारं भासती सवीलासं। एमादि अणरिहा तू , पच्छित्तं वावि सट्ठाणं / / तच पुण तवो इणमो, पच्छित्तं भण्णए समासेणं / देंतगधरेंतगाणं, अगीतमादीण दोण्हं पि।। अवहुस्सुते ऽगीतत्थे, णिसिरिज्जगाणं तु अवधारेज्जा। तं देवसियं तस्स तु, मासा चत्तारि भारीया।। सत्तरत्तं तवो होति, ततो छेदो पहावती। छेदेण छिण्णपरियाए, ततो मूलं तओ दुगं / / एक्ककं सत्तदिणे, दातुं तवे तिगिच्छए ततो छेदो। जत्तो तवॉ आरद्धो, पणगादिकडो व जहिँकेइ॥ तुल्ला चेव य ठाणा, तवछेदाणं हवंति दोण्हं पि। पणगादि पणगयड्डी, दोण्ह विछम्मास णिट्ठवणा।। किं कारणं न कप्पति, गणहारिऽबहुस्सुते अगीतत्थे। भण्णति सो पच्छित्तं, जयणं च ण जाणए काउं।। दिट्ठतो णट्टेणं, अजाणमाणेण जाणएणं च। कायव्वों इत्थ इणमो, परूवणा तस्सिमा होति / / गीयम्मि अभिणयम्मि य, सरगाममुच्छणासु सव्वासु / कुणति विवचासं खलु, जह णट्टमसिक्खितो णट्टो / / तह कुणति विवचासं, अग्गीतो सव्वकरणजोगेसुं। सुत्तत्थमजाणतो, णाणे तह दंसणे चरिते / / जह नट्टगीतवाइय, विजाणतो झुंजए समं तालं। सुत्तं तु विजाणंतो, तह कुणती सम्मकरणं तु / / किं पुण सो ण विजाणति, जं कुणती सव्वहिं विवद्यासं / भण्णति सुणसूइणमो, जं कुणती सो विवचासं / / ठाणणिसीयतुयट्टणपेइणपप्फोडणे तहा सयणे। भासासुद्धग्गहणे, जेऽन्ने य परूविया धम्मा।। उवदिसिउन वियाणति, सामायारिं तु ठाणमादीयं / अज्जा विजा अगीता, ण जाणए सा वि तह चेव / / अप्पच्छंदिओ लुद्धो, परिभूतो इत्थ पत्थणिज्जो उ। बहुलोहमोहछण्णो, अजावग्गो दुरणुकड्ढो / / पाएण अप्पछंदा, महग्घदाणे तु लोभित अकिच्चं / कुव्वंति छगलिया विव, परिभूताओ व सव्वस्स / / मंसादिपेसिया विव, संजतिवग्गो हु पत्थणिज्जो तु। धिज्जाइयदिट्ठीसुं, बहुं च बहुमोहसण्णाओ। मज्जायविप्पहूणा, मज्जादासंपउत्तम्मि (?) / पडिसेहें अणुण्णाया, मग्गधरविलोमता चउरो॥ जम्हा तु दुपरियट्टो, अज्जावग्गो तु तेण पडिसेहो। परियट्टण अजाणं, मज्जायाविप्पहूणस्स। मजायसंपउत्तो, अज्जापरियट्टओ अणुण्णातो। परिअट्टए अजोग्गे, उवट्ठिए चउगुरू सोही।। मग्गधरो आयरिओ, सो पुण सिढिलेइजो तु मज्जादं / तस्सुवदेसो कीरति, मज्जादाए दढो होहि।। उपदेससारपडिसा-रणे य ते णवरि तिण्णि मासलहुँ। छंदे अ वड्डमाणं, अपच्छंदं विवञ्जिए ............ / / दिट्ठता य इमेसिं, पढमा मासलहुगादि दिज्जंति। छगणोल्लपट्टरुंवणअवराहेसु तिसु कमेणं / / आयरणे उवदेसो, अकप्पपडिसेवणे य उवदेसो। विकथादिपमाएसुय, मा वट्टइ एस उवदेसो।। णिहाइपमादाइसु , सई तु खलियस्स सारणा होति। णणु कहित ते पमादा, मा सीयसु तेसु जाणंतो।। तद्दिवसं वीए वा, सीदंतो वुच्चए पुणो तइयं / अण्णं वेलं ण सज्झं, भिक्खुपहादीहिँ संसत्तं / / फुडरुक्खे अवियत्तं, गोणे तुदितु व्व मा हु पेलेजा। सज्झ अतेणे भण्णति, पसंतचित्तं ततो सारे।। भण्णति दिस्सुवदेसो, तुझं पि नियं च साहि तुम्हेहिं। एगवारं तु होती सढो, वितियं पुण ते ण विसहामो / ताहे पुणोऽवराहे, कयम्मि पच्छित्त देंति मासलहुँ। भण्णइ य सुणेहेत्थं, दिद्वंतं तेणएणं तु / / गोणादिहरणगाहिओ, मुक्को य पुणो सहोढसंगहितो। उल्लोल्लछगण्णहारी, ण मुञ्चती जायमाणो वि / / पुणरवि कयावराहे, मासलहुंचेव देंति से सोहिं। भण्णति पट्टिखंति य, मुक्कं सुद्धं तह तुमं पि।। Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवत्तिणी 780 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवत्तिणी पुणरवि अवरद्धम्मी, मासो चिय तेसिँदिजते दंडो। पाणो सो संवुत्तो, अतिरुविय कुंकुमं ततियं // तेण परं णिच्छुभेणं, कुलगणथेरादि तस्स कुव्वंति। अपमत्तो वी णियमा, भण्णति तू जस्सिमे दोसा। अप्पच्छंदियं लुद्ध, गिलाणं दुप्पडिजग्गगं / वामं सगवितं णच्चा, संवासो विण कप्पति / / उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाए मग्गस्स। मग्गधर उवालंभे, मासा चत्तारि भारीया // आयरियाणं छंदेण वड्ढती अप्पछंदिओ सो तु। आहारादुक्कोसं, लद्धं अत्तहॅलुद्धो उ।। जो तु गिलाणों अपत्थं, मग्गति सो होति दुपडिजग्गो तु। ठायसु भणितो वचति, वच्चति य ठाति वामो उ॥ जच्चादिमादिएहिं, करेति गव्वं तु परिभवति अण्णं / णाणादीया मग्गे, परूवणा अण्हहा तेसिं / णाणादिसु सीदंतो, ण सुद्धमग्गं तु जो परूवेइ / एसो मग्गच्छादो, वढयती दीहसंसारं / / एतेसिं तु विवेगो, मग्गधरा खलु कुलादिया थेरा। एहिँ उवालद्धाणं, उवट्ठिताणं गुरू चउरो।। बालाणं वुड्डाणं, भिक्खूमादीण चेव सव्वेसिं। संखेवेण महत्थो, उवदेसो कीरए इणमो / / कप्पे मुत्तत्थविसारएण थामावहारविजठेण। भत्तादिलंभऽलंभे, सक्कारजढेण हीयव्वं / / कप्पेति थेरकप्पो, सुत्तत्थविसारएण साहूण। सव्वत्थामबलेणं, ण गूहियव्वं समत्थेणं॥ आहारमादिएहिं, दटुं धीयारमादि पुजंते (?) / साहू अपुज्जमाणे, ण एव मणसा वि चिंतेजा। पूइज्जती अ जया, वयं तु सव्वहुग्गमोदिण्णा / आ कहणु ण पुजामो, ण करे मण दुक्कडं एवं / / सक्कारपुरक्कारे, परीसहो तु आहिआसिओ एवं / जूरंतेणऽहियासिओं, तम्हा सुमणेण होयव्व / / पं०भा०४ कल्प॥ केरिसा पुण अक्षा ण कम्पइ परियट्टियं / गाहा- "वासग्गाम त्ति / ' | एक्किया वसइ गामे, एक्किया गामाणुगाम दूइञ्जइ, विहारं वा विचार, वा एशिया, एगागी वा दीहभिक्खायरियं करेइ दोच्चगाणि वा मग्गइ। "अजुत्तोवहि ति। चित्तलगाईणि कंचुगाईधरेइ। अणाउत्ता इरियाइसु. अप्पच्छदिया य घरे घरे कहेलि कहिया / गाहा- "पडिणीय ति।" पद्धिणीया प्रत्यनीका, अन्यदनीकं प्रत्यनीकत्वं वा करोति, श्रद्धा दुसीला गिहिवेयावसकारिया, गिहिवेयावचाई करेइ सिव्वणाईहिं।। संसत्ता पाउरणाईहिं, ठवियमत्ता य / पाउसिया चउव्यिहा। गईए सविलासगई, सयणपाउसिया विप्पोयणाइसु, भासाए सवियार भासइ, कार्य हत्थे पाए य धोवइ, तिलियाईणि, करेइ अप्पणी परस्त वा संविहितं ववसीला / गाहा- "अणाययणगवेसि त्तिं / ' अणाययणं तु वट्टमालाए सुविइ, तहा य जंतगुणसालादि वा, जा तु गुज्झदेसाई पलोएइ। एवमाइ अणरिहा पवत्तिणित्तणस / गाहा-"आहारे उवहि त्ति।" आहारोवहि एयसु जाव सत्तदुयाओ आहारसेजोवहीसु अणणुण्णाए सट्टाणपच्छित्तं, भासायांउसियाण चउगुरुआइविभासा / गाहा- "अबहुस्सुए त्ति / " अबहुस्सुयाइर्देतस्स गणे आरोवणा तद्दीवसमेव तस्स चउगुरुयं अहिकिवरतस्स चउगुरुयं / गाहा- “सत्तरत्तं तवो त्ति / " सत्त दिवसाई दिणे दिणे चउगुरुय, अट्ठमे दिवसे तवाणुरूवो चउगुरुओ, छेओ जाव सत्तदिणा, पण्णरसमे दिणे मूलं अणवठ्ठपारंची। एवं दोण्हं वि देतधताणं / कम्हा अगीयत्थो दायव्वस्स धरेयव्वस्स वा अकप्पिओ ? उच्यतेनर्तकीदृष्टान्तेन गाहा- "जह नट्ठत्ति।" जहा नट्टिया अयाणंतिया विवचासं केरेइ गिजमाणे नट्टे य गरहिया य भवइ। एवमगीयत्थो अगीयत्थी यन सक्केइ समायरिउ पडिलेहणाइ उवदिसिउं वा परेसुं / इयाणिं गीयत्था जहा नट्टोतं चेव नट्टगेयं वा अविवचासं करेति, जसो कित्तिं च पावइ, एवं चेव जाणतो करेइ सुहं, उवदिसइ य किं पुण न याणइ मासो वा संजओ। गाहा-"ठाण ति।" ठाणनिसीयणाईणि संजमाइंन याणइ न उवदिसिउंपायच्छितं वा गीयत्थो पुण जाणइ। गाहा-" ठाणि त्ति।" ताणि चेव ठाणाईणि संजमतवोवहाणाई उवदिसइ करेइय गीयत्थो। किं च एएसु तवनियमाइसु संजुत्तो गीयत्थो आराहओ भवइ / गाहा-" अप्पच्छंद त्ति।" अल्जावग्गो पुण इमेहि कारणेहिं दुपरियट्टिीओ पायण अप्पच्छदिओ लुद्धो यजेण केणइलोभावियाओ अकिचमपि आयरति। छगलियवग्गो विव परिभूयाओ पत्थणिजाओ य अंबपेसियादि टुंतेण वा बहुमोहलोहसन्नाइसु धिज्जाइयासु एएण कारणेण दुपरिट्ठियाओ। गाहा" मजाय त्ति। “एवं मर्यादासंप्रयुक्तस्य अणुपालणाकप्पो अणुण्णाओ, इयरस्स पडिसेहो, उवट्ठियस्सचउगुरु। एवं ता परियट्टी भणिया (परियट्टियव्यं पि संजइओ संजया वा चेति मज्जादासंपउत्ता) परियट्टिजंति / इयरेसि पडिसेहो, उवट्टियाणं चउगुरुयं, जे पुण मज्जायं सिढिलं करेंति तस्सुवहेसो, एक्कस्सिं सारणा, ठिइओ पिइपुटवतिहोडिओ त्ति, तझ्या पडिसारणा छंदे अबहुमाणस्स विगिंचणा / गाहा-गणहारिं वा थेरा सारेति. अहवा इमस्स अण्णस्स विवेओ, अप्पछंदियस्स लुद्धस्स य जहा वा सो गिलाणो हवइ, तया दुपरियट्टिओ होइ, अवत्थदव्याणि मग्गइ वामो गविओ य विगिचइ। गाहा-"उम्मग्ग ति।" उम्मग जो देसेइ तस्स वि विगिचणा / गाहा- "मग्गधर त्ति / ' मग्गधरा नाम कुलथेराइ आयरिया वा रए उवलंभिऊण गुरुयं पायच्छित्तं देंति / एवं थेरकप्पो सुत्ताइविसारएण वलमगृहमाणेण भत्ते वा विरचमाणे (उवहिम्म वा ममन लब्भइत्ति मम समारोन कीरइ ति अप्पस्सए पा) होयट्वं, किं कारणं? जो माणणामहिच्छो माणेहिं ति वा कित्तिय / पं० चू० 4 कल्प। अयोग्यप्रवर्तिनीस्थापनम् - " जो पुण गुणहीणाए, महत्तरत्तं पवत्तणित्तं वा। देइ पडिच्छइ तं वा, सो पावइ आणमाईणि / / 2 / / " विहिगंधाइक्खेवो, सव्वो उज्झायमेव णायव्यो। एसा सव्वजईणं, वंदणिज्जा ति से सिक्खा / / Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदत्तिणी 781 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवत्तिणी सव्वन्नुदेसियमिणं, पयं पहाणफलजणयं / बंभीसुंदरिचंदणपभिईहिँणिसेविय समंता॥ अह समणीओ तुम्भं, सरणागया भवभयाओ। सारणवारणचोयणमाईहिं रक्खियव्याओ / / साहुणीणं एसा सिक्खियव्वाओ, साहुणीणं एसा सिक्खा गुरवो दिति"कुलबहुदिटुंतेणं, कजे णिभत्थियाहिँ वि कहं वि। एयाए पयमूलं, आमरणंतं ण मुत्तव्वं / / 1 / / ण य पडिकूलेयव्वं, वयणं गुरुणीऐं णीणमाईए। एवं गिहिवासचाओ, जं सफलो होइ तुम्हाणं // 2 // " पवत्तिणीए भगवईए महत्तपयट्ठवणा / लहुबद्धमाणविज्जामंतप्पयट्ठाणं एसा पयट्टवणविही सम्मत्ता। अङ्ग०। णो कप्पइपवत्तिणीए अप्पवितियाए हेमंतगिम्हासु चारण // 1 // कप्पइ पवत्तिणीए अप्पततियाए हेमंतगिम्हासु चारए॥२॥णो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पततियाए हेमंतगिम्हासु चारए॥३॥ कप्पइगणावच्छेइणीए अप्पचउत्थाए हेमंतगिम्हासु चारए।। 4 || णो कप्पइ पवत्तिणीए अप्पततियाए वासावासं च वत्थए।। 5 / / कप्पइ पवत्तिणीए अप्पचउत्थीए वासावासं वत्थए / / 6 / / णो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थाए वासावासं वत्थए।।७।। कप्पइगणावच्छेइणीए अप्पपंचमाए वासावासं वत्थए।।८||से गामंसि वा० जाव संनिवेसंसि वा बहूणं पवत्तिणीणं अप्पततियाणं बहूर्ण गणावच्छेइणीणं अप्पचउत्थीणं कप्पति हेमंतगिम्हासु चारए अन्नमन्नणिस्साए।। || से गामंसि वा० जाव संनिवेसंसि वा बहूणं पवत्तिणीणं अप्पचउत्थीणं बहूणं गणावच्छेदिणीणं अप्पपंचमाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अण्णमण्णणिस्साए / 10 // गामाणुम्गामं दूइज्जमाणी णं अजिया जं पुरओ कट्ट विहरिजा से य आहच वीसंभेज्जा अजिया! इत्थ काइ अणाउवसंवज्जणारिहा कप्पइ सा उवसंपञ्जियव्वा सिया इत्थ काइ अणाउवसंपजणारिहा अप्पणो कप्पाए असमत्ता एवं से कप्पइ एगरातियाए पडिमाएजंणं जंणं दिसं अण्णाओ साहम्मिणीओ विहरंति,तंणं तं णं दिसं उवलित्तए णो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं तत्थ य कप्पइ से तत्थ कारण वत्तियं वत्थए तंसि च णं कारणंसि णिट्ठियंसि परो वएज्जा-वसाहि णं अजे ! एंगरायं वा दुरायं वा, एवं कप्पइ एगराय वा दुरायं वा वत्थए / णो से कप्पड़ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वत्थए, जं तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसति छेए वा परिहारे वा // 11 // वासावासं पञ्जोसवेइ णिग्गंथीय पुरा कट्ट विहरतिसाय आहच्च वीसंभेजा अज्जिया इत्थ काइ अणाउवसंपजणा-रिहा सा उवसंपज्जियव्वा० जाव छेए वा परिहारे वा / / 12 पवत्तिणीय गिलायमाणी अन्नतरं वदिजा अजे ! मए णं कालगयाए इयं संमुक्कसियव्वा सा य समुक्कसणारिहा संमुक्कसियव्वा सिया, सायणो समुक्कसणारिहा णो समुक्कसियव्वा सिया, अज्जिया इत्थ काइ अणासमुक्कसिणारिहा सा समुक्कसणारिहा सा चेव समुफसियव्वा तेसिंच णं समुक्कटुंसि परो वएज्जा-दुसमुक्कट्ठाए अज्जे ! निक्खिवाहितीसे णिक्खिवमाणीए वा णत्थि काइ छेए वा परिहारे वा जा तओ साहमाणीओ अहाकप्पणाणा उवट्ठायंति तासिं सव्वासिं छेए वा परिहारे वा।।१३।। पवत्तिणीय ओहायमाणी एगतरं वएजाममंसि णं अजे ! ओहाइयंसि एसा समुक्कसियव्वा सिया सा समुक्कसिणारिहा समुक्कसियव्वा सिया, सा य णो समुक्कसिणारिहा सा चेव समुक्कसियव्वा सिया, तंसिचणं समुक्कट्ठसि परो वएज्जादुसमुक्कट्ठ ते अज्जे ! णिक्खि-वाहि, तीसे णिक्खिवमाणीए वा तत्थ काइ छेए वा परिहारे वा तं जओ साहम्मिओ अहाकप्पेणं णो उवट्ठायंति तासिं सव्वासिं तप्पत्तियं छैए वा परिहारे वा।। 14 / / " नो कप्पति पवत्तिणीए" इत्यादि तावत् यावदभिधानसूत्रम्। . अर्थसम्बन्धप्रतिपादनार्थमाह - उद्देसम्मि चउत्थे, जा मेरा वण्णिया उ साहूणं / सा चेव पंचमं संजतीण गणणाए णाणत्तं // 1 // चतुर्थे उद्देशके या मर्यादा वर्णिता साधूनां सैव पञ्चमे उद्देशे संयतीनां वर्ण्यते, केवलं गणनायां नानात्वं, तदपिच सूत्रे साक्षादुक्तमिति प्रतीतमतः प्रथमत एव संयतीसूत्रकदम्बकोपनिपातः। प्रकारान्तरेण संबन्धमाह - उत्तमहवा बहुत्तं, पिंडगसुत्ते चउत्थचरमम्मि। अपहुत्ते पडिसेहं, काउमणुण्णा बहूणं तु / / 2 // अथवा चतुर्थस्योद्देशकस्य चरमे पिण्डसूत्रे बहुत्वमुक्तं, ततो बहुत्वप्रस्तावात् पञ्चमे उद्देशके संयतीनामबहुत्वे प्रतिषेधं कृत्वा बहूनामनुज्ञा कृता / ननु बहूनामपि त्रिप्रभृतीनां विहारो न कल्पतेअसमाप्तकल्पत्वात्। तथाहि-जघन्यतोऽपि ऋत्तुब काले संयतीनां सप्तकः समाप्तकल्पो वर्षाकाले नवकस्ततः कथं नाधिकृत-सूत्रकदम्यकविरोधः? उच्यते-नैष दोषः, कारण :शतः सूत्रकदम्बकस्य प्रवृत्तिः। तात्येव कारणान्युपदर्शयति - संघयणे वाउलणा, छठे अंगम्मि गमणमसिवादी। सागरजाते जयणा, उउबद्धाऽऽलोयणा भणिया / / 3 / / प्रवत्तिन्या गणा वच्छे दिन्या वा उसमे न सहन ने न, उपलक्षणमेतत् - उत्तमया च धृत्या, सूत्रमर्थश्च भूयान् गृहीतो, गच्छ च व्याघातः, स च व्याकु लवशात् तत उक्तं द्वितीय Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवत्तिणी 782 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवय कारण व्याकुलना। सा च ' धम्मकहि महिड्डीए।" इत्यादिना प्रकारेण तस्याऽप्यलाभे पुरुषा ये भाविताः संबन्धिनोऽपि ये अविकारिणः यथा प्राक् तृतीयाद्देशकेऽभिहिता तथैवात्रापि भावनीया, पुनरुक्तदोष- पुरुषास्तैः कामम् अथ सप्रत्यपायाः पन्थानस्तर्हि यत् यत्र देशे पूजितं भयान्नाऽभिधीयते। ततः सूत्रार्थस्मरणनिमित्तमात्मतृतीयायाः प्रवर्तिन्या लिङ्ग तेन गृहीतेन व्रजन्ति / एतच सुगमत्वान्न व्याख्यातम्। अत्र शिष्यः आत्मचतुर्थायाश्च गणावच्छेदिन्या गमनम् / तथा षष्ठे अड़े ज्ञाताधर्म- प्राह-यद्यप्याचार्येण प्रवर्तिनी स्थापयितव्या, तर्हि ये एते द्वे सूत्रे कथाऽऽख्ये बहवः सदृशाऽऽगमाः। तथा च तत्रानेकाः कथानककोटयः "प्रवत्तिणी गिलायमाणी वएजा मए णं कालगयाए समुफसियव्वा / ' सदृशमाठाः, विसदृशपाठास्त्वर्धचतुर्थककोटयः, तदभिनवगृहीतं वर्तते, इत्यादि। तथा "पवत्तिणी ओहायमाणी वएना मए णं ओहावियाए इय पुनः पुनरस्मृतं च विस्मृतमुपयाति, ततस्तत्स्मरणार्थमुक्तपरिवाराया समुक्कसियव्वा।' इत्यादि, ते कथं नीयते ? अपि गमनम्। तथा अशिवाऽऽदिभिरशिवावमौदर्याऽऽदिभिरुक्तसंख्या - तत आह - कपरिवाराया गमनम् / तथा षष्ठप्रभृतीन्यङ्गानि संयतीनां (सागर ति) असिवाइएसु फिडिया, कालगए वा वि तंसि आयरिए। स्वयंभूरमणसागरतुल्यानि, तान्यभिनवगृहीतानि परावर्तनीयानि सन्ति, अपरावर्तितानि नश्यन्ति, ततस्तेषां पराधर्तनाय यथोक्तसंख्याकपरि तिगथेराण य असती, गिलाणओहाणिसुत्ताओ॥६॥ वाराया अपि गमनमा तदेवमधिकृतसूत्रकदम्बकप्रवृत्तौ कारणान्यभिहि अशिवाऽऽदिभिः कारणेः गाथायां सप्तमी तृतीयाथै प्राकृतत्वात्। तानि। अधुना शेषवक्तव्यतामाह-(जाते ति) जाताऽऽदिरूपः कल्पो यस्याऽऽचार्यस्य समीपे आसीरन् तस्मात् स्फिटिताः / ततः सा वक्तव्यः / स च ऋतुबद्ध सप्तकः समाप्तकल्पः, तदूनोऽसमाप्तकल्पो ग्लानीभूता अवधावनप्रेक्षिका अन्यास्याऽऽचार्यस्य परिज्ञानकरणार्थ वर्षाकाले नवकः समाप्तकल्पस्तदूनोऽसमाप्तकल्पश्च / एकैको द्विधाजा- सूत्राऽभिहित वदति (तिगथेराण य असती इति) त्रिकं कुलगणतोऽजातश्च गीतार्थोऽगीतार्थश्चेति / तत्र च भगवतुष्टये प्रथमवर्जेषु शेषेषु संघस्तस्य स्थविरास्त्रिकस्थविरास्तेषामसति / किमुक्तं भवति ? त्रिषु भङ्गेषु प्राग्वत् यतना कर्त्तव्या। तथा ऋतुबद्ध काले निरन्तर साध्वी- कुलस्थविराणां गणस्थविराणां संघस्थविराणां वा प्रत्यासन्नानामभावे प्रेषणतोऽवलोचना कर्तव्या भणिता / तदेवमभिहितानि कारणा-येतेः शेषस्थविरपरिज्ञानकरणाय यत्सूत्रेऽभिहित तद्वदति; ततो ग्लानावकारणैरायातस्यास्य सूत्रकदम्बकस्य व्याख्या। सा च तथैव / धानसूत्रे उपपन्ने तथा चाऽऽह - साहीणम्मि वि थेरे, पवत्तिणी चेव तं परिकहेइ। जह भणियं च चउत्थे, पंचमम्मि तह चेविमं तु नाणत्तं / एसा पवत्तिणी भे!, जोग्गा पच्छे बहुमता य / / 7 / / गमणित्थिमीससंबं-धिवजए पूजिते लिंगें।। 4 / / अथवा स्वाधीनेऽपिस्थविरे आचार्य सा प्रवर्तिनी ग्लायन्ती अवधावनयथा चतुर्थे उद्देशके निर्गन्थसूत्राणां व्याख्यानं भणितं, तथा पञ्च प्रेक्षिका वा तां परिकथयति / यथा(भे) भगवन् ! एषा प्रवर्तनी योग्या मेऽप्युद्देशे निर्गन्धीसूत्राणामपि वक्तव्यं, नवरभिदं नानात्वम्। तदेवाऽऽह- प्रवर्तनीत्वस्याऽर्हा, सूत्रार्थतदुभयनिष्पन्नत्वात् गच्छेबहुमता च। एवमपि (गमणित्थीत्यादि) विष्वगभूताया प्रवर्तिन्यां गमनं सर्वाभिरार्यिका ते सूत्रे उपपन्ने। भिराचार्यसमीपे कर्तव्यं, तच्च स्त्रीभिः सह तदभावे मिश्रः स्त्रीपुरुषः, अन्भुजयपरिहारं, परिवजिउका दुस्समुक्कटुं / तेषामप्यभावे संबन्धिपुरुषः तेषामप्यभावे सम्बन्धवर्जितरधिकारिभिः जह होती समणाणं, भत्तपरिण्णा तहा तासिं||८|| पुरुषैः / अथ सप्रत्यपायाः पन्थानस्तर्हि यत् यत्र पूजितं लिङ्ग तस्मिन् यथा प्राक् श्रमणानामभ्युद्यतविहारं प्रतिपत्तुकामे दुःसमुत्कृष्टो भवति, लिड़े गृहीते गमनम्। दुःसमुत्कृष्टं प्रतिपादितं, तथा तासां श्रमणीनां भक्तपरिज्ञा प्रतिपत्तुएतदेव सुव्यक्तमाह - कामानां दुःसमुत्कृष्ट भावनीयम्। व्य०५ उ०। वीसुमियाएँ सव्वासि गमणं अद्धद्ध जाव दोण्हेक्का। पवत्तिय त्रि०(प्रवत्तित) जनिते. उत्त०२० अ०। संबंधिइत्थिसत्थे, भावितमविकारितेहिं वा / / 5 / / पवत्थय त्रि०(प्रत्यवस्तृत) आच्छादिते, "केसरपवत्थयाऽभिरामे।" रा०। विष्वम्भूतायां शरीरात्पृथग्भूतायां, मृतायामित्यर्थः / प्रवर्तिन्यामा पवदमाण त्रि०(प्रवदमान) प्रवादं कुर्वति, आचा०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। चार्यसमीपे सर्वाभिर्गन्तव्यम्। तत्र च गतानामाचार्येण प्रवर्तिनी स्थापयि पवद्ध (देशी) घने लोहकुट्टनोपकरणे, दे० ना०६ वर्ग 11 गाथा। तव्या, यदि तरुणीनां सर्वासा पथि प्रत्यपायस्तर्हि अर्द्धा याः परिणतवयसस्ता व्रजन्ति / अथ सस्तिरुणप्रायाः कतिपयाः स्थविरास्ततो या पवमाण त्रि०(प्लबत् ) जलोपरितरति, आचा०२ श्रु०१चू०३ अ०२ उ०। मन्दरूपास्तरुण्यो याश्च स्थविरास्ताः समुदायस्य चतुर्भागमात्रा व्रजन्ति / *प्लवमान त्रि० / उत्प्लुर्ति कुर्वति, भ०२५ श०७ उ०। एवं तावद्वाच्यं यावत् द्वे जने गच्छतः, द्वयोरप्यसंभवे एका व्रजति। ताः | पवय त्रि०(प्लवक) प्लवतीतिप्लवकः। उत्प्लवनकारिणि, भ० 25 श० पुनः केन सार्थेन सह व्रजन्ति ? तत आह-(सबंधीत्यादि) संबन्धिना | 7 उ०प्लवकः कोऽपि तथा शिक्षामधिगतः (आ०म०२ अ०) आकाशस्त्रीसार्थन सह गन्तव्यं, तदला असंबन्धिनाऽपि स्त्रीसार्थेन, स्थितानि करणानि करोति। नं०। Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयण 783 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवयण पवयण नक(प्रवचन) प्रोच्यतेऽनेनास्मादस्मिन् वा जीवाऽऽदयः पदार्था इति प्रवचनम् / अथवा-प्रशब्दस्याव्ययत्वेनानेकार्थद्योतकत्वात् प्रगतं जीवाऽऽदिपदार्थव्यापकं प्रशस्तमादौ वा वचनं प्रवचनम् / द्वादशाङ्गे गणिपिटके, आदित्वं चास्य विवक्षिततीर्थकरापेक्षया द्रष्टव्यम् / "नमस्तीर्थाय" इति वचनात् तीर्थकरेणाऽपि तन्नमस्करणादिति / अथवा-जीवाऽऽदितत्त्वं प्रवक्तीति व्युत्पत्तेदशाङ्गे, गणिपिटकानन्यत्वाद्वा चतुर्विधश्रमणसड्डे च / विशे०। पा० / उत्तः / पञ्चा० / आ० म० / स्था० / ज्ञा० / अनु० / व्य० / औ० / स० / नि० चूछ / प्रकर्षण परसमयायथावस्थितभूरिभेदप्रभेदैरुच्यन्ते जीवाजीवाऽऽदयः पदार्था अनेनास्मिन्निति वा प्रवचनम् / जीत० / प्रशस्तं प्रगतमवगाद वा वचनं प्रवचनं, प्रकृष्ट वा वचनं शेषाऽऽगमापेक्षया प्रवचनं सूत्रतोऽर्थतश्च / द्वादशाते. षो०१६ विव० / पं०५०। विशे०। शासने, औ० / विशे०। उत्त०। तं नागकुसुमवुद्धिं, घेत्तुं वीयाइबुद्धओ सव्वं / गंथंति पवयणट्ठा, माला इव चित्तकुसुमाणं // 1111 / / पगतं वयणं पवयणमिह सुयनाणं कहं तयं होजा? पवयणमहवा संघो, गंथंति तयणुग्गहट्ठाए।। 1112 / / ता तीर्थकरमुक्ता ज्ञानकुसुमपृष्टिं गृहीत्वा बीजाऽऽदिबुद्धयो गणधराः। यः पदादप्यनेकानि पदशतानि गृह्णाति, असौ बीजबुद्धिः, आदिशब्दात् कोष्टबुद्ध्यादिपरिग्रहः। कोष्ठकप्रक्षिप्त धान्यमिव यस्य सूत्रार्था सुश्विरमपि तिष्ठतः स कोष्ठबुद्धिः। सर्वं तीर्थकरभाषितं, चिवकुसुममालाभिव प्रवचनार्थ प्रश्नन्ति / प्रवचनशब्दार्थमेव कथयति-प्रगतं प्रधान प्रशस्तमादौ वा वचनम् , अत्र श्रुतज्ञानं द्वादशाङ्गम् , ' तत् कथं न नाम भवेद् निष्पद्यते ?' इत्येवं संप्रधारयन्तस्तदर्थ ग्रथ्नन्ति / अथवा-प्रवक्तीति प्रवचन संघः / तदनुग्रहार्थ ग्रथ्नन्ति / विशे० / आगमे, भ०। प्रवचनम् - पवयणं भंते ! पवयणं, पावयणी पवयणं? गोयमा ! अरहा ताव णियमं पावयणी। पवयणं पुण दुवालसंगे गणिपिडगे। तं जहा-आयारो०जाव दिट्ठिवाओ। प्रकर्षणोच्यते अभिधेयमनेनेति प्रवचनमागमस्तत् भदन्त ! प्रवचन प्रवचनशब्दवाच्य काक्वाऽध्येतव्यम् , उत प्रवचनी प्रवचन-प्रणेता जिनः प्रवचन ? दीर्घता च प्राकृतत्वात् / भ० 2008 उ० / सू० प्र०। विशे०। दर्शन प्रवचननिक्षेपाऽभिधानायाऽऽह नियुक्तिकृत् - निक्खेवो पवयणम्मी, चउव्विहो दुविहो य होइ दव्वम्मि। आगम नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो / / 455 / / जाणगसरीर भविए, तव्वइरित्ते कुतित्थमाईसुं। भावे दुवालसंग, गणिपिडगं होइ नायव्वं / / 456 / / निक्षेपः प्रवचने चतुर्विधो नामाऽऽदिः / तत्र नामस्थापने क्षुण्णे एवेत्यनादृत्य द्रव्यनिक्षेपमाह-द्विविधो भवति द्रव्ये विचार्ये, निक्षेप इति गम्यते। वैविध्यमेवाऽऽह-आगमतो, नोआगमतश्च। तत्राऽऽगमतो ज्ञाता, तत्र चानुपयोगवान् नोआगमतस्तुः स त्रिविधः। कथमित्याह-(जाणगसरीरभविए तव्वइरिते ति) ज्ञशरीरभव्यशरीरे प्रक्रमात्प्रवचने, तव्यतिरिक्तम् -(कुत्थिमाईसु त्ति) कुतीर्थ्यादिषु प्रवचनम् / आदिशब्दात सुतीर्थषु च। ऋषभाऽऽदिसंबन्धिषु पुस्तकाऽऽदिन्यस्त, भाष्यमाणं वा। भावे द्वादशाङ्गम-आचाराऽऽदि दृष्टिवादपर्यन्तम् / गणिन आचार्यास्तेषां पिटकमिव पिटक सर्वस्वाऽऽधारो गणिपिटकं भवति ज्ञातव्यं प्रवचनम्। नन्वेवं दृष्टिवादान्तर्गतत्वात्सकलकुदृष्टीनामपि भावप्रवचनतैव प्राप्ता / उच्यते-अस्त्येतत् , किंत्वेकपक्षावधारणपरतयाऽसदृष्टित्वाद् द्रव्यप्रवचनतैवाऽऽसामिति नोक्तदोषाऽऽपत्तिः / उत्त० 24 अ०। प्रवचनैकार्थिकानि - जमिह पगयं पसत्थं, पहाणवयणं च पवयणं तं च। सामन्न सुयनाणं, विसेसओ सुत्तमत्थो य / / 1367 / / गताऽर्था / विशे०। सूत्रार्थयोः प्रवचनेन सहकार्थता युक्ता, तयोस्तद्विषयत्वात्। सूत्रार्थी तु परस्परं विभिन्नौ / तथाहि-सूत्रं व्याख्येयम् , अर्थस्तु तद्व्याख्यान - मिति / अथवा- त्रयाणामप्येषां भिन्नार्थतैव युक्त्युपपन्ना, प्रत्येकमेकार्थिकविभागसद्भावात् , घटपटशकटवत्। अन्यथा एकार्थतायां सत्यां भेदेनैकार्थिकाऽभिधानमयुक्तम् , घटकुम्भयोरिवेति / अत्रोच्यते-इह यथा मुकुलविकसितयोः पद्मविशेषयोः संकोचविकाशरूपपर्यायभेदेऽपि कमलसामान्यरूपत्वेनाऽभेदः, तथा सूत्रार्थयोरपि प्रवचनाऽपेक्षया परस्परतवाभेदः / तथाहि-अविवृतं मुकुलतुल्यं सूत्र, तदेव विवृतं प्रबोधितं विकचकल्पमर्थः, प्रवचन तूभयमपि, यथा च तेषां कमलसंको चविकाशानामेकार्थिक विभाग उपलभ्यते, कमलम् अरविन्द पङ्कजम् इत्यादि पौकार्थिकानि, यथा मुकुलं वृन्दं संकुचितमित्यादीनि मुकुलकार्थिकानि, तथा विकचं फुल्ल विबुद्धमित्यादीनि विकसितैकार्थिकानि / तथा प्रवचनसूत्रार्थानामपि पद्ममुकुलविकसितकल्पानामेकार्थिकविभागो न विरुद्ध इति / अथवा अन्यथा व्याख्यायतेएकार्थिकानि वीण्येवाऽऽश्रित्य वक्तव्यानि / तद्यथा-प्रवचनमेकार्थिकगोचरः, तथा सूत्रमर्थश्च, शेषं पूर्ववत्। आह-यद्येवं द्वारगाथायां यदुक्तं प्रवचनकार्थिकानि इति तद् व्याहन्यते, सूत्रार्थयोरप्येकार्थिकाऽभिधानात् / नैष दोषः / प्रवचनरय सामान्यविशेषरूपतया सूत्रार्थयोरपि प्रवचनविशेषरूपत्वेन प्रवचनत्वोपपत्तेः। आह-पोवंतर्हि विभागश्चेति पृथग्द्वाराऽभिधानमनर्थकम् / तदसम्यक् / विभागश्चेति / किमुक्तं भवति ? नाविशेषेण सामान्यविशेषरूपस्य प्रवचनस्य पञ्चदशैकार्थिकानिनीति, किं तर्हि विभागश्च वक्तव्यः, विशेषगोचराऽभिधानपर्यायाणां सामान्यगोचराऽभिधानपर्यायत्वानुपपत्तेः / न हि चूतसहकाराऽऽदयो वृक्षाऽऽदिशब्दपर्याया भवन्ति, लोके तथाव्यवहाराभावादिति। Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयण 784 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवयणकुसल तत्र प्रवचनैकार्थिकान्याह - सुयधम्म तित्थ मग्गो, पावयणं पवयणं च एगट्ठा। श्रुतस्य धर्मः स्वभावः श्रुतधर्मः, श्रुतस्य बोधस्वभावत्वात् श्रुतस्य धर्मो बोधो बोद्धव्यः / अथवा-श्रुतं च तत् धर्मश्च सुगतिधारणात श्रुतधर्मः / यदिवा-जीवपर्यायत्वात् श्रुतस्य, श्रुतं च धर्मश्च श्रुतधर्मः। उक्तं च.." बोहो सुयस्स धम्मो, सुयं च धम्मो सजीवपज्जोतो। सुगईऍ संजमम्गि य, धरणातो वा सुयं धम्मो॥१॥"तथा तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ, तच संघ इत्युउक्तम् / इह तु तदुपयोगानन्यत्वात् प्रवचनं तीर्थमुच्यते आह च-तित्थं ति पुव्व भणिय, संघो जो नाणचरणसंघातो / इह पवयणमपि तित्थं, तत्तो णत्थंतरं जेण॥ 1 // " तथा मृज्यते शोध्यतेऽनेनात्मा इति मार्गः, मार्गण वा मार्गः, शिवस्यान्वेषणमिति भावः / उक्तं च-" मग्गिजइ सोहिजइ, जेणऽत्ता पवयणं ततो मग्गो। अहवा सिवस्स मग्गो मग्गणमन्नेसणं पथो॥१॥" इति। तथा प्रगतमभिविधिना जीवाऽऽदिषु पदार्थेषु वचनं प्रवचनमुक्तशब्दार्थम् (!) उक्तानि पञ्चप्रवचनेकार्थिकानि। आ० म०१ अ०। आ० चू०। नि० चू०। केचित्प्रवचनमतिक्रामन्ति - से भगवं ! अत्थि केइजेणमिणमो परमगुरूणं पि अलं घणिज्ज परमसरण्णं फुडं पयडं पयडपयडं परमकल्लाणं कसिणकम्मद्वदुक्खनिट्ठवणं पवयणं अइक्कमेज वा, पइक्कमेज वा, खंडेज वा विराहिज्ज वा, आसाइज वा, सेमणसा वा वयसा वा कायसा वा० जाव णं वयसि / गोयमा ! णं तेणं कालेणं पखित्तमाणेणं / सयं दस अच्छेरगे भविंसु, तत्थ णं असंखेने अभव्ये असंखेजे मिच्छादितु असंखेन्जे सासायणदव्वलिंगमासीयसद्धृताए उभेणं सक्कारिजंते एत्थ धम्मेगत्ति काऊणं बहवे अदिट्ठकल्लाणे जइ णं पवयणमन्भुवगमंति, तदन्भुवगमियं रसलोलुत्ताए विसयलोलुत्ताए दुद्दतियदोसेणं अणुदियहिं जहट्ठियं मग्गं निट्ठवंति, उम्मग्गं च ऊसप्पियंति, सव्वे तेणं कालेणं इमं परमगुरूणं पि अलंघणिज्जं पवयणं० जाव णं आसायंति / से भयवं ! कयरेणं तेणं कालेणं दस अच्छेरगे भविंसु ? गोयमा ! णं इमे तेणं कालेणं दस अच्छेरगे भवंति / तं जहा-तित्थयराणं उवसग्गे, गब्भसंकामणे,वामा तिच्छयरे, तित्थयरस्स णं देसणाए अभध्वसमुदाएणं परिसावंधि सविमाणाणं चंदाइचाणं तित्थयरसमवसरणे आगमणं वासुदेवाणं संखेज्जणीए अन्नयरेणं वा रायकडहेणं परोप्परमेलावगो, इहई तु भारहे खेत्ते हरिवंसकुलुप्पत्तीए चमरुप्पाए एगसमएणं अट्ठसयसिद्धिगमणं असंजयाणं पूयाकारगे ति / से भयंवे ! जे णं केइ कहिं कयाइ पमायदोसओ पवयणमासाएज से णं किं आयरियपलंभ लभेज्जा? गोयमा ! जेण केइ कहिं वि कयाइपमायदोसओ असइकोहेणं वा माणेणं वा मायाए वा। लोभेणं वा रागेण वा दोसेण वा भएण वा हासेण वा मोहेण वा अन्नाणदोसेण वा पवयणस्सणं अन्नयरहाणे वइमेत्तेणं पि अणगारं असमायारी परूवमाणे वा अणुमन्नेमाणे वा पवयणमासाएजा, से णं बोहिं पि णो पावे, किमंग ! आयरियपलंभं / से भयवं ! किं अभव्वे मिच्छादिट्ठी आयरिए भवेजा? गोयमा ! भवेजा। एत्थं च णं इंगालमद्दगाई नाए से भयवे ! किं मिच्छादिट्ठी निखमेजा ? गोयमा! निक्खमेज्जा से भयवं ! कयरेणं लिंगेणं से णं वियाणेजा जहा णं धुवमेयं मिच्छद्दिट्टी? गोयमा ! जे णं कयसामाईए सव्वसंविमुत्ते भवित्ता णं अफासुपायं परिभुजेज्जा जेणं अणगारधम्म पडिवजित्ताणं समई सोयरियं वा परोयरियं वा तेउकायं सेवेज वा, सेवाविज वा सेविज्जमाणं अन्नेसिं समणुजाणेज वा, तहा नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं जे केइ साहू वा साहूणी या एक्कमविखंडिज्ज वा विराहेज वा, खंडिजमाणं वा विराहिज्जमाणं वा वंभचेरगुत्तिं परेसिं समणुजाणेज वा, मणेणं वा वायाए वा कारण वा से णं मिच्छट्ठिी , न केवलं मिच्छदिट्ठी अभिगहियमिच्छादिट्ठी वि जाणेजा। से भयवं ! जे णं केइ आयरिएइ वा मयहरएइ वा असई कहिं वि कयाइ तहाविहाणंगमासज्ज इणमो निग्गंथं पवयणमन्नहा पन्नवेजा, से णं किं पावेञ्जा ? गोयमा ! जं सावजायरिएणं पावियं / महा० 5 अ01 (प्रवचनान्यथाप्ररूपणायां सावद्याऽऽचार्यः। तद्वृत्तम् ' सावज्जायरिय' शब्दे वक्ष्यामि) पवयणउन्भावणया स्त्री०(प्रवचनोद्भावनता) प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्योदभावनं प्रभावन प्रावचनिकत्वधर्मकथावादऽऽदिलब्धिभिर्वर्ण - वादजननं प्रवचनोदावनम् , तदेव प्रवचनोद्भावना। शासनप्रभावनायाम्, स्था० 10 ठा०। पवयणकुसल पुं०(प्रवचनकुशल) सूत्रार्थोत्सर्गापवादभावव्यवहारकुशले, ध०। अथ प्रवचनकुशल इति षष्ठं भावश्रावकलक्षणं चेत्थम् - सुत्ते 1 अत्थे २अतहा, उस्सग्ग 3 ऽववाएँ 4 भावे 5 ववहारे 61 जो कुसलत्तं पत्तो, पवयणकुसलो तओ छद्धा / / 52 / / सूत्रे सूत्रेविषये यः कुशलत्वं प्राप्त इति प्रत्येक योजनीयम् / ध००२ अधि०६ लक्ष० / श्रावकपर्यायोचित्तसूत्राध्ये तेत्यर्थः 1 / तथाऽथे सूत्राभिधेये संविनगीतार्थसमीपे सूत्रार्थश्रवणेन कुशलत्वं प्राप्त इत्यर्थः शउत्सर्गे सामान्योक्तौ 3 / अपवादे विशेषभणिते कुशलः / अयं भावःकेवलं नोत्सर्गमेवावलम्बते, नापि केवलमपवादं, किं तूभयमपि यथायोगमालम्ब इत्यर्थः 4 / भावे विधिसारे धर्मानुष्ठाने करणस्वरूपे कुशलः / इदमुक्तं भवति-विधिकारणमन्य बहु मन्यते, स्वयमपि सामग्रीसद्भावे यथाशक्ति विधिपूर्वकं धर्मानुष्ठाने प्रवर्तते / सामग्या अभावे पुनर्विघ्याराधनमनोरथान्न मुञ्चत्येवेति व्यवहारेगीतार्थाऽऽचरितरूपे कुशलः देशका Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणकुसल 785 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवयणमाउआ लाऽऽापेक्षयोत्सर्गापवादवेदिगुरुलाघवपरिज्ञाननिपुणगीतार्थाऽऽचरितं अत्रैव कतिपयपदव्याख्यानार्थमाह - व्यवहारं न दूषयतीति भावः 6 / 'एसो पवयणकुसली, छप्पओ नयभंगाऽऽउलयाए, दुद्धर इव सद्दो त्ति ओवम्मे। मुणिवरहिनिहिहो / किरियागयाइँ छविहलिंगाई भावसद्दस्स / / 1 / / " धारियमविग्घणटुं, गुणियं परियत्तियं बहुसो।। 141 / / एतानि भावभावकस्य क्रियोपलक्षणानि षडेव लिङ्गानि।ध०२ अधिक। पुव्वावरबंधेणं, समीहियं वाइयं तु निजवियं / दर्श बहुविहवायणकुसलो, पवयणअहिए य निग्गिण्ही / / 142 / / संप्रत्यस्यैवषष्ठलक्षणस्य भावार्थ विवरीषुराद्यभेदं गाथाप्रथमपादेनाऽऽह - गाथाद्वयमपि गतार्थ, नवरं वाचितमाक्षेपपरिहारपूर्वकतया सम्यक् गुरुपादान्तिके निर्णीतार्थीकृतं, निर्यापित विपुलवाचनासमृद्ध इत्यस्या उवियमहिज्जइ सुत्तं, .........................| व्याख्यान, बहुविधया वाचनया कुशलो दक्षो बहुविधया वाचनया कुशलो ................. // 53 // दक्षो बहुविधवाचनाकुशलः। उक्तः प्रवचनकुशलः। व्य०३ उ० / रचित योग्यं श्रावकभूमिकायामधीते पठति सूत्रं प्रवचनमात्रादि- | पवयणखिंसा स्त्री०(प्रवचनखिसा) जिनशासनापभ्राजनायाम् पञ्चा० षड़जीवनिकान्तम्। उक्तं च-"पवयणमाईछजी-वणियंता उभयओ वि 12 विव०। पूजाविधानाऽप्रतिपादनपर जिनशासनभन्यथा कथमार्हताः इयर!" (ग्रहण शिक्षति तत्र प्रकृतम् ) उभयतः सूतोऽर्थतश्च इतरस्य शौचाऽऽदिव्यतिरकणाऽपि जिनं पूजयन्ति इत्यादिरूपायां जिनशासनाश्राधकरयेति सूत्रग्रहणमुपलक्षणं, तेनान्यदपि पञ्चसंग्रहकर्मप्रकृतिक ऽश्लाघायाम , पञ्चा० 12 विव०। शारतसं घोहं गुरुप्रसादीकृतं निजप्रज्ञाऽनुसारेण जिनदासवत्पठतीति / पवयणगहियत्थ पु०(प्रवचनगृहीतार्थ) प्रवचनस्य गृहीतोऽर्थः सर्वसारों 80 2 202 अधि० , लक्ष। येन स तथा। गीतार्थे, व्य० 10 उ०। प्रवचनकुशलमाह - पवयणगुरु पु०(प्रवचनगुरु) प्रधानाऽऽचार्य, पञ्चा० 6 विव०। सुत्तत्थेहेउकारणवागरणसमिद्धचित्तसुयधारी। पवयणणिण्हव पुं० (प्रवचननिहव) प्रवचनमागमं निवतेऽपलपन्त्यपोराणदुद्धरधरो, सुयरयणनिहाणमवि पुण्णो / / 136 / / था प्ररूपयन्तीति प्रवचननिहवाः / बहुरताऽऽदिषूत्सूत्रप्ररूषकेषु, धारियगुणियसमीहिय, निजवणा विउलवायणसमिद्धो। स्था०७टा०। (तेच' णिण्हव' शब्दे चतुर्थभागे 2064 पृष्ठेव्याख्याताः) पवयणकुसलगुणनिही, पवयणहियनिग्गहसमत्थो / / 140 / / पवयणदेवया स्त्री०(प्रवचनदेवता) शासनदेव्याम्, स्था० 10 ठा०। सूत्राऽऽत्मकत्वात्सूत्रार्थों, यदि वा-सूत्रयुक्तोऽर्थोऽस्मिन्निति सूत्रार्थः, पवयणपचणीय त्रि०(प्रवचनप्रत्यनीक) शासनप्रत्यनीके,पं०व०१ द्वार। नत्वक्षरानारूढार्थमिति भावः / हेतुरन्वयव्यतिरेकाऽऽत्गकः, कारण पवयणवत्ता त्रि०(प्रवचनवक्त) सूत्रार्थवक्तरि, पं०व०१द्वार। मपपत्तिमात्रम्, हेतुकारणे व्याक्रियते प्रतिपाद्यतेऽनेनेति, हेतुकारणव्याकरणं समृद्धम , अनेकातिशयाऽऽत्मकत्वात, चित्रमाश्वर्यभूतम्, पवयणमाउआ स्त्री०(प्रवचनमातृ) प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य मातर इव अनन्तारमपर्यायाऽऽत्मकत्वात् / एवंरूपं श्रुतं धारयतीत्येवंशीलः सूत्रार्थ तत्प्रसूतिहेतुत्वान्मातरो जनन्यः प्रवचनमातरः / पा० / प्रवचनस्य हतुकारणव्याकरणसमृद्धचित्र श्रुतधारी। तथा पौराणमिव पौराणं यादृश द्वादशाङ्गस्य तदाधारस्य वा संघस्य मातर इव प्रवचनमातरः / स०८ नततिद्वयोर्मासात् तादृशमिदानीमप्यतिबहुलत्वेनेति भावः / दुर्द्धर सम० / आव०। आ० म०। प्रवचनाऽऽधारेषु समितिगुप्तिषु, नयभङ्गाऽऽकुलतया प्राकृतजनैारयितुमशक्यं धरतेऽर्थात् प्रवचनमिति अट्ठ पवयणमायाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-इरियासमिई,भापौराणदुर्द्धरधरः। तथा श्रुतरत्नस्य निधानमिव पूर्णः प्रतिपूर्णोऽर्थ- सासमिई, एसणासमिई, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई, निर्णयप्रदानाऽऽदिना। तथा धारितं सम्यग्धारणाविषयीकृत, न विनष्ट- उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्ठावणियासमिई, मणमिति भावः / गुणितं च बहुशः परावर्तितम् / तथा राम्यक ईहित गुत्ती, वयगुत्ती, कायगुत्ती। पूर्वापरसंबन्धेन पूर्वापराव्याहतत्वेनेत्यर्थः / मीमासित समीहितम् / एतानि रस० 8 सम०। आ० चू०।३० / एतदर्थप्रतिपादके चतुर्विशे उत्तराध्ययने, वचनविशेषणानि इत्थंभूतेन प्रवचने तस्य निर्यापणा मीमांरिततया उत्त०। निर्दोषत्वन निश्चयतया विपुला विशोधनार्थ बहूनामाचार्याणां सकाशे सप्रति नामावथमाह - गहणात्, वाचना विपुलावाचना, तया च समृद्धो धारितगुणितसमीहि अट्ठसु वि समिईसुं , दुवालसंगं समोयरइ जम्हा। तनिर्यापणाविपुलवाचनासमृद्धः। तथा प्रवचनपरिज्ञानानुगतानां गुणानां निधिरिय गुणनिधिः / किमुक्तं भवति ? प्रवचनमाधाल्यात्मनोहित तम्हा पवयणमाया, अज्झयणं होइ नायव्वं / / 456 / / वहत्यन्येषां च हितमुपदिशतीति तया प्रवचनस्याहिता अवर्णभाषिण- अष्टास्वप्यष्टसंख्यास्वपि समितिषु द्वादशाङ्गं प्रवचनं समवतरति स्तन्निग्रहे समर्थः प्रवचनाहितनिग्रहसमर्थः / पाठान्तरम्-"पवयणहिय- संभवति यस्मात , ताश्वेहाभिधीयन्त इति गम्यते। तस्मात् प्रवचनमाता निगमसमत्थो।' प्रवचनायहितः स्वशक्त्या निगृहनेन प्रभावक प्रवचनभातरो वोपचारत इति / इदमध्ययनं भवति ज्ञातव्यमिति इत्यर्थः निर्गमे आत्मनः परस्य च संसारान्निस्तारणे समर्थः। गाथाऽर्थः / गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवयणमाउआ 786 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवह संप्रती सूत्राऽऽलापकनिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवतीति सूत्रा- औ०। स० विंशतितमायां गौणानुज्ञायाम् नं०। नुगमे सूत्रमुचारणीयम्। तच्चेदम् - पवरंग (देशी) शिरसि, दे० ना०६ वर्ग 26 गाथा। अट्ठ पवयणमायाओ, तओ गुत्ती तहेव य। पवरकच्छ पुं०(प्रवरकच्छ) कच्छदेशे, जं०३ वक्षः। पंचेव य समिइओ, तओ गुत्तीओं आहिया॥१॥ पवरकुंदुरुक न०(प्रवरकुन्दुरुक) विशिष्टचीडाभिधाने गन्धद्रव्यविशेषे, इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय। कल्प०१ अधि०२क्षण। जं०ा औ०। स०1 मणगुत्ती वयगुत्ती, कायगुत्ती य अट्ठमा / / 2 / / पवरगंध पुं०(प्रवरगन्ध) प्रवरे गन्धे, प्रवरगन्धोपेते, त्रिका स्था० 8 ठा० / एया पवयणमाया, समासेण वियाहिया। पवरगवल न०(प्रवरगवल) वरमहिषशृङ्गे, ज०३ वक्ष। वारसंग जिणक्खायं, मायं जत्थ उपवयणं / / 3 / / पवरगोणजुवाण पु०(प्रवरगोयुवन् ) श्रेष्ठतरुणबलीवर्दे, "नीलुप्पलप्रकटार्थमेव। उत्त० 24 अ०। कयामेलएहिँ पवरगोणजुवाणएहिं ति।' भ०६ श०३३ उ०। एया पवयणमाया, जे सम्म आयरे मुणी। पवरजुवति स्त्री० (प्रवरयुवति) तरुण्याम् , प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। सो खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुचइपंडिए।॥ 27 // पवरदित्ततेय त्रि०(प्रवरदीप्ततेजस् ) प्रवरभावतया वरदीप्ततया च स्पष्टमेव, नवरं सम्यगविपरातेन न तुदम्भाऽऽदिना इति सूत्रार्थः / उत्त० / युक्ते, स०। 24 अ०। पवरधूवण न०(प्रवरधूपन) गन्धयुक्तयुपदेशविरचिते धूपविशेषे, ज्ञा० 1 पवयरणरहस्सन०(प्रवचनरहस्य) छेदसूत्र, ५०भा०४ कल्प। पं० चू० / श्रु०१७ अ०। पवयणवच्छल्लजुत्त त्रि०(प्रवचनवात्सल्ययुक्त) संघस्य सूत्रार्थयो पवरपरिहित त्रि०(प्रवरपरिहित) प्रवरं यथा भवतीत्येवं परिहिते, भ०२ वत्सलभावयुक्ते, पं०व०१द्वार। श०५ उ०।"मंगल्लाइं वत्थाई पवरमंगल्लाई पवरपरिहिए।" (पवर पवयणवच्छल्लया स्त्री०(प्रवचनवत्सलता) प्रकृष्ट प्रशस्तं प्रगत वा ति) द्वितीयाबहुवचनलोपात् (प्रवराणि प्रधानानि परिहितो निवसितः। वचनमागमः प्रवचनं द्वादशाङ्ग, तदाधारी वा सङ्घस्तस्य वत्सलता अथवा-प्रवरश्वासौ परिहितश्चेति समासः। औ०। जी०।) प्रवचनवत्सलता। प्रत्यनीकत्वाऽऽदिनिरासेन शासनहितकारितायाम, | पवरभवण न० (प्रवरभवन) प्रवरगेहे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। स्था० 10 ठा०। पवरभुय-पु०(प्रवरभुज) प्रलम्बाबही, औ01 पवयणसार पुं०(प्रवचनसार) प्रवचनसंदोहे, आव० 4 अ० 1 "तम्हा पवरभूसण न०(प्रवरभूषण) तलभङ्गकबाहुरक्षिकाप्रभृतिभूते, औ०। पवयणसारे।''(१) सूत्र०१ श्रु०६ अ01ल० प्र०। 'पवयणसारुद्धार'' पवररायसीह पुं०(प्रवरराजसिंह) पूर्वकृततपःप्रभावात् प्रकृष्टराजवीरे, (1) / प्रव०१ द्वार। "पवयणसारुद्धारो" (1613) / श्रीनेमिचन्द्र प्रश्न०४ आश्र० द्वार। सूरिविरचिते ग्रन्थे, प्रव० 276 द्वार। पवयणहिय त्रि०(प्रवचनहित) प्रवचनमिति द्वादशाङ्गम्। अथवा श्रमण पवरवत्थमादि त्रि०(प्रवरवस्त्राऽऽदि) प्रधानवसनप्रभृतौ, पञ्चा० 6 विव० / संघः, तस्य हितः सुखम् / प्रवचनोपकारके, पं० चू०१ कल्प। पं० भा०। पवरवीर पुं०(प्रवरवीर) प्रधानभटे, भ०७ श०६ उ०। सुभटे, विपा०१ पवयणाहियणिग्गहसमत्थ त्रि०(प्रवचनाहितनिग्रहसमर्थ) प्रवचनाऽ श्रु०३ अ०। वर्णवादिना निग्रहसमर्थे, व्य०३ उ०। पवरा स्त्री०(प्रवरा) श्रीवासुदेवस्य शासनदेव्याम् , प्रव० 27 द्वारा पवयणुड्डाहपुं०(प्रवचनोड्डाह) प्रवचनमालिन्ये, ग०२ अधि०। पवसंत त्रि०(प्रक्सत् ) देशान्तरं गच्छति, प्रा० 4 पाद। पवयणुड्डाहकर त्रि०(प्रवचनोड्डाहकर) आवश्यकोक्तकाष्ठसाधुवत् पवसण न०(प्रवसन) जिनकल्पाऽऽदिप्रतिपत्तौ देशान्तरगमने, पं० चू० प्रवचनमालिन्यकरे, ग०३ अधि० / 2 कल्प। पवयणोवघाइ त्रि०(प्रवचनोपघातिन् ) प्रवचनोपघातकारके, यथा / पवसमाण त्रि०(प्रवसत् ) देशान्तरं गच्छति, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। पिण्डग्रहणं कुर्वता निर्धमनाऽऽद्यशुचिस्थानम् / ध०२ अधि०। पवसिउकाम त्रि०(प्रवसितुकाम) परिधातुकामे, "पिंडवायपडियाए पवयणोवघाय पुं०(प्रवचनोपघात) प्रद्विष्टराजाऽऽदिना जिनशासनाप- / पवसिउकामे सव्वं चीवरमायाए।'' आचा०२ श्रु०१ चू०५ अ०२ उ०। भ्रंशे, व्य०१ उ०। (प्रवचनोपघातरक्षको विष्णुकुमारव विशुद्ध एवेति' | पवसिय त्रि०(प्रोषित) देशान्तरंगन्तुं प्रवृत्ते, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। स्वस्थानरायदुटु' शब्दे वक्ष्यते) विनिर्गते, ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। पवर त्रि०(प्रवर) प्रकर्षेण वरः श्रेष्ठः / उत्त०११ अ० / अतिप्रधाने, ज्ञा०१ पवह पु०(प्रवाह) प्रवह-घन वृद्धिः / " घावृद्धे वा" श्रु०१अ०। सूत्र० / स्था०। विशे०। रा०1 जी०। आ० म०। प्रज्ञा०। | // 8 / 1635 / / इति सूत्रेण वैकल्पिक वृद्धिः / पवहो / प Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवह 787 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवायदह वाहो ! 0 1 पाद / प्रभावे, स्था० 10 ठा० / 'विमला, ण दिसा ल्पाऽराभवात. नित्यायाश्च प्रवृत्तिनिवृत्तभावात् पुरुषस्याप्यकर्तृत्वे रुयगादीया रुयगप्पवहा।" भ०१३ श०४ उ०। संसाराद्वेगमोक्षातसुक्यभोक्तृत्वाऽऽद्य भावः स्यादिति। उक्तश्च - पवहण न० (प्रवहण) वेसराऽऽदिषु वाहनेषु, औ० / पोते, "समुद्दे धवहणं " न विरक्ता न निर्विण्णो, न भीतो भवबन्धनात्। घासइ। आ० म०१ अ०। न मोक्षसुखकाक्षी वा, पुरुषो निष्क्रियाऽऽत्मकः / / 1 / / कः प्रव्रजति सांख्यानां, निष्क्रिये क्षेत्रभोक्तरि। पवहाइअ (देशी) प्रवृत्ते, दे० ना०६ वर्ग 34 गाथा। निष्क्रियत्वात्कथं वाऽस्य, क्षेत्रभोक्तृत्वमिष्यते ? / / २।।''इति। पवा स्त्री० (प्रपा) जलदानस्थाने, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। प्रश्न० / दशा० / तथा-शौद्धोदनिशिष्यका यत् सत्तत्सर्वं क्षणिकमित्येवं व्यवस्थिताः। भ०। औ० पानीयशालायाम् . कल्प०१ अधि०४ क्षण। रा०व्य०। तत्रोत्तरम् / यदि निरन्वयो विनाशः स्यात ततः प्रतिनियतः कार्यकारणजल्दानमण्डपे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। आचा०। भाव एव न स्यात् , एकसन्तानान्तर्गतत्वात्स्यादिति चेद्, अशिक्षितपवाइय त्रि०(प्रवादित) आस्फालिते, औ०। आ० म० / प्रज्ञा० / रा०। स्योल्लापः, तथाहि-नसन्तानिव्यतिरेकेण कश्चित् सन्तानोऽस्ति, तथा पवाडेमाण त्रि० (प्रपातयत् ) अधःपातयति, भ०१७ 101 उ०। चे सति पूर्वकालक्षणावस्थायित्वमेव कारणत्वमेवश्च सर्व सर्वस्य कारण पवाय पु०(प्रवाद) प्रकर्षणोद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतोऽर्थो यैरिति स्यात् सर्वस्य पूर्वकालक्षणावस्थायित्वाद्यत्किञ्चिदेतदितिः किं च - प्रवादाः दर्शनषु," अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् , यथा परे मंत्सरिणः "यजातमात्रमेव, प्रध्वस्तं तस्य का क्रिया कुम्भे? प्रबादाः " स्या०। प्रकृष्टो वादः प्रवादः / आचार्यपारम्र्पोपदेशे." जे नोत्पन्नमात्रभग्ने, क्षिप्तं संतिष्ठते वारि॥१॥ मह अबहिमणे, पवाए पवायं जाणेजा।"(१६७) (जे मह इत्यादि) यः कर्तरि जातविनष्टे, धर्माधर्मक्रिया न सम्भवति। पुरस्कृतमोक्षो महन्महापुरुषोलधुकाममाऽभिप्रायान्न विद्यते बहिर्मनो | तदभावे बन्धः को, बन्धाभावे च को मोक्षः? ||2 // " यस्याराावबहिर्मनाः सर्वज्ञोपदेशवर्तीति यावत् , कुतः पुनस्तदुध- इत्यादि बार्हस्पत्यानां तु भूतवादेनाऽऽत्मपुण्यपापपरलोकाऽभाववादेशनिश्चय इति चेदाह-(पवाए इत्यादि) प्रकृष्टो वादः प्रवादः-आचार्य- दिना निम्मीदतया जनताऽतिगानां न्यक्कारपदव्याधानमनुत्तरमेवोपारम्पर्योपदेशः प्रवादः, तेन प्रवादेन सर्वज्ञोपदेशं जानीया परिछि- तरमिति। न्धादिति / यदि था-अणिमाद्यऽऽष्टविधैश्वर्यदर्शनादपि न तीर्थद्वच अपि च - नादहिर्मनी विधत्ते, तीर्थकानिन्द्रजालिककल्पानिति मत्वा तदनुष्ठान " अब्रह्मचर्यरत्तैमूढः परदारघर्षणाभिरतैः। तद्वादाक्ष पर्यालोचयति / कथमित्याह-(पवारण इत्यादि) प्रकृष्टो वादः माहेन्द्रजालविषयत् प्रवर्तितमसत्किमप्येतत्॥१॥'' प्रवादः सर्वज्ञवाक्यं, तेन मौनीन्द्रेण प्रवादेन तीर्थकप्रवादं जानीया तथात्परीक्षयेत् / तद्यथा-वैशेषिकास्तनुभुवनकरणाऽऽदिकमीश्वरकर्तृ " मिथ्या च दृष्टिर्भवदुःखधात्री, कमिति प्रतिपन्नाः। तदुक्तम्- " अन्यो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुः- मिथ्यामतिश्चापि विवेकशून्या। खयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् , स्वर्ग वा सवभ्रमेव च // 1 // ' इत्यादिक धर्माय येषा पुरुषाधमानां, प्रवादमात्मीयप्रवादेन पर्यालोचयेत् / तद्यथा - अभेन्द्रधनुरादीनां तेषामधर्मो भुवि कीदृशोऽन्यः ? // 2 // " विश्रसापरिणामलब्धाऽऽत्मलाभानां तदतिरिक्तेश्वराऽऽदिकारण इत्यनया दिशा सर्वेऽपि तीथिकवादाः सर्वज्ञवादमनुसृत्य निराकायां परिकल्पनायामतिप्रसङ्गः स्यात् / तथा घटपटाऽऽदीनां दण्डचक्रची इति स्थितम्, तन्निराकरणं च सर्वज्ञप्रवादं निराकार्यं च तीर्थिकवरसलिलकुलालतुरीवेमशलाकाकुविन्दाऽऽदिव्यापारानन्तरावाप्ता प्रवादमेभिस्त्रिभिः प्रकारैर्जानीयात् / आचा० 1 श्रु० 5 अ०६ उ०। ऽऽत्मलाभानां तदनुपलब्धव्या पारेश्वरस्य कारणपरिकल्पनायां उत्त०। सूत्र०। आ० म०। रसभाऽऽदेरपि किं न स्यात् ? तनुकारणाऽऽदीनामप्यबन्ध्यस्वकृत * प्रपात पु० गते, ज्ञा०१ श्रु०१४ अ० / विपा० / भृगुषु , यत्र मुमूर्षवो कार्माऽऽपादितं वैचित्र्य, कर्मणोऽनुपलब्धः / कुत एतदिति चेत्,समानः जनाः भूम्यां पतन्ति / रात्रिधाट्या च / जं०१ वक्ष० / ज्ञा० / पर्यनुयोगः / अपिच-तुल्ये मातापित्रादिके कारणे अपत्यवैचित्र्यदर्शनात्त पर्वतात्प्रपतज्जलसमूह, स०७५ सम०। दधिकेन निमित्तेन भाव्यम् , तच्चेश्वराभ्युपगमेऽप्यदृष्टमेवेष्टव्यं, नान्यथा पवायंत त्रि० (प्रवात् ) प्रवहति, " जंसिप्पेगे पवेदंति सिसिरे मारुए सुखदुःखसुभगदुर्भगाऽऽदिजगद्वैचित्र्यं स्यादिति / तथा-साख्या पवायंते / " आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। एवमाहुः-यथा-" सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रकृतेर्महा स्ततोऽहकारस्तस्मादेकादशेन्द्रियाणि पञ्चतन्मात्राणि, तन्मात्रेभ्यः पञ्च | पवायग पुं०(प्रवाचक) प्रकर्षेण प्रधानः, आदौ वा वाचकः भूतानि, बुद्ध्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयतेः स चाकर्ता निर्गुणश्चेति।" प्रवाचकः / गणधरे, आ० म०१ अ०। आ० चू० / विशे०।। तथा प्रकृतिः करोति पुरुष उपभुङ्क्ते, ततः कैवल्यावस्थायां द्रष्टाऽस्मी- पवायदह पुं०(प्रपातहद) प्रपतनं प्रपातस्तदुपलक्षितो हदः प्रपातहदः / ति निवर्तते, इत्यादिकं युक्तिविकलत्वान्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति। प्रपातकुण्डे, यत्र हिमवदादेर्नगात् गङ्गाऽऽदिका महानदी प्रणालेनाधो तथाहे-प्रकृतेरचेतनत्वात् कुत आत्मोपकाराय क्रियाप्रवृत्तिः स्यात् ? निपतति / स्था०। कुतो वा दृष्टत्यात्मोपकाराय प्रवृत्तिर्न स्यात् ? अचेतनायास्तद्विक- जंबू ! मंदरदाहिणेणं भरहे वासे दो पवायदहा पण्णत्ता / तं Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवायदह 758 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पविद्ध जहा-बहुसमतुल्ला० जाव गंगप्पवायदहे चेव सिंधुप्पवायबहे पविचरिय न०(प्रविचरित) इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ते, रा०। चेव / एवं हेमवए वासे दो पवायदहा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला / तं | पविजल त्रि०(प्रदीप्तजल) प्रतप्तजले, "सयाजला नाम नदीभिदुग्गा, जहा-रोहियप्पवायदहे चेव रोहियंसप्पवायदहे चेव / जंबू ! | पविजला लोहविलीणगत्ता।" (21) रुधिराऽऽविलत्वात पिच्छिला मंदरदाहिणेणं हरिवासे दो पवायदहा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला।। विस्तीर्णगम्भीरजला वा। अथवा-प्रदीप्तजला था। सूत्रः 1 श्रु० 5 अ० तं जहा-हरिप्पवायदहे चेव, हरिकंतप्पवायबहे चेव / जंबू ! २उ०॥ मंदरउत्तरदाहिणेणं महाविदेहे वासे दो पवायदहा पण्णत्ता / तं पविट्ठ त्रि०(प्रविष्ट) अन्तर्गते, अनु० / सूत्र०। उत्त०। जहा-बहुसमतुल्ला० जाव सीयप्पवायबहे चेव, सीओदय पवित्त न०(पवित्र) "पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम्। अहिंसा प्पवायदहे चेव / जंबू ! मंदरउत्तरेणं रम्मए वासे दो पवायदहा सत्यमस्तेयबहाचर्याऽपरिग्रहाः / / 1 / / " उत्त० 12 अ० / दर्भे, पण्णत्ता बहुसमतुल्ला० जाव णरप्पवायद चेव णरकंदप्पवा पवित्रशब्दभवः / दे० ना०६ वर्ग 14 गाथा। यहहे चेवा एवं हेरन्नवए वासे दो पवायदहा पण्णत्ता। तं जहा पवित्तय न०(पवित्रक) अडगुलीयके, भ०२श०५ उ०। औ०। बहुसमतुल्ला० जाव सुवण्णकूलप्पवायदहे चेव रूपकूलप्पवायद्दहे चेव। जंबू ! मंदरउत्तरेणं एरवए वासे दो पवायद्दहा पण्णत्ता पवित्ति स्त्री०(प्रवृत्ति) प्रवर्त्तने, आचा०१श्रु०१ अ०१3०। आत्मेच्छाबहुसमतुल्ला० जाव रत्तप्पवायदहे चेव रत्तवइप्पवायबहे याम्, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। प्रथमाभ्यासे, द्वा०१८द्वा० / चेष्टायाम् . पञ्चा०६ विव० / प्रवर्तनं प्रवृत्तिः। अनुष्ठानरूपायां परिशुद्धप्रतिपत्त्यचेव / स्था०२ ठा०३ उ०१ नन्तरभाविन्या तत्त्वविषयायां विशिष्टक्रियायाम, षो) 16 विव० / (गङ्गाप्रपातहृदाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (प्रवृत्तिलक्षणम् 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2670 पृष्ठे उक्तम् )न्यायसंमते पवाया स्त्री०(प्रवाता) प्रगतवातायां शय्यायाम् . या हि ग्रीष्मकालेऽप शुभाऽशुभ फले विंशतिविधे वाड्मनःकायव्यापारे, स्या०। राण्हे उपलेपनाऽऽदिकरणेन धर्म नाशयति। बृ० 1702 प्रक० / आचा० / पवित्तिजम स्त्री०(पवित्रिका) ताममये अङ्गुलीयके, ज्ञा० 1 श्रु०५ अ०। पवाल पुं०(प्रवाल) किशलये, "किसलयाई पल्लवा पवाला य।'' पाइo पवित्थरपुं०(प्रविस्तर) धनधान्याऽऽदिप्रविस्तारे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार / ना० 138 गाथा।' विदुमं पवालं। "पाइ० ना० 228 गाथा। धनधान्यद्विपदचतुष्पदाऽऽदिविभूतिविस्तारे, उत्त० 1 अ० / प्रश्न / पवासपुं०(प्रवास) देशान्तरगमने, आव०१ अ०1" अतः समृद्ध्यादौ गृहोपस्करे, दशा०६ अ०। वा" ||8|1|44 // इति वैकल्पिको दीर्घः। प्रा० 1 पाद। पवित्थरिल्लय न०(प्रविस्तर) विस्तारवति, प्रश्न०५ आश्र0 द्वार। पवाह पुं०(प्रवाह) सन्तत्याम् , पं०व० 4 द्वार 1 आ० म० / आव०ा वशे, पविद्ध त्रि०(प्रविद्ध) यद्वन्दनं दददेव नश्यति तादृशेवन्दनदोषे, "पविद्धं विशे०। आव०। वंदणगं देंतओ चेव उद्वेत्ता णासति। “आ० चू०। पवाहणन०(प्रवाहण) प्रवाह्यते अनेनेतिप्रवाहणम्। जले, तस्य मलप्रक्षा पविद्धमणुवयारं, जं अप्पिंतो णिजंतिओ होइ। लनत्वात्। आ० म०२ अ०। जत्थ व तत्थ व उज्झइ, कियकिचोऽवक्खरं चेव / / 156 / / पविआस्त्री०(प्लविका)" सिरिद्दहो पविआ। "पाइ० ना०२१८ गाथा / पक्षिपानपात्रे, दे० ना०६ वर्ग 4 गाथा / " पविद्धमणुक्यार ति। " प्रविद्धं नाम यदुपचाररहितम् / एतदेव व्याचष्टयद्वन्दनकगुरुभ्योऽर्पयन् ददत् नियन्त्रितो भवति, अनवस्थित पविइण्ण त्रि०(प्रविकीर्ण) विक्षिप्ते, औ० / व्याप्ते, "नरवइपविइ इत्यर्थः / अनवस्थितत्वेन च यत्र वा तत्र वा स्थाने प्रथमप्रवेशाऽऽदिपणमहीवइपहा।' नरपतिना राज्ञा प्रविकीर्णा गमनाऽऽगमनाभ्यां व्याप्तो लक्षणेऽसमाप्तमपि वन्दनकमुज्झित्वा नश्यति। क इव यथा किमुज्झतीमहीपतिपथो राजमार्गो यस्यां सा तथा। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ त्याह-(कियकियोवक्खरं चेव त्ति) एतदुक्तं भवति-केनचित् भाटकिना पविकत्थण न०(प्रविकत्थन) आत्मश्लाघायाम् , स०३० सम० कुतश्चिन्नगरान्नगरान्तरेऽवस्कर भाण्डमुपनीतम्, अवस्करस्वामिना च पविकसिय त्रि०(प्रविकसित) प्रकर्षण विकसितमुद्बोधं गतम्। प्रोबुद्धे, स भाटकी भणितः प्रतीक्षस्व किञ्चित्कालं यावदस्यावस्करस्यावतारक० प्र० 10 प्रक०। णाय स्थानं किचिदन्वेष-यामि कुत्राऽपीति। स प्राहमयाऽस्मिन्नेव नगरे पविकिरमाण त्रि०(प्रविकिरत् ) मुश्चति, " जालासहस्साइं पविकिरमा- समानेतव्यमिदमित्येवोक्तमतः कृतकृत्यत्वान्नातः प्रतीक्षऽहमित्युक्त्वाऽणाई झियाइ। " स्था०८ ठा० / स्थाने एव तद्भाण्डमुज्झित्वा गच्छति। एवं साधुरप्यस्थान एव वन्दनकप Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पविद्ध 786 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय रित्यज्य नश्यतोत्येतावतांऽशेन दृष्टान्त इति। प्रक०२ द्वार। बृ० आव० / पवुट्ट त्रि०(प्रवृष्ट) प्रकर्षण वृष्टिं कृतवति." एवुट्टदेवे ति वा निवुट्टदेवेत्ति वा पविद्धत्थ त्रि०(प्रविध्वस्त) भस्मसाद्भूते. जी०३ प्रति० 1 अधि०१ नो वएज्जा। " आचा०२ श्रु०१ चू० 4 अ०१ उ०। उ० / विध्वास्ताभिमुखीभूते, स्था०३ ठा०१ उ०। पवूढ त्रि०(प्रव्यूढ) निर्गत, ज० 4 वक्ष०। पविभत्ति स्त्री०(प्रविभक्ति) प्रविभजन प्रविभक्तिः / नं० / प्रकर्षण पवेइय त्रि०(प्रवेदित) प्रकर्षणाऽऽदौ वा सर्वस्वभाषानुगामिन्या वा स्वरूपसम्मोहाभावलक्षणेन विभागः पृथक्त्वम् / उत्त०२ अ०। पृथक् वेदितम्। आचा० 1 श्रु०२ अ०३ उ० / केवलज्ञानचक्षुषाऽवलोक्य पृथक् विभागे, उत्त० 2 अ०। प्रतिपादिते, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ० / प्ररूपिते, उत्त० 2 अ० / पवियक्खण त्रि०(प्रविचक्षण) प्रकर्षण अभ्यासातिशयेन विवक्षणः / आचा० / सूत्र० / प्रकर्षेण यथावस्थितार्थद्वारेण वेदिले, सूत्र० 1 श्रु०३ क्रियासहितज्ञानयुक्ते, उत्त० अ० / अभ्यासातिशयतः / क्रियां प्रति अ०३ उ० / आचा० / विद ज्ञाने / प्रकर्षण वेदितम् प्रचेदितम् / प्रावण्यवति, उत्त० 6 अ०। विज्ञाते, दश० 4 अ० / उत्त० 1 आचा० / स्वयं साक्षात्कारित्वेन पवियारपुं०(प्रविचार, अब्रह्मसेवायाम् प्रव०१द्वार। (देवपरिचा-रणा ज्ञाते. उत्त०१ अ०। 'देवपरियारणा ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 626 पृष्ठादारभ्योक्ता) पवेयण न०(प्रवेदन) कथने, सूत्र०१श्रु०१३ अ०। प्रकाशे, सूत्र०१ श्रु० पविरइअ (देशी) त्वरिते, दे० ना०६ वर्ग 27 गाथा। 8 अ० / अनुभावने, आचा०१ श्रु०६ अ० 2 उ० / ज्ञाने, परिच्छेदे, पविरंजिअ (देशी) स्निग्धे, कृतनिषेधे च / दे० ना० 6 वर्ग 74 गाथा। सूत्र०२ श्रु०१ अ०। प्रकर्षण हेतुदृष्टान्तैश्चित्तसन्ततावारोपणे, सूत्र०२ पविरज धा०(भञ्ज) आमईने, " भजेर्वेमय-मुसुमूर-मूरसूर श्रु० 1 अ० / प्ररूपणे, बृ०३ उ० ! पूत्करणे, बृ० 1 उ० 3 प्रक० / सूड-विर-पविरञ्ज-करञ्ज-नीरजाः " || 8 | 4|106 / / पवेस पुं०(प्रवेश) प्रवेशने, पञ्चा० 8 विव० / अन्तर्भाव, विशे० / प्रश्नः / इति भजेः पविरजादेशः। भनक्ति / प्रा०४ पाद / '' पवेसणिगमवारणजोग्गा " प्रवेशनिर्गमवारणान्येव वा योगा व्यापाराः पविरय न०(प्रविरत) प्रस्फुटिते, जी० 3 प्रति० 1 अधि० 2 उ०।। प्रवेशनिर्गमवारणयोगाः / पञ्चा०५ विव०। पविरल वि०(प्रविरल) प्रकर्षयविरले," पविरलपरिसडियदंतसेड़ी। | पवेसणय न०(प्रवेशनक) गत्यन्तरादुद्धृतस्य विजातीयगतौजीवस्यो 'प्रावेरला दन्तविरलत्वेन परिशटिता दन्तानां केषाञ्चित् पतितत्वेन | त्पादे, भ०। 'भगत्वेन वा दन्तश्रेणिर्येषां ते तथा। जी०३ प्रति०४ अधिः / प्रवेशनकवक्तव्यतापविरलफुसिय त्रि०(प्रविरलस्पृष्ट) प्रविरलानि धनभावे कर्दभसंभवात् काइविहे णं भंते ! पवेसणए पण्णत्ते ? गंगेया ! चउव्विहे पवेप्रकर्षण यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेण स्पृष्टानि सणए पण्णत्ते / तं जहा-णेरइयपवेसणाए, तिरिक्खजोणियवत्र वर्षे तत्प्रविरलस्पृष्टम् / प्रविरलवर्षे भूमिस्थरेणुमात्ररोवके वर्षे, पवेसणए, मणुस्सपवेसणए देवपवेसणए / णेरइयपवेसणए णं "पविरलफुसिय दिव्यं सुरभिरयरेणुविणासणं गंधोदकवास वासंति।" भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गंगेया ! सत्तविहे पण्णत्ते / तं जहाजी०३ प्रति०४ अधि०। रयणप्पभापुढविणे रझ्यपवेसणए०जाव अहेसत्तमापुढवीणेपविसंत त्रि०(प्रविशत् ) अन्तर्विशति, सू०प्र०१ पाहु०। प्रा० / आचा० / रइयपवेसणए / एगे णं भंते ! णेरइए णेरइयपवेसणएणं पवेसपविसमाण त्रि०(प्रविशत् ) ' पविसंत - शब्दार्थ, सू० प्र० 1 पाहु० / माणे किं रयणप्पभाए होजा, सक्करप्पभाए होजा, एवं० जाव प्रा० / प्रक्षिपति, भ० 15 श०। अहे सत्तमाए होज्जा ? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होताजाव अहे पविसिज्ज अव्य०(प्रविश्य) प्रवेशं कृत्वेत्यर्थ, दश० 8 अ०। सत्तमाए वा होजा। पविसितुकाम-त्रि०(प्रवेष्टुकाम) प्रवेशकरणेच्छौ, आचा०२ श्रु० 1 चू० 'एगेण भते ! नेरइए 'इत्यादौ सप्त विकल्पाः - 101 उ०। दो भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं रयणप्पपवीइय त्रि०(प्रवीजित) वाय्वर्थमान्दोलिते. "पवीइयचामरबालवीय- भाए होज्जा० जाव अहे सत्तमाए होजा? गंगेया ! रयणप्पभाए णियं / ' प्रवीजिता श्वेतचामरबालानां सत्का व्यजनिका यम् / वा होजा० जाव अहे सत्तमाए वा होजा। अहवा-एगे रयणप्पअथवा- प्रवीजिते श्वेतवामरे बालव्यजनिका च यं स तथा। भ०६ भाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा० जाव एगे रयणप्पभाए एगे अहे रा० 33 उ० / औ०। सत्तमाए होज्जा / 6 / अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पपवीलण न०(प्रपीडन) असकृदनीषद् वा पीडने, दश० 4 अ० 1 विकृष्ट भाए०जाव अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा तपसा पीडने, आचा०१ श्रु०४ अ०४ उ०। / 5 / अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा, ए Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 760 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय वं० जाव अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 4 / / एवं एकेक्षा पुढवी छड्ढयव्वा० जाव अहवा-एगे तमाए एगे अहे | सत्तमाए होजा। "दो भंते ! नेरइए" इत्यादावष्टाविंशतिर्विकल्पाः / तत्र रत्नप्रभाऊऽद्याः सप्ताऽपि पृथिवीः क्रमेण पट्टाऽऽदौ व्यवस्थाप्याऽक्षसञ्चारणया पृथिवीनामेकत्वद्विकयोगाभ्यां तेऽवसेयाः। तत्रैकेकं पृथिव्या नारकद्वयोत्पत्तिलक्षणैकत्वे सप्त विकल्पाः / पृथिवीद्वये नारकद्वयोत्पत्तिलक्षणयिद्विकयोगे त्वेकविंशतिरित्येवमष्टाविंशतिः। (एवं एकेका पुढवी छड्डयव्व ति) अक्षसञ्चारणाऽपेक्षयेदमुक्तमिति / तिण्णि भंते ! णेरइया णेरइयप्पवेसणएणं पवेसमाणा किं स्य- | णप्पभाए होजा०जाव अहे सत्तमाए होजा? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजाजाव अहवा-अहे सत्तमाए होज्जा / 7 / अ-हवाएगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होला०जाव अहवा- एगे रयणप्पभाए दो अहे सत्तमाए होजा।६। अहवा-दो रयाणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा०जाव अहवा-दो रयण-प्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा।१२। अहवा-एगे सक्करप्प-भाए दो वालुयप्पभाए होजा०जाव अहवा-एगे सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमाए होज्जा / 5 / अहवा-दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा०जाव अहवा-दो सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 10 / एवं जहा सकरप्पभाए वत्तव्वया भणि-या, तहा सव्वपुढवीणं माणियव्या जाव अहवा-दो तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 42 / अहवाएगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा ।१२।०जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 5 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगपंकप्पभाए होज्जा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, एवं०जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 4 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा०जाव अहवा-एगे रयणप्प- | भाए एगे पंकप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 3 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा।२। अहवाएगे रयणप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 1 / एवं / 15 / अहवा-एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा। अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयाए एगे धूमप्पभार होजा। २।०जाव एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे | अहे सत्तमाए होला। 4 / अहवा-एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा० जाव अहवा-एगे संकरप्प-भाए एगे पंकप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 3 / अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा / अहवा-एगे स-क्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा / 2 / अह-वा-एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा। 10 / अहवाएगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाएएगे धूमप्पभाए होजा। अहवाएगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होज्जा / अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा।३। अहवाएगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा / अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा।। अहवाएगे वालुयाए एगे तमाए एगे अहे मत्तमाए होजा। 1 / एवं / 6 / अहवा-एगे पंकाए धूमाए एगे तमाए हो। अहवा-एगे पंकाए एगे धूमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा।२४ अहवा-एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 1 / एवं / 3 / अहवा-एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 1 / 35 / 84 / " तिष्णि भंते ! नेरइए " इत्यादौ चतुरशीतिर्विकल्पाः / तथाहिपृथिवीनामेकत्वे सप्त विकल्पाः। द्विकसंयोगे तु तासागको द्वावित्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रत्नप्रभया सहशेषाभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धाः षट् द्वावेक इत्यनेनाऽपि नारकोत्पादविकल्पेन षडव, तदेते द्वादश। एव शर्कराप्रभया पञ्च पञ्चेति दश / एवं वालुकाप्रभयाऽष्टी, पङ्कप्रभया षट्, धूमप्रभया चत्वारः, तमःप्रभया द्वाविति। द्विकयागे द्विचत्वारिंशत्विकयोगे तु तासां पञ्चविंशद्विकल्पाः , ते चाक्षसञ्चारणगम्याः , देवमेते सर्वे:पि बतुरशीतिरिति। चत्तारि भंते ! णेरझ्या णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा पुच्छा? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा०जाव अहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए होजा / अहवा-एगे रयणप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए होजा। एवं०जाव एगे रयणप्पभाए तिण्णि अहे सत्तमाए होज्जा / 6 / अहवा-दो रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होजा / एवं०-जाव दो रयणप्पभाए दो अहे सत्तमाए होजा: 6 अहवा-तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होआ। एदं जाव०अहवा-तिण्णि रयणप्पभाए एगे अहे रातमाए होला ! 6 1 18 / अह-वा-एगे सक्करप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए हो! एवं जडेव रयणप्पभाए उवरिमाहिं समं संचारियं तहा सक्करप्पभाए वि उवरिमाहिं समं चारेयव्वं, एवं एकेक्काए समं चारेयव्वं० जाव अहवा तिणि तमाए Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 761 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय एगे अहे सत्तमाए होजा / 63 / अहवाएगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा, अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा। एवं० जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमाए होला। 5 / अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा / एवं०जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा / 5 / अहवा-दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा। 1 / एवं०जाव अहवा-दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 5 / 15 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालु-यप्पभाए दो पंकप्पभाए होज्जा / जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो अहे सत्तमाए होजा / 4 / एवं एएणं गम-एणं जहा तिण्हं तियसंजोगो तहा भाणियव्योजाव अहवा-दो धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 105 | अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाएएगे पंकप्पभाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एणे सक्करप्प-भाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होला / एवं०जाव अह-वा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा / 4 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्कर-प्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होला / अहवा-एगे रय-णप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्प्रभार एगे तमाए होजा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा।३। अहवाएगे रयणप्पभाए एगे सक्कर-प्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्प-भाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा / 2 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा। 1 / एवं / 10 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा / अह-वा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकाए एगे तमाए होजा / अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयाए एगे पंकाए एगे अहे सत्तमाए होजा।३। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयाए एगे धूमाए एगे तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयाए एगे धूमाए एगे अहे सत्तमाए होजा / 2 / अहवा-एगे रयणप्पभए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 1 / 16 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमाए एगे तभाए होजा, अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 2 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा। 11 16 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे धूमाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / एवं / 20 / अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पमाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा। 16 एवं जहा रयणप्प-भाए उवरिमाओ पुढवीओ संचारियाओ तहा सक्करप्पभाए वि उवरिमाओ उच्चारेयय्वाओ०जाव अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एसोतमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। १०।अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा / अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 2 / अहवा-एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा / अहवा-एगे वालुयप्पमाए एगे धूमाए गे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा 35 / 210 / " चत्तारि भंते ! नेरइया " इत्यादी दशोत्तरे द्वे शते विकल्पानाम् / तथाहि-पृथिवीनार्मकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोगे तु तासामेकस्त्रय इत्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रत्नप्रभया सह शेषाभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धाः षट् द्वौ वावित्यनेनापि षट् त्रय एक इत्यनेनापि षडेव। तदेवमेतेऽष्टादश / शर्कराप्रभया तु तथैव त्रिषु पूर्वोक्तनारकोत्पादविकल्पेषु पञ्च पञ्चेति पञ्चदश। एवं वालुकाप्रभया चत्वारश्चत्वार इति द्वादश पङ्कप्रभया त्रयस्त्रय इति नव, धूमप्रभया द्वौ द्वाविति षट् , तमःप्रभयैकेव इति पट सन्योने निकायोगे निमणिना शिवीनां निकायोगे एकाएको हो चेत्येवं नारकोत्पादविकल्पे रत्नप्रभाशर्कराप्रभाभ्या सहान्याभिः क्रमेण चारिताभिलब्धाः पञ्च, एको द्वावेकश्चेत्येवं नारकोत्पादविकल्पान्तरे पञ्च द्वावेक एक श्चेत्येवमपि नारकोत्पादविकल्पान्तरेऽपि पश्च द्वावेक एकश्चेत्येवमपि नारकोत्पादविकल्पान्तरे पञ्चैवेति पञ्चदश एवं रत्नप्रभावालुकाप्रभाभ्यां सहोत्तराभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धा द्वादश, एवं रत्नप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, रत्नप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, रत्नप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, शर्कराप्रभावालुकाप्रभाभ्यां द्वादश, शर्कराप्रभापङ्कप्रभाभ्या नव, शर्कराप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, शर्कराप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, वालुकाप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, वालुप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, वालुकाप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, पङ्कप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, पङ्कप्रभातमः प्रभाभ्यां त्रयः, धूमप्रभाऽऽदिभिस्तुत्रय इति। तदेवं त्रिकयोगे पश्चोत्तर शत, चतुष्कसंयोगे तु पञ्चविंशदित्येवं सप्तानां त्रिषष्टेः पश्चोत्तरशतस्य पञ्चत्रिंशतश्व मीलने द्वे शते दशोत्तरे भवतः। पंच भंते ! रइया णेरड्यपवेसणएणं पवेसमाणा किं रय Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 792 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय गप्पभाए पुच्छा? गंगेया ! अहवा-रयणप्पभाए वा होजा० जाव अहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए वा होज्जा चत्तारि सक्करप्पभाए होज्जा० जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए चत्तारि अहे सत्तमाए होजा।६।अहवा-दो रयणप्पभाए तिपिण सक्कर-प्पभाए होज्जा / एवं० जाव अहवा-दो रयणप्पभाए तिण्णिअहे सत्तमाए होज्जा। अहवा-तिणि रयणप्यभाए दोणि सक्करप्प-भाए होज्जा। एवं० जाव अहवा-तिण्णि रयणप्पभाए दोणि अहे सत्तमाए होज्जा / 6 / अहवा-चत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा। एवं० जाव अहवा-चत्तारि रयणप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा / 6 / 24 / अहवा-एगे सक्करप्पभाए चत्तारिवालुयप्पभाए होज्जा। एवं जहा रयणप्पभाए समं उवरिभपुढवीओ संचारियाओ तहा सक्करप्पभाए वि समं उच्चारेयव्वाओ० जाव अहवा-चत्तारि सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 20 / एवं एक्कक्काए समं उच्चारेयव्वाओ०जाव अहवा-चत्तारितमप्पभाएएगे अहे सत्तमाए होजा। 84 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए तिपिण वालुयप्पभाए होजा। एवं जाव एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए तिणि अहे सत्तमाए होजा। 5 / अहवा-एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा / एवं० जाय अहवा-एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमाए होज्जा। 5 / अहवादो रयण-प्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होज्जा / एवं जाव अहवा-दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहे सत्तमाए होजा। 5 / अहवा-एगे रयणप्पमाए तिण्णि सकरप्पभाए एगे वालु-यप्पभाए होजा। एवं० जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए तिष्णि सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 20 / अहवा-दो रयगप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा! एवं०जाव दो रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 25 / अहवा-तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्प-भाए होजा / एवं०जाव अहवा-तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 30 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभए तिण्णि पंकप्पभाए होजा। एवं एएणं कमेणं जहा चउण्हं तियसंजोगो भणिओ तहा पंचण्ह वि तियसंजोगो भाणियव्यो / णवरं तत्थ एगो संचारिजइ, इमाइं दोषिण, सेसं तं चेव०जाव अहवा-तिण्णि धूमप्पभाए एगे तभप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 210 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए होजा, एवं०जाय अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो अहे सत्तमाए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्कराए दो वालुयाए एगे पंकाए होजा। एवं०जाव अहवा-एगे रयणाए एगे सक्कराए दो वालुयाए एगे अहे सत्तमाए होना। 4 / अहवा-एगे रयणाए दो सक्कराए एगे वालुयाए एगे पंकार होजा। एवं०-जाय अहवा-एगे रयणाए दो सक्कराए एगे वालुयाए एगे अहे सत्तमाए होजा। 4 / अहवा-दो रयणप्पभाए एगे सकराए एगे वालुयाए एगे पंकार होज्जा। एवं० जाव अहवा-दो रयणाए एगे सक्कराए एगे वालुयाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 4 / अहवा-एगे रयणाए एगे सक्कराए एगे पंकाए दो धूमाए होज्जा / एवं जहा चउण्हं चउक्कसंजोगो भणिओ, तहा पंचण्ह वि चउकसंजोगो भाणियव्यो, णवरं अब्भहियं एगो संचारियव्वो० जाव अहवा-दो पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 140 / अहवाएगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालु-यप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्त-माए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा / 15 / अहवा-एगे सकरप्पभाए एगे वा Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 763 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय लुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्प भाए एगे तमाए होला / दो सक्करप्पभाए तिषिण वालुयप्पभाए होजा। एवं एएणं कमेणं अहवा-एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे | जहा पंचण्हं तियसंजोगो भणिओ, तहा छण्हं वि भाणियव्वो, धूमप्पभाए एगे आहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे सक्करप्पभाए | णवरं एक्को अब्भहिओ उच्चरियव्वो, सेसं तं चेव / 350 / एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए / चउक्कसंजोगो वि तहेव / 350 / पंचसंजोगो वि तहेव, णवरं होजा। अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए / एक्को अब्भहिओ संचारेयव्वोजाव पच्छिमो भंगो। अहवा-दो एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे | वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पमाए एगे तमाए एगे अहे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाहे होज्जा। अहवा-एगे सत्तमाए होज्जा / 105 | अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पमाए एगे तमाए होज्जा / सत्तमाए होज्जा। अहवा-एगे रयणप्पभाए० जाव एगे धूमप्पभाए एगे अहे सत्तमाए होजा / अहवा-एगे रयणप्प-भाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे ''पंच भंते ! नेरइया 'इत्यादि पूर्वोक्तक्रमेण भावनीयम् नवरं संक्षेपेण तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्पभाए०जाव विकल्पङ्ख्या दर्श्यते-एकत्वे सप्त विकल्पाः द्विकसंयोगे चतुरशीतिः। एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे तमाए एगे अहे कथम् ? द्विकसंयोगे सप्ताना पदानामेकविंशतिर्भङ्गा, पञ्चाना नारकाणां सत्तमाए होज्जा / अहवा-एगे रयणप्पमाए एगे सकरप्पभाए एगे व द्विधा करणेऽक्षसंचारणाऽवगम्याश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति। तद्यथा पंकप्पभाए० जाव एगे अहे सत्तमाए होजा / अहवा-एगे एकश्चत्वारश्च द्वौ त्रयश्च द्वौ च चत्वार एकश्चेति / तदेवमेकविंशतिश्चतुर्भि रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए० जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा। गुणिताश्चतुरशीतिर्भवन्तीति / त्रिकयोगे तु सप्तानां पदानां पञ्चत्रिंशद्वि अहवा-एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए० जाव एगे अहे कल्पाः, पञ्चानां च त्रित्वेन स्थापने षट् विकल्पाः। तद्यथा-एक एकस्त्रयश्च सत्तमाए होजा।६२४। एको द्रौद्वौ च द्वा-वेको द्वौच एकस्त्रय एकश्च द्वौ द्वावेकश्च त्रय एक एकश्चेति / (छ भते! नेरइया इत्यादि) इह एकत्ये सप्त द्विकयोगे तु षण्णां द्वित्वे पक्ष तदेव पञ्चत्रिंशतः षड्भिर्गुणने देशान्तर भङ्गशतद्वयं भवति। चतुष्कसंयोगे विकल्पाः / तद्यथा- 15,24,33,42,51 / तैश्च सप्तपदद्विकसंयोगैदुसतानां पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, पञ्चानां च वतूराशितया स्थापने चत्वारो कविशतेगुणनात्पशोत्तर भङ्गकशतं भवति, त्रिकयोगे तुषण्णां त्रित्वे दश विकल्पाः , तद्यथा-१११२,११२१, 1211,2111 / तदेव पचत्रिंशत विकल्पाः / तद्यथा-११४,१२३,२१३,१३२,२२२,३१२,१४१,२३१, अतुर्भिगुणने चत्वारिंशदधिकं शतं भवतीति, पञ्चकयोगे त्वेकविशतिरिति / 321,411 / एतैश्च पञ्चविंशतः सप्तपद-त्रिकसंयोगानां गुणनास्त्रीणि स्वनीलने चचत्वारि शतानि द्विषष्ट्यधिकानि भवन्तीति। शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, चतुष्कसंयोगे तु षण्णां चतूराशितया छ भंते ! णेझ्या गेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं रयणप्पभाए स्थापने दश विकल्पाः / तद्यथा- 1113,1122,1212,2112, पुच्छा? गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहे सत्तमाए वा 1131,1221,2121,1311, 2211,3111 / पचत्रिंशतश्च होजा / अहवा-एगे रयणप्पभाए पंच सक्करप्पभाए वा होजा। सप्तचतुष्कसंयोगानां दशभिर्गुणनात् त्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि अहवा-एगे रयणप्पभाए पंच वालुयप्पभाए वा होजा। एवं० जाव भवन्ति / पञ्चकसयोगे तु षण्णां पञ्चधा करणे पञ्चविकल्पा / तद्यथाअहवा-एगे रयणप्पभाए पंच अहे सत्तमाए होज्जा।६। अहवा- 11112,1121.11211, 12111.21111 / सप्तानां च पदानां दो रयप्पभाए चत्तारि सक्करप्पभाए होजा। एवं०जाव अहवा-दो पञ्चकसंयोगे एकविंशतिर्वि-कल्पाः / तेषां च पञ्चभिर्गुणने पञ्चोत्तरं स्यणप्पभाए चत्तारि अहे सत्तमाए होज्जा।६। अहवा-तिपिण शतमिति। षट्कसंयोगे तु सप्तव ते सर्वमीलने चनव शतानि चतुर्विशरयणप्पभाए तिपिण सक्करप्पभाए होजा। एवं एएणं कमेणं जहा त्युत्तराणि भवन्तीति। पंचण्हं दुयसंजोगो तहा छण्हं वि भाणियव्यो, णवरं एको सत्त भंते ! णेरइया णे रइयपवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा ? अब्भहिओ संचारेव्वो० जाव अहवा पंच तमाए एगे अहे सत्तमाए गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा० जाव अहे सत्तमाए वा होजा होजा। 105 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे स-करप्पभाए चत्तारि / 7 / अहवा-एगे रयणप्पभाए छ सक्करप्पभाए होज्जा / एवं वालुयप्पभाए होजा / अहवा-एगे रयणप्प-भाए एगे सक्करप्पभाए एएणं कमेणं जहा छ ण्हं दुयसंजोगो तहा सत्तण्हं वि चत्तारि पंकप्पभाए होजा / एवं० अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे भाणियव्वं / णवरं एगो अब्भहिओ संचारिज्जइ, सेसं तं चेव सक्करप्पभाए चत्तारि अहे सत्तमाए होञ्जा। अहवा-एगे रयणप्पभाए 126 / तियसंजोगो 525 / चउक्कसं जोगो 700 / पंच Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 794 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय संजोगो 315 / छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा सत्तण्ह विभाणियव्वं / णवरं एकेको अब्भहिओ संचारेयव्वोजाव छक्कसंजोगो / अहवा-दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए० जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा। 42 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए० जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा। 1716 / (सत्त भंते ! इत्यादि) इहैकत्वे सप्त, द्विकयोगे तु सप्तानां द्वित्वे षड्विकल्पाः / तद्यथा-१६,२५,३४,४३,५२,६१३ षड्भिश्च सप्तपदद्विकसंयोगैकविंशतेर्गुणनात्षड्विशत्युत्तरं भड़कशतं भवति त्रिकयोगेतु सप्तानां त्रित्वे पञ्चदश विकल्पाः / तद्यथा-११५.१२४, 214,133. 222.313,142,232,322,412,151,141.331. 421,511 / एतैश्च पञ्चविंशतः सप्तपद त्रिकसंयोगाना गुणानात्पञ्च शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि भवन्तीति। चतुष्कयोगेतु सप्तानां चतूराशितया स्थापने एक एक एकचत्वारश्चेत्यादयो विंशतिर्विकल्पाः / ते च वक्ष्यमाणावपूर्वोक्त भङ्गकानुसारेणाऽक्षप्तञ्चारणाकुशलेन स्वयमेवावगन्तव्याः। विंशत्या च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदचतुष्कसयोगानां गुणानात्सप्तशतानि विकल्पानां भवन्ति / पञ्चकसंयोगे तु सप्ताना पञ्चतया स्थापने एक एक एक एकस्त्रयश्चेत्यादयः पञ्चदश विकल्पाः / एतैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैकविंशतेर्गुणनात त्रीणि शतानि पशदशोत्तराणि भवन्ति, षट्कसंयोगे तु सप्ताना षोढाकरणे पश्चैकका द्वौ चेत्यादयः 111112, षड्विकल्पाः / सप्तानां च पदाना षट्कसंयोगे सप्तविकल्पाः, तेषां च षभिर्गुणने द्विचत्वारिंशद्रिकल्पा भवन्ति / सप्तकसंयोगे त्वेक एवेति, सर्वमीलने च सप्तदशशतानि षोडशोत्तराणि भवन्तीति।। अट्ठ भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा किं रयणप्पभाए होला ? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहे सत्तमाए वा होज्जा।७। अहवा-एगे रयणप्पभाए सत्त सक्करप्पभाए होज्जा। एवं दुयसंजोगो। 147 / तियसंजोगो।७३५ / चउक्कसंजोगो। 1225 / पंचसंजोगो।७३५०जाव छक्कसंजोगो य जहा सत्तण्डं मणियं, तहा अट्ठण्हं वि भाणियव्वं / णवरं एके को अब्भहिओ सेसं तं चेव० जाव छक्कसंजोगस्स / अहवा-तिणि सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए० जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा। 147 / अहवा-एगे रयणप्पभाए० जाव दो तमाए एगे अहे सत्तमाए होज्जा। एवं संचारेयव्वं० जाव अहवा-दो रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए० जाव एगे अहे सत्तमाए होजा 7 / 3003 / (अट्ट भंते! इत्यादि) इहैकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकयोगे त्वष्टानां द्वित्वे एकः सप्त्यादयः सप्त विकल्पाः प्रतीता एव / तैश्च सप्तपदद्विकसंयोगैकविंशतेर्गुणनाच्छतं सप्तचत्वारिंशदधिकं भड़कानां भवतीति। त्रिकसयोगे त्वष्टानां त्रित्वे एक एकः षट् इत्यादय एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयागेपञ्चविंशतो गुणने सप्तशतानि पञ्चत्रिशदधिकानि भवन्ति / चतुष्कसंयोगे त्वष्टाना चतुर्धात्वे एक एक एकः पश्चेत्यादयः पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः , तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पक्षत्रिंशतो गुणने द्वादशशतानि पञ्चविंशत्युत्तराणि भड़कानां भवन्तीति / पञ्चकसंयोगे त्वष्टानां पञ्चत्वे एक एक एक एकश्चत्वारश्चेत्यादयः पञ्चशिद्रिकल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैकविंशतेर्गुणने सप्तशतानि पशत्रिंशदधिकानि भवन्तीति / षट्कसंयोगे त्वष्टानां षोढात्वे पोककास्त्रयश्चेत्यादयः 111113 / एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदषट्कसंयोगानां सप्तपदस्य गुणने सप्तचत्वारिंशदधिकभङ्गक शतं भवतीति / सतसंयोगे पुनरष्टानां सप्तधात्वे विकल्पाः प्रतीता एव, तैश्चैकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणने सप्तैव विकल्पाः, एषां च मीलने त्रीणि सहस्राणि त्र्युत्तराणि भवन्तीति। णव भंते ! णेरइया णेरड्यपवेसणएणं पवेसमाणा किं रयणप्पभाए होजा पुच्छा ? गंगेया ! णवरं रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहे सत्तमाए वा होजा। ७1अहवा-एगे रयणप्पभाए अट्ठ सक्करप्पभाए वा होजा। एवं दुयसंजोगो ०जाव सत्त-संजोगो य जहा अट्ठण्हं भणियं, तहा णवण्हं पि भाणियव्वं, णवरं एकेको अब्भहिओ संचारेयव्वो, सेसं तं चेव पच्छिमो आलावगो। अहवा-तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहे सत्तमाए होज्जा / 5005 / (नवभंते ! इत्यादि) इहाऽप्येकत्वे सप्तैव, द्विकसंयोगे तु नवानां द्वित्वेऽष्टी विकल्पाः प्रतीता एव, तैश्चैकविंशतेः सप्तपदद्विकसयोगानां गुणने अष्टषष्ट्यधिकं भङ्ककशतं भवतीति / त्रिकसंयोगे तु नवानां द्वावेकको तृतीयश्च सप्तकः 117, इत्येवमादयोऽष्टाविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोगे. पञ्चत्रिंशतो गुणने नवशतान्यशीत्युत्तराणि भड़कानां भवन्तीति / चतुष्कसंयोगे तु नवानां चतुत्वेि त्रय एककाः / षट्कश्वेत्यादयः 1116 षट् पञ्चाशदविकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगे पञ्चत्रिशतो गुणने सहस्रं नवशतानि षष्टिश्व भङ्गकानां भवन्तीति, पञ्चकसंयोगेतुनवाना पञ्चधात्वे चत्वार एककाः पञ्चकश्चेत्यादयः 11115 सप्ततिर्विकल्पाः , तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैकविंशतेर्गुणने सहस्र चत्वारि शतानि सप्ततिश्च भङ्गकानां भवन्तीति / षट्कसंयोगे तु नवानां षोढात्वे पञ्चैकका श्चतुष्कश्चेत्यादयः 111114 षट्पञ्चाशद्विकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदषट्कसयोगसप्तकस्य गुणने शतत्रयं द्विनवत्यधिकं भङ्गकानां भवतीति / सप्तकसंयोगे पुनर्नवानां सप्तत्वे एककाः षट् त्रिकश्वेत्यादयः 1111113, अष्टाविंशतिर्विकल्पा भवन्ति, तैश्च एकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणनेऽष्टाविंशतिरेव भङ्गका, एषां च सर्वेषां मीलने पञ्च सहस्राणि पश्चोत्तराणि विकल्पा भवन्तीति। दस भंते ! णे रइया णेरइयपवे सणएणं पवे समाणा किं रयणप्पभाए होजा पुच्छा ? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा० जाव अहे समत्ताए वा होजा। 7 / अहवा-एगे र Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 765 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय यणप्पभाए नव सकरप्पभाए वा होज्जा / एवं दुयसंजोगो ०जाव सत्तसंजागो जहा णवण्हं, णवरं एक्केको अब्भहिओ संचारेयव्यो, सेसं तं तेव पच्छिमो आलावगो। अहवा-चत्तारि रयणप्पभाए | एगे सकरप्पभाए० जाव एगे अहे सत्तमाए होना। 54 / 8008 // (दस भते : इत्यादि) इहाप्येकत्वे सप्तव, द्विकसंयोगे तुदशानां द्विधात्वे एका नव चेत्येवमादयो नव विकल्पाः, तैश्चैकविंशतः सप्त-पदद्रिकसंयोगानां गुणने एकोननवत्यधिकं भङ्गकशतं भवतीति / त्रिकयोगे तु दशानां त्रिधात्वे एक एकोऽष्टौ चेत्येवमादयः षट्त्रिंशद्विकल्पाः / तैश्च सप्तपदत्रिक संयोगे पञ्चत्रिंशतो गुणने द्वादशशतानि षष्ट्यधिकानि कानां भवन्तीति / चतुष्कसंयोगे तु दशानां चतुर्द्धात्वे एककत्रयं सप्तकश्चैवत्येवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः , तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगे पञ्चविंशतो गुणने एकोनत्रिंशच्छतानि चत्वारिंशदधिकानि भड़कानां भवन्तीति / पञ्चकसंयोगे तु दशानां पञ्चधात्वे चत्वार एककाः षट्कश्वेत्यादयः षट्विंशत्युत्तरशतसंङ्ख्या विकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदपश्चकसंयोगकर्विशतेर्गुणने षड्विशतिशतानि षट्चत्वारिंशदधिका निभङ्गकानां भवन्तीति। षट्कसयोगे तु दशानां षोढात्वे पञ्चैककाः पञ्चकश्चेत्यादयः षड्विशत्युत्तरशतसङ्ख्या विकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदषट्कसंयोगसप्तकस्य गुणनेऽष्टौ शतानि द्यशीत्यधिकानि भङ्गकानां भवन्ति, सप्तकसंयोगे तु दशानां सप्तधात्वे षडेककाश्चतुष्कश्चेत्यवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः, तैश्चकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणने चतुरशीतिरेव भड़काना भवति, सर्वेषां चैषा मीलने अष्टसहस्राण्यष्टोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति। वीहिं संचारे यव्वा, एवं एकेका पुढवी उवरिमपुढवीहिं समं संचारेयव्वा० जाव अहवा-संखेज्जा तमाए संखेज्जा अहे सत्तमाए होजा। 23 / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए संखेज्जापंकप्पभाए०जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होज्जा। अहवा-एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा० जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होञ्जा। अहवा-एगे रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा / एवं एएणं कमेणं एकेको संचारेयव्वो सकरप्पभाए० जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए संखेजा वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए संखेज्जा सकरप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होजा / अहवा-दो रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा०जाव अहवा-दो रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए संखेज्जा अहे सत्तमाए होज्जा / अहवा-तिण्णि रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाएसंखेज्जा वालुयप्पभाए होजा। एवं एएणं कमेणं एक्के को रयणप्पभाए संचारेयवो० जाव अहवा-संखेजा रयणप्पभाए संखेज्जा सकरप्पभाए होज्जा वालुयप्पभाए होजा० जाव अहवा-संखेज्जा रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होजा / अहवा-एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए संखेज्जा पंकप्पभाए होजा जाव एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए संखेजा, अहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए दो वालुयप्पभाए संखेजा पंकप्पभाए होज्जा / एवं एएणं कमेणं तियसंजोगो चउक्कसंजोगोजाव सत्तसंजोगो जहा दसण्हं तहेव भाणियव्वो पच्छिमगो आलावगो सत्तसंजोगस्स। अहवा-संखेज्जा रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए० जाव संखेजा अहे सत्तमाए होज्जा।६११३३३७। (संखेन्जा भंते ! इत्यादि) तत्र सङ्ख्याता एकादशाऽऽदयः शीर्षप्रहेलिकान्ताः / इहाप्येकत्वे सप्तव, द्विकसंयोगे तु सङ्ख्यातानां द्विधात्वे एकः संख्याताश्चेत्यादयो दश सङ्ख्याताश्व संख्याता: संख्याताश्चेत्येतदन्ता एकादश विकल्पाः / एते चोपरितनपृथिव्यामकाऽऽदीनामेकादशानां पदानामुचारणेऽधस्तनपृथिव्यां तु संख्यातपदस्यैवोचारणे सत्यवसेयाः। ये त्वन्ये उपरितनपृथिव्यां संख्यातपदस्याऽधस्तनपृथिव्यां त्वेकाऽऽदीनामेकादशानां पदानामुचारणे लभ्यन्ते त इह न विवक्षिताः पूर्वसूत्रक्रमाऽऽश्रयणात, पूर्वसूत्रेषु हि दशाऽऽदिराशीनां वैविध्यकल्पनायामुपयंकाऽऽदयो लघवः संख्याभेदाः संख्येयाः संखेजा मंते ! णे रइया णे रइयपवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा ? गोयमा ! रयणप्पभाए वा होज्जा० जाव अहवा-अहे सत्तमाए होजा। अहवा-एगे रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए होजा। एवं० जाव अहवा-एगे रयणप्पभाए संखेज्जा अहे सत्तमाए होजा।६। अहवा-दो रयणप्पभाएसंखेजा सकरप्पभाए होजा। एवं०जाव अहवा-दो रयणप्पभाए संखेज्जा अहे सत्तमाए होजा। 3 / अहवा-तिण्णि रयणप्पभाए संखेजा सक्करप्पभाए होला। एवं एएणं कमेणं एक्केको संचारेयव्वो० जाव अहवा-दसरयणप्पभाए संखेजा, सकरप्पभाए होजा। एवं०जाव अहवा-दसरयणप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होजा।६। अहवा-संखेजा रयणप्पभाए संखेजा सकरप्पभाए होज्जा० जाव अहवा-संखेजा रयणप्पभाए संखेजा अहे सत्तमाए होजा। 6 / अहवा-एगे रयणप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा। एवं जहा रयणप्पभा उवरिमपुढवीहिं समं चरिया, एवं सक्करप्पमा वि उवरिमपुढ- | Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय पूर्व न्यस्ताः, अधस्तु नवाऽऽदयो महान्त एवमिहाप्येकाऽऽदय उपरि सख्याताराशिश्वाधस्तत्र च संख्यातराशेरधनस्तनस्यैकाऽऽद्याकर्षणे - ऽपि संख्यातत्वमवस्थितमेव, प्रचुरत्वान्न पुनः पूर्वसूत्रेषु नयाऽऽदीनामिवैकाऽऽदितया तस्यावस्थानमित्यतो नेहाध एकादिभावोऽपितु संख्यातसम्भव एवेति नाधिकविकल्पविवक्षेति, तत्र रत्नप्रभा एकादिभिः संख्यातान्तरेकादशभिः पदैः क्रमेण विशेषिताः संख्यातपदविशषिताभिः शेषाभिः सह क्रमेण चारिताः षट्षष्टिभड़कान् लभन्ते / एवमेव शर्कराप्रभा पञ्चपञ्चाशतं, वालुकाप्रभा चतुश्चत्वारिंशत, पङ्कप्रभा वयरिबंशत, धूमप्रभा द्वाविंशति, तमः-प्रभा त्वेकादशेति। एवं च द्विकसंयोगविकल्पानां शतद्वयमेकत्रिंशदधिकं भवति, त्रिकयोग तु विकल्पपरिमाणमात्रमेव दर्शाते। रत्नप्रभाशर्कराप्रभावालुकाप्रभाश्चेति प्रथमस्त्रिकयोगः, तत्र च एक एकः सङ्ग्याताश्चेति प्रथमविकल्पः, ततः प्रथमायामेकस्मिन्नेव तृतीयायां तु सङ्ग्यातपद एव स्थितं. द्वितीयायां क्र मेणाक्षविन्यासे द्याद्यक्षभावेन दशमचारे सद्ध्यातपदं भवति / एवमेते पूर्वेण सह एकादश, ततो द्वितीयायां तृतीयायां संङ्ख्यातपद एव स्थिते प्रथमायां तथैव द्याद्यक्षभावेन दशमचारे संझ्यातपदं भवति / एवं चैत दश समाप्यते, चेतोक्षविन्यासोऽन्त्यपदस्य प्राप्तत्वात्। एवं चैते सर्वेऽप्येकत्र त्रिकसंयोगे एकविंशतिः / अनया च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणने सप्तशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्ति। चतुष्कसंयोगे तु पुनराद्याभिश्वतसृभिः प्रथमः चतुष्कसंयोगः, तत्र चाद्यासुतिसृष्वेकैकश्चतुर्थ्या तु सइख्याता इत्येको विकल्पः / ततः पूर्वोक्तक्रमेण तृतीयायां दशमचारे संख्यातपदमेवं द्वितीयायां प्रथमायां च तत एते सर्वेप्येकत्र चतुष्कयोगे एकत्रिंशत् / अनया च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पञ्चत्रिंशतो गुणने सहसं पञ्चाशीत्यधिकं भवति। पञ्चकसंयोगे त्वाद्याभिः पञ्चभिः प्रथम पक्षकयोगः / तत्र चाद्यासु चतसृष्येकैकः पञ्चम्यां तु सङ्ख्याता इत्येको विकल्पः / ततः पूर्वोक्तक्रमेण चतुर्थ्यां दशमचारे संख्यातपदमेवं शेषास्वपि / तत एते सर्वेऽप्येकत्र पञ्चकयोगे एकचत्वारिंशत् / अस्याश्च प्रत्येक सप्तपदपञ्चकसंयोगानामेकाविंशतो लाभादष्टशतान्येकषष्ट्यधिकानि भवन्ति / षट्कसंयोगेषु तुपूर्वोक्तक्रमेणैकत्र षट्कयोगे एकपञ्चाशद्विकल्पा भवन्ति / अस्याश्च प्रत्येक सप्तषट्कसंयोगसप्तके लाभात्त्रीणि शतानि सप्तपक्षाशदधिकानि भवन्ति / सप्तकसंयोगेषु पूर्वोक्तभावनयैकषष्टिविकल्पा भवन्ति। सर्वेषां चैषां मीलने त्रयस्त्रिंशच्छतानि सप्तत्रिंशदधिकानि भवन्ति। असंख्येयाःअसंखेजा भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा० जाव अहे सत्तमाए धा होञ्जा।७। अहवा-एगे रयणप्पभाए असंखेजा सक्करप्पभाए होज्जा। एवं दुयसंजोगोजाव सत्तगसंजोगो य। जहा संखेजाणं भणिओ तहा असंखेजाण वि माणियव्यो, णवरं असंखेज्जाओ अब्भहिओ भाणियव्वो, सेसं तं चेव०जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिमओ आलावगो। अहवा-असंखेज्जा रयणप्पभाए असंखेजा सक्करप्पभाए जाव असंखेज्जा अहे सत्तमाए होजा।६।७।३६१५८ / " असंखला भंते ! " इत्यादि। संख्यातप्रवेशनकवदेवैतदसंख्यातप्रवेशनकंवाच्यं, नवरमिहासंख्यातपदंद्वादशमधीयते, तत्र चैकत्वं सप्तैव, द्विकयोगाऽऽदौ तु विकल्पप्रमाणवृद्धिर्भवति / सा चैवम्-द्विकसयोगे वे शते द्विपक्षाशदधिक 252, त्रिकसंयोगऽष्टौ शतानि पश्चोत्तराणि 805, चतुष्कसंयोगे त्वेकादशशतानि नवत्यधिकानि 1160, पञ्चकसयोगे पुनर्नवशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि 645, षट्कसंयोगे तु त्रीणि शतानि द्विनवत्यधिकानि 362, सप्तसंयोगे पुनः सप्तषष्टिः 67 / एतेषां मीलने षट्त्रिंशच्छतानि अष्टपञ्चाशदधिकानि भवन्ति / 3658 / अथ प्रकारान्तरेण नारकप्रवेशनकमेवाऽऽह - उकोसेणं भंते ! णेरइया णेरइयपवेसणएणं पवेसमाणा पुच्छा ? गंगेया ! सव्वे वि ताव रयणप्पभाए होजा। अहवारयणप्पभाए सक्करप्पभाए य होजा / अहवा-रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होजा०जाव अहवा-रयणप्पभाएय अहे सत्तमाए य होज्जा।६। अहवा-रयणप्पभाए यसक्करप्पभाए य अहे सत्तमाए य होज्जा५ / अहवा-रयणप्पभाए य वालुयप्पभाएय पंकप्पभाए य होजा / 1 / ०जाव अहवा-रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य अहे सत्तमाए होजा / अहवा-रयणप्पभाए य पंकप्पभाए य धूमाए य होजा / 11 एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा तिण्ह ति-यसंजोगो भणिओ तहा भाणियव्वंजाव अहवारयणप्पभाए य तमाए य अहे सत्तमाए य होजा। 15 / अहवा-- रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य पंकप्पभाए य होजा अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वा वालुयप्पभाए य धूमप्पभाए य होगा०जाव अहवा-रयणप्पमाए य सकरप्पभाए य वालुयप्पभाए य अहे सत्तमाए य होजा।४। अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य पंकप्पभाएय धूमप्पभाए य होजा। एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा चउण्हं चउक्कसंजोगो तहा भाणियट्वं० जाव अहवा-रयणप्पभाए य धूमप्पभाए य तमाए य अहे सत्तमाए य होजा / 20 / अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य पंकप्पभाए य धूमप्पभाए य होजा। अहवा-रयणप्पभाए य० जाव पंकप्पभाए य तमाए य होजा। अहवा-रयणप्पभाए य० जाव पंकप्पभाए य अहे सत्तमाए यहोजा।३। अहवा-रयणप्पभाएय सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य धूमप्यभाए य तमाए य होज्जा / एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु ज Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 767 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पवेसणय हा पंचण्हं पंचसंजोगो तहा भाणियव्वं० जाव अहवा-रयण- | प्पभाए य पंकप्पभाए य धूमप्पभाए य तमाए य अहे सत्तमाए य होजा / 15 / अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य पंकप्पभाए य धूमप्पभाए य तमाए य होजा / अहवारयणप्पभाए य० जाव धूमप्पभाए य अहे सत्तमाए य होजा। अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य पंकप्पभाए य तमाए य अहे सत्तमाए य होजा / अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य धूमप्पभाए य तमाए य अहे सत्तमाए य होजा। अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य पंकप्पभाए य धूमप्पभाए य तमाए य अहे सत्तमाए य होजा। 5 / अहवा-रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य० जाव अहे सत्तमाए य होजा।। 6 // अहवा-रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए०य जाव अहे सत्तमाए होज्जा / / 164 // (उक्कोसेण इत्यादि) उत्कर्षा उत्कृष्टपदिनो ये उत्कर्षत उत्पद्यन्ते (सब्वे विति) ये उत्कृष्टपदिनस्ते सर्वेऽपि रत्नप्रभायां भवेयुस्तगामिनां तत्स्थानानां च बहुत्वात् / इह प्रक्रमे द्विकयोगे षड्भङ्गकास्त्रिकयोगे पशदश चतुष्कयोगे विंशतिः,पञ्चकयोगे पञ्चदश, षट्कयोगेषट्, राप्तकयोगे त्येक इति। अथ रत्नप्रभाऽऽदिष्वेव नारकप्रवेशनकस्याल्पत्वाऽऽदि निरूपणायाऽऽह - एयस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइयपवेसणगस्स सक्करप्पभापुढविपवेसणगस्स० जाव अहे सत्तमापुढविणेरइयपवेसणगस्स कयरे कयरे०जाव विसेसाहिए वा ? गंगेया ! सव्वत्थोवे अहे सत्तमपुढविणेरइयपदेसणए तमापुढविणेरइयपवेसणए असंखेनगुणे पडिलोमग० जाव रयणप्पभापुढविणेरइयपवेसणए असंखेजगुणे। (एयरस णमित्यादि) तत्र सर्वस्तोकं सप्तमपृथिवीनारकप्रवेश-नकं, तगामिना शेषापेक्षया स्तोकत्वात्, ततः षष्ठ्यामसंख्यातगुण, सदामिनामसंख्यातगणत्वादेवमुत्तरत्राऽपि। अथ तिर्यग्योनिकप्रवेशनकप्ररूपणायाऽऽह - तिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते! कइविहे पण्णत्ते ? गंगेया ! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए० जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए। एगे भंते ! तिरिक्खजोणिए तिरिक्खजोणियपवेसणएणं पवेसमाणे किं एगिदियेसु होजा० जाव पंचिंदिएसु होजा? गंगेया ! एगिदिएसु वा होज्जा० जाव पंचिदिएसु वा होजा / 5 | दो भंते ! तिरिक्खजोणियपुच्छा ? गंगेया ! एगिदिएसु वा होज्जा० जाव पंचिंदिएसु वा होजा / 5 / अहवा-एगे एगिदिएसु एगे वेइंदिएसु होज्जा / एवं जहा णेरइयपवेसणए तहा तिरिक्खजोणियपवेसणए वि भाणियव्ये जाव असंखेजा / उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोणिए पुच्छा ? गंगेया ! सव्वे वि ताव एगिदिएसु होज्जा / अहवा-एगिदिएसु य वेइंदिएसु य होज्जा / एवं जहा णेरइया संचारिया तहा तिरिक्खजोणिया वि संचारेयव्वा / एगिंदिया अमुयंतेसु दुयसंजोगो तियसंजोगो चउक्कसंजोगो पंचकसंजोगो य भाणियव्वो०जाव अहवा-एगिदिएसु य वेइंदिएसु य०जाव पंचिंदिएसु य होजा / एयस्स णं भंते ! एगिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा? गंगेया ! सव्वत्थोवे पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए चउरिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए विसेसाहिए तेइंदियतिरिक्खजोणियप्पवेसणए विसेसाहिए वेइंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए विसेसाहिए एगिदियतिरिक्खजोणियप्पवेसणए विसेसाहिए। (तिरिक्खेत्यादि) इहैकस्तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियेषुवा भवेदित्युक्तं, तत्र च यद्यप्येकेन्द्रियेष्वेकः कदाचिदप्युत्पद्यमानो नलभ्यते, अनन्तानामेव तत्र प्रतिसमयमुत्पत्तेस्तथाऽपि देवाऽऽदिभ्य उद्धृत्य यस्तत्रोत्पद्यते, तदपेक्षयैकोऽपि लभ्यते, एतदव च प्रवेशनकमुच्यते यद्विजातीयेभ्य आगत्य विजातीयेषु प्रविशति, सजातीयस्तु सजातीयेषु प्रविष्ट एवेति किं तत्र प्रवेशनकमिति तत्र चैकस्य क्रमेण एतानेव सूचयता" अहवा एगे एगिदिएसु " इत्याद्युक्तम्। अथ संक्षेपार्थत्र्यादीनामसङ्ख्यातपर्यन्तानां तिर्यग्योनिकानां प्रवेशनकमदिदेशेन दर्शयन्नाह-नारकप्रवेशनकसमानमिद रोर्व, परं तत्र सप्तसु पृथिवीष्वेकाऽऽदयो नारका उत्पादिताः, तिर्यश्वस्तु तथैव पशस्थानेषु उत्पादनीयाः, ततो विकल्पनानात्वं भवति, तचाभियुक्ते पूर्वोक्तन्यायेन स्वयभवगन्तव्यमिति / इह चानन्तानामेकेन्द्रियाणामुत्पादेऽपि अनन्तपदं नास्ति, प्रवेशनकस्योक्तलक्षणस्यासड़ख्यातानामेव भावादिति / (सव्वे वि ताव एगिदिएसु होज ति) एकेन्द्रियाणामतिबहूनामनुसमयमुत्पादात्। (दुयसंजोगो इत्यादि) इह प्रक्रमे द्विकसयोगश्चतुर्दा, त्रिकसंयोगः षोढा, चतुष्कसंयोगश्चतुर्दा पञ्चकसंयोगस्त्येक एवेति / (सव्वत्थोवे पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए त्ति) पञ्चेन्द्रियजीवानां स्तोकत्वादिति, ततश्च-तुरिन्द्रियाऽऽदिप्रवेशनकानि परस्परेण विशेषाधिकानीति। मनुष्यप्रवेशनक देवप्रवेशनकं च सुगम, तथाऽपि किश्चि ल्लिख्यते - मणुस्सपवे सणए णं भंते ! क इविहे पण्णत्ते ? गंगे या ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- संमुच्छिममणुस्सपवे सणए य, गब्भवकं तियमणुस्सप सणए य / एगे भंते ! मणुस्सपवेसणएवं पवे समाणे किं संमुच्छिममणुस्से सु होजा, Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवेसणय 798 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व गब्भवक्कं तियमणुस्सेसु होज्जा ? गंगेया ! समुच्छिममणुस्सेसु भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य होजा / अहवा-जोइसिएसु य वा होज्जा, गन्भवतियमणुस्सेसु या होजा 2 / दो भंते ! मणु- भवणवासिएसु य वेमाणिएसु य होज्जा / अहवा-जोइसिएसु य स्सा पुच्छा? गंगेया! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा, गब्भवक्कं - वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होज्जा / अहवा-जोइसिएसु य तियमणुस्सेसु वा होज्जा। अहवा-एगे संमुच्छिममणुस्सेसु हो- भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होज्जा / एयस्सणं जा, एगे गब्भवक्कं तियमणुस्सेसु होजा। एवं एएणं कमेणं जहा भंते ! भवणवासिदेवपवेसणगस्स वाणमंतरदेवपवेसणगस्स णेरझ्यपवेसणए तहा मणुस्सपवेसणए वि भाणियध्वे / एवं०- जोइसियदेवपवेसणगस्स वेमाणियदेवपवेसणगस्स य कयरे जाव दस। संखेज्जाई भंते ! मणुस्सपुच्छा ? गंगेया ! संमुच्छिम- कयरे जाव विसेसाहिया वा? गंगेया ! सव्वत्थोवे वेमाणियमणुस्सेसु वा होज्जा, गम्भववंतियमणुस्सेसु वा होज्जा / अहवा- देवपवेसणए भवणवासिदेवपवेसणए असंखेजगुणे वाणमंतरएगे समुच्छिममणुस्सेसु संखेज्जा गब्भवक्रतियमणुस्सेसु होज्जा / देवपवेसणए असंखेजगुणे जोइसियदेवपवेसणए संखेजगुणे। अहवा-दो समुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेजा गब्भवक्कं तिय- मनुष्याः स्थानद्वये संमूच्छिमगर्भजलक्षणे प्रविशन्ति, द्वयमाश्रित्य मणुस्सेसु होजा। एवं एक्के कं उसारिएसु० जाव अहवा-संखेज्जा एकाऽऽदिसंख्यातान्तेषु पूर्ववद्विकल्पाः कार्याः / तत्र चातिदेश्यानामसंमुच्छिममणुस्सेसु गब्भवकं तियमणुस्सेसु होज्जा 11 ! असं- न्तिम संख्यातपदमिति तद्विकल्पान् साक्षाद्दर्शयन्नाह-(संखेना इत्यादि) खेजाई भंते ! मणुस्सा पुच्छा? गंगेया ! सव्वे विताव संमुच्छि- इह द्विकयोगे पूर्ववत् एकादश विकल्पा असंख्यातपदेषु पूर्वद्वादश विकल्पा ममणुस्सेसु होजा। अहवा-असंखेज्जा संमुच्छिममणुस्सेसु एगे उक्ताः / इह पुनरेकादशैवायतो यदि समूच्छिमेषु गर्भजेषु चासंख्यातत्व गम्भवकं तियमणुस्सेसु होजा / अहवा-असंखेञ्जा संमुच्छिम- स्यात्तदा द्वादशोऽपि विकल्पो भवेन्न चैवमिह गर्भजमनुष्याणां स्वरूपतोऽमणुस्सेसु दो गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु एवं जाव असंखेज्जा सं- प्यसंख्यातानामभावेन तत्रं प्रवेशनके असंख्यातासंभवादतो संख्यातपदे मुच्छिममणुस्सेसु संखेजा गन्भवतियमणुस्सेसु य होज्जा 11 / विकल्पैकादशदर्शनायाऽऽह-(असंखेज्जा इत्यादि) (उमोसा भते ! उक्कोसा भंते ! मणुस्सा पुच्छा ? गंगेया ! सव्वे पि ताव संमु- इत्यादि) (सव्वेऽतिताव संमुच्छिममणुस्सेसु होजत्ति) संमूच्छिमानामच्छिममणुस्सेसु होजा / अहवा-समुच्छिममणुस्सेसु य गब्भव- सङ्ख्याताना भावेन प्रविशतामप्यसंख्यातानां सम्भवः, ततश्च मनुष्यकंतियमणुस्सेसु य होना 1 / एयस्स णं भंते ! संमुच्छिममणु- प्रवेशनकं प्रत्युत्कृष्टपदिनः, तेषु सर्वेऽपि भवन्तीति। अत एव संमूञ्छिस्सपवेसणगस्स गब्भवक्कं तियमणुस्सपवेसणगस्स य कयरे ममनुष्यप्रवेशनकमितरापेक्षयाऽसंख्यातगुणमवगन्तव्यमिति / / कयरे०जाव विसेसाहिया वा? गंगेया ! सव्वत्थोवे गब्भवक्कं - देवप्रवेशनके (सव्वे वि ताव जोइसिएसु होज त्ति) ज्योतिष्कगामिनो तियमणुस्सपवेसणए समुच्छिममणुस्सपवेसणए असंखेज्जगुणे।। बहव इति, तेषूत्कृष्टपदिनो देवप्रवेशनकवन्तः सर्वेऽपि भवन्तीति / देवपवेसणए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गंगेया ! चउविहे (सव्वत्थोवे वेमाणियदेवप्पवेसणए इति) तद्गामिनां तत्स्थानानां पण्णत्ते / तं जहा-भवणवासिदेवपवेसणएजाव वेमाणिय चाल्पत्वादिति / अथ नारकाऽऽदिप्रवेशतस्यैवाल्यत्याऽऽदि निरूपयदेवपवेसणए / एगे भंते ! देवे देवपवेसणए णं पविसमाणे किं नाह-(एयरस णमित्यादि) तत्र सर्वस्तोकं (मनुष्यप्रवेशनकं) मनुष्यक्षेत्र भवणवासीसु होज्जा, वाणमंतरेसु होजा, जोइसिएसु होजा, एव तस्य भावात्तस्य च स्तोकत्वान्नैरयिकप्रवेशनकं त्वसंख्यातगुणं, वेमाणिएसु होज्जा ? गंगेया ! भवणवासीसु वा होज्जा, वाणमंत तद्गामिनामसंख्यातगुणत्वादेवमुत्तरखापीति / रेसु वा होजा, जोइसिएसु वा होजा, वेमाणिएसु वा होला / अल्पबहुत्वम् - दो भंते ! देवा देवपवेसणए णं पुच्छा? गंगेया ! भवणवासीसु एयस्स णं भंते ! णेरइयपवेसणगस्स तिरिक्खजोणियपवेसवा होजा वाणमंतरेसु वा होजा, जोइसिएसु वा होज्जा, वेमाणि- णगस्स मणुस्सपवेसणगस्स देवपवेसणगस्स कयरे कयरे०एसु वा होजा। अहवा-एगे भवणवासीसु, एगे वाणमंतरेसु होज्जा। जाव विसेसाहिया वा ? गंगेया ! सव्वत्थोवे मणुस्सपवेसणए एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहेव देवपवेसणए वि णेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे देवपवेसणए असंखेजगुणे तिभाणियध्वे०जाव असंखेज्जाइं। उक्कोसा भंते ! पुच्छा? गंगेया ! रिक्खजोणियपवेसणए असंखेज्जगुणे / भ०६ श०३२ उ०॥ सव्वे वि ताव जोइसिएसु होज्जा / अहवा-जोइसिएसु य भव- पव्व न०(पर्व) पूरणाद्धर्मोपचयहेतुत्वात्पर्व अष्टम्यादि तिथौ, आव०६ णवासीसु य होजा / अहवा-जोइसियवाणमंतरेसु य होज्जा / अ०। अमावास्यायाम् , पौर्णमास्याम् , तदुपलक्षिते पक्ष च। स्था०६ अहवा-जोइसियवेमाणिएसु य होज्जा / अहवा-जोइसिएसु या ठा० / सू० प्र०। चं० प्र०। Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 796 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व तत्र पर्वाणि चैवमूचुः - अट्ठमि चउद्दसी पुण्णिमा य तहऽमावसा हवइ पव्वं / मासम्मि पवछक्क, तिन्नि अपव्वाइँ पवखम्मि॥१॥ " चाउद्दसऽहमुद्दिपुण्णमासीसु त्ति " सूत्रप्रामाण्यात् / महानिशीथे तु ज्ञानपञ्चम्यपि पर्वत्वेन विश्रुता-" अट्टमिचउद्दसीसु. नाणपंचमीसु उपवास / न करेइ पच्छित्त, ..................... / " इत्यादिवचनात्। तथाऽन्यत्रच - " वीआ पंचमि अट्ठनि, एगारसि चउद्दसी पणतिहीओ एआओ सुअलिहीओ, गोअम ! गणहारिणा भणिआ॥ 1 // वीआ दुविहे धम्मे, पंचमि नाणेसु अट्टमी कम्मे एगारसि अंगाणं, चउद्दसी चउदपुव्वाणं // 2 // " एवं पञ्चपर्वी पूर्णिमाऽमावास्याभ्यां सह षट्पर्वी श प्रतिपक्षमुत्कृष्टतः स्यात् / एषु च पर्वसु कृत्यानि यथा पौषधकरणं, प्रतिपर्व तत्करणाऽऽशक्ती तु अष्टम्यादिषु नियमेना यदागमः- "सव्वेसुकालपव्वेसुपसत्थो जिणनए हवइ जोगो। अहमिचउद्दसीसु अ,निअमेण हविज पोसाहिओ" // 1 // इति / यथाशक्तिग्रहणादष्टम्यादिष्वपि पौषधकरणाऽशक्ती द्विष्प्रतिक्रमणबहुबहुतरसामायिक करणबहुसंक्षेपदेशावकाशिकव्रतस्वीकरणाऽऽदि कार्यम्। ध०२ अधि० / कौमुदीप्रभृतिषु लौकिकोत्सवतिथिषु, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। प्रतिवर्षपर्वसंख्यामाह - ता पढमस्स णं चंदस्स संवच्छरस्स चउव्वीसं पव्या पण्णत्ता। दोचस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउव्वीसं पव्या पण्णत्ता / तचस्स णं अभिवहितसंवच्छरस्स छव्वीसं पव्वा पण्णत्ता। चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णत्ता / पंचमस्स णं अभिवड्डियसंवच्छरस्स छव्वीसं पव्वा पण्णत्ता। एवामेव सपुव्वावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउव्वीसे पव्वसते भवतीति मक्खायं। (ता पढमस्स णं इत्यादि)' ता' इति / तत्र युगे प्रथमस्य, णमिति वाक्यालंकृती। चान्द्रस्य संवत्सरस्य चतुर्विशतिः पाणि प्रज्ञप्तानि। द्वादशमासात्मको हि चान्द्रसंवत्सरः, एकैकस्मिश्च मासे द्वे द्वे पर्वणी, ततः सर्वसंख्यया चान्द्रसंवत्सरे चतुर्विशतिपर्वाणि भवन्ति। द्वितीयस्याऽपि चान्दसंवत्सरे चतुर्विशतिपर्वाणि भवन्ति / अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य पड़िवशतिः पर्वाणि, तस्य त्रयोदशमासाऽऽत्मकत्वात् / चतुर्थस्य चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विशतिः पर्वाणि / पञ्चमस्य अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य षड्विशतिः पर्वाणि। कारणमनन्तरमेवोक्तं, तत एवमेव उक्तेन च प्रकारेणेव (सपुव्वावरेण ति) पूर्वापरगणितमीलनेन पञ्चसांवत्सरिके युगे चतुर्विशत्यधिक पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकृद्धिर्मया च। इह कस्मिन्नयने करिमन्चा मण्डले किं पर्व समाप्तिमुपयातीति चिन्ताया पूर्वाऽऽचार्यः पर्वकरणगाथा अभिहिताः। ततस्ता विनेय-जनानुग्रहार्थमुपदय॑न्ते" इच्छा पटवेहिं गुण, अयणं रूवाहिअं सोज्झंच हवइ तत्तो, अयणक्खित्तं उड्डवइस्स / / 1 / / जइ अयणा सुज्झती, तइ पंचजुया उ रूवसंजुत्ता। तावइयं तं अयणं, नत्थि निरस हि रूवजुयं / / 2 / / करिणम्मि होइ रूव, पक्खेवो दो य होति भिन्नम्मि। जावइया तावइया, एते ससिमंडला होति // 3 // ओयम्मि तु गुणकारे, अभिंतरमंडले हवइ आई। जुम्मम्मि य गुणकारे, बाहिरगे मंडले आई॥४॥" आसां क्रमेण व्याख्या-यस्मिन् पर्वणि अयनमण्डलाऽऽदिविषया ज्ञातुमिच्छा, तैर्धवराशिर्गुण्यते अथ कोऽसौ ध्रुवराशिः? उच्यते- इह ध्रुवराशिप्रतिपादिकथं पूर्वाऽऽचार्योपदर्शिता गाथा-"एणं च मंडलं नण्डलस्स सत्तट्ठिभाग चत्तारि। नव चेव चुणियाओ, इगतीसकएण छेपण ॥१॥"अस्या अक्षरयोजना-एकं मण्डलमेकरयच मण्डलस्य सप्तषष्टिभागाश्चत्वारः, एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकत्रिंशत्कृतेन छेदेन ये चूर्णिका भागास्तेन च एतावत्प्रमाणो ध्रुवराशिः। अयं च पर्वगतक्षेत्रादयनगतक्षेत्रापगमे शेषीभूत एकस्य चोत्पत्तिमात्रं भावयिष्यामः॥१॥ तत एवंभूतं धुवराशिमीप्सितपर्वभिर्गुणयित्वा तदनन्तरमयनं रूपाधिकं कर्त्तव्यं, तथा गुणितस्य मण्डलराशेर्यदि चन्द्रमसोऽयनक्षेत्रं भवति, शोधयन्ति च, यावत्सङ्ख्यानि चायनानि शुद्ध्यन्ति ततिभिर्युक्तानि पर्वाणि अयनानि क्रियन्ते, कृत्वा च भूयो रूपसंयुक्तानि विधेयानि। यदि पुनः परिपूर्णानि मण्डलानि शुद्ध्यन्ति राशिश्च पश्चामिलेंपो जायते तदा तदयनसंख्यातैर्निरशं सद्रूपयुक्तं नास्ति, न तत्रायनराशौ रूपं प्रक्षिप्यते इति भावः / तथा कृत्रने परिपूणे राशौ भवत्येक रूप मण्डलराशी प्रक्षेपणीयं भिन्ने खण्डे अंशसहिते राशावित्यर्थः / द्वे रूपे मण्डलराशी प्रक्षेपणीये, प्रक्षेपे च कृते सति यावान्मण्डलराशिर्भवति तावन्ति मण्डलानि तावत्तिथे ईप्सिते पर्वणि भवन्ति / तथा यदि ईप्सितेन पर्वणा ओजोरूपेण विषमलक्षणेन गुणकारो भवति, तत आदिरभ्यन्तरे मण्डले द्रष्टव्यः, युग्मे तु समे तु गुणकारे आदिर्बाह्य मण्डलेऽवरोयः / एष करणगाथासमूहाक्षरार्थः। भावना त्वियम्-कोऽपि पृच्छति-युगाऽऽदौ प्रथमं पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन्वा मण्डले समाप्तिमुपयाति ? तत्र प्रथमं पर्व पृष्टमिति वामपार्थे पर्वसूचक एककः स्थाप्यते, ततस्तस्यां तु श्रेणिदक्षिणपार्वे एकमयनं, तस्य चानुश्रेणि एक मण्डलं तस्य च मण्डलस्याऽधस्ताचत्वारः सप्तषष्टिभागास्तेषामप्यधस्तान्नय एकत्रिंशद्भागाः / एष सर्वोऽपि राशिधुव-राशिः स ईप्सितेन एकेन पर्वणा गुण्यते, एकेन च गुणित तदेव भवतीति जातस्तावानेव राशिः।" ततोऽयन रूपाधिकं च कर्त्तव्यम्।" इति वचनादेकं रूपमयने प्रक्षिप्यते, मण्डलराशौ चायनं न शुध्यति, ततो " दो य होंति भिन्नम्मि" इति वचनात् मण्डलराशी द्वे रूपे प्रक्षिप्येते, तत आगतमिदं प्रथम पर्व द्वितीये अयने तृतीयस्य मण्डलस्य"ओयम्मि य गुणकारे, अभिंतर मण्डले हवइ आई" इति वचनात्। अभ्यन्तर-वर्तिनश्चतुर्ष सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिशद्भागेषु गतेषु समाप्तिमुपयातीति, अयन चेह चन्द्रायणमवसे यम् / चन्द्रायणं च युगस्याऽदौ प्रथममुत्तरायण, द्वितीयं Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 800 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व दक्षिणायनमिति। द्वितीये अभ्यन्तरवर्तिनस्तृतीयस्य मण्डलस्येत्युक्तम्। तथा कोऽपि पृच्छतिद्वितीय पर्व कस्मिन्नयने कस्मिन् वा मण्डले समाप्तिमधिगच्छतीति ? तत्र द्वितीयं पर्व पृष्टमिति स एव प्रागुक्तो धुवराशिः समस्तोऽपि द्वाभ्यां गुण्यते, ततोजाते द्वे अयने द्वे मण्डले अष्टौ सप्तषष्टिभागा अष्टादश एकत्रिंशद्भागाः," ततोऽयनं रूपाधिकं कर्त्तव्यम।" इति वचनात् अयने रूपं प्रक्षिप्यते, मण्डलराशी चाऽयनं न शुद्ध्यति, ततो" दो य हॉति भिन्नम्मि' इति वचनात् मण्डलराशौ द्वे प्रक्षिप्येते, तत आगतं द्वितीयं पर्व तृतीये अयने चतुर्थस्य मण्डलस्य '' जुगमम्मि व गुणकारे, बहिरगे मण्डले हवइ आई।" इति वचनाद् बाह्यमण्डलाद ग्विर्तिनोऽष्टसु सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्याष्टादशस्वेकत्रिंशदागेषु अतिक्रान्तेषु परिसमाप्तिमुपैति / तथा कोऽपि प्रनयतिचतुर्दशं पर्व कतिसङ्ख्येष्वयनेषु मण्डलेषु वा समाप्तिं गच्छतीति? स एव प्रागुक्तो धुवराशिः समस्तोऽपि चतुर्दशभिर्गुण्यते, जातान्ययनानि चतुर्दश मण्डलान्यपि चतुर्दश चत्वारः सप्तषष्टिभागाश्वतुर्दशभिर्गुणिता जाताः षट्पञ्चाशत् 56 नव एकत्रिंशद्भागाः चतुर्दशभिर्गुणिता जातं षड्विशत्यधिकं शतम् 126 // तत्रषड्विशत्यधिकस्य शतस्य एकविंशता भागो हियते, लब्धाः चत्वारः सप्तषष्टिभागा द्वौ चूर्णिणकाभागौ तिष्ठतः चत्वारश्च सप्तषष्टिभागा उपरितने (सप्तषष्टिभागराशी प्रक्षिप्यन्ते, जाताः षष्टिः सप्तषष्टिभागाः)६०/६७। चतुर्दशभ्यश्च मण्डलेभ्यस्त्रयोदशभिर्मण्डलैखयोदशभिश्च सप्तषष्टिभागैरयन शुद्धं, तेन सण्पियनानि चतुर्दशसङ्ख्यायुतानि क्रियन्ते, ततोऽयनं रूपाधिकं कर्तव्यमिति वचनात् भूयोऽपि तत्रैक रूपं प्रक्षिप्यते, जातानि षोडश अयनानि सप्तसटिभागाश्च चतुःपञ्चाशत्संख्यामण्डलराशाबुद्धरितास्तिष्ठन्ति, ते सप्तषष्टिभागराशी षष्टिरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जातं चतुर्दशोत्तरं शतम् 114 / तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धमेक मण्डलं पश्चादवतिष्ठते सप्तचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः, ततो" दोय होंति भिन्नम्मि" इति वचनात् मण्डलराशौ द्वे रूपे प्रक्षिप्येते, जातानित्रीणि मण्डलानि चतुर्दशभिश्वात्र गुणितं कृतं, चतुर्दशराशिश्च यद्यपि युग्मरूपस्तथाऽप्यत्र मण्डलराशेरेकमयनमधिकं प्रविष्टमिति त्रीणि मण्डलानि अभ्यन्तरमण्डलादारभ्य द्रष्टव्यानि, नत आगत चतुर्दशंपर्व, षोडशे अयने अभ्यन्तरमण्डलादारभ्य तृतीये मण्डले सप्तचत्वारिंशतिसप्तषष्टिभागेषु गतेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्यद्वयोरेकत्रिंशदा- | गयोर्गतयोः परिसमाप्नोतीति। यथा द्वाषष्टितमपर्वजिज्ञासायां स पूर्वोक्तो ध्रुवराशिौषष्ट्या गुण्यते, जातानि द्वाषष्टिरयनानि द्वाषष्टिमण्डलानि द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके सप्तषष्टिभागानां 248/558 पञ्चशतानि अष्टापञ्चाशदधिकानिएकत्रिशद्भागानाम् तेषामेकत्रिंशता भागे हृते लब्धाः परिपूर्णा अष्टादश सप्तषष्टिभागास्ते उपरितने सप्तषष्टिभागराशी प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वेशतेषट्षष्ट्यधिके 266 उपरिच द्वाषष्टिमण्डलानि, तेभ्यो द्विपञ्चाशता मण्डलैर्द्विपञ्चाशता च एकस्य मण्डस्य सप्तषष्टिभागैश्वत्वारि अयनानि लब्धानि, तानि अयनराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानिषट्षष्टिस्यनानि 66 / पश्चादवतिष्ठन्ते नव मण्डलानि, पञ्चदश च सप्तषष्टिभागा मण्डलस्य, तत्र पञ्चदश सप्तषष्टिभागाः सप्तषष्टिभागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते एकाशीत्यधिक 281 / तयोः सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धानि चत्वारि मण्डलानि, शेषा अवतिष्ठन्ते त्रयोदश सप्तषष्टिभागा मण्डलानि च मण्डलराशौ प्रक्षिप्यन्ते जातानि त्रयोदश मण्डलानि त्रयोदशभिर्मण्डलै खयोदशभिश्च सप्तषष्टिभागैः परिपूर्णमेकमयनं लब्धमिति तदयनराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सप्तषष्टिरयनानि। " नत्थि निरंसम्मि रूवजुय। " इति वचनाद् अयनराशौ रूपं न प्रक्षिप्यते, केवलं " किसणमि होइ रूवं पक्खेवो " इति वचनात् मण्डलस्थाने एक रूप न्यस्यते, द्वाषष्ट्या चात्र गुणकारः कृतो द्वाषष्टिरूपश्च राशियुग्मो, यानि अपि च चत्वार्ययनानि प्रविष्टानितान्यपि युग्मरूपाणि, रूपं चात्राधिकमेक न प्रक्षिप्तमिति पञ्चममयनं तत्स्थाने द्रष्टव्यमिति बाह्यमण्डलमादिष्टव्यं, तत आगतं द्वाषष्टितमं पर्व सर्वसप्तषष्टावयनेषु परिपूर्णेषु जातेषु बाह्यमण्डले प्रथमरूपे परिसमाप्ति गतमिति / एवं सर्वाण्यपि पर्वाणि भावनीयानि। केवल विनेयजनानुग्रहाय पर्वायनप्रस्तारो लेशतो क्षरताडित उपदर्श्यतेतत्र प्रथमं पर्व द्वितीये अयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुर्दा सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्तमिति धुवराशि कृत्वा पर्वाऽऽयनमण्डलेषु प्रत्येकमेकैकं रूपं प्रक्षेप्तव्यं, भागेषु च तावत्संख्यका भागा मण्डले चायनक्षेत्रे परिपूर्णानि त्रयोदश मण्डलानि, एकस्यच मण्डलस्य त्रयोदश सप्तपष्टिभागा इत्येतावत्प्रमाणमयनक्षेत्रं शोधयित्वाऽयनं प्रक्षेप्तव्यम् / अनेन क्रमेण वक्ष्यमाणः प्रस्तारः सम्यक्परिभावनीयः / स च प्रस्तारोऽयम्- प्रथम पर्व द्वितीयेऽयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य चतुषु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य नवस्वेकत्रिंशद्भागेषु गतेषु समाप्तं द्वितीयं पर्व, तृतीयेऽयने चतुर्थ मण्डले चतुर्थमण्डलस्याष्टासु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सपषष्टिभागस्याष्टादशस्वेकत्रिंशद्भागेषु तृतीय पर्व, चतुर्थेऽयने पञ्चमे मण्डले पञ्चमस्य मण्डलस्य द्वादशसु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सपषष्टिभागस्य सप्तविंशतौ एकत्रिंशद्धागेषु चतुर्थे पर्व, पञ्चमे अयने षष्ठे मण्डले षष्ठस्य मण्डलस्य सप्तदशसु सप्तषष्टिभागेषु एकस्य सप्तषष्टिभागस्य पञ्चस्वेकत्रिंशद्भागेषु पञ्चमं पर्व, षष्ठेऽयने सप्तमे मण्डले सप्तमस्य मण्डलस्य एकविंशती सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य चतुर्दशस्वेकः त्रिंशद्भागेषु षष्ठं पर्व, सप्तमेऽयने अष्टमे मण्डले अष्टमस्य मण्डलस्य पञ्चविंशती सप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्य त्रयोविंशती एकत्रिशद्भागेषु सप्तमं पर्व, अष्टमे अयने नवमे मण्डले नवमस्य मण्डलस्य त्रिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकस्मिन्नेकत्रिंशद्भागे अष्टम पर्व, नवमे अयने दशमे मण्डले दशमस्य मण्डलस्य चतुस्विंशतिसप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकस्मिन्नेकत्रिंशद्भागेषु नवम पर्व, दशमे अयने एकादशे मण्डले एकादशस्यमण्डलस्याष्टाविंशतिसप्तषष्टि-भागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकोनविंशतावेकत्रिंशद्भागेषु दशमं पर्व, एकादशेऽयने द्वादशे मण्डले द्वादशस्य च मण्डलस्य वाचत्वारिंशतिसप्तषष्टिभागेषु एकस्य च सप्तषष्टिभागस्याष्टाविंशती एकत्रिंशद्भागेषु एकादशं पर्व, Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 501 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व द्वादशे अयने त्रयोदशे मण्डले त्रयोदशस्य मण्डस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य षट्सु एकत्रिंशद्भागेषु द्वादशंपर्व, चतुर्दशे अयने प्रथम मण्डले प्रथमस्य च मण्डलस्याष्टाविंशत्सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य पञ्चदशस्वेकत्रिंशद्भागेषु त्रयोदशं पर्व, पञ्चदशे अयने द्वितीये मण्डले द्वितीयस्य मण्डलस्य द्वाचत्वारिंशति सप्टषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य चतुर्विंशतौ एकत्रिंशद्भागेषु चतुर्दश पर्व, षोडशे अयने तृतीये मण्डले तृतीयस्य मण्डलस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य द्वयोरेकत्रिंशद्भागयोः पञ्चदशंपर्व, सप्तदशे अयने चतुर्थे मण्डले चतुर्थस्य मण्डलस्य एकपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेष्वेकस्य च सप्तषष्टिभागस्य एकादशस्वेकत्रिंशद्भागेषु / एवं शेषेष्वपि पर्वस्वयनमण्डलप्रस्तारो भावनीयः। ग्रन्थगौरवभयात्तु न लिख्यते। अथ किं पर्व कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रयोगे परिसमाप्तिमुपयातीति चिन्तायां पूर्वाऽऽचार्यः करणमुपदर्शितम्। संप्रति तदप्युदर्शाते"चउदीससय काऊ-ण पमाणं सत्तसट्ठिमेव फलं। इच्छापब्वेहिँ गुणं, काऊण पञ्जया लद्धा / / 1 / / अट्ठार सहिँ सएहिं, तीसेहिं सेसगम्मि गुणियम्मि। तेरस विउत्तरेहिं सएहिँ अभिइम्मि सुद्धम्मि।।२।। सत्तट्ठिविसट्टीणं, सव्वग्गेण तओ उजं सेसं। तं रिक्खं नायव्यं, जत्थ समत्तं हवइ पव्वं // 3 // " त्रैराशि कविधौ चतुर्विशत्यधिक शतं प्रमाण प्रमाणराशिं कृत्वा सप्तषष्टिरूपं फलं फलराशिं कुर्यात्, कृत्वा च ईप्सितैः पर्वभिर्गुणकारं विदध्यात्, विधाय चाऽऽद्येन राशिना चतुर्विशत्यधिकशतेन भागे हृते यल्लभ्यते पर्याया ज्ञातव्याः, यत्पुनः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकः संगुण्यते, संगुणिते च तस्मिन् ततस्त्रयोदशभिः शतैर्युत्तरै-- रभिजित् शोधनीयः, अभिजिभोग्यानामेकविंशतेः सप्तषष्टिभागानां द्वाषष्ट्या गुणने एतावत्शोधनकस्य लभ्यमानत्वात् ततस्तस्मिन् शोधने सप्तषष्टिसंख्याया द्वाषष्ट्यस्तासां सर्वाग्रेण यद्भवति। किमुक्तं भवति?सप्तषष्ट्या द्वाषष्टौ गुणितायां यद्भवति तेन भागे हृतेयल्लब्धंतावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि, यत्पुनस्ततोऽपि भागहारणादपि शेषमवतिष्ठते तादृशं नक्षत्र ज्ञातव्यं यत्र विवक्षितं पर्व समाप्तमिति। एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः / भावना त्वियम्यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तषष्टिपर्याया लभ्यन्ते, तत एकेन पर्वणा किं लभामहे?| राशित्रयस्थापना-१२४।६७ ।१अत्र चतुर्विशत्यधिकशतरूपो राशिः प्रमाणभूतः, सप्तषष्टिरूपं फलं, तत्रान्त्येन राशिना मध्यराशि ण्यते, जातस्तावानेव / तस्याऽऽद्येन राशिना चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणम्, स च स्तोकत्वाद्भागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्राऽऽनयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागरूपैर्गुणयिष्यामः / इति गुणकारच्छेदराश्योरर्द्धनापवर्त्तना, जातो गुणकारराशिनवशतानि पञ्चदशोत्तराणि 615, छेदराशिषिष्टिः 62 // तत्र सप्तषष्टिर्नवशतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यते, जातान्येकषष्टिसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि 61305 / एतस्मादभिजितस्त्रयोदश शतानि द्व्युत्तराणि शुद्धानि स्थितानि, शेषाणि षष्टिसहस्राणि व्युत्तराणि 60003 / तत्र छेदराशि षिष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि 4154, तैर्भागो हियते लब्धाश्चतुर्दश 14 / तेन श्रवणाऽऽदीनि पुष्यपर्यन्तानि चतुर्दश नक्षत्राणि शुद्धानि, शेषाणि तिष्ठन्ति अष्टादश शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि 1847 / एतानि मुहूर्ताऽऽनयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्चपञ्चाशत्सहस्त्राणि चत्वारि शतानि दशोत्तराणि 55410, तेषां भागे हृते लब्धास्त्रयोदश मुहूर्ताः, शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दश शतानि अष्टोत्तराणि 1408 / एतानि द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थद्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्यो षष्ट्याऽपवर्तना क्रियते, तत्र गुणकारराशिर्जातम् एककश्छेदराशिः सप्तषष्टिः, एकेन च गुणित उपरितनो राशिर्जातस्तावानेव ततस्तस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा एकविंशतिः 21 / पश्चादवतिष्ठते एकः सप्तषष्टिभागः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य आगतं प्रथमं पर्व, अश्लेषयोस्त्रयोदश मुहूर्तान एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकविंशतिषिष्टिभागान् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकसप्तषष्टिभाग भुक्त्वा समाप्तमिति। तथा यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन सप्तषष्टिः पर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां पर्वाभ्यां किं लभामहे? राशित्रयस्थापना-१२४।६७।२। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, जातं चतुस्विशदधिकशतम् 134 / तस्याऽऽद्येन राशिना चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागो हियते, लब्धा एको नक्षत्रपर्यायः स्थितः, शेषा दश, तत एतान् नक्षत्रानयनायाऽष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागर्गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरर्द्धनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनवशतानि पञ्चदशोत्तराणि 615 / छेदराशिषिष्टिः 6 // तत्र दश नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते, जातान्येकनवतिशतानि पञ्चाशदधिकानि 6150 / तेभ्यस्त्रयोदश शतानि दव्युत्तराण्यभिजितः शुद्धानि स्थितानि पश्वादष्टसप्ततिशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि 7848 / तत्र द्वाषष्टिरूपश्छेदराशिः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातायेकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि 4154 / तैर्भागो हियते, लब्धमेकं श्रवणरूपं नक्षत्रं, शेषाणि तिष्ठन्ति षट्त्रिंशच्छतानि चतुर्नवत्यधिकानि 3664 / एतानि मुहू-र्ताऽऽनयनार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षं दश सहस्राणि अष्टौ शतानि विंशत्युत्तराणि 110820 / तेषां छेदराशिना भागे हृते लब्धाः षड्रिंशतिर्मुहूर्ताः 26 शेषाणि तिष्ठन्ति षोडशोत्तराणि अष्टाविंशतिशतानि 2816 / एतानि द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानि, तत्र गुणकारच्छेदराश्योषिष्ट्याऽपवर्त्तना / तत्र गुणकारराशिरेककरूपो जातश्छेदराशिः सप्तषष्टिः, तत्रैकेन उपरितनो राशिगुणिता जातस्तावानेव, तस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धा द्वाचत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ, आगतं द्वितीयं पर्व, धनिष्ठानक्षत्रस्य षड्विंशतिमुहूर्तान्, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाचत्वारिंशतं द्वाषष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ मुक्त्वा समाप्तिमुपगच्छति। एवं शेषेष्वपि पर्वसु सप्तापि नक्षत्राणि भावनीयानि। Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 802 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व तत्संग्राहिकाश्चेमाः पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शिताः पञ्च गाथाः“सप्प धणिट्ठा अञ्जम, अभिवुड्डी चित्त आस इंदग्गी। रोहिणि जिट्टा मिगसिर, विस्सादिति सवण पिउदेवा / / 1 / / अज अज्जम अभिवुड्डी, चित्ता आसो तहा विसाहो उ। रोहिणि मूलो अद्दा, वीस पुस्सो धणिवा य / / 2 / / भग अज अज्जम पूसो, साई अग्गी य मित्तदेवा य। रोहिणि पुख्वासाढा, पुणव्वसू वीसदेवा य॥३|| अहि वसु भगाभिवुड्डी, हत्थऽस्स विसाह कत्तिया जिट्ठा। सोमाऽऽउरवी सवणो, पिउ वरुण भगोऽभिवड्डी य // 4 // चित्ताऽसविसाहऽग्गी, मूलो अद्दा य विस्स पुस्सो अ। एए जुगपुव्वद्धे, विसट्ठिपवेसु नक्खत्ता / / 5 / / एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सर्पाः सर्पदेवतोपलक्षित नक्षत्रम् अश्लेषानक्षत्रम् १द्वितीयस्य धनिष्ठा 2, तृतीयस्थार्यमा अर्थमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः 3, चतुर्थस्याभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्र पदा४, पञ्चमस्य चित्रा 5, षष्ठस्याऽश्वः अश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी 6, सप्तमस्य इन्द्राग्निरिन्द्राग्निदेवतोपलक्षिता विशाखा 7, अष्टमस्य रोहिणी 8, नवमस्य ज्येष्ठाह, दशमस्य मृगशिरम् 10, एकादशस्य विश्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढा 11, द्वादशस्यादितिः अदितिदेवतोपलक्षितं पुनर्वसु 12, त्रयोदशस्य श्रवणः 13, चतुर्दशस्य पितृदेवता मघा 14, पञ्चदशस्याजः अजादेवोपलक्षिता पूर्वभद्रपदा 15, षोडशास्यार्यमा अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः१६, सप्तदशस्याभिवृद्धिरभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा 17, अष्टादशस्य चित्रा 16, एकोनविंशतितमस्याश्वोऽश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी 16, विंशतितमस्य विशाखा 20, एकविंशतितमस्य रोहिणी 21, द्वाविंशतितमस्य मूलम् 22, त्रयोविंशतितमस्य आर्द्रा 23, चतुर्विंशतितमस्य विष्वग् विष्वग्देवतोपलक्षिता उत्तराषाढाः 24, पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः 25, षइविंशतितमस्य धनिष्ठा 26, सप्तविंशतितमस्य भगो भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः 27, अष्टाविंशतितमस्याऽजो अजदेवतोपलक्षिताः पूर्वभद्रपदाः 28, एकोनत्रिंशत्तमस्यार्यमा अर्यमादेवता उत्तरफाल्गुन्यः 26, त्रिशत्तमस्य पुष्यः, पुष्पदेवताका रेवती 30, एकत्रिंशत्तमस्य स्वातिः 31, द्वाविंशत्तमस्याग्निरग्निदेवतोपलक्षिता कृत्तिकाः 32, त्रयस्त्रिंशतमस्य मित्रदेवा मित्रनामा देवो यस्याः सा तथा अनुराधा इत्यर्थः 33, चतुस्त्रिंशत्तमस्य रोहिणी 34, पञ्चत्रिंशत्तमस्य पूर्वाषाढा 35, षट्त्रिंशत्तमस्य पुनर्वसुः 36, सप्तत्रिशत्तमस्य विष्वग्देवा उत्तराषाढा 37. अष्टात्रिंशत्तमस्योऽहिरहिदेवतोफ्लक्षिता अश्लेषा 38, एकोनचत्वारिंशत्तमस्य वसुर्वसुदेवोपलक्षिता धनिष्ठा 26, चत्वारिंशत्तमस्य भगो भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः 40 एकचत्वारिंशत्तमस्याभिवृद्धिरभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा 41, द्वाचत्वारिंशत्तमस्य हस्तः 42, त्रिचत्वारिंशत्तमस्थाश्वोऽश्वदेवा अश्विनी 43, चतुश्चत्वारिंशत्तमस्य विशाखा 44, पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य कृत्तिका 45, षट्चत्वारिंशत्तमस्य ज्येष्ठाः 46, सप्तचत्वारिंशत्तमः सोमदेवोलक्षित मृगशिरोनक्षत्रम् 47, अष्टाचत्वारिंशत्तम स्याऽऽयुरायुर्देवा पूर्वाषाढाः 48, एकोनपञ्चाशत्तमस्य रवि रविनामकदेवोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रम् 46, पञ्चाशत्तमस्य श्रवणः 50. एकोनपञ्चाशत्तमस्य पिता पितृदेवा मघाः 51, द्विपञ्चाशत्तमस्य वरुणदेवोपलक्षितं शतभिषक्नक्षत्रम् 52, त्रिपञ्चाशत्तमस्य भगो भगदेवाः पूर्वफाल्गुन्यः 53, चतुःपञ्चाशत्तमस्याभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदा 54, पञ्चपञ्चाशत्तमस्यचित्रा 55, षट्पञ्चाशत्तमस्याश्योऽश्वदेवा अश्विनी 56, सप्तपशाशत्तमस्य विशाखा 57, अष्टपञ्चाशत्तमस्याग्निदेवोफ्लक्षिता कृत्तिकाः 58, एकोनषष्टित्तमस्य मूलम् 56, षष्टितमस्य आर्द्रा ६०एकषष्टितमस्य विष्वक् विष्वग्देवा उत्तराषाढाः 61, द्वाषष्टितमस्य पुष्यः 62 / एतदुपसंहारमाह-एतानि नक्षत्राणि युगस्य पूर्वार्द्ध यानि द्वाषष्टिसंख्यानि पर्वाणि तेषु क्रमेण वेदितव्यानि। एवं प्रागुक्तकरणवशादुत्तरार्द्धऽपि द्वाषष्टिसंख्येषु पर्वस्ववगन्तव्यानि। संप्रति करिगन् सूर्यमण्डले किं पव समाप्ति यातीति चिन्तायां यत्पूर्वा - ऽऽचार्यरुपदर्शित करणं तदभिधीयते"सूरस्स वि नायव्यो,सगेण अयण मंडलविभागो। अयणम्मि य जे दिवसा, रूवहिए मंडले हवइ / / 1 / / " अस्या व्याख्या- सूर्यस्याऽपि पर्वविषयो मण्डलविभागो ज्ञातव्यः द्रष्टव्यः स्वकीयेनायनेन किमुक्तं भवति?सूर्यस्य स्वकीयमयनमपेक्ष्य तस्मिस्तस्मिन्मण्डले तस्य पर्वणः परिसमाप्तिरवधारणीयेति / ताऽयने शोधिते सति ये दिवसा उद्वरिता वर्तन्ते तत्संख्ये रूपाधिके मण्डले तदीप्सितं परिसमाप्तं भवतीति वेदितव्यम्। एषा करणगाथाऽक्षरघटना। भावार्थस्त्वयम्-इह यत्पर्व कस्मिन्मण्डले समाप्तमिति ज्ञातुमिष्यते तत्संख्या ध्रियते, धृत्वा च पञ्चदशमिर्गुण्यते, गुणयित्वा च रूपाधिका क्रियते, ततः संभवतोऽवमराश्यः पात्यन्ते, ततो यदि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन भागः पतति तर्हि भागे हृतेयल्लब्धं तान्ययनानि ज्ञातव्यानि, कवलं या पश्चादिवससंख्याऽवतिष्ठते, तदन्तिमे मण्डले विवक्षित पर्व समाप्तमित्यवसेयम् / उत्तरायणे वर्तमाने बाह्यमण्डमादिः कर्त्तव्य, दक्षिणायने च सर्वाभ्यन्तरमिति संप्रति भावना क्रियते तत्र कोऽपि पृच्छतिकस्मिन् मण्डले स्थितः सूर्यो युगे प्रथम पर्व समापयतीति? इह प्रथमपर्व पृष्टमित्येकको ध्रियते, स पञ्चदशभिर्गुण्यते,जाताः पञ्चदश अत्रैकोऽप्यवमरात्रो न संभवतीति तत् किमपि पात्यते, तेच पञ्चदश रूपाधिकाः क्रियन्ते, जाताः षोडश युगाऽऽदौ च प्रथमं पर्व दक्षिणायने तत् आगतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा षोडशमण्डले प्रथम पर्व परिसमातामति / तथाऽपरः पृच्छतिचतुर्थं पर्व कस्मिन् मण्डले परिसमाप्नोतीति तत्र चतुष्को ध्रियते, धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते, जाता षष्टिः, अत्रैकोऽवमरात्रः संभवतीत्येकः पात्यते, जाता एकोनपष्टिः 56 / सा भूयोऽप्येकरूपयुता क्रियते, जाता षष्टिः, आगतं सर्वाभ्यन्तरमण्डलमादिं कृत्वा षष्टितमे मण्डले चतुर्थ पर्व समाप्तमिति। तथा पञ्चविंशतितमपर्वजिज्ञासायां पञ्चविंशतिः स्थाप्यते, सा पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 375 / अत्र षडवमरात्रा जाता इति षट् शोध्यन्ते,जातानि त्रीणि शतानि एकोनसप्तत्यधिकानि 366, तेषां त्र्यशीत्यधिकेन शतेन भागो व्हियते, लब्धौ पश्वात्ति Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 503 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व ष्ठन्ति त्रीणि, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातानि चत्वारि, यौ च द्वौ लब्धौ, ताभ्या द्वे अयने दक्षिणायनोत्तरायणरूपे शुद्धे, तत आगतं तृतीये अयने दक्षिणायनरूपे सर्वाभ्यान्तरमण्डलमादिं कृत्वा चतुर्थे मण्डले पशविंशतितम पर्व परिसमाप्तमिति चतुर्विंशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञासायां चतुर्विशत्यधिकं शतस्थाप्यते, तत्पञ्चदशभिर्गुण्यते, जातान्यष्टादश शतानि षष्ट्यधिकानि 1860, चतुर्विशत्यधिके पर्वशतेच त्रिंशदवमरत्रा भूता इति त्रिंशत्पात्यते, जातानि पश्चादष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि 1830, तानि रूपयुतानि क्रियन्ते, जातान्यष्टादश शतान्येकत्रिशदधिकानि 1831 / तेषां त्र्यशीत्यधिकेन शतेन भागे हृते लब्धानि दशायनानि, पश्चादवतिष्ठते एकः, दशमं च अयनं युगपर्यन्ते उत्तरायणं, तर आगतमुत्तरायणपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चतुर्विशत्यधिकशततम पर्व समाप्तमिति। संप्रति किं पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे समाप्तिमधिगच्छति एतन्नि-रूपणार्थ रात्पूर्वाऽऽचार्यैः करणमुक्तं तदुपदर्श्यते"चउवीससयं काऊ-ण पमाणं पज्जए यपंच फलं। इच्छापव्वेहिँ गुण काऊण पज्जया लद्धा / / 1 / / अट्ठार स य सएहिं, तीसेहिं सेसगम्मि गुणियम्मि। सत्तावीससएसुं, अट्ठावीसेसु पुस्सम्मि।।२।। सत्तट्ठ विसठ्ठीणं, सव्वग्गेणं तओ उजं सेसं। तं रिक्ख सूरस्स उ, जत्थ समत्तं हवइ पव्वं / / 3 / / एतासां तिसृणा गाथानां क्रमेण व्याख्या-त्रैराशिकविधौ चतुर्विशत्य- 1 धिकशतं प्रमाणं प्रमाणराशिं कृत्वा पञ्च पर्यायान फलं कुर्यात्कृत्वा च ईप्सितैः पर्वभिर्गुणं गुणकारं विदध्यात्, विधाय चाऽऽद्येन राशिना चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण भागो हर्त्तव्यो, भागे हृते यल्लब्धं ते पर्यायाः शुद्धाः ज्ञातव्याः यत्पुनः शेषमवतिष्ठते तदष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैगुण्यते. गुणिते च तस्मिन् सप्तविंशतिशतेषु अष्टाविंशत्यधिकेषु शुद्धेषु पुष्यः शुद्ध्यति, तस्मिन् शुद्ध सप्तषष्टिसंख्याया द्वाषष्टयः, तासां सर्वाग्रेण यद्भवति / किमुक्तं भवति? - सप्तषष्ट्या द्वाषष्टौ गुणितायां यद्भवति तेन भागे हृते यल्लब्धतावन्ति नक्षत्राणि शुद्धानि द्रष्टव्यानि, यत्पुनस्ततोऽपि भागहरणादपि शेषमवतिष्ठते तदृक्ष सूर्यस्य संबन्धि द्रष्टव्यं यत्र विवक्षित पर्व समाप्तमिति / एष करणगाथात्रयाक्षरार्थः। भावना त्वियम्-यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्चसूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, तत एकेन पर्वणा किंलभामहे?। राशियस्थापना-१२४।५।१। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिर्गुण्यते, जातस्तावानेव पञ्चकरूपः, तस्याऽऽद्येन राशिनो चतुविंशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, स च स्तोकत्वादागंन प्रयच्छति, ततो नक्षत्राऽऽनयनार्थम् अष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तपष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरर्द्धनाऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिनवशतानि पञ्चदशोत्तराणि 615 / छेदराशिषिष्टिः 62 / तत्र पञ्च नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैर्गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 4575 / पुष्यस्य च चतुश्चत्वारिंशद्भागा द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि सप्तविंश तिशतानि अष्टाविंशत्यधिकानि 2728 / एतानिपूर्वराशेः शोध्यन्ते, स्थितानिपश्चादष्टादशशतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि 1847 / तत्र च्छेदराशिःषष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातानि एकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि 4154, तैर्भागो हियते तत्र राशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते, ततो दिवसा आनेतव्याः,तत्र छेदराशिभषष्टिरूपः परिपूर्ण नक्षत्राऽऽनयनाथ हि द्वाषष्टिसप्तषष्ट्या गुणितः, परिपूर्ण च नक्षत्रमिदानीं नाऽऽयाति, ततो मूल एव द्वाषष्टिरूपच्छेदराशिः केवल पञ्चभिः सप्तषष्टिभागैरहोरात्रो भवति, ततो दिवसाऽऽनयनाय द्वाषष्टिः पञ्चभिर्गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि दशोत्तराणि 310, तैर्भागो हियते, लब्धाः पञ्च दिवसाः शेषास्तिष्ठन्ति द्वे शते सप्तनवत्यधिके 267. ते मुहूर्ताऽऽनयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, तत्र गुणकारच्छेदराश्योः शून्येनाऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरिषकरूपश्छेदराशिरेकत्रिंशत् तत्रिकेनोपरितनो राशिर्गुण्यते, जातान्यष्टौ शतान्येकनवत्यधिकानि 861, तेषामेकत्रिंशता भागो हियते, लब्धा अष्टाविंशतिमुहूर्ताः 28, एकस्य च मुहूर्त्तस्य त्रयोविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः २३३१,आगतं प्रथम पर्व अश्लेषानक्षत्रस्य पञ्चदिवसायकस्य च दिवसस्याष्टाविंशतिमुहूर्तानेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिमेकत्रिंशद्भागान् भुक्त्वा समाप्तम् / अथ वापुष्ये शुद्धे यानि स्थितानि पश्चादष्टादशशतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि 1847, तानि सूर्यमुहूर्ताऽऽनयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते जातानि पञ्च-पञ्चाशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि दशोत्तराणि 55410, तेषां प्रागुक्तेन छेदराशिना 4154. भागो हियते लब्धास्त्रयोदश मुहूर्ताः 13, शेषाणि तिष्ठन्ति चतुर्दशशतान्यष्टोत्तराणि 1408, ततोऽमूनि द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानि गुणकारच्छेदराश्योः द्वाषष्ट्याऽपवर्तना, तत्र गुणकारराशिरेककरूपः छेदराशिसप्तषष्टिरूपः, तत्र एकेन गुणितो राशिस्तावानेनजातः 1408 तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकविंशतिः 21 द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य,एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकसप्तषष्टिभागः, तत आगतं युगस्याऽऽदौ प्रथमं पर्व, अमावास्यालक्षणमश्लेषानक्षत्रस्य त्रयोदशमुहूर्तस्य एकविंशतिद्वाषष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एक सप्तषष्टिभाग भुक्त्वा सूर्यः समायाति। तथा च वक्ष्यति-"ता एएसिणं पंचण्ह संवच्छराणं पढम अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणंजोएइ? ता असिलेसाणं एके मुहत्ते चत्तालीसं वावट्ठिभागा मुहत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छित्ता छावर्द्वि चुण्णिआ सेसा तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेणं जोएइ? ता असिलेसाहिं चेव असिलेसाणं एक्को मुहत्तो चत्तालीसं वा वविभागा मुहत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्टिहाछेत्ता छायट्टि चुणिया सेसा।" इति। तथा यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्यायालभ्यन्ते ततो द्वाभ्या पर्वभ्या किलभामहे? राशियस्थापना।१३४।५।२। अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाता दश 10, तेषामाद्येन राशिना भागहरण ते च स्तोकत्वाद्धार्ग न प्रयच्छन्ति, ततो नक्षत्रोऽऽनयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदविकैर्गुणयितव्या इति गुणकारच्छेदराश्यारद्धेनापवर्तना जातो गुणकारराशिनवशतानि पञ्चदशोतराणि 615 / छैदराशिौषष्टिः 62, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरेर्दश गुण्यन्ते, जातानि एकनवतिशतानि पञ्चाशतुत्तराणि 6150, Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 504 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व तेभ्यः सप्तविंशतिशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते, स्थितानि पश्वाचतुःषष्टिशतानि द्वाविंशत्यधिकानि 6422, छेदराशि षष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि 4154, तैर्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रं, तच्चाश्लेषारूपमश्लेषानक्षत्रं चार्द्ध क्षेत्रमत एतद्गताः पञ्चदश सूर्यमुहूर्ता अधिका वेदितव्याः, शेषाणि तिष्ठन्ति द्वाविंशतिशतान्यष्टषष्ट्यधिकानि 2268, ततो मुहूर्ताऽऽनयनार्थमेतानि त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टषष्टिसहस्राणि चत्वारिंशदधिकानि 6840, तेषां छेदराशिना 4154 भागो हियते, लब्धाः षोडश सूर्यमुहूर्ताः 16, शेषाण्यवतिष्ठन्ते पञ्चदशशतानि षट्सप्तत्यधिकानि 1576, तानि द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योषिष्ट्याऽपवर्त्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तवष्टिः 60, तत्रोपरितनो राशिरेकेन गुणितस्तावानेव जातः, तस्य सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धास्त्रयोविंशतिषष्टिभागाः 2362, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः 35, तत्र ये लब्धाः षोडश मुहूर्त्ता ये चोदरिताः पश्चात्याः पञ्चदश मुहूर्तास्ते एकत्र मील्यन्ते जाता एकत्रिंशत् 31, तत्र त्रिंशतामथाशुद्धा पश्चादुद्वरत्येकः सूर्यमुहूर्तस्तत आगतं द्वितीय पर्व श्रावणमासभाविपौर्णमासीरूपं पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रस्यैकं मुहूर्तमेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिद्वाषष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशतं सप्तषष्टिभागान् भुक्ता सूर्यः परिसमापयतीति। तथा च वक्ष्यति- "ता एएसिणं पंचण्ह संवच्छराणं पढम पुण्णमासीणं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ? ता धणिवाहिँ धणिट्ठाणं तिन्नि मुहुत्ता एगुणवीसंच वासट्ठिभागा मुहुत्तस्सवास-विभागं च सत्तविहा छेत्ता पण्णट्टी चुण्णिया भागा सेसा / तं समयं च णं सूरे केणं नक्खत्तेण जोएइ? ता पुव्वाहि फग्गुणीहिं पुव्वाणं फग्गुणीणं अट्ठावीसं च मुहत्ता अट्ठावीसं च वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता बत्तीस चुण्णिया भागा सेसा।" इति / तथा यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, ततस्त्रिभिः किं लभामहे? राशित्रय स्थापना- 124 / 53 अत्रान्त्येन राशिना त्रिकलक्षणेन मध्यो राशि: पञ्चकरूपो गुण्यते, जाताः पञ्चदश 15, तेषामाद्येत राशिना भागहरणं, तत्र राशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते, ततो नक्षत्राऽऽनयतार्थमष्टादशशतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरद्वेनाऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिनवशतानि पञ्चदशोत्तराणि 615, छेदराशिौषष्टिः 62 / तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः पञ्चदश गुण्यन्ते, जातानि त्रयादशसहस्राणि सप्तशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि 13725, तेभ्यः सप्तविंशतिशतान्यधिकानि पुष्यसत्कानि शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चाद्दशसहस्राणि नवशतानि सप्तनवत्यधिकानि 10667, छेदराशिषष्टिरूपः सप्तपष्ट्या गुणितो, जातान्येकचत्वारिंशच्छतीनि चतुःपञ्चाशदधिकानि 4154 तैर्भागो हियते, लब्धे द्वनक्षत्रे शते चाश्लेषामधारूपे, अश्लेषानक्षत्र चार्द्धक्षेत्रामेत्येतद्गताः पञ्चदशसूर्यमुहूर्ता उद्वरिता वेदितव्याः। शेषाणि तिष्ठन्तिषड्विंशतिशतानि नवाशीत्यधिकानि 2686 / एतानि मुहूर्ताऽऽनयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यशीतिसहस्राणि षट्शतानि सप्तत्यधिकानि 80670 / तेषां छेदराशिना 41154 भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिमुहूर्ताः 16 / शेषाण्यवतिष्ठन्ते सप्तदशशतानि चतुःचत्वारिंशदधिकानि 1744 // एतानि द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यानीति गुणकारच्छेदराश्योषिष्ट्याऽपवर्तना, जातो गुणकारराशिरेकरूपः, छेदराशिः सप्तषष्टिः ६७,तत्रोपरितनो राशिरेकेन गुणितस्तावानेव जातः 1744 / तस्य सप्तषष्ट्या भागो न्हियते, लब्धाः षड्विंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ 2662 267 / तत्र ये लब्धा एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः ये चोदरिताः पाश्चात्या पञ्चदश मुहूर्ताः ते एकत्र मील्यन्ते, जाताश्चतुस्त्रिंशन्मुहूताः / स च त्रिंश-ता पूर्वफाल्गुनी शुद्धा, शेषास्तिष्ठन्ति चत्वारो मुहूर्तास्तत आगतंतृतीय पर्व भाद्रपदगतममावास्यारूपम् उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रस्य चत्वारो मुहूर्तानेकस्य च मुहूर्त्तस्य षडिशतं द्वाषष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ भुक्त्वाः सूर्यः परिसमापयति। तथा च वक्ष्यति-"ता एएसि णं पंचण्हे संवच्छराणं दोचं अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएइ? ता उत्तराहिं फग्गुणीहिं उत्तरफग्गुणीणं चत्तालीस मुहूत्ता पणतीसं वावद्विभागा मुहत्तस्स वावविभागं च सत्तविहा छेत्ता पण्णत्ती चुणिया भागा सेसा। तं समयं च णं सूरे एवं केणं नक्खतेणं जोएइ ? ता उत्तराहि चेव फग्गुणीहिं उत्तराणं फग्गुणीणं चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं च वावट्ठिभागा मुहत्तस्स वावद्विभागं च सत्तविहा छेत्ता पण्णट्ठी चुण्णिया भागा सेसा / ' इति। एवं शेषपर्वसमापकान्यपि सूर्यनक्षत्राण्यानेतव्यानि। अथ चेदं पर्वसु सूर्यनक्षत्रपरिज्ञानार्थ पूर्वाऽऽचार्योपदर्शित करणम् - तित्तीस च मुहुत्ता, विसट्ठिभागा य दो मुहत्तस्स / चुत्तीसचुण्णिया भागा,पव्वीकय रिक्ख धुवरासी / / 1 / / इच्छापव्वगुणाओ, धुवरासीओ यसोहणं कुणसु। पूसाईणं कमसो जह दिट्ठमणतनाणीहि / / 2 / / उगवीसं च मुहुत्ता, तेयालीसं विसट्ठिभागा य। तेतीसचुण्णियाओ, पूसस्सय सोहणं एयं / / 3 / / उगुयालसर्य उत्तरफग्गु उगुणट्ट दो विसाहासु। चत्तारि नवोत्तर उत्तराणऽसाढाण सोज्झाणि / / 4 / / सव्वत्थ पुस्सऽस्सेणं, सोज्झं अभिइस्स चउर उगुवीसं। वावट्ठी छन्भागा, वत्तीस चुणिया भागा // 5 // उगुणत्तरं पंचसाया, उत्तरभद्दवय सत्त उगुवीसा। रोहिणि अट्ठनवोत्तरपुणव्वसंतम्मि सोज्झाणि॥६।। अट्ठसया उगुवीसा, विसट्ठिभागा य हों ति चउवीसं। छावट्ठी सत्तट्ठी, भागा पुस्सस्स सोहणगं / / 7 / / एतासां क्रमेण व्याख्या-त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वौ द्वाषष्टिभागावेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशतचूर्णिका भागाः 33 / 2 / 34 / एष सर्वेष्वपि पर्वसु पर्वीकृत एकेन पर्वणा निष्पादित ऋक्षधुवराशिः सूर्यनक्षत्रविषयो धुवराशिः। कथमेतस्योत्पत्तिरिति चेदुच्यतेनैराशिकत्वात् तच्चेदं त्रैराशिकं यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पक्ष सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते, तत एकेन पर्वणा किं लभामहे? राशिमयस्थापना-१२४।५।११ अत्रान्त्येन राशिना म Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 805 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व ध्यराशिर्गुण्यते, जातः स तावानेव, "एकेन गुणितं तदेव भवति" इति वचनात् / ततः चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन भागो हियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद् भागो न लभ्यते, लब्धा एकस्य च सूर्यनक्षत्रप यस्य पश्चचतुर्विंशत्यधिकशतभागाः, तत्र नक्षत्राणि कुर्मा इत्यष्टादशभिः शतैः त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागैः पञ्च गुणयिष्याम इति गुणकारच्छेदराश्योरर्द्धनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनवशतानि पञ्चदशोत्तराणि 615, छेदराशिषिष्टिः 62, तत्र नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः पञ्च गुण्यन्ते, जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 4575, एतानि मुहूर्ताऽऽनयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातमेकं लक्ष सप्तत्रिंशत्सहस्राणि द्वे शते पञ्चाशदधिके १३७२५०,छेदराशिश्च द्वाषष्टिरूपः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि 4154, तैर्भागो हियते, लब्धास्त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ताः 33, शेष तिष्ठत्यष्टषष्ट्यधिकं शतम्, 168, एतत् द्वाषष्टिभागाऽऽनयनाथ द्वाषष्ट्या गुणयितव्यमिति गुणकारच्छेदराश्योषष्ट्याऽपवर्त्तना, जाता गुणकारराशिरेकरूपः छेदराशिः सप्तषष्टिरूपः ‘‘एकेन च गुणितं तदेव भवति'' ततोऽष्टषष्ट्यधिकमेव शतं जातं, तस्य सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धौ द्वौ द्वाषष्टिभागौ, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इति / (इच्छापव्वे इत्यादि) इच्छाविषयं यत् पर्व पर्वसंख्यानं तदिच्छापर्व, तद्गुणो गुणकारो यस्य ध्रुवराशेस्तस्मात्। किमुक्तं भवति? ईप्सितं यत् पर्व तत्सख्यया गुणितात् ध्रुवराशेः पुष्याऽऽदीनां नक्षत्राणां क्रमशः क्रमेण शोधनं कुर्याद्यथादिष्ट यथाकथितमनन्तज्ञानिभिः। कथं कथितमित्याह- "उगवीसं च / इत्यादि गाथा। एकोनविंशतिमुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशत्द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशच्चूर्णिकाभागाः 6 / 43 / 33 // एतदेतावत्प्रमाणं पुष्यशोधनकम्। कथमेतावतः पुष्यशोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत?। उच्यते इह पाश्चात्ययुगपरिसमाप्तौ पुष्यस्य त्रयोविंशतिसप्तषष्टिभागा गताः, चतुश्चत्वारिंशदवतिष्ठन्ते, ततस्ते मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि विंशत्यधिकानि 1320, तेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः 16, शेषास्तिठन्ति सप्तचत्वारिंशत् 47, सा द्वाषष्टिभागाऽऽनयनाथ द्वाषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकोनत्रिंशत्शतानि चतुर्दशोत्तराणि २६१४,तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धास्त्रिचत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागाः एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागा इति। (उगुयालसयमित्यादि) एकोनचत्वारिशमेकोनचत्वारिंशदधिकं मुहूर्त्तशतमुत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यं 136, द्वे शते एकोनषष्ट्यधिके विशाखापर्यन्तेषु शोध्ये 256, चत्वारि मुहूर्तशतानि नवोत्तराणि उत्तराषाढानामुत्तराषाढापर्यन्तानां नक्षत्राणां शोध्यानि 406, (सव्वत्थेत्यादि) एतेषु सर्वेष्वपि शोधनेषु यत्पुष्यस्य मुहूर्तेभ्यः शेषं त्रिचत्वारिंशतमुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इति तत्प्रत्येक शोधनीयम्, तथा अभिजितश्चत्वारि मुहूर्त्तशतानि एकोनविंशान्येकोनविंशत्यधिकानिषवाषष्टिभागा मुहूर्तस्यैकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशच्चूर्णिका भागाः सप्तषष्टिभागा इति शोध्यम् / एतावता पुष्यादीन्यभिजिदन्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्तीति भावार्थः। तथा (उगुणत्तरेत्यादि) एकोनसप्तानि एकोनसप्तत्यधिकानि पश मुहूर्तशतानि उत्तरभद्रपदानामुत्तरभद्रपदान्ताना शोध्यानि 566, तथा सप्तशतान्येकोनविंशत्यधिकानि 716, रोहिणीपर्यन्तानां शोध्यानि पुनर्वसुपर्यन्ते अष्टौ शतानि नवोत्तराणि 806 शोध्यानि। (अट्ठसएत्यादि) अष्टौ शतान्येकोनविंशानिएकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिद्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिसप्तषष्टिभागा इति पुष्यस्य शोधनकमेतावता परिपूर्णमेको नक्षत्रपर्यायः शुद्ध्यतीति तात्पर्यार्थः / एष करणगाथाऽक्षरार्थः। संप्रति करणभावना क्रियते-तत्र कोऽपि पृच्छते-प्रथमं पर्व कस्मिन् सूर्यनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति?; तत्र ध्रुवराशिस्त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशत्सप्तषष्टि-भागा इत्येवरूपो ध्रियते 3312 // 34 // धृत्वा चैकेन गुण्यते-"एकेन गुणितं तदेव भवति।" ततः पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशवाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तषष्टिभागा इत्येवंप्रमाणं शोध्यते, ततः स्थितास्त्रयोदश मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभागः 13 / 21 / 1 / तत आगतमेतावदश्लेषानक्षत्रस्य सूर्यो भुक्त्वा प्रथम पर्व श्रावणमासभाव्यमावास्यालक्षणं परिसमापयतीति द्वितीयपर्व चिन्तायाम् स एव ध्रुवराशिः।३३।२।३४॥ द्वाभ्यां गुण्यते जाताः षट्षष्टिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चद्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकसप्तषष्टिभागाः६६५।१। एतस्माद्यथोदितप्रमाणं 16431331 पुष्यशोधनं शोध्यते, स्थिताः पश्चात्षट्चत्वारिंशन्मुहूर्ताः त्रयोविशतिद्वाषष्टिभागाः मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिकभागाः 46 / 23 / 35 / ततः पञ्चदशभिर्मुहूर्तरश्लेषा शुद्धा त्रिंशता मद्याः, स्थितः पश्चादेको मुहूर्तः, तत आगतं द्वितीय पर्व पूर्वफाल्गुननिक्षत्रस्यैकं मुहूर्तमेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागानेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिशतं सप्तषष्टिभागान् भुक्त्वा सूर्यः परिसमाप्ति नयति, तृतीयपर्वचिन्तायां स एव ध्रुवराशिः 33 / 2 / 34 / त्रिभिर्गुण्यते जाता नवनवतिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तद्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चत्रिंशत्सप्तषष्टिभागाः 667 / 35 // एतस्मात्पुष्यशोधनं 16 // 43 / 3 / शोध्यते, स्थिताः पश्चादेकोनसप्ततिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य षड्रिंशतिद्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ 66 / 26 / 2 / ततः पञ्चदशभिर्मुहूर्ते रश्लेषा त्रिंशता मघा त्रिंशता पूर्वफाल्गुनी स्थिताः, पश्चाचत्वारो मुहूर्त्ता आगतंतृतीयं पर्व भाद्रपदामावास्यारूपमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य चतुरो मुहूर्तानेकस्य च मुहूर्तस्य षड्शितिद्वाषष्टिभागान्, एकस्य च वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिभागौ भुक्त्वा सूर्यः परिसमापयति। एवं शेषपर्वस्वपि सूर्यनक्षत्राणि वेदितव्यानि। तत्र युगपूर्वार्द्धभाविद्वाषष्टिपर्वगतसूर्यनक्षत्रसूचिका इमाः पूर्वाऽऽचार्योपदर्शिता। गाथाःसप्प भग अजमदुग, हत्थो चित्ता विसाह मित्तो य। Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 806 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्व जेट्ठाइगं च छक्क, अजाऽभिवुड्डी दुपूसाऽऽसा।।१।। छक्कं च कत्तियाई, पिइ भग अजमदुगं च चित्ता य। वाउ विसाहा अणुराह जेट्ट आउं च वीसु दुगं।।२।। सवण धणिट्टा अजदेव अभिवुड्दुि अस्स जमबहुला। रोहिणि सोमऽदिइदुर्ग, पुस्सो पिइभगजमा हत्थी / / 3 / / चित्ता य जिट्टवजा, अभिई अताणि अट्ट रिक्खाणि / एए जुगपुटवद्धे, विसेट्टि पव्वे सरिक्खाणि // 4 // एतासां व्याख्या-प्रथमस्य पर्वणः समाप्तौ सूर्यनक्षत्रं सर्पः सर्पदेवतोपलक्षिताः अश्लेषा 1, द्वितीयस्य भगो भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः२, ततः अर्यमद्विकमिति तृतीयस्य पर्वणोऽर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः 3, चतुर्थस्याऽप्युत्तरफाल्गुन्यः 4, पञ्चमस्य हस्तः 5, षष्ठस्य चित्रा 6, सप्तमस्य विशाखा 7, अष्टमस्य मित्रो मित्रदेवतोपलक्षिता अनुराधा 8, ततो ज्येष्ठाऽऽदिकं षट् क्रमेण वक्तव्यम्। तद्यथा-नवमस्य ज्येष्ठाः, दशमस्य मूलम् 10, एकादशस्य पूर्वाषाढा 11, द्वादशस्योत्तराऽऽषाढा १२,त्रयोदशस्य श्रवणः 13. चतर्दशस्य धनिष्ठा १४.पञ्चदशस्याजोऽजादेवतोपलक्षिता पूर्वभद्रपदा 15, षोडशस्याऽभिवृद्धिरभिवृद्धिदेवतोपलक्षिता उत्तरभद्रपदा 16, सप्तदशस्योत्तरभद्रपदा 17, अष्टादशस्य पुष्यः पुष्यदेवतोपलक्षिता रेवती 18, एकोनविंशतितमस्याश्वोऽश्वदेवतोपलक्षिता अश्विनी 16, षट्कं च कृत्तिकाऽऽदिकमिति विशतितमस्य कृत्तिकाः२०.एकविंशतितमस्य रोहिणी 21, द्वाविंशतितमस्य मृगशिरः २२,त्रयोविंशतितमस्याऽऽर्द्रा 23. चतुर्विशतितमस्य पुनर्वसु 24, पञ्चविंशतितमस्य पुष्यः 25, षड्विंशतितमस्य पितरः पितृदेवतोपलक्षिता मघाः 26, सप्तविंशतितमस्य भगो भगदेवतोपलक्षिताः पूर्वफाल्गुन्यः 27, अष्टाविंशतितमस्यार्यमा अर्यमदेवा उत्तरफाल्गुन्यः 28. एकोनत्रिंशत्तमस्याप्युत्तरफाल्गुन्यः 26, त्रिंशत्तमस्य चित्रा 30, एकत्रिंशत्तमस्य वायुर्वायुदेवतोपलक्षिता स्वातिः 31, द्वात्रिंशत्तमस्य विशाखाः 32, त्रयत्रिंशत्तमस्यानुराधा 33, चतुस्त्रिंशत्तमस्य ज्येष्ठा 34, पञ्चत्रिंशत्तमस्य पुनरायुरायुर्देवतोपलक्षिता पूर्वाषाढाः 35, षट्त्रिंशत्तमस्य विष्वग्देवा उत्तराषाढा 36, सप्तत्रिंशत्तमस्याप्युत्तराषाढाः 37. अष्टात्रिंशत्तमस्य श्रवणः 38, एकोनचत्वारिंशत्तमस्य धनिष्ठा 36, चत्वारिंशत्तमस्याऽजोऽजदेवतोपलक्षिता पूर्वभद्रपदा 40, एकचत्वारिंशतमस्याभिवृद्धिरभिवृद्धिदेवा उत्तरभद्रपदा ४१,द्वाचत्वारिंशत्तमस्याप्युतरभद्रपदा 42, त्रिचत्वारिंशत्तमस्याश्वोऽश्वदेवा अश्विनी 43, चतुश्च - त्वारिंशत्तमस्य यमो यमदेवा भरणी 44, पञ्चचत्वारिंशत्तमस्य बहुला कृत्तिका 45, षट्चत्वारिंशत्तमस्य रोहिणी 46, सप्तचत्वारिंशत्तमस्य सोमः सोमदेवोपलक्षितं मृगशिरः 47, अदितिद्विकमिति अष्टचत्वारिंशत्तमस्यादितिरदितिदेवोपलक्षितं पुनर्वसुनक्षत्रम् 48, एकोनपञ्चाशतमस्यापि पुनर्वसुनक्षत्रम् 46, पञ्चाशत्तमस्य पुष्यः 50, एकपञ्चाशतमस्याऽपि पितृदेवा मघा 51, द्वापञ्चाशत्तमस्य भगो भगदेवतोपलक्षिता पूर्वफाल्गुन्यः 52, त्रिपञ्चाशत्तमस्यार्यमा अर्यमदेवतोपलक्षिता उत्तरफाल्गुन्यः 53, चतुःपञ्चाशत्तमस्य हस्त 54, अत ऊर्द्ध चित्राऽऽदीनि अभिजित्पर्यन्तानि ज्येष्ठावान्यष्टौ नक्षत्राणि क्रमेण वक्तव्यानि / तद्यथा-पञ्चपञ्चाशत्तमस्य चित्रा 55, षट्पञ्चाशत्तमस्य स्वातिः 56, सप्तपञ्चाशत्तमस्य विशाखा 57. अष्टपञ्चाशत्तमस्य अनुराधा 58, एकोनषष्टितमस्य मूलः 56, षष्टितमस्य पूर्वाषाढा 60. एकषष्टितमस्योत्तराषाढाः 61, द्वाषष्टितमस्याभिजिदिति 62 / एतानि नक्षत्राणि युगस्य पूर्वार्द्ध द्वाषष्टिसंख्येषु पर्वसु यथाक्रममुक्तानि / एतं करणवशेन युगस्योत्तरार्द्धऽपि द्वाषष्टिसंख्येषु पर्वसुज्ञातव्यानि। किं पर्व चरमदिवसे कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु समाप्तिमियतीत्येतद्विषयं यत्करणमभिहित पूर्वाऽऽचार्यस्तदभिधीयते"चउहिँ अहियम्मि पव्वे, एक्के सेसम्मि होइ कलिओगो। वेसुयदावरजुम्मो, तिसुतेया चउसु कडजुम्मो।।१।। कलिओगे ते णउई, पक्खेवो दावरम्मि यावट्ठी। तेऊए एक्कतीसा, कडजुम्मे नत्थि पक्खेवो // 2 // सेसद्धे तीसगुणे, बावट्ठी भाइयम्मिजं लद्धं / जाणे तइसु मुहुत्ते-सु अहोरत्तस्सतं पव्वं / / 3 / / '' एतासा क्रमेण व्याख्या-पर्वाण पर्वराशौ चतुर्भिर्भक्ते सति यद्येकः शेषो भवति तदा स राशिः कल्योजो भण्यते। द्वयोः शेषयोर्द्वापरयुग्मः / त्रिषु शेषेषु त्रेतोजश्चतुर्षु शेषेषु कृतयुग्मः / (कलि-ओगेत्यादि) तत्र कल्योजे रूपराशौ त्रिनवतिः प्रक्षेपः प्रक्षपणीयो राशिः, द्वापरयुग्मे द्वाषष्टिः त्रेतौजसि एकत्रिंशत्, कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः / एवं प्रक्षिप्तप्रक्षेपणां पर्वराशीनां सतां चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन भागो न्हियते, हृते च भागे यच्छेषम वतिष्ठतेतस्यायं विधिः-(सेसद्धे इत्यादि) शेषश्चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागे हृते अवशिष्टस्यार्द्ध क्रियते, कृत्वा च त्रिंशता गुण्यते, गुणयित्वा च द्वाषष्ट्या भज्यते, भक्ते सति यल्लब्धं तान् मुहूर्तान् जानीहि, लब्धान शेषमुहूर्तभागान, तत एवं स्वशिष्येभ्यः प्ररूपयन्तत् विवक्षित पर्व चरमे अहोरात्रे सूर्योदयात्तावत्सु मुहूर्तेषु तावत्सु च मुहूर्तभागेषु अतिक्रान्तेषु परिसमाप्तमिति / एष करणगाथा-ऽक्षरार्थः। भावना त्वियम्-प्रथमं पर्व चरमे अहोरात्रे कति मुहूर्त्तानतिक्रम्य समाप्तमिति जिज्ञासायामेको ध्रियते। अयं किलकल्योजोराशिरित्यत्र त्रिनवतिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुर्नवतिः, अस्य चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हर्त्तव्यः। स च भागोन लभ्यते, राशेः स्तोकत्वात, ततो यथासंभवं करणं लक्षणं कर्त्तव्यं, तत्र चतुर्नवतेरर्द्ध क्रियते , जाताः सप्तचत्वारिंशत् 47, सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि चतुर्दशशतानिदशोत्तराणि 1410, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिमुहूर्ताः२२, शेषास्तिष्ठन्ति षट्चत्वारिंशत् 46, ततश्छेद्यछेदकराश्योरर्द्धनापवर्तना, लब्धास्त्रयोविंशतिरेकत्रिंश-द्भागाः 31, आगतं प्रथम पर्व चरमे अहोरात्रे द्वाविंशतिमुहूर्तान्, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिभेकत्रिंशद्धागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति द्वितीयपर्वजिज्ञासायां द्विको ध्रियते, स किलद्वापरयुग्मराशिरितिद्वाषष्टिः प्रक्षिप्यते, जाता चतुःषष्टिः। सा च चतुर्विशत्यधिकस्य शतस्य भागंन प्रयच्छति, ततस्तस्यार्द्ध क्रियते, जाता द्वात्रिंशत्, सा त्रिंशता गुण्यते, जातानि नवशतानि षष्ट्यधिकानि 660, तेषां द्वाषष्ट्या भागो न्हियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः१५, पश्चा Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्व 807 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पव्वति (ण) दवतिष्ठते त्रिंशत् 30, ततश्छेद्यछेदकराश्यारे॰नापवर्तना, लब्धाः ग्रहात (दश०२०) पापान्निष्क्रान्ते, द्वा०२७ द्वा०ा दीक्षित, पञ्चा० पञ्चदश एकोनत्रिशद्भागाः 1531, आगतं द्वितीय पर्व, चरमे अहोरात्रे रविव०। प्रतिपन्ने, कल्प० १अधि०१क्षण / प्रगते प्राप्ते, स्था० ४ठा० पञ्चदश मुहूत्तनिकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदश एकत्रिंशदागानतिक्रम्य १उ०। प्रव्रजनं प्रव्रजितम्। प्रव्रज्यायाम, व्य० १उ०। सन्धिवर्धने, स्था० द्वितीय पर्व समाप्तमिति / तृतीयपर्वजिज्ञासां त्रिको ध्रियते, स किल रठा०३उन तौजोराशिरिति तत्रैकत्रिंशत् प्रक्षिप्यन्ते जाताः चतुस्त्रिंशत् 34, सा पव्वइसेल्ल (देशी) बालमयकण्टके, देवना०६ वर्ग 31 गाथा। चतुर्विशत्यधिकस्य शतस्य भाग न प्रयच्छति, ततस्तस्यार्द्ध क्रियते, | पव्वई स्त्री०(पार्वती) शिवभार्यायाम्, "दक्खायणी भवाणी, सेलसुआ जाता सप्तदश, ते त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्जशतानि दशोत्तराणि पवई उमा गौरी।" पाइन्ना०३ गाथा। 510, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते लब्धा अष्टौ 8, शेषास्तिष्ठन्ति चतुर्दश पव्वग पुं०(पर्वक) पर्वोपेतेषु इक्ष्वादिषु, आ० चू० 10 // 14, ततच्छेद्यच्छेदकराश्योरर्द्धनापवर्त्तना, लब्धाः सप्त एकत्रिंशद्भागाः से किं तं पव्वगा? पव्वगा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा४३१,आगतं तृतीयं पर्व, चरमे अहोराशे अष्टौ मुहूर्तानेकस्य च मुहूर्तस्य "इक्खूया इक्खुवउए, वीरुणा तह इक्कडे य मासे य। सप्त एकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गतमिति / चतुर्थपर्वजिज्ञासायां सुंठे सरे य वेत्ते, तिमिरे सतपोरगणले य॥१॥ चतुष्को ध्रियते, स किल कृतयुग्मराशिरिति न किमपि तत्र प्रक्षिप्यते, वंसे वेलू कणए, कंकावंसे य वववंसे य। चत्वारश्चतुर्विशत्यधिकस्य शतस्य भागं न प्रयच्छन्ति, ततस्ते अर्द्ध उदए कुडए विमए, कंडावेलू य कल्लाणे / / 2 / / क्रियते, जातो द्वौ, तौ त्रिंशता गुण्येते, जाता षष्टिः 60, तस्या द्वाषष्ट्या जे यावण्णे तहप्पगारा, सेत्तं पव्वगा। प्रज्ञा० १पद। भागो ह्रियते, भागश्च न लभ्यते इति छेद्यछेदकराश्योरर्द्धनापवर्तना, 'कालीपव्वगसंकासे / ' काली जड्या तस्याः पर्वाणि स्थूराणि जातास्त्रिशदेकत्रिंशद्भागाः 3031, आगतं चतुर्थ पर्व, चरमे अहोरात्रे मुहूर्त्तस्य त्रिंशतमेकत्रिंशद्भागानतिक्रम्य समाप्तिं गच्छतीति। एवं शेषेष्वपि मध्यानि च तनूनि भवन्ति / ततः कालीपर्वाणि जानुकूर्पराऽऽदीनि येषु पर्वसु भावनीयम्। चतुर्विशत्यधिकशततमपर्वजिज्ञासायां चतुर्विशत्य तानि। संधिमध्ये, उत्त० २अ० जी०। प्रश्नका भ०। आचा०ा दर्भाऽऽधिक शतं ध्रियते, तस्य किल चतुर्भिर्भाग हृते न किमपि शेषमवतिष्ठन्ते कृतितृणे, नि०चू०१उ०। इति कृतयुग्मोऽयं राशिः, ततोऽत्र न किमपि प्रक्षिप्यते, ततः चतुर्विशत्य पध्वजएगपक्खिय पुं०(प्रव्रज्यैकपाक्षिक) गुरुसहाध्यायाऽऽदिषु, वृ०॥ धिकेन शतेन भागो हियते, जातो राशिर्निर्लेपः, आगतं परिपूर्ण चरम कुत्र पुनरिति चेत्?,उच्यतेमहोरात्रं भुक्त्वा चतुर्विंशशतिशततमं पर्व समाप्तिं गतमिति। तदेवं यथा पव्वज्जएगपक्खिय, उवसंपययंविहा सए ठाणे। पूर्वाऽऽचार्यरिदमेव पर्वसूत्रमवलम्ब्य पर्वविषयं व्याख्यानं कृतं, तथा मया छत्तीसातिकते, उवसपंययं तुवादाय॥५३४|| विनेयजनानुग्रहाय स्वमत्यनुसारेणोपदर्शितम् / सू०प्र० 10 पाहु० यः प्रव्रज्ययैकपाक्षिकस्तस्य पार्वे उपसंपदं तान् कुलस्थविरा २०पाहु० पाहु०॥ चं०प्र०ा जाज्यो०।अथ पर्व किमुच्यते?-अत आह- ग्राहयेयुः, सा च उपसंपत् एवंविधा वक्ष्यमाणनीत्या भवति, तस्यां चोपमासार्द्ध मासयोर्मध्य पुनः पर्व भवति। तदेवाऽऽह संपदि षट्त्रिंशद्वर्षातिक्रमे प्राप्तायां (सए ठाणि त्ति) विभक्तिव्यत्ययात् पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं / स्वकमात्मीयं स्थानमुपादाय गृहीत्वा तैरुपसंपत्तथ्यम्। अण्णं पि होइ पव्वं, उवरागो चंदसूराणं // 153 / / इदमेव भावयतिव्य०६उ०। (अस्याःव्याख्या 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 26 पृष्ठे गता) गुरुसज्झिलओ सज्झं, तिउ पिउ गुरुगुरुस्स वा भत्तू। द्वितीयाऽऽदिपञ्चपर्वी श्राद्धविध्यादिस्वीयग्रन्थातिरिक्तग्रन्थे क्वास्ति अहवा कुलिव्वतो उ, पव्वजाएगपक्खी ऊ / / 535|| ||15|| 'मासम्मिपव्वछक्क, तिन्नि अपव्वाइँ पक्खम्मि'' इति गाथोक्ता गुरुसज्झिलको गुरूणां सहाध्यायी पितृव्यस्थानीयः, सज्झंति क चतुष्पर्वी सर्वश्राद्धानां, किं वा लेपश्राद्धाधिकारवर्णितेति? // 16 // आत्मनः सब्रह्मचारी भ्रातृस्थानीयो, गुरुगुरू पितामहस्थानीयो, गुरोः इतिप्रश्ने, उत्तरम्-द्वितीयाऽऽदिपञ्चपा उपादेयत्वं संविग्नगीतार्थाss- संबन्धी न प्राप्तशिष्य आत्मनो भ्रातृव्यस्थानीयः 1 एते प्रव्रज्ययकचीर्णतया संभाव्यते, अक्षराणि तु श्राद्धविधेरन्यत्र दृष्टानि न स्मर्यन्ते पक्षिका उच्यन्ते। बृ० ४उ०। / / 15 / / तथा-'मासम्मि पव्वछक्कं, तिनि य पय्याइँ पक्खम्मि।' इति पव्वजा रखी०(प्रव्रज्या) प्रव्रजनं प्रव्रज्या / महाव्रतप्रतिपत्ती, पञ्चा० गाथोक्तैव चतुःपर्वी सर्वश्राद्धानां संभाव्यते, नतुलेपश्राद्धाधिकारोक्तेति | १६विव०। (सर्वा वक्तव्यताऽनुपदम् पयज्जा' शब्दे गता) // 16|| ही०१ प्रक। पव्वजो (देशी) नखे, शरे, वाले, मृगे च। देवना०६ वर्ग 66 गाथा। पव्वइंदपुं०(पर्वतेन्द्र) पर्वतानामिन्द्रः पर्वतेन्द्रः / मेरौ, सू० प्र०५पाहु०। / पव्वणी स्वी०(पर्वणी) कार्तिक्यादिषु, भ०६।०३३उ०। पव्वइय त्रि०(प्रव्रजित) पापात् प्रव्रजितः / भागवती दीक्षां प्रतिपन्ने, | पव्वति (ण) पुं०(पर्वतिन्) स्वनाम्ना गोत्रप्रवर्तके काश्यपमूलगोत्रीये पुरुष, विशे०। त्यक्तराज्याऽऽदिगृहपाशबन्धने,अनु०। सूत्र०। आरम्भपरि- / तदपत्येषु च। स्था०७ ठा०६। Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्वतिहि 808 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पसंत पव्वतिहि पुं०(पर्वतिथि) पर्वदिने, अष्टमीचतुर्दश्यादौ, ध० २अधि०। / *प्लावि धा०(प्लु-णिच) तारणे, "प्लावे रोम्बालपटवालो" पव्वती स्त्री०(पार्वती) शिवभार्यायां, हिमालयपुत्र्याम्, पाइ० ना० ३गाथा। ||8 / 4 / 41 / / इतिप्लवतेय॑न्तस्य पव्वालाऽऽदेशः / पव्वालइ / प्लावपव्वतेय पुं०(पार्वतय) वैताढ्यपर्वत, पर्वतापत्ये, विद्याधरकाये, आ०चू० यति / प्रा० ४पाद। १अ०। पव्वालिअ न०(प्लावित) 'पव्वालिअं आउंवालिअं, च सलिलुच्छयं पव्वबीय पुं०(पर्वबीज) पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजाः / इक्ष्वादिषु, आव० जाण।" पाइ० ना०७८ गाथा। 4 अ०। औ०। आ०म०। पव्यावणंतेवासि(ण) पुं०(प्रव्राजनान्तेवासिन) प्रव्राजनया दीक्षयाऽन्तेपव्वय पुं०(पर्वत) क्षुद्रगिरी, ज० १वक्ष० / गिरौ, स्था०५ ठा०१उ० वासी प्रव्राजनान्तेवासी। दीक्षिते, स्था० ४ठा० ३उ० क्रीडापर्वते, उज्जयन्तवैभाराऽऽदौ, भ०७ श०६उ०। अनभिभवनीय पव्वावणा स्त्री० (प्रव्राजना) दीक्षादापने, ध०२अधि०। ('पप्वञ्जा' शब्देस्थिराऽऽश्रयसाधात् (मनुष्येषु) कुलपर्वताऽऽदयः शब्दाः प्रोच्यन्ते। ऽनुपदमेव सर्वा वक्तव्यतोक्ता) प्रज्ञा०१पद। पव्वावणारिय पुं०(प्रव्राजनाचार्य) प्रव्राजनयाऽऽचार्यतां गते, स्था० ४ठा० पव्वयकडय न०(पर्वतकटक) भृगुस्थाने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। स्थान ३उ०। प्रव्रज्याप्रयच्छके गुरौ, पं०व०१द्वार। पव्वयग पुं०(पर्वतक) प्रथमवासुदेवस्य पूर्वाऽऽचार्य , ति०। निर्वृतिपितरि | पव्वावित्तए अव्य०(प्रव्राजयितुम्) दीक्षापयितुमित्यर्थे , स्था० २ठा० १उन मथुराराजे, पञ्चा० 14 विव०। आ०म०। नन्दपराजयार्थ चाणक्येन मित्रीकृते हिमवत्कूटराजे, आ० म० 1 अ० तं०1 अग्निकसहजाते पव्वावेउं अव्य०(प्रवाजयितुम्) पापाद्वजितुमित्यर्थे, पं० चू०१कल्प इन्द्रपुरनगरराजदत्तचेटे, आव० 4 अ० आ०म०। पं०भा० पव्वयगिह न०(पर्वतगृह) पर्वतोपरिगृहे, आचा० २श्रु०१चू० ३अ० ३उ०। पव्वावेऊण अव्य० (प्रव्राज्य) प्रव्रज्यां ग्राहयित्वेत्यर्थे, "जोआरेण पढम, पव्वावेऊण नाणुपालेइ।" पं०व० रद्वार। पव्वयगुरुय न०(पर्वतगुरुक) पर्वतवद् गुरुणि, सूत्र० २श्रु० २अ० पव्विद्धा (देशी) प्रेरिते, देवना० 6 वर्ग 11 गाथा। पव्वयपाद पुं०(पर्वतपाद) पर्वतैकदेशे, आ०म० अ०। पव्वोणि (देशी) "तण्हाइयस्स जोग्गाहारं च नेइ पव्योणि'' संमुखे, व्य० पव्वयराय पुं०(पर्वतराज) पर्वताना राजा पर्वतराजः। मेरौ, सू०प्र०५पाहु० / ६उ०॥ च०प्र० पश्चादो अव्य०(पश्चात्) दिक्कालकृतप रत्वे,'भीमसेणस्स पश्चादो हिंडीपव्वयविदुग्ग पुं०(पर्वतविदुर्ग) नानारूपपर्वते, व्य०६ उ०ा आचा०। अदि। हिडिंबाए घडुक्कयशोकेण उवशमादि।" पश्चात् उसः अन्त्यतपव्वराहु पुं०(पर्वराहु) राहुभेदे, यः पर्वणि पौर्णमास्याममावास्यायां च लुक् ।"डसे: तो दो०" ||838 // इति डसिस्थाने दो। प्रा० ढुं० यथाक्रम चन्द्रस्य सूर्यस्य वा उपरागं करोति। सू०प्र० 16 पाहु०। ३पाद। पव्वविदुग्ग-पु०(पर्वविदुर्ग) मेखलाऽऽदिभिर्दष्ट्रा पर्वतैर्वा विषमे, सूत्र०१श्रु० पसइ स्त्री०(प्रसृति) असति द्वयेन निष्पन्ने नावाकारताव्यवस्थापितप्रा६अ। जलकरतले, अनु०। 'दो असईओ पसई, दोपसईओय सेइया होइ।" पव्वहिय त्रि०(प्रव्यथित) पराजिते वशीकृते, आचा० १श्रु० 210 ४उ०। ज्ञा० १श्रु०७अ०। औ०। नं० प्रकर्षण व्यथिते, सर्वस्याऽऽरम्भस्य तदाश्रयत्वादिति प्रकर्षार्थः / आचा० पसओ देशी० मृगे विशेषे, दे० ना०६वर्ग 4 गाथा। १श्रु०१अ० १उ०। गृहस्थाऽऽदिभिः परस्परतः कर्मविपाकतो वाव्यथिते, पसंग पुं०(प्रसङ्ग) प्रसञ्जनं प्रसङ्ग / अभिष्वङ्गे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। आचा०१श्रु०२अ०६उ०। आ०म० / सातत्ये, प्रश्न० ३आश्र० द्वार। अभीक्ष्णयोगे। आ०चू० पव्वाइय त्रि०(प्रव्राजित) वेषदानेन गृहानिःकाशिते, भावेक्तप्रत्ययः / १अ०। अभ्यासे, आ०म० अ० न०। उत्तरोत्तरदुःखसंभवे, नि० चू०४ प्रव्राजने, ज्ञा० १श्रु०१अ० भ०। उ० अवशस्यानिष्टप्राप्तौ, निचू० १उ०। आसेवायाम्, विस्तारे च / पव्वाय धा०(ग्लै) हर्षक्षये, "म्लेवपिटवायो" ||4|18|| इति पञ्चा०१८विव०। अनुष्ठाने, आचा० १श्रु०१अ०६उ०। म्लायतेः पव्यायाऽऽदेशः। पव्वायइ।म्लायति। प्रा०४पाद। 'पव्वार्य व पसंजण न०(प्रसञ्जन) प्रसङ्गे, नि०चू० 170 / सुआयं, सुसि वायम्मि गिलाणत्थे।' पाइ०ना० 83 गाथा। पसंडि (देशी) कनके, दे०ना०६वर्ग 10 गाथा। पव्वाल धा०(छद) अपवरणे,"छदेणेणुम नूम-सन्नुमढक्कौम्वा- | पसंत त्रि०(प्रशान्त) प्रकर्षण सर्वाऽऽत्मना शान्तःप्रशान्तः। आ०म० 10 // लपव्वालाः" ||8||21|| इति छदधातोः पव्वालाऽऽदेशः / शर्म गते, स०३४ समला रागाऽऽदिरहिते, दश०१०अ० कषायनोकषायो'पव्वालइ।' छदयति / प्रा० ४पाद। द्रेकरहिते, अष्ट० 30 अष्टा प्रश्ना क्रोधरहिते, आम० अ० बहिर्वृ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसंत 506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पसंसा - त्या शमं गते, कल्प० १अधि०६क्षण। औ० / विफलीकृतक-षायोदये, ज्ञा०१श्रु०५अग पसंतगंभीरासय पुं०(प्रशान्तगम्भीराऽऽशय) प्रशान्ताः क्षान्तियोगात् गम्भीरोऽगाधतया आशयश्चित्तपरिणामो येषां ते प्रशान्तगम्भीराऽऽशयाः / क्षमाप्रधानगम्भीरमतिकेषु, पं० सू०१सूत्र०। पसंतचित्तमाणस त्रि०(प्रशान्तचित्रमानस) प्रशान्तानि शमं गतानि चित्राणि रागद्वेषाऽऽद्यनेकविधविकारयुक्ततया विविधानि मानसान्यन्तः करणानि यस्य स तथा। स०३४सम०। पसंतडिंबडमर त्रि०(प्रशान्तडिम्बडमर) अनुदितडिम्बडमरे, यत्र राष्ट्र विघ्ना डमराणि राजकुमाराऽऽदिकृतानि दूरा वा प्रशान्ताः / रा०। पसंतमण त्रि०(प्रशान्तमनस्) अरक्तद्विष्टान्तःकरणे, न० / पसंतरस पु०(प्रशान्तरस) काव्यरसभेदे, अनु०॥ अथ हेतुलक्षणद्वारेणैव प्रशान्तरसमुदाहरतिनिहोसमणसमाहाणसंभवो जो पसंतभावेणं / अविकारलक्खणो सो, रसो पसंतो त्ति णायव्वो // 18 // पसंतो रसो जहासम्भावनिविगारं, उवसंतपसंतसोम्मदिट्ठी। ही जह मुणिणो सोहइ, मुहकमलं पीवरसिरीअं॥१६॥ निर्दोषं हिंसाऽऽदिदोषरहितं यन्मनस्तस्य यत्समाधानविषयाऽऽद्योत्सुक्यनिवृत्तिलक्षणं स्वास्थ्यं तस्मात्संभवो यस्य स तथा, प्रशान्तभावेनक्रोधाऽऽदिपरित्यागेन यो भवती ति गम्यते, स प्रशान्तो रसो ज्ञातव्य इतिघटना, सचाविकारलक्षणोनिर्विकारताचिह्न इत्यर्थः।।१८।। ''सब्भाव'' इत्याद्युदाहरणगाथाप्रशान्तवदनं कश्चित्साधुमवलोक्य कश्चित्समीपस्थितं कञ्चिदाश्रित्य प्राहहीति प्रशान्तभावातिशयद्योतकः, पश्य भोः! यथा सुनेर्मुख कमलं शोभते, कथंभूतं? सद्भावतो न मातृस्थानतो निर्विकारं विभूषाभूक्षेपाऽऽदिविकाररहितम्, उपशान्ता रूपाऽऽलोकनाऽऽद्यौत्सुक्यत्यागतः प्रशान्ता क्रोधाऽऽदिदोषपरिहारतोऽत एव सौम्यदृष्टियत्र तत्तथा, अस्मादेव च पीवरश्रीकम्-उपचितोपशम-लक्ष्मीकमिति / / 16 / / अनु०। पसंतवाहिया स्त्री०(प्रशान्तवाहिता) प्रशान्तं वोढुं शीलं यस्य तत्प्रशान्तवाहि तद्भावस्तत्ता / षो० / प्रशमैकवृत्तिसन्ताने, द्वा०। प्रशान्तवाहिलासंज्ञ साङ्ख्यानां, विसभागपरिक्षयो बौद्धाना, शिवधर्म शैवाना, धुवाध्वा महाव्रतिकानाम्, असङ्गानुष्ठानं जैनानाम्। द्वा० २४द्वार। पसंघण न०(प्रसन्धन) सातत्येन प्रवर्तन, पिं०। पसंस पुं०(प्रशस्य) प्रशस्यते सर्वे रिन्द्रियैरिति प्रशस्यः। नि० चू० १उ०। पसंसंत त्रि०(प्रशंसत्) वर्णयति, समर्थयति, सूत्र०१श्रु०१अ० २उ०। स्तुवति, सूत्र०२श्रु०६अ० / श्लाघमाने, सूत्र० १श्रु०११अ०आव०) पसंसण न०(प्रशंसन) श्लाघायाम्, जी०२३ अधि०। पसंसा स्त्री०(प्रशंसा) प्रशंसनं प्रशंसा / स्तुतौ, आव०६अ। श्रा०नि० / चू० श्लाघायाम, प्रव० १४द्वार। उत्त०। आव०। ध०। साधुकारे, आ० म०१ अ०ा आवा पार्श्वस्थाऽऽदीनां वंदनप्रशंसाजे मिक्खू पासत्थं वंदइ, वंदंतं वा साइज्जइ। एवं कुशीलमवसन्नं संसक्तं नित्यकाथिकं पश्यतिकं मनाकं संप्रसारक वा वन्दते, प्रशंसतिवा। नि०चू०१३ उ०। 'पसंसत्ति वा सद्धाजणण त्ति वा सलाघणं ति वा एगट्ठाणि / " आ०चू० 130 / __ पासत्थाऽऽदियाण सव्वेसिं इमं सामण्णं भवतिएएसामण्णतरं,जे भिक्खू पसंसए अहव वंदे। सो आणा अणवत्था, मिच्छत्तविराहणं पावे।।१०३|| पच्छित्तं जणेति, संजमविराहणं च पावति। इमाणि पसंसणकारणाणि भवंतिमहाविणीयवित्ती, दाणरुई चेतिताण अतिसत्तो। लोगपगतो पवको, पियवाईऽपुयभासी य / / 104|| अणुजमंतस्स एते सव्वे अगुणा दट्ठव्या, तम्हा मेहादिएहिं पसंसवयणेहि ण पसंसियव्वा, अण्णेसु वि सत्तेसु पासत्थाऽऽदियाण वंदणं पडिसिद्ध / जतो भण्णतिठियकप्पे पडिसेही, सुहसीलज्जाण चेव कितिकम्म। णवगस्सया पसंसा, पडिसिद्ध पकप्पमज्झपणे / / 10 / / इमो ठियकप्पो-"आचेलकुदृसिय-सेज्जातररायपिंडकितिकम्मे वयजेट्टपडिकमणे, मासंपजोसवणकप्पे।।१।।''एत्थ पडिसिद्धं वंदणयं, पसंसा य सुहसीलाणं पासत्थादीअज्जाण य कितिकम्म पडिसिद्ध, कितिकम्मं वंदणय (णवगरस त्ति) पासत्थादी पंच, काहिकादि चउरो, एते सव्वे णव पगप्पा, इमं चेव णिसीहज्झयणं, एत्थ णवगस्स पसंसा पडिसिद्धा। इदाणिं सामण्णणं सीयंतेसु वंदेणपडिसेहो कजतिमूलगुण उत्तरगुणे, संथरमाणा वि जे पमाणंति / ते होंति वंदणिज्जा, तट्ठाणारोवणा चउरो / / 106 / / जो संथरंतो मूलुत्तरगुणेसु सीदति, सो अवंदणिज्जो, जं च पासस्थादिठाणं सेवति, तेहिं वा सह संसगं करेति, अतो तट्ठाणासेवणेण आरोवणा, से चउलहुं अहाछंदवजेसु, अहाछंदेण पुण चउगुरुं। गाहाबितियपदमणप्पज्झे, पसंसते अविकोविते च अप्पज्झे। जाणते वा वि पुणो, भयसातव्वादिगच्छट्ठा।।१०७।। अणवजो खित्ताऽऽदिचित्तो पराधीणतणतो पसंसे, अविकोधितो सेहो, सो वा दोसं अजाणतो पसंसे सत्थचित्तो वि। अधवाजाणतो वि दोरसे भया पसंसे, राया सातव्वा दिति, कोइ परवादी इमेरिसं पक्खे करेजपासत्थादयोण पसंसणिज्जा इति प्रतिज्ञा, अस्य प्रतिघातत्वं पसंसियव्वं, दोसो ण, गच्छस्स वा उवग्गहकारी सो पासत्थादिपुरिसो,अतो गच्छट्ठा पसंसेति। Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसंसा 810 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पसढ इमो वंदणस्स अववातो वितियगाहा कायव्वं, वंदामो त्ति भणति / विसिट्ठतरे उग्गसभावे वायाए हत्थेण च वितियपदमणप्पज्झे, वंदे अविकोविते व अप्पज्झे। अंजलिं करेति अतो वि विसिट्टतरउग्गतरसभावस्सवा दो विएते करेंति, जाणते वा विपुणो, भयसातव्यादिगच्छट्ठा।।१०८|| ततियं च सिरप्पणामं करेति, ततो विसिट्ठतरे तिणि वि काउं पुरहितो पूर्ववत्। भत्तिं पिव दरिसंतो सरीरे वट्टमाणी पुच्छति, ततो विसिट्टतरस्स पुच्छित्ता अहवा-उस्सग्गो भण्णति, अववादेण जदा पासत्थादियाण शरीर खणमे पज्जुवासंतो अत्थति / अथवा-पुरिसविसेष जाणिऊण उच्छोभवंदणं देति-''इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए णिरावाहगवेसणं करेति, तदा वंदणविरहियं करेति। निसीहियाए तिविहेण पयं उच्छोभवंदणय।" अहवा-पुरिसविसेसंणाउं जतो भण्णति पुणण वारसावत्तं वंदणं देति। गच्छपरिरक्खणट्ठा, अणागयं आउवायकुसलेणं। ते य वंदणविसेषकारणा इमेएवं गणाधिपतिणा, सुहसीलगवेसणा कुजा / / 10 / / परियायपरिसपुरिसं, खेत्तं कालं व आगमं णचा। ओमरायदुट्ठादिसुगच्छस्स वा उवग्गहं करेस्सति त्ति गच्छंवा अणागयं कारणजाते जाते, जहारिहं जस्स जं जोग्गं / / 113|| ति तम्मि ओमादिगे कारणे अणुप्पण्णविआउत्ति, जस्सपासातो असण यंभचेरमभग्गं विरोसितो दीहोपरियाओ सेसुत्तरगुणेहिं सीदेति, परिसा वत्थादिसंजमवुड्डी वा गच्छनिरावाहओ वा आयो, उवायकुसलत्तं पुण परिवारो, सो संजमविणीतो मूलुत्तरगुणेसु उज्जुत्तो, पुरिसो रायादि गणाधिपतिणोतहा सुहसीलाणं गवेसण करेति, जहा ण वंदति, ते गवेसति दिक्खित्तो बहुसंमतो वा पवयणुब्भावगो खेत्तं पासत्थादिभावियं, तदणुगय, ण य तेसिं अप्पत्तियं भवति। एहिं तस्स वसियव्वं, ओमकाले जो पासत्थो स गच्छवद्धावणं करेति, साय तेसिं गवेसणा इमेहिं ठाणेहिं कायव्वा तस्स जहारिहो सकारो कायव्यो, आगमं से सुत्तं अत्थि, अत्थं या, से बाहिं आगमणपहे, उजाणे देउले समोसरणे / पण्णवेति, चारित्रगुणं प्रज्ञापयतीत्यर्थः। कारणाकुलादिया पढमजातशद्दो रत्थउवस्सगपत्ता, अंतो जयणा इमा होति॥११०॥ प्रकारवाची, वितिओ जातसद्दो उप्पण्णवाची,जस्स पुरिस्स जं वंदणं जत्थ ते गामणगरादिसु अत्थंति, तेसिं बाहिं ठितो जदा ते पस्सति अरिहं तं कायव्वं ! चोदगाहजोग्गगहणं णिरत्थय, पुणरुत्तं वा। आचार्य सेज्जातरादि वा, तदा णिए बाहादि गवेसति / जया वा ते आगच्छति आहण णिरत्थयं / कह? भण्णति-अण्णं पिजं करणिज्ज अब्भुट्ठाणाभिक्खायरियादियम्मि वा पहिदिट्ठाणं गवेसणं करेति, एवं उज्जा- सणविस्सामणभत्तवत्थादिपदाणं तं पि सव्वं कायव्यं, एय जोग्गाहणं णादिवाणं चेतियवंदणनिमित्तमागतो वा देवउले गवेसति, समोसरणे वा गहित। दिट्टा, रत्थाए वा भिक्खादि अडता अभिमुहा संभिज्ज गवसति, कदाचित्ते गाहापासस्थाऽऽदयो बाहिं दिहा भणेज्जा, अम्हं पडिस्सयं ण कदाइ एह; ताहे एयाइँ अकुव्वंतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे। तदाणुवत्ती, एतेसिं उवस्सयं पि गम्मंति, तत्थ उवस्यस्य बहिया ठितो न भवइ पवयणभत्ती, अभत्तिमंतादिया दोसा।।११४॥ सव्वं णिए बाहादि गवेसति, इमा जयणा गवेसियव्वे भवति, अहवा एयाई ति वायाए णमोक्कारमादियाई ति परियायमादियाणं पुरिसाण जयणा इमा होति पुरिस-विसेसवंदणे। अरिहदेसिए मग्गे ठियाणं जहारिह वंदणाऽऽदिउवचारं अकरेंताणं णो सोय पुरिसविसेसो इमो पवयणे भत्ती कया भवति, वंदणाऽऽदिउवयारं अकरेंतस्स आणाऽऽदिया मुक्कधुरा संपागड-किचे चरणकरणपरिहाणे। दोसा, चउलहुंच से पच्छित्तं / नि०यू०१३उ० लिंगावसेसमेत्ते, जंकीरति तारिसंवोच्छं // 1111 पसंसावयण न०(प्रशंसावचन) श्लाघावचने, यथा रूपवती स्त्री आचा० संजमधुरा मुक्का जेण सो मुक्कधुरो, समत्थजणस्सपागडाणि अकिचाणि | २श्रु०१चू० 4 अ० १उ०। करेति जो सो संपागड़कियो। अहवा-संजमकिचाणि संपागडादि करेति | पसंसिय त्रि०(प्रशंसित) श्लाधिते, उत्त०१४अ०। संस्तुते, श्लाघिते, जो सो संपागड़कियो, संपागडसेवी वा मूलगुणउत्तरगुणे सेवतीत्यर्थः / / स्था० 500 ३उ०ा तीर्थकराऽऽदिभिः श्लाघिते, उत्त०१४अ०। आचाo! सो अकिच्चे पडिसेवणतो चेव चरणकरणपब्भट्ठोचरणकरणपरिहीणतणो पसज्जण न०(प्रसञ्जन) प्रसङ्गे. नि०चू०१उ०। चेव दव्वलिंगावसेसो दव्वलिंग से अपरिवत्तं लिंग सेस सव्वं परिवतं, पसज्जणा स्त्री०(भोजिकाघाटिकाऽऽदिप्रसङ्गपरम्परायाम, बृ० 130 मात्राशब्दो लक्षणवाची, पव्वजालक्षणं द्रव्यलिङ्गमात्रमित्यर्थः / ता ३प्रक० / प्रायश्चित्तवृद्धौ, बृ० 130 २प्रक० / तारिसे दवलिंगमत्ते जारिस वंदणं कीरति तारिसं सुणसु। पसज्झ अव्य०(प्रसह्य)प्र-सह-ल्यप्। हठादित्यर्थे "सवयमाणस्स गाहा पसज्झदारुणं।'' प्रसहय प्रकटमेव वाचं ब्रुवतः सतोऽर्थो मोक्षस्तत्कावायाएँ णमोकारो, हत्थेण य होइसीसनमणं च। रणभूतो वा संयमः स बहु परिहीयते ध्वंसमुपयाति। सूत्र० १श्रु० 210 संपुच्छणऽत्थणं छोभवंदणं वंदणं वावि / / 112 / / बाहिं आगमणपहादिएसु ठाणेसु दिट्ठस्स पासत्थादियस्स वायाए वंदणं | पसढ त्रि०(प्रशठ) प्रकर्षण शठे, दश०५अ०१ उ०। सूत्र०। उ० Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसढ 811- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पसत्थझाणोवउत्तया *प्रसह्य त्रि० "विमीयमाणं पसढ रएण परिफासिया' हठा-दित्यर्थे ! बभाषे भगवान् वीरः, सप्तम्यामवनी गतिः / / 16 / / दश०५ अ०१उ० तच्छुत्वा श्रेणिको दध्यो, हा किमेतन्मया श्रुतम् ? / पसढिल त्रि०(प्रशिथिल) प्रश्लथे, शिथिलबन्धने, औ०। अ-दृढे, अत्रान्तरेऽस्य राजर्षेः, संग्रामाऽऽररुढचेतसः / / 17 / / अधाधo। 'पसिढिलमघणं अणिरायं च।" ओघ। प्रधान रिपुणैकेन, युध्यमानस्य निर्भयम्। पसण्ण त्रि०(प्रसन्न) स्वच्छे, औ०। कालुष्यरहिते, अष्ट०। विकार निष्ठा गतानि शस्त्राणि, शिरस्त्राणे कर न्यधात् // 18|| रहिते,उत्त०१८ अगा"पसन्नं ते तहा मणो।" उत्त०१८अ०। सूत्र हतेनैनं हनिष्यामि, हताः सर्वेऽपरेऽरयः। द्राक्षाऽऽदिद्रव्यजन्यायां मनःप्रसत्तिहे तो सुरायाम्, विपा० 170 यावत्पस्पश मौलि स, तावदग्रेऽस्ति लुञ्चितम् / / 16 / / २अ०नि० "मजं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणी विहरइ।" (स्त्री) उत्त०५ अ० जी० ततः संवेगमापन्नो, राजर्षिर्दध्यिवानिदम्। पसण्णचन्द पुं०(प्रसन्नचन्द्र) जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे प्रसिद्धनगरराजे, आःकिं चक्रे मया धिग् धिग्, विराद्धं प्रथमव्रतम् // 20 // यच्छासितनगरजो धनः सार्थवाहः सार्थेन धर्मघोषमुनीन् नीत्वा मार्ग शुद्धध्यानपरिणामः, स्वं निन्दन्नतिचारिणम्। वृष्टिपाते निरवद्याऽऽहाराऽलाभतः खिद्यतः धृतं प्रतिलाभ्य तीर्थकृत्य ततो बदानि कर्माणि, मनसैव क्षिपस्तदा // 21 // सम्पार्जयत्। आ००१अ०॥ यस्य प्रसन्नचन्द्रस्य सुतः वज्रजघ श्रेणिकः पुनरप्राक्षी-त्स राजर्षिः प्रभोऽधुना। जीवावैधपुत्रसुविधिजन्मसहजातो महीधरो नाम जातः।आ०क० 10 यादृग्ध्यानोऽस्ति तत्रैव, कां गति ननु यास्यति? // 22 // वीरान्तिके प्रव्रजिते राजर्षिभेदे, आ०० स्वाम्यूचे संप्रति मृतो-ऽनुत्तरेषु सुरो भवेत्। तचरित्रमेवम अथोचे श्रेणिकः स्वामिन् !, पूर्वमन्यन्न्यरूपिकिम्?॥२३॥ "क्षितिप्रतिष्ठितपुर, जगचित्तप्रतिष्ठितम्। किमन्यथा मयाऽज्ञायि, स्वाम्याह न मयाऽन्यथा। प्रसन्नचन्द्रस्तत्राऽऽसी-त्पृथिवीपाकशासनः / / 1 / / ऊचे त्वयाऽन्यन्नाश्रावि, श्रेणिकः स्माऽऽह तत्कथम्?|२४|| श्रीवीरः समवासार्षीत, तत्र नन्तुमगान्नृपः। स्वाम्यथोवाच तद्वत्त, सर्व श्रेणिकभूभुजे। श्रुत्वा धर्म प्रबुद्धः सन्, सुत राज्येन्यवेशयत्।।२।। प्रसन्नचन्द्रराजर्षेः, पार्श्वेऽभूद्दुन्दुभे+निः / / 25 / / प्रव्रज्याऽऽदाय शिक्षे द्वे, स गीतार्थोऽभवन्मुनिः। देवैः कलकलश्चक्रे, राजोचे किमिदं प्रभो !?! अन्यदा जिनकल्पं स, प्रतिपित्सुमहामुनिः / / 3 / / स्वाम्याह तस्य राजर्षेः, शुभध्यानाऽऽत्मनोऽधुना // 26 // सप्तभिर्भावनाभिः स्वं, भावयन् धर्मतत्त्ववित्। कुर्वन्ति केवलोत्पत्ती, महिमानं सुरासुराः। राजगृहे श्मशाने स, कायोत्सर्गेण तस्थिवान् // 4 // दृष्टान्तोऽभूत्तदैकोऽय-मुत्सर्गे द्रव्यभावयोः / / 27 // " तदा तमोरिपुर्वीर-स्तत्रापि समवासरत्। आ० क०१अ० आ०म०ा आ००। नवागीटीकाकृतोऽभयदेवसूरेः वन्दारुर्निर्ययो लोकः, कोकवत्प्रीतमानसः / / 5 / / शिष्ये, उमास्वातिवाचककृतसिद्धिप्रयोगग्रन्थस्य टीकाकृति आचार्ये च / क्षितिप्रतिष्ठितात्तत्रा-5ऽयातौ द्वौ च वणिम्वरी। जै० इ०॥ प्रसन्नचन्द्रराजर्षि,दृष्ट्वा मार्गसमीपगम्॥६।। पसत्त त्रि०(प्रसक्त) आसक्ते, दश० 2 अ० तत्परे, म० २अधिका एकोऽभाषिष्ट दृष्टः सन्. धन्याऽऽत्मा प्रभुरेष नः। आचालारा राज्यलक्ष्मी परित्यज्य, स्वीचकार तपःश्रियम्।७।। पसत्ति स्त्री०(प्रसत्ति) प्रसादे, अर्हदादिगुणबहुमानेन शुभरूपतायाम्, द्वितीयः स्माऽऽह धन्यत्वं, कुतोऽमुष्य महामुनेः? | विशे०। नि०चून पसत्थ त्रि०(प्रशस्त) "स्तस्य थोऽसमस्तस्तम्वे" |8||4|| योऽसंजातबलं पुत्रं, कृत्वा राज्येऽग्रहीव्रतम्॥८॥ इति स्तस्य त्थः / प्रा०२पाद। प्रशंसाऽऽस्पदीभते. जी०३प्रति० वराकः सोऽधुना डिम्भो, दायादैः परिभूयते। ४अधि०। स्तुते दश०१अ० व्या श्रेष्ठ, नं० शोभने, आ०म०१अ०। उपद्रुतं पुरं लोको, दुःखे बहुरपात्यत॥६॥ प्रवातं०मङ्गल्ये, स० औ०ारा० अतिप्रशये, जी०३प्रति०४अधिo तदद्रष्टव्य एवाय-मित्याकाऽकुपन्मुनिः। औगलक्षणोपेते, कल्प०१अधि०२क्षण। रा०प्रशस्ये, संथा। प्रश्न दध्यौ पुत्रं मयि सति, दुद्धीरपकरोति कः // 10 // श्लाघिते, 'शंस' स्तुतावितिवचनात्। स्था०५ ठा० १उ०। ज्ञा०ा प्रश्न०। तदैव तत्र मनसा, स ययौ विस्मृतव्रतः। पवित्रे, विशे०। प्रशंसिते, स्था०५ ठा०३उणसामायिके,तस्य मोक्षसाहस्त्यश्वरथपादयति-सैन्यानि समनाहयत्।।११।। धकत्वेन प्रशस्तत्वात्। आ०म०१०॥ महासंग्राममारेभे, रौद्रध्यानवशंवदः। पसत्थकायविणय पुं०(प्रशस्तकायविनय) विनयभेदे, स्था०७ठा०। संजहे वैरिणोऽनेकान, शल्यभल्लाऽऽदिहेतिभिः // 12 // (वक्तव्यतां 'विणय' शब्दे वक्ष्यामि।) अत्रान्तरे प्रभुं नन्तुं श्रेणिकः क्ष्माभृदीयिवान्। पसत्थकारण न०(प्रशस्तकारण) तीर्थकरानुज्ञातप्रत्युपेक्षाकारणे, नि० चू०१उन स दृष्ट्वा तमवन्दिष्ट, कायोत्सर्गधरं मुनिम्।।१३।। पसत्थझाणोवउत्तया स्त्री०(प्रशस्तध्यानोपयुक्तता) प्रशस्त ध्यानेन तं नेषदपि दृष्ट्याऽपि, स पुनः समभावयत्। धर्मशक्ताऽऽदिलक्षणशुभाध्यवसानेनोपयुक्तता संपन्नता प्रशस्तध्याने श्रेणिकोऽचिन्तयन्नून, शुक्लध्याने स्थितोऽस्त्यसौ॥१४॥ चोपयुक्तता दत्तावधानता प्रशस्तध्यानोपयुक्तता। धर्मशुक्लध्यानततः श्रीश्रेणिको वीरं, नत्याऽप्राक्षीजगत्प्रभो ! / ध्यायितायाम, "एसा महटवयउच्चारणा पसत्थझाणोवउत्तया / " प्रसन्नचन्द्रराजर्षि-र्यादृग्ध्यानो मया नतः॥१५।। महाव्रतोच्चारणं कुर्वता शृण्वतो वा नियमादन्यतशुभशुभतरध्यानतत्र कालं स चेत्कुर्या - तस्य जायेत का गतिः?| संभवात्। पा० Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसत्थतिवलि 812 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पसिंडि पसत्थतिवलिन०(प्रशस्तत्रिवलि) प्रशस्तास्तिस्रो वल्यो लेखा यत्रैतत् / पसरेहा (देशी)किजल्के, देना०६ वर्ग 13 गाथा। प्रशस्तत्रिवलि। त्रिरेखायां कटौ, कल्प० १अधि०२क्षण। पसव धा०(प्रसू) प्रत्राऽऽदिजनने, "उवर्णस्यावः" // 4 // 233 / / इति पसत्थदोहला स्त्री०(प्रशस्तदौ«दा) अनिन्द्यमनोरथायामन्तवल्याम्, | सूत्रेणोकारस्यावादेशः। ‘पसवइ / प्रसूते / प्रा०४पाद। कल्प०१अधि०४क्षण / भ०। *प्रसव पुं० पुत्राऽऽदिजन्मनि, ज्ञा० १श्रु० २अ० सूक्ष्मसुमनसि, दश० पसत्थमणविणय पुं०(प्रशस्तमनोविनय) प्रशस्तःशुभो मनसो विनयनं १अ०। प्रश्न०। पुष्पे, 'कुसुमं पसवं पसूअंच।'' पाइ० ना०१३६ गाथा / विनयः, प्रवर्त्तनमित्यर्थः; प्रशस्तमनोविनयः / विनयभेदे, "पसत्थ- पसवडक (देशी) विलोकने, दे० ना०६ वर्ग 30 गाथा। मणविणए सत्तविहे पण्णत्ते / तं जहा-अपायए, असावज्जे, अकिरिए. पसाय पुं०(प्रसाद) तद्विषयभक्तिबहुमानवशे उच्छलितविशिष्टकर्मनिरुवक्केसे, अणण्हकरे, अच्छविकरे, अभूयाभिसंकमणे / ' स्था० क्षयोपशमभावे, पं०सं०५द्वार / मनःप्रसत्तौ, जी०३प्रति० ४अधि०। ७टा। प्रसन्नतायाम, सूत्र०२श्रु० २अ०। पसत्थरूव त्रि०(प्रशस्तरूप) मनोरमे, कल्प०१अधि०२क्षण। पसायपेहि (ण) त्रि०(प्रसादप्रेक्षिन्) प्रसादोऽयं यदन्यसद् -भावेऽपि पसत्थलक्खण त्रि०(प्रशस्तलक्षण) प्रशस्तानि शोभनानि लक्षणानि मामादिशन्ति गुरव इति प्रेक्षितुमालोचयितुं शीलमस्येति प्रसादप्रेक्षी। यस्य सः। शुभचिह्नधरे, रा० गुरूणां स्नेहप्रेक्षणशीले, उत्त०१अ०। आतुरप्रसादार्थ वा गुरुपरितोषापसत्थवइविणय पुं०(प्रशस्तवाग्विनय) विनयभेदे, स्था० ७ठा०। (वक्त- भिलाषिणि,। उत्त० पाई० 110 / व्यता 'विणय' शब्दादवगन्तव्या) पसार पुं०(प्रसार) उत्तरोत्तरोत्पत्तौ, ध० २अधिol पसत्थविहगगइणाम न०(प्रशस्तविहायोगतिनामन्) विहायोगतिनाम पसारण न०(प्रसारण) अङ्गानां विक्षेपे, आव० ४अ० प्रव०। आ०म०। कर्मभेदे, यदुदयाजन्तोः प्रशस्ता विहायोगतिर्भवति, यथा हंसाऽऽदी संयोगविभागोत्पत्तौ अवयवानामृजुत्वसंपादने कर्मभेदे, सम्म०३काण्ड। नाम्। कर्म०६कर्म० उत्तका आ०चू० पसत्थार त्रि०(प्रशास्तृ) अनुशासके, मर्यादाकारिणिसभानायके, सभ्ये पसारय त्रि०(प्रसारक) विस्तारके, सूत्र० १श्रु०२१०२उ०। च। सूत्र० 2 0 २अ० स्था०। सभ्यो वा तस्माद् द्विष्टादुपेक्षकाद्वा दोषः, पसारिय न०(प्रसारित) गाविततकरणे, दश०४ अ०। रा०। प्रलम्बीकृते, प्रतिवादिनो जयदानलक्षणो विस्मृतप्रमेयप्रतिवादिनः प्रमेयस्मरणा उत्त० 12 अ०। विशेष ऽऽलिक्षणो वा। प्रशास्तृदोषभेदे, धर्मशास्त्रपाठके, औ०।आवका लेखाऽऽचार्याऽऽदौ, स्था० ३ठा० १उ०। आव०॥ पसारेमाण त्रि०(प्रसारयत्) हस्ताऽऽदीनवयवान् विनिवर्तमाने, आचा० १श्रु०५ अ०४उ० पसत्थालंबण न०(प्रशस्तालम्बन) प्रशस्तज्ञानाऽऽद्युपकारकमालम्ब्यते इत्यालम्बनम् / प्रवृत्तिनिमित्तं शुभाध्यवसाने, आव० 4 अ० पसाहण न०(प्रसाधन) मण्डने, ज्ञा०१श्रु०३अ० भ०| पसन्ना स्त्री०(प्रसन्ना) मदिरायाम, "कायंबरी यसन्ना, हाला तह वारुणी पसाहणघरग न०(प्रसाधनगृहक) मण्डनाऽऽलये, यत्राऽऽगत्य स्वं परं च मइरा।" पाइ०ना०६४ गाथा। मण्डयन्ति / जी०३प्रति० ४अधि०। रा०। जंग पसप्पग त्रि०(प्रसर्पक) प्रकर्षण सर्पतिगच्छतीति प्रसर्पकः / गमके, स्था० पसाहा स्त्री०(प्रशाखा) शाखाशे, दश०६ अ०२०। जं० सम्मका औ०। ४ठा०४० पसाहिअ त्रि०(प्रसाधित) "टिविडिक्किअ-चिंचिल्लिअ-चिंचइअपसम पुं०(प्रशम) कषायाभाये, अष्ट० 27 अष्ट। पसाहिआ। मंडिआई।" पाइन्ना० 85 गाथा। *प्रश्रम पुं०प्रकर्षण श्रमः प्रथमः / स्वपरसमयतत्त्वाधिगमरूपे खेदे, पसाहिया स्त्री०(प्रसाधिका) मण्डनकारिण्यां दास्याम्, भ० 1120 आव०४अ) 11 उ० पसमरइ पुं०(प्रशमरति) उमास्वातिवाचकगणिसंदृब्धे ग्रन्थविशेषे, | पसाहेमाण त्रि०(प्रसाधयत्) पालयति, नि०१श्रु० ४वर्ग १अ०। औ०। ग०१अधि०। संघाला स्था०ा सूत्रा पसर पुं०(प्रशर) द्विखुराऽऽटव्यचतुष्पदपशुविशेषे,प्रश्न०१आश्र० द्वार। पसिअ (देशी) पूगफले, देना०६वर्ग ६गाथा। *प्रसर पुं०प्रसरणे, ज्ञा० १श्रु०१अ0 पसिअंत त्रि०(प्रसीदत्) "पानीयाऽऽदिष्वित्" ||1|101 / / पसरिअ त्रि०(प्रसृत) विस्तारमुपगते, औ०। "उव्वेल्लं पसरिअंपयल्लं इतीकारस्य -हस्वः / मनसा हृष्यति, प्रा०१पाद। च।" पाइन्ना०१८६गाथा। जातप्रसरे, ज्ञा०१श्रु०१अ० "लद्धप्पस- पसिंडि न० सुवर्णे, "हेमं कणयं चामी-अरंपसिंडिं च तवणिज।" पाइ० राभयं देइ।" स्था० 4 ठा० २उ०) ना०५० गाथा। Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसिढिल 813 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पसेढि पसिढिल त्रि०(प्रशिथिल) प्रश्लथे, पं०व० 2 द्वार / 'पसिदिल- | पसिद्धि स्त्री०(प्रसिद्धि) प्र-सिध-क्तिन् “अतः समृद्ध्यादौ वा" भूसणा।" प्रशिथिलानि भूषणानि दुर्बलत्वाद् यस्याः सा तथा / भ० ||1 / 44 / / इति वा वाऽऽदेर्दीर्घः / प्रा०१पाद। आक्षेपपरिहारे, आ०म० श०३३उ० १अ०। अनु०। उत्तरपक्षे, विशेला "ततो निन्नओपसिद्धी।" आक्षेपानन्तरं पसिण पु०(प्रश्न) परस्परलाभालाभाऽऽदिप्रच्छने, ध० ३अधि०। पा०। / निर्णयः प्रसिद्धिः / बृ० १उ०१प्रक०! औला संशयाऽऽपन्नस्य निःसंशयार्थ गुरुप्रच्छने, विशे०। पसिस्स पु०(प्रशिष्य) शिष्यस्याऽपि शिष्ये, आ०म० अ०। अथ प्रश्नमाह पसु पु०(पशु) पश्यति प्रसूयते वा पशुः। अजैडकहस्त्यश्वगोमहिष्यादिके, पण्हो उ होइ पसिणं, जं पासइ वा सयं तु तं पसिणं। उत्त०६अ। सूत्र०। सापं०व० तिर्यग्योनिजे जन्तौ, ध० ३अधि०। अंगुठुच्छिट्ठपदे,दप्पणअसितोयकुड्डाई॥५१३।। आचा०। स्था०। उत्त०। सूत्र०! आ०म०। आव०ा छगलके, अजमात्रे, प्रश्नस्तु देवताऽऽदिपृच्छारूपः "पसिणं'' भण्यते / यद्वा यत् स्यय अनु०। प्रव०। पशुसादृश्यात् कर्तव्याकर्तव्यविवेकरहिततया हिताहितमात्मना तुशब्दादन्येऽपि तत्रस्थाः पश्यन्ति, तत् ''पसिणं'' प्राकृतशै प्राप्तिपरिहारशून्यत्वात्तथाविधे मूर्ख , सूत्र०१श्रु० 4 अ० २उ०। ल्याऽभिधीयते। किं तदित्याह-(अंगुट्टे उच्छिट्टत्ति) कंसाराऽऽदिभक्षणे- | पसुजाइय त्रि०(पशुजातीय) दृप्तगवादौ, स्था० 5 ग० २उ०। सूत्र०। नोच्छिष्टपदे प्रतीते; दर्पणे आदर्श, असौखड्ने, तोये उदके, कुड्ये भित्तौ, पसुत्त त्रि०(प्रसुप्त) "अतः समृद्ध्यादौ वा" ||8|1|54| इति सूत्रेणाआदिशब्दावालादौ वा यद्देवताऽऽदिकमवतीर्णं पृच्छति पश्यति वा स ऽऽदेर्दी? वा। प्रा०१पाद ! निद्रां गते, आतुला प्रश्नः। यदिवा-"कुद्धाई" इति पाइः। तत्र च क्रुद्धः प्रशान्तो वा यत्तथा पसुत्तविगम पुं०(पशुत्वविगम) पशुत्वमज्ञत्वंतस्य विगमोऽपगमः सर्वथा विधकल्पविशेषात्पश्यति स प्रश्न इति / बृ० १३०२प्रक० / नि०चू०। | निवृत्तिः / अज्ञानध्वसे, षो० १६विव आचा०। (मार्गे यादृशान् प्रश्नान कुर्यात् यादृशान् वा प्रश्नान पृष्टो न | पसुत्ति स्त्री०(प्रसुप्ति) नखाऽऽदिविदारणेऽपि चेतनाया असंवि तिद्वतोपाये, व्याकुर्यात्तथा 'विहार' शब्दे) पिं०। पसिणविजा स्त्री०(प्रश्नविद्या) यकाभिः क्षौमकाऽऽदिषु देवताऽऽधिकारः पसुधम्म पुं०(पशुधर्म) मात्रादिगमनलक्षणे पश्वाचारे, दश० 10 // क्रियते तासु विद्यासु, स्था० 10 ठा०। पसुपाल पु०(पशुपाल) अजाऽऽदिपशुरक्षके, ध०र०१अधि० १गुण / पसिणहेलिया स्वी०(प्रश्नहेलिका) शब्दार्थचित्रे पद्यभेदे, तद्रचनं चतुष्ष- उत्त०। (पशुपालदृष्टान्तः धम्मरयण' शब्दे चतुर्थभागे 2726 पृष्ठे गतः ) टितमा कला। कल्प० १अधि०७क्षण। पसुवह पुं०(पशुवध) पशुहिंसायान्, सूत्र०१श्रु०५ अ० १उ० पसिणापसिण पुं०(प्रश्नाप्रश्न) स्वप्नविद्यया कथितस्यान्यस्मै कथने, | पसुभत्त न०(पशुभवत) राजादिना पशुभ्यो वितीर्यमाणे आहारे, नि०चू० ध०३अधि० / वृक्ष ८उ०॥ प्रश्नाप्रश्नमाह पसुभूय पुं०(पशुभूत) पशुकल्पे, यथा हि पशुराहारभयमैथुनपरिग्रहापसिणापसिणं सुमिणे, विज्जासिट्ठो कहेइ अन्नस्स। भिज्ञ एवं केवलमसावपि सदनुष्ठानरहितत्वात्पशुकल्पः / सूत्र०१श्रु० अहवा आइंखिणिया, घंटियसिटुं परिकहेइ / 514 / / ४अ० २उ०। यत् स्वप्ने अवतीर्णया विद्यया विद्याधिष्ठात्र्या देवतया शिष्ट कथित पसुमेह पुं०(पशुमेध) अश्वमेधे, आ०म० १अ०। सदन्यस्म कथयति। अथवा-"आइंखिणिया''डोम्बी, तस्याः कुलदैवतं पसुसंघाय पुं०(पशुसंघात) गवादिपशुवर्गे बृ० 130 ३प्रक०। घण्टिकयक्षो नाम पृष्टः सन् कर्णे कथयति / सा च तेन शिष्ट कथित पसुसंसत्त त्रि०(पशुसंसक्त) गवादिभिः संसक्ते, स्था०६ठा०। सदन्यस्मै प्रच्छकाय शुभाशुभाऽऽदि यत्परिकथयति एष प्रश्राप्रश्नः / पसूअन०(प्रसूत) कुसुमे, 'कुसुमं पसवं पसूअंच।" पाइ० ना० 136 बृ०१उ०२प्रकला व्या पं०व० आव०ा नि०चू०। गाथा। पसिणाययण न०(प्रश्नाऽऽयतन) आदर्शप्रश्नाऽऽदेराविष्करणे, यथाव पसूइस्त्री०(प्रसूति) उत्पत्ती, नि०चू० २०उ०। आ०म०। प्रतिका विशेष स्थितप्रश्ननिर्णयने, लौकिकाना परस्परव्यवहारे, मिथ्याशास्वगत- पसूइत्ता अव्य०(प्रसूय) उत्पाद्येत्यर्थ , सूत्र०२२० २अ०। संशये वा प्रश्ने सति यथावस्थितार्थकथनद्वारेण निर्णयने, सूत्र० १श्रु० पसून न०(देशी) कुसुमे, दे०ना० 6 वर्ग गाथा। ६अ। पसूय त्रि०(प्रसूत) जाते. सूत्र० १श्रु०१०अ०। आचा०। रा०ा आ०म०। पसिद्ध त्रि०(प्रसिद्ध) प्रकर्षेण सिद्ध प्रसिद्धम्। साधनीयावस्थामापतिते, | पसे दि स्त्री०(प्रश्रेणि) तथाविधविन्दुजाताऽऽदेःषक्तेर्विनिर्गताया सूत्र०१श्रु०१०१उ०। प्रख्याते, प्रश्न०१संब० द्वार। पक्तौ , आ०म०१अ० जी०रा०| Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसेणइय 814 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पहल्ल पापा पसेणइय पुं०(प्रसेनजित्) अवसर्पिणीजातानां पश्चादशानां पञ्चमे पहजणो पवणो। 'पाइ०ना०२५ गाथा। स०। कल्पा कुलकरे, स्था० ७ठा० / जं० / प्रश्न०। कल्प०! आ०म०। प्रति०। पहकर पु०(प्रहकर) समूहे भ०६श०३३उ०। अन्तला निकरे, ज्ञा०१श्रु० द्वारवत्यां नगमिन्धकवृष्णेर्धारण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, स चारिष्ट- १अ० संघाते, रा०ा विपा०। जं०। औ० जी०। नेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जयेऽनशनेन मृतस्सिद्ध इत्यन्तकृदशाना प्रथम पहट्ट त्रि०(प्रहृष्ट) प्रमुदिते, तं०। प्रहसितवदने समुद्भूतरोमहर्षे, बृ० 120 वर्गेऽष्ट मे ऽध्ययने सूचितम् / अन्त० १श्रु० १वर्ग 10 स्था २प्रक० / दे०ना राजनगरमहाराजे श्रेणिकमहाराजपितरि, नं० "आसीत्पुरे राजगृहे, पहट्ठभमरगण पुं०(प्रहृष्टभ्रमरगण) प्रमुदितमधुकरनिकरे, प्रश्न० 4 महाराजः प्रसेनजित् / श्रेणिकस्तस्य पुत्रोऽभूत, राजलक्षणलक्षितः आश्र० द्वार। जी०। भ० // 1 // " आ०क०१अ० आवळा येन राजगृहनगर निवासितम्। आव० पहण (देशी) कुले, दे०ना०६ वर्ग 5 गाथा। 4 अ०। आ०क०। आ००। पहणी (देशी) संमुखाऽऽगतनिरोधे, देना०६ वर्ग 5 गाथा। पसेय पु०(प्रसेक) अधिकनिष्ठीवनप्रवृत्तौ, "प्रसेकः सदन भ्रम'' इत्येतानि पहद (देशी) सदा दृष्ट, देवना०६ वर्ग 10 गाथा। अजीर्णकार्याणि / ध० १अधि०। पहम्म धा०(प्रहम्म) 'हम्म' गतौ / प्रघाते, 'पहम्मइ' / प्रहम्मते / प्रा० पसेयग पुं०(प्रसेचक) कोत्थलके, दृती, स च ऊर्द्धमपाटितेनापनीत ४पाद। सुरखाते, देवना० ६वर्ग 11 गाथा। मस्तकेन निकर्षितचन्तिर्वतिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरचर्ममयस्थि पहय त्रि०(प्रहत) आच्छोटिते, जं० २वक्ष० / क्षणे, "आयरिएहिं पहओ गलकस्थगितापानच्छिद्रेण संकीर्णमुखीकृतग्रीवाऽन्तर्विवरेणाजाप मग्गो।" बृ० १उ०१प्रका श्वोरन्यतरस्य शरीरेण निष्पन्नश्चर्तमयः प्रसेवकः कोत्थलकः। प्रायो पहयर (देशी) निकरे, देखना० ६वर्ग 15 गाथा। "उप्पको ओप्पीलो, यवनैर्जलभाण्डतया व्यवहार्यते। पिं०। उक्केरो पहयरो गणो पयरो / / 18 / / ओहो निवहो संघो, संघाओ संहरो पसेवअ (देशी) ब्रह्मणि, देना०६ वर्ग २२गाथा / पाइ० ना० / स०। निअरो। संदोहो निउरंबो, भरो निहाओ समूहनामाई।।१६। पाइ०ना० कल्पा 18-16 गाथा। पस्ट पुं०(पट्ट) "पृष्ठयोः स्टः"||८४१२६०।। इति द्विरुक्तस्य दृस्य पहर पुं०(प्रहर) अहोरात्राष्टमे भागे, 'पढमपहराइकाला, जंबूदीवम्मि सकाराऽऽक्रान्तः स्टः / वस्त्रे, प्रा० ४पाद। दोसु पासेसु।' मण्डला पस्स त्रि०(दृश्य) दर्शनयोग्ये, स्था०। *प्रहार पुं० "ध वृद्धिर्वा / 18 / 1 / 68|| इति दीर्घाऽऽकारस्य हस्वः। चउण्हमेगसरीरं नो पस्सं भवइ / तं जहा-पुढवीकाइया-णं, प्रहरणैति: प्रा०१पाद। आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं। पहरण न० (प्रहरण) प्रहारप्रवृत्ते, प्रश्न० ३आश्र० द्वार। असिकुन्ताऽऽदिके (नो पस्सं ति) चक्षुषा नो दृश्यमिति सूक्ष्मत्वात्। वचिन्न सुषस्सं तीति आयुधे, आचा०१श्रु०१अ०५ उ०। आ०म०। नि०चू०। औ० जी०। पाटः / तत्र न सुखदृश्यं न चक्षुषा प्रत्यक्षदृश्यमनुमानाऽऽदिभिस्तु स्था०। आ०क० / प्रश्र०। रा०ा उत्तका ज्ञा० "जामो पहरो।" पाइ० दृश्यमपीत्यर्थः / बादरवायूनां तथा सूक्ष्माणां पञ्चानामपि यदेकमनेक ना०२६८ गाथा। "पहरणाभरणभरियजुद्धसज्ज।" प्रहरणानामायुधवाऽदृश्यमिति चतुर्णामित्युक्तं, वनस्पतय इति साधारणा एव ग्राह्याः, कवचानां भृतं यद्युद्धसज्जं च संग्रामगुणं च यत्तत्तथा। औ०। भावेल्युट्। प्रत्येकशरीरस्यैकस्यापि दृश्यत्वादिति। स्था० 4 ठा०३उ०। प्रहारदाने, ज्ञा०१श्रु०२०। “आउहं अत्थं च पहरणं होइ।" पाइ० पस्संत त्रि०(पश्यत्) पर्यालोचयति, सूत्र०१श्रु० 3104 उ०। ना० 121 गाथा। पस्सयवत्तण न०(प्रश्रवत्व) विनयनम्रतायाम, सूत्र० २श्रु०१अ०। पहरणकोस पुं०(प्रहरणकोश) प्रहरणस्थाने, रा०। स्था०। स०) पह पुं०(पथ) मार्गे विश०। अनु० / स्था०। प्रश्न०रा०ा पथिन्नितिशब्द- 1 पहराइया स्त्री०(प्रहरादिका) ब्राम्या लिपे दे, प्रज्ञा०१पद। पर्यायस्य पथशब्दस्यादन्तस्य दर्शनात।स्या०। प्रज्ञा० आ०मा मग्गो पहराय पुं०(प्रभाराज) सप्तमषष्ठवासुदेवप्रतिशत्रौ, तिला आव०ा तीन पंथो सरणी, अद्धाणं वत्तिणी पहो पयवी।' पाइ० ना०५२ गाथा। प्रव०। *पथिन् पुं० मार्गे-'पथिपृथिवीप्रतिश्रुन्मूपिकहरिद्राविभीत पहरिस पुं०(प्रहर्ष) प्रहर्षणं प्रहर्षः / स्वजनमेलापकाऽऽदी संघमेलापकेष्वत्" ||18 // इति इकारस्याकारः। प्रा०१पाद। सामान्य- काऽऽदौ वा महती पूजा भविष्यतीति प्रमोदे, आतु"आमोओपहरिसो मार्ग, कल्प० १अधि० 5 क्षण। तोसो।" पाइना०१६८ गाथा। पहएल्ल (देशी) पणके, दे०ना०६वर्ग 18 गाथा। पहलिअ (देशी) विषमे, दे०ना०६ वर्ग 15 गाथा। पहंकरा स्त्री०(प्रभङ्करा) स्वनामख्यातायां सूर्यागमहिष्याम्. ज्ञा०२श्रु० पहल धा०(चूर्ण) भ्रमणे, "घूर्णो घुल-घोल-घुम्म-पहल्लाः ८वर्ग 4 अग / 1814 / 117 // " इति घूर्णधातोः पहल्लाऽऽदेशः। 'पहलइ।' घूर्णते। पहंजण पुं०(प्रभञ्जन) पवने, “अणिलो गंधवहो मा-रुओ समीरो / प्रा० ४पाद। Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहसिय 815 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पहुजिणवरसूरि पहसिय न०(प्रहसित) हास्ये, बृ० 130 ३प्रक० / भ०। हसितु मारब्धे, पहास पुं०(प्रहास) निन्दास्तुतिरूपे उपहासे, आतुला औ०। विपा० १श्रु०६अ। कर्तरि क्तः / श्वेतप्रभापटलप्रब लनया हसति। पहासमुदाय पुं०(प्रभासमुदाय) ६त०। कान्तिसमूहे. कल्प० १अधि० ज्ञा०१श्रु०१अ० २क्षण। पहा स्त्री०(प्रभा) चन्द्राऽऽदीनां प्रकाशे, उत्त०२८ अ० दीप्ती, चं०प्र० पहि पू०(प्रधि) नेमो, रोगे, है। 18 पाहुका प्रभावे, उपा०२अ०। आव०। आलोओ उज्जोओ, दित्ती पहिअ पुं०(पान्थ) "पथो णस्येकट" ||२०१५२|"नित्यं णः भासा पहा पयासो य।" पाइ० ना०४८ गाथा। पन्थश्च // 6 / 4 / 86 / / इति सूत्रेण यः पथो णो विहितस्तस्येकट्भवतीति पहाण न०(प्रधान) उत्तमे, नि० १श्रु० १वर्ग १अ० ज्ञा० नं० जी०। इकट् / नित्यपथिके, प्रा० १पाद। पूगफले, दे०ना०६ वर्ग 6 गाथा। जला प्रवरे अपेक्षणीये, पञ्चा०७विव०। औ०। स्या०। प्रभी, स्था० पहिऊण अव्य०(प्रहाय) परित्यज्येत्यर्थे , व्य०३उ०। ४ठा०२उ०। मुख्ये, विशे०। जं० / औ० भ०। सूत्र० साध कतमे, पहित्ता अव्य०(प्रहाय) प्रकर्षण स्थगयित्वेत्यर्थे, स०३०समा पञ्चा०४ विव०। सत्त्वरजस्तमोरूपे अव्यक्ते प्रकृतौ, सूत्र० २श्रु०५अ०॥ पहिय पुं०(पथिक) पथि गच्छतीति पथिकः / नानाविधनगर ग्रामदेशआव०। दशा०। सम्मा पहाणकञ्जणिबंध पुं०(प्रधानकार्यानिबन्ध) प्रधानकार्ये विशिष्टफल परिभ्रमणकारिणि, बृ०१७० ३प्रका दायिनि प्रयोजने, आग्रहे, द्वा०१२ द्वा०। *प्रहित त्रि० केनापि क्वचित्कार्ये प्रेषिते, ज्ञा० १श्रु० अ० पहाणकड त्रि०(प्रधानकृत) सांख्यपरिकल्पितया सत्त्वरजस्त मसां *प्रथित त्रि० प्रसिद्धिंगते, सूत्र० १श्रु० २अ०२उ०। साम्यावस्थारूपयाऽऽविर्भावित, सांख्यानां हि पुमपिक्ष प्रकृतिपरि पहियकित्ति त्रि०(प्रथितकीर्ति) विश्रुतयशसि, औ० / ज०ा ख्यातणाम एव लोक इत्यन्यत्र परीक्षितम्। सूत्र०१श्रु०१० 330 // प्रसिद्धौ, संथा। जं पहाणजय पुं०(प्रधानजय) प्रकृतेः सर्ववशित्वे, ततो मनोजाव त्वं विकर- | पहीण त्रि०(पहीण) प्रकर्षण हीन रहितं प्रहीणम्। आव०३ अ०। आ०म० णाभावः प्रधानजयश्च / द्वा०२६द्वा०। प्रभ्रष्टे, सूत्र० २श्रु० १अ०। प्रभ्रष्टे, त्यक्ते, उत्त० 14 अ०। परित्यक्ते, पहाणदव्व न०(प्रधानद्रव्य) चन्दनागरुकर्पूरपुष्पाऽऽदिषु प्रवर पूजाऽङ्गेषु, सूत्र०३श्रु०१अ०। स्था) पञ्चा०विव०॥ *प्रक्षीण त्रि० नष्टप्राये, स्था० १ठा० / पहाणपुरिस पुं०(प्रधानपुरुष) तात्कालिकं पुरुषाणां शोर्या ऽऽदिभिः पहीणगोत्तागार न०(प्रहीणगोत्रागार) प्रहीणं विरलीभूतं मानुषं गोत्रागारं प्रधानत्वात् / स०ा वासुदेवे, स०। तत्स्वामिगोत्रगृहं येषा तानि तथा। भ० ३श०७उ०। येषां महानिधानानां पहाणभाव पुं०(प्रधानभाव) प्राधान्ये, पञ्चा० रविव०। धनिकसम्बन्धीनि गोत्राणि अगाराणि च प्रही णानि विरलीभूतनि भवन्ति पहाणमग्ग पुं०(प्रधानमार्ग) महापुरुषसेविते (उत्त०१४ अ०) प्रव्रज्यारूपे तानि प्रहीणगोत्रागाराणि / तेषु, कल्प०१अधि०४क्षण। मोक्षमार्गे , उत्त० पाई०१४अ० पहीणजरमरण पुं०(प्रक्षीणजरामरण) प्रक्षीणे तदाऽपुनर्भावित्वेन जरापहाणमहेलागुण पुं०(प्रधानमहेलागुण) अतिशायिमहेलानां प्रियम्य- मरणे येषा ते तथा। जन्माऽऽदिबीजाभावात्। पं० सू०१सूत्र / वयोहान्या दत्वभर्तृचित्तप्नुवर्तकत्वप्रभृतिषु गुणेषु, जी० ३प्रति० ४अधिol प्राणत्यागेन च वियुक्ते, ला . पहाय अव्य०(प्रहाय) परित्यज्येत्यर्थे, औ०। आचा। पहीणसंथव पुं० प्रक्षी(ही)णसंस्तव प्रक्षीणः प्रहीणो वा संस्तवः पहार पुं०(प्रहार) कशाऽऽदिना प्राणिनां क्लेशविशेषाऽऽपादने, ज्ञा० १श्रु० __वचनसंवासरूपो वा यस्य सः। गृहिभिः सहासंसर्गवति, उत्त०२१अ० २अ०। प्रश्नका "वणं पहारो।" पाइन्ना०२२४ गाथा। पहीणसामिय न०(पहीणस्वामिक) अल्पीभूतस्वामिके धने, कल्प० पहारगाढ पुं०(गाढप्रहार) प्राकृतत्वात् गाढशब्दस्य परनिपातः। दृढाऽऽ- १अधि० ४क्षण। भा घाते, दश०७अ०। पहीणसेउय न०(प्रहीणसेतुक) अल्पीभूतधनप्रक्षेप्तरि, भ०३श०७उ०। पहारिय त्रि०(प्रधारित) विकल्पिते, ज्ञा० १श्रु०८अ० कल्प पहारेत्ता त्रि०(प्रधारयितृ) स्थापयितरि, भ० ५श० ६उ०। पहु त्रि०(प्रभु) समर्थे , आचा० १श्रु० ५अ० ६उ०। स्वामिनि, आव० पहारेमाण त्रि०(प्रधारयत्) पर्यालोचयति, स्था० ३ठा०। सूत्र। 40 / आचा०। सम्बोधनेतु"डो दी| वा"।।८।३।३८॥ इति नित्य पहावण न०(प्रधावन) शीघ्रं कार्यस्य निष्पादने, व्य०१उ०। सेझै प्राप्तौ "अक्लीवे सौ"||८1३।१६।। इति इदुतो रकारान्तस्य च पहाविय त्रि०(प्रधावित) वेगेन प्रवृत्ते, प्रश्न०३आश्र० द्वार। 'ततो सो | प्राप्तो दीर्घः सौ वा भवतीति दीर्घविकल्पः। हे पहु / हे पहू। प्रा० ३पाद। नगर पहावितो।''आ०म० अ०। तं चक्करयणं पुव्वाभिमुह पहाविया | पहुजिणवरसूरि पुं०(प्रभुजिनवरसूरि) विविधतीर्थकल्पोपदेशके आ०म०१अ० प्रवचनोद्भावके आचार्य , ती०२१ कल्प। Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुट्ठ 816 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाउकरण पहुट्ठत्रि०(प्रहृष्ट) प्रकर्षण हृष्टः प्रहष्टः। प्रहसितमनसि, नि० चू० / पाइलय (देशी) कटनिर्वतके अयोमये उपकरणे, आ०म०१ अ०ा विशेषण 4 उ०। पाई स्त्री०(पात्री) भाजनविशेषे, स्था०६ठा०। जी०। रा०। सूत्र०। पहुडि अव्य० (प्रभृति) "प्रत्यादौ डः" |8/1 / 206 / / इति तकारस्य प्राची स्त्री० सूर्यदर्शनदिशि, यत्र यः सूर्य पश्यति सा तस्य प्राची। सूत्र० डकारः / प्रा० १पाद / "उदृत्वादौ" ||8/1 / 131 / / इति सूत्रेण / २श्रु०७अ० ("जस्स जओ आइचो, उएइ सा तस्स होइ पुव्वदिसा ऋकारस्योकारः। प्रा० १पाद। तदारभ्येत्यर्थे, वाच०। / / 4 / / " इत्यादिगाथा 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे गता) पहुत्त न० (प्रहत्व) द्रव्यतो नीचैर्वृत्तिलक्षणे, भावतश्च साध्वाचार प्रति पूर्वस्याम्, स्था०२ ठा० १उ०। आचा०। प्रवणत्वरूपे नीचत्वे, उत्त० १अ०नि०चूना 'पज्जत्तं च पहुत्तं / '' पाइ० पाईण त्रि०(प्राचीन) अपश्चिमे, पं०चू० १कल्प। पूर्वाभिमुखे प्राच्याः दिशि ना०१८४ गाथा। स्थिते, सूत्र० २श्रु०७०। आचा०ा पूर्वस्यां दिशि, स्था० २ठा०१ उ०। पहुत्थ धा०(विरेच) आन्तरवस्तूनां बाह्याकरणे,"विरिचेरो लुण्डो-- स०। आचा०। आ०म०। लण्डपहुत्थाः " ||426 / / इति विपूर्वकरेविधातोः पहुत्थाऽऽदेशः / पाईणगामिणी स्त्री०(प्राचीनगामिनी) पूर्वदिग्गामित्याम, कल्प० १अधि० "पहुत्थई' विरेचयति / प्रा० ४पाद। ५क्षण। पहुसंदिट्ठ त्रि०(प्रभुसंदिष्ट) प्रभ्वादिष्टे,बृ० १३०२प्रक०। पाईणतम स्त्री०(प्राचीनतम) पूर्वजन्मनि, आ०क० ४अ०। पहेजमाण न० (प्रहीयमान) जीवप्रदेशैः सह संक्लिष्टस्य कर्म णस्तेभ्यः पाईणपडीणायय त्रि०(प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयत) प्राचीन पूर्वतः प्रतीचीन पतनलक्षणेन हीयमाने कर्मणि, भ० 120 130 / पश्चिमत आयता। पूर्वतः पश्चिमतश्च दीर्घे, स०६०००समा पहेणय न०(प्रहेणक) वध्वा नीयमानायाः पितृगृहे भोजने, आचा०२श्रु० | T0 270 | पाईणवाय पुं०(प्राचीनवात) पूर्वदिग्वाते, भ०३श०७उ०। यः प्राच्या दिशः नीवालाले 380 १चू० 1104 उ०। सूत्रका "वायणं च पहेणयं / " पाइ० ना० 206 / समागच्छति वातः। जी०१प्रतिका स्था०। चं०प्र० गाथा / भोजनोपायोत्सवेषु, देवना०६वर्ग 73 गाथा। पाईणवाह पुं०(प्राचीनवाह) पूर्वदिगभिमुखप्रवाहे, बृ०१ उ०३ प्रक०। पहेलिया स्त्री० (प्रहेलिका) गूढाऽऽशयपद्ये, स०७२ सम० ज०। ज्ञा०। पाईणस पुं०(प्राचीनश) स्वनामख्याते गोत्रप्रवर्तक ऋषौ,"थेरे अजभद्दपहोइअ (देशी) पर्याप्त प्रभुत्वयोः, देवना०६वर्ग 26 गाथा। बाहू पाईणसगुत्ते।" कल्प० २अधि० पक्षण। पहोलिर त्रि० (प्रघूर्णक) हिकायाम्, (हिंचकनार गुजराती) 'रखोलिरं पाईणा स्त्री०(प्राचीना) पूर्वस्याम्, स्था० ६ठा०। (का प्राचीनेति 'दिसा' पहोलिरं।" पाइ० ना० 186 गाथा। शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे निर्णीतम्) पहोवण न०(प्रधोवन) पुनःपुनः प्रक्षालने, आचा० २श्रु० 1 चू० 210 पाउ पुं०(पायु) पिवति तैलाऽऽदिकमनेनेति पायुः। गुदे, आचा० १श्रु० 130 / नि०चू०। १अ०६उ० पा धा०(पा) पाने, "स्वरादनतो वा" ||8|4 / 240 / / इत्यकारा प्रादुष् अव्य० प्रकाश्ये सूत्र० १श्रु०१५ अ०। अनु०। ज्ञा०! ऽऽगमः / 'पाई। पाअइ।' प्रा०४पाद। पाउअ त्रि०(प्रावृत) "उदृत्वादौ" ||8 / 1 / 131 / / इति सूत्रेण ऋकारपाअ पुं०(पाद) चरणे, पादस्य मध्यतलप्रदेशे, षडङ्गुलविस्तीर्णे वितस्त्यर्द्ध, पादेकदेशत्वात्पादत्वव्यपदेशात्। अनु। रथचक्रे, देवना०६ / स्योकारः / आच्छादिते, प्रा० १पाद / वर्ग 37 गाथा। पाउअय त्रि० (प्रावृतक) आच्छादिते, "ऊढिअयं पाउअयं।" पाइ० ना० 265 गाथा। पाअड त्रि०(प्रकृत)"अतः स्वरादनतो वा" ||4|4240 / / इति सूत्रेणाऽऽदेर्वा दीर्घः / प्रक्रान्ते, प्रा० ४पाद। पाउआ स्त्री०(पादुका) पदु स्त्री० भावे उणपादू स्वार्थेक हस्यः। चर्ममर्य पाइअ (देशी) वदनविस्तारे, देना०६वर्ग 36 गाथा। पादाऽऽच्छादने, वाचला औ०। पाइक पुं०(पदाति) "मलिनोभय शुक्ति छुप्ताऽऽरब्ध पदा तेर्मइ पाउआजुग पुं०(पादुकायुग) पादुकायुगे, औ०। लावह सिप्पि छिक्का ढत्त पाइक" ||2|138|| इति सूत्रेण पाउकर त्रि०(प्रादुष्कर) स्वतः सन्मार्गानुष्ठायिनि, अन्येषां च प्रादुर्भावके, पदातिस्थाने पाइकाऽऽदेशः / प्रा०२ पाद। पाद चारिणि सैन्यागपुरुष, सूत्र० १श्रु०१५ अन प्रश्न०१आश्र० द्वार। पाउकिमि स्त्री०(पायुकृमि) गुदजातकृमौ, आचा० १श्रु० १अ० 630 पाइत (देशी) इतस्ततः स्पन्दिते, बृ० १उ०२प्रका पाउक (देशी) मार्गीकृते . देना०६वर्ग 41 गाथा। पाइत्त त्रि०(पाक्य) पाकप्रायोग्ये, दश०७अ०। पाउक्करण न०(प्रादुष्करण) प्रादुःशब्दः प्रकाशार्थस्तत्करणम्। पञ्चा०१३ पाइभ न०(प्रातिभ) अक्षलिङ्गशब्दव्यापारानपेक्षे ज्ञाने, रत्ना० २परि०। / विव०। बहिप्रदीपमण्यादिना भित्त्यपनयनेन वा बहि निष्काश्य द्रव्यधार"प्रातिभात्सर्वतः संवित्'द्वा०२६ द्वा० / षो०) णेन वा प्रकटकरणं, ध०३अधिग०। पञ्चा०ा पं०व० जी०। प्रश्न०। प्र०) Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाउक्करण 817 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाउक्करण तद्योगात् प्रादुः प्रकट करणं यस्येतिवा। उद्गमदोषविशिष्टे, भक्तादौ च। पिं0 आचा०ा स्थान अथ प्रादुष्करणद्वारं विभणिषुः प्रथम तस्तत्संभव गाथाषट्केनाऽऽहलोयविरलुत्तमंगं, तवोकिसं जल्लखउरियसरीरं / जुगमेत्तंतरदिहि, अतुरियचवलं सगिहर्मितं / / 262 // दठूण य अणगारं, सड्डी संवेगमागया काइ। विपुलन्नपाण घेत्तू-ण निग्गया निग्गओ सो वि॥२६३।। नीयदुवारम्भि घरे, न सुज्झई एसण त्ति काऊणं / नीहम्मिए अगारी, अच्छइ विलिया व गहिएणं // 264|| चरणकरणालसम्मि य, अन्नम्भि य आगए गहिय पुच्छा। इहलोगं परलोगं, कहेइ चइउं इमं लोगं // 265 / / नीयदुवारम्मि परे, भिक्खं निच्छंति एसणासमिया। जं पुच्छसि मज्झ कहं, कप्पइ लिंगोवजीवीऽहं // 266|| साहुगुणेसणकहणं, आउट्टा तम्मि तिप्पइ तहेव। कुक्कुडि चरंति एए, वयं तु चिन्नव्वया बीओ।।२६७।। काचित् श्राविका अनगारं साधुमेकाकिविहारिणं लोचविरलोत्तमागम अत्रोत्तमाङ्गशब्दनोत्तमाङ्गस्थाः केशा उच्यन्ते / ततोऽयमर्थः-लोचेन विरलोत्तमान केशं तपःकृशं मलकलुपितशरीरं युगमात्रान्तरन्यस्तदृष्टिमत्वरितमचपलं स्वगृहभागच्छन्तम् / / दृष्ट्वा संवेगमागता, ततो गृहमध्ये विपुलं भक्तं पानं च गृहीत्या गृहमध्याद्विनिर्गता, सोऽपि च साधुः / / नीचद्वारेऽस्मिन गृहे न शुद्धयति ममैषणेति कृत्वा ततः स्थानादिनिजंगाम, निर्गते च तस्मिन् गृहीतेन भक्तपानेन संजातविप्रिये वाऽवतिष्ठते / अत्रान्तरे चरणकरणालसोऽन्यस्तस्मिन् गृहे साधुर्भिक्षार्थमागतः, ततस्तरभ सा भिक्षा तया दत्ता, गृहीतायां च भिक्षायां स साधुः पृष्टो यथा भगवन्निदानीमव साधुरीदृशस्तादृशो वाऽत्र समागतः, परं तेन भिक्षा न गृहीता, त्वया गृहीता, तत्र किं कारणम्? ततः स ऐहलौकिक भिक्षालाभमात्राऽऽदिकं पारलौकिकं धर्म यथाक्रममल्पगुणं बहुगुणं च विचिन्त्येमं लोकम्-लोकात् लभ्यं भिक्षामात्राऽऽदिक परित्यज्योक्तवान् // यथा-नीचद्वारे गृहे साधव एषणासमितिसमिता भिक्षां नेच्छन्ति, तत्रान्धकारभावत एषणशुद्ध्यभावात्,सोऽपि च भगवान् / साधुरेषणासमितस्ततो न गृहीतवानिति। यद्यप्युक्तम्- किं कारणं त्वया गृहीता? इति, तत्राह लिङ्गमात्रोपजीवी, न साधुगुणयुक्तः॥ ततः साधूना गुणानेषणां च यथागमं कथितवान, ततः सा स्वचेतसि चिन्तयामास-अहो जगति निजदोषप्रकटनं परगुणोत्कीर्तनं चातिदुष्करम्, तदप्येतेन कृतमिति तस्मिन्नतिशयेन भक्तिं कृतवती, विपुलं च भक्तपानं (तिप्पइ त्ति) तेपते क्षरति, ददाति स्मेति भावार्थः / गते च तस्मिन् अन्यः कोऽप्यगणितदीर्घसंसारपरिभ्रमणभयों निर्द्धर्भा साधुराजगाम, सोऽपि भिक्षा दत्त्वा लथैव पृष्टः / ततः स पापीयानुक्तवान्-एते इत्थंभूताः कुक्कट्या मायया चरन्ति, ततस्त्वदीयचित्ताऽऽवर्जनार्थ तेन मातृस्थानतो न भिक्षा गृहीता, यावता न तत्र कश्चिद् दोषः, ईदृशानि च मातृस्थानबहुलानि व्रतान्यरमाभिरपिपूर्व चीपर्णानि, परमिदानी चिन्तित-किं मातृस्थानकरणेनेति न माया कुर्मः? ततः सा चिन्तितवती-अहोऽयं निर्द्धमा पापीयान, यस्तादृशमपि साधुं निन्दतीति विसर्जितः / इत्थंभूता च भक्तिपरवशगा साधुदानारा प्रादुष्करणमपि कुर्यादिति प्रादुष्करणसंभवः / संप्रति तदेव प्रादुष्करणं गाथाद्वयेनाऽऽहपाओकरणं दुविहं, पागडकरणं पगासकरणं च / पागड संकामण कुडुदारपाए य छिन्ने व // 268|| रयणपईवे जोई, न कप्पइ पगासणा सुविहियाणं / अत्तट्टि अपरिभुत्तं, कप्पइ कप्पं अकाऊणं / / 266 / / प्रादुष्करणं द्विधा / तद्यथा-प्रकटकरणं, प्रकाशकरण च। तत्र प्रकटकरणम्-अन्धकारादपसार्य बहिः प्रकाशे स्थापनम् / प्रकाशकरणंस्थानस्थितस्येव भित्तिरन्ध्रकरणाऽऽदिना प्रकटीकरणम् / एतदेवाऽऽह-तत्र प्रकटकरणमन्धकारादन्यत्र संक्रामणेन प्रकाशकरणं (कुडदारपाए इत्यादि) अत्र सर्वत्राऽपि तृतीयार्थे सप्तमी, कुड्यस्य द्वारपातेन रन्ध्रकरणेन, यदि वा-कुड्येन मूलत एव छिन्नेन येन कुड्यन कुड्येकदेशेन वाऽन्धकारमासीत्तेन मूलत एवापनीतेनेत्यर्थः। चशब्दादन्यस्य द्वारस्य करणेन चेत्यादिपरिग्रहः। तथा-रत्नेन पद्मरागाऽऽदिना प्रदीपेन प्रतीतेन ज्योतिषा ज्वलता वैश्वानरेण तत्रैव प्रकाशना सुविहितानां न कल्पते / किमुक्तं भवति?प्रकाशकरणेन प्रकटकरणेन च यहीयते भक्ताऽऽदि तत्संयतानां न कल्पते, तत्रैवापवादमाह-(अत्तट्टि त्ति) आत्मार्थी कृतं तदपि कल्पते, नवरं ज्योतिःप्रदीपौ वर्जयेत्, ताभ्यां प्रकाशितमात्मार्थीकृतमपि न कल्पते. तेजस्कायदीप्तिसंस्पर्श-नात्। साधुपात्रमाश्रित्य विधिमाह-इह सहसाकाराऽऽदिना प्रादुष्करणदोषाऽऽध्रातं कथमपि भक्तं पानं वा गृहीतं, ततस्तत् अपरिभुक्तम्, उपलक्षणमेतत्-अर्द्धभुक्तमपि परिस्थाप्योद्वरितसित्थुलेपाऽऽदिना खरण्टितेऽपि तरिमन पात्रे कल्पं जलप्रक्षालनरूपमकृत्वाऽप्यन्यत् शुद्धं गृहीतं कल्पते। एतदेव गाथाद्वयं विवरीषुः प्रथमतश्चुल्लीसं क्रमणमाश्रित्य प्रकटकरण स्पष्टयतिसंचारिमा य चुल्ली, बहिं व चुल्ली पुरा कया तेसिं। तहिं रंधंति कयाई, उवही पूई य पाओ य / / 300 / / इह त्रिधा चुली / तद्यथा-एका संचारिमा, या गृहाभ्यन्तरवर्तिन्यपि बहिरानेतुं शक्यते। चशब्दात्साऽप्याधाकर्मिभकी द्रष्टव्या, द्वितीया बहिरेव तेषां साधूनां निमित्तं चुली पुरा कृता आसीत् / चशब्दात्तदानीं वा साधुनिमित्त बहिश्चुल्ली कृता वेदितव्या, सा च तृतीया / ततो यदि कदाचित् तत्र तिसृणां चुल्लीनामन्यतमस्यां गृहस्था राध्यन्ति, ततो दौ दोपौ। तद्यथा-उपकरणपूतिः, प्रादुष्करणं च। यदाच चुल्ल्याः पृथकृतं तद्देयं वस्तु तदा प्रादुष्करणरूप एवैकः केवलो दोषः, पूतिदोषस्तूत्तीर्णः / यदा चुल्ल्योऽपि शुद्धास्तदाऽपि प्रादुष्करणरूप एवैको दोषः। यदर्थ प्रादुष्करणं गृहस्था कृतवती तं भिक्षायै गृहमागच्छन्तं दृष्ट्वा यदृजुत्वेन भाषते, तदाहनेच्छह तमिसम्मि तओ, बाहिरचुल्लीऍ साधु सिद्धण्णे। Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाउक्करण 818 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाउस इय सोउं परिहरए, पुढे सिट्ठम्मि वि तहेव // 301 / / गृह्णाति, नास्ति कश्चिद्दोषो, विशोधिकोटित्वात्। पिं० हे साधो ! त्वं तमिश्रेऽन्धकारे भिक्षा नेच्छसि, ततो बहिश्चुल्ल्या सिद्ध | पाउग्ग त्रि०(प्रायोग्य) उचिते, पञ्चा० १३विवाआवादशा०ा अनुज्ञापपक्वमन्नम् इति अस्माभिः भक्तमिति श्रुत्वा तया दीयमानं परिहरति, नीये, बृ० १उ० २प्रक०ा समाधिकारके द्रव्ये, नि०चू० १उ०। आ०चू०। प्रादुष्करणदोषदुष्टत्वात्, तथा प्रादुष्करणशङ्कायां कि मर्थमयमाहारोऽध | पाउग्गिअ पुं०(प्रायोगिक) द्यूतकारयितरि, "पाउग्गिओ य सहिओ।" गृहस्य बहिस्तात्पकः? इत्येवं पृष्ट तया ऋजु तया यथावस्थिते कथिते पाइ० ना० 104 गाथा। तथैव परिहरति। एतेनाऽऽद्यगाथायां "संकामण"इत्यवयवो व्याख्यातः।। पाउड त्रि०(प्रावत) गण्ठिते. आचा०१N० 2020 छादिते, आचा० नन्वयं संक्रामणकृत आहारः केनाऽपि प्रकारेण कल्पते? किं वा न? १श्रु०२अ० ४उ०। प्रावरणसहिते, सूत्र० २श्रु०२अ०। इति। उच्यते आत्मार्थीकृतः कल्पते। पाउप्पभाया स्त्री०(प्रादुःप्रभाता) प्रादुःप्राकाश्येन प्रभाता / प्रकाशकथमस्या आत्मार्थीकरणसंभव इति चेदत आह प्रभातायां किश्चिदुपलभ्यमानप्रकाशायां रजन्याम्, अनु० दशाला मच्छियघम्मा अंतो, बाहि पवायं पगासमासन्नं / पाउन्भवंत त्रि०(प्रादुर्भवत) प्रकटीभवति, स्था० ३ग० ३उ०। इय अत्तट्ठियगहणं, पागडकरणे विभासेयं // 302 / / पाउन्भाव पुं०(प्रादुर्भाव) उत्पादे, सूत्र० १श्रु०१अ० 330 / दशा तं०। साध्वर्थ पूर्व बहिश्चुल्ल्यादि कृत्वा काचिदेवं चिन्तयतिगृहस्था इन्द्राणां परस्परं प्रादुर्भावः न्तर्मक्षिका, धर्मश्च / उपलक्षणमेतत् तेनान्धकार दूर च पाकस्था नात् पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया ईसाणेणं देविंदेणं सद्धिं भोजनस्थानमित्यादिपरिग्रहः, बहिश्च प्रवात तेन मक्षिकाऽऽ दयो न आलावं वा संलावं वा करेत्तए? हंता ! पभू जहा पाउब्भवणा। भवन्ति, तथा प्रकाशमासन्नं च पाकस्थानादोजनस्थानं, ततो क्यमत्रेवा- अस्थि णं भंते ! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किचाई ऽऽत्मनिमित्तमपि सदैव पक्ष्याम इत्येवमात्मार्थीकृते ग्रहण, कल्पते इति करणिनाइं? हंता ! अत्थिा से कहमियाणिं पकरेइ? गोयमा! भावः। इयं प्रकटकरणे कल्प्याकल्प्यविषया विभासा। ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स संप्रति प्रकाशकरण स्पष्टयन्, “कुडुदारपाए' (268) इत्यादि देवरण्णो अंतियं पाउंब्भवइ। ईसाणे वा देविंदे देवराया सक्कस्स व्याचिख्यासुराह देविंद स्स देवरण्णो अंतियं पाउब्भवइ / इति भो सक्का देविंदा कुडस्स कुणइ छिडु, दारं वड्डेइ कुणइ अन्नं वा। देवराया दाहिणड्डलोगाहिवई। इति भो ईसाणा देविंदा देवराया उत्तरङ्खलोगाहिवई / इति भो इति भो ति ते अण्णमण्णस्स अवणेइ छायणं वा, ठावइ रयणं व दिप्पंतं // 303 / / किचाई करणिज्जाइंपच्चणुब्भवमाणा विहरंति। अत्थिणं भंते ! जोइपईवे कुणइ व, तहेव कहणं तु पुट्ट दुट्टे वा। तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं विवादा समुप्पज्जंति? अत्तट्ठिए उ गहणं, जोइपईवे उ वज्जित्ता // 304 / / हंता ! अत्थिा से कह मिदाणिं पकरेइ? गोयमा ! ताहे चेवणं प्रकाशकरणार्थ कुड्यस्य छिद्र करोति, यद्वा द्वारं लघु सत् वर्धयति सक्कीसाणा देविंदा देवरायाणो सणंकुमारं देविंदं देवरायं बृहत्तरं करोति।यदिवा अन्यत् द्वितीयं द्वारं करोति। अथवा गृहस्योपरितनं मणसीकरेइ। तएणं से सणंकुमारे देविंदे देवराया तेहिं सक्कीसा छादनं स्फेटयति। यदि वा दीप्यमानं रत्नं स्थापयति / / यद्वा ज्योतिः णे हिं देविंदे हिं देवराईहिं मणसीकए समाणे खिप्पामेव प्रदीपं वा करोति, तथैवानन्तरोक्तेन प्रकारेण स्वयमेव यदि वापृष्ट सति सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं अंतियं पाउडमवंति / जं से प्रादुष्करणे कथिते यत् भक्ता ऽऽदि प्रादुष्करणदोषदुष्ट तत् साधूनां न वयइ तस्स आणाउववायवयणनिइसे चिट्ठति / भ०३श० 170) कल्पते। यदिपुनःप्राक्तनेन प्रकारेगाऽऽत्मार्थीकरोति तदा ग्रहण कल्पते पाउन्भूय त्रि०(प्रादुर्भूत) आविर्भूते आगते, ज्ञा० १श्रु० १अ० ज०। इति भावः / ज्योतिः प्रदीपाभ्या प्राकाशमात्मार्थीकृतमपि न कल्पते, सू०प्र०। औ०। आ०म०। समवसरणे समागते, रा०ा आ०म०) तेज स्कायसंस्पर्शात्। पाउया स्त्री०(पादुका) काष्ठाऽऽदिमये चरणरक्षोपकरणे, ध० २अधिo! संप्रति “अपरिभुत्तं कप्पइ कप्पं अकाऊणं' (266) इति व्या भ०। प्र०। 'परिवारसंबुडापाउयातो मुयइ।" अ०म०१ अ०। सूत्र०। चिख्यासुराह पाउरण न०(प्रावरण) वस्त्रे, आचा०२श्रु०१चू०५ अ०१3०| पागडपयासकरणे, कयम्मि सहसा व अहवऽणाभोगा। पाउरिय न०(प्राचुर्य) बाहुल्ये, स्था० ४ठा० 170 / गहियं विगिंचिऊणं, गेण्हइ अन्नं अकयकप्पे // 305 / / पाउल्लग न०(पादवत्) पुरुषपुत्तलके, नि०चू० 130! प्रकटकरणे प्रकाशकरणे वा कृते सति यत् सहसाऽनाभोगतो या गृहीतं | पाउस पुं०(प्रावृष) स्वी०"उदृत्वादी" ||1 / 131 / / इति तत् (विगिञ्चिऊणं) परिष्ठाप्य तस्मिन् पात्रे उज्झिते लेशमा त्रखरण्टि- शत उकारः। प्रा० १पाद। "प्रावृद शरत् तरणयःपुंसि" तेऽपि अकृतकल्पे जलप्रक्षालनरूपकल्पदानाभावेऽप्य न्यत् शुद्ध // 11 / 31 / / इति पुंस्त्वं प्राकृते / प्रा०१पाद। आषाढ श्राव Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाउस 819- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाओवगमण पलक्षण प्रथमऋतौ, स्था०५ठा०२उला ज्ञा०ा सू०प्र० भ० ज्यो| प्रकाश्रावणभाद्रपदमासयुगे. बृ० १७०३प्रक०। पाउसागम पुं०(प्रावृषागम) वर्षाप्रारम्भे, 'पाउसागमा झं झा।" पाइ० 232 गाथा। पाउसियकाल पुं०(प्रावृट्काल) वर्षाकाले, "महुराए णयरीए एगो साहू पाउसियकाल घेत्तुं अइक्कंताए।" नि०चू०१उ० पाउसिया स्त्री०(प्राद्वेषिकी) प्रदूषो मत्सरस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी। 105 सम० भ०। प्रद्वेषो मत्सरस्तत्रभवा तेन वा निर्वत्ता सा एव वा प्रदेषिकी। भ०३श०३उ०॥ मत्सरिक्या क्रियायाम्, स्था०२टा० १उ० भाव०। आ०चू० पाए अव्य०(प्राक्) "जनो पाए खेत्ते, गया उ पडिलेहणा ततो पाए।" यतः प्राग यतो दिनादारभ्येत्यर्थे ,बृ० १३०२प्रक०। पाएसणा स्त्री०पात्रैषणा) अलाबुकाऽऽदिपात्रान्वेषणसामा चाम, आचा०२७०६ अ०। (पत्त' शब्देऽस्मिन् एव भागे 362 पृष्ठे उक्ता) पाओकरण न० प्रादुष्करण) पाउक्करण' शब्दार्थ, पिं०1 पाओगिथ त्रि०(प्रायोगिक) प्रयोगपरिणामपरिणामिते कुसुम्भ रागाऽऽदी, आ०म०१अ01 पाओपगम न०(पादोपगम) पाओवगमण' शब्दार्थे , व्य०१०३० पाओवगमण न०(पादपोपगमन) पादपो वृक्षः, उपशब्दश्चोप मेयेऽपि सादृश्येऽपि दृश्यते, ततश्च पादपमुपगच्छति सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमनम् / पादपवन्निश्चले, ध०३अधि० / दश०नि००। भ०। कल्प०। सर्वथा परिस्पन्दवर्जिते, चतुर्विधाऽऽहा रत्यागनिष्पन्नेऽनशनभेदे, पञ्चा० १६विव० सं०। औ०। पं०व० संथा०। स्था०। भ०। प्रवन पादपोपगमनविचारभेदाः से किं तं पाओवगमणे? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा णीहारिमे य, अणीहारिमे य / णियमा अपडिक्कमे / सेत्तं पाओवगमणे / भ०२५श०७उ०| (पाओवगमणे त्ति) पादपस्येवोपगमनमस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोपगमनम् / इदं च चतुर्विधाऽऽहारपरिहारनिष्पन्नमेव भवतीति (नीहारिमे यत्ति) निहरिण निर्वृत्तं यत्तन्निर्हारिम, प्रतिश्रये यो मियते तस्यैतत् तत्कडेवरस्य निरिणात् / अनि:रिमं तु योऽटव्यां मियत इति / भ०२श० १उ० (तामलिना यथा पादपोपगमन प्रतिपेदे तथा तामलि' शब्दे चतुर्थभागे 2222 पृष्ठे उक्तम्) अधुना पाद पोपगमनमुच्यतेतदपि प्रव्रज्याऽऽदितीर्थाव्यवच्छेदपर्यन्तं कृत्वा पञ्चतपः सूत्राऽऽदितोलयित्वा च प्रतिपद्यते / तत्र नियमतो निष्प्रतिकर्म निश्चलं वा / तथाहि ऊर्द्धस्थानेन उपवेशते, नपाचे नवाऽन्येन वा, येन स्थानेन स्थितः स यावज्जीवमपि तेन स्थानेन तिष्ठति, न पुनरन्यत्स्थानं तस्य कर्तु स्वप्रयोगेण कल्पते। तच्च द्विधा निर्हारिमम्, अनि रिमं च / निर्हारिम नाम यत् ग्रामाऽऽदीनामन्तः प्रतिपद्यते, ततो हि मृतस्य स तस्तस्य शरीरं निष्काशनीयं भवति ('णीहारिम' शब्दे चतुर्थभागे 2156 पृष्ठे व्याख्या गता) अनि रिमं नाम यत् ग्रामाऽऽदीनां बहिः प्रतिपद्यते ('अणीहारिम' शब्दे प्रथमभागे 340 पृष्ठे व्याख्या) संप्रति पादपोपगमनस्य निरुक्तिमाह पाओपगम भणियं, समविसमे पायवो जहा पडितो। नवरं परप्पओगा, कंपेज जहा चल तरु ध्व / / 544 // पादपोपगम नाम भणित यथा समे विषमे वा पादपः पतितस्तथै वाऽवतिष्ठते, तथा यो यथा समे विषमे वा पतितः सयावज्जीव तथा तिष्ठति, नवर परप्रयोगात् कम्पेत, यथा तरुः परप्रयोगाच्चलः। पादपस्येवोपगमोऽभ्युपगमः पतनस्य यत्र तत्त्येति व्युत्पत्तिः। विशुद्धे स्थण्डिले निर्दोषत्वमेवाऽऽह तसपाणवीयरहिए,वित्थिन्नवियार थंडिलविसुद्धे। निदोसा निघोसे, उति अब्भुज्जयामरणं / / 545 / / सप्राणबीजरहिते विस्तीर्ण विचारे विपुलप्रचारे यत्र कृष्यमाण स्याप्यस्थण्डिलगमनदोषो न भवति, तत्र निर्दोषाः साधवोऽभ्युद्यतमरणं पादपोपगमनमरणमुपयन्ति प्रतिपद्यन्ते। पुव्वमवियवेरेणं, देवो साहरति कोऽवि पायाले। मा सो चरमसरीरे ण वेयणं किंचि पाविहिति // 546 / / पूर्वभवकर्मवैरण कोऽपि देवस्तं प्रतिपन्नपादपोपगमनं पाताले पातालकलशेषु संहरेत्।माऽसौ चरमशरीरेण काचिदपिवेदनां प्राप्स्यतीति कृत्वा रातथा हृतः सम्यक्तमुपसर्ग सहते, न केवल मेनमन्यानपि। तथा चाऽऽह उप्पन्ने उवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिच्छे य। सवे पराइणित्ता, पाओवगया परिहरंति।।५४७।। उत्पन्नान् उपसर्गान् दिव्यान्मानुषान् तैरश्वाँ श्च सर्वान्पराजित्य पादपोपगताः प्ररिहरन्ति। जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णो। इय मे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति // 548|| यथा नाम असिः खड्ग कोशे प्रत्याकारे वर्त्तते, तत्रान्यः पृथक् खलु कोशोऽन्यः असिरिति / एवममुना दृष्टान्तप्रकारेण ममान्यो देहोऽन्यो जीवः परश्च भवति / देहो न जीव इति न काचिन्में कृति रिति मन्यते, तथा मननाच्च सम्यग् प्रसंगान सहते। पुव्वावरदाहिण्णु त्तरेहिं वाएहिं आक्यंतेहिं। जह न विकंपइ मेरू, तह ते झाणाउ न चलंति / / 546 / / यथा मेरुः पूर्वापरदक्षिणोत्तरैतिरापतद्भिर्न विकम्पते, तथा ते पादपोपगता उपसर्गनिपातेऽपिध्यानान्न चलन्ति। पढमम्मिय संघयणे, वटुंतो सेलकुडसामाणा। तेसिं पिय वुच्छेदो, चोद्दसपुव्वीण बुच्छेए॥५५०॥ प्रथमे च ऋषभनाराचसंहनने वर्तमाना धृत्या शैलकुड्यसमानाः पादपोपगमन प्रतिपन्नाः पादपोपगमनं प्रतिपद्यन्ते। तेषामपि च पादपोपगमनप्रतिपत्तॄणां चतुर्दशपूर्विव्यवच्छेदे व्यवच्छेदोऽभवत्। दिव्व मणुया उ दुग तिग, अस्से पक्खेवगं सिया कुजा। वोसट्टचत्तदेहो, अहाउयं कोइ पालेजा।।५५१।। देवा मनुष्या वा अनुलोमानि प्रतिलोमानि वा द्रव्याणि द्वि Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाओवगमण 820 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाओवगमण कम, अनुलोमप्रतिलोमलक्षणोभयसहितं तदेव त्रिकम् / अथवा - सचित्तमचित्तं वा इति द्विक, तदेव हि मिश्रसहितं त्रिक,तस्य द्विकस्य त्रिकस्य वा आस्य मुखे प्रक्षेपं कुर्युः, सतेनद्वारेण मुखे प्रक्षिप्तेन व्युत्सृष्टः प्रतिबन्धाभावतस्त्यक्तः परिकर्मकरणतो देहो येन स व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः, कोऽपि यथाऽऽभुर्यथावस्थितमात्मीयमायुः पालयति / द्विकत्रिकाऽऽहारव्याख्यानार्थमाहअणुलोमा पडिलोमा, दुगं तु उभयसहिया तिगं होति। अहवा चित्तमचित्तं, दुगं तिगं मीसगसमग्गं / / 552|| अनुलोमानि द्रव्याणि प्रतिलोमानि चेति द्विक, तान्येवोभयसहितानि त्रिकम् / अथवा सचित्तमचित्तमिति द्विक, तदेव मिश्रसमग्रं त्रिकमिति। पुढविदगअगणिमारुअ-वणस्सइतसेसु कोवि साहरइ। वोसट्टचत्तदेहो, अहाउयं कोइ पालेजा // 553 / / कोऽपि पादपोपगमं प्रतिपन्नं पृथिव्यां पृथिवीकायमध्ये उदके, अप्काये अग्नौ मारुते वायुकायो वनस्पतिषु त्रसेषु च संहरति, स च तथा संहतो व्युत्सृष्टत्यक्तदेहो यथायुः कोऽपि पालयति। एगंत निजरा से, दुविहा आराहणा धुवा तस्स / अंतकिरियं व साहू, करेज देवोवपत्तिं वा / / 554 / / एकान्तेन 'से' तथावस्थितस्य निर्जरा भवति। तथा तस्यधुवा द्विविधा सिद्धिगमनयोग्या कल्पोपपत्तियोग्या चाऽऽराधना यया साधुरन्तक्रिया वा कुर्यात्, देवोपपत्तिं वा। मज्जण गंधं पुप्फो-वयार परियारणं सिया कुजा। वोसट्ठचत्तदेहो, अहाउयं कोइपालेज्जा // 555 / / केचित् रूपातिशयलुब्धाः तस्य कृतपादपोपगमनस्य मज्जनं स्नान, ततः पटवासाऽऽदिगन्धं, तदनन्तरं पुष्पोपचारं, ततः परिचारण गले गलित्वा परिमन्थनपरिचुम्बनाऽऽदिरूपं स्यात् कदाचित्कुर्यात् / तत्र स व्युत्सृष्टत्यक्तदेहो यथायुः कोऽपि पालयति, अरक्तद्विष्टः सन् सम्यक् तत्सहमानो यावजीवमवतिष्ठते। पुवमवियपेम्मेणं, देवो कुरुउत्तरकुरासु। कोई तु साहरेज्जा, सव्वसुहा जत्थ अणुभावा / / 556 / / पूर्वभविकेन प्रेम्णा कोऽपि देवो यत्र अनुभवाः सर्वे शुभास्तासु देवकुरुउत्तरकुराषु वा संहरेत् / स च तथा तथा तत्र संहृता व्युत्सृष्टत्यक्तदेहो यथायुः कोऽपि पालयति। पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो साहरइ नागभवणम्मि। जहियं इट्ठा कंता, सव्वसुहा हुंति अणुभावा / / 557 / / पूर्वभविकेन प्रेम्णा कोऽपि देवो यत्र सर्व शुभा अनुभावा इष्टाः कान्ताश्च भवन्ति, तत्र नागभवने संहरेत, सोऽपि तत्र तथैवावतिष्ठते। वत्तीसलक्खणधरो, पाओपगतो य पागडसरीरो। पुरिसदेसी कण्णा, रायवितिण्णा उगेण्हेजा / / 558 / / द्वात्रिंशल्लक्षणधरः पादपोपगतः सन् प्रकटशरीरो जातस्तं पुव्वद्वेषिणी कन्या राजवितीर्णा राज्ञा अनुज्ञाता सती शृण्हायात्। गृहीत्वा किं करोत्यत आहमञ्जण गंधं पुप्फो-वयार परिचारणं सया कुज्जा। वोसट्ठचत्तदेहो, अहाउयं कोवि पालेज्जा!1५५६।। अस्या व्याख्या प्राग्वत्। तथानवंगसुत्तपरिवोहियाएँ अट्ठारसरतिविसेसकुसलाए। वावत्तरिकलापंडियाए चोसट्ठिमहिलागुणेहिं च / / 560 / / द्वे अक्षिणी, दो कर्णो द्वौ नासापुटो, जिह्वारपर्शने, नवमं मनः एतानि नव अङ्गानि यावदद्यापि यौवनं न भवति तावत्सुप्तानि भवन्ति / न खलु तदानीमेतेषामतीचाराऽभिष्वङ्गः सुखं भवति, ततः सुप्तानीति व्यपदिश्यन्ते। यौवने तु प्राप्तस्य कल्पगुणेन प्रतिबुद्धानि जायन्ते / नवाङ्गानि सुप्तानि प्रतिबोधितानि यया सा तया। तथा अष्टादशदेशभाषास्तासु मध्ये यस्य यत्र रतिविशेषस्तत्र कुशलतया, द्वासप्ततिकलापण्डितया चतुःषष्टि महेलागुणैरुपेतया। नवाङ्गाऽऽदिव्याख्यानं तावदाहदो सोअनेत्तमादीणवगं सुत्ता हवंति एए उ। देसीभासऽट्ठारस, रतीविसेसा इगुवीसं / / 561 / / कोसल्लमेकवीसइविहं गुणेहिं तु जुत्ताए। एवं च रूवजोव्वणविलासलावण्णकलियाए / / 562 / / द्वे श्रोत्रे, द्वे नेत्रे, आदिशब्दान्नासापुटद्वयजिह्वा स्पर्शनसंपरिग्रहः। एतानि नवक नवसंख्यानि सुप्तानि भवन्ति / देशीभाषाऽष्टादश ताः शास्त्रप्रसिद्धाः, रतिविशेष एकोनविंशतितमः / तत्र कौशलमेव विंशतिविध शास्त्रप्रसिद्धम्, एवमादिभिर्गुणैः युक्तया, तथा रूपयौवनविलासलावण्य - कलितया। चउकण्णम्मि रहस्से, रागेणं रायदिन्नपसराए। तिमिमगरेहिं उदही, न खोमिओ जो मणो मुणिणो / / 563 / जाहे पराजिया सा, न समत्था सीलखंडणं काउं। नेऊण सेलसिहरं, से सिलं मुंचए उवरि / / 564 // चतुःकणे रहस्ये रागेणानुरागेण राजदत्तप्रसरया गृह्यते, गृहीत्या चाऽनेकप्रकारः संक्षोभ आपद्यते। तत्र यन्मनेर्मनस्तत्न याति तिमिमकरैर्वोदधिर्न क्षोभितः, ततो यदा सा पराजिता शीलखाण्डनं कर्तुनसमर्था तदा रोषात् शैलशिखरं नीत्वा (से) तस्योपरि शिला मुश्चति। एगंतनिजरा से, दुविहा आराहणा धुवा तस्स। अंतकिरियं च साहू, करेज देवोववत्तिं वा // 565 / / इयं प्राग्वत्। मुणिसुव्वयंतेवासी, खंदग दाहे य कुंभकारकडे / देवी पुरंदरजसा, दंडइ पालक्क मरुओ य / / 566 / / कुम्भकारकृते नगरे दण्डकिर्नाम राजा, तस्य देवी पुरन्दरयशाः, पालको नाम मरुकः पुरोहितः। तत्र भगवतो मुनिसुव्रतस्वामिनोऽन्तेवासी स्कन्दको नाम विहारक्रमेण गतः सस्वशिष्याणां यत्र पीडनेन मरणं, विशेषतो बालक्षुल्लकस्योपलभ्य संजातकोपो यन्त्रपीडनमारितोऽग्निकुमारेषु उत्पद्यजाति स्मृत्वा समस्तस्यापि देशस्य दाहं कृतवान्, शिष्याः सुसमाधि प्राप्ता मृत्युमुपागताः (विस्तरः 'खंदग' शब्दे तृतीयभागे 663 पृष्ठे गतः)। Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाओवगमण 521 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पांडुकंबलसिला तथा चाऽऽह धीरो सपेल्लियाए, सिवाएँ णतितो तिरिक्खेणं / / 574 / / पंच सया जंतेणं, रुतुणं पुरोहिरण मलियाई। यथा अवन्तिसुकुमालो व्युत्सृष्टनिसृष्टत्यक्तदेहो धीरः (सपेल्लियाए) रागद्दोसतुलग्गं, समकरणं चिंतयंताणं // 567 / / पेल्लिकसहितया बालस्वपुत्रभाण्डसहितया शिवया शृगल्या रात्रित्रिकेण रागद्वेषतुलाग्रे समकरण समभावं चिन्तयतां साधूनां पञ्च शतानि रुष्टेन भक्षितः सम्यक् सोठवात्, एवमन्यैरपि सोढव्यम्। पुरोहितेन यन्त्रमलितानि. तथापि न तेषामनागपिध्योनविक्षोभोऽभवत्। जह ते गोहट्ठाणे, वोसहनिसहचत्तदेहा उ। एवमन्यैरपि सोढव्यम्। उदएण वोज्झाप्रणा, विरयम्मि उ संकरे लग्गा / / 576 / / तथा चाऽऽह ग्रामाऽऽसन्नप्रदेशे केचित्साधवः पादपोपगतास्ततो यथा ते गोष्ठस्थाने जंतेण करकरण व, सत्थेण व सावएहिँ विविहेहिं। प्रदेशविशेष निसृष्ट निस्सहतया व्युत्सृष्टत्यक्तदेहा अन्तरिक्षेण पतितेदेहे विद्धिस्संते, न हु ते झाणा फिटृति // 568|| नोदकेन उह्यमाना विरये नद्याः श्रोतसि संकरे लग्नाः सम्यग्वेदना यन्त्रेण क्रकचेन शस्त्रेण वा खड्गाऽऽदिना श्वापदैर्वा विविधैः शृगालि सहमानाः कालगताः, एवं शेषैरपि सोढव्यम्। काप्रभृतिभिः देहे विध्वस्यमाने (न हु) नैव ते पादपोपगता ध्यानात एतदेवाऽऽहस्फिट्टन्ति परिवारयन्ति। वावीसमाणुपुव्वी, तिरिक्ख मणुया व भंसणत्थाए। पडिणीयताएँ कोई, अग्गिं से सव्वतो पदेजाहि। विसयाणुकंपरक्खण, करेज देवा व मणुया वा॥५७७।। पादोवगए सन्ने, जह चाणक्कस्स य करीसे // 566 / / द्वाविंशतिं परीषहान् आनुपूर्व्या पूर्वानुपूर्व्या वा तिर्यञ्चो मनुष्या वा पादोपगते सति कोऽपि प्रत्यनीकतया 'से' तस्य सर्वतः सर्वासु दिक्षु चारित्रभंसनार्थमुदीरयेयुः / तथा देवा मनुष्या वा विषयाणामिन्द्रियअग्निं प्रदद्यात् / यथा चाणक्यस्य करीषे करीषमध्ये व्यवस्थितस्य विषयाणां प्रत्यनीकतया अनिष्टानामनुकम्पया इष्टानामुदीरणमनुस्वबन्धुनामामान्यः सर्वतोऽग्निं प्रदीपितवानिति। कम्पया रक्षण कुर्युः, तत्रारक्तद्विष्टः सन् सम्यक् सहेत। पडिणीययाएँ कोई, चम्मं से कीलएहिँ विहुणित्ता। पुनरपि दृष्टान्तान्तरमाहमहुधयमक्खियदेहं, पिपीलियाणं तु देजाहि॥५७०।। जह सा वत्तीसघडा, वोसट्टनिसट्ठचत्तदेहाउ। प्रत्यनीकतया कोऽपि (से) तस्य पादपोपगमनस्य कीलकैर्लाह वीरा धातेण उदा-रिएण दियलम्मि ओलइया / / 578|| मयश्चर्म विधून्य तदनन्तरं तं मधुघृतम्रक्षितदेहं कृत्वा पिपीलिकानां यथा सा द्वात्रिंशत्गोष्ठी, पुरुषा इत्यर्थः / व्युत्सृष्टस्तत्प्रतिबन्धदद्यात्, तथापि स सम्यक् सहेत। परित्यागेन निसृष्टोऽतिशयत्यक्तो, मनागपि परिचेष्टाया अकरणात्, देहो यया सा तथा पादपोपगता ध्रातेन सृप्तेन द्वीपान्तरवासिनाम्लेच्छेन दृष्टा, तत्र सहने दृष्टान्तमाह ततः कल्पे ममेते भक्ष्य भविष्यन्तीति चिन्तयित्वा वृक्षं विलग्नापयित्वा जह सो चिलाइपुत्तो, वोसट्टनिसट्टचत्तदेहो उ। (दिवलम्मि) वेलायां जीवन्त एव ते (ओलइया) अवलम्बिताः, ते सोणियगंधेण पिवी-लियाहिँ चालंकितो धीरो / / 571 / / सम्यग्वेदना सहभानाः कालगताः। यथास चिलातीपुत्रो निसृष्टमतिशयेन व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः शोणितगन्धेन उपसंहारमाहप्रिपीलिकाभिश्चालड्कृतः चालनाकृतो धीरो मनागपि ध्यानाचलित एवं पाओपगम, निप्पडिकम्मं तु वण्णितं सुत्ते। वान्न, एवं सर्वैरपि सोढव्यम्। तित्थयरगणहरेहि य, साहूहि य सेवियमुदारं / / 576 / / अन्ये दृष्टान्तमाह एतत्पादपोपगमं सूत्रे आगमे निष्प्रतिकर्म वर्णितं तीर्थकरैर्गणधरैः जह सो कालपएसी, ठितोऽवि मोग्गल्लसेलसिहरम्मि। शेषसाधुभिश्चोत्तमधृतिसंहननोपेतैः उदारं स्फीतं यथा भवति एवखइओ विउव्विऊणं, देवेणं सियालरूवेणं / / 572 / / मासेवितम्। व्य० १०उ०। यथा सब्रह्मचर्याध्ययनप्रसिद्धःकालप्रदेशी मौद्गल्यशैलशिखरे स्थितो पाओवगय त्रि०(पादोपगत) पादपवदुपगतः पादपोपगतः / अचेष्टतया देवेन शृगालरूपं विकुर्वित्वा शृगालरूपेण खादितो भक्षितः, तथापि स्थितेऽनशनविशेष प्रतिपन्ने, स्था० २ठा० 130 सम्यगधिसोढ़वान्, एवं सर्वैरपि सोढव्यम्। पाओसिणाण न०(प्रातःस्नान) प्रत्यूषजलावगाहने, 'पाओ सिणाणाजह सो वंसिपएसी, वोसट्ठनिसट्ठचत्तदेहो उ। ऽऽदिसु नत्थि मोक्खो।" सूत्र० १श्रु०७अ०। वंसीपत्तेहिँ विणि-ग्गएहिँ आगासमुक्खित्तो / / 573 / / पाओसिया स्त्री०(प्रादेषिकी) प्रद्वेषो मत्सरस्तेन निर्वत्ता प्रादेषिकी। ध० यथा साधुरेकः पादपोपगतः, स प्रत्यनीकैरुत्क्षिप्य वंशीकुडङ्गस्योपरि ३अधि०। स्था०। मारयाम्ये नमित्यशुभमनः सम्प्रधाने, प्रति०। मुक्तोऽधस्ताच्च वंशा उत्थितास्तैर्वे शैः प्रवर्द्धमानः स साधुर्विद्धो ('किरिया' शब्दे तृतीयभागे 550 पृष्ठे सूत्रं गतम्) दूरमुत्पन्नरङ्कुररूपैर्विनिर्गतैर्दूरमाकाशमुक्षिप्तो वेदनां सोढवान्, एवं | पांडुकं बलसिला स्त्री०(पाण्डुकम्बलशिला) मेरोः पाण्डकवनस्य सवैरपि सोढव्यम्। पूर्वदक्षिणविदिशि शिलायाम्, "दोपांडुकंबकसिला।" स्था०२ ठा० जहऽवन्तीसुकुमालो, वोसट्ठनिसट्टचत्तदेहो उ। ३उ०। Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांडुकी 822 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पागसासण पांडुकी (देशी) शिविकायाम्, दे०ना०६वर्ग 36 गाथा। अस्या इयमक्षरगमनिका-एकारपरः-ऐकारः,ओकारपर:- औकारः, पांडुर त्रि०(पाण्डुर) शुक्ले, ज्ञा० १श्रु० १अाधौतपट्टे, अनु०॥ अंकारपरः-अःकार इति विसर्जनीयाऽऽख्यमक्षरम् / तथा वकारसपांडुरंग पु०(पाण्डुरङ्ग) भस्मोद्धूलितगात्रे, अनु० शैले, ज्ञा० १श्रु० कारयोर्मध्यगे ये अक्षरेशषा विति, यानि च कवर्गचवर्गतवर्गनिधनानि१४ अ०। अनुग डअना इति। एतान्यक्षराणि प्राकृतेन सन्ति / तत एतैरक्षरैविहीनं सद् पाकम्म न० (प्राकाम्य) इच्छाऽनभिघाते योगसिद्धिभेदे, द्वा० २६द्वा०। वचनं तत्प्राकृतमवसातव्यमेभिरेवऐऔ-अःशष डञन इत्येवं रूपैरुपेतं संस्कृतम् / बृ० 130 / प्राकृते हि विभक्तीनां व्यत्ययोऽपि भवति / यदाह पाखिकायण पुं०(पाक्षिकायण) मूलगोत्रकौशिकवंश्ये स्वनामख्याते पाणिनिःस्वप्राकृतलक्षणे-'"व्यत्ययोऽप्यासामिति।" आ०म० 10 // ऽवान्तरगोत्रप्रवर्तकर्षों , तत्सन्तानेषु च / स्था० ७टा०। द्वितीयार्थे षष्ठी। यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-"द्वितीयार्थे षष्ठी।" पाग पुं०(पाक) विक्लत्यनुकूले व्यापारे, औ०। (मृदभाण्डाना पाकं नं० "प्राकृते हि पूर्वोत्तरनिपातोऽतन्त्रः / आचा० १श्रु० 4 अ० 3 उ०। प्रथममृषभदेव उपदिदेशेति 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे 1126 पृष्ट उक्तम्) ननु जैन प्रवचनं सर्वं प्राकृतनिबद्धमिति दुःश्रद्धेयम्, मैवं शङ्कयम्। (ग्लानार्थ साधुभिरपि पाकः कर्तव्य इति 'गिलाण' शब्दे तृतीयभागे "बालस्त्रीमूढभूर्खाणां, नृणां चारित्रकाङ्गिणाम् / अनुग्रहाय तत्वज्ञैः, 886 पृष्ठे उक्तम्) शिष्टाश्च पुण्यार्थमेव पाकक्रियायां प्रवर्तन्ते। तथाहि सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः॥१॥'' विशेष। प्रकृतिषु भवः प्राकृतः। आ०म० न पितृकर्माऽऽदिव्यपोहेनाऽऽत्मार्थमेव क्षुद्रसत्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इतिन १अ०॥ साधारणे, स्वाभाविके, सूत्र० 1 0 १०१उ०ा लघुतरे, बृ० स्वार्थमेव पक्तव्यम् / दश०५अ० १उ०। बलवति रिपौ च / आ०म० 10. १अग पागडिय त्रि०(प्रकटित) प्रकटत्वं प्राप्त, "पागडिएण पंसुलिएण।" तं० पागट्टि (ण) त्रि०(प्राकर्षिन) प्राकर्षक, ज्ञा० १श्रु० १अ०! प्रवर्तक, पागडेमाण त्रि०(प्रकटयत) व्यक्तीकुर्वति, स्था० ३ठा० 4 उ०। प्रश्न०३आश्र० द्वार। पागदव्व न०(पाकद्रव्य) कयरीपाकाऽऽदिविशिष्टनिष्पन्ने खाद्यद्रव्ये, ही0। पागड त्रि०(प्रकट) समृद्ध्यादित्वाद्दीर्घः / प्रकाशान्विते, आ०म० 10 // कयरीपाक इत्यादिलोकप्रसिद्धानि पाकद्रव्याणि तद्दिवसनिष्पन्नानि प्रव०। आव०। प्रश्न आर्द्रशाकप्रत्याख्यानवता कल्पन्ते, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्-अत्र कल्पन्ते *प्राकृत न० प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् / ईदृशी प्रवृत्तिर्दृश्यते इति / ही०४प्रका०। कयरीपाक इत्यादिलोकप्रा०१ पाद / स्वभावसिद्धे, बृ० १उ०१प्रक०। आत्मा पुगल एव- प्रसिद्धद्रव्याणि आसवाश्चाशाकावयवनिष्पन्नतया तत्प्रत्याख्यानवता मादिरूपस्य संस्कृतस्य विकृतिरूपे ''आता पोग्गले" इत्यादिरूपे कल्पन्ते, न वेति प्रश्रे, उत्तरम्-अत्र "कयरीपाक" इत्यादिलोकप्रसिद्धभाषाभेदे, आ०चू० 10 स्थाा तत्रत्याः कतिपयनियमाः- पाकद्रव्याणि आसवाश्चाशाकावयवनिष्पन्नान्यपि तत्प्रत्याख्यानवता अथ प्राकृतम् / / 1 / 1 / / अथशब्द आनन्तर्यार्थोऽधिकारार्थश्वा / कल्पन्ते इति प्रवृत्तिर्दृश्यते इति / ही०४प्रका० प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतं, संस्कृतानन्तरं पागब्भ न०(प्रागल्भ्य) धार्य , सूत्र० १श्रु०५ अ० १उ०। प्राकृतमधिक्रियते / संस्कृतानन्तरं च प्राकृतस्थानुशासन सिद्धसा- पागन्भिय त्रि०(प्रागल्भिक) प्रागल्भ्य धाय॑ तद् विद्यते यस्य तत् स ध्यमानभेदसंस्कृतयोनेरेव, तस्य लक्षणं, न देश्यस्येति ज्ञापनार्थम्। प्रागल्भी। सूत्र०१श्रु०५अ० १उधृष्टे, सूत्र०१श्रु०५अ० २३०यः संस्कृतसमं तु संस्कृतलक्षणेनैव गतार्थम् / प्राकृते च प्रकृतिप्रत्य- प्रागल्भ्यैन चरतिधृष्टतामापन्नः / सूत्र०२श्रु० 10 // यलिङ्ग कारकसमाससंज्ञाऽऽदयः संस्कृतवद्वेदितव्याः / लोकादिति च / पागभाव पुं०(प्रागभाव) प्राक् पूर्व वस्तूत्पतेरभावः प्रागभावः। वस्तूत्पत्तेः वर्तते / तेन क्र-ऋ-~-~-ऐ-औ-ड्-अ-श-ष-विसर्जनीय-प्लुत प्रामालिकेऽभावे, रत्ना०। वज्र्यों वर्णसमाम्नायो लोकादवगन्त-व्यः। ड-औ स्ववर्यसंयुक्तौ भयत __ तत्र प्रागभावमाविर्भावयन्तिएव / ऐदौतौ च केषाञ्चित्-कैतवम् / कैअवं / सौन्दर्यम / सौंअरिअं। यन्निवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागभावः 56 / कौरवाः / कौरवा। तथा च-अरवरं व्यञ्जनं द्विवचनं चतुर्थीबहुवचनं चन यस्य पदार्थस्य निवृत्तावेव सत्यां, न पुनरनिवृत्तावपि, अतिव्याभवति। प्तिप्रसक्तेः। अन्धकारस्याऽपि निवृत्तौ कृचिद् ज्ञानोत्पत्तिदर्शनादन्ध* बहुलम।८।१।२।। कारस्यापि ज्ञानप्रागभावत्वप्रसङ्गात्। न चैवमपि रूपज्ञानं तन्निवृत्तावेबहुलमित्यधिकृतं वेदितव्यमाशास्त्रपरिसमाप्तेः। ततश्च-वचित् प्रवृत्तिः, वोत्पद्यत इति तत्प्रति तस्य तत्वप्रसक्तिरिति वाच्यम / अतीन्द्रिय - क्वचिद् अप्रवृत्तिः, कृचिद् विभाषा, क्वचिद् अन्यदेव भवति। तच्च दर्शिनि नक्तञ्चराऽऽदौ च तद्भावेऽपि तद्रावात्। स इति पदार्थः, अस्येति यथास्थानं दर्शयिष्यामः। कार्यस्य // 56 // आर्षम् / / 8 / 1 / 3 / / ऋषीणामिदमार्षम् / आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति। अत्रोदाहान्तितदपि यथास्थानंदर्शयिष्यामः। आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यात प्रा० यथा मृत्पिडनिवृत्तावेव समुत्पद्यमानस्य घटस्य मृत्पिण्डः।६०। पाद। रत्ना०३ परि०। एओकारपराई, अंकारपरं च पायए नस्थि। पागसासण पुं०(पाकशासन) पाक दैत्य शास्ति शिक्षयतीति वसगारमज्झिमाणि य, कचवग्गतवग्गनिहणाई।। पाक शासनः / कल्प० १अधि०१क्षण / पाका नाम बल Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागसासण 523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाडियंतिय १वर्ग १अ०॥ दान रिपुः, स शिष्यते निराक्रियते येन स पाकशासनः। आ०म०१०। पृष्ठे उक्ता) सूरेः करोटिर्यादोभिस्त्रोट्यमानाऽपि जलोर्मिभिर्नदीतारं नीता शक्रे, पुरन्दरे, आ०म०१०। प्रज्ञा०। भ० जी०। उपा०। इतस्ततो लुलन्ती च शुक्तिवन्नदीतटे वाऽपि गुप्तविषमे प्रदेशे लग्नातस्थी, पागसासणी स्वी०(पाकशासनी) इन्द्रजालसंज्ञिकायां विद्यायाम, सूत्र० तस्य च करोटिकर्परस्यान्तः कदाचित् पाटला वीजं न्यपतत्, क्रमात 22020 करोटिकपरं भित्वा दक्षि-णहनोः पाटलातरुरुगतो, विशालश्चायमजनि। पागार पुं०(प्राकार) शालायाम्, प्रज्ञा० २पद। विपा०। गृहस्य पत्तनस्य तदत्र पाटलिद्रोः प्रभावाच्चानिमित्ताच्च नगरं निवेश्यताम्, आशिवावा (आचा०२श्रु०१चू०१अ०५उ०) वप्रे, उत्त०६ अ०। अनुगारा०| शब्दं च सूत्रं दीयताम् / ततो राज्ञाऽऽदिष्टा नैमित्तिकाः पाटलां पूर्वतः 이 서 कृत्वा पश्चिमा तत उत्तरां ततः पुनः पूर्वा , ततो दक्षिणां शिवाशब्दावधि पागारतिगणास पुं०(प्राकारत्रिकन्यास) शालानां त्रयस्य न्यसने, पञ्चा० गत्वा सूत्रमपातयन्नेवं चतस्रःसीमाः पुरस्य सन्निबेशे वभूवुः / तत्राङ्किते प्रदेशे पुरमचीकरन्नृपः। तच पाटलीनाम्ना पाटलिपुत्रं पत्तनमासीत्। रविव०। ती०। (नन्दराजवृत्तम् ‘णंदराय' शब्दे चतुर्थभागे 1750 पृष्ठे गतम्) पाड पुं०(पाड) चडे, पाडाश्चडाः। बृ०३उ०। "गौडवंशावतंसस्य, श्रीजिनप्रभसूरयः, कल्पं पाटलिपुत्रस्य, रचयां पाडगपुं०(पाटक) ग्रामान्तर्गत वसतिसन्निवेशे, जीता आचालाआ०म०। चकुरागमात् // 1 // " ती०३५ कल्प / आ००। आ०म०। आ००। ज्ञान जी०। संथा०। आव०। विपा०। विशे०। कल्पा पाडच्चर पुं०(पाटचर) चारे, 'कलमो सुकुमालो तक्करो य पाडच्चरो पाडलिसंड न०(पाटलिखण्ड) स्वनामख्याते भारतखण्डीये पुरभेदे, थेणो।" पाइ० ना०७२ गाथा। आसक्तचित्ते, दे० ना०६वर्ग 34 गाथा। विपा० १श्रु०७अ० 'पाडलिसंडे नयरे वणसंडे उजाणे उंबरदत्ते य पाडण न०पा(त)टन करपत्राऽऽदिभिः (आव०६अ०) निष्कुटादधो जक्खे। तत्थ ण पाइलिसंडे णयरे सिद्धत्थराया। तत्थणं पाडलिसंडे वज्रभूमौ प्रक्षेपे, सूत्र०१श्रु०५अ०१उ०। रुधिराऽऽदिगालने, नि०१श्रु० णयरे सागरदत्तसत्थवाहे होत्था।" विपा० १श्रु०७अ०। आ०म० / स्था। पाडणा स्त्री०(पातना) अखण्डस्यैव गर्भस्य पातनोपाये, विपा० १श्रु० पाडवण (देशी) पादपतने, दे० ना० ६वर्ग 18 गाथा। १अ०। पाडिअ वि०(पातित) निपतिते, "औसद्धं पाडिअंनिसुद्धं च।'' पाइ०ना० पाडल त्रि०(पाटल) रक्त "अरुणं सोणं रतं, पाडलं आयंबिर तंब।" | 164 गाथा। पाइ० ना०६३गाथा। पाडिअग्ग (देशी) विश्रामे, दे०ना० ६वर्ग 44 गाथा। पाडलसउण (देशी) हंसे, देना०६ वर्ग ६गाथा। पाडिअज्झ (देशी) पितृगृहात्पतिगृहे वध्वाः प्रापके, दे०ना०६वर्ग 43 पाडला स्त्री०(पाटला) पुष्पजातिविशेषे, ज्ञा० १श्रु०१७ अ०) रा० गाथा। प्रज्ञा० कल्प०। जंग पाडिकं अव्य०(प्रत्येकम्)एक जीवं प्रतिप्रत्येकम्। "प्रत्येकमः पाडिक पाडलिउत्त न०(पाटलिपुत्र) उदायिनृपवासिते मगधदेशीये गङ्गातटस्थे पाडिएक" // 8/22210 // प्रत्येकभि त्यस्यार्थेपाडिवं पाडिएकमिति पुरभेदे, ती०। प्रयोक्तव्यं वा। प्रा०२पाद। "एगे जीवे पाडिक्कएणं सरीरेणं।" एक जीवं "आनम्य श्रीनेमिनमनेकपुरत्नजनिपवित्रस्य। प्रति गतं यच्छरीरं प्रत्येकशरीरनामकर्मोद-यात्तत्प्रत्येकं, तदेव श्रीपाटलिपुत्राऽऽह्वयनगरस्य प्रस्तुमो वृत्तम् // 1 // " प्रत्येककम, दीर्घत्वाऽऽदि प्राकृतत्वात्। स्था०१ठा०। “सयमेव पाडिएवं पूर्व किल श्रीश्रेणिकमहाराजेऽस्तं गते तदात्मजः कूणिकः पितृ चित्तफलग करेइ।" एकमात्मानं प्रति प्रत्येकं पितुःफलकाद् भिन्नशोकाचम्पापुरी प्राविशत्तस्मिश्चालेख्यशेषता प्रयाते तत्सू नुरु मित्यर्थः / भ०१५ श०। स्था०। "पाडिकंपत्तेअं।" पाइ० ना०२४५ गाथा। दायिनामधेयश्चम्पायां क्षोणिजानिरजनिष्ट। सोऽपि स्वपितुस्तानि तानि सभाक्रीडाशयनाऽऽसनाऽऽदिस्थानानि पश्यन्नस्तोकं शोकमुदवहत्। पाडिकअ (देशी) प्रतिक्रियायाग, दे० ना०६ वर्ग 16 गाथा। ततोऽमात्यानुमत्या नूतनं नगरं निवेशयितुं नैमित्तिकयरात् स्थानगवेष पाडिच्छिय त्रि०(प्रातीच्छित्) प्रतीच्छकेषु, येऽन्यतो गच्छान्तरादागत्य णायाऽऽदिशत्। तेऽपि सर्वत्र तांस्तान् प्रदेशान् पश्यन्तो गङ्गातट ययुः। साधवस्तत्रोपसंपदं गृह्णन्ति तेषु, व्य० 130 / तत्र सकुसुमं पाटलितरु प्रेक्ष्य तच्छोभावशीकृतास्तच्छाखायां निषण्णं / पाडिपहिय पुं०(प्रातिपथिक) प्रतिपथेनाभिमुखेन चरति प्रातिपथिकः / चापं व्यात्तवदनं स्वयं निपतत्कीटपेटकमालोक्य चेतस्यचिन्तयन्नहो सूत्र० २श्रु० २अ०। आचा० सम्मुखपथिके, आचा०२श्रु०१चू०३अ० यथाऽस्य चाषपक्षिणो मुखे स्वयमेत्य कीटाः पतन्तः सन्ति, तथाऽत्र उ०। संमुखीने, आचा०१श्रु०१चू०३अ०३उ०। नि० चू०। स्थाने नगरे निवेशितेऽस्य राज्ञः स्वयं श्रियः समेष्यन्ति। तच ते राज्ञि पाडिप्फद्धि (ण) त्रि०(प्रतिस्पर्द्धिन) "प-स्पयोः फ:" व्यजिज्ञपन् / सोऽप्यतीव प्रमुदितः / तत्रैको जरनैमित्तिको व्याहरत् / / 5 / / इति स्पस्य फादेशः। प्रा०२पाद / समृद्ध्यादित्याद् दीर्घः / देव ! पाटलातरुरयन सामान्यः, पुरा हि ज्ञानिनाकथितम्- "पाटलातः पराभिभवेच्छौ, प्रा०२ पाद। पवित्रोऽयं, महामुनिकरोटिभूः।" एकावतारोऽस्य मूलजीवश्चेति विशेषः / पाडिय त्रि०(पातित) अधोभ्रंशिते, जं०३वक्षः। ती० 35 कल्प०। (प्रयागतीर्थकथा पयाग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 508 | पाडियतिय न०(प्राप्यन्तिक) अभिनयभेदे, राण Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाडिया 524 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाढयंत पाडिया स्त्री०(पाटिका) उत्तरीयवस्ने, स०१श०१3०। पाठशब्दार्थमाहपाडिवआस्त्री०(प्रतिपद) "स्त्रियामादविद्युतः" // 8/1115 / / स्त्रियां पढणं पाठो तं तेण तम्मि व पढिज्जएऽभिधेयं ति 1384 वर्तमानस्यान्त्यव्यञ्जनस्याऽऽत्वं भवति / इत्यात्वमन्त्यस्य / प्रा०१ पठन पाठः / पठ्यते वा घ्यक्तीक्रियते तदिति पाठः / पठ्यतेऽभिपाद। प्रथमतिथौ, स०१५ सम०। अने। ज्यो०। धेयमनेनारमादस्मिन्निति वा पाठः : ग्रहणाऽऽसेवनाशिक्षायाम, विशे०। पाडिवआरिय पुं०(प्रातिपदाचार्य) कल्किनृपसमकालिके सघ- आवा प्रवर्तकाचार्य, ती० २कल्प० "पाडिवओ नामेणं, अणगारो' ति०) पाढयंत त्रि०(पाठयत) श्रावकादिभ्यः सत्रदानतः भाणयति, जीवा। पाडिवेसिय पुं०(प्रातिश्मिक) पार्श्वगृहवासिनि, ध०। "सुप्राति अधुना विंशतितममाहवेश्मिके" इति। शोभनाः शीलाऽऽदिसंपन्नाः प्रातिवेश्मिका यत्र तस्मिन् / अन्ने उगुरुयसिरिमोहरायआणापरव्वसा बाला। कुप्रतिवेश्मिकत्वे पुनः ''संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति'' इति वचनात् पादिति सावयजणे, उत्सग्गऽववायगाहाओ।।१।। निचितं गुणहानिरुत्पद्यत इति तन्निषेधः / दुष्प्रातिवेश्मिकास्त्वेते अन्ये पुनरपरे गुरुकश्रीमोहराजाऽऽज्ञापरवशा महाऽज्ञाननृपतिशास्त्रप्रसिद्धाः- "खरिआ तिरिक्खजोणी, तालायरसमणमाहणसु शासनाऽऽयत्ताः, अत एव बाला हिताहितविवेकविकलाः, पाठयन्ति साणा / वगुरि अहवा गुज्मिअ, हरिएस पुलिदमच्छिदा" ||1|| ध० सूत्रदानतः श्रावकजनान श्राद्धलोकान. उत्सर्गापवादगाथाः समय१अधिo प्रसिद्धा इति गाथाऽर्थः। पाडिसार (देशी) पटुतायाम, देवना० ६वर्ग 16 गाथा। तरिक सम्भतं, न वेत्याहपाडिसिर (देशी खलीनयुक्तायां खलायाम्, दे०ना० ६वर्ग 42 गाथा। तं तु न कहिं पि हरिसं, जणेइ सुबहुस्सुयाण सूरीणं / पाडिस्सुइय न०(प्रातिश्रुतिक) नाट्यशास्त्र प्रसिद्ध अभिनय भेदे, ज०५ जम्हा निसीहगंथे,सावयमुधिस्स भणियमिणं // 2 // वक्ष०। आमा तत्पुनर्न कथमपि न केनापि प्रकारेण हर्ष सन्तोषं जनयत्युत्यादयति पाडिहत्थी (देशी) मालायाम्, दे०ना० ६वर्ग 42 गाथा / सुबहुश्रुतानामतिशयाऽऽगमज्ञानानाम्, इतरेषां तु जनयेदपि, सूरीणापाडिहारिय न० (प्रातिहारिक) प्रतिहरणं प्रतिहारः, प्रत्यर्पण, तमहतीति माचार्याणां, यरमान्निशीथग्रन्थे प्रतीते, श्रावकं श्राद्धमुद्दिश्याऽऽश्रित्य प्रातिहारिकम् / पुनः समर्पणीये संस्तारकाऽऽदी, ज्ञा० १श्रु०५अ01 भणितमुक्तमिदं वक्ष्यमाणमिति गाशाऽर्थः। आचा०। प्रव० दशा० तदेवार्थतो गाथाद्वयेनाऽऽहपाडिहुअ (देशी) प्रतिभुवि. (साक्षिणि दे०मा०६वर्ग 42 गाथा पाडिहर न०(प्रातिहार्य) जिनानामतिशयपरमपूज्यत्यख्यापकालङ्कार इयरसुयं पि हु पाढं-तयाण साहूण संजईणं च / विशेषे, अष्ट महाप्रातिहार्याणि जिनानाम्- "अशोकवृक्षः १सरपुष्पवृष्टिः पच्छित्तं खलु एयं, सिद्धताओ पुणो तेसिं / / 3 / / 2 दिव्यध्वनि ३श्वामर 4 मासनं च५ / भामण्डल दुन्दुभिरातपत्र 8, छज्जीवणिया सुत्ते-णुण्णा पिंडेसणेव अत्थाओ। षट् प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् // 1 // ' दर्श० १लत्व ! देवतापहार, कप्पइ पढि सोउं, व आगमाओ न उण अन्नं / / 4 / / औ०। ज्ञा०। इतरसूत्रमपि प्रकरणाऽऽदिक न केवलसिद्धान्तसूत्रमित्यपिशब्दार्थः। पाडीगणिय न०(पाटीगणित) यावत्तावतिके गुणकारे, स्था० १०ठा०। पाठयता सूत्रदानतः श्रावकाऽऽदिकमित्यध्याहारः साधूनां यतीना, पाडु चिया स्त्री०(प्रातीतिका) बाह्यं वस्तु प्रतीत्याऽऽपि भवा सा संयतीनां चार्यिकाणां, चःसमुचये। प्रायश्चित्तमेव समये प्रतीतमुत्सर्गतः। प्रातीतिक।। स्था० २ठा० १उ०। जीवाऽऽदीन प्रतीत्य महत्या खलुरवधारणे, एतत वक्ष्यमाण सिद्धान्तादागमात्पुनस्तेषां श्रावकाणाम् क्रियायाम, स्था० ५ठा० २उ०। 'पाहुनिया किरिया दुविहा पता ! / 3 / षड्जीवनिका समयप्रसिद्धा, सूत्रेण पाटदानलक्षणेन अनुज्ञाता तजहा-जीवपाहुचिया चेव, अजीवपाडुचिया चेव'' स्था० २ठा० १उम सूत्राऽनुज्ञायामर्थाऽपि एतरयाऽनुज्ञातो द्रष्टव्यः, अर्थतः अभिधेयमाश्रित्य आव०। जीवं प्रतीत्य यः कर्मबन्धः सा तथा / अजीवं प्रतीत्य यो पिण्डेषणेव प्रतीता, कल्पते युज्यते, अपवाद इति शेषः। पठितुं सूत्रतः, रागद्वेषोद्भवः तजो यः कर्मबन्धः सा अजीव-प्रातीतिकी। स्था० २ठा० श्रोतुं वाऽर्थतः, आगमात् सिद्धान्तान्न पुनर्नवान्य परम्। तथा च निशी१3०1 थगाथार्द्धम्- "पवजाए अभिमुह-वारति गिहिअन्नपासडी'' एष चूर्णिःपाडुची (देशी) तुरगमण्डने, देवना०६वर्ग 36 माथा। ''पाची तुस्यदेह- "गिहिं अन्नपासडि वा पव्वज्जामिपुर मार्ग वा छज्जीवणिय लि जाव पिंजरणं / पाइ० ना०२१० गाथा। सुत्तओ अत्थओ जाव पिंडसणाऔरस मियाइसु अक्व उत्ति।" इति पाढ पुं०(पाठ) पठन पाठः / पठ्यते वा तदिति पठ्यते व्यवतं गाथाद्वयाऽर्थः। क्रियतेऽनेनास्मादस्मिन्निति अभिधेयमिति पाठः / आ०म०१०॥ सूत्रेण विहितसंबन्धां गाथामाहशास्ये, “पाटो त्ति वा सत्थं ति वा एगट्ठा।" आ०च०१० प्रश्नका किं च जईण वि परिणामियाण दिजंति छेयसुत्तत्था। Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाढयंत 825 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाण अइपरिणयाणऽपरिणामियाण न उणंऽबदिटुंता / / 5 / / किं चेत्यभ्युचये / श्रावकाणां तावत् छेदग्रन्थाऽऽदीनां सर्वथा निषेधः सिद्ध एव, यतीनामपि अतिपरिणामकाणामुत्सपिवादप्रियाणां दीयन्ते वितीर्यन्ते छेदग्रन्थसूत्रार्थाः प्रतीताः, अपरिणामकाणामपवादरसिकानामुत्सर्गतन्त्रनिष्ठानां नैव न च, पुनः शब्दोऽवधारणार्थो दर्शित एव / आम्रदृष्टान्तात् चूतज्ञातात। तचे-दम्-किल केनचिदाचार्येण सिद्धान्तरहस्य दातुकामेन निजक्षुल्लकपरीक्षार्थ क्षुल्लकत्रयकमाहूयेदमुक्तम्- भो अस्मदर्थमाम्रफलान्यानयत / ततस्तैरिदं चिन्तितम्, प्रथमेन प्रहृष्टसहजवदनकमलेनाकृत्यमिदं, द्वितीयेन न कर्तव्यमिदं, तृतीयेन च किं खण्डैरखण्डैाल्परितरैर्वा पक्वैरपक्वैः प्रयोजनमिति न सम्यग् ज्ञायते। ततो गुरुमभिवन्द्य पृष्टवान्- भगवन्नवगतो युष्पाकमादेशः, परं विशेषतो ज्ञातुमिच्छामि. ततः कथयन्तु पूज्या येन तान्यानयामि शीघ्रमिति। अत्र प्रथमः उत्सर्गप्रियत्वादपरिणामको, द्वितीयस्त्वपवादरुचित्वादप्यपरिपामकः, तृतीयस्तूभयप्रियत्वात्परिणामकः / आद्यावयोग्यौ, तृतीयस्तु योग्य इति गाथाऽर्थः। अत्रैवाऽर्थे दोषमाविष्कुर्वन्निदमाहअविहियउवहाणाणं, नाणइयारेण तह असज्झाए। सज्झाय कुणंताणं, बवहारे भणियमेवं ति॥६।। अविहितोपधानानामकृततपसां ज्ञानातिचारेण श्रुतमालिन्यजनकेन, तथा अस्वाध्याये कालवेलाऽऽदौ स्वाध्याय पाठ कुर्वतां विदधता व्यवहारे छदग्रन्थाऽऽख्ये भणितमुक्तमेवमित्थमितिर्वाक्यसमाप्ताविति गाथाऽर्थः / तदेवाऽऽहउम्मायं व लभेजा, रोगायंकं व पाउणे दीहं / केवलिपन्नत्ताओ, धम्माओ वावि भंसेजा।।७।। प्रकटाऽर्था। अत्रैवार्थे दोषं दर्शयन् दृष्टान्तदान्तिकगर्भगाथाद्वयमाहजह रन्ना पडिसिद्धे, पदातिनो देंत गेण्ह रयणाओ। पावइ दंडमिहोग्गं, तह जिणरन्ना तु नाणुमए / / 8 / / छेयसुयत्थरयणोवमेओ मोहा पढंत पाढेता। पावेंति महाघोरं, भवदंडं लंघियजिणाणा ||6|| यथेति दृष्टान्तार्थो , राज्ञा भूपतिना प्रतिषिद्धे निवारिते नैतानि कस्य चिद्दातव्यानीति, ददत् प्रयच्छन् भाण्डागारिकाऽऽदिः गृह्णश्वाऽऽददानाः पदात्यादीन् रत्नानि माणिक्यानि, तुः पूरणे, प्राप्नोति लभते, दण्ड वित्तापहाराऽऽदिकम्, इह जगत्युग्रं क्रकचपादाटनाऽऽदि / तथेति दान्तिकयोजनार्थम्, जिनराज्ञा सर्वज्ञनरेश्वरेण तु तथैव न नैवाऽनुमताननुज्ञातानछेदसूत्रार्थान्रत्नोपमान् माणिक्यसदृशान् मोहादज्ञानात् पठन्तः श्रावकाऽऽदयः, पाठयन्तश्च तानेव यत्यादयः। विभक्तिव्यत्ययात् प्राप्स्यन्ति लप्स्यन्ते महाघोरम् अतीव रौद्र भवदण्ड संसारभ्रमण किंविशिष्टाः? लड्डितजिनाज्ञाः त्यक्तसर्वज्ञशासनाः। इति गाथाद्वयार्थः / यत एवमतो जीवशिक्षामाह तम्हा मा जीव ! तुमं, सड्डाणं देसु छेयसुत्तत्थे। जं पि य कहेसि किंची तं पि य इयबुद्धिए कहसु / / 10 / / तस्मान्मेति निषधे जीवात्मन् ! देहि प्रयच्छ छेदसूत्रार्थान, उपलक्षणत्वादस्यान्यदपि सिद्धान्तनिषिद्धं द्रष्टव्यम् / यदपि कथयसि व्यावक्षसे किंचित् स्तोक, दीर्घता चात्र पूर्ववत्। तदपि च इतिवुझ्या एवंमत्या कंथय बूहीति गाथाऽर्थः। तामेवाऽऽहअविकोविएहिं तरलियमइणो मा धम्मबाहिरा तु। एए भव्वा दंसेमि तेण पडिवक्खवयणाई।।११।। अविकोविदैरगीतार्थस्तरलितमतयो विसंस्थुलबुद्धयो, मेति प्रतिषेधे, धर्मबाह्या दीनाऽऽद्युत्तीर्णा भवन्तुएते प्रत्यक्षवर्तिनो भव्या मोक्षगामिनः / दर्शयामि प्रकटयामि तेन कारणेन प्रतिपक्षवचनानि उत्तरवचांसि। ननु अन्यान वारयसि स्वयं तु संवादार्थ निजभणितस्य सर्वत्र तगाथाः कथयसि, विरुद्धमिदम्? सत्यम् / यदा विप्रतिपन्नो जनो दर्शन प्रति भवति तदा रहस्यकथनेऽप्यदोषः। तथा च निशीथे भणितमिदम्-"तम्हा न कहेयव्वं, आयरिएणं तु पवयणरहस्सं / खेत्तं काल पुरिसं, नाऊण पगासए गुज्झ॥१॥" इति गाथाऽर्थः। व्यतिरेकमाहजइ पुण तुमं पि एमेव कहेसि सडाण दुध्वियड्डाणं / ता तुज्झ वि भवदंडो, निरत्थओ एरिसो होही।।१२।। यदि पुनस्त्वमपि, न केवलं पूर्वोक्ता इत्यपेरर्थः / (एमेव त्ति) तरलित मत्यभावे कथयसि जल्पसि श्राद्धानां श्रावकाणां, किं विशिष्टाना? दुर्विदग्धाना ज्ञानलवग| एणां तस्मात् तवापि न केवलं पूर्वोक्तानाम्, इत्यपेरर्थः / भवदण्ड संसारमयं निरर्थको निःप्रयोजनो ईदृग ईदृक्षो भविष्यति। इति गाथाऽर्थः / जीवा० २०अधि०। पाढग पुं०(पाठक) बहुश्रुतत्वनिबन्धनपदवीविशेषभाजि, अष्ट०३२अष्ट पाढणया स्त्री०(पाठनता) वाचनतायाम्, 'उहिसण वायण त्तिय, पाढणता चैव एगट्ठा।" पं०भा० ४कल्प। पाढा स्त्री०(पाठा) अनन्तजीववनस्पतिविशेष, प्रज्ञा० १पद। पाढीण पुं०(पाठीन) मत्स्यविशेषे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। पाण पुं०(प्राण) मातङ्गे, स्था० ४ठा० ४उ०। 'मायंगा तह जणंगमा पाणा।" पाइन्ना० 105 गाथा / चाण्डाले, व्य०१उ०। ये ग्रामस्य नगरस्य च बहिराकाशे वसन्ति तेषां गृहाभावात् / व्य० ३उ०। बृ०। गुच्छवनस्पतिकायभेदे, प्रज्ञा०१पद। पान न०पीयत इति पानम्। कर्मणिल्युट्। उच्चवर्णरसाऽऽद्युपेते दश०५अ० 130 / खर्जूरद्राक्षापानकाऽऽदौ, प्रव० 4 द्वार / आचा०ा स्था०। उत्ता च०प्र० / भ०। सुराऽऽदौ, स्था० ३ठा० १उ०। सू०प्र०। प्रश्न। सौवीराम्बाऽऽदिधावने, ध० २अधि० दशा०ा दश०। उष्णोदकाऽऽदौ, स०१२ अङ्ग / दर्श०। आव०। आचाo। आ०चूला पक्षाला त्रिफलाकृतं प्रासुकं पानीय कुत्र सिद्धान्ते प्रोक्तम्-स्तीति? प्रश्श्रे, उत्तरम् अत्र त्रिफलाकृतं प्रासुकमुदकं सिद्धान्तानुमतं ज्ञायते। यतः-"तुवरे फलेयपत्ते,रुक्खसि Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण 526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणग लातुप्पमद्दणादीसु। पासंदणे पवाते आयवतत्ते वहे अण्हे / / / 204 / / इति हृष्टस्य तुष्टस्य अनवकल्पस्य जरसा अपीडितस्य निरुपक्लिष्टस्य निशीथभाष्यगाथा। एतच्चूर्णी तुवरफला हरीतक्यादय इति व्याख्या- व्याधिना वाऽन्नभिभूतस्य जन्तोमनुष्याऽऽदेरेकउच्छासयुक्तो निःश्वास तमस्तीति / / 7 / / ही०३ प्रका०ा प्रव०।। उच्छ्वासनिश्वासः एष प्राण उच्यते। अनु०। प्राणशब्देनाभेदोपचारात् संप्रति पानमाह तद्वान् गृह्यते / जन्तौ, आचा० १श्रु० २अ०३उ०। दशविधप्राणपाणं सोवीर जवोदगाऽइ चित्तं सुराइयं चेव। भोक्तृत्वात्तदभेदोपचारात्प्राणिनि, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२उ०। द्वीन्द्रियाआउक्काओ सब्दो, कक्कडगजलाइयं च तहा।।२१२।। ऽऽदिजन्तौ,बृ०६उ०। "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तुतरवः स्मृताः। सौवीरं काजिकं, यवोदकाऽऽदि यवधावनम् आदिशब्दाद्गोधूमषष्टि जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, सत्त्वाः शेषाः इतीरिताः॥१॥" स्था० ५ठा० काऽऽदितन्दुलोद्रवधावनाऽऽदिपरिग्रहः / तथा चित्रं नानाप्रकार 230 / सूत्र०। आचा०। आ०चू०। रसजाऽऽदिषु कुन्थ्वादिषु प्राणिषु, सुराऽऽदिकं चैव, आदिशब्दात्सरकाऽऽदिपरिग्रहः, तथाऽपकायः सर्वः आव०४ अ स्था०। आचा०। ज्ञा०। कल्पना ''सव्वे पाणा सव्वे भूया सरःसरित्कूपाऽऽदिस्थानसंबन्धी, तथा कर्कटजलाऽऽदिकं च कर्कट सव्वे सत्ता सव्वे जीवा।" सर्वे प्राणाः सर्व एव पृथिव्यप्तेजोवायुकानि चिर्भिटकानि, तन्मध्यवर्ति जलं, तदादिर्यस्य तत्कर्कटजला वनस्पतयः द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियबलोच्छासनिःश्वासाऽऽयुष्कलक्षणऽऽदिकमादिशब्दात् खज्जूर्रद्राक्षाचिञ्चिणिकापानकेक्षुरसाऽऽदिग्रहः / प्राणधारणात् प्राणाः। आचा० १श्रु० ४अ० 130 / (कतिविधाः श्रुद्रजन्तु एतत्सर्व पानम्। प्रव० ४द्वार। प्राणा इति खुडुजंतु' शब्दे तृतीयभागे 750 पृष्ठे उक्तम्) चित्रपानलक्षणमाह पाणकलंद न०(पाणकलन्द) "पाणकलंद कुंड।" उदरमध्यभागभवे, उस्सेइम संसेइम, पुप्फरसो रत्तपभिइ तणुजायं / उपान आउक्काओ सव्वो, सोवीरजवोदगाईयं / / 4 / / पाणक्कमण न०(प्राण्याक्रमण) द्वीन्द्रियाऽऽदीनां त्रसानां पादेन क्रीडने. आव०४ अधिol उच्छुरस मेरयसुराऽऽसव बप्पं य सिरिफलाइ फलनीरं। हिमकरवहरतणाई, चित्तं पाणं विणिहिट्ठ॥४६|| ल०प्र०। / पाणक्खण पुं०(प्राणक्षय) वलक्षणे, भ० ३श०७३०। मारिय ते प्राणनाशे, जी०३ प्रति०४अधिo पानीयस्य अचित्तत्वकालः-उष्णकालाऽऽदौ उष्णं प्रासुकं वा पानीय पञ्चाऽऽदिप्रहरं यावदचित्त, ततः परं सचित्तं भवतीत्यक्षराणि कुत्र सन्ति / पाणग न०(पानक) द्राक्षापानकाऽऽदौ, स्था० ३ठा० १उ०। चं० प्र० / सू० प्र०ा भला "नरवइजोग्गो पंचहि वारसेहिं जं सीसग होज्जा लोणदवे तथा तत्र यावत्त्रसजीवोत्पत्तिर्जाता न भवति तावद् गालितं तत्पातुं कल्पते, न वा इति प्रश्रे, उत्तरम्-अत्र उष्णकालाऽऽदौ उष्णं प्रासुकं वा सहिय तं पाणगो त्ति वुचइ।" पं०चू० १कल्प०। पं० भा०। व्रतियोग्ये पानीयं पञ्चाऽऽदि प्रहरं यावदचित्तं, ततः परं सचितं भवतीत्यक्षराणि जलविशेष, भ० 15 श०। (उत्सेदिमाऽऽदिपानकानामचित्तीभवनम् प्रवचनसारोवारसूत्रवृत्तिमध्ये प्रोक्तानि। तथा तत्र त्रसजीवोत्पत्तिर्जाता 'अचित्त' शब्दे प्रथमभागे 187 पृष्ठे गतम्) भवतु, मा वा तथाऽपि गालितमेव तद्व्यापारणीय, नागालितमिति अचित्तत्वकालः कति प्रहरान यावत्- ''पणपहर माह फग्गुण, पहरा परम्परा दृश्यते इति। ही०४प्रका०। पानीयानामचित्तत्वकालः-एकविंश चत्तारि चित्तवइसाहे। जिट्ठासाढे तिपहर, तेण परं होइ अचित्तो' ||2|| तिपानीयानां प्रासुकीभवनानन्तरं पुनः कियता कालेन सचित्तता चालितस्तु मुहूर्तादूर्द्धमचित्तः, तस्य चाऽचित्तीभूतानन्तरं विनशनकालभवति? तथा तेषां सर्वेषां सांप्रतं प्रवृत्तिः कथं नास्तीति प्रश्रेउत्तरम् - मानं तु शास्त्रे न दृश्यते, परं द्रव्याऽऽदिविशेषेण वर्णाऽऽदिविअत्र उष्णोदकस्य यथा वर्षाऽऽदौ प्रहरस्त्रयाऽऽदिकः कालः प्रोक्तोऽस्ति परिणामाऽभवनं यावत्कल्पते उष्णनीरं तु त्रिदण्डोत्कालितावधि तथा प्रासुकोदकधावनाऽऽदीनामपीति बोध्यम्. तेषां प्रवृत्तिस्तु यथा मिश्रम् / यदुक्तम् पिण्डनिर्युक्तौसभवं विद्यते इति / ही०३प्रका०ा पा भावेल्युट् पान, जलाऽऽदेरुपभोगे. "उसिणोदगमणुवत्ते, दंडे वासे अपडिअमित्तम्मि। दर्श० १तत्त्व। उच्छासाऽऽदौ, स्था० १ठा० बले, स्था० ६डा०। प्रवन मुत्तूणाऽऽदेसतिग, चाउलउदगं बहुपसन्नं // 18 // " जीविते, ग०२ अधि०। “पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, निःश्वास अनुवृत्तेषु त्रिदण्डेषु उत्कालेषु जलमुष्ण मिश्र, ततः परमचित्तं, तथा उच्छासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोगीकरण वर्षे वृष्टौ पतितमात्रायां ग्रामाऽऽदिषु प्रभूतमनुष्यप्रचारभूमौ यजल तु हिंसा // 1 // " दर्श०५ तत्त्व०। विशे० सूत्रका प्रव० दशा आतुन तद्यावन्न परिणमति तावन्मिश्रम, अरण्यभूमौ तु यत्प्रथमं पतति आवाजी०। द्विविधाः प्राणाः-द्रव्यप्राणाः, भावप्राणाश्वा प्रज्ञा०१पद / तत्पतितमा मिश्र, पश्चानिपतत्सचित्तम्। आदेशत्रिकं मुक्त्वा तण्डुलो(लेच पण्ण-वणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 388 पृष्ट व्याख्याताः) निश्वासे, दकमबहुप्रसन्नं मिश्रम्, अतिस्वच्छीभूतं त्वचित्तम्। अत्रत्रय आदेशा यथा साभा (केप्राणिनः कियता कालेन प्राणन्तीति आण शब्दे द्वितीयभागे केचिद्वदन्ति तण्डुलोदके तण्डुलप्रक्षालनभाण्डादन्यत्र भाण्डे उत्क्षिप्यमाणे 105 पृष्ठे उक्तम्) उच्छासनिःश्वासयोरपि काले, तं०। संख्यातावलि- त्रुटित्वा भाण्डपाचे लग्ना बिन्दवो यावन्न शाम्यन्ति तावन्मिश्रम् / अपरेतु काप्रमाणे निश्श्वासकाले, स्था० 2010 ४उ०। तथैव जाता यावद् बुदबुदा न शाम्यन्ति तावत्। अन्ये तु यावत्तन्दुला न हट्ठस्सऽनवगप्पस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो। सिद्धयन्ति तावत् / एते त्रयोऽप्यादेशा अनादेशाः, रूक्षेतरभाण्डएगे ऊसासणीसासे, एस पाण त्ति वुचइ / / 1 / / पवनाग्निसंभवाऽऽदिभिरेषु कालनियमस्याभावात्ततोऽतिस्वच्छीभूतमेवा Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणग 827 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणग चित्तम् / 10 १अधि०। ('तिव्वोदग' इत्यादि गाथा 'आउकाय' शब्दे द्वितीयभागे 23 पृष्ठे गता) (परिडवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 572 पृष्ठ उदकससक्तस्याऽऽहारस्य परिष्ठापनिका गता) ___ चतुर्थभक्तिकाऽऽदेः चतुर्थभक्तिकस्य पानकानिचउत्थभत्तियस्स णं भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाई पडिगाहित्तए / तं जहा-उस्सेइमे, संसेइमे, चाउलधोवणे / छ?भत्तियस्स णं भिक्खुस्स कप्पंति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए। तं जहा-तिलोदए, तुसोदए, जवोदए। अट्ठमभत्तियस्स गंभिक्खुस्स कप्पति तओ पाणगाइं पडिगाहित्तए / तं जहा / आयामए, सोवीरए, सुद्धवियडे। तद्यथाऽस्ति सचतुर्थभक्तिकस्तस्य, एवमन्यत्रापि, शब्दव्युत्पत्तिमात्र- | मेतत्, प्रवृत्तिस्तु चतुर्थभक्ताऽऽदिशब्दानामेकाऽऽधुपवासाऽऽदिष्विति। मिक्षणशीलं धर्मस्तत्साधुकारिता वा यस्य स भिक्षुर्भिनत्ति वा क्षुधमिति भिक्षुस्तस्य पानकानि पानाऽऽहारा उत्स्वेदेन निवृत्तमुत्स्वेदिमं येन ब्रीह्यादि पिष्ट सुराऽऽद्यर्थम् उत्स्वेद्यते / तथा संसेकेकेन निवृत्तमिति संसेकिमम् / अरणिकाऽऽदिपञ्चशाकमुत्काल्य येन शीतलजलेन संसिच्यते तदिति। तन्दुलधावनं प्रतीतमेव / तिलोदकाऽऽदि तत्तत्प्रक्षालनजलं, नवरतुषोदकं ब्रहिथुदकम् / आयामकमवश्रावणं सौवीरकंकाजिक शुद्धं विकटमुष्णोदकम्। स्था०३ठा० ३उ०। ('गिलाण' शब्दे तृतीयभागे 886 पृष्ठे तस्मै काजिक तण्डुलोदकं संसृष्टं चेति क्रमेण देयमित्युक्तम्) पानकग्रहणविधिः-'गच्छरसइऐं अकप्पे, अंबिलभरिए अऊसित्ते" इति द्वारमभिधित्सुः प्रथमतः संबन्धमाहभुत्ते भुंजंतम्मि तु, जम्हा नियमा दवस्स उवओगो। समहियतरो पयत्तो, कायव्वो पाणए तम्हा / / 635 / / भुक्ते भोजनानन्तरं पानार्थ , संज्ञाभूमिगमनार्थवा, भोजनलग्नगलरक्षणार्थ यस्मान्नियमाद्वस्य पानकस्योपयोगो भवति तस्मात् भक्तग्रहणप्रयत्नात् समधिकतरः प्रयत्नः पानकग्रहणे कर्तव्यः। इत्यतस्तद्ग्रहणविधिरुत्सृज्यते। इह शतिकेषु वा गच्छेषु प्रभूतेन पानकेन कार्य भवति, तच कल्पनीयमेव ग्रहीतव्यम्, अतस्तद्विधिप्रतिबद्धद्वारसंग्राहिकामिमा गाथामोहपाणगजाइणियाए, आहाकम्मस्स होइ उप्पत्ती। पूतीऍ मीसजाए, कडे य भरिए य ओसित्ते / / 636|| पानकस्य याशायामाधाकर्मण उत्पत्तिर्भवति सा वक्तव्या। ततः (पूइ त्ति) पूतिका (मीस त्ति) स्वगृहयतिमिश्रा स्वगृहपाखण्डिमिश्रा स्वगृह यावदप्येकमिश्रा च। (कडे य त्ति) आधाकृता क्रीतकृताऽऽत्मार्थकृता वक्तव्या (भरिए त्ति) भरणं भरितमस्ति नामाभिधातव्यम् (ओसित्त त्ति) उत्सेचनमुत्सिवतं तद्वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः / अथ विस्तरार्थमाहअण्णोऽनदवोभासणसंदेसो पुण्णे वेइ घरसामी। कल्लं ठवेहि अन्नं, महल्लसोवीरिणिं गेहे / / 637 / / कोऽपि भद्रको गृहपतिरन्यान् संघाटकान् द्रव्यस्याऽवभाषणं कुर्वाणान् | दृष्ट्वा तेषां च मध्ये केषाञ्चित् संघाटकानां संदेशं मुत्कलनं गृहीतम् / अग्रेतनैः संघाटकैः पानकं नास्तीदानीं भवद्योग्यमिति क्रियमाणं निरीक्ष्य-(पुणे ति) पुण्यार्थं गृहस्वामिनी ब्रवीतिधर्मप्रिये ! मा कश्चनाऽपि साधु जङ्गमं निधिमिव गृहाङ्ग-णमायात प्रतिषेधयेः / किं भवत्या दानधर्मकथायामयं श्लोको नाऽऽकर्णितः? यथा-"दातुरुन्नतवितस्य, गुणयुक्तस्य वाइर्थिनः। दुर्लभः खलु संयोगः, सुबीजक्षेत्रयोरिवः ||1 // " ततः सा ब्रूयात्-नास्त्येतावन्तं साधूनां योग्यं काजिकम्। ततोऽसौ गृहपतियात्कल्पे स्थापयान्यां महतीं सौविरीणीमम्लिनीम् गेहे येन सर्वेषामपि योग्यं पानकं पूर्यते। एतत्त्वाकर्ण्यवक्तव्यम्मा काहिसि पडिसिद्धो, जइबूया कुणसु दाणमन्नेसिं। ते चुट्ठिविवजी, न यावि निचं अधिपडं ति१३८|| न कल्पते एवं विधीयमानं ग्रहीतुमतोमा कार्षीः / यद्येवं प्रतिषिद्धः स गृहस्वामी ब्रूयाद् -प्रिये ! कुर्यास्त्वं तावदपरां सौवीरिणी, यद्येष न गृहीष्यति ततोऽन्येषा साधूनां पानकदानं करिष्यते / ततो वक्तव्यम्तेऽपि साधव उद्दिष्टविवर्जिनःसाधर्मिकमुद्दिश्य कृतं वर्जयितुं शीलं येषा ते तथा, नाऽपि च नित्यं पानकार्थमपि निपतन्ति, अनियतभिक्षाटनशीलत्वादेषाम्। . इत्थमुक्ते यद्यसो गृहस्वामी ब्रूयातअम्ह वि होहिइ कजं, घेच्छंति बहू य अन्नपासंडा। पत्तेयं पडिसेहो, साहारे होइ जयणा उ।।६३६।। अस्माकमपि भविष्यति कार्य काजिकेन, ग्रहीष्यन्ति च बहवो - ऽन्येऽपि युष्मद्व्यतिरिक्ताः पाखण्डिन इति / तत्र साधारणे यतना कर्त्तव्या / यथा अस्माकं तावन्न कल्पते (पत्तेयं पडिसेहो ति) अथ गृहपतिर्भणति-अन्येऽपि निन्थाः पानकार्थमायास्यन्ति, तेभ्यो दास्यते, इत्थं प्रत्येक निर्ग्रन्थानेवाऽऽश्रित्याऽभिधीयमाने प्रतिषेधः कार्यो, न कल्पते साधूनामित्थं विधीयमानम्। एवं प्रतिषिद्धेऽपि कोऽपि सप्त सौवीरिणीः स्थापयेत्। ताश्चैताःआहाकम्मि य संथर, पासंडमीसए जाव कीऍ पूइ अत्तकडे / एक्के कम्मि उ सत्त उ, करे य काराविए चेव / / 140 / / आधाकर्मिका साधूनामेवार्याय कारिता 1, स्वगृहपतिमिश्रा गृहस्थ साधूनां चार्थोय निर्मापिता 2, स्वगृहपाखण्डिमिश्रा, गृहस्य पाखण्डिना चार्थाय कारिता ३,यावदर्थिकमिश्रातुयावन्तः केचनागारिणः पाखण्डिनस्त्वागमिष्यन्ति स्वगृह चोद्दिश्य कृता४, क्रीतक्रीता साध्वर्थ मूल्येन गृहीता 5, पूतिकर्मिका आधाकर्मिकमुधाऽऽदिना पूरितछिद्रा 6, आत्मार्थ कृता, स्वगेहार्थमेव स्थापिता 7 एतासा सप्तानां सीवीरिणीनामेकैकस्यां संथरभरणानि भवन्ति सप्त च सप्तभिस्ताडित एकोनपञ्चाशद्भवति। एषा च प्रत्येक कृते कारापिते च संभवति, ततो द्वाभ्यां गुण्यते, जाता भेदानामष्टानवतिरिति। अथ सप्त भरणानि दर्शयतिकम्मघरे पासंडे, जावंतिय कीय पूइ अत्तकडे / Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणग 828 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणग भरणं सत्तविकप्पं, इक्विक्कीए उ रसिणीए ||641|| आधाकर्मिक 1, स्वगृहयतिमिश्र 2, स्वगृहपाखण्डिमिश्रं 3, यावदर्थिकमिश्र 4, क्रीतकृतं 5, पूतिकर्भिकम् 6, आत्मार्थकृतं चेति 7 सप्तविकल्पं सप्तप्रकारं भरणमेकैकस्यां रसिन्यां सौवीरिण्यां भवति। अथ किं सप्तैव रसिन्यो भवन्ति नाधिका इत्युच्यतेसत्त त्ति नवरि नेम्म, उपगमदोसा हवंति मयो वि। संजोगा कायव्वा, सत्तहिँ भरणेहँ रसिणेणं / / 642|| सप्तेति पदुक्तं तन्नवर केवल नेम चिह्नमुपलक्षणं द्रष्टव्य, तेनोद्गमदोषा आदेशिकाऽऽदयोऽन्येऽपि यथासंभवमत्र मन्तव्याः। याः प्रक्षिप्तैरभ्यधिका अप्यविलन्यो भवन्ति, अत्र च संयोगा भङ्गकाः कर्तव्याः, सप्तभिर्भरणैः सप्तानामेव रसिनीनामा-आधाकर्मिका सौवीरिणी भरणमपि तस्यामाधाकर्मिका सौवीरिणीभरणं स्वगृहपतिमिश्र, एवं सौवीरिणी तस्यैव भरणं पाखण्डिमिश्रम, यावदर्थिकमिश्रम्, क्रीतकृतं. पूतिकर्मिकम्, आत्मार्थकृतम्। एवं स्वगृहपतिमिश्राऽऽदिष्वपि सौवीरिणीषु प्रत्येक सप्त 2 भरणानि योजनीयानि। ततश्च कियन्तो भङ्गका उत्तिष्ठन्ते इत्याहजावइया रसिणीओ, तावइया चेव होंति भरणा वि। अउणो वण्णं भेया, सयग्गसो यावि णेयव्वा / / 643|| यावन्या यावत्संख्याका रसिन्यस्तावन्त्येव तावत्संख्याकान्येव भवन्ति भरणानि / ततश्च यदा सप्ताम्लिन्यः, सप्त च भरणानि गृह्यन्ते तदा एकोनपञ्चाशद्भेदा भङ्ग का भवन्ति / अथान्यानप्युद्गमदोषान प्रक्षिप्य बहुतराः सौवीरिण्यो बहुतराणि च भरणानि विवक्ष्यन्ते ततः शतागशः शतसंख्यापरिच्छिन्ना अपि भेदाः मन्तव्याः। अथाऽऽधाकर्मिकभरणं भावयति मूलभरणं च भावयतिमूलभरणं तु वीया, तहिं छम्मासान कप्पए जाव / तिन्नि दिणा कड्डियए, चाउलउदए तहाऽऽयामे 1954|| मूलभरणं नाम प्राशुकायामम्लिन्या राजिकाऽऽदीनि बीजानि संयतार्थ यत्प्रक्षिप्यन्ते तच्चाधाकर्मिकमतस्तत्र यदन्यत् प्राशुकमपि क्षिपन्ति तत् षण्मासान यावन्न कल्पते, परतस्तुकल्पते। अथ तस्या रसिन्याःसकाशात्तदाधाकर्मिकमाकार्षित ततस्तस्मिन्नाकर्षिते (चाउलोदग) तन्दुलधावनं तथा आयाममवस्रायणं यत्तत्र क्षिप्यते तत् त्रीन दिनान न कल्पते. पूतिकर्मत्वात्, तत ऊर्द्ध कल्पते। अथ स्वगृहमिश्राऽऽदिभरणान्यतिदिशन्नाहएमेव सघरपासंइमीस जाव किइ पूइ अत्तकडे। कयकीयकडे ठविए, तहेव वत्थाइणं गहणं / / 645|| एवमेवाऽऽधाकर्मिकचरणवत् स्वगृहमिश्रं पाखण्डमिश्रं जावदर्थिकमिश्र क्रीतकृतं पूतिकर्म आत्मार्थकृतं च भरणं मन्तव्यम् / वस्त्राऽऽदिविषयमप्यतिदेशमाह-"कय इत्यादि'' पश्चार्द्धम् / कृते संयतार्थ निष्पादिते क्रीतकृते मूल्येन गृहीते स्थापिते साध्वर्थ निक्षिप्ते तथैव पानकवत् वस्त्राऽऽदीनां ग्रहणं भावनीयम् / एतच्च पश्चादूर्द्धमुत्तरत्र भावयिष्यते। अथानन्तरोक्तभङ्ग केषु प्रायश्चित्तमाहजेण असुद्धा रसिणी, भरणं उभयं च तत्थ जाऽऽरूवणा। सुद्धभय लहुसमित्ते, कम्ममजीवे वि मुणिभरणे / / 146|| पूर्वोक्तभङ्गेषु यत्र येनाऽऽधाकर्माऽऽदिना दोषणाशुद्धा रसिनी भरणं च उभयंवा सौवीरिणीभरणयुगं यत्र येन दोषण दूषितं तत्र तद्दोषनिष्पन्ना या काचित प्रत्येक संयोगतो वा आरोपणा सा वक्ष्यमाणनीत्या वक्तव्या। तथा यत्र रसिनी भरणं च उभयमपि शुद्ध,परं संयतार्थ पानकमुत्सितं तत्र लघुमासः। (कम्ममजीवे वि मुणिभरणे त्ति) यदजीवमपि प्राशुकमपि मुनीनां हेतोर्भरणं क्रियते तदप्याधाकर्म मन्तव्यं परं विशोधिकोटिः / अथाऽऽधाकर्माऽऽदिभेदेष्वारोपणामाहतिन्नेव य चतुगुरुगा, दो लहुगा दो गुरुग अंतिमो सुद्धो। एमेव य भरणे वी, एक्कीए उ रसिणीए।।६४७|| आधाकर्मणि स्वगृहमिश्रे पाखण्डमिश्रेच प्रत्येकं चतुर्गुरुकमिति त्रयः चतुर्गुरवो भवन्ति, द्वयोर्यावदर्थिक्क्रीतकृतयोचतुर्लघवः, भक्तपानपूतिके गुरुमासः, उपकरणपूतिके गुरुमासः, उपकरणपूतिके लघुमास इत्यनुक्तमपि दृश्यम् / अन्तिमः आत्मार्थकृतलक्षणो भेदः शुद्धः एवमेकैकस्यां रसिन्यामुक्तम्, भरणेऽप्येकैकस्मिन्नेव मन्तव्यम। अथाऽऽगमे चाऽम्लिनीनां मध्ये को विशोधिकोटिः को वा ___ अविशोधिकोटिरित्यादिचिन्ता चिकीर्षुराहसंयतकडे य देसे, अप्फासुग फासुगे य भरिए य। अत्तकडे वि य ठविए, लहुगो आणाइणो चेव / / 648|| संयतानेव केवलानाश्रित्य कृतं संयतकृतमाधाकर्म (देसि त्ति) देशत एकदेशेन संयताऽऽदीनामाश्रित्य कृतं देशकृतं. गृहमिश्राऽऽदिकमित्यर्थः / अप्राशुकेन प्राशुकेन वा संयतार्थ यद्धरणं तदप्याधाकर्म (अत्तकडे विय ठविए त्ति) आत्मार्थ कृतायामम्लिन्या यदात्मार्थं भरणं तदपि यदि श्रमणार्थमुत्राज्य बहिः स्थापयति तदा स्थापनादोष इति कृत्वा न ग्रहीतव्यं, यदि गृह्णाति तदा लघुको मासः, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः / एषा नियुक्तिगाथा। अथैनामेव व्याख्यानयतिदेसकडा मज्झपदा, आदिपदं अंतिमंच पत्तेयं / उग्गमकोडी च भवे, विसोहिकोडीच जो दोसो / 946 / यानि मध्यपदानि स्वगृहमिश्रपाखण्डिमिश्रयावदर्थिकमिश्रक्रीतकृतपूतिकर्मलक्षणानि तानि देशकृतान्युच्यन्ते, देशतः स्वगृहार्थ देशतस्तु साध्वाद्यर्थममीषा क्रियमाणत्वात् / यत्पुनरादिपदमाधाकर्म अन्तिमपदं चात्मार्थ कृतं तद् द्वितीयमपि प्रत्येकमेकविषयं केवलमेव, साधुपक्षं स्वगृहपक्षं चोद्दिश्य प्रवृत्तत्वात्। अत्र चयो देशोदेशकृतः स्वगृहमिश्राऽऽदिको दोषः स उद्गमकोटिकोटिर्वा भवेत् अविशोधिकोटिरित्यर्थः / विशोधिकोटिर्वा / तत्र स्वगृहमिश्र पाखण्डमिश्रं च नियमादविशोधिकोटी. पूतिकर्मयावदर्थिकमिश्रक्रीतकृतं चेति त्रीणि विशोधिकोटयः। आधाकर्मिकं पुररेकान्तेनाविशोधिकोटिः; आत्मार्थ कृतं तु निरवद्यमेवेति। ''3पाया। Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणग 826 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणग जं जीवजुयं भरणं, तदफासुय फासुयं तु तदभावा। तं पि य हु होइ कम्म, न केवलं जीवघाएण ||650|| यजीवयुतं राजिकाऽऽदिबीजसहितं भरणं तदप्राशुकं, तदभावाद्राजिकाऽऽदिबीजाभावाद्यदरण तत्प्राशुकं,तदपि च निर्जीवं भरणं संयतार्थ क्रियमाणमाधाकर्म भवति,न केवलं जीवघातेन राजिकाऽऽदिबीजजन्तूपघातेन निष्पन्नमिति। अथोत्सिक्तपदं भावयतिसमणे घरें पासंडे, जावं ति य अत्तणो य मुत्तूणं / छट्ठो नत्थि विकप्पो, उस्सिंचणमो जयट्ठाए ||651 / / काजिकस्य सौवीरिणीतो यन्निष्काशनं तदुत्सिक्तम् / तच पञ्चधाश्रमणार्थ साधूनामयित्यर्थः१, स्वगृहयतिमिश्र 2, पाखण्डमिश्रं 3, यावदर्थिकमिश्वम् 4, आत्मार्थकृतम् 5, एतान् पञ्चभेदान् मुक्त्या अपरः षष्ठो विकल्पो नास्ति यदर्थमुत्सेचनं भवेत् / अत्र चाऽऽत्मार्थं यद् गृहिभिरुत्सितं तदेव गृहीतुंकल्यते, न शेषाणीति। उक्त आहारविषयो विधिः। अथोपधिविषयं तमेवाऽऽहतत पाइय बिततं पि य, वत्थं एकेक्कगस्स अट्ठाए। पाथं भिन्नं निकोरियं च जं जत्थ वा कमइ ||652 / / वस्त्रमेकैकस्यार्थाय ततं पाथितं विततं वक्तव्यम् / तद्यथा-संयतार्थ ततं, संयतार्थ पाथित, संयतार्थमेव च विततम् 1 / संयतार्थतत, संयतार्थ पायितम्, आत्मार्थ विततम् / संयतार्थ ततम् स आत्मार्थ पायितं, संयतार्थ विततम् 3 संयतार्थ ततम्, आत्मार्थ पायितम्, आत्मार्थमेव विततम् 4 / एवमात्मार्थ ततेनापि चत्वारो भङ्गा लभ्यन्ते, जाता अष्टौ भङ्गाः / अत्र चाष्टमो भङ्गः शुद्धः, त्रयाणामप्यात्मार्थ कृतत्वात् / एवं स्वगृहमिश्रपाखण्डमिश्रयावदर्थिकनिश्रेष्वपि द्रष्टव्यं, सर्वत्रापि चाष्टमो भङ्गः शुद्धःशेषास्तु सर्वेऽप्यशुद्धा इति। पात्रमप्युदिन्नं निष्कीर्ण चैवमेव वक्तव्यम्। तद्यथा-संयतार्थमुद्भिनं, संयतार्थ चोत्कीर्ण?, संयतार्थमुदिन्नम् आत्मार्थमुत्कीर्णम् 2, आत्मार्थमुदिन्नं संयतार्थमुत्कीर्णम् 3, आत्मार्थमुदिन्नम्, आत्मार्थमेव चोत्कीर्णम् 4aa अत्र चतुर्थो भङ्गः शुद्धः, शेषास्त्रयोऽप्यशुद्धाः। यद्वा-क्रीतकृतस्थापिताऽऽदिकं यत्र वस्त्रे पात्रे वा क्रमते अवतरति तं तत्र सम्यगुपयुज्य योजनीयम् अत्र च तननं वा विशोधिकोटिः,पायनं विशोधिकोटिरित्याचार्यस्य मतम्। परस्तुब्रवीतिपायनमशोधिकोटिः,कन्दाऽऽदिजीवोपघातनिष्पन्नत्वात्। तननं वितननं च विशोधिकाटिः जीवोपघातस्याऽदृश्य मानत्वादिति। अत्र सूरिराहनास्माकं जीवोपघातेनैवाऽऽधाकर्म, किं तु श्रमणार्थ वस्वाऽऽदेर्यत्पर्यायान्तरनयनं तदप्याधाकर्म मन्तव्यम्। अपिचअत्तट्ठियतंतूहिं, समणट्ठ ततो अ पाइय वुतो य। किं सो ण होइ कम्म, फासूण विवजिओ जो उ / / 953 / / जइ पज्जणं तु कम्म, इतरं न स कप्पऊ धोओ। अह धोओ विन कप्पइ,तणणं विणणं तओ कम्म 954 आत्मार्थिताः स्वार्थ निष्पादिता ये तन्तवस्तैः श्रमणार्थ यः पटः ततः पायितो ऊतश्च, स प्राशुकेनाऽपि स्वार्थमचित्तीकृतेन खलिकाद्रव्यसंभारेण पायितः सन् किम् आधाकर्म न भवति ? त्वदुक्तनीत्या न भवतीति भावः / ततो याद जीवोपघातनिष्पन्नत्वा-त्पायनमाधाकर्म, इतरतु तननं वितननं वा कर्म न आधाकर्मति तर्हि स पटो धौतः सन् कल्पता, भवतोपनीतपायनिकालेपत्वात्। अथ व्रवीथाः-धौतोऽप्यसौ न कल्पते ततस्तननं वितननं चार्थादाधाकर्म संवृत्तमिति सिद्धू नः समीहितम्। बृ०१ उ०२प्रक० अपरिणतं पानकं न गृह्णातिसे भिक्खू वा भिक्खूणी वा०जाव पविढे समाणे से जं पुण पाणगजायं जाणेज्जा / तं जहा-उस्सेइमं वा संसेइमं वा चाउलोदगं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणा धोतंणविलं अव्वोकं तं अपरिणतं अविद्धत्थं अफासुयं अणेसणिजं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / अहपुण एवं जाणेज्जाचिरा धोयं अंबिलं वुक्कतं परिणतं विद्धत्थं फासुयं पडिगाहेजा / से भिक्खू वा०जाव पविढे समाणे से जं पुण पाणगजायं जाणेजा। तं जहा-तिलोदगं वा, तुसोदगं वा, जवोदगं वा, आयामं वा, सोवीरं वा, सुद्धवियडं वा अण्णतरं वा तहप्पगारं पाणगजातं पुव्वामेव आलोएज्जा, आउसो त्तिवा भगिणि त्ति वा दाहिसि मे एतो अण्णतरं पाणगजायं? से सेवं वदंतस्स परो वएजाआउसंतो समणा ! तुमं चेवेदं पाणगजातं पडिग्गहेण वा उस्सिंचियाणं उयत्तियाणं गिण्हाहि, तहप्पगारंपाणगजायं सयंवा गिण्हिज्जा, परोया से दिज्जा, फासुयं लाभे संते पडिगाहिज्जा / (41) / स भिक्षुर्गृहपतिकुल पानकार्थ प्रविष्टः सन् पत्पुनरेवं जानीयात् / तद्यथा-(उस्सेइमं वेति) पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदकम् (संसेइमं वेति) तिलधावनोदकम् / यदि वा-अरणिकाऽऽदिसंस्विन्नधावनोदकम्। तत्र प्रथमद्वितीयोदके प्रासुके एव तृतीयचतुर्थे तु मिश्रे कालान्तरेण परिणते भवतः / (चाउलोदयं ति) तन्दुलधावनोदकम् / अत्र च त्रयोऽनादेशाः / तद्यथा-बुबुदविगमो वा, भाजनलग्नविन्दुशोषो वा, तन्दुलपाको वा। आदेशस्त्वयम्-उदकरवच्छीभावः,तदेवमाधुदकम् अनाम्लं स्वस्वादादेचलितम् अव्युतक्रान्तमपरिणतमविध्वस्तमप्रासुकंयावन्न प्रतिगृहीयादिति। एतद्विषरीत तु गाह्यमित्याह - अहे त्यादि सुगमम् / पुनः पानकाधिकार एव विशेषार्थमाह- स भिक्षुर्गहपतिकुलं प्रविष्टो यत्पुनः पानकजातमेवं जानीयात् / तद्यथा- 'तिलोदक' तिलैः केनवित्प्रकारेण प्रासुकीकृतमुदकम् 4 एवं तुर्षर्यवैर्वा 5-6 / तथा-आचाम्लम् अवश्यानं 7 'सौवीरम्' आरनालं 8, 'शुद्धविकट' प्रासुकमुदकम् 6, अन्यद्वा तथाप्रकार द्राक्षापानकाऽऽदि 'पानकजातं' पानीयसामान्यम्, पूर्वमेव अवलोकयेत्' पश्येत् / तच दृष्ट्वा तं गृहस्थम् अमुक ! इति वा भगिनि ! इति वेत्यामन्त्र्यैवं ब्रूयात्-यथा दास्यासे Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणग 830 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणग में किश्चित्पानकजातम् ? स परस्तं भिक्षुमेवं वदन्तमेवं ब्रूयात् यथा आयुष्मन् ! श्रमण! त्वमेवेद पानकजात स्वकीयेन पतद्ग्रहेण टोप्परिकया कटाहकेन वोत्सिञ्च्यापवृत्त्य वा पानकभाण्डकं गृहाण / स एवमभ्यनुज्ञातः स्वयं गृह्णीपात्परो वा तस्मै दद्यात्, तदेवं लाभे सति प्रतिगृह्णीयादिति। किञ्चसे भिक्खू वा० जाव समाणे से जं पुण पाणगजायं जाणेज्जा अणंतरहियाए पुढवीए०जाव संताणाए उद्घठ्ठ 2 णिक्खित्ते सिया, असंजए भिक्खुपडियाए उदउल्लेण वा ससिणिद्धेण वा सकसाएण वा मत्तेण वा सीतोदएण वा संभोएत्ता आहटु दलएज्जा, तहप्पगारं पाणगजातं अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खूणिए वा सामग्गियं जं सव्वद्वेहिं समिएहिं सएहिं सदा जएज्जा / / 42 / / स भिक्षुर्यत्पुनरेव जानीयात्तत्यानक सचित्तेष्वव्यवहितेषु प्रथिवीकायाऽऽदिषु तथा मर्कटकाऽऽदिसन्तानके वाऽन्यतो भाजनादुवृत्योद्भूत्य निक्षिप्त व्यवस्थापित स्यात्।यदि वासएवासयतो गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया भिक्षुमुद्दिश्य उदकाऽऽद्रेण गलबिन्दुनासस्निग्धेन गलदुदकबिन्दुना सकषायेण सचित्तपृथिव्याद्यवयवगुण्ठितेन मात्रेण भाजनेन शीतोदकेन वा (संभोएत्ता) मिश्रयित्वा आहृत्य दद्यात्तथाप्रकारं पानकजातमप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा न परिगृह्णीयात्। आचा०२ 0 १चू० 1107 उ०1 आमाऽऽदिपानकानिसे मिक्खू वा० जाव पविढे समाणे से जं पुण पाणगजायं जाणेज्जा। तं जहा-अंबगपाणगं वा अंबाडगपाणगं वा कविट्ठपाणगं वा मातुलिंगपाणगं वा मुद्दियापाणगं वा दालिमपाणगं वा खज्जूरपाणगंवा णालिएरपाणगंवा करीरपाणगं वा कोलपाणगं वा आमलपाणगं वा चिंचापाणगं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं सअट्ठियं सकणुयं सबीयगं असंजए मिक्खुपडियाए छब्वेण वा दूसेण वा बालगेण वा आबीलियाण परिवीलियाण परिसाइयाण आहटु दलएज्जातहप्पगारं पाणगजायं अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेजा। स भिक्षुर्गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत् पुनरेवंभूतं पानकजातं जानीयात्। तद्यथा- "अंवगपाणगं'' इत्यादि सुगमम् / नवरं मुडिया द्राक्षा, कोलानि बदराणि, एतेषु च पानकेषु द्राक्षाबदरांबिलिकाऽऽदि कतिचित्पानकानि तत्क्षणमेव संमद्य क्रियन्ते, अपराणि त्वाम्रामवाटकाऽऽदिपानकानि द्वित्रादिदिनसंधानेन विधीयन्ते इत्येवंभूतं पानकजातं तथाप्रकारमन्यदपि सास्थिक सहास्थिना कुलकेन यद्वर्त्तते, तथा सह कणुकेन त्वगाद्यवयवेन यद्वर्तते, तथा बीजेन सह यद्वर्तते। अस्थिबीजयोश्चाऽऽमलकाऽऽदौ प्रतीतो विशेषः / तदेयंभूतं पानकजातमसंयतो गृहस्थः भिक्षुमुद्दिश्य साध्वर्थ द्राक्षाऽऽदिकमामर्च पुनर्वशत्वग्निष्पादितछव्यकेन वा, तथा (दूस) वस्त्रं तेन वा, तथा (वालगेण त्ति) गवादिबालधिबालनिष्पन्नचालनकेन सुधरिकागृहकेन वेत्यादिनोपकरणेनास्थ्याद्यपनयनार्थं सकृदापीड्य पुनः पुनः परिपीड्य तथा परिस्राव्य निर्गाल्या- | ऽऽहृत्य च साधुसमीपं दद्यादित्येवं प्रकार पानकजातमुद्गमदोषदुष्ट, सत्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयात्। ते चामी उद्गमदोषाः"आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे य मीसजाए य। ठवणा पाहुडियाए, पाओअर कीय पामिच्चे // 6 // परियट्टिए अभिहडे, अभिण्णे मालोहडे इय। अच्छिज्जे अणिसटे, अज्झोयरए य सोलसमे // 13 // ' पिंप व्याख्या-साध्वर्थ यत्सचित्तमचित्तीक्रियते, अचित्तं वा यत्पच्यते तदाधाकर्म / तथा आत्मार्थ यत्पूर्वसिद्धमेव लड्डुकचूर्णकादि साधूनुविश्य पुनरपि सन्तप्तगुडाऽऽदिना संस्क्रियते तदुद्देशिकं सामान्येन विशेषतो विशेषसूत्रादवगन्तव्यमिति / यदाधाकर्माऽऽद्यवयवसंमिश्र तत्पूतीकर्म / संयतासंयताऽऽद्यर्थमादेराभ्याऽऽहारपरिपाको मिश्रम् / साध्वर्थ क्षीराऽऽदिस्थापन स्थापना भण्यते। प्रकरणस्य साध्वर्थमुत्सर्पणमवसर्पण वा प्राभृतिका / साधुनुद्दिश्य गवाक्षाऽऽदिप्रकाशकरण बहिर्वाप्रकाशे आहारस्य व्यवस्थापन प्रादुःकरणम्। द्रव्याऽऽदिविनयमयेन स्वीकृतं क्रीतम्। साध्वर्थ यदन्यस्मादुच्छिन्नकं गृह्यते तत् 'पामिच्चं' इति। यच्छाल्योदनाऽऽदि कोद्रवाऽऽदिना प्रतिवेशिकगृहे परिवर्त्य ददाति तत्परिवर्तनम्। यद् गृहाऽऽदेः साधुवसतिमानीय ददाति तदाहृतम। गोम.. याऽऽद्युपलिप्त भाजनमुद्भिद्य ददाति तदुनिन्नम् / मालाऽऽद्यवस्थित निश्रेण्यादिनाऽवतार्य ददाति तन्मालाहृतम्। भृत्यादेराच्छिद्य यहीयते तदाच्छेद्यम् / सामान्य श्रेणिभक्तकाऽऽधकस्य ददतोऽनिसृष्टम् / स्वार्थमधिश्रयणाऽऽदौ कृते पश्चात्तन्दुलाऽऽदिप्रसृत्यादिप्रक्षेपादध्यवपूरकः / तदेवमन्यतमेनाऽपि दोषेण दुष्ट न प्रतिगृहीयादिति। आचा० २श्रु०१चू०१अ०७उ०। (भक्तपानकमधिकृत्यविशेषः ‘गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 666 पृष्ठे गतः) पानकग्रहणम् / साम्प्रतं पानकविधिमाहतहेवुचावयं पाणं, अदुवा वारधोयणं / संसेइमं चाउलोदगं, अहुणा धोयं विवज्जए।।७।। तथैव यथा अशनम् उच्चावचं तथा पानम् उच्च वर्णाऽऽद्युपेतं द्राक्षापानाऽऽदि, अवचं वर्णाऽऽदिहीनं पूत्यारनालाऽऽदि। अथवा-वारकधावनं गुडघटधावनमित्यर्थः। संस्वेदजं पिष्टोदकाऽऽदि. एतदशनवदुत्सर्गापवादाभ्यां गृह्णीयादिति वाक्यशेषः / तदुलोदकम् - "अढिकरक" अधुना धौतमपरिणते विवर्जयेदिति सूत्राऽर्थः। अत्रैव विधिमाहजं जाणिज्ज चिरा धोयं, मईए दंसणेण वा। पडिपुच्छिऊण सोचा वा, जं च निस्संकियं भवे // 76 / / यत्तन्दुलोदक जानीयात् विद्यात् चिरधौतं, कथं जानीयादित्याहमत्या दर्शनन वा, मत्या तद्ग्रहणाऽऽदिकर्मजया, दशनेन वा वर्णाऽऽदिपरिणतसूत्राऽनुसारेण च,वा चशब्दार्थः, तदप्येवंभूतं कियतीवेलाऽस्य धौतस्येति पृष्ट्वा गृहस्थं श्रुत्वा वा महती वेलेति श्रुत्वा च प्रतिवचः, यच्चेति यदेव निःशङ्कितं भवति निरवयवप्रशान्ततया तन्दुलोदक तत्प्रतिगृह्णीयात्, इति विशेष: पिण्डनिर्युक्तावुक्त इति सूत्राऽर्थः / Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणग 831 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणग उष्णोदकाऽऽदिविधिमाहअजीवं परिणयं नचा, पडिगेण्हेज संजए। अह संकियं भवेज्जा, आसाइत्ता ण रोयए।७७।। उष्णोदकमीवं परिणतं ज्ञात्वा त्रिदण्डपरिवर्तनाऽऽदिरूपं मत्या दर्शनेन वेत्यादि वर्त्तते, तदित्थं भूत प्रतिगृह्णीयात् संयतः चतुर्थरसमपूत्यादिदेहोपकारकं मत्यादिना ज्ञात्वेत्यर्थः। अथ शङ्कितं भवेत् तत आस्वाध रोचयेत् विनिश्चयं कुर्यादिति सूत्राऽर्थः। तचैवम्थोवमासायणट्ठाए, हत्थगम्मि दलाहि मे। मा मे अच्चबिलं पूअं, नालं तण्हं विणित्तए / / 78|| स्तोकमास्वादनार्थं प्रथमं तावत् हस्ते देहि मे, यदि साधुप्रायोग्यं ततो गृहीष्ये, मा मे अत्यम्ल पूतिनाल तृडपनोदाय। ततः किमनेनानुपयोगिनेति सूत्राऽर्थः। आस्वादितं च सत्साधुपायोग्यं चेद् गृह्यते एव, नो चेदग्राह्यम्तं च अच्चंबिलं पूयं, नालं तिण्हं विणित्तए। दितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं 76! तं च होज अकामेण, विमणेणं पडिच्छियं / तं अप्पणा न पिवे, नो वि अन्नस्स दावए।।८।। तचात्यम्लाऽऽदि भवेत अकामेन उपरोधशीलतया विमनस्केनान्यचित्तेन प्रतीप्सितं गृहीतं तदात्मना कायापकारकमित्यनाभोगधर्मश्रद्धया न पिवेत्, नाप्यन्येभ्यो दापयेत, रत्नाधिकेनाऽपि स्वय दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थ दापनग्रहणम् / इह च-"सव्वत्थ संजम संजमाओ अप्पाणमेव।'' इत्यादि भावनयेति सूत्राऽर्थः / अस्यैव विधिमाहएगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया। जयणाए परिट्ठवेजा, परिट्ठाय पडिक्कमे ||1|| एकान्तमवक्रम्य गत्वा अचित्तं दग्धदेशाऽऽदि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रसृज्य च रजोहरणेन, स्थण्डिलमिति गम्यते। यतमत्वरितं प्रतिष्ठापयेत् विधिना त्रिर्वाक्यपूर्व व्युत्सृजेत्। प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेत ईर्यापथिकाम्। एतच्च बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणमबहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणनियमज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः। दश०५अ०१उ०ा बृक्षापं०व०। आव पानकजातं प्रतिगृह्य परिष्ठापयतिजे मिक्खु अण्णयरं पाणगजायं पडिग्गहित्ता पुप्फ २आइयंति, कसायं २परिट्ठावइ, परिट्ठावंतं वा साइजइ 42 अन्यतरग्रहणात् अनेके पानका प्रदर्शिता भवन्ति / खण्डकपानपुलसक्करादालिममुदितावितादि, पाने जातग्रहणात् प्रासुकं पडीत्युपसर्गे , ग्रहण आदाने विधिपूर्वकं गृहीत्वा, पुष्फणाम अच्छंवण्णगंधरसफासेहि पधाणं, कसायं स्पर्शादिप्रतिलोमसप्रधानं कषायं कलुषवहलमित्यर्थः / स्वसमसंज्ञाप्रतिबद्ध इदं सूत्रं, एवं करेंतस्स मासलहुं / एस सुत्तत्थो। अहुणा णिज्जुत्तीजं गंधरसोवेतं, अच्छं च दवं तु तं भवे पुप्फं। जं दुब्भिगंधिमरसं, कलुसंवा तं भवे कलुसं // 314 / / कंठा। घित्तूण दोण्णि वि दाव, पत्तेयं अहव एक्कतो चेव / जे पुप्फमादिइत्ता, कुन्ज कसाए विगिचणयं / / 315 / / दोण्णि वि पुष्कं कसायं च, एगम्मि वा भायणे पत्तेगेसु वा भायणेसु पुप्फमाइत्ता कसाए परिठ्ठवणं करेज, तस्स मासलहु। इमे य दोसे पावेजसो आणा अणावत्थं, मिच्छत्त विराधणं तहा दुविधं / पावति जम्हा तेणं, पुव्व कसाएतरं पच्छा // 316|| आयसंजमविराहणा, पुव्वं कसायं पिवे, इतरं पुप्फ पच्छा, जो पुप्फ पुव पिवे, कसायं परिहवेति, तस्सिमे दोसा। तम्मि य गिद्धो अण्णं, णेच्छे अलभंतों एसणं पेल्ले / परिठाविते य कूडं, तसाण संगामदिटुंतो // 317 / / अच्छदव्वे गिद्धो अण्णं कसायं णेच्छति पातुं, तं कसायं परिवेउं पुणो वि हिंडंतस्स सुत्तादिपलिमथो, अच्छं अलभंतो वा एसणं पेल्लेज, आयविराहणातिया य बहुदोसा। कलुसे य परिहविए कूडदोसो, जे कूडे पाणिणो वज्झंति / तहा तत्थ वि मच्छियादी पडिवज्झंति अण्णे य तत्थ बहवे पयंगा णिप्पतति, पिवीलिगाहि य संसजति। एवं बहुतसघातो दीसति। एत्थ संगामदिट्टतोतच्छ कलुसे परिद्वविए मच्छ्यिा ओलग्गति, तेसिं घरकोइला धावति, तीए वि मज्जारी, मज्जारीए सुणगो, सुणगस्स वि अण्णो सुणगो, सुणगणिमित्तं सुणगसामिणो कलह करें ति / एवं पक्खापक्खीए संगामो भवति, जम्हा एते दोसा तम्हा णो पुप्फ आदिए, कसायं परिवति। इमा सामायारी, वसहिपालो अत्यंतो भिक्खागयसाहुआगमणं गाउं गच्छमासज्ज एक दो तिणि वा भायणे उग्गाहेति, तो जो जहा साधुसंघाडगो आगच्छतितस्स तहा पाणभोयणाओ अच्छतेसु भायणेसुपरिगाहेति। एवं अच्छं पुढो कज्जति, कलुसं पि पुढो कजति, तं कसायं भुतं वा अभुतं वा पुव्वं पिबंति, तम्मि मिट्टिते पच्छा पुप्फं पिवति। पुप्फस्स इमे कारणाआयरिय अभावित पाणगट्ठता पाउपोस धुवणट्ठा। होति य सुहं विवेगो, सुह आयमणं व सागरिए // 310|| आयरियस्स पाणाए, एवं अभावियरस सेहस्स वि उत्तरकालं पाणहता, पायुपोस अपाणद्वार एतेसिं धुवणट्ठा उव्वरियरस य सुहं विवेगो कज्जति, कूडातिदोसा भवंति, सागारिए य आयमणादि सुहं कज्जति। भाणस्स कप्पकरणं, दणं बहि आयमंतो वा। ओभावणमम्गहणं, कुज्जा दुविधं च वोच्छेदं // 316 / / अच्छ भायणक रस कप्पकरणं भवति, बहले पुण इमे अहम्मतरा, असुचित्वात् / अग्गहणं वा करेज, सर्वलोकपाखंडधर्मातीता ह्ये ते अग्राह्याः, अणादरो वा अग्गहणं, दुविह वो Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणग 832 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह च्छेद करेजतद्व्यान्यद्रव्ययोः,तद्रव्यं पानकम्, अन्यद्रव्यं भक्त- | पाणपुण्ण त्रि०(प्राणपूर्ण) द्वीन्द्रियाऽऽदिजीवाऽऽकुले, स्था० 6 ठा०) वस्त्राऽऽदिव। पाणबह पुं०(प्राणवध) प्राणा इन्द्रियाऽऽद्यायुःपर्यवसानास्तेषां वधो जीवेन अह तस्स साधो अन्यस्य वा साधो अववाएणपुणपरिहावंतो विसुद्धो। सह वियोगीकरणं प्राणवधः। दर्श०२तत्त्व। प्रश्न प्राणातिपाते, प्रश्न जतो १आश्र०द्वार। वितियपदे दोहि वि बहू, मीसे व विगिचणारिहं होइ। प्राणवधवक्तव्यताद्वारसग्रह:अविगिचणारिहे, वा, जवणिजे गिलाणमायरिए॥३२०।। जारिसओ जनामा, जह य कओ जारिसं फलं दिति। दो वि बहू पुप्फ कसायं च णज्जति। जहा अवस्सकीयं परिदृविञ्जति, जे विय करिंति पावा, पाणवहं तं निसामेह // 3 // जइ वि तं पिज्जति, ताहे तं न पिवति, पुष्प पिवंति। एस पतेयगहियाण यादृशको यत्रस्वरूपकः, यानि नामानि यस्येति यन्नामा, यदभिधानविही। अह मीसं गहियं तत्थ गालिए पुप्फ बहुयं कसायं थोवं, ताहे तं मित्यर्थः / यथा च कृतो निवर्तितः प्राणिभिर्भवतीति। यादृशं यद्रूपं फलं परिट्टविजति, पुप्फंपिवंति। अहवा-सायं विगिंचिऽणारिह होज्ज अणे- कार्य दुर्गतिगमनाऽऽदिक ददाति करोति।येऽपिचकुर्वन्तिपापाः पापिष्ठाः सणिज ति, ताहे परिद्वविञ्जति। अहवा अविकिंचणारिहं पिज आयरि- प्राणिनः प्राणाः प्राणिनस्तेषां वधो विनाशः प्राणवधः (तं ति) यादीणं जावणिज्जं ण भवति, एवं परिहावेंतो सुद्धो। तत्पदार्थपञ्चक (निसामेह त्ति) निशामयत श्रृणुत, मम कथयत इति विगिचणारिहस्स वक्खाणं इंमे शेषः / तत्र तत्त्वभेदपर्यायाख्येति न्यायमासृत्य वादृशक इत्यनेन जं होति अपेयं जमणेसियं तं विगिचणरिहं तु / प्राणवधस्य तत्त्वं निश्चयतया प्रतिज्ञातं, यन्नामेत्यनेन तु पर्यायव्याविसकत मंतकतं वा, दव्वविरुद्धं कतं वा वि॥३२१॥ ख्यानम् / शेषद्वारत्रयेण तु भेदव्याख्याकरणप्रकारभेदेन फलभेदेन च तस्यैव प्राणवधस्य भिद्यमानत्वात्। अथवा-यादृशो यन्नामा चेत्यनेन अपेयं मद्यमांसरसादि, अणेसणीयं उगमादिदोसजुत्तं / अहवा-अपेयं स्वरूपतः प्राणिवधश्चिन्तितः, तत्पर्यायाणामपि यथार्थतया तत्स्वरू इमं पच्छद्धेणविससंजुत्तं वसीकरणादिमंतण वा अभिमंतियं, दव्वाविसुद्ध प्स्यैवाभिधायकत्वात्। यथा च कृतो ये च कुर्वन्ति अनेन तुकारणतोऽसौ जहा खीरबिलाणं / नि०चू० उ०) चिन्तितः, करणप्रकाराणां कर्तृणां च तत्कारणत्वात् यादृशं फलं पाणगजाय न०(पानकजात) पानीयसामान्ये, "पुण पाणगजायं ददतीत्यनेन तु कार्यत्वादसौ चिन्तितः, एवं च कालत्रयवर्तिता तस्य जाणेजा / तं जहा-तिलोदगं वा, तुसोदगं वा।" आचा० १श्रु० १चू० निरूपिता भवतीति / अथवा-अनुयोगद्वारावयवभूतोपोद्धातनिर्युक्त्य१अ०७उ01 नुगमस्य प्रतिद्वाराणा ''कि कइविहं'' इत्यादीनां मध्यात्कानिचिदनया पाणगपचक्खाण न०(पानकप्रत्याख्यान) पानकवर्जित त्रिविधाऽऽहार गाथया तानिदर्शितानि। तथाहि-यादृशक इत्यनेन प्राणवधस्वरूपोपप्रत्यानख्याने, चतुर्विधाऽऽहारप्रत्याख्याने वा / ध०२ अधि०। दर्शक किमित्येतत् द्वारमुक्त, यन्नामेत्यनेन तु निरुक्तिद्वारम् / एकार्थ "छप्पाणे / ' षडाकारा भवन्ति पानके पानकाऽहारे ते चैते-"लेवाडेण मत्युत्पत्तिकं शब्दाभिधानरूपत्वात्तस्य-"सम्मदिहिअमोहो" (८६१वा अलेवाडेण वा अत्थेण वा बहलेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा 862) इत्यादिना गाथायुगेन सामायिकनिर्युक्तावपि सामायिकनियुवोसिरइ।" अयमर्थः- "इहान्यत्रेत्यस्यानुवृत्तेस्तृतीयायाः पञ्चम्यर्थ क्तिप्रतिपादनात्। यथा च कृत इत्यनेन कथमिति द्वारमभिहित, येऽपि त्वात् / (लेवाडेण वत्ति)कृतलेपाड़ा पिच्छिलत्वेन भाजनाऽऽदीनामुपले च कुर्वन्त्यनेन कस्येति द्वारमुक्तं, फलद्वारं त्वतिरिक्तमिहेति। पकारकात्खजूराऽऽदिपानकादन्यत्र तद्वर्जयित्वेत्यर्थः। त्रिविधाऽऽहार तत्र "यथोद्देश निर्देशः" इति न्यायाद्यादृश इति द्वाराव्युत्सृजतीतियोगः। वाशब्दोऽलेपकृतपानकापेक्षयाऽस्या वर्जनीयत्वा भिधानायाऽऽहविशेषद्योतनार्थः / अलेपकारिणेव लेपकारिणाऽप्युपवासाऽऽदेर्न भङ्ग पाणवहो नाम एस णिचं जिणेहिं भणिओ पावो चंडो रुद्दो खुद्दो इति भावः / एवं अलेपकृताद्वा अपिच्छिलात् / अच्छाद्वा निर्मला साहसिओ अणारिओ निग्घिणो णिस्संसो महब्भओ पइभओ दुष्णोदकाऽऽदेवहिल्याद्वा गडुलात् तिलतण्डुलधावनाऽऽदेः ससिक्थाद्वा अतिभओ बीहणओ तासणओ अण्णज्जो उटवेयजणओ य भक्तपुलकोपेतादवश्रावणाऽऽदेः (असित्थाद्वा) सिक्थात्पानकाss णिरवयक्खो निद्धम्मो णिप्पिवासो णिक्कलुणो निरयवासगमणहारादिति। पञ्चा०५विव०॥ निधणो मोहमहब्भयपयट्टओ मरणवेमणस्सो पढम अहम्मदारं। पाणचाग पुं०(प्राणत्याग) मरणाऽऽगमने, ग०२अधि०) प्राणबधो हिंसा, नामेत्यलंकृतौ वाक्यस्य। एषोऽधिकृतत्वेन प्रत्यक्षो, पाणजाइय पुं०(प्राणजातिक) भमराऽऽदिक प्राणित्वावच्छिन्ने, आचा०१ नित्यं सदा, न कदाचनापि / पापचण्डाऽऽदिकं वक्ष्यमाणस्वरूपं, श्रु०६अ०१उ० परित्यज्य वर्तत इति भावनीयम् / जिनैराप्तैर्भणित उक्तः / किविध पाणद्धी (देशी) रथ्यायाम, दे०ना०६वर्ग 36 गाथा। इत्याह-पापप्रकृतीनां बन्धहेतुत्वेन पापः कोपोत्कटः, पुरुषकार्यत्वात् पाणधारणट्ठया स्त्री०(प्राणधारणार्थता) जीवितव्यसरंक्षणे, प्रश्न० चण्डः रौद्राभिधानरसविशेषप्रवर्तितत्वाद्रौद्रः, क्षुद्रा द्रोहका अधमा वा १संव०द्वार। तत्प्रवर्तितत्वात् क्षुद्राः, सहसा अवितर्य प्रवर्तित इति साहसि Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 833 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह कः परुषः तत्वर्तितत्वात्साहसिकः, आराद्याताः पापकर्मभ्य इत्यायोर तन्निषेधदनार्याम्लेच्छाऽऽदयः तत्प्रवर्तितत्वादनार्यः, न विद्यते / घृणा पापजुगुप्स लक्षणा यत्र स निघृणः, नृशंसा निःशूकार-तदव्या - पारन्यात नृशंसः, निष्क्रान्तो वा शंसायाः श्लाघाया इति निःशसो, महद्रयं / रास्नादसो महाभ्यः, प्राणिन प्राणिनं प्रति भयं यस्मात्स प्रतिभयः, भयान्यैहलोकिकाऽऽदीन्यतिक्रान्तोऽतिभयः। अत एवोक्तम् "मरणभयं च भयाण ति।" (वीहण उति) भाएयति भयवन्तं करोतीति भापनकः, बासः आकस्मिक भयम् अक्रमोत्पन्नशरीरकम्पमनः क्षोभाऽऽदिलिङ्ग. तत्कारकत्वात्त्राशनकः। (अण्णजो ति)नन्यायोपेत इत्यन्यायः उद्वेग -- जनक: वित्तविप्लवकारी उद्भेगकर इत्यर्थः / चकारः समुच्चये। (णिरवयत्रो ति) निर्गताऽपेक्षा परप्राणविषया परलोकाऽऽदिविषया वा यस्मिन्ननौ निरपेक्षः, निरक्षकाक्षो वा / निर्गतो धर्माच्छुतचारि लक्षणादिति निर्द्धर्मः / निर्गतः पिपासायाः वध्यं प्रति स्नेहरूपाया इति निःपिणसः, निर्गता करुणा दया यरमादसौ निष्करुणः, निरयो नरकः स एव वासो निरयवासः, तत्र गमनं तदेव निधनं पर्यवसानं यस्य स नियवासगमननिधनः,तत्फल इत्यर्थः / मोहो मूढता, महाभयमतिभीतिस्तयोः प्रकर्षक: प्रहर्तको यः स मोहमहाभयप्रकर्षकः / क्वचि मोहमहाभयप्रवर्धक इति पाठ:(मरणवेमणसो त्ति) भरणेन हेतुना चैमनस्य दैन्यं देहिनां यरमात्रा मरणवैमनस्यः। प्रथममाद्यं मृषावादाऽऽदिद्वारः पेक्षया अधर्मद्वारमाश्रवद्वारमित्यर्थः / तदेवमियता विशेषेण समुदायेन यादृशः प्राणिवध इति द्वारमभिहितम्। अधुना यन्नामेति द्वारमभिधातुमाह--- तस्स य इमाणि नामाणि गोणाणि हंति तीसं। तं जहा-पाणबहो १उम्मूलणा सरीराओ २अवीसंभो ३हिंसविहिंसा ४तहा अकिचं च ५घायणा य 6 मारणा य 7 वहणा. उद्दवणा तिवायणा य 10 आरंभसमारंभो 11 आउयक्कम्मस्सुबद्दयो भेयणिट्ठवणगालणाय संवट्टगसंखेओ १२,मच्चू 13 असंजमो 14 कडगमद्दणं 15 वोरमणं 16 परभवसंकामकारओ 17 दुग्गतिप्पवाओ 18 पावकोवो य 16 पावलोभो य 20 छविच्छेओ 21 जीवियंतकरणो 22 भयंकरो 23 अणकरो 24 वज्जो 25 परितावणआसओ 26 विणासो 27 निज्जवणा 28 लुंपणा 26 गुणाणं विराहणे त्ति 30 वि या तस्स एवमाईणि णामधेज्जाणि हुंति तीसं 2 पाणवहस्स कलुसस्स कडुयफलदेसगाई। तस्योक्तस्वरूपप्राणवधस्य, चकारःपुनरर्थः नामान्यभिधानानीमानि वक्ष्यमा तया प्रत्यक्षाऽऽसन्नानि गौणानि गुणनिष्पन्नानि भवन्ति / त्रिंशत् / यथा प्राणानां प्राणिनां वधो घातः प्राणवधः 1 / (उम्मूलणापरीराउ नि) वृक्षस्योन्मूलनेवोन्मूलना निष्कासनं जीवस्य शरीरादेहादिति / (अदीसंभो ति) अविश्वासः, प्राणवधप्रवृत्तो हि जीवानामविश्रभणीयो भवतीति, प्राणवधस्याविश्रम्भकारणत्वादविश्रम्भव्यपदेश इति। (हिराविहिरा ति) हिंस्यन्त इति हिंस्या जीवास्तेषां विहिंसा विघातो हिस्थविहिंसा, अजीवविघाते किल, कथञ्चित्प्राणवधो न भवतीति हिस्यानामिति विशेषण विहिसाया उक्तम् / अथवा हिंसा विहिंसा चेह ग्राह्य, योरुपादानेऽपि बहुसमत्वादिति / अथवा-हिंसनशीलो हिंसः पमतः "जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरों" इति वचनाना तत्कतृका विशेषवती हिंसाऽऽहिस्रविहिंसा 4 (तहा अकिच च त्ति) तथा तेनैव प्रकारेण हिस्याविषयमेवेत्यर्थः / अकृत्यं चाकरणीयं, चशब्द एकार्थिकसमुच्चयार्थः / 5 / घातना मारणा च प्रतीते 6-7 / चकारः समुच्चयार्थ एव / (बहण त्ति) हननम् 8 (उद्दव ण त्ति) उपद्रवणमपद्रवण वाह (तिवायणाय त्ति) चयाणा मनोवाक्कायानामथवा त्रिभ्यो देहाऽऽयुकेन्द्रियलक्षणेभ्यः प्राणेभ्यः पातना जीवस्य भ्रंशना निपातना। उक्तं च "कायवइमणो तिन्नि उ, अहवा देहाउ इंदियप्पाणा / '' इत्यादि। अथवा अतिशयवती पातना प्राणेभ्यो जीवस्येत्यतिपातना, तीतपिधानाऽऽदिशा देष्विवाऽऽकारलोपात् चकारोऽत्रापि समुच्चय इति 10 / (आरंभसमारंभो त्ति) आरभ्यन्ते विनाश्यन्त इति आरम्भाः जीवास्तेषां समारम्भ उपमर्दः / अथवा-आरम्भः कृष्यादिव्यापारस्तेन समारम्भो जीवोपमर्दः। अथवा-आरम्भो जीवानामुपद्रवणं, तेन सह समारम्भः परितापनमित्यारम्भसमारम्भः, प्राणवधस्य पर्याय इति। अथवेहाऽऽर - म्भसमारम्भशब्दयोरेकतर एव गणनीयो, बहु समरूपत्वादिति 11 / (आउयकम्मरसुवद्दयो भेयनिट्ठवणगालणाय संवट्ठगसंखेवो त्ति) आयुःकर्मण उपद्रव इति वा तस्यैव भेद इति वा तन्निष्ठापनमिति वा तगालनेति वा। चः समुचये, तत्संवर्तक इति वा / इह स्वार्थ कः तत्संक्षेप इति वा प्राणवधस्य नाम / एतेषां च उपद्रवाऽऽदीनामेकतरस्यैव गणनेन नाम्ना त्रिंशत्पूरणीया, आयुच्छेदलक्षणापिक्षया सर्वेषामेतेषामेकत्वादिति 12 // मृत्युः 13 असंयमः 14 / एतौ प्रतीतौ। तथा कटकेन सैन्येन किलिजेन वा आक्रम्य गर्दन कटकमर्दन, ततो हि प्राणवधो भवतीत्युपचारात्प्राणबधः कटकमर्दनशब्देन व्यपदिश्यत इति 15 // (वोरमरणं ति) व्युपरमणं प्राणेभ्यो जीवस्य व्युपरतिः। अयं च व्युपरमणशब्दोऽन्तर्भूतकारितार्थःप्राणवधपर्यायो भवतीति भावनीयम् 16 / परभवसंक्रमकारक इति, प्राणधियोजितस्यैव परभवे संक्रान्तिसद्भावात् 17 / दुर्गती नरकाऽऽदिकाया कर्तारं प्रपातयतीति दुर्गतिप्रपातः, दुर्गतौ वा प्रपातो यस्मात्स तथा 18 / (पाबकोवो यत्ति) पापमपुण्यप्रकृतिरूपंकोपयति प्रपञ्चयति पुश्रातियः स पापकोप इति। अथवा-पापंचासौकोपकार्यत्वात्कोपश्चेति पापकोपः,धः समुच्चये 16 / (पावलोभो त्ति) पापमपुण्यं लुभ्यति प्राणिनि स्निह्यति संश्लिष्यतीति यावत् / यतः सपापलोभः अथवा पापं चासो लोभश्चतत्कायत्वात्पापलोभः 20 / (छविच्छेयो त्ति) छविच्छेदः शरीरच्छेदन, तस्य च दुःखोत्पादरूपत्वात् / प्रस्तुतपर्यायविनाशकारगत्वेन चोपकारात्प्राणवधत्वमाह च-"तप्पज्जायविणासो, दुक्खउप्पानो य संकिलोसो य / एस वहो जिणभणिओ, वज्जेयव्यो पयत्तेणं // 1 // ' ति। 21 / जीवितान्तः करणः 22 // भयंकरश्च प्रतीत एव 23 / Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 534 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह ऋण पाप करोतीति ऋणकरः 24 / (वजो ति) वज्रभिव वजगुरुवातस्कारिप्राणिनामतिगुरुत्वेनाधोगतिगमनात्। वय॑ते वा विवेकिभिरिति वर्यः / "सावज्जो त्ति' पाठान्तरे / सावधः सपाप इत्यर्थः 25 (परितावणआसओ ति) परितापनापूर्वक आसवः परितापनाऽऽश्रयः। आश्रवो हि मृषावादाऽऽदिरपि भवति, न चासौ प्राणवध इति प्राणवायसंग्रहार्थमाश्रवस्य परितापनेति विशेषणमिति / अथवा-प्राणवधशब्द नामवन्तं संस्थाप्य शरीरोन्मूलनाऽऽदीनि संकल्पनीयानिततः परितापनेति पञ्चविंशतितम नाम। आश्रव इति तु षड्विं शतितममिति 26 / विनाश इति, प्राणानामिति गम्यते 27 / (णिज्जवण त्ति) निराधिक्येन यान्ति प्राणिनःप्राणास्तेषां निर्याता निर्गच्छता प्रयोजकत्वं निर्यापना 28 / (लुंपण त्ति) लोपना छेदेन, प्राणानामिति 26 / गुणानां विराधनेत्यपि चेति / हिंस्यप्राणिगणगुणानां हिंसकजीवचारित्रगुणाना वा विराधना खण्डना इत्यर्थः / इतिशब्द उपप्रदर्शन, अपि चेति समुच्चय इति 30 / (तस्सेत्यादि) प्राणिवधनाम्ना निगमवाक्यम / (एवमाईण ति) आदिशब्दोऽत्र प्रकारार्थः / यदाह- "सामीप्य च व्यवस्थायां प्रकारेऽवयवे तथा / चतुर्वर्थेषु मेधावी, आदिशब्दं तु लक्षयेत् / / 1 / / '' इति / तेनैवमादीन्यप्रकाराण्युक्तस्वरूपाणीत्यर्थः / नामान्यव नामधेयानि भवन्ति त्रिंशत्प्राणिवधरय कलुषरय पापर कटुकफलादर्शकान्यसुन्दरकार्योपदर्शकानि, यथार्थत्वात्तेषामिति। तदियता यन्नामे - त्युक्तम्। अथ गाथोक्तद्वारनिर्देशक्रमाऽऽगत यथा च कृतमित्यतदुपदर्शयति / तत्र व प्राणिबधकारणप्रकारेण प्राणिबधकर्तृणामसंयतत्याऽऽदयो धर्मा जलचराऽऽदयो वध्यास्तथाविधानि मांसाऽऽदीनि प्रयोजनान्यवतरत्येतन्निषेधत्वात्प्राणबधप्रकाररयेति / तानि क्रमेण दर्शयितुमाहतं च पुण करेंति केइ पावा असंजया अविरया अणिहुयपरिणामदुप्पओगा पाणवहं भयंकरं बहु विहं बहुप्पगारं परदुक्खुप्पायणपसत्ता इमेहिं तसथावरेहिं जीवेहिं पडिणि विट्ठा किं ते पाठीणतिमितिभिंगिलअणेगझसविविहजाइमंडुक्कदुविहकच्छभणक्कमगरदुविहगाहदिलिवेढयमंडुसीमागारपुलुयसुसुमारबहुप्पगारा जलयरविहाणा कएय एवमाइ कुरंगरुरुसरभचमरसंवरउरत्भससयपसरगोणरोहियहयगयरवरकरभखग्गवानरगवयविगसियालकोलमज्जारकोलसुणहसिरिकंदलगावत्तकोकंतियगोकण्णमियमहिसवियग्घच्छगलदीवियसाणतरच्छअच्छभल्लसद्दूलसीहचिल्ललचउप्पयविहाणा कए य एवमाइ अयकरगोणसावराहिमाउलिकाकोदरदब्भपुप्फा आसालियमहोरगोरगविहाणा कएय एव माइछीरलसरंगसेहसेल्लागगोधूंदरणउलसरडजाहक सुगुंसाखाडहिलावाउप्पइयघरोलियसरीसिवगणे य एवमाइकादंबकंकवबलाकासारसआडिसेती- | यवंजुलपारिप्पवकीबसउणदीवियहसंधत्तरट्ठभासकुलीकोसकुं चदगतुंइदेणियालगसूयीमुहकविलपिंबलक्खगकारडचक्कवागउकोसगरुलपिंगलेसुयवरिहिणमयणसालानंदीमुहनंदमाणगकोरंगभिंगारगकोणालगजीवंजीवकतित्तिरवट्टगलावगकपिञ्जलगकवोतकगपारेवयगचडटिंकुकुडवेसरमयूरचओरगहयपोंडरीवकरकचीरल्लसेणवायविहंगभेयणासियचासवग्गुलिचमाट्ठिलविततपक्खिखहचरविहाणा कए य एवमाइजलथलखचारिणो य पंचिंदिए पसूगणे बियतियचउरिंदियपंचिंदिए य विविहे जीवे पियजीविए मरणदुक्खपडिकूले वराए हणंति बहुसंकिलिट्टकम्मा; इमेहिं विविहेहिं कारणेहिं, किं ते चम्मवसामंसमेयसोणियजगियफिफिसमलिंगहिययंतपित्तफोफदंतट्ठा अद्विमिंजानहनयणकण्णण्हारुणिनक्कधमणीसिंगदादिपिच्छविसविसाणबालहेओ हिंसंति य भमरमधुकरिगणे रसेसु गिद्धा तहेव तेइंदिए सरीरोवकरणट्ठयाए किवणे बेइंदिए बहवे वत्थोहरपरिमंडणट्ठा अण्णेहि य एवमाइएहिं बहुहिं कारणसएहिं अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे इमे य एगिदिए बहवे वराए तसे य अण्णे तदस्सिए चेव तणुसरीरे समारंभंति अत्ताणे असरणे अणाहे अबंधवे कम्मविगडबद्धे अकुसलपरिणाममंदबुद्धिजणदुविजाणए पुढवीमए पुढवीसंसिए जलमए जलगए अणलाणिलतणवणस्सइगणनिस्सिए य तम्मयतजिए चेव तदाहारे तप्परिणतवण्णगंधरसफासबोंदिरूवे अचक्खुसे य चक्खुसे य तसकाइए असंखे थावरकाइए य सुहुमबायरपत्तेयसरीरनामसाहारणे अणंते हणंति अविजाणओ य परिजाणओ य जीवे इमे हिं विविहे हिं कारणेहिं किं ते करिसणपोक्खरणीवावीवप्पिणकूवसरतलागचितिवेदिखातियआरामविहारथूभपागारदारगोपुरअट्टालगचरियसेतुसंकमपासायविकप्पभवणघरसरणलेणआवणचेतियदेवकुलचित्तसभापवाआयतणअवसहभूमिघरमंडवाण य कए भायणभंडोवगरणस्स विविहस्स य अट्ठाए पुढविं हिंसंति मंदबुद्धिया जलं च मज्जणयपाणभोयणवत्थधोवणसोयमाइएहिं पयणपयावणजलणजलावणविदंसणेहिं अगणिं सुप्पवियणतालविंटपेहुणमुहकरयलसागपत्तवत्थमाइएहिं अणिलं आगारपरियारभक्खभोयणसयणासणफलकमुसलउखलततविततातोजवहणवाहणमंडवविविहभवणतोरणविडं गदेवकु लजालद्धचंदनिज्जू हगचंदसालियवे दियनिस्से णिदोणिचंगेरीखीलामऽक सभाप्पवाऽऽवसहगंधमल्लाणुलेवणअंबरजू यलंगलमइयकु सियसंदणसीयारहसगडजाणजुग्गअट्टालगचरियदारगोपुरफ लिहजंतसूलकीललउडभुसुंडिसयग्घिबहुपहरणाऽऽवरणुवक्खराण कए अण्णेहि य एवमाइएहिं बहूहि कारणसएहिं हिंसंति तरुगणे भणियाभणि Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 835 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह ए य एवमाइसत्ते सत्तपरिवज्जिए उवहणंति दढमूढा दारुणमती कोहा माणा माया लोहा हास रती अरती सोयवेदत्थी | जीयकामत्थधम्महेउं सवसा अवसा अट्ठाए अणट्ठाए य तसे पाणे थावरे य हिंसंति मंदबुद्धी सवसा हणंति अवसा हणंति | सवसा अवसा दुहओ हणंति अट्ठा हणंति अणट्ठा हणंति अणट्ठा अट्ठादुहओ हणंति हासा हणंति वेरा हणंति रतिय हणंति हासा वेरा रतिय हणंति कुद्धा हणंति लुद्धा हणंति मुद्धा हणंति कुद्धा लुद्धा मुद्धा हणंति अत्था हणंति धम्मा हणति कम्मा हणंति अत्था धम्मा कम्मा हणंति, कयरे जे ते सोयरिए मच्छवधा साउणया वाहा कूरकम्मा वाउरिया दीवियबंधप्पओगतप्पगलजालचीरिल्लगायसडब्भवग्गुराकूडीछेलिहत्था हरिएसाउणिया य बीदंसगपासहत्था वणचरगा लुद्धका य महुघातपोतघाया एणीयारा परणियारा सरदहदीहियतलागपल्ललपरिगालणमलणसोतबंधणसलिलासयसोसगा वि सगरस्स य दायगा उग्गतणवल्लरदवग्गिणिद्दयपलीवका कूरकम्मकारी इमे य बहवे मिलुक्खुजाई किं ते सक्का जवणा सवरबव्वरगायमुरुडोड भंडगभित्तियपक्कणिया कु लक्खा गोडसींहलपारसकोंचअंधदविडचिल्ललपुलिंदआरोसडो वपोक्काणगंधहारगवहलीयजल्ला रोसमासबउसमलय चुंचुया य चूलियकेंकणगा मेयपढ़वमालवमहुरआभासिया अणक्खचीणलासियखसखासियनेहरम रहट्ठमुट्ठियआरवडोविलगकु हणके कयहूणरोमगरुरुमरुगचिलायविसयवासी य पावमइणो जलयरथलयरसणफतोरगखहचरसंडाणतोंडजीवोवघायजीवी सण्णी य असणिणो य पज्जत्ता असुभलेस्स्परिणामा एते अण्णे य एवमाइ करेइ पाणाइवायकरणं पावा पावाभिगमा पावरुई पाणबहं करेइ पाणबहरूवाणुट्ठाणा पाणबहकहासु अभिरमंता तुट्ठा पावं करिउं हुति या (तं चेत्यादि) यस्य स्वरूपं नामानि चानन्तरमुक्तानि तं प्राणबधमित्युत्तरेण पदेन संबन्धः। चकारो विशेषणार्थः। विशेषणं च कर्तृकारक, पुनःशब्दो भाषामात्रे, कुर्वन्ति विदध ति, केचिदिति केचिदेव जीवा न पुनः सर्वे / कीदृशा इत्याह-पापाः पातकिनः त एव विभज्यन्ते असंयता असंयमवन्तः, भविरता विशेषता न ये तपोऽनुष्टाने रताः (अनिहुयपरिणामदुप्पओगी ति) अनिभृतोऽनुपशमपरः परिणामो येपा ले तथा। दुष्प्रयोगा दुष्टमनावाक्कायव्यापारा येषां सन्ति ते तथा। ततः पदयस्य कर्मधारयः / प्राणबंध प्राणातिपातं, किभतं? बहुविधं भयंकरम् / पाठान्तरेण भयंकर तथा बहुविधा बहवः प्रकारा यस्य स तथा, सप्रभेद भेदयुक्तमित्यर्थः / किंभूतास्ते? परदुःखोत्पादनप्रसक्ताः। तथा (इमेहि ति) एतेषु प्रत्यक्षषु त्रसस्थावरेषु जीवेषु प्रतिनिविष्टास्तदरक्षणतरतेषु वस्तुतो द्वषवन्तः। (किं ले ति) कथं प्राणिबधं कुर्वन्तीत्यर्थः। तद्यथेति वा (पाटीणेत्यादि) पाठीनो मत्स्यविशेषस्तिमयस्तिमिङ्गिलाश्व महामत्या महामत्र यतमा अनेकशो विविधमत्स्याः सूक्ष्ममत्स्यखलमत्स्ययुगमस्याऽऽतयः, विविधजातयो नानाजातीयाः / मण्डूका द्विविधाः कच्छपा मांसकच्छपास्थिकच्छपभेदात् / नक्रा मत्स्यविशेषा एव / (मकर दुविह नि) मकरा जलचरविशेषाः सुण्डामकरमत्स्यभेदेन द्विभेदाः, गाहा जलजन्तुविशेष एव / दिलियेष्टकः मदुकसीमाकारपुलकास्तु ग्राहभेदा एव, सुरामारा जलचरविशेषाः / तत एषां द्वन्द्वः। ततश्च ते बहुप्रकाराश्चति कर्मधारयोऽतस्तान् घन्तीति वक्ष्यमाणेन योगः / इह च द्वितीया-बहुवचनेऽप्येकाराभावश्छान्दसत्वात्। (जलयरविहाणा कए य एवमाइत्ति) जलचराणां विधानानि भेदास्तान्येव विधानानि भेदास्तान्येव विधानकानि तानि कृतानि विहितानि यैस्ते तथा तान् जलघरविधानान् कृतांश्च / इह च कशब्दलोपेन विधानशब्दस्यातदीर्धत्वम् / एचमादीन् पाठीनाऽऽदींस्तथा कुरङ्गाः सृगाः, रुरवस्तद्विशषाः, सरमा महाकायाऽटव्यपशुविशेषाः। परासरे ति' पर्यायाः। ये हस्तिनमपि पृष्ठे समारोपयन्ति, चमराः आरण्यगावः, संवरा येषामनेकशारखे शृङ्गे भवतः, (उरब्भे त्ति) उरभ्रा मेषाः, शशाःशशका लोमटकाऽऽकृतयः प्रशरा द्विखुराटव्यपशुविशेषाः, गोणा गावः, रोहिताश्चतुष्पदविशेषाः। पाठान्तरेण त एव रोहिंसाः। हया अश्या गजा हस्तिनः खरा रासभाः, करभा उष्ट्राः, खड्गा येषां पार्श्वयोः पक्षवच्चर्माणि लम्बते शृङ्ग चैकं शिरसि भवति,वानरा मर्कटाः, गवया गावाकृतयो चतुष्पदाः, वृका ईहामृगपर्यायाः नारखरविशेषाः, शृगाला जम्बुकाः, कोला उन्दुराsऽकृतयः। पाठान्तरेण कोका नखरविशेषाः, मार्जारा विरालाः, (कोलसुणग त्ति) महाशूकराः / अथवा क्रोडाः शूकराः, श्वानः कोलेयकाः, श्रीकन्दलका अवर्ताश्च एकखुरविशेषाः, कोकन्तिका लोमटका ये रात्री को को इत्येवं रुवन्ति गोकर्णा द्विखुराश्चतुष्पदविशेषाः, मृगाः सामान्यहरिणाः / कुरङ्गाऽऽदयरत्तु प्रागभिहिताः शृगालवर्णाऽऽदिविशेषणास्तद्विशेषाः सामर्थ्यादत्र गम्याः। महिषाः प्रतीताः / (वियग्घ त्ति) व्याघ्रा नखरविशेषाः / छगला अजाः, द्वीपिकाश्चित्रिकाऽभिधाना नखरविशेषाः, वानवाटव्या एव कौलेयकाः, तरक्षाः अच्छभल्लाः शार्दूलाच व्याघ्रविशेषाः, सिंहा हरयः, चिल्लला नखरविशेषाः एव / पाठान्तरेण चित्रला हरिणाऽऽकृतयो द्विखुरविशेषाः। तत एषां कुरङ्गाऽऽदीनां द्वन्द्वः। (चउप्प-- यविहाणा कए य एवमाइए त्ति) चतुष्पदविधानकानि तजातिविशेषाः, कृतानि विहितानि यैर्व्यक्तिभूतैः कुरङ्गाऽऽदिभिस्ते तथा। रात पूर्वपदेन कर्मधारयः / ततस्ताँ श्च एवमाऽऽदीन कुरङ्गादिप्रकारान्, तथा अजगराः शत्रुःपायाः उरःपरिसर्पविशेषाः, गोणशा निःफणाहिविशेषाः, वराहओ दृष्टिविशेषाऽऽदयः फणाकरणदक्षाः, मकु लिनो ये फणान् कुवन्ति, काकोदराः, दर्भपुष्पाश्च दर्वीकरसर्पविशेषाः, आशालिका महोरगाश्चोरपरिसर्पविशेषाः। तत्राऽऽशालिका यच्छरीरं द्वादशयोजनप्रमाणमुत्कर्षतो भवति. क्षयकाले व महानगरस्कन्धावाराऽऽदीनाम् अधः उत्पद्यते, महोरगास्तु मनुष्यक्षेत्रवहि विनो, यच्छरीरं योजनसहरन Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 836- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह प्रमाणमुत्कर्षत आख्यायत इति। तत एषां द्वन्द्वः / तत उरगविधानकानि कपालभेजकः, हृदयं हृदयगांसम, अन्त्र पुरीतत, पित्तं दोषविशेषः, कृतानि यैस्ते तथा। ततः कर्मधारयः / ततश्च ताश्च एवमादीनि तत्तथा। फोफसं शरीरावयवविशेषः, दन्ता दशनाः, एतेषां द्वन्द्वः, तत एतेभ्य क्षीरलाः सारङ्गाश्च भुजपरिसर्पविशेषाः / सेहास्तीक्ष्णशलाकाऽऽकुल- इदमित्येवं विगृह्यार्थशब्दा योजनीयाः / चर्माऽऽदिनिमित्तमित्यर्थः / शरीराः शल्या कायचर्मकर्तलकैरङ्गरक्षका विधीयते गोधोन्दुरनकुलाः तथाऽस्थीनिकीकशानि, मिजा तन्मध्यावधवविशेषः नखाः करजाः. प्रतीताः / शरटाः कृकलाशाः, जाह-काः कण्टकाऽऽवृतशरीराः सुगुसाः नयना लोचनानि, कर्णाः श्रवणाः (पहारु त्ति) स्नायुः (नक ति) नारिका, खाडहिलाऽऽकृतयः, खाडहिलाः शुक्लकृष्णपट्टाङ्कितशरीराः शून्यदेव- धमन्यो नाड्यः, शृङ्ग विषाण दंष्ट्रा दशनविशेषः। (पिच्छे ति) पत्रं, विष कुलाऽऽदिवासिन्यः, वातोत्पत्तिका रूढावसंयाः / गृहकोकिलिकाः कालकूट विषाणं हस्तिदन्तः, बाला केशाः। एतेषां इन्द्वः ततस्त एव गृहगोधिकाः। एतेषां द्वन्द्वः। तत एते च ते सरीरापगणाश्चेति कर्मधारयः / हेतुरित्येवं हेतुश्शब्दो योज्यः / ततः षष्ट्यर्थ द्वितीया / ततोऽयमर्थः ततस्तेषां च एवमादीन् क्षीरलाऽऽदिप्रकारानित्यर्थः / ता कादम्बाश्च अस्थिमिजाऽऽदिहेतान्तीति प्रक्रमः / तथा हिंसन्ति च बहुराक्लिष्टहंसविशेषाः, कङ्काश्च वकोटाः, वलाकाश्च विसकण्टिकाः, सारसाश्च कर्माण इति प्रक्रमः / भ्रमराः पुरुषतया लोकव्यवहृताः, मधुकरग्तुि दाघाटाः, आडीसेटीकाश्च वजुलाश्च खदिरचञ्चवः पारिप्लवाश्व स्त्रीत्यव्यवहृतारतद्गणान् तत्समूहान, रसेसु गृद्धाः गधुग्रहणार्थमिति शकुनाश्व पीपीलिका (7) विकारका हंसाश्च श्वेतपक्षा धार्तराष्ट्रकाश्च भावः। तथैव हिंसन्त्येवेत्यर्थः / त्रीन्द्रियान यूकामत्कुणाऽऽदीन्, शरीरोपकृष्णचरणाऽऽनना हंसा एव, भासाश्च शकुन्ताः (कुलीकोस त्ति) करणार्थ शरीरस्योपकाराय यूकाऽऽदिकृतदुःखपरिहारार्थम् / अथवाकुटीक्रोशाश्च क्रोशाश्च उदकतुण्डाश्च देणिकालकाश्च शूचीमुखाश्व / शरीराय, उपकरणाय चोपधये / अयगर्थः-शरीरसंस्कारप्रवृना उपकपिलाश्च पिङ्गलाक्षकाश्च कारण्डकाश्च चक्रवाकाश्च रथाङ्गाः करणसाधनसंस्कारप्रवृत्ताश्च विविधचेष्टाभिरतान् धन्तीति / किम्भूतान्? उत्क्रोशाश्च कुरराः, गरुडाश्च सुपर्णाः पिडगुलाश्च शुकाश्च कीराः कृपणान कृपाऽस्पदभूतानिति। तथा द्वीन्द्रियानवहून (वन्थो बहरपरिबर्हिणश्च कलापवन्मयूराः, मदनशालाश्व सारिकाविशेषाः, नन्दीमुखाश्च मंडणवत्ति) वस्त्राणि चीवराणि, (उवहर ति) उपगृहाणि आश्रयविशेषाः, नन्दमानकाश्च कोरङ्काश्च भृङ्गारिकाश्च सतिनिशे(?) भूमौ द्व्यङ्गुलशरीरा तेषां परिमण्डनार्थ भूषार्थ, कृमिरागेण हि रजमानानि श्रूयन्ते वस्त्राणि, इत्येवंलक्षणाः, कोणालकाश्च जीवञ्जीवकाश्च तित्तिराश्व वर्त्तकाश्च आश्रयास्तु मण्डन एव शङ्कशुक्तिचूर्ण नेति। अथवा--पस्वार्थमुपगृहार्थ लावकाश्च कपिञ्जलकाश्च कपोतकाश्च पारापतकाश्व चटकाश्च कलविका परिमण्डनार्थ चेति। तत्र वस्त्रार्थ पट्टसूत्रसंपादने कृमिहिंसा सम्भवति, दिङ्कान कुर्कुटाश्च तामचूडाः वेसराश्च मयूरकाश्व कलापवर्जिताः, चकोरकाव आलयार्थ मृत्तिकाजलाऽऽदिद्रव्येषु वूतरकाऽऽदिघालो भवति, परिमण्डहदपुण्डरीकाश्व शालकाश्च / पाठान्तरेण करकाश्च चीरलाश्च श्रोना एवं नार्थ हाराऽऽदिकरणे शुक्त्यादिद्वीन्द्रियाणामिति। अन्यश्चेवमादिकर्बहुमिः वायसाच काकाः, विहङ्गभेदनाशिताश्च चाषाश्च किकीदीविनः वल्गुल्यश्व कारणशतैरबुधा बालिशाः, इह हन्ति इह जीवलोके हिंसन्ति प्रन्ति, चास्थिलाश्च चर्मचटका विततपक्षिपश्च मनुष्यक्षेत्रबहिर्वर्तिन इति उसान प्राणान्, तथा इमांश्च प्रत्यक्षान् एकेन्द्रियान् पृशिवीकायिकाऽऽद्वन्द्वः / ते च ते (खचरविहाणा कए यत्ति) खचरविधानककृताश्चेति तथा दीन वराकास्तपस्विनः समारभन्त इति योगः। न केवलमेकेन्द्रियाण्येव, तांश्च एवमादीनुक्तप्रकारान् / एतेषु च शब्देषु केचिदप्रतीयमानार्थाः / सांश्चान्यान् तदाश्रितांश्चैव, किंभूतान् ? तनुशरीरान् अत्राणान अनर्थकेचित् प्रतीयमानपर्यायाः, नामकोषेऽपि केषाश्चित्प्रयोगानभिधानात्। प्रतिघातकाभावात् अशरणानर्थप्रापकाभावात् / अत एव अनाथान् आह च-"जीवञ्जीवकपिञ्जलचकोरहारीतवजुलकपोताः। कारण्ड - योगक्षेमकारिनायकाभावात्, अबान्धवान स्वजनसंपाद्यकार्याभावान, वकादम्बककूराद्याः पक्षिजातयो ज्ञेयाः / / 1 / / " इति पूर्वोक्ताः / ते च / कर्मनिगडबद्धानिति व्यक्त; तथा अकुशलपरिणामोदयाऽऽवर्जितत्वेन संग्रहवचनेनाऽऽहजलस्थलखचारिणश्च चशब्दो जलचराऽऽदिसामान्य- मन्दबुद्धिश्च मिथ्यात्वोदयाद्यो जनो लोकस्तेन दुर्जेया ये ते तथा तान, समुच्चयार्थः / पञ्चेन्द्रियापञ्चेन्द्रियान् पशुगणान्विविधान् (वियतियच- / पृथिव्या विकाराः पृथिवीमयान्, पृथिवीकायिकानित्यर्थः। तथा पृथिवीउरिंदि त्ति) द्वे च त्रीणि च चत्वारि चेन्द्रियाणि पश्चेन्द्रियाणि येषां ते तथा संश्रितान् अलसाऽऽदित्रसान्, एवं जलमयानप्कायिकान् जलगतान द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाश्चेत्यर्थोऽतस्तान् विविधान् कुलभेदेन पूतरकाऽऽदित्रसान् शेक्लाऽऽदिवनस्पतिकायिकांश्च अनलस्तेजस्कायो जीवान् जन्तून् प्रियजीवितानभिमतप्राणधारणान्, मरणलक्षणस्य निलो वायुकायस्तृण वनस्पतिगणो बादरवनस्पतीना समुदायः / एतन्निदुःखस्य मरणदुःखयोर्वा प्रतिकूलाः प्रतिपन्थिनो ये ते तथा तान वराकान् श्रितांश एतदुपजीवकांश्च वसानिति हृदयम्। (तम्मवतजिए ति) तेषातपस्विनः / किमित्यत आहश्नन्ति विनाशयन्ति बहुसक्लिष्टकर्माणः, मनलानिलतृणवनस्पतिगणानां विकारास्तन्मया अनलकायिकाऽऽसत्त्वा इति गम्यते / एवं तावद्वध्यद्वारेण प्राणवधस्य प्रकार उक्तः। अथ दय एव, तथा तेषामेवानलाऽऽदीना जीवास्त जीवास्तद्योनिका त्रसा प्रयोजनद्वारेण स उच्यते। एभिर्वक्ष्यमाणप्रत्यक्षैर्विविधैः कारणैः प्रयोजनैः इत्यर्थः / तन्मयाश्च तज्जीवाश्चेति तन्मयतज्जीवः। ताश्चैव, पाटान्तरेण(किं ते त्ति) किं तत्प्रयोजन,तद्यथेति वा। धर्म त्वक्, वशा शारीरः तन्मयजीवाश्चेति / किं भूतास्तान् ? (तदाहारे रि) पृथिव्यादय स्नेहविशेषः, मांसं पलम्, मेदो देहधातुविशेषः, शोणितं रक्तं, यकृद्द- आधारो येषां ते तदाधारास्तानेव वा पृथिव्यादीना हारयन्तीति क्षिणकुक्षौ मांसग्रन्थिः, फिप्फसमुदरमध्यावयवविशेषः, मस्तलिङ्ग / तदाहारास्तान, तेषामेव पृथिव्यादीनां परिणता वर्णगन्धरसस्पर्श Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 537 -- अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 5 पाणबह या वोन्दी शरीर सब रूपं स्वभावो येषां ते तथा तान, अचाक्षुषान् चक्षुषाऽदृश्याश्चाक्षुषा व चक्षुगाह्यान् / कानेवंविधानित्याह-सकायस्वसनामकादयवर्तिजीवराशिः,तत्र भवास्त्रसकायिकाः तान कियन्त इत्याह असंख्यान तथा स्थावरकायांश्च सूक्ष्माश्च बादराव तन्नामकम्मोदयवर्तिनः प्रत्येकशरीरमिति नामकर्म विशेषा येषां ते प्रत्यक्रशरीरनामानः, तेच साधारणाश्च साधारणशरीरनामकम्भोदयवर्तिन इति द्वन्द्रीतस्तान। कियन्तः? अनन्तान् साधारणानेव शेषस्थावराणामसंख्येयत्वात् / जीवानिति योगः। किमित्याह-घ्रन्ति / किंभूतान? अविजानतश्च रववधपरिजानतश्च सुखदुःखे अनुभवतः / एकेन्द्रियान् अथवा स्वबघमजानत एकेन्द्रियान तमेव परिजानतस्त्र.. सानिति जीवानज-तून एभिर्विविधैः कारणैः प्रयोजनैः (किं ते त्ति) किं तत. तद्यथेति वा : कनकषिः, पुष्करिणीः पुष्करवती चतुःकोणा वा वाचीत पुष्करात त का / (वधिमण त्ति) केदाराः, कूपरसरस्तडागाः प्रतीताः। चितिभित्यादेबयन, मृतकदहनार्थ दारुविन्यासो वा, बदिवितर्दिका, खातिका परिरखा, आसमो वाटिका, विहारो बौद्धाऽऽद्याश्रयः, स्तूपः चितिविशेषः प्राकारः शालद्वारं प्रतीतं, गोपुरं प्रतोलीकपाट इत्यन्य। उहालकः प्राकारोपरिवाश्रयविशेषः, चरिका नगर--- प्राकारयोरन्तरषु अष्टहस्तप्रमाणा मार्गः, सेतुर्मागविशेषः, पालि-र्वा / संक्रमो विषमोत्तर मार्गः, प्रासादो नरेन्द्राऽऽश्रयः, विकल्पास्तभेदाः / भवनानि चतुःशालाऽऽदीनि, गृहाणि सामान्यानि, शरणानि तृणमथानि, लयनानि पार्वताने कुट्टितगृहाणि, आपणा हट्टाः, चैत्यानि प्रतिमाः, देवकुलानि सशिखरदेवप्रासादाः, चित्रसभाः चित्रकर्मवन्मण्डपः, प्रपा जलदानस्थानम्, आयतनं देवाऽऽयतनम्, आवसथः परिव्राजकाऽऽश्रयः, भूमिगृह प्रतीत, भण्डपश्छायाऽऽद्यर्थः पटाऽऽदिमय आश्रयविशेषः, एतेषां दन्द्रः / तत एतेषां कृते निमित्ते पृथिवीं हिंसन्ति इति संबन्धः भाजनान्यमत्राणि सौवर्णाऽऽदीनि, भाण्डानि तान्येव मृणमयानि, क्रयाणकानि लवणाऽऽदीन्युपकरणान्युदूखलाऽऽदीनि / एषां समाहारद्वन्द्वः। ततस्तस्य विविधस्य चार्थाय हेतवे पृथिवीं पृथिवीकायिकान हिंसन्ति मन्दबुद्धिकाः / तथा जल चाप्कायिकांश्च,हिंसन्ति इति वर्तत। मजनक स्नान, पान भोजनं च प्रतीतम्। वस्त्रधाधनं वासःक्षालनं, शौचमाचमनमेत दादिभिः कारणैः इति प्रक्रमः / तथा पचनं पाचन-- मोदनाऽऽदे: (जलावणं ते) स्वतः परतो वाऽग्नेरुद्दीपनं, विदर्शन-. मन्धकारस्थवस्तुप्रकाशनमतः कारणैः / चः समुच्चये। अग्नि हिंसन्ति। तथा सूर्य प्रतीतं. व्यजन वायूदीरकम् तालवृन्तं. तदेव द्विपुटाऽऽदिः। (पहुणं ति) मयूर, मुखमास्यं, करतलं हस्तः , सागपत्रं वृक्षविशेषपत्र, वस्त्र प्रतीतमेतदादिभिः वातोदोषणवस्तुभिः अनिलं वायु हिंसन्ति इति / तथा आगारं गेह (परियारो त्ति) परिवारो वृत्तिः, खड्गाऽऽदिकोशो वा। भयाणि मोदकाऽऽदीनि / "खरविशदमभ्यवहार्य भक्ष्यम्' इति पवनात / भोजनान्योयनाऽऽदीनि, शयनानि शय्याः, आसनानि विष्टराणि, फलकान्यवष्टम्भनद्यूताऽऽदिनिमित्तानि, मुशलान्युदूखलाश्च प्रसिद्धाः। ततानि वीणाऽऽदीनि, विततानि पटहाऽऽदीनि, आतोद्यानि वाद्यानि, वहनानि यानपात्राणि, वाहनानि शकटादीऽऽनि, मण्डापाः प्रतीताः / विविधभवनानि चतुःशालाऽऽदीनि, तोरणानि प्रतीतानि / विटङ्कः कपातपाली, देवकुल प्रतीत जालकं छिद्रान्वितो गृहावयवविशेषः अर्द्धचन्द्रः सौधविशेषः, नि!हक द्वारोपरितनपार्श्वविनिर्गतदारु, चन्द्रशालिका प्रासादोपरितनशाला, वेदिका वितईिका, निःश्रेणिरवतरणी, द्राणी नौः, चङ्गेरी महती काष्ठपात्री, गृहत्पटलिका वा / कीला: शङ्कवः, मटका मुण्डका, सभा आस्थानिका, प्रपा जलदानभण्डपः, आवरायः परिव्राजकाऽऽश्रयः, गन्धाः चूर्णविषाः, माल्यं कुसुममनुलेपन विलेपनमभ्वराणि वरवाणि, यूपा युग, लाङ्गलं सरी, (मत्तिय त्ति) मत्तिकं, येन कृष्ट्वा क्षेत्र मृज्यते, कुशिकं हलप्रकारः, स्यन्दनो रथविशेषो, यतो द्विविधो रथः-सांग्रामिको, देवयानरथश्च / तत्र संग्रामिकस्य कटीप्रमाणा वेदिका भवति, शिविका पुरुषसहस्रवहनीयकूटाऽऽकारशिखराऽऽच्छादितो जम्पानविशेषः, रथः प्रसिद्धः, शकटं गन्त्री, यानं तद्विशेषः, युग्य गोनदेशप्रसिद्धो द्विहस्तप्रमाणावेदिकोपशोभितो जम्पानविशेष एव, अदालकः प्राकारोपरिवर्ती आश्रयविशेषः / चरिका नगरप्राकारान्तराले अष्टहस्तप्रमाणो मार्गः, द्वारं प्रतीत, गोपुरं पुनद्वारः, परिघा अर्गला, यन्त्राणि अरघट्टाऽऽदियवाणि, शूलिका वध्यप्रोतनकाष्ठं, पाठान्तरे शूलकः कीलकविशेषः। (लउड त्ति) लकुटः मुसुण्डिः प्रहरणविशेषः, श तघी महती यष्टिः, बहूनि च प्रहरणानि करवालाऽऽदीनि, आवरणानि स्फरवाऽऽदीनि (?) उपस्करश्च गृहोपकरण मञ्चकाऽऽदि / तत एतेषा द्वन्द्वः। ततश्च एतेषा कृते अर्थाय अन्यैश्च एवमादिभिः बहुभिःकारणशतैः हिंसन्ति तरुगणान् / तथा भणिताभणितांश्चैवमादिकान् एवंप्राकारान् सत्त्वान सत्वपरिवर्जितान् उपनन्तिदृढाश्च मूढाश्च दारुणमतयश्चेति प्रतीतम्। तथाविधक्रोधात् मानात्मायालोभात् हास्यरत्यरतिशोकात्। इह पञ्चमीलोपो दृश्यः / वेदोर्थाश्च वेदार्थमनुष्ठानं, जीविका जीवन, धर्मश्वार्थश्व कामश्चेत्येतेषा हेतोः कारणात्, स्ववशाः स्वतन्त्राः, अवशास्तदितरे अर्थाय च अनर्थाय च त्रसप्राणान् स्थावरांश्च हिंसन्ति मन्दबुद्धयः / एतदेव प्रपञ्चयन्नाह-स्ववशा घ्रन्ति, अवशा घन्ति, स्ववशा अवशाश्व इत्येवं (दुहउत्ति) द्विविधा घन्ति, एवमर्थाय इत्यादालापकत्रयम् / एवं हास्यवैररतिभिरालापकचतुष्टयमेवं कुद्धलुब्धमुग्धैः अर्थध-- मकामै श्चेति / तदेवं यथा च कृत इति प्रतिपादितम् / अधुना फल-- प्रधानाः क्रियाः' इति न्यायात्। फलद्वारं द्वारगाथायां कर्तृद्वारान् प्रागुपन्यस्तमप्युल्लड्घ्य "कधीना क्रिया' इति न्यायेन कर्तुः प्रधानतया अल्पवक्तव्यत्वाद्वा येऽपि कुर्वन्ति पापाः प्राणबधमित्येतदाह(कयरेत्यादि) तत्र कतरे कृष्यादिकारणैः प्राणिनो नन्तीति प्रश्रः / उत्तरमाह-(जे ते सोयरिए इत्यादि) तत्र शूकरैः मृगयां कुर्वन्ति ये ते शौकरिकाः, मत्स्यवन्धाः प्रतीताः / शकुनीन् धन्तीति शाकुनिकाः, व्याधाः लुब्धकविशेषाः क्रूरकर्माण इत्येतेषामेव स्वरूपाभिधायक विशेषणम्। (वागुरियत्ति) क्वचित्पाठः। तत्र वागुरिकया मृगबन्धनविशेषण चरन्तीति वागुरिका इति / तथा द्वीपिकश्चित्रको मृगमारणाय बन्धनप्रयोगश्च बन्धोपायः तहनश्च (?) तरकाण्ड विशेषो मत्स्यग्रहणार्थ जलावतरणाय, गलं च वडिशं जालंच मत्स्यबन्धनं चिरलकश्च श्येनाभिधानः, शाकुनि, शकुनिविनाशाय, आयसी लोहमयी दर्भमयी च या वागुरा मृगबन्धनविशेषः सा च कूटेन या स्थाप्यते चित्रकाऽऽदिग्रहणार्थ , छेलिका अजा सा कूटछेलिका सा च, अथवा कूट च मृगाऽऽदिग्रहणयन्त्र छेलिका चेति द्वन्द्वः / ता हस्ते येषां ते तया / Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 838 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह (दीविय ति) कचित्पाटः / तत्र द्वीपिकेन चित्रकेन चरन्तीति दीपिका इति / तत उत्तरपदेन द्वन्द्वम। अयमालापकः क्वचित्कथञ्चिद् दृश्यते, नवरं गमकपक्षमाश्रित्य व्याख्यात। हरिकेशाश्वण्डालविशेषाः, कुणिकाश्च सवकविशेषाः / क्वचित् "साउणिय नि' पाठः / तत्र शकुनेन चरन्ति शाकुनिका इति। (विदस ति) विदंशन्ति इति विदंशिका श्येनाऽऽदयः, पाशाश्व शाकुनिबन्धनविशेषाः हस्ते येषां ते तथा, वनचरकाः शवराः, लुब्धकाश्वव्याधाः, मधुधातपोतघाताः मधुग्राहकाः शावग्राहकाश्चत्यर्थः / (रणीयार त्ति) एणी हरिणी मृगग्रहणार्थ धारयन्ति पोषयन्ति येते। तथा(पएणीयार त्ति) प्रकृष्टा एणीचाराः प्रेणीचाराः, सरोजलाऽऽश्रयविशेषः, हदो नदः, दीर्घिका शरिणी, तडाग प्रतीतम, पल्वलं नडलमित्येतान् परिगालनेन च शुक्तिशंखमत्स्याऽऽदिग्रहणार्थ जलनिःसारणेन मलनेन च मईनन च श्रोतोबन्धनेन च जल पारगमनाय सलिलाऽऽश्रयान् परिशोषयन्ति ये ते तथा। विषस्य कालकूटस्य गरलस्य च द्रव्यसंयोगविशेषरय दायकाः दातारो येते तथा। उद्ततृणानामुगतवल्लराणा क्षेत्राणां दवाग्निना वह्निलिनेन निर्दयं यथा भवतीत्येवं (पलीवग त्ति) प्रदीपका ये ते तथा।कूरकर्मकारिण इमे बहवे (भिलवखुजाइ त्ति) म्लेच्छजातीयाः (किं ते त्ति) तद्यथा-शकाः १यवनाः २शवराः ३बर्वराः ४कायाः 5 मुरुण्डाः 6 उड्डाः 7 भण्डडाः भित्तिकाः 6 पक्कणिकाः 10 कुलाक्षाः 11 गौड़ाः 12 सिंहलाः 13 पारसाः 14 क्रौशाः१५ आन्ध्राः 16 द्रविडाः १७चिल्वलाः 18 पुलिन्दाः 16 आरोषाः 20 डोम्बाः 21 पोकणाः 22 गन्धहारकाः 23 वल्हीकाः 24 जल्वाः 25 रोसाः 26 मामाः 27 वकुशा:२८ मलयाश्च 26 चुञ्चुकान 30 चूलिकाः ३१काइमाः 32 . नेदाः 33 पह्नवाः 34 मालवाः 35 महुराः३६आभाविकका 37 अण्णा : 38 चीनाः 36 लासिकाः 40 खसाः 41 खासिका:४२ नेहराः 43 (मरहट्टत्ति) महाराष्ट्राः 44 / पाठान्तरेण मुढी: 45 मीट्रिक: ४६वारथाः 47 डोम्बिलकाः 48 कुहुणाः 46 केकयाः ५०हूणाः ५१रोमकाः 52 रुखो 53 मरुका इति 54 / एतानि च प्रायो लुप्तप्रथमाबनवनानि पदानि तथा चिलातविषयवासिनो म्लेच्छन्देशवासिनः। एक चयापारमतयः / तथा च जल वराश्च थलचरामा (२२-टायनित | सिंहाऽऽदय उरगाश्व सर्पाऽऽदयः (खहयरसदसति प्रयास सदातुण्डाश्च संदसाऽऽकारमुखपक्षिण इतिद्वन्द्वः त चले जीवोयघातजीविनश्चेति कर्मधारयः / कथंभूताः? संज्ञिनश्चासंज्ञिनश्च पर्याप्ताः अशुभलेश्यापरिणामाः, एते चान्ये चैवमादयः कुयन्ति प्राणतिपातकरण | प्राणिबधानुष्ठानं, पापाः पायानुष्ठायिनःपायाभिगम: पावापा दयमित्यभिगमाः / पापरुचयःपायमेवापासमिति प्रधान :, सणवार | तिकाः प्राणबध एव रूपानुष्ठानाः प्राणकथारवभिरमा करेतु हुति य बहुप्पगार ति) पापं प्राणवरूपत्वा याच भवन्ति येते कुर्वन्ति प्राणवर्धामति प्रकृतभा तदियता प्राय: नि। ते प्रतिपादिताः। इदानीं यादृशं फलं ददाति प्राणबधः एतदुपपाटनायाऽह-- बहुप्पगारं तस्स य पावस्स फलविवागं अयाणमाणा वडंति महब्भयं अविस्सामवेयणं दीहकालं बहुदुक्खसंकडं नरयतिरिक्खजोणिं इओ आउक्खए चुया असुभकम्मबहुला उववज्जति नरएसु हुलियं महालएसु वइरामयकुडुरुंदनिस्संधिदारविरहियनिम्मद्दवभूमितलखरफांसविसमणिरयघरनारएसु महोसिणसयपतत्तदुग्गंधविस्सउव्वेयणगेसु वीभच्छदरिसणि सु निचं हिमपडलसीयलेसु य कालोभासेसु य भीमगंभीरलोमहरिसणेसु णिरभिरामेसु निप्पडियारबाहिरोगजरापीलिएसु अईव णिचंधयारतिमिसेसु पतिभएसु ववगयगहचन्दसूरणक्खत्तजोइसेसु मेयवसामंसपडलपोचडपूयरुहिरुक्किण्णविलीणचिक्कणरसियावावण्णकु हियचिक्खल्लकद्दमे सुकुकूलानलपलित्तजालमुम्मुरअसिखुरकरवायारासु निसितविच्छुयदंडकनिवातोवमफरि अतिदुस्सहेसु य अत्ताणा असरणा कडुयदुक्खपरितावणेसु अणुबद्धनिरंतरवेयणेसु जमपुरिससंकुलेसु तत्थ य अंतोमुहुत्तलद्धिभवपचएणं निव्यत्तेति य ते सरीरं हुंडं वीभच्छदरिसणिज्ज बीभणगं अट्ठिण्हारूणहरोमवज्जियं असुभगदुक्खविसहं ततो य पञ्जत्तिमुषगया इंदिएहिं पंचहि वेएन्ति, असुभाए वेयणाए उज्जलबलविउलतिउलउक्कडखरफरुसपयंडघोरं बीहणगदारुणाए। किं ते कंदुमहाकुंभिपयणपउलणतवगतलणभट्ठभजणाणि य लोहकडाहकढणाणि य कोट्टवलिकरणकुट्टणाणि य सामलितिक्खग्गलोहकंटकअभिसरणापसरणाणि फालणविदालणाणि य अवकोडकबबंधणाणि लट्ठिसयतालणाणि य गलगबलुल्लंबणाणि सूलग्गभेयणाणि य आएसपवंचणाणि खिंसणविमाणणाणि य विघुट्ठपणिज्जणाणि बज्झसयमातिकाणि य, एवं ते पुवकम्मकयसंचयोवतत्ता निरयग्गिमहग्गिं संपलित्ता गाढदुक्खं महब्भयं कक्कसं असायं सारीरं माणसं च तिव्वं दुविहं वेएइ वेयणं पावकम्मकारी बहूणि पलिओवमसागरोवमाणि कलुणं पालें ति ते अहाउयं जमकायियतासिता य सदं करेइ भीया / किं ते अविभाव सामि भाय वप्प ताय जियवं ! मुय मे मरामि दुव्वलो वाहिपीलिओऽहं, किं दाणाऽसि, एवं दारुणो णिद्दओ य मा देहि मे पहारे उस्सासे तं मुहुत्तगं मे देहि पसायं करेह मा रूस वीसमामि गंविनं मुंच मे मरामि गाढं तण्हाइओ अहं देहि पापीयं, ता हंद पिय इमं जलं विमलसीयल, निधित्तूण य णिरचपाला तदियंलउपर कलरोण अंजलीसु दढूण च तं पदापियंगमा अंसुभगलंतपप्पुमा छिण्णा तण्हा इय मे कलुणाणि जंपमाण, विध्येय सा दिसिं अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुदिप्पहूणा विपलायंति मिया य वेगेण भयुविग्गा घित्तूण बला पलायमाणाणं निरणुकंपा मुहं Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 836 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह विहाडेत्तु लोहदंडे हिं कलकलं ण्हं वयणसि छुभंति केइ जमकाइया हसंता तेण य दज्झा संते रसंति य भीमाइं विस्सराई रोविंति कलुणगाइं पारेवतगा व एवं पलवितविलावकलुणो कंदियबहुरुन्नरुदियसद्दो परिदेवियरुद्धबद्धकारवसंकुलो नीसट्ठो रसियभणियकु वियकु कु इयणिरयपालतज्जियगिण्हणकामणपहारछिंदभिंदउम्पाडेहि उक्खणाहि कत्ताहि विकत्ताहि य भुजो हणविहणविच्छु भोच्छहआकडविकड्ड किं ण जंपेसि समराहि य पावकम्माइं दुक्कयाई एवं वयणमहप्पगम्भो पडिसुयसहसंकुलो तासओ सथा निरयगोयराणं महानगरडज्झमाणसरिसो निग्घोसो सुचए, अणिट्ठो तहियं णेरइयाणं जातिजंताणं जातिणाहिं / किं तेअसिवणदब्भवणजंतपत्थरसूईतलखारवाविक लकलितवेयरणिकलंबवालुयाजलियगुहनिरंभणउसिणोसिणकं टइल्लदुग्गमरहजोयणतत्तलोहपहगमणवाहिणाणि इमे हिं विविहे हिं आयुहेहिं / किं तेमोग्गरभुसंढिकरकयसत्तिहलगयमुसलचक्ककुंततोमरसूललउडभिंडिमालसद्धलपट्टिसचम्मेद्वदुघणमुट्ठियअसिखेडगखग्गचावनारायकणगकप्पणिवासिपरसुटक-तिक्खनिम्मला अन्नेहि य एवमाइएहिं असुभेहिं विउव्विएहिं पहरणसएहिं अणुबद्धतिव्वदेरा परोप्परं वेयणं उदीरें ति अभिहणं ति तत्थ य मोग्गरपहारघुण्णियभुसंढिसंभग्गमहितदेहाजंतोप्पीलणफुरंतकप्पिया, के इत्थ सचम्मकविगता णिमूल्लुल्लूणकण्णोट्ठनासिका छिन्नहत्थपाया असिककचतिक्खकुंतपरसुपहारफालियवासीसंतच्छितंगमंगा कलकलक्खारपरिसित्तगाढडज्झंतगत्ता कुंतग्गभिण्णजज्जरियसव्वदेहा विलोलंति महीतले विसुणियंगमंगा, तत्थ य विगसुणगसियालकागमज्जारसरभदीवियवग्घस लसीहदप्पियसुखुहाभिभूते हिं णिचकालमणसिएहिं घोरारसमाणभीमरूवे हिं अकमित्ता दढदाढागाढडककडियसुतिक्खनहफालियउद्धदेहा विछिप्पंते समंतओ, विमुक्कसंधिबंधणा वियंगमंगा कं ककुररगिद्धघोरकट्ठवायस्सगणेहि य पुणो खरथिरदढणखलोहतुंडे हिं ओवत्तित्ता पक्खाहयतिक्खणखविक्खित्तजिभिदियनयणनिद्दयो | रुग्गभग्गविगयवणा उक्कोसंताय उप्पयंतनिप्पयंता भमंता पुव्वकम्मोदयोवगया पच्छाणुसयेण डज्झमाणा जिंदंता पुरेकडाई पावगाई तहिं तहिं तारिसाणि ओसन्नचिक्कणाइं दुक्खाई अणुभवित्ता ततो वाऽऽउक्खएणं उध्वट्टिया समाणा बहवे गच्छंति तिरियवसतिं दुक्खुत्तरं सुदारुणं जम्मणमरणजरावाहिपरियट्टणारहट्ट जलथलखहचरपरोप्परविहिंसणयं च इमंच जगपागडं वरागा दुक्खंपावंति दीहकालं / किं तेसीउण्हतण्हखुहवेयणअप्पडीकारअड विजम्मणा णिचभउव्विग्गवासजाग णवधबंधणतालणंऽकणनिवायणऽट्ठिभंजणनासाभेदप्पहारदमणछविच्छे यणअमिओगपावणकसंकुमारनिवायदमणाणि वाहणाणि य मायापितिविओगसोयपरिपीलणाणि य सत्थग्गिविसाभिघातगलगवलावलणमारणाणि य गलजालुच्छिप्पणाणि पउलणविकप्पणाणि य जावजीवगबंधणाणि पंजरनिरोह-णाणि य सजूहनिद्धाडणाणि धमणाणि दोहणाणिय कुदंडगलबंधणाणि वाडपरिवारणाणि य पंकजलनिमञ्जणाणि वारिप्पवेसणाणि य ओवायनिभंगविसमणिवडणदव ग्गिजालदहणाई एवं ते दुक्ख सतसंपलित्ता नरगाओ आगया इहं सावसेसकम्मा तिरिक्खपंचिंदिएसु पावंति पावकारी कम्माणि पमादरागदोसबहुसंचियाइ अतीव अस्सायकक्कसाई भमरमसगमच्छिगाइएसु जाइकुलकोडियसयसहस्सेहिं णवहिं चउरिदियाणं तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुभवंता कालसंखेजकं भमंति नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा फरिसरसणघाणचक्खुसहिया तहेव तेइंदिएसु कुंथुपिपीलिकाअवहिकाइकेसु य जातीकुलकोडिसयसहस्से हिं अट्ठहिं अणूणएहिं तेइंदियाणं तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुभवंता कालसंखेजकं भमंति, नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा फरिसरसणघाणसंपत्ता तहेव वेइंदिएसु गंडूलयजलोयकिमियचंदणगमादिएसु य जातीकुलकोडिसयसहस्सेहिं सत्तहिं अणूणएहिं वेइंदियाण तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुभवंता कालसंखेज्जगंभमंति नेरझ्यसमाणतिव्वदुक्खा फरिसरसणसंपत्ता पत्ता एगिंदियत्तणं पिय पुढविजलजलणमारुयवनप्फति सुहुमवायरंच पज्जत्तमपज्जत्तं पत्तेयसरीरनामसाहारणं च पत्तेयसरीरजीविएसुय,तत्थ वि कालमसंखेजगं भमंति अणंतकालमणंतकाए फासिंदियभावसंपउत्ता दुक्खसमुदए य इमं अणिटुं पावें ति पुणो पुणो तहिं तहिं चेव परभवतरुगणग्गहणे कोदालकुलियदालणसलिलमलणक्खुभणसं - भणअणलाणिलविविहसत्थघट्टणपरोप्परामिहणनमारणविराहणाणि य अकामकाई परपओगोदीरणाहि य कज्जपउणेहिं य पेस्सपसुणिमित्तं ओसहाहारमादिएहिं उक्खणणउक्कथणपयणकुट्टणपीसणपिट्टणभज्जणगालणआमोडणसाडणफुडणभंजणछे यणतच्छणविलुचणं तज्झाडणअग्गिदहणाइयाइं एवं ते भवपरंपरादुक्खसमणुबद्धा अडंति संसारे बीहणकरे जीवा पाणाइवायणिरया अणंतं कालं / बहुप्रकारं (तररोत्यादि) तस्य च पापस्य प्राणवध रूपस्य फल विपाकस्य फल मिव वृक्षसाध्यमिव विपाकः कर्मणामुदयः फ लविपाक स्तं फल विपाकम् (अयाणमाणे ति) अजानतः वर्द्धयन्ति वृद्धि नयन्ति, नरक तिर्यग्यो निमिति योगः। तद्द Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 840 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह दिश्य पुनः पुनस्तत्रोत्पादहेतुकर्मबन्धनात्, किंभूताम? महदयं यस्यां सा महाभया ता महाभयान, अविश्रामवेदना विश्रान्तरहितामसातवेदना दीर्घकालं यावत् बहुभिः दुःखेः शारीरमानसेः या संकुला सा दीर्धकालबहुदुःखसकटा ता नरकेषु तिर्यक्षु च या योनिरुत्पत्तिहेतु-वात सा नरकतिर्यग्योनिस्ता, ततश्च इतो मनुष्यजन्मनः सकाशादायुःक्षये मरणे सति च्युतास्सन्तः (तस्सेत्यादि) च सूत्र क्वचिदेव दृश्यते। अशुभफर्मबहुलाः कलुषकर्मप्रचुराः, उपपद्यन्ते जायन्ते नरकेषु (हुलिय ति) शीव्र महालयेषु क्षेत्रस्थितिभ्यां महत्सु, कथंभूतेषु? वज्रमयकुड्या रुन्द्रा विस्तीर्णा निस्संधयो निर्विवराः द्वारविरहिताः अद्वाराः निर्माईवभूमितलाश्च कर्कशभूमयः ये नरकास्ते तथा (खलफास त्ति) कर्कशस्पर्शाः विषमा निभ्रोन्नताः निरयगृहसंबन्धिनो नारकाः कुट्यकुटा नारकोत्पत्तिस्थानभूताः येषु नरकेषु ते तथा। ततः पदद्वयरय कर्मधारयः / अतस्तेषु तथा महोष्णाः अत्युष्णाः सदा प्रतप्ताः नित्यतप्ताः दुर्गन्धाः अशुभगन्धाः विश्राः आमगन्धयः कुथितेत्यर्थ / उद्विज्यते उद्विग्नेर्भूयते यस्मिन् ते उद्वेजनकारते ये ते तथा जेषु तथा वीभत्सदर्शनीथेषु विरूपेषु नित्यं सदा हिमपटलमिव हिमवृन्दमिव शीतलाये ते तथा तेषु च कालः आवभासःप्रभा येषां ले तथा कालावभासास्तेषु च, भीमगम्भीराश्व ते अत एव लोमहर्षणाश्च समहर्षकारिणो भीमगम्भीरलोमहर्षणास्तेषुनिरभिरामवनभिरमणीयेषु निःप्रतीकारा अचिकित्स्या ये व्याधयः कुष्ठाऽऽद्याःजरा च प्रतीता रोगाश्च सद्योधातिनो ज्वरशूलाऽऽदयः तैः पीडिता ये ते तथा तेषु / इदं च नारकधर्माध्यारोपान्नरकाणां विशेषणमुक्तम। अतीव प्रकृष्ट नित्य शाश्वतमन्धकार येषु ते तथा तमिस्रव () अन्धकारप्रकर्षास्ते अतीव नित्यान्धकारतिमिसा। अथवा-- अतीवनित्यान्धकारण तिमिसेव ये ते तथा तेषु / अत एव प्रतिभयेषु वस्तुं वरतुं प्रतिभय येषु ते तथा तषु व्यपगलग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्केषु / इह ज्योतिषशब्देन तारका गृह्यान्ते / मेदश्च शरीरधातुविशषः , वसा च शरीरस्नेहः, मासं च पिशित, तेषां यत्पटल वृन्दं (पोचड ति) अनिविडं च पूवरुधिराभ्यां पक्करक्तशोणिताभ्यां (उक्किण्ण ति) उत्कीर्ण मिश्रित विलीन जुगुप्सितंचिक्कण - माश्लेषवत् रसिकया शारीररसविशेषण व्याधनं विनष्ट स्वरूपमत एव कुथित कोथवत् तदेव चिक्खलं प्रबलकदमः कदमश्च तदितरो यषु से तथा तेषु, कुंकूलानलश्च कारीषाग्निः प्रदीप्तज्याला व गुर्मुर भस्मानिः, असिक्षुरकरपत्राणां धारासु निशिता वृश्चिकदण्डकस्य तत्पुछकण्टकस्य च निपात इति द्वन्द्वः। एभिरौपम्यमुपमा यस्य स तथा तथाविधः स्पर्शः अति दुःसहो येषां ते तथा तेषु, अत्राणा अनर्थप्रतिघातकवर्जिताः, अशरणा स्वार्थप्रापकवर्जिता जीवाः कटुकदुःखैः दारुणः दुःखः परिताप्यन्तेयेषु ते अत्राणाशरणकटुकदुखपरितापनारसेषु अनुबद्धनिरन्तरा अत्यन्तनिरन्तरा वेदना येषुते तथा तेषु, यमरस दक्षिागतिकपालस्य पुरुषाः अम्बाऽऽदयः असुरविशेषा यमपुरुषा एतैः संकुला यषु ते तथा तेषु,तत्र च उत्पत्ती सति अन्तर्मुहूर्तश्च कालमानविशेषः, लब्धिश्व वैक्रियलब्धिर्भवप्रत्ययश्चभवलक्षणो हेतुरन्तर्मुहूर्तलब्धिश्च भवप्रत्ययं तन निर्वर्तयन्ति कुर्वन्ति, ते पुनः पापाः, शरीर किंभूतम्? हुण्ड सर्वत्रासस्थित, वीभत्सदर्शनीय दुर्दर्शन (बीहाणगंसि) भयजनकनस्थिस्नायुनखरोमवर्जितम् असुभगं च तत् दुःखविषहं चेत्यसुभगदुःखविषहम् / पाठान्तरेणाऽशुभं दुःखविषय च यत् तत्तथा, ततः शरीरनिर्वर्तनानन्तरं पर्याप्तिमिन्द्रियपर्याप्तिमानप्राणपर्याप्ति भाषापयाप्ति मनःपर्याप्ति चोपगताः प्राप्ता इन्द्रियः पञ्चभिर्वेदयन्ति अनुभवन्तिा कं? दुःख महाकुम्भिपचनाऽऽदीनि दुःखकारणानीति योगः। कया कालतान्य शुभया वेदनया दुःखरूपयेत्यर्थः / कि भूतयेत्याह- (उञ्जलेत्यादि तत्रोज्ज्वला विपक्षलेशेनाप्यकलङ्किता बला बलवती निवर्तयितुमशक्या विपुला सर्वशरीरावयवध्यापिनी / पाठान्तरेण-(तिउलं ति) त्रीन् मनोवा - कायोस्तुलयत्यभिभवति या सा वितुला, उत्कटा प्रकषपर्यन्तवर्तिनी, खरममृदुशिलावत् यद द्रव्य तत्सम्पोतजनिता खरा, परुष कर्कशं कूष्माण्डीदलमिव यत्तत्सम्पातसंभवाः परुपाः प्रचण्डाः शीघ्रं शरीरव्यापिकाः प्रचण्डापरिवर्तितत्वाद्वा प्रचडा घोरा झमिति जीवितक्षयकारिणी औदारिकवतां परिजीवितानपक्षा वा ये ते तथा, घोरास्तत्प्रवर्तित्वात घोरा इति। (वीहणग त्ति) भयोत्पादिका। किमुक्तं भवति?.. दारुणा, तत एतेषां कर्मधारयः। अतः तया वेदयन्तीति प्रकृतम्। (कि ते त्ति) तद्यथा कन्दुर्लाही, महाकुम्भी महत्युरखा, तयोः पचनंच भक्तस्येव (पउलणं ति) पचनविशेषस्य पृथुकस्येव (तवगं ति) तापिका, तत्र तलने च सुकुमारिकाऽऽदेरिव भ्राष्टे अवरीषेव भर्जनं च पाकविशेषकरण चणकाऽऽदेरिवेतिद्वन्द्वोऽतस्तानिचलोहकटाह कथनानि चेक्षुर--सस्येव (कोट्ट ति) क्रीडा, तेन बलिकरण चण्डिकाऽऽदेः पुरतो पश्वादेरियोपहारविधानम् / पाठान्तरे- 'कोट्टाकोट्टकिरिया'' दुर्गा तस्येव कोट्टाय पा प्राकाराय बलिकरण, तच कुट्टनं च कुटिलत्वकरण वैकल्यकरणं वा कुट्टन वा चूर्णन तानि च शाल्मल्या वृक्षविशेषस्य तीक्ष्णाग्रा ये लोहकण्टका इव लोहकण्टकास्तेष्यभिसरणं चापेक्षिकमभिमुखाऽऽगमनमपसरणं च निवर्त्तनं शाल्मलीतीक्ष्णाग्रलोहकण्टकाभिसरणापसराणः स्फाटनं च सकवारणं च विदारण च विविधप्रकारैरिति / ते चावकोटकबन्धनानि बाहुशिरसा पृष्ठदेशे बन्धनानि यष्टिशतताडनानि च प्रतीतानि, गलक कण्टे बलात् हठात् यान्युल्लम्बनानि वृक्षशाखाऽऽदावुद्न्धनानि तानि गलकम्बलोल्लम्बनानि शूलाग्रभेदनानि च व्यक्तान्यादेशप्रपश्चानान्यसत्यादिशतो विप्रतारणानि, खिंसनविमाननानि च तत्र खिसनानि निन्दनानि, विमाननान्यपमानजनतानि (विधुट्ठपणिज्जणाणि ति) विधुष्टानाम् एते पापाः प्राप्नुवन्ति, स्वकृतं पापफलमित्यादे चाग्निसंशब्दितानां प्रणयनानि वध्यभूमिप्रापणानि विधुष्टप्रणयनानि बध्यशतानि व्यक्तानि तान्येव माता उत्पत्ति भूमियेषां तानि बध्यशतमातृकाणि, बध्याऽऽश्रितदुःखानीत्यर्थः / तानि चैवमित्युक्तक्रमग ते पापकर्मकारिण इत्यनेन संबन्धः / (पुस्वकामकरसंबवता ति) पूर्वकृतकर्मणां सञ्चोनीपतता आपन्नसन्तापाये ते तथा निरय एवं अग्निर्नेरयाग्निस्तेन महाग्निनेव संप्रदीमा ये से तथा गाढदुःखां गढदुःखरूपां द्विविधा वेदना वेदयन्तीति योगः / किं भूताम्? महाद्वयं यस्यां सा तथा Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 841 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह ता कर्कश कठिन दव्योपनिपातजनितत्वात्, असातामसाताऽऽख्यवेदनीयकर्मभेदप्रभवा शारीरि मानसीं च तीव्रां तीव्रानुभागबन्धजनितां पापकर्मकारिणस्तथा बहूनि पल्योपमसागरोपमाणि करुणा दयाऽऽस्पदभूताः करणं वा पालयन्ति ते इति पूर्वोक्ताः पापकर्मकारिणः (अहाउयं ति) यथा-बद्धमायुष्कगाढयाऽपि वेदनया नोपक्रम्यत इति भावः / तथा यमकायिकः दक्षिणदिकपालदेवनिकायाऽऽश्रितैरसुरैरम्बाऽऽदिभिरित्यर्थः / त्रासितो पादितभया यमकायिकत्रासितास्ते च शब्दमार्तस्वर कुर्वन्ति भीताः सन्तः। (कि तेत्ति) तद्यथा-(अविभाव नि) हे अविभाव्य अविभावनीयस्वरूप ! (सामि त्ति) हे स्वामिन् (भाय त्ति) हे भ्रातः (वप्प ति) हे चप्प हे पितःइत्यर्थः / एवं हे तात (जितव ति) हे जितवन्प्राप्तजय जीतं वा (मुच त्ति) मुञ्च (मो त्ति) मा (मरामि त्ति) मिये। इह च नारकाणां बहुवचनप्रक्रमेऽपि यदेकवचनं तदेकापेक्षं तद् जात्यपेक्षं छान्दसत्वादा इति / यतः दुर्बलो व्याधिपीडितोऽहं (किं दाण सि त्ति) किमिदानीम् असि भवसि (एक दाराणोति) एवं प्रकारो दारुगो रोद्रो निदर्यश्च निघृणश्च, मा देहि में मम प्रहारान (उस्सासेतं मुहुत्तग में देहि ति) उच्छ्रासं उसनम्, एत अधिकृतम् एकं वा मुहूर्तकं यावत् मे मां देहि इति प्रसादं कुरुत, मा कुरुष्वा (?) विश्रमामि विश्राभं करोमि (गेविल्लं ति) गै वेयकं ग्रीवाबन्धन मुख (मे) भम यतो (मरामि त्ति) मिये तथा गाढमत्यर्थम् (तहाइउत्ति) तृष्णाऽर्दितः पिपासितः, अहम् (देहि त्ति) दत्त पानीय जलम इति नारकण उक्ते सति नरकपाला यद भणन्ति तदाह-(ता इति) यदि त्वं पिपासितः ततः अहं, ताहंद इति चाऽऽमस्त्राणे, पिय इदं जलं विमलं शीतलम् इति एतत्शब्दार्थः, भणन्तीति गम्यते। गृहीत्वा च निरयपालाः तप्तं त्रपुकम् (से) तस्य ददति कलशेन अञ्जलिघु दृष्ट्वा च तजल प्रवेषिताङ्गोपाङ्गाः कम्पितसकलगात्रा: अश्रुभिः प्रगलद्धिःप्रप्लुरे अक्षिणा येषां ते अश्रुप्रगलत्प्लुताक्षाः (छिण्हा तण्हा इयऽम्ह त्ति) (इय त्ति) इति भिन्नक्रमः। तस्य च एवं सम्बन्धः, छिन्ना तृष्णा अस्माकम् इति एवं रूपाणि करुणानि, वचनानि इति गम्यते। जल्पन्ता विपलायन्तेचइति योगः। विप्रेक्षमाणाः (दिसो दिरा ति) एकस्या दिशः सकाशात् अन्यां दिशम् अत्राणा अनर्थप्रतिघातवर्जितत्वात अशरणा अर्थकारकविरहिताः अनाथाः योगक्षेमकारिविरहिताः अबान्धवाः स्व जनरहिताः बन्धुविप्रहीणाः विद्यमानबान्धवविप्रमुक्ताः। फथचिदेकाथिकानि अपि एतानि पदानि न दोषाय, अनाथताप्रकर्षप्रतिपादकत्वादिति। विपलायन्ते च नश्यन्ति च, कथं? मृगा इव वेगेन भयोद्विग्ना इति गृहीत्वा च बलात् हठात् इत्यर्थः। नारकादिति गम्यते। तेषां च विपलायमानानां निरनुकम्पा यमकायिका इति योगः / मुरवं विघाट्य विदाव्यं लोहदण्डैः (कलकलं हं ति) कलकलशब्दयोगात् कलकलं, पूर्वोक्त कम इह स्मर्य्यत / 'हं ति" वाक्यालङ्कारे। वदने मुखे क्षिपन्ति केचित् यमकायिका अम्बाऽऽदयः। किंभूताः? हसन्त इति / ततो नारका यस कुर्वन्ति तदाह-तेन च तप्तत्रपुणा दग्धाः सन्तो (रसन्ति च प्रलषन्ति च / किंभूतानि वचनानीत्याह-भीमानि भयकारीणि विस्वराणि विकृतशब्दानी, तथा रुदन्ति च करुणकानि कारुण्य - कारीणि / क इवेत्याह--पारापता इवेति एवंप्रकारो निर्घोषः श्रूयते इति सम्बन्धः / प्रलपिता अनर्थकभाषणं विलाप आर्तस्वरकरणं, ताभ्यां रुरुणो यः स तथा, तथा क्रन्दितं ध्वनिविशेषकरण, बहुप्रभूतम् (रुण्ण ति) अश्रुविमोचनम् (रुदितं ति) आराटीमोचनम् / एतेषां एतानि वा शब्दः यत्र स तथा तथा. परिदेवनाश्च विलपिताः। वाचनान्तरे परिवेपिताश्च प्रकम्पिता रुद्धाश्च बद्धकाश्च ये नारकाः ते तथा तेषां य आरवः तेन यः संकुलः स तथा निसृष्टा नारकैः विमुक्तः आत्यन्तिको वा तथा रसिताः कृतशब्दाः भणिताः कृताध्यक्तवचनाः कुपिताः कृतकोपाः उत्कूजिताः कृताऽव्यक्तमहाध्वनयो ये निरयपालाः तेषां यत्तर्जितंज्ञास्यसि रे पापाः ! इत्यादि भणित नारकविषय (गिण्ह त्ति) गृहाण कामं लड्धयेत्यर्थः / प्रहारो लकुटादिना छिन्दि खङ्गाऽऽदिना (भिदि) कुन्ताऽऽदिना (उप्पाडेहि त्ति) उत्पाटय भूतलादुत्क्षिप (उक्खणाहि त्ति) सभुत्खन, अक्षिगोलकबाहादिकं कृत्त कर्तय नासाऽऽदिकं विकृत्त चं विविधप्रकारैः (भुजी त्ति) भूयः एकदा हतं, पुनरपि पाठान्तरे भञ्ज आमर्दय हन ताडय क्रियाओं हनशब्दो निपातः। (विहण त्ति) विशेषेण ताडय (विच्छुभ त्ति) विक्षिप उपुकाऽऽदिक मुखे विकीर्ण वा कुरु / वाचनान्तरे विच्छुभ निष्कर्षय इत्यर्थः / (उच्छुह ति) आधिक्येन क्षिप, प्रवेश य इत्यर्थः / आकृष्ट अभिमुखम् आकर्षण कुरु, विकृषा विपरीत विकर्षण कुरु, किन जल्पसि? वाचनान्तरे तु किं न जानासि? स्मर हे पाप! कर्माणि दुष्कृतानि, एवममुना प्रकारेण यद्वदनं नरकपालप्रतिपादन तेन महाप्रगल्भो स्फारो यस्य स तथा। (पडिसुय त्ति) प्रतिश्रुतः प्रतिशब्दः तद्रूपो य शब्दः तेन सडकुलः त्रासकः / वाचनान्तरे तु-"वीहणओ तासणओ पइभआ अइभयो त्ति' एकार्थाः। सदा सर्वदा, केषां त्रासक इत्याह(निरयगोयराण) नरकवर्तिना (महानगरउज्झमाणसरिसो त्ति) दह्यभानमहानगरघोषसदृशो निर्घोषो महाध्वनिः श्रूयते अनिष्टः (तहियं ति) तत्र नरके, केषां रांबन्धीत्याह-(नेरइयाणं) किंभूतानामित्याह-यात्पमानाना कदर्थ्यमानाना यातनाभिः कदर्थनाप्रकारैः (किं ते त्ति) कास्ता असिवन खड़गाऽऽकारपत्रवन, दर्भवनं प्रतीतं, दर्भपत्राणि छेदकानि तदग्राणि च भेदकानि भवन्तीति तद्यातनाहेतुत्वेनोक्तम् / यत्र प्रस्तरा घरट्टाऽऽदिपाषाणयन्त्रमुक्तपाषाणा वा यन्त्राणि च पाषाणाश्चेति वा यन्त्रपाषाणा सूचीतलमूर्द्ध मुखसूचिकं भूतलं खारवाप्यः क्षारद्रव्यभृतवाप्यकलकलं (त ति) कलकलायमानं यत् त्रपुकाऽऽदि तभृता वैतरण्यविधाना या नदी सा कलकलायमानवेतरणी कदम्बपुष्पाऽऽकारा वालुका कदम्बबालुका ज्वलिताया गुहा कन्दरा सा। ततो द्वन्द्वः। ततोऽसिवनाऽऽदिषु यन्निरोधन प्रक्षेपणस्तत्तथा उष्णोष्णे अत्युष्णे (कंटइल्ले त्ति) कण्टकवति दुर्गमे कृच्छ्रगतिके रथशकटे यद्योजनं गवामिव तत्तथा, तप्ते लोहपथ लोहमयमार्गे यद्गमनं स्वयमेव वाहनं च परैर्गवामिव तत्तथा। ततः पदत्रयस्य द्वन्द्वः। (इमेहिं ति) एतैर्वक्ष्यमाणैर्विविधैः परस्परं देवतामुद्दीरयन्तीति योगः। (किंतेत्ति) तद्यथा मुद्गरोऽयोधनः भुसुण्ढिः प्रहरणविशेषः, (करक्य त्ति) क्रकचंकरपत्र, शक्तिः त्रिशूलं, हललाङ्गलं, गदालकुटिविशेषः, मुशलं चक्र कुन्तं च प्रतीतं, तोमरोवाणविशेषः, शूलं प्रतीतम्। (लउडत्ति) Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 842 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह लकुट, मिण्डिमालः प्रहरणविशेषः। सद्धलो भलः, पट्टिसः प्रहरणविशेषः (चम्मेट्टति) चर्मवष्टितं पाषाणविशेषो, दूषणो मुद्गरविशेषः, मौष्टिको मुष्टिप्रमाणपाषाण एव, असिखेटकम् असिना सह फलक, खडगः केवल एव, चाप धनुः, नाराच आयसो वाणः, कणको वाणविशेषः / कल्पनी कर्तिकाविशेषः, वासी काष्ठतक्षकोपकरणविशेषः / परशु कुठारविशेषः। तत एतेषांद्वन्द्वस्ततस्तेच ते टड्डा इव तीक्ष्णा निर्मलाश्चेति कर्मधारयः, ततस्तैरितिव्याख्येयम्, तृतीयाबहुवचनलोपदर्शनादिति! अन्य श्वेवमादिभिः अशुभैर्व क्रियैःप्रहरणशतैरभिघ्नन्तः अनुबद्धतीनवैरा अविच्छिन्नोत्कटवैरभावाः परस्परमन्योऽन्यं वेदनामुदीरयन्ति नारका ) एव तिसृभ्यः नरकपृथिवीभ्यः, परतो नरकपालानागमनाभावात्। (तत्य यति) तत्र च परस्परामिहननेन वेदनोदीरणेन मुद्गप्रहारचूर्णितो भुसु - ण्डिभिः संभग्ना मथितिश्च विलोडितो देहो येषां ते तथा, यन्त्रोपपीउनेन स्फुरन्तश्च कल्पिताश्च छिन्नाः यन्त्रोपपीडनस्फुरत्कल्पिता: (केइत्थ ति) कचिदत्र नरके सवर्मकाश्वम॑णा सह विकृताः, उत्कृत्ताः पृथक्कृतचणि इत्यर्थः / तथा निर्मूलोल्लूनकर्णोष्ठनासिकाः च्छिन्नहस्तपादा असिक्रकचतीक्ष्णकुन्तपरशूना प्रहारैः स्फाटिता विदारिता येते तथा, वारया संतक्षितान्यङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा / ततः पदव्यग्य कर्मधारयः। तथा (कल त्ति) कलकलायमानक्षारेण यत्पारेषिक्तं तेन गाढमत्यर्थ (उज्झंत त्ति) दामानं गात्रं येषां ते तथा, कुन्ताग्रभिन्नो जर्जरितश्च सर्वो देहा येषां ते, ततः कर्मधारयः। (विलालिं ति) विलुलन्ति / लुण्ठन्तीत्यर्थः / महीतले भूतले (विसुणियंगमंग त्ति) जातवेपथुकाङ्गोपाङ्गाः / वाचनान्तरे तु निर्गताग्रजिड़ाः (तत्थ य त्ति) तत्र च महीतलविलोनन बृकाऽऽदिभिः विक्षिप्यन्ते इतियोगः / तत्र वृका ईहामृगाः / (सुणग त्ति) कोलेयकाः, शृगालाः, गोमायवः, काकाः वायसाः, मार्जाराः विडालाः, सरभाः परसराः, द्वीपिका चित्रकाः / (वियग्ध ति) वैयाघ्राः व्याघापत्यानि, शार्दूला व्याघ्राः, सिंहा प्रतीताः। एते च ते दर्पिताश्च दृप्ताः क्षुदभिभूता बुभुक्षिता इति ते तथा तै: नित्यकालमनसितैः निर्भोजन?रा दारुणक्रियाकारिणः आरसन्तः शब्दायमानाः भीमरूयाश्च येते तथा तैः, आक्रम्य दृढं दंष्टाभिर्गाढमत्यर्थ (डमति) दष्टाः (कड्डिय त्ति) कृष्टाश्च आकर्षिता येते तथा. सुतीक्ष्णनखैः स्फाटित उर्दो देहो येषां तेतथा।ततः पदद्यस्य कर्मधारयः। विक्षिप्यन्ते विकीर्यन्ते, समंततः, किंभूतास्ते? विमुक्तसंधिबन्धनाः 'लथीकृताइसंधानाः, तथा व्यङ्गितानि विकलीकृतान्यङ्गानि येषां ते तथा, तथा कङ्काः पक्षिविशेषः, कुररा उत्क्रोशाः, गृद्धा शकुनिविशेषाः, घोरकष्टा अतिकष्टाश्वये वायसास्तेषां ये गणास्तैश्च (पुणो त्ति) समुचयार्थः, खराः कर्कशाः, स्थिरा निश्चलाः, दृढाः अभड्गुरा नखा येषां ते तथा, तथैव तुण्ड येषां ते तथा, ततः कर्मधारयस्तैरवपत्य उपनिपत्य पक्षेराहताः पक्षाऽऽहता तीक्ष्णनखैः विक्षिप्ताः आकृष्टा जिह्वाः आच्छिते चाऽऽकृष्ट नयन लोचने, निर्दय च निष्कृपं यथाभत्येव तथा (ओरुगं ति) अवरुग्गं भग्नं विकृतं च वदनं येषा, पाठान्तरे "ओलुग्गं ति" अवलुप्तानि छिन्नानि विकृतानि गात्राणि येषां ते, तथा उत्क्रोशन्तश्च क्रन्दन्तश्च उत्पतन्तो निपन्ततो भ्रमन्तः पूर्वकर्मोदयोपगता इति च पदचतुष्टयं व्यक्तम्। पश्चादनुशयेन पश्चात्तापेन दह्यमानाः निन्दन्तो जुगुप्समानाः (पुरे कडानि पूर्वभवकृतानि कर्माणि क्रियाः पापकानि प्राणातिपाता ऽदीनि ततः (तहिं 2) ते तस्यां रत्नप्रभाऽऽदिकायां पृथिव्याम्.उत्कृष्टाःऽदि स्थितिके नरके तादृशानि जन्मान्तर उपार्जितानि परमाधार्मिकोदीरितपरस्परोदीरितक्षेत्रप्रत्ययरूपाणि (उस्सण्णचिक्कणाई ति) उसन्न प्राचुर्येण (चिकणाई) दुर्विमोचानि दुःखानि अनुभूय ततश्च निरयादायुः क्षयेणाद्वृत्ताः सन्तो बहवो गच्छन्ति तिर्यग्वसतिं तिर्यग्यो नि यतोऽल्पा एव मनुष्येषूत्पद्यन्ते दुःखोत्तराम् अनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीकायस्थितिकत्वात्, तरयां सुदारुण्यां दुःखाऽऽश्रयत्वात् जन्ममरणजराव्याधीन या परिवर्तना पुन पुनर्भवनानि ताभिररघदो या सा तथा तः तिर्सग्दसति जलस्थलखवराणां परस्परेण विहिंसनस्य विविधव्यापादनस्य प्रपञ्चो विस्तारो यस्या सा तथा, तस्यां तस्यां च इदं वक्ष्यमाणप्रत्यक्ष जगत्प्रकटं, न केवलमागमगम्यं, किं तु जङ्गमजन्तूनां प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धतया प्रकटमेवेति, वराकास्तपस्विनः, प्राणदधकारिण इति प्रक्रमः / दुख प्राप्नुवन्ति दीर्घकाल, या च (किंत ति) तद्यथा-शीतोष्णतृष्णाक्षुद्भिर्वेदना तथा अप्रतीकारं सूतिकर्माऽऽदिरहितम् अटवीनन्म कान्तारजन्म नित्यं भवेनोद्विग्नानां मृगाऽऽदीनां वासोऽवस्थानं जागरण च अनिद्रागमनं बधो मारणं बन्धनं संयमनं ताडनं कुट्टनम्, अङ्कन तप्तायःशलाकाऽऽदिना चिन्हकरणं, निपातनं गतोऽऽदिप्रक्षेपणमस्थिभञ्जनं कोकसामर्दन, नासाभेदो नासिकाविवरकरणं प्रहारैः (दम ति) दमनमुपताप, छविच्छेदनमवयवकर्तनम्, अभियोगप्रापणं हठाव्यापार प्रवर्तन, कसश्व चर्मयष्टिका, अकुशं सृषिः, आरा च प्रवपराणी (?) या दण्डान्तर्वर्तिनी लोहशलाका तासां निपातः शरीरे निवेशनंदमनं शिक्षाग्रहणं ततो द्वन्द्वः। ततःएतानि प्राप्नुवन्तीति प्रक्रमः / वाहनानि च भारस्येति गम्यम्। मातापितृविप्रयोगः श्रोतसा नासामुखाऽऽदिरन्ध्राणां च परिपीडनानि रज्वादिदृढबन्धनेन बाधनानि यानि तानि, तथा शोकपरिपीडितानि वा, ततो द्वन्द्वः। ततस्तानि च शस्त्रं चाऽग्निश्च विषं च प्रसिद्धानि, तैरभिघातश्चाभिहननं गलस्य कण्ठस्य गवलस्यं शृङ्गस्याऽऽवलन चमोटनमथवा गलस्य बलादाबलनं मारा चेति तानि च गलेन वडिशेन, जालेन वाऽऽनायेन (उच्छिपणाणि त्ति) जलमध्यान्मस्याऽऽदीनामुत्क्षेपणान्याकर्षणानि वानि तानि, तथा (पसलन) पचनं विकल्पनं छेदन ते च यावजीविकबन्धनानि पञ्जरनिरोधनानि चेति पदद्वयं व्यक्तम् / स्वयूथान्निर्घाटनानि वा स्वकीयनिकायनिष्कालनानीत्यर्थः / धमनानि महिष्यादीनां वायुपूरणानि, दोहनानि च प्रतीतानि, कुदण्डेन बन्धनविशेषेण, गले कण्टे यानि बन्धनानि तानि तथा, वाटेन वाटकेन वृत्त्येत्या परिवारणानि निराकरणानि यानितानि तथा तानि पङ्कजलनिमजनानि कर्दमप्रायजले बोलनानि, वारिप्रवेशनानिचजले क्षेपः, तथा-(ओवाय त्ति) अवपातेषु गर्तविशेषेषु उडङ्क इत्येवरूढेषु पतनेन निभड़ो भजन गात्राणामवपातनिभङ्गः।स च विषमात्पर्वतशृङ्गाऽऽदेः निपतनं विषमनिपतनं, तच्च दवाग्रिभिज्ालाभिर्दहन चेति तानि आदिर्येषां तानि तथा कर्माणि प्राप्नुवन्तीति योगः / एवमुक्तन्यायेन ते प्राणघातिनः दुःखशतसंप्रदीपः नरका Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 843 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणबह दागता इह तिर्यग्लोके, किंभूताः? सावशेषकर्माणः तिर्यक् पञ्चेन्द्रियेषु प्राप्नुवन्ति पापकारिणः। कानीत्याह-कर्माणि कर्मजन्यानि, दुःखानीति भावः / प्रमादरागद्वेषैर्बहूनि यानि सञ्चितान्युपार्जितानि तानि तथा, अतीवाऽत्यर्थमशातकर्कशानि अशातेषु दुःखेषु मध्ये कर्कशानि कठोराणि यानि तानि तथा, भमरमशकमक्षिकाऽऽदिषु चेति सप्तम्याः षष्ट्यर्थत्वाद् भ्रमराऽऽदीनामिति व्याख्येयमा चतुरिन्द्रियाणामिति च सम्बन्धनीयम्। अथवा चतुन्द्रियाणां भमराऽऽदिषु जाति कुलकोटीशतसहस्रेष्वेवं घटनीयमिति। जातौ चुरिन्द्रियजातौ यानि कुलकोटीशतसहस्राणि तानि तथा तेषु नवसु (तहिं २चेव त्ति) तत्रैव तत्रैव चतुरिन्द्रियजातावित्यर्थः / जननमरणान्यनुभवन्तः काल संख्यातकं संख्यातवर्षसहस्रलक्षणं भ्रमन्ति, किंभूताः? नगरकसमानतीब्रदुःखाःस्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः सहिताः, इन्द्रियचतुष्टयोपेता इत्यर्थः / तथैवेति यथैव चतुरिन्द्रियेषु तथव श्रीन्द्रियेषु जननान्यनुभवन्तः, भ्रमन्तीति प्रकृतम्। एतदेव प्रपञ्चयन्नाहकुन्थुपिपीलिका अवधिकाऽऽदिकेषु च जातिकुलकोटिशतसहस्राष्ट्रत्यादिद्वीन्द्रियगमान्तं चतुरिन्द्रियगमवन्नेयं,नवरं (गंडूलय त्ति) अलसी (चंदणग त्ति) अक्षाः। तथा (पत्ता एगिदियत्तणं पियत्ति) न केवल पश्शेन्द्रियाऽऽदित्वमेव प्राप्ता एकेन्द्रियत्वमपि प्राप्ता दुःखसमुदयं प्राप्नुवन्ति इति योगः। किंभूतमेकन्द्रियत्वमित्याह-पृथिवीजलज्वलनमारुतवनस्पतिसम्बन्धिवत् एकन्द्रियत्वं तत्पृथिव्याद्येवोच्यते, पुनः किंभूतं तत्सूक्ष्म बादरं च तत्कर्मोदयसंपाद्यं, तथा पर्याप्तमपर्याप्तं च तत्तत्कर्मणोत्पाद्यमेव, तथा प्रत्येकशरीरनामकर्मासंपाद्यं प्रत्येकशरीरनामैवाच्यते। साधारणशरीरनामकर्मसम्पाद्यं च साधारणं पर्याप्ताऽऽदिपदानां कर्मधारयः / चःसमुचये। एवविधं चैकेन्द्रियत्व प्राप्ताः कियन्तं कालं भ्रमन्तीति भेदेनाऽऽह-"पत्तेयेत्यादि" (तत्थ वित्ति) तत्राप्येकेन्द्रियत्वे प्रत्येकशरीरे जीवनं प्राणधारण येषां ते प्रत्येकशरीरजीवितास्तेषु पृथिव्यादिषु, चकार उत्तरवाक्यापेक्षया समुच्चयार्थः / कालमसंख्यातं भ्रमन्ति, अनन्तं काल वाऽनन्तकाये साधारणशरीरेविष्वत्यर्थः / आह च-'अस्संखोसप्पिणिओसप्पिणीउ एगिदियाण उचउण्हं। ता चेवऊ अणंता, वणस्सईए उ बांधव्यं / / 1 / / " इति। किंभूतास्ते? स्पर्शनन्द्रियभावेन परिणामेन तत्तया वास प्रयुक्ता य ते तथा दुःखसमुदयमिमं वक्ष्यमाणमनिष्ट प्राप्नुवन्ति, पुनःपुनः तत्रैव एकेन्द्रियत्चे इत्यर्थ। किंभूतो? परः प्रकृष्टः सर्वोत्कृष्टकायस्थितिकत्वाद्भव उत्पत्तिस्थानं तरुगणो वृक्षगुच्छाऽऽदिवृन्दसमूहो यत्रकेन्द्रियत्व। पाठान्तरे तुपरभवतरुगणैर्गहनं यत्तत्तथा। तत्र दुःखसमुदयमेवाऽऽहकुद्दालो भूखनित्रं कुलिक हलविशेषस्ताभ्यां (दालणं ति) विदारण यत्तत्तथा, एतत पृथिवीवनस्पत्योर्दुःखकारणमुक्तं, सलिलस्य मलनं च मर्द्धन (खुमणं ति) क्षोभणं च सञ्चलणं (रुभणं ति) रोधनं च तानि सलिलमलनक्षाभणरोधनानि, अनेनाप्कायिकानां दुःखमुक्तम्। अनलानिलयारग्निवातयोविविधैः शस्त्रः स्वकायपरकायभेदेर्यदघट्टन संघट्टन तत्तथा / अनन चाग्निवाय्वोर्दुःखमुक्तम्। परस्पराऽभिहननेन यन्मारणं च प्रतीतं विराधनं परितापनं ते तथा तेषां द्वन्द्वोऽतस्तानि दुःखानि भवन्तीति गम्यम्। तानि किंभूतानि? अकामकानि अनभिलषणीयानि / एतदेव विशेषेणाऽऽह-परप्रयोगोदीरणाऽऽदिभि, स्वव्यतिरिक्तजनापारदुः खोत्पादनाभिनिष्प्रयोजनाभिरिति हृदयम्, कार्यप्रयोजनेश्व अवश्यकरणीयप्रयोजनैः, किंभूतैः? प्रेष्यपशुनिमित्तं कर्म करगवादिहेतोरुपलक्षणत्वात्तदन्यनिमित्तं च यान्योषधाऽऽहारादीनि तानि तथा ते. उत्खननमुत्पाटनम, उत्कोचनं त्वचोऽपनयनं पाकः कुट्टन चूर्णन पेषण घरट्टाऽऽदिना दलनं पिट्टनं ताडनं भर्जनं भ्राष्ट्रपचनं गालन छालनमाभोटनभीषद्भजनं शाटनं स्वत एव विशारणं स्फुटन रचत एव द्वैधीभावगमनं भञ्जनमामईन छेदनं प्रतीतं, तक्षणं काष्ठाऽऽदेरिव वास्यादिना, विलुञ्चनं लोमाऽऽद्यपनयनम् अन्तझटिनं तरुप्रान्तपल्लवफलाऽऽदिपातनम. अग्निदहनं प्रतीतम, एतान्यादिर्येषां तानि तथा, दुःखान्ये केन्द्रियाणा भवन्तीति गम्यम् / एकेन्द्रियाधिकार निगमयन्नाहएवमुक्तक्रमण ते एकेन्द्रियाः भवपरम्परासु यद् दुःखं तत्समनुबद्धमविच्छिन्नं येषां ते तथा, अटन्ति संसार एव (वीहण-कर त्ति) भयङ्कराः त्रसजीवाः प्राणातिपातनिरताः अनन्त कालं यावदिति। अथ प्राणातिपातकारिणो नरकादुवृत्ता मनुष्यगतिगता यादृशा भवन्ति तथोच्यतेजे वि य इह माणुसत्तणं आगया कहं वि नरगाओ उव्यट्टिया अधण्णा ते वि यदीसंति पायसो विकयविगलरूवा खुज्जा बडगा य वामणा य बहिरा काणा कुंटा य पंगुला वियला य मूया य मम्मणा य अंघिल्लगएगचक्खुविणिहयसपिल्लयवाहिरोगपीलियअप्पाउयसत्तवज्झबाला कुलक्खणुक्किण्णदेहदुव्वलकुसंघयणकुप्पमाणकुसंठिया कुरूवा किवणा य हीणदीणसत्ता णिच्चं सोक्खपरिवजिया असुहदुक्खभागी गरगाओ उव्वट्टित्ता इह सावसेसकम्मा एवं नरगतिरिक्खजोणिं कुमाणसत्तं च हिंडमाणा पावंति अणताइंदुक्खाइपावकारी, एसो सो पाणबहस्स फलविवाओ इहलोइए परलोइए अप्पसुहो बहुदक्खो महन्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चती ण य अवेदयित्ता, अत्थि हु मोक्खो त्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधिजो कहेसी य पाणवहस्स फलविवागं एसो सो पाणवहो पावो चंडोरुद्दो क्खुद्दो अणारिओ निग्घिणो निस्संओ महब्भओ वीभणओ उत्तासणओ अण्णज्जो उव्वेयणओ य णिरवयक्खो णिद्धम्मो निप्पिवासो णिकलुणो निरयवासगमणो मोहमहन्भयपवट्टओ मरणवेमणसो पढमं अहम्मदारं सम्मत्तं ति बेमि॥ येऽपि इह मर्त्यलोके मनुष्यत्वमागताः प्राप्ताः कथश्चित्, कृच्छ्रादित्यर्थः / नरकादुद्द्त्ता अधत्यारतेऽपि च दृश्यन्ते प्रायशः प्रायेण विकृतविकलरूपाः, प्रायशो ग्रहणेन तीर्थकराऽऽदिभिर्व्यभिचारः परिहतः / विकृतविकलरूपत्वमेव प्रपशयन्नाह-कुब्जाः वक्र जड्डाः, चटकाश्च चक्रोपरि कायाः, वामनाच कालानौचित्येनाति-हस्वदेहाः, बधिराः प्रतीताः, काणा: दीपकाणाः,फरला इत्यर्थः / कुण्टाश्च विकृतहस्ताः, पगुलाः गम Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणबह 844 - अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 5 पाणसुहम नासमर्थजसाः, विकलाश्वपरिपूर्णगात्राः, मूकाश्च वचनासमर्थाः (पंगुला वर्जितः, निर्द्धर्मो धर्मादपक्रान्तः, निःपिपासः वध्यप्रति स्नहविरहान्निः वि यजलमूय त्ति) पाठान्तरे। अपि चेति समुच्चये। जलमूका जलप्रविष्ट- करुणा विगतदयः, निरयवासगमन इति व्यक्तम् / मोहमहाभयस्येव युवुद इत्येवंरूपो ध्वनियेषां मनमनाश्च येषां जल्पता स्खलिते प्रकर्षकतत्प्रवर्तकमरणेन वैमनस्य दन्यं यत्र मरणवैमनस्यप्रथममवाणी / (अंधिल्लग ति) अन्धाः , एक चक्षुविनिहतं येषां ते एकचक्ष- धर्मद्वार मृषावादाऽऽद्यपेक्षयदमाद्यमाश्रवद्वारं समाप्त, तद्वक्तव्यताऽपेक्षया विनिहताः / (सपिल्लयत्ति) सर्वाषचक्षुषी। पाठान्तरे (सपिराजयते) निष्ठा गतमितिशब्दः समाप्ती, बबीमि प्रतिपादयामि, तीर्थकरोपदेशेन,न तत्र सह पिसल्लयेन, पिशाचेन वर्तत इति सपिसल्लयाः, व्याधिभिः स्वमनीषिकयति। एतच सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनः स्ववचसि सर्वज्ञवकुष्टाऽऽद्यः रांगेराधिभिर्विशिष्टाभिर्वा आधिभिर्मनः पीडाभिः रोगेश्च चनाऽऽश्रितत्वेनाव्यभिचारीदमिति प्रत्ययोत्पादनार्थम् / तथा स्वस्य पीडिताः व्याधिरोगपीडिताः, अल्पायुषः स्तोकजीविताः, शस्त्रेण गुरुपरतन्त्रताऽऽविष्करणार्थ विनेयानां चैतदन्यायप्रदनार्थमाख्यातहन्यन्त येते शस्त्रवध्याः, बालाः बालिशाः / ततोऽन्धकाऽऽदीना द्वन्द्वः। वानिति। प्रश्न०१आश्र० द्वार। कुलक्षणैरपलक्षणैरुत्कीर्ण आकीर्णो देहो येषां ते तथा। दुर्बलाः कृशाः, पाणभूयजीवसत्तदयट्ठया स्त्री०(प्राणभूतजीवसत्वदयार्थता) प्राणाकुसंहनना बलविकलाः, कुप्रमाणाः अतिदीर्घा अति-हस्वाः, कुसंस्थिताः ऽऽदिषु सामान्येन या दयाऽसावर्थः प्राणाऽऽदिदया इस्तद् भावस्तत्ता। कुसंस्थानाः / ततो दुर्बलाऽऽदीना द्वन्द्वः / अत एव कुरूपाः कृपणाश्च अथवा-षट्पदिका एव प्राणानामुच्छासाऽऽदीनां भावात् प्राणाभवनधर्मरक्षाः हीना अत्थागिनो धनहीना वा जात्यादिगुणैः (?) हीनसत्त्या कत्वात् भूता उपयोगलक्षणत्वाज्जीवाः सत्त्वोपपेतत्वात्सत्त्वान्ततः कर्मअल्पसत्त्वा नित्यं सौख्यपरिवर्जिताः, अशुभमशुभाऽनुबन्धि यद् दुःख धारयः तदर्थता / प्राणाऽऽदिरक्षणाभिलाषे, ''पाणभूयजीवसत्तदयतद्रागिनः नरकादुवृत्तास्सन्तः, इह मनुष्यलोक दृश्यन्ते, सावशेष- ट्ठता।" वैशायन यूकाशरयातरं प्रति गोशालः / भ०१५शा कर्माण इति निगमनम् / अथ यादृशं फलं ददातीत्येतन्निगमयन्नाह.. पाणभोयण न०(पानभोजन) द्राक्षापानखण्डखाद्यकाऽऽदिक, दश० 5 (एवमित्यादि) एकमुक्तक्रमेण नरकतिर्यग्योनीः कुमानुषत्वं च हिण्डमानाः अ०१3०। (अत्रार्थ 'दायगदोस' शब्दे चतुर्थभागे 2503 पृष्ठ विस्तरः) अधिगच्छन्तः प्राप्नुवन्ति अनन्तकानि दुःखानि पापकारिणः प्राध पाणभोयणा स्त्री० (पानभाजना) प्राणाः प्राणिनो रसजाऽऽदयः भोजने वधकाः / विशेषेण निगमयन्नाह-- एष स प्राणिवधस्य फलविपाक: दध्योदनाऽऽदौ, संघट्यन्ते विराध्यन्ते वा यस्यां प्राभृतिकायां सा प्राणऐहलोकिकमनुष्पापेक्षया मनुष्यभावाऽऽश्रयः, पारलौकिकमनुष्यापे-- भोजना। रसजाऽऽदिभोजनप्राभृतिकायाम, 'पाणभोयपाए बीटाभोयक्षया नरकगत्याद्याश्रितः अल्पसुखो भोगसुखलवसंपादनात्, अविद्य णाए हरिअभोयणाए'' | आव०४अ०॥ मानसुखो वा; बहुदुःखो नरकाऽऽदिदुःखकारणत्वात्। (महब्भओ त्ति) पाणमंसोवम पुं०(पाणमांसोपम) पाणो मातङ्ग स्तन्मांसमस्पृश्यत्वेन महाभयरूपः, बहुरजः प्रभूतं कर्म प्रगाढं दुर्मोच यत्र स तथा. दारुणो जुगुप्सया दुःखाऽऽढ्यं स्यादेव यस्तेषां दुःखाऽऽढ्यः स पाणमांसोपमः। रौद्रः, कर्कशः कठिनः, असातः असातवेदनीयकर्मोदयरूपः, वर्षसह - जुगुप्म्ये आहारे, स्था०४ठा०४उ०। स्वैर्मुच्यते, ततः प्राणीति शेष: न च नैव, अवेदयित्वा, तमिति शेषः। पाणय पुं०(प्राणत) स्वनामख्याते विमानविशेषे, दशमदेवलोके तात्स्थ्याअस्ति मोक्षः अस्मादिति शेषः। इति शब्दः समाप्ती / अथ केनायं त्तद्व्यपदेश इति। तल्लोकवासिदेवेषु च। अनु०। विशे०। स्था०ा प्रव०। द्वारपक्षक प्रतिबद्धः प्राणातिपातलक्षणाश्रवद्वारप्रतिपादनपर: स०। आनतकल्पस्येन्द्र, स्था०४ढा०४उ०। प्रथमाध्ययनार्थः प्ररूपित इति जिज्ञासायामाह-(एवं ति) एवं प्रकारमतीन्द्रियभूतभव्यभविष्यदर्थविषयस्फुटप्रतिभासप्रकाशनीय पाणवत्तिय न०(प्राणवृत्तिक) मित्रदोषप्रत्ययिकाऽऽस्ये दशमे क्रियास्थाने, मनभिहतं वस्तु (आहंसु त्ति) आख्यातवान्, ज्ञातकुलनन्दनः ज्ञाताः सूत्र०२श्रु०२० क्षत्रियविशेषाः, तद्वंशसमृद्विकर: महात्मेति प्रतीतं, जिनस्तु जित एव पाणवत्तिया स्त्री०(प्राणप्रत्यायका) प्राणवृत्तिके, स्था०। प्राणा उच्छ्रावीरवरनामधेयः (वीरवरे ति) प्रशस्तनामा, तथा कथितताश्च प्राणवधस्य सादयो बलं वा प्राणास्तेषां तस्य वा वृत्तिः स्था०६ ठा०। फलविपाकमध्ययनार्थस्य महावीराभिहितत्वे प्रतिपादितेऽपि यत पाणविहि पुं०(पानविधि) उदकमृत्तिकया प्रसादितस्य सहजनिर्मलस्य पुनस्तत्फलविपाकस्य वीरकथितत्वाभिधानं तत्प्राणिवधस्यैकान्ति तत्तत्संस्कारकरणे, जं०रवक्ष०। ज्ञा०। औ०। स०। काशुभफलत्वेनात्यन्तपरिहाराऽऽविष्करणार्थमिति / अथ शास्त्रकारः पाणसम पुं०(प्राणसभ) पत्यौ, "रमणो कंतो पणई, पाणसमा पियसमो प्राणवधस्य स्वरूप प्रथमद्वारोपदर्शितमपि निगमनार्थं पुनदर्शयन्नाह दइओ।" पाइ०ना०६१ गाथा। एष स प्राणवधोऽभिहितो योऽनन्तरं स्वरूपतः पर्यायतः विधानतः फलतः / पाणसमारंभ पुं०(प्राणसमारम्भ) प्राणिव्यपरोपणे, आचा०१ श्रु० कर्तृतश्च वक्तु प्रतिज्ञात आदावासीत् / किं भूतः? इत्याह- ३अ०२30 चण्डः कोपनम्तत्प्रवृत्तित्वचण्डः, रौद्ररसप्रवर्त्तित्वाद्रौद्रः, क्षुद्रजनाऽऽ पाणसाला स्त्री०(पानशाला) यत्रोदकाऽऽदिपानं तस्या शालायाम्, चरितवात् क्षुद्रः, अनार्यलोककरणत्वादनार्यः, घृणायाः अत्राविद्यमान- निन्चू०६301 त्वात् निघृणः, निःशूकजनकृतत्वान्नृशंसः, महाभयहेतुत्वात महाभयः / / पाणसुहुम न० (प्राणसूक्ष्म) अनुद्धरिकुन्थो, स्था०८ठा०। दा०। (बीहणउत्ति) भयवत्प्रवृत्तित्वात् त्रासकः उत्वासहेतुत्वात् / अन्यायो से किं तं पाणसुहमे? पाणसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहान्यायादनपेतत्वात, उद्वेजनकश्व उद्वेग्रहेतुत्वान्निरवकाङ्ग:परप्राणापेक्षया किण्हे, नीले, लोहिए, हालिद्दे, सुकिल्ले / अस्थि कुंथु--- Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणसुहुम 845 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणाइवायविरय अणुद्धरी नामं जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं वा प्राणातिपातेन प्राणातिपाताध्यवसायेन क्रिया सामर्थ्यात प्राणातिपातः निग्गंथीण वा नो चक्खुफासं हव्वमागच्छइ, जा अट्ठिया क्रियते / कर्मक-यय प्रयोगः। भवतीत्यर्थः / अतीतनयाभिप्रायाऽऽचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चक्खुफासं त्मकोऽयं प्रश्नः / कलमोऽत्र नयः, यमध्यवसीय पृष्टमिति चेत्? उच्यतेहव्वमागच्छइ०जाव छउमत्थेणं निग्गंथेण वा निग्गंथीए वा क.जुसूत्रः। तथाहि-जुसूचस्य हिंसापरिणतिकाल एव प्राणातिपाअभिक्खणं अभिक्खणं जाणियव्वा पासियव्वा पडिलेहियव्वा तक्रियोच्यते, पुण्यकर्मपदानुपादानयोरथ्यवसायानुरोधित्वात् नान्यथा भवइ / से तं पाणसुहुमे। परिणताविति / भगवानभिहितज्ञाजुसूत्रनयमधिकृत्य प्रत्युत्तरमाहतत्र प्राणसूक्ष्म पञ्चविधं प्रज्ञप्तं तीर्थकरगणधरैः, कृष्णाऽऽदिवर्णभेदात्। (हता ! अस्थि) हंतेति संप्रेक्षणप्रत्यवधारणविवादेषु / अत्र प्रत्यवधारणे एकस्मिन्वणे सहस्रशो भेदा बहुप्रकाराश्च संयोगारते सर्वे पञ्चसु अरत्येतताप्राण तिपाताध्यवसायेन प्राणातिपातक्रिया भवति। 'परिकृष्णाऽऽदिवर्गेष्वेव अवतरन्ति / प्राणसूक्ष्मं तु द्वीन्द्रियाऽऽदयः प्राणा णाभियं पमाण, णिच्छयमपलबमाणाण।" इत्याद्यागमवचनस्य स्थितयथाऽनुगरी कुन्थुः / स हि चलन्नेव विभाव्यते, न हि स्थानस्थः / कल्प० त्वात्। इदमेव ववनमधिकृत्याऽऽवश्यकेऽपीदं सूत्रं प्रावर्त्ति / 'आया चेव ३अधि०६क्षण / दशा अहिंसा, आया हिंस ति निच्छओ एस त्ति / " व्याचष्टमृषावादाऽऽदौ तु क्रिया यथायथं प्राणातिपाताऽऽदिका भवतीति प्राणातिपाताध्यवसाये पाणह रत्री०(उपानह) काष्ठ (चर्म) पादुकायाम, सूत्र०१ श्रु०६अ०/ प्राणातिपातनिवर्तककार्येषु जायमानेषु प्राणातिपातोपचारो, मृषावादापाणाअअ (देशी) चाण्डाले, देवना०६वर्ग 38 गाथा। ध्यवसाय च यथोचितक्रिया निवर्तककार्येषु जायमानेषु तदुपचारः, इत्यत्र पाणाइवाइया स्त्री०(प्राणातिपातिका) प्राणातिपातः प्रतीतस्तद्विषया बीजमुत्पद्यमानमुत्पन्नम् इत्यस्यार्थे स्यादित एवोपपादस्येत्थमेवोक्रिया प्राणातिपातिकी / प्राणातिपातक्रियायाम, आव०४अ०। पचारेण संभवात्। परमार्थतस्तु चरमसमय एवोत्पद्यमानंतदैव चोत्पन्नम्। पाणाइवाय पुं०(प्राणातिपात) प्राणा उच्छाऽऽसादयस्तेषामतिपतनं इत्यस्यार्थस्य महता प्रबन्धेन महाभाष्ये व्यवस्थापितत्वात् / आत्मैव प्राणवता राह वियोजनं प्राणातिपातः / हिंसायाम, स्था०। 'पञ्चेन्द्रि- हिंसेति तु यद्यपि शब्दनयानां मत, नैगमनयमते जीवाजीवयोः सा, गाणि विविध बलं च, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते संग्रहव्यवहारयोः षड्जीवनिकायेषु. ज्ञजुसूत्रस्य प्रति स्वस्वधात्येतद्भेदेन भगवद्भिरुकतास्तेषा वियोजीकरणं तु हिंसा॥१॥' ''एगे पाणाइवाए० तन्मते हिंसाभेदाच्छब्दनयानां स्वात्मनाऽयो (?) ऽप्यवृत्ताविति वचनाजाव एणे परिग्गहे।" स च प्राणातिपातो द्रव्यभावभेदाद द्विविधो, विनाश- तथा विषयविभागेन नयप्रदर्शनं तत् / इह तु हिंसास्वरूपविवेचनेन परितापसक्लेशभेदात् त्रिविधो वा / आह च-"तप्पज्जायविणासो, नयविभागः / तत्रच संक्लेशदुःखोत्पादनात् पर्यायविनाशभेदेन त्रिविधादुवखुप्पाओय संकिलेसोय। एस वहो जिणभणिओ, बज्जेयव्बो पयत्तेण ऽपि हिंसा नैगमव्यवहारयोः, संक्लेशदुःखोत्पादनरूपा त्रिविधा ||1||" अथवा--मनोवाक्कायैः करणकारणानुमतिभेदान्नवधा / पुनः संग्रहस्य, संक्लेशरूपैवज्ञजुसूत्रस्य सम्मतेत्येवं व्यवस्थितेः। संक्लेशश्चासक्रोधाऽऽदिभेदात्षत्रिंशद्विधो वा इति।स्था० 10 प्रश्नका आ००। ऽऽत्मपरिणामः, आत्मैवेत्येतन्मते आत्मैव हिंसेत्युक्तौ दोषाभावाच्छब्दप्राणानामिन्द्रियोच्छासाऽऽयुरादीनामतिपातः प्राणिनः सकाशाद् नयानामप्येतदेव मतम्- "मूलनिमेणं पज्जव०" (5) इत्यादि-गाथा विभ्रशःप्राणातिपातः। प्राणिप्राणवियोजने, पाल। जीववधे, पा०। आव०। सव्याख्या 'दव्वट्ठिय' शब्दे चतुर्थभागे 2468 पृष्ठे गता। इति सम्मतिप्राणिनां साधुगर्यादाऽतिक्रमेण पाते, आ०चू०४अ०। ग्रन्थेन तेषामजुसूत्रविस्ताराऽऽत्मकाऽवस्थितेर्विशेषिततरतदर्थकत्वप्राणातिपातदोषकथा स्यैव नियुक्तावभिधानात्प्राणातिपातनिवृत्तस्वभावसमवस्थितमेव "पुमान् कोङ्कणकः कश्चित्तस्य प्रियतमा मृता। द्रव्यान्यथाभाव ज्ञजुसूत्रमते, हिंसा तदुणान्यथाभावश्च शब्दनयमत इति पुत्रस्तदीयस्तस्याऽस्ति, त दायादं विदन् जनः / / 1 / / तु विवेचकाः। प्रति०। प्रज्ञा०ा "पाणाइवायकिरिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-सहत्थपाणाइवायकिरिया चेव १,परहत्थपाणाइवायकिरिया चेव परिणेतुं ददाति स्वा, पुत्रीं तस्य न कश्चन। 2 / " प्राणातिपातक्रिया द्विधास्वदेहव्यपरोपणप्राणातिपातक्रिया, तत्र ततस्तेन सुतोऽघाति, तिर्यक्लक्ष्येण खेलता।।२।।" स्वदेहव्यपरोपणक्रिया यत् स्वर्गहेतुःस्वयं देह परित्यजति, गिरिशिखरे आ०क०६अ० आ०चूला ('पाणबह' शब्देऽनुपदमेव वक्त-व्यतोक्ता) ज्वग्नितं वा हुतवहं प्रविशति, अंभसि वाऽत्मानं परित्यजति, आयुधेन प्राणातिपातजनिते तज्जनके वा चारित्रमोहनीयकर्मणि, भ० 1200 वा स्वदेहं विनाशयति 1 / परदेहस्य व्यपरोपणं पाणातिपातक्रिया / ५उ०। तद्यथा-क्रोधाऽऽविष्टः / एवं मानमायालोभमोहक्रोधेन रुष्टो मारयति / पाणाइवायक रण न०(प्राणातिपातकरण) प्राणिबधाऽनुष्ठाने, एवं मानेन मत्तो, मायया विश्वासेन लोभेन लुब्धः शौकरिकवत्, मोहेन प्रश्न०१आश्र० द्वार। हिंसायाम्, प्रश्न०२आश्र० द्वार। मूढः संसारमोचकवत, ये चान्ये धर्मनिमित्तं प्राणिनो व्यापादयन्ति / पाणाइवायकिरिया स्त्री०(प्राणातिपातक्रिया) प्राणातिपातः प्रसिद्ध- आ०चू० 4 अ०॥ स्तद्विषया क्रिया, प्राणातिपात एव वा क्रिया प्राणातिपातक्रिया। हिंसा- पाणाइवायविरइ सी०(प्राणातिपातविरति) प्राणातिपातविरमणव्रते, रूपे क्रियाभेदे, भ०३श०३उ०। ("अस्थिण भते ! जीवाणं पाणाइवाए सूत्र०१२०१४अा महा० किरिया०" इति 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे 534 पृष्ठे व्याख्यातम्)। | पाणाइवायविरय वि०(प्राणातिपातविरत) प्राणानां दशप्र Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणाइवायविरय 846 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणाइवायवेरमण काराणामप्यतिपातो विनाशस्तस्माद् विरतः स्थितः / कृतप्राणतिपातविरतो, सूत्र० १श्रु०१०अ०॥ पाणाइवायवेरमण न०(प्राणातिपातविरमण) हिंसानिवृत्तौ अहिंसायाम, तच स्थूलसूक्ष्मभेदात् देशतः सर्वतो वा द्विधा / प्रथम श्रावकाणां, द्वितीय साधूनाम् / तत्राऽऽयं यथा प्रथममणुव्रतं स्थूलकादत्ताऽऽदानाद विरमणम् / धo "जीवा थूला सुहमा, संकप्पाऽऽरंभओ गवे दुविहा / सऽवराह-निरवराहा, साविक्खा चेव निरविवखा // 1 // " अस्या व्याख्या-प्राणिवधो द्विविधः, स्थूलसूक्ष्मजीवविषयभेदात्। तत्र स्थूलाद्वीन्द्रियाऽऽदयः, सूक्ष्माश्चात्रैकेन्द्रियाऽऽदयः पृथिव्यादयः पञ्चाऽपि बादराः, न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिनः सर्वलोकव्यापिनः, तेषां बधाभावात्, स्वयमायुःक्षयेणैव मरणात्, अत्र च साधूनां द्विविधादपि वधान्निवृत्तत्वाविंशतिविशोपका जीवदया, गृहस्थानां तु स्थूलप्राणिवधान्निवृत्तिर्न तु सूक्ष्मबधात् पृथिवीजलाऽऽदिषु सततमारम्भप्रवृत्तत्वात् इति दशविशोपकरूपमर्दू गतम् / स्थूलप्राणिवधोऽपि द्विधासंकल्पज आरम्भजश्च। तत्र संकल्पात् मारयाम्येनमिति मनःसंकल्परूपाधो जायते तस्माद गृही निवृत्तो न त्वारम्भजात् कृष्याद्यारम्भे द्वीन्द्रियाऽऽदिव्यापादनसंभवात्। अन्यथा चशरीरकुटुम्बनिर्वाहाऽऽद्यभावात्। एवं पुनरद्ध गत, जाताः पञ्च विशोपकाः / संकल्पजोऽपि द्विधासापराधविषयो, निरपराधविषयश्च / तत्र निरपराधविषयान्निवृत्तिः, सापराधे तु गुरुलाघवचिन्तनं, यथा गुरुरपराधो लघुर्वेति। एवं पुनरर्ट्सगते साहो द्वौ विशोपको जाती। निरपराधोऽपि द्विधासाऽपेक्षो, निरपेक्षश्च / तत्र निरपेक्षानिवृत्तिर्न तु सापेक्षात्। निरपराधेऽपि बाह्यमानमहिषवृषहयाऽऽदौ पाठाऽऽदिप्रमत्त - पुत्राऽऽदौ च सापेक्षतया वधबन्धाऽऽदिकरणात्, ततः पुनरर्द्धगते सपादो विशोपकः स्थित इति। इत्थं च देशतः प्राणिवधः श्रावकेण प्रत्याख्याता भवति : प्राणिवधो हि त्रयश्चत्वारिंशदधिकशतद्वयविधः / यत"भूजलजलणानिलवण-बितिचउपंचिदिएहिँ नव जीवा। मणवयणकायगुणिया, हवंति ते सत्तवीस त्ति / / 1 / / " इक्कासीई ते करण-कारणानुमइताडिआ होइ। ते चिअतिकालगुणिआ, दुन्नि सया हुँति तेयाला ||2 // " इति तेषां मध्ये त्रैकालिकमनोवाक्कायकरणकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियविषयक हिंसाकरणकारणस्यैव प्रायः प्रत्याख्यानसं भवात्। एतद्वतफलं चैवमाहुः-"जं आरुग्गमुदग्गमप्पडिहयं, आणेसरत्तं फुडं। रूवं अप्पडिरूवमुज्जलतरा कित्ती धणं जुव्वणं / दीहं आउ अवंचणो परिअणो पुत्ता सुपुण्णासया, तं सव्वं सचराचरम्मि वि जए नूणं दयाए फल / / 1 / / एतदनङ्गीकारे चपड़गुताकुणिताकुष्ठाऽऽदिमहारोगवियोगशोकापूर्णाऽऽयुर्दुःखदौर्गत्याऽऽदिफलम् / यतः-''पाणिवहे वट्टता, | भमति भीमासु गब्भवसहीसुं / संसारमंडलगया, नरयतिरिक्खासु जोणीसुं // 1 // " // 25 / / ध० २अधि०। 'एगे पाणाइवायवेरमणे / " स्था०१टा थूलगं पाणाइवायं पचक्खामि जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं ण करेमि, ण कारवेमि मणसा वयसा कायसा। (थूलग ति) त्रसविषयं (जावज्जीवाए त्ति) यावती चासौ जीवा च प्राणधारणं यावज्जीवा, या वा जीवः प्राणधारणं यस्या प्रतिज्ञायां सा यावजीवा तया / (दुविहं ति) करणकारणभेदेन द्विविधं प्राणातिपातं (तिविहेणं ति) मनःप्रभृतिना करणेन (कायस त्ति) सकारस्याऽऽगमिकत्वात्कायेनेत्यर्थः, न करोमीत्यादिनैतदेव व्यक्तीकृतम्। उपा०११०॥ पञ्चा०। पं०व०॥ थूलगपाणाइवायं समणोवासओ पचक्खाइ / से पाणाइवाए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा--संकप्पओ अ 1, आरंभओ य 2 / तत्थ समणोवासओ संकप्पओ जावजीवाए पञ्चक्खाइ, नो आरंभओ। स्थूला द्वीन्द्रियाऽऽदयः, स्थूलत्वं चैतेषां सकललौकिकर्जीवत्वप्रसिद्धेरेतदपेक्षयैकेन्द्रियाः सूक्ष्माऽधिगमेनाऽजीवत्वसिद्धेरिति। स्थूला एव स्थूलकास्तेषां प्राणा इन्द्रियाऽऽदयस्तेषामतिपातः स्थूलकप्राणातिपातस्तं श्रमणोपासकः श्रावक इत्यर्थः : प्रत्याख्याति तस्माद्विरमत इति भावना। स च प्राणातिपातो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तीर्थङ्करगणधरैः द्विविधः प्ररूपित इत्यर्थः / तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः / सङ्कल्पजश्व, आरम्भजश्च। सङ्कल्पाजात सङ्कल्पजः, मनसः संकल्पात द्वीन्द्रियाऽऽदिप्राणिनः मांसास्थिचर्मनखबालदन्ताऽऽद्यर्थ व्यापादयतो भवति / आरम्भाजात आरम्भजः। तत्राऽऽरम्भो हलदन्तालखन्नस्ततप्रकारस्तस्मिन शङ्ग चन्दनकपिपीलिकाधान्यगृहकारकाऽऽदिसंघटनपरितापापद्रावणलक्षण इति। तत्र श्रमणोपासकः सङ्कल्पतो यावजीवयाऽपि प्रत्याख्याति, न तु यावजीययैव नियमत इति नाऽऽरम्भजमिति, तस्याऽऽवश्यतयाऽऽरम्भसद्भावादिति / आह-एवं सङ्कल्पतः किमिति सूक्ष्मप्राणातिपातमपि न प्रत्याख्याति? उच्यते-एकेन्द्रिया हि प्रायो दुःखपरिहाराः, सद्मवासिनां संकल्प्यैव सचित्तपृथिव्यादिपरिभोगात्। "तत्थ पाणाइवाए कञ्जमाणे के दोसा, अकीरते के वा गुणा? |" तत्र दोसे उदाहरण-- कोंकणगो, तस्स भन्जा मया, पुत्तोय से अत्थि, तस्स दारगस्स दाइयभएण दारियन लहइ, ताहे सो अण्णलक्खेण रमतो बिंधइ। गुणे उदाहरणं सत्तवदिओ बितियंउज्जेणीए दारगो, मालवेहिं हरिओ सावयदारगो, सूएण कीओ, सो तेण भणिओलावगे ऊसासेहि / तेण मुक्का / पुणो भणिओ। मारेहि त्ति / सो नेच्छइ. पच्छा पिट्टेउमारद्धो, सो पिट्टिडतो कूवति। पच्छा रन्ना सुतो, सदाविऊण पुच्छिओ।ताहे साहेइ स्ना विभणिओ, नेच्छइ, ताहे हत्थिणा भेसिओ तहा विनेच्छइ, पच्छारन्ना सीसरक्खो ठविओ। अन्नया थेरा समोसढा, तेसिं अंतिए पव्वइओ। ततियं गुणे उदाहरणपाडलिपुत्ते नयरे जियसत्तू राया खेमो से अमचो चउदिवहाए बुद्धीए संपन्नो समणोवासगो सावगगुणसंपन्नो / सो पुण रन्नो हिउ त्ति काउ अन्नेसिं दंडभडभोइयाण अप्पिओ। तेतस्स विणासणनिमित्त खेमसंतिए पुरिसे दाणमाणे हिं सक्कारेति / रन्नो अभिमरए पउंजंति, गहिया य Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणाइवायवेरमण 847 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणाइवायवेरमण भणति-हम्ममणा अम्हे खेमसंगता, तेण चेव खेमेण निउत्ता। खेमो निचलं धणिय ज बंधइ, सावक्खोज दाभगठिणा ज च सके इ नहितो भण्इ-अहं सव्वसताण खेमं करेमि कि पुण रन्नो सरीरस्सत्ति? पलीवणगादिस मुविउ छिदिउँ वा ण संसरपासएण बंधेयव्वं, एरा ताव तहा वि वज्झो आणतो, रन्ना य असोगवणियाए अगाहा पोवपरिणी चउपयाण. दुपयाण पि दासा वा दासी वा चोरो वा पुत्तो वा ण पढ़तगाइ छन्नपत्राभिसनुणाला उप्पलपउमोवसोहिया / सा च मगरगाहेहि जइ बज्झति तो सावेक्खाणि बंधितव्वाणि, रक्खियध्वाणि य जहा दुरवगाहा, न स ताणि उप्पलादीणि कोइ उचिणिउं समत्थो, जो य अग्निभयादिसु ण विणस्संति, ताणि किर दुपयचउप्पयाणि सावगेणं ज्झो रण्णा आइस्सइ सो वुचइइत्तो पोक्खरणीओ पउमाणि आणेहि हियव्वाणि जाणि अबद्धाणि चेव अत्यति / वही वि तह चेव। वही दि। ताहे खेमो उट्टेऊण-'नमोऽत्थु णं अरिहंताणं ति" भणित्तु जइह नामतालणं, अणट्ठाए णिरक्खो निद्दयं तालेइ, सावेक्खो पुण पुवामेव मिरवराही तो मे देवया सानिज्झ देंतु, सागारं भत्तं पच्चक्खाइउँ ओगाढो, भीगपरिरोण हायव्य, मा हणणं करेजा, जइ ण करेज तो मम्म मोत्तूण दक्या-सानिज्झणं मगरपुटिडिओ बहूणि उप्पलकमलाणि गणिहत्तुत्तिन्ना। ताहे लयाए दोरण ग एक दो तिन्नि वारे तालेइ। छविच्छेओ अणडाए रना हरसितेण खामिओ उवगूढो य, पडिवक्खनिग्गह काऊण भणिओ- तहेव णिरवेक्खो हत्थपायकत्रहो?णकाणि णिद्दयाए छिदइ, सावेक्खो कितेवर देमि? तेण निरुंभमाणेण वि पव्वजा चरिया पव्वइओ, एए गुणा गंड वा अरइयं वा छिदेज वा, दहेज वा। अइभारोण आरोवेयव्यो। पुविं पाणाइदाय विरगणे।'' इदं चातिचाररहितमनुपालनीयम् / आव०६अ। चेव जावाहणाए जीविया सा मोत्तव्वा ण होज्ज अन्नाजीविया ताहे दुपदो अतिचाराः जं सयं चेव उक्खिवइ उत्तारेइ वा भारं, एवं वहाविजइ वइलाणं जहा तदाऽणंतरं च णं थूलयस्स पाणाइवायवेरमणस्स सम- साभावियाओ वि भाराओ ऊणओ कीरइ, हलसगडेसु वि वेलाए चेव णोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा / मुयइ, आसहत्थी सुं वि एस चेव विही, भत्तपाणवोच्छेदो ण कस्सइ तं जहा-बहे, बधे, छविच्छेए, अइभारे। भत्तपाणवोच्छेए। उपा० कायव्यो, तिव्वच्छुहोमा मरेज, तहेव अणट्ठाएदोसा परिहरेजा, सावेक्खो १अ०। पुण रोगणिमित्तं वा वायाए वा भणेज्जा ।अज्ज ते ण देमित्ति संतिणिमित्तं वा (एषां पदानामर्थ. स्वस्वस्थाने द्रष्टव्यः) "सव्वत्थ विजयणा, जहा उववासं कारावेज्जा सव्वत्थ वि जयणा जहा थूलगपाणाइवायस्स यूलगपाणाइवायवेरमणस्स अतियारो न भवइ तहा पयत्तियव्वं अइयारो न भवइ तहा जइयत्वं ति / णिरवेक्खबंधाऽऽदिसु य लोगोवनिरवक्खवहबंधादिसु य लोगोवघाइगा दोसा भाणियवा।" उक्तं घातादिया दोसा भाणियव्वा। सातिचार प्रथमाणुव्रतम् / उपा०। (एलदाश्रित्य श्रावकाणां भगा: आह च'पञ्चक्खाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 60 पृष्ठे गताः) परिसुद्धजलग्गहणं, दारुयधन्नाइआण तह चेव / अधुना प्रकृतमाह गहियाण वि परिभोगो, विहीऍ तसरक्खणट्ठाए।।२५६।। पडिवजिऊण य वयं, तस्सइयारे जहाविहिं णातुं / परिशुद्धजलग्रहण वस्त्रपूतत्रसरहितजलग्रहणमित्यर्थः / दासधासंपुन्नपालणट्ठा, परिहरियव्वा पयत्तेणं // 257 / / न्याऽऽदीनां च तथैव परिशुद्धानां ग्रहणम् अनिलाजीर्णाना दारूणाप्रतिपद्य चाङ्गीकृत्य च व्रतं तस्य व्रतस्याऽतिचारा अतिक्रमणहेतवो मकीट विशुद्धस्य धान्यस्य, आदिशब्दात्तथाविधोपस्करपरिग्रहः। यथाविधि यथाप्रकारं ज्ञात्वा परिहर्तव्याः, सर्वे : प्रकारैर्वर्जनीयाः, गृहीतानामपि परिभागो विधिना कर्त्तव्यः। परिमितप्रत्युपेक्षिताऽऽदिना। प्रयत्नेनेति योगः। किमर्थम्? संपूर्णपालनार्थ,नातिचारवतःसंपूर्णा किमर्थ ?, त्रसरक्षणार्थ द्वीन्द्रियादिपालनार्थमिति। श्रा०। द्वितीयं पुनः तन्पालना, तद्भावे तत्खण्डनाऽऽदिप्रसङ्गादिति। सर्वस्मात स्थावरसूक्ष्मविराधनारूपात् प्राणातिपातात्। ध०३अधिका तथा चाऽऽह संथा। दशा सूत्र०। (अत्र "तत्थ खलु पढमे भंते!" इत्यादि प्राणातिबंध वह छविच्छेए, अइभारे भत्तपाणवोच्छेए। पातविरमणविषयं सूत्रम् 'पडिक्कमण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 284 पृष्ठे कोहाइदूसियमणो, गोमणुआदीण णो कुजा / / 258 / / व्याख्यातम्) पा०। सूत्र०। ध०। (इदं च व्रतं सभावनाकम् 'अहिंसा' तत्र बन्धन बन्धः,संयमनं रज्जुदामनकाऽऽदिभिः१। हननं बधस्ताडनं शब्दे प्रथमभागे 875 पृष्ठादारभ्य व्याख्यातम्) संयमे, भ०२०श०२उ०॥ केशाऽऽदिभिः स छविः शरीरं तस्य छेदः पाटनं करपत्राऽऽदिभिः 31 गौणवृत्त्या धर्मास्तिकाये, इह धर्मश्चारित्रलक्षणः, स च प्राणातिपातभरणं भार: अतिभरणम् अतिभारः, प्रभूतस्य पूगफलाऽऽदेः स्कन्धपृष्ठा विरमणाऽऽदिरूपः / ततश्च धर्मशब्दसाधात् अस्तिकायरूपस्याऽपि रोषणमित्यर्थः / / भक्तमशनमोदनाऽऽदि पानं पेयमुदकाऽऽदि तस्य धर्मस्य प्राणातिपातविरमणशब्दस्य पर्यायत्वात्। भ०२श०१3०। व्यवच्छेदो निरोधः, अदानमित्यर्थः 5 / एतान्समाचरन्नतिचरति प्रथमाणु- पाणाउय न०(प्राणायुप) प्राणाः पञ्चेन्द्रियाणि, त्रीणि मानसाऽऽदीनि व्रतम् / एतान् क्रोधाऽऽदिदूषितमना न कुर्यादिति / अनेनाऽपवादमाह, बलानि,उच्छासनिःश्वासो च, आयुश्च प्रतीतं, ततो यत्र प्राणा आयुश्च अन्यथाकरणेऽप्रतिषेधावगमात् / तदत्रायं पूर्वाचार्योक्तविधिः सप्रभेदमुपवय॑न्ते तदुपचारतःप्राणायुरित्युच्यते / द्वादशे पूर्वे, तस्य "बन्धो दुविहो दुपयाण चउप्पदाणं च अट्टाए अणट्टाए य। अणट्ठाए न पदपरिमाणमेका पदकोटी षट्पञ्चाशच पदलक्षाणि / नं० ।अत्र त्रिंशद् वट्टइबंधउं,अट्टाए दुविही निक्खेवोसावेक्खोय निरवेक्खोय। निरपेक्खो | वस्तूनि / नंग Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणाडंबर 848 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणिणि पाणाडंबर पु०(पाणाडम्बर) मातगानामाडम्बरे महता समारम्भेण यथायोग-समाधानमेव प्रवृत्तेः श्रेयस्त्वात्, प्राणरोधपलिमन्थस्या पूजनीये, स च यक्षो, हिरिमिक्कापरनामदैवतं वा। व्य०७उ०। आ०चू०। नतिप्रयोजनत्वात् / तदुक्तम्-"उस्साणं ण णिरुंभइ, आभिगहिओ पाणापाण पुं०(प्राणापान) उच्छासनिःश्वासेषु, कर्म०५ कर्म०/ वि किमु अचेट्टा / पसज्जमरण निरोहे.मुहुमुस्सासं च जयणाए पाणापाणजोग पुं०(प्राणापानयोग) प्राणापानव्यापारे, विशे०। (अस्य // 1 // एतच्च पतञ्जल्याद्युक्तं वचित्पुरुषविशेष योग्यताऽनुगं हि शरीरयोगान्तर्गतत्वेन न पृथग्योगत्वमित्युक्तं 'जोग' शब्दे चतुर्थभाग योग्यताऽनुसारि युज्यते, नानारुचित्वाद्योगिनां प्राणायामरुचीनः प्राणा१६१५ पृष्ठे)। यामेनाऽपि फलसिद्धेः स्वरुचिसंपत्तिसिद्धस्योत्साहस्य योगोपायत्वात्। पाणापाणपञ्जति स्त्री०(प्राणापानपर्याप्ति) उच्छासपर्याप्ती, यया पुनरु यथोक्तं योगबिन्दौ-"उत्साहान्निश्च-या?र्यात्सन्तोषात्तत्त्वदर्शनात् / च्वासप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय उच्छ्रासरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य मुनेर्जनपदत्यागात, षभिर्योगः प्रसिध्यति।।४१०॥" इति। तस्माद्यस्य च मुञ्चति सा पं०सं०१द्वार। प्रज्ञा० प्राणवृत्तिनिरोधेनैवेन्द्रियवृत्तिनिरोधस्तस्य तदुपयोग इति तत्त्वम।।१८|| पाणापाणवग्गणा स्त्री०(प्राणापानवर्गणा) यानि पुद्गलद्रव्याणि जन्तवः रेचनाद् बाह्यभावानामन्तर्भावस्य पूरणात्। प्राणापानरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च निसृजति तद्वर्गणायाम, कुम्भनानिश्चितार्थस्य, प्राणायामश्च भावतः।।१६।। पं०सं०५द्वार। (रेचनादिति) बाह्यभावानां कुटुम्बदाराऽऽदिममत्वलक्षणानां रेचनात, पाणामा स्त्री०(प्राणामी) प्रणामोऽस्ति विधेयतया यस्यां सा प्राणामी। अन्तर्भावस्य श्रवणजनितविवेकलक्षणस्य पूरणात, निश्चितार्थस्य प्रणामविधियुक्तायां प्रव्रज्यायाम्, “पाणामाए पव्वजाए पव्वइए।" कुम्भनात् स्थिरीकरणाच्च, भावतः प्राणायामोऽयमेवाव्यभिचारण भ०३श०१3०। योगाङ्गम्। अत एवोक्तम्-"प्राणायामवती चतुर्थाङ्गभावतोभावरेचकापाणायाम पुं०(प्राणायाम) श्वासप्रश्वासयोगतिविच्छेदे, द्वा०। दिभावाऽऽदिति / / 16 / / रेचकः स्याद् बहिर्वृत्तिरन्तवृत्तिश्च पूरकः! प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः, प्राणाऽऽयामविनिश्चयात्। कुम्भकस्तम्भवृत्तिश्च, प्राणायामस्त्रिधेत्ययम्।।१७।। प्राणांस्त्यजन्ति धर्मार्थ,न धर्म प्राणसङ्कटे // 20 // (रेवक इति) बहिर्वृत्तिः श्वासो रेचकः स्याद् अन्तर्वृत्तिश्च प्रश्वासः पप्राणेभ्योऽपीतिब प्राणेभ्योऽपीन्द्रियाऽऽदिभ्योऽपि गुरुमहत्तरो धर्म पूरकः,स्तम्भवृत्तिश्च कुम्भकः,यस्मिन् जलभिव कुम्भे निश्चलतया इत्यतो भावप्राणायामतो विनिश्चयात् धर्मार्थ प्राणांस्त्यजति, तत्रोत्सर्गप्राणोऽव स्थाप्यते, इत्ययं त्रिधा प्राणायामः प्राणगतिविच्छेदः / यदाहः-- प्रवृत्तेः। अत एव न धर्म त्यजतिप्राणसङ्कटे प्राणकष्ट।।२०।। द्वा०२२ द्वा० "तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोगतिविच्छेदः प्राणायामः।' 2056 / / पाणारंभ पुं०(प्राणाऽऽरम्भ) प्राणानामारम्भविनाशाऽऽदिरूपः प्राणाऽsइति / अयं च नासाद्वादशान्ताऽऽदिदेशेन षड्विंशतिमात्राऽऽदिप्रमाण रम्भः / पाणातिपाते, "सव्वं पाणारंभ, पचक्खामि ति।" आतु०। कालेन संख्यया चेयतो वारान कृत एतावद्भिश्च श्वासप्रश्वासैः प्रथम पाणाली (देशी) हस्तद्वयप्रहारे, दे०ना०६वर्ग 40 गाथा। उद्घातो भवतीत्यादिलक्षणोपलक्षितो दीर्घसक्ष्मसंज्ञ आख्यायते।। पाणि पुं०(पाणि) हस्ते, औ०। "पाणी हत्था य करा।'' पाइ० ना० यथोक्तम्- 'स तु बाह्याऽऽभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्यामिः ११०गाथा। सूत्र०ा उत्तका आचा० स०। कल्प० दशा०। परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मसंज्ञ इति। (2-50) बाह्याभ्यन्तरविषयो द्वादशान्त *प्राणि-पुंगा दशविधाः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनः / सूत्र० १श्रु० हृदयनाभिचक्राऽऽदिरूप एव पर्यालोच्यैव सहसा तप्तोपलनिपतित- ६अ व्यक्तेन्द्रियेषु जीवेषु, सूत्र०२श्रु०१अ० अनु० आव०। आ०म० जलन्यायेन युगपत् स्तम्भवृत्त्या निष्पद्यमानात् कुम्भकात्तत्पर्यालोचन- आचा०ा द्रव्या०। सत्त्वे भूते, विशेष पूर्वकत्वमात्रभेदेन च चतुर्थोऽपि प्राणायाम इष्यते / यथोक्तम् -- पाणिअ न०(पानीय) "पानीयाऽऽदिष्वित्" / / 1 / 101 / / इति "बाह्याऽऽभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः।" 2-51 // इति // 17 / / दीर्घकारस्य हस्वकारः। प्रा०१पाद / जले, आ०म० अ०। धारणयोग्यता तस्मात्, प्रकाशाऽऽवरणक्षयः। पाणिग्गहण न०(पाणिग्रहण) हस्तसंयमने, आ०म० अ०॥ अन्यैरुक्तः क्वचिच्चैत-धुज्यते योग्यताऽनुगम् / / 18 / / पाणिघंसि(ण) पुं०(पाणिघर्षिन्) पाणिना घर्षितुं शीलं येषां ते पाणि(धारणेति) तस्मात्प्राणायामात् धारणानां, योग्यता प्राणायामेन घर्षिणः / ब्रीह्याद्यौषधीनां पाणिभ्यां घर्षितुं शीलेषु, तद्भाक्तृषु युगलस्थिरीकृतं चेतः सुखेन नियतदेशे धार्यत इति / तदुक्तम्-'"धारणा कमनुष्येषु, "आसी य पाणिघंसी,तिम्भियतंदुलपवालपुडभोई . (सु) च योग्यता मनसः" (2-53) इति / तथा प्रकाशस्य चित्त- हत्थपलपुडाहारा, जइया किर कुलगरो उसभो।।१।।" आ०म० 140 सत्वगतस्य यदावरणं क्लेशरूपं तत्क्षयः / तदुक्तम्-'ततः क्षीयते | पाणिणि पुं०(पाणिनि) पणन पणः, ततोऽस्त्यर्थे इति तदपत्यम्, प्रकाशाऽऽवरणमिति।" (2-52) अयमन्यैः पतञ्जल्यादिभिरुक्तः। / अण, तस्य छात्रः / इन् इञ् / अष्टाध्यायीव्याकरणकारके भगवत्प्रवचने तु व्याकुलताहेतुत्वेन निषिद्ध एव श्वासप्रश्वासरोधः, दाक्षीपुत्र मुना, वाच०। प तद्रचितं हि व्याकरण मि Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिणि 546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाणेसणा दानी सर्वेभ्यः शब्दशास्वेभ्यः उत्तममध्ययनप्रतिबद्धं च, परं तद-| भवति तथा कर्त्तव्यं, परं यथा तथा संक्षारको नक्षिप्यते इति। ४२३प्रण सिद्धमसाधुन मन्तव्यम् / अष्टौ व्याकरणान्यन्यानीन्द्राऽऽदीनिलोकेऽपि सेन०३उल्ला साम्प्रतमभिधानमात्रेण प्रतीतान्येव, अतः कतिपयशब्दविषयलक्षणा- | पाणीयविंदुमित्त न०(पानीयविन्दुमात्र) सचित्तजललेशमात्रे, ग०२ भिधानतुच्छे पाणिनिनिर्मित एव नाऽग्रहःकार्य इति, व्यासाऽऽदि- अधिo प्रयुक्तशब्दानामपि तनोऽसिद्धेः। न च ते ततोऽपि शब्दशास्त्रानभिज्ञा पाणीयविहिपरिमाण न०(पानीयविधिपरिमाण) पानीयप्रकाराणां इति / आव०२अ०। प्राकृतलक्षणनामकं प्राकृतव्याकरणमपि तेन भोग्यत्वेयत्तापरिमाणे, ('आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 108 पृष्ठादारभ्य रचितम्, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-"व्यत्ययोऽप्यासाम्" इति सूत्रम्)-"अंतलिक्खोदयं ति।" यजलमाकाशात्पतदेव गृह्यते तदन्ततत्र तत्रोल्लेखात्। कल्प० १अधि० १क्षण। रिक्षोदकम् / उपा० 10 पाणिणिवह पुं०(प्राणिनिवह) जीवसङ्घाते,श्रा० पाणु पुं०(प्राण) संख्येयाऽऽवलिकारूपयोरुच्छासनिश्वासयोः काले, पाणिणीय पु०(पाणिनीय) पाणिनेरिभे छात्रा इति पाणिनीयाः। पाणिन्य- कर्म० ४कर्म०। अनु०। "हट्टस्सऽनवगप्पस्स, णिरुवकिट्टस्स जंतुणो। न्तेवासिषु, पाणिनिकृतव्याकरणे च / नपुं०। प्रा० दु०२ पाद। एगे ऊसासणिस्सासे, एस पाणु त्ति वुचइ / / 1 / / " स०७७सम० भ० पाणिदया स्त्री०(पानीयदया) वर्षाऽऽदौ निपतदप्कायाऽऽदिजीवदया- हृष्ट स्य तुष्टस्याऽनवकल्पस्य जरसाऽनभिभूतस्य निरुपक्लिष्टस्य याम्, उत्त० 26 अ० स्थान व्याधिना प्राक्साम्प्रतं चानभिभूतस्य जन्तोर्मनुष्याऽऽदेरेक उच्वासेन पाणिपडिग्गह पुं०(पाणिप्रतिग्रह) करपात्रे जिनकल्पे, कल्प० १अधि० सह निःश्वास उच्छासनिःश्वासः। य इति गम्यते। एष प्राण इत्युच्यते। ६क्षण। आचा०पाणिप्रतिग्रही, एवंभूतः वज्रनाभो भरतक्षेत्रे प्रथमो जिनो भ०६श०७उ०। “तिविहे पाणू पण्णत्ते। तं जहातीते, पडुप्पन्ने, अणागए भावीति / स एष भगवान्, तदानीमेव तस्यैको मनुष्यः प्रधानेक्षुरसकुम्भ- त्ति।' स्था० ३ठा० ४उ०। श्वपचे. दे०ना०६वर्ग ३८गाथा / समूहप्राभृतमादाय आगतः, ततोऽसौ तत् कुम्भमादाय भगवन् ! गृहाणेमा पाणेसणा स्त्री०(पानेषणा) पानग्रहणसामाचार्याम्, आचाला योग्या भिक्षामिति जगाद / भगवताऽपि पाणी प्रसारितो, निसृष्टश्व तेन अहावराओ सत्त पाणेसणाओ / तत्थ खलु इमा पढमा सर्वोऽपि रसः, न चात्र बिन्दुरप्यधः पतति, किं तूपरि शिखा वर्द्धते / पाणेसणाअसंसट्टे हत्थे असंसट्टे मत्ते, तं चेव भाणियव्वं, णवरं यतः- "माइज घडसहस्सा, अहवा माइज सागरा सव्वे / जस्सेआरि- चउत्थाए णाणत्तं / से भिक्खू वा भिक्खुणीवा०जाव समाणे से जं सलद्धी, सो पाणिपडिग्गही होइ / / 1 / / " कल्प० १अधि०७ क्षण / पुण पाणगजायं जाणेज्जा / तं जहा-तिलोदगं वा, तुसोदगं वा, आचा। जवोदगंवा, आयामं वा, सोवीरं वा, सुद्धवियडं वा, अस्सि खलु पाणिपाणिपमजणन०(प्राणिपाणिप्रमार्जन) कुन्थ्वादीनां प्राणिनां हस्तेन पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे तहेव०जाव पडिगाहेज्जा / / 6 / प्रमार्जने, ध०२अधि। पानेषणा अपि नेया भङ्गकाश्चाऽऽयोज्याः, नवरं चतुर्थ्यां नानात्वं, पाणिपाणिविसोहणी स्त्री०(प्राणिपाणिविशोधनी) हस्तस्योपरि स्वच्छत्वाच्च तस्या अल्पलेपत्वं, ततश्च संसृष्टाऽऽद्यभावः। आसां च कुन्थ्वादीनां प्राणिनां प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रेण प्रमार्जनायाम, स्था० ६ठा०। एषणानां यथोत्तरं विशुद्धितारतम्यादेष एव क्रमो न्याय्य इति। पाणिपिज त्रि०(प्राणिपेय) तटस्थप्राणिभिः पातव्ये, 'पाणि पिजंति नो साम्प्रतमेताः प्रतिपद्यमानेन यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाहवए।" दश०७अग इच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पाणेसणाणं अन्नयरं पाणिबह पुं०(प्राणिवध) पृथिवीकायाऽऽदिजीवसमाजस्वी-कृतनिज- | पडिम पडिवजमाणे णो एवं वदेज्जामिच्छापडिवन्ना खलु एते निजप्राणोद्दालने, दर्श०१तत्त्व। व्या प्राण्युपमर्दे, प्रव० ४१द्वार। भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिवन्ने, जे एए भयंतारो एयाओ पाणिबहणिरय त्रि०(प्राणिवधनिरत) जीवव्यापादनशक्ते, ज्यो०६पाहु० / पडिमाओ पडिवञ्जित्ता णं विहरंति, जो य अहमंसि एयं पडिम पाणिरेहा रत्री०(पाणिरेखा) हस्तस्थाऽऽयुरेखाऽऽदौ, कल्प० ३अधि० पडिवज्जित्ता णं विहारामि सव्वे वि ते उ जिणाणाए उवट्ठिया ६क्षण / जी। अन्नोन्नसमाहीए, एवं च णं विहरंति, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स पाणीय न०(पानीय) जले, उत्त०३५अ०। स्था०। प्रश्न०। सू०प्र०। ज्ञा०। वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं // 63 / / आ०म० भ०। प्रासुकपानीयस्य संक्षारकः कच्चकपानीये मुच्यते, किं इत्ये तासां सप्तानां पिण्डै षणानां पानैषणानां वाऽन्यतरां वा पृथक् रक्ष्यते?, इति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रासूकपानीयस्य संक्षारकः प्रतिमा प्रतिपद्यमानो नैतद्वदेत् / तद्यथा-मिथ्याप्रतिपन्ना न सचित्तपानीये न क्षिप्यते इत्यक्षराणि शास्त्रे न ज्ञातानि, ततो यथा यतना सम्यक् पिण्डैषणाऽऽद्यभिग्रहवन्तो भगवन्तः साधवः, अहमेवै Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणेसणा 850 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पादणिज्जोग कःसम्यक् प्रतिपन्नो, यतो मया विशुद्धःपिण्डेषणाऽभिग्रहः कृतः, एभिश्न | पादकंचणिया स्वी०(पादकाचनिका) पादधावनयोग्यायां काञ्चनमय्यां न; इत्येवं गच्छान्निर्गतेन गच्छान्तर्गतेन वा समदृष्ट्या द्रष्टव्याः, नाऽपि पात्र्याम्, जी०३प्रति०४अधिक गच्छान्तर्गतेनोत्तरोत्तरपिण्डैषणाऽभिग्रहवता पूर्वपूर्वतरपिण्डेषणाऽभि- पादकंबल न०(पादकम्बल) पादपोछने, उत्त०१७अ०॥ ग्रहवन्तो दूष्या इति / यच्च विधेयं तद्दर्शयतिय एते भगवन्तः साधवः, पादकुकुड पुं०(पादकुक्कुट) कुक्कुटविशेषे, ज्ञा० १श्रु०१७अ०। एताःप्रतिमाः पिण्डैषणाऽऽद्यभिग्रहविशेषान् प्रतिपद्य गृहीत्वा गामानुग्राम पादके सरिआ स्त्री०(पात्रकेशरिका) पात्रप्रमार्जनहेतुः केशरिका विहरन्ति यथायोग पर्यटन्ति, यां चाहं प्रतिमा प्रतिपद्य विहरामि, सर्वेऽ- पात्रकेशरिका / ओघा पात्रप्रमार्जनपोत्तिकायाम, प्रश्र०५ संब० द्वार। प्येते जिनाऽऽज्ञायां जिनाऽऽज्ञया वा समुत्थिता अभ्युद्यतविहारिणः यया पात्रं प्रत्युपेक्षते। बृ० ५उ०। निर्ग्रन्थीनामेव सवृन्ता पादकेशरिका संवृत्ताः, ते चान्योऽन्थसमाधिनायो यस्य गच्छान्तर्गताऽऽदेः समाधि- कल्पते। रभिहितः। तद्यथा-सप्ताऽपि गच्छवासिना, तन्निर्गतानां तु द्वयोरग्रहःपञ्चसु सूत्रम्अभिग्रहः, इत्यनेन विहरन्ति यतन्त इति। विहारिणश्च सर्वेऽपि ते जिनाज्ञा नो कप्पइ निग्गंथीणं सवेंटियं पादकेसरियं धारित्तए वा, नातिलघन्ते 'जोऽविदुवत्थतिवत्थो, बहुवत्थ अचेलओव्व संथरइ। परिहरित्तए वा / / 3 / / कप्पइ निग्गंथाणं सवेंटियं पादकेसरियं नहु ते हीति परं, सव्वे वियते जिणाणाए।।१॥"एतस्य भिक्षोर्भिक्षुण्या धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥४४|| वा सामग्यं संपूर्णा भिक्षुभावो यदात्मोत्कर्षवर्जनमिति / आचा० २श्रु० नो कल्पते निर्गन्थीनां सवृन्तिका पादकेशरिका धारयितुं वा परिहतु १चू० 1101130 / पा०ाध०। स्था०। वा // 43 // कल्पते निर्ग्रन्थानां सवृन्तिका पादकेशरिका धारयितुं वा पात न०(पात्र) पतद्ग्रहे, प्रव०६०द्वार। 'पाताणि यमे रयावेहि।" सूत्र० परिहर्तु वा // 44 // १श्रु० 4 अ०२०। (सर्वा वक्तव्यता 'पत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 362 अथ केयं सवृन्ता पादकेशरिकेत्याहपृष्ठे गता) लाउयपमाणदंडे, पडिलेहणिया उ अग्गए बद्धा। पातखज्ज न०(पाकखाद्य) गर्ताप्रक्षेपकोद्रवपलालाऽऽदिना विपच्य सा केसरिया भन्नइ, सनालए पायपेहट्ठा / / 264|| भक्षणयोग्ये फले, आचा० १श्रु०१चू०४१०२७०। यत्राऽभिनवसंकटमुखे अलावुनि हस्तो न माति, तस्याऽलाबुनो पातग्ग न०(पादाग्र) चरणगे, "पूजितो व ताए पातग्गकुसुमप्पतानेन।" यदुचत्व तत्प्रमाणो दण्डः क्रियते, तस्याग्रभागे बद्धा या प्रत्युपेक्षणिका पादागकुसुमप्रदानेन / प्रा०४पाद / सा पादकेशरिका सवृन्ता भण्यते, कारणगृहीतसनालमलाबुकं तया पातरास पुं०(प्रातराश) प्रातरशनं प्रातराशः। प्रत्यूषस्येव भोजने, सूत्र० प्रत्युपेक्षते, ततो मुखं क्रियते / बृ०५उ०। २श्रु० १अ०। प्रथमालिकायाम्, निचू०१ उ०। आचा०। आ०म० पायपमज्जणहेऊ, केसरिया पाएँ इक्केका। "जाव मागहओ पातरासो त्ति / " प्रातराशं प्राभातिकं भोजनकाल गोच्छक पत्तट्ठवणं, इक्ककं गणणमाणेणं // 1018|| यावत्प्रहरद्वयाऽऽदिकमित्यर्थः / ज्ञा० १श्रु०८अ०। केशरिकाऽपि पात्रप्रमुखवस्त्रिकाऽपि पात्रकप्रमार्जननिमित्तं भवति पात्रे पातिभणाण न०(प्रातिभज्ञान) मार्गानुसारिप्रकृष्टोहे, द्वा० १६द्वारा पात्रे एकैका पात्रकेशरिका भवति गणनया, तथा गोच्छकः पात्रस्थापन पात्थरिअ (देशी) पल्लवे, दे०ना०६वर्ग 20 गाथा। च एकैकं गणनाप्रमाणमानेनेति। ओघा पाद न०(पात्र) पतन्तमाहारं पातीति पात्रम्। आचा०१श्रु०८अ० ४उ०। पादचार पुं०(पादचार) चरणाभ्यामेव गमने,“पायचारेण पज्जुवाभोजने,आचा० १श्रु०२चू०३अ०३उ०। (पात्रस्य सर्वोऽधिकारः ‘पत्त' सति।" ज्ञा०१श्रु०१३अग शब्देऽस्मिन्नेव भागे 362 पृष्ठे गतः) कांस्यपात्र्यादौ, सूत्र० १श्रु० पादजालग न०(पादजालक) पादाऽऽभरणे, प्रश्न०५संब०द्वार। ३अ०३३०। अलाबुकाऽऽदौ, दश०६अ। पादजालघंटिया स्त्री०(पादजालघण्टिका) पादाऽऽभरणविशेषे, औ०। पादपुं० चरणे, सूत्र० १श्रु०१अ०१3०। द्रव्या०ाधा पञ्चा०। "उपादं पादट्ठवण न०(पात्रस्थापन) कम्बलमये पात्रोपकरणे, वृ०३ उ०। यत्र राएजा उद्दटु।' पादं संहत्याग्रतलेन पादं पादप्रदेश चातिक्रम्य गच्छेत् / कम्बलखण्डे पात्रं निधीयते। प्रश्र०५ संब० द्वार। आचा०२श्रु०१चू०३ अ०१3०1 गाथाऽऽदिचतुर्था शे, अनु० पादणिजोग पुं०(पात्रनिर्योग) पात्रपरिकरत्वे उपकरणकलापे, पृ०३७०। पट्टाऽऽद्यधोभागे, ज्ञा०११श्रु०१अषडड्गुलमितेपादमध्यतले, अष्टौ स च पात्रकबन्धाऽऽदिः सप्तविधःयवमध्यान्येकमङ्गुलमेतेनाङ्गुलप्रमाणेन अन्यूनाधिकतया षडडगुलानि पत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया / पादः पादस्यमध्यतलप्रदेशः। ज०३वक्ष०ा किरणे, कल्प०१ अधि०२क्षण पडलाई रयत्ताणं, गोच्छगओ पायणिजोगो॥ "बुध्नांहितुर्या शरश्मिप्रत्यन्तपर्वताऽऽदिषु," है। बृ०३उ०। (एषा गाथा 'उवहि' शब्दे द्वितीय भागे 1063 Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादणिज्जोग 851 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पादपुंछण पृष्ठव्याख्याता) ध०। पिं०। आचा०ा औ०। (पादनिर्योगव्युत्पत्तिः "अपत्ते चिय०" (26) इत्यादिपिण्डनियुक्तिगाथायाः व्याख्याने धावण' शब्दे चतुर्थभागे 2751 पृष्टे गता) पादातणीय न०(पादातानीक) पादातीनां समूहः पादातं, तस्यानीकं पादातानीकम्। उत्त०१८ अ०। पदातिसमूहे, ज्ञा०१श्रु०१अ०। औ०। भ०! पदातिकटके, औ०। पादत्ताणाहिवइ पु०(पादात्याधिपति) पदातिकटकनायके, कल्प० 1 अधि०२क्षण। उत्त०। पाददद्दरय न०(पाददर्दरक) भूमेः पादेनाऽऽस्फोटने, जी० ३प्रति० 4 अधि० भ०। ज्ञा०। पादपडिमा स्त्री०(पात्रप्रतिमा) पात्रविषयकाभिग्रहविशेषे, स्था०। चतुर्थी पात्रप्रतिमाउद्दिष्ट दारुपात्राऽऽदि याचिष्ये, तथा प्रेक्षितं, तथा दातुः स्वाङ्गिक परिभुक्तप्रायं द्वित्रिषु वा पात्रेषु पर्यायेण परिभुज्यमानं पात्रं याचिष्य इति तृतीया, उज्झितधर्मिकमिति चतुर्थी / स्था० ४ठा० 330 // पादपप्फोडण न०(पादप्रस्फोटन) पादधूलिच्छोटने, व्य० 6 उ०। (आचार्य उपाध्यायो वा वसतेरन्तः पादान् प्रस्फोटयितुं शक्तोति इति 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 12 पृष्ठे उक्तम् ) पादपरियावण्ण त्रि०(पादपर्यापन्न) पात्रस्थिते, आचा०२श्रु०१ चू०१अ० ११उ० पादपलंब न०(पादप्रलम्ब) पादौ यावद्यः प्रलम्बते अलङ्कारविशेषः, स पादप्रलम्बः / पादपर्यन्ते आभरणविशेषे, ज्ञा० १श्रु०१अ०। पादपास पुं०(पादपाश) वागुराऽऽदिबन्धने, सूत्र० १श्रु०११०२७०। पादपीढ पुं०(पादपीठ) पट्टाऽऽदिके,प्रति०। स०। राol पादपुंछण न०(पादप्रोञ्छन) रजोहरणे, औ० प्रश्न०। धा दशा भला पा०। स्था० निर्गन्थीना दारुदण्डकप्रोज्छनकम्। सूत्रम्नो कप्पइ निग्गंथीणं दारुदंडयं पायपुंछणं धारित्तए वा, परिहरित्तए वा॥४५॥ कप्पइ निग्गंथाणं दारुदंडयं०जाव परिहारित्तए वा।।४६|| यत्र दारुमयस्य दण्डस्याग्रभागे ऊर्णिका दशिका वध्यन्ते तद्दारुदण्डकं पादप्रोञ्छनमुच्यते, तन्निग्रन्थीनां न कल्पते॥४५|| निम्रन्थाना तु कल्पते॥४६॥ अत्र भाष्यम्ते चेव दारुदंडे, पाउंछणगम्मि जे सनालं ति। दुण्ह वि कारणगहणे, वप्पडए दंडए कुज्जा / / 265 / / ये सनाले पात्रे दोषा उक्तास्त एव दारुदण्डकेऽपि पादप्रोञ्छनके भवन्ति / द्वयोरपि च सनालपात्रदारुदण्डकयोः कारणे निन्थिीनामपि ग्रहणं भवति, तत्र च गृहणे कृते वप्पडकान् दण्डकान् कुर्यात्। बृ०५उ०। प्रातिहारिक पादप्रोञ्छनं याचित्वा प्रत्यर्पयति जे मिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता तामेव रयणिं पच्चुप्पिणइस्सामि त्ति सुए पच्चुप्पिणेइ, पच्चुप्पिणंतं वा साइजइ॥१॥ प्रतीप हरणं प्रतीहार्य, तं अजं असुए वेलाएरातो वा आणिहामि त्ति सुए कल्ले आणेतस्स मासलहुं, आणादिया य दोसा। जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता सुए पच्चुप्पिणेस्सामीति तामेव रयणिं पच्चुप्पिणे इ, पच्चु प्पिणंतं वा साइजइ / / 16|| जे पाडिहारियं पायपुंछणं सुए उवातिणावेस्सामि त्ति तमेव रयणीए उवातिणविति इत्यादि अर्थः पूर्ववत्। पाउंछणगं दुविहं, तं उद्देसम्मि वणियं तहा पुव्वं / तं पाडिहारियं तू, गेण्हंतोऽऽणादिया दोसा।।४७।। उस्सग्गिय अववातियं च पुव्वं वितियउद्देसे सभेयं वणियं, तं जो पाडिहारियं गेण्हति, तस्स आणादिया दोसा। इमे पारिहारियदोसाणद्वेहि य विस्सरिते, अणप्पिणंतम्मि होइ वोच्छेओ। पच्छाकम्म पवहणं, धुवावणं वा तयट्ठस्स / / 4811 भिक्खाइ अडतस्स पडि पणटुं तेणगेण हरियं, सज्झायातिगयस्स काइयभूमिगयस्स कतो विस्सरियं, एतेहिं कारणेहिं अणप्पिण्णंतस्स तदण्णदव्वस्स साहुस्स वा वोच्छेओ हवेज, निहत्थो वा अण्णं पाउंछग करेन्ज, पच्छाकम्म वा ठवियं वा जं अत्थति पवहणं करेज, धुवावणं दवावणं तदहस्स पादपुंछणस्स अण्णटुं वा मुलं दवावेज, तम्हा पाडिहारियं ण गेण्हेज। उच्चत्ताएं पुव्वं, गहणमलंभे उ होइ पडिहारी। तं पि य ण छिण्णकालं, दोसा ते चेव छिण्णम्मि||४|| जंपाडिहारियं णिदिसेज्जतं उच्चतागहणं पुव्वं तारिसंघेत्तव्वं,तारिसस्स अलंभे पाडिहारियं अज वा कल्ले वा छिण्णकाल न करेति, गेण्हतेण भाणियव्वं-कताहिं वि कते कजे आणेहामि, दोसा छिण्णम्मि ते चेब, अज्ज सुए वा अप्पहामि त्ति छिन्नकाले कदाइ वाघातो हवेज, ततो अणप्पिणतो माया मोसं भवति अदत्तं / सो साहू इमेहि कारणेहिं पाडिहारियं गेहतिणटेहि य विस्सरिते, झामिय छूढे तहेव परिजुण्णे। असति दुलभ पडिसे-ह गहणं पडिहारिए चउहा / / 5 / / झामितं दद्ध, छूढं ति उत्तरेण कालेण वा खुद्ध, परिजुण्णं असति पाडिहारियं णलब्भति, दुलभे वा जावलब्भति, पडिणीएण वा पडिसेधितो इमं चउविहं पाडिहारियं गेण्हतिउस्सगुस्सग्गिय, उस्सग्गिय, अववाइय, अववायाववातिय / अणाभोगेण कते छिण्णकाले, अलभते वा छिण्णकाले कते दोण्ह वि सुत्ताण विवज्जासकरणे इमा जयणातं पाडिहारियं पा-यपुंछणं गिण्हिऊण जे भिक्खू / वोचत्थमप्पिणादी, सो पावति आणमादीणि // 51 / / Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादपुंबण 852 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पादलित्त त पाडिहारियं छिण्णकालं गेण्हितुं तम्मि चेव काले अप्पेयव्वं, विचारः'रओहरण' शब्दे वक्ष्यते) विवरीयमप्पिणतस्स इमे दोसा पादपमज्जण न०(पादप्रमार्जन) पादाना पुनः पुनर्मार्जने, नि० चू० मायामोसमदित्तं,अप्पच्चओ खिंसणा उवालंभो। १५उन वोच्छेदपदोसादी, वोच्चत्थं अप्पिणंतस्स।।५।। जे मिक्खू अप्पणो पाए आमज्जेज वा, पमजेज वा, आमजंतं पूर्ववत्। वा पमज्जंतं वा साइज्जइ / / 15 / / वितियपदे वाघातो, होजा पहुणो व अप्पणो वावि। (जे भिक्खू अप्पणो पाए इत्यादि) अप्पणो पाए आमजति एक्कसि, एतेहिँ कारणेहिं, वोच्चत्थं अप्पिणिज्जाहि॥५३।। पमजति पुणो पुणो। अहवा-हत्थेण आमज्जणं, स्यहरणेण पमजणं, पभुणो णिव्विसयाती कारणा होला। तस्स मासलहुं। अप्पणो इमो इमा णिज्जुत्तीगेलन्नवासमहिता, पडिणीए रायसंभम भए वा / आइण्णमणाइणा, दुविहा पादे पमञ्जणा होति। अह समणो वाघातो, णिव्विसयादीय इयरम्मि॥५४|| सत्ते पंथे वा, भिक्ख वियारे विहारे य॥५३॥ गिलाणो जातो, वासंमहिता वा, पडिणीओवा अंतरे रायदुटुं वोहिया- पुव्वद्धं कंठं / जा आइण्णा सा इमा अणेगविहा, संसत्तो पादो, दिभयं वा अग्निमादिसंभम वा जातं / एते समणोवाघातकारणा। आमजितव्यो, पंथे वा अथंडिलातो थंडिलं, थंडिलाओ वा अथंडिलं, जे मिक्खू सागरियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता तामेव रयणिं अथंडिलातो वा थंडिले विलक्खणे सकायसत्थं ति काउं संक्रमतो पञ्चप्पिणंति, पचप्पिणंतं वा साइज्जइ / / 17 / / जे भिक्खू कण्हमातासु पमज्जति,भिक्खातो वा पडिणियत्तो, वियारे त्ति सण्णासागरियसंतियं पायपुंछणं जाइत्ता सुए पच्चुप्पिणिस्सामि त्ति भूमीओ वा आगतो, विहारे त्ति सज्झायभूमीए गामंतराओ वा कुलगतामेव रयणिं पञ्चप्पिणइवा, पञ्चप्पिणतं वा साइज्जइ // 18 // णादिएसु कजेसुपडिआगओपमज्जति, ता उवकरणोवघातो भविस्सति। दो सुत्ता सागारिए सेज्जातरे। एसा आइण्णा खलु, तव्विवरीया भवे अणाइण्णा। जे भिक्खू पाडिहारियं दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा सुत्तमणाइण्णाई, तं सेवंतम्मि आणादी॥५४।। वेणुसूइंवा एते विदो विचेव पडिहारियसागारियगामएहिं णेयव्वा खलु अवधारणे / एवमादिकारणवतिरित्ता आणातिया सुत्तणिवातो / / 22 / / जे भिक्खू पाडिहारियसेज्जासंथारयं पच्चुप्पिणित्ता दोन आणाइण्णपमजणं णिसेवंतस्स आणादीया दोसा। पि अणुण्णविय अहाटेइ, अहाटुंतं वा साइज्जइ।।२३।। __ इमा संजमविराहणादो सुत्ता। सूत्रार्थः पूर्ववत्। संघट्टणा तु वाते, सुहुमे बादरें विराधए पाणे। पडिहारिऐं जो तु गमो, णियमा सागारियम्मि सो चेव। पाउसदोस विभूसा, तम्हा ण पमज्जए पादे / / 55|| दंडगमादीसुतहा, पुव्वे अवरम्मि य पदम्भि / / 55 / / पमजणे वातो संघट्टिजति, अण्णे य पय॑गादी सुहमे बादरे वा विराहेति, पाउंछणगं दुविधं, वितिउद्देसम्मि वणितं पुब्बिं / पाउसदोसो य,बंभचेरे अगुत्ती, तम्हा पादे ण पमज्जए। सागारियसंतियं तं, गेण्हंताऽणादिणो दोसा॥५६|| बितियपदमणमज्झे, अप्पज्झव्वातसज्जमाणे वा। णटेहि य विस्सरिए, अणप्पिणंते य होति वोच्छेदो। पुव्वं पमज्जिऊणं, वीसामे कंडुएज्जा वा // 56|| पच्छाकम्म पवइणं, जावण्णं वा तयट्ठस्स // 57 / / अणप्पज्झो अनात्मवशः, खित्तचित्तादिसु पमजणाइ करेन, अप्पज्झो उच्चत्ताए पुव्वं गहणं, अलंभे य होज पडिहारिं, तं पियण छिण्णकालं, वा उव्वातो श्रांतः स पमज्जिओ विस्सामिज्जति, खमासमणो वा पादे ते चिय दोसा न छिण्णे। पमजिउं कंडुइज्जति / उक्तार्थ पश्चार्द्धम् / नि०चू० ३उ०। स्था०। णड्डेहि तु विस्सरिते, झामिय छूढे तहेव जुण्णे अ। (आचार्यस्योपाध्यायस्य वा वसतेरन्तः पादप्रमार्जन युक्तमिति अप्तती दुल्लभपडिसेह, गहणं सागारिए चउहा॥५८|| 'अइसेस' शब्द प्रथमभागे 17 पृष्ठे उक्तम्) सागारिसंतियं तं, पाउंछण गेण्हिऊण जे भिक्खू / पादबंधण न०(पादबन्धन) पात्रबन्धे, प्रश्न०५संव० द्वार। वोच्छिन्न मप्पिणिज्जा, सो पावति आणमादीणि / / 56 / / पादबद्ध न०(पादबद्ध) वृत्ताऽऽदिचतुर्भागमात्रैः पादैः बद्धे, ज०१वक्ष०। भाष्यग्रन्थः अविशेषेण पूर्ववत् / नि०चू०५ उ०। पादेषु प्रोञ्छति येत जी। तत्पादप्रोञ्छनकम् / नि०चू० उ०। रजोहरणस्य तृतीयनिषद्यायाम्, पादलग्ग त्रि०(पादलग्न) चरणप्रविष्ट, पञ्चा०१८विव०। पिं० सा च अभ्यन्तरनिषद्या या तिर्थग्येष्टकान् कुर्वन्ती चतुरड्गुला- | पादलित्त पुं०(पादलिप्त) 'पाटलीपुत्रनगरे, मुरुण्डोऽभून्महीधिकैकहस्तमाना कम्बलमयी भवति, सा च उपवेशनोपकारित्वादधुना / पतिः। आचार्यः पादलिप्ताऽऽख्यस्तत्र विद्याजलार्णवः / / 1 // " पादप्रोञ्छन कमित्युच्यते / पिं०। (अत्र औत्सर्गिकत्वापवादिकत्व- इति लक्षिते सूरिभेदे, आ०क० 10 // नं०। ('विज्जासिद्ध' शब्दे Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादलित्त 853 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पामिच कथा) ('णागज्जुण' शब्दे चतुर्थभागे 1635 पृष्ठेऽपि तस्मै सम्य- पादवगण पुं०(पादपगण) वृक्षसङ्घाते, दश० 10 // क्यदानमुक्तम्) 'संप्रतिविक्रमादित्यः, शालिवाहनवाग्भटौ। पादलि- पादविहारचार पुं०(पादविहारचार) पादबिहाररूपे सञ्चरणे, आचा०। साऽऽमृदत्ताश्च, इत्यस्योद्धारकारकाः।।१॥" (शत्रुञ्जयतीर्थस्य)।ती० पादसंवाहण न०(पादसंवाधन) पादानामनेकशो मर्दने, नि००। १कल्प जे मिक्खू अप्पणो पाए संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज वा, संवाहतं पादले हणिया स्त्री०(पादले खनिका) वर्षासु कर्दमनिर्लेखनार्थे वा पलिमहतं वा साइज्जइ॥१६|| काठोपकरणे, बृ०३उ०ाधा पं०भा०। 'सं' ति प्रसंसा,सोभणा वाहा संवाहा, सा चउव्विहा अद्विसुहा............... वासावासासु पायलेहणिया। संसाऽऽरामतया। सा गुरुमाइयाण विपाले संबंधा भवति।जो पुण अद्धरत्ते वड उंबरे पिलक्खू, तस्स अलंभम्मि चिंचिणिया / / 6 / / पच्छिमस्ते दिवसतो वा अणेगसो संबाधेति, सा परिमद्या भण्णति / वर्षासु वर्षाकाले वर्षति सति पादलेखनिकया प्रमार्जन कर्त्तव्यं, सा च नि०यू०३उ० किंमयी भवत्यत उच्यते- वटभयी, उदुम्बरमयी,प्लक्षमयी, तस्याभावे ! पादसम न०(पादसम) पादो वृत्तपादस्तेन तुल्यं मिलितं च / वृत्ताशतुल्ये प्लक्षस्याप्राप्तौ चिञ्चिणिकामयी अम्बिलिकामयीति / गेये, स्था०५ठा० 10 // सा च कियत्प्रमाणा भवतीत्याह पादसीसगन०(पादशीर्षक) पादानामुपरितने अवयवविशेषे, जी० ३प्रति० वारसअंगुलदीहा, अंगुलमेत्त तु होइ वित्थिन्ना। ४अधिo! आ०म०/रा० आचा० . घणमसिणनिव्वणा विय, पुरिसे पुरिसे य पत्तेयं / / 61 // पादिम त्रि०(पाच्य) पाचनयोग्ये, आचा० १श्रु०१चू० 4 अ०२३०। द्वादशाङ्गुलदीर्घा भवति, येन मध्ये हस्तग्रहो भवति, विस्तार *पात्य त्रि० देवताऽऽदेः पातनयोग्ये, आचा० १श्रु०१चू०४अ०२उ०। स्त्वेकमगुल स्यात् / सा च धना निविडा कार्या, मसृणा निव्रणा पादोट्ठपय न०(पादोष्ट्रपद) दृष्टिवादस्य सिद्धश्रेणिकापरिकर्मभेदे, स०१२ निग्रन्थिः / सा च किमेकेव भवति? नेत्याह-पुरुषे पुरुषे च प्रत्येकम्, अङ्ग। एकैकस्य पृथगसौ भवति। पाभाइयक्खण पुं०(प्राभातिकक्षण) प्राभातिककालग्रहणवेलायाम्, ध० उभयं नहसंठाणा, सच्चित्ताचित्तकारणा मसिणा। ३अधि। (आउक्काओ दुविहो, भोमो तह अंतलिक्खो य ) 62 पाम न०(पामन्) विचर्चिकायाम्, प्रश्न० १आश्र० द्वार। उभयोः पार्श्वयोः नखवतीक्ष्णा / किमर्थाष्सौ उभयपार्श्वयो स्तीक्ष्णा पामण्णमुद्दा स्त्री०(प्रामाण्यमुद्रा) प्रमाणदाढ्य , प्रति०। क्रियते? सचित्ताचित्तकारणात, तस्या एकेन पावेंन सचित्तपृथिवीकायः पामद्दा (देशी) पदाभ्या धान्यमर्दने, दे०ना०६वर्ग 40 गाथा। संलिख्यते, अन्येन पार्श्वन अचित्तपृथिवीकाय इति। किंविशिष्टा सा? पामर पुं०(पामर) गृहपतौ, “पामर गिहवइ सेआ-ल कासया दोणया (मसिण त्ति) मार्टी क्रियते नातितीक्ष्णा, यतो तया लिखने आत्म- हलिआ।" पाइ० ना०७१ गाथा / विराधना भवति। ओघा पामाड पुं०(प्रपुत्राट) वृक्षविशेषे, "तरवट्टो पामाडो।" पाइ० ना० 145 एकेक्का सा तिविधा, बहुपरिकम्मा य अप्पपरिकम्मा। गाथा। अप्परिकम्मा य तहा, जलभावित एतरा चेव / / 213 / / पामिच्च न० (प्रामित्य) साध्वर्थमुच्छिद्य दाने, दश० ५अ० १उ०। ग01 जलमज्झसिते कट्टे जा कज्जति सा जलभाविता, इतरा अभाविता। आचाला साध्वर्थमन्नाऽऽदिवस्त्रमुच्छिन्नमानीयते, तत्प्रामित्यकम् / ध० अद्धंगुला परेणं, छिज्जंती होति सा सपरिक्कम्मा। ३अधि०।५०चू। साध्वर्थमन्यत उद्यतकं यद् गृह्यते तत्प्रामित्यकम्। अद्धंगुलमेगंतु, छिज्जंती अप्पपरिकम्मा // 214 // सूत्र० १श्रु०६अ० आचा०। प्रश्न०। दर्शा अपमित्य भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय यत्साधुनिमित्तमुच्छिन्नं गृह्यते तत्तदपमित्य जा पुव्ववड्डिया वा, जमिता संठवित तच्छिता वा वि। गृह्यते, तदप्युपचारादपमित्यमिति। पिं० पञ्चा० / जीतका उद्गमदोषलब्भति पमाणजुत्ता, साणातव्वा अधाकडिया।॥२१५|| विशेष, पिं० पढमबितियाण करणं, सुहुममबीजो तु कारवे भिक्खू। प्रामित्यद्वारमाहगिहि अण्णतिथिएण व, सो पावति आणमादीणि / / 216|| पामिचं पि य दुविहं,लोइय लोगुत्तरं समासेणं / घहितसंठविताए,पुट्विं जमिताए होति गहणं तु। लोइय सज्झिलगाई, लोगुत्तर वत्थमाईसु // 316 / / असती पुवकडाए, कप्पति ताहे सयंकरणं // 217 // प्रामित्यमपि समासेन द्विविधं द्विप्रकारम् / तद्यथा-लौकिक, लोकोत्तरं नि०चू०१301 च। तत्र लोके भवं लौकिक, तच्च साधुविषय (सज्झि-लगाई) सज्झिपादव पुं०(पादप) पादैरधःप्रसर्पिमूलाऽऽत्मकः पिवतीति पादपः। उत्त० लगाभगिनी, आदिशब्दाद् भ्रात्रादिपरिग्रहः। तस्मिन् , किमुक्तं भवति? ५अगदशा वृक्षे, ज्ञा० १श्रु०१अ०। भगिन्यादिभिः क्रियमाणद्रव्यमिति, अत्र च भगिनीशब्देन कथानकं सूचित, Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामिच्च 854 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पामिच तदने स्वयमेव वक्ष्यति। लोकोत्तरं प्रामित्यं 'वस्त्राऽऽदिषु वस्वाऽऽदिविषयं साधूनामेव परस्परमवसेयम् / इह लौकिक भगिन्यादावित्युक्तम्। तत्र भगिन्युदाहरणमेव गाथात्रयेण प्रकटयतिसुयअहिगमनायविही, बहि पुच्छा एग जीवइ ससा ते। पविसण पाग निवारण, उच्छिंदण तेल्ल जइदाणं / / 317 / / अपरिमियनेहवुड्डी, दासत्तं सो य आगओ पुच्छा। दासत्तकहण मारुय, अचिरा मोएमि एत्ताहे // 318|| भिक्खदगसमारंभे, कहणाउट्टो कहिं ति वसहि त्ति। संवेया आहरणं, विसज्जु कहणा कइवया उ॥३१६।। कोशलाविषये कोऽपि ग्रामः, तत्र देवराजो नाम कुटुम्बी, सारिकाऽभिधा तस्य भार्या, तस्याश्च सम्मतप्रमुखा बहवः सुताः, सम्मतिप्रभृतयश्च प्रभूता दारिकाः, तच्च सकलमपि कुटुम्ब परमश्रावकं, तथा तस्मिन्नेव ग्रामे शिवदेवो नामश्रेष्ठी, तस्य भार्या शिवा, अन्यदा च समुद्रघोषाभिधाः सूरयः समागच्छन्, तेषां समीपे जिनप्रणीत धर्ममाकर्ण्य जातसंवेगः सम्मतो दीक्षां गृहीतवान्, कालक्रमेण च गुरुचरणप्रसादतोऽतीव गीतार्थः समजनि। स चान्यदा चिन्तयामासयदि मदीयः कोऽपि प्रव्रज्यां गृह्णाति, ततः शोभनं भवति, इदमेव हि तात्त्विकमुपकारकरणं यत्संसारार्णवादुत्तारणमिति / तत एवं चिन्तयित्वा गुरूनापृच्छ्य निजबन्धुग्रामे समागमत्, तत्र च बहिः प्रदेशे कमपि परिणतवयस पृष्टवान पुरुषंयथाऽत्र देवराजाभिधस्य कुटुम्बिनः सत्कः कोऽपि विद्यते? इति / स प्राहमृतं सर्वमपि तस्य कुटुम्ब, केवलमेका सम्मत्यभिधा विधवा पुत्रिका जीवतीति / ततः स तस्या गृहे जगाम। सा च भ्रातरमायान्तं दृष्टा मनसि बहुमानमुद्वहन्ती वन्दित्वा कश्चित्कालं पर्युपास्य च तन्निमित्तमाहारं पक्तुमुपतस्थे। साधुश्च तां निवारितवान्-यथा न कल्पतेऽस्माकमरमनिमित्तं किमपि कृतमिति, ततो भिक्षावेलायां सा दुर्गतत्वेनान्यत्र क्वचिदपि तैलमात्रमप्यलभमाना कथमपि शिवदेवाभिधस्य वाणजो विपणेस्तैलपलिकाद्वयं दिने दिने द्विगुणवृद्धिरूपेण कलान्तरेण समानीय भ्रात्रे दत्तवती / भ्रात्रा च तं वृत्तान्तमजानता शुद्धमिति ज्ञात्वा प्रतिजगृहे / सा च तदिनं भ्रातुः सकाशे धर्म श्रुतवती, तेन न पानीयाऽऽनयनाऽऽदिना तत् तैलपलिकाद्वयं प्रवेशयितुं प्रपारितवती। च द्वितीये दिने भ्राता यथाविहारक्रमं गतः / ततस्तस्मिन्नपि दिने तद्वियोगशोकाऽऽकीर्णमानसतया तत्तैलपलिकाद्वयं द्विगुणीभूतं प्रवेशयितुमशक्नुवती, तृतीये च दिने कर्षद्वयमृणे जातं, तच्चातिप्रभूतत्वान्न प्रवेशयितुं शक्तम्, अपि च-भोजनमपि पानीयोऽऽनयनाऽऽदिना कर्त्तव्यं, ततो भोजनायैव यत्नविधौ सकलमपि दिनं जगामेति न ऋणं प्रवेशयितुं शक्नोति, दिने दिने द्विगुणवृद्ध्या प्रवर्द्धमानमृणमपरिमितघटप्रमाणं जातं, ततः श्रेष्टिना सा बभणे-यथा मम तैलं देहि, यद्वा में दासी भव / ततः सा तैलं दातुमशक्नुवती दासत्वं प्रतिपदे, कियत्सु च वर्षेष्वतिक्रान्तेषु भूयोऽपि सम्मताभिधः साधुस्तस्मिन्नेव ग्रामे यथाविहारक्रममागमत् / सा च भगिनी स्वगृहे न दृष्टा,तत आगता सती पप्रच्छे, तया च प्राचीनः सर्वोऽपि ध्यतिकरस्तस्मै न्यवेदि, यावद्दासत्वं शिवदेवगृहे जातमिति, निवेद्य च स्वदुःखं रोदितु प्रवृत्ता / ततः साधुरवोचत्-मा रोदीरचिरादहं त्वां मोचयिष्यामि। ततस्तस्या मोचनोपायं चिन्तयन् प्रथमतः शिवदेवस्यैव गृहे प्रविवेश / शिवा च तस्य भिक्षादानार्थं जलेन हस्तौ प्रक्षालयितुं लग्ना, तां च साधुर्निवारयामास, यथैवमस्माकं न कल्पते भिक्षेति। ततः समीपदेशवर्ती श्रेष्ठी प्रोवाच-कोऽत्र दोषः? ततः साधुः कायविराधनाऽऽदीन् दोषान् यथागम सविस्तरमचकिथत् / ततः स आट्टतो भणति-यथा भगवन् ! कुत्र युष्माकं वसति? येन तत्राऽऽगता वयं धर्म श्रृणुमः / ततः साधुरवादीत्-नास्ति मेऽद्यापि प्रतिश्रयः। ततस्तेन निजगृहैकदेशे वसतिरदायि, प्रतिदिनं च धर्म शृणोति, सम्यक्त्वमणुव्रतानि च प्रतिपन्नानि। साधुश्च कदाचनापि वासुदेवाऽऽदिपूर्वपुरुषाऽऽचीर्णाननेकानभिग्रहान्व्यावर्णयामास, यथा वासुदेवेनायमभिग्रहो जगृहेयदि मदीयः पुत्रोऽपि प्रव्रज्यां जिघृक्षति ततोऽहं न निवारयामीत्यादि। एवं च श्रुत्वा शिदेवोऽप्यभिग्रहं गृहीतवान्-यदि भगवन् ! मदीयोऽपि कोऽपि प्रव्रज्या प्रतिपद्यते ततोऽहं न निवारयामीति / अत्रान्तरे च शिवदेवस्य तनयोज्येष्ठः,सा च साधुभगिनी सम्मतिः प्रव्रज्यां ग्रहीतुमुपतस्थे। श्रेष्टिना च तौ द्वावपि विसर्जितो, ततः प्रव्रज्यां प्रतिपन्नाविति / सूत्रं सुगमम्। केवलं 'श्रुताधिगमज्ञातविधिः' श्रुताधिगमात् ज्ञातो विधिः क्रियाविधिर्येन सतथा। अत्राऽऽह-नन्वेतत्प्रामित्य साधुना विशेषतो ग्रहीतव्यं, परम्परया प्रव्रज्याकारणत्वात्, अत आह-"कइवया उ'' एवंविधा गीतार्था विशिष्ट श्रुतविदो देशनाविधिनिपुणाः कतिपया एव भवन्ति, न भूयांसः, कतिपयानामेव च प्रव्रज्यापरिणामः, ततः प्रामित्यं दोषायैद। तदेव तैलविषये प्रामित्ये दोष उक्तः। सम्प्रत्यतिदेशेन वस्त्राऽऽदिविषये दोषानभिधित्सुराहएए चेव य दोसा, सविसेसयरा उ वत्थपाएसुं। लोइयपामिचेसुं, लोगुत्तरिया इमे अन्ने / / 320 / / एते चैव दासत्वाऽऽदयो दोषा वस्त्रपात्रविषयेषु लौकिकेषु प्रामित्येषु सविशेषतरा निगडाऽऽदिनियन्त्रणपुरस्सरा द्रष्टव्याः, लोकोत्तरिकाः लोकोत्तरप्रामित्यविषयाः पुनरिमेऽन्ये दोषाः / तानेवाऽऽहमइलिएँ फालिएँ खोसिएँ, हिऐं नढे वावि अन्न मग्गंते। अवि सुंदरे वि दिण्णे, दुक्कररोई कलहमाई // 321 // इह द्विधा लोकोत्तरं प्रामित्यं-कोऽपि कस्याऽपि सत्कमेवं वस्त्राऽऽदि गृह्णाति, यथा कियदिनानि परिभुज्य पुनरपि ते समर्पयिष्यामि, कोऽपि पुनरेवम्-एतावदिनानामुपरि तवैतत् सदृशमपरं वस्त्राऽऽदि दास्यामि, तत्र प्रथमे प्रकारे मलिनिते शरीराऽऽदिमलेन क्लेदिति। यदि वा-पाटितेऽथवा- 'खोसिते' जीर्णप्राये कृते / यदि वाचौराऽऽदिना हते,यद्वाक्वापि मार्गपतिते कलहाऽऽदयो दोषाः। द्वितीये च प्रकारे ऽन्यद्वस्त्राऽऽदिकं याचमानो याचमानस्य, 'अपिः' सम्भावनाया, 'सुन्दरेऽपि' पूर्वभुक्ताद्वस्त्राऽऽदेविशिष्टतरेऽपि दत्त कोऽपि दुष्कररुचिर्भवति, महता कष्टेन तस्य रुचिरापादयितुं श Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामिच्च 855 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पायच्छित्त ग्यते, ततस्तमधिकृत्य कलहाऽऽदयो दोषाः सम्भवन्ति, तस्मा- पायगुड पुं०(पाकगुड) कथितद्रवगुडे, येन खज्जकाऽऽदि लिप्यते। ध०२ लोकोत्तरमपि प्रामित्यं न कर्त्तव्यम् / अधिका अत्रैवापवादमाह पायचार पुं०(पादचार) पादचार' शब्दार्थे, ज्ञा० १श्रु०१अ०॥ उचत्ताए दाणं, दुल्लभ खग्गूड अलस पामिचे। पायच्छित्त न०(पापच्छित) पापं छिनन्तीति पापच्छित् / अथवातं पि य गुरुस्स पासे, ठवेइ सो देइ मा कलहो // 322|| व्यवस्थितप्रायश्चित्तम् / दश० १अ० स्था० स० पापच्छेदकत्वात् इह दुर्लभे वस्त्राऽऽदौ सीदतः साधोर्यदि वस्त्राऽऽदिकमपरेण साधुना प्रायश्चित्तं, विशोधकत्वाद्वा प्राकृते ''पायच्छित्तमिति।'' शुद्धौ, तद्विषये दातुमिष्यते,तर्हि तस्य 'उच्चतया' मुधिकतया दानं कर्त्तव्यं, न प्रामित्य शोधनीयातिचारे, स्था०३ठा० 4 उ०। नि०चू०। औ० भ०। (''पावं करणेन, तथा यः 'खगूडः कुटिलो वैयावृत्त्यादौन सम्यग् वर्तते, योऽपि छिदइ०" (1508) इत्यादिगाथा पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 126 चालसः, तौ दुर्लभवस्त्राऽऽदिदानप्रलोभनेनाऽपि वैयावृत्त्यं कार्येत, पृष्ठ गता)व्याख्याविशेषो दीपापं कर्मोच्यते, तत्पापं छिनत्ति यस्माततस्तद्विषयं प्रामित्यं सम्भवति, तत्रापि तद्दीयमानं वस्त्राऽऽदिकं दायको त्कारणात्प्राकृतशैल्या "पायच्छित्तं ति" भण्यतेतेन कारणेन, संस्कृते गुरोः पार्श्वे स्थापयेत्, न स्वयं दद्यात्, ततः स गुरुर्ददाति, मा भूदन्यथा तुपापं छिनत्तीति पापच्छिदुच्यते। आव०५अ० तयोः परस्परं कलह इति कृत्वा / उक्तं प्रामित्यद्वारम्। पि०। पं०व०॥ *प्रायश्चित्त न०। प्रायशो वा चित्तम् जीवं शोधयति कर्ममलिनं विमलीप्रवन करोति तेन कारणेन प्रायश्चित्तमित्युच्यते / प्रायो वा बाहुल्येन चित्तं स्वेन प्रतिग्रहं प्रामित्ययति स्वरूपेण अस्मिन्सतीति प्रायश्चित्तं, प्रायोग्रहणं संवराऽऽदेरपि तथाविधजे भिक्खू पडिग्गहं पामिचेइ, पामिच्चावेइ, पामिच्चमाहर्ट्स चित्तसद्भावादिति गाथार्थः / आव०५अ०) स्था०। आ०चू०। पञ्चा०। दिज्जमाणं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहृतं वा साइज्जइ // 2 // "प्रायः पापं विविनिर्दिष्ट, चित्तं तस्य च शोधनम्।" इत्युक्तेः। अथवाजे पोतं पामिच्चे इत्यादि उच्छिण्ण गेण्हति, गेण्हावेति. अणुमोदेति प्रकर्षेण अथते गच्छति अस्मादाचारधर्म इति प्रायो मुनिलोकस्तेन तस्स चउलहु। नि०चू० १४उ०ा आचा०बृक्षा चिन्त्यते स्मर्यतऽतिचारविशुद्ध्यर्थमिति निरुक्तात् प्रायश्चित्तम् / पामुक्त त्रि० (प्रमुक्त) ''पामुक विच्छडिअं, अवहत्थि उज्झिअं चत्त / " अनुष्ठानविशेषे, ध०३अधिका(प्रायश्चित्तस्य सर्वोऽधिकारः 'पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 126 पृष्ठे गतः) पाइ० ना०७६ गाथा। भेदाःपामोक्ख त्रि०(प्रमुख) प्रवरे, ज्ञा०१श्रु०५अ०। आ०म०। तिविहे पायच्छिते पण्णत्ते / तं जहा-आलोयणारिहे, प्रमोक्ष पुं० आक्षेपस्य परिहारे, उत्तरे, ज्ञा०१श्रु०५अ०। पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे। पाय पुं०(पाक) स्विन्त्रताऽऽपादने, अनु०॥ तच्च विधा, दशविधत्वेऽपि तस्य त्रिस्थानकानुरोधादिति। आलोचप्रातर् अव्य० / प्रभातसमये, सू०प्र०२पाहु० १पाहु०। पाहु०। उत्ता नाह,प्रतिक्रमणार्ह ,तदुभयार्हम्। स्था० ३ठा० ४उ०) स्था०। प्रत्युषसि, सूत्र० १श्रु०७अ०। पानं पायः। पाने, ज्ञा० १श्रु०१० तिविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते / तं जहा-णाणपायच्छित्ते, प्रायस् अव्य०। बाहुल्ये, आ०चू० ५अ० बृ०॥ पं०व०। पञ्चा०। आव० दंसणपायच्छित्ते, चरित्तपायच्छित्ते। प्रायशब्दोप्यत्र / स्था। (नाणेत्यादि) ज्ञानाऽऽद्यतिचारशुद्ध्यर्थं यदालोचनाऽऽदि ज्ञानापात्र ना पात्रेऽपि / स्था० ऽऽदीनां वा योऽतिचारस्तज्ज्ञानप्रायश्चित्ताऽऽदि तत्राऽकालाविनयाध्ययपाद पुं०। किरणे, "अंसू रस्सी पाया, करा मऊहा गहत्थिणो नाऽऽदयोऽष्टावतिचारा ज्ञानस्य शङ्किताऽऽदयोऽष्टौ दर्शनस्य, मूलगुणोकिरणा।" पाइ० ना०४७ गाथा। चरणे, "चलणा कमा य पाया।" त्तरगुणविराधनारूपाः विचित्राःचारित्रस्येति / स्था० ३ठा० ४उ०। पाइ० ना० 106 गाथा सानौ, "पाया कडया साणू।'' पाइ०ना० 135 (चतुर्विधप्रायश्चित्तविचारः पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 126 पृष्ठ गतः) गाथा। छविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते / तं जहा-आलोयणारिहे, पायए अव्य०(पातुम्) गलादधो द्रवं कर्तुमित्यर्थे , भ०६श०३३उ०। पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विवेगाहरिहे, विउस्सग्गारिहे, पायकंचणिया स्त्री०(पादकञ्चनिका) पादकचणिया' शब्दार्थे ,जी०३ / तवारिहे। प्रति०४अधि। आलोचनाऽहं यद् गुरुनिवेदनया शुद्ध्यति, प्रतिक्रमणार्ह यन्मिथ्यापायकंबल न०(पादकम्बल) पादकंबल' शब्दार्थे , उत्त० 170 / / दुष्कृतेन, तदुभयाह यदालोचनामिथ्यादुष्कृताभ्यां विये कार्ह पायकेसरिया स्त्री०(पात्रकेशरिका) 'पादकेसरिया' शब्दार्थ , ओघा यत्परिष्ठापित आधाकर्माऽऽदी शुद्ध्यति, व्युत्सर्गार्ह यत्कायचेष्टापायखज्ज त्रि०(पाकखाद्य) पाकेन खादितुं योग्यीकृते, 'फलाई पाई निरोधतः, तपोऽहं यन्निर्विकृतिकाऽऽदिना तपसेति। स्था०६ ग०। पायखजाई तिनो वए।" दश०७ अ० अट्टविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते / तं जहा-आलोयणारिहे, प Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायच्छित्त 856 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पायलेहणिया डिक्कमणारिहे, तदुभयारिह, विवेगारिहे, विउस्सगारिहे, पायट्ठवण न०(पात्रस्थापन) पादट्ठवण' शब्दार्थे, बृ० ३उ०। तवारिहे, छेयारिहे, मूलारिहे। स्था० ८ठा०। पायड त्रि०(प्रकट) आकाशीभूते, विशे० साक्षात्परिस्फुरति, चं०प्र० नवविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते / तं जहा-आलोयणाजाव १पाहु०१पाहु० पाहु०। मूलारिहे अणवठ्ठप्पारिहे। स्था० ठा० पायण न०(पायन) लोहकारेण तापितकुट्टिततीक्ष्णधारीकृतपुनदसविहे पायच्छित्ते पण्णत्ते / तं जहा-आलोयणारिहे स्तापितानां जले निवोलने, ज्ञा० १श्रु०७अ० भण्डे, नं०। अङ्गणे, दे० पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, विदेगारिहे, विउस्सग्गारिहे, ना०६वर्ग 40 गाथा। तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिहे, अणवट्ठप्पारिहे, पारंचियारिहे। पायणिजोग पु०(पात्रनिर्योग) पादणिजोग' शब्दार्थ,बृ० ३उ० इह च प्रायच्छित्तशब्दः अपराधे, तच्छुद्धौ च दृश्यते, तदिहापराधेदृश्यः / पायदद्दरय न०(पाददर्दरक) 'पाददद्दरय' शब्दार्थ, जी०३ प्रतिक अत्र (आलोयणारिहे त्ति) आलोचना निवेदना, तल्लक्षणां शुद्धि ४अधि० यदर्हत्यतिचारजातं तदालोचनार्हमेवमन्यान्यपि केवलं प्रतिक्रमण पायत्ताणीय न०(पादात्यनीक) पादत्ताणीय' शब्दार्थे, उत्त०१८अ० मिथ्यादुष्कृतं, तदुभयमालोचनामिथ्यादुष्कृते विवेकोऽशुद्धभक्ताऽऽ- पायत्ताणाहिवइ पुं०(पादत्राणाधिपति) 'पादत्राणाधिपति' शब्दार्थ, दित्यागः, व्युत्सर्गः कायोत्सर्गः, तपो निर्विकृतिकाऽऽदिछेदः प्रव्रज्या- कल्प० १अधि०२क्षण। पर्यायहस्वीकरणं मूलं महाव्रताऽऽरोपणम् अनवस्थाप्यम् कृततपसो पायपडिमा स्त्री०(पात्रप्रतिमा) पात्रप्रतिमा उद्दिष्टदारुपात्राऽऽदि याचिष्ये, व्रतोरोपणं पाराञ्चिकम् लिङ्गाऽऽदिभेदमिति। प्रायश्चित्तं च तपः उक्तम्। तथा प्रेक्षित, तथा दातुः स्वाङ्गिकंपरिभक्तप्रायं द्वित्रिषु वा पात्रेषु पर्यायेण भ० २५श०७30स्था०आवला आ००। दुःस्वप्नाऽऽदिविघातार्थ परिभुज्यमान पात्रं याचिष्य इति उज्झितधर्मिकमिति चतुर्थी / स्था० करणीये कर्मविशेषे, भ०। ४ठा० 330 पादच्छुप्सन० पादेन वा छुप्तश्चक्षुर्दोषपरिहारार्थ पादच्छुमः / भ० २१०५उ०। पायपमजण न०(पादप्रमार्जन) पादपमजण' शब्दार्थ, नि०चू० १५उ०। पादे पादेन वा छुपे, दशा० १०अ०॥ कयकोउयमंगलपायच्छिता।" विपा० पायपप्फोडण न०(पादप्रस्फोटन) पादपप्फोडण' शब्दार्थे, व्य०६उ०। १श्रु०२अ॥ पायपरियावण्ण त्रि०(पादपर्यापन्न) पादपरियावण्ण' शब्दार्थे, आचा० पायच्छित्तकरण न०(प्रायश्चित्तकरण) प्रायो बाहुल्येन चित्त जीव मनो २श्रु० १चू० १अ० ११उ० वा शोधयति पापं विनक्ष्यति वा पश्चात् प्रायश्चित्तम् / तत्करणम्, पायपलंब न०(पादप्रलम्ब) पादपलंब' शब्दार्थे, ज्ञा० १श्रु० 10 // प्रायश्चित्तकरणम् / प्रायश्चित्ताऽऽचरणे, ध० २अधि०। पायपास पुं०(पादपाश) 'पादपास' शब्दार्थे, सूत्र० १श्रु०१अ० 220 प्रायश्चित्तकरणफलम् पायपुंछण न०(पादप्रोञ्छन) पादपुछण' शब्दार्थे, औ०। पायच्छित्तकरणेणं मंते ! जीवे किं जणयइ? पायच्छि- पायप्पहड (देशी) कुकुटे, दे०ना०६वर्ग 45 गाथा। त्तकरणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ, निरइयारे आवि भविस्सइ, पायबंधण न०(पादबन्धन) पादबंधण' शब्दार्थे, प्रश्न०५संव० द्वार। सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवजमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ / पायबद्ध न०(पात्रबद्ध) पादबद्ध' शब्दार्थे, जं० १वक्ष०ा आयारं च आयारफलं च आराहेइ!१६ / पायय न०(पात्रक) अल्पे पात्रे, स भिक्षुः स्वकीयं परकीयं वा पात्रक हे भदन्त ! प्रायश्चित्तकरणेन पापशुद्धिकरणेन आलोचनाऽऽदिकेन समाधिस्थानं गृहीत्वा। आचा० २श्रु० २चू०३ अ० जीवःकि जनयाते?, गुरुर्वदति-हे शिष्य ! प्रायश्चित्तकरणेन पापकर्म- | *प्राकृत न० प्रकृती भवं प्राकृतम् / बृ० 130 १प्रकला संस्कृतविशोधिं जनयति, ततश्च निरतीचारोऽतिचाररहितो भवति, सम्यक् विकृतिरूपे भाषाभेदे, बृ०१३० १प्रक०। "बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानः सन्मार्ग सम्यक्त्वं च पुनर्गिफलं मार्गस्य चारित्रकाक्षिणाम्। अनुग्रहाय तत्वज्ञैः, सिद्धान्तःप्राकृतः स्मृतः॥१॥" सम्यक्त्वस्य फलं ज्ञानं तत् विशोधयति च पुनराचारं आराधयति, दश०३अग आचारशब्देन चारित्रमाराधयतिपुनराचारस्य फल मोक्षमाराधयति *पापक पुं० नीचे, "अहमा इयरा य पायया नीया।" पाइ० ना० साधयति / उत्त०२६अ०। आव०॥ 103 गाथा। पायजालग न०(पादजालक) पादजालक' शब्दार्थ, प्रश्न० 5 संव० पायल (देशी) चक्षुषि, देवना०६वर्ग ३गाथा। द्वार। पायलग्ग त्रि०(पादलग्न) पादलग्ग शब्दार्थे , पञ्चा०१८विव०) पायजालघंटिया स्त्री०(पादजालघण्टिका) पादजालघंटिया' शब्दार्थे, | पायलित्त पुं०(पादलिप्त) 'पायलित' शब्दार्थे, आक०। औ०। पाथलेहणिया स्त्री०(पादलेखनिका) 'पादलेहणिया' शब्दार्थे, वृ० 330 // Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायव 857 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय पायव पुं० पादप) वृक्ष, उत्त० ५अ०। "साही विडवी वच्छो, महीरुहो पारंक (देशी) सुरामानभाण्डे, देखना० ६वर्ग 41 गाथा। पाययो दुमो य तरू।'पाइन्ना०५४ गाथा। पारंगम पुं०(पारंगम) पारं गच्छतीति पारं गमः / परकूलगन्तरि, गमनं पायवगण पुं०(पादपगण) पादवगण' शब्दार्थे, दश०१० गगः, पारस्य पारे वा गमः पारगमः / परतटगमने, आचा०१श्रु०२अ० पायविहारचार पुं०(पादिविहारचार) पादविहारधार' शब्दार्थे, आचा०। 330 / ('अतीरंगमा एए ण य तीरंगमित्तए अपारंगमा एए ण य पारंगपायस न०(पायस) पायसो-खीरी' पाइना० 240 गाथा / परमान्ने, मित्तए।'' 'अपारंगम' शब्द प्रथमभागे 606 पृष्ठे व्याख्यातम्) अथ आ०म० अ० जी० आ०क०। तीरपारयोः को विशेष इति? उच्यते-तीर मोहनीय क्षयः, पारं पायसंजय पुं०(पादसंयत) कारणं विना कूर्मवल्लीने, दश०६अ० ३उ०। शेषघातिक्षयः / अथवा तीरं घातिचतुष्टयाऽपगमः, पारं भवोपग्राहिपायसंवाहण न०(पादसंवाहन) पादसंवाहण' शब्दार्थ, नि०यू० ३उ०॥ कर्माभाव इत्यर्थः / आचा०१श्रु०२अ०३उ०॥ पायसम न० (पादसम) 'पादसम' शब्दार्थे, स्था० ५टा० 170 / पारंगय त्रि०(पारङ्गत) पारं पर्यन्तं संसारस्य प्रयोजनवातस्य वा गतः पायसीसग न०(पादशीर्षक) पादसीसग' शब्दार्थे, जी० ३प्रति० 4 पारं गतः। सिद्धे, आव० 40 अधिन पारंचिय न०(पाराश्चिक) पारं तीरं तपसाऽपराधस्याञ्चति गच्छति ततो पायार पुं०(प्राकार) दुर्गे, (किल्लो गुजराती) 'सारो पायारो'' पाइ० ना० दीक्ष्यते यः स पाराञ्चिः, स एव पाराश्चिकः, तस्य यत्तत्पाराशिकम्। 237 गाथा। स्था० ३ठा०४ उ०। पारमन्तं प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चिपायाल पु०(पाताल) पत-आलम्। धरायास्तलस्थे भुवने, ज्योतिषोक्ते ताभावादपराधाना पारमञ्चति गच्छतीत्येवं शील पाराश्चिकम् / ध० लग्नाचतुर्थे स्थाने च / वाचला वलयामुखपातालकलशेषु,प्रश्न० ३अधि०। व्य० जी० दशमप्रायश्चित्ते, तच्छोध्यातिचारकर्तृपुरुषे, ३आश्र0 द्वार। अनु०। औ० भला "पायालं च रसायलं।" पाइ० ना० स्था० १०ठा० / पचान तपोविशेषेणैवाऽभिचारपारगमने, औ० ग01 171 गाथा। पाराञ्चित नायस्मिन् प्रतिसेविते लिङ्ग क्षेत्रकालतंपसा पारम-चितमर्हपायालकलस पुं०(पातालकलश) समुद्रमध्यवर्तिषु (प्रव०१ द्वार) तीति पाराञ्चितम् / व्य० १उ०। स्था०। कलयामुखप्रभृतिषु, प्रश्न० १आश्र० द्वार। तओ पारंचिया पन्नत्ता / तं जहा-दुढे पारंचिए,पमत्ते पारंचिए, पायालगंगा स्त्री०(पातालगङ्गा) स्वनामख्यातायां नेमिनाथप्रतिमायाम, अन्नमन्नं करेमाणे पारंचिए // 2 // शौर्यपुरे शव जिनाऽऽलये पालिनगरे मथुराया द्वारकायां सिंहपुरस्त- त्रयः पाराशिकाः प्रश्रप्ताः। तद्यथा-दुष्टः पाराश्चिकः, प्रमत्तः पाराधिकः, म्भतीर्थ पातालगङ्गाभिधः श्रीनेमिनाथः / ती०४३ कल्प। अन्योऽन्यं परस्पर मुखपायुप्रयोगतः प्रतिसेवनां कुर्वाणः पाराश्चिक इति पायावच पु०(प्राजापत्य) प्राकृतलोके, बृ० १३०३प्रक०। चं० प्र०। ज्यो०। सूत्रसमासार्थः। एकोनविंशतितमे चतुर्दश वाऽहोरात्रमुहूर्ते ,स०३०सम०। .. अथ विस्तरार्थ भाष्यकृद्विभणिपुराहपायाहिण न०(प्रादक्षिण्य) नमस्कारपाटेन निवेदने, पं०व०३द्वार। अंचु गति पूयणम्मि य, पारं पुणऽणुत्तरं बुधा बिंति / पार धा०(शक्) मर्षणे, "शकेः चय-तर-तीर-पाराः" ||8|4|16|| | सोधीएँ पारमंचइ, णयावि तदपूजियं होति / / 63|| इति शके: पाराऽऽदेशः / 'पारइ / ' शक्नोति / धारयतेरपि-'पारे।।' 'अञ्चु' गतिपूजनयोरिति वचनात् अञ्चुधातुर्गती पूजने वा गृह्यते। तत्र प्रा०४पाद। गत्यर्थो यथा-पारं तीरं गच्छति येन प्रायश्चित्तेनाऽऽसेवितेन तत्पारा*पार पुं०ाना तटे,परकूले, आचा० १श्रु०२अ०३ उ०। सूत्रका स्था०। शिकम् / अथ पारं कमुच्यते? इत्याह-पारं पुनः संसारसमुद्रस्य तीरभूतविशेला तीरे, पर्यन्तगमने, सूर०२ श्रु० १अ०। 'परतीरं पारं।'' पाइ० मनुत्तरं निर्वाण बुद्धास्तीर्थकृदादयो ब्रुवते / अनेन मिलितेन साधुर्मोक्ष ना० 226 गाथा / वृ०। स्था०। नरकाऽऽदिके परलोके, सूत्र० १श्रु० गच्छतीति भावः / तद्यस्याऽऽपद्यतेऽसावप्युपचारात्पाराश्चिकमुच्यते। ६अ। मोक्षे, संसारार्णवतटवृत्तित्वादेतत्कारणेषु ज्ञानदर्शनचारित्रेषु, यथा शोधेः पारं पर्यन्तमञ्चति यत्तत्पाराञ्चिकमपश्चिम प्रायश्चित्तआचा० १श्रु०२अ०२उ० मित्यर्थः / / पूजार्थो यथा-नचाऽपि नैव तत्प्रायश्चित्तपारगमनमपूजितं, *प्राकार पु०।"व्याकरण-प्राकारागते कगोः" ||8 / 1 / 268 / / / किंतु पूजितमेव। ततो येन तपसा पार प्राषितेनाच्यते श्रीश्रमणसङ्घन इति कलुक् वा / 'पारो। पाआरो।' नगरभित्तौ, प्रा० १पाद / पूज्यते तत्पाराशिकं पाराचितं वाऽभिधीयते, तद्योगात्साधुरपि पारअ पु०(प्रावारक यावत्तावन्जीविताऽऽवर्तमानावट-प्रावार-क- | पाराञ्चिकः / देवकुलैवमेवे वः" ||81 / 271 / / इति सस्वरव्यञ्जनस्य वा लुक् / अथ तमेव भेदतः प्ररूपयतिपारओ। पावारओ। उत्तमौर्णवरसे, प्रा० १पाद। आसायणपडिसेवी, दुविहो पारंचितो समासेणं। Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 858 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय एकेक्कम्मि य भयणा, सचरित्ते चेव अचरित्ते / / 4 / / पाराशिक:समासेन द्विविधः। तद्यथा-आशातनापाराशिकः, | प्रतिसेविपाराश्चिकश्च / पुनरेकैकस्मिन् द्विविधा भजना कर्तव्या।। कथमित्याह-द्वावप्येतौ सचारित्रिणी अचारित्रिणौ वा। कथं पुनरेषा भजनेत्याहसव्वचरितं भस्सति, केणइ पडिसेवितेण तु पदेणं। कत्थ वि चिट्ठति देसो,परिणामऽवराहमासज्ज / / 65|| केनचिदपराधपदेन पाराश्चिकः प्रतिपत्तियोग्येन प्रतिसेवितेन सर्वमपि | चारित्रं भ्रस्यति, कुत्राऽपि पुनश्चारित्रस्य देशोऽवतिष्ठते / कुत इत्याहपरिणामं तीव्रमन्दाऽऽदिरूपमपराधं चोत्कृष्टमध्यमजघन्यरूपमासाद्य चारित्रं भवेता, नवा। इदमेव भावयतितुलम्मि वि अवराहे, परिणामवसेण होइ णाणत्तं / कत्थ वि परिणामम्मि वि, तुल्ले अवराहें णाणत्तं / / 66|| तुल्येऽप्यपरार्धे परिणामवशेन तीवमन्दाऽऽद्यध्यवसायवैचित्र्यबलाचारित्रपरिभ्रशाऽऽदौ नानात्वं भवति। कुत्रचित्पुनः परिणामे तुल्येsप्यपराधे नानात्वं प्रतिसेवनावैचित्र्यं भवति। अथाऽऽशासनापाराञ्चिकं व्याचिख्यासुराहतित्थकरपवयणसुए, आयरिए गणहरे महिड्डीए। एते आसार्यते, पच्छित्ते मग्गणा होइ ||7| तीर्थकरप्रवचनं श्रुतम्, आचार्यान्, गणधरान्, महर्धिकांश्च एतान्, | आशातयति तस्य प्रायश्चित्ते वक्ष्यमाणलक्षणा मार्गणा भवति। तत्र तीर्थङ्करं यथाऽऽशातयति तथाऽभिधीयतेपाहुडियं अणुमण्णति, जाणतो किं च भुंजती भोगे। थीतित्थं पि य वुचति, अतिकक्खडदेसणा यावि६८ प्राभृतिकां सुरविरचित समवसरणमहाप्रातिहार्याऽऽदिपूजालक्षणामर्हन् यदनुमन्यते, तन्नसुन्दरम्। ज्ञानत्रयप्रमाणेन च भवस्वरूपं जानन् विपाकदारुणान् भोगान् किमिति भुङ्क्ते? मल्लिनाथाऽऽदेश्च स्त्रियाया अपि यत्तीर्थमुच्यते। तदतीवासमीचीनम्। अतीव कर्कशा अतीव दुरनुचरा तीर्थकरः सर्वो पायकुशलैरपि या देशना कृता, साऽप्ययुक्ता। अण्णं च एवामदी, अवि पडिमासु वि तिलोगमहिताणं। पडिरूवमकुव्वंतो, पावति पारंचियं ठाणं / / 6EIN अन्यमप्येवमादिकं तीर्थकृतामवर्ण यो भाषते। तथा अपीत्यभ्युच्चये। त्रिलोकमहितानां भगवतां याः प्रतिमास्तास्वपि यद्येवमवर्ण भाषते न तासां पाषाणाऽऽदिमयीनां माल्यालङ्काराऽऽदिपूजा क्रियते, एवं बुवन् प्रतिरूपं वा विनयवन्दनस्तुतिस्तवाऽऽदिक तासामेवावज्ञाबुद्ध्या अकुर्वन् पाराशिकं स्थान प्राप्नोति। अथ प्रवचनं सङ्घस्तस्याऽऽशातनामाहअक्कोसतज्जणादिसु, संघमहिक्खिवति सव्वपडिणीओ। अण्णे वि अत्थि संघा, सियालमंतिक्कढंकाणं / / 100 / / यः सङ्ग प्रत्यनीकः स (अक्कोसणतज्जणाइसु त्ति) विभक्ते यंत्ययात् | आक्रोशतर्जनाऽऽदिभिः सङ्कमधिक्षिपति। यथा सन्त्यन्येऽपि शृगालानां तिकढङ्कप्रभृतीनां सङ्घाः, यादृशास्ते तादृशोऽयमपि इति भावः / एष आक्रोश उच्यते / तर्जना तु हुं हुं जातं भवदीयं स त्वमित्यादिका। अथ श्रुताऽऽशातनामाहकाया वता य ते चिय, ते चेव पमायमप्पमादाय / मोक्खाहिकारियाणं, जोतिसविज्जासु किं च पुणे / / 101 / / दशवैकालिकोत्तराऽध्ययनाऽऽदौ यत्त एव षटकायाः, तान्येव व्रतानि, तावेव प्रमादाप्रमादौ भूयो भूय उपवर्ण्यन्ते तदेतदयुक्तम्। मोक्षाधिकारिणां च साधूनां ज्योतिष्ज्ञविद्यासु पुनः किं नाम कार्य , येन श्रुते ताः प्रतिपाद्यन्ते। अथाऽऽचार्याऽऽशातनामाहइडिरससातगुरुगा, परोवदेसुज्जाया जहा मंखा। अत्तट्ठपोसणरया, पोसंति दिया व अप्पाणं / / 102 / / आचार्याः स्वभावादेव ऋद्धिरससातगुरुकास्तथा मङ्खा इव परोपदेशोधताः,लोकाऽऽवर्जनप्रसक्ता इति भावः / (मङ्खस्वरूप मख' शब्दे) आत्मार्थ पोषणरताः स्वोदरभरणैकचेतसः। इदमेव व्याचष्टेद्विजा इवाऽऽत्मानममी पोषयन्ति। गणधराऽऽशातनामाहअब्भुजय विहारं, देसंति परेसि सयमुदासीणा। उवजीवंति य रिद्धि, निस्संगा मो त्तिय भणंति / / 103 / / गणधरा गौतमाऽऽदयोऽभ्युद्यतं विहारं जिनकल्पप्रभृतिकं परेषामुपदिशन्ति, स्वयं पुनरुदासीनास्तं न प्रतिपद्यन्ते / ऋद्धिं चाक्षीणमहानसिकाचारणाऽऽदिकलब्धिमुपजीवन्ति, निःसंगा वयमिति च भणन्ति / अथ महर्द्धिकपदं व्याख्यानयन्तिगणधर एव महिड्डी, महातवस्सीव वादिमादी वा। तित्थगरपढमसिस्सा, आदिग्गहणेण गहिया वा।।१०४।। इह गणधर एव सर्वलब्धिसंपन्नतया महर्द्धिक उच्यते / यद्वामहर्द्धिको महातपस्वी वा वादिविद्यासिद्धप्रभृतिको वा भण्यते / तस्य यदवर्णवादाऽऽदिकरण सा महर्द्धिकाऽऽशातना / गणधरास्तु तीर्थकरप्रथमशिष्या उच्यन्ते, आदिग्रहणेन वा ते गृहीता मन्तव्याः। अर्थतेषामाशातनायां प्रायश्चित्तमार्गणामाहपढमबितिएसु चरिमं, सेसे एकेक चउगुरू होति। सव्वे आसादिंते, पावति पारंचियं ठाणं / / 10 / / अथ प्रथमस्तीर्थकरो द्वितीयः सङ्घस्तयोर्देशतः सर्वतो वा आशातनाया पाराशिकं शेषेषु श्रुताऽऽदिषु एकैकस्मिन् देशतआशात्यमाने चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तं भवति; अथ सर्वतस्तान्याशातयति,ततस्तेष्वपि पाराश्चिक स्थान प्राप्नोति। तित्थयरपढमसिस्सं, एकं पासाऽऽदयं तु पारंची। अत्थस्सेव जिणिंदो, पभवो सो जेण सुत्तस्स / / 106 / / तीर्थकरप्रथमशिष्यं गणधरमेकमप्याशातयन् पाराञ्चिको भवति / कुत इत्याह-जिनेन्द्रस्तीर्थकरः, सकेवलस्यैवाऽर्थस्य प्रभवः प्रथमतउत्पत्तिहेतुः / सूत्रस्य पुनः स एव गणधरो येन कारणेन प्रभवः प्रथमतः प्रणेता.ततस्तमे Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 856 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय कमप्याशातयतः पाराशिकमुच्यते / उक्त आशातनापाराञ्चिकः। प्रतिसेवनापाराश्चिकमाहपडिसेवणपारंची, तिविधो सो होइ आणुपुवीए। दुढे य पमत्ते य, णेयव्वे अण्णमण्णे य / / 107 / / प्रतिसेवनापाराशिकः, स इति पूर्वोपन्यस्तस्विविधविप्रकारः, आनुपूर्व्या सूत्रोक्तपरिपाट्या भवति। तद्यथा-दुष्टः पाराशिकः, प्रमत्तः पाराञ्चिकोऽन्योन्यं च कुर्वाणः पाराञ्चिको ज्ञातव्यः / तत्र दुष्टं तावदाहदुविधो य होइ दुट्ठो, कसायदुट्ठो विसयदुट्ठो य / दुविहो कसायदुट्ठो, सपक्ख परपक्ख चतुभंगो।।१०८|| द्विविधश्च दुष्टो भवति-कषायदुष्टश्च, विषयदुष्टश्च / तत्र कषायदुष्टो द्विविधः-स्वपक्षदुष्टः, परपक्षदुष्टश्च / अत्र चतुर्भगी। गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् / तद्यथा-स्वपक्षः स्वपक्षे दुष्टः 1, स्वपक्षः परपक्षे दुष्टः 2, परपक्षः स्वपक्षे दुष्टः 3, परपक्षः परपक्षे दुष्टः / / तत्र प्रथमभङ्ग विभावयिषुराहसासवणाले मुहणंतए य उलुगच्छि सिहरणी चेव / एसो सपक्खदुट्ठो, परपक्खे होतिऽणेगविधो।।१०६।। (सासवनालं ति) सर्षपभर्जिका (मुहणतक) मुखवस्त्रिका, उलूको धूकस्तस्येवाक्षिणी यस्य स उलूकाक्षः शिखरिणी मार्जिता। एते चत्वारो दृष्टान्ताः। एष स्वपक्षकषायदुष्टो मन्तव्यः / परपक्षकषायदुष्टः पुनरनेकविधो भवतीति नियुक्तिगाथासमासाऽर्थः। अथैनामेव विवरीषुः सर्षपनालदृष्टान्तं तावदाहसासवणाले छंदण, गुरु सव्वं भुंजएतरे कोवो। खामणमणुवसमंते, गणिं ठवेत्तण्णहिँ परिण्णा ||110 / / पुच्छंतमणक्खाए, सोचऽण्णतो गंतु कत्थमे गहसरीरं। गुरु पुवकहि तहाइ न, पडियरणं दंतभंजणता // 111 / / इह प्रथम कथानकम्- 'एगेण साहुणा सासवभज्जिया सुसंतिया लद्धा, तत्थ से अतीव गेही, आयरियस्सय आलोइयं, पडिदसिए निमंतिए अ आयरिए सव्वा वि समुदिहा। इतरोपदोसमावण्णो आयरिएण लक्खियं, मिच्छा मिदुक्कडकय। तहा विन उवसमइ। भणइय-तुज्झंदंते भंजामि / गुरुणा चिंतियंमा असमाहिमरणेण मारिस्सइत्ति। गणे अन्नं गणहरं ठवेत्ता अन्नं गणं गतूण भत्तपच्चक्खाणं कयं, समाहीए कालगया। इयरो गवेसमाणो सज्झतिए पुच्छइ कहिं आयरिया? तेहिं न अक्खायं,सो अन्नतो सोचा तत्थ गंतुं पुच्छई-कहिं आयरिया? ते भणंति-समाहीए कालग-या। पुणो पुच्छइ-कहिं सरीरग परिट्टवियं, आयरिएहि पुवं भणियं मा तरस पवेस्ससमसरीरपरिट्ठावणियाभूमि कहेजाहो मा आगड्डिविगढेि करेमाणो उड्ढाहं काहिइ। तेहिं अकहिए अन्नतो सोतु तत्थ गंतुं उवट्टियाओ गोलावलं कड्डिऊण दंते भंजतो भणइ-एतेहिं तुमे सासवनालं खइयं / तं साहूहिं पडियरतेहिं दिट्ठ।" अथाक्षरगमनि-कासर्षपनालविषयं छन्दनं निमन्त्रणं गुरोः कृतं, गुरुणा च सर्व भुक्तम, इतरस्य कोपो गुरुणा क्षामणे कृतेऽपि नोपशान्तः, ततो-ऽनुपशान्ते तस्मिन् गणिनमाचार्य स्थापयित्वा अन्यस्मिन् गच्छे परिज्ञां भक्तप्रत्याख्यानमगीकृतं ततः शिष्याधमस्य गुरवः कुत्र गता इति पृच्छतोऽपि सज्झिलकसाधुभिर्नाऽऽख्यातं. तताऽन्यतः श्रुत्वा तत्र गत्वा कुत्र तेषां शरीरमिति पृच्छा कृता / गुरुभिश्च सर्व एव तदीयो वृत्तान्तः कथित आसीत् / ततस्तैराचार्यशरीरपरिष्ठापनभूमिर्न दर्शिता। सचान्यतः श्रुत्वा गतो दन्तमञ्जनं कृतवान् साधुभिश्च गुपिलस्थाने स्थितैः प्रतिचरणं कृतमिति। अथ मुखानन्तकदृष्टान्तमाहमुहणंतगस्स गहणे, एमेव य गंतु णिसि गलग्गहणं / संमूढेणियरेण वि, सो गलगहितो मता दो वि // 112 / / एकेन साधुना मुखानन्तकमतीवोज्ज्वलं लब्धम्, तस्य च गुरुभिहणं कृतं, तत्राऽप्येवमेव पूवोऽऽख्यानकसदृशं वक्तव्य, नवरं तत्तु तत्पुनमुखानन्तकं प्रत्यपर्यताऽपि न गृहीतं, ततो गुरुणा स्वगण एव भक्तं प्रत्याख्यात, निशायां च विरहं लब्ध्वा मुखानन्तक गृह्णातीति भणता गाढतरं गलग्रहणं कृतं, संमूढेन च इतरेणाऽपि गुरुणा स गलके गृहीतः, एवं द्वावपि मृतौ। उलूकाक्षदृष्टान्तमाहअत्थं गए वि सिव्वसि, उलुगच्छी उक्खणामि ते अच्छी। पढमगमो नवरि इह, उलगच्छीड त्ति ढोकेति / / 113 / एकः साधुरस्तं गतेऽपि सूर्ये सीब्यन अपरेण साधुना परिहासेन भणित:उलुकाक्ष ! किमेवमस्तं गंतेऽपि सूर्ये सीब्यसि? स प्राह-एवं भणतस्तव द्वे अप्यक्षिणी उत्खनामि / अत्राऽपि सर्वोऽपि प्रथमाऽऽख्यानकगमो मन्तव्यः / नवरमिह स्वगणे प्रत्याख्यात-भक्तस्य कालगतस्य रजोहरणाद् अयोमयं कीलिकामाकृष्य मामुलुकाक्षं भणसीति बुवाणो द्वे अप्यक्षिणी उद्धृत्य तस्य ढोकयति, वैर मया निर्यापितमिति कृच्छः। शिखरिणीदृष्टान्तमाहसिहरिणिलंभाऽऽलोयण, छंदिऍ सव्वा वि तेण उग्गरणं। भत्तपरिण्णा अण्णहि, ण गच्छती सो इह णवरि।।११४॥ एकेन साधुना उत्कृष्टा शिखरिणी लब्धा सा च गुरूणामालोचिता, तया च गुरवश्छन्दिता निमन्त्रिताः। सा च तैः सर्वा पीता, ससाधुः प्रद्वेषमुपगतो मारणार्थ दण्डकमुद्गीर्णवान्, स गुरुभिः क्षामितोऽपि यदा नोपशाम्यति तदा भक्तपरिज्ञा कृता, नवरमिह स आचार्योऽन्यस्मिन् गणे न गतः, तस्य च समाधिना कालगतस्य शरीर / तेन पापात्मना दन्तकेन कट्टितम् / यत एते दोषाः ततोऽनन्तस्येव न कर्तव्यः / तथा चाऽऽहतिव्वकसायपरिणतो, तिव्वयरागाणि पावइ भयाइं। मयगस्स दंतमंजण, सममरणं ढोकणुग्गिरणा / / 115 / / तीव्रा उत्कटा ये कषायास्तेषु परिणतो जीवस्तीब्र तरकाणि भयानि प्राप्नोति / यथा प्रथमदृष्टान्तोक्तस्याऽऽचार्य स्य तीव लाभपरीतस्य दन्तभञ्जनभयम् / द्वितीयदृष्टान्तयो Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 560 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय स्तु शिष्याऽऽचार्यायोस्तीव्रक्रोधपरिणतयो:समकालं मरणम् / तृतीयदृष्टान्तप्रसिद्धस्य साधोलोचनढोकनम् / चतुर्थदृष्टान्तोकस्य दन्तकोगिरणम। ईदृशाः स्वपक्षकपायदुष्टा लिङ्गपाराशिकाः कर्तव्याः। गतः प्रथमो भङ्गः। अथ द्वितीयमाहरायवहाऽऽदिपरिणतो, अहवा वि हवेज रायवहओ तु। सो लिंगतों पारंची, जो वि य परिककृती तं तु // 116|| राज्ञो राजामात्यस्य वा परस्य वा प्राकृतगृहस्थस्य वधाय परिणतः। | अथवा-राजदधक एव स भवेत्, विहितराजवध इत्यर्थः। एवमनेकविधपरपक्षदुष्टः, एष सर्वोऽपि लिङ्गपाराश्चिकः कर्तव्यः। योऽपि वाऽऽचार्याऽऽदिकस्तं राजवधकं परिकर्षति वोत्तापयति सोऽपि लिङ्गपाराचिको विधेयः / अथ तृतीयभङ्ग उच्यते-परपक्षः स्वपक्षे दुष्टः स कथं भवति? उच्यते-पूर्वं गृहवासे वसन् वादे पराजित आसीत, स्कन्दकाऽऽवार्येण पालकवत्, वैरिको वा स तस्याऽसीत्। स पुनः कीदृशो भवेत्?, इत्याहसन्नी व असन्नी वा, जो दुट्ठो होति तू सपक्खम्मि / तस्स निसिद्धं लिंगं, अतिसेसी वा वि दिजाहि।।११७|| स च संज्ञी वा असंज्ञी वा यःस्वपक्षदुष्टो भवति तस्य लिङ्गं निषिद्ध, प्रव्रज्या न दातव्येति भावः। अतिशयज्ञानी वा उपशान्तोऽयमिति मत्वा तस्याऽपि लिङ्गं दद्यात्। अथ चतुर्थभङ्गे परपक्षः परपक्षे दुष्ट इति भाध्यतेरन्नो जुवरन्नो वा, बाघातो अहवा वि इस्सरादीणं / सो उ सदेसें ण कप्पति, कप्पति अण्णम्मि अण्णाओ११५ यो राज्ञो वा युवराजस्य वा वधकः स तु पुनः स्वदेशे दीक्षितुंन कल्पते, किं तु कल्पते अन्यस्मिन् देशे अज्ञातो दीक्षितुम्। इत्थ पुण अधीकारो, पढमिल्लुगवितियभंगदुट्टे हिं। तेसिं लिंगविवेगो,दुचरिमे वा लिंगदाणं तु / / 116 / / अत्र पुनः प्रथमद्वितीयभङ्ग : दुष्टे रधिकारः स्वपक्षपरपक्षदुष्टा इत्याद्यभङ्ग द्वयवर्तिभिरिति भावः / एतेषां लिङ्ग विवेकरूप पाराश्चिकं दातव्यम् / अतिशयज्ञानी वा यदि जानाति, न पुनरीदृशं करिष्यति, ततःसम्यगावृतस्य लिङ्ग विवेकं न करोति। (दुचरिमे त्ति) तृतीयचतुर्थलक्षणे यो चरमभङ्गो तथो विकल्पेन लिङ्गदानं कर्तव्यम् / किमुक्त भवति? - परपक्षः रवपक्षे दुष्टः परपक्षः परपक्षे दुष्ट इति भङ्गद्वये वर्तमाना यधुपशान्ता इति सम्यग् ज्ञायन्ते. ततो लिङ्गदानं कर्त्तव्यम् / अथ नोपशान्तास्तता न प्रवज्यन्ते, अपितु तानि स्थानानि परिहार्यन्ते / एष वाशब्दसूचितोऽर्थः। अथ सर्पपनालाऽऽदिदृष्टान्तप्रसिद्धोदालोमा भूदिति हेतोराचार्येण यथा सामाचारीस्थापना कर्तव्याः तथा प्रतिपादयन्नाहसव्वेहि वि घेत्तव्वं, गहणे य निमंतणे य जो तु विही। भुंजती जतणाए, अजतणदोसा इमे हुंति // 120|| सर्वरपि साधुभिराचार्यप्रायोग्य स्वरवमात्रकेषु ग्रहीतव्यम्, तथा ग्रहणे निमन्त्रणे वा यावद्वक्ष्यमाणो विधिः स सर्वोऽपि कर्त्तव्यः। एवं यतनया सूरयो भुञ्जते. अयतनया तु भुजानानामिमे वक्ष्य माणा दोषा भवन्ति / एनामेव नियुक्तिगाथां भावयतिसव्वेहि वि गहियम्मी, थोवं थोवं तु केइ इच्छंति / सव्वेसिं न वि मुंजति, गहित पि वितिय आदेसो / / 121 / / सर्वरप्याचार्यप्रायोग्ये गृहीते केचिदाचार्या इदमिच्छन्तियथा तत एकैकस्य हस्तात् स्तोकं स्तोक गृहीत्वा गुरुणा भोक्तव्यम / एष प्रथम आदेशः / अपरे बुवते-एकेनैव गुरुयोग्यं ग्रहीतव्यम् अथान्यैरपि गृहीते ततस्तद्गृहीतमपि तेषां सर्वेषां हस्तात् स्तोकं स्तोकं न भोक्तव्यं, किंतु तर्निमन्त्रितेन वक्तव्यम्-पर्याप्तम्, इत ऊर्द्ध न गच्छति। एष द्वितीय आदेशः। अममेव व्याचष्टगुरुभत्तिमं जो हिययाणुकूलो, सो गिण्हती णिस्समणिस्सतो वा। तस्सेव सो गिण्हति णेयरेसिं, अलब्भमाणम्मिय थोव थोवं / / 12 / / गुरुभक्तिमान् यश्च गुरूणां हृदयानुकूल छन्दोऽनुवर्ती स गुरुप्रायोग्य निश्रगृहेभ्यो अनिश्रागृहेभ्यो वा गृह्णाति तस्यैव च संबन्धि आचार्यो भक्तपानं गृह्णाति, नेतरेषामपरसाधूनाम् / अथैकः पर्याप्तं न लभते, ततो लभ्यमाने स्तोक स्तोक सर्वेषामपि गृह्णाति। एष ग्रहणविधिरुक्तः / संप्रति निमन्त्रणे विधिमाहसतिलं भम्मि वि गिण्हति, इयरेसिं जाणिऊण निब्वंधी मुंचति य सावसेसं, जाणति उवयारभणियं च // 123|| सति विद्यमानेऽपि प्राचुर्येण लाभे यदीतरे साधयो निमन्त्रयमाणा गाद निर्बन्धं कुर्वते, ततस्तं ज्ञात्वा तेषामपि गृह्णाति, तच तदीयं भुजानः सावशेषं मुञ्चति, मा सर्वस्मिन् भुक्ते प्रद्वेषं स गच्छेत्, उपचारभणितं च जानाति-अयमुपचारेणायं पुनः सद्भावेन निमन्त्रयते, इत्येवं बहिश्चिकरुपलक्षयतीत्यर्थः। गुरुणो भुत्तुव्वरियं, बालादसती य मंडलिं वावि। जं पुण सेसगगहितं, गिलाणमादीण तं दिति॥१२॥ गुरूणा यद् भुक्तोद्वरित तद् बालाऽऽदीनां दीयते, तेषामभावे मण्डलीयानि मण्डलीप्रतिगृहे क्षिप्यते,यत्पुनः शेषैर्गुरुभक्तिमद्व्यतिरिक्तैः साधुभिर्मात्रके गृहीतं तद् ग्लानाऽऽदीनां प्रयच्छन्ति। सेसाणं संसहूं, न छुब्मती मंडलिपडिग्गहिए। पत्तेगगहित छुडभति, ओभासणलंभ मोत्तूणं / / 125 / / शेषाणां गुराव्यतिरिक्तानां संसृष्ट मण्डलीप्रतिग्रहे न क्षिप्यते / यत्तु ग्लानाऽऽदीनामर्थाय प्रत्येक पृथक् पृथक् मात्रकेषु गृहीतं, तत्तेषामुद्वरित मण्डल्या प्रक्षिप्यते, परमवभाषितलाभ मुक्त्वा प्रक्षिप्यते इति भावः / पाहुणगट्ठा व तगं, धरेत्तु अतिवाहडा विगिचंति! इइ गहणभुंजणविही, अविवीऍ इमे भवे दोसा / / 126 / / प्राघुणकार्थ वा तकं लानार्थमानीतप्रायोग्यं धृत्वा स्थापयित्वा यदि 'अतिवाहड़ा' अतीव घ्राताः प्राघूर्णकाच नायातास्तदा विवेचयन्ति परित्यजन्ति एवमिह ग्रहणभोजनविधिर्भवति। Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 861 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय योनं विधि न कुर्वन्ति ततस्तस्मिन् विधौ इमे दोषा भवेयु:तिव्यकसायपरिणतो, तिव्वतराया. पावइ भयाई। मयगस्स दंतभंजण, सममरणं ढोकुणुग्गिरणा / / 127 / / व्याख्यातार्था। उक्तः कषायदुष्टः / अथ विषयदुष्टमाहसंजति कप्पट्ठीए, सिज्जायरि अण्णउत्थिणीए य / एसो उ विसयदुट्ठो, सपक्खपरपक्खचउभंगो।।१२।। इहापि स्वपक्षपरपक्षपदाभ्यां चतुर्भङ्गी। तद्यथा-स्वपक्षः स्वपक्षे दुष्टः, स्वपक्षः परपक्षे दुष्टः, परपक्षः स्वपक्षे दुष्टः,परपक्षः परपक्षे दुष्टः 4 / तत्र कल्पस्थिकायां तरुण्यां संयत्यां संयतोऽध्युपपन्न इति प्रथमो भगः / संयत एव शय्यातरभूणिकायामन्यतीर्थिक्यां वा अध्युपपन्न इति द्वितीयः / गृहस्थयती कल्पस्थिकायामध्युपपन्नाविति तृतीयः / गृहस्थो / गृहस्थायामिति चतुर्थः / एष च विषयदुष्टश्चतुर्विधो मन्तव्यः। पढमे भंगे चरिमं, अणुवरए वा वि बितियभंगम्मि / सेसेण इहं पगतं, वा चरिमे लिंगदाणं तु // 126 / / प्रथमे भङ्गे चरमं पाराशिकम्। अनुपरतस्याऽनिवृत्तस्य द्वितीयेऽपि भङ्गे पाराश्चिकम। शेषेण तृतीयचरमभङ्ग द्वयेन इह प्रकृतम्। अत्र पाराशिकस्य प्रस्तुतत्वात्तस्य च परपक्षे अघटमानत्वात्। अथवा (वा चरिमे लिंगदाणं तु त्ति) वा विकल्पेन भजनया चरमभङ्गद्वये लिङ्ग दानं कर्त्तव्यम्, यधुपशान्तस्तदा अन्यस्मिन् स्थाने लिङ्ग दातव्यम्, अन्यथा तु नेति भावः। अथ प्रथमभङ्गे दोषं दर्शयन्नाहलिंगेण लिंगिणीए, संपत्ति जइ णियच्छती पावो। सव्वजिणाणऽजाओ,संघो आसातिओ तेणं / / 130|| लिनेन रजोहरणाऽऽदिना युक्तो लिङ्गिन्याः सयत्याः संपत्तिं यदि अधमतया कथमपि कश्चित्पापो नियच्छति प्राप्नोति तर्हि तेन पापेन सर्वजिनानाम् आर्याः संयत्यः सङ्घ श्च भगवानाशातितो मन्तव्यः / पावाणं पावयरो, दिट्टिब्भासेऽवि सो ण वट्टति हु। जो जिणपुंगवमुई, नमिऊण तमेव धरिसेति // 131 / / पापानां सर्वेषामपि स पापतरः, अत एव दृष्टर्लोचनस्याभ्यासेऽपि समीपेऽपि कर्तुस न वर्त्तते न कल्पते, यो जिनपुङ्गगव मुद्रां श्रमणीं नत्वा तामेव धर्षयति। संसारमणवयग्गं, जातिजरामरणवेदणापउरं। पावमलपडलन्ना, भमंति मुद्दाधरिससेणं / / 132|| संसारमनवदग्रमपर्यन्तं जातिजरामरणवेदनाप्रचुरं पापमलपटल- | च्छन्ना मुद्राधर्षणन परिभ्रमन्ति। ततःजत्थुप्पजति दोसो, कीरति पारंचितो स तम्हातु। सो पुण सेवि मसेवी, गीतमगीतो व एमेव / / 133 / / यत्र क्षेत्रे यस्य संयतीधर्षणाऽऽदिको दोष उत्पद्यते, उत्पत्स्यते वा स ] तस्मात् क्षत्रारपाराशिकः क्रियते, स पुनः सेवी वा स्यादसेवी वा, तेन तत्कार्य कृतं वा भवेदकृतं वेति भावः / एवमेव गीतार्थोऽगीतार्थो धा स सर्वोऽपि पाराञ्चिकः कर्त्तव्यः। कथमित्याहउवसयकुले निवेसणपाउगसाहि गाम देस रजे वा। कुलगणसंघे निज्जूहणाए पारंचितो होति // 134|| यस्य यस्मिन्नुपाश्रये दोष उत्पन्न उत्पत्स्यते वा स तत उपाश्रयात्पाराश्चिकः क्रियते / एवं यरिमन् गृहस्थकुले दोष उत्पन्नः, तथा निवेशनमेकनिर्गमप्रवेशद्वारो द्वयोमियोरपान्तराले व्यादिगृहाणां संनिवेशः, एवंविधस्वरूप एव ग्रामान्तर्गतः पावकः, साही शाखारूपेण श्रेणिक्रमेण स्थिता ग्रामगृहाणामतः परिपाटिः, ग्रामः प्रतीतो, देशो जनपदो, राज्यं नाम यावत्सु देशेषु एको भूपतिः राजा तावद्देशप्रमाणम्। एतेषु यत्र यस्य दोष उत्पन्नः, उत्पत्स्यतेवा, सततः पाराश्चिकः क्रियते। तथा कुलेन यो नियूंढो बाह्यः कृतः स कुलपाराञ्चिकः। गणाद् बाह्यः कृतो गणपाराश्चिकः, सङ्घाद्यस्य निर्वृहणा कृता स ससपाराशिकः। किमर्थमुपाश्रयाऽऽदिपाराश्चिकः क्रियते इत्याहउवसंतो वि समाणो, वारिजति तेसु तेसु ठाणेसु। हंदि हु पुणो वि दोसं, तट्ठाणाऽऽसेवणा कुणति / / 135 / / उपशान्तोऽपि स्वलिङ्गनीप्रतिसेवनात्प्रतिनिवृत्तोऽपि सन् तेषु तेषु स्थानेषु प्रतिश्रयकुलनिवेशनाऽऽदिषु विहरन् वार्यते। कुत इत्याह- 'हंदि' निष्कारणोपप्रदर्शने, हुरिति निश्चये, पुनरप्यसो तस्य स्थानस्याऽऽसेवनात्तमेव दोषं करोति। इदमेव स्पष्टरमाहजेसु विहरंति ताओ, वारिजति तेसु तेसु ठाणेसु / पढमे भंगे एवं, सेसेसु अताई ठाणाइं॥१३६।। येषु ग्रामाऽऽदिषु ताः संयत्यो विहरन्ति तेषु तेषु स्थानेषु स विहरन् वार्यते, ततः पाराश्चिकः क्रियत इत्यर्थः / एवं प्रथमभङ्गे स्वपक्षः स्वपक्षे दुष्ट इति लक्षणे विधिरुक्तः / शेषेष्वपि द्वितीयाऽऽदिषु भङ्गेषु तानि स्थानानि विसर्जनीयानि / किमुक्तं भवति? द्वितीयभङ्गे यस्यां नगर्यामध्युपपन्नस्तदीये कुलनिवेशनाऽऽदौ प्रविशन् वारणीयस्तृतीयचतुर्थभङ्गयोः परपक्षः स्वपक्षे, परपक्षः परपक्षे वा दुष्ट इति लक्षणयोरुपशान्तस्यापि तेषु स्थानेषु लिङ्गं न दातव्यम्। एत्थं पुण अहिगारो, पढमगभंगेण दुविहदुढे वि। उच्चारियसरिसाइं, सेसाइँ विकोवणवाए।।१३७।। अत्र पुनर्द्विविधेऽपि कषायतो विषयतश्च दुष्ट प्रथमभने नाधिकारः, शेषाणि पुनर्द्वितीयभङ्गाऽऽदीनि पदानि उच्चारितसदृशानि विनेयमतिविकोपनार्थमभिहितानि / गतो विषयदुष्टः पाराश्चिकः / संप्रति प्रमत्तपाराञ्चिकं प्राहकसाए विकह विगडे, इंदिय निद्दा पमाद पंचविधो। अहिगारो सुत्तम्मी, तहिं नव इमे उदाहरणा।।१३८|| कषायाः क्रोधाऽऽदयः, विकथाः स्वीकथाऽऽदिका, विकट मद्यम्, इन्द्रियाणि श्रोत्राऽऽदीनि,निद्रा वक्ष्यमाणा, एष पाविधः प्रमादो भवति / अयं च निशीथपीठिकायां यथा सविस्तर Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 862 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय सप्रायश्चित्तोऽपि भावितस्तथैवात्राऽपि मन्तव्यः, नवरमिह स्वपनं सुप्तं, निद्रा इत्यर्थः; तया अधिकारः। सा च पञ्चविधा। बृ०५ उ०। (तत्र निद्रायाः स्वरूपम् 'णिद्दा' शब्दे चतुर्थभागे 2072 पृष्ठे गतम्) (निद्रानिद्राविवरण विस्तरंतः ‘णिवाणिवा' शब्दे चतुर्थभागे 2072 पृष्ठे गतम् ) (प्रचलायाः सर्वोऽधिकारः पयला' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 507 पृथ्ऽस्ति) (प्रचलाप्रचला चक्रमतो जन्तोरिति पयलापयला' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 508 पृष्ठे गतम्) (अत्र पाराश्चिकस्य प्रस्तुतत्वात् स्त्यानर्द्धिनिद्रया अधिकारः। सा च 'थीणद्धि' शब्दे चतुर्थभागे 2412 पृष्ठे गता) इदानीं पुनः सामान्यलोकबलात् द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं बालन (बल) भवतीति मन्तव्यम् / यत एवमतः स प्रज्ञापनीयः सौम्य ! मुञ्च लिङ्गं नास्ति तव चरण चारित्रम् / यद्येवं गुरुणा सानुनयं भणितो मुञ्चति, ततः शोभनम्। अथ न मुञ्चति ततः सङ्घः समुदितो लिङ्ग तस्य मोक्तुमनिच्छतः सकाशात् हरति उदालयति, न पुनरेकजन इत्याह-मातस्यैकस्योपरि प्रद्वेषं गच्छेत्, प्रद्विष्टश्च व्यापादनमपि कुर्यात्। लिङ्गापहारनियमार्थमिदमाहअवि केवलमुप्पादे, ण य लिंगं देति अणतिसेसी से। देसवत दंसणं वा, गिण्ह अणिच्छे पलायंति / / 147 / / अपिःसंभावने, स चैतत् संभावयति-यद्यपि तेनैव भवग्रहणेन केवलमुत्पादयति तथाऽपि (से) तस्य स्त्यानर्द्धिः, ततो लिगमनतिशयी नददाति, यः पुनरतिशयज्ञानी स जानाति-न भूय एतस्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो भविष्यति, ततो लिङ्ग ददाति / लिङ्गापहारे पुनः क्रियमाणे अयमुपदेशो दीयते-देशव्रतानि स्थलप्राणातिपातविरमणाऽऽदीनि गृहाण, तानि चेत्प्रतिपत्तुं न समर्थस्ततो दर्शनं सम्यक्त्वं गृहाण / अथैवमप्यनुनीयमानो लिङ्ग मोक्तुं नेच्छति तदा रात्रौ तं मुक्त्वा पलायन्ते देशान्तरं गच्छन्ति / गतः प्रमत्तपारा-शिकः। अथान्योन्यं कुर्वाणं तमेवाऽऽहकरणं तु अण्णमण्णे, समणाणं न कप्पते सुविहिताणं। जे पुण करेंति णाता, तेसिं तु विविंचणा भणिया 145 तुशब्दस्य व्यवहितसंबन्धतया अन्योऽन्यं परस्परं पुनर्यत्करणं मुखपायुप्रयोगेण सेवनं तत् श्रमणानां सुविहितानां कर्तुं न कल्पते। ये पुनः कुर्वन्ति ते यदि ज्ञातारस्तदा तेषां विवेचना परिष्ठापना भणिता। इदमेव व्याचष्टेआसगपोसगसेवी, केई पुरिसा दुवेयगा होति। तेसिं लिंगविवेगो, वितियपदं रायपव्वइए।१४६॥ आस्यं मुखम्, आस्यमेवाऽऽस्यकं, पोषकः पायुः, आस्यकपोषकाभ्यां सेवितुंशीलमेषामित्यास्यकपोषकसेविनः केचित्पुरुषाः साधवो द्विवेदकाः स्त्रीपुरुषवेदयुक्ता भवन्ति, न पुंसकवेदिन इत्यर्थः / तेषां लिङ्ग विवेकः कर्त्तव्यः। द्वितीयपदमत्र भवति-यो राजा प्रव्रजितस्तस्याsऽस्यकषोपकसेविनोऽपि लिङ्गं नापहियते, परं यतनया परित्यज्यते। गतोऽन्योन्यं कुर्वाणः पाराश्चिकः। संप्रति यो दुष्टाऽऽदिर्यतः पाराञ्चिकः क्रियते तदेतदर्शयतिबिइओ उवस्सयाई, कीरति पारंचिओ न लिंगातो। अणुवरमं पुण कीरति, सेसा नियमा तु लिंगाओ / / 150 / / द्वितीयो विषयदुष्ट उपाश्रयाऽऽदेः पाराश्चिकः क्रियते, क्षेत्रत इत्यर्थः। न लिङ्गात्, लिङ्गपाराञ्चिको न विधीयते। अथ ततो दोषान्नोपरमते तदा अनुपरमन् लिङ्गतोऽपि पाराश्चिकः क्रियते / शेषा कषायदुष्टप्रमत्तान्योऽन्यसेवाकारिणो नियमाल्लिङ्गपाराशिकाः क्रियन्ते / किमेत एव पाराञ्चिका उतान्योऽप्यस्ति? अस्तीति ब्रूमः / कीदृशः सः? इति चेदुच्यतेइंदियपमाददोसा, जो पुण अवराधमुत्तमं पत्तो। सब्भावसमाउट्टो, जति य गुणा से इमे होति / / 151 / / इन्द्रियदोषात्, प्रमाददोषावा पाराञ्चिकाऽऽपत्तियोग्याद्यः पुनः साधुरुत्तममुकृष्टमपराधपदं प्राप्तः स यदि सद्भावसमावृत्तोनिश्चयेन भूयोऽहमेव न करिष्यामि, इति व्यवसितस्तदा स तपःपाराञ्चिकः क्रियते; यदि च 'से' तस्य इमे गुणा भवन्ति। के पुनस्ते इत्याहसंघयणविरियआगम-सुत्तत्थविहीऍ जो समग्गो उ। तवसी निग्गहजुत्तो,पवयणसारे अभिगतत्थो।।१५२।। संहननं वज्रऋषभनाराचं, वीर्यधृत्या वजकुड्यसमानता,आगमा जघन्येन नवमपूर्वान्तर्गतमाचाराऽऽख्यं तृतीयं वस्तु, उत्कर्षतो दशमपूर्व संपूर्णः तच्च सूत्रतोऽर्थतश्च यदि परिचितं भवति। एतैः संहननाऽऽदिभिः, विधिना च तदुचितसमाचारेण यः समग्रः संपूर्णः तपस्वी नाम सिंहबिक्रीडिताऽऽदितपःकर्मभावितः, निग्रहयुक्त इन्द्रियकषायाणां निग्रहसमर्थः, प्रवचनसारे अभिगतार्थः परिणामितप्रवचनरहस्यार्थ इति। किंचतिलतुसतिभागमेत्तो, वि जस्स असुभो ण विज्जती भावो। णिज्जूहणारिहो सो, सेसे णिज्जूहणा णत्थि / / 153 / / यस्य गच्छान्नि!ढस्य तिलतुपत्रिभागमात्रोऽपि नि!ढोऽहमित्यशुभो भावो न विद्यते स नियूहणाया अर्हो योग्यः, शेषस्य एतद्गुणविकलस्य नि!हणा नास्ति न कर्तव्या! इदमेव व्याचष्टएयगुणसंपउत्तो, पावति पारंचियारिहं ठाणं। एयगुणविप्पमुक्को, तारिसगम्मी भवे मूलं / / 154|| एतैः संहननाऽऽदिभिर्गुणैः संप्रयुक्तः पाराधिकार्ह स्थान प्राप्नोति। यः पुनरेतद्गुणविप्रमुक्तस्तादृशे पाराञ्चिकाऽऽपत्तिप्राप्तेऽपि मूलमेव प्रायश्चित्तं भवति। / अथ पाराञ्चिकमेव कालतो निरूपयतिआसायणा जहण्णे, छम्मासुक्कोस वारसउ मासे। वासं वारस वासे, पडिसेवउ कारणा भइओ // 155|| आशातनापाराञ्चिको जघन्येन षण्मासान, उत्कर्षतश्च द्वादश मासान् भवति, एतावन्तं कालं गच्छान्नियूँढस्तिष्ठतीत्यर्थः / प्रतिसेवनापाराशिको जघन्येन संवत्सरमुत्कर्षतो द्वादश वर्षाणि नियूँढ आस्ते। (पडिसेवउ कारणे भइओ त्ति) यः प्रतिषेवकपाराश्चिकः, स कारणे कुलगणाऽऽदिकार्ये भक्तो विकल्पितो, यथोक्तकालादगिपि गच्छ प्रविशतीति भावः। Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 863 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय अथ तस्यैव गणनिर्गमनविधिमाहइत्तरियं णिक्खेवं, काउं अण्णं गणं गमित्ता थे। दव्वादिसुभे वियडण, निरूवसग्गट्ठ उस्सग्गो।।१५६।। इह यः पाराश्चिकं प्रतिपद्यते स नियमादाचार्य एव भवति। तेन च स्वगणे पाराशिकं न प्रतिपत्तव्यम्। अन्यस्मिन् गणे गन्तव्यम्। तत इत्वरं गणनिक्षेपमात्मतुल्ये शिष्ये कृत्वा ततोऽन्यं गणं गत्वा द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु शुभेषु प्रशस्तेषु विकटनामालोचना परगणाऽऽचार्यस्य प्रयच्छति, उभावपि च निरुपसर्गप्रत्ययं कायोत्सर्ग कुरुतः। अथ किं कारण स्वगणे न प्रतिपद्यते? उच्यतेअप्पच्चय णिब्भयया, आणाभंगो अजंतणा सगणे। परगणे न होंति एए, आणाथिरता भयं चेव // 157|| स्वगच्छ एव पाराश्चिकप्रतिपत्तौ अगीतार्थानामप्रत्ययो भवतिनूनमकृल्यमनेन प्रतिसेवितं येन पाराञ्चिकः कृतः, ततस्तेषां निर्भयता भवति,न गुरुणां विभ्यति इत्यर्थः / अबिभ्यतश्चाऽऽज्ञाभङ्ग कुर्वीरन्, अयन्त्रणा च स्वगणे भवति, शिष्यानुरोधाऽऽदिना स्वयमेव भक्तपानाऽऽनयनाऽऽदो नियन्त्रणे वक्ष्यमाणा न भवतीत्यर्थः। परगणे च एते दोषा न भवन्ति। अपि च-तत्र गच्छता भगवतामाज्ञाऽनुपालने स्थिरता स्थैर्य कृतं भवति, भयं चाऽऽत्मनः सञ्जायते। ततः परगणं गत्वा तत्र पाराश्चिकं प्रतिपद्य निरपेक्षः सक्रोशयोजनात् क्षेत्राद् बहिर्ब्रजति। तस्य चेयं सामाचारीजिणकप्पियपडिरूवी, बाहिं खेत्तस्स सो ठितो संतो। विहरति वारस वासे, एगागी झाणसंजुत्तो।।१५८|| जिनकल्पिकप्रतिरूपी अलेपकृतं भैक्ष्यं ग्रहीतव्य, तृतीयस्यां पौरुष्या पर्यटनीयमित्यादिका यादृशी जिनकल्पिकस्य चर्या,तां कुर्वन् क्षेत्राद् बहिः स्थितः सन् स पाराश्चिक एकाकी ध्यानसंयुक्तः श्रुतपरावर्तनकचित्तो द्वादश वर्षाणि विहरति। यस्याऽऽचार्यस्य सकाशे प्रतिपद्यते तेन यत्कर्तव्यं तदाहओलोयणं गवेसण, आयरिओ कुणति सव्वकालं पि। उप्पण्णे कारणम्मी,सव्वपयत्तेण कायव्यूँ / / 156 / / आचार्यः पाराञ्चिकस्य सर्वकालमपि, यावन्तं कालं तत्प्रायश्चित्तं वहति तावन्तं सकलमपि कालं यावत् प्रतिदिवसमवलोकनं करोति; तत्समीप गत्वा तदर्शनं करोतीत्यर्थः / तदनन्तरं गवेषणम्-गतोऽल्पक्तामतया भवता दिवसो रात्रिश्चेति पृच्छां करोति। उत्पन्ने पुनःकारणेग्लानत्वलक्षणे सर्वप्रयत्नेन भक्तपानाऽऽहरणाऽऽदिकं स्वयमाचार्येण तस्य कर्तव्यम्। जो उ उवेहं कुला, आयरिओ केणई पमाएणं। आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिदिहा।।६०।। यः पुनराचार्य केनाऽपि प्रमादेन जनव्याक्षेपाऽऽदिना उपेक्षां कुरुते, तस्य समीपं गत्वा तच्छरीरस्योदन्त न वहति, तस्य आरोपणा पूर्वनिर्दिष्टा ग्लानद्वाराऽभिहिता कर्तव्या; चत्वारो गुरुकास्तस्य प्रायश्चित्तमारोपयितव्यमिति भावः। "उप्पन्ने कारणम्मि सव्वपयत्तेण कायव्यं' . (156) एतद्भावयतिआहरति भत्तपाणं, उव्वट्ठणमाइयं पि सो कुणति। सयमेव गणाहिवई, अह अगिलाणो सयं कुणति।।१६१।। यदि पाराञ्चिको ग्लानो भवेत् ततस्तस्य गणाधिपतिराचार्यः स्वयमेव भक्तपाने चाऽऽहरति आनयति उद्वर्तनम, आदिशब्दात् परावर्तनोर्द्धकरणोपवेशनाऽऽदिकं तस्य स्वयं करोति / अथ जातोऽग्लानो नीरोगस्तत आचार्य न कमपि कारयति, किं च सर्व स्वयमेव कुरुते। "ओलोयण गवेसण ति" (156) एतद् व्याख्यानार्थमाहउभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं, वोढुं सरीरस्स य वट्टमाणिं / आसासइत्ता य तवोकिलंतं, तमेव खेत्तं समुवेंति थेरा // 162 / / स्थविरा आचार्याः शिष्याणां प्रतीच्छकानां च उभयमपि सूत्रमर्थं च। किं विशिष्ट मित्याह-संप्रतिपृच्छं पृच्छा प्रश्नः, तस्याः प्रतिवचनं प्रतिपृच्छा, तया सहित संप्रतिपृच्छं, सूत्रविषयेऽर्थविषये यत् येन पृष्टं तत्र प्रतिवचनं दत्त्वा तत्सकाशमुपगम्य तदीयशरीरस्य (वट्टमाणि) वर्तमाने काले भवा वार्त्तमानी, वार्ते त्यर्थः / तां वहन्ति, अल्पक्ताम्यतां पृच्छन्तीति भावः / सोऽपि चाऽऽचार्यमागतं मस्तकेन वन्दे इति फेटावन्दनकेन वन्दते। शरीरस्य चोदन्तं पृष्ट्वा यदि तपसा क्लाम्यति,तत आश्वासयति / आश्वास्य च तदेव क्षेत्रं यत्र गच्छोऽवतिष्ठते तत्समुपगच्छन्ति स्थविराः। अथ द्वावपि सूत्रार्थों दत्त्वा तत्र गन्तुं न शक्नोति, ततः को विधिरित्याहअसहू सुत्तं दातुं, दोवि अदाउं व गच्छति पगे वि। संघाडउ से भत्तं, पाणं चाऽऽणेति मग्गेणं / / 163 / / इहैकस्याऽपि कदाचिदेकवचनं कदाचिच बहुवचनं सर्वस्याऽपि वस्तुन एकानेकरूपताऽऽख्यापनार्थमित्यदुष्टम् / असहिण्णुराचार्यः सूत्रं दत्त्वा गच्छति, अथ तथाऽपि न शक्नोति, ततो द्वावपि सूत्रार्थवदत्त्वा (पगे) प्रगे प्रभात एव गच्छति, तस्य चतत्र गतस्य एकः संघाटको भक्तं पानक च मार्गेण पृच्छत आनयति। कदाचित्तत्र गच्छेदपि, तत्रैतानि कारणानिगेलण्णेण व पुट्ठो, अभिनवमुक्को ततो व रोगातो। कालम्मि दुब्बले वा, कजे अण्णे य बाघातो // 16 // स आचार्यो ग्लानेन वा पृष्टो भवेत् अथवा-तस्माद् ग्लानत्वकारणात् रोगादिभिनवमुक्तस्तत्कालमुक्तः स्यात्, ततो न गच्छेत् / यदि वाकाले दुर्बले न विद्यते बलं गमनाय यस्मिन् गाढतपःसंभवाऽऽदिना स दुर्बलोज्येष्ठाऽषाढाऽऽदिकः, कालशब्दोऽभाववाची (?) तस्मिन्न गच्छेत्, शरीरक्लेशसंभवात्। "कज्जे अन्ने च वाघातो'' इति / अत्र सप्तमी तृतीयार्थे, प्राकृतत्वात्। ततोऽयमर्थः-अन्येन वा कार्यण केनापिव्याघातो भवेत्। Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 864 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय किं पुनस्तत्कार्यमित्याहकयपराजएण कुवितो, चेइयतहव्वसंजतीगहणे। पुवुत्ताण चउण्ह वि, कजाण हवेज अन्नयरं / / 165 / / वादे कस्याऽपि राजवल्लभवादिनः पराजयेन कुपितः स्यात्। अथवा - चैत्यं, जिनाऽऽयतनं किमपि तेनावरुद्धं स्यात्ततस्तन्मोचने कुद्धो भवेत्। अथवा-तद्रव्यस्य चैत्यद्रव्यस्य संयत्या वा ग्रहण राज्ञा कृतं, तन्मोचने वा कुपितः। ततः पूर्वोक्तानामिहैव प्रथमोद्देशके प्रतिपादिताना निर्विषयित्वाज्ञापनभक्तपाननिषेधोपकरणहरणजीवितचारित्रभेदलक्षणानां चतुपर्णा कार्याणामन्यतरत् कार्यमुत्पन्नं भवेत्, ततो न गच्छेत् / अथवाऽगमने चोपाध्यायः प्रेषणीयोऽन्यो वेति। तथा चाऽऽहपेसेइ उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो। पुट्ठो व अपुट्ठो वा, सया वि दीवेति तं कजं // 166 / / पूर्वोक्तकारणवशात स्वयमाचार्यः तत्र गमनाभावे उपाध्याय, तदभावे अन्यो वा यो गीतार्थस्तत्र योग्यस्तं प्रेषयति, तत्र गतः सन् तेन पाराञ्चितेन किमद्य क्षमाश्रमणा नाऽऽयाता इति पृष्टो वा अपृष्टो वा तत्कार्य कारण दीपयेत् यथा अमुकेन कारणेन नाऽऽयातः। जाणता माहप्पं, सयमेव भणंति एत्थ तं जोग्गं / अस्थि मम एत्थ विसओ, अजाणए सो वए तेसिं। 167 / इह यदिग्लानीभवनाऽऽदिना कारणेन क्षमाश्रमणानागमनं पृष्टन अपृष्टेन वा दीपित, तदा न किमप्यन्यत्तेन पाराञ्चितेन वक्तव्यं, किंतु गुर्वादेश एव ततो यथोदितः संपादनीयः। अथ राजप्रद्वेषतो निर्विषयत्वाऽऽज्ञापनाऽऽदिना व्याघातो दीपितस्तत्र यदि ते उपा-ध्याया अन्ये वा गीतार्थास्तस्य किंचित् स्वयमेव बुद्ध्यन्ति, ततो जानन्तः स्वयमेव तस्य माहात्म्यं तं भणन्ति बुवते-यथाऽस्मिन् प्रयोजने त्वं योग्य इति क्रियतामुद्यमः। अथ नजानतेतस्य शक्तिं. ततः स एवतान् अजानानान् ब्रूते, यथा अस्ति ममात्र विषय इति। एतच्च स्वमुपाध्यायाऽऽदिभिर्वा भणितो वक्तिअत्थउ महाणुभागो, जहासुहं गुणसताऽऽगरो संघो। गुरुगं पि इमं कजं, मं पप्प भवेस्सए लहुयं / / 168|| तिष्ठतु यथासुखं महान् अनुभागोऽधिकृतप्रयोजनाऽनुकूला अचिन्त्या शक्तिर्यस्य स तथा, गुणशतानामनेकेषां गुणानामाकरो निधानं गुणशताऽऽकरः सङ्घः। यत इदं गुरुकमपि कार्य मां प्राप्य लघुकं भविष्यति, समर्थोऽहमस्य प्रयोजनस्य लीलयाऽपि साधने इति भावः। एवमुक्तेऽसौ अनुज्ञातः सन् यत्करोति तदाहअभिहाणहेउकुसलो, बहूसु नीराजितो वि उ सभासु / गंतूण रायभवणं, मणाति तं रायदारटुं॥१६९।। अभिधानहेतुकुशलः, शब्दमार्गे तर्कमार्गे चाक्षुण्ण इत्यर्थः / अत एव बहुषु विद्वत्सभासु नीराजितो निर्वटित इत्थंभूतः स राजभवने गत्वा तं राजद्वारस्थं प्रतीहार भणति। किं भणतीत्याहपडिहाररूवी ! भण रायरूविं, तमिच्छए संजयरूवि दटुं / निवेदयित्ता य स पत्थिवस्स, जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे / / 170 / / हे प्रतीहाररूपिन् ! मध्ये गत्वा राजरूपिणं राजानुकारिणं भण-यथा त्वां संयतरूपी दृष्टुमिच्छति। एवमुक्तः सन् स प्रतीहारस्तथैव पार्थिवस्य निवेदयति, निवेद्य च राजानुमत्या यत्र नृपोऽवतिष्ठते तत्र तकं साधु प्रवेशयति। तं पूयइत्ता य सुहासणत्थं, पुञ्छिसु रायाऽऽगयकोउहल्लो। पण्हे उराले असुए कयाई, सयावि आइक्खइ पत्थिवस्स // 171 / / तं साधुं प्रविष्ट सन्तं राजा पूजयित्वा शुभाऽऽसनस्थं शुभे आसने उपविष्टम्, आगतकुतूहलोऽप्राक्षीत् / कानित्याह-प्रश्नान् उदारान् गम्भीरार्थान् कदाचिदप्यश्रुतान् प्रतीहाररूपिन इत्येवमादिकान् / स चाऽपि साधुरेवं पृष्टः पार्थिवस्याऽऽचष्टे। किमाचष्ट इत्याहजारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं तु तारिसो एसो। तुह राय ! दारपालो, तं पि य चक्कीण पडिरूवी / / 172 / / यादृशकाः खलु शकाऽऽदीनाम्,आदिशब्दात्त्वपराऽऽदिपरिग्रहः। आत्मरक्षाः, तादृश एव तव राजन् ! द्वारपालस्तत उक्तम्- हे प्रतीहाररूपिन् ! तथा त्वमपि यादृशश्चक्रवर्ती तादृशो न भवसि, रत्नाऽऽद्यभावात्। अत्रान्तरे चैक्रवर्तिसमृद्धिराख्यातव्या / किं च-प्रतापशौर्यन्यायानुपालनाऽऽदिना तत्प्रतिरूपोऽसि, तत उक्तम्- राजरूपिणं बहि, चक्रवर्तिप्रतिरूपमित्यर्थः / एवमुक्ते राजा प्राऽऽहत्वं कथं श्रमणानां प्रतिरूपी। तत आहसमणाणं पडिरूवी, जं पुच्छसि राय ! तं जहमहं ति। निरतीयारा समणा, न तहाऽहं तेण पडिरूवी॥१७३।। यत् त्वं राजन् ! पृच्छसि अथ कथं त्वं श्रमणानां प्रतिरूपी, तदह कथयामि-यथा श्रमणा भगवन्तो निरतिचाराः,न तथाऽहं तेन श्रमणाना प्रतिरूपी,न साक्षात् श्रमण इति। प्रतिरूपित्वमेव भावयतिनिव्वूढो मिनरीसर !, खेत्ते वि जईण अत्थिन लभे! अतिचारस्स विसोधिं,पकरेमि पमायमूलस्स।।१७४।। हे नरेश्वर ! प्रमादमूलस्याऽतिचारस्य सम्प्रति विशोधिं प्रकरोमि. तां च कुर्वन् नियूंढोऽरिम निष्काशितोऽस्मि, तत आस्तामन्यत्, क्षेत्रेऽपि यतीनामहमास्थातुं न लभते, ततः श्रमणप्रतिरूप्यहमिति। राजा प्राहकस्त्वया कृतोऽतिचारः, को वा तस्य विशोधिः? इत्थं पृष्ट यत्कर्तव्यं तदाहकहणाऽऽउट्टण आगमण पुच्छणं दीवणा य कन्जस्स। वीसज्जियं ति य मए, हासुस्ससितो भणति राया // 175 / / कथना राज्ञा पृष्ट स्य प्रसङ्ग तोऽन्यस्याऽपि यथा प्रवचन भावना भवति, तत आवर्तनमाकम्पनं . राज्ञो भक्तीभवन - मिति भावः। तदनन्तरमागमनकारणस्य प्रश्रः, के न प्रायो Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 865 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय जनेन यूयमत्राऽऽगताः / अत्रान्तरे येन कार्येण समागतस्य दीपना प्रकाशना ततो राजा (हासुच्छलिउत्ति) हासेन युक्त उच्छलितो हृष्टो, हसितमुख, प्रहृष्टश्च सन्नित्यर्थः / भणति यथा मया विसर्जितमुत्कलितं निषियाऽऽज्ञपनाऽऽदिकं कार्यमिति / एवं च किं सजातमित्याहसंघो न लभइ कजं, सव्वं कज्जं महाणुभाएण। तुज्झं ति विसज्जेऽहं, सो वि य संघो त्ति पूएति / / 176 / / निर्विषयत्वाऽऽज्ञापनमुत्कलनाऽऽदिलक्षण कार्य संघो नलभते, किंतु तेनपाराश्चिकेन महानुभागेन सातिशयाचिन्त्यप्रभावेन लब्धम्। न च स एवं कार्यलाभेन गर्वमुद्बहति।यत आह-(तुज्झ ति इत्यादि) राजा प्राहयुष्माकं भणितेनाहं पूर्वग्राहं त्यक्त्वा यत्कार्यं विसर्जयामि, नान्यथा। सोऽपि च पाराञ्चिको ब्रूते-राजन! कोऽहं? कियन्मात्रो वा गरीयान सो भट्टारकः, तत्प्रभावादेवाह किञ्चित् जानामि, तस्मात् सङ्घ माहूय क्षमयित्वा यूय-मेव ब्रूत-मुत्कलितं राज्ञा युष्माकमिति। ततो राजाऽपि सङ्घ पूजयति। अब्झत्थितो व रण्णा,सयं व संघो विसज्जति उ तुट्ठो। आदीमज्झऽवसाणे, सया विदोसो धुओ होइ॥१७७।। राजा सङ्घ ब्रूयात्-मया युष्माकं विसर्जन कार्य, परं मदीयमपि कार्यमिदानीं कुरुतमुञ्चतास्य पाराञ्चिकस्य प्रायश्चित्तम् / एवं राज्ञा अभ्यर्थितो, यदि वा-स्वयमपि तुष्टः सङ्घो विसर्जयति मुत्कलयति / किमुक्तं भवति? यद् व्यूढं तद् व्यूढमेव शेषं तु पुनः देशतः सर्वतो वा प्रमादेन मुञ्चति, तस्य च पाराञ्चिकतपसस्तदानीमादिमध्यावसानं वा भवेत, त्रिधाऽपि सङ्घस्याऽऽदेशात् सर्वोऽपि पाराञ्चिकाऽऽपत्तिहेतोर्दोषो धूतः कम्पितः, प्रमादेन स्फेटितो भवतीत्यर्थः / तत्र देशो देशदेशो वा प्रायश्चित्तस्य तेन वाढव्यः। अथ राजा तस्याऽपि मोचने निर्विघ्नं करोति, तदा तदपि मुच्यते, देशो नाम षड्भागः, देशदेशो दशभागः। तत्र देशो यावन्तो मासा भवन्ति तदेव प्रतिपादयतिएक्को य दोणि दोणि य, मासा चउवीस होति छब्भागो। देसं दोण्ह वि एयं, बहिज्ज मुंचेज्ज वा सव्वं / 178 / इहाऽऽशातनापाराञ्चिको जघन्यतो वर्षम्, उत्कर्षतो द्वादशवर्षाणि भवतीत्युक्तम् / तत्राऽपि वर्षस्य षड्भागो द्वौ मासौ, द्वादशवर्षाणां षष्ठे भागे चतुर्विशतिर्मासा भवन्ति / एवंविधं देश द्वयोरप्याशातनाप्रतिसेवनापाराश्चिकयोः संबन्धिन सङ्घस्याऽऽदेशाद्वहेत्। यद्वा-सर्वमपि सङ्घो मुचेत्, किमपि कारयेदित्यर्थः / अथ देशदेशमाहअट्ठारस छत्तीसा, दिवसा छत्तीसमेव चरिमंच। वायत्तरं च दिवसा, दसभाग वहेज्ज बितिओ तु 179 आशातनापाराश्चिके षण्मासाना दशमे भागे अष्टादश दिवसाः, वर्षस्य तुदशमे भागे षट्त्रिंशदिवसा भवन्ति। प्रतिसेवनापाराञ्चिके संवत्सरस्य दशमे भागे षट्त्रिंशदिवसाः, द्वादशवर्षाणां दशमे भागे वर्षमेकं द्वासप्ततिश्च दिवसा भवन्ति / एतावन्तं कालं यद्वहेत, एष द्वितीयो देशदेश उच्यते। उपसंहरन्नाहपारंचीणं दोण्ह वि, जहन्नमुक्कोसयस्स कालस्स। छब्भागं दसभाग, वहिज सव्वं च झोसिज्जा1१८०|| द्वयोरपि आशातनाप्रतिसेवनापाराश्चिकयोर्जघन्य उत्कृष्टश्च यः कालस्तस्य संबन्धिनं षड्भागं वा अनन्तरोक्तं वहेत् / यद्वा-सर्वमप्यवशिष्यमाणं सङ्घो झोषयेत्, प्रसादेन मुञ्चेदिति भावः। बृ० ४उ०। पञ्चा०1 प्रव०। पाराञ्चितशोध्या अतीचारा:तित्थयर पवयण सुयं, आयरियं गणहरं महिड्डीयं / आसाइंतो बहुसो, आभिनिवेसेण पारंची।।६४|| तीर्थकराऽऽदीन् आशातयन हीलयन् आशातनापाराशिको भवति / प्रतिसेवनापाराञ्चिकमाहजो य सलिंगे दुट्ठो, कसायविसरहिं रायवहगो य। रायग्गमहिसिपडिसे-वओ य बहुसो पगासो य||६|| इह प्रतिसेवनापाराश्चिकस्त्रिधा-दुष्टो,मूढः, अन्योन्यं कुर्वाणश्वा यदाह"पडिसेवणपारंची, 0(107)" इत्यादिगाथा सव्याख्याऽस्मिन्नेव भागे 856 पृष्ठे गता। यस्य दुष्टः स द्विधा-कषायतो, विषयतश्च / पुनरेकेको द्विधा (सलिंग त्ति) समानलिङ्गे स्वपक्षे श्रमणश्रमणीरूपे, चकारात्परलिड्ने च परपक्षे गृहस्थेऽन्यतीर्थिकवा ततश्च स्वपक्षपरपक्षाभ्यां कषायदुष्टे विषयदुष्ट च चत्वारः चत्वारो भङ्गा भवन्ति। तत्रैवंकषायदुष्ट भङ्गचतुष्टयम्स्वपक्षकषायदुष्टः परपक्षकषायदुष्टश्चेत्येको भगः। स्वपक्षकषायदुष्टोन परपक्षकषायदुष्ट इति द्वितीयः / न स्वपक्षकषायदुष्टः परपक्षकषायदुष्ट इति तृतीय। उभाभ्यामपि न दुष्ट इति, चतुर्थः शुद्धो भङ्गः। उक्तं च"दुविहो य होइ दुट्ठो,०(१०८)" इत्यादिगाथा सव्याख्याऽस्मिन्नेव भागे 856 पृष्ठे गता। तत्र स्वपक्षकषायदुष्टे चत्वार्युदाहरणानि। "सासवनाले 1, मुहणतए य 2, उलूगच्छि 3, सिहरिणी चेव 4 / " (110) इत्यादिगाथा सध्याख्याऽस्मिन्नेव भागे 856 पृष्ठे गता। "सासवनालं ति' सर्षपभर्जिका १"साधुः कोऽपि गतो भिक्षा, लब्ध्वा सर्षपभर्जिकाम्। रुच्या सुसंस्कृतां गृद्धोऽप्याचार्याणामढौकयत्।।१।। भुक्ता सर्वाऽपि साऽऽचार्य :, साधुश्चाऽऽक्रोशयत्सरान्। ततस्तैः क्षमितोऽप्युचैरूचे भक्ष्यामि ते रदान् / / 2 / / गुरुणाऽचिन्ति मामेष, मावधीदसमाधिना। स्वगणेऽन्यमथाचार्य , कृत्वाऽगात्स गणान्तरे / / 3 / / मृतश्चानशनात् तत्र, सोऽथ दुष्टोऽवदन्मुनीन्। गुरवः क्वागमन्नूचे, तैर्न विद्योऽन्यतोऽथ सः॥४॥ ज्ञात्वा तत्राऽगमत्तांश्वापृच्छत् साधून गुरुः क्व मे। तैरूचेऽद्य मृतस्त्यक्तं, श्मसानेऽस्ति च तदषुः / / 5 / / गत्वा तत्राथ तदन्तान्, स भनवित च वक्ति च। खादिष्यसि पुनः किं में, रुच्या सर्षपभर्जिकाम्? // 6 / / 'मुहणंतग ति" दर्शयति२अन्यः कोऽपि मुनिलब्ध्वा, मुखानन्तकमुज्ज्वलम्। गुरोरढोकयंत् तच्चाऽऽददे तैः सोऽपि रुष्टवान् // 7 / / तदर्थापयतोऽप्यस्य, नाऽऽददे तं पुनर्निशि। तल्लास्यसीति जल्पन् स, गुरुं गाढं गलेऽग्रहीत् // 8 // संमूढो गुरुरप्येनं, ततो द्वावपि तौ मृतौ। Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 866 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारंचिय "सिहरिणि त्ति" दर्शयति ४साधुना केनचित् क्वापि, लब्धा शिखिरिणी शुभा / / 6 / / तया निमन्त्रितस्तेन, गुरुस्तां निखिला पपौ। तं सोऽथास्मानमुद्गीर्य, हिंसन्नन्येयवार्यत।।१०।। तथाऽप्यनुपशान्ते च, तस्मिन्ननशनं गुरुः। स्वगच्छ एव विदधे, नान्यं गच्छं जगाम सः / / 11 / / "उलुगच्छित्ति" दर्शयति३अस्तं गतेऽपि कोऽप्यर्के सीव्यन् गुरुभिरौच्यत। उलूकाक्षोऽसि भिक्षो ! त्वं, स रुष्टो गुरुमूचिवान् / / 12 / / तवैवं वदतो वे अप्यक्षिणी उद्धराम्यहम्। अथाऽसौ गुरुणा माद, क्षमितोऽपि न शान्तवान् / / 13 / / ततो रजोहतो लोहमयीमाकृष्य कीलिकाम् / रोषाऽऽध्मातः स दुष्टाऽऽत्मा, समुद्दधेऽक्षिणी गुरोः॥१४॥" एते चत्वारोऽपि साधवो दुष्टत्वात् लिङ्गपाराशिकाः / परपक्षकषायदुष्टस्तुराजवधक उदायिनृपमारकवत् / विषयदुष्टस्यैव भङ्ग चतुष्टयम्स्वलिङ्गीस्वलिङ्गिनीं साध्वीं सेवते 1, स्वलिङ्गी गृहलिङ्गिनी स्त्रियम् 2, स्वलिङ्गी अन्यलिङ्गिनी परिव्राजिकाऽऽदिकाम् 3, अन्यलिङ्गी चान्यलिङ्गामिति ४,शुन्योऽयं भङ्गातत्राऽऽद्यो विषयदष्टः- "पावाण०" (131) इत्यादिगाथाऽस्मिन्नेव भागे 861 पृष्ठे गता। द्वितीयविषयदुष्टस्तु बहुशः पौनः पुन्येन प्रकाशो लोकविदितः राजागमहिषीप्रतिसेवकश्च / अग्रमहिषीग्रहणादन्या अप्यनतिदिष्टा राजस्तत्वकश्वशब्दात युवराजसेनापत्याद्यामहिषीसेवकश्च / द्वावप्येती लिङ्गपाराश्चिकौ / तृतीयविषयदुष्टस्याप्यतिशयी लिङ्ग दद्यान्नान्यः / अनतिशयी तु तस्यापि लिई पाराञ्चिकमेव दत्त इत्यर्थः / अत्राऽऽह शिष्यः-सामान्यस्त्रीसवकः साधुः किन पाराश्चिकः? उच्यते-बहुपाया राजाऽऽद्ययमहिष्यः, तत्सेवने कुलगणसद्धाऽऽचार्याणां प्रस्तारः संहाररूपो, निर्विषयता वा स्यात्, इतरस्त्रीषु पुनर्वतभङ्ग एव दोष: दोषवत एव चैकस्याऽपाय इति तस्य मूलम्। व्याख्यातो दुष्टपाराश्चिकः। मूढपाराञ्चिकमाहथीणद्धिमहादोसो,अण्णुण्णासेवणपसत्तो य। चरमट्ठाणवत्तिसु, बहुसो य पसज्जए जो उ 166|| स्त्यानर्द्धिदर्शनाऽऽवरणीयकर्मभेदरूपस्य निद्रापञ्चकस्य पञ्चमो भेदः, यदुदयेऽतिसं क्लिष्ट परिणामाऽऽदिनाऽदृष्टमर्थमुत्थाय प्रसाधयति, केशवार्द्धबलश्च जायते / तदनुदयेऽपि च स शेष पुरुषेभ्यरित्रचतुर्गुणबलो भवति / इय च प्रथमसंहनिन एव भवति. इयमेव च महान दोषो यस्य स स्त्यानर्द्धिमहादोषः। अयं च मूढः प्रमत्तश्च कथ्यते / एते च पुद्गलमोदकहस्तिदन्तकुम्भकारवटशाखाधवः पञ्च स्त्यानामुदाहरणानि / तद्यथा"एकः कुटुम्बिको ग्रामे, मांसमेवात्त्यनेकधा। श्रुत्वा धर्म स केषाञ्चित्,समीपे व्रतमग्रहीत्।।१।। विचरँश्च क्वचिद् ग्रामे, महिषं पिशितार्थिभिः। विभज्यमानमद्राक्षीत्. ततोऽभूत्तत्र सस्पृहः / / 2 / / सोऽव्युच्छिन्नतदाकाङ्गो, भुक्तो यातो बहिर्भुवम् / सूत्रस्य पौरुषीं चान्या, चक्रे सुप्तस्तथा निशि।।३।। जातस्त्यानर्द्धिरुत्थाय, गत्वा महिषमण्डलम्। हत्वैक भुक्तवान् शेवमेत्य सद्मोपरि न्यधात्।।४।। ईदृग दृष्टः प्रगे स्वप्नः, इत्यालोचितवान् गुरोः। दिशोऽवलोकनात् तच्च, मुनिभिर्मासमीक्षितम् / / 5 / / सोऽथ स्त्यानर्द्धिमान ज्ञात्वा, लिङ्गपाराश्चिकः कृतः। साधुर्भिक्षा भ्रमन कोऽपि, मोदकान् वीक्ष्य कुत्रचित् / / 6 / / चिरमैक्षिष्ट गृद्धस्तानलब्ध्वाऽशेत तन्मनाः। जातस्त्यानर्द्धिरुत्थाय, गत्वा तद्भवनं निशि / / 7 / / भित्त्वा कपाटमत्ति स्म, मोदकानुद्धतानथ। पात्रे कृत्वाऽश्रये प्राप्तः प्रातः स्वप्रेन्यवेदयता। दृष्ट्वा पादोनपौरुष्या, तान् पात्रप्रतिलेखने। लिङ्गपाराशिकः सोऽपि, ततो गुरुभिरादधे / / 6 / / एकः साधुर्गतो भिक्षा, त्रासितः करिणा ततः। पलायितः कथमपि, तस्मिन् रुष्टश्च सुप्तवान्।।१०।। जातस्त्यानर्द्धिरुत्थाय, गत्वा व्यापाद्य तं गजम्। आनीय दन्तमुशले, विन्यस्योपाश्रयोपरि।।११।। पुनः सुप्तः प्रगे स्वप्रे, व्याचक्षेऽथ तपोधनैः। दृष्ट्वा दन्तान् स विज्ञातो, लिङ्ग पाराश्चिकः कृतः / / 12 / / गच्छे महति कस्मॅिश्चित्. प्रावाजीत्कुम्भकारकः / सुप्तः स्त्यानर्द्धिभाग्रात्रौ, मृत्तिकाभ्यासतः स तु / / 13 / / समीपस्थितसाधूनां,चिच्छेद च शिराँ स्यधीः। एकान्ते निक्षिप्य तानि, शीर्षाणि च वपूंषि च / / 14 / / शेषा अपसृता भूयः, सुप्तः स्वप्रं प्रगेऽवदत्। मृतान वीक्ष्याथ साधून स, लिङ्ग पाराश्चिकः कृतः।।१५।। वटस्याऽधोऽध्वना कश्चित्, भिक्षाचर्या गतो मुनिः। आतपाऽऽर्ता वलन् वेगात्, क्षुत्तृट्ग्रीष्मार्कतापितः।।१६।। तच्छाखायामास्फलितो, रुष्टस्तस्यामसन्निशि। स्त्यानद्धर्युदयतो गत्वा, भक्त्वा शाखा समागतः / / 17 / / विन्यस्योपाश्रयद्वारे, सुप्तः स्वप्नन्यवेदयत्। प्रातः स्त्यानर्द्धिमान ज्ञात्वा, लिङ्गपाराश्चिकः कृतः / / 18 / / केऽप्याहुः प्राग वनेशोऽभूत सोऽथ स्त्यानर्द्धिमान्नरः। संजमे प्राग्भवाभ्यासाद, वटशाखां ततोऽभनक् / / 16 / " उक्तो मूढपाराश्चिकः। अन्योऽन्यं कुर्वाणः पाराशिकस्तु-(अण्णुन्नासेवणपसत्तो य) अन्योऽन्य पुरुषः पुरुषान्तरेण सह परस्पर मुखपायुप्रयोगतो मैथुनाऽऽसेवनाया प्रसक्तः। तथा चरमस्थानं पाराश्चिकं. तदापत्तिहेतवो ये अतिचारास्तेषु, बहुशः पौनःपुन्येन यश्च प्रसजति प्रसक्तो भवति, स पाराश्चिकः क्रियत इत्यर्थः। एतदेवाऽऽहसो कीरइ पारंची, लिंगाओ खित्त कालओ तवओ। सो पागडपरिसेवी, लिंगाओ थीणनिद्दीय // 67|| पाराश्चिकः चतुर्दा-लिङ्गतः, क्षेत्रतः, कालतः, तपोविशेषतश्वा तत्र लिङ्गपाराश्चिके द्रव्यभावलिङ्गपाराञ्चिके द्रव्यभावलिङ्गाभ्यां चतुर्भङ्गीद्रव्यलिङ्गेन पाराश्चिको भावलिङ्गेन च 1, द्रव्यंलिङ्गेन पाराश्चिको न भावलिङ्गेन 2, भावलिङ्गे न पाराश्चिको न द्रव्यलिङ्गेन 3. उभाभ्यामपि न पाराश्चिक इति, चतुर्थः शुद्धः। तत्र स प्रकटप्रतिसेवी राजाग्रमहिष्यादिसेवकः स्त्यानर्द्धिमान् / चशब्दाद् अन्योऽन्यासेवनाप्रसक्तो राजबधकश्च, लिङ्गतः पाराञ्चिको द्रव्यलिङ्गभावलिङ्गाभ्यां पाराञ्चिक: क्रियत इत्यर्थः। अत्र पाराञ्चिकं गाथाद्वयेनाऽऽहवसहि निवेसण पाडग-साहिनिओगपुरदेसरज्जाओ। Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंचिय 867- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारग खित्ताओ पारंची, कुलगणसंघालयाओ वा||१८|| यद्यग्लानस्तदा स्वयमेव भक्तपानाऽऽदिकमानयति, प्रतिलेखनामुद्वर्तजत्थुप्पन्नो दोसो, उप्पजिस्सइ व जत्थ नाऊण। नाऽऽदिक च करोति / अथ ग्लानस्तस्याऽऽचार्योऽन्यो वा साधुभक्ततत्तो तत्तो कीरइ, खित्ताओ खित्तपारंची ||6|| पानाऽऽद्युपनयति, उद्वर्तनाऽऽदिकं च करोति। सूत्राऽर्थेषु वाऽऽचार्योऽन्यो वसतिः प्रस्तावाद् ग्रामः, निवेशनम् एकनिर्गमप्रवेशनद्वारो ग्राम-- वा तस्य पृच्छायामुत्तरमपि ददाति / एवमेतत् संक्षेपतः पाराञ्चिकाऽर्ह योरन्तराले व्यादिगृहाणां संनिवेशः / एवंविधस्वरूप एव ग्रामान्तर्गतः प्रायश्चित्त भणितम्। जीता। पाटकः। 'साही" शाखारूपेण श्रेणिक्रमेण स्थिता ग्रामगृहाणामेकतः पाराश्चिकस्य गणानुज्ञापरिपाटिः / नियोगपुरं निश्चिताः योगाऽऽदिना कृतव्यापारा यस्य स पारंचियं भिक्खू गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावनियोगो राजा, तस्य पुरं राजधानी; देशो जनपदः, राज्य राष्ट्र यावत्सु च्छे दियस्स निज्जू हित्तए अगिलाए तस्स करणिज्ज वेदेशष्वको भूपतिः राजा तावद्देशप्रमाणम् / एतेषा द्वन्द्वः / तस्मात यावडियं०जाव रोगातंकाओ विप्पमुक्के ततो पच्छा तस्स अहालहुस्सगो ववहारो पट्टवियव्वे सिया६|| क्षेत्रात्पाराश्चिकः कुलगणसट्टाऽऽलयाद्वा कुलगणसङ्घानामा सामस्स्येन यत्र क्षेत्रे लयन मिलनं तरभादा यत्र क्षेत्रे वसतिनिवेशनाऽऽदिके उत्पन्नो अथाऽस्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण सह कः संबन्धः? उच्यतेदोषः पाराशिकाऽऽपत्तिकारी, उत्पत्स्यते च यत्र तिष्ठतो दोषस्तं ज्ञात्वा सगणे गिलायमाणं, कारणे परगच्छमागयं वावि। ततस्ततः क्षेत्रात् क्षेत्रपारा-चिकः क्रियते। मा हुण कुज्जा णिज्जू-हमगिलाए एस संबंधो ||18|| कालतपःपाराञ्चिकावाह यथाऽनवस्थाप्यस्य कर्तव्य तथा प्रतिपन्नपाराञ्चितप्रायश्चित्तजत्तियमित्तं कालं, तवसा पारंचियस्स विसए वा। स्याऽपि,न पुनरेवं निर्वृहितो निष्कासित इति कृत्वा स्वगणे ग्लायन्तं रोगाऽऽतङ्कवशतो ग्लानिमुपगच्छन्तं, यदि वा प्रागुक्तैरशियाऽऽदिभिः कालो दुविगप्पस्स वि, अणवठ्ठप्पस्स जोऽमिहिओ 100 कारणैः परगच्छमागतं, मा, हुनिश्चितं वैयावृत्त्यविषय न कुर्यात् नाकार्षीत्, सूचकत्वात् सूत्रस्य यो यावन्तं कालमनुपशान्तदोषोऽनुपरतपाराशि किं तु तस्याऽपि वैयावृत्त्यमवश्यमग्लान्या कर्तव्यम् तथा प्रतिपन्नपाकाऽऽपत्तिहेत्वतिचारः स तावन्तं कालं कालपाराञ्चिकः। ततः पाराश्चिको राञ्चितप्रायश्चित्तस्याऽपि तत्र गणे क्षेत्रवहिःस्थि: स्याऽऽचार्यः स्वयमुदन्तं द्विधा-आशातनापाराश्चिकः, प्रतिसेवनापाराधिकश्वा आद्यः प्रागुक्त वहति, परगणेऽपि कारणवशादायातस्य तदीय आचार्यः करोति यथासूत्रं रूपः / प्रतिसेवनापाराश्चिकस्त्रिधादुष्टः, प्रमत्तोऽन्योन्यं कुर्वाणश्च / वैयावृत्त्यमित्येष पूर्वसूत्रेण सहास्य सूत्रस्य संबन्धः / अनेन संबन्धेनाआद्यन्त्यभेदी प्रागुक्तरूपौ / प्रमत्तो मूढः। स पञ्चधा कषायविकथा ऽऽयातस्याऽस्य व्याख्या कर्तव्या / सा च प्राग्वत्। व्य० २उ०। जीता मद्येन्द्रियनिद्राऽऽख्यैः प्रमादभेदैविस्तारेणाऽऽख्येयः, अस्य चतपःपारा पारंपर (देशी) राक्षसे, देखना०६वर्ग 44 गाथा। ञ्चिकस्य द्विविकल्पस्याऽपिस एव कालः प्रमाणसमयो यःपूर्वमनवस्था पारंपरिय न०(पारंपर्य) प्रणालिकायम्, "आयरियपारंपरियं।' आचार्याः प्यस्याऽभिहितः। तस्य चेयं योजना- आशातनातपःपाराश्चिकस्य सुधर्मस्वामिजम्यूनामप्रभवार्यरक्षिताऽऽद्यास्तेषां प्रणालिका पारम्पर्यम् / द्विकल्पस्याऽपि स एव जघन्येन षण्मासः, उत्कर्षेण वर्षम्। प्रतिसेवना सूत्र० १श्रु०१३अ० पाराश्चिकस्य तु जघन्येन वर्षम्, उत्कर्षेण द्वादश वर्षाणि / तथा पाराश्चि पारंभ पुं०(प्रारम्भ) आद्यकृतौ, हा० 25 अष्ट०। कमपि अनवस्थाप्यमिव संहननाऽऽदिगुणवत एवादीयते, तपोऽपि पारंभमंगल न०(प्रारम्भमङ्गल) आदिमङ्गले, हा० २५अष्ट०। पारिहारिकाऽऽख्यमनवस्थाप्यस्येव पाराधिकस्याऽपि भवति। पारक त्रि०(पारक) छेदके, "पारकेय सव्वेसिं संसयाणं।'' सर्वेषां संशयाना प्रतिपन्नपाराश्चिकस्य साधोर्विधिमाह छेदक इत्यर्थः / प्रश्र०५संब० द्वार। ' एगागी खित्तबहिं, कुणइ तवं सुविउलं महासत्तो। पारकेर त्रि०(परकीय) "परराजभ्यां क-डिक्कीच" ||62 / 148|| अवलोयणमायरिओ, पइदिणमेगो कुणइ तस्स / / 101 / / इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केराऽऽदेशः। पारकरं। प्रा०२ पाद।"अतः समृएकाकी महासत्त्वो जिनकल्पिकप्रतिरूपः क्षेत्रा बहिः स्थितः सुविपुलं ध्यादौ वा" ||811 / 4 / / इत्यादेरकारस्य दीर्घो जातः। परसम्बपारिहारिकतपोरूपं तपः करोति / स च यत्र यत्र क्षेत्रे आचार्या विहरति धिनि, प्रा० १पाद। ततस्ततः क्षेत्रादड़योजनं परिहृत्य बहिः तिष्ठति, बहिःस्थितस्य च पारक त्रि०(परकीय) परसम्बन्धिनि, "परराजभ्यां कडिको तस्याऽऽचार्यः प्रतिदिवसमवलोकनं करोति, सूत्रार्थपौरुष्यौ द्वेअपि दत्त्वा च" ||82 / 148|| इति कः। प्रा०२पाद। "जइ भग्गां पारक्कडा, तो तस्य समीप याति, अर्थपौरुषीमदत्त्वा वा याति / अथवा-द्वे अप्यदत्त्वा सहि ! मज्झु पिएण। अह भग्गा अम्हं तणा, तोते मारिअडेण।।१॥" यदि याति। अथाऽऽचार्यो दुर्बलस्तत्समीपे गन्तुमक्षमः कुलगणाऽऽदिकार्येण भग्नाः परकीयास्ततो सखि ! मम प्रियेण / अथ भग्ना अस्माकं ततस्तेन वा व्यापृतः ततो गीतार्थ शिष्यं तत्र प्रेषयति, तत्र चाऽऽचार्यस्याss- मारितेन। प्रा०४पाद।। चार्यप्रषितस्य वा शिष्यस्य तत्समीपं गच्छतस्तत्समीपादागच्छतो | पारग त्रि० (पारग) पारं गच्छतीति पारगः / आचा० 1 श्रु० वाऽपान्तराले साधवो भक्तं पानं चोपनयन्ति / पारानिकसाधुस्तु | अ० १उ०। पारगामिनि, आचा० 170 8 अ० 8 उ०॥ Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारग 868 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारिट्ठावणिया ज्ञा० / नि०। व्य०। तीरगामिनि, सूत्र० १श्रु०३अ० ३उ० पर्यन्त- वेति प्रश्ने, उत्तरम् -पारणादिनेऽप वाचना कल्पते, इति ज्ञातमस्ति। गामिनि, औ० / पा०। समर्थ, आचा० २श्रु० १चू० ३अ० ३उ०। 207 प्र०। सेन० ३उल्ला०। पारणादिनाऽनन्तरमुत्तरितु कल्पते / न सर्वस्याऽपि प्रारब्धश्रुतस्य पारगामिनि, बृ०६ उ०। सिद्धान्तगामिनि, वेति प्रश्ने, उत्तरम-न कल्पते। २०५प्र०। सेन० ३उल्लाका सूत्र०१श्रु०२० 230 // पारणाईत त्रि०(पारणवत्) भोक्तरि, असहिष्णुत्वाऽऽदिना मण्डल्या पारगमण न०(पारगमन) पूरणे, पालने, 'पारणं ति वा पालणं ति वा __ बहिर्मोक्तरि, पञ्चा० १२विव०। पारगमणं ति वा एगट्ठा।" आ०चू० ५अ०। पारदारिय पुं०(पारदारिक) परदारान् गच्छति पारदारिकः / उद्पारगय त्रि०(पारगत) संसारस्य प्रयोजनवातस्य वा पर्यन्तं गते, ल०। भ्रामके.आ०म० अ०। पारदारिकाणां वृषणच्छेदः, शाल्मल्युपगृह भ०ा औ०। आ०म० / इन्द्रियविषयात्परतोऽवस्थिते, भ० 5 श०४ उ०। नाऽऽदीनि च परमाधार्मिकैः क्रियन्ते सूत्र० १श्रु०५अ० 130 पारगामि (ण) त्रि०(पारगामिन) पारो मोक्षः संसारार्णवतटवृत्तित्वा- पारद्ध त्रि०(प्रारब्ध) प्रकर्षणाऽऽरब्धे, स०६ अङ्ग / ज्ञा०ा ती०। देतत्कारणानि ज्ञानदर्शनचारित्राण्यपि पार इति / भवति हि तास्थ्या- पारद्धि स्त्री०(पापद्धि) "पापर्धा H" ||8|11235|| अपदादौ ताधर्म्यम्। यथा-"तन्दुलान् वर्षतिपर्जन्यः" अतस्तं पारं ज्ञानदर्शन पकारसा रो भवति इति पस्य रः। "सर्वत्र०-" ||276 / / इति चारित्राऽऽख्यगन्तुं शीलं यस्य स पारगामी। मुक्ते, आचा० १श्रु०२१० रलुक् / पापाऽऽधिक्ये, पापोत्कर्षे, शाकुनिके, पुं० प्रा०१ पाद। 20aa संसारस्य कर्मणो वा उत्क्षिप्तभारस्य वा पर्यन्तगामिनि, आचा० पारमाणि पुं० परमक्रोधसमुद्घाते, स्था०३ ठा०४ उ०। बृ०॥ १श्रु०६अ०५उ०॥ पारय (देशी) सुराभाण्डे, दे०ना०६वर्ग 38 गाथा। पारण न०(पारण) भोजने, सूत्र०२श्रु०६अ०। पञ्चा०। आचा०। (कस्य पारस पुं०(पारस) अनार्यदेशविशेषे, प्रव०१४८ द्वार। प्रज्ञा०। आ०म०। तीर्थकरस्य किं पारणकद्रव्यं प्रथममासीदिति 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे सूत्रातजाते म्लेच्छमनुष्येच शब्द०) 1133 पृष्ठे उक्तम्।) पारसकूल न०(पारसकूल) पारसदेशसीमायाम, आ०म० 10 // पारणा स्त्री०(पारणा) परिसमाप्तौ, पञ्चा०विव० श्रीआदिदेवस्य श्रेयांसेन बहुभिरिक्षुरसकुम्मैः धारणा कारिता, एकेनैवेक्षुरसकुम्भेन वेति पारसी स्त्री०(पारसी) पारसाऽऽख्यानार्यदेशोत्पन्नायां दास्याम्, भ०६ साक्षरं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम् -'मत्वेति प्रमदोत्पन्नरोमाञ्चः सोम श०३३उ०। रा०) भूपभूः / उत्पाद्येक्षुरसैः पूर्णान्, घटानागाजिनान्तिकम् // 1 // '' इति पाराभोय पुं०(पाराऽऽभोग) पारं संसार आभोगयन्तिप्रापयन्तीति। ऋषिमण्डलवृत्तौ 7 पत्रे। पारप्रापके, कल्प०१अधि० ८क्षण। . तावदावसथद्वारि, राजसूनोरुपायने। पारायणन०(पारायण) सूत्रार्थतदुभयानां पारगमने, व्य० ४उ०। आ०म०। केनचिचक्रिरे कुम्भाः , नवेक्षुरससंभृताः॥२६१।। विशे श्रेयासो जातिस्मरणात्, भिक्षादोषोज्झितं रसम्। पारावअ (देशी) गवाक्षे, देना०६वर्ग 43 गाथ। मत्वा कल्प्यममुं स्वामिन् ! गृहाणेत्यभ्यधात् प्रभुम् // 262 / / पारावय पुं०(पारापत)"पारापतेरो वा" ||१८|पारापतशब्दे प्रभुणाऽप्यञ्जलीकृत्य, पाणिपात्रे पुरोधृते। रस्थस्यात एद्वा भवति। पारेवओ। पारावओ। प्रा०१पादा वृक्षविशेषे, स रस कलश श्रेण्याश्चिक्षेपेक्षुसमुद्भवम्॥२६३॥ जं०४ वक्षा पक्षिविशेषे, ज्ञा० १श्रु०१अ०। इति श्रीअमरकविकृते पद्मानन्दकाव्ये त्रयोदशे सर्गे। पारावार पुं०(पारावार) समुद्रे, आ०क० 10 // "मयरहरोसिंधुवई, सिंधू "अत्रान्तरे कुमारस्य, प्राभृत्ये केनचिन्मुदा। रयणायरो सलिलरासी / पारावारो जलही, तरंगमाली समुद्दो य नवेक्षुरससंपूर्णा, ढौकयां चक्रिरे घटाः / / 60|| ||8||" पाइ० ना० गाथा। ततो विज्ञातनिर्दोष-भिक्षादानविधिः स तु। पारासर पुं०(पाराशर) स्वनामख्याते पराशराऽऽत्मजे मुनौ, "पारासरे गृह्यतां कल्पनीयोऽयं, रस इत्यवदद्विभुम् // 11 // दगं भोचा'' (3) / सूत्र० १श्रु०५अ० १उ०। उत्त०। ज्ञा० प्रभुरप्यञ्जलीकृत्य, पाणिपात्रमधारयत्। पारिग्गहिया स्त्री०(पारिग्रहिकी) परिग्रहे भवायां क्रियायाम, स्था० उत्क्षिप्योरिक्षप्य सोऽपीक्षु-रसकुम्भानलोठयत्।।६२॥" १ठा० / आवा इति श्रीहेमचन्द्रसूरिकृतऋषभदेवचरित्रे तथैवान्तर्वाच्य च वसु पारिजाणिय न०(पारियानिक) परियानं देशान्तरगमनं तत्प्रयोजनह येषां देवहिण्डौ प्रथमखण्डे च इत्यादिग्रन्थाक्षरानुसारेण बहुभिरिक्षुर-रसघटैः तानि पारियानिकानि गमनप्रयोजनानीत्यर्थः / देवानामशाश्वतेषु नगरापारणा जातेति। ऽऽकारेषु विमानेषु, स्था० 10 ठा०। ('परिया-णियविमाण' शब्देऽतथा "ताहे सयं चेव खोअस्स रसघडगं गहाय भावसुद्धेणं पडि स्मिन्नेव भागे 628 पृष्ठ उक्तानि) परियानप्रयोजनेषु, भ० ११श० गाहगसुद्धणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं पडिलाभिस्सामि त्ति' 1130 / बृज इत्याद्यावश्यकचूयावश्यकनियुक्तिहारिभद्रवृत्ति तद्वा-दशसहस्रा- पारिजाय पुं०(पारिजात) सुरद्रुमविशेषे, अन्त०१श्रु०३वर्ग ८अारा वृत्तिवर्द्धमानसूरिकृतवृषभचरित्रकल्पकिरणावलीप्रभृतिग्रन्थानुसारेण पारिट्ठावणिया स्त्री०(पारिस्थापनिकी) परि सर्व : प्रकार: त्वेकेनैवेक्षुरसघटेन पारणा कारितेति ज्ञायते, एतदाश्रित्य निर्णयस्तु | स्थापनं परिस्थापनमपुनर्गहणतया न्यास इत्यर्थः, तेन सर्वविद्वेद्य इति। 27 प्र० सेन० ३उल्लाका पारणादिने वाचना कल्पतेन | निवृत्ता पारिस्थापनिकी। आव० 4 अ०। सर्वथा त्यजल Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावणिया 866 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारिट्ठावणिया प्रयोजने क्रियाभेदे, प्रव० ४द्वार। (पारिष्ठापनिकी विधिस्तु परिलवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 570 पृष्ठे उक्तः) नवरमसंयतमनुष्यपरिस्थापनानन्तरमिदं दृश्यम्गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू य आहच्च वीसं भवेज्जा, तं च सरीरयं केइ साहम्मिया पासिज्जा, कप्पति से तं सरीरयं मा सागारियं ति कटु तं सरीरयं एगते अचित्ते बहुफासुए उथंडिले पडिले हित्ता पमञ्जित्ता परिदृवित्तए अस्थि या इत्थ के इ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए सलक्खणे परिहरणारिहे कप्पति से सागारकडं गहाय दोचं पि ओग्गहा अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए।।१७ ग्रामानुग्राम (दूइज्जमाणे इति) विहरन् 'आह च' कदाचित् शरीरात् विष्यक् पृथक् भवेत्, मियते इत्यर्थः। तच शरीरक के चित्साधमिकाःसंयताः पश्येयुः, तत्र साधम्मिकस्य तत् शरीरं मा सागारिक भवत्विति कृत्वा एकान्ते विविक्ते अचित्ते स्थण्डिले बहुप्रासुके कीटकाऽऽदिसत्त्वरहिते प्रत्युपेक्ष्य प्रमायं च परिस्थापयितुम् (अस्थि या इत्थ इत्यादि) अस्ति चात्र किञ्चित्साधर्मिमकसत्कमुपकरणजात सलक्षणं पतद्ग्रहाऽऽदि परिहरणाऽहं करिष्यति (स इत्यादि) कल्पते (से) तस्य सागारकृतं गृहीत्वा सागारकृतं नाम नाऽऽत्मना रवीकरोति आचार्यसत्कमेतत् आचार्य एव एतस्य ज्ञायक एवं गृहीत्वा आचार्याणां समर्प्य यदिदम् आचार्यस्तस्यैव ददातिततः स मस्तकेन वन्देइति बुवाणे आचार्यवचः प्रमाणं करोति, एष द्वितीयोऽवग्रहस्तमनुज्ञाप्य द्विविधन परिहारेण परिहर्तुं परिभोगयितुम्, अथाऽऽचार्योऽन्यस्मै ददाति, तदा तस्य तदिति सूत्रसंक्षेपाऽर्थः। सम्प्रति नियुक्तिविस्तरःतं चेव पुव्वभणियं, सुत्तनिवातो उपंथे गामे वा। गामे एगमणेगो, बहू व एमेव पंथे वि॥४२१॥ यत्पूर्व कल्पाध्ययने चतुर्थे उद्देशके विष्वग् भवनं भणित, तदेवात्राऽपि द्रष्टव्यं, नवरमिह विशेषो भण्यतेसूत्रनिपातो ग्रामे वा भवेत् पथि वा ''गामाणुगामं दूइजमाणे" इति वचनात् / ग्रामे एको वा भवेदनेके वा, तत्र येऽनेके ते द्विप्रभृतयो यावत्सप्त बहवो वा द्रष्टव्याः। एवमेव पथ्यपि द्रष्टव्यम् एको वाऽनेके वा, तत्राऽनेके द्विप्रभृतयो यावत्सप्त बहवो वा। एतदेवाऽऽहएगो एगो चेव उ, दुप्पभिई अणेग सत्त बहुगा वा। कालगय गामें पंथे, व जाणगा उज्झणविहीए।।४२२।। एकस्तावदेक एव,तस्यैकत्वेन भेदाभावात्; द्विप्रभृतयो यावत्सप्त, तावदनेके, ततः परं बहवः। एतेषां मध्ये कदाचिदेको ग्रामे पथि कालगतो भवेत्। तत्र उज्झनविधिः परिष्टापनविधेर्ये ज्ञायकारते यथोक्तविधिना परिष्ठापयन्ति। अथाऽनेके द्विप्रभृतयो यावत्सप्तेति कस्मादुक्तं न पञ्च षट् वेति? उच्यते-सप्तानामेव समाप्तकल्पत्वादन्यथा त्वविधिरिति ज्ञापनाऽर्थम्। तथा चाऽऽहचउरो वहति एगो, कुसादि रक्खइ उवस्सयं एगो। एगो य समुग्घातो, इति सत्तण्हं अहाकप्पो / / 423 // चत्वारो जना विष्वग्भूतं वहन्ति, एकः कुशान् दर्भान पानं च गृहीत्वा पुरता याति, एक: षष्ठ उपाश्रयं रक्षति, एकः सप्तमः समुद्घातः कालगत इति / एवममुना प्रकारेण ससानां यथाकल्पो विधिकल्पः / सत्तण्ह हेतुणं, अविही उन कप्पर विहरिलं जे / एगगियस्स अविही, उ अत्थिउंगच्छिउँ वा वि।।४२४॥ सप्तानामधस्तादविधिस्ततस्तेषां षट्पञ्चप्रभृतीनां विहर्तुं न कल्पते / 'जे' इति पादपूरणे / एकाकिनः पुनरासितुं गन्तुं वा नियमादविधिः / तेषामपि कदाचित कारणवशतः स्थितानां यः परिष्ठापनविधिः साऽग्रेडभिधास्यते। तथा च एकाने केषामेव विधिमभिधित्सुः प्रथमतो न केषां प्रतिजानीतेनेगाण विहिं वुच्छं, नायमनाए व पुव्वखेत्तम्मि। दिसि थंडिलझामिय बिं-बमादीसु य पदेसेसु / / 425 / / पूर्वमके नेके चोक्ताः, तत्र प्रथमतोऽनेकेषां विधिं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव करोतितत्र ज्ञाते वा पूर्वक्षेत्रे दिक् परिभावनीया. तथा त्रिषु प्रदेशेषु स्थण्डिल,तच्च स्वाभाविक शिलातलाऽऽदिरूप,ध्यामितमग्निना दग्धं, बिम्बाऽऽदीनां समीपे च। तत्र प्रथमतो ज्ञातक्षेत्रविषयविधिमाहनाए अपुव्वदिटुं, तं चेव य थंडिलं हवति तत्थ। अन्नाते वेलपत्ता, सन्नादिगया उपेहंति॥४२६|| ज्ञाते क्षेत्रे यत्पूर्व दृष्ट, तदेव तत्र स्थण्डिलं भवति। अज्ञाते यदि वेलायां प्राप्तास्तदा संज्ञाऽऽदिगताः स्थण्डिलं प्रेक्षन्ते। अह पुण विकाले पत्ता-इंता चेव उ करेंति उवओगं। अकरणे हवंति लहुगा, वेलं पत्ताण चउगुरुगा / / 427|| अथ पुनर्विकालवेलायां प्राप्तास्तत आगच्छन्त एव स्थण्डिलविषयमुपयोगं कुर्वन्ति तदा उपयोगस्याकरणे चत्वारो लघुकाः प्रायश्चित्तं, वेला प्राप्ताना पुनः स्थण्डिलविषयोपयोगाकरणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। आणादिणो य दोसा, कालगतेसुंभमादिसुं हुज्जा। अत्यंतमपेच्छंता, विणास गरिहं च पार्वेति॥४२८|| न केवलं प्रायश्चित्तं,किं त्वाज्ञाऽऽदयश्च दोषाः। तथा तेषां मध्ये कोऽपि रात्री कदाचित्कालं कुर्यात् तत्र स्थण्डिलं न प्रत्युपेक्षितमिति न परिष्ठापयन्ति। अपरिष्ठापयतां च वेतालोत्थानदोषः। अथ परिष्ठापयन्ति तस्थिण्डिलदोषाऽऽसङ्गः / तथाहि-रात्रौ वह्निसम्भवो वा स्तेनसम्भ्रमो वा, परचक्रबिभ्रमो वा जातः, सोऽपि च व्रती कालगतः,स्थण्डिलं न प्रत्युपेक्षितमिति न परिष्ठापितः, तत्र यदि अग्निसंभ्रमाऽऽदिषु कथमनाथकलेवरमिव त्यक्त्वा व्रजामो, मा प्रवचनस्योड्डाहोऽभूदिति विचिन्त्य तिष्ठन्ति तस्य समीपे, तदा तेषामग्न्यादेविनाश उपधेर्वा स्तेनाऽऽदिभिरपहरणम् / अथ न तिष्ठन्ति किं तु तत्त्यक्त्वा पलायन्ते तदा ते जनमध्ये गहीं प्राप्नुवन्ति। अथवा-स्थण्डिलं न प्रत्युपेक्षितमिति प्रभाते परिष्ठापयन्ति तदा मलिनैर्वस्त्रैस्तस्मिन्परिष्ठाप्यमाने प्रवच Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावणिया 870- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारिट्ठावणिया नस्यापभ्राजना-अहो अमी वराका अदत्तदाना मृता अपिशोभा न लभन्ते इति। "संभमादिसुं होज्जा" इत्यादिकमेव व्याख्यानयतितेणऽग्गिसंभमादिसु, तप्पडिबंधेण दाहों हरणं वा। मइलेहि अछडुती, गरिहा य अथंडिले वावि / / 426 / / स्तेनाग्निसंभ्रमात्, आदिशब्दात्परचक्रसंभ्रमाऽऽदिपरिग्रहः / तत्प्रतिबन्धेन कालगतप्रतिबन्धेन तिष्ठतामग्निदाहः, स्तेनैर्वा हरणं स्यात्। अथ स्थण्डिलं न प्रत्युपेक्षितमिति प्रभाते परिष्ठापयन्ति तदा मलिनैर्वस्त्रैरुपेतं छर्दयन्ति, गर्दा स्यात्, अथैतद्दोषभयादस्थण्डिलेऽपि परिष्टापयन्ति। तथा अस्थण्डिले परितापनादोषःएए दोस अपेहिय, अह पुण पुव्वं तु पेहितं होतं। तो ताहि चिय निंता,एते दोसा न होता य॥४३०।। एते अनन्तरोदिता दोषा अप्रेक्षिते स्थण्डिले भवन्ति / अथ पुनः पूर्व प्रत्युपेक्षितमभविष्यत्ततस्तदैव यदि अनायिष्यतस्तदा एते अनन्तरोदिता दोषा नाभविष्यन्। अह पेहिए वि पुट्विं, दिया व रातो व होज्ज वाघातो। सावयतेणभया वा, वि ढक्किया ताहें अत्थाये // 431|| अथ पूर्वप्रेक्षितेऽपि स्थण्डिले दिवा वा रात्रौ वा भवेत् व्याघातः। कथमित्याह- स्वापदभयात्, स्तेनभयादा / यदि वारात्री द्वाराणि ढकितानि पिहितानि तदाऽऽस्थापयन्ति धरन्ति, न परिष्टापयन्तीत्यर्थः / तथा बन्धनछेदनजागरमाणाऽऽदिका पूर्वोक्ता यतनाऽपि, स्थण्डिलस्य व्याघातस्तर्हि यावत् स्तेनाऽऽदिभयापगमो भवति, स्थण्डिलं वा किमपि कालोचित प्राप्यते, तावन्सैव प्राक्तनी यतना कर्तव्या। असतीऍ सुक्किलाणं, दिणकालगयं निसिं विगिचंति। पडिहारियं च पच्छा-कडादि कोडीदुगेणं वा / / 432 / / / अथ दिवसे कालगतः परं शुक्तानि वस्त्राणिः न विद्यन्ते तर्हि शुक्लानां वस्त्राणामभावे दिनकालगतं बन्धनाऽऽदियतनाविषयं कृत्वा निशि रात्री (विगिचंति) परिष्ठापयन्ति / अथ रात्रौ पूर्वोक्तकारणैयाघातस्तर्हि यदन्यत एवमेव यावत् शुक्लं वस्त्रं न लभ्यते तदा पश्चात्कृताऽऽदिषु प्रातिहारिक शुक्लं वस्त्रं याच्यते। अथ तदपि न लभ्यते तर्हि कोटीद्विकेनाप्युत्पादयेत् / किमुक्तं भवति? पूर्व विशोधिकोट्यापीति। असतीए णेउ निसिं,ठवेत्तु सागारि थंडिलं पेहे। थंडिलवाघातम्मि वि,जयणा एसेव कायव्वा ||433|| कोटीद्विकप्रकारेणापि शुक्लवस्त्राणामभावे निशि रात्रौ सागारिक शय्यातर कालगतस्य समीपे स्थापयित्वा स्वयं साधवः स्थण्डिलं तथाविधं प्रत्युपेक्षन्ते। अथ स्थण्डिलव्याघातस्तदा एषैवानन्तरोदिता यतना कर्तव्या। रात्रिद्वारं गतम्। अथ दिग्द्वारमाहमहल्ल पुर गामे वो, वस्सा वाडग साधिओ। इहरा दुविभागाओ, कुग्गामे सुविभाविया / / 434 // यत्र महापुरस्य महानगरस्य, महाग्रामस्य वा महत्येन दिग्विभागो दुःखेन विभाव्यते, तत उपाश्रयाद्, वाटकात. साहेवा दिग्विभागः परिभावनीयः, इतरथा दुर्विभागा भवेयुः, कुनामे तु सुविभागा दिशः। ताः पुनरिमा दिशःदिस अवरदक्खिणाद-क्खिणा य अवरा य दक्खिणापुवा अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुव्वुत्तरा चेव // 435|| दिक् प्रथमतोऽपरदक्षिणा नैर्ऋती निरीक्षणीया, तदभावे दक्षिणा, तस्या अभावे अपरा पश्चिमा, तस्या अप्यभावे दक्षिणपूर्वा, आग्रेयी इत्यर्थः / तस्या अभावे अपरोत्तरा वायव्यीति भावः / तस्या अलाभे पूर्वा, तस्या अप्यभावे उत्तरपूर्वा / संप्रति प्रथमायां दिशि सत्यां शेषदिक्षु परिष्ठापने दोषमाहसमाही अभत्तपाणे, उवगरऽणज्झायमेव कलहो उ। भेदो गेलण्णं वा, चरिमा पुण कवृते अण्णं // 436 / / अथ प्राप्तायामपरदक्षिणायां परिष्ठापने प्रचुरानपानलाभतः समाधिरुपजायते, तस्यां सत्यां द्वितीयस्यां दक्षिणायां परिष्ठापने अभक्तपानं भक्तपानाऽलाभः, तृतीयस्यामनुपकरणमुपधेरभावः, चतुर्थ्या दक्षिणपूर्वस्यां स्वाध्यायाभावः, पञ्चम्यामपरोत्तरस्यां कलहः, षष्ठ्या पूर्वस्या गच्छभेदता, सप्तम्यामुत्तरस्यांग्लानत्वं, चरमा अष्टमी पूर्वोत्तरा कृतमृतकपरिष्ठापना अन्यं मृतकं कर्षयति, मरणमापादयतीत्यर्थः। एतदेव स्पष्टतरमाहपउरऽण्णपाण पढमा, वितियाए भत्तपाणे न लभंति। ततियाएँ उवहिमादी, नऽत्थि चउत्थीऍ सज्झाओ।।४३७।। पंचमियाएँ असंखड, छट्ठीऍ गणस्स भेयणं नियमा। सत्तमिए गेलण्णं, मरणं पुण अट्ठमी बेंति // 438|| गाथाद्वयमपि व्याख्यातार्थत्वात्सुगम, नवरं 'पउरणपाण पढमा" इत्यत्र प्राकृतत्वात्सप्तम्या लोपः। ततः प्रथमायामिति द्रष्टव्यम्। अष्टमीति अष्टम्यामिति साम्प्रतमुक्तानुक्तद्वारसंग्रहार्थमाहरत्तिदिसा थंडिल्ले, सिल विंवा झामिए य उस्सपणे। छेत्तविभत्ते सीमा, सीसाणे चेव ववहारो॥४३६।। प्रथम रात्रिद्वार, तच्च प्रागेव सप्रपञ्चमुक्तम् / द्वितीयं दिग्द्वार, तच भण्यमानमास्ते, तृतीय स्थण्डिलद्वारं त्रिधा शिलारूपं, बिम्बाऽऽदि वृक्षाऽऽदीनामधो ध्यामितम् / चतुर्थमुत्सन्नद्वारं,पञ्चम क्षेत्रविभक्ते भूमिभागे द्वयोर्गामयोः। सीमायां परिष्ठापनीयमित्येवंलक्षणं, षष्ठं श्मशाने इति द्वारम् / तत्र च व्यवहारो वक्तव्यः / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवरीषुकामो रात्रिद्वारं किल प्रागेव सप्रपशमुक्तमतो दिग्द्वारस्य वक्तव्यशेषमाहलभमाणे पढमाए, तीए असतीऍवावि वाघाते। ताहे अन्नाए वी, दिसाएँ पेहेज जयणाए।।४४०|| लभ्यमानायां, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्यात्, प्रथमायां परिष्ठापनम् प्रथमाया अपरदक्षिणस्या अभावे व्याघाते वा सति तत Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावणिया 871 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारिट्ठावणिया स्तस्याः प्रथमाया दिशोऽन्यस्यां दिशि द्वितीयस्यां स्थण्डिलं यतनया प्रेक्षेत, तस्या अपि लभ्यमानाया अभावे व्याघाते वा तृतीयस्यामेवं यावचरमायामपि, न च प्रागुक्तो दोषः, तीर्थकराऽऽज्ञानुपालनपुरस्सर यतनया प्रवृत्तेः / यदि पुनर्द्वितीयस्यां सत्यां तृतीयस्यां दोष उक्तः स प्रसज्जति, चतुयां तृतीयोक्तः / एवमुत्तरोत्तरदिक्षु अपि भावनीयम्। गतं दिगद्वारम्। अधुना स्थण्डिलद्वारमाहसिलायलं पसत्थं तु, जत्थ दुच्छदि फासुयं / झामथंडिलमादी वा, निंबादीणे समीवगे।।४४१॥ शिलातलं शिलातलरूपं यत् प्रशस्तं स्थण्डिलं तत्र परिष्ठापयन्ति। / अथवा-यत्र गोकुलमजा वा उषिताः। आदिशब्दादन्यद्वा यत्प्रासुकंतत्र। यदि वाध्यामिते अग्निना दग्धे प्रदेशे, आदिशब्दात् करीषाऽऽदिप्रदेशरूपे वा स्थण्डिले, यदि वा-निम्बाऽऽदीनां वृक्षाणां समीपे यत्र महान् सार्थ उषितस्तत्र परिष्ठापयन्ति / गतं स्थण्डिलद्वारम्। अधुना "उस्सण्ण' द्वारमाहउस्सण्णाऽऽचिण्ण कप्पा उ, होति खेत्तेसु केसुई। अत्थंडिला दिसासु वा, ते विजाणेज्जपण्णवं / / 442 / / केषुचित क्षेत्रेषु उत्सन्नेन बाहुल्येन बहुकालादाचीपर्णाः कल्पा भवन्ति। किविशिष्टा इत्याह-अस्थण्डिलाः, तथाहि-केषुचित् ग्रामेषु नगरेषु वा एवरूपा मर्यादा यथा एतावति प्रदेशे मृतकं त्यक्तज्य, नान्यत्र, यत्र च स्थण्डिलाभावस्तत्र धर्मास्तिकायप्रदेशनिश्रामुपकल्प्य परिष्ठापयेत्। यत्राऽपि नदीपूरेण वर्षासु स्थण्डिलप्रदेशः प्लावितोऽन्यासु विदिक्षु स्थण्डिलव्याघातस्तत्रापि धर्मास्तिकायप्रदेशनिश्रया परिष्ठापन कुर्यात् / एतच प्रस्तावादुक्तम्, अन्यथा नायमाचीपर्णः कल्पः / तथा केषुचित् क्षेत्रेषु दिक्षु बहुकालाऽऽचीपर्णाः कल्पा भवन्ति। यथा आनन्दपुरे उत्तरस्या दिशि संयताः परिष्ठापयन्ति, ततस्तत्र तथैवपरिष्ठापन कर्त्तव्य, नास्ति कश्चिद्दोषः। तानपि स्थण्डिलान् दिक्षु वा कल्प्यान् प्रज्ञावान् जानीयात्, ज्ञात्वा च तथैव समाचरेदिति / गतमुत्सन्नद्वारम् / इदानी क्षेत्रविभक्ते सीमायामिति द्वारमाहखेत्ते वि भत्ते गामे, रायभए वा अदेंत सीमाए। भोजियमादी पुच्छा, रायपहे सीममज्झे वा / / 443|| कृचित ग्रामे कौटुम्बिकैः क्षेत्रभूमयःसर्वा अपि सीमाछेदेन विभक्ताः, ततः समस्तं भूखण्ड क्षेत्रनिरुद्धं, क्षेत्रसीमासु च न लभ्यते परिष्ठापयितुम् / कुल इत्याह- (रायभए वाअत सीमाए) यदि क्षेत्रसीमायां परिष्ठाप्यते तदा येषां कुटुम्बिनां सीमा, ते राजकुले गृह्यन्ते,यथा युष्माभिरय मारितः,ततः सीमायां राजभयेन, वाशब्दः समुच्चये, अददत्सु कौटुम्बिकेषु तस्य ग्रामस्य यो भोजिको महतरः, स पृच्छ्यते-यथा क्षेत्रसीमायां वयं मृतकं परिष्ठापयामः, आदिशब्दात् यदि स ब्रूयात्आयुक्तो जानाति, नाहमिति / ततस्तं पृच्छ तदा स पृछ्यते, यदि सोऽनुजानाति ततः सुन्दरम्। अथ नानुजानाति तदा राजपथेपरिष्ठाप्यते। अथवा-द्वयोमयोर्मध्ये सीमायां सरजोऽवग्रह इति कृत्वाऽधुना श्मशानमाह असतीए तु ससाणे, संभण अन्नत्थ अपरिभोगम्मि। असती अणुसद्वादी-ऽणंतग अंताई इयरे वा / / 444 / / राजपथस्य ग्रामद्वयमध्यस्य वा कथमप्यभावे (ससाणे) श्मशाने परिष्ठाप्यते। अथ श्मशानपालकः श्मशानद्वारे स्थितो निरुणद्धि, यथा यत् दातव्यं तत्त्वा श्मशानमभिगच्छथ, तदा अन्यत्रापरिभोगे यत्रानाथमृतकानिपरिष्ठाप्यन्ते दह्यन्तेवातत्र परिष्ठापयन्ति / अथ तादृक् स्थान न विद्यते तदा तस्य असत्यभावे तस्य श्मशानपालकस्य अनुशिष्टिः शासनम् / आदिशब्दात् धर्मकथा च क्रियते / अथ तथापि न ददाति तर्हि (से) तस्य मृतस्य यानि तिगानि अन्तानि तस्मै दीयन्ते, अथ तानि नेच्छति, तर्हि इतराणि नवानि दीयन्ते। कथभूतानीत्यत आहअदासइ अणिच्छंते, साहारण गमण दार मुत्तूण / सति लंभमुवारुहणं, सचेव विगिचणाऽलंभे // 445 / / अदशानि दशारहितानि दीयन्ते, अथ तानि नेच्छति तर्हि साधारणं वचनं भण्यते, यथाऽयं कालगतोऽवतारितस्तिष्ठतु. वयं ग्रामं प्रविश्य मार्गयामो, यदि लभ्यामहे दास्यामो, नो चेत् तमिदं मृतकमिति / एवं साधारणं वचनमुक्त्वा, नवरं श्मशानद्वारे अवतार्य ग्राममध्ये गमनं कुर्वन्ति / यदि लब्धानि सदशानि वस्त्राणि ततः प्रत्यागत्य दत्त्या परिष्ठापयन्ति। अथ न लब्धानितदा राजकुले उपारोहणं चटन,चटित्वा निवेद्यते-यथा युष्मदीयः श्मशान-पालकः श्मशाने व्रतिनं कालगतं मोक्तुं न ददाति, साधवो हि निष्किञ्चनाः स त्वरमभ्यं याचते / एवं निवेद्य तस्य पुरुषमानीय परिष्ठापयन्ति। एतेन यदधस्तनद्वारगाथायां व्यवहार इत्युक्तं तद्भावितम् / अथ राजकुलं ब्रूयात्-श्मशानपालस्यैतदायत्त, ततो यत्स ब्रूते तत्कर्त्तव्यम्। एवं राजकुले व्यवहारस्यालाभे सैव विवेचना। किमुक्तं भवति?पुनस्तत्र गम्यते। सीयाणस्स वि असती, अलंभमाणे उवरि कायाणं। निसिरंता जयणाए, धम्मादिपदेसनिस्साए॥४४६|| अथ श्मशानपालकः श्मशानद्वारे मृतकस्य स्थापनं न ददाति तदा श्मशानस्याभावे श्मशानद्वारेऽवस्थापयितुमलभ्यमाने अस्थण्डिलेऽपि कायानां हरति, कायादीनामुपरि यतनया धर्माऽऽदिप्रदेशनिश्रया धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशेष्विदं परिष्ठापयाम इति कल्पनया, निसृजन्तः परिष्ठापयन्ति शुद्धाः। एसा सत्तण्ह मज्जाया, ततो वा जे परेण य। हेट्ठा सत्तण्ह लोगा उ, तेसिं वुच्छामि जो विही / / 447 / / एषा अनन्तरोदिता मर्यादा विधिः सप्तानां, तेभ्यो वा सप्तभ्यः परेण परतो ये अष्टप्रभृतयस्तेषां द्रष्टव्यो; ये तु सप्तानामधस्तात् लोकास्तेषां यो विधिस्तं वक्ष्ये। ___ प्रतिज्ञातमेव करोतिपंचण्ह दोण्हि हारा, भयणा आरेण पालहारेसु / ते चेव य कुसपडिमा, नयंति हारावहारो वा / / 448 // यदि सप्तानामधस्तात् षट्भवन्ति, तदा त्रयो विश्रम्य द्वौ द्वौ भूत्वा वहन्ति, एको वसतिपालः, एकस्तृणाऽऽदिमातृकच गृह्णाति। पञ्चानां विधिंसाक्षादाहपञ्चानां साधूनां संभवे द्वौ हारौ वहत इत्यर्थः / तृतीयः कुशाऽऽदि नयति, Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावणिया 872 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारिट्ठावणिया चतुर्थो वसतिपालः, पञ्चमः कालगतः / पञ्चानाभारतो ये चतुः प्रभृतयस्तेषां वसतिरक्षणे वहने च विकल्पना / किमुक्तं भवति? यथासंभवमशून्यां वसतिं कृत्वा शय्यातरस्य वा निवेद्य शून्यामपि कृत्वा यथा शक्नुवन्ति तथा परिष्ठापयन्ति। तथा चाऽऽहत एव हरामृतवाहकाः कुशानप्यानयन्ति / अयमत्र भावनाशय्यातरस्य च निवेदने कृते त्रयो विश्रभ्य वहन्ति।यस्तु विश्राम्यति सकुशाऽऽदिनयतीति। अथवाा-यः एव समर्थः स हरो भवेत्, सवहतीति भावः। एक्को व दो व उवहि, रत्तिं वेहास दिव असुण्णम्मि। एक्कस्स य दो चेव य, छड्डुण गुरुगाय आणादी॥४४६।। यदि त्रयः साधवो भवेयुः तदा एकः कालगतो , यौ च द्वौ तौ रात्रावुपधिं विहायसि कृत्वा एको द्वौ वा वहतः / अथ दिवा परिष्ठाप्यते तदा एकस्य मोचनेन विधिस्तथैव द्रष्टव्यो यथा द्वयोरनन्तरमुक्तः। किमुक्तभवति?रात्रावुपधिं विहायसि कृत्वा परिष्ठापयन्ति, दिने शय्यातरभालनेन वसतिमशून्या कृत्वा परिष्ठापयेता यद्येकद्वित्रिप्रभृतयः स्तोका वयं कथं धोक्ष्याम इति विचिन्त्य न परिष्ठापयन्ति किं तु त्यक्त्वा गच्छन्ति तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, न केवलं प्रायश्चित्तमेव किन्त्वाऽऽज्ञादयश्च दोषाः, तन्निमित्तमपि तेषां प्रायश्चित्तमिति भावः। इमे चान्ये दोषाःगिहि गोण मल्ल राउलनिवेयणा पाणकडणुड्डाहे। छक्कायाण विराहण, झावण सुक्खे य वावन्ने / / 450 / / साधूनामभावे गृहिणस्तं त्यजन्ति। यदिवा-गावौ बलीवर्दी योक्त्रयित्वा ताभ्यां गृहस्थाः कर्षयन्ति / अथवा-मल्लैः परित्याजयन्ति / यदि वागृहस्था राजकुले निवेदयन्ति, तत्र पाणेराकर्षणे प्रवचनस्योड्डाहः / यथा प्राप्तमीदृशेन धर्मेण, यत्रेदृशी अवस्था प्राप्यते, प्रवचनविरूपा दोषा इयं संयमविराधना। असंयतैर्नीयमानैः षट्काय विराधना, ध्मापनं दहनं तस्य कलेवरस्य गृहस्थैः क्रियेत, ततस्तत्रापिषट्कायविराधना। तथा व्यापन्ने कुथिते कृमिजालसंसक्ते शुष्के शोषमुपगते द्वीन्द्रियविराधना। उपसंहारमाहतम्हा उ वड्डितं चेव, वोढुं जे जइए बला। नयंति दो वि निघोचे,सदोचे ठावए निसि॥४५१।। यस्मादेते अनन्तरोदिता दोषास्तस्मात्स्तोकैरपि परिष्ठापयितव्यं, तत्र विधिः प्रागुक्त एव। यथा यदि चत्वारस्तदाएको वसतिपालः, शेषास्त्रयो विश्रम्य विश्रम्य तत्कलेवरं वहन्ति, यस्तु विश्राम्यति स तृणानि मात्रकं वहति / अथ त्रयो जनाः, यदि वा-दौ, तदा यदि रात्रौ निर्भयं तर्हि (निहोचे) निर्भये येन तदुपरि कलेवरं बोद्ध प्रति सह्याः समर्थास्ते द्वावपि नयन्ति, उपधिं तच कलेवरं नयन्तीत्यर्थः। नीत्वा च कलेवरं परिष्ठापयन्ति / अथ बहिरुपकरणस्तेनभयं तदा रात्रायुपकरणं विहायसि विलम्ब्य द्वार बद्धा परिष्ठास्य प्रत्यागच्छन्ति / यदि वा-सदोचे सभये रात्रौ तत्कलेवरं परिष्ठापयन्ति, स्थापयित्वा बन्धनच्छेदनजागरणाऽऽदिकां यतनां कुर्वन्ति,ततो दिवसे यदि शक्नुवन्ति तदा उपकरणं गृहीत्वा परिष्ठापयन्ति / अथोपकरणं वोढुं न शक्नुवन्ति तदा शय्यातराऽऽदीनां परिनिवेद्य द्वारं स्थगयित्वा परिष्ठापयन्ति, परिष्ठाप्य भूयो वसतौ प्रत्यागच्छन्ति। अह गंतुमणा चेव, तो नयंति ततो चिय। ओलोयणमकुव्वंतो, असढो तं तु सुज्झए / / 452 / / अथान्य ग्राम ते गन्तुमनसस्तत उपकरणं सह नयन्तिानीत्वा तत्कलेवरं परिष्ठाप्य तत एव परिष्ठापनप्रदेशात्परतोऽन्यं ग्राम गच्छन्ति / तत्र यदुक्तमधस्तात्कल्पाध्ययने-“अवरमयम्मि अवलोयणा कायद्या' इति। तदन्यग्रामगमनेनाशठोऽकुर्वन शुध्यति, न दोषभाग् भवति। छड्डेउं जइ जंती, नायमनाए व तेण परलिंगं / जइ कुवंती गुरुगा, आणादी भिक्खुदिटुंतो // 453 / / यदि कालगतं छर्दयित्वा अपरिष्टाप्य गछन्ति तर्हि ते विचारणीयास्तेन ग्रामेण ते ज्ञाता वा, तस्य परिचिता वा इत्यर्थः / तत्र ज्ञाते ग्रामस्य परिचये सति यदि कालगतस्य परलिङ्ग कुर्वन्ति,कृत्वा वा परिष्ठाप्य गच्छन्ति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः,आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः / अथ अज्ञाते परलिङ्ग कृत्वा अपरिष्ठाप्य गच्छन्ति तदा कालगतस्य परलिङ्गदर्शनतो मिथ्यात्वगमनम्।अत्रच श्रावकभिक्षुदृष्टान्तः। स च आवश्यकटीकातो भावनीयः / (स चाऽस्मिन् कोशेऽग्रे'भिक्खुदिमुत' शब्दादवगन्तव्यः) तत्रज्ञातेऽन्ये च दोषास्तानेवाऽऽहअचियत्तमादि वोच्छेयमादिदोसा उहोंति परलिंगे। अन्नाए ओहि काले, अकए गुरुगाय मिच्छत्तं / / 454 / / ज्ञाते सति परलिङ्ग कृतमितराश्च साधून दृष्ट्वा अप्रीति कुर्वन्ति / अहो इमे संयता निःशूका निर्लज्जा मा परिष्ठाप्योभूदिति परलिङ्गमारोप्यापरिष्ठाप्य त्यक्त्वा गताः / आदिग्रहणेनाऽऽगाढमिथ्यादृष्टीनां प्रीतिरुपजायते इति परिग्रहः। सूत्रे च व्युच्छेदाऽऽदयो दोषाः। तथाहि-ते आगाढमिथ्यादृष्टयः प्रीतिं कुर्वते। अहो! सुन्दरमात्मनैव तैः प्रवचनस्य हीलना कृता, मा एतेषामाहारादीनि प्रयच्छथ। आदिग्रहणान्नात्र कोऽपि प्रव्रज्यां प्रतिपद्येत, मा सोऽप्येवंविधामवस्थां प्राप्नुयात्। एते ज्ञातानां दोषाः / अथाज्ञाता यतनां कृत्वा तत्कलेवरमपरिष्ठाप्य व्रजन्ति, यदि क्षिप्रमेव गता-स्ततः स पश्चात्कालगतो देवलोके उत्पन्नोऽवधिं प्रयुक्ते / ततः स एवं मन्यतेअहमेतेन लिनेन देवोजातः, एवं मरणानन्तरं मिथ्यात्वगमनम् / अत्र काले कृते तेषां गमने प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। यस्मादेते दोषास्तस्माद्विधिना परिष्ठाप्यः। संप्रति यः कथञ्चन एकाकी जातस्तस्य परिष्टायनाविधिमाहएगागी तो जाहे, न तरेज विगिंचिउं तया सो उ। ताहे य विमग्गेज्जा, इमेण विहिणा सहायाओ।।४५५।। तत एकाकी त्यक्तकलेवर विवेक्तुंन शक्नुयात्, तदा अनेन वक्ष्यमाणेन विधिना सहायान्विमार्गयत्। तमेव विधिमाहसंविग्गमसंविग्गे, सारूवियसिद्धपुत्त सण्णीय। Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावणिया 873 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारिट्ठावणिया सग्गामम्मिय पुट्विं, सग्गामऽसती परग्गामे / / 456 / / अप्पाहेइ सयं वा, वि गच्छई तत्थ ठाविया अण्णं / असती निरचए वा, काउं ताहे व वच्चेज्जा / / 457 / / संविग्गाई ते चिय, असतीए ताहें इत्थिवग्गेण / सिद्धी साविग संजति, किटि मज्झिम कायतुल्ला वा // 458|| यदि तस्मिन ग्रामे अन्येऽपि संविना असांभोगिकाः सन्ति, तदा तैः सह परिष्ठापयन्ति, तेषामभावे असंविग्नः पार्श्वस्थाऽऽदिभिः सम, तेषामप्यभावे सारूपिकसिद्धपुत्रैः, तेषामप्यप्राप्तौ संज्ञिभिः श्रावकैः समम् / एवं पूर्व स्वग्रामे मार्गणा कर्तव्या, तत्र स्वग्रामे संझिनामप्यसति अभावे यदि परग्रामे स्वपक्षोऽस्ति तत्र कञ्चित्प्रेषयति, अन्यस्य तथाविधस्य प्रेषणयोग्यस्याभावे (अप्पाहेइत्ति) अन्यं गच्छन्तमादिशति, अन्यस्यापि गच्छतोऽसंभवे कालगतस्य पार्श्वे कश्चित् स्थापयित्वा स्वयमन्यग्राम गच्छन्ति, गत्वा स्वपक्षमन्यमानयति / अथ स कोऽपि न विद्यते यः कालगतस्य पार्श्वे स्थाप्यते, तर्हि यत्र कीटिभिर्न भक्ष्यते तत्र निरत्यये निरपाये स्थाने कालगतं कृत्वा ततोऽन्यग्रामं व्रजेत्, गत्वा संविग्राऽऽदीनानयति, प्रथमतः संविनान् सांभोगिकानानीय तैः समं परिष्ठापयति / तेषामप्यप्राप्तौ श्रावकैः समं, तेषामप्यभावे स्त्रीवर्गेण / तत्र क्रममाहप्रथमतःसारूपिकीभिः सिद्धपुत्रीभिरतुल्यवयोभिः, तासामप्यलाभे श्राविकाभिरतुल्यवयोभिः, तासामप्यलाभे वृद्धाभिः संयतीभिः, तासामप्यप्राप्तौ मध्यमकायाभिः संयतीभिः, तासामप्यलाभे तुल्याभिरपि तुल्यवयोभिरपि संयतीभिः। गण भोइए व जुंगिते, संवरमादी मुहा अणिच्छंतो। अणुसढेि अदसादी, तेहिं समं तो विगिचति तु 456 तुल्यवयसामपि संयतीनामभावे मल्लगणं वा हस्तिपालगणं वा कुम्भकारगणं वा समुपतिष्टति, ततो यान् ते सहायान् ददति तैः समं परिष्ठापयति, गणानामभावे भोजिकं ग्राममहत्तरमुपतिष्ठते ततो | यावत्सहायान् ददाति तैः सह परिष्ठापयति, तत्रापि सहायानामलाभे ये जुङ्गि का हीनजातयो हीनकर्माणश्व संवराऽऽदयश्च संवराः कचवरोत्सारकाः, आदिशब्दान्नखरोधिकास्नानकारकक्षाल-प्रक्षालकाऽऽदिपरिग्रहः / तेषामनुशिष्टिं ददाति, ततस्तैः सहायैः परिष्ठापयति। अथ ते मुधा नेच्छन्ति तदा ये अन्ये जातिजुङ्गिका वरुडाऽऽदयस्तेषामनुशिष्टि ददाति अथ तेऽपि मुधा नेच्छन्ति तदा तेषामदशानि वस्त्राणि मूल्य दीयते, अदशानामनिच्छायां ततस्तैः समं विगिञ्चयेत्। अहव रुभिज दारट्ठो, मूल्लं दाऊण नीणहा। अणुसट्ठादी तु तहियं,अण्णो वा भण्णती जती॥४६०|| तस्मिन्कालगते कदाचित् रात्रौ नीयमाने द्वारस्थो द्वारं रुन्ध्यात्. यदि किञ्चित्प्रयच्छ ततो निष्काशंददामि, क्वचिद्देशे पुनरयमाचारो-दिवसेऽपि मृतं द्वारपालस्य किश्चित् दरचा निष्क्राश्यते, तस्य रुन्धतोऽनुशिष्टिः / कर्तव्या। आदिशब्दात् धर्मकथाऽपि। तत्र यदि नेच्छति ततो यद्यन्यः कोऽपि धर्मकथामनुशिष्टिं वा श्रुत्वा ते इत्याह मुंच दाहामऽहं मुलं, उवेहं तत्थ कुव्वती। अदसा देंती वत्थे, असती साहरणं धदे॥४६१।। जइ लब्भामों आणेमो, अलद्धे तं वियाणओ। सो वि लोगरवा भीतो, मुंचते दारवालओ / / 462 / / मुश्शामु साधुमहं ते मूल्यं दास्यामि,तत्रापेक्षां साधुः कुरुत, नतं मूल्यं प्रयच्छन्तं वारयति। अथान्यः कोऽपि नैवं भणति, तदा अदशानि वस्त्राणि ददाति, तेषामनिच्छाया सदशान्यपि। अथ वस्त्राणि सदशान्यदशानि वा न सन्ति तदा तेषाभावे साधारण वदेत्। तथाहि-यदि लभ्यामहे तत आनेष्यामो, अलाभेत्वमेतस्यकलेवरस्य विज्ञायकः,एवं साधारणे उक्ते सोऽपि द्वारस्थो लोकरवभीतो नियमात मुञ्चति, अमोचने तत्तत्रैव मुक्त्वा वस्त्रोत्पादनाय गच्छन्ति, गत्वा अन्तं प्रान्तं वा वस्त्रमानयन्ति, अलाभे सोऽपि द्वारपालो मृतकेन हील्यते, ततो मुहूर्तानन्तरं स्वयमेव मुञ्चति / अज्ञातविषयेऽपवादमाहअण्णाए वावि परं, लिंग जयणाएँ काउ वच्चंति। उवओगट्ठ नाऊणं, एस विही असहायए।।४६३।। अथवा अज्ञाते अपरिचये ग्रामरूपे यतना कालगतस्य परलिङ्ग कृत्या व्रजति / कया यतनयेत्याह-उपयोगार्थ ज्ञात्वा एतावता कालेन तस्य कालगतस्य उपयोगलक्षणोऽर्थोऽभूत, नातः परं, परलिङ्गकरणेऽपि कश्चिद्दोष इति ज्ञात्वा एष विधिरसहायेष्वसहायस्य एकाकिनो द्रष्टव्यो, न तु द्विप्रभृतीनामपीति।। एएण सुत्त न गयं, सुत्तनिवातो उपंथ गामे वा। एगो व अणेगा वा, हवेज वीसुमिया भिक्खू // 46 // यदेतत् व्याख्यातमेतेन न सूत्रं गतं,किं तु सामाचारीप्रकाशनिमित्त सर्वमेतत् व्याख्यातम् / संप्रति यदधः प्रतिपादितः सूत्रनिपातः पथि ग्रामे वेतितदिदानी व्याख्यायतेएको वा अनेके वा भयेयुर्विष्वग्भूताः भिक्षवः / इयमत्र भावना / अत्र चत्वारो भगा:-एकेन साधुना एकः कालगतो दृष्टः / 1 / एकेन अनेके 2, अनेकैरेकः 3 अनेकैरनेके 4/ तत्र प्रथमभङ्ग मधिकृत्य विधिमाहएगागियं तु गामे, दलुं सोउं विगंचण तहेव / जो दाररुंभणं तू, एसो गामे विही वुत्तो।।४६५।। ग्रामे एकाकी एकाकिनं कालगतं संविग्नमसंविग्नं वा दृष्ट्वा श्रुत्वा विवेचन परिष्ठापनं तथा कुर्यात् यथोक्तमनन्तरं तावत् द्वारे निरोधनम् / एवं शेषेष्वपि भङ्गेषु संविग्नशरीरं वा असंविग्नशरीरम् वा "एगो एग पासइ, एगो णेगे,ते पुण संविग्गियरे वा जे वा" प्रागुक्तेन विधिना परिष्ठापयितव्याः / एष ग्रामे विविरुक्तः। संप्रति पथि विधिमभिधित्सुराहएमेव य पंथम्मि वि, एगमंणेगे विगिंचणा विहिणा। एत्थं जो उ विसेसो, तमहं वुच्छं समासेणं / / 466 / / (एमेव) अनेनैव प्रागुक्तेन प्रकारेण,पथ्यपि एकस्यानेकस्य च विवेचना परिष्ठापना द्रष्टव्या. नवरमत्र यो विशेषषस्तमहं समासेन वक्ष्ये। Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावणिया 874 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पारिट्ठावणिया तत्र एकानेकप्रतिपादनार्थमाहएगो एगं पासति, एगोऽणेगे अणेगें एंगं वा। गाणेगे ते पुण, संविग्गितरे व जे दिट्ठा // 4671 एक एकं पश्यतीति प्रथमो भङ्ग : 1. एकोऽनेकान् 2, अनेके एकम् 3, अनेके अनेकान् ४,तत्र ये दृष्टास्ते संविना भवेयुरसंविग्ना वा, सर्वथा परिष्ठापना कर्त्तव्याः अन्यथा प्रवचनोपघातः स्यात्। संप्रति विशेषप्रतिपादनार्थमाहवीइक्ते भिन्ने, नियट्टे सोऊण पंच वि पयाई। मिच्छत्त अन्नपंथेण कवणा झामणा जं च / / 468 / / व्यतिक्रान्तं, व्यपगतजीवमिति भावः / भिन्नं श्वाऽऽदिभिर्विकीर्ण कुथितमकुथितं वा तस्मिन् व्यतिक्रान्ते, भिन्ने,उपलक्षणमेतत् अभिन्ने वा श्रुते निवृत्य यथोक्तविधिना तत्परिष्ठापयेत्। यदि पुनः श्रुत्वा एकमपि पद गच्छंति तदा आज्ञाऽऽदीनि पञ्चापि पदानि तस्य प्रसजन्ति, न केवलमा ज्ञाऽऽदीनि पञ्च पदानि, किं त्वन्यान्यऽपि मिथ्यात्वाऽऽदीनि प्रसजन्ति। तद्यथा-श्रुत्वा यदि परिष्ठापनाभयादन्यपथेन अन्प्रार्गेण वा अन्यनामाभिमुखं व्रजति तदा न सयथा-वादकारीति तस्य मिथ्यात्वम्। (कड्डण त्ति) गृहे बाह्याऽऽकर्षणे यत्प्रायश्चितं तदपि प्राप्नोति / तथा (झामण त्ति) अग्निकायेन यदि तस्य कलेवरस्य दाहः क्रियते तदाध्यामननिष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चितमापद्यते / यचान्यत्तदपि प्राप्नोति / कि तदिति चेत्, यावन्त प्राणा विमूर्छन्ति तावन्तो विराध्यन्ते, यावन्तश्वाऽऽगन्तुकाः प्राणास्ते विराधनामाप्नुवन्ति, तत्सर्वमपरिष्ठापयन्प्राप्नोति / अथवा श्रुत्वा पदमात्रातिक्रमेऽपि पश्चापि पदानि प्राप्नोति / कानि तानीति? अत आह-मिथ्यात्वमयथावादकारित्वात्पथेन व्रजति तन्निमित्त प्रायश्चित्तम् / रगृहस्थाऽऽदिभि कर्षणं, तनिष्पन्नम् / ३अग्निकार्यन दहने तद्धेतुकम् / / यचान्यत्संभूर्छिताऽऽगन्तुकप्राणजातिविराधनाज, तदपि / 5 / साम्प्रतमेनामेव गाथां व्याधिख्यासुराहतं जीवातिकतं, भिन्नं कुथितेतरं च सोऊणं / एगपयं पि नियत्ते, गुरुगा उम्मग्गमादी वा / / 466 / / तत्कलेवरं जीवातिक्रान्तं व्यतिक्रान्तमुच्यते, भिन्नं श्वाऽऽदिभिविकीर्णं , तच्च कुथितमकुथितं वा / उपलक्षणमेतत्-भिन्नं वा श्रुत्वा एकपदमपि न गच्छति, किं तु निवर्त्तते, अन्यथा एकपदातिक्रमेऽपि प्रायश्चित्तं चत्वारोऽपि गुरुकाः, उन्मार्गाऽऽदौ वा प्रत्येक प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। आणादी पंचपदे, नियत्तणे पावए इमे अन्ने। मिछत्ताऽऽदी व पदे, कमविक्खेवा व जे पंच / / 470 / / न केवलमनिवर्त्तने प्रायश्चित्तं, किं त्वाज्ञाऽऽदीनि पञ्च पदानि प्राप्नोति। तद्यथा-आज्ञा 1, अभवस्था 2, मिथ्यात्वम् 3, आत्मविराधना 4, संयमविराधना च 5 / न केवलप्रसूनि पदानि, किन्त्विमान्यपि मिथ्यात्वाऽऽदीनि पदान्यन्यानि प्रप्नोति / तानि च प्रागेव भावितानि। अथवा-पञ्चापि पदानि प्राप्नोति इत्युक्तोतत्र तान्येव पञ्च पदानि द्वारगाथाया दर्शयतिकप्रविक्षेपात्पादविक्षेपाद्यानि पञ्च पञ्च पदानि मिथ्यात्वाऽऽदीनि मिथ्यात्वमन्यपथेन प्रव्रजन, गृहस्थाऽऽदिभिराकर्षणम्. अग्निकायेन दहनं ४,यच्चान्यत्समूर्छिताऽऽगन्तुकप्राणजातिविराधनमिति तानि प्राप्नोति / तदेवं पञ्च पदानीत्यस्य व्याख्यान द्विधा कृतम्। संप्रति कर्षणपदं यच्चेति पदं व्याख्यानयतिगोणादि जत्तियाओ, व पाणजातीउ तत्थ मुच्छंति। आर्गतुगा व पाणा, जं पावंते तयं पावे / / 471 / / गवादयो यत्समाकर्षयन्ति, यावन्तो वा प्राणजातयस्तत्र कलेवरे मूर्छन्ति, आगन्तुका वा प्राणा यथाऽऽप्नुवन्ति, तदेतत्सर्व सोऽनिवर्तमानः प्राप्नोति, शेषपदानि सुगमानीति कृत्वा न व्याख्यातानि। अधुना विवेचनमाहदट्टुं वा सोउं वा, अव्वावण्णं विगिंचए विहिणा। वावण्णे परलिंगं, उवहीनातो व अण्णातो।।४७२।। पथि कालगतं दृष्ट्वा यदि वा-कालगत इति अन्यतःश्रुत्वा, यदि तत् कलेवरमट्यापन्नम्, अविभिन्नमित्यर्थः / ततः पूर्वो क्तेन विधिना विवेचयेत् / अथ स एकाकी, ततः परिष्ठापयितुं न शक्तोति। यदि वाशक्तोति परं बहवो मृतास्ततः परलिङ्ग कृत्वा त्यजति। अथ तत् व्यापन्नं तदा तस्मिन्परलिङ्ग कर्त्तव्यम् / परिलिङ्गकरणं नामयस्तस्योपधिग्रहणम् / स चोपधिर्द्विधाज्ञातो वा अज्ञातो वा / ज्ञातो नाम यथैतत्साभोगिकस्य साधोरुपकरणन्, अज्ञातो नाम यो न ज्ञायते, किमेय सांभोगिकस्य, किंवा असांभोगिकस्येति? तत्र ज्ञातोऽज्ञातो वा तस्योपधिग्रहीतव्यः। अथ कस्मात्परलिङ्गं क्रियत? तत आहमा णं पिच्छंतु बहू, इति नाए वि करेइ परलिंग। गहिउम्मि वि उवगरणं, परलिंगं चेव तं होइ / / 473|| मा अमुं बहवो जनाः प्रेक्षन्तामिति कृत्वा ज्ञातेऽपि तस्मिन्कालगते परलिग क्रियते / किं तत्परलिङ्ग करणमिति चेत्?अत आह-गृहीते चोपकरणे परलिङ्गमेव तद्भवति, साधुलिङ्गाभावात्। संप्रति ज्ञातस्य चोपधिग्रहणे विधिमाहसागारकडे एक्को, मणुण्ण दिण्णो सुहो भवे बिइओ। अमणुण्णे अप्पिणतो,न गेण्हती दिज्जमाणं पि / / 474|| सागारकृतं नाम यत्स्वयं नात्म कृत किन्त्वाचार्या एतस्य विज्ञायका इति बुद्ध्या परिगृहीतं तस्मिन्सागारकृते एकः प्रथमोऽवग्रहः / यदि सांभोगिकस्योपधिरयमिति ज्ञातस्तदा आचार्यसमीपं गत्वा निवेद्य आवार्यस्य समर्ययति / तत्र यद्या वार्यो ब्रूतेत्वमेवामुमुपछि परिभुक्ष्य, 'ततो मस्तकेन वन्दे' इति भणित्वा अन्येषां साधूनां निवेदयति / यथा क्षमाश्रमणैरेतद् वस्त्रं पात्रं वा मह्यं दत्तमिति / ततस्ते बुवते-आरोग्यधारिणीय क्षमाश्रमणानां गुणैर्बर्द्धस्व। एवमन्योऽन्यस्य सांभोगिकस्योपघेर्दत्तस्यावग्रहो द्वितीयः / अथामनोज्ञः स उपधिस्तर्हि त गुरोः समर्ययति, त च गुरुणा दीयमानमपि न गृह्णाति। Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिट्ठावणिया 875 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पालंब असांभोगिकसत्कत्वात्तर्हि कथं तंत्कर्त्तव्यमित्याह परहस्तपारितापनिकी च / आद्या स्वहस्तेन परितापनं कुर्वतः द्वितीया इयरेसिं घेत्तूणं, एगते परिठवेज विहिणा उ! परहस्तेन कारयतः। आव०४ अ०। आ०चू० अण्णाए संविग्गोवहिम्मि कुज्जा उघोसणयं / / 475 / / पारित्त अव्य०(पत्र) परलोके, त० इतरेषामसांभोगिकानां लिङ्गमात्रोपजीविनां वा संबन्धी यदि, ज्ञातो / पारित्तए अव्य०(पारयितुम्) पारमेतुमित्यर्थे , भ० १२श० १उ०। भवति तर्हि आचार्याणा तथैव निवेदनीयं, तत्र यद्यन्य उपधिर्नास्ति ततः / पारित्तबिइय पुं०(परत्रद्वितीय) जीवानां परलोके द्वितीये धर्मे, तं० कारणे आचार्यो ब्रूते-परिभुक्ष्वाऽमुपधिमिति, तेन च तथेति प्रतिपत्त- / पारिप्पव पुं०(पारिप्लव) पक्षिविशेष, प्रभ०१ आश्र० द्वार। आचा०। व्यम् / अथान्य उपधिः समस्ति,तदा सूरिवचनातं गृहीत्वा एकान्ते पारियह न० बाह्यपृष्टस्य बाह्यभूमौ, नं०। परिष्ठापयेत्। अथ न ज्ञातो भवति किमयमुपधिः संविग्नस्येति तदा अज्ञाते पारियावणिया स्त्री०(पारियापनिका) कालान्तरं यावस्थितो, "सव्वं संविग्नोपधौ विधिना घोषणं कुर्यात् / व्य०७उ०। ध०। च से उवहाणपरियावणियं परिकरेह / ' ज्ञा० १श्रु० ६अ। स्था०। पारिट्ठावणियागार पुं०(पारिस्थापनिकाऽऽकार) परिष्ठापनं सर्वथा त्यजने परितापन ताडनाऽऽदुःखविशेषलक्षणं, तेन निर्वृत्ता पारितापनकी। प्रयोजनमस्य पारिष्ठापनिकम्। तदेवाऽऽकारः पारिष्ठापनिकाऽऽकार : / स्था०टा०१उ०। पञ्चा० ५विव०। परिष्ठापनरूपे प्रत्याख्यानाऽऽकारे,प्रव०४द्वार। पारियासिय त्रि० (परिवासित) ह्यस्तने, भ० १५श०। पर्युषिते, बृ० ३उ० पारिणामिय पुं०(पारिणामिक) परि समतान्नमनं जीवानामजी-वानां च निका गला (पर्युषिताऽऽहारग्रहणनिषेधौ ‘गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे जीवत्याऽऽदिरूपानुभवन प्रति प्रह्रीभवनं परिणामः स एव तेन वा निवृत्तः 667 पृष्ठे कृतः) पारिणामिकः। कर्म०४ कर्म०। जीवाजीवभव्यत्वाऽऽदिलक्षणे भावभेदे, पारिव्वज न०(पारिखज्य) परिव्राजामिदं पारिव्रज्यम् / मस्करित्वे सूत्र० १श्रु०१३ अ० अनु० आ०म०। पं०सं०। आचाला ''भव्याभव्य गृहस्थभावत्यागे, हा०१८ अष्टा जीवत्तपरिणाम।" भव्यत्वमभव्यत्वं जीवत्वं चेति त्रयो भेदाः परिणामे।। पारिव्वाय न०(पारिवाज) परिबाट्संबन्धिनि, आ०म०१अ०॥ कर्म०४कर्मा (अस्य व्याख्या परिणामिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 615 पारिसाडणिया स्त्री०(पारिशाटनिका) परिशाटनंदानाय देयवस्तुनो भूमौ पृष्ठे दर्शिता) छर्दनं, तेन निर्वृत्ता पारिशाटनिकी / ध०३ अधि० उज्झनभवायां पारिणामिया स्त्री०(पारिणामिकी) परि समन्तानमनं परिणामः। पारिष्ठापनिक्याम्, आव०४अ० सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनाऽऽदिजन्य आत्मधर्मः स कारण यस्याः पारिहत्थिय पुं०(पारिहस्तिक) प्रकृत्यैव दत्ते सर्वप्रयोजनानामकालहीसा पारिणामिकी। भ०१२श०५उ०। प्रायो वयोविपाकजन्ये बुद्धिभेदे, नतया कर्तरि स्था०६ ठा०) रा०। ज्ञा० आ०क०। आ० चूत। ना ('परिणामिया' शब्देऽस्मिन्नेव पारिहारिय पुं०(पारिहारिक) परिहारस्तषो विशेषः, तेन चरन्तीति भागे 616 पृष्ठे इयं सोदाहरणा लक्षिता)"एवं विणीओ दोहलो,णवहिं पारिहारिकाः। ध० 4 अधि०। परिहारतपोवाहकेषु, जी०। मासेहिं दारगो जाओ, रण्णो णिवेइयं,तुट्ठो दासीए छड्डाविओ असोग 'गतास्तत्राऽथ तान् द्रष्टु, तावत्पश्यन्ति लिङ्गि कान्। वणियाए, कहियं सेणियस्स, आगओ, अंवाडिया किं से पढमपुत्तो उज्झिओ ति? गओ असोयवणिय, तेणं सो उज्जीविओ, असोगचंदो से पृच्छन्ति स्म ततस्ते तं स ददात्युत्तरं शवः।। नाम कय / तत्थ वि कुक्कुडिपिछएणं कोणंगुली अहिबिदा, सुकुमालिया आभक्ष्यादिपरीहारात्, किंन्नैते पारिहारिकाः / / 10 / / " जीता सा न पउणइ, कूया जाया,ताहे से दारएहि नाम कयं कूणिओ पारी (देशी) दोहनभाण्डे, दे०ना०६वर्ग 37 गाथा। त्ति। "(1284 गाथा) आव०४ अ०। (अशोकचन्द्रवृत्तमपि 'परि- पारुअग्ग (देशी) विश्रामे, दे०ना०६वर्ग 44 गाथा। णामिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 620 पृष्ठे गतम्) ('कूणिय' शब्दे तृतीयभागे पारुअल्ल (देशी) पृथुके, देना०६ वर्ग 44 गाथा। 626 पृष्ठादारभ्यात्र विशेषः) पारुहल्ल (देशी) कृते, दे०ना०६वर्ग 45 गाथा। पारितावणिया स्त्री०(पारितापनिकी) परितापनं नाम दुःखं, तेन निवृत्ता पारेवय पुं०(पारापत) लोमपक्षिभेदे, जी०१प्रति०। जं०। फलप्रधानपारितापनिकी। ध०३अधि०। आवा परितापनं दुःखविशेषलक्षणं तेन वनस्पतिभेदे,प्रज्ञा० 17 पद ४उ०। प्रश्न०। रा०॥ निर्वृत्ता पारितापनिकी / स०४समा पीडाकरणे भवायां; पीडाकरणेन पालंक पुं०(पालङ्क) महाराष्ट्राऽऽदिप्रसिद्ध शाकभेदे, बृ०१ उ०२ प्रक०। वा निर्वृत्तायां क्रियायाम, भ०३ श०३उ०। आ०चू० / प्रज्ञा०। स्था०। आचा खङ्गाऽऽदिघातेन पीडाकरणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / सा च द्विधा- पालंब पुं०(प्रालम्ब) झुम्बनके, आप्रपदीने, आभरणविशेषे, आचा०१श्रु० स्वदेहपारितापनिकी, परदेहपरितापनिकी च / आद्या स्वदेहे परितापन १चू०२ अ०१उ०। ज्ञा० भ०/ गलाऽऽभरणविशेषे, औ०। तपनीयमये कुर्वतः, द्वितीया-परदेहे परितापनमिति, तथा चान्यः रुष्टोऽपि स्वदेह- विचित्रमणिरत्नभक्तिवित्रे आत्मनः प्रमाणेन सुप्रमाणे आभरणविशेषे, परितापनं करोत्येव कश्विज्जडः। अथवा- स्वहस्तपारितापनिकी, जी०३प्रति० 4 अधिकाराला "पालंबपलंबमाणघोल तभूसणधरे।" प्राल Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालंब 576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाव म्बप्रलम्बमानघोलयद्भूषणधरः। (पलंबमाणघोलत त्ति) दोलायमा- पालिभेद पुं०(पालिभेद) प्रतिपूर्णस्य शुद्धपरिणामप्रयुक्तस्याऽतिक्रमे, नानि भूषणानि, तानि धरतीति यः स तथा। कल्प० १अधि० १क्षण। बृ०३उ० 'पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिजे।" प्रलम्येन दीर्घण प्रलम्बमानेन / पालिय त्रि०(पालित) पुनः पुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षिते, स्था० च सुष्ठ कृतं पटेनोत्तरीयमुत्तरासगो येन स तथा। तं०। प्रलम्बेन दीर्घेण ७ठा० / आचा०ा आव० "पालियं पुणो पुणो परिजागरमाणेण जाहातिण प्रलम्बमानेन लम्बमानेन पटेन सुष्टु कृतमुत्तरीयमुत्तरासगो येन स तथा। महुरावाणियत्तणं निसहपुत्ता निक्खेवतो संम' ! आ०चू०६अ। भ०७।०६ उ०ा औ०। राका''ओऊलं पालंब।" पाइ०ना० 205 गाथा। उदिए काले विहिणा, पत्तं जं फासियं तयं मणियं / पालग न०(पालक) स्वनामख्याते शक्रेन्द्रस्याऽऽभियोगिके दे वे. तद्वि तह पालियं तु असई,सम्म उवओगपडिअरि।।५४८|| रचिते लक्षयो जनप्रमाणे शक्रस्य पारियानिके, औ०। स्था। उदिते काले पूर्वोक्ताऽऽदौ विधिनोचारणाऽऽदिना प्राप्तं यत् प्रत्याख्यान "पालययानविमानपाणकं।" पालकदेवनिर्मितसौधर्मेन्द्रसंबन्धि, यान स्पष्ट तद् भणितं परमगुरुभिः तत्पालितं तु भण्यते, गृहीतं सद् च तद्विमानं च यानाय वा गमनाय विमानंयानविमान, न तु शाश्वतमिति। यदसकृच्छम्यगुपयोग प्रतिजागरितम् अविस्मृतमिति गाथाऽर्थः / पं०व० विमाने, स्था० ४ठा० ३उ०। जंगा कल्पण (पालकदेवस्य कृत्यवर्णनम् रद्वार / सीमां यावत्तत्परिणामहान्या रक्षिते, स्था० १०ठा०। प्रव०। 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2251 पृष्ठे गतम्) चम्पानगरीराजस्य पाली (देशी) दिशि, दे०ना०६वर्ग 37 गाथा। स्कन्दकस्य कुम्भकारनगर-राजभार्यायाः पुरन्दरयशसो भ्रातुर्मुनि पालीबंध (देशी) तटाके, देना० ६वर्ग 45 गाथा / सुव्रतस्वाम्यन्तिके प्रव्रजितस्य मारके नास्तिकदृष्टौ स्वनामख्याते पालीहम्म (देशी) वृत्तौ, देखना० ६वर्ग 45 गाथा। ब्राह्यणे, नि०चू० १६उ०। व्य०। स्वनामख्याते कृष्णवासुदेवपुत्रे, पालेमाण त्रि०(पालयत) स्वयमेव पालन कुर्वाणे,कल्प०१अधि०१क्षण। (कृतिकर्मण्ययं दृष्टान्तः) आव० ३अ०। आ०म०। नि०चू०। स्वनाम जं०। जी०। प्रज्ञा० "आहे वचं पारेवचं कारेमाणा पालेमाणा ख्याते ग्रामे, यत्र वीरजिनं वातिलो नाम वणिक् यात्रायां प्रस्थितोऽसिं विहरइ।" विपा० १श्रु०२०। गृहीत्वा मारयितुं प्रवृत्तः, स्व-यमेव छिन्नशिराः संजातः। (522 गाथा) पाले वि अव्य०(पालयितुम् ) "तुम एवमणाणहमणहिं च" आ०चू०१० आव०ा आ०म०। अवन्तीराजप्रद्योतसुते स्वनामख्याते वीरनिर्वाणदिनाभिषिक्ते अवन्तीराजे, आ०क० 4 अ०। (तत्कथा 18/444.1 / / इत्यनेन तुमः स्थाने तेवि आदेशः। "जेप्पि च एप्पिणु 'अण्णयया' शब्दे प्रथमभागे 464 पृष्ठे गता) "ज रयणिं सिद्धि गओ, सयल धर, लेविणु तबु पालेवि। विणु संते तित्थेसरेण, को सक्कइ भुवने अरहा तित्थं करो महावीरो। तं रयणिमवतीए, अहिसित्तो पालगो राया वि? // 2'' जेतुं त्यक्तं सकला धरा लातुं तपः पालयितुम् / विना शान्तिना तीर्थेश्वरेण कःशक्नोति भुवनेऽपि?|| प्रा०४पाद। // 613 // " ति। पाला स्त्री०(पाला) महत्तरिकायाम्, व्य०४उ०। पाव न०(पाप) "क-ग-च-ज०" ||811 / 177 // इत्यादिना अनादेरेव लुम्विधानात् पस्य नलुक्।"पोवः" ||8/1/231 / / इति पस्य वः। पालि पुं०(पालि) सेतो, स्था०५ठा० 130 / आ०म० / रा०ा तडा- 1 प्रा०१पाद / पांशयति मलिनयति जीवमिति पापम्। (अत्रार्थे गाऽऽदेरनतिक्रमार्थ बन्धे, उपा०७अ० संयममहातडागस्याऽनतिक्रमे, "पंसेइ०" (3025) इत्यादिगाथा सव्याख्या 'णमो-कार' शब्दे वृ०३उापालिरिव पालिर्जीवितधारणात् / भवस्थितौ, उत्त०१८अ०॥ चतुर्थभागे 1841 पृष्ठे गता) विशेा पातयति नरकाऽऽदिष्विति पापम्। पालिआ स्त्री०(पालिका) खङ्ग मुष्टी, 'असिमुट्ठी पालिआ य आव० 4 अ० आचा०ा आ०म० पांशयति गुण्डयति आत्मनं पातयति छरू।' पाइ०ना० 121 गाथा। चाऽऽत्मन आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् / स्था० १ठा०। पालिजंत त्रि०(पाल्यमान) सततोपयोगजागरणेन रक्षणीये, औ०। असदनुष्ठानाऽऽपादिते कर्मणि,सूत्र०१श्रु०१२अ सर्वतः सावद्यानुष्ठाने, 'एअस्स पहावेणं, पालिज्जंतस्स सयापयत्तेणं (1567)' पं०व०५द्वार। सूत्र० १श्रु० २अ०१3०। हिंसाऽनृताऽऽदिरूपे कर्मणि, सूत्र० १श्रु० पालित्तग पुं०(पालित्रक) पाटलिपुत्रीये स्वनामख्याते आचार्ये, 'पाडलि १०अ० अशुभे कर्मणि,पञ्चा० ७विव०। "एगे पावे / " स०१समा पुत्तणयरे पालित्तगआयरिया अत्थंति" आ०चू० १अ०। स्था०। असातोदयफले, अशुभप्रकृतौ, सूत्र० १श्रु०१अ०१उ०। प्रश्ना पालित्ता अव्य०(पालयित्वा) आसेव्येत्यर्थे, कल्प० ३अधि० 6 क्षण। अपुण्ये, दश०१चूला उत्तका सूत्र०। आव०। आचा०ा ''पुद्गलकर्मशुभं पालित्ताणय न०(पालित्राणक) स्वनामख्याते नगरभेदे, "अत्थिचोल्लम- यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् / यदशुभमथ तत्पापमिति भवति जणवए पालित्ताणयं नाम नयरे, तत्थ कवड्विनामधिज्जा | सर्वज्ञनिर्दिष्टम्।।१॥" इति। सूत्र०२श्रु०५अ आचा०। असवेद्ये,सूत्र०। गाममहत्तरो।" ती०२७ कल्पग ('कवड्डिजक्ख' शब्दे तृतीयभागे 385 १श्रु०अ०। आचा०। असातवेदनीयाऽऽदिके कर्मणि, सूत्र०१श्रु०६ अ01 पृष्ठे उक्तम्) अशुद्ध कर्मणि, तत्कारणत्याद् हिंसाऽऽदिके कर्मणि पञ्चा० ३विवा Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाव 877 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावकम्म आगमनिषिद्धे कर्मणि, पञ्चा० ११विव०। सम्यक्त्वाऽऽदिगुणविघातहेतौ | ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिप्रकृतिकदम्बे,षो०३विव०। प्रव०। पापनिक्षेपःपावे छवं दव्वे, सञ्चित्ताचित्त मीसगं चेव। खेत्तम्मि निरयमाई, कालो अइदुस्समाईओ।।३८७।। भावे पावं इणमो, हिंसा मुसा चोरियं च अब्बंभं / तत्तो परिग्गहो चिय, अगुणा भणिया य जे सुत्ते // 388|| पापे पापविषयः (छक ति) षट्कः षट्परिमाणो नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदान्निक्षेप इति गम्यते / तत्र च नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्ये विचार्य आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो, नो आगमतस्तु व्यतिरिक्तमाह(सचित्ताचित्त मीसग चेव त्ति) इह च पापमिति योज्यते। प्राकृतत्वाचोभयत्र बिन्दुलोपः / तत्र सचित्तद्रव्यपापं यद् द्विपदचतुष्पदापदेषु मनुष्यपशुवृक्षाऽऽदिष्वसुन्दरम् / अचित्तद्रव्यपापं तदेव जीवविप्रयुक्तं चतुरशीतिपापप्रकृतयो वा वक्ष्यमाणाः। मिश्रद्रव्यपापं तथाविधद्विपदाऽऽद्येवाऽशुभवस्वाऽऽदियुक्तं तच्छरीराणि वा जीववियुक्तैकदेशयुक्तानि / सन्ति हि जीवशरीरेष्वपि जीववियुक्ता नखकेशाऽऽदयस्तदेकदेशाः / उवतं हि-"तस्सेव देसे चिए, तस्सेव देसे अणुवविए त्ति / " जीवप्रदेशापेक्षमेव हि तत्र चितत्वमनुपचितत्वं वा विवक्षितं, पापप्रकृतियुक्तो का जन्तुरेव मिश्रद्रव्यपापमुच्यते। (चेवेति) प्राग्वत्। क्षेत्रे विचार्ये पापं नरकाऽऽदिपापप्रकृत्युदयविषयभूतं यत्र तदुदयोऽस्ति। काल इति कालपापम् दुष्षमाऽऽदिको, यत्र कालाऽनुभावतः प्रायः पापोदय एव जन्तूनां जायते। आदिशब्दादन्यत्र वा काले यत्र कस्यचिजन्तोस्तदुदयः। भावे विचारयितुमुपक्रान्ते पापम् / इदमनन्तरमेव वक्ष्यमाणं (हिंस ति) हिंसा प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं, मृषाऽसदभिधानं, चौर्य च स्तैन्यम्, अब्रह्य मैथुन,ततः परिग्रहो मूर्छाऽऽत्मकः। अपिः समुच्चये,चः पूरणे, गुणाः सम्यग्दर्शनाऽऽदयः, तद्विपक्षभूता अगुणाः मिथ्यात्वाऽऽदयो दोषाः / नमो विपक्षेऽपि दर्शनादऽमित्राऽऽदिवत् / भणिता उक्ताः, तुः समुच्चये व्यवहितक्रमश्च, अगुणाश्च ये सूत्रे आगमे अन्यत्र इहैव वा प्रस्तुताऽध्ययने / उत्त० १७अ०। (पापतत्त्वम् 'नाणंतराय' इत्यादिगाथाभिः 'तत्त' शब्दे चतुर्थभागे 2181 पृष्ठे प्रकटीकृतम्) इह पापं द्विधागोप्यं, स्फुटं च। गोप्यमपि द्विधालघु महच / तत्र लघुकूटतुलामानाऽऽदि, महद् विश्वासघाताऽऽदि। स्फुटमपि द्विधा कुलाऽऽचारेण, निर्लज्जत्वाऽऽदिना च / कुलाऽऽचारेण गृहिणामारम्भाऽऽदि, म्लेच्छाऽऽदीनां हिंसाऽऽदिच, निर्लज्जत्वाऽऽदिना तु यतिवेषस्य हिंसाऽऽदि तत्र निर्लज्जत्वाऽऽदिना स्फुटेऽनन्तसंसारित्वाऽऽद्यपि, प्रवचनोड्डाहाऽऽदेहे तुत्वात् कुलाऽऽचारेण पुनः स्फुटे स्तो कः कर्मबन्धो, गोप्ये तु तीव्रतरोऽसत्यमयत्वात्। ध०२अधिवा पापमेवापचीयमानमुपचीयमानं चमुखदुःखहेतुर्न पुण्यं कर्माऽस्ति, पुण्यमेव चोपचीयमानमपचीयमानं च सुखदुःखहेतुर्न पापमस्तीति, एवंविधवादं निरस्यतोक्तं भगवता-"अस्थिपुण्णे, अस्थिपावे।" औ०। (असमग्रो नवमगणधरवादः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 251 पृष्ठादारभ्य दर्शितः) "संभाव्यमानपापोऽहं-मपापेनाऽपि किं मया? निर्विषस्याऽपि सर्पस्या, भृशमुदविजते मनः / / 1 / / " सूत्र०१श्रु० 4 अ०१उ० "पावं काऊण सयं, अप्पाणं सुद्धमेव ववहरइ / दुगुणं करेइ पावं, वीयं बालस्स मंदत्तं / / 1 / / " सूत्र० १श्रु०४ अ०१० दीणो जणपरिभूओ, असमत्थो उअरभग्णमित्ते वि। वित्तेण पावकारी, तह विहु पापप्फलं एअं॥१९॥ दीनः कृपणः, जनपरिभूतो लोकगर्हितः,असमर्थः उदरभरणमात्रोऽपि आत्मानं भरिरपि न भवति। वित्तेन पापकारी तथाऽपि तु एवंभूतोऽपि सन्नसदिच्छ्या पापचित्त इत्यर्थः, पापफलमेतदिति जन्मान्तरकृतस्य कार्य, भाविनश्च कारणमितिगाथाऽर्थः / पं०व०१द्वारा पापमस्यास्तीति पापः। पापकारिणि, ज्ञा० १श्रु० 4 अ० पापाऽऽत्मनि.प्रश्न०१ आश्र० द्वार। दशा०। हिंस्रे, स्था० ४ठा० 4 उ०। पापकर्मणि सूत्र० १श्रु०५अ०१उ०। रा०) पापिठे, प्रश्र०१ आश्रद्वार। विशेष जीवानां पापं सर्वं दुःखम्नेरइया णं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे, जे य कज्जइ, जे य कजिस्सइ, सव्वे से दुक्खे, जे निजिण्णे, से सुहे? हंता गोयमा ! ने रइयाणं पावे कम्मे०जाव सुहे एवं०जाव वेमाणियाणं। (नेरइयाणमित्यादि) (सवे से दुक्खे त्ति) दुःखहेतुसंसारनिबन्धनत्वाद् दुःखम् / (जे निजिण्णे से सुहे ति) सुखस्वरूपमोक्षहेतुत्वाद्यन्निर्जीर्ण कर्म तत्सुखमुच्यते। भ०७श०८उ०। नवविहापावस्साऽऽययणा पण्णत्ता। तं जहा-पाणाइ-वाए०जाव परिग्गहे कोहे माणे माया लोभे / (नवविहा पावस्सेत्यादि) कण्ड्यम्, नवरं पापस्याशुभप्रकृतिरूपस्याऽऽयतनानि बन्धहेतव इति। स्था, ठा०ा "दुरिअंकलुसंदुक्य, अघ अहम्मो य कम्मसं पावं / मिच्छा मोहं विहलं. अलि-अमसच्चं असदभूअं॥५३॥" पाइन्ना०५३ गाथा। पावअ पुं०(पावक) अग्नौ, "धूमदओ हुयवहो, विहावरन् पावओ सिही वही। अणलो जलणो डहणो, हुआसणो हव्ववाहोय॥६॥" पाइoना० 6 गाथा। पावस त्रि०(पापीयस) अतिशयेन पापे, स्था० ४ठा०४उ०। पावकम्म न०(पापकर्मन) अशुभ कर्मणि, भ० २६श०१उ०। चारित्रप्रति बन्धकमोहनीयप्रकृतौ, ध०३अघि०। अशुभज्ञानाऽऽ-वरणीयाऽऽदिकर्मप्रकृतिषु, औ०। विपा। असदनुष्ठानाऽऽपादिते कर्मणि, सूत्र० १श्रु० २अ० २उ०ा दुष्कृते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। पापव्यापारे, आ०चू०३ अ०॥ पापोपादाने, अनुष्ठाने, आचा०१श्रु०३ अ०३उ०। विषयार्थं सावद्यानुष्ठाने, आचा० १श्रु० ५अ० १उ०। संसारार्णवपरिभ्रमणहेतौ, आचा० १श्रु० ३अ०२उ०। पापहेतौ हिंसाऽऽद्यनुष्ठाने, उत्त०६अ०। आचा०। सूत्रका मैथुनाऽऽसेवनाऽऽदिके, सूत्र०१श्रु० ४अ०१1०। घातिकर्मणि,स्था०२ ठा०४उ०। उत्त०। (''से वसुमं०" (155) सूर्य 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2675 पृष्टे उक्तम्) "पावं कम्म अकुव्वमाण एसमहं अगथे।" पाप पापोपादान कर्माद्वादशभेदभिन्नं, तदकुर्वाणोऽनाचरन्। एष अहं निर्गन्थः। आचा०१२०८अ०३उ०। 'पावं कम्मणो अण्णेसितंपरिणय मेहावी" - पापं कर्मअथः पतनकारित्यात्पापं, क्रियतइति कर्म, तचाऽष्टादशविधं प्राणातिपातमृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालो Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावकम्म 578 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावकम्म भप्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशुन्यपरपरिवादरत्यरतिमायामृषामिथ्यादर्शनशल्याऽऽरख्यमिति / एवमेतत्पापमष्टादशभेद नान्येषयन्न कुर्यात् स्वयं, न चाऽन्य कारयेत्, न कुर्वाणमन्यमनुमोदयेत्। (61 सूत्रं) आचा० १श्रु० १अ०७उ०। सूत्र०। 'पावाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुचि दुच्चिण्णाणं दुप्पडियंताणं वेदइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेयइत्ता, तबसा वा झोसइत्ता।" आचा० १श्रु०६अ०२उ०। "जीवा णं दोहि ठाणेहिं / पावकम्म बंधइ। तं जहारागेण चेव, दोसेण चेव।" रागद्वेषाभ्यां पापकर्म बध्यते उदीर्यते इति। स्था०२ठा० ४उ०। ('बन्ध' शब्दे विशेषः) जीवाना पापकर्मतया पुद्गलचयः जीवा णं दुट्ठाणनिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणंसुवा, चिणंति वा, चिणिस्संति वा / तं जहा-तसकायनिव्वत्तिए चेव, थावरकायनिव्वत्तिए चेव, उवचिणंसु वा, उवचिणंति वा, उवचिणिस्संति वा, बंधिंसु वा, बंधंति वा, बंधिस्संति वा, उदीरिंसु वा, उदीरति वा, उदीरिस्संति वा, वेदिसु वा, वेदिति वा,वेदिस्संति वा, णिज्जरिंसुवा, णिजरिंति वा, णिज्जरिस्संति वा! सूत्राणि षट् सुगमानि, नवरं जीवा जन्तवो, 'ण' वाक्यालङ्कारे, द्वयोः स्थानयोराश्रययोः सथावरकायलक्षणयोः समाहारो द्विस्थान, तंत्र मिथ्यात्वाऽऽदिभिर्ये निर्वर्तिताः सामान्येनोपार्जिताः वक्ष्यमाणावस्थाषट्कयोग्यीकृताः, द्वयोर्वा स्थानयोर्निवृत्तिर्येषां ते द्विस्थाननिर्वृत्ति - कास्तान् पुद्गलान कार्मणान् पापकर्मघातिकर्म सर्वमेव वा ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदि, तद्भावस्तत्ता, तया पापकर्मतया, तद्रूयक्तयेत्यर्थः। चितवन्तो वा अतीते काले, चिन्वन्ति वा सम्प्रति, चेष्यन्ति वा अनागते काले, केचिदिति गम्यते, चयनं कषायाऽऽदिपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम्, उपचयन तु चितस्याऽऽबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानाऽऽवरणीया - ऽऽदितया निषेकः। स चैवम्-प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिक निषिञ्चति, ततो द्वितीयायां विशेषहीनम्। "एवं जावुक्कोसियाए विसेसहीणं निसिंचा त्ति।" बन्धनं तु तस्यैव ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदितया निषिक्तस्य पुनरपि कषायपरिणतिविशेषान्निकाचनमिति / उदीरणं तु अनुदयं प्राप्तस्य करणेनाऽऽकृष्योदये प्रक्षेपणमिति। वेदनमनुभवः, निर्जरा कर्मणोऽकर्मताभवनमिति। कर्म च पुद्गलाऽऽत्मकमिति। स्था० २ठा० 4 उ०। जीवा णं तिहाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा, चिणिंति वा, चिणिस्संति वा / तं जहा-इत्थीणिव्वत्तिए, पुरिसणिव्वत्तिए, णपुंसगणिव्वत्तिए / एवं-"चिणउवचिणबंधउदीरवेए तह णिज्जरा चेव।" (जीवा णमित्यादि) सूत्राणि षट् तत्र त्रिभिः स्थानैः स्त्रीवेदाऽऽदिभिर्निर्वर्तितान् अर्जितान् पुदलान् पापकर्मतया अशुभकर्मत्वेनोत्तरोत्तराशुभाध्यवसायतश्चितवन्त आसङ्कलनतः, एवमुपचितवन्तः / परिपोषणतः, एवं बद्धवन्तो निर्मापणतः, उदीरितवन्तः अध्यवसाय- | वशेनाऽनुदीर्णो दयप्रवेशनतः वेदितवन्तः अनुभवनतः निर्जरितवन्तः प्रदेशपरिशाटनतः / संग्रहणीगाथार्द्धमत्र-"चिण उवचिण बंधोदी-रवेय तह निर्जरा चेव।" इति। अस्य व्याख्या-"एवमिति।" यथैक कालत्रयाभिलापेनोक्तं तथा सण्यिपीति / कर्म च पुद्गलाऽऽत्मकमिति / स्था० ३टा० 40 जीवा णं चउट्ठाणनिव्वत्तए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा, चिणिंति वा, चिणिस्संति वा / तं जहाणेरइयणिव्वत्तिए, तिरिक्खजोणिणिव्वत्तिए, मणुस्सणिव्वत्तिए, देवणिव्वत्तिए / एवं उवचिणिंसुवा, उवचिणं-तिवा, उवचिणिस्संतिवा। एवं "चिण उवचिण बंधोदी-र वेय तह णिजरा चेव।" (जीवा णमित्यादि) सूत्रषट्कं व्याख्यातं प्राक् तथाऽपि किञ्चिलिख्यते-(जीवा णं ति) 'णं' शब्दो वाक्यलकारार्थः, चतुर्भिः स्थानकैारकत्वाऽऽदिभिः पर्यायैर्निवर्तिताः कर्मपरिणामं नीतास्तथाविधाशुभपरिणामवशाद् बद्धास्ते चतुःस्थाननिर्वर्तितास्तान् पुद्रलान् / कथं निर्वर्तितानित्याह- पापकर्मतया अशुभस्वरूपज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिरूपत्वेन (चिणिंसु त्ति) तथाविधापरकर्मपुगलौश्चितवन्तः पापप्रकृतीरल्पप्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः। (नेरइयणिव्वत्तिए त्ति) नैरयिकेण सा निवर्तिता इति विग्रहः। एवं सर्वत्र तथा (एवं उवचिणंसु त्ति) चयसूत्राभिलापेनोपचयसूत्रं वाच्यम्, तत्र (उवचिणंसुत्ति) उपचितवन्त पौनः पुन्येन / एवमिति चयाऽऽदिन्यायेन बन्धाऽऽदिसूत्राणि वाच्यानीत्यर्थः / इह च बन्ध उदीरेत्यादिवक्तव्ये यच्चयोपचयग्रहण तत्स्थानान्तरप्रसिद्धगाथोत्तरार्धाऽनुवृत्तिवशादिति / तत्र (बन्ध त्ति) बन्धेयुः श्लयबन्धनबद्धान् गाढबन्धनबद्धान् कृतवन्तः।३। (उदीर त्ति) (उदीरिसु) उदयप्राप्ते दलिके अनुदितांस्तानाकृष्य करणेन वेदितवन्तः। वे यत्ति) (वेदिसु) प्रतिसमय स्वेन रसविपाकेनाऽनुभूतवन्तः (तह निजरा चेव त्ति) (निजरिंसु) कात्स्येनानुसमयविशेषतद्विपाकहान्या परिशाटितवन्तः। स्था०३ठा० ४उ०। जीवाणं पंचट्ठाणणिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसुवा, चिणिंसुवा, चिणिस्सिति वा। तं जहा-एगिदिय-निव्वत्तिए०जाव पंचिंदियनिव्वत्तिए। एवं “चिण उवचिणबंध उदीर वेद तह निजरा चेव।" स्था०५ठा०३उ०। जीवाणं छट्ठाणनिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसुं वा, चिणिं ति वा, चिणिस्संति वा / तं जहा-पुढविकाइयनिव्वत्तिए०जाव तसकाइयनिव्वत्तिए। एवं "चिण उवचिण बंध उदी-र वेय तह निजरा चेवा" स्था० ६ठा०। जीवा णं सत्तट्ठाणनिध्वत्तिए पुग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसुवा, चिणंति वा, चिणिस्संति वा / तं जहा-नेरइयनिव्वत्तिएन्जाव देवनिव्वत्तिए / एवं "चिण० जाव निजरा चेव।" स्था०७ठा०। Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावकम्म 876 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावग जीवा णमट्ठट्ठाणनिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा, प्रदेशकर्मतया तु वेदयत्येवेति / इह च द्विविधेऽपि कर्माणे वेदयितव्ये चिणंति या, चिणिस्संति वा / पढमसमए नेरइ-यनिव्वत्तिए०जाव प्रकारद्वयमस्ति, तचाहतैव ज्ञायत इति दर्शयन्नाह-ज्ञातं सामान्येअपढमसमयदेवनिव्वत्तिए / एवं "चिण उवचिण जाव णिज्जरा नावगतमेतद्वक्ष्यमाणं वेदनाप्रकारद्वयम्, अर्हता जिनेन (सुयं ति) स्मृतं चेव।" स्था० ८ठा०। प्रतिपादितम् अनुचिन्तितं वा तत्र स्मृतमिव स्मृतं केवलित्वेन स्मरणाजीवा णं नवट्ठाणनिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसु वा, भावेऽपि जिनस्यात्यन्तमव्यभिचारसाधादिति / (विण्णायं ति) चिणंति वा, चिणिस्संतत वा / पुढविकाइयनिव्वत्तिएजाय विविधप्रकारैर्देशकालाऽऽदिविभागरूपैतिं विज्ञातं, तदेवाऽऽह-(इमं पंचिं दियनिव्वत्तिए / एवं "चिण उवचिणजाव निजरा कम्म अयं जीवे त्ति) अनेन द्वयोरपि प्रत्यक्षतामाह केवलित्वादर्हतः चेव।" स्था० ठा०1 (अज्झोवगमियाए त्ति) प्राकृतत्वात् अभ्युपगमः, प्रव्रज्याप्रतिपत्तितो जीवा णं दसट्ठाणनिव्वत्तिए पोग्गले पावकम्मत्ताए चिणिंसुवा, ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशलुचनाऽऽदीनामङ्गीकारस्तेन निर्वृत्ता आभ्युपगचिणिंति वा, चिणिस्संति वा / तं जहा--पढम-समयएगि मिकी तया (वेयइस्सइ त्ति) भविष्यत्कालनिर्देशः भविष्यत्पदार्थो विशिष्टज्ञानवतामेव ज्ञेयोऽतीतो वर्तमानश्च पुनरनुभवद्वारेणान्यस्याऽपि दियनिव्वत्तिए०जाव फासिंदियनिव्वत्तिए / एवं "चिण उवचिण ज्ञेयः सम्भवतीति ज्ञापनार्थः / (उपक्राम्यतेऽनेनेत्युपक्रमः कर्मवेदनाबंध उदीर वेय तह णिज्जरा चेवा" स्था० १०ठा०। पायस्तत्र भवा औपक्रमिकी स्वयमुदीर्णस्य उदीरणाकरणेन वोदयमुप(यथा च पापकर्माणि पापफलविपाकसंयुक्तानि क्रियन्ते तथा नीतस्य कर्मणोऽनुभवस्तया औपक्रमिक्या वेदनया वेदयिष्यति / तथा 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 440 पृष्ट गतम्) च-(अहाकम ति) यथाकर्म बद्धकनितिक्रमेण (अहानिगरण से णूणं भंते ! नेरइयस्स वा तिरिक्खजोणियस्स वा मणुसस्स ति)निकरणानां नियताना देशकालाऽऽदीना विपरिणामहेतूनामनतिवा देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, णत्थि तस्स अवेइयत्ता क्रमेण यथा यथा तत्कर्म भगवता दृष्टम्, तथा तथा विपरिणस्यति, मोक्खो? हंता गोयमा! नेरइयस्स वा तिरिक्खमणुस्सदेवस्स इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्ताविति। भ०१श०४उ०। (अत्र विशेषम् 'बंध' वा०जाव मोक्खो / से केणतुणं भंते ! एवं वुचइनेरइयस्स शब्दे वक्ष्यामि) वा०जाव मोक्खो, एवं खलु मए? गोयमा ! दुविहें कम्मे पण्णत्ते। पावकम्ममूल न०(पापकर्ममूल) क्लिष्टज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिवीजे, प्रश्न० तं जहा-पएसकम्मे य, अणुभागकम्मे य / तत्थ णं जं तं आश्र० द्वार। पएसकम्मं तं नियमा वेदेइ, तत्थ णं जंतं अणुभागकम्मं तं / पावकम्मविगम पुं०(पापकर्मविगम) पापकर्म मिथ्यात्वमोह-नीयाऽऽदि, अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ, णायमेयं अरहया, तस्य विगमः विशिष्टो गमः।पापस्य अपुनर्भवबन्धकत्वेन पृथग्भावे, पं० सुयमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया, इमं कम्मं अयं जीवे सू०१सूत्र। अज्झोवगमियाए वेयणाए वेयइस्सइ, इमं कम्मं अयं जीवे पावकम्मोवदेस पुं०(पापकर्मोपदेश) पातयति नरकाऽऽदाविति पापं, उवकमियाए वेयणाए वेयइस्सइ, अहाकम्मं अहाणिगरणं जहा तत्प्रधानं कर्म पापकर्म, तस्योपदेश इति समासः। कृष्याधुपदेशे, जहा तं भगवया दिटुं तहा तहा तं विपरिणमिस्सतीति, से | आव०६अ० औ०। यथा क्षेत्राणि कृषयेत्यादि। उपा०ाध०र०ा पापकर्मतेणतुणं गोयमा ! नेरइयस्स वा०जाव मोक्खो। प्रवर्तन कृप्यादिसावधव्यापारे, ध०२अधि० ( से णूणमित्यादि) 'नेरइयस्स वा' इत्यादौ नास्ति मोक्ष इत्येयं पावकोव पुं०(पापकोप) पापमपुण्यप्रकृतिरूपं कोपयति प्रपञ्चयति पुष्णाति सम्बन्धात् षष्ठी। (जे कड़े त्ति) तैरेव यद्बद्धं पावकम्मे त्ति) पापमशुभं यः स पापकोष इति / अथवा पापं चासौ कोषकार्यत्वात् कोपश्चेति नरकगत्यादि, सर्वमेव वा, पापं दुष्ट, मोक्षव्याघातहेतुत्वात्। (तस्स त्ति) पापकोषः। पापाऽऽत्मनि कोपनशीले च / एकोनविंशे गौणप्राणातिपाते, तस्मात्कर्मणः सकाशात् (अवेइयत्त ति) तत् कर्माननुभूय (एवं खलु प्रश्न०१आश्र० द्वार। त्ति) वक्ष्यमाणप्रकारेण खलुक्यालङ्कारे (मए त्ति) मया। अनेन च पावग न०(पावक) पुनातीति पावकम्। शुभे अनुष्ठाने, तं०। अनौ, दश०४ वस्तुप्रतिपादने सर्वज्ञत्वेनाऽऽत्मनः स्वातन्त्र्यं प्रतिपादयति। (पएसकम्मे अ० उत्त यत्ति) प्रदेशाः कर्मपुद्गला जीवप्रदेशेष्वोतप्रोतास्तद्रूपं कर्म प्रदेशकर्म *पापक न० पापमेव पापकम् / पापोपादान कारणे, आचा०१श्रु० (अणुभागकम्मे यत्ति) अनुभागस्तेषामेव कर्मप्रदेशाना संवेद्यमा अ० 1 उ०। उत्त० सावद्यानुष्ठानरूपे कर्मणि, सूत्र० १श्रु० नताविषयो रसस्तद्रूपं कर्मानुभागकर्म / तत्र यत्प्रदेशकर्म तन्नियमा- १२अ०। अवद्ये, सूत्र०१श्रु०११०२उ०। अशुभे, प्रश्न०१सम्ब० द्वेदयति, विपाकस्याननुभवनेऽपि कर्मप्रदेशानामवश्यं क्षपणात्प्रदेशेभ्यः द्वार / उत्त०ा कल्मपे, सूत्र० १श्रु०१अ० २उ०। प्राणातिपाताऽऽदौ, प्रदेशान्नियमाच्छातयतीत्यर्थोऽनुभागकर्म च तथाभावं वेदयति वा न वा। प्रन२०१आश्र० द्वार। आव०। अशुभफलवृत्तिविशेषे,ज्ञा०१श्रु०१६ तथा मिथ्यात्वं तत्क्षयोपशमकालेऽनुभागकर्मतया न वेदयति, अ०। दुःखदायके, उत्त० २०अ०। पापानुष्ठाने, उत्त० १अ० मैथुना Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावग ८८०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावय ऽऽसेवनाऽऽदिके, सूत्र० १श्रु० 4 अ० १उ०। नरकाऽऽदिहेतौ पाप इदानी पापप्रकृतीराहकर्मणि, उत्त० २अ०। सकारणभूतेषु आश्रयेषु, सूत्र० २श्रु०५ अ०। .............., अपढमसंठाणखगइसंघयणा। पापकमस्यास्तीति पापकः। पापवति, सूत्र०२श्रु०५ अ०। आचाला पाप तिरियदुम असाय नीओवघाय इग विगल निरयतिगं१६ एव पापकः। पापकर्त्तरि, दश०६अ। जलरुहभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ० थावरदस वन्नचउक्क, घाइ पणयाल सहिय बासीई। 5 उ०। पावपयडि त्ति दोसु वि, वन्नाइगहा सुहा असुहा / / 17 / / पावगोयर पुं०(पापगोचर) पापविषये, द्वा०२०द्वा०। (अपढमसंठाणेत्यादि) संस्थानानि चखगतिश्व संहननानि च संस्थानपावजीवि (ण) पुं०(पापजीविन्) पापश्रुताऽऽजीविनि, कोण्टलाऽऽदि- खगतिसंहननानि, अप्रथमानि च प्रथमवर्जानि तानि संस्थानखगतिशास्त्रोपजीविनि, व्य०३७० संहननानि च अप्रथमसंस्थानखगतिसंहनानि। तत्राऽप्रथमसंस्थानानि पावट्ठाणग न०(पापस्यानक) पापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि। न्यग्रोधपरिमण्डलसादिकुब्जवामनहुण्डाऽऽख्यानि पञ्च, अप्रथमखहिंसाऽऽदिषु पापस्थानेषु, प्रव० १०६द्वार / (तान्यष्टादश 'पेसुण्ण' गतिरप्रशस्तविहायोगतिः, अप्रथमसंहननानिऋषभनाराचनाराचार्द्धशब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यामि) नाराचकीलिकाछेदवृत्तरूपाणि पञ्च, तिर्यद्विकं तिर्यग्गतितिर्यगानुपावडण न०(पादपतन) 'दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पादपीठे पूर्वीरूपम्, असातं, नीचैर्गोत्रम्, उपघातम् (इग त्ति) एकेन्द्रियजातिः, ऽन्तर्दः' ||8 / 1 / 270 / / इति सस्वरव्यञ्जनस्य लुग्वा। पावडणं (विगल त्ति) द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातयः, नरकत्रिक नरकगतिनपाअवडणं।' पादयोः पाते, प्रा०१पाद। रकानुपूर्वीनरकाऽऽयुर्लक्षणं, स्थावरदशकं स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तकसापावण त्रि०(पावन) पवित्रे, अष्ट० 26 अष्ट०। धारणाऽस्थिराऽशुभदुर्भग्रदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिरूपं, वर्ण चतुष्कम्-वर्णगन्धरसस्पर्शाऽऽख्यं, (घाइपणयाल त्ति) सर्वघातिन्यो *प्रापण न० प्राप्तौ, ज्ञा०१श्रु०१८अ०। हठाद् व्यापारप्रवर्तने, प्रश्न० विंशतिः, देशघातिन्यः पञ्चविंशतिः। उभया अपि मिलिताः सामान्येन १आश्र० द्वार। घातिन्यः पञ्चचत्वारिंशद्भवन्ति,ताभिः सहितायुक्ताः पूर्वोक्ता अप्रथमपावणियाण न०(पापनिदान) पापानि पापनिबन्धनानि निदानानि / संस्थानाऽऽदिका वर्णचतुष्कपर्यवसानाः सप्तत्रिंशत्संख्या व्यशीतयः पापोपादानभोगाऽऽदिप्रार्थनायाम्, पा०। पापप्रकृतयो भवन्ति / इतिशब्दः परिसमाप्तौ, व्यशीतय एव पापप्रकृतयो पावणिवारण न०(पापनिवारण) त०। अशुभकर्मणो निषेधके पा०। नाधिका इत्यर्थः / ननु द्विचत्वारिंशत्पुण्यप्रकृतयो भवन्ति, व्यशीतिश्च पावणिवेयण न०(पापनिवेदन) रागद्वेषकृतानां कर्मणां स्वयं कृतत्वेन पापप्रकृतयो, मिलिताश्चतुर्विशत्युत्तर प्रकृतिशतं जातं, बन्धेतु विंशत्युपरिकथने, पो० 6 विवा तरमेव शतमधिक्रियते "बंधे विंसुत्तरसय'' मिति वचनात्, तत्कथं न पावदिट्टि पुं०(पापदृष्टि) पापा, दृष्टिः बुद्धिरस्येति पापदृष्टिः। पापबुद्धौ उत्त० विरोधः? इत्याह-(दोसु वि वन्नाइगह त्ति) द्वयोरपि पुण्यपाप-प्रकृतिपाई० 10 // राश्योर्वण्र्णाऽऽदिग्रहात वर्णगन्धरसस्पर्शग्रहणान्न कश्वनापि विरोधः / पावदुगुंछा स्त्री०(पापजुगुप्सा) पापपरिहारे, षो०। अयमभिप्रायः--वर्णाऽऽदयो हि पुण्यस्वभावाः पापस्वभावाश्च वर्तन्ते, पापजुगुप्सालक्षणम् ततः पुण्यवर्णचतुष्टय पुण्यप्रकृतिषु मध्ये गृह्यते, पापवर्णचतुष्टयं पुनः पापजुगुप्सा तु तथा, सम्यकपरिशुद्धचेतसा सततम्। पापप्रकृतिषु / ततः पुण्यपापप्रकृतिराश्योर्वर्णाऽऽदिचतुष्कं यत्तदेकमेव पापोद्वेगोऽकरणं, तदचिन्ता चेत्यनुक्रमतः॥५॥ सत् प्रशस्ताप्रशस्तभेदेनोभयत्रापि विवक्ष्यते इत्यदोषः / तथा एता एव पुण्यप्रकृतयः शुभकारणजन्यत्वात् शुभा उच्यन्ते, पापप्रकृतयस्त्वपापजुगुप्सा तु तथा पापपरिहाररूपा सम्यक् परिशुद्धचेतसा अविप शुभकारणजन्यत्वादशुभा अभिधीयन्ते। कर्म०५कर्म०। रीतपरिशुद्धमनसा सततमनवरतं पापोद्वेगोऽतीतकृतपापोद्विग्नता अकरणं पावभीरुयया स्त्री०(पापभीरुकता) दृष्टादृष्टभ्यः पापकारणेभ्यः कर्मभ्यो पापस्य वर्तमानकाले तदचिन्ता चेत्यनुक्रमतः तस्मिन् भाविनि पापे भीरुकतायाम, ध० १अधि। अचिन्ताऽचिन्तनमनुक्रमेण आनुपूर्व्या कालत्रयरूपया / अथवा पावमण त्रि०(पापमनस्) पापं प्राणातिपाताऽऽदिमत्सनिदान वा मनो यस्य पापोद्वेगःपापपरिहारः कायप्रवृत्त्या अकरण वाचा तदचिन्ता पापाचिन्ता स पापमनाः। पापोपभोगाऽऽदिप्रार्थनया उपेते, पञ्चा०६ विव०। मनसा सर्वाऽपीयं पापजुगुप्सा धर्मतत्त्वलिङ्गम्। षो०। ४विव०। अष्टा पावमोक्ख पुं०(पापमोक्ष) पातयति पांशयतीति वा पापं, तस्मान्मोक्षः / पावद्ध त्रि०(प्राबद्ध) पाशिते, नि०चू० १६उ०। आचा०१श्रु०२अ० २उ०। 'पावमोक्खो त्ति मण्णमाणे अहुना आसंसा पावधम्म पुं०(पापधर्मन्) क०सा सावधेषु मनोवाक्कायव्यापारेषु, सूत्र० एवं परिणाय मेहावी।'' आचा० १श्रु०२अ० २उ०। प्रति०। १श्रु०१४अ० पापोपादानकारणे प्राण्युपमर्दप्रवृत्ती, सूत्र०१श्रु०११अ०। पावय पुं०(पावक) अग्नौ, "धूमद्धओ हुअवहो, विहावसू पावयो सिही मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकलुषितान्तराऽऽत्मनि, सूत्र० १श्रु०१४अ०। वण्ही / अणलो जलणो डहणो,हुआसणो हव्यवाहो य // 6 // '' पाइ० पावपगइ रवी०(पापप्रकृति) कटुकरसासु अशुभप्रकृतिषु, कर्म०५ कर्म०। | ना०६गाथा। Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावयण 881 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावसमण पावयण न०(प्रावचन) प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवाऽऽदयो यस्मिन् तत् प्रावचनम्। आव०४अाधा प्रवचने, शासने, प्रत्र०२संव० द्वार। "सुयधम्भो त्ति वा तित्थ त्ति वा पावयणं ति वा एगट्ठा।" आ०चू०१ असा संथा०। प्रशस्त प्रगतं प्रथम वा वचनमिति प्रवचनम् / आगमे, दीर्धत्व प्राकृतत्वात्। स्था०३ठा०४उ०। पावयणिय पुं०(प्रावचनिक) प्रवचने प्रवचनार्थकथने नियुक्तः प्रावधनिकः 1 नं०। प्रवचन द्वादशाङ्ग गणिपिटकं तदस्यास्तीति प्रावचनी / युगप्रधानाऽऽगमे, आचार्थे , प्रवचनप्रभावकभेदे, ध०२ अधि० आचाला संथा०ा बृ०ा व्य०) पावयणि (न) पुं०(प्रवचनिन्) दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्। प्रवचनप्रणेतरि जिने, भ०२० २०८उ०ा आचार्य , आ०चा०२श्रु०३चू०। पावरग पुं०(प्रावरक) सलोमके पटे, प्रवारः सलोमकः पटः, स च माणिकीप्रभृतिकः, अन्ये तु प्रावारको बृहत्कम्बलः परियच्छिा त्याहुः। प्रव०८४ द्वारा पावरण न०(प्रावरण) षट्पदिकाभयेन यत्प्राव्रियतेतत्प्रावरणम्। बृ०३उ०। वर्षाकल्पाऽऽदौ, उत्त०१७अ० पावरुइ त्रि०(पापरुचि) पापमेवोपादेयमिति श्रद्दधाने, प्रश्न०१आश्र० द्वार / पावलोग पुं०(पापलोक) पापकर्मणां नरकाऽऽदिके लोके, सूत्र० १श्रु०२अ०३३० पावलोभ पुं०(पापलोभ) पापमपुण्यं लुभ्यति प्राणिनि स्निह्यति, संश्लिष्यतीति यावत् यतः स पापलोभः / अथवा-पापं चासौ लोभश्व तत्कार्यत्वात् पापलोभः / विंशतितमे गौणप्राणातिपाते, प्रश्न०१आश्र० द्वार। पावविगार पुं०(पापविकार) पापजन्ये विषयतृष्णाऽऽदौ, षो० १विव०। (धर्मतत्त्वयुक्तस्य विषयतृष्णाऽऽदयो न भवन्ति इति 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2672 पृष्ठे दर्शितम्) पावसंतत्त त्रि०(पापसन्तप्त) पापकर्मणा सन्तप्ते, सूत्र० १श्रु० 410130 / पावसमण पु०(पापश्रमण) पापेनोक्तरूपेण उपलक्षितः श्रमणः पापश्रमणः / पापश्रमणीयोत्तराऽध्ययनवर्णितभावसेवके दुः श्रमणे, उत्त०। जे भावाऽकरणिज्जा, इह अज्झयणम्मि वन्निय जिणेहिं। ते भावे सेवंतो, नायव्वो पापसमणो त्ति॥३९०|| ये भावाः संसक्तापठनाशीलताऽऽदयोऽर्थाः अकरणीयाः कर्तुमनुचिताः इह प्रस्तुतेऽध्ययने (वण्णिय ति) वर्णिताः प्ररूपिता जिनस्तीर्थकृतिः तान् भावान् सेवमानोऽनुतिष्ठन् ज्ञातव्योऽवबोद्धव्यः पापेन-उक्तरूपेण उपलक्षितः श्रमणः पापश्रमणः / इति-शब्दः पापश्रमणशब्दस्य स्वरूपपरामर्शक इतिगाथाऽर्थी उत्त०पाई०१७अ01 पापश्रमणलक्षणम्जे केइ ऊ पव्वइए नियंठे, धम्म सुणित्ता विणओववण्णे। सुदुल्लह लहिउं वोहिलाभ, विहरिज पच्छा य जहासुहं तु ||1|| सिजा दढा पाउरणं मि अत्थि, उप्पजई भुत्तु तहेव पाउं। जाणामि जं वट्टइ आउसो त्ति, किं नाम काहामि सुएण भंते ! / / 2 / / यः कश्चिदित्यविवक्षितविशेषणः तुः पूरणे। पठन्ति च-'जे के इमे त्ति।' तत्र च (इमे त्ति) अयं प्रव्रजितो निष्क्रान्तो निर्ग्रन्थः प्राग्वत्, कथं पुनरयं प्रव्रजित इत्याह-धर्म श्रुतचारित्ररूपं, श्रुत्वा निशम्य, विनयेन ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराऽऽत्मकेनोपपन्नो युक्तो विनयोपपन्नः सन् सुदुर्लभमतिशयदुष्प्रापम् (लभिउंति) लब्ध्वा बोधिलाभं जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिरूपम्, अनेन भावप्रतिपत्त्याऽसौ प्रव्रजित इत्युक्तं भवति / स किमित्याहविहरेचरेत्पश्चात् प्रव्रजनोत्तरकालं, चः पुनरर्थो विशेषद्योतकस्ततश्च प्रथम सिंहवृत्त्या प्रव्रज्य पश्चात्पुनर्यथासुखं यथा यथा विकथाऽऽदिकरणलक्षणेन प्रकारेण सुखमात्मनोऽवभासते, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद्यथासुखमेव शृगालवृत्यैव विहरेदित्यर्थः / उक्तं हि- "सीहत्ताए निक्खंतो सियालत्ताए विहरइ त्ति।'' स च गुरुणाऽन्येन वा हितैषिणाऽध्ययन प्रति प्रेरितो यद्वक्ति तदाह शय्या वसतिर्दृढा वाताऽऽतपजलाऽऽद्युपद्रवैरनभिभाव्या, तथा प्रावरणं वर्षाकल्पाऽऽदि में मम अस्ति / किञ्चउत्पद्यते जायते भोक्तुं भोजनाय तथैव पातुं पानाय यथाक्रममशनं पानं चेति शेषः। तथा जानाम्यवगच्छामि यद्वर्तते यदिदानीमस्ति आयुष्मन्निति प्रेरयितुरामन्त्रमिति, एतस्माद्धेतोः किं नाम? न किञ्चिदित्यर्थः / (काहामि त्ति) करिष्यामि श्रुतेनाऽऽगमेनाधीतेनेत्यध्याहारः। 'भंते त्ति'' पूज्याऽऽमन्त्रणम्। इह च प्रक्रमात् क्षेपे। अयं हि किलास्याऽऽशयो यथा ये भवन्तो भदन्ता अधीयन्ते तेऽपि नाऽतीन्द्रियं वस्तु किञ्चनाऽवबुध्यन्ते, किं तु साम्प्रतमात्रेक्षिण एव, तचैतावदस्मास्वेवमप्यस्ति, तत् कि हृदयगलतालुशोषविधाथिनाऽधीतेनेति? इत्येवमध्यवसितो यः स पापश्रमण इत्युच्यते इतीहाऽपि सिंहाक्लोकितन्यायेन संबध्यत इति सूत्रद्वयार्थः। किंचजे केइ उ पव्वइए, निबासीले पगामसो। भोचा पिच्चा सुहं सुयई, पावसमणे त्ति वुबइ / / यः कश्चित् प्रवजितो निद्राशीलो निद्रालुः प्रकामशो वहुशो भुक्त्वा दध्योदनाऽऽदि,पीत्वा तक्राऽऽदि सुखं यथा भवत्येवं सकलक्रियाऽनुष्ठाननिरपेक्ष एव स्वपिति शेते। पठ्यते च-(बसइ त्ति) वसत्यास्ते ग्रामाऽऽदिषु, स इत्थंभूतः किमित्याह-पापश्रमण इत्युच्यते प्रतिपाद्यत इति सूत्राऽर्थः। ___ इत्थं न केवलमनधीयान एव पापश्रमण उच्यते, किं तुआयरियउवज्झाएहिं,सुयं विणयं च गाहिए। ते चेव खिंसई बाले, पावसमणे त्ति वुचई / / 4 / / आचार्योपाध्यायः श्रुतमागममर्थतः शब्दतश्व विनयं चोलरूपं ग्राहितः शिक्षितो, यैरिति गम्यते. तानेवाऽऽचायाऽऽदीन् Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावसमण 882 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावसमण (खिंसइ त्ति) निन्दति बालो विवेकविकलो गम्यमानत्वाद्यः स पापश्रमण इत्युच्यते इति सूत्राऽर्थः। इत्थं ज्ञानाऽऽचारनिरपेक्ष पापश्रमणमभिधाय दर्शनाऽऽचारनिरपेक्ष तमेवाऽऽहआयरियउवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पई। अप्पडिपूयए थद्धे, पावसमण त्ति वुधई / / 5 / / आचार्योपाध्यायानां सम्यगवैपरीत्येन न परितप्यते न तत्तप्ति विधत्ते दर्शनाऽऽचारान्तर्गतवात्सल्यविरहितो न तत्कार्येष्वभियोगं विधत्ते इति भावः / अप्रतिपूजकः प्रस्तावादहंदादिषु यथोचितप्रतिपत्तिपराङ्मुखः स्तब्धो गर्वाऽऽध्मातः केनचित्प्रेर्यमाणोऽपि न तद्वचनतः प्रवर्त्तते यः स पापश्रमण इत्युच्यत इति सूत्राऽर्थः। सम्प्रति चारित्राऽऽचारविकलं तमेवाऽऽहसम्मघमाणे पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य। असंजए संजय मन्नमाणे, पावसमाणि त्ति वुच्चई / / 6 / / संथारं फलगं पीढं, निसिज्जं पायकंबलं / अप्पमजियमारुहई, पावसमणि त्ति वुच्चई॥७॥ दवदवस्स चरई, पमत्ते य अभिक्खणं। उल्लंधणे य चंडे य, पावसमणि त्ति वुच्चई / / 6 / / पडिलेहेइ पमत्ते, अवउज्झइ पायकंबलं / पडिलेहाअणाउत्ते, पावसमणि त्ति वुचई / / 6 / / पडिलेहेइ पमत्ते, सो किंचि हु निसामिआ। गुरुं परिभावए निचं, पावसमणि त्ति वुच्चई।।१०।। बहुमाई पमुहरी, बद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते, पावसमणि त्ति वुचई।११।। विवायं च उदीरेइ, अधम्भे अत्तपण्हहा। वुग्गहे कलहे रत्ते, पावसमणि त्ति वुच्चई / / 12 / / अथिरासणे कुकुईए, जत्थ तत्थ निसीयई। आसणम्मि अणाउत्ते, पावसमणि त्ति वुच्चई।।१३।। ससरक्खपाओ सुअई, सिज्जं न पडिलेहई। संथारए अणाउत्तो, पावसमणि त्ति वुच्चई // 14 // संमईयन हिंसन् प्राणानिति प्राणयोगात् प्राणिनो द्वीन्द्रियाऽऽदीन् / बीजानि शाल्यादीनि हरितानि च दूर्वाङ्कुराऽऽदीनि सकलैकेन्द्रियोपलक्षणमेतत, स्पष्टतरचैतन्यलिङ्गत्वाचैतदुपादानम्, अतएवासंयतस्तथापि (संजतमन्नमाणित्ति) सोपस्कारत्वात्संयतोऽहमिति मन्यमानः, अनेन च संविग्नपाक्षिकत्वमप्यस्य नास्तीत्युक्तम्, पापश्रमण इत्युच्यते। तथा संस्तारं कम्बल्यादि, फलकं चम्पकपट्टाऽऽदि,पीठाभासनं, निषद्यां स्वाध्यायभूम्यादिकां यत्र निष्पद्यतेपादकम्बलं पादपुञ्छनम्, अप्रमृज्य रजोहरणाऽऽदिना असंशोध्य, उपलक्षणात्वादप्रत्युपेक्ष्य च, आरोहति समाक्रामति यःस पापश्रमण इत्युच्यते। तथा (दवदवस्स त्ति) द्रुतं द्रुतं तथा-विधाऽऽलम्बतं विनाऽपि त्वरित त्वरितं चरति गोचरचर्याऽऽदिषु परिभ्राम्यति, प्रमतश्च प्रमादवशगश्च भवतीति शेषः / अभीक्ष्णं वारं वारमुल्लङ्गनश्च बालाऽऽदीनामुचितप्रतिपत्त्यकरणतोऽधःकर्ता चण्डश्च क्रोधनः / यद्वा-प्रमत्तोऽनुपयुक्तः, ईर्यासमिती उल्लङ्घनश्च वत्सडिम्भाऽऽदीनां चण्डश्चारभटवृत्त्याश्रयणतः, शेष तथैव / तथा प्रतिलेखयति अनेकार्थत्वात् प्रत्युपेक्षते प्रमत्तः सन् (अवउज्झइ त्ति) अपोज्झति यत्र तत्र निक्षिपति, प्रत्युपेक्षमाणो वा अपोज्झति, न प्रत्युपेक्षते इत्यर्थः / किं तत्? पादकम्बलं पात्रकम्बलं वा प्रतीतमेव, समस्तोपध्युपलक्षणं चैतत्,स एवं प्रतिलेखनाऽनायुक्तःप्रत्युपेक्षाऽपयुक्तः, शेषं तथैव / तथा प्रतिलेखयति प्रमत्तः सन् (किंचि हुत्ति) हुरपिशब्दार्थः, ततः किश्चिदपि विकथाऽऽदीति गम्यते। (निसामिय त्ति) निशम्याऽऽकण्यं तत्राऽऽक्षिप्तचित्ततयेति भावः। (गुरुपरिभासए ति) गुरून् परिभाषते विवदते गुरुपरिभाषकः / पाठान्तरतो गुरुपरिभावको, नित्यं सदा / किमुक्त भवति?-असम्यक् प्रत्युपेक्षमाणोऽन्यता वितथमाचरन् गुरुभिश्वोदितस्तानेव विवदतेऽभिभवति वाऽसभ्यवचनैर्यथा स्वयमेव प्रत्युपेक्षध्वं, युष्माभिरेव वयमित्थं शिक्षितास्ततो युष्माकमेवैष दोष इत्यादि / शेष तथैव, गुरुपरिभाषकत्वं प्रमत्तत्वस्य च निशमनहेतुत्वं पूर्वस्माद्विशेष इति न पौनरुक्त्यम् / किं च-बहुमायी प्रभूतवञ्चताप्रयोगवान् प्रकर्षण मुखरः स्तब्धो लुब्ध इति च प्राग्वत्, अविद्यमानो निग्रहः-इन्द्रियनोइन्द्रियनियत्रणाऽऽत्मकोऽस्येत्यनिग्रहः। संविभजतिगुरुग्लानबालाऽऽदिभ्य उचितमशनाऽऽदि यच्छतीत्येवं शीलः संविभागीन तथा य आत्मपोषकत्वेनैव सोऽसंविभागी 1 (अचियत्ते त्ति) गुर्वादिष्वप्रीतिमान्,शेषं पूर्ववत्। अन्यच्चविरूपो वादो विवादः-वाक्कलहः तं चः पूरणे, (उदीरेइ ति) कथञ्चिदुपशान्तमप्युत्प्रासनाऽऽदिना बृद्धिं नयति, अधर्मोऽविद्यमानसदाचारः (अत्तपण्हह त्ति) आत्मनि प्रश्न आत्मप्रश्रः तं हन्त्यात्मप्रश्नहाः, यदि कश्चित्परः पृच्छत्-किं भवान्तरयायी अयमात्मा, उत नेति? ततस्तमेव प्रश्रमतिवाचालतया हन्ति, यथा-नास्त्यास्मा प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणैरनुपलभ्यत्वात्, ततोऽयुक्तोऽयं प्रश्रः, ''सति हिधर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते' इति। पठ्यते च (अत्तपण्णह त्ति) तत्र च आतां सिद्धान्ताऽऽदिश्रवणतो गृहीतामाता वा इहपरलोकयो: सद्रोधरूपतया हितां प्रज्ञामात्मनोऽन्येषां वा बुद्धिं कुतर्कव्याकुलीकरणतो हन्ति यः स आत्तप्रज्ञाहा आप्तप्रज्ञाहा वा, (बुग्गहि त्ति) व्युद्ग्रहे दण्डाऽऽदिधातजनिते विरोधे कलहे तस्मिन्नेव वाचिके रक्तोऽभिष्वक्तः / शेष प्राग्वत्। अपरं च अस्थिरासनः कुकुचः कुकुचो वा, द्वयमपि पूर्ववत्, यत्र तत्रेति संसक्तसरजस्काऽऽदावपीत्यर्थः, निषीदतीत्युपविशति आसने पीठाऽऽदावनायुक्तोऽनुपयुक्त सन्, शेषं प्राग्वत्। तथा सह रजसा वर्तते इति सरजस्कौ तथाविधौ पादौ यस्य स तथा स्वपिति शेते। किमुक्तं भवति?संयमविराधनां प्रत्यभीरुतया पादावप्रमृज्यैव शेते, तथा शय्यां वसतिंन प्रतिलेखयत्युपलक्षणत्वात् न च प्रमार्जयति, संस्तारके फलककम्बलाऽऽदौ सुप्त इति शेषः। अनायुक्तः "कुक्कुडिपायपसारण, आयामेउं वि आउंटे।'' इत्याद्यागमाऽर्थाऽनुपयुक्त अन्यत्तथैवेति सूत्रनवकाऽर्थः। इदानीं तप आचारातिक्रमतः पापश्रमणमाहदुद्धदहीविगईओ, आहारेइ अभिक्खणं। Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावसमण 853 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावसुयपसंग अरए य तवोकम्मे, पावसमणि त्ति वुच्चई / / 15 / / अत्यंतम्मि य सूरम्मि, आहारेइ अभिक्खणं। चोइओ पडिचोएइ, पावसमणि त्ति वुच्चई।१६।। आयरियपरिचाई, परपासंडसेवए। गाणंगणिए दुब्भूए, पावसमणि त्ति वुचई / / 17 / / दुग्धं, क्षीरं,दधि च तद्विकार एव, दधिदुग्धे, सूत्रे च व्यत्ययः प्राग्वत्, विकृतिहेतुत्वात् विकृती, उपलक्षणत्वात्, घृताऽऽद्यशेषविकृति-परिग्रहः, आहारयत्यभ्यवहरति, अभीक्ष्णं वारं वारं, तथा--विधपुष्टाऽऽलम्बन विनापीति भावः / अत एवारतश्चाप्रीतिमांश्च तपःकर्मण्यनशनाऽऽदी, शेष प्राग्वत् / अपि च-(अत्यंतम्मि यत्ति) अस्तान्ते अस्तमयपर्यन्ते, चः यूररणे, उदयादारभ्येति गम्यते / सूर्य भास्वत्याहारयत्यभीक्ष्णम् / किमुक्तं भवति?प्रातरारभ्य संध्या यावत् पुनः पुनर्भुक्ते, यदि वा(अत्तम्मि यत्ति) अस्तमयति सूर्ये आहारयति,तिष्ठति तु किमुच्यत इति भावः। किमेक-दैवेत्याह अभीक्ष्णं पुनः पुनर्दिने दिने इत्युक्तं भवति / यदि चाऽसौ केनचित् गीतार्थसाधुना चोद्यते, यथाऽऽयुष्मन् ! किमेवं त्वयाऽऽहारतत्परेणैव स्थीयते?, दुर्लभा खल्वियं मनुजत्वाऽऽदिचतुरङ्गसाग्री, ततः। एनामवाप्य तपस्येवोद्यन्तुमुचितमिति / ततः किमित्याह-(चोइओ पडिचोएइ त्ति) चोदितः सन् प्रतिचोदयति, यथाकुशलत्वमुपदेशकर्मणि न तु स्वयमनुष्ठाने, अन्यथा किमेवमवगच्छन्नपि भवान्न विकृष्ट तपोऽनुतिष्ठति? शेषं तथैव / आचार्यपरित्यागी,ते हि तपःकर्मणि विषीदन्तमुद्यमयन्त्यानीतमपि चान्नाऽऽदि बालग्नानाऽऽदिभ्यो दापयन्त्यतोऽतीवाऽऽहारलौल्वात्तत्परित्यजनशीलः परानन्यान् पाषण्डान् सौगतप्रभृतीन 'मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया,'' इत्यादिकदभिप्रायतोऽत्यन्तमाहारप्रसक्तांस्तत एव हेतोः सेवते तथा तथाऽपसर्पतीतिपरपाषण्डसेवकः, तथा च स्वेच्छाप्रवृत्ततया (गाणंगणिए त्ति) गणाद् गणं षण्मासाभ्यन्तर एव संक्रामतीति गाणंगणिक् इत्यागनिकी परिभाषा / तथा चाऽऽगमः-"छम्मासऽभंतरतो गणा गणं संकमं करेमाणो।'' इत्यादि। अत एव च दुर्निन्दायां, ततश्च दुरिति निन्दितं, भूतभवनमस्येति दुर्भूतो, दुराचारतया निन्द्यो भूत इत्यर्थः, अपरं तथैवेति सूत्रत्रयाऽर्थः। संप्रति वीर्याऽऽचारविरहतः तमेवाऽऽहसयं गेहं परिचञ्ज, परगेहंसि वावरे। निमित्तेण य ववहरई, पावसमणि त्ति धुचई // 18 // सण्णाइपिंडं जेमेइ, निच्छई सामुदाणियं / गिहिनिसिज्जं च वाहेइ, पावसमणि त्ति धुबइ / / 16 / / स्वमेव स्वक, निजकमित्यर्थः / गेहं गृहं, परित्यज्य परिहृत्य, प्रव्रज्याङ्गीकरणतः परगेहेऽन्यवेश्मनि (वावरि त्ति) व्याप्रियते पिण्डाीं सन् गृहिणामात्मभाव दर्शयन् स्वतस्तत्कृत्यानि कुरुतेः पठ्यते च(यवहरि त्ति) तत एव हेतोर्व्यवहरति गृहिनिमित्तं क्रय-विक्रयव्यवहार करोति, निमित्ते न च शुभाशुभसूचकेन व्यवहरति द्रव्यार्जनं करोति, अपरं च पूर्ववत्। अपि च-सन्नाय त्ति स्वज्ञातयः स्वकीयस्वजनास्तैर्नि जक इति यथेप्सितो यः स्निग्धंमपुराऽऽदि-राहारो दीयते स स्वज्ञातिपिण्डस्तं (जेमति त्ति) भुक्ते, नेच्छति नाऽभिलवति समुदानानिभिक्षास्तेषां समूहः सामुदानिकम्, "अचित्तहस्तिधेनोष्ठक्" / / 4 / 2 / 47 / / इति ठक / बहुगृहसंबन्धिनं भिक्षासमूहमज्ञातोञ्छमिति यावत्, गृहिणां निषद्या पर्यङ्कतूल्यादिका शय्या, तां च वाहयति सुखशीलतया आरोहति, शेषं तथैवेति सूत्रद्वयार्थः / संप्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरन्नुक्तरूपदोषाऽऽसेवनपरिहारयोः फलमाहएयारिसे पंचकुसीलसंवुडे, रूवं धरे मुणिपवराण हेडिमे / अयंसि लोए विसमेवगरहिए, ण से इहं नेव परम्मि लोए॥२०॥ जो वज एए उसया उ दोसे, से सुव्वए होइ मुणीण मज्झे। अयंसि लोए अमयं व पूइए, आराहए दुहओलोगमिणं (तहा परे) // 21 // एतादृशो यादृश उक्तः- (पंचे त्ति) पञ्चसंख्यः कुत्सितं शीलमेषां कुशीलाः पार्श्वस्थाऽऽदयः समाहृताः पञ्चकुशीलं तद्वदसंवृतः अनिरुद्धाऽऽश्रवद्वारः पञ्चकुशीलासंवृतो, रूपं रजोहरणाऽऽदिकं वेषं धारयति, रूपधरः, सूत्रे तु प्राकृतत्वाद्विन्दुनिर्देशः / मुनिप्रवराणामतिप्रधानतपस्विनाम्- (हिडिमो त्ति) अधस्ताद्वर्ती, अतिजघन्यसंयमस्थानवर्तित्वान्निकृष्ट इत्यर्थः / एतत्फलमाह-(अयसि त्ति) अस्मिन् लोके जगति विषमिवेति गरल इव गर्हितो निन्दितः; भ्रष्टप्रतिज्ञो हि प्राकृतजनैरपि निन्द्यतेधिगेनमिति। अत एव न स इहेति इहलोके, नैवेति नाऽपि परश्र लोके, परमार्थतः सन्निति शेषः, यो हि नैहिककमामुष्मिकं वा कशन गुणमुपार्जयति स तद्गणनायामप्रवेशतस्तत्त्वतोऽविद्यमान एवेति। यो वर्जयति परित्यजत्यैतानुक्तरूपान् (सया उ त्ति) सदैव दोषान् यथासुखविहाराऽऽदिपापाऽनुष्ठानरूपान् स तथाविधः सुव्रतो निरतिचारतया प्रशस्यव्रतो भवति मुनीनां मध्ये। किमुक्तं भवति?भावतो मुनित्वेनाऽसौ मुनिमध्ये गण्यते, तया वाऽस्मिन् लोके अमृतमिव सुरभोज्यमिव पूजितोऽभ्यर्हितं आराधयति (दुहतो लोगमिण ति) इहलोकपरलोकभेदेन द्विविध लोकम् (इणं ति) इममनेन चाऽतिप्रतीततया प्रत्यक्षं निर्दिशतीति, इहलोके सकललोकपूज्यतया परलोके च सुगत्यवाप्तेः, ततः पापवर्जनमेवं विधेयमिति भाव इति सूत्रद्वयाऽर्थः / उत्त०१७अ० पावसमणिज न०(पापश्रमणीय) पापश्रमणस्वरूपोपदर्शके, सप्तदशे उत्तराध्ययने, उत्त०१७अ०। पावसुमिण पुं०(पापस्वप्न) दुःस्वप्ने, कल्प०१अधि० ३क्षणा पावसुय न०(पापश्रुत) पापोपादानहेतौ शास्त्रे, स्था०६ ठा०। आव०। पावसुयपसंग पुं०(पापश्रुतप्रसङ्ग) पापोपादानहेतुः श्रुतं तत्र प्रसङ्गस्तथा सेवारूपो विस्तरो वा सूत्रवृत्तिकरूपः पापश्रुतप्रसङ्गः। उत्पात्ताऽऽदिले पापश्रुते,स्थान Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावसुवपसंग 584 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पादा नवविहे पावस्सुयपसंगे पण्णत्ते / तं जहा–''उप्पाए नेमित्तिएँ सुत्तं वित्ती तह वत्तियं च पावसुय अउगतीसविहं। मंते, आइक्खए तिगिच्छीए। कलाऽऽवरण अन्नाणे, मिच्छा- गंधव्वनट्टवत्थु,आउं धणुवेयसंजुत्तं / / 2 / / पावयणे त्ति य||१||" अष्ट निमत्ताङ्गानि, दिव्यं व्यन्तराऽऽद्यपृट्टहासाऽऽदिविषयम्, उत्पातम् पापोपादानहेतुः श्रुतं शास्त्रं पापश्रुतं, तत्र प्रसङ्गः तथा सेवारूपो विस्तरो सहजरुधिरवृष्ट्यादिविषयम्, अन्तरिक्षम्-गृहभेदाऽऽदिविषयं, सूत्रवृत्तिकरूपः पापश्रुतप्रसङ्गः / (उप्पाए सिलोगो) तत्रोत्पातः भौमभूमिविकारदर्शनादेवास्मादिदं भवति इत्यादि विषयम्, अङ्गम् प्रकृतिविकारूपः सहजरुधिरवृष्ट्यादि तत्प्रतिपादनपरं शास्त्रमपि तथा, अङ्गविषयं, स्वरम्-स्वरविषयम्, व्यञ्जनम्-मषाऽऽदितद्विषय, लक्षण राष्ट्रोत्पाताऽऽदि, तथा निमित्तमतीताऽऽदिपरिज्ञानोपायशास्त्र कूट- लाञ्छनाऽऽदि तद्विषयम् / तथा च–अङ्गाऽऽदिदर्शनतस्तद्विदो भाविनं पर्वताऽऽदि, मन्त्रीमन्त्रशास्त्रं जीवोद्धरणगारुडाऽऽदि (आइक्खए त्ति) सुखाऽऽदि जानन्त्येव, त्रिविधं पुनरेकैकं दिव्यादि-सूत्रम्, वृत्तिः, तथामातङ्ग विद्या, यदुपदेशादतीताऽऽदि कथयति डोव्यो वधिरा इति वार्तिकं चेत्यनेन भेदेनलोकप्रतीताः४, चैकित्सकमायुर्वेदः; कला लेखाऽऽद्या गणितप्रधानाः "दिव्वाऽऽदीण सरूवं, अंगविवज्जाण होइ सत्तण्हं / शकुनरुतपर्यवसाना द्वासप्ततिः, तच्छास्त्राण्यपि / तथा आवियते सुत्तं सहस्सलक्खो, य वित्ति तह कोडि वक्खाणं / / 1 / / आकाशमनेनेत्यावरणं भवनप्रासादनगराऽऽदितल्लक्षण शास्त्रमपि तथा, अंगस्स सयसहस्सं,सुत्तं वित्तीय कोडि विन्नेया। वास्तुविद्येत्यर्थः / अज्ञानं लौकिकश्रुतं भारतकाव्यनाटकाऽऽदि / वक्खाण अपरिमिय, इयमेव य वत्तियं जाण / / 2 / / " मिथ्याप्रवचनं शाक्याऽऽदितीर्थिकशासनमिति। एतच सर्वमपि पापश्रुत, संयतेन पुष्टाऽऽलम्बनेनाऽऽसेव्यमानमपापश्रुतमेवेति / इतिरेवं प्रकारे, पापश्रुतमेकोनविंशद्विधं, कथम्?,अष्टौ मूलभेदाः सूत्राऽऽदिभेदेन चः समुचये। स्था०६ठा० त्रिगुणाश्चतुर्विशतिः गन्धर्वाऽऽदिसंयुक्ता एकोनत्रिंशद्भवन्ति, (वत्थु ति) वास्तुविद्या (आउंति) वैद्यकम्। शेष प्रकटार्थम्। आव०४ अ०॥ एगूणतीसइविहे पावसुयपसंगेणं पण्णत्ते। तं जहा-भौमे उप्पाए सुमिणे अंतरिक्खे अंगे सरे वंजणे लक्खणे / भोमे तिविहे पावसूयण न०(पापसूदन) "पापसूदनमप्येवं, तत्तत्पापाऽऽद्यपेक्षया। पण्णत्ते / तं जहा-सुत्ते वित्ती वत्तिए। एवं एकेक तिविहं, विकहा चित्रमन्त्रजपप्राय, प्रत्यापत्तिविशोधितम् / / 135 // " (यो० बि०) इतिलक्षिते तपोभेदे, द्वाण जोगे, विजाणुजोगे, मंताणुजोगे, जोगाणुजोगे, अण्णतित्थियपवत्ताणुजोगे॥ पापसूदनमप्येवं, तत्तत्पापाऽऽद्यपेक्षया। पापोपादानानि श्रुतानि तेषां प्रसङ्ग स्तथाऽऽसेवनारूपः पापश्रुत चित्रमन्त्रजपप्रायं, प्रत्यापत्तिविशोधितम्।।२१।। प्रसङ्गः। स च पापश्रुतानामेकोनत्रिंशद्विधत्वात् तद्विध उक्तः पाप-- पापसुदनमप्येवं परिशुद्ध विधानतश्च ज्ञेयम् / तत्तचित्ररूपं यत्पा श्रुतविषयतया पापश्रुतान्येवोच्यन्तेऽत एवाऽऽह-(भोमे इत्यादि) तत्र साधुद्रोहाऽऽदि तदपेक्षया यथाऽर्जुनमुनिराजस्याङ्गीकृतप्रव्रज्यस्य भौम भूमिविकारफलाऽभिधानप्रधानं निमित्तशास्त्र, तथा उत्पातं साधुवधस्मरणे तद्दिनप्रतिपन्नाभोजनाभिग्रहस्य षण्मासान यावसहजरुधिरवृष्ट्यादिलक्षणोत्पातफलनिरूपकं निमित्तशास्त्रम्, एवं स्वप्रं जातव्रतपर्यायस्य सम्यक् संपन्नाऽऽराधनस्य किल न क्वचिदिने स्वप्नफलाऽऽविर्भावकम, अन्तरिक्षमाकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदाऽऽदि भोजनमजनीति चित्रो नानाविधः "हीं असिआउसा नमः" इत्यादिभावफलनिवेदकम्, अङ्ग शरीराऽवयवप्रमाणस्पन्दिताऽऽदिवि- मन्त्रस्मरणरूपो मन्त्रजपः प्रावो बहुलो यत्र तत् प्रत्यापत्तिस्तत्तदपकारफलोद्भावकं, स्वरं जीवाजीवाऽश्रितस्वरस्वरूपफलाऽभिधायकं, राधस्थानान्महता संवेगेन प्रतिक्रान्तिस्तया विशोधितं विशुद्धिव्यञ्जनं मषाऽऽदिव्यञ्जनफलोपदेशक,लक्षणं लाञ्छनाऽऽद्यनेकविध- मानीतम् / द्वा०१२द्वा० लक्षणव्युत्पादकमित्यष्टावेतान्येव सूत्रवृत्तिवार्तिकभेदाचतुर्विंशतिः, पावा स्त्री०(पापा) मध्यमाऽपरनाम्न्या वड्गदेशराजधान्याम, प्रव०२७५ तत्राङ्गवर्जितानामन्येषां सूत्रं सहस्रप्रमाणं, वृत्तिर्लक्षप्रमाणा, वार्तिकं द्वार। पञ्चा०। प्रज्ञा०। आ०म०) सूत्रका यत्र भगवान् निर्वृतः / ती०। वृत्तेव्याख्यानरूपं कोटिप्रमाणमङ्गस्य तु सूत्रं लक्षणं वृत्तिः टीका पापाकल्प:वार्तिकमपि परिमितमिति / तथा विकथाऽनुयोगोऽनर्थकामोपाय सिद्धार्थोक्त्या वनान्ते खरडु(?) कुसुमितान्यञ्जनद्रोणिभाजः, प्रतिपादनपराणि कामन्दकवात्स्ययानाऽऽदीनि भारताऽऽदीनि वा शल्ये निष्क्रिष्यमाणे श्रुतियुगविवरात्तीव्रपीडाऽर्दितस्य। शाखाणि 25, तथा विद्याऽनुयोगो रोहिणीग्रभृतिविद्यासाधनाऽभि यस्या अभ्यर्णभागेऽन्तिमजिनमुकुटस्योद्यदाश्चर्यमुच्चैधायकानि शास्त्राणि 26 मन्त्राऽनुयोगश्चेटकाऽऽदिमन्त्रसाधनाऽभि वञ्चचीकाररावस्फुटितगिरिदरी दृश्यतेऽद्यापि पूरः / / 1 / / धायकानि पापशास्त्राणि 27, योगाऽनुयोगो वशीकरणाऽऽदिकानि हरमेखलाऽऽदियोगाऽभिधायकानि शास्त्राणि 28, अन्यतीर्थिकेभ्यः चक्रे तीर्थप्रवृत्तिं चरमजिनपतिर्यत्र वैशाखशुक्लैकापिलाऽऽदिभ्यः सकाशाद् यः प्रवृत्तः स्वकीयाऽऽचारवस्तुतत्त्वाना कादश्यामेत्य रात्रौ वनमनु महसेनाङ्घयं जृम्भिकातः। मनुयोगो विचारस्तत्करणार्थ शास्त्रसन्दर्भ इत्यर्थः, सोऽन्य इति 26 / सच्छात्रास्तत्र चैकादश गणपतयो दीक्षिता गौतमाऽऽद्याः, स०२६ समा आ०चू०। आव०। सूत्र०। प्रश्न० भ०। जग्रन्थुादशाङ्गी भवजलधितरी ते निषधात्रयेण / / 2 / / अट्ठ निमित्तंगाई, विव्वुप्पायंतलिक्खभोमं च / यस्यां श्रीवर्द्धमानो द्वग्रहमनशनकृद्देशनाकृत्तिमन्त्यां (?), अंगसरलक्खणवं-जणं च तिविहं पुणोकेकं / / 1 / / कृत्वा श्रीहस्तपालाभिधधरणिभुजोऽधिष्ठितःशुल्कशालाम्। Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावा 855 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावा स्वालापूर्जस्य दर्श शिवमसमसुखश्रीनिशान्तं निशान्ते, नापत्पापाऽस्तपापान् विरचयतु जनान् सा पुरीणां धुरीणा।।३।। नागा अद्यापि यस्यां प्रतिकृतिनिलया दर्शयन्ति प्रभावं, निस्तैले नीरपूर्ण ज्वलति गृहमणिः कौशिके यन्निशासु। भूयिष्ठेश्वर्य्यभूमिश्चरमजिनवरस्तूपरम्यस्वरूपा, तः पापा मध्यमाऽऽदिर्भवतु वरपुरी भूतये यात्रिकेभ्यः / / 4 / / " इतिश्रीपापाकल्पः / ती०१३ कल्प। "पणमिय वीरं वुच्छ, तस्सेव य सिद्धिगमपवित्तीए / पापापुरीइ कप्पं, दीवमहुप्पत्तिपडिबद्धं / / 1 / / गउडेसु पाइलिपुरे, संपइ राया तिखंडभरहवई। अज्जसुहत्थिगणहरं, पुच्छइ पणओ परमसड्डो।।२।। दीवालिअपव्वमिणं, लोएलोउत्तरे अलोगओ रचिअं। भयवं ! कह संभूयं ? अह भणइ गुरू मिव ! सुणेसु / / 3 / / " (ती०) (इतोऽने 'कलिजुग' शब्दे तृतीयभागे 376 पृष्ठे गतम्) (दुःषमावृत्तम् 'दूसमा' शब्दे चतुर्थभागे 2601 पृष्ठे गतम्) (कल्किवृत्तान्तम् ‘कछि' शब्दे तृतीयभागे 181 पृष्ठे गतम् ) / "दत्तो राया वावत्तरिवासाओ पइदिणं जिणचेइमंडियं महिं काही, लोग च सुहिअं काहिति / दत्तस्स पुत्तो जियसत्तू, तस्सचिओ मेघघोसो, कक्किअणंतर महानिसीह नवट्टिस्सइ।दोवाससहस्सटिइणो भासरासिग्गहस्स पीडाए नियत्ताए य देवा वि दंसणं दाहिति, विजा मंता य अप्पेण विजावेण पहावं पंसिस्सति, ओहिनाणजाइसरणाइभावाय किंचि पयट्टिरसति, तदनंतर गुणवीससहस्साई जाव जिणधम्मो वट्टिस्सइ (दुष्प्रसहसूरिवृत्तम् 'दुप्पसह' शब्दे चतुर्थभागे 2562 पृष्ठे गतम्) दुप्पसहो सूरी फग्गुसिरी अजा, नाइलो सावओ, सव्वसिरी साविया, अपच्छिमो संघो एस पुष्यण्हे भारहे वासे अस्थमेहिइ, मज्झण्हे विमलवाहणो राया, सुमुहो मंती, अवरण्हे अग्गी, एवं धम्मरायनीइपागाईणं वुच्छेओ होहिइ, एवं पंचमो अरओ दूसमा संपूण्णा, तओ दूसमदूसगाए छठे अरए पयट्टे पलयवाया वाइरसंति, वरिसिस्संति विसहरजला, भविस्सइ वारसाऽऽइचसमो सूरो, अइसीयं मुंचिस्सइ चंदो, गंगासिंधूभयतडेसु वेयड्डमूले बाहत्तरिए मूले सु छखडभरहवासिणो नरतिरिया वसिरसंति, वेयड्डआरओ पुव्वावरतडेसु गंगाए नव नव बिलाइं, एवं वेयड्डपरओ विएवं छत्तीस, एमेव सिंधूए विछत्तीसं, एगत्ते बावत्तरि बिलाई रहपहमित्तपवाहाणं गंगासिधूर्ण जले उप्पण्णे मच्छाई ते विलवासिणो रत्तिं कडिस्संति, दिवा ताव भएण निग्गंतुमक्खमा सूरिकिरणपक्को तेरयणीए खाहिति, ओसहिरुक्खगामनगरजलासयपव्वयाईण वेयड्ढउसभकूडवलं निवेसट्टाणं पिन दीसिहिइ, छव्वासा इत्थीओ गभं धारिस्संति, सोलसवासाओ नरा पुत्तपपुत्ते दच्छंति, हत्थसमुस्सिआ काला कुरुवा उम्गकसाया नग्गा पाय नरयगामी विलवासिणी एगवीसं सहस्साई भविस्संति। एवं छद्रुअरएओस्सप्पिणीए समत्ते वि पढमे अरए एसा चेव वत्तव्वया तम्मि बोलीणे वीयारपयारंभे सत्ताह पंच महाभारहे वासे वासिस्संति कमेणं तंजहा-पढमो पुक्खरावत्तो तावं निव्वावेहिइ, वीओ खीरोदी धनकारी, तइओ घओदओ नहकारओ चउत्थो मओदओ ओसहीकरो, पचमो रसोदओ भूमीए ससंजणणो, ते य विवासिणो पइसमयं वट्टमाणसरीराओपुहविसुहं दळूण विस्सहतो निस्सरंति, धन्न फलाइ भुजता मंसाहारं निवारइस्संति, तओ मज्झ देसे सत्त कुलगरा भविस्संति, तत्थ पढमो विमलवाहणो, बीओ सुवामो, तइओ संगओ, चउत्थो सुपासो, पंचमो दत्तोछट्टो सुमुहो, सत्तमो संमुची। जाइसरणेणं विमलवाहणो नगराइनिवेसं काही, अग्गिभि उप्पन्ने अण्णपाणगं सिप्पाई कालाओ लोगववहारं च सव्वं पवत्तेही / तइओ एगूणनवइपक्खस्स मज्झिए उस्सप्पिणी-अरयदुगे वळते पुंडबद्धणदेसे सयद्वारे पुरे संमुइनरवइणो भद्दाए देवीए चउद्दसमहासुमिणसूइओ सेणियरायजीवो रयणप्पभाए लोलुबुद्धयपच्छडाओ चुलसीइं वाससहस्साई आउं पालित्ता उव्वट्टो समाणो कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववजिहिइ, वण्णप्पमाणलंबणआऊणि गब्भावहारवज्ज पंचकल्लाणयाण मासतिहिनखत्ताणि जहा मम तहेव भविस्संति / नवरं नामेणं पउमनाहो, देवसेणो, विमलवाहणो अ। तओ बी य तित्थयरो सुपासाजीवो सूरदेवो, तइओ उदाइजीवो सुपासो,चउत्थो पोट्टलिजीवो सयंपभो, पंचमो दढाउजीवाओ सव्वाणुभूई, छट्ठो कित्तियजीवो देवसुओ, सत्तमो संखजीवो दओ,अट्ठमो आणंदजीवो पेढालो, नवमो सुनंदाजीवो पोट्टिलो, दसमो सयगजीवो, सयकित्ती, एकारसमो देवइजीवो मुणिसुव्वओ बारसमो कण्णजीवो अमम्मो, तेरसमो सव्वइजीवो निक्कसाओ, चउद्दसमो बलदेवजीवो निप्पुलाओ, पण्णरसो सुलसाजीवो निम्मम्मो, सोलसमो रोहिणीजीवो चित्तगुत्तो। "केइ पुण भणति–कक्किपुत्तो दत्तनामो पण्णरसउ तिउत्तरे विक्कमवरिसे सेत्तुंजउद्धारं कारिता जिणभवणमंडिअं च वसुह काउं अज्जिय-तित्थयरनामो सगं गंतुं चित्तगुत्तो नामजिणवरो होहित्ति / इत्थ य बहुस्सुअसमयं पमाण।" सत्तरसो रेवइजीवो सभाही, अट्ठारसो सयालिजीवो संवरो, एगूणवीसो दीवायणजीवो जसोहरो, वीसइमो कण्णजीवो विजओ, एगवीसो नारदजीवो मल्लो, बावीसइमो अंबडजीवो देवो, तेवीसइमो अमरजीवो अणंतविरिओ, चउवीसइमो सयंबुद्धजीवो भद्दकरो, अंतरालाइ पच्छाणुपुव्वीए जहा वड्डमाणजिणाणं / ते वि चक्कवट्टिणो दुवालस होहिंति। तं जहा-दीहदंतो, गूढदंतो, सिरिचंदो, सिरिभूई, सिरिसोमो पउमो नायगो, महापउमो, विमलो, अमलवाहणो, विलो, अरिहो आनव भाविवासुदेवा। तं जहा-नंदी, नंदिमित्तो, सुंदरबाहू, महाबाहू, अइबलो, दुविटू, तिविठू य। नव भाविपडिवासुदेवा जहा-तओ लोहजघो, केसरी, बली,पहराओ,अपराजितो, भीमो, सुग्गीवो / नव भाविबलदेवा जहा-जयंतो, अजिओ, धम्मो सुप्पभो, सुदंसणा, आणदे, नंदणो, पउमो, संकरिसणो या इगसट्टी सलागापुरिसा ओसप्पिणीएतइए अरए भविस्संति, अपच्छिमजिणचकवट्टिणोय दुण्णि चउत्थे अरए होहिंति / तओ दसमगाई कप्परुक्खा उप्पज्जिहिंति / अट्ठारस कोडाकोडीओ सागरोवमाणं निरंतरं जुगलधम्मो भविस्सइ। उस्सप्पिणी अवसप्पिणी कालचक्काणि अणंतसो वेअड्डाओ अणंतगुणाणि भारहे वासे होहिंति। एवमाइ अन्ने पि भविस्सकाले सरूवं वागरित्ता कम्मि वि गामे देवसम्मविप्पस्स बोहणत्थं गोअमसामी पट्टविओ, जहा एयस्स पेमबंधो झिज्झिइ,तओतीस वासाई आगारवासे वसित्तापक्खेहिं अ सड्ढवारसवासे छउमत्थो तीसं वासाई तेरस पक्खाइं केवली विहरित्ता कत्तिअअमाव-- Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावा 856 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावा साए राएई चरमजामद्धे चंदे दुच्चे संवच्छरे पीइबद्धणे वासे नदिबद्धणे पक्खे देवानंदाए रयणीए उवसमे दिणे नागे करणे सव्वट्ठिसिद्धे मुहुत्ते / साइनक्खत्ते अयं पजंकासणो सामी सक्केण विन्नत्तोभययं ! दोवाससहस्सडिई भासरासी नाम तीसइमो गहो अइखुद्दप्पा तुम्ह जम्मनक्खत्तं संकतो संपयंता मुहुत्तं पडिक्खह, जहा तस्स मुह वंचियं भवइ, अन्नहा तुम्ह वि अ तित्थस्स पीडा चिरं होहिति / भयवया भणिय-भो देवरायराया ! अम्हेऽत्थपुहर्विछतं, मेरं च दंडं काउंएगाहलाए सयंभूरमणसमुदं चरिउ, लोअंच अलोए खिविउंसमत्था, न उण आउकम्मं बद्धेउं वा हासेउं वा समत्था, तओ अवस्सं भाविभावणं नत्थि वइक्कमो, तओ दोवाससहस्से जाव अयस्सं भाविणी तित्थस्स पीडत्ति। सामी पच्चावन्नं अज्झ-यणाई कल्लाणफलविवागाई पच्चावन्नं च पावकम्मफलविवागाई विभावइत्ता छत्तीसं च अज्झुट्ठवागरणाईवागरित्ता पहाण नाम अज्झयण वि भाखमाणे सेलेसीमुवगम्म कयजोगनिरोहो सिद्धाणंतपंचगो एगागी सिद्धिं संपत्ते अणतं नाणं, अणंतं दसणं, अणंत सम्मत्तं, अणंतो आणंदो, अणंतं विरयं च त्ति पंचाणंतगं, तया य अणुद्धरीकुंथूणं उप्पत्तिं दटुं अज्ञप्पभिइ संजमे दुराराहए भविस्सइ त्ति समणा समणीओ अ बहवे भत्तं पञ्चक्खिसु। (ती०) अन्नंच-"कासीकोसलगा नव मलई नव लेच्छई अट्ठारसगणरायाणो अमावसाए पोसहोववासं पारिता गए भावुञ्जोए दवुञ्जो करिस्सामि' त्ति / (127 सूत्र कल्प० 1 अधि० ६क्षण) परिभाविय रयणमयदीवहिं उज्जोयको सि कालकमेण अग्गिदीवहिं सो जाओ, एवं दीवालिया जाया, देवेहिं देवीहि य आगच्छंतगच्छंतेहिं सा रयणी उजोअमई कोलाहलसंकुला य जाया। भगवओ य सरीरं देवेहि सक्कारिय भासरासिं पडिवण्णो पीडापडिघायत्थं देवमाणुसगवाईणं नीराजणा जणेहिं कया तेण किर मेरा इयाणिं पवित्ता जाया। गोयमसामी पुणतंदिअंपडिबोहिता जाव भयवओ यंदणत्थं पच्चागच्छद ताव देवाणं संलावे सुणेइ, जहा भयवं कालगओ ति सुठुअरं अधिति गओ। अहो ममम्मि भत्ते वि सामिणो निन्नेहया, जमहं अंतसमए वि समीवे नठाविओ, कहं वा वीअरागाणं सिणेहु त्ति नायसुअति चन्नियपेमबंधणो तक्खणं चेव केवली जाओ / सक्केणं कत्तियसुद्धपडिवयाए आगासम्गे केयलिमहिमा कया। भयवं सहस्सदलकणयपंकए नियेसिओ, पुप्फप्पयरं काउं अट्ठमंगलाई पुरओ आहिलिआई, देसणा य सुआ। अओ चेव पाडिबए महूसओ अज्ज वि जयं पि पवत्तई। सूरिमंतो अ गोअमसामीए णीओ, तस्साराहगा गोअमकेवलुप्पत्तिदिवसु त्ति तम्मि दिणे समवसरणे अक्खण्हवणाइपूअं सूरिणो करिति सावया य भयवं अत्थमिए सुअनाणं चेव सव्वविहासु पहाणं ति सुअनाणं पूअंति नंदिबद्धणनरिदो सामिणो जिट्ठभाया भयवंतं सिद्धिगयं सुच्चा अईव सोगं कुणंतो पाडियए कओववासो कत्तिअसुद्धबीयाए संबोहिता निअघरे / आमंतित्ता सुदंसणाए भगिणीए भोइओ तंबोलवत्थाइ दिण्णं, तप्पभिई भायबीयापव्यं रूढं। एवं दीवूसवट्टिई संजाया। जे अ दीवमहे चउद्दसि अमावसासु कोडीसहिअमुववासं काउं अट्ठप्पगारपूयआए सुअनाणं पूइत्ता पंचाससहस्सपरिवारं सिरिगोअमसामि सुवण्णकमले ठियं जाइत्ता पइदिणं पंचाससहस्साइं तंदुलार्ण, एगत्ते वारस लक्खाई चउवीस पट्टयपुरओ बोइत्ता तदुवरि अखंडदीवयं बोहिता गोअमं आराहिंति, ते परमपयसुहलच्छि पावंति त्ति दीवूसयअमावसाए उज्जमणं कुजा। तत्थ दीवुस्सवे जिणालए सऽक्खन्हावणाइ पूर्य काऊण नंदीसरपडपुरओ वा दप्पणसंकंतजिणबिंबेसु न्हवणाइ काउंबावण्णहिं वलिट्ठोइञ्जावत्थूण य पक्कन्नभेया नारिंगजंबीरकयलीफलाईणि नालिएराइ पूगाईणि अउच्छलद्धीओ खज्जूरमुद्धियावरिसालयउत्तरित्तिसालयउत्तत्तिया वायनाईणि खीरमाइयालाई दीवयाइच्चाइकबोलियाओ बावन्नं तंवोलाइदाणपुव्वं सातिया णंदिया अन्ने च दीवूसर्वे विअभावसारा नंदीसरतवं आढविति ति। अह पुणरवि अज्जसुहत्थीणं संपइमहाराओ पुच्छिसुभयवं ! इत्थ दीवालियापव्यम्मि विसेसओ घराण मंडणं अन्नवत्थाईणं विसिट्ठपरिभोगो अन्नोन्नं वाऽऽहाराइकरणं जणाणं केण कारणेण दीसइ? तत्थ इमंपच्चुत्तरं अज्जसुहत्थिसूरिणो पन्नविंसु-जहा पुव्वं उज्जेणीए पुरीए उज्जाणे सिरिमुणिसुव्वइसामिसीसो सुव्वयाऽऽयरिओ समोसढो, तस्स वंदणत्थं गओ सिरिधम्मराया, तेसु वि मंती विज्जतत्थ गओ, सूरीहिं समं विवायं कुणंतो खुल्लगेण पराजिओ,गओ रण्णा समं गेहं तिराए मुणिणो हंतु कङ्किअखग्गो गओ उज्जाणं, देवयाए तंभिओ गोसे विम्हिएण रण्णा खामित्ता मोइओ लज्जिओ नट्ठो गओ हत्थिणाउरे, तत्थ पउमुत्तरो राया, जाला तस्स देवी, तीसे दो पुत्ताविण्हुकुमारो, महापउमो अ। जिडे अणिच्छंते महापउमस्स जुवरायपयं पिउणा दिन्नं, नमुई तस्स मंती नाओ, तेण सीहरहो रणे, विजिओ, महापउमो तुट्ठो वरे दिण्णे, तेण न सीकओ वरो, एगया जालादेबीए अरहंतरहो कारिओ, तीसे सवत्तीए लच्छीए पच्छिमदिट्ठीए पुण बंभरहो, पढम रहकडणे दुण्ह वि देवाणं विवाहे दोषि रहा रण्णा चारिया, माउए अवमाणं दटुटुं महापउमो देसंतरंगओ, कमेण मयणावलिं परिणित्ता साहियछक्खंडभारहो गयउर समागओ, पिउणा रजं दिन्नं, विण्हुकुमारेण समं पउमुत्तरो सुव्वयाऽऽय रियपायमूले दिक्खं गिमिहत्ता सयं सिवं पत्ता, विण्हुकुमारस्सय सहिवाससयाइं तवं कुणंतस्स. अणे गाओ लद्धीओ संपन्नाओ, महापउमो चक्की जिणभवणमंडियं महिं काउं रहजुत्ताओ कारित्ता पूरेइ माउयमणोरहो, नमुचिणा वका नासा कया वेरेण जणकरत्थं रज मग्गिओ, तेण सव्वसंघेण तस्स रजंदाउंसयं ठियमंतेउरे, सुव्ववायरिया य विहरिता। तयाहत्थिणाउरे वासाचउम्भासिं ठिया, आगया सव्वे पासंडिणो अहिणवनिवं दटुं, नसुव्वयाऽऽयरिया, तओ कुद्धोनमुईभणेइममभूमीए तुज्झेहिं सत्तदिणोवरि न ठायव्वं, अन्नहा मारेमि, जओ मं दळु तुम्हे नागया। तओ सूरीहिं संघ पुछित्ता एगो साहू गयणगामिविज्जाए संपन्नो आइट्टो मेरुचूलियाठियस्स विन्हुकुमारस्स आणयणत्थं / तेण विण्णत्तं भंते! मम गंतु सत्ती अस्थि, न उण आगंतुं। गुरूहि वुत्तो-सो चेव तुमं आणेह त्ति / तओ सो पत्तो मेरुतलं वंदिऊण विण्णत्तं सव्व सरुवं महरिसिणा, तक्खणं चेव सो उप्पइओसाहुगं Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावा 887 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय तु साहुणा नहतलं, आगओ गयउरं, राउलं च, नमुइवज्जेहिं सव्वेहि वंदिओ,उवलक्खिओ या नमुई पण्णविओ वि अहो ठाउं न देइ साहूर्ण। ताए विण्हुणा राय त्ति गयमाणा भूमी तेण दिया / भणियं च--जो बाहिं पयतिगाओ दिहो, तं मारेहामि, ता वेउब्वियलद्धीए लक्खजोयणपमाणदेहो जाओ, विण्हुरिसी किरीडकुंडलगयाचक्कखगधणूई धारिंतो तं ओहेण नाऊ ण पट्टवियाओ सुरंगणाओ कण्णज्जा हेट्ठाओ महुरसरेण खंतिउवसमगब्भगीयाणि गाइंति, चक्कयट्टिपमुहा य विण्णायवइरा पसायणत्थं पाए सति, तओ उवसंतो पगइमावण्णो महरिसी खामिओ चक्कवट्टिणा सघेण य, विण्हुकुमाराओ चक्किणा य मोयाविओ किवाए नमुई, तया यवासाणं चउत्थमासस्स पक्खसंधिदिणं आसी, तंसि उप्पाए उवसमे लोएहिं पुण्णजायं च अप्पाण मन्नमाणाहिं अन्नोन्नं ववहाराकया, विसिटघरमंडणच्छायणभोयणतंबोलाइपरिभोगा पव्यत्तिया, तप्पभिइ एयम्मि दिवसे एयवरिसंते चेव ववहारा पयट्टिजंति, विन्हुकुमारोयकालेण केवली होऊण सिद्धो महापउमचक्कवट्टि त्ति दसपुट्विस्स मुहाओ एवं सोऊण संपइनरिंदो आसी जिणपूरयओ वि सेसं पुव्वदियहेसु मज्झिमाए पावाए पुट्विं अपावा पुरि त्ति नाम आसि. सक्कणं पावापुरि त्ति नाम कयं, जेण इत्थ महावीरसामी कालगओ। इत्येव य पुरीए वइसाहसुद्धएक्कारसीदिवसे जंभियगामाओ रत्तिं बारस जोयणाणि आगंतूण पुचण्हदेसकाले महसेणवणे भयवया गोयमाइगणहरा खंडियगणपरिवुडा दिक्खिया, अणुओगगणाणुन्ना य तेसिं दिण्णा, तेहिं च निसिज्जातिगेण उप्पावविगमधुवलक्खणं पयतिग लखूणं सामिसगासाओ तत्थ ण दुवालसंगी विवरिया। इत्थेवनयरीए भयवओ कण्णेहिंतो सिद्धत्थवाणियउवक्कमेणं खरयवेज्जेण कण्णसलाआ उद्धरिया, तदुद्धरणे य वेदणावसेण भयवया चिकाररवो मुक्को, तेण पञ्चासन्नपव्वओ दुहा जाओ, अन्न वि तत्थ अंतरालसद्धिमग्गो दीसइ। जहा इत्थेव पुरीए कत्तियअमावसाए रयणीए भगवओ निव्वाणष्ट्ठाणे मिच्छदिट्ठीहिं सिरिवीरथूभं ठाविय नागमंडवे अज्ज विवा उवपिणयलोहा जत्तामहूसवं करिति, तीए चेव एगरत्ती देवाऽणुभावेणं कूवा इड्डियजलपुण्णमल्लियाए दीवो पज्जलेइ / तिल्लं विणा, पुव्युत्ता य अत्थासयवया इत्थेव नयरे वक्खाणिया, इत्थेवई भगवं संपत्तो सिद्धि, इच्चाइ अपभूयसंविहाणठाणं पावा-पुरीतित्था "इय पावापुरिकप्पो, दीवमहुप्पत्तिभणणरमणिजो। जिणपहसूरीहिँ कओ, ठिएहिँ सिरिदेवगिरिनयरे / / 1 / / तेरहसत्तसीए, विक्कमवरिसम्मि भद्दवयबहुले। पूसस्सिमारसिए, समथिओ एस सस्थिकरो।।२।" समाप्तः श्रीअपापाबृहत्कल्पो, दीपोत्सवकल्पो वा। ती० 20 कल्प। पावाइय पु०(प्रावादिक) प्रकर्षण मर्यादया वदितु शीलं येषां ते प्रावादिनः, त एव प्रावादिकाः / यथाऽवस्थिताऽर्थस्य प्रतिपादनाय वावदूकेषु , आचा० १श्रु०४अ०३उ० पावाउय पुं०(प्रावादुक) प्रवदनशीलत्वात् प्रावादुकः / सूत्र० १श्रु०१० ३उ०ा परमतिनि, सूत्र० २श्रु०२अ०। प्रावादुकाः पाखण्डिनः / सूत्र० १श्रु०१२ अ०। आचा० पावाण पुं०(पापान्य) साधुधर्मे व्यवस्थिते, नि०चू०४उ०) पावाभिगम पुं०(पापाभिगम) पापमेवोपादेयमित्यभिगमे, प्रश्र० १आश्र० द्वार। पावाययण न०(पापाऽऽयतन) अशुभप्रकृतिबन्धहेतौ, स्था०ा 'नव पावस्साऽऽवयणा पण्णत्ता / तं जहा-पाणाइवाए०जाव परिगहे कोहे माणे माया लोहे।" स्था० ६ठा०। पावारग पुं०(प्रावारक) नेपालाऽऽदिराङ्कवरोमबृहत्कम्बलेषु, बृ०३उ०। नि०चू० / ज्ञा० / जी। पावासुअ त्रि०(प्रवासिन्) "प्रवासीक्षौ" ||8/1 / 15 / / इत्यादेरित उत्त्वम् (पावासुओ) प्रोषिते, प्रा०१पाद। पाविऊण अव्य०(प्राप्य) समधिगम्येत्यर्थे , पं०व०१द्वार। पाविड्डि स्वी०(पापर्द्धि) ऋद्धिविशेषे, "दाणभोगरहिआ साया विड्डी अणत्थफला।' ध०२अधिक पावित्ता अव्य०(प्राप्य) लब्ध्वेत्यर्थे सूत्र० १श्रु०११अ०। पावियंत त्रि० (प्राप्यमाण) गम्यमाने, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। पाविया स्त्री०(पापिका) दोषवत्याम, सूत्र० १श्रु० २अ० २उ०। पावीढ पुं०(पादपीठ) "दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पादपीठेऽन्तर्दः" ||8/1/270 / / इति मध्ये वर्तमानस्य सस्वरव्यञ्जनस्य दकारस्य लुग वा। 'पावीद / पाअपीदं / ' पट्टाऽऽदौ, प्रा०१पाद। पावेसणय पुं०(प्रवेशनक) भगवतीनवमशतसत्कतृतीयोद्देशके गाड़ेयाभिधानानगारकृतनरकाऽऽदिप्रवेशनविचारे, भ० 8 श० १उ०। तदेव दर्शातेवंदित्तु वद्धमाणं, गंगेअसुपुट्ठभंगपरिमाणं / इगजोगे सग मंगा, दुगजोगे भंग इगवीसा ||1|| 'वंदित्तु त्ति' वन्दित्वा वर्द्धमानं गाङ्गेयपृष्टभङ्गपरिमाणं कथ्यत इति / "इगजोगे" असंयोगे भङ्गाः सप्त सप्त भवन्ति सप्तसु नरकेषु, एकस्मिन्ने कस्मिन् द्विकसंयोगे भङ्गाः 21-21, तद्यथा-प्रथमद्वितीययोः 1, प्रथमतृतीययोः 2. प्रथमचतुर्योः३, प्रथम पञ्चभ्योः 4, प्रथमषष्ट्योः 5, प्रथमसप्तम्योः 6, द्वितीयतृतीययोः 7, द्वितीयचतुर्योः 8, द्वितीयपञ्चम्योः 6, द्वितीयषष्ट्योः 10, द्वितीयसप्तम्योः 11, इत्यादिभङ्गप्रस्तारवशाज्ज्ञेयम्। प्रथमनरकेण सह भङ्गाः 6, द्वितीयेन सह 5, तृतीयेन सह 4, चतुर्थेन सह ३,पञ्चमेन सह २,षष्ठेन सह १,एवम्-२१॥१॥ तिगचउजोगे पत्ते-अ मंग पणतीस पंचसंजोए। इगवीस य छज्जोए, सग भंगा सत्तए एगो // 2 // एकस्मिन्नेकस्मिन् त्रिकयोगे चतुष्कयोगेच प्रत्येकं प्रत्येकं भङ्गाः 35-35 भवन्ति। त्रिकयोगे यथा-प्रथम द्वितीयतृतीयेषु 1, प्रथमद्वितीयचतुर्थेषु 2, प्रथमद्वितीयपञ्चमेषु 3, इत्यादिभङ्गप्रस्ताराज्ज्ञेयम्। प्रथमेन सह 15. द्वितीयेन सह 10, तृतीयेन 6, चतुर्थेन 3, पञ्चमेन 1, एवम् 35 / एक Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय 858 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय रापाश |1|1|21 तद्यथा-शिश स्मिन्नेकस्मिन् चतुर्योगे भङ्गाः 35-35, प्रथमद्वितीयचतुर्थेषु 1, प्रथमद्वितीयतृतीयपञ्चमेषु 2, प्रथमद्वितीयतृतीयषष्ठेषु 3, प्रथम-द्वितीयतृतीयसप्तमेषु 4, इत्यादि प्रस्तारवशाज्ज्ञेयम्। प्रथमनरकेण सह भङ्गाः 20, द्वितीयेन 10, तृतीयेन 4, चतुर्थेन 1, एवम् 35 / एकस्मिन्नेकस्मिन् पञ्चयोगे भङ्गाः 21-21 भवन्ति / प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमेषु 1, इत्यादि प्रस्ताराज्ज्ञेयम्। प्रथमेन सह 15, द्वितीयेन सह 5, तृतीयेन सह१, एवम् 21 / एकस्मिन्नेकस्मिन् षट्संयोगे भङ्गाः 7-7, प्रथमद्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पञ्चम-षष्ठेषु 1, इत्यादि भङ्ग प्रस्ताराज्ज्ञेयम्। प्रथमनरकेण सह भङ्गाः ६,द्वितीयेन सह १एकः / सप्तसंयोगे भङ्ग क एक एव प्रथमनरकेण सह, प्रथमद्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पञ्चम-षष्ठ-सप्तमेषु प्रस्ताराज्ज्ञेयम् // 2 // अधुना संयोगमधिकृत्याऽऽह-- एगपवेसे सत्त य, दुपवेसे सत्त ते असंजोगे। दुगसंजोगो एगो, मंगगुणा जोग कायव्वा / / 3 / / एकप्रवेशे भङ्गाः सप्तव,द्विप्रवेशेऽसंयोगे भङ्गाः सप्तैव, द्विकयोगे संयोग एक एव / स्थापना चेयम्-१] भङ्गगुणा योगाः कर्तव्याः, किमुक्त भवति? यत्र यत्र द्विकयोगाऽऽदिका यावन्तो यावन्तः संयोगा भवन्ति, ते संयोगा भङ्ग गुणाः कर्तव्याः, यस्मिन् यस्मिन् संयोगे यावन्तो यावन्तो भङ्गाः भवन्ति तद्गुणाः कर्तव्याः // 3 // तिपवेसे इगजोगे, सत्त य मंगा इमेव सव्वत्थ / दुगजोगे संजोगा, दो चेव हवंति नायव्वा / / 4 / / त्रिप्रवेशे 'एकयोगे' असंयोगे भङ्गाः सप्त 7, एवं सर्वत्र चतुः प्रवेशाऽऽदिषु ज्ञातव्यम् / असंयोगे भङ्गाः७-७, द्विकसंयोगे द्वौ संयोगौ भवतः // 4 // स्थापना चेयम्-शिक्ष तिगसंजोगे एगो,चउण्ह य पवेसि तिण्णि दुअजोगा। तिय जोगा तिन्नेव य, चउसंजोगो मवे एगो / / 5 / / त्रिकसंयोग एक एव, स्थापनाचेयम्-बापामा (चऊण्ह त्ति) चतुर्णा इग पंचगसंजोगो, छपवेसे पंच हुति दुगजोगा। तिगजोगा दस चेव य, चउक्कसंजोग दस एव / / 7 / / पञ्चकसंयोगे एक एक, तद्यथा- सा षट्प्रवेशे पञ्च द्विकसंयोगा भवन्ति / तद्यथा-वाण वा१११३ त्रिकसंयोगादशभवन्ति।स्थापना [3 चेयम्- चतुष्क-संयोगा दश शिश शिशावा भवन्ति / तद्यथा-संयोगोत्पादन शिक्षा उपायमाह-यथा-दश प्रवेशेऽ- विशि शश धस्तात् बहवः स्थाप्यन्ते अष्टाऽऽदयः रा रा३११३११] (सप्ताऽऽदयः) उपरि एक एकः स्थाप्यते। यथा-चतुःसंयोग एष प्रथमो भङ्गः / शिशपवित पश्चादूर्द्ध मुखं भङ्गाः सञ्चार्यन्ते एष द्वितीयसंयोगः / १-२-१-६-एष तृतीयः संयोगो भवति। २-१-१६,एष चतुर्थः संयोगः / ततः पश्चादुपरिस्थ एको निवर्तते, स च षण्मध्यादेकच, द्वावप्येकत्र कृत्वा द्वितीयस्थाने सञ्चार्येते / स्थापना१-१-३-५, एष पञ्चमःसं-योगः। ततो द्वितीयस्थानात् एकोऽग्रे संचार्यते 1-2-2-5, ततोऽप्यूद्धमेकः संचार्यते 2-1-2-5, तत उपरिस्थ उपरिस्थ एको निवर्तते स च, द्वितीयस्थानमध्यदिकश्च, द्वावपि तृतीये स्थाने संचार्येते 1-3-1-5, एष अष्टमः संयोगः / एवमूर्द्ध मुखाः संचार्यन्ते, सर्वोपरि गत्वा निवर्तन्ते, अधस्तात द्विकाऽऽदयो यत्र वर्तन्ते तन्म-ध्यादेकेन सहोर्द्धस्थाने संचार्यन्ते, ततोऽप्यूर्द्धमेवं तावत्कर्तव्यं यावद्हव उपरिस्था भवन्ति, अन्यत्र एक एक एवेति 7-1-1-1, एष चरमो भङ्ग इत्थं संयोगा उत्पाद्याः // 7 // पणसंजोगा पंच य, छस्संजोगो अ होइ इगु चेव / सत्तपवेसि दुजोए, संजोगा इत्थ छचेव || (पणसंजोग त्ति) पञ्चसंयोगाः पञ्च भवन्ति / सर्वत्र संयोगाः प्रस्तारवशाज्ज्ञातव्याः। ते चेमे पञ्चकसंयोगाः। 3] प्रवेशे त्रयो द्विकसंयोगा त्रिकसंयोगे त्रय भवन्ति, स्थापनाचेयम्-२२ शा शिवाश |1|11|2|1 11/2011 स्थापना 1/2/111 शा११/११ शिश एव। तद्यथा- चतुष्कसंयोगे एक एव / / 5 / / स्थापना चेयम्- | |2|1|1] पापा पंचपवेसि दुजोए, संजोगा इह हवंति चत्तारि। तिगजोए छज्जोआं, चउसंजोगा य चत्तारि॥६॥ ''पंचपवेसित्ति' पञ्चानां प्रवेशे चत्वारो दिकसंयोगा भवन्ति। तद्यथा M त्रिकसंयोगे षट् संयोगा भङ्गा-भवन्ति / तद्यथा षट् संयोग एक एव / स्थापना-पापापापापासप्तप्रवेश द्विकसंयोगाः षट् / / 8 / / तद्यथा नलmar DRR शाश तिगसंजोगा पणरस, वीसा पुण हुंति चउक्कसंजोगा। पणसंजोगा पण्णरस, छज्जोगा हुंति छच्चेव / / 6 / त्रिकसंयोगाः पञ्चदश संयोगप्रस्ताराज्ज्ञातव्याः / चतुःसंयोगा विंशतिर्भवन्ति। पञ्चसंयोगाः पञ्चदशभवन्ति। षट्स्योगाः षड्भवन्ति।।६।। चतुष्कसंयोगाश्चत्वारो भवन्ति / / 6 / / जलन Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय 886 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय सगजोगे इग भंगो, अट्ठपवेसे दुजोगें सत्तेव। त्तिगजोगे इगवीस य, चउजोगे हुंति पणतीसा // 30 // सप्तसंयोगे भवति एकः, संयोगप्रस्ताराज्ज्ञातव्यःस्थापनापापापासावा अष्टप्रवेशे द्विक संयोगाः सप्त / तद्यथाजलन जन त्रिकसंयोगा एकविंशति-भङ्गा भवन्ति / चतुर्यो गे पञ्चत्रिंशद् भङ्गा भवन्ति / तद्यथा-एककेन संयोग एक, द्वितीयाङ्केन 3, द्विकत्रिकाभ्यां 6, द्विकत्रिकचतुष्कैः 10, द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकैः 15, एवं 35 संयोगा भवन्ति।१०। पणजोए पणतीसा, इगवीस छजोग सत्त सगजोए। नव पविसि अड दुजोगा, तिग संजोगा य अडवीसा 11 पञ्चकसंयोगे पञ्चत्रिंशद् 35, एककेन 1, द्विकेन 4 दिकत्रिकाभ्यां१०, द्विकत्रिकचतुष्कैः 20, एवं 35, भवन्ति। एकविंशतिः षट्संयोगे, एकेन संयोगः 1, द्विकेन 5, द्विकत्रिकाभ्यां 15 / सप्त-संयोगे सप्त भङ्गाः, १पासासापा पापाशा 111111 |1|1|1|2|111 तद्यथा-पाशा नवप्रवेशेऽष्टो द्विकसंयोगाः तथा १|श१११११ 11111 भङ्गा अधोमुखाश्चार्याः, (अग्गअग्गउ ति) अग्रेतना अप्रेतना अङ्का अग्रतोऽग्रतः संचाः , संयोगास्तूर्द्धमुखा उपर्युपरि सञ्चार्याः, संयोगप्रस्तारवशाज्ज्ञातव्याः।"दुति चउ' इत्यादि // 15 // दुगजोगे एगेगो, तिजोगि हुँति अ इगाइ अट्ठता। चउजोगिइग ति छ ।स, पणरस इगवीस अडवीसा 16 द्विकसंयोग एककेन सह भङ्ग एक एव द्विकेन सह संयोगा एकः, एवं त्रिकेन 1, चतुष्केण 1, पञ्चकेन 1, षट्केन 1, सप्तकेन 1, अष्टकेन, नवकेन १एक एव संयोग उत्पद्यते। त्रिकसंयोग एककेन सह 1, द्विकेन सह संयोगौ 2, द्विकत्रिकाभ्या 3, द्विकत्रिकचतुष्कैः 4 द्विकत्रिकचतुष्कपश्चकैः 5, द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकष-ट्कैः६, द्विकाऽऽदिसप्तान्तः, एवं द्विकाऽऽद्यष्टान्तै 8, एवमूर्द्ध मूर्ध्वं सञ्चार्यमाणानां संयोगा लभ्यन्ते 36 / चतुष्कसंयोग एककेन भङ्गः 1, द्विकेन 3, द्विकत्रिकाभ्यां षट्, एवं द्विकाऽऽदिचतुष्कान्तैः 10, पञ्चान्तैः 15, षष्ठान्तैः 21, सप्तान्तैः 28 / सर्वे चतुरशीतिः 84 भवन्ति / / 16 / / चउदस वीस पणतीसा, छप्पन्न पणजुगि छसगजोआ। पण पणरस पणतीसा, सयरिछ इगवीस छप्पन्ना // 17 // पञ्चकसंयोग एककेन सह 1, द्वितीयाङ्केन सह 4, द्विकत्रिकाभ्यां 10, द्विकाऽऽदिचतुष्कान्तैः 20 द्विकाऽऽदिपञ्चकान्तैः 35, द्विकाऽऽदिषट्कान्तैः 56, सर्वे 126 / षट्संयोग एककेन सह 1, द्विकेन सह 5, दिकत्रिकाभ्यां 15, एवं द्विकाऽऽदिचतुष्कान्तैः 35 द्विकाऽऽदिपञ्चकान्तः 70, सर्वे 126 / सप्तसंयोगे एककेन सह 1, द्विकेन 6, द्विकत्रिकाभ्यां 21, द्विकत्रिकचतुष्कैः सञ्चार्यमाणैः सह 56, सर्वे 84 / / 17 / / संजोगगुणिअभंगा, कायव्वा सव्वमेव परिमाणं / उत्तरमंगाणं इह,णठुद्दिद्वाय कायव्वा ||18|| संयोगगुणिता भङ्गाः कर्त्तव्याः, उत्तरभङ्गानां सर्व परिमाणं भवेत्, तद्यथा--एकप्रवेशे भङ्गाः७, द्विप्रवेशेऽसंयोगे भङ्गाः 7, द्विक-संयोग एक एय, द्विकसंयोगे भङ्गाः 21, तैरेको गुणितस्तावन्तः एव भवन्ति २१,सर्वे 28 / त्रिप्रवेशेऽसंयोगे भङ्गाः 7, द्विकसंयोगौ धौ, तौ भडै रेकविंशत्या गुणितौ जाताः 42, त्रिकसंयोग एक एव भङ्गाः 35 तैर्गुणिताः भङ्गाः 35 भवन्ति, सर्वे 84 // चतुष्प्रवेशेऽसंयोगे७, द्विकसंयोगाः३भईरेकविंशत्या गुणिता जाताः 63, त्रिकसंयोगाः 3 भङ्गैः पञ्चत्रिंशता गुणिताः 105, चतुःसंयोग एक एव पञ्चत्रिंशतागुणिता जाताः 35, सर्वे 210; पञ्चप्रवेशेऽसंयोगे 7, द्विकसंयोगाः 4 भङ्गै रेकविंशत्या गुणिता जाताः 54, त्रिकसंयोगाः 6 पञ्चत्रिंशता गुणिताः 210, चतुःसंयोगाः 4 पञ्चत्रिंशता गुणिताः 140, पञ्चकसंयोग एक एव, (भङ्गाः 21 तैर्गुणिताः) भङ्गाः 21, सर्वे भङ्गाः 462 षट्प्रवेशेऽसंयोगे 7, द्विकसंयोगाः 5 (भङ्गाः 21 तैः) भङ्गैर्गुणिताः 105, त्रिक-संयोगाः १०.(भङ्गाः 35 तैः) भङ्गैर्गुणिताः 350, चतुःसंयोगाः 10 पञ्चत्रिंशता गुणिताः 350, पञ्चकसंयोगाः 5 एकविंशत्या गुणिता जाताः 105 षट्संयोग एक एव सप्तगुणाः 7, सर्वे भङ्गाः 624 / सप्तप्रवेशेऽसंयोगे 7, द्विकसंयोगाः 6 एकविंश-त्यागुणिताः 126, त्रिकसंयोगाः 15 पञ्चत्रिंशता गुणिताः 525, चतुःसंयोगाः 20 पञ्चत्रिंशता गुणिता 700, पञ्चसंयोगाः 15 एकविंशत्या गुणिताः 315, षट्संयोगाः६भरैः सप्तर्भिर्गुणिताः ४२,सप्तसंयोग एकएव, सर्वे 1716 / त्रिकसंयोगाः२८॥११॥ छप्पन्ना चउजोगे,सत्तरि हवई अपंचसंजोए। छप्पन्ना छनोए, अडवीसा सत्तसंजोआ॥१२॥ चतुर्यो गेषट्पञ्चाशद् भङ्गाभवन्ति। पञ्चसंयोगाः सप्ततिः, षट् संयोगाः षट्पञ्चाशत्, सप्तसंयोगाः 28 अष्टाविंशतिः,एवं सर्वत्र संयोगप्रस्ताराज्ज्ञातव्याः // 12 // दसगपवेसे नव दुग-संजोगा तिन्नि जोगें छत्तीसा। चउसंजोगा चुलसी, पणजोग सयं च छव्वीसं // 13 // दशक प्रवेशे नव द्विक संयोगा भवन्ति, तद्यथानल त्रिकसंयोगाः३६षट्त्रिंशद्भवन्ति।चतुष्कसंयोगाः 84 / पञ्चकसंयोगाः 126 / 13 / / छज्जोगे 126 छव्वीस, सत्तगजोगे हवंति चुलसीई। एवं मंगपरूवण, कहिआ तेलोक्कदंसीहिं / / 14|| षट्संयोगे 126 संयोगाभवन्ति। शतशब्दोऽत्रापि योज्यः। सप्त-संयोगे 84 चतुरशीतिः भङ्गाज्ञातव्याः // 14 // भंगा अहोमुहा खलु, चारेअव्वा य अग्गअम्गओ चेवा संजोगा उद्दभुहा, दुतिचउपंचाइ पिहुचेव॥१५|| Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय ८६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय अष्टप्रवेशेऽसंयोगे 7, द्विकसंयोगाः७ एकविंशत्या गुणिताः 147, त्रिकसंयोगाः२१ पञ्चत्रिंशता गुणिताः 735, चतुःसंयोगाः 35 पञ्चत्रिंशता गुणिताः 1225 पञ्चकसंयोगाः 35 एकविंशत्या गुणिताः 735 षट्संयोगाः २१सप्तगुणाः 147, सप्तसंयोगाः७एकगुणाः सप्तव, सर्वे 3003 भवन्ति / नवप्रवेशेऽसंयोगे 7, द्विकसंयोगाः ८एकविंशत्या गुणिताः 168, त्रिकसंयोगाः 28 पञ्चत्रिंशता गुणिताः 680, चतुःसंयोगाः 56 पञ्चत्रिंशता गुणिताः १६६०,पञ्चकसंयोगाः 70 एकविंशत्या गुणिताः 1470, षट्सयोगाः 56 सप्तभिर्गुणिताः 362, सप्तसंयोगे 28, सर्वे 5005 / दशकप्रवेशेऽसंयोगे 7 द्विकसंयोगाः 6 एकविंशत्या गुणिताः 186, त्रिकसंयोगाः 36 पञ्चत्रिंशता गुणिताः 1260, चतुःसंगाः 84 पञ्चत्रिंशता गुणिताः 2640, पञ्चसंयोगाः 126 एकविंशत्याः गुणिताः 2646, षट्स योगाः 126 सप्तगुणिताः ८८२,सप्तसंयोगाः 84 एकगुणितास्तावन्त एव, सर्वे 8008||18|| (एक प्रवेशाऽऽदिभङ्गसङ्ख्यापरिमाणम्) एकप्रवेशे भङ्गाः७, द्विप्रवेशे भङ्गाः२८, त्रिप्रवेशे भङ्गाः 84, चतुःप्रवेशेभङ्गाः 210, पञ्चप्रवेशे भङ्गाः 462, षट्प्रवेशे भगाः 624, सप्तप्रवेशे भङ्गाः 1716, अष्टप्रवेशे भङ्गाः 3003, नवप्रवेशे भङ्गाः 5005, दशप्रवेशे भङ्गाः८००८, एवम्............ 16447 / (नरकसत्कासंयोगाऽऽदिभङ्ग कयन्त्रकम्) अद्वित्रि०च०पं०प०स०॥ [I]] |1111111 11/1/11 उद्धरिए संजोगे, जाणिज्जा अहव अंतिपडिआ य / साहारणसंजोगा, भंगा जइ इगदुगतिगाई // 20 // उद्धरितान् संयोगान् जानीयाः / किमुक्तं भवति?-एतावन्तो भङ्गा गताः, वर्तमाने भङ्ग एतावत्परिमाणः संयोगो वर्तत इति। (अहव त्ति) अथवा यदि साधारणसंयोगा भङ्गाअन्त्ये पतिताः। (इगद्गतिगाइ त्ति) एकादकत्रिक चतुष्काऽऽदिसाधारणभङ्गा अन्त्यपतिताः // 20 // ते तम्मज्जा कड्डिअ. उद्धरिए मिलिअभंगभइआ य। जाणिज्जा संजोगे,सेसे वि अजाण भंगे अ॥२१॥ तान् भङ्गान् तल्लब्धमूलभङ्गकमध्यात् (कड्डिअ त्ति) निष्कास्योद्धरितान् भङ्गान् मेलयित्वा यावद्भिः साधारणत्वं भवति तावद्भिभङ्गभङ्क्त्वा लब्धान् संयोगान् जानीहि, शेषानुद्धरितान् संयोगान्तर्गतभङ्गान् जानीहि, चशब्दादादावपि साधारणसंयोगा भव-न्ति, तत्र तैर्हत्वासंयोगान् जानीहि, अष्टप्रवेशमाश्रित्योदाहरणं यथा-केनाऽपि पृष्ट, सैकोननवतिकाष्टादशशततमो भङ्ग: स कीदृशो भवति?, तदैतावन्मध्याङ्गाः 7 असंयोगिकाः, द्विक-संयोगे 147, त्रिकसंयोगे 735, एवमष्टशतानि सैकोननवतिकानि 886, निष्कासितानि, शेषाः सहस्त्रं, चतुष्कसंयोगे 1225, भङ्गाः सन्ति, बहुतरा इति कृत्याऽत्र सहसं संयोगैर्हर इति संयोगाः 35, पञ्चत्रिंशता हियमाणा लब्धभङ्गाः 28, अतीता गताः, उद्धरिता विंशतिर्भङ्गाः। किमुक्तं भवति?, एकोनत्रिंशत्तमे भङ्गे विंश-तितमोऽयं संयोगो वर्तते, द्वितीये नरके 4, चतुर्थे नरके 1, षष्ठे नरके 1, सप्तमे 2, इति कथनीयम्। अष्टप्रवेशमाश्रित्य केनाऽपि पृष्ट सैकोनचत्वारिंशत्कषोडशशततमो भङ्गः कीदृशो भवति?, ततस्तन्मध्यात् 1636, नष्टमध्यात् 556, निष्कास्यन्ते, शेषाः 750, ते पञ्चत्रिंशता हियन्ते, लब्धाः२१, उद्धरिताः 15, एकविंशतितमो भङ्गोऽत्र साधारणपतितः, त्रिभिः साधारणः पञ्चम-षष्ठसप्तमसाधारणपतितोऽत एकविंशतिमध्यादेको निष्कास्यते पृथक् क्रियते पञ्चत्रिंशद्भङ्गाः पञ्चदशभिरुद्धरितैर्मीलिता जाताः 50, त्रिसाधारण इति त्रिभिर्भक्ताः 16 षोडश संयोगा उद्धरितौ द्वौ सप्तदशसंयोगे द्वितीयो भङ्गः। किमुक्त भवति-?-विंशतिर्भङ्गागता उपरिषोडश संयोगाः सप्तदशसंयोगे द्वितीयो द्वितीयो भङ्गो वर्तते, द्वितीये नरके 1, तृतीये 4, चतुर्थे १षष्ठे 2 सैकोनचत्वारिंशत्कषोडशशततमोऽयं भङ्ग ईदृशो भवति इति कथनीयं, चशब्दादादावपि साधारणा भङ्गाः पतितास्तदा तेऽपि भङ्गायाव-द्भिः साधारणास्तै ज्यन्ते, यथा-अष्टप्रवेशे द्विकसंयोगे षट् साधारणा भङ्गा भवन्ति, तदा षभिर्हियन्ते, यथा-केनाऽपि पृष्टम्, अष्टप्रवेशे द्विकसंयोगे चत्वारिंशत्तमो भगःस कीदृशो भवति? तदा षट् साधारणत्यात् षड्भिर्भज्यते, लब्धाः 6, उद्धरिताः 4, तदा कथनीयं षट्संयोगा अतीताः सप्तमे संयोगे चतुर्थो भङ्गो वर्त्तते (प्रथमे) 7 (पञ्चमे ) १इति कथनीयमित्यादि ज्ञातव्यम् // 21 / / इति नष्टकरणगाथात्रयम् / अथोद्दिष्टकरणमाहउद्दिट्ट तीअभंगा, संजोगगुणा य सहिअसंजोगा। 1.1 1 .1 - 7.210350 352171 एवं सर्वभङ्ग करचनां नरकप्रस्तारंच विधाय नष्टमाश्रित्यमाहनटुंऽकाउय मंगे, सोहिज्जा जत्थ बहुअरा मंगा। संजोगेहिं हर तर्हि, लद्धे मुण मूलभंगे अ॥१६॥ (नवऽकाउ त्ति) नष्टालेभ्यो येऽल्पतरा भङ्गास्तान् शोधयेत्, नष्टामध्यानिष्काशयेत्, तावन्निष्काशेद्यावद्हुतरा भङ्गानस्युः, यत्र तु नष्टाङ्कागङ्गा बहुतरास्तत्र संयोगैस्तद्भवसंयोगेहर्र भज इति लब्धान् मूलभङ्गान् (मुण त्ति) जानीहि // 16 // Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय 561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय उद्दिभंगसंखा, इअकहिआ धीरपुरिसेहिं / / 22 / / (उहि ति) उद्दिष्ट सति ये पूर्व भङ्गा अतीतास्त एकत्र करणीयाः, वर्तमाने संयोगे ये भङ्गास्तेऽपि तैः संयोगैर्गुणाः कर्त्तव्याः / किमुक्तं भवति? वर्तमानागङ्गात्पूर्वं ये भङ्गा गतास्ते भङ्गास्तत्सम्बन्धिभिः संयोगैर्गुणाः कर्त्तव्याः, वर्तमाने भङ्गे ये संयोगास्तेऽपि, ते त्रयोऽपि, ते वयोऽपि, भेदा एकत्र करणीयाः, एवं कृते सति या संख्या भवति, तत्सङ्ख्यो भङ्ग इति उद्दिष्टभङ्गसङ्ख्या धीरपुरुषैः कथिता / / 22 / / जइ भंगयसाहारण-संजोगा जे अ तेहिं गुणिऊण। सेसे भगे मलिअ, एगीकाऊण सव्वग्ग / / 23 / / ' (जइत्ति) यदि भङ्ग कसाधारणसंयोगाः येऽतीताः गतास्तान् संयोगान् तैः साधारणभङ्ग दित्रिचतुरादिसाधारणभङ्ग गुणयित्वा 'शेषान्' वर्तमानसम्बन्धिन उत्तरभेदान् मेलयित्वा पश्चात्पूर्वमुत्पन्नान् भङ्गान् भङ्ग कसाधारणसंयोगांश्चैकीकृत्य वक्तव्यमेतावत्सङ्ख्याकोऽयं भङ्गः। अष्टप्रवेशमाश्रित्योदाहरणमाह-केनाऽपि पृष्टम्- अयं भङ्गः कतिथः?, तदा गणनीय, गणने एकोनत्रिंशत्तमोऽयं भङ्गो वर्तते / कथम्?, अष्टाविंशतिर्भङ्गागतास्ते संयोगगुणाः कर्तव्याः पञ्चत्रिंशद् गुणाः कर्तव्याः, गुणनाजाताः ६८०विंशतितमः संयोग एकोनत्रिंशत्तमे भने वर्तते, एकत्र करणे जातं सहस्रं पूर्व येऽतीताः ते असंयोगे ७.द्विकसंयोगे 147, त्रिकसंयोगे 735, सर्व एकीकरणे जातानि भङ्गानां 1886 अष्टादशशतान्येकोननवतिश्च, तदा कथनीयं सैकोननवत्यष्टादशशततमो भङ्गः / यदा केनचित् पृष्टमयं - भङ्गः कतिथः? तदाऽत्र भङ्गः 20 गताः,संयोगैर्गुणिताः (35, गुणिताः) जाताः 700, एकविंशतितमे भने षोडश संयोगा अतीता गतास्ते त्रिसाधारणत्वात् त्रिभिर्गुणिता जाताः 48, सप्तदशे संयोगे द्वितीयो भङ्गस्ताभ्यां सह जाताः 50, सप्तशतैः सह जातानि सार्धानि सप्तशतानि 750, पूर्वमसंयोगे 7, द्विसंयोगे 147, त्रिकसंयोगे 735, अतीतास्तेऽपि 886 मध्ये क्षेप्याः सर्वे जातानि सैकोनचत्वारिंशत्कानि षोडश शतानि तदा कथनीयमयं सैकोनचत्वारिशत्षोडशशततमो भगः / तृतीयमुदाहरणम्-के निचित्पृष्टमयंभङ्गः कतिथः? तदा दृश्यते, अत्र सप्तमसंयोगेचतुर्थो भङ्गोऽयम्, अत्र षट्संयोगा अतीताः तेषट्साधारणत्वात्षगुणाः क्रियन्ते, जाताः 36, सप्तमे संयोगे चतुर्थो भङ्गो वर्तते अतस्तेऽपि मध्ये क्षेप्याः जाताः 40, तदाकथनीयमयं चत्वारिंशतमो भङ्गः, एवं सर्वत्रोद्दिष्टभङ्गा आनेतव्याः। शेषं सुगमम् / एवं सख्येयानामसख्येयानां च संयोगा ज्ञातव्याः। यत्र यत्र ये ये उत्पद्यन्ते तत्र तत्र ते ते उत्पाद्याः सूत्रादतिविस्तारबाहुल्यान्न लिखिताः। श्रीभगवत्यङ्गनवमशते 32 द्वात्रिंशत्तमोद्देशकादयमधिकारोऽलेखि // 23 // इय भंगियसुअभणणे, नासंति अघोररोगउवसग्गा। पावंति असुहसंपय, सिवं च देवत्तणं एई॥२४॥ सिरिमेहनामपंडिअ-सीसेण सिरिविजयनामधेएण। रइयं एयं सुत्तं, नियसरण परेसिं हिअमटुं // 25 // अनयोाख्या सुगमा // 24 // 25 // इति गाड्ने यपृष्टभङ्ग कावचूरिः पन्यासश्रीविजयगणिना कृता समाप्ता। अथ गाङ्गेयभङ्गप्रस्तारो लिख्यतेएक एकसंयोगे भङ्गाः७, प्र०१, द्वि० २४०३,०४,पं०५, 106, स०७। द्विकसंयोगे भङ्गाः 21, प्र० द्वि०१, प्र०४०२, प्र०च०३,प्र०पं० 4, प्र०प०५, प्र०स०६, द्वि०४०७, द्वि०च०८, द्वि०पं०६, द्वि०१० 10, द्वि० स०११, तृ०च०१२, तृ०पं०१३, तृ०ष०१४, तृ० स०१५, च०पं०१६, च०ष०१७, च०स०१८, पं० 10 16, पं० स० 20, प०स०२१) त्रिकसंयोगे भङ्गाः ३५.प्र०द्वि०४० 1, प्र०वि० च०२,प्र०वि० पं०३, प्र० द्वि० 0 4, प्र०द्वि०स०५, प्र० तृ०च० ६.प्र०४०पं०७. प्र०४०ष०८, प्र०४० स०६,प्र०च०पं०१०,प्र०च० ष०११, प्र०च०स०१२, प्र०पं०ष०१३, प्र०पं०स०१४,प्र०प०स० 15, द्वितृ०च०१६, द्वि०४०पं०१७,द्वितृ०प०१८, द्वि०४० स०१६, द्वि०च०पं० 20, द्वि० च० ष०२१,द्वि०च०स०२२, द्वि०पं०ष०२३, द्वि०पं०प० 24, द्वि०प०स०२५, तृ०च०५० 26. तृ०च०प० 27, तृ०च०स०२८, तृ०पं०१० 26, तृ०५०स०३०, तृष०स०३१, च०५०१०३२, च०पं०स०३३, च०१०स०३४, पं०१०स०३५ / चतुष्क संयोगे भङ्गाः 35, प्र० द्वि०४० च०१,प्र०द्वि० तृ० पं०२,प्र० द्वि० तृ०प०३, प्र०द्वि० तृ०स०४, प्र० द्वि०च०५०५, प्र०द्वि० च०१० 6, प्र०द्वि० च०स०७, प्र०द्वि०पं०ष०८, प्र०द्वि०प० स०६, प्र०द्वि०प०स०१०प्र०तृ०च०पं०११, प्र०४००ष०१२, प्र० तृ०च० स०१३,प्र०तृ०पं०ष०१४, प्र० तृ० पं०स०१५, प्र० तृ०ष०स०१६, प्र०च०पं० 10 17, प्र०च० पं०स०१८, प्र० च००स० 16, प्र० पं०ष०स०२०, द्वि० तृ० च०५०२१, द्वि० तृ० च०५०२२, द्वि० तृ० च०स०२३, द्वि० तृ० पं० 1024, द्वि० तृ०६० स० 25, द्वि० तृ०५० स०२६, द्वि० च० पं० 1027, द्वि० च० पं०स०२८, द्वि० च०१० स० 26, द्वि०पं०१० स०३०,तृ० च०पं०१०३१,४०च०पं०स०३२, तृ० च०५० स०३३.तृ०पं०ष०स०३४,च०पं०१०स०३५। पञ्चकसंयोगे भङ्गाः 21, प्र० द्वि० तृ०च०पं०१, प्र०द्वि० तृ०च०१०२, प्र० द्वि०४० च०स० 3, प्र० द्वि०तृ०५०५०४,प्र०द्वि०तृ०पं०स०५, प्र०द्वितृ० ष०स०६, प्र०द्वि०च०पं०ष०७,प्र०द्वि०च०पं०स०८, प्र०द्वि०प०स०६, प्र०द्वि०पं०१०स०१०, प्र०४०च०५०१०११, प्र०४० च० पं०स० 12, प्र० तृ०च०१०स०१३, प्र०तृ०पं०१०स०१४, प्र० च० पं०१० स०१५ द्वि०तृ०च०५०१०१६, द्वि० तृ० च० पं० स०१७, द्वितृ०च० 10 स०१८, द्वि०४० पं०१० स०१६, द्वि० च० पं०१० स०२०,तृ० च० पं० 10 स०२१। षट्संयोगे भङ्गाः 7, प्र०वि० तृ०५० पं० 101, प्र० द्वि० तृ० च०पं० स०२, प्र०द्वि० तृ० च०१०स०३, प्र० द्वि० तृ० पं०५० स०४,प्र० द्वि० च० पं०१० स०५, प्र० तृ० च० पं०१० स०६, द्वि० तृ० च० पं०१० स०७:सप्तसंयोगे भङ्गाः 1, प्र० द्वि० तृ० च०५० स०१। Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय 562- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय पञ्चकसंयोगे एक एव, / षट्प्रवेशेऽसंयोगिकभङ्गाः 7 / अथ संयोगप्रस्तारो लिख्यते-एकस्य प्रवेशे भङ्गाः 7,1-1-11-1-1-1 / द्विप्रवेशेऽसंयोगिकभङ्गा:७ / द्विकसंयोगिकभङ्गाः 1,1 त्रिकप्रवेशेऽसंयोगिकभङ्गाः 7 / द्विकसंयोगिको भङ्गो द्विकसंयोगिकभङ्गाः 5, स्थापना नललगान। ल त्रिकसंयोगिक भङ्गाः 10 द्वौ- त्रिकसंयोगिक एक एव भङ्गः नन्नाचतुःप्रवेशेऽसंयोगिकभङ्गाः 7 / द्विकसंयोगिकभङ्गास्रयः,स्थापना चेयं राशा शशा 411 | | रासस 1212 राशा 1231 2/2/1| 3111] चतुष्कसंयोगिकभङ्गाः १०,-ननल लिननलमलान ललन / त्रिकसंयोगिभङ्गास्त्रयः, स्थापना चेयं--- चतुष्कसंयोग एक एव, स्थापना चे यं- निननन पञ्चकप्रवेशेऽसंयोगिकभङ्गाः 7 / द्विकसंयोगगिभङ्गाः 4, श पञ्चकसंयोगभङ्गा:५ लघटसंयोग एक पद भङ्गाः स्थापना / त्रिकसंयोगिकभङ्गाः 6, तद्यथा HAR 1- नननननन सप्तप्रवेशऽसंयो-कभङ्गाः 7 / सप्तप्रवेशे श [11] चतुष्कसंयोगाः 4 स्थापना 1112 111 [111 न द्विकसंयोगिकभङ्गाः 3, निलाल सप्तप्रवेशे पञ्चसंयोगिभङ्गाः 15 पाशाशाशाशा शिशशशशशशशशरा शपथरारारारा१११११ सप्तप्रवेशे चतुष्कसंयोगिभङ्गाः 20, [शाशयाशाराशावाशाराशिवाराशर /१/१/२१|११||रामानाशाशशाशा शिशशशशशाशशशशाााा 43332221111111111 सप्तप्रवेशे त्रिकसंयोगिभङ्गाः 15, २११११११शवारा३ ११११११/२पाशश 11111132111 3 11111111 सप्तप्रवेशे षट्संयोगिभङ्गाः 6 पापा ११.पापाशी |111211 1912 1.91 12.1 1.11 11111 सप्तप्रवेशे सप्तसंयोगी एक एव अष्टप्रवेशेऽसंयोगिभङ्गा: 7 अष्टप्रवेशे द्विकसंयोगिभङ्गाः 7 / पराशराश६७ QUEBERA अष्टप्रवेशे त्रिकसंयोगिभङ्गाः 21 |११||१|शशशशशशशशशशशशशा शाशशशशशशशाबाशाशा छाशशशशशशशशशरा अष्टप्रवेशे चतुष्कसंयोगिभङ्गाः 35 |१|११|शाराशाशाशशाराशापाशाशशशशशशशशशश शशाशाशाशाशशपाशाशाशशाशशराशाशा १||११|शशशशशशशशशशशशशशशशशााााा [ शग३।३।३।३।३।३शशशशशशशशशारापालापानापानापाना११] अष्टप्रवेशे पञ्चसंयोगिभङ्गाः 35 / [१११११११रामाशाशशारापाराशावाशाशापाराशाशापाशशरण १1१1१/२|११११शाशशशशारापाशशावाशाशशाशश१] पानामापारासारासापारा११३३२१३३शशरापमा [12/11/113||21| शशशशशशशशशाााााा ४|३|३|३|३२|श|२२शशशशशशाााााााााााााााा Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय 863 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय अष्टप्रवेशे षट्संयोगिभङ्गाः 21 / अष्टप्रवेशे सप्तसंयोगिभङ्गाः 7 / पापाराशावादारापानापाशानाशाश३] पापारासापा२] ११११११११ाशावाशाशाशा पापापासाश ११ाशापाशाशासा३शशापाका 1/1/1 1 /2|1|1 1/12/1/11/12/1/11/3/2/2/2|1|11|111| 11/12/1/11 // |12|1111/3/2212/2/1/11/11/11/11/1] |112|111 |३|शराराशशाााााााााा 1/2/1/1 1 /1/1 11111] नवप्रवेशेऽसंयोगिभङ्गाः 7 / नवप्रवेशे त्रिकसंयोगिभङ्गा: 28 / नवप्रवेशे द्विकसंयोगिभङ्गाः 8 / ना [पापाशाशाशापाशशशशशशशधावाशाशाखा शाशवाशशशशशशशशशशश 6321 7|6|6|5||5|4|4|4|4|313 / 3 / 3 / 3 ।२२२२११ााााावा नवप्रवेशे चतुष्कसंयोगिभङ्गाः 56 / पापाशशशशशशशशशशशशशशशशशशशश पशिशशशशशशशशशश१४३ १||११|शशशशशशशशशापानापाशशशशशशश [६|५||५|४|४|४||शशशशशश३३३३३शशशशशशशशशश ३४ाशाशापाशाशशशशशशशशशशशपापा |२|१५|४|३|२|१|१||१|शरा१४३१५/शशाघाशाशशा शरापालापाद्दाशशशशशशशशशशशशशपापापापापा शिशशशशशशाााा११११११पानापानापा११/११/१] नवप्रवेशे पञ्चसंयोगिभङ्गाः 70. पावापाशापाशापाशशशशापामाशापाशाशशपापाशवारापाश३४ १/११|११शापाशाजशाााशावाशाशशपापाशाशशाशाशा पापापापारापाशशशपापापाशा१1३२२१११३।३।२।२/२/११/१/१] ११११/३शशशावापाशा३शशशशशशशाााााााापामा |५|४|४|४|४|३३||३||शशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशश १ाशाशशशशशापाशाशासाशाजापाशाशशपाशाजापाशशराश [१/१/शारापाशशारापाशशपामाशापाशपाशशशशशाशाशा 1१/२/११/३/२/२/११/१/४|३३शराशामा११||४|शशशशशशश११/१/११ ५४४४३।३।३।३।३।३शशशशशशशशशशशा११११११११११११/११ |1|1|1.111111111/1aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa नवप्रवेशे षट्संयोगिभङ्गाः 56. पापावासाशासानाशपावापाशापाशाशशपााााशा ११११पापाशापाराशरा१११११११ |11|1||1|11|12|1|11|2|11|3|2||1|11|11|2|1|11|2| |11|2|111|1|2111/3/2/2||1|1|11|1|1|1|2|1|11|32| |1|21113 शशशश११११११११११४३/३३३२/२ |४|३|३|३|३|३|२||२२|शशशशशशशशशशपापापापापा] पाशावाशाशाशापाशाापाराशापाशाशशाश३/४ |२|१|१||१|३||११|१शारापाशाशाशशाश१] पाशशराााााशशशशा३३शशराशा शपायापाशशशशशशशश११११११११११ शशशशशशशशपाााााााााााााााा पापानापानापानापानापानासाराम Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय 864 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय नवप्रवेशे सप्तसंयोगिभङ्गाः 28 / विवाााााशाााााशााााशाापारावारापारा३] [11|11|1|2|1|11|11|2111|1|2|1/11/2|1|1|21|3|2|1| पावापाशपापापारावासाशासाशपाशाशशपापा 111111111/2/11/11/2/11/1/322211/111/1] 11/12/11/111/2|11|1|1|3|2|2||2|1111111111) 1/21/11/11/3/2/2/2/2/2/1/11/1/11/11/11/11/111) 322222111111111111111111111 दशकप्रवेशेऽसंयोगिभङ्गाः 7 / दशकप्रवेशे द्विकसंयोगिभङ्गाः / वाशशराशाखा दशकप्रवेशे त्रिकसंयोगिभङ्गाः 36 / ११राशाशासाराशगशाशशरापाशशरादापाराशघाख [१||१|३|२|१४|३शाशग३/२१६श३२१७६शशशपाचाद्दाशश३२१) [87[766/ ६५११४३३३३३३शशशशशशशपावापानापानापाना दशकप्रवेशे चतुष्कसंयोगिभङ्गाः 84 / पापापारासापाशाशाशवाराशराराशापारावाराला पाशशशशशशशशशशशापाशशशशा३] पाशाशशरा१३३रारारारारा३३३श 7666542114 3 333333333 [शाशशराशावाशाशाशाशशशशशशश६] |२|१५||३||११||१|शशा३/शाशशशशवाहाशाशा २१११११६११४४३३शशशशशशशश११११११ |३|३|३|३|३|३|३२|शशशशशशशशशशशशशशश] पाशाशापाशशाशशशशाराशगशापाशाशाखा शाशशरापाश३१६५४३२१७६४३२१ छावादाशशशशशशशशशशशशशशशशशााााााा ||||||| ||||||||| || || दशकप्रवेशे पञ्चसंयोगिभङ्गाः 126 / १११ाशााााााशाशशाााशापाशाशशाशाशापा [१/१/१२/१११११२१३शारावापाशाशाशा३शशाम |१/१/२/११११११११११पापाशशशापावागशशशशश १२११३।२।२।२११११११३/३३शशाशनानासाना११ |६||१|शशशशशशशशशशशशशशशशशा३३३३] २३४ारामाशारामारामारापाशशापाशाशापाश शशााााारामाशापाशशशशशावाशाशशाशश [१1१1१1१११/३/२||११|३३शशााााशशशशशशशश |१|११||४||३३।३।३शशशशशशशशशशशशशपापानापानापानापाना |३शशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशश ||शशशश११पाशा/शाशशााशाशशपाशशाशशशश पाराशरााााााशा३शशपाशाशशाशशावाशााश रा१1१1१1१1१1१।११३शशशशशशशशशशाााारागा३] पाााााादाशशा३३३३३३३३३३३२२२२ 1 21111111111111111111111111) Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय 865 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पावेसणय शाशशशशशशशशारापाशशशशशशाशानाशा 1/4/3/2|1|5|4|3|2|1|12|1/3/2/14|32|11543/2|16|5|4|321 |3|||||1|1|1|11|6 4|4|4|3||3|3|2|2|2|111111) शिशशशशशशशशशावावापानापानापानापानापानापा११/१ [11/11/11/1/11/11/111111111111 11/11111] दशकप्रवेशे षट्संयोगिभङ्गाः 126, १1१1१११ाशापाराशावाशाशासापावापाशवपाशा 11/ 12/11/ १२/११/१२/११ाशशरा११/१|१|शा१२/१/१२ 1१1१1१/२/११/१.१||१|१११३२|शासापानाशापासाशा१|शश विपाशालाापाशपावापाशशशपापापापाशानाशाशा 1 1111/3/2|2|2|2|1111/11/111114|3|3|3|322|2|2|2 4443333333333333333 रारारा२२२२२२२ रापाशशशशशशशापाशपाशशाशाााााशापाका |१|३२/१/११/२/११||१|शाश१३|२१| शपापापाशावास |२|११|११|१|शशशााा३शशशशााााााशारापाशा |11114|3|3|32|221221111111/11/112111322 रारारामा१११११पासमााााशा३३३ शिशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशा१११1) शामाशाशशशशशशशशशशशशाशपाशाशानापावास शाशाशापाराशारापाशशरारा,१११/२/१ वाशापारापाशशरा१/११४३३/२२२/११/११/१२/१/91 शााााााााशशशशशशशावादावादापावापापा |३।३।३।३।३।३।३शिशशशशशशशरारारारारारारारा२/११११ |11|1|11/1/1/111111111111111111111aaaaaaaaaaaaaaaaaa |११|रापाराशाशाशापाराशगावाशाशशाशशराशन 1/21321121/3/2/1432.11.21/3/2/1432/154/321 3/2/2/11|14|3|3|2|2111154|4|3|3|3|21222/11/311 |३||३|३|२|शशशशशशशााााााााााााााा 1111/11/1/1/11/1111/11/11/11/1/11111/1/11/11 |१|११|१/१/११११११११११११पापापासासाराााााा दशप्रवेशे सप्तसंयोगिभङ्गाः 84 / १११११११११११११पापाशाशाशारा३ पापापापाशवपाशापाता१1१1१२१११३/२१ ११११११११११११ानाशापाशना१३१११ पापापाशपापाश११|२|१||१३||२२|११|१|91919 सामाशापाशशशशशपालापाना११ 112111/1/1/3|2|2|2|21111/11/11/1/11/1/11/11 ४३३३३३शशशशशशशशशशरारारारारारा पाााााशापाशामाशाशाशापारा पापानापानापानापामाशाशाशाशा 199/12/11/1/12/11/12/11/3/2/11/111/211/12 |112/11/11/2|11|13||2||1111111211132 19/2111/1/3|2|2|2|2|1|11|1|11111/1|4|3|3|3|3||2 1४1३1३/३/३/३/शशशशशशशशशशशशशशशााााााा [११/१११११११११११११ापावापाााााााााा Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावेसणय 896 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पास शिवपाशाशासावाशाशवाराशामाशाशशारा शशा३शशाशा१२१२११पाशाश२१ पापाराशपापानापाशशपापा४३.३शशशशा शिपापाााााा३३३शशशशशशशासानामा शिशशशशशशपालापानापानापानापानापावासा 11111111/11/11/11/11/11/1/11/1/1/1/1/111111111] [११११११११११११११पाााााााााााा एकप्रवेशे भङ्गाः 28, तन्मध्येऽसंयोगिकभङ्गा:७, द्विकसंयोगिभङ्गा: 21 / त्रिप्रवेशे भङ्गाः 84, असं०७, द्विकसं० 42, त्रिकसं० 35 / चतुःप्रवेशे भङ्गाः 210, असं० 7, द्वि० 63, त्रि० 105, च० 35 / पञ्चप्रवेशे भङ्गाः 462, असं०७, द्वि० 84, त्रि० 210, च० 140, पं० 21 / घटप्रवेशे भङ्गाः 924, असं०७, द्वि० 105, त्रि० 350, च० 350, पं० 105, ष०७ / सप्तप्र० भङ्गाः 1716, असं०७, द्वि० 126, त्रि०५२५, च० 700, पं० 315, ष० 42, स०१। अष्टप्र० भङ्गाः 3003, असं०७, द्वि० 147, त्रि० 735, च० 1225, पं०७३५, 10 147, स०७ / नवप्र० भङ्गाः 5005, असं०७, द्वि०७, द्वि० 168, त्रि० 980, च० 1960, पं० 1470, 50 392, स० 28 / दशप्र० भङ्गाः 8008, असं०७, द्वि० 189, त्रि० 1260, च० 2940, पं० 2646, 50 882, स० 84 / पावोवरय त्रि०(पापोपरत) पापात् पापहेतोः सावद्यानुष्ठानात् इदाणीं पासो त्ति,तत्र पूर्वोक्तयुक्तिकलापादेव पश्यति सर्वभावानिति हिंसाऽनृतादानाबहारूपादुपरतः पापोपरतः।त्यक्तपापे, आचा०१श्रु० पार्श्वः, पश्यक इति चान्ये। 'तत्थ सव्वेऽविसव्वभावाणं जाणगापासगा ५अ १उन य ति सामण्णं, विसेसो पुण-व्याख्या-(गाहद्धं) गभगए भगवंते षास धा०(दृश) प्रेक्षणे, "दृशो निअच्छ-पेच्छावयच्छावयज्झ- तेलोकबंधवे सत्तसिरणाग सयणिजे णिविञ्जणे माया से सुविणे दित्ति, वज्ज-सव्व-देक्खौ अक्खावक्खावअक्ख-पुलोएपुलए तहा अधंकारे सयणिज्जगयाए गडभप्प-भावेण य एतं सप्पं पासिऊणं निआवआस-पासाः" // 814181 / / इति दृशधातोः 'पास' रणो सयणिज्जे णिग्गया बाहा चडाविया, भणिओ य-एस सप्पो वच्चइ, आदेशः / 'पासइ।' पश्यति / प्रा० ४पाद। "पासिमं दविए लोए।" रण्णा भणियं-कहं जाणसि?, भणइ-पेच्छामि, दीवएण पलोइओ, दिह्रो "पासिम" इत्यादि यदुक्तमुद्देशकाऽऽदेरारभ्यानन्तरसूत्रं यावत्त य सप्पो, रण्णा चिंता गभस्स एसो अइसयप्पहावो जेण एरिसे तिमिरंमिममर्थं पश्य परिच्छिन्धि कर्तव्याकर्तव्यतया विवेकेनावधारय कोऽसौ धयारे पासइ, तेण पासो त्ति णामं कयं / आव०१ अ०। पश्यति सर्वभाद्रव्यभूतो-मुक्तिगमनयोग्यः साधुरित्यर्थः / आचा०१श्रु०३अ०४ उ० वानिति निरुक्तात्पार्श्वः / तथा गर्भस्थे भगवति जनन्या निशिशय नीयस्य पावें अन्धकारे सर्पो दृष्ट इति गर्भानुभावोऽयमिति मत्वा 'दोहिं ठाणे हिं आया रूवाइं पासइ-देसेण वि, सव्वेण वि।'' पश्यतीति पार्श्वः / ध०२अधि० अस्थामवसर्पिण्यां भरतक्षेत्र त्रयोविंशे स्था०२ठा०१3०1 तीर्थकरे, अनु०स०आ०चूला *पाश पुं० पाशयति बधातीति पाशः। सूत्र०१श्रु०४अ०१उ01 "परिसरो अथ जघन्यमध्यमोत्कृष्टवाचनाभिः श्रीपार्श्वदेवचरित्रमाहपासो।" पाइ०ना० 136 गाथा। पुत्रकलत्रधनप्रमुख-बन्धने, उत्त० तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए पंचविसाहे ४अ०। प्रश्न गलयन्त्राऽऽदौ, सूत्र० 1204 अ०७उवा रज्जुबन्धने, हुत्था। तं जहा-वसाहाहिं चुए चइत्ता गन्मं वकंते विसाहाहिं सूत्र० १श्रु०४ अ० १उ०। संयमप्रवृत्ति प्रति स्वातन्त्र्योपरोधिनि, उत्त० जाए, विसाहाहिं मुंडे भवित्ता अगा-राओ अणगारि पवइए, पाई० 4 अ०। बन्धनविशेषे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार / आचा०। विसाहाहिं अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने मिथ्यात्वाऽऽदिषु बन्धहेतुषु, प्य०१3०। अविद्या वेदान्तिनां, क्लेशः केवलवरनाणदं-सणे समुप्पन्ने विसाहाहिं परिनिव्वुडे / / 146 / / सांख्यानां, कर्म जैनानाम्, आदिशब्दाद् वासना सौगतानाम्, पाशः (तेण कालेणं इत्यादि) तस्मिन्काले (तेणं समएण) तरिमन् समये शैवानाम् (11 श्लोक) द्वा० 26 द्वा / तोपकरणे, ज०३वक्ष०। (पासे अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वनामा अर्हन पुरुषश्चासौ आदानीयश्व अत्यन्तपारवश्यहेतौ कल-त्राऽऽदिसंबन्धे, उत्त० ६अ। आदेयवाक्यतया आदेयनामतया च पुरुषादानीयः, पुरुषप्रधान *पार्श्व न० 1 समीपे, उत्त० 24 अ० वामदक्षिणभागे, प्रव०२ द्वार। इत्यर्थः / (पंचविसाहे होत्था) पञ्च कल्याणकानि विशाखायां, सूत्र० / स्वनामख्याते तीर्थकरे, आवा (पञ्चविशाख) अभवत् (तं जहा-) तद्यथा-(विसाहाहिं चुए, चइत्ता सप्पं सयणे जणणी, तंपासइ तमसि तेण पासजिणो 1091 | गभं वक्ते) विशाखायां च्युतः, च्युत्वा गर्भ उत्पन्नः १(विसा Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास 897 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पास हाहि जाए) विशाखाया जातः २(विसाहाहि मुंडे भवित्ता) विशाखायो मुण्डो भूत्वा (अगाराओ अणगारियं पव्वइए) अगारानिष्क्रम्य साधुतां प्रतिपन्नः३, (विसाहाहिं अणते अणुत्तरे निव्वाधाए) विशाखायां अनन्ते अनुपमे निर्व्याघाते (निरावरणे कसिणे पडिपुग्ने) समस्ताऽऽवरणरहिते समस्ते प्रतिपूर्णे (केवल-वरनाणदसणे समुप्पन्ने) एवंविधे केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने 4, (विसाहाहिं परिनिव्वुडे) विशाखायां निर्वाणं प्राप्तः 5. 146 / च्युतिःतेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं पाणयाओ कप्पाओ वीसं सागरोवमट्टि इयाओ अणंतरं चयं चइता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वाणारसीए नयरीए आससेणस्स रन्नो वम्माए देवीए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमवागएणं आहारवकंतीए भववकंतीए सरीरवकंतीए कुञ्छिसि गब्भत्ताए वकते॥१५०|| (ते णं काले णं) तस्मिन् काले (ते णं समए णं) तस्मिन् समये (पासे अरहा पुरिसादाणीए) पावः अर्हन् पुरुषादानीयः (जे से गिम्हाणं पढमे मासे) योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः (पढमे पक्खे) प्रथमःपक्षः (चित्तबहुले) चैत्रस्य बहुलपक्षः (तस्सणं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं) तस्य चैत्रबहुलस्य चतुर्थीदिवसे (पाणयाओ कप्पाओ) प्राणतनामकात् दशमकल्पात, कीदृशात्?(वीसं सागरोवमट्टिइयाओ) विंशतिसागरोपमस्थितिः आयुःप्रमाणं यत्र, ईदृशात् (अणंतरं चयं चइत्ता) अनन्तरं दिव्यशरीरं त्यक्त्वा (इहेवजंबुद्दीवे दीवे) अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे (भारहे वासे) भरतक्षेत्रे (वाणारसीए नयरीए) वाराणस्यां नगर्या (आससेणस्स रन्ना) अश्वसेनस्य राज्ञः (वामाए देवीए) वामायाः देव्याः (पुटवरत्तावरत्तकालसमयंसि) पूर्वापररात्रिसमये, मध्यरात्रौ इत्यर्थः / (विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएण) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति (आहारवकंतीए) दिव्याऽऽहारत्यागेन (भववझंतीए) दिव्यभवत्यागेन (सरीरबकंतीए) दिव्यशरीरत्यागेन (कुच्छिसि गब्भत्ताए वकंते) कुक्षी गर्भतया व्युत्क्रान्त उत्पन्नः॥१५०।। च्यवनज्ञानमपासे णं अरहा पुरिसादाणीए तिन्नाणोवगए आवि हुत्था / तं जहा-चइस्सामि त्ति जाणइ, तेणं चेव अभिलावेणं सुविणदंसणविहाणेण सव्वंजाव निअगं गिह अणुपविट्ठा जाव सुहं सुहेणं तं गब्भं परिवहइ // 15| (पासे णं अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः (तिम्ना- | णोवगए आवि हुत्था) त्रिज्ञानोपगत आसीत् / (तं जहा) तद्यथा (चइस्सामि त्ति जाणइ) च्योष्ये इति जानाति (तेणं चेव अभिलावेणं) तेनैव पूर्वोक्तपाठेन (सुविणदसणविहाणेणं) स्वप्नदर्शनस्वप्नफलप्रश्नप्रमुखम् (सव्वं जाव निअगं गिह अणुपविट्ठा) सर्व वाच्यं यावत् निर्ज गृह वामादेवी प्राविशत् (जाव सुहं सुहेणं तं गब्भं परिवहइ) यावत् सुखं सुखेन तं गर्भ परिपालयति॥१५१।। तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादीणीए जे से हेमंताणं दुचे मासे तच्चे पक्खे पोसहबहुले तस्स ण पोसबहुलस्स दसमीपक्खेणं नवण्ह मासाहं बहुपडिपुन्नाणं अद्धद्वमाणं राइदिआणं विइक्वंतागं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवाएणं आरोग्गारोगं दारयं पयाया।।१५२| (तेणं कालेणं) तस्मिन् काले (तेणं समएण) तस्मिन् समये (पासे अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः (जे से हेमंताणं) योऽसौ शीतकालस्य (दुचे मासे तच्चे पक्खे) द्वितीयो मासः तृतीयः पक्षः (पोसबहुले) पौषबहुलः (तस्स णं पोसबहुलस्स दसमीपक्खेणं) तस्य पौषबहुलस्य दशमीदिवसे (नवण्हं मासाणं) नवसु मासेषु (बहुपडिपुन्नाणं) बहुप्रतिपूर्णेषु सत्सु (अट्ठमाणं राइंदियाणं) अर्धाष्टसु च अहोरात्रेषु (विइक्वंताणं) व्यतिक्रान्तेषु सत्सु (पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि) पूर्वापररात्रिसमये, मध्यरात्रौ इत्यर्थः / (विसाहाहिं नक्खत्तेण जोगमुवागएणं ) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगे उपागते सति (आरोग्गारोग्गं दारयं पयाया) आरोग्या वामा आरोग्यं दारकं प्रजाता / / 152 / / जं रयणिं च णं पासे अरहा पुरिसादाणीए जाए, साणं रयणी बहूहिं देवेहि य देवीहि य०जाव उप्पिंजलभूआ कहकहगभूआ आवि हुत्था / / 153 // (ज रयणिं च णं) यस्या रजन्या (पासे अरहा पुरिसादाणीए जाए) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः जातः (साणं रयणी बहूहिं देवेहि य देवीहि य) सा रजनी बहुभिः देवैः देवीभिश्च कृत्वा (जाव उप्पिजलमाणभूआ) यावत् भृशं आकुला इव (कहकहगभूआ आवि हुत्था) अव्यक्तवर्णकोलाहलमयी अभवत् // 153 // सेसं तहेव, नवरं जम्म णं पासाभिलावेणं भाणिअव्वं जाव तं होउणं कुमारे पासे नामेणं // 154|| (रोसंतहेब, नवरंपासभिलावेण भाणियव्वं) शेषं जन्मोत्सवाऽऽदितथैव पूर्ववत्, परंपाभिलापेन भणितव्यं (जावत होउणं कुमारे पासे नानेणं) यावत् तस्मात् भवतु कुमारः पार्श्वः नाम्ना कृत्वा / तत्र प्रभौ गर्भस्थे सति शयनीयस्था माता पार्वे सर्पन्तं कृष्णसर्प ददर्श, ततः पार्श्व इति नाम कृत, क्रमेण यौवनं प्राप्तः। तचैवम्-धात्रीभिरिन्द्राऽऽदिष्टाभिाल्य मानो जगत्पतिः। नवहस्तप्रमाणाङ्गः क्रभादाप च यौवनम् / / 1 / / " ततः कुशस्थलेशः प्रसेनजिन्नृपपुत्री प्रभावतानाम्नी कनीम् आगृह्य पित्रा परिणायितः, अन्येार्गवाक्षस्थः स्वामी एकस्यां दिशि गच्छतः पुष्पाऽऽदिपूजोपकरणसहितान्नागरांश्व निरीक्ष्य एते व गच्छ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास 868 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पास न्तीति कञ्चित्पप्रच्छ, स आह, प्रभो ! कुत्रचित्सन्निवेशे वास्तव्यो दरिद्रो मृतमातापितृको ब्राह्यणपुत्रः कृपया लोकै र्जीवितः कमठनामा, सच एकदा रत्नाऽऽभरणभूषितान् नागरान् वीक्ष्य अहो एतत्प्रागुजन्मतपसः फलमिति विचिन्त्य पञ्चान्यादिमहाकष्टार्थी तपस्वी जातः, सोऽयं पुर्या बहिरागतोऽस्तितं पूजितुं लोका गच्छन्तीति निशम्य प्रभुरपि सपरिवारस्तंद्रष्टुं ययौ। तत्र काष्ठान्तर्दह्यमानं महासर्प ज्ञानेन विज्ञाय करुणासमुद्रो भगवानाह–अहो मूढ तपस्विन् ! किं दयां विना वृथा कष्टं करोषि, यतः"कृपानदीमहातीरे, सर्वे धर्मास्तृणाकुराः / तस्यां शोषमुपेतायां, कियन्नन्दन्ति ते चिरम् ? / / 1 / / '' इत्याकर्ण्य क्रुद्धः कमठोऽवोचत्-राजपुत्रा हि गजाश्वाऽऽदिक्रीडा कर्तुं जानन्ति, धर्म तु वयं तपोधना एव जानीमः / ततः स्वामिनाऽग्निकुण्डात् ज्वलत्काष्ठम् आकृष्य कुठ रेण द्विधा कृत्या वतापव्याकुलः सर्पो निष्कासितः,सच भगवन्नियुक्तपुरुषमुखान्नमस्कारान् प्रत्याख्यानं चव निशम्यतत्क्षणं विपद्य धरणेन्द्रो जातः, अहो ज्ञानीति जनैः स्तूयमानः स्वामी स्वगृहं ययौ, कमठोऽपि तपस्तप्त्वा मेघकुमारेषु मेघमाली जातः।।१५४|| पासे णं अरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे अल्लीणे भद्दए विणीए, तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता पुणरवि लोयंतिएहिं जिअकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इटाहिंजाव एवं बयासी॥१५५।। (पासे णं अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः (दक्खे दक्खप्पइन्ने) दक्षः दक्षप्रतिज्ञः दक्षा प्रतिज्ञा यस्य (पडिरूवे अल्लीणे भद्दए विणीए) रूपवान् गुणैरालिङ्गितः भद्रकः विनयवान (तीसं वासाई अगार वारामज्झे वसित्ता) त्रिंशद्वर्षाणि गृहस्थावस्थायां स्थित्वा (पुणरवि लोयंतिएहिं) पुनरपि लोकान्तिकाः (जिअ-कप्पिएहिं देवहि) जीतकल्पिकाःदेवाः (ताहि इटाहिं जावएवं बयासी) ताभिः इष्टाभिर्वाग्भिः यावत् एवम् अवादिषुः॥१५॥ "जय जय नंदा, जय जय भद्दा,"oजावजयजयसपउंजंति // 156|| (जय जय नंदा जयजय भवाजाव जयजयस पउंति) जयजयवान् भव, हे समृद्धिमन् ! जयजयवान् भव, हे काल्याणवन् ! यावत् जयजयशब्द प्रवुजन्ति // 15 // पुट्विं पिणं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ अणुत्तरे अ होइए तं चेव सव्वं जाव दाण दाइयाणं परिभाइत्ता जे से हेमंताणं दुचे मासे तचे पक्खे पोसबहुले तस्स णं पोसबहुलस्स इक्कारसीदिवसेणं पुव्वण्हकालसमयंसि विसालए सिविआए सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे तं चेव सव्वं, नवरं वाणारसिं नयरिं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव आसमपए उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठवेइत्ता सीयाओ पचोरुहइ, पचोरुहइत्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुअइ, ओमुअइत्ता सयमेव पंचमुट्ठिअं लोअं करेइ, करेइत्ता अदुमेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पब्वइए / / 157|| (पुस्विं पिणं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पूर्वमपि पावस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (माणुस्सगाओ) मनुष्ययोग्यात् (गिहत्थधम्माओ) गृहस्थधर्मात् (अणुत्तरे आहोइए) अनुपमम् उपयोगाऽऽत्मकन् अवधिज्ञानमभूत (तं चेव सव्वं जाव दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता) तदेव सर्वं पूर्वोक्तं वाच्यं, यावत् धनं गोत्रिणो विभज्य दत्त्वा (जे से हेमताण) योऽसौ शीतकालस्य (दुच्चे मासे तच्चे पक्खे) द्वितीयो मासः तृतीयः पक्षः (पोसवहुले) पौषस्य कृष्णपक्षः (तस्सणं पोसबहुलस्स इमारसीदिवसेणं) तस्य पौषबहुलस्य एकादशीदिवसे (पुव्वण्ह कालसमयंसि) पूर्वाह्नकालसमये प्रथमप्रहरे (विसालाए सिबिआए) विशालायां नाम शिविकायां (सदेवमणुआसुराए) देवमनुष्यासुरसहितया (परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे) पर्षदा समनुगम्यमानं प्रभुमग्रतः (तं चेव सव्वं नवरं) सर्वतदेव पूर्वोक्तं वाच्यम्, अयं विशेषः (वाणारसिं नगरिमझमज्झेणं निगच्छइ) वाराणस्या नगर्या मध्यभागेन निर्गच्छति (निग्गच्छित्ता) निर्गत्य (जेणेव आसमपए उज्जाणे) यव आश्रमपदनामकमुद्यानम् (जेणेव असोगवरपायवे) यत्रैव अशोकनामा वृक्षः(तेणेव उवागच्छइ) तत्रैव उपागच्छति (उवगच्छित्ता) उपागत्य (असोगवरपायवस्स अहे) अशोकवृक्षस्य अधस्तात् (सीयं ठावेइ) शिविकां स्थापयति (ठविता) संस्थाप्य (सीयाओ पचोरुहइ) शिबिकातः प्रत्यवतरति (पचोरुहिता) प्रत्यवतीर्य (सयमेव आभरणमल्लालंकार ओमुअइ) स्वयमेव आभरणमालालङ्कारान् अवमुञ्चति (ओमुइ त्ता) अवमुच्य(सयमेव पंचमुडियं लोअ करेइ) स्वयमेव पञ्चमौष्टिक लोचं करोति (करित्ता) लोचं कृत्वा (अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं) अष्टमेन भक्तेन अपानकेन जलरहितेन (विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति (एग देवदूसमादाय) एकं देवदूष्यं गृहीत्वा (तिहिं पुरिससएहिं सद्धि मुंडे भवित्ता) त्रिभिः पुरुषशतैः सार्द्ध मुण्डो भूत्वा (अगाराओ अणगारियं पध्वइए) गृहान्निष्क्रम्य साधुतां प्रतिपन्नः / / 157 / / पासे णं अरहा पुरिसादाणीए ते सीइं राइंदियाइं निच्चं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे, जे केइ उवसग्गा उप्पजति / तं जहादिव्वा वा,माणुस्सा वा, तिरिक्खजोणिआ वा, अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने सम्मं सहइ तितिक्खइ खमइ अहियासेइ।।१५८|| (पासे णं अरहा पुरिसादाणीए) पार्श्व: अर्हन पुरुषा Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास 896 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पास दानीयः (तेसीइं राइंदियाई) त्र्यशीति रात्रिदिवसान् यावत् (निचं दोसदुकाए चियत्तदेहे) नित्यं व्युत्सृष्टकायः त्यक्तदेहः (जे केइ उवसग्गा उप्पजति) ये केचन उपसर्गा उत्पद्यन्ते। (तं जहा) तद्यथा-(दिव्वा वा / माणुस्सा वा तिरिक्खजोणिओ वा) देवकृताः मनुष्यकृताःतिर्यकृताः (अणुलोमा वा पडिलोमा वा ते उप्पन्ने सम्म सहइ) अनुलोमा वा प्रतिलोमा वा तान् उत्पन्नान् सम्यक् सहते (तितिक्खाइ खमइ अहियासेइ) तितिक्षते क्षमते अध्यासयति, तत्र देवोपसर्गः कमठसम्बन्धी। स चैवम्-स्वामी प्रवज्यैकदा विहरन् तापसाऽऽश्रमे कूपसमीपे न्यग्रोधाधो निशि प्रतिमया स्थितः, इतः स मेघमाली सुराधमः श्रीपार्श्वमुपद्रोतुम् आगत्य क्रोधान्धः स्वविकुर्वितशार्दूलवृश्चिकाऽऽदिभिरभीत प्रभुं निरीक्ष्य गगनेऽन्धकारसन्निभान् मेघान् विकुळ कल्पान्तमेघवदर्षितुम् आरेभे विद्युतश्व अतिरौद्राऽऽकारा दिशि दिशि प्रसृताः, गरिवं च ब्रह्माण्ड फाटसदृशम् अकरोत, क्षणादेव च प्रभुनासाग्रं यावजले प्राप्ते आसनकम्पेन धरणेन्द्रो महिषीभिः सममागत्य फणैः प्रभुम् आच्छादितवान, अवधिना च विज्ञातोऽमर्षेण वर्षन् मेघमाली धरणेन्द्रेण हक्कितः प्रभु शरणीकृत्य स्वस्थानं ययौ, धरणेन्द्रोऽपि नाट्याऽऽदिभिः प्रभुपूजा विधाय स्वस्थानं ययौ, एवं देवाऽऽदिकृतानुपसर्गान् सम्यक् सहते॥१५८। तएणं से पासे भगवं अणगारे जाए, इरियासमिए०जाव अप्पाणं भावेमाणस्स तेसीइं राइंदियाई विइक्वंताई, चउरासीइमस्स राइंदियस्स अंतरा वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं पुवण्हकालरामयं सि धायइपायवस्स अहे छटेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते अणुत्तरे०जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने ०जाव जाणमाणे पारामाणे विहरइ।।१५६।। (तएणं से पासे भगवं अणगारे जाए) ततः स पाचौं भगवान अनगारो जातः (इरियासमिए०जाव अप्पाणं भावमाणस्स) ईयाया समितः यावत् आत्मानं भावयतः (तेसीइं राइंदियाइं विइकंताई) त्र्यशीतिः अहोरात्रा व्यतिक्रान्ताः (चउरासीइमस्स राइंदियस्स अंतरा वढमाणस्स) चतुरशीतितमस्य अहोरात्रस्य अन्तरा वर्तमानस्य (जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे) योऽसौ ग्रीष्मकालस्य प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः। (चित्तबहुले) चैत्रस्य बहुलपक्षः कृष्णपक्षः (तस्स णं चित्तबहुलस्स चउत्थीपक्खेणं) तस्य चैत्रबहुलस्य चतुर्थीदिवसे (पुव्वण्हकालसमयसि) पूर्वाह्नकालसमये प्रथमप्रहरे (धायइपायवस्स अहे) धातकीनामवृक्षस्य अधः (छट्ठणं भत्तेणं अपाणएण) षष्ठेन भक्तेन अपानकेन जलरहितेन (विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगगुवागएणं) विशाखायां नक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति (झाणंतरिआए वट्टमाणस्स) शुक्लध्यानमध्यभागे वर्तमानस्य (अणते अणुत्तरेजाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने) अनन्ते अनुपमे यावत् केवलवर ज्ञानदर्शने समुत्पन्ने (जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ) यावत् सर्वभावान् जानन् पश्यश्च विहरति / / 156 / / पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गणा अट्ट गणहरा हुत्था। तं जहा-"सुभे य 1 अजधोसे य 2 वसिढे 3 बंभयारिय 4 / सोमे 5 सिरिहरे ६चेव, वीरभद्दे 7 जसेविय 8 // 1 // " ||160 / / (पासस्सणं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अट्ठ गणा अट्ठ गणहरा हुत्था) अष्टौ गणा अष्टौ गणधराश्च अभवन, तत्र एकवाचनिका यतिसमूहा गणास्तन्नायकाः सूरयो गणधरास्ते श्रीपा वस्य अष्टौ / आवश्यके तु दशगणा दशगणधराश्चोक्ताः, तस्मादिह स्थानाङ्गे च द्वौ अल्पायुष्कत्वाऽऽदिकारणान्नोक्तौ इति टिप्पनके व्याख्यातम् (तं जहा) तद्यथा-(सुभे य 1 अजघोसे य 2) शुभश्च 1 आर्यघोषश्च 2 (वसिढे 3 वंभयारिय 4) वशिष्ठः 3 ब्रह्मचारी ४च (सोमे 5 सिरिहरे 6 चेव) सोमः 5 श्रीधरश्चैव 6 (वीरभद्दे 7 जसेविय ) वीरभद्रः 7 यशस्वी 8 च / / 1 / / 160 / / पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अञ्जदिन्नपामुक्खाओ सोलस समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समणसंपया हुत्था / / 161 / / (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अञ्जदिन्नपामुक्खाओ) आर्यदिनप्रमुखाणि (सोलस समणसाहस्सीओ) षोडश श्रमणसहस्राणि (उक्कोसिआ समणसंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणसम्पदा अभवत्॥१६१॥ पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स पुप्फचूलापामुक्खाओ अकृत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अग्जियासंपया हुत्था / / 162 / / (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (पुप्फचूलोपामुक्खाओ) पुप्पचूलाप्रमुखाणि (अट्टत्तीस अजियासाहस्सी) अष्टत्रिंशत् आर्यासहस्राणि (उक्कोसिआ अज्जियासंपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती आर्यिकासम्पदा अभवत् // 162 / / पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स सुव्वयपामुक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी चउसड़ी च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था / / 163|| (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (सुव्वयपामुक्खाणं) सुव्रतप्रमुखाणाम् (समणोवासगाणं) श्रमणोपासकानां श्रावकाणां (एगा सयसाहस्सी) एकलाः (चउसठ्ठीच सहस्सा) चतुःषष्टिश्च सहस्राणि (उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रावकाणां सम्पदा अभवत् / / 163 / / पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स सुनंदापामुक्खाणं समणोवासिआणं तिनि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सहस्सा उक्कोसिआ समणोवासियाणं संपया हुत्था / / 164 / / Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास 600 -- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पास (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (सुनंदापामुक्खाणं) सुनन्दाप्रमुखाणां (समणोवासियाणं) श्रमणोपासिकानां श्राविकाणां (तिन्नि सयसाहस्सीओ) त्रयः शतसहस्राः त्रयो लक्षाः (सत्तावीसं च सहस्सा) सप्तविंशतिश्च सहस्राः (उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया हुत्था) उत्कृष्टा एतावती श्रमणोपासिकाना सम्पदा अभवत्।१६४/ पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अद्भुट्ठसया चउद्दसपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं०जावचउद्दसपुव्वीणं संपया हुत्था // 16 // (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (अद्भुट्ठसया चउद्दसपुवीणं) अध्युष्टशतानि चतुर्दशपूर्विणां (अजिणाणं जिणसंकासाणं) अकेवलिनामपि केवलितुल्यानां (जाव चउद्दसपुत्वीणं संपया हुत्था) यावत् चतुर्दशपूर्विणां सम्पदा अभवत् // 16 // पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स चउद्दस सया ओहिणाणीणं दस सया केवलनाणीणं,इक्कारस सया वेउव्वियाण, छस्सया रिउमईणं,दस समणसया सिद्धा, वीसं अजियासयाई सिद्धाई, अट्ठसया विउलमईणं, छ सया वाईणं, बारस सया अणुत्तरोववाइयाणं // 16 // (पासरस णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरु-- षादीनीयस्य (चउद्दस सया ओहिनाणीणं) चतुर्दश शतानि अवधिज्ञानिनां सम्पदा अभवत् (दस सया केवलनाणीणं) दश शतानि केवलज्ञानिनां सम्पदा अभवत्। (इकारस सया वेउदिवयाणं) एकादश शतानि वैक्रियलब्धिमतां सम्पदा अभवत् (छसया रिउमईणं) षट्शतानि ऋजुमतीनां मनःपर्यवज्ञानिनां सम्पदा अभवत् (दस समणसया सिद्धा) दश श्रमणशतानि सिद्धानि (वीसं अज्जियासयाई सिद्धाइं) विंशतिः आर्याशतानि सिद्धानि (अठ्ठसया विउलमईणं) अष्टौ शतानि विपुलमतीनां सम्पदा अभवत् (छसया वाईणं) षट्शतानि वादिनां सम्पदा अभवत् (बारस सया अणुत्तरोववाइयाणं) द्वादश शतानि अनुत्तरोपपातिनां सम्पदा अभवत्॥१६६।। पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स दुविहा अंतगडभूमी हुत्था / तं जहा-जुगंतगडभूमी, परियायंतगडभूमी य०जाव चउत्थाओ पुरिसजुमाओ जुगंतगडभूमी, तिवासपरिआए अंतमकासी॥१६७॥ (पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषादानीयस्य (दुविहा अंतगडभूमी हुत्था) द्विविधा मुक्तिगामिना मर्यादा अभूत् (तं जहा-) तद्यथा-(जुगंतगडभूमी) युगान्तकृद्-भूमिः (परियायंतगडभूमी य) पर्यायान्तकृभूमिश्च (जाव चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी) चतुर्थ पट्टधरपुरुष युगान्तकृभूमिः, श्रीपार्श्वनाथा दारभ्य चतुर्थं पुरुष यावत् सिद्धिमार्गावहमानः स्थितः (तिवासपरिआए अंतमकासी) त्रिवर्षपर्याय कश्चिन्मुक्तिं गतः पर्यायान्तकृभूमौ तु केवलोत्पत्तरित्रषु वर्षेषु सिद्धिगमनाऽऽरम्भः / / 167 / / तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए तीस वासाइं अगारवासमज्झे वसित्ता, तेसीइं राइंदिआइंछउमत्थपरिआयं पाउणित्ता देसूणाई सत्तरिवासाई केवलिपरिआयं पाउणित्ता, पडिपुन्नाईसत्तरिवासाइंसामन्नपरिआयं प्नाउणित्ता, एक वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता खीणवेयणिज्जाउयनामगुत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए वहुविइक्वंताएजे से वासाणं पढमे मासे दुचे पक्खे सावणसुद्धे, तस्स णं सावणसुद्धस्स अट्ठमीपक्खेणं उप्पिं संमेअसेलसिहरंसि अप्पचउत्तीसइमे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुआगएणं पुव्वण्हकालसमयंसि वग्घारियपाणी कालगए विइकंते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / / 168| (तेण कालेणं) तस्मिन् काले (तणसमएण) तस्मिन् समये [पासे अरहा पुरिसादाणीए] पार्श्वः अर्हन् पुरुषादानीयः[तीसंवासाई अगारवासमझे वसित्ता] त्रिंशत् वर्षाणि गृहस्थावस्थायामुषित्वा स्थित्वा [तेसीई राइंदिआइ) त्र्यशीतिमहोरात्रान् [छउमस्थपरिआय पाउणिता] छद्मस्थपर्यायं पालयित्या [देसूणाई सत्तसत्तरिवासाइं] किश्चिदूनानि सप्ततिवर्षाणि [केवलिपरिआयं पाउणित्ता] केवलिपर्यायं पालयित्वा [पडिपुन्नाई सत्तरिवासाइं] प्रतिपूर्णानि सप्ततिवर्षाणि [सामन्नपरियायं पाउणित्ता] चारित्रपर्यायं पालयित्वा [एकं वाससयं सव्वाउअं पालइत्ता] एकं वर्षशतं सर्वायुः पालयित्वा [खीणे वेयणिज्जाउयनामगुत्ते क्षीणेषु सत्सु वेदनीयाऽऽयुनामगोत्रेषु कर्मसु [इमीसे ओसप्पिणीए] अस्यामेव अवसर्पिण्या दुसमसुसमाए बहुविइक्कताए] दुष्पमसुषमनामके चतुर्थेऽरके बहुव्यतिक्रान्ते सति [जे से वासाणं पढमे मासे दुचे पक्खे] योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमौ मासः द्वितीयः पक्षः [सावणसुद्ध] श्रावणशुद्धः तस्स णं सावणसुद्धस्स अमीपखेण तस्य श्रावणशुद्धस्य अष्टमीदिवसे [उप्पिं सम्मेअसेलसिहरम्मि] उपरि सम्मेतनामशैलशिखरस्य [अप्पचउत्तीसइमे] आत्मना चतुस्त्रिंशत्तमः [मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं] मासिकेन भक्तेन अपानकेन [विसाहाहिं नक्खतेणं जोगमुवागएणं] विशाखानक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति [पुव्वण्हकालसमयसि] पूर्वाह्नकालसमये, तत्र प्रभोर्मोक्षगमने पूर्वाह एव कालः, "पुष्वरत्ताव-रत्तकालसमयसि त्ति" क्वचित्पाठस्तु लेखकदोषान्मतान्तरभेदावा [वग्धारियपाणी] प्रलम्बितौ पाणी हस्तौ येन स तथा, कायोत्सर्गे स्थितत्वात् प्रलम्बितभुजद्वयः [कालगए विइकते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे] भगवान् कालगतः व्यतिक्रान्तः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः / / 168 / / पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीअस्स०जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स दुवालस वाससयाई विइकंताई. तेरसमस्स य वाससयस्स अयं तीसइमे संवच्छरे काले गच्छइ॥१६६।। Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास 901 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पास (पासरसण अरहओ पुरिसादाणीअस्स) पार्श्वस्य अर्हतः पुरुषा- रोल्वासेन मरुभूतेझैपरि महाशिला पातितवान्। ततो मरुभूतिस्तस्याः दानीयस्य (जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स) यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणस्य पाणिप्रहारेण आरटन कालं कृत्वा विन्ध्याचले बहुयूथाधिपतिः करी (दुगलस वाससयाई विइक्ताई) द्वादश वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि समुत्पन्नः / इतश्च अरविन्दराजा कदाचित् शरत्काले स्वान्तःपुरप्रसा(तेरसमरस य वाससयरस) त्रयोदशमस्य वर्षशतस्य(अयं तीसइगे दोपरि स्थितः क्रीडन शरदभ्रं सुस्निग्धं प्रच्छादितनभस्तलं मनोहरं ददर्श, संबच्छरे काले गच्छइ.) अयं त्रिशत्तमः संवत्सरः कालो गच्छति, तत्र पुनस्ततक्षणादेव वायुना विलीनं तदभं पश्यन् दृष्टान्तावष्टम्भेन सर्वेषां श्रीपवनिर्वाणात् पञ्चाशदधिकवर्षशतद्वयेन श्रीवीरनिर्वाणं, ततश्चाऽशी- भावाना क्षणभङ्गुरतां भावयन समुत्पन्नावधिज्ञानः परिजनेन ध्रियमात्यधिकनववर्षशतानि अतिक्रान्तानि, तदा वाचना; ततो युक्तमुक्तमिदं णोऽपि दत्तनिजपुत्रराज्यः प्रव्रजितः। अन्यदा स राजर्षिविहरन् सागरदत्तत्रयोदशभशत संवत्सररयायं त्रिंशत्तमः संवत्सरः कालो गच्छतीति / सार्थवाहेन समं समेतशिखर चैत्यवन्दनार्थं प्रस्थितः, सागरदत्तसार्थकल्प०१ अधि०७क्षण ('तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2247 पृष्ठादारभ्य बाहेन पृष्टः-भगवन् ! क्व गमिष्यसि / यतिना उक्तम्-तीर्थयात्रायाम्। विस्तर: गतः) सार्थवाहेनोक्तम्- कीदृशो भवतां धर्मः? मुनिना कथितो दयादानपार्श्वनाथचरितं गद्यमयम् विनयमूलः सविस्तरः स्वस्य धर्मः तं श्रुत्वा स सार्थवाहः श्रावको जातः, जिणे पासि त्ति नामेणं, अरहा लोगेसु पूइओ। क्रमेण महाटवीं प्राप्तः, यत्र सो मरुभूतिजीकः करी जातोऽस्ति, तत्र महासरोवरं दृष्ट्वा तत्तीरे सार्थ उत्तीर्णः अत्रान्तरे तस्मिन्नेव सरसि संबुद्धप्पा य सव्वन्नू, धम्मतित्थयरे जिणे / / 1 / / बहुहरितनीपरिवृतः स करी जलपानार्थमागतः, जलं राविलास पीत्वा "जिणे पासि त्ति नामेणं " इत्यस्यां गाथायां कतिथोऽयं पार्श्वनामा पालमारूढः सर्वत्र चक्षुर्विक्षिपन् सार्थ दृष्ट्वा तद्विनाशनार्थ त्वरितं धावितः. तीर्थङ्करः कस्मिन् भवे चानेन तीर्थङ्करनामकर्म निबद्धमिति सकौतुकं तंच तथाऽऽगच्छन्तं दृष्ट्वा सार्थजना इतस्ततः प्रणष्टाः, मुनिस्तु अवधिना श्रातृवैराग्योत्पादनार्थ पार्श्वनाथचरित्रमुच्यते-इहैव जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे ज्ञात्वा स्वस्थाने स्थितः कायोत्सर्गेण, तेन करिणा सर्व सार्थप्रदेश भ्रमता पोतन पुरनगरे अरविन्दो नाम राजा, तस्य विश्वभूति म पुरोहितः, स दृष्टः स महामुनिः, तदभिमुख स धावितः, आसन्न प्रदेशे गत्वा तं पश्यन श्रावकोऽस्ति, तस्य द्वौ मुत्रोकमठो, मरुभूतिश्च / तयोः क्रमेण भार्या उपशान्तकोपो निश्चलः स्थितः, तथारूप तं दृष्ट्वा तत्प्रतिबोधनार्थ वरुणा, वसुन्धरा च / तयोः कमठमरुभूत्योः शिरसि गृहकार्यभारं विन्यस्य पारितकायोत्सर्गो मुनिरेवमूचेभो मरुभूते ! किं न त्वं स्मररिस माम ज्ययं धर्म कुर्वाणः क्रमेण कालं कृत्वा विश्वभूतिर्देवलोकं गतः, तद्भार्याऽ अरविन्दनरपतिम्, आत्मनः पूर्वभवं वा / एतन्मुनिवचः श्रुत्वा स करी नुदरी विशेषतपः करणेन शोषितशरीरा मृता, कमठोऽपि कृतमातृपितृ सजातजातिस्मरणः पतितो मुनिचरणेषु मुनिनाऽपि सविशेषदेशनाप्रेतकर्मः पुरोहितो जातः, मरुभूतिरपि प्रायोब्रह्मचारी कृतोद्यमः सम्पन्नः, करणपूर्व स श्रावकः कृतः , ततः प्रणम्य स्वस्थानं गतः, अत्रान्तरे तस्य भार्यामनोहरोद्भेदं दृष्ट्वा कमठस्य चित्तञ्चलित, तां सविकारलोच उपशान्तं तं करिणं दृष्ट्वा साश्चर्यं सार्थजनः पुनस्तत्र मिलितः, प्रणम्य नाभ्यां पश्यति, साऽपि कामविरहमसहन्ती तं सविकारं पश्यति, मुनिचरणयुगलं प्रतिपन्नवान् दयामूलं श्रावकधर्म, ततः कृतकृत्य : उभयो श रङ्गोलासे अनाचारप्रवृत्तिर्जाता, मरुभूतिना सामान्यतो सर्वोऽपि सार्थो मुनिश्व स्वस्वाचारनिरतो विजहार। इतश्च स कमटपरि. ज्ञाता, विशेषज्ञानाय तस्याः कमठस्य च पुरोऽहं ग्रामान्तरं यास्या व्राजको मरुभूतिविनाशनेनाऽपि अनिवृत्तवैरानुबन्धो निजायुःक्षये मृत्य। मीत्युक्त्वा निजमन्दिराद् बहिर्गत्वा संध्यासमये कार्पटिकरूप कृत्वा समुत्पन्नः कुर्कुटसर्प :, विन्ध्यावने परिभ्रमता लेन दृष्टः स हस्ती स्वरभेदेन कमठ प्रत्येवं बभाण-हे महानुभाव ! निराहारस्य मम शीत- पकनिमग्नः पूर्ववैरोल्लासेन कुम्भस्थले दष्टः तद्विषवेदनामनुभवन्नपि त्राणाय किचिन्निवातस्थानं देहि, अविज्ञातपरमार्थन कमटेन भणितम् श्रावकत्वात क्षमावान मृत्वा समुत्पन्नः सहस्रारकल्पे देवः, कुर्कुटसर्पोऽपि अहो कार्पटिक! अत्र चतुर्हस्तमध्ये स्वच्छन्द निवस, ततस्तत्र रात्री, तस्मिन् समये मृत्वा सप्तदशसागरोपमाऽऽयुः पञ्चमनरकपृथिव्यां नारकः स्थितो मरुभूतिस्तयोः सर्वमनाचारस्वरूपमालोक्य ईष्यापरवशोजातः, सञ्जातः / इतश्च स हस्तिदेवश्च्युतः इहैव जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे कच्छविजये परं लोकापवादभीरुत्वान्न तयोः प्रतीकारं चकार, प्रभाते च राजान्तिके वैताळ्यपर्वत तिलकनगर्या विद्युगतिविद्याधरस्य भार्यायाः कनकतिलगत्वा सर्व तयोः स्वरूपं यथास्थितमाख्यातवान् / राज्ञा च कुपितेन कायाः किरणवेगो नाम पुत्रो जातः, सच तत्र क्रमाऽऽगतः राज्यमनुपाल्य समादिष्टाः स्वपुरुषाः, तैर्दण्डमास्फालनपूर्व गलाऽऽरोपितशरावमालः सुगुरुसमीपे प्रव्रजितः एकत्वविहारी चारणश्रमणो जातः,अन्यदा खराऽऽरूढः कमठः सर्वतो नगरे भ्रामितः, भ्रातृजायाभोगकार्ययमिति आकाशविहारी स गतः पुष्करद्वीपे, तत्र कनकगिरिसन्निवेशे कायोत्सर्गेण जनाना पुरो निर्घोष कृत्वा स नगरान्निष्कासितः, ततः सञ्जातामर्षः स्थितः किञ्चित्तपः कर्तुमारब्धः, इतश्च स कुर्कुटसर्पजीवो नरकादुवृत्त्य कमठोऽपि समुत्पन्नगुरुवैराग्यो गृहीतपरिव्राजकलिङ्गो दुस्तरं तपः कर्तु तस्यैव कनकगिरेः समीपे सजातो महोरगः, तेन स मुनिः दृष्टो दष्टश्च, लग्नः,तं च वृत्तान्तं ज्ञात्वा मरुभूतिः संजातपश्चात्तापः स्वापराधक्षामणाय विधिना कालंकृचा अच्युतकल्पेजम्बुमावर्तविमानेदेवो जातः, सोऽपि महोरगः तस्यान्तिके गत्वा पादयोः पपात / कमठोऽपि तदानी समुत्पन्नपूर्ववै- | प्रमेण कालं कृत्वा पुनरपि सप्तदशसागाराऽऽयुः पञ्चमपृथिवीनारको जातः, Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास 602 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पास किरणवेगदेवोऽपि ततः च्युत्वा इहैव जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे सुगन्धविजये | शुभकरानगर्या वज़वीर्यराज्ञो विमता (?) या भाया वज्रनाभनामा पुत्रः समुत्पन्नः, सोऽपि तत्र क्रमाऽऽगतं राज्यमनुपाल्य दत्तचक्राऽऽयुधनामस्वपुत्रराज्यः क्षेमंकरजिनसमीपे प्रव्रजितः,तत्र विविधतपोविधानेन बहुलब्धिसम्पन्नो गतः सुकच्छविजयं, तत्राप्रतिबद्धविहारेण विहरन सम्प्राप्तो ज्वलनगिरिसमीपं, दिनेऽस्तमिते तत्रैव कायोत्सर्गेण स्थितः, प्रभाते ततश्चलितोऽटव्यां प्रविष्टः। इतश्च स महोगनायकः पञ्चमपृथिवीत उद्वृत्त्य कियन्तं संसार भ्रान्त्वा तस्यैव ज्वलनगिरिसमीपे भीमाटव्यां जातो वनेचरश्वा-ण्डालः, तेनाऽऽखेटकनिमित्तं निर्गच्छता दृष्टः प्रथम स साधुः, ततः पूर्वभववैरवशतोऽपशकुनोऽयमिति कृत्वा वाणेन बिद्धः, तेन विधुरीकृतवेदनो विधिना मृत्वा वज्रनाभो मुनिर्मध्यमवेयके ललिताङ्गो नाम देवो जातः, सोऽपि चाण्डालवनेचरस्तं विपन्नं महामुनिं दृष्ट्वा अहोऽहं महाधनुर्धर इति मन्यमानो निकाचितक्रूरकर्मा कालेन मृत्वा सप्तमे नरके नारकत्वेन समुत्पन्नः, वज्रनाभदेवस्ततश्च्युत इहैव जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे पुराणपुरे कुलिशबाहुराज्ञः सुदर्शनादेव्याः कनक प्रभो नाम पुत्रो जातः, स च क्रमेण चक्रवर्ती जातः, अन्यदा प्रासादोपरि संस्थितेन आकाशे निर्गच्छन् देवसङ्घातो दृष्टः, तद्दर्शनादेव विज्ञातं जगन्नाथतीर्थङ्करागमः, स्वयं निर्गतस्तद्वन्दनार्थ, वन्दित्वा च तत्रोपविष्टस्य तस्य पुरतो भगवता देशना कृता, तां च श्रुत्वा हृष्टश्चक्रवर्ती वन्दित्वा स्वनगर्या प्रविष्टः, अन्यदा कनकप्रभनामा चक्रवर्ती तां तीर्थंकरदेशनां भावयन् जातजातिरम्मरणः पूर्वभवान् दृष्ट्वा भवविरक्तचित्तः प्रव्रजितः, इतश्च स क्रमेण विहरन्नसौ क्षीरवानाटव्यां क्षीरपर्वते सूर्याऽभिमुखं कायोत्सर्गेण स्थितः / इतश्वस चाण्डालवनचरस्ततो नरकादुद्वृत्य तस्यामेवाटव्यां क्षीरपर्वतगुहायां सिंहो जातः, स च भ्रमन् कथमपि संप्राप्तः मुनिसमीपे, ततः समुच्छलितपूर्ववैरणे तेन विनाशितः स मुनिः, समाधिना कालं कृत्वा निबद्धतीर्थङ्करनामकर्मा प्राणतकल्पे महाप्रभे विमाने उत्पन्नो विंशतिसागरोपमायुर्देवः, सोऽपि सिंहो बहुलसंसारं भ्रान्त्वा कर्मवशाग्राह्यणो जातः / तत्रापि पापोदयवशेन जातमात्रस्य पितृमातृभ्रातृप्रमुखः सकलोऽपि स्वजनवर्गः क्षयं गतः, स च दयापरेण लोकेन जीवितः संप्राप्तयौवनोऽपि कुरूपो दुर्भगो दुःखेन वृत्तिं कुर्वन वैराग्यमुपगतो वने कन्दमूलफलाऽऽहारस्तापसो जातः, करोति बहुप्रकारम् अज्ञानतपोविशेषम्। इतश्च स कनकप्रभचक्रवर्तिदेवः प्राणतकल्पात् चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां च्युत्वा इहैव जम्बूद्वीपे भारते क्षेत्रे काशीदेशे वाराणस्या नगर्यामश्वसेनस्य राज्ञो वामादेव्याः कुक्षौ मध्यरात्रिसमये विशाखानक्षत्रे त्रयोविंशतितमतीर्थङ्करत्वेन समुत्पन्नः, तस्यामेव रात्रौ सा वामादेवी चतुर्दश स्वप्नान् ददर्श, निवेदयामास च राज्ञः, तेनापि राज्ञा अतीवाऽऽनन्दमुबहता भणितम्-प्रिये ! सर्वलक्षणसम्पूर्णः शूरः सर्वकलाकुशलस्तव पुत्रो भविष्यति, तद्वचः श्रुत्वा सुष्टुतरं परितुष्टा, सा, प्रभाते च राज्ञा स्वप्नपाठकानाहूय तान् यथार्थानाचख्यौ / तेऽपि पूर्णस्वप्नाध्यायं सविस्तरमाख्याय चतुर्दश स्वप्रानां फलमेवमाहुःतीर्थकरमाता चक्रवर्तिमाता वा एतांश्चतुर्दशस्वप्नान् पश्यति, ततोऽस्याः / कुक्षौ तीर्थङ्करश्चक्री वा समुत्पन्नोऽस्तीति स्वनानुसारेण पूर्णेषु मासेषु शुभवेलायां भगवान् जातः, षट्पञ्चाशदिक्कुमारीभिर्जन्ममहोत्सवः पूर्व कृतः,ततः स्वासनकम्पाद्विज्ञातभगवज्जन्माभिषेकः शक्रर्मेरुशिरसि जन्माभिषेकः कृतः, प्रभाते चाश्वसेनोऽपि नगरान्तईशाहिकोत्सव कृतवान्, अस्मिन् गर्भस्थिते भगवति जनन्याः पार्श्वे गच्छन् सर्पोरात्री दृष्टस्ततोऽस्य पार्श्व इति नाम कृतं, ततः कल्पतरुवजनाऽऽनन्दकः स भगवान वृद्धि प्राप, अष्टवार्षिकश्च भगवान् सर्वकलाकुशलो बभूव / अथ भगवान् सर्वमनोहरं यौवनं प्राप, पित्रा च तदानीं प्रभावती कन्या परिणायितः, भगवान् तया सम विषयसुखं बुभुजे, अन्यदा भगवता प्रासादोपरि गवाक्षजालस्थेन दिगवलोकनं कुर्वता दृष्टो नगरलोकः प्रवरकुसुमहस्तो बहिर्गच्छन्, पुष्ट च भगवता कस्यचित्पावर्त्तिनः-भो! किमद्य कश्चित्पर्वोत्सवोऽस्ति, येनैष जनः पुष्पहस्तो बहिर्गच्छन्नस्ति। तेन पुरुषेणोक्तम्- अद्य कोऽपि पर्वोत्सवो नास्ति किं तु कमठो नाम महातपस्वी पुरा बहिः समागतोऽस्ति, तद्वन्दनार्थं प्रस्थितोऽयं जनः, ततस्तद्वचनमाकर्ण्य जातकौतुकविशेषो भगवान् तत्र गतः,पञ्चाग्नितपः कुर्वाणं कमळं दृष्टवान्, त्रिज्ञानवता भगवता ज्ञात एकस्मिन्ननिकुण्डे प्रक्षिप्तातीवमहत्काष्ठमध्ये प्रज्वलन् सर्प उत्पन्नपरम करुणेन भगवता भणितम्- अहो कष्टमज्ञानं यदीदृशेऽपि तपसि क्रियमाणे दया न ज्ञायते। ततः कमठेन भणितम्-राजपुत्राः कुञ्जरतुरङ्गाऽऽश्रममेव जानन्ति, धर्म तु मुनय एव विदन्तीति। ततो भगवता एकस्य स्वपुरुषस्य एवमादिष्टम्अरे ! इदमग्निमध्ये प्रक्षिप्तं काष्ट कुठारेण द्विधा कुरु तेन पुरुषेण तत्काष्ठं द्विधा कृतं, तत्र दृष्टो दह्यमानः सर्पः, तस्य भगवता स्ववदनेन पञ्चपरमेष्ठिनमस्काराः प्रदापिताः, नागोऽपि तत्प्रभावान्मृत्वा समुत्पन्नो नागलोके धरणेन्द्रो नाम नागराजः, लोकैश्च अहो भगवतो ज्ञानशक्तिरिति भणिद्भिमहान सत्कारः कृतः, ततो विलक्षीभूतः कमठपरिव्राजको गाढमज्ञानतपः कृत्वा मेघकुमारनिकायमध्ये समुत्पन्नो मेघमाली नाम भवनवासी देवः; अन्यदा सुखेन तिष्ठतो भगवतो वसन्तसमयः समागतः, तापनार्थम् उद्यानपालेन सहकारमञ्जरी भगवतः समर्पिता, भगवता भणितम् - भोः किमेतत्? स आह-भगवन् ! बहुविधक्रीडानिवासो वसन्तसमयः प्राप्तः, ततो मित्रप्रेरितः श्रीपार्श्वकुमारो वसन्तक्रीडानिमित्तं बहुजनपरिवारसमन्वितोयानाऽऽरूढो गतो नन्दनवन, तत्र यानात्समुत्तीर्य निषन्नो नन्दनवनप्रासादमध्यस्थितकनकमयसिंहासने अतिरमणीयं नन्दनवन सर्वतः पश्यन् भित्तिस्थं परमं रम्य चित्रं दृष्ट्वा अहो किमत्र लिखित ज्ञानमिति सम्यग निरूपयता भगवता दृष्टम्-अरिष्टनेमिचरित्रम् . ततश्चिन्तितुं प्रवृत्तः-धन्यः सोऽरिष्टनेमियों विरसावसानं विषयसुखमाकलय्य निर्भरानुरागां निरुपमरूपलावण्यां जनकवितीर्णा राजकन्या च त्यक्त्वा भग्नमदनमण्डलप्रचारः कुमार एव निष्क्रान्तः, ततोऽहमपि करोमि सर्वसङ्गपरित्यागम् / अत्रान्तरे लोकन्तिका देवास्तत्राऽऽगत्य भगवन्तं प्रतिबोधयन्तिस्म, ततो मार्गणगणस्य यथेप्सितं साम्वत्सरिकदानं दत्त्वा भगवान् मातृपित्राद्यनुज्ञया महामाहतत् 'अरिडणेमि' शब्दे प्रथमभागे 762 पृष्ठे गतम्। Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास 103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पास पूर्वम् आश्रमपथोद्यानेऽशोकपादपस्याधः पौषशु कादशीदिने पूर्वाह्नसमये पक्षमौष्टिकं लोचं कृत्वा अपानकेन अष्टमभक्तेन एकं देवष्यमादाय त्रिभिः पुरुषशतैः समं निष्क्रान्तः। अथ श्रीपाो भगवान् विहरन्नेकदा वटपादपाधः कायोत्सर्गेण स्थितः / इतश्च स कमठजीवो मेघमाली असुरोऽवधिना ज्ञात्वा आत्मनो व्यतिकरं स्मृत्वा च पूर्वभववैरकारण समुत्पन्नतीवामर्षः समागतस्तत्र प्रारब्धास्तेनानेकसिंहाऽऽदिरूपैरनेके उपसर्गाः, तथाऽपि भगवान् श्रीपाश्वोऽक्षुब्धो धर्मध्यानान्न चलितः, तादृशं तं ज्ञात्वा कमठ एवं चिन्तयामास-अहमेनं जलेन प्यालयित्वा मारयामीतिध्यात्वा भगवदुपरिष्टान्महामेघवृष्टिं चकार, जलेन भगवदनं नासिका यावत् व्याप्तम्,अत्रान्तरे कम्पिताऽऽसनेन धरणेन्द्रेण अवधिना ज्ञातभग-वव्यतिकरण समागत्य स्वामिशीर्षोपरि फणिफणाऽऽटोपं कृत्वा फणिशरीरेण भगवच्छरीरमावृत्य जलोपसर्ग च निवार्य भगवत्पुरो वेणुवीपणागीतनिनादैःप्रवरं प्रेक्षणं कर्तुमारब्धवान् / कमठासुरस्तादृशम् अक्षोभ्य भगवन्तं धरणेन्द्रकृतमहिमानं च दृष्ट्वा समुपशान्तदर्पो भगवच्चरणौ प्रणम्य गतो निजस्थाने, धरणेन्द्रोऽपि भगवन्तं निरुपसर्ग ज्ञात्वा स्तुत्वा च स्वस्थानं गतवान् / पार्श्वस्वामिनो निष्क्रमणदिवसाचतुरशीतितमे दिवसे चैत्रकृष्णाष्टम्याम् अष्टमभक्तेन पूर्वाह्नसमयेऽशोकतरोरधः शिलापट्टे सुखनिषण्णस्य शुभध्यानेन क्षीणघातिकर्मचतुष्कस्य स्कललोकावभासि केवलज्ञानं समुत्पन्न,चलिताऽऽसनैः शक्रैः तत्राऽऽगत्य केवलज्ञानोत्सवो महान् कृतः, पार्थोऽर्हन् सप्तफणालाञ्छनो बमदक्षिणपार्श्वयोः वैरोट्याधरणेन्द्राभ्यापर्युपास्यमानः प्रियङ्गुवर्णदेहो नवहस्तशरीरो भव्यसत्त्वान् प्रतिबोधयन् चतुरिवंशदतिशयसमेतः पृथिवीभण्डले विहरति, स्म पार्श्वभगवतो दश गणा गणधरा अभवन्, आर्यदिन्नप्रमुखाः षोडशसहस्रसाधवोऽभवन्, पुष्फचूलाप्रमुखा अष्टत्रिशत्सहस्त्राऽऽर्यिका अभवन्, सुनान्दप्रमुखाः श्रमणोपासकाः, एकलक्ष चतुःषष्टिसहस्राश्च अभवन, सुनन्दाप्रमुखा श्रमणोपासिका लक्षत्रयं सप्तविंशतिसहस्राश्चाभवन् सार्द्धत्रीणि शतानि चतुर्दशपूर्विणामभवन्, अवधिज्ञानिनां चतुर्दशा शतानि, केवलज्ञानिनां दशशतानि, वैक्रियलब्धमताम् एकादश शतानि, विपुलमतीनां साढ़त्रीणि शतानि, वादिनां षट् शतानि अन्तेवासिना दश शतानि सिद्धिं गतानि, आर्यिकाणा विशतिशतानि, सिद्धानि अनुत्तरोपपातिकानां द्वादश शतानि अभवन्, श्रीपार्श्वनाथस्य एषा परिवारसम्पदा अभूत। ततः पावो भगवान् देशोनानि सप्ततिवर्षाणि केवलपर्यायण विहृत्य एकं वर्षशत सर्वायुः परिपाल्य संमेतशिखरे ऊद्धस्थित एवाधाकृतपाणिः निर्वाणमगमत। तत्कलेवरसंस्कारोत्सवः शक्राऽऽदिभिस्तत्रैव विहितः / उत्त०२३अ०। पार्श्वप्रतिमानां कल्पः"सुरअसुरखयरकिन्नर-जोईसरविसरमहुराऽऽकलिअं। तिहुअणकमलागेह, नमामि जिणचलणनीररुहं // 1 // जं पुव्वमुणिगणेणं, अवि अप्पाणप्पकप्पमज्झम्मि। सुरनरफणिमहमहिअं, कहियं सिरिपासजिणचरिअं / / 2 / / सखित्तसत्थनिक्खित्तचित्तवित्तीण धम्मिअजणाणं / तासकए तं कप्पं, भणामि पासस्स लेसेणं / / 3 / / भवभमणभेयणत्थं,भविआ ! भवदुक्खभारभरियंगा। एवं सभासओ पुण,पभणिज्जत मए सुणह॥४॥ विजया जया य कमठो,पउमावइपासक्खवइरहा। धरणो विजा देवी, सोलसहिट्ठायगा जस्स // 5 // पडिमुप्पत्तिनिआणं, कप्पे कलिअंपि नेह संकलिअं। एयस्स गोरवभया, पढिहिइ नहु कोइणं पच्छा॥६॥ अह जलहि चुलुअमाणं, करेइ नारयविमाणसंखेवं / पासजिणपडिममहिम, कहिउन विपारए सो वि।।७।। एसा पुराणपडिमा, अणेगगणेसु संठवेऊण / खयरसुरनरवरेहि, महिया उवसग्गसमणत्थं।८।। तह विहु जणमणनिचल-भावकए पारासामिपडिमाए। इंदाईकयमहिम, कित्तिय-मेत्ताइ ता वुच्छं।६।। सुरअसुरवंदिअपए, सिरिमुणिसुव्वयजिणेसरे इत्थ। भारहसरम्मि भविजण-कमलाई बोहियंतम्मि॥१०॥ सक्कस्स कत्तियअभवे, सयसंखाभिग्गहा गया सिद्धि। एआए झाणाओ, वयगहणाणंतरं तइया / / 11 / / सोहम्मवासवोतं, पडिमा माहप्पसोहणा सुणिउं। अचइ तत्व ठिअं.महाविभईइ दिव्वाए।।१२।। एवं वच्चइ कालो, कइवयवासेहिं रामवणवासो। राहवपहावदंसण-हेउलोआण हरिवयणा / / 13 / / रयणजडिखयरसंजुअ-सुरजुअलेणं चदंडगारण्णे। सतुरयरहो अपडिमा, दिनेसा रामभद्दस्स / / 14 / / सहमा से नवदिअहे, विदेहदुहिओवणीयकुसुमेहिं। भत्तिभरनिब्भरेणं, महिआ रहुपुंगवेण तहा / / 15 / / रामस्स यचलकम्मय-मलंघणिज्जं च वसणमाइण्ण / नाऊण सुरा भुजो, तं पडिमं निति सट्ठाणं / / 16 / / पूअइ पुणो वि सक्को, उक्किट्ठभत्तीइ दिव्वभोएहिं। एवं जा संपुण्णा, एगारस वासलक्खा य॥१७॥ तेण कालेणं जउ-वंसे वलएवकण्हजिणनाहा। अवइन्ना संपत्ता, जुव्वणमह केसवो रज्जं / / 18 / / कण्हेण जरासंध-स्स विग्गहे निअदलोवसग्गेसु। पुट्टो नेमी भयवं, पच्चूहविणासणोवायं / / 16 / / तत्तो आइसइ पहू, पुरिसस्स मज्झ सिद्धिगमणाओ। सगसयपण्णासाहिअ-तेतीसहसेहि +वरिसाणं / / 20 / / होही पासो अरिहा, विविहाहिट्ठायगेहि नयचलणो। जस्सऽच्चण्हवणजला-सित्ते लोए समइ असिव / / 21 / / सामी संपइ कत्थ वि, तरस जिणिदस्स चिट्ठए पडिमा। इय चक्रधरेणुत्ते, तमिंदमहिअंकहइ नाहो // 22 // इअ जिणजणदणाण, अह सो मुणिउं मणोगयं भावं। मायलिसारहिरहिअं, रहमेय पडिममप्पेइ॥२३॥ मुइओ सुर रिद्विपडिम,ण्हावइ घणसारघणघणरसेहिं। पूयइ परिमलबहला-मलचंदणचारुकुसुमेहं॥२४॥ पच्छाऽऽगयगहदिन्नं, सिन्नं सिंचेइ सामिसलिलेणं। जंतुवसगा वलिअं,विलयं जह जोगिचित्ताइं॥२५।। बहुदुहबहणं तिअणं,पत्ते पव्वद्धचक्कवट्टिम्मि। जाओ जयजयवाओ, जादवनिवनिविडभडसिन्नो // 26 / / तत्थेव विजयठाणे, निम्मावि अमहिणवं जिणाऽऽएसा। संखउरनयरजुत्तं, ठविऊणं पासपहुविव।।२७॥ +3300 अनन्तरम्।* जिनजनार्दनयोः। Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास 104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासंड पडिममिमं संगिहिअ, निअनयरमुवागयस्स कण्हस्स। भवेहिँ वासुदेव-तणाभिसेओसवो विहिओ॥२८॥ कण्हनरिदेण तओ, मणिकंचणरयणरइअपासाए। सत्तयवसेसयाई, संठाविय पूइआपडिमा।।२६।। जाए जायवजाई-एलए देवा उदारवइदाहे। सामिपद्दावा देवा-लयम्मि न हु पावगो लग्गो।।३०|| सद्धिं पुरीइ तइया, जलनिहिणा, रुइरमंदिरसमेओ। लोललहरीकरेहि, नाहो नीरंतरे नीओ // 31 // तक्खयनागिंदेणं, तइआ रमणत्थमुरगरमणीहिं। तत्थाऽऽगएण दिहा, पहुपडिमा पावनिद्दलणी // 32 // पमुइअमणेण तत्तो, नायबहूविहिअनट्टकलहट्ठ। महया महेण महिआ, जाव सिवाई वाससहसाई॥३३॥ वरुणोऽवरहरितवई, तहेव सरसायरं पलोअंतो। तक्खयपूइजतं, पासइ तिहुयणपहुं पासं॥३४|| एसो सो गोसामी, जो सुरनाहेण पूइओ पुयिं / इम्हि मज्झ वि जुजइ, सहायणं सामिचलणाणं // 35 / / चिंतिअमत्थमहीण,पावइ सेवइ जिणेसमणवरयं। जाव उवच्छरसहसा, ठिआ य अह तेण समएणं // 36 / / सिरिवद्धमाणजलए, तिलए लोअस्स भरहखित्तम्मि। अविरलगोपूरेण, मिचिंते भव्वसस्साई॥३७।। कतिकलाकलुसीकय-सुरपुरपउमाइ कतिनयरीए। वसइसरसत्थवाहो, धणेसरो सत्थबाह त्थि।।३८|| सो अन्नया महिडभी, विणिग्गओ जाणवयजत्ताए। संजत्तिअवयजुत्तो, सिंहलदीवम्मि संपत्तो / / 3 / / तत्थ विटप्पिअपणगण-मागच्छंतस्स तस्स वेगेण। पवहणथंभो सहसा, जाओ जलरासिमझम्मि / / 40 / / विमणमणो जा चिंतइ, पयडीहोऊण सासणसुरी ता पउमावई पयंपई, मा बीहसु वत्थ ! सुण वयणं / / 41 / / अहिणिम्मियमहिमोसो, महिमोहमरदृमहणो भद्द !! इह नीरतले चिट्टइ, पासजिणो नयसु सट्टाणं // 42 / / देवि ! कहं मह सत्ती, जिणेसगहणे समुद्दजलमूला। एवं धणेण कहिए, तो भासइ सासणा देवी // 43 // पविस मह पुट्ठिलग्गो, कड्डइसु पहुमामसुत्ततंतूहि। आरोविय तं सावय, वुट्टिसु जलहिम्मि झ त्ति पुणो॥४४|| काऊण सव्वमेयं, लोगुत्तमनायगं गहेऊण। सजायहरिसपगरिस-पुलइअगचो महासत्तो // 45 // खणमित्तेण सठाणं, समागओ परिसरे पडकुडीओ। रइआविअ जाविड्डिओ.एइ पुणो सम्मुहो ताव।।४६|| गंधव्वगीइवाइअ-रवेण सुरवरनारिधवलेहि। बहिरिअककुहो नाहं, दाणं दितो पवेसेइ॥४७|| स्ययालयसच्छायं, पासायं कारिऊण कंतीए। विणवेसिअभवणगुरुं, तिव्वं पूएइ भत्तीए।।४८॥ कालंतरमावण्णे, धणेसरे पउरनायरवरेहिं / वाससहस्से पहुणो, पूइज्जंतस्स वक्ते॥४६॥ देवाहिदेवमुत्तिं, परिअररहिअंतया य कंतीए। मेलियरसस्स थंभण-निमित्तगायासमग्गेणं / 50|| कलिअकलाकालत्तय-पालित्तयगणहरोवएसाओ। नागज्जुणे जा इंदो, आणेही अप्पणो ठाणे // 51 / / जोइणिगए कयत्थो, तत्थं मुत्तूण नाहमंडवीए। रसथंभाओ होही, थंभणय नाम तित्थं ति / / 5 / / उच्छिन्नवंसयालं-तरहिओ सुरहिखीरहविअंगो। अकंतखिइनिमग्गो,जणेण जरहु त्ति कयनामे / / 53 / / अवि परसइ तयवत्थो,जिणनाहो पणसयाइँ वरिसाणं। तयणु धरणिंदनिम्मिअ-सन्निज्झो विइअसुअसारो // 54 / / सिरिअभयदेवसूरी, दूरीकयदूरिअरोगसघाओ। पयड तित्थ काही, अहीणमाहप्पदिप्पंतं 55 / / कंतीपुरीए भयवं, पुणो गमिस्सइ तओ अजलहिम्मि। बहुविहनयरेसु अगडुव, अगणियमहिमाइ दिप्पंते॥५६॥ अह कोती अणागय-पडिमाठाणाण साहणसमत्थो। जइ विहुसो सहसमुहो, हविज्ज रसणासयसहस्सो।।५७।। पावाचंपऽट्टावय-रेवयसमेअविमलसेलेसु। कासीनासिगमिहिला-रायगिहप्पमुहतित्थेसु // 58|| जत्ताइ पूअणेण, दाणेण ज फलं लहइ जीवो। तपासपडिमदंसण-मित्तेण पावए इत्थ।।५।। मासक्खमणस्स फलं, वंदणबुद्धीइ पाससामिस्स। छम्मासिअस्स पावइ, नयणपहगयाइ पडिमाए। 60 / / निरक्चो बहुतणओ, धणहीणो धणयसंनिहो होइ। दोहगो विहु सुहओ,पहु दिट्ठीए जणो दिहा / / 61 // मुक्खत्तं कुकलतं, कुजाइजम्मो कुरुवदीणतं / अन्नभवे पुरिसाणं, नहुँति पहुपडिमपणयाणं / / 6 / / अडसट्टितित्थजत्ता-कए भमइ कह विमोहिओ लोओ। तेहिंतोऽणतगुण, फलमप्पिंते जिणे पासे // 63 / / एगेण विकुसुमेणं, जो पडिमं महइ तिव्यभावो सो। भवालिमउलिमउलिअ-चरणो चक्काहिवो होई॥६४|| जे अट्टविहं पूअं.कुणंति पडिमाइ परमभत्तीए। तेसिं देविंदाई-पयाइँ परपंकजत्थाई॥६५॥ जो वरकिरीडकुंडल केउराईणि कुणइ देवस्स। तिहुअणमउडो होऊ-ण सो लहुं लहइ सिवसुक्खे॥६६॥ तिहअणचडारयणं, जणनयणामयसलागिगा एसा। जेहिं न दिट्टा पडिमा, निरस्थय नाण मणुयत्तं // 671 सिरिसंघदासमुणिणो, लहुकप्पो निम्मिओ अपडिमाए। गुरुकप्पाओ अ मया,संबंधलवे समुद्धरिओ॥६८॥ जो पढइ सुणइ चिंतइ, एयं कप्पं स कप्पवासीसुं। नाहो होऊण भवे, सत्तमए पावए सिद्धिं // 66 // गिहचेइअम्मि जो पुण, पुत्थयलिहिअंपिकप्पमच्चेइ। सो नारयतिरिएसुं, निअमा लहई अचिरवोहिं / 70|| हरिजलहिजलणगयगया-चोरोरगगहनिवारियारिपेयाणं / वेयालसाइणीण, भयाइँ नासंति दिणमणिणो / / 71 // भव्याण पुन्नसोहा-पाणीआइन्नहिअयठाणम्मि। कप्पो कप्पतरू इव, विलसंतो वंछिअंदेउ॥७२॥ जावइ मेरुपईवो, महिमल्लिअओ समुद्दजलतिल्ले। उज्जोअतो चिट्टइ, नरखित्तं ता जयउ कप्पो // 73 // " इति श्रीपार्श्वनाथस्य कल्पसंक्षेपः। ती०५कल्प। अक्षिविशो-भयोः, देना०६वर्ग 75 गाथा। *पश्य त्रि० पश्यतीति पश्यः। द्रष्टरि, आचा०१श्रु०२अ०३उ०। पासंड न०(पाषण्ड) व्रते, अनु० / अन्यदर्शिनि परिव्राजकाऽऽदी, पुंग उत्त०२३अग * तत्कल्पः थंभणय शब्दे चतुर्थभागे 2381 पृष्ठे गतः। Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासंडत्थ 605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासणया पासंडत्थ पुं०(पाषण्डस्थ) लिङ्गिनि, ज्ञा० १श्रु०८अ० व्रतस्थे, भ०६ श्यवेद्यो, नाऽपि तरय दारुणो विपाकः / केवलं शुष्कसुधापाधवलितश०३२ उ०, "दरिद्दथेरा नाम पासडन्था" आ०म०१ अ०। 'परिवा- भित्तिगतरजाराजिरिव स कर्मस शुभ एव, शुभाध्यवसायपवनविक्षोयरनपडमादी पासंडत्था।" नि०चू०१उ०। भितोऽपयाति / मनसोऽभिनिवेशागावश्वाज्ञानाभ्युपगमे समुपजायते, पासंडणाम न०(पाषण्डनामन्) पाषण्डिविशेषप्रतिपाषण्डके शब्दे, "से ज्ञाने सत्यभिनिवेशसंभवात्तस्मादज्ञानमेव मुमुक्षुणा मुक्तिमार्गप्रवृत्तेकिं तं पासंडणामे?! पासंडणामे समणे य पंडरंगे भिक्खू कावालिए नाभ्युपगन्तव्यं, न ज्ञानमिति। किं च-भवेद्युक्तो ज्ञानस्याभ्युपगमो यदि अनावसए। सेत्तं पासंडणामे।" इह येन यत्पाषण्डमाश्रितं तस्य तन्नाम ज्ञानस्य निश्चयः केतु पार्यत, परं यावता स एव न पार्यते / तथाहिस्थाप्यभानं पाषण्डस्थापनानामाभिधीयते / अनु०॥ सर्वेऽपि दर्शनिनः परस्पर भिन्नमेव ज्ञानं प्रतिपन्नास्ततो न निश्चयः कर्तु पासंडधम्म पुं०(पाषण्डधर्म) शाक्याऽऽदीना धर्म, ज०२यक्षा शक्यते, किमिदं ज्ञानं सम्यगुत नेदमिति / यदुक्तम्-''सव्वे य मिहो भिन्नं नाणं इह नाणिणो जओ बिति। तीरइ तओन काउं, विणिच्छओ पासंडि(ण) पुं०(पाषण्डिन्) पाषण्डं व्रत, तदस्यास्तीति पाषण्डी / एवमेय ति // 1 // तेषामज्ञानिकानां सप्तषष्टिभेदाः, तथा विनयेन ये जैनसाधौ, 'पाषण्ड व्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलं भुवि / स पापण्डी चरन्तीति वैनायिकाः। एते चानववृतलिङ्गाऽऽचारशास्त्राः केवलं विनयवदन्त्यन्ये, कर्मपाशाद्विनिर्गतः" ||1|| दश०२अ०॥ द्वा०। द्विजाऽऽदिषु, प्रतिपत्तिप्रधानाः, एषां च द्वात्रिंशद्धेदा इति। प्रव० 206 द्वार / सूत्र० / आचा० १श्रु० 4 अ०२०। परमतिकेषु प्रक०। ओ००। आधा० नं० / दशा०॥ तत्र त्रिषष्ट्यधिकशतत्रयपाषण्डिकाः असीइसयं किरिआणं, 180 सभवसरणाद् पहिस्तिष्ठन्ति, किं वा मध्ये इति प्रश्रेउत्तरम्-पाषअकिरियवाईण होइ चुलसीई 84 / ण्डिकाःप्रायो बहिरेव भवन्ति, कश्चित् कदाचिन्मध्येऽपि समेति, तदा अन्नाणि य सत्तट्ठी 67, कोऽत्र प्रश्नावकाश इति। १४३प्र०। सेन०३उल्लाका वेणइआणं च वत्तीसं 32 / / 1202 / / पासंडिय पुं०(पाषण्डिक) द्विजाऽऽदिषु, आचा० १श्रु० 4 अ०२७०। न कर्तारमन्तरेण क्रिया पुण्यबन्धाऽऽदिलक्षणा संभवति, तत एव | पासंडियावसह पुं०(पाषण्डिकाऽऽवसथ) पाण्डिकानामावसथः / परिज्ञाय एवं परिज्ञाय तां क्रियामात्मसमवायिनी वदन्ति, तच्छीलाश्च ये __ परिव्राजकानां शालागृहे, नि०चू० 870 / ते क्रियावादिन आत्माऽऽद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणाः, तेषामशीत्यधिक पासंत त्रि०(पश्यत) प्राप्नुवति, सूत्र० १श्रु०६ अग शतं भवति, वक्ष्यमाणप्रकारेण अशीत्यधिकशतसंख्यास्ते इति भावः।। पासंदण न०(प्रस्यन्दन) निर्झरणे, बृ०१उ०३प्रकला नि०चू०। तानकस्यचित्प्रतिक्षणमवस्थितस्य पदार्थक्रिया संभवति, उत्पत्त्यन- / पासग पुं०(पाशक) धुतोपकरणे, अत्रस्ताश्चाऽऽदिबन्धने, जं०३वक्ष०। न्तरमेव विनाशादित्येवं ये वदन्ति ते अक्रियावादिन आत्माऽऽदिनास्ति- सूत्र०ा जा आ०म०। (मनुष्यत्वदौर्लभ्ये पाशको दृष्टान्तः 'माणुसत्त' त्वप्रतिपत्तिलक्षणाः। तथा चाऽऽहु:-"क्षणिकाः सर्वसंस्काराः, शब्दे वक्ष्यते) विले, नि०चू०१उ०। अस्थिराणां कुतः क्रिया?। भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारकं सैव चोच्यते *पश्यक पुं० पश्यतीति पश्यः स एव पश्यकः / पश्यतीति पश्यकः। // 1 // " तेषां चतुरशीतिर्भवति, तथा कुत्सितं ज्ञानमज्ञान, तदेषामस्ति, सर्वज्ञ, तदुपदेशवर्तिनिच। आचा०१श्रु०२अ०३उ०। "उखेसोपासगस्स तेन वा चरन्तीत्यज्ञानिकाः, असंचिन्त्यकृतबन्धवैफल्याऽऽदिप्रति- णत्थि वाले पुण णिहे कामसमणुण्णे," आचा० १श्रु० २अ०३उ०॥ पादनपराः। तथा हि-ते एवमाहुर्न ज्ञानं श्रेयस्तस्मिन् सति परस्पर परमार्थदृशि, 'सव्वसो उद्देसे पासगस्स णत्थि बाले।" आचा० १श्रु० विवादयोगेन चित्तकालुष्याऽऽदिभावतो दीर्घतरसंसारप्रवृत्तेः। तथाहि- २अ०६उ०। तीर्थकृति, "दुक्खं च एवं पासगस्स दसणं उवरयसत्थस्स केनचित्पुरुषेणान्यथा देशिते वस्तुनि विवक्षितो ज्ञानी ज्ञानभावगर्वाऽऽ- | पलियंतगरस्स आयाणं णिसेद्धा सगडम्मि किमत्थि उवाधी पासगररा ध्मातमानसस्तस्योपरि कलुषचित्तस्तेन सह विवादे च क्रियमाणे तीव्र- ण विजति।" आचा०१श्रु०३अ०४ उ०। "कोहं च माणं च मायं च लोभं तीव्रतरचित्तकालुष्यभावतोऽहङ्कारतश्च प्रभूतप्रभूततराशुभकर्मबन्ध- | चएयं पासगस्सदसणं।"आचा० 1 ०३०३उ०। संभवः, तस्माच दीर्घदीर्घतरसंसारः। तथा चोक्तम्-"अन्नेण अन्नहा दे- | पासणया स्त्री०(पश्यता) पश्यतो भावः पश्यता / बोधपरिणामविशेषे, सिअम्मि भावम्मि नाणगव्येण / कुणइ विवायं कलुसिअचित्तो तत्तो य से भ०१६श०७उन बंधो / / 1 / / " यदा पुनर्न ज्ञानमाश्रीयते तदा नाहङ्कारसंभवो, नापि पश्यतावक्तव्यतापरस्योपरि चित्तकालुष्यभावः; ततो न कर्मबन्धसंभवः / अपि च-यः कतिविहा णं भंते ! पासणया पण्णत्ता ? गोयमा ! संचिन्त्य क्रियते कर्मबन्धः स दारुणविपाकोऽत एवावश्यं वेद्यस्तस्य दुविहा पासणया पण्णत्ता / तं जहा-सागारपासणया, तीव्राध्यवसायतो निष्पन्नत्वात्, यस्तु मनोव्यापारभन्तरण कायवचन- अणागारपासणया य / सागारपासणया णं भंते ! कतिविहा कर्मवृतिमात्रतो विधीयते, न तत्र मनसोऽभिनिवेशः, ततो नाराावव- / पण्णत्ता? गोयमा ! छव्विहा पण्णत्ता / तं जहा-सुयनाण Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासणया 106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासणया पासणया, ओहिनाणपासणया, मणपज्जवनाणपासणया, तत्र सर्वत्राऽपि प्रवर्तते इति साकारोपयोगोऽष्टविधः, तथा चक्षुर्दर्शनमकेवलनाणपासणया, सुयअन्नाणसागारपासणया, विभंगनाण- चक्षुर्दर्शनमवधिदर्शन केवलदर्शन मिति चतुर्विधोऽनाकारोपयोगः, सागारपासणया। अणागारपासणया णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता? अनाकारपश्यत्ता तु त्रिविधा, अचक्षुर्दर्शनस्यानाकारपश्यत्ताशब्दवाच्यगोयमा ! तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-चक्खुदंसणअणागार- त्वाभावात् / कस्मादिति चेदुच्यते-उक्तमिह पूर्वमनाकारपश्यत्ताया पासणया, ओहिदसणअणागारपासणया, केवलदसणअणागार- चिन्त्यमानायां प्रकृष्ट परिस्फुटरूपमीक्षणमवसेयमिति, तत्राचक्षुर्दर्शने पासणया। एवं जीवाणं पि। परिस्फुटरूपमीक्षण न विद्यते, न हि चक्षुषेऽवशेषेन्द्रियमनोभिः परिस्फुट(कतिविधा णं भंते ! इत्यादि) कतिविधा कतिप्रकाराणमिति मीक्षते प्रगाता, ततोऽचक्षुर्दर्शनस्याऽनाकारपश्यत्ताशब्दवाच्यत्वावाक्यालङ्कारे,भदन्त ! (पासणय त्ति) 'दृशिर्' प्रेक्षणे, पश्यतीति 'सति भावात् त्रिविधानाकारपश्यत्ता, तदेवं साकारभेदेऽनाकारभेदे च प्रत्येकवानितौ" / / 5 / 2 / 16 / / इति (हेम०) अतृड्प्रत्ययः, कर्तर्यनदादेशः / मवान्तरभेदे वैचित्र्यभावान्महानुपयोगपश्यत्तयोः प्रतिविशेषः, एनमेव "पाघ्राध्मास्थाम्नादामदृश्यर्तिश्रोतिकवुधिवुशदसदः पिबजिघ्रध- प्रतिविशेष प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतः साकारानाकारभेदौ ततस्तद्गतावामतिष्ठमनयच्छपश्यर्छ कृधिशीयसीदाम् ' ||4 / 31 108 / / इति न्तरभेदान् प्रतिपादयति-(गोयमा ! दुविहा पासणया पण्णत्ता / तं जहा(हेम०) दृशेः पश्याऽऽदेशः, पश्यतो भावः पश्यत्ता, ''भावे त्वतलौ'' सागारपासणया, अणागारपासणया य / सागारपासणया णं भंते! ||71 / 55|| इति तलप्रत्ययः। "अत्" |2418 // इति (हैम०) कतिविहा पण्णत्ता?) इत्यादि भावितार्थम्। तदेवं सामान्यतो जीवपदआप / सैव पासणयेत्युच्यते, एष च 'पासणया' शब्दो रुढिवशात् विशेषणरहिता पश्यत्तोक्ता / साम्प्रतं तामेव जीवपदविशेषणसहिसाकारानाकारबोधप्रतिपादकः, उपयोगशब्दवत्, तथा चोपयोगविषये तामभिधित्सुराह-(एवं जीवाणं पि) एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण जीवानामपि प्रश्नोत्तरसूत्रे-('उवओग' शब्दे द्वितीयभागे 856 पृष्ठे गते) "कइविहा जीवपदविशेषणसहिताऽपि पश्यत्ता वक्तव्या। सा चैवम्-"जीवाणं भंते ! ण भंते ! पासणया पण्णता? गोयमा ! दुविहा पासणया पण्णत्ता / तं कतिविहा पासणया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पासणया पण्णत्ता / तं जहा-सागारपासणया, अणागारपासणया इति।" ननु तुल्ये साकारा- जहा-सागारपासणया, अणागारपासणयाय। जीवाणं भंते ! सागारपानाकारभेदत्वे कोऽनयोः प्रतिविशेषो, येन पृथगुच्यते? उच्यते- सणया कतिविहा पण्णत्ता। इत्यादि तदेवं जीवानामपि सामान्यत उक्ता। साकारानाकारभेदगतावान्तरभेदसंख्यारूपः। तथाहि-पञ्च ज्ञानानि संप्रति चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण वदतित्रीण्यज्ञाना नीत्यष्दृविधः साकार उपयोगः, साकारपश्यता तुषविधा- णेरइया णं भंते ! कतिविहा पासणया पण्णता ? गोयमा ! मतिज्ञानमत्यज्ञानयोः पश्यत्तयोः अनभ्युपगमात्, कस्मादिति चेत, दुविहा पासणया पण्णत्ता / तं जहा-सागारपासणया, अणागारउच्यते-इह पश्यत्ता नाम पश्यतो भाव उच्यते, पश्यतो भावश्व 'दृशिर' पासणया य / जेरइया णं भंते ! सागारपासणया कइविहा प्रेक्षणे इति वचनात्, प्रेक्षणभिह रूढिवशात् साकारपश्यत्तायां चिन्त्य- पण्णत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहा-सुयनाणसामानाया प्रदीर्घकालम् अनाकारपश्यत्तायां चिन्त्यमानायां प्रकृष्ट परि- मारपासणया, ओहिनाणसागारपासणया, सुयअन्नाणसागाररस्फुटरूपमीक्षणमवसेय, तथा च सति येन ज्ञानेन त्रैकालिकः परिच्छेदो पासणया, विभंगनाणसागारपासणया / णेरइया णं भंते ! भवति तदेव ज्ञान प्रदीर्घकालविषयत्वात् साकारपश्यत्ताशब्दवाच्यं न अणागारपासणया कइविहा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। शेष, मतिज्ञानमत्यज्ञाने तु उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहके सांप्रतकालविषये, तं जहा-चक्खुदंसणअणागारपासणया, ओहिदंसणअणातथा च मतिज्ञानमधिकृत्यान्यत्रोक्तम्-'जमवग्गहादिरज्व, पच्चुप्पन्न- गारपासणया य / एवं०जाव थणियकुमारा / पुढविकाइया णं वत्थुगाहगं लोए। इंदियमणोनिमित्तं, तं आभिनिबोधिगं चेति / / 1 / / " भंते ! कतिविहा पासणया पण्णत्ता? गोयमा ! एगा सागारपातत् द्वे अपि साकारपश्यत्ताशब्दवाच्ये न भवतः, श्रुतज्ञानाऽऽदीनि तु सणया / पुढवीकाइया णं भंते ! सागारपासणया कतिविहा त्रिकालविषयाणि / तथाहि-श्रुतज्ञानेन अतीता अपि भावा ज्ञायन्ते, पण्णत्ता? गोयमा ! एगा सुयअन्नाणसागारपासणया पण्णत्ता / अनागता अपि। उक्तं च एवंजाव वणप्फइकाइयाणं / बेइंदियाणं भंते ! कतिविहा "ज पुण तिकालविसय, आगमगथाणुसारि विन्नाणं / इंदियम- पासणया पण्णत्ता? गोयमा ! एगा सागारपासणया पण्णत्ता / पोनिभित्त, सुयनाण तं जिणा बिति / / 1 / / " अविधिज्ञानमपि संख्यातीता बेइंदिया णं भंते ! सागारपासणया कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः अतीताः (परिच्छिन त्ति) भाविनीश्व मनःपर्याय- दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुयणाणसागारपासणया, सुयअज्ञानमपि पल्योपमासंख्येयभागमतीतं जानाति भाविनं च केवल ण्णाणसागारपासणयाय। एवं तेइंदियाण वि। चउरिदियाणं पुच्छा? सकलकालविषयं सुप्रतीतं, श्रुताज्ञानविभङ्ग ज्ञाने अपि त्रिकालविषये, गोयमा! दुविहा सागारपासणया पणत्ता।तंजहा-सागारपासणया, ताभ्यामपि यथायोगमतीतानागतभावपरिच्छेदात्, ततो ज्ञानानि अणागारपासणया / सागारपासणया जहा बेइंदियाणं / चउसाकारपश्यत्ताशब्दवाच्यानि, उपयोगरतु यत्राऽऽकारो यथोदितस्वरूपः रिदिया णं भंते ! अणागारपासणया कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! परिस्फुरति स बोधो वर्तमानकालविषयो वा यदि भवति त्रिकालिका वा | एगा चक्खुदंसणअणागारपासणया पण्णत्ता / मणूसाणं जहा Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासणया 907 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासणया जीवाणं सेसा जहा णेरइया०जाव वेमाणियाणं / (नेरझ्या ण भते !) इत्यादि सुगमत्वादुपयोगपदे प्रायो भावितत्वात चानन्तरोक्तभावनाऽनुसारेण स्वयं परिभावनीय, तदेवं सामान्यतो विशेषतच जीवानां पश्यतोक्ता। सम्प्रति जीवानेव पश्यत्ताविशिष्टान विचिन्तयिषुराहजीवा णं भंते ! किं सागारपस्सी,अणागारपस्सी? गोयमा ! जीवा सागारपस्सी वि, अणागारपस्सी वि। से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-जीवा सागारपस्सी वि, अणागारपस्सी वि / गोयमा ! जे णं जीवा सुयनाणी ओहिनाणी, मणपज्जवनाणी, केवलनाणी, सुयअण्णाणी, विभंगनाणी, तेणं जीवा सागारपस्सी / जे णं जीवा चक्खुदंसणी ओहिदंसणी केवलदसणी ते णं जीवा अणागारपस्सी, से एतेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइजीवा सागारपस्सी वि, अणागारपस्सी वि / णेरइया णं भंते ! किं सागारपस्सी, अणागारपस्सी? गोयमा ! एवं चेव, नवरं सागारपासणयाए मणपज्जवनाणी, केवलनाणी न वुच्चति, अणागारपासणयाए केवलदसणं नत्थि, एवं ०जाव थणियकुमारा। पुढविकाइयाणं पुच्छा? गोयमा ! पुढवीकाइया सागारपस्सी, नोअणागारपस्सी। सेकेणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ। गोयमा ! पुढविकाइयाणं एगा सुयअन्नाणसागारपासणया पण्णत्ता / से तेणटेणं गोयमा! एवं वुचइ / एवं०जाव वणस्सइकाइयाणं वेइंदियाणं पुच्छा? गोयमा ! सागारपस्सी, नो अणागारपस्सी / से के गढेणं भंते ! एवं वुच्चइगोयमा ! बेइंदियाणं दुविहा / सागारपासणया पण्णत्ता। तं जहा-सुयनाणसागारपासणया, सुयअन्नाणसागारपासणया य / से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ। एवं तेइंदियाण वि। चरिंदियाणं पुच्छा? गोयमा ! चउरिदिया सागारपस्सी वि, अणागारपस्सी वि। से के णटेणं भंते ! एवं दुच्चइ? गोयमा ! जे णं चउरिं दिया सुयनाणी, सुयअन्नाणी, ते णं चउरिंदिया सागारपस्सी, जे णं चरिदिया चक्खुदंसणी, ते णं चउरिदिया अणागारपस्सी। से तेणटेणं गोयमा ! एवं दुच्चइ / मणूसा जहा जीवा, अवसेसा जहा रइया जाव वेमाणिया / / 313|| (जीवाणं भंते किं सागारपस्सी इत्यादि) जीवा जीवनयुक्ताः, प्राणवारिण इत्यर्थः / णमिति वाक्यालङ्कारे, किमिति प्रश्श्रे, साकारपश्यत्ता विद्यते येषां ते साकारपश्यत्तिनः, प्राकृतत्वात्साकारपस्सी इत्युक्तम्। (मणपज्जपनाणी केवलनाणी न वुचइ इत्यादि) नैरयिकाणा चारित्र प्रतिवतेरभावतो मनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानकेवलदर्शनानामभवात् / इह किल छद्मरथाना साकारोऽनाकारश्वोपयोगः क्रमेणोपजायमानो घटते, राकर्मकत्वात्, सकर्मकाणा ह्यन्यतरस्योपयोगस्य वेलायागन्यतरस्य कर्मणाऽऽवृतत्वात् न घटते एवोपयोग इति,केवली तु घातिचतुध्यक्षयाद्भवति, ततः संशयः-किं क्षीणज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणत्वात् यस्मिन्नेव समये रत्नप्रभाऽऽदिक जानाति तस्मिन्नेव समये पश्यति, उत जीवस्वाभाव्यात्क्रमेणेति। ततः पृच्छतिकेवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं हेतूहिं उवमाहिं दिट्ठतेहिं वन्नेहिं संठाणेहिं पमाणेहिं पडोयारेहिं जं समयं जाणइ तं समयं पासइ,जं समयं पासइतं समयं जाणइ / गोयमा ! णो इणढे समझे। से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं जं समयं जाणइ,नो तं समयं पासइ, जं समयं पासइ नो तं समयं जाणइ ? गोयमा ! सागारे से नाणे भवइ, अणागारे से दंसणे भवइ / से तेणटेणं०जाव नो तं समयं जाणइ एवंजाव अहे सत्तम, एवं सोहम्मकप्पं०जाव अच्चुयं / गे वेज्जगविमाणा अणुत्तरविमाणा ईसिप्पन्भारं पुढवीपरमाणुपोग्गलं दुपदेसियं खंधं०जाव अणंतपदेसियं खंधं / के वली णं भंते ! इस रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं अहेऊ हिं अणूवमे हिं अदि8 ते हिं अवन्ने हिं असंठाणे हिं अप्पमाणेहिं अपडोयारेहिं पासइ न जाणइ / हंता गोयमा ! केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविंअणागारेहिं० जाव पासइ न जाणइ / से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइकेवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारेहिं०जाव पासइ न जाणइ? गोयमा ! अणगारे से दंसणे भवइ, सागारे से नाणे भवइ। से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं अणगारेहिं०जाव पासइ न जाणइ, एवं०जाव ईसिप्पडभारं पुढविं परमाणु पुग्गलं अणंतपएसियं खंधं पासइ न जाणइ। (केवली णं भंते ! इत्यादि) केवलं ज्ञानं दर्शनं चास्यास्तीति केवली, णमिति वाक्यालङ्कृती, भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! इमा प्रत्यक्षत उपलभ्यमानां रत्नप्रभाभिधा पृथिवीम्-(आगारेहिं ति) आकारभेदा यथा इयं रत्नप्रभा पृथिवी त्रिकाण्डा खरकाण्डपङ्ककाण्डाप्काण्डभेदात्, खरकाण्डमपि षोडशभेदम्। तद्यथा-प्रथमं योजनसहस्रमानं, रत्नकाण्ड तदनन्तरं योजनसहस्रप्रमाणमेव, वज़काण्डं तस्याप्यधो योजनसहसमानं वैडूर्यकाण्डमित्यादि। (हेऊहिं ति) हेतव उपपत्तयः, ताश्चेमाः केन कारणंन रत्नप्रभेत्यभिधीयते? उच्यते-यस्मादस्या रत्नमयं काण्ड तस्माद्रत्नप्रभा रत्नानि प्रभाः स्वरूपं यस्याः सा रत्नप्रभेति Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासणया 908 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासणिय प्युत्पत्तरिति / (उवमाहिं इति) उपमाभिः 'माड्' माने, अस्मादुपपूर्वात उपमितम् उपमा। "उपसर्गादातः" / / 5 / 3 / 110 / / इति अड्प्रत्ययः। ताश्वे धम्-रत्नप्रभायां रत्नप्रभाऽऽदीनि काण्डानि वर्ण विभागेन, कीदृशानि? पारागेन्दुसदृशानीत्यादि। (दिट्ठतेहि ति)दृष्टः अन्तः परिच्छेदो विवक्षितसाध्यसाधनयोः सम्बन्धस्याविनाभावरूपस्य प्रमाणेन यत्र ते दृष्टान्तास्तैर्यथा घटः स्वगतैर्द्ध : पृथुबुध्नोदराऽ5धाकाराऽऽदिरूपरनुगतः परधर्मेभ्यश्च पटाऽऽदिगतेभ्यो व्यतिरिक्त उपलभ्यत इति पटाऽऽदिभ्यः पृथक् वस्त्वन्तर तथवैषाऽपि रत्नप्रभा स्वगतभेदैरनुषक्ता, शर्कराप्रभाऽऽदिभेदेभ्यश्च व्यतिरिक्तेति, ताभ्यः पृथग वरत्वन्तरमित्यादि। (वन्नेहि ति) शुक्लाऽऽदि वर्णविभागेन तेषामेव उत्कर्षापकर्षसंख्येयाऽसंख्येयानन्तगुणविभागेन च वर्णग्रहणमुपलक्षणं तेन गन्धरसरपर्शविभागेन चेति द्रष्टव्यम्। (संटाणेहिं ति) यानि तस्यां रत्नप्रभायां भवननारकाऽऽदीनि संस्थानानि / तद्यथा-"तेणं भवणा याहिं बड़ा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकण्णियासंढाणसंठिया।" तथा "ते गनेरइया अंतो वट्टा बाहिं चउरसा अहे खुरप्पसंढाणसंटिया।' इत्यादि। तथा-(परिमाणेहिं ति) प्रमाणानि। (अहेत्यादि) परिमाणा-नि। यथा- "अराीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्ला रज्जुप्पभाणमेला आयामविक्खंभण।" इत्यादि / (पडोयारेहिं ति) प्रति सर्वतः सामस्त्येन अवतीर्यत व्याप्यले यस्ते प्रत्यवतारास्ते चात्र घनोदध्यादिवलया वेदितव्याः। ते हि सर्वासु दिक्षु विदिक्षु चेमा रत्नप्रभा परिक्षिप्य व्यवस्थितास्तेः / (जं समय मिति) 'कालाध्वनाव्यति'' ||रारा४२।। इत्यधिकरणभावेऽपि द्वितीया / ततोऽयमर्थ:-यस्मिन समयं जानाति आकारादिविशिष्टां परिच्छिनत्ति (तं समय त्ति) तस्मिन् समये पश्यति केवलदर्शनविषयीकरोति / भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थ:नायमर्थो युक्त्युपपन्न इति भावः। तत्त्वमजानानः पृच्छति-(से केणडेणं भंते ! इत्यादि) स इति अथशब्दार्थे, अथ केनार्थेन कारणेन भदन्त ! एवं पूर्वोक्तेन प्रकारणांच्यत? तमेव प्रकार दर्शयति-(केवली णमित्यादि) भगवानाह-(गोधर्मत्यादि) अस्थायं भावार्थ:-इह ज्ञानेन परिच्छिन्दन जानातीत्युच्यते, दर्शनन परिच्छिन्दन्पश्यतीति, ज्ञानं च (से) तस्य भगवतः साकारमन्यथाज्ञानत्वायोगात् विशेषानभिगृह्णाना हि बोधो ज्ञान सविशेष पुननिमिति वचनात् दर्शनमनाकारं निर्विशेष विशेषाणा, ग्रहो दर्शनमुच्यते इति वचनात् तत्र ज्ञानं च दर्शनं च जीवस्य खण्डशो नोपजायते, यथा कतिपयेषु प्रदेशेषु ज्ञान, कतिपयेषु प्रदेशयु दर्शन, तथा स्वाभाव्यात, किं तु यदा ज्ञानं तदा सामरत्येन ज्ञानमेव, यदा दर्शनं तदा सामस्त्येन दर्शनमेव, ज्ञान: च साकारानाकारतया परस्पर विरुद्धे, छायातपयोरिवेतरेतराभावनान्तरीयकत्वात्, ततो यस्मिन समये जानाति तस्मिन् समये न पश्यति यस्मिन् समये पश्यति तस्मिन सभथे न जानाति / एतदेवाऽऽह-(से एणढणमित्यादि) एतेन यदवादीद्वादी सिद्धसेनदिवाकरो"-यथा-पचली भगवान् युगपत् जानाति पश्यति चेति तदप्यपास्तमवगन्तव्यम, अनेन सूत्रेण साक्षात युक्तिपूर्व ज्ञान* इह सिद्धसेनदिवाकरमनिराकरणमपि। दर्शनोपयोगस्य क्रमशो व्यवस्थापितत्वात्। एवं शर्कराप्रभावालुकाप्रभापङ्कप्रभाधूभप्रभातमः प्रभातमस्तमः प्रभासौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकशुक्रसहस्रारानतप्राणतारणाच्युतकल्पग्रैवेयकविमानान्युत्तरविमानेषत्-प्रारभाराभिधपृथिवीपरमाणुपुद्गलद्विप्रदेशिकस्कन्धयावदनन्तप्रदेशिकस्कन्धविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि। ननु यदि ज्ञानदर्शने साकारानाकारतया पृथगेवं व्यवस्थापितविषये तत इदमायात, यदा भगवान् केवली रत्नप्रभाऽऽदिकमाकाराऽऽद्यभावेन परिच्छिनत्ति तदा स पश्यतीत्येवं वक्तव्यो न जानातीति / सत्यमेत्तथा चाऽऽह- "केवलीणंभंते ! इमं रयणप्पभं पुढविं अणागारहिं अहेऊहिं।" इत्यादि प्रायोभांवितत्वात्सुगमम् प्रज्ञा०३० पद। पासणाह पुं०(पार्श्वनाथ) पश्यतीति पार्श्वः,पाश्चोऽस्य वैयावृत्यकरः, तस्य नाथः पार्श्वनाथः / अवसर्पिण्यां जाते त्रयोविंशे तीर्थकरे, ध०२अधि०"पान्तु वः पार्श्वनाथस्य, पादपद्मनखांशवः। अशेषविजनसंघाततमो भेदैक हेतवः / / 1 / / " आ०म० अ०। प्रव०। ती०। (पार्श्वनाथवक्तव्यता 'पास' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव गता) पासणिय पुं०(पाधिक) प्रश्रेन राजाऽऽदिकिंवृत्तरूपेण दर्पणाऽऽदि प्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरन्तीति प्राधिकाः। प्रश्रोपजीविनी साधौ, सूत्र० १श्रु० २अ० २उ०। प्रानिक वन्दतेजेह भिक्खू पासणियं वंदइ, वंदंतं वा साइजइ / / 53 / / जे भिक्खू पासणियं पसंसइ, पसंसंतं वा साइजइ / / 54|| जे पासणियं इत्येवमादि दो सुत्ता। जणवयववहारेसु णडणडडणादिसु वा जो पेक्खण करेति, सो पासणिओ। लोइववहारमूलो, पासत्थादिएसु कज्जेसु / पासणियत्तं कुणती, पासणिओ सोय नायव्वो // 66|| "लोइयववहारेसु ति। " अस्य व्याख्या - साधारणे विरेगं, साहति पत्त पउए य आहरणा। दोण्ह य एगो पत्तो, दोन्नि य महिला उ एगस्स / / 17 / / दोण्ह सामण्णं साधारणं तस्स विरेगं विभयणं तत्थपणे पासणिया छेत्तुमसमत्था सोभावच्छणाओ छिंदति, कह? एत्थ उदाहरणं जहाणमोक्कारणिज्जुत्ताए पडगआहरणं पिजहा तत्थेव, एवं अण्णेसु वि बहूसु लोगववहारेसु पासणियत्तं करेइ, छिदति वा। "लोए सत्थदिए त्ति" अस्य व्याख्याछंदणिरुत्तं सत्थं, अत्थं वा लोइयाण सत्थाणं। भावत्थए य साहति, छलियादी उत्तरे सउणे / / 68|| छंदादियाणं लोगसत्थाणं सुत्तं कहेति, अत्थं वा। अहवा-अत्थं व त्ति, अत्यं सत्थं सेत्तुमादियाण वा बहूण कच्चाणं कोडल्लयाण य वेरियमाण य भावत्थं पसाहेति, छलियसिनारकहाछीवण्णगादी उत्तरे तित्थं दुत्तरादी, अहवा ववहारे उत्तरं सिखावइ / अहवा-उत्तरे ति लो उरारे वि सउणभयादीणि कहयति / निचू०१३उ०। साक्षिणि देवना० ६वर्ग 41 गाथा। Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासत्थ 606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासत्थ - पासत्थ पुं० पार्श्वस्थ) सदनुष्ठानात् पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्थाः। नाथयादिकमडलचारिषु, सूत्र०१श्रु०३अ०४ उ०। साधुज्ञानाऽऽदीनां पाचे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः। पाशस्थ इति वा संस्कारस्तत्रेयं व्युत्पशि:मिथ्यात्वाऽऽदयो बन्धहेलवः पाशास्तेषु तिष्ठतीति पाशस्थः / व्य०१उ०। प्रवका निकाधाजीज्ञा०ा पार्श्वः सम्यक्त्वं तस्मिन् ज्ञानाऽऽदिपायें तिष्टतीति पार्श्वस्थः। सूत्र० १श्रु०३अ० ४उ०ा दर्श०। साधुगुणानां पार्चे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः। सूत्र० १श्रु०६अ० शबलाऽऽचारे, व्य०३उ० नन्दधर्मे, ज्यो०१०पाहुना ज्ञानाऽऽदिबहिर्वतिनि, भ० 100 ४उ०। स्थान पार्श्वस्थो भूत्वा गणमुपसम्पद्यतेजे भिक्खू वा गणाओ अवकम्म पासत्थविहारे विहरेजा, से य इच्छेज्जा दोचं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए अस्थि या इत्थ से पुणो आलो एज्जा, पुणो पडिक मेजा, पुणो छेदपरिहारस्स उवट्ठाइज्जा / एवं अहाछंदो कुसीलो ओसण्णो संसत्तो // 26 // भिक्षुरुक्तशब्दार्थः, 'वा' वाक्यभेदे, गणादपक्रम्य निःसृत्य पार्थस्थविहारंपार्श्वस्थचर्या प्रतिपद्येत / स भूयोऽपि भाववपरिवृत्त्या इच्छेत द्वितीयमपि वारं गणनुपसंघद्य विहर्तुम् / (अस्थि या इत्थ ति) अस्ति चात्र कश्चित् यः शेषे चारित्रस्य सति पुनरालोचयेत्। पुनः प्रतिकामेत, / पुनश्छेद परिहार प्रायश्चित्तमापन्नस्तस्य छेदस्य परिहारस्य वा प्रतिपत्तये अभ्युत्तिष्ठेत् / यः पुनः सवर्थाऽपगते चारित्रं पुनरालोचयेत्, पुनः प्रतिक्रामेत, स मूलमापन्न इति मूलस्य प्रतिपत्तये अभ्युत्तिष्ठत् / व्य०१उ०॥ (यथाछन्दाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) अथ कथं पार्श्वस्थाऽऽदयो जायन्ते तत आहगच्छम्मि केइ पुरिसा, सउणा जह पंजरंतरनिरुद्धा। सारणपंजरचइया, पासत्थगयाइ विहरंति।।२०६।। यथा शकुनिः शकुनिका पञ्जरान्तर्निरुद्धा महता कष्टन वर्तते, तथा केचित् गुरुकम्गणः पुरुषा गच्छे स्मारणा चोदनाऽऽदिमहत्कष्टमभिमन्यमानाः कष्टन वर्तन्ते, ततःस्मारणलक्षणपञ्जरत्यागिनः सन्तः पार्श्वस्थगताऽऽदयः, आदिशब्दाद्यथाच्छन्दोगताऽऽदिपरिग्रहः / विहरन्त्यवतिष्ठन्ते, विहृत्य च केचिद् भूयः स्वगणमुपसंपद्यन्ते। तेषां चोपसंपद्यमानानां प्रायश्चित्तं देयमतस्तद्विवक्षुरिदमाहतेसिं पायच्छित्तं, वोच्छं ओहे य पयविभागे या ठप्पं तु पयविभागे, ओहेण इमं तु वुच्छामि // 210 / / तेषां पार्श्वस्थाऽऽदीनां स्वगुणमुपसंपद्यमानानां प्रायश्चित्तं वक्ष्य। कथमित्याह-ओधेन सामान्येन,पदविभागेन च कालाऽऽदिविशेषेण / गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे / तत्र यत्पदविभागेन प्रायश्चित्तं वक्तव्यं तत् स्थापनीय, पश्चाद्वक्ष्यते इत्यर्थः / ओधेन सामान्येन, कालदिविशेषरहितत्वेनेति भावः। पुनरिदमनन्तरं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षीभूतमिव वक्ष्यामि प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति ऊसववजे कयाई, लहुओ लहुया अभिक्खगहणम्मि। ऊसवें कयाइ लहुया, गुरुगा य अभिक्खगहणम्मि / 211 / उत्सवमुत्सवाभावे यदि कदाचित् शय्यातरपिण्लाऽऽदिक गृहीतवान, ततस्तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः तथाऽभीक्ष्णं गृहीतवान् ततश्वल्वारो लधुमासाः। अथोत्सवेकदाचित् शय्यातरपिण्डमग्रहीत्। ततश्चत्वारो लघुका मासाः। अथाभीक्ष्णमुत्सवेषु गृहीतवान् ततश्चत्वारो गुरुकाः। इहानुत्सवादुत्सवे गुरुकशोधिप्रदानकरणमग्रे स्वयमेव वक्ष्यतीति नाभिधीयते। अत्र कालविशेषो न कोऽपि निर्दिष्ट इतीदमोघेन प्रायश्चित्ताभिधानम्। इदानीं कालसामान्यत आहचउछम्मासे वरिसे, कयाइ लहु गुरु य तह य छग्गुरुगा। एएसु चेव भिक्खं, चउगुरु तह छग्गुरु च्छेदो।।२१२॥ चतुरो मासान् यावत्कदाचिदपि गृहीतवान् यदि शय्यातरपिण्ड ततश्चत्वारो लघुकाः, षण्मासान् कदाचित् ग्रहणे चत्वारो गुरुकाः। वर्ष यावत्कदाचिदभिगृहीते षण्मासा गुरवः। एतेष्वेव चतुर्मासषण्मासवर्षेषु अभीष्णग्रहणे यथाक्रमं चतुर्गुरु, पटगुरु छेदश्च। किमुक्तं भवति? - चतुरो भासान यावदभीक्ष्णग्रहणे चत्वारो गुरुकाः मासाः, षण्मासानभीक्ष्णग्रहणे षण्मासा गुरवः। वर्ष यावदभीक्ष्णग्रहणे छेदः। अत्रोत्सवानुत्सयविशेषरहिततया सामान्य नाभिधानम्। तथा चाऽऽहएसो उ होति ओहे, एत्तो पयविभागतो पुणो वुच्छं। चउत्थमासे चरिमे, ऊसक्वजं जइ कयाइ।।२१३।। गेण्हइ लहुओ लहुया, गुरुया इत्तो अभिक्खगहणम्मिा चउरो लहुया गुरुया, छग्गुरुया ऊसवविवज्जा / / 214 / / एषोऽनन्तरोक्तः प्रायश्चित्तविशेषः। आधेन सामान्येन भवति द्रष्टव्यः। अल ऊर्ध्वं पुनर्विभागतः पदविभागेन प्रायश्चित्तं वक्ष्ये / यथाप्रतिज्ञातं करोतिचतुरो मासान् यदि कदाचित् उत्राववर्जमग्रहीत् शय्यातरपिण्ड ततो मारालघु, षण्मासानुल्सववर्जमभिगृहीते चत्वारो लघुकाः, वर्ष यावदुरसववर्ज कदाचिदभिग्रहेण चत्वारो गुरुका इत ऊर्द्धमते / अथ चतुःपद्भऽभीक्षणग्रहणे वक्ष्ये चत्वारो लघुका गुरुकाः षड्गुराका ऊसक्वर्जा यथाक्रम ज्ञातव्याः। कि-मुक्तं भवति?-चतुरो मासानुत्सववर्जशय्यातरपिण्डमभीमगृहीत ततः प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा लशुकाः षण्मासानुत्सववर्जगभी ग्रहणे चत्वारो गुरुकाः / वर्ष यावदुत्सववर्जमभीक्ष्णग्रहणे पङगुरुः / उत्सववर्ज गतम्। इदानीमुत्सवे प्रतिपादयतिचउरो लाया गुरुगा, छम्मासा ऊसवम्मि उकयाई। एवं अभिक्खगहणे, छग्गुरु चउ छग्गुरु च्छेदो॥२१५|| चतुरोमासान यदि कदाचित्रावे गृहीतवान् ततश्चत्वारो मासा लघवः, पण्मासान कदाविदुत्सवे ग्रहो चत्वारो गुरुकाः वर्ष यावत्कदाचिद् गृह्णतः षण्मासा गुरवः। एतत्पुनर्वक्ष्यमाणमभीक्ष्णग्रहणे षड्गुरु इत्यादि। चतुरोमासानुत्सवेष्वभीक्ष्णग्रहाणे षण्मासा गुरवः। षण्मासानुत्सवे ष Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासत्थ 110 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासत्थ एमभीक्षणग्रहणे चतुर्गुरुकश्छदः, वर्ष यावदभीक्ष्णमुत्सवेषु ग्रहणे षड्गुरुकं छदः। अथ कस्मादुत्सवेषु कदाचिदभीक्ष्णं वा गहणे अधिकतरप्रायश्चित्तदानमत आहऊसववजेन गेण्हइ, निब्बंधा ऊसवम्मि गेण्हंति। अज्झोयरगादीया,इति अहिगा ऊसवे सोही॥२१६।। एष साधुरुत्सववर्जे उत्सवरहिते शेषे काले भिक्षां न गृह्णाति, उत्सवे पुनर्विपुलं भक्तपानं प्रासुकमुपलभ्य कथमपि निर्बन्धात् गाढाऽऽदरकरणात् गृह्णाति, ततोऽस्मै पर्याप्त दाव्यमिति किंचित् न अध्यवपूरकाऽऽदयो दोषाः संभवन्ति। आदिशब्दात् मिश्रकाऽऽदिदोषपरिग्रहः। इति अस्माद्धेतोरुत्सर्व अधिका बहुतरा शोधिः प्रायश्चित्तमिति / एवं उवट्ठियस्स य, पडितप्पिय साहुणो पदं हसति। चोएइ रागदोसे, दिटुंतो पण्णगतिलेहिं // 217 / / एवमुपदर्शितन प्रकारेण शय्यातरपिण्डाऽऽदि प्रतिसेव्य पुनरकरणतयोपस्थितस्य ग्लानाऽऽदिप्रयोजनेषु प्रतपिता भक्तपानप्रदानाऽऽदिना सोपष्टम्भीकृताः साधवो येन स प्रतप्पितसाधुस्तस्यपदं प्रतिसेवालक्षणं हसति / एवमेव मुच्यते / अयमत्र संप्रदायः-यदि पञ्चरात्रिंदिव दशरात्रिन्दिवं यावद्भिन्नमास इत्यापन्नो भवति, ततः स एवमेव मुच्यते, तस्य साधुप्रतर्पणनैव शुद्धिभावात् / अथ मासाऽऽदिकभापमस्तॉन्तिमं पदं हसति / तद्यथा-यदि द्वौ मासावापन्नस्तत एको मासो मुच्यते, एको दीयते / अथ त्रीन्मासान् तर्हि एको मासो मुच्यते द्वौ मासौ दीयते इत्यादि। अत्र एके रागद्वेषी चोदयन्ति- यथा यूयं रागद्वेषवन्तः। तथाहि- येन साधूनां प्रतिपितं तस्य पदमनुरागतो हासपथ, येन पुनर्न प्रतितप्पितं तस्य द्वेषतः सकलमपि प्रायश्चित्त परिपूर्ण प्रयच्छयासूरिराह-(दिट्टतो पण्णगतिलेहिं) न वयं रागद्वेषवन्तः। तथा चात्र दृष्टान्त उपमा / पन्नकतिलैः। तथाहि-पन्नकतिला नाम दुर्गन्धितिलाः ते स्थानद्वयेऽपि स्थापिताः। तत्रैके निम्बपुष्पैर्वासिता, अपरे स्वाभाविका एव स्थिताः। तत्र ये निम्बपुष्पैर्वासितास्तेषां दुरभिगन्धो बहुविधेनोपक्रमेणापनेतुं शक्यते, इतरेषां स्तोकेन / एवमिहापि ये स्वरूपतः पार्श्वस्थाः, अपरं च साधुसामाचारीप्रद्वेषतो ग्लानाऽऽदिप्रयोजनेषु साधूनामप्रतीषिणोऽवर्णमाषिणश्च ते महता प्रायश्चितन शुद्धिभासादयन्ति। ये तु पार्श्वस्था अपि कर्मलघुतया साधुसामाचारानुरागतः साधून ग्लानाऽऽदिप्रयोजनेषु प्रतर्पयन्ति श्लाघाकारिणश्व, ते रतोकापरावेन एवमेष शुद्ध्यन्ति / महापराधिनोऽन्तिमपदहासतः स्तोकेन प्रायश्चित्तेनेति / पन्नकतिलाश्वोपलक्षणं, तेन सर्वाश्वसर्वाशिरोगाभ्यां धौताधौतशारदघटाभ्यां पन्नकतिलेन चोपमा द्रष्टव्या। तथा सर्वमश्नातोत्यवंशीलः सर्वाशी बहुभक्षका, असर्वाशी अल्पभोजी; तत्र सर्वाशी रोगी कर्कशया क्रियया शुद्धिमासादयति, चसर्वाशी स्तोकया क्रियया। यथा वा द्वौ पटौ शारदौ, तत्रैको वाते वाति प्रतिदिवसं तेन वातेन धून्वते, अपरो न, एवं तयोर्द्वयोरपि कालक्रमेण मलिनीभूतयोः विधूतपटः यत्रीकेदोषक्रमेण शुद्धिमासादयत्वधिवूतपटो बहुनोपक्रमेण / एवं यः पार्श्वस्थः साधूनामवर्णभाषी स महता प्रायश्चित्तेन शुद्धिं लभते इति तस्मै परिपूर्ण प्रायश्चित्तं दीयते,इतरस्य तु साधूनां प्रतर्पणन वर्णभाषणेन च शुद्धिः संभवत्येतदर्थ-हास इति। साम्प्रतमेतदेव विवरीषुः परः प्रश्नं भावयतिजो तुब्भं पडितप्पइ, तस्सेगं ठाणगं तु हासेह / वड्ढे ह अपडितप्पे, इइ रागहोसिया तुम्भे // 218 / / यो युष्माक प्रतितप्पयति उपकारं करोति तस्य एकं स्थानकमन्तिमलक्षणं प्रागुक्तस्वरूपं हासयथ, यः पुनर्न प्रतितर्पयति तस्मिन्नप्रतितर्पित तदेकस्थानकमन्तिमलक्षणं वर्द्धयथ, परिपूर्ण तस्मै प्रायश्चित्तं दत्थ इत्यर्थः / इत्येवममुना प्रकारेण यूयं रागद्वेषिका रागद्वेषवन्तः। ___ संप्रति यदुक्तम् "पन्नकतिलैर्दृष्टान्तः' इति तद्भावयतिइहरह वि ताव चोयग!, कंडुयं तेल्लं तु पन्नगतिलाणं / किं पुण निंबतिलेहिं, भाविययाणं भवे खज्जं / / 216 / / इतरथाऽपि निम्बकुसुमाऽऽदिवासनामन्तरेणाऽपि तावत् हे चोदक! पन्नकतिलाना तैलं कटुकमेव, तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, न खाद्य भवतीति भावः। किं पुनस्तेषां पन्नकतिलाना स्वतिलैः, तिलानि इव सूक्ष्मत्वात् तिलानि कुसुमानि, स्वस्य तिलानि स्वतिलास्तैर्निम्बकुसुमै रित्यर्थः / भाविताना वासितानां तैलं खाद्यं भवेत्? नैव भवेदित्यर्थः / एष दृष्टान्तः। अयमर्थापनयःएवं सो पासत्थो, अवण्णवादी पुणो य साहूणं। तस्स य महती सोही, बहुदोसो सोत्थओ चेव / / 220 / / एवं शोधिकृतःसाधुरेकं तावत्पार्श्वस्थसमाचारकारी पुनः साधूनामवर्णवादी, साधुसमाचारप्रद्वेषात् / ततस्तस्य तथारूपस्य महती शुद्धिः प्रायश्चित्त, यतः सोऽत्र प्रायश्चित्तदानविधौ परिचिन्त्यमानो बहुदोश एव भवति वर्तते / तदेवप्रशस्ततिलैरुपनयः कृतः। संप्रति प्रशस्ततिलैस्तमभिधित्सुराहजह पुण ते चेव तिला, उसिणोदगधोयखारउव्वक्का। तेसिं जं तेल्लं तं, घयमाडं पी विसेसेइ / / 221 / / यथा पुनस्त एव पन्नकतिला उष्णोदकेन पूर्व धौतास्तदनन्तरं क्षीरेण दुग्धेन (उचक्का) क्षीरमध्ये प्रक्षिप्य कियत्काल धृत्वा ततो निष्काशिताः, तेषा यत्तैलं तद घृतमाडमपि विशेषयति, ततोऽप्यधिकतरं भवतीति भावः। एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःकारणे संविग्गाणं, आहारादीहिँ तप्पितो जो उ। नीयावताणुतप्पी, तप्पक्खिय वण्णवादी य।।२२२॥ यः कारणेष्वशिवावमौदर्याऽऽदिषु संविनानां सुसंवतानामाहाराऽऽदिभक्तपानौषधाऽऽदिभिस्तर्पितः प्रतर्पणं कृतवान्, तथा यः संविनानां नीचैर्वृत्तिर्वर्तन यस्य स तथा / किमुक्त भवति? स तान्वन्दते, न पुनर्वन्दापयति / तथा अकल्प किमपि प्रतिसेव्य अनुपश्चात् हा दुष्ट कारितमित्यादिरूपेण तपतिसन्तापमनुभवतीत्येवंशीलोऽनुतापी।तथा तेषांसंविनानां Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासत्थ 911 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासत्थ पक्षस्तत्यक्षस्तत्रभवस्तत्पाक्षिकः,संविनपाक्षिक इत्यर्थः / तथा वर्णवादी लाघाकारी सुविहितानाम्। ततः किमित्याहपावस्स उवचियस्स वि, पडिसाडण मो करेति सो एवं / सव्वासिरोगिउवमा, सरए य पडे अविधुयम्मि / / 223 / / एवमनुना प्रकारेण संविग्नतर्पणाऽऽदिनाऽद्यापि पार्श्वस्थेन सता उपचय नीतं, तथाऽपि तस्योपचितस्यापि पापस्य परिशाटनभावं करोति / मो इति पादपूरणे, तेन तस्यैकपदस्य हासः। उक्ता पन्नतिलकदृष्टान्तभावना। एपमार्णवादिनः पार्श्वस्थस्य परिपूर्णप्रायश्चित्तदाने सर्वाशिरोगिण उपमा, या च शारदिके पटे वातविधूते सा च दृष्टान्तभावना भायितव्या। . संप्रति तामेव दृष्टान्तभावनामाहपुन्नो यऽथ ते किमिणो य, अणुवायं वहितो य उल्लो या केण वि सेवायपुत्तेणं, बुभुलइयं उलइयं सुणा ण *224 तदेवमितरः पार्श्वस्थः साधूनामप्रतर्पयिता, नच पापं कृत्वा तुतपति, यदपि च पापं कुरुते तदपि निर्दयः सन्, साधूनां वाऽवर्णभाषी, ततः सोऽन्यथा न शुध्यतीति तस्मै परिपूर्ण प्रायश्चित्तं दीयते, द्वितीयस्तु साधुप्रतर्पणाऽऽदिना बहु पापं क्षपितवान्, न च निर्दयः रान्नकरोत्पापमिति तस्य पदहासः। तदेव भावयतिथोवं भिन्नमासादिगाउ राइंदियाइँ जा पंच। सेसे उ पयं हसती, परितप्पिएँ एयरे सयलं / / 225 / / यदि नाम स्तोकं भिन्नभासाऽऽदिकादारभ्य यावत्पश्चरात्रिदिवानि एतानि समुदितान्येकतरं वा प्रायश्चित्तमापनस्तदा स एवमेवमुच्यते, तस्य साधुप्रतर्पणाऽऽदिना शुद्धीभूतत्वात् / यदि पुनर्भिन्न-मासस्योपरि प्रायश्चित्तमापन्नस्ततस्तस्मिन् शेषे तु प्रायश्चित्ते समापतिते सति पदमन्तिम प्रतपिते साधौ हसति, तस्य चान्तिमपदहासस्य भावना प्रागेव कृता, इतरस्मिन्साधूनामप्रतपिण्यवर्णवादिनि च सकलं परिपूर्ण प्रायश्चित्तं, तस्यानन्यथा शुद्ध्यभावात्। ततो न वयं रागद्वेषवन्तः / संप्रति पार्श्वस्थान् व्याख्यानयतिदुविहो खलु पासत्थो, देसे सव्वे य होइ नायव्वो। सव्वे तिन्नि विकप्पा, देसे सेजायरकुलादी॥२२६।। द्विविधो द्विप्रकारः खलु निश्चित पार्श्वस्थः। तद्यथा-देशे देशतः, सर्वस्मिन् सर्वतः पार्श्वस्थः। शब्दसंस्कारमाश्रित्यत्रयो विकल्पाः त्रयः प्रकाराः। तद्यथा-पार्श्वस्थः, प्रास्वस्थः,पाशस्थश्च / एते स्वयमेवाने वक्ष्यन्ते। देशे देशतः पार्श्वस्थः शय्यातरकुलाऽऽदिप्रतिसेवमानः। "तिणि विगप्पा" (226) इत्युक्तं तत्र प्रथमं प्रकारमाहदंसणनाणचरित्ते, तवे य अत्ताहितो पवयणे य। तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि।।२२७।। दर्शनं सम्यक्त्वं ज्ञानमाभिनिनोधिकाऽऽदि, चारित्रमाश्रवनिरोधः। एतेषां समाहारो द्वन्द्वः। तस्मिन्, तथा तपसि बाह्याऽऽभ्यन्तररूपे * इयं गाथा अलग्ना, असंगता, टीकातो भिन्नार्थिका चास्ति। द्वादशप्रकारे, प्रवचने च द्वादशाङ्गलक्षणे यस्याऽऽत्मा हतोपयुक्तो, न सम्यग्योगवानित्यर्थः / यदि वा-अभिहितस्तेषां, विराधकत्वात्, किंतु तेषा ज्ञानाऽऽदीनां पार्वे तटे विहरतीत्येवं शीलो विहारी, न तेषु झानाऽऽदिष्वन्तर्गत इत्यर्थः / रा पार्श्वस्थ इति जानीहि। ज्ञानाऽऽदीनां पार्श्वे तिष्ठतीति व्युत्पत्तेः / इह यद्यपि यो दुष्करमाश्रयनिरोध करोति स परमार्थतस्तपायुक्त एवेति वचनतश्चारित्रग्रहणेन तपोज्ञानग्रहणेन च प्रवचनं गतं तथापि तयोरुपादान मोक्ष प्रति प्राधान्य गतो व्याख्यानार्थ, भवति चतपो मोक्ष प्रति प्रधानमङ्ग, पूर्वसंचित कर्मक्षपणत्वात्प्रवचनं च विधेयोपदेशदायित्वादिति। उक्त एकः / प्रकारः। संप्रति द्वितीय प्रकारमाहदसणनाणचरित्ते, सत्थो अत्थति तहिं न उज्जमति। एएणं पासत्थो, एसो अन्नो वि पज्जाओ।।२२।। ज्ञानदर्शनचारित्रे यथोक्तरूपे यः स्वस्थोऽवतिष्ठते, न पुनस्तत्र ज्ञानाऽऽदौ यथा उद्यच्छति उद्यमं करोति,एतेन कारणेनैष पार्श्वस्थ उच्यते। प्रकर्षणसमन्तात् ज्ञानाऽऽदिषु निरुद्यमतया स्वस्थः प्रास्वस्थ इति व्युत्पत्तेरेष खल्वन्यो द्वितीयोऽपि पर्यायः अपिशब्दः खल्वर्थे भिन्नक्रमश, स च यथास्थानं योजितः। उक्तो द्वितीयः प्रकारः। संप्रति तृतीयं प्रकारमाहपासो ति बंधणं ति य, एगटुंबंधहेयओ पासा। पासत्थिओं पासत्थो, अण्णो वि य एस पज्जाओ।।२२६।। पाश इति वा बन्धनमिति वा एकार्थम् / इह ये मिथ्यात्वाऽऽदयो बन्धहेतवरते पाशास्तेषु स्थितः पाशस्थः, पाशेषु तिष्ठतीति पाशस्थ इति व्युत्पत्तेः / एषोऽन्यः खलु तृतीयः पर्यायः / उक्तास्त्रयोऽपि प्रकारास्तगणनाच गणितः सर्वतः पार्श्वस्थः। इदानीं देशतः पार्श्वस्थं व्याचिख्यासुना यदुक्तम् - "सेजा यरकुलादी'' इति, तद् व्याख्यानयतिसेज्जायरकुल निस्सिय, ठवणकुल पलोयणा अमिहडे या पुट्विं पच्छा संथव, निइअग्गपिंडभोइ पासत्थो।।२३०|| यः शय्यातरपिण्ड भुक्ते, यानि च तस्य निश्रितान्याश्रितानि कुलानि तानि सततमुपजीवति / किमुक्तं भवति? यानि कुलानि प्रपन्नानि, तानि थेषु गामेषु नगरेषु वा वर नन्ति, तेषु गत्वा तेभ्य आहाराऽऽदिकमुत्पादयति। (ठवण ति) स्थापनाकुलानि निर्विशति / अथवा-यानि लोके गर्हितानि कुलानि स्थापितान्युच्यन्ते, तेषामपरिभोग्यतया जिनः स्थापितत्वात, तेभ्यः आहाराऽऽदिकभुत्पादयति / (पलोय त्ति) संखड्याः सततमाहारलौल्यतः प्रलोकना येन क्रियते, शरीरस्य वा शुभवर्णाऽऽदिनिरीक्षणार्थ प्रलोकना, तथा अभ्याहृतानि आचीर्णानाचीर्णाश्चाऽऽहारान् यो गृह्णाति, यश्च पूर्वसंस्तुतान् मातापित्रादीन् पश्चादसंस्तुतान वा करोति। तथा नित्यपिण्डमग्रपिण्डं च यो भुड्क्ते स देशतः पार्श्वस्थः। (नित्यपिण्डव्याख्या णितियपिंड' शब्दे चतुर्थभागे 2067 पृष्ठे गता)(अग्रपिण्डव्याख्या अग्गपिंड' शब्दे प्रथमभागे 165 पृष्ठे गता) ('अभिहड' शब्द प्र० भागे 731 पृष्ट विस्तरः) साम्प्रतमभ्याहृतपिण्ड नियतपिण्ड च व्याख्यानयतिआइण्णमणाइण्णं,निसीहऽभिहडं च नोनिसीहं च / Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासत्थ 112 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पासवणभूमि साभावियं च निययं, णिकायणनिमंतणे लहुओ॥२३१॥ जे भिक्खू पासत्थं पसंसति, पसंसंतं वा साइजह।१। अभ्याहृतं द्विविधम्-आचीर्णमनाचीर्णं च / तथाऽऽचीर्णमुपयोगसंभवे सुलखंते माणुस्सं जम्म, जसाहूण वट्टसि.एवमादि पसंसाविधीएवंदणं गृहत्रयमध्ये, ततः परमनाचीर्णम्, उपयोगासंभवात् / अनाचीर्णमपि | उच्छोभणवंदणं वा / एस सुत्तत्थो। नि० चू०१३उ०। आव०। आचा०ा द्विधा-निशीथाभ्याहृतं, नोनिशीथाभ्याहृतं च। तत्र यत्साधोरविदित- आ००। सूत्र०ा पार्श्वस्थं तु यत्र स्थाने यद् भणितं प्रायश्चित्तं तस्मिन् मभ्याहृतं तन्निशीथाभ्याहृतम्, इतरत्साधोर्विदितमानीतं नोनिशीथा स्थाने यथाच्छन्द विवर्द्धतां विशेषेण वर्द्धितं जानीहि, तब तथैवाभ्याहृतम्। एतानि कारणे निष्कारणेवा यथा-कथञ्चिदभिगृह्णानो देशतः नन्तरमुपदर्शितम् / कस्मादिह वर्द्धितं जानीहि इति चेत् ? उच्यतेपार्श्वस्थः। तत् त्रिविधम् / तद्यथा-स्वाभाविकं निकाचितम्, अनि प्रतिसेवनात्, प्ररूपणाया बहुदोषत्वात् / इह पार्श्वस्थत्वं त्रयाणामपि काचितं, निमन्त्रितं च। तत्र यन्न संयतार्थमेव किन्तु य एव श्रमणोऽन्यो वा संभवति / तद्यथा-भिक्षोर्गणावच्छेदिन आचार्यस्य च, यथाच्छन्दत्वं प्रथममागच्छति तस्मै यदग्रपिण्डादि दीयते तत्स्वाभाविकं यत्पुन पुनर्भिक्षोरेव ततः पार्श्वस्थविषयं सूत्रं त्रिसूत्राऽऽत्मकं, यथाच्छन्दविषयं भूतिकर्माऽऽदिकरणतश्चतुर्मासाऽऽदिकरणतश्चतुर्मासाऽऽदिकं कालं यावत् त्वेकस्वरूपमिति। व्य० १उला तथा देश पार्श्वस्थो वन्द्यः वस्तीति, अत्र प्रतिदिवसं निकाचितं निबद्धीकृतं गृह्यते तन्निकाचितम् / यत्तु दायकेन पूर्वोक्ताक्षरानुसारेणाऽऽचार्याऽऽदिः प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानो द्वादशाss-- निमन्त्रणापुरस्सरं प्रतिदिवसं नियतं दीयते तन्निमन्त्रितम् / एतान्यपि वर्त्तवन्दनं पार्श्वस्थाऽऽदेः करोति / कारणान्तरे सर्वपार्श्वस्थाऽऽदेरपि गृह्णानो देशतः पार्श्वस्थः स्वाभाविकनियते निकाचने निमन्त्रणे च सर्वत्र वृद्धवन्दनाऽऽदि करोतीति आवश्यकनिर्युक्त्यादौ कथितमस्ति / ही० प्रायश्चित्तं मासलघु। ३प्रका०। पार्श्वस्थाऽऽदीनामशनाऽऽदिदाने तेभ्योऽशनाऽऽदिग्रहणे चतुर्लघु। ध०३अधि। अथ पार्श्वस्थो भूत्वा पुनः कथं संविग्नविहारमुपपद्यते, पासत्थविहारि (ण) पुं०(पार्श्वस्थविहारिन्) पार्श्वस्थानां यो विहारो येनोच्यते "से य इच्छज्जा दोच्चंतमेव ठाणं उवसंप बहूनि दिनानि यावत्तथा वर्तनम् स पार्श्वस्थविहारः, सोऽस्यास्तीति जित्ता णं विहरित्तए'' इत्यादि। तत आह पार्श्वस्थविहारी।ज्ञा०१श्रु०५अ०॥ अकालंपार्श्वस्थसमाचारे, भ०१श० संविग्गजणो जड्डो,वजह सुहितो सारणाऐं वइओ उ। ४उ०। वचइ संभरमाणो, तं चेव गणं पुणो एति // 232 / / पासपिट्ठतरोरुपरिणय त्रि०(पार्श्वपृष्ठान्तरोरुपरिणत) पार्श्वे च पृष्ठान्तरे इह संविनो जनो जड्ड इव हस्तीव वेदतव्यः। तथाहि-यथा स हस्ती च तद्विभागौ ऊरुच परिणतौ निष्पत्तिप्रकर्षा वस्थां गतौ यस्य स तथा। वनादानीतो घृतगुडाऽऽदिभिः पुष्टिं नीतः, स्मृत्वा वनं जगाम, तच उत्तमसंहनने, उत्त० 40 वनमनावृष्टिभावतोऽचारीभूतं, ततस्तत्र दुःखमनुभवन् घृतगुडाऽऽदिकं पासपुट्ठ त्रि०(पार्श्वस्पृष्ठा छुप्तमात्रे, स्था०१०ठा०) स्मरति, स्मृत्वा च भूयो नगरमायाति। एवं सोऽप्यधिकृतः संविनो जनः पासमग्ग पुं०(पाशमार्ग) पाशप्रधानो मार्गः पाशमार्गः / पाश-कूटकवासंविग्नानां मध्ये भगवत्प्रसादत उत्कृष्टराहारैः पोषमुपागतस्ततः सुखितः गुराऽन्विते मार्गे, सूत्र०१श्रु०११अ०। सन् स्मारणामसहमानस्तया त्याजितः पार्श्वस्थविहारमुपपद्यते, तत्रच पासमग्गण न०(पाशमार्गण) गुप्तिगतनरसमीपायाचने, प्रश्न० ३आश्र० स्थितः पार्श्वस्थ इति कृत्वा श्राद्धाऽऽदिभिर्नाऽऽद्रियते, केवलं लोकत | द्वार। आक्रोशमवाप्नोति, यथाऽयं धिक् शिथिलो यात इति, ततः संविग्नानां पासमाण त्रि०(पश्यत्) अवलोकके, भ० १६श०६उ०"पासमाणो पूजां सत्कारं च संस्मरन् तमेवाऽऽत्मीयं गणं पुनरेति समागच्छति, चिंतेइ।" आ०म०१अगदर्शनोपयुक्ते, आचा०१श्रु०८अ०१उ०। समागतश्च सन्नालोचनाऽऽद्यर्थमभ्युत्तिष्ठति। पासमूल न०(पार्श्वभूल) पार्श्वसमुत्थरोगे, जी०३प्रति० 4 अधि०| तत इदमाह पासलिय त्रि०(पार्श्विक) पार्श्वशायिनि,प्रव०६७ द्वार। पञ्चा० भ०। अत्थि य से सावसेसं, जइ नत्थी मूलमत्थि तवछेया। पासवण न०(प्रश्रवण) प्रकर्षण श्रवणं, श्रवतीति श्रवणम्। एकाकिकायाम्, थोवं जइ आवन्नो, पडितप्पएँ साहुणा सुद्धो॥२३३|| आचा० २श्रु० २चू०३अ०। सूत्रे, आव०४ अ० स०। कल्प०। ज्ञा०। पूर्वमिदं परिभावनीयम्-(से) तस्य आलोचनाऽऽद्यर्थमभ्युद्यतस्य कायिकभूमिस्थाने, नि०चू०१उ० सावशेषं चारित्रमस्ति, चशब्दात् किं वा नास्ति, ततो मूलं दातव्यं, मूलं पासवणणिरोह पुं०(प्रश्रवणनिरोध) मूत्रसंरोधे, स्था० १०ठा०) नाम सर्वपर्यायोच्छेदः। अथाऽस्ति सावशेषं चारित्रं, ततस्तस्मै तपो वा | पासवणपडिक्कमण न०(प्रश्रवणप्रतिक्रमण) मूत्रोत्सगं विधायेर्यापथिदीयता,छेदो वा, तत्र यदि स्तोकमापन्नो भवति। स्तोकं नाम रात्रिंदि- काप्रतिक्रमणे, स्था०। "उच्चारं पासवर्ण भूमीए वोसिरित्तु उवउत्तो वपञ्चका दारभ्य भिन्नमासं यावत्साधूनां च स प्रतितर्पितः, ततः स ओसिरिऊणं इरियावहियं पडिक्कमइवोसिइइ मत्तगे जइन पडिक्कमईय साधुप्रतितर्पणादेव शुद्ध इति प्रसादेन मुच्यते।मासाऽऽद्यापत्तौ त्वन्ति- मत्तगंजो उसाहू परिहवेइ नियमेण पडिक्कमे सोउत्ति।" स्था०६ठा०। मषादहास इति। गतं पार्श्वस्थसूत्रम्। व्य० १उ०। पासवणभूमि स्त्री०(प्रश्रवणभूमि) मूत्रस्थण्डिले, ताश्च द्वादश / आलयपार्श्वस्थं वन्दते प्रशंसति वा परिभोगान्ताः षट्, षड् बहिः आव०५अ०॥ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासाअ 913 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाहिज्ज पासाअ पुं०(प्रासाद) "पासाओ हम्मि।" पाइना० 273 गाथा। पासाला स्त्री०(देशी) भल्ल्याम, दे०ना०६वर्ग 14 गाथा। पासाईय त्रि०(प्रासादीय) प्रसादाय मनःप्रसत्तये हितस्तत्कारित्वात् पासावअ (देशी) गवाक्षे, दे०ना०६वर्ग 4 3 गाथा। प्रासादीयः / मनःप्रसत्तिकारिणि,जी०३ प्रति०४अधि। ज्ञा०। प्रज्ञा० / पासावचिज पुं०(पाश्वपित्यीय) पावपित्यस्य पार्श्वश्वामिशिष्यस्यानं०। मनःप्रसादकारणे, व्य० ६उ०। प्रसादो मनःप्रमोदः प्रयोजनं पत्य शिष्यः पावपित्यीयः / सूत्र० २श्रु०७ अ० पापित्याना यस्येति / औ०। नि०ा आ०म० / द्रष्टणां चित्तप्रसादजनके, भ० ५श० पार्श्वजिनशिष्याणामयं पापित्यीयः। भ०१श०६उपार्श्वनाथशि२०। रा०। विपा०। ज्ञा०। स्था० / प्रासादेषु भवा प्रासादीया / ष्यशिष्ये, स्था०६ठा०। चातुर्यामिकसाधौ, भ०१५श०। "समणरस प्रासादबहुलायां पुरि, स्त्री०। सू०प्र० १पाहु० १पाहु० पाहु। ण भगवओ महावीरस्स अम्मापितरो पासावचिज्जा।'' आचा० 270 'पासाईया।" प्रसादः प्रसन्नता निर्मलजलता विद्यते यस्याः सा ३चू प्रासादिका / प्रासादा वासुदेवकुलसन्निवेशास्ते विद्यन्ते यस्यां समन्ततः पासित्तए अव्य०(द्रष्टम) प्रेक्षितुमित्यर्थे, नि०चू०६उ०। सा प्रासादिका। सूत्र० 270 २अ01 पासित्ता अव्य०(दृष्ट्वा) प्रेक्ष्येत्यर्थे , कल्प० १अधि०६क्षण / अनु०॥ पासाण पुं०(पाषाण) स्फटिकाऽऽदिके पृथ्वीविकारे, नि०चू० उ०। "दससुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा।'' स्था० १०टा०। आचा०। विजातीयरत्नेषु, दश०६अ। पासिय त्रि०(पाशित) पाशोपेत अनर्थापादके, सूत्र०१श्रु०३अ०२उ०) पासाणधाउ पु०(पाषाणधातु) युक्तिविशेषेणध्मायमाने सुवर्णवर्णेन *दृष्ट्वा अव्य० ज्ञात्वेत्यर्थे, आचा० १श्रु०३अ०१ उ०ादशा०। परिणमिते पाषाणे, "जत्थ पासाणे जुत्तिणिजुत्ते वा धममाणे सुवण्णदोयद *पाशिक पुं० पाशेन बन्धनविशेषेण चरतीति पशिकः। पाशेन हननोपसोपासाणधात्।" नि०चू०१३उ०। जीवके, प्रश्नं०२आश्र० द्वार। पासाणिअ (देशी) साक्षिणि, देना० ६वर्ग 41 गाथा। पासियव्व त्रि०(द्रष्टव्य) चक्षुषा निरीक्षणीये, कल्प०३ अधि०॥ पासादीय त्रि०(प्रासादीय) 'पासाईय' शब्दार्थे, जी०३प्रति० 4 अधि। पासी (देशी) चूडायाम्, दे०ना०६वर्ग 37 गाथा। पासाय पुं०(प्रासाद) देवानां राज्ञा च भवने, उत्सेधबहुले गृहे च / भ०५ पासेल्लिय त्रि०(पावत्) पार्श्वशायिनि, दशा०७अ०। श०३ उ० जी०। प्रश्नका अनु०। उत्त०। प्रासादभवनयोः को विशेषः? पाहण्ण न०(प्राधान्य) प्रधानतायाम, स०१०अङ्ग / उच्यते-भवनमायामाक्षेपया किञ्चिन्न्यूनोच्छायमानं भवति, प्रासादस्तु पाहण्णया स्त्री०(प्रधानता) प्रधानस्य भावः प्रधानता। प्रधानभावे, अनु०॥ आयामद्विगुणोच्छ्राय इति / ज्ञा०१श्रु 10 / विपा० ज०। राजगृहे, से किं तं पाहण्णयाए? पाहण्णंयाए अणेगविहे पण्णत्ते। तं ज्ञा०१श्रु०५अ०। राजमन्दिरे, उत्त० 160 जहा-असोगवणे सत्तवणवणे चंपगवणे चूअवणे नागबणे चक्रवादीनां प्रासादप्रमाणम्। ऊर्द्धतः परिमाणमाह पुन्नागवणे उच्छुवणे दक्खवणे सालिवणे से तं पाहण्णयाए / अट्ठसयं चक्कीणं, चउसट्ठी चेव वासुदेवाणं। (से किंतं पाहण्णयाए इत्यादि) प्रधानस्य भावः प्रधानता, तया किमपि वत्तीसं मंडलिए, सोलस हत्था उपागतिए॥४६|| नाम भवति, यथा बहुष्वशोकवृक्षेषु स्तोकेष्वाम्राऽऽदिपादपेष्वअष्टाधिकं शतं सहस्रानामूर्द्धतश्चक्रवर्तिनां प्रासादो भवति, चतुः शोकप्रधानं वनमशोकवनमिति नाम। सप्तपर्णाः-सप्तच्छदाः, तत्प्रधान षष्टिवासुदेवाना, द्वात्रिंशत् माण्डलिकस्य, षोडश हस्ताः प्राकृतिके वनं सप्तपर्णवनम्, इत्यादि सुगमम्, नवरमत्राप्याह-ननु गुणनिष्पन्नादिदं प्राकृतजनसंबन्धिनि प्रासादः।। न भिद्यते, नैवम्, तत्र क्षमाऽऽदिगुणेन क्षमणाऽऽदिशब्दवाच्यार्थस्य भवणुजाणादीणं, एसुस्सेहो उ वत्थुविजाए। सामस्त्येन व्याप्तत्वादत्र त्वशोकाऽऽदिभिरशोकवनाऽऽदिशब्दवाच्यानां भणितो सिप्पिनिहिम्मि उ, चक्कीमादीण सव्वेसिं // 47|| बनाना सामस्त्येन व्याप्तेरभावादिति भेदः।।५।। अनु०॥ शिल्पिनिधौ वास्तुविद्यायां सर्वेषामपि चक्रवादीनां भवनोद्याना- | पाहाणपुं०(पाषाण) "दश-पाषाणे हः" ||8/2 / 262 / / इति षकारस्य ऽऽदीनामेष उत्सेधो भणितः। व्य०६उ० हः। पाहाणे / पासाणे। प्रस्तरे, प्रा० १पाद। पासायवडिंसग पुं०(प्रासादावतंसक) प्रासादानामवतंसक इव शेखरक | पाहाणजल न०(पाषाणजल) पाषाणानामुपरि वहति जले, ओघ०। इव प्रासादावतंसकः / प्रासादविशेषे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। आ०म० / पाहिज न०(पाथेय) पथि भक्ताऽऽदिभृतौ, "पाहिज्जणाणत्तं बाहिमुभयस०। रा०ा प्रासादोऽवतंसकः। भ०२श० उ०। प्रासादश्चावतंसकश्च पएसचेव, गामा पच्छाकडाइएसुं।" वृ० 1302 प्रक०। 'पयत्थणं संबलं प्रासादावतंसकः। प्रधानप्रासादे, ज्ञा०१ श्रु०११अ०। च पाहिज / '' पाइ०ना० 155 गाथा। Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहुड 914 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाहुडिया पाहुड न०(प्राभृत) प्रकर्षे ण समन्ताद् भियते प्राप्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तिः। "कृबहुलम्" ||5 / 1 / 2 / / इति वचनात् करणे क्तप्रत्ययः। "उदृत्वादौ" ||8/1:131 // इति ऋत उत्। भस्य हः। प्रा०९० १पाद। ''पाहुडं उवायणं / '' पाइ० ना० 236 गाथा / पूर्वान्तर्गते श्रुतविशेषे, विशे० स०। अथ प्राभृतमिति कः शब्दार्थः? उच्यते-इह प्राभृतं नाम लोके प्रसिद्ध यदभीष्टाय पुरुषाय देशकालोचितं दुर्लभ वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते ततः प्राभ्रियते प्राप्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तेः "कृद्रहुलम्" / / 5 / 1 / 2 / / इति वचनात् च करणे क्तप्रत्ययः / विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभाः परिणामसुन्दराश्चाभीष्टभ्यो विनयाऽऽदिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येनोपनीयन्ते / चं०प्र०१ पाहु०१ पाहु० पाहु०। सू० प्र०। अनु०। आचा० स०। कलहे,नि०चू० १०उ०। बृ० स्था०। कौशलिकपरमक्रोधे, स्था० ३ठा० ४उ०। प्राभृतिकायाम. प्रश्न०५संव० द्वार। पाहुडच्छेद पुं०(प्राभृतच्छेद) परिमाणपरिच्छिन्नप्राभृतवदर्थच्छेदे, नि०चू०२० उ०व्या पाहुडपाहुड न०(प्राभृतप्राभृत) प्राभृतमिव प्राभृतम्। प्राभृतेषु चान्तर्गत प्राभूतं प्राभूतप्राभृतम। सू०प्र०१पाहु०१पाहु० पाहु०। प्राभृतान्तर्वर्तिनि अधिकारविशेषे, कर्म०१कर्म०। पाहुडपाहुडसमास पुं०(प्रामृतप्राभृतसमास) पूर्वान्तर्वर्तिनामधिकारविशेषाणां प्राभृतप्राभूतानां व्यदिसमुदाये, कर्म० १कर्म०। अनु०। पाहुडसमास पुं०(प्राभृतसमास) पूर्वान्तवर्त्यधिकारविशेषाणां प्राभूतानां द्व्यादिसमुदाये, कर्म० १कर्मा पाहुडसीलया स्त्री०(प्राभृतशीलता) कलहनसम्बन्धतायाम, स्था० ৪ঠা 40 पाहुडिया स्त्री०(प्राभृतिका) कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुभानपुरस्सरीकारेण यदभीष्ट वस्तु दीयते तत्प्राभृतमुच्यते, तदेव प्राभृतिका / प्रव०६७ द्वार। प्राभृतं कौशलिकं तदिवोपचारसाधयात् या भिक्षा सा प्राभृतिका / पञ्चा० १३विव०। प्राभृतमिव प्राभृतं साधुभ्यो देयं भिक्षाऽऽदिकं प्राभूतमेव प्राभूतिका। यद् वाप्र इति प्रकर्षण आ इति साधुदानलक्षणमर्यादया भृता निर्वर्तिता यका भिक्षा सा प्राभूता, सा स्वार्थिककप्रत्ययविधानात्प्राभृतिका। प्रव०६७ द्वार पिं०। कालान्तरभाविनो विवाहाऽऽदेरिदानी सन्निहिताः साधवः सन्ति तेषामप्युपयोगो भवत्विति बुद्ध्या इदानीमेव करणे, सन्निकृष्टस्य विवाहाऽऽदेः कालान्तरे साधुसमागमं संचिन्त्योत्कर्षणे च / ध०३अधि०। उद्गमदोषविशेषे च / आचा०२ श्रु०१चू०२अ०३उ०। स्था०। पं०चू० / पिं०। संप्रति प्राभृतिकाद्वारमभिधित्सुराहपाहुडिया वि हु दुविहा, वायर सुहुमा य होइ नायव्वा / उस्सकणमोसकण, कव्वट्ठीए समोसरणे // 25 // द्विविधा प्राभूतिका / तद्यथा-बादरा, सूक्ष्मा च / एकैकाऽपि द्विधा। / तद्यथा-अवष्यष्कणेन, उत्प्वष्कणेन च / सूत्रे चात्र विभक्तिलोप आर्षत्वात्, तत्रावष्वकणं स्वयोगप्रवृत्तनियतकालावधेराकरणम्, उत्ष्वष्करणं परतः करणम्। तत्र बादरप्राभृतिकाविषयमाह-(कव्वट्ठीए समोसरणे) इह समयपरिभाषया 'कट्वट्ठी' लध्वी दारिका भण्यते / तस्याः सत्कस्य,उपलक्षणमेतत्, पुत्राऽऽदेश्व सत्कस्य विवाहस्य अवष्वष्कणमुत्ष्वष्कणं वा समक्सरणे साधुसमुदायविषये / इयमत्र भावनासाधुसमुदायं यथाविहारक्रममायातं दृष्ट्वा कोऽपि श्रावकः चिन्तयति, यथा-ज्योतिर्विदोषदिष्टे विवाहदिने यदि विवाहःक्रियते, ततोऽवगिव सुविहितजनो विहारक्रमेण गमिष्यति, ततोन किमपि मदीयं विवाहसंभवं मोदकाऽऽदिक तन्दुलधावनाऽऽदि वोपकरिष्यते, तत एवं चिन्तयित्वा अर्वाक् विवाहं करोति। यदि वा-भूयान सुविहितजनो यथाविहारक्रममागच्छन् श्रूयते, विवाहश्च तदागमनादर्वाक्, ततो न किमपि तेषां मदीयमुपकरिष्यतीति, तत एवं विचिन्त्य परतो विवाहं करोति, इदं च विवाहस्यावष्वष्कणमुत्ष्वष्कणं वा कृत्वा यदुपस्क्रियते भक्ताऽऽदि, सा बादरा प्राभृतिका। संप्रत्यपसर्पणरूपां सूक्ष्मप्राभृतिका भाष्यकृत् गाथाद्वये नाऽऽहकत्तामि ताव पेखें, तो ते देहामि पुत्त ! मा रोव। तं जइ सुणेइ साहू,न गच्छए तत्थ आरंभो // 35|| अन्नट्ठ उठ्ठिया वा, तुज्झ वि देमि त्ति किं पि परिहरति / किह दाणि न उट्ठिहिसी, साहुपभावेण लब्भामो // 36 / / काचित्कर्त्तनं कुर्वती भोजनं याचमानं बालकं प्रति वदति-कृणन्मि तावदि पेलुं रूतपूणिका,कृष्णन्मीति 'कृदुपवेष्टने' इत्यस्यरौधादिकस्य प्रयोगः, ततः पश्चात् (ते) तुभ्यं दास्यामीति मा रोदीः, अत्रान्तरे च साधुरागतो यदि शृणोति तर्हि तत्र गृहे न गच्छति, न तत्र भिक्षा गृह्णातीत्यर्थः / मा भूत्साधुनिमित्त आरम्भो बालकभो-जनदानतदनन्तरहस्तधावनाऽऽदिरूपः / सा हि साध्वर्थमुत्थिता सती बालकस्यापि भोजनं ददाति, ततो हस्तधावनाऽऽदिनाऽप्कायाऽऽदिकं च विनाशयति। इह रूतपूणिकाकर्तनसमाप्त्यनन्तरं दातव्यतया बालकाय प्रतिज्ञाते भोजने साधुनिमित्तमर्वागुत्थानेन यदर्वागेव बालस्य भोजनदानं तदवसर्पणम्। अथवा-गृहस्था कर्तनं कुर्वती भोजनं याचमान पुत्र प्रति वदति अन्यार्थमन्येन प्रयोजनेनात्थिता सती तवाऽपितुभ्यमपि किमपि स्वादिमाऽऽदि दास्यामि, अत्रान्तरे च साधुरागत एवं श्रुते परिहरति। अथवा तथाभूतगृहस्थावचनानाकर्णनेऽपि साधौ समागते यालको जननीं वदति-कथमिदानीं नोत्थास्यसि? समागतो ननु साधुस्ततोऽवश्यमुत्थातव्यं त्वया, तथा च सति साधुप्रभावेण वयमपि लप्स्यामहे, तत एवं बालकवचनं श्रुत्वा तया दीयमानं परिहरति, मा भूदवसर्पणरूपसूक्ष्मप्राभृतिकादोषः। संप्रत्युत्सर्पणरूपां सूक्ष्मप्राभृतिकांगाथाद्वयेनाऽऽहमा ताव झंख पुत्तय ! परिवाडीए इहेहि सो साहू। Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहुडिया 915 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पाहुणिज्ज एयस्स उठ्ठिया ते, दाहं सोउं विवजेइ॥२८६।। अहवाअंगुलियाए घेत्तुं, कड्डइ कप्पट्ठओ धरं जत्तो। किं ति कहिए न गच्छइ, पाहुडिया एस सुहुमा उ॥२८७|| इह काचित गृहस्था भोजनं याचमानं पुत्र प्रतिपादयति-हे पुत्रक ! मा तायत् झष वारं वारं जल्प, इह परिपाट्या साधुरागमिष्यति ततस्तस्यार्थमुत्थिता सती ते तुभ्यं दास्यामि, अत्रान्तरे च साधुरागत इदं वचः श्रुत्वा विवर्जयति, मा भूदुत्सर्पणरूपसूक्ष्मप्राभृतिकादोषः, अत्रार्वाक् विवक्षितस्य भोजनदानस्य साधुभिक्षादानेन समं परतः करणमुत्सर्पणम्। अथवा-प्राक्तने जनन्योक्ते बालकेन श्रुते सति स 'कप्पट्टओ' बालकस्तं साधुमगुल्या गृहीत्वा यतो निजगृहं ततः समाकर्षति। ततः साधुस्तं बालकं पृच्छति। यथा कि मामाकर्षसि? ततः स यथावस्थित कथयति, बालकत्वेन ऋजुत्वात्, ततः कथिते तत्र न गच्छति, मा भूदुत्सर्पणरूपसूक्ष्मप्राभृतिकादोषसंपर्कः / एषा सर्वाऽप्यनन्तरोक्ता सूक्ष्मप्राभृतिका संप्रति "कव्वट्ठीए समोसरणे" इत्यवयवं व्याचिख्यासुः प्रथमतोऽवष्वकणरूपा बादरप्राभृतिकामाहपुत्तस्स विवाहदिणं, ओसरणे अइच्छिए मुणिय सड्ढी। ओसकंतो सरणे, संखडिपाहेणगदवट्ठा // 28 // पुत्रस्य, उपलक्षणमेतत्, पुत्रिकाऽऽदेश्च, विवाहदिन ज्योति विदा अवसरणे साधुसमुदाये यथाविहारक्रममतिक्रान्तेऽन्यत्र गते सत्युपदिश्यमानं श्रुत्वा श्राद्धी विवाहमवष्वष्कते, अर्वाक् दिनं दृष्ट्वा विवाह करोति। किमर्थम्?, इत्याह-समवसरणे, षष्ठीसप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदात् समवसरणस्य साधुसमुदायस्य विवाहरूपाया संखड्यां प्रेहणकं मोदकाऽऽदि द्रवंतन्दुलधावनाऽऽदि तदर्थ -तद्दानार्थम्, भावना च प्रथमगाथायामेव कृता। उत्सर्पणरूपा बादरप्राभृतिकामाहअप्पत्तम्मि य ठबियं, ओसरणे होहिइत्ति उस्सकणं / स्थापितं विवाहदिनं किलाप्राप्ते यथाविहारक्रममनोगते 'अवसरणे' साधुसमुदायरूपे भविष्यति, ततो न किमपि मदीयं विवाहसत्क साधूनामुपकरिष्यतीतिकृत्वा विवाहस्योत्सर्पणं करोति, साधुसमागमकाल एव करोतीत्यर्थः / उक्ता बादरा प्राभृतिका। संप्रति द्विविधाया अवसर्पणोत्सर्पणरूपायाः कतरि प्रतिपादयतितं पागडमियरं वा, करेइ उज्जू अणुज्जू वा / / 286 / / तामवष्वत्कणोत्ष्वकणरूपा द्विधामापि ऋजुः प्रकट करोति सकल जननिवेदनेन करोति / अनृजुरितरत्-प्रच्छन्नम्, यथा न कोऽपि जानातीति भावः। तत्र यदि प्रकटं करोति तर्हि तां जनपरंपरात एव ज्ञात्वा परिहरन्ति / अथाप्रकट तर्हि निपुणं शोधयित्वा वर्जयन्ति, निपुणशोधनेऽपि यदि कथमपि न परिज्ञानं भवति तद्दा न कश्चिद्दोषः, परिणामस्य शुद्धत्वात्। अथ किमर्थ बादरमष्वष्कणाऽऽदिकं करोति,तत आह मंगलहेउं पुन्न-ट्ठया व ओसक्कियं दुहा पगयं / उस्सकिय पि किं ति य, पुढे सिट्टे विवज्जंति // 260|| प्रकृतं विवाहाऽऽदिकं द्विधा-द्वाभ्यां प्राकाराभ्यामवष्वष्कितं भवति / तद्यथा-मङ्गलहेतोवीं वाहे गृहस्य साधुचरणैः स्पर्शनं तेभ्यो दानं च मङ्गलाय इति कृत्वा; यद्वा-पुण्यार्थम्, एवमुत्ष्वष्किकितमपि द्विधा, ततो निपुणपृच्छ किमिदमिति पृष्टे गृहस्थेन च यथावस्थिते कथिते तद् वीवाहसत्कं परिहरन्ति, मा भूत् बादरप्राभृतिकादोषानुषङ्ग इति। ये तु न परिहरन्ति तेषां दोषमाहपाहुडिभत्तं मुंजइ, न पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स। एमेव अडइ बोडो, लुक्कविलुको जह कवोडो॥ यः प्राभृतिकाभक्तं भुक्ते, न च तस्मात् प्राभृतिकापरिभोगरूपात् स्थानात्-प्रतिक्रामति स 'वोडाः मुण्ड एवमेव निष्फलमटति, यथा लुचितविलुञ्चितकपोतः। उक्तं प्राभृतिकाद्वारम्। पिं०। वल्यादिनिमित्तं या ददाति। पिं०। पञ्चा०जी०व्या सूक्ष्मप्राभृतिकायाम् अविकृतिप्रायश्चित्तम् / जीता 'गोयरचरियाण पाहुडियं न पडिपरिया तस्स णं चउत्थं पायछित्तं उवसेइज्जा।" महा०१चून। "मंडीपाहुडियाए बलिपाहुडियाए ठवणापाहुडियाए अणेसणाए जो मे अइयारो कओ।" (मण्डीप्राभृतिकाऽऽदीना यस्या वसतौ स्थितानां कर्म प्राभृतं भवति सा प्राभृतिका / वसतेश्छादनलेपनाऽऽदिकरणे, आव०४अ०। आ०चू०। (व्याख्या स्व-स्वस्थाने) वसतिविषया प्राभृतिका / अथ प्राभृ तिकाद्वारं विभावयिषुराहपाहुडिया वि य दुविहा, बायर सुहुमा य होइ नायव्वा / एकेक्का वि य एत्तो, पंचविहा होइ नायव्वा / / प्राभूतिका वसतेः छादनलेपनाऽऽदिरूपा, सा द्विविधा-यादरा, सूक्ष्मा च भवति ज्ञातव्या,एकैकाऽपि चेतः ऊर्द्ध पञ्चविधा भवति ज्ञातव्या। तत्र बादरां पञ्चविधामपि ताक्दाहविद्धंसण छावण ले-वणे भूमीकम्मे पडुच पाहुडिया। उस्सकण ओसक्कण, देसे सटवे य नायव्वा / / बृ०१उ०२प्रकला पं०१०। (अस्या गाथायाः व्याख्या वसहि' शब्दादवगन्तव्या) सुरविरचितसमवसरणमहाप्रातिहार्यादि (नि० चू०५ उ०) पूजायाम, बृ०४ उ०। प्राभृतिका भिक्षा मण्यते, पूजाऽपि। बृ० १उ०। पाहुण पुं०(प्राघुण) सङ्घस्थविरे, स च सङ्घस्य गौरवार्हतया प्राघुण उच्यते / बृ०३उ०। विक्रेये, देना०६वर्ग 40 गाथा। पाहुणग पुं०(प्राघूर्णक) आगन्तुके भिक्षी, स्था०६ठा। तदर्थे पथ्ये च। ना आ०चू०३ अ००। पाहुणगभत्तन०(प्राघूर्णकभक्त) प्राघूर्णका आगन्तुका भिक्षुका एव तदर्थ यद् भक्त तत्तथा प्राघूर्णको वा गृही स यद्दाप-यति तदर्थ संस्कृत्यततथा, / प्राघूर्णकार्थाऽऽहारे, स्था०६ ठा०। प्राघूर्णकः कोऽपि क्वचिद् गतो यत्प्रतिसिद्धये संस्कृत्य ददाति, प्राघूर्णका वा साध्वादय इहाऽऽयाता इति यद्दापयति तत्प्राघूर्णकभक्तम् / औ०। पाहुणिज्ज त्रि०(प्राहवणीय) प्रकर्षणाऽऽहवनीये, आचा० १श्रु०१० १उ०ा ज्ञान Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहुणिय 616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंगलग पाहुणिय पुं०(प्राधुनिक) षष्ठे महाग्रहे, "दो पाहुणिया।'' स्था० २ठा० / 'पेअवणं पिउवण मसाणं च।' पाइ०ना० 158 गाथा। ३उ०। कल्पका चं०प्र०। सू०प्र० / जंग। पिउव्वेय पुं०(पित्रुवेग) पितृचित्तसन्तापे,हा०२५अष्ट०। पाहुण्ण न०(प्राघूर्ण्य) आगन्तुकसंयतानामतिथेये, बृ० 1 उ० ३प्रक० | पिउसम पुं०(पितृसम) पितृविभूत्याऽनुमाने, स्था० ४ग० 130 / .आमन पिउसिया स्त्री०(पितृष्वरा) "गौणान्त्यस्य" ||8/1 / 134|| इति ऋत पाहेज्ज (देशी) पाथेये, देना०६वर्ग 24 गाथा। उत्वम् / प्रा० १पाद / “मातृ-पितुः स्वसुः सिआ छौ" पिअव्य(पि) सम्भावने, विशे०। "प्यादयः" ।।८।२।२१८||प्यादयो 1/2 / 142 / / इति पितुः परस्य स्वसुः “सिआ' आदेशः / प्रा० २पाद। नियतार्थवृत्तयः प्राकृते प्रयोक्तव्या इति। प्रा०२पाद। जनकभोगन्याम्, विपा० १श्रु०३अ०। पिअण (देशी) दुग्धे, देवना०६वर्ग 48 गाथा। पिउसुक्क न०(पितृशुक्र) जनकस्य शुक्रपुद्रले, नं० / स्था०ा , पिअमा (देशी) फलिन्याम, दे०ना० ६वर्ग 46 गाथा। पिउसेणकण्ह पुं०(पितृसेनकृष्ण) श्रेणिकभार्यायाः पितृसेनकृष्णायाः पिअमाहवी (देशी) कोकिलायाम्, दे०ना० ६वर्ग 51 गाथा। पुत्रे, स च वीरान्तिके प्रवज्य वर्षद्वयपर्यायपरिपालनं कृत्वा प्राणतदेवलोके दशमे उत्पद्य एकोनविंशतिसागरोपमाण्यायुरनुपाल्य ततश्चुतो महाविदेहे पिआ पुं०(पितृ) जनके, "पिआ जणओ।" पाइन्ना०२५२ गाथा। सेत्स्यतीति निरयावलिकानां नवमेऽध्ययने सूचितम्। नि० १श्रु०१वर्ग पिआमह पुं०(पितामह) ब्रह्मणि, "कमलासण य सयंभू, चउम्मुहो य १अब परमिट्टी। थेरो विही विरिची, पयावई कमलजोणीय।।२।।" पाइ०ना० पिउसेणकण्हा स्त्री०(पितृसेनकृष्णा) स्वनामख्यातायां कूणिकमहा२ गाथा। राजक्षुद्रमातरि श्रेणिकभार्यायाम्, नि०१श्रु०१ वर्ग ५अासा चाऽऽर्यपिउअपुं०(पितृक) "उदृत्वादौ" ||8/1:531 / / ऋतुइत्यादिषु शब्देषु चन्दनाया अन्तिके प्रव्रज्य मुक्तावली तपःकर्मोपसंपद्य सिद्धति आदेब्रत उदिति ऋकारस्योकारः। प्रा०१पाद / जनके, उत्त० 110 / अन्तकृद्दशानाम् पञ्चमेऽध्ययने रचितम्। अन्त०१श्रु० ८वर्ग (अ01 स्था०। विपा०। आव०ा जा पिंकार पुं०(अपिकार) अकारलोपोऽनुस्वाराऽऽगमश्च / अपिशब्दे / पिउअंग न०(पैतृकाङ्ग) शुक्रविकारबहुले पितृजाते अङ्गे, "तओ पिउअंगा अनुयोगभेदे, अपिः संभावनानिवृत्त्यपेक्षासमुच्चयगर्हाशिक्षामर्षण - पण्णत्ता। तं जहा-अथिमिजाकेसमंसुरीगतहा।" तं०। भूषणप्रश्श्रेषु, तत्र-"एवं पि एगे आसासे।'' इत्यत्र सूत्रे एवमपि / अन्यथा पिउआ स्त्री०(पितृका) "आन्तान्ताड्डाः" ||14|432 / / अपभ्रंश पीतिप्रकारान्तरसमुच्चयार्थोऽपिशब्दः / स्था० १०ठा०। स्त्रियां वर्तमानादप्रत्ययो भवति इति डा प्रा० ४पाद। पिंखा त्रि०(प्रेखा) "डोला पिंखा।" पाइना० 232 गाथा। पिउकज न०(पितृकार्य) देवतानां पितृणां च जलाञ्जलिदानाऽऽदिके पिंखोलमाण त्रि०(प्रेड्खोलमान) दोलायमाने, ज्ञा० १श्रु० 10 // कृत्ये, नि०१श्रु०१वर्ग 50 पिंग त्रि०(पिङ्ग) पिङ्गले, स्था० ४ठा०२उ०। कपिशे, औ01 "कविलं पिउच्छा स्त्री०(पितृस्वसृ) ६त०। "मातृपितुःस्वसुः सिआ कविसं पिडग,पिसंगयं पिंगयं कडारं च।" पाइ०ना०६३ गाथा। छौ" // 2 // 142 / / इति स्वसुः स्थाने छादेशः। पितृभगिन्याम्, प्रा०२ पिंगंग (देशी) मर्कटे, दे०ना०६वर्ग गाथा। पाद। "फुप्फिआ पिउच्छा।" पाइना० 253 गाथा। पिंगय त्रि०(पिङ्गक) पिङ्गे, पाइ०ना०६३ गाथा। पिउड (देशी) कूरशिक् थाऽऽदौ, आ०म०१०। विशे०। नि०चू० पिंगल त्रि०(पिङ्गल) कपिले, ज्ञा०१ श्रु० 8 अ०। अनु०॥ चत्वारिंशे पिउदत्त पुं०(पितृदत्त) श्रावस्त्यां नगर्या श्रीभद्रायाः श्राविकायाः पत्त्यौ महाग्रहे, कल्प० १अधि०६क्षण ! चत्वारिंशत्तमे महाग्रहे, "दो स्वनामख्याते गृहपतों, आ०म० १अ आ०चू० पिंगला।" स्था० २ठा०३उ०। ज्ञा०। सू०प्र० / तं०। स्था०। चं०प्र० पिउदेवया स्त्री०(पितृदेवता) मघायाम, चं०प्र० 10 पाहु० 20 पाहु० ('अत्तोवणीय' शब्दे प्रथम भागे 506 पृष्ठे उदाहरणम्) कपिलाऽऽदिगुणे पाहुन स्थपतौ, पुं० स्था० ४टा० ३उ०। "पिंगलंगुलिया।'' पिङ्गला पिङ्गा पिउपज्जय पु०(पितृप्रार्जक) पितुःप्रपितामहे, भ०६श०१३३० अगुल्यो येषां ते तथा। प्रश्न०४आश्र0 द्वार। पिउपिंड पुं०(पितृपिण्ड) मृतकभक्ते, आचा०२श्रु०१चू० १अ० २उ० पिंगलक्ख पुं०(पिङ्ग लाक्ष) पिङ्गले पिङ्गे अक्षिणी लोचने यस्य स पिउवइपुं०(पितृपति) "गौणान्त्यस्य" ||8/1134|| इति ऋत उत्। पिङ्गलाक्षः / कपिशलोचने, स्था० ४ठा० २उ०। पक्षविशेषे, जी०३ यमे, प्रा०१पाद। प्रति०४ अधि०। औ०। रा०ा प्रश्न०। पिउवण न०(पितृवन) "गौणान्त्यस्य" ||1|13|| इति ऋत | पिंगलग पुं०(पिङ्गलक) चक्रवर्तिनां निधिभेदे, प्रवण उत्वम् / श्मशाने, आचा०१श्रु० प्र० श्रु०२उ० प्रा०। प्रश्र०। स्था०। सव्वा आहरणविही, पुरिसाणं जा य महिलाणं। Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलग 617 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड आसाण य हत्थीण य, पिंगलगनिहिम्मि सा भणिया 1220 / निकायशब्दो भिक्षुकाऽऽदिसङ्घाते रूढो, समूहशब्दो मनुष्याऽऽदिसर्वोऽप्याभरणविधिर्यः पुरुषाणा, यश्च महिलाना, तथाऽश्वाना हस्तिनां समुदाये, संपिण्डनशब्दः सेवाऽऽदीनां खण्डपाकाऽऽदेश्व परस्पर च सयौचित्येन पिङ्गलनामके महानिधौ भणितः। प्रव० 213 द्वार। सम्यक्संयोगे, पिण्डनाशब्दोऽपि तत्रैव, केवलं मलिनमात्रे संयोगे, आल्चू०। ज०। दर्श०। श्रावस्त्यां नगर्यां स्कन्दकेन कृतसम्बादे समवायशब्दो वणिगादीनां संघाते, समवसरणशब्दः तीर्थकृतः सदेवमनुशालिक शावके निर्मन्थे, भ०२ 10 130)/ खंधग' शब्दे तृतीयभागे जासुराणां पर्षदि, निवयशब्दः शूकराऽऽदिसंधाते, उपचयशब्दः 663 पृष्ठे राम्वाद उक्तः) पूर्वावरथातःप्रचुरीभूत संघातविशेष, चयशब्द इष्टिकारचनाविशेष, पिंगला स्त्री०(पिङ्गला) सागरदत्तसुतायां ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाम, उत्त० युग्मशब्दः पदार्थद्वयसंघाते,राशिशब्दः पूगफलाऽऽदिसमुदाये। तदेवमिह यद्यपि पिण्डाऽऽदयः शब्दाः लोके प्रतिनियत एव संघातविशेष रूढाः, १३अग तथाऽपि सामान्यतो यद्व्युत्पत्तिनिमित्तं संघातत्वमात्रलक्षणं तत्सर्वेषापिंगलायण पुं०(पिङ्गलायन) कौत्समूलगोत्रान्तर्गतगोत्रविशेषप्रवर्तके मप्यविशिष्टमितिकृत्वा सामान्यतः सर्वे पिण्डाऽऽदयः शब्दा एकार्थिका पिङ्ग लापत्ये स्वनामख्याते पुरुषे, स्था०७ठा०। जं०। सू०प्र०। उक्ता, ततो न कश्चिद्घोषः। पिं० आ०चू०।औ०। (विशेषतो निकायपिंगा स्त्री०(पिता) आकाशभ्रमणप्रधानायां कपिञ्जलायाम, सूत्र० शब्दव्याख्या 'णिकाय' शब्दे चतुर्थभागे 2016 पृष्ठेगता) (समूहशब्द१७७०३अ०४301 विषयम् 'समूह' शब्दे वक्ष्यामि) (संपिण्डनतत्त्वं तु 'सपिंडणं' शब्दे एव पिंचू (देशी) पक्वकरीरे, देवना०६वर्ग 46 गाथा। वक्ष्यामि) (पिण्डनाशब्दार्थः 'पिंडणा' शब्दादवगन्तव्यः) (समवायपिंछोली (देशी) मुखमारुताऽऽपूरिततृणवाद्यविशेषे, दे०ना०६वर्ग 47 / विषया सर्वा वक्तव्यता 'समवाय' शब्दादवगन्तव्या) (निचयविषयस्तु गाथा। 'णिचय' शब्दे चतुर्थभागे 2054 पृष्ठे गतः)(उपचयशब्दार्थावलोचनायां पिंजयंती स्त्री०(पिज्जयन्ती) कासात्कासिकविभजनं कुर्वन्त्याम, दण्डकः 'उवचय' शब्दे द्वितीयभागे 881 पृष्ठे गतः) (चयः चय' शब्दे ध०३अधिन तृतीयभागे 1123 पृष्ठे गत एव) (युग्मशब्दार्थविचारः, तत्र भेदाः, पिंजर पु०न०(पिञ्जर) पिजि अरच्। हरिताले, स्वर्णे, नागकेशरे, विहगा- तद्वक्तव्यता च 'जुम्म' शब्दे चतुर्थभागे 1578 पृष्ठादारभ्य द्रष्टव्या) ऽऽदिबन्धनस्थाने,देहास्थिवृन्द, अश्वभेदे, पीतरक्तवणे च / पु०। (राशिम् ‘रासि' शब्दे वक्ष्यामि)। तद्वति,त्रि०। वाच० जी०३ प्रति० ४अधिका पिण्डव्याख्या। अथ भाष्यम्पिंजरअपु०(पिजरक) "स्वार्थे कश्च वा" ||8 / 2 / 164 // इति प्राकृते पिंडं जं संपन्नं, पिंडग्गज्मं च पिंडाविगई वा। स्वार्थिकः कः। पक्षिवन्दीपञ्जरे, पीतवर्णे, मिश्रिते. "कुंकुमपिंजरअं" जं तु सभावा लुतं, तं जाणसु लोयगं नाम / / 183 / / प्रा०२पाद। पिण्डो नाम यदशनाऽऽदिकं संवन्नं विशिष्टाऽऽहारगुणयुक्त षट् - पिंजरुड (देशी) भेरुण्डे, वदनद्वयोपेतभारुण्डाऽऽख्यपक्षिणि, दे०ना० रसोपेतमिति यावत् / यद्वा-यत्पिण्डग्राह्य पिण्डरूपतया हस्ते ग्रहीतुं ६वर्ग 50 गाथा। शक्यते, पिण्डविकृतिर्वा गुडाऽऽदिघनाविकृतिरूपा पिण्डोऽभिधीयते। पिंजिअ (देशी) विधुने, देवना०६वर्ग 46 गाथा। यत्पुनरन्नाऽऽदिषु स्वभावादेव लुप्तमाहारगुणैरनुपेतं तल्लोचकं नाम पिंजिअय (देशी) विधुने, देना०६वर्ग 46 गाथा। जानीहि / क्षीरदधिनवनतिसपिस्तैलाऽऽदिसुप्रसिद्धानीति। बृ० २उ०। सूत्रा आचा। पिंजिय न०(पिज्जित) पिञ्जनिकया ताडिते कसे, बृ० १३०३प्रक०। तदेवं पिण्डशब्दस्य पर्यायानभिधाय सम्प्रति भेदानाचिख्यासुराहपिंड पुं०(पिण्ड) 'पिडि' संघाते। पिण्डनं पिण्डः। "इदितो नुम् धातोः" पिंडस्स उ निक्खेदो, चउक्कओ छक्कओ व कायव्वो। // 7 / 1158 // इति नुम् / प्रव०६७ द्वार। कथञ्चिदभिन्न इति त एव बहवः निक्खेवं काऊणं, परूवणा तस्स कायय्वा // 3 // पदार्था एकत्र समुदिताः पिण्डशब्देनोच्यन्ते। पिं०ा जीता दोषविशुद्धाऽऽहारे, ध०३अधि०। समयभाषया भक्ते, स्था०७ठा०। (पिंडस्स) प्रागुक्तशब्दार्थस्य, तुशब्दः पुनरर्थे , स च निक्षेप-शब्दा नन्तरं योज्यः, 'निक्षेपो' नामाऽऽदिन्यासरूपः, पुनश्चतुष्ककः षट्कको पिण्डाऽऽदयोऽर्थाधिकाराः / तत्र प्रथमतः पण्डि इति व्याख्यायते। वा कर्त्तव्यः / तत्र चत्वारः परिमाणमस्येति चतुष्कः, "सङ्ख्याडतेश्चाऽव्याख्या च तत्त्यभेदपर्यायैः, अतः प्रथमतः पिण्डशब्दस्य पर्याया शत्तिष्टःकः" / / 6 / 4 / 130 / / इति कः प्रत्ययः, ततो भूयः स्वार्थिककनभिधित्सुराह प्रत्ययविधानाचतुष्ककः / एवं षट्ककोऽपि वाच्यः। इह यत्र वस्तुनि पिंड निकाय समूह, संपिंडण पिंडणा य समवाए। निक्षेपो न सम्यग् विस्तरतोऽवगम्यतेऽवगतो वा विस्मृतिपथमुपगतसमुसरण निचय उवचय, चए य जुम्मे य रासी य / / 2 / / स्तत्राप्यवश्यं नामस्थापनाद्रव्यभावरूपश्चतुष्कको निक्षेपः कर्तव्य इति एते सर्वेऽपि सामान्यतः पिण्डशब्दस्य पर्यायाः, विशेषापेक्षयातु कोऽपि प्रदर्शनार्थ चतुष्कग्रहणं, यत्र तु तथाविधगुरुसम्प्रदायतः सविस्तरमतापि रूढः। तत्र पिण्डशब्दो गुडपिण्डाऽऽदिरूपे सङ्घाते रूढो, धिगतो भवति। नाप्यधिगतो विस्मृतिपथमुपगतस्तत्र सविस्तरं निक्षेपो Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 618 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड वक्तव्य इति स्यायप्रदर्शनार्थ षट्ककग्रहणम्। तथा चोक्तम्- 'जत्थय ज जाणिजा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं / जत्थ वि य न जाणिज्जा, चउक्वयं निक्खिये तत्थ" ||1|| ततश्चैतदत्रोक्तं भवति-यदिषट्को निक्षेपः सम्यगधिगतो भवति, अधिगतोऽपि च न विस्मृतस्तदा षट्करूपो निक्षेपः कर्तव्यः, अन्यथा तु नियमतश्चतुष्करूप इति / एवं च निक्षेपं कृत्वा तस्य पिण्डस्य प्ररूपणा कर्तव्या, येन पिण्डेनेहाधिकारः स पिण्डः प्ररूपणीय इति भावार्थः। इदमेव च नामाऽऽदिभेदोपन्यासेन व्याख्यायाः फलं यदुत यावन्तो विवक्षितशब्दवाच्याः पदार्थाःघटन्तेतान सर्वानपि यथास्वरूपं वैविक्त्येनोपदी येन केनचिन्नामाऽऽद्यन्यतमेन प्रयोजनं स युक्तिपूर्वमधिक्रियते, शेषारत्वपाक्रियन्ते। तथा चोक्तम्-अप्रस्तुतार्थापाकरणात्प्रस्तुतार्थव्याकरणाच निक्षेपः फलवानिति / इह चतुष्कः षट्को वा निक्षेपः कर्तव्य इत्युक्तं, तत्र नानिर्दिष्टस्वरूपं चतुष्कं षट्कं वा निक्षेप शिष्याः स्वयमेवावगन्तुमीशास्ततोऽवश्यं तत्स्वरूपं निर्देष्टव्यं, तवषट्के निर्दिष्ट तदन्तर्गतत्वाच्चतुष्कोऽर्थान्निर्दिष्टो भवति, ततः स एव षट्कनिक्षेपो निर्दिश्यते इति। एतदृष्टान्तपुरस्सरं प्रतिपिपादयिषुराहकुलए उचउब्भागस्स संभवो छक्कए चउण्हं च। नियमेण संभवो अत्थि छक्कगं निक्खिवे तम्हा ||4|| यथा 'कुलके' चतुःसेतिकाप्रमाणे चतुर्भागस्य सेतिकाप्रमाणस्य सम्भवो विद्यमानताऽवश्यं भाविनी, एवं षट्के निक्षेपे चतुर्णा निक्षेपस्य चतुष्करूपस्य निक्षेपस्य नियमेन अवश्यतया सम्भवोऽस्ति, ततस्तमेव षट्ककमिह निक्षिपाभिषट्करूपमेव निक्षेप प्ररूपयामि, तस्मिन् प्ररूपिते तस्यापि चतुष्करूपस्य निक्षेपस्य प्ररूपितत्वभावादिति भावार्थः। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनामं ठवणा पिंडो, दव्वे खेत्ते य काल भावे य। एसो खलु पिंडस्स उ, निक्खेवो छव्विहो होइ / / 5 / / (नाम ति) नामपिण्डः, स्थापनापिण्डः, 'द्रव्ये' द्रव्यविषयः पिण्डो द्रव्यपिण्डः, द्रव्यस्य पिण्ड इत्यर्थः। तथा-'क्षेत्रे क्षेत्रस्य पिण्डः, एवं कालपिण्डो, भावपिण्डश्च, 'एषः अनन्तरोक्तः खलु 'पिण्डस्य' पिण्डशब्दस्य निक्षेपः षड्डिधो भवति। तत्र नामपिण्डस्य व्याख्यानाय स्थापनापिण्डस्य तु सम्बन्धनायाऽऽहगोणं समयकयं वा, जं वावि हवेज तदुभएण कयं / तं बिंति नामपिंडं, ठवणापिंडं अओ वोच्छं।६।। इह यत् पिण्ड इति वर्णावलीरूपं नामस नामपिण्डः नाम चासौ पिण्डश्च नामपिण्ड इति व्युत्पत्तेः / पिं०। (चतुर्धा नाम 'णाम' शब्दे चतुर्थभागे 1668 पृष्ठे गतम्) पिण्डनं पिण्ड इति व्युत्पत्त्यघिटनान्न गौणम्, अथ च समये प्रसिद्धम् / तथा च आचाराङ्गे द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमे पिण्डैषणाभिधानेऽध्ययने स्पतमोद्देशकसूत्रम्- ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव पहिगाहिजा / ' (41) / (इति सूत्रं 'पाणग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 526 पृष्ठे गतम्) अत्र पानीयमपि पिण्डशब्देनाभिहितम, ततः पानीये पिण्ड इति नाम समयप्रसिद्धं, न चान्वर्थयुक्तमिति समयजमित्युच्यते, यदा पुनर्भिक्षुर्भिक्षुकी वा भिक्षार्थं प्रविष्टा सती गृहपतिकुले गुडपिण्डम्, ओदनपिण्ड सक्तुपिण्डं वा लभते तदा पिण्डशब्दस्तत्र प्रवर्त्तमान उभयजः, समयप्रसिद्धत्वादन्वर्थयुक्तत्वाच,यदा पुनःकस्यापि मनुष्यस्य पिण्ड इति नाम क्रियते, न च शरीरावयवसधातविवक्षा तदा तदनुभयजम् / सम्प्रति गाथाऽक्षराणि विवियन्तेयत्पिण्ड इति नाम गौण,यदा-समयकृतं समयप्रसिद्धम्, यद्वा भवेत्तदुभयकृतम्, उभयम् - गुणः, समयश्च ।तच्च तदुभयं च तदुभयं, तेन कृतं तदुभयकृतं, समयप्रसिद्धमन्वर्थयुक्त चेत्यर्थः / अपिशब्दाद् यद अनुभयजमन्वर्थविकलं समयाप्रसिद्धं च तन्नामपिण्ड ब्रुवते तीर्थकरगणधराः। अतऊर्ध्वं स्थापनापिण्डमहं वक्ष्ये-एनामेव गाथां भाष्यकृत् सप्रपञ्च व्याचिख्यासुः प्रथम गौण नाम व्याख्यानयन्नाहगुणनिप्फन्नं गौणं, तं चेव जहत्थमत्थवी वेति / तं पुण खवणो जलनो, तवणो पवनो पईवो य // 1 // गुणेन परतन्त्रेण (तन्त्रशब्दार्थाः 'तंत' शब्दे चतुर्थभागे 2167 पृष्ठे गताः) व्युत्पत्तिनिमित्तेन द्रव्याऽऽदिना यन्निष्पन्नं नाम तद्गौणं, यच (स्य) गुणैर्निष्पन्नं तद्गुणात्तस्मिन् वस्तुन्यागतमिति "तत आगते" / / 6 / 3 / 145|| इत्यनेनाणप्रत्ययः, तदेव च गौणं नाम 'अर्थविदः' शब्दार्थविदो यथार्थं ब्रुवते / गौणं च नाम त्रिधा। तद्यथा-द्रव्यनिमित्त, गुणनिमित्तं, क्रियानिमित्तं च / एतच्च प्रागेव भावित, तत्र पिण्ड इति नाम क्रियानिमित्तं, पिण्डनमिति व्युत्पत्तेः, तत उदाहरणान्यपि क्रियानिमित्तान्येव दर्शयति- (तं पुण इत्यादि) तत्पुनर्गौणं नाम क्षपण इत्यादि, तत्र क्षपयति कर्माणीति क्षपण-क्षपकर्षिः, (अत्र विस्तरः 'खवग' शब्दे तृतीयभागे 727 पृष्ठे गतः) इह क्षपकर्षेः क्षपणलक्षणां क्रियामधिकृत्य क्षपण इति नाम प्रवृत्तमतो गौणम्, एवं शेषेष्वप्युदाहरणेषु भावना कार्या / तथा-ज्वलतीति ज्वलनः (अस्यार्थाः 'जलण' शब्दे चतुर्थभागे 1426 पृष्ठे गताः) वैश्वानरः / तपतीति तपनः (अर्थाः तवण' शब्दाद चतुर्थभागस्थ 2206 पृष्ठादवगन्तव्याः) रविः। पवते पुनातीति वा पवनः (विशेषः ‘पवण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 777 पृष्ठे गतः) वायुः। प्रदीप्यते इति प्रदीपः ('पईव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 12 पृष्ठे सर्व प्रतिपादितम्) दीपकलिका / चकारोऽन्येषामप्येवंजातीयानामुदाहरणानां समुच्चयार्थः। तदेवं सामान्यतो गौणं नाम व्याख्यातम्। सम्प्रति पिण्ड इति नाम गौण समयकृतं च व्याचिख्या सुराहपिंडण बहुदव्वाणं, पडिवक्खेणावि जत्थ पिंडक्खा। सो समयकओ पिंडो, जह सुत्तं पिंडपडियाई / / 2 / / बहूनां सजातीयानां विजातीयानां वा कठिनद्रव्याणां यत् पिण्डनम् एकत्र संश्लेषस्तत्र पिण्ड इति नाम प्रवर्त्तमानं, गौणमिति शेषः, व्युत्पत्तिनिमित्तस्य तत्र विद्यमानत्वात, तथा प्रतिपक्षणाप्यत्र प्रकरणात्प्रतिपक्षशब्दः कटिनद्रव्यसंश्लेषाभाववाची ततोऽयमर्थः-यत्र प्रतिपक्षणापिबहूनांद्रव्याणांमीलनमन्तरे Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 916 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड ण तावत्पिण्ड इति नाम प्रवर्तत एव.न काचित्तत्र व्याहतिरित्यपिशब्दार्थः, समयप्रसिद्ध्या 'पिण्डाख्या' पिण्ड इति नाम, स पिण्डाऽऽख्यायान् नामपिण्डः समयकृत इत्युच्यते, तत्र नामनामयतोरभेदोपचारादेवं निर्देश, उपचाराभावे त्वयमर्थः-तत्र वस्तुनि तत्पिण्ड इति नाम समयकृतमिति। एतदेव दर्शयति-(जह सुत्तं पिडपडियाई) यथेप्युपदर्शने पिण्डेति पिण्डपातग्रहणं, तत एवं गाथायां निर्देशो द्रष्टव्यः- "पिंडवायपडियाए,' इत्यादि / आदि-शब्दात् 'पविढे समाणे" (41) इत्यादिसूत्रपरिग्रहः / (तच 'पाणग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 826 पृष्ठे प्रागेव दर्शितम्) इयमत्र भावना-अत्र सूत्रे प्रभूतकठिनद्रव्यपरस्परसंश्लेषाभावेऽपि पानीये पिण्ड इति नामान्वर्थरहितं समयप्रसिद्ध्या प्रयुज्यते, अत इदं समयजमभिधीयते इति। सम्प्रति उभयजं पिण्ड इति नाम दर्शयतिजस्स पुण पिंडवायट्ठया पविट्ठस्स होइ संपत्ति। गुडओयणपिंडेहिं, तं तदुभयपिंडमाहंसु // 3 / / (भा०) यस्य पुनः कस्यचित् पिण्डपातार्थतया पिण्डपात आहारलाभस्तदर्थतया साधोहपतिगृहं प्रविष्टस्य सतो भवति आ सम्प्राप्तिः, (गुडओदणपिंडेहिं ति) 'व्यत्ययोऽप्यासाम्॥" इति प्राकृतलक्षणवशात्षष्ट्यर्थे तृतीया / ततोऽयमर्थः- गुडौदनपिण्डयोः गुडपिण्डस्य, ओदनपिण्डस्य चेत्यर्थः / गुडौदनग्रहणमुपलक्षणं, तेन सक्तुपिण्डाऽऽदेश्च या सम्प्राप्तिस्तं गुडपिण्डाऽऽदिकं तदुभयपिण्ड गुणनिष्पन्नसमयप्रसिद्धपिण्डशब्दवाच्यमुक्तवन्तस्तीर्थकरगणधराः, इहापि नामनामवतोरभेदोपचारात् एवं गाथायां निर्देशः, उपचाराभावे त्वयं भावार्थः-तद्विषयं पिण्ड इति नाम उभयजम्, अन्वर्थयुक्तत्वात्समयप्रसिद्धत्वाचेति। ___ सम्प्रत्युभयातिरिक्त सामान्यतो नाम प्रतिपादयतिउभयाइरित्तमहवा, अन्नं पिहु अत्थि लोइयं नाम / अत्ताभिप्पायकयं, जह सीहगदेवदत्ताई||४| (मा०) अथवेति नाम प्रकारान्तरताद्योतकः, 'उभयातिरिक्तं' गौणसमयजविभिन्नम, अन्यदप्यस्ति 'लौकिकं लोके प्रसिद्धमात्माभिप्रायकृतं नाम, अनुभयजमिति भावार्थः / तदेवोदाहरणेन समर्थयमान आहयथा सिंहकदेवदत्ताऽऽदि,आदिशब्दाद्यज्ञदत्ताऽऽदिपरिग्रहः इदं हि सिंहदेवदत्ताऽऽदिकं नाम शौर्यक्रौर्याऽऽदिगुणनिबन्धनोपचाराभावे देवा एन देयासुरिति व्युत्पत्त्यर्थासम्भवे च यस्य कस्यचिदात्माऽभिप्रायतः पित्रादिभिर्दीयमानं न गौणमन्वर्थाविकलत्वान्नापि समयप्रसिद्धमत उभयतिरिक्तमिति। एवं पिण्ड इत्यपि नाम उभयातिरिक्त भावनीयम्। ननु पिण्ड इति नाम नियुक्तिगाथायामुभयातिरिक्तंनोपन्यस्तं,तत्कथं भाष्यकृता व्याख्यायते? तदयुक्तं, नोपयन्यस्तमित्यसिद्धेः, अपिशब्देन तत्र सूचितत्वात्। तथा चाऽऽह भाष्यकृत्गोणसमयाइरितं, इणमन्नं वाऽवि सूइयं नाम। जह पिंडउत्ति कीरइ, कस्सइ नाम मणूसस्स / / 5 / / इदं पिण्ड इति नाम / अन्यद्वा-'गौणसमयातिरिक्तं' गौणसमय जविभिन्नमपिशब्दसूचितमस्ति, तदेव दर्शयति-यथा कस्यापि मनुष्यस्य पिण्ड इति नाम क्रियते, तद्धिनगौणं, प्रभूतद्रव्यसंश्लेषासम्भवाच्छरीरावयवसङ्घातस्य चाविवक्षणात्, नापि समयकृतम्, अत इदमुभयातिरिक्तमिति / ननु समयकृतोभयातिरिक्तयोर्न कश्चित्परस्परं विशेष उपलभ्यते, उभयत्राप्यन्वर्थविकलत्वादात्माभिप्रायकृतत्वाविशेषाच, तत्कथं द्वयोरूपादानम्? साङ्केतिकमित्येवोच्यताम् / एवं हि द्वयोरपि ग्रहणं भवति / तदयुक्तम्, अभिप्रायापरिज्ञानात् / इह हि यल्लौकिकं नाम साङ्केतिकं तत्पृथगजनाः सामायिकाश्च व्यवहरन्ति, यत्पुनः समय एव साङ्केतिक, तत् सामायिका एव न पृथग्जनाः। तथा चाऽऽह भाष्यकृत्तुल्लेऽवि अभिप्पाए, समयपसिद्धं न गिण्हए लोओ। जं पुण लोयपसिद्धं, तं सामइया उवचरंति // 6 / / (भा०) (अभिप्रायशब्दस्य बहवोऽर्थाः 'अभिप्पाय' शब्दे प्रथमभागे 725 पृष्ठ गताः) इहाभिप्रायशब्देन पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादभिप्रायकृतत्वमुच्यते / तत्रायमर्थः-अभिप्रायेण इच्छामात्रेण कृतं न तु वस्तुबलप्रवृत्तमभिप्रायकृतं, तस्य भावोऽभिप्रायकृतत्वं, साङ्केतिकत्वमित्यर्थः, तस्मिंस्तुल्येऽपि समानेऽपि, आस्तामसमाने इत्यपिशब्दार्थः, समयप्रसिद्धं, 'लोकः पृथग-जनरूपोन गृह्णातिन समयप्रसिद्धेन साङ्केतिकेन नाम्ना व्यवहरति, न खलु पृथगजनो भोजनाऽऽदिकं समुद्देशाऽऽदिना समयप्रसिद्धेन साङ्केतिकेन नाम्ना व्यवहरति, यत्पुनर्लोकप्रसिद्ध तत्पृथग्जनाः सामयिकाश्चोपचरन्ति, तत इत्थं समयकृतोभयातिरिक्तयोः स्वभावभेदाद् तद् द्वयोरपि पृथगुपादानमर्थवत् / एतेन गौणोभयकृतयोरपि स्वभावभेदसूचनेन पृथगुपादानं सार्थकमुपपादितं द्रष्टव्यम्। तथाहि-यद्यपि गौणमुभयकृतं चान्वर्थयुक्तत्वेनाविशिष्ट, तथापि यद्गौणं तत्पृथगजनाः सामयिकाश्च व्यवहरन्ति, यत्पुनः समयप्रसिद्ध गौणं तत्सामयिका एव, न पृथग्जनाः, तेषां तेन प्रयोजनाभावात् समयप्रसिद्धेन हि नाम्ना गौणेनापि यथोक्तसमयपरिपालननिष्पनचेतसां गृहीतव्रतानां प्रयोजनं न गृहस्थानाम्, अतः स्वभावभेदात्तयोरपि पृथगुपन्यासः सार्थक इति / तदेवं नामपिण्डो नियुक्तिकृतोपदर्शितो भाष्यकृता सप्रपञ्चं व्याख्यातः। स्थापनापिण्डः / साम्प्रतंयत्पूर्व प्रतिज्ञातं नियुक्तिकृता'ठवणा-पिडं अतो वोच्छ' तत्समर्थयमानः स एवाऽऽहअक्खे वराडए वा, कट्टे पुत्थे व चित्तकम्मे वा। सब्भावमसब्भावं, ठवणापिंड वियाणाहि॥७॥ स त इव विद्यमानस्येव भावः सत्ता सद्भावः / किमुक्तं भवति? स्थाप्यमानस्येन्द्राऽऽदेरनुरूपाङ्गोपाङ्गचिह्नवाहनप्रहरणाऽऽदिपरिकररूपो य आकारविशेषो यद्दर्शनात्साक्षाद्विद्यमान इवेन्द्राऽऽदिर्लक्ष्यते ससद्भावः, तदभावोऽसद्भावः, तत्र सद्भावमसद्धावं चाऽऽश्रित्य 'अक्षे चन्दने कपर्दे वराटके, वाशब्दोऽड्गुलीयकाऽऽदिसमुपयार्थः / उभयत्रापि च जातावेकवचनं, तथा काष्ठे दारुणि, 'पुरते' ढिउल्लिकाऽऽदौ, वाशब्दो लेप्यपाषाणसमुच्चये, चित्रकर्मणि वा या पिण्डस्य स्थापना साऽ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 620 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड क्षाऽऽदिः काष्ठाऽऽदिष्वाकारविशेषो वा पिण्डत्वेन स्थाप्यमानः स्थापनापिण्डः / इयमत्र भावना-यदा काष्ठे लेप्ये उपले चित्रकर्मणि वा प्रभूतद्रव्यसंश्लेषरूपः पिण्डकारः साक्षाद्विद्यमान इवालिख्यते यद्वाअक्षाः कपर्दिका अड्गुलीयकाऽऽदयो वा एकत्र संश्लेष्य पिण्डत्वेन संस्थाप्यन्ते,यथैष पिण्डः स्थापित इति तदा तत्र पिण्डाऽऽकारस्योपलभ्यमानत्वात् सद्भावतः पिण्डस्थापना, यदा त्वेकरिमन्नक्षेवराटकेऽड्गुलीयके वा पिण्डत्वेन स्थापना-एष पिण्डो मया स्थापित इति, तदा तत्र पिण्डाऽऽकारस्यानुपलभ्यमानत्वात्, अक्षाऽऽदिगतपरमाणुसवातस्य चाविवक्षणादसद्भावतः पिण्डस्थापना, चित्रकर्मण्यपि यदा एकविन्द्वालिखनेन पिण्डस्थापना यथैष पिण्ड आलिखित इति विवक्षा तदा प्रभूतद्रव्यसंश्लेषाऽऽकारादर्शनादसद्भावपिण्डस्थापना, यदा पुनरेकबिन्द्रालिखनेऽपि एष मया गुडपिण्ड ओदनपिण्डः सक्तुपिण्डो वा आलिखित इति विवक्षा तदा सद्भावतः पिण्डस्थापना। ___ अमुमेव सद्भावासद्भावस्थापनाविभागं भाष्यकृदुपदर्शयतिइको उ असब्भावे, तिण्हं ठवणा उ होइ सब्भावे / चित्तेसु असब्भावे, दारुअलेप्पोवले सियरो // 7 // (भा०) एकोऽक्षो वराटकोऽड्गुलीयकाऽऽदिर्वा यदा पिण्डत्वेन स्थाप्यते। तदा सा पिण्डस्थापना असद्भावे' असद्भावविषया, असद्भाविकीत्यर्थः, तत्र पिण्डाऽऽकृतेरनुपलभ्यमानत्वात्, अक्षाऽऽदिगतपरमाणुसङ्घातस्य चाविवक्षणात्। यदा तु त्रयाणामक्षाणां वराटकानामगुलीयकाऽऽदीना वा परस्परमेकत्र संश्लेषकरणेन पिण्डत्वेन स्थापना तदा सा पिण्डस्थापना, सद्भावे सद्भाविकी, तत्र पिण्डाऽऽकृतरुपलभ्यमानत्वात्, त्रयाणां चेत्युपलक्षणं, तेन द्वयोरपिबहूनां चेत्यपिद्रष्टव्यम्। तथा 'चित्रेषु' चित्रकर्मसु यदैकबिन्द्वालिखनेन पिण्डस्थापना तदा साऽप्यसद्भावे, यदा तु चित्रकर्मस्वपि अनेकबिन्दुसंश्लेषालिखनेन प्रभूतद्रव्यसंघाताऽऽत्मकपिण्डस्थापना तदा सा सद्भावस्थापना, पिण्डाऽऽकृतेस्तत्र दर्शनात्, तथा-दारुकलेप्योपलेषु पिण्डाऽऽकृतिसम्पादनेन या पिण्डस्य स्थापना स 'इतरः सद्भावस्थापनापिण्डः, तत्र पिण्डाऽऽकारस्य दर्शनात् / तदेवमुक्तः स्थापनापिण्डः। सम्प्रति द्रव्यपिण्डस्याऽवसरः। स च द्विधा-आगमतो, नो आगमतश्च ! तत्राऽऽगमतः पिण्डशब्दार्थस्य ज्ञाता चानुपयुक्तः, अनुपयोगो द्रव्यमिति वचनात् नोआगमतस्त्रिधा। / तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यपिण्डः, भव्यशरीरद्रव्यपिण्डः, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यपिण्डन / तत्र पिण्डशब्दार्थज्ञस्य यत्तछरीरं सिद्धशिलातलाऽऽदिगतमपगतजीवितं तद् भूतपिण्डशब्दार्थपरिज्ञानकारणत्वात् ज्ञशरीरद्रव्यपिण्डः, यस्तु वालको नेदानीमवबुध्यते पिण्डशब्दार्थम्, अथ चावश्यमायत्यां तेनैव शरीरेण परिवर्द्धमानेन भोत्स्यते स भावपिण्डशब्दार्थपरिज्ञानकारणत्वाद् भव्यशरीरद्रव्यपिण्डः। ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तं तु द्रव्यपिण्डं नियुक्तिकृदाहतिविहो उदव्वपिंडो, सञ्चित्तो मीसओ अचित्तोय। एकेकस्स य एत्तो, नव नव भेआ उ पत्तेयं / / 8 / / ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यपिण्डस्विधा / तद्यथा- सचित्तो, मिश्रोऽचित्तश्च / लत्र मिश्रः सचित्ताचित्तरूपः, इह पृथिवीकायाऽऽदिकः पिण्डत्वेनाभिधास्यते, स च पूर्व सचितो भवति, ततः स्वकायशरत्राऽऽदिभिः प्रासुकीक्रियमाणः कियन्तं कालं मिश्रो भवति, तत ऊर्ध्वमचित्तः, तत एतदर्थख्यापनार्थ सचित्तमिश्राचित्ताः क्रमेणोक्ताः, 'इतो' भेदत्रयाभिधानादनन्तरम् ‘एकैकस्य सचित्ताऽऽदेर्भेदस्य प्रत्येकं नव नव भेदा वाच्या भवन्ति। तानेव नवनवभेदानाहपुढवी आउक्काओ, तेऊ वाऊ वणस्सई चेव / बेइदियं तेइंदिय, चउरो पंचेंदिया चेव / / 6 / / इह पिण्डशब्दः पूर्वगाथातोऽनुवर्तमानः प्रत्येकं सम्बध्यते / तद्यथापृथिवीकायपिण्डोऽप्कायपिण्डस्तेजस्कायपिण्डो वायुकायपिण्डो वनस्पतिकायपिण्डों द्वीन्द्रियपिण्डस्त्रीन्द्रियपिण्डश्चतुरिन्द्रियपिण्डः पञ्चेन्द्रियपिण्डश्च। सम्प्रत्यमीषामेव नवानां भेदानां सचित्तत्वाऽऽदिकं विभावयिषुः प्रथमतः पृथिवीकाय भावयतिपुढवीकाओ तिविहो, सचित्तो मीसओ य अचित्तो। सचित्तो पुण दुविहो, निच्छय ववहारओ चेव / / 10 / / पृथिवीकायरित्रविधः / तद्यथा-सचित्तो, मिश्रः, अचित्तश्च / सचित्तः पुनर्द्विधा / तद्यथा-निश्चयतो, व्यवहारतश्च / एतदेव निश्चयव्यवहाराभ्यां सचित्तस्य द्वैविध्यं प्रतिपादयतिनिच्छयओ सचित्तो, पुढविमहापव्वयाण बहुमज्झे। अचित्तमीसवओ, सेसो ववहारसच्चित्तो।।११।। निश्चयतः सचित्तः पृथिवीकायो धर्माऽऽदीनां पृथिवीनां मेर्वादीनां महापर्वतानाम्, उपलक्षणमेतत्, तेन टङ्काऽऽदीनां च बहुमध्यभागे वेदितव्यः, तत्राचित्तताया मिश्रतायाश्च हेतूना शीताऽऽदीनामसम्भवात्, शेषः पुनः अचित्तमिश्रवों वक्ष्यमाणस्थानसम्भविमिश्राचित्तव्यतिरिक्तो निराबाधाऽऽरण्यभूम्यादिषु व्यवहारतः सचित्तो वेदितव्यः / उक्तः सचित्तपृथिवीकायः। सम्प्रति तमेव मिश्रमाहखीरदुमहेट्ठपंथे, कट्ठोले इंधणे य मीसो उ। पोरिसि एग दुग तिगं, बहु इंधण मज्झ धोवे य / / 12 / / (खीरदुमहे? त्ति) क्षीरद्रुमा वटाश्वत्थाऽऽदयस्तेषामधस्तात् तल्लेपः पृथिवीकायः स मिश्रः / तत्र हि क्षीरद्रुमाणां माधुर्येण शस्त्रत्याभावात् कियान्सचित्तःशीताऽऽदिशस्वसम्पर्कसम्भवाच कियानचित्त इति मिश्रता, तथा पथिग्रामान्नगराद्वा बहिर्यः पृथिवीकायः वर्ततेसोऽपि मिश्रो, यतस्तत्र गन्त्रीचक्राऽऽदिभिर्य उत्खातः पृथिवीकायः स कियासचित्तः कियांश्च शीतावाताऽऽदिभिरचित्तीकृत इति मिश्रः, (कट्टोले त्ति) कृष्टो हलविदारितः सोऽपि प्रथमतो हलेन विदार्यमाणः सचित्तः, ततः शीतवाताऽऽदिभिः कियानचित्तीक्रियते इति मिश्रः, तथाऽऽो जलमिश्रितः। तथाहिमेघस्यापि जलं सचित्तपृथिवीकायस्योपरि निपतत् कियन्तं पृथिवी Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 921 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड कायं विराधयति ततो जलाऽऽपृथिवीकायो मिश्र उपपद्यते, सोऽप्यन्तर्मुहूतदिनन्तरमचित्तीभवति, परस्परशस्त्रत्वेन द्वयोरपि पृथिव्यकाययोरचित्तीभवनसम्भवात्। यदा त्वतिप्रभूतं मेघजलं निपतति तदा तजलं यावन्नाद्यापि स्थितिं बध्नाति तावत् मिश्रः पृथिवीकायः, स्थितिबन्धे तुकृते सति सचित्तोऽपि सम्भाव्यते, तथा इन्धने गोमयाऽऽदौ मिश्रः / तथाहि-गोमयाऽऽदिकमिन्धनं सचित्तपृथिवीकायस्य शरत्रं, शरत्रेण च परिपीड्यमानो यावन्नाद्यापि सर्वथा परिणमति तावन्मिश्रः / अत्रैवेन्धनविषये कालमानमाह-(पोरिसीत्यादि) बहिन्धनमध्यगत एकां पौरुषी वावन्मिश्री, मध्यमेन्धनसंपृक्तरतु पौरुषीद्विकम, अल्पेन्धनसम्पृक्तस्तुपौरुषोत्रिक, तत ऊर्द्धमचित्त इति। तदेवमुक्तो मिश्रः पृथिवीकायः। साम्प्रतमचित्तमाहसीउण्हखारखत्ते, अग्गीलोणूसअंबिलेनेहे। वुकंतजोणिएणं, पओयणं तेणिमं होइ॥१३॥ इह सर्वत्र सप्तमी तृतीयाऽर्थे , प्राकृतलक्षणवशात / तथा चाऽऽह पाणेनिः प्राकृतलक्षणे- 'व्यत्ययोऽप्यासाम् / ' इत्यत्र सूत्रे सप्तमी तृतीयार्थे / यथा-'तिसु तेसु अलंकिया पुहवी' इति / ततोऽयमर्थःशीतोष्णक्षारक्षत्रेण, तत्र शीतं प्रतीतम्, उष्णः सूर्याऽऽदिपरितापः, क्षारः यवक्षाराऽऽदिः, क्षत्रं करीषविशेषः। एतैः, तथा (अग्गीलो-णूसअबिलेनेहे इति) अग्निःवैश्वानरः, लवणं प्रतीतम, ऊषः ऊषराऽऽदिक्षेत्रोद्भवो लवणिमसम्मिश्रो रजोविशेषः, आम्लं काञ्जिक, स्नेहः तैलाऽऽदिः। एतश्चाचित्तः पृथिवीकायो भवति. इह शीताग्न्यम्लक्षारक्षत्ररनेहाः परकायशस्त्राणि, ऊषः स्वकायशस्त्रम्, उष्णश्चेह सूर्यपरितापरूपः स्वभावोष्णः, तथाविधपृथिवीकायपरितापरूपो वा गृह्यते। नाग्निपरितापरूपस्तस्याग्निग्रहणेनैव गृहीतत्वात्, ततः सोऽपि, स्वकायशस्त्रोपादानेन परकायशस्त्रोपादानेन चान्यान्यानि स्वकायपरकायशस्त्राण्युपलक्ष्यन्ते, यथा कटुकरसोमधुरसस्य स्वकायशस्वमित्यादि, एतेन पृथिवीकायस्याचित्ततया भवनं चतुर्दा प्रतिपादितं द्रष्टव्यम् / तद्यथाद्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च / तत्र स्वकायेन परकायेण वा यदचितीकरणं तद् द्रव्यतः, यदा तु क्षाराऽऽदिक्षेत्रोत्पन्नस्य मधुराऽऽदिक्षेत्रोत्पन्नस्य चतुल्यवर्णस्य भूम्यादेः पृथिवीकायस्य परस्परं सम्पर्केणाचित्तताभवनं तदा तत् क्षेत्रतः, क्षेत्रस्य प्राधान्येन विवक्षणात्। यद्वा-मा भूदपरक्षेत्रोद्भवेन पृथिवीकायान्तरेण सह मीलनं, किन्त्वयन्यत्र क्षेत्रे योजन शतात्परतो यदा नीयते तदा सर्वोऽपि पृथिवीकायः सर्वस्मादपि क्षेत्राद्योजनशतादूर्द्धमानीतो भिन्नाऽऽहारत्वेन शीताऽऽदिसम्पक्केतश्वाऽऽवश्यमचित्तीभवति, इत्थं च क्षेत्राऽऽदिक्रमेणाचित्ती-भवनमप्कायाऽऽदीनामपि भावनीयं, यावद्वनस्पतिकायिकानां, तथा च हरीतक्यादयो योजनशतादूर्द्धमानीताऽचित्तीभूतत्वादौषधाऽऽद्यर्थं साधुभिः प्रतिगृह्यन्ते इति / कालतस्त्वचित्तता स्वभावतः स्वायुःक्षयेण सा च परमार्थतोऽतिशयज्ञानेनैव सम्यकपरिज्ञायते, नछाद्यस्थिकज्ञानेनेति नव्यवहारपथमवतरति। अतएव च तृषाऽतिपीडितानामपि साधूना स्वभावतः स्वायुः क्षयेणाचित्तीभूतमपि तडागोदकं पानाय वर्द्धमानस्वामी भगवान नानुज्ञातवान्, इत्थंभूतस्याचित्तीभवनस्य छद्मस्थानां दुर्लक्ष्यत्वेन मा भृत् सर्वत्रापि तडागोदके सचित्तेऽपि पाश्चात्यसाधूनां प्रवृत्तिप्रसङ्ग इतिकृत्वा, भावतोऽचित्तीभवनं पूर्ववर्णाऽऽदिपरित्यागतोऽपरवर्णाऽs - दितया भवनम् / तदेवमुक्तोऽचित्तोऽपि पृथिवीकायः। एतेन चाचित्तेन साधूनां प्रयोजनम्। तथा चाऽऽह-(वुकंत इत्यादि) व्युत्क्रान्ता अपगला योनिः उत्पत्तिस्थानं यत्र तेन विध्वस्तयो निना प्रासु के न, इदं वक्ष्यमाणस्वरूपं प्रयोजन साधूनां भवति। तदेवोपदर्शयतिअवरद्धिगविसबंधे, लवणेन व सुरभिउवलएणं वा। अचित्तस्स उगहणं, पओयणं तेणिमं वऽन्नं // 14|| अपराधनम् अपराद्ध पीडाजनकता, तदस्यास्तीति अपराद्धिको लूतास्फोटः, सप्पाऽऽदिदंशो वा। विष प्रतीत तच दद्रूप्रभृतिषु चारित सम्भवति, तयोरुपशमनाय बन्ध इव बन्धः प्रलेपस्तस्मिन् कर्तव्येऽचित्तपृथिवीकायस्य गौरमृत्तिकाकेदारतरिकाऽऽदिरूपस्य ग्रहणं प्रयोजनम् / यद्वा-लवणेन प्रतीतेन (अचित्तस्स त्ति) विभक्तिपरिणामेनेह तृतीयान्तं सम्बध्यते, अचित्तेनालवणभक्तभोजनाऽऽदौ प्रयोजनम्, अथवा सुरभ्युपलेन गन्धपाषाणेनगन्धरोहकाऽऽख्येन प्रयोजनं, तेन हि पामाप्रसूतवातघाताऽऽदिः क्रियते, वाशब्दो विकल्पार्थः, अथवा-तेन पृथिवीकायेनेदमन्यत्प्रयोजनम्। तदेवाऽऽहठाणनिसियणतुयट्टण-उच्चाराईण चेव उस्सग्गो। घुट्टगडगलगलेवो, एमाइ पओयणं बहुहा / / 15 / / इह साधुभिः सवित्तमिश्रपरिहारद्वारेणाचित्ते भूतलप्रदेशे यत् स्थान कायोत्सर्गो विधीयते, यच्च निषीदनम् उपवेशनं, यच्च त्वगपवर्तन स्वापः, यश्च उच्चाराऽऽदीनां पुरीषप्रसवणश्लेष्मनिष्ठयूतानामुत्सर्गः, तथा यो घुट्टको लेपितपात्रमहणताकारकः पाषाणो, ये च डगलकाः पुरीषोत्सर्गानन्तरमपानप्रोञ्छनकपाषाणाऽऽदिखण्डरूपाः, यश्च लेपो भोगपुरपाषाणाऽऽदिनिष्पन्नस्तौम्बकपात्राभ्यन्तरे दीयते, एवमादि 'बहुधा बहुप्रकारम् अचित्तेन पृथिवीकायेन प्रयोजनम् / उक्तः सचित्ताऽऽदिभेदभिन्नः पृथिवीकायपिण्ड / पिं०। (अप्कायस्य पिण्ड सचित्तम् 'आउकाय' शब्दे द्वितीयभागे 22 पृष्ठेऽवोचम्) (अचित्तेनाप्कायेन बहुप्रकारो द्रष्टव्यः) चीवरधावन संयतानां वर्षाकालादर्वाग कल्पते, नशेषकालं, शेषकाले त्वनेकदोषसंभवात्। (तेच दोषाः 'धावण' शब्दे चतुर्थभागे 2751 पृष्ठे गताः) (तेजस्कायः 'तेउक्काइय' शब्दे चतुर्थभागे 2343 पृष्ठे गतः) ('वाउक्काय' शब्दे वक्ष्यामि वायुकायपिण्डम्) (द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियशब्देषु तत्तपिण्डाः) तदेवं सचित्ताऽऽदिभेदभिन्नस्त्रिप्रकारोऽपि द्रव्यपिण्डः प्रत्येक पृथिवीकायाऽऽदिभेदान्नवविध उक्तः / संप्रति एतेषामेव नवानां पृथिवीकायाऽऽदीनां व्यादिमिश्रणती मिश्रं द्रव्यपिण्डमभिधित्सुराहअहमीसओ य पिंडो, एएसिं चिय नवण्ह पिंडाणं / दुगसंजोगाईओ, नायव्वो जाव चरमो त्ति // 53 / / अथेत्यानन्तर्यद्योतने, केवलपृथिवीकायाऽऽदिपिण्डाभिधाना Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 922 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड नन्तरं मिश्रकपिण्डो व्याख्यायते इति द्योतयति / 'मिश्रकः' सजातीयविजातीयद्रव्यमिश्रणाऽऽत्मकः पिण्डः, एतेषामेव नवाना पिण्डानां द्वयादिसंयोगाऽऽत्मको ज्ञातव्यः। तद्यथा-पृथिवीकायोऽप्कायश्चेति द्विकसंयोगे प्रथमो भङ्गः, पृथिवीकायस्तेजस्काय इति द्वितीयः, एवं द्विकसंयोगे षट्त्रिंशद्भङ्गा भावनीयाः। तथा त्रिकसंयोगे पृथिवीकायोऽप्कायस्तेजस्काय इति प्रथमो भङ्गः, पृथिवीकायोऽप्कायो वायुकाय इति द्वितीयः / एवं त्रिकसंयोगे चतुरशीतिर्भङ्गा। तथा-चतुष्कसंयोगे पृथिवीकायोऽप्कायस्तेजस्कायो वायुकाय इति प्रथमोः भङ्गः पृथिवीकायोऽप्कायस्तेजस्कायो वनस्पतिकाय इति द्वितीयः, एवं चतुष्कसंयोगे षड्डिश शतं भङ्गानां भावनीयम् / पञ्चकसंयोगेऽपि षड्विंश शतम् / षट्कसंयोगे चतुरशीतिः, सप्तकसंयोगे षट्त्रिंशत,अष्टकसंयोगे नव, नवकसंयोगे एकः; सर्वसङ्ख्या भङ्गानां पञ्चशतानि व्यधिकानि / एतेषां च भङ्गानामानयनार्थमियं करणगाथा"उभयमुहं रासिदुर्ग, हिडिल्लाणंतरेण भय पढमं / लद्धह रासिविभत्ते, तस्सुवरि गुणित्तु संजोगा // 1 / / ' अस्याक्षगमनिका-इह नवानां पदाना व्यादिसंयोगभङ्गा आनेतुमभिप्रेतास्ततस्तावत्प्रमाणौ द्वौ राशी उभयमुखौ स्थाप्येते / स्थापना चेयम् / अत्रैकस्योपरि नवकः, तत एककसंयोगे नव भङ्गाद्रष्टव्याः, नच तत्र करण गाथाया व्यापारः,द्वयादिसंयोगभङ्गाऽऽनयनायैव तस्याः प्रवृत्तत्वात्, ततोऽधस्तने राशौ पर्यन्तवर्तिन एककस्यानन्तरेण द्विकलक्षणेनोपरितनराशौ प्रथममई नवकरूपं भजेत् तस्य भागहार कुर्यात्, ततो लब्धाः साश्चित्वारः, तेन च सार्धचतुष्कणाधोराशिनोपरितने प्रथमेऽङ्के विभक्ते लब्धेन तस्य द्विकलक्षणस्याङ्कस्योपरितनमइमष्टकलक्षणं गुणयेत् ताडयेत्, जाताः षट्त्रिंशत्, इत्थं च गुणयित्वा 'संयोगाः' संयोगभङ्गाः वाच्याः, यथा द्विकसंयोगे भङ्गाः षट्त्रिंशदिति, ततो भूयोऽपि त्रिकसंयोगभङ्गाऽऽनयनायं प्रथमपादरहिता करणगाथा व्यापार्यते, अधस्तने राशौ स्थितेन द्विकादनन्तरेण त्रिकेणोपरितनराशिव्यवस्थितं त्रिकोपरितनसप्तकरूपाडापेक्षया आद्यं षट्त्रिंशद्रूपमत भजेत्,ततो लब्धा द्वादश, तैश्चाधोराशिनोपरितनेऽ विभक्ते लब्धैरित्रकलक्षणस्याङ्कस्योपरितनं सप्तकलक्षणमङ्कं गुणयेत, गुणिते च सति जाताश्चतुरशीतिः, एतावन्तस्विकसंयोगेष्वपि भङ्गा आनेतव्याः; यावन्नवकसंयोगे एको भङ्गः। तथा चाऽऽह-(जाव चरिमोत्ति) तावद्विकसंयोगाऽऽदिको मिश्रपिण्डो ज्ञातव्यो यावच्चरमो नवकनिष्पन्न एकसङ्ख्यो मिश्रपिण्डः, स च लेपमधिकृत्योपदीते, इहाक्षस्य धुरि मक्षिताया रजोरूपः पृथिवीकायो लगति, नदीमुत्तरतोऽप्कायः, लोहमया वपनघर्षणे तेजस्कायः, यत्र तेजस्तत्र वायुरिति वायुकायोऽपि, वनस्पतिकायो धूरेव, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सम्पातिमाः सम्भवन्ति, महिष्यादिचर्ममयनाडिकाऽऽदेश्वघृष्यमाणस्यावयवरूपः पञ्चेन्द्रियपिण्डः, इत्थंभूतेन चाक्षस्य खञ्जनेन लेपः क्रियते, इत्यसादुपयोगी, इतिशब्दो मिश्रपिण्डसमाप्त्यर्थः एतावानेव द्रव्यपिण्डो मिश्रः सम्भवतीति। सम्प्रत्यस्यैव मिश्रपिण्डस्य कानिचिदुदाहरणान्धुपदर्शयति सोवीरा गोरसासव, वेसण भेसज्ज नेह साग फले। पोग्गल लोण गुलोयण, णेगा पिंडा उ संजोगे // 54|| 'सौवीर' काञ्जिकं, तचाप्कायतेजस्कायवनस्पतिकायाऽऽदिपिण्डरूपम् / तथाहि-तत्राप्कायस्तण्डुलधावनं, तेजस्कायोऽवश्रावणं, वनस्पतिकायस्तण्डुलावयवा यत्सम्पर्चतस्तण्डुलोदकं गड्डुलमुपजायते, लवणावयवाश्च केचन तत्र लवणसम्मिश्रतण्डुलोदकाऽऽदिभिः सह पतन्ति, ततस्तत्र पृथिवीकायोऽपि सम्भवतीति, एवमन्यत्रापि भावना स्वधिया कर्त्तव्या। तथा 'गोरसं' तक्राऽऽदि, तच्चाप्कायत्रसकायसम्मिश्रं भवति, तथा 'आसवः' मद्यं, तच्चाप्कायतेजस्कायवनस्पतिकायाऽsदिपिण्डरूपं, 'वेसनं' जीरकलवणाऽऽदि, तच वनस्पतिपृथिवीकायाऽऽदिपिण्डरूप, 'भेषज' यवागूप्रभृति, तच्चाप्कायतेजस्कायवनस्पतिकायपिण्डरूपं, स्नेहः घृतवशाऽऽदि, तच्च तेजस्कायत्रसकायाऽऽदिपिण्डरूपं, 'शाकः वत्थुलभर्जिकाऽऽदिरूपः, स च वनस्पतिकायपृथिवीकायत्रसकायाऽऽदिपिण्डरूपः, ‘फलम् आमलकाऽऽदि, तच्चेह पक्क ग्राह्यं, ततस्तदपीत्थमेव भावनीयम्। (पोग्गलं) मांसं, तदपीह पक्वं गृह्यते, ततस्तदपि शाकवद्भावनीयं, 'लवणं' प्रतीतं. तच्चाप्कायपृथिवीकायरूपं, 'गुडौदनी' प्रतीतौ, तावपि फलवद्भावनीयौ। एवमन्येऽप्यनेके यथासम्भवं संयोगे पिण्डा भावनीयाः केवलं तं तं संयोग परिभाय्य यो यत्र द्विकसंयोगाऽऽदावन्तर्भवति स तत्र स्वय मेवान्तर्भावनीयः। तदेवमुक्तः सप्रपञ्च द्रव्यपिण्डः। पिंग लेपपिण्डसूचनायाऽऽहअह होइ लेवपिंडो, संजोगेणं णवण्ह पिंडाणं / नायव्वो निप्फन्ने, परूवणा तस्स कायव्वा // 62|| अथ भवति लेपपिण्डः संयोगेन नवानां पिण्डानां निष्पन्नो ज्ञातव्यः / कथं? चक्का गिड्डिया, तत्थ अक्खेत्ते पुढविकायस्स रओ लगति, आउकाया नदी जे उत्तरणे लग्गति, तेउक्काओ तत्थ लोहं घास इति, वाऊतत्थेव,यत्राऽग्निस्तत्र वायुना भवितव्य, वणस्सइअक्खो वितिओ उसंपातिमा पाणा पडति,पंचिंदियाण विचम्ममयस्स त्ति। एवं संयोगेन निप्फन्नो लेवो / इदानीं तस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या / / 62|| ओघ०। (सा च प्ररूपणा विस्तरतः 'लेवपिंड' शब्दादेवगन्तव्या) सम्प्रति क्षेत्रकालपिण्डावभिधित्सुराहतिन्नि उ पएससमया, ठाणट्ठिइउ दविए तया एसा। चउपंचमपिंडाणं,जत्थ जया तप्परूवणया / / 5 / / इह क्षेत्रकालपिण्डौ- "नामंठवणा पिंडे,दव्वे खेत्ते य काले भावे य।" इति गाथानिर्देशक्रमापेक्षया चतुर्थपञ्चमपिण्डौ, क्षेत्रम् आकाशम् कालः समयविवर्तरूपः, तत्र त्रयः प्रदेशाः क्षेत्रप्रस्तावादाकाशप्रदेशाः, तथा त्रयः समयाः कालस्य निर्विभागा भागाः तुशब्दो विशेषणार्थः, स च परस्परमनुगता इति विशेषयति / 'चतुष्पञ्चमपिण्डयोः क्षेत्रकालपिण्डयोः स्वरूपम् / इयमत्र भावनात्रयः परस्परमनुगता आकाशप्रदेशास्त्रयः परस्परमनुगताः समया यथा-क्रम क्षेत्रपिण्डः कालपिण्ड इति वेदितव्याः, त्रिग्रहणं चोपलक्षणं, तेन द्विचतुरादयोऽपि द्रष्टव्याः। तदेवं क्षेत्रकालपिण्डौ निरुपचरितौ प्रतिपाद्य सम्प्रति तावेव सोपचारावभिधत्ते-(ठाण-ट्टिइउ दविए Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 623 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड तया एसा) (दविए त्ति) द्रव्ये पुद्गलस्कन्धरूपे स्थानम्-अवगाहः, स्थितिः बाहुल्यतश्च पिण्ड इतिव्यपदेशः प्रवर्त्तते।तथा क्षेत्रप्रदेशेष्वपि पिण्डशब्दः कालतोऽवस्थानं, स्थानं च स्थितिश्च स्थानस्थिती, ताभ्यां स्थान- प्रवर्त्तमानो न विरुध्यते, तत्राऽपि परस्परनैरन्तर्यरूपस्यानुवेधस्य स्थितितः। अत्र पञ्चमी "यपः काऽऽधारे" इत्यनेन सूत्रेण / ततोऽ- सङ्ख्याबाहुल्यस्य च सम्भवात्, तथा कालोऽपि परमार्थतः सन् द्रव्यं यमर्थः - स्थान स्थितिं चाऽऽश्रित्य यस्तदाऽऽदेशः क्षेत्रकालाऽऽदेशः च, ततः सोऽपि परिणामे, सतः सर्वस्य परिणामित्वाभ्युपगमाद्, अन्यथा क्षेत्रकालप्राधान्यविवक्षया क्षेत्रेण कालेन च व्यपदेशस्तस्माचतुष्पञ्च- सत्त्वायोगात्, एताच्चान्यत्र धर्मसङ्घहणिटीकादौ विभावितमिति नेह मपिण्डयोः प्ररूपणा कार्या। किमुक्तं भवति? स्कन्धरूपे पुद्गलद्रव्येऽ- भूयो विभाव्यते, ग्रन्थगौरवभयात्, परिणामी चान्वयी तेन तेन रूपेण वगाहचिन्तामाश्रित्य क्षेत्रप्राधान्यविवक्षया यदा क्षेत्रेण व्यपदेशो यथा परिणममान उच्यते, ततोऽस्ति वार्त्तमानिकस्या समयस्य पूर्वापरसमयाएकप्रादेशिकोऽयं द्विप्रादेशिकोऽयं त्रिप्रादेशिक इत्यादि, स इत्थं क्षेत्रतो भ्यामनुवेधः, केवलं तौ पूर्वापरसमयावसन्तावपि बुध्या सन्ताविव व्यपदिश्यमानः क्षेत्रपिण्ड इत्युच्यते, क्षेत्रतो व्यपदिष्टः पिण्डः क्षेत्रपिण्ड विविक्षितौ, ततः सङ्ख्याबाहुल्यमपि तत्राऽतीति पिण्डशब्दप्रवृत्त्यइति व्युत्पत्तेः / यदा तुकालतोऽवस्थानमधिकृत्य कालप्राधान्यविवक्षया विरोधः। कालेन व्यपदेशो, यथा एकसामयिको द्विसामयिक इत्यादि, तदा स सम्प्रति क्षेत्रे पिण्डशब्दप्रवृत्त्यविरोध कालपिण्डोऽपि भण्यते, कालतो व्यपदिष्टः पिण्डः कालपिण्ड इति दृष्टान्तद्वारेण समर्थयतेसमासाऽऽश्रयणात् / अथवा-त्रिप्रदेशाऽऽद्यात्मकक्षेत्रपिण्डे, यदि वा जह तिपएसो खंधो, तिसु वि पएसेसु जो समोगाढो। त्रिसमयाऽऽद्यात्मककालपिण्डे यदवस्थितं पुद्गलद्रव्यं तत्तदादेशात् क्षेत्र अविभागिण संबद्धो, कहं तु नेवं तदाधारो? // 57|| कालव्यपदेशात्, क्षेत्रकालोपचारादित्यर्थः / यथाक्रमं क्षेत्रपिण्डःकाल यथा कश्चिदनिर्दिष्टव्यक्तिकः त्रिप्रदेशिकः' त्रिपरमाण्वात्मकः स्कन्धपिण्डः / प्रकारान्तरेण सोपचारौ क्षेत्रकालपिण्डावाह-(जत्थ जया सप्परूवणया) 'यत्र वसत्यादौ यदा प्रथमपौरुष्यादौ 'तत्प्ररूपणा' विष्वप्याकाशप्रदेशेष्ववगाढो, न त्वेकस्मिन् द्वयोर्वेत्यपिशब्दार्थः 'अविपिण्डप्ररूपणा क्रियते सः पिण्डः प्ररूप्यमाणो नामाऽऽदिपिण्डो वसत्या भागेन सम्बद्धो' विभागो नैरन्तर्याभावस्तदभावोऽविभागो, नैरन्तर्य मित्यर्थः / तेन सम्बद्धो नैरन्तर्यसम्बन्धसंबद्ध इति भावः, पिण्ड इति दिक्षेत्रमधिकृत्य क्षेत्रपिण्ड उच्यते, यथाऽमुकवसतिरूपक्षेत्रपिण्ड इति, प्रथमपौरुष्यादिक तु कालमधिकृत्य कालपिण्डो यथाऽमुकप्रथमप्रहरा व्यपदिश्यते, नैरन्तर्येणावस्थानभावात् सङ्ख्याबाहुल्यतश्च, एवं त्रिप्रदेऽऽदिरूपः कालपिण्ड इति / "इह तिन्नि उ पएससमया'' इत्यत्र पर शावगाढत्रिपरमाणुस्कन्ध इव तदाधारः-त्रिपरमाणुस्कन्धाऽऽधारःआक्षेपमाह-ननु मूर्तेषु द्रव्येषु परस्परमनुवेधतः सङ्ख्यावाहुल्यतश्च पिण्ड प्रदेशत्रयसमुदायः कथं तु न पिण्ड इति व्यपदिश्यते?, सोऽपि पिण्ड इति व्यपदेशो घटते, क्षेत्रकालयोस्तु न परस्परमनुवेधो नाऽपि काले इति व्यपदिश्यताम्, उभयत्राप्युक्तनीत्या विशेषाभावात्। सङ्ख्याबाहुल्यम् / तथाहि-क्षेत्रमाकाशमुच्यते 'खेत्तं खलु आगास'' सम्प्रति 'जत्थ जया तप्परूवणया" इत्येतद्वयाचिख्यासुर्नामस्थाइति वचनात्, तच्च नित्यमकृत्रिमत्वात्, ततः सदैव विविक्तप्रदेशा पनाद्रव्यभावपिण्डानां योगविभागसम्भवात् पारमार्थिक पिण्डत्वं, ऽऽत्मकतया व्यवस्थितमिति कथमाकाशप्रदेशानामनुवेधः? एकत्र क्षेत्रकालयोस्तु योगविभागासम्भवत औपचारिक प्रतिपादयन्नाहमिश्रणाभावात् / कालोऽपि पूर्वापरसमयविविक्तो वार्त्तमानिकसमय अहवा चउण्ह नियमा, जोगविभागेण जुज्जए पिंडो। रूप एव परमार्थिकः, पूर्वापरसमययोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन परमार्थतोऽ- दोसु जहियं तु पिंडो, वणिज्जइ कीरए वावि // 58|| सत्त्वात्, सतां च परस्परमनुवेधः संख्याबाहुल्य वा नासतां सदसतांवा, अथवेति प्रकारान्तरद्योतने, पूर्व हि क्षेत्रकालयोर्यथासङ्ख्यं प्रदेशततः कालद्वयमपि नोपपद्यते इति कथं तत्र पिण्ड इति व्यपदेशः? समयानां परम्पराऽनुवेधतः सङ्ख्याबाहुल्यतश्च पारमार्थिक पिण्डत्यअत्र प्रतिविधानमभिधित्सुराह मुक्तम् / यद्वा-तन्न युज्यत एव, योगविभागासम्भवात्। तथाहि-लोके मुत्तदविएसु जुज्जइ, जइ अन्नोऽन्नाणुवेइओ पिंडो। यत्र योग सति विभागः कर्तुं शक्यते, विभागे वा सति योगः तत्र पिण्ड मुत्तिविमुत्तेसु वि सो, जुजइ नणु संखबाहल्ला // 56|| इति व्यपदेशः, न च क्षेत्रप्रदेशेषु योगे सत्यपि विभागःकर्तुं शक्यः, ननुयदि मूर्तेषु द्रव्येषु अन्योऽन्यानुवेधतः परस्परानुवेधतः, 'संखबा नित्यत्वेन तेषां तथाव्यवस्थितानामन्यथा कर्तुमशक्यत्वात्, ततो न हुल्ला' इत्यप्यत्र सम्बध्यते, 'सङ्ख्याबाहुल्यतश्च' द्व्यादिसङ्ख्या तत्र पारमार्थिक पिण्डत्वं, तथा समयो वर्तमान एव सन् नातीतोऽसम्भवतश्च पिण्ड इति व्यपदेशो 'युज्यते' योगमुपैति, घटते इत्यर्थः / नागतो वा, तयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनाविद्यमानत्वात्, ततोऽत्र विभाग तर्हि स पिण्ड इतिव्यपदेशः 'मूर्त्तिविमुक्तेष्वपि, अमूर्ते वित्यर्थः, क्षेत्र एव न तु कदाचनाऽपि योग इति परमार्थिक पिण्डत्वाभावः, प्रदेशकालसमयेषु युज्यते, तत्राऽपि पिण्डशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य परस्प ततोऽन्यथा क्षेत्रकालपिण्डप्ररूपणा कर्तव्ये ति प्रकारान्तरता, रानुवेधस्य सङ्ख्याबाहुल्यस्य चसम्भवात्। तथाहि-सर्वेऽपि क्षेत्रप्रदेशाः 'चतुण्णा' नामस्थापनाद्रव्यभावपिण्डाना 'योगविभागेन' योगविपरस्परं नैरन्तर्यलक्षणेन संबन्धेन सम्बद्धा अवतिष्ठन्ते, ततो यथा भागसम्भवेन नियमात्पिण्ड इति व्यपदेशो युज्यते। तथाहि-नाम्नः पिबादरनिष्पादिते चतुरस्राऽऽदिघने परस्परनैरन्तर्यरूपानुवेधतःसङ्ख्या - I * एतन्नामा ग्रन्थः। Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 624 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड ण्डः, "नामनामवतोरभेदोपचारात्।" यदा-नाम्ना पिण्डो नामपिण्ड इति व्युत्पत्तेः पुरुषाऽऽदिकमेव भण्यते, तस्य च हस्तपादाऽऽदिभिरवयवैर्युक्तस्याऽपि खड्गाऽऽदिभिर्विभागः कर्तुं शक्यते इत्यस्ति योगे सति विभागः / यद्वा-पूर्व गर्भे मांसपेशीरूपस्य सतो हस्ताऽऽदिभिर- | वयवैर्वियोगः पश्चात्क्रमेण तैः सह संयोग इति विभागे सति योगः ततः | पिण्डरूपता, तथा स्थापनापिण्डेऽक्षत्रिकाऽऽदिरूपे पूर्व विभागे सति संयोगः, संयोगे वा सति विभाग इति पिण्डरूपता, द्रव्यपिण्डेऽपि गुडौदनाऽऽदिके विभागपूर्वकः संयोगः संयोगपूर्वको वा विभागः सुप्रतीत इति पारमार्थिकपिण्डरूपता, भावपिण्डेऽपि भावभाववतोः कथञ्चिदभेदात्साध्वादिरेव मूर्तो विग्रहवान् गृह्यते. तत्र संयोगविभागौ नामपिण्ड इव तात्त्विकाविति पारमार्थिकी पिण्डरूपता, क्षेत्रकालयोस्तूक्तनीत्या न संयोगविभागाविति न तत्र पिण्डशब्दप्रवृत्तिः, तस्मान्नामाऽऽदिपिण्ड एव तत्तत्क्षेत्रनिवासाऽऽदिकं पर्यायमुद्भूतरूपं विवक्षित्वा क्षेत्रपिण्डकालपिण्डशब्दाभ्यां व्यपदिश्यते / तथा चाऽऽह- 'दोसु' जहियं तु इत्यादि / 'द्वयोः क्षेत्रकालयोः 'यत्र' वसत्यादौ यदा वा प्रथमपौरुष्यादौ यः पिण्डो नामाऽऽदिरूपो व्यावर्ण्यत, यद्वा-यत्र गृहे महानसाऽऽदौ वा पिण्डो गुडपिण्डाऽऽदिर्मोदकाऽऽदिपिण्डो वा क्रियते, यदा वा प्रथमप्रहराऽऽदौ निष्पाद्यते स व्यावय॑मानो नामाऽऽदिपिण्डः क्रियमाणो वा गुडौदनाऽऽदिपिण्डस्तत्क्षेत्रकालापेक्षया क्षेत्रपिण्डः कालपिण्डश्च व्यपदिश्यते, यथाऽमुकवसत्यादिक्षेत्रपिण्डः प्रथमपौरुषीपिण्ड इत्यादि। उक्तौ क्षेत्रकालपिण्डौ। सम्प्रति भावपिण्डमभिधित्सुराहदुविहो उ भावपिंडो, पसत्थओ चेव अप्पसत्थो य। एएसिं दोण्हं पि य, पत्तेय परूवणं बोच्छं / / 56| 'द्विविधः द्विप्रकारः भावपिण्डः, तद्यथा-प्रशस्तः, अप्रशस्तश्च। तत एतयोर्द्वयोरपि प्रत्येकं प्ररूपणां प्ररूप्यते, द्वावपि भावपिण्डौ यया गाथापद्धत्या सा प्ररूपणा, तां वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिएगविहाइ दसविहो, पसत्थओ चेव अप्पसत्थो य। संजम विजाचरणे, नाणाऽऽदितिगं च तिविहो उ॥६०॥ नाणं दंसण तव संजमो य वय पंच छच जाणेजा। पिंडेसण पाणेसण, उग्गहपडिमा य पिंडम्मि // 61|| पवयणमाया नव बंभगुत्तिओ तह य समणधम्मो य। एस पसत्थो पिंडो, भणिओ कम्मट्ठमहणेहिं // 6 // प्रशस्तः, अप्रशस्तश्च भावपिण्डः प्रत्येकं दशविधः दशप्रकारः किं रूपः? इत्याह 'एकविधाऽऽदिकः' एकविधो द्विविधस्त्रिविधश्चतुर्विधो | यावद्दशविध इति, तत्र प्रथमत उद्देशक्रमप्रामाण्यानुसरणात्प्रशस्तं भावपिण्ड दविधमप्यभिदधाति-(संजमेत्यादि) तत्रैकविधः प्रशस्तो भाव पिण्डः संयमः, इह संयमो ज्ञानदर्शने विना न भवति, पूर्वद्वयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्ध इति वचनप्रामाण्यात्, ततो ज्ञानदर्शने संयम एवान्तर्भूत विवक्षिते इति संयम एवैकः प्रशस्तभावपिण्डत्वेन प्रतिपाद्यमानो न विरुध्यते / (प्रशस्तैकविधभावपिण्डः, तत्स्वरूपम् ‘संजम' शब्दे वक्ष्यामि) 1 / द्विविधः पिण्डः - विद्या 1, चरणम् / विद्याज्ञानं 1 (प्रशस्तद्विविधभावपिण्डः ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1636 पृष्ठे गतः) तच्चआभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्यवकेवलज्ञानभेदात् पञ्चविधम् / (तत्र आभिनिबोधिकज्ञानम् 'आभिणिबोहिय' शब्दे द्वितीयभागे 252 पृष्ठे गतम्) (श्रुतज्ञानम् 'सुय' शब्दे वक्ष्यामि)(अवधिज्ञानम् 'ओहिणाण' शब्दे तृतीयभागे 156 पृष्ठे प्रतिपादितम्) (मनःपर्यवज्ञानम् 'मणपज्जवणाण' शब्दे वक्ष्यामि) केवलज्ञानसर्वस्वम् 'केवलणाण' शब्देतृतीयभागे 642 पृष्ठे विस्तरतोगतम्) चरणं क्रिया 2, (सा च विस्तरतः 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे 531 पृष्ठे निरूपिता) अत्र सम्यग्दर्शनं ज्ञान एवान्तर्भूत विवक्षितमिति न पृथग्गणितं, विवक्षा हि वक्त्रधीना, वक्ता च कदाचि सक्षेपेणाभिधित्सुस्तांतां प्रत्यासत्तिमधिकृत्य तत्तदन्तर्भावनाभिधत्ते, कदाचित्पुनर्विशेषपरिज्ञानोत्पादनाय विस्तरेणाभिधित्सुः सर्व वैविक्त्येन पृथक् प्रतिपादयति, ततः कदाचित् ज्ञानाऽऽदित्रिक संयम इति प्रतिपाद्यते, कदाचित् ज्ञानक्रिये इति, कदाचित्पुनः परिपूर्णमपि साक्षाद्यथा ज्ञानाऽऽदित्रिकमिति न कश्चिद्दोषः। त्रिविधः पिण्डः पुनः'ज्ञानाऽऽदित्रिकम् ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि / (प्रश-स्तत्रिविधभावपिण्डः-ज्ञानम् 1- 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1936 पृष्ठे प्ररूपितम्) तट्नेदाश्च स्वस्वशब्दादवगन्तव्याः / (दर्शनम्र-सभेदम 'दंसण' शब्दे चतुर्थभागे 2425 पृष्ठेऽवलोकनीयम्) (चारित्रम् 3- 'चारित्त' शब्दे तृतीयभागे 1175 पृष्ठे गतम्) (विस्तरश्चात्र- 'चरित' शब्दे तस्मिन्नेव भागे 1141 पृष्ठे निरूपितः)३ / चतुर्विधः पिण्डः-ज्ञान १-दर्शन २तपः३-संयमाः ४,(प्रशस्तचतुर्विधभावपिण्डमध्ये ज्ञानम् १-स्वस्थाने। दर्शनम् २,'दंसण' शब्दे।तपः तद्रेदश्च 3 'तव' शब्दे चतुर्थभागे 2166 पृष्ठे सविस्तरं गतः३) ('संयम' 4 स्वस्थाने वक्ष्यामि) 4 / पञ्चविधःपञ्चव्रतानि, प्राणातिपात १-मृषावादा २ऽदत्तादान ३-मैथुन ४-परिग्रहनिवृत्तिलक्षणानि 5 / अत्राऽपि ज्ञानदर्शने अन्तर्भूत विवक्षिते इति न पृथग्गणिते, रात्रिभोजनविरमणमप्येतेषु पञ्चसुयथायोगमन्तर्भूतं विवक्षितं ततो न पञ्चविधत्वव्याघातः / एवमुत्तरत्राऽपि यथायोगमन्तर्भावभावना भावनीया। (प्रशस्तपञ्चविधभावपिण्डान्तर्गता प्राणातिपातनिवृत्तिः १'पाणाइवायवेरमण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 846 पृष्ठेगता) (मृषावादनिवृत्तिः 2 'मुसावायवेरमण' शब्दादवगन्तव्या) (अदत्तादाननिवृत्तिः 3 अदत्तादाणवेरमण' शब्दे प्रथमभागे 540 पृष्ठे गता) (मैथुननिवृत्तिम् 4 'मेहुणवेरमण' शब्दे वक्ष्यामि) (परिग्रहनिवृत्तिः 5 परिणहवेरमण' शब्देऽस्मिन्नेय भागे 570 पृष्ठ गता) 5 / षड्डिधो भावपिण्ड:-षड्व्रतानि, तत्र पञ्च व्रतानि पूर्वोक्तान्येव प्राणातिपातविरमणाऽऽदीनि, षष्ठ तु रात्रिभोजनविरमणलक्षणम् (प्रशस्तषद्धिधभावपिण्डान्तर्गताः प्राणातिपाताऽऽदयः परिग्रहविरमणान्ताः स्वस्वस्थानेव्याख्याताः)(रात्रिभोजनविरमणम् 'राइभोयणवेरमण' शब्देवक्ष्यामि)६ तथा सप्त विधेपिण्डेसप्त पिण्डषणाः, सप्त पानेषणाः, सप्त अवग्रहप्रतिमाः। तत्र पिण्डाणाः पानपणाश्च सप्त संभृष्टाऽऽदयः।ताश्चेमाः Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 625 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड "संसट्टमससट्टा, उद्घडतह अप्पलेवडा चेव। उग्गहिया पग्गहिया, उज्झियधम्मा य सत्तमिया / / 1 / / ' पिं० (विस्तरं "पिंडेसणा' शब्देऽग्रे वक्ष्यामि) (पानैषणाश्च 'पाणेसणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 846 पृष्ठे व्याख्याताः) (अवग्रहप्रतिमा वसतिविषयनियमविशेषाः, ते च द्वितीयभागे 724 पृष्ठे 'उग्गह' शब्दे व्याख्याताः) (विशेषं चात्र वसहि' शब्दे वक्ष्यामि)७। तथा-अष्टविधः पिण्ड:-अष्टौ प्रवचनमातरः, (ताश्च पवयणमाउआ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 785 पृष्ठे गताः) तथा नवविधः पिण्डः नव ब्रह्मचर्यगुप्तयः। तासांचेद स्वरूपम्"वसहि कह निसिजिंदिय, कुटुंतर पुव्वकीलिय पणीए। अइमायाहार विभूसणं च नव बंभगुत्तीओ॥१॥" (प्रशस्तनवविधभावपिण्डप्रतिपादिकगाथाविशेषं 'बंभचेरगुत्ति' शब्दे वक्ष्यामि ) तथा चेति समुचये, दशविधः पिण्डः दशप्रकारः श्रवणधर्मः / सचार्यम्"खंती य मद्दवऽजय, मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे। सचं सोय आकिंचण च बंभं च जइधम्मो।।१॥" (प्रशस्तदशविधभावपिण्डप्रतिपादिकाया अस्या गाथाया अक्षरगमनिका 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2667 पृष्ठे गता) (विस्तरश्चाऽत्र 'समणधम्म' शब्दादवगन्तव्यः) प्रशस्तभावपिण्डस्योपसंहारमाह-(एसो इत्यादि) 'एष' दशप्रकारोऽपि भावपिण्डः कर्माष्टकमथनैः तीर्थकृद्धिर्भणितः, अनेन स्वमनीषिकाव्युदासमाह // 60 // 61 // 62 / / सम्प्रति अप्रशस्तं भावपिण्डं दशविधमपि क्रमेणाऽऽहअपसत्थो य असंजम, अन्नाणं अविरई य मिच्छत्तं / कोहायासवकाया, कम्मे गुत्ती अहम्मो य॥६३|| (अपसत्थो य इत्यादि) अप्रशस्तः पुनर्भावपिण्ड एकविधः असंयमः, विरत्यभावः, अत्राऽज्ञानमिथ्यात्वाऽऽदीनि सर्वाण्यप्यन्तर्भूतानि विवक्ष्यन्ते, ततो न कश्चिद्दोषः। (अप्रशस्तैकविधभावपिण्डः असंयमः, स च सप्तदशविधः 'असंजम' शब्दे प्रथम-भागे 823 पृष्ठे निरूपितः) 1 / द्विविधः अज्ञानाऽविरती, चशब्दो मिथ्यात्वशब्दानन्तरं योजनीयः, अत्र मिथ्यात्वकषायाऽऽदयः सर्वेऽप्यत्रैवान्तर्भूता विवक्षितास्ततो न द्विविधत्वव्याघातः, एवमुत्तरत्राप्यन्तर्भावभावना भावनीया, (अप्रशस्तद्विविधभावपिण्डान्तर्गतम् अज्ञानम् 1- 'अण्णाण' शब्दे प्रथमभागे 457 पृष्ठे सविस्तरं निरूपितम्।) (तन्मध्यगा दशविधाऽपि अविरतिः २'अविरइ' शब्दे तस्मिन्नेव भागे 808 पृष्ठे निरूपिता) / त्रिविधःमिथ्यात्वं, चशब्दादज्ञानविरती च। (मिथ्यात्वम् १-मिच्छत्त शब्दादवगन्तव्यम्।) (अज्ञाना २-ऽविरती ३स्वस्वस्थाने गते) 3 / चतुर्विधःचत्वारःक्रोधाऽऽदयः क्रोधमानमायालोभाः, (तत्र क्रोधस्वरूपम्- 'कोह' शब्दे तृतीयभागे 683 पृष्ठे गतम्) (तस्यानेकविधक्रोधस्याऽऽत्मप्रतिष्ठितत्वाऽऽदिभेदाः सदण्डकाः 'कसाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 365 पृष्ठ उक्ताः) (मानमु२- 'माण' शब्दे विस्तरतो वक्ष्यामि) (माया ३-'माया' शब्दादवलोकनीया) (लोभः, तत्फलानि च 4 - 'लोभ' शब्दे वक्ष्यामि) 4 / पञ्चविधः-पञ्चाऽऽश्रवद्वाराणि प्राणातिपातमृषावादाब्दत्ताऽऽदानमैथुनपरिगहरूपाणि / (तत्र प्राणातिपातः 1- 'पाणाइवाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 853 पृष्ठे रूपितः) (मृषावादम् 2- 'मुसावाय' शब्दे वक्ष्यामि) (अदत्ताऽऽदानम् 3- 'अदत्तादाण' शब्दे प्रथमभागे 527 पृष्ठे गतम्) (मैथुनम् 4- 'मेहुण' शब्दे वक्ष्यामि) (परिग्रहः 5 परिग्गह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 552 पृष्ठे गतः) 5 / षविधः-(काय त्ति) कायवधाः पृथिवीकायिकाऽऽदिविनाशाः,(तेच 'छक्कायवह' शब्दे तृतीयभागे 1343 पृष्ठे निरूपिताः) 6 / साविधः कर्मणि कर्मविषयो द्रष्टव्यः / इह कर्माशब्देन कर्मबन्धनिबन्धनभूता अध्यवसाया गृह्यन्ते, भावपिण्डाधिका-रात्, तत आयुर्वर्जशेषसप्तकर्मबन्धनिबन्धनभूताः काषायिका अकाषायिका वा परिणामविशेषा जातिभेदापेक्षया सप्तभेदाः / सप्तविधोऽप्रशस्तो भावपिण्डः / (अध्यवसायशब्दार्थः 'अज्झ-वसाय' शब्दे प्रथमभागे 232 पृष्ठे गतः) (तेच अध्यवसायाः 'अणुभागबंधट्टाण' शब्दे प्रथमभागे 366 पृष्ठे विस्तरतो निरूपिताः) (सप्तविधकर्मज्ञानाय तृतीयभागे 243 पृष्टगतः 'कम्म' शब्दो द्रष्टव्यः) 7 / अष्टविधोऽपि भावपिण्डःकर्मविषयः / तत्रापीय भावनाकाष्टकबन्धनिबन्धनभूताः काषायिकाः परि-णामविशेषा जातिभेदापेक्षाऽष्टभेदाः, अष्टविधोऽप्रशस्तो भावपिण्डः / (अष्टविध कर्म 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 258 पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम् )8 / (अगुत्तीओ ति) नव ब्रह्मचर्यगुप्तिप्रतिपक्षभूता नव ब्रहाचर्यागुप्तयः, (ताश्च बंभचेरअगुत्ति शब्दे वक्ष्यामि) 6 तथा अधर्मःदशविधधर्मप्रतिपक्षभूतः (स चा-धर्मः 'अध (ह)म्म'शब्दे प्रथमभागे 566 पृष्ठे गतः) दशविधोऽप्रशस्तो भावपिण्डः 10 / सम्प्रति प्रशस्ताप्रशस्तयोर्भावपिण्डयोर्लक्षणमाहबज्झइ य जेण कम्मं, सो सव्वो होइ अप्पसत्थो उ। मुच्चइ य जेण सो पुण, पसत्थओ नवरि विन्नेओ॥६॥ इह येन भावपिण्डेनेकविधाऽऽदिकेन प्रवर्त्तमानेन 'कर्मा' ज्ञानावरणीयाऽऽदि बध्यते, चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः / स च दीर्घस्थितिक दीर्घसंसारानुबन्धि विपाककटुकं च येन बध्यते इति समुच्चिनोति, स सर्वोऽप्यप्रशस्तो भावपिण्डो ज्ञातव्यः / येन पुनरेकविधाऽऽदिना प्रवर्तमानेन कर्मणः सकाशात् शनैः शनैः सर्वाऽऽत्मना वा मुच्यते, स प्रशस्तो भावपिण्डो विज्ञेयः / आह-पिण्डो नाम बहूनामेकत्र मीलनमुच्यते, पिण्डनं पिण्ड इतिव्युत्पत्तेः, भावाश्च संयमाऽऽदयो यदा प्रवर्त्तन्ते तदैकसङ्ख्या एव,एकस्मिन् समये एकस्यैवाध्यवसायस्य भावात, ततः कथं पिण्डत्वम्? इति, अत्रोत्तरमाहदसणनाणचरित्ता-ण पज्जवाजे उजत्तिया वादि। सो सो होइ तयक्खो,पञ्जवपेयालणा पिंडो // 65 / / इह चारित्रग्रहणेन तपःप्रभृत्यपि गृह्यते. तस्याऽपि विरतिपरिणामरूपतया चारित्रभेदत्वात्, ततो दर्शनज्ञानचारित्राणां प्रत्येकं ये ये 'पर्यवाः' पर्यायाः अविभागपरिच्छेदरूपायदा यदा यावन्तो' यत्परिमाणावर्तन्ते स स तदा तदा तत्तदाख्योदर्शनाऽऽख्यो ज्ञानाऽऽख्यश्चारित्राऽऽख्यः 'पर्यवपेयालनापिण्ड,' पर्यायप्रमाणकरणेन पिण्ड, पर्यायसंहतिविवक्षया Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 926 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंड पिण्डो भवतीत्यर्थः / इयमत्र भावना- इंह यदा संयम एव केवलः प्राधान्येन विवक्ष्यते, न तु सती अपि ज्ञानदर्शने, संयमस्य तदविनाभावित्वेन तयोस्तत्रैवान्तर्भावविवक्षणात्, तदाये तस्य संयमस्याऽविभागपरिच्छेदाऽऽख्याः पर्यायास्ते समुदायेनैकत्र पिण्डीभूय व्यवतिष्ठन्ते, परस्परं तादात्म्यसम्बन्धेन सम्बद्धत्वात्, ततः संयमपर्यायसंहत्यपेक्षया पिण्ड इति संयम एकविधभावपिण्डत्वेनोच्यमानो न विरुध्यते, यदा तुतस्मिनेव संयमरूपेऽध्यवसाये पृथग-ज्ञानविवक्षा क्रियाविवक्षा च भवति, यथा वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदरूपोऽशो ज्ञानं प्राणातिपाता-ऽऽदिविरतिरूपः परिणामविशेषस्तु क्रियेति तदा ये ज्ञानस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्परंतादात्म्यसम्बन्धेनावस्थिता इति ज्ञानपिण्डः / ये तु क्रियाया अविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते क्रियापिण्डः, ततो द्विविधो भावपिण्डो ज्ञानक्रियाऽऽख्यः प्रतिपाद्यमानो न विरुध्यते, यदा तु तस्मिन्नेव संयमरूपेऽध्यक्साये पृथग् ज्ञानविवक्षा दर्शनविवक्षा चारित्रविवक्षा च, यथा वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदरूपोंऽशो ज्ञानं तस्मिन्नेव वस्तुनि परिच्छिद्यमाने जिनैरित्थमुक्तम्, अत इदं तथेतिप्रतिपत्तिनिबन्धन रुचिरूपः परिणामविशेषो दर्शन, प्राणातिपाताऽऽदिविरतिरूपस्तु परिणामविशेषश्चारित्रमिति, तदा ये ज्ञानस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते समुदिता ज्ञानपिण्डो, ये तु दर्शनस्य ते दर्शनपिण्डः,ये तु चारित्रस्य ते चारित्रपिण्ड इति त्रिविधो ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽख्यो भावपिण्ड उपपद्यते, यदा तु तपोरूपोऽपि परिणामो भवति भिन्नश्च चारित्राद्विवक्ष्यते तदा त्रयः पिण्डाः पूर्वोक्ताश्चतुर्थस्तु तपः पिण्ड इति चतुर्विधो भावपिण्डः,यदा तु पञ्च महाव्रता न्येव केवलानि विवक्ष्यन्ते ज्ञानदर्शनतपांसि पुनस्तत्रैवान्तर्भूतानि तदा ये प्राणातिपातविरतिपरिणामस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्परं समुदितत्वात प्राणातिपातविरतिपिण्डः, ये तु मृषावादविरतिपरिणामस्य ते मृषावादविरतिपिण्डः / एवं यावद्ये परिग्रहविरतिपरिणामस्य तेपरिग्रहविरतिपिण्ड इति पञ्चविधो भावपिण्ड उपपद्यते। एवं शेषेष्वपि पिण्डेषु पिण्डत्वभावना भावनीया। एवमप्रशस्तेष्वपि भावपिण्डेषु / तदेवं पिण्डनं पिण्ड इति भावविषयां व्युत्पत्तिमधिकृत्य संयमाऽऽदेः पिण्डत्वमुक्तम्। अथवाभावपिण्डविचारे पिण्डशब्दः कर्तृसाधानो विवक्ष्यते, यथ पिण्डयति कर्मणा सहाऽऽत्मानं मिश्रयतीति पिण्डो, भावश्चासौ पिण्डश्व भावपिण्डः। एतदेवाऽऽहकम्माण जेण भावेण अप्पगे चिणइ चिक्कणं पिंडं। सो होइ भावपिंडो, पिंडयए पिंडणं जम्हा / / 66 / / येन ‘भावेन' परिणामविशेषेण कर्मणां पिण्ड (चिक्कण त्ति) अन्योऽन्यानुवेधेन गाढसंश्लेषरूपमात्मनि चिनोति स भावो भवति भावपिण्डः / अत्र हेतुमाह- यस्मात्पिण्डनमिति पिण्ड्यते आत्मा स्वेन सह येन तत्पिण्डनं कर्म ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदितत्पिण्ड्यति आत्मना सह सम्बद्ध करोति, स भावस्तस्मात्कारणात्स भावपिण्ड इत्युच्यते / अत्र चेत्थं प्रशस्ताप्रशस्तत्वभावनायेन भावेन शुभं कर्म आत्मन्युपचीयते स | प्रशस्तो भावपिण्डः, येन त्वशुभं सोऽप्रशस्त इति / तदेवमुक्तो भावपिण्डः / पिं० / ओघा पं०भा०। 500 सम्प्रत्यमीषा पिण्डानां मध्ये येनात्रा धिकारस्तमभिधित्सुराहदव्वे अचित्तेणं, भावम्मि पसत्थएणिहं पगयं / उच्चारियत्थसरिसा, सीसमइविकोवणट्ठाए॥६७।। 'इह' अस्यां पिण्डनियुक्तौः'द्रव्ये' द्रव्यपिण्डविषये 'अचित्तेन' अचित्तद्रव्यपिण्डेन 'भावे' भावपिण्डविषये पुनः 'प्रशस्तेन’ प्रशस्तभावपिण्डेन प्रकृतं प्रयोजनं, यद्येवंतर्हि शेषाः किमर्थमभिहिताः? अत आह-(उचारिए त्यादि) शेषानामाऽऽदयः पिण्डाः पुनरुच्चारितार्थसदृशाः उच्चरितः-प्रतिपादितः योऽर्थः पिण्डशब्देनान्वर्थयुक्तेन तत्सदृशाः-तेन तुल्याः, तेषामपि पिण्डा इत्येवमुच्चार्यमाणत्वात्, ततः शिष्याणां मतेः विकोपन-प्रकोपनं झटिति तत्तदर्थव्यापकतया प्रसरीभवनं तदर्थमुक्ताः / इयमत्र भावनाजगति नामाऽऽदयोऽपि पिण्डा उच्यन्ते, तत्रापि पूर्वोक्तप्रकारेण पिण्डशब्दप्रवृत्तिदर्शनात्, केवलमिह तेषां मध्येऽचित्तद्रव्यपिण्डेन प्रशस्तेन च भावपिण्डेनाधिकारः, न शेषैरप्रस्तुतत्वादिति, अस्यार्थस्य वैविक्त्येन प्रतिपादनार्थं शेषनामाऽऽदिपिण्डोपन्यास इति / आह-मुमुक्षूणां सकलकर्मशृङ्खलाबन्धविमोक्षाय प्रशस्तेन भावपिण्डेन प्रयोजनं भवतु, अचित्तेन तु द्रव्यपिण्डेन किं प्रयोजनम् ? उच्यते-भावपिण्डोपचयस्य तदुपष्टम्भकत्वात्। एतदेवाऽऽहआहार उवहि सेज्जा, पसत्थपिंडस्सुवग्गहं कुणइ। आहारे अहिगारो, अट्ठहिँ ठाणेहिँ सो सुद्धो॥६८|| इहाचित्तद्रव्यपिण्डरित्रधा। तद्यथा-आहाररूपः, उपधिरूपः, शय्यारूपश्च / एष च त्रिविधोऽपि प्रशस्तस्य ज्ञानसंयमाऽऽदिरूपस्य भावपिण्डस्य उपग्रहम्' उपष्टम्भं करोति, ततस्त्रिविधेनाप्येतेन यतीनां प्रयोजनं, केवलमिह ग्रन्थे अधिकारः' प्रयोजनम्, आहारे आहारपिण्डे, स चाष्टभिः स्थानः उद्गमाऽऽदिभिः परिशुद्धो यथा यतीनां गवेषणीयो भवति तथाऽभिधास्यते। किं कारणमत्र विशेषत आहारपिण्डेन प्रयोजनम्? अत आहनिव्वाणं खलु कनं, नाणाइतिग च कारणं तस्स। निव्वाणकारणाणं, च कारणं होइ आहारो॥६६।। इह मुमुक्षूणां 'कार्य' कर्तव्यं निर्वाणमेव, न शेष, खलुशब्दोऽवधारणार्थः, शेषस्य सर्वस्याऽपि तुच्छत्वात्। 'तस्य' निर्वाणस्य कारण ज्ञानाऽऽदित्रिक ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम्- "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः'। (तत्त्वा०अ० १सू०६) इति / वचनप्रामाण्यात्, ततस्तदवश्यमुपादेयम्, उपायसेवामन्तरेणोपेयप्राप्तयसम्भवात्, तेषां ज्ञानाऽऽदीनां निर्वाणकारणानां कारणमष्टभिः स्थानैः परिशुद्ध आहारः, आहारमन्तरेण धर्मकायस्थितेरसम्भवात, उद्माऽऽदिदोषदुष्टस्य च चारित्रभ्रंशकारित्वात्। Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंड 627 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंडणिज्जुत्ति एतदेवाऽऽहारस्य निर्वाणकारणज्ञानाऽऽदिकारणत्वं दृष्टान्तेन समर्थयतेजह कारणं तु तंतू,पडस्स तेसिं च हॉति पम्हाइं। नाणाइतिगस्सेवं, आहारो मोक्खनेमस्स // 70 / / यथा पटस्य तन्तवः कारणं, तेषामपि तन्तूनां कारणानि पक्ष्माणि भवन्ति, एवम्' अनेन प्रकारेण ज्ञानाऽऽदित्रिकस्य (मोक्खनेमस्स त्ति) नेमशब्दो देश्यः कार्याभिधाने रूढः, ततो मोक्षो नेमः कार्य यस्य तस्य कारणं भवत्याहारः / इह कश्चित् ज्ञानाऽऽदीना मोक्षकारणतामेव न प्रतिपद्यते, विचित्रत्वात्सत्त्वचित्तवृत्तेः। ततस्तं प्रति ज्ञानाऽऽदीनां मोक्षकारणतां दृष्टान्तेन भावयतिजह कारणमणुवहयं, कजं साहेइ अविकलं नियमा। मोक्खक्खमाणि एवं, नाणाईणि उ अविगलाइं॥७१।। यथा बीजाऽऽदिलक्षणं कारणमनुपहतम् अग्न्यादिभिरविध्वस्तम् 'अविकलं' परिपूर्णसामग्रीसम्पन्नं नियमादड्कुराऽऽदिलक्षण कार्य जनयति / एवम्' अनेनैव प्रकारेण ज्ञानाऽऽदीन्यप्यविकलानि परिपू नि, तुशब्दादनुपहतानि च नियमतः 'मोक्षक्षमाणि' मोक्षलक्षणकार्यसाधनानि भवन्ति। तथाहि-संसारापगमरूपो मोक्षः, संसारस्य च कारणं मिथ्यात्वाज्ञानायिरतयः, तत्प्रतिपक्षभूतानि च ज्ञानाऽऽदीनि, ततो मिथ्यात्वाऽऽदिजनितं कर्म नियमतो ज्ञानाऽऽद्यासेवायामपगच्छति, यथा हिमप्रपातजनितं शीतमनलाऽऽसेवायामिति, कारणानि मोक्षस्य ज्ञानाऽऽदीनि, तानि च परिपूर्णानि, तुशब्दादनुपहतानि च, अनुपहतत्वं च चारित्रस्योगमाऽऽदिदोषपरिशुद्धाऽऽहारग्रहणे सति, नान्यथा, ततोऽष्टभिः स्थानराहारोयतिभिर्दाह्य इत्येतदत्र वक्तव्यम् / अत आहारपिण्डेने - हाधिकारः। पिं० तदेवमुक्तपिण्डे, पं०व० ३द्वारा दर्श०। प्रव०ा पिण्डनीये, प्रश्न०५ आश्र० द्वार। (शय्यातरपिण्डः, राजपिण्डश्च स्व-स्वस्थाने) (पिण्डप्रतिसेवना ‘पडिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 364 पृष्ठे उक्ता) शरीरे, षो० हविव०। कालिजे. (कलेजा) पिण्डो मांसेन विकृतिः। पं०व०रद्वार। गुडाऽऽदिपिण्डवत्पिण्डः। स्कन्धे, अनु०॥ पिंडकप्पिय पुं०(पिण्डकल्पिक) पिण्डविशुद्धिविशुद्धाऽऽहा-रग्रहणसामाचारीके, बृक्षा संप्रति पिण्डकल्पिकमाहअप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयपरिच्छणे य चउगुरुगा। दोहिं गुरुतवगुरुगा, कालगुरू दोहिं वी लहुगा / / 536 / / सूत्रं नाम प्रागासीत् आचारगत पिण्डैषणाऽध्ययनमिदानीं तु दशवैकालिकातं पिण्देषणाऽध्ययनं, तस्मिन्नप्राप्ने अपठिते यदि पिण्डस्याऽऽनयनाय तं प्रेषयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्यारो गुरुकाः, कालेनापि च गुरुकाः। अथ सूत्रं प्राप्तस्तथापि यदि तस्यार्थमकथयित्वा प्रेषयति तदा चत्वारो लघुकाः, नवरमेकेन कालेन लघवः। अथ कथितोऽर्थः परं नाधाप्यधिगतः, अथवाऽधिगतः परमद्यापि न तं सम्यक् श्रद्दधाति, तमनधिगतार्थमश्रद्दधानं वा प्रेषयतश्चत्वारो लघुकाः, तपसैकेनलधवः / अथाऽधिगतार्थमप्यपरीक्ष्य प्रेषयति तदा चत्वारो लघुकाः, द्वाभ्यां लघवः / तद्यथा तपसा कालेन च यत एवं प्रायश्चित्तमतः-- पढिए य कहिएँ अहिगएँ, परिहरती पिंडकप्पितो एसो। तिविहं तीहि विसुद्धं, परिहर नवगेण भेदेण / / 54011 पिण्डैषणाध्ययने पठिते तस्यार्थे कथिते तेन चाधिगते. उपलक्षणमेतत्, सम्यक् अद्धिते च, यस्त्रिविधमुद्गमशुद्धमुत्पादनाशुद्धमेषणाशुद्धं, त्रिभिर्मनोवाक्कायैर्विशुद्धं यः परिहारविषयेण नवकेन भेदेन परिहरति / तद्यथा-मनसा न गृह्णाति, नाप्यन्यैहयति, न च गृह्णन्तमनुजानीते। एवं च वाकायेनापि प्रत्येक त्रिकमवसातव्यम्। एष पिण्डकल्पिकः। अत्र पिण्डनियुक्तिः x सर्वा वक्तव्या / बृ० 10301 प्रक०। (अबार्थे 'पिंडणिज्जुत्ति' शब्दोऽवलोकनीयः) (उद्गमाऽऽदिदोषाणां प्रायश्चित्तमन्यत्रान्यत्र) पूर्व सूत्रतोऽर्थतश्चाधीतपिण्डकल्प आसीत्, इहेदानी पुनर्दशवकालिकान्तर्गताया पिण्डैषणायामपि सूत्रतोऽर्थतश्चाधीतायां पिण्डकल्पिकः क्रियते सोऽपि भवति। व्य०३उ०। पिंडग पु०(पिण्डक) पिण्डकरूपे कर्दमे, यः पादयोः पिण्डरूपतयालगति / ओघo पिंडगुड पुं०(पिण्डगुड) कठिनगुंडे, अद्रयगुडे, प्रव०४द्वार। पं०व०। पिंडधर न०(पिण्डगृह) चिक्खल्लपिण्डैन्निष्पादिते गृहे, व्य० ४उ०। पिंडणा स्त्री०(पिण्डना) सेवाऽऽदीनां खण्डपाकाऽऽदेश्च परस्पर संयोगे, (२गाथा) पिं० पिंडणिगर पु०(पिण्डनिकर) दापितभक्ते, पिण्डदाने च। नि०यू० उ०। __ पितृपिण्डे, मृतकभक्ते, आचा० २श्रु० १चू०१अ०२उ०। पिंडणिज्जुत्ति स्त्री०(पिण्डनियुक्ति) पिण्डषणाभिधपञ्चमाध्ययननिर्युक्तौ, पिं०। सा चैवम्"जयति जिनवर्द्धमानः, परहितनिरतो विधूतकर्मरजाः। मुक्तिपथचरणपोषकनिरवद्याऽऽहारविधिदेशी // 1 // नत्वा गुरुपदकमलं, गुरुपदेशेन पिण्डनियुक्तिम्। विवृणोमि समासेन, स्पष्टं शिष्यावबोधाय // 2 // " आह-निर्युक्तयो न स्वतन्त्रशास्त्ररूपाः, किंतुतत्तत्सूत्रपरतन्त्राः, तथा तदव्युत्पत्त्याश्रयणात्। तथाहि-सूत्रोपात्ता अर्थाः स्वरूपेण सम्बद्धा अपि शिष्यान् प्रतिनियुज्यन्ते निश्चितं सम्बद्धा उपदिश्य व्याख्यायन्ते यकाभिस्ता नियुक्तयः, भवताऽपि च प्रत्यज्ञायि पिण्डनियुक्तिमहं विवृणोमि, तदेषा पिण्डनियुक्तिः कस्य सूत्रस्य प्रतिबद्धेति? उच्यतेइह दशाध्ययनपरिणामश्चूलिकायुगलभूषितो दशवैकालिको नाम ___ + दशकालिकपञ्चमाध्ययननियुक्तिः। Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडणिज्जुत्ति 628 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंडणिज्जुत्ति श्रुतस्कन्धः, तत्र च पञ्चममध्ययन पिण्डैषणानामकं, दशकालिकस्य / च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदो भद्रबाहुस्वामिना कृता, तत्र पिण्डेषणाभिधपञ्चमाध्ययननियुक्तिरतिप्रभूतग्रन्थत्वात्पृथक् शारखान्तरमिव व्यवस्थापिता, तस्याश्च पिण्डनियुक्तिरिति नाम कृत, पिण्डैषणानियुक्तिः पिण्डनियुक्तिरिति मध्यमपदलोपिसमासाऽऽश्रयणाद्, अत एव चाऽsदावत्र नमस्कारोऽपि न कृतो, दशवैकालिकनियुक्त्यन्तर्गतत्वेन तत्र नमस्कारेणैवात्र विघ्रोपशमसम्भवात्, शेषा तु नियुक्तिर्दशवैकालिकनियुक्तिरिति स्थापिता। अस्याश्च पिण्डनियुक्तरादाविद्यमधिकारसङ्घहगाथापिंडे उग्गम उप्पायणेसणा (सं) जोयणा पमाणं च। इंगाल धूम कारण, अट्ठविहा पिंडनिज्जुत्ती / / 1 / / "पिडि संघाते' पिण्डनं पिण्डःसङ्घातो, बहूनामेकत्र समुदाय इत्यर्थः / समुदायश्च समुदायिभ्यः कथचिदभिन्न इति त एव बहवः पदार्था एकत्र समुदिताः पिण्डशब्देनोच्यन्ते, स च पिण्डो यद्यपि नामाऽऽदिभेदादनेकप्रकारो वक्ष्यते, तथाऽपीह संयमाऽऽदिरूपभावपिण्डोपकारको द्रव्यपिण्डो गृहीष्यते, सोऽपिच द्रव्यपिण्डो यद्यप्याहारशय्योपधिभेदात् त्रिप्रकारः, तथाऽप्यत्राऽऽहारशुद्धः प्रक्रान्तत्वादाहाररूप एवाधिकरिष्यते, ततस्तस्मिन्नाहाररूपे पिण्डे विषयभूते प्रथमत उद्गमो वक्तव्यः, तत्र उद्गम उत्पत्तिरित्यर्थः / उद्मशब्देन च इह उद्गमतादोषा अभिधीयन्ते, तथाविवक्षणात्। ततोऽयं वाक्यार्थः प्रथमत उद्गमगता आधाकर्मिकाऽऽदयो दोषा वक्तव्याः,(ते च 'उग्गम' शब्दे द्वितीयभागे 662 पृष्टे, 'आधा-कम्म' शब्दे च तस्मिन्नेव भागे 216 पृष्ठादारभ्य दर्शिताः) 1 / ततः-(उप्पायण त्ति) उत्पादनमुत्पादना, धात्रीत्वाऽऽदिभिः प्रकारैः पिण्डस्य संपादनमिति भावः। सा वक्तव्या1 किमुक्तं भवति-उद्गमदोषाऽभिधानानन्तरमुत्पादनादोषा धात्रीत्वाऽऽदयो वक्तव्याः, (ते उत्पादनादोषाः उप्पायणा शब्दे द्वितीयभागे 836 पृष्ठे गताः)शतत (एसण त्ति) एषणमेषणा, सा वक्तव्या, (एषणादोषाः एसणा' शब्दे तृतीयभागे 53 पृष्टे समुक्ताः )3 / एषणा त्रिधा / तद्यथा- गवेषणैषणा, ग्रहणैषणा, ग्रासैषणा च / तत्र 'गवेष अन्वेषणे, एषणा अभिलाषो गवेषणैषणा, एवं ग्रहणैषणाग्रासैषणेऽपि भावनीये, तत्र गवेषणैषणा उद्गमोत्पादनाविषयेति तद्ग्रहणेनैव गृहीता द्रष्टव्या। ग्रासैषणा त्वभ्यवहारविषया. ततः संयोजनाऽऽदिग्रहणेन सा गृहीष्यते, तस्मादिह पारिशेष्यादेषणाशब्देन ग्रहणैषणा गृहीता द्रष्टव्याः, ग्रहणैषणाग्रहणेन च ग्रहणैषणागता दोषा वेदितव्याः, तथाविवक्षणात्। ततोऽयं भावार्थ:-उत्पादनादोषभिधानानन्तरं ग्रहणैषणागता दोषाः शङ्कितम्रक्षिताऽऽदयोऽभिधातव्याः / ततः संयोजना वक्तव्या, तत्रसंयोजन संयोजना गृद्ध्या रसोत्कर्षसम्पादनाय सुकुमारिकाऽऽदीनां खण्डाऽऽदिभिः सह मीलनं,सा द्रव्यभावभेदाद् द्विधा / वक्ष्यति च-'दव्ये भावे संजोयणा य' इत्यादि। (संयोजनादोषाः- 'संजोयणा' शब्दादवगन्तव्याः) 4 / ततःप्रमाणं केवलसङ्ख्यालक्षणं वक्तव्यं, (प्रमाणम् 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 521 पृष्ट गतम्) 5 / चकारः समुच्चये, सच भिन्नक्रमत्वात्कारणशब्दानन्तरं द्रष्टव्यः। ततः (इंगालधूम त्ति) अनारदोषो धूमदोषश्व यथा भवति तथा वक्तव्यं, (अङ्गारदोषः 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 522 पृष्ठे गतः) (विशेषः-'अंगार' शब्दे प्रथमभागे 42 पृष्ठे गतः) 6 (धूमदोषः 'धूम' शब्दे चतुर्थभागे पृष्ठ 2768 सामान्यत उक्तः) (विशेषम् 'सधूम' शब्दे वक्ष्यामि) 7 / तदनन्तर (कारण त्ति) यैः कारणैराहारो यतिभिरादीयते, यैस्तुन, तानि कारणानि च वक्तव्यानि, (आहाराऽनयनाऽऽनयनकारणानि 'वेयणा' शब्दे वक्ष्यामि) 8 / सूत्रे च विभक्तिलोप आर्षत्वात्, तदेवम् ‘अष्टधा' अष्टप्रकारा अष्टभिराधिकारैः सम्बद्धेति भावार्थपिण्डनियुक्तिः पिण्डैषणानियुक्तिः / स्यादेतद्, एतेऽष्टावप्याधिकाराः किं कुतश्चित्सम्बन्धविशेषादायाता, उत यथाकथञ्चिक्तद्वव्याः?, उच्यते-सम्बन्धविशेषादायाताः / तथाहिपिण्डैषणाऽध्ययननियुक्तिर्वक्तुमुपक्रान्ता, पिण्डैषणाऽध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि / तद्यथा-उपक्रमो, निक्षेपः, अनुगमो, नयाश्च / तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे पिण्डेषणाऽध्ययनमिति नाम, ततः पिण्ड इति अध्ययनमिति च व्याख्येयं, तत्राध्ययनमिति प्रागेव द्रुमपुष्पिकाऽध्ययने व्याख्यातम, इह तु पिण्ड इति व्याख्येयं, तत एव गवेषणा च एषणा च गवेषणैषणा, ग्रहणैषणा, ग्रासैषणा च। गवेषणैषणाऽऽदयश्च उद्गमाऽऽदिविविषयास्ततस्ते वक्तव्याः। पिं०| संप्रत्यस्या एषणायाः सकलदोषसंकलनमाहसोलस उग्गमदोसा,सोलस उप्पायणाय दोसा उ। दस एसणाय दोसा, संजोयणमाइ पंचेव // 666 / / सुगमा। सर्वसंख्यया सप्तचत्वारिंशत् एषणादोषाः एतान् विशोधयन् पिण्डं विशोधयति, पिण्डविशुद्धौ च चारित्रशुद्धिः, चारित्रशुद्धौ मुक्तिसंप्राप्तिः। उक्तंच"एए विसोहयतो, पिंड सोहेइ संसओ नत्थि। एए अविसोहिते, चरित्तभेयं वियाणाहि॥१॥ समणत्तणस्स सारो, भिक्खायरिया जिणेहिं पण्णत्ता। एत्थ परितप्पमाणं, तंजाणसुमंदसंवेग॥२॥ णाणचरणरस मूलं, भिक्खायरिया जिणेहिँ पण्णत्ता। एत्थ उ उज्जममाणं, तं जाणसु तिव्वसवेग॥३॥ पिंड असोहयतो, अचरित्ती एत्थ संसओ नत्थि। चारितम्मि असंते, निरत्थया होइ दिक्खा उ॥४॥ चारित्तम्मि असंतम्मि, निव्वाणं न उ गच्छइ। निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वादिक्खा निरस्थगा॥५।।" तस्मादुद्गमाऽऽदिदोषपरिशुद्धः पिण्ड एषयितव्य इति। एसो आहारविही, जह भणिओ सव्वभावदंसीहिं। धम्मावस्सयजोगा, जेण न हायंति तं कुज्जा॥६७०।। एष आहारविधिः पिण्डविधिर्यथा येन प्रकारेण भणितस्तीर्थकराऽऽदिभिस्तथा कालानुरूपस्वमतिविभवेन मया व्याख्यात इति वाक्यविशेषः / पश्चार्द्धनापवादमाह- (धम्मेत्यादि) धर्माऽऽवश्यकयोगाः श्रुतधर्मचारित्रधर्मप्रतिक्रमणाऽऽदिव्यापाराः येन न हीयन्ते न हानि व्रजन्ति, तत्कुर्यात, तथा-तथापवादं सेवेतेति भावः, साऽधुना हि यथायथमुत्सर्गापवादस्थितेन भवितव्यं, या चापवादमासेवमानस्याऽशऽस्य विराधना साऽपि निर्जराफला। Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडणिज्जुत्ति 126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंडविसोहि तथा चाऽऽह 20 // जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स। | पिंडवाय पुं०(पिण्डपात) भक्ताऽऽदिभिक्षालाभे, स्था०५ ठा० 1 उ०। सा होइ निजरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स // 671 / / भिक्षालाभे, आचा० २श्रु० १चू० १अ०१०। भैक्ष्ये, सूत्र० यतमानस्य सूत्रोक्तविधिपरिपालनपूर्णस्य, अध्यात्मविशोधियुक्तस्य १श्रु०३अ०३उ०। आचा०।। रागद्वेषाभ्यां रहितस्येति भावः / या भवेद्विराधना अपवादप्रत्यया सा पिंडवायपडिया स्त्री०(पिण्डपातप्रतिज्ञा) पिण्डस्य पातो भोजनस्य पात्रे भवति निर्जराफला। इयमत्र भावनाकृतयोगिनो गीतार्थस्य कारणवशेन गृहस्थानिपतनम्, तत्र प्रतिज्ञा ज्ञानबुद्धिः पिण्डपातप्रतिज्ञा। पिण्डस्य यतनयाऽपवादमासेवमानस्य या विराधना सा सिद्धिफला भवतीति / पातो मम पात्रे भवत्विति बुद्धौ, भ०८श०६उ०। अहमत्र भिक्षा लप्स्ये तदेवं निक्षिप्तं पिण्डपदमेषणापदं च, तन्निक्षेपकरणाचाभिहितो नाम इत्यध्यवसाये,आचा०२श्रु०१चू० ११०१उ०॥ निक्षेपः, लदभिधानाचभवत्परिपूर्णा पिण्डनियुक्तिरिति / पिंडविसुद्धिकत्ता पुं०(पिण्डविशुद्धिकर्ता) जिनवल्लभगणिनि, सेन०। "येनैषा पिण्डनियुक्ति-युक्तिरम्या विनिर्मिता। "पिण्डविशुद्धिविधाता जिनवल्लभगणिः खरतरोऽन्यो वेति प्रश्रे, उत्तरम्द्वादशाङ्ग विदे तस्मै, नमः श्रीभद्रबाहवे॥१॥ जिनवल्लभगणेः खरतरगच्छसंबन्धित्वं न संभाव्यते, यतस्तत्कृते पौषधव्याख्याता यैरेषा, विषमपदार्थाऽपि सुललितवचोभिः / विधिप्रकरणे श्राद्धानां पौषधमध्ये जेमनाक्षरदर्शनात्कल्याणकस्तोत्रे च अनुपकृतपरोपकृतो, विवृतिकृतस्तान्नमस्कुर्वे // 2 // श्रीवीरस्य पञ्चकल्याणकप्रतिपादनाच तस्य सामाचारी भिन्ना, खरत राणां च भिन्नेति। २३प्र०। सेन० १उल्ला०| इमां च पिण्डनियुक्ति-मतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम्। यदवापि मलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुता लोकः / / 3 / / पिंडविसुद्धिकहण न०(पिण्डविशुद्धिकथन) आधाकर्माऽऽदिदोषा दूषितभक्तभणने, जी०३अधि। अर्हन्तः शरणं सिद्धाः, शरणं मम साधवः। पिंडविसोहि स्त्री०(पिण्डविशुद्धि) 'पिडि' संघाते इत्यस्य "इदितो नुम् शरणं जिननिर्दिष्टो, धर्मः शरणमुत्तमः॥४॥" पिं०नि०चून धातोः" / / 7 / 1 / 58|| इति (पाणि०) नुमि कृते पिण्डनं पिण्डः संघातो पिंडत्थ पुं०(पिण्डार्थ) समुदायाथै, विशे०। अनु०। बहूनां सजातीयानां विजातीयानां वा कठिनद्रव्याणामेकत्र समुदाय पिंडदाण न०(पिण्डदान) पितृभ्यः पिण्डविसर्जने, आ०चू०४अ० प्रथम इत्यर्थः / समुदायश्व समुदायिभ्यः कथञ्चिदभिन्न इतित एव बहवः पदार्था मृताय श्रेणिकमहाराजाय कूणिकेन पिण्डदानं कृतमिति ततो लोके एकत्र संश्लिष्टाः पिण्डशब्देनोच्यन्ते, तस्य विविधमनेकैराधाकाऽ5रूढम् / 'स्वामिन् पिण्डाऽऽदिदानेन, क्रियते निर्वृतः पिता। तथा चक्रे दिपरिहारप्रकारैः शुद्धिर्निर्दोषता पिण्डविशुद्धिः। प्रव०६७ द्वार। ओघा जनेऽप्येषा, प्रवृत्तिरभवत्ततः // 17 // " आ०क० ४अ०। ('सेणिय' शब्द आहाराऽऽदेरनेकैराधाकर्माऽऽदिपरिहारैर्निदोषतायाम, ध०३अधि०। विशेष वक्ष्यामि) गा पं०चू० द्रवरूपं च जलमपि समयभाषया पिण्ड एव / तदुक्तम्पिंडदोस पुं०(पिण्डदोष) पिण्डस्योद्गमोत्पादनैषणादोषेषु, पञ्चा० "पिंडो देहो भन्नइ,तस्स अवधुभकारणं दव्वं। एगमणेगं पिंड, समयपसिद्धं १३विव०। विआणाहि / / 1 / / " ध०३अधि०। प्रव०। नि०चू०। ('पढमालिया' पिंपगडि स्त्री०(पिण्डप्रकृति) अवान्तरभेदपिण्डाऽऽत्मिकासु नामकर्म- शब्देऽस्मिन्नेव भागे 376 पृष्ठे विशेष उक्तः) प्रकृतिषु, पं०सं०३द्वार / क०प्र० (ताश्च 'णामकम्म' शब्दे चतुर्थभागे उद्गमाऽऽदिदोषरहित आहारः१६६६ पृष्ठे उक्ताः ) सुद्धो पिंडो विहिओ, समणाणं संजमायहेउ त्ति। पिंडरस पुं०(पिण्डरस) खजूराऽऽदौ, बृ०१उ०२प्रक०। (पिण्डर सो पुण इह विण्णेओ, उग्गमदोसाऽऽदिरहितो जो / / 2 / / सद्रव्याणि लेव' शब्दे प्रसङ्गोपात्तानि) शुद्धो निरवद्य एव पिण्डो भक्ताऽऽदिरूपो विहितो ग्राह्यतया निरूपितः, पिंडलइय त्रि०(पिण्डलतिक) पिण्डस्वरूपे समुदिते, ''पिंडजायं गुरुभिरिति गम्यम्। श्रमणानां साधूनाम्। कुत एतदेवमित्याह- संयमस्य पिंडलइयं / " पाइन्ना० 208 गाथा। पृथिव्यादिसंरक्षणरूपस्याऽऽत्मनः स्वशरीरस्य, संयमरूपस्य वाऽऽपिंडलग न०(पिण्डलक) पटलके, "पिंडलगपिहुणसंठाणसंठिया / " त्मनः, संयमायस्य वा संयमलाभस्य हेतुर्निमित्तं संयमाऽऽत्महेतुः संयमापिण्डलकं पटलकं पटलपुष्पभाजनं तद्वत् पृथुलं संस्थानं तेन संस्थिता यहेतुर्वा इति कृत्वा / शुद्धस्यैवलक्षणमाह-सपुनः शुद्धः, इह पिण्डाधिइति / स्था०७ठा। कारे विज्ञेयो ज्ञातव्यः, उद्गमदोषरहितो वक्ष्यमाणलक्षणोद्गमोत्पादनैषणापिंडलिअ (देशी) पिण्डीकृतार्थे , दे०ना०६वर्ग 54 गाथा। दूषणविकलः / य इति पिण्डः / इति गाथाऽर्थः। पिंड्यद्धण न०(पिण्डवर्द्धन) कवलवृद्धिकारणे, भ०११श०११उ०। उद्गमदोषाऽऽदीनामेव परिमाणमाहपिंड्याएसणा स्वी०(पिण्डपातैषणा) विशुद्धपिण्डग्रहणैषणायाम, आचा० सोलस उग्गमदोसा, सोलस उप्पायणाएँ दोसा उ। २श्रु०१चू०२अ०३उ० दस एसणाएँ दोसा, बायालीसंइय हवंति||३|| पिंडवाएसणारय त्रि०(पिण्डपातैषणारत) लब्धे पिण्डपाते ग्रासैषणारते, षोडशोद्गमदोषा आधाकम्माऽऽदयो वक्ष्यमाणस्वरूपास्तथा "संथारपिंड या एसणारए संति भिक्खुणे।" आचा०२२०१चू० 210 | षोडशोत्पादनायामपि वक्ष्यमाणनिरुक्ताया, तस्या वा दोषाः Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडविसोहि 630 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंडे सणा दूषणानि धात्र्यादयः, तुशब्दोऽपिशब्दार्थो, नियोजितश्चाय प्राक्. तथा (दायकदोषः दायगदोस' शब्दे चतुर्थभागे 2500 पृष्ठे गतः) 38 / दशैषणायां वक्ष्यमाणनिरुक्तायां, तस्या वा दोषा दूषणानि शङ्किता- (उन्मिश्रदोषशब्दार्थः 'उम्मिस्स' शब्दे द्वितीयभागे 850 पृष्ठे उक्तः) ऽऽदयः, सर्वमीलने यत्स्यात्तदाह-द्विचत्वारिंशद्योषा इति / एवमुक्त- 36 / (अपरिणतदोषः अपरिणय' शब्दे प्रथमभागे 601 पृष्ठे गतः) 40 / क्रमेण, भवन्ति जायन्ते, इति गाथाऽर्थः। पञ्चा०१३विव० / पि० दर्श०। (लिप्तदोषम् ‘लित्त' शब्दे वक्ष्यामि) 41 / (छर्दितदोषः 'छड्डिय' शब्दे महा०। सम्म तृतीयभागे 1346 पृष्ठे उक्तः ) 42] ते च द्विचत्वारिंशद्दोषा नामतो निरूप्यन्ते पिंडविहाण न०(पिण्डविधान) मक्तपानाऽऽदिलक्षणपिण्डग्रहणविधौ, (आधाकर्मदोषः आधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे 216 पृष्ठे उक्तः)१। पञ्चान ('उद्देसिय' शब्दे तस्मिन्नेव भागे 817 पृष्ठे औद्देशिकदोष उक्तः) नमिऊण महावीरं, पिंडविहाणं समासओ वोच्छं। रा(पूतीकर्मदोषः 'पूईकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) 3 (मिश्रजात समणाणं पाउग्गं, गुरूवएसाणुसारेणं / / 1 / / दोषम् 'मीसजाय' शब्दे वक्ष्यामि) 4 (स्थापनादोषः 'ठवणा' शब्दे नत्वा प्रणम्य, महावीरं वर्धमानजिनम्, पिण्डविधानं भक्तपानाss - चतुर्थभागे 1682 पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितः) 5 / (प्राभृतिकादोषः दिलक्षणं पिण्डग्रहणविधिम्, समासतः संक्षेपेण न पुनर्विस्तरेण 'पाहुडिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 614 पृष्ठे गतः) 6 (प्रादुष्करणदोषः पिण्डैषणाध्ययनाऽऽदाविव, मन्दमेधसां समासतो भणनस्यैवोपयोगि'पाउकरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 818 पृष्ठे उक्तः) 7 / (क्रीतदोषः त्वात् , वक्ष्ये भणिष्यामि / किंभूतमित्याह-गुरवो जिनाऽऽदयस्तेषा'कीयगड' शब्दे तृतीयभागे 563 पृष्ठे गतः) / (प्रामित्यदोषः पामिच' मुपदेश आज्ञा, तस्यानुसार आज्ञाऽनुरूप्यं गुरूपदेशानुसारोऽतस्तेन, शब्देऽस्मिन्नेव भागे 853 पृष्ठे उक्तः) / (परिवर्तितदोषः परियट्टिय' नतु स्वमनीषया। इति गाथाऽर्थः / पञ्चा०१३विव०। शब्देऽस्मिन्नेव भागे 627 पृष्ठे उक्तः) १०।(अभ्याहृतदोषः अभिहड' पिंडहलिदा स्त्री०(पिण्डहरिद्रा) कन्दविशेषे, भ०७२० 330 // शब्दे प्रथमभागे 730 पृष्ठे गतः)११(उदिन्नदोषः 'उब्भिण्ण' शब्दे पिंडाइचउकविसोहि स्त्री०(पिण्डाऽऽदिचतुष्कविशुद्धि) पिण्डशय्याद्वितीयभागे 840 पृष्ठे उक्तः) १२(मालाहृतदोषम् 'मालोहड' शब्दे वस्त्रपात्राणामाधाकर्माऽऽदिदोषराहित्ये, ध० ३अधिol वक्ष्यामि) 13 (आच्छेद्यदोषः अच्छिज्ज' शब्दे प्रथमभागे 167 पृष्ठे पिंडार पुं०(पिण्डार) गोपे, “असती जा एसा सा तं परिचरति, साय प्रतिपादितः) 14 / (अनिसृष्टदोषः अणिस?' शब्दे तस्मिन्नेव भागे 336 नम्मयाए परकूले पिंडारो, तेण समं पलग्गिया।" आव० 4 अ० "न पृष्ठे समुक्तः) 15 ।(अध्यवपूरकदोषः 'अज्झोयरय' शब्दे तरिमन्नेव मुग्धा किन्त्वसत्येषा, स तच्चरितमीक्षते / नर्मदा परकूले च, गोपेन भागे 234 पृष्ठे गतः) 16 (धात्री-दोषः 'धाईपिंड' शब्दे चतुर्थभागे सममस्ति सा / / 1 / / '' आ०क० ४अ०॥ 2740 पृष्ठे प्रतिपादितः) 17 / (दूतीदोषः दुई शब्दे तस्मिन्नेव भागे पिंडालुग पुं०(पिण्डालुक) कन्द्रभेदे, प्रव० ४द्वार। ध० 2604 पृष्ठे गतः) 18 / (निमित्तपिण्डदोषः णिमित्त' शब्दे तस्मिन्नेव पिडि स्त्री०(पिण्डि) भिन्तके, सूत्र०२श्रु०६अ। लुम्व्याम्, ज्ञा० १श्रु० भागे 2052 पृष्ठे उक्तः) 16 (आजीवनदोषः आजीव' शब्दे द्वितीयभागे / 10 102 पृष्ठ गतः) 20 / ('वणीमग' शब्दे वनीयकदोषं वक्ष्यामि ) 21 / / पिंडिकुंडिमराय पुं०(पिण्डिकुण्डिमराज) कातिके नृपभेदे, ती०४६ (चिकित्सादोषः 'तिगिच्छा' शब्दे चतुर्थभागे 2238 पृष्ठे गतः) कल्प। 22 / (क्रोधदोषः 'कोहपिंड' शब्दे तृतीयभागे 686 पृष्ठे उक्तः) पिंडिम त्रि०(पिण्डिम) पिण्डेन निर्वृत्तः पिण्डिमः / घोषवर्जिते, स्था० 23 ।(मानदोषम् 'माणपिंड' शब्दे वक्ष्यामि) 24 / (मायादोषं १०टा० / पिण्डिते, रा०। आ०म०। 'मायापिंड' शब्दे वक्ष्यामि ) 25 ।(लोभदोषम् 'लोभ' शब्दे वक्ष्यामि) पिडिय त्रि०(पिण्डित) मीलिते, तं० औ०। सम्मीलिते, आचू० 10 // 26 ।(पूर्वपश्चात्संस्तुतदोषम् ‘संथवपिंड' शब्दे वक्ष्यामि) 27 / / गुणिते, औ०। एकजातिमापन्ने, आ०म० अ० अनु० उत्तला पिण्डित (विद्यापिण्डदोषम् 'विज्जा' शब्दे वक्ष्यामि)२८) (मन्त्रदोषम् 'मंत' शब्दे किमुच्यते? इत्याह-'संगहियमागहीयं, संपिडियमेगजाइमाणीयं / वक्ष्यामि)२६ / (चूर्णदोषः'चुण्ण' शब्दे तृतीयभागे 1166 पृष्ठे उक्तः) / संगहियमणुगमो वा, वइरेगो पिंडियं भणिय" / / 2204 / / विशेला एकीभूते, 30 / (योगदोष 'जोगपिंड' शब्दे चतुर्थभागे 1641 पृष्ठे गतः) 31 / ओघा आ०म० (मूलकर्मदोषम् 'मूलकम्म' शब्दे वक्ष्यामि) ३२(शङ्कितदोषम् 'संकिय' / पिडियणीहारिमास्त्री०(पिण्डितनिर्झरिमा) पिण्डिता सती निहारिमा दूरे शब्दे वक्ष्यामि) (स एव 'एसणा' शब्दे च तृतीयभागे 54 पृष्ठे गतः) 33 / विनिर्गच्छति पिण्डितनिर्हारिमा जी०३ प्रति०४ अधि०। पुद्गलसमूह(मक्षितदोषम् 'मक्खिय' शब्दे वक्ष्यामि / विस्तरतः 'एसणा' शब्दे रूपायां दूरदेशगामिन्यां च / औ०। गन्धघ्राणे, ज्ञा०१श्रु०१०) तृतीयभागे 55 पृष्ठे उक्तः) 34 / (निक्षिप्तदोषः 'णिक्खित्त' शब्दे / पिंडी (देशी) मञ्जाम, दे०ना० ६वर्ग 46 गाथा। चतुर्थभागे 2023 पृष्ठे गतः) 35 / ( पिहितदोषम् 'पिहिय' शब्देऽस्मिन्नेव / पिंडे सणा स्त्री० (पिण्डै षणा) पिण्डं समयभाषया भक्तं, भागे वक्ष्यामि) 36 / (संहृतदोषम् 'साहरिय' शब्दे वक्ष्यामि) 37 / / तस्यैषणा ग्रहणप्रकाराः / स्था०७ठा० / पा०। प्रव०। पि Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडे सणा 631 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिंडे सणा एडस्य ग्रहणैषणायाम, सा च दशवैकालिकस्य पञ्चमेऽध्ययने, इति तदध्ययनमपि पिण्डैषणेत्युच्यते / तद्व्याख्यानाय भाष्यकार आहेपिण्डैषणानिक्षेपःमूलगुणा वक्खाया, उत्तरगुणअवसरेण आयायं / पिंडज्झयणमियाणिं, निक्खेवे नामनिप्फन्ने ||61 / / मुलगुणाः प्राणातिपातनिवृत्त्यादयः व्याख्याताः सम्यक् प्रतिपादिता अनन्तराध्ययने, ततश्च उत्तरगुणावसरेणोत्तरगुणप्रस्तावेनाऽऽयातम् इदमध्ययनमिदानीं यत्प्रस्तुतम्, इह चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववद्यन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तथा चाह-निक्षेपे नामनिष्पन्ने, किमित्याहपिंडो य एसणा य, दुपयं नामं तु तस्य नायव्वं / चउ चउ निक्खेवेहि,परूवणा तस्स कायव्वा / / 234|| पिण्डक्ष एषणा च द्विपदं नाम तु द्विपदमेव विशेषाभिधानं तस्योक्तसंबन्धस्याध्ययनस्य ज्ञातव्यं, चतुश्चतुर्निक्षेपाभ्यां नामाऽऽदिलक्षणाभ्यां प्ररूपणा, तस्य पदद्वयस्य कर्त्तव्येति गाथाऽर्थः / दश० ५अ०१3०1 | (पिण्डशब्दार्थविचारः 'पिंड' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव कृतः) (एषणाशब्दार्थः 'एसणा' शब्दे तृतीयभागे 42 पृष्ठे विस्तरतो निरूपितः) (द्रव्यैषणाऽपि तत्रैव पृष्ठ प्रतिपादिता) (भावैषणा चापि विस्तरतस्तत्रैव निरूपिता) (द्रव्यैषणाभावैषणयोर्भदाश्च तस्मिन्नेव भागे 53 पृष्ठ गताः)। पिण्डेषणा च सर्वा उद्गमाऽऽदिभेदभिन्ना संक्षेपेण अवतरति नवसु कोटीषु ताश्च कोटय ('कोडीकरण' शब्दे तृतीयभागे 676 पृष्ठे दर्शिताः) तवं कुव्वइ मेहावी, पणीअं वजए रसं। मज्जप्पमायविरओ, तवस्सी अइउक्कसो।।४२।। तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइअं। विउलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुणेह मे // 43 // एवं तु सगुणप्पेही, अगुणाणं च विवज्जए। तारिसो मरणंतेऽवि, आराहेइ संवरं // 44|| आयरिए आराहेइ, समणे आवितारिसो। गिहत्था विण पूयंति, जेण जाणंति तारिसं // 45|| यतथैवमत एतद्दोषपरिहारेण "तवं ति" सूत्रं, तपः करोति मेधावी' मर्यादावर्ती 'प्रणीतं' स्निग्धं वर्जयति 'रसं' धृताऽऽदिकं, न केवल मेतत्करोति, अपि तु मद्यप्रमादविरतो, नास्ति क्लिष्टसत्त्वानामकृत्यमित्येवं प्रतिषेधः, 'तपस्वी' साधुः 'अत्युत्कर्षः' अहं तपस्वीत्युत्कर्षरहित इति सूत्रार्थः / / 42 / / (तस्स त्ति) 'तस्य' इत्थंभूतस्य पश्यतः 'कल्याण' गुणसंपद्रूपं संयम, किंविशिष्टमित्याह-अनेकसाधुपूजित, पूजितमिति सेवितमाचरितं. 'विपुलं' विस्तीर्ण विपुलमोक्षाऽऽवहत्वात् 'अर्थसंयुक्त' तुच्छताऽऽदिपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् कीर्तयिष्येऽहं श्रृणुत 'मे' ममेति सूत्रार्थः / / 43 // एवं तु' उक्तेन प्रकारेण | 'रा' साधुः 'गुणप्रेक्षी' गुणानप्रमादाऽऽदीन् प्रेक्षते तच्छीलश्च य इत्यर्थः, तथा 'अगुणानां च' प्रमादाऽऽदीना स्वगतानामनासेवनेन परगतानां चाननुमत्या विवर्जकः त्यागी 'तादृशः' शुद्धवृत्तो 'मरणान्तेऽपि' चरगकालेऽप्याराधयति 'संवर' चारित्रं सदैव कुशलबुद्ध्या तद्वीजपोषणाद् / इति सूत्रार्थः / / 44 / / तथा- (आयरिए त्ति) आचार्या नाराधयति शुद्धभावत्वात्, श्रमणाश्चापि तादृश आराधयति, शुद्धभावत्वादेव, गृहस्था अपि शुद्धवृत्तमेनं पूजयन्ति, किमिति?, येन जानन्ति 'तादृशं' शुद्धवृत्तमिति सूत्रार्थः / / 45 // दश०५ अ० २उ०१ पिण्डैषणाअह भिक्खू जाणेजा सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पिंडे सणा-असंसट्टे हत्थे असंसढे मत्ते तहप्पगारेणं असंसटेण हत्थेण वा मत्तएणं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से दिजा फासुयं पडिगाहेजा, पढमा पिंडसेणा 11 अहावरा दोचा पिंडेसणा-संसद्धे हत्थे संसढे मत्ते तहेव दोचा पिंडे सण 2 / अहावरा तच्चा पिंडेसणा-इह खलु पाईणं वा 4 संतेगतिया सवा भवंतिगाहावती वाजाव कम्मकरी वा, तेसिं च णं अण्णयरेसु विरूवरूवेसु भायणजाएसु उवणिक्खित्तपुव्वे सिया, तं जहाथालंसि वा पिढरंसि वा सरगंसि वा परगंसि वा वरगंसि वा अह पुण एवं जाणेज्जाअसंसहे हत्थे संसट्टे मत्ते, संसट्टे वा हत्थे असंसट्टे मत्ते, से य पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गहिए वा से पुवामेव आलोएज्जा आउसो त्ति वा भगिणी ति वा एतेणं तुम असंसट्टेणं हत्थेण संसट्टेण मत्तेणं संसटेण वा हत्थेण असंसट्टेण मत्तेणं अस्सि पडिग्गहगंसि वा पाणिंसि वा णिहटु वा उचित्तु दलयाहि, तहप्पगारं भोयणजायं सयं वा णं जाएज्जा, परो वा एसो देजाफासुयं एस-णिज्जंजाव लाभे संते पडिगाहेजा, तच्चा पिंडे सणा 3 / अहावरा चउत्था पिंडे सणा-से मिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण जाणेज्जा पिहुअंवा०जाव चाउलपलं वा अस्सिं खलु पडिग्गहियं सि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्जवजाए तहप्पगारं पिहुयं वाजाव चाउलप-लंबं वा सयं वा णं जाएज्जा०जाव पडिग्गाहेज्जा। चउत्था पिंडेसणा ४/अहावरा पंचमा पिंडेसणा-से भिक्खूवा भिक्खुणीवाउगहियमेव भोयणजायं जाणिज्जा। जहा-सरावंसिवा डिडिमंसिवाकोसगंसिवा, अह पुण एवं जाणेज्जा-बहुपरियावन्ने पाणीसु दगलेवे तहप्पगारं असणं वा पाणंवाखाइमंवा साइमंवासयं०जावपडिगाहिज्जापंचमापिंडेसणा 5 / अहावरा छटा पिंडेसणा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पगहियमेव भोयणजायं जाणिज्जा, जं च सयट्ठाए पग्गहियं,जं च परवाए प Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंडे सणा 932 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिच्छी गहियं तं पायपरियावन्नं तं पाणिपरियावन्नं फासुयं पडिगाहिज्जा, प्राभृतिका 'पात्रपर्यापन्नां वा' पात्रस्थिता पाणिपर्यापन्नां वा हस्तस्थिता छट्ठा पिंडेसणा 6 / अहावरा सत्तमा पिंडेसणा-से मिक्खू वा वा यावत्प्रतिगृह्णीयादिति 6 / अथापरा सप्तमी पिण्डैषणा-उज्भिातभिक्खुणी वाजाव समाणे बहुउज्झियधम्मियं भोयणजायं धमिका नाम, सा च सुगमा 7 / आसु च सप्तस्वपि पिण्डैषणासु जाणेजा, जंचऽण्णे बहवे दुपयचउप्पय-समणमाहणअतिथिकि- संस्पृष्टाऽऽद्यष्टभङ्गका भणनीयाः, नवरं चतुर्थ्यां नानात्वमिति तस्या वणवणीमगा णावखंति, तहप्पगारं उज्झियधम्मियं भोयण- 1 अलेपत्वात्संसृष्टाऽऽद्यभाव इति / आचा०२श्रु० १चू०१अ० ११उ०। जायं सयं जाणेज्जा, परो वा से देज्जा०जाव फासुयं पडिगा आचाराङ्ग द्वितीय श्रुतस्कन्धस्याऽदितआरभ्य सप्ताध्यायीरूपायाः हेज्जा, सत्तमा पिंडेसणा, इच्चेयाओ सत्त पिंडेसणाओ 7 / प्रथमचूडायाः प्रथम अध्ययने, स०१अङ्गा आ०चू०। प्रश्नाधा अथशब्दोऽधिकारान्तरे किमधिकुरुते सप्त पिण्डैषणाः पानैषधाश्चेति। पिंडेसिका पुं०(पिण्डैषिका) पिण्ड भोजनमिच्छन्त्यन्वेषयन्ति वा ये ते अथान्तरं भिक्षुर्जानीयात्-काः सप्त पिण्डैषणाःपानैषणाश्च / ताश्चेमास्त पिण्डैषिकाः। पिण्डान्वेषकेषु, भ०६श०३३उ०। द्यथा- ''असंसट्ठा 1, संसट्ठा 2, उद्धडा 3 अप्पलेवा 4, उग्गहिया 5, पिंडोलग पुं०(पिण्डावलग) 'पिडि' संघाते, पिण्ड्यते तत्तद्-गृहेभ्य पग्गहिया ६उज्झितधम्मा 7" इति / अत्र च द्वये साधवो गच्छान्तर्गता आदायात्यते इति पिण्डः, तमवलगते सेवते पिण्डावलगकः। स्वयमाहाराभावतः परदत्तोपजीविनि, उत्त०५ अ०। सूत्रका "पिंडोलए गच्छनिर्गताश्च / तत्र गच्छान्तर्गतानां सप्तानामपि ग्रहणमनुज्ञात, गच्छनिर्गताना पुनराद्ययोर्द्वयोरग्रहः पञ्चष्वभिग्रह इति / तत्राऽऽधातावद्दर्श व दुस्सीले.णरगाओ न मुचइ।" उत्त०५अ01 आचा०ा सूत्र०। यतितत्र तासु मध्ये खल्वित्यलङ्कारे इमा प्रथमा पिण्डेषणा। तद्यथा पिंसुली (देशी) मुखमारुतपूरिततृणवाद्यविशेषे, दे०ना०६वर्ग 47 गाथा। असंसृष्टो हस्तः, असंसृष्टं च मात्रं, द्रव्यं पुनः सावशेषं वा स्यान्निरवशेष पिक्क त्रि०(पक्क) "सर्वत्र ल-व-रामचन्द्रे" ||8/276 / / इतिवलोपः। वा, तत्र निरवशेषे पश्चात्कर्मदोषस्तथाऽपि गच्छस्य बालाऽऽद्याकुलत्वा प्रा०२पाद / "पक्चाङ्गारललाटे वा" |8/1947 / / इत्यकारस्ये कारः / प्रा०१पाद। 'पझं पिक्क परिणयं।" पाइ०ना०१४३ गाथा। तन्निषेधो नास्त्यत एव सूत्रे तच्चिन्ता न कृता / शेष सुगमम् / तथा पिकमांसी स्त्री०(पकमांसी) संस्कृते गन्धद्रव्यविशेष, प्रश्र०५संव० द्वार। अपरा द्वितीया पिण्डैषणा। तद्यथा-संसृष्टो हस्तः, संसृष्ट मात्रकमित्यादि सुगमम् / अथापरा तृतीया पिण्डषणा। तद्यथा-इह खलु प्रज्ञापकापेक्षया पिक्खण न०(प्रेक्षण) प्रेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणम्। प्रत्युपेक्षणे, ओघ०। प्राच्यां दिक्षु सन्ति केचित् श्रद्धालवः / ते चामी गृहपत्यादयः कर्म पिचुमंद पु०(पिचुमन्द) निम्बे,नि००१उ०। करीपर्यन्तास्तेषां च गृहेष्वन्यतरेषु नानाप्रकारेषु भाजनेषु पूर्वमुत्क्षिप्तम पिच्च न०(नीर) उदके, दश०७अ०। शनाऽऽदि स्याद्राजनानि च स्थालाऽऽदीनि सुबोध्यानि, नवरं सरगमिति पिचा अव्य० (प्रेत्य) परलोके, "पिच्चानते संति'। सूत्र० १श्रु०१० शरिकाभिः कृतं सूर्पाऽऽदि,परगवंशनिष्पन्नं छव्वकाऽऽदि वरगं मण्यादि 1301 महार्घमूल्यं, शेषं सुगम, यावत्परिगृह्णीयादिति / अत्र च संसृष्टासंसृष्ट- 1 *पीत्वा स्त्री०। पानं कृत्वेत्यर्थे , कल्प०३अधि०६क्षण। सावशेषद्रव्यैरष्टौ भङ्गाः, तेषु चाष्टमो भगः संसृष्टो हस्तः, संसृष्ट मात्रं, | पिच्चिय न०(पिचित) कुट्टितत्वडनये लेखनोपकरणे, स्था०५ ठा०४३० सावशेषं द्रव्यमित्येष गच्छनिर्गतानामपि कल्पतेशेषास्तु भङ्गा गच्छान्तर्ग- पिच्छ पुं०(पिच्छ) पत्रे, ज्ञा० १श्रु० १अ०। पक्षे, ज्ञा० १श्रु० ३अ० तानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाश्रित्य कल्पन्ते इति 3. अपरा चतुर्थी पक्षावयवविशेष, उपा०१अ० प्रश्न० / प्रज्ञा०। मयूराङ्गरुहे, जी०१७ पिण्डैषणा-अल्पलेपा नाम सा यत्पुनरेवमल्पलेपं जानीया- त्तद्यथा अधि० "पिच्छाई पेहुणाई" पाइ०ना० 126 गाथा / द्यूते, "उअ पृथुकमिति भुग्नशाल्याद्यपगततुषं यावत्तन्दुलप्रलम्बमिति भुगशाल्यादि पिच्छ।" पाइन्ना० 223 गाथा। तन्दुलानिति अत्रच पृथुकाऽऽदिके गृहीतेऽप्यल्पं पश्चातकाऽऽदि, तथा पिच्छणिज्ज न०(प्रेक्षणीय) द्रष्टु योग्ये, कल्प०१अधि०२क्षण। अल्प पर्यायजातमल्पं तुषाऽऽदित्यजनीयमित्येवंप्रकारमल्पलेपमन्य- पिच्छाघर न०(प्रेक्षागृह) वास्तुविद्याप्रसिद्धे गृहे, च० प्र०४पाहु०। दपि वल्लवणकाऽऽदि यावत्परिगृह्णीयादिति / अथापरा पञ्चमी पिण्डे- पिच्छाभूमि स्त्री०(प्रेक्षाभूमि) रङ्गमण्डपे, "रंगो पिच्छा भूमी।" पाइ० षणाअवगृहीता नाम / तद्यथा-स भिक्षुर्यावदुपहृतमेव भोक्तुकामस्य ना०२७२ गाथा। भाजनस्थितमेव भोजनजात ढौकितं जानीयात्तत्पुनर्भाजन दर्शयति।। पिच्छि पुं०(पिच्छिन्) मयूराऽऽदिपिच्छवाहिनि, भ०६ श० ३३उ० औ०। तद्यथा-शरावं प्रतीत, डिण्डिम कांस्यभाजनं, कोशकं प्रतीतं. तेन च दात्रा कदाचित्पूर्वमेवोदकेन हस्तो मात्रकं वा धौतं स्यात्तथा च निषिद्ध पिच्छिज्जमाण त्रि०(प्रेक्ष्यमाण) विलोक्यमाने, कल्प० 1 अधिक ग्रहणम्। अथ पुनरेवं जानीयाद्वहुपर्यापन्नः परिणतः पाण्यादिषूदकलेप- ५क्षण / प्रश्न स्तत एवं ज्ञात्वा यावद् गृह्णीयादिति 5 / अथापरा षष्टी पिण्डैषणाप्रगृहीता | पिच्छिली (देशी) लज्जायाम्. देवना० ६वर्ग 47 गाथा। नाम स्वार्थ परार्थ वा पिठरकाऽऽदेरुद्धत्य चटुकाऽऽदिनोक्षिप्ता परेण च | पिच्छी स्त्री०(पृथ्वी)"इत्कृपाऽऽदौ" ||1:128 // इति न गृहीता प्रव्रजिताय वा दायिता, सा प्रकर्षण गृहीता प्रगृहीताता तथाभूता | ऋत इत्वम् / औ० ! जं०। "त्व-थ्व-द-ध्वांच-छ-ज Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिच्छी 633 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिट्ठ झाः क्वचित् " ||8 / 2 / 15 / / इति श्वः स्थाने छाऽऽदेशः। प्रा०२पाद / क्षपकश्रेण्यारूढः सन् समकालं क्षयं नयतीत्यर्थः। ततः पश्चादनन्तरं तेषां पिजधाल(पा) पाने, "पिबेः पिज्ज-डल्ल-पट्ट-घोट्टाः" / / 4 / 10 // कर्मणां क्षयीकरणादनन्तरम् अनुत्तरं सर्वेभ्यः प्रधानमननन्तमन्तार्थइति पिबतेः 'पिज' आदेशः। पिजइ पिबति / प्रा०४पाद / पिबति प्रा०४ ग्राहकं कृत्स्नं समस्तवस्तुपर्यायग्राहक प्रतिपूर्ण सकलैः स्वपरपर्यायः पाद। सहितं निरावरण समस्तावरणरहितं,वितिमिरम् अज्ञानांशरहित, विशुद्ध *पेय न० परिमाने नद्यादौ, बृ०२उ०। सर्वदोषरहित, लोकालोकप्रभावकं लोकलोकयोः प्रकाशकारकम्, एतादृश केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयति, यावत् सयोगी भवति, *प्रेमन् न० अभिष्वङ्गे, सूत्र० १श्रु०१६ अ०॥ मनोवाक्कायानां योगो व्यापारस्तेन सह वर्तते इति सयोगी भवति / पिजणिस्सिय न०(प्रेमनिःमृत) अतिरक्तानां दासोऽहं तवत्यादिरूपे त्रयोदशगुणस्थाने यावत्तिष्ठति तावत् ईपिथिकं कर्म बध्नाति, ईरणं मिथ्यावचने, स्था०१०टा० ईर्या गतिरतस्याः पन्थाः ईपिथः, ईपिथेभवमीयर्यापथिक, पथो ग्रहणं पिजदोसमिच्छादसणविजय पुं०(प्रेमद्वेषमिथ्यादर्शनविजय) प्रेम राग हि उपलक्षणं तस्य तिष्ठतोऽपि सयोगस्य ईर्यायाः सम्भवात् सयोगतायां इत्यर्थः स च द्वेषश्चाप्रीतिरूपो मिथ्यादर्शनं, सांशयिकाऽऽदिप्रेमद्वेषमि केवलिनोऽपि सूक्ष्मसञ्चाराः सन्ति, तत् ईर्यापथिकंकर्म कीदृशं भवति? ध्यादर्शनानि, तद्विजयः / रागद्वेषमिथ्यात्वजये, उत्ता तदुच्यते-सुखयतीति सुखः सुखकारी स्पर्श आत्मप्रदेशैः सह संश्लेषो पिजदोसमिच्छादसणविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ? यस्य तत् सुखस्पर्श , द्विसमयस्थितिकं द्वौ समयौ स्थितिर्यस्याः सा गोयमा ! पिज्जदोसमिच्छादसणविजएणं नाणदंसणचरित्ता द्विसमया, द्विसमया स्थितिरस्येति द्विसमयस्थितिकम्। तत द्विसमयराहणयाए अब्भुतुति, अट्टविहस्स कम्मगंठिविमोयणयाएतप्प- स्थितिक स्वरूपमाह-प्रथमसमये बद्ध स्वस्य स्पर्शनाय अधीन ढमट्ठाएणं जहाणुपुटवीए अट्ठावीसइविहं मोहणिज्ज कम्म कृतमधीनकरणात् स्पृष्टमापि द्वितीये समये तद्बद्ध स्पृष्ट वेदितं कायेन उग्याएइ, पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दंसणावरणिज्ज पंचविहं अनुभूतं तृतीयसमये निजीर्ण परिशाटितं, निष्कषायस्य उत्तरकालस्थिअंतराय एए तिनि वि कम्मसे जुगवं खवेइ, तओ पच्छा अणंतं तेरभावो वर्तते, उत्तरकाले सकषायस्य बन्धो भवति, परं केवलिनो न अणुत्तरं कसिणं पडिपुन्नं निरावरणं वितिमिरं विसुद्धं लोगा- भवति। तदेव पुनः सूत्रकारः भ्रान्तिनिवारणार्थमाह-तत् ई-पथिकं कर्म लोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेइ ०जाव सजोगी केवलिनो बद्धम् आत्मप्रदेशैः सह श्लिष्टं व्योम्ना पटवत् तथा स्पृष्टं भवइ ताव इरियावहियं कम्मं निबंधइ, सुहफरिसं दुसमयट्ठिइयं मसृणमपि कुड्यापतितशुष्कचूर्णवत् इति विशेषणद्वयेन केवलिनो हि तं पढमसमए बद्धं विइए समए वेइयं तइए समए निजिन्नं तं बद्धं | निधत्तनिकाचितावस्थयोरभावः, पुनरुदीरितम् उदयप्राप्तं सत् वेदितम् पुढे उदीरियं वेइयं निजिन्नं सेयाले य अकम्मे याविभवइ।।७१।। अनुभूतं, केवलिनो हि उदीरणा न भवति, ततो निजीर्ण क्षयमुपगतम् हे भदन्त ! स्वामिन् ! प्रेय्यद्वेषमिथ्यादर्शनविजयेन जीवः किं फलं ततः (सेयाले इति) एष्यत्काले आगामिनि काले अकर्मा चापि भवति, जनयति? यत्र प्रेय्यशब्देन प्रेम रागः, द्वेषः प्रसिद्धो, मिथ्यादर्शन कर्मरहितो भवति इत्यर्थः / उत्त०१६ अ०। संशयाऽऽदिभिर्विपरीतमतित्वं, प्रेय्यं च द्वेषश्च मिथ्यादर्शनं च प्रेय्यद्वेष- पिञ्जबंधण न० (प्रेमबन्धन) स्नेहबन्धने, कल्प०१ अधि०६क्षण। मिथ्यादर्शनानि, तेषां विजयः प्रेय्यद्वेषमिथ्यादर्शनविजयस्तेन जीवः पिट्ट न०(पिट्ट) उदरे, पञ्चा० ३विव०॥ कि फलमुत्पादयति? तदा गुरुराह-हे शिष्य ! रागद्वेषमिथ्यादर्शनविजयेन पिट्टण न०(पिट्टन) वस्त्राऽऽदेरिव मुद्गराऽऽदिना हनने, औ०। 'धनहीनरजीवो ज्ञानदर्शनचारित्राणामाराधनायै अभ्युतिष्ठते, सावधानो भवति; ण्डारमणीभिरिव पुनः पुनः प्रक्षेपपुरःसरमुद्रत्योरिपट्टनेन कुट्टने,'' पिं०। अग्युत्थाय च अष्टविधकर्मणां ग्रन्थिंघातिकर्मणां कठिनजालं विमोच- एतच वस्त्र धावयता साधुना न कर्तव्यम् / ओघ०। सूत्र०ा प्रश्र०। नार्थ क्षपयितुम् अभ्युत्तिष्ठते सावधानो भवति। अथ कर्मग्रन्थिविमोचने पिट्टावणया स्त्री०(पिट्टनता) पिट्टनप्रापिकायां परितापनायाम, भ०३ श० अनुक्रममहातत् प्रथमतया यथानुक्रममष्टाविंशतिविधं मोहनीयं कर्म ३उ०। उद्घातयति, क्षपकश्रेणिमारूढः सन् क्षपयति, षोडश कषायाः,नव | पिट्टिय त्रि०(पिट्टित) कदर्थिते, आ०म० अ० दर्श० नोकषायाः, मोहनीयत्रयम् / एवमष्टाविंशतिविधं मोहनीयकर्म विनाश- पिट्ठ न०(पिष्ट) मुगाऽऽदिचूर्णे बृ०१ उ०२प्रक०। उण्डरकाऽऽदिशक्तुयति, ततश्चरमसमये यत् क्षपयति तत् क्रममाहमतिश्रुतावधिमनः प्रभृतिके, बृ०१उ० २प्रक०। ज्ञा०। धof नि०चू०। आ०म०ा तन्दुलपर्यायाऽऽवरणरूपं कर्म पश्चान्नवविध दर्शनाऽऽवरणीयं कर्मचक्षुर्दर्शना:- क्षोदे,दश०५अ०१उ०। क्षोदे, रा०ा आच्छटिततन्दुलचूर्णे, आचा०२ चक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनाऽऽवरणं निद्रापञ्चकम्, एवं नवविध श्रु०१ चू० १अ०६उ०। पिष्टस्य तु मिश्रताऽऽद्येवमुक्तं पूर्वसूरिभिःदर्शनाऽऽवरणीयं कर्म, ततः पश्चात्पञ्चविधम्-अन्तरायम्, एतानि त्रीणि "पणदिणप्रीसो लुट्ठो, अवालिओ सावणे अ भद्दवए / चउआसीए (कम्मसे इति) सत्कर्माणि विद्यमानानि त्रीणि कर्माणि युगपत् क्षपयति, | कत्तिअमगसिरपोसेसु तिन्नि दिणा / / 1 / / " ध०२अधिका Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिट्ठ 634 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पित्तिवस *पृष्ठ न० "पृष्ठे वाऽनुत्तरपदे" ||8 / 1 / 126 / / इति ष्ठस्य हः। / सू०प्र० १६पाहु०। चं०प्र०। (तानि कियन्तीति 'जोइसिय' शब्दे प्रा०१पाद / पश्चादागे, स०३४सम०। चतुर्थभागे 1562 पृष्ठे उक्तम्) पिट्ठओ अव्य०(पृष्ठतस्) पश्चाद्भागे, स०३४सम०। पृष्ठदेशमाश्रित्येत्यर्थे, | पिडच्छा (देशी) सख्याम्, देना० ६वर्ग 46 गाथा। उत्त० 10 // सूत्र। "अरई पिडओ किच्चा।" पृष्ठतः कृत्वाऽनादृत्य। | पिडिया स्त्री०(पिटिका) मञ्जूषायाम्, आ०चू० ४अ० सूत्र० १श्रु०१५ अ०। "पिटुआ कडा।" पृष्ठतः कृत्वा, परित्यक्त्वेत्यर्थे , ! पिढर पुं०(पिठर) भाण्डे, "पिठरो मठरो य कोलंबो।' पाइ०ना० 172 सूत्र० १श्रु०३ अ०४301 गाथा। "ठो ढः" 8/1196 / / इति ठस्य ढः। प्रा०१पाद। पिटुंत न०(पृष्टान्त) ६ता "पिट्ठीए अंतं पिटुंत।'' अपानद्वारे, नि०चू० | पिढरग पुं०(पिठरक) उखायाम्, आचा० २श्रु० 10 १अ०११3०1 ६उ०। गुदे, देवना०६वर्ग 46 गाथा। गागलिकुमारपितरि, उत्त०। चम्पानाम्नी नगरी, तत्र शालनामा राजा. पिट्ठकरंडग न०(पृष्ठकरण्डक) पृष्ठवंशवयुन्नते अस्थिखण्डे पांशुलि- महाशालनामा भर्ता, तत्पुत्रो गागलिः। उत्त०१०अ०ा ती०। आ०म०) कायाम्, जं०२वक्ष०ा तं० जी०। अणु पिणद्ध त्रि०(पिनद्ध) परिहिते, ज्ञा०१श्रु० अ० त०। औ०। विपा०। पिट्ठखउरा (देशी) मद्ये, देवना०६वर्ग 50 गाथा। यन्त्रिते, तं०। बखे, राज्ञा "पिणद्धगेवेज्जविमलवरचिंधपट्टे" पिनद्ध पिठ्ठखउरिआ स्त्री०(मदिरायाम्,) "विटसुरा पिट्ठखउरिआ मइरा।" | परिहित ग्रैवेयकं ग्रीवाऽऽभरणं येन स तथा विमलवरो बद्धश्चिह्नपट्टो पाइ० ना० 211 गाथा। योधचिह्नपट्टो येन स तथा, ततः कर्मधारयः। भ०७ श०६ उ० जी० पिट्टचंपा स्त्री०(पृष्टचम्पा) चम्पानगरीपृष्ठतोऽतिसमीपनगर्याम, तत्र त्रीणि / रा। "ओलइअं परिहियं पिणद्धं चा" पाइ०ना० 175 गाथा। वर्षारात्राणि वीरप्रभुःकृतवान् / कल्प 1 अधि० ६क्षणा ('चपा' शब्दे पिणद्धित्तए अव्य०(पिनद्धम्) बटुमित्यर्थे , प्रश्र०४आश्र० द्वार / औ०। तृतीयभागे 1068 पृष्ठे कल्प उक्तः) पिणाअ (देशी) बलात्कारे, देना०६वर्ग 46 गाथा। पिट्ठपणग न०(पिष्टपचनक) सुरार्थ पिष्टपचनकं यत्र सुरासन्धानाय पिष्ट | पिणाइ पुं०(पिनाकिन्) शिवे, “सूली सिवो पिणाई, थाणू गिरिसो भवो पच्यते तत् पिष्टपचनकम्। भाजने, जी०३प्रति०१अधि०२उ०। संभू।'' पाइ०ना० 21 गाथा। पिट्टि खी०न०(पृष्ठ) “स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ||8/4 / 326 // पिणाई (देशी) आज्ञायाम्, देवना० ६वर्ग 48 गाथा। इत्यकारस्येकारः / प्रा० ४पाद / "वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्" / पिण्णाग पुं०(पिण्याका) खले, सूत्र० २श्रु०६अ। आचा० / / 8 / 1 / 35 / / इति स्त्रीत्वं वा। पिट्टी, पिट्ट। प्रा०१पाद। शरीराङ्ग भेदे, पिणिया स्त्री०(पिन्निका) ध्यामकाऽऽख्ये गन्धद्रव्ये, उत्त० ४अ०। प्रश्न पिण्ही (देशी) क्षामनि कृशे, देवना०६वर्ग 46 गाथा। पिट्ठिचंपा स्त्री०(पृष्टिचम्पा) चम्पासमीपनगरीभेदे, आ०म० अ० / पित्त न०(पित्त) मायुनामके शरीरस्थधातुविशेषे, प्रव०३८ द्वार / ज्ञा०। आ००। कर्म०। प्रश्नका ध०। आचा०ा तल्लक्षाणं च-"परिस्रवस्वेदविदाहरागाः, पिट्ठिमंस पुं०(पृष्ठमांस) परोक्षस्य दूषणाऽऽविष्करणे, प्रश्न०२आश्र द्वार। वैगन्ध्यसंक्लेदविपाककोपाः / प्रलापमूभ्रिमिपीतभावः, पित्तस्य "पिट्टिमंसं नखाइजा।" पृष्ठमांसं परोक्षदोषकीर्तनरूपंन खादेन भाषेत। कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः " / / 1|| स्था०४ठा० ४उ०। दश०अ०1 पित्ततो अव्य०(पित्ततस्) पित्तोदये, व्य०३उ०। पिट्ठिमंसिय पुं०(पृष्ठमासिक) पराङ्मुखस्य परस्यावर्णवादकारिणि, | पित्तमुच्छा स्त्री०(पित्तमूर्छा) पित्तनिमित्त मूर्छा पित्तमू / पित्तोद्रेके, स०२०समा अगुणभाषिणि, दशा०१०। आव०। व्य०२उ०। पित्तप्राबल्याद् मनाङ् मूर्खायाम, भ०१श०१उ०आव०| पिट्ठिवंस पुं०(पृष्ठवंश) पृष्ठमध्यवंशके, ग०१अधि०। पित्तसंक्षोभे, आ०चू०५ अ०व्या पित्तसंक्षोभादीषन्मोहे, ध०२अधिo पिट्ठी स्त्री०(पैष्टी) ब्रीह्यादिधान्यक्षोदनिष्पन्नायां सुरायाम, 020 / पित्तसोणिय न०(पित्तशोणित) पित्तप्रधाने, शोणिते, स्था० ५ठा०२उ01 पिडग न०(पिटक) वंशमये पात्रे, "भोयणपिडयं करेइ!" भोजनस्था- | पित्तिय पुं०(पितृव्य) पितृभ्रातरि, "भगवओ महावीरस्स पित्तिए सुपासे। ल्याधारभूतं वंशमयं पात्रं पिटक, तत्करोतीत्यर्थः / ज्ञा० १श्रु०२अ०। कल्प १अधि०५क्षण। आचाo" "गणिपिडए।'' गणिन आचार्यस्य पिटकमिव पिटकम् / वणिज इव / पैत्तिक त्रि०पितरोगजे, तंग सर्वस्वस्थानं गणिपिटकम् / स्था० १०ठा०। औ०। सूत्र०ा अनु०। बृ०। / | पित्तिवस त्रि०(पितृवश) पित्रायत्ते "जाया पित्तिवसा नारी, ढत्ता नारी भ०। स०। चन्द्रद्वये सूर्यद्वये च द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यो एकं पिटकमुच्यते। | पतिव्वसा।" व्य०३उ०। Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पित्थिज्जमाण 935 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पियंगुवण्णाभ पित्थिन्जमाण त्रि०(प्रार्थ्यमान) कान्त्यागुिणैर्हेतुभूतैः प्रार्थ्यमाने, औ०। पिधं अव्य०(पृथक् ) "इदुतौ वृष्ट-वृष्टि-पृथक्-मृदङ्ग-नप्सके" ||1137 / / इतीत्वमुत्वं च / प्रा०१पाद। "पृथ कि धो वा" // 81/198 // इत्यनेन यस्यधः। प्रा० १पाद।"अन्त्यव्यञ्जनस्य" ||१११कलुक्, बहुलाधिकारात्वा कस्यमः" प्रा०१पाद। पिपीलियंड न०(पिपीलिकाण्ड) कीटिकाण्डे, कल्प०३अधि०६क्षण। पिपीलिया स्वी०(पिपीलिका) कीटिकाऽपरनामके त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१प्रति०। आ०म०। प्रज्ञा०ा आचा०। उत्त०। पिप्पअ (देशी) मशकोन्मत्तयोः, देना०६वर्ग७८ गाथा। पिप्पडा (देशी) ऊर्णापिपीलिकायाम्, देखना०६वर्ग 48 गाथा। पिप्पडिअ (देशी) यत्किञ्चित्पठित, दे०ना०६वर्ग 50 गाथा। *पिप्पय पुं०पिशाचे, "ढयरा पुणाइणो पि-प्पया परेया पिसल्लया भूआ।'' पाइ०ना० 30 गाथा। पिप्पर (देशी) वृषभ-हंसयोः, दे०ना० ६वर्ग 76 गाथा। पिप्पल न०(पिप्पल) अश्वत्थे, "पिप्पलं आसत्थं " ।पाइ० ना० 258 गाथा। पिप्पलग पुं०(पिप्पलक) हस्वक्षुरे, विपा० १श्रु०६अ०। ओघ०। पात्रमुखाऽऽदिकरणाय लोहमये (ध०३अधि०) किश्चिद्वक्रे क्षुरविशेषे, पिं०। क्षुरप्रे, बृ०३उ०। जीत०। सूत्र०ा आचा०।। जे मिक्खू पिप्पलगस्स उत्तरक रणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ, कारंतं वा साइज्जइ॥१६॥ पिप्पलगणहत्थेणं, सोधणए चेव होंति एवं तु। णवरं पुण णाणत्तं,परिभोगे होति णायव्वं / / 183|| एवं पिप्पलगणहत्थेणं य कण्णसोहणे एकेके चउरो सुत्ता, अत्थो पूर्ववत्। परिभोगे विसेसो इमोवच्छं छिंदिस्सामि, त्ति जाइउं पादछिंदणं कुणति। अधवा वि पादछिंदण-काहिंतो छिंदती वच्छं // 154|| णक्खं छिंदिस्सामि, त्ति जाइयं कुणति सल्लमुद्धरणं। अहवा सल्लुद्धरणं, काहिंतो छिंदती णक्खे // 185|| पिप्पलगेण णक्खछेयणाणं अप्पणे इमा विधीमज्झ व गेण्हित्ता णं, हत्थे उत्ताणयम्मि वा काउं। भूमीए व ठवेउं, एस विधी होति अप्पमाणे॥१८६|| उभयतो धारणसंभवा मज्झे गेण्हेऊण अप्पेति, सेस कंठं। कण्णं सोधिस्सामि, त्ति जाइतुं दंतसोधणं कुणति / अहवा वि दंतसोधण, काहंतो सोहती कण्णे॥१८७।। लाभालाभपरिच्छा, दुलभ अवियत्त सहस अप्पणणे। वारससु वि सुत्तेसु अ, अवरपदा हॉति णायच्या / / 188|| नि०चू०१उ०। पिप्पली स्त्री०(पिप्पली) कणानामके औषधद्रव्ये, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८ उ०। पञ्चा०। "पिलक्खू पिप्पलभेदो, सो पुण इत्थियाभिहाणा पिप्पली भन्नति।' नि०चू० ३उ०। पिप्पिया स्त्री०(पिप्पिका) दन्तमले, नं०। पिम्म न०(प्रेमन्) स्नेह, "नेहो पिम्म रसो य अणुराओ।" पाइ० ना० 120 गाथा। पिय त्रि०(प्रिय) प्रेमविषये, स्था०८ठा०नि०। ज्ञा०। दयिते, सूत्र० १श्रु० १५अ० अद्वेष्ये, ज्ञा० १श्रु०८अ०। कल्प० भ०। इष्टे, उत्त० 10 // आत्मनो हिते, उत्त० अ० दशा०। प्रेमकर्तरि, ज्ञा० १श्रु०१२अ० चं०प्र० दश०। प्रेमावहे, स्था०६ ठा०1 प्रेमोत्पादके,स्था०६ठा०। प्रेमनिबन्धने, रा०। प्रीतिकरे, इन्द्रियाऽऽहादके, स्था०२ठा०३उ०। द्रष्ट्रणामानन्दोत्पादके, रा०। सर्वजनाऽऽनन्दके, दर्श०५ तत्त्व / औला वल्लभे, औ० पियंकर पुं०(प्रियङ्कर) प्रियमनुकूल करोतीति प्रियङ्करः / कथञ्चित्केनचिदपकृतोऽपि न तत्प्रतिकूलमाचरति, किन्तु ममैव कर्मणामयं दोष इत्यवधारयन्नप्रियकारिण्यपि प्रियमेव चेष्टते यः, तस्मिन्नेतादृशे अनुकूलाऽऽचरणे, उत्त० ११अ० पियंकरकर पुं०(प्रियङ्करकर) प्रियङ्करहस्ते, आ००। "विदेहे पश्चिमाऽऽशस्थे, क्षितिमण्डलमण्डनम्।" क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, नगरं सुप्रतिष्ठितम् / / 1 / / प्रियङ्करकरस्तत्र, राजा राजेव विश्रुतः / शुचिः कुवलयोल्लासी, प्रसन्नचन्द्रनामकः / / 2 / / " आ०क० 10 // (तत्कथा 'पसण्णचंद' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ८११पृष्ठ समुक्ता) पियंग न०(पित्रङ्ग) पितुर्जनकस्याङ्गान्यवयवाः पित्रङ्गानि / प्रायः शक्र परिणतिरूपेषु पित्रवयवेषु, "तओ पियंगा पण्णत्ता / तं जहा-अट्ठी, मिजा, केसमंसरोमनहे।" स्था०३ठा० १उ०। पियंगाभ त्रि०(प्रियग्वाभ) प्रियङ्गुः फलिनीतरुस्तदाभः। नीले, प्रव० 27 द्वार। 'पासो मल्ली पियंगाभा।" स्था०२ ठा०४उ०। पियंगु पुं०(प्रियङ्गु) श्यामापर्याये फलिनीतरौ, प्रव० 30 द्वार। ज० आचा०। पञ्चमजिनस्य चैत्यवृक्षः / स०। चम्पायां मित्रप्रभराजामात्यधर्मघोषभार्यायां धनमित्रसार्थवाहसुतसुजातानुकारिकायाम, आ० क० 4 अ०। आ०चू०। आव०। (संवेग' शब्दे कथा) वर्धमानपुरे धनदेवसार्थवाहभार्यायाम, अञ्जूमातरि, स्वी०। विपा० १श्रु० १०अ०। "पियंगुलो कंगू।" पाइ०ना० 256 गाथा। "फलिणी पियमा पियंगू य।" पाइन्ना० 145 गाथा। पियंगुलिया स्त्री०(प्रियङ्गुलिका) ब्रह्मदत्तभार्याया रत्नावत्याः सख्याम, उत्त०१३अ० पियंगुवण्णाभ त्रि०(प्रियद्गुवर्णाभ) प्रियङ्गुवर्णा इयाऽऽभाछाया येषां ते तथा। प्रियड्गुश्यामेषु, आ०म० 10 // नीलवर्णे, आ०क० 10 / Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियंवदा 936 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पियसुदंसण पियंवदा स्त्री०(प्रियम्बदा) सिद्धार्थराजदास्याम्, "अस्मिन्नवसरे (वीर- __प्रियाऽऽत्मानः। आचा०१श्रु०२१०३उ०। जन्मसमये) राज्ञो, दांसी नाम्रा प्रियम्बदा / तं पुत्रजननोदन्तं, गत्वा | पियट्ठया स्त्री०(प्रियार्थता) प्रीत्यर्थे, भ०११श०११उ०। शीघ्रंन्यवेदयत्॥१॥" कल्प०१अधि०५क्षण। पियण न०(पान) तृडपनोदाय जलस्याभ्यवहरणे, पिंग पियकारिणी स्त्री०(प्रियकारिणी) भगवतो महावीरस्य मातरि, कल्प० | पियदंसण त्रि०(प्रियदर्शन) प्रियं प्रेमकारि दर्शनं यस्य स प्रियदर्शनः / १अधि०५क्षण। सू०प्र०२० पाहु०। चं०प्र०। प्रियं द्रष्ट्रणां दर्शन रूपं यस्य स तथा / पियगंधव्व त्रि०(प्रियगान्धर्व्य) गीतप्रिये, प्रतिका भ०११शु०११उ०। नि०चूला प्रियं प्रेमावहं दर्शन यस्य / प्रश्न०४आश्र० पियग्गंथ पुं०(प्रियग्रन्थ) स्थविरसुस्थितसुप्रतिबुद्धयोः पञ्चशिष्याणा द्वार। वल्लभदर्शने, कल्प०१अधि० १क्षण। प्रेमकारिदर्शने, भ०१६ श०६ द्वितीये, कल्प० / प्रियग्रन्थकथा-(पियरगंथे त्ति) एकदा त्रिशतजिन- उ०। प्रेमजनकारे, विपा०२श्रु०१०। औ०। मेरुपर्वते, स०१६सम०। भवनचतुःशतलौकिकप्रासादाष्टादशशतविप्रगृहषट्त्रिंशच्छतवणिग्गे- धातकीखण्डा दवे, स्था०१०ठा० जी० द्वी०। जीता हनवशताऽऽरामसप्तशतवापीद्विशतकूपसप्तशतसत्रागारविराजमाने पियदसणा स्त्री० (प्रियदर्शना) अनवद्याङ्गचपरनामिकायां भगवतो अजमेरुनिकटवर्तिनि सुभटपालभूपालसंबन्धिनि हर्षपुरे श्रीप्रियग्रन्थ महावीरस्य दुहितरि, आ०म०१अाआ०चू आचा०। आ०का उत्तका सूरयो अभ्येयुः तत्र चान्यदा द्विजैयगि छागो हन्तुमारेभे, तैः श्राद्धकरा- विशे०। (सा च स्वभर्तरि जमालौ मृते सहस्रपरिवारा प्रव्रजिता इति र्पितवासक्षेपेत छागमागतयाम्बिकाऽधिष्टता, ततः स छागो नभसि भूत्त्वा 'जमालि' शब्दे तृतीयभागे 1406 पृष्ठे उक्तम्) साकेतनगरराजस्य क्भाण चन्द्रावतंसकस्य भार्यायां सुदर्शनासपल्याम्, आ०म० अ०। "हनिष्यत नु मां हुत्यै, बध्नीतायात मा हन। पियदढधम्म पुं०(प्रियदृढधर्मन्) प्रियः प्रतिस्थानं दृढश्च स्थिरो विपत्स्वयुष्मद्वन्निईयः स्यां चेत्, तदा हन्मि क्षणेन वः / / 1 / / प्यविमोचनाद् धर्मः श्रुतचारित्राऽऽत्मको यस्य सः प्रियदृढधर्मा / यत्कृतं रक्षसां द्रङ्गे कुपितेन हनूमता। प्रियधर्मत्वदृढधर्मत्ववति,पञ्चा० १२विव०। तत्करोम्येव वः स्वस्थः, कृपा चेन्नान्तरा भवेत्।।२।। पियधम्म पुं०(प्रियधर्मन्) प्रियो धर्मो यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च यावन्ति रोमकूपाणि, पशुगात्रेषु भारत!। प्रतिपत्तेः स प्रियधर्मा / स्था० ४ठा०३उ०। प्रिय इष्टो धर्मो यस्येति तावद्वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते पशुधातकाः / / 3 / / प्रियधर्मः / ओघ०। धर्मप्रिये, ज्ञा० १श्रु० अ० व्य०। प्रव०। स्था०। यो द्वधात काञ्चनं मेरु, कृत्रनां चैव वसुन्धराम्। धर्मश्रद्धालौ, बृ० १उ०२प्रकला एकान्तवल्लभसंयमानुष्ठाने, व्य०१उ०। एकस्य जीवितं दद्या-न्न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ||4|| आ०म० / बृला तीब्ररुचौ, पं० २०५द्वार। महतामपि दानानां, कालेन क्षीयते फलम्। पियमा स्त्री०(प्रियतमा) फलिन्याम्, 'फलिणी पियमा पियंगू य / " भीताऽभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते / / 5 // " इत्यादि। पाइना० 144 गाथा। "कस्त्वं प्रकाशयात्मानं, तेनोक्तं पावकोऽस्म्यहम् / पियमाहवी स्त्री०(प्रियमाधवी) कोकिलायाम, "पियमाहवी परहुआ। ममैन वाहनं कस्मा-जिघांसथ पशुं वृथा / / 1 / / कलयठी कोइला वणसवाई।" पाइ०ना०४२ गाथा। इहास्ति श्रीप्रियग्रन्थः, सूरीन्द्रः समुपागतः। पियमित्त न०(प्रियमित्र) सह पांशुक्रीडिताऽऽदौ, सूत्र०१ श्रु० १०अ०। त्रयोविंशभवे वीरजीवे, सच अपरविदेहे मूकायां राजधान्यां धनञ्जयस्य तं पृच्छत शुभं धर्म , समाचरत शुद्धितः / / 2 / / यथा चक्री नरेन्द्राणां, धानुष्काणां धनञ्जयः / राज्ञो धारिण्या देव्याः कुक्षौ चतुरशीतिलक्षपूर्वायुः प्रियमित्रनामा चक्रवर्ती बभूव / कल्प०२ अधि०२क्षण / आ०५०। आ०का षष्ठबलदेवपूर्वतथा धुरि स्थितः साधुः स एकः सत्यवादिनाम्॥३॥" भवधर्माऽऽचार्य, ति० स० ततस्ते तथा कृतवन्तः। कल्प०२अधि०८क्षण। पियय पुं०(प्रियक) असनपर्याय वृक्षभेदे, औ०। पियजण पुं०(प्रियजन) मित्रजने, प्रश्न० ३आश्र0 द्वार। पिययम पुं०(प्रियतम) पत्यौ, "रमणो कतो पणई, पाणसमो पिययमो पियजीवि(ण) त्रि०(प्रियजीविन) जीवितुकामे, 'सव्वे पाणा पियाउया दइओ।' पाइ०ना०६१ गाथा। सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा सव्वेसिं पियरक्खिया स्त्री०(पितृरक्षिता) पित्राऽकार्यान्निवारितायाम, औ०। जीवियं पियं।'' सर्वे प्राणिनो जन्तवः प्रियमायुर्येषु ते प्रियायुषः, ननु च सिद्वैर्व्यभिचारो न हि ते प्रियाऽऽयुषस्तदभावात्, नैष दोषो, यतो मुख्य पियरूव त्रि०(प्रियरूप) प्रीतिकारिस्वरूपे, विपा०२श्रु 10) जीवाऽऽदिशब्दव्युदासेन प्राणशब्दस्योपचरितस्य ग्रहण संसरिप्राण्युप पियसह पुं०(पितृसख) पितृवयस्ये, आ०म० अ०। लक्षणार्थमिति यत्किञ्चिदेतत् / पाठान्तरं वा-"सब्वे पाणा पियायया" पियवयणवल्लरी स्त्री०(प्रियवचनवल्लरी) मिष्टवाणीमञ्जाम्, तं०। आयत आत्माऽनाद्यन्तत्वात्स प्रियो येषां ते तथा, सर्वेऽपि प्राणिनः | पियसुदंसण पु०(प्रियसुदर्शन) शोभनदर्शने, स्था० २ठा० 470 / Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियहुत 937 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिवासापरिसह पियहुत न०(प्रियहुत) अभिमुखार्थे हुतशब्दः / प्रियाभिमुखे, प्रा०२पाद / पिया स्त्री॰ (पिया) दयितायाम्, सूत्र०। प्रियादर्शनमेवास्तु. किमन्यैर्दर्शनान्तरैः / प्राप्यते येन निर्वाण, सरागेणाऽपि चेतसा / / 1 / / " सूत्र० १श्रु० 310 Y.30 "स्नानाऽऽदिसर्याङ्ग परिष्क्रियायां, विचक्षणः प्रीतिरसाभिरामः। विश्रम्भपात्र विधुरे सहायः, कोऽन्यो भवेन्नूनमृते प्रियायाः / / 1 / / ' कल्प०१अधि०७क्षण। राजगृहनगरवास्तव्यभार्यायाम, नि०१श्रु०४वर्ग १अ०।। *पितृ पुं० पाति रक्षत्ययमिति पिता। उत्त०१अ०। जनके, सूत्र० १श्रु० अाजनको जनयिता यो वीज निषिक्तवान् / ज०२ वक्ष०ा जीत०। "जनिता चोपनेता च, यस्तु विद्या प्रयच्छति / अन्नदाता भयत्राता, पञ्चेति पितरः स्मृताः।।१।।" ज्ञा०१श्रु०१८अ०॥ पियाउआ पु०(प्रियाऽऽयुष) प्रियमायुर्येषां ते प्रियाऽऽयुषः / जीवितप्रिये, आचा०१श्रु०२अ०३उ०। पियामह पुं०(पितामह) पितुः पितरि, ब्रह्मणि चतुर्मुखे, "कमलासणो सयंभू, पिया (आ) महो चउमुहोय परमिट्टी। थेरो विही विरिची, पयावई कमलजोणी य॥१॥' पाइन्ना० ३गाथा। आचा०ा आव० आ०म०। पियायय पुं०(प्रियाऽऽयत) आयत आत्मा आत्मनोऽनाद्यनन्तत्वात् प्रियो येषां ते तथा। प्रियाऽऽत्मकेषु, "सव्वे पाणा पियायया।' आचा०१ श्रु० 2030 पियाल पुं०(प्रियाल) वृक्षभेदे, जं०४वक्षः। 'चार पियालं।'' पाइन्ना० 257 गाथा। पिरडी (देशी) शकुनिकायाम्, दे०ना०६वर्ग 47 गाथा। पिरिपिरिया स्त्री०(पिरिपिरिका) कोलिकपुटकावनद्धमुखे वंशाऽऽदिनलिके वाद्यविशेषे, भ०५ श०४उ०। आचा०। 'पिरि-पिरिया ततो णं सलागातो सुसिराओ जमलाओ संघातिज्जति मुह-मूले एगमुहा सा सखागारेण वाइजमाणी जुगवं तिण्णि सद्दे पिरि-पिरेंती करेंति। अण्णे भणति-गुंजाएण वा भंडणा भवति।" नि० चू०१७उ०। पिरिली स्त्री०(पिरिली) तृणरूपवाद्यविशेषे, जी०३प्रति०४ उ०ा नि०चू०। गुच्छविशेषे वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पाद। पिलुक्ख पु०(प्लक्ष) पिप्पलभेदे, नि०चू० ३उ०। प्रज्ञा० स०। पिलण (देशी) पिच्छिले देशे, दे०ना०६वर्ग 46 गाथा। पिलुट्ठ त्रि०(प्लुष्ट)"लात्" ||1|16|| इति अन्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः / दग्धे, प्रा०२पाद।। पिल्लग पु०(पिल्लक) शुनीबालके, व्य०२उ०। पिल्लिअ त्रि०(क्षिप्त) उत्क्षिप्ते, "विच्छूढं उच्छित्तं, पणुल्लिअंपिल्लिअं गलत्थिअयं / ' पाई० ना० 83 गाथा। पिल्लण न०(प्रेरण) आरूढस्य पुंसोऽभिमुखे दर्शनधावनाऽऽदिना संज्ञा करणपूर्वके प्रवर्तन, ज०३वक्ष। पिल्लरी (देशी) गण्डुत्संज्ञक-तृणचीरि-धर्मेषु, देवना०६वर्ग 76 गाथा। पिल्लि स्त्री०(पिल्लि) यानभेदे, लाटानां यदुपभ्राणं रूढ तदन्यविषयेषु पिलिरित्युच्यते। दशा०६अ। पिल्ह (देशी) लघुपक्षिणि, देवना०६वर्ग 46 गाथा। पिव अव्य०(इव) "मिव पिव विव व्व व विअ इवार्थे वा" ||चा२।१८।। इतीवार्थे पिवप्रयोगः। 'चंदणं पिव। प्रा०२ पाइ०। पिवइत्ता अव्य०(पीत्वा) पानं कृत्वेत्यर्थे , स्था०३ठा०२उ०। पिवासा स्त्री०(पिपासा) पातुमिच्छा पिपासा। सूत्र० १श्रु ३अ० १उ०। काड क्षातिरेके, उपा०२अाऔगा जलपानेच्छायाम ज्ञा०१०६ अ० तृपि, स्था० १०टा० स०। आ०म०। "तण्हा तिसा पिवासा।" पाइना०१३३ गाथा। पिवासापरिसह पुं०(पिपासापरिषह) परिषह्यमाणा पिपासा पिपासापरीषहः। प्रव० 86 द्वार। आ०म०। अपरिदेवनेन पिपासापरिदेवनसहने, पं०सं० ४द्वार / "पिपासितः पथिस्थोऽपि, तत्त्ववित् दैन्यवर्जितः / शीतोदक नाभिलषेत्, मृगयेल्कल्पितौदकम् / / 1 / / " आ०म० अ०| प्रश्न०। "पिपासितः पथिस्थोऽपि, तत्त्वविदैन्यवर्जितः / न शीतमुदकं वाञ्छे-देषयत्प्रासुकोदकम् / / 1" ध०३अधिका एतदेव सूत्रकृदाहतओ पुट्ठो पिवासाए, दुगुंछी लद्धसंजमे / सीओदगं न सेवेज्जा, वियडस्सेसणं चरे।।४।। (तओ पुढो) तत इति क्षुत्परीषहात्तको वा उक्तविशेषणो भिक्षुः, रपृष्टोऽभिद्रुतः, पिपारायाऽभिहितस्वरूपया (दुगुञ्छी ति) जुगुप्सी, सामर्थ्यांदनाचारस्येति गम्यते, अत एव लब्धोऽवाप्तः संयमःपञ्चाऽऽश्रवाऽऽदिविरमाणाऽऽत्मको येन स तथा, पाटान्तरं वा- 'लज्जसंजमे त्ति" लज्जा प्रतीता संयम उक्तरूपः, एताभ्यां स्वभ्यस्ततया सात्मीभावमुपगताभ्यामनन्य इति स एव लज्जासंयमः। पठ्यते च-'लज्जासंजए त्ति'तत्र लज्जया सम्यग्यतते कृत्यं प्रत्यादृतो भवतीति लज्जासंयतः सर्यधातूनां पचाऽऽदिषुदर्शनात्। स एवंविधः किमित्याह-शीत शीतलं, स्वरूपस्थतोयोपलक्षणमेतत्, ततः स्वकीयाऽऽदिशस्त्रानुपहतम्, अप्रासुकगित्यर्थः / तच तदुदकं च शीतोदक, न सेवेत न पानाऽऽदिना गजेत, किंतु-(वियडरस त्ति) विकृतस्य वढ्यादिना विकार प्रापितस्य / प्रासुकस्येति यावत् / प्रक्रमादुदकस्य (एसणं ति) चतुर्थ्यर्थे द्वितीया। तत-श्वेषणाय गवेषणार्थं चरेत्तथाविधकुलेषु पर्यटत् / अथवा-एषणाम् एषणासमितिंचरेत, चरतेरासेवायमपि दर्शनात् पुनः पुनः सेवेत। किमुक्तं भवति?-एकवारमेषणया अशुद्धावपिन पिपासाऽतिरेकतोऽनेषणीयमपि गृहस्तामुल्लड़घयेद् इति सूत्रार्थः / कदाचिजनाकुल, एव निकेतनाऽऽदौ लज्जातः स्वस्थ एषं चैवं विदधीतेत्यत आहछिन्नावाएसुपंथेसु, आउरेसु पिवासिए। Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिवासापरिसह 638 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिवासिय परिसुक्कमुहेऽदीणे, तं तितिक्खे परीसहं / / 5 / / मध्याह्नवेलायामेलकाक्षपथे प्रस्थिताः, सोऽपि क्षुल्लकस्तृषित एति, छिन्नः अपगतः आपातोऽन्यतोऽन्यत आगमनाऽऽत्मकोऽर्थाजनस्य येषु सोऽपि तस्य पिता स्नेहानुरागेण पश्चादायाति, साधवोऽपि पुरतो व्रजन्ति, ते छिन्नाऽऽपाताः, विविक्ता इत्यर्थः / तेषु पथिषु मार्गेषु, गच्छन्निति अन्तराऽपि नदी समापतिता, पश्चात्तेनोच्यते-एहि पुत्र ! इद पानीयं पिब, गम्यते / कीदृशः सन्नित्याह-आतुरोऽत्यन्ताऽऽकुलतनुः, किमिति? सोऽवि वृद्धो नदीमुर्तीणश्चिन्तयति च मनागपसरामि। यावदेष क्षुल्लकः यतःसुष्टु अतिशयेन पिपासितस्तृषितः सुपिपासित, अतएव च परिशुष्क पानीयं पिबति, मा मम शङ्कया न पास्यतीति एकान्ते प्रतीक्षते, यावत्क्षुविगतनिष्ठीवनतयाऽनार्द्रतामुपगतं मुखमस्येति परिशुष्कमुखः, स चासा- लकः प्राप्तः नदी, न पिबति / केचिद्भणन्ति-अञ्जलावुरिक्षमायामथ तस्य वदीनश्च दैन्याभावेन परिशुष्कमुखादीनः, तमिति तृटपरीषहं तिति-क्षेत चिन्ता जातापिबामीति, पश्चात् चिन्तयति-कथमहमेतान् हालाहलान् राहेत / पठ्यते च-(सव्व-ओ य परिव्वए ति) 'सर्चत इति सर्वान् जीवान पास्ये? न पीतम्, आशायां छिन्नायां कालगतः देवेषूत्पन्नः अवधिः मनोयोगाऽऽदीनाश्रित्य, चःपूरणे, परिव्रजेत् सर्वप्रकार संयमाध्वनि प्रयुक्तः, यावत् क्षुल्लकशरीरं पश्यति, तत्रानुप्रविष्टः, वृद्धमवलगति, यायात्, उभयत्रायमर्थो विविक्तदेशस्थोऽप्यत्वन्तं पिपारितः अरवा- वृद्धोऽपि एतीति प्रस्थितः, पश्चात्तेन देवेन तेभ्यः साधुभ्यो गोकुलानि स्थ्यमुपगतोऽपि च नोक्तविधिमुल्लङ्घयेत्ततः पिपासापरीषहोऽध्यासितो विकुर्वितानि, साधवोऽपि तासु व्रजिकासु तक्राऽऽदीनि गृह्णन्ति, एवं भवतीति सूत्रार्थः। व्रजिकापरम्परकेण यावज्जनपदं संप्राप्ताः, पश्चिमायां जिकायां तेन देवेन इदानी नदीद्वारमनुसरन् “सीओदगंण सेविञ्जा'' इत्यादि- विण्टिका विस्मारिता ज्ञाननिमित्तम् एकः साधुर्निवृत्तः, पश्यति सूत्रावयवसूचित नियुक्तिकृत् दृष्टान्तमाह विण्टिकां, नास्ति व्रजिका, पश्वात्तैज्ञतिसा दिव्यमिति,पश्चात् तेन देवेन उज्जेणी धणमित्तो,पुत्तो से खुडुओ अधणसम्मा। साधवो वन्दिताः, वृद्धो न वन्दितः, ततः सर्वं परिकथयति, भणति तण्हाइत्तोऽपीओ, कालगओ एलकच्छपहे ||6|| एतेनाहं परित्यक्तःत्वमिदं पानीयं पिबेति, यदि मयातत्पानीयं पीतम भविष्यत्तदा संसारमभ्रमिष्यम्, प्रतिगतः, एवमध्यासितव्यम् / उत्त० उज्जयिन्यां धनमित्रः(से इति) तस्य पुत्रः क्षुल्लकश्च धनपुत्रशर्मा पाई०२अ०। अबोजयिन्यां धनमित्रकथा-यथा उज्जयिन्या धन-मित्रो (तण्हाइत्तो ति) तृषितोऽपीतः कालगत एडकाक्षपथ इत्यक्षरार्थः। वणिक धनशर्मनाम्ना स्वसुतेन समं प्रव्रजितः, अन्यदा मार्गे क्षुल्लकस्तृट्भावार्थस्तु संप्रदायादवसेयः। स चायम्-"एत्थ उदाहरणं किंचि पडिव पीडितः नदीं दृष्ट्वा पित्राऽवादिवत्स! पिब जल पश्वादालोचनया दोषशुद्धिक्खेण किंचि अणुलोमेण / उजेणी नाम नयरी, तत्थ धणमित्तो नाम भविनी इत्युक्ते क्षुल्लको नेच्छति, ततः पिता साधुः स्वशानिरासार्थ वाणियओ, तस्स पुत्तो धणसम्मा नाम दारओ, सो धणमित्तो तेण पुत्तेण शीघ्र नदीमुत्तीर्याने गतः, क्षुल्लो नद्यां प्रविष्टः, जलाञ्जलिमुतक्षिप्य सह पव्वइओ। अन्नया ते साहू मज्झण्हवेला-एएलगच्छपहे पट्टिया सोऽवि चिन्तितवान् कथं जलं पिवामि ? यतःखुड्डगो तण्हाइतो एति, सोऽवि से खंतो सिणेहाणुरागेण पच्छओ एति, "एगम्मि उदगविन्दुम्मि, जे जीवा जिणवरेहिं पन्नत्ता। साहुणोऽवि पुरतो वचति, अन्तरा वि नदी समावडिया, पच्छा तेण वुचइएहि पुत्त ! इमं पाणियं पियाहि, सोऽवि खंतो नइ उत्तिन्नो चिंतेति य ते परिवयमित्ता, जंबुद्दीवे न मायति // 1 // मणार्ग ओसरामि, जावेस खुड्डओ पाणियं पियइ, मा मे संकाए न पाहि जत्थ जल तत्थ वणं, जत्थ वणं तत्थ निच्छओ अग्गी। त्ति एगते पडिच्छइ, जाव खुड्डतो पत्तो ण ण पियति / केइ भणंति- तेऊ वाऊ सहगया, तसा य पच्चक्खया चेव / / 2 / / अंजलीए उक्खिताए अह से चिंता जायापियामित्ति, पच्छा चिंतेइकहमहं हतूण परप्पाणे, अप्पाणं जे कुणति सप्पाण। एए हालाहले जीवे पिविरस?ण पीयं, आसाए छिन्नाए कालगतो,देवेसु अप्पाणं दिवसाण, कए य नासेइ अप्पाणं / / 3 / / " इति। उववण्णो, ओहिं पउत्तो, जाव खुड्डुगसरीरं पासति, तहिं अणुपविट्टो, संवेगेन जलमञ्जलितः पश्चाद्यत्नेन मुक्त, ततस्तृषया मृत्वा स देवो खंत ओलग्गति, खंतोऽवि एतित्ति पत्थितो.पच्छा तेण तेसिं देवेणं साहूण जातः, अवधिज्ञानादवगतपूर्वभववृत्तान्तेन साधूनामनुकम्पया पथि गोउलाणि विउव्वियाणि, साहू वितासु वइयासु तकाईणि गिण्हति, एवं गोकुलं कृतं, तत्र तक्राऽऽदि शुद्धमिति गृहीत्वा साधवः सुखिनो जाता वईयापरंपरेण जाव जणवयं संपत्ता, पच्छिलाए वईयाए तेण देवेण विटिया अग्रे चलिताः, तेन देवेन स्वस्वरूपज्ञापनार्थ एकरय साधोः विण्टिका पम्हसाविया जाणणनिमित्तं एगो साहू णियत्तो, पेच्छति विंटिय, णत्थि गोकुले स्थापिता, विण्टिग्रहणार्थ पश्चाद् व्यावृत्तभुनिवचसा सर्वैरपि वइया, पच्छा तेहिं णायं-सा दिव्वं ति. पच्छा तेण देवेण साहुणो वंदिया, साधुभितिगोकुलाभावैस्तत्र दिव्यमाया ज्ञाता, तत्पिण्डभोजनविषय खंतो नवंदिओ, तओ सव्वं परिकहेइ, भणइ-एएण अहं परिचत्तो-तुमंणं मिथ्यादुष्कृतं दत्तं, ततस्तत्राऽऽयातेन देवेन पितरं मुक्त्वा सर्वे साधवो पाणिय पियाहि त्ति, जदि मे तं पाणियं पियं होत तो संसारं भमंतो, पडि वन्दिताः, पित्रा वन्दनाकारणं पृष्टः स देवः सर्व स्ववृत्तान्तं पितुर्जलगतो! एवं अहियासेयव्यं, इत्यवसितः पिपासापरीषहः / अथास्याः कथाया पानानुमतिं च प्रोच्य गतो देवः स्वस्थानम् / एवं क्षुल्लकवत् तृट्परीषहः व्याख्यारूपोऽनुवादोऽयम सोढव्यः / उत्त०२अ०आव०। उज्जयिनी नाम नगरी, तत्र धनमित्रो नाम वणिक, तस्य पुत्रो धनशर्मा | पिवासिय त्रि०(पिपासित) असाधारणतृट्टेदनासमुच्छलनात्। (जी०३ नामदारकः, सधनमित्रस्तेन पुत्रेण सह प्रव्रजितः। अन्यदा ते साधवो / प्रति०१अधि०२उ०) जाततृषे, प्रश्न०३आश्रद्वार। तृषिते, बृ० ४उ०। Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिवित्तए 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पिहत्तआगामिपह पिवित्तए अव्य०(पातुम्) जलमभ्यवहर्तुमित्यर्थे, औ०। पिसुण त्रि०(पिशुन) प्रीति शून्यां करोतीति पिशुनः / नैरुक्ती शब्दपिवीलियंड न०(पिपीलिकाण्ड) पिपीलियंड' शब्दार्थे, कल्प०३अधि० निष्पत्तिः / वृ० १उ०१प्रक०। परगुणासहनतया तद्दोषोद्धाटके, सूत्र० क्षण। १श्रु० १६अ० उत्रा०ा परनिन्दके, उत्त० 500 / पिवीलिया स्त्री०(पिपीलिका) "पिपीलिया' शब्दार्थ, जी०१प्रति०। / पिसुणभेयण न०(पिशुनभेदन) रूलभेदने, परस्परं प्रेमसम्बद्धयोः पिच्च (देशी) जले, देवना० ६वर्ग 46 गाथा। प्रेमच्छेदने, प्रश्न०२आश्र० द्वार। पिश्चिल त्रि०(पिच्छिल) "छस्य श्चोऽनादौ" ||8||265 / / इति अथ पिशुनद्वारमाहमागध्यां वर्तमानस्य छस्य तालव्यशकाराऽऽक्रान्तःश्वः / सकर्दम, यत्र पीई सुन्नति पिसुणो, गुरुगाई, चउण्ह जाव लहुओ उ। पादौ विस्खलति / प्रा०४पाद। अहव असंता संते, लहुगा लहुगो तिही गुरुणो / / पिसंगय त्रि०(पिशङ्गक) पीतवणे, "कविलं कपिसं पिंगं पिसंगयं कडारं (पीई सुण्णति त्ति) अलीकानीतराणि वा परदूषणानि भाषमाणः प्रीति चा" पाइ०ना०६३ गाथा। शून्या करोतीति पिशुनो, नैरुक्ती शब्दनिष्पत्तिः, स च यथाऽऽचार्यः पैशुन्य करोति तदा चत्वारो गुरवः, उपाध्यायः करोति चत्वारो लघवः, पिसल्लय पुं०(पिशाच) "ढयरा पुणाइणो पिप्पया परेया पिसलया भूआ भिक्षुः करोति करोति मासगुरु,क्षुल्लकः करोति मासलघु / अमुमेवार्थ या" पाइ०ना०३० गाथा। संजिघृक्षुराह-(गुरुगा इत्यादि) चतुर्णामाचार्योपाध्यायभिक्षुक्षुल्लकपिसाअ पुं०(पिशाच) "खचित-पिशाचयोश्च:स-लौ वा" रूपाणां पैशुन्यकरणविषयभूतानां कर्तृभूतानां च यथाक्रम गुरुकाऽऽदयो 18111163 / / इति पिशाचशब्दस्य पिसिल्लादेशो वा / प्रा० 1 पाद। यावल्लघुमासः प्रायश्चित्तम्। अथ वेति प्रकारान्तरोपन्यासे सामान्यतः व्यन्तरदेवभेदे, स्था०पठा०। राक्षसे, स्था० 10 ठा० ते च पिशाचाः यतः सयतः, संयतेषु पैशुन्यं करोतितत्रासति दूषणविषये पैशुन्ये चत्वारो षोडशविधाः / तद्यथा-कूष्माण्डाः 1, पदकाः२जाषाः 3, अहिकाः लघवः, सदूषणविषये लघुको मासः / एते एव प्रायश्चित्ते गृहिषु गुरुकेऽ४,कालाः५,महाकालाः 6, चोक्षाः 7. अचोक्षाः 8, तालपिशाचाः 6, वसातव्ये। तद्यथा-गृहस्थेषु असद्भिर्दोषः पैशुन्यं करोति चत्वारो गुरवः, मुखरपिशाचाः 10, अधस्तारका:११, देहाः 12, विदेहाः 13, सद्भिः करोति गुरुमासः / बृ०१उ०१प्रक० / नि०चूला आव०ा 'पोरच्छो महाविदेहाः 14, तूष्णीकाः 15, वन-पिशाचाः 16, इति। प्रज्ञा०१पद। पिसुणो मच्छरी खलो मुहुमुहुओ य उप्फालो।'' पाइना०७२ गाथा। आ०क० / स०। प्रव०। ('ठाण' शब्दे चतुर्थभागे 1706 पृष्ट एषां पिसुणिअ त्रि०(कथित) कथिते, "वज्जरिअ सिद्ध-सूइअ-उप्फालिस्थानमिन्द्रश्चादर्शिषाताम्) जातित्वात रवीत्वे पिशाची। क्वचिचस्य जः। __ अपिसुणिआइ साहिअयं / '' पाइ०ना०५३ गाथा। पिसाजी। प्रा०१पादा पिसुया स्त्री०(पिशुका) त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० १पद। जी०। पिसायई त्रि०(पिशाचकिन्) पिशाचोऽस्यास्तीति पिशाचकी। पिह धा०(स्पृह) इच्छायाम्, "झियाइ, पिहाइ।" (झियाइ)। स्पृहयति। "पिशाचात्कश्चान्ते " इत्यनेन मत्वर्थीय इन् कश्चान्ते / पिशाचेनाऽ यद्येवंविधं प्रहरणं मयाऽपि स्यादित्येवं तदभिलषति स्वस्थानगमनं क्रान्तवपुषि भूताऽऽविष्ट, स्थान चाभिलषति / अथवा-पिहा इति अक्षिणी पिधत्ते निमीलयति / भ०३ पिसायभूय पुं०(पिशाचभृत) पिशाचवद् भूतो जातो गम कत्वात्समासः। श०२ उ० धुवावगुणितशरीरत्वेन मलिनवस्त्रत्वेन भूततुल्ये, उत्त० १२अ०। * पृथक् अव्य०विभिन्ने, विशे०। "पिसाय-भूए'' पिशाचो हि लौकिकाना दीर्घश्मश्रुनखरोमा पुनश्च पिहं अव्य०(पृथक् ) "इदुतौ वृष्ट-वृष्टि-पृथङ्-मृदङ्ग नप्तके पांशुभिः समभिध्वस्त इष्टस्ततः सोऽपि निष्प्रतिकर्मतया रजोदिग्धदेह // 8/1 / 137 / / " इति ऋत इत्वम्। प्रा० १पाद। "वा स्वरे मश्च" तया चैवमुच्यते। उत्त० पाई०१२अ०। // 8/1 / 24 / / इत्यनेन बाहुलकत्वात् करय अनुस्वारो वा / विभिन्ने, पिसिअन०(पिशित) मांसे, "पिसि खुल्लं मंसं / '' पाइ०ना० 113 प्रा०१ पाद / नि०चू०। विशे०। गाथा। पिहंड (देशी) वाद्यविशेष विवर्णयोः, देखना०६वर्गगाथा। पिसिज्जमाण त्रि०(पिष्यमाण) संचूर्ण्यमाणे, जं०४ वक्षा पिहजण पुं०(पृथग्जन) सामान्यजने, स्था०३ठा०१उ०। पिसिय न०(पिशित) पुद्गले मांसे, बृ०३उ०। आवला व्य०। सूबा नि०यू०। पिहड पुं०(पिलर) "पिठरे हो वा रश्च डः" / / 8 / 1/201 / / इति पिसियाइभोइ त्रि०(पिशिताऽऽदिभोजिन) मांसमद्यप्रभृतिकाऽभक्ष्य- पिठरशब्दे ठस्य हः। तत्सन्नियोगे च रस्य डः / 'पिहडो' पिठरो। प्रा०१ भोजके, हिंसके च। पञ्चा० १३विव०। पाद / स्थाल्याम , उपा०७अ०। यत्र प्रभूतजनयोग्यं धान्यं पच्यते। पिसिल्ल पुं०(पिशाच) पिसाअ' शब्दार्थे, प्रा० १पाद। जी०३ प्रति०१अधि०२उ०। पिसुअपुं०(पिशुक) चञ्चटाऽऽदौ, जी०३प्रति०४अधि०। मत्कुणवत्पीडके | पिहत्तआगामिपह न०(पिधत्तआगामिपथ) अन्तरायकर्मभेदे, स्था० मशकजातौ बृ० ४उ०। नि०चू०। ___३ठा० १उ०। (व्याख्या 'अंतराय' शब्दे प्रथमभागे 68 पृष्ठे गता)। Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिहब्भूय 940 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पीउम्मत्त पिहभूय त्रि०(पृथग्भूत) भिन्ने, विशे०। कायाम्, रा०। पिहल (देशी) मुखमारुतपूरिततृणवाद्यविशेषे, दे०ना०६वर्ग 47 गाथा। पिहुय न०(पृथुक) शाल्यादिलाजे, आचा० १श्रु० 10 1 अ०६उ०। पिहाण न०(पिधान) स्थगने, स्था० ४ठा०४उ०।विशे०। सूत्र०। आचा०। अपगततुषे भुग्नशाल्यादौ, आचा० 1201 अ०७उ०। इह ये ब्रीहयः जन परिपक्वाः सन्तो भ्राष्ट्राऽऽदौ भ्रज्यन्ते, ततः स्फुटिता अपनीतत्वचः पृथुका पिहाणिआ स्त्री०(पिधानिका) आच्छादनकाम, "पिहाणिआ मंडी।" इत्युच्यते। बृ० 130 २प्रका पाइ०ना० 233 गाथा। पिहुयखज्ज त्रि०(पृथुकखाद्य) पृथुकभक्षणयोग्ये, "पिहुयखजाओ पिहिअ त्रि०(पिहित) आच्छादिते, "तिरोहिअंपिहिअं अंतरि-अं।" सालीओ त्ति नो वए।" दश०७० पाइ०ना० 177 गाथा। पिहुल त्रि०(पृथुल) अतिपृथुनि,औ० आ०म०। अतिविपुले, ज०२वक्ष०। * पिदधत् त्रि०स्थगयति, ज्ञा० १श्रु०६अ01 विस्तीर्णे , स्था०१ठा०। संस्थानभेदे, "एगे पिहुले।" स्था० १ठा० / ऊर्वोः, 'पियय विउलं वित्थिण वित्थयं रूविसालं / ' पाइ०ना० 86 पिहिय त्रि०(पिहित) स्थगिते, पञ्चा० १३विव० दशा जीवा० स्था०। धा आचा०। ग०। कम्बलाऽऽद्यावृतशरीरे, आचा० १श्रु०६ अ०२उ०। गाथा। सचित्तत्वेन स्थगिते उद्गमदोषविशेष, प्रव०२द्वार। आचा०। (पिहितदोषः पिहुलवच्छ त्रि०(पृथुलवक्षस्) पृथुलमतिविस्तीर्ण वक्षो हृदयं येषां ते। 'एसणा' शब्दे तृतीयभागे 56 पृष्ठे प्रति-पादितः) विस्तीर्णहृदयेषु, प्रश्न० ४आश्र० द्वार। दगवारेण पिहि, नीसाए पीढएण वा। पिहोअर (देशी) तनौ, देना०६वर्ग 50 गाथा। लोढेण वा वि लेवेण, सिलेसेण वि केणइ / / 4 / / पीइ स्त्री०(प्रीति) रुचौ, विशेला अभिष्वङ्गे, द्वा० २३द्वा०। "प्रीतिश्च हितोदया भवति'' प्रीतिश्चाभिरुचिरूपा हितोदया हित उदयो यस्याः (दगवारेण त्ति) दकवारेणोदककुम्भेन पिहितं भाजनस्थं सन्तं सा तथा भवति / षो० १०विव०। आव०। प्रति०। पञ्चा०। ज्ञा०। स्थगितम् / तथा (नीसाए त्ति) पेषण्या, पीठकेन वा काष्टपीटाऽऽदिना, प्रीतिभक्तित्वे इच्छागतजातिविशेषे, ध०१अधि०। 'अत्यन्तवल्लभा लोढेन वापि शिलापुत्रकेण, तथा लेपेन मूल्लेपनाऽऽदिना, श्लेषेण वा केन खलु, पत्नी तद्वता च जननीति। तुल्यमपि कृत्यमनयीति, स्यात्प्रीतिचिज्जतुसिक्थाऽऽदिनेति सूत्रार्थः // 45|| भक्तिगतम् // 5 // " षो० १०विव०। दर्श०। अष्ट। ('अनुट्टाण' शब्दे तं च उडिभंदिआ, दिज्जा, समणट्ठाऐं दावए। प्रथमभागे 377 पृष्ठे व्याख्यातम्) दितिअंपडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं / / 46 / / पिइअणुट्ठाण न०(प्रीत्यनुष्ठान) "यत्राऽऽदरोऽस्ति परमः, प्रीतिश्च (तं च त्ति) तय स्थगितं लिप्तं वा सत् उद्भिद्य दद्याछूमणार्थ दायकः, हितोदया भवति कर्तुः। शेषत्यागेन करोति यच्च तत् प्रीत्यनुष्ठानम् नात्माऽऽद्यर्थम् सकृदुद्भिद्य दायको दद्यात् / तदित्थंभूतं ददती स्त्रियं / / 3 / / " इत्युक्तलक्षणेऽनुष्ठानभेदे, षो०६ विव०। ('अणुट्ठाण' शब्दे साधुर्वदेन मम कल्पते तादृशमिति॥४६|| दश०५अ०१उ०) 'गुरुपिहिए प्रथमभागे 377 पृष्ठे व्याख्यातम्) चउगुरु।" पं०चु०१कल्पा मुद्रिते. बृ०२301 पीइगम न०(प्रीतिगम) आनतदेवेन्द्रस्य पारियानिके विमाने, जं०५ पिहियच्च पुं०(पिहितार्च) पिहिता स्थगिताऽर्वा क्रोधज्वाला येन स तथा। विव०। औ०। स्था। उपशान्तक्रोधे, आचा० १श्रु०६अ०१उ०। पीइदाण न०(प्रीतिदान) हर्षपूर्वके दाने, औ०। प्रीतिदानं यद्भगवदागपिहियागामिपह न०(पिहिताऽऽगामिपथ) पिधत्ते च आगमिनो लब्ध मननिवेदने परमहर्षनिवेदने परमहर्षान्नियुक्तेतरेभ्यो दीयते। आ० म० व्य वस्तुनः पथ आगामिथस्तमिति। क्वचिदागामिपथमिति दृश्यते।। १अज्ञान क्वचित्र 'आगामपह ति" तत्र च लाभमार्गमित्यर्थः / स्था० २टा०४ / पीइधम्मिअन०(प्रीतिधर्मिक) स्थविराच्छ्रीगुप्तान्निर्गतस्य चारणगणस्य उ०। (अंतराय शब्दे प्रथमभागे 18 पृष्ठे व्याख्या) द्वितीयकुले, कल्प०२अधि०८क्षण। पिहियाण न०(पिधान) स्थगने, स्था० ३ठा०१3०/ पीइवद्धण पुं०(प्रीतिवर्द्धन) लोकोत्तररीत्या कार्तिके, जं०७ वक्ष०ा सू० पिहियासव पुं०(पिहिताऽऽ श्रव) स्थगितप्राणातिपाताऽऽद्यावे, प्र०ा ज्यो०। 'पीइवद्धणे मासे।" कल्प०१अधि०६क्षण। "पिहियासवस्स दत्तस्स, पाब कम्मं न बंधइ।' दश० 4 अ०। पीइमण त्रि०(प्रीतिमनम्) प्रीतिः प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्येति प्रीतिपिहु त्रि०(पृथु) सामान्येन विस्तीर्णे , विशे०। मनाः / भ०६श० ३३उ०। ज्ञा०। प्रीतियुक्तचित्ते, कल्प० १अधि० पिहुड न०(पिहुड) नगरभेदे, उत्त। वङ्गदेशीये चम्पानगरीतः प्रवहणमारुह्य २क्षण / आ०म० दशा० भ०। व्यापारार्थ पिहुड नगरं समायात इति। उत्त० 21 अ०। पीइ (देशी) तुरङ्गमे, देवना०६वर्ग 51 गाथा। पिहुण न०(पिहुण) मयूरपिच्छे, रा०। पीउम्मत्त त्रि०(प्रीतोन्मत्त) प्रीतेन कनकेन पक्तिरथन्यायेनार्थात् पिहुणमिजिया स्त्री०(पिहुणमिसिका) मयूरपिच्छमध्यवर्तिन्यां मिञ्जि- | धान्द्रेकेणोन्मत्तः प्रीतोन्मत्तः। धूर्णिते,अष्ट०१५अ०। Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीऊस 641 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पीढसप्पि (ण) पीऊस न०(पीयूष) अमृते, "अमयं च सुहा य पीऊसं / '' पाइ० ना० भवति। तत्थ उडुहोसमणोपडिउत्ति। एवं वंचणट्टादुट्ठातादिकयं आसणतो 183 गाथा। अहियतरा उड्डाहपवंचणादोसा भवति। पीडरई (देशी) चोरस्त्रियाम. देखना०६वर्ग 51 गाथा। इमे संजमदोसापीडा स्त्री०(पीडा) बाधायाम, पञ्चा० १८विव०। देहसमुत्थवेदनायाम्, गंभीरे तसपाणा, पुव्वं ठविते तविजमाणे वा। पञ्चा०७विव०। "किंताएपढियाए, पयकोडीए पयालभूताए। जस्थित्तिय पच्छाकम्मे य तहा, उप्फोसणधोवणादीणि / / 4 / / न नायं, पररस पीडा न कायव्वा / / 1 / / " संथा। "अत्ती विअणा गम्भीर गुक्लिं अप्रकाशं, तत्थ दुनिरिक्खा कुंथुमादितसा पाणा ते पीडा।" पाइ०१६१ गाथा। विराहेज्जंति, एवं पुवठ्ठविते समणट्ठा ठविजमाणे वा इमो दिट्ठ-तो-एगस्स पीडिअ त्रि०(पीडित) वेदनाऽभिभूते, 'अहिड्डयं पीडिअं परद्ध च / " रन्नो पुरतो साहुस्स तव्वन्नियस्स वा दो साहू भणति-अरहंतपणीओ मग्गो पाइ०ना० 161 गाथा। सुछिट्टो, इतरो बुद्धपणीउत्ति। एवं तेसिं बहु-दिवसा गता, अण्णायरण्णो पीढ न०(पीठ) आसने, भ०२श०५उ० दशा०। स्था०। उत्त०। सिंहास जाव तेणागच्छंते ताव दो अमणा ठवित्ता अंडयाणि वत्थपच्छादिताणि नाऽऽदिके, उत्त०१७अाराधाज्ञा प्रश्ना ओघा आसनविशेषे, औ०। कयाणि, तव्यन्त्रितो पुट्विं आगतो अपेहिता णिविट्ठो साहू आगतो, वत्थं पट्टाऽऽदिके, स्था०५ठा०२उ०। उपा०। छगणाऽऽदिमये उपवेशनपट्टे, अवणीतं, दिहा अंडआ, अण्णासणे पमज्जित्ता णिविट्ठो तुट्ठो राया, एस संमग्गो त्ति ओहामितो तव्वन्निउत्ति एतेण निल्लेवित्ति चउत्थरसायणा वा बृ०३उवा पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिण्यां नगा वज्रसेनस्य तीर्थकरस्य राज्ञः सुते, वज्रसेनो हि पूर्वभवे ललिताङ्गो नाम देवः च्युत्त्वा निलेवेति। एवं उप्फोसणादि पच्छाकम्मं करेज्ज। कतिपयभवान कृत्वा विदेहे चिकित्सकसुत आसीत्तत्रायं सार्थवाहसुत इमम्मि कारणे अधिट्ठज्जाआसीत्। आ० म०१अ०। (वृत्तम् 'उसभ' शब्दे द्वितीयभागे 1118 पृष्ठे बितियपदमणप्पज्झे, अहिढे अविकोविते व अप्पज्झे। गतम्) अस्मिन् भवे भ्रातृभिः सह प्रव्रजितः। पञ्चा०१६विव०। अनन्तर रायादिमंतिधम्मी, कहिवादिपराभिओगे य ||Yell विमानादवतीर्य सुमङ्गलायामृषभदेवेन जनिते बाहुभ्रातरि पुत्रे, आ०म० राया अण्णो वा अमचादि इड्डिमंतो धम्भकही वादी वा रायाभियोगादिणा १अ०। आ०चू०। इक्षुनिपीडनयन्त्रे, दे०ना०६वर्ग 51 गाथा। आसने, वा अधि?ज्ज। पाइन्ना० १२०गाथा। इमा जयणापीढग न०(पीठक) काष्ठमये छगणमये वा आसने, दश० ५अ० 130 / पीढफलएसु पुव्वं, तस्सऽसतीए उ झुसिर परिभुत्ते। ध०। पं०व०। बृ०॥ पागडिएसु पमजिय, भावे पुण इस्सरे णातुं / / 5 / / पीढफलग न०(पीठफलक) आसने, पीठमासनफलकमवष्टम्भनार्थः / पीठादि अज्झुसिरे पुव्वं अधिट्टति, अज्झुसिराण असतीझुसिरे अधिकाष्ठविशेषे, दशा०१०अ०। (निर्ग्रन्थीनां पीठफलकम् 'आसण' शब्दे तुति, झुसिरा विजे गिहीतक्खणपुव्वं परिभुत्ता, तत्थ निवसंतो पागडिएसु द्वितीयभागे 441 पृष्ठे उक्तम्) पमज्जिय निवसति, तत्थ गिहिवत्थं अवणेउं अप्पणो निसिज्जं दातुं जे मिक्खू तणपीढयं वा पलालपीढयं वा छगणपीढयं वा अधिट्ठति, रायादिइस्सराणि घरेसु जति पमजते तस्सत्तितो पमज्जति, कट्ठपीढयं वा वेत्तपीढयं वा परवत्थेणोछणं अहिटेइ, अहिद्वंतं अध कुकुड ति मन्नति तो पमजति / एवं भायाभाव णाउं पमज्जति ण वा साइजइ॥६॥ वा / नि०चू० १२उ०। पलालमयं तणपीढगं, वेत्तासणगं वेत्तपीढगं, भिसिमादिकट्ठमयं छगण पीढफलगपडिबद्ध पुं०(पीठफलकप्रतिबद्ध) पीठकमासनमादिशब्दापीढयं पसिद्ध, परो निहत्थो, तस्संतिएण वत्थेण उच्छइयं तं जो साहू त्फलपट्टिकाऽऽदयस्तत्र प्रतिबद्धः ! कारणं विनाऽपि ऋतुबद्धकाले पीठअहिट्ठति, निवसतीत्यर्थः / तस्स चउलहू, फलकपरिभोगिनि, ग०१अधिo) पीढफलगसेज्जासंथार पुं०(पीठफलकशय्यासंस्तार) काष्ठमयासनआणादिणो य दोसा शय्याच्छादने, उपा०१अग पीढगमादी आसण, जत्तियमेत्ताउ आहिया सुत्ते। पीढमह पुं०(पीठमर्द) पीठ मर्दयित्वा ये प्राप्ताऽऽसन्ना उपविशन्ति ते पीठपरवत्थेणोच्छेत्ते, ताणि अहिढेति आणादी॥४६|| मर्दाः / आव० / अ०। आ०म० राज्ञामारथाने आसनाऽऽसीनसेवके इमे आयविराहणा दोसा वयस्ये, भ०७श०६ उ०। कल्प०। ज्ञा०ा औ०। आ०चू०। दुट्ठियभग्गमपाए पडिज, तब्भावणा व से होजा। पीढया स्त्री०(पीठका) प्रतिष्ठानपुरप्रतोल्या बहिर्देव्याम्, सा च प्रतिदिनपवडेंते उड्डाहो, वंचणट्ठा कते अहियं / / 47 / / चतुष्टयं परिणेतुर्विषयगृद्धस्य राज्ञो मारणार्थ विवाहवाटिकाग्रामवास्तपरेण जमासणं अजाणता पडिणीयट्ठयाए वंचणट्ठा दुट्टियं ठवियं, भग्गं व्यद्विजाऽऽराधिता प्रत्यतिष्ठत्। ती०३३कल्प०। वा ठवियं, एगदुति सव्वपादविरहियं वा ठवियं, तत्थ वीसत्थो निविट्ठो | पीढ सप्पि(ण) पुं०(पीठ सर्पिन ) प्रसपेण संचरणशीले पडिज्ज वा, निहोसे तब्भावणा वा से होज्जा, पड़माणो वा अवाउडो / पड़ गु विशेषे, जन्तुर्गर्भदोषान् पी सर्पित्वेनोत्पद्यते, जातो वा Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीढसप्पि (ण) 642 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंछण कर्मदोषाद् भवति, स किल पाणिगृहीतकाष्ठः प्रसर्पतीति। आधा०१श्रु० - पीलु पु०(पीलु) एकास्थिकवृक्षविशेषे, प्रज्ञा० १पद / आचा०ा अनु० ६अ०१उ०॥ रूपपूणिकायाम्, आ०म०१अ०क्षीरे, अनु०। गजे, "पीलू गओ मयगलो, पीढाणीय न०(पीठानीक) अश्वसैन्ये, स्था० ५ठा० 130 / पायंगो सिंधुरो करेणू य / दोघट्टो दंती वारणो करी कुंजरो हत्थी / " पीढिया स्त्री०(पीटिका) उपवेशनाऽऽदिस्थानविशेषे, बृ०१ उ०२ प्रक० / पाइ०ना०६गाथा। "आसंदी पीढिया।' पाइन्ना० 266 गाथा। पीलुट्ठ (देशी) पृष्ठे, (दग्धे) दे०ना०६वर्ग 51 गाथा। पीण त्रि०(पीन) उपचिते, ज०२वक्ष०ा जी०। स्थूले, ज्ञा० १श्रु० 10 // पीवइत्ता (पीत्वा) पानं कृत्वेत्यर्थे , स्था०२टा०१उ०) प्रश्न०। पुष्ट, जं०२ वक्ष०ा पीवरे, रा०। ज्ञा०। "पीणमट्टरमणिज्जगंड- पीवर त्रि०(पीवर) स्थूले, ज्ञा०१श्रु०६ अ० भ०। रा०ा महति, प्रश्न० 5 लेहा।' पीना उपचिता मृष्टा मसृणा रमणीया रम्या गण्डरेखा कपोल- संव० द्वार। ज्ञा०। प्रधाने, नि०चू०२ उ०। उपचिते, ज्ञा०१श्रु०१० पाली यासा ताः पीनमृष्टरमणीयगण्डरेखाः। जी० ३प्रति०। पीणमंस- मांसले, ज्ञा०१श्रु०१०। "पीवरकोमलवरंगुलिया / " पीवरा लकवोलदेसभागा।' पीनौ अकृशोपेतो मांसलावुपचितौ कपोलदेशौ उपचिताःकोमलाः सुकुमारा वराः प्रमाणलक्षणोपेततया प्रधाना गण्डभागौ मुखस्य देशरूपौ भागों येषां ते पीनमांसलकपोलदेशभागाः। अड्गुलयो यासा ताः पीवरकोमलवराङ्गुलिकाः / जी०३ प्रति०४ अथवा कपोलयोर्देशभागाः कपोलदेशभागाः,कपोलावयवा इत्यर्थः / अधि०। “रुंदा पीणा थूला, य मंसला पीवरा थोरा।" पाइ० ना०७३ पीना मांसलाः कपोलदेशभागा येषां ते पोनमासलकपोलदेशभागाः / गाथा। जी०३प्रतिला "पीणरइयसंठिया।"पीनपीवरं रचितं तथा जगत्स्थिति पीवरगब्भा स्त्री०(पीवरगर्भा) आसन्नाऽऽसवकालायाम्, ओघा स्वाभाव्यात, रतिदंवा संस्थितं संस्थानं यकाभ्यां तौ पीनरचितसंस्थिती पीवरपकोट्ठ पुं०(पीवरप्रकोष्ठ) अकृशकलाचिके, औ०। पीनरतिदसंस्थिती वा। जी०३प्रति०४ उ०। “पीणुनयकक्खवक्ख पीवरसिरित्रि०(पीवरश्रीक) उपचितोपशमलक्ष्मीके, अनु०। वत्थिप्पएसा / ' पीना उपचितावयवा उन्नता अभ्युन्नताः कक्षावक्षोवस्तिरूपाः प्रदेशा यासा ताः पीन्नोन्नतक क्षावक्षोवस्तिप्रदेशाः / पीवल त्रि०(पीत) "विद्युत्पत्रपीतान्धालः" / / 8 / 2 / 173|| इति जी०३ प्रति०४ अधि०। 'रुंदा पीणा थूला य मंसला पीवरा स्वार्थे त्वः। प्रा०२ पाद। "पीते वो ले वा"।।१।२१३।। पीते थोरा / " पाइन्ना०७३गाथा। चतुरसे, देना०६वर्ग 56 गाथा। तस्य वो वा भवति। स्वार्थ लकारे परे तस्य वः / प्रा०१पाद। पीणणिज्ज त्रि०(प्रीणनीय) प्रीणयतीति प्रीणनीयम्। 'कृबहुलम' इति पीसंती स्त्री०(पीषती) शिलायां नीलामलकाऽऽदि प्रमृन्दत्याम्, पिं० वचनात् कर्तय॑नीयप्रत्ययः / प्रज्ञा०२० पद / रस-रुधिराऽऽदिधा ओघन तुसमताकारिणि, ज्ञा०१श्रु०१अ०। पीसण न०(पेषण) घरट्टाऽऽदिना दलने, प्रश्न०१आश्र० द्वार। नि०चू०। पीणत्त न०(पीनत्व) स्थूलत्वे, प्रा० २पाद। बृ०। सूत्र। पीणाइय न०(पीनायिक) पीना पामड्डा, तया निवृत्तं पीनायिकम्। पाम पीहेज क्रिया(स्पृहयेत्) त्रिभिः स्थानैर्देवा अभिलषेयुः / स्था० ३टा०३उ० डानिवृत्ते, (रटिते) "पीणाइयविरसरडियसद्देण।" ज्ञा०१श्रु०१अ०। (इतिदेवशब्दे चतुर्थभागे 2607 पृष्ठे उक्तम्) पीणिमा स्त्री०(पीनत्व) "त्वस्य डिमात्तणौ वा" ||8/2 / 154|| इति पीहा स्त्री०(स्पृहा) भोगेच्छायाम, ज्ञा०१श्रु०६ अ० स्था०। त्वप्रत्ययस्य स्थाने डिमाऽऽदेशः। स्थूलत्वे, प्रा०२पाद। पु अव्य०(पु) प्रश्रवणे, आ०म० 10 // संस्कृतेरान्तःशरीरे, विशेषण पीणिय त्रि०(प्रीणित) परिवृद्धे, दश०७अ०। पुअंड (देशी) तरुणे, दे०ना०६वर्ग 53 गाथा। पीथड पु०(पीथड) अर्बुदगिरितीर्थोद्धारकारके त्यवरिचण्डसिंहपुत्रे,सं० पुअंडअपुं०(पोगण्ड) अवस्थाभेदे, "जुअलो जुआ जुआणो, पुअंडओ "तत्राऽऽधतीर्थस्योलल्लो, महणसिंहभूः खलु। पीथडस्त्वितरस्याभूत्, वोद्रहो तरुणो।" पाइ०ना०६२ गाथा / त्यवरिचण्डसिंहजः।।" ती०७कल्प। पुआइणी (देशी) पिशाचगृहीतायाम्, दे०ना०६वर्ग 54 गाथा / पीयग पुं०(पीयक) वृक्षविशेषे, राजा उन्मत्तायाम, दुःशीलायां च / देना०६वर्ग 54 गाथा। पीलण न०(पीलन) इक्ष्वादेरिव (आ००१अ०) यन्त्रे, सकृ दीषद् वा | पुआई पुं०(देशी) तरुणोन्मत्तपिशाचेषु, दे०ना० ६वर्ग ८०गाथा! प्रेरणे, दश०४अ०। प्रश्नका पुंगव वि०(पुङ्गव) प्रधाने, ज्ञा०१श्रु० १६अ०। "णियगाओ भवणाओ, पीला स्त्री०(पीडा) तदाक्षिप्तचेतसो भावविराधनायाम, दश० ५अ०१३० णिग्गओ वहिपुगवो।" उत्त०२२अ० पीलाकर त्रि०(पीडाकर) पीडाकारिणि, सूत्र०१श्रु०३अ०१उ०। प्रश्ना पुंछ न०(पुच्छ) "वक्राऽऽदावन्तः" ||8 / 1 / 26 / / इत्यागमरूपोपीलिम त्रि०(पीडिम) पीडावति, दश०३अ०। ऽनुस्वाराऽऽगमः / प्रा०१पाद। पीलिय त्रि०(पीडित) यन्वैरिक्षुवत्कृतपीडे, औ०। स्था०ा उत्त० / प्रश्र०। | पुंछण न०(प्रोञ्छन) रजसा हरणे, प्रश्न०२संव० द्वार। Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंछण 643 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिट्ठवेत्ता णो पुंछइ, ण पुच्छंतं वा साइज्जइ। नि०चू०४० करणे ल्युट / रजोहरणे, प्रोञ्छनशब्देन तु रजोहरणमुच्यते। आह च चूर्णिकृत-''पापग्गहणे ण पापभंडयं पुंछणं रयहरणं ति वुच्चइ।'' बृ०१उ०३प्रका पुंछणी स्त्री०(प्रोञ्छनी) निविडतराच्छाऽऽदनहेतुश्लक्ष्णतरतृण- विशेषे, "ओहाडणी हारग्गहणं सहतुज्जलकं तु पुंछनी।" इति। रा० / जी०। पुंछिअत्रि०(पोञ्छित) "उम्मुटुंछिअफुसि।' पाइ०मा० 188 गाथा। पुंज पुं०(पुज) सशिखरे राशौ, विपा० १श्रु०६अ०। प्रज्ञा पुञ्जवत्पुञ्जः / स्कन्धे, अनु०॥ पुंजपव्वय पु०(पुजपर्वत) वीरप्रतिमाप्रधाने स्वनामख्याते पर्वते, ती०४३ कल्प। पुंजाय जि०(पुज) समुदाये, "पुंजायं पिंडलइयं / " पाइ०ना० 208 गाथा। पुंजीकड त्रि०(पुजीकृत) अपुजाः पुजाः कृता इति (व्युत्पत्तिः) वृत्ताऽऽकारधान्योत्कररूपतामापादिते, बृ०२उ०। पिण्डीकृते, विशे। पुंड पुं०(पुण्ड्र) पुडिरक / इक्षुमेदे, माधवीलतायाम्, चित्रके, तिलकवृक्षे, क्षुद्रप्लक्षे, दैत्यभेदे च। वाचा दशा स्वनामख्याते विन्ध्यागिरिपाददेशे, ''भारहे वासे विंझगिरिपायमूले पुंडेसुजणवएसु सत्तदुवारे सुमइस्स रण्णो भट्टाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववण्णे।" भ०१५श०। स्था०। धवले, ज्ञा०१श्रु०१७अ० आ०म०। पुंडइअ (देशी) पिण्डीकृतार्थे देवना०६वर्ग 54 गाथा। पुंडरीअ न०(पुण्डरीक) व्याने, “इल्ली पुल्ली वग्यो, सठूलो पुंडीरओ य'' पाइ०ना० 44 गाथा / कमले च / 'अंबुरुहं सयवत्तं, सरोरुह पुंडरीअमरविंद / राईवंतामरसं, महुप्पयं पंकयं नलिणं / / 1 / / '' पाइना० 11 गाथा। पुंडरीगन०(पुण्डरीक) श्वेतपद्ये, जं०१वक्ष०ा ज्ञा०। श्वेतशतपत्रे, सूत्र० २श्रु० १अ०रा०! कमले, संथा० औ०। आ०म० / स०। कल्प०। आचा पुण्डरीकनिक्षेपःणामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य गणण संठाणे। भावे य अट्ठमे खलु, णिक्खेवो पुंडरीयस्स // 144|| (णामं ठवणेत्यादि) पौण्डरीकस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालगणनासंस्थानभावाऽऽत्मकोऽष्टधा निक्षेपः / तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यपौण्डरीकमभि धित्सुराहजो जीवो भविओ खलु, उववञ्जिउकामों पुंडरीयम्मि। सो दव्वपुंडरीओ, भावम्मि वि जाणओ भणिओ।।१४।। (जो जीवो इत्यादि) यः कश्चित्प्राणधारणलक्षणो जीवो भविष्यतीति भव्यः, तदेव दर्शयति उत्पतितुकामः समुत्पित्सुस्तथाविधकर्मो - दयात्पौण्डरीकेषु श्वेतपर्धषु वनस्पतिकायविशेषेष्वनन्तरभर्व भावी स द्रव्यपौण्डरीकः / खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे। भावपौण्डरीकं त्वागमतः पौण्डरीकपदार्थज्ञरतत्र चोपयुक्त इति। एतदेव द्रव्यपौण्डरीक विशेषतरं दर्शयितुमाहएगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोएय। एते तिन्नि वि दोसा, दव्वम्मि य पोडरीयस्स।।१४६|| एकेन भवेन गतेनान्तरभव एव पौण्डरीकेपूत्पत्स्यते, स एकभविकस्तथा तदासन्नतरः पौण्डरीकेषु बद्धाऽऽयुष्कस्ततोऽप्यासन्नतमोऽभिमुखनामगोत्रोऽनन्तरसमयेषु यः पौण्डरीकेपूत्पद्यते। अनन्तरोक्ता एते त्रयो देशविशेषा द्रव्यपौण्डरीकेऽवगन्तव्या इति! ''भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणं तुयलोके। तद्रव्य तत्त्वज्ञैः, सचेतना चेतनं कथितम् / / 1 / / " इति वचनात् / इह च पुण्डकरीककण्डरीकयोत्रिोर्महाराजपुत्रयोः सदसदनुष्ठानपरायणतया शोभनाशोभनत्वमवगम्य तदुपमयाऽन्यदपि यच्छोभन तत्पौण्डरीकमितरत्तु कण्डरीकमिति। (कण्डरीकराजकुमारवृत्तान्तम् 'कंडरीय' शब्दे तृतीयभागे 172 पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम्) तत्र च नरकवर्जासु तिसृष्वपि गतिषु येशोभनाः पदार्थास्ते पौण्डरीकाः, शेषास्तु कण्डरीका इति। एतत्प्रतिपादयन्नाहतेरिच्छिया मणुस्सा, देवगणा चेव होंति जे पवरा। ते होंति पुंडरीया, सेसा पुण कंडरीया उ॥१४७।। (तेरिच्छेत्यादि) कण्ठ्या / (तिरश्चा भेदाः, तिर्यक्त्यकारणानि च 'तिरिक्खजोणिय' शब्दे चतुर्थभागे 2318 पृष्ठादवगन्तव्यानि) (मनुष्यभेदान मणुस्स' शब्दे वक्ष्यामि) (देवानामस्तित्वं, तद्भेदाः, तत्स्वरूपम्, तेषामेकानेकशरीरत्वम्, तेषां स्थितिः, इत्यादिकं बहुतरम् 'देव' शब्दे चतुर्थभागे 2607 पृष्ठादारभ्यावलोकनीयम्) तत्र तिर्यक्षु प्रधानस्य पौण्डरीकत्वप्रतिपादनार्थमाहजलयरथलयरखयरा, जे पवरा चेव होंति कंता य। जे य सभावेऽणुमया,ते होंती पुंडरीया उ॥१४८|| (जलचरेत्यादि) जलचरेषु मत्स्यकरिमकाराऽऽदयः (जलचरभेदाः ‘जलयर' शब्दे चतुर्थभागे 427 पृष्ठ गताः) स्थलचरेषु सिंहाऽऽदयो बलवर्णरूपाऽऽदिगुणयुक्ताः स्थलचराः ('थलयर' शब्दे तस्मिन्नेव भागे 2386 पृष्ठे विरतरतो निरूपिताः) उरःपरिसपेषुमणिफणिनो (उरःपरिसर्पभेदाः 'उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय' शब्दे द्वितीयभागे 851 पृष्ठे गताः) (विशेषम् ‘राप्प' शब्दे वक्ष्यामि) (भुजपरिसर्पेषु बहुवक्तव्यता भुयपरिसप्प' शब्दादवगन्तव्या) भुजपरिसपेषु नकुलाऽऽदयः, खचरेषु हंसमयूराऽऽदयः। (खचरभेदः 'खहयर' शब्दे तृतीयभागे 734 पृष्ठादवगन्तव्यः) एवमन्येऽपि स्वभावेन प्रकृत्या लोकानुमतास्ते च पौण्डरीका इव प्रधाना भवन्ति। मनुष्यगतौ प्रधानाऽऽविष्करणायाऽऽहअरिहंत चक्कवट्टी, चारण विजाहरा दसारा य। जे अन्ने इड्डिमंता, ते होंति पोंडरीया उ॥१४६।। (अरिहते त्यादि) सर्वातिशायनी पूजामहन्तीति अर्हन्तः, Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 644 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय ते निरुपमरूपाऽऽदिगुणोपेताः (अर्हतां सर्वा वक्तव्यता 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2247 पृष्ठादारभ्यावलोकनीया) तथा-चक्रवर्तिनः षट्खण्डभरतेश्वराः (चक्रवर्तिना सर्वस्वम् 'चक्कवट्टि (ण)' शब्देतृतीयभागे 1066 पृष्टादारभ्य द्रष्टव्यम्) तथा चारणश्रमणा बहुविधाऽऽश्चर्यभूतलनिकलापोपेता महातपस्विनः (चारणानां भेदाः तद्वक्तव्यता च ‘चारण' शब्दे तृतीयभागे 1173 पृष्ठे गता) तथा विद्याधरा वैताट्यपुराधिपतयः (विद्याधरवक्तव्यता 'विजाहर' शब्दादव गन्तव्या) तथा दशारा हरिवंशकुलोद्भवाः (दशार्हाणां सर्वम् ‘दसार' शब्दे चतुर्थभागे 2485 पृष्ठे गतम्) अस्य चोपलक्षणार्थत्वादन्येऽपीक्ष्वाक्कादयः परिगृह्यन्ते, एतदेव दर्शयति-ये चान्ये महर्धिमन्तो महेभ्याः कोटीश्वरास्ते सर्वेऽपि पौण्डरीका भवन्ति / तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात्, ये चान्ये विद्याकलाकलापोपेतास्ते पौण्डरीका इति। साम्प्रतं देवगतौ प्रधानस्य पौण्डरीकत्वं प्रतिपादयन्नाहभवणवइबाणमंतरजोतिसवेमाणियाण देवाणं / जे तेसिं पवरा खलु, ते होंती पोंडरीया उ1१५०॥ भवणेत्यादि, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां चतुर्णा देवनिकायाना मध्ये ये प्रवराः-प्रधाना इन्द्रेन्द्रसामानिकाऽऽदयस्ते प्रधाना इतिकृत्वा पौण्डरीकाभिधाना भवन्ति। साम्प्रतमचित्तद्रव्याणां यत्प्रधानं तस्य पौण्डरीकरवप्रति पादमायाऽऽहकंसाणं दूसाणं, मणिमोत्तियसिलप्पवालमादीणं। जे अ अचित्ता पवरा, ते होंती पोंडरीया उ॥१५१।। कांस्याना मध्ये जयघण्टाऽऽदीनि दूष्याणां चीनांशुकाऽऽदीनि, मणीनामिन्द्रनीलवैडूर्य पद्मरागाऽऽदीनि, रत्नानि मौक्तिकानां यानि वर्णसंस्थानप्रमाणाधिकानि, तथा शिलानां मध्ये पाण्डुकम्बलाऽऽदयः शिलास्तीर्थकृज्जन्माभिषेकसिंहासनाऽऽधाराः, तथा प्रवालानां यानि वर्णाऽऽदिगुणोपेतानि, आदिग्रहणाज्जात्यचामीकरं तद्विकाराश्वाऽऽभरणविशेषाः परिगृह्यन्ते, तदेवमनन्तरोक्तानि कांस्याऽऽदीनि यानि प्रवराणि तान्यचित्तपौण्डरीकाण्यभिधीयन्त इति। मिश्रद्रव्यपौण्डरीकं तु तीर्थकृच्चक्रवर्त्यादय एव प्रधानकटककेयूराऽऽद्यलङ्कारालड्कृता इति। द्रव्यपौण्डरीक्रानन्तर क्षेत्रपौण्डरीकाभिधित्सयाऽऽहजाई खेत्ताई खलु, सुहाणुमावाइँ होति लोगम्मि। देवकुरुमादियाई, ताई खेत्ताई पवराई / / 152 / / यानि कानिचिदिह देवकुर्वादीनि शुभानुभावानि क्षेत्राणि तानि प्रवराणि पौण्डरीकाभिधानानि भवन्ति। साम्प्रतं कालपौण्डरीकप्रतिपादनायाऽऽहजीवा भवद्वितीए, कायठितीए य होंति जे पवरा / ते होंति पोंडरीया, अवसेसा कंडरीया उ॥१५३।। 'जीवाः' प्राणिनो भवस्थित्या कायस्थित्या च ये ‘प्रवराः प्रधानास्ते पौण्डरीका भवन्ति, शेषास्त्वप्रधानाः कण्डरीका इति, तत्र भवस्थित्या देवा अनुत्तरोषपातिकाः प्रधाना भवन्ति, तेषां यावद्भवं शुभानुभावत्वात, कायस्थित्यां तु मनुष्याः शुभकर्मसमाचाराः सप्ताष्टभवग्रहणानि मनुष्येषु पूर्वकोट्यायुष्केष्वनुपरिवानन्तरभवे त्रिपल्योपमायुष्केषूत्पादमनुभूय ततो देवेषूत्पद्यन्त इति कृत्वा ततस्ते कायस्थित्या पौण्डरीका भवन्ति, अवशिष्टास्तु कण्डरीका इति। कालपौण्डरीकानन्तरं गणनासंस्थानपौण्डरीकद्वयप्रति पादनायाऽऽहगणणाए रज्जू खलु, संठाणं चेव होंति चउरंसं / एयाइं पोंडरीगाइँ होति सेसाई इयराइं / / 154 / / गणनया-सङ्ख्यया पौण्डरीक चिन्त्यमानं दशप्रकारस्य गणितस्य मध्ये 'रज्जु' रज्जुगणितं प्रधानत्वात्पौण्डरीक, दशप्रकारं तु गणितमिदम् - "परिकम्म 1, रज्जु 2, रासी ३,ववहारे 4, तह कलासवण्णे 5. य। पुग्गल 6. जावं तावं 7, घणे य 8 धणवग्ग 6 वग्गे य 10 // 1 // " (अस्या गाथाया व्याख्या गणिय' शब्दे तृतीयभागे 824 पृष्ठे गता) संस्थानाना षण्णा मध्ये समचतुरस्र संस्थानं प्रवरत्वात्पौण्डरीकमित्येवमेते द्वे अपि पौण्डरीके, शेषाणि तु परिकर्माऽऽदीनि गणितानि न्यग्रोधपरिमण्डलाऽऽदीनि च संस्थानानि 'इतराणि कण्डरीकान्यप्रवराणि भवन्तीति यावत्। साम्प्रतं भावपौण्डरीकप्रतिपादनाभिधित्सयाऽऽहओदइए उवसमिए, खइए य तहा खओवसमिए अ ! परिणामसन्निवाए, जे पवरा ते विते चेव / / 15 / / औदयिके भावे तथौपशमिके क्षायिके क्षायोपशमिके पारिणामिके सान्निपातिके च भावे चिन्त्यमाने तेषु तेषां वा मध्ये ये 'प्रवराः' प्रधानाः 'तेऽपि औदयिकाऽऽदयो भावाः ‘त एव' पौण्डरीका एवावगन्तव्याः, तथौदयिके भावे तीर्थकराः(४ भागे 'तित्थयर' शब्दे गताः) अनुत्तरोपपातिकसुराः, तथाऽन्येऽपि सितशतपत्राऽऽदयः पौण्डरीकाः, औपशमिके समस्तोपशान्तमोहाः, क्षायिके केवलज्ञानिनः, क्षायोपशमिके विपुलमतिश्चतुर्दशपूर्ववित्परमावधयो व्यस्ताः समस्ता वा, पारिणामिके भावे भव्याः, सान्निपातिके भावे द्विकाऽऽदिसंयोगाः सिद्धाऽऽदिषु स्वबुद्ध्या पौण्डरीकत्वेन योजनीयाः, शेषास्तु कण्डरीका इति। साम्प्रतमन्यथा भावपौण्डरीकप्रतिपादनायाऽऽहअहवाविनाणदंसणचरित्तविणए तहेव अज्झप्पे। जे पवरा होंति मुणी, ते पवरा पुंडरीया उ / / 156 / / अथवाऽपि भावपौण्डरीकमिदम्। तद्यथा-सम्यग्ज्ञाने तथा सम्यग्दर्शने सम्यकचारित्रे ज्ञानाऽऽदिके विनये तथा अध्यात्मनि' च धर्मध्यानाssदिके ये 'प्रवराः' श्रेष्ठा मुनयो भवन्ति, ते पौण्डरीकत्वेनावगन्तव्यास्ततोऽन्ये कण्डरीका इति। (ज्ञानदर्शनाऽऽदीनां महत्त्वं स्वस्वस्थाने) तदेवं सम्भविनमष्टधा पौण्डरीकस्य निक्षेपं प्रदाधुनेह येनाधिकारस्तमाविर्भावयन्नाहएत्थं पुण अहिगारो, वणस्सतीकायपुंडरीएणं / भावम्मि असमणेणं, अज्झयणे पुंडरीअम्मि।।१५७।। 'अत्र' पुनदृष्टान्तप्रस्तावे अधिकारो व्यापारः सचित्ततिर्यग्यो निकैकेन्द्रियवनस्पतिकायद्रव्य पाण्डरीके ण जल Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 145 - अभिधानराजेन्द्रः .. भाग 5 पुंडरीय रुहा, यदि का औदयिकभाववर्तिना वनस्पतिकायपौण्डरीकेण सितश.. तपत्रेण, तथ भाव 'श्रमणेन च सम्यग्दर्शनचारित्रविनयाध्यात्मवर्तिना सत्स्मधुनाऽस्मिन्नध्ययने पौण्डरीकाऽऽख्येऽधिकार इति / गता निक्षेपनियुक्तिः। अधुना सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिरवसरः, सा च सूत्रे सति भवति, स्त्रं च सवागमे,स चावसरप्राप्तोऽतोऽस्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चार - धितन्य, तच्चेदम सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायंइह खलु पोंडरीए णामऽज्झयणे, तस्स णं अयमढे पण्णत्ते / 1 / से जहाणामए पुक्खरिणी सिया बहुउदगा बहुसे या बहुपुक्खला लट्ठा पुंडरीकिणी पासादिया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा।श तीसे णं पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे पउमवरपोंडरीया बुझ्या, अगुपुव्वुट्टिया ऊसिया रुइलावन्नमंता गंधमंता रसमंता फासमंता पासादिया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा 13 / तीसे णं पुणरिणीए बहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइए अणुपुव्वुट्ठिए उस्सिते रुइले वन्नमते गंधमंते रसमंते फासमंते पासादीए०जाव पडिरूवे - (सुय मे आउसंतणमित्यादि) अस्य चानन्तरसूत्रेण सह संबन्धो वाच्यः / स चायम्-(से एवमेव जाणह जमहं भयंतारो त्ति) तदेत-देव जानीत भयस्य त्रातारः / तद्यथा-श्रुतं मयाऽऽयुष्मता भगवतैवमारख्यातम्, आदिसूत्रेण च सह सवन्धोऽयम् / तद्यथा-यद्भगवताऽऽख्यातं मया च श्रुत तदबुध्येते त्यादिकम / किं तद्भगवताऽऽख्यातमित्याह-इह प्रवचने सूत्रकृद्वितीय श्रुतस्कन्धे वा, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे। पौण्डरीकाभिधानमध्ययन पौण्डरीकेण सितशतपत्रेणात्रोपमा भविष्यतीति कृत्वा, अतोऽस्याध्ययनस्य पौण्डरीकमिति नाम कृतम्। तस्य चायमर्थःणमिति वाक्याल-कारे / प्रज्ञप्तः प्ररूपितः / 1 / (से जह ति) तद्यथार्थः / स च वाक्योपन्यासार्थः / नामशब्दः संभावनाया, संभाव्यते पुष्करिणीदृष्टान्तः। पुष्कराणि पद्यानि तानि विद्यन्ते यस्यामसौ पुष्करिणी, स्याद्भवेदेवभूता। तद्यथा-बहु प्रचुरमगाधमुदकं यस्यां सा बहूदका, तथा बहुः प्रचुरः सीयन्तेऽवबध्यन्ते यस्मिन्नसौ सेयः कर्दमः, स यस्यां सा बहुसेया प्रचुरकर्दमा / बहुश्वेतपद्मसद्भावात् स्वच्छोदकसंभवाच्च बहु श्वेता वा, तथा बहुपुष्कला बहुसपूर्णा प्रचुरोदकभूतेत्यर्थः। तथा लब्धः प्राप्तः पुष्करिणीशब्दान्वर्थतयाऽर्थो यया सा लब्धार्था, अथवा आस्थानमारस्था प्रतिष्ठा, स! लब्धा राया सा लब्धाऽऽस्था, तथा पौण्डरीकाणि श्वेतशतपत्राणि विद्यन्ते यस्यां सा पौण्डरीकिणी, प्रचुरार्थे मत्वर्थीयोत्पत्तेर्बहुपोत्यर्थः / तथा प्रसादः प्रसन्नता निर्मलजलता. सा विद्यते यस्याः सा प्रसादिका, पाररादा वा देवकुलसन्निवेशास्ते विद्यन्ते यस्यां समन्ततः सा प्रासादिका, दर्शनीया शोभना सत्संनिवेशतो वा द्रष्टप्या दर्शनयोग्या, तथाऽऽभिमुख्येन सदाऽवस्थितानि रूपाणि राजहंसचक्रवाकसारसाऽऽदीनि गजमहिष मृगयथाऽऽदीनि ता जलान्तर्गतानि वा करिगकराऽऽदीनि ता रास्यां सा अभिरूपे ति, तथा पतिरूपाणि प्रतिबिम्बानि विहान्ते गरयां रग प्रतिरूपा / एतदक्त भवतिस्वच्छत्वातस्याः सर्वत्र प्रतिबिम्बानि समपलभ्यन्ते तदतिशयरूपतयी वालोगेन तत प्रतिबिम्बानि क्रियते इति सा प्रतिरूपेति / यदि वा- (पासादी या दरिसाणीया अभियन्ता पहिरुवा ति) पर्याया इत्येते चल्गरोऽयतिशयरमणीय वख्यापनार्थ मुपाताः।२। तरयाश्व पुष्करिण्याः, णमितिवाक्यालंकारे। तत्र लरेयनेन वीप्सापदेन पौण्डरीकन्यापकत्वमाह-देशे देशे इत्यनेन नवे कैकप्रदेशे प्राचर्यमाहूतम्मिरतस्मिन्नित्यनेन तु नास्त्येवासौ पुष्करिण्याः परदेशी यत्र तानिन सन्तीति। दिवा देणे देशे इत्येतत्प्रत्येकमभिसंबध्यते। त। तरति कोऽर्थो ? देशे देशे तरिमरतरिमन्निति च कोऽर्थः? देशैकदेश इति : यदि वा-अत्यादरख्यापनायैकार्थान्येवैतानि त्रीण्यपि पदानि ! तेषु च पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु बहूनि प्रचुराणि पद्मान्येव वराणि श्रेष्ठानि पाण्डरीकाणि पद्मवरपौण्डरीकाणि पद्मग्रहणं छत्रव्याघव्यवर देवार्थ, पौण्डरीकग्रहणं श्वेतशतपत्रप्रतिपत्त्यर्थ, वरग्रहणमाधाननिवृत्त्यर्श, तदेवंभूतानि बहनि पावरपौण्डरीकाणि (बुइय ति) उक्तानि प्रतिपादितानि, विद्यन्त इत्यर्थः / आनपूर्येण विशिष्टरचनया रिशतानि, तथो.. च्छ्रितानि पङ्कजले अतिलध्योपरि व्यवस्थितानि, तथा रुचिर्दी तिस्ता लान्त्याददति रुचिलानि सदीप्तिमन्ति, तथा शोभनवर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति, तथा प्रासादीयानि दर्शनीयानि, अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि / 3 / तस्याश्च पुष्करिण्याः सर्व तः पद्मावृतायाः, णमिति वाक्यालङ्कारे / बहुदेशमध्यभागे निरुपचरितमध्यदेशे एक महत्पद्मवरपौण्डरीकमुक्तमानुपूर्येण व्यवस्थितमुच्छ्रितं रुचिलं वर्णगन्धरसस्पर्शवत्, तथा प्रासादीयं दर्शनीयम, अभिरूपतरं प्रतिरूपतरमिति। 4 / सांप्रतमेतदेवानन्तरोक्तं सूत्रद्वयम-(सव्वावंति च णं ति) इत्यनेन विशिष्टमपरं सूत्रद्वयं द्रष्टव्यम् सव्वावंति च णं तीसे णं पुक्खरिणीए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे पउमवरपोंडरीया बुइया अणुपुबुट्ठिया ऊसिया रुइलाजाव पडिरूवा, सव्वावंति च णं तीसे णं पुक्खरिणीए बहुमज्झदेसभाए एगं महं पउमवरपोंडरीए बुइए अणुपुदुट्टिए जाव पडिरूवे / / 1 / / अह पुरिसे पुरित्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति-तं महं एगं पउमवरपॉंडरीयं अणुपुवुट्ठियं ऊसियं०जाव पडिरूवं / तए णं से पुरिसे एवं बयासीअहमंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिते वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गति--परक्कमपण अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कटु इति बूया से पुरिसे अभिक्कमेति, तं पुक्खरिणिं जावं जावं च णं अमिक्कमेइ, तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीवं णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि निसपणे पढमे पुरिसजाए ! / / 2 / / Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय ६४६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय अस्यायमर्थः- (सव्वावंति ति) सर्वस्या अपि तस्याः पुष्करिण्याः / जहा णं एस पुरिसे मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंडिए सर्वप्रदेशेषु यथोक्तविशेषेणविशिष्टानि बहूनि पद्मानि तथा सर्वस्याश्च वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू तस्या बहुमध्यदेशभागे यथोक्तविशेषणविशिष्ट महदेकं पौण्डरीकं विद्यत अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कटु इति वद्यासे इति। उभयत्रापि चः समुचये। णमिति वाक्यालङ्कारे।। इति। अथान- पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खारीणिं, जावं जावं च णं अभिक्कमेइ न्तरमेवभूतपुष्करिण्याः पूर्वस्या दिशः कश्चिदेकःपुरुषःसमागत्य ता तावं तावं च णं महते उदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पुष्करिणीं तस्याश्च तीरे तटे स्थित्वा तदेतत्पद्यं प्रासादीयाऽऽदिप्रति- पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए रूपान्तविशेषणकलापोपेतं स पुरुषःपूर्वदिग्भागव्यवस्थितः, एवमिति सेयंसि णिसन्ने दोच्चे पुरिसजाते (सूत्रं 3) / अहावरे तच्चे वक्ष्यमाणनीत्या वदेत् ब्रूयात्-(अहमसि त्ति) अहमस्मिपुरुषः, किंभूतः? पुरिसजाते, अह पुरिसे पचत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं कुशलो हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिनिपुणस्तथा पापाडीनः पण्डितो धर्मज्ञी पुक्खरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति-तं एगं महं देशकालज्ञः क्षेत्रज्ञो व्यक्तो बालभावान्निष्क्रान्तः परिणतबुद्धिर्मेधावी पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वुट्ठियं ०जाव पडिरूवं, ते तत्थ दोन्नि प्लवनोत्प्लवनयोरुपायज्ञः, तथा- अबालो मध्यमवयाः षोडशवर्षोपरि- पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं णो हव्वाए वर्ती, मार्गस्थः सद्भिराचीर्णमार्गव्यवस्थितस्तथा सन्मार्गज्ञस्तथा मार्गस्य णो पाराए०जाव सेयंसि णिसन्ने, तए णं से पुरिसे एवं बयासीया गतिर्गमनं वर्तते तया यत्पराक्रमणविवक्षितदेशगमनं, तजानातीति अहो णं इमे पुरिसा अखेयन्ना, अकुसला अपंडिया अवियत्ता पराक्रमज्ञः / यदि वा-पराक्रमः सामर्थ्य , तज्ज्ञोऽहमात्मज्ञ इत्यर्थः / अमेहावी बाला णो मग्गत्था णो मग्गविऊ णो मग्गस्स गतिपरतदेवभूतविशेषणकलापोपेतोऽहमेतत्पूर्वोक्तविशेषणकलापोपेतं क्कमण्णू, जं णं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एतं पउमवरपोंडरीयं पद्मवरपौण्डरीकं पुष्करिणीमध्यदेशावस्थितमहमुत्क्षेप्स्यामीति कृत्व- उण्णिक्खिस्सामो, नो य खलु एयं पउमवरपॉडरीयं एवं हागत इत्येतत्पूर्वोक्त तत्प्रतीत्योक्त्वाऽसौ पुरुषस्तां पुष्करिणीमभिमुखं उन्निक्खेतव्वं जहाणं एए पुरिसा मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने क्रामेत, अभिक्रामेत् तदभिमुखं गच्छद्यावद्यावचासौ तदवतरणाभिप्राये- कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स णाभिमुख कामेत्तावत्तावच, णमिति वाक्यालङ्कारे। तस्याश्च पुष्करिण्या गतिपरक्कमण्णू, अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति महदगाधमुदकं तथा महाश्च सेयः कर्दमस्ततोऽसौ महाकर्दमोदकाभ्यामा- कटु इति वुच्चा से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरिणिं जावं जावं कुलोभूतः प्रहीणः सद्विवेकेन रहितस्त्यक्त्वा तीरं सुव्यत्ययाद्वा तीरा- च णं अभिक्कमे तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेए०जाव त्पहीणः प्रभ्रष्टोऽप्राप्तश्च विवक्षित पद्मवरपौण्डरीक तस्याः पुष्करिण्या- अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने, तचे पुरिसजाए / / (सूत्रं स्तस्यां वा यः सेयः, कर्दमस्तस्मिन्निषण्णो निमग्न आत्मानमुद्धर्तुम- 4) / अहावरे चउत्थे पुरिसजाए, अहपुरिसे उत्तराओ दिसाओ समर्थस्तस्माच तीरादपि प्रभ्रष्टस्ततस्तीरपद्मयोरन्तराल एवावतिष्ठते, आगम्मतं पुक्खरिणिं, तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासतियत एवमतः (नो हव्वाए त्ति) नार्वाक तटवर्त्यसौ भवति। (नो पाराए त्ति) तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वुट्ठियं जाव पडिरूवं, ते नापि विवक्षितप्रदेशप्राप्त्या पारगमनाय वा समर्थो भवति / एवमसावु- तत्थ तिन्नि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं अपत्तेजाव सेयंसि भयभ्रष्टो मुक्तमुक्तोलीकवदनायैव प्रभवतीत्ययं प्रथमःपुरुषः, पुरुष णिसन्ने, तए णं से पुरिसे एवं बयासी-अहो ण इमे पुरिसा एव पुरुषजातः पुरुषजातीय इति // 2 // अखेयन्ना०जाव णो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू ज णं एते पुरिसा अहावरे दोच्चे पुरिसजाए, अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ एवं मन्ने अम्हे एतं पउमवरपॉडरीयं उन्निक्खिस्सामो णो य आगम्म तं पुक्खरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासति- खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं जहाणं एते पुरिसा तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुबुट्टियं पासादीयं०जाव मन्ने, अहमंसि पुरिसे खेयन्ने०जाव मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, पडिरूवं, तं च एत्थ एगं पुरिसजातं पासतिपहीणतीरं अपत्तप- अहमेयं पउमवरपॉडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कल इति वुच्चा उभवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि से पुरिसे तं पुक्खरिणिं जावं जावं च णं अभि-क्कमे तावं तावं णिसन्नं, तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं बयासी-अहो णं इमे | चणं महंते उदए महंते सेए०जाव णिसन्ने, चउत्थे पुरिसजाए। पुरिसे अखेयन्ने अकुसले अपंडिए अवियत्ते अमेहावी बाले णो (सूत्रं 5) // मग्गत्थे णो मग्गविऊ णो मग्गरस गतिपरक्कमण्णू, जं नं एस अथवेति वाक्यो पन्यासार्थे / अथ कश्चित्पुरुषों दक्षिणादिपुरिसे, अहं खेयन्ने कुसले०जाव पउमवरपोंडरीयं उद्मिक्खि- भागादागत्य तां पुष्करिणी, तस्याश्च पुष्करिण्यास्तीरे स्सामि, णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं स्थित्वा तत्रस्थश्च पश्यति महदेकं पद्मवरपौण्डरीक मानुपू Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 647 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय यण व्यवस्थितं प्रासांदीयं यावत्प्रतिरूपम् / अत्र चास्मिन तीरे सवस्थितस्तं च पूर्वव्यवस्थितमेकं पुरुष पश्यति, किंभूतम्? तीरात्परिनष्टमनवाप्तपद्मवरपोण्डरीकमुभयभ्रष्टमन्तराल एवावसीदन्तं. दृष्ट्वा च तमेवमवस्थं पुरुषं ततोऽसौ द्वितीयः पुरुषस्तं प्राक्तनं पुरुषमेव वदेत्अहो इति खेदे। सर्वत्र णमिति वाक्यालङ्कारे द्रष्टव्यः। योऽथं कर्दम निमग्नः पुरुषः सोऽखेदज्ञोऽकुशलोऽपण्डितोऽव्यक्तोऽमेधावी, बालोन मार्गस्थो नमाज्ञो नो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः। अकुशलत्वाऽऽदिके कारणमाहयद्यरमादेषपुरुष एतत्कृतवान्, तद्यथाऽहं खेदज्ञः कुशल इत्यादि भणित्वा पद्मवरपौण्डरीकमुत्क्षेप्स्यामीत्येवं प्रतिज्ञातवान् / न चैतत् पद्मवरपाण्डरीकम, एवमनेन प्रकारेण यथाऽनेनोत्क्षेप्तुमारब्धमेवमुत्क्षेप्तव्यं यथाऽयं पुरुषो मन्यत इति / ततोऽहमेवास्योत्क्षेपणे कुशल इति दर्शयितुमाह- (अहमसीत्यादिजाव दोच्चे पुरिसाजाए त्ति) सुगमम् / / 3 / / तृतीय पुरुषमधिकृत्याऽऽह-(अहावरे तचे इत्यादि) सुगमम्।यावचतुर्थः पुरुषजात इति।।४-५|| साम्प्रतमपरं पञ्चमं तद्विलक्षण पुरुषजातमधिकृत्याऽऽहअह भिक्खू लूहे तीरट्ठी खेयन्ने०जाव परक्कमण्णू अन्नतराओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगम्म तं पुक्खरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा पासति तं महं एगं पउमवरपों डरीयं जाव पडिरूवं, ते तत्थ चत्तारि पुरिसजाए पासति पहीणे तीरं अपत्ते०जाव पउमवरपोंडरीयं णो हटवाए णो पाराए अंतरा पुक्खरिणीए सेयंसि णिसन्ने,तए णं से भिक्खू तं एवं बयासीअहोणं इमे पुरिसा अखेयन्ना ०जावणो मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू, जं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्हे एयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामो णो य खलु, एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेत्तव्वं जहा णं एते पुरिसा मन्ने अहमंसि भिक्खू लूहे तीरट्ठी खेयन्ने० जाव मग्गस्स गतिपरक्कमण्णू अहमे यं पउमवरपॉडरीयं उण्णिक्खिस्सामि त्ति कटु इति वुचा से भिक्खू णो अमिक्कमे तं पुक्खरिणिं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिचा सह कुजा, उप्पयाहि खलु भो पउमवरपोंडरीया ! उप्पयाहि, अह से उप्पतितेपउमवरपोंडरीए।। (सूत्रं 6) / (अह भिक्खू लूहे इत्यादि) अथेत्यानन्तर्थे, चतुर्थपुरुषादयमनन्तरः पुरुषस्तस्यामूनि विशेषणानिभिक्षणशीलो भिक्षुः-पचनपाचनाऽऽदिसावद्यानुष्ठानरहिततया निर्दोषाऽऽहारभोजी, तथा रूक्षो रागद्वेषरहितः, तौ हि कर्मबन्धहेतुतया स्निग्धौ, यथा हि स्नेहाभावाद् रजो न लगति तथा रागद्वेषाभावात्कर्मरणुन लगत्यतस्तद्रहितो रूक्ष इत्युच्यते। तथा संसारसागरस्य तीरार्थी, तथा क्षेत्रज्ञः खेदज्ञो वा / पूर्व व्याख्यातानेव विशेषणानि, यावन्मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः, सचान्यतरस्या दिशोऽनुदिशो वाऽऽगत्य तां पुष्करिणीं तस्याश्च तीरे स्थित्वा समन्तादवलोकयन् बहुमध्यदेशभागेतन्महदेकं पद्मवरपौण्डरीकं पश्यति। तांश्च चतुरःपुरुषान् पश्यति / यत्र च व्यवस्थितानिति, किंभूतान्? त्यक्ततीरानप्राप्तपद्मवरपुण्डरीकान् पङ्कजलावमग्रान् पुनस्तीरमप्यागन्तुमसमर्थान् दृष्ट्वा च तास्तदवस्थान् ततोऽसौ भिक्षुः एवमितिवक्ष्यमाणनीत्या वदेत् / तद्यथा-अहो इति खेदे, णमिति वाक्यालंकारे. इमे पुरुषाश्चत्वारोऽपि अखेदज्ञायावन्नो मार्गस्य गतिपराक्रमज्ञाः, यस्मात्ते पुरुषा एवं ज्ञातवन्तो यथा वयं पद्मवरपौण्डरीकमुत्क्षेस्यामः उत्खनिष्यामः, न च खलु तत्पौण्डरीकमेवम्-अनेन प्रकारेण यथैते मन्यन्ते तथोत्क्षेतव्यम्। अपि त्वहमस्मि भिक्षु रूक्षो यावदतिपराक्रमज्ञः, एतद्गुणविशिष्टोऽहमेतत् पोण्डरीकमुत्क्षेप्स्यामिउरखनिष्यामि समुद्धरिष्यामीत्येवमुक्त्वा असो नाभिक्रामत तां पुष्करिणीं न प्रविशेत्। तत्रस्थ एव यत्कुर्यात्तदर्शयतितस्यास्तीरे स्थि-त्वातथाविधं शब्दं कुर्यात्। तद्यथा-ऊर्ध्वमुत्पतोत्पत, खलुशब्दो वाक्यालंकारे, हे पद्मवरपौण्डरीक ! तस्याः पुष्करिण्या मध्यदेशादेवमुत्पतोत्पत। अथ तच्छब्दश्रवणादनन्तरतदुत्पतितमिति।६। तदेवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्शन्तिकं दर्शयितुकामः श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामी स्वशिष्यानाहकिट्टिए नाए समणाउसो ! अढे पुण से जाणितव्वे भवति, मंत्ते ति समणं भगवं महावीरं निग्गंथा य निग्गंथीओ य वंदंति, नमसंति, वंदेतानमंसित्ता एवं वयासी-किट्टिए नाए समणाउसो ! अट्ठ पुण से ण जाणामो समणाउसो ! त्ति, समणे भगवं महावीरे ते य बहवे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं बयासी-हंत समणाउसो! आइक्खामि, विभावेमि, किट्टेमि, पवेदेमि सअर्ड्स सहेउ सनिमित्तं भुञ्जो भुञ्जो उवदंसेमि, सेवेमि // (सूत्रं 7) / कीर्तिते कथिते प्रतिपादिते मयाऽस्मिन् ज्ञाते उदाहरणे हे श्रमणाः! आयुष्मन्तोऽर्थः पुनरस्य ज्ञातव्यो भवति भवद्भिः / एतदुक्तं भवतिनास्योदाहरणस्य परमार्थ यूयं जानीथ, एवमुक्ते भगवता ते बहवो निर्ग्रन्था निर्ग्रन्थ्यश्च तं श्रमणं भगवन्तं महावीरं ते निम्रन्थाऽऽदयो वन्दन्ते कायन, नमस्यन्ति तत् प्रव्हैः शब्दैः स्तुवन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा चैवं वक्ष्यमाणं वदेयुः / तद्यथा-कीर्तितं प्रतिपादित ज्ञातमुदाहरणं भगवता अर्थ पुनरस्य न सम्यक् जानीमः, इत्येवं पुष्टो भगवान् श्रमणो महावीरस्तान्निग्रन्थाऽऽदीनेवं वेदत्-हन्तेति संप्रेषणे। हे श्रमणाः ! आयुष्मन्तो यद्भवद्भिरह पृष्टस्तत्सोपपत्तिकमाख्यामि भवता, तथा विभावयाम्याविर्भावयामि प्रकटार्थकरोमि, तथा कीर्तयामि, पर्यायकथनद्वारेणेति, तथा प्रवेदयामि प्रकर्षण हेतुदृष्टान्तैश्वित्तसन्ततावारोपयामि। अथ वैकार्थिकानि चैतानि। कथं प्रतिपादयामीति दर्शयतिसहार्थन दार्शन्तिकेन वर्तत इति सार्थः पुष्करिणीदृष्टान्तस्तं, तथा सह हेतुना अन्वयव्यतिरेकरूपेण वर्तत इति सहेतुस्त तथाभूमर्थ प्रतिपादयिष्यामि, यथा ते पुरुषा अप्राप्तप्राथितार्थाः पुष्करिणीकर्दमे दुरत्तारे निमग्ना एवं वक्ष्यमाणास्तीथिका अपारगाः संसार-सागरस्यतरैव निमजन्तीत्येवल्पोऽर्थः सोपपत्तिकः प्रदर्शयि Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 148 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय प्यते. तथा राह निमित्तेनउपादानकारणेन सहकारिकारणेन वा वर्तत इति सनिमित्तम्सकारणं दृष्टान्तार्थ भूयो भूयोऽपरैर्हेतुदृष्टा-न्तैरुप-- दर्शयामि सोऽहं साम्प्रतमेव ब्रवीमि श्रृणुत यूयमिति // 7 // तदधुना भगवान् पूर्वोक्तस्य दृष्टान्तस्य यथास्वंदा - न्तिक दर्शयितुमाहलोयं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! पुक्खरिणी बुझ्या, कम्मं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से उदए बुइए, कामभोगे य खलु मए अप्पाहटु समणाउसो! से सेए बुइए जणजाणवयं च खलु भए अप्पाहटु समणाउसो ! ते बहवे पउमवरपोंडरीए बुइए, रायाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से एगे महं पउमवरपोंडरीए बुइए, अन्नउत्थिया य खलु मए अप्पाहटु समणउसो ! ते चत्तारिपुरिसजाया बुइया, धमं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से भिक्खू बुइए, धम्मतित्थं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से तीरे बुइए, धम्मकहं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से सद्दे बुइए, निव्वाणं च खलु मए अप्पाहटु समणाउसो ! से उप्पाए बुइए, एवमेयं च खलु मए अप्पाहट्ट समणाउसो ! से एवमेयं बुइयं / / (सूत्रम् ) लोकमिति मनुष्यक्षेत्रम् / चशब्द उत्तरापेक्षया समुचयार्थः, खलुरिति वाक्यालङ्कारे, मयेत्यात्मनिर्देशः, योऽयं लोको मनुष्याऽऽधारस्तमात्मन्याहृत्य व्यवस्थाप्य अपाहृत्य वा हे आयुष्मन् ! श्रमण आत्मना वा मयाऽऽहृत्य न परोपदेश तःसा पुष्करिणी पद्माऽऽधारभूतोक्ता, तथा कर्म चाष्टप्रकारं यद्वलेन पुरुषपौण्डरीकाणि भवन्ति / तदेवंभूतं कर्म मयाऽऽत्मन्याहृत्य आत्मना वा आहृत्य अपाहृत्य था। एतदुक्तं भवतिहे श्रमण आयुष्मन् ! सर्वावस्थानां निमित्तभूतं कर्माऽऽश्रित्य तदुदक दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तं कर्म चात्र दार्टान्तिकं भविष्यति, तत्रेच्छामदनकामाः शब्दाऽऽदयो विषयास्ते एव भुज्यन्त इति भोगाः / यदि वा-कामा इच्छारूपा मदनकामास्तु भोगास्तान् मयाऽऽत्मन्याहृत्य सेयः कर्दमोऽपिहितः, यथा महति पङ्के निमग्नो दुःखेनाऽऽत्मानमुद्धरत्येवं विषयेष्वप्यासक्तो नाऽऽत्मानमुद्धर्तुमलमित्येतत्कर्दमविषययोः साम्यमिति / तथा जनं सामान्येन लोक, तथा जनपदे भवा जानपदा विशिष्टाऽऽर्यदेशोल्पन्ना गृह्यन्ते, ते चार्द्धषड्रिंशतिजनपदोद्भवा इति / तांश्च समाश्रित्य मया दार्शन्तिकत्वेनाङ्गीकृत्य तानि बहूनि पद्मवरपौण्डरीकाणि दृष्टान्तत्वेनाभिहितानि, तथा राजानमात्मन्याहृत्य तदेकं पद्मवरपोण्डरीक दृष्टान्तत्वेनाऽभिहितम्, तथाऽन्यतीर्थिकान समाश्रित्य ते चत्वारः पुरुषजाता अभिहिताः, तेषां राजपौण्डरीकोद्धरणे सामर्थ्यवैकल्यात्। तथा धर्म च खलु चाऽऽत्मन्याहृत्य श्रमणाऽऽयुष्मन ! स भिक्षुःरुक्षवृत्तिराभहितस्तस्यैव चक्रवर्त्यादिराजपद्मवरपौण्डरीकोद्धरणे सामर्थ्यसद्भावाद्धर्मतीर्थ च खल्वाश्रित्य मया तत्तीरमुक्तम्। तथा सद्धर्मदेशना | चाऽऽश्रित्य मया स भिक्षुसम्बन्धी शब्दोऽभिहितः, तथा निर्वाण मोक्षपदमशेषकर्मक्षयरूपमीषत-प्रागभाराऽऽख्य भूभागोपर्यवस्थिनक्षेत्रखण्ड वाऽऽत्मन्याहृत्य स पावरपौण्डरीकस्योत्पातोऽभिहित इति / सांप्रत समस्तोपसंहारार्थमाह-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एतल्लोकाऽऽदिक च खल्वात्मन्याहृत्याऽऽश्रित्य मया श्रमणाऽऽयुष्मन् ! (स) एतत्पुष्करिण्टादिक दृष्टान्तत्वेन किञ्चित्साधयदिवमेतदुक्तमिति। तदेवं सामान्येन दृष्टान्तदान्तिकर्याोजनां कृत्वाऽधुना विशेषेण प्रधानभूतराजदार्शन्तिकं तदुद्धग्णार्थ वात्सर्वप्रयासस्थति दर्शयितुमाह - इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुव्वेणं लोग उववन्ना / तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोत्ता वेगे णीयागोया वेगे कायमंता वेगे रहस्समंता वेगे सुवन्ना वेगे दुव्वन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं चणं मणुयाणं एगे राया भवइ, महयाहिमवंतमलय-मंदरमहिंदसारे अचंतविसुद्धरायकु लवंसप्पसूते निरंतररायलक्खणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपूइए सटवगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते माउपिउसुजाए दयप्पिए सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे माणुस्सिदे जणवयपिया जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीहे पुरिसआसीविसे पुरिसवरर्पोडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते वित्थिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणबाहुजातरूवरतए आओगपओगसंपउत्ते विच्छडियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूते पडिपुण्णकोसकोट्ठागाराउहागारे बलवं दुब्बलपचामित्त ओहयकंटयं निहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ओहयसत्तू निहयसत्तू मलियसत्तू उद्धियसत्तू निजियसत्तू पराइयसत्तू ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुक्कं रायवन्नओजहा "उववाइए" *०जाव पसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति। तस्स णं रन्नो परिसा भवइ, उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता इक्खागा इक्खागापुत्ता नाया नायपुत्ता कोरव्वा कोरव्वपुत्ता भट्टा भट्टापुत्ता माहणा माहणपुत्ता लेच्छइलेच्छइपुत्ता पसत्थारो पसत्थपुत्ता सेणावई सेणावइपुत्ता / तेसिं च णं एगतीए सड्डी भवइ / कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिंसु गमणाए, तत्थ अन्नतरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो, से एवमायाणह भयंतारो जहा मए एस धम्मे सुयक्खाए सुपन्नत्ते भवइ / / (इह खलु इत्यादि) इहास्मिन्मनुष्यलो के , खलुक्यालंकारे, इहास्मिन् लो के प्राच्या प्रतीच्या दक्षिणायाम - दीच्यामन्यतरस्यां वा दिशि सन्ति विद्यन्ते एक के चन तथाविधा मनुष्या आनुपूर्येणे म लोकमाश्रित्योत्पन्ना भवन्ति / ताने Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय वानुपूर्येण दर्शयति-तद्यथेत्युपन्यासार्थः, आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः, तत्र क्षेत्राऽऽर्या अर्धषड्विशतिजनपदोत्पन्नाः, तद्व्यतिरिक्तास्त्वनार्या एके केचन भवन्ति।तेचानार्यक्षेत्रोत्पन्ना अमी द्रष्टव्याः। तद्यथा"सगजवणसबरबब्बरकायमुरुडोडगोड्डुपक्कणिया। अरबागहूणरोमय, पारसखसखसिया चेव / / 1 / / डोंबिलयलउसबोक्स, भिल्लंधपुलिंदकोंबभमररुया। कोंचा य चीणचंचुयमालव दमिला कुलग्धा य॥२॥ केकयकिरायहयमुहखरमुह तह तुरगमेंढयमुहा य। हयकण्णा गयकण्णा, अण्णे य अणारिया बहवे / / 3 / / पावा य चंडदंडा, अणारिया णिग्धिणा णिरणुकंपा / धम्मो त्ति अक्खराई, जेण ण णजंति सुमिणेऽवि // 4 // " इत्यादि। तथोचैर्गोत्र-इक्ष्वाकुवंशाऽऽदिकं येषां तेतथाविधा एके केचन तथाविधकर्मोदयवर्तिनः, वाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः / तथा नीचैर्गोत्रं, सर्वजनावगीतं येषां ते तथा एके केचन नीचैर्गोत्रोदयवर्तिनो, न सर्वे, वाशब्दः पूर्ववदेव, ते चोच्चैर्गोत्रा नीचैर्गोत्रा या कायोमहाकायः प्रांशुत्वंतद्विद्यते येषां ते कायवन्तः, तथा ह्रस्ववन्तो वामनककुरजवडभाऽऽदय एके केचन तथाविधनामकर्मोदयवर्तिमः, तथा शोभनवर्णाः सुवर्णाः, प्रतप्तचामीकरचारुदेहाः, तथा दुर्वर्णाः-कृष्णरुक्षाऽऽदिवर्णा एके केचन, तथा सुरूपाः सुविभक्तावयवचारुदेहाः, तथा दुष्टरूपादुरूपाः वीभ-त्सदेहाः, तेषां चौच्चैर्गोत्राऽऽदिविशेषणविशिष्टानां महान् कश्चिदेवैकस्तथाविधकर्मोदयाद्राजा भवति, स विशेष्यतेमहाहिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्राणामिव सारः-सामर्थ्य विभवो वा यस्यसतथा इत्येवं राजवर्णको यावदुपशान्तडिम्बडमरं राज्य प्रसाधयंस्तिष्ठतीति। तत्र डिम्बःपरानीकशृगालिकः (डिम्बविशेषः "डिंब' शब्दे चतुर्थभागे 1735 पृष्ठे गतः) डमरंस्वराष्ट्रक्षोभः (डमरविचारः 'डमर' शब्दे चतुर्थभागे 1734 पृष्ठे कृतः) पर्यायौ वैतावत्यादरख्यापनार्थमुपात्तौ इति। तस्य चैवंविधगुणसंपदुपेतस्य राज्ञ एवंविधा पर्षद्भवतीति। तद्यथा-उग्रास्तत्कुमाराश्चोग्रपुत्राः, एवं भोगभोगपुत्राऽऽदयोऽपि द्रष्टव्याः शेषं सुगम, यावत्सेनापतिपुत्रा इति। (णवरं लेच्छइत्ति) लिप्सुकः सच वणिगादिः, तथा प्रशास्तरो बुध्युपजीविनो मन्त्रिप्रभृतयः, तेषां च मध्ये कश्चिदेवैकः श्रद्धावान्, धर्मलिप्सुः भवति, काममित्यवधृतार्थेऽवधृतमेतद्यथाऽयं धर्मश्रद्धालुः, अवधार्य च तं धर्मलिप्सुतया श्रमणा ब्राह्मणा वा संप्रधारितवन्तः समालोचितवन्तो धर्मप्रतिबोधनिमित्तं तदन्तिकगमनाय तत्र चान्यतरेण धर्मेणस्वसमयप्रसिद्धेन प्रज्ञापयितारो वयमित्येवं नाम संप्रधार्यतंराजानं स्वकीयेन धर्मेण प्रज्ञापयिष्याम एवं संप्रधार्य राज्ञोऽन्तिकं गत्वैवमूचुः / तद्यथा-एतद्यथाऽहं कथयिष्यामि एवमिति च वक्ष्यमाणनीत्या भवन्तो यूयं जानीत भयात्वातारो वा यथा येन प्रकारेण मयैष धर्मः स्वाख्यातः सुप्रज्ञप्तो भवतीति / एवं तीर्थकः स्वदर्शनानुरञ्जितोऽन्यस्याऽपि राजाऽऽदेः स्वाभिप्रायेणापदेशं ददाति / तत्राऽऽद्यः पुरुषजातस्तजीवतच्छरीरवादी राजानमुद्दिश्यैवं धर्मदेशनां चक्रे / सूत्र० २श्रु० 10 // (तं जहा-इत्याद्यवशिष्टं सूत्रम्- "तज्जीवतच्छरीरवाइ (ण)" शब्दे चतुर्थभागे 2173 पृष्ठे व्याख्यातम्) प्रथमपुरुषानन्तरं द्वितीयं पुरुषजातमधिकृत्याऽऽहअहावरे दोचे पुरिसजाए पंचमहन्भूतिए ति आहिज्जइ / इह खलु पाईणं वा ६जाव संतेगतिया मणुस्सा भवंति अणुपुटवेणं लोयं उववन्ना।तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे एवं जाव दुरूवा वेगे, तेसिं च णं महं एगे राया भवइ महया०एवं चेव णिरवसेसं०जाव सेणावइपुत्ता, तेसिं च णं एगतिए सडा भवंति कामंतं समणा य माहणाय पहारिंसु गमणाए, तत्थ अन्नयरेणं धम्मेणं पन्नत्तारो वयं इमेणं धम्मेणं पन्नवइस्सामो से एवमायाणह भयंतारो ! जहा मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नते भवति॥ अथशब्द आनन्तर्यार्थ , प्रथमपुरुषानन्तरमपरो द्वितीयः पुरुष एव पुरुषजातः पञ्चभिः भूतैः पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशाऽऽख्यैश्चरति पाञ्चभौतिकः / पञ्च वा भूतानि अभ्युपगमद्वारेण विद्यन्ते यस्य स पञ्चभूतिको, मत्वर्थीयष्ठक्। सच सांख्यमतावलम्ब्याऽऽत्मनस्तृणकुब्जीकरणेऽप्यसामर्थ्याभ्युपगमात् भूताऽऽत्मिकायाश्च प्रकृतेः सर्वत्र कर्तृत्वाभ्युपगमाद् द्रष्टव्यो; लोकायतमतावलम्बी वा नास्तिको भूतव्यतिरिक्त नास्तित्वाभ्युपगमादाख्यायते, प्रथमपुरुषादनन्तरमयं पञ्चभूताऽऽत्मवाद्यभिधीयते चेति / अत्र च प्रथमपुरुषगमेन "इह खलु पाईणं वा" इत्यादिको ग्रन्थः 'सुपण्णत्ते भवति'इत्येतत्पर्यवसानोऽवगन्तव्य इति / साम्प्रतं साङ्ख्यस्य लोकायतिकस्य चाभ्युपगमं दर्शयितुमाहइह खलु पंच महन्भूता, जेहिं नो विज्जइ किरियाति वा अकिरियाति वा सुकडेति वा दुकडेति वा कल्लाणेति वा पावए ति वा साहु त्ति वा असाहु त्ति वा सिद्धि त्ति वा असिद्धि त्ति वा णिरए त्ति वा अणिरए त्ति वा अवि अंतसो तणमायमवि॥ इहास्मिन् संसारे द्वितीयपुरुषवक्तव्यताऽधिकारे वा, खलु शब्दो वाक्यालंकारे। पृथिव्यादीनि पञ्चमहाभूतानि विद्यन्ते। महान्तिच तानि भूतानि च महाभूतानि, तेषां च सर्वव्यापितयाऽभ्युपगमात् महत्वं, तानि च पञ्चैव अपरस्य षष्ठस्य क्रियाकर्तृत्वेनानभ्युपगमात्, यैर्हि पञ्चभिभूतैरभ्युपगम्यमानः नः अस्माकं क्रिया परिस्पन्दाऽऽत्मिका चेष्टारूपा क्रियते, अक्रिया वा निर्व्यापाररूपतया स्थितिरूपा क्रियते। तथाहितेषां दर्शनं सत्त्वरजस्तमोरूपा प्रकृतिर्भूताऽऽत्मभूताः सर्वा अर्थक्रियाः करोति। “पुरुषः केवलमुपभुङ्क्ते, बुद्ध्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयति'' इति वचनात्। बुद्धिश्च प्रकृतिरेव तद्विकारत्वात्। तस्याश्च प्रकृतेर्भूताऽऽत्मिकायाः सत्वरजस्तमसां चयापचयाभ्यां क्रियाक्रिये स्यातामिति कृत्वा भूतेभ्य एव क्रियाऽऽदीनि प्रवर्तन्ते, तद्व्यतिरेकेणापरस्याभावादिति भावः / तथा सुष्टु कृतं सुकृतमेतच सत्त्वगुणाऽऽधिक्येन भवति, तथा दुष्टं कृतं दुष्कृतमेतदपि रजस्तमसोरुत्कटतया प्रवर्तते / एवं कल्याणमिति वा पापकमिति वा साध्विति वा असाध्विति वा इत्येतत्सत्त्वाऽऽदीनां गुणानामुत्कर्षानुत्कर्षतया यथा Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 950 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय संभवमायोजनीयम् / तथेप्सितार्थनिष्टानं सिद्धिर्विपर्ययस्त्वसिद्धिनिर्वाण वा-सिद्धिः, असिद्धिः-संसारः संसारिणा तथा नरकः पापकर्मणां यातनास्थानमनरकस्तिर्यडमनुष्यामराणामेतत्सर्व सत्त्वाऽऽदिगुणाधिठिता भूताऽऽत्मिका प्रकृतिर्विधत्ते। लोकयताभिप्रायेणापीहेव तथाविधसुखदुःखावस्थाने स्वर्गनरकावितीत्येवमन्तशस्तृणमात्रमपि यत्कार्य तद्भूतैरेव प्रधानरूपाऽऽपन्नैः क्रियते। तथा चोक्तम्- ''सत्त्वं लघु प्रकाशकभिष्टमुपष्टम्भकं बलं च रजः / गुरु चरणकमेव तमः, प्रदीपवचार्थतो वृत्तिः / / 1 / / '' इत्यादि / तदेवं सांख्याभिप्रायेणाऽऽत्मनस्तृणकुब्जीकरणेऽप्यसामथ्यल्लिोकायतिकाभिप्रायेण त्वात्मन एवाभावाद्भूतान्येव सर्वकार्यकर्तृणीत्येवमभ्युपगमः। तानि च समुदायरूपाऽऽपन्नानि नानास्वभाव कार्य कुर्वन्ति। तं च पिहुद्देसेणं पुढो भूतसमवायं जाणेजा। तं जहा-पुढवी एगे महन्भूते, आऊ दुचे महन्भूते, तेऊ तच्चे महन्भूते, वाऊ चउत्थे महन्भूते, आगासे पंचमे महब्भूते इचेते पंच महब्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया अकडा णो कित्तिमा णो कडगा अणाइया अणिहणा अवंझा अपुरोहिता सतंता सासता आयछट्ठा पुण एगे एवमाहु-सतो णत्थि विणासो, असतो णत्थि संभवो / / तं च तेषां समवायं पृथग्भूतपदोद्देशेन जानीयात्। तद्यथा-पृथिव्येका काठिन्यलक्षणा महाभूतं, तथाऽऽपो द्रवलक्षणा महाभूतं, तथा तेज उष्णोद्योतलक्षणं तथा वायुहतिकम्पलक्षणः, तथाऽवगाहदानलक्षण सर्वद्रव्याऽऽधारभूतमाकाशमित्येवं पृथम्भूतो यः पदोद्देशस्तेन कायाऽऽकारतया यस्तेषां समवायः स एकत्वेऽपिलक्ष्यते, इत्येतानि पूर्वोक्तानि पृथिव्यादीनि, संख्या युपादीयमाना संख्याऽन्तरं निवर्तयतीति कृत्वा न न्यूनानि नाप्यधिकानि; विश्वव्यापितया महान्ति, त्रिकालभवनाएंतानि तदेवमेतान्येव पश महाभूतानि। 'प्रकृतेर्महान् ततोऽहङ्कारस्तस्माच्च गणः षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात्, पसभ्यः पञ्च भूतानि / / 1 / / इत्येवंक्रमेण व्यवस्थितान्यपरेण कालेश्वराऽऽदिना केनचिदनिर्मितान्यनिष्पादितानि, तथा परेणानिर्मापयितव्यानि, तथाऽकृतानि न केनचितानि क्रियन्ते, अभ्रेन्द्रधनुरादिवद्विरसापरिणामेन निष्पन्नत्वात, तथा न घटवत्कृत्रिमाणि, कर्तृकरणव्यापारसाध्यानि न भवन्तीत्यर्थः। तथा परव्यापाराभावतया (नो) नैव कृतकानि अपेक्षितपरव्यापारः स्वभावनिष्पत्तौ भावः कृतक इति व्यपदिश्यते, तानि च विस्रसापरिणामेन निष्पन्नत्वात् कृतकव्यपदेशभाजि न भवन्ति, तथाऽनाद्यनिधनानि, अवन्ध्यान्यवश्यकार्यकर्तृणि, तथा न विद्यते पुरोहितः कार्ये प्रति प्रवर्त्तयिता येषां तान्यपुरोहितानि, स्वतन्त्राणि स्वकार्यकर्तृत्वं प्रत्यपरनिरपेक्षाणि, शाश्वतानि नित्यानि वा,''न कदाचिदनीदृशं जगत्' इति वचनात् / तदेवं भूतानि पञ्च महाभूतान्यात्मषष्ठानि पुनरके एवमाहुः / आत्मा चाऽकिञ्चित्करः सांख्यानां, लोकायतिकानां पुनः कायाऽऽकारपरिणतान्येव भूतान्यभिव्यक्तचेतनानि आत्मव्यपदेश भजन्त इति। तदेवं सांख्याभिप्रायेण सतो विद्यमानस्य प्रधानाऽऽदेनास्ति विनाशोऽत्यन्ता भावरूपो नाप्यसतः शशविषाणाऽऽदेः सम्भव समुत्पत्तिरस्ति, कारण कार्यस्य विद्यमानस्यैवोत्पत्तिरिष्टा, नासतः. सर्वस्मात्सर्वस्योत्पत्तिप्रसङ्गात्। तथा चोक्तम्-"नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः।" इत्यादि / तथा असतः खरविषाणाऽऽदेरकरणादुपादानकारणस्य च मृत्पिण्डाऽऽदेर्घटार्थिनोपादानाऽऽदित्यादिभ्यश्च हेतुभ्यः कारणे सत्कार्यवादः। एतावताव जीवकाए, एतावताव अस्थिकाए, एतावताव सव्वलोए, एतं मुहं लोगस्स करणयाए, अवियंतसो तणमायमवि। तदेवमेतावानेव तावदिति सांख्या लोकायतिको वा माध्यस्थ्यमवलम्बमान एवमेवाऽऽह / तद्यथा-अस्माक्तिभिर्विचार्यमाणस्तावदेतावानेव जीवकायो, यदुत पञ्च महाभूतानि, यतस्तान्येव सांख्याभिप्रायेण प्रधानरूपतामापन्नानि सत्त्वाऽऽदिगुणोपचयापचयाभ्यां सर्वकार्यकतृण्यात्मा चाकिञ्चित्करत्वादसत्कल्प एव, लोकायतस्य तु स नास्त्येवेत्यत एतावानेव भूतमात्र एवजीवकायः, तथा एतावानेव भूतास्तित्वमात्र एवास्तिकायो नापरः कश्चित्तीर्थिकाभिप्रेतः पदार्थोऽस्तीति / तथा एतावानेव सर्वलोको यदुत पञ्च महाभूतानि प्रधानरूपाऽऽपन्नानि, आत्मा चाकर्ता निर्गुणः सांख्यस्य, लोकायतिकस्य तुपञ्चभूतात्मक एव लोकः, तदतिरिक्तस्याऽपरस्य पदार्थस्याभावादिति। तथा एतदेव पञ्चभूतास्तित्वं मुखं कारण लोकस्य, एतदेव च कारणतया सर्वकार्येषु व्याप्रियते। तथाहि-सांख्यस्य प्रधानाऽऽत्मभ्यां सृष्टिरुपजायते / लोकायतिकस्य तुभूतान्येवान्तशस्तृणमात्रमपि कार्ये कुर्वन्ति, तदतिरिक्तस्यापरस्याभावादिति भावः / स चैवम्-वाद्येकत्राऽऽत्मनोऽकिश्चित्करत्वादन्यत्र चाऽऽत्मनोऽसत्त्वादसदनुष्ठानैरप्यात्मा पापै कर्मभिर्न बध्यत इति मन्यते। तद् दर्शयितुमाहसे किणं किणावेमाणे हणं घायमाणे पयं पयावेमाणे अवि अंतसो पुरिसमवि किणित्ताघायइत्ता एत्थं पिजाणाहिं णस्थिऽत्थ दोसो, ते णो एवं विप्पडिवेदेति। तं जहा- किरियाइवा० जावऽणिरएइवा, एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति भोयणाए, एवमेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा०जाव इति, ते णो हव्वाएणो पाराए, अंतण कामभोगुसु विसण्णा, दोच्चे पुरिसजाए पंचमहन्भूतिए त्ति आहिए|१०|| (से किण ति) स इति यः कश्चित्पुरुषः क्रयार्थी क्रीणन किञ्चित् क्रयेण गृहस्तथाऽपरं क्रापयस्तथा प्राणिनो मन् हिंसन् तथा परैर्घातयन् व्यापादयन् तथा पचनपाचनाऽऽदिकां क्रियां कुर्वस्तथाऽपरैश्च पाचयन, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् (अनुमोदयन्) कीगतः क्राययतो घतो घातयतः पचतः पाचयतश्वापरांस्तथाऽप्यन्तशः पुरुषमपि पञ्चेन्द्रिय विक्रीय घातयित्वा अपि पञ्चेन्द्रियघाते नास्ति दोषोऽत्र एवं जानीहि अवगच्छ,किं पुनरेकेन्द्रियवनस्पतिधात इत्यपिशब्दार्थः / ततश्चैवंवादिनः सांख्या बार्हस्पत्यावा (नो) नैवैतद्वक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति जानन्ति। तद्यथा-क्रि Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 651 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय या परिस्पन्दाऽऽत्मिका सावधानुष्ठानरूपा, एवमक्रिया वा रथानाऽऽदिलक्षणा यावदेवमेव विरूपरूपैरुच्चावचैनानाप्रकारैर्जलस्नानावगाहनाऽऽदिकै स्तथा प्राण्युपमर्दकारिभिः कर्मसमारम्भविरूपरूपान् नानाप्रकारान् सुरापानमांसभक्षणागम्यगमनाऽऽदिकान् कामोपभोगान् समारभन्ते स्वतः, परांश्वोदयन्तिनास्त्यत्र दोष इत्येवं उतार्यासत्कार्यकरणाय प्रेरयन्ति एवं च तेऽनार्या अना-र्यकर्मकारेत्वोदायान्मार्गाद्विरुद्ध मार्ग प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्नाः / तथाहिसाख्यानामचेतनत्वात्प्रकृतेः कार्यकर्तृत्वं नोपपद्यते, अचेतनत्वं तु तस्याश्चैत्थन्यं पुरुषस्य स्वरूधमिति वचनात, आत्मैव प्रतिबिम्बोदयन्यायेन करिष्यतीति चेत्तदपि न युक्तिसंगतम्, यतोऽकर्तृत्वादात्मनो नित्यत्वाच्च प्रतिबिम्बोदयो नयुज्यते, किञ्च नित्यत्वात्प्रकृतमहदादिविकारतया नोत्पत्तिः स्यात् / अपि च "नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः।" इत्याद्यभ्युपगमात्प्रधानाऽऽत्मनोरेव विद्यमानत्वात् महदहाराऽऽदेरनुत्पत्तिरेव, एकत्याच प्रकृतेरेकाऽऽत्मवियोगे सति सर्वात्मनां वियोगः स्यादेकसंबन्धे वा सर्वात्मनां प्रकृतिसंयोगो न पुनः कस्यचित्तत्त्वपरिज्ञानात् प्रकृतिवियोगे मोक्षोऽपरस्य तु विपर्ययात्संसार इत्यवं जगद्वैचित्र्यं न स्यात् आत्मनश्वाकर्तृत्वे तत्कृतौ बन्धमोक्षी न स्थालाम्, एतच दृष्टेष्टवाधितम् / नापि कारणे सत्कार्यवादो, युक्तिभिरनुपपद्यमानत्वात् / तथाहि-मृतपिण्डावस्थायां घटोत्पत्तेः प्राग्घटसंबन्धिना कर्मगुणव्यपदेशानामभावात्, घटार्थिनां च क्रियासु प्रवृत्तेर्न कारण कायमिति / लोकायतिकस्यापि भूतानामचेतनत्वात्कर्तृत्वानुपपत्तिः, कायाऽऽकारपरिणतानां चैतन्याभिव्यक्त्यभ्युपगमे च मरणाभावप्रसङ्गः स्यात्तस्मान्न पञ्चभूताऽऽत्मकं जगदिति स्थितम् / अपिचेद ज्ञानं स्वसंवित्तिसिद्धमात्मानं धर्मिणमुपस्थापयति, न च भूतान्येव धर्मित्वेन परिकल्पयितुं युज्यन्ते, तेषामचेतनत्वाद / अथ कायाऽऽकारपरिणतानां चैतन्य धर्मो भविष्यतीत्येतदप्ययुक्तम्, यतः कायाऽऽकारपरिणाम एव तेषामात्मानमधिष्ठातारमन्तरेण न भवितुमर्हति, निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात्रिर्हेतुकत्वे च नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यादिति / तदेवंभूतव्यतिरिक्त आत्मा, तस्मिश्च सति सदसदनुष्ठानतः पुण्यपापे, ततश्च जगद्वैचित्र्यसिद्धिरिति। एवं च व्यवस्थिते तेऽनार्याः साङ्ख्यालोकायतिका वा पञ्चमहाभूतप्रधानाभ्युपगमेन विप्रतिपन्नायत्कुर्युस्तदर्शयितुमाह-(तं सद्दहमाणा इत्यादि) तमात्मीयमभ्युपगमं पूर्वोक्तया नीत्या नियुक्तिकमपि श्रद्दधानाः पञ्चमहाभूतात्मकप्रधानस्य सर्वकार्याणि उपगच्छन्ति, तदेव च सत्यमित्येवं प्रतियन्तःप्रतिपद्यमानास्तदेव चाऽऽत्मीयमभ्युपगमं रोचयन्तस्तद्धर्मस्याऽऽख्यातारं प्रशंसयन्तः / तद्यथा-स्वाख्याता भवता धर्मोऽस्माकमयमत्यन्तमभिप्रेत इत्येवं ते तदध्यवसायाः-सावद्यानुष्ठानेनाप्यधर्मो न भवतीत्यध्यवसायिनः स्वीकामेषु भूच्छिता इत्येवं पूर्ववद्ज्ञेयं यावत्तदन्तरे कामभोगेषु विषण्णा ऐहिकाऽऽमुष्मिकोभयकार्यभ्रष्टा नाऽऽत्मत्राणाय, नापि परेषामिति / भवत्येवं द्वितीयः पुरुषजातः पञ्चमहाभूताभ्युपगमिको व्याख्यात इति। साम्प्रतमीश्वरकारणिकमधिकृत्याऽऽहअहावरे तचे पुरिसजाए ईसरकारणिए इति आहिज्जइ, इह खलु पादीणं वा 6 संतेगतिया मणुस्सा भवंति, अणुपुटवेणं लोयं उववन्ना / तं जहा-आयरिया वेगे०जाव तेसिं च णं मंहते एगे राया भवइ०जाव सेणावइपुत्ता तेसिं च णं एगतीए सडी भवइ, कामं तं समणा य माहणा य पहारिंसु गमणाए०जाव जहा मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नत्ते भवइ। अथ द्वितीयपुरुषादनन्तरं तृतीय ईश्वरकारणिक आख्यायते, समस्तस्यापि चेतनाचेतनरूपस्य जगत ईश्वरः कारणं, प्रमाणं चात्र तनुभुवनकरणाऽऽदिकं धर्मित्वेनोपादीयते, ईश्वरकर्तृकमिति साध्यो धर्मः, संस्थानविशेषत्वात्कूपदेव कुलाऽऽदिवत्, तथा स्थित्वा प्रवृत्तेर्वास्यादिवत् / उक्तं च- "अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुखदुःखयोः / ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा / / 1 / / '' इत्यादि। तथा पुरुष एवेदं सर्व, यद्भूतं यच्च भाव्यम्' इत्यादि। तथा चोक्तम्- "एक एव हि भूताऽऽत्मा, भूते भूते प्रति-ठितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवद् / / 1 / / " इत्यादि, तदेवमीश्वरकारणिक आत्माद्वैतवादी वा तृतीयः पुरुषजात आख्यायते (इह खलु इत्यादि) इहैव पुरुषजातप्रस्तावे, खलुशब्दो वाक्यालङ्कार प्राच्यादिषु दिक्ष्वन्यतमरयां दिशि व्यवस्थितः कश्चिदेव ब्रूयात्। तद्यथा-राजानमुद्दिश्यतावद्यावत्स्थाख्यातः सुप्रज्ञप्तो धर्मो भवति। इह खलु धम्मा पुरिसादिया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया पुरिसपजोतिता पुरिसअभिसमण्णागया पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति, से जहाणामए गंडे सिया सरीरे जाए सरीरे संबुड़े सरीरे अभिसमण्णागए सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा पुरिसादिया०जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति, से जहाणामए अरई सिया सरीरे जाया सरीरे संबुड्डा सरीरे अभिसमण्णागया सरीरमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा विपुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति, से जहा- णामए वम्मिए सिया पुढविजाए पुढविसंदुड्ढे पुढविअभिसमण्णागए पुढविमेव अमिभूय चिट्ठइ, एवमेव धम्मा विपुरिसादिया जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति / से जहाणामए रुक्खे सिया पुढविजाए पुढविसंवुड्ढे पुढवि-अभिसमण्णागए पुढविमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया०जाव पुरिसमेव अमिभूय चिट्ठति। से जहाणामए पुक्खरिणी सिया पुढविजाया०जाव पुढविमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा विपुरिसादिया०जाव पुरिसमेव अभिभूय चिटुंति / से जहाणामए उदगपुक्खले सिया उदगजाए० जाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठति, एवमेव धम्मा वि पुरिसादिया० जाब पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति, से जहाणामए उदगबुब्बए सिया उदगजाएजाव उदगमेव अभिभूय चिट्ठति, एव Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरोय 952 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय मेव धम्मावि पुरिसादिया०जाव पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति। / स चाम-इह खलु धर्माः स्वभावावेतनाचेतनरूपाः पुरुष ईश्वर आत्मा 1 नागमादिर्येषां ते पुरुषादिका ईश्वरकारणिका आत्मकारणिका वा, तथा पुरुष एवोत्तरं कार्य गधा ते पुरुषोत्तराः, तथा पुरुषेण प्रणीताः सवैस्य तदधिष्ठितत्वातला मकत्वादा, तथा पुरुषेण द्यातिताः प्रका कृताः प्रदीपमणिसूर्याः दिनव धरपटाऽऽदय इति। तच धर्मा जीवाना जराच्याविरोगशा-कसुखदुःखजीवाना देवाः, अधीद . 2. तुर्ति द्रव्याणा वर्णगन्धरसस्पर्शा अभूतिमतां च धर्माधर्मा साना प्रत्यादिकाधर्माः, सर्वेऽपीश्वरकृता आत्माद्वैतवादेवाऽ-भविपता: सर्वेऽ येते पुरुषमेवभिभूय अभिव्याप्य तिवन्ति / अस्मिन्नर्थ याविर्भावयन्नाह-(से जहाणामए इत्यादि) से' शब्दस्तच्छदार्थ, नामशाद: संभावनाशाम् / तद्यथा--नाम गड स्थावत, संभाव्यते च प्रसारणा संसारान्तर्गताना कर्मवशगाना गण्डाऽऽदिसम्भवः, तच्च शरीर जातं शरीरजातम् शरीरावथवभूतं, तथा-शरीर वृद्धिमुपगतम्, शरीराभिवृद्धा र स्थाभिवृद्धिः, तथा शरीर अभिसमन्वागतशरीरमाभि• 'रान व्यायव्यवस्थित, न तदवयवोऽपि शरीरात्पृथाभूत इति भावः। (156 शरीरमेवाभिभव आभिमुख्येन पीडयित्वा तिष्ठति / यदि वादुपशमे शरीमेवाऽऽश्रित्य तद्गण्डं तिष्ठतिन शरीरादहिभवतिएतदुवत वतियशा तत्पितकं शरीरकदेशभूतन युक्तिशतनापि शरीरात्पृशग्दगरि शक्यतः एवमेवामी धमाश्चतनाचतनरूपास्त सर्वेऽपीश्वरकका त ईश्चरात्पृश्नत्तुं पार्यन्ते। यदि वा-नवापि- आमनरवलो गोदर -- वरपति माऽऽत्मनो येन धर्माः प्रादुःषति त पृयका न शकान्त, संथा तदण्ड शरीरविकारभूतं तन्दयाभूतं तद्विनाशे शरीरमेवात्रतिष्ठते, एवमेव सर्वेऽपि धर्माः पुरुषाऽऽदिकाः पुरुषकारणिका: पुरुषविकाररूपा पुरुषात्पृयामाविमर्हन्ति, तद्विारापगमे चात्मानमेवाऽऽश्रि यावतिष्ठन्तन तस्माद्बाहमवन्तीतिशास्त्र व दृष्टा तप्राचुरामविरुद्धमा यदि या-अरमन्नथे बहवो दृष्टान्ताः संभवन्तावरकतृत्ववादस्यादितनादस्य च सुप्रसिद्धत्वात् दृष्टान्नबहुत्पमित्याह (नाया नामातिश्चित्तोद्वगलक्षणा स्याद्भवेत्. साव शरीनाताईयाविगाव या, मन्दिाऽप्येवमेव, सर्व धर्माः पुरुष प्रमादि jiवन्यमा तथा तदयथा-नामवल्मीक वोविकारस्या न्य mins जात पृशिवासबद्धं पृथिव्यभिसमन्वागत् पृथिवीभवाभिसंभूर तिष्ठति, एवमेव यदेतच्चेतनाचेतनरूपं तत्सर्वगी घरकाणिकभारमविवर्तरूप वा नाऽऽत्मनः पृभवितुमहीत, पृथिव्या वल्मीकवत तथा यथा नामवृक्षाऽशोकाऽऽदिक सारसं च पृथिवीजात इत्यादिक्षान्तदान्तिके पूर्ववदायोज्ये, तद यथा नाम पुष्करिणा स्यात् sic भयंत, साऽपि पृथिव्यामेव जातित्यादि प्रावयर तथा नाम पुष्कल प्रचुरमुदकपुष्कलमुदप्राचुर्य तच्चतमत्वादकमयाकमवाभिभूय तिष्ठति एवं दान्तिकऽयायोज्यमा तथा तदयथा उदकवुद्धदः स्याद, अत्रापि दृष्टान्तदाान्तिकन तस्मादवयविनः पृथग्भूत इति सुगमम्। तदेव यदीश्वरकृतत्वेनाभ्युपगम्यते तत्सर्व ताध्यमपरं तु मिथ्या इत्येतदाविर्भावयन्नाहजं पि य इमं समणाणं णिग्गंथाणं उद्दिटुं पणीयं वियं जियं दुवालसंगं गणिपिडयं / तं जहा-आयारो, सूयगडो० जाव दिट्ठिवातो। सव्वमेवं मिच्छा, ण एयं तहियं,ण एवं आहातहियं, इमं सच्चं, इमं तहियं, इमं आहातहियं, ते एवं सन्नं कुव्वंति, ते एवं सन्नं संठवेंति, ते एवं सन्नं सोवट्ठवयंति, तमेवं ते तजाइयं दुक्खं णातिउटृति सउणी पंजरं जहा। ते णो एवं विप्पडिवेदेति। तं जहा-किरियाइ वा०जाव अणिरएइ वा,एवामेव ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूगई कामभोगाई समारभंति भोयणाए, एवामेव ते अणारिया दिपडिकन्ना एवं सद्दहमाणा० जाव इति ते णो हावाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसपणे त्ति तच्चे पुरिस ईसरकारणिए त्ति आहिए|११|| यदपि चेदं / यहारतः प्रत्यक्षा 55सन्नभूतं श्रमणानां यतीना निग्रन्थानां निष्किाशनानामुद्दिष्ट तदर्थ प्रणीतं व्यजितम-तेषामभिव्यक्तीकृतं द्वादश गणिपिटक, तद्यथा आचार इत्यादि यावद दृष्टिवादः, सर्वमेतमिथ्या, अनीश्वरप्रणीतत्वात, स्वरुचिविरचितरथ्यापुरुषवाक्यतया नैतत्तथ्यमिथ्येत्यनेनाभूगोदावनन्धमाविष्कृतमचौरचौरत्वयत, नैतत्तथ्यमित्यनेन तु सदूतार्थनिह्नवो यथा नास्त्यामेति, तथा नेतद्याथातथ्यम् - यथास्थितोऽर्थः, न तथाऽवस्थितमिति भावः / अनेन सद्भूतार्थनिहवेनासद्भूतःथाऽऽरोपण माविष्वृतम् ताथानामश्च ब्रुवाऽश्वं वा गामिति, एकाथिकानि वैतानि शफन्द्रा दिवान द्रव्यानि दे / यदेतद् द्वादशाङ्गं गणिपिया तदनीश्वरप्रणीतत्वाभि - वेति कितन,इदं तु पुनरीश्वरकर्तृकत्वं नामाऽऽन्म: या तर अथाऽवरितार्थप्रतिपादनात् / तथेदमेव तथा सता भास्नात वई वालिका आत्माऽद्वैतवादिना था, एखगनन्तरक्तिया दीत्य सर्व तनुभुवन करणाऽऽदिकम् ईश्वरकाणिकं, त्था सर्व चेतनमचेतन नाऽऽत्मविवर्तस्वभावम्, आत्मन एव सर्वाऽऽकारस्योत्पत्तरित्येवं संज्ञान संज्ञा तामेव कुर्वन्त्यन्येषां च ते स्वदर्शनानुरक्तग्नसां संज्ञा संस्थाचयन्ति, तथा-तएएवंभूता संज्ञा वक्ष्यमाणन न्यायेन नियुक्तिकामपि सुष्ठ उप सामीप्येन तदाग्रहितया तदभिमुखा युक्तीः 'ननीयवः स्थापयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति / त चेयं च वादिनस्तमीश्वरकतत्ववादमा माद्वैतवाद वा नातिवर्तन्त तद युवा जातीयवाद खंदु: खहे तु चाददुःखातिवरान नोटयन्तिवा अस्मिन प्रशन - या शनि पक्षियोलाकाऽऽदिकः पञ्जर नातिवर्तत पानापन्यनमायावता वंताबभूतान्युपगमवादिनस्तदापादितकर्मबन्ध नातिकतन्तनबाटयन्ति / त भिमानग्रहणस्तानलक्ष्यमाण विप्रतिवाया नरसम्यक जानन्ति / महाथेय दिया सहनधानरूपेय चाक्रिया तद्विपरीतेत्यवं स्वाहिणो नान्यत Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 953 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय शोभनमशोभनं वा यावदयमनरक इत्येवं सदसद्विवेकरहितत्त्वानायधारयन्त्येवमेव यथा कथञ्चित्ते विरूपरूपः कर्मसमारम्भर्नानाप्रकारैः सायद्यानुप्ताने द्रव्योपार्जनोपायभूतैर्द्रव्यमुपादाय विरूपरूपान्काममोगानुचावचान् समाचरन्ति भोजनायोपभोगार्थमित्येवमनास्तेि विरुद्ध मार्ग प्रतिपन्ना विप्रतिपन्ना न सम्यग्वादिनो भवन्ति / तथाहि"सर्वमीश्चरकर्तृकम' इत्यत्राभ्युपगमे किमसावीश्वरः स्वत एवापरान क्रियासु प्रवर्तयदुतापरेण प्रेरितः? तत्रयद्याद्यः पक्षस्तदा तद्वदन्येषामपि स्वत एच कियासु प्रवृत्तिभविष्यति किमन्तर्गडुनेश्वरपरिकल्पनेन? अथासायप्यपरप्रेरितः, सोऽप्यपरेण, सोऽप्यपरेणेत्येवभनवस्थालता नभामण्डलमालिनी प्रसर्पति / किं च-असावीश्वरो महापुरुषतया वीतरागतोपेतः रान्नेकान्नरकयोग्यासु क्रियासुप्रवर्तयत्यपरांस्तु स्वर्गापवर्गयोग्यास्थिति? अथ ते पूर्वशुभाशुभाचरितोदयादेव तथाविधासुतासु बियासु प्रवन्ति, स तु निमित्तमात्रम् / एतदपि न युक्तिराङ्गतम्। यतः मक्तनाशुभमवर्तनमपि तदायत्तमवातथा चोक्तम्-"अज्ञो जन्तुः०" इत्यादि। अथ तदपि प्राक्तनमन्येन प्राक्तनतरेण कारितमिति, एवमनादिहेतुपरमारेति, एवं च सति तत एव शुभाशुभे स्थाने भविष्यतः किमीश्वरपरिकल्पनेन? तथा चोक्तम्- "शखौषधाऽऽदिसंबन्धाचैत्रस्य व्रणरोहणे / असंबद्धस्य कि स्थाणोः, कारणत्वं न कल्पते ? ||1 // " इत्यादि। यचक्तिम्- सर्व तनुभुतनकरणाऽऽदिक बुद्धिमत्कारणपूर्वक संस्थानविशेषत्वात देवकुलाऽऽदिवदित्येतदपि न युक्तिसङ्गतम, यत एतदपि साधन न भवदभिप्रेतमीश्वर साधयति, तेन सार्धं व्याप्त्यसिद्धेः, देवकुलाऽऽदिके दृष्टान्तेऽनीश्वरस्यैव कर्तृत्वनाभ्युपगमात। नच रास्थान दप्रवृत्तिमात्रण सर्वस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं सिद्ध्यति, अन्यथाऽ.. नपपनिलक्षणस्य साध्यसाधनयोः प्रतिबन्धस्याभावात्। अथाविनाभावमन्तरणैव संस्थानमात्रदर्शनात्साध्यसिद्धिः स्यात्, एवं च सत्यतिप्रसङ्ग स्यात्। उक्तं च-"अन्यथा कुम्भकारेण, मृदबिकारस्य कस्यचित् / घटाऽऽद: करण सिद्धर्वल्मीकस्यापि तत्कृतिः / / 1 / / '' इत्यादि। नचेश्वरकर्तृत्वे जगद्वैचित्र्य सिध्यति.तस्यैकरूपत्वादित्युक्तप्रायमिति / आत्माद्वैतपक्षस्त्वत्यन्तमयुक्तिसङ्गतत्वान्नाऽऽश्रयणीयः। तथाहि-तत्र नप्रमाणं न प्रमेयं न प्रतिपाद्यं न प्रतिपादको न हेतुर्न दृष्टान्तो नतदाभासो भेदनाऽवगम्यते, सर्वस्यैव जगत एकत्वं स्यादात्मनोऽभिन्नत्वात्, तदभावे च कःकेन प्रतिपाद्यते? इत्यप्रणयनमेव शास्त्रस्याऽऽत्मनश्चैकत्वातत्कार्यमप्येकाकारमेव स्यादित्यतो निर्हेतुकं जगद्वैचित्र्यम् / तथा च सति- "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात / अपेक्षातो हि भावाना, कादाचित्कत्वसंभवः / / 1 / / '' इत्यादि / तदेवमीश्वरकर्तृत्वमात्माद्वैतपक्षश्च युक्तिभिर्विचार्यमाणो न कथञ्चिद्घटा प्राशति। तथाऽपि एले स्वदर्शनमाहमोहितास्तजातीयाद् दुःखात् शकुनिः पञ्जरादिय नातिमुच्यन्ते, विप्रतिपन्नाश्च तत्प्रतिपादिकाभिर्युक्तिभिस्तदेव स्वपक्ष प्रतियन्ति, श्रदधतीति पर्ववन्नेयम्। यावत् (णो हव्वाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विरग्ण त्ति) इत्ययं तृतीयः पुरुषजात ईश्वरकारणिक इति / सद्येवमाह- "यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत। आकाशमिव / पडून, नारंग पापेन लिप्यते।।१।।" इत्याद्यसमञ्जसभाषितया त्यक्त्वा पर्वसंयोगम-प्राप्तो विवक्षित स्थानमन्तराल एव कामभोगषु मूर्छितो विषण्ण इत्यवगन्तव्यमिति। सांप्रत चतुर्थपुरुषजातमधिकृत्दाऽऽहअहावरे चउत्थे पुरिसजाए णियतिवाइए ति आहिज्जइ. इह खलु पाईणं वा तहेव०६जाव सेणावइपुत्ता वा, तेसिं च णं एगतीए सडीभवइ, कामंतं समणाय माहणाय संपहारसुगमणाएoजाव मए एस धम्मे सुअक्खाए सुपन्नत्ते भवइ / / अथ तृतीयपुरुषादनन्तरमपरश्चतुर्थः पुरुष एव पुरुषजातो नियतिवादिक आख्यायते प्रतिपाद्यते / स चैवमाह-नात्र कश्चित्कालेश्वराऽऽदिकः कारणं, नापिपुरुषकारः, समानक्रियाणामपि कस्यचिदेव नियतिबलादर्थसिद्धरतो नियतिरेव कारणम् / उक्तं च- "प्राप्तव्यो नियतिबलाऽऽश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा ! भूतानां महति कृतऽपि हिप्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनाऽस्ति नाश: ||1||" इत्यादि। नियतिवादी रवमतमाह - इह खलु दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे किरियमाइक्खइ, एगे पुरिसे णो किरियमाइक्खइ, जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ जे य पुरिसे णो किरियमाइक्खइ, दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठा, कारणमावन्ना // इहाऽस्मिन जगति, खलुशब्दा वाक्यालंकार।द्वी पुरुषा भवतः। तत्रक: क्रियामाख्याति / क्रिया हि देशाद्देशान्तरावाप्तिलक्षणा पुरुषस्य भवतीति / न कालेश्वराऽऽदिना चोदितस्य भवत्यपि तु नियतिप्रेरितस्य, एवमक्रियाऽपि / यदितावत स्वतन्त्रौ क्रियावादमक्रियावाद च समाश्रिती तौ द्वावपि नियत्यधीनत्वात्तुल्यौ, यदि पुनस्तो स्वतन्त्रौ भवतस्ततः क्रियाऽक्रियाभेदान्न तुल्यो स्यातामित्यत एकाविककारणाऽऽपन्नत्वादिति, नियतिवशेनैव तौ नियतिवादमनियतिवाद चाऽऽश्रिताविति भावः / उपलक्षणार्थत्वाचास्यान्योऽपि यः कश्चित्कालेश्वराऽऽदिपक्षान्तमाश्रयति सोऽपि नियतिचादित एव द्रष्टव्य इति। साम्प्रत नियतिवादी परमताद्विभावयिषयाऽऽहबाले पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा अहमेयमकासि परो वा जं दुक्खइ वा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा परो एवमकासि, एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा, एवं विप्पडिवेदेति कारणमापन्ने / / बालोऽज्ञः पुरुषकारकालेश्वरवादीत्यादिकः, पुनरिति विशेषणार्थः / तदेव दर्शयति- एवमिति वक्ष्यमाणनीत्या विप्रतिवेदयति जानीते कारणमापन्नःसुखदुःखयोः सुकृत दुष्कृतयार्वा स्वकृत एव पुरुषकारः कालेश्वराऽऽदिवा कारण मित्येवमभ्युपपन्नो नान्यत् नित्यादिक कारणगरतीति तदेवाऽऽह / तद्यथा- योऽहमस्मि दुःखामि शारीर मानस दुःखमनुभवामि, तथा शांचामीष्टानिष्टवियोगसंप्रयोगकृतं, शोकमनुभवामि, तथा (तिप्पामित्ति, शारीरबल क्षरामि तथा (पीडामि त्ति) Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 654 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय सबाह्याभ्यन्तरया पीडया पीडामनुभवामि, तथा (परितप्पामि त्ति) परितापमनुभवामि, तथा (जूरामि त्ति) अनार्यकर्मणि प्रवृत्तमात्मानं गर्हामि, अनर्थावाप्तौ विसूरयामीत्यर्थः / तदेवं यदहं दुःखमनुभवामि तदहमेवाकार्ष , परपीडया कृतवानस्मीत्यर्थः / तथा परोऽपि यदुःखशोकाऽऽदिकमनुभवति मयि वाऽऽयादयति, तत् स्वयमेव कृतमिति / तदेव दर्शयति-(परो वेत्यादि) तथा परोऽपि यन्मांदुःखयति शोचयतीत्यादि प्राग्वन्नेयं तत्सर्वमहमकार्षमित्येवं द्वाभ्यामाकलितोऽज्ञो वा बाल एवं विप्रतिवेदयति जानीते स्वकारणं वा परकारणं या सर्व दुःखाऽऽदिपुरुषकारकृतमिति जानीते एवं पुरुषकारकारणमापन्न इति। तदेवं नियतिवादी पुरुषकारकारणवादिनो बालत्वमापाद्य स्वमतमाहमेहावी पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा, णो अहं एवमकासि, परो वाजं दुक्खइवा०जाव परितप्पइ वा, णो परो एवमकासि, एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने, से वेमि पाईणं वा ६,जे तसथावरा पाणा ते एवं संघायमागच्छंति, ते एवं विपरियासमावजंति, ते एवं विवेगमागच्छंति ते एवं विहाणमागच्छंति, ते एवं संगतियंति उवेहाए, णो एवं विप्पडिवेदेति / तं जहाकिरियाति वाजाव णिरए ति वा अणिरएति वा, एवं ते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं विरूवरूवाई कामभोगाइंसमारमंति भोयणाए। मेधा मर्यादा, प्रज्ञा वा, तद्वान् मेधावी नियतिवादपक्षाश्चयी, एवं विप्रतिवेदयति जानीते, कारणमापन्न इति नियतिरेव कारणं सुखदुःखाऽऽद्यनुभवस्य, तद्यथा-सोऽहमम्मि दुःखयामि शोचयामि, तथा (तिप्पामि त्ति) क्षरामि (पीडामि ति) पीडामनुभवामि (परितप्पामि | त्ति)परितापमनुभवामि नाहमेवमकार्षदुःखम्, अपितु नियतित एवैतन्मय्यागतं, न पुरुषकाराऽऽदिकृतं , यतो न हि कस्यविदात्माऽनिष्टो येनानिष्टा दुःखोत्पादाऽऽदिकाः क्रियाः समारभते, नियत्यैवासावनिच्छन्नपि तत्कार्यते येन दुःखपरम्पराभाग्भवति, कारणमापन्न इति परेऽप्येवमेव योजनीयम्। एवंसति नियतिवादी मेधावीति सोल्लुण्ठमेतत्, स किल नियतीवादी दृष्ट पुरुषकारं परित्यज्यादृष्टनियतिवादाऽऽश्रयेण महाविवेकीत्येवमुल्लण्ठ्यते, स्वकारणं परकारणं च दुःखाऽऽदिकमनुभवन्नियतिकृतमेतदेवं विप्रतिवेदयतिजानाति नाऽऽत्मकृतं नियतिकारणमापन्नं, नियतिकारणं चात्रैकस्यासदनुष्ठानरतस्यापि न दुःखमुत्पद्यते, परस्य तु सदनुष्ठायिनाऽपि तद्भवति इत्यतो नियतिरेव कर्वीति / तदेवं नियतिवादे स्थिते परमपि यत्किञ्चित्तत्सर्व नियत्यधीनमिति दर्शयितुमाह-(से वेमीत्यादि) सोऽहं नियतिवादी युक्तितो निश्चित्य | ब्रवीमीति प्रतिपादयामि, ये केचन प्राच्यादिषु दिक्षु त्रस्यन्तीति त्रसा द्वीन्द्रियाऽऽदयः स्थावराश्च पृथिव्यादयः प्राणाः प्राणिनस्ते सर्वेऽप्येवं नियतित एवौदारिकाऽऽदिशररिसंबन्धमागच्छन्ति, नान्येन केनचि- / त्क्रर्माऽऽदिना शरीरं ग्राह्यन्ते, तथा बालकुमारयौवनस्थविरवृद्धावस्थाऽऽदिकं विविधपर्यायं नियतित एवानुभवन्ति, तथा नियतित एव विवेकं शरीरात्पृथग्भावमनुभवन्ति।तथा नियतित एव विविधं विधानम्अवस्थाविशेषं कुब्जकाणखञ्जवामनकजरामरणरोगशोकाऽऽदिकं वीभत्समागच्छन्ति, तदेवं ते प्राणिनस्त्रसाः स्थावरा एवं पूर्वोक्तया नीत्या संगतिं यान्तिनियतिमापन्ना नानाविधविधानभाजो भवन्ति / त एव वा नियतिवादिनः (संगइयं ति) नियतिमाश्रित्य तदुत्प्रेक्षया नियतिवादोत्प्रेक्षया यत्किञ्चनकारितया परलोकाभीरवो (नो) नैव एतद्वक्ष्यमाणं विप्रतिवेदयन्ति जानन्ति / तद्यथा-क्रियासदनुष्ठानरूपा, अक्रिया तुसदनुष्ठानरूपा इत्यादि यावदेवं ते नियतिवादिनस्तदुपरि सर्व दोषजातं प्रक्षिप्य विरूपरूपैः कर्मसमारम्भैर्विरूपरूपान् कामभोगान् भोजनाय उपभोगार्थ समारभन्त इति। एवमेव ते अणारिया विप्पडिवनातं सहहमाणा० जाव इति ते णो हव्वाए णो पाराए अंतरा कामभोगेस विसण्णा; चउत्थे पुरिसजाए णियइवाइएत्ति आहिए। तदेवमेव पूर्वोक्तया नीत्या तेऽनार्या विरूपं नियतिमार्ग प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्नाः, अनार्यत्वं पुनस्तेषां नियुक्तिकस्यैव नियतिवादस्य समाश्रयणात् / तथाहि-असौ नियतिः किं स्वत एव नियतिस्वभावा उतान्यया नियत्या नियम्यते? किञ्चिातः? तत्र यद्यसौ स्वयमेव तथास्वभावा सर्वपदार्थानामेव तथास्वभावत्वं किं न कल्प्यते? किं बहुदोषया नियत्या समाश्रितया? अथाऽन्यया नियत्या तथा नियम्यते, साऽप्यन्यया साऽप्यन्ययेत्येवमनवस्था। तथा नियतेः स्वभावत्वान्नियतस्वभावया अनया भवितव्यं, न नानास्वभावयेति, एकत्वाच नियतेस्तत्कार्येणाप्येकाऽऽकारेणैव भवितव्यम्, तथा च सति जगद्वैचित्र्याऽभावः, न चैतद्दृष्टमिष्टं वा। तदेवं युक्तिभिर्विचार्यमाणा नियतिर्न कथञ्चिद् घटते। यदप्युक्तम्-द्वावपि तौ पुरुषौ क्रियाऽक्रियावादिनौ तुल्यौ, एतदपि प्रतीतिबाधितम्, यतस्तयोरेकः क्रियावादी, अपरस्त्वक्रियावादीति, कथमनयोस्तुल्यत्वम्, अथैकया नियत्या तथा नियतत्वात्तुल्यता अनयोः, एतच्च निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, नियतेरप्रमाणत्वात् / अप्रमाणत्वं च प्राग्लेशतः प्रदर्शितमेव। यदप्युक्तम्- "यद्दुःखाऽऽदिकमहमनुभवामि तन्नाहम कार्षम्' इत्यादि। तदपि बालवचनप्रायम्।यतो जन्मान्तरकृत शुभमशुभंवा तदिहोपभुज्यते, स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वादसुमताम्।तथा चोक्तम्"यदिह क्रियते कर्म, तत्परत्रोपभुज्यते। मूलसिक्तेषु वृक्षेषु, फलं शाखासु जायते॥१॥" तथा"यदुपात्तमन्यजन्मनि, शुभमशुभं वा स्वकर्मपरिणत्या। तच्छक्यमन्यथा नो, कर्तुं देवासुरैरपि हि // 2 // " तदेवं ते नियतिवादिनोऽनार्या विप्रतिपन्नास्तमेव नियुक्तिफं नियतिवाद श्रद्धवानास्तमेव च प्रतीयन्ते इत्यादि तावन्नेयं यावदन्तरा कामभोगेषु विपण्णा इति चतुर्थः पुरुषजातः समाप्तः / Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 655 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुराहइचेते चत्तारि पुरिसजाया णाणापन्ना णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणाअज्झवसाणसंजुत्ता पहीणपुव्वसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ता इति ते णो हव्वाए णो पाराए अंतरा कामभोगेसु विसण्णा (12 सूत्रम्)। इत्येते पूर्वोक्तास्तज्जीवतच्छरीरपञ्चमहाभूतेश्वरकर्तृत्वनियतिवादापक्षाऽऽश्रयिणश्चत्वारः पुरुषा नानाप्रकारा प्रज्ञा मतिर्येषां ते तथा, नानाभिन्नश्छन्दः-अभिप्रायो येषां ते तथा, नानाप्रकार शीलम अनुष्ठानम् येषां ते तथा, नानारूपा दृष्टिः-दर्शन येषां ते तथा, नानारूपा रुचिः-चेतोऽभिप्रायो येषां ते तथा, नानाप्रकार आरम्भोधर्मानुष्ठानं येषां ले तथा, नानाप्रकारेण परस्परभिन्नेनाऽध्यवसायेन संयुक्ता धर्मार्थमुवताः, प्रहीण:-परित्युक्तः पूर्वसंयोगोमातृपितृकलत्रपुत्रसम्बन्धो यैस्ते तथा, तथा-आराद्यातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्यो मार्गो निर्दोषः पापलेश्यासंपृक्तस्तमार्य मार्गमसंप्राप्ता इति पूर्वोक्तया नीत्या ते चत्वारोऽपि नास्तिकाऽऽदयो (णो हव्वाए इति) परित्यक्तत्वान्मातापित्राऽऽदिसंबन्धस्य धनधान्यहिरण्याऽऽदिसशयस्य च नैहिकसुखभाजो भवन्ति / तथा-(णो पाराए त्ति) असंप्राप्तत्वादार्यस्य मार्गस्य सर्वोपाधिविशुद्धस्य प्रगुणमोक्षपद्धतिरूपस्य न संसारपारगामिनो भवन्ति, न परलोकसुखभाजो भवन्तीति, किं त्वन्तराल एवं गृहवासार्यमार्गयोर्मध्यवर्तिन एव कामभोगेषु विषण्णा अध्युपपन्ना दुष्पारपङ्कमग्ना करिणे इव विषीदन्तीति स्थितम् / उक्ताः परतीर्थिकाः। साम्प्रतं लोकोत्तर भिक्षावृत्तिं भिक्षुकं पञ्चमं पुरुषजात मधिकृत्याऽऽहसे बेमि पाईणं वा 6 संतेगतिया मणुस्सा भवंति / तं जहाआयरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे णीयागोया वेगे कायमंता वेगे हस्समंता वेगे सुवन्ना वेगे दुवन्ना वेगे सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिं च ण जणजाणवयाइं परिग्गहियाणि भवंति। तं जहा-अप्पयरावा भुजयरावा, तहप्पगारेहिं कुलेहिं आगम्म अभिभूय एगे मिक्खायरियाए समुट्ठिता सतो वा वि एगे णायओ अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिता असतो वा वि एगे णायओय अणायओ य उवगरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुट्ठिता, जे ते सतो वा असतो वा णायओ य अणायओय उवगरणं च पिप्पजहाय भिक्खायरियाए सुमुद्विता / / यादृक्कामभोगेष्वसक्तः सन्नन्तरा नोऽवसीदति, पद्मवरपाण्डरीकोद्वरणाय च समर्थो भवति, तदेतदहं ब्रवीमीति / अस्य चार्थस्योपदर्शनाय प्रस्तावमारचयन्नाह-प्राचीनाऽऽदिकामन्यतरां दिशमुद्दिश्येक के चन मनुष्याः सन्ति भवन्ति / तद्यथा- आर्या आर्यदेशोत्पन्ना मगधाऽऽदिजनपदोद्भवाः, तथा-अनार्याः शकयवनाऽऽदिदेशोद्भवाः, तथा च उचैर्गोत्रोद्भवा इक्ष्वाकुहरिवंशाऽऽदिकुलोद्भवाः, तथा-नीचैर्गोत्रीद्ववाःवर्णापसदसंभूताः, तथा-कायवन्तः प्रांशवः, तथा-हस्वा वामनकाऽऽदयः, तथा-सुवर्णा दुर्वर्णाः सुरूपाः कुरुपा वा एक केचन परवशा भवन्ति, तेषां चार्याऽऽदीनाम्, णमिति वाक्यालङ्कारे, क्षेत्राणि शालिक्षेत्राऽऽदीनि वास्तूनि खातोच्छूिताऽऽदीनि तानि परिगृहीतानि स्वीकृतानि भवन्ति / तान्येव विशिनष्टिअल्पतराणि स्तोकतराणि या प्रभूततराणि वा भवन्ति / तथा-तेषामेव च जनजानपदाः परिगृहिता भवन्ति, तेऽप्यल्पतराः प्रभूततरा वा भवेयुः, तेषु चार्याऽऽदिविशेषणविशिष्टषु तथाप्रकारेषु कुलेष्वागम्यैवंभूतानि गृहाणि गत्वा, तथा प्रकारेषु वाकुलेष्वागभ्य जन्म लब्ध्वाऽभिभूय च विषयकषायाऽऽदीन् परीषहोपसनि वा सभ्यगुत्थानेनोत्थाय प्रव्रज्यां गृहीत्वैके केचन तथाविधसत्त्ववन्तो भिक्षाचर्यायां सम्यगुत्थिताः समुत्थिताः,तथा-सतो विद्यमानानपि वा एके केचन महासत्त्वोपेता ज्ञातीन् स्वजनान् अज्ञातीन् परिजनांस्तथोपकरण च कामभोगाङ्ग धनधान्यहिरण्याऽऽदिक विविध प्रकर्षण हित्वा त्यक्त्वा भिक्षाचर्यायां सम्यगुत्थिताः, असतो वा ज्ञातीनुपकरणं च विप्रहाय भिक्षाचर्यायामेके केचनापगतस्वजनविभवाः समुत्थिताः / पुव्वमेव तेहिं णायं भवइ / तं जहा-इह खलु पुरिसे अन्नमन्नं ममट्ठाए एवं विप्पडिवेदेति / तं जहा-खेत्तं मे वत्थू मे हिरणं मे सुवन्नं मे धणं मे धण्णं मे कंसं मे दूसं मे विपुलधणकणगरयण मणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेयं मे सद्दा मे रूवा मे गंधा मे रसा मे फासा मे, एते खलु मे कामभोगा अहमवि एतेसिं / से मेहावी पुव्वामेव अप्पणो एवं समभिजाणेज्जा / तं जहा-इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातंके समुप्पञ्जेज्जा, अणिडे अकंते अप्पिए असुभे अमणुन्ने अमणामे दुक्खे णो सुहे से हंता भयंतारो ! कामभोगाइं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातकं परियाइयह अणिटुं अकंतं अप्पियं असुभं अमणुन्नं अमणामं दुक्खं णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीहामि वा परितप्पामि वा इमाओ मे अण्णयराओ दुक्खाओ रोयातकाओ पडिमोयह अणिट्ठाओ अकंताओ अप्पियाओ असुभाओ अमणुनाओ अमणामाओ दुक्खाओ णो सुहाओ, एवामेव णो लद्धं पुव्वं भवइ। ये ते पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा भिक्षाचर्यायामभ्युद्यताः पूर्वमेव प्रव्रज्याग्रहणकाल एव तैरेतज्ज्ञात भवति / तद्यथा-(इहे त्यादि) इह जगति, खलुक्यालङ्कारे, अन्यदन्यद्वस्तूद्दिश्य ममैतद्भोगाय भविष्यतीति, एवमसौ प्रवज्यां प्रतिपन्नः प्रविव्रजिषुर्वा प्रवेदयति जानात्येवं परिच्छिनत्ति। तद्यथा-क्षेत्र शालिक्षेत्राऽऽदिकं वास्तु खातोच्छ्रिताऽऽदिक हिरण्यं धर्मलाभाऽऽदिकं सुवर्ण कनकं धनं गोमहिष्यादिकं धान्य शालगोधूभाऽऽदिक कांस्य कांस्यपात्राऽऽदिक तथा विपुलानि प्रभूत Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय तराणि धनकनकरत्नमणिमौक्तिकानि (संखसिल त्ति) मुक्तशैलाऽऽदिकाः शिलाः प्रधालं विद्रुमं, यदिवा-(सिलप्पबाल ति) श्रिया युक्त प्रवाल श्रीप्रवालं वर्णाऽऽदिगुणापेतं. तशा-(रत्तरयण ति। रक्तरन्न पारामाऽऽदिक तथा सत्सारं शोभनसारमित्यर्थः / शूलमण्यादिकं, तशा स्वापतेयं रिक्थ (शुद्ध) दराजातं सर्वमेतत्पूर्वाक्त (1) मगाध मागाय भविष्यति तथा शब्दा वेण्वादयो, रूपाण्यइनादीनि, गन्धाः कापा.पुटाउडदयो, रसा मधुराऽऽदयो मांसरसाऽऽदयो धा, स्पर्शा मृद्धादयः, एत सर्वेऽीि खलु म) कामभोगाः, अहमप्येषां योगक्षेमा प्रभविष्यामीत्या संप्रधार्य / / स मेधावी पूर्वभवाऽऽत्मानं विनानीयादेव पर्यालोचयेत / तद्यथा-इह संसारे, खलु शब्दाऽवधारणे, इहेव अस्मिन्नेव जन्मनि मनुष्यभवे ममान्यतरद दुःखंशिरोवेदनाऽऽदिकगातको वाऽऽशुजोयितापहारी शूलाऽऽदिक : समुत्पद्यते. तमेव विशिष्टि-अनिष्ट कान्तः अप्रियः अशुभोऽमनोज्ञोऽवनामयतीत्यतनामः- पीडाविशेषकारी दुःखरूपो, यदि वा-न मनागमनाक् (मे) मम नितमित्यर्थः, दुःखयतीति दुःखं,पुनरपि दुःखोत्पादनमत्यन्तदुःखप्रतिपादनार्थ . रमुखलेशस्याऽपि परिहारार्थ च। (नो) नेव शुभः, अशुभकर्मविपाकाऽऽपादितल्यादिति / अत्र च यदुक्तमपि पुनरुच्यते तदत्यादरापनार्थ सद्धिशेषप्रतिपादनार्थ चेति। तदेवभूतं दुःखं रोगाऽऽतवा / इति खद नयात्वातारो यूयं क्षेत्रवार तुहिरण्यसुवर्णधनधान्याऽदिकाः परिग्रहविशेषाः शब्दाऽऽदयो वा विषयास्तथा हे भगवन्तः काममोगा यूयं मया पालिताः परिगृहीताश्च ततो यूयमपीददुःखं रोगाऽऽतईं वा (परियाइयह ति) विभागशः परिगृह्णीत यूयम्, अत्यन्तपीडयोद्विग्नः पुनरत दवदुःख रोगाऽऽतङ्क वा विशेषणद्वारेणोच्चारयति, अनिष्टमप्रियगकान्तमशुभममनोज्ञममनाग्भूतमवनामक वा दुःखमेवैतत्ततोऽशुभमित्यवभूत भभोत्पन्न यूयं विभजताहमनेनातीव दुःखामीति दुःरिक्त इत्यादि पुर्ववन्नेयम् इति / अतोऽमुष्मान्मामन्यतरस्माद् दुःखादोगाऽऽताद्वा प्रतिमोचयत यूयम, अनिष्टाऽऽदिविशेषणानि तुपूर्वव्याख्ययानि / प्रथम प्रथमान्तानि पुनर्द्वितीयान्तानि, सांप्रतं पञ्चम्यन्तानीति / न चायमथस्तेन दुःखितेनैवमेवेति, यथा प्रार्थितस्तथैव लब्धपूर्वो भवति। इदमुक्त भवति-न हि ते क्षेत्राऽऽदयः परिग्रहविशेषा, नाऽपिशब्दाऽऽदयः कामभागास्त दुःखितं दुःखाद्विमोचयन्तीति। एतदेव लेशतो दर्शयतिइह खलु कामभोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसे वा एगता पुब्दिं कामभोगे विप्पजहति, कामभोगा वा एगता पुट्विं पुरिसं विप्पजहंति, अन्ने खलु कामभोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग पुण वयं अन्नमन्ने हिं कामभोगेहिं मुच्छामो? इति संखाएणं वयं च कामभोगे हिं विप्पजहिस्सामो, से मेहावी जाणेज्जा बहिरंगमेतं! (इह खलु इत्यादि) इहास्मिन, खलुःवाक्यालङ्कार, ते कामभोगा अत्यन्तमभ्यस्ता न तस्य दुःखितस्य त्राणाय शरणाय वा भवन्ति / सुलालितानामपि कामभोगानां पर्यवसानं दर्शयितुमाह- (पुरिसे वा इत्यादि) पुरि शयनात्पुरुषः प्राणी, एकदा व्याध्युत्पनिकाले जराजीर्णकाले वाऽन्यस्मिन्वा राजाऽऽधुपद्रवे तान्कामभोगान् परित्यजति स वा पुरुषो द्र याऽऽद्यभावे तैः कामभोगैर्विषयोन्मुखोऽपि त्यज्यते, रस वामधारयति अन्ये मत्ती भिन्नाः खल्मी कामनानाः, तेन्ना श्वान्योउहरिम। तदेय व्यवस्थिते किमित वयं पुनरेतेष्वनित्यषुपरभूतेष्वन्य' भागभागेषु गृछा कुर्म इत्येवं केचन महापुरुषाः परिसंख्याय सम्यक ज्ञात्वा कामभोगान्वयं वित्रजहिष्यामस्त्यक्ष्याम इत्यवमध्यवसायिनो भवन्ति। पुनरपरं वैराग्योत्पत्तिकारणमाह-(से मेहायी) स मेधावी सश्रुतिकः एतजानीयात, तद्यथा-यदेतत्क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुर्वणशब्दाऽऽदिविषया - ऽऽदिकं दुःखपरित्राणाय न भवतीत्युपन्यस्तं तदेतदातरं वर्तते। इणमेव उवणीयतरागं / तं जहा-माया मे पिता में भाया में भगिणी मे भजा मे पुत्ता मे धूता मे पेसा मे नत्ता मे सुण्हा मे सुहा मे पिया मे सहा मे सयणसंगथसंथुया मे, एते खलु मम णायओ अहमवि एतेसिं, एवं से मेहावी पुत्वामेव अप्पणा एवं सममिजाणे जा, इह खलु मम अन्नयरे दुक्खे रोयातं के समुप्पज्जेज्जा अनिढे०जाव दुक्खे णो सुहे से हंता भयंतारो ! णायओ इमं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातंक परियाइयह अणिटुंजाव णो सुहं, ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा० जाय परितप्पामि वा, इमाओ मे अन्नयरातो दुक्खातो रोयातंकाओ परिमोएह अणिट्ठाओ ०जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुव्वं भवइ, तेसिं वावि भयंताराणं मम णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोयातके समुपनेजा अणिढे जाव णो सुहे, से हंता अहमेतेसिं भयंताराणं णाययाणं इमं अन्नयरं दुक्खं रोयातंक परियाइयामि अणिटुं०जाव णो सुहे, मामे दुक्खंतु वा०जावमा मे परितप्पंतु वा, इमाओ णं अण्णयराओ दुक्खातो रोयातंकाओ परिमोएमि अणिट्ठाओ ०जाव णो सुहाओ, एवमेव णो लद्धपुव्वं भवइ, अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयति अन्नेन कडं अन्नो नो पडिसंवेदेति, पत्तेयं जायति, पत्तेयं मरइ,पत्तेयं चइय, पत्तेयं उववजइ, पत्तेयं झंझा पत्तेयं सन्ना पत्तेयं मन्ना एवं विन्न वेदणा, इह खलु णातिसंजोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा, पुरिसे वा एगता पुट्विं णातिसंजोगाए विप्पजहति,णातिसंजोगा व एगता पुट्विं पुरिसं विप्पजहंत,अन्ने खलु णातिसंजोगा अन्नो अहमंसि, से किमंग ! पुण वयं अन्नमन्नेहिं णातिसंजोगेहिं मुच्छामो? इति संखाए णं वयं णातिसंजोगं विप्पजहिस्सामो।। इदमेव चान्यदक्ष्यमाणमुपनीततरमासन्नतरवर्ती, तद्यथा-मातापितामाताभगिनीत्यादया ज्ञातयः पूर्वापरसंस्तुता एते खलु ममोपकाराय ज्ञातयो भविष्यन्ति, अहमप्यतषां स्नानभोजनाऽऽदिनोपकरिष्यामीत्येव स मेधावी पूर्व Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 657 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय मेदाऽऽत्मनैव समभिजानीयादित्यादि, एवं पर्यालोचयत कल्पितवानिति वा. एतदध्यवसायी चासो स्यादिति दर्शयितुमाह-इहास्मिनभवे मम वर्तमानस्याऽनिष्टाऽऽदिविशेषणविशिष्टो दःखातङ्गः समुत्पद्येत ततोऽसौ तद्वदुःखदुःखितो ज्ञातीनेवमभ्यर्थोत्, तद्यथा-इभ भनान्यतर दुः 'याऽऽतमुत्पन्न परिगृहीत, यूयमहमनेनोत्पन्नेन दुःरवा - इन पीडशिष्यामीत्यतोऽमुष्मान्मा परिमोचयत यूयमिति, न चैतक्षेन दुःखितेन लब्धपूर्व भवति, न हि ते ज्ञातयस्तं दुःखान्मोचयितुमलभिति भाषः : नाप्यसौ तेषां दुःखमोचनायालभिति दर्शयितुमाह-(तेसिं वा वीत्यादि) सर्व प्राग्बोजनीयं, याचदेवभेव नोपलब्धपूर्व भवतीति / किमित्येवं नोपलब्धपूर्व भवतीत्याह-(अण्णस्स दुक्खमित्यादि) सर्वस्येव संसारोदरविवरवर्तिनोऽसुमतः स्वकृतकर्मोदयाद्यद दुःखमुत्पहाते, तदन्यस्य सबन्धि दुःखमन्यो मातापित्राऽऽदिकः कोऽपि न प्रत्यापिबति गतस्मात्पुत्राऽऽदेर्दुःखेनासह्येनात्यन्तपीडिताः स्तजनाः नापि तद् दुःखमात्मनि कर्तुमलम्। किमित्येवमाशयाऽह-(अण्णेण कडमित्यादि) अन्येन जन्तुना कषायवशगेन इन्द्रियाऽनुकूलतयाइभोगाभिलाषिणा ज्ञानाऽऽदृतेन मोहोदयवर्तिना यत्कृतं कर्म तदुदयमन्यः प्राणी नो प्रतिसवेदयतिनानुभवति, तदनुभवने ह्यकृताऽऽगमकृतनाशी रयाताम्।नचेनौ युक्तिसंगतौ, अतो यद्येन कृतं तत्सर्व स एवानुभवति / तथा चोक्तम्- 'परकृतकर्मणि यस्मान्नाऽऽक्रामति संक्रमो विभागोवा। तस्मात्सत्त्वाना कर्म, यस्य यतेन तद्वेद्यम् / / 1 / / ' यस्मात्रचकृतकर्म फलेश्वरा जन्तवस्तस्मादेतद्भवतीत्याह-(पत्तेयमित्यादि) एकमेक प्रति प्रत्येकं सर्वोऽप्यसुमान् जायते, तथा क्षीणे चाऽऽयुषि प्रत्येकमेव भियते उक्तं च-'एकस्य जन्ममरणे, गतयश्च शुभाशुभा भवाऽऽवत। तस्मादाकालिकहितम के नैवाऽऽत्मनः कार्यम् // 1 // " इति / तथा प्रत्येक क्षत्रावास्तुहिरण्यसुवर्णाऽऽदिकं परिग्रह शब्दादीश्व विषयान्मातापितृकलत्राऽऽदिकं च त्यजति, तथा प्रत्येकमुपपद्यते युज्यते, परिगहस्वीकरणतया, तथा प्रत्येकं झञ्झाकलहस्तद-ग्रहणात्कषायाः परिगृहान्ते, मातः प्रत्येकमेवासुमतां मन्दतीप्रतया कषायाद्भवो भवति, तथा-संज्ञानं रांद्वापदार्थपरिच्छित्तिः, साऽपि मन्दमन्दतरपटुपटुतरभेदात्प्रत्येकमेवापजायते, सर्वज्ञादारतरतरतमयोगेन मतेव्यवस्थितत्वात्। तथा-प्रत्येकमेव (मन्न ति) मनन चिन्तनं, पर्यालोचनमिति यावत्। तथा प्रत्येकमेव (विष्णु त्ति) विद्वार तथा प्रत्येकमेव सातासातरूपवेदना सुखदुःखानुभवः / उपसजिघृक्षुराह-(इति खलु इत्यादि) इत्येवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण वतो नान्येन कृतमन्यः प्रतिसंवेदयते, प्रत्येकं च जातिजरामरणाऽऽदिक ततः खल्वमी ज्ञातिसंयोगाः-स्वजनसंबन्धाः संसारचक्रवाले पर्यटतोऽत्यन्तपीडितस्य तदुद्धरणे न त्राणाय न त्राणं कुर्वन्ति, नाप्यनागतसरक्षणतः शरणाय भवन्ति, किमिति ? यत पुरुष एकदा क्रोधोदयाऽऽदिकाले ज्ञातिसंयोगान् विप्रजहाति परित्यजति, स्वजनाश्च न वान्धवा इति व्यवहारदर्शनात, ज्ञातिसंयोगावेकदा तदसदाचारदर्शनतः पूर्वमेव तपुरुषपरित्यजन्ति, स्वसंबन्धादुत्तारयन्ति। तदेवं व्यवस्थिते एतद्भाव रोत, तद्यथा-अन्ये ग्वल्यमी ज्ञातिसंयोगा मत्तो भिन्ना इत्यारा राश्वान्योइहमारम, तदेवं व्यवस्थिते किमड़ ! पनर्वयमन्यैरन्यिितसंयोगैशा का ? न तेषु मूर्छा क्रियमाणा न्याय्या इत्येवं सख्याय ज्ञात्या प्रत्याकलय्य वयमुत्पन्नवैरण्या ज्ञातिसंयोगांस्त्यक्ष्याम इत्येवं कृताध्यवसायिना विदितवेद्या भवन्तीति। साम्प्रतमन्येन प्रकारेण वैराग्योत्पत्तिकारणमाहसे मेहावी जाणेजा, बहिरंगमेयं, इणमेव उवणीयतरागं / तं जहा-हत्था मे पाया मे बाहा मे उरू मे उदरं मे सीसं मे सीलं में आऊ मे बलं मे वण्णो मे तया में छाया मे सोयं मे चक्खू मे धाणं मे जिम्मा मे फासा मे ममाइजइ, वयाउ पडिजूरइ / तं जहा-आउओ बलाओ वण्णाओ तयाओ छायाओ सोयाओ० जाव फासाओ सुसंघितो संधी विसंधी भवइ, बलियतरंगे गाए भवइ, किण्हा केसा पलिया भवंति,तं जहा-जं पि य इमं सरीरगं उरालं आहारोवइयं एयं पि य अणुपुटवेणं विप्पजहियव्वं भविस्सति, एयं संखाए से भिक्खू भिक्खायरियाए समुहिए दुहओ लोगं जाणेजा, तं जहा-जीवा चैव, अजीवा चेव तसा चेव थावरा चेव // 13 // स मेधावी स श्रुतिक एतद्वक्ष्यमाणं जानीयात्, तद्यथा-बाह्यतरमेतद् यज्ज्ञातिसंबन्धनमिदमेवान्यदुपनीततरम्-आसन्नतर, शरीरावयवानां भिन्नज्ञातिभ्य आसन्नतरत्वात्, तद्यथाहस्तौ ममाशोकपलवसदृशौ, तथा भुजौ करिकराऽकारौ परपुञ्जयौ प्रणयिजनमनोरयपूरकौ शत्रुशतजीवितान्तकरी यथा मम न तथाऽन्यस्य कस्याऽपीत्येवं पादावपि पद्मगर्भसुकुमारावित्यादि सुगमम्, यावत्स्पर्शाः स्पर्शमिन्द्रियं(ममाति) गमीकरोति, यादृड्मे न तादृगन्यस्येति भावः / एतच्च हस्तपादाऽऽदिक स्पर्शनेन्द्रियपर्यवसानं शरीरावयवसंबन्धित्वेन विवक्षित यत्किमपि वयसः परिणामात्कालकृतावस्थाविशेषात् (परिजूरइ त्ति) परिजीर्यते जीर्णता याति, प्रतिक्षणं विशरारुता याति, तस्मिश्च प्रतिसभयं विशीर्यति शरीरे प्रतिसमयमसो प्राणी एतस्माद्भ्रश्यति, तद्यथा-आयुषः पूर्वनिबद्धात्समयादिहान्या-ऽपचीयते,आवीचीमरणेन प्रतिसमयं मरणाभ्युपगमात्, तथा बलादपचीयते, तथाहि-यौवनावस्थायाश्च्यवमाने शरीरके प्रतिक्षणं शिथिलीभवत्सु सन्धिबन्धनेषु बलादवश्यं भ्रश्यते, तथा वर्णा त्वचछायातोऽपचीयते / अत्र च सनत्कुमारदृष्टान्तो वाच्यः (तं च ‘सणकुमार' शब्दे वक्ष्यामि) तथा जीर्यति शरीरे श्रोत्राऽऽदीनीन्द्रियाणि न सम्यक् स्वविषयं परिच्छेत्तुमलं, तथा चोक्तम्- 'बाल्यं वृद्धिर्वयो मेधा, त्वक्चक्षुःशुक्रविक्रमाः / दशकेषु निवर्तन्ते, मनः सर्वेन्द्रियाणि च // 1 // " तथा च-विशिष्टवयोहान्या सुसन्धितः सुबद्धः सन्धिर्जानुकूर्पराऽऽदिको विसन्धिर्भवति, विगलितबन्धनो भवतीत्यर्थः / तथा वलितरगाऽऽकुलं सर्वतः शिराजालवेष्टितमात्मनोऽपि शरीरमिदमुद्रेगकृद्भवति, कि पुनरन्येषाम्? तथा चोक्तम्- "वलिसन्ततमस्थिशेषितं, शिथिलस्नायुवृतं कलेवरम् / स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते, किमु कान्ताः कमनीय Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 958 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय विग्रहाः॥१॥' तथा-कृष्णाः केशा वयःपरिणामजलप्रक्षालिता धवलता प्रतिपद्यन्ते, तदेवं वय परिणामाऽऽपादितसन्मतिरेतद्भावयेत। तद्यथायदपीदं शरीरमुदारं शोभनावयवरूपोपेतं विशिष्टाऽऽहारोपचितम्, एतदपि मयाऽवश्यं प्रतिक्षणं विशीर्यमाणमायुषः क्षये विप्रहातव्य भविष्यतीत्येतदवगम्य शरीरानित्यतया संसारासारतां संख्याय अवगम्य परित्यक्तसमस्तगृहप्रपञ्चः निष्किञ्चनतामुपगम्य, सभिक्षुर्देहदीर्घसंयमयात्रार्थ भिक्षाचर्यायां समुत्थितः सन् द्विधा लोकं जानीयादिति। तदेवं लोकद्वैविध्यं दर्शयितुकाम आह / तद्यथा-जीवाश्च प्राणधारणलक्षणास्तद्विपरीताश्च अजीवाः-धर्माधर्माऽऽकाशाऽऽदयः, तत्रतस्य भिक्षोरहिंसाप्रसिद्धयेजीवान् विभागेन दर्शयितुमाह-जीवा अप्युपयोगलक्षणा द्विधा। तद्यथा-वस्यन्तीति सा द्वीन्द्रियादयः, तथा तिष्ठन्तीति स्थावराः पृथिवीकायाऽऽदयः / तेऽपि सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकाऽऽदिभेदेन बहुधा द्रष्टव्याः, एतेषु चोपरि बहुधा व्यापारः प्रवर्तते। साम्प्रतं तदुपमर्दकव्यापारकर्तन दर्शयन्नाहइह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, जे इमे तसा थावरा पाणा ते सयं समारंभति, अन्नेण वि समारंभावेंति, अण्णं पि समारभंतं समणुजाणंति / इह खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणा विसारंभा सपरिग्गहा, जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते सयं परिगिण्हंति, अन्नेण वि परिगिण्हावेंति, अन्नपि परिगिण्हतं समणुजाणंति / इह खलु गारत्था सारेभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे, जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा,एतेसिं चेव निस्साए बंभचेरवासं बांसेस्सामो, कस्स णं तं हेउं? जहा पुव्वं तहा अवरं जहा अवरं तहा पुव्वं, अंजू एते अणुवरया अणुवट्ठिया पुणरवि तारिसगा चेव // इहास्मिन् संसारे, खलुक्यालङ्कारे, गृहम्-अगार तत्र तिष्ठन्तीति गृहस्थाः, ते च सहाऽऽरम्भेणजीवोपमर्दकरिणा वर्तन्त इति सारम्भाः. तथा सह परिग्रहेणद्विपदचतुष्पदधनधान्याऽऽदिना वर्तन्त इति सपरिग्रहाः, न केवलंत एवान्येऽपि सन्ति विद्यन्ते एके केचन श्रमणाः शाक्याऽऽदयः, ते च पचनपाचनाऽऽद्यनुमतेः सारम्भाः दास्यादिपरिग्रहाच सपरिग्रहाः, तथा ब्राहाणाश्चैवंविधा एव, एतेषां च सारम्भकत्वं स्पष्टतरं सूत्रेणैव दर्शयति-य इमे प्राग्व्यावर्णिताखसाः स्थावराश्च प्राणिनस्तास्वयमेव-अपरप्रेरिता एव समारभन्ते, तदुपमर्दकं व्यापार स्वत एव कुर्वन्तीत्यर्थः, तथाऽन्याश्च समारम्भयन्ति, समारम्भं कुर्वतश्चान्यान् समनुजानन्ति / तदेवं प्राणतिपातं प्रदर्श्य भोगाङ्गभूतं परिग्रह दर्शयितुमाह (इह खलु इत्यादि) इह खलु गृहस्थाः सारम्भाः सपरिग्रहाः सन्ति श्रमणा ब्राह्मणाच, ते च सारम्भपरिग्रहत्वात् किं कुर्वन्तीति दर्शयति-ये इमे प्रत्यक्षाःकामप्रधाना भोगाः कामभोगाः, काम्यन्त इति कामाः स्त्रीगात्रपरिष्वङ्गाऽऽदयो, भुज्यन्त इति भोगाः स्त्रकचन्दनवादित्राऽऽदयः, त एते सचित्ताः सचेतना अचेतना वा भवेयुः, तदुपादानभूता वाऽर्थाः, तांश्च सचित्तानचित्तान् वाऽर्थास्ते कामभोगार्थिनो गृहस्थाऽऽदयः स्वत एव परिगृह्णन्ति, अन्येन च परिग्राहयन्ति, अपरं च परिगृह्णन्तं समनुजानत इति। साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुराह-(इह खलु इत्यादि) इह अस्मिन जगति सन्ति विद्यन्ते गृहस्थास्तथाविधाः श्रमणा ब्राह्मणाश्च सारम्भाः सपरिग्रहा इत्येवं ज्ञात्वा स भिक्षुरेवमवधारयेद्, अहमेवाऽत्र खल्वनारम्भोऽपरिग्रहश्च, ये चामी गृहस्थाऽऽदयः सारम्भाऽऽदिगुणायुक्ताः तदेतन्निश्रया तदाश्रयेण च ब्रह्मचर्यश्रामण्यमाचरिष्यामोऽनारम्भा अपरिग्रहाः सन्तो, धर्माऽऽधारदेहप्रतिपालनार्थमाहाराऽऽदिकृते सारम्भपरिग्रहगृहस्थनिश्रया प्रव्रज्यां करिष्याम इत्यर्थः / ननु च यदि तन्निश्रया पुनरपि विहर्तव्य किमर्थ ते त्यज्यन्त इति जाताऽऽशङ्कः पृच्छतिकस्य हेतोः केन कारणेन? तदेतदगृहस्थश्रमणब्राह्यणत्यजनमभिहितमिति, आचार्योऽपि विदिताभिप्राय उत्तरं ददाति, यथा पूर्वम् आदी सारम्भपरिग्रहत्वं तेषां तथा पश्चादपि सर्वकालमपि गृहस्थाः सारम्भाऽऽदिदोषदुष्टाः श्रमणाश्च केचन यथा पूर्व गृहस्थभावे सारम्भाः सपरिग्रहास्तथा अपरस्मिन्नपि प्रव्रज्याऽऽरम्भकाले तथाविधा एव त इति, अधुनोभयपदाव्यभिचारित्वप्रतिपादनार्थमाह-यथा अपरम् अपरस्मिन् प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकाले तथा पूर्वमपि गृहस्थभावाऽऽदावपीति। यदि वा-कस्य हेतोस्तदगृहस्थाऽऽद्याश्रयणं क्रियते यतिनेत्याह-यथा पूर्व प्रव्रज्याऽऽरम्भकाले सर्वमेव भिक्षाऽऽदिकं गृहस्थाऽऽयत्तं तथा पश्चादपि,अतः कथं तु नागनवद्या वृत्तिर्भविष्यतीत्यतः साधुभिर्नाऽऽरम्भैः सारम्भाऽऽश्रयणं विधेयम्। यथा चैते गृहस्थाऽऽदयः सारम्भाः सपरिग्रहाश्च तथा प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यन्त इति दर्शयितुमाह-(अंजू इति) व्यक्तमेतदेते गृहस्थाऽऽदयो, यदि वा अञ्जू इति प्रगुणेन न्यायेन स्वरसप्रवृत्त्या सावद्यानुष्ठानेभ्योऽनुपरताः परिग्रहाऽऽरम्भाच सत्संयमानुष्ठानेन चानुपस्थिताः-सम्यगुत्थानमकृतवन्तो येऽपि कथशिद्धर्मकरणायोत्थितास्तेऽप्युद्दिष्टभोजित्वात्सावद्याऽनुष्ठानपरत्वाच गृहस्थभावानुष्ठानमनतिवर्तमानाः पुनरपि तादृशा एव गृहस्थकल्पा एवेति। साम्प्रतमुपसंहरतिजे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगतिया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा, दुहतो पावाई कुव्वंति इति संखाए दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणो इति भिक्खू रीएज्जा / से वेमि पाईणं वा०६जाव एवं से परिण्णायकम्मे, एवं से ववेयकम्मे, एवं से वि अंतकारए भवतीति मक्खायं // 14|| य इमे गृहस्थाऽऽदयस्ते द्विधाऽपि साऽऽरम्भसपरिगृहत्वाभ्यामुभाभ्यामपि पापान्युपाददते, यदि वा-रागद्वेषाभ्यामुभाभ्यामपि, यदि वा-गृहस्थप्रवज्यापर्यायाभ्यामुभाभ्यां पापानि Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय कुर्वत इत्येवं संख्याय परिज्ञाय द्वयोरप्यन्तयोरारम्भपरिग्रहयो रागद्वेषयोधा अदृश्यमानः अनुपलभ्यमानो, यदि वा-रागद्वेषयोविन्तौअभावी तयोरादिश्यमानोरागद्वेषाभाववृत्तित्वेनापदिश्यमानः सन्नित्येभूतो भिक्षणशीलोऽनवद्याऽऽहारभोजी सत्संयमानुष्ठाने रीयेत प्रवर्तेत, एतदुक्तं भवति-ये इमे ज्ञातिसंयोगा यश्चायं धनधान्याऽऽदिकः परिग्रहो यचेद हस्तपादाऽऽद्यवयवयुक्तं शरीरं यच्चतदायुर्वलवर्णाऽऽदिकंतत्सर्वमशाश्वतमनित्यं स्वप्नन्द्रजालसदृशमसारं, गृहस्थश्रमणब्राह्मणाश्च सारम्भाः सपरिग्रहाश्च, एतत्सर्वपरिज्ञाय सत्संयमानुष्ठाने भिक्षू रीयेतेति स्थतम। स पुनरप्यहमधिकृतमेवार्थ विशेषिततरं सोपपत्तिकं ब्रवीमीतितन्त्र प्रज्ञापकापेक्षया प्राच्यादिकाया दिशोऽन्यतरस्याः समायातः स भिक्षुयोरप्यन्तयोरदृश्यमानतया सत्संयमे रीयमाणः सन् एवमनसरोक्तेन प्रकारेण ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय च परिजातकर्मा भवति / पुनरप्येवमिति परिज्ञातकर्मत्वाद्व्यापेतकर्मा भवति-अपूर्वरयाबन्धको भवतीत्यर्थः / पुनरेवमित्यबन्धकयोगनिरोधोपायतः पूर्वोपचितस्य कर्मणो विशेषेणान्तकारको भवतीति, एतच तीर्थकरगणधराऽऽदिभितिज्ञेयैराख्यातमिति। कथ पुनः प्राणातिपातविरतिव्रताऽऽदिव्यवस्थितस्य कर्मापगमो भवतीत्युक्तम् ? यतस्तत्प्रवृत्तस्याऽऽत्मौपम्येन प्राणिनां पीडोत्पद्यते, तया च कर्मबन्ध इत्येव सर्व मनस्याधायाऽऽहतत्थ खलु भगवता छज्जीवनिकायहेऊ पण्णत्ता, तंज-हापुढवीकाए०जाव तसकाये, से जहाणामए मम अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आउट्टिजमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा तज्जिजमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परियाविजमाणस्स वा किलाविज्जमाणस्स वा उद्दविजमाणस्स वा० जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इचेवं जाण सव्वे जीवा सव्वे भूता सव्वे पाणा सव्वे सत्ता दंडेण वाजाव कवालेण वा आउट्टिजमाणा वा हम्ममाणा वा तजिज्जमाणा वा ताडिज्जमाणा वा परियाविज्जमाणा वा किलाविज्जमाणा वा उद्दविज्जमाणा वाजाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं नच्चा सव्वे पाणा० जाव सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा; से वेमि जे य अतीता जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सव्वे ते एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेति-सव्वे पाणा० जाव सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परितावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णीतिए सासए समिच्च लोगं खेयन्नेहिं पवेदिए, एवं से भिक्खू विरते पाणातिवायातो० जाव विरते पग्गहातो णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेजा णो अंजणं णो वमणं णो धूवणे जो तं परिआविएज्जा। तत्रेति कर्मबन्धप्रस्तावे, खलुवक्यिालंकारे, भगवता उत्पन्नज्ञानेन तीर्थकृता षड्जीवनिकाया हेतुत्वेनोपन्यस्ताः, तद्यथा- पृथिवीकायो यावत्रसकायोऽपीति, तेषां च पीड्य मानाना यथा दुःखमुत्पद्यते तथा स्वसंवित्तिसिदैन दृष्टान्तेन दर्शयितुमाह- तद्यथा नाम मम असातं दुःखं वक्ष्यमाणः प्रकारेरुत्पद्यते तथाऽन्येषामपीति, तद्यथा-दण्डेनास्थ्ना मुष्टिना लेलुता लोप्टेन कपालेन कपरण आकोट्यमानस्य संकोच्यमानस्य हन्यमानस्य कशाऽऽदिभिस्तर्जमानस्याडगुल्याऽऽदिभिस्ताड्यमानस्य कुड्याऽऽदावभिघाताऽऽदिनापरितप्यमानस्याग्न्यादौ अन्येन वा प्रकारेण परिक्लाम्यमानस्य तथा अपद्राव्यमाणरय मार्यमाणस्य यावलोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकरं दुःखं भयं च यन्मयि क्रियते तत्सर्वमहं संवेदयामीत्यवं जानीहि। तथा सर्वे प्राणा जीवा भूतानि सत्त्वा इत्येते एकार्थिकाः कथशिन्दमाश्रित्य व्याख्येयाः, तत्रैतेषां दण्डाऽऽदिना कुट्थमानानां यावल्लोमोत्खननमात्रमपि दुःखं प्रति संवेदयतामेतच्च हिंसाकरं दुःखं भय चोत्पन्नं ते सर्वे प्राणिनः प्रतिसवेदयन्तिसाक्षादनुभवन्तीति, एवमात्मोपमया पीयमानानां जन्तूनां यतो दुःखमुत्पद्यतेऽतः सर्वेऽपि प्राणिनो न हन्तव्या न व्यापादयितव्या नाऽऽज्ञापयितव्याः बलात्कारेण व्यापारे नप्रयोक्तव्याः, तथा न परिग्राह्या न परितापयितव्या नापद्रावयितव्याः / सोऽहं ब्रवीमि, एतन्न स्वमनीपिकतया किं तु सर्वतीर्थकराऽऽज्ञयेति दर्शयति-(जे अतीए इत्यादि) ये केचन तीर्थकृत ऋषभाऽऽदयोऽतीता ये च विदेहेषु वर्तमानाः सीमन्धराऽऽदयो ये चाऽऽगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यन्ति पद्मनाभाऽऽदयोऽर्हन्तोऽमरासुरनरेश्वराणां पूजार्हा भगवन्त ऐश्वर्याऽऽदिगुणकलापोपेताः सर्वेऽप्येवं ते व्यक्तवाचा आख्यान्ति प्रतिपादयन्ति / एवं सदेवमनुजायां पर्षदि भाषन्ते, स्वत एव, न यथा बौद्धाना बोधिसत्त्वप्रभावात् कुड्याऽऽदिदेशनत इत्येवं प्रकर्षण ज्ञापयन्ति हेतूदाहरणाऽऽदिभिः, एवं प्ररूपयन्ति नामाऽऽदिभिर्यथा सर्वे प्राणा न हन्तव्या इत्यादि, एष धर्मः प्राणिरक्षणलक्षणः प्राग्व्यावर्णितस्वरूपो ध्रुवोऽवश्यंभावी नित्यः क्षान्त्यादिरूपेण शाश्वत इत्येवं चाभिसमेत्य केवलज्ञानेनावलोक्य लोक चतुर्दशरज्ज्वात्मकं खेदहस्तीर्थकृद्भिः प्रवेदितः कथित इत्येव सर्व ज्ञात्वा स भिक्षुर्विदितवेद्यो विरतः प्राणातिपाताद्यावत्परिग्रहादिति / एतदेव दर्शयितुमाह- (णो दंत इत्यादि) इह पूर्वोक्तमहाव्रतपालनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपाद्यन्ते, तत्रापरिग्रहो निष्किञ्चनः सन साधु! दन्तप्रक्षालनेन कदम्बाऽऽदिकाष्ठेन दन्तान् प्रक्षालयेत्, तथा नो अञ्जनं सौवीराऽऽदिक विभूषार्थमक्ष्णोर्दद्यात्, तथा नो वमनविरेचनाऽऽदिकाः क्रियाः कुर्यात्, तथा नो शरीरस्य स्वीयवस्वाणां वा धूपनं कुर्यान्नापि कासाऽऽद्यपनयनार्थ तं धूमं योगवर्तिनिष्पादितमापिवेदिति। साम्प्रत मूलगुणोत्तरगुणप्रस्तावमुपसंजिघृक्षुराहसे मिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिनिव्वुडे णो आसंसं पुरतो करेज्जा इमेण मे Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 660- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय दिह्रण वा सुएण वा मएण वा णाएण वा विनाएण वा इमेण वा सुचरियतवनियमबंभचेरवासेण इमेण वा जाया माया वुत्तिएणं धम्मेणं इओ चुए पेच्चा देवे सिया कामभोगाण वसवत्ती सिद्धे वा अदुक्खमसुभे एत्थ वि सिया एत्थ वि णो सिया। स मूलोत्तरगुणव्यवस्थितौ भिक्षुर्नास्य क्रियासावद्या विद्यते इत्यक्रियः, संवृताऽऽत्मकतया सांपरायिककर्माबन्धक इत्यर्थः कुत एवंमतः रात: प्राणिनामलूषकोऽहिंसकोऽनुपमर्दक इत्यर्थः, तथा विद्यते क्रोधो यस्येत्यक्रोधः, एवममानोऽमायोऽलोभः कषायोपशमाच्चोपशान्तः शीतीभूत-- स्तदुपशमाच्च परिनिर्वृत इव परिनिर्वृतः। एवं तावदैहिकेभ्यः कामभोगेभ्यो विरतः पारलौकिकेभ्योऽपि विरत इति दर्शयति-(नो आसंसमित्यादि) नो नैवाशंसां पुरस्कृत्यं ममानेन विशिष्टतपसा जन्मान्तरे कामभोगावाप्तिर्भविष्यतीति एवंभूतामाशंसां न पुरस्कुर्यादिति। एतदेव दर्शयितुमाह-(इमेणमित्यादि) अस्मिन्नेव जन्मन्यमुना विशिष्टतपश्चरणफलेन दृष्टे नाम षध्यादिना तथा पारलौकिकेन च श्रुतेनाकधम्मिल्लब्रह्मदत्ताऽऽदीनां विशिष्टतपश्चरणफलेन, तथा (मएण व त्ति) मननं ज्ञानं जातिस्मरणाऽऽदिना ज्ञानेन तथाऽऽचार्याऽऽदेः सकाशा-द्विज्ञानेनावगतेन ममापि विशिष्ट भविष्यतीत्येवं नाऽऽशंसां विदध्यात, तथाऽमुना सुचरित तपोनियमब्रहाचर्यवासेन तथाऽमुना वा यात्रामात्रावृत्तिना धर्मेणानुष्ठितेन इतोऽस्माद्भवाच्च्युतस्य प्रेत्य जन्मान्तरे स्यामहं देवः, सत्रस्थस्य च मे वशवर्तिनः कामभोगा भवेयुः, अशेषकर्मवियुतो वा सिद्धः अदुःखोऽशुभाशुभकर्मप्रकृत्यपेक्षयेत्येव भूतोऽहं स्यामागामिकाल इत्येवमाशंसा न वि दध्यादिति। यदि वा-विशिष्टतपश्चरणाऽऽदिनाऽऽगामिनि काले ममाणिमा लघिमेत्यादिकाऽष्ट प्रकारा सिद्धिर्भविष्यतीत्यनया च सिद्ध्या सिद्धोऽहमदुःखोऽशुभो वा मध्यस्थ इत्येव रूपामाशंसा नकुर्यात्। तदकरणे च कारणमाह- (एत्थ वि इत्यादि) अत्रापि विशिष्टतपश्चरणे सत्यपि कुतश्चिन्नि मित्ताद् दुष्प्रणिधानसद्भावे सति कदाचिस्सिद्धिः स्यात्कदाचिच्च नैवाशेषकर्मक्षयलक्षणा सिद्धि स्यात / तथा चोक्तम्"जे जत्तिया उ हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मोक्खे।" इत्यादि। यदि वा-अत्राप्यणिमाऽऽद्यष्टगुणकारणे तपश्चरणाऽऽदी सिद्धिः स्यात् कदाचिच न स्यात, तद्विपर्ययोऽपि वा स्याद्. इत्येवं व्यवस्थिते प्रेक्षापूर्वकार्यकारिणां कथमाशंसां कर्तुं युज्यते, इति सिद्धिश्चाष्टप्रकारेयम्-(अणिमा 1, लघिमा 2, महिमा 3, प्रीतिः, 4, प्रकाम्यम् 5, ईशित्वम् 6, वशित्वम् 7. यत्र कामावसायित्वमिति 8 ! तदेवमैहिकार्थमामुष्मिकार्थ कीर्तिवर्णश्लोकाऽऽद्यर्थ च तपो न विधेयमिति स्थितम्। साम्प्रतमनुकूलप्रतिकूलेषु शब्दाऽऽदिषु विषयेषु रागद्वेषाभावं दर्शयितुमाहसे भिक्खू सद्देहिं अमुच्छिए रूदेहिं अमुच्छिए गंधेहिं अमुच्छिए रसेहिं अमुच्छिए फासेहिं अमुच्छिए विरए कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुन्नाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादंसणसल्लाओ इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते से भिक्खू / जे इमे तसथावरा पाणा भवंति ते णो सयं समारंभई, णो अण्णे हिं समारंभाति, अन्नं समारभंतं न समणुजाणंति, इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवहिए पडिविरते से भिक्खू / जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते णो सयं परिगिण्हंति, णो अन्नेणं परिगिण्हावेंति, अन्नं परिगिण्हतं पि ण समणुजाणंति, इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते से भिक्खू। स भिक्षुः राऽऽशंसारहितो वेणुवीणाऽऽदिषु शब्देवमूञ्छितोऽगृद्धोऽनध्युपपन्नः, तथा-रासभाऽऽदिशब्देषु कर्कशेषु अद्विष्टः, एवं रूपरसगन्धस्पर्शेष्वपि / वाच्यमिति / पुनरपि सामान्येन क्रोधाऽऽद्युपशम दर्शयितुमाह-(विरए कोहाओ इत्यादि) क्रोधमानमायालोभेभ्यो विराम इत्यादि सुगमम, यावदिति। (से महया आयाणा उवराते उवट्टिए पडि विरए से भिक्खु त्ति) स भिक्षुर्भवति यो महतः कर्मो पादानादुपशान्तः सत्संयमे वोपस्थितः सर्वपापेभ्यश्च विरतः प्रतिविस्त इति / एतदेव च महतः कर्मोपादनाद्विरमणं साक्षाद्दर्शयितुमाह- (जे इमे इत्यादि) ये केचन साः स्थावराश्च प्राणिनो भवन्ति, तान् सर्वानपि (नो) नैव स्वयं सत्साधवः समारभन्ते प्राण्युपमर्दकमारम्भं नारम्भन्त इति यावत् तथा नान्यः समारम्भयन्ते, नचान्यान समारम्भमाणान् समनुजानत इत्येत महतः कर्मोपादानादुपशान्तः प्रतिविरतो भिक्षुर्भवतीति / सांप्रतं सामान्यतः सापरायिककर्मोपादानकामभोगनिवृत्तिमधिकृत्याऽह-(ज इमे इत्यादि) ये केचनामी काम्यन्त इति कामा भुज्यन्त इति भोगास्तेच सचित्ता अचित्ता वा भवेयुस्ताश्च न स्वतो गृह्णीयान्नाप्यनेन ग्राहयेत्, नाप्यपरं गृह्णन्तं समनुजानीयादित्येवं कर्मोपादानाद्विरतो भिक्षुर्भवतीति / साम्प्रतं सामान्यतः साम्परायिककर्मोपादाननिषेधमधि कृत्याऽऽहजंपि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जइ, णो तं सयं करेति, णो अण्णेणं कारवेंति, अन्नं पिकरेंतं ण समणुजाणइ इति, से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते / से भिक्खू जाणेज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अस्सिं पडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई भूताई जीवाइं सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कीतं पामिचं अच्छिज्जं अणिसटुं अमिहडं आहट्ट देसियं तं चेतियं सिया तं णो सयं भुंजइ, गो अण्णेणं भुजाति, अन्नं पि भुंजंतंण समणुजाणइ इति, से महतो अयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते। (जंपिय इत्यादि) यदपीदंसंपर्येतितासुतासुगतिष्वनेन कर्मणेति सापरायिक, तच्चतत्पद्वेषनिहवमात्सर्यान्तरायाशातनोपघातबध्यते, तत्कर्मतत्चारण वा न कृतकारितानुमतिभिः करोति स भिक्षुरभिधीयत इति। सांप्रतं भिक्षावि Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 961 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय शुद्धिमधिल्याऽऽह- (से भिक्खू इत्यादि) से भिक्षुर्यत्पुनरेवं भूतमाहारजात जानीयात् (अस्सि पडियाए त्ति) एतत्प्रतिज्ञयाऽऽहारदानप्रालेज्ञया, यदि वाऽस्मिन् पर्याय साधुपर्याय व्यवस्थितमेकं साधु साधर्मिक समुद्दिश्य कश्चिच्छावकः प्रकृतिभद्रको वा साध्वाहारदानार्थ पाणिनः प्रत्यक्तेन्द्रियान् भूतानि त्रिकालभावीनि जीवानायुष्कधरणलक्षणान्सत्त्वान्सदा सत्त्वोपेतान्समारभ्य तदुपमर्दकमारम्भ विधाय समुद्दिश्य तत्पीडां सम्यगुद्दिश्य, क्रीतं क्रयेण द्रव्यविनिमयेन (पामिच्च ति) उद्यतकमाच्छेद्यमित्यन्यस्मादाच्छिद्य, अनिसृष्टमिति परेणानुसंकलितमभ्याहतमिति साध्वभिमुख ग्रामाऽऽदेरानीतमाहृत्योपेत्य साध्वर्थं कृतमुद्देशिकमित्येवंभूतमाहारजातं साधवे दत्तं स्यात, तच्चा कामेन तेन परिगृहीत स्यात्, तदेवं दोषदुष्ट च ज्ञात्वा स्वयं न भुञ्जीत, नाप्यपरेण भोजयेत, न च भुञ्जानमपरं समनुजानीयादित्येवं दुष्टाऽऽहारदोषान्निवत्तो भिक्ष भवतीत्यर्थः / से मिक्खू अह पुण एवं जाणेज्जा। * तं जहा-विज्जति तेसिं परक्कमे जस्सट्ठा ते चेइयं सिया, तं जहा-अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं ण्हाणं धातीणं णातीणं राईणं दासाणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आदेसाए पुढो पहेणाए सामासाए पातरासाए सन्निहिसंचए किञ्जति इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए / तत्थ भिक्खू परकडं परणिद्वितमुग्गमुप्पायणेसणासुद्धं सत्थाईयं सत्थपरिणामियं अविहिंसियं एसियं वेसियं सामुदाणियं पत्तमसणं कारणट्ठा पमाणजुत्तं अक्खोवंजणवणलेवणभूयं संजमजायामायावत्तियं विलमिव पन्नगभूतेणं अप्पाणेणं आहारं आहारेज्जा, अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले। अथपुनरेव जानीयादित्यादि। तद्यथा-विद्यते तेषां गृहस्थानामेवम्भूतो वक्ष्यमाणाः पराक्रमः सामर्थ्यमाहारनिर्वर्तनं प्रत्यारम्भस्तेन च यदाहारजात निर्वर्तितं यस्य चार्थाय यत्कृते तच्चेतितमिति दत्तं निष्पादित स्याद्भवेत्। यत्कृते व निष्पादितं तत्स्वनामग्राह-माह। तद्यथा- आत्मनः स्वनिमित्तमेवाऽऽहारादिपाकनिर्वर्तनं कृतमिति, तथा पुत्राऽऽद्यर्थ यावदादेशायाऽऽदिश्यते यस्मिन्नागते संभ्रमेण परिजनस्तदाशनदानाऽऽदिव्यापारे स आदेशः प्राघूर्णकस्तदर्थवा पृथक् प्रहेणार्थ विशिष्टाऽऽहारनिर्वर्तन क्रियते तथा श्यामा रात्रिस्तस्यामशनमाशः श्यामाऽऽशस्तदर्थ , प्रातरशनं प्रातराशः, प्रत्यूषस्येव भोजनं तदर्थ सन्निधिः संनिचयो | विशिष्टाऽऽहारसंग्रहस्य संचयः क्रियते 1 अनेन चैतत्प्रतिपादितं भवतिबालवृद्धग्लानाऽऽदिनिमित्तं प्रत्यूषाऽऽदिसमयेष्वपि भिक्षाऽटनं क्रियते, तस्य चायमभिहितः संभवः, स च संनिधिसंचय इहैकेषां मानवाना भोजनार्थ भवति, तत्र भिक्षुरुद्यतविहारी परकृतपरनि-ठितमुद्गमोत्पादनैषणाशुद्धमाहारमाहरेत्, अत्र च परकृतपरनिष्ठिते चत्वारो भङ्गाः / तद्यथा- तस्य कृतं तस्यैव च निष्ठितं, तस्य कृतमन्यस्य निष्ठिसम, अन्यस्य कृतं तस्यैव निष्ठितम्, अन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमित्ययं * इह पुस्तकान्तरे भ्यान पाठभेदो दृश्यते। चतुर्थो भगः सूत्रेणोपात्तः, अयं च शुद्धो द्वितीयश्चान्यस्य निष्ठितत्वात्तत्राधाकर्मा इंशिकाऽऽदय उद्गमदोषाः षोडश तथोत्पादनादोषा धात्रीद्यादिकाः षोडशैव, तथैषणादोषाः शङ्किताऽऽदयो दश एवमेभिर्द्धिवत्वारिंशतोषरहितत्वाच्छुद्धम् / तथा शस्त्रमग्न्यादिकं ते नातीतं प्रासुकीकृतं शखपरिणामितमिति शस्त्रेण स्वकायपरकायाऽऽदिना निर्जीवीकृतं वर्णगन्धरसाऽऽदिभिश्च परिणमित, हिंसां प्राप्त हिसितं विरूपं हिसितं विहिसितन सम्यक् निर्जीवीकृतमित्यर्थः, तत्प्रतिषेधादयिहिंसित निर्जीवमित्यर्थः / तदप्येपितमन्वेषितं भिक्षाचर्याविधिना प्राप्ते, वैषिकमिति केवलसाधुवेषावाप्त न पुनर्जात्याद्याजीवनतो निमिताऽऽदिना वोत्पादित, तदपि सामुदानिकं समुदानं भिक्षा समूहस्तत्र भवं सामुदानिकम, एतदुक्तं भवति- मधुकरवृत्त्याऽवाप्तं सर्वत्र स्तोकं स्तोकं गृहीतमित्यर्थः / तथा-प्रज्ञस्येदं प्राज्ञंगीतार्थेनोपात्तमशनम्आहारजातं, तदपि वेदनावैयावृत्त्यादिके कारणे सति, तत्राऽपि प्रमाणयुक्त नातिमात्रम्। प्रमाण चेदम्- "अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुजा दवस्स दो भाए। वाउपवियारणहा, छत्भागं ऊणयं कुजा / / 1 // " इति। एतदपि न वर्णवलाऽऽद्यर्थ किन्तु यावन्मात्रेणाऽऽहारेण देहः क्रियासु प्रवर्तते। तत्र दृष्टान्तद्वयमाह-तद्यथा-अक्षस्योपाञ्जनम् अभ्यङ्गोव्रणस्य चलेपनं प्रलेपस्तदुपमया आहारमाहरेत्। तथा चोक्तम्-"अब्भगेण व संगई, य तरइ विगई विणा उ जो साहू / सो रागदोसरहिओ, मत्ताएँ विहिइ त सेवे।।१।।" एतदेव दर्शयतिसंयमयात्राया मात्रा संयमयात्रामात्रा यावत्याऽऽहारमात्रया संयमयात्रा प्रवर्त्तते सा तथा तयासंयमयात्रामात्रया वृत्तिर्यस्य तत्तथा, तदपि विप्रवेशपन्नगभूतेनाऽऽत्मनाऽहारमाहेरत्। एतदुक्तं भवति-यथाऽहिर्विल प्रविशन्तूर्ण प्रविशत्येवं साधुनाऽप्याहारस्तत्स्वादमनास्वादयता शीघ्र प्रवेसयितव्य इति / यदि वासर्पणेवाऽऽहारो लब्ध्वा स्वादमभ्यवहार्यत इति / तदेवं चाऽऽहारजातं दर्शयितुमाह - अन्न भक्तमन्नकाले सूत्रार्थपौरुष्युत्तरकालं भिक्षाकाले प्राप्ते, पुरः पश्चात्कर्म परिहृतं भवति यथोक्तभिक्षाऽटनेन, ग्रहणकालावाप्त भैक्षं परिभोगकाले भुञ्जीत, तथा पानकं पानकाले.. नातितृषितो भुञ्जीत, नाप्यतिबुभुक्षितः पानकं पिबेदिति, तथा वरवं वस्त्रकाले गृहीयादुपभोग वा कुर्यात्. तथा लयनं गुहाऽऽदिकमाश्रयस्तस्यवर्षास्ववश्यभुपादानमन्यदा त्वनियमस्तथा शय्यतेऽस्मिन्निति शयन संस्तारकः, स च शयनकाले, तत्राप्यगीतार्थानां प्रहरद्वयं निद्राविमोक्षो गीतार्थानां प्रहरमेकमिति। से भिक्खू मायन्ने अन्नयरं दिसं अणुदिसं वा पडिवन्ने धम्म आइक्खे विभए किट्टे उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए, संति विरतिं उवसमं निव्वाणं सोयवियं अञ्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणतिवातियं सव्वे सिं पाणाणं सवेसिं भूताणंजाव सत्ताणं अणुवाइं किट्टिए धम्म। स भिक्षु राहारो पधिशयन स्वाध्यायध्यानाऽऽदीनां मात्रा जानातीति तद्विधिज्ञः सन् अन्यतरां दिशमनुदिश वा प्रतिपन्न: समाश्रितो धर्ममाख्यापयेत् प्रतिपादयेत्, यद्येन विधेयं तद्यथा Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंडरीय योग विभजेदर्मफलानि च कीर्तयेद्- आविर्भावयेत्, तद्य धर्मकथनं परिहितार्थप्रवृत्तेन साधुना सम्यगुपस्थितेषु शिष्येषु अनुपस्थितेषु वा कौतुकाऽऽदिप्रवृत्तेषु शुश्रूषमाणेषु श्रोतु प्रवृत्तेषु स्वपरहिताय प्रवेदयेदावेदयेत्प्रकथयेदिति यावत्। श्रोतुमुपस्थितेषु यत्कथयेत्तदर्शयितुमाह(सति विरई इत्यादि) शान्तिरुपशमः क्रोधजयस्तत्प्रधाना प्राणातिपाताऽऽदिभ्यो विरतिः शान्तिविरतिः। यदि वा-शान्तिरशेषक्लेशोपशभरूपा तस्यैतदर्थ विरतिः शान्तिविरतिः तां कथयेत्तथा उपशमभिन्द्रियनोइन्द्रियोपशमरूपं रागद्वेषाभावजनित तथा निर्वृतिं निर्वाणमशेषद्वन्द्वोपरमरूप तथा (सोयविय ति) शोचं तदपि भावशीचं सर्वोपाधिविशुद्धता व्रतामालिन्यम् (अज्जवियं ति) आउँवसमायित्वं तथा मार्दवं मृदुभावं सर्वत्र प्रश्रयवत्त्वं, विनयनम्रतेति यावत् / तथा(लाघवियं ति) कर्मणां लाघवाऽऽपादनं कर्मगुरोर्वाऽऽत्मनः कर्मापनयनतो लघ्ववस्थासंजननम्। सांप्रतमुपसंहारद्वारेण सर्वशुभानुष्ठानाना मूलकारणमाह- अतिपतनं अतिपातः प्राण्युपमर्दनं तद्विद्यते यस्यासाऽवतिपातिकस्तत्प्रतिषेधादनतिपातिकस्तं सर्वेषां प्राणिना भूतानां यावत्सवानां धर्ममनुविविच्यानुविचिन्त्य वा कीर्तयेत्कथयेत्। इदमुक्तं भवतिसर्वप्राणिनां रक्षाभूतं धर्म कथयेदिति। साम्प्रतं धर्मकीर्तनं यथा निरुपधि भवति तथा दर्शथितुमाहसे मिक्खू धम्म किट्टमाणे णो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, णो वत्थस्स हेउं धम्ममाइक्खेजा, णो लेणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, णो सयणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा,णो अन्नेसिं विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा, नन्नत्थ कम्मनिज्जर? ए धम्ममाइक्खेज्जा / इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सिंधम्मे समुट्ठिया जे तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म सम्म उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सिं धन्मे समुट्ठिया ते एवं सव्वोवगता ते एवं सव्वोवरता ते एवं सव्वोवसंता ते एवं सव्वत्ताए परिनिव्वुडे त्ति वेमि। स भिक्षुः परकृतपरनिष्ठिताऽऽहारभोजी यथा क्रियाकालानुष्टायी शुश्रूषत्सु धर्म कीर्तयेत्, नान्नस्य हेतोर्मगायमीश्वरो धर्मकथाप्रवणो विशिष्टमहारजातं दास्यतीति एतन्निमितं न धर्ममाचक्षीत। तथा पानवस्त्रलयनशयननिमित्तं न धर्ममाचक्षीत / अन्येषां वा विरूपरूपाणामुच्चावचानां कार्याणां कामभोगाना वा निमित्तं न धर्ममाचक्षीत, तथा ग्लानिमनुपगच्छन् धर्ममाचक्षीत, कर्मनिर्जरायाश्वान्यत्र न धर्म कथयेत्, अपरप्रयोजननिरपेक्ष एवं धर्म कथयेदिति। धर्मकथाश्रवणफलदर्शनद्वारेणोपसंजिघृक्षुराह- (इह खलु तस्येत्यादि) इहाऽस्मिन् जगति, खलुः वाक्यालंका तस्य भिक्षोर्गुणवतोऽन्तिके समीपे पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट धर्म श्रुत्वा निशम्य अवगम्य सम्यगुत्थानेनोत्थाय वीराः कर्मविदारणसहिष्णवो ये चैवभूतास्ते एवं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानुष्टानतया सर्वस्मिनपि मोक्षकारणे सम्यग्दर्शनाऽऽदिके उप सामीप्येन गताः सर्वोपगताः, तथैव सर्वेभ्यः पापस्थानेभ्यः उपरताः सर्वोपरताः, तथा त एव सर्वोपशान्ता जितकषायतया शीतलीभूतास्तथा एव सर्वाऽऽत्मत-या सर्वसाम \न सदनुष्ठानेनोद्यमं कृतवन्तो ये चैवभूतास्तेऽशेषकर्मक्षयं कृत्वा परि समन्नान्निर्वृताः अशेषकर्मक्षय कृतवन्त इति ब्रवीमिति पूर्ववत्। साम्प्रतमध्ययनोपसंहारार्थमाहएवं से भिक्खू धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवण्णे से जहेयं बुतियं अदुवा पत्ते पउमवरपोंडरीयं अदुवा अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, एवं से भिक्खू परिण्णाय कम्मे परिण्णाय संगे परिण्णाय गेहवासे उवसंते समिए सहिए सया जए, सेवं वयणिले, तं जहा-समणेति वा माहणेति वा खंतेति वा दंतेति वा गुत्तेति वा मुत्तेति वा इसीति वा मुणीति वा कतीति वा विऊति वा भिक्खूति वा लूहेति वा तीरट्ठीति वा चरणकरणपारविउ त्ति बेमि / / 15 / / इति बितियसुयक्खंधस्स पों डरीयं नाम पढमज्झयणं सम्मत्तं। एवमिति पूर्वोक्तविशेषणकलापविशिष्टः स भिक्षुः पुनरपि सामान्यतो विशिष्यते धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यस्तेनार्थी धर्मार्थी, यथाऽवस्थित परमार्थतो धर्म सर्वोपाधिविशुद्ध जानातीति धर्मवित्तथा नियागः संयमो विमोक्षो वा कारणे कार्योपचारं कृत्वा तं प्रतिपन्नो नियागप्रतिपन्नः, स चैवंभूतः पञ्चमपुरुषजातस्तं चाऽऽश्रित्य यथेदं प्राक् प्रदर्शितं तत्सर्वमुक्त, स च प्राप्तो वा स्यात्पद्मवरपोण्डरीकमनुग्राह्यं पुरुषविशेषं चक्रवादिकं तत्प्राप्तिश्च परमार्थतः केवलज्ञानावाप्तौ सत्यां भवति, साक्षाद्यथावस्थितवस्तुस्वरूपपरिच्छित्तेः, अप्राप्तो वा स्यान्मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा समन्वितः, स चैवंभूतः प्राग्व्यावर्णितगुणकलापोपेतो भिक्षुः परि समन्तात् हातं कर्म स्वरूपतो विपाकतस्तदुपादानतश्च येन स परिज्ञातकर्मा, तथा परिज्ञातः सङ्गः संबन्धः सबाह्याभ्यन्तरो येन स तथा परिज्ञातो निःसारतया गृहवासो येन स तथोपशान्त इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमात्, तथा समितः पञ्चभिः समितिभिस्तथा सह हितेन वर्तत इति सहितो ज्ञानाऽऽदिभिर्वा सहितः समन्वितः सदा सर्वकालं यतः संयतः प्राग्व्यावर्णितनियमकलापोपेतः, स एवं गुणकलापाऽन्वित एतद्वचनीयः। तद्यथा-श्राम्यतीति श्रमणः समना वा, तथा मा प्राणिनो जहि-व्यापादयेत्येवं प्रवृत्तिः उपदेशो यस्य स माहनः, सब्रह्मचारी वा ब्राहाणः, क्षान्तः सक्षमोपेतो, दान्तइन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन, तथा तिसृभिर्गुतिभिर्गुप्तः, तथा मुक्त इव मुक्तः, तथा विशिष्टतपश्चरणोपेतो महर्षिः, तथा-मनुते जगतरित्रकालावस्थामिति मुनिः, तथा-कृतमस्यास्तीति कृती पुण्यवान् परमार्थपण्डितो वा, तथा विद्वान् सद्विद्योपेतः, तथा-भिक्षुर्निरवद्याऽऽहारतया भिक्षणशीलः, तथा अन्तप्रान्ताऽऽहारत्वेन Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरीय 663 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुंविसेस रुक्षः, तथा संसारतीरभूतो मोक्षस्तदर्थी, तथा चर्यत इति चरणं पुष्करिणी, दृष्टुति क्रियाध्याहारः। किं चान्यत्-(पउम इत्यादि)। तन्मध्ये मूलगुणाः, नियत इति करणभ्- उत्तरगुणास्तेषां पारं तीरं पर्यन्तगमनं पावरपौण्डरीक गृहीत्वा समुत्तरतोऽवश्यं व्यापत्तिः प्राणाना भवेत्, कि तद्वत्तीति करणचरणपारविदिति / इतिशब्दः परिसमाप्ती. ब्रवीमीति तत्र कश्चिदुपायः स नास्ति? येनोपायेन गृहीतकमलः सन् तां पुष्करिणीतीर्थकरवचनादार्यः सुधर्मस्वामी जम्बूरवामिनमुद्दिश्य एवं भणति- मुल्लष्टायेदविपन्न इति। तदुलड्नोपायं दर्शयितुमाह- (विज्जा वेत्यादि) यथाऽह न स्वमनीषिकया ब्रवीमीति। विद्या या काचित् प्रज्ञप्त्यादिका देवता कर्म वा वाऽथवाअकाशगमनसाम्प्रतं समस्ताध्ययनोपात्तदृष्टान्तदाष्टान्तिक लब्धिर्वा कस्यचिद भवेत्तेनासावविपन्नो गृहीतपौण्डरीकः सन्नुलक्येत्ता पुष्करिणीम् एप च जिनैरुपायः समाख्यातः इति। सर्वोपसंहारार्थमाहयारतात्पर्यार्थ गाथाभिर्नियुक्तिकृद्दर्शयितुमाह - (सुद्धप्पे इत्यादि) शुद्धप्रयोगविद्यासिद्धा जिनस्यैव विज्ञानरूपा विद्या उवमा य पुंडरीए, तस्सेव य उवचएण निज्जुत्ती। नान्यस्य कस्यचिद्यथा विद्यया तीर्थकरदर्शितया भव्यजनपौण्डरीकाः अधिगारो पुण भणिओ, जिणोवदेसेण सिद्धि त्ति // 158|| सिद्धिमुपगच्छन्तीति / गतोऽनुगमः / साम्प्रतं नयास्ते च पूर्ववद्रष्टव्या सुरमणुयतिरियनिरओ-वंगे मणुया पहू चरित्तम्मि। इति। समाप्त पौण्डरीकाऽऽख्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनमिति। अवि य महाजणनेय-त्ति चक्कवट्टिम्मि अधिगारो।।१५।। सूत्र०२ श्रु०१अ०॥"प्रभुभणितपुण्डरीकाऽध्ययनवत्सरो हि यत्राऽभूत्। अवि य हु भारियकम्मा, नियमा उक्कस्स निरयठितिगामी। दशपूर्विपुण्डरीकः, स जयत्यष्टापदगिरीशः / / 1 // " ती०१७ कल्प। ते विहु जिणोवदेसेण, तेणेव भवेण सिज्झंति / / 160 / / शत्रुञ्जये, ती०१ कल्प। भ०। व्याने, स्था०२ ठा०३ उ० "देवश्रीजलमालकद्दमालं, बहुविहवल्लिगहणं च पुक्खरणिं / पुण्डरीकाऽऽख्यभूभृच्छिखरशेखरम्। अलङ्करिष्णुः प्रासाद, श्रीनाभेयः जंघाहि व बाहाहि व, नावाहि व तं दुरवगाहं / / 161 / / श्रियेऽस्तुसः / / 1 / / " ती०१ कल्प। आ० क०। आदिदेवगणधरे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०) सका क्षीरवरद्वीपाधिपतौ, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। पउम उलंघेत्तुं, ओयरमाणस्स होइ वावत्ती। पुष्कलावर्तविजये पुण्डरीकिण्या नगर्या महापद्मदत्तो राजाऽभवत्, तस्य किं नत्थि से उवाओ, जेणुल्लंघेज अविवन्नो? // 162 / / पद्मावती राज्ञी बभूव, तस्याः कुक्षिसम्भूती पुण्डरीककण्डरीकनामानी विजा व देवकम्म, अहवा'आगासिया विउव्वणया। पुत्रो जाती, पितर्युपरते पुण्डरीको राजा जातः, कण्डरीको युवराज इति / पउमं उल्लंघेत्तुं, न एस इणमो जिणुक्खाओ / / 163 / / उत्त०। ज्ञा०। आव०। आ०क०। आ० म०। आ०चूला (तयोः 'कण्डरीक' सुद्धप्पओगविजा, सिद्धाउ जिणस्स जाणणा विज्जा। शब्दे तृतीयभागे 172 पृष्ठे वृत्तान्तमभाषिषम्) महाकुष्ठभेदे, प्रश्र०५ भवियजणपोंडरीया, उजाए सिद्धिगतिमुवेति // 164|| संव० द्वार। स्था०। (उवभा इत्यादि) इहोपमा दृष्टान्तः पौण्डरीकेण श्वेतशतपत्रेण, | पुंडरीयगुम्म न०(पुण्डरीकगुल्म) अष्टमदेवलोकविमाने, स०१८ सम०। कृतस्तस्येहाभ्यर्हितत्वात्, तस्यैव चोपचयेन सर्वावयवनिष्पत्ति- पुंडरीयणयण त्रि०(पुण्डरीकनयन) पुण्डरीक सितपद्यं तद्वन्नयने येषां विद्विशिष्टोपायनोद्धरणम, दान्तिकाधिकारस्तु पुनरत्र भणितः अभि- ते। कमलाक्षे, पुं०। प्रश्न०४ आश्र० द्वार।। हितश्चकवयदिव्यस्य जिनोपदेशेन सिद्धिरिति तस्यैव पूज्यमान- पुंडरीयणाय न०(पुण्डरीकज्ञात) पुष्कलावतीविजयमध्यगपुण्डरीकित्वादिति / पूज्यत्वमेव दर्शयितुमाह- (सुरमणुए इत्यादि) सुराऽऽदिषु ___णीनगरीराजपुण्डरीकवक्तव्यताप्रतिबद्धे एकोनविंशे ज्ञाताध्ययने, ज्ञा० चतुर्गतिकेषु जन्तुषु मध्ये मनुजाश्चरित्रस्य सर्वसंवररूपस्य प्रभवः-शक्ता १श्रु०१ अ०। ('कंडरीक' शब्दे तृतीयभागे 172 पृष्ठे कथोक्ता) वर्तन्ते, न शेषाः सुराऽऽदयः, तेष्वपि मनुजेषु महाजननेतारश्चक्रवादयो पुंडरीयदह पुं०(पुण्डरीकहद) जम्बूद्वीपे महाहदविशेषे, स्था०६ ठा०। वर्तन्ते, तेषु प्रबोधितेषु प्रधानानुगामित्वात् इतरजनः सुप्रतिबोध एव "पुंडरीयदहे दय जोयणसयाई आयामेणं पण्णत्ते / " पुण्डरीकहदो भवतीत्यतोत्र चक्रवर्त्यादिना पौण्ड रीककल्पेनाधिकार इति। पुनरप्य- लक्ष्मीदेवीनिवासः शिखरी वर्षधरोपरिवर्तीति / स० 1000 सम०। न्यथा मनुजप्राधान्य दर्शयितुमाह- (अवि य हु इत्यादि) गुरुकर्माणो स्था० "दो पुंडरीयद्दहा दो पुंडरीयदृहवासिणीओ लच्छीओ देवीओ।" ऽपि मनुजा आसंकलितनरकाऽऽयुषोऽपि नरकगमनयोग्या अपि स्था०२ ठा०३ उ०। तेऽप्येवभूतात् जिनोपदेशात्तेनैव भवेन समस्तकर्मक्षयात् सिद्धिगामिनो | पुंडरीया स्त्री०(पुण्डरीका) उत्तररुचकवास्तव्यायामुत्तरदिक्कुमार्याम्, जं० भवन्तीति। तदेवं दृष्टान्तदान्तिकयोस्तात्पर्यार्थ प्रदर्श्य दृष्टान्तभूत ५वक्ष०ा आ०म०। पौण्डरीकाऽधारायाः पुष्करिण्या दुरवगाहित्वं सूत्राऽऽलापकोपात्तं | पुंडे (देशी) व्रजेत्यर्थे , देना० 6 वर्ग 52 गाथा। नियुक्तिकृद्दर्शयितुमाह- (जलमालेत्यादि) जलमालामत्यर्थप्रचुरजला, पुढो (देशी) गर्ते, देवना०६ वर्ग 52 गाथा। तथा कर्दममालाम् अप्रतिष्ठिततलतया प्रभूततरपङ्का, तथा बहुविध- | पुंपुअ (देशी) संगमे, देवना०६ वर्ग 52 गाथा। वल्लिगहनां च पुष्करिणी जड्याभ्यां वा बाहुभ्यां वा नावा वा दुस्तरा विसेस पु०(विशेष) पुरुषविशेषे, द्वा०। Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंवेय 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुक्खरवरदीव पुंवेय पुं०(पुम्वेद) पुरुषवेदे, पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाषे, तद्विपाकवेद्य कर्मणि च / प्रज्ञा०२३ पद / यत्पुनः पुंसः श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषावत् स्त्रियामभिलाषा भवति स पुंवेदः / बृ० 1 उ०२ प्रक०। पुंसंजलण पु०(पुंसंजलन) पुरुषवेदे संज्वलनसंज्ञेषु क्रोधाऽऽदिषु कषायेषु, पं० सं०३ द्वार। पुंसकोइलग पुं०(पुंस्कोकिलक) पुमांश्वासो कोकिलश्च पर पुष्टः पुस्कोकिलः / स्था० १०टा० / कोकिलपुरुषे, भ०१६ श०६ उ०) पुक्कल त्रि०(पुष्कल) विस्तीर्णे, बृ० 130 २प्रक० / अनार्यदेशविशेषे, भ०६ श०३३ उ०। पुक्कली स्त्री०(पुक्कली) पुक्कलाऽऽख्यानार्यदेशजदास्याम्, भ०६ श० 33 उ०॥ पुक्का स्त्री०(व्याहार) दुष्टे, (खोटो-बूमाट-गुजराती) 'पुक्काओ अलि अपोरुसालावा।" पाइ० ना० 280 गाथा। पुक्कार पुं०(पूत्कार) पूदितिशब्दकरणे, 'अप्पेगइया पुक्कारेति।" रा०। विशे०॥ पुक्ख र न०(पुष्कर) पये, आव०५ अ०। सूत्र० / पद्मवरे, अनु०॥ चर्मपुटके, जं०१ वक्ष० / रा०। आ०म०।अजयमेरुसमीपे पुष्करिणीरूपे तीर्थभदे, तच देवकृत गोशीर्षचन्दनमय्या देवाधिदेवप्रतिमायाः कृते संग्रामार्थ प्रस्थितस्य उदायनस्य ग्रीष्माऽऽर्तसैन्यत्राणार्थ प्रभावतीदेवताविकुर्वितजलाऽऽप्यायितमासीदिति / नि० चू० 10 उ०। पुक्खरकणिया स्त्री०(पुष्करकर्णिका) पद्मबीजकोशे कमल-मध्यभागे, स हि वृत्ता समोपरिभागा च / जं०१ वक्ष०। स्था० / औ०। पद्ममध्यगतायामुन्नतसमचित्रबिन्दुकिन्याम, प्रज्ञा०२ पद। "अहे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिया।" प्रज्ञा०२ पद। पुक्खरगय न०(पुष्करगत) मृदङ्ग मुरुजाऽऽदिभेदभिन्नवाद्यविशेष विषयकविज्ञाने कलाभेदे, जं०२ वक्ष० / सका पुक्खरदीव पुं०(पुष्करदीप) पुष्करद्वीपे जम्बूद्वीपाऽऽदिगणनया तृतीये, स्था० 3 टा० 4 उ०॥ पुक्खरद्ध न०(पुष्कराद्ध) पुष्करवरद्वीपार्द्ध , सू० प्र० 16 पाहु०। पुक्खरवरदीव न०(पुष्करवरदीप) पुष्करवरोपलक्षितो द्वीपः पुष्करवरद्वीपः / जम्बूद्वीपाऽऽदिगणनया तृतीये द्वीपे, जी०। संप्रति पुष्करवरद्वीपवक्तव्यतामाहकालोयं णं समुदं पुक्खरवरे णामं दीवे वट्टवलयागारसंठाणंसठिते सव्वतो समंता संपरि० तहेव० जाव समचक्कबालसंठाणसंठिते, नो विसमचक्कबालसंठाणसंठिते, पुक्खरवरेणं भंते ! दीवे केवतियं चक्कबालविक्खंभे णं केवतियं परिक्खेवे णं पण्णत्ते? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साइं चक्कबाल विक्खंभेण कोडी वा णउती खलु सयसहस्सा अउणाणउतिं भवे सहस्साइं अट्ठसया चउणवा परिरओ पुक्खरवरस्स से णं पउमवर एक्केण य वणसंडेणं दोण्ह वि वण्णओ। (कालोयं णं समुद्दमित्यादि) कालोद, णमितिवाक्यालङ्कारे, समुद्र पुष्करवरो नाम द्वीपो वृत्तो वलयाऽऽकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति, (पुक्खरवरे दीवे किं समचक्कवालसंठिए इत्यादि) प्राग्वत् / विष्कम्भाऽऽदिप्रतिपादनार्थमाह- (पुक्खरवरे ण भंते ! दीवे इत्यादि) प्रश्रसूत्रं सुगमम्। भगवानाह- गौतम ! पोडश योजनशतसहस्राणि चक्रबालविष्कम्भेण एका योजनकोटी द्विनवतिः शत सहस्राणि एकोननवतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि चतुर्नवतानि परिक्षेपण प्रज्ञप्तः / (से णमित्यादि) स पुष्करबरद्वीप एकया पद्मवरवेदिकया अटयोजनोछ्यजगत्युपरिभाविन्येति गम्यते; एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् सपरिक्षितः, द्वयोरपि वर्णकः पूर्ववत्। अधुना द्वारवक्तव्यतामाहपुक्खरवरस्स णं भंते ! कति दारा पण्णत्ता / तं जहा-विजये, वेजयंते, जयंते, अपराजिते / (पुक्खरवरदीवस्स णमित्यादि) पुष्करवरद्वीपस्य भदन्त ! कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि? / भगवानाह-गौतम ! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि / तद्यथाविजयं, वैजयन्तं, जयन्तम्, अपराजितम्। कहि णं भंते ! पोक्खरवरस्स दीवस्स विजये णामं दारेपण्णत्ते? गोयमा ! पुक्खरदीवपुरच्छिमापंरेत पुक्खरोदं समुई पुरच्छिमद्धस्स पञ्चच्छिमेणं एत्थ णं पुक्खरवरदीवस्स विजये णामं दारे पण्णत्ते, तं चेव सव्वं, एवं चत्तारि वि दारा सीया सीयोदा णत्थि भाणियव्वा। (कहिण भंते इत्यादि) व भदन्त ! पुष्करवरद्वीपस्य विजय नाम द्वार प्रज्ञप्तम्? भगवानाह-गौतम ! पुष्करवरद्वीपपूर्वार्द्धपर्यन्ते पुष्करोदस्य समुद्रस्य पश्चिमदिशि अत्र पुष्करवरद्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं, तच्च जम्बूद्वीपविजयद्वारवदविशेषेण वक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करवरद्वीपे वक्तव्या। एवं वेजयन्ताऽऽदिद्वारसूत्राण्यपि भावनीयानि, सर्वत्र च राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करवरद्वीपे। जी० 3 प्रति० 4 अधि०। (पुष्करवरद्वाराणा परस्परमन्तरम् 'अंतर' शब्दे प्रथमभागे 73 पृष्ठे गतम्) संप्रति नामनिमित्तप्रतिपदनार्थमाहपदेसा दोण्हं विपुट्ठा जीवा दोसु वि भाणितव्वा / से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचति पुक्खरवरं 2? गोयमा ! पुक्खरवरेणं देवे तत्थ तत्थ देसे देसे तर्हि तर्हि बहवे पउमरुक्खा पउमवणसंडा णिचं कुसुमिता जीवा चिटुंति, पउममहापउमरुक्खेसु तत्थ पउमपोंडरीया णाम दुवे देवा महिड्डिया०जाव पलिओवमट्ठितीया परिवसंति, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुञ्चति पुक्खरवरदीवे०२ जाव णिचे। Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुक्खरवरदीव 965 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुक्खरवरदीव (से के हुणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते पुष्करवरद्वीपः पुष्करवरद्वीप इति? भगवानाह- गौतम ! पुष्करवरद्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्रतत्र प्रदेशे बहवः पद्मवृक्षाः पद्यानि अतिविशालतया वृक्षा इव पद्मवृक्षाः पाखण्डाः, पद्मवनानि, खण्डवनयोर्विशेषः प्राग्वत्। (निच कुसुमिया इत्यादि) विशेषणजातं प्रग्वत्। तथा पूर्वार्द्ध उत्तरकुरुषु। शः पद्मवृक्षः पश्चिमाझे उत्तरकुरुषु यो महापद्मवृक्षस्तयोस्त्रपुष्करवरद्वीपे यथाक्रम पद्मपुण्डरीको देवौ महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिको यथाक्रम पूर्वापराधिपती परिवसतः। तथा चोक्तम्- "पउमेय महापउमे, रुकना उत्तरकुरुसु जंबुसमा / एएसु वसंति सुरा, पउमे तह पुंडरीए य ||1||" पत्रं च पुष्करमिति पुष्फरवरोपलक्षितो द्वीपः पुष्करवरद्वीपः / "से एएणं' इत्यादुपसंहारवाक्यम्। संप्रति चन्द्राऽऽदित्यपरिमाणमाहपुक्खरवरेणं भंते ! दीवे केवइया चंदा पभासेंसु वा, केवइया पभासंति वा, केवइया पभासिस्संति वा, एवं पुच्छा? "चोयालं चंदसयं, चउयालं चेव सूरियाण सयं / पुक्खरवरम्मि दीवे, चरंति एते पभासेंता ||1|| चत्तारि सहस्साइं, वत्तीसं होंति चेव णक्खत्ता। छच सयावावत्तरमहग्गहा वारस सहस्सा / / 2 / / छण्णउइ सयसहस्सा, चत्तालीसं भवे सहस्साई। चत्तारिसया पुक्खवरे, तारागणकोडिकोडीणं / / 3 / / " सोभंसु वा, सोभंतिवा, सोभिस्संति वा। (पुक्खरवरेत्यादि) पाठसिद्धं, नवरम् नक्षत्राऽऽदिपरिमाणमष्टाविंशेत्यादि संख्यानि नक्षत्राऽऽदीनि चतुश्चत्वारिंशेन शतेन गुणयित्वा स्वयं परिभावनीयम् / उक्तं चैवंरूपं परिमाणमन्यत्राऽपि। "चोयाल चंदसयं, चोयाल चेव सूरियाण सयं। पुक्खरवरम्भि दीव, चरंति एए पगासंति।।१।। चत्तारि सहस्साई. छत्तीसं चेव होंति नक्खत्ता। छचसया बावत्तर, महागहा वारस सहस्सा सा छन्नउइसयसहस्सा, चोयालस भवे सहस्साई। चत्तारि वा सयाई, तारागणकोडीकोडीणं / / 3 / / " इति। संप्रति मनुष्यक्षेत्रसीमाकारिमानुषोत्तर पर्वतवक्तव्यतामाहपुक्खरवरदीवस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं माणुसुत्तरनाम पव्वत्ते पण्णत्ते वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते जेणेव पुक्खरवरं दीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठति अभिंतर पुक्खरवरद्धं च बाहिरपुक्खरवरद्धं च। (पुक्खरवरदीवस्स णमित्यादि) पुष्करवरस्य, णमिति वाक्यालंकारे द्वीपस्य बहुमध्यदेशभागे मानुषोत्तरनामा पर्वतः प्रज्ञप्तः स च वृत्तो वृत्तं च मध्यपूर्णमपि भवति, यथा-कौमुदी शशाङ्कमण्ट्रलं ततस्तदूपताव्यवच्छे दार्थमाह - बलयाऽऽकारसंस्थानसस्थितो यः पुष्करवर द्वीपं द्विधा सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च विभजमानो विभजमानस्तिष्ठति, केनोल्लेखेन द्विधा विभजमानस्तिष्ठतीत्यत आह। तद्यथा-अभ्यन्तरपुष्करार्द्ध च, बाह्यपुष्कराद्ध च। चशब्दी समुच्चये / किमुक्तं भवति? मानुषोत्तरपर्वतादर्वाक् यत् पुष्करार्द्ध तत् अभ्यन्तरपुष्करार्द्ध तत् पुनस्तस्मान्मानुषोत्तरात् पर्वतात् परतः पुष्करार्द्ध तत् बाह्यषुष्करार्द्धमिति। अभिंतरपुक्खरद्धणं भंते ! केवतियं चक्कवालेणं केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता? गोयमा! अट्ठजोयणसहस्सा ति चक्कवालविक्खंभेणं कोडी वायालीसा तीस दोण्ह वि सया अगुणपण्णा पुक्खरमद्धपरिरओ उ, एवं से मणुस्सस्स णं खेत्तस्स। (अभितरपुक्खरद्धेणमित्यादि) प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह-गौतम ! अष्टौ योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्भेण एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशत् शतसहस्राणि त्रिंशत् सहस्राणि द्वे योजनशते एकोनपञ्चाशे कि चिद्विशेषाधिके परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः / सेकेणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चति-अभितरपुक्खरद्धे अभिंतरपुक्खरद्धे गोयमा ! अभिंतरपुक्खरद्धेणं माणु-सुत्तरेणं पव्वतेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते / से केणटेणं? गोयमा! अन्भिंतरपुक्खरं अदुत्तरं च णं० जाव णिच्चे। (से केणवणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- अभ्यन्तरपुष्करार्द्धमभ्यन्तरपुष्करा मिति? भगवानाह- गौतम / अभ्यन्तरपुष्करार्द्धमानुपोत्तरेण पर्वर्तन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् ? ततो मानुषोत्तरपर्वताभ्यन्तरे वर्तनादभ्यन्तरपुष्कराद्धम्। तथा चाऽऽह- (से एएणमित्यादि) गतम्। अभिंतरपुक्खरद्धेणं भंते ! केवतिया चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा सा एवं पुच्छा० जाव तारागणकोडिकोडीओ? गोयमा! "वावत्तरं च चंदा, वावत्तरिमेव दिणयरा दित्ता! पुक्खरवरदीवड्डे, चरंति एते पभासें ता / / 1 / / तिण्णि सता छत्तीसा, छच्च सहस्सा महम्गहाणं तु! णक्खत्ताणं तु भवे, सोलाई दुवे सहस्साइं॥२॥ अडयालसयसहस्सा, बावीसं खलु भवे सहस्साइं। दो य सयपुक्खरद्धे, तारागणकोडिकोडीणं / / 3 / / " सो सुवा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा। (अभितरपुक्खर ण भते! कइचंदा पभासिंसु इत्यादि) चन्द्राऽऽदिपरिमाणसूत्रं पाठसिद्ध, नवरं नक्षत्राऽऽदिपरिमाणमष्टाविंशत्यादीनि नक्षत्राणि द्वासप्तत्या गुणयित्वा परिभावनीयम्। उक्तं चैवंरूपं परिमाणमन्यत्राऽऽपि"वावतरि च चंदा, वावत्तरिमेव दिणयरा दित्ता। पुक्खरवरदीवड्डे, चरंति एएपगासंता॥१॥ तिण्णि सया छतीसा, छच सहस्सा महागहाणं तु। Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुक्खरवरदीव 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुक्खरिणी नक्खत्ताणं तु भवे, सोलाणि दुवे सहस्राणि / / 2 / / अडयालसयसहस्सा, वावीस व तह सहस्साई। दो य सयपुक्खर, तारागणकोडिकोडीणं / / 3 / / इह सर्वत्र तारापरिमाणचिन्तायां कोटीकोट्य, कोट्य एव द्रष्टव्याः / तथा पूर्वसूरिव्याख्यातादपरै उच्छ्याइगुप्रमाणमनुमृत्य कोटी: कोटीरेय समर्थयन्ते। उक्तं च- "कोडाकोडीसत्तं तरं तु मन्नंति केइ थोवतया। अन्ने उस्सेहंगुलमाणं काऊण ताराण // 1 // ' इति / जी०३ प्रति० / सू०प्र० / स्था०। पुष्करार्द्धद्वीपे भरतक्षेत्रवत् कालः / स्था० 3 टा०१ उ०। "जम्बूदीवे पुक्खरवरदीवड्डपुरविच्छमद्धे पचच्छिमद्धेतओ तित्थामागहे. वरदामे, पभासे।" स्था०३ ठा०१ उ० पुष्करवरद्वीपार्द्धपश्चिमार्द्ध तिस्रोऽन्तनद्यः- ऊर्मिमालिनी, फेनमालिनी, गम्भीरमालिनी। स्था०३ ठा० 4 उ०। पुक्खरवरदीवड्डन०(पुष्करवरद्वीपार्द्ध) पुष्कराणि पद्मानितैर्वरः पुष्करवरः, स चासो द्वीपश्च पुष्करवरद्वीपस्तृतीयो द्वीपस्तस्यार्द्धः। मानुपोत्तरादचलादम्भिागवर्तिपुष्करचरद्वीपखण्डे, ध०२ अधिगद्वी०। स्था० / लानं० अनु०॥ सू०प्र० / आव० / पुक्खरवरदीवद्धपुरच्छिमद्धेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला० जाव भरहे चेव एरवए चेव० जाव दो कुराओ पण्णत्ताओ-देक्कुरा चेव, उत्तरकुरा चेव / तत्थ णं दो महतिमहालया महादुमा पण्णत्ता। तं जहा-कूडसामली चेव, पउमरुक्खे चेव / देवा गुरुले चेव, वेणुदेवे पउमे चेव० जाव छविहं पि कालं पचणुभवमाणा विहरंति / पुक्खरवरदीवद्धपचत्थिमद्धेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं दो वासा पण्णत्ता / तं जहा- तहेव णाणत्तं कूडसामली चेव, महापउमरुक्खे चेव, देवा गरुले चेव वेणुदेवे, पुंडरीए चेव / पुक्खवरदीवड्डे णं दो भरहाइं दो एरवयाइं० जाव दो मंदरा दो मंदरचूलिकाओ / पुक्खरवरस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता, सव्वेसिं पिणं दीवसमुदाणं वेइयाओ दो गाउयाइं उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ताओ। व्याख्या सुकरा। स्था० 2 ठा०३ उका पुक्खसंवट्टग पुं०(पुष्करसंवर्तक) स्वनामख्याते महामेधे, अनु०। (अस्य वक्तव्यता ‘परमाणु' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 540 पृष्ठे गता) पुक्खरावत्त पुं०(पुष्करावर्त) जम्बूद्वीपप्रमाणे स्वनामख्याते महामेघे, नंगा विशे० पुक्खरिणी स्वी०(पुष्करिणी) पुष्कराणि विद्यन्ते यत्र सा पुष्करिणी, राधा जी०। वृत्ताऽऽकारायां वाप्याम्, जी०३ प्रति० 4 अधिका व्य०। प्रज्ञा नि०चूला पुष्करवति, ज्ञा०१ श्रु०१ अाकर्दमप्रचुरजले, स्था०४ ठा० 3 उ०। सूत्र०। जंग पुष्करिणीवर्णकःअथ पुष्करिणीसूत्रं यथा- "तत्थ णं वणसंडरस तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहुईओ खुड्डा खुड्डियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ दीहियाओ / गुंजालियाओ सराओ सरपंतीओ सरसरपंतीओ विलपंतीओ अच्छाओ सण्हाओ रययामयकूलाओ समतीराओ वयरामयपासाओ तवणिजतलाओ सुवण्णसुध्भरययवालुयाओ वेरुलियमणिफालियपडलपचोअडाओ सुउया सुहोत्ताराओ णाणामणितित्थसुबद्धाओ चाउकोणाओ अणुपुटवसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तफुल्लकेसरोवचियाओ छप्पय परिभुजमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुण्णाओ परिहत्थभमंतमच्छकच्छभयणेगसउणिमिथुणियविअरिया पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ताओं पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ अप्पेगइयाओ आसवोदगाओ अप्पेगइयाओ वारुणोदगाओ अप्पेगइयाओ घओदआओ अप्पेगइयाओ खोदोदगाओ अप्पेगइयाओ अमयरसरसोदगाओ अप्पेगइयाओ उदगरसण पण्णत्ताओ पासादीयाओ / / 4 / / अत्र व्याख्या- (तस्सेत्यादि) प्राग्वत्, बढ्यः क्षुद्राः अखातसरस्येता एव लध्व्यः क्षुलिका वाप्यश्चतुरस्राऽऽकाराः पुष्करिण्यो वृत्ताऽऽकाराः दीर्घिका सारण्यः ता एव वक्रा गुञ्जालिका बहूनि केवलानि पुष्पावकीर्णकानि सरांसि. सूत्रे स्वीत्यं प्राकृत्वात्, बहूनि सरांसि एकपड्व तथा व्यवस्थितानि सरः षक्तिः ता वृझ्या सरपक्तयः। तथा येषु सरस्सु पडक्त्या व्यवस्थितेषु एकस्मात्सरसोऽन्यत् तस्मादन्यत्रैव संचारकपाटकेनोदक संचरति, सासरःसरःपड्क्तिस्ता बयः सरः सरःपक्तयः विलानीव विलानि कूपास्तेषां पड्क्तयो बिलपक्तयः / एताश्च सर्वा अपि कथंभूता इत्याह-अच्छाः स्फटिकबद्धहिमनिर्मलप्रदेशाः, लक्ष्णाः लक्ष्णपुद्गलनिष्पादितबहिःप्रदेशाः रजतमयं रुप्यमयं कूलं यासा ताः, तथा समं न गर्ता सदावतो विषमं तीर तीरवत्ति जलापूरितं स्थानं यासां ता समतीराः, तथा वज़मयाः पाषाणाः यासा तास्तया, तथा तपनीय हेमविशेषस्तन्मयं तवं यासा तास्तथा। तथा (सुवण्णसुब्भरययवालुयाओ इति) सुवर्णं पीतहेम शुभं रूप्यविशेषः रजतं प्रतीतं तन्मयो वालुका यासु ताः सुवर्णशुभ्ररजतवालुकाः। तथा (वेशालयमणिफलि हपडलपचोयडाओ इति) वैडूर्यमणिमयानि स्फाटिकपटलमयानि स्फाटिकरत्नसंबन्धिपटलमधानि प्रत्यन्ततटानितटसमीपवर्त्य भ्युन्नतप्रदेशा यासा तास्तथा। तथा-सुखेनावतारो जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः स्ववतारास्तथा सुखेनोत्तारो जलाद बहिर्विनिर्गमनं यासुताः सुखोत्तराः / ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः। तथा नानामणिभिः सुबद्धानि तीर्थानि यासा तास्तथा। अथ बहुव्रीहावपि क्तान्तस्य परनिपातो भार्याऽऽदिदर्शनात, प्राकृतशैलीवशाद्वा / (चाउ-कोणाआ इति) चत्वारः कोणा यासांताः तथा दीर्घत्वं च "अतः समृद्ध्यादौ वा" |8/1/44 / इति सूत्रेण प्राकृतलक्षणवशात् / एतच विशेषणं वापीकूपांश्च प्रति द्रष्टव्यम्। तेषामेव चतुःकोणत्वसंभवात न शेषाणां आनुपूर्येण क्रमेण नीचैः नीरत्तरभावरूपेण सुष्ठ अतिशयेन यो जातो वप्रः केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरमलब्धस्ताघंशीतल जलं यासुता:- आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजलास्तथा / तथा संछन्नानि जलेनान्तरितानि पत्रविशमृणालानि यासुताः तथा। इह विशमृणालसाहचर्यात् पत्राणि पदिानीपत्राणि द्रष्टव्या Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुक्खरिणी 667 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुक्खरोद नि, विशानि कन्दाः, मृणालानि पद्मजालानि, तथा बहूनामुत्पलकुमुदनलिनसुनगरगैगन्धिकपुण्डरीकमहापौण्डरीकशतपवसहस्रपत्राणां फुल्लाना विकस्वराणां केशरैः किंजल्कैः उपचिता भृताः, विशेषणव्ययस्थितया निपातः प्राकृतत्वात्। तथा षट्पदैः भ्रमरैः परिभुज्यमाननि कमलानि उपलक्षणमेतत कुमुदाऽऽदीनि यासु ताः तथा, अच्छेन स्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धेन निर्मलनाऽऽगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पुणः तथा 'पडिहत्था' अतिरेकिता अतिप्रभूता इत्यर्थः / देशीशब्दोऽयं पिडिहत्थ सुठुमायं, अइरेगइयं च जाण आऊणं / '' इति वधनात् / उदाहरणं थाऽत्र- "घणपडिहत्थं गयणं, सराइँ नवसलिलसुटलमाथाई। अहिरेइयं मह उण, चिंताए मणं तुहं विरहे / / 1 / / " इति। भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा: यत्र ताः "पडिहत्थ" भ्रमन्मत्स्यकच्छपाः अनेकः शकुनिमिथुनकः प्रविचरिता इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ताः, नाम: पूर्वपदेन विशेषणसमासः एता वाप्यादयः सरस्सरःपतिपर्यवसानाः प्रत्येक प्रत्येकम इति एकम् एकं प्रति प्रत्येकमत्राभिमुख्य प्रतिशब्दो, न वीप्राविवक्षायां पश्चात्प्रत्येकशब्दस्य द्विवचनमिति पद्मवरवेदिकायाः परिक्षिप्ताः प्रत्येक प्रत्यक वनखण्डपरिक्षिप्ताश्च, अपिढिार्थे वाढमेककः काश्चन वाप्यादय आसवमिव चन्द्रहासाऽऽदिपरमासवमिव उदकं यासां ताः तथा अन्येकिकाः वारुणस्येव वारुणसमद्ररयेव उदकं यासांता अप्येकिकाः क्षीरमिवादक यासांता अप्येकिकाः घृतमिवोदकं यासांता अप्येकिकाः क्षोद इव इक्षुरस इवोदकं यासांता अप्येकिका अमृतरससमरसम् उदकं यासां ता अमृतरससमरसरसोदका अप्येकिका उदकेन स्वाभाविकेन प्रज्ञप्ताः, (पासाईया) इत्यादि प्राग्वत् / जं० 1 वक्षः। अनु० / वृत्ते वा जलाऽऽशयविशेषे, भ०५ श०७ उ०। प्रव०ा औ०। ज०। विपा०। (अञ्जनपर्वतगाः पुष्करिण्यः 'अंजनग' शब्दे प्रथमभागे 48 पृष्ठे दर्शिताः) "पुवखरिणी दीहिआ सरसी।" पाइ० ना० 130 गाथा। पुक्खरिणीपलास पुं०(पुष्करिणीपलाश) पद्मिनीपत्रे, उत्त० 32 अ०। पुक्खरोद पुर(पुष्करीद) पुष्करवरद्वीपस्य परितः समुद्रे, चं० प्र०१६ पाहु०। स्था० / सू०प्र० / अनु० / स्था०/ सम्प्रति विष्कम्भादिप्रतिपादनार्थमाहपुक्खरवरे णं दीवे पुक्खरोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणे०जाव संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति / पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चकवालविक्कं भेणं केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! संखेजातिं जोयणसयसहस्सातिं चक्कवालविक्खंभेणं संखेन्जाइंजोयणसय-सहस्सातिं परिक्खेवेणं पण्णत्ते / पुक्खरोदस्सणं भंते ! समुदस्स कति दारा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तहेव सव्वं पुक्खरोदसमुद्दपुरिच्छिमापरंते वरुणवरदीवपुरच्छिमद्धस्स पच्छिमेणं एत्थ णं पुक्खरोदस्स विजये नाम दारे पण्णत्ते / एवं सेसाण वि दारंतरम्मि संखेजाई जोयणसयसहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते, पदेसा जीवा य तहेव। (पुक्खरांदे णमित्यादि) पुष्करोदो भदन्त ! समुद्रः कियत् वक्रवाल विष्कम्भेण कियत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः? भगवानाह- गौतम ! संख्येयानि योजनशतसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः / (से णमित्यादि) सृ पुष्करोदः समुद्र एकया पद्मवरवेदिकया सामर्थ्यादष्टयोजनोच्छ्रयया जगत्युपरि भाविन्या एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः। (पुक्खरोदरस ण मंते ! इत्यादि) पुष्क-रोदस्य भदन्त ! समुद्रस्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि? भगवानाह- गौतम ! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि / तद्यथा विजय, वैजयन्त, जयन्तमपराजितम् / क्व भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्य विजयं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह- गौतम ! पुष्करोदसमुद्रस्य पूर्वार्द्धपर्यन्ते अरुणवरद्वीपपूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि अत्र पुष्करोदसमुद्रस्य विजयं नाम द्वार प्रज्ञप्तम, तच्च जम्बूद्वीपविजयद्वारवद्वक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करोदे समुद्रे (कहि णमित्यादि) क्व भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम्? भगवानाह-गौतम ! पुष्करोदसमुदस्य दक्षिणपर्यन्ते अरुणवरप्रदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तं तदपि जम्बूद्वीपगतवैजयन्तद्वारवदविशेषण वक्तव्यं, नवरं राजधानी अन्यस्मिन् पुष्करोदे समुद्रे (कहिं ण मित्यादि) क्व भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारम? भगवानाह- गौतम ! पुष्करोदसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्ते अरुणवरद्वीपपश्चिमार्द्धस्य पूर्वतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्त, तदपि जम्बूद्वीपगतजयन्तद्वारवत, नवरं राजधानी अन्यरिगन् पुष्करोदसमुद्रे, (कहि णमित्यादि) व भदन्त ! पुष्करोदसमुद्रस्याऽपराजितं नाम द्वार प्रज्ञप्तम्? भगवानाहगौतम ! पुष्करोदसमुद्रस्योत्तरपर्यन्ते अरुणद्वीपस्योत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र पुष्करोदसमुद्रस्य अपराजिते नामद्वारं प्रज्ञप्तम्। एतदपि जम्बूद्वीपगतापराजितद्वारवद्वक्तव्यम्, नवरं राजधान्यस्मिन् पुष्करोदसमुद्रे, (पुक्खरोदस्स णमित्यादि) पुष्करोदस्य भदन्त ! समुद्रस्ये द्वारस्य परस्परमेतत कियत्या अबाधया अन्तरत्वाद्व्याघातरूपया प्रज्ञप्तम्?। भगबानाह- गौतम! संख्येयानियोजनशतसहस्राणि द्वारस्य परस्परमवाधया अनन्तरं प्रज्ञप्तम् / (एए सेत्यादि) प्रदेशजीवोपपातसूत्रचतुष्टयं तथैव पूर्ववत्। तचैवम्- "पुक्खरोयस्स णं भंते! समुदस्स पएसा अरुणवरं दीव पुट्ठा? हंता ! पुट्ठा / तेणं भंते ! पुक्खरोदसमुद्दे अरुणवरदीवे ? गोयमा ! पुक्खरोए णं समुद्दे नो अरुणवरे दीवे / अरुणवरस्सगं भंते ! दीवस्स पएसा पुक्खरोदे णं समुदं पुट्ठा? हंता पुडा / तेणं भंते ! किं अरुणवरे दीवे पुक्खरोए समुद्दे? गोयमा ! अरुणवरे णं दीवे नो खलु ते पुक्खरांए समुद्दे। पुक्खरोदे ण भंते ! समुद्दे जीवा उद्दाइत्ता अरुणवरे दीवे पव्वायंति? गोयमा ! अत्थेगझ्या पव्वायंति अरथेगइया नो पव्वायंति। अरुणवरे णं भंते ! दीवे जीवा उद्दाइत्ता पुक्खरोदे समुद्दे पव्वायंति? गोयगा ! अत्थेगइया पव्वायंति अत्थेमइया नोपव्वायति।" अस्य व्यख्या प्राग्वत्। संप्रति नामनिमित्तं पिपृच्छिषुराहसे के णटे णं भंते ! एवं बुचति-पुक्खरोदे समुद्दे 2? गोयमा ! पुक्खरोदस्स णं समुदस्स उदगे अच्छे पिच्छे जचे तणुए फलितवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं सिरिहर सिप्पभा य, तत्थ दो देवा महिड्डिया० जाव पलितोवमट्ठि Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुक्खरोद 668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुच्छणा तीया परिवसंति, से तेणद्वेणं० जाव णिच्चे / पुक्खरोदेणं भंते ! पंकावईए पुरच्छिमेणं एकसेलस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चच्छिमेणं समुद्दे केवतिया चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति एत्थ णं पुक्खले णामं विजए पण्णत्ते, जहा-कच्छविजए तहा वा? गोयमा! संखेज्जा चंदा पभासेंसुवा, पभासति वा, पभासि- भाणियव्वं० जाव पुक्खले अइत्थ देवे पलिओवमट्ठिइए परिवस्संति वा० जाव तारागणकोडिकोडीओ सोमिंसु था, सोभंति सइ से एएणतुणं। वा, सोमिस्संति वा। (कहिणमित्यादि) सर्व स्पष्ट नवरं पुष्कलावतः रसमो विजयः, स एव (से केणखूणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यते-पुष्करोदः / चक्रवर्त्तिविजेतव्यत्वेन चक्रवर्तिविजय इत्युच्यते / ज० 4 वक्ष०। समुद्रः पुष्करोदः समुद्र इति? भगवानाह- गौतम! पुष्करोदस्य णमिति | पुक्खलि पुं०(पुष्कलिन) शखश्रमणोपासके, स्था०६ ठा०(वृत्तम् पूर्ववत्, समुद्रस्य उदकमच्छम् अनाविलं पथ्यं न रोगहेतुजात्यं न _ 'संख' शब्दे वक्ष्यामि)। विजातिमत् तनु लघुपरिमाणं स्फटिकवर्णाऽऽभ स्फटिकरत्नच्छाय पुग्गल पुं०(पुद्गल) पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः / दशः 1 अ०। समस्तप्रकृत्या उदकरस प्रज्ञप्तम्। श्रीधर-श्रीप्रभी चात्र पुष्करोदे समुद्रे द्वौ देवी पुद्गलास्तिकायं गतेषु परमाणुषु, प्रव० 256 द्वार। पुद्गलास्तिकाये च / महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवसतः, ततस्ताभ्यां सपरिवा उत्त०२८ अ०। अमांसे, "बहु अट्ठिय अणिमिसं बहुकटयं / ' दश०५ राभ्यां गमनमिव चन्द्राऽऽदित्याभ्यां ग्रहनक्षत्राऽऽदि परिवारोपेताभ्यां अ०१उ० तदुदकमवभासते इति पुष्करभिव उदकं यस्यासी पुष्करोदः / तथा | पुग्गललहुया स्त्री०(पद्ललघुता) शरीरपुद्गला-जाङा पगमे, व्य०१ 30! चाऽऽह- (से एएण?णमित्यादि) उपसंहारवाक्यम् / (पुक्खरोएणं भंते ! | पुग्गलवग्गणा स्त्री पदलवर्गणा) पुदगलसमुदायविशेषे, क० प्र०१ समुद्दे कइ चंदा पभासिसुवा इत्यादि ) पाटसिद्धम्। सर्वत्र संख्येयतया प्रक०। ('वग्गणः" शब्दे चेषा उपपादयिष्यते) निर्वचनभावात् / जी० 3 प्रति०। पुग्गलविवागिणी स्त्री०(पुद्गलविपाकिनी) पुद्गलेषुशरीरतया परिणतेषु पुक्खल त्रि०(पुष्कल) सम्पूर्णे, ध०२ अधि० / आव०। सूत्र० प्रचुरे, परमाणुषु विपाक उदयो यासां ताः पुद्गलविपाकिन्यः। शरीरपुद्गलेष्येसूत्र०२ श्रु० 1 अ० आव०। समधिके, आ० चू०५ अ०। औषधिनाम वाऽऽत्मीयां शक्तिदर्शिकासु कर्मप्रकृतिषु, कर्म०५ कर्म०। (ताश्च 'कम्म' नगरीप्रतिबद्धविजयक्षेत्रयुगले, "दो पुक्खला" स्था० 2 ठा० 3 उ०। शब्दे तृतीयभागे 267 पृष्ठे दर्शिताः।) पुक्खलसंवट्टय पुं०(पुष्कलसंवर्तक) स्वनामख्यात महामेघे, रथा० 4 पुच्छ धा०(प्रच्छ) ज्ञीप्सायाम्, "प्रच्छेः पुच्छः / 81467 / इति ठा० 4 उ०। ति०। प्रच्छधातोः पुच्छाऽऽदेशः / पुच्छइ। पृच्छति। प्रा० 4 पाद। पुक्खलावई स्त्री०(पुष्कलावती) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे सीताया महानद्या पुच्छण न० (प्रच्छन) पृच्छायाम, प्रोक्षणे च / निर्लेपीकरणे, नि०चू० 4 उत्तरे (स्था०८ ठा०) "दो पुक्खलावई।' तयोः, स्था० 2 टा०३ उ०। (उचारप्रश्रवणं कृत्वा गुदं यो भिक्षुर्न प्रोञ्छतेतस्य प्रायश्चित्तं 'थंडिल' उ०। उत्ता दर्श०। आ० म०। कल्प०। पुण्डरीकिणीनगरीप्रतिबद्धे शब्दे चतुर्थभागे 2380 पृष्ठे उक्तम्) विजयक्षेत्रयुगले, दो पुक्खलावई स्था०२टा०३ उ०। ज्ञान पुच्छणकप्प पुं०(प्रच्छनकल्प) पृच्छासामाचार्याम्, पं०भा०। कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं चक्कवट्टिविजए पुच्छणकप्पो अहुणा, जाई पुच्छेज्ज संकियादितु। पण्णत्ते? गोअमा ! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीआए उत्तरेणं ताहिं भण्णति इणमो, अहक्कम आणुपुव्वीए।। उत्तरिल्लस्स सीआमुहवणस्स पच्चच्छिमेणं एगसेलस्स पुरच्छि- पदमक्खरमुद्देस, संधी सुत्तत्थ तदुभयं चेव / मेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजए पण्णत्ते, घोसनिकाइतईहितसुविमग्गितहेतुसब्भावं / / उत्तरदाहिणायए एवं जहा कच्छविजयस्स० जाव पुक्खलावई पदमादी जा घोसा, वुत्तत्था होंति एते सव्वे वि। अ इत्थ देवे परिवसइ, एएणतुणं / हिणियम्मि णिकाएउं, पुच्छति तु णिकाईयं / / पुष्कलावतः पुष्कलावती चक्रवर्तिविजयोऽपि बाध्यः / ज० 4 वा० / पुव्वावरेण ईहित, एयमए एव होति ण व होति। पुक्खलावईकूड न०(पुष्कलावतीकूट) महाधिदेहे वर्षे एक-शलपर्वतस्य हेतूहिं कारणेहिं, तेसुवि मग्गिय एव तु मए त्ति / / चतुर्थकूटे, जं० 4 वक्ष। सम्भावो अत्थो खलु, संदिद्धाई तु पुच्छते ताई। पुक्खलावत्तकूड न०(पुष्कलावतकूट) महाविदहवर्षगैकशेलपर्वतस्य एयाई चिय कमसो, परियट्टे चेव अणुपेहे / / तृतीये कूटे, जं०४ वक्ष। पं०भा० 1 कल्प! पं०५०। पुक्खलावत्तविजय पुं०(पुष्कलावर्तविजय) महाविदेहमध्यगसप्तम - पुच्छणा स्त्री०(प्रच्छना) विशोधित सूपस्य मा मृदविस्मरगमिति गुरोः चक्रवर्तिविजये, ज०। प्रश्नरूपे स्वाध्यायभेदे, प्रव०६द्वार। आ० / दश स्था० / उनका अनु० / कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावत्ते णामं विजए 50 मुझसन्निधाविति प्रच्छनाविधिस्त्येवमशरीराऽऽदिवार्ता प्रश्ने, निकम पण्णत्ते? गोअमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं सीआए उत्तरेणं "आसाणगओन पुच्छिला, णव सिजागआकयाइ वि। आगभुकडओ संतो, Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुच्छणा 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुच्छिता पंजलिउड़ो // 1 // " ध०३अधि०। ध०र० / कालिकश्रुतस्य ३माभ्यः परं पृच्छति। (33 गाथा 'कालियसुय' शब्दे तृतीयभागे 466 पृष्ठे गता) अपुणरुत्तं जावतिओ कड्डिओ पुच्छति सा एगा पुच्छा। एन्ध चउभंगा / एक्काणिसेज्जा एक्का पुच्छा पच्छा सुद्धो, एका णिसेजा, अणेगाओ पुच्छाओ, एत्थ तिण्हं सुत्तण्हं वा परेण चउलहुगा, अणेगा गिसिञ्जा एगा पुच्छा विसुद्धो, अणेगा णिसिज्जा अणेगा पुच्छा, तिण्ह सनह बा परेण पुच्छंतस्स चउलहुगा। अहवा तिणि सिलोगो, ततिसुणवकालिए तरेतिगा सत्त। जत्थ य एग य समती, जावतियं वावि उग्गिण्हे / / 34 // लिहि सिलोगहिं एगपुच्छाहि णव सिलोगा भवंति। एवं कालियसुयस्स एगतर दिढे वाए सत्तसु पुच्छासु एगवीसं सिलोगा भवति / अहवा-जत्थ एग समप्पयति थोवं बहुं वा सा एगा पुच्छा। अहवा-जत्तिय आयरिएण तरइ उच्चारित घेत्तुं सा एगा पुच्छा। बितिया पगाढ सागा-रियादि कालगत असति वोच्छेदे। एते हि कारणेहिं, तिण्ह समण्हं तहऽवरेण ||35|| पंट्या पूर्ववत् / कम्हा दिट्टिवाए सत्त पुच्छाओ? अतो भण्णतिनयवादसुहूमयाए, गणिभंगसुहुमे णिमित्ते य। मंथस्सय बाहुल्ला, सत्त कया दिहिवादम्मि॥३६|| णेगमाऽऽदि सत्त णया एकेक्को तेसु तिविधो, तेहिं सभेदा जाव दव्वपरूवणा दिट्ठिवाए कज्जति सा णयवादसुहुमया भण्णति, तह परिकम्मसु गणियसुहुमया, तहा परिमाणमादीसु वाणगंधरसफासेसु एगगुणकालगादिपज्जवभंगसुहुमता, तहा अगमादि णिमित्तं बहुवित्थरत्तणतो दिष्टिवायगंथस्स य बहु अत्तणतो सत्त पुच्छाओ कंठाओ। सूत्रम्जे भिक्खू चउसु महामहेसुसज्झायं करेइ, करंतं वा साइजइ। | तं जहा-इंदमहे १खंदमहे रजक्खमहे ३भूतमहे 4 ||1111 रंधणपथणखाणपाणनृत्यदेवगेयप्रमोदे च महता महा महा तेसु जो सज्झायं करेइ तस्स चउलहुँ। सूत्रम्जे भिक्खू चउसु महापाडिवएसु संज्झायं करेइ, करंतं वा साइज्जइ / / तं जहा-सुगिम्हिया पाडिवए 1, आसाढा पाडिवए २,आसोयपाडिवए ३कत्तियपाडिवए 4||12|| तेसिं चेव महामहाणं। चउसुं चउ पाडिवए, तहेव तेसिं महामहासुं च / जे कुजा सज्झायं, सो पावति आणमादीणि // 37 // जे चउरोपाडिवयदिवसा एतेसु विकरेंतस्स चउलहुँ। चउसुगाहा कंठ्या। क पुण ते महामहा उच्यन्तेआसाढी इंदमहो, कत्तियसुं गिम्हओ य बोधव्वा / एते महामहा खलु, एतेसिं जाव पाडिवया।।३।। आसाढी आसाढपोणिमाए, इद लाडेस् सावणपोण्णिमाए भवति इंदगहो, आसोयपुषिणमाए कत्तियपुण्णिमाए चेव सुगिम्हाओ चेत्तपुण्णिमाए एते अंतदिवसा गहिआ आदितो पुण जत्थ वि स राजतो दिवसातो महामहो पवत्तति, ततो दिवसातो आरभ जाव अंतदिवसो ताव सज्झातो ण कायवा, एएसि चेव पुषिणमाणं अणंतरंजे बहुलपडिबया चउरो ते वि वनेयव्वा। पडिसिद्धकाले करेंतस्स इमे दोसा - अण्णतरपमादजुत्तं, छलेज पडिणी जये तं तु / अट्ठोदहि होती पुण, लभेन्ज जयणोपजुत्तम्मि / / 36 / / सरागसंजतो सरागत्तणतो इदियविसयादिअण्णयरे पमादजुत्तो हवेज, विसेसतो महामहेसुतं पनायजुत्त पडिणीयदेवया अप्पिट्टिया खित्तादिछलणं करेल, जयणजुत्तं पुण साहुजो अप्पिट्टितो देवो अट्ठोदधीउ ऊणड्डि ति सोण सक्कति छलेउ अट्ठसागरोवमट्टितोतो पुण जयणाजुत्तं पिछलेति, अस्थि सेसा मिच्छतं पि पुव्ववेरसंबंधसरणतो कोतिछलेज। चोदगाऽऽहा"वारसविहम्मि वितवे, सब्भितरवाहिरे कुसलदिहे। ण वि अस्थि, ण वि य होही, सज्झायसमो तबो कम्म।।१।।' किम्महेसुसंझासु वा पडिसिज्झति। आचार्याऽऽहकामंसू उवओगो, तवोवहाणं अणुत्तरं भणितं / पडिसेहितम्मि काले, तहा वि खलु कम्मबंधाय // 40 / / दि8 महेसु सज्झायस्स पडिसेहकरणं पाडिवएसु किं पडिसिज्झइ? उच्यतेबिइयदिवसेसु छण्णं, पाडिवएसुं वि छण्णा पसज्जंति। मेहेवाउलतणतो, अ सारिताणं च संमाणो / / 4 / / छण्णस्स उवसाहियं जं मजपाणादिगं तं सव्वं गोवभुत्तं तं पडिवयासु उवभुंजति अतो पड़िवयासु वि छण्णो अणुसज्जति, अण्णं च मेहदिणेसु वाउलत्तणतो जे य मित्ताऽऽदि सारिता ते पडिक्यासु संभारिजति त्ति छण्णो ण वट्टति, तेसु विते चेव दोसा, तम्हा तेसु वि णो करेजा। बितियागाढे सागा-रियादि कालगत असति वोच्छेदे। एतेहिं कारणेहिं, जयणाए कप्पती काउं॥४२।। कण्ठ्या पूर्ववत्। सूत्रम्जे मिक्खू चाउकालं सज्झायं ण करेइ, ण करतं वा साइज्जइ ||13|| जे मिक्खू पोरिसिं सज्झायं उवइणावेइ, उवाणावंतं वा साइजइ।।१४|| कालियसुत्तस्स चउ सज्झायकाला, ते य चतुपोरिसिणिप्फण्णा, ते उवातिणावेति त्ति, जो तेसु सज्झायं न करेइ, तस्स चउलहुं, आणादिणो य दोसा। गाहाअंतों अहोरत्तस्स उ, चउरो सज्झाय पोरिसीओ व। जे भिक्खू उवायणाती, सो पावति आणमदीणि // 43 / / अहो रत्तस्स अतो अन्भतरे, से सं कं ठं / नि०चू० 16 उ०॥ (44 गाथा- 'कालियसुय' शब्दे तृतीयभागे 500 पृष्ठे गता) Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुच्छणा 670- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुट्टिल आक्षेपे, यदि स च नाम न सर्वाजीवो नमस्कारस्तर्हि स किंस्वरूपो चेद् ब्रूयात्- 'येन परोक्ष' इति येन प्रत्यक्षेण नोपलभ्यत इत्यर्थः, स च जीवो नमस्कारः किं स्वरूपो वाऽनमस्कार इति पुच्छा? आ०म०१अ० वक्तव्यः-भद्र! तव 'कुविज्ञान' जीवास्तित्वनिषेधकध्वनिनिमित्तत्वेन विशे०। स्था०। तन्निषेधकं भवति परोक्षम्, अन्यप्रमातृणामिति गभ्यत, 'तरमा भवदुपुच्छणी स्त्री०(पुच्छनी) अविज्ञातस्य संदिग्धस्य चार्थस्य ज्ञानार्थ तदभि- पन्यस्तयुक्त्या नास्तीति कृत्वा निषेधते को नु? विवक्षाऽभावे विशिष्टयुक्तप्रेरणरूपाया भाषायाम्, भ०१० श० ३उ०। मार्गाऽऽदेः कथक्षित शब्दानुत्पत्तेः / इति गाथाऽर्थः / / दश०१०। (पृच्छा ऋषभकाले जाता सूत्रार्थयोर्वा प्रश्ने, स्था० ४ठा० १उ०प्रज्ञा०। संथा०। अवघाटिनीना- इति 'उसह' शब्दे तृतीयभागे 11 पृष्ठे गतम्) मुपरि निविडतराऽऽच्छादनहेतुश्लक्ष्णतरतृणविशेषस्थानीये, जी०। (मार्गे कथं पृच्छा कर्त्तव्येति विहार' शब्दे) "कत्थइ पुच्छइ सीसो, मूलटीकाकारः 'ओहाडनीहार' ग्रहणं महत्-क्षुल्लकं तु पुच्छनी इति / कहिं च पुच्छावयंति आयरिया? 1 सीसाणं तु हियट्टा, विउलतरागं तु जी०३प्रति०४अधिन पुच्छाए।।१।।'त्ति। अपृच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय तत्त्वमाख्येयमिति / पुच्छवाल पुं०(पुच्छबाल) लाडूलकेशे, तक। स्था०३ ठा०२०। पुच्छा स्त्री०(पृच्छा) प्रश्ने, दश० 110 / सामाचारीव्याख्यायाम, आ० म० पुच्छिय त्रि०( पृष्ट) शीप्सिते, दशा० १०अ०। 1 अ०। ('उसह' शब्दे ११पृष्ट विवेचितमेतत्) आहरणदोषभेदे, दशा पुच्छियट्ठ पुं०(पृष्टार्थ) पृष्टोऽर्थो येन सः साशयिकार्थप्रश्रकरणात् / दश० पुच्छाए कोणिओ खलु, निस्सावयणम्मि गोयमस्सामी। १अ० भ०ा परस्परतः कृतप्रश्रविषयीकृतार्थे , भ०११श०११३०ा औ०। नाहियवाइं पुच्छे, जीवत्थित्तं अणिच्छंतं // 78|| 'गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियहा।" दर्श० ३तत्त्व। पृच्छायां प्रश्न इत्यर्थः, 'कोणिकः श्रेणिकपुत्रः खलूदाहरणम् - "जहा | पुच्छेयव्य त्रि०(प्रष्टव्य) ज्ञीप्सितव्ये, कल्प० ३अधि०६क्षण। भ०। तेण सामी पुच्छिओचक्कवट्टिणो अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं पुज त्रि०(पूज्य) सर्वजनश्लष्ये, उत्त० १अ पूजयितुमर्हे, उत्त० १अ०। किच्चा कहिं उववजंति? सामिणा भणियं-अहे सत्तमीए चक्रवट्टिणो पशा० / पूज्यं च वस्तु द्विविधम्- जीवरूपं जिनादि, अजीवरूपं च उववजंति / ताहे भणइ-अहं कत्थ उववजिस्सामि? सामिणा भणियं प्रतिमाऽऽदि / विशे०। तुम छट्ठीपुढवीए। सो भणइ-अहं सत्तमीए किन उववजिस्सामि? सामिणा (णमोकार' शब्दे चतुर्थभागे 1848 पृष्ठे व्याख्यातम्) भणियं-सत्तमीए चक्रवट्टिणो उववजंति। ताहे सो भणइ-अहं किं न होमि पुज्जसत्थ पुं०(पूज्यशारत्र) पूज्यं सकलजनश्लाघाऽऽदिना पूजाऽर्ह चकवट्टी?, मम वि चउरासी दंतिसयसहस्साणि / सामिणा भणियंतव शास्त्रमस्येति पूज्यशास्त्रः / शास्त्रस्य विशेषेण पूजके विनीत। उत्त० रयणाणि निहीओ यणत्थिा ताहे सो कित्तिमाई रयणाई करिता ओवति. 10 // उमारद्धो, तिमिसगुहाए पविसि पवत्तो, भणिओ य किरिमालएण- | *पूज्यशास्तृक पुं० पूज्यः शास्ता गुरुरस्येतिपूज्यशास्तृकः पूज्यस्याबोलीणा चक्कवट्टिणो बारस वि, विणस्सिहिसि तुम, वारिजतो वि ण | ___ऽपि शास्तुर्विशेषेण पूजके। उत्त०१अ० ठाइ, पच्छा कयमालएण आहओ, मओय छट्टि पुढवि गओ, एय लोइय। *पूज्यशस्त त्रि० पूज्यश्वासौ शस्तश्व पूज्यशस्तः। सर्वत्र प्रशंसाऽऽस्पएवं लोगुत्तरे वि बहुस्सुआ आयरिया अट्ठाणि हेऊय पुच्छियव्या, पुच्छित्ता दत्वेन पूज्ये, शस्ते च। उत्त० 10 // य सक्कणिज्जाणि समायरियव्वाणि, असक्कणिज्जाणि परिहरियव्वाणि / पुञ न०(पुण्य) "न्यण्यज्ञाः " ||8/4/263 / / इति मागध्यां भणिय च-'पुच्छह पुच्छावेह य, पडियए साहवे चरणजुत्ते। मा मयलेववि- ण्यस्थाने जकाराऽऽक्रान्तत्रकारः / शुभकर्मणि, प्रा०४ पाद / लित्ता, पारत्तहियं ण जाणिहिह।।१।।" उदाहरणदेशता पुनरस्याभिहि- पुकम्म न०(पुण्यकर्मन्) "न्यण्योज" ||84305 / / इति तैकदेश एव प्रष्टुर्गहात् तेनैव चोपसंहारादिति। एवं तावचरणकरणानु- पैशाच्यां न्यण्योः स्थाने नो भवति। 'पुञ्चकम्मो।' शुभकर्मणि, प्रा०४ योगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छाद्वारम्। अधुनैतत्प्रतिबद्धां द्रव्यानुयोग- पाद। वक्तव्यतामपास्य गाथोपन्यासानुलोमतो निश्रावचनमभिधातुकाम पुआह न०(पुण्याह)"न्यण्योञ्जः" // 84305 / / इति पैशाच्या आह-निश्रावचनद्वारम् / दशा (तच्च ‘णिस्सावयण' शब्दे चतुर्थभागे ण्यस्थाने नः। प्रा० ४पाद। "न्यण्यज्ञञ्जांञः" ||841263|| 2146 पृष्ठे गतम्) अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्यास्यायते-तत्रेद इति मागध्या ण्यस्थाने द्विरुक्तो ञकारः / पुण्यतिथौ, प्रा० ४पाद। गाथादलम् - ('णाहियवाई' इत्यादि) नास्तिकवादिनं चावकिं पृच्छेज्जी पुट्टय वि०(पोट्टज) जठरोद्भवे, तं०। वास्तित्वमनिच्छन्तं सन्तमिति गाथाऽर्थः / किं पृच्छेत्? पुट्टिल पु०(पोट्टिल) स्वनामख्यातेअनगारे, स्था०६ठा०। पोटिलोऽनगारोकेणं ति नत्थि आया, जेण परोक्खे त्ति तव कुविन्नाणं। ऽनुत्तरोपपातिकाङ्गेऽधीती हस्तिनागपुरवासी भद्राभिधानसार्थवाहीतनयों होइ परोक्खं तम्हा, नत्थि त्ति निसेहए को णु? ||76 / / द्वात्रिंशद्भार्यात्यागी महावीरशिष्यो मासिक्या संलेखतया सर्वार्थसिद्धोपपन्नो 'केनेति' केन हेतुना? 'नास्त्यात्मा' न विद्यते जीव इति पृच्छेत् ? स | महाविदेहात्सितिगामी। अयं त्विह भरतक्षेत्रात्सिद्धिगामीति गदितस्त Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुट्टिल 971 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुडभेयण तोऽयमन्यः संभाव्यत इति / स्था० ८ठा०। प्रियमित्रप्रव्रज्यादायके आचार्य , आव० 10 // पुत्तो धणंजयस्सा, पुट्टिलपरिआइ कोडिसव्वट्ठे। नंदण छत्तग्गाए, पण (चउ) वीसाउं सयसहस्सा।।४४६11 पव्वज्ज पुट्टिले सयसहस्स सव्वत्थ मासभत्तेणं। पुप्फुत्तेर उववन्नो, तओ चुओ माहणकुलम्मि||८५०।। अक्षरार्थः स्पष्टः / भावार्थः कथातो ज्ञेयः - "ततोऽपरविदेहेषु, मुकापुर्या महीपतिः। धनजयस्य धारिण्याः, पत्न्याः कुक्षौ समीयिवान् / / 1|| चतुर्दशस्वप्नराजाऽऽख्यातचक्रधरर्द्धिकः। काल सा सुषुवे सून, सर्वसम्पूर्णलक्षणम् / / 2 / / प्रियमित्र इति नाम, पितृभ्यां तस्य निर्ममे। वर्तमानः शशीवाऽऽप, सकलत्वं द्विधाऽपि सः // 3 // निर्विणः कामभोगेभ्यः, पार्थिवोऽथ धनञ्जयः। प्रिय मेत्रं सुत राज्ये, स्थापयित्वाऽग्रही व्रतम् / / 4 / / मित्रवत्प्रियमित्रस्य, प्रतापैकमहोदधेः। चक्रप्रभृतिर नानि, क्रमादासंश्चतुर्दश।।५।। षट्खण्डविजये सोऽपि,प्राग्वदन्यान्यचक्रिवत्। कृतचक्राभिषक: सन्नीत्या राज्यमपालयत्॥६॥ अन्यदा पोसिलाऽऽचार्योपान्ते धर्म निशम्य सः। सुतं राज्ये निवेश्याऽथ, प्राब्राजीत्सर्वशत्रुजित्॥७।। वर्षकोटी तपस्तेपे, शुक्रे सर्वार्थयानके। पूर्वलक्षचतुरशीत्यायुम॒त्वा सुरोऽभवत्॥८|| च्युत्वेह भरत छत्रायां पुर्या जितशत्रुतः। भद्रादेव्यां स उत्पेदे,नन्दनो नन्दनाऽऽहयः।।६।। तंन्यस्यौद्यौवनं राज्ये, जितशत्रुर्नराधिपः। प्रावाजीन्नन्दनो राज्य, शशासेन्द्र इव क्षिती।।१०।। चतुर्विशत्यब्दलक्षी, जन्मतोऽतीत्य नन्दनः। पोट्टिलाऽऽचार्यपाद्येऽथ, संयम स प्रपन्नवान।।११।। मासोपवास्यब्दलक्ष, श्रामण्यं स प्रकर्षयन्। विशत्या स्थानकैः प्राग्व तीर्थकृत्कर्म निर्ममे // 12 // " आक०१० पुट्ठ त्रि०(पुष्ट) "ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदटे" ||8 / 2 / 34 / / इति ष्टस्य ट्ठः। प्रा०२पाद। उपचितमांसलतया पुष्टिभाजि, उत्त०७अाज्ञा०ा प्रदेशप्रक्षेपतः पोषिते, भ०१३श०६उ०। *स्पृष्ट त्रि०"उदृत्वादौ" ||8111131 / / इति ऋत उत्वम् / प्रा० १पाद / व्याप्ते, आ०म०१अ० प्रोञ्छिते, सृघृष्ट, बृ० 1302 प्रक०। आ०चू० भ०। सूत्र०ा छुप्ते, सूत्र०१श्रु० ३अ० 130 / स्था०। उत्त०। अभिद्रुते, उत्त०२अ० आश्लिष्टे, उत्त०२अ० स्पृश्यत इति स्पृष्टम् / तनौ रेणुवदालिङ्गितमात्रे, विशे०। (''पुढे सुणेइ सद, रूवे पुण पासए अपुट्टतु।" 'इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे 556 पृष्ठे व्याख्यातम्) कञ्चुकवच्छुप्ते,उत्त०३अ०। सूत्र०ा जीवप्रदेशैरात्मीकृते कर्मणि, विशे० भ० सकृत धनकुट्टितसूचीकलापवत् स्पर्शनां प्राप्ते कर्मणि, प्रज्ञा० 20 पद ५द्वार। पुट्ठपुव्व त्रि०(स्पृष्टपूर्व) आरब्धपूर्वे, आचा०१श्रु०६अ०३उ०। पुट्ठलामिय पुं०(पृष्टलाभिक)पृष्टस्यैव हे साधो ! कि ते दीयते इत्यादिप्रश्नितस्य यो लाभः स यस्यास्ति स तथा / औला तथा-विधभिक्षाभिगृहग्रहिले साधा, सूत्र० २श्रु०२०। पुट्ठवागरण न०(पृष्टव्याकरण) प्रश्नितानां सूत्रितानां सकृद् द्विर्वाऽभि धानरूपायां भाषायाम, पञ्चा० १५विव०। पुठ्ठसेणियापरिकम्म न०(पृष्टश्रेणिकापरिकर्मन्) दृष्टिवादस्यपरिकर्मभदे, स०१२ अङ्ग। पुट्ठापुट्ठ न०(स्पृष्टाऽस्पृष्ट) दृष्टिवादसूत्रभेदे, स०१२ अङ्ग। पुट्ठि स्त्री०(पुष्टि) उपचीयमानपुण्यतायाम्, षो०३विव०। चित्तस्य शुद्धस्य पुण्योपचये, ध०१अधि० / परितोषे, षो०४विव० जी०। पुण्योपचयकारणत्वात् त्रयोविंशगौणानुज्ञाया भेदे, प्रश्न०१संव० द्वार। *पृष्टि स्त्री०"स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" ||8|4:326 / / इति अत उः। प्रा० ४पाद / पृच्छायाम्, स्था० २ठा० 130 पुट्ठिम पुं०(पुष्टिमन्) वाणिजकग्राने भद्रायाः सार्थबाह्याः स्वनामख्याते पुत्रे, स च वीरान्तिके प्रव्रज्य संलेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपद्य ततश्च्युत्वा महाविदेहे वर्षे सेत्स्यतीशि अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीये तथा षष्टेऽध्ययने सूचितम्। अनु०॥ पुटिया स्त्री०(पृष्टिजा) पृष्टिः पृच्छा, ततो जाता पृष्टिजा / प्रश्नजनिते व्यापारे, स्था०२टा। *स्पृष्टिजा स्वी०। स्पृष्टिः स्पर्शन, ततो जाता स्पृष्टिजा। स्पर्श नजे क्रियाभेदे, स्था० २ठा०। पृष्ट प्रश्नः वस्तु वा तदस्तिकारणत्वेन यस्यां सा पृष्टिजा। प्रश्नजनिते क्रियाविशेषे, स्था० २ठा०। *स्पृष्टिका स्त्री०। स्पृष्टिः स्पर्शनं तदस्तिकारणत्वन यस्यां सा स्पृष्टिका। स्पर्शजे क्रियाविशेषे, स्था०२ठा०ा जीवाऽऽदीन रागाऽऽदिना पृच्छतः रम्पृशतो वा क्रियायाम, स्था०५ ठा०२उ०।"पुट्ठिया किरिया दुविहा पण्णत्ताजीवपुट्ठिया चेव, अजीवपुट्टिया चेव।" आव०४ अ०। "जीवपुडिया जीवाधिगारं पुच्छति / रागदोसेणं अजीवाधिगारं वा / अहवा पुहिय ति फरिसणकिरिया, सा वि जीवषु ढिया चेव अजीवपुडिया चेव।" आ०चू० 4 अ०। अहवा पुडिया फरिसणकिरिया, तत्थ जीवफरिराणकिरिया इत्थी पुरिसणपुंसर्ग वा फरिसति। संघडियं ति भणिय होइ। अजीवसु सुहणिमित्तं भियलोभादिवत्थुजाय मोत्तिगादि वा रत्नजाय फरिसति / आव०१०। पुड पु०(पुट) सम्बद्ध दलद्वये, स०३०सम०नि० चू०। कोष्ठपुटे, रा०| पुडइअ (देशी) पिण्डीकृतार्थे , देना०६वर्ग 54 गाथा। पुडग न०(पुटक) खल्लके, बृ०१३०३प्रक०। पुडपाग पुं०(पुटपाक) कुष्टिकानां कणिकाऽऽवेष्टितानामग्निना पचने, पाक विशेषनिष्पन्ने औषधविशेषे च। ज्ञा०१ श्रु०१३अ०। पुड भेयण न०(पुट भेदन) 'नाणा दिसाऽऽगयाण, भिजति पुडा उजत्थभंडणापुढभेयणंतग नानाप्रकाराभ्यो दिग्भ्य आगताना भाण्डानां कुड्कुमाऽऽदीनां // 1 // " Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुडभेयण 672 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवी पुटा पधविक्रयार्था भिद्यन्ते तत्पुटभेदनम्। क्रयाणकवाणिज्यप्रधान नगरे, बृ० 130 २प्रक०। नि०चूना पुडाइणी (देशी) नलिन्याम, देखना०६वर्ग 55 गाथा। पुडिंग (देशी) विन्दु-वदनयोः,दे०ना०६वर्ग 80 गाथा। पुढवादिघट्टणादि पुं०(पृथिव्यादिधट्टनादि) पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाणां संघट्टनपरितापापद्रावणेषु, पक्षा० 15 विव० पुढवी स्त्री०(पृथिवी)"उदृत्वादौ" ||1 / 131 // इति ऋत उत्वम् प्रा० १पाद। "पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक हरिद्राविभीतकेष्वत्" ||8/188|| इति मध्येकारस्थाऽकारः / प्रा०१ पाद / "निशीथपृथिव्योर्वा" / / 8 / 1 / 216 / / इति थस्य ढः। प्रा० १पाद। आधारकाठिन्यगुणे महाभूते, सूत्र० १श्रु० १अ० १उ० प्रज्ञा० / गा गन्धतन्मात्रात्पृथिवीगन्धरसरूपस्पर्शशब्दवती। सूत्र० १श्रु०१ अ०१ उ०। मृत्तिकायाम्, भ० १५शा सूत्र०। भुवि, स्था०३ठा०४०। नरकपृथिव्यःरायगिहे०जाव एवं वयासी-कइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-रयणप्पभा०जाव अहे सत्तमा। भ०१३श०१उ०। अष्टमस्थाने, 'ईसिप्पभारा पुढवी'' इत्यधिकमष्टमा। स्था० १०टा०। (एता नरकपृथिव्यो ‘णरग' शब्दे चतुर्थभागे 1604 पृष्ठे व्याख्याताः। गोत्राण्यासा णरग' शब्दे चतुर्थभागे 1604 पृष्ट व्याख्यातानि) पृथिवी चलेत्तिहिं ठाणेहिं देसेहिं पुढवी चलेज्जा / तं जहा-अहेण मिमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उराला पोग्गलाणि चलेज्जा, तएणं ते उराला पोग्गला णिवत्तमाणा देसं पुढवीए चले जा, महोरए वा महिडिएन्जाव महेसक्खे, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उम्मजणिमन्जियं करेमाणे देसं पुढवीए चलेजा, णागसुवण्णाण वा संगामंसि वट्टमाणंसि देसं पुढवीए चलेजा, इचेएहिं ठाणे हिं केवलकप्पा पुढवीए चलेजा। तं जहा-अहेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए गुपेज्जा, तए णं से घणवाए गुविए समाणे घणोदहिमेएज्जा, से घणोदहीए एइए समाणे केवलकप्पं पुढविं चालेज्जा,देवे वा महिड्डिएजाव महेसक्खे तहारूवस्स समणस्स माहणस्स वा इड्डि जुतिं जसं बलं बीरियं पुरिसक्कारपरक्कम उददंसेमाणे केवलकप्पं पुढविं चालेज्जा, देवासुरसंगामंसि वा वट्टमाणंसि केवलकप्पा पुढवी चलेजा, इच्चेएहिं तिहिं। स्पष्ट केवलं देश इति भागः पृथिव्या रत्नप्रभाभिधानाया इति। (अहे त्ति) अधः (ओरालि त्ति) उदाराः वादरा निपतेयुर्विश्रसापरिणामात्ततो विचटेयुरन्यतो वाऽऽगम्य तत्र लगेयुर्यन्त्रमुक्तमहोपलवत्। (तएण ति) ततस्ते निपतन्तो देशं पृथिव्याश्चलयेयुरिति। पृथिवीदेशश्चलेदिति, महोरगो व्यन्तरविशेषः / / 1 / / (महिड्डिए) परिवाराऽऽदिना यावत्करणात् (महज्जुइए) शरीराऽऽदिदीप्त्या (महावले) प्राणतो महानुभागे वैक्रियाऽऽदिकरणतः / (महेसक्खे) महेश इत्याख्या यस्येति उन्मग्रनिमग्नि कामुत्पतनिपता कुतोऽपि, दाऽऽदेः कारणात कुर्वन् देश पृथिव्याश्चलयेत्, स च चलेदिति // 2 / / नागकुमाराणा सुपर्णकुमाराणां च भवनपतिविशेषाणां परस्परं संग्रामे वर्तमाने जायमाने सति (देसं ति) देशश्चलेदिति। (इचेएहि इत्यादि) निगमनमिति।।३।। पृथिव्या देशस्य चलनमुक्तमधुना समस्तायास्तदाह- (तिहीत्यादि) स्पष्ट, किन्तु केवलेव केवलकप्पा, ईषदूनता चेह न विवक्ष्यते, अतः परिपूर्णत्यर्थः / परिपूर्णप्राया चेति पृथिवी भूः। (अहे ति) अघोघनवातस्तथाविधपरिणामो वातविशेषो गुप्येत व्याकुलो भवेत्क्षुभ्योदित्यर्थः / ततः स गुप्तः सन् घनोदधि तथाविधपरिणामजलसमूहलक्षणमेजयेत् कम्पयेत् / (तए णं ति)। ततोऽनन्तरं स घनोदधिरेजितः कम्पितः सन् केवलकल्पां पृथिवी चालयेत्. सा च चलेदिति / देवो वा ऋद्धिम्परिवाराऽऽदिरूपां, द्युति शरीराऽऽदेर्यश: पराक्रमकृतां ख्याति बलं शरीरं वीर्य जीवप्रभवं पुरुषकार साभिमानव्यवसायनिष्पन्नफल तमेव पराक्रममिति। बलवीर्याऽऽद्युपदर्शनं हि पृथिव्यादिचलनं विना न भवतीति तदर्शयन तां चलयेदिति। देवाश्च वैमानिका इति असुरा भवनपतयस्तेषां भवप्रत्ययं वैरं भवति / अभिधीयते च भगवत्याम्- "किं पत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य, गमिस्संति य? गोयमा ! तेसिणं देवाणं भवपच्चइए वेराणुबंधे त्ति।" ततश्व संग्रामः स्यात्त च वर्तमाने पृथ्वी चलेत्तत्र तेषां महाय्यायामत उत्पातनिपातसम्भवादिति। (इच्चेएहीत्यादि) निगमनमिति / स्था० ३ठा०४उ० एकैकस्याः ३-बलयानिएगमेगा णं पुढवी तिहिं क्लएहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ता / तं जहा-धणोदहिवलएणं, घणवायवलएणं, तणवायवलएणं॥ (एगमेगेत्यादि) एकैका पृथिवी रत्नप्रभाऽऽदिका सर्वतः / किमुक्त भवति? समन्तादथवा दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः,सम्परिक्षिप्ता वेष्टिता आभ्यन्तरंघनोदधिवलयं ततः क्रमेणेतरे तत्र घनः स्त्यानो हिमशिलावत् उदधिर्जलनिचयः स चासौ स चेति घनोदधिः, स एव वलयमिव वलयं कटकंघनोदधिवलयं, तेना एवमितरेऽपि.नवरंघनश्वासौ वातश्च तथाविधपरिणामोपेतो घनवात एवं तनुवातोऽपि, तथाविधपरिणाम एवेति / भवन्त्यत्र गाथाः"न वि य फुसति अलोग, चउसुं पि दिसासु सव्वपुढवीओ। संगहिया वलएहि. विक्खंभंतेसि वोच्छामि / / 1 / / छ चेव १अद्धपंचम 2, जोयण अद्धं च 3 होति रथणाए। उदही १घण 2 तणुवाथा, 3 जाहासखेण निद्दिट्ठा / / 2 / / तिभागो 1 गाउयं चेव 2, तिभागो गाउयस्स य 3 / आइधुवे पक्खेवो, अहो अहो जाव सत्तमियं / / 3 / / " इति।स्था०३ठा० ४उकालोष्ठाऽऽहिरहितायाम,दश० 4 अ० सत्या भामा भामेतिवत्। नदीतटभिस्तादिरूपायां शुद्धपृथिव्याम, प्रज्ञा० १पद। जी०। पृथिवीकायिक रसत्त्वे, सूत्र० १श्रु०७अ०सुपार्श्वजिनमातरि, प्रव०११द्वार। पश्चिमरुचकवरपर्वतस्य हिम पत्यकूटदिकुमारीमहत्तरिकायाम, स्था० ८ठा० Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवी 173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाझ्य आ०क० ज०। ईशानलोकपालसोममहाराजस्याग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा० १उ०ा स्फटिकाऽऽदिपृथ्वी सचित्ता अचित्ता वेति प्रश्ने, उत्तरम्स्फटिकाऽऽदिपृथ्वी सचित्ता, "फलिहमणिरयणविद् दुम''इति वचनात, रत्नान्यचित्तानि भवन्ति, "सुवण्णरययमणिमुत्तियसंखसिलप्पवालरयणाणि अचित्तानि" इत्यनुयोगद्वारसूत्रप्रान्तवचनादिति। १०प्र० सेन० ३उल्ला वीकाइय पुं०(पृथिवीकायिक) पृथिव्येव कायो येषां तेपृथिवीकायिनः, समासान्तविधेस्तएव स्वार्थिककप्रत्ययात् पृथिवीकायिकाः। स्था०२ ठा० 1 उ०। पृथिवी काठिन्याऽऽदिलक्षणा प्रतीता, सैव कायः शरीर येषां ते पृथिवीकायाः, पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः स्वार्थे इक्प्रत्ययः। पृथिवीकायजीवेषु एकेन्द्रियभेदेषु, प्रज्ञा० १पद। दशा अथ के ते पृथिवीकायिकाः। सूरिराहसे किं तं पुढविकाइया? पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुहुमपुढविकाइया य, बादरपुढविकाइया य / / 11 / / पृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकायिका बादरपृथिवीकायिकाच,सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्माः बादरनामकर्मोदयाद्वादराः, कर्मोदयजनिते खल्वेते सूक्ष्मवादरत्वेनापेक्षके बदरामलकयोरिव, सूक्ष्माश्च ते पृथिवीकायिकाश्च सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, चशब्दः स्वगतपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदसूचकः, बादराश्च ते पृथिवीकायिकाश्च बादरपृथिवीकायिकाः, अत्रापि चशब्दः स्वगतशर्करावालुकाऽऽदिभेदसंसूचकः, तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः समुद्रकपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत् सकललोकव्यापिनो, बादराः प्रतिनियतदेशचारिणः,तच प्रतिनियतदेशचारित्वं द्वितीयपदे प्रकटयिष्यते। तत्र सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां स्वरूप जिज्ञासुरिदमाहसे किं तं सुहुमपुढविकाइया? सुहमपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पजत्तसुहुमपुढविकाइयाय, अपज्जत्तसुहमपुढविकाइया य / सेत्तं सुहुमपुढविकाइया / 12 / अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः? सूरिराह सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च, अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च। तत्र पर्याप्तिाम आहाराऽऽदिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः स च पुद्गलोपचयादुपजायते। किमुक्तं भवति? उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमसमये ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथाऽन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतस्तद्रूपतया जाताना यः शक्ति विशेषः आहाराऽऽदिपुद्गलखलरसरूपताऽऽपादनहेतुर्य.थोदरान्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः, सा च पर्याप्तिः षोढाआहारपर्याप्तिः, शरीरपर्याप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः, प्राणापानपर्याप्तिर्भाषापर्याप्तिर्मनः पर्याप्तिश्च / तत्र यया बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः, यया रसीभूतमाहारं रसासृगमासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः, यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः, तथा चायमर्थोऽन्यत्रापि भङ्गयन्तरेणो- | क्तः। पञ्चानामिन्द्रियाणां प्रायोग्यान पुद्रगलान गृहीत्वाऽनाभोगनिवर्तितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरिति / यया पुनरुच्छ्रासप्रायोग्यान पुद्गलानादायोच्छ्रासरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुश्चति सा उच्छ्रासपर्याप्तिः, यया तु भाषाप्रयोग्यान पुद्गलानादाय भाषात्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्यच मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः, यया पुनर्मनःप्रायोग्यान् युगलानादाय मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः, एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां संज्ञिवर्जाना द्वीन्द्रियाऽऽदीनां संज्ञिनां चतुःपञ्चषट्संख्या भवन्ति / उक्तञ्च प्रज्ञापनामूलटीकाकृताएकेन्द्रियाणां चतस्रो विकलेन्द्रियाणां पञ्च संज्ञिनां षडिति, उत्पत्तिप्रथमसमय एव ता यथातथं सर्वा अपि युगपन्निष्पादयितुमारभ्यन्ते, क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति / तद्यथा- प्रथममाहारपर्याप्तिस्ततः शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपाप्तिरित्यादि / आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमयमेव निष्पत्तिमुपपद्यते, शेषास्तु प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेन / अथाऽऽहारपर्याप्तिः प्रथमसमय एव निष्पद्यते इति कथमवसीयते? उच्यते- यत आहारपदे द्वितीयोद्देशके सूत्रमि-दम्- "आहारपज्जत्तीए अपज्जत्तए णं भंते ! किं आहारए अणाहारए? गोयमा ! नो आहारए अणाहारए।" इति / तत आहारपर्याप्त्याऽपर्याप्तो विग्रहगतावेवोपपद्यते, नोपपातक्षेत्र मागतोऽपि, उपपात क्षेत्रमागतस्य प्रथमसमय एवाऽऽहारकत्वात्, तत एकसामायिकी आहारपर्याप्तिनिवृत्तिः / यदि पुनरुपपातक्षेत्र मागतोऽपि आहारपर्याप्त्या पर्याप्तः स्थात्तत एवं सति व्याकरणसूत्रमित्थं भवेत"सिय आहारए सिय अणाहारए।" यथा शरीराऽऽदिपर्याप्तिषु-"सिय आहारए सिय आणाहारए।" इति। सर्वासामपि च पर्याप्र्तानां परिसमाप्तिकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः "अभ्राऽऽदिभ्यः" / / 7 / 2 / 46 / / इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः। पर्याप्तकाश्च ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च पर्याप्तकसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः। चशब्दो लब्धिपर्याप्तकरणपर्याप्तरूपस्वगतभेदद्वयसूचको, ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्ता अपर्याप्ताश्च ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाश्च अपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः; चशब्दः करणलब्धिनिबन्धनस्वगतभेदद्वयसूचकः। तथाहि-द्विविधाः सूक्ष्मपृथिवीकायिका अपर्याप्ताः, तद्यथा-लब्ध्या, करणैश्च / तत्र ये अपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते ते लब्ध्यऽपर्याप्तकाः, ये पुनःकरणानि शरीरेन्द्रियाऽऽदीनि न तावन्निवर्तयन्ति, अथ चावश्यं निवर्तयिष्यन्ति ते करणाऽपर्याप्ताः। उपसंहारमाह-(से त्तमित्यादि) त एते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः। तदेवं सूक्ष्मपृथिवीकायिकानभिधाय सम्प्रति बादरपृथि वीकायिकानभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहसे किं तं बादरपुढविकाइया? बादरपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता ? तं जहा-सण्हबादरपुढविकाइया य, खरबादरपुढविकाझ्या य॥१३॥ अथ के ते बादरपृथिवीकायिकाः ? सूरिराह-बादर-पृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा- श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाश्च, खरबादरपृथिवीकायिकाश्च। तत्र श्लक्ष्णा नाम चूर्णितलोष्टकल्पा मृदुपृथिवी तदात्मका जीवा अप्युपचारतः श्लक्ष्णास्ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च लक्ष्ण Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 674 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय बादरपृथिवीकायिकाः। अथवा श्लक्ष्णा च सा बादरपृथिवी च रा कायः शरीरं येषां ते श्लक्षणबादरपृथिवीकायास्त एव स्वार्थिके कप्रत्ययविधानात् लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः, चशब्दो वक्ष्यमाणस्तगतानेक- | भेदसूचकः,खरा नाम पृथिवी सङ्घातविशेष काठिन्यविशेषं चाऽऽपन्ना तदात्मका जीव अपि खरास्ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च खरवादरपृथिवीकायिकाः / अथवा-पूर्ववत् प्रकारान्तरेण समासः, चशब्दः स्वगतवक्ष्यमाणचत्वारिंशद्भेदसूचकः। से कि तं सहबादरपुढविकाइया ? सण्हबादरपुढविकाइया सत्तविहा पण्णत्ता / तं जहा-किण्हमत्तिया, नीलमत्तिया, लोहियमत्तिया, हालिद्दमत्तिया, सुकिल्लमत्तिया, पंडुमत्तिया, पणगमत्तिया। से तं सहबादरपुढविकाइया // 14 // अथ के ते श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः? सूरिराह- श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः। तदेव सप्तविधत्वं तद्यथेत्यादिनोपदर्शयतिकृष्णमृत्तिका कृष्णमृत्तिकाररूपा, एवं नीलमृत्तिका, लोहितमृत्तिका, हारिद्रमृत्तिकाः, शुल्कमृत्तिका, इत्थं वर्णभेदेन पक्षविधत्वमुक्तम्, पाण्डुमृत्तिका नाम देशविशेषे या धूलिरूपा सती पाण्डू इति प्रसिद्धा तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारात् पाण्डुमृत्तिकेत्युक्ता। (पणगमट्टिय त्ति) नद्यादिपूरप्लाविते देशे नद्यादिपूरेऽपगते यो भूमा श्लक्ष्णमृदुरूपो जलमलापरपर्यायः पङ्कः सा पनकमृत्तिका तदात्मका जीवा अप्यभेदोपचारात्पनकमृत्तिका। निगमनमाह-(सेत्त सण्हबायरपुढविका-इया) सुगमम्। से किं तं खरबादरपुढविकाइया? खरवादरपुढ विकाइया अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा"पुढवी य सक्करा वा-लुया य उवले सिला य लोणू से। अय तंब तउय सीसे, रुप्पसुवण्णे य वइरे य |1|| हरियाले हिंगुलुए, मणोसिला सीसगंजणपवाले। अब्भपडलब्भवालुय, बादरकाए मणिविहाणा / / 2 / / गोमेज्जए य रुयए, अंके फलिहे य लोहियक्खे य! मरगयमसारगल्ले, भुयमोयग इंदनीले य // 3 // चंदण गेरुय हंसे, पुलए सोगंधिए य बोधव्वे / चंदप्पभ वेरुलिए, जलकंते सूरकंते य // 4 // " जे यावण्णे य तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पन्नत्ता। तं जहापज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य / तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एतेसिं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाई जोणिप्पमुहसतसहस्साई,पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगाऽवक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्जा / सेत्तं खरबायरपुढविकाइया, सेत्तं बायरपुढविकाइया, सेत्तं पुढविकाइया। (सूत्र 15) // अथ के ते खरबादरपृथिवीकायिका:? सूरिराह- खरबादरपृथिवीकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, चत्वारिंशद्देदा मुर यतः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः / तानेव चत्वारिंशद्भेदानाह-"तं जहा-पुढवी च' इत्यादि गाथाचतुष्टयम्, पृथिवीति भामा सत्यभामावत् शुद्धपृथिवी च नदीतटभित्त्यादिरूपा, चशब्द उत्तरभेदापेक्षया समुच्चये १शर्करालघूपलशकलरूपाः २बालुका सिकताः ३उपलः-टद्वाऽऽधुषकरण - परिकर्मणायोग्यः पाषाणः ४शिलाघटनयोग्या देवकुलपीठाऽऽधुपयोगी महान पाषाणविशेषः ५लवणं सामुद्राऽऽदि 6 ऊषोयदशादषरं क्षेत्रम् 7 अयस्तामत्रपुराीसक रूप्यसुवर्णानि प्रतीतानि 13 वजो हीरकः 14 हरितालहिड्गुलकमनः शिलाः प्रतीताः 17 सीसकं पारदः 18 अञ्जनं सौवीराजनाऽऽदि 16 प्रवालं विद्रुमम् 20 अभ्रपटलं प्रसिद्धम 21 अभ्रवालुका-अभ्रपटलमिश्रा वालुका 22 (वायरकाये इति) बादरपृथिवीकायेऽमी भेदा इति शेषः, (मणिबिहाणा इति) चशब्दस्य गम्यमानत्वान्मणिविधानानि च-मणिभेदाश्च बादरपृथिवीकायभेदत्वेन ज्ञातव्याः / तान्ये व मणिविधानानि दर्शयति-(गोमिजए इत्यादि) गोमेजकः 23 चः समुच्चये, रुचकः 24 अङ्क: 25 स्फटिकः 26 चः पूर्ववत्, लोहिताक्षः 27 मरकतः 28 मसारगल्लः 26 भुजमोचकः 30 इन्द्रनीलश्व 31 चन्दनो 32 गैरिको 33 हंसगर्भः 34 पुलकः 35 सौगन्धिकश्च 36 चन्द्रप्रभो 37 वैडूर्यो 38 जलकान्तः 36 सूर्यकान्तश्च 40 / तदेवमाद्यगाथया पृथिव्यादयश्चतुर्दशभेदा उक्ताः, द्वितःयगाथयाऽष्टी हरितालाऽऽदयः, तृतीयगाथया गोमेजकाऽऽदयो नव, तुर्यया गाथया नवेति सङ्ख्यया चत्वारिंशत् 40 / (जे यावन्ने तहप्पमारा इति) येऽपि चान्ये तथा-प्रकारा मणिभेदाः पद्मरागाऽऽदयस्तेऽपि खरपादरपृथिवीकायत्वेन वेदितव्याः। (ते समासओ इत्यादि) ते सामान्यतो बादरपृथिवीकायिकाः समासतः सङ्क्षेपेण द्विविधाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-पर्याप्तकाश्च अपर्याप्त काश्च। तत्र येऽपर्याप्तकास्ते स्वयोग्याः पर्याप्तीः साकल्येनासम्प्रासा इति। अथवा असम्प्राप्ता इति विशिष्टान् वर्णाऽऽदीन अनुपगतास्तथाहिवर्णाऽऽदिभेदविवक्षायामेते न शक्यन्ते कृष्णाऽऽदिवर्णभेदेन व्यपदेष्टुमा कि कारणमिति चेत्? उच्यते-इह शरीराऽऽदिपर्यानिषु परिपूर्णासु सतीषु वादराणां वर्णाऽऽदिविभागः प्रकटो भवति नापरिपूर्णार. ते चापर्याप्ता उच्छासपर्याप्त्याऽपर्याप्ता एव मियन्ते ततो न स्पष्टतरवर्गाऽऽदिविभाग इत्यसम्प्राप्ता इत्युक्तम् / ननु कस्मादुच्छ्रासपर्याप्त्यैवाऽपर्याप्ता मियन्ते नोऽर्वाक शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यामपर्याप्ता अपि ? उच्यते-तस्मादागामिभवाऽऽयुर्बद्धा नियन्ते सर्वएव देहिनो नाबध्वा, तच शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां पर्याप्तानां बन्धमायान्ति नान्यथा इति / अन्ये तु व्याचक्षतेसामान्यतो वर्णाऽऽदीनसमप्राप्ता इति, तचनयुक्त, यतः शरीरमात्रभाविनोवर्णाऽऽदयः, शरीरं च शरीरपर्याप्त्या सजात इति (तत्थ णजे तेषजत्तगा इत्यादि) तत्र ये ते पर्याप्तकाः परिसमाप्तसवयोग्यसमस्तपर्याप्तय एतेषां वदिशेन वर्णभेदविवक्षया, एवं गन्धादेशेन रसादेशेन स्पदिशेन सहयाप्रशःसहस्रसङ्ख्यया विधानानि भेदाः / तद्यथा-वर्णा, कृष्णाऽऽदिभेदात्पश्च, गन्धी सुरभीतरभेदाद्वी, रसास्तिक्ताऽऽदय, पञ्च स्पर्शा मृदुकर्कशाऽऽदयोऽष्टी, Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 975 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय एककस्मिश्च वर्णाऽऽदौ तारतम्यभेदेनानेकेऽवान्तरभेदाः / तथाहिभमरको किलकजलाऽऽदिषु तरतमभावादित्यादिरूपतयाऽने के कृष्णभेदाः, एवं नीलाऽऽदिष्वप्यायोज्यम् / तथा गन्धरसस्पर्शष्व-पि तथा परस्पर वर्णानां संयोगतो घुसरकर्बुरत्वाऽऽदयोऽनेके सड़ख्याभेदाः, एवं गन्धाऽऽदीनामपि परस्परं गन्धाऽऽदिभिः समायो-गादतो भवन्ति, वर्णाऽऽद्यादेशैः सहस्राग्रशो भेदाः / (संखेज्जाई जाणिप्पमुहसयसहस्साई इति) संख्येयानि योनिप्रमुखाणि योनिद्वाराणि शतसहस्राणि / तथाहि-एकैकस्मिन् वर्णे गन्धे रसे स्पर्श च संवृता योनिः पृथिवीकाचिकाना, सापुनस्त्रिधासचित्ता, अचित्ता, मिश्राच। पुनरेकैका त्रिधाशीता, उरुणा, शीतोष्णा।शीताऽऽदीनामपि प्रत्येक तारतम्यभेदादनेकभेदत्वं केवलमेव विशिष्टवर्णाऽऽदियुक्ताः संख्याऽतीता अपि स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयो जातिमधिकृत्यैकैव योनिर्गण्यते, ततः संरयेयानि सप्तपृथिवीकायिकानां योनिशतसहस्राणि भवन्ति, तानि च सूक्ष्मबादरगतसर्वसंख्यया सप्त / (पजत्तगनिस्साए इत्यादि) पर्याप्तनिश्रया अप्तिका व्युत्क्रामन्ति उत्पद्यन्ते, कियन्त इत्याह-यत्रैकः पय तस्तत्र नियमात्तन्निश्रया असंख्येयाः संख्यातीता अपर्याप्तकाः / उपसंहारमाह-(सेत्तमित्यात्यादि) निगमनत्रयं सुगमम् / प्रज्ञा० १पद। ('पिंड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 620 पृष्ठे सचित्ताऽचित्तमिश्रपृथिवीपिण्डा उवताः ) / पृथिवीकायोद्देशःपुढवीए निक्खेवो, परूवणा लक्खणं परीमाणं / उवभोगो सत्थं वेयणाय वहणा निवित्तीय // 68 / / प्राग जीवोदशके जीवस्य प्ररूपणा किं न कृतेत्येतच नाशङ्कनीय, यतो जीवसामान्यस्य विशेषाऽऽधारत्वाद्विशेषस्य च पृथिव्यादिरूपत्वात्सामान्यजीवस्य चोपभोगाऽऽदेरसंभवात् पृथिव्यादिचर्चयैव तस्य चिन्तितत्वादिति। तब पृथिव्या नामाऽऽदिनिक्षेपो वक्तव्यः, प्ररूपणासूक्ष्मबादराऽऽदिभेदा, लक्षणंसाकारानाकारोपयोगकाययोगाऽऽदिक, परिमाणम्-संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयभागमात्राऽऽदिकम्, उपभोगःशयनाऽऽसनचक्रमणाऽऽदिकः, शस्त्रं स्नेहाम्लक्षाराऽऽदि, वेदनास्वशरीराव्यक्तचेतनानुरूपा सुखदुःखानुभवस्वभावा, वधः कृतकारितानुमतिभिरुपमर्द्धनाऽऽदिकः, निवृत्तिः-अप्रमत्तस्यमनोवाक्कायगुप्त्याऽनुपमाऽऽदिकेति रागाराार्थः। व्यासार्थं तु नियुक्तिकृद्यथाक्रममाहनाम ठवणा पुढवी, दव्वपुढवीय भावपुढवी य। एसो खलु पुढवीए, निक्खेवो चउव्विहो होइ॥६६।। स्पष्टा / नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्याऽऽहदव्वं सरीरभविओ, भावेण य होइ पुढविजीवो उ। जो पुढविनामगोयं, कम्मं वेएइ सो जीवो / / 70 / / तत्र द्रव्यपृथिवी आगमतो, नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नो आगमतस्तु पृथिवीपदार्थज्ञस्य शरीरंजीवोपेततथा पृथिवीपदार्थज्ञत्वेन भव्योबालाऽऽदिः, ताभ्यां विनिर्मुक्तो द्रव्यपृथिवीजीवःएकभविको बराऽऽयुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च, भावपृथिवीजीवः पुनर्यः पृथिवीनामाऽऽदिकर्मोदीपर्ण वेदयति / गत निक्षेपद्वारम् / साम्प्रत प्ररूपणाद्वारम्दुविहा य पुढविजीवा,सुहुमा तह बायरा य लोयम्मि। सुहुमा य सव्वलोए,दो चेव य बायरविहाणा / / 71 / / पृथिवीजीवा द्विविधाः-सूक्ष्मा बादराश्च / सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः, बादरनाभकर्मोदयात् बादराः कर्मोदयजनिते एवैषां सूक्ष्मवादरत्वे न त्वापेक्षिके बदरामलकयोरिव / तत्र सूक्ष्माः समुद्कपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत्सर्वलोकव्यापिनः / __ बादरास्तु मूलभेदाद् द्विविधा इत्याहदुविहा बायरपुढवी, समासओ सण्हपुढवि खरपुढवी। सण्हा य पंचवण्णा, अवरा छत्तीसइविहाणा / / 72 / / 'समासतः संक्षेपाद् द्विविधा बादरपृथिवीश्लक्ष्णबादरपृथिवी खरबादरपृथिवी च, तत्र श्लक्ष्णबादरपृथिवी कृष्णनीललोहितपीतशुक्लभेदात्पञ्चधा, इह च गुणभेदादगुणभेदोऽभ्युपगन्तव्यः, खरबादरपृथिव्यास्त्वन्येऽपि षट्त्रिंशद्विशेषभेदाः सम्भवन्तीति। तानाहपुढवी य सक्करा वा-लुगा य उवले सिला य लोणूसे / अय तंव तउय सीसग, रुप्प सुवन्ने य वेरे य // 73 // हरियाले हिंगुलए, मणोसिला सीसगंऽजण पवाले। अब्भपडलऽभवालुय, वायरकाए मणिविहाणा / / 74|| गोमेज्जए य रुयए, अंके फलिहे य लोहियक्खे य। मरगय मसारगल्ले, भुयमायेग इंदनीले य / / 7 / / चंदप्पभ वेरुलिए, जलकंते चेव सूरकंते य। एए खरपुढवीए, नामं छत्तीसयं होति / / 76 / / अत्र च प्रथमगाथया पृथिव्यादयश्चतुर्दश भेदाः परिगृहीताः; द्वितीयगाथया त्वष्टौ हरितालाऽऽदयः, तृतीयगाथया दश गोमेधकाऽऽदयः, तुर्यगाथया चल्वारः चन्द्रकान्ताऽऽदयः। अत्रच पूर्वगाथाद्वयेन सामान्यपृथिवीभेदाः प्रदर्शिताः, उत्तरगाथाद्वयेन मणिभेदाः प्रदर्शिताः, एतास्पष्टा इति कृत्वा न विवृताः। एवं सूक्ष्मबादरभेदान् प्रतिपाद्य पुनर्वर्णाऽऽदिभेदेन पृथिवीभेदान् दर्शयितुमाहवण्णरसगंधफासे, जोणिप्पमुहा हवंति संखेज्जा। णेगाइ सहस्साइं, होंति विहाणम्मि एकिक्के 77 / / तत्र वर्णाः शुक्ताकाऽऽदयः पञ्च, रसास्तिक्ताऽऽदयः पच, गन्धौ सुरभिदुरभी, स्पाः मृदुकर्कशाऽऽदयःअष्टौ, तत्र वर्णाऽऽदिके एकेकस्मिन्योनिप्रमुखा योनिप्रभृतयः संख्येया भेदा भवन्ति, संख्येयस्यानेकरूपत्वाद्विशिष्टसंख्यार्थमाह-अनेकानि सह-ग्राण्येकैकस्मिन्वपर्णाऽऽदिक विधाने भेदे भवन्ति, योनितो गुणतन भेदानामिति एतच सप्तयोनिलक्षणप्रमाणत्वात् पृथिव्या एवं भावनीयमिति / उक्तं च प्रज्ञापनायाम्-"तत्थ णं' (15) इत्यादि। (तच्चाऽस्मिन्नेव भागे 674 पृष्ठे दर्शितम्) इह च संवृतयोनयः पृथिवीकायिका उक्ताः, सा पुनः सचित्ता अचित्ता मिश्रा वा, तथा पुनश्च शीता उष्णा शीतोष्णा वेत्येवमादिका द्रष्टव्येति। Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय एतदेव भूयो नियुक्तिकृत् स्पष्टतरमाहवण्णम्मिय एकेक्के, गंधम्मि रसम्मि तह य फासम्मि। नाणत्ती कायव्वा, विहाणए होइ एकिकं / / 78|| वर्णाऽऽदिके एकैकस्मिन्विधान भेदे सहस्राग्रशो नानात्वं विधयम. तथाहि-कृष्णो वर्ण इति सामान्य, तस्य च भमराङ्गारकोकिलावलकजलाऽऽदिषु प्रकर्षाप्रकर्षविशेषाद्भेदः कृष्णः कृष्णतरः कृष्णतम इत्यादि, एवं नीलाऽऽदिष्वप्यायोज्य, तथा रसगन्धस्पर्शेषु सर्वत्र पृथिवीभेदा वाच्याः। तथा-वर्णाऽऽदीनां परस्परसंयोगाद्धूसरकेसरकर्बुराऽऽदिवर्णान्तरोत्पत्तिरेवमुत्प्रेक्ष्य वर्णाऽऽदीनां प्रत्येक प्रकर्षाप्रकर्षतया परस्परानुवेधेन च बहवो भेदा वाच्याः। पुनरपि पर्याप्तकाऽऽदिभेदावेदमाहजे बायरे विहाणा,पज्जत्ता तत्तिया अपज्जत्ता। सुहुमा वि होंति दुविहा, पज्जत्ता चेव अपजत्ता॥७६। यानि बादरपृथिवीकाये विधानानि भेदाः प्रतिपादितास्तानि यावन्ति पर्याप्तकानां तावन्त्येवापर्याप्तकानामपि, अत्र भेदानां तुल्यत्वं द्रष्टव्यं न तु जीवाना, यत एकपर्याप्तकाऽऽश्रयेणासंख्येया अपर्याप्तका भवन्ति, सूक्ष्मा अपि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विविधा एव, किंतु पर्याप्तकनिश्रया पर्याप्तकाः समुत्पद्यन्ते, यत्र चैकोऽपर्याप्तकस्तत्र नियमादसंख्येयाः पर्याप्तकाः स्युः। पर्याप्तिस्तु-"आहारसरीरिदिय-ऊसासवओमणोऽहिनिव्वत्ती। होति जतो दलियाओ, करणं पइ सा उ पजत्ती / / 1 / / " जन्तुः समुत्पद्यमानः पुद्गलोपादानेन करणं निवर्तयति तेन च करणविशेषेणाऽऽहारमवगृह्य पृथग खलरसाऽऽदिभावेन परिणति नयति स तादृक्करणविशेष आहारपर्याप्तिशब्देनोच्यते, एवं शेषपर्याप्तयोऽपि वाच्याः, तत्रैकेन्द्रियाणामाहारशरीरेन्द्रियोच्छ्रासाभिधानाश्चतस्रो भवन्ति, एताश्वान्तर्मुहूर्तेन जन्तुरादत्ते, अनाप्तपर्याप्तिरपर्याप्तकोऽवाप्तपर्याप्तिस्तु पर्याप्तक इति, अत्र च पृथिव्येव कायो येषामिति विग्रहः / यथा सूक्ष्मबादराऽऽदयो भेदाः सिद्धयन्ति तथा प्रसिद्ध भेदेनोदाहरणेन दर्शयितुमाहरुक्खाणं गुच्छाणं, गुम्माण लयाण वल्लिवलयाणं / जह दीसइ नाणत्तं, पुढविकाए तहा जाण ||8|| यथा वनस्पतेर्वृक्षाऽऽदिभेदेन स्पष्ट नानात्वमुपलभ्यते, तथा पृथिवीकायिकेऽपि जानीहि, तथा वृक्षाः-चूताऽऽदयो गुच्छा वृन्ताकीसल्लकीकप्पास्यादयः,गुल्मानिनवमालिकाकोरण्टकाऽऽदीनि, लताः-पुन्नागाशोकलताऽऽद्याः, वल्यस्त्रपुषीवालुडीकोशातक्याद्याः, वलयानिकेतकीकदल्यादीनि। पुनरपि वनस्पतिभेददृष्टान्तेन पृथिव्या भेदमाहओसहि तण सेवाले, पणगविहाणे य कंद मूले य। जह दीसइ नाणत्तं, पुढवीकाइए तहा जाण / / 1 / / यथा हिवनस्पतिकायस्य ओषध्यादिको भेद एवं पृथिव्या अपिद्रष्टव्यः / तत्र ओषध्यः शाल्याऽद्याः, तृणानि दर्भाऽऽदीनि, सेवालं जलोपरि मलरूपं, पनकः काष्ठाऽऽदावुल्लीविशेषः पञ्चवर्णः, कन्दः सूरणकन्दादिः, मूलमुशीराऽऽदीति। एतेच सूक्ष्मत्वान्नैकद्व्यादिकाः समुपलभ्यन्ते, यत्संख्यास्तुपलभ्यन्ते तदर्शयितुमाहएकस्स दोण्ह तिण्ह व, संखेज्जाण व न पासिउं सक्का। दीसंति सरीराई, पुढविजियाणं असंखाणं / / 2 / / स्पष्टा / कथं पुनरिदमवगन्तव्यं, सन्ति पृथिवीकायिका इति, उच्यते, तदधिष्ठितशरीरोपलब्धरधिष्ठातरि प्रतीतिर्गवाश्वादाविव इत्येतथितुमाहएएहि सरीरेहिं, पच्चक्खं ते परूविया होति / सेसा आणागेज्झा, चक्खूफान जं इंति / / 3 / / एभिरसंख्येयतयोपलभ्यमानैः पृथिवीशर्कराऽऽदिभेदभिन्नैः शरीरैस्ते च शरीरिणः शरीरद्वारेण प्रत्यक्षं साक्षात्प्ररूपिताः ख्यापिता भवन्ति, शेषास्तु सूक्ष्मा आज्ञाग्राह्या एव द्रष्टव्याः, यतस्ते चक्षुःस्पर्श नागच्छन्ति, स्पर्शशब्दो विषयाऽर्थः। प्ररूपणाद्वारानन्तरं लक्षणद्वारमाहउवओगजोग अज्झव-साणे मतिसुय अचक्खुदंसे या अट्ठविहोदयलेसा, सन्नुस्सासे कसाया य।।४।। तत्र पृथिवीकायाऽऽदीनां स्त्यानाद्युदयाद्यावती चोपयोगशक्तिरव्यक्ता ज्ञानदर्शनरूपेत्येवमात्मक उपयोगो लक्षण, तथा योगःकायाऽऽख्य एक एव, औदारिकतन्मिश्रकार्मणाऽऽत्मको वृद्धयष्टिकल्पो जन्तोः सकर्मकस्याऽऽलम्बनायव्याप्रियते; तथाऽध्यवसायाः- सूक्ष्मा आत्मनः परिणामविशेषाः, ते च लक्षणम्, अव्यक्तचैतन्यपुराधमनःसमुद्भुतचिन्ताविशेषा इवानभिलक्ष्यास्तेऽभिगन्तव्याः,तथा साकारोपयोगान्तः पातिमतिश्रुताज्ञानसमन्विताः पृथिवीकायिका बोद्धव्याः, तथा स्पर्शनेन्द्रियेणाचक्षुर्दर्शनानुगता बोद्धव्याः, तथा ज्ञानाःऽवरणीयाऽऽद्यष्टविधकर्मोदयभाजस्तावद्वन्धभाजश्व, तथा लेश्याअरावसायविशेषरूपाः कृष्णनलिकापोततेजस्यश्चतस्रस्ताभिरनुगताः, तथा दशविधसंज्ञानुगताः, ताश्च आहाराऽऽदिकाः प्रागुक्ता एव,तथा सूक्ष्मोच्छासनिःश्वासानुगताः। उक्त च--"पुढविकाइया णं भंते ! जीवा आणवन्ति वा, पाणवन्ति वा, ऊससन्ति वा, णीससंति वा? गोयमा ! अविरहियं संतयं चेव आणवन्ति वा, पाणवन्ति वा. ऊससंति वा, नीससंतिवा।" कषाया अपि सूक्ष्माः क्रोधाऽऽदयः। एवमेतानि जीवलक्षणाऽऽद्युपयोगाऽऽदीनि कषायपर्यवसानानि पृथिवीकायिकेषु संभवन्तीति, ततश्चैवंविधजीवलक्षणकलापसमनुगतत्वात मनुष्यवत् सचित्ता पृथिवीति / ननु च तदिदमसिद्धम-सिद्धेन साध्यते, तथाहि-न ल्युपयोगाऽऽदीनि लक्षणानि पृथिवीकायेषु व्यक्तानि समुपलक्ष्यन्ते, सत्यमेतद, अव्यक्तानि तु विद्यन्ते, यथा कस्यचित्पुंसः हृत्पूरकव्यतिमिश्रमदिराऽतिपानपित्तोदयाऽकुलीकृतान्तःकरणविशेषस्याव्यक्ता चेतना, न चैतावता तस्याचिद्रूपता, एवमत्राप्यव्यक्तचेतनासंभवोऽभ्युयगन्तव्यः; ननु चात्रोछासाऽऽदिकमञ्यक्तचेतनालिङ्ग मस्ति,न चेह तथाविधं किञ्चिचेतनालिङ्गमस्ति नैतदेवम्, इहापि समानजातीयलतोद्भेदाssदिकमर्शो मांसाड्कुरवचेतनाचिह्नमस्त्येव, अव्यक्तचेतनाना हि सम्भावितकचेतनालिङ्गानां वनस्पतीनामिव चेतनाऽभ्युपगन्तव्येति, वनस्पतेश्व चैतन्यं विशिष्टतुपुष्पफलप्रदत्वेन स्पष्ट साधयिष्यते च,ततो व्यक्तोपोगाऽऽदिलक्षणसद्भावात्सचित्ता पृथिवीति स्थितम्। Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 677 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय ननु चाश्मलताऽऽदेः कठिनपुद्गलाऽऽत्मिकायाः कथश्चेत नत्वमित्यत आहअट्ठी जहा सरीरम्मि अणुगयं चेयणं खरं दिटुं / एवं जीवाणुगयं,पुढविसरीरं खरं होइ / / 15 / / यथाऽस्थि शरीरानुगतं सचेतनं खरं दृष्टमेवं जीवानुगतं पृथिवीशरीरमपीति। आवा० १श्रु० १अ० २उ०। विप्रतिपत्तिनिरासार्थ पुनराहपुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता / अण्णत्थ सत्थपरिणएणं / (1 सूत्र)। 'पुढवी चित्तमंतमक्खाया' 'पुढवी' पृथिवी उक्तलक्षणा, चित्तवतीति / चित्तजीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती, सजीवेत्यर्थः / पाठान्तरं वा- 'पुढवी चित्तमत्तमक्खाया।' अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभागमात्रमिति, ततश्च चित्तमात्रास्तोकचित्तेत्यर्थः / तथा च प्रबलमोहोदयात्सर्वजघन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणां, तदभ्यधिक दीन्द्रियाऽऽदीनामिति, 'आख्याता' सर्वज्ञेन कथिता, इयं च- 'अनेकजीवा' अनेके जीवा यस्यां साऽनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा वैदिकानां पृथिवी देवतेत्येवमादिप्रवचनप्रामाण्यादिति। अनेकजीवाऽपि कैश्चिदेकभूताऽऽत्मापेक्षयेष्यत एव / यथाहुरेके - "एक एव हि भूताऽऽत्मा, भूते व्यवस्थितः / एकधा बहुधा चैव, दृश्यतेजलचन्द्रवत्॥१॥" अत आह'पृथक्त्वा पृथग्भूताः सत्त्वाआत्मनो यस्यां सा पृथक्सत्त्वा, अड्गुलासंख्येयभागमात्रावगाहनया पारमार्थिक्याऽनेकजीवसमाश्रितेति भावः / आह-यद्येवं जीवपिण्डरूपापृथिवी ततस्तस्यामुचाराऽऽदिकरणे नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तिरित्यसंभवी साधुधर्म इत्याह- 'अन्यत्र शस्वपरिणतायाः' शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहायपरित्यज्यान्या चित्त - वत्याख्यातेत्यर्थः / दश०४अ० साम्प्रतं लक्षणद्वारानन्तरं परिमाणद्वारमाहजे बायरपज्जत्ता, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते। सेसा तिन्नि विरासी, वीसु लोया असंखेज्जा॥८६|| तत्र पृथिवीकायिकाश्चतुर्दा, तद्यथा-बादराः पर्याप्ताः, अपर्याप्ताश्च। तथा सूक्ष्माः अपर्याप्ताः, पर्याप्ताश्च। तत्र ये बादराः पर्याप्तकास्ते संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयभागमात्रवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, शेषास्तु त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसंख्येयानां लोकानामाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, यथानिर्दिष्टक्रमेण चैते यथोत्तरं बहुतराः / यत उक्तम्-"सव्वत्थोवा बादरपुढविकाइया पज्जत्ता, बादरपुढविकाइया अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा सुहमपुढविकाइया अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा, सुहमपुढविकाइया पज्जत्ता असंखेज्जगुणा।'' प्रकारान्तरेणाऽपि राशित्रयस्य परिमाणं दर्शयितुमाहपत्थेण व कुडवेण व,जह कोइ मिणेज्ज सव्वधण्णाई। एवं मविज्जमाणा, हवंति लोया असंखेज्जा।।७।। यथा प्रस्थाऽऽदिना कश्चित्सर्वधान्यानि मिनुयाद्, एवमसद्ध प्रज्ञापनागीकरणात लोकं कुडवीकृत्याजघन्योत्कृष्टावगाहनान् पृथिवीकायिकजीवान यदि मिनोति ततोऽसंख्येयान् लोकान् पृथिवीकायिकाः पूरयन्ति। / पुनरपि प्रकारान्तरेण परिमाणमाहलोगाऽऽगासपएसे, एकेक निक्खिवे पुढविजीवं। एवं मविज्जमाणा, हवंति लोगा असंखिज्जा ||8|| स्पष्टा। साम्प्रतं कालतः प्रमाणं निर्दिदिक्षुःक्षेत्रकालयोः सूक्ष्मबा दरत्वमाहनिउणो य हवइ कालो, तत्तो निउणयरं हवइ खेत्तं / अंगुलसेढीमित्ते, ओसप्पिणिओ असंखिज्जा ||8|| निपुणःसूक्ष्मःकालःसमयाऽऽत्मकः, ततोऽपि सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यतोऽड्गुलीश्रेणिमात्रक्षेत्रप्रदेशानां समयापहारेणासंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योऽपक्रामन्तीत्यतः कालात् क्षेत्रं सूक्ष्मतरम्। प्रस्तुतं कालतः परिमाण दर्शयितुमाहअणुसमयं च पवेसो, निक्खमणं चेव पुढविजीवाणं / काए कायट्ठिया,चउरो लोगा असंखेजा।।६011 तत्र जीवाः पृथिवीकायेऽनुसमयं प्रविशन्ति निष्क्रामन्ति च, एकस्मिन् समये कियता निष्क्रमः प्रवेशश्च १-२,तथा विवक्षिते च समये कियन्तः पृथिवीकायपरिणताः सम्भवन्ति 3, तथा-कियती च कायस्थिति ४रित्येते चत्वारो विकल्पाः कालतोऽभिधीयन्ते, तत्रासंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणाः समयेनोत्पद्यते विनश्यन्ति च, पृथिवीत्वेन परिणता अप्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणाः, तथा-कायस्थितिरपि मृत्त्वा मृत्त्वाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणं कालं तत्र तत्रोत्पद्यन्त इति। एवं क्षेत्रकालाभ्यां परिमाणं प्रतिपाद्य परस्परावगाह प्रतिपिपादयिषयाऽऽहबायरपुढवीकाइय-पजत्तो अण्णमण्णमोगाढो। सेसा ओगाहंती,सुहुमा पुण सव्वलोयम्मि||१|| बादरपृथिवीकायिकः पर्याप्तो यस्मिन्नाकाशखण्डे अवगाढस्तस्मिन्नेवाऽऽकाशखण्डेऽपरस्यापिबादरपृथिवीकायिकस्य शरीरमवगाढमिति, शेषास्तु अपर्याप्तकाः पर्याप्तकनिश्रया समुत्पद्यमाना अनन्तरप्रक्रियया पर्याप्तकावगाढाऽऽकाशप्रदेशावगाढा, सूक्ष्माः पुनः सर्वस्मिन्नपि लोकेऽवगाढा इति। उपभोगद्वारम्चंकमणे य ट्ठाणे, निसीयण तुयट्टणे कयकरणे। उच्चारे पासवणे, उवगरणाणं तु निक्खिवणे ||12|| आलेवण पहरण भू-सणे य कयविक्कए किसीए य / भंडाणं पिय करणे, उवभोगविही मणुस्साणं / / 63|| एएहि कारणेहिं, हिंसंति पुढविकाइए जीवे / सायं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति / / 64|| चक्र मणोद्ध स्थाननिषीदनत्वग्वर्तनकृतकपुत्रककरणउचारप्रश्नवण उपकरण निक्षेप आले पनाहरणभूषणक यविक्रय - कृषीक रण भण्ड क घट्टनाऽऽदिषू पभोगविधिमनुष्याणां पृथिवीकायेन भवतीति। यद्येवं ततः किमित्यत आह-(एएहीत्या - Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 678 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय दि) एभिश्चक्रमणाऽऽदिभिः कारणैः पृथिवीजीवान हिंसन्ति / / किमर्थमिति दर्शयतिसातं सुखमात्मनोऽन्वेषयन्तः परदुःखान्यजानानाः कतिपयदिवसरमणीयभोगाऽऽशाकर्षितसमस्तेन्द्रियग्रामा विमूढचेतस इति, परस्य पृथिव्याश्रितजन्तुराशेः दुःखमसातलक्षणं तदुदीरयन्ति-उत्पादयन्तीत्यनेन भूदानजनितशुभफलोद्वयः प्रत्युक्त इति। अधुना शस्त्रद्वारम्- शस्यतेऽनेनेति शस्त्रम्। तच्च द्विधा-द्रव्यशस्वं, भावशस्त्रं च / द्रव्यशस्वमपि समासविभागभेदाद द्विधैव। तत्र समासद्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाऽऽहहलकुलियविसकुद्दालालित्तियमिगसिंगकट्ठमग्गी य। उच्चारे पासवणे, एयं तु समासओ सत्थं // 15 // तत्र हलकुलिकविषकुद्दालालित्रकमृगशृङ्गकाष्टाग्न्युच्चारप्रश्रवणाऽ5दिकमेतत्समासतः संक्षेपतो द्रव्यशस्वम्। विभागद्रव्यशस्त्रप्रतिपादनायाऽऽहकिंची सकायसत्थं, किंची परकाय, तदुभयं किंचि। एयं तु दव्वसत्थं, भावे य असंजमो सत्थं / / 66|| किञ्चित्स्वकायशस्वं पृथिव्येव पृथिव्याः, किञ्चित्परकायशस्त्रमुदकाऽऽदि, तदुभयं किञ्चिदिति भूदक मिलितं भुव इति / तच्च सर्वमपि द्रव्यशस्वं, भावे पुनरसंयमः दुष्प्रयुक्ता मनोवाक्कायाः शस्त्रमिति। आचा० १श्रु०१अ०२०। दव्वं सत्थग्गिविसं-नेहविल खारलोणमाईयं। भादो उदुप्पउत्तो, वाया काओ अविरई य॥२३०।। द्रव्यमिति द्वारपरामर्शः, तत्र द्रव्यशस्त्र खड्गाऽऽदि, अग्निविषस्नेहाम्लानि प्रसिद्धानि, क्षारलवणाऽऽदीनि अत्र तु क्षारः करीराऽऽदिप्रभवः, लवणं प्रतीतम्, आदिशब्दाद् करीषाऽऽदिपरिग्रहः / उक्तं द्रव्यशस्त्रम् / अधुना भावशस्त्रमाह-भावस्तु दुःप्रयुक्तौ वाक्कायौ अविरतिश्च भावशस्त्रमिति, तत्र भावो दुःप्रयुक्त इत्यनेन द्रोहाभिमानेयाऽऽदिलक्षणो मनोदुःप्रयोगो गृह्यते, वाक्दुःप्रयोगस्तु हिंसपरुषाऽऽदिवचनलक्षणः, कायदुःप्रयोगस्तु धावनवल्गनाऽऽदिः, अविरतिस्त्वविशिष्टा प्राणातिपाताऽऽदिपापस्थानकप्रवृत्तिः एतानि स्वपरव्यापादकत्वात्कर्मबन्धनिमित्तत्वाद्भावशस्त्रमिति गाथाऽर्थः / इह न भावशस्त्रेणाधिकारः, अपितु द्रव्यशपेण, तच्च त्रिप्रकारं भवतीत्याहकिंची सकायसत्थं, किंची परस्य तदुधयं किंचि / एयं तु दव्वसत्थं, भावे अस्संजमो सत्थं // 231 / / किञ्चित्स्वकायशस्त्र, यथा कृष्णा मुन्नीलाऽऽदिमृदः शस्त्रम्, एवं गन्धरसस्पर्शभेदे पि शस्त्रयोजना कार्या तथा क्रिश्चित्परकायेति परकायशस्त्रं यथा पृथ्वप्तेजःप्रभुतीनाम्-अप्लेजःप्रभृतयो वा पृथिव्याः / तदुभयं किञ्चिदिति किश्चित्तदुभयं शस्त्र भवति, यथा कृष्णा मृदुदकस्य स्पर्शरसगन्धाऽऽदिभिः पाण्डुमृदश्च यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं भवति तदाऽसौ कृष्णमृदुकस्य पाण्डुमृदश्च शस्त्रं भवति, एवंतु तद् द्रव्यशस्त्रं, तुशब्दोऽनेकप्रकारविशेषणार्थः, एतदनेकप्रकार द्रव्यशस्त्रम्, भाव इति द्वारपरामर्श, असंयमः शरत्र चरणस्येति गाथाऽर्थः / एवं च परिणताया पृथिव्यामुच्चाराऽऽदिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः संभवी साधुधर्म इति / एष तावदागमः, अनुमानमप्यत्र विद्यतेसात्मका विद्रुमलवणोपलाऽऽदयः पृथिवीविकाराः, समानजातीयाड्कुरोत्प युपलम्भात्, देवदत्तमांसाड्कुरवत् / एवमागमोपपत्तिभ्यां व्यवस्थित पृथिवीकायिकानां जीवत्वम्। उक्त च"आगमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम्। अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये / / 1 / / आगमो ह्याप्तवचन-माप्त दोषक्षयाद्विदुः। वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूया त्वसंभवात् / / 2 / / " इत्यलं प्रसङ्गेन। दश०४अ० वेदनाद्वारमाहपायच्छेयण भेयण, जंघोरु तहेव अंगुवंगेसुं। जह हुंति नरा दुहिया, पुढविक्काए तहा जाण ||7|| यथा पादाऽऽदिकेष्वङ्ग प्रत्यनेषु छेदनभेदाऽऽदिकया क्रियया नरा दु खितास्तथा पृथिवीकायेऽपि वेदना जानीहि / यद्यपि पादशिरोग्रीवाऽऽदीन्यङ्गानि पृथिवीकायिकानां न सन्ति तथापितच्छेदनानुरूपा वेदनाऽस्त्येवेति दर्शयितुमाहनत्थि य सि अंगुवंगा, तयाणुरूवा य वेयणा तेसिं। केसिं चि उदीरंती, केसिंचऽतिवायए पाणे / / 18 / / पूर्वार्द्ध गतार्थ, केषाञ्चित्पृथिवीकायिकानां तदारम्भिणः पुरुषा वेदनामुदीरयन्ति, केषाञ्चित्तु प्राणानप्यतिपातयेयुरिति / तथाहि भगवत्यां दृष्टान्त उपात्तो यथा-चतुरन्तचक्रवर्तिनो गन्धपषिका यौवनवर्तिनी बलवती आर्द्राऽऽमलकप्रमाण सचित्तपृथिवीगोलकमेकविंशतिकृत्वो गन्धपट्टके कठिनशिलापुत्रकेण पिंष्यात्ततस्तेषां पृथिवीजीवानां कश्चित्संघट्टितः कश्चित्परितापितः कश्चिद्व्यापादितोऽपरः किल तेन शिलापुत्रकेण ने स्पृष्टोऽपीति। बधद्वारमाहपवयंति य अणगारा, ण य तेहिं गुणेहिं जेहिं अणगारा। पुढवि विहिंसमाणा, न हु ते वायाहि अणगारा ||6|| अणगारवाइणो पुढ-विहिंसगा निग्गुणा अगारिसमा। निद्दोस त्ति य मइला, विरइदुगंछाइ मइलतरा / / 100 / आचा०१श्रु०११०२उ०। (इदं गाथाद्वयम् 'अणगार' शब्दे प्रथमभागे 207 पृष्ठे व्याख्यातम्) केई सयं वहंती, केई अन्नेहिं उ वहाविंती। केई अणुमन्नंती,पुढविक्कायं वहेमाणा / / 101|| स्पष्टा। तद्वधे अन्येषामपि तदाश्रितानां वधो भवतीति दर्शयि तुमाहजो पुढवि समारंभइ, अन्नेऽवि य सो समारभइ काए। अनियाए अनियाए, दिस्से य तहा अदिस्से य।।१०२।। यः पृथ्वीकार्य 'समारभते' व्यापादयति सः 'अन्यानपि' अप्कायद्वीन्द्रियाऽऽदीन् 'समारभते' व्यापादयति, उदुम्बरवरफलभक्षणप्रवृत्तः तत्फलान्तःप्रविष्टासजन्तुभक्षणवदिति। तथा-(अणियाए य नियाए ति) अकारनकारणेनच, यदिवा-असङ्कल्पेनसंकल्पेन च पृथिवीजन्तूनसमारभतेतदार Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय म्भवांश्च दृश्यान्' दर्दुराऽऽदीन 'अदृश्यान्' पनकादीन समारभते व्यापादयतीत्यर्थः। एतदेव स्पष्टतरमाहपुढविं समारभंता, हणंति तन्निस्सिए य बहुजीवे / सुहुमे य बायरे य, पज्जत्ते या अपज्जत्ते / / 103|| स्पष्टा / अत्र च सूक्ष्माणां वधः परिणामाशुद्धत्वात्तद्विषयनिवृत्त्यभावेन द्रष्टव्य इति। विरतिद्वारमाहएवं वियाणिऊणं, पुढवीए निक्खिवंति जे दंडं। तिविहेण सव्वकालं, मणेण वायाएँ कारणं / / 104|| एवमित्युक्तप्रकारानुसारेण पृथिवीजीवान् विज्ञाय तद्वधंबन्धं च विज्ञाय पृथिवीतो निक्षिपन्ति ये दण्डपृथिवीसमारम्भाद् व्युपरमन्ति, ते ईदृक्षा अनगारा भवन्तीत्युत्तरगाथायां वक्ष्यति, त्रिविधेनेति कृतकारितानुमतिभिः 'सर्वकालं' यावज्जीवमपि मनसा वाचा कायेनेति। अनगारभवने उक्तशेषमाहगुत्ता गुत्तीहिँ सव्वाहिँ, समिया समिईहिँ संजया। जयमाणगा सुविहिया, एरिसया हुंति अणगारा।।१०।। तिसृभिर्मनोवाकायगुप्तिभिर्गुप्ताः, तथा पञ्चभिरीर्यासमित्यादिभिस्समिताः, सम्यक्-उत्थानशयनचक्रमणाऽऽदिक्रियासु यताः संयताः 'यतमानाः सर्वत्र प्रयत्नकारिणः, शोभनं विहितसम्यग्दर्शनाऽऽधनुष्ठानं येषां ते तथा, ते ईदृक्षा अनगारा भवन्ति, न तु पूर्वोक्तगुणाः पृथिवीकायसमारम्भिणः शाक्याऽऽदय इति। गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः / अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलिताऽऽदिगुणो पेतं सूत्रमुच्चार्यते, तचेदं सूत्रम्अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए अस्सिंलोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितापूति। (14 सूत्र) आचाo! 'अट्टे' इत्यादिपरम्परसम्बन्धस्तु 'इह एगेसिंणो सन्नाभवति' इत्युक्त, कथं पुनः संज्ञान भवतीति, आर्षत्वात्, तदाह- (अट्टे इत्यादि) आर्तो नामाऽऽदिश्चतुर्धा, नामस्थापने क्षुण्णे, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो नोआगमतो द्रव्यातः शकटाऽऽदिचक्राणामुद्धिमूले वा यो लोहमयः पट्टो दीयते स द्रव्यातः, भावार्तस्तु द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्राऽऽगमतो ज्ञाताआर्तपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु औदयिकभाववर्ती रागद्वेषग्रहपरिगृहीतान्तरात्मा प्रियविप्रयोगाऽऽदिदुःखसङ्कनिमग्नो भावार्त्त इति व्यपदिश्यते, अथवा शब्दाऽऽदिविषयेषु विषविपाकसदृशेषु तदाकाशित्वात् हिताहितविचारशून्यमना भावार्तः कर्म उपचिनोति। यत उक्तम्- “सोइंदियवसट्टेणं, भंते ! जीवे किं बंधइ, कि चिणाति? किं उवचिणाति? गोयमा ! अट्ट कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेतिजाव अणादीयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारमणुपरियट्टइ।" एवं स्पर्शनाऽऽदिष्वपि आयोजनीयम् / एवं क्रोधमानमायालोयदर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयाऽऽदिभिर्भावार्ताः संसारिणो जीवा इति। उक्तंच-"रागदोसकसाएहिं, I इंदिएहि य पंचहिं / दुहा वा मोहणिज्जेण, अट्टा संसारिणो जिया॥१॥" यदि वा-ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिना शुभाशुभेनाष्टप्रकारेण कर्मणा आर्तः, कः पुनरेवविध इत्यत्राऽऽह-लोकयतीति लोकः- एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजीवराशिरित्यर्थः, अत्र लोकशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपर्यायभेदादष्टधा निक्षेपं प्रदश्याप्रशस्तभावोदयवर्तिना लोकेनेहाधिकारो वाच्यः, यस्माद्यावातिः स सर्वोऽपि परिवूनो नाम परिपेलवो निस्सारः औपशमिकाऽऽदिप्रशस्तभावहीनः अव्यभिचारिमोक्षसाधनहीनो वेति / स च द्विधा द्रव्यभावभेदात्, तत्र सचित्तद्रव्यपरियूनो जीर्णशरीरः स्थविरकः जीर्णवृक्षो वा, अचित्तद्रव्यपरियूनो जीर्णपटाऽऽदिः, भावपरियून औदयिकभावोदयात् प्रशस्तज्ञानाऽऽदिभावविकलः, कथं विकलः? अनन्तगुणपरिहाण्या। तथाहि-पञ्चचतुःविद्येकेन्द्रियाः क्रमेण ज्ञानविकलाः, तत्र सर्वनिकृष्टज्ञानाः सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकाः प्रथमसभयोत्पन्ना इति। उक्तं चसर्वनिकृष्टो जीवस्य दृष्ट उपयोग एष धीरेण। सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकानां स च भवति विज्ञेयः / / 1 / / तस्मात् प्रभृति ज्ञानविवृद्धिदृष्टा जिनेन जीवानाम् / लब्धिनिमित्तैः करणैः, कायेन्द्रियवागमनोगभिः ।।शा' सच विषयकषायातः प्रशस्तज्ञानघूनः किमवस्थो भवति इति दर्शयतिदुःसंबोध इति दुःखेन संबोध्यतेधर्मचरणप्रतिपत्ति कार्यते इति दुःसंबोधो, मेतार्यवत् इति, यदि वा-दुःसंबोधो यो बोधयितुमशक्यो, ब्रह्मदत्तयत्, कि मित्येवम्?, यतः (अविजाणए त्ति)विशिष्टावबोधरहितः स चैवंविधः कि विदद्ध्यात् इत्याह-अस्मिन् पृथिवोकायलोके प्रव्यथिते प्रकर्षण व्यथिते,सर्वस्याऽऽरम्भस्य तदाश्रयत्वा दिति प्रकर्षार्थः, तत्तत्प्रयोजनतया खननाऽऽदिभिः पीडिते नानाविधशस्त्राद् भीते वा 'व्यथ' भयचलनयोः इति कृत्वा व्यथितं भीतमिति। (तत्थ तत्थेति) तेषु तेषु कृषिखननगृह करणाऽऽदिषु पृथग्विभिन्नेषु कार्येषु उत्पन्नेषु पश्य इति विनेयस्य लोकाकार्यप्रवृत्तिः प्रदीत, सिद्धान्तशैल्या एकादेशेऽपि प्राकृते बलादेशो भवतीति,आतुराः विषयकषायाऽऽदिभिः अस्मिन् पृथिवीकार्य विषयभूते सामर्थ्यात् पृथिवीकार्य परितापयन्ति परि समंतात्तापयन्ति पीडयन्तीत्यर्थः, बहुवचनननिर्देशस्तु तदारम्भिणां बहुत्वं गमयति, यदि वा-लोकशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, कश्चिल्लोको विषयकषायऽऽदिभिरातः अपरस्तु कायपरिजीर्णः कश्चिद् दुःखसंबोधस्तथाऽपरो विशिष्टज्ञानरहितः, एते सर्वेऽप्यातुरा विषयजीर्णदहाऽऽदिभिः सुखाऽऽप्तये अस्मिन् पृथिवीकायलोके विषयभूते पृथिवीकार्य नानाविधैरुपायैः परितापयन्ति परिसमन्तात्तापयन्ति पीडयन्तीति सूत्रार्थः। . ननु चैकदेवताविशेषाऽवस्थिता पृथिवीति शक्यं प्रतिपत्तुं, न पुनरसंख्येयजीवसंघातरूपेत्ये तत्परिहतुकाम आहसंति पाणा पुढो सिया लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढवि-कम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभेमाणा अणेगरूवे पाणे विहिंसइ।। Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 180- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय सन्ति विद्यन्ते प्राणाः सत्त्वाः पृथग पृथग्भावेनाइगुलासंख्येयभागस्वदेहावगाहनया पृथिव्याऽऽश्रिताः, सिता वा संबद्धा इत्यर्थः, अनेनैतत् कथयति-नैकदेवता पृथिव्यपि तु प्रत्येकशरीरपृथिवीकायाऽऽत्मिकेति, तदेवं सचेतनत्वमनेकजीवाधिष्ठितत्वं च पृथिव्या आविष्कृतं भवतीति। एतच्च ज्ञात्वा तदारम्भनिवृत्तान् दर्शयितुभाह(लज्जामाणा पुढो पास त्ति) लज्जा द्विविधालौकिकी, लोकोत्तरा च / तत्र लौकिकी स्नुषासुभटाऽऽदेः श्वशुरसंग्रामविषया, लोकोत्तरा सप्तदशप्रकारः संयमः। तदुक्तम्-"लज्जा दया संजम बंभचेरं।'' इत्यादि। लज्जमानाः संयमानुष्ठा-नपराः, यदि वा-पृथिवीकायसमारम्भरूपादसंयमानुष्ठानालजमानाः पृथगिति प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनश्च, अतस्तान् लजमानान् पश्येत्यनेन शिष्यस्य कुशलानुष्ठानप्रवृत्तिविषयः प्रदर्शितो भवतीति / कुतीर्थिकास्त्वन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शयितुमाह-(अणगारा इत्यादि) न विद्यते अगारंगृहमेषमित्यनगारायतयःस्मो वयमित्येवं प्रकर्षण वदन्तः प्रवदन्त इति, एके शाक्यादयो ग्राह्यास्ते च वयमेव जन्तुरक्षणपराः क्षपितकषायाज्ञानतिमिरा इति / एवमादिप्रतिज्ञामात्रमनर्थकमारटन्ति, यथा कश्चिदत्यन्तशुचिर्वोद्रश्वतुःषष्टिमृत्तिकास्नायी गोशवस्याशुचितया परित्यागं विधाय पुनः कर्मकरवाक्याचाऽस्थिपिशितस्नाय्वादेर्यथास्वमुपयोगार्थ सङ्ग्रह कारितवान्, तथा च तेन शुच्यभिमानमुद्वहताऽपि किं तस्य परित्यक्तमेवर्मतेऽपि शाक्याऽऽदयोऽनगारवादमुद्हन्ति, नचानगारगुणेषु मनागपि प्रवर्तते,न च गृहस्थचर्या मनागप्यतिलङ्घयन्ति इति दर्शयति-यद्यस्मादिममिति सर्वजन-प्रत्यक्षं पृथिवीकार्य विरूपरूप नाप्रकारैः शरबैर्हलकुद्यालखनित्राऽऽदिभिः पृथिव्याश्रयं कर्म-क्रियां समारभमाणा विहिंसन्ति, तथाऽनेन च पृथिवीकायसमारम्भेण पृथिवीशस्खं समारभमाणो व्यापारयन् पृथिवीकार्य नानाविधैः शस्त्रैः व्यापादयन्ननेकरूपान्, तदाश्रितानुदकवनस्पत्यादीन् विविध हिनस्ति, नानाविधैरुपायैापादयतीत्यर्थः / एवं शाक्याऽऽदीनां पार्थिवजन्तुवैरिणामयतित्वं प्रतिपाद्य साम्प्रतं सुखाभिलाषितया कृतकारितानुमतिभिर्मनोवाकायलक्षणां प्रवृत्ति दर्शयितुमाहतत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सथमेव पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणइ / (15 सूत्र)। तत्र पृथिवीकायसमारम्भे, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, भगवता श्रीवर्द्धमानस्वामिना परिज्ञानं परिज्ञा,सा प्रवेदितेति / इदमुक्तं भवतिभगवतेदमाख्यातम्-यथैभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैः कृतकारितानुमतिभिः सुखैषिणः पृथिवीकार्य समारभन्ते, तानि चामूनि-अस्यैव जीवितस्य परिपेलवस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ तथा जातिमरणमोचनार्थदुःख प्रतिघातहेतुं च स्वसुखलिप्सुर्दुःखद्विद् स्वयमात्मनैव पृथिवीशरवं समारभते, तथाऽन्यैश्च पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति, पृथिवीशस्त्र समारभमाणानस्यांश्च स एष समनुजानीते, एवमतीतानागताभ्यां मनोवाक्कायकर्मभिरायोजनीयम्। * तदेवं प्रवृत्तमतेर्यद्भवति तदर्शयितुमाहतं से अहिआए तं से अबोहीए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा खलु भगवओ अणगाराणं इह-मेगेसिं णातं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए इचत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवे हिं सत्थेहि पुढविकम्मसमारंभेण पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ, से बेमि अप्पेगे अंधमब्भे अप्पेगे अंधमच्छे अप्पेगे पायमन्भे अप्पेगे पायमच्छे अप्पेगे गुप्फमडभे अप्पेगे गुप्फमच्छे अप्पेगे जंधमन्भे 2 अप्पेगे जाणुमब्भे 2 अप्पेगे ऊरुमब्भे 2 अप्पेगे कडिमम्मे 2 अप्पेगे णाभिमब्भे 2 अप्पेगे उदरमन्भे 2 अप्पेगे पासमन्भे 2 अप्पेगे पिट्ठिमन्भे 2 अप्पेगे उरमन्भे 2 अप्पेगे हिययमन्भे 2 अप्पेगे थणमडमे 2 अप्पेगे खंधमन्भे 2 अप्पेगे बाहुमब्भे 2 अप्पेगे हत्थमन्भे 2 अप्पेगे अंगुलिमन्भे 2 अप्पेगे णहमन्भे 2 अप्पेगे गीवगब्भे 2 अप्पेगे हणुमडभे 2 अप्पेगे होट्ठमब्भे 2 अप्पेगे दंतमब्भे 2 अप्पेगे जिन्भमन्भे 2 अप्पेगे तालु-मब्भे 2 अप्पेगे गलमन्भे 2 अप्पेगे गंडमन्भे 2 अप्पेगे कण्णमब्भे 2 अप्पेगे णासमब्भे 2 अप्पेगे अच्छिमब्मे 2 अप्पेगे भमुहमब्भे 2 अप्पेगे णिडालमन्भे 2 अप्पेगे सीसमब्भे 2 अप्पेगे संपसारए, अप्पेगे उद्दवए, इत्थं सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति (16 सूत्र) (तसे अहियाएतं से अबोहीए) तत्पृथिवीकायसमारम्भणं (से) तस्य कृतकारितानुमतिभिः पृथ्वीशस्त्रं समारममाणस्याऽऽगामिनि काले अहिताय भवति, तदेव चाबोधिलाभायेति, न हि प्राणिगणोपमर्दनप्रवृत्तानामणीयसाऽपि हितेनाऽऽयत्या योगो भवतीत्युक्तं भवति, यः पुनर्भगवतः सकाशात्तच्छिष्यानगारेभ्यो वा विज्ञाय पृथ्वीसमारम्भ पापाऽऽत्मकं भावयति स एवं मन्यत इत्याह-('से' तमित्यादि) 'सः' ज्ञातपृथवीजीवत्वेन विदितपरमार्थः 'त' पृथ्वीशस्त्रसमारम्भमहितं सम्यगवबुध्यमानः 'आदानीय ग्राह्य सम्यग्दर्शनाऽऽदिसम्यगुत्थायअभ्युपगम्य, केन प्रत्ययेनेति दर्शयति- 'श्रुत्वा' अवगम्य साक्षाद्भगवतोऽनगाराणां वा समीपे, ततः 'इह' मनुष्यजन्मनि 'एकेषा' प्रतिबुद्धतत्त्वानां साधूनां ज्ञातं भवतीति, यत् ज्ञातं भवति तद्दर्शयितुमाह-(एसेत्यादि) एष पृथ्वीशस्त्रसमारम्भः, खलुरवधारणे, कारणे कार्योपचार कृत्वा 'नमलोदकं पादरोगः' इति न्यायेनैष एव ग्रन्थः-अष्टप्रकारकर्मबन्धः, तथैष एव पृथ्वीसमारम्भो मोहहेतुत्वान्मोहः-कर्मबन्धविशेषो दर्शनचारित्रभेदोऽष्टविंशतिविधः, तथैषएवमरणहेतुत्वान्मारः-आयुष्पकर्मक्षयलक्षणः, तथैष एव नरकहेतुत्वानरकः सीमन्तकाऽऽदिभूभागः, अनेनचासातवेदनीयमुपात्तं भवति, कथंपुन Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 681 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय रेकप्राणिव्यापादनप्रवृत्तावष्टविधकर्मबन्धं करोतीति, उच्यते-मार्यमाण जन्तुज्ञानावरोधित्वात् ज्ञानाऽऽवरणीयं बध्नात्येवमन्यत्राप्यायोजनीयमिति, अन्यदपि तेषां ज्ञातं भवतीति दर्शयितुमाह- (इयत्थमित्यादि) इत्येवमर्थम् आहारभूषणोपकरणार्थ तथा परिवन्दनमाननपूजनार्थ दुःखप्रतिघातहेतुं च 'गृद्धो' मूर्छितो 'लोकः' प्राणिगणः, एवंविधेऽप्यतिदुरितनिचयविपाकफले पृथ्वीकायसमारम्भे अज्ञानवशान्मूञ्छितस्त्वेतद्विधत्त इति दर्शयति- 'यद्' यस्माद् 'इम' पृथ्वीकार्य विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथिवीकर्म समारभमाणो हिनस्ति, पृथिवीकायसमारम्भेण च पृथिव्येव शस्त्रस्वकायाऽऽदेः पृथिव्या वा शस्त्रं हलकुदालाऽऽदि तत्समारभते, पृथिवीशस्त्रं समारभमाणश्वान्याननेकरूपान् 'प्राणिनो' द्वीन्द्रियाऽऽदीन्विविधं हिनस्तीति / स्यादारेका, ये हिन पश्यन्ति न शृण्वन्ति न जिघ्रन्ति न गच्छन्ति कथं पुनस्ते वेदनामनुभवन्तीति ग्रहीतव्यम्? अमुष्यार्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तमाह- (से येमीत्यादि) सोऽहं पृष्टो भवता पृथिवीकायवेदनां ब्रवीमि, अथवा- 'से' इति तच्छब्दार्थे वर्तते, यत्त्वया पृष्टस्तदहं ब्रवीमि, अपिशब्दो यथानामशब्दार्थे, यथा नाम कश्चिजात्यन्धो बधिरोमूकः कुष्ठी पड्गुः अनभिनिवृत्तपाण्याद्यवयवविभागो मृगापुत्रवत् पूर्वकृताशुभकर्मोदयाद्धिताहितप्राप्तिपरिहारविभुखोऽतिकरुणांदशा प्राप्तः, तमेवंविधमन्धाऽऽदिगुणोपेतं कश्चित्कुन्ताग्रेण (अब्भे इति) आभिन्द्यात्तथाऽपरः कश्चिदन्धमाच्छिन्यात, स च भिद्यमानाऽऽद्यवस्थाया न पश्यति न शृणोति मूकत्वान्नोबैरारटीति, किमेतावता तस्य वेदनाऽभावो जीवाऽभावो वा शक्यो विज्ञातुम्? एवं पृथिवीजीवा अप्यव्यक्तचेतना जात्यन्धबधिरमूकप गादिगुणोपेतपुरुषवदिति, यथा वा पञ्चेन्द्रियाणां परिस्पष्टचेतनानाम् (अप्पेगे पायमभे इति) यथा नाम कश्चित्पादमाभिन्द्यादाच्छिन्द्यावेत्येवं गुल्फाऽऽदिष्वप्यायोजनीयमिति दर्शयति, एवं जड्याजानूरुकटीनाभ्युदरपार्श्वपृष्ठोरोहृदयस्तनस्कन्धबाहुहस्ताङ्गुलिनखग्रीवाहनुकौष्ठदन्तजिहातालुगलगण्डकर्णनासिकाऽक्षिभूललाटशिरःप्रभृतिष्ववयवेषु भिद्यमानेषु छिद्यमानेषु वा वेदनोत्पत्तिर्लक्ष्यते, एवमेषामुत्कटमोहाज्ञानभाजा स्त्यानांद्युदयादव्यक्तचेतनानामव्यक्तैव वेदना भवतीति ग्राह्यम् / अत्रैव दृष्टान्तान्तरं दर्शयितुमाह- (अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए) यथा नाम कश्चित् ‘सम्' एकीभावेन प्रकर्षण प्राणानां भारणम्अव्यक्तत्वाऽऽपादनं कस्याचेत् कुर्यात, मूर्छामापादयेदित्यर्थः, तथाsवस्थं च यथा नाम कश्चिदपद्रापयेत् प्राणेभ्यो व्यपरोपयेत् न चासौ तां वेदना स्फुटमनुभवति, अस्ति चाव्यक्ता तस्याऽसौ वेदनेति, एवं पृथिवीजीवानामपि द्रष्टव्यमिति। पृथिवीकायिकानां जीवत्वं प्रसाध्य तथा नानाविधशस्त्रसंपाते वेदनां चाऽऽविर्भाव्य अधुना तद्वधे बन्ध दर्शयितुमाहएत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिण्णाता भवंति, तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्थं समारंभेजा, णेवsण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेजा, णेवऽण्णे पुढविसत्थं समारं भंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते पुढविकम्म समारंभा परिण्णाता भवंति से हु मुणी परिण्णातकम्मे त्ति बेमि (17 सूत्र०)। अत्र पृथिवीकार्य शव द्रव्यभावभिन्नं, तत्र द्रव्यशस्त्रं स्वकायपरकायोभयरूपं, भावशरस्त्रं त्वसंयमो दुःप्रणिहितमनोवाकायलक्षणः, एतद् द्विविधमपि शस्त्रं समारभमाणस्येति एते खननकृष्याद्यात्मकाः समारम्भाः बन्धहेतुत्वेनापरिज्ञाता अविदिता भवन्ति, एतद्विपरीतस्य परिज्ञाता भवन्तीति दर्शयितुमाह- (एत्थेत्यादि) अत्र पृथिवीकाये द्विविधमपि शस्खमसमारभमाणस्याऽव्यापारयत इति. एते प्रागुक्ताः कर्मसमारम्भाः परिज्ञाता विदिता भवन्ति, अनेन च विरत्यधिकारः प्रतिपादितो भवतीति, तामेव विरतिं स्वनामग्राहमाह- (तमित्यादि) तं पृथिवीकायसमारम्भे बन्धं परिज्ञाय असमारम्भेवा अबन्धमिति मेधावी कुशलः एतत् कुर्यादिति दर्शयतिनैव पृथिवीशस्त्र द्रव्यभावभिन्न समारभेत, नापि तद्विषयोऽन्यैः समारम्भः कारयितव्यः, न चान्यान् पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात् इति। एवं मनोवाक्कायकर्मभिरतीतानागतकालयोरप्यायोजनीयम् इति, ततश्चैव कृतनिवृत्तिरसौ मुनिरिति व्यपदिश्यते, न शेष इति दर्शयन्नुपसजिहीर्षुराह(जस्सेत्यादि) यस्य विदितपृथिवीजीववेदनास्वरूपस्यैते पृथिवीविषयाः कर्मसमारम्भाः खननकृष्याद्यात्मकाः कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति ज्ञपरिज्ञया तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहिता भवन्ति, हुरवधारणे, स एवं मुनिर्द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञातं कर्मसावद्यानुष्ठा नमष्टप्रकार वा कर्म येन स परिज्ञातकर्मा, नाऽपर, शाक्याऽऽदिः, ब्रवीमि पूर्ववदिति शस्त्रपरिज्ञायां द्वितीय उद्देशकः समाप्तः। गतः पृथिव्युद्देशकः / आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०। सुत्त जे भिक्खु पुढविकायस्स कलमायं वि सभारंभइ, समारंभंतं वा साइज्जइ ।।दा एवं० जाव वणप्फइकायस्स 12 / कलमाय त्ति स्तोकप्रमाणं, अहवा कलो त्ति चणओ तप्पमाणमे तंपि जो विराहेति तस्स चउलहुं, आणादिया य दोसा, एवं कठिणा उक्का ते तेउवाउपत्तेथवणस्सतिसु दाव पुण आउक्काए बिंदूमित्तं, बाउक्काए कलमेत्तं कह? भन्नतिवित्थिपूरणो लब्भति / जे भिक्खु पुढविकायं, कलवंधन्नप्पमाणमेत्तमवी / आऊ तेऊ वाऊ, पत्तेयवणं विराहेजा // 58) कलधन्न त्ति चणगं धन्नं, सेस कंट। जो एते काए विराधेतिसो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त विराहणा तहा दुविहं / पावति जम्हा तेणं, एते उपदे विवज्जेज्जा // 56|| पुढवाऽऽदिविराहेंतस्स संजमविराहणा। आहारे त्ति पंडुरोगाऽऽदिसंभवे आयविराहणा, सेसं कंठ। सीसो पुच्छतिकलमेत्तहीणतरे विराधिते किं चउलहू न भन्नति आणादिया य दोसा? गुरू भणतिकलमेत्तेणं चरिमे, एक्कम्मि विघातियम्मि चउलहुगा। Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 682 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय कलमेत्तं पुण जायइ, वणवज्जाणं असंखेहिं / / 60 / / निमित्त नेम प्रदर्शनमित्यर्थः / वणस्सइकायमेत्तं वज्जित्ता सेसो गहियकायाणं असंखेज्जाणं जीवसरीराणं समुदयसमितिसमागमेण कलमेत्त लब्भति। इमं वणस्सतिकाए सरीरप्पमाणंएगस्स अणेगा चेव, कलाउ हीणाहिगं पि तु तरूणं / जा ता अद्धामलगा, लहुगा दुगुणा ततो वुड्डी।।६१|| एगरस पत्तेयवणस्सतिकाइयस्स असंखेज्जाण वा कलधन्नप्पमाणमेत सरीर भवति, कलमेत्ताओ हीण अहियं वा विराहेंतस्स जाव अद्धामलगमेत्तं ताव चउलहुं, अओ परं दुगुणबुड्डीए जाव अट्टवीसाहिएं से चरिम अणंते चउगुरुगाऽऽदि नेयव्यं। कारणे विराहेज्जाबितियं पढमे वितिए, पंचमे अद्धाणकज्जमादीसु। गेलण्णादी तइए, चउत्थकाए य सेहादी॥६२|| बितियं अववादपद, पढमे ति पुढविकाए, वितिए वि आउक्काइए, पचमम्मि त्ति वणस्सतिकाइए, एएसु तिसुकाएसु अद्धाणकज्जिमादिया जे पेढवत्तिया कारणा ते इह दडव्वा / तइए ति तेउक्काए जे दीहगिलाणदिकारणा भणिया, चउत्थे ति बाउक्काइए जे सेहादिया कारणा भणिया ते इहं दट्टव्वा। नि० चू० 12 उ०। संप्रति विनेयजनानुग्रहाय शेषवक्तव्यतासंग्रहार्थ मिदं संग्रहणीगाथाद्वयमाहसरीरोगाहणसंघयणसंठाण कसाय हों तिसण्णाओ। लेसिदिय संघाए, सण्णी वेए य पज्जत्ती / / 1 / / दिट्ठी दंसण नाणे, जोगुवओगे तहा किमाहारे। उववाय ठिई समुघाए चयण गईरागई चेव / / 2 / / प्रथमतः सूक्ष्मपृथिवीकाथिकाना शरीराणि वक्तव्यानि, तदनन्तरमवगाहना, ततः संहननं, सहननानन्तरं संस्थानं, ततः कषायाः ततः कति भवन्ति संज्ञा इति वक्तव्यं, ततो लेश्याः, तदनन्तरमिन्द्रियाणि, ततः संघाताः, ततः किं संज्ञिनोऽसंज्ञिनो वा इति वक्तव्यम्, तदनन्तरं वेदो वक्तव्यः, ततः पर्याप्तयो यथा कति पर्याप्तयः सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामित्यादि, पर्याप्तिग्रहणमुपलक्षणं, तेन तत्प्रतिपक्षभूता अपर्याप्तयोऽपि वक्तव्या इति द्रष्टव्यम्, तदनन्तरं दृष्टिवक्तव्या, ततो दर्शनं, तदनन्तरं ज्ञानं, ततो योगः, तत उपयोगः, तथा किमाहारमाहारयन्ति सूक्ष्मपृथिवीकायिका इत्यादि वक्तव्यं, तदनन्तरमुपपातः, ततः स्थितिः, ततः समुद्धातः समुद्धातमधिकृत्य मरणं वक्तव्यमित्यर्थः, तदनन्तरं च्यवनं, ततो गत्यागती इति सर्वसंख्यया त्रयोविंशतिौराणि। शरीरद्वारव्याख्यानार्थमाहतेसिंणं भंते ! जीवाणं कति सरीरया पण्णत्ता? गोयमा! तओ सरीरा पण्णत्ता। तं जहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए। तेषां सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां, णमिति वाक्यालंकारे, भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् ! कति शरीराणि प्रज्ञप्तानि? (जी०) त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि। इह शरीराणि पञ्च भवन्ति। तद्यथा-औदारिकम्, वैक्रियम्, आहारकम्, तैजसम् कार्मणं च। (जी०) एतेषां पञ्चाना शरीराणा मध्ये यानि त्रीणि शरीराणि सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां तानि नामग्राहमुपदर्शयति-(जहा-ओरालियेत्यादि) वैक्रियाऽऽहारके तु तेषां न संभवः, स्वभावत एव तल्लब्धिशून्यत्वात् / जी०१ प्रति०। के महालए णं भंते ! पुढवीसरीरे पण्ण्णत्ते? गोयमा ! अणं ताणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमवाउसरीरे, असंखेज्जाणं सुहमवाउसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमतेउसरीरे असंखेजाणं सुहु-मतेउकाइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमआउसरीरे, असंखजाणं सुहुमआउकाइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमपुढवीसरीरे, असंखेजाणं सुहुमपुढवीकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरे वाउसरीरे असंखेज्जाणं बादरवाउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरतेउसरीरे, असंखेज्जाणं, बादरतेउकाइयाणं जावइया सरीरासे एगे बादरआउसरीरे, असंखेज्जाणं बादरआउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरपुढवीसरीरे, ए महालएणं गोयमा ! पुढवीसरीरे पण्णत्ते / भ० 16. श०३ उ०। अधुनाऽवगाहनाद्वारमाहतेसिणं भंते ! जीवाणं के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहनेणं अंगुलासंखेज्जतिभागं, उक्कोसेण वि अंगुलअसंखज्जेइभाग। सुगमम्, नवरं जघन्यपदोत्कृष्टपदयोस्तुल्यश्रुतावपि जघन्यपदादुत्कृष्ट पदमधिकमवसातव्यम् / जी०१ प्रति०। प्रकारान्तरेण पृथिवीकायिकावगाहनाप्रमाणमाहपुढवीकाइयस्सणं भंते ! के महालया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! से जहाणामए रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स वण्णगपेसिया तरुणी बलवं जुगवं जुवा अप्पायंका वण्णओ० जाव निपुणसिप्पोवगया णवरं चम्मेठ्ठदुहणमुट्ठियसमाहयणिचियगत्तकाया न भण्णइ, सेसं तं चेव० जाव निपुणसिप्पोवगया तिक्खाए वइरामईए सण्हकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं बट्टा वरएणं एग महपुढवीकाइयं जतुगोलासमाण गहाय पडिसाहरिय पडिसाहरिय पडिसंखिय पडिसंखिय जाव इणामेव त्ति कटु त्ति सत्तक्खुत्तो उ पीसेज्जा, तत्थ णं गोयमा! अत्थेगइया पुढवीकाइया आलद्धा अत्थेगइया णो आलद्धा अत्थेगइया संघट्टिया अत्थेगइया णो संघट्टिया अत्थेगइया परियाविता अत्थेगइया णो परियाविया अत्थेगइया उद्दविया अत्थेगइया णो उद्दविया अत्थेगइया पिट्ठा अत्थेगइया णो पिट्ठा। पुढवीकाइयस्सणं गोयमा ! ए महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता। Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 683- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय (पुढवीत्यादि) (वण्णगपेसिय त्ति) चन्दनपेषिका तरुणीति प्रवर्द्धमानवयाः बलवती सामर्थ्यवती (जुगवं ति) सुषमदुःषमाऽऽदि- | विशिष्टकालवती (जुवाणि त्ति) वयःप्राप्ता (अप्पायंक त्ति) नीरोगा (दण्णओ त्ति) अनेनेदं सूचितम् (थिरग्गहत्था दढपाणिपायपिट्ठतरोरुपरिणयेत्यादि) इह च वर्णके- "चम्मट्ठदुहणा'' इत्याद्यप्यधीतं तदिह न वाच्यम्, एतस्य विशेषणस्य स्त्रिया असम्भवात्। अत एवाऽऽह(चम्मेद्वदुहणमुट्ठियसमाहयनिचियगत्तकाया न भण्णइ त्ति) तत्र च चम्म टाकाऽऽदीनि व्यायामक्रियायामुपकरणानि तैः समाहतानि व्यायामप्रवृत्तावत एव निचितानि च घनीभूतानि गात्राण्यङ्गानि यत्र स तथाविधः कायो यस्याः सा तथेति / (तिक्खाए त्ति) / परुषायाम्। (वइरामइए त्ति) वज़मय्यां, सा हि नीरन्धा कठिना च भवति / (सण्हकरणीए त्ति) श्लक्ष्णानि चूर्णरूपाणि द्रव्याणि क्रियन्ते यस्यां सा श्लक्ष्णकरणी पेषणशिला, तस्याम् (वट्टावरएणं ति) वर्तकवरेण लोष्टकप्रधानेन (पुढविकाइय ति) पृथिवीकायिकसमुदयम्। (जतुगोलासमाण ति) डिम्भरूपक्रीडनकजतुगोलकप्रमाण, नातिमहान्तमित्यर्थः (पडिसाहरिएत्यादि) इह प्रतिसंहरण शिलायाः शिलापुत्रकाच संहृत्य पिण्डीकरणं, तिसंक्षेपणं तु शिलायाः पततः संरक्षणम् (अत्थेगइय त्ति) सन्त्येके कंचन (आलिद्धत्ति) आदिग्धाः शिलायां शिलापुत्रके च लग्राः (संघट्टिय त्ति) संघर्षिताः। (परिताविय त्ति) पीडिताः (उद्दविय त्ति) मारिताः, कथं यतः (पिट्ट त्ति) पिष्टाः (ए महालिय त्ति) (एवं महतीइ त्ति) महति वाति सूक्ष्मेति भावः, यतो विशिष्टायामपि पेषणसामन्यां केचिन्न पिष्टा नैव च छुप्ता अपीति (अत्थेगइया संघट्टिय त्ति)। भ० 16 श०३उ०॥ सहननद्वारमाहतेसि गं भंते ! जीवाणं सरीरा किं संघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छेवट्ठसंधयणा पण्णत्ता। तेषां भदन्त ! जीवानां शरीरकाणि किंसंहननानि प्राप्तानि? संहननं नाम अस्थिनिचयरूपं, तच्च पोढा / जी०१ प्रति०। (संहननभेदान् 'संहनन' शब्दे वक्ष्यामि) संप्रतिसंस्थानद्वारमाहतेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा! | मसूरचंदसंठिया पण्णत्ता। सुगमम्। नवरं (मसूरचंदसंठिया इति) मसूरकाऽऽख्यधान्यविशेषस्य यत् चन्द्राऽऽकृति दलं स मसूरकचन्द्रस्तद्गत् संस्थितानि / अत्राय भावार्थः-इह जीवानां षट्संस्थानानि समचतुरस्राऽऽदीनि वक्ष्यमाणलक्षणानि तेषामाघानिपञ्चसंहननानि मसूरचन्द्रकाऽऽकारेण संभवन्ति, तल्लक्षणायोगात्तत इदं मसूरचन्द्राऽऽकार संस्थान हुण्डं प्रतिपत्तव्यं, सर्वत्रासंस्थितत्वरूपस्य तल्लक्षणस्य योगात्, जीवानां संस्थानान्तराभावाच्च / आह च मूलटीकाकार:- संस्थानं मसूरचन्द्रकसंस्थितमपि हुण्ड सर्वत्रासंस्थितत्वेन तल्लक्षणयोगात् जीवानां संस्थानान्तराभावाच्चति / गत संस्थानद्वारम्। अधुना कषायद्वारमाह तेसि णं भंते ! जीवाणं कति कसाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता / तं जहा-कोहकसाते, माणकसाते, मायाकसाते, लोभकसाए। तेषां भदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिकाना कति कषायाः प्रज्ञप्ताः? तत्र कषाया नाम कष्यन्ते हिंस्यन्ते परस्परमरिमन् प्राणिन इति कषः संसारस्तमयन्ते गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः क्रोधाऽऽदयः परिणामविशेषाः। तथा चाऽऽह- (गोयमेत्यादि) सुगम,नवर क्रोधोऽप्रीति परीणामो, मानो गर्वपरिणामो, माया निकृतिरूपा, लोभो गायलक्षणः / एते च क्रोधाऽऽदयोऽमीषा मन्दपरिणामतयाऽनुपदर्शितबाहाशरीरविकारा एवानाभोगतस्तथा तथा वैचित्र्येण भवन्तः प्रतिपत्तव्याः / गत कषायद्वारम्। संज्ञाद्वारमाहतेसिणं भंते ! जीवाणं कति सन्नाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! चत्तारि सण्णाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-आहारसण्णा० जाव परिग्गहसण्णा। सुगमम, नवरं संज्ञानं संज्ञा; सा च द्विधा-ज्ञानरूपा, अनुभवरूपाच। तत्र ज्ञानरूपा मतिश्रुतावधिमन पर्यायकेवलभेदात्पञ्चप्रकारा, तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी, शेषास्तु क्षायोपशमिकाः अनुभवसंज्ञा स्वकृताऽऽसातवेदनीयाऽऽदिकर्मविपाकोदयसमुत्थाः। इह प्रयोजनमुनभवसंज्ञया ज्ञानसंज्ञायास्तद्वारेण परिगृहीतत्वात्, तत्राऽऽहारसंज्ञानाम आहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयप्रभवः खल्वात्मपरिणामविशेषः, एष चासातवेदनीयोदयादुपजायते / भयसंज्ञा भयवेदनीयोदयजनितत्रासपरिणामरूपा, परिग्रहसंज्ञा लोभविपाकोदयसमुत्थमूपिरिणामरूपा मैथुनसंज्ञा वेदोदयजनितो मैथुनाभिलाषः। एताश्चतस्रोऽपि मोहनीयोदयप्रभवाः, एता अपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामव्यक्तरूपाः प्रतिपत्तव्याः / गतं संज्ञाद्वारम्। अधुना लेश्याद्वारमाहतेसिणं भंते ! जीवाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तओ लेसाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-कण्हलेसा, नीललेसा, काउलेसा। सुगमम् / नवरं लिश्यते श्लिष्यते आत्मा कर्मणा सहाऽनयेति लेश्या कृष्णाऽऽदिद्रव्यसाचिव्यादात्मनः शुभाशुभरूपः परिणामः। उक्तं च"कृष्णाऽऽदिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते।।१।।" सा चषोढा / तद्यथा-कृष्णलेश्या 1 नीललेश्या 2 कापोतलेश्या 3 तेजोलेश्या 4 पद्मलेश्या 5 शुक्ललेश्या 6 आसां च स्वरूपं जम्बूफलखादकषट्पुरुषदृष्टान्तेनैवमवसेयम्। "पंथा उवरिभट्टा, छप्पुरिसा अडविमज्झयारम्मि! जम्बूतरुस्स हेट्ठा, परोप्पर ते विचिंतें ति।।१।। निम्मूलखंघसाला, गोच्छे पक्के य सडियाई। जह एएसि भावा, तह लेसाओ वि नायव्वा / / 2 / / " अमीषां च सूक्ष्मपृथिवीकायिकानामतिसंक्लिष्टपरिणामत्वाद्देवेभ्यः सूक्ष्मेष्वऽनुत्पादाच्चाद्याएव तिस्रः कृष्णनीलकापोतरूपा लेश्या नशेषा इति / गतं लेश्याद्वारम्। Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 684 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय इदानीमिन्द्रियद्वारमाहतेसि णं भंते ! जीवाणं कति इंदियाइं पन्नत्ताइं? गोयमा ! एगे फासिंदियए पण्णत्ते। इन्द्रियं नाम- इदुपरमैश्वर्य , "उदितः" इति नुम। इन्दनादिन्द्र आत्मा सर्वोपलब्धिरूपपरमैश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्ग चिह्नमविनाभावि इन्द्रियम् इन्द्रियमिति निपातनसूत्रादूपनिष्पत्तिः। तत्पञ्चधा। तद्यथा- श्रोत्रेन्द्रियं, चक्षुरिन्द्रियं, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रियं च / एकैकमपि द्विधाद्रव्येन्द्रियम्, भायेन्द्रियं च / द्रव्येन्द्रियं द्विधा-निर्वृत्तिरूपम्, उपकरणरूपं च / निर्वृत्ति म प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः / साऽपि द्विधावाह्या, अभ्यन्तरा च / तत्र बाह्या कर्णपर्पटिकाऽऽदिरूपा। सा च विचित्रा न प्रतिनियतरूपतया निर्देष्टुं शक्यते / (जी०) गोयमेत्यादि सुगमम् / गतमिन्द्रियद्वारम्। अधुना समुद्धातद्वारम् - तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-वेयणासमुग्धाते, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाते। अनेकसमुद्घातसंभवे सूक्ष्मपृथिवीकायिकाना तान पृच्छति-(तेसि णं भंते ! इत्यादि) सुगमम्। नवरं वैक्रियाऽऽहारकतैजसकेवलिसमुद्धाताभावे वैक्रियाऽऽदिलब्ध्यभावात् / गत समुद्घातद्वारम्। संप्रति संज्ञिद्वारमाहते णं भंते ! जीवा किं सन्नी, असन्नी? गोयमा ! नो सन्नी, असन्नी। ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, णमिति वाक्यालंकारे, भदन्त ! जी वाः किं संझिनोऽसंज्ञिनो वा, संज्ञानं संज्ञा भूतभवद्भाविभाव पर्यालोचनं, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः विशिष्टस्मरणाऽऽदि रूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः, यथोक्तमनोविज्ञानविकला असंज्ञिनः / अत्र भगवान्निर्वचनमाहगौतम ! नो संज्ञिनः, किं त्वऽसंज्ञिनः, विशिष्ट मनोलब्ध्यभावात्, हेतुवादोपदेशेनाऽपि न संज्ञिनोऽभिसंधारणपूर्विकायाः करणशक्तेरभावात्, इहासंज्ञिन इत्येव सिद्धे नोसज्ञिन इति प्रतिषेधः, प्रतिषेधप्रधानो विधिरयमिति ज्ञापनार्थं प्रतिपाद्यस्य प्रकृतिसावद्यत्वादिति। गतं संज्ञिद्वारम्। वेदद्वारमाहते णं भंते ! जीवा किं इत्थिवेयया, पुरिसवेयया, नपुंसगवे यया? गोयमा ! नो इत्थिवे या, णो पुरिसवे या, नपुंसगवेया। (इत्थिवेयगा इति) स्त्रिया वेदो येषां ते स्त्रीवेदकाः, एवं पुरुषवेदका नपुंसकवेदका इत्यपि भावनीयम्, तत्र स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः स्त्रीवेदः, पुसः स्त्रियामभिलाषः पुंवेदः, उभयोरप्यऽभिलाषो नपुंसकवेदः / भगवानाह- गौतम ! न स्त्रीवेदकाः, न पुरुषवेदकाः, नपुंसकवेदकाः, संमूर्छिमत्त्वात्। 'नारकसंमूर्छिमा नपुंसकाः" इति भगवद्वचनम्। पर्याप्तिद्वारमाहतेसिणं भंते ! जीवाणं कइ पज्जत्तीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि पञ्जत्तीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-आहारपज्जत्ती, सरीरपज्जत्ती, इंदियपज्जत्ती, आणापाणुपज्जत्ती। "तेसिणं भंते !'' इत्यादि सुगमम् / पर्याप्तिप्रतिपक्षा अपर्याप्तिस्तन्निरूपणार्थमाहतेसि णं भंते ! जीवाणं कति अपज्जत्तीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि अपज्जत्तीओ पण्णत्तातो / तं जहा-आहारअपज्जत्ती० जाव आणापाणुअपज्जत्ती। (तेसि ण भते ! इत्यादि) पाठसिद्धम्, नवरं चतस्रोऽप्यपर्याप्तयः करणापेक्षया द्रष्टव्याः, लब्ध्यपेक्षया त्वेकैव प्राणापानपर्याप्तिर्य - स्मादेवमागम इह लब्ध्यऽपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव मियन्ते, नार्वाक्, यत् आगामिभवाऽऽयुर्बध्वा मियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाऽऽहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तानामेव बन्धमायान्तीति। सम्प्रति दृष्टिमाहतेणं भंते ! जीवा किं सम्मट्ठिी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी? गोयमा ! णो सम्महिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्मामिच्छादिट्ठी। (तेसि णं इत्यादि) सुगमम, नवरं सम्यग् अविपरीता दृष्टिर्जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्येषां ते सम्यग्दृष्टयः, मिथ्या विपर्यस्ता दृष्टिर्येषा भक्षितहत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् ते मिथ्यादृष्टयः, एकान्तसम्यग्पमिथ्यारूपप्रतिपत्तिविकलाः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः / निर्वचनसूत्रम्- (गोयमेत्यादि) सुगमम् / नवरं सम्यग्दृष्टित्वप्रतिषेधः सास्वादनसम्यक्त्वस्यापि तेषामसंभवात्. सास्वादनसम्यक्त्ववता तन्मध्ये उत्पादाभावात्, ते ह्यतिसंक्लिष्टपरिणामाः सास्वादनसम्यक्त्वपरिणामस्तु मनाक् शुभ इति तन्मध्ये सास्वादनसम्यक्त्ववतामुत्पादाभावः, अत एव सदा संक्लिष्टपरिणामत्वात्तेषां सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वपरिणामोऽपि न भवति, नाऽपि सम्यमिथ्यादृष्टिः सन् तन्मध्ये उत्पद्यते 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं।'' इति वचनात् / गतं दृष्टिद्वारम्। अधुना दर्शनद्वारम् - ते णं भंते ! जीवा किं चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी, ओहिदसणी, केवलदसणी? गोयमा ! नो चक्खुदंसणी, अचक्खुदसणी, नो ओहिदसणी, नो केवलदसणी। दर्शनं नाम सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि सामान्यावबोधस्तचतुर्द्धा / तद्यथा- चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम्, अवधिदर्शनं, केवलदर्शनं च / तत्र सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि चक्षुषा दर्शन रूपसामान्यपरिच्छेदश्वक्षुर्दर्शनम्, अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिः दर्शनम् अचक्षुर्दर्शनम्, अवधेरेव दर्शनं रूपिसामान्यग्रहणम् अवधिदर्शनं, केवलमेव दर्शनं सकलजगद्भाविवस्तुसामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनं, तत्र किमेषा दर्शनमिति जिज्ञासुः पृच्छति-(ते णं भंते ! इत्यादि) पाठसिद्धम् / नवरमचक्षुर्दशनित्वं स्पर्शनेन्द्रियापेक्षया शेषदर्शनप्रतिषेधः सुज्ञातः / गत दर्शनद्वारम्। ज्ञानद्वारमाहते णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी? गोयमा ! नोनाणी अन्नाणी नियमा दुअन्नाणी। तं जहा- मतिअन्नाणी य, सुयअनाणीय। Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 685 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय अज्ञानित्वं मिथ्यादृष्टित्वात्, तदपि चाज्ञानित्वं मत्यऽज्ञानश्रुताज्ञानापेक्षया / तथा चाऽऽह- (नियमा दुअण्णाणीत्यादि) पाठसिद्ध, नवरं तदपि मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं च शेषजीवबादराऽऽदिराश्यपेक्षयाऽत्यन्तमल्पीयः प्रतिपत्तव्यम्।यत उक्तम्"सर्वनिकृष्टो जीव-स्य दृष्ट उपयोग एष वीरेण। सूक्ष्मनिगोदापर्या-सानां स च भवति विज्ञेयः / / 1 / / तस्मात् प्रभृति ज्ञानविवृ-द्धिदृष्टा जिनेन जीवानाम्। लब्धिनिमित्तैः करणैः, कायेन्द्रियवाङ्मनोदृग्भिः / / 2 / / " योगद्वारमाहतेणं भंते ! जीवा किं मणजोगी वइजोगी कायजोगी? गोयमा ! नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। पाठसिद्धम् / गतं योगद्वारम्। अधुनोपयोगद्वारम्ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि। तत्रोपयोगो द्विविधः-साकारोऽनाकारश्च / तत्राऽऽकारः प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामः, "आकारोउ विसेसो'' इति वचनात्। सह आकारो यस्य येन वा स साकारो ज्ञानपशकमज्ञानत्रिकम, यथोक्ताऽऽकारविकलोऽनाकरः, स चक्षुर्दर्शनाऽऽदिको दर्शनचतुष्टयाऽऽत्मकः / उक्तं च- "ज्ञानाज्ञाने पञ्च, त्रिविकल्प सोऽष्टधातु साकारः / चक्षुरऽचक्षुरवधिकंवलदृग्विषयस्त्वऽनाकारः / / 1 // तत्र क एषामुपयोग इति जिज्ञासुः पृच्छति-(ते ण भंते ! इत्यादि) निगदसिद्ध, नवरं साकारोपयोगोपयुक्ता मत्यज्ञान श्रुताज्ञानोपयोगापेक्षया अनाकारोपयोगोपयुक्तो असंख्यातप्रदेशाऽऽत्मका अचक्षुर्दर्शनोपयोगापेक्षया इति। साम्प्रतमाहारद्वारमाहते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दव्वओ अणंतपदेसियाई दवाइं, खेत्ततो असंखेजपदेसोगाढाइं, कालओ अण्णयरसमयद्वितीयाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई। सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, णमिति वाक्यालंकारे। (भंते ! जीवा किमाहारेंति) भदन्त ! ते जीवाः किमाहारमाहारयन्ति? भगवानाहगौतम! द्रव्यतो द्रव्यस्वरूपपर्यालोचनायाम अनन्तप्रादेशिकानिद्रव्याणि अन्यथा ग्रहणासंभवात्, न हि संख्याप्रदेशाऽऽत्मका असख्यातप्रदेशाऽऽत्मका वा स्कन्धा जीवस्य ग्रहणप्रायोग्या भवन्ति, क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढानि, कालतोऽन्यतरस्थितिकानि जघन्यस्थितिकानि, मध्यमस्थितिकानि उत्कृष्टस्थितिकानि चेति भावार्थः / स्थितिरिहाऽऽहारयोग्यस्कन्धपरिणामत्वे भावस्थानं प्रत्येतव्यमाह मूलटीकाकार:कालतोऽन्यतरस्थितीनि तद्भावावस्थानेन जघन्याऽऽदिरूपां स्थितिम- | धिकृत्येति भावतो वर्णवन्ति गन्धवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति, प्रतिपरमाण्वेकेकवर्णगन्धरसद्विस्पर्शभावात् / जी०१ प्रति०। भ० जाइं भावओ वन्नमंताई आहारेंति ताई किं एगवन्नाई आहारेंति, दुवन्नाई आहारेंति, तउवण्णाई आहारेंति, चउवण्णाई आहारेंति पंचवण्णाइं आहारेंति? गोयमा ! ठाणमग्गाणं पडुच्च तेगवण्णाई पि दुवण्णाई पि तिवण्णाई पि चउवण्णाई पि पंचवण्णाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालाई पि आहारेंति० जाव सुक्किलाई पि आहारेंति / जाई वण्णओ कालाई पि आहारेति ताई किं एगगुणकालाई पि आहारेंति० जाव अणंतगुणकालाई आहारेंति? गोयमा ! एगगुणकालाई पि आहारेंति० जाव अणंतगुणकालाई पि आहारेंति, एवं० जाव सुकिलाई / जाई भावतो गंधमंताई आहारेति ताई किं एगगंधाई आहारेंति दुगंधाइं आहारेंति? गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगगंधाई पि आहारेंति दुगंधाइं पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच सुडिभगंधाई पि आहारेंति दुभिगंधाई आहारेति / जाई गंधओ सुन्भिगंधाई आहारेंति ताई किं एगगुणसुटिभगंधाई आहारेंति० जाव अणंतगुणसुडिभगंधाइं आहारेंति? गोयमा ! एगगुणसुब्भिगंधाइं पि आहारेंति०जाव अणंतगुणसुडिभंगंधाई पि आहारेंति, एवं दुब्भिगंधाई पि रसा जहा वण्णा / जाइं भावतो फासमंताई आहारेति ताई किं एगफासाइं आहारैतिजाव अट्ठफासाई आहारेंति? गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच नो एगफासाइं आहारेंति नो दोफासाइं आहारेंति नो तिफासाइं आहारेंति, चउफासाई आहारेंति, पंचफासाइं पि०जाव अट्ठफासाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच कक्खडाई पि आहारैतिजाव लुक्खाई पि आहारेंति / जाइं फासतो कक्खडाई पि आहारेति ताई किं एगगुणकक्खडाई पि आहारैतिजाव अणंतगुण-कक्खडाई आहारेंति? गोयमा ! एगगुणकक्खडाई पि आहारैति० जाव अणंतगुणकक्खडाइं पि आहारेंति, एवं०जाव लुक्खा नेयव्वा। प्रश्रसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- (गोयमा ! ठाणमग्गणं पञ्च त्ति) तिष्ठन्ति विशेषा अस्मिन्निति स्थानं सामान्यम्एकवर्ण द्विवर्ण त्रिवर्णमित्यादिरूप तस्य मार्गणमन्वेषणं तत् प्रतीत्य, सामान्यचिन्तामाश्रित्येति भावार्थः / एकवर्णान्यपि द्विवर्णान्यपीत्यादि सुगम, नवरं तेषामनन्तप्रदेशिकाना स्कन्धानामेकवर्णत्वं द्विवर्णत्वमित्यादि व्यवहारनयमतापेक्षया. निश्चय नयमतापेक्षया त्वनन्तप्रादेशिकः स्कन्धोऽल्पीयानपि पञ्चवर्ण एव प्रतिपत्तव्यः / (विहाणमग्गण पडु चेत्यादि) विविक्तमितरव्यवच्छिन्नं, धानं पोषणं स्वरूपस्य यत्तत् प्रतीत्य सामान्यचिन्तामाश्रित्य विधानं विशेषकृष्णो नील इत्यादि प्रतिनियतो वर्णविशेष इति यावत, तस्य मार्गणं तत् प्रतीत्य कालवर्णान्यप्याहारयन्तीत्यादि सुगम, नवरमेतदपि व्यवहारतः प्रतिपत्तव्यम्, निश्चयतः पुनरवश्यं तानिपञ्चवर्णान्येव। (जाइंवणतो कालवण्णाइंइत्या Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 986 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय दि) सुगमम्। यावत्-(अनंतगुणसुक्किलाई पि आहारेंति) एवं गन्धरसस्पर्शविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि। जाई भंते ! अणंतगुणलुक्खाइं आहारेति ताई भंते ! किं पुट्ठाई आहारें ति, अपुट्ठाई आहारेंति? गोयमा ! पुट्ठाई आहारे ति, | नो अपुट्ठाई आहारेंति / ताइं भंते ! किं ओगाढाई आहारेंति, अणोगाढाइं? गोयमा ! ओगाढाई आहारैति, नो अणोगाढाई आहारैति। ताइं भंते ! किमणंतरोगाढाई आहारैति, परंपरोगाढाई आहारैति? गोयमा ! अणंतरोगाढाई आहारेंति,नो परंपरोगाढाई आहारैति। (जाइं भंते ! अणंतगुणलुक्खाइं इत्यादि) यानि भदन्त ! अनन्तगुणरूक्षाणि, उपलक्षणमेतत् एकगुणकालाऽऽदीन्यपि आहारयन्ति, तानि स्पृष्टानि आत्मप्रदेशस्पर्शविषयाण्याहारयन्ति, उतास्पृष्टानि? भगवानाह स्पृष्टानि, नो अस्पृष्टानि, तत्राऽऽत्मप्रदेशैः संस्पर्शनमात्मप्रदेशाऽवगाढक्षेत्राद् बहिरपि संभवति। ततः प्रश्नयति- (जाइं भंते ! इत्यादि) यानि भदन्त ! स्पृष्टान्याहारयन्ति तानि किमवगाढानि आत्मप्रदेशैः सह एकक्षेत्रावस्थायीनि, उत अनवगाढानि आत्मप्रदेशावगाढाऽवगाहनक्षेत्राद् बहिरवस्थितानि? भगवानाह-गौतम! अवगाढान्याहारयन्ति नाऽनवगाढानि / यानि भदन्त ! अवगाढान्याहारयन्ति, तानि किमनन्तरावगाढानि / किमुक्तं भवति?येष्वात्मप्रदेशेषु यान्यव्यवधानेनावगाढानि तैरात्मप्रदेशैस्तान्येवाहारयन्ति, उत परम्परावगाढानिएकद्वित्र्याद्यात्मप्रदेशव्यवहितानि? भगवानाह-गौतम ! अनन्तरावगाढानि, न परम्परावगाढानि। ताई मंते ! किं अणूई आहारेंति, बायराइं आहारैति? गोयमा ! अणूइं पि आहारेंति, बायराइं पि आहारैति। यानि भदन्त ! अनन्तरावगाढान्याहारयन्ति, तानि भदन्त ! अनन्तप्रादेशिकानि द्रव्याणि किमणूनि स्तोकान्य हारयन्ति, उत बादराणि प्रभूतप्रदेशोपचितानि? भगवानाह- अणून्यपि आहारयन्ति, बादराण्यपि आहारयन्ति, इहाणुत्वबादरत्वे तेषामेवाऽऽहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकत्वबाहुल्यापेक्षया प्रज्ञापनामूलटीकाकारेणाऽपि व्याख्याते, इतोऽस्माभिरपि तथैवाभिहिते। ताई भंते ! किं उद्धं आहारति, अहे आहारैति, तिरियं आहारैति? गोयमा ! उद्धं पि आहारति, अहे वि आहारति, तिरियं पि आहारैति। * भदन्त ! यानि अणून्यपि आहारयन्ति तानि किमूर्द्धप्रदेश स्थितान्याहारयन्ति, अधस्तिर्यग्वा? इहोधिस्तिर्यक्त्वं यावति क्षेत्रे सूक्ष्मपृथिवीकायिकोऽवगाढस्तावत्येव क्षेत्रे तदपेक्षया परिभावनीयम्? भगवानाह- ऊर्द्धमप्याहारयन्ति ऊर्द्धप्रदेशावगाढान्यप्याहारयन्ति, एवमधोऽपि, तिर्यगपि। ताइं भंते ! किं आदिं आहारेंति, मज्झे आहारति, पञ्जवसाणे आहारेंति? गोयमा ! आदि पि आहारैति, मज्झे वि आहारेंति, पज्जवमाणे वि आहारैति। यानि भदन्त ! उर्द्धमप्याहारयन्ति, अधोऽप्याहारयन्ति, तिर्यगप्याहारयन्ति, तानि किमादावाहारयन्ति, मध्ये वाऽऽहारयन्ति, पर्यवसाने वा आहारयन्ति? अयमत्राभिप्रायः-सूक्ष्मपृथिवीकायिका हि अनन्तप्रादेशकानिद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त कालं यावदुपभोगोचितानि गृह्णन्ति ततः संशयःकिमुपभोगीचितस्य कालस्यान्तर्मुहूर्तप्रमाणस्याऽऽदौ प्रथमसमये आहारयन्ति, उतमध्यसमये, आहोस्वित्! पर्यवसाने पर्यवसानसमये? भगवानाह- गौतम! आदावपि, मध्येऽपि, पर्यवसानेऽपि आहारयन्ति। किमुक्तं भवति? उपभोगोचितकालस्यान्तर्मुहूर्सप्रमाणस्याऽऽदिमध्यावसानसमयेष्वाहारयन्ति इति। ताई भंते ! किं सविसए आहारेंति, अविसए आहारैति? गोयमा ! सविसए आहारेंति, नो अविसए आहारैति। यानि भदन्त ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽप्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किं स्वविषयाणि स्वोचिताऽऽहारयोग्यानि आहारयन्ति, उत अविषयाणि स्वोचिताऽऽहाराऽयोग्यानि आहारयन्ति? भगवानाहगौतम ! स्वोवषयाण्याहारयन्ति, नो अविषयाणि। ताई भंते ! किं आणुपुव्विं आहारेंति, अणाणुपुट्विं आहारैति? गोयमा ! आणुपुट्विं आहारेंति, नो अणाणुपुट्विं आहारैति / ताई भंते ! कति दिसं आहारेंति? गोयमा ! निव्वाधाएणं छद्दिसिं, वाघातं पडुच सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं, उस्सण्णकारणं पडुच वण्णतो कालनील जाव सुकिलाई, गंधओ सुन्भिगंधाई दुब्भिगंधाइं, रसतोजाव तित्तमहुराई, फासओ कक्खडमउय० जाव निद्धलुक्खाई तेसिं पोराणे वण्णगुणे०जावफासगुणे विपरिणामतित्ता परिपीलइत्ता परिससाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता अन्ने अपुटवे वण्णगुणे गंधगुणे०जाव फासगुणे उप्पाएत्ता आतसरीरतोगाढे पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारमाहारेति। यानि भदन्त ! स्वविषयाण्याहारयन्ति तानि भदन्त ! किमानुपूर्व्या आहारयन्ति, अनानुपूर्व्या आहारयन्ति? आनुपूर्वी नाम यथासन्नम्। (जी०) (आनुपूर्वीभेदाः 'आणुपुव्वी' शब्दे द्वितीयभागे 130 पृष्ठादारभ्य दर्शिताः) तद्विपरीता अनानुपूर्वी। भगवानाह- गौतम ! आनुपूा , सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे वेदितव्या, प्राकृतत्वात्, यथा आचाराङ्गे- "अगणिं पुट्ठा" इत्यत्र आहारयन्ति, नो अनानुपूा ऊर्द्धमधस्तिर्यग्या यथासन्नं नातिक्रम्याऽऽहारयन्तीति भावः / यानि भदन्त ! आनुपूर्त्या आहारयन्ति तानि भदन्त ! (किं तिदिसिं ति) तिम्रो दिशः समाहृतास्त्रिदिक् तस्मिन् व्यवस्थितानि आहारयन्ति, चतुर्दिशि पञ्चदिशि षट् दिशि वा / इहलोकनिष्कुटपर्यन्ते जघन्यपदेऽपि त्रिदिग्व्यवस्थितमेव प्राप्यते, तद्विदिग्व्यवस्थितमेकदिक्व्यवस्थितं या अतस्त्रिदिश आरभ्य प्रश्नः कृतः? भगवानाह- गौतम ! (निव्वाघाएणं छद्दिसिं इत्यादि) व्याघातो नामअलोकाऽऽकाशेन प्रतिस्खलनं व्याघातस्याऽभावो निर्व्याघात, शब्दप्रथादा (प्रवादा) वव्ययं पूर्वपदार्थे नित्यमव्ययीभाव इत्यव्ययीभावः, तेन तृतीयाया इति विकल्पेनाम्भावविधानात्पक्षेऽत्रामूभावः नियमादेवश्यतया षड्दिशिव्यवस्थितानि Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 687- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय षड्भ्यो दिग्भ्य आगतानीति भावः / द्रव्याण्याहारयन्ति, व्याघातं पुनः प्रतीत्य लोकनिष्कुटाऽऽदौ स्यात् कदाचित् त्रिदिशि त्रिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि कदाचिचतसृभ्यः कदाचित् पञ्चभ्यः / काऽत्र भावेनेति चेत? उच्यते-इह लोकनिष्कुटे पर्यन्ताधस्त्यप्रतरायकोणावस्थितो यदा सूक्ष्मपृथिदीकायिको वर्तते, तदा तस्याधस्तादलोकेन व्याप्तत्वात पुद्गलाभावः आग्नेयकोणावस्थितत्वात् पूर्वदिक पुद्गलाभावो दक्षिणदिक्पुद्रलाभावश्च। एवमधः पूर्वदक्षिणरूपाणां तिसृणा दिशामलोकेन व्यापनात् ताअपास्य या परिशेषा ऊर्धा अपरा उत्तरा च दिग्व्याहता वर्तते रात आगतान् पुदलान् आहारयन्ति,यदा पुनः स एव पृथिवीकायिकः पश्चिमां दिशमनुसृत्य वर्तते तदा पूर्वदिगभ्यधिका जाता, द्वे च दिशो दक्षिणाधस्त्यरूपे अलोकेन व्याहते इति स चतुर्दिगागतान् पुद्गलानाहारयति, यदा पुनरूद्ध द्वितीयाऽऽदिप्रतरगतपश्चिमदिशमऽवलम्ब्य तिष्ठति तदा अधस्याऽपि दिगभ्यधिका लभ्यते, केवला दक्षिणैवैका पर्यन्तवर्तिनी अलोकेन व्याहतेति पञ्चदिग्गतान पुद्गलानाहारयति (वण्णतो इत्यादि) वर्णतः कालनीललोहितहारिद्रशुल्कानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि वा, रसतस्तिक्तानियावत् मधुराणि, स्पर्शतः कर्कशानियावत कक्षाणि, तेषामाहार्यमाणाना पुद्गलानां पुराणान् अग्रेतनान् वर्णगुणान गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् विपरिणाइत्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धसइत्ता।'' एतानि चत्वार्यपि पदानि एकार्थिकानि विनाशार्थप्रतिपादकानि नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपात्तानि / विनाश्य किमित्याह- अन्यानपूवान् वर्णगुणान् गन्धगुणान् रसगुणान् स्पर्शगुणान् उत्पाद्याऽ:त्मशरीरक्षेत्रावगाढान् पुदगलान (सव्वप्पणया) सर्वाऽऽत्मना सर्वराहाररूपान् पुद्गलानाहारयन्ति / गतमाहारद्वारम्। जी०१ प्रति०। | यदाहरयति तचीयतेते णं भंते ! जीवा जमाहारेंति तं चिज्जंति, जंणो आहारेंति तं णो चिजंति, चिण्णे वा से उद्दाइ बलिसप्पति वा? हंता गोयमा ! ते णं जीवा जमाहारेंति, जं नो० जाव बलिसप्पंति वा। (तं चिज्जइ ति) तत्पुद्गलजातं शरीरेन्द्रियतया परिणमतीत्यर्थः। / (चिण्णे वा से उद्दाइ त्ति) चीपण वाऽऽहारित (रो) तत् पुद्गलजातमपद्रवत्यपयाति विनश्यति, मलवत् सारश्चास्य शरीरेन्द्रियतया परिणमति एतदेवाऽऽह- (पलिसप्पइ त्ति) परिसर्पति च समन्ताद् गच्छतीति। भ० 16 श०३ उ०। साम्प्रतमुपपातद्वारमाहते णं भंते ! जीवा कतोहिंतो उववजंति-किं नेरइएहिंतो उववचंति, तिरक्खजे णिएहिंतो उववज्जति, मणुस्से हितो उववजंति, देवेहिंतो उववजंति? गोयमा ! नो नेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खजो णिएहिंतो उववअंति, मणुस्सेहिंतो उववजंति, नो देवेहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणियपजत्ता पज्जत्तेहिंतो असंखेज्जवासाउयवजेहिंतो मणुस्सेहिंतो अकम्म भूमिगअसंखेज वासउयवज्जेहिंतो उववजंति, वकं ति। उववातो भाणियव्वो। भदन्त ! सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः कुतः केभ्यो जीवेभ्य उद्वृत्योत्पद्यन्ते-वि नरयिकेभ्य इत्यादि प्रतीतम्? भगवानाह- गौतम ! नो नैरयिकभ्य इत्यादि पाउसिद्धं नवरं देवनेरयिकेभ्य उत्पालप्रतिषेधो, देवनेरयिकाणां तथा भवरतभावतया तन्मध्ये उत्पादासम्भवात्। (जहा वक्कतीए इति) यथा प्रज्ञापनायां व्युत्क्रान्तिपदे तथा ववतव्यम्। तचैवम्तिर्यग्योनिभ्योऽप्युत्पादः पर्याप्तभ्यो वा केवलमसंख्यातवर्षाऽऽयुष्कवर्जितभ्यो मनुष्येभ्योऽपि अकर्मभूमिजान्तरद्वीपजासंख्यातवर्षाऽऽयुककर्मभूमिजव्यतिरिक्तेभ्यः पयप्तिभ्योऽपर्याप्तेभ्यो वेति। गतमुपपातद्वारम्। अधुना स्थितिद्वारमाहतेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / (तेसि णं भंते ! इत्यादि) सुगम, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदमधिकमवसेयम् / गतं स्थितिद्वारम्। अधुना समुद्घातमधिकृत्य मरणं विचिन्तयिषुराहते णं भंते! जीवा मारणंतियसमुग्घातेणं किं समोहया मरंति, असमोहया मरंति। गोयमा ! समोहतावि मरंति, असमोहतावि मरंति। (ते णं भंते / इत्यादि) सुगमम् / उभयथापि मरणसंभवात् च्यवनद्वारमाहते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववजंति-किं ने रइएसु उववजं ति, तिरिक्खजोणिएस उववजंति, मणुस्सेसु उववजंति, देवेसु उववजंति? गोयमा ! नो नेरइएसु उववअंति, तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, मणुस्सेसु उववजंति, नो देवेसु उववजंति, तिरिक्खजोणिएसु उववखंति। किं एगिदिएसु उववअंति० जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंति? गोयमा ! एगिदिएसु उववअंति० जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंति असंखेजवासाऽऽउयवज्जेसु पज्जत्तापज्जत्तएसु उववजंति, मणुस्सेसु अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेजवा साऽऽउयवज्जेसु पज्जत्तापज्जत्तएसु उववजंति। ते सुक्ष्मपृथिवीकायिका भदन्त ! जीवा अनन्तरमुढत्य सूक्ष्मपृथिवीकायिकभवादानन्तर्येणोवृत्येति भावः / क्व गच्छन्ति कोत्पद्यन्ते? एतेनाऽऽत्मनो गमनधर्मकतापर्यायान्तरमधि कृत्योत्पत्तिधर्मकता च प्रतिपादिता, तेन ये सर्वगतमनुत्पत्तिधर्मकं चाऽऽत्मानं प्रतिपन्नास्ते निरस्ता द्रष्टव्याः। तथारूपे सत्यात्मनि यथोक्तप्रश्नार्थासम्भवात्। (कि नेरइएसु गच्छति) इत्यादि प्रतीतम, भगवानाह- (नो नेरइएसु गच्छति इत्यादि) पाठसिद्धग। (जहा वकंतीए इति) यथा प्रज्ञापनायां व्युत्क्रान्तिपदेच्यवनभुवत तथाऽत्रापि वक्तव्यं, तचोत्पादवत् भावनीयमिति। गतं च्यवनद्वारम्। अधुना गत्यागतिद्वारमाहते णं भंते ! जीवा कतिगतिया, कति आगतिया पण्णता? गोयमा ! दुगतिया, दुआगइया। Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीकाइय ते भदन्त ! जीवाः कति गतिकाः कति गतयो येषां ते कतिगतिकाः, कतिभ्यो गतिभ्य आगतिर्येषा ते कल्यागतिकाः? भगवानाह-गौतम ! व्याकतिकाः, नरकगतेदेवगतेश्च सूक्ष्मेषूत्पादाभावात् द्विगतिका, नरकगतौ देवगतौ च तत उदृत्तानामुत्पादाभावात्। परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो ! सेत्तं सुहुमपुढविक्काइया। परीताः प्रत्येकशरीरिणः असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् प्रज्ञप्ताः मया शेषैश्च तीर्थकृद्धिः / अनेन सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनतामाह- हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! (सेत्तं सुहुमपुढविक्काइया) त एते सूक्ष्मपृथिवीकायिका उक्ताः। अधुना बादरपृथिवीकायिकानभिधित्सुराहसे किं तं बायरपुढविकाइया बायरपुढवीकाइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सण्हबादरपुढविक्काइया, खरबायरपुढविकाइया। अथ के ते बादरपृथिवीकायिकाः? सूरिराह-बादरपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा- लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः, खरबादरपृथिवीकायिकाश्च / श्लक्ष्णा नाम चूर्णितलोष्ठकल्पा मृदुः पृथिवी, तदात्मका जीवा अपि उपचारतः श्लक्ष्णाः, ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः। अथवा-श्लक्ष्णा च सा बादरपृथिवी च सा कायः शरीरं येषां ते श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायास्त एव स्वार्थिक क प्रत्ययविधानात् श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः / खरा नाम पृथिवी संघातविशेष काठिन्यविशेष वाऽऽपन्ना तदात्मका जीवा अपि खरास्ते च ते बादरपृथिवीकायिकाश्च खरबादरपृथिवीकायिकाः अथवा-पूर्ववत् प्रकारान्तरेण समासः, चशब्दौ स्वगतनेकभेदसूचकौ / जी०१ प्रतिका (श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिकाः, तथा-खरबादरपृथिकायिकाश्च अरिमनेवशब्दे 674 पृष्ठे उक्ताः ) श्लक्ष्णपृथिवीकायिकानां शरीराणि - तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरिगा पण्णत्ता? गोयमा। तओ सरीरगा पण्णत्ता। तं जहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए।तं चेव सव्वं, नवरं चत्तारिलेसाओ, अवसेसं जहा सुहुमपुढविक्काइयाणं। "तेसि णं भंते ! जीवाणं'' इत्यादिना शरीरावगाहनाऽऽदिद्वार- | कलापचिन्तां करोति / सा च पूर्ववत्, तथा चाऽऽह- ''एवं जो चेव | सुहमपुढविक्काइयाणं गमो सोचेव भाणियव्वो।" इति (नवरमित्यादि) इदं नानात्व लेश्याद्वारे चतस्रो लेश्या वक्तव्याः, तेजोलेश्याया अपि संभवात्। तथाहि-व्यन्तराऽऽदय ईशानान्ता देवा भवनविमानाऽऽदावतिमूर्छया आत्मीयरत्नकुण्डलाऽऽदावप्युत्पद्यन्ते, ते चतेजोलेश्यावन्तोऽपि भवन्ति, यल्लेश्यश्च म्रियते अग्रेऽपि तल्लेश्य एवोपजायते, "जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववजइ'' इति वचनात्। ततः कियत्कालमपर्याप्तावस्थाया तेजोलेश्याऽप्यावाप्यते इति चतखो वक्तव्याः। आहारो०जाव णियमा छद्दिसिं उववातो तिरिक्खजोणियमणुस्सेहिंतो देवेहिंतो०जाव सोधम्मीसाणेहिंतो ठितीजहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं ते णं भंते ! जीवा मारणतियसमुग्धाएणं किं समोहया मरंति, असमोहया मरंति? गोयमा ! समोहता विमरंति, असमोहता वि मरंति। ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छइ कहिं उववचंति किं नेरइएसु उववज्जंति पुच्छा? गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, मणुस्सेसु उववजंति, नो देवेसु उववजं ति, तं चेव० जाव असंखेज्जवासाउयवज्जे हितो उववजंति / ते णं भंते ! जीवा कति गतिया कति आगतिया पण्णत्ता? गोयमा ! दुगतिया तिआगतिया पण्णत्ता, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो! सेत्तं बायरपुढविक्काइया। सेत्तं पुढविकाइया। आहारो नियमात् षड्दिशि बादराणां लोकमध्य एवोपपातभावात्, उपपातो देवेभ्योऽपि बादरेषु तदुत्पादविधानात् स्थितिर्जघन्यतोऽन्तमुहूर्तमुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि देवेभ्योऽप्युत्पादात्, त्रयो गतयः द्विगतयः पूर्ववत्। एतेऽपिच परीत्ताः प्रत्येकशरीरिणोऽसंख्येयाः प्रज्ञप्ताः / हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! "सेतं'' इत्याधुपसंहारवाक्यम् / उक्ताः पृथिवीकायिकाः। जी०१ प्रति०। एकतः साधारणशरीरं बध्नन्तिरायगिहे० जाव एवं बयासी-सिय भंते ! ०जाव चत्तारि पंच पुढवीकाझ्या एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, एग 2 तओ पच्छा आहारेंति वा, परिणामेति वा, सरीरं वा बंधंति वा? णो इणढे समढे, पुढवीकाइया णं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामां पत्तेयं सरीरं बंधंति, बंधतित्ता तओ पच्छा आहारेति वा, परिणामें ति वा, सरीरं वा बंधंति। (रायगिहे इत्यादि) इह चेय द्वारगाथा क्वचिद् दृश्यते- 'सिय 1 लेसा 2 दिवि 3 नाणे 4, जोगु 5 वओगे 6 तहा किमाहारे 71 पाणाइवाय 8 उप्पायट्टिइ 10 समुग्घाय 11 उव्वट्टी 12 // 1 / / " इति। अस्याश्चार्थो वनस्पतिदण्डकान्तोद्देशकार्थाधिगमावगम्य एव, तत्र स्याद्वारे (सिय त्ति) स्याद्भवेदयमर्थः / अथवा-पृथिवीकायिकाः प्रत्येक शरीरं बध्नन्तीति सिद्ध, किं तु (सिय त्ति) स्यात्कदाचित् (०जाव चत्तारि पंच पुढविकाइय त्ति) चत्वारः पञ्च वा, यावत्करणात् द्वौ वा त्रयो वा. उपलक्षणत्वाच्चास्य बहुतरावा पृथिवीकायिका जीवाः (एगओत्ति) एकत एकीभूय संयुज्येत्यर्थः, साहारणं शरीरं बध्नन्ति, बहूनांसामान्यं शरीरं बध्नन्ति, आदितस्तत्प्रायोग्यपुद्गलग्रहणतः। (आहारेति वत्ति)। विशेषाहाऽऽरापेक्षया सामान्याऽऽहारस्याविशिष्टशरीरबन्धनसमय एव कृतत्वात्। (सरीरंवा बंधति त्ति) आहारितपरिणामितषुङ्गलैः शरीरस्य पूर्वबन्धापेक्षया विशेषतो बन्ध कुर्वन्तीत्यर्थः / नायमर्थः समर्थो ,थतः पृथिवीकायिकाः प्रत्येकाऽऽहाराः प्रत्येकपरिणामाश्चातः प्रत्येकं शरीरं बध्नन्तीति, तत्प्रायोग्यपुग Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीकाइय 686 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुढवीसिलापट्टय लग्रहणतः, ततश्च (आहारेति इत्यादि) एतच प्राग्वत्। मेकैकपृथवीकायिकजीवकल्पनया (?) लोकरूपपल्यमरणः संसूच्यसंज्ञाऽऽदि तेऽन्यथा प्रज्ञापनासूत्रवृत्यादिग्रन्थान्तरविरोध इति / 82 प्र०। सेन०२ तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णाति वा, पण्णाति वा, मणोइ उल्ला०। वा, वईति वा, अम्हे णं आहारमाहारेति? णो इणढे समठे, पुढवीजीव पुं०(पृथिवीजीव) पृथिव्येव जीवः पृथिवीजीवः / उत्त० 36 आहारेंति पुण ते। तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सण्णाति वा० अा पृथिवीरूपे जीवे, पृथिव्याश्रिते वा जीवे, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। जाव वईति वा अम्हे णं इट्ठाणिढे फासे पडिसंवेदेमो? णो इण8 | पुढवीजोणिय पुं०(पृथिवीयोनिक) पृथिवीजाते जीवे. सूत्र०२ श्रु०३ अ० समढे पडिसंवेदेति पुण ते। पुढवीणिस्सिय त्रि०(पृथिवीनिश्रित) पृथिवीकायत्वेन परिणते, आचा० (एवं सण्णाइवत्ति) एवं वक्ष्यमाणोलेखेन संज्ञा व्यावहारिकार्थावग्रहरूपा | 1 श्रु०१ अ०४ उ० मतिः, प्रवर्तत इति शेषः / (पण्णाइवत्ति) प्रज्ञा सूक्ष्मार्थविषया मतिरेव | पुढवीथूभ पुं०(पृथिवीस्तूप) पृथिव्येव स्तूपः पृथिव्या वा स्तूपः। (मणोइ वत्ति) मनोद्रव्यस्वभाव (वाईति व त्ति) वाग्द्रव्य श्रुतरूपा। पृथिवीसंघातावयवे, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०१ उ०) प्राणातिपाताऽऽदिद्वारे पुढवीपइट्ठिय त्रि०(पृथिवीप्रतिष्ठित) मनुष्याऽऽदौ पृथिवीसमाश्रिते, ते णं मंते ! जीवा किं पाणातिवाए उवक्खाइज्जंति, मुसावाए | स्था०८ ठा०1"पुढवीपइट्ठिया तसाथावरा पाणा।" भ०१ श०६ उ०। अदिण्णादाणे०जाव मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइजंति? गोयमा! | पुढवीपुप्फफलाहार त्रि०(पृथिवीपुष्पफलाऽऽहार) पृथिवी पुष्पफलानि पाणाइवाए वि उवक्खाइजंति० जाव मिच्छादसणसल्ले वि / चकल्पद्रुमाणामाहारो येषां ते तथा। युगलिकमनुष्येषु, तं०। उवक्खाइज्जंति, जेसिं पिय णं जीवाणं ते जीवा एवमाहिअंति, | पुढवीपुरी स्त्री०(पृथिवीपुरी) अग्रहितराजराजधान्याम, ती० 20 कल्प। तेसिं पिय णं जीवाणं णो विण्णाए णाणत्ते। पुढवीफास पुं०(पृथिवीस्पर्श) पृथिव्याः शीतोष्णररूपायास्तीव्रवेदनो(पाणाइवाए उवक्खाइजंतीत्यादि) प्राणातिपाते, स्थिता इति शेषः / त्पादकः स्पर्शः संपर्कः। नरकपृथिवीसंपर्के, सूत्र०१ श्रु०४ अ० 1 उ०। प्राणातिपातवृतय इत्यर्थः / उपाख्यायन्ते अभिधीयन्ते, यचेह वचनाऽऽ- पुढवीभूसण न०(पृथिवीभूषण) भूभूषणे, "पृथिवीभूषणं नाम, नगर द्यभावेऽपि पृथिवीकायिकानां मृषावादाऽऽदिभिरपाख्यानं तन्मृषावादा- गतदूषणम्।' आ०क० 5 अ०। ऽऽधविरतिमाश्रित्योच्यत इति / अथ हन्तव्याऽऽदि जीवानां का | पुढवीमय त्रि०(पृथिवीमय) पृथिव्या विकारः पृथिवीमयः। पृथिवीकायिके, वार्तेत्याह- (जेसिं पिणं इत्यादि) येषामपि जीवानामतिपाताऽऽदि- प्रश्न०१ आश्रद्वार। विषयभूतानां प्रस्तावात्पृथिवीकायिकानामेव संबन्धिनाऽतिपाताऽऽ- पुढवीवइ पुं०(पृथिवीपति) राजनि, "पंचमसरसंपन्ना, भवंति पुढवीवई। दिना। (ते जीव त्ति) तेऽतिपाताऽऽदिकारिणो जीवाः (एवमाहिज्जति | / सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणणायगा' / / 1 / / स्था० 5 ठा० 1 उ०। त्ति) अतिपाताऽऽदिकारिण एत इत्याख्यायन्ते, तेषामपि जीवानामति- | पुढवीसंसिय त्रि०(पृथिवीसंश्रित) पृथिव्या हिते, प्रश्न०१आश्र० द्वार। पाताऽऽदिविषय भूतानां न केवल घातकानां (नो) नैव विज्ञातमवगत | पुढवीसत्थ न०(पृथिवीशरख) पृथिव्येव शरवं स्वकायाऽऽदेः पृथिव्या वा नानात्वं भेदो यदुत वयं बध्याऽऽदयः, एते तु बधकाऽऽदय इत्यमनस्क- शस्त्र हलकुद्दालाऽऽदि, तत्समारभते पृथिवीशस्त्रम्। पृथिवीहिंसासाधने, त्वातेषामिति / भ० 16 श०३ उ०। (पृथिवीकायिकानां स्थानानि / 'पुढवी सत्थं समारभमाणे विरूवरूवे पाणभूए हिंसइ।' आचा० 1 श्रु० 'ठाण' शब्दे चतुर्थभागे 1667 पृष्टे उक्तानि) "पुढवीकायं विहिंसंतो, १अ०२ उ०। हिंसई उ तपरिसए। तस्सेव विविहे पाणा, चक्खुसे य अचक्खुसे॥१॥" | पुढवीसिरी स्वी०(पृथिवीश्री) अजूदारिकापूर्वभवजीवे, स्था०। इन्द्रपुरे दश०६अ०। ''सुद्धपुढवी न निसिएजा, जाइत्ता जस्स उग्गहं / " दश० नगरे पृथिवीश्री नाम गणिकाऽभूत्सा च बहून राजकुमारवणिक्पुत्राऽऽदीन् 8 अ०। (पृथिवीकायिकस्य शरीसवगाहना कीदृग्दृढा कथं वा तस्यामा- मन्त्रचूर्णाऽऽदिभिर्वशीकृत्योदारान् भोगान् भुक्तवती षष्ट्यां च गत्वा क्रम्यमाणायां वेद्नति 'सरीरोगाहणा' वेदणा शब्दयोः वक्ष्यते) यथा वर्द्धमानगरे धनदेवसार्थवाहदुहिता अञ्जूरित्यभिधाना जाता / स्था० प्ररथाऽऽदिना कश्चित्सर्वधान्यानि मिनुयादेवमसद्भवप्रज्ञापनाङ्गीकरणा- __ 10 ठा०1 ('अंजू' शब्दे प्रथमभागे 50 पृष्ठ कथोक्ता) लोकः कुडवीकृत्य जघन्योत्कृष्टावगाहनान् पृथिवीकायिकान् जीवान् | पुढवीसिला रखी०(पृथिवीशिला) पृथिवीरूपायां शिलायाम्, भ०२ 10 यदि मिनाति ततः पृथिवीकायिका असंख्येयान् लोकान् पूरयन्तीत्या - १उ०। चाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनद्वितीयोद्देशकवृत्तौ स्थावरचतुर्णा | पुढवीसिलापट्टय पुं०(पृथिवीशिलापट्टक) पृथिवीशिलारूपः पट्टक त्वड्गुलासंख्येयभागप्रमितिरवगाहनोक्ताऽत एते पृथिवीकायिकाः कथं आसनविशेषः पृथिवीशिलापट्टकः। पृथिवीशिलामये आसनविशेषे, भ० पूरयन्तीति प्रश्ने? उत्तरम्-प्रस्थदृष्टान्ते सामान्योक्तावपि प्रत्याकाश- | 2201 उ०॥ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवीसिलापट्टय 660 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुणाइ वर्णकः पुढोविमाय त्रि०(पृथगविमात्र) पृथग विविधा मात्रा येषां ते। अनेकप्रकारेषु, तेसु णं जातिमंडवएसुजाव सामलयामंडवएसु बहवे | आचा०१ श्रु०६ अ०५ उ० "दिव्वा उवसग्गा 4 पुढोविणया।'' पृथग पुढवीसिलापट्टगा पण्णत्ता। तं जहा-हंसासणसंठिता कोंचास- विभिन्ना विविधा मात्रा हासाऽऽदिवस्तुरूपा येषु ते पृथग्विमात्राः। अथवाणसंठिता गरुलासणसंठिता उण्णयासणसंठिता पणगासण- पृथग्विविधा मात्रा विमात्रा। स्था० 4 ठा०४ उ०। संठिया परितासणसंठिया दीहासणसंठिता भद्दासणसंठिता | पुढोसत्त त्रि०(पृथक्सत्त्व) पृथक् सत्त्वाः पृथग्भूताः सत्त्वा आत्मानो यस्यां पक्खासणसं ठिता चमरासणसंठिया उसभासणसंठिया सा पृथासत्त्वाः। दश० 4 अ०। सूत्र०ाआचा०ा अनेकजीवे. सूत्र०१ श्रु० सीहासणसंठिया पउमासणसंठिया दिसासोत्थियासणसंठिया / 2 अ०२ उ०। पण्णत्ता, तत्थ बहवे वरसयणाऽऽसणविसिट्ठसंठाणसंठिया | पुढोसिय त्रि०(पृथश्रित) प्रत्येकं व्यवस्थिते, सूत्र०१ श्रु०७ अ०॥ पण्णत्ता, समणाउसो ! आईणगरूयबूरणवणीततूलफासमउया | पुण अव्य०(पुनर्) विशेषणे, नं० / नि० चू० / प्रश्न / स्था० / विशे० / सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्ठा मट्ठाणीरया णिम्मला उत्त० / विशेषद्योतने, विशे०। समुच्चये, प्रश्र०१आश्र० द्वार। आ०चू० / निप्पंका निकंकडछाया सप्पभासस्सिरीया सउज्जोया पासादीया नि० चू० / दश० भजनीयशब्दावधारणे, नि० चू० 1 उ०। द्वितीयवारादरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / जी०३ प्रति०४ अधि०। पेक्षायाम्, व्य० 130 / पादपूरणे, नि० चू० 1 उ०। आचा० पुणब्भव पुं०(पुनर्भव) पुनरुत्पादे, प्रश्न०३ आन० द्वार। पुनः पुनर्जन्मनि, पुढवीसोय न०(पृथिवीशौच) पृथिव्या शौचं मृत्तिकया शरीराऽऽदिभ्यो ___ प्रश्र०२ आश्र० द्वार पौनःपुन्येनोत्पादे, औ०। घर्षणोपलेयेनेति / जुगुप्सितमलगन्धयोरपनयने, पुणरावित्ति स्त्री०(पुनरावृत्ति) विपरिणामे, बृ० 1 उ०३ प्रक० / मोक्ष "एका लिङ्गे गुदे तिस-स्तथैकत्र करे दश। गत्वाऽपि पुनः संसारपाते, "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम्। उभयोः सप्त विज्ञेयाः, मृदः शुद्धौ मनीषिभिः / / 1 / / गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः" ||1|| दशा० 1 अ०। एतच्छौचं गृहस्थाना, द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम्। स्या०॥ त्रिगुण वानप्रस्थानां, यतीनां च चतुर्गुणम् / / 2 / / " पुणरुत्त न०(पुनरुक्त) शब्दार्थयोः पुनर्वचने, आ०म० 1 अ०। त्रयोदशे तदिह नाभिमतगन्धाऽऽद्युपघातमात्रस्य शौचत्वेन विवक्षितत्वात तस्यैव / निग्रहस्थानभेदे, स्या०। पुनरुक्तं द्विधाशब्दतः, अर्थतश्च / तथाऽर्थाss पन्नस्य पुनर्वचनं पुनरुक्तम्। तत्र शब्दतः पुनरुक्तं यथाघटः कुटः कुम्भ च युक्तियुक्तत्वादिति। स्था०५ ठा०३ उ०। इत्यादि। अर्थाऽऽपन्नस्य पुनर्वचनं यथा-पीनो देवदत्तो दिवा न भुड्क्ते पुढुम त्रि०(प्रथम) "प्रथमे पथो वा" 8/1155 // इति प्रथमशब्द इत्युक्तेऽथदिव गम्यते रात्रौ भुक्ते इति।तत्रार्थाऽऽपन्नमपि यः साक्षादेव पकारथकारयोरकारस्य युगपत्क्रमेण च उकारो वा। पुदमा पुढमा पदम / ब्रूयात् तस्य पुनरुक्तता। विपा०२ श्रु०१3०। विशे०। पुनरुक्तं पढम।' आये, प्रा०१ पाद। त्रिविधम्- अर्थपुनरुक्त, वचनपुनरुक्तम्, उभयपुनरुक्तंचा तत्रार्थपुनपुढो अव्य०(पृथक) विभिन्ने, आचा०१श्रु०५ अ०२ उ०। नानाशब्दार्थ, रुक्तं यथा-इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इति।वचनपुनरुक्तं यथा-सैन्धवमानय सूत्र०१ श्रु०१० अ०॥ लवण सैन्धवमानयेत्यादौ। उभयपुनरुक्तं यथा-क्षीर क्षीरम् / बृ० 130 पुढोछंद त्रि०(पृथक्छन्द) पृथग विभिन्नश्छन्दोऽभिप्रायो येषां ते 1 प्रक० / "वक्ता हर्षभयाऽऽदिभिराक्षिप्तमना स्तुवंस्तथा निन्दन / यत् पृथक्छन्दाः। नानाभूतवन्धाध्यवसायस्थानेषु. "पत्तेयं साय पुढो छंदा पदमसकृद् ब्रूयात्, तत्पुनरुक्तं न दोषाय // 1 // " ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। इह माणवा पुढो पवेदितं से अविहिसमाणे / " आचा०१ श्रु०५ अ०२ औ० / अनु० / "अनुवादाऽऽदरवीप्साभृत्यार्थविनियोगहेत्वसूयासु। उ०। सूत्रा ईषत्संभ्रमविस्मयगणनास्मरणे त्वपुनरुक्तम् // 1 // " आव० 4 अ० / पुढोजग पु०(पृथग्जग) पृथग्भूते व्यवस्थिते. "जमिणं जगती पुढोजगा। सू० प्र० / “पुणरुत्तं कृतकरणे" / 8 / 2 / 176 / पुणरुत्तमिति (4 गाथा)" सूत्र०१ श्रु०११०१ उ०। कृतकरणे प्रयोक्तव्यम्। 'पंसुलिणीसहेहिं अगेहिं पुणरुत्तं / ' प्रा०२ पुढोजण पुं०(पृथग्जन) प्राकृतपुरुषे अनार्यकल्पे, "इच्चाहसुपुढोजणा" पाद। "सज्झायज्झाणतवोसहेसु उवएसथुइपमाणेसु। संतगुणकित्तणेसु (6 गाथा) सूत्र०१ श्रु० २अ० १उ०। य, न हुंति पुणरुत्तदोसाओ / / 1 / / ' पा० / पुढोवम त्रि०(पृथ्व्युपग) पृथिवीवत्सर्वंसहे, ''पुढोवमे धुणइ विगयगेहि, / पुणव्वसु पुं०(पुनर्वसु नक्षत्रविशेषे, ज्यो०६ पाहु० / जं० / सू० प्र० / न सण्णिहि कुव्धति आसुपन्न।' स हि भगवान् यथा पृथिवी सकला- स्था० / विशे० / दशमतीर्थकरप्रथमभिक्षादायक, आ०म०१ अ०। ऽऽधारा वर्तते तथा सर्वसत्त्वानामभयप्रदानतः सदुपदेशदानाद् वा अनु० स्था० / स०। षष्टबलदेवस्य पूर्वभवधर्माऽऽचार्य , ति०। सत्त्वाधार इति। यदि वायथा पृथ्वी सर्वसहा एवं भगवान परीषहोपसर्गान् / पुणाइ अव्य०(पुनर) "नात्पुनर्यादाइ वा" |811965 // सम्यक सहते। सूत्र०१ श्रु०६ अ०॥ नाः परे पुनःशब्दे आदेरस्य आ-आइ इत्यादेशौ वा भ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुणाइ 661 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्ण वतः। इति के वलस्यापि दृश्यत इति। पुणाइ। द्वितीयवारायाम्, प्रा० 1 पाद। * पुणुई स्त्री० गुच्छवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। श्वपचे, दे० ना०६ वर्ग 38 गाथा। पुणो अव्य०(पुनर) स्वरूपावधारणे, नि० चू०२ उ०। विशेषणे, नि० चू० 3 उ०। वाक्यान्तरोपन्यासे, उत्त०३६ अ०। पूर्वस्माद् विशेषे, आचा० 1 श्रु० 4 अ०२ उ०। पुणोपुणो अव्य०(पुनःपुनर) बहुशः शब्दार्थे , सूत्र० १श्रु०५ अ०१ अ० / 'बहुसो त्ति वा भुजो त्ति वा पुणोधुणो त्ति वा एगट्ट।' नि०चू० 2 उ०। विषा०। पुणोभव पु०(पुनर्भव) पुनर्जन्मान्तरे, दश०८ अ०। पुणोय अव्य०(पुनश्च) पुनरपीत्यर्थे , प्रश्न०५ आश्र० द्वार। पुण्ण त्रि०(पूर्ण) भृते, भ०१श०६उ०। 'णईओ पुण्णाओ।"दश०७ अ०। आ०म०। समस्ते, उत्त०१२ अ०भ० / सूत्र० / सकलावयबयुक्ते, स्था० 4 ठा० 4 उ० / यत्स्वरकलाभिः परिपूर्ण गीयते तत्पूर्णम्। रा०। जी०। स्था०। स्वरकलाभिः सर्वाभिरवियुक्तं कुर्वतः पूर्णम्। अनु०। पूर्णाष्टकम्ऐन्द्रश्रीसुखमग्नेन, लीलालग्नमिवाखिलम्। सच्चिदानन्दपूर्णेन, पूर्ण जगदवेक्ष्यते / / 1 / / अथ पूर्णत्वं वस्तुनो निरूपयतिपूर्णता या परोपाधेः, सा याचितकमण्डनम्। या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा॥२।। अवाप्तवी विराकल्पैः, स्यात् पूर्णताऽब्धेरिवोर्मिभिः। पूर्णाऽऽनन्दस्तु भगवांस्तिमितोदधिसन्निभः॥३॥ जागर्ति ज्ञानदृष्टिश्चेत्, तृष्णा कृष्णाहिजाङ्ग ली। पूर्णाऽऽनन्दस्य तत्किं स्यादैन्यवृश्चिकवेदना / / 4 / / पूर्यन्ते येन कृपणास्तदुपेक्षैव पूर्णता / पूर्णाऽऽनन्दसुधास्निग्धा, दृष्टिरेषा मनीषिणाम्॥५।। अपूर्णः पूर्णतामेति, पूर्यमाणस्तु हीयते / पूर्णाऽऽनन्दस्वभावोऽयं, जगदद्भुतदायकः।।६।। परस्वत्वकृतोन्माथा, भूनाया न्यूनतेक्षिणः। स्वस्वत्वसुखपूर्णस्य, न्यूनता न हरेरपि / / 7 / / कृणे पक्षे परिक्षीणे, शुक्ले च समुदञ्चति / द्योतते सकलाध्यक्षा, पूर्णाऽऽनन्दविधोः कला ||8|| अष्ट १अष्ट। इक्षुवरसमुद्रदेषे, सू०प्र० 16 पाहु० / दाक्षिणात्यानां द्वीपकुमाराणामिन्द्रे, स्था० 4 ठा० 1 उ०। स०। * पुण्य न० / 'पुण' सुभे इति वचनात् पुणति शुभीकरोति, पुनाति वा पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम / शुभकर्मणि, 'उणाऽऽदयो बहुलम् / 3 / 3 / 1 / ' इति बाहुलकत्वादभावे क्यप् / उत्त० 5 अ0 1 शुभकर्मणि, स्था०। तच्च-सद्वद्याऽऽदिद्विचत्वारिंशद्विधम् / यथोक्तम्"सायं 1 उचागोयं 2, नर 3 तिरि 4 देवाउ५ नाम एया उ। मणुयदुर्ग 7 देवदुर्ग 6, पंचिदियजाइ १०तणुपणगं 15 / / 1 / / अगोवंगतियं पि य 18, संघयणं वज्जरिसहनारायं 10 / पढम चिय संटाणं, वन्नाइचउक्कसुपसत्थं 24 / / 2 / / अगुरुलहु 25 पराघाय 26, उस्सासं 27 आयवं च 28 उज्जोय 26 / सुपसत्था विहयगई 30, तसाइदसगं च 40 णिम्माण 41 / / 3 / / तित्थयरेण सहिया, वायाला पुन्नपगईओ।'' इति। एवं द्विचत्वारिंशद्विधमपि / अथवा-पुण्यानुबन्धिपापानुबन्धिभेदेन द्विविधमपि। अथवा-प्रतिप्राणिविचित्रत्वादनन्तभेदमपि पुण्यसामान्यादेकमिति / अथ कर्मव न विद्यते, प्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वात् शशविषाणवदिति कुतः पुण्यकर्मसत्तेति? असत्थमेतत् / यतोऽनुमानसिद्ध कर्म तथाहि- सुखदुःखानुभूतेर्हेतुरस्तिकार्यत्वादड्कुरस्यैव बीजं यसा हेतुत्वं तत्कर्म, तस्मादस्ति कर्मेति / स्यान्मतिः-सुखदुःखानुभूतेदृष्ट एव हेतुरिष्टानिष्टविषयप्राप्तिमयो भविष्यति किमिह कर्मपरिकल्पनया? न हि दृष्टं निमित्तमपास्य निमित्तान्तरान्वेषणं युक्तरूपमिति, नैवं व्यभिचारात् / इह यो हि द्वयोरिष्टशब्दाऽऽदिविषयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य तत्कले विशेषो दुःखानुभूतिमयो यश्चानिष्टसाधनसमेतयोरेकस्य तत्फले विशेषः सुखानुभूतिमयो नासौ हेतुमन्तरेण संभाव्यते / न च तद्धेतुक एवासौ युक्तः साधनानां विपर्यासादिति, पारिशेष्याद्विशिष्ट हेतुमानसा कार्थत्वाद्घटवत्, यश्च समानसाधनसमेतग्रोस्तत्फलविशेषहेतुस्तत्कर्म, तस्मादस्ति कर्मेति / आह च-"जो तुलसाहणाणं, फले विसेसो न सो विणा हेउं / कज्जत्तणओ गोयम ! घडो च्व हेऊ य से कम्म॥१६६३॥" (विशे०) किं च - अन्यदेहपूर्वकमिदं बालशरीरम्, इन्द्रियाऽऽदिमत्त्वात्, यदिहेन्द्रियाऽऽदिमत्तदन्यदेहपूर्वक दृष्ट, यथा बालदेहपूर्वकं युवशरीरमिन्द्रियाऽऽदिमचेद बालशरीरक तस्मादन्यशरीरपूर्वक, यच्छरीरपूर्वक चेद बालशरीरक तत्कर्म, तस्मादस्ति कर्मेति। आह च- 'बालसरीरं देहतरपुव्वं इदियाइमत्ताओ। जह बालदेहपुवो, जुवदेहो पुव्यमिह कम्म // 1614 / / " (विशे०) ननु कर्मसद्भावेऽपि पापमेवैकं विद्यते पदार्थो न पुण्यं नामास्ति, यत्तु पुण्यफल सुखमुच्यते तत्पापस्यैव तरतमयोगादपकृष्टस्य फलं, यतः पापस्य परमोत्कर्षेऽत्यन्ताधमफलता, तस्यैव तरतमयोगापकर्षभिन्नस्य मात्रा परिवृद्धिहान्या यावत् प्रकृष्टापकर्षस्तत्र या काचित् पापमात्रा अव तिष्ठते तस्यामत्यन्तं शुभफलता पापापकर्षात्तस्यैव पापस्य सर्वाऽऽत्मना क्षयो मोक्षः, यथाऽत्यन्तापथ्याऽऽहारसेवनादनारोग्यं तस्यैवापथ्यस्य किशित्किञ्चिदपकर्षाद्यावत् स्तोकापथ्याऽऽहारत्वमारोग्यकर सर्वाऽऽहारपरित्यागाच्च प्राणमोक्ष इति। आह च"पावुक्करिसेऽधमया, तरतमजोगावकरिसवो सुभया / तरसेव खए मोक्खो, अपत्थभत्तोवमाणाओ / / 1610 // ' (विशे०) अत्रोच्यतेयदुक्तमत्यन्तापचितात् पापात् सुखप्रकर्षइति। तदयुक्तम्, यतो येयं सुखप्रकर्षानुभतिः सा स्वानुरूपकर्मप्रकर्षजनिता प्रकर्षानुभूतित्वात्, दुःखप्रकर्षानुभूतिवत्, यथा हि दुःखप्रकर्षानुभूतिः स्वानुरूपपापकर्मप्रकर्षजनितेति त्वयाऽभ्युपगम्यते तथेयमपि सुखप्रकर्षानुभूतिरिति स्वानुरूपपुण्यकर्मप्रकर्षजनिता भविष्यतीति प्रमाणफलमिति। स्था० 1 ठा०। ज्ञा० / (एतच कम्म' शब्दे तृतीयभागे 251 पृष्ठे अचलभ्रातुः संवादेन प्रतिपादितम्) (पुण्यतत्त्वम् 'तत्त' शब्दे चतुर्थभागे 2180 पृष्ठे गतम्) Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्ण 162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्ण पुण्याष्टकम्शासनोन्नतिकरणाद्धितोदयाभुन्नति प्राप्नोति इत्युक्तं तत्र किमः | हितोदयाऽप्युन्नतिरस्ति येनासौ सविशेषणाऽभिधीयते? उच्यते-अस्ति, यतः (पुण्यजन्योन्नतिः) पुण्या पुण्यविचारे चत्वारो भनाः भवन्ति / तद्यथा- पुण्यानुबन्धि पुण्यमित्येकः, पापानुबन्धि पुण्यमिति द्वितीयः, पापानुबन्धि पापमिति तृतीयः, पुण्यानुबन्धि पापमिति चतुर्थः। तत्राऽऽधभग प्रतिपादनायाऽऽह-पाइान्तरापेक्षया पुनरेवं संबन्धरतीर्थकृन्नामकर्मण इति प्रागुक्तं, तच पुण्यं पुण्याऽऽदिविचारे च प्रागुक्ता एव चत्वारो भङ्गका भवन्ति / तत्राऽऽद्यभङ्गकाभिधानायाऽऽहगेहान्नेहान्तरं कश्चिच्छोभनादधिकं नरः। याति यद्वत्सुधर्मेण, तद्रदेव भवागवम्।।१।। गेहादेहान्तरं कश्चिदनिर्दिष्टनामा. नर इति योगः। किंभूतानेहाच्छोभ- 1 नाद्रमणीयात्, किंभूत गेहान्तरम्?अधिकं शोभनतरं, नरो मानवः, नरग्रहण चेह विशिष्टचरणसाध्यपुण्ययोगत्वेन तस्य प्राधान्यख्यापनार्थम् / याति गच्छति, यत् यथेति दृष्टान्तः, सुधर्मण पुण्यानुबन्धित्वाच्छोभनः कृपाऽऽदिधर्मजन्यत्वाद्धर्मश्चेति सुधर्मस्तेन, पुण्यानुबन्धिपुण्यकर्मणे - त्यर्थः। तद्वदेव तथैव, भवान् मनुष्याऽऽदिजन्मनः शोभनस्वभावातसकाशाद्वं देवाऽऽदिभव शोभनतरस्वभावं यातीति प्रकृतम् / यत्किल शुभमनुष्याऽऽदेर्जीवस्य पूर्वभवप्रपशित कभ मनुष्यत्वाऽऽदि शुभभावानुभवहेतुर्भवति तदनन्तरं देवाऽऽदिगतिपरम्पराकारणं च तत् पुण्यानुबन्धि पुण्यमुच्यते / एतच्च ज्ञानपूर्वनिर्निदानकुशलानुष्ठानाद्भवति, भरताऽऽदेरिवेति / (भरतवृत्तम् 'भरह' शब्दे वक्ष्यामि) अथ द्वितीयभडकमाहगेहाद्नेहान्तरं कश्चि-च्छोभनादितरन्नरः। याति यद्वदसद्धम्मत्,ि तद्वदेव भवाद्रवम् / / 2 / / गेहाद्नेहान्तरं कश्चिन्नरो, यद्वद्यातीति संबन्धः / किंभूतात्किं भूतम? शोभनाद्रमणीयादितरत् शोभनं तद्वदेव तथैव असद्धार्मादसन्नशोभन: पापानुबन्धित्वाद्धर्मश्च दयाऽऽदिधर्मजन्यत्वादित्यसद्धर्भः, तस्मात् पापानुबन्धिपुण्यादित्यर्थः, भवाच्छोभनान्मनुष्याऽऽदेर्भवमशोभनं नरकाऽऽदिकमिति / यत्किल शुभमनुष्याऽऽदर्जीवस्य पूर्वभवार्जितकर्म मानुषत्वाऽऽदि शुभभावानुभूतिहेतुर्भवति, तदनन्तरं नारकाऽऽविभवपरम्पराकारणं च तत्पापानुबन्धि पुण्यमित्युच्यते, तच्च निदानात्ज्ञानदूषिताद्धर्मानुष्ठानाद्भवति, ब्रहादत्ताऽऽदेरिवेति 2 / (ब्रहादत्तवृत्तम् 'बभदत्त' शब्दे वक्ष्यामि) अथ तृतीयभङ्गकमाहगेहाद्नेहान्तरं कश्चिदशुभादधिकं नरः। याति यद्वन्महापापात्, तद्वदेव भवाद्भवम्॥३॥ गेहाद्रेहान्तरं यदुत्कश्चिन्नरो याति, किं विधात् किंविधमित्याहअशुभादरमणीयादधिकमशुभतर, तद्वदेव महापापान्महच्च तत् पापानुबन्धित्वात् पापं चाशुभकर्मेति महापापं, तरमात्पापानुबन्धिपापादित्यर्थः / भवादशुभातिर्यगादेर्भवमशुभतरं नारकाऽऽदिकमिति। यत्किल तिर्यगादेजीवस्य पूर्वजन्मोपात्तं कर्म तिर्यगाद्यशुभभावानुभवननिमित्तभूतं भवति तदनन्तर नारकाऽऽद्यशुभगतिपरम्पराकारणं च तत्पापानु बन्धि पापमुच्यते, तथाविधविलाडाऽऽदेरिव, तच्च महाप्राणातिपाताऽऽदिहेतुकमिति। चतुर्थभङ्ग कमधुना प्राहगेहाद्नेहान्तरं कश्चिदशुभादितरन्नरः। याति यद्वत्सुधर्मेण, तद्वदेव भवाद्भवम् // 4 // गेहाद्रेहान्तरं कश्चिन्नरो यद्वयाति, किंविधात्किंविधमित्याह अशुभादकमनीयादितरच्छोभनं, तद्वदेव सुधर्मेण कुशलानुष्ठानमिश्रनिर्निदानाऽऽदिकुशलानुष्ठानलक्षणेन भवादशुभतिर्यगादेर्भवं शुभं मनुष्याऽऽदिकमिति, यत्किल तिर्यगादेर्जीवस्य प्राग्भवार्जित कर्म तिर्यक्त्वाऽऽद्यशुभभावानुभूतिनिमित्तभूतं भवति, तदनन्तरं देवाऽऽदिशुभगतिपरम्पराहेतुश्च तत्पुण्यानुबन्धि पापमुच्यते, चण्डकौशिकाऽऽदेरिख / (तद्वत्तम्'वीर' शब्दे वक्ष्यामि) इह च भङ्गकनिर्देश यद्यपि पापं प्रधान तथापि पुण्यानुबन्धिहेतुत्वात् पुण्यानुबन्धकारिणि पापे शुभधर्मतामुपचर्य सुधर्मेण तद्वदेवोत्पाद्यमित्युक्तमिति // 4 // एवं फलतश्चतुर्दा कर्म व्यवस्थाप्योपदेशमाहशुभानुबन्ध्यतःपुण्यं, कर्तव्यं सर्वथा नरैः। यत्प्रभावादपातिन्यो, जायन्ते सर्वसंपदः / / 5 / / शुभं पुण्य कर्मानुबध्नान्यनुसन्धत्ते यदेवं शीलं तत्शुभानुबन्धि, अत इति यतो गेहाद् गेहान्तरमित्यादिदृष्टान्तं प्रतिपादितं, शुभाशुभं कर्मफलमस्ति, एतस्मात्कारणात्पुण्यं शुभकर्म कर्तव्यं विधेयं सर्वथा सर्वप्रकारैर्नरनिवैः किंभूतं तदित्याह- यत्प्रभावाद्यस्य सामर्थ्यादपातिन्योऽपतनशीला अविनश्वर्यो जायन्ते भवन्ति सर्वसंपदः समस्तनरामरनिर्वाणश्रिय इति !!5 तत्पुनः शुभानुबन्धि पुण्यं कथं क्रियये?, इत्याहसदागमविशुद्धेन, क्रियते तच्च चेतसा।। एतच ज्ञानवृद्धेभ्यो, जायते नान्यतः क्वचित्॥६॥ सदा सर्वकालम् / अथवा-सदागमस्त्रिकोटीदोषवर्जितत्वेन शोभनं शास्त्रं तेन विशुद्धं निर्मलीकृतं यतत्तथा तेन सदागमविशुद्धेन चेतसेति योगः। क्रियते विधीयते, तच्च तत्पुनःशुभानुबन्धि पुण्यं, चेतसा मनसा, एतच्च एतत् पुनः सदागमविशुद्ध चेतो ज्ञानवृद्धेभ्यः श्रुतस्थविरेभ्यः सम्यगुपासितेभ्यो, जायते संपद्यते, नान्यतो न पुनरन्यस्मात्कारणातरात, क्वचिद्देशे काले पात्रे चेति। यद्यपि कालस्वभावनियतिकर्मपुरुषाऽऽकाराणां कारणभावः सर्वत्रः, तथापि कर्मक्षयोपशमे चित्तविशुद्धेरान्तरकारणे ज्ञानवृद्धसंपर्कस्य प्रधानकारणत्वात्तच्च ज्ञानवृद्धेभ्य इत्युक्तमिति // 6 // यदि विशुद्ध चेतो न भवति ततः किं स्यादित्याहचित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते। यस्य तन्मुषितं दोषस्तस्य शिष्टा विपत्तयः / / 7 / / चित्तं मनस्तद्रत्नमिव चित्तरत्न, निर्मलस्वभावत्वोपाधिजनितविकारत्यादिसाधम्यात्, असं क्लिष्टं रागादिसंक्ले - शवजितमान्तरमाध्यात्मिक धन वसूच्यते अभिधीयते, यस्य देहिनः तचित्तरत्न, मुषितमपहृत दोषै रागाऽऽदिभिस्तस्य देहिनः शिष्टा उदारिता विपत्तयो व्यवसनानि, अस क्लिष्टचित्तरत्ना Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्ण 963 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्णट्ठापगड भावे हि हर्षविषादाऽऽदिरूपा कुगतिगमनरूपा वा विपत्तय एवावशिष्यन्त लेणपुन्ने, सयणपुन्ने, मणपुन्ने, वयपुन्ने, कायपुन्ने, नमोकार इति // 7 // अन्ये त्वमुश्लोकं चास्य स्थाने पठन्ति पात्रायान्नदानाद्यस्तीर्थकरनामाऽऽदिपुण्यप्रकृतिबन्धः तदन्नपुण्यम् एवं प्रकृत्या मार्गगामित्वं, सदपि व्यज्यते ध्रुवम् / सर्वत्र नवरं (लेणं ति) लयनं गृहं, शयनं संस्तारकाऽऽदिः, मनसा गुणिषु ज्ञानवृद्धप्रसादेन, वृद्धिं चाऽऽप्नोत्यनुत्तराम् / / 7 / / तोषात् वाचा प्रशंसनात् कायेन पर्युपासनात् नमस्काराच्च यत्पुण्यं आगमविशुद्धं चित्तं ज्ञानवृद्धेभ्यः सकाशादुपजायत इत्युक्तम्, तत्रेदं तन्मनः पुण्याऽऽदीति। उक्तंच- "अन्नपाने च वस्त्रं च, आलयः शयनाकिं सदुत्पद्यते, असता? यदि सदिति पक्षः स न युक्तः, सत उत्पादा ऽऽसनम् / शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नवविध स्मृतम् // 1 // " इति / योगात्, गगनस्येव सतोऽप्युत्पादे उत्पादाविरामप्रसङ्गात्। अथासदिति स्था०६ ठा० / सूत्र० / अभ्युदयप्राप्ती, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ०। पक्षः / सोऽप्ययुक्तः, सर्वथा असत उत्पादाभावात्, गगनाम्भोरुहस्ये पुण्यप्रकृती, कर्म०५ कर्म। सुकृते, ज्ञा०१ श्रु०१०। पवित्रे, ज्ञा० वेति। अत्रोत्तरमाह- प्रकृत्या स्वभावेन मार्गागामित्वमागमविशुद्धत्व, १श्रु०८ अ० नि०संविग्नसाधुदानाऽऽदौ, तं०।''णत्थि पुण्णे न पावे चेतस इति गम्यते। सदपि कथञ्चिद्विद्यमानमपि, अपिशब्दाद् व्यक्तितः य, गेव सन्न णिवेसए। अत्थि पुण्णे य पावे य, एवं सणं णिवेसए।।१।।" अविद्यमानमपि, अनेनैकान्तसत्त्वासत्वपक्षोक्तदोषः परिहतो भवति / सूत्र०१ श्रु०११ अ० पापः पापेन कर्मणा पुण्यः पुण्येन कर्मणा। आ० किमित्याह-व्यज्यते व्यक्तभवति, ध्रुवं निश्चितम्, अनेन ज्ञानवृद्धप्रसा म०१ अ०। 'पुण्ण सुकयं च भागहेयं च।" पाइ० ना० 167 गाथा। दस्य मार्गगामित्वव्यञ्जकत्वं प्रत्यव्यभिचारिकारणतामाह- केनाभिव्य पुण्णकंखिय त्रि०(पुण्यकाक्षित) पुण्ये काक्षा संजाताऽस्येति पुण्यज्यते? इत्याह- ज्ञानेन बोधेन बृद्धा महान्तो ज्ञानं वा वृद्ध येषां तेज्ञानवृ कासितः। पुण्यगृहे, तं०।। द्धास्तेषां प्रसादः प्रसन्नता ज्ञानवृद्धप्रसादस्तेन, किमभिव्यक्तिमात्रमेव? पुण्णकलस पु०(पूर्णकलश) जलपरिपूर्णघटे, पञ्चा०८ विव०। रा०11०। नेत्याह- वृद्धिं च विपुलता, चशब्दः समुच्चये, आप्नोति लभते, पुण्णकलसमयणमुत्ति पुं०(पूर्णकलशमदनमूर्ति) उज्जयन्तपर्वते पूज्ये अनुत्तरामविद्यमानप्रधानतरां, मार्गगामित्वमिति प्रकृतमिति शुभानुब नेमिनाथे, श्रीउज्जयन्ते पुण्यकलशमदनमूर्तिः श्रीनेमिनाथः / ती०४३ न्ध्यतः पुण्यं कर्त्तव्यमित्युक्तम् / कल्प। अथ तदुपायोपदर्शनायाऽऽह पुण्णकलसा स्त्री०(पुण्यकलशा) लाददेशीये स्वनामख्याते ग्रामे, आ० दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद् गुरुपूजनम् / म०१ अ०। आ०चू०। विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ||8|| पुण्णकलसाऽऽदिट्ठवण न०(पूर्णकलशाऽऽदिस्थापन) पूर्णकलशानां दया कृपा भूतेषु सामान्यतो जीवेषु, वैराग्यं विरागता, द्वेषाभावाविना मङ्गलदीपाना न्यासे, पञ्चा० 8 विव० / भूतत्वाद्वैराग्यस्येति, विगतद्वेषता च, विधिविधानं शास्त्रोक्तो न्यायः पुण्णकलसाऽऽदिरूव पु०(पुण्यकलशाऽऽदिरूप) जलपरिपूर्णघटपूर्वश्रद्धासत्कारक्रमयोगाऽऽदिः, स विद्यते यत्र तद्विधिवत्, इह यद्यपि विधि भारोद्धृतमृत्तिकाऽऽदिरूपे, जं०१ वक्ष०। मदितिशब्दः सिद्ध्यति तथाऽप्यन्द्राऽऽदिव्याकरणप्रवीणत्वाद्धरिभद्रा पुण्णकामय त्रि०(पुण्यकामक) पुण्ये तत्फलभूतेषु शुभकर्मणि कामो यस्य ऽऽचार्यस्य नापशब्दः शङ्कनीय इति। (इन्द्रव्याकरणं कदा जातमिति स पुण्यकामकः / पुण्येच्छुके, नं०। 'इंदवागरण' शब्दे द्वितीयभागे 547 पृष्ठे निश्चितम्) गुणन्ति शास्त्रार्थ पुण्णकूड न०(पूर्णकूट) कच्छदीर्घवैताढ्यपर्वतस्य अष्टमे कूटे, स्था०६ मिति गुरवः साधवस्तेषां पूजनं भक्तपानवस्त्रपात्रप्रणामाऽऽदिभिरभ्यर्चन ठा / गन्धि लावतीदीर्घवैताढ्यपर्वतस्य षष्ठेकूटे, स्था०६ टा०। गुरुपूजनं, विशुद्धा निरतिचाराशीलवृत्तिर्हिसाऽनृतादत्ताब्रह्मपरिग्रहविर पुण्णघोस पुं०(पूर्णघोष) ऐरवते वर्षे आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति मणरूपकुशलानुष्ठानवर्तन; चशब्द उक्तसमुच्चये, अनुक्तगुणान्तरसमु एकादशे तीर्थकरे, स० 1 ली। च्चये वा। किमेतदित्याह- पुण्यं शुभं कर्म पुण्यकर्म, बन्धहेतुत्वेनोप- पुण्णचंद पुं०(पूर्णचन्द्र) भारतवर्षे समग्रायामपि मेदिन्याममारघातोद्चारात्। किंभूतमित्याह-पुण्यानुबन्धि शुभकर्मसन्तानवत, अद एतद- घोषके राजनि, संथा०। नन्तरोदितम्। ननु दया भूतेषु इह भूतग्रहणमनर्थकं, यतो दया प्राणिगोच- पुण्णट्ठापगड त्रि०(पुण्यार्थप्रकृत) साधुवादाङ्गीकरणेन पुण्यार्थकृते, रैव दया हि दुःखितेषु भवति, दुःखितत्वं च प्राणिनामेवेति। अत्रोच्यते- दश०। नभूतग्रहणमचेतनव्यवच्छेदार्थमपितुभूतसामान्यग्रहणार्थ, तेन सर्वभूतेषु असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा। तदुचितेषु दया विधेयेत्युक्तं भवति / आह च- "दठूण पाणिनिवहं. जं जाणेज सुणिज्जा वा, पुण्णट्ठा पगडं इमं / / 46 // भीमे भवसायरम्मि दुक्खत्त / अविसेसओऽणुकंपं, दुहा वि सामत्थओ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं / कुणइ / / 1 / / " इति। हा० 24 अष्ट० / प्रति० / पञ्चा०। पं० व०। दितियं पडिआइक्खे,न मे कप्पइ तारिसं // 50 // पुण्यानि एवं पुण्यार्थ , पुण्यार्थ प्रकृतं नाम-साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुनवविहे पुण्णे पण्णत्ते / तं जहा- अण्णपुन्ने, पाणपुन्ने वत्थपुन्ने | ण्यार्थ कृतमिति / अत्राऽऽह- पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णट्ठापगड 664 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्णमासिणी वस्तुतो भिक्षाया अग्रहणमेव, शिष्टाना पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्ते, तथाहिन पितृकर्माऽऽदिव्यपोहेनाऽऽत्मार्थमेव क्षुद्रसत्त्ववत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति, नैतदेवम् अभिप्रायापरिज्ञानात, स्वभोग्यातिरिक्तस्य देयस्यैव पुण्यार्थकृतस्य निषेधात्, स्वभृत्यभोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्वरयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याऽप्यनिषेधादिति, एतेनाऽदेयदानाभावः प्रत्युक्तः, दयस्यैव यदृच्छादानानुपपत्तेः कदाचिदपि वा दाने यदृच्छादानोपपत्तेः, तथा व्यवहारदर्शनात्, अनीदृशस्यैव प्रतिषेधात् तदारम्भदोषेण योगात्, यदृच्छादानेतुतदभावेऽप्यारम्भप्रवृत्तेः नासौ तदर्थ इत्यारम्भदोषायोगात्, दृश्यते च कदाचित्सूतकाऽऽदाविव सर्वेभ्य एव प्रदानविकला शिष्टाभिमतानामपि पाकप्रवृत्तिरिति, विहितानुष्ठानत्वाच्च तथा-विधग्रहणान्न दोष इत्थलं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनिकामात्रफलत्वात्प्रयासस्येति॥४६॥ प्रतिषेधः पूर्ववत्॥५०॥ दश०५ अ०१ उ० पुण्णणिमित्त न०(पुण्यनिमित्त) शुभकर्मनिबन्धने, पञ्चा०१५ विव० पुण्णतिहि स्त्री०(पूर्णतिथि) पूर्णासंज्ञकतिथौ, पञ्चमी दशमी पञ्चदशीच तिथिः पूर्णा उच्यते। पञ्चा० 15 विव०। जं०। ज्यो। पुण्णपगइ स्त्री०(पुण्यप्रकृति) जीवाऽऽहादजनिकायां शुभकर्मप्रकृती, कर्म० 5 कर्म०। प्रव०। (ताश्च सुरगत्याद्या द्वाचत्वारिंशत् 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 267 पृष्ठे दर्शिताः) पुण्णपगय त्रि०(पुण्यप्रकृत) पुण्यार्थ साधिते, प्रश्र० 5 आश्र० द्वार।। पुण्णपय न०(पुण्यपद) पुण्यहेतुत्वात्पुण्यं, तच्च तत्पद्यते गम्यतेऽनेनार्थ इति पदम्, पुण्यस्य वा पदं स्थानम्। पापपरिवर्जनाऽऽत्मके शब्दसंदर्भ, उत्त०१८ अ० पुण्णपाल पुं०(पुण्यपाल) पापायां नगर्या चरमवर्षा रात्रं स्थितस्य श्रीवीरस्य वन्दनार्थमागते अष्टादशस्वप्नपृच्छके, ती०२० कल्पा पुण्णपाव न०(पुण्यपाप) शुभाऽशुभकर्मणोः, उपा० / "णत्थि पुण्णे य पावे य णेवं सन्न णिवेसए।" इति। सूत्र०२ श्रु०५ अ०। ('अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे 520 पृष्ठे व्याख्यातम्) पुण्णपिवासिय त्रि०(पुण्यपिपासित) पिपासेवापिपासा प्राप्तेऽपि पुण्येऽतृप्तिः, पुण्यपिपासा सा सजाताऽस्येति पुण्यपिपासितः। नित्यं पुण्याऽतृप्ते, तं०। पुण्णप्पभ त्रि०(पूर्णप्रभ) इक्षुवरे समुद्रे तदधिपे देवे, सू०प्र०१६ पाहु०। पुण्णप्पमाण त्रि०(पूर्णाऽऽत्ममान) पूर्णप्रमाणः पूर्ण वा जलेनाऽऽत्मनो मानं यस्य स पूर्णाऽऽत्ममानः। जलपूर्णमाने, “सा नावा तेहि आसवदारहि आपूरमाणी 2 पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोसट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडताए विट्टइ।" भ०१श०६ उ०।। पुण्णभद्दपुं०(पूर्णभद्र) दक्षिणयक्षनिकायेन्द्र स्था०६ ठा०। यक्षनिकाय भेदे, प्रज्ञा०२ पद। भ०। ति० आ० चू०पूर्णभद्राऽभिधानदेवनिवासात् / पूर्णभद्रकटम्। जम्बूद्वीपे भरतखण्डेदीर्घवताट्ये षष्ठकूटे, स्था०६ ठा० / जं० / ऐरवतदीर्घवैताठ्यपर्वतस्य षष्ठे कूटे, स्था० 6 ठा० / अन्त०। आ० चू० / आ०म०। माल्यवद् वक्षस्कारपर्वतस्याऽष्टमे कूटे, जं० 4 वक्ष। चम्पानगर्या उत्तरपूर्वदिग्भागे स्वनामके चैत्ये, नि०१ 01 वर्ग 1 अ०। विपा०। अन्त०। ज्ञा०। उपा०। ओघाआ० चू०। आ० म०। वाणिजग्रामे स्वनामख्याते गृहपतौ, स च वीरान्तिके प्रव्रज्य पञ्चवर्षपर्यायः विपुले पर्वतें सिद्ध इति अन्तकृद्दशानाम्। अन्त०१ श्रु०५ वर्ग 2 अ०॥ स्थविरस्यार्यसम्भूतविजयस्यद्वादशशिष्याणां सप्तमे, कल्प०२ अधि० 8 क्षण। पुण्णमंत त्रि०(पुण्यवत्) पुण्यमस्त्यस्य पुण्यवान्। "आल्विल्लो-लालवन्त-मन्तेत्तेर-मणा मतोः" / / 8 / 2 / 156 / / इति मतोः स्थाने मन्ताऽऽदेशः। पुण्यवान्। पुण्यविशिष्ट प्रा०२ पाद। पुण्णमासिणी स्त्री०(पौर्णमासी) पूर्णो मासो यस्यां सा पौर्णमासी। प्रज्ञाऽऽदित्वात् स्वार्थेऽण् / अन्ये तुव्याचक्षतेपूर्णाऽमाश्चन्द्रमा अस्यामिति पौर्णमासी, अण तथैव / प्राकृतत्वात्सूत्रे पुण्णमासिणी। जी०३ प्रति०४ अधि० / एकायाम्, स्था० 5 ठा०३ उ०। पौर्णमास्यःता कहं ते पुण्णमासिणी आहिताति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ बारस पुण्णमासिणीओ, बारस अमावासाओ पण्णत्ताओ / तं जहा- साविट्ठी 1, पोट्ठवती 2, असोया 3, कत्तिया 4, मग्गसिरी 5, पोसी 6, माही 7, फग्गुणी 8, चेती, विसाही 10, जेट्ठामूली 11, आसाढी 12 / 'ता' इति पूर्ववत् / कथं? केन प्रकारेण केन नक्षत्रेण परिसमाप्यमाना इत्यर्थः, पौर्णमास्य आख्याताः, अत्र पौर्णमासीग्रहणममावास्योपलक्षणं, तेन कथममावास्या अपि आख्याता इति वदेत् / एवमुक्ते भगवानाह-(तत्थेत्यादि) तत्र-तासां पौर्णमासीनाममावास्यानां चमध्ये जातिभेदमधिकृत्य खल्विमा द्वादश पौर्णमास्यो द्वादश चेमा अमावास्याः प्रज्ञप्ताः / तद्यथा-श्राविष्ठी प्रौष्ठपद्वी इत्यादि, तत्र श्रविष्ठा धनिष्ठा, तस्या भवा श्राविष्टी श्रावणमासभाविनी, प्रोष्ठपदाउत्तरभद्रपदा तस्यां भवा प्रौष्ठपदीभाद्रपदमासभाविनी, अश्वयुजि भवा आश्वयुजी अश्वयुग्मासभाविनी, एवं मासक्रमेण तत्तन्नामानुरूपनक्षत्रयोगात् शेषा अपि वक्तव्याः। सम्प्रति यैर्नक्षत्रैरेकैका पौर्णमासी परिसमाप्यते तानि पिपृच्छिषुराहता साविढेि णं पुण्णमासिं कतिणक्खत्ता जोएंति? ता तिपिण णक्खत्ता जोएंति / तं जहा- अभिई, समणो, धणिट्ठा (1) / 'ता' इति पूर्ववत्, श्राविष्ठी पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति, कति नक्षत्राणि चन्द्रेण सह यथायोगं संयुज्य परिसमापयन्ति? भगवानाह-(ता तिणि इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्तित्रीणि नक्षत्राणि चन्द्रेण सह यथायोग संयुज्य परिसमापयन्ति। तद्यथा-अभिजित्, श्रवणो, धनिष्टा च। इह श्रवणधनिष्टारूपे द्वे एव नक्षत्रे Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णमासिणी 665 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्णमासिणी आविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयतः, केवलमभिजिन्नक्षत्रं श्रवणेन सह सम्बद्धमिति तदपि परिसमापयतीत्युक्तम्, कथमेतदवसीयते इति चेत्? उच्यते- इह प्रवचनप्रसिद्धममावास्यापौर्णमासीविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थमिद करणम्"नाउमिह अमावासं, जइ इच्छसि कम्मि होइ रिक्खम्मि। अवहार ठाविज्जा, तत्तियरूवेहि संगुणए / / 1 / / छावट्ठी य मुहत्ता, विसट्ठिभागा य पंच पडिपुण्णा। वासविभागसत्त-ट्टिगो य एको हवइ भागो।।२।। एयमवहाररासिं, इछ अमावाससंगुणं कुज्जा / भक्खत्ताणं एत्तो, सोहणगविहिं निसमिह / / 3 / / वावीसं च मुहुत्ता, छायालीसं विसट्ठिभागा य। एयं पुणव्वसुस्सय, सोहेयव्वं हवइ वुच्छं / / 4 / / वावत्तरं सयं फ-गुणीण वाणउइय वे विसाहासु। चत्तारि अ बायाला, सोज्झा अह उत्तरासाढा / / 5 / / एयं पुणव्वसुस्स य, बिसट्ठिभागसहियं तु सोहणगं। इत्तो अभिईआई, बिइयं वुच्छामि सोहणगं // 6 // अभिइस्स नव मुहुत्ता, विसट्टिभागा य हुंति चउवीसं / छावडी असमत्ता, भागा सत्तट्टिछेयकया / / 7 / / उगुणटुं पोहवया-तिसु चेव नवोत्तरं च रोहिणिया। तिसु नवनवएसु भवे, पुणव्वसू फग्गुणीओ य॥८|| पंचेव उगुणपन्नं, सयाइ उगुणुत्तराइँ छचेव। सोज्झाणि विसाहासु, मूले सत्तेव चोयालो / / 6 / / अट्ठसय उगुणवीसा, सोहणगं उत्तराण साढाण। चउवीसं खलु भागा, छावट्ठी चुण्णिवाओ य / / 10 / / एयाइ सोहइत्ता, जं सेसं तं हविज्ज नक्खत्तं / इत्थं करेइ उडुवइ, सूरेण समं अमावासं / / 11 / / इच्छापुण्णिमगुणिओ, अवहारो सोत्थ होइ कायव्यो। तं चेव य सोहणगं, अभिई अइंतु कायव्वं / / 12 / / सुद्धम्मिय सोहणगे, जं सेसं तं हवेज्ज नक्खत्तं / तत्थय करेइ उडुवइ, पडिपुण्णो पुण्णिमं विउल / / 13 / / " एतासां गाथानां क्रमेण व्याख्या - याममावास्यामिह-युगे ज्ञातुमिच्छसि-यथा कस्मिन्नक्षत्रे वर्तमाना परिसमाप्ता भवतीति तावद्रूपैर्यावत्योऽमावास्या अतिक्रान्तास्तावत्याः संख्याया इत्यर्थः, वक्ष्यमाणस्वरूपमवधार्यतेप्रथमतया स्थाप्यते इति त्यवधार्यो धुवराशिः तमवधार्य राशिं पट्टिकाऽऽदौ स्थापयियित्वा चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन संगुणयेत् / / 1 / / अथ किंप्रमाणोऽसाववधार्यो राशिरिति तत्प्रमाणनिरूपणार्थमाह(छावट्ठी गाहा 2) षट्षष्टिर्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च परिपूर्णा द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टितमो भागः, एतावत्प्रमाणोऽवधार्यराशिः, कथ मेतावत्प्रमाणस्यास्योत्पत्तिरिति चेत्? उच्यतेइह यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततो | द्वाभ्यां पर्वभ्यां किं लभामहे? राशित्रयस्थापना 124 / 5 / 2 / अत्रान्त्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चलक्षणो गुण्यते, जाता दश, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन भागहरणं, तत्र छेद्यच्छेदकराश्योकिनापवर्तना क्रियते, जात उपरितनश्छेद्यो राशिः पञ्चकरूपोऽधस्तनो द्वाषष्टिरूपः, लब्धाः पञ्चद्वाषष्टिभागाः, एतेन नक्षत्राणि कर्त्तव्यानीति नक्षत्रकरणार्थमष्टादशभिः शतस्त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागरूपैर्गुण्यन्ते, जातान्येकनवतिः शतानि पञ्चाशदधिकानि 6150, छेदराशिरपि द्वाषष्टिप्रमाणः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्यारिंशत् शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि 4154, उपरितनो राशिर्मुहूर्ताऽऽनयनार्थ भूयः त्रिंशता गुण्यते, जातंद्वे लक्षे चतुःसप्तातेः सहस्राणि पञ्च शतानि 274500, तेषां चतुः पञ्चाशदधिकैकचत्वारिंशच्छतैर्भागहरणं, लब्धाः षट्षष्टिर्मुहूर्ताः 66 शेषा अंशास्तिष्ठन्ति त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि 336 ततो द्वाषष्टिभागाऽऽनयनाथ तानि द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि विंशतिः सहस्राणि अष्टौ शतानि द्वात्रिंशदधिकानि 20832; तेषामनन्तरोक्तेन छेदराशिना 4154 भागो हियते, लब्धाः पञ्च द्वाषष्टिभागाः 5 शेषास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः, ततस्तस्या द्वाषष्ट्या अपवर्तना क्रियते, जात एककः, छेदराशेरपि द्वाषष्ट्याऽपवर्तनायां लब्धाः सप्तषष्टिः, तत आगतं षट्षष्टिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य एकःस-तषष्टिभाग इति, तदेवमुक्तमवधार्य राशिप्रमाणम् / / 2 / / संप्रति शेषविधिमाह(एयमवहारे ३-इत्यादि) एतमनन्तरोदितस्वरूपमवधार्यराशिमिच्छामावास्यासंगुणंयाममावास्यां ज्ञातुमिच्छसि तत्संख्यया गुणितं कुर्यात्, अत ऊर्द्ध तु नक्षत्राणि शोधनीयानि, ततोऽत ऊर्द्ध नक्षत्राणां शोधनकविधि शोधनकप्रकारं वक्ष्यमाणं निशामयत आकर्णयत / / 3 / / तत्र प्रथमतः पुनर्वसुशोधनकमाह-(बावीसं चेत्यादि 4) द्वाविंशतिर्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागाः, एतत् एतावत्प्रमाण पुनर्वसुनक्षत्रस्य परिपूर्ण भवति शोद्धव्यं, कथमेवंप्रमाणस्य शोधनकस्योत्पत्तिरिति चेत्? उच्यते-इह यदि चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन पञ्च सूर्य-नक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते तदैक पळतिक्रम्य कतिपयास्तेनैकेन पर्वणा लभ्यन्ते?, राशियस्थापना-१२४।५१। अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यो राशिः पञ्चकरूपो गुण्यते, जाताः पञ्चैव, "एकेन गुणितं तदेव भवति'' इति वचनात्, तेषां चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः पञ्च चतुर्विंशत्यधिकशतभागाः, ततो नक्षत्राऽऽनयनार्थमेतेऽष्टादशभिः शतै स्विंशदधिकैः सप्तषष्टिभागरूपैर्गुणयितव्या इति, गुणकारछेदराश्योर्द्विकेनापवर्तना, जातो गुणकारराशिनव शतानि पशदशोत्तराणि 615, छेदराशिषिष्टिः 62, ततः पश्च नवभिः पञ्चदशोत्तरैः शतैर्गुण्यन्ते; जातानि पञ्चचत्वारिंशच्छतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 4575, छे दराशिर्द्विषष्टिलक्षणः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्येकचत्वारिंशच्छतानि चतुः पञ्चाशदधिकानि 4154, तथा पुष्यस्य ये त्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्राक्तनयुगचरमपर्वणि सूर्ये ण सह योगमायान्ति ते द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि षड्विंशत्यधिकानि 1426, एतानि प्राक्तनात् पञ्चसप्तत्यधिकपश्चचत्वारिंशच्छतप्रमाणात् शोध्यन्ते, शेषं तिष्ठन्ति एकत्रिंशत्शतानि एकोनपशाशदधिकानि 3146, तत एतानि मुहूर्ताऽऽनयनार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुर्णवतिः सहस्राणि चत्वारि शतानि सप्तत्यधिकानि 64470, तेषां छेदराशिना चतुःपञ्चाशदधिकै कचत्वारिंशच्छतरूपेण भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिमुहूर्ताः, शेषं तिष्ठन्ति त्रीणि सहस्राणि व्यशीत्यधिकानि 30 Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णमासिणी 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्णमासिणी 52. एतानि द्वाषष्टिभागाऽऽनयनार्थ द्वाषष्ट्या गुण्यन्ते, जातमेकं लक्षमेकनवतिः सहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि 161084, तेषां छेदराशिना 4154 भागो हियते, लब्धाः षट्चत्वारिंशत् मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागाः, एषां पुनर्वसुनक्षत्रस्य शोधनकनिष्पत्तिः // 4 // शेषनक्षत्राणां शोधनकान्याह-(बायत्तरंसयमित्यादि५) द्वासप्ततं द्विसप्तत्यधिकं शतं फल्गुनीनामुत्तरफल्गुनीनांशोध्यम् / किमुक्तं भवति? द्विसप्तत्यधिकेन शतेन पुनर्वसुप्रभृतीन्युत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति / एवमुत्तरत्रापि भावार्थो भावनीयः, तथा विशाखासु विशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेषु शोधनकं द्वे शते द्विनवत्यधिके 262, अथानन्तरमुत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि अधिकृत्य शोध्यानि चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि 442 / / 5 / / (एयं पुणेत्यादि६) एतत् अनन्तरोक्तं शोधनक सकलमपि पुनर्वसुसत्कद्वाषष्टिभागसहितमवसेयम् / एतदुक्तं भवति-ये पुनर्वसुसत्का द्वाविंशतिर्मुहूर्तास्ते सर्वेऽप्युत्तरस्मिन् शोधनकेऽन्तः-प्रविष्टाः प्रवर्तन्ते, न तु द्वाषष्टिभागाः, ततो यत् यत् शोधनक शोध्यते तत्र तत्र पुनर्वसुसत्काः षट्चत्वारिंशत् द्वाषष्टिभागा उपरितनाः शोधनीया इति, एतच पुनर्वसुप्रभृति उत्तराषाढापर्यन्तं प्रथमंशोधनकम्, अत ऊर्द्धमभिजितमाद्यं कृत्वा द्वितीयं शोधनकं वक्ष्यामि / / 6 / / तत्र प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति (अभिइस्सेत्यादि गाथाचतुष्टयम् 7-8-6-10-) अभिजितो नक्षत्रस्य शोधनक नव मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य सत्काश्चतुविशतिषिष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टि छेदकृताः परिपूर्णाः षट्षष्टिभागाः, तथा एकोनषष्टम्-एकोनषष्ट्यधिक शतं प्रोष्ठपदानाम्-उत्तरभद्रपदानां शोधनकम्। किमुक्तं भवति? एकोनषष्ट्यधिकेन शतेनाभिजिदादीन्युत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धयन्ति, एवमुत्तरत्रापि भावना कर्तव्या, तथा त्रिषु नवोत्तरेषु शतेषु रोहिणिका रोहिणीपर्यन्तानि शुद्धयन्ति, तथा त्रिषु नयनवतेषु नवनवत्यधिकेषु शतेषु शोधितेषु पुनर्वसुपर्यन्तं नक्षत्रजातं शुद्ध्यति, तथैकोनपञ्चाशदधिकानि पञ्च शतानि प्राप्य फाल्गुन्यश्चउत्तरफाल्गुनीपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्ध्यन्ति, विशाखासुविशाखापर्यन्तेषु नक्षत्रेप्वेकोनसप्तत्यधिकानिषट् शतानि शोध्यानि 666, मूलपर्यन्ते नक्षत्रजातेसप्त शतानि चतुः चत्वारिशदधिकानि शोध्यानि 744, उतराषाढानाम्-उत्तराषाढापर्यन्ताना नक्षत्राणां शोधनकमष्टौ शतानि एकोनविंशत्यधिकानि 816, सर्वेष्वपि च शोधनकेषूपरि अभिजितो नक्षत्रस्य संबन्धिनो मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागाश्चतुर्विशतिः षट्षष्टिश्च चूर्णिका भागा एकस्यद्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः शोधनीयाः 7-8-6-10 / (11 एयाई इत्यादि) एतानि अनन्तरोदितानि शोधनकानि यथायोगं शोधयित्वा यच्छेषमवतिष्ठते तद्भवति नक्षत्रम्, एतस्मिश्च नक्षत्रे करोति सूर्येण सममुडुपतिरमावास्यामिति। तदेवममावास्याविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थ करणमुक्तम् / सम्प्रति पौर्णमासीविषयचन्द्रयोगपरिज्ञानार्थं करणमाह- (१२-इच्छापुण्णिमेत्यादि) यः पूर्वममावास्याचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानार्थमवधार्यराशिरुक्तः स एवात्रापि पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविधौ ईप्सितपौर्णमासीगुणितोयां पौर्णमासी ज्ञातुमिच्छति तत्संख्यया गुणितः कर्तव्यः, गुणिते च सति तदेव पूर्वोक्तं शोधनकं कर्तव्यं, केवलमभिजिदादिकं न तु पुनर्वसुप्रभृतिकं, शुद्धे च शोधनके यत् शेषमवतिष्ठते तत् भवेन्नक्षत्रं पौर्णमासीयुक्तम्, तस्मिंश्च नक्षत्रे करोति उडुपतिश्चन्द्रमाः परिपूर्णः पौर्णमासी विमलामिति / एष पौर्णमासीचन्द्रनक्षत्रपरिज्ञानविषयकरणगाथाद्वयाक्षरार्थः / 11-12 / संप्रत्यस्यैव भावना क्रियते कोऽपि पृच्छतियुगस्याऽऽदौ प्रथमा पौर्णमासी श्रावीष्ठी कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे परिसमाप्तिमुपैति? तत्र षट्षष्टिर्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभाग इत्येवरूपोऽवधार्यराशियिते, प्रथमायां किल पौर्णमास्यां पृष्टमित्येकेन गुण्यते. एकेन च गुणितंतदेव भवति, ततस्तस्माद-भिजितो नव मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागा इत्येवंपरिमाणं शोधनकं शोधनीम् / तत्र षट्षष्टेनव मुहूर्ताः शुद्धाः स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत्, तेभ्य एको मुहूर्ता गृहीत्वा द्वाषष्टिभागीकृतस्ते च द्वाषष्टिरपि द्वाषष्टिभागराशौपञ्चकरूपे प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिः द्वाषष्टि भागास्तेभ्यश्चतुर्विंशतिः शुद्धाः स्थिताः पश्वात्विचत्वारिंशत्तेभ्य एक रूपमादाय सप्तषष्टिभागीक्रियते, ते च सप्तषष्टिरपि भागाः सप्तषष्टिभागैकमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तषष्टिभागाः, तेभ्यः षट्षष्टिः शुद्धाः, स्थितौ पश्चात् द्वौ सप्तषष्टिभागौ, ततस्त्रिंशता मुहूतैः श्रवणः शुद्धः, स्थिताः पश्चात् मुहूर्ताः / षविंशतिः, तत इदमागतं धनिष्ठानक्षत्रस्य त्रिषु मुहूर्तेषु गतेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य एकोनविंशतिसंख्येषु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चषष्टिसंख्येषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमा आविष्ठी पौर्णमासी परिसमाप्तिमियति / यदा तु द्वितीया श्राविष्ठी पौर्णमासी विन्त्यते तदा सा युगस्याऽऽदित आरभ्य त्रयोदशीति स ध्रुवराशिः 66 / 5/62 / 1/67, त्रयोदशभिर्गुण्यते, जातानि मुहूर्तानामष्टौ शतानि अष्टापञ्चशदधिकानि 858, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चषष्टिषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः 85865/62 / 13/67 तत्राष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य व मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्कैः षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरेको नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, ततः / स्थिताः पश्चादेकोनचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्वारिंशद्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सप्तषष्टिभागाः 36 | 4/60/21/64/7 ततो नवभिर्मुहूर्तरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्र शुद्ध्यतिस्थिताः पश्चात् त्रिंशन मुहूर्ताः पञ्चदशः मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागा एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य पञ्चदश सप्तषष्टिभागाः 3 / 1/65/2.1/65/7 / तेभ्यस्त्रिशता श्रवणः शुद्धः, आगतम् एकोनविशतिमुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु धनिष्ठायां द्वितीया श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमाप्तिमेति। यदा तु तृतीया श्राविष्ठी पौर्णमासी चिन्त्यते तदा सा युगाऽऽदितः पञ्चविंशति तमेति स पूर्वोक्तो ध्रुवराशिः 66 / 5/62 1/67 पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानिषोडशशतानिपञ्चाशदधिकानि 1650, Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णमासिणी 167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्णमासिणी एकस्य च मुहुर्तस्य पञ्चविशं शतं द्वाषष्टिभागानाम् 125, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः 25, तत्र षोडशभिः शतैरष्टात्रिंशदधिकैः 1638, मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्याष्टाचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैः ४८,एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशदधिकेन शतेन 132, द्रौ नक्षत्रपर्यायौ शुझ्यतः, स्थिताः पश्चात् द्वादश मुहूर्ताः 12, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसप्ततिषिष्टिभागाः 75, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः 27, ततो नवभिर्मुहूर्तरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुविशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिन्नक्षत्र शुद्ध्यति, स्थिताः पश्चात् त्रयोदश मुहूर्ताः 13 / एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशत् द्वाषष्टिभागाः 50/62 एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाविंशतिः सप्तषष्टिभागाः 28/67 आगतं श्रवणनक्षत्रं षट्तिशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य एकादशसुद्वाषष्टिमागेषु एकस्य चद्वाषष्टिभागस्यैकोनचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयति, एवं चतुर्थी श्राविष्टी पौण्णमासी धनिष्ठानक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, पञ्चमी श्राविष्ठी पौर्णमासी श्रवणनक्षत्रं द्वादशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य षष्टिसख्येषु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमाप्तिनयतीति। तदेवं यानि नक्षत्राणि श्राविष्ठी पौर्णमासी परिसमापयन्ति तान्युक्तानि // 11 // सम्प्रति यानि प्रोष्ठपदी परिसमापयन्ति तान्याहता पोट्ठवतिं गं पोण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति? ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति। तं जहा-सतभिसया, पुव्वासाढवती, उत्तरापोट्ठवया // 2 // (ता पोट्टवई ण इत्यादि) ता इति पूर्ववत्, प्रोष्ठपदी भाद्रपदी, णमिति वाक्यालङ्कारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति? कति नक्षत्राणि यथायोगं चन्द्रेण सह संयुज्य परिसमापयन्तीत्यर्थः? एवं सर्वत्रापि. युञ्जन्तीत्यस्य पदस्य भावना कर्तव्या। भगवानाह- (ता इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति, तद्यथा-शतभिषक, पूर्वप्रोष्ठपदा, उत्तरप्रोष्ठपदा च। तत्र प्रथमा प्रोष्ठपदी पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्रं सप्तविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्राष्टिभागेषु चतुष्षष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति नयति। द्वितीयां प्रौष्ठपदी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु शेषेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति। तृतीयां प्रौष्ठपदी पौर्णमासीं शतभिषक् पञ्चसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्सु द्वाषष्टिभागेषु एस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी प्रौष्ठपदी पौर्णमासीम् उत्तरभद्रपदानक्षत्रं चत्वारिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, | पञ्चमी प्रौष्ठपदी पौर्णमासी पूर्वभद्रपदानक्षत्रमेकविंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकादशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति। ता आसोइंणं पुण्णिमं कति णक्खत्ता जोएंति? ता दोण्णि नक्खत्ता जोएंति। तं जहा-रेवतीय, अस्सिणी य॥३॥ (ता आसोइंणमित्यादि) आश्वयुर्जी, णमिति वाक्यालङ्कारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति? भगवानाह- (ता इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् ये नक्षत्रे युक्तः , तद्यथा- रेवती च, अश्वनी च / इहोत्तरभद्रपदानक्षत्रमपि काश्चिदाश्वयुर्जी पौर्णमासी परिसमापयति, परंतत्प्रौष्ठपदीमपि पौर्णमासी परिसमापयति, तत्रैव च लोके तस्य प्राधान्यं तन्नाम्ना तस्याः पौर्णमास्या अभिधानात् अतस्तदिह न विवक्षितमित्यदोषः / तथाहि-प्रथमायाश्वयुजी पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रमेकविंशतौ मुहूर्तेष्वेकस्य च / द्वाषष्टिभागस्य त्रिषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति, द्वितीयामाश्वयुजी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं सप्तदशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयामाश्वयुजी पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्र चतुर्दशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकस्मिन् द्वाषष्टिभागे एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु चतुर्थीमाश्वयुजी पौर्णमासी रेवतीनक्षत्रं चतुर्षु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य द्वाषष्टिभागस्य त्रयोविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमीमाश्वयुजी पौर्णमासीमुत्तरभद्रपदानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य चद्वाषष्टिभागस्य दशसु सप्तपष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति // 3 // ता कत्तियं णं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति ? ता दोण्णि नक्खत्ता जाएंति / तं जहा-भरणी य कत्तिया य // 4 // (कत्तियं णमित्यादि) कार्तिी पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति? भगवानाह-द्वे नक्षत्रे युक्तः , तद्यथा- भरणी, कृत्तिका वा। इहाऽप्यश्विनीनक्षत्रमपि काञ्चित् कार्तिकी पौर्णमासी परिसमापयति, परं तदाश्वयुज्यां पौर्णमास्यां प्रधानमितीह तन्न विवक्षितं, तत्र प्रथमां कार्तिी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्यु द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं षड्विंशती मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहुर्तस्यैकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां कार्तिकी पौर्णमासीमश्विनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टा पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यषट्त्रिंशति ससषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी कार्तिकी पौर्णमासी कृत्तिकानक्षत्रं षोडशसु मुहुर्तेष्येकस्य च मुहूर्तस्याष्टापञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वविंशतौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी कार्तिकी पौर्णमासी भरणीनक्षत्रं नव मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णमासिणी 968 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्णमासिणी च द्वाषष्टिभागस्य नवसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति॥४॥ ता मग्गसिरिं णं पुण्णिमं कइ णक्खत्तां जोएंति? ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति / तं जहा- रोहिणी मग्गसिरो य / / 5 / / 'ता' इति पूर्ववत्, कति नक्षत्राणि मार्गशीर्षी पौर्णमासी युञ्जन्ति? | भगवानाह- (ता दोण्णीत्यादि) 'ता' इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे युक्तः , तद्यथा- रोहिणिका, मृगशिरश्च। तत्र प्रथमा मार्गशीर्षी पौर्णमासीं मृगशिरोऽष्टसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य सम्बन्धिनोद्वाषष्टिभागस्य सत्केष्वेकषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां मार्गशीर्षी पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्र पञ्चसुमुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षड्डिशतौ द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां मार्गशीर्षी पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रमेकविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मार्गशीर्षी पौर्णमासी मृगशिरोनक्षत्रं द्वाविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदशसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकविंशती सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी मार्गशीर्षी पौर्णमासी रोहिणीनक्षत्रम् अष्टादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति / / 5 / / ता पोसि णं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति? ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति। तं जहा-अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो॥६।। (ता पोसिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, पौर्षी, णमिति वाक्यालङ्कारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति?भगवानाह- (ता इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति। तद्यथा- आर्द्रा, पुनर्वसुः, पुष्यश्च / तत्र प्रथमा पोषीं पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्तयारेकरय च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टी सप्तषष्टिभागेषु, द्वितीया पौषीं पौर्णमासी एकोनविंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां पौषीं पौर्णमासीमधिकमासादक्तिनीमामा॑नक्षत्रं दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्याष्टाचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, अधिकमासभाविनी पुनस्तामेव तृतीयां पौर्णमासी पुष्यनक्षत्रमेकोनविंशती मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशतिद्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी पौषीं पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं षोडशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टसु द्वाषष्टिभागेसु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतौ सप्तसष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी पौषीं पौर्णमासी पुनर्वसुनक्षत्रं द्विचत्वारिंशति मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशति द्वाषष्टिभागेसु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, परिसमाप्ति नयति // 6 // ता माहिं णं पुणिमं कति णक्खत्ता जोएंति? ता दोणि नक्खत्ता जोएंति / तं जहा- अस्सेसा, महा य / / 7 / / (ता माहिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, माघीं, णमितिवाक्यालङ्कारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जति? भगवानाह-(ता दोण्णीत्यादि) द्वे नक्षत्रे युक्तः / तद्यथा-अश्लेषा, मघा च। चशब्दात्काञ्चिन्माघी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र काञ्चिन्पुष्यनक्षत्रं च / तद्यथा- प्रथमा माघीं पौर्णमासी मघानक्षत्रमेकादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनषष्टौ सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीया माघी पौर्णमासीमश्लेषानक्षत्रमष्टसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षोडशसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां माघी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रमष्टाविंशतौ मुहूर्तषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी मार्षी पौर्णमासी मघानक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिषु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनविंशतो सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी माघी पौर्णमासी पुष्यनक्षत्रं षट्सु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशतिद्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्सु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति // 7 // ता फग्गुणिं णं पुण्णिमं कति णक्खत्ता जोएंति? ता दुन्नि नक्खत्ता। जोएंतितं जहा- पुव्वफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी य॥८॥ (ता फग्गुणिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, फाल्गुनी, णमिति वाक्यालङ्कारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति? भगवानाह-(ता दोण्णीत्यादि) 'ता' इति प्राग्वत, वनक्षत्रे, तद्यथा-पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी च / तत्र प्रथमा फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्रं विंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टापञ्चाशति समषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयां फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तराफाल्गुनीनक्षत्र सप्तसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य त्रयस्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी फाल्गुनी पौर्णमासीमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रयस्त्रिंशति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षष्टी द्वाषष्टिभागेष्येकस्य च द्वाषष्टिभागस्याऽष्टादशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी फाल्गुनी पौर्णमासी पूर्वफाल्गुनीनक्षत्रं पञ्चदशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चविंशतौ द्वाषष्टिसङ्ख्येषु भागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिसमापयति / / 8 / / ता चित्तिं णं पुण्णिम कति णक्खत्ता जोएंति? ता दोण्णि नक्खत्ता जोएंति। तं जहा- हत्थो, चित्ताय // 6 // (ता चित्तिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, चैत्री पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति? भगवानाह- (ता इत्यादि) द्वे नक्षत्रे युक्तः / तद्यथाहस्तः, चित्रा चा तत्र प्रथमां चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं चतुर्दशसुमुहूर्तेष्वे Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णमासिणी 6EE - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्णमासिणी कस्यच मुहूर्तस्य एकचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाष-ष्टिभागस्य भागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां चैत्रीं पौर्णमासी हस्तनक्षत्र-- तृतीया ज्येष्ठामौली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं चतुर्दा मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तमेकादशसु मुहूर्तेष्येकस्य च मुहूत्तस्य षट्सु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च स्याऽष्टादशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तषष्टिद्वाषष्टिभागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु तृतीयां चैत्री भागेषु शेषेषु चतुर्थी ज्येष्ठामौली पौर्णमासी ज्येष्ठानक्षत्रमेकस्य च मुहूर्तस्य पौर्णमासी चित्रानक्षत्रमेकस्मिन् मुहूर्ते एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टाविंशतौ पञ्चचत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चदशसु द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी ज्येष्ठामौली पौर्णमासीम् अनुराधानक्षत्रं चतुर्थी चैत्री पौर्णमासी चित्रानक्षत्रं सप्तविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य द्वादशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च पञ्चपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तदशसु सप्तषष्टि- द्वाषष्टिभागस्य द्वयोः सप्तषष्टिभागयोः परिसमाप्तिमुपनयति / / 11 / / भागेषु शेषेषु, पञ्चमी चैत्री पौर्णमासी हस्तनक्षत्रं चतुर्विशतौ मुहूर्तेष्येकस्य आसाहिं णं पुण्णिमं कति णक्खत्ता जोएंति? ता दो पक्खत्ता च मुहूर्तस्य विंशतौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्ष जोएंति। तं जहा-पुव्वासादा, उत्तरासाढा य॥१२।। (38 सूत्र) सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति॥६ (आसादि णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, आषाढी णमिति वाक्याता वइसाहिं णं पुण्णिमं कति णक्खत्ता जोएंति? दोणि लङ्कारे, पौर्णमासी कति न नक्षत्राणि युञ्जन्ति? भगवानाह- (ता दो णक्खत्ता जोएंति / तं जहा-साती, विसाहाय।।१०।। इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, द्वे नक्षत्रे युक्तेः / तद्यथा- पूर्वाषाढा, (ता वइसाहिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, वैशाखीं, णमिति उत्तराषाढाच। तत्र प्रथमामाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रं षड्विंशती वाक्यालङ्कारे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति? भगवानाह- (ता मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य षड्विशतौ द्वाष्टिभागेषु एकस्यच द्वाषष्टिभागस्य दोण्णीत्यादि) 'ता' इति प्राग्वत्, द्वे नक्षत्रे युक्तः / तद्यथा- स्वातिः, चतुष्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयामाषाढी पौर्णमासी पूर्वाषाविशाखा च, चशब्दादनुराधा च / इदं हि-अनुराधानक्षत्रं विशाखातः ढानक्षत्रं सप्तसुमुहूर्तेष्येकस्यच मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशतिद्वाषष्टिभागेष्वेकस्य परं, विशाखा चास्यां पौर्णमास्यां प्रधाना, ततः परस्यामेव पौर्णमास्यां च द्वाषष्टिभागस्यैकचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, तृतीयामाषाढी तत्साक्षादुपातं, नेहेति, तत्र प्रथमां वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्र- पौर्णमासीम् उत्तराषाढानक्षत्रं त्रयोदशसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य मष्टसु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य षट्त्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च त्रयोदशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतौ सप्तषष्टिद्वाषष्टिभागस्य षट्पञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीयां वैशाखीं भागेषु शेषेषु, चतुर्थीमाषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्रमेकोनचत्वारिंपौर्णमासी विशाखानक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहूर्तेषु एकस्यच मुहूर्तस्यैकस्मिन् शति मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागे एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषुपरिसमापयति, पञ्चमीतृतीयां वैशाखी पौर्णमासीम् अनुराधानक्षत्रं पञ्चविंशतौ मुहर्तेष्वेकस्य माषाढी पौर्णमासीमुत्तराषाढानक्षत्र स्वयंपरिसमाप्नुवन् परिसमापयति / चमुहूर्तस्य त्रयोविंशतौ द्वाषष्टिभागेषु एकस्यचद्वाषष्टिभागस्यैकोनत्रिंशति किमुक्तं भवति? एकत्र पञ्चमी आषाढी पौर्णमासी समाप्तिमेति, अन्यत्र सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, चतुर्थी वैशाखी पौर्णमासी विशाखानक्षत्रमेकविंशतौ चन्द्रयोगमधिकृत्वोत्तराषाढानक्षत्रमिति। इह सूत्रकृत एव शैलीयं यद्यद् मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टि- नक्षत्रं पौर्णम सीममावास्यां या परिसमापयति तद्यावत् शेषे परिसमापयति भागस्य षोडशसु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, पञ्चमी वैशाखी पौर्णमासी स्वाति- तायत्तस्य शेष कथयति, ततस्तदनुरोधेनास्माभिरप्यत्र तथैवोक्तम्, नक्षत्रं त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चदशसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च यावता पुनर्यावत्यतिक्रान्ते परिसमापयति तावदेव प्रागुक्तकरणवशात् द्वाषष्टिभागस्य त्रिषु सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु परिणमयति॥१०॥ कथनीयं, चन्द्रप्रज्ञप्तावपि तथैव वक्ष्यामि, अमावास्याधिकारमपि ता जेवामूलिंणं पुण्णिमासिंणं कति णक्खत्ता जोएंति? ता अनन्तरं तथैव वक्ष्यामः, तदेवं यानि नक्षत्राणि यां पौर्णमासी युञ्जन्ति तिन्नि नक्खत्ता जोएंति / तं जहा- अणुराहा, जेट्ठा, मूलो __ तान्युक्तानि। य॥११|| संप्रति गतार्थामपि मन्दमतिविबोधनार्थ कुलाऽऽदियो(ता जेट्ठामूलिं णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, ज्येष्ठामौली, णमिति जनामाहवाक्यभूषणे, पौर्णमासी कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति? भगवानाह- (ता ता साविद्धिं णं पुणिमासिं णं किं कुलं जोएति, उवकुलं इत्यादि)'ता' इति पूर्ववत्, त्रीणि नक्षत्राणि युञ्जन्ति। तद्यथा-अनुराधा, जो एति, कुलोवकु लं जो एति? ता कुलं वा जो एति, ज्येष्ठा मूलं च। तत्र प्रथमां ज्येष्ठामौली पौर्णमासी मूलनक्षत्रं सप्तदशसु उवकु लं वा जो एति, कु लोवकु लं वा जो एति, कुलं मुहूतेषु एकस्य च मुहूर्तस्यैकत्रिंशति द्वाषष्टिभागेष्वेकस्य चद्वाषष्टिभागस्य जोएमाणे धणिट्ठाणक्खत्ते जोएति, उवकुलं जोएमाणे सवणे पञ्चपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेषु, द्वितीयां ज्येष्ठामौली पौर्णमासी णक्खत्ते जोएति, कुलोवकुलं जोएमाणे अमिईणक्खत्ते ज्येष्ठानक्षत्रं त्रयोदशसुमुहूर्तेषु एकस्य च मुहूर्तस्य अष्टापञ्चाशतिद्वाषष्टि- | जोएति। साविद्धिं पुण्णिमं कुलं वा जोएति उवकुलं वा जो Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णवासिणी 1000 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पुण्णोवाय एति, कुलोवकुलं वा जोएति, कुलेण वा उवकु लेण वा कुलं जोएमाणे कत्तिआणक्खत्ते जोएइ उवकुलंजोएमाणे भरणीनक्खत्ते कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुषिणमा जुत्तातिवत्तव्यं सिया। जोएइ, ता कत्तिअंणं पुण्णिम कुलं वा जोएइ उवकुल वा जोएइ, कुलेण ता पोह्रवतिं णं पुण्णिमं किं कुलं जोएति, उवकुलं जोएति, वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिय पुण्णिमा जुत्त त्ति वत्तव्वं सिआ कुलोवकुलं वा जोएति? ता कुलं वा जोएति, उवकुलं वा इत्यादि तावद्वक्तव्यं याव-दाषाढीपौर्णमासीसूत्रपर्यन्तः। तथा चाऽऽहजोएति, कुलोवकुलं वा जोएति, कुलंजोएमाणे उत्तरापोट्ठवया 'जाव आसाढी पुन्निमा जुत्त त्ति वत्तव्वं सिया'। तदेवं पौर्णमासी वक्तव्यणक्खत्ते जोएति, उवकुलं जोएमाणे पुव्वापुट्ठयया णक्खत्ते तोक्ता। सू०प्र०१०पाहु०५ पाहु० पाहु०। (पौर्णमास्यानां चन्द्रयोगमजोएति, कुलोवकुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खत्ते जोएति।। धिकृत्य सन्निपातः 'अमावसा' शब्दे प्रथमभागे 646 पृष्ठे गतः) (कियत्सु पोट्ठवतिणं पुण्णमासिंणं कुलं वा जोएति, उवकुलं वा जोएति, मुहूर्तेषु गतेषु पौर्णमास्या अनन्तरममावस्या भवति-कियत्सु मुहूर्तेषु गतेषु कुलोवकुलं वा जोएति, कुलेण वा जुत्ता 3 पुट्ठवता पुण्णिमा अमावस्यातः पौर्णमासीति अमाक्सा' शब्दे प्रथमभागे 745 पृष्ठ गतम्) जुत्तात्ति वत्तव्वं सिया। ता आसोई णं पुण्णिमासिं णं किं कुलं "पंचसंवच्छरिए जुगे वावह्नि पुन्निमाओ।" स०६१ सम०। ('संवच्छर' जोएति, उवकुलं जोएति, कुलोवकुलं जोएति, णो लभति शब्दे व्याख्यास्यते) कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे अस्सिणीणक्खत्ते जोएति, उवकुलं | पुण्णमेह पुं०(पूर्णमघ) पुष्कलाऽऽवर्तमेघे, आव०४ अ०। जोएमाणे रेवतीणक्खत्ते जोएति, आसोई णं पुणिमं च कुलं | पुण्णवत्थ न०(पुण्यवस्त्र) "हीरइ जं आणंदे, वत्थं तं पुण्णवत्थं वा जोएति, उवकुलं वा जोएति, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा ति।'' पाइ० ना० 212 गाथा। प्रभोदहृतवस्त्रे, दे० ना० 6 वर्ग 53 गाथा। जुत्ता अस्सादिणं पुण्णिमा जुत्त त्ति वत्तव्यं सिया, एवं तव्वाओ, | पुण्णसंभार पुं०(पुण्यसंभार) तीर्थकरनामाऽऽदिशुभकर्मसंचये, “अचिपोसं पुण्णिमं जेट्ठामूलं पुणिमं च कुलोवकुलं पि जोएति, | न्त्यपुण्यसंभार सामर्थ्यादतदीदृशम् / तथा चोत्कृष्टपुण्यानां, नास्त्यअवसेसासु णत्थि कुलोव-कुलं॥ साध्यं जगत्त्रये // 1 // " हा०३१ अष्ट। (ता साविढि णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, श्राविष्ठी पौर्णमासी किं | पुण्णसेस पु०(पूर्णसन) राजगृहे नगरे श्रेणिकस्य राज्ञो धारा जाते कुल युनक्ति उपकुलं युनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्ति? भगवानाह- स्वनामख्याते पुत्रे, (स च वीरान्तिके प्रव्रज्यषोडशवर्षपर्यायः संलेखनया 'ता कुलं वा' इत्यादि, कुलं वा युनक्ति,वाशब्दः समुच्चये, ततः कुलमपि मृत्वा सर्वार्थसिद्धे विमाने उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति) अनुत्तरोपयुनक्तीत्यर्थः / एवमुपकुलमपि कुलोपकुलमपि, तत्र कुलं युञ्जन् पातिकदशानां द्वितीयवर्गे त्रयोदशे अध्ययने सूचितम् / अणु०। धनिष्ठानक्षत्रं युनक्ति, तस्यैव कुलं (लतया) प्रसिद्धस्य सतः श्राविष्ट्यां | पुण्णा स्त्री०(पूर्णा) पक्षस्य पञ्चम्यां दशमं पञ्चदश्याच तिथौ, सू०प्र०१० पौर्णमास्यां भावात्, उपकुलं युञ्जन् श्रवणनक्षत्रं युनवित, कुलोपकुलं | पाहु०१३ पाहु० पाहु० / च० प्र०। द०प०। पूर्णभद्रस्य यक्षेन्द्रस्याग्रमयुञ्जन् अभिजिन्नक्षत्रं युनक्ति, तद्धि तृतीयायां श्राविष्ठयां पौर्णमास्या हिष्याम, स्था० 4 ठा० 1 उ०। (अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा 'अग्गमहिसी' द्वादशसु मुहूर्तेषु किश्चित्समधिकेषु शेषेषु चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततः शब्दे प्रथमभागे 171 पृष्ठे गता) श्रवणेन सह सहचरत्वात् स्वयमपि तस्याः पौर्णमास्याः पर्यन्तवर्त्तित्वात् | पुण्णाग पुं०(पुन्नाग) पुमान् नाग इव श्रेष्ठः, प्रधानत्वात स एव / स्वनामतदपि तां परिसमापयतीति विवक्षितत्वात् युनक्तीत्युक्तम् / सम्प्रति ख्याते पुण्यप्रधाने, वृक्षभेदे, श्वेतोत्पले, जातीफले, पाण्हुवर्णहस्तिनि, उपसंहारमाह- (साविढि णमित्यादि) यत एवं त्रिभिरपि कुलाऽऽदिभिः | नरश्रेष्ठे च / वाच०॥ अनु०। प्रज्ञा०। कल्प०ा आचाला श्राविष्ठ्याः पौर्णमास्या योजनाऽस्ति, ततः श्राविष्ठी पौर्णमासी कुलं वा | पुण्णाणुभाव पु०(पुण्यानुभाव) पुरुषाणा पुण्यविपाक, षा०५ युनक्ति उपकुलं वायुनक्ति कुलोपकुलं वा युनक्तीति वक्तव्यं स्यात्- | पुण्णाम पुं०(पुन्नाग) "पुन्नागभागिन्योर्गो मः" ||8/1/190|| इति इति स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादनं कुर्यात्, यदि वा-कुलेन वा युक्ता सती गस्य मः / स्वनामख्याते पुष्पप्रधाने वनस्पतौ प्रा० १पाद। श्राविष्ठी पौर्णमासी उपकुलेन वा युक्ता कुलोपकुलेनवा युक्तति वक्तव्यं पुण्णाली (देशी) असत्याम, दे० ना० 6 वर्ग 53 गाथा। स्यात्, एवं शेषमपि सूत्रं निगमनीयं, यावत्- ‘एवं नेयवाओ' इत्यादि, पुण्णिमा स्त्री०(पूर्णिमा) पौर्णमास्याम्, आ०म०१ अ०।"पंचसंवच्छरिए एवमुक्तेन प्रकारेण शेषा अपि पौर्णमास्यो नेतव्याः-पाठक्रमेण वक्तव्याः, | णं जुगे वाट्ठि पुन्निमाओ।" स०६१ सम० नवरं पौषी पौर्णमासी ज्येष्ठामूलींच पौर्णमासी कुलोपकुलमपि युनक्ति, पुण्णोदयसहाय त्रि०(पुण्योदयसहाय) पुण्यानुभावसहिते, पा० 10 विवा अवशेषासु च पौर्णमासीषु कुलोपकुले नास्तीति परिभाव्य वक्त-व्याः। | पुण्णोवाय पुं०(पुण्योत्पाद) पुण्योत्पादने, "दया भूतेषु वैराग्यं विधिदानं ताश्चयम्- 'ता कत्तियं णं पुन्निमासिणी किं कुलं वा जोएइ, उपकुलं वा / यथोचितम् / विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्योणयाः प्रकीर्तिताः॥१॥" षो० जोएइ? ता कुलं पि जोएइ उवकुलं पि जोएइ. नो लभेइ कुलोबकुलं, विवा Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्त 1001- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुत्तणत्तुपरियालपणयबहुल पुत्त पुं०(पुत्र) पुनाति पितुराचारानुवर्तितया ऽऽत्मानमिति पुत्रः। उत्त०१ अ०। सुते, सूत्रा०१ श्रु०२१०१ उ० / स्था०। अनु०। औरसे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। अङ्गजे, उत्त० 16 अ०स० अपत्ये, सूत्र०१ श्रु०१० 2 उ० पुानिरूपणायाऽऽहदसपुत्ता पण्णता। तं जहा–अत्तए, खित्तए, दिण्णए, विण्णए, ओरसे, मोहरे, सोंडीरे, संबड्डे, ओववाइए, धम्मंतेवासी।। (दस पुत्तेत्यादि) पुनाति पितरं पाति वा पितृमर्यादामिति पुत्रः सूनुः तत्र आत्मनः पितृशरीराजात आत्मजोयथा भरतस्याऽऽदित्ययशाः 1 / क्षेत्रों भाया, तस्यां जातः क्षेत्राजो, यथा पाण्डोः पाण्ड्याः, लोकरूढ्या तद्भर्यायाः कुन्त्या एव तेषां पुत्रत्वान्न तुपाण्डोः, अदित्याऽऽदिभिर्जनितत्वादिति 2 / (दिण्णए त्ति) दत्तकः पुत्रतया वितीर्णो यथा बाहुबलिनाऽनिलवेगः श्रूयते, स च पुत्रवत् पुत्राः, एवं सर्वत्रा 3 / (विण्णए त्ति) विनयित्तः शिक्षा ग्राहितः 41 (ओरसेत्ति) उपगतो जातो रसः पुत्रास्नेहलक्षणो यस्मिन्, पितृस्नेहलक्षणो वा यस्यासावुपरसः, उरसि वा हृदये स्नेहाद्वर्त्तते यः औरसः 5 / मुखर एव मौखरो मुखरतया चाटुकरणतो य आत्मानं पुत्रतया अभ्युपगमयति स मौखर इति भावः 6 शौण्डीरः यः शौर्यवता शूर एव रणकरणेन वशीकृतः पुत्रतया प्रतिपद्यते, यथा कुवलयमालाकथायां महेन्द्रसिंहाभिधानो राजसुतः श्रूयते / (अथवाऽऽत्मज एवं गुणभेदाद्भिद्यते तत्र (विण्णए त्ति) विज्ञकः पण्डितोऽभयकुमारवत् 4 / (ओरसे त्ति) उरसा वर्तते इति औरसो बलवान्, बाहु बलीव 5, शौण्डीरः शूरो वासुदेववत् गर्वितो वा शौण्डीरः "शौण्ड गर्वः" इति वचनात्७।) (संवड्ढेत्ति) संवर्द्धितो भोजनदानाऽऽदिनाऽनाथपुत्रकः पा(ओववाइय त्ति) उपयाचिते देवताऽऽराधने भव औपयाचितकः अथवा अवपातः सेवा, सा प्रयोजनमस्येति आवपातिकः सेवक इति हृदयम् / तथा अन्ते समीपे वस्तुंशीलमस्येति, अन्तेवासी धर्मार्थमन्तेवासी धर्मान्तेवासी, शिष्य-इत्यर्थ 10 / स्था० 10 ठा०। ''इदं तत्स्नेहसर्वस्व, सममाढ्यदरिद्रयोः। अचन्दनमनौशीर, हृदयस्यानुलेपनम्। 1 // यत्तच्छपनिकेत्युक्तं, बालेनाव्यक्तभाषिणा। हित्वा सौख्यं च योगं च,तन्मे मनसि वर्तते // 2 // " सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 2 उ०।"अपुत्रस्य गति स्ति।'' इति न युक्तियुक्तम्, "बहुपुत्रो डुपी गोधा, ताम्रचूडस्तथैव च। तेषां च प्रथम स्वर्गः, पश्चालोको गमिष्यति / / 11 / उक्त० 14 अ० वरं कूपशताद् वापी, वरं वापीशताद्क्रतुः वरं क्रतुशतात्पुत्र सत्यं पुत्रशताद्वरम् / / 1 / / " स्था० 4 ठा० 3 उ० / पुरुषाऽस०सर्गऽपि स्त्री गर्भम् धरति। बृ०३ उ० पुत्र इव पुत्रः। शिष्ये, उत०१अ०। एकस्य पितुः कतिपुत्राः एगजीवे णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छइ ! गोयमा ! जहन्नेणं इक्कस्स वा दोण्हस्स वा तिण्हस्स वा, उक्कोसं सयपुहत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छई। एगजीवस्स णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ! गोयमा ! जहन्नेणं इक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ० जाव हव्वमागच्छइ ? गोयमा ! इथिए य पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए। नामं संजोए समुप्पजइ, ते दुहओ सिणेहं संचिणंति; तत्थ णं जहन्नेणं इक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छइ, से तेण?णं० जाव हव्वमागच्छइ। मनुष्याणां तिरश्वां च बीजं द्वादश मुहूर्तान्यावद् योनिभूतं भवति. ततश्व गवादीनां शतपृथक्त्वस्यापि बीजं गवादि योनिप्रविष्टं बीजमेव, तत्र च बीजसमुदाये एको जीव उत्पद्यते, स च तेषां बीजस्वामिनां सर्वेषां पुत्रो भवलियत उक्तम् (उक्कोसेणं सयपुहत्तस्सेत्यादि) सयसहस्सपुहत्तंति) मत्स्याऽऽदीनामेकसयोगेऽपि शतसहस्त्रपृथक्त्वं गर्भ उत्पद्यते निष्पद्यते चेत्येकस्य एकभवग्रहणे लक्षपृथक्त्वं पुत्राणां भवतीति / मनुष्ययोनौ पुनरुत्पन्ना अपि बहवो न निष्पद्यन्ते इति / (इथिए पुरिसस्स य इति) एतस्य ''मेहुणवत्तिए नाम संयोगे समुप्पज्जइ'' इत्यनेन संबन्धः। कस्यामसावुत्पद्यते? इत्याह-(कम्मकडाए जोणीए त्ति) नामकर्मनिर्वर्तितायां योनौ / अथवा-कर्म मदनोद्दीपको व्यापारस्तत् कृतं यस्यां कर्मकृता, अतस्तस्यां मैथुनस्य वृत्तिः प्रवृत्तिर्यस्मिन्नसौ मैथुनवृत्तिको, मैथुनं वा प्रत्ययो हेतुर्यस्मिन्नसौ स्वार्थिक कप्रत्यये मैथुनप्रत्ययिकः / (नाम ति) नामनामवतोरभेदोपचारादेतन्नामेत्यर्थः / संयोगः सम्पर्कः। (ते इति) स्त्रीपुरुषौ। (दुहओ त्ति) उभयतः स्नेहं रेतः शोणितलक्षणं संचिनुतः संबन्धयत इति (मेहुणवत्तिए नाम संजोए त्ति) प्रागुक्तम्। भ० 2 श०५ उ० श्रीभगवत्युक्ता एकपुत्रस्य नवशतपितरः कथं संभवन्ति ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-द्वादश मुहूर्तान् यावतीर्यमविनष्ट स्यात् तावत्कालावधि नवशतमितवृषभाऽऽदिभिर्मुक्त गवादौ यो गर्भ उत्पद्यते, सतावतां पुत्रो भवतीति। 172 प्र०। सेन०२ उल्ला०। "तस्सणं अज्जगस्सनत्तुए होत्था इट्टे कते।'' इति राजप्रश्नीयोपाने आर्यको नतृक उक्तः, श्राद्धविधिवृत्तौ तु आर्यकः पुत्र कथं प्रोक्तः? इति प्रश्ने उत्तरम्-पुत्रो नप्ताऽप्यतीव वल्लभत्वात्पुत्रत्वेन लोकैर्व्यवह्रियते, तेनात्रापि, नप्तृशब्दः पुत्रत्वेन व्यवहतः संभाव्यते / 250 प्र०सेन०३ उल्ला०। पुत्तकारण न० (पुत्रकारण) सुतनिमित्ते, सूत्र 1 श्रु 4 अ० 2 उ०। पुत्तजीवय पुं० (पुत्रजीवक) देशविशेषप्रतिबद्धे एकास्थिकवृक्षभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। पुतणत्तु परियालपणयबहुल त्रि० (पुत्रनप्त परिवारप्रणयपबहुल) पुत्राः सुताः, नप्तारः दौहित्राश्च, एतल्लक्षणो यः परिवा Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्तणत्तुपरियालपणयबहुल 1002- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुप्फचूलिया रस्तत्र यः स्नेहः स बहुलो बहुर्येषां ते तथा पुत्राऽऽदिषु बहुस्निग्धे, भ० 66 गाथा। ७श०६उ०। पुन्नाअपुं० (पुन्नाग) देववृक्षे, “पुन्नाओ सुरवल्ली।'' पाइ ना० 146 गाथा / पुत्तदार न० (पुत्रदार) पुत्रकलत्रे, उत्त 16 अ०| पुप्पअन०(देशी)। पीने, दे० ना०६ वर्ग 52 गाथा। पुत्तदारपरिकिन्न त्रि० (पुत्रदारपरिकीर्ण) विषयसेवनात् पुत्रकलत्रा पुप्फ न० (पुष्प) पुष्प अच्। “कुसुमे, पुप्फाणि य कुसुमाणि य, फुल्लाणि ऽऽदिभिः सर्वतो विक्षिप्ते, ''पुत्तदारपरिक्किन्नो मोहसंताणसंतओ य तहेव होंति पसवाणि। सुमणाणि य सुहुमाणि य, पुप्फाणं होति (8 गाथा)।" दश०१चू०। एगट्ठा // 36 // " दश० 1 अ० कल्पका स्त्रीरजसि. विकासे, कुवेरस्य पुत्तदोहल पु० (पुत्रदौहृद) पुत्रे गर्भस्थे दोहदमेव पुत्रदौहदः। अन्तर्वन्याः विमाने, नेत्ररोगभेदे चा स्वार्थे कन् / रत्नमयकङ्कणे, रसजने, फलाऽऽदावभिलाषविशेषे, सूत्र 1 श्रु०४ अ०२ उ०११ शकट्याम्, कासीसे, च। वाच०। हा० 3 अष्टा ('अट्टपुप्फी' शब्दे पुत्तपोसि(ण) त्रि० (पुत्रपोषिण)" अदु पुत्तदोहलट्ठाए, आणप्पा हवंति प्रथमभागे 245 पृष्ठे उक्तानि अष्ट पूजोपयोगिकुसुमानि) दासा वा।"पुत्रेच्छापूरणार्थ दासभावमापन्ने पुत्रपोषके, सूत्र०१ श्रु४ पुप्फअपुं० (पुष्फक) फेने, 'डिंडीरो पुप्फओ, फेणो'' पाइ० ना० 132 अ०२ उ० गाथा। पुत्तफल नं० (पुत्रफल) पुत्रलक्षणं फलं पुत्रफलम् पुत्रो वा फलं यस्य पुप्फकंत पुं(पुष्फकान्त) दशमकल्पीयविमानभेदे, स०२० समका कर्मणस्तत्पुत्रफलम्। पुत्ररूपे कर्मफले, पुत्रफलकरे कर्मणि च। स्था 5 पुप्फकरंड न० (पुष्फकरणड) हस्तशीर्षनगरस्योत्तरपश्चिमदिग्भागे ठा०२ उ०। स्वनामख्याते उद्याने, विपा०२ 101 अ०। आ०म०। आ० चू०। पुत्तबहू स्त्री (पुत्रवधू) पुत्रपल्ल्याम्, "सण्हा पुत्तबहू।" पाइ० ना०२५२ पुप्फकेउ पु० (पुष्पकेतु) गङ्गातटस्थपुष्पभद्रपुरराजे, ती० 35 कल्प। गाथा। पुष्पचूडयोः पितरि, ती० 35 कल्प। दर्श० / आव०। आ० क० / न० / पुत्तभंड नं० (पुत्रभाण्ड) पुत्ररूपे इष्टाऽऽधायके वस्तुनि, आ० म०१ अ०। ब० अशीतितमे महाग्रहे, "दो पुप्फकेऊ।" स्था०२ ठा०३ उ०। चं० पुत्तमंसपुं० (पुत्रमांस) सुतकलले, दश० तदुपमाय भोक्तव्यम्, अठा उपमा प्र०ा ऐरवतजे भविष्यति सप्तमे कुलकरे, सा दृष्टान्तः-पूत्युदकोषमानतः खल्वन्नपानमुपभोक्तव्यमित्यत्रोदाहरणम्- पुप्फचंगेरी स्त्री० (पुष्पचङ्गेरी) पुष्पशिखाबलिरचितायां चने-म्, नं०। "जहा एगेण वाणियएणं दारिद्ददुक्खाभिभूएणं कहिं हिडतेण रयणदीवं पुप्फचारण पु० (पुष्पचारण) चारणभेदे, ये हि नानाद्रुमलतागुल्मपुष्पाण्युपावेत्ता तेल्लोक्कसुंदरा अणग्घया रयणा समासादिता, सोयते चौराकुला पादाय पुष्पसूक्ष्मजीवान् विराधयन्तः कुसुमतल-दलावलम्बनसङ्गगदीहद्धाणभएण ए सक्कइ णिच्छादिऊण भुव्वओग भूमिमाणेऊं, ततो सो तयः। ग० 3 अधिग बुद्धिकोसल्लेण ताणि एगम्मि पदेसे ठवेऊण जुन्ने जरपट्टाणे घेत्तुं पट्ठिउं पुप्फचिंचिणिआ स्वी० (पुष्पचायिनी) मालाकारिण्याम, 'पुप्फचिंगहिल्लगवेसेण रयणवाणिओ गच्छइ त्ति, भावे तेण तिन्नि वारे जहा कोइ चिणिआओ पुप्फफलाईओ।" पाइ० ना० 106 गाथा। न वि उद्देति ताहे घित्तूण पलाइओ अडवीए तिसाए गहितो जाव कुहिय पुप्फचूल पुं० (पुष्पचूड) अङ्गेषु चम्पास्वामिनी ब्रह्मदत्तपल्याश्चुलन्या पाणियं छिल्लरम्म विण8 पासति, तत्थ बहवे हरिणाऽऽदयो मता, तेण तं भ्रातरि, उत्त० 13 अ० गङ्गातटे पुष्पभद्रनगरराजपुष्पकेतुपुत्रो, स च सव्वं उदगंवसाञ्जाया, ताहे तंतेणं अण्णुस्ससियाए अणामसायंतेण पीयं, स्वभगिन्या पुष्पचूडया भार्याभूतया सह विषयाऽऽसक्तः स्वमात्रा नित्थारियाणि अणेण रयणाणि / एवं रतनट्ठाणगाणि णाणदंसनचरि पुष्पवत्या देवीभूतया नरकदर्शनेन प्रतिबोधितः सन् आचार्यान्निकाताणि, चोरट्ठाणिआ विसया, कुहितोदगहाणिआणि फासुगेसणिजाणि पुत्रोपदेशात् व्रतं जगृहे। आ० क० 1 अ० दर्शo आ० चूना आ० म० अंतपंताणि आहारइयाणि आहारितेण ताहे तप्फलेण जहा वाणियोग ग०। ती० नं०। भारते वर्षे विमलयशसः सुमङ्गलाया देव्यां जाते इह भवे सुही जातो, एवं साहू वि सुही भविस्सइ 'त्ति' अडविट्ठाणीय पुष्फचूलाभ्रातरि वङ्कचूलापरनामके पुत्रे, ती. 42 कल्प। संसारं णित्थारेति त्ति / " (38 गाथा) दश०१ अ०। पुप्फचूला स्त्री० (पुष्पचूडा) हस्तिशीर्षनगरे दीनशत्रुराजेनधारण्या देव्यां पुत्तलिआ स्त्री (पुत्तलिका) प्रतिकृती, "बाउल्ली पुत्तलिआ।'' पाइ० जनितस्य सुबाहुकुमारस्य प्रधानभायाम् विपा० 2 श्रु०, 1 अ०। ना०११७ गाथा। पार्श्वनाथप्रवर्तिन्याम् ज्ञा०२ श्रु०६ वर्ग 1 अ०। कल्प०। तिला ग०। पुत्थ न० (देशी) मृदुनि, दे० ना० 6 वर्ग 52 गाथा। आ०म०। आ०चूल। सका उत्तवा ('पास' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 603 पृष्ठे पुधं अव्य० (पृथक्) पृथकि धो वा" ||8/1 / 188|| पृथक्शब्देथस्य | पुष्फचूलाकथोक्ता) धो वा भवति / भिन्ने, प्रा० 1 पाद / पुप्फचूलिया स्त्री० (पुष्पचूलिका) पूर्वोक्तार्थविशेषप्रतिपादिका पुन्नयन पुं०(पुण्यजन) यक्षे, "पुन्नयणा गुज्झया जक्खा।' पाइ० ना० पुष्पचूडा। नं0पा0। निरयाऽऽवलिकाश्रुतस्कन्धचतुर्थवर्गरूपे Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुप्फचूलिया 1003- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुप्फसाल गरूपे विपाकश्रुतोपाङ्गे, जं०१ वक्ष०ा "जइणं भंते ! समणेणं भगवता पुप्फफली स्त्री०(पुष्पफली) कूष्माण्डयाम, आ० म०१ अ०। उक्खेवओ, जाव दस अज्झयणा पन्नत्ता / तं जहा–सिरि'' इत्यादयः। पुप्फबलि पुं०(पुष्पबलि) उपचारे, "उवयारो पुप्फबली।" पाइ० ना० (ते च स्वस्वस्थाने दर्शिताः) नि० 110 4 वर्ग 1 अ०। 206 गाथा। पुष्फछजिया स्त्री० (पुष्पच्छादिका) पुष्पै तायाम् उपरि स्थगनिकायाम, पुप्फभद्दन० (पुष्पभद्र) पुष्पकेतुनृपपालिते गङ्गातीरस्थेनगरभेदे, आ० रा०॥ चू०१ अ० पुष्पपुरमित्यपरमस्य नाम। बृ०१ उ०२ प्रक०। पुष्पभद्रा पुप्फजाइ स्त्री०(पुष्पजाति) मालतीप्रभृतिपुष्पविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। इति स्त्रीत्वमपि। ग०२ अधि०। आ० चू०। आ० मा तीता दर्शा आ० पुप्फणंदि(ण) पुं० (पुष्पनन्दिन्) देवदत्तसार्थवाहस्य दुहितुर्देवदत्तायाः क० / आवा पत्यौ स्वनामख्याते राज्ञि, स्था० 10 ठा०। पुप्फभूइ पुं० (पुष्पभूति) सिन्धुवर्धननगरराजप्रबोधके, आचार्य , आ० पुप्फजुय पुं० (पुष्पयुत) ऋषभदेवस्य पुत्रशतकान्तर्गत एकपञ्चाशत्तमे | क०४ अ०।(कथा 'मंडिवग' शब्दे) पुत्रो, कल्प०१ अधि०७क्षण। पुप्फमइ स्त्री० (पुष्पमति)सुव्रतजिनस्य प्रथमशिष्ये, ति०। पुप्फणालिया स्त्री० (पुष्पनालिका) कुसुममध्यभागे, तं०। पुप्फमाला स्त्री० (पुष्पमाला) ऊर्ध्वलोकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तपुप्फणिज्जाससार (पुष्पनिर्याससार) पुष्पसप्रधाने आसवे, जी०३ प्रति० रिकायाम्, स्था० 8 ठा०। अधोलोकवास्तव्यायां स्वनामख्यातायां 4 अधि। दिक्कुमार्याम्, जं०५ वक्ष०ा ती आ० चूल आ० म०। आ०क०। पुप्फदंत पुं० (पुष्पदन्त) पुष्पकलिकामनोहरदन्तत्वात्पुष्पदन्तः। ध०२ | पुप्फमित्त पुं० (पुप्पमित्र) स्थूणानगर्या जाते धीरपूर्वभवजीवे, आ० म० अधिवा सुविधिजिने, (अस्य सर्वावक्तव्यता 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे १अग 2261 पृष्ठे उक्ता।) "सुविहिपुप्फदंते णं अरहए एग धणुसयं उड्ढउचत्तेणं पुप्फमिस्सियकेस पुं० (पुष्पमिश्रितकेश) कुसुमवासितकुन्तले, तं०। होत्था। “स० 100 सम०। "सुविहिस्सणंपुप्फदंतस्स अरहओपन्नत्तरि जिणसया होत्था / " सं० 75 सम० / स्था० / "पुप्फदंते णं अरहा पुप्फय न० (पुष्पक) पुष्पाऽऽकृतिललाटाऽऽभरणे, जं०२ वक्ष०ा ईशा नेन्द्रस्य पारियानिके विमाने, ज०५ वक्ष। स्था०। औ०। विशे०। पंचमूले होत्था।' स्था० 5 ठा०१ उ०। ईशानस्य देवेन्द्रस्य कुञ्जरानीकाधिपतौ हस्तिराजनि, स्था० 5 ठा० 1 उ०। बृहस्पतिशिष्ये गन्धर्व- | | पुप्फलंबूसग पुं० (पुष्पलम्बूसक) गण्डके. जी० 3 प्रति 4 अधिos विशेषे, 'श्रीहीरसूरिसुगुरोः प्रवरौ विनेयौ, जातौ शुभौ सुरगुरोरिव | पुप्फलाई स्त्री० (पुष्पलावी) मालाकारिण्याम्, 'पुप्फचिआओ पुप्फपुष्पदन्तौ / श्रीसोमसोमविजयाभिधवाचकेन्द्रः, सत्कीर्तिकीर्ति - लाईओ।" पाइ० ना० 106 गाथा। विजयाभिधवाचकश्च / / 1 / / " कल्प०३ अधि० 6 क्षण। पुप्फवई स्त्री० (पुष्पवती) पुष्पभद्रनगरराजपुष्पकेतुमहिष्याम्, ग०२ पुप्फदत्त पुं०(पुष्पदत्त) वीरपुरनगरे जातस्य सुजातकुमारस्य पूर्वभवजीवे अधि०। आ० कला ती०। उत्त०। आ० मा मणितोरणपु· मितयशसो इषुकारनगरे ऋषभदत्तगृहपतिपुत्रो, विपा०२ श्रु० 3 अ०। राज्ञः कन्यायाम्, उत्त० 6 अ० विंशतितमतीर्थकरस्य प्रवर्तिन्याम्, पुप्फपाय पु० (पुष्पपात) कुसुमपतने, पञ्चा०२ विव०। सला प्रव०। सुपुरुषस्यकिंपुरुषेन्द्रस्याग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा०१ उ०। पुप्फपायवियडण न० (पुष्पपातविकटन) कुसुमपतने सतिशङ्काऽऽति तुङ्गि कानगर्या बहिरुत्तरपूर्वस्मिन् दिग्भागे चैत्ये, भ०२ श०५ उ०) चारोऽऽलोचनायाम, स्वाभिप्रायनिवेदनमात्रो च / पञ्चा०२ विव०। / पुप्फवंत पुं० (पुष्पवन्त) द्वि० ब० एकयोक्तया चन्द्रसूर्ययोः, द्रव्या०४ पुप्फपुंज पुं० (पुष्पपुज्ज)पुष्पसंभारे, 'पुप्फपुञ्जोवयारकलितं अध्यान करें ति।" पुष्पपुञ्ज एव उपचारः पूजा पुष्पपुजोपचारस्तेन कलितं पुप्फवद्दलय न० (पुष्पवादलक) पुष्पवृष्टियोग्यं वादलकम्। पुष्पवर्षके मेघे, युक्तम्। जी०३ प्रति०४ अधि० रा० रा०। पुष्पवृष्टिनिमित्ते, आ० म०१ अ० त०] पुप्फपुर न०(पुष्पपुर) पाटलिपुत्रो नगरे, बृ० 1 उ०२ प्रक०। पुप्फविहि पुं० (पुष्पविधि) चम्पकाऽऽदिकायां पुष्पजातौ, बृ०१ उ०१ पुप्फपूरय न० (पुष्पपूरक) पुष्परचनाविशेष, औ०। पुष्पशेखरे, ज्ञा०१ प्रक०। प्रश्न०। उपा०। ('आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 106 पृष्ठे सूत्रं गतम्) श्रु०१६ अ०। पुप्फवुट्ठि स्त्री० (पुष्पवृष्टि) पुष्पवर्षणे, आ० म०१ अ०। पुप्फप्पम पुं० (पुष्पप्रभ) अरुणोदसमुद्रे पञ्चानामवासानां चतुर्थे , द्वी० / पुप्फसाल पुं० (पुष्पसाल) वसन्तपुरत्तनीये स्वनामख्याते गायके. पुप्फफलजंभय पुं० (पुष्पफलजृम्भक) पुष्पफलोभयजृम्भके देवे, भ०४ आ०क० 1 अ०। ('सोइंदिय' शब्दे उदाहरणम्) / मागधे गोव्वरग्रामे श०८ उ०। प्रश्न स्वनामख्याते गृहपतौ, आ० क० 1 अ०। आ० म०। Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुप्फसालसुय 1004- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरंदर पुप्फसालसुय पुं० (पुष्पसालसुत) मागधगोव्वरग्रामवास्तव्यपुष्पशाल- संपत्तेण पुष्फियाणं दस अज्झ्ययणा पण्णता। तं जहा-''चंदे 1 सुरे 2 गृहपतिपुत्रो, आ० चू०१ अध०२०। (विनयेऽयमुदाहिरष्यते) सुक्के 3, बहुपुत्तिया 4 पुण्णभद्दे 5 य माणिभद्दे 6 या दत्ते 7 सिवे 8 य पुप्फसिंह पुं० (पुष्पसिंह) जम्बूद्वीपे पुष्कलावतीविजये मणितोरणपुऱ्या बलिया 6, अणाढीए 10 चेव बोधव्वे / / 1 / / नि०१ श्रु०३ वर्ग 1 अ०॥ मितयशसो राज्ञः पुत्रो, उत्त०६ अ०॥ *पुप्पिका स्त्रीला पितृष्वसरि, "पुप्पिआ पिउत्था।'' पाइ० ना० 253 पुप्फसुहम न० (पुष्पसूक्ष्म) वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि तद्वर्णानि गाथा। सूक्ष्माणि पुष्पसूक्ष्माणि / पुष्पवर्णेषु अलक्षणीयेषु सूक्ष्मभेदेषुः स्था०८ | पुप्फत्तरा स्त्री० (पुष्पोत्तरा) शर्कराभेदे, जं० 2 वक्ष०ा जी0। ज्ञान ठा०।दश। पुप्फोदय न० (पुष्पोदक) कुसुमवासितेजले,जं०३ वक्ष पुष्परसमिश्रे से किं तं पुप्फसुहुमे ? पुफसुहुमे पंचविहे पन्नते / तं जहा-- | जले० कल्प०१ अधि०३ क्षण। ज्ञा०ा औ०। किले० जाव सुकिल्ले अत्थि, पुप्फसुहुमे रुक्खसमाणवन्ने नामं पुष्फोवग त्रि० (पुष्पोपग) पुष्पाणि कुसुमान्युपगच्छति इति पुष्पोपगः। पन्नते, जे छउमत्थेणं० जाव पडिलेहियध्वे भवइ, से तं पुप्फ बहलपुष्पे,स्था० 4 ठा०३ उ०। सुहुमे / / 5 / / पुप्फोवयार पुं० (पुष्पोपचार) पुष्पप्रकारे, स०३४ सम० ज०| (से कि तं पुप्फसुहमे) अथ कानितत् सूक्ष्मपुष्पाणि ? गुरुराह-सूक्ष्म पुमत्ता स्त्री० (पुस्ता) पुरुषत्वे, दशा०१० अ०। स्था०। पुष्पाणि पञ्चविधानि, कृष्णानि यावत् शुक्लानि सन्ति, सूक्ष्मपुष्पाणि वृक्षसमानवर्णानि प्रसिद्धानि प्रज्ञप्तानि, यानि छद्मस्थेन यावत् पुमपण्णवणी स्त्री० (पुप्रज्ञापनी) पुरुषलक्षणप्रतिपादिकायां मोहनस्वरप्रतिलेखितव्यानि भवन्ति / (से तं पुप्फसुहमे) तानि सूक्ष्मपुष्पाणि / तादाब्यमित्यादिरूपायां भाषायाम्, प्रज्ञा०११ पद। कल्प०३ अधि०६ क्षण। पुय पुं० (पुत) अण्डकोशे, बृ०३ उ०। प्रश्न.। पुप्फसेनपुं० (पुष्पसेन) पुष्पभद्रनगरराजे, आ० चू० 1 अ०। पुष्पवतीपतौ पुयाइ पुं० (पुयादिन्) पिशाचे, "ढयरा पुयाइणो पिप्पया परेया पिसल्लया पुष्पचूडपुष्पचूडापितरि, आ० म०१ अ० भूआ।" पाइ० ना० 30 गाथा। पुप्फा (देशी) पितृष्वसरि, दे० ना०६ वर्ग 52 गाथा / पुयावइत्ता अव्य० (प्लावयित्वा) 'प्लङ्गतावितिवचनात्प्लावयित्वा अन्या नीत्वा प्रव्रज्याभेदे, यथाऽऽर्यरक्षितस्य स्था० 5 ठा० 4 उ०। पुप्फाइय पुं० (पुष्पाऽऽदिक) कुसुमधूपदीपप्रभृती, पञ्जा० 6 विव०॥ पुप्फाराम पुं० (पुष्पाऽऽराम) पुष्पवाटिकायाम् 'अञ्जुणस्स मालागारस्स *पूतयित्वा स्त्री०। पूतं वा दूषणव्यपोहेन कृत्वा या सा पूतयित्वेति / रायगिहरस नगरस्स बहिया एत्थणं मह एणे पुप्फारामे होत्था। अन्त० स्था०५ ठा०४३० १श्रु०६ वर्ग 3 अ० पुर न० (पुर) नगरे अन्तःपुरे, रा.। आ.चू.। ज्ञा.। नगराऽऽद्येकदेशभूते पुप्फारोवण पुं० (पुष्पाऽऽरोपण) पुष्पाणां देवस्य मस्तकेषु आरोपणे, ___प्राकारऽऽवृते नगरैकदेशे, स्था० 5 ठा० 1 उ०। ध०२ अधि०। पुरओ अव्य०(पुरतस्) पुर-तसिल / "अतो डो विसर्गस्य" पुप्फावकिण्णग त्रि० (पुष्पावकीर्णाक) पुष्पाणीव इतस्ततोऽवकीर्णानि // 8/1 / 37 / / इति अतः सेः स्थाने डो। 'पुरओ।' प्रा. 1 पाद। अग्रत विप्रकीर्णानि पुष्पावकीर्णानि इति व्युत्पत्तेः। आवलिकाबाह्ये विमाने, इत्यर्थे , पञ्चा० 3 विव०। दशा०अनु०। उत्त०। आव०ा नि० चूण जी०४ प्रति०३ उ०। स० / आ० चूल। अग्रभागे, स्था० 4 ठा०२ उ०। ज्ञा०ा आव० "पुरओ य अग्गओ।" पाइ० ना० 274 गाथा। पुप्फासव पुं० (पुष्पाऽऽसव) धातकीपारससाराऽऽसवे, जी० 4 प्रति० '3 अधि०। प्रज्ञा पुरओ कट्ट अव्य० (परतः कृत्य) अग्रतः कृत्वेत्यर्थे , "मणं वा वयं वा णो पुरुओ कट्ट विहरेजा अप्पुस्सुए।"आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०१ उ०। पुप्फाहार पुं० (पुष्पाहार) पुष्पमात्राऽऽहारे, औ०। नि० पुरओकाउं अव्य० (पुरस्कृत्य) प्रधानीकृत्येत्यर्थे , भ०२ श०१ उ०। पुप्फिमन० (पुष्पत्य)"स्वस्य डिमा-तणौ वा" ||8 / 2 / 154 // इति स्वस्य डिमाऽऽदेशः। पुष्पधर्मे , प्रा०२ पाद / इति त्वस्य डिमाऽऽदेशः। पुरओपडिबद्ध त्रि० (पुरतः प्रतिबद्ध) अग्रतः प्रतिबद्धेत्यर्थे प्रव्रज्याभेदे, पुष्पधर्मे, प्रा०२ पाद स्था०३ ठा०२ उ० (विशेषार्थस्तु पव्यज्जा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 730 पृष्ठे गतः) पुफिया स्त्री० (पुष्पिता) प्राणिनः संयमभावना पुष्पिताः सुखिताः भूयः संयमपरित्यागतो दुःखावाप्तिमुकुलनेन मुकुलिताः पुनस्तत्परित्यागेन पुरं अव्य० (पुरस्) पूर्वकाले, समक्षे चा स्था० 3 ठा० 1 उ०। पुष्पिताः प्रतिपाद्यन्ते ताः पुष्पिताः। नं० / पा० निरयावलिकानां पुरंटिरि पुं० (पुरण्टिरि) काङ्कतीराजवंश्ये, ती०५६ कल्प। तृतीयवर्गाऽऽत्मके प्रश्नव्याकरणानामुपाङ्गे, नि०१ श्रु० 3 वर्ग 1 अ० | पुरंदर पु० (पुरन्दर) पुराणि दैत्यनगराणि दारयति विध्वंसजंग।"उवंगाणं पप्फियाणं के अटे पण्णत्ते? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव | यतीति पुरन्दर / दैत्यनगरविध्वंसके इन्द्रे, उत्त० 4 अ०। स्था०। Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरंदर 1005- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरंदर शक्रेन्द्र, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / भ० / प्रज्ञा० / आ०म० जी० / आ० चू०। सूत्र०। अनु०। स्वनामख्याते राजनि, ध०र०। गुणानुरागे पुरन्दरराजवक्तव्यता यथागुणरागी गुणवंते, बहु मन्नइ निग्गुणे उवेहेइ। गुणसंगहे पवत्तइ, संपत्तगुणं न मइलेइ / / 16 / / गुणेषु धार्मिकलोकभाविषु रज्यतीत्येवंशीलो गुणरागी गुणवतो गुरुगुणभाजो यतिश्रावकाऽऽदीन् बहु मन्यते मनः प्रीतिभाजनं करोति। यथा--अहो धन्या एते, सुलब्धमेतेषां मनुष्यजन्मेत्यादि। तर्हि निर्गुणानिन्दतीत्यापन्नम्, यथा देवदत्तो दक्षिणेन चक्षुषा पश्यतीत्युक्ते वामने न पश्यतीत्यवसीयते। तथा चाऽऽहुरेके-'शत्रोरपि गुणा ग्राह्याः, दोषा वाच्या गुरोरपि।" इति / न चैतदेवं धार्मिकोचितमित्याह-निर्गुणानुपेक्षते-असंक्लिष्टचित्ततया तेषामपि निन्दा न करोति। यतः स एवमालोचयति"सन्तोऽप्यसन्तोऽपि परस्य दोषाः, नोक्ताः श्रुता वा गुणमावहन्ति। वैराणि वक्तुः, परिवर्द्धयन्ति, श्रोतुश्च तन्वन्ति परां कुबुद्धिम्॥१॥" "कालम्मि अणाईए, अणाइदोसेहिँ. वासिए जीवे। ज पावियइ गुणो विहु, तं मन्नह भो महच्छरियं // 2 // भूरिगुणा विरल चिय, एकगुणो विहु जणो न सव्वत्थ। निघोसाण विभह, पसंसिमो थोवदोसे वि।।३।। इत्यादि संसारस्वरूपमालोचयन्नसौ निर्गुणानपि न निन्दति, किं तृपेक्षते, मध्यस्थभावेनाऽऽस्त इत्यर्थः। तथा गुणानां संग्रहे समुपादाने प्रवर्तते यतते, संप्राप्तमङ्गीकृतं गुणं सम्यगदर्शनविरत्यादिक न मलिनयति न सातिचारं करोति, पुरन्दरराजवत्। ''अस्थि सयलामरहिया, नयरी वाणारसी हरिपुरि व्व। निद्दलियसत्तुसेणो, तत्थ नरिंदो विजयसेणो / / 1 / / तस्सासि कमलमाला, सुकमलमाल व्व गुणजुया देवी। पुत्तो पुरंदरो तह, पुरंदरो इव सुरूवधरो।।२।। सो पगईए गुणरा-गसंगश्रो चंगश्रो सुसीलेण। अणवरयं सो गिज्जइ. पुररमणीहिं गुणप्पसरो / / 3 / / तस्स मइदाणपउरिस-वन्नणपउणो विमुक्कनियकियो। अभिरमइ विवुहमग्गण-सुहडजणो सयलनयरीए / / 4 / / तं च तहागुणभवणं, सुणिउ ददु चतम्मि अणुरत्ता। गाढं अन्ना निवइ-स्स पणइणी मालई नाम !|5|| पेसेइ निययधाई, उजाणगय भणेइ सा कुमरं। एणतं काउ खणं, मह वयणं सुणसु कारुणिय! // 6 // कुमरेण वि तह विहिए, सा जंपइ निवइणो हिययदइया। मालइनामा देवी, भवस्स गंगेव सुपसिद्धा / / 7 / / सा तुह दंसणगुण सव–णपउण मयणुग्गअग्गिसंतत्ता। सिचउ कुमर! वराए, तुमए नियसंगमजलेणं / / 8 / / तं सुणिय चिंतइ इमो, अहह अहो मोहमोहिया जीवा। इहपरलोयविरुद्धे, वितहमकले पयट्टति / / 6 / / इय सविसाओ चिंतिय, तं धाई भणइ नरवरंगरुहो। मज्झत्था होउणं, मह वयण सुणसु खणमेगं / / 10 / / परनरभित्ते वि कुलं-गणाण जुतो न होइ अणुराओ। जो पुण पुत्ते वि इमो, सो अइदूरं चिय विरुद्धो।।११।। सुकुलुब्भवनारीओ, परपुरिस चित्तमित्तिलिहियं पि। रविमंडलं व ढुं दिट्टि पडिसंहरंति लहुं / / 12 / / विच्छिन्नकनकरचर-णनासमवि वाससयपरिमाणं। परपुरिसं कुलनारी, आलवणईहिं वजेइ / / 13 / / इय भणिय तेण धाई, विसज्जिया तीइ कहइसा सव्वं / तह विहु अढायमाणी, सा पेसइ दूइमन्नुन्नं / / 14 / / तत्तो विसन्नचित्तो, चिंतइ कुमरो हणेमि किं अप्पं?। अहवा परघाओ विव, पडिसिद्धो अप्पघाओ वि।।१५।। जइ य कहिजइ रन्नो, इमा वराई तओ विणस्सेइ। ता देसंतरगमण, जुत्तं मे सयलदोसहरं / / 16 / / इय वीमंसिय हियए, करकालयकरालकालकरवालो। नयरीओ निक्खंतो, कुमरो जा जाइ कि पि भुवं / / 17 // ता मिलिओ तस्सेगो, दिओ भणइ कुमरऽहं गमिस्सामि। सिरिसंडिभाविसइक्क-मंडणे नंदिपुरनयरे||१८|| कुमरो विआह अहमवि, तत्थेव गमी अहो ससत्थ त्ति। इय वत्तु दोवि चलिया, अग्गे अग्गे अणुव्विग्गा / / 16 / / अह उच्छुरिओ बहुस-ल्लभल्ल दुल्लल्लियभिल्ल संघजुओ। पल्लिवई वजभुओ, इय भणिओ तेण निवतणओ॥२०॥ मा भणसि जं न कहियं, रे रे एसऽम्हि तुभ पिउसत्तू। तो खलभलियं विप्पं, संठविउं भणइ कुमरो वि।।२१।। जं पिउरिउणो उचिय, तं बालो विहु इमो जणो कुणउ। करुणारसो जइ परं, किं पिखण नणु निवारेइ / / 22 / / इय सवियद्ध कुमर-स्स भणिय भायन्निऊण पल्लिवई। फुरियगुरुकोवविज्जू, वरिसइ सरविसरधाराहिं // 23 // खरमारुयलहरी इव, विहलावि य असिलयाइ ताउ लहुँ। कमरो किरणपओगा.चडिऊण रहम्मिचरडस्स // 24 // दाउंहियए पायं, करं करेणं गहित्तु अह भणइ। रे कत्थ हणामि तुम,स आह सरणागया जत्थ / / 25 / / चिंतइ कुमरो इमिणा, वयणेण निवारए पहारमिमो। सरणागयाण गरुया, जेण न पहरति भणियं च / / 26 / / नयणहीणहं दीणवयणहं करचरणपरिवजिहं, बालवुडवहुखंतिमंतहं विससियहं बाहिहयं / रमणि समणवणिसरण-पत्तहं दीणहं दुहियं दुत्थियहं। जे निइया पहरति, आसत्त विकुलसत्तमइ फुड पायालि नयंति इय भाविय सो मुक्को, पल्लिवई विन्नवेइ कुमरवरं। तुह अम्हि किंकरोऽहं, तुह आयत्तं सिरं मज्झ // 28|| इय सप्पणयं भणिउं, वज्जभुओ इच्छियं गओ देस। कुमरो वि दिएण सम, कमेण नंदिउरमणुपत्तो / / 26 / / तत्थ य बहिरुज्जाणे, वीसमइ इमो समाहणो जाव। ताव वरलक्खणजुयं, ससहरकरधवलसिचयधरं / / 30 / / गुणगप्पजुत्तं इंतं, कं पि नरं दक्ष चिंतए कुमरो। एयारिसा स्पुरिसा, नूण अरिहंति पडिवत्तिं // 31 / / तो अब्भुट्ठिय दूरा -- उ पायमवधारह त्ति जपेइ। उववेसिउं संठाणे, कयंजली विन्नवइ एवं // 32 / / सामि! तुह दंसणेणं, जायं सफलं ममागमणमित्थ। जइ नाइरहस्सं ता, पहुचरियं सोउमिच्छामि // 33 // अह सो निवसुयविणया-वज्जियहियओ इमं पसाहेछ। गुरुयं पि रहस्सं तुह,कहियव्वं किं पुण इमं ति ?|34 / / इह नाइसुदूरे सिद्धकूडसेलम्मि सिद्धबहुविजो। भूयाणंदो नामेण कुमार! निवसामि हं सिद्धो|३५|| मह अस्थि सारभूया, इक्का विज्जा अहाउयं थोवं। नाऊण अप्पणोऽहं, चिंतिउमेवं समारद्धो // 36|| Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरंदर 1006- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरंदर पत्तस्स अभावाओ, विज़ एयं करेमि कहमिहि। न य विजाए दाणं, उचियमपत्तेजश्री भणियं // 37 / / मरिज सह विजाए, कासे पत्ते वरं विका अपत्त नेव वाइज्जा, पत्तं तु न विमाणए।३।। इय चिंतिरस्स मज्झ, निवेइओ तीइ चेव विजाए। गुणरागचंगगुणगण-कुलिओ तं चिय सुजोग त्ति। तो त दाउमह तुह, समागओ गिण्ह भो महाभागः। जेण भवामो सुहिया, ओहरियभरु व्व भारवहा / / 4 / / एसा य महाविना, विहिणा संसाहिया पइदिणं पि। ऊसीसयम्मि ठावइ, कणयसस्सं निवंगरुह! / / 4 / / पायमिमीइ पभावा, संगामपराजयाइ न हु होइ। इंदियविसाईयं, पि नज्जए वत्थुजायं च // 42|| उल्लसिरविणयभरनमिर - मउलिकममेण निवइतणएण। संजोडियकरजुयले–ण तयणु इय वयणमुल्लवियं / / 43 / / गंभीरा उवसंता, निम्मलगुणरयणरोहणसमाणा। बुद्धि समिति समेया, गुणि जणअणुरायपरिकलिया / / 44 / / परिभमिरभुवणकित्ती, परोवयारिकमाणसा धणिय। पह? तुम्हारिस चिय, जुग्गा एवं रहस्साणं / / 45|| बालाण सुतुच्छमई-ण सुद्धविन्नाणनाणरहियाण। के अम्ह गुणा का अ-म्ह जुग्गया इय सुविजाण? // 46|| किं तु गुरुहि विहिया, पुरओ लहुणो विहुति कञ्जकरा। रविणा अग्गे विहिओ, अरुणो वि हणोइ तिमिरभरं / / 47|| तथाशाखामृगस्य शाखायाः, शाखां गन्तुं पराक्रमः। यत्पुनस्तीर्यतेऽम्भोधिः, प्रभावः प्रभवो हि सः / / 4 / / "अह भणइ सिद्धपुरिसो, जुग्गु चिय तं सि इय रहस्साणं। गुणराओ जस्सित्तिय-मित्तो विप्फुरइ चित्तम्मि।।४६।। जं दूरे ते गुणिणो, गुणगणधवलियअसेसमहिबलया। जेसिं गुणाणुराओ, वि ते वि विरला जओ भणियं / / 50 / / नागुणी गुणिनं वेत्ति, गुणी गुणिषु मत्सरी। गुणी गुणानुरागी च, विरलः सरलो जनः / / 51 / / "इय वुत्तु सबहुमाणं, तं विजं दाउ तस्स पभणे।। भद्द! इहं अडवीए, इगमासं सुद्धबंभधरो।।५२!! अट्ठउववासपुवं, कसिणचउद्दसिनिसिंइमं विज। सम्म साहिज्जतओ, अइउग्गुवसग्गवग्गंते॥५३।। रणितमणिवलयरसणा, पयडियअइदित्तकंतनियरूवा। वरसु वरं ति भणंति, सिज्झिस्सइ तुह इमा विज्जा / / 54|| थिरकरणत्थं पच्छ वि,धरिज बंभभिगमासमिय वुत्तुं। जा गमिही सो सिद्धो, तो विनतो कुमारेण / / 5 / / मह मित्तस्स इमस्त वि, दियस्स दिजउ इमा महाविजा। कयजयभूयाणंदो, भूयाणंदो वि जपेइ // 56|| भो कुमर! एस विप्पो, मुहरो तुच्छो अवन्नवाई या गुणरागेण विमुक्को, विजाए नेव जुग्गु त्ति // 57 / / अगुणम्मि नरे गुणरा-गवज्जिए गुत्तिअवन्नवाइम्मि। विजादाणं सप्पे, दुद्धपयाणं व दोसकरं / / 58|| किं च अपत्ते निहिया, विजा तस्सेव कुणइ अवयार। विज़ादायगगुरुणो, गरुयं तह लाघवं जणइ // 56 // तथाहिजह आमघडे निहिय, नीरं लह होइ से विणासाय। तह अप्पाहारनर-स्स होइ विजा अणत्थाय॥६०|| परिपूणगसमपत्ते, दितो बिज्जं गुरू वि पावे।। बहुविहकिलेसभारं, जणाववायाइदोसे य॥६१॥ भत्तिभरनिब्भरेणं, कुमरेणं पुण वि पभणिए सिद्धो। दाऊण माहणस्स वि, विजं पत्तो सए ठाणे॥६२।। तो पुव्वोइयविहिणा, कुमरेण पसाहिया महाविज्जा। पयडीहोउपभणइ, सिद्धाऽहं तुह सया भद्द! / / 63 / / किं तु दिओ कत्थ गओ, इचाइ तए न चिंतियव्वं पि। कालेण फुड होही, इय भणिय तिरोहिया देवी॥६४।। हा हा किं से जाय, ति चिंतिरो काउ तीऍ विजाए। पच्छा सेवं कुमरो, पत्तो नंदिउरमज्झम्मि॥६५।। विजाविइन्नचामी-यरेण बहुभोगदाणकलियस्सा मंतिसुएणं सिरिन-दणेण जाया य से पीई॥६६|| अह तत्थ पुरे सिरिसूर-राइणो मंदिरोवरि रमंती। बंधुमइनामधूया, हरिया केण वि अदिट्टण // 67 / / तो तव्विरहे राया, मुह मुहं मुच्छए रुयइ बहुसो। सयलोऽपि रायलोओ, सपुरजणो आउलो जाओ।।६८|| तं दट्ट तिलयमंती, भणेइ सिरिनंदणं नियं पुत्तं। वच्छ ! नरनाहतणया-ऽऽणयणोवायं विचिंतेसु / / 66 / / न हि तुह बुद्धितरीए, विणा इमो वसणसागरोगुरुओ। नित्थरि पारिजइ, तत्तो सिरिनंदणो भणइ / / 7 / / ताय! तुमम्मि वि संते, मह सिसुणो को णु बुद्धिअवयासो ? / उइए सहस्सकिरणे, रेहइ फुरियं नदीवस्स।।७१।। तिलयसचिवो वि जंपइ, न य एगतो इमो अहं वच्छ ! / जं पिउणो तणएहिं, गुणहिएहिं न होयव्यं / / 72 / / जओजड़सभवो वि चंदा, पिच्छह उल्लोयए तिहुयणं पि। पंकुब्भवं ति कमलं, वहंति अमरा वि सीसेणं / / 73 // सिरिनंदणो य जंपइ, जइ एयं तो तुह प्पभावेण। नाओ मए उवाओ, एगो तीए समाणयणे।।७४।। मेरु व्व थिरो चंदु,व्व सोम्मओ कुंजरो व्व सोंडीरो। भाणुव्व गुरुपयावो, गंभीरो नीरनाहु व्व / 75|| निवविजयसेणतणओ, पुरंदरो देसदसणवसेण। बाणारसीपुरीओ, भमिरो पत्तो इहं अस्थि // 76 / / मह मित्तं सो नजइ, विचिट्ठिएहिं व सिद्धवरविजो। बंधुमईआणयणे, सत्तो जइ ताव सो चेव / / 77 // तोऽणनाओ पिउणा, पत्तो सिरिनंदणो कमरपास। अन्मस्थिऊण निउण, कुमरं आणेइ निवमूले / / 75|| विहिओचियपडिवत्तिं, तं भणइ निवो अहो पमाओ मे। नियमित्तविजयसेणस्स नंदणो जमिह पत्तो वि॥७६।। नहु विनाओ संमाणिओ य न वि तो भणेइ वरकुमरो। देव! न वुत्तं जुत्तं, एवं तुम्हंजओ भणियं / / 8 / / गरुयाणं संमाणो, सु चिय जो माणसो पसाउत्ति। बहिपडिवत्तीओ पुण, मायावीण पि दीसति॥१|| तत्तो भूसन्नाए, रन्ना सिरिनंदणो समाइहो। तं वुत्ततं कहिउं, कुमरं पइ जंपए एवं // 8 // घीरवर! चिंतिऊणं, इत्थ उवायं करेसुतं किं पि। जं अम्हे सयलजणा, देवो य सुनिव्वुओ होइ।।३।। परकञ्जकरणसउज्जो, कुमरो वि पवज्जिऊण तं कन्न। पत्तो नियम्मि भवणे, विहिणा सुमरेह तं विजं / / 84 / / Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरंदर १००७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरंदर सा पचक्खीभूया, पुट्ठा कुमरेण कहसु निवधूया। केणं हरिय त्ति तओ, सो भणइ इहऽस्थि वेयले / / 8 / / गधसमिद्धाभिहपुर-सामी विजाहरो मणिकिरीडो। नंदीसरवरवलिओ, बंधुमई इह निएसीय // 86|| मयणसरसल्लिओ सो, तंबालं हरिय धवल कूडनगे। पत्तो अद्द कुणमाणो, चिट्टइ वीवाहसामग्गिं / / 8 / / ता एवं सुविमाणं, आरोहसुजेण नेमितं तत्था तेण वि तह चेव कए, नीओ कुमरो तहिं तीए॥९८|| दिट्टोय तत्थ खयरो, बंधुमई अंसुपुन्ननयणजुय। परिणयणं पत्थंतो, य हक्किओनरवरसुएणं / / 86| रे रे सरेसु सत्थं, सुट्ट गविट्ट करेसु जियलोय। अविदिन्नकन्नअवहर-णपवण संपइ विणडो सि / / 10 / तं सोऊणं खयरो, संभंतो विम्हियाय रायसुया। किमियं ति नियंतेहिं, दिवो अमरु व्व निवतणओ।।११।। नूणं बंधुमईए, कुढियत्ते कोवि आगओ एस। इय चिंतिय करपगहिय-कोदंडो खेयरो भणई / / 2 / / रे बाल ओसरलहं,मा मह सरपसरजलिरजलणम्मि। सलभु देव देसु झंप, ता हसिरो भणइ रायसुओ।।६३|| जो मुज्झइ कजेसुं. तं चिय बालं भणंति समयविऊ। तं पुण तिहुयणपयड, बंधुमईहरणओ तुज्झ॥६४|| किह तुह पहरेमि अहं, नियदुचरिएहि चेव पहयस्स?। जइ पुण अखव्यगव्यो, अज्ज विता पहरसतमेव / / 5|| तो कोवदहउट्ठो, खयरो मुंचेइ निसियसरनियरं। विजाबलेण कुमरे–ण तं हयं निययबाणेहिं / / 16 / / एवं खेयरमुक्क, नीरत्येण हणेइजलणत्या सप्पत्थंगरुडत्थे-ण वायवत्थेण मेहत्थं / / 67|| अह मुक्को अयगोलो, खयरेणं बहुफुलिंगसयभीमो। चुण्णीकओ खणणं पडिगोलेणं निवसुएण // 18 // इय असमसुहडभावं, बंधुमई पिच्छिरी निवसुयस्स। विद्धा मयणेण सरे-ण खेयरो पुण कुमारेण / / 66| गाढप्पहारविहुरो, खयरो सहस त्ति निवडिओ धरणिं। पवणाइणा पउणिय, निवपुत्तेण पुणो भणियं / / 10 / / उद्देसु सुहड! गिण्हसु, धणुमतणुबलो हवेसु रणसज्जो। कापुरिस त्रिय जम्हा, न संठवंते पुणे अप्पं / / 101 / / तो अणुवमसुहडत्तण, हयहियओ खेयरो भणइ कुमरं। तुह किंकरु च्चिय अहं, जं उचियं तं समाइससु॥१०२।। चिंतइ नरिंदधूया, सुहडा वुचंति ते चिय जयम्मि। जे थुव्वते एवं, दप्पुद्धरवइरिवग्गेण।।१०३॥ अह तं बालं आसा-सिऊण गहिउंचजा निवंगरुहो। नंदिपुरं पइ वलिही, तो भणियं मणिकिरीडण / / 104 / / अज्जप्पभिई भगिणी, बंधुमई तं च कुमर! मह सामी। ता पसिय नियपरहि, लहु मह नयरं पवित्तेसु॥१०५।। दक्खिन्नसारयाए, गंधसमिद्ध पुरंगओ कुमरो। नियतणयाइसमेओ, तेण कया गरुयपडिवत्ती॥१०६।। तत्तो नरिंदपुत्तो, जुत्तो खयरेण निवसुयाए या पवरविमाणारूढो, पत्तो नंदिउरआसन्नं / / 107 / / वद्धाविओय गंतु, एगेणं खेयरेण सूरनिवो। सो गुरुसामगीए, चलिओ कुमरस्स पच्चोणिं / / 108 / / तो विहियहट्टसोहे, पुरो पविट्ठो महाविभूईए। कुमरो कुमरी य तहा, ओयरिउ वरविमाणाओ।।१०।। पणया य निवइचरणे, तेण वि अभिणदिया पहि?ण। सव्वो रन्नो सिट्टो,खयरेणं कुमरबुत्तंतो॥११०।। अइहरिसपवरक्सेणं, सूरनिवेण पुरंदरो तत्तो। बंधुमइपाणिगहणं कराविओ गुरुविभूईए॥१११॥ वरपासायतलगओ, मणइच्छियसयलविसयदुल्ललिओ। दोगुंदुगु व्व अमरो, कुमरो अक्कमइ बहुकालं / / 112 / / अन्नदिणे जाव इमो, चिट्टइभडकोडिसंकडत्थाणे। करकलियकणयदंडे–ण वित्तिणा ताव इय भणिओ // 113 // देव! तुह दंसणत्थी, बहि चिट्ठइचउरवयणनामनरो। लहु मुंच मुंच इय कुम-रेणुते सि पवेसिओ तेणं / / 114|| तं नियजणयपहाणं, जाणिय अवगहियं च पूच्छेद। कुसलं अम्मापिउणो, एवं चिय आह सो किं तु॥११५।। तुह अइदुस्सहविरहे, ज ते पिउणो दुहं अणुहवंति। बाहजलाऽऽविलनयणा, सव्वन्नू चेव तं मुणइ॥११६|| तं सुणिय विसन्नमणो, कुमरो पुच्छित्तु सूरनरनाह! बंधुमईए सहिओ, हयगयरहसुहड़परिकलिओ॥११७॥ समुहआगयसिरिविजय-सेणनिवविहियगरुयपरितोसो। अइसयविच्छड्डेणं, इमो पविट्ठो नियं नयरि।।११८|| कमरो दइयासहिओ, पणओ अम्मापिऊण पयकमला तेहिं वि आसीवाए-हिं नंदिओ नंदिसहिएहि॥११६।। अह हरिसियसयलजण-स्स निवइतणयस्स दंसणत्थं च। संपत्तो हेमंतो, फुडपयडियकुंदकुसुमभरो॥१२०॥ अत्रान्तरे क्षितिपतिं सविनयमुद्यानपालका एत्या श्रीविमलबोधसुगुरो-रागमनमचीकथन्नुच्चैः / / 121 / / तच्छुत्वा धरणिधव-स्तेभ्यो दत्त्वा च दानमतिमानमा युवराजपौरसाम-न्तसचिवशुद्धान्तपरिकलितः।।१२२॥ उद्दामगन्धसिन्धुर-मधिरूढः प्रौढभक्तिसंभारः। यतिपतिविनतिनिमित्तं, निरगच्छदतुच्छपरिवारः।।१२३।। हृदयाऽऽकर्षितनिर्मथि-तरागरसरञ्जितैरिव प्रसभम्। सिन्दूरसुपूरारुण-करचरणतलैर्विराजन्तम्॥१२४॥ पुरपरिघप्रतिमभुज, सुरशैलशिलाविशालवक्षस्कम्। पार्वणमृगाङ्कवदनं, राजा मुनिराजमैक्षिष्ट / / 12 / / (युग्मम्) तत उत्तीर्य करीन्द्रा-दुन्मुच्य च चामराऽऽदि चिहानि। नत्या गुरुपदकमलं, प्रोवाच सुवाचमिति हृष्टः / / 126 / / किं युष्माभिर्भगवन्निति सत्यपि रूपलवणिमप्रसरे। नृपवैभवोचितैरपि,सुदुष्करं व्रतमिदं जगृहे॥१२७|| जगदे जगदेकहितेन सूरिणा शृणु समाहितो भूप!। सुजनहदिवातिविस्तरमस्तीह पुरं, भवाऽऽवतम्॥१२८॥ तस्मिन्नहं कुटुम्बी, संसारिकजीवनामकोऽभूवम्। सोदर्याश्च ममैव हि, तन्नगरं वसन्ति सकलमपि।।१२६॥ तन्न च वयं वसन्तः, सर्वे ऽप्येकेन निष्ठुरविषेण। निःशूकदन्दशूकेन नवघनाभेन किलदष्टाः॥१३०।। तदनु विषमविषभावितत्वेन समागच्छन्त्यस्माकमतुच्छमूच्छाः, निमीलन्ति लोचनानि, श्लथीभवन्ति अङ्गानि, विगलन्ति मतयः, न बुध्यते कार्याऽऽदिविभागः, न परिज्ञायते निजमपि स्वरूपं, तथाऽस्माभिर्न गण्यन्ते हितोपदेशाः, न दृश्यन्ते समविषमाणि, न विधीयन्ते औचित्यप्रतिपत्तयः नालप्यन्ते, समीपस्थास्यपि स्वजनवृ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरंदर 1008- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरंदर न्दानि, केचन काष्टवन्निश्चेष्टाः संजाताः, केचिदव्यक्तशब्देन घुघुरायमाणा लोलुठ्यन्ते महीपीठे, अपरे शून्यहृदया इतस्ततो बम्भम्यन्ते, अन्ये तीव्रतरविषप्रसरसंभूत प्रभूतदाहवेदनापरिभूता निपतन्त्यतिप्रचुरदुःखदम्भोलौ, केचित्पुनरारसन्त्यव्यक्तवाग्भिर्न शक्नुवन्ति जल्पितुमपि स्फुटवचनैः केचन पुनः कदाचन स्खलन्ति कदाचिनिपतन्ति कदाचिन्मूछन्ति कदाचन स्वपन्ति कदाचिज्जाग्रति क्षणमेकं पुनश्च स्वपन्ति, विषाऽऽवेगात अन्ये पुनः सदैव निर्भर स्वपन्ति, न किमपि चेतयन्ते। एवं च तस्मिन् सकलेऽपि पुरे विषधरविषवेदनाऽभिभूते समागादेको महानुभागो विनीतविनयवृन्दपरिवारो महानरेन्द्रः तच तथाविधं पुरमालोक्य समुत्पन्नपुण्यकारुण्येन तेन बभाषिरे लोकाः, यथाभो भो लोका मोचयामि वः सर्वानप्येतस्या महोरगविषवेदनायाः, यदि मयोपदिष्टां क्रियामाचरत। तैरुक्तम् कीदृशी सा? गारुडिकक्रियापरिवृढः प्रोवाचअहो लोकाः! प्रथममेवतावन्मामकीनशिष्यसन्दोहवेष-वत्प्रतिपत्तव्यो वेषः, रक्षणीयाः सकलत्रिभुवनोदरविवरवर्तिनः प्राणिनः, न वक्तव्य सूक्ष्ममप्यलीक, न ग्रहीतव्यमदत्तं, पालयितव्यं नवगुप्तिसनाथमजिह्मब्रह्मचर्य ,मोक्तव्यः स्वदेहेऽपि प्रतिबन्धः, वर्जनीयं रजन्यां चतुर्विधमप्याहारजातं, वस्तव्यं स्त्रीपशुपण्डकविरहितवसतिश्मशानगिरिगहरशून्यसदनकाननाऽऽदिषु कर्तव्यं भूमिकाष्ठशय्याऽऽसनं, परिभ्रमितव्यं युगमात्रादत्तलोचनैः, जल्पनीयं हितमितागर्हितनिरवद्यं वचः, भोक्तव्यमकृताकारितमननुमतमसंकल्पित पिण्डजातं० निवारणीयं सदाऽप्यकुशलचिन्तायां मानसं, परिवर्जयितव्याः सर्वथा राजाऽऽदिकथाः, परित्यक्तव्यो दूरमकल्याणमित्रासंपर्कः, परिहरणीयः सर्वेण कुगारुडिकसंबन्धः, कर्तव्यानि यथाशक्ति सुदुश्चरतपश्चरणानि, बंभ्रमितव्यमनियतविहारेण, सोढव्याः सम्यग् परीषहोपसर्गाः तितिक्षणीयानि नीचदुर्भाषितानि, भवितव्यं सर्व सहेव सर्वसहैः। किंबहुना? क्षणमप्यस्यां क्रियायां न प्रमाद्यं, तथा कर्तव्यो मदुपदिष्टस्यमन्त्रास्य निरन्तरं जापः, ततो निवर्तन्ते पूर्ववर्णितविषविकाराः, उन्मीलन्ति निर्मलबुद्धयः, किं बहुभाषितया? प्राप्यते परम्परया तदपि परमाऽऽनन्दपदमिति। एवं च तस्य वचनं महाराज ! कैश्चन विषाऽऽवेशविवशैन श्रुतमेव यैरपि श्रुतं तेषामप्येके उपहसन्ति, अन्येऽवधीरयन्ति, अपरे निन्दन्ति, केचनदुर्विग्धत्वेन स्वशिल्पकल्पितानल्पकुविकल्पैः प्रतिघ्नन्ति, एके न श्रद्दधति, अपरे श्रद्दधाना अपि नानुतिष्ठन्ति, क्वचित्पुनर्लघुकर्माणो महाभागायुक्तियुक्तमिति श्रद्दधतेऽनुतिष्ठन्ति च। ततो मयाऽपि महाराज! विषधरवेदनानिर्विण्णेनामृतमिव प्रतिपेदेतद्वचः, उररीकृतः सबहुमानं तत्समर्पितो वेषः, प्रारेभे चेमामतिदुष्करां क्रियां, तदेतन्मम व्रतग्रहणे कारणं समजनिष्टा तदाकाऽनवगतपरमार्थेन विजयसेनपार्थिवेन प्रणम्य पृष्टो भूयोऽपि मुनीन्द्रः- भगवन्! कयं तत्तादृशविस्तारभवाऽऽवर्तनगरं सकलमपि सहोदरैसति, कथमेकेन दर्वीकरेण सर्वेऽपि ते एकहेलं दष्टा, कथं चैक एवं महानरेन्द्रवृन्दारकः सकलजननिर्विषत्वकरणे समर्थः, कथमेतादृशो विषनितिनविधिरिति?| तंतः प्रोक्तं गुरुणामहाराज! नेदं बहिरङ्ग वचनमात्र किं तु भव्यजनभववैराग्यकारणं समस्तमप्यन्तरङ्गभावार्थकलितम तथाहि"नैरयिकाऽऽदिभवानामावर्तों येन तत्र नरनाथ! संसारस्तेनेह न्यगादि नगरं भवाऽऽवतम्।।१।। कर्मपरिणामराजः, सर्वेषां कालपरिणतिसमेतः। जनको येन ततोऽमी, जीवाः सर्वेऽपि सोदर्याः / / 2 / / अत्र भवावर्तपुरे,तएव निवसन्त्यनन्तका जीवाः। एकेन विषधरेण च, ते दष्टा येन श्रृणु तच / / 3 / / अष्टमदस्थानफणो, दृढरूढ़कुवासनामलिनदेहः। रत्यरतिचपलरसनो ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिडिम्भयुतः।।४।। कोपमहाविषकण्टक-विकरालो द्वेषरागनयनयुगः। मायागृद्धिमहाविष-दाढो मिथ्यात्वखरहृदयः / / 5 / / हास्याऽऽदिधवलदशनः, सपरिकरस्त्रिभुवनं दशति निखिलम्। कृतचित्तबिलनिवासो, मोहमहाविषधरो भीमः / / 6 / / दष्टाश्च तेन जीवाः, मूर्छितवचेतयन्ति न हि कार्यम्। मीलन्ते लोचनानि. क्षणमात्रसुखानुभवनेन / / 7 / / अङ्रत्यधरैरिव संचार्यन्ते च सेवकजनेन। लग्नाः करे नदेवं, न गुरुं च मुणन्ति गतमतयः ||8|| किं मम युक्तमयुक्तं, किं वा मम कोऽहमिति तथाऽऽत्मानम्। न विदन्ति हितमपि तथा शृण्वन्ति न गुरुभिरुपदिष्टम्।।६।। समविषमाणि न सम्यक् , वीक्षन्ते नैव गुरुजनस्यापि। विदधत्यौचित्यं किल, मूला इव नालपन्ति परम् // 10 // अतितीव्रविषाभिहताः, प्रोक्ता एकेन्द्रिया विगतचेष्टाः। अव्यक्तं च रसन्तो, लुठन्ति विकलेन्द्रिया धरणौ // 11 // ज्ञेयाश्च तायुक्त्या, शून्याश्चेष्टा असंज्ञिनां राजन्। दाहाऽऽदिदुःखदम्भो-लयस्तु नैरयिकजन्तूनाम् / / 12 / / येनासाताभिधलघु-भुजङ्गमस्यातिनिष्ठुरो दंशः। तेषां जातो ह्येव, ज्ञेयः सर्वा च विशेषः / / 13 / / अव्यक्तं विरसन्तः, करिकरभप्रभृतयो विनिर्दिष्टाः। स्खलनपतनाऽऽदिधर्माः, विज्ञेया मानवानां तु॥१४॥ जाग्रति ते प्रतिपन्ना विरतिं विषलाघवानुभावेन। भूयो मोहविषवशात्, स्वपन्ति परिमुक्तविरतिगुणाः / / 15 / / अविरतनिद्रावसतः, स्वपन्ति देवाः सदेति सकलजने। मोहोरगविपविधुरे, गारुडिकं बोधत जिनेन्द्रम्॥१६॥ यतिजनकरणीयायां, सदा क्रियायां हि तदुपदिष्टायाम्। यदि विगलितप्रमादैः, क्रियते सिद्धान्तमन्त्रजपः / / 17 / / तत एकोऽपि समर्थो मोहविषोच्छेदने त्रिभुवनस्या निष्कारणबन्धुरसी, भव्यानां परमकारुणिकः // 18|| एवमवगस्य नरपतिरपूर्वसंवेगमुद्बहन कमपि भालस्थलमिलितकरः, प्रणम्य मुनिराजमित्यूचे / / 16 / / सत्यमिद मुनिपुङ्गवः वयमपि मोहविषधारिता अधिकम्। आत्महितमियत्कालं, चेतितवन्तः किमपि नैव / / 20 / / अधुना तु राजसौस्थ्य, कृत्वाऽऽदत्स्ये व्रतं प्रभुपदान्ते। गुरुरप्याह नरेन्द्र ! क्षणमपि मा स्म प्रमादीस्त्वम्॥२१॥ तदनु पुरन्दरपुत्रो, राज्यभरंन्यस्य विजयसेनृपः। सामन्तकमलमाला-मन्त्र्यादियुतः प्रवव्राज / / 22 / / अथ मालत्यपि देवी, निजदुश्चरितं निवेद्य सुगुरूणाम्। कर्मवनगहनदहन-प्रतिमां दीक्षां समादत्त // 23 // नम्रसुरासुरकिन्नर-विद्याधरगीयमानशुभ्रयशाः। भव्योपकारहेतो-गुरुरप्वन्यत्रा विजहार // 24 // "अह परिपालइ रज्ज, पुरन्दरो दरियवइरिबलदलणो। अप्पुव्यचेइयाई जिन्नुद्धारे य कारतो।।२५।। Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरंदर 1006- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरवर साहम्मियवच्छल्लम्मी, उज्जुओ निजिओ न करणेहि। पालंतोय फ्याओ, पयाउ इव वसणवारणओ // 26 / / कइया वि सो नरिंदो, बंधुमईसंजुओ सपरिवारो। ओलोयणोवविठ्ठो जा पिच्छइ निययपुरसोहं / / 27 / / ता बहुयडिभनयरेहिं वेदिओ कोटिओ व्व मच्छीहिं। धूलीधूसरदहो, निम्मियअइबहुलबोलो // 28 // दंडी खंडनिवसणो, कुद्धोधावंतओ चउदिसासु। दिट्टो स मित्तविप्पो, जेणं नाराहिया विजा / / 26 / / तं उवलक्खिय सरिया, विजा देवी निवेण इय भणइ, जणउवहासपरो वि-ज्जाइ विराहगो य इमो।।३०।। तो कुवियाए विमए, तुह दक्खिन्नेण मारिओ न इमो। सिक्खामित्तमिणं पुण, अह राया विनवइ एवं / / 31 / / जइ वि इमो एरिसगो, तहा वि सज्ज करेसु तं देवि !! काऊण मह पसायं, खमेसु एवं तु अवराहं॥३२॥ तो देवी तं विप्पं, सजीकाउं अदंसणं पत्ता। सक्कारिय जहउचियं, रन्ना वि विसज्जिओ एसो॥३३॥ इत्तो य चिरं कालं, पालियअकलंकचरणकरणगुणो। सो विजयसणसमणो, अणंतसुक्खं गओ मुक्खं // 34 / / राया पुरंदरो विहु, सिरिगुत्तं नंदणं ठविय रजे। सिरिविमलबोहकेवलि–पयमूले गिण्हइ चरित्तं // 35 // जाओ कमेण गीओ, एगल्लविहारपडिमपडिवन्नो। कुरुदेसट्ठियगामस्स बाहि आयावणापरमो / / 36 / / संदविय रुक्खपुग्गल-दिट्ठी सुज्झाणलीणपरमप्पा। जा चिट्ठइस महप्पा, वज्जभुएणं तु ता दिवो // 37 // तो कुविओ पल्लिवई, रे रे तइया मलित्तु मह माण। गच्छिहिसि कत्थ इर्णिह, इय भणिय स निट्ठरं पावो॥३८॥ मुणिणो चउद्दिसि झ, ति खित्तु तणकट्ठपत्तक्के। पिंगलजालाभरभरिय-नहयलं जालए जलण।।३।। तो जह जह डझंत, संकुडइ कलेवरे न सा जाला तह तह मुणिणो वड्डइ, झाणमसंकुडियसुहभावं // 40 // तत्तो चिंतइ रेजिय! अणतवाराउ ते सहियपुव्वो। इत्तो अणंतगुणदा-हदायगो निरयदहणो वि॥४१।। वणदवदुसहहुयासे, तिरिएसु विऽणंतसो तुम जीव!। दड्डो पर अकाम त्तणेण न तए गुणो पत्तो।।४।। इण्हि सहतस्स विसुद्धझाणिणो नाणिणो सकामस्स। तत्तो अणंतगुणिया थोवेण वि निजरा तुज्झ / / 43 / / ता सहसु जीव! सम्म, खणमित्तं काउ केवलं मित्त। एयम्मि पल्लिनाहे, अणंत कम्मक्खयसहाए।।४४|| इय सुहभावानलदड्ढकम्मगहणो पलित्तबहिगत्तो। स पुरंदररायरिसी, अंतगडो केवली जाओ॥४५|| वज्जभुओ विहु अइगरु–यपावकारि त्ति परियणविमुक्को। एगागी नस्संतो, निसि पडिओ अंधकूवम्मि॥४६।। कलखुत्तसारखाइय-कीलयविद्धोयरो दुहवंतो। रुद्दज्झाणोवगओ, मरिउं पत्तो तमतमाए।।४७|| जत्थय पुरंदररिसी, सिद्धो अमरेहिँ तत्थ हिट्ठहिं। महिमा विहिया परमा, गंधोदगवरिसणाईहिं // 48|| बंधुमई विहु अइसुद्धवंधुरं संजमं निसेवित्ता। वरनाणदसणजुया, परमानंदं पयं पत्ता / / 46 / / इत्यवेत्य गुणरागसंभवं, श्रीपुरन्दरनृपस्य वैभवम्। तत्तमेव भविका गुणाकाराः धत्त चित्तनिलये कृताऽऽदाराः / / 50 / / इति पुरन्दरराज वरितम्। ध० 20 1 अधि० 12 गुण / सुरपतौ,। "अक्खंडलो सुरवई, पुरंदरो वासवो सुणासीरो।" पाइ० ना०२३ गाथा। पुरंदरजसा स्त्री० (पुरन्दरयशस्) चम्पानगरीराजस्कन्दकभगिन्याम, नि० चू०१६ उ०। पुरंधी स्त्री० (पुरन्ध्री) भार्यायाम, "जाया पत्ती दारा,घरिणी भज्जा पुरंधी या" पाइ० ना०५७ गाथा। पुरक्खड त्रि० (पुरस्कृत) अवश्यप्राप्तव्यतयाऽग्रे कृते, पञ्चा० 4 विव० चं० प्र०। प्रज्ञा० अभिमुखे कृते. आ०म०१ अ०॥ पुरक्खडभाव पुं० (पुरस्कृतभाव) भाविनो भावस्य योग्ये आभिमुख्ये, आव०५ अ०॥ पुरक्खाय त्रि० (पुराख्यात) पूर्वकथिते सूत्रा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। पुरक्खार पुं० (पुरस्कार) पुरस्करणं पुरस्कारः। सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापने, आचा० 1 श्रु०५ अ०४ उ०। ध०। पुरच्छा अव्य० (पुरस्तात्) पूर्वस्मिन्, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। दश०। पुरच्छिम त्रि०(पौरस्त्य) अन्यभागे, चं०प्र० 20 पाहु०। भ०। स्था० / पूर्वस्यां दिशि, स्था० 8 ठा०। सू० प्र०) पुरच्छिमदाहिणा स्त्री० (पूर्वदक्षिणा) अग्निकोणे, स्था०१ ठा० पुरच्छिमद्ध न० (पौरस्त्यार्द्ध) पौरस्त्यं पूर्वम्। पूर्वार्द्ध, स्था०२टा०३ उ०। पुरच्छिमा स्त्री० (पूर्वा) प्राकृतशैल्या मागधदेशीभाषावृत्त्यावा साधुत्वम् / ऐन्द्रयां दिशि, आचा० 1 श्रु०१ अ०१ उ०। स्था०| पुरच्छिमिल्ल त्रि० (पौरस्त्य) पूर्वदिग्वर्तिनि पर्वते, "चत्तारि-अंजणगपव्वया पण्णता। तं जहा-पुरच्छिमिल्ले०" इत्यादि / स्था०४ ठा० २उन पुरतोवाहत न० (पुरतोव्याहत)"जहा जीवे भंते! नेरतिए जीवे ? गोयमा! जीव सिय नेरतिए सिय अनेरतिए नरेतिए पुण नियमा जीवे !" इति पूर्वोपातव्याप्तियुक्ते, आ० चू०१ अ०। पुररक्ख पुं० (पुररक्ष) ग्रामरक्षके, "आरक्खो पुररक्खो / " पाइ० ना० 166 गाथा। पुरव त्रि० (पूर्व)"पूर्वस्य पुरवः ||४२७०|पूर्वशब्दस्य शौरशेन्यां पुरवाऽऽदेशो वा। 'पुव्व' शब्देऽभिहितार्थ, प्रा० 4 पाद। पुरवइ पुं० (पुरपति) पुरस्य पतिपुरपतिः। ग्रामाधिपतौ, आ० म०१ अ० पुरवर न० (पुरवर) नगरे, प्रश्न०३ आश्र द्वार। नगरैकदेशभूते, प्रश्न० 5 आश्र० द्वार। "पुरवरकवाडोवमे से वच्छे।'' पुरवरकपाटोपमं (से) तस्य वक्ष उरस्थल, विस्तीर्णत्वादिति / उत्त०२ अ०। राजधानीरूपे प्रधाननगरे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार।"पुरवरपरिघवट्टे।"पुरवरपरिघवत् नगरार्गलावत्वर्तितौ वृत्तौ बाह्यवर्तितौ च बाहू यस्य स तथा / औ०।सं। Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरवरधम्म 1010- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिमड्ढ पुरवरधम्म पुं० (पुरवरधर्म) पुरवर प्रति भिन्ने लौकिकेधम, स चक्वचित्किञ्ििवशिष्टोऽपि पौरभाषाप्रतिपादनाऽऽदिलक्षणः। दश०१ अ०। पुरस्सर त्रि० (पुरस्सर) पूर्वस्मिन्, द्वा० 22 द्वा०। अग्रतःकृते, वाचा पुरा स्वी० (पुर) "रो रा "|81 / 16 / / इति रफेस्य रा इत्यादेशः। नगर्याम्, प्रा०१पाद पुरा अव्यका विवक्षितकालात्पूर्वस्मिन्, तं०। सूत्र० भ० विपा०ा स्था०। प्राग्भवे, जी०३ प्रति०४ अधि० "पुव्वा तत्थेव जत्थ पुरा' आसीदित्यर्थः। नि० चू०६ उ०। सूत्रा०। आचा०। ज्ञा०। विशे० 'पुरा पोराणाणं कम्माणं ।"पुरा पूर्वकाले, कृतानमिति गम्यते। एवं पुराणानां चिरन्तनानाम्। विपा०१ श्रु०१ अ०। कल्प०। पुराकड त्रि० (पुराकृत) जन्मान्तरोपात्ते, दश०६ अगसूत्रा पुराण त्रि०(पुराण) पुरातने, सूत्रा०२ श्रु०६ अ०। ज्ञा०। चिरन्तने,३०२ उ०। बहुकालीने, स्था०६ठा०ा अनेकभवोपात्तत्वेन चिरन्तने, उत्त०१ अ० आचा०ा पश्चात्कृतश्रमणभावे, व्य०७ उ००। पुरातनवस्तुविषये हेतौ, स्था०६ ठा०। पुरातनवस्तुवक्तव्यताप्रतिबद्धे कथानकप्रायेग्रन्थे, 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।धर्म शास्त्रं पुराणंच, विद्या ह्येताश्चतुर्दश / / 1 / " आ० म०१ अ०। पुराणकुम्मास पुं० (पुराणकुल्माष) पुराणाः प्रभूतकालं यावत्सचित्ताः पुराणाश्च ते कुल्माषाश्च पुराणकुल्माषाः। पुरातनराजमाषेषु, उत्त०८ अ०। प्रभूतवर्षधृते कुल्माषे उत्त० 8 अ०। पुराणविणिजरा स्त्री० (पुराणविनिर्जरा) चिरन्तनक्षपणायाम, (33 गाथा) आव०४ अग पुराणसावग पुं० (पुराणश्रावक) पुराणनिगृहीतान्यणुव्रतानियस्य स श्रावकः। अविरतसम्यग्दृष्टौ, नि० चू०१६ अ०) पुराणा स्त्री० (पुराणा) पश्चात्कृतव्रतायां साध्व्याम्, व्य०७ उ०। पुराहिवइ पुं० (पुराधिपति) श्रेष्ठिनि, बृ० 4 उ०। पुरिम त्रि० (पूर्व) "पूर्वस्य पुरिम"।८।२।१३५ / / इति पूर्वस्य पुरिमाऽऽदेशः। प्राग्जाते, पञ्चा० 11 विव०। बृ० / उत्त०। 'पुरिमपच्छिमाणं तित्थयराण। स्था० 4 ठा० 1 उ०। प्रस्फोटके, "छप्पुरिमा गव खोडा।" स्था०६ ठा०। प्रवला पुरिमड्ड न० (पुरिमार्द्ध-पूर्वार्द्ध) पुरिमं पूर्व, तच्च तदर्द्ध च। दिमस्याऽऽद्ये प्रहरद्वये, पञ्चा०५ विव०। पूर्वाह्न, स्था० 5 ठा० 1 उ०। प्रहरद्वयकालावधिप्रत्याख्याने, व्य०१ उ०ा पं० वाधा आव०॥ अथ पूर्वार्द्धप्रत्याख्यानम् - 'सूरे उग्गए पुरिमर्दू पचक्खाइ, चउव्विह पि आहार असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ। पूर्वं च तदर्द्धच पूर्वार्द्ध दिनस्याऽऽद्यं प्रहरद्वयं, पूर्वार्द्ध प्रत्याख्याति पूर्वार्द्धप्रत्याख्यानं करोति, षडाकाराः पूर्ववत् / (महत्तरागारेणं इति) महत्तरं प्रत्याख्यानानुपालनलभ्यनिर्जरापेक्षया बृहत्तरनिर्जरालाभहेतुभूतं पुरुषान्तरासाध्यं ग्लानचैत्यसंघाऽऽदिप्रयोजनं तदेवाऽऽप्रकारः। प्रत्याख्यानापवादो महत्तराकारस्तस्मादप्यन्यत्रोति योगः। / यचात्रौव महत्तराकारस्याभिधानं न नमस्कारसहिताऽऽदौ तत्र कालस्याल्पत्वं महत्त्वं च कारणमाचक्षते। ध०२ अधिo आ० चू०। पुरिमार्द्धशोध्या अतीचाराः। इदानीं येषु पुरिमार्द्ध प्रायश्चित्तं तान् गाथात्रयेणाऽऽह ओह विभागुद्देसो-वगरणपूइयचिरठवियपागडिए। लोगुत्तरपरियट्टिय - पामिचपरभावकीए च / / 40 // सग्गामाहडदद्दर - जहन्नमालोहदुज्झरे पढमे। सुहमतिगिच्छासंथव-तिगमक्खियदायगोवहए।। 41|| पत्तेयपरंपरठवि-यपिहियमीसेयणंतराईसु। पुरिमद्धं संकाए, जं संकइ तं समावज्जे // 42 // ओद्य० सामान्येद्दिशिकं, विभागोद्देशे उद्दिष्टोद्देशसमुद्देश उद्दिष्टसमादेशाऽऽख्यं विभागोद्देशिकप्रथमभेदचतुष्टयम् / उपकरणपूतिकाचिरस्थापनाप्रकटकरणम्। एषां द्वन्द्वः तस्मिन्, लोकोत्तरपरिवर्तितप्रामित्ययोः परभावक्रीते च / अत्रापि द्वन्द्वः। स्वग्रामाऽऽहृते दर्दरोद्भिन्ने जघन्यमालापहृते (उज्झरे पढमेत्ति) आवैकारो लाक्षणिकत्वाद् यावदर्थिकमिश्राख्येऽध्यवपूरकप्रथमभेदे। इहापि द्वन्द्वः। सूक्ष्मचिकित्सा वचनसंप्राप्तिका पूर्व पश्चात्संस्तवे उदकादिम्रक्षितमिश्रकर्दमं भ्रक्षितरूपं पृथ्वीभ्रक्षितम् उदकाहुते तं......... (?) कुकृतोत्कृष्ट्याख्यत्रिविधप्रत्येकम्रक्षितं चेति त्रिकं म्रक्षितमपि यत् लोठयन्ती रूत विरलयन्ती कर्तयन्ती, दायकाय दत्ते तद्दायकोपहृतम्। एषामपि द्वन्द्वः। तस्मिन्। यथोक्तम्-''बोले वुड्डे मत्ते, उम्मत्ते थेविरे य जरिए या एए तिसेसवजा एएसिं दायगोवहयं / / 1 // " तदत्रा पुरिमार्द्धप्रस्तावनाद्नेयम्, एतेभ्यो दायकेभ्यो ग्राहकाणामाचामाम्लप्रायश्चित्तस्योक्तत्वात्। (पत्तेयपरंपरठवियपिहिय त्ति) सुप्लोपः प्राकृतत्वात्। प्रत्येकशब्दस्य चोपलक्षणत्वात् सचित्तपृथिव्यादिषट्कायपरस्थापितपिहितेष्विति ज्ञेयम् / स्थापित निक्षिप्तमुच्यते, बहुवचनात् संहतछर्दितयोश्च / (मीसयणंतराईसु त्ति) सूचकत्वात् सूत्रस्य मिश्रपृथ्व्यादिषट्कायानन्तरनिक्षिप्त संहृतोन्मिश्रापरिणतछर्दितेष्वित्यर्थः। उन्मिश्रापरिणतयोश्चानन्तरे विशोधनं योज्यम्। किं तर्हि मिश्रषट्कायोन्मिश्र, मिश्रषट्कायापरिणत चेत्येव योज्यम्। एषु सर्वेषु पुरिमार्द्धप्रायश्चित्तशङ्कायां दोषमाशङ्कते, तस्याप्येकान्तदोषश्च प्रायश्चित्तमापद्यते। जीतका कालाध्वातीतानामधिकीभूतानां वा भक्ताऽऽदीनामन्येषां वा परिष्ठापनीयानां प्रस्रवणानामविधिविवेचनायामशुद्धस्थण्डिलाऽऽदौ परित्यागे पुनः पुरिमार्द्धम् / जीता एयं चिय सामन्नं, तवपडिमाऽभिग्गहाइयाणं पि। निव्विइगाई पक्खिय, पुरिसाइविभागओ नेयं // 51 // एतदेव पुरिमार्द्धरूपं प्रायश्चित्तं सामान्य निर्विशेष तपः-प्रतिमा:भिग्रहाऽऽदीनामापि। अयमर्थः तपो द्वादशविधं यथा-'अनशनमूनोदरता, वृत्तेः संक्षपणं रसत्यागः। कायक्लेशः संलीनतेति बाह्य तपः प्रोक्तम / / 1 / / प्रायश्चित्तं ध्यानं, वैयावृत्यविनयावथोत्सर्गः। स्वाध्याय इति तपः षट्प्रकारमाभ्यन्तरं भवति // " तस्य तपसोऽकरणे प्रतिमा अपि द्वादश एकमासिकी 1 द्विमासिकी रत्रिमासिकी 3 चातुर्मासिकी 4 पञ्चमासिकी 5 Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिमड्ड 1011- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिस षण्मासिकी 6 सप्तमासिकी 7 प्रथमसप्तरात्रिदिवा 8 द्वितीयसप्तरात्रि- | न्दिवा : तृतीयसप्तरात्रिन्दिवा 10 अहोरात्रिीकी 11 एकरात्रिकी 12 चेति। एतासामश्रद्धाने विपरीतप्ररूपणा चा अभिग्रहा द्रव्यक्षेत्राकालभावमंदाभिन्नाः, तेषामग्रहणे च पुरिमाद्धम् एव प्रायश्चितम् / उत्तरार्द्ध तु (पक्खियति) उपलक्षितत्वात् पाक्षिकचातुर्मासिक सांवत्सारकेषु निर्विकृतिकाऽऽदिकं पुरुषाऽऽदिविभागतो ज्ञेयम् / अयमर्थः- पाक्षि के चामाम्लं च नित्यदिनकृत्यतपसो वाऽधिकं तपः शक्त्यनुसारेण कुर्वतः क्षुल्लकस्य वृद्धस्याऽऽपुरिक्षाए (?) उपाध्यायस्य आचार्यस्याभक्तार्थचातुर्मासिके षष्ठमन्यद्वा यथाशक्यतुवचनात् क्षुल्लकाऽऽदीनां पञ्चाऽदीनां पुरिमाध्दैकाशनाचाम्लचतुर्थषष्ठानि सांवत्सरिके चाष्टममन्यद्वा यथाशक्त्या तपः कुर्वतामेकाशनाचाम्लचतुर्थषष्ठामानि यथासंख्यं भवन्ति। फिडिए सवमुस्सारिएँ, भग्गे वेगाइवंदणुस्सगे। निव्वीइयपुरमेगा-सणाई सम्वेसु चाऽऽयामं // 52 // स्फिडित स्वयमुत्सारिते भग्ने वा एकादिवन्दनोत्सर्गे निर्विकृतिक पुरिमैकाशतानि सर्वेषु वाऽऽचाम्लमिति। अयं भावार्थ : - निद्राऽऽदिप्रमादवसतो गुरुभिः सह प्रतिक्रमणे स्फिटिते न मिलितः, एकस्मिनन्कायोत्सर्ग निर्विकृतिक, द्वयोः पुरिमार्द्ध त्रिष्वेकाशनं, तथा गुरुभिरपारितेऽपि कायोत्सर्गे स्वयमात्मना प्रथममेव पारिते भग्ने वा कायोत्सर्गे अचिन्तयित्वाऽपि सर्वविन्तनीयमन्तराल एव पारिते एकद्वित्रिसंख्येयकायोत्सर्गे यथासंख्य निर्विकृतिकपुरिमार्द्वकाशनानि, सर्वेष्वपि च कायोत्सर्गेषु स्फिटितत्वे भग्नत्वे च आचामाम्लम् / एवं वन्दनकेऽपि स्फिटितत्वपश्चात्पतितत्वे गुरोर्वन्दनके ददानस्य स्वयमग्रतः प्रदत्तः, प्रदत्ते कृतापकृतत्वेन भग्ने वा यथासंख्यमेकस्मिन् द्वयेषु त्रिषुसर्वेषु आचामाम्लम् / जीता पुरिमताल न० (पुरिमताल) उदितोदयनृपपालिते पुरविशेष, आ० क० 1 अ० या च महावलो राजाऽऽसीत् / विपा०१ श्रु०३ अ०। यत्र वा चित्रानामा महर्षिरासीत्। उत्त० 13 अ० आ० चूा आ० म०। कल्प। पुरिमपच्छिमग पुं० (पूर्वपश्चिमक) पूर्वचरमे, स्था० 5 ठा० 1 उ०। "पुरिमपच्छिमगाणं तित्थयराणा पुरिमा भरतैरावतेषु चतुर्विशतिरादिमाः तेच पश्चिमकाश्चरमाः पुरिमपश्चिमाकास्तेषां जिनानामर्हताम्। स्था०५ ठा०१ उन पुरिया स्त्री० (पुरिका) नगर्याम्, आ० म०१ अ०। पुरिल्ल त्रि०(पौरस्त्य)"डिल्लडुल्लौ भवे" ||8|2 / 163 / / इति भवेऽर्थे नाम्नः परो डिल्लप्रत्ययः। पुरोजाते प्रा० 1 पाद। बृ०। प्रवरे, दे० ना०६ वर्ग 53 गाथा। पुरिल्लदेवा ( देशी) असुरे, दे० ना० 6 वर्ग 55 गाथा। पुरिल्लपहाड़ा ( देशी) अहिदंष्ट्रायाम्, दे० ना० 6 वर्ग 56 गाथा। पुरिस पुं० (पुरुष) "पुरुषे रोः" || 8 111111 // इति रो रिः। प्रा० 1 पाद / पुरिशयनात्पूर्णः सुखदुःखाना वा पुरुषः। आचा०१श्रु०१ अ० 1 उ०। नं० / आ० म०। जीवे, विशे०। सूत्र०ा कल्प०। विशिष्टकर्मो- | दयाद्विशिष्ट संस्थानवच्छरीरवासिनि,ध०२ अधि०ामानवे, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। "मणुआ नरा मणुस्सा, मचा तह माणवा पुरिसा।'' पाइ० ना०६ गाथा। निक्षेप:दव्वाभिलाबचिंधे, वेए धम्मत्थभोगभावे या भावपुरिसो उ जीवो, भावे पगयं तु भावेणं / / 2060 // (दव्वत्ति) द्रव्यपुरुषो विस्तरेण वक्ष्यमाणस्वरूपः, अभिलप्यतेऽनेनेत्यभिलापः शब्द, ततोऽभिलापपुरुषः पुंल्लिगाभिधानमात्रापुरुष इति, घटः पट इत्यादि चिह्नपुरुषस्त्व पुरुषोऽपि पुरुषचिह्नोपलक्षितो यथा नपुंसक श्मश्रुचिह्नम् इत्यादि। स्त्र्यादिरपि पुरुषवेदकर्मविपाकानुभाव द्विदपुरुषः। धर्मार्जनव्यापाररतः साधुर्धर्मपुरुषः। अर्थार्जनपरस्त्वर्थपुरुषः। समस्तभोगोपभोगसुखभाग भोगपुरुषः। ( भावे य त्ति) भावपुरुषश्च / चशब्दो नामाऽऽद्यनुक्तभेदसमुच्चयार्थः। तत्रभावे भावद्वारे विचार्य भावपुरुषः। कः? इत्याह-भावपुरुषस्तु जीवः। इदमुक्तं भवति–पू: शरीरं, पुरि शरीरे शेते इति निरुक्तिवशाद्भावपुरुषः पारमार्थिकः पुरुषो द्रव्याभिलापपुरुषाऽऽदिसर्वोपाधिरहितो निर्विशेषणः द्धो जीव एवोच्यते। तत्रोह प्रकृतं प्रस्तुतं भावेन भावपुरुषेण शुद्धेन जीवेन, तीर्थकरेणेत्यर्थः। तुशब्दादन्यैश्य वेदाऽऽदिपुरुषैर्गण-धरैरिहाअधिकारः। सूत्रातस्तेभ्योऽपि सामायिकस्य निर्गतत्वादिति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 2060 / / विस्तरार्थं तु भाष्यकारः प्राऽऽहआगमओऽणुवउत्तो, इयरो दध्वपुरिसो तहा तइओ। एगभवियाइतिविहो, मूलुतरनिम्मिओ वा वि / / 2061 / / इह नामस्थापनापुरुषौ नोक्तौ, तद्विचारस्यातिप्रतीतत्वात्। द्रव्यपुरुषस्तु द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च। तत्राऽऽगमतः पुरुषपदार्थज्ञः, तत्र चानुपयुक्तो द्रव्यपुरुष उच्यते। इतरस्तु नाआगमत इत्यर्थः द्रव्यपुरुषो ज्ञशरीरभव्यशरीरत-व्यतिरिक्तभेदालिाधा। तत्रज्ञशरीरभव्यशरीरद्रव्यपुरुषौ द्रव्याऽऽवश्यकाऽऽदिवत सुचच्यौं। तृतीयवस्तुज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तो द्रव्यपुरुषः पुनरप्येक भविकबद्धाऽऽयुष्काभिमुखनामगोत्रा भेदालिविधः। अथवा-व्यतिरिक्तो द्विविधः। कथम्? मूलगुणनिर्मित्तः, उत्तरगुणनिर्मितश्च। तत्र मूलगुणनिर्मितः पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु तान्येव तदाकारवन्तीति / / 2061 उक्तो द्रव्यपुरुषः।। इदानीमभिलापचिह्नपुरुषौ प्राऽऽह - अभिलावो पुंलिंगा-मिहाणमेत्तं घडो व्व चिंधे उ। पुरिसागिई नपुंसो, वेओ वा पुरिसवेसो वा / / 2062 / / अभिलापः शब्दस्तद्रूपः पुरुषोऽभिलापपुरुषः, यथा पुरुष इति पुंल्लिङ्गवृत्त्यभिधानमात्र, घटः पट इत्यादिर्वा / चिह्न चिह्नविषये पुरुषश्चिह्नपुरुषः, पुरुषाऽऽकृतिर्नपुंसकाऽऽत्मा श्मश्रुप्रभृतिपुरुष चिह्नयुक्तः। अथवा-वेदः पुरुषवेदश्चिहपुरुषः, इति चिह्नयते लक्ष्यते पुरुषोऽनेनेति कृत्वा / अथवा-पुरुषस्य संबंधी वेषो यस्य स पुरुषवेषः स्त्र्यादिरपि चिह्नमात्रोण पुरुषश्चिह्नपुरुष इति।।२०६२।। Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिस 1012- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिस वेदधर्मापुरुषौ प्राहवेयपुरिसो तिलिंगो, वि पुरिसवेयाणुभूइकालम्मि। धम्मपुरिसो तयजणवावारपरो जहा साहू / / 2063 / / स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्ग नायवृत्तिरपि प्राणी यदा तृणज्वालोपमविपाकं पुरुषवेदमनुभवति तदा पुरुषवेदानुभावमाश्रित्य पुरुषो वेदपुरुषः स्त्र्यादिरप्युच्यते। धर्जिनच्यापारपरो धर्मपुरुषो यथा साधुरिति / / 2063 / / अर्थभोगपुरुषौ प्राऽऽहअत्थपुरिसो तयजण-परायणो मम्मणो व्व निहिपालो। भोगपुरिसो समज्जिय-विसयसुहो चक्कवट्टिव्व / / 2064|| गतार्था। नवरं राजगृहनगरनिवासी रत्नमयबलीवर्दनिर्मापको मम्मणवणिगावश्यकवृत्तितोऽवसेय इति // 2064 / / भावपुरुषमाहभावपुरिसो उजीवो, सरीरपुरि सयणओ निरुत्तवसा। अहवा पूरणपालण-भावाओ सव्वभावाणं / / 2065 / / भावपुरुषस्तु द्रव्यमिलापचिहाऽऽद्युपाधिरहितः शुद्धो जीवः। कुतः? पूः शरीरं, तत्राशयनान्निवसनात्पुरुष इत्येवं-भूतनिरुक्तवशाद। अथवासर्वेषामपि स्वर्गमर्त्यपातालगतानां स्वर्गविमानः। वनशयनाऽऽसनयान वाहनदेहविभवाऽऽदिभावानां नानाभवेषु 'पृ' पालनपूरणयोः पूरणपालनभावाद्भावरूपः पारमार्थिकः पुरुषो भावपुरुषः शुद्धो जीव इति / / 2065 / / कथं पुनः शुद्धो जीवो भावपुरुष? इत्याहदव्वपुरिसाइभेया, विजं च तस्सेव होंति पज्जाया। तेणेह भावपुरिसो, सुद्धो जीवो जिणिंदो व्व / / 2066 / / न केवलं यथोक्तनिरुक्तवशाद्भावपुरुषो जीव उच्यते, यस्माच द्रव्याभिलापचिह्नाऽऽदिपुरुषभेदा अपि तस्यैव शुद्धजीवस्य पर्याया भवन्ति, तेनाऽऽद्यप्रकृतित्वाच्छुद्धो निर्विशेषणो जीव एवेह भावपुरुषो जिनेन्द्रवदिति // 2066|| केन पुनः पुरुषेणेहाधिकार:? इत्याहपगयं विसेसओ तेण वेयपुरिसेहिं गणहरेहिं च। सेसा वि जहासंभव-माउज्जा उभयवग्गे वि॥२०६७।। अनेकविधपुरुषप्ररूपणेऽत्रा विशेषतः प्रकृतं प्रस्तुतमधिकारस्तेन भावजीवरूपेण जिनेन्द्रेण श्रीमन्महावीरेण, तस्यैवार्थतः सामयिकप्रणेतृत्वात्तथा सूत्रातस्तत्प्रणेतृभिर्वेदपुरुषैर्गणधरैश्चैहाधिकारः। आह-ननु जिनेन्द्रो यथा भावपुरुषः तथा सदैव धर्मव्यापारनिरतत्वाद्धर्मपुरुषेऽपि भवति, तथा चिह्न पुरुषोऽपि, पुरुषचिहयुक्तत्वात्एवं गणधरेषु अपि वाच्यं, ततश्च यथा भावपुरुषेण वेदपुरुषैश्चाधिकारः तथा धर्माऽऽदिपुरुषैरप्याधिकारोऽत्र वक्तुं युज्यत एवं, इत्याशक्याऽऽह-शेषा अपि धर्मपुरुषाऽऽदयो यथासंभव तीर्थकरगणधरलक्षण उभयवर्गे ऽप्यायोज्याः ततः संभवद्भिर्धर्मपुरुषाऽऽदिभिरपीहाधिकारो वाच्य इति गाथासप्तकार्थः। विशेला 'मेहनं खरता दाढ्य, शौण्डीर्यश्मश्रुधृष्टता / स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते / / 1 // ' जीता पुरुषभेदा: तिविहा पुरिसा पण्णता / तं जहा तिरिक्खजोणियपुरिसा, मणुस्सपुरिसा, देवपुरिसा / तिरिक्खजोणियपुरिसा तिविहा पण्णत्ता। तंजहा-जलचरा, थलचरा, खहचराय। मणुस्सपुरिसा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा कम्मभूमिया, अकम्मभूमिया, अंतरदीवया। स्था० 3 ठा० 1 उ०। सम्प्रति पुरुषप्रतिपादनार्थमाहसे किं तं तिरिक्खजोणियपुरिसा? तिरिक्खजोणिपुरिसा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-जलचरा, थलचरा, खहयरा य / इत्थिभेदो भाणियव्वो जाव खहयरा, सेत्तं खहयरतिरिक्ख जोणियपुरिसा / से किं तं मणुस्सपुरिसा? मणुस्सपुरिसा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा या सेत्तं मणुस्स पुरिसा। से किं तं देवपुरिसा? देवपुरिसा चउव्विहा पण्णत्ता / तं जहा-भवणवासिणो, बाणमंतरा, जोतिसिया, वेमाणिया य / इत्थिभेदो भाणियव्वो जाद सव्वट्ठसिद्धा। अथ के ते पुरुषाः?पुरुषास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा तिर्यक्योनिकपुरुषाः, मनुष्यपुरुषाः, देवपुरुषाश्चा (से किं तमित्यादि) अथ के ते तिर्यग्योनिकपुरुषाः? तिर्यग्योनिकपुरुषास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः / तद्यथास्थलचरपुरुषाः, जलचरपुरुषाः, खचरपुरुषाश्च / मनुष्यपुरुषा अपि त्रिविधाः। तद्यथा कर्मभूमकाः, अकर्मभूमका, अन्तरद्वीपकाश्च / देवसूत्रमाह (से किंत इत्यादि) अथ केतेदेवपुरुषाः? देवपुरुषाश्चतुर्विधा प्रज्ञप्ताः। तद्यथा भवनवासिनो, वानमन्तराः, ज्योतिष्काः, वैमानिकाश्च / भवनपतयोऽसुराऽऽदिभेदेन दशविधा वक्तव्याः। वानमन्तराः पिशाचाऽऽदिभेदेनाष्टविधाः। ज्योतिष्काश्चन्द्राऽऽदिभेदेन पञ्चविधाः वैमानिकाः कल्पोपपन्नककल्पातीतभेदेन द्विविधाः। कल्पोपपन्नाःसौधर्माऽऽदिभेदेन द्वादशविधाः कल्पातीता ग्रैवेयकानुत्तरोपपातिकभेदेन द्विविधाः। तथा चाऽऽह (जाव अणुत्तरोववाइय त्ति) जी० 2 प्रति / (स्थितिः ठिइ शब्दे चतुर्थभागे 1726 पृष्ठे उक्ता) (ष विधः पुरुषोऽधमाधम इत्यादि इत्थी' शब्दे द्वितीयभागे 616 पृष्ठे गतम्) (प्रायश्चित्तार्हाणां कृतकरणाऽऽदिना व्याख्या पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 136 पृष्ठे उक्ता) (मार्गे पृच्छनीयाः पुरुषाः 'विहार' शब्दे वक्ष्यन्ते) शतवर्षाऽऽयुः पुरुषस्वरूपम् - आउसो ! से जहानामए के इ पुरिसे छहाए कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सिरसि पहाए कंठे मालकडे आविद्धमणिसुवन्ने अहयसुमहग्धवत्थपरिहिए चंदणोक्किन्नगायसरीरे सरससुरहिगंधगोसीसचदणाणुलित्तगते सुइमाला वन्नगविलेवणे कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंवपलंवमाण कडिसुत्तयसुकयसोहे पिणद्धगेविजअंगुलिज्जगललियंगयललियकयाभरणे नाणामणिकणगरयण कणगतुडियर्थभियभूए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुज्जोवियाणणे मउडदित्तसिरए हारुच्छयसुकयरइयवत्थे पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिजे मुधियापिंगलंगुलिए, नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिऊणोचि यमिसभिसंतक्रिइयसुसिलिट्ठविसिट्ठआविध्दवीरलवए, किं बहुणा, कप्परुक्खे विव अलंकियविभूसिए सुई य पयए भवित्ता अन्मापियरो अभि Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिस 1013- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिस वंदइ / तए णं तं पुरिसं अम्मापियरो एवं वइजाजीव पुत्ता ! यस्य स तथा, पिनद्धानिपरिहितानि ग्रैवेयकाङ्गलीयकानि कण्ठकाख्योवाससयं ति तं पियाई तस्स नो बहुयं भवइ, कम्हा? बाससयं मिकाख्यानि येन स तथा। (ललियगय ति) ललिताङ्गके शोभमानशरीरे जीवंतो वीसं जुगाई जीवइ 1, वीसं जुगाई जीवंतो दो | अन्यान्यपि ललित्तानि शोभनानि कृतानि न्यस्तानि आभरणानि सारभूअयणसयाई जीवइ 2, दो अयणसायाइं जीवंतो छउउसयाई षणानि यस्य य तथा / ततः पवयस्य कर्मधारयः। नानामणिकनकरजीवइ 3, छउउसयाई जीवंतो बारसमाससयाइ जीवइ 4, | नानां कटकत्रुटितैर्हस्तबाह्वाभरणविशेषैर्बहुत्वात् स्तम्भिताविव स्तबारसमाससयाई जीवंतो चउवीसं पक्खसयाई जीवइ 5, म्भितौ भुजौ यस्य स तथाः अधिकरूपेण सश्रीकः सशोभनो यः स तथा, चउवीसं पक्खसयाइंजीवंतो छत्तीसं राइंदिअसहस्साई,जीवति कुण्डलाभ्या कुर्णाऽऽभरणाभ्यामुद्योतितमुद्योतप्रापितमाननं मुखं यस्य 6, छत्तीसं राइंदियसहस्साइंजीवंतो दस असीयाई मुहुत्तसय- स तथा मुकुटदीप्तशिरस्कः हारेणावस्तृतमाच्छादितं तेनैव सुष्ठ कृतं रतिदं सहस्साइंजीवइ७, दस असीयाइं मुहुत्तसयसहस्साइंजीवंतो च वक्ष उरो यस्यासौ अवस्तृत सुकृतरतिदवक्षाः, प्रलम्बेन दीपेण प्रलम्बचत्तारि ऊसासको डिसएसत्त य कोडीओ अडयालीसं च | मानेन च सुष्ठ कृतं पटेनोत्तरीयमुत्तरासङ्गोयेग सतथा. मुद्रिका अङ्गुल्यासयसहस्साइं चत्तालीसं च ऊसाससहस्साइंजीवइ 5, चत्तारि भरणानि ताभिः पिङ्गलाः कपिला अगुलयो यस्य स तथा, नानामणिय ऊसासकोडिसए सत्त य कोडीओ अडयालीसं च सयसह कनकरत्न विमलानि विगतमलानि महार्हाणि महा_णि निपुणेन स्साइं चत्तालीसं च ऊसाससहस्साई जीवंतो अद्धतेवीसं शिल्पिना (ओवीय त्ति) परिकर्मितानि (मिसिमिसिंतत्ति) दीप्यमानानि तंदुलवाहे भुंनइं। कहं? आउसो ! अद्धतेवीसं तंदुलवाडे यानि विरचितानि निर्वृत्तानि सुश्लिष्टानि सुसन्धीनि विशिष्टानि अन्येभ्यो भुंजइ? गोयमा! दुब्बलाए खंडियाणं बलियाए छब्जियाणं खयर विशेषवन्ति लष्टानि मनोहराणि आविद्धानि परिहितानि वीरवलयानि भूसलपच्चाहयाणं ववगयतुसकणियाणं अखंडाणं अप्फुडियाणं येन स तथा, सुभटो हि यदि कश्चिदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽसौ फलगसरियाणं एकक्कवीयाणं अद्धतेरसपलियाणं पत्थयणं, से मा विजित्य मोचयत्वेतानि बलयानि स्पर्द्धयन् यानि कटकानि परिदवि य णं पत्थए मागहए, कल्लं पत्थो सायं पत्थो चउसहितं धाति तानि वीरबलयानीत्युच्यन्ते। किं बहुना? वर्णितेनेति शेषः - दुलसाहस्ससीओ मागहओ पत्थो। कल्पवृक्ष इव अलंकृतो दलाऽऽदिभिर्विभूषितश्च फलादिभिः एवमसावपि मुकुटाऽऽदिभिरलंकृतोऽपि भूषितो वस्त्राऽऽदिभिरति शुचिपदं, पवित्रा(आउसो! से जहा०) हे आयुष्मन्! स यथानामकोयतप्रकारनामा स्थानमित्यर्थः। भूत्वा भूय अम्बापितरौ अभिवादयते पादयोः प्रणिपातं देवदत्ताऽऽदिनामेत्यर्थः। अथवा--(से इति) सः यथेति दृष्टान्तार्थः। करोतीत्यर्थः। ताऽभिवादनानन्तरं, णमिति वाक्यालङ्कारे तं पुरुष 'नामे'' इति सम्भावनायाम्, 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, कश्चित्पुरुषः स्वपुत्रालक्षणं मातापितरावेवं वदतां, कथत इत्यर्थः। हे पुत्र! त्वं जीव! स्नातः कृतस्नानः, स्नानानन्तरं कृतं निष्पादित बलिकर्म स्वगृह वर्षशतमिति तदपि च आ इति अलंकारेतस्य वर्षशतायुःपुरुषस्य यदि देवताना, पूजा येन स कृतवलिकर्मा, तथा कृतानि कौतुकमगलान्येव तदायुर्वर्षशतप्रमाणं भवति तदा तस्य पुत्रास्य न बहुकं वर्षशताधिभिक प्रायश्चित्तार्थ दुःस्वप्नादि-विघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्येन स तथा, भवतिकरमात्? यस्माद्वर्षशतं जीवन् विंशतियुगानिजीवत्येव / निरूपतत्र कौतुकानि मषतिलकाऽऽदीनि, मङ्गलाऽऽदीनि तु सिद्धार्थकद क्रमाऽऽयुष्कत्वात् तत्रयुगं चन्द्राऽऽदिवर्षपञ्चाऽऽत्मकमिति 1, विंशतिध्यक्षत-दूर्वाङ्कुरादीनि इति शिरसि उत्तमाङ्गे स्नातः - कृतस्नानः पूर्व युगानि जीवन पुरुषः द्वे अयनशते जीवति, तत्रायनं षण्मासाऽऽत्मकमिति देशस्नानमुक्तमिह तु सर्वस्नानमिति न पौनरुक्यम्। कएलेग्रीवायाम् 2. द्वे अयनशते जीवन जीवः षट् ऋतुशतानि जीवतितका ऋतुर्मासद्वया(मालकडे त्ति) कृता माला पुष्पमाला येन सः कृतमालः, प्राकृतत्वात् ऽऽत्मकः 3, षटऋतुशतानि जीवन जन्तुः द्वादश मासशतानि जीवति / 'मालकडे त्ति' आविद्धानि परिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा! द्वादश मासशतानि जीवन् प्राणी चतुर्विशतिपक्षशतानि जीवति 2400/ तत्रा (मणित्ति) मणिमयानि भूषणानि। एवं सुवर्णमयानीति। अइतं 5, चतुर्विशतिपक्षशतानि जीवन् षटत्रिंशदहोरात्रसहस्त्राणि जीवति मलमूषिकादिभिरनुपहत, प्रत्यग्रमित्यर्थः। सुमहाण्यं बहुमूल्यं वस्त्रं सत्वः 36000/6, षट्त्रिंशदहोरात्रसहस्त्राणि जीवन असुमान दश परिहितपरिगतं येन स तथा, चन्दनेन श्रीखण्डेनोत्कीर्ण चर्चित गात्रां मुहूर्तलक्षाणि अशीतिमुहूर्तसहस्त्राणि 1080000 जीवति 7 दशलक्षशरीर येन स तथा, सरसेन रसयुक्तेन सुरभिगन्धेन सुष्टु गन्धयुक्तेन मुहूर्तानि अशीतिमुहूर्त्तसहस्त्राणि जीवन देहधारी चत्वारि उच्छवासहोशीर्षवन्दनेन हरिवन्दनेन (अतीति) अतिशयेन लिप्तं विलेपनरूपकृतं कोटिशतानि सप्तकोटिः, अष्टचत्वारिंशच्छतसहस्त्राणि चत्वारिंशदुच्छमात्र यस्य स तथा, शुचिनी पकिो माला च पुष्पमाला वर्णकविलेपनं च ससहस्त्राणि च जीवति देहभृत 4074840000/8, चत्वारि उच्छ्वासमण्डनकारिकुडकुमाऽऽदिविलेपनं यस्य स तथा, कल्पितो विन्यहस्ता- कोटिशतानियावच्चत्वारिंशदुच्छवाससहस्त्राणि जीवन् सार्द्धद्वाविंशतितहारोऽष्टादशसरिकोऽर्द्धहारो नवसरिकः, त्रिसरिकं प्रतीतमेव, यस्य स न्दुलवाहान् वक्ष्यमाणस्वरूपान् भुनक्ति / कथम्? हे आयुष्मान् हे तथा कटिसूत्रोण कट्याभरणविशेषेण सुष्ठकृता शोभा यस्य स तथा। सिद्धार्थननन्दन। सार्द्धवाषिशतितन्दुलबाहान भुनक्ति ससारीति / त०। ततः पटत्रयस्य कर्मधारयः / अथ कल्पितहाराऽऽदिभिः कृता शोभा (प्रस्थकप्रमाणव्याख्या परंथंग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 426 पृष्ठे गता) Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिस 1014- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसक्कार एवं कवलः कतिभिस्तन्दुलैः स्यादित्याह हस्रैर्गुण्यन्तिशून्यानि पञ्च भवन्ति चत्वारि कोटिशतानिषष्टिः कोटयः बिसाहस्सिएण कवलेणं। अशीतिर्लक्षाणि तन्दुलानामिति / (तं एवं ति) तदेवं सार्द्धद्वाविंशतिद्विसाहस्रिकेण तन्दुलेन कवलो भवति, तत्र गुजाः कति भवन्ति? तन्दुलवाहान् भुञ्जन् सार्द्धपञ्चमुद्कुम्भान् भुनक्ति, सार्द्धपञ्चकमुद्रयथा एकविशत्यधिकशतप्रमाणाः किंचिन्नयूनाएका गुञ्जा चेति। कुम्भान्भुञ्जन चतुर्विशतिः स्नेहाऽऽढकशतानि भुनक्ति चतुर्विशतिस्ने हाऽऽढकशतानि भुञ्जन षटत्रिशल्लवणपलसहस्राणि। भुनक्ति, षटत्रिवत्तीसं कवला पुरिसस्स आहारो 1, अट्ठावीसं इस्थियाए 2, चउवीसं पंडगस्स 3, एवामेव आउसो! एयाए गणणाए दो शल्लवणपलसहस्राणि भुञ्जन् षट्पटकशाटकशतानि (नियंसेह त्ति) परिदधाति, द्वाभ्यांमासाभ्याम् (परियट्टएणं ति) परावर्त्तमान-त्वेनेति असईओ पसई 1, दो पसईओ सेइया होइ२, चत्तारि सेइया वा। अथवा-मासिकेन परावर्तत्वेन द्वादशपटशाटकशतानि (नियंसेइ कुडओ 3, चत्तारि कुडया पत्थो 4, चत्तारि पत्था आवगं 5, सट्ठीए आढगाणं जहन्नए य कुंभे ६,असीइ-आढगाणं मज्झिमे त्ति) परिदधात्ति (एवामेवेति) उक्तप्रकारेण हे आयुष्मान् ! वर्षशतायुषः पुरुषस्य सर्व गणितं तत्दुलप्रमाणाऽऽदिना तुलितं पलप्रमाणाऽऽदिना कुंभे ७,आढगसयं उक्कोसए कुंभे, अद्वेव आढगसयाणि वाहो / एएणं काइप्पमाणेणं अद्धतेवीसं तंदुलवाहे मुंजइ, ते य मथितमसति प्रसत्यादिना प्रमाणेन। तत्किमित्याह-स्नेहलवणभोजनगणियनिहिट्ठा-"चत्तारि य कोडिसया, सर्व्हि चेव य हवंति ऽऽच्छादनमिति। एतत्पूर्वोक्तं गणित प्रामाणं द्विधा भणितं महर्षिभिर्यस्य कोडीओ। आसीई च तंदुलसयसहस्सा हवंति ति।" मक्खायं जन्तोरस्ति तन्दुलाऽऽदिकं तस्य गण्यते, यस्य तु नास्ति तस्य किं 4608000000 // तं एवं अद्धतेवीसं तंदुलवाहे मुंजतो अद्धछडे गण्यते? न किमपि इति। "ववहार गाथा।''व्यवहारगणितं दृष्ट स्थूलमुग्गकुंभे मुंजइ, अद्धछठे मुग्गकुंभे मुंजतो चअवीसं नेहाढ न्यायमङ्गीकृत्य कथितं सूक्ष्म निश्चयगतं ज्ञातव्य, यदिएतत् निश्चयगतं गसयाई मुंजइ, चउवीसं नेहाढगसयाई मुंजंतो छत्तीसं लवण भवन्ति तदा एतद् व्यवहारगणितं नास्त्येव अतो विषमा गणना ज्ञातपलसहस्साई भुंजइ, छत्तीसं लवणपलसहस्साई भुंजंतो व्येति। संग छप्पडगसाडगसयाइं नियंसेइ,दोमासिएणं परियट्टएणं मासिएण तत्थ पुरिसस्स अंता, आईऊ ओ हवंति चत्तारि। वा परियट्टेणं बारस पडसाडगसयाइं नियंसेइ, एवामेव आउसो! ते चेव इल्थिआओ, हवंति ओकारपरिहीणा // 2 // वाससयाउयस्स सव्वं गणियं तुलियं मथियं नेहलवणभोय- 'तत्रा' तस्मिन् त्रिविधे नाम्नि, 'पुरुषस्य' पुंल्लिङ्गवृत्तेर्नाम्नः अंता णच्छायणं पि एयं गणियप्पमाणं दुविहं भणियं महरिसीहिं अन्तवर्तीन्यक्षराणि चत्वारि भवन्ति। तद्यथा-आकार ईकार ऊकार जस्सऽस्थि तस्स गणिज्जइ जस्स नत्थि तस्स किं गणिज्जइ। ओकारश्चेत्यर्थः। एतानि विहाय नापरं प्राकृत पुंल्लिङ्गवृत्ते म्नोऽन्तेऽक्षरं "ववहारगणियं दिé, सुहुमं निच्छयगय मुणेयव्वं। जइ एयं न सम्भवतीत्यर्थः। स्त्रीलिङ्ग वृत्तेर्नाम्नोऽप्यन्ते आकारवर्जान्यतान्ये, वि एयं, विसमा गणणा मुणेयव्वा // 1 // " वाकारेकारोकारलक्षणानि त्रीणि अक्षराणि भवन्तिा नापरमिति, अत्र अनेन कवलमानेन पुरुषस्य द्वात्रिंशत्कवलरूप आहारो भवति 1, स्त्रिया चानन्तरगाथायाम 'इत्थीपुरिसमिति' निर्दिश्यापि यदिहाऽऽदौ अष्टाविंशतिकवलरूप आहारः 2, पण्डकस्य नपुंसकस्य चतुर्विंशति- पुंल्लिङ्गनाम्नो लक्षणकथनंतत्पुरुषप्राधान्यख्यापनार्थमिति गाथाऽर्थः कवलरूप आहारः 3 / (एवामेवे त्ति) उक्तप्रकारेण वक्ष्यमाणप्रकारेण च हे // 2 // अनु०॥ आयुष्मन्! एतया गणनया एतन्मानं भवति, अथासत्यादिमानपूर्वकम् पुरिसआसीविसपुं० (पुरुषाऽऽशीविष) पुरुष आशीविष इवादोषविनाशअष्टाविंशतिसहस्राधिकलक्षतम्दुलमानं चतुःषष्टिकवलप्रमाणं प्रस्थद्वयं ___ नशीलतया पुरुषाऽऽशीविषः। रा०ा शापसमर्थे पुरुष, स्था००६ ठा०। प्रतिदिनं भुजानः शतवर्षेण कति तन्दुलवाहान् कति तन्दुलांश्च पुरिसंतर न० (पुरुषान्तर) एकस्मात्पुरुषादपरस्मिन् पुरुषे, आचा०२ भुनक्तीत्या-(दो असईओ पसई इत्यादि) धान्यभृतोऽवाडमूर्खाकृतो श्रु०१चू०१अ०१ उ01 हस्तोऽसतीत्युच्यते द्वाभ्यामसतीभ्यां प्रस्रतिः 1 दाभ्यां प्रमतिभ्यां सेतिका भवति 2 चतसृभिः सेतिकाभिः कुडवः 3, चतुर्भिः कुडवैः प्रस्थः पुरिसंतरकड न० (पुरुषान्तरकृत) (साधुप्रतिज्ञया साधुमुद्दिश्य गृहस्थेन 4, चतुर्भिः प्रस्थैराढकः 5 षष्ट्या आढकैर्जघन्यकुम्भः 6, अशीत्याढ क्रीतधौताऽऽदिकं वस्त्रं) पुरुषान्तरेण कृतं तस्मिन्, आचा०२ श्रु०१ कैमध्यमः कुम्भः 7, आढकशतेनोत्कृष्टः कुम्भः 8, अष्टभिराढकशतैर्वाही चू०५ अ०१ उ०। भवति / अनेन वाहप्रमाणेन सार्द्धद्वाविंशतितन्दुलवाहान् भुनक्ति पुस्सिकार पुं० (पुरुषकार) साभिमानव्यवसाय निष्पन्नफले, स्था०३ वर्षशतेनेति, ते च वाहोकतन्दुला गणित्वा संख्यां कृत्वा निर्दिष्टाः ठा० 4 उ०। पौरुषाभिमाने, चं० प्र० 16 पाहु० स्था। ज्ञा०ा तं०। कथिताः, यथा चत्वारि कोटिशतानि षष्टिश्चैव कोटयः अशीतिस्तन्दुल औ० भ०। साधिताभिमतप्रयोजने पराक्रमे, सू०प्र०२० पाहु०। सोद्यमे, शतसहस्त्राणि भवन्तीति आख्यातं कथितम् एकेन प्रस्थेन चतुःषष्टित द्वा० 17 द्वा०। कर्मशत्रून् प्रति स्वर्वीर्योत्कर्षे, ग०१ अधि०। सू० प्र०) न्दुलसहस्त्राणि भवन्ति, प्रस्थद्वयेनाष्टाविंशति सहस्त्राधिकं लक्षं भवति उपा०ा दश स्था०। (न पुरुषकारात्। नियतेरेवसर्वमिति ‘णियइ' शब्दे प्रतिदिनं द्विभॊजनेन एतावन्ति तन्दुलान् भुनक्तीति अतोऽष्टाविंश- चतुर्थभागे 2085 पृष्ठ नियतिवादिभिरुक्तम्, तत्रैवास्माभिः खण्डितम्) तिसहस्राधिकं लक्षं वर्षशतेन षटत्रिंशदिनसहसमानत्वात् षटत्रिशत्स- | १नोट-४६०८००००००। Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसक्कार 1015- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय पुरुषजाता:वमा.. पुरुषकारोऽपि कारणं यस्मात् न पुरुषकारमन्तरेण किञ्चित - त्सिद्धयति / तथा चोक्तम ---- "न देवमिति संचिन्त्य, त्यजेदुद्यममात्मनः। अनुधमन कस्तैल, तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति / / 1 / / तथा उद्यमाच्चरुचित्राङ्गि! नरो भद्राणि पश्यति। उद्यमात्कृमिकीटोऽपि, भिनति महतो द्रुमान् // 2 / '' सूत्रा०१ श्रु०१२अ01 पुरिसक्कारसक्क हा स्त्री०(पुरुषकारसक्तथा)पुरुषकारस्योत्साह लक्षणस्य महात्म्यप्रशंसने, ध०१ अधिo पुरिसच्छाया स्त्री०(पुरुषच्छाया) पुरुषस्य छाया यतो भवति। सूर्योदयमानस्य दृष्टिपथप्राप्ततायाम्, चं० प्र०२ पाहु० 3 पाहु० पाहु०। सू०प्र० पुरिसजाय पुं० (पुरुषजात) पुरुष एव पुरुषजातः। पुरुषजातीये, सूत्रा०२ श्रु०२ अ०। पुरुषप्रकारे, स०३ अङ्ग। भ० सम्म०। पुरुषजाताः वृक्षा:तओ रुक्खा पण्णत्ता। तं ज़हा-पत्तोवए फलोवए पुप्फोवए? एवामेव तओ पुरिसजाता पण्णत्ता। तं जहा--पत्तोवारुक्खसामाण्णा, पुप्फोवारुक्खसामाणा, फलोवारुक्ख सामाग्रा / तओ पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहानामपुरिसे, ठवणपुरिसे, दव्यपुरिसे 3 / तओ पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-नाणपुरिसे, दंसण पुरिसे, चरित्तपुरिसे / तओ पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहावेदपुरिसे, चिंधपुरिसे, अभिलावपुरिसे 5 / तिविहा पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा–उत्तमपुरिसा, मज्झिमपुरिसा, जहन्नपुरिसा 6 / उत्तमपुरिसा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-धम्मपुरिसा, भोगपुरिसा, कम्मपुरिसा। धम्मपुरिसाअरिहंता, भोगपुरिसाचक्कवट्टी, कम्मपुरिसावासुदेवा 7 मज्झिमपुरिसा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-उग्गा, भोगा, रायन्ना 8 जद्दन्नपुरिसा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-दोसा, भयगा, भातिल्लगा। (128 सूत्र) 'तओ रुक्खा' इत्यादि सूत्राद्वयम्। पत्राण्युगच्छति प्राप्नोति पत्रोपगः, एवमितरी। एवमेवेति दान्तिकोपनयनार्थः पुरुषजातानिपुरुषप्रकारा यथा पत्राऽऽदियुक्तत्वेनोपकार मात्राविशिष्टविशिष्टतरोपकारकारिणोऽर्थिषु वृक्षाः, तथा लोकोत्तपुरुषा सूत्रार्थो भयदानाऽऽदिनायथोत्तमुपकाराविशेषकारित्वात् तत्समाना मन्तव्याः। एवं लौकिका अपीति, इह च 'पत्तोवग' इत्यादिवाच्ये 'पत्तोवा' इत्यादिकं प्राकृतलक्षणवशादुक्तम्।' समाणे' इत्यत्राऽपि च 'सामाणे' इति। अथ पुरुषप्रस्तावात् पुरुषान् सप्तसूत्र्या निरूपयन्नाइ-'तओ' इत्यादि कण्ठ्यं नवरं नामपुरुषः पुरुष इति नामैव, स्थापनापुरुषः पुरुषप्रतिमाऽऽदि, द्रव्यपुरुषः पुरुषत्वेन य उत्पत्स्यते उत्पन्नपूर्वो वेति, विशेषोऽत्रेन्द्रसूत्राद् द्रष्टव्यो भवति / अत्र भाष्यगाथा-"आगमओणुवउत्तो, इयरो दव्वपुरिसो निहा ताओ। एगभवियाइ तिविहो, मूलत्तरनिम्मिओ वा वि / / 1 / / " मूलगुणनिर्मितः पुरुषप्रायोग्याणि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु तदाकारवन्ति तान्येवेति। भावपुरुषभेदाः पुनर्ज्ञानपुरुषऽऽदयः ज्ञानलक्षणभावप्रधानपुरुषो ज्ञानपुरुषः। एवमितरावपि। वेदः पुरुषवेदः तदनुभवनप्रधानः पुरुषो वेदपुरुषः स च स्त्रीपुनपुंसकसम्बन्धिषु त्रिष्वपि लिङ्गेषु भवतीति। तथा पुरुषचिन्है: - श्मश्रुप्रभृतिभिरुपलक्षितः पुरुषश्चिपुरुषो, यथा नपुसक इमश्रुचिह्नमिति / पुरुषवेदो वा चिह्नपुरुषतेन चियते पुरुष इति कृत्वेति, पुरुषवेषधारी वा स्त्र्यादिरिति, अभिलप्यतेऽनेनेति अभिलापः शब्दः स एव पुरुषः पुल्लिङ्गतया अभिधानात्, यथा घटः कुटो वेति। आह च-"अभिलावो पुल्लिगाभिहाणमेत्तं घडो व चिंधे उ / पुरिसाकिई नपुंसो, वेओ वा पुरिसवेसो वा।।१।। वेयपुरिसो तिलिंगोऽविपुस्सो वेदारुभूइकालम्मि''। इति। (धम्मपुरिसत्ति) धर्मः क्षायिकचारित्राऽऽदिस्तदर्जनपराः पुरुषाः धर्मापुरुषाः। उक्तं च- "धम्मपुरिसो तयज्जणवावारपरो जह सुसाहू।" इति। भोगाः मनोज्ञाः शब्दाऽऽदयस्तत्पराः पुरुषा भोगपुरुषाः 1 / आह च - "भोगपुरिसो समज्जियविसय्सुहो चक्कवट्टिव्या " इति। कर्माणि महारम्भाऽऽदिसम्पाद्यानि नरकाऽऽयुष्काऽऽदीनीति। उग्रा भगवतो नाभेयस्य राज्यकाले ये आरक्षका आसन् भोगारतत्रौव गुरवः, राजन्यास्तत्रौव वयस्याः। तदुक्तम् - 'उग्गा भोगा रायन्न खत्तिया संगहो भवे चउहा। आरविख गुरु वयंसा, सेसा जे खत्तिया तेउ।।१।।" इति। तद्वंशजा अपि तत्तद्व्यपदेशा इति। एषां च मध्यमत्वमनुष्कृष्टत्वा जघन्यत्याभ्यामिति। दासा-दा-सीपुत्राऽऽदयः, भृतकाः - मूल्यतः कर्मकराः, (भाइल्लग त्ति) भागो विद्यते येषां ते भागवन्तः शुद्धचातुर्थिकाऽऽदय इति।। उक्त मनुष्यपुरुषाणां त्रैविध्यम्। स्था० 3 ठा० 1 उ०। पुरुषप्रकारानेवाऽऽहतओ पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-सुमणे, दुम्मणे, णो सुमणे णो दुम्मणे 1 तओ पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा गंता णामेगे सुमणे भवति, गंता णामेगे दुम्मणे भवति, गंता णामेगे णो सुमणे णो दुम्मणे भवति / तओ पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा जामीतेगे सुमणे भवति, जामीतेगे दुम्मणे भवति, जामीतेगे णो सुमणे णो दुम्मणे भवति। एवं जाइस्सामीतेगे सुमणे भवति०३।४। तओ पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा–अगंता णामेगे सुमणे भवति० 3 / 5 / तओ पुरिसजाता पण्णत्ता / तं जहा-ण जामि एगे सुमणे भवति० 36 तओ पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा णजाइस्सामि एगे सुमणे भवति०३७। एवं आगंताणामेगेसुमणे भवति०३८। एमितेगेसुमणे भवति०३, एस्सामीति एगे सुमणे भवति०३1 एवं एएणं अभिलावेणं Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय १०१६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय 'गंता य अगता य 1, आगंता खलु तथा अणागंता 2 3. पीत्वा 3, (नो चेव त्ति) अपीत्वा 3, सुप्त्वा 3, असुप्त्या 3 युद्ध्वा चिट्ठित्तमचिट्ठित्ता 3, णिसितित्ता चेव नो चेव / / 1 / / 3, अयुदध्वा 3, (जइत्तत्ति) जित्वा परम् 3, अजित्वा परमेव 3 हंता या अहंताय 5, छिंदित्ता खलु तहा अछिंदित्ता 6 / (पराजिणित्ता) भृशं जित्वा 3 परिभङ्ग वा प्राप्य सुमना भवति, वर्द्धनकबूतित्ता अबुतिता 7, भासित्ताचेवणो चेव // 8|| भाविमहावित्तव्ययविनिर्मुक्तत्वात्, पराजितान् प्रतिवादिनः, सम्भाविदचा या अदचा य 6, भुंजिता खलु तथा अभुंजित्ता 10 तानर्थविनिर्मुक्तत्वाद्वा. (नो चेव ति) अपराजिजित्य 3 / / 4 / / सद्देत्यादि गाथा 5 सूत्रत एव बोद्धव्या, प्रपञ्चितत्वात् तत्रौवास्या इति।(एवमिक्के लंमिता अलँभित्ता ११,पीइत्ता चेव नो चेव 12 // 3 // इत्यादि) एवमिति गत्वाऽऽदिसूत्रोक्तक्रमेण एकैककस्मिन् शब्दाऽऽदी सुत्तित्ता असुतित्ता 13, जुज्झिता खलु तहा अजुज्झिता 14 विषये विधिप्रतिषेधाभ्यां प्रत्येक त्रायस्त्रयं आलापकाऽसूत्राणि कालविजतित्ता अजयित्ता य 15, पराजिणित्ता य नो चेव 16 // 4 // शेषाऽऽश्रयाः सुमनाः दुर्माना नो सुमना नो दुर्माना इत्येतत्पदत्रयवन्तो सदा १७रूवा १६गंधा 16, रसा 20 य फासा 21 तहेव भणितव्याः। एतदेव दर्शयन्नाह (सद्दमित्यादि) भावितार्थम, एवं रूवाई ठाणा या (21-6-126-1-127) गधाई'इत्यादि, यथा शब्दे, विधिनिषेधाभ्यां त्रयस्त्रय आलापका निस्सीलस्स गरहिता, पसत्था पुण सीलवंतस्स ||5|| भणित्ता एवं 'रूवाई पासित्ता' इत्यादयः त्रयस्त्रयं एवं दर्शनीयाः। एवञ्च एवमिकेके तिन्नि उ तिन्नि उ आलावगा भाणियव्वा। सई सुणेता यद्भवति तदाह--(एक्के इत्यादि) एकैकस्मिन् विषये षडालापका भाणिणामेगे सुभणे भवति० 3, एवं सुणेमि त्ति०३ सुणिस्सामिति / तव्या भवन्तीति, तत्र शब्दे दर्शिता एवं, रूपादिषु पुनरेवम् रूपाणि दृष्ट्वा 03, एवं असुणेता णामेगे सुभणे भवति०३न सुणेभीति०३, सुमनां दुर्मनां अनुभयम् 1, एवं पश्यामीति 2, एवं द्रक्ष्यामीति३. एवम् ण सुणिस्सामिति०३, एवं रूवाई गंधाइं रसाइं फासाई, एक्के अदृष्ट्वा 4, न पश्यामीति५, नद्रक्ष्यामीति षट्। एवं गन्धान घ्रात्वा 6, के छ छ आलावगा भाणियव्वा, 127 आलावगा भवंति। रसानास्वाद्य 6, स्पर्शान स्पष्ट्वेति 6 / स्था० 3 ठा० 2 उ०॥ (160 सूत्रा) तओ पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-सुत्तधरे, अत्थधरे तदुभ(तओ पुरिसेत्यादि) पुरुषजातानि-पुरुषमकाराः, सुष्टु मनो यस्याऽसौ यधरे (166 सूत्र) सुमनाः-हर्षवान, रक्त इत्यर्थः-एवं दुर्माना दैन्याऽऽदिमान, द्विष्ट इत्यर्थः। 'तओ'इत्यादि सुबोधम्, नवरमेते यथोत्तरं प्रधाना इति स्था० 3 ठा० नो सुमना मो दुर्मानाः-मध्यस्थः, सामायिकवानित्यर्थः। सामान्यतः 3 उ०। पुरुषप्रकारा उक्ताः, एतानेव विशेषतो गत्यादिक्रियाऽपेक्षया पुरुषप्रकारानेव वृक्षाऽऽदिदृष्टान्तेनाऽऽह'तओ'इत्यादिभिः सूत्रैराह-तत्र 'गत्वा' यात्या क्वचिद्रिहारक्षेत्राऽऽदी, चनारि रुक्खा पण्णत्ता। तं जहा-उन्नए नामेगे उन्नए 1 उन्नते नामेति सम्भावनायाम् एकः कश्चित् सुमना भवति-हृष्यति, तथैवान्यो नाममेगे पण्णते 2, पण्णते नाममेगे उन्नवे 3, पण्णते नामवेगे दुर्मानाः शोचति, अन्यः सम एवेति, अतीतकाल सूत्रमिव वर्तमान- पणते / / 1 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पण्णत्ता / तं जहा भविष्यत्कालसूत्रो, नवरं 'जामीतेगे' इत्यादिषु इतिशब्दो हेत्वर्थः। उन्नते नामेगे उन्नते, तहेव० जाव पण्णते नामेगे पण्णते / / 'एवमगंता इत्यादि प्रतिषेधसूत्राणि आगमनसूत्राणि च सुगमानि एवम् चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता / तं जहा-उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणते एतेनानन्तरोक्तेनाभिलापेन शेषसूत्राणमपि वक्तव्यानि / अथोक्तीन्य- 1, उण्णए नाममेगे पणतपरिणते 2, पण्णते णाममेगे उन्नतपनुक्तानि च सूत्राणि संगृह्वन गाथापञ्चकमाह (गंतेत्यादि) गंता अगंता रिणते 3, पण्णए नाममेगे पणयपरिणए 4 / 3 / एवामेव चत्तारि आगन्तेत्युक्तम्, (अणागंता त्ति) "अणागंता नामेगे सुमणे भवइ, पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-उन्नते नाममेगे उन्नयपरिणए० अणागंता नामेगे दुम्मणे भवइ, अणागंता नामेगे नो सुमणे नो दुम्मणे चउभंगो 4 / 4 / चत्तारि रुक्खा पण्णत्ता। तं जहा--उन्नते नामेगे भवइ 3, एवं न आगच्छामीति० 3, एवं न आगमिस्सामीति० 3." उन्नतरूवे० तहेव चउभंगो 4 // 5 // एवामेव चत्तारि पुरिसजाया (चिट्टित त्ति) स्थित्वा ऊवस्थाने नसुमनादुर्माना असुभयं च भाषति, पण्णत्ता / तं जहा-उन्नए नाममेगे० 4 / 6 / चत्तारि पुरिस जाया एवं-'चिट्ठामीति, चिट्ठिस्सामीति अचिट्ठित्ता' इहापि कालतःसूत्रायम्, पण्णत्ता / तं जहा-उन्नते नाममेगे उन्नतभणे उन्नए०४७। एवं एवं सर्वत्र नवरं 'निषद्य' उपविश्य (नो चेवत्ति) अनिषद्य अनुपविश्य 3, संकप्पे०८, पन्ने०६, दिट्ठी०१०, सीलायारे०११, ववहारे, हत्वा--विनाश्य किञ्चित् 3, अहत्वा-अविनाश्य 3, छित्वा द्विधा कृत्वा 12, परकमे०१३, एगे पुरिसजाए पडिवक्खो नत्थिा चत्तारि 3, अच्छित्वा प्रतीतम् 3. (बुइत्ति) उक्त्वाभाणेत्वा पदवाक्यादिकम रुक्खा पण्णत्ता / तं जहा-उज्जू नाममेगे उज्जू, उज्जू नाममेगे 3. (अबुइत्त ति) अबुक्तवा 3, (भासितेति) भाषित्वासंभाष्य कञ्चन वंके० चउभंगो० 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। उं सम्भाषणोयम् ३,(नो चेव त्ति) (अभासिता) असंभाष्य कश्च। 3. (दच जहा-उजू नाममेगे० 4 / एवं जहा उन्नतपण्णतेहिं गमो तहा त्ति) दत्वा 3, अदत्वा 3. भुक्त्वा 3. अभुक्त्वा 3, लब्ध्वा 3, अलब्ध्वा ! उज्जुविकेहि वि भाणियव्वो० जाव परकम्मे।२६। (236 सूत्र) Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1017- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय कण्ठ्य, किन्तु वृश्च्यन्ते छिद्यन्ते इति वृक्षाः, ते विवक्षया चत्वारः प्रक्षप्ता भगवता। तत्रा उन्नतः-उच्चो द्रव्यतया, नामेति सम्भावने, वाक्याद्वारे वा। एकः कश्चिद् वृक्षविशेषः, स एव पुनरुन्नतोजात्याऽऽदिभावतोऽशीकाऽऽदिरित्ये को भङ्ग / उन्नतो नाम द्रव्यत एव एकः अन्यः प्रणतो जात्याऽऽदिभावहीं नो, निम्बाऽऽदिरित्यर्थः। इति द्वितीयः। प्रणतोनामको द्रव्यतः, खर्व इत्यर्थः। स एव उन्नतो जात्याऽऽदिना भावेनाशोका दिरिति तृतीयः। प्रणतो द्रव्यत एव खर्वःस एव प्रणतो जात्याऽऽदिहीनो निम्बाऽऽदिरितिचतुर्थः। अथवापूर्वमुन्नतः-तुङ्ग अधुनाऽप्युन्नतस्तुङ्ग एव इत्येवं कालापेक्षया चर्तुभङ्गीति 1 / एवमित्यादि, एवमेव वृक्षवच्चत्वारि पुरुषजातानिपुरुषप्रकारा अनगारा अगारिणो वा, उन्नतः पुरुषः कुलेश्वर्याऽऽदिभिलौकिकगुणैः शरीरेण वा गृहस्थपर्याय पुनरुन्नतो लोकोत्तरज्ञानादिभिः प्रव्रज्यापर्याय, अथवा उन्नत उत्तम वत्वेन पुनरुन्नतः शुभगतित्वेन कामदेवाऽऽदिवदित्येकः (तहेव त्ति) वृक्षसूामिवेदम्, (जाव ति) यावत् 'पणए नाम एगे पणए त्ति चतुर्थअङ्ग कस्तावत् वाच्य, तत्र उन्नतस्तथैव प्रणतस्तु ज्ञानविहाराऽऽदिहीनतया दुर्गतिगमनाबा शिथिलत्वे शैलकराजर्षिवत् ब्रह्मदत्तवद्वेति द्वितीयः। तृतीयः पुनरागतसंवेगः शैलकवत मेतार्यवद्वा! चतुर्थ उदायि नृपमारवत्काल सौकरिकवद्वेति / एवं दृष्टान्तदा तिकसूत्रो सामान्यतोऽभिधाय तद्विशेषसूत्राण्याहउन्नतःतुगतया एको वृक्षः उन्नतपरिणतः अशुभरसाऽऽदिरूपमनुन्नतत्वमपहाय शुभरसाऽऽ दिरूपोन्त्रततया परिणत इत्येकः, द्वितीय भङ्गे प्रणतपरिणत उक्तलक्षणोन्नतत्वत्यागात्, एतदनुसारेण तृतीयचतुर्थी वाच्यौ, विशेषसूत्राता चास्य पूर्वमुन्नतत्वप्रणतत्वे सामान्येनाभिहिते इह तु पूर्वावस्थातोऽवस्थान्तरयमनेन विशेषिते इति / एवं दार्शन्तिकेऽपि परिणतसूत्रमवगन्तव्यमिति 4 / परिणमश्च आकारबोधक्रियाभेदात निधा, तत्राऽऽकारमाश्रित्यत्र रूपसूत्रां, तत्रा उन्नतरूपः संस्थानावयवाऽऽदिसौन्दर्यात् 5, गृहस्थपुरुषोऽप्येवं प्रव्रजितस्तुसंविग्नसाधुनेपथ्यधारीति 6, बोधपरिणामापेक्षाणि चत्वारि सूत्राणि ता उन्नतो जात्याऽऽदिगुणरुचतया वा उन्नतमनाः-प्रकृत्या औदार्याऽऽदियुक्तमनाः, एवमन्येऽपि त्रयः, एवमिति सङ्कल्पाऽऽदिसूत्रेषु चतुर्भङ्गिकातिदेशोऽकारि लाघवार्थ, संकङ्कल्पोविकल्पो मनोविशेष एव विमर्श इत्यर्थः उन्नतत्वं चास्यौदार्याऽऽदियुक्ततया सदर्शविषयतया वा 8, प्रकृष्ट ज्ञानं प्रज्ञा, सूक्ष्मार्थविवचकन्वमित्यर्थः, तस्याश्चन्नतत्वमविसंवादितया 6, तथा दर्शन दृष्टिःचक्षुनि नयमतं वा, तदुन्नतत्वमप्यसंवादितयैर्वेति 10. क्रियापरिणामाऽपेक्षमतः सूत्रात्रायम, ता शीलाऽऽचारः, शीलसमाधिस्तत्प्रधानस्तस्य वाऽऽचारः अनुष्ठानं शीलेन वा-स्वभावेनाऽऽचार इति, उन्नतत्वं चास्यादुषणतया / वाचनानन्तरे तु शील सूत्रमाचारसूत्रां च भेदेनाधीयत इति 11 / व्यवहारः-अन्योऽन्यदानग्रहणऽऽदिर्विवादो वा, उन्नतत्वमरय लाध्यत्वेनेति 13, पराक्रमः पुरुषकारविशेषः, परेषां वा शत्रूणामाक्रमणं, तस्योन्नतत्वमप्रतिहतत्वेन शोभनविषयत्वेन चति 12 / उन्नतविपर्ययः सर्वा प्रणतत्वं भावनीयमिति। (एगे पुरीत्यादि) एतेषु मनः- | प्रभृतिषु सप्तसुचभिझिकासूत्रषु एक एव पुरुषजाताऽऽलापकोऽध्येतव्यः, प्रतिपक्षोद्वितीयपक्षो दृष्टान्तभूतः वृक्षसूत्रा नास्ति, नाध्येतव्यमिति यावत् / इहमनः प्रभृतीनां दार्शन्तिकपुरषधर्माणां दृष्टान्तभूतवृक्षेष्वसम्भवादिति / (उजु त्ति) ऋजुः-अवक्रो नामेति पूर्ववत् एकः कश्चिदवृक्षः, तथा ऋजुः अविपरीतस्वभाव औचित्येन फलाऽऽदिसम्पादनादित्येकः, द्वितीये द्वितीयं पदं वत' इति वक्रः,फलाऽऽदौ विपरीतः, तृतीये प्रथमपदं वक्र:-कुटीलः, चतुर्थः सुज्ञानः, अथवा–पूर्वम् ऋजु: अवक्र: पश्चादपि ऋजुः अवक्रः अथवा-मूले ऋजुरन्ते च ऋजुरित्येवं चतुर्भङ्गी कार्येत्येष दृष्टान्तः 1 / पुरुषस्तु ऋजुः अवक्रो बहिस्तात शरीरगतिवाकचेष्टाऽऽदिभिस्तथा ऋजुरन्तर्नियित्वेन सुसाधुवदित्येकः, तथा ऋजुस्तथैव, वङ्क इतितुवक्रः, अन्तर्मायित्वेन कारणवशप्रयुक्ताऽऽर्जवभावदुःसाधुवदिति द्वितीयः, तृतीयस्तु कारणवशद्दर्शितवहिरनावोऽन्तर्निर्माय इति प्रवचनगुनि वृत्तसाधुवदिति, चतुर्थ उभयतो वक्रः, तथाविधशठवदिति, कालभेदेन वा व्याख्येयम् / अथ ऋजु ऋजुपरिणत इत्यादिका एकादश चतुर्भगि का लाघवार्थमतिदेशेनाऽऽह-एवमित्यनेन ऋजुर्नाम ऋजुरित्यादिनोपदर्शितक्रमभङ्गकक्रमेण, यथति-येन प्रकारेण परिणतरूपाऽऽदिविशेषणनवकविशेषिततर्थत्यर्थः, उन्नतप्रणताभ्यां परस्परं प्रतिपक्षभूताभ्यां गमः-सदृशपाठः कृतः, 'तथा' तेन प्रकारेण परिणतरूपाऽऽदि विशेषिताभ्यामित्यर्थः, जुवक्राभ्यामपिभणितव्यः। कियान्स इत्याह-(०जाव परक्कम त्ति) ऋजुवक्रवृक्षसूत्रात् त्रयोदशसूत्र यावदित्यर्थः तत्र व ऋजु२ऋजुपरिणत ऋजुरूपरलक्षणानि षट् सूत्राणि वृक्षदृष्टान्तपुरुषदान्तिकरवरूपाणि शेषाणि तु मनःप्रभृतीनि सप्त अदृष्टान्तानीति 13 / स्था० 4 ठा०१ उ० वस्त्रदृष्टान्तेन पुरुषभेदानाह - चत्तारि वत्था पण्णत्ता। तं जहा-सुद्धे णामं एगे सुद्धे 1, सुद्धे णाम एग असुद्धे णामं एगे सुद्धे 3, असुद्धे णामं एगे असुद्धे 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाना पण्णत्ता। तं जहा-सुद्धे णामं एगे सुद्धे चउभंगो / एवं परिणतरूवे वत्था सपडिवक्खा / चत्तारि पुरिसजाता पण्णत्ता / तं जहा-सुद्धणाम एगे सुद्धमणे० चउभंगो 4 // एवं संकप्पे० जाव परक्कमे / (236 सूत्रा) (चत्तारि वत्थेत्यादि) स्पष्टा, नवरं शुद्ध वस्त्र निर्मलतन्त्वादिकारणाऽsरब्धत्वात, पुनः शुद्धमागन्तुकमलाभावादिति। अथवा पूर्व शुद्धमासीदिदानीमपि शुद्धमेवा विपक्षी सुज्ञानावेवेति। अथ दान्तिकयोजना(एवमवेत्यादि) शुद्धो जात्याऽऽदिना, पुनः शुद्धो निर्मलज्ञानाऽऽदिगुणलया कालापेक्षया वेति। (चउभंगोत्ति) चत्वारोभङ्गाः समाहताः चतुर्भङ्गी चतुर्भङ्ग वा, पुंल्लिङ्गता चाऽत्रां प्राकृतत्वात् / तदयमों वस्त्रवच्चत्वारो भङ्गाः पुरुषेऽपि वाच्या इति / एवमिति यथा शुद्धात शुद्धपदे परे चर्तुभङ्ग सदान्तिकं वस्त्रमुक्तमेवं शुद्धपदप्राक्-पदेपरिणतपदे रूपपदे च चतुर्भङ्गानि वस्त्राणि (सपडिववखत्ति) सप्रतिपक्षाणि सदाान्तिकानि वाच्यानीति। तथाहि 'चत्तारि वत्था पण्णत्ता। तं जहा-सुद्धे नाम एगे सुद्धपरि Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1018- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय जए' चतुर्भङ्गी। एवमेवेत्यादि, पुरुषजातसूत्रचतुर्भगी। "एवं सुद्धे नाम एगे सुद्धरूवे'। चतुर्भङ्गी, एवं पुरुषेणाऽपि, व्याख्या तु पूर्ववत् / (चत्तारित्यादि) शुद्धो बहिः शुद्धमनाअन्तः एवं शुद्धसङ्कल्पः शुद्धप्रज्ञः शुद्धदृष्टिः शुद्धशीलाऽऽचारः शुद्धव्यवहारः शुद्धपराक्रम इति वस्त्रावर्जाः पुरुषा एव चतुर्भङ्ग वन्तो वाच्याः, व्याख्या च प्रागिवेति। अत एवाऽऽहएवमित्यादि। पुरुषभेदाधिकार एवेदमाहचत्तारि सुता पण्णत्ता।तं जहा-अतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगाले। (240 सूत्र) चत्तारिपुरिसजाता पण्णत्ता। तं जहासच्चे नाम एगे सच्चे, सचे नाम एगे असचे०४, एवं परिणते० जाव परक्कमे। चत्तारि वत्था, पण्णत्ता, तं जहा-सुती नाम एगे सुती, सुई नाम एगे असुई चउभंगो 4aa एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पण्णत्ता। तं जहा-सुती णाम एगे सुती० चउभंगो० एवं जहेव सुद्धणं वत्थेणं भणितं तहेव सुतिणा वि० जाव परक्कमे। (241 सूत्रा) चत्तारि कोरवा पण्णत्ता / तं जहा-अंबपलंबकोरवे, तालपलबकोरवे, वल्लिपलंबकोरवे, मेंढविसाणकोरवे। एवामे- 1 ववत्तारि पुरिसजाता पण्णत्ता। तं जहा-अंबपलंबकोरवसमाणे, तालपलबकोरवसमाणे, वल्लिपलंबकोरवसमाणे, मेंढविसाणकोरवसमाणे / (242 सूत्र) सुताः - पुत्राः (अइजाए ति) पितुः सम्पदमतिलडध्य जातः- / संवृत्तौऽतिक्रम्य वातां यातः-प्राप्तो विशिष्टतरसम्पदं समृद्धतर इत्यर्थः, इत्यतिजातोऽतियातो वा, ऋषभक्त्। तथा-(अणुजाए त्ति) अनुरूपः सम्पदा पितुस्तुल्यो जातोऽनुजातः, अनुगतो वा पितृविभूत्याऽनुयातः, पितृसम इत्यर्थः महायशोवत्, आदित्ययशसा पित्रा तुल्यत्वात्तस्य तथा (अवजाए त्ति) अप इत्यपसदो हीनः पितुः सम्पदो जातोऽपजातः, पितुः सकाशादीषद्धीनगुण इत्यर्थः आदित्ययशोवत्, भरताऽपेक्षया तस्य हीनत्वात् / तथा (कुलिंगाले ति) कुलस्यरवगोत्रास्याङ्गार इवाङ्गारो दूषकत्वादुपतापकत्वाद्धेति, कण्डरीकवत् / एवं शिष्यचातुर्विध्यमप्यवसेयं, सुतशब्दस्थ शिष्येष्वपि प्रवृत्तिदर्शनात्। तत्रातिजातः सिंहगियंपेक्षया वैरस्वामिवत्। अनुजातः शय्यभवापेक्षया यशोभद्रवत्। अपजातो भद्रबाहुस्वाम्यपेक्षया स्थूलभद्रवत् / कुलाङ्गारः कूलबालकवदुदायिनृपमारकवद्वेति। तथा (चनारित्यादि) सत्यो यथावद्वस्तुभणनाद् यथाप्रतिज्ञातकरणाच, पुनः सत्यः संयमित्वेन सद्भ्यो हितत्यात अथवा पूर्व सत्य आसीदिदानीमपि सत्य एवेति चतुर्भड़ी। एव प्रकारसूत्राण्यतिदिशन्नाह- ‘एवं' इत्यादि व्यक्तं, नवरमेव सूत्राणि - "चत्तारि पुरिसजाया-पण्णत्ता। तंजहा–सचेनाम एगो सच्चपरिणए० 4, एवं सचरूवे०४, सचमणे०४, सचसंकप्पे०४, सचपन्ने० 4, सच्चदिट्टी० 4, सञ्चसीलायारे० 4 सच्चववहारे 04. सच्चपरकम त्ति 4 / "पुरुषाधिकार एवेदमपर- | माह-- चत्तारिवत्थेत्यादि) शुचिपवित्र स्वभावेन, पुनः शुचि संस्कारेण कालभेदेन वेति। पुरुषचतुर्भड़यांशुचिः पुरुषोऽपूतिशरीरतया, पुनः शुचिः स्वभावेनेति। 'सुइपरिणए सुइरूवे इत्येतत्सूत्रद्वयं दृष्टान्तदान्तिकोपेतम्, 'सुइमणे' इत्यादि च पुरुषमात्राऽऽश्रितमेव सूत्र सप्तक्रमतिदिशनाह-एवमित्यादि कण्ठ्यम्। पुरुषाधिकार एवेदमपरमाह-(चत्तारि कोरवे इत्यादि) का आम्र:-चूतः तस्य प्रलम्बः-फलं तस्य कोरकतन्निष्पादक मुकुलम्-आम्रप्रलम्यकोरकम्, एत्रमन्येऽपि, नवरम् तालो वृक्षविशेषः, वल्लीकालिगयादिका, मेण्ढविषाणामेषशृङ्ग समानफला वनस्पतिजातिः, आउ (तु) लिविशेष इत्यर्थः। तस्याः कोरकमिति विग्रहः, एतान्येव चत्वारि दृष्टान्ततयोपात्तानीति चत्वारीत्युक्तम्, न तु चत्वार्येव लोके कोरकाणि, बहुत्तरोपालम्भादिति। 'एवेत्यादि' सुगम, नवरमुपनय एवं यः पुरुषः सेव्यमान उचितकाले उचितमुफ्कारफलं जनयत्य सावामप्रलम्बकोरकसभानः, यस्त्वतिचिरेण सेवकस्य कष्टन महदुपकारफलं करोति स तालप्रलम्ब कोरकसमानः, यस्तु अक्लेशेनाचिरेण च ददाति स वल्लीप्रलम्बकोरकसमानः, यस्तु सेव्यमानोऽपि शोभनवचनान्येव ब्रूते, उपकारंतुन कञ्चन करोति स मेण्डविषाणकोरकसमानः, तत्कोरकस्य सुवर्णवर्णत्वादखाद्यफलदायकत्वाचेति / स्था०४ ठा०१ उ०। ___ फलदृष्टान्तेन पुरुषानाहचत्तारि फला पण्णत्ता। तं जहा-आमे णामं एगे आममहुरे 1, आमे णाममेगे पक्कमहुरे 2, पक्के णाममेगे आममहुरे 3, पक्के णामगेगे पक्कमहुरे 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पण्णत्ता / तं जहा-आमे णाममेगे आममहुरफलसमाणे 04 / (253 सूत्र) तद्विशेषभूतपुरुषनिरूपणाय फलसूत्रम्। आमम्-अपकंसत् आममिव मधुरम् आममधुरमीषन्मधुरमित्यर्थः, तथा आमं सत पक्वमिव मधुरप्रत्यन्तमधुरमित्यर्थः, तथा पक्वं सत् आममधुर प्राग्वत्, तथा पक्वं सत् पक्वमधुरं प्राग्वदेवेति। पुरुषस्तु आमोवयः श्रुताभ्यामव्यक्तः आममधुरफलसमानः, उपशमाऽऽदिलक्षणस्य माधुर्यस्याऽल्पस्यैव भावात, तथा आम एव पक्वमधुरफलसमानः-पक्वफलवन्मधुरस्वभावः, प्रधानोपशमाऽऽदिगुणयुक्तत्वादिति, तथा पक्वोऽन्यो वयःश्रुताभ्यां परिणतः आममधुरफलसमानः, उपशमाऽऽदिमाधुर्यस्याल्पत्वात्, तथा पक्ववस्तथैव, पक्वमधुरफलसमानोऽपि तथैवेति। अनन्तरं पक्वमधुर उक्तः, स च सत्यगुणयोगात् भवतीति। स्था० 4 ठा० 1 उ०। पुरुषाधिकारादेवापरथा पुरुषसूत्राणि चतुर्दशचत्तारि पुरिसजाता पण्णत्ता। तंजहा–आवातभहते णाममेगे णो संवासभहते 1, संवासभद्दए णाममेगे णो आवातभद्दए 2, एगे आवातभद्दते विसंवासभद्दए० वि३,एगे णो,आवायभहते नोवा संवासभद्दए०४११चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा–अप्पणो नाममेगे वजं पासति णो परस्स, परस्स णाममेगे वजं पासति० Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1016- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय ४।२१चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्तातं जहा–अप्पणो णाममेगे वजं उदीरेइणो परस्स०४।३) अप्पणो नाममेगे वजं उवसामेति णो परस्स० 4 / 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहाअन्भुढेइ नाममेगे णो अब्भुट्ठावेति / एवं वंदति णाममेगे णो वंदावेइ।६। एवं सक्कारेइ 7 सम्माणेति 8, पूएइ 6, वाएइ 10, पडिपुच्छति 11, पुच्छइ 12, वागरेति 13, सुत्तधरे णाममेगे णो अत्थधरे, अत्थधरे नाममेगे णो सुत्तधरे। 14 / (255 सूत्र) सुगमानि, नवरमापतनमापातः-प्रथममीलकः, तत्रा भद्रकोभद्रकारी दर्शनाऽऽलापाऽऽदिना सुखकरत्वात्. संवासचिरं सहवासरतस्मिन्नभद्रको हिंसकत्वात् संसारकारणनियोजकत्वाद्वेति, संवासभद्रकः सह संवसतामत्यन्तोपकारितया नोआपातभद्रकः अनालापकटोराऽऽलापाऽऽदिना, एवं द्वावन्यौ। (वजं ति) वय॑त इति वय॑म्, अवध वा अकारलोपात्, वज्रवद्वजं वा गुरुत्वाद्धिंसाऽनृताऽऽदि पापं कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कलवादौ पश्यति, पश्चात्तापान्वितत्वात्, नपरस्य, तं प्रत्युदासीनत्वात, अन्यस्तु परस्य नाऽऽत्मनः, साभिमानत्वात्, इतर उभयोः, निरनुशयत्वेन यथावस्तु बोधात्, अपरस्तु नोभयोर्विमूढत्वात् इति। दृष्ट्वा चैक आत्मनः संबंधि अवद्यमुदीरयतिभणति यदुत मयाकृतमेतदिति, उपशान्तं वा पुनः प्रवर्त्तयति, अथवा-वजं कर्म तदुदीरयतिपीडोत्पादनेन उदये प्रवेशयतीति / एवमुपशमयतिनिवर्त्तयति पापं कर्म वा। (अन्भुट्टेइ ति) अभ्युत्थानं करोति न कारयति परेण, संविग्नपाक्षिको लघुपर्यायो वा, कारयत्येव गुरुः, उभयवृत्तिवृषभाऽऽदिः, अनुभयवृत्तिर्जिनकल्पिकोऽविनीतो वेति। एवं वन्दनाऽऽदिसूत्रोष्वपिनवरं वन्दते द्वादशऽऽवर्ताऽऽदिना, सत्करोति वस्त्राऽऽदिदानेन, संमानयतिस्तुत्यादिगुणोन्नति-करणेन, पूजयति उचितपूजाद्रव्यैरिति, वाचयतिपाठयति (नो वायावेइ आत्मानमन्येनेति उपाध्यायऽऽदिः, द्वितीये शैक्षकः, तृतीयेक्वचित् ग्रन्थातरेऽनधीती, चतुर्थे जिनकल्पिकः। स्था० 4 ठा०१ उ०। भृतकदृष्टान्तमाविर्भावयति - चत्तारि भायगा पण्णत्ता / तं जहा-दिवसभयते, जत्ताभयते, उच्चभयते, कव्वालभयते / (271 सूत्रा) चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-संपागडपडिसेवी णामेगे णो पच्छण्णपडिसेवी, पच्छण्णपडिसेवी णामेगे णो संपागडपडिसेवी, एगे संपागडपडिसेवी वि पच्छण्णपडिसेवी वि, एगे णो संपागडपडिसेवी, णो पच्छण्णपडिसेवी। (272 सूत्र) भ्रियते पोष्यते स्मेति भृतः, स एवानुकम्पितो भृतकः, कर्मकर इत्यर्थः। प्रतिदिवसं नियतमूल्येन कर्मकरणार्थ यो गृह्यते स दिवसभृतकः 1 / यात्रादेशान्तरगमनं तस्यां सहाय इति भियते यः स यात्राभृतकः 2 / मूल्यकालनियमं कृत्वा यो नियत-यथावसरं कर्म कार्यते स उच्चताभृतकः 3. कव्वाडभृतकः क्षितिखानक ओडाऽऽदिर्यस्य एवं कार्यत द्विहस्ता निहस्ता वा त्वया भूमिः खनितव्यैतावत्ते धनं दास्यामीत्ये- | वन्नियम्येति। इह गाथे"दिवसभयओ उपेप्पइ, छिण्णेण धणेण दिवसदेवसियं। जत्ता उ होइ गभणं, उभयं वा एतियधणेणं / / / कव्वालओडमाई, इत्थमियं कम्म एत्तिय धणेणं / एचिरकालुव्वते, कायव्वं कम्मजं वेंति।।।" उक्तं लौकिकस्य पुरुषविशेषस्यान्तरम्, अधुना लोकोत्तरस्य तस्यान्तरप्रतिपादनाय प्रतिषेविसूत्रम्, तत्र संप्रकटम् अगीतार्थसमक्षमकल्प्यभक्ताऽऽदिप्रतिषेवितु शीलं यस्य स संप्रकटप्रतिसेवीत्येवं सर्वत्र, नवरं प्रच्छन्नमगीतार्थासमक्षम्। अत्र चाऽऽद्ये भङ्गकत्राये पुष्टाऽऽलम्बनो वकुशाऽऽदिः निरालम्बनोवा पार्श्वस्थाऽऽदिः द्रष्टव्यः। स्था० 4 ठा० 1 उ०॥ दीनाऽऽदिभेदमाह - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-दीणे णाममेगे दीणे, दीणे णाममेगे अदीणे, अदीणे णाममेगे दीणे, अदीणे णाममेगे अदीणे। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-दीणे णामेगे दीणपरिणए० दीणे णामेगे अदीणपरिणए, अदीणे णामेगे दीणपरिणए, अदीणे णामेगे अदीणपरिणए 2 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-दीणे णामेगे दीणरूवे० (5) 3 / एवं दीणमणे० ४।४।दीणसंकप्पे०४।५। दीणपन्ने०४।६।दीणदिट्टी०४ / 7 / दीणसीलायारे०४।८। दीणववहारे० 4 / 6 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-दीणे णाममेगे दीण परक्कमे, दीणे णामेगे अदीणपरक्कमे०४।१०। एवं सव्वेसिं चउभंगो भाणियव्वो। दीनो दैन्यवान्, क्षीणोर्जितवृत्तिः पूर्वं पश्चादपि दीन एव, अथवा दीनो बहिर्वृत्या पुनर्दीनोऽन्तर्वृत्या इत्यादिश्चतुर्भङ्गी 1 / तथा दीनो बहिर्वृत्या म्लानवदनत्वा ऽऽदिगुणयुक्तशरीरणेत्यर्थः। एवं प्रज्ञासूत्र यावदादिपदं व्याख्येयं, दीनपरिणतः अदीनः सनदीनतया परिणतोऽन्तर्वृत्या इत्यादिश्चतुर्भडी ।श तथा दीनरूपो मलिनजीर्णवस्त्राऽऽदिनेपथ्यापेक्षया / 3 / तथा दीनमनास्वभावत एवानुन्नराचेताः।४। दीनसंकल्प उन्नतचित्तस्वाभाव्येऽपि कथञ्चिद्दीनविमर्शः 15 तथा दीनप्रज्ञः हीनसूक्ष्मार्थाऽऽलोचनः / 6 / तथा दीनश्चित्तादिभिरेवमुत्तरत्रापि आदिपदं, तथा दीनदृष्टिर्विच्छायचक्षुः७ तथा दीनशीलसमाचारो हीनधर्मानुष्ठानः 8) तथा दीनव्यवहारो दीनान्योऽन्यदानप्रतिदानाऽऽदिक्रियः, हीनविवादो वा।६। तथा दीनपराक्रमो हीनपुरुषकार इति / 10 / दीनो दीनवृत्ति :चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा--दीणे णामेगे दीणवित्ती० 4 / 11 / एवं दीणजाई 12, दीणभासी 13, दीणोभासो 14 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-दीणेणामेगे दीणसेवी०। 4 / 15 / एवं दीणे णामेगे दीणपरियाए०१६ / एवं दीणे णामेगे दीणपरियाले०।४।१७। सव्वत्थ चउभंगो।। 266 सूत्रा। Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1020- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय तथा दीनस्येव वृत्तिर्वर्तनजीविका यस्य स दीनवृत्तिः / 11 / / एवं दीन दैन्यंवन्तं पुरुषं दैन्यवद्वा यथा भवति तथा याचत इत्येवशीलोदीनयाची, दीन वा यातीति दीनयायी, दीनावा-हीना जातिरस्येति दीनजातिः।१२। तथा दीनवद्दीन वा भाषते दीनभाषी / 13 / दीनवदवभाषते प्रतिभाति अवभाषते वा याचत इत्येवंशीलो दीनावभासी, दीनावभाषी वा / 14 // तथा दीनं नायकं सेक्त इति दीनसेवी 150 तथा दीनस्येव पर्यायोऽवस्था प्रव्रज्याऽऽदिलक्षणा यस्य स दीनपर्यायः।१६। (दीनपरियाले त्ति) दीनः परिवारो यस्य स तथा।१७। (सव्यत्थ चउभंगो ति) सर्वसूत्रोषु चत्वारो भङ्गा द्रष्टव्या इति पुरुषजाताधिकारवत्येवेयमष्टादशसूत्री। आर्यो नामकःचत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-अजे णामेगे अञ्जे०४।। 1 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-अज्जे णामेगे अज्जपरिणए०४।२। एवं अजरूबे०३। अज्जमणे 4 / अज्ज संकप्पे०५। अज्जपण्णे०६। अज्जदिट्ठी०७। अज्जसीलायारे०८ / अज्जववहारे०६ / अज्जपरक्कमे० 10 / अज्जवित्ती० 11 / अजजाई० 12 / अज्जभासी० 13 / अज्जओभासी० 14 / अजसेवी० 15 // एवं अज्जपरियाए०१६। अज्जपरियाले०१७। एवं सत्तरस आलावगा० 17 / जहा दीणेणं भणिया तहा अजेण वि भाणियव्वा / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-अज्जे णामेगे अज्जभावे, अज्जे णामेगे अणजभावे, अणज्जे णामेगे अज्जभावे, अणज्जे णामेगे अणजभावे / / 18 / / (250 सूत्र) गतार्था / नवरम्, आर्यो नवधा। यदाह-''खेत्ते जाई कुल कम्म सिप्प भासाए नाणवरणे या दंसणआयरिय नवहा, मिच्छा सग जवण खसमाई ||1||" इति। तत्रा आर्यःक्षेत्रतः, पुनरार्यः पापकर्मबुद्धिर्भूतत्वेनापाप इत्यर्थः। एवं सप्तदश सूत्राणि नेयानि / तथा आर्यभावः क्षायिकाऽऽदिज्ञानाऽऽदियुक्तः अनार्यभावः क्रोधाऽऽदिमानिति। पुरुषजातप्रकरणमेव दृष्टान्तदान्तिकार्थोपेतमाविकथासूत्रादभिधीयते, पाठसिद्ध चैतत्। जातिकुलसंपन्ना :चत्तारि उसभा पण्णत्ता / तं जहा-जाइसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बलसंपन्ने, रूवसंपन्ने / एवामेव चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा--जाइसंपन्ने, कुलसंपन्ने, बलसंपन्ने, रूवसंपन्ने 1 / चत्तारि उसभा पण्णत्ता / तं जहा-जाइसंपण्णे णाममेगे नो कुलसंपन्ने, कुलसंपन्ने णाममेगे णो जाइसंपण्णे, एगे जाइ संपण्णे वि कुलसंपण्णे वि, एगे णो जाइसंपण्णे नो कुल संपण्णे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-जाइसंपण्णे णाममेगे० 4 / 2 / चत्तारि उसभा पण्णत्ता। तं जहाजाइसंपन्ने नाममेगे नो बलसंपन्ने / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा जाइसंपन्ने०४।३। चत्तारि उसभा पण्णत्ता। तं जहा-जाइसंपन्ने नाममेगे नो रूवसंपन्ने / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता। तं जहा-जाई संपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, रूवसंपण्णे नाममेगे०४१४ चत्तारि उसभा पण्णत्ता / तं जहा-कुलसंपन्ने नाममेगे नो बलसंपन्ने०४। एवामेव चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-कुलसंपन्ने नाममेगे नो बलसंन्ने०४॥५चत्तारि उसभा पण्णत्ता / तं जहा-कुलसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे० 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-कुलसंपन्ने नाममेगे० 4 / 6 / चत्तारि उसभा पण्णत्ता / तं जहा-बलसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे०४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-बलसंपन्ने नाममेगे०६७। नवरम्, ऋषभा–बलीवाः, जातिः-गुणवन्मातृकत्वं, कुलं गुणवत्पितृकत्यं, बलम्-भारवहनाऽऽदिसामर्थ्य , रूपं शरीरसौन्दर्यमिति / पुरुषास्तु स्वयं भावयितव्याः। अनन्तरदृष्टान्तसूत्राणितुसपुरुषदा - न्तिकानि जात्याऽऽदीनिचत्वारि पदानि भुवि विन्यस्य षण्णां द्विकसंयोगानाम "जाइसंपन्ने नो कुलसंपन्ने' इत्यादिना स्थानभङ्गकक्रमेण षडेव चतुर्भगिकाः कृत्वा समवसेयानि। हस्तिसदृशाःचत्तारि हत्थी पण्णत्ता / तं जहा-भद्दे मंदे, मिए, संकिण्णे / एवामेव चत्तारि पुरिजाया पण्णत्ता / तं जहा-भद्दे, मंदे, मिए, संकिण्णे / चत्तारि हत्थी पण्णत्ता / तं जहा-भद्दे णाममेगे भद्दमणे, भद्दे णाममेगे मंदमणे, भद्दे णाममेगे मियमणे, भद्दे णाममेगे संकिण्णमणे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता।तं जहा-भद्दे णाममेगे भद्दमणे, भद्दे णाममेगे मंदमणे, भद्दे णाममेगे मियमणे, भद्दे णाममेगे संकिण्णमणे / चत्तारि हत्थी पण्णत्ता। तं जहा-मंदे णाममेगे भद्दमणे / मंदे णाममेगे मंदमणे, मंदे णाममेगे मियमणे, मंदे णाममेगे संकिण्णमणे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-मंदे णाममेगे भद्दमणे० तं चेव। चत्तारि हत्थी पण्णत्ता। तं जहा-मिते णाममेगे भद्दमणे, मिते णाममेगे मंदमणे, मिते णाममेगे मियमणे, मिते णाममेगे संकिन्नमणे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पण्णत्ता / तं जहामिते णाममेगे भद्दमणे तं चेवा चत्तारि हत्थी पण्णत्ता / तं जहासंकिण्णे णाममेगे भद्दमणे, संकिन्ने णाममेगे मंदमणे, संकिन्ने नाममेगे मियमणे, संकिन्ने णाममेग संकिन्नमणे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता।तं जहा-संकिन्ने णाममेगे भद्दमणे तं चेव० जाव संकिन्ने णाममेगे संकिन्नमणे / / "मधुगुलियपिंगलक्खो, अणुपुच्वसुजायदीहणंगूलो। Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1021- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय पुरओ उदग्गधीरो, सव्वंगसमाधितो भद्दो।।१।। चलबहलविसमचम्मो, थूलसिरो थूलएण पेएण। थूलणहंतबालो, हरिपिंगललोयणो मंदो // 2 // तणुओ तणुयग्गीवो, तणुयतओ तण्णुयदंतणहवालो। भीरू तत्थुव्विग्गो, तासीय भवे मिए णामं / / 3 / / एतेसिं हत्थीणं, थोवं थोवं तु जो हरति हत्थी। रूवेण व सीलेण व, सो संकिन्नो त्ति नायव्वो // 4 // भद्दो मज्जइ सरए, मंदो उण मजते वसंतम्मि। मिउ मज्जति हेमंते, संकिन्नो सव्वकालम्मि॥५॥ हस्तिसूत्रो भद्राऽऽदयो हस्तिविशेषा वक्ष्यमाणलक्षणा वनाऽऽदिविशेषताश्च / यदाह-'भद्रो मन्दो मृगश्चेति विज्ञेयारित्रविधा गजाः / वनप्रचारसारूप्यसवभेदोपलक्षिताः / इति। तत्रा भद्रो हस्ती भद्र एव धीरत्वाऽऽदिगुणयुक्तत्वात् 1, मन्दोमन्द एव धैर्यवेगाऽऽदिगुणेषु मन्दत्वात् 2, मृगो मृग एव तनुस्वभीरुत्वाऽऽदिना, सकीर्णः किञ्चिद्भद्राऽऽदिगुणसंयुक्तत्वात् संकीर्णः एवेति। पुरुषोऽप्येवं भावनीयः। उत्तरसूत्राणि तु चत्वारि सदान्तिकानि भद्राऽऽदिपदानि चत्वारि तदधःक्रमेण चत्वार्येव भद्रमनः प्रभृतीनि च विन्यस्य "भद्दे णाममेगे भद्दभणे' इत्यादिना क्रमेण समवसेयानि। तत्र भद्रो जात्याऽऽकाराभ्यां प्रशस्तः, तथा भद्रं मनो यस्य। अथवा-भजस्येव मनो यस्य स तथा. धीर इत्यर्थः / मन्दं मन्दस्येववामनो यस्य स तथा नात्यन्त धीरः। एवं मृगमना भीरुरित्यर्थः / संकीर्णमना भद्राऽऽदिचित्रालक्षणोपेतमना विचित्रचित्त इत्यर्थः / पुरुषास्तु वक्ष्यमाणभद्राऽदिलक्षणानुसारेण प्रशस्ताप्रशस्तरवरूपा मन्तव्या इति। भद्राऽऽदिलक्षणामिदम्-'महुगाथा' मधुगुटिकेवक्षौद्रवटिकेव पिङ्गले पिङ्गे अक्षिणीलोचने यस्य स तथा आनुपूर्येण परिपाट्य / सुष्टु जातः- उत्पन्नो यः सोऽनुपूर्वसुजातः, स्वजात्युचिाकालक्रमजातो हि बलरूपाऽऽदिगुणयुक्तो भवति, सचासौ दीर्घलाङ्गलश्वदीर्घपुच्छ इति स तथा, अनुररूपेण वा स्थूलसूक्ष्मसूक्ष्मतरलक्षणेन सुजातं दीर्घ लाडगूलं यस्य स तथेति, पुरत:-अग्रभागे उदग्र उन्नतः, तथा धीरः-अक्षोभः, तथा सर्वाण्यङ्गानि सम्यकप्रमाणलक्षणोपेतत्वेन आहितानि व्यवस्थितानि यस्य स स सर्वाङ्ग समाहितो भद्रो नाम गजविशेषो भवतीति। 'चलगाहा। चलं लथं बहलं स्थूल विषम-बलियुक्त चर्म यस्य स तथा, स्थूलशिराः, स्थूलकेन / (पएण त्ति) पेचकेन पुच्छमूलेनत्युक्तः स्थूलनखदन्तबालो, हरिपिङ्ग ललोचनः सिंहवत् पिङ्गाक्षो मन्दो गजविशेषो भवतीति। तंणु गाहा? 'तनुकःकृशः तनुग्रीवः तनुत्वक्तनुचमा तनुकदन्तनखबालः, भीरु:भयशीलः स्वभावत- स्त्रस्तो भयकारणवशात् स्तब्धकर्णकरणाऽदिलक्षणोपेतो भीत एवं उनिः कष्टविहाराऽऽदावुद्वेगवान् स्वयं स्तः परानपि त्रासयतीति त्रासी व भवेन्मगो नाम गजभेद इति / 'एएसिं गाहा।' 'भद्दी गाहा। 'कण्ढये। तथा 'दंतेहिं हणइ भद्दो, मंदो हत्थेण आहणा इहत्थी / गत्ताधरेहि य मिओ,सकिन्नो सव्वहणइ / / 1 / / इति। स्था० 4 ठा०२ उम अधुना पुरुषजातप्रधानतया कायविशेषमाह - चसारिपुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-किसे णाममेगे से, किसे णाममेगे दढे, ददे णाममेगे किसे, दढे णाममेगे दढे / वत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। त जहा-किसे णाममेगे किससरीरे, किसे णाममेगे दढसरीरे, दढे णाममेगे किससरीरे, दढे णाममेगे दढसरीरे 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / त जहा-किससरीरस्य णाममेगस्सणाणदसणे समुप्पञ्जइ णो दढसरीरस्स, दढ़सरीरस्स णाममेगस्स णाणदंसणे समुप्पज्जइ णो किससरीरस्स, एगस्स किससरीरस्स विनाणदसणे समुप्पज्जइ दढसरीरस्स वि, एगस्य णो किससरीरस्सनाणदंसणे समुप्पञ्जइ णो दढसरीरस्स। (283 सूत्र) (चत्तारि पुरिसेत्यादि) कण्ठ्य, नवरं कृशस्तनुशरीरः पूर्व पश्चादपि कृश एव. अथवा-कृशो भावेन हीनसस्वाऽऽदित्वात्पुनः कृशः शरीराऽऽदिभिरेवं दृढोऽपि विपर्ययादिति, पूर्वसूत्रार्थाविशषाऽऽश्रितमेव द्वितीय सूती, ता कृशो भावतः, शेष सुगमम् / कृशस्यैव चतुर्भडग्या ज्ञानोत्पादमाह (चत्तारीत्यादि) व्यक्तं, किन्तु कृशशरीरस्य विविधतपसा भावितस्य शुभपरिणामसम्भवेन तदावरणक्षयोपशमादिभावात् ज्ञानं च दर्शनञ्च ज्ञानदर्शन ज्ञानेन वा सह दर्शनं ज्ञानदर्शनं छाद्यस्थिक केवलिकं वा, तत्समुत्पद्यते, न दृढशरीरस्य, तस्य हि उपचितत्वेन बहुमोहतया तथाविधशुभपरिणामाभावेन क्षयोपशमाऽऽधभावादित्येकः / तथा-मन्दसंहनन स्याल्पमोहस्य दृढशरीरस्यैव ज्ञानदर्शनमुत्पद्यते स्वस्थशरीरतया मनः स्वास्थ्येन शुभपरिणामभावतः क्षयोपशमाऽऽदिभावान्न कृशशरीरस्यास्वास्थ्यादिति द्वितीयः / तथा कृशस्य दृढस्य वा तदुत्पद्यते विशिष्ट सहननस्याल्पमोहस्योभयथाऽपि शुभपरिणामभावात् कृशत्वदृढत्वेनापेक्षत इति तृतीयः / चतुर्थः सुज्ञातः / ज्ञान-दर्शनयोरुत्पाद उक्तः / स्था०४ ठा०२ उ०।। चत्तारि पुरिसजाता पण्णत्ता / तं जहा-तहेनाममेगे, नोतहे नाममेगे, सोवत्थी नामगंगे, पधाणे नाममेगे 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-आयतकरे नाममेगे णो परंतकरे। 1 / परंतकरे णाममेगे णो आतंतकरे 2, एगे आतंतकरे विपरंतकरे वि३, एगे णो आतंतकरे णो परंतकरे 4 / 2 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-आतंतमे णाममंगेनो परंतमे, परतमे नाममेगे, नो आतंतमे०४ / 3 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-आयंदमे नाममेगे णो परंदमे०४।४। (286 सूत्रा) "चत्तारि" इत्यादिभिश्चतुर्भिश्चतुर्भङ्गीसूत्रः स्वरूप दर्शयति। कण्ठ्यानि चैतानि, केवलं (तह त्ति) सेवकः सन यथैवाऽदिश्यते तथैव यः प्रवर्तते स तथा, अन्यस्तुनो तथैवान्यथाऽपीत्यर्थइतिनोतथः, तथा स्वस्तीत्याह, चरति वा सौवस्तिकः, प्राकृतत्वात्ककारलोपे दीर्घत्वेच 'सोवत्थी' माङ्गलिकाभिधायी मागधाऽऽदिरन्यः। एतेषामेयाऽऽराध्यतया प्रधानः प्रभुरम्य Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1022- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय इति / (आयंतकरे त्ति) आत्मनोऽन्तमवसानं भवस्य करोलीत्यात्मान्तकरः, नो परस्य भवान्तकरो, धर्मदेशनाऽनासेवकः प्रत्येकबुद्धाऽऽदिः 1 तथा परस्य भवान्तं करोति मार्गप्रवर्त्तनेन परान्तकरो, नाऽऽत्मान्तकरोऽवरमशरीर आचार्यऽऽदिः 2. तृतीयस्तु तीर्थकरोऽन्यो वा 3 चतुर्थो दुःषमाऽऽचार्योऽऽदिः 4, अथवाऽऽत्मनोऽन्तं मरण करोतीत्यात्मान्तकरः एवं परान्तकरोऽपि / इह प्रथम आत्मवधको द्वितीयः परवधकः, तृतीय उभयहन्ता। चतुर्थस्त्ववधक इति। अथवाssत्मतन्त्राः सन् कार्याणि करोतीत्यात्मतन्त्रकरः, एवं परतन्त्रकरोऽपि / इह तु प्रथमो जिनो, द्वितीयो भिक्षुः, तृतीय आचार्यऽऽदिः, चतुर्थः कार्यविशेषापेक्षया शट इति / अथवा आत्मतन्त्रम् आत्मायत्तं धनगच्छाऽऽदि करोति इत्यात्मतन्त्रकर एवमितराऽपि भङ्ग योजना स्वयमूह्येति तथाऽऽत्मानं तमयति खेदयतीत्यात्मतमः आचार्याऽऽदिः, परं शिष्याऽदिकं तमयतीति परतमः सर्वत्र प्राकृतत्वादनुस्वारः / अथवा आत्मानि तमः-अज्ञानक्रोधो वा यस्य स आत्मतमाः, एवमितरेऽपि, तथा आत्मानं दमयति शमवन्तं करोति शिक्षयति वेत्यात्मदमः, आचार्यो ऽश्वदमकाऽऽदिर्वा, एवमितरेऽपि, नवरं परः शिष्योऽश्वाऽऽदिर्वा / स्था० 4 ठा०२ उ०। आत्मनः अलमस्तु - चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा- अप्पणो णाममेगे अलम) भवइ नो परस्स, परस्स णाममेगे अलमंथू भवइ नो अप्पणो, एगे अप्पणो वि अलमंथु भवइ, परस्स वि, एगे णो अप्पणो अलमंथूभवइ णो परस्स 1 / व्यक्तानि, केवलम् अलमस्तु निषेधो भवतु य एवमाह सोऽलमस्त्वियुच्यते, निषेधक इत्यर्थः / स चात्मानोदुर्नयेषु प्रवर्तमानस्यैको निषेधकः / अथवा-(अलमंथु त्ति) समयभाषया समर्थोऽभिधीयते, तत आत्मनो निग्रहसमर्थः कश्चिदिति। चत्तारि मग्गा पण्णत्ता / तं जहा-उज्जू णाममेगे उज्जू, उजूणाममेगे वके, वंके णाममेगे उजू, बंके णाममेगे वंके 2 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-उज्जू णाममेगे उज्जू०४।३। एकोमार्ग ऋजुःआदौ, अन्तेऽपि ऋजुः, अथवा ऋजु प्रतिभाति तत्वतोऽपि ऋजुरेवेति पुरुषस्तु ऋजुः पूर्वापरकालपेक्षया, अन्तस्तत्वबहिस्तत्वापेक्षया वेति। क्वचित्तु-"उज्जूणाभं एगे उज्जुमणे त्ति' पाटः / सोऽपि बहिस्तत्वान्तस्तपेक्षया व्याख्येयः / / 3 / / चत्तारि मग्गा पण्णत्ता / तं जहा-खेमे णाममेगे खेमे, खेमे णाममेगे अखेम०४१४१ एवामेव चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-खेमे णाममेगे खेम०४१५ / चत्तारि मग्गा पण्णत्ता। तं जहा-खेमे णाममेगे खेमरूवे, खेमे णाममेगे अखेमरूवे०४। 6 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-खेमे णाममेगे | खेमरूवे०४।७। क्षेमो नामैको मार्ग आदौ निरुपद्रवतया, पुनः क्षेमोऽन्ते तथैव, / प्रसिद्धितत्वाभ्यां वा / एवं पुरुषोऽपि क्रोधाऽऽपद्रवरहितततया क्षेम इति / क्षेमो भावतोऽनुपद्रवत्वेन क्षेमरूप आकारेण मार्गः / पुरुषप्रथमो भावद्रव्यलिङ्गयुक्तः साधुर्द्वितीयः कारुणिको द्रव्यलिङ्गवर्जितः साधुरेव, तृतीयो निहृवः, चतुर्थोऽन्यतीर्थिको गृहस्थो वेति७। संबूकाःचत्तारि संवुक्का पण्णत्ता। तं जहा-वामे णाममेगे वामवत्ते, वामे णाममेगे दाहिणावत्ते, दाहिणे णाममेगे वामवत्ते, दाहिणे णाममेगे दाहिणावने / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जद्दावामे णाममेगे वामवत्त०४।६। संबूकः-शडखो वामो वामपार्श्वव्यवस्थितत्वात्प्रतिकूलगुणत्वाद्वा वामाऽऽवतः प्रतीतः / एवं दक्षिणावर्तो ऽपि, दक्षिणोदक्षिणापार्श्वनियुक्तत्वादनुकूलगुणत्वाद्वेति 8 | पुरुषस्तु वामप्रतिकूलस्वभावतया वाम एवाऽऽवर्त्तते-प्रवर्तते इति वामाऽऽवर्तो विपरीतप्रवृत्तेरेकोऽन्यो वाम एव स्वरुपेण कारणवशाद्दक्षिणाऽऽवर्तोऽनुकूलप्रवृत्तिः, अन्यस्तु दक्षिणोऽनुकूलस्वभावतया कारणवशाद्वामाऽऽवर्ते :ऽननुकूल प्रवृत्तिरित्येवं चतुर्थोऽपीति धूमशिखाःचत्तारि धूमसिहाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-वामा णाममेगा वामावत्ता०४।१०। एवामेव चत्तारि त्थियाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-वामा णाममेगा वामावत्ता०४११। चत्तारि अग्गिसिहाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-वामाणाममेगा वामावत्ता०४।१२। एवामेव चत्तारि त्थियाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-वामा णाममेगा वामावत्ता०४।१३ / चत्तारि वाय मंडलिया पण्णत्ता। तं जहावामा णाममेगा वामावत्ता०४।१४। एवामेव चत्तारित्थीओ पण्णताओ। तं जहा-वामाणाममेगा वामावत्ता०४।१५। चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता। तं जहा-वामे णाममेगे वामावत्ते०४।१६। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पणत्ता / तं जहा-वामे णाममेगे वामावत्ते०४।१७। (286 सूत्र) धूमशिखा वामा वामपार्श्ववर्तितयाऽननुकूल स्वभावतया बावामत एवाऽऽवर्तत या तथा वलनात्सावामावर्त्ता 10 // स्त्री-पुरुषव व्याख्येया, कम्बुदृष्टान्ते सत्यपि धूमाशिखाऽऽदिदृष्टान्तानांस्वीदाष्टान्ति के शब्दसाधर्म्य णोपपन्नतरत्वानेदेनोपादानमिति 11 / एवमिग्नशिखाऽपि 13 / वातमएडलिका मण्डलेनोर्द्धप्रवृत्तौ वायुरिति / इह च स्त्रियो मालिन्योपतापचापल्यस्वभावा भवन्तीत्यभिप्रायेण तासुधूमशिखाऽऽदिदृष्टान्तायोपन्यास इति / उक्तं च-"चवला मइलणसीला, सिणेहपरिपूरिया वि तावेई / दीवयसिह व्व महिला, लद्धप्पसरा भयं देइ // 1 // " इति। 15 / वनखण्डस्तुशिखावत् नवरं वामावर्तो धामथलनेन जातत्याद्वायुना वा तथा धूयमानत्वादिति। 16 / पुरुषस्तु पूर्ववदिति / 17 / स्था०४ ठा०२ उ०। Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1023- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय संप्रकटप्रतिसेविन:चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-संपागडपडिसेवी / णाममेगे, पच्छण्णपडिसेवी णाममेगे, पडुप्पण्णणंदी णाममेगे, णिस्सरणणंदी णाममेगे 11 सुगमा च। नवरं कश्चित्साधुर्गच्छवासी संप्रकटमेव-अगीतार्थप्रत्यक्षमेव प्रतिसेवते मूलगुणानुत्तरगुणान् वा दर्पतः कल्पेन वेति संप्रकटप्रतिसेवीत्येकः / एवमन्यः प्रच्छन्नं प्रतिसेवत इति प्रच्छन्नप्रतिसेवी अन्यस्तु प्रत्युत्पन्नेन लब्धेन वस्त्र शिष्याऽऽदिना प्रत्युत्पन्नो वा जातः सन् शिष्याऽऽचार्याऽऽदिरूपेण नन्दति यः स प्रत्युत्पन्ननन्दी, अथवानन्दनं नन्दिरानन्दः, प्रत्युत्पन्नेन नन्दिर्यस्य स प्रत्युत्पन्ननन्दिः, तथा प्राधूर्णकशिष्याऽऽदीनामात्मनो वा निःसरणेन गच्छाऽऽदेर्निगमेन नन्दति यो नन्दिा यस्य स तथा / पाठान्तरे तु-प्रत्युत्पन्नं यथालब्धं सेक्तेभजते नानुचितं विवेचयतीत प्रत्युत्पन्नसेवीति। सेना:चत्तारि सेणाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-जइत्ता णाममेगा णो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता णाममेगा णो जइत्ता, एगा जइत्ता वि पराजिणित्ता वि, एगा णो जइत्ता णो पराजिणित्ता 2 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-जइत्ता णाममेगे णो पराजिणित्ता० 4 / 3 / चत्तारि सेणाओ पण्णत्ताओ / तं जहाजइत्ता णाममेगा जयइ, जइत्ता णाममेगा पराजिणइ, पराजिणित्ता णाममेगा जयइ, पराजिणित्ता णाममेगा पराजिणइ / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-जइत्ता णाममेगो जयइ०४।५। (262 सूत्रा) (जइत्त त्ति) जेत्री जयति रिपुबलम् एका, न पराजेत्री-न पराजयते रिपुबलान्न भज्यते. द्वितीया तु पराजेत्रीपरेभ्यो भङ्ग भाक् अत एव नो , जेनीति, तृतीया कारणवशादुभयस्वभावेति, चतुर्थी त्वविजिगीषुत्वादनुभयरूपेति / पुरुषः साधु सजेता परीषहाणां न तेभ्यः पराजेता-उद्विजते इत्यर्थः महावीरवदिति एको, द्वितीयः कण्डरीकवत्, तृतीयस्तु कदाचिजेता कदाचित्कर्मवशात् पराजेता, शैलकराजर्षिवत्, चतुर्थस्तु अनुन्पन्नपरीषहः / जित्वा एकदा रिपुबलं पुनरपि जयतीत्येका अन्या जित्वा पराजयते भज्यते, अन्या पराजित्यपरिभज्य पुनर्जयति, चतुर्थी तु पराजित्य परिभज्यैकदा पुनः पराजयते, पुरुषस्तु परीषहाऽऽदिष्येवं चिन्तनीय इति। जतव्याश्येह तत्वतः कषाया एवंतिततस्वरूपं दर्शयितुकामः क्रोधस्योत्तरत्रोपदर्शयिष्य माणत्वान्मायाऽऽदिकपायत्रय प्रकरणमाह चत्तारि के अणा पण्णत्ता / तं जहा-वं सीमूलके अणए, मेंढविसाणके अणए, गोमुत्तिके अणए, अवलेहणियाके अणए / एवामेव चउव्विहा माया पण्णत्ता / तं जहा-बंसीमूलके अणासमाणा० जाव अवलेहणियाके अणासमाणा, बंसीमूल- | केअणासमाणं मायं अणुप्पविढे जीवे कालं करेइ, णेरइएसु उववज्जइ, में ढविसाणके अणासमाणं मायमणुप्पविटे जीवे कालं करेइ, तिरिक्खजोणिएसु उववजइ, गोमुत्ति० जाव कालं करेइ, मणुस्सेसु उववज्जइ, अवलेहणिया० जाव देवेसु उववज्जइ / / (चत्तारीत्यादि) प्रकट, किन्तु केतनं-सामान्येन वक्र वस्तु पुष्पकरणडस्य वा सम्बन्धि मुष्टिग्रहणस्थानं वंशादिदलकं, तच वक्रं भवति, केवलमिह सामान्येन वक्रं वस्तु केतनं गृह्यते, तत्रा वंशीमूलं च तत्केतनं च वंशीमूल केतनमेव सर्वत्र, नवरं मेण्डविषाणंमेषश्रृङ्ग, गोमूत्रिका .प्रतीता / (अवलेहणियत्ति) अवलिख्यमानस्य वंशशलाकादेर्या प्रतन्वी त्वक् साऽवलेखनिकेति / वंशीमूलकेतनकादिसमता तु मायायास्तद्वतामनार्जवभेदात् / तथाहि-यथा वंशीमूलमतिगुपिलवक्रमेवं कस्यचिन्मायऽपीत्येव मल्पाल्पतराल्पतमानार्जवत्वेनान्याऽपि भावनीयेति। इयं चानान्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्याना ऽऽवरणसंज्वलनरूपा क्रमेण ज्ञेया, प्रत्येकमित्यन्ये, तेनैवानन्तानुबन्धिन्या उदयेऽपि देवत्थाऽऽदिन विरुध्यते, एवं मानाऽऽदयोऽपि वाचनान्तरे तु- पूर्व क्रोध-मानसूत्राणि ततो मायासूत्राणि, तत्र क्रोधसूत्राणि-- ''चत्तारि राईओ पन्नताओ। तं जहा-पव्वयराई, पुढविराई, रेणुराई, जल-राई। एवामेव चउटिवहे कोहे" इत्यादि मायासूत्राणि वाऽधीतानि, फलसूत्रो अनुप्रविष्टस्तदुदयवर्ती ति। स्तम्भपुरुषाः - चत्तारि थंभा पण्णत्ता तं जहा-सेलथंभे, अट्ठिथंभे, दारुयंभे, तिणिसलयाथंभे / एवामेव चउविहे माणे पण्णत्ते / तं जहासेलथंभसमाणे० जाव तिणिसलयाथं भसमाणे, सेलथंभसमाणं माणं अणुप्पविटे जीवे कालं करेइ, णेरइएसु उववज्जइ, एवं० जाव तिणिसलयाथंभसमाणं माणं अणुप्पविठू जीवे कालं करेइ देवेसु उववजइ।। शिलाविकारः शैलः, स चासौ स्तम्भश्च स्थाणुः शैलस्तम्भः, एवमन्येऽपि, नवरमस्थिदारुच प्रतीतम्, तिनिशोवृक्षविशेषस्तस्य लताकम्बा तिनिशलता, सा चात्यन्तमृद्वीति / मानस्यापि शैलस्तम्भाऽऽदिसमानता, तद्वतो नमानाभावविशेषात् ज्ञेयेति, मानोऽप्यनन्तानुबन्ध्याऽऽदिरूपः क्रमेण दृश्यः, तत्फलसूत्रांव्यक्तम्। वस्त्राणि - चत्तारि वत्था पण्णत्ता / तं जहा-किमिरागरत्ते, कद्दमरागरत्ते, खंजणरागरत्ते, हलिद्दागरत्ते / एवामेव चउव्विहे लोभे पण्णत्ते / तं जहा-किमिरागरत्तवत्थसमाणे, कदमरागरत्तवत्थसमाणे, खंजणरागरत्तवत्थसमाणे, हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणे / किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुप्पविढे जीवे कालं करेइ, नेरइएसु उववज्जइ, तहेव०जाव हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणं लोभमणुप्पविटे जीवे कालं करेइ, देवेसु उववज्जइ / (263 सूत्र) Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1024- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय कृमिरागे वृद्धसम्प्रदायोऽयम्-मनुष्याऽऽदीनां रुधिरं गृहीत्वा केनाऽऽपि योगेन युक्तंभाजने स्थाप्यते, ततस्तत्रकृमय उत्पद्यन्ते, ते च वाताऽभिलाषिणः छिद्रनिर्गता आसन्ना भ्रमन्तो निग्लिाला भुञ्चन्ति, ताः / कृमिसूत्रा भण्यते तच्च स्वपरिणामरागरजितमेव भवति। अन्ये भणन्तिये रुधिरे कृमय उत्पद्यन्तेतान् तत्रैव मृदित्वा कचवरमुत्य तद्रसे कञ्चित योग प्रक्षिप्य पट्टसूत्रां रञ्चयन्ति, स चरसःकृमिरागो भण्यते अनुत्तारीति। तत्र कृमिणां रागो रञ्जकरसः कृमिरागस्तेन रक्तं कृमिरागरक्तम्। एवं सर्वत्र नवरं कईमो गोवाटादीनां खञ्जनदीपाऽऽदीना हरिद्राप्रतीतैवेति। कृमिरागाऽऽदिरंक्तवरत्रसमानता च लोभस्यानन्तानुबन्ध्या ऽऽदितनेदवता जीवानां क्रमेण दृढहीनहीनतरहीनतमानुबन्धित्वात् / तथाहिकृमिरागरक्तं वस्त्रं दग्धमपि न रागानुबन्धं मुञ्चति, तदस्मनोऽपि रक्तत्वात्। एवं योमृतोऽपि लोभानुगन्धं न मुञ्चति तस्याभिधीयते लोभः कृमिरागरक्तवस्त्रसमानोऽनन्तानुबन्धी चेति / एव सर्वत्र भावना कायें ति / फलसूत्रां स्पष्टम। इह कषायप्ररूपणा गाथा :जलरेणुपुढविपव्वय राईसरिसो चउम्विहो कोहो। तिणिसलयाकट्टडिय-सेलत्थंभोवमो माणो / / 1 / / मायावलेहिगोमु-तिमेंढसिंगघणवंसमूलसमा। लोभो हलिदखंजण-कद्दमकिमिरागसारिच्छो / / 2 / / पक्खचउमासवच्छर-जावज्जीवणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारय-गइसाहणहेयवो भणिया / / 3 / / " इति। स्था० 4 टा०२ उ०। चत्तारि पक्खी पण्णत्ता / तंजहा-रुयसंपन्ने णाममेगे णो रूप- / संपन्ने, रूवसंपन्ने नाममेगे णो रूयसंपन्ने, एगे रूवसंपन्ने वि रुतसंपन्ने वि, एगे णो रुयसंपन्ने नो रूवसंपन्ने / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-रुयसंपन्ने नाममेगे नो रूवसंपन्ने० 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-पत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेइ, पत्तियं करेमीतेगे अपत्तियं करेइ, अपत्तियं करेमीतेगे पत्तियं करेइ, अपत्तियं करेमीतेगे अपत्तियं करेइ / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-अप्पणो णाममेगे पत्तियं करेइ णोपरस्स, परस्स णाममेगे पत्तियं करेइ णो अप्पणो० (4) चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जद्दा-पत्तियं पवेसामीतेगे पत्तियं पवेसेइ, पत्तियं पवेसामीतेगे अपत्तियं पवेसेइ० 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहाअप्पणो णाममेगे पत्तियं पवेसेइ णो परस्स० परस्स०४ (312 सूत्र) चत्तारिरुक्खा पण्णत्ता। तं जहा पत्तोवए, पुप्फोवए, फलोवए, छायोवए। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-पत्तोवारूक्खसमाणे पुप्फोवा- / रुक्खसमाणे, फलोवारुक्ससमाणे, छाओवारुक्खसमाणे / (313 सूत्र) अधुना तद्वतः पुरुषान् सदृष्टान्तान् “चत्तारि पक्खी'' इत्यादिना "अत्यमियत्थमिए'' इत्येतदन्तेन ग्रन्थेनाऽऽह - व्यक्तश्चायम, नवरं रुतं रूपं च सर्वेषामेष पाक्षेणामस्त्यतस्ते विशिष्ट एवेह ग्राह्ये, ततो रुतं मनोज्ञः शब्दः, तेन संपन्नः एकः पक्षी, न च रूपेणमनोज्ञेनैव, कोकिलवत। रूपसंपन्नो नो रुतसंपन्नः, प्राकृतशुकवत्। उभयसंपन्नो मयूरवत्। अनुभयस्वभावः काकविदिता पुरुषोऽत्र यथायोग मनोज्ञशब्दः प्रशस्तरूपश्च प्रियवादित्वसद्वेषष्वाभ्या, साधुर्वा सिद्धसिद्धांतप्रसिद्धधर्मदेशनाऽऽदिस्वाध्यायप्रबन्धवान् लोचविरलबालोत्तमाङ्गतातपस्तनुतनुत्वमलमलिनदेहता अल्पोपकरणताऽऽदिलक्षणसुविहित साधुरूपधारी वा योज्य इति (पत्तिय ति) प्रीतिरेव प्रीतिकं स्वार्थिककप्रत्ययोपादानेऽपि रुहेर्नपुंसकतेति, तत्करोमि, प्रत्ययं वा करोमीति परिणतः प्रीतिकमेव प्रत्ययमेव वा करोति स्थिरपरिणामत्वात् उचितप्रतिपत्तिनिपुणत्वात् सौभाग्यवत्वाद्वेति। अन्यस्तु प्रीतिकरणे परिणतोऽप्रीति करोति उक्तवैपरीत्यादिति / अपरोऽप्रीतोपरिणतः प्रीतिमेव करोति संजातपूर्वभावनिवृत्तत्वात् / परस्य वा अप्रीतिहेतुतोऽपि प्रीत्युत्पत्ति स्वभावत्वादिति। चतुर्थः सुज्ञानः आत्मन एकः कश्चित् प्रीतिकमानन्दं भोजनाऽऽच्छादनाऽऽदिभिः करोत्युत्पादयत्यात्मार्थप्रधानत्वान्न परस्य, अन्यः परस्य परार्थप्रधानत्वान्नाऽऽत्मनोऽपर उभयस्थाप्युभयार्थ प्रधानत्वादितरो नोभयस्याप्युभयार्थशून्यत्वदिति, आत्मनः प्रत्ययं प्रतीति करोति न परस्थेत्याद्यपि व्याख्यमिति / (पत्तियं पवेसेमि त्ति) प्रीतिकं प्रत्ययं वा अयं करोतीत्येवं परस्य चित्ते विनिवेशयामीति परिणतस्तथैवैकः प्रवेशयतीत्येक इति। सूत्रशेषोऽनन्तरसूत्रं च पूर्ववत् / पत्राणिपर्णान्युपगच्छतीति पत्रोपगो बहलपत्रा इत्यर्थः / एवं शेषा अपि। पत्रोवगाऽऽदिवृक्ष समानता तु पुरुषाणां लोकोत्तराणा लौकिकानां चाऽर्थिषु तथाविधोपकासकरणेन स्वस्वभावलाभ एव पर्यवसितत्वात् 1, सूादानाऽऽदिनोपकारकत्वाद् 2, अर्थदानाऽऽदिना महोपकारकत्वाद् 3, अनुवर्तनापायसंरक्षणाऽऽदिना सततोऽपसेव्यत्वाच्च 4, क्रमेण द्रष्टव्येति। स्था० 4 ठा० 3 उ०। उदितोदिता :चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-उदिओदिएणाममेगे, उदियत्थमिए णाममेगे, अत्थमिओदिए णाममेगे, अत्थमियस्थमिए णाममेगे। भरहे राया चाउरतंचकवट्टीणं उदितओदिए, बंभदत्ते णं राया चाउरंतचक्कवट्टी उदितत्थमिए, हरिएसबले णाममणगारेणं अत्थमिओदिए, काले णं सोयरिए अत्थमियत्थमिए। (315 सूत्र) उदितश्चासावुन्नतकुलबलसमृद्धिनिरवद्यकर्म भिरभ्युदयवान् उदितश्च परमसुखसंदोहोदयेनेत्युदितोदितो यथा भरतः, उदितोदितत्वं चास्य प्रसिद्धम् 1, तथा उदितश्च पौतथैव अस्तमितश्च भास्कर इव सर्वसमृद्धिभ्रष्टत्वात दुर्गतिगतत्वाच्चेति उदितास्तामितो ब्रह्मदत्तक्रवतीव स हि पूर्वमुदित उन्नतकुलोत्पन्नत्वाऽऽदिना स्वभुजोपार्जित सा Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1025 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय म्राज्यत्वेन व पश्चादस्तमितः, अतथाविधकारणकुपित ब्राह्मणप्रयुक्तपशुपालधुनर्गोलिकाप्रक्षेपणोपायप्रस्फोटिताक्षि गोलकतया मरणानन्तराप्रतिष्ठानमहानरकमहावेदनाप्राप्ततया चेति चेति / तथा अस्तमितश्चासौ हीनकुलोत्पत्तिदुर्भगत्व दुर्गत्वाऽऽदिना उदित च समृद्धिकीर्ति सुगतिलाभाऽऽदिनेति अस्तमितोदितो यथा-हरिकेशबलाभिधानोऽनगारः, सहि जन्मान्तरोपात्तनीचैर्गोत्रकर्मवशवाप्तहरिकेशाभिनन चाण्डालकुलतया दुर्भगतया दरिद्रतया च पूर्वमस्तमिताऽऽदित्य इवानभ्युदयष्वादस्तमित इति पश्चात्तु प्रतिपन्नप्रव्रज्यो निष्प्रकम्पचरणगुणाऽऽवर्जितदेवकृतसानिध्यतया प्राप्तप्रसिद्धितया सुगतिगतया च उदित इति 3 तथा अस्तमितश्चासौ सूर्य इव दुष्कुलतया दुष्कर्मकारितया च कीर्तिसमृद्धिलक्षणतेजो विवर्जितत्वादस्तमितश्च दुर्गा तिगमनादित्यस्तमितास्तमितो, यथा कालाभिधानः सौकरिकः, स हिसूकरैश्वरति मृगया करोतीति यथार्थः सौकरिक एव दुष्कुलोत्पन्नः प्रतिदिन महिषपञ्चशतीव्यापादक इति पूर्वमस्तमितः पश्चादपि मृत्वा सप्तमनरकपृथिवीं गत इति अस्तमित एवेति। 4 / 'भरहे त्यादि तूदाहरणसूत्र भाक्तिार्थमेवेति / स्था० 4 ठा० 3 उ०। चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्तानं जहा-उच्चे णाममेगे उच्चच्छंदे, उच्चे नाममेगे णीयच्छंदे, णीए णाममेगे उच्चछंदे णीए णाममेगे णीयच्छंदे। (318 सूत्र) उच्चः पुरुषः शरीरकुलविभवाऽऽदिभिः, तथा-उच्चच्छन्दः उन्नताभिप्रायः, औदार्याऽऽदियुक्तत्वात्। नीचच्छन्दस्तु विपरीतो नीचोऽप्युच्चविपर्ययादिति। स्था० 4 ठा०३ उ०। यानानिचत्तारि जाणा पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुत्ते नाममेगे अजुत्ते, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, अजुत्ते णामेगे अजुत्ते। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते,०४। चत्तारिजाणा पण्णत्ता! तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणए, जुत्ते णाममेगे अजुत्तपरिणण०४ एवामेव चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तपरिणए० 4 / चत्तारि जाणा पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे, जुत्ते णाममेगे अजुत्तरूवे, अजुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे० 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तरूवे० 4 / चत्तारि जाणा पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे०४। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा जुत्ते णाममेगे जुत्तसोभे० 4 / चत्तारि जुग्गा पण्णत्ता। तं जहा जुत्ते णाममेगे जुत्ते० 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते गाममेगे जुत्ते० 4 / एवं जहा-जाणेणं चत्तारि अलावगा तहा जुग्गेण वि, पडिवक्खो तहेव पुरिसजाया० जाव सोभे त्ति।। (चत्तारित्यादि) कण्ठ्यश्चायं, नवरं यानं-शकटाऽऽदि, तद्युक्तं बलीवाऽऽदिभिः पुनर्युक्तसङ्गतं समग्रसामग्रीकं वा पूर्वापरकालापेक्षया | वेत्येकम् अन्यत् युक्तं तथैवायुक्तं तूक्तविपरीतत्वादिति / एवमितरौ / फुरुषस्तु युक्तो धनाऽऽदिभिः पुनर्युक्त उचितानुष्ठानैः सद्भिर्वा, पूर्वकाले वा युक्तो धनधर्मानुष्ठानाऽऽदिभिः पश्चादपि तथैवेति चतुर्भङ्गी। अथवायुक्तो द्रव्यलिगङ्गेन भावलिङ्गेन चेति प्रथमः साधुः, द्रव्यलिङ्गेन नेतरेणेति द्वितीयो निवाऽऽदिः, न द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन तु युक्त इति तृतीयः, प्रत्येक बुद्धाऽऽदिः, उभयवियुक्तश्चतुर्थीगृहस्थाऽदिरिति। एवं सूत्रान्तराण्यपि, नवरं युक्तं गोभिर्युक्तपरिणतं तु अयुक्तं सत्सामय्या युक्ततया परिणतमिति / पुरुषः पूर्ववत्, युक्तरूपं संगतस्वभावं प्रशस्तं वा युक्त युक्तरूपमिति। पुरुषपक्षे तुयुक्तो धनाऽऽदिना ज्ञानाऽऽदिगुणैर्वा युक्तरूप उचितवेषः सुविहितनेपथ्यो वेति, तथा युक्तं तथैव युक्तं शोभते युक्तस्य वा शोभा यस्य तत् युक्तशोभमिति / पुरुषस्तु युक्तो गुणैस्तथा युक्ताउविता शोभा यस्य स तथेति, युग्यम्-वाहनम् अश्वादि, अथवा गोल्लविषये जम्पानं द्विहस्तप्रमाणं चतुरस्त्र सवेदिकमुपशोभितं युग्यक मुच्यते, तयुक्तमारोहणसामग्या पर्याणाऽऽदिकया पुनर्युक्त वेगाऽऽदिभिरित्येवं यानवव्याख्येयम्। एतदेवाऽऽह-(एवं जहेत्यादि) प्रतिपक्षो दार्शन्तिकस्तथैव / कोऽसावित्याह-(पुरिसजायत्ति) पुरुषजातानीत्येव परिणतरूपशोभसूत्र चतुर्भङ्गिकाः सप्रतिपक्षा वाच्याः, यावच्छोभसूत्र चतुर्भङ्गी। यथा- (अजुत्तेणाम एगे अजुत्तसोभे) एतदेवाऽऽह - (जाव सोभेत्ति)। सारथय:चत्तारि सारही पण्णत्ता / तं जहा-जोयावइत्ता णाममेगेणो विजोयावाइत्ता, विजोयावइत्ता णाममेगे णो जोयावइत्ता, एगे जोयवइत्ता वि विजोयावइत्ता वि, एगे णो जोयावइत्ता णो विजोयावइत्ता 4 / एवामेव चत्तारि हया पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते, जुत्ते णाममेगे अजुत्ते० 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते, एवं जुत्तपरिणए, जुत्तरूवे, जुत्तसोभे, सव्वेसिं पडिवक्खो पुरिसजाया। चत्तारि गया पण्णत्ता। तं जहा-जुत्तेणाममेगे जुत्ते०४ / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्ते०४१ एवं जहा हयाणं तहा गयाण वि भाणियव्यं, पडिवक्खो तहेव पुरिसजाया / चत्तारि जुग्गारिया पण्णत्ता / तं जहा-पंथजाई णाममेगे णो उप्पहजाई, उप्पहजाई णाममेगे णो पंथजाई, एगे णो पंथजाई णो उप्पहजाई वि, एगे णो पंथजाई णो उप्पहजाई / एवामेव चत्तारिपुरिसजाया। सारथिः-शाकटिको, योजयिता शकटे गवदीनां न वियोजयितामोक्ता, अन्यस्तु वियोजयिता न तु योजयितेति / एवं शेषावपि, नवरं चतुर्थः खेटयत्येवेति, अथवा-योकायन्तं प्रयुक्तेयः स योक्त्रापयिता वियोक्त्रयतः प्रयोक्ता तु वियोकत्रापयितेति / लोकोत्तरपुरुष विवक्षायां तु सारथिरिव सारथिर्योजयितासंयमयोगेषु साधूनां प्रवर्त्तयिता, चियोजयिता तु तेषामेवानुचिताना निवर्तयितेति, यानसूत्रवत् हयगजसूत्राणीति। (जुग्गारिय त्ति)। युग्मस्य चर्यावहनं गमनमित्यर्थः / Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1026- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय वचित्तु-" जुग्गायरिय त्ति' 'पाठः / तत्राऽपि युग्याचर्येति पथयाय्येक युग्यं भवति नोत्पथयायीत्यादिश्चतुर्भङ्गी, इह च युगस्य चर्याद्वारेणैव निर्देशे चतुर्विधत्वेनोक्तत्वात्तच्चर्याया एवोद्देशनोक्तं चातुर्विध्यमवेसेयमिति। भावयुग्यपक्षे तु युग्यमिव युग्यं संयमयोगभरवोढा साधुरेव, स च पथि याय्यप्रमत्त उत्पथयायी लिङ्गावशेष उभययायी प्रमत्तश्चतुर्थः सिद्धः, क्रमेण सदसदुभयानुभयानुष्ठानरूपत्वात्। अथवा पथ्युत्पथयोः स्वपरसमयरूपत्वात् यायित्वस्य च गत्यर्थत्वेन बोधपर्यायत्वात् स्वसमयपरसमयबोधापेक्षयेय चतुर्भङ्गी नेयेति। पुष्पाणिचत्तारि पुप्फा पण्णत्ता / तं जहा-रूवसंपण्णे णाममेगे णो गंधसंपण्णे, गंधसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपण्णे, एगे रूवसंपन्ने वि गंध संपन्ने वि, एगे णो रूवसंपन्ने णो गंधसंपन्ने / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-रूवसंपन्ने णाममेगे, णो सीलसंपन्ने० 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहाजाइसंपन्ने णाममेगे णो कुलसंपन्ने०४।१। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-जाइसंपन्ने णाममेगे णो वलसंपन्ने, बलसंपण्णे णाममेगे णो जाइसंपन्न०४।२। एवं जाईए रूवेण०४ / चत्तारि आलावगा।३। एवं जाईए सुरण य०४१४ / एवं जाईए सीसेण० 4 / 5 / एवं जाईए चरित्तेण० 4 / 6 / एवं कुलेण य बलेण०४ / 7 / एवं कुलेण रुवेण य०४८ ! कुलेण सुएण य०४६ कुलेण य सीलेण य०४।१०। कुलेण च चरित्तेण य०४।११। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-बलसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपन्ने०४।१२। एवं बलेण य सुएण य०४।१३. एवं बलेण य सीलेण य० 4 / 15 / एवं बलेण य चरित्तेणय० 4 / 15 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-रूपसंपन्ने णाममेगे गो सुयसंपन्न०४।१६। एवं रूवेण य सीलेण य०४।१७। रूवेण य चरित्तेण य० 4 / 18 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहासुयसंपन्ने णाममेगे, णो सीललंपन्ने० 4 / 16 / एवं सुएण य चरित्तेण य०५।२०। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता! तं जहासीलसंपन्ने णामभेगेणो चरित्तसंपन्ने०४।२१ / एए एक्षवीस भाणियव्या। एकं पुष्पं रूपसंपन्नं न गन्धसम्पन्नमाकुली पुष्पवत्, द्वितीय च बकुलस्येव, तृतीयं जातेरिय, चतुर्थ वददिरिवेति, पुरुषो रूपसंपन्नो रूपवान सुविहितरूपयुक्तो वेति।७ जाति 6 कुल 5 बल 4 रूप 3 श्रुत 2 शील 1 चारित्रालक्षणेषु सप्तसु पदेषु एकविंशतौ द्धिकसंयोगेषु एकविंशतिरेव चतुर्भङ्गिकाः कार्याः, सुगमाश्चेति। फलानिचत्तारि फला पण्णत्ता। तं जहा-आमलगमहुरे, मुद्दियामहुरे, | खीरमहुरे, खंडमहुरे, / एवामेव चत्तारि आयरिया पण्णत्ता / तं जहा-आमलगमहुरफलसमाणे० जाव खंडमहुर फलसमाणे, चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा आयवेयावचकरे नाममेगे णो पावेयावचकरे० 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहाकरेइ णाममेगे वेयावचं णो पडिच्छइ, पडिच्छइ णाममेगे वेयावचं नो करेइ०४ / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहाअट्ठकरे णाममेगे णो माणकरे, माणकरे णाममेगे णो अट्टकरे, एगे अट्ठकरे वि माणकरे वि, एगे णो अट्ठकरे णो माणकरे। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा गणट्टकरे णाममेगे णो माणकरे० 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-गणसंगहकरे णाममेगे णो माणकर० 1 चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-गणसोभकरे णाम एगे णो माणकरे० 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-गणसोहिकरे णाममेगे णो माणकरे०४ / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-रूवं णाममेगे जहइनो धम्म, धम्म णाममेगे जहइनो रूवं, पि जहइ धम्म पि जहइ, एगे णो रूवं जहइ णो धम्म जहइ / / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-धम्म णाममेगे जहइ णो गणसंठिइं० 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-पियधम्मे णाममेगे णो दढधम्मे, दढधम्मे णाममेगे णो पियधम्मे, एगे पियधम्मे वि दढधम्मे वि, एगे णो पियधम्मे णो दढधम्मे। आमलकमिव मधुरं यदन्यत् आमलकमेव वा मधुरमामलकमधुरम् / (मुद्विय त्ति) मृगीकाद्राक्षा तद्वत्सैव वा मधुरं मृद्रीक्रामधुरम् / क्षीरवत् खण्डवच मधुरमिति विग्रहः / यथैतानि क्रमेणेषबहुबहुतरबहुतमममाधुर्यवन्ति तथा ये आचार्य ईषदबहुबहुतरबहुतमोपशमाऽऽदिगुणलक्षणमाधुर्यवन्तस्ते तत्समानयता व्यपदिश्यन्त इति। आत्मवैयावृत्यकरोऽलसो विसम्भोगिको वा परवैयावृत्यकरः स्वार्थनिरपेक्षः स्वपरवैयावृत्यकरः स्थविरकल्पिकः कोऽपि उभयनिवृत्तोऽनशनविशेषप्रतिपन्नकाऽऽदिरिति, करोत्येवैको वैयावृत्यं निःस्पृहत्वात? प्रतीच्छत्येवान्य आचार्यत्वग्लानत्वाऽऽदिना 2, अन्यः करोति प्रतीच्छति च स्थविरकल्पिकविशेषः 3, उभयनिवृत्तन्तु जिनवाल्पिकाऽऽदिरिति 4 / (अट्टकरे त्ति) अर्थान हिताहित प्राप्तिपरिहाराऽऽदीन् राजादीनां दिग्यात्रादौ तथोपदेशतः करोतीत्यर्थकरो मन्त्री, नैमित्तिको वा, स चार्थकरो नामैको न मानकरः / कथमहमनभ्यर्थितः कथयिष्यमीत्यवलेपवर्जितः। एवभितरे त्रयः / अत्र च व्यवहारभष्यगाथा-"पुट्टा-पुट्ठो पढमो, जत्ताः द्वियाहिय परिकहेइ / तइओ पुट्ठो सेसा, उ णिप्फला, एव गच्छे वि // 1 // इति / गणस्यसाधुसमुदायस्याऽर्थान-प्रयोजनानि करोतीति गणार्थकरः आहाराऽऽदिभिरुषष्टम्भकः, नचमानकरोऽभ्यर्थनानपेक्षवात्। एवं त्रयोऽन्ये। उक्तंच-'"आहारउवहिसयणाइएहिँ गच्छस्सुवागहंकुणइ। वीओनजाइमाण, दोन्नि वि तइओन उ चउत्थो ॥१॥"इति / अथवा (नो माणकरो त्ति) ग Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1027- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय च्छार्थकरोऽऽहमिति न माद्यतीति / अनन्तरं गणस्यार्थ उक्तः स च सडग्रहोऽत आह-(गणसंगहकरे त्ति) गणस्याऽऽहारादिना ज्ञानाऽऽदिना च सङ्ग्रहं करोतीति गणसंग्रहकरः / शेषं तथैव / उक्तं च-'सो पुण गच्छस्सऽट्ठो, उसंगहो तत्थ संगहोदुविहो। दव्वे भावे नियमा, एउ हों ति आहारणाणाऽऽदी / / 1 / / " आहारोपधिशय्याज्ञानाऽऽदीनीत्यर्थः, न माद्यति, गणस्यानवद्यसाधुसामाचारीप्रवर्तनेन वादिधर्मकथिनैमित्तिकविद्यासिद्धत्वाऽऽदिना वा शोभाकरणशीलो गणशोभाकरी, नो मानकरोऽभ्यर्थनाऽपेक्षितया मदाभावेन वा, गणस्य यथायोग प्रायश्चित्तदानादिना शोद्धि-शुद्धिं करोतीति गणशोधिकरः / अथवां-शविते भत्काऽऽदौ सति गृहि-कुले गत्वाऽनभ्यर्थितो भक्तशुद्धिं करोतियः स प्रथमः, यस्तुमानान्न गच्छति स द्वितीयाः, यस्त्वभ्यर्थितो गच्छति स तृतीयः, यस्तु नाभ्यर्थनाऽपेक्षी नापि तागन्ता स चतुर्थ इति। रूपंसाधुनेपथ्यं जहातित्यजति कारणवशात् न धर्मचारित्रलक्षणं बोटिकमध्यस्थितमुनिवत्, अन्यस्तु धर्म न रूपं निह्नववत्, उभयमपि उत्प्रव्रजितवत्, नोभयं सुसाधुवत् धर्म त्यजत्येको जिनाऽऽज्ञारूपन गणसंस्थितिं स्वगच्छकृतां मर्यादाम् / इह कैश्चिदाचार्यः तीर्थकरानुपदेशेन संस्थितिः कृता, यथा-नारमाभिर्महाकल्पाद्यतिशयश्रुतमन्यगणसत्काय देयमिति, एवं च योऽन्यगणसत्काय न तद्ददाविति स धर्म त्यजति न गणस्थिति, जिनाऽऽज्ञाननुपालनात्, तीर्थकरोपदेशोह्येवसर्वेभ्यो योग्येभ्यः श्रुतदातव्यमिति प्रथमो, यस्तु ददाति स द्वितीयः, यस्त्वयोग्येभ्यः तद्ददाति स तृतीयः, यस्तु श्रुताव्यवच्छेदार्थं तदव्यवच्छेदसमर्थस्य परशिष्यस्य स्वकीयदिग्बन्ध कृत्वा श्रुतं ददाति तेन न धर्मो नापि गणसंस्थितिस्त्यक्तेति स चतुर्थ इति / उक्तञ्च-"सयमेव दिसाबंधं, काऊण पडिच्छगस्स जो देइ / उभयमवलंबमाणं, कामं तु तयं पि पूएमो॥१॥'इति। प्रियो धर्मो यस्य तत्र प्रीतिभावेन सुखेन च प्रतिपत्तेः स प्रियधर्मा, न च दृढो धर्मो यस्य, आपद्यपि तत्परिणामाऽविचलनात्, अक्षोभत्वादित्यर्थः / स दृढधर्मेति। उक्तञ्च-दस विहवेयावञ्चे, अण्णतरे खिप्पमुज्जम कुणइ / अञ्चंतमणेव्वाणिं, घिइविरियकिसो पढमभंगो॥१॥" अन्यस्तुदृढधर्मा अङ्गीकृतापरित्यागान्न तु प्रियधर्मा, कष्टेन धर्मप्रतिपत्तेः / इतरौ तु सुज्ञानौ / उक्त च-"दुक्खेण उगाहिजइ, बीओ गहियं तु नेइ जा तीरं। उभयं तो कल्लाणो, तइओ चरमो उपडिकुट्ठो' / स्था० 4 ठा० 3 उ०। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-पियधम्मे नाम एगे नो दढधम्मे, दढधम्मे नाम एगे नो पियधम्मे, एगे पियधम्मे वि दढधम्मे वि, एगे नो पियधम्मे नो दढधम्मे / / अस्य संबन्धमाहधम्मो नो जहियव्वो, गणसंठितिमित्थ नो पसंसामो। जस्स पिओ सो धम्मो, सो न जहति तस्सिमो जोनो। 762|| अनन्तरसूत्रो इदमुक्तम्-'"गठसंठिति नामेगे जहति नो धम्म / तत्र यस्य प्रियो धर्मः स एवं चिन्तयतिधर्मो नत्यक्तव्यो, गणसंस्थितिमत्रान प्रशंसामः, एवं चिन्तयित्वा धर्म न जहाति / एष तस्य प्रियधर्मसूास्य योगः। संप्रति प्रियधर्माऽऽदिव्याख्यानार्थमाह वेयावचेण मुणी, उवचिट्ठइ संगहेण पियधम्मो। उवचिट्ठइ दढधम्मो, सव्वेसिं निरतियारो य॥७६३ || प्रियधर्मा मुनिर्यावत व्यतः आहारदिना, भावतो वाचनाऽऽदिना येन संगृह्यते तावत् वैयावृत्त्वेन तस्योपतिष्ठते नान्यदा, अन्यस्य वा, दृढधर्मः सर्वेषामविशेषण वैयावृश्येनोपतिष्ठते तावत्सर्वत्र च निरतिचारः। संप्रति भङ्गयोजनामाह - दसविहवेयावचे, अन्नयरे खिप्पमुज्जम कुणइ। अचंतमणिव्वाही, घितिविरियकिसे पढमभंगो / / 765 / / यो दशविधस्व वैयावृत्त्यस्य वक्ष्यमाणस्यान्यतरस्मिन् वैयावृत्त्यै प्रियधर्मतया क्षिप्रमुद्यमं करोति, केवलमदृढधर्मतया अत्यन्तमनिर्वाही तस्मिन् धृतिवीर्यकृशे प्रथमभङ्गः। दुक्खेण उ गाहिज्जइ, विइओ गहियं तु नेइ जा तीरं / उभयत्तो कल्लाणो, तइओ चरिमो अ परिकुट्ठो।। 765 // द्वितीयस्तु प्रियधर्मत्वात् दुःखेन महता कष्टन प्रथमतो वैयावृत्यं ग्राह्यते, गृहीतं तु यावत्प्रतिज्ञायास्तीरं तावन्नयति। उभयतः कल्याणस्तृतीयः / चरमोन प्रियधर्मो नाऽपि दृढधर्म इत्येवरूपो गच्छे प्रतिक्रुष्टो निराकृतः। व्य०१० उ०। आत्मम्भरि:चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-आयंभरे णाममेगे णो परंभरे, परंभरे णाममेगे णो आयंभरे, एगे आयंभरे वि परंभरे वि, एगे णो आयंभरे णो परंभरे / / (चत्तारित्यादि)आत्मनं विभर्तिपुष्णातीति आत्मम्भरिः, प्राकृतत्वात् 'आयभरे' इति। तथा परं विभीतिपरम्भरिरिति, प्राकृतत्वात् परंभरे, इति / तत्रा प्रथमभङ्गे स्वार्थकारक एव स च जिनकल्पिकः / द्वितीयः परार्थकारक एव। स च भगवानहस्तस्य विवक्षया सकलस्वार्थसमाप्तेः वरप्रधानप्रयोजनप्रापप्रवणप्राणितत्वात् / तृतीये स्वपरार्थकारी, स च स्थविरकल्पिको विहितानुष्ठानतःस्वार्थकरत्वाद्विधिवत्सिद्धान्तदेशनातश्च परार्थ सम्पादकत्वात् / चतुर्थे तूभयानुपकारी, स च मुग्धमतिः कश्चिद् यथाच्छन्दो वेति। एवं लौकिकपुरुषोऽपि योजनीयः। दुर्गतः - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-दुग्गए णाममेगे दुग्गए, दुग्गए णाममेगे सुग्गए, सुग्गए णाममेगे दुग्गए, सुग्गए णाममेगे सुग्गए / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा दुग्गए णाममेगे दुव्वए, दुग्गए णामं एगे सुव्वए, सुग्गए णाममेगे दुय्वए, सुग्गए णामं एगे सुव्वर 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहादुग्गए णाममेगे दुप्पडियाणंदे, दुग्गए णाममेगे सुप्पडियाणंद० 4 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-दुग्गए णाममेगे दुग्गइगामी, दुग्गए णाममेगे सुगइगामी०४ / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-दुग्गए णाममेगे दुग्गइं गए, दुग्गए णाममेगे सुगइं गए०४। Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1025- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय उभयानुपकारी च दुर्गत एव स्यादिति दुर्गतसूत्रम् दुर्गतीदरिद्रः, पूर्व धनविहीनत्वात् ज्ञानाऽऽदिरत्नविहीनत्वाद्वा, पश्चादपि तथैव दुर्गत एवेति / अथवा दुर्गतो द्रव्यतः पुनर्दुर्गतो भावत इति प्रथमः, एवमन्ये त्रयो, नवरं सुगतो द्रव्यतो धनी भावतो ज्ञानाऽऽदिगुणवानिति, दुर्गतः कोऽपिव्रती स्यादिति दुव्रतसूत्रम्।दुर्गतीदरिद्रः दुर्वतोऽसम्यग्वतः, अथवा दुर्व्ययः आयनिरपेक्षव्ययः, कुस्थानव्ययो वेति एकः। अन्यो दुर्गतः सन् सुव्रतो निरतिचारनियमः, सुव्ययो वाऔचित्यप्रवृत्तेरिति। इतरी प्रतीतौ / दुर्गतस्तथैव दुःप्रत्यानन्द उपकृतेन कृतमुपकारं यो नाभिमन्यते, यस्तु मन्यते तं स सुप्रत्यानन्द इति दुर्गतोदरिद्रःसन् दुर्गतिं गमिष्यतीति दुर्गतिगामीत्येवमन्येऽपि, नवरं सुगतिं गमिष्यतीति सुगतिगामी, सुगत ईश्वर इत्यर्थः / दुर्गतस्तथैवदुर्गतिं गतः याप्राजनकुपित तन्मारणप्रवृत्तद्रमकवत्, एवमन्ये त्रयः। तमःचत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-तमे णामं एगे तमे, तमे णामं एगे जोई,जोई णाममेगे तमे,जोई णाममेगे जोई। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-तमे नाममेगे तमबले, तमे नाममेगे जोतिबले, जोती नाममेगे तमबले, जोती नाममेगे जोतीबले / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-तमे नाममेगे तमबलपलज्जणे, तमे नाममेगे जोतीबलपलज्जण०४। तम इव तमः पूर्वमज्ञानरूपत्वादप्रकाशत्वाद्वा पश्चादपि तम एषेत्येकः, अन्यस्तु तमः पूर्वं पश्चाज्जयोतिरिव ज्योतिः उपार्जितज्ञानत्वात् प्रसिद्धिप्राप्तत्वादा। शेषौ सुज्ञानौ / तमः कुकर्म कारितया मलिनस्वभावास्तमः-अज्ञातं बलं सामर्थ्य यस्य तमः-अन्धकार वा तदेव तत्र वा बलं यस्य सतथा। असदाचारवानज्ञानी रात्रिचरोवा चौराऽऽदिरित्येकः। तथा तमस्तथैव ज्योतिः ज्ञानं बलं यस्य आदित्याऽऽदिप्रकाशो वा ज्योतिस्तदेव तत्रा वा बलं यस्य स तथा, अयं चासदाचारो ज्ञावान् दिनचारी वा चौराऽऽदिरित द्वितीयाः / ज्योतिः सत्कर्मकारितयोज्जवल स्वभावस्तमोबलस्तथैव, अयं च सदाचारवान् अज्ञानी कारणान्तरादा रात्रिचर इतितृतीयः। चतुर्थः सुज्ञानः अयञ्च सदाचारवान् ज्ञानी दिनचरो वेति। तथा तमस्तथैव (तमबलपलज्जणे त्ति) तमा मिथ्याज्ञानमन्धकार वा तदेव बलं तावा, अथवा तमस्युक्तरूपे बलेच सामथ्ये प्ररज्यते रति करोतीति तमोबलप्ररज्जनः / एवं ज्योतिर्बलप्ररजनोऽपि, नवरं ज्योतिः सम्यग्ज्ञानमादित्याऽऽदि प्रकाशो वेतिञ्जएवमितरावपि / इहापित एवपूर्वसूत्रोक्ताः पुरुषविशेषाः प्ररजनविशेषिता द्रष्टव्याः / अथवा तमस्तथैवाप्रसिद्धो वा तमोबलेनान्धकारबलेन संचरन् प्रलज्जते इति तमोबलप्रलज्जनः प्रकाशचारी / एवमितरोऽपि, नवरं द्वितीयोऽन्धकारचारी, तृतीयः प्रकाशचारी, चतुर्थः कुतोऽपि कारणदन्धकारचार्येवेति / " पज्जलणे ति 'क्वचित्पाठः / तत्राज्ञानबलेनान्धकारबलेन वा ज्ञानबलेन वा प्रकाशबलेन वा प्रज्वलतिदर्पितो भवति अवष्टम्मं करोति यः स तथेति। परिज्ञातकर्मा - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-परिण्णायकम्मे णाममेगे णो परिण्णायसपणे, परिण्णायसपणे णाममेगे णो परिणायकम्मे, एगे परिण्णायकम्मे विपरिण्णायसपणे वि, एगे नोपरिण्णायकम्मे नो परिण्णायसण्णे / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-परिण्णायकम्मे णाममेगे गो परिण्णाय-गिहावासे, परिणायगिहावासे णामं एगे गो परिण्णायकम्मे०४ / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-परिण्णायसण्णे णाममेगे णो परिणायगिहावासे, परिण्णायगिहावासे णाममेगे०४ / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ताातं जहा-इहत्थे णाममेगे णो परत्थे, परत्थे णाममेगे णो इहत्थे०४। परिज्ञातानिज्ञपरिज्ञया स्वरुपतोऽवगतानि प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहतानि कर्माणि कृष्यादीनि येन स परिज्ञातकर्मा (नो), न च परिज्ञाताः संज्ञा आहारसंज्ञाऽऽद्या येन स परिज्ञातसंज्ञः, अभावितावस्थ:-प्रव्रजितः श्रावको वेत्येकः 1 / परिज्ञातसंज्ञः सद्- भावनाभावितस्वान्न परिज्ञातकर्मा कृष्याद्य निवृत्तेः श्रावक इति द्वितीय, तृतीयः साधुः, चतुर्थ असंयत इति / परिज्ञातकर्मासावधकरणकारणानुमतिनिवृत्त कृष्यादिनिवृत्तो वा न परिज्ञातगृहावासोऽप्रव्रजित इत्येकः, अन्यस्तु परिज्ञातगृहावासो न त्यक्ताऽऽरम्भो दुःप्रवजित इति द्वितीयः, तृतीयः साधुः चतुर्थोऽसंयतः, त्यक्तसंज्ञो विशिष्टगुणस्थानकत्वादत्यक्तगृहावासो गृहस्थत्वादेकः, अन्यस्तु परिहतगृहावासो यतित्वादभावितत्वान्न परिहतसंज्ञः, अन्य उभयथा, अन्यो नोभयथेति / इहैव जन्मनि अर्थः प्रयोजन भोगसुखाऽऽदि आस्था वा इदमेव साध्विति बुद्धिर्यस्य स इहार्थ इहास्थो वा भोगपुरुष इह लोकप्रतिबद्धो वा, पौव जन्मान्तरे अर्थः आस्था वा यस्य सपरार्थः परास्थो वा साधुर्वालतपस्वी वा / इह परत्रा च यस्यार्थ आस्था वा स सुश्रावक उभयप्रतिबद्धो वा उभयप्रतिषेधवान् कालसौ(शौ) करिकादिर्मूढो वेति / अथवा-इहैव विवक्षिते ग्रामाऽऽदौ तिष्ठतीति इहस्थः तत्प्रतिबन्धान्न परस्थोऽन्यस्तु परत्रा प्रतिबन्धात् परस्थः, अन्यस्तूभयस्थोऽन्यः सर्वाप्रतिबद्धत्वानुभयस्थः साधुरिति। चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-एगेणं णाममेगे बड्डइ एगेणं हायइ, एगेणं णाममेगे वडइ दोहिं हायइ, दोहिं णाममेगे बड्डइ एगेणं हायइ, एगे दोहिं णाममेगे वड्डइ दोहिं हायइ।। एकेनेति, श्रुतेन एकः कश्चिद्वर्द्धत एकेनेति सम्यग्दर्शनन हीयते / यथोत्कम्-"जह जह बहुस्सुओ संमओ य सीसगणसंपरिवुडो य / अविणिच्छिओ य समए, तह तह सिद्धंतपडिणीओ'।।१।। इति एकः / तथा एकेन श्रुतेनैवान्यो वर्द्धत द्धाभ्यां सम्यग्दर्शनविनयाभ्यां हीयत इति द्वितीयः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्याभन्यो वर्द्धते एकेन सम्यग्दर्शनेन हीयत इति तृतीयः, द्वाभ्यां श्रुतानुष्ठानाभ्यामन्यो वर्द्धते द्वाभ्यां सम्यग्दर्शनविनयाभ्यां हीयत इति चतुर्थः / अथवा-ज्ञानेन वर्द्धते रागेण हीयत इत्येकः, अन्योज्ञानेनवर्द्धते रागद्वेषाभ्यां हीयत इति द्वितीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते रागेण हीयत इति तृतीयः, अन्यो ज्ञानसंयमाभ्यां वर्द्धते राग Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1026- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय द्वेषाभ्यां हीयत इति चतुर्थः / अथवा-क्रोधेन वर्द्धते मायया हीयते कोपेन वर्द्धते मायालोभाभ्या हीयते क्रोधमानाभ्यां वर्द्धते हीयते क्रोधमानाभ्यां वर्द्धत मायालोभाभ्यां हीयत इति। प्रकन्थकाःचत्तारि पकथंगा पण्णत्ता / तं जहा-आइन्ने णाममेगे आइन्ने, आइन्ने नाममेगे खलुंके, खलुंके णाममेगे आइन्ने, खलुंके णाममेगे खलुंके 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-आइन्ने णाममेगे आइन्ने. च उभंगो / चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता / तं जहा-आइन्ने णाममेगे आइन्नयाए विहरइ, आइन्ने णाममेगे खलुंकयाए विहरइ०४ / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता।तं जहा-आइन्ने णाममेगे आइन्नत्ताए विहग्इ० चउभंगो। चत्तारि पकंथगा पण्णत्ता / तं जहा-जाइसंपन्ने णाममेगे णो कुलसंपन्न०४ / एवामेव चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहाजाइसंपन्ने णाम एगे० चउभंगो। चत्तारि कंथगा पणत्ता। तं जहाजाइसंपण्णे णाममेगे। णो बलसंपन्न० 4 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-जाइसंपन्ने णाममेगे णो बलसंपण्णे०।। चत्तारि कंथगा पन्नता / तं जहा-जाइसंपण्णे णाममेगे णो रूवसंपन्ने० 4 / एवामेव चत्तारि पुरसिजाया पण्णत्ता / तं जहा-जाइसंपन्ने णाममेगे णो रूवसंपन्ने०४ / चत्तारि कंथगा पन्नत्ता / तं जहा- जाइसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने० 4 एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता / तं जहा-जाइसंपन्ने० 4 / एवं कुलसंपन्नेण य, बलसंपन्नेण य 04 / कुलसंपन्नेण य रूवसंपन्नेण य० 4 / कुलसंपन्नेण य,जयसंपन्नेण य० / बलसंपन्नेण य रूवसंपन्नेण य०४।बलसंपन्नेण य, जयसंपन्नेण य०४। सव्वत्थ पुरिसजाया पडिवक्खो। चत्तारि कंथगा पन्नता। तं जहा-रुवसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने०४ / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता। तं जहा रूवसंपन्ने णाममेगे णो जयसंपन्ने०४। प्रकन्थकाः, पाठान्तरतः कन्थका वा-अश्वविशेषः, आकीर्णो व्यस्तो जवाऽऽदिगुणैः पूर्व पश्चादपि तथैव। अन्यस्त्वाकीर्णः पूर्व पश्चात् खलुङ्कोगलिर विनीत इति। अन्यः पूर्व खलुङ्कपश्चादाकीर्णोगुणवानिति चतुर्थः / पूर्व पश्चादपि खलुङ्कः एवेति। आकीर्णोगुणवान् आकीर्णतया गुणवत्तया विनयवेगाऽऽदिभिरित्यर्थः / वहति प्रवर्तते, विहरतीति पाठान्तरम् / सिंहतया - चत्तारि पुरिसजाया पन्नता।तं जहा-सीहत्ताए णाममेगे निक्खंते सीहत्ताए विहरइ, सीहत्ताए णाममेगे निक्खंते सियालत्ताए विहरइ, सियालत्ताए णाममेगे निक्खंते सीहत्ताए विहरइ, सियालत्ताए णाममेगे निक्खंते सियालत्ताए विहरह। (327 सूत्र) सिंहतया-ऊर्जवृत्या निष्कान्तो गृहवासात् तथैव च विहरति उद्यतविहारेणेति / शृगालतया दीनवृत्येति। स्था० 4 ठा० 3 उ० / तिर्यग्लोकाधिकारातत्सम्भवं संयताऽऽदि पुरुष भेदैराहचत्तारि पुरिसजाया पन्नता / तं जहा-हिरिसत्ते हिरिमणसत्ते चलसत्ते थिरसत्ते। (330 सूत्र) (चत्तारि इत्यादि) हिया-लजया सत्वं-परीषहाऽऽदिसहने-रणाडणे वा अवष्टम्भो यस्य स हीसत्वः। तथा हिया हसिष्यन्ति मामुत्तमकुलजातं जना इति लज्जया मनस्येव न काये रोमहर्षकम्पाऽऽदिभयलिङ्गोपदर्शनात् सत्वं यरय सहीमनःसत्वः, चलम्-अस्थिर परीषहाऽऽदिसम्पाते ध्वंसात्सत्वं यस्य स चलसत्वः, एतद्विपर्ययात्स्थिरसत्त्व इति। स्था०४ ठा०३ उ०। चत्तारि पुरिसजाया पन्नता / तं जहा-वणकरे नाममेगे नो वणपरिमासी, वणपरिमासी णाममेगे नो वणकरे, एगे वणकरे चत्तारि पुरिसजाया पन्नता / तं जहा-वणकरे णाममेगे नो वणसारक्खी०४ 12 / चत्तारि पुरिसजाया पन्नता / तं जहावणकरे णाममेगे नो वणसरोही०४।३। चत्तारिवणा पन्नता। तं जहा-अंतो सल्ले णाममेगे णो बाहिं सल्ले०४।१। एवामेव पुरिसजाया पन्नता / तं जहा-अंतो सल्ले णाममेगे णो बाहिं सल्ले०४।२। चत्तारिवणा पन्नता। तं जहा-अंतो दुखू नाममेगे नो बाहिं दुढे, बाहिं दुढे नाममेगे नो अंतो दु४० 4 / 3 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नता। तं जहा-अंतो दुढे नाममेगे नो बाहिं दुद्वे०४।४। अथाऽऽत्वचिकित्सकान् भेदतः सूत्रत्रयेणाऽऽह- 'चत्तारि इत्यादि कण्ठ्या नवरं व्रण देएक्षतं स्वयं करोति रुधिराऽऽदिनिर्गालनार्थमिति व्रणकरो नो-नैव व्रण परिमृशतीत्ये वंशीलोव्रणपरिमीत्येकः। अन्यस्त्वन्यकृतं व्रणं परिमृशति न च तत् करोतीति / एवं भावव्रणम् अतिचारलक्षण करोति कायेन न च तदैव परिमृशतिपुनः पुनः संस्मरणेन स्पृशति। अन्यस्तु तत्परिभृशत्यभिलाषान्न च करोति कायतः संसारभयाऽऽदिभिरिति। व्रणं करोति न च तत्पट्टबन्धाऽऽदिना संरक्षति, अन्यस्तु कृतं संरक्षित न च करोति, भावव्रणं त्वाथित्यातिचार करोति न च तं सानुबन्धं भवन्तं कुशीलाऽऽदिसं आरोहकगुणात् आकीर्णगुणतया वहति / चतुर्थः प्रतीतः। सूत्रद्वयेऽपि पुरुषाः दार्टान्तिका योज्याः, सूत्रे तु कृचिन्नोक्ताः, विचित्रात्वात् सूत्रा गतेरिति 5 / जाति कुल ३बलररूप१जयपदेषु दशभिर्दिकसंयोगेर्दशैव प्रकन्थकदृष्टान्तचतुर्भङ्गीसूत्राणि, प्रत्येक तान्येवानुसरन्ति सन्ति दश दार्शन्तिकपुरुषसूत्राणि भवन्तीति, नवरं जयः-पराभिभव इति। Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1030- अभिधानराजेन्द्रः -- भाग-५ पुरिसजाय सर्गतन्निदानपरिहारतोरक्षत्येकोऽन्यस्तु पूर्वकृतातिचारति दानपरिहारतो रक्षति नवं च न करोति, 'नो' नैव व्रणं संरोहयत्यौषधदानाऽऽदिनेति द्रणसरोही, भावव्रणापेक्ष्या तु नो व्रणरोही प्रायश्चित्ताप्रतिपत्तेः, व्रणसरोही पूर्वकृताऽतिचारप्रायश्चित्तप्रतिपत्या, नो व्रणकरोऽपूर्वातिचारा कारित्वादिति / उक्ता आत्मचिकित्सकाः / अथ चिकित्स्यं व्रण दृष्टान्तीकृत्य पुरुषभेदानाहा- (चत्तारीत्यादि) चतुःसूत्री सुगमा, नवरम्, अन्तः-मध्ये शल्यं यस्य अदृश्यमानमित्यर्थः तत्तथा। (बाहिं सल्ले ति) यच्छल्यं व्रणस्यान्तरल्पं बहिस्तुबहु तद् बहिरिव बहिरित्युच्यते अन्तो बहिः शल्यं यस्य तत्तथा, यदिपुनः सर्वथैव तत्ततो बहिः स्यात्तदा शल्यतैव न स्यादुदधृतत्वे वा भूतभावितया स्यादपीति 2, या पुनरन्तर्बहि बहिरप्युपलभ्यते तदुभयशल्यम् 3, चतुर्थः शून्य इति 4 / गुरुसमक्षमनालोचितत्वेनान्तः शल्यमतिचाररूपं यस्य स तया, बहिः शल्यमालोचिततया यस्य तत्तथा अन्तर्बहिश्च शल्यमालोचितानालोचितत्वेन यस्य स तथा। चतुर्थः शून्यः / अन्तर्दृष्टवणं लूताऽऽदिदोषतो, न बही रागाऽऽद्यभावेन सौम्यत्वात् ४।पुरुषस्तु अन्तर्दुष्टः शठतया संवृत्ताऽऽकारत्वात् न बहिरित्येकः, अन्यस्तु कारणेनोपदर्शितवाक्यारुष्याऽऽदित्वात् बहिरेवेति। श्रेयान्चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-सेयंसे नाममेगे सेयंसे, सेयंसे नाममेगे पावंसे, पावंसे नाममेगे सेयंसे, पावंसे नाममेगे पांवसे 1 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा- सेयंसे नाममेगे सेयंसे त्ति सालिसए, सेयंसे नाममेगे पावंसे त्ति सालिसए०४। 2 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-सेयंसे ति णाममेगे सेयंसे त्ति मण्णइ, सेयंसे त्ति नाममेगे पावंसे त्ति मण्णइ०४। 3 / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-सेयंसे नाममेगे सेयंसे त्ति सालिसए मन्नइ, सेयंसे नाममेगे पावंसे त्ति सालिसए मन्नइ०४|४| पुरुषाधिकारात् तद्भेदप्रतिपादनाय षटसूत्री, कण्ट्या च, किन्तु अतिशयेन प्रशस्यः श्रेयानेकः प्रशस्यभावः सद्बोधत्वात् पुनः श्रेयान् प्रशस्तानुष्ठानत्वा साधुवदित्येकः 1, अन्यस्तु श्रेयांस्तथैव अतिशयेन पापः पापीयान, स चाविरतत्वेन दुरनुष्ठायित्वादिति 2. अन्यस्तुपापीयान् भावतो मिथ्यात्याऽऽदिभिरुपहृतत्वात् कारणवशात् सदनुष्ठायित्वाच श्रेयान् उदायिनृपमारकवत् 3, चतुर्थः स एव कृतपाप इति 4 / अथवा - श्रेयान् गृहस्थत्वे निष्क्रमणकाले वा पुनः श्रेयान् प्रवज्यायां विहारकाले वेत्येवमन्येऽपि। श्रेयानेको भावतो, द्रव्यस्तु श्रेयान-प्रशस्यतर इति एवं बुद्धिजनकत्वेन सदृशकोऽन्येन श्रेयसा तुल्यो न तु सर्वथा श्रेयानेवेति एकः, अन्यस्तु भावतः श्रेयानपि द्रव्यतः पापीयानित्येवं बुद्धिजनकत्वेन सदृशकोऽन्येन पापीयसा समानो नतुपापीयानेवेति द्वितीयः 2, भावतः पापीयानप्यन्यः संवृताऽऽकारतया श्रेयानित्येवं बुद्धिजनकतया सदृशकोऽन्येन श्रेयसेति तृतीयः / चतुर्थः सुज्ञानः / श्रेयानेकः सदवृत्तत्वात् श्रेयानित्येवमात्मानं मन्यते यथावद्-बोधाल्लोकेन वा मन्यते विशद- शुभानुष्ठानात्। इह च-''मन्नि-जइ''इति वक्तव्ये प्राकृतत्वेन ''मन्नइ" इत्युक्तं, श्रेयानप्यन्य आत्मन्यरुचिपरायणत्वात् पापीयानित्यात्मान मन्यते, स एव वा पूर्वोपलब्धतघोषेण जनेन मन्यते दृढप्रहदारिवत् 1, पापीयानप्यपरो मिथ्यात्वाऽऽद्युपहतत्तया श्रेयानित्यात्मानं मन्यते, कुतीर्थिकवत्, तद्भक्तेत्केन वेति २,पापीयानन्योऽविरतिकत्वात् पापीयानित्यात्मानं मन्यते, सद्वोधत्वात्, असंयतो वा मन्यते, संयतलोकेनेति 3, श्रेयानेको भावतो द्रव्यतस्तु किञ्चित्सदनुष्टायित्यात् श्रेयानित्येवं विकल्पजनकत्वेन सदृशकोऽन्येन श्रेयसा मन्यतेज्ञायते जनेनेति विभक्तिपरिणमाद्वा सदृशकमात्मानं मन्यत इति एवं शेषाः / / आख्यायकः - चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता / तं जहा-आघवइत्ता नाममेगे नो परिभावइत्ता, परिभावइत्ता णाममेगे नो आघवइत्ता० 4 / 5 / चत्तारि पुरिसजाया पन्नता / तं जहा-आघव इत्ता णाममेगे नो उंछजीविसंपन्ने, उंछजीविसंपन्ने नाममेगे नो आघवइत्ता०४।६। (आघवइत्ते त्ति) आख्यायकः-प्रज्ञापकः प्रवचनस्य एकः कश्चिन्न च प्रविभावयिता प्रभावयिता प्रभावकः शासनस्य उदाराक्रियाप्रतिमाऽऽदिरहितत्वात् प्रविभाजयिता वा प्रवचनार्थस्य नयोत्सर्गाऽऽदिभिर्विवेचयितेति / अथवा आख्यायकः सूत्रस्य प्रविभावयिता प्रविभाजयिता वाऽर्थस्येति, आख्यायकएकः सूत्रार्थस्य न चोञ्छजीविकासम्पन्नो नैषणानिरत इत्यर्थः / स चापगतः संविग्रः संविग्रपाक्षिको वा। यदाह "हुजहु वसणं पत्तो, सरीरदुब्बल्लयाएँ असमत्थो। चरणकरणे असुद्धे, सुद्ध मग्गं परूवेज्जा / / 1 / / तथा"ओसण्णो वि विहारे, कम्मं सिढिलेइ सुलहबोही य। चरणकरणं विसुद्ध, उववूहंतो परुवेतो।।२॥" (शरीरदौर्बल्येनाऽसमर्थः व्यसनं प्राप्तो भवेत्) (तथाऽपि) अशुद्धे चरणकरणे शुद्ध मार्ग प्ररूपयेत्॥१॥ विहारेऽवसन्नोऽपि कर्म शिथिलयति सुलभबोविश्च विशुद्धं चरणकरणमुपद्व्हयन् प्ररूपयंश्च / / 2 / / इत्येकः, द्वितीयो यथाच्छन्दः, तृतीयः साधुः चतुर्थी गृहस्थाऽऽदिरिति। पूर्वसूत्रे साधुलक्षणपुरुषस्याऽऽख्यायकत्वोच्छजीविका सम्पन्नत्वलक्षणा गुणविभूषोक्ता / स्था०४ ठा०४ उ०। मेघदृष्टान्तःचत्तारि मेहा पण्णत्ता / तं जहा-गजित्ता नाममेगे णो वासिता, वासित्ता नाममेगे णो गजिता, एगे गजिता वि वासित्ता वि, एगे णो गजिता णो वासित्ता 1 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-गजित्ता नाममेगे णो वासित्ता० 412 / चत्तारि मेहा पण्णत्ता / तं जहा-गजिता नाममेगे णो विजुयाइत्ता, विजुयाइत्ता नाममेगे० 4 / 3 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा गञ्जित्ता नाममेगे णो विजुयाइत्ता० 4 चत्तारि मेहा पण्णत्ता / तं जहा-वासित्ता नाममेगे णो Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1031- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय विज्जुयाइत्ता० 4 / 5 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-वासित्ता णाममेगे णो विजुयाइत्ता० 4 / 6 / चत्तारि मेहा पण्णत्ता। तं जहा-कालावासी नाममेगे णो अकालवासी०४ / 7 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-कालवासी / नाममेगे णो अकालवासी०४८ 1 चत्तारि मेहा पण्णत्ता / तं जहा-खेत्तवासी नाममेगे णो अखेत्तवासी० 4 / / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्त / तं जहा-खेत्तवासी नाममेगे णो अखेत्तवासी०४।१०। "चत्तारि मेहेत्यादीनि सुगमानि च, नबरं मेघाः-पयोदाः, गर्जितः गर्जितकृत, नो वर्षिता न प्रवर्षणकारीति १एवं कश्चित्पुरुषो गर्जितव, गर्जिता दानज्ञानव्याख्यानानुष्ठानशत्रुनिग्रहाऽऽदिविषये उचैः प्रतिज्ञावान, नो-नैव वर्षितेव वर्षिता-वर्षकोऽभ्युपगत सम्पादक इत्यर्थः / अन्यरतु कार्यकर्ता न चोचैः प्रतिज्ञावानिति / एवामितरावपि नेयाविति 2 // (विजुयाइत्त त्ति) विद्युकर्ता३। एवं पुरुषोऽपि कश्चिदुधैः प्रतिज्ञाता, न च विद्युत्कारतुल्यस्य दानाऽऽदिप्रतिज्ञातार्थाऽऽरम्भाऽऽडम्बरस्य कर्ता, अन्यस्त्वारम्भाऽऽडम्बरस्य कर्तान प्रतिज्ञातेति। एवमन्याक्पीति 4. वर्षिता कश्चिदानाऽऽदिभिर्न तु तदारम्भाऽऽडम्बरकर्ता, अन्यस्तु विप-रीतोऽन्य उभयथा अन्यो न किश्चिदिति 5,6, कालवर्षी अक्सरवर्षीति / एवमन्येऽपि 7, पुरुषस्तु कालवर्षीव कालवर्षी-अवसरे दानव्याख्यानाऽऽदिपरोपकारार्थप्रवृत्तक एकः, अन्यस्त्वन्यथेति / एवं शेषौ 8 / क्षेत्रं धान्याऽऽद्युत्पत्ति स्थानम्, पुरुषस्तु क्षेत्रावर्षी च क्षेत्रवर्षीपात्रे दानश्रुताऽऽदीनां निक्षेपकः, अन्यो विपरीतोऽन्यस्तथाविधविवेकविकलतया महौदार्यात् प्रवचनप्रभावनाऽऽदिकारणतो वा उभयरवरूपोऽन्यस्तु दानादावप्रवृत्तकः 10 // इति / स्था० 4 टा०४ उ०। चत्तारि गोला पण्णत्तातं जहा-मधु(हु) सित्थगोले, जउगोले दारुगोले, मट्टियागोले / 24 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता।तं जहा-मधुसित्थगोलसामाणे०४।२५ / चत्तारि गोला पण्णत्ता / तं जहा-अयगोले, तउगोले, तंवगोले, सीसागोले, 26 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-अयगोलसमाणे० जाव सीसगोलसमाणे, 26 / चत्तारि गोला पण्णत्ता। तं जहाहिरणागोले, सुबएणगोले, रयणगोले, वयरगोले, 10, एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-हिरण्णगोलसमाणे० जाव वयरगोलसमाणे // 26 // (चत्तारीत्यादि) मधुसि (क्थं) त्थ-मदनं, तरय गोलोवृत्तपिण्डो मधुसि (क्थ) त्थगोलः / एवमन्येऽपि, नवरंजतुलाशा, दारुमृत्तिके प्रसिद्धे।२४। / इति / यथैते गोला मृदुकठिनकठिनतरकठिनतमाः क्रमेण भवन्त्येवं ये पुरुषाः परीषहाऽऽदिषु मृदुदृढतरदृढतमसत्वा भवन्ति ते मधुसि (क्थ) त्थगोलकसमाना इत्यादिभिर्व्यपदेशैर्व्यपदिश्यन्त इति 25 / अयगोलाऽऽदयः प्रतीता 26 / एतैश्चाऽयोगोलकाऽऽदिभिः क्रमेण गुरुगुरुतरगुरुतमात्यन्तगुरुभिरारम्भा दिविचित्रप्रवृत्युपार्जित कर्मभारा ये पुरुषा भवन्ति ते अयोगोलकसमाना इत्यादिव्यपदेशवन्तो भवन्ति पितृमातृ-पुत्रकलठागतस्नेहभारतो वेति 27 / हिरण्याऽऽदिगोलेषु क्रमेणा-ल्पगुणगुणधिकगुणाधिकतरगुणाधिकतमेषु पुरुषाः समृद्धितो ज्ञानाऽऽदिगुणतो वा समानतया योज्याः , 28 / 26 / असिपत्राऽऽदीनिचत्तारि पत्ता पण्णत्ता / तं जहा-असिपत्ते, करपत्ते, खुरपत्ते, कलंबचीरियापत्ते 30 / एवामेव चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-असिपत्तसमाणे०जाव कलंबचीरियापत्त सामाणे 31 / पत्राणिपर्णानि तद्धत् प्रतनुतया यानि अस्यादीनि तानि पत्राणीति, असिःखगः, स एव पत्रमसिपत्रां करपत्र-क्रकचं येन दारु छिद्यते, क्षुरःछुरः, स एव पां क्षुरपत्रां, कदम्बचीरिकेति शस्त्रविशेष इति 30 / ता द्राक छेदकत्वादसेर्यः पुरुषोद्रागेवस्नेहपाशं छिनत्ति, सोऽसिपासमानः, अवधारितदेववचनसनत्कुमार चक्रवर्तिवत्, यस्तु पुनः पुनरुच्यमानो भावनाऽभ्यासात् स्नेहतरुं छिनत्ति स करपासमान स्तथाविधआवकवत् करपत्रास्य हि गमनाऽऽगमनाभ्यां कालक्षेपेण छेदकत्वादिति, यस्तु श्रुतधर्ममार्गोऽपि सर्वथा स्नेहच्छेदासमर्थो देशविरतिमात्रामेव प्रतिपद्यते स क्षुरपासमानः, क्षुरो हि केशाऽऽदिकमल्पमेव छिनत्तीति, यस्तुस्नेहच्छेद मनोरमात्रोणैव करोति सचतुर्थः अविरतसम्यग दृष्टिरित्ति, अथवा-यो गुर्वादिषु शीघ्रमन्दमन्दतरमन्दतमतया स्नेह छिनत्ति स एवमपदिश्यते 31 / चत्तारि कडा पण्णत्ता / तं जहा-सुंबकडे, विदलकडे, चम्पकडे, कंबलकडे 32 // एवामेव चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-सुंबकडसमाणे० जाव कंबलकडसमाणे 33 / (246 सूत्र) कम्बाऽऽदिभिरातानवितानभावेन निष्पाद्यते यः स कटः, कट इव कट इत्युपचारात्तन्त्वादिमयोऽपि कट एवेति / तत्र (सुंबक डे ति) तृणविशेषनिष्पन्नः / (विदुलकडे त्ति) वंशशकलकृतः। (चम्मकडे त्ति) वर्धव्यूतमञ्चकाऽऽदिः / (कंबलकडे त्ति) कम्बलमेवेति 32 / एतेषु चाल्पबहुबहुतरबहुतमाऽवयवप्रतिबन्धेषु पुरुषा योजनीयाः / तथाहियस्य गुर्वादिष्वल्पः प्रतिबन्धः स्वल्पव्यलीकाऽऽदिनाऽपि विगमात्स सुम्बकटसमान इत्येवं सर्वत्रा भावनीयमिति 33 / स्था० 4 ठा०४ उ०। निष्कृष्टःचत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-णिकटे नाममेगे णिकडे नाममेगे अणिक्कट्ठ०४।३९ / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-णिक्कट्ठे नाममेगे णिक्कट्ठप्पा, णिक्कट्ठे नाममेगे अणिकदृप्पा० 4 / 40 / निष्कृष्टोनिष्कर्षितस्तपसा कृशदेह इत्यर्थः। पुनर्निष्कृष्टोभावतः कृशीकृतक्यायत्वादेवमन्येवय इति।३६ / एतद्भावनार्थमेवानन्तरंसूत्रमनिष्टः कृशशरीरतया तथा निष्कृष्ट आत्मा कषायाऽऽदिनिर्मथनेन यस्य स तथेत्येवमन्ये Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1032- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय त्रय इति। अथ निष्कृष्टः-तपसा कृशीकृतः पूर्वं पश्चादपि तथैवेत्येव- योपलभ्यमध्यस्वरूपत्वात् तथा गम्भीरमगाधत्वात् पुनर्गम्भीरमुदकं मादिसूत्र व्याख्वेयम्, द्वितीयं तु यथोत्कमेवेति 40 / गडुलत्वादिति, पुरुषस्तु उत्तानोऽगम्भीरो बहिर्दर्शितमददैन्याऽऽदिजबुध : न्यविकृत कायवाकचेष्टत्वादुत्तानहृदयस्तु दैन्याऽदियुक्तगुह्यधरणा चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-बुहे नामभेगे बुहे, धुहे समर्थचित्तत्वादित्येकः अन्य उत्तानः कारणवशाद्दर्शितविकृतचेष्टत्वात् नाममेगे अबुहे०४१४११चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा गम्भीर हृदयस्तु स्वभावेनोत्तान हृदय विपरीतत्वात् तृतीयस्तु गम्भीरो बुहे नाममेगे बुहहियए०४१४२। दैन्याऽऽदिववत्तेऽपि कारणवशात् सम्वृताऽऽकारतया उत्तानहृदयस्तथैव चतुर्थः प्रथमविपर्ययादिति / तथा उत्तान प्रतलत्वादुत्तानमवभासते बुधो बुधत्वकार्यभूतसत्कियायोगात्। उक्तं च-"पठकः पाठ कश्चैव, स्थानविशेषात् तथोत्तानं तथैव गम्भीरमगाधमवभासते संकीर्णोऽsये चान्ये तत्त्वचिन्तकाः / सर्वे व्यसनिनो राजन ! यः क्रियावान् स श्रयत्वाऽऽदिना 2, तथा गम्भीरम्-अगाधमुत्तानावभासि तु विस्तीर्णपण्डितः।।१।। " इति / पुनर्बुधः-सविवेकमनस्त्वादित्येकः, अन्यो स्थानाऽऽश्रयस्वाऽऽदिना। तथा गम्भीरमगाधं गम्भीरावभासितथाविधबुधस्तथैव, अबुधस्त्वाविविक्तमनस्त्वादपरस्त्वबुधोऽसत्क्रियत्वाद् स्थानाऽऽश्रितत्वाऽऽदिनैवेति, पुरुषस्तूत्तानस्तुच्छ उत्तान एवाऽवभासते बुधो विवेकवचित्तत्वाच्चतुर्थ उभयनिषेधादिति 41 / अनन्तरसूत्रोणैतदेव प्रदर्शिततुच्छ्यविकारत्वात्, द्वितीयः सम्वृतात्वात्, तृतीयः कारणतः। व्यक्तिक्रियतेबुधः सक्तियत्वात्, बुधं हृदयंमनो यस्य स बुधहृदयो विवेचकमनस्त्वात्, अथवा-बुधः शास्त्राज्ञत्वात्, बुधहृदयस्तु कार्येषु दर्शित विकारत्वाचतुर्थः सुज्ञानः। अमूढलक्षणत्वादित्यैकः / एवमन्ये त्रय ऊह्याः 42 / उदधिसूत्राम् - चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-आयणुकंपए णाममेगे चत्तारि उदधी पण्णत्ता / तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोनो पराणुकंपए० 4 / 43 / (352 सूत्रा) भासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी०४ / 7 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोभासी० आत्मानुकम्पकः-आत्महितप्रवृत्तः प्रत्येकबुद्धो जिनकल्पिको वा 4 / 8 / (358 सूत्रा) परानपेक्षो वा निघृणः,परानुकम्पको निष्ठितार्थतया तीर्थकर आत्मनपेक्षो वा दयेकरसो मेतार्यवत्, उभयानुकम्पकः स्थविरकल्पिक उभयानु तथा-उदकसूत्रद्वयवदुदधिसूत्रद्वयमपि सदान्तिकम वसेयमिति / कम्पकः पापाऽऽत्मा काल (सौ) शौकरिकाऽऽदिरित 43 / स्था०४ अथवा-उत्तानः सगाधत्वादेकः उदधिः-उदधिदेशः पूर्वं पश्चादपि उत्तान एव वेलाया बहिः सुमद्रेष्वभावात् द्वितीयस्तूत्तानः पूर्व पश्चाद गम्भीरो टा०४ उ०। वेलाऽऽगमे नागाधत्वति तृतीयस्तु गस्मीरः पूर्व पश्चाद्वेलाविगमेनोत्तान उदकानि उदधिश्चतुर्थः सुज्ञानः। चत्तारि उदगा पण्णत्ता। तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदए, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोदए, गंभीरे णाममेगे उत्ताणोदए, गंभीरे समुद्रप्रस्तावात् तत्तरकान् सूत्राद्वयेनाऽऽहणाममेगे गंभीरोदए 1 / एवामेव त्तत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं चत्तारि तरगा पण्णत्ता / तं जहा-समुद्घ तरामीतेगे समुदंतरइ, जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणहियए, उत्ताणे णाममेगे गंभीर समुदं तरामीतेगे गोपतं तरइ, गोपतं तरामीत (ते) गे०४।१। हियए०४ाश चत्तारि उदगा पण्णत्ता! तंजहा-उत्ताणे णाममेगे चत्तारि तरगा पण्णत्ता / तं जहा-समुई तरित्ता णाममेगे समुद्दे उत्ताणोभासी उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी०४।३ / एवामेव विसीयइ, समुदं तरेत्ता णाममेगे गोपदे विसीदति, गोपदे तरेत्ता चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-उत्ताणे णाममेगे उत्ताणो णाममेगे० 4 / 2 / (256 सूत्र) भासी, उत्ताणे णाममेगे गंभीरोभासी०४१४ / चत्तारि उदही "चत्तारि तरगेत्यादि व्यक्तं, नवरं तरन्तीति तरास्त एव तरकाः, पण्णत्ता / तं जहा उत्ताणे णाममेगे उत्ताणोदही, उत्ताणे णाममेगे समुद्रं समुद्रवत् दुस्तरं सर्वविरत्यादिकं कार्य तरामि करोमीत्येववगंभीरोदही०४ 15 / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं भ्युपगम्य तत्रा समर्थत्वादिकः समुद्रं तरति तदेव समर्थयतीत्येकः, जहा उत्ताणे णाममेगे उत्ताणहियए०४।६। अन्यस्तु तदभ्युपगम्यासमर्थत्वाद्गोष्पदं ततकल्पं देशविरत्यादिकचत्तारीत्यादीनि, व्यक्तानि च, किन्तु उदकानिजलानि प्रक्षप्तानि, मल्पतमंतरति निर्वाहयतीति, अन्यस्तु गोदूष्पपदप्रायमभ्युपगम्य तत्रोत्तानं नामैकं तुच्छत्वात् प्रतलमित्यर्थः पुनरुत्तानं स्वच्छतयोपल वीर्यातिरेकात्समुद्रप्रायमपि साधयतीति चतुर्थः प्रतीतः 1 / समुद्र प्रायं भ्यमध्यस्वरूपत्वादुदकंजलम्, (उत्ताणोदएत्ति व्यस्तोऽयं निर्देशः कार्य तरित्वानिर्वाह्य समुद्रप्राये प्रयोजनान्तरे विषीदति, न तद् निर्वाहप्राकृतशैलीवशात् समस्त इवावभासते. न च मूलोपात्तेनोदकशब्देनायं यति विचित्रत्वात क्षयोपशमस्येति, एवमन्ये त्रय इति। गतार्थो भविष्यतीतिवाच्य, तस्य बहुवचनान्तत्वेनेहासंबध्यमानत्वात्, कुम्भाःसाक्षादुदकशब्दे च सति किं तस्य वचनपरिणामादनुकर्षणेनेत्येवमुद- चत्तारि कुम्भा पण्णत्ता / तं जहा-पुण्णे णाममे गे पुण्णे, धिसूत्रोऽपि भावनीयमिति। तथो-त्तानं तथैव गम्भीरमुदकं गडुलत्वाद- पुण्णे णाममे गे तुच्छे, तुच्छे णामे गे पुण्णे, तुच्छे नुपलभ्यमानस्वरूपं, तथा गम्भीरमगाधं प्रचुरत्वादुत्तानमुदकं स्वच्छत- ___णाममे गे तुच्छे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1033- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय तं जहा-पुण्णे णाममेगे पुण्णे०४। चत्तारि कुंभा पण्णत्ता / तं जहा-पुण्णे नाममेगे पुण्णोभासी पुण्णे नाममेगे तुच्छोभासी, | तुच्छे णाममेगे पुन्नोभासी, तुच्छे णाममेगे तुच्छोभासी। चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता / तं जहा-पुन्ने णाममेगे पुन्नोभासी०४। चत्तारि कुम्भा पण्णत्ता / तं जहा पुन्नणममगे पुन्नेलवे, पुन्ने नाममेगे तुच्छरूवे०४ / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत ! जहा-पुण्णे णाममेगे पुन्नरूवे० 4 / चत्तारि कुंभा पण्णत्ता / तं जहा-पुन्ने वि एगे पियढे, पुन्ने वि एगे अवदले / तुच्छे वि एगे पियट्टे, तुच्छे वि एगे अवदले / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-पुग्ने विएगे पियट्टे०४ / तहेव चत्तारि कुम्भा पन्नत्ता। तं जहा-पुन्ने विएगे विस्संदइ, पुन्ने विएगे णो विस्संदइ, तुच्छे वि एगे विस्संदइ, तुच्छे वि एगे णो विस्संदइ / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता / तं जहा पुन्ने वि एगे विस्संदइ०४। तहेव चत्तारि कुंभा पन्नता। तं जहा-भिन्ने, जज्जरिए, परिस्साई, अपरिस्साई। एवामेव चउव्विहे चरित्ते पन्नत्ते / तं जहा-मिन्ने.. जाव अपरिस्साई / चत्तारि कुभा पन्नत्ता / तं जहा-महाकुंभे णाममेगे महुप्पिहाणे, महुकुंभे णाममेगे विसप्पिहाणे, विसकुम्भे णाममेगे महुप्पिहाणे, विसकुंभे णाममेगे विसप्पिहाणे / एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नता। तं जहा-मधुकुंभे णाममेगे मधुप्पिहाणे०४। "हिययमपावमकलुंस, जीहा वि य मधुरवाणी णिचं / जम्मि पुरिसम्मि विज्जइ, से मधुकुंभे महुपिहाणे।। 1 // हिययमपावमकलुस, जीहा वि य कडुयभासिणी णिचं / जम्मि पुरिसम्मि विजइ, से मधुकुंभे विसपिहाणे॥२॥ जं हिययं कलुसमयं, जीहा वि य महुरभासिणी णिचं। जम्मि पुरिसम्मि विज्जइ, से विसकुंभे महुपिहाणे // 3 // जं हिययं कलुसमयं, जीहा वि य कडुगभासिणी णिचं / जम्मि पुरिसम्मि विजइ, से विसकुंभे विसपिहाणे।। 4 // " (360 सूत्र) पुरुषानेव कुम्भदृष्टान्तेन प्रतिपिपादयिषुः सूत्राप्रपञ्चमाह-सुगमश्चायं, नवरं पूर्णः-सकलावयवयुल्कः प्रमाणोपेतो वा पुनः पूर्णोमध्वादिभृतः, द्वितीये भङ्गे तुच्छोरिक्तः तृतीये तुच्छः-अपूर्णावयवो लघुर्वा, चतुर्थः सुज्ञानः। अथवा-पूर्णोः भृतः पूर्व पश्चादपि पूर्ण इत्येवं चत्वारोऽपि 1 // पुरुषस्तु पूर्णो जात्यादिभिर्गुणैः पुनः पूर्णो ज्ञानाऽऽदिभिरिति / अथवा पूर्णो घनेन गुणैर्वा पूर्व पश्चादपि तैः पूर्ण एवेति एवं शेषा अपि / 2 / पूर्णोऽवयवैर्दध्यादिना वा पूर्ण एवावभासते द्रष्ट्राणामिति पूर्णावभासीत्येकः, अन्यस्तुपूर्णोऽपि कुतश्चिद्धेता विवक्षितप्रयोजनाऽसाधकत्वादेस्तुच्छोऽवभासते, एवं शेषौ 3 / पुरुषस्तु पूर्णो धनश्रुताऽऽदिभिस्तद्विमियोगाच पूर्ण एवावभासते, अन्यस्तु तदविनियोगात् तुच्छ एवावभासते, अन्यस्तुच्छोऽपि कथमपि प्रस्तावोचितप्रवृत्तेः पूर्णवदवभासते, अपरस्तु तुच्छो धनश्रुताऽऽदिरहितोऽत एवं तदविनियोजकत्वात् तुच्छावभासीति०४। तथा-पूर्णो नीराऽऽदिना पुनः पूर्णे पुण्यं वा पवित्रां रूपं यस्य स तथेति प्रथमः, द्वितीये तुच्छंहीन रूपम् आकारो यस्य स तुच्छरुपः / एवं शेषौ 5 / पुरुषस्तु पूर्णो ज्ञानाऽऽदिभिः पूर्णरूपः पुण्यरूपो वा विशिष्टर जोहरणाऽऽदिद्रव्यलिङ्गसद्भावात् सुसाधुरिति, द्वितीयभङ्गे तुच्छरूपः कारणात् त्यक्तलिङ्ग सुसाधुरेवेति, तृतीये तुच्छोज्ञानादिविहीनोनिहवादिः, चुतर्थोज्ञानाऽऽदिद्रव्यलिङ्गहीनो गृहस्थाऽऽदिरिति तथा पूर्णस्तथैव, अपिस्तुच्छापेक्षया समुचायार्थः एकः कश्चित् प्रियाय प्रीतये अयमिति प्रियार्थः कानकाऽऽदिमयत्वात्सार इत्यर्थः, तथा अपदलम्अपसदं द्रव्यं कारण भूतं मृप्तिकाऽऽदियस्यासावपदलोऽवदलति वा दीर्यत इस्यवदल आमपकतया असार इत्यर्थः, तुच्छोऽप्येवमेवेति 7 / पुरुषो धनश्रुताऽऽदिभिः पूर्णः प्रियार्थः कश्चित प्रियवचन-दानाऽऽदिभिः प्रियकारी सार क्षति, अन्यस्तु न तथेत्यपदलः परोपकारं प्रत्ययोग्य इति / तुच्छोऽप्येवमेवेति 8 / पूर्णोऽपि जलाऽऽदेर्विष्यन्दतेश्रवति, इह तुच्छस्तुच्छजलाऽऽदिः, स एव विष्यन्दते, अपिः सर्वत्र समुच्चये प्रतियोग्यपेक्षयेति / पुरुषस्तु पूर्णोऽप्येको विष्यन्दतेधनं ददाति श्रुतंवाऽन्यो नेति तुच्छो-ऽप्यल्पवित्ताऽऽदिरपिधनश्रुताऽऽदि विष्यन्दते अन्यो नैवेति 10 / तथा भिन्नः - स्फुटितो जर्जरितोराजीयुक्तः परिश्रावी-दुष्पक्वत्वात् क्षरकः अपरिश्रावी कठिनत्वादिति 11 / चारित्रां तु भिन्नं मूलप्रायश्चित्ताऽऽपथ्या जर्जरितं छेदाऽऽदिप्राप्तया परिश्रावि सूक्ष्मातिचारतया, अपरिश्रावि निरतिचारतयेति। इह च पुरुषाधिकारेऽपि यचारित्रालक्षणपुरुषधर्मभणनं तद्धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदभेदादनवद्यमवगन्तव्यमिति 12 तथा मधुनः-क्षौद्रस्य कुम्भो मधुकुम्भो, मधुभृत मध्येव या पिधानं स्थगनं यस्य स मधुपिधानः / एवमन्ये त्रयः 13 / पुरुषसूत्रां स्वयमेव 'हियय मित्यादिगाथाचतुष्टयेन भावितमिति, ता हृदयंमनः अपापम् अहिंस्त्रम्-अकलुषम् अप्रीतिवर्जितमिति, जिह्वापि च मधुरभाषिणी नित्यं यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो मधुकुम्भइव मधुकुम्भो मधुपिधान इव मधुपिधान इति प्रथमभङ्ग योजना / तृतीयगाथायां यत् हृदयं कलुषमयम्-अप्रीत्यात्मकमुपलक्षणत्यात् पापं व जिह्वा या मधुरभाषिणी नित्यं तत्सा चेति गम्यते, यस्मिन् पुरुषे विद्यते स पुरुषो विषकुम्भो मधुपिधानस्तत्साधम्योदति 14 / स्था० 4 ठा० 4 उ०। मित्राऽऽदिदृष्टान्त :चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-मित्ते नाममेगे मित्ते, मित्ते नाममेगे अमित्ते, अमित्ते नाममेगे मित्ते, अमिते नाममेगे अमित्ते / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहामित्ते नाममेगे मित्तरूवे०४ चउभंगो / चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा मुत्ते नाममेगे मुत्ते, मुत्ते नाममेगे अमुत्ते०४ / चत्तारिपुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-मुत्ते नाममेगे मुत्तरूवे०४। Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1034- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय (चत्तारीत्यादि) स्पष्टा चेयं, नवरं मित्रमिह लोकोपकारित्वात्, पुनर्मित्रं परलोकोपकारित्वात सद्गुरुवत् / अन्यस्तु मित्रां स्नेहवत्वाद मित्रः परलोकसाधनविध्वंसात्कलत्राऽऽदिवत्। अन्यस्त्वमित्रः प्रतिकूलत्वाद् मित्र निवेदनोत्पादनेन परलोकसाधनोपकारित्वादविनीतकाऽऽदिवत्, चतुर्थोऽमित्रः प्रतिकूलत्वात् पुनरमित्रः संल्केशहेतुत्वेन दुर्गतिनिमित्तवात पूर्वापरकालापेक्षया चेदं भावनीयमिति / तथा मित्रामन्तः स्नेहवृप्या मित्रस्यैव रूपमाकारो बाह्योपचारकारणत्वात् यस्य स मित्ररूप इत्येकः, द्वितीय अमित्ररूपोबाह्योपचाराभावात्, तृतीयोऽमित्राः स्नेहवर्जितत्वादिति, चतुर्थः प्रतीतः तथा मुक्तः त्यक्तसंगो द्रव्यतः / पुनर्मुक्तो भावतोऽभिष्वङ्गाभावात सुसाधुवत्, द्वितीयोऽमुक्तः साभिष्वङ्गत्वाद्रङ्कवत, तृतीयोऽमुक्तो द्रव्यतो भाववस्तु मुक्तो राज्यावस्थोत्पन्नकेवलज्ञानः भरतचक्रवर्तिवत्, चतुर्थो गृहस्थः, कालापेक्षया चेदं दृश्यमिति, मुक्तो निरभिष्वङ्गतया मुक्तरूपो वैराग्यपिशुनाऽऽकारतया यतिरिवेत्येकः, द्वितीयोऽमुक्तरूपः उक्तरूपविपरीतत्वात् गृहस्थावस्थायां महावीर इव, तृतीयो मुक्तः साभिष्वङ्गत्वात् शठयतिवत्, चतुर्थो गृहस्थ इति। स्था० 4 ठा०४ उ०। ह्रीसत्वाऽऽदिपुरुषाःपंच पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-हिरिसत्ते, हिरिमणसत्ते, चलसत्ते, थिरसत्ते, उदयणसत्ते। (पंच पुरिसेत्यादि) (हिरिसत्ते) हिया-लज्जया सत्वं परीषहेषु साधोः संग्रामाऽऽदावितरस्य वा अवष्टम्भोऽविचलत्वं यस्याऽसौ हीसत्त्वः, तथा हियाऽपि मनस्येव सत्वं न देहे शीताऽऽदिषु कम्पाऽऽदिविकारभावात् स हीमनः सत्वः,चलंभइरंसत्त्वंयस्य स तथा एतद्विपर्ययात स्थिरसत्वः, उदयनमुदयगामि प्रवर्द्धमानं सत्त्वं यस्य स तथा / स्था०५ ठा०१उ०। अर्थकरो गणेश :चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा अट्टकरे नाम एगे नो माणकरे 1, माणकरे नामं एगे नो अट्ठकरे 2, एगे अट्ठकरे वि माणकरे वि३, एगे नो अट्ठकरे णो माणकरे / एततत्प्रभृतीनां च पुरुषजातसूत्राणामयं संबन्ध:ववहारकोवियप्पा, तदढे नो पमायए जोगे। मायहु तदुजमते, कुणमाणं एस संबंधो // 1 // पञ्चविधव्यवहारकोविदात्मा तदर्थे–व्यहारार्थे योगे न मनोवाकायात्प्रमाद्यति, न व्यवहारविषये प्रमादमाचरतीतिभावः / 'मायहु' निश्चितं तस्मिन् व्यवहारे उद्यच्छति उद्यम कुर्वति, मानमहमकार्षमिति / ज्ञापयत्येवमादीनि सूत्राणि, एष पुरुषजातसूत्राणां संबंध। प्रकारान्तरेण संबंधमाहवुत्ता वा पुरिसजाया, अत्थओ न वि गंथओ। तेसिं पुरूवणत्थं,तदिदं सुत्तमागयं / / 2 / / वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतने / अथवा-अनेन व्यवहारसत्रेण अर्थतः पुरुषजाताः उक्ता-सूचिनाः, न वै ग्रन्थतः उक्ताः, तेषां प्ररूपणार्थ तदिदं सूत्र-पुरुषजातसूत्रमागतम् / अस्याक्षरगमनिका तु प्रतीता। विस्तरार्थ भाष्यकृदाह पुरिसज्जाया चउरो, विभासियव्वा उ आणुपुव्वीए। अत्थकरे माणकरे, उभयकरे नो य उभयकरे / / 3 / / अधिकृत भङ्ग सूचिताश्चत्वारः पुरुषा इमे आनुपूर्व्यापरिपाट्या विभाषितव्याः / तद्यथा-प्रथमभङ्गे अर्थकरः, द्वितीय भङ्गे मानकरः, तृतीये उभयकरः, चतुर्थे नोभयकरः। चतुष्टयम्पढमतइया य एत्थं, तू सफला निष्फला दुवे इयरे। दिटुंतो सगतेणा, सेवंता अन्नरायाणं / / 4 / / अत्र एष चतुर्थपुरुषेषु मध्ये प्रथमतृतीयो सफलौ, इतरौ द्वितीयचतुर्थों निष्फलौ। एतेषु चतुर्वपि दृष्टान्तोऽन्यराजानं सेवमानाः शकस्तेनाः। तमेव दृष्टान्तमभिधित्सुराहउज्जेणी सगरायं, नीया गव्वा न मुठ्ठ सेवें ति। वित्तिअदाणं चोजं, निव्विसया अण्णानिवसेवा / / 5 / / धावइ पुरतो तह म-गता य सेवइ य आसणं नीयं / भूमीए पि निसीयइ, इंगियकारी उ पढमो उ॥६॥ चिक्खल्ले अन्नया पुरतो, उ गतो से एगो नवरि सेवंतो। तुट्टेण तहा रन्ना, वित्ती उसुपुक्खला दिन्ना // 7 // यदा कालिकाऽऽचार्येण शका आनीतास्तदा उज्जयिन्या नगार्या शको राजा जातः, तस्य निजका-आत्मीया एषोऽस्माकं जात्या सदृश इति गर्वात्तंराजानं न सुष्टु सेवन्ते, ततोराजा तेषां वृत्तिं नादात्, अवृत्तिकाश्च ते चौर्य कर्तुं प्रवृत्ताः, ततो राजा बहुभिर्जनैर्विज्ञप्तेन निर्विषयाः कृताः। ततस्तैर्देशान्तरं गत्वा अन्यस्य नृपस्य सेवा कर्तुमारब्धाः, तौकः पुरुषो राज्ञा आज्ञप्तश्च, यदि राजाऽऽसनं प्रजानाति तथापि स नीचमासन माश्रयते कदाचिच्च राज्ञः पुरतो भूमावपि निषीदति, राज्ञश्चेङ्गितं ज्ञात्वा अनाज्ञप्तोऽपि विवक्षितप्रयोजनकारी / अन्यदा च राजा पानीयस्य कर्दमस्य मध्येन धावितः, शेषश्च भूयान लोको निःकर्दमेन प्रदेशेन गन्तुं प्रवृत्तः स पुनः शकपुरुषो ऽश्व स्याग्रतः पानीयेन कर्दमेन च सेव्यमान एकः (से) तस्य पुरतो धावति। ततस्तस्य राज्ञा तुष्टन सुपुष्कलाअतिप्रभूता वृत्तिर्दत्ता। वितिओ न करे अटुं, माणं च करेइ जाइकुलमाणी। न निवसति भूमीए, न य धावति तस्स पुरतो उ / / 8 / / द्वितीयः पुरुषोऽहमपि राजवंशिक इति गर्वात् न कमप्यर्थराज्ञः प्रयोजन करोति जातिकुलमानी सन्मानं च भूयां समाप्तनि करोति, न च भूमो निवसति, न च तस्य राज्ञः पुरतो धावति। तृतीयमाहसेवति ठितो वि दिणे, वि आसणं पेसितो कुणइ अहूं / इइ उभयकरो तइओ, जुज्झइ य रणे समाभट्ठो |6 तृतीयः पुरुषो राजानं प्रथम पुरुषवत् सेवते, नवरमश्वस्य पुरतो न धावति किंतु पृष्ठतः, तथा ऊद्धर्वस्थितः सेवते। वित्तीर्ण आसने स्थितोऽप्युपविष्टोऽपिआसनसेवतिनभूमौनिषीदति तथा प्रेषितःसन्अर्थंकरोति, नाऽप्रेषितो Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1035- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय मानवशादिति। एवमेष उभयकरः। रणे च संग्रामे च-राज पुत्र इति समाभाषितो युध्यते। उभयनिसेहो चउत्थे, विइयचउत्थेहि तत्थ उन लद्धा। वित्ती इयरेहिँ लद्धा, दिटुंतस्सेस उवणेओ॥१०॥ चतुर्थे पुरुषे उभयस्थ अर्थस्य समानस्य च निषेधः / तत्र द्वितीयचतुर्थाभ्यां वृत्तिन लब्धा, इतराभ्यां प्रथमतृतीयाभ्यां लब्धा / दृष्टान्तस्य एव वक्ष्यमाण उपनयः। तमेवाऽऽह - एमेवाऽऽयरियस्म वि, कोई अटुं करेइ न य माण। अट्ठो उ उच्चमाणो, वेयावच्चं दसविहं तु / / 11 / / अहवा अब्भुट्ठाणं, आसणकितिमत्तपायसंथारो। उववाया य बहुविहा, इच्चाइ हवंति अट्ठा उ / / 12 / / एवमेव-शकपुरुषदृष्टान्तगतेन प्रकारेण, कोऽप्याचार्यस्यार्थ करोति, नच मानम्। अर्थो वक्ष्यमाणसूत्रोणोच्यमानः कः पुनः स इत्याह-दशविध वैयावृत्यम् / अथवा-समागच्छतोऽयूत्थानमासनदान, कृति कर्मविश्रामणा, यथा खेलमुचारमात्रकस्य श्लेष्ममात्रकस्य चोपनयः, संस्तारकस्यकरणमुपपताश्च समीपभवनलक्षणा बहविधास्तत्प्रयोजन भेदतोऽनेकप्रकारा इत्यादयोऽर्था भवन्ति। वितिओ माणकरे तू, को पुण माणो हवेज्ज तस्स इमो। अब्भुट्ठाणऽभत्थण, होइ पसंसा य एमादी।।१३।। द्वितीयो भवति मानकरः / कः पुनस्तस्य मानः ? उच्यते अयं वक्ष्यमाणः / तमेवाऽऽह-(अब्भुट्ठाणभित्यादि) आगच्छतोऽभ्युत्थानं न कृतं, यदि वा-न मेऽभ्यर्थयति वा कृता ममप्रशंसा इत्या-दि। तइओभय नोभयतो, चउत्थओ, दो वि निप्फलगा। सुत्तत्थोभयनिज्जर-लाभो, दोण्ह भवे तत्थ / / 14 / / तृतीय उभयकरोऽर्थकरो मानकरश्चतुर्थो नोभयकरः, तत्र द्वौ द्वितीयचतुर्थी*उभयनिर्जरा लाभाभावात् / तथाहि-न तयोराचार्याः सूत्रमर्थमुभयं वा प्रयच्छन्ति, नाऽपि ते निर्जरां प्राप्नुतःद्वयोः प्रथमतृतीययोः सूत्रार्थोभयनिर्जरा लाभोऽर्थकारितया सर्वस्याऽपि सम्भवात्। तस्मात्प्रथमतृतीयाभ्यामिव वर्तितव्यं, न द्वितीयचतुर्थाभ्यामिव / * निष्फलौ। सूत्रम्चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहा-गणट्ठकरे नाम एगे नो माणकरे, माणकरे नाम एगे नो गणट्टकरे, एगे गणट्ठकरे वि माणकरे वि, एगे नो गणट्ठकरे नो माणकरे। अस्याक्षरगमनिका सुप्रतीता। प्रपञ्चभाष्यकृदाहएमेव होंति भंगा, चत्तारि गणट्ठाकारिणो जइणो। रण्णो सारूविय दे-वचिंतगा तत्थ आहरणं / / 15 / / एवमेव अनन्तरसूत्रोक्तम्प्रकारेण गणार्थकारिणोऽपि यतेश्चत्वारो भङ्गा भवन्ति।तेच सूत्रातः स्पष्टा एव। तेषुचचतुर्ध्वपिपुरुषजातेषु ये सारूपिका यतेः समानरूपधारिणो मुण्डितशिरस्का भिक्षाऽऽटनशीला इत्यादि प्रागुक्तस्वरूपाः देवचिन्तका नाम-ये शुभाशुभं राज्ञः कथयन्ति, ते आहरण-दृष्टान्तः। तमेव भावयति - पुट्ठा पुट्ठो पढमो, उ साहई न उ करेइ माणं तु / वितिओ माण करेई, पुट्ठो विन साहई किंचि // 16|| तइओ पुट्ठो साहइ, नापुट्ट चउत्थ नेव सेवइ तु / दो सफला दो अफला एवं गच्छे विनायव्वा / / 17 / / प्रथमो राज्ञा पृष्टोऽपृष्टो वा यत्रात् शुभाऽशुभं वा साधयति, न तु मान करोति। द्वितीयो मान करोति न च मानादेव पृष्टोऽपि किञ्चिक्कथयति। तृतीयः पृष्टः साधयति नापृष्टः / चतुर्थः सेवते एव राजानं नेति। अथ द्वी प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वौ च द्वितीयचतुर्थावफलौ। एवम्-अमुना दृष्टान्तगतेन प्रकारेण गच्छे द्वौ प्रथमतृतीयौ सफलौ, द्वौ च द्वितीयचतुर्थावफलौ चज्ञातव्यौ। तेषां चतुर्णामपि स्वरूपमाहआहारउवहिसयणा-इएहिं गच्छस्सुवग्गहं कुणइ। विइओ माणं उभयं, च तइय नोभय चउत्थोउ।।१५|| प्रथम आहारोपधिशयनाऽऽदिभिर्गच्छस्योपग्रहं करोति न मानं, द्वितीयो मानं, तृतीय उभयंगच्छस्योपग्रह मानं च, चतुर्थो नोभयं-न गच्छस्योपग्रह नापि मानमिति। सूत्रम्चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता / तं जहा-गणसंगहकरे नाम एगे नो माणकरे, एगे माणकरे नो गणसंगहकरे, एगे गणसंगहकरे वि माणकरे वि, एगे नो गणसंगहकरे नो माणकरे। अस्य संबन्धमाहसो पुण गणस्स अट्ठो, संगहो तत्थ संगहो दुविहो। दव्वे भावे तियगा, उदोन्नि आहार नाणादी॥१६॥ अनन्तरसूत्रे गणार्थकर उक्तः,सपुनर्गणस्यार्थः संग्रहकरः, ततप्रतिपादनार्थमिदं सूत्रम्। तत्र संग्रहो द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र द्रव्ये भावै चद्वी त्रिको द्रष्टव्यौ। तद्यथा आहारऽऽदित्रिकं द्रव्ये, ज्ञानाऽऽदित्रिक भावे। तदेवं संग्रह व्याख्याय संग्रहकरत्वयोजनामाह - आहारोवहिसेजा-इएहिं दय्वम्मि संगहं कुणइ / सीसे पडिच्छे वाए, भावेण तरंति जाहि गुरु // 20 // द्रव्यतः संग्रहं करोति आहारोपधिशम्याऽऽदिभिः, अत्राऽऽदिशब्द आहारऽऽदीनां स्वगतानेकभेदसूचकः / भावेन यदा गुरवः शक्नुवन्ति तदा शिष्यान् प्रतीच्छिकान्वा वाचयन्ति / एव प्रथमः पुरुषः। द्वितीयो मानं करोति न तु द्रव्यतो भावतो वा गणस्य संग्रह.तृतीय उभयं, चतुर्थों नो भयमिति। सूत्रम्चत्तारिपुरिसजाया पन्नत्ता। तं जहा-गणसोहकरे नाम एगे नो माणकरे, एगे माणकरे नो गणसोहकरे, एगे गणसोहकरे वि माणकरे वि, एगे नो गणसोहकरे नो माणकरे / / Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1036- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसजाय अा भाष्यम् -- एवं गणसोहम्मि वि, चउरो पुरिसा हवंति नायव्वा। सो मावेति गणं खलु, इमेहिं ते कारणेहिं तु॥२१|| एवम्-उक्तेन प्रकारेण शोभायामपि क व्यायां चत्वारः पुरुषा भवन्तिज्ञाताव्याः, ते व सूत्रपाठसिद्धा एव गणशोभा करो नाम यो गणं शोभयति। ते च गणं शोभयन्ति। शोभाखलु एभिः-वदयमाणैः कारणैः-प्रयोजनदाऽऽदिभिः। तानेव वादाऽऽदीन् दर्शयतिगणसोभी खलु वादी, उद्देसे सो उ पढ़मए भणितो। धम्मकहि निमित्ती वा, विजातिसएण वा जुत्तो।।२२।। गणं वादप्रदामतः शोभयतीत्येवंशीलो गणशोभी खलु वादी, सच वादेन यथा गणं शोभयति तथा प्रथमे उद्देशके भणितः। न केवलं वादी गणशोभी किं तु धर्मकथी। तथाहि-धर्मकथा सत्कस्वरुपमाक्षेपतः कथयितुं जनयति गणस्य महतीं शोभा, तथा निमित्ती अतीताऽऽदिनिमित्तकथनतो, विद्याऽतिशयेन वा युक्तो गणशोभी, महतोऽपि संघप्रयोजनस्य विद्याप्रभावतः साधनात्। चतारि पुरिसजाया पण्णत्ता। तं जहागणसोहिकरे नाम एगे नो माणकरे, एगे माणकरे नो गणसोहिकरे, एगे माणकरे विगणसोहि करे वि, एगे नो गणसोहिकरे नो माणकरे।। अत्रभाष्यम्एवं गणसोहिकरो, चउरो पुरिसा हवंति विनेया। किह पुण गणस्स सोहिं, करेज सो कारणा एहिं / / 23 / / एवम्-उक्तप्रकारेण शोधिकराश्चत्वारः पुरुषा भवन्तिविज्ञेयाः। कथंपुनः स प्रथमः तृतीयो वा गणस्य शोधिं कुर्यात? सूरिराह-एभिः वक्ष्यमाणैः कारणैरोजस्वित्वादिभिः। तान्येवाऽऽहएगदेव संघाडेण लद्धमाऽऽलोअणाए संका उ। ओयस्सि सम्मओ सं-थुओ यतं दुप्पवेसं च // 24 // एकस्मिन् गृहे अनेकैः सङ्गाटकैः एक द्रव्यं लब्धम् / तद्यथा-एकेन सङ्गाटकेन एकस्मिन् गृहे पूपलिक लब्धाः / अन्येनापि सङ्गाटकेन तस्मिन्नेव गृहे तादृश्य एव पूपलिकाःलब्धा / एवं तृतीयने चतुर्थेन पञ्चमेन वा लब्धाः / तैः सन्निवृत्तैर्गुरुसमीपमागत्याऽऽलोचितं, दर्शिताश्च पूपलिकाः, ततो जाता सर्वेषां शङ्का, उद्गमाशुद्धा भवेयुः / एवं शङ्किते गत्वा तद्गृहं द्रष्टव्यं, कि युष्माकं गृहेऽद्य संखडिभक्तलाभनक समागतम्, अथवा-प्राघूर्णकाः समागताः, यदि वा-साधूनामर्थाय कृताः क्रीता वा। तत्र गृहे भिक्षावेलायां न कोऽपि प्रवेश लभते, तत्र साधुरेक ओजस्वी मानुषाणां संस्तुतः, संस्तुततया च तस्मिन् गृहे संमतोऽनिवारितप्रसरस्तत् दुःप्रवेश गृहं प्रविशति, प्रविश्य च निःशङ्कित करोति / अत्रा योऽप्रेषितो गत्वा निःशङ्कितः शीघ्रमागच्छति स प्रथमः पुरुषजातः। यस्तु मानेन गच्छति एवं नो धर्म जहति............(?) अस्य संबन्धमाह - हेट्ठाणंतरसुत्ते, गणसोही एस सुत्तसंबंधो। सोहि त्ति व धम्मो त्ति व, एगटुं सो दुहा होइ / / 25 / / अधस्तने अनन्तरसूत्रो गणस्य शोधिरुक्ता। शोधिरिति वा धर्म इति वा एकार्थम् / स च धर्मो द्विधा भवतिरूपतो भावतश्च। तत्र तत्प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रमित्येष सूत्रसंबन्धः। सम्प्रति रूपधर्मव्याख्यानार्थमाह - रूवं होति सलिंगं, धम्मो नाणादियं तियं होइ। रूवेण य धम्मेण य, जढमजढे भंग चत्तारि // 26 / / रूपं नाम भवति साधुलिङ्ग रजोहरणाऽऽदि, धर्मोज्ञानाऽऽदिकं त्रिकम्। रूपेण धर्मेण च त्यक्तेऽत्यक्ते च भङ्गाश्चत्वारः। ते च सूत्रपाठसिद्धा एव। तेषां विषयविभागमाहरूवजढमन्नलिंगे, धम्मजढे खलु तहा सलिंगम्मि। उभयजढो गिहिलिंगे, उभओ सहिओ सलिंगेणं / / 27 / / रूपं त्यक्तं येन स रुपत्यक्तः, सुखाऽदिदर्शनात् क्रान्तस्य परनिगातः। सोऽस्त्यस्य लिङ्गे द्रष्टव्यः / इयमत्र भावना--भावतो ज्ञानाऽदित्रिकसमन्वितः कारणवशेनाभ्यलिङ्ग गृहिलिङ्ग वा यः प्रतिपद्यते / अत्र निदर्शनं यथा-कोऽपि राजा महामिथ्यादृष्टिनास्तिकवादी वावदूकः पण्डिताभिमानी दर्शनिभिः सह वादं दत्वा तद्वादमुपजीव्य दर्शनिनो हीलयति अन्यदासाधूनुप्रदावयितुं प्रवृत्तो, मथा सह वादो दीयता, तत्रैक: साधुर्वादिलब्धिसंपन्नः खचरलब्धिगान् अभूत, संघस्यापभ्राजनेति अन्यलिङ्ग गृहिलिङ्ग वा कृत्वा राज्ञः समीपे वादेनोपस्थितः, प्रवत्तो द्वयोरपि वादः, तत्रा राजा 'अल्पशक्तिकत्वात् स्वपक्ष निर्वाहयितुमशकनुवन् हीलनां तस्य कृतवान्, ततः स वाददर्पस्फेटनाय तस्य राज्ञो मूर्धानम् पदेनाऽऽक्रम्याऽऽकाशेन वायुरिव पलायित्वा स्वस्थानं गतः। एतदेवाऽऽहतस्स पंडियमाणिस्स, बुद्धिलस्स दुरप्पणो। मुद्धं पाएण अक्कम्म, वादी वाउरिवाऽऽगतो॥२८॥ तस्य नास्तिकवादिनो राज्ञः पण्डितमानिनो बुद्धिपरस्य बुद्धिलातिउपजीवति इति बुद्धिलः, तस्य दुरात्मनो मूनि पादेनाऽऽकम्य वादी वायुरिव पलायित्वा स्वस्थानमागतः / एषः प्रथमः पुरुषः। द्वितीयो धर्मत्यक्तो न रुपत्यक्त इत्येवं रुपः खलु स्वलिङ्गे प्रति पत्तव्यः / स च पार्श्वस्थाऽऽदीनामन्यतमो, निष्कारणप्रतिसेवी, अवधावितुकामो वा वेदितव्यः / तस्य भावतस्त्यक्तधर्मत्वात्स्वलिङ्गस्य च धारणादिति। (उभयजढो गिहिलिंगे इति) उभयत्यक्तो मिथ्यादृष्टिहिलिङ्गे वर्तमानः / उभयसहितः स्वलिङ्गेन सहितो, ज्ञानाऽऽदित्रिकोपेतश्च / सूत्रम् चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता / तं जहा-गणसंठिति नाममेगे जहति नो धम्म, धम्म नामेगे जहति नो गणसंठिति, एगे धम्म पि जहति गणसंठिति पि जहति, एगे नो धम्मं जहति नो गणसंठिति। अत्र भाष्यम्गणसंठिति धम्मे वा, चउरो भंपा हवंति नायव्वा। गणसंठिति असिस्से, महकप्पसुयं न दायव्वं // 26 // Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसजाय 1037- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसलक्खण पूर्वप्रकारेण गणसंस्थितौ धर्मे च भङ्गाश्चत्वारो भवन्ति ज्ञातव्या, तेच कामस्य वित्तं च य पुर्वयश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रिया सु॥१॥" स्था० तत्र पाठसिद्धा एव / गणसंस्थिति म गणस्य मर्यादा, यथा अशिष्ये- 3 ठा०३ उ०। अयोग्ये शिष्ये महाकल्पश्रुतं न दातव्यम्। पुरिसद्देय न० (पुरुषाद्वैत) द्वयोर्भावो द्विता, तस्यां भवम्, सैव वा द्वैत संप्रति चतुर्णमपि भङ्गानां विषयविभागमाह - पुरुषस्याद्वैतम्। पुरुषैकत्वे,तच विशिष्टं केवलं रागाऽऽदिवासनारहितसातिसयं इयरं वा, अन्नगण्णत्ते न देयमज्झयणं। भवबोधमात्र वा, बोधस्वलक्षणं वाऽऽत्मानं वदतां वेदान्तिनामभिप्रेतम्। षो०१६ विव०। इई गणसंठितीओ, करेंति सच्छंदतो केई॥३०॥ पुरिसधम्म पुं०(पुरुषधर्म) प्राकृतपुरुषाणां ज्ञानपर्यायलक्षणे पुरुष, पत्ते दत्तो पढमो, बितितो भंगो न कस्सइ वि दत्ते। "पुरिसधम्माओ वा मे उच्चरिए अहोवहिएणाणदंसणे समुप्पन्ने।" स्था० जो पुण अपत्तदाई, तइओ भंगो उतं पप्प // 31 // १०ठा०। सयमेव दिसाबंधं, काऊण पडिच्छगस्स जो देइ। पुरिसनाणन० (पुरुषज्ञान) किमयं प्रतिवादी पुरुषः सांख्यः सौगतोऽन्यो उभयमवलंबमाणं, कामं तु तगं पि पुजामो // 32 // वा तथाप्रतिभाऽऽदिमानितरो वेति परिभावने, अयं च मतिसंपदभेः। सातिशयं-देवेन्द्रोपपातिकाऽऽदि, इतरद्वा-महाकल्पश्रुतम्, अन्यद्वा उत्त०१ अ०। अध्ययनमन्यगणसक्तस्य न दातव्यमिति। एवं प्रकारा गणसंस्थितीः पुरिसपरिण्णाण न० (पुरुषपरिज्ञान) किं नयोऽयं बाद्यादिरितिपरिज्ञाने, त्वच्छन्दं तीर्थकरानुपदेशेन कुर्वन्ति / तत्रौवं गणसंस्थितौ कृतायां | प्रयोगसम्पढ़ेद एषः। स्था० 8 ठा०। योऽन्यगणसक्तोऽपि पात्रो महाकल्पश्रताऽऽदिकमध्ययनं ददाति तेन पुरिसपुंडरीय पुं० (पुरुषपुण्डरीक) अस्यामवसर्पिण्या भरतक्षेत्रो जाते गणसंस्थितिस्त्यल्कान धर्मः, तीर्थकरोपदेशे वर्तमानत्वात्। एष हि षष्ठे वासुदेवे, आव०१ अ०। प्रव० 1 ति०। सुखार्थिना पुरुषाणां पूज्ये भगवतां तीर्थकृतामुपदेशः-सर्वस्यापि पात्रस्याविशेषेण दातव्यः। यस्तु सेव्ये च तीर्थकराऽऽदौ, स्था०६ ठा०। औ०। शषोः सः / / 8111 गणसंस्थितौ कृतायां न कस्यापिपरगणसक्तस्य पात्रस्य ददाति तं प्राप्य 260 // इति सः। प्रा०। द्वितीयो भङ्गः। यः पुनरपात्रस्य दाता तं माप्य तृतीयो भङ्गगः, तेन्न पुरिसपुर न० (पुरुषपुर) स्वनामख्याते नगरे, पाटलिपुरनगरे मुरुण्डो गणस्थितेः तीर्थकराऽऽज्ञाखण्डनतोधर्मस्य च त्यक्तत्वात्। यस्त्वनयो- नाम राजा, तदीयदूतस्य पुरुषपुरे नगरे गमनं, तासचिवेन सह मीलनं, व्यवच्छेदं पश्यन मेधावी प्रवचनोपग्रहकरो भविष्यतीत्यगदिगुणस मन्वितं तेन च तस्याऽऽवासोऽदायि। ततो राजानं द्रष्टुमागतो, रक्तपटा अपशकुना प्रातीच्छिकमुपलभ्य तस्य तस्य स्वयमेवं निजं दिग्बन्ध कृत्या साति- भवन्तीति कृत्वा स दूतो न राजभवनं प्रतिशति। बृ० 1 उ०३ प्रक० / शयमन्यता अध्ययनं ददाति, तमप्यास्तां प्रथमभङ्गवर्तिनमित्य आव०॥ पिशब्दार्थः। उभयं गणसंस्थितिधर्म चावलम्बमानं पूजयामः। एष चतुर्थः। पुरिसप्पणीय त्रि० (पुरुषप्रणीत) ईश्वरेण आत्मना वा प्रणीते, सूत्र०२ व्य०१० उ०1 श्रु०१ अ०। सर्वत्र लवरामवन्द्रे / / 8 / 276 / / इति रलुकि। समासे पुरिसजुग न० (पुरुषयुग) पुरुषाः शिष्यप्रशिष्याऽऽदिकमव्यवस्थिता वा।।८।२।१७॥पद्वित्वम्। प्रा०। युगानीवकालविशेषा इव क्रमसाधात् पुरुष युगानि। स०४४ सम० / पुरिसमेह पुं० (पुरुषमेध) पुरुषयज्ञे, व्य० 130 / शिष्याऽऽदिक्रमप्राप्ते पुरुषान्तरे, व्य० 3 उ०। कल्प० / स्था०। (कस्मात् पुरिसरयण न० (पुरुषरत्न) पुरुषाणां मध्ये रत्न इवोत्कृष्ट पुरुष, पुरुषयुगात्कस्य तीर्थकरस्य कियती युगान्तकृदभूमिरिति 'तित्थयर' अङ्ग। पुरुष रोगाचा१1१।। इति इः।। प्रा० / क्ष्माश्लाघा-रत्ने० शब्दे चतुर्थ भागे 2271 पृष्ठे उक्तम्) // 8 / 21101 / / इति नात् पूर्वमत्॥प्रा० पुरिसजेड पुं० (पुरुषज्येष्ठ) पुरुषः एव ज्येष्ठः पुरुषज्येष्ठः। स्त्रयपेक्षया पुरुषरत्नानिप्रशस्ते पुरुष, पञ्चा० 17 विव०। के ते भयवं ! पंच पुरिसरयणा पण्णत्ता / जंबू! आयरियसर्वेषामपि तीर्थकृतां पुरुषस्य साधोः स्त्रियः साध्वयो वन्दनं पुरिसरयणे १,उवज्झायपुरिसयणे 2, पवत्ति यपुरिसरयणे 3, ददति / तथा चाऽऽह थेरे पुरिसरयणे ४,रायणिए पुरिसरयणे / एएपंच पुरिसरयणा। कहं णं भंते ! साहूणं मज्झे आयरिए० जाव रायणिए पुरिससिज्जायरपिंडम्मिय, चाउज्जामे य पुरिसजेट्टे य। रयणे, अण्णे पंचमहव्वयधरणसीला साहू पुरिसरयणा ण कितिकम्मस्सय करणे, ठियकप्पो मज्झिमाणं पि॥१०॥ हवंति? जंबू ! ते विपुरिसरयणा, परं आयरियाणं परंपराए वा पञ्चा०१७ विव०। (अस्या (10) गाथाया व्याख्या 'अद्वियकप्प' / उववण्णे समणसंघे संकाकंखाइदोसरहिए विहरंति अओ ते शब्दे प्रथमभागे 255 पृष्ठे गता) पुरिसरयणे / अङ्ग। पुरिसत्थपुं० (पुरुषार्थ) धर्मार्थकामनोक्षेषु, प०व० 1 द्वारा इच्छाविषयेषु, / पुरिसलक्खण न० (पुरुषलेक्षण) सामुद्रिकप्रसिद्धपुंलक्षण परिक्षानलक्षणे "अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, धर्मस्य दानं 260 च दया दमश्च। कलाभेदे, जं०२ वक्ष० / सूत्र० / स०। ज्ञा०। Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसलिंगसिद्ध 1038- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग maaaaamaaman awam wwwwwwwwww पुरिसलिंगसिद्ध पुं० (पुरुषलिङ्गसिद्ध) पुंलिङ्गशरीरनिवृत्तिरुपे व्यवस्थिते सति सिद्धे, नं० / पा०। पुरिसबग्ध पुं० (पुरुषव्याघ्र) पुरुषेषु व्याघ्र इव शूरतया पुरुषव्याघ्रः / रा०। रोषे सति रौद्ररुपे पुरुष, औ०। पुरिसवयण न० (पुरुषवचन) घटः पट इत्यादिरुपे पुंवचने, आचा०२ श्रु० १चू० 4 अ० 1 उ०। पुरिसवर पुं० (पुरुषवर) पुरुषाणां मध्ये प्रधाने, औ०। स्था०। पुरिसवरगंधडत्थि(णा) पुं० (पुरुषवरगन्धहस्तिन) तीर्थकरे, भ०। पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्धस्तिनो गन्धेनापि समस्तेतरहस्तिनो भञ्जन्ते तथा भगवतस्तद्देशविहरणेन ईतिपरचक्रदुर्भिक्षडमरमरकाऽऽदीनि दुरितानि नश्यन्तीति पुरुषवरगन्धहस्तीत्युच्यते इति। पुरुषातेमे, भ०१२०१ उ०। कल्प० / रा०। प्रणिपातदण्डकनवमसूत्रम् - पुरिसवरगंधत्थीणं / / 6 / पुरुषवरगन्धहस्तिभ्य इति। पुरुषाः पूर्ववदेव, ते वरगन्ध हस्तिन इव गजेन्द्रा इव क्षुद्रगजनिराकरणाऽऽदिना धर्म साम्येन पुरुषवरगन्धहस्तिनः, यथा गन्धहस्तिनां गन्धेनैव तद्देशविहारिणः क्षुद्रशेषगजा भज्यन्ते, तद्वदेतेऽपि, परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृतयः सर्व एवोपद्रवगजा अचिन्त्यपुण्यानुभावतो भगवद्विहारपवनगन्धादेव भज्यन्त इति, न चैकानेकस्वभावत्वे वस्तुन एवमप्यभिधानक्रमाऽभावः, सर्वगुणानामान्योऽन्य संवलितत्वात् पूर्वाऽनुपूव्वर्याऽऽद्यभिधेयस्वभावत्वात्, अन्यथा तथाऽभिधानायप्रवत्तेः, नैवमभिधेयमपि तथाऽक्रमवदसदित्युक्तवद्, अक्रमवत्तवासिद्धेः, क्रमाऽक्रम व्यवस्थाऽभ्युपगमाच, अन्यथा न वस्तुनिबन्धना शब्दप्रवृत्तिरिति स्तववैयर्थ्यमेव, ततश्चान्धकारनृत्तानुकारी प्रयास इति, पुरुषवरगन्धहस्तिन इति / / 6 / ल०। ध०। पुरिसवरपुंडरीयन० (पुरुषवरपुण्डरीक) तीर्थकरे, वरपुण्डरीकं प्रधानधवलसहस्त्रपत्रां पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेति पुरुषवरपुण्डरीकम्। धवलत्वं चास्य भगवतः सर्वाशुभमली मसरहितत्वात् सवैश्च शुभानुभावैः शुद्धत्वात्। अथवा पुरुषाणां तत्सेवकजीवानां वरपुण्डरीकमिववरच्छत्रमिव यः सन्तापाऽऽतपनिवारणसमर्थत्वा भूषाकारणत्वाच्च स पुरुषवरपुण्डरीकमिति। भ०१ श० 1 उ० / सूत्र० / स० / जी०। रा०। कल्प०। पुरुषो वरपुण्डरीकमिव संसारजलाऽऽसङ्गाऽऽदिना धर्मकलापेन पुरुषवरपुण्डरीकम्। 302 अधि०। प्रणिपातदण्डकाष्टमसूत्रम् --- पुरिसवरपुंडरीयाणं // 8 // यथा पुण्डरीकाणि पङ्के जातानिजले वर्द्धितानि तदुभयं विहाय वर्तन्ते, प्रकृति सुन्दराणि च भवन्ति, निवासो भुवनलक्ष्म्या आयतनं चक्षुराद्यानन्दस्य, प्रवरगुणयोगतो विशिष्टतिर्यग्नरामरैः सेव्यन्ते, सुखहेतूनि भवन्ति च, तथैतेऽपि भगवन्तः कर्मपड्के जाता दिव्यभोगजलेन वर्द्धिता उभयं विहाय वर्तन्ते, सुन्दराश्चातिशययोगेन, निवासो गुणसंपदः, हेतवो दर्शनाऽऽद्यानन्दस्य, केवलाऽऽदिगुणभाववेन भव्यसत्वैः सेव्यन्ते, निर्वाणनिबन्धनं च जायन्त इति नैव भिन्नजातीयोपमायोगेऽप्यर्थतो विरोधाभावेन यथोदितदोषसंभव इति, एकानेकस्वभाव चवस्तु, अन्यथा तत्तत्वासिद्धेः, सत्वामूर्त त्वचेतनत्वाऽऽदिधर्भरहितस्य जीवत्वाऽऽद्ययोग इति न्यायमुद्रा, न सत्वमेवामूर्तत्वाऽऽदि, सर्वा तत्प्रसङ्गात्, एवं च मूर्तस्वाऽऽधयोग, सत्वविशिष्टताऽपिन, विशेषणमन्तरेणातिप्रसङ्गात्, एवं नाभिन्ननिमित्तत्वाद्दते विरोध इति पुरुषवर पुण्डरीकाणि / / 8 / / ख०1०। पुरिसवरपुंडरीओ, अरहा इव सव्वपुरिससीहाणं / / (5) (पुरिसवर त्ति) पुरुषाणां मध्ये वरः पुरुषवरः, पुरुषवराणां मध्ये पुण्डरीकमिव-कमलमिव, यथा पुण्डरीकं जले जातं जले च वृद्धिमुपगत न पडून लिप्यते, नापि जलेन, किंतु जलोपरि वयैव भवति, एवमर्दापि तीर्थकरः, कामैजातो भोगैर्वृद्धिमुपगतो न कामैर्लिप्तो नापि भौगे, किंतु त्रिभुवनोपर्ये व जातः, पुण्डरीकमातपत्रां पुरुषवराणां पुण्डरीकमिव आतपत्रमिव, तद्धि आतपं निवारयति, अर्हापि कर्माऽऽतपनिवारणसमर्थत्वात्तेनोपमीयते / यदि वा-पुण्डरीकश्चित्रकः पुरुषवराणां मध्ये पुण्डरीक इव, यथा स केनापि पशुजातीयेन नपराभयूते, एवमर्दापि त्रिषष्टयधिकैरिवभिः पाषाण्डिकशतैर्न कदाऽपि पराभूयत इति। संथा० / ध०। स०। पुरिसवाइ(ण) पुं० (पुरुषवादिन्) ईश्वरवादिनि, सम्म० / अन्यस्त्वाह -- पुरुष एवैकः सकललोकस्थितिसर्गप्रलयहेतुः प्रलयेऽप्यलुप्तज्ञानातिशयशक्तिरिति / तथा चोक्तम्- "ऊण्णांनाभ इवाशूना, चन्द्रकान्त इवाम्भसाम्। प्ररोहणामिव प्लक्षः, स हेतुः सर्वजन्मिनाम् / / 1 / / " इति। तथा-''पुरुष एवेदं सर्वं यत् भतं यच्च भाव्यम् 'इत्यादि। ऊर्णनाभोऽत्र कर्मटको व्याख्यातः। अत्रा यथा सकललोकस्थितिसर्गप्रलयहेतुता ईश्वरस्यैवं पुरुषवादिभिः पुरुषस्येष्टा / विशेषस्तु समवायाऽऽद्यपरकारणसव्यपेक्ष ईश्वरोजगति वर्तयत्ययं तु केवल एव, अस्यं चेश्वरस्येव जगद्धेतुताऽसङ्गता। तथाहि-"पुरुषो जन्मिनां हेतुर्नोत्पतिविकलत्वतः। गगनाम्भोजवत् सर्वमन्यथा युगपद् भवेत् / / 1 / / " सम्म०३ काण्ड / रथा०। पुरिसवि(च)जयविभंगपुं० [पपुरुषवि(च)] जयविभङ्गबपुरुषा विचीयन्ते मृग्यन्ते विज्ञानद्वारेणान्वेष्यन्ते येन स पुरुष विचयः। पुरुषविजयो वा केषाञ्चिदत्यरात्वानां तेन ज्ञानबलेनावधिप्रयुत्केनानानुबन्धेन विजयादिति। स च विभङ्गवदवधिज्ञानविपर्यवद्विभङ्गो ज्ञानविशेषः। पुरुषविचयश्चासौ विभङ्गश्च पुरुषविचयविभङ्गः। ज्ञानविशेषे, सूत्र०। त्रयोदशसु क्रियास्थानेषु यन्नाभिहितं पापस्थानं तद्वि भणिषुराहअदुत्तरं च णं पुरिसविजयं विभंगमाइक्खिस्सामि, इह खलु णाणापण्णणं णाणाछंदाणं णाणासीलाणं णाणादिट्ठीणं णाणारुईणं णाणाऽऽरंभाणं णाणाऽज्झवसाण संजुत्ताणं णाणाविहपादसुयज्झयणं एवं भवइ। (अदुत्तरमित्यादि) अस्मालायो दशक्रि यस्थानप्रतिपादना दुत्तरं यदत्र न प्रतिपादितं तदधुनोत्तरभूतेनानेन सूत्रसंद Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1036- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग में द्य प्रतिपाद्यते। यथाऽऽचारे प्रथमश्रुतस्कन्धे यन्नाभिहिन वदुत्तरभूताभिश्चूलिकाभिः प्रतिपाद्यते, तथा चिकिस्साशास्त्रं मूलसंहितायां श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकिस्सितकल्पसंज्ञ कायां यन्नाभिहितं तदुत्तरेऽभिधीयते, एवमन्यत्रापि छन्दश्चित्यादावुत्तरसदावोऽवगन्तव्यः, तदिहापि पूर्वेण यन्नाभिहितं तदनेनोत्तरग्रन्थेन प्रतिपाद्यत इति / चः | समुचये, णमिति वाक्यालङ्कारे, पुरुषा विचीयन्तेमृग्यन्ते विज्ञानद्वारेणान्वेष्यन्ते येन स पुरुषविचयः, पुरुषविजयो वा, केषाञ्चिदल्पसत्वाना तेन ज्ञानलवेनाविधिप्रयुक्तेना तर्थानुबन्धिना विजयादिति, स च विभगवदवधिविपर्यवद्धिभङ्गोज्ञानविशेषः पुरुषविचयश्चासौ विभङ्गश्च पुरुषविचयविभङ्गस्तमेवंभूतं ज्ञानविशेषमाख्यास्यामि प्रतिपादयिप्यामि। याद्दशाना चासौ भवति तां लेशतः प्रतिपादयि तुमाह-(इह खलु इत्यादि) इह-जगति मनुष्यक्षेत्र प्रवचने चा नानाप्रकारा विचित्राक्षयोपशमात् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा, सा चित्रा येषां ते नानाप्रज्ञाः, तया चाऽल्पाल्पतराल्पतमया चिन्त्यमानाः पुरुषाः षट्स्थानपतिता भवन्ति, तथा छन्दोऽभिप्रायः स नाना येषां ते तथा तेषां, नानाशीलानां तथा नानारुपा दृष्टि:--अन्तःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा तेषामिति, तेषां च त्रीणि शतानि त्रिषष्टयधिकानि प्रमाणमवगन्तव्यं, तथा नाना रुचिर्येषां ते नानारुचयः। तथाहि-आहारविहारशयना ऽऽसनाऽऽच्छादना ऽऽभरणयानवाहनगीतवादित्राऽऽदिषु मध्येऽन्यस्या ऽन्याऽन्यस्यान्या रुचिर्भवति, तेषां नानारुचीनामिति / तथा नानाऽऽरम्भाणां कृषियाशुपाल्यविपणिशिल्पकर्मसेवाऽऽ दिष्वन्यतरमाऽऽरम्भेणेति, तथा नानाऽऽध्यवसायसंयुतानां शुमाध्यवसाय भाजामिहलोकमात्रप्रतिबद्धानां परलोकनिष्पिपा सानां विषयतृषितामामिदं नानाविधं पापश्रुताध्ययनं भवति / तं जहा-भोमं उप्यायं सुविणं अंतलिक्खं अंगं सरं लक्खणं वंजणं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं मिंढलक्खणं कु कुडलक्खणं तित्तिरलक्खणं वट्टगलक्खणं लावयलक्खणं चक्कलक्खणं छत्तलक्खणं चम्मलक्खणं दंडलक्खणं असिलक्खणं मणिलक्खणं कागिणिलक्खणं सुभगाकरं दुब्भगाकरं गब्भाकरं मोहणकरं आहव्वणिं पागसासगिंदव्वहोम खत्तियविज्जं चंदचरियं मूरचिरयं सुक्कचरियं बहस्सइचरियं उक्कापायं दिसादाहं मियचक्कं वायसपरिमंडलं पंसुवुद्धिं केसवुट्टि मंसवृट्टि रुहिरवुट्टि वेतालिं श्रद्धवेतालिं ओसोवणिं तालुघाडणिं सोवागिं सोवरिं दामिलि कालिंगि गोरिंगंधारिं उवतिणिं उप्पयणिं जंभणिं थंमणिं लेसणिं आमयकरणिं बिसल्लकरणिं पक्कमणिं अंतद्धाणिं आयमिणिं; एवमाइआओ विजाओ अन्नस्स हेउं पउंति पाणस्स हेउं पउंजंति वत्थस्स हेउंपउंजंति लेणस्स हेउं पउंजति सयणस्स हेउं पउंजंति, अन्नेसि वा विरुवरुवाणं कामभोगाणं हेउं पउंजंति, तिरिच्छं ते विजं से ति, ते अणारिया विप्पडिवन्ना कालमासे कालं किच्चा अन्न यराइं आसुरियाई किदिवसियाई ठाणाई उववत्तारो भवंति, ततोऽवि विप्पमुचमाणा भुजो एलमूयत्ताए तमअंधयाए पचायंति॥३०!! तद्यथा-भूमौ भवं भौम-निर्घातभूकम्पादिकं तथोत्पातकपिहसिताऽऽदिक, तथा स्वप्र-गजवृषभसिंहाऽऽदिक, तथा अन्तरिक्षम्-आमोघाऽऽदिक, तथा अङ्गे भवमानम्-अक्षिबाहु स्फुरणाऽदिकं तथा स्वरलक्षणंकाकस्वरगम्भीरस्वराऽदिकं, तथा लक्षणम्-यवमत्स्यपद्मशङ्खचक्रश्रीवत्साऽऽदिक, व्यंजनं तिलकमाषाऽदिक, तथा स्त्रीलक्षणंरक्तकरचरणाऽदिकम, एवं पुरुषाऽदीनां काकिणीरत्नपर्यन्तानां लक्षणप्रतिपाटकशास्त्र परिज्ञानमवगन्तव्यम्। तथा मन्त्रविशेष रुपा विद्याः, तद्यथा दुर्मगमपि सुभगमाकरोति सुभगाकरां, तथा सुभगमपि दुर्भगमाकरोति दुर्भगाकरा, तथा गर्भकरांगर्भाऽऽधानविधायिनी, तथा मोहोव्यामोहो वेदोदयो वा तत्करणशीलामायणीमाथर्वणभिधानां सद्योऽनर्थकारिणी विद्यामधीयते तथापाकशासनीमिन्द्रजालसंज्ञिका, तथा नानाविधैर्देव्यैः कणवीरपुष्पाऽऽदिभिर्मधुघृता ऽऽदिभिर्वोचवाटना ऽऽदिकैः कार्योंमोहवनं यस्यां सा द्रव्यहवना ता, तथा क्षत्रियाणां विद्या धनुर्वेदाऽऽदिका अपरावा या स्वगोत्रक्रमेणऽयात।तामधीत्य प्रयुञ्जते, तथा नानाप्रकार ज्योतिषमधीत्य व्यापारयतीतिदर्शयति-(चंदचरियमित्यादि) चन्द्रस्यग्रहपतेश्चरितं चन्द्रचरितमिति, तच्च वर्णसंस्थानप्रमाणप्रभानक्षत्रयोगरा हुग्रहाऽऽदिक, सूर्यचरित त्विदम्-सूर्यस्य मण्डलपरिमाणरा शिपरिभोगोदद्योतावकाशराहूपरागाऽऽदिकं, तथा शुक्रचारो वीथीत्रयचाराऽऽदिकः, तथा बृहस्पतिचारः शुभाशुभफलप्रदः संवत्सरराशिपरिभोगाऽऽदिकश्च, तथा उल्कापाता दिग्दाहाश्च वायव्याऽदिषु मण्डलेषु भवन्तःशस्खाग्निक्षुस्पीडाविधायिनो भवन्ति, तथा मृगाहरिणशृगालाऽऽदय आरण्यास्तेषां दर्शनरुतं ग्रामनगरप्रवेशऽदौ सति शुभाशुभं यत्र चिन्त्यते तन्मृगचक्रम, तथा वायसाऽऽदीनांपक्षिणां यत्र स्था नदिकस्वराऽश्रयेणाऽशुभफलं चिन्त्यते तद्वायसपरिमण्डलं, तथा पाशुकेशमांसरुधिराऽऽदिवृष्टयोऽनिष्टफलदा या शास्त्रे चिन्त्यते तत्तदभिधानमेव भवति, तथा विद्या नाना प्रकाराः, क्षुद्रकर्मकारिण्यः,ताश्चेमाः वैताली नामविद्या नियताक्षरप्रतिबद्धा, साच किल कतिभिर्जपैर्दण्डमुत्थापयति, तथा अर्धवैताली तमेवोपशमयति, तथा-अपस्वापिनी तालोद्घाटनी श्वपाकी शाम्बरी तथा--अपराद्राविडी कालिङ्गी गौरी गान्धावपतन्युत्पतनी जृम्भिणी स्तम्भनी श्लेषणी आमयकरणी विशल्यकरणी प्रकामणी अन्तर्धानकरणी इत्येवमादिका विद्या अधीयते। आसां चार्थः संज्ञातोऽवसेय इति, नवरं शाम्बरीद्राविडीकालिङ्गयस्तदेशेद्रवा स्तद्भाषानिबद्धा वा चित्रफलाः / अवपतनी तुजपस्वत एव पतत्यन्य वा पातयत्येवमुत्पतन्यपि द्रष्टव्या। तदेवमेवमादिका विद्या, आदिग्रहणात्प्रज्ञप्तयादयो गृह्यन्ते। एताश्च विद्याः पाखण्डिकाः अविदितपरमार्था गृहस्था वा स्वयूथ्या वा द्रव्यलिङ्गधारिणोऽन्नपानाऽऽद्यर्थयुञ्चन्ति, अन्येषां वा विरुपरूपाणाम् उच्चावचाना शब्दाऽऽदीनां काम भोगानां कृते प्रयुञ्जन्ति / सामान्येन विद्याऽऽसेवनमनिष्टकारीति दर्शयितुमाह-(तिरिच्छामित्यादि) तिरश्चीनाम्-अननु Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1040- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग कूला सदनुष्ठानप्रतिघातिकां ते अनायोंविप्रतिपन्ना विद्या सेवन्ते, ते च यद्यपि क्षेत्राऽऽया भाषास्तिथाऽपि मिथ्यात्वोपहतबुद्धयोऽनार्यकर्मकारित्वादनार्या एव द्रष्टव्याः तेव स्वाऽऽयुषः क्षये कालमासे कालं कृत्वा यदि कथञ्चिदेवलोकगामिनो भवन्ति ततोऽन्यतरेषु आसुरीयकेषु किल्विषिकाऽऽदिषु स्थानेषूत्स्यन्ते, ततोऽपि विप्रमुक्ताश्चयुताः, यदि वा-मनुष्येषूत्पद्यन्ते, तत्रा च तत्कर्म शेषतयैडमूकत्वेनाव्यक्तभाषिणस्तमत्वेनान्धतया मूकतयावा प्रत्यागच्छन्ति, ततोऽपि नानाप्रकारेषु यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषूत्पद्यन्ते। साप्रतं गृहस्थानुद्दिश्या धर्मपक्षसेवनमुच्यतेसे एगइओ आयहेउं वा णायहेउं वा अगारहेउं वा परिवारहे वानायगंवा सहवासियं वाणिस्साए अदुवा अणुगामिए 1, अदुवा उवचरए 2, अददा पडिपहिए 3, अदुवा संधिच्छेदए 4, अदुवा गंठिच्छेदए 5, अदुवा उरडिभए 6, अदुवा सोवरिए 7, अदुवा वागुरिए , अदुवा साउणिए 6, अद्वा मच्छिए 10, अदुवा गोधायए 11, अदुवा गोवालए १२,अदुवा सोवणिए 13, अदुवा सोवणियंतिए 14 / (से एगइओ इत्यादि) स एकः कदाचिन्नित्रिशः सांप्रतापेक्षी अपगतपरलोकध्यवसायः कर्मपरतया भोगलिप्सुः संसारस्वभावानुवयात्मनिमित्तं वेत्येतान्यनुगामुकाऽऽदीन्यन्य कर्तव्यहेतुभूतानि चतुर्दशाऽसदनुष्ठानानि विधत्ते, तथा-ज्ञातयः स्वजनास्तन्निमित्तं तथाऽगारनिमित्तंगृहसंस्करणार्थ सामान्येन वा कुटुम्बार्थपरिवारनिमित्तं वा दासीदासकर्म कराऽऽदिपरिकस्कृते, तथा ज्ञात एव ज्ञातकः परिचितस्त समुद्दिश्य, तथा सहवासिक वा प्रातिवेश्मिकं निश्रीकृत्यैतानि वक्ष्यमाणानि कुर्यादिति संबंन्धः। तानि च दर्शयितुमाह - (अदुवेत्यादि) अथवेत्येवंवक्ष्यमाणपेक्षया पक्षान्तरोपलक्षणार्थः, गच्छन्तमनुगच्छतीत्यनुगामुकः, स चाऽकार्याध्यवसायेन विवक्षितस्थानकालाऽऽद्यपेक्षया विरूपकर्त्तव्यचिकीर्षुस्तं गच्छन्तमनुगच्छति अथवा-तस्यापकर्त्तव्य स्यापकारावसरापेक्ष्युपचरको भवति, अथवा-तस्य प्रातिपथिको भवति , प्रतिपथं संमुखी नमागच्छति, अथवा आत्मस्वजनार्थ सन्धिच्छेदको भवति चौर्य प्रतिपद्यते, अथवोरभैर्मषैश्चरत्यौरभ्रिकः / अथवा- सौकरिको भवति, अथवा शकुनिभिः-पक्षिभिश्चरतीति शाकुनिकः, अथवा-वागुरया मृगाऽऽदिबन्धनरज्ज्वा चरति वागुरिकः, अथवा-मत्स्यैश्चरति मात्स्यिकः, अथवा-गोपालभावं प्रतिपद्यते, अथवा गोघातकः स्याद्, अथवा-श्वभिश्चरति शौवनिकः, शुना परिपालको भवतीत्यर्थः, अथवा-(सोधणियं ति) श्वभिः पापर्द्धि कुर्वन्मृगाऽऽदीनामन्तं करोतीत्यर्थः / तदेवमेतानि चतुर्दशाऽप्युद्दिश्य प्रत्ये कमादिः प्रभृति विवृणोतिएगइओ आणुगामियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगामिया- 1 णुगामियं हंता छेत्ता भेत्तालुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं / आहारेति, इति से महया पावहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ / / 1 / / से एग्गओ उवचरयभावं पडियसंधाय तमेव उवचरियं हंता छेत्ता भेत्तालुंपइत्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेति, इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ / / 2 / / तत्रैकः कश्चिदात्माऽऽद्यर्थमपरस्य-गन्तुग्रामान्तर किश्चिद् द्रव्याजातमवगम्य तदादित्सुस्तस्यैवानुगामुकभावं प्रतिसंघाय सह गन्तृभावेनाऽऽनुकूल्य प्रतिपद्य विवक्षितवञ्चनावसर कालाऽऽद्यपेक्षी तमेव गच्छन्तमनुव्रजति, तमेव चाभ्युत्थानविनयाऽऽदिभिरत्यन्तोपचारैरुपचर्यानुव्रज्य च विवक्षितमवसरं लब्ध्वा तस्याऽसौ हन्ता दण्डाऽऽदिभिः, तथा छेत्ता खगाऽऽदिना हस्तपादाऽऽदेः, तथा भेत्ता वज्रमुष्टयादिना, तथा लुम्पयिता केशाऽऽकर्षणाऽऽदिकदर्थनतः, तथा-विलुम्पयिता कशाप्रहाणऽऽदिभिरत्यन्तदुःखोत्पादनेन, तथाऽपद्रावयिता जीविताद् व्यरोपणतो भवतीत्येवमादिक कृत्वा ऽऽहारमाहारयत्यसौ / एतदुत्कं भवति-गल कर्त्तकः कश्चिदन्यस्य धनवतोऽनुगामुकभावं प्रतिपद्य तं बहुविधैरुपायै विश्रम्भे पातयित्वा भोगार्थीमोहान्धः साम्प्रतक्षितया तस्य रिक्थवतोऽपकृत्याऽऽहाराऽऽदिकां भोगक्रियां विधत्ते / इत्येवमसौ महद्भिः क्रूरैः कर्मभिः-अनुष्ठानैर्महापातकभूतैर्वा तीव्रानुभावैर्दीर्घस्थितिकैरात्मानमुपाख्यापयिता भवति, तथा ह्ययमसौ महापापकारीत्येवमात्मानं लोके ख्यापयति, अष्टप्रकारैः कर्मभिरात्मानं तथा बन्धयति यथा लोके तद्विपाकाऽऽपादितनावस्थाविशेषण सता नारकतिर्यडनरामररुपतयाऽऽख्यात इति / / 1 / / तदेवमेकः कश्चिदकर्त्तव्यामिसन्धिना परस्य स्वापतेयवतस्तद्वञ्चनार्थमुपचरकभावं प्रतिसंधाय प्रतिज्ञाय पश्चातं नानाविधैर्विनयोपायैरुपचरित, उपचर्य च विश्रम्भे पातयित्वा तद्रव्यार्थी तस्य हन्ता छेत्ता भेत्ता यावदपद्रावयिता भवतीत्येवमसावात्मानं महद्भिबृहद्भि पापैः कर्मभिः उपाख्यापयिता भवतीति // 2 // से एगइओ पाडिपहियभावं पडिसंघाय तमेव पडिपहे द्विचा हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेति, इति से महया पावेहिं कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ / / 3 / / से एगइओ संधिच्छे दगमावं पडिसंधाय तमेव संधि छेत्ता भेत्ता०जाव इति से महया पावेहि कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ||४|| अथैकः कश्चित्प्रतिपथेन अभिमुखेन चरतीति प्रातिपथिकस्तद्भावं प्रतिपद्यापरस्यार्थवतस्तदेव प्रातिपथिकत्वं कुर्वन प्रतिपथे स्थित्वा तस्यार्थवतोविश्रम्भतोहन्ताछेता यावदपद्रावयिता भवतीत्येवमसा-वात्मान पापैः कर्मभिः ख्यापयतीति / / 3 / अथैकः कश्चिद्विरुपकर्मणा जीवितार्थी संधिच्छेदकभावखत्राखननत्वं प्रतिपद्याऽनेनोपायेनाऽऽत्मानमहं कर्तयिष्यामि इत्येवं प्रतिज्ञां कृत्वा तमेव प्रतिपद्यते, ततोऽसौ सन्धिं छिन्दन् खत्रं खनन प्राणिनां छेता भत्ता विलुम्पयिता भवतीति, एतच कृत्वाऽऽहारमाहारयतीति। एतच्चोपलक्षणभन्यांश्च कामभोगान् स्वतो भुक्तेऽन्यदपि ज्ञातिगृहादिक पालयतीत्येवमसौ महद्भिः पापैः कर्मभिरात्मानमुपख्यापमति / / Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1041- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग से एगइओ गंठिच्छेदभावं पडिसंधाय तमेव गंठिं छेत्ता भेत्ता जाव इति से महया पावेहिं कम्मे हिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ / / 5 / / से एगइओ उरभियभावं पडिसंधाय उभं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता० जाव उवक्खाइत्ता भवइ। एसो अभिलावो सव्वत्थ।।६it अर्थकः कश्चिदसदनुष्ठायी घु(राऽऽदिना ग्रन्थिच्छेदकभावं प्रतिपदा रामशानुयाति / शेषं पूर्ववत् / / 5 / / अथैकः कश्चिदर्भिकर्मवृतिरुरभा उरणकास्तै चरति यः स औरभिकः, स च तदूर्णया तन्मांसाऽऽदिना वाऽऽलगानं वर्तयति, तदेवमसौ तद्भावं प्रतिपद्योर, वा अन्य वा त्रसं प्राणिनं स्वमांसपुष्टयर्थ व्यापादयति, तस्य वा हन्ता छेत्ता भेत्ता भवतीति, शेष पूर्ववत / / 6 // से एगइओ सोयरियभावं पडिसंधाय महिसं वा अण्णतरं वा तसं पाणं० जाव उवक्खाइत्ता भवइ // 7 // से एगइओ वागुरियभावं पडिसंधाय मियं वा अण्णतरं वातसं पाणं हता० जाव उवक्खाइत्ता भवइ॥८॥ अशान्तर सोकरिकपर्द, तच खबुद्धया व्याख्येयम्। सोकरिकाः... स्वपचा 'चाण्डालाः, खट्टिका इत्यर्थः / / 7 / / अथैकः कश्चित् क्षुद्रसत्वो वागुरिकभावं लुब्धक त्वं प्रतिसन्धायप्रतिपद्य वागुरया मृग हरिणमन्य वा असं प्राणिनं शशाऽऽदिकमात्मवृत्यर्थ स्वजनाऽऽटावाव्यापादयति तस्य च हन्ता छत्ता भेत्ता भवति / शेषं पूर्ववत्॥८॥ से एगइओ साउणियभावं पडिसंधाय सउणिं वा अण्णतरं वा तसं पाणं हंता० जाव उवक्खाइत्ता भवइ / / 6 / / से एगइओ मच्छियभावं पडिसंधाय मच्छं अण्णतरं वा तसं पाणं हन्ता०जाव उवक्खाइत्ता भवइ / / 10 / / अर्थकः कश्चिदधमोपापजीवी शकुनाः-लाक्काऽऽदयस्तं श्चरति शाकुनिकस्तद्भाव प्रतिसंधाय लन्मासाऽऽद्यर्थी शकुनमन्य धा त्रास व्यापादयति, तस्य च हननाऽऽदिका क्रियां करोतीति। शेषं पूर्ववत्।।। अर्थकः कश्चिदधमाधमो मात्स्यिकभाव प्रतिपटा मत्स्य वाऽन्यं जलचरप्राणिनं व्यापादयेद्धननाऽऽदि का वा क्रियाः कुर्यात् शेषं सुगमम् / / 10 / / से एगइओ गोधायभावं पडिसंधाय तमेव गोणं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता० जाव उवक्खाइत्ता भवइ / / 11 / / से एगइओ गोवालभावं पडिसंधाय तमेव गोवालं वा परिजविय परिजविय हंता० जाव उवक्खाइत्ता भवइ / / 12 / / अथैकः कश्चित्क्रूरकर्मकारी गोघातकभावं प्रतिपद्य गामन्यारं या त्रासं पाणिनं व्यापादयत्तस्य च हननाऽऽदिकाः क्रियाः कुर्यादिति / 11 / / अर्थकः कश्चिद्गोपालकभावं प्रतिपद्य कस्याश्चिद्रोः कुपितः सन् ता गां परिविच्य पृथक् कृत्वा तस्या हन्ता छेत्ता भेत्ता भूयो भूयो भवति / शेष पूर्ववत् ।।१२शः से एगइओ सोवणियभावं पडिसंधाय तमेव सुणगं या अन्नयर वा तसं पाणं हंता० जाव उवक्खाइत्ता भवइ // 13 // से एगइओ वणियंतियभावं पडिसंधाय तमेव मणुस्सं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता० जाव आहारं आहारेति, इति से महया पावेहि कम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भयइ।१४। (31 सूत्रा) अथेकः कश्चिजघन्यकर्मकारी शौवनिकभावं प्रतिपद्य सा रमेयपापहिंभावं प्रतिज्ञाय तमेव श्वानं तेन वा परं मृगसूकराऽऽदिकं असं प्राणिनं व्यापादयत्तस्य च हननाऽऽदिकाः क्रियाः कुर्यादिति / / 13 / / अथैक: कश्चिदनार्यानिर्विवेकः (सोवणियंतियभावं ति) श्वभिश्चरति शीवनिकः अन्तोऽस्यास्तीत्यन्तिकोऽन्तं वा चरत्यान्तिकः पर्यन्तवासीत्यर्थः, शावनिकश्चासावान्तिकश्च सौवनिकाऽऽन्तिकः-क्रूरसारमेयपरिग़हः प्रत्यन्तनिवासी च प्रत्यन्तनिवासिभिर्वा श्वभिश्चरतीति तदसौ तद्भावं प्रतिसन्धायदुष्टसारमेयपरिग्रहं प्रतिपद्य मनुष्यं वा कञ्चन पथिकमन्यागतमन्यचा मृगसूकराऽऽदिक त्रसंप्राणिनं हन्ता भवति। अयं चताच्छीलिकस्तृन्। लुटप्रत्ययो वा द्रष्टव्यः। तृचि सु साध्याहारं प्राग्वव्याख्येयम् / तद्यथा--पुरुष व्यापादयेत्तस्य च हन्ता छेत्ता इत्यादि, तृनलुट्प्रत्ययौ प्रागपि योजनीयाविति। तदेवमसौ महाक्रूरकर्मकारी महद्धिः कर्मभिरात्मानमुपरख्यापचिता भवतीति 14 ||31|| उक्ताऽसदाजी वनोपायभूता वृत्तिः / इदानी कचित् कुतश्चिन्निमित्तादभ्युपगमं यातिसे एगइओ परिसामज्झाओ उद्वित्ता अहमें य हणामि त्तिकट्ट तित्तिरं वा वट्टगं लावगं वा कवोयगं वा कविंजलं वा अन्नयरं वा तसं पाणं हंता० जाव उवक्खाइत्ता भवइ / / से एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं सस्साई झामेइ, अन्नेण वि अगणिकाएणं सस्साइझामावेइ, अगणिकाएणं सस्साइंझामतं वि अन्नं समणुजाणइ, इति से महया पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ। अयं चाका पूर्वस्माद्विशेषः-पूर्वत्रा वृत्तिः प्रतिपादिता प्रच्छन्नं वा प्राणव्य-परोपणं कुर्यात, इह तु कुतश्चिन्निमित्तात्साक्षाजनमध्ये प्राणिव्यापादन प्रतिज्ञा विधायोद्यच्छत इति दर्शयतिअर्थक: कश्चिन्मासादनेच्छयाव्यसनेन क्रीडया कु पितो वा पर्षदो मध्यादभ्युत्थाय वंभूतां प्रतिज्ञा विदध्यात्। यथाऽहमेनं वक्ष्यमाणं प्राणिनं हनिष्यामीति प्रतिज्ञा कृत्वा पश्चात्तित्तिराऽऽदिक हन्ता भेत्ता छ तेति ताच्छीलिकस्तृन लुट्प्रत्ययो वा, तस्य वा हन्तेत्यादि याबदारमानं पापेन कर्मणा ख्यापयिता भवतीति / इह चाधर्मपाक्षिकवभिधी यमानेषु सर्वेऽपि प्राणिद्रोहकारिणः कथञ्चिदभिधातव्यास्ता पूर्वमनपराधकु द्धा अभिहिताः / साम्प्रतमपराधकुद्धान दर्शयितुमाह - (से एगइओ इत्यादि) अथैकः कश्चित्प्रकृल्या क्रोधनोऽसहिष्णुतया के नचिदादीयत इत्यादानं शब्दाऽऽदिक कारणं तेन विरुद्धः समानः परस्यापकुर्यात्, शब्दाऽऽदानेन तावतक नचिदाक्रुष्टो निन्दितो वाचा विरुध्येत, रुपाऽऽदानेन तु वी Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1042- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग भत्सं कञ्चनं दृष्ट्वाऽपशकुनाध्यकसायेन कुप्यते / गन्धरसा-ऽऽदिकं त्वादानं सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-अथवा खलस्य कुथिताऽऽदिविशिष्टस्य दानं खलस्य वाऽल्पधान्याऽऽदेनि खलदानं तेन कुपितः, अथवासुरायाः स्थालकंकोशकाऽऽदि तेन विवक्षितलाभाऽभावात् कुपितः गृहपत्यादेरेतत् कुर्यादित्याह स्वयमेवाग्निकायेनाग्रिना तत्सस्यानि खलकवर्तीनि शालिब्रीह्यादीनि ध्यामयेद्दहेदन्येन वा दाहयेद्दहतो वाऽन्यान्समनुजानीयादित्येवमसौ महापापकर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति। साम्पतमन्येन प्रकारेण पापोपादानमाहासे एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्ठाण वा गोणाण वा घोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव धूरा (उ) ओ कप्पेति, अन्नेण वि कप्पावेति, कप्पंतं पि अन्नं समणुजाणइ, इति से महया० जाव भवइ / अथैकः कश्चित्केनचित्तुखलदानाऽऽदिनाऽऽदानेन गृहपत्यादेः कुपित स्तत्संबन्धिन उष्ट्राऽऽदेःस्वयमेवात्मना परश्वाऽऽदिना (धूराओ त्ति) जड्वा खलका वा कल्पयति छिनत्यन्येन वा छेदयति, अन्यं वा छिन्दन्तं समनुजानीते, इत्येवमसावात्मनं पापेन कर्मणोपाख्यापयिता भवति। किंचसे एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अडवा सुराथाएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टसालाओ वा गोणसालाओ वा घोडगसालाओ वा गद्दभसालाओ वा कंटकबोंदियाए पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाणं झामेइ, अन्नेण वि झामावेइ, झामतं पि अन्नं समणुज्जाणइ, इति से महया० जाव भवइ। अथैकः कश्चित्केनचिन्निमित्तेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्स बन्धिनामुष्ट्राऽऽदीनां शालागृहाणि (कंटक बोंदियाए त्ति) कण्टकशाखाभिः प्रतिविधायपिहित्वा स्थगित्वा स्वय मेवाझिना दहेत्। शेषं पूर्ववत्। अपि चसे एगइओ केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे अदुबा खलदाणेणं अदुवा सुराथाएणं गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा कुंडलं वा मणिं वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ, अन्नेण वि अवहरावइ, अवहरंतं पि अन्नं समणुजाणइ, इति से महया, जाव भवइ / अथैकः कश्चित्केनचिदादानेन कुपितो गृहपत्यादेः सबंन्धि कुण्डलाsऽदिकं द्रव्यजात स्वयमेवापहरेदवशिष्ट पूर्ववत्। साम्प्रतं पाखण्डिकोपरि कोपेन यत्कुर्थातदर्शयितुमाहसे एगइओ के णइ वि आदाणेणं विरुद्ध समाणे अदुवा खलदाणेणं अदुवा सुराथालएणं समणाण वा माहणाण वा छत्तगं वा दंडगं वा भंडगं वा मत्तगं वा लट्टि वा भिसिगं वा चेलगं वा चिलिमिलिगं वा चम्मगं वा छेयणगंवा चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरति०जाव समणुजाणइ, इति से महया० जाव उवक्खाइत्ता भवड़॥ (से एगइओ इत्यादि) अथैकः कश्चित्स्वदर्शनानुरागेणवा वादपराजितो वाऽन्येन वा केनचिन्निमित्तेन कुपितः सन्नेतत्कुर्यादित्याह / तद्यथाआम्यन्तीति थमणास्तेषामन्येषामपि तथा-भूतानां केनचिदादानेन कुपितः सन दण्डकाऽऽदिकमुपकरणजातमपहरेत, अन्येन वा हारयेद अन्यं वा हरन्तं समनुजानीयात्, इत्यादि पूर्ववत् / एवं तावद्विरोधि. नोऽभिहिताः। साम्प्रतमितरेऽभिधीयन्ते - से एगइओ णो वितिगिंछइ / तं जहा-गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा सयमेव अगणिकाएणं ओसहीओ झामेइ,. जाव अन्नं पि झामंतं समुणुजाणइ, इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवति। (से एगइओ इत्यादि) अथैकः कश्चित् दृढमूढतया (नो वितिगिछइ ति) न विमर्षतिन मीमांसते यथाऽनेन कृतेन मामऽमुत्राऽनिष्टफलं स्यात्, तथा मदीयमिदमनुष्ठानं पापानुबन्धीत्येवं न पर्यालोचयति, तद्भावाऽऽपन्नश्च यत्किञ्चनकारितया इहलोकपरलोकविरोधिनीः क्रियाः कुर्यात्। एतदेवोद्देशतो दर्शयति, तद्यथा-गृहपत्यादेनिनिमित्तमेयतत्कोपमन्तरेणैव स्वयमेवाऽऽत्मनाऽग्रिकायेन अग्निना औषधीः-शालिव्रीह्यादिकाः ध्यामयेद् दहेत् तथाऽन्येन दाहयेद्दहन्तं च समनुजानीयादित्यादि। से एगइओ णो वितिगिंछइ / तं जहा-गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टाण वागोणाण बाघोडगाण वा गद्दभाण वा सयमेव घूरा (उ) ओ कप्पेई, अन्नेण वि कप्पावेति, अन्नं पि कप्पंतं समणुजाणइ। से एगइओ णो वितिगिंछइ / तं जहागाहावतीण वा गहावइपुत्ताण वा उट्टसालाओ वा० जाव गद्दभसालाओवा कंटकबोंदियाहिं पडिपेहित्तासयमेव अगणिकारणं झामेइ जाव समणुजाणइ। से एगइओ णो वितिगिंछइ। तं जहा-गाहावतीण वा गाहावइपुत्ताण वा 1 जाव मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ० जाव समणुजाणा से एइओ णो वितिर्गिच्छद। तं जहा-समणाण वा माहणाण वा छत्तगं वा दंडगं वा० जाव चम्मच्छेदणगं वा सयमेव अवहरइ० जाव समणुजाणइ, इति से महया० जाव उवक्खाइत्ता भवइ। तथेहामुत्रा च दोषाऽपर्यालोचको निस्त्रिाशतया गृहपत्यादि संबन्धिनः क्रमेलकाऽऽदीनांजघाऽऽदीनवयवाँ श्छिन्द्यात्। तथा शालां दहेत्, तथा गृहपत्याऽऽदेः सम्बन्धिकुण्डलमणिमौक्तिकाऽऽदिकमपहरेता तथा श्रमणब्राह्मणाऽऽदीनां दण्डाऽऽदिकमुपकरणजातमपहरेदित्येवं प्राक्तना एवाऽऽलापका आदानकुपितस्य ये अभिहितास्त एव तदभावेनामिधातव्या इति। Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1043- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग साम्प्रत विपर्यस्तदृष्ट्य आगाढमिथ्याष्टयोऽभिधीयन्तेसे एगइओ समणं वा माहणं वा दिस्सा णाणाविहेहिं पावकम्मेहिं अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ, अदुवा णं अच्छराए आफालित्ता भवइ, अदुवा णं फरुसं वेदित्ता भवइ, कालेण वि से अणुपविट्ठस्स असणं वा पाणं वा० जाव णो दवावेत्ता भवइ, जे इमे भवंति वोनमंता भारकंता अलसगावेसलगा किवणगा (निउज्जमावणगा) समणगा पव्वयंति। अथैकः कश्चिदभिगृहीतमिथ्यादृष्ट रभद्रकः साधुप्रत्यनीकरा या श्रमणाऽऽदीनां निर्गच्छतां प्रविशतां वा स्वतश्च निर्गच्छन् प्रविशन् वा नानाविधैः पापोपादानभूतैः कर्मभिरात्मानमुपख्यापयिता भवतीति / एतदेव दर्शयति--अथवेत्ययमुत्तरापेक्षया पक्षान्तरोपग्रहार्थः क्वचित्साधुदर्शने सति मिथ्यात्वोपहतदृष्टितयाऽपशकुनोऽयमित्येवं मन्यमानः सन् दृष्टिपथादपसारयन् साधुमुद्दिश्यावज्ञयाऽप्सरायाः-तप्पुटिकायाः आस्फालयिता भवति / अथवा-तत्तिरस्कारमापादयन परुषं वचो यात / तद्यथा-ओदनमुण्ड! निरर्थककायल्केशपरायण! दुर्बुद्ध! अपसराग तस्तदसौ भ्रकुटी विदध्यादसत्यं वा ब्रूयात तथा भिक्षाकाले नापि (से) तस्य भिक्षोरन्येभ्यो भिक्षाचरेभ्योऽनुपश्चात्प्रविष्टस्य सतोऽत्यन्तदुष्टतयाऽन्नाऽऽदेनों दापयिता भवति अपरच दानोद्यत निषेधयति तत्प्रत्यनीकतयः एतच्च ब्रूते-ये इमे पाषण्डिका भवन्ति त एवंभूता भवन्तीत्याह- (बोण्णं ति) तृणकाष्ठहाराऽऽदिकमधमकर्म लद विद्यते तेषां ते तद्वन्तः, तथा भारेण-कुटुम्बभारेण पोट्टलिकाऽऽदिभारण वाऽऽकान्ताः-पराभन्नाः सुखलिपसवोऽलसाः क्रमाऽऽगतं कुटुम्ब पालथितुम समर्थास्ते पाषण्डव्रतमाश्रयन्ति। तथाचोक्तम्-'"गृहाऽऽश्रम परोधर्मः, न भूतो न भविष्यति। पालयन्ति नरा धन्याः,ल्कीबापाषण्डनाश्रिताः।।१।।' इत्यादि। तथा (वेसलग त्ति) वृषला अधमाः शूद्रजातयस्त्रिवर्गप्रतिचारकास्तथा कृपणाः ल्कीबा:-अकिञ्चित्कराः श्रमणा नवन्तिप्रवज्यां गृह्णन्तीति। साम्प्रतमेषामगारिकाणामत्यन्तविपर्यस्तमतीनामसद्वृत्त माविर्भावयन्नाहते इणमेव जीवितं घिजीवितं संपडिबूहें ति, नाइते परलोगस्स अट्ठाए किंचि वि सिलीसंति, ते दुक्खंति, ते सोयंति ते जूगंति ते तिप्पंति ते पिट्टति ते परितप्पंति ते दुक्खणजूरणसोयणतिप्पणपिदृणपरितिप्पणवहवंधणपरिकि लेसाओ अप्पडिविरया भवंति; ते महया आरंभेणं ते महया समारंभेणं ते महया आरंभसमारंभेणं विरूवरूवेहिं पावकम्मेहिं किच्चेहिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं मुंजित्तारो भवति / तं जहा-अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले बत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले सपुव्वावरं च णं ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सिरसा ण्हाए कंठे मालाकडे आविद्धमणिसुवन्ने कप्पियमालामउलीपडिबद्धसरीरे वग्धारियसोणिसुत्तगमल्ल दामकलावे अहतवत्थपरिहिए चंदणो क्खित्तगायसरीरे महतिमहालियाए कूडागारसालाए महतिमहालयंसि सीहासणंसि इत्थीगुम्मसंपरिबुडे सव्वराइएणं जोइणा झियायमाणेणं मद्दया हयनट्टगीयवाइयतंती तलतालतुडियघणमुइंग पडुप्पवाइयरवेणं उरालाइ माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ / / (ते इणमेव इत्यादि) ते हि साधुवर्गापवादिनः सद्धर्भप्रत्यनीका इदमेव जीवित परापवादोहनजीवितं धिग जीवितं कुत्सितं जीवितं साधुजुगुप्सापरायण संप्रति बृंहन्ति, एतदेवासवृत्तजीवितं प्रशंसन्तीति भावः / ते चेहलोकप्रतिबद्धाः साधुजुगुप्साजीविनो मोहान्धाः साधूनपवदन्ति, नापि च ते पारलौक्किस्यार्थस्य साधनम् अनुष्ठानं किञ्चिदपि-स्वल्पमपि श्लिष्यन्तिसमाश्रयन्ति, केवलं ते परान-साधून वागादिभिरनुष्ठानैर्दुः खयन्तिपीडामुत्पादयन्ति आत्मनः परेषां च, तथा, तेऽज्ञानान्धास्तथा तत्कुर्वन्तियेनाधिकं शोचन्ते, परानपि शोचयन्तिदुर्भाषिताऽऽदिभिः शोक चोत्पादयन्ति, तथा ते परान् (जूरयति) गर्हन्ति, तथा (तिप्पंति) सुखाचयावयन्त्यत्मानं पराँश्च, तथा तेवराका अपुष्टधर्माणोऽसदनुष्ठानाः स्वतः पीड्यन्ते पराश्च पीडयन्ति, तथा ते पापेन कर्मणा परितप्यन्त-अन्तर्दान्ते परांश्च परितापयन्ति / तदेयं ते ऽसद्वृत्तयः सन्ता दुःखनशोचनाऽऽदिल्केशाद प्रतिविरताः सदा भवन्ति / एवं भूताश्च सन्तस्ते महताऽऽरम्भेणप्राणिव्यापादनरूपेण तथा महता सगाराम्भेणप्राणिपरितापरूपेण, तथोभाभ्यामप्यारम्भसमारम्भाभ्यां विरुपरुपेश्च नानाप्रकारैः सावद्यानुष्ठानैः पापकर्मकृत्यैरुदारानत्यन्तोगटान्समग्रसा मग्रीकान् मधुमद्यमांसाऽऽद्युपेतान् मानुष्यकान्–मानुष्यभवयोग्यान् भागेभ्योऽप्युत्कटान् भोगभोगान् ते सावद्यानुष्ठायिनो भोत्कारो भवन्ति। एतदेवदर्शयितुमाह (तं जहेत्यादि) तद्यथत्युपदर्शने / अन्नमन्नकाले यथेप्सितं तस्य पापानुष्ठानात्संपद्यते, एवं पानवस्त्रशयनाऽऽसनाऽऽदिकमपि। सर्वमेतद्यथाकालं सपूर्वापरं संपद्यते, सह पूर्वेणपूर्वाह्नकर्तव्येन अपरेणचापराह्नकर्तव्येन, यदि वा-पूर्व यत्क्रियते स्नानाऽऽदिक तथा परं च यत्क्रियते विलेपनभोजनाऽऽदिक तेन सह वर्तत इति सपूर्वापरम्। इदमुक्तं भवति यद्यदा प्रार्थ्यते तत्तदा संपद्यत इति, अभिलषितार्थप्राप्तिमेव लेशतो दर्शयितुमाह / तद्यथा-विभूत्या स्नातस्तथा कृतं देवताऽऽदिनिमित्त बलिकर्म येन स तथा, तथा कृतानि कौतुकान्यवतारणकाऽऽदीनि मङ्गलानि च सुवर्णचन्दनदध्य क्षतदूर्वासिद्धार्थकाऽऽदर्शकस्पर्शनाऽऽदीनि, तथा दुःखस्वप्नाऽदिप्रतिघातकानि प्रायश्चित्तानि येन स कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चितः, तथा कल्पितश्चासौ मालाप्रधानो मुकुटश्च 2, स तथा विद्यते यस्य स भवति कल्पितमालामुकुटी, तथा प्रतिबद्धशरीरो दृढावयवकायो युवेत्यर्थः / तथा-- (वग्धारिय ति) प्रलम्बितं श्रोणीसूत्र कटिसूत्र मल्लदामकलापश्च येन स तथा, तदेवमसौ शिरसि स्नातः नानाविधविलेपनावलिप्तश्च कण्टे कृतमालस्तथाऽपरयथोक्तभूषणभूषितः सन्महत्यामुचायाम् (महालियाए त्ति) विस्तीर्णाया कूटागारशालायां तथा महति महालये विस्तीर्णे सिंहाऽऽसने भद्राऽऽसने समुपविष्ट : स्त्रीगुल्मेन युवतिज ने न सार्द्धमपरपरिवारेण संपरिवृतो वेष्ठितो यस्तथा, महता बृहत्तरेण प्रहत Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1044- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग नाट्यगीतकादित्रातन्त्र्यादिरवेणीदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान्भुञ्जानो इचेयस्स ठाणस्स उट्टियावेगे अभिगिझंति, अणुट्ठिया वेगे विहरतिप्रविचरति, विजृम्भतीत्यर्थः / अभिबेगे अभिगिज्झंति, अभिझंझाउरा अभिगिज्झंति, एसट्ठाणे तस्सणं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अवुत्ता अणारिए अकेवले अप्पडिपुन्ने अणेयाउए असंसुद्धे असल्लगत्तणे चेव अब्भुटुंति, भणइ देवाणु प्पिया ! किं करेमो? किं असिद्धिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिव्वाणमग्गे अणिजाणमग्गे आहारेमो ? किं उवणेमो ? किं आचिट्ठामो ? किं भेहियं असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहु, एस खलु पढमस्स इच्छ्यिं ? किं भे आसगस्स सयइ? तमेव पासित्ता अणारिया ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एव माहिए। (32 सूत्रा) एवं वयंतिदेवे खलु अयं पुरिसे, देवसिणाए खलु अयं पुरिसे, इत्येतस्य पूर्वोक्तस्य स्थानस्य ऐश्वर्यलक्षणस्य शृङ्गारमूलस्य देवजीवणिजे खलु अयं पुरिसे, अन्नेण वि च णं उवजीवंति। सांसारिकस्य परित्यागबुद्ध्या एके-केचन विपर्यस्तमतयः पाण्डितमेव पासित्ता आरिया वयंति-अभिकंतकूरकम्मे खलु अयं कोत्थानेनोस्थिताः परमार्थमजानानाः (अभिगिज्झंति रि) आभिमुपुरिसे अतिधुन्ने अइयायरक्खे दाहिणगामिए नेरइए कण्ह- ख्येनलुभ्यन्ते लोभवशगा भवन्तीत्यर्थः / तथा एके केवन गम्प्रतक्षिणपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लबोहियाए यावि भविस्सइ। स्तरमात् स्थानादनुपस्थिता गृहस्था एवं सन्तः (अभिझंझ त्ति) झंझातरय च क्वचित्प्रयोजने समुत्पन्ने सति एकमपि पुरुषमाज्ञापयतो तृष्णा तदातुराः सन्तोऽर्थेष्वत्यर्थे लुभ्यन्ते, यत एवमतोऽदः स्थानमयावकत्वारः पञ्च वा पुरुषा अनुकका एव समुपतिष्ठन्ते। ते च किं कुर्वाणाः ? नार्यानुष्टान परत्वादनार्य महापुरुषानुचीर्ण न भवति, तथा न विद्यते एतद्वक्ष्यमाणमूचुः / तद्यथा-गण-आज्ञापय स्वामिन् ! धन्या वयं येन केवलमस्मिन्नित्य केवलमशुद्ध मित्यः / तथेतर पुरुषाऽऽधीर्णत्वादभवताऽप्येवमादिश्यन्ते किं कुर्मः? इत्यादि सुगमम / यावदयप्लित परिपूर्ण सदगुणविरहात्तुच्छमित्यर्थः / तथा न्यायन चरति नैयायिक, न मिति, तथा कि व ते युष्माकमास्यकरय मुखस्य स्वदले स्वादु प्रति नैयायिकमनैयायिकम्-असन्नयायवृत्ति कमित्यर्थः / लथा 'गो लगे' भाति? यदि वायदेवास्य भवदीधाऽऽस्यस्य रावति निर्गच्छति तदेव वय संवरणे, शोभनं लगन--संवरणम् इन्द्रियसंयमरूपं सल्लगस्तद्धावः कुर्म इति / तथा तमेवेत्यादि / तमेव राजानं तथा क्रीडमानं दृष्टवा सल्लगत्व न विद्यते सल्लगत्वमस्मिन्नित्यसल्लगत्वम्, इन्द्रियासवरणअन्यऽनार्या एवं वदन्तिा तद्यथा--देवः खल्वयं पुरुषस्तथा देवस्नातको रूपमित्यर्थः / यदिवा-शल्यवच्छल्यं-मायानुष्ठानमकार्य तदायतिदेवश्रेष्ठो बहूनामुपजीव्यः, तथा तमेवं साम्प्रतक्षितया सदनुष्ठायिन दृश्वा कथयति, तच्छल्यग यत्परिज्ञानं तन्नात्रेत्यशल्यगत्वमिति / तथा न विद्यते आर्याविवेकिनः सदाचारवन्त एवं ब्रुवते / तहाथा-अभिक्रान्तक्रूरकर्मा सिद्धेमोक्षस्य विशिष्टस्थानोपलक्षितस्य मार्गा यस्मिंस्तदसिद्धिमार्ग, खल्वयं पुरुषो, हिंसाऽऽदिक्रियाप्रवृत्त इत्यर्थः, तथा धूयतेरेणुवद्वायुना तथा न विद्यते मुक्तेरशेषकर्मप्रच्युतिलक्षणाया मार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचासंसारचक्रवाले भ्राम्यते धेन तद्भूतकर्म, औणाऽऽदिको नक्प्रत्ययः। रित्राऽऽत्को यरिमस्तदमुक्तिमार्ग,तथा न विद्यते परिनिर्वतः परिनिर्वाणअतीव-प्रभूतधूतमष्टप्रकार कर्म यस्य सोऽतिधूतः, तथाऽतीवाऽऽत्मनः स्याऽऽत्म स्वास्थ्याऽऽपत्तिरूपस्य मार्गः-पन्था यस्मिन स्थाने तदपरिपापैः कर्मभिः रखा थस्य सोऽत्यात्मनरक्षः, तथा दक्षिणस्यां दिशि गमन- निर्वाणमार्ग, तथा न विद्यते सर्वदुःखानां शारीरमासानां प्रक्षयमार्गः शीलो दक्षिणगामुकः / इदमुक्तं भवतिधो हि क्रूरकर्मकारी साधुनिन्दा सदुपदेशऽऽत्मको यरिंमस्तद सर्वदुःखप्रक्षीणमार्ग, कुत एवंभूतं तत्रधान परायणरतहाननिषेधकः सदक्षिणगामुको भवति दाक्षिणात्येषु नरकति मित्याशइक्याऽऽह-(एगंतेत्यादि) एकान्तेनैव तत्स्थान यतो मिथ्याभूत गमनुष्याभरेषु उत्पद्यते, तादृग्भः।श्चायमतो दक्षिणगामुक इत्युक्तम् / मिथ्यात्वोपहतबुद्धीनां यतस्तद्भवत्यत एवासाध्वसवृत्तत्वात न ह्यय इदमेवाऽऽह (नेरइए इत्यादि) नरकेषु भवो नारकः कृष्णः पक्षोऽस्या सत्पुरुषसेवतिः पन्थाः येन विषयान्धाः प्रवर्तन्ते इति। तदयं प्रथमस्य स्तीति कृष्णपाक्षिकः, तथा आगामिनिकाले नरकादुदवृत्तो दुर्लभवोधि- स्थानस्याऽधर्मपाक्षिकस्य पापोपादान-भूतस्य विभङ्गोविभागो विशेषः कश्चायं बाहुल्येन भवष्यिति / इदमुक्तं भवति-दिक्षु मध्ये दक्षिणा दिग् स्वरूपमिति यावत् 57 / अशस्ता गतिषु नरकगतिः, पक्षयोः कृष्णपक्षः, तदस्य विषयान्धस्ये साम्प्रतं द्वितीय धर्मो पादानभूतं पक्षमाश्रित्याऽऽह .. न्द्रियानु कूलवर्तिनः-परलोकनिस्पृहमतेः साधुप्रवेषिणो दानान्तराय अहावरे दोचस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिजइइह विधायिनो दिमादिकमशरतं दर्शितम, अन्यदपि यदशस्तं तिरंगत्यादि- खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वादाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा कमबोधिलाभाऽऽदिक च तद्योजनीयमस्येति / एतद्विपरीतस्य लु भवंति / तं जहा-आरिया वेगे अणारिया वेगे उच्चागोया वेगे विषयनिः स्पृहस्य इन्द्रियाननुकूलस्य परलोकभीरोः साधुप्रशंसावतः णीयागोया वेगे कायमंता वे हस्समंता वेगे सुवन्ना वेगे दुव्यन्ना सदनुष्टानरतस्याऽदक्षिणगामुकत्वं सुदेवत्वं शुल्कपाक्षिकत्वं तथा वेगे सरूवा वेगे दुरूवा वेगे, तेसिंच णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाई समानुषत्वाऽऽयातस्य सुलभवोधित्वमित्यवमादिकं सद्धर्मानुष्ठायिनः भवंति, एसोआलावगो जहा पोंडरीए तहा णेतव्यो, तेणेव सर्व भवतीति। अभिलावेण जाव सव्वोवसंता सव्वत्तए परिनिव्वुडे त्ति साम्प्रतमुपसंजिवृक्षुराह - बेमि / एस ठाणे आरिए केवल० जावसव्वदुक्खप्पहीणमग्गे ए--- Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1045- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग अंतसम्म साहु, दोचस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एयमाहिए। (33 सूत्रा) (अहावरेत्यादि) अथति-अधर्भपाक्षिकस्थाना दनन्तरमयमपरां द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपाक्षिकस्य पुण्योपादानभूतस्य विभङ्गोविभागः स्वरुपं समाधीयते-सम्यगाख्यायते। तद्यथा-प्राचीन प्रतीचीनमुदीचीनं दक्षिणं वा दिग्विभानमाश्रित्य सन्ति विद्यन्ते एके केचन कल्याणपर - मासभाजः मनुष्याः, पुरुषाः ते च वक्ष्यमाणस्वभावा भवन्ति / तद्यथेययमुहाप्रदर्शनार्थः, आर्या एके-केचनाऽऽर्यदेशोत्पन्नास्तथा अनार्या: शकयवनशबरबर्बराऽऽदय इत्याद्येवं यथा पौण्डरीकाध्ययने तथेहाऽगि सर्व निरवरवं भणितव्यम्। (तच पुंडरीय शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे गतम) यादत्ते एवं गो केन प्रकारेण सर्वेभ्यः पापस्थानेभ्य उपशान्ताः, तथा अतः एव सर्वाऽऽत्मतया परिनिर्वृत्ता इत्यहमेवं ब्रवीमि। तदेवमेतत्स्थान कैटलिकं प्रतिपूर्ण नैयायिकमित्यादि प्राग्बद्विपर्ययेणं नेयं यावद् द्विलोयस्य स्थानस्य धार्मिकस्यैष विभङ्गो विभागःस्वरूपमाख्यासमिति // 33 // साम्प्रतं धाऽधर्मयुक्त तृतीय स्थनामाश्रित्याऽs - अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवामाहिजइ-जे इमे भवंति आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुईरहस्सिता० जाव ते तओ विप्पमुचमाणा भुजो भुजो एलभूयत्ताए तमूत्ताए पञ्चायंति, एस ठाणे अणारिए अके वले० जाव असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू, एस खलु तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिए। (34 सूत्रा) अथापरस् तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाऽऽख्यस्य विभङ्गोविभाग:स्वरुपमाख्यायते- अत्र चाधर्मपक्षण युक्तोऽधर्मपक्षोमिश्र इत्युच्यते, तत्राऽधर्मस्वेह भूयिष्ठत्वादधर्मपक्ष एवायं द्रष्टव्यः। एतदुक्त भवति-यद्यपि मिथ्यादृष्टयः काञ्चित् -तथा-प्रकारां प्राणातिपाताऽऽदियिवृत्ति विदधति, तथा ऽप्याशयाशुद्धत्वादभिववे पित्तोदये सति शर्करामिश्रक्षीरपानवदूषर प्रदेशवृष्टियद्विवक्षितार्था साधकत्वाश्रिरर्थकतामापद्यन्ते, ततो मिथ्यात्वानुभावात् मिश्रपक्षोऽप्यधर्म एवावगन्तव्य इति। एतदेव दर्शयितुमाह-(जे इमे भवंतीत्यादि) ये इमे अनन्तरमुच्यमाना अरण्ये चरन्तीत्यारण्यिकाः कन्दमूलफलाशिनस्तापसाऽऽदयो, ये चावसथिका आवसर्थीगृहं तेन च रन्तीत्यावसथिका गृहिणः, ते च कुतश्चित् पापस्थानानि वृत्ता अपि प्रबलमिथ्यात्वोपहतबुद्धयः, ते यद्यप्युपवासादिना महता कायक्लेशेन देवगतयः केचन भवन्ति, तथा ऽपि ते आसुरीयेषु स्थानेषु किल्त्विषिकेषूत्द्यन्त इत्यादि सर्व पूर्वोत्क भणनीय यावत्ततश्च्युता मनुष्यभवं प्रत्यायाता एलमूकत्वेन तमोऽन्धतया जायन्ते / तदेवमेतत्स्थान मनार्यमकेवलम् असंपूर्णमनैयायिकमित्यादि यावदेकान्त मिथ्याभूतं सर्वथैतदसाध्विति, तृतीयस्थानस्य मिश्रकस्यायं विभङ्गविभागः स्वरुमाख्यातमिति / उक्तान्यधर्मधर्ममिश्रस्थानानि / / 34 // साम्प्रतं तदाश्रिताः स्थानिनोऽभिधीयन्ते, यदि वात्राक्तनमेवान्येन प्रकारेण विशेषिततरगुच्यतेतत्राऽऽद्यमधार्मिकस्थानक्रमाश्रित्याऽऽह अहाऽवरे पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइ-इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति-गिहत्था महिच्छा महारंभा महापरिग्गहा अघम्मिया अधम्माणुया अधुम्मिट्ठा अधम्मक्खाई अधम्मपायजीविणो अधम्मवलोई अधम्मपलज्जणा अधम्मसीलसमुदायारा अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। अथापरः-अन्यः प्रथमस्य स्थानस्याऽधर्मपाक्षिकस्य विभङ्गो विभागः स्वरुपं व्याख्यायते- (इह खलु इत्यादि) सुगम, या वन्मनुष्या एवं स्वभावा भवान्तीति। एते च प्रायो गृहस्था एव भवन्तीत्याह-(महेच्छा इत्यादि) महतीराज्यविभवपरिवाराऽऽदिका सर्वातिशायिनी इच्छा-- अन्तःकरण प्रवृत्तिर्येषां ते महेच्छाः, तथा महानारम्भोवाहनोटमुण्डलिकागन्त्रीप्रवाहकृषिषण्ड-पोषणाऽऽदिको येषां ते महाऽऽरम्भाः, ये चैवंभूता स्ते महापरिग्रहा:-धनधान्यद्विपदचतुष्पदवास्तुक्षेत्राऽऽदिपरिग्रहवन्तः काचदप्यनिवृत्ताः, अत एवाधर्मेण चरन्तीत्यधार्मिकाः, तथाऽधर्मिष्ठा निरिवंशकर्मकारित्वादधर्मबहुलाः, ततश्चाधर्मे कर्तव्ये अनुज्ञाअनुमोदन येषां ते भवत्यधर्माऽनुज्ञाः, एवमधर्मम आरख्यातुं शील येषां ते तथा, एवमधर्मप्रायजीविनः, तथा अधर्ममेव प्रविलोकयितुं शील येषां ते भवन्त्यधर्मप्रविलोकिनः, तथा ऽधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षण रज्यन्त इति अधर्मप्ररक्ताः। "रलयोरैक्यम्'इति रस्य स्थाने लकारोऽत्रा कृत इति, तथाऽधर्मशीला अधर्मस्वाभावास्तथाऽधर्माऽत्मकः समुदाचारो यत्किञ्चनानुष्ठानां येषां ते भवन्त्यधर्मशीलसमुदाचाराः, तथाऽधर्मणपापेन सावधानुष्ठानेनैव दहनाङ्कननिर्लाञ्छनाऽऽदिकेन कर्मणा वृत्तिर्वर्तन कल्पयन्तः-कुर्वाणा विहरन्तीतिकालमतिवाहयन्ति। पापानुष्ठानमेव लेशतो दर्शयितुमाहइण छिन्द भिन्द विगत्तगालोहियपाणी चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया उकुंचणवंचणमायाणियडिकूडकवडसाइसंपओ गबहुला दुस्सीलादुव्वया दुप्पडियाणंदा असाहू सव्वाओ पाणइवायाओ अप्पडिविरया जावजीवाए० जाव सव्वाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाओ कोहाआ० जाव मिच्छादसणसल्लाओ अप्पडिविरया, सव्याओ ण्हाणुम्मद्दणवण्णगगंधविलेवणसद्दफरिसरसरूव गंधमल्लालंकाराओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाओसगडरहजाण जुग्गगिल्लिथिल्लिसियासंदमाणियासयणास णजाणवाहण भोग भोयणपवित्थरविहीओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ कयविक्कयमासद्धमासरूवगसंववहाराओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाओ हिरणसुवण्णधणध णमणिमोत्तियसंखसिसप्पवालाओ अप्पडिविरया जावजीबाए सव्वाओ कूडतुलकूडमाणाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाओ आरंभसमारंभाओ अप्पडिविरया जावजीवाए Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1046- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग सव्वाओ करणकारावणाओ अप्पडिविरया जावजीवाए सव्वाओ योनिपोपकदाप्यविरताः, एवं सर्वेभ्यः क्रोधमानभायालोभेभ्योऽविरताः, पयणपयावणाओ अप्पडिविरया जावज्जीवाए सव्वाओ कुट्टण- तथा प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यान पैशुन्यपरपरिवादाऽरतिरतिमायामृषावाद पिट्टणतज्जणताडणवहबंधपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया जाव- | मिथ्यादर्शनशल्याऽऽदिभ्योऽसदनुष्ठानेभ्यो यावज्जीव येऽप्रतिविरता जीवाए, जे आवण्णे तहप्पगारा जे सावज्जा अबोहिया कम्मंता भवन्ति इति / तथा सर्वस्मात्स्नानोन्मर्दनवर्णकवि लेपनशब्दस्पर्श परपाणपरियावणकरा जे अणारिएहिं कजंति ततो अप्पडिविरया रुपसगन्धमाल्यालङ्कारात्कामाङ्गान्मोहजनितादप्रतिविरता यावजीवजावजीवाए। येति / इह च वर्णकग्रहणेन वर्णविशेषाऽऽपादक लोधाऽऽदिकं गृहाते. तथा (हण छिंद भिंद इत्यादि) स्वत एव हननाऽऽटिकाः क्रियाः कुर्वाणा सर्वतः-शकटरथाऽऽदर्यानविशेषाऽऽदिकात्प्रति विस्तरविधेः परिकर अपरेषामप्येवमात्मकमुपदेशं ददति, तत्र हननं दण्डादिभि- रुपात्परिगहादपतिविरताः, इह च शकटरथाऽऽदिकमेव यानं शकटरंथस्तत्कारयन्ति, तथा छिन्धि कर्णाऽऽदिकं, भिन्धि शूलाऽऽदिना, यानं, युग्यपुरुषोरिक्षप्तमाकाशयानं (गिल्लि ति) पुरुषद्वयोत्क्षिप्ता चिर्तकाःप्राणिनामजिनापनतारोऽत एव लोहितपाणयः, तथा चण्डा झोल्लिका / (थिल्लि त्ति) वेगसराद्वयविनिर्मितो यान विशेषः। तथारौद्रानिस्त्रिशाः क्षुद्रा, क्षुद्रकर्मकारित्वात्, तथा साहसिकाअसमीक्षित- / (संदमाणिय त्ति) शिविकाविशेष एव, तदेवमन्यस्मादपि वस्खादेःकारिणः, तथा उत्कुञ्चनवञ्चनमायानिकृति कूटकपटाऽऽदिभिः परिग्रहादुपकरणभूतादविरताः, तथा रातः-सर्वस्मात क्यविक्रयाभ्या सहातिसंप्रयोगोगाद्य तेन बहुला-स्तत्प्रचुरास्ते तथा, तत्रोचं कुञ्चनं करणभूताभ्यां यो मापकार्धसापकरुपकार्षापणाऽऽदिभिः पण्यविनिमशूलाऽऽद्यारोपणार्थभुत्कुञ्चनं वञ्चनप्रतारणं, तद्यथा-अभयकुमारः याऽऽत्मकः संव्यवहारस्तस्मादविरता यावज्जीवयेति, तथा सर्वस्माद्धिप्रद्योतगणिकाभिर्धार्मिकवञ्चनया वञ्चितः माया वञ्चनबुद्धिः प्रायो रण्यसुवर्णाऽऽदेः प्रधानपरिग्रहादविरताः, तथा कूटतूलाकूटमानाऽऽदेरवणिजामिव निकृतिस्तु वकवृत्त्या कुर्कुटाऽऽदिकरणन दग्भप्रधान- विरताः, तथा सर्वतः कृषिपाशुपाल्याऽऽदेर्यत्स्वतः करणमन्येन च पणिक श्रोत्रियसाध्वाकारेण परवञ्चनार्थ गलकर्त कानामिवावस्थानं, यत्किाञ्चिल्कारयति तस्मादविरताः, तथा पचनपाचनतः तथा कण्डनदेशभाषानेपथ्यादिविपर्ययकरणं कपट यथा आषाढभूतिना नेटेनेवा- कुट्टनपिद्दनतर्जनताडनवधवन्धाऽऽदिना यः परिल्केशः प्राणिनां तस्माऽपरापरवेषपरावृत्त्याचार्योपाध्याय सडाटकाऽऽत्मार्थ चत्वारो मोदका दविरताः। साम्प्रतमुपसंहरति-ये चान्ये तथाप्रकाराः परपीडाकारिणः अवासाः, कूटं तुकार्षापणतुलाप्रस्थाऽऽदेः परवञ्चनार्थ न्यूनाधिकक- सावधाः कर्मससमारम्भा अबोधिका:-बोद्धय भावकारिणः तथा रणम, एलैरुत्कुञ्चनाऽऽदिभिः सहातिशयेन सप्रयागो, यदि वा-साति- परप्राणपरितपनकरा गोग्राहबन्दिग्रहग्रामघाताऽऽत्मकाः येऽनार्यः क्रूरशयेन द्रव्येणकस्तूरिकाऽऽदिनाऽपरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसंप्रयोग- कर्मभिः क्रियन्ते, ततोऽप्रतिविरता यावज्जीवयेति / स्तबहुलास्तत्प्रधाना इत्यर्थः / उक्तं च-"सो होइ सातिजोगी, दव्यं जं पुनरन्यथा बहुप्रकारमधार्मिकपदं छादियऽण दव्वेसु। दोसगुणावयाणेसुय, अत्थविरांबायणं कुणइ !!1 // " प्रतिपिपादयिषुराह - एते चोत्कञ्चनाऽऽदयो मायापर्याया इन्द्रशकाऽऽदिवत् कथन्चित से जहाणामए केइ पुरिसे कलममसूरतिलमुग्गमासनिप्फावक्रियाभेदेऽपि द्रष्टव्याः। तथा दुष्ट शील येषां त दुःशीलाश्चिरमुपचारिता कुलत्थआलिसंदगपलिमंथगमादिएहिं अयंते कूरेमिच्छादंडं अपि क्षिप्रं विसंवदन्ति, दुःखानुमेयाः, दारुगस्वभावा उत्यक्षः / (TPaa पउंजंति, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाए तित्तिर वट्टगलावगकवोदुष्टानि व्रतानि येषां ते तथा, यथा मांसभक्षणव्रतकालसमाती प्रभूततर- तकविंजलमिय महिसवराहगाहगोहकुम्म सिरिसिवमादिएहिं सत्त्वोप धातन मांसप्रदानम्, अन्यदपि ननभोजनाइदिक तेष दुत. अयंते कूरे मिच्छादंडं पउंजंति, जावि य से बाहिरिया परिसा मिति, तथाऽन्यस्मिन जन्मान्तरे मधुमघामासाऽऽदिकभन्यवहारेप्या भवइ / तं जहा-दासेइ वा पेसेड० वां भयएइ वा भाइल्लेइ मीत्येवमज्ञानान्धा जन्मान्तर विधिद्वारेण सनिदानमेव व्रतं गृहन्ति, तथा कम्मकरएइ वा भोगपुरिसेइ वा तेसिं पि य णं अन्नयरंसि वा दुःखेन प्रन्यानन्द्यन्ते दुष्प्रत्युपनन्द्याः / इदमुक्तं भवति तैरानन्दिन- अहालहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं निवत्तेइ।तं जहा इमं परेण केनचित्प्रत्युप कारे सुना गर्वाऽऽध्माता दुःखेन प्रत्यानन्द्यन्ते, यदि दंडेह, इमं मुंडेह, इमं तजेह-इमं तालेह, इमं अदुयबंधणं करेह, वा सत्यप्युपकारे प्रत्युपकारभीरको नैवाऽऽनन्द्यन्ते प्रत्युतशतयोपकारे इमं नियलबंधणं करेह, इमं हड्डिबंधणं करेह, इमं चारगबंधणं दोषमेवोत्पादयन्ति, तथा चोक्तम्-''प्रतिकर्तुपशक्तिष्ठाः, नराः पूर्वोप- क रेह, इमं नियल-जुयलसंकोधियमोडियं करेह, इम कारिणम् / दोषमुत्पाद्य गच्छन्ति, मदगनामिन वायसाः :1!!' यत हत्थच्छिन्नयं करेह, इमं पायच्छिन्नयं करेह इमं कन्नच्छिण्णयं एवमतोऽसाधवस्ते पापकर्मकारित्वाल, तथा यानजी गावराणाधारणेन करेह, इमं नक-ओहसीसमुहच्छिन्नयं करेह इस वेयगछहियं सर्वस्मात्प्राणाति पातादप्रतिविता लोकनिन्दनीयादपि श्राह्मणया!S - अंगछहियं पक्खा फोडियं करेह, इमं णयणुप्पाडियं करेह, इम देरविरता इति सर्वग्रहणम्. एवं सर्वस्मादिप कूटसाक्ष्यादेरप्रनिधिरला दंसणुप्पाडियं बसणुप्पाडियं जिब्भुप्पाडियं ओलंबियं करेह, इति, तथा सर्वस्मात्स्त्रीबालाऽऽदेः परद्रव्यापहरणदविताः, तथा घसियं करेह, घोलियं करेह, सूलाइयं करेह, सूलाभिन्नयं करेह, सर्वस्मत्परस्त्रीगमनाऽऽदे मेथुनादविरताः एवं सर्वस्मात्परिग हाद / साखतियं करेह, वज्झवत्तियं करेह, सीहपुच्छियगं करेह, वसभप Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1047- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग / च्छियगं करेह, दवग्गियंग कागणिमंसक्खावियंग भत्तपाणनिरुद्धगं इमं जावजीवं वहबंधणं करेह, इमं अन्नयरेणं असुमेणं कुमारेणं मारेहा तद्यथेत्युपप्रदर्शनार्थो नामशब्दः संभावनाया, संभाव्यते अस्मिन्विचिको संसारे के चनैवभूताः पुरुषा ये कलममसूरति लमुद्राऽऽदिषु पचनपाचनाऽऽदिकया क्रियया स्वपरार्थमयता अप्रयत्नवन्तो निष्कृपाः कुरा मिथ्यादण्ड प्रयुञ्जन्ति, मिथ्यैव अनपराधिष्वव दाषमारोप्य दण्डो मिथ्यादण्डस्तं विदधति, तथैवमेवप्रयोजन विनैव तथाप्रकाराः पुरुषा निष्करुणा जीवोषधातनिरतास्तित्तिरवर्तकलावकाऽऽदिषु जीवनप्रियेष प्राणिष्वयताः क्रूरमीणो मिथ्या दण्डं प्रयुञ्जन्ति। तेषां च क्रराधियां 'यथा राजा तथा प्रजाः' इति प्रवादात् परिवारोऽपि तथाभूत एव भवतीति यथा दर्शयितुमाह-(जाविय से इत्यादि) याऽपि च तेषां बाह्या पर्षद्भवति। तद्यथा-दासः स्वदासीसुतः, प्रेष्यः प्रेषणयोग्यो भृत्यदेश्यो, मृतको वेतनेनोदकोऽद्यानयन विधायी, तथा भागिको यः षष्टांशाऽऽदिलाभेन कृष्यदौ व्याप्रियते, कर्मकरः प्रतीतः, तथा नायकाऽऽश्रितः कश्चिद्रोगपरः, तदेवंते दासाऽऽदयोऽन्यस्य लघावघ्यपराधे गुरुतरं दण्ड प्रयुञ्जन्ति प्रयोजयन्ति च। स च नानकस्तेषां दासाऽऽदीनां बाधापर्वदूतानामन्यतरस्मिंस्तथा लघावप्यपराधेशब्दश्रवणाऽऽदिक गुरुतरं दण्ड वक्ष्यमाणं प्रयुत्के। तद्यथा इमं दासं प्रेष्याऽऽदिक वा सर्वस्वापहारेण दण्डयत्यूयमित्यादि सूत्रासिद्ध यावदिममन्यतरेणाशुभेन कुत्सितमारण व्या पादयत यूयम्। जाऽविय से अबिभंतरिया परिसा भवइ। तं जहा-मायाइ वा पियाइ वा भायाइ वा भगिणीइ वा भज्जाइ वा पुत्ताइवा धूताइवा सुण्हाइ वा, तेसिं पि य णं अन्नयरंसि अहालहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं णिवत्तेइ, सीओदगवियर्डसि उच्छोलित्ता भवइ, जहा मित्तदोसवत्तिए. जाव अहिए परंसि लोगंसि, ते दुक्खंति, सोयंति, जूरंति, तिप्पंति, पितॄति, परितप्पंति, ते दुक्खणसोयणजूरणतिप्पण पिट्ठणपरितप्पणवहबंधणपरिकिलेसाओ अप्पडिविरया भवंति। याऽपि च क्रूरकर्मवतामभ्यन्तरा पर्षद्भवति। तद्यथा-माता पित्रादिकि, मित्रदोषप्रत्ययिकक्रियास्थानवद् नेयं यावदहितोऽयमस्मिन् लोके इति। तथाहि-आत्मनोऽपथ्यकारी परस्मिन्नपि लोके , तदेवं तं माता पित्रादीनां स्वल्पापराधिनामपि गुरुतरदण्डाऽऽपादनतो दुःखमुत्पादपन्ति तथा नानाविधैरुपायैस्तेषां शोकमुत्पादयन्ति शोकयन्ति इत्येवं ते प्राणिनां बहुप्रकारपीडोत्पादकायावद्धबन्धपरिल्केशादप्रतिविरता भवन्ति। ते च विषयाऽऽसक्ततया एवत्कुर्वन्ति इति, एतद् दर्श थितुमाह - एवमेव ते दत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना० / जाव वासाइं चउपंचमाइं छहसमाई वा अप्पतरो वा भुञ्जतरो वा कालं भुंजित्तु भोगभोगाइं पविसुइत्ता वेरायतणाई संचिणित्ता बहुइं पावाइं कम्माई उस्सन्नाइं संभारकडे ण कम्मणा से जहाणामए अयगोलेइ वा सेलगोलेइ वा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदगतलमइवइत्ता अहे धरणितलपइट्ठाणे भवइ, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते वज्जबहुले धूते बहुले पंकबहुले वेरबहुले अप्पत्तिय बहुले दंभबहुले णियडिबहुले साइबहुले अयसबहुले उस्सन्नसतपाणघाती कालमासे कालं किच्चा धरणितलमइवइत्ता अहे णरगतलपइहाणे भवइ। (35) (एक्सेव इत्यादि) एवमेव पूर्वोत्कस्वभावा एवं ते निष्कृपा निरनुक्रोशा बाह्याभ्यन्तरपर्षदोरपि कर्णनासाविकर्त्तनाऽऽदिना दण्डपातनस्वभावाः स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः। यदि वा-स्त्रीषु मदनकामविषयभूतासु कामेषु च शब्दाऽऽदिषु इच्छाकामेषु मूर्छिता गृद्धा ग्रथिता अध्युपपन्नाः, एते च शक्रपुरन्दराऽऽदिवत्पर्यायाः कथञ्चिद्भेद वाऽऽश्रित्य व्याख्येयाः, ते च भोगाऽऽसक्ता व्यपगतपरलोकाऽध्यवसाया यावद्ववर्षाणि चतुः पञ्च षट् सप्त वा दश वाऽल्पतरं वा काल प्रभूततरं वा कालं भुक्तवा भोगभोगान् इन्द्रियानुकूलान् मधुमद्यमांसपरदारासेवनरुपान् भोगाऽऽसक्ततया च परपीडोत्पादनाते वैराऽऽयतनानि वैरानुबन्धाननुप्रसूयोत्पाद्य-विधाय तथा संचयित्वा संचिन्त्योपचित्य बहूनि प्रभूतत तरकालस्थितिकानि क्रूराणि क्रूरविपाकानि नरकाऽदिषु यातना स्थानेषु क्रकचपाटनशाल्मल्यवरोहणतप्तापुपानाऽत्मकानि, कर्माण्यष्टप्रकाराणि बद्धस्पृष्टनधित्तनिकाचनावस्थानि विधाय तेन च संभारकृतेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तकर्मगुरवो वा नरकतलप्रतिष्ठाना भवन्तीत्युत्तरक्रिययाऽपादितबहु वचनरूपयेति संबन्धः। अस्मिन्नेवार्थे सर्वलोकप्रतीतं दृष्टान्तमाह- (से जहाणामए इत्यादि) तद्यथानामाऽयो गोलकोऽयस्पिण्डः शिलागोलको वृत्ताश्मशकलं वा-उदके प्रक्षिप्तः समानः सलिलतलमतिवर्त्य अतिल ध्याधो धरणीतलप्रतिष्ठानो भवति। अधुना दान्तिकमाह-(एवमेवेत्यादि) यथाऽसावयोगोलको वृत्तत्वाच्छीघ्रमेवाधो यात्येवमेव तथाप्रकारः पुरुषजातः। तमेव लेशतो दर्शयति वज्रवद्वजं गुरुत्वात्कर्म तद्बहुलःतत्प्रचुरः वध्यमानक कर्मगुरुरित्यर्थः, तथाधूयत इतिधूतप्रारबद्धं कर्म तत्प्रचरः, पुनः सामान्येनाऽऽह-पङ्कयति इति पत्रम्-पापं त बहुलः, तथा तदेव कारणतो दर्शयितुमाह-वैरबहुलो वैरानुबन्धप्रचुरः, तथा (अपत्तियं ति) मनसो दुष्प्रणिधानं तत्प्रधानः, तथा दम्भो मायया परवउचनं तदुतकटः, तथा निकृतिः-माया वेषभाषापरावृत्तिछद्मना परद्रोहबुद्धिस्तन्मयः, तथा सातिबहुल इति, सातिशयेनद्रव्येणापरस्य हीनगुणस्य द्रव्यस्य संयोगः सातिस्तद्वहुलः तत्करण प्रचुरः, तथाऽयशःअश्लाघा असवृत्ततया निन्दा, यानि यानि पराऽपकारभूतानि कर्मानुष्ठानानि विधत्ते तेषु तेषु कर्मसु करचरणच्छेदनाऽऽदिषु अयशोभाग्भवतीति। स एवं भूतः पुरुषः कालमासेस्वायुषः क्षये कालं कृत्वा पृथि Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1048- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग व्याः- रत्नप्रभाऽऽदिकायास्तलमतिवर्ययोजनराहरत्रपरिमाणमतिलय नरकतलप्रतिष्ठानोऽसौ भवति / नरकसवरूपनिरूपणायाऽऽहतेणं णंरगा अंतो वट्ठा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पंसठाण संठिया णिच्चंधकारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसप्पहा भेदवसामसरुहिरपूयपडलचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुन्भिगंधा कण्हा अगणिवन्नाभा कक्खडफासादुरहियासा असुभा गरगा असुभा णरएसु वेयणाओ। णमिति वाक्यालद्वार ते नरकाः सीमन्तकाऽऽदिका बाहुल्यमङ्कीकृत्यातमध्ये वृत्ता बहिरपि चतुरस्त्रा अधश्च क्षुर प्रसंस्थानसस्थिताः। एतच्च-- संस्थान पुष्पावकीर्णानाश्रित्योक तेषामेव प्रचुरत्यात. आवलिकाप्रविष्ठास्तु वृत्तऽयसचतुरस्रसंस्थाना एव भवन्ति तथा नित्यमवानामसंत्येषु ते निल्यान्धतमसाः। चित्पाठोनित्यान्धकारसमसा इति गंधवच्छन्नावर तलकृष्णपक्षरजनी वत तमोबहुलाः, तथा व्यपगतो गृहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिः पथी यषां ते ताथा पुनरप्यनिष्ठाऽऽपादनार्थ तषामेव विशेषणान्याह (मेदवसेत्यादि) दुष्कृत कर्मकारित नरकास्तद दुःखोत्पादनायैवभूता भवन्ति। तद्यथा-मेदोवसामांसरुधिर पूयाऽऽदीनां पाटलानि सडास्ता लितानि पिच्छिलीकृता-यनुलेपनतलानि अनुलपनप्रधानानि तलानि येषां ते तथा अशुचरा! विष्ठा | सृक्लेदप्रधानत्यादित एवं विश्राः कुथितमांसाऽऽदिकल्पक ईमाऽवलिप्तत्वात् एवं परमदुर्गन्धाः कुथितगांमायुकलेवरादपि असहागन्धाः तथा कृष्णाग्निवर्णाभा रुपतः, स्पर्शस्तु कर्कशः कठिनाजकण्टकम्प्यधिकतरः स्पर्शो येषां ते तथा कि बहुना? अतीव धारखेनाधिसदान्त, किमिति ! यतरते नरकाः पञ्चानामपीन्द्रियार्थानामशाशनत्वाद्रशुभाः तत्राच सरचानामशुभ कर्मकारिणामुद्रग्रदण्डपातिना च न जाप्रवराणा सीना अतिदुःसहवेदनाः शरीराः प्रादुर्भवन्ति। णो चेव णरएसु नेरइया सिहायंति वा, पयलायंति वा, सुई वा रतिं वा धितिं या मतिं वा उवलभंते, ते णं तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कडुयं कक्कसं चंडं दुक्खं दुग्गं तिव्वं दूरहियासं णेरइया वेयणं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति (चिट्ठति) (36 सूत्र) तया च वदनयाऽभिभूतास्तषु नरकपुनारका नयासिनिमपमपि कालं निद्रायन्ते, नाप्युपविष्टाऽऽधवस्था अक्षिसंकायन रूपानीपन्निन्द्रामवा - नुवन्ति, न ह्येव भूतवेदनाऽभिभूतरय निद्रालामा भवतीति यात, तामुजवला तीव्रानुभावनोत्कटामित्यादिविशेषण विशिष्टां यावद्दया. नुभवन्तीति / / 36|| अयं तावदयोगोलकपाणणदृष्टान्तः शीघ्रमयोनिमान .. प्रतिपादकः- प्रदर्शितोऽधुना शीघ्रपाताप्रतिषणः .. कमवापारं दृष्टान्तमधिकृत्या - __से जहाणामए रुक्खे सिया पव्वयग्गे जाए मूले छिन्ने अग्मे गरुएजओ णिन्नं जओ विसमंजओ दुग्गं तओ पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गब्भातो गब्भं जम्मातो जम्मं माराओ मारं णरगाओ णरगं दुक्खाओ दुक्खं दाहिणगामिए, णेरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुल्लभवोहिए यावि भवइ एस ठाणे अणारिए अकेवले० जाव असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए / (37 सूत्र) (से जहाणामए इत्यादि) तद्यथानाम कश्चिद् वृक्षः पर्वतागे जातो मूले छिन्नः शीघ्रं यथा निम्ने पतीत, एवमसावप्यसाधुकर्मकारी तत्कर्मवातेरितः शीघ्रमेव नरके पतति, ततोऽप्युवृत्तो गर्भादर्भमवश्यं याति न तरय किञ्चिल्लाण भवति,यावदागामिन्यापिकाले सदुर्लभधर्मप्रति पत्तिर्भवतीतिः साम्प्रतमुपसंहति - (एसलग इत्यादि लदतनस्थानमनार्य पापानुष्ठानपरता दकान्तमिथ्यार प्रमसाधु। तदेवं प्रथमस्याधर्मपाक्षिकस्य स्था विभानिमामः स्वरूपमे व्याख्यातः / / 37 / / अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमा हिज्जइइह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति। तं जहा-अनारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा० जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहु सव्वतो पाणातिवायाओ पडिविरया जावजीवाए० जाव जे यावन्ने तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कजंति ततो विपडिविरता जावजीवाए। अथाऽपरस्य द्वितीयस्य विभङ्गो विभागः स्वल्पमेवं वक्ष्यमाणनीच्या व्याख्यायते। तद्यथा-(इह खलु इत्यादि) प्राच्यादिषु मध्येऽन्यतरस्यां दिशि सन्ति विद्यन्त, ते चैवंभूता भवन्तीति। तद्यथा-- विद्यते सावध आरम्भा येषां ते तथा, तथा अपरिग्रहा निष्किञ्चनाः धर्मेण घरन्तीति धार्गिकाः या वद्धर्मणवाऽऽत्मनो वृत्ति परिकल्पयन्ति तथा सुशीला: सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः सुसाधवः सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरता एवं यावत्परिग्रहाद्विरता इति। तथा ये चान्ये तथा प्रकाराः सावद्या आरम्भा यावरबोधिकारिणस्तेभ्यः सर्वेभ्योऽपि विरता इति। सूत्र० 2 श्रु० 2 अः। (अनगारवाकः 'अणगारगुण' शब्दे प्रथमभागे 278 पृष्ठ उक्तः) एगचाए पुण एगे भयंतारो भवंति, अवरे पुण पुव्वकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किचा अन्नयरेसु देवलोण्सु देवताए उववत्तारो भवंति। तं जहा--महड्डिएसु महज्जुतिएसु महापरकमेसु महाजसेसु महाबलेसु महाणुभा वेसु महासुखेसु तेणं तत्थ देवा भवंति महड्डिया महङ्गुतिया० जाव महासुक्खाऽऽहारविराइय वच्छा कडगतुडियर्थभियभुया अंगयकुंडकलमड्डगंडयलकन्न पीडधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणगंधपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1046- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग पलंबवणमालधरा दिव्वेणं रूवेणं दिव्वेणं वन्नेणं दिव्येणं गंधेणं ऽपि धर्ममिति स्थितं धार्मिकपक्ष एवायम्। इहास्मिम जगति त्राच्यादिषु दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघाएणं दिव्येणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिक्षु एक केचन शुभकर्माणो मनुष्या भवन्तीति। तद्यथा-अल्पाःस्लोकाः दिव्वाए जुतीए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चाए परिग़ हाऽऽरम्भेष्विच्छा-अन्तःकरण प्रवृत्तिर्येषां ते तथा एवंभूता दिवेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जे वेमाणा धार्मिकवृत्तयाः प्रायः सुशीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः साधवो भवन्तीति। पभासेमाणा गइकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभद्दया यावि तथैकस्मात् स्थलात् संकल्पकृतात् प्रतिनिवृत्ता एकरमाय सूक्ष्मादारम्भ भवंति, एस ठाणे आ(य)रिए० जाव सव्वदुक्खपहीणमग्गे जादप्रतिनिवृत्ता एवं शेषाण्यपि व्रतानि संयोज्यानि इति / एतस्मादपि एगंतसम्मे सुसाहूदोचस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे सामान्येन निवृत्ता इत्यतिदिशन्नाह-(जे यावणणे इत्यादि) ये चान्ये एक्माहिए। (38 सूत्रा) सावद्या नरकाऽऽदिगमनहेतषः कर्मसमारम्भास्तेभ्य एकस्माद्यापीएके पुनरेकयाऽर्चया एवंन शरीरेणेकरमाद्वा भवासिद्धिगति गन्तारो डननिर्लाञ्छन कृषीवलाऽदेर्निवृत्ता एकरमाच क्रयविक्रयाऽऽदेरनिवृत्ता भवन्ति, अपरे पुनस्तथाविधपूर्वकर्मावशेषे सति तत्कर्मवशगाः कालं इति। कृत्वा अन्यतमेषु वैमानिकेषु देवेषूत्पद्यन्ते, तीन्द्रसामानिकत्राय तांश्च विशषतो दर्शयितुमाहस्त्रिाशल्लोक पालपार्षदात्मरक्ष प्रकीर्णेषुनानाविधसमृद्धिषु भवन्तीति, से जहाणामए समणोवासगा भवंति अभिगयजीवाजीवा नत्वाऽभियोगिककिल्विषिकाऽऽदिष्विति। एतदेवाऽऽह-(तंजहेत्यादि) उवलद्धपुण्णपावा आसवसंवरवेयणाणिज्जराकिरिया हिगरणबंतहाथा महद्धर्यादिषु देवलोकपूपद्यन्ते। देवास्त्येवंभूता भवन्तीति दर्शयति धमोक्खकुसला असहेज्जदेवासुरनागसुवन्नजक्ख रक्खकिन्न(ते णं तत्थ देवा इत्यादि) ते देवा नानाविधतपश्चरणेपात्तशुभकर्माणो रकिं पुरिसगरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणे हिं निग्गंथाओ महद्धयादिगुणोपेता भवन्तीत्यादिकः सामान्यगुणवर्णकः, ततो हारविरा पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा इणमेव निग्गंथे पावयणे णिस्संजितवक्षस इत्यादिक आभरणवस्त्रपुष्पवर्णकः / पुनरतिशयाऽऽपादनार्थ किया णिकं खिया निटिवतिगिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा दिव्यरूपाऽऽदिप्रतिपादनं चिकीर्षुराह-(दिव्वेणं रूवेणमित्यादि) दिवि विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा अद्विमिंज पेम्माणुरागरत्ता अयमाभवं दिव्य, तेन रूपेणोपपेता यावदिव्यया द्रव्यलेश्योपपता दशाऽपि दिश: उसो ! निग्गंथे पावयणे अढे अयं परमट्टे सेसे अण्डे उसियफसमुद्रद्यातयन्तः, तथा प्रभासयन्तोऽलङ्कुर्वन्तो गल्या देवलोकरूपया लिहा अवंगुयदुवारा अचियत्तंतेउसपरधरप्पधेसा चाउद्दसट्ठकल्याणाः-शोभना गत्या वा शीघरूपया प्रशस्तविहायोगतिरूपया पा मुदिट्ठपुणिमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा कल्या गाः, तथा स्थित्या उत्कृष्टमध्यमया कल्याणास्ते भवन्ति समणे निग्थे फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपतथाऽऽगामिनि काले भद्रकाः शोभनम नुष्यभवरुपसंपदुपपेताः, तथा डिग्गहकं बलपायपुंछणेणं ओसहभेसजेणं पीढफलगसेज्जासंसद्धर्मप्रतिपत्तारश्च भवन्तीति। तदतत्स्थानमार्यमकान्तेनैव सम्यग्भूतं थारएणं पडिलाभेमाणा बहूहिं सीलव्ययगुणवेरमणपचक्खाणपो सुसाध्वितीत्येतद् द्वितीयस्य स्थानस्य धर्मपाक्षिकस्य विभङ्ग एवमा सहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा ख्यांतः // 38 // विहरति / ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवभाहिज्जइ इह समणोवामगपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता आबाहसि उप्पन्नंसि खलु पाईणं वा०४ संतेगतिया मणुस्सा भवंति / तं जहा- वा अणुप्पन्नंसि वा बहूइं भत्ताई पचक्खायंति, बहूई भत्ताई अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्मा णुया० जाव पचक्खाएत्ता बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदें ति, बहूई भत्ताई धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति / सुसीला सुव्वया अणसणाएछेदइत्ता आलोइयपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे सुपडियाणंदा साहू एगचाओ पाणाइवायाओ पडिविरना | कालं किच्चा अन्नयरेसुदेवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तं जावजीवाए एगचाओ अप्पडिविरया० जाव जे यावण्णे जहा महड्डिएसुमहज्जुइएस० जाव महासुक्खेसु सेसं तहेव० जाव तहप्पगारा सावजा अबोहिया कम्पंता परपाणपरितावणकरा | एस ठाणे आ (य) रिए. जाव एगंतसम्मे साहू। तबस्स ठाणस्स कज्जंति, ततो वि एगच्चाओ अप्पडिविरया। मिस्सगस्स विभंगे एवं आहिए। अथापरस्य तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाऽऽख्यस्य विभङ्ग समाख्या- (से जहेत्यादि) विशिष्टोपदेशं श्रमणानुपासते सेवन्त इति श्रमणोयते-(इह खलु इत्यादि) एतच यद्यपि मिश्रत्वाद्धर्मा धर्माभ्यामुधप्रेत पासकाः, ते च श्रमणोपासनतोऽभिगतजीवाजी वस्वभावाःतथोपलब्धतथापि धर्मभूयिष्ठत्वाद्धार्मिकपक्ष एवावतरति / तद्यथा-बहुषु गुणेषु पुण्य पापाः। इह च प्रायः सूत्राऽऽदर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते न मध्यपतितो दोषो नाऽऽत्मानं लभते, कलङ्क इव चन्द्रिकायाः, तथा च टीकारांवाघेकोऽप्यस्माभिरादर्शः समुपलब्धोऽत एकमादर्शमगी बहूदकमध्यपतितो मृच्छकलावयवो नोदक कलुषयितुमलम्, एवमधर्मा- | कृत्याऽस्माभिर्विवरणं क्रियते इत्येतदवगम्य सूत्राविसंवाददर्शनाञ्चित Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसवि(च)जयविभंग 1050- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसवि(च)जयविभंग व्यामोहो न विधेय इति। ते श्रावकाः प्रतिज्ञातबन्धमोक्षस्वरूपाः सन्तो न धर्माच्च्याव्यन्ते मेरुरिव निष्प्रकम्पादृढमाईते दर्शनऽनुरक्ताः। अत्रा चार्थे सुख प्रतिपत्यर्थं दृष्टान्तभूतं कथानकम्। तचेदम-राजगृहे नगरे कश्चिदेकः परिव्राट् विद्यामन्त्रौषधिलब्धसामर्थ्यः परिवसति, स च विद्याऽऽदिबलेन पत्तने पर्यटन यां यामभिरूपतरामङ्गनां पश्यति ता तामपहरति, ततः सर्वनागरैः राज्ञे निवेदितम्। यथा देव ! प्रत्यहं पत्तनं मुष्यते केनापि, नीयते सर्वसारमङ्गनाजनोऽपि, यस्तस्यानभिमतः सोऽर केवलवमास्ते, तदेवं क्रियता प्रसादस्तदन्वेषणेनेति / राज्ञाऽभिहितगच्छत यूयं विश्रब्धा भवताऽवश्यमहं तं दुरात्मानं लप्स्ये। किंच-यदि पञ्चषैरहोभिन लभे चौर विमर्षयुक्तोऽपि च त्यक्ष्याम्यात्मानमहं ज्वाला - मालाकुले वहौ। तदैव कृतप्रतिज्ञ राजानं प्रणम्य निर्गता नागरिकाः। राजा च सविशेष नियुक्ता आरक्षकाः। आत्मनाऽप्येकाकी खड़गखेटकमतोऽन्चेष्टुमारब्धो, न चोपलभ्यते चौरः ततो राज्ञा निपुणतरमन्वेषयता पञ्चमेऽहनि भोजनताम्बूलगन्धमाल्याऽऽदिक गृहन् रात्री स्वतो निर्गतनोपलब्धः स परिवाट्तत्पृष्ठगामिना नगरोद्यानवृक्षकोटर प्रवेशेन गुहाभ्यन्तरं प्रविश्य व्यापादितः। तदनन्तर समर्पितं यद्यरय सत्कमहनाजनोऽपीति। तत्र चैका सीमन्तिनी अत्यन्तमौषधिभिर्भाविता नच्छत्यात्मीयअपि भरि, ततस्तद्विद्भिरभिहितम् यथाऽस्याः परिवाट्सत्कान्यस्थीनि दुग्धेन सह संघृष्य यदि दीयन्ते तदेयं तदागृहं मुञ्चति, ततस्ततस्वजनैरेवमेव कृत, यथा यथा चासौ तदस्थ्यभ्यवहारं विधत्ते तथा तथा तत्स्नेहानुबन्धोऽपैति, सर्वास्थिपाने चापगतः प्रेमानुबन्धः, तदानुरक्ता निजे भर्त।ि तदेवं यथाऽसावत्यन्तं भाविता तेन परिवाजा नेच्छत्यपरमेवं धावकजनोऽपि नितरां भाविताऽऽत्मा मोनीन्द्रशासने न शक्यते अन्यथा कर्तुम्, अत्यन्तं सम्यक्त्वौषधेन वासितत्वादिति। पुनरपि श्रावकान् विशिनष्टि (जाव उसियफलिहा इत्यादि) उच्छितानि स्फटिकानीव स्फटिकानि-अन्तः करणानि येषा ते तथा / एतदुक्तं भवति-मौनीन्द्रदर्शनवाप्तौः सत्यां परितुष्टमानसा इति, तथा अप्रावृतानि द्वाराणि यैस्तै तथा, उद्घाटित गृहद्वारास्तिष्ठन्ति / अचियत्तोऽन भिमतोऽन्तःपुरप्रवेशवत्परगृहद्वारप्रवेशोऽन्यतीर्थिकप्रवेशो येषां ते तथा, अनवरतं श्रमणानुद्युत्कविहरिणो निम्रन्थान् प्रासुकेनैषणीयेनाशनाऽऽदिना तथा पीठफलकशय्या संस्तारकाऽऽदिना च प्रतिलाभयन्तस्तथा शेषस्त्वनर्थो , यरमादेवं प्रतिपद्यन्ते तस्मात्ते समुच्छितमनसः सन्तः साधुधर्मे श्रावकधर्म च प्रकाशयन्तो विशेषणैकादशोपास कप्रतिमाः स्पृशन्तो विहरन्तोऽष्टमीचतुर्दश्यादिषु पौषधोपवासाऽऽदौ साधून प्रासुकेन प्रतिलाभयन्ति, पाश्चात्ये च काले संलिखितकायाः संस्ताकथमणभावं प्रतिपद्य भक्तं प्रत्याख्यायाऽऽयुषः क्षये देवेषूत्पद्यन्ते, ततोऽपि च्युताः सुमानुषभावं प्रतिपद्य तनैव भवेनोत्कृष्टतः सप्तस्वष्टसु वा भवेषु सिद्धयन्तीति। तदेतत्स्थान कल्याणपरम्परया सुखविपाकमिति कृत्वाऽऽर्यमिति / अयं विभङ्गस्तृतीयस्य मिश्रकाऽऽख्यस्याऽऽरण्यात इति / उक्ता धार्मिकाः, अधार्मिकास्तदुभयरूपाश्चाभिहिताः। साम्प्रतमेतदेव स्थानत्रिकमुपसंहारद्वारेण संक्षेपतो विभ णिषुराहअविरइं पडुच वाले आहिज्जइ, विरई पडुच पंडिए आहिज्जइ, विरयाविरई पडुच बालदिए आहिज्जइ। तत्थणं जा सा सव्वतो अविरई एस ठाणे आरंभट्ठाणे अणारिए० जाव असव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू, तत्थ णं जा सा सव्वतो विरई एस ठाणे अणारं भट्ठाणे आरिए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे / एगंतसम्म साहू, तत्यणं जा सा सव्वओ विरयाविरई एस हाणे आरंभणोआरंभट्टाणे एस ठाणे आ(य)रिए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्मे साहू। (13 सूत्र) (अविरई इत्यादि) येयमविरतिरसंयमरूपा सम्यक्तवा भावान्मिथ्यादृष्टर्दव्यतो विरतिरप्यविरतिरेव, तां प्रतीत्य आश्रित्य बालवद्वालोऽज्ञः सदसद्विवेकविकलत्वात् इत्येसमाधीयते व्यवस्थाप्यते आख्यायते वा, तथा विरतिं च प्रतीत्य-आश्रित्य पापाड्डीनः पण्डितः परमार्थज्ञो वेत्येवमाधीयते आख्यायते वा, तथा विरताविरतिं चाऽऽश्रित्य वालपण्डित इत्येतत्प्राग्वदायोज्यमिति। किंमित्यविरतिविरत्या श्रयेण बालपण्डितपाण्डित्याऽऽपत्तिरित्याशङ्कयाऽऽह (तत्थ णमित्यादि) तत्रा पूर्वोक्तेषु स्थानेषु येयं सर्वाऽऽत्मना सर्वस्मात् अविरतिर्विरतिपरिणामाभावः, एतत्स्थानं सावधाऽऽरम्भस्थानमाश्रयः एतदाश्रित्यसर्वाण्यपि कार्याणि क्रियन्ते। यत एवमत एतदनार्य स्थानं निःशुक्रतया यत्किश्चन कारित्वाद्याव दससर्वदुःखप्रक्षीणमार्गोऽयं तथैकान्तमिथ्या रुपोऽसाधुरिति। तत्रा चेयं विरतिः सम्यक्तवपूर्विका सावद्याऽऽ रम्भानिवृत्तिः सा स्थगितद्वारत्वात् पाषानुपादानरूपेति। एतदेवाऽऽह-तदेतस्थानम् अनारम्भस्थान सावद्यानुष्ठाना हितत्वात्संयमस्थानं तथा चैतत्स्थानमार्यास्थानम्। आराद्यात सर्वहयधर्मेभ्य इत्यार्य, तथा सर्वदुःखप्रक्षीण मार्गोऽशेषकर्मक्षयपथः इति। तथैकान्तसम्यग्भूतः। एतदेवाऽऽह-साधुरिति, साधुभूतानुष्ठानात्साधुरिति। तत्रच येयं विरताविरतिरभिधीयते सैषा मिश्ररथान - भूता, तदेतदारम्भानारम्भरूपस्थामेतदपि कथञ्चिदार्यमव, पारम्पर्येण सर्वदुः खपहीणमार्गः, तथैकान्तसम्यग्भूतः साधुश्चेति / तदेवमनेकविधोऽयमधर्मपक्षो धर्मपक्षस्तथा मिश्रपक्षश्चेति संक्षेपेणामिहितः पक्षत्रायसमाश्रयणेन / सूत्र०२ श्रु०२ अ० प्रति०। न्ति स्तिष्ठन्ति। तदेव ते परमश्रावकाः प्रभूतकालमणुव्रतगुणव्रत शिक्षावतानुष्ठायिनः सधूनामौषधवस्त्र पात्राऽऽदिनोपकारिणः सन्तो यथोक्त यथाशक्ति सदनुष्ठानं विधायोत्पन्ने वा कारणेऽनुत्पन्ने वा भक्तं प्रत्याख्यायाऽऽलोचितप्रतिकान्तः समाधिप्राप्ताः सन्तः कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेषु देवेषुत्पद्यन्ते इति / एतानि चाभिगतजीवाजीवाऽऽदिकानि पदानि हेतुहेतुमद्भावेन नेतव्यानि। तद्यथा यस्मादभिगतजीवाजीवास्तस्मादुपलब्धपुण्यपाषाः यस्मादुपलब्धपुण्यपापास्तरमादुच्छिदमनसः। एवप्तुत्तरत्रापि एकैकंपदं त्यजद्भिदरेकैकं चोत्तरं गृहद्भिर्वाच्यं, ते च परेण पृष्टा अपृष्टा वा एतदूचुः / तद्यथा-अयमेव मौनीन्द्रोत्को मार्ग: सदर्थः Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसविज्जा 1051- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसोत्तम पुरिसविजा स्त्री० (पुरुषविद्या)। क्षुल्लकनिम्रन्थीयापरनामकेषष्ठे उत्तरा- | ल01२७६।रलोपे णद्वित्वम्। प्रा०। ध्ययने, स०३६ सम०। उत्त०। पुरिसादाणीय पुं० (पुरुषादानीय) पुरुषाणां मध्ये आदानीयः पुरुषाऽऽ - पुरिसवेय पुं० (पुरुषवेद) श्लेष्मोक्ष्यादम्लाभिलाषयत् पुंसः खियाम- दानीयाः / भ० 5 श० 6 उ० / स्था० / स० / पुरुषाणां मध्ये आदीयते भिलाषनिबन्धेन कर्मभेदे, कर्म०६कर्मा पं०सं०ाजी०। प्रज्ञा०। (पुंवेदस्य इत्यादानीय उपादेय इत्यर्थः। स्था०८ ठा० पुरुषश्चवासौ आदानीयश्च प्ररूपणा'णोकसायवेयणिज्ज' शब्दे चतुर्थभागे 2161 पृष्ठे गता) आदेयवागयतया आदेयनाम तया च पुरुषाऽऽदानीयः / पुरुषप्रधाने पुरिससीह पुं०(पुरुषसिंह) तीर्थकरे, सिंह इव सिंहः, पुरुषश्चासो सिंहश्चेति कल्प० 1 अधि०७ क्षण / स०। नि०। पार्श्वनाथो हि पुरुषाऽऽदानीय पुरुषसिंहः / लोकेन हि सिंहे शौर्यमति प्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्ये स इत्युच्यते, "तथैव पासेणं अरहा पुरिसदाणीए / 'इत्यादि सूत्रोषु उपमानं कृतः; शौर्ये तु भगवतो बाल्ये प्रत्यनीकदेवेन भाष्यमाणस्या- व्यवहारात्। स्था०६ ठा०। मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीयां आश्रयणीयाः भोतत्वात् कुलिशकठिन मुष्टिप्रहारप्रहति प्रवर्द्धमानामरशरीरकुब्जता- पुरुषाऽऽदानीयाः / नहतोऽपि महीयसि, सूत्रा० 1 श्रु०६ अ०। करणाच / भ० 1 0 1 उ०। ल०। पुरिसाधम पुं० (पुरुषाधम) पुरुषाणां मध्येऽधमे, बृ०३ उ० / शषोः प्रणिपातदण्डकसप्तमसूत्रम् - सः॥८/१।२६०। इति। सः। प्रा० / पुरिससीहाणं / / 7 / / पुरिसासीविसपु० (पुरुषाशीविष) आशीविष :- सर्पः पुरुषश्चासावाशीपुरुषसिंहेभ्य इति / पुरुषाः प्राग्व्यावर्णितनिरुक्तास्ते सिंहा इव विषश्च पुरुषाऽऽशीविषः, कोपसाफल्यकरणसामर्थ्यात् / सर्पोपमे प्रधानशार्याऽऽदिगुणभावेन ख्याताः पुरुषसिंहाः ख्याताश्च कर्मशत्रू पुरुष, औ०। प्रति शृरतया तदुच्छेदनं प्रति क्रौर्येण क्रांधाऽऽदीन् प्रति-असहनतया पुरिसुत्तम पुं० (पुरुषोत्तम) तीर्थकरे, जी०३ प्रति० 4 अधि01ल०। रागाऽऽदीन्प्रति वीर्ययोगेन तपःकर्मप्रति वीरतया अवशेषां परीषहेषु न पुरिसोत्तम पु० (पुरुषोत्तम) पुरुषाणा मध्ये तेन तेन रूपाऽऽनिाऽतिभयमुपसर्गेषु न चिन्ताऽ धीन्द्रियवर्गे नखेदः संयमाध्वनि निष्प्रकम्पता शयेनोदभूतत्वादूर्ध्ववर्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः / भ० 1 श०१ उ० / सध्यान इति। न चैवमुपमा मृषा, तद्द्वारेण तत्त्वतः तदसाधारणगुणाभि- संथा० / कल्प० / सूत्रा० / रा०। ध०। पुरुषाणामुत्तमः पुरुषोत्तमः / धानात्, विनयविशेषनु-ग्रहार्थमेतत्, इत्थमेव केषाञ्चिदुक्त गणप्रतिप- तीर्थकरे, भगवन्तो हि संसारमप्यावसन्तः सदा परार्थव्यसनिन त्तिदर्शनात् चित्रो हि सत्त्वानां क्षयोपशमः, ततः कस्यचित्कथञ्चिदाश्रय- उपसर्जनीकृतस्वार्था उचितक्रियावन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापतयोऽशुद्धिभावात् / यथाभव्यं व्यापकश्चानुग्रहविधिः, उपकार्यात्प्रत्युपकार नुपहतचित्ता देवगुरुबहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोत्तमः / जी०३ प्रतिक 'लप्साऽभावेन महतां प्रवर्त्तनात्, महापुरुषप्रणीतश्चाधिकृतदण्डकः, 4 अधि० / व्य०। आदिमुनिभिर हच्छित्यैर्गणधरैः प्रणीतत्वाद्, अत एवैष महागम्भीरः प्रणिपातदण्डकषष्ठसूत्राम्सकलन्यायाऽऽकरः भवप्रमोदहेतुः परमार्षरूपो निदर्शनमन्येषामिति, पुरिसोत्तमागां // 6 // न्याय्यमेतद्यदुत पुरुषसिंहा इति॥७। ल०। स्था०1 औ०। जी०। ध० / पुरि शयनात पुरुषाः सयावा एव, तेषां उत्तमाः सहजतत्ता भव्यत्वादिरा० / स० / कल्प० / सूत्र० / अस्यामवसर्पिण्यां जाते पञ्चमे वासुदेवे, भावतः प्रधानाः पुरुषोत्तमाः। तथा ह्यकालमेते परार्थव्यसनिन उपसर्जस०। आव०। धर्मजिनसमये चसोऽभवत्। ति०। प्रव०। 'पुरिससीहेणं नीकृतस्वार्थो उचित क्रियावन्तोऽदीनभावाः सफलारम्भिणः अदृढानुवासुदेवे दस वाससयसहस्साइंसव्वाउयं पालइत्ता छट्ठीएतमाए पुढवीए शयाः कृतज्ञतापतयोऽनुपहतचित्ता देवगुरुबहुमानिन स्तथा गम्भीराशया नेरइयत्ताए उववन्ने / ' स्था० 10 ठा०।" पुरिससीहेण वासुदेवे दस इति। न सर्व एवैवविधाः, खुड्ड(डु) (डु)का (का) कानां व्यत्ययोपलब्धेः, वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता पंचमाए पुढवीए नेरइएसुनेरइयत्ताए अन्यथा खुडु (डु) डु (का) (का) का भाव इति / नाशुद्धमपि जात्यरत्न उववन्ने : " अत्रा सूत्राविरोधश्चिन्त्यः / स०१०००००० सम०। समानम जात्यरत्नेन, नचेतरदितरेण, तथा संस्कारयोगे सत्युत्तरकालपुरिससेण पुं० (पुरुषसेन) द्वारवत्यां वसुदेवस्य धारण्यां जाते पुत्रे, मपित दोपपत्तेः, न हि काचः पद्मरागी भवति, जात्यनुच्छेदेन गुणप्रकर्षासचारिष्टनेम्यन्तिके प्रव्रजितः शत्रुञ्जये सिद्ध इति अन्तकृद्दशाना चतुर्थे भावादित्थं चैतदेवं प्रत्येकबुद्धाऽऽदिवचन प्रामाण्यात्त द्वेदानुपपत्तेः, न वर्गे चतुर्थेऽध्ययने सूचितम्। अन्त०१ श्रु०४ वर्ग 1 अ०। श्रेणिकस्य तुल्यभाजनतायांत दोन्याय्य इति। नचात एवमुक्तावपि विशेषः, कृत्स्नधारण्या जाते पुत्रो, वीरान्तिके प्रव्रज्य षोडश वर्षाणि श्रामण्यपर्यायः कर्मक्षयकार्यत्वात्, तस्य चाविशिष्टत्वात्, दृष्टश्च दरिद्रेश्वरयोरप्यविशिष्टो मृत्वा अपराजिते उपपन्नः च्युत्त्वा महाविदेहे क्षेत्रो सेत्स्यतीति मृत्युः, आयुःक्षयाविशेषात्, न चैतावता तयोः प्रागप्यविशेषः, तदन्यहेतुअनुत्तरोप-पातिकदशानां प्रथमे वर्गे चतुर्थेऽध्ययने सूचितम् / अणु०१ विशेषान्निदर्शनमात्रमेतदिति पुरुषोत्तमाः ||6|| ल०। "जहा से पुरिसोश्रु०१ वर्ग 4 अ01 त्तमे'' अत्र पुरुषोत्तमो रथनेमिः। दश०२ अ० ऋषभपुत्राणां शतसङ्पुरिसा स्वी० (पुरुषा) ब्रह्मया लिपेः भेदे, प्रज्ञा० १पद। ख्याकानां पञ्चचत्वारिशे, कल्प०१ अधि०७ क्षण / अनन्तजिनकालपुरिसाइण्ण त्रि० (पुरुषाऽऽकीर्ण) पुरुषबहुले, नि० चू० 1 उ०। सर्वत्र भाविनि (स०४६ सम०) चतुर्थवासुदेवे, स०।आव०। प्रव० / प्रधाने, त्रि०। Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसोत्तम 1052- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसोत्तम पुरुषत्तमो हि धर्मः सर्वतीर्थकत्संमताः। पञ्चा०१७विव०। गुणनुरागकथनपूर्वकं पुरुषोत्तमचरितम् - गुणलेसं पि पसंसइ, गुरुगुणबुद्धीइ परगयं एसो। दोसलवेण वि नियगं, गुणानिवहं निग्गुणं गणइ॥१२१|| (ध००) (अस्या व्याख्या गुणानुरागिशब्देतृतीय भागे६३२ पृष्ठे द्रष्टव्या) पुरुषोत्तमचरितमित्थम् - "अस्थि सुरट्टाविसए, वारवई नाम पुरवरी स्मा। कंधणमणिमयमंदिर-पाया राधणयणिम्मवया // 1 // तत्थ य हरिकुलनहयल-हरिणको अरिसमूहमयमयणो। महुमयणो नाम निवो, दाहिणभरहद्धरउधरो॥२२ तत्थ कया वि हु विहुणिय-अइघणघणधाइकम्मपन्भारो। दुरियददुमदलनेमी, अरिहनेमी समोसरिओ।।३।। सिरिरेवयगिरिसठिय-उजाणे नंदणम्मि रमणीए। सुररइयसमोसरणे, उवविट्टो देसणं काउं॥४।। तत्तो निउत्तपुरिसा, जिणआगमणं मुवि हिडमणो। चलिओ भरद्ददुवई, बंदणद्देउं जिणिंदस्स // 5 // चलिया तेण समा णं, दस वि दसारा समुद्दविजयाई। तह चेव महावीरा, पंच वि बलदेवपामुक्खा / / 6 / / सोलसरायसहस्सा,संचलिया उम्गसेणनिवपमुहा। इगवीस सहरसाई, वीरसेणमुहाण वीराणं // 7 // दुद्दतंकुमारणं, सद्विसहस्साण संबपमुहाणं। पज्जुन्नप्पमुहाओ, अद्भुकुमारकोडीओ // 8 // छप्पन्नं च सहस्सा, महसेणपमुहबलवगाणं पि। अन्नो वि सिट्टमाई, नागरलोगो अणेगविहो // 6 // इत्तो सोहम्मवई, विण्हु मण भोहिणा मुणेऊण। गाढ हरिसियहियओ, सहागओ भणइ नियअभरे / / 10 / / हहो पिच्छइ पिच्छइ, एए किर केसवा महाभागा। गुरुगुण बुद्धीइ नयं-ति परगयं गुणलवं पि सया॥११॥ सिसुणो इव खलु पहुणो, जह तह जपंति इय विचिंते उं। सिग्ध परिक्खणत्थं एगो अमरो इह पक्षो॥१२॥ ओसरणगमणमग्गे, गदजीयं परमदुर हिगंधड्ड। वियसियमुहसियदंतं, एणं साणं विउव्वेइ / / 13 / / तग्गधेणऽभिभूयं, सिन्नं सयलं पि अन्नओ हुत्त। दढपिहियवयणनासा-उड फुड गंतुमारई / / 14 / / कण्हो पुण वच्वंतो, तेणेवं पहेण दट्ठतं साणं। परगुणलेसग्गहण म्मि लालसो जंपए एवं॥१५॥ एयस्स कसिणसाण-स्स आणणे सेयदंतघणपंती। एसा मरगयथाले, मुत्तामालेव कह सहइ ? // 16 // इइ नाउं हरिचरियं, कह वि न दोस वयंति सप्पुरिसा। सो जायपचओ सुर-वइम्मि पयडेइ नियरुवं / / 17 / / परगुणगहणपहाण, बहुसो थुणिउंहरि सबहुभाणं / असियोवसमणभेरि, च दाउ अमरो गओ सगं // 18|| ततो कण्हो पत्तो, ओसरणे जिणवरं नमिय विहिणा। उचियहाणे निसियइ. इय सामी कहइ धम्मकह / / 16 / / भो भविया ! भवगहणे. दुलह कह कह विलहिय सम्मत्तं / तस्स विसुद्धिनिमित्तं, संतगुणपसंसणं कुणह॥२०॥ जह संयलतत्तविसया, अरुई सम्मत्तनासिया भणिया: तह संतगुणाणुववू-हणा वि अइयारसंजणणी।।२१।। जइ संता वि नहुगुणा, पसंसणं पाउणति सत्ताणं / तो बहुकिले ससज्झ–ण को ताण आयर कुजा / / 22 / तो नाणाईविसए, गुणलेसं जत्थ जत्तियं पासे: संमत्तंग अवग-म्म तत्थ संसिजुतावइय!|२३|| जो पुण मच्छरवसओ, पमाइओ वा गुणे न संसिज / संते वि सो दुहाई, पावइ भवदेवसूरि व्व // 24 // पुच्छेइ हरी भययं ! भवदेवो नाम एस को सूरी ? | भणइ पह इह भरहे, आसि पुरा एस मुणिनाही // 25 // बुद्धीइ सुरगुरुसमो, नवरं चरणम्मि ईसिसिढिलमणो। तस्स य एगो सीसो, नामेणं बंधुदत्तु त्ति // 26 // सो पुण निम्मलचरणो, सुहममई वायलद्धिसंपन्नो। तक्कागमे य कुसलो, श्रमच्छिरिल्लो बिणीओ य / / 27 / तो तरस पायमूले, जिपसमयवियक्खणा समणसंघा। सत्थवियड्डा सड्डा-विणयप्पवणा कयंजलिणा // 28 // मिसुणति जिणिंदागम-मुवउत्तमणा तह त्ति जंपत्ता। पकुणति य बहुमाणं, पवित्तचारित्तजुत्तु त्ति // 26 // तो भवदेवो सूरी, मच्छरभरिओ विचिंतए हियए। म सुत्तु इमे मुद्धा, किं एयं पञ्जुवासंति // 30 // अहवा मुद्धा मुणिणो, गिहिणो व इमे कुणंतु जं किं पि। एस उण कीस सीसो, तहा मए दिक्खिओ वि कुड? // 31 // तह बहुसुओ मइ चिय, कओ वि तह गुरुगुणेसु ठविओ वि। में अवगाणिउं एवं, वट्टइ परिसाइ भेयम्मि।।३।। नरनाहम्मि जियंते,न छत्तभगो हवेइ एसो वि। एएण अणजेणं, मण्णेन सुओ जणपवाओ॥३३॥ जइ संपइ वारिजइ, इमो मए धम्मकहणमाईयं / तो मच्छरि त्ति लोगो, सुद्धो मं मन्नए एस / / 34 / / ता काउ उवेह चिय, इमम्मि मूढम्मि इण्हि मह उचिया। इय जा मच्छरपुन्नो, सो सूरी गमइ कइवि दिणे // 3 // ता पाडलिपुरनयरा-संघाएसेण तस्सपासम्मि। पत्तो मुणिसंघाड़ो, मुणी वि अब्भुट्टिओ सो वि॥३६।। अथ तस्य यतिपेतर्यति-जनस्य कृत्वा यथोचित सर्वम् / मुनिशङ्गा (संघा)टक एवं, संघादेशंन्यवीवदत्॥३७।। प्रज्ञाऽवज्ञातगुरु-र्विदुराऽऽख्योऽव्यत्कलिङ्गिक स्तत्रः स्वैरं विजहार चिरं,षड्दर्शनविप्लुतिं कुर्वन्॥३८|| तथाहिकाणादानमदान प्रनष्ठधिषणाऽऽधिक्यानवाक्यान् बहन, शक्याँ स्तर्कवचोविचाराबिमुखान् सारख्यानसंख्यामपि। कौलान् भ्रष्टबलान् निरस्तयशसो मीमांसकान व्यसकान कुर्वन् बारणवद्विशङ्कमचरत्सर्वा गर्वोद्धरः॥३६॥ संप्रति जैनमुनीन्द्रः सार्द्ध स्पर्धा चिकीर्षते दुष्टः। तदर्शनकृत्य मिदं, कर्तु तत्रौत लघु यूयम्॥४०॥ "इय साउंसो सूरी, जा चलिओ पाडलीपुराभिमुहं / Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसोत्तम 1053- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरेकम्म पवयणपभावणत्थं, ता जाया अभिमुहा छीया // 41 / / वामा खेमा लाभ-म्मि दाहिणा पच्छिमा नियत्तेइ। छीया नूणमभिमुहा, कयं पि कजं विणासेइ / / 42|| इय चिंतिऊण सूरी, विहारकरणाउ उवरओ सहसा। तो भणियं आगंतुय-मुणिसंघाडेण वयणमिणं / / 43 / / जइ तुम्हाण विहारो, सउणअभावा उ तत्थ न हु जाओ। ता बंधुदत्तसाहुं लहु पेसह वायलद्धिल्लं॥४४॥ तो सूरिणा बहुविहं, विचिंतिउंसो विसजिओ तत्थ। पत्तो धोवदिणेहिं, सुसउणपरिवड्विउच्छाहो // 45|| दिवो तत्थ नरिंदो, कया पइन्ना इमा दुवेहिं पि। जो जेण नूण जिप्पइ, स तस्स सीसो हवेउ त्ति // 46 / / तं बंधुदत्तमुणिणा, सियवायविसुद्धिविहवेणं। बहुवयणवित्थरेणं, वायम्मि पराजिओ विदुरो॥४७॥ लद्ध च विजयपत्तं, विदुरो पव्वाविओ तया चेवा वियसियमुहकमलेणं, पसंसिओ सयलसंघेणं / / 4 / / विदुरविणेयसमेओ, पए पए बुहजणेण थुव्वंतों तो बंधुदत्तसाहू, पत्तो नियसूरिपासम्मि॥४६॥ ते तु पुण मच्छरवसा, न मणागं पि हुपसंसिओ एस। नय दिह्रो ससिणेह, आलविओ सहरिसं नेव।।५०।। हा जइ गुरुणो विमए, न रंजिया मंदबुद्धिकलिएण। ता सेसाण गुणाणं, समजणेवं हवउ मज्झ // 51 / / इय चिंताउलचित्तो, हिययम्मि वहंतओ महाखेयं / तप्पभिइ बंधुदत्तो, जाओ गुण अज्जणे विमुहो।॥५२॥ अकयनियदोससुद्धी, भवदेवमुणीसरो विमरिऊण। पयडबहुकिव्विसेसुं, किदिवसिएसुसुरोजाओ।।५३|| तयणु दरिद्वियदियनंदणो उ सो मूयओ समुप्पन्नो। कह कह वि लहियवोहिं, काउ तवं सग्गमणुपत्तो // 54|| इय सोउ कण्हपमुहा, लोया भवदेवसूरिणो चरिणो। चरियं जाया पमुइय-हियया परगुणगहणिक्कतल्लिच्छा / / 5 / / भुजोभुजो नेमि, पणमिय पत्ता सएसु ठाणेसु। समणगणसंपरिवुडो, विहरइ अन्नत्थ सामी वि।।५६।। इति स्फुरदोषलतालविकां, निशम्य विष्णो रुचिरं चरित्राम्। दुष्कर्मनीरौघभिदानिदाघ, सुसाधवो धत्त गुणानुरागम्॥५७॥" इति पुरुषोत्तमचरित्रम्। ध० 203 अधि०६गुण। पुरिसोत्तमणामिसंभवपुं० (पुरुषोत्तमनाभिसम्भव) ब्रह्मणि, "नमिऊण परमपुरिसं, पुरिसोत्तमणभिसंभवं देवं / पुच्छ पाइअलच्छित्ति, नाममालं निसामेह / / 1 / / " पाइ० ना०१ गाथा। पुरिसोत्तमप्पणीय त्रि० (पुरुषोत्तमप्रणीत) उत्तमपुरुषगदिते, पञ्चा०७ विव०। पुरिसोत्तर त्रि० (पुरुषोत्तर) पुरुषप्रधाने, बृ० 1 उ०३ प्रक०। पुरी स्त्री० (पुरी) नगम्,ि स्वनामख्याते नगरीभेदे, पश्चादुत्पदितः स्वामी, प्राप्तो नाम्ना पुरि पुरीम् / आ० क०१ अ०। पुरीसन० (पुरीष) विष्ठायाम, तं०। स्था०। उचारे, आव० 4 अ०।" शृगालौ वे एष जायते यः सपुरीषो दह्यते।" आ० म०१ अ०। पुरीसाणिरोह पुं० (पुरीषनिरोध) विडुत्सर्गबलनिरोधे, मूत्र निरोधे चक्षुरुपघातो भवति। पुरीषनिरोधे च जीवितोपघातः। पं० चू०१ कल्प० / पुरुपुरिआ (देशी) उत्कण्ठायाम्, दे० ना०६ वर्ग 55 गाथा। पुरुहूअ (देशी) घूके, दे० ना०६ वर्ग 55 गाथा। पुरेकड त्रि० (पुरस्कृत) जन्मान्तरोपात्ते, दश० 8 अ०। सू० प्र०। आचा० / जन्मान्तरोपार्जिते, सूत्र०१श्रु०१४ अ० जन्मशतोपात्ते कर्मणि, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२ उ० पुरेकम्म(ण) न० (पुरःकर्मन्) पुरो दानात् पूर्वं कर्म हस्तधावनाऽऽदि या तत्पुरःकर्म / प्रश्न०५ संव०द्वार। भिक्षादा नादग्रतः कृते प्रक्षालनाऽऽदिके कर्मणि आचा०२ श्रु०१चू०१अ०६ उ० भक्तदानात्प्राग्यतिनिमित्ते हस्ताऽऽदिधावने, ध०३ अधि०। पं० चू०। पं०भा०। हस्तेन साधुनिमित्ते प्राककृतजलोज्झ नव्यापारे, दश०५ अ०१ उ०। "पुरओ कयं जंतुतं पुरेकम्मा "भिक्षायाः पुरतः-प्रथममेव यत्कृतं कर्म कर प्रक्षालनाऽऽदि तत्पुरः कर्माभिधीयते / ओघ० / अथ पुरःकर्मद्वारमाहपुरकम्मम्मि य पुच्छा, किं कम्माऽऽरोवणा परीहरणा। एएसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं // 676|| पुरःकर्मणि पृच्छा कर्त्तव्या। तद्यथा-किं पुरःकर्म ? कस्य वा पुरःकर्म? का वा पुरःकर्मण्यारोपणा, कथं वा पुरःकर्मणः परिहरणं क्रियते ? एतेषां चतुर्णामपि पदानां प्रत्येकमहं प्ररूपणां वक्ष्ये। तत्र किमिति द्वारस्य प्ररूपणां चिकीर्षुः प्रेर्यमुत्थापयन्नाह - जइ जं पुरतो कीरइ, एवं उट्ठाणगमणमादीणि। हो ति पुरेकम्मं ते, एमेव य पुटवकम्मे वि ||980|| परः प्राऽऽह यदि साधोर्भिक्षार्थिनी गृहाङ्गणमागतस्य यत् पुरोऽग्रतः क्रियते तत्पुरःकर्मेति व्यवहियते, एवं ते तव यानि दायिक स्पोत्थानगमनाऽऽदीनि कर्माणि साधारणतः क्रियमाणानि तानि सर्वाण्यपिपुरःकर्म भवति / अथ पूर्वार्थवाचकः पुरः शब्द इहाधिक्रियते, एवमेव च पूर्वकर्मण्यपि द्रष्टव्यम्। कि मुक्तं भवति ? पुरः साधोरागमनात्पूर्व कर्म पुरः कर्मेत्यस्यामपि व्युत्पत्तौ यान्युत्थानाऽऽदीनि पूर्व कृतानि तानि पुरःकर्म प्राप्नुवन्ति। यदि नामैवं ततः का नो हानिरितिवेत् ? उच्यतेएवं फासुमफासुं.न विजए य काइ सोहीते। हंदि हु बहूणि पुरतो, कीरंति कयाणि पुव्वं च // 11 // एवं द्विधाऽपि समासे क्रियमाणे प्राशुक मप्राशु कं वा न विद्यते न ज्ञायते सर्वस्याऽप्यत्थानगमनाऽऽदिचेष्टयोः पुरः कर्मत्वप्राप्तेः Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म 1054- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरेकम्म अज्ञायमाने च प्राशुकाप्राशुकविभागे शोधिरपि काचिन्नास्ति (ते) तवाभिप्रायेण, तस्याश्चाभावे चारित्रस्याप्यभावः / हन्दीत्युपप्रदर्शने, हुरित्यामन्त्राणे ततश्चैवं हे आचार्य ! बहूनि पुरतः क्रियन्ते, बहूनि च दायकेन पूर्व कृतानि, तानि सर्वाण्यपि पुरः कर्म प्राप्नुवन्ति। अत्रा सूरिः प्रतिवचनमाह - कामं खलु पुरसद्दो, पञ्चक्खपरोक्खतो दुहा होइ। तह वि य न पुरेकम्म, पुरकम्मं नोदग ! इमं तु / / 982|| काममनुमतं, खलुशब्दोऽवधारणे, अनुमतमेवास्माकं,यत्पुरः-शब्दः प्रत्यक्षपरोक्षतो द्विधा भवति-यदा पुरोऽग्रतः कर्म पुरः कर्मे ति व्युत्पत्तिराश्रीयतेतदा प्रत्यक्षार्थवाचकः पुरः शब्दः, यदितुपुरः कर्म तदापरोक्षार्थवाचकः। एवं पुरः शब्दस्य प्रत्यक्षपरोक्षार्थवाचकतया यद्यप्युत्थानाऽऽदीनि पुरः कर्म प्राप्नुवन्ति तथापि तानि पुरःकर्म न भवन्ति, किंतु पुरःकर्म हे नोदक ! इदं वक्ष्यमाणं भवति। तदेवाऽऽहइत्थं वा मत्तं वा, पुट्विं सीतोदएण जं धोवे। समणट्ठाए दाता, पुरकम्मं तं वियाणाहि॥९८३|| हस्तं वा मात्रा वा पूर्व भिक्षादानात् प्रथमं शीतोदकेन सचित्तजलेन यहाता श्रमणार्थ धावति प्रक्षालयित तत्पुरः-कर्म विजानीहिन, न शेषमुत्थानगमनाऽऽदिकम, तथा समय परिभाषया रुढत्वात्। गत किमितिद्वारम्। अथ कस्येति द्वारस्य प्ररूपणामाह - कस्स त्ति पुरेकम्म, जइणो तं पुण पभू सयं कुज्जा। अहवा पभुसंदिट्ठो, सो पुण सुहि पेस बंधू वा / / 154 // कस्य पुनः पुरः कर्म भवतीति पृच्छायां निर्वचनम्-यतेस्तत्प रिहारिणः साधोः पुरः कर्म मन्तव्यं, तदितरेषां दोषत्वेनानभ्यु पगमात् / तत्पुनः पुरः कर्म प्रभुहस्वामी स्वयमेव कुर्यात् / अथवा-प्रभुसंदिष्टः प्रभुणा आदिष्टः। स पुनः प्रभुसंदिष्टस्विधा। तद्यथा-सुहत मित्रां, प्रेष्यो दासाऽऽदिः, बन्धुर्माता भगिन्यादि। अथ पुरः कर्मणः संभवमाहदमए पमाणपुरिसे, जाए पंतीए ताए मोत्तूणं। सो पुरिसो तं वऽन्नं, तं दव्वं अन्नो अन्नं वा // 985|| संखड्यां पडिक्तपरिवेषणे नियुक्तः कोऽपि द्रमकः कर्मकरः, एतेन प्रभुसंदिष्टग्रहणम्। प्रमाणपुरुषो वा देयद्रव्यस्वामी, अनेन च प्रभुग्रहणम्। ततश्च दाता प्रभु, प्रभुसंदिष्टो वा यस्यां पड्तौ पुरः कर्म कृतवान् तामुक्तवा यद्यन्यां पक्तिं संक्रामति तदायदिपरिणतहस्तस्तः कल्पते। अत्र चाष्टौ भङ्गा भवन्ति-स पुरुषः तां पडक्तिभन्यां वा पडक्ति, तद् द्रव्यमन्यद् द्रव्यं वा, इत्यनेन चत्वारो भङ्गाः सूचिताः / एवमन्यपुरुष इत्यनेनाऽपि चत्वारो भङ्गा सूच्यन्ते / एवमेतेऽष्टौ भङ्गाः। एतानेवाष्ट भङ्गान स्पष्टयतिसो तं ताए अन्ना-ए बिइअओ अन्न तीऍ दो वऽन्ने। एमेव य अन्मेण वि, भंगा खलु हों ति चत्तारि।।६८६|| स पुरुषस्तद् द्रव्यं तस्यां पड़त्काविति प्रथमः 1. स पुरुषः तद् / द्रव्यमन्यस्यां पडत्काविति द्वितीयः 2 / स पुरुषोऽन्यद् द्रव्यं तस्यां / पडत्काविति प्रथमः 1. स पुरुषस्तद्रव्यमन्यस्यां पडत्काविति द्वितीयः 2, स पुरुषोऽन्यद् द्रव्यं तस्यां पड़त्काविति तृतीयः 3. स पुरुषोऽन्यद् द्रव्यमन्यस्यां पडत्काविति चतुर्थः 4 / अत्र चद्वे अदि द्रव्यपडत्की अन्ये इति। एवमेवान्यपुरुषदेनाऽपि चत्वारोभङ्गा भवन्ति। तद्यथा-अन्यपुरुषस्तदद्रव्य तस्यां पडत्कौ५, अन्यः परुषस्तदद्रव्यम अन्यस्यां पड़त्को 6. अन्यः पुरुषः अन्यद्रव्य तस्या पडत्कौ ७.अन्यः पुरुषः अन्यत द्रव्यम् अन्यस्यां पडतो 8 / एतेषां मध्ये येषु यथा कल्पते तदेतदर्शयतिकप्पइ समेसु तह स-त्तमम्मि तइयम्मि छिन्नवावारे। अत्तट्ठियम्मि दोसुं, सव्वत्थय भयसु करमत्ते / / 987|| सभेषु द्वितीयचतुर्थ षष्ठाष्टमेषु गृहीतुं कल्पते। तथाहि-द्वितीये तावदन्यस्यां पडक्तौ संक्रान्तत्वेन द्रव्यमपि वक्ष्यमाणनीत्या, चतुर्थ तु द्रव्यान्तरत्वेनान्यस्यां पडत्कौ दीपमानत्वेन च, षष्ठे तु पुरुषान्तरेणाऽपरस्यां पङत्कौ तद् द्रव्यं दीयत इति हेतोः, अष्टमे तु तिसृणामपि पुरुषद्रव्य पडत्कीनामन्यत्वेन परिस्फुटमेव कल्पत इति। तथा सप्तमेऽपि भने कल्पत एव, पुरुषान्तरेणान्यद्रव्यस्य दीयमानत्वात्। तृतीये तु छिन्न व्यापारे सति कल्पते, यः साधुदानार्थ हस्तमात्राकप्रक्षालन व्यापारः कृतः स यदा व्यापारान्तरेण छिन्नो भवति तदा तनैव पुरुषेणान्यत् द्रव्यं तस्यां पडत्कौ दीयमानं कल्पत इति भावः। द्वयोः प्रथमपञ्चमयोर्यदि तद्रव्यं तेनाऽऽत्मार्थितं भवति ततः कल्पते, नान्यथा। सर्वाचाष्टस्वपि भङ्गेषु करमात्रके भजविकल्पय, यदि हस्तौ वा मात्राकं वा सस्निग्धमुदकाई वा न भवतिततः कल्पते, अन्यथा तुनेत्येवं भजना कर्तव्येत्यर्थः / अथ किमर्थ पुरःकर्म करोतीत्याहअच्चुसिणे चिक्कणे वा, कूरे धुविउं पुणो पुणो देइ। आयम्मिऊण पुव्वं, दइज्ज जइणं पढमयाए / / 188 / / परिवेषणं कुर्वतो यद्यत्युष्णश्चिकणो वा कूरस्तत एकत्रा हस्तदाहभयादपरका हस्ते विलग्नान कुण्डकाऽऽदिस्थिते नोदकेन स दाता पुनः पुनीत्वा। हस्तमार्दीकृत्य ददाति, परिवेषयतीत्यर्थः / साधोरप्यागतस्य तथैव यदि भिक्षां ददाति तदा पुरःकर्म भवति।यदि वा-पूर्वमाचम्य हस्तं मात्राकं वा प्रक्षाल्य प्रथमत एव यतीनां दद्यात् ततोऽन्येभ्यः परिवेषयेत् तदापि पुरःकर्म भवति। एवं पुरःकर्मणि कृते यद्यत्र कल्पते तदेव नियुक्तिगाथया दर्शयतिदाऊण अन्न दव्वं, कोई दिजा पुणो वितं चेव। अत्तट्ठिय संकामिय-गहणं गीयत्थ संविग्गे // 186|| तदनेषणाकृत द्रव्य मुक्तवा अन्यस्मै द्रव्यं दत्वा परिवेष्य कश्चित्तदेवानेषणाकृतं द्रव्यं पुनरपि तस्यामन्यस्यां वा पत्कौ साधूनां दद्यात्, एवं छिन्नव्यापारे आत्मार्थितं सत् कल्पते, अथवा- (संकामिय ति) तदनेषणाकृतं द्रव्यं स दाता अन्यस्मै परिवेषयेत्, स यदि दद्यात्तत एवं संक्रामितं सत्कल्पते। एतच ग्रहणं गीतार्थस्यानुज्ञातं, यतो गीतार्थस्तद् द्रव्यमित्थं गृहानोऽपि संविन्नो भवति। एतदेवान्यपदं भाष्यकारो भावयति - गीयत्थग्गहणेणं, अत्तट्ठियमाइ गेण्हई गीतो। Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म 1055- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरेकम्म संविग्ग, तं गिण्हंतोऽवि संविग्गो ||660 // गीतार्थग्रहणेन कृतेनैतज्झापितं, यदात्मार्थितम्, आदि शब्दात संक्रामित च, तदागमप्रमाणतो गीतार्थ एव गृहाति, नागीतार्थः / संविग्रग्रहणेन तु तदात्मार्थिताऽऽदि गृहनोऽपि गीतार्थः संविनो भवति, नासंविन इत्युक्तं भवति। इत्थं पुनः पुरतः कर्म भवतीति दर्शयतिपुरतो वि हुजं धोयं, अत्तट्ठाए न तं पुरेकम्मं / उद (उ) अल्लं, ससिणि-द्धगं च सुक्के तहिं गहणं / / 961|| यत्पुरतोऽपि साधोरगतोऽप्यात्मार्थ धौतं तत्पुरःकर्म न भवति, किंतु सदुदकाऽऽर्द्र सस्निग्धंवा मन्तव्यम्। उदकाऽऽर्द्रविन्दुसहित, सस्निग्धं विन्दुरहितं, तस्मिन्नुभयेऽपि शुष्के परिणते ग्रहणं कर्त्तव्यम्। पुरःकर्मोदकाऽऽर्द्रयोर्विशेषमाहतुल्ले वि समारंभे, सुक्के गहणेक एक्कपडिसेहो। अन्नत्थ छूढ ताविय, अत्तट्ठो होइ खिप्पं तु / / 162 // उदकाऽऽर्द्रपुरः कर्मणोः तुल्येऽप्यकायसमारम्भे एकस्मिन्नुदकाऽऽर्दै शुष्के सति ग्रहणम्, एकस्मिन् पुरः कर्मणि पुनः शुष्केऽप्यनात्मार्थिन ग्रहणस्य प्रतिषेधः। तथाहि-संयतार्थद्धाभ्यां पृथक-पृथक् पडतो पुरःकर्म कृतं , तच परिणतम् उदकाऽऽर्द्रसस्निग्धौ न त्तः, परं येनाऽ5मार्थितं तस्य हस्तात् कल्पते, येन तु नाऽऽत्मार्थितं तस्य हस्तान्न कल्पते / एवं चिरकालिके पुरः कर्मण्युतम् / यत्रा तु हस्ती मात्राकं वा ततक्षणमेव अन्यत्रा तक्राऽऽदौ प्राशुकद्रव्ये प्रक्षिप्तमग्निना वा तापित तत्राऽऽत्मार्थित क्षिप्रमपि ग्रहण कर्तव्यम् / गतं कस्येति द्वारम् अथाऽऽरोपणाद्वारमाहचाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंचग जहन्ने / पुरकम्मे उदउल्ले, मसिणिद्धाऽऽरोवणा भणिया ||4|| उदकसमारम्भे पुर:कर्मोत्कृष्टमपराधपदम्, उदकाऽऽर्द्र मध्यम, सस्निग्धं जघन्यम्। उत्कृष्ट चत्वारो मासा लघवः, मध्यमे लघुमासिकं, जघन्ये पञ्च रात्रिनन्दिनानि। एवं पुरःकर्मोदकाऽऽर्द्रसस्निग्धेषु यथाक्रममारोपणा भणिता। अथ परिहरणाद्वारमाहपरिहरणाऽवि य दुविहा, विहि अविहीए अहोइ नायब्वा। पढमिल्लुगस्स सव्यं, बिइयस्स त तम्मि गच्छम्मि |664|| तइयस्स जावजीवं, चउथस्स य तं न कप्पए दव्वं / तदिवस एगगहणे, नियट्टगहणे य सत्तमए ||665|| परिहरणाऽपि च द्विविधा-विधिपरिहरणा, अविधिपरिहरणा च भवति ज्ञातव्या। अविधिपरिहरणा सप्तविधा-तत्र प्रथमस्य नोदकस्य सर्वमपि द्रव्यजातं स्वगच्छे परगच्छे च यावजीवमकल्पनीय, द्वितीयस्यं तु तस्मिन्नेव गच्छे यावजीवं, तृतीयस्य यावजीवं तस्यैवैकस्य साधोः सर्वमपि द्रव्यजातं, चतुर्थस्य तु तत् द्रव्यमेक यावजीवं, पञ्चमस्य तु तदिवसं सर्वद्रव्याणि, षष्ठस्य तु तस्यैवैक द्रव्यस्य ग्रहणं न कल्पते, सप्तमस्य निवृत्तः सन स एव साधुः परिणतेन हस्तेन ग्रहणं करोत्वित्यभिप्रायः। अथैतेषामेव पराभिप्रायाणां व्याख्यानमाह पढमो यावञ्जीवं, सव्वेसिं संजयाण सव्याणि। दव्वाणि निवारेई, बीओ पुण तम्मि गच्छम्मि||६६६|| प्रथमो नोदको यस्मिन् गृहे पुरःकर्म कृतं ता यावदसौ पुरःकर्मकारी दाता तदर्थ च तत्पुरःकर्म कृतं ततो यावज्जीवति तावत् स्वगच्छपरगच्छसरका (त्का) नां सर्वेषां संयतानां सर्वाणि द्रव्याणि निवारयति; द्वितीयः पुनः तस्मिन् गच्छे सर्वेषामपि साधूनां यावज्जीवं सर्वद्रव्याणि निवारयति। तइओ यावज्जीवंत--स्सेवेगस्स सव्वदव्वाइं। वारेइ चउत्थो पुण, तस्सेवेगस्स तं दव्वं // 667|| तृतीयो ब्रवीति यदर्थपुरःकर्म कृतं तस्यैवैकस्य यावज्जीवं सर्वद्रव्याणि न कल्पन्ते, चतुर्थस्तु तदेवैक द्रव्यं तस्यैवैकस्य यावजीवं वारयति। सवाणि पंचमोतं, दिणं तु तस्सेव छट्ठोतं दव्वं / सत्तमओं नियट्टतो, गिण्हइ तं परिणयकरम्मि||६६८|| पञ्चमो बवीति-तदेवैक दिन सर्वाणि द्रव्याणि तदीयगृहे न कल्पन्ते। षष्ठो ब्रूते-तदेवैकं द्रव्यं तस्य गृहे तद्दिनं न गृह्यते। सप्तमः प्राहपरिणतकरे परिणताप्काये सति हस्ते भिक्षामटित्वा निवर्तमानस्तत्रैव गृहे स साधुः सर्वद्रव्याणि गृह्णातुनकश्चिद्दोषः। इत्थ परैरुत्के सति सूरिराहएगस्स पुरेकम्मं, वत्तं सव्वे वि तत्थ वारेति। दव्वस्स य दुल्लभता, परिचत्तों गिलाणओ तेहिं IEEEN एकस्य साधोराय पुरःकर्म या वृत्तं संजातं तत्राये सर्वेषामेकस्य वा सर्वद्रव्याणि। उपलक्षणत्वादेकमपि द्रव्यं, यावज्जीवंतदिनं वा वारयन्ति, तैर्द्रव्यस्य ग्लानप्रायोग्यस्यान्या दुर्लभतया ग्लानः परित्यक्तो मन्तव्यः। एतदेव सविशेषमाहजेसिं एसुवएसो, आयरिया तेहिं उ परिचत्ता। खमगा पाहुणगा वि य, सुव्वत्तमजाणगा ते तु॥१०००।। येषां यथाच्छन्दवादिनामेष सर्वद्रव्यग्रहणाऽऽदिप्रतिषेधरुप उपदेशस्तैराचार्याः क्षपकाः प्राघूर्णकाश्च परित्यक्ता द्रष्टव्याः, तत्प्रायोग्यस्य घृताऽऽदिद्रव्यस्यान्यत्र दुर्लभत्वात् / ते च सुव्यक्तं परिस्फुटम् अज्ञा मूर्खाः, अतत्ववेदित्वात्, स्वच्छन्द प्ररूपणानिष्पन्नं चामीषां चतुर्गुरु प्रायश्चित्तम्। तत्रा ये सर्वानपि साधून परिहार कारयन्ति ते स्वपक्ष साधनसमर्थ विधिमाह - श्रद्धाणनिग्गयाई, उन्भामग खमग अक्खरे रेखा। मग्गण कहण परंपर, सुव्वत्तमजाणगा ते वि॥१००१।। यत्रा गृहे पुरःकर्म कृतं, तत्राध्वनिर्गताऽऽदय उद्धामका वा यदि ग्रामे भिक्षाऽटनशीला अजानन्तो मा प्राविक्षन्निति कृत्वा क्षपकस्ता स्थाप्यते। अथ नास्ति क्षपकस्ततः कुड्याऽऽदावक्षराणि लिख्यन्ते यथाऽत्र पुरःकर्म कृतं, न केनापि भिक्षा ग्राह्येति। अथ तावक्षराणि लिखितुं न जानीतस्ततः रेखा कर्तव्या, अथ कृताऽपि सा केनाऽपि न ज्ञातेति ततोऽपरेषा साधूनां मार्गणं कृत्वा मिलित्तानां कथनीयम्-अमुष्मिन् गृहे पुरःकर्म कृतं तेऽपि परम्परया सर्वसाधून ज्ञापयन्ति इत्थं ये (सुय्यत्तं) सुव्यक्तं ते ऽप्यक्षा मन्तव्याः। Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म 1056- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरेकम्म अथैतदेव भावयतिउन्भाममणुब्भामग-सगच्छपरच्छजाणणट्ठाए। अत्थइ तहियं खमए, तस्सऽसइ स एव संघाडो॥१००२।। जइ एगस्स वि दोसा, अक्खर ण उ ताइँ सव्व तो रेखा। जइ फुसणसंकदोसा, हिंडता चेव साहति / / 1003 / / उद्धामकाणां बााग्रामे भिक्षाऽटनं विधायापर्याप्ते तत्रैव भिक्षापरिभ्रम-- णशीलाना स्वगच्छीयानां परगच्छीयानां च सर्वेषां ज्ञापनार्थ क्षपकस्तदगृहे निषण्णस्तिष्ठति, सच यः सकाटकस्तत्राऽऽगच्छति, तस्य तस्य कथयति-अा पुरःकर्म कृतं वर्त्तत। अथ नास्ति क्षपकः, पाग्णकं या तस्य तद्दिने, ततो यदर्थ पुरःकर्म कृतं , स एव सनाटकस्तत्रा तिष्ठिति। अथ तयोरेकः प्रथमद्वितीयपरीषहपीडितो न शक्नोति स्थातुं, ततः स प्रतिश्रयं व्रजति, द्वितीयस्तु तत्राऽऽस्ते, अथैकस्य तस्य तिष्ठतः स्त्रीमुत्थाऽऽदयो दोषाः ततः कुड्याऽऽदिषु पुरः कर्मकरणसूचकान्यक्षराणि लिख्यन्ते, अथ न तु नैव तान्यक्षराणि सर्वेऽपि लिखितु जानते, ततः साधुज्ञान साङ्केतिकी रेखा करणीया यदि तस्याः स्पर्शनापादोपघातन मईना, तद्विषया आशङ्कादोषा भवेयुः। बहुवचननिर्दै शादन्यामपि रेखां करोतीत्याशङ्कापरिग्रहः। ततस्तावेव साधू भिक्षामन्तौ अपरेपां साधूनां कथयतः, तऽपि हिण्डमाना एव परम्परया सर्वसाधूनां कथयन्ति, इत्थं येषां परिहरणविधिस्ते सुव्यक्तमज्ञा मन्तव्याः। उपसंहरन्नाहएसा अविही भणिया, सत्तविहा खलु इमा विही होइ। तत्थाऽऽई चरिमदुए, अत्तट्ठिमाइगीयस्स।।१००४।। एषा अविधिपरिहरणा सप्तविधा भणिता, इयं तु वक्ष्यमाणा विधि परिहरणा भवति। सा चाष्टविधातत्र यदाद्यं पदं, यचरममन्तिम प्रकारद्वयं, तेषु त्रिषु भेदेषु आत्मार्थित, आदिशब्दात्संक्रामिते च सति गीतार्थस्य ग्रहणं भवति। एतच्च यथास्थानं भावयिष्यते। के पुनस्ते अष्टौ भेदाः? उच्यते - एगस्स बीयगहणे, पसज्जणा तत्थ होइ कपट्टी। वारण ललियासणिओ, गंतूर्ण कम्म हत्उप्फासे / / 1005|| 'एगस्स त्ति' विभक्तिव्यत्ययादेकेन पुरः कर्मणि कृते यदि द्वितीयो ददाति तदा यस्य द्वितीयस्य हस्ताद ग्रहणे च विधिर्वक्तव्यः। (पसज्जणत्ति) अगीतार्थाभिप्रायेण (तत्थ त्ति) तत्र द्वितीयेऽपि दायके प्रसज्जना प्रसङ्ग दोषो भवतीति वक्तव्यम् / (कप्पट्टि त्ति) कल्पस्थि कास्तरुण स्त्रियः केलिप्रियतयाऽभीक्ष्णं परः कर्म तथा कुर्वन्ति तथा निरूपणीयम् / (वारणललियासणिउत्ति) यदि साधु:-त्वं मा देहि एषा दारयतीत्यविधिना पुरःकर्मकारिणीं वारयति तदा ललिताशनिक इति गण्यते / (गंतूणति) गत्वा प्रतिनिवृत्तयास्मै दास्यामीति बुद्धया यदिदाता हस्तगृहीतया भिक्षया तिष्ठति तदा न कल्पते (कस्मे त्ति) द्रव्यभावभेदभिन्नं पुरःकर्म भवति (हत्थ त्ति) तत्रपुरः कर्मणि किं हस्ते उपघात उत मात्रके इत्यादि चिन्तनीयम् / (उप्फास त्ति) उत्स्पर्शनछन्दनं तद् वस्त्रविषयं वक्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः / अथ विरतरार्थमभिधित्सुराहएगेण समारद्धे अण्णो पुण जो तहिं यं देति। जति अजाणगा हवंती, परिहरितव्वं पयत्तेणं // 2006 / / एकेन साधुना प्रतिषिद्ध तद् द्रव्यं यद्यन्यं स्वयमेव कश्चिद् ददाति तदा यद्यज्ञा अगीतार्था अगीतार्थमिश्रा वा भवन्ति ततः प्रयत्नेन परिहर्तव्यम्। इदमेव व्यतिरेकेणाऽऽहसमणेहिँअ भण्णंतो, गिहिभणिओ अप्पणो व छंदेणं। मोत्तुं अजाणगमीसे, गिण्हंता जाणगा साहू // 1007 / / पुःकर्मकारिणी प्रतिबद्धे श्रमणैः साधुभिर्भण्यमानो यद्यन्यो दाता गृहिणा केनाऽपि भणित आत्मनो वा छन्देनाभिप्रायेण ददाति तदा मुक्त्वा अज्ञान् अगीतार्थान् मिश्रांश्च गीतार्थमिश्रान ज्ञायका गीतार्थास्तद् द्रव्यमात्मार्थितं गृह्णन्ति। अथ किमर्थमगीतार्थेषु तद् गृह्यते इति संबन्धाऽऽयातं प्रसज्जनाद्वार विवृण्वन् तावदगीतार्थाभिप्रायमाह - अम्हट्ठ समारद्धे, तं दव्वऽण्णेण किह णु निघोसं। सविसऽन्नाऽऽहरणेणं, मुज्झइ एवं अजाणंतो।।१००८।। अस्माकमायाप्कार्य समारब्धे सति दायकेन यद्रव्यं गृहीतं तदन्येन दीयमानं कथं नु निर्दोष, सदोषमेवेति भावः / सविषान्नाऽऽहरणेन सविष यदन्नं तदुदृष्टान्तेन / यथा हि वैरिणोऽर्थाय केनचिद् विषयुक्तं भक्तं कृत, तदन्येन दीयमानं किं सदोष न भवति? एवमस्मदर्थमुदकस्याऽऽरम्भं कृत्वा या भिक्षा गृहीताता यद्यन्यो ददाति तदा किं दोषो न प्रसञ्जतीत्येवमजानन्नगीतार्थो मुह्यति, न पुनर्भावयति यथा तदन्येन दीयमानं पुरःकर्मव न भवति। यत एवमतोऽगीतार्थेषु विधिमाह - एगेण समारद्धे, अन्नो पुण जो तहिं संय देइ / जइ जाणगा उ साहू, परिभोत्तुं जे सुहं होइ / 1006 / / एकेन पुरःकर्मणि समारब्धे यदन्यः स्वयं ददाति, यदि च ज्ञायका गीतार्थाः साधवस्ततः परिभोक्तं 'जे' इति पाद पूरणे, सुखं भवति, परिभोक्तव्यं तदिति भावः। अथवागीयत्थेसु वि भयणा, अन्नो अन्नं च तेण मत्तेणं / विप्परिणयम्मि कप्पइ, ससिणिद्भुद उल्ल पडिकुट्ठा / / 1010 / / गीतार्थेष्वपि भजना। कथम् ? इत्याह--अन्यः पुरुषोऽन्यद्वातदा द्रव्यं तेन पुरःकर्मकृतेन मात्रकेण यदि ददाति, तदा विपरिणतेऽप्काये आत्मार्थित च सति कल्पते, यदि तु सस्निग्धमुदकाऽऽर्द्र वा दायकस्य पाणितलं भवति ततः प्रतिकुष्टा सा भिक्षा, न कल्पत इत्यर्थः / अथ कल्पस्थितिकाद्वारं व्याख्याति-- तरुणीउ पिंडिंयाओ, कंदप्पा जइ करे पुरेकम्म / पढमबिइयासु मोत्तुं, सेसे आवज चउलहुगो।।१०११।। काश्चित्तरुण्यो युवतयः पिण्डिता एका मिलिताः साधु सामान्यतं दृष्टा परस्परं जल्पन्ति एतेषां तावदे तदर्थ धौ ते न Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म 1057- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरेकम्म हस्तेन मात्राकेण वा दीयमानंनकल्पते, अतः पश्या मस्तावदेत मरमाभिः खलीकृतः किमेष करोतीत्येकया तासां मध्यादुत्थाय पुर कर्म कृतं, ततः साधुः प्रतिनिवर्तितुलनः द्वितीया व्रतीतिप्रतीक्षस्व भगवन्। अहं ते दास्यामि / ततो भूयोऽप्यागतस्य तस्य तयाऽपि पुरःकर्म कृतम्, ततः प्रतिनिवर्तमानं यदि तृतीया काचिदाह्वयति तदा ज्ञातव्यं यथै ता मां खलीकुर्वन्ति ततो न प्रति निवर्तितव्यम्। अत एवाऽऽह-यदि ताः कन्दात्पुरः कर्म कुर्वीरन्ततः प्रथमद्वितीये तरुण्यौ मुक्तवा शेषाभिराकारितः प्रतिनिवर्तमान आपद्यते चतुर्लघुकम्। ___ अथवारणललिताशनिकद्वारं व्याचष्टे - पुरे कंम्मम्मि कयम्मी, जइ भण्णइ मा तुम इमा देउ। संकापदं च होजा, ललियासणिउ व्व सुव्वत्तं / / 1012 // पुरःकर्मणि कृते यदि साधुना दात्री भण्यते-मा दास्त्वम् इयं दादतु / ततः सा चिन्तयति-अहं विरुपा वृद्धा वा अतो नास्मै प्रतिभासे, इयं तु सुरूपा यौवनमधिरूढा प्रतिभासते। शङ्कापदं वा तस्याश्चेतसि वा भवेत्किमेष एतया सह घटितो यदेवमस्याः पार्थात् भिक्षा ग्रहीतुमिच्छति? यदिवा यूयात-भयान सुव्यक्तं ललिताशनिकी लक्ष्यते यदेवं यथाभिलषितां परिवेषकाम-भिलषसि। अथ गत्वेति द्वारं व्याख्यानयतिगंतूण परिनियत्तो, सो वा अन्नो व से तयं देइ। अन्नस्स व दिअिहिई, परिहरियव्वं पयत्तेणं // 1013|| कृतपुरःकर्मा दायको भिक्षां ददानः साधुना प्रतिषिद्धश्चिन्त यतियदि एष साधुरस्यां गृहपङ्क्तौ गत्वा प्रतिनिवृत्तः समायास्यति तदा दास्यामीति तत्तद् द्रव्यं स वा अन्यौ वा दायकः (से) तस्य साधोर्ददाति तदा न कल्पते। अथ यद्येषन गृह्वाति ततोऽन्यस्य साधोस्यते इति संकल्पयति। ततस्ते नापि परिहर्तव्यं तद्भक प्रयत्नेन / एषा नियुक्तिगाथा। अस्या एव व्याख्यानमाह - पुरे कम्मम्मि कयम्मि, पडिसिद्धो जइ भणिज्ज अन्नस्स। दाहं ति पडिनियत्ते, तस्स व अण्णस्स वन कप्पे / / 1014 / / पुरःकर्मणि कृते प्रतिषिद्धो दायको यदि भणेत् अन्यस्मै साधवे दास्यामीति, ततः प्रतिनिवृत्तस्य तस्य वा अन्यस्य वा न कल्पते। तथाभिक्खयरस्सऽन्नस्स व, पुव्वं दाऊण जइ दए तस्स। सो दाया तं वेलं, परिहरियव्वो पयत्तेणं / / 1015 / / पुरःकर्मणि कृते पूर्वमन्यस्य भिक्षाचरस्य भिक्षा दत्त्वा पश्चादच्छिन्नव्यापारस्तस्य साधोभिक्षां दद्यात्, सदाता तस्यां वेलायां प्रयत्नेन परिहर्त्तव्य इति। अमुमेवार्थ किञ्चिद्विशेषयुक्तमाहअन्नस्स व दाहामि ति, अन्नस्स वि संजयस्स न वि कप्पे। अत्तट्ठिए व चरगा-इणं व दाहं ति तो कप्पे // 1016 // अन्यस्मै वा साधवेदास्यामीति यदि इति संकल्पयति तदा अन्यस्यापि संयतस्य नैव कल्पते / अथाऽऽत्मार्थयति चरकाऽऽदीनां या दास्यामि इति संकल्पयति, ततः परिणते हस्ते मात्रके वा कल्पते। अथ कर्मेतिद्वारं विवृणोति-- दव्वेण य भावेण य, चउक्कभयणा भवे पुरेकम्मं / सागारिय भावपरिणय, तइओ भावे य कम्मे य / / 1017 / / सुन्नो चउत्थभंगो, मज्झिल्ला दोण्णि वी पडीकुट्ठा। संपत्ताइ वि असती, गहणपरिणते पुरेकम्मं / / 1018 / / द्रव्येण च भावेन च चतुष्कभजना-चतुर्भगीरचना पुरःकर्मणि भवति। तद्यथा-द्रव्यतः पुरः कर्मन भावतः१? भावतः पुरः कर्मन द्रव्यतः 2, द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि पुरःकर्म 3, न द्रव्यतो न भावतः पुरःकर्म 4 / अथामीषां भावना (सागारिय त्ति) शौचवादिनोऽभाविताश्च गृहस्थास्ते पुर:कर्मणि कृते यदि न गृह्यते ततोऽशुचयोऽमी इति मन्येरन् इत्थं सागारिकभयात्पुरः कर्मकृतेन हस्ताऽऽदिना भक्ताऽऽदि गृहीत्वाऽपि परिष्ठापयतो द्रव्यतः पुरःकर्म भवति नभावत इति ?(भाव परिणय ति) भिक्षामवतरन पुरःकर्म कृतं भक्ताऽऽदि गृहीष्ये इति भावेन परिणतस्तथाऽपिपुर:कर्म कृतं न लब्धमिति भावतः पुरः कर्मनद्रव्यत इति 2 / (तइओ भावे य कम्मे यत्ति) पुरःकर्म कृतं गृहीष्यामीति भावपरिणतो शिक्षामवतीर्णः प्राप्तं च तेनपुरः कर्मेति तृतीयो भङ्गः 3 / चतुर्थस्तु पुरःकर्म प्रतीत्योभयथाऽपि शून्यः / अयं चात्रा निरवद्यः प्रतिपत्तव्यः। मध्यमी द्वितीयतृतीयभङ्गो द्वावपि प्रतिकुष्टौ प्रतिषिद्धौ भावस्याविशुद्धत्वात्। प्रथमभङ्गस्तु शुद्ध इव मन्तव्यः प्रयोजनापेक्षत्वात् / द्वितीयभड्ने तु (संपत्ताइवि असती गहणपिरणए पुरेकम्मं ति) द्रव्यतः संप्राप्तावसल्यामपि भावतो ग्रहणपरिणतस्य पुरःकर्म भवति। अस्यैव नियुक्तिगाथाद्वस्य भावार्थमोक्षपरिहाराभ्यां स्पष्टयितुमाहपुरकम्मम्मि कयम्मी, जइ गिण्हइ जइ न तस्स तं होइ। एवं खु कम्मबंधो, चिट्ठइलोए य बंभवहो / / 1016 / / पुरःकर्मणि कृते यदि गृह्णाति, यदिचतस्य यतेस्तत्पुरः कर्मग्रहणं प्रति भावो भवति, तदा तृतीयभङ्गो भवतीति वाक्यशेषः / पुरःकमेदोषस्तावद् दायकस्य न भवति / कृतोऽपि चाऽसौ प्रथमभड्ने साधोर्गहतोऽपि यदिन भवति। एवं खुरवधारणे। पुरःकर्मकृतः कर्मबन्धो दायकग्राहकयोरस्थितस्तटस्थ एव तिष्ठति, यथा लोके ब्रह्मवधः। "इमं लाइयं उदाहरणइंदण उडंक (उडए) रिसिपत्ती रूववती दिट्ठा, तओ अज्झोववन्ना, तीए सम अहिगम गतो, सो तओ निग्गच्छंता रिसिणा दिट्ठो, रूटेण रिसिणा तस्स सादो दिनो-जम्हा तुमे अग (म्मा)स्सा रिसिपत्ती अभिगया तम्हा ते बभवज्झा उवडिया, सो तीए भीओ कुरु (क्खे) खेत्तं पविट्ठो, सा बंभवज्झा कुरुक्खेत्तस्स पासओ भमइ. सो वि तीउ भयान नीति इंदेण विणा सुन्नं इंदट्ठाणं, त तो सव्वे इंदं मग्गमाणा (ओहिणा) जाणिऊण कुरूक्खेत्ते उवडिया भणति-एहि सणाहं कुरू देवलोग। सो भणइ-मम उ निग्गच्छंतस्स बंभवज्झा लग्गइ, ततो सा देवेहिं बंभवज्झा चउरा विहता, एको विभागो इत्थीणं रिउकाले, वीओ उदगकाइयं निसिरंतस्स, तइओ बंभागस्स सुरापाणे, चउत्थो गुरूपत्तीए अभिगमे। सा बंभवज्झा एएसु ठिआ, इंदोवि देवलोगंगओ / एथं तुभं पि पुरेकम्मकआ कम्मबंधदोसो। ब्रह्म हत्याव*द्वेगलो भवति।* द विलग्नो। पर एवाऽऽहसंपत्तीइ वि असती, पुरकम्मं पत्तिओ वि य अकम्म। Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म 1058- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरेकम्म एवं खु पुरेकम्म, ठवण मित्तं तु चोएइ / / 1020 / / यदि संप्राप्तवसत्यामपि द्वितीयभङ्गे साधोः पुरः कर्म न भवति तत एवं खलु वधारणे इत्थमेव मदीयमनसि प्रतिष्ठितम् यद्येतत्पुर:कर्म तत् स्थापनामात्रम्, तुशब्दस्यैवकारारार्थत्वात प्ररूपणामात्रमेवंदमिति नोदयति। अत्रोच्यते-यत्तावदुक्तमेवंपुरःकर्मकृतः कर्मबन्धस्तटस्थ एव तिष्टिति, तत्र तिष्ठतुनाम न कदाचिदस्माकं क्षतिरूपजायते, तथा चात्र तदुक्तमेव दृष्टान्तमभ्यूह्यास्माभिः स्वाभिमतर्थ साधयितुमिदमुच्यतेइंदेण बंभवज्झा, कया तओ भीओ ताएँ नासंतो। कुरूखेत्ते य पविट्ठो, सा वि बहि पडिच्छए तं तु / / 1021 / / निग्गच्छे पुणो वि गिण्हे, कुरूरुखत्तं एत्थ संजमो अम्हं। जइ ततो नीइ जीवो, घेप्पड़ तो कम्मबंधेणं / / 1022 / / इन्द्रेण ब्रहाहत्या कृता, ततो भीतः सन् तस्या नस्यन् कुरुक्षेत्र प्रविष्टः, साऽपि ब्रह्महत्या तमिन्द्रं बहिः प्रतीक्षते, यद्यसौ कुरुक्षेत्रात् निर्गच्छेत् पुनरपि गृह्येत / कुरूक्षेत्रमा संयमोऽस्माकं, यदि ततः कुरुक्षेत्रात् द्वितीयतृतीयभङ्गायोरशुभमाध्य वसायपरिणतो जीवो निर्गच्छति, ततो गृह्यतेऽसौ कर्मबन्धेन ब्रह्महत्याकल्पेन, अनिर्गतस्तु प्रथमचतुर्थभङ्ग योर्न गृह्यते। योक्तम्-स्थापनामात्रयं पुरःकर्म तदपि न संगच्छते। कुत इति चेदुच्यतेजे जे दोसाययणा, ते ते सुत्ते जिणेहिं पडिकुट्ठा। ते खलु अणायरंतो, सुद्धो इहरा तु भइयव्वो // 1023 / / यानि यानि दोषाणां प्राणातिपाताऽऽदीनामायतनानि पुरःकर्मप्रभृतीनि तानि तानि सूत्रं जिनैर्भगबद्भिः प्रतिकुष्टानि, अतस्तानि खलु दोषाऽऽ- . यतनानि अनाचरन् साधुः शुद्धो मन्तव्यः, इतरथा तु समाचरन् भक्तव्यः। परः प्राऽऽहका भयणा जइ कारणे, जयणाए अकप्प किंचि पडिसेवे। तो सुद्धों इहरा पुण, न सुज्झए दप्पओ सेवं / / 1024|| का पुनर्भजना विकल्पना ? सूरिराह--कारणं यतनया पुरःकर्माऽऽदि किञ्चिदकल्प्यं यदि प्रतिसेवतंततः शुद्धः, इतरथा पुनरयतनया दर्पता वा सेवमानो न शुद्धयति। अथ पुरःकर्मवर्जने कारणमुपदशयतिसमणुन्नापरिसंकी, अवि य पसंगं गिहीण वारिती। गिणहंति असढभावा, सविसुद्ध एसियं समणा / / 1025 / / समनुज्ञातपुरःकर्मकृतं गृह्णतामप्कायविराधनानुमति स्तत्परिशङ्कितास्तदोषभीताः पुरःकर्म परिहरन्ति / अपि च यदि पुरःकर्मकृतां भिक्षा गृहीष्यामस्ततो गृहिणां भूयः पुरः कर्मकरणै प्रसङ्गो भवति, अतस्तं वारयन्ति, तदग्रहणेतार्थात्प्रतिषेधयन्तोऽशठभावाः सन्तः श्रमणाः सविशुद्धभेषणीयं गृह्णन्ति। अथ हस्तद्वारं विवृणोतिकिं उवधातो हत्थे, मत्ते दव्वे उयाहु उदगम्मि। तिन्नि य ठाणा सुद्धा, उदगम्मीऽणेसणा भणिया / / 1026|| शिष्यः प्रश्नयति--पुरःकर्मणि कृते कि हस्ते उपघातोऽनेषणीयता, उत मानके, आहोस्यित् द्रव्ये, उताहो उदके? सूरिराह-हस्तमात्राकद्रव्याणि त्रीण्यपि स्थानानिशुद्धानि, नैतान्यनेषणीयानि, किं तु उदके अनेषणीयता भणिता। अनौवोपपत्तिमाह - जम्हा उ हत्थमत्ते-हि कप्पती तेहिं चेव तं दव्वं / अत्तट्ठिय परिभुत्तं, परिणत तम्हा दगमणेसिं॥१०२६|| यस्मात्ताभ्यामेव हस्तमात्राकाभ्यां तदेव द्रव्यमात्मार्थितं सत परिभुत्कशेष वा परिणते अप्काये कल्पते, तस्मादुदकमेवानेषणीयं, न हस्तमात्राकद्रव्याणीति। एवमशनाऽऽदिविषयो विधिरुत्कः। सम्प्रति वस्त्रविषयं तमेवाऽऽहकिं उवघातो धोए, रत्ते चोक्खे सुइम्मि वि कयम्मि। अत्तट्ठिय संकामिय, गहणं गीयत्थसंविग्गे // 1028|| धौत मलिनं सत्प्रक्षालितं, रक्तं धातुप्रभृतिद्रव्यै रक्तीकृतं, चोक्ष रजक पादितीवोज्जवलं कारितं, शुचिकमशुच्यादिनोपलिप्त सत् पवित्रीकृतम् / एतानि साध्वर्थ वस्त्रै कृतानि भवेयुः / ततश्च पवित्रीकृतम्। एतानि साध्वर्थ वस्त्रे कृतानि भवेयुः / ततश्च शिष्यः पृच्छति-किं धौते उपघातः, उत रक्ते , उताहो चोक्षे, आहोस्वित् शुचीकृते? अत्राऽपि तदेव निर्वचनम्-नैतेषां चतुण्णमिकतर रिमन्नप्युपघातः किं तूदक एव, यतएतदपि साधूना प्रतिषिद्ध सद्यद्यत्मार्थित संक्रामितं वा अन्यस्मै दत्त, ततो गीतार्थसंविग्नस्य ग्रहण भवति नान्यस्य। किमर्थमतदग्रहणमितिचेत् ? उच्यतेगीयत्थग्गहणेणं, अत्तट्ठियमाइ गिण्हई गीतो। संविग्गग्गहणेणं, तं गिण्हंतो वि संविग्गो।।१०२६॥ गीतार्थग्रहणेनैव ज्ञाप्यते आत्मर्थितं संक्रामितं वा गीतार्थो गृह्वाति नागीतार्थः, संविनग्रहणेन तत्तदात्मार्थिताऽऽदिकं गृहणन्नपि संविग्गोऽसौ नासंमिग्न इति सूच्यते। उत्स्पर्शनद्वारं व्याचष्टएमेव य परिभुत्ते, नवे य तंतुग्गए अधोयम्मि। उप्फुसिऊणं देंते, अत्तट्ठिएँ सेविए गहणं / / 1030 / / यद्वरवं गृहिणा परिधानाऽऽदिना परिमलितं तत्परिभक्तं तद्विपरीत नवं तन्तुभ्य उद्तमात्रं, ततः परिभुक्तं नवं वा तन्तुगतम् अधौत सद् यद् उत्स्पृश्योदकेनाभ्युक्षणं दत्वा ददाति तत्राप्येवमेव द्रष्टव्यं, न कल्पते इत्यर्थः। आत्मार्थितम्, आत्मना वा सेवितं परिभुक्त; ततो ग्रहण कर्त्तव्यम् / बृ० 1 उ०२ प्रक०। जे भिक्खू पुरेकडेण वा हत्थेण वा मत्तेण वा दविएण वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहंतं वा साइज्जइ||१८|| इमो सुत्तत्थोहत्थेणं मत्ते व, पच्छापुरकम्मरण गेण्हती जो उ। आहारउवहिमादी, सो पावति आणामादीणि ||6|| पुरस्तात्कर्म पुरःकर्म, पुरेकम्मकरण हत्थेण मत्तेण यचउभङ्गो। पढमभंगे दो चउलहुया, वितियततिएसु एक्कक्के चतुलहुं, चरिमो सुद्धो। उदउल्ल तिसु वि भङ्गेसु मासलहुया, ससणिद्धसु तिसु भने सुपंचरातिदिया।'' नि० चू०१२ उ०मध०। कल्प०1जीतानुसारेण पुरःकर्मणि आचामाम्लं प्रायश्चित्तम / जीत०। Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म 1056- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुला जे भिक्खू उदउल्लेण वा ससणिद्धेणे वा हत्थेण वा मत्तेण वा पुरेवाय पुं० (पुरोवात) पूर्वदिकसम्बधिनि वाते, ज्ञा०१ श्रु०११ अ०) दविएण वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुरेसखंडि पुं० (पुरःसंखडि)जातनामकरणविवाहाऽऽदिके आभ्युदयिके पडिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइज्जइ।।४०|| एवं उदउल्ले 41, __ कार्य क्रियमाणायां संखडौ, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०१ उ०। ससणिद्धे 42, ससरक्खे 43, मट्टिया 44, उसे 45, लोणे य पुरेसंथुयपुं० (पुरःसंस्तुत) भातृव्याऽऽदौ प्राकृतपरिचये, आचा०२ श्रु० 46, हरियाले 47, मणोसि (लाए)णे 48, रस्सगए 46, गेरू १चू०१ उ०। पितृव्याऽऽदौ, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०६ उ०। य 50, सेटिए 51, हिंगुलु 52, अंजणे 53, लोद्धे 54, कुक पुरोकाउ अव्य० (पुरस्कृत्य) अङ्गीकृत्येत्यर्थे, सूत्रा०१ श्रु० 1 अ०३ उ०। (कु)सा 55, पिट्ट 56, कंद ५७,मूल 58, सिंगवेरे य 56, पुरोग पु० (पुरोग) पुरःसरे नायके, बृ०१ उ०३ प्रक०। पुप्फकं 60, कुटुं 61, एए एकवीसं भवे हत्था पडिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइज्जइ॥६१ पुरोवग पुं० (पुरोवग) राजवृक्षे, आचा०। पुरोहड न० (पुरोहत) रमणीयसंयतीप्रायोग्यविचारभूमिके, बृ०२ उ०। गिहिणा सचित्तोदगेण अप्पणट्ठा धोयं हत्थाऽऽदि अपरिणयं उदउल्लं अग्रद्वारे, औ०। असमे, दे० ना०६ वर्ग 15 गाथा। भवति. पुढवीमओ मत्तओ कंसमयं भायणं,अंजणमिति सोवीरयं, रसंजणं वा; ते पुढविपरिणामावस्सिया जेण सुवणं वणिज्जति, सोरट्टिया पुरोहय पुं० (पुरोधरन) शान्तिकारिणि, स्था०६ ठा०। तुवरि मट्टिया भण्णति तंदुलपिट्ठ आमं असच्छोवहततंदुलाण कुक्कसा पुरोहिय पु० (पुरोहित) पौरजानपदयुक्तस्य राज्ञो होमाऽऽदिनाऽसचित्तवणस्सती, तुण्णोओ कुट्टो भण्णति, असंसर्से अणुवलित्तं / शिवाऽऽद्युपद्रवशमने, बृ०३ उ० / स्था० / ज्ञा०1 प्रश्न०। रा०। प्रव०। उद (उल्ले) मट्टिया वा, रस्सगते चेव होति बोधव्वे / "जो होम (ग्म) जवादिएहिं असिवादि पसमेति सो पुरोहितो।" नि० चू०४ उ०। हरिताले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे // 252 / / पुरोहियरयण न० (पुरोहितरत्न) पुरोहितः शान्तिकर्माऽऽदिकारी स एव गेरूयवणिय सेडिय, सोरट्ठिय पिट्ठ कुक्कुसकते वा। स्वजातिमध्ये समुत्कर्षयन रत्नं निगद्यते। पुरोहितानामुत्कृष्ट, 'एगमेकुट्ठमसंसढे वा, णेतव्वे आणुपुच्चीए।।२८३।। गस्स णं चक्रवट्टिस्स चउद्दस रयणा इत्थीरयणे गाहावइरयणे पुरोहिएत्तो एगतरेणं, हत्थेणं दव्विभायणेणं वा! यरयणे०।" स०१४ सम०। आ० म०। स्था। जे भिक्खू असणादी, पडिगाहे आणमाणदीणि / / 284 / / पुलअ धा० (दृश) प्रेक्षणे, "दृशो निअच्छ-पेच्छावयच्छावयज्झ उदउल्लादीए तू, हत्थे मत्ते य होति चतुभंगो। वज सव्वव-देक्खौ अक्खावक्खावअक्ख-पुलोअपुढवी आउ वणस्सति, मीसे संजोग पच्छित्तं // 255 / / पुलएनिआवआस-पासाः" ||4|181 / / इति दृशेः पुलअ आदेशः / पुलअइ पश्यति / प्रा०४ पाद। हत्थे उदउल्ले मत्ते उदउल्ले, हत्थे उदउल्ले नो य मत्ते, नो हत्थे मत्ते, नो हत्थे नो मत्ते / एवं पुढवादिसु चउभंगो / एते चउरो भङ्गापुढवी पुलआअधा० (उल्लस) उल्लासे. "उल्लसेरूसलोसुंभ-णिल्लसआउवणस्सतिसु संभवंति, णो सेसकाएसु।मीसेसु विचउभंगा कायव्या, पुलआअ-गुंजोल्लारोआः" ||6 / 4 / 202 / / इति उत्पूर्वस्य लसतेः संजोगपच्छितं, पढमभंगे दो मासलह, सेसेसु एक्कवं, चरिमो सुद्धो। 'पुलआअ आदेशः। 'पुलआअइ' / उल्लसति / प्रा० 4 पाद। अहवा मीसे संजोगपच्छितं ति / सचित्ता आउणा उदउल्लो हत्थो पुलइअत्रि० (पुलकित)रोमाञ्चे, 'रोमंचिअंआरेइअं, उससिअंपुलइ मासलहु। पुढविकायगतो भत्तो, एत्थंज पच्छित्तं तं संजोगपच्छित्तं भवति। च कंटइ।" पाइ० ना०७६ गाथा। एवं सर्वत्रा योज्यम्। * दृष्ट त्रि० दृष्टे, ''सच्चविअ-दिट्ट-पुलइअ-निअच्छिआई निहालिअसंसिट्टे इमं कारणं अत्थम्मि।" पाइ० ना०७८ गाथा। मा किर पच्छाकम्मं, होज्ज असंसट्टगं तओ वज्ज। पुलंपुल न० (पुलम्पुल) अनवरते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। करमत्तेहिं तु तम्हा, संस?हिँ भवे गहणं // 286 / / पुलंपुलप्पभूय त्रि० (पुलपुलप्रभूत) अनवरतोदभूते, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। कारणे गहणं - पुलग पु०(पुलक) रत्नविशेषे, आ०म०१ अ०। सूत्र०। ज्ञा०। प्रज्ञा०। असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलण्णे। लवे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। रा०नि० / विपा०। श्रद्धाणरोधए वा, जतणागहणं तु गीतत्थे / / 287|| पुलगकंड न० (पुलककाण्ड) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पुलकरत्नमये काण्डे, तत्रा जयणाए गहणं ति जयणाए पणगपरिहाणीए मासलहुं पत्तो, ततो "रयणप्पभाए पुढवीए पुलयकंडे दस जोयणसयाई बाहल्लेलं पण्णत्ते / " गेणहति। नि० चू०४ उ०। स्था०१० ठा०। स०।। पुरकम्मिया स्त्री० (पुरःकम्मिका) पुरः प्रथम कर्म यस्यां सा पुरःकर्मिका। | पुलगसार पुं०(पुलकसार)। वर्णातिशये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / नि०। पुरःकर्मदूषणदुष्टायाम, ध०३ अधि०। | पुला स्त्री० (पुला) लघुतरस्फोटिकासु पुलाकिकासु, स्था० 10 ठा० / Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरेकम्म 1060- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुला पुलाकिमिय पुं० (पुलाकृमिक) पायुप्रदेशोत्पन्नेषु कृमिषु जी०१ प्रति०। 'प्रज्ञा पुलाग पुं० (पुलाक) बल्लचणकाऽऽदिकेऽसारे, उत्त० 8 अ०। आचा० भ०। प्रथमे चारित्रिणि, दर्श० 4 तत्व। धन्नमसारं भन्नइ, पुलायसद्देण तेण जस्स समं। चरणं सो हु पुलाओ, लद्धीसेवाहिं सो य दुहा / / 730|| पुलाकशब्देन असारं निःसारं धान्यं तन्दुलकणशून्यं पलञ्जिरूप भण्यते, तेन पुलाकेन समं सद्दशं यस्य साधोश्चरणं चारित्रं भवति स पुलाकः, पुलाक इव पुलाक इति कृत्वा। अथमर्थः-तपःश्रुतहे कयोः संघाऽऽदिप्रयोजने सबलबाहनस्य चक्रवदिरपि चूर्णन समर्थाया लब्धेरूपजीवनेन ज्ञानाऽऽद्यतिचाराऽऽसेवनेनवा सकलसंयमसारगलनात्पलजिञ्जवन्निसारो यः स पुलाकः। स च द्विधा-लब्ध्या, सेक्या चा लब्धिपुलाकः, सेवापुलाकश्चेत्यर्थः। तालब्धिपुलाको देवेन्द्रर्द्धिसमसमृद्धिको लब्धिविशेषयुक्तः। यदाह-संघाइआण कजे, चुण्णेज्जा चक्कवट्टिमवि जीए। तीए लद्धीऍ जुओ, लद्धिपुलाओ मुणेयव्यो / / 1 / / " अन्ये त्वाहुरासेवनतो यो ज्ञानपुलाकस्तस्येयमीद्दशी लब्धिः, स एव च लब्धिपुलाको, न तद्व्यतिरिक्तः कश्चिदपर इति। आसेवापुलाकस्तु पञ्चविधः-ज्ञानपुलाकः, दर्शनपुलाकश्चारित्रपुलाकः, लिङ्गपुलाकः, यथासूक्ष्मपुलाकश्च / तत्रा स्खलितमलिनाऽऽदिभिरतिचारैज्ञानमाश्रित्याऽऽत्मानमसारं कुर्वन् ज्ञानपुलाकः एवं कुदृष्टिसंस्तवाऽऽदिभिदर्शनपुलाकः, मूलोत्तरगुणप्रतिषेधनया चारित्राविराधनकश्चपुलाकः, यथोत्कलिङ्गाधिक ग्रहणान्निः कारणान्यलिङ्गकरणाद्वा लिङ्ग पुलाकः, किञ्चित्प्रमादान्मनसा अकल्प्यग्रहणाद्वा यथासूक्ष्मपुलाकः। अन्यत्रा पुनरेवमुक्तम्- "अहासुहुमो य एएसु चेव चउसु वि जो थोवथोयं विराहेइ त्ति।" प्रव०६३ द्वार। व्य०। पं०भा०राधा सूत्राबृ०॥ कल्प० / स्था०। उत्त। पुलाका:पुलाए पंचविहे पन्नते। तं जहा–णाणपुलाए, दंसणपुलाए, चरित्त, पुलाए, लिंगपुलाए, अहासुहुमपुलाए नाम पंचमे / 2 / पुलाकस्तन्दुलकणशून्या पलञ्जिस्तद्वत् यस्तपः श्रुतहेतुकायाः सघाऽऽदिप्रयोजने चक्रवादरपि चूर्णनसमर्थाया लब्धेरुपजीवनेन ज्ञानाऽऽद्यतिचाराऽऽसेवनेन वा संयमसाररहितः स पुलाकः। अत्रोक्तं जिनप्रेरितदागमात्-सद्वैवाप्रति पातिनो ज्ञानानुसारेण क्रियाऽनुष्ठायिनी लब्धिमुपजीवन्तो निर्ग्रन्थाः पुलाका भवन्तीति। स्था० 5 ठा०३ उ०। उत्ता (पुलाकस्य सर्वाणि द्वाराणि 'णिग्गंथ' शब्दे चतुर्थभागे 2034 पृष्ठे उक्तानि) पुलागभत्त न० (पुलाकभत्क)। निःसाराऽऽहारे, निष्पावाऽऽदिधान्ये निर्ग्रन्थ्याः पात्रो पुलाकभक्तं प्रतिगृहीतं स्यात् / वृ०॥ निग्गंधीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविहाए अन्नयरे पुलागभत्ते पडिग्गाहिए सिया, सा य तेणेव संथरिज्जा, तओ कप्पइ से तदिवस तेणेव भत्तट्टेणं पजोसवित्तए, नो से कप्पइ दुचं पि गाहावइकुल पिंडवायपडियाए पविसित्तए, अह से य न संथरिजा, तओ से कप्पइ दुचं पि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तए / / 54|| अस्य संबन्धमाहपु (उ) त्तरिय पञ्चयट्ठा, सुत्तमिणं मा हु हुज्ज वहिभावो। जससंरक्खणमुभए, सुत्तारंभो उ वइणीए।।३६५।। लोकोत्तरिका (नां) नाम परिणामकाति परिणामकाना प्रत्ययार्थं सूत्र मिदमनन्तरमुक्तं, मा तेषां बहिर्भावो भवेदितिकृत्वा। अयं तु व्रतिनीविषयः प्रस्तुत सूत्र स्याऽरम्भं उभये लोके लोकोत्तरे च यशःसंरक्षणार्थ क्रियतें। अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य (45 सूत्रस्य) व्याख्यानिन्थ्या गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टाया अन्यरत् धान्यगन्धरसफलकानां वल्लविकटदुग्धाऽऽदिरुपाणामेकतरं पुलाकभक्तं प्रतिगृहीतं स्यात्, सा च तेनैव भक्तेन संस्तरेत् दुर्भिक्षाऽऽद्यभावानिर्वहेत् / ततः कल्पते तस्याः तदिवसं तेनैव भक्तार्थेन पर्युषितं निर्वाहयितु नो (से) तस्याः कल्पते द्वितीयमपि वारं गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रवेष्टुम। अथास्या न संस्तरेत्, ततः कल्पते तस्या द्वितीयमपि वारं गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रवेष्टुम् / इति सूत्रार्थः। अथ नियुक्तिभाष्यविस्तरःतिविहं होइ पुलागं, धण्णे गंधे य रसपुलाए य। चउगुरुगाऽऽयरियाई,समणीणुद्धदरग्गहणे // 366 / / त्रिविध पुलाकं भवति। तद्यथा-धान्यपुलाकं, गन्धपुलाकं रसपुलाकं चेति। एतत्सूत्रमाचार्यः प्रवर्त्तिन्या न कथयति चतुर्गुर, आदिशब्दात्प्रवर्तिनी निर्गन्थीनां न कथयति चतुर्गरु, निन्थ्यो न प्रतिशृण्वन्ति मासलघु, श्रमणीनामप्यूर्दू दरेसुभिक्षे पुलाकं गृह्यतीनां चतुर्गुरु / अथ त्रीण्यपि धान्यपुलाकाऽऽदीनि व्याचेष्ट - निप्फाबाई धण्णा, गंधे वादिगपलंडुलसुणाई। खीरं तु रसपुलाओ, चिचिणिदक्खारसाई य॥३६७॥ निष्पावा वल्लास्तदादीनि धान्यानि पुलाकं तथा 'वाइगं' विकट, पलाण्डुलसुनेच प्रतीते, तदादीनि यान्युत्कटगन्धानि तद् गन्धपुलाकम्, यत्पुनः क्षीरं, ये च चिञ्चिणिकाया गोस्तनिकाया रसोवा आदिशब्दादपरमपि यद् भुल्कमतीसारयति तत्सर्वमपि रसपुलाकम्। अथ किमर्थमेतानि पुलाकान्युच्यन्ते? इत्याहआहारिया आसारा, करेंति वा संजमाउ णिस्सारं। निस्सारं च पवयणं, दटुं तस्सेविणिं बिंति॥३६८|| इह पुलाकमसारमुच्यते, तत आहारितानि वल्लाऽऽदीनि यतोऽसारणि सन्ति ततः पुलाकानि भण्यन्ते, संयमाद्वा संयममङ्गीकृत्य यतः क्षीराऽऽदीनि निस्सारां साध्वीं कुर्वन्ति, ततस्तान्यपि पुलाकानि, प्रवचनं वा निस्सारं, तेषां विकटाऽऽदीनां सेवनशीला संयतीं दृष्टवा जना ब्रुवते ततस्तानि पुलाकान्युच्यन्ते। पशुदोषानाहआणाइणो य दोसा, विराहणा मज्जगंधमय खिंसा। निग्गहणे गेलण्णं, पडिगमणाईणि लज्जाए॥३६६।। एषां त्रयाणामपि पुल कानां ग्रहणे आज्ञाऽऽदयो दोषाः विराधना संयमाऽऽत्मविषया भवति, तथा गन्धपुलाके पीते सति मद्यगन्धमाघाय मदविहला वा नां दृष्टा लोक: खि Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलागभत्त 1061- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुलिश सां कुर्यात्, धान्यपुलाके पुनराहारिते वायुकायः प्रभूतो निर्गच्छति, ततो यदि भिक्षार्थ प्रविष्टा तस्य निरोधं करोति तदा ग्लानत्वं भवेत्, अथ वायुकायं करोति तत उड्डाहो भवेत् उड्डाहिता च लज्जया प्रतिगमनाऽऽदीनि कुर्यात, एवं रसपुलाकेऽपि क्षीराऽऽदी पीते भिक्षां प्रविष्टा यदि संज्ञामागच्छती निरुणद्धि ततो ग्लानत्वम्, अथ न निरुणद्धि ततो व्युत्सृजन्ती केनाऽपि दृष्टा लज्जया प्रतिगमनाऽऽदीनि कुर्यात्। किंचवसहीए विगरहिया, किं पुण इत्थी बहुजणम्मि सक्खीवा। लाहुक्कं पेल्लणया, लज्जानासो पसंगो य / / 370 / / स्त्री निर्ग्रन्थी सक्षीया मद्यमदयुक्ता वसतावपि वसन्ती गर्हिता, किं पुनर्बहुजने पर्यटन्ती। तथाहि-तां भदविकलाम् आपतन्ती प्रपतन्तीमालमालाभिव प्रलपन्तीं दृष्ट्वा लोकः प्रवचनस्य लाधुक्यं लाघवं कुर्यात् / अहो मतं बालं पाखण्डमिदमित्यादि। मदेन वाऽचेतना संजाता सती प्रार्थनीया सा भवति, तत उद्भ्रामकाऽऽदयस्तस्याः प्रेरणं कुर्युः, मदवशेन यदपि तदपि प्रलपन्त्या लज्जानाशो भवेत्, ततः प्रति सेवना ऽऽदावपि प्रसङ्ग स्यात्। घुन्नइ गई सदिट्ठी, जहा य रत्ता सि लोयणकवोला। अरहइ एस धुताई, णिसेवई सज्झए गेहे // 371 / / तां तथा मदभाविता दृष्टवालोको यात-यथाऽस्था गतिः सदृष्टियक्ता घूर्णते, यथा चाऽस्या लोचनकपोला रक्ता दृश्यन्ते, तथा नूनमर्हत्येषा धुताकी देशीवचनत्वादुभ्रामिकी, ईद्दशी विडम्बनामनुभवितुं या सध्वजनि गेहानि कल्पपालगृहाणि निषेवते / त्रिविधेऽपि पुलाके यथायोगममी दोषाः। छक्कायाण विराहणा, वाउभय निसग्गओ अवन्नो अ। उज्झावणमुज्झंती, सइ असइ दवम्मि उड्डाहो / / 372 / / मदविह्वला षण्णामपि कायानां विराधनां कुर्यात् धान्यपुलाकेन क्षीरेण वा भुक्तेन वायुकायः, उभयं च संज्ञाकायिकी रूपं न सा गच्छेत्, ततो भिक्षा हिण्डमाना यदि तेषां निसर्ग करोतिततः प्रवचनस्यावा भवेत्, परावग्रहे वा व्युत्सृष्ट पुरीषाऽऽदिकमवग्रहस्वामिनस्तस्याः पार्वात् उज्झापयन्ति, स्वयमेव वा ते गृहस्था उज्झन्ति। (सइ आसइदवम्मि उड्डाह त्ति) अस्तिद्रव परकलुषं स्तोकं वा, नास्तिवामूलत एव द्रवं, तत उभयथाऽपि प्रवचनस्योड्डाहो भवेत्।। कल्ले अह सक्खीवा, आसी णं संखवाइभज्जा वा। भग्गा णाए सुविही, दुट्ठि कुलं सि गरिहा य॥३७३।। कल्ये- अन्यस्मिन् दिने, अथेत्युपदर्शने, इयं सक्षीवा मद्यमदयुक्ता आसीत्, णमिति वाक्यालङ्कारे एवं गन्धपुलाकत्युत्कवतीं जना उपहसन्ति। वायुकायशब्दं च श्रुत्वा ब्रवीरन् अहो इयंशवादकस्य भार्या पूर्वमासीत्। यद्वा--भग्ना अनया इत्थं वायुकायेनाश्रान्तं पूरयन्त्या सुविही अङ्गण मण्डपिका एवं प्रपञ्चयेयुः / (दुहिट्ठकुलं सि गरिहा य ति) दुदृष्टिधर्माणोऽमी, कुलगृहं चैताभिरात्मीयं मलिनीकृत मेवं ग्रर्हा भवति / ततश्च प्रतिगमनाऽऽदयो दोषाः। यत एवमत:जहिं एरिसौ आहारो, तहिं गमणे पुव्ववणिया दोसा। गहणं च अणाभोए, ओमे तह कारणेहिं गया // 37 // या विषये ईदृशं पुलाक आहारो लभ्यते तत्रा निर्ग्रन्थीभिर्नेव गन्तव्य, यदि गच्छन्ति तदा त एव पूर्ववर्णिता दोषाः / अथवा अशिवाऽऽदिभिः कारण्णैर्गता भवेयुः तत्रा चानाभोगेन पुलाकभक्तस्य ग्रहणं भवेत्। ततः किमित्याह - गद्दियमणाभोगेणं, वाइगवजं तु सेस वा भुंजे। मिच्छुप्पियं तु भुत्तं, जा गंधो ता न हिंडंती॥३७५।। यद्यनाभोगेन पुलाकं गृहीतं भवति तदा (वाइगं) विकट, तद्गर्जयित्वा शेष वा विभाषया भुञ्जीरन् / किमुक्तं भवति? यदि तदपर्याप्तमन्यच्च भक्तं लभ्यते तदान भुञ्जते, किंतु तत्परिठाप्यान्यद्भक्तं गृह्णन्ति। अथ पर्याप्त, तदा भुञ्जते, भुक्त्वा च तेनैव भक्तार्थेन पर्युषयन्ति, विकटं तु सर्वथैव न भोक्तव्यं, म्लेच्छप्रियं नामपलाण्डु, तत्पुनर्भुक्तं, यावत् तदीयो गन्ध आगच्छति तावन्न हिण्डन्ते। कारणगमणे वि तहिं, पुव्वं घेत्तूण पच्छ तं चेव। हिंडण पेल्लण बिइए, ओमे तह पाहुणट्ठा वा // 376|| अवमाऽऽदिकारणैर्गतायामपि मद्यपलाण्डुलसुनान्येकान्तेन प्रतिषिद्धानि, अथपूर्वमनाभोगाऽऽदिना गृहीतं, ततः पुलाकं गृहीत्वा पश्चात्तदेव भक्त्वा तेनैव भक्तार्थेन तदिवसमासते न भूयो भिक्षामटन्ते। द्वितीयपदे द्वितीयमपि वारं भिक्षार्थ प्रविशेत्, अवमंदुर्भिक्षं तत्रा पर्याप्तं न लभ्यते, प्राघुणका वा संयत्यः समायाताः, तनो भूयोऽपि भिक्षां हिण्डनं कुर्वाणानामिय यतना (पिल्लण ति) धान्यपुलाके आहारिते यदि वायुकाय आगच्छेत् तत्र एकं पुनः पार्श्व प्रेर्य वायुकाय निसृजन्ति, उभयलक्षणमिदम्-तेन यदा संज्ञासंभवः तदा यद्यन्यासां संयतीनामासन्ना वसतिस्तदा तत्र गन्तव्यं, तदभावे भावितायाः श्राद्धिकायाः पुरोहडाऽऽदी व्युत्सर्जनीयम्।। एसेव गमो नियमा, तिविहपुलागम्मि होइ समणाणं! णवरं पुण नाणत्तं, होइ गिलाणस्स वइयाण / / 377|| एष एव गमः-प्रकारो नियमात् त्रिविधेऽपिपुलाके श्रमणानामपि भवति, नवरं पुनरा नानात्वं,ग्लानस्य दुग्धाऽऽदिकमानेतुं व्रजिकायां साधवो गच्छेयुस्ता च गताः, संस्तरन्त आत्मयोग्य रसपुलाकंन गृह्णन्ति, अथ न संस्तरन्ति, ततः क्षीराऽऽदिकं भुक्त्वा न भूयो भिक्षामटन्ति, कारणे तुभूयोऽप्यटन्तस्तथैव यतनां कुर्वन्ति / बृ०५ उ०। पुलागलद्धि स्त्री० (पुलाकलब्धि) पुलाकत्वनिबन्धने लब्धि भेदे, प्रव० 270 द्वार। ('पुलाग' शब्दे लक्षणं गतम्) पुलागविपुलायपुं०(पुलाकविपुलाक)संयमासारताऽऽपाद कदोषरहिते, "पुल (लाग) विपुलाए कयविक्कयसंनिहिओवरए सव्वसंगावगए जे स भिक्खू।" दश० 10 अ०। पुलासिअ (देशी) अग्निकणे, दे० ना० 6 वर्ग 55 गाथा। पुलिअन० (पुलित) गतिविशेषे, औ०। पुलिंद पु० (पुलिन्द) अनार्यदशविशेषे, सूत्रा० 2 श्रु०१ अ० / ज्ञा०| प्रश्न० / रा०। प्रव० / प्रज्ञा० / आव०। नि० चू०। पुलिश पु०(पुरुष)"रसौलशो"| 25|| इति मा Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलिश 1062- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुव्वगय गध्यां रेफस्य लः, सस्य शः। पुसि। प्रा० 4 पाद। चू० / 'चउद्दसपुट्विणो एक्कारसंगिणो।" चतुर्दशपूर्विणो द्वादशाङ्गित्वे पुलुट्ठय त्रिी० (प्लुष्ट) दग्धे, 'पुलुट्ठयं पउलिअंदड्ड।' पाइ० ना० 200 उक्ते चतुर्दशपवित्वं तथाऽपि आगतमेव पूर्वाणां प्राधान्यख्यापनार्थमिद गाथा। विशेषणं, प्राधान्यं च पूर्वाणां पूर्व प्रणयनात् महाप्रमाणत्वात् अनेकविपुलोए धा० (दृश) दर्शने, "दृशो निअच्छ पेच्छावयच्छावयज्झ द्यामन्त्रमयत्वाच। कल्प०२ अधि० 8 क्षण ! पदैकदेशे पदसमुदायोपवज-सव्वव-देक्खौ अक्खावक्खवअक्ख-पुलोए-पुलए चारात् पूर्वानुपूर्वीति। अनु०। परिपाट्याम्, व्य०१ उ०। निआवआस-पासाः" इति धालो पालो' | पुव्वंगपुं०(पूर्वाङ्ग) प्रथमदिवसे, जं०७ वक्ष०। कल्प०ाज्यो०। चतुरशीइत्यादेशः। पश्यति। प्रा०४ पाद। तिवर्षलक्षप्रमाणे कालविशेषे, आ० म०१ अ०।"चउरासीइवाससय सहस्साणि से एगे पुव्वंगे।''भ०६ श०६ उ० / ज्यो०। ज०। कर्म०। चं० पुलोमतणया स्त्री० (पुलोमतनया) इन्द्राण्याम्, 'पुलोमतणया सई य प्र०। अनु० / स्था०। (अत्र विस्तरः 'जीवाजीव' शब्दे चतुर्थभागे 1556 इंदाणी।" पाइ० ना०६८ गाथा। पृष्ठे गतः) पुलोमी स्त्री० (पौलोमी)"उत्सौन्दर्याऽऽदौ" |8/1 / 160 / इस्यौत पुव्वकड त्रि० (पूर्वकृत) पूर्वभवेषूपात्ते, सूत्र०१ श्रु० 15 अ० / पूर्वसञ्चिते, उत्वम्। इन्द्रपन्यां पुलोमजायाम्, प्रा०१ पाद! ओघ० / प्रश्न। पुल्लिंग पुं० (पुलिङ्ग) लिङ्गानुशासनाऽऽदिसूत्रो, 'पुल्लिङ्गं कटण०" पुव्वकम्म न० (पूर्वकर्मन्) प्राकर्तव्ये प्रत्युपेक्षणाऽऽदिके कर्भणि, 'जं (लिङ्गानु०१ सू०) इति पुल्लिङ्ग मिति सानुस्वारं सानुनासिक वा पुव्वकम्म तं पच्छाकम्मं ज पच्छाकमं तं पुव्वकम्मं तं भिक्खू पडियाए युक्तमिति प्रश्ने, उत्तरम्-" तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' / / 1 / 3 / 14 / / (हम० वट्टमाणा करेजा। "आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०१उ० / पूर्वकृतकर्मणि, इति सूत्रोणनुस्वारानुनासिकावुभावपि स्त इति / 142 प्र० / सेन०२ प्रश्न०१ आश्र० द्वार। पूर्वकर्मोदयोपगते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। उल्ला०। पुव्वकय त्रि० (पूर्वकृत) पूर्वमेव निष्पादिते,'' पुवकयकम्म परिभावपुल्ली (देशी) व्याघ्रसिंहयोः, दे० ना०६वर्ग 76 गाथा। ''इल्ली पुल्ली णाइ / ' पूर्वकृतं प्रथममर्जितं यत्कर्म तस्य परिसमन्तात् भावना / वग्धो, सदूलो पुंडरीओ या“ पाइ० ना० 44 गाथा। आतु।"पुटवकयकम्मसंचआवक्तत्ति।" पूर्वकृतकर्मणां सञ्चयेनोपतप्ता पुवंत त्रि० (प्लवत्) गच्छति, प्लुङ् गताविति वचनात् / भ० 15 श०। आपन्नसन्तापाये तेतथाप्रश्न०१आश्र० द्वार। शत्रानशः।८३।१८१॥ इति न्तः। प्रा०। पुव्वकालिय त्रि० (पूर्वकालिक) प्राकालिके, "पुव्वकालिय क्यणपुव्व पुं० (पूर्व) प्रथमे, आदौ, दर्श० २तत्त्व / ज्यो० / विशे 0 / सूत्र०। दच्छे।' वक्तु कामस्य वचनात् यत्पूर्वमुत्तरमभिधीयते पराभिप्राय प्रात्ति, उत्त० 2 अ०। स०। पूर्वजन्मनि, उत्त०२ अ०। आचा०। अनु० / लक्षयित्वा तत्पूर्वकालिकं वचनं तत्रा वक्तव्ये दक्षास्ते तथा वा पूर्वकालिआव०। आतुन कानामर्थानां वचनेऽदक्षाः। प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। नामं ठक्णा दविए, खेत्ते काले दिसि तावखेत्ते य। पुव्वकीलिय न० (पूर्वक्रीडित) गृहस्थावस्थायां पुरा कृते द्यूताऽऽदिपन्नवगपुव्वत्थू, पाहुडअइपाहुडे भावे / / 160|| कीडने, उत्त०१६ अ०। प्रश्न० / स्त्रयादिभिः पूर्वकालभाविद्यूतदुरोदरानामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यपूर्वम् अङ्गराद्वीजं, दधनः क्षीर फाणिताद्रस ऽदिरमणे, उत्त०१६ अ०। इत्यादि, क्षेत्रापूर्व यवक्षेत्राच्छालिक्षेत्रा, तत्पूर्वकत्वातस्य, अपेक्षया | पुटवगणिय न० (पूर्वगणित) प्राक्प्रतिसंख्याते, ज्यो० 1 पाहु०। धान्यथाऽप्यदोषः, कालपूर्व–पूर्वः कालः शरदः प्रावृट् रजन्या दिवस पुव्वगय न० (पूर्वगत) पूर्वाणि दृष्टिवादाङ्ग भागभूतानि तेषु गतं प्रविष्ट इत्यादि, आवलिकाया वासमय इत्यादि, दिक्पूर्व-पूर्वा दिगिय च तदभ्यन्तरीभूतं तत्स्वरूपं यच्छुतं तत्पूर्वगतम्। स्था० 3 ठा० 1 उ०। रुचकापेक्षया, तापक्षेत्रापूर्वम्-आदित्योदयमधिकृत्य यत्र या पूर्वा दिक् / दृष्टिवादान्तर्गतश्रुताधिकार विशेषे, नं०। (पूर्वगतम् 'दिद्विवाय' शब्दे उक्तं च -- "जस्स जतो आदिचो, उदेति सा तस्स होइ पुव्वदि सा।" चतुर्थभागे 2514 पृष्ठे गतम्) इत्यादि। प्रज्ञापकपूर्वप्रज्ञापक प्रतीत्य पूर्वा दिक् यदभिमुख एवासौ सैव " उप्पाए पयकोडी, अग्गे णीयम्मि छन्नउइलक्खा। पूर्वा, पूर्वपूर्वचतुर्दशाना पूर्वाणा माद्यं, तच उत्पादपूर्वम्, एवं वस्तुप्राभृता- विरियमि सयरिलक्खा, सर्व्हि लक्खा उ अस्थि नथिम्मि // 3 // तिप्राभूतेष्वपि योजनीयम्। अप्रत्यक्षस्वरूपाणि चैतानि / भावपूर्वम्- एणयऊणा कोडी, नाणपवायम्मि होइ पुव्वमि। आद्यो भावः; स चौदयिक इति गाथाऽर्थः / दश०२ अ०। भला चतुरशी- एगा पयाण कोडी, छच सया सचवायम्मि।।४।। तिलक्षगुणिते पूर्वे, अनु० आचा० / ज०। कर्म०। भला ('जीवाजीव छथ्वीस कोडीओ, आयपवायम्मि होइ पयसंखा। शब्दे चतुर्थभागे 1556 पृष्ठेऽस्यार्थः) “तिविहे पुव्वे पण्णत्ते। तं जहा- कम्मपवाए कोडी, असीहलक्खेहिँ अब्भहिया // 5 // तीते, पडुप्पन्ने, अणागए।" स्था०३ ठा०४ उ० पृपालनपूरण्योरित्यस्य चुलसीइसयसहस्सा, पञ्चक्खाणम्मि वन्निया पुचे। धातोः पूर्यतेप्राप्यते पाल्यते च येन कार्य तत्पूर्वम्, औणाऽऽदिको एका पयाण कोडी, दससहस्सअहिया य अणुवाए / / 6 / / वप्रत्ययः / कारणे, "मइपुव्वं जेण सुयं / " नं०। ज्ञा०। पूर्व करणा- छव्वीस कोडीओ, पयाण पुव्वे अ बंभनामम्मि। त्पूर्वाणि उत्पादपूर्वाऽऽदिषु दृष्टिवादान्तर्गतेषु, स्था० 4 ठा० 1 उ०। पं० | पाण उम्मि य कोडी,छप्पनलक्खेहिं अब्भहिया // 7 // Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनगय 1063- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुव्वरत्तकालसमय नव कोडीओ संखा, किरियविसालम्मि वन्निया गुरुणा। पुटवपुरिस पु० (पूर्वपुरुष) अतीतनरे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०नि०। अद्धत्तरस लक्खा, पयसंखा विंदुरसारम्भि / / 8 / / " स्था० 4 ठा० 1 पुचप्पओगपुं० (पूर्वप्रयोग) वाणस्येव सकर्मतायां गतिपरिणामयत्त्वे, भ० उ० / सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियन्ते इति पूर्वाणि उत्पादपूर्वाऽऽदीनि चतुर्दश 7 श० 1 उ० / प्रवृत्तव्यापार एव नापूर्व व्यापारनियोजने, पञ्चा० 10 तेषु गतोऽभ्यन्तरीभूतः तत्स्वभावः / पूर्वस्वभावे दृष्टिवादे, स्था० 10 विव०। ठा०। पुवप्पओगपच्चइय पुं० (पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक) पूर्वः प्राकालाऽऽसेवितः पूर्वाणां विच्छेदकाल : प्रयोगो जीवव्यापारोवेदनाकषायाऽऽदिसमुद्धात रूपः प्रत्ययःकारणं यत्रा "बो (वो) लीणम्मि सहस्से, वरिसाणं वीरमोक्खगमणाउ। शरीरबन्धे स तथा स एव प्रत्युप्तन्न प्रयोगप्रत्ययिकः / तस्मिन्, भ०८ उत्तरवायगवसभे, पुव्वगयस्स भवे छेदो।।८०१।। श०६ उ०॥ वरिससहस्से पुण्णे, तित्थोग्गालीऐं वद्धमाणस्स। पुव्वपुत्तसिणेहाणुराय पुं० (पूर्वपुत्रस्नेहानुराग) प्रथमगर्भाधानकालनासिहि ई पुव्वगतं, अणुपरिवाडीऍ जंजस्स।१८०२| ति०। सम्भवे पुत्रस्नेहलक्षणेऽनुरागे भ०६ श०३३ उ०। पुव्वगहिय त्रि० (पूर्वगृहीत) प्राकालोपात्ते, "पुव्वगहिएण छेदेण गुरुआ- | पुव्वफग्गुणी स्वी०(पूर्वफाल्गुनी) द्वितारे नक्षत्रभेदे, स्था० 2 ठा० 4 जाए। पञ्चा० 12 विव०। उ०। सू० प्र० / जं०। स०। पुव्वजाइ स्त्री० (पूर्वजाति) प्राक्तनजन्मनि, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ पुव्वबद्धवेर नि० (पूर्वबद्धवैर) पूर्व भवान्तरेऽनादिकाले वा बद्ध निकाचितं वैरममित्रभावो येषां ते तथा / जन्मान्तरबद्धवैरभावि शत्रौ, स०३४ पुवट्ठाण न०(पूर्वस्थान) पूर्वमिति द्वन्द्व वधूवराऽऽदिक, संत्स्थानम् / सम०। दम्पत्युपवेशनार्हवेदिकायाम, आचा०२ श्रु०२ चू० 4 अ०1 पुटवबंधव पुं० (पूर्वबान्धव)जन्मान्तरबन्धुनि, आ० चू०१ अ०। पुष्वणिज्जुत्त त्रि० (पूर्वनियुक्त) पूर्वकाले व्यापारिते, पञ्चा० 12 विव०। पुव्वभणिय त्रि० (पूर्वभणित) पूर्वप्रतिपादित, ज्यो०२ पाहु०। पुव्वणिवाय पुं० (पूर्वनिपात) पूर्वदेशकालवृत्तिताऽऽपादने, केचिदाचार्या आहु :- "यदल्पाचतरं तत्पूर्व निपतति / यथा-नक्षत्यग्रोधौ अन्ये पुव्वभहवया स्त्री० (पूर्वभाद्रपदा) द्वितारे नक्षत्राभेदे, ज्यो०२ पाहु० / आहुः - यथा मातापितरौ, वासुदेवार्जुनो इत्यादि। नि० चू०१ उ०। स्था०। 'पुव्वा (व्व) भइवया नक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते।'' पं० सं०१ द्वार। पुव्वणिसिद्ध त्रि० (पूर्वनिषिद्ध)। प्राक्कालनिवारिते, पञ्चा०१२ विव० / पुव्वभव पुं० (पूर्वभव) पूर्वजन्मनि, "पुव्वभवजणियनेह-पीतिबहुमाणे / " पूर्वभवे पूर्वजन्मनि जनिता जाता स्नेहात प्रीतिः प्रियत्वं, न कार्यवपुटवह न० (पूर्वाह्न ) "सूक्ष्म-श्न-ण-ह्र-ह-क्ष्णां पहः" शादित्यर्थः बहुमानश्च गुणानुरागस्ताभ्यां सकाशज्जातः शोकः चित्तखेदो / / 8 / 2 / 75 / / इति हकाराऽऽक्रान्तणकारस्य णकाराऽऽक्रान्तो हकारः। विरहसद्भावेन यस्य स पूर्वभवजनिस्नेहप्रीतिबहुमानः / झा० 1 श्रु०१ प्रा०२पाद। दिनस्यार्धेप्रहरद्वये, स्था० 4 ठा०२ उ०ा आ० चू०। आव० / अ०। स०। आ० म०1 पुव्वभवचरियणिबद्ध न० (पूर्वभवचरितनिबद्ध) चरमतीर्थकरमहावीर पुव्वण्णत्थ त्रि० (पूर्वन्यस्त) प्रागुपन्यस्ते रा०। पूर्वमनुष्य भवचरितनिबद्धे नाटकभेदे, रा०। पुव्वतवन० (पूर्वतपस्) सरागावस्थायां भाविततपस्यायाम्, वीतरागाव- | पुव्वमविय पुं० (पूर्वभविक) पूर्वभवभाविनी, "पुव्वभवियवरेणं, अहवा स्थापेक्षया सरगावस्थायाः पूर्वकालभावित्वात्। भ०२ श०५ उ०। रागेण रंजितो संतो।"व्य०१०। "एएसिणं चउव्वीसाए तित्थगराण पुव्वत्त न० (पूर्वत्व) पूर्वकालयोगित्वे, नं०। पुव्वभविया चउव्वीसं नामधेजा भविस्संति।" स०॥ पुव्वदारियणक्खत्तन० (पूर्वद्वारिकनक्षत्रा) पूर्व द्वारं येषामस्ति तानि पूर्व- पुव्वभाग न० (पूर्वभाग) अग्रे, स्था०६ ठा०। दिवसस्य पूर्वभागश्चन्द्रद्वारिकाणि। पूर्वस्यां दिशि येषु गच्छतः शुभं भवति तेषु नक्षत्रेषु, स०७ योगस्याऽऽदिमधिकृत्य विद्यते येषा तानि पूर्वभागानि / पूर्वाह्ने चन्द्रयोगसम०। “कत्तिआइआ सत्त नक्खत्ता पुष्यदारिआ।" स्था०७ ठा०। सङ्गतेषु नक्षत्रोषु, सू० प्र०१० पाहु०२ पाहु० पाहु०। पुव्वदेस पु० (पूर्वदेश) मथुरात आराभ्य समुद्रपर्यन्तेषु देशेषु आचा०१ | पुव्वरत्त पुं० (पूर्वरात्र) रात्रोः पूर्वभागे, विपा०१ श्रु०१ अ० रात्रौः प्रथमे श्रु०५ अ० 1 उ०। यामे, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। पुव्वधर पुं० (पूर्वधर)० पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधराः / दश चतुर्दश-- पुव्वरत्तावरत्तकालसमय पुं० (पूर्वरात्रापररात्रकालसमय) पूर्वरात्राश्च पूर्ववित्सु, विशे०। आव०। पा०। रात्रो: पूर्वो भागोऽपररात्राश्च राठोरपरो भागस्ता ये व कालः समयोऽवसरो जागरिकायाः / स्था० 3 ठा०२ उ० / राठोः पूर्वभागे पुवपडिवण्णय पुं० (पूर्वप्रतिपन्नक)पूर्वप्रतिश्रुते, स्था०। पश्चाद् भागे च / विपा०१ श्रु०६ अ०। प्रदोषसमये प्रातः समये च, पुष्वपदन० (पूर्वपद) उत्सर्गपदे, “पुव्वपदं उस्सग्गपदं, अवरपदं अववाय जी०३ प्रति० 4 अधि० / पूर्वरात्रश्चासौ अपररात्राश्चेति पूर्वरात्रापर्य।" नि० चू०१ उ०। पररात्राः, स एव कालः समयः कालविशेषः / राठोः पश्चिमे भागे, नि० पुटवविट्ठत्रिी० (पूर्वप्रविष्ट) पूर्वमेव क्षेत्राप्रत्युपेक्षणार्थ प्रविष्टषु, बृ०१ उ० / 1 श्रु० 3 वर्ग 4 अ० / पूर्वरात्राश्चासावपररात्रश्च पूर्वरात्राप२ प्रक०। ररात्राः, स एव काललक्षणः समयः न तु समाचाराऽऽदिलक्षणः समयः Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुव्वरत्तकालसमय 1064- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुव्वा पूर्वरात्रापररात्रकालसमयः / मध्यरात्रो, “पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि ते हंति पुव्वसंथुय, जे पच्छा एतरा हो ति // 283 / / सुत्तजागरा। 'इह चार्षत्वादेकरेफलोपेन अपररात्राशब्दोऽयमिति। ज्ञा० / सामण्णप्रतिपत्तिकालात् पूर्व पश्चाद्वा अहवा-सामण्णकाले चेव 1 श्रु०१ अ०। पूर्व रात्रश्च रात्रोः पूर्वो भागोऽपररात्राच अपकृष्टा रात्रिः, चिंतिजति। पश्चि मस्तद्भाग इत्यर्थः / तल्लक्षणो यः कालः-समयः कालाऽऽत्मकः गाहासमयः स तथा तत्रा / अथवा-पूर्वरात्रापररात्रकालसमय इत्यत्र रेफलो अण्ण्या विहरतेण, संथुता पुव्वसंथुता। पात् 'पुव्वत्तावरत्तकालसमयंसि त्ति' स्यात्। भ०२श०१ उ०। "जो पुव्वत्तावरत्ताकाले, संपेहए अप्पगमप्पएण,"। यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रों संपदं विहरंतेण, संथुता पच्छसंधुता // 284|| काले रात्रौ प्रथमचरमयोरेवार्थम् / दश०२ चू०। अतीतवर्तमानकालं प्रतीत्य भावयितव्यम्। नि० चू०२ उ०। उत्त०। पुव्वरय न०(पूर्वरत) पूर्व कृतं रतं- मैथुनं पूर्वरतम् / उत्त०१६ अ०। पुव्वसमास पुं०(पूर्वसमास) उत्पादपूर्वाऽऽदिद्वयादिसंयोगे, कर्म०१ कर्म० / गृहस्थावस्थायां स्वीसंभोगानुभवने, स्था०६ ठा० / गृहस्थावस्थालक्षणे पुव्वसुय न० (पूर्वश्रुत)पूर्वाणि च तत् श्रुतंपूर्वश्रुतम। पूर्व गते श्रुते, प्रज्ञा०१ पूर्वस्मिन् काले स्त्र्यादिभिः सहविषयानुभवने, उत्त०१६ अ०। पद। आ० म०। पुव्ववं न० (पूर्ववत्) विशिष्ट पूर्वापलब्धं चिहमिह पूर्वमुच्यते तदेव निमित्त- | पुथ्वसूर पुं० (पूर्वासूर) पूर्वाह, आ०म०१ अ०। रूपतया यस्यास्ति तत्पूर्ववत्, तद्द्वारेण गमकमनुमानं पूर्ववत्। अनु०। / पुव्वसूरि पुं० (पूर्वसूरि) चिरन्तनाऽऽचार्ये, जी० 24 अधि०। आ० म०। कारणात्कार्यानुमाने, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। ('से किंतं पुव्ववं' इत्यादि पूर्वाऽऽचार्ये, पञ्चा०१८ विव०। उद्युक्तविहारि चिरन्तनाऽऽचार्ये, जी० सूत्र सव्याख्यानम 'अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे 403 पृष्ठे गतम्।) 1 अधि०। पूव्वविदेह पुं०(पूर्वविदेह) पूर्वश्चासौ विदेहश्चेति। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पव्वसेवा स्त्री०(पर्वसेवा) अनुयोगप्रासादात्प्रथम भूमिकायाम, यो० वि०। पर्वतस्य पूर्वस्यां दिशिव्यवस्थितेमहाविदेह स्यैकदेशीभूते (जं०४ वक्ष०) तत्क्रमस्त्वेवम्क्षेत्र, स्था० 2 ठा० 3 उ० / योदानी सीमन्धरः प्रभुः / आ० क०४ अ० / तच्च क्षेत्रमकर्मभूमित्वात्सदा सुषमद्धर्या विराजते। स्था० 2 टा० पूर्वसेवा तु तन्त्रा -गुरुदेवाऽऽदिपूजनम्। 3 उ०। अनु०। "दो पुव्वविदेहाई।" स्था०२ ठा०३ उ०। सदाचारस्तपोमुक्तय-देषश्चेह प्रकीर्तिता।।१०।। पुव्वविदेहकूड न० (पूर्वविदेहकूट) निषधस्य वर्षधपर्वतस्य पूर्वविदेह पूर्वसेवा तु योगप्रसादप्रथमभूमिकारूपा पुनस्तन्त्राज्ञैः सम्यगधिगतगप्रतिकूटे, जं०४ वक्षः। शास्त्रैः प्रकीर्तिता इत्युत्तरेण योगः। कीदृशीत्याह-गुरुदेवाऽऽदिपूजन पुव्ववेरिय पु० (पूर्ववैरिक) जन्मान्तरीयशत्रौ, "यं दृष्ट्वा वर्द्धते क्रोधः, वक्ष्यमाणरूपम् 1 तथा-सदाचारः 2, तपः 3, मुक्तयद्वेषश्च 4 / इह योगचिन्तायां प्रकीर्तिता निरुपिता // 106 / / यो० वि०। (गुरुदेवादिस्नेहश्च परिहीयते। स विज्ञेयो मनुष्येण, एष मे पूर्वचैरिकः ।।१।।“आ० म०१ अ०। पूजाविधिं 'पूया' शब्दे वक्ष्यामि) पुव्वसंगइय पुं० (पूर्वसङ्गतिक) पूर्व पूर्वकाले सङ्ग तिर्मित्रत्वं येन स ह स पुव्वहर पुं० (पूर्वधर) पूर्वाणि धारयतीति पूर्वधरः / दशचतुर्दशपूर्वविदि, यथा पूर्वधरो जायते स पूर्वधरलब्धिरित्युच्यते / आ० म०१ अ० / पूर्वसङ्गतिकः। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। जन्मान्तरीय मित्रो, भ०७ श०६ घटिकाद्वयमध्ये आनुपूर्व्यानानुपूर्वीभ्यां चतुर्दशपूव्वगणनलब्धिमन्तश्चउ० / 'गोयमाइसमणे भगवं महावीरे पुव्वसंगइयं कत।" भ०२श०१ तुर्दशपूर्वभूतश्चतुर्दश पूर्वाणि गणयन्ति, तत् स्मरणमात्रेण, वाड्मात्रेण उ० / गृहस्थत्वे परिचिते, भ०३ श०१ उ०। वेति प्रश्ने, उत्तरम्-चतुर्दशपूर्वधराश्चतुर्दश पूर्वाणि ताल्योष्ठपुटसं पुव्वसंजोगपुं० (पूर्वसंयोग) मातापित्रादिसंबन्धे, आचा०१ श्रु०६ अ० योगजन्येष्वर्वाग घटिकाद्वये गणयन्ति। यदुक्तं परिशिष्टपद्मणि- "सोऽ२ उ०। धनधान्यस्वजनाऽऽदिभिः संयोगे, सूत्र०१ श्रु० 110 4 उ० / प्युवाच महाप्राणः, ध्यानमारब्धमस्ति यत् / साध्य द्वादशभिर्वर्षनागआचा०। मिष्याम्यहं ततः / / 1 / / "61 म०। सेन०३ उल्ला०॥ यथा चतुर्दशपूर्वधरा पुव्वसंथव पुं० (पूर्वसंस्तव)मात्रादिकल्पनया परिचयकरणे, पि०। नि० दशपूर्वधरानव पूर्वधरा वा द्दश्यन्ते,तथा द्विपूर्वधराश्रुतः पूर्वधराः चू० / दर्श०। आचा०। ('संथव' शब्दे एव व्याख्यास्यामि) पश्चपूर्वधरा भवन्ति, नवेति प्रश्ने, उत्तरम् -जीतकल्पसूत्रादावाचारपुथ्वसंथुय पुं० (पूर्वसंस्तुत) श्रामण्यप्रत्तिपत्तिकालात् पूर्वमेव कृतपरिचये, कप्रकल्पाऽऽद्यष्टपूर्वान्तस्य श्रुतव्यवहारस्योक्त्तत्वादेकद्वन्यादिपूर्वधरा उत्त० / पूर्वं / वाचनाऽऽदिकालादारतो न तु वाचनाऽऽदिकाल एव, अपि भवन्तीति ज्ञायते / 26 प्र०। सेन०४ उल्ला०। तत्कालविनयस्तकृतप्रतिक्रिया रूपत्वे न तथाविधप्रसादाजनकत्वात्, पुव्वहसिया स्त्री० (पूर्वहसिता) यया सह पूर्व हसितमासीत् तादृश्यां संस्तुता विनयविषयत्वेन परिचिताः सम्यक् स्तुता वा सद्भूतगुणोत्की- स्त्रियाम्, व्य०७उ०। तनाऽऽदिभिः पूर्वसंस्तुताः। उत्त० 1 अ०। पुत्वा स्त्री० (पूर्वा) प्राचीनायां दिशि, स्था०६ ठा० / येषा सामण्णे जे पुय्वं, दिट्ठा भट्ठा च परिजिता वा वि। यस्यां दिशि सूर्य उद्गच्छति सा तेषां पूर्वा / आ०म०१ अ०। Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुव्वा 1065- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुहत्त स्था०। आव०। "जस्सजओ आइचो, उदेइ सा तस्स होइ पुव्वदिसा" (47 गाथा) आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। (अस्या गाथाया व्याख्या 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे विस्तरतो गता। प्रज्ञापकापेक्षया पूर्वदिनिरूपणमपितौव) पुदाउत्त त्रि० (पूर्वाऽऽयुक्त) पूर्वं तदागमनकालात् प्राक् आचुक्तं रन्धनस्याल्यादौ प्रक्षिप्त पूर्वाऽऽयुक्तम् / स्वार्थमेव राद्धमारब्धे, पञ्चा० 10 विव० / पूर्वाऽऽयुक्तश्चाउलोदनः पूर्वाऽऽयुक्त इति / व्य०५ उ० / कल्प०। ('णायविहि' शब्दे चतुर्थभागे 2004 पृष्ठे विस्तरो गतः) पुव्वाह (देशी) पीने, दे० ना०६वर्ग 52 गाथा। पुव्वाणुपुव्वी स्त्री० (पूर्वानुपूर्वी) क्रमे, रा०। पूर्वस्यानुपूर्वः पूर्वानुपूर्वः "एत्थ णिदरिसणं एक्कंगस्स दो अणुत्तियं तिगस्स पुव्वा दुयस्स तिन्नि अणुत्ते य चउक्कस्स पुष्या। "एवं सचैत्र।''अहवा-पुव्वेव अनुपूर्वः स एव पूर्वः पूर्वानुपूर्वी / नि० चू०२० उ०। पुव्वायरणाभंग पुं० (पूर्वाऽऽचरणाभङ्ग) बहोः फालात्प्रवृत्तायाः प्रवृत्ते विनाशे, जी० 1 अघि०। पुव्वायरिय पुं०(पूर्वाऽऽचार्य) अतीतसूरौ, नि० चू० 1 उ० / पञ्चा० / पुवायामणयान० (पूर्वयामन) पूर्वस्यां सीमन्धरः प्रभुः / आ० क० / तच्च क्षेत्र कर्मभूमित्वात्सदा सुषमसुषमद्ध्ा विराजते। क्षेत्रविशेषे, स्था०२ ठा०३ उ०। पुव्वावर न० (पूर्वापर) पूर्वाणि च पराणि च पूर्वापरं, समाहारप्रधानो द्वन्द्वः / पूर्वापरसमुदाये, नं०। पुवावरसंजुत्त न० (पूर्वापरसंयुक्त) पूर्व सूत्रानिबद्ध पश्चात्सूत्रोण विरुध्यमाने, 'पुव्वं सुत्तणिवद्धो पच्छा सुत्तेण विरुज्झमाणो पुव्वापरसंजुत्तं भन्नति।" नि० चू०११ उ०। पुव्वासाढ पुं० (पूर्वाषाढ) अम्भोदेवताके चतुस्तारे नक्षत्राभेद, जं०७ वक्ष० / सू० प्र० / अनु० 1 स्था०। पुव्वाहुत्त त्रि० (पूर्वाभिमुख) "सोऊण पुव्वाहुत्तोट्ठायइ।' आचीदिगभिमुखे, आव० 4 अ०। पुटिव न० (पूर्व) पूर्वस्मिन् काले, सूत्रा० 103 अ०४ उ० / आचा०। पूर्विन् पुं० (पूर्वधरे) प्रव० 1 द्वार। प्रज्ञा०। पुट्विपच्छासंथव पुं० (पूर्वपश्चात्संस्तव)। "पुट्विं पच्छा य संथवे।" पूर्व दानात्प्राक् पश्चाच्च संस्तवो दातुः श्लाघा पूर्वपश्चात्संस्तवः / पञ्चा० 13 विव० / आचा०। पुटिवल्ल त्रि० (पूर्व) पूर्वशब्दात्स्वार्थे इल्लः / ''अहं ते पुट्विल्लो अंते पालो ताहे तस्स अट्ठाहियमहिम कहेइ। "पूर्वस्मिन्, आ० म०१ अ०। पुवट्ठाइ पुं० (पूर्वोत्थायिन्) पूर्वं प्रव्रज्याऽवसरे संयमानुष्ठाने नोत्थातु शीलमस्येति पूर्वात्थायी। प्रवज्यसमर्थ एव संविग्ने, "जो पुट्ठाई पच्छा निवाती।" आचा० 1 श्रु० 5 अ०३ उ०।। पुव्वुत्तरा स्त्री० (पूर्वात्तरा) ईशानकोणे, व्य०७ उ०। पुव्वुप्पण्ण त्रि० (पूर्वोत्पन्न) चिरप्ररूढे, "पुव्वुप्पण्णाउ न वा, न हुति अन्नाउ छम्मास / “ज्यो०६ पाहु०। पुव्वोइय त्रि० (पूर्वोदित) प्राग्भणिते.बृ० 1 उ०३ प्रक० / पूर्वादिते, पञ्चा०६ विव०। पुश्च धा० पप्र(पृ)च्छब"छस्य श्चोऽनादौ"||४।२६ / / मागध्या मनादौ वर्तमानस्य छस्य श्चः।"पुश्चदि।'' पृच्छति। प्रा० 4 पाद / पुस धा० (मृज) शुद्धी, " मृजेरुग्घुस-लुच्छ - पुच्छ - पुंस - फुस - पुस-लुह - हुल- रोसाणाः" ||8||105 / / इति मृजतेः पुसाऽऽदेशः / प्रा०४ पाद। पुस्स पुं०(पुष्य) बृहस्पतिदेवताके नक्षत्रविशेषे, ज्यो०६ पाहु०। अनु०। विशे० / चं० प्र० / "दो पुस्सा।" स्था० 3 ठा०३ उ० / सू० प्र० / 'पुस्सनक्खत्ते तितारे।' स०३ सम०। पुष्यनक्षत्रां हि यात्रायां सिद्धिकरम्। यदाहुः-''अपि द्वादशमे चन्द्रे, पुष्यः सर्वार्थसाधकः। 'ज्ञा०१ श्रु०८ अ० 1 ऋषिभेदे च / जं०७ वक्ष० / पुस्सजोय पुं० (पुष्ययोग) उपलक्षणत्वात् पुष्याऽऽदिनक्षत्राणां चन्द्रेण सह पश्विमाग्रिमोभयप्रमर्दकाऽऽदियोगेषु, स०३ अङ्ग / पुस्समाणवपुं० (पुष्यमानव) मागधे, ओघालोकप्रसिद्धे लक्षणविशेषे च। जी०३ प्रति० 4 अधि०। पुस्सायण पुं० (पुष्यायन)। पुष्यानामकर्युवापत्ये; सू० प्र० 10 पाहु० 11 पाहु० पाहु० / ज०। चं० प्र०। पुह अव्य० "पृथकि धो वा"1८1१1१३१।। पृथक्शब्दे थस्य धो वा भवति / पिधं / पुघं। पिह। पुहं / भिन्ने, प्रा०१ पाद / पुहई स्त्री० (पृथिवी)। "उद्दत्वादौ" ||811 / 131 // इति ऋतु उत्वम् / प्रा० 1 पाद / “पृथि पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिकहरिद्रा--- विमीतकेष्वत्॥८१/८८ // इतीतोऽत्। प्रा०१पाद। आ० म० / पश्चिमदिक्चक्रवास्तव्यायां दिकुमार्याम्, आ० चू०१ अ०। ति। आद्यानं त्रयाणां गणभूतां मातरि, आ० म०१ अ०।आ० चू०। तृतीयवासुदेवस्य मातरि च। स०। ति। सुपार्श्वजिनमातरि, ति०।। पुहत्त न० (पृथक्त्व) विस्तारे, प्रज्ञा० 15 पद। पार्थक्ये, अनु०। बहुत्वे, भ० 5 श० 3 उ० / पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची / यदाह चूर्णिकृत'पुहु(ह)त्तशब्दो बहुत्ववाची। क० प्र०.१ प्रक० / पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची, बहुत्वं चेह पञ्चविंशतिरूपं दृष्टव्यम्। सिद्धप्राभृतटीकायाम्, नं०। ग्रन्थविभागेन वाले, आ०म०१ अ०। नैयायिकसंमते गुणभेदे सम्म०। संयुक्तमपि द्रव्यं यद्वशान्नेदं पृथगित्युपादीयते तत् अपोद्धार व्यवहारकारणं पृथक्त्वं नाम गुण इति काणादाः घटाऽऽदिभ्योऽयानन्तरंतत्प्रत्ययविलक्षणज्ञानग्राह्यत्वात्सुत्सुखाऽऽदिवदिति व्यवस्थिताः / अत्रा तावद्धेतोरसिद्धता, परस्परस्वरुप व्यावृत्तरूपाऽऽदिव्यतिरेकेबर्थान्तरभूतस्य पृथक्त्वगुणस्याध्यक्षेअप्रतिभासनेन घटाऽऽदिविलक्षणज्ञानग्राह्यात्वस्यासिद्धेः अत एवोपलक्षणप्राप्तवेनाभ्युपगतस्यानुपलम्भादसत्तवम् / न च पृथगिति विकल्पप्रत्ययावसेयत्वेन तस्य सत्त्वं सजातीय विजातीयव्यावृत्तरुपाऽऽद्यनुभव निबन्धनात् तस्य व्यावृत्तावभवानां स्वस्वभावव्यस्थितेः, अन्यथा स्वतो व्यावृत्तरूपाणां Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुहत्त 1066- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुहवीचंद पृथक्तवाऽऽदिवशात्तेषां पृथक रूपतासिद्धेः पृथक्त्वाऽऽदेर्भिन्नाभिपृथग्रुपताकरणे अकिञ्चित्करत्वाद् भेदपक्षे संबन्धासिद्धेः, अभेदपक्षे तु पृथकूपस्य भावस्येवोत्यत्तेरर्थान्तर भूत पृथकत्तवगुणकल्पनावैयर्थ्यात् तत एव पृथग्व्यवहारसिद्धेः हेतोरनैकान्तिक्तवम् / किं च / यथा-परस्परव्यवृत्ताऽऽत्मतया सुखदुःखाऽऽदिषु गुणेषु पृथगिति प्रत्यय प्रत्यय विषतया, पृथक्तवगुणभावेऽपि गुणेषु गुणासम्भवात्, तथा घटाऽ5 - दिष्वपि भविष्यतीति अनैकान्तिकता परिस्फुटैवानच गुणेषु पृथगिति प्रत्ययो भक्तो, मुख्यप्रत्ययाविशिष्टत्वात्. पृथगिति अपोद्धारव्यवहाररस्य स्वरुपविभिन्नपदार्थनिबन्धनत्वात् परोपन्यस्तानुमाने प्रतिज्ञाया, अनुमानबाधा / तथा च प्रयोग:-ये परस्परव्यावृत्ताऽऽत्मानस्ते व्यतिरिक्तपृथक्त्वानाधाराः यथा सुखाऽऽदयः परस्परव्यावृत्ताऽऽत्मानश्च घटाऽऽदयः स्वभावहेतुरेकस्यानेकनेवृत्यनुपपत्तिः, संबन्धाभावश्च समवायस्य प्रतिषेत्स्यमानत्वात् सुखाऽऽदिषु तद्व्यवहाराभावप्रशक्तिश्च विपर्यये बाधकं प्रमाणम्। तन्न पृथक्त्वं गुणः, तत्साधकप्रमाणभावाद्वाधकोपपत्तेश्चेति व्यवस्थितम्। सम्म०३ काण्ड। अनुयोगभेदे, स्था० 10 ठा०। पृथक्त्वं भेदो द्विवचनबहुवचने इत्यर्थः। तदनुयोगो यथा-"धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायदेसे धम्मत्थिकायप्पदेसा।" इह सूत्रधर्मास्तिकायप्रदेशा इत्येतद्बहुवचनं तेषामसंख्यातत्वख्यापनार्थमिति। स्था० 10 ठा० / पृथक्त्वम् - 'एगो चिय' (2283 गाथा)। विशे०। पुहत्तभाव पुं० (पृथक्त्वाभाव) प्रतिसूत्रमविभागेन वक्ष्यमाणविभागावेन प्रवर्त्तने प्ररूपणे, विशे०। पुहत्तवियक पुं० (पृथक्त्ववितर्क) पृथक्त्वैनैतद्रव्याऽऽश्रितानामुत पादाऽऽदिपर्यायाणां भेदेन विकल्पे, ग० 1 अधि० / पुहत्तवियकसवियार न० (पृथक्त्ववितर्कसविचार) पृथग्भावः पृथवत्वं नानत्वं, वितर्कः श्रुतज्ञानं द्वादशाङ्गं , विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः, व्यञ्जनमभिधानं, तद्विषयो यो मनोवाकायलक्षणो योगः, संक्रान्तिः परस्परतः परिवर्तन, पृथक्त्वेन वितर्कस्यार्थव्यञ्जनयोगेषु संक्रान्तिविचारोऽस्मिन्नस्ति तत्पृथक्त्ववितर्कविचारम्।शुक्लध्यानभेदे, सम्म०। तथा ह्य सावुतमसंहननात् भावयति विजृम्भितपुरुषकारवीर्यसामर्थ्य: संहृताशेषचित्तव्योक्षेपः कर्मप्रकृतीः स्थित्यनुभागाऽऽदिभिासयन् महासंवरसार्थ्यतो मोहनीयमचिन्त्यसामर्थ्यम शेषमुपशमयन् क्षययन् वा द्रव्यपरमाणुंभावपरमाणुंचैकमवलम्ब्य द्रव्यपर्यायार्थाद्व्यञ्जनंव्यञ्जानाद्वाऽर्थं योगायोगान्तरं व्यञ्जनाच व्यञ्जनान्तरंचसंक्रामन् पृथक्त्ववितीस विचारम् / सम्म०३ काण्ड। आव०। भ०। दर्श०। पुहत्तसद्दपुं० (पृथक्त्वशब्द) पृथक्तवेनानेकत्वेन कोऽर्थो नानातूर्याऽऽदिद्रव्ययोगेन यः स्वरो यमलशखाऽऽदिशब्दवत् स पृथक्त्व इति, स चासौ शब्दश्चेति। शब्दभेदे, स्था० 10 ठा०। पुहत्ताणुओग पुं० (पृथक्त्वानुयोग) आर्यवजस्वामिभिः पृथक्त्वेन स्थापितेऽनुयोगे, "तेणारेण पु (ह) हुतं, कालिय सुयदिट्टिवाए य।" (2284 गाथा) विशे०। पुहवीस्त्री० (पृथवी) तन्वीतुल्यत्वात्संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात्पूर्वउकारः / प्रा०३ पाद। राज्ञः शातवाहनस्यागमहिष्याम्, व्य०६ उ०। भूमौ च।" पंचमसरमंताओ, हवंति पुहवी वई। 'आचा० / (अस्याः स्वरूपं 'भूगोल' शब्द) पुहवीचंद पुं०(पृथ्वीचन्द्र) अयोध्याराजहरिसिंहपुवे, ध०२०। तचरितं पुनरिदम् - "अस्थिह पुरी अउज्झा, उज्झायसएहि भूसिया सययं। नयवंतपढमसीहो, नरनाहो तत्थ हरिसीहो / / 1 // नयणविलासविणिजिय-पउमा पउमावई पिया तस्स। पुत्तो पुहवीचंदो, चंदुजलभूरिजसपसरो।।२।। सो मुणिदसणवससरि-यपुत्वभवविहियचारुचारित्तो। उगविसभोगिभोग व्व कामभोगे चयइ दूरं // 3 // न कुणइ उन्भडवेसं, सिंगारगिरं न जंपइ कयावि। मित्तेहिं विन वि कीलइ, न दमइ दुद्दमकरितुरंगे / / 4 / / मायपिइभत्तिजुत्तो, मुणिपयभत्तो जिणचणुजुत्तो। परमत्थसत्थनिवह, चिंतंतो चिट्ठइ सया वि॥५॥ तयणु विचिंतइ राया, कह नाम इमो नरिंदसुयजुग्गे। भोगोवभोगमग्गे, लगिस्सइ मयणसमरूवो॥६॥ नवजुव्वणपारंभे, सलहिज्जइ निवसुयागा जियलोए। सिंगारहारि चरियं, रिउविजओ उज्जमो धणियं / / 7 / / एस पुण मुणिवरो इव, सत्थविचिंतणपरोपसन्नमणो। होही गम्भी उज्झिय-परक्कमो दुविणीयाणं॥८|| ता जुत्तमिणं संपइ, कारेमि कलत्तसंगह एयं / सयमेव तव्वसगओ, काही सव्वं पिजं भणियं / / 6 / / ता छेओ ता माणी, ता धम्मी ता वउज्जओ सोमो। जाव घरनहु व्व नरो, न भासिओ दढमहेलाहिं।। 10 / / इय चिंतिय सप्पणयं, परिणयणत्थं निवो भणइ कुभरं। जणयाणुरोहओ सो, तंपडिवजह अकामो वि॥११॥ तयणु कुमरेण समग, महंतसामंतकुलपसूयाणं। अट्ठण्ह कन्नयाणं, पाणिग्गहणं करावेइ / / 12 / / वज्जिरमंगलतूरे, वीवाहमहूसवे पयट्टते। नचंतयम्मि तरुणी-जणम्मिलोए पहिट्ठमणे / / 13 / / पुहवीचंदकुमारो, निजियमारो विवेयगुणसारो। चिट्ठइ मज्झत्थमणो, अरत्तदुट्टो जहा समणे / / 14 / / चिंतइय अहह गहणं, मोहमहारायविलसिंय एवं। जेण जणो वि नडिज्जइ, अमुणियतत्तो मुहा एलो॥१५ / / गीय पलावपाय, देह परिस्समकरं फुड नट्ट। गुरुभाराऽलंकारा, भोगुवभोगा किलेसकरा // 16 // जणयाण अहो मोहो, जं कइवयदिणकयम्मि संवासे। खिजति मज्झ कजे, एवं अइनिविडनेहेण / / 17 / / रंभागभ असारे, इह संसारे खणं पिन हजुत्त। रमिउं विनायजिणं-दसमयतत्ताण सत्ताण / / 18 // अइनिविडो निब्बंधो, अम्मापियराण इत्थ वत्युम्भि। मह विरह खणमविन हु, सहति गुरुनेहनडिया ते॥ 16 // पेमभरपरवसाओ, परिणीयाओ इभाउ बालाओ। मुचंतीओ संपइ, मोहा उ वहति दुहियाओ॥ 20 // मोहो अन्नो वि जणो, निदइ म पव्वयंतमित्ताहे। तायाणुरोहओही, अहयं कह संकडे पडिओ? / / 21 // किं पिन विणट्ठमहवा, इणिंह पि इमा उ जइ विबाहेमि / लहुकम्मयाएँ दिक्खं, कयावि सव्वा उ गिण्हंसि / / 22 / / जइ पव्वयामि अहयं, पियरो पडिबोहिउं जिणमयम्मि। तो सव्वेसिमिमेसिं, उवयरिय हुन्छ निच्छयओ।। 23 // इय चिंतिय निव्वत्तियदिणकरणिञ्जो पियाहिँ सहकुमारो। Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुहवीचंद 1067- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुहवीचंद रइगेहगओ उचिय - हाणासीणो भणइ एवं / / 24 // इह भोगा विसमिय मुह-महुरा परिणामदारुणविवागा। सिवनयरमहागोउर -निविडकवाडोवमा भोगा / / 25 / / भोगा सुतिवखबहुदु-वखलक्खदवहुयबहिंधणसमाणा। धम्मदुमउम्मूलक्षण-समीरलहरीसमा भोगा / / 26 / / किंचज भुत्तमणाइभवे, जीवेणाहारभूसणाईय। एगत्थ पुंजियं तं, अहरेइ धरुधरं धरणिं // 27 // पीयाइँ जाइँ सुमणो-रमाइँ पाणाइँ पाणिणे पुव्यिं / विजति ताइ न ह तत्ति-याइ सलिलाइ जलहीस् // 28 // पुप्फाणि फलाणि दला-णि जाणि भुत्ताणि पाणिणा पुव्यि। विनंति न तिहुयणतरु- गणेसु किर वट्टमाणेसु॥२६॥ अवियभुत्तूणं सुइसुंदरे सुरवहूसंदोहदेहाइए, भोए सायरपल्लमाणमणहे देवत्तणे जं नरो। रजतिथिकलेवरेसुअसुईपुन्नेसु रिहोवमा, मन्ने तित्तिकरा जियाण न चिरं भुत्ता वि भोगा तओ // 30 // तापडिबुज्झह बुज्झाह, मह भोगपरव्वसं मणं काउं। दुत्तरअणोरभवजल-निहिम्मि परिभमह दुक्खत्ता // 31 // इय सोउ कुमरवयणं, ताउ पबुद्धाउ निवइधूयाओ। विसयविरत्तमणाओ, कयंजलीओ भणंति इमं // 32 / / सामिय! अवितहमेय, ज तुमएजंपियं परं कहसु। को परिहरणोवाओ, विसयाण कहेइ तो कुमरो॥३३॥ सुहगुरागिराइ अकलं-कचरणआसेवणं तओ जाओ। पभणति सामि! अम्हे, दिक्खाए लहुवि सजेसु॥३४।। तुह घरिणीसद्देणं, वयं कयत्था उ अज जायाओ। संपइ पुण गिहवासे, न खणं पिरइं लहेमु त्ति॥३५|| तुह्रो भणइ कुमारो, जुत्तमिणं तुम्ह य विवेयाणं / किं तु समाहिजुयाओ, गुरुआगमण पडिवखेह॥३६।। समए वयमवि एवं, कहामो ताउजं पवनंति। परियणमुहाउ एयं, हरिसीहनिवेण विन्नायं // 37 // तो तेण चिंतियमिणं, वसीकओ नेव एस महिलाहि। नवरं इनिणा चरण जयाउ एयाउ विहियाओ॥३८|| तो ससिणेहं पभणिय, इम निउंजेमि रजदंडम्मि। जंतव्वाउलयाए, वीसारइ धम्मवत्तं पि॥३६॥ इय निच्छिय तेणुत्तो, कुमारो बहुरजगहणविसपम्मि। पडिकूलिउमवयंतो, पिउवयणं सो सुदविखन्नो // 40 // चिंतइ अहो विरुद्धं, रजग्गहणं तवुजुयमईणं। सागरगमणमणाणं, हिमवंताभिमुहगमणं व // 41 / / निबंधो पुण पिउणो, लक्खिज्जइ गुरुतरो इहऽत्थम्मि। दुप्पडियारा गुरुणो, न लंधियव्वा सयन्नेहिं / / 4 / / संभाविज्जइपच्छा, विपत्थणा एरिसी किर इमस्स। धम्मायरियाऽऽगमणं, पडिक्खियव्वं मए विधुवं / / 43|| ता परमपीइपउणं, पिउणो वयणं करेमि अहमिहि। इय चिंतिय पडिवज्जइ, कुमरो निवसासणं सिरसा / / 44 / / तो पहुविचंदकुमर, अनेससामंतमंतिसंजुत्तो। अभिसिंचिय रजभरे, कयकिचो नरवई जाओ॥४५|| नरराया पुण तीए रायसिरीए न रंजिओ कि पि। कुणइ तहा वि पवित्ति, उचियं जणयाणुरोहेणं // 46 // रजं वसणविरहिय, विहियं मुकाउ सयलगुत्तीओ। घुद्यो य अमोघाओ, सयले नियमंडले तेण // 47 // पाय अन्नो विजणो, विहिओ जिणसासणम्मि अइभत्तो। सचं च वयणमेयं, जह राया तह पया होइ॥४८|| कइया वि सभाऽऽसीणो, स वित्तिणा पणिओ जहा देव ! / तुह दसणं समीहइ, देसंतवाणिओ सुधणो / / 46 / / मुंचसु इय निवभणिए, सो मुक्को वित्तिणा तओ सुधणो। नभिऊण पुहइनाह, उचियठ्ठाणम्मि आसीणो // 50 // रना भणियं भो सि-द्वि! कहस कत्तो समागओऽसि इहं?1 भमिरेण महिं कत्थ वि, किं दिटुं अच्छरिखं च ? // 51 / / सिट्ठी विआह सामिय! गयपुरनगराउ आगओऽम्हि इह। भुवणजणविम्हयकरं, अच्छरिय पुण इमं दिटुं॥५२॥ तथाहिआसिह गयपुरनयरे,बहुरयणो रयणसंचओ सिट्ठी। भज्जा सुमंगला से, पुत्तो गुणसायरो नाम / / 53|| अहरयणसंचएण,पसरियनवजुव्वणस्सतस्स कए। अट्ठएह नयरसिट्ठी-ण अट्ट धूयाउवरियाओ॥५४|| अन्नदिणे ओलोयण-द्विएण गुणसायरेण रायपहे। भिवखत्थं पुरभज्झे, पविसंतो मुणिवरो दिह्रो / / 5 / / कत्थ वि एरिसरूव, पुरा वि मे पिच्छिय ति चिंतंतो। परिपालियचरणभरं, पुष्वभवं संभरइ सो उ।।५६।। अइनिबंधेण तओ, वयगहणकए स पुच्छए पिउणो। रुयमाणी दीणमणा, से जणणी भणइ तो एयं / / 57 / / जइ वितुह वच्छ! चित्तं, खणं पिन रई गिहे कुणइ राह वि। नवपरिणीयनियमुहदं-सणेण रंजेसु णे हिययं / / 5 / / तयणव्वयगहणविसए, तहऽतरायं न कि पिकाहामो। इय जणणीए वयण, तह त्ति पड़ियणए सो वि / / 5 / / वेवाहियसिट्ठीणं, कहावियं रयणसंचरण इमं / परिणयणाणतरमे-य महसओ गिणिहही दिवखं / / 6 / / तं सोउ ते वाउल-हियया मंतति किं पिता धूया। जपति किमिह ताया ! कन्ना दिजति वारदुर्ग // 61 / / से च्चिय भत्ता जं सो, करिस्सए तं वयं पिकाहामो। तेणं अपरिणीया, न करिस्सामो वरं अवरं / / 6 / / इय सोउ पुत्तिवयणं, ते सव्ये सिट्ठिणो पहिट्ठमणा। गुणसायरेण कारं-ति पाणिगहणं नियसुयाणं // 63|| गिजंतबहलधबले, वीवाहमहेपयद्रमाणम्मि। कयसयलजणक्खेवे, पुरओ नट्टम्मि यदृते / / 64|| गुणसायरो विनासा-निहियच्छो रुद्धइंदियवियारो। चिंतइ एगगमणो, समणो होहं सुए अहयं / / 6 / / एवं तवं करिस्सं, एवं हंगरूण विणयभरं। इय संजमे जइस्सं, इय झाइस्सं सुहज्झाणं॥६६|| इय चिंतंतो निहुयं, सुमरंतो पुव्यभवसुयरहस्सं। उल्लसियसियज्झाणो, संपत्तो केवलं नाणं // 67 / / ताओ विनवबहूओ, तह निचललोयणं तमेगग्ग। पेहंति पहिट्ठाओ, लज्जाभुउलिंतनयणाओ॥६८|| चिंतति अहो धन्नो, उवसमलच्छीइ रंजिओ धणियं / अम्हासु कह रज्जइ, सञ्जो सावज्जभरियास॥६६॥ वयमवि सुपुन्नपुन्ना, जलदो एस सुगुणधणअटो। सिवनयरसत्थवाहो, भवरनविलंघणसमत्थो / / 7 / / एयाणुमग्गलग्गा, सम्मं धम्म सुनिम्मलं चरिउं। काहामो भूरिभबु-भवाण दुक्खाण वुच्छेयं / / 71 / / Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुहवीचंद 1068- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुहवीचंद एवं विचिंतिरीओ, अणुमोयंतीउ सुद्धभावाओ। पत्ताउ केयलसिरिं, खणेण ताओ वि सव्वाओ।।७२।। तटवेल चिय जयरव-विमिस्सपडपडहसद्दभरियनह। घीलतकन्नकुंडल-सुरमंडलमागयं तत्थ।।७३।। पडिवन्नदव्वलिंग, तं मुणिपवरं नमेइ सुरसंघो। केवलमहिम परमं, करेइ हरिसं सुपडिपुन्नो 74 // दह्रण तं च चित्तं, सुमंगला रयणसंचओ सिट्टी। गुरुसंवेगोवगओ, संपत्तो झत्ति वरनाणं / / 7 / / इय पिच्छिवि अच्छरिय, राया सिरिसेहरो सपरिवारो। पत्तो तहिं वि पणमिय, सुमुणिं पुरओ समासीणो // 76 / / अहयं विपुव्वपेसिय–वरबाहणजाणपरियणो देव!। इह आंगतुमणो विहु, पत्तो कोऊहलेण तहिं / / 77|| नियचरियकहणपुव्वं, ते णुत्तोऽहं जहा तुमं सुधण!! उज्झाए गंतुमणो, पत्तो पुण कोउगेण इह // 78|| तथाहिदूरं पत्तो सत्थो, पुणरवि सुलहं न एरिसं पुज्ज। इय चिंतावाउलिओ, न तरसि गंतुन वा ठाउं / / 76|| ता कित्तियमित्तमिणं, चित्तं इहरि विखवइ (पुणो) जंते। दच्छसि इत्तो श्रब्धा-हियमुभयं तत्थ संपत्तो / / 8 / / इय सम्म आयन्निय, नमिय गुरुं इह समागओऽम्हि कमा। संपइ अच्छरियकरं, पहु? तुह पासं समणुपत्तो / / 81 / / इय निसुणतो गुरुतर-गुणाणुरागाइरेगओ राया। आणंदमुद्दियमणो, चितिउमेवं समारद्धो / / 8 / / सव्वगुणसायरो सो, महाणुभावो महामुणी जेण। तह साहियं सकजं, निजियमोहणुबंधेण // 3 // धन्नाणं भंजियमो-हनिविडनिगडाण भोगसामग्गी। न तरइ काउं धम्म-तरायमचंततुंगा वि।।८४।। हा कह जाणंतु चिय, पडिओऽहं रज्जकूडतम्मि। गुरुजणदक्खिन्नवसा-वभारसामन्नदंतिव्व॥८५। कइया सहेलपरिस-कसयलभोगोवभोगजोगाण। धम्मधराण मुणीणं, मज्झे गणणं लहिस्सामि॥८६|| कइया गुरुपयपणओ, नाणचरित्ताण भायणं होह। कइया सम्म सहिहं उवसगं परिसहुप्पीलं॥८७॥ इच्चाइ चिंतयंतो, अपुवकरणक्कमेण स महप्पा। सिवपयगमनिस्सेणिं, खवगस्सेणिं समारूढो॥८८।। सियझाणघणेणखणे–ण तेण घणधाइकम्मसंघायं। संचुन्निऊण संप-तमुत्तमं केवलं नाणं / / 86 / / अह तत्थ सुहम्मवई, पत्तो अप्पित्तु दध्वलिंग से। पणमित्तु चलशजुयलं, केवलिमहिमं करेसी य॥६॥ तं दट्टुं हरिसीहो, राया पउमावई (य) सह तत्थ। संपत्तो जंपतो, अहो किमेयं किमेयं ति।। 61 / / ताओ वि तस्स भन्जा-उतत्थ हरिसेण आगया उलहुँ। संवेगपरिगयाओ, केवलनाणं च पत्ताओ / / 6 / / एय तंगुणसायर केवलिकहियं महंतमच्छेरं। सो सुधणसत्थवाहो, विम्हियचित्तो विचिंतेइ / / 63|| अह पुच्छइ नरनाहो, भयवं! कि तुम्ह उवरि अम्हाण। अइगुरुओ पडिबंधो, तो इय जंपइ समणसीहो।।६४|| तं निव! चंपाइ पुरा, जयराया पियमई पिआ हुत्था। कुसुम्यउहु त्ति नामे-ण नंदणो तुज्झ अहमासि / / 65|| संजमगुणेण तुब्भे, विजयविमाणे सुरा समुप्पन्ना। अहयं पुण सव्वड्डे, संजोगो पुण इदं जाओ॥६६|| तो मज्झ उयरि गुरुओ, नेहो तुम्हाण इय सुणताणं / ताणं जायं जाई-सरणं तह केवलं नाणं / / 17 / / तेसिं पि कया महिमा सुरवइणा भत्तिभारनमिरेण / जाओ परमाणंदो, नयरीए जणियजणपुज्जो // 18 // अह सुधणसत्थवाहो, मुणीसरं नमिय पुच्छए एवं। तुम्ह गुणसायरस्स य, समाणगुणया कहमिवेसा ? // 66|| मह नंदणो अहेसी, वयं गहेसी मए सद्धिं / / 100 / मम समसुचिन्नधम्मो, तणुइयकम्मोऽणुभूयसुरजम्मो। सो कुसुमकेउतियसो, सुंदरगुणसायरो जाओ॥१०१।। पुन्नं सुहाणुबंधं, समपरिणामेण पुट्ठमम्हहिं। समसुह परंपराए, परिणयमेवं तओ अम्हे // 102 / / एयाओ वि बहूओऽ–णंतरभवभारियाउ दुण्हं पि। कयसंजमाउऽणुत्तर-सुरेस वसिऊण सुहजोगा।॥१०३॥ जायाओ जायाओ, एवं भवियव्वयानिओगेणं। संपत्ताओ केवलि-सिरिं च सामग्गिजोगेण / / 104 / / इय सोउ पडिबुद्धो, सुधणो वि सुसावयत्तमणुपत्तो। अन्नो वि बहू लोगो, सुचरियचरणुज्जओ जाओ।।१०५।। हरिणा हरिसीहसुओ, ठविओ रजम्मि तयणु हरिसेणो। पुहईचंदरिसी वि हु, सुचिर विहरिय सिवं पत्तो॥१०६।। पृथ्वीचन्द्रक्षितिपचरितं संनिशम्येति सम्यक्, तातभ्रातृस्वजनदयितामुख्यलोकोपरोधात् / दीक्षाऽऽदानप्रगुणमतयो गेहवासेऽपि सन्तो, भव्या लोकास्त्यजत सततं कामभोगेषु शक्तिम्॥१०७।। इति पृथ्वीचन्द्रनरेन्द्रकथा। ध० 202 अधि०६ लक्ष०। पुहवीचलपुं० (पृथिवीचल) अनङ्गमञ्जरीपितरि स्वनामख्या ते नरनाथे, दर्श०३ तत्व। सोपारकपट्टनराजे अट्टनमल्लपोषके, आव० 4 अ०। पुहवीसपुं० (पृथ्वीश)। राजनि, "न युवर्णस्यास्वे" ||8|16|| इति सन्धिनिषेधे अस्वे इति पर्युदासात्-पुहवीसो। प्रा०१ पाद। पुहुत्त न० (पृथुत्व) विस्तारे, स्था० 4 ठा०२ उ०। समयपरिभाषया द्विप्रभृतावानवतौ, विशे०। भेदे द्विवचनबहुवचनयोः तदनुयोगोऽपितथा, यथा- “धम्मत्थिकाए धम्मत्थि कायदेसे धम्मस्थिकायप्पदेसा। 'इह सूत्रे धर्मास्तिकायप्रदेशा इत्येतद् बहुवचनं तेषामसंख्यातत्वख्यापनार्थमिति। स्था० 10 ठा०। पूअ (देशी ) दधनि, दे० ना०६ वर्ग 56 गाथा। पूइ स्त्री० (पूति) नासाकोथलक्षणे रोगविशेष, (208 गाथा) विशेष दुर्गन्धतायाम्, अनु० / मांसाऽऽदौ, आव०५ अ० / वृक्षविशेष, प्रज्ञा०१ पद। पूइकड न० (पूतिकृत)आधाकर्माऽऽदौ, सूत्रा० 1 श्रु०१ अ०३ उ० / पूइक ण्णी स्त्री० (पूतिकर्णी) पूतिपरिपाकतः कुथितगन्धा कृमिकुलाऽऽकुलत्यादुपलक्षणमेतत् तथा विधौ कर्णो श्रुती यस्याः। पक्करक्तं वा पूतिः तयाऽऽत्तौ कर्णी यस्याः सा पूतिक Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुहवीचंद 1069- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुहवीचंद णीं। उत्त० 1 अ०। सटितकाम्. उत्त०। 'जहा सुणी पूइकण्णी' उत्त० १अ० पूइकम्म न० (पूतिकर्मन्) पूति-अपवित्रां तस्य कर्म, पवित्रास्य स तोऽपवित्रभक्ताऽऽदिमीनलनेन करणं पूतिकर्म, तद्योगाद् भक्ताऽऽद्यपि पूतिकर्म। पञ्चा० 6 विव०ा सम्भाव्यमानाऽऽधाकर्माव यवसम्मिश्रे, दश० 5 अ०१ उ०ा आधाकर्माऽऽद्य-विशुद्धकोट्यवयवेनाऽपि संपूक्ते, सूत्र० 1 श्रु०११ अ०। गायथा शुचिः पयोघटोऽपि एकेन मद्यविन्दुनाऽशुचिः स्यात्, तथा पूतिकर्मणा विशुद्धाऽऽहारमपि आधाकर्मिकयोगात् पूतिक स्यात्। अयं तृतीयो दोषः। उत्त०२४ अ०। आचा०। पं० चू०। धo| ग0) दर्श०। पं०व०। बृ०॥ सम्प्रति पूतिद्वारं वक्तव्यम्। पूतिश्चतुर्विधा। तद्यथा नामपूतिः स्थापनापूतिर्द्रव्यपूतिर्भावपूतिश्चा ता नामस्थापने सुज्ञानत्वादनाद्दत्य द्रव्यभावपूती प्रतिपादयतिपूईकम्मं दुविहं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं / दव्वम्मि छगणधम्मिय, भावम्मि य बायरं सुहुमं / / 243 / / 'पूतिकम्मे पूतीकरण द्विधा / तद्यथा-'द्रव्ये' द्रव्यविषयं 'भावे' भावविषय, तत्रा द्रव्ये 'छगणधार्मिकः' गोमयोपलक्षितो धार्मिको दृष्टान्तः / भावविषय पुनर्द्विधा बादरं, सूक्ष्मंच। इह यद् द्रव्यस्य पूतिकरणं तद द्रव्यपूतिः, येन पुनद्रव्येण भावस्य पूतिकरणं तद् द्रव्यमप्युपचाराद् भावपूतिः ततो वक्ष्यमाणमुपकरणाऽऽदि भावपूतित्वेनाऽभिधीयमानं न विरुध्यते। तत्र प्रथमतो द्रव्यपूतिलक्षणमाह - गंधाइगुणसमिद्धं, दव्यं असुइगंधदव्वजुयं / पूइ त्ति परिहरिजइ, तं जाणसु दव्वपूइ त्ति // 244 / / इह यत् पूर्व स्वरूपतो 'गन्धाऽऽदिगुणविशिष्ट सुरभिगन्धाऽऽदिगुणविशिष्टमपि, अपिरत्रा सामर्थ्याद्गम्यते, पश्चादशु चिगन्धद्रव्ययुक्तं सत् पूतिरिति परिहियते, तद् द्रव्यं जानीहि द्रव्यपूतिरिति। अत्राार्थे गाथाद्वयेनोदाहरणमाह - गोहिनिउत्तो धम्मी, सहाएँ आसन्नगोट्ठिभत्ताए। समियसुरवल्लमीसं, अजिन्न सन्ना महिसिपोहो॥२४५|| संजायलित्तभत्ते, गोट्ठिगगंधो त्ति वल्लवणियाओ। उक्खणिय अन्न छगणे-ण लिंपणं दव्वपूई उ॥२४६।। समिल्ल नाम पुर, ता बहिरुद्याने सभाकलितदेवकुलिकाया माणिभद्रो नाम यक्षः अन्यदा च तस्मिन् पुरे शीतलकाभिधमशिवमुपतस्थे, ततः कैश्चित्तस्य यक्षस्योपया चितकमिष्टं यद्यस्मादशिवाद्वयं निस्तरामस्ततस्तवैक वर्षमष्टम्याऽऽदिषूद्यापनिकां करिष्यामः, ततो निस्तीर्णाः कथमपि तस्मादशिवात्, जातश्च तेषां चेतसि चमत्कारोयथा नूनमयं स प्रातिहार्यो यक्ष इति / ततो देवशर्माभिधो भाटकप्रदानेन पूजाकारको बभणे, यथा वर्षमेकं यावदष्टम्यादिषु प्रातरेव यक्षसभा गोमयेनोपलिम्पेः येन तत्र पवित्रीभूतायां वयमागत्योद्यापनिका कुर्मः, तथैव तेन प्रतिपन्न, ततः कदाचि दद्योद्यापनिका भवष्यितीति कृत्वा सभोपलेनार्थमनुद्गत एव सूर्ये कस्याऽपि कुटुम्बिनो गोपाटके छगणग्रहणाय प्रविवेश, तत्रा च केनाऽपि कर्मकरेण रात्रौ मण्डकवल्लसुराऽऽद्यभ्यवहारतो जाताऽजीर्णन पश्चिमरात्रिभागे तरिमन्नेव गोपाटके क्वचित्प्रदेशे दुर्गन्धमजीर्णं पुरीष घ्युदसर्जि, तस्य चोपरि कथमपि महिषी समागत्य छगणपोहं मुक्तवती. ततस्तेन स्थगितं तदजीर्णं पुरीषं देवशर्मणा न ज्ञातमिति. देवशर्मा त छगणपोहं सकलमपि तथैव गृहीत्वा तेन सभामुपलिप्तवान्, उद्यापनिकाकारिणश्च जना नानाविधमोदनाऽऽदिकं भोजनमानीय यावद् भोजनार्थतत्रोपविशन्ति, तावत्तेषामतीव दुरभिगन्धः समायातः, ततः पृष्टो देवशर्मा, यथा कुत्तोऽयमशुचिगन्धः समायाति? इति। तेनोक्तं नजाने, ततस्तैः सम्यकपरिभावयद्विरुपलेपनामध्ये वल्लाऽऽद्यवयवादद्दशिरे सुरागन्धश्च नितिः , ततो जज्ञे यदुपलेपनमध्ये पुरीषमवतिष्ठते इति, ततः सर्व भोजनमशुचीतिकृत्वा परित्यक्तम्, उपलेपनं च समूलमुत्खातम्, अन्येन च गोमयेन सभोपलेपिता, भोजनाऽऽदिकं चान्यत् पक्त्वा भुक्तामिति / सूत्र सुगमं, नवरं धर्मी धार्मिकः ('समिय' त्ति) मण्डकाः 'सञ्झा पुरीषम्, अत्र यदुपलेवन, यत्र तत्रा न्यस्तं भोजनाऽऽदिकं, तत्सर्वं द्रव्यपूतिः / उक्ता द्रव्यपूतिः। अथ भावपूतिमाहउग्गमकोडीअवयव-मित्तेण वि मीसियं सुसुद्धं पि। सुद्धं पि कुणइ चरणं, पूइं तं भावओ पूई // 247 / / 'उद्गमस्य' उदमदोषजालस्य याः कोटयोऽस्त्रयः विभागा आधाकमाऽऽदिरूपा भेदा इत्यर्थः / ताश्च द्विधा-विशोधयोऽविशोधयश्च / तोहाविशोधयो ग्राह्याः, तासामविशोधिरूपाणामुन्द्रमकोटीनामवयवमात्रोणापि मिश्रितमशनाऽऽदिकं स्वरूपतः 'सुशुद्धमपि' उद्रमाऽऽदिदोषरहितमपि सत् यद् भुज्यमानं चरणं 'शुद्धमपि' निरतिचारमपि पूर्ति करोति, तदशनाऽऽदिकं भावपूतिः। 'उग्गमकोडी' इत्युक्तम् / ततस्ता एवोगमकोटीरभिधित्सुराह - आहाकम्मुद्देसिय, मीसं तह वायरा य पाहुडिया। पूई अज्झोयरओ, उग्गमकोडी भवे एसा / / 248 / / आधाकर्म सकल तथा औद्देशिक यावदर्थिकं मुक्त्वा शेषं कम्मौद्देशिक 'मिश्र' पाखण्डिसाधुमिश्रजातं बादरा च प्राभृतिका 'पूतिः' भावपूतिः अध्यवपूरकश्चोत्तरभेदद्वयाऽऽत्मकः, एषा भवति उद्रम कोटिरविशोधिकोटिरूपा। तदेवं भावपूर्ति स्वरूपत उपदर्थ्य सम्प्रति भेदत आहबायरसुहुम भावे, उ पूइयं सुहुममुवरि वोच्छामि। उवगरणे भत्तपाणे, दुविहं पुण बायरं पूई / / 256 / / 'भावे' भावविषया पूतिर्द्विविधा / तद्यथा-बादरा, सूक्ष्माच / सूत्रो च नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात्, तत्र सूक्ष्मा भाव पूतिमुपुरि वक्ष्ये। बादरा पुनर्द्विधा। तद्यथा-'उपकरणे' उपकरणविषया, भक्तपाने' भक्तपान विषया। तत्र भक्तपानपूर्ति सामान्यतो व्याचिख्यासुराहचुल्लुक्खलिय डोए, दव्वी छूढे य मीसगं पूई। डाए लोणे हिंगू, संकामण फोडणे धूभे // 250 / / 'चुल्ली प्रतीता, 'उखा' स्थाली, 'डो य बृहदारुहस्तकः, महांश्चटुक इत्यर्थः, 'दव्वी' लघीयान् दारुहस्तकः, ए Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुहवीचंद 1070- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुहवीचंद तानि च सर्वाण्याधाकाऽऽदिरूपाणि द्रष्टव्यानि, सर्वत्रापि च तृतीयार्थे सप्तमी। ततोऽयमर्थः-एतैः सम्मिश्रं शुद्धमपि यदशनाऽऽदि तत् पूतिः, तब चुल्ल्युखाभ्यां मिश्रिताभ्यां कृत्वा रन्धनेनः यद्वा तत्रा स्थापनेन, तथा 'डाय' शाकालवणं हिड्ड च प्रतीतम्, एतेराधाकर्मिकैः सम्मिश्रं पूतिः। तथा संक्रामणफोटनधूमैः इति, तत्रा संक्रामणम्-आधाकर्म, भक्ताऽऽदिखरण्टिते स्थाल्यादौ शुद्धस्याशनाऽऽदेः पचनं मोचन या, यदा-दारुहस्तेनाऽऽधाकर्मणाऽन्यत्रा स्थाल्यां सञ्चारणं, स्फोटनम्आधाकर्मणा राजिकाऽऽदिना संस्कारकरणं, धूमः हिब्वादिसत्को बघारः। एनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमत उपकर णशब्द व्याख्यानयतिसिज्झंतस्सुवयारं, दिजंतस्सव करेइ जं दव्वं। तं उवकरणं चुल्ली, उक्खा दवी य डोयाई / / 251 / / (पिं) (अस्याः व्याख्या 'उवगरण' शब्दे 2 द्वितीयभागे 877 पृष्ठे गता।) तत्र चुल्ल्युखयोः स्थितमशनाऽऽदिकमाश्रित्य कल्प्याक लप्यविधिमाह - चुल्लुक्खा कम्माई, आइममंगेसु तीसु वि अकप्पं। पडिकुटुं तत्थऽत्थं, अन्नत्थगयं अणुन्नायं / / 252 / / इह, चुल्ल्युखे कदाचिद्वे अप्पाधाकर्मिके आधाकर्मिक कर्दमसम्मिश्रे वा भवेतां, कदाचिदेकतरा काचित्, तत्रा च भङ्गाश्चत्वारः, तद्यथाचुल्ली आधाकर्मिकी उन्ना च 1, चुल्ली आधाकर्मिकी नोखा 2, उखा आधाकर्मिकी न चुल्ली 3 नोखा आधकर्मिकी नापि चुल्ली 4 / तत्राऽऽदिमेषु शिष्वपि भङ्गेषु रन्धनेनावस्थानमात्रेण वा स्थितमकल्प्यं पूतिदोषात् / अकल्प्यस्यापि तस्य विषयविभागेन कल्प्यतामकल्प्यता चाऽऽह-'ता' चुल्ल्यादौ रन्धनेनान्यतो वाऽऽनीय स्थापनेन स्थितं सत् 'प्रतिक्रुष्ट' निराकृतम्, अन्यत्र गतं पुनस्तदेवानुज्ञातं तीर्थकराऽऽदिभिः। इयमत्रा भावना-यदि ता राद्धम्, अथवा अन्यतः समानीय स्थापित ततो यदि तदेवान्या स्ययोगेन नीतं भवति न साध्वर्थ तर्हि कल्पते। तदेवं चुल्ल्युखास्थितस्य कल्प्याकल्प्यविधिमुपदर्य, सम्प्रति चुल्ल्याधुपकरणानां पूतिभावं दिदर्शयिषुः 'चुल्लुक्खलिया डोए" (250) इति पूर्वोक्त गाथाऽवयवं व्याख्यानयतिकम्मियकद्दममिस्सा, चुल्ली उक्खा य फड्डगजुया उ। उवगरणपूइमेयं, जेए दंडे व एगयरे // 253 / / आधाकर्मिकन कईमेन या मिश्रा। किमुक्तं भवति ? कियता शुद्धन कियता चाऽऽधाकर्मि के ण या निष्पादिता चुल्लीउखा च सा आधाकर्मिककर्डममिश्रा, कथम्? इति, आह-(फडुगजुया उत्ति) अत्रा हेतौ प्रथमा। ततोऽयमर्थः-यतः फडु (के) गेन आधाकर्मि के न कमसूचकेन युता तत आधाकर्भिककर्दममिश्रा, सा इत्थंभूता उपकरणपूतिः, तथा 'डोए' इति। एकदेशे समुदायशब्दोपचारात्' 'डोय' इत्युक्ते डोयस्याग्रभागो गृह्यते, तस्मिन, यद्वा-दण्डे एकतर स्मिन्ना धाकर्मणि स दारुहस्सकः पूतिर्भवति, एवमनया दिशा अन्यस्याप्युपकरणस्य पूतित्वं भावनीयं, तत्र चुल्लयुखाविषये कल्प्याकल्प्यविधि रनन्तरमेवोक्तो दारुहस्तके चाऽऽधाकर्मणि पूतिरुपे या स्वयोगेन स्थाल्या बहिष्कृते स्थाल्यां स्थितमशनाऽऽदि कल्पते, न तु तेन सम्मिश्रमिति। 'सम्प्रति ''दव्वी छूढे य" इति व्याचिस्यासुराहदव्वीछूढे तिजं वुत्तं, कम्मदव्वीऍ जदए। कम्मं घट्टिय सुद्धं तु,घट्टए हारपूइयं / / 254|| 'दवी छूढे' (250) इति यद् प्रागुक्तं तस्यायमर्थः- 'कर्मदा, आधाकर्मिकदा यत् शुद्धमप्यशनाऽऽदिकं घट्टयित्वा ददाति तद् 'आहारपूतिः' भवतपूतिः / सा चेद्दर्वी स्थाल्याः सकाशान्निष्काशिता तर्हि स्थाल्याः सत्कं कल्पते, यद्वामा भूदाधाकर्मिकी दीं, केवल शुद्धयाऽपिदा यदि पूर्वमाधाकर्मिक, 'घट्टयित्वा' चालयित्वा पश्चादाधाकर्मा वयवखरण्टितया यदपरं शुद्धमपि भक्ताऽऽदिकं यथयति, घट्टयित्वा च ददाति तदप्याहारपूतिः। अस्यां च दा स्थाल्या निष्काशितयामपि पाश्चात्य स्थालीभक्तंन कल्पते, आधाकर्मावयवमिश्रितत्वात्। "डाए'' (250 गा०) इत्याधुत्तरार्द्ध व्याचिख्यासुराहअत्तट्ठिय आयाणे, डायं लोणं च कम्म हिंगुं वा। तं भत्तपाणपूई, फोडण अन्नं व जं छुहइ // 255 / / संकामेउं कम्मं, सिद्धं जं किंचि तत्थ छूट वा। अंगारधूमि थाली, वेसण हेट्ठा मुणिहि धूमो // 256 / / आत्मार्थम् 'आदाने'तकाऽऽदिपाकारऽऽम्भकरणरूपे सति यदाधाकर्मिकं 'डाय' शाकं, यदि वा-लवणं, यद्वा-हिडगुः, अन्यथा स्फोटनं राजिकाजीराकाऽऽदि तत् तक्राऽऽदिक तेन सम्मिश्रं भक्त पानपूतिः। एतेन "डाएलोणे हिंगू फोडणं' इति व्याख्यातम्। तथा यस्यां स्थाल्या राद्धमाधाकर्म तदन्यत्रा संक्रमथ्य प्रतिक्षिप्य तस्यामेव स्थाल्यामकृतकल्पयायां यदात्मार्थ सिद्धं किञ्चित्, यद्वा-तत्रा प्रक्षिप्तं तदपि भक्तपानपूतिः, अनेन "संकमणं,' ति व्याख्यातं, तथा 'अङ्गारेषु' निर्दूमाग्निरुपेषु'वेसने वेसनग्रहणमुपलक्षणम्, तेन वेसनहिङगुजीरकाऽऽदौ प्रक्षिप्ते सति यो धूम उच्छलति स वेसनाङ्गारधूम इति ज्ञातव्यं, पूर्वगाथायां धूम इत्यस्यपदस्यायमर्थो भावनीय इत्यर्थः वेसन शब्दस्य च व्यस्तः संबंध आर्षत्वात्, अडाराऽऽदीनां चमध्ये एकद्वे त्रीणि वाऽऽधाकर्मिकाणि द्रष्टव्यानि, अनेन च धूमेन या व्याप्ता स्थाली तक्राऽऽदिक या तदपि पूतिः / उक्ता बादरपूतिः। अथ सूक्ष्मपूतिमाहईंधणधूमेगंधे अवयवमाईहिं सुहमपूई उ। सुंदरमेयं पूई, चोयग भणिए गुरु भणइ / / 257 / / अौकारद्वयस्य छन्दोऽर्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्ययान्मकारस्य चालाक्षणिकत्यादेवं निर्देशोद्रष्टव्यः-'इन्धनधूमगन्धाऽऽद्यवयवैः, इति, इन्धनग्रहण चोपलक्षणं, ततोऽङ्गारा अपि गृह्यन्ते, आदिशब्देन च वाष्पपरिग्रहः। ततोऽयमर्थः-इन्धनाङ्गारा वयवधूमगन्धवाष्पैराधाकर्मसम्बन्धिभिः सम्मिश्रं यत् शुद्धमशनाऽऽदिकं सूक्ष्मपूतिः / एषा च किल सूक्ष्मपूतिर्न Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूइकम्म 1071- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पूइकम्म आगमे निषिध्यते, ततश्चादक आह- 'सुन्दर' युक्तमेना पूर्ति वर्जयितु, तत्किं नाऽऽगमे निषिध्यते? एवं परेणोत्के गुरुर्भणतिइंधनधूमेगंधे - अवयवमाई न पूइयं होइ। जेसिं तु एस पूई, सोही न वि विजए तेसिं // 258|| अत्रापि पदयोजनां प्रागिवा ततोऽयमर्थः-इन्धनाङ्गारावयवधू मगन्धवाष्पैराधाकर्मसम्बन्धिभिर्निभं पूतिर्न भवति, येषां तु मतेन पूतिर्भवति तेषां मतेन साधोः शुद्धिः सर्वथा न विद्यते। एतदेव भावयतिइंधनअगणीअवयव, धूमो बप्फो य अन्नगंधो या सव्वं फुसंति लोयं, भन्नइ सव्वं तओ पूई / / 256 / / इन्धनान्यवयवाः सूक्ष्माये धूमेन सहादृश्यामाना गच्छन्ति, तथा धूमो वाष्पोऽन्नगन्धश्च, एते सर्वेऽपि प्रसरन्तः किल सकलमपिलोकं स्पृशन्ति, तत्पुद्गलानां सकलमपि लोक यावगमनसम्भवात्, ततस्तवाभिप्रायेण सर्वमपि पूतिरापद्यते, तथा च सति साधोः कथं शुद्धिः ? इति। अापरः प्रागुक्तविरोध दर्शयन् स्वपक्षं समर्थयतिनणु सुहुमपूइयस्सा, पुव्वुट्ठिस्सऽसंभवो एवं। इंधणधूमाईहिं, तम्हा पूइ त्ति सिद्धिमिणं // 260 / / मनु यदीन्धनाग्न्यवयवाऽऽदिभिः पूतिर्न भवेत्, एवं सति तर्हि पूर्वोदिएस्य ''भावम्मि उ बायरं सुहुम'' इत्येवमुक्तस्य सूक्ष्मपूतेरसम्भवः प्राप्नोति, अन्यस्य सूक्ष्मपूतेरभावात् तस्मात् सिद्धमिदं यदुत इन्धनधूमाऽऽदिभिः सम्मिश्र पूतिः सूक्ष्मपूतिरिति। अा गुरुराहचोयग! इंधणमाई--हिँ चउहि वी सुहुमपूइयं होइा पन्नवणामित्तमियं, परिहरणा नत्थि एयस्स // 261 / / 'हे चोदक!' प्रेरक! इन्धनाऽऽदिभिः' इन्धनाग्नयवयवधू मवाष्पगन्धैश्चतुर्भिरपि स्पष्ट सूक्ष्मपूतिर्भवति, नात्र कश्चिद्वि वादः, एनामेव च सूक्ष्मपूतिमधिकृत्य प्रागुक्तम् (भावम्मि उबायरं सुहुम इति) केवलमिदं सूक्ष्मपूतित्वेन भणनं प्रज्ञापनामात्र, परिहणं पुनस्तस्याः सूक्ष्मपूतेनास्ति, अशक्यत्वात्। एतदेव प्रपञ्चयतिसज्झमसज्झं कलं, सज्झं साहिज्जए न उ असज्झं। जो उ असज्झं साहइ, किलिस्सइन तं च साहेइ॥२६२।। इह द्विविध कार्य साध्यमसाध्यं च शक्यमशक्यं चेत्यर्थः, तत्रा साध्य साध्यते न त्वसाध्यं, य स्त्वसाध्यं युष्मादृशः साधयति स नियमात् क्लिश्यते, नच तत्कार्य साधयति, अविद्यमानोपायत्वात्, एषोऽपि चानन्तरोक्तः सूक्ष्मपूतिरशक्य परिहारः, ततो न परिहि यते। सम्प्रति परः "बायरं सुहमं ति 'समर्थयमानोऽपर सूक्ष्म पूर्ति तस्य परिहरणं च शक्यं प्रतिपादयतिआहारकम्मियभायण-पप्फोडण काय अकयए कप्पे। गहियं तु सुहुमपूई, धोबणमाईहिँ परिहरणा / / 263 // यत्रा भाजने गृहीतमाधाकर्म तस्मिन् भाजने आधाकर्म परित्यागानन्तरं प्रस्फोटनं कृत्वा हस्तेनाऽऽस्फालनाऽऽदिनासर्वानप्याधाकवियवानापसार्य अकृते 'कल्पे कल्पनाये यद् गृहीततत्सूक्ष्मपूतिर्भवति, कतिपयोद्धरितसूक्ष्माऽऽधाकर्मावय वमिश्रणसम्भवति, तस्य च सूक्ष्मपूतेः परिहरणं भावनाऽऽदिभिः, किमुक्तं भवति? पात्रास्याऽऽधाकर्मिकपरित्यागान्तर कल्पत्रयधावनेन प्रक्षालनं क्रियते तर्हि सूक्ष्मपूतिर्न भवति, तत एवं सूक्ष्मपूतः परिहरणमपिघटते, तस्मादिदमेव सूक्ष्मपूति स्वरूप मुच्यतामिति भावः। तदेतदयुक्तम्। यत इयं वादरपूतिरेव, तथाहिगृहीतोऽस्ति तस्याऽऽधाकर्मणाः, सत्कैः स्थूलैः सिक्थाऽऽद्यवयवैः तन्मिभंसत्कथं स सूक्ष्मपूतिः? क्तिञ्चधोयं पि निरावयवं, न होइ आहच्च कम्मगहणम्मि। न य अहव्वा उ गुणा, भन्नइ सुद्धीकओ एवं // 264 / / कदाचित् 'कर्मग्रहणे' आधार्मिकग्रहणे सति तत्परित्या गानन्तरं पश्चात् 'धौतमपि' प्रक्षालितमपि पात्रं सर्वथा न निरवयवं भवति, पश्चादपि गन्धस्योपलभ्यमानत्वात्, अथ गन्ध एव केवल उपलभ्यतेन तु तदवयवः कश्चिदस्तीति वूषे,तत आह-नच 'अद्रव्याः' द्रव्यरहिताः गुणाः गन्धाऽऽदयः सम्भवन्ति, ततो गन्धोपलम्भादवश्यं ता धौतेऽपि केचन सूक्ष्मा अवयवा द्रष्टव्याः, ततो भण्यते-'एवमपि' अपिरत्रा सामर्थ्यानगम्यते, भवत्परिकल्पितप्रकारेणा पि कुतः सूक्ष्मपूतेः 'शुद्धिः परिहारो?, नैव कथञ्चन इति भावः, तस्मात्पूर्वोक्त एव सूक्ष्मपूतिः, तस्य च प्रज्ञापनामानं, न तु परिहरणं कर्तुं शक्यमिति स्थितम्। ननु यदि स परमार्थतः सूक्ष्मपूतिस्ततस्तस्याऽपरिहारे नियमादशुद्धिः प्राप्नोति, सोऽपि च सूक्ष्मपूतिः सकललोकव्यापीष्यते, गन्धाऽऽदिपुगलाना क्रमेण सकललोकव्यापनसम्भवात्, ततो यदा तदा वा काप्याधा कर्मसम्भवे सर्वेषामपि साधूनांमशुद्धिः प्रापोतीति नैव दोषो, गन्धाऽऽदिपुद्गलानां चरणभंशाऽऽपादनसामर्थ्यायोगात्, न चैतदनुपपन्नं, लोकेऽपि तथा दर्शनात्। तथाहिलोए वि असुइगंधा, विपरिण्या दूरओ न दूसंति। न य मारंति परिणया, दूरगयाओ विसावयवा ||265 / / लोकेऽपि अशुचिगन्धाः, अशुचिसत्का गन्धपुद्गला दूरत आगता विपरिणताः सन्तः स्पृष्टाः अपि 'न दुष्यन्ति' न स्पृष्टिदोषमशुचिस्पर्शनरूपं लोकप्रसिद्धं जनयन्ति, न च विषावयवा अपि दूरगताः सन्तः 'परिणताः' पर्यायान्तरमा पन्ना मारयन्ति, तथेहाष्याधाकर्मणः सम्बन्धिनो गन्धाऽऽदि पुदला दूरतः समागच्छन्तो विपरिणता न चरणप्राणान् विनाशयितुमीशाः, नाप्याधाकर्मसंस्पर्शलक्षणं दोष जनयन्तीति। तदेवमिन्धनाऽऽद्यवयवापेक्षया यः सूक्ष्मपूतिस्तमपरिहार्य प्रतिपाद्य सम्प्रति शेषद्रव्यपूर्ति परिहार्य प्रतिपादयतिसे सेहि उदव्वेहिं, जावइयं फुसइ तत्तियं पूई। लेवेहिं तिहि उ पूई, कप्पइ कप्पे कए तिगुणे // 266 / शेषैः इन्धनाऽऽद्यवयवव्यतिरिक्तैः शाकलवणाऽऽदिभिर्यावत् स्थाल्यादिपरिमितं द्रव्यं स्पृष्टं भवति तावत्प्रमाणं पूतिः, तथा सिभिलें पैः पूतिः। इयमत्रा भावनास्थाल्यां किलाऽऽधाकर्म Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूइकम्म 1072- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पूतिणिव्वलणमास राद्ध, ततस्तस्या अपनीतम्, अपनीतेच तस्मिन् या पाश्चात्या खरण्टिः आभवत्? ततस्तबिनादर्वाग् दिनत्रयं पूतिरितिकृत्वा परिहर्त्तव्यं, सा एको लेपः, ततस्तस्यामेव स्थाल्यामकृतकल्पत्रयायां शुद्धं राद्धं चतुर्थाऽऽदिषु तु दिनेषु परिग्राह्यम्, अर्थवा-काऽपि प्रश्मन्तरेणाप्यगारिपूतिः, एवं वारद्वयमन्यदपि राद्धं पूतिः, चतुर्थे तु वारे राद्धं न पूतिः, णीनां संलापात् पूतिरपूतिर्वेति ज्ञातव्यं ता हि अपृष्टा एवान्युमुद्दिश्य अथाऽऽत्मयोगेन यदि गृहस्थाः तस्याः स्थाल्याः निःशेषावयवापगमाय कथयन्ति, यथाऽस्माकं श्वः परतरे वा दिने सङ्घभक्तं दत्तमासीत्, कल्पत्रयं ददाति तर्हि का वाता? तत आह-कल्पते तस्यां स्थाल्यां यदा-सखडिः सङ्खड्यां च कृतं साध्वर्थ प्रभूतमशनाऽऽदिकमिति, शुद्धमशनाऽऽदि राद्ध, यदि 'कल्पे' प्रक्षालने त्रिगुणेत्रिसडख्ये कृते तत एवं तासां संलापनाकर्ण्य पूत्यपूती ज्ञात्वा परिहारग्रहणे कार्य। उक्त सति राद्धयति न शेषकालम्। पूतिद्वारम्। पिं०। एतदेव भावयति जे मिक्खू पूइकम्मं भुंजइ, मुंजंतं वा साइज्जइ / / 57 / / इंधणमाइं मोत्तुं, चउरो सेसाणि होति दव्वाई। जे भिक्खू पूइकम्म भुंजति, वावण्णं विणहूँ कुहितं पूर्ति भण्णति, इह तेसिं पुण परिमाणं, तयप्पमाणाउ आरब्भ / / 267 / / पुण समये विसुद्धं आहाराऽऽतिअविसोधिकोडिदोसजुएण संमिस्सं पूतियं भण्णति नि० चू०१ उ० जीतानुसारेण पूतिकर्मणि क्षपणं प्रायश्चित्तम्। इन्धनावयवाऽऽदीनि चत्वारि पूर्वोक्तानि मुक्तव शेषाणि 'द्रव्याणि' जीत। अशनाऽऽदीनि पूतिकरणप्रवणानि ज्ञातव्यानि, तेषां च शुद्धाशना पूइकम्मिया स्त्री० (पूतिकर्मिका) आधाकर्मिकमुद्रया पूरित छिद्रायां ऽऽदिपूतिकरणविषये परिमाणं त्वक्प्रणमादारभ्य द्रष्टव्यम्। इयमा भावनातण्डुलाऽऽदीनामाधाकर्मणां गन्धाऽऽदिचतुष्टयं परिहत्य शेष वसतौ, बृ०१ उ०२ प्रका त्वगवयवमात्रमप्यादौ कृत्वा यद्वर्त्तते तेन स्पृष्ट शुद्धमप्यशनाऽऽदि पूति पूइकुहिय न० (पूतिकुथित) स्वस्वभावचलिते, जी०३ प्रति०४ अधि०। र्भवतीति। पूइमंसन० (पूतिमांस) दुष्टपिशिते, पञ्चा०१६ विव०। सम्प्रति दातृगृहं साधुपाठां चाऽऽश्रित्य पूतिविषयं पूइमसाइपुं० (पूतिमांसाऽऽदि) दुष्टपिशितभेदः प्रभृतौ, पञ्चा०१६ विव०। कल्प्याकल्प्यविधिभाह - पूइय त्रि० (पूतिक) जीर्णतया कुथितप्राये, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० दुर्गन्धे, पढमदिवसम्मि कम्म, तिन्नि उ दिसवाणि पूइयं होइ। तं०। पूतिकर्मदोषदूषिते, स्था०६ ठा०ा तं०। पूईसु तिसुन कप्पइ, कप्पइ तइओ जया कप्पो / / 268 // | * पूजित त्रि० पुष्पैर्मानिते; ज्ञा०१ श्रु०१०। अर्जिते. उत्त० 4 अ०। इह यस्मिन् दिने या गृहे कृतमाधाकर्म तत्रा तस्मिन् दिने 'कर्म' "सदेवगंधव्वमणुस्सपूइए चइत्तु देह।'' मनुष्यैः पूजिता (तो) भवति / आधाकर्म व्यक्तमेतत्, शेषाणि तु त्रीणि दिनानि पूतिर्भवति, तद् गृह उत्त०१ अ०। पूतिदोषवद्भवतीत्यर्थः, ता च पूतिषु पूतिदोषवत्सु त्रिषु दिनेषु पूइयचम्म न० (पूजितचर्मन्) शुभाऽजिने तं०। आधाकर्मदिने च सर्वसङ्ख्यया चत्वारि दिनानि यावन्न कल्पते, पूइयच्छिद्दय त्रि० (पूतिकच्छिद्रक)अपवित्रालघुविवरवृद्ध विवरे, तं० / साधुपात्रे च पूतिभूते तदा शुद्धमशनाऽऽदि ग्रहीतुं कल्पते, यदा तृतीयः पूइयणास त्रि० (पूतिकनास)अपवित्रनासिके, तं०। कल्पो दत्तो भवति, न शेषकालं, पूतिदोषसम्भवात्। पूइयदेह त्रि० (पूतिकदेह) दुर्गन्धिगात्रे, तं०। सम्प्रत्याधाकर्मपूतिं च वैविक्तयेन प्रतिपादयन्नुपसं पूइयपूयय त्रि० (पूजितपूजक) लोकैः पूजितस्य पूजाकारके, आ० म० हरति १अ०। समणकडाहाकम्म, समणाणं जं कडेण मीसं तु। पूइयपूया स्त्री० (पूजितपूजा) पूजितस्य सतः लङ्कस्य पूज्यैः पूजायाम्, अहार उवहि वसही, सव्वं तं पूइयं होइ॥२६६।। पञ्चा०८ विव० / आ० म०। श्रमणानामर्थाय कृतमहारोपधिवसत्यादिकं यत् तत्सर्वमाधाकर्म, | पूइयमंत त्रि० (पूतिमत)अपवित्रमये, तं०। यत्पुनः श्रमणानामर्थाय कृतेनाधाऽऽकर्मणा मिश्रमाहाराऽऽदि तत्सर्व पूउरिअ (देशी) कार्ये, दे० ना०६वर्ग 57 गाथा। पूतिभर्वति। पूण (देशी) हस्तिनि, दे० ना०६ वर्ग 56 गाथा! सम्प्रति परिज्ञानोपायमाह पूणउ (देशी) पूर्वे, नि० चू०१ उ०। सङ्घस्सथे (थो) वदिवसे-सुखंडी आसि संघभत्तं वा। पूणिया स्त्री० (पूणिका) रुतसम्बन्धिन्या ग्रन्थिकायाम् लाटदेशे, रुतसपुच्छित्तु निउणपुच्छं, संलावाओ वऽगारीणं // 270 / / म्बन्धिनी या पूणिकेति प्रसिद्धा सैव महाराष्ट्र कविषये पेलुरित्युच्यते। इह प्रथमत आगतेन श्राद्धगृहे तथाविधं किमपि सङ्खड्यादि विशे०। चिहमुपलभ्य पूतिदोषसंशयभावे श्राद्धस्य पार्श्वे उपलक्षणमेतत्, पूणी (देशी) तूललतायाम्, यन्मध्यात्सूत्रतन्तुर्निः सरति / दे० ना०६ श्राविकाऽऽदेश्च पायें निपुणपृच्छं प्रष्टव्यं, यथा-युष्माकं गृहे वर्ग 55 गाथा। 'स्तोकदिवसेष' स्तोकदिवसमध्ये, प्रभतदिवसातिक्रमेण पतिदोषो न | पूतरक पुं० (पूतरक) डोल्लणकभ्रमरिकाच्छेदनकाऽऽदिषु क्षुद्रजन्तुषु, सम्भवतीति स्तोकदि वसग्रहणं, 'सङ्घडिः,' वीवाहाऽऽदिप्रकरणरूपा सूत्र०२ श्रु०३ अ० सङ्ख भक्त वा दत्तमासीत् ? सङ्खडयां वा साधुनिमित्तं किमपि कृतम् | पूतिणिव्वलणमास पुं० (पूतिनिर्वलनमास) पूतिर्दुर्गन्धिस्त Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूतिणिव्वलणमास 1073- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पूया स्य निर्बलनस्फेटनं तप्तप्रधानो मासः पूतिनिर्वलनमासः। प्रमोदमासे, परिपके पूपे, ध०२ अधि० 1 आचा० / अपूपाऽऽदिके, वृ० 1 उ०३ यत्र निरूढप्रायश्चित्तो जनः प्रमोदते। व्य०३ उ०। प्रक०1 पूतिपिण्णाग न० (पूतिपिण्याक) कुथितखले, आचा०२ श्रु०१ चू०१ | पूयली स्त्री० (पूतपटी) पूतपढ्याम्, भ० 15 श०। अ०८ उ०1 पूया स्त्री० (पूजा) पूज' पूजायाम् अस्मात् "गुरोश्च हलः"१८।३१३। पूय त्रि०(पूत) पवित्रो, अष्ट०३२ अष्ट०। इत्यप्रत्ययान्तस्य पूजनं पूजा। प्रशस्तम नोवाकायचेष्टायाम्, आव०३ * पूय नं० पक्के रुधिरे, सूत्र०१ श्रु० 5 अ०१ उ०। प्रश्न० / प्रज्ञा०। अ०स०। सत्कारे, पञ्चा०६ विव०। गायत्र्यादिपाठपूर्वक सन्ध्याऽर्चने, स० / ज्ञा० / आचा०। "पक्कं सोणियं पूयं भण्णति। " नि० चू० 3 उ०। अनु० / पुष्पाऽऽदिभिरर्चने, स्था०३ ठा०३ उ० / गन्धमाल्यव स्त्रापात्रानपानप्रदानाऽऽदिसत्कारे, हा०२ अष्ट० / सङ्घा० / यथोचि पूयग न० (पूतग) शुभगन्धवति पुरीषे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। त्येन पुष्पफलाऽऽहारवस्त्राऽऽदिभिरुपचारे, प्रव०१ द्वार / स्था० / पूयट्ठाण न० (पूजारस्थान) पूजायाः स्थानं पूजास्थाम / पूजाऽहे , स्तवाऽऽदिभिः सपर्यायाम्, दर्श०१ तत्व / (प्रतिष्ठितस्य जिनबिम्बस्य दश०१ अ०। पूजाविधिः समग्रोऽपि 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1277 पृष्ठे उक्तः) पूयट्ठि(पण) त्रि० (पूजार्थिन) पूजामर्थयते यः सः पूजार्थी। पूजाकामे, ('अट्टपुप्फी' शब्दे प्रथमभागे 245 पृष्ठे तत्पूजोक्ता) (सिद्धबलिस०३सम०। विधानमपि चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1274 पृष्ठ उक्तम्) (पूजार्थ गप्पन पूयण न० (पूजन) वस्त्रपात्राऽऽदिना (सूत्रा० 1 श्रु०१ अ०। उत्त०। धरेत् इति गणधर' शब्दे तृतीयभागे 332 पृष्ठे उक्तम्) प्रोतपुष्पैः पूजादश०) सत्कारे, सूत्र०१श्रु०१२ अ० आचा०। वस्त्रपात्राऽऽदिलाभे, प्रोतपुष्पैः पूजनाक्षराणि साम्प्रतं श्राद्धदिनकृत्यसत्कानिज्ञातानि सन्ति सूत्रा०१ श्रु०१३ अ०॥ दश०ा सत्कारपुरस्कारे, सूत्रा०१श्रु०४ अ०१ 1 / तथा ईददिने अस्वाध्यायविषये वृद्धैरनाचरणमेव निमित्तमवसीयते उ० / गन्धमाल्याऽऽदिभिरभ्यर्चने, आव०४ अ०। सूत्र०। द्रविणदानान्न- / 11 / ही० 3 प्रका० / (कुमारपाल राजेन हेमाचार्यस्य सुवर्णकमलैः पानसत्कारप्रणामसेवाविशेषरूपे, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। यथाक्रम पूजा कृता इति 'गुरुपूया' शब्दे 3 भागे 644 पृष्ठे गतम्) (द्रव्यपूजानिषेधः गुर्वादीनामाहारसंपादनविनयकरणे, ज्ञानाऽऽचाराऽऽदिषु पञ्चस्वाचारेषु साधूनाम् 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1217 पृष्ठे दर्शितः) यथायोगमुद्यच्छतामुपबृहणे, व्य०३ उ०। अथ द्रव्यपूजोपरस्काररूपं भावपूजा स्वरूप भावनोपचाररुपं भावपूयणकाम त्रि० (पूजनकाम) सत्कारपुरस्काराभिलाषिणि, सूत्र० 1 पूजाष्टकं वितन्यते-तत्र गृहस्थोऽनेक संसारभारास्तः कदाचित श्रु०४ अ०१ उ०। निर्विकाराऽऽनन्दरूपा जिनमुद्रा विलोक्य प्राप्तवैराग्यो भवोद्विनः पूयणट्ठि(ण) त्रि० (पूजनार्थिन) पूजनं वस्त्रापात्राऽऽदिना ते नार्थः सर्वासंयमत्यागा भिलाषया परमसंवररूपंपरमेश्वरं सद्भक्या पूजयति, पूजनार्थः, स विद्यते यस्यासौ पूजनार्थी / पूजाप्रार्थक , सूत्रा०१ श्रु० स्वयोगस्वपरिग्रहाऽऽदिकं सर्वथा त्युक्तमसमर्थः सर्वमपि तीर्थङ्कर१अ01 भक्तियुक्तं करोति, ततश्च आत्मा स्वगुणपरिणतः स्वरूपसाधनरुपां भावपूजां करोति, तत्स्वरूपा नामतः पूजा इति कथनम् स्थापनातः पूयणमाउच्चारण न० (पूजनऽऽद्युच्चारण) पूजाप्रभृतिपदाभिःधाने, तल्लिङ्गाऽऽ चरणम्, द्रव्यतः चन्दनाऽऽदिभिः शून्योपयोगेन च, भावतः पञ्चा०विव०॥ गुणैकत्वरूपा, सा व्याख्यायतेपूयणवत्तिया स्त्री० न० ( पूजनप्रत्यय) पूजननिमित्ते, पूजनं च दयाऽम्मसा कृतस्नानः, सन्तोषशुभवस्त्रभृत् / गन्धमाल्याऽऽदिभिरभ्यर्चनम्। ध०२ अधि०। ल०। प्रति० / विवेकतिलकभ्राजी, भावनापावनाऽऽशयः॥१॥ पूयणा स्त्री० (पूतना) दुष्टव्यन्ताम्, पिं० / अपत्यमारि कायां गडुरि भक्तिश्रद्धानघुसृणो-न्मिश्रपाटीरजद्रवैः / कायाम, पिं०। नवब्रह्मागतो देवं, शुद्धमात्मानमर्चय // 2 / / (युग्मम्) पूयणासुय पुं० (पूजनाऽऽस्वादक) पूजनं देवाऽऽदिकृतमशोकाऽऽदिकमास्वादयत्युभुइक्त इति पूजनाऽऽस्वादकः। समवसरणे देवाऽऽदिक युग्मतो व्याख्यानं दर्शयति - हे उत्तम ! एवंबिधं शुद्धात्मानम्, पूजोपभोगिनी, "अणुसासणं पुढो पाणीवसुमं पूयणासुते।' सूत्रा०१ अनन्तज्ञानाऽऽदिपर्यायम् आत्मारूपं देवं नवप्रकार ब्रह्मरुपाङ्गतः अर्चय-- श्रु०११अ०। पूजय। कीदृशो भूत्वा ? इत्याह -- दया द्रव्यभावस्वपरप्राणरक्षणरूपा, पूयणिज्ज त्रि० (पूजनीय) पुष्पैरर्चनीय, ज्ञा०१ श्रु० 1 अ० / भ०। सा एव अम्भः-जल पानीय, तेन कृतं स्नानं पावित्र्यं येन सः, सन्तोषः पञ्चा०। औ०। पुगलभाव पिपासाशोकाभावरूपः स एव शुभवस्त्राणि तेषां भृत्-धारकः विवेकः स्वपरविभजनरूपं ज्ञानं तदेव तिलकं तेन भ्राजी शोभमानः / पूयपाव त्रि० (पूतपाप) विशुद्धमासे, अपगतपापे, विशे०। पुनः कथंभूतः? - भावना अर्हद्गुणैकत्वरुपातया पावनः - पवित्र पूयफली स्त्री० (पूगफली) (सोपारी) वृक्षविशेषे, "पूयफली खजूरी, आशयोऽभिप्रायः यस्य सः, पुनर्भक्तिराराध्यता श्रद्धाप्रतीतिः- "एस बोधव्वा नालिएरी य।" भ० 8 श०३ उ०। प्रज्ञा०। अट्ठे परमटे"एवंरूपा तद्रूयघुसृणेन उन्मिश्र पाटीरज, तस्य द्रवः, तैः पूयलिया स्त्री० (पूपलिका) स्नेहदिग्धतापिकायाम् परिपक्कः पोततः। शुद्धाऽऽत्मापरमेश्वरः, स्वकीयाऽऽत्माऽपि, दीव्यति स्वरूपे इति Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूया 1074- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पूया देवः, तम् अर्चय-पूजय, तद्भक्तिरतो भव इति।।१।। 2 अथ अनुक्रमेण पूजाप्रकारानाहक्षमा पुष्पस्त्रजं धर्म -युग्मक्षौमद्यं तथा। ध्यानाऽऽभरणसारंच, तदने विनिवेशय / / 3 / / हे भव्य ! तदरे आत्मस्वरुपे अङ्गे क्षमा क्रोधोपशमस्तां वचनधर्मक्षमारूपांपुष्पस्त्रज पुष्पमालां निवेशय स्थापय, तथा-तथैव धर्मयुग्मंश्रावकसाधुरूपं श्रुतचारित्रारूपं वा क्षौमद्य वस्त्रद्वयं निवेशय, पुननि धर्मशक्तं तदेव आभरण्स्य सारं प्रधानं परमब्रह्मणि निवेशय, इत्येवं गुणपरिणमनरूपां पूजां कुरु // 3 // मदस्थनमिदात्यागै-लिखाग्रे चाष्टमङ्गलीम्। ज्ञानानौ शुभसंकल्प-काकतुण्डं च धूपय / / 4 / / मदः-मानोन्मादः तस्य स्थानानि, तान्येव भिदा भेदाः तेषां त्यागैःवर्जनैरष्टमङ्गलीमगे लिखा तथा-ज्ञानाऽनौ शुभ संकल्पशुभरागपरिणमस्तद्रूपं काकतुण्डंकृष्णगुरुं धूपय इत्यनेन रागाऽध्यवसायाः शुभाः पुण्यहेतवः सिद्धि साधनेत्याज्या एव, अतः ज्ञानबलेन तेषात्यागो भवति // 4 // प्रागधर्मलवणोत्तारं,धर्मसंन्यासवह्निना। कुर्वन् पूरय सामर्थ्य-राजन्नीराजनाविधिम् // 5 // अाऽऽत्मस्वरूपार्चने 'धर्मसंन्यासवहिना धर्मः स्वरूपसत्ता सहजपरिणामिकलक्षणः चन्दनगन्धतुल्यः तस्य सम्यग्न्यासः- स्थापनं, स एव वह्निः, तेन प्राक्-पूर्वसाधनरूपः धर्मः सविकल्पभावनारूपः तदेव लवणं तस्योत्तारोनिवारणं, निर्विकल्पकसमाधो साधकस्याऽपि सविकल्पकधर्मस्य त्याग एव भवति। एवं भावरूपमपवादसाधनरूपं लवणोत्तारं कुर्वन, 'सामर्थ्यराजन्नीराजनविधि' पूर्व सामर्थ्ययोगरुपा राजत् शोभमाना नीराजना-आरार्तिका तस्या विधिस्तंपूरय, सामर्थ्ययोगरूपंचया कर्मबन्धहेतेषु प्रवर्त्तमानबीर्यस्य न ताङ्ग प्रवृत्तिः, स्वाऽऽत्मधर्मसाधनाऽनुभवैकत्वे प्रवर्त्तमानो निष्प्रयासत्वेन प्रवर्त्तते स योगः सामर्थ्य उच्यते // 5 // स्फुरन्मङ्गलदीपं च, स्थापयाऽनुभवं पुरः।। योगनृत्यपरस्तौर्य-त्रिक*संयमवान् भव // 6|| चः-पुनः स्फुरत् देदीप्यमानं मङ्गलदीपं मङ्गलं सर्वद्रव्यभावो पद्रवमुक्त, दीपभावप्रकाशम्, अनुभवं स्पर्शज्ञानम् आत्मस्वभावाऽऽस्वादनयुक्तं ज्ञानं, पुरः-अग्रे स्थापया योगा:मनोवाकायरूपास्तेषां साधनप्रवर्तनरूपं नृत्य, तत्र तत्परः सोद्यमः सन् परमाध्यात्मधारणध्यानसमाधिरूप साधनयोगङ्गपरिणमनरुपः पूजात्रायमयो वा यः 'दुर्यायनय' संयमः तद्वान्भव, इत्यनेन आभ्यन्तरपूजया तत्वाऽऽनन्दमयं च चैतन्यलक्षणं स्वात्मानं तद्रूपं कुरु // 6 // उल्लसन्मनसः सत्य-घण्टां वादयतस्तव। भावपूजारतस्येत्यं, करक्रोडे महोदयः // 7 // इत्थं भावपूजारतस्य तव महोदयः-मोक्षः करक्रोडे हस्ततले अस्ति। किं कुर्वतः? उल्लसनमनसः-प्रसन्नचित्तस्य सत्पर्यायरुपां 'घण्टा वादयतः शब्दं कुर्वत इत्यनेन सहर्ष सत्यमनोल्लासघण्टा नादयतः सतः * मेघाऽऽघोष-मृदङ्ग- शङ्ख। पूर्वोक्तपूजाकरणेन सर्वशक्ति प्रादुर्भावरूपो मोक्षो भवति // 7 // द्रव्यपूजोचिता भेदो-पासना गृहमेधिनाम्। भावपूजा तु साधूना-मभेदोपासनाऽऽत्मिका ||8!! गृहमेधिना-गृहस्थाना भेदोपासनारूपा आत्मनः सकाशात् अर्हन्परमेश्वरः भिन्नः निष्पन्नाऽऽनन्दचिद्विलासी, तस्योपासनासेवना निमित्ताऽऽलम्बनरूपाद्रव्यपूजा उचितायोग्यातुपुनः साधूनामभेदोपासनाऽऽत्मिका परमात्मना स्यात्माऽभेदरुपा भावपूजा उचिता / यद्यपि सविकल्पकभावः पूजा गुणस्मरणबहुमानोपयोगरूपा भावपूजा गृहिणां भवति, तथाऽपि निर्विकल्पोपयोगस्वरूपेकत्वरूपा भावपूजा निर्ग्रन्था नामेवा एवम्-आश्रवकषाययोगचापल्यपराबृत्तिरूपद्रव्यपूजा ऽभ्यासेन अर्हदगुणस्वात्मधर्म कत्वरूपभावपूजावान् भवति, तेन च तन्मयतां प्राप्य सिद्धो भवति, इत्येवं साधनेन साध्योपयोगयुक्तेन सिद्धिः-निष्कर्मता भवति / / 8|| इति व्याख्यातं भावपूजाष्टकम् / अष्ट० 26 अष्ट० / "माता पिता कलाचार्यः, एतेषां ज्ञातयस्तथा। वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां मतः॥११०।।" ('गुरुवग्ग' शब्दे तृतीयभागे 644 पृष्ठे दर्शितोऽयम्) गुरुवर्गपूजाविधिर्दीतेपूजनं चास्य विज्ञेयं, त्रिसंध्यं नमनक्रिया। तस्यानवसरेऽप्युच्चै-श्वेतस्यारोपितस्य तु // 111 // पूजनं च पूजनं पुनः, अस्य-गुरुवर्गस्य, विज्ञेयमवगन्तव्यम् / किमित्याह-"त्रिसंध्यं" संध्यातायाऽऽराधनेन 'नमनक्रिया'" प्रमाणरूपा। यदि कथञ्चित्सक्षादसौ प्रणन्तुंनयार्यते, तदा किं कृत्यमित्याह"तस्य" गुरुवर्गस्थ, "अभवसरेऽपि तथाविधप्रघट्टकवशाविपुनरवसर इत्यपिशब्दार्थः। " उचैः" अत्यर्थं "चेतसि मनसि "आरोपितस्य तु पूर्ववद गुरुवर्गस्य पूजनमिति। तथाअभ्युत्थानाऽऽदियोगश्च, तदन्ते निभृताऽऽसनम्। नामग्रहश्च नास्थाने, नावर्णश्रवणं कचित् / / 112 / / अभ्युत्थानाऽऽदियोगोऽभ्युत्थानाऽऽसनप्रदानस्थितपर्युपासनाऽऽदि विनयव्यापाररूपः, चः समुच्चये, तदन्ते गुरुवर्गान्ते, निभृताऽऽसनम - प्रगल्भतयाऽयस्थानम्, नामग्रहश्च नामोचारणरूपः न नैव, अस्थाने मूत्रापुरीषोत्सर्गाऽऽदिस्थानरूपे, न-नैव, श्रवर्णश्रवणमवर्णयादाssकर्णनम्, वचित्परपक्षमध्याव, स्थानेऽपीति। तथासाराणंच यथाशक्ति, वस्त्राऽऽदीनां निवेदनम्। परलोकक्रियाणां च, कारणं तेन सर्वदा // 113|| साराणं चोत्कृष्टानाम्, यथाशक्ति यस्य यावती शक्तिस्तया वस्ताऽऽदीनां वसनभोजनालङ्काराऽऽदीनाम, निवेदनसमर्पणम्, तथा परलोकक्रियाणां च देवातिथिदीनानाथप्रतिपत्ति प्रभृतीनाम्, कारणंविधपनम्, तेन गुरुवर्गेण, सर्वदा सर्वकालम्। तथा - त्यागश्च तदनिष्टानां, तदिष्टेषु प्रवर्तनम्। औचित्येन त्विदं ज्ञेयं, प्राहुर्धर्माऽऽद्यपीडया॥११४|| Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूया 1075- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पूया त्यागश्च--प्रोज्झनम्, तदनिष्टानां-गुरुवर्गाऽसमतानां व्यवहाराणाम्, तदिष्टेषु-गुरुवर्गप्रियेषु व्यवहारेष्वेव प्रवर्तनम् / अत्रापवादमाह - 'औचित्येन तु" औचित्यवृत्त्या पुनः 'इदं पूजनं ''ज्ञेयं प्राहुः" उक्तवन्तः पूर्वे, औचित्यमेव व्यनक्तिधर्मा ऽऽद्यपीड्याधर्माऽऽदीनां पुरुषार्थानामबाधया, यदि तदनिष्टभ्यो निवृत्तौ तदिष्टषु च प्रवृत्ता धर्माऽऽदयः पुरुषार्था बाध्यक्न्ते, तदान तन्निवृत्तिपरेण भाव्यं, किंतु पुरुषार्थाऽऽराधनपरेणैव, अतिदुर्लभत्वात्पुरुषार्थाऽऽराधनकालस्येति / / तथातदासनाऽऽद्यभोगश्च, तीर्थे तद्वित्तयोजनम्। तद्विम्बन्याससंस्कारः, ऊर्ध्वदेहक्रिया परा।।११।। तदासनाऽऽद्यभोगश्च-गुरुवर्गस्याऽऽसनशयनभोजनपात्राऽऽदी नामभोगोऽपरिभोगः, तीर्थे-देवताऽऽयतनाऽऽदौ, तद्वित्तयोजनमअलङ्काराऽऽदिगुरुवर्गद्रव्यनियोजनम्, अन्यथा-तत्स्वयंग्रहे गुरुवर्गमण्णाऽऽद्यनुमतिप्रसङ्ग स्यात्। तद्विम्बन्याससंस्कारः तस्य गुरुवर्गस्य यो बिम्बन्यासः प्रतिबिम्बस्थापनारूपस्तस्य संस्कारो धूपपुष्पाऽऽदिपूजारूपः, तत्कारितदेवताऽऽदेः पूजारूप इत्यन्ये / ऊर्ध्वदेहक्रियागुरुदेवपूजनाऽऽदिमृतकार्यक्ररणरुपा, परादर्शिताऽऽदरा। अथ देवपूजाविधिमाह - पुष्पैश्च बलिना चैव, वस्त्रैः स्तोत्रीश्च शोभनैः। देवानां पूजनं ज्ञेयं, शौचश्रद्धासमन्वितम्।।११६।। पुष्प-जातिशतपत्रिकाऽऽदिसंभवैः, बलिना पक्वान्नफलाऽऽद्यु पहाररूपेण वस्दै र्वसनैः, स्तोत्रौः-स्तवनैः। चशब्दौ चैवशब्दश्च समुच्चयार्थाः / शोभनरादरोपहितत्वेन सुन्दरैः, देवानाम् आराध्यतमानाम, पूजन ज्ञेयम् / कीदृशमित्याह-शौच श्रद्धासमन्वितम्-शौचेन शरीरवस्त्रव्यवहारशुद्धिरूपेण श्रद्धया च-बहुमानेन समन्वितं-युक्तमिति। एतचअविशेषेण सर्वेषा-मधिमुक्तिवशेन वा। गृहिणां माननीया य - त्सर्वे देवा महात्मनाम् // 117|| अविशेषेण साधारणवृत्त्या, सर्वेषां पारगतसुगतहरह-रिदिरण्यगर्भाऽऽदीनाम् / पक्षान्तरमाह-अधिमुक्तिवशेन वा अथवा, यस्य यत्रा देवतायामतिशयेन श्रद्धा तद्वशेन / कुत इत्याह?'गृहिणाम्' अद्याऽपि कुतोऽपि मतिमोहादनि तदेवताविशेषाणां 'माननीयाः" गौरवार्हाः "यत्" यस्मात् "सर्वे देवाः" उक्तरूपाः ''महात्मानां" परलोक प्रधानतया प्रशस्ताऽऽत्मनामिति / एतदपि कथमित्याह ? सर्वान्देवान्नमस्यन्ति, नैकं देवं समाश्रिताः। जितेन्द्रिया जितक्रोधाः, दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 118 // सर्वान्देवान्नमस्यन्ति-नमरकुर्वते / व्यतिरेकमाह- "नैक'' कञ्चन ''देवं समाश्रिताः' प्रतिपन्ना वर्तन्ते, यतो- 'जितेन्द्रियाः-निगृहीतहृषीकाः "जितक्रोधाः"अभिभूतकोपाः "दुर्गाणि नरकपाताऽऽदीनि व्यसनानि 'अतितरन्ति'' व्यातिक्रामन्ति ते -सर्वदेवनमस्काररिः / ननु नैव ते लोके व्यवह्रियमाणाः सर्वेऽपि देवा मुक्तिपथ प्रस्थितानामनुकूलाऽऽचरणा भवन्तीति कथमविशेषेण नमस्का (स्क)रणीयतेत्याशक्याऽऽह चारिसंजीवनीचार-न्याय एष सतां मतः। नान्यथाऽत्रोष्टसिद्धिःस्या द्विशेषेणाऽऽदिकर्मणाम्।।११।। चारेः प्रतीतरूपाया मध्ये सजीवन्यौषधिविशेषश्चारिसञ्जीवनी, तस्याश्चारश्चरणं, स एव न्यायो दृष्टान्तश्चारिसञ्जी वनीचारन्यायः, एषोऽविशेषेण देवतानमस्का स्क रणीयतोपदेशः, सतां विशिष्टानाम्, मतः-अभिप्रेतः। "भावार्थस्तु कथागम्यः, स चायमभिधीयते। अस्ति स्वस्तिमती नाम, नगरी नागराऽऽकुला // 1 // तस्यामासीत्सुता काचिद्, ब्राह्मणस्य तथा सखी। तस्यामेव परं पात्रां, सदा प्रेम्णो गतावधेः / / 2 / / तयो विवाहवशतो, भिन्नस्थाननिवासिनोः। जज्ञेऽन्यदा द्विजसुता, जाता चिन्तापरायणा // 3 // कथमास्ते सखीत्येवं, ततः प्राघूर्णिका गता। दृष्टा विषादजलधौ, निमग्ना सा तया ततः / / 4 / / पप्रच्छ कि त्वमत्यन्त-विच्छायवदना सखी?| तयोचे पापसद्माऽहं, पत्युर्दुर्भगतां गता।।५।। मा विषीद विषादोऽयं, निर्विशेषो विषात्सखि ! / करोम्यनवाहमह, पतिं ते मूलिकाबलात्॥६।। तस्याः सा मूलिका दत्त्वा, संनिवेशं निजं ययौ / अप्रीतमानसा तस्य, प्रायच्छत्तामसौ ततः // 7 // अभूगौरुद्धरस्कन्धो, झगित्येव च सा हृदि। विद्राणैष कथं सर्व-कार्याणामक्षमो भवेत? ||8|| गोयूथान्तर्गतो नित्य, बहिश्चारयितुं सकः। तयाऽऽरब्धो वटस्याधुः, सोऽन्यदा विश्रमं गतः / / 6 / / तच्छाखायां नमश्चारि-मिथुनस्य कथञ्चन। विश्रान्तस्य मिथो जल्प प्रक्रमे रमणोऽब्रवीत्।।१०।। नात्रैष गौः स्वभावेन, किं तु वैगुण्यतोऽजनि। पत्नी प्रतिबभाषे सा, पुनर्नासौ कथं भवेत् ? / / 11 / / मूलान्तरोपयोगेन, काऽऽस्ते साऽम्यतरोरधः। श्रुत्वैतस्या पशोः पत्नी, पश्चात्तापितमानसा / 12|| अभेदज्ञस्ततश्चारि, सर्वां चारयितु तकाम्। प्रवृत्तो मूलिकाभोगा-त्सद्योऽसौ पुरुषोऽभवत्।।१३।। अजानानो यथा भेदं, मलिकायास्तथा पशुः। चारितः सर्वतश्चारि, पुनर्नृत्वोपलब्धये // 14 // तथा धर्मगुरुः शिष्य, पशुप्रायं विशेषतः। प्रवृत्तावक्षम ज्ञात्वा, देवपूजाऽऽदिक्रे विधौ / / 15 / / सामान्यदेवपूजाऽऽदौ, प्रवृत्तिं कारयन्नपि / विशिष्टसाध्यसिद्ध्यर्थ, न स्याद् दोषी मनागपि॥१६॥" इति। विपक्षे बाधामाह-(न) नैव "अन्यथा'' चारिसंजीवनीचार न्यायमन्तरेण "अत्र'' देवपूजनाऽऽदौ प्रस्तुते 'इष्ट सिद्धिः'' विशिष्टमार्गावताररूपा " स्यात्' भवेत् / अयं चोपदेशो यथा येषां दातव्यस्तदाह"विशेषेण" सम्यगहष्ट्याधुचितदेशनापरिहाररुपेण 'आदिकर्मणां'' प्रथम मेयाऽऽरब्धस्थूलधर्माऽऽचाराणाम् / न ह्यत्यन्तमुग्धतया कञ्चन देवताऽऽदिविशेषमजानाना विशेषप्रवृत्तेरद्यापि योग्याः, किंतु सामान्यरूपाया एवेति। तर्हि कदा विशेषप्रवृत्तिरनुमन्यत इत्याशक्याऽऽह - गुणाऽऽधिक्यपरिज्ञाना-द्विशेषेऽप्येतदिष्यते। Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूया 1076- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पूया अद्वेषेण तदन्येषां, वृत्ताऽऽधिक्ये तथाऽऽत्मनः / / 120 // गुणाऽऽधिक्यपरिज्ञानादेवताऽऽन्तरेभ्यो गुणाधिकस्य गुणबृद्धेरवगमात् विशेषेऽप्यर्हदादौ किं पुनः सामान्येन / एतत्पूजनमिष्यते। कथमित्याह-- "अद्वेषेण" अमत्सरेण, "तदन्येषां" पूज्यमानदेवताव्यतिरिक्तानां देवतान्तराणां "वृत्ताऽऽधिक्ये आचारधिक्ये सति। "तथा'' इति विशेषणसमुच्चये।"आत्मनः" स्वस्य देवताऽऽन्तराणि प्रतीत्येति। गुरुदेवाऽऽदिपूजनमित्यत्राऽऽदिशब्दप्रगृहीत पूजनीयान्तरमधिकृत्याऽऽहपाने दीनाऽऽदिवर्गे च, दानं विधिवदिष्यते। पोष्यवर्गाविरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् / / 121 // पाने-दयाकलोकरक्षाकारे निर्दिक्ष्य(श्य)माण(न)लक्षणे, दीनाऽऽ - दिवर्गे च भविष्यमाणरूप एव दानस्वविभवाति सर्गरूपम, विधिवद्विधिक्तम्, इष्यते मतिमद्भिः / कथमित्याह-'पोष्यवर्गाविरोधेन'' मातापित्रादिपोषणीयलोकस्य वृत्तेरनुच्छेदनेन, 'न विरुद्धं' न दायकग्राहयोर्धर्मबाधाकारि हलमुसलाऽऽदिवत् / 'स्वतश्च'' स्वात्मना च"यत्"दीयमा नमिति। एतदेव भावयतिव्रतस्था लिङ्गिनःपात्रा-मपचास्तु विशेषतः। स्वसिद्धान्ताविरोधेन, वर्तन्ते ये सदैव हि / / 122 / / व्रतन्थाः-हिंसाऽनृतादिपापस्थानविरतिमन्तः, लिङ्गिनोव्रतसूचकतथाविधनेपथ्यवन्तः, पात्रम्, अविशेषेण वर्तन्ते। अत्राऽपि विशेषमाहअपचास्तु स्वयमेवापाचकाः, पुनरुपलक्षणत्वात्परपाचयितारः पञ्यमानाननुमन्तारश्च लिङ्गिन एव, विशेषतो विशेषेण पात्रमिति। तथा स्वसिद्धान्तावि रोधेनस्वशास्त्रोक्तक्रियाऽनुल्लङ्घनेन वर्तन्तेचेष्टन्ते ये सदैव हि सर्वकालमेवेति। दीनान्धकृपणा ये तु, व्याधिग्रस्ता विशेषतः। निःस्वाः क्रियाऽन्तराशत्काः, एतदर्गो हि मीलकः॥१२३|| दीनान्धकृपणाः-दीनाः-क्षीणसकलपुरुषार्थशक्तयः अन्धाः नयनरहिताः कृपणाः-स्वभावत एव सतां कृपास्थानम्। ये तु ये चाव्याधिग्रस्ता:-कुष्ठाऽऽद्यभिभूताः, विशेषतोऽत्यन्तम्,तथा निःस्वानिधनाः। कीद्दशा एत इत्याह-"क्रियाऽन्तराशक्ताः निर्वाहहेतुव्यापारान्तरासमर्था ये प्राणिविशेषाः / किमित्याह-"एतद्वर्गः'' दीनाऽऽदिवर्गो यः प्रागुद्धिष्टः, हि पादपूरणार्थः, मीलकः दीनाऽऽदीनामेवेति। "विधिवत्' (121) इत्युक्तमथ तदेव व्याचष्टेदत्तं यदुपकाराय, द्वयोरप्युपजायते। नाऽऽतुरापथ्यतुल्यं तु, तदेतद्विधिवन्मतम्॥१२४।। दत्तं-वितीर्णम्, यदन्नादि, उपकाराय-अनुग्रहाय, द्वयोरपि दायकग्राहकयोरुपजायते, न पुनरेकस्यैवेत्यपिशब्दार्थः / व्यतिरेकमाह-ननैव, आतुरापथ्यतुल्यं तुज्वराऽऽदिरोगविधुरस्यघृताऽऽदिदानसदृशपुनः यन्मुसलहलाऽऽदि तहाय कग्राहकयारपकारि, एतहत्तं विधिवन्मतमभीष्टम्। दानाऽऽदीनामपि प्रकारान्तेण पूजात्वमेवा अथ दान मेव स्तुवन्नाहधर्मस्याऽऽदिपदं दानं, दानं दारिद्रयनाशनम्। जनप्रियकरं दानं, दानं कीांदिवर्धनम् // 125 / / धर्मस्य-श्रेयोरूपस्य, आदिपदं प्रथमस्थानम्, दानमुक्तलक्षणम्, दानं दारिद्रयनाशनम्, इहपरभवयोर्लोभान्तरा यकर्मोपघातेन विशिष्टलाभसंभवाद्दौर्गत्यापोहकारि जनप्रियकर लोकसन्तोष हेतुर्दानम्, दानं कीयादिवर्धन कीर्तिः स्वचित्त सन्तोषजनसौभाग्यऽऽदिवृद्धिहेतुः, यदत्र पुनः पुनर्दानशब्दोचारणं तदत्यन्ताः ऽऽदरणीयताख्याफ्नार्थमिति। यो० वि०। ईसरतलवरमाडं-बियाण सिवइंदखंदविण्हूणं / जा किर कीरइ पूया, सा पूया दय्वतो होइ // 315|| ईश्वरश्च-द्रव्यपतिः, तलवरश्च-प्रभुस्थानीयो नगराऽऽदिचिन्तकः, मडम्बंजलदुर्ग, तस्मिन् भवो माडम्बिकः, तद्भोक्ता, सच, ईश्वरतलवरमाडम्बिकास्तेषां, तथा शिवश्च शम्भुरिन्द्रश्वपुरन्द्ररः, स्कन्दश्चस्वामिकार्तिकेय, विष्णुश्चवासुदेवः शिवेन्द्रस्कन्दविष्णवस्तेषां, या किल क्रियते पूजा सा पूजा द्रव्यतो द्रव्यनिक्षेपमाश्रित्य भवति। द्रव्यपूजेति योऽर्थ, किलशब्दस्त्विहापारमार्थिकत्वख्यापको, द्रव्यतोऽपि हि भावपूजाहेतुरेव पूजोच्यते, इंय तु द्रव्यार्थमप्रधाना वा पूजेति द्रव्यपूजा, अतोऽपारमार्थिक्येव, एतदभिधानं तुद्रव्यशब्दस्यानेकार्थत्वसूचकमिति गाथाऽर्थः / भावपूजामाहतित्थगरकेवलीणं, सिद्धाऽऽपरियाण सव्वसाहूणं| जा किर कीरइ पूया, सा पूया भावतो होइ // 316|| तीर्थकराश्च-अर्हन्तः, केवलिनश्च–सामान्येनैवोत्पन्न केवला स्तीर्थकरकेवलिनस्तेषां. सिद्धाऽऽचार्याणां प्रतीतानां, तथा सर्वसाधूनां का? या किल क्रियते-विधीयते पूजा सा पूजा भावतो-भावनिक्षेपमाश्रित्य भवति, किलशब्दः परोक्षाऽऽतवादसूचकः। तीर्थकराऽऽदिपूजा हि सर्वाऽपि क्षायोपशमिकाऽऽदिभाववर्तिन एव भवतीति भावपूजैव, यत्तु पुष्पाऽऽदि पूजाया द्रव्यस्तवत्वमुक्तंतद्-द्रव्यैः-पुष्पाऽऽदिभिः स्तव इति व्युत्पत्तिमाश्रित्य संपूर्ण भावस्तवकारणत्वेन वेति गाथाऽर्थः / सम्प्रति प्रस्तुतोपयोग्याहजे किर चउदसपूवी, सव्वक्खरसन्निवाइणो निउणा। जा तेसिं पूया खलु, सा भावे ताएँ अहिगारो॥३१७।। ये प्राग्वत, किलेति वाक्यालङ्कारे, चतुर्दशपूर्विणश्चतुर्दश पूर्वधरः राणि समरतानि यान्यक्षराणि अकाराऽऽदीनि तेषां सन्निपातनंतत्तदर्थाभिवायकतया साङ्गत्येन घटनाकरणं सर्वाक्षरसन्निपातः, स विद्यतेऽधिगमविषयतया येषां तेऽमी सर्वाक्षरसन्निपातिनः निपुणाः-कुशलाः, या तेषां चतुदर्शपूर्विणां पूजा उचितप्रतिपत्तिरूपा, उपलक्षणं चेयं शेषबहुश्रुत पूजायाः, प्राधान्याचास्या एवोपादानं, खलु निश्चितं, सा भावभाव विषया, तयाबहुश्रुतपूजालक्षणया भावपूजये हाऽधिकारः प्रकृतमिति गाथाऽर्थः / इत्युक्तो नामनिष्पन्ननि Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूया 1077- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पूया क्षेपः / उत्त० 11 अ०। 'एहवणविलेवण' इति गाथात्रये ध्वजाऽष्टमङ्गलको न दृश्यते, साम्प्रतं तु ध्वजाऽवसरे तु तो क्रियेयाता, तत्र किं कारणमिति प्रश्ने, उत्तरम्-''एहवणविलेवण" इत्यादि-गाथामध्ये ध्वजाऽष्टमङ्गलकयोरुपलक्षणेन च ग्रहणं बोध्यं, यत आत्मीयानामवच्छिन्नपरम्परागतः स्नात्राऽऽदिविधिर्निमूलो न भवतीति सम्भाव्यते इति / सेन० 2 उल्ला०। सप्तदशभेदपूजाकरणं दिवसे शुद्धयति, किं वा रात्रावपीति प्रश्ने, उत्तरम्-सप्तदशभेदपूजाकारणं दिवस एव शुद्धयति, न तु रात्रौ। तीर्थाऽऽदौ तुयत् कदाचित् पूजाकरणं तत्तु कारणि कमिति / 116 प्र० / सेन० 2 उल्ला० / तथा सप्त दशभेदपूजायां क्रियमाणायां पूजा पूजां प्रति स्थालीमध्ये कलशो ध्रियते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्पूजां पूजां प्रति स्थालीमध्ये कलशो धरणीय एवंविधनियमो ज्ञातो नास्ति। यदा यद्वस्तुनः पूजा तदा तद्वस्तुमोचनप्रवृत्तिः स्थालीमध्ये दृश्यत इति / 211 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / चतुर्दशीपूजा कृत्वा स्थालीमध्ये प्रदीप मुक्तवा ऊर्द्धवस्था मायन्ति, किं तत्रा प्रदीपाधिकारोऽस्ति, अथवा-नास्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-चतुर्दशीपूजातः पश्चातस्थालीमध्ये प्रदीपो मुच्यते एवेति ज्ञातो नियमो नास्तीति। 212 प्र०। सेन०३ उल्ला०। साधूनां भावपूजाकथिताऽस्ति, प्रतिष्ठाऽऽदावजनशालाकाकरणे तु द्रव्यपूजा जायते, तत्कथमिति प्रश्ने, उत्तरम्साधूना बाहुल्येन भावपूजा, श्राद्धानां च बाहुल्येन द्रव्यपूजा कथिताऽस्ति परमौकान्तो ज्ञातो नास्ति / यतः श्रीस्थानाङ्गसूत्रे-"पूए नामेगे पूजायेइ'' इति चतुर्भङ्गिकास्ति, एतस्या अर्थकरणे यतीना मेकान्तद्रव्यपूजानिषेधो ज्ञातो नास्ति, यतोऽङ्गरागेण यतिपतीनां पूजा क्रियते, साऽपि द्रव्यपूजा भवतीति। 447 प्र०। सेन०३ उल्ला०। अथ ग० माणिक्यविजयकृतप्रश्नौ तदुत्तरेच- यथा श्राद्धः स्वहस्तेन पुष्पाणि गोटयित्वा पूजां करोतीति कुा ग्रन्थेऽस्तीति प्रश्ने, उत्तरम्--श्रीशान्तिनाथ चरिको श्राद्धो वाटिकातः स्वयं पुष्पाणि गृहीत्वा पूजां करोतीत्यक्षराणि दृश्यन्ते / 475 प्र० / सेन०३ उल्ला० / श्राद्धोऽभिमानेनान्यपूजास्पर्द्धया वा सप्तदशभेदपूजां करोति, तस्य किं फलं भवतीति प्रश्ने, उत्तरम्मुख्यवृत्याऽभि मानाऽऽदिक बिना केवलवीतरागभक्तया पूजा क्रियते, यदि कश्चितभिमानाऽऽदिना पूजां करोती तदा तस्य न तथाविध फलमिति / 462 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / त्रिकालवेलायां पूजा या क्रियते सा त्रिकालपूजा कथ्यते, कारणविशेषे तु न्यू नाधिककालेऽपि कृता सैव कथ्यते इति / सेन०४ उल्ला०। त्रिकालपूजाकरणे प्रभाते पुष्पमालाऽऽदिनिर्माल्यम पास्य सर्वस्नानेन वासपूजा क्रियते, अन्यथा वेति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रभाते पुष्पमालाऽऽदिनिर्माल्यमनपास्य श्राद्धा वासपूजां कुर्वन्तो दृश्यन्ते, सर्वस्नानकरणेऽप्येकान्तो ज्ञातो नास्ति, हस्तपादप्रक्षालनेन शुद्धयतीति। 367 प्र०। से०४ उल्ला०। पूयाइ पुं० (पूजाऽऽदि) पूजासत्कारप्रभृतौ, पञ्चा०८ विव० / पूयाकम्म न० (पूजाकर्मन) पूजायाः कर्म पूजाकर्म / पूजाक्रियायाम, पूजैव कर्म। कृतिकर्माणि आव०३ अ०। (पूजाकर्मापि द्विधा किइकम्म' शब्दे तृतीयभागे 508 पृष्ठेऽस्ति) पूयापणिहाण न० (पूजाप्राणिधान) पूजा--अर्चनं तत्र प्राणिधानम् / पूजां करोमि इत्येवविध ऐकाये, पञ्चा०४ विव०। पूजापण्णासग न० (पूजापञ्चाशक) पूजाप्रतिपादके हरिभद्र सूरिविरचिते पञ्चाशद्गाथाऽऽत्मके ग्रन्थे, "विहिणा उकीमाणा, सव्वा वि अफलवई भवे चेला। इहलोइया वि किं पुण, जिणपूआ उभयलोगहि // 1 / " ध०२ अधिन पूयाभत्तन०(पूजाभक्त) पूज्यानामर्थाय निष्पादतेपूज्येभ्यः प्रदत्ते भक्ते, बृ०। सागारियररा पूयाभत्ते, उद्देसिए चेइए पाहुडियाए, सागारियस्स उवगरणजाए निहिए णिसट्ठपाडिहारिएतं सागारिओ देइ, सागारियस्सपरिजणो देइ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए / / 25 / / अथास्य सूत्रस्य कः संबंधः? इत्याह - दव्वे छिण्णमछिण्णं, न कप्पते कप्पए य इति वुत्तं। इदमन्ने पुण भावे, अव्वोच्छिण्णम्मि पडिसिद्धं // 355 / / द्रव्यतः-छिन्नं-विभक्तं सदंशिकाद्रव्यं कल्पते तदेवाच्छिन्नमविभक्तं न कल्पते इति प्रोक्तम् / इदं पुनरन्यस्मिन् सूत्र सागारिकस्याव्यवच्छिन्ने भावे प्रतिषिद्ध न कल्पते इत्यर्थः / अविसेसिओ व पिंडो, हेट्ठिमसुत्तेसु एसमक्खातो। इह पुण तस्स विभागो, सो पुण उवकरण भत्तं वा / / 356 / / अथवा अधस्तनसूत्रषु अविशेषतो भागरहित एष सागारिकपिण्ड आख्यातः, इह पुनः-प्रस्तुतसूत्रे तस्य सागारिकपिण्डस्य विभाग उच्यते / कथामत्याह-सपुनः पिण्डउपकरणं वा भवेत्, भक्तं था। इत्यनेन संवन्धेनाऽऽयातस्यास्य (25 सूत्रास्य) व्याख्यासागारिकस्य ये पूज्याः स्वामिकलाऽऽचार्याऽऽदयस्तदर्थ भक्तमशनाऽऽदि पूज्यभक्तम्। तत्रोद्देशः-संकल्पस्तेन निवृत्तमौहेशिकं, तानेव पूज्यानुद्दिश्य कृतमित्यर्थः / ततस्तेषामेव प्राभृतिकायां तं चेतति, ढौकनीकृतमुपनीतमिति भावः। तथा सागरिकस्योपकरणजातं वस्त्रं कम्बलाऽऽदिकं पूज्यानामर्थाय निष्ठितं-निष्पादितं, ततो निसृष्टं पूज्येभ्यः प्रदत्तं, तच्च-भक्तमुपकरण, यतिभ्यः प्रातिहारिकदत्तं भक्तावशेष सदिदं भूयोऽप्यस्माकं प्रत्यर्पणीयमिति भावः। तदेवप्रकारं संयतानां सागरिको वा दद्यात्, सागरिकस्य परिजनो वा दद्यात्, किं कल्पते न वेत्याह-तस्मात् पूज्यभक्तात् पूज्योपकरणाद्वा प्रातिहारिकं दद्यात्, परं न कल्पते प्रतिगृहीतुमिति सूत्राऽर्थः // 25 // अथ भाष्यम्संबंधी सामि गुरु, पासंडी वा वि तं सणुद्दिस्स। पूया उक्खितं ति य, पट्टगभत्तं च एगट्ठा // 357 / / सागारिकस्यैव यः सबन्धी पितृव्यमातुलाऽऽदियों वा तस्य स्वामी प्रभुर्गुरुर्वा कलाऽऽचार्याः, यस्य वा पाखण्डिनो भक्तिः स पूज्य उच्यते, तसमुद्दिश्य कृतं सत्पूज्यभक्तमुच्यते, तत्र भेदपर्यायाख्या निर्वचनादेकाथिकान्याह-पूज्यभक्तम्, उत्क्षिप्तभक्तं, पट्टकभक्तम्, एतान्येकार्थानि पदानि। चेइय कडमेगटुं, पाहुडिय पहेणनं च एगट्ठा। उवगरणं वत्थादी, जाव विभागो उ जोगं वा / / 358|| Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूयाभत्त 1078- अमिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पूरिम चेतित, कृतं चेत्येकार्थः। प्राभृतिका प्रहेणकमिति एकार्थे / उपकरणं- दोषा भद्रकप्रान्तकृता अभूवन्निति / वृ०२ उ०। वस्त्राऽऽदिकं, वस्त्रं, चेह क्षौमिकं गृह्यते, तच्च परिधानं प्रावरेणं वा पूज्यानां | पूयारिह त्रि० (पूजाऽर्ह) पूजामर्हतीति पूजाऽर्हः। पूजयितुमर्हे, आ० म० दातव्यम् / आदिग्रहणात्पाखण्डिनः प्रतिग्रहो वा कम्बलं वा, 10 एकादशप्रतिमा प्रतिपित्सोर्वा रजोहरणं दातव्यम् / एवमादिको यावान् | पूयाविहि पुं० (पूजाविधि) पूजाप्रतिपादके स्वनामख्याते ग्रन्थे, ध०२ विभागो घटते, यद्वा-यद्यस्योपकरणं योग्यं तद्वक्तव्यम्। अधि०। निट्ठिय कडं च उक्को-सकं च दिण्णं तु जाणसु णिसहूं। पूयासकार पुं० (पूजासत्कार) पूजा स्तवाऽऽदिरूपा तत्पूर्वकः सत्कारो भुत्तुव्वरियं पडिहा-रितं तु इयरं पुणो चत्तं // 356 / / वस्त्राभ्यर्चनम्। पूजायां वा आदरः पूजासत्कारः। स्तवाऽदिरूपे सत्कारेः निष्ठितं कृतमित्येकोऽर्थः, यद्वा यदुत्कृष्टं वस्त्राऽऽदि प्राप्तमितिकृत्वा स्था०६ठा०। निष्ठितमुच्यते / यत्तु दत्तं तन्निसृष्ट जानीहि / भुक्तोद्वरितं भूयोऽस्माकं पूयासक्कारथिरीकरणट्ठया स्त्री० (पूजासत्कारस्थिरी-करणार्थता) प्रत्यर्पणीयमिति यत्प्रतिज्ञातं तत्प्रातिहारिकम्; इतरत्पुनरप्रातिहारिक पूजासत्कारयोः पूर्वप्राप्तयोः स्थिरताहेती, अस्थिरयोः पूजासत्कारयोः सागारिकेण भक्तभुपकरण वा यत् त्यक्तं, निर्देयतया दत्तमित्यर्थः / स्थिरीकरणार्थे, भ० 15 श०। एवंविधं प्रातिहारिकदत्तं शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा न गृहीतव्यम्। पूयासकारलाभट्ठिीण) त्रि० (पूजासत्कारलाभार्थिन्) पूजा ऽऽद्यर्थः क्रियासु प्रवर्तमाने, सूत्रा०१ श्रु०१६ अ०। सूत्रम् पूयाहज्ज त्रि० (पूजाऽऽहार्य) पूजितपूजके, स्था०५ ठा० 3 उ०। सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देमिए चेइए. जाव पाडिहारिए, तं नो / पूर धा० (पूरि) पृ-णिच् / पूरणे, "पूरैः अग्घाडाग्यवोद्भुमा - सागारियस्स परिजणो देजा, सागारियस्स पूया देजा, तम्हा ङगुमाहिरेमाः" // 4 / 166 // इति पूरेरग्धाडाऽऽदयः पञ्चाऽऽदेशाः। दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए // 26 // अग्घाडइ। उग्घवइ / उद्धमइ / अडगमइ। अहि रेमइ। पूरइ। पूरयते। अस्य व्याख्या प्राग्वत् / नवरम् अन्यं न सागरिकजनो दद्यात् कि तु प्रा०४ पाद। सागारिकस्य पूज्यः संबधी स्वाम्यादिर्दद्यात्, तथापि न कल्पते, * पूर पुं० पूरणे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। नदीप्रवाहे, वृ० 4 उ० / प्रातिहारिकतया दत्तमितिकृत्वा सागारिकपिण्डत्वात् / पूरंतिया स्त्री० (पूरयन्तिका) पर्षद्भदे, साच यदा राजा निर्गच्छति तस्मिन् सूत्रम् - निर्गते यः कोऽपि महान् जनः स सर्वोऽपि राज्ञो ढौकते यावद गृहं नायाति, सागारियस्स पूयाभत्ते उद्देसिए चेइयाए पाहुडियाए सागारियस्स सा पर्षत पूरयन्तिका। बृ० 1 उ०१ प्रक०। उवगरणजाए निट्ठिए निसट्टे अपाडिहारिए तं सागारिओ देइ, | पूरगपुं० (पूरक) पूरयतीतिपूरकः / आ० चू०१अ० / अन्तर्वृत्तौ प्राणायाम, सागारियस्स परिजणो देइ, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ द्वा०२२ द्वा०। पडिग्गाहित्तए|२७|| पूरण न० (पूरण) पूरेः ल्युट् / पालने, पारगमने 'पारणं ति वा पूरणं तिवा अयमप्रातिहारिकतया सागारिकपिण्डो न भवति, परं सागारिक- पालणं ति वा पारगमणं ति वा एगट्ठा।" आ० चू० 5 अ० / पूरयतीति स्ततपरिजनो वा ददातीति कृत्वा प्रक्षेपकाऽऽदि दोषसद्धावान्न कल्पते। पूरणः / पूरके, विशे०। चमरस्या सुरेन्द्रस्य पूर्वभवजीवे, जम्बूद्वीपे भारते सूत्रम् वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले वेभेलसन्निवेशे जाते गृहपतौ, भ० 3 श०२ सागारियस्स पूयाभत्ते. जाव अपाडिहारिए तं नो सा गारिओ उ० / उपा० / ('चमर' शब्दे तृतीय भागे 1112 पृष्ठे कथोक्ता) दशाना देइ, नो सागारियस्स परियणो देइ, सागारियस्स पूया देइ, तम्हा दशार्हाणमष्टमे, अन्त०१ श्रु० 1 वर्ग 1 अ०। सूर्ये, दे० ना०६ वर्ग 56 दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए / / 28|| गाथा / सलिलावतीविजये वीतशोकाया राजधान्या नृपस्य बलस्य धारण्यां जाते पुो च / ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। अत्र सागरिकेण दृष्टं सत्पूज्योऽप्रातिहारिकं ददातीति कृत्वा कल्पते, पूरयं न० (पूरयत्) शब्दव्याप्तं कुर्वन्नित्यर्थः। तस्मिन् कल्प०१ अधि०३ परं द्वितीयपदे, नोत्सर्गतः। क्षण। यत आह पूरित्तए अव्य० (परयितुम) पूरणं कर्तुमित्यर्थे, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। पूयाभत्ते चेतिएँ, उवकरणे णिट्टिते णिसट्टेय। पूरिगा स्त्री० (पूरिका) पूर्यत स्तोकैरपि तन्तुभिः पूर्णा भवतीति पूरिका। तं पिन कप्पति घेत, पक्खेवगप्तादिणो दोसा॥३६०।। / स्थूलगुणमयपटे, जीत० / बृ० / पूज्यानामर्थाय यद्भक्तं चेतितं कृतं, यचोपकरणं निष्ठितं, तत्तेभ्यो | पूरिम न० (पूरिम) पूरेण पूरणेन निर्वृत्तं पूरिमम् / मृन्मये अनेकनिसृष्टमप्रातिहारिकतया प्रदत्तं, तदपि न कल्पते ग्रहीतुं, प्रक्षेपकाऽऽदयो | च्छिद्रवंशलाकाऽऽदिपञ्चरे च / पापुष्पैः पूर्यते / स्था० 4 ठा० / Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरिम 1076- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेच्छ 4 उ० / येन वंशशलाकाऽऽदिमयपञ्जराऽऽदि पूर्यते। रा०। यल्लघुच्छिद्रे | पेआल (देशी ) प्रमाणे, दे० ना०६ वर्ग 57 गाथा। निवेशेन पूर्यते। ज०१ वक्ष० / जी०। येन कूर्ताऽऽदि वा पूर्यते। ज्ञा०१ पेआहिव पुं० (मेताधिप) यमे, 'पेआहिवो कयंतो, कीणा सो अंतओ श्रु०१ अ०। दशा०। आचा०। पित्तलाऽऽदिमयप्रतिभावद्भरिमे पदार्थ , जमो कालो।" पाइ० ना० 24 गाथा। ग०२ अधि० / अनु० / ज्ञा० / आचा०। पेंड (देशी ) खण्डवलययोः, दे० ना०६ वर्ग 81 गाथा। पूरिमा स्त्री० (पूरिमा) गान्धारग्रामस्य तृतीयमूर्च्छनायाम्, स्था०७ ठा०। पेंडअ (देशी) तरुणे, षण्डे, दे० ना०६ वर्ग 53 गाथा। पूरी (देशी) तन्तुवायोपकरणे, दे० ना०६ वर्ग 56 गाथा। पेंडधव (देशी) खड्ने, दे० ना० 6 वर्ग 56 गाथा। पूरोट्टि (देशी) अवकरे, दे० ना०६ वर्ग 57 गाथा। पें डबाल (देशी) रसे, दे० ना०६ वर्ग 58 गाथा। पूलिय न० (पूलित) तृणसमुदायग्रन्थौ, नि० चू० 1 उ०। पेंडार (देशी) गोपे, देवराजस्य महिषीपाले, दे० ना०६ वर्ग 58 गाथा। पूवपुं० (पूप) अपूपे, (पुआ) बृ० 1 उ० 3 प्रक०। पेंढा (देशी) मद्ये, दे० ना० 6 वर्ग 5 गाथा। पूवलग पुं० (पूपलग) मिश्पूपे, नि० चू०१ उ०। पेइयंग न० (पैतृकाङ्ग) शुक्रविकारबहुले शरीराङ्गे भ०। पूवलिकाखायय पु० (पूपलिकाखादक) भाषणवेलायां चवचवाशब्द कइ णं भंते ! पेइयंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पेइयंगा कारके, बृ०१ उ०३ प्रक०। (पूपलिकाखादकस्य स्वरूपम्' पडिबद्धसिज्जा' शब्देऽस्मिन्ने भागे 33 पृष्ठ गतम) पण्णत्ता / तं जहा-अट्ठिअद्विमिंजाकेसमंसु (श्मश्रु) रोमनहे। पूविगा स्त्री०(पूपिका) तिलमोदके, नि० चू०१६ उ०। (पेइयंग त्ति) पैतृकाङ्गानि, शुक्रविकारबहुलानीत्यर्थः / (अद्विमिंज त्ति) अस्थिमध्यावयवः, केशाऽऽदिक बहुसमानरूपत्वापूसपु० (पुष्य)"लुप्त.य.र.व.श.प.सं.श.प.सां.दीर्घः // 8/1 / 421 // इति लुप्तकारान्पूर्रय दीर्घः / पा०१ पाद / वृहस्पति देवताके नक्षत्राभेदे, देकमेव / उभयव्यतिरिक्तानि तु शुक्रशोणितयोः समविकाररूपत्वात् अनु०। स्था०। "दो पूसा" स्था०२ ठा०३ उ०। ज्यो०। सातवाहन पितृमात्रौः साधारणनीति। भ०१श०७ उ०। शुकयोः, दे० ना० 6 वर्ग 80 गाथा। पेऊस न० (पीयूष) "एत्पीयूषाऽऽपीड-विभीतक-कीदृशे* पूषन् पुं० सूर्य, स्वमानख्याते देवविशेष, जं०७ वक्ष० / ति०। हशे"||८१||१५|| इतीत एत्वम्। 'पेऊसं।' अमृते, प्रा०१ पाद। * पुष (धा०) पुष्टौ, "रुषाऽऽदीनां दीर्घः" ||814 // 236|| प्रति पुषो / पेक्खण न० (प्रेक्षण) दृशिरुत्प्रेक्षणे। प्रत्यक्षस्य प्रकृष्ट चेक्षणे, प्रा०४ पाद। दीर्घः / 'पूसइ' / पुष्यति / प्रा० 4 पाद। पेक्खिदुं अव्य० (प्रेक्षितुम्) द्रष्टुमित्यर्थे , "अमचलक्खशं पेखिदूं पूसअ पुं० (पूष्यक) शुक्रे, "कणइल्लो पूसओ कीरो।'' पाइ० ना० इंदाप्येव आगश्चदि" / (32 सूत्रा) प्रा०४ पाद। 125 गाथा। पेक्खिय त्रि० (प्रेक्षित) प्रत्युपेक्षिते, नि० चू०२ उ०।अवलोकने, व्य० पूसगिरि पुं० (पुष्पगिरि) गिरिभेद, कल्प० 1 अधि०१ क्षण। 10 उ०। स्था०। पूसफली स्त्री० (पुष्पफली) वल्लीभेदे, प्रज्ञा० १पद। पेच अव्य० (प्रेत्य) जन्मान्तरे, आचा०१श्रु०१ अ०। परलोके, विशे०। पूसमाणव पुं० (पुष्पमाणय) नग्नाऽऽचार्य, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। मागधे, सूत्र०। कल्प०१ अधि०५क्षण। जं०। भ०। पेचभव पुं०(पेत्यभव) जन्मान्तरे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विशे०। (अथ पूसमित्त पुं० (पुष्पमित्रा) तगरायां नगर्यां कस्यचिदाचार्यस्य स्वनाम विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविशतिन प्रेत्य संज्ञाऽख्याते शिष्ये, व्य०३ उ०। सङ्घवर्धननगरराज मुण्डिपकारा जोपदेशक स्तीत्यादिवेदवाक्यजनितसन्देहभाज इन्द्र भूतेः 'आता' शब्दे द्वितीयवसुंभूत्याचार्यशिष्ये, बहुश्रुते, आ० चू०४ अ०। आर्यरक्षितसूरिशिष्ये, भागे 176 पृष्ठे समाधानम्) तदगच्छे हि त्रयः पुष्पमित्राः-दुर्बलिकापुष्पमित्रः, वस्त्रपुष्पमित्राः, पेचभाव पुं० (प्रेत्यभाव) संसारे, स्था०। परलोकसद्भावे, सूत्रा० 1 श्रु० घृतपुष्पामित्राश्चेति। आव०१ अ०। आ० चू०। थूणानामसन्निवेशजाते 12 अ०। ब्राह्मणविशेषे वीरजिनपूर्वभवजीवे, आ० चू०१ अ०। पेचभाविय त्रि० (प्रेत्यभाविक) प्रेत्यजन्मातरे भवति शुद्धफलतया पूसमित्तिय पुं० (पुष्पमित्रीय) स्थविराद्धारीतसगोत्रान्निर्गतस्य चारण- परिणमयतीत्येवंशीलं प्रेत्यभाविकम्। जन्मान्तरे शुभफलजनके,प्रश्न० गणस्य चतुर्थे कुले, कल्प०२ अधि०८ क्षण। १संब०द्वार। पूसाण पुं० (पूषन) "पुंस्यन आणो राजवच" ||||3||56|| इति / पेचसण्णा स्त्री० (प्रेत्यसंज्ञा) मृत्वा पुनर्जन्मनि, आ०म०१ अ०। पुल्लिङ्गे वर्तमानस्थान्नन्तस्य स्थाने आणाऽऽदेशः। 'पुसाणो।' सूर्ये, / पेच्छधा० (दृश्) प्रेक्षणे, "दृशो निअच्छ-पेच्छावयच्छा वयज्झप्रा०३ पाद। वज-सव्वव-देक्खौ अक्खावक्खावअक्ख-पुलोए-पुलए पेश्रवण न० (प्रेतवन) श्मशाने, "पेअवणं पिउवणं मसाणं च / ' पाइ० -निआवआस-पासाः"||४|१८१।। इति दृशेः पेच्छाऽऽदेशः। ना०१५८ गाथा। 'पेच्छइ। 'प्रा०४ पाद। Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरिम 1080- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त पेच्छ (देशी) दृष्टमात्राभिलाषिणि, दे० नो०६ वर्ग 58 गाथा। पेजबंधण न० (प्रेमबन्धन) बन्धभेदे, प्रेम्णः प्रेमलक्षणवित्त विकारपेच्छंत त्रिी० (प्रेक्षमाण) पश्यति, प्रो० 4 पाद। सम्पादकमोहनीय कर्मपुद्गलराशेर्बन्धनं जीवप्रदेशेषु योगप्रत्ययतः पेच्छक त्रिी० (प्रेक्षक) दर्शके, आवे० 4 ओ०। प्रकृति स्वरूपतया प्रदेशरूपतया च सम्बन्धनम्। तथा--कषायप्रत्ययतः पेच्छण ने० (प्रेक्षण) नानाविधवंशखेलकाऽऽदिसंबन्धिनि कौतुकदर्शने, स्थित्यनुभागविशेषाऽऽपादनं च प्रेमबन्धः। स्था०२ ठा० 4 उ०। प्रश्ने० 4 संवे० द्वार / प्रेक्षणके, ज्ञो०१ श्रु० 8 अ० / पेज्जवत्तिया स्त्री० [प्रेम(वृत्तिका)प्रत्यया] प्रेम-रागोवृत्तिर्वर्त्त, नरुप, प्रत्ययो वा हेतुर्यस्याः सा प्रेमवृत्तिका, प्रेमप्रत्यथा वा। स्था०। मूभिदे, पेच्छाणग ने० (प्रेक्षणक) प्रेक्षाविधौ, "पेच्छणगा वि णडादी।' पञ्चा० मूर्छा द्विविधा-"पेज्जवत्तिया चेव, दोसवत्तिया चेव / पेज्जवत्तिया मुच्छा 6 विव०। दुविहा पण्णत्ता। माए चेव, लोभेचेव।" स्था० 2 ठा०४ उ०। (व्याख्या पेच्छणघरग न० (प्रेक्षणगृहक) प्रेक्षणं प्रेक्षणकम्, तदगृहम्। ज्ञा०१ श्रु० स्वस्वस्थाने) रागप्रत्ययायां क्रियायाम, स्था०५ ठा०२ उ०। आव०। 3 अ० / प्रेक्षणकभवने, यत्राऽऽगत्त्य प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्षन्ते "पेज़ नाम'' राग इत्यर्थः / अथवा-" तं वयणं उदाहरति, करेति वा, च०। जी०३ प्रति०४ अधि०।०। रा०ा स्था०। आ० म०। जेण परस्स रागो भवति।''आ० चू० 4 अ०। पेच्छणघरमंडवपुं० (प्रेक्षणगृहमण्डप) प्रेक्षाभवनमण्डपे, रा०। पेजविहि पुं० (पेयविधि) पेयाऽऽहारप्रकारे, उपा० 1 अ०। पेच्छणिज त्रि० (प्रेक्षणीय) द्रष्टव्ये, "उत्ताणणयणपेच्छणिजा।" सौभा पेजल (देशी ) वैपुल्ये, दे० ना० 6 वर्ग 7 गाथा। ग्यातिशयादुत्ता निकैरनिमिषितैर्नयनैःलोचनेः प्रेक्षणीयाः। औ० / पेच्छास्त्री० (प्रेक्षा) प्रेक्षणके, स्था०४ ठा०२ उ०। पेट्ट न० (पेट्ट) उदरे, दर्श० 1 तत्व। पेच्छाघरमंडव पुं० (प्रेक्षागृहमण्डप) प्रेक्षा प्रेक्षणं, तदर्थ गृहरूपा मण्डपाः पेडइअ (देशी) कणाऽऽदिविक्रेतरि वणिजि, दे० ना०६ वर्ग 56 गाथा। प्रेक्षागृहमण्डपाः / स्था० 4 ठा०२ उ०। पेक्षणकगृहकेषु यत्राऽऽगत्य पेडा स्त्री० (पेटा) मञ्जूषायाम्, ज्ञा०१ श्रु० 1 अ० / नि० / जनप्रतीते प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्षन्ते च / रा० / जं० / वंशदलमयं वस्त्राऽऽदिस्थाने सा च चतुरस्रा भवति ततश्च साधुरपेच्छिऊण अव्य० (प्रेक्ष्य) दृष्ट्वेत्यर्थे, "पेच्छिऊण कीलता" पञ्चा० भिग्रहविशेषद्यस्यां गोचरचर्यायां ग्रामाऽऽदि / क्षेत्र पेटावचतुरस्त्र ७विव०। विभजन्विहरति। तादृशि गोचरचर्या भेदे, स्था० 6 ठा० 1 बृ० / ग० / ध० उत्त०। दशा०। पेज्जन० (प्रेमन्) प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेमा अनभिव्यक्त मायालोभस्वभावे पेड्डा (देशी) भित्ति द्वार-महिषीषु, दे० ना०६ वर्ग 80 गाथा। अभिष्वङ्गमा, दशा०६ अ०। स्नेहविशेषे, प्रव०४१ द्वार। स्था०। ज्ञा०। “एगे पेजे।' स्था० 1 ठा०। पुत्राकलाधन धान्याऽऽद्यात्मीयेषु पेढ पुं० (पीठ)"नीड-पीठे वा" ||811 / 106 / / इतीत एत्वम् / प्रा०१ रागे, भ०१२ श०५ उ० / स्था० / दर्श० / सूत्र० / स चानर्थहेतुरिति पादा "धातुपाषाणकाष्ठश्च, त्रिविधः पीठ उच्यते, स्थानविशेष, वाच०। उक्तम्- "रागः संपाद्यमानोऽऽपि, तापयत्येव देहिनम्। कोठरस्थो ज्व- पेढाइहर पुं० (पीठाऽऽदिधर) कल्पपीठनियुक्तिज्ञातरि, पं०व० 4 द्वार। लण्ये, दावानल इव द्रुमम / / 1 / / " दर्श०१ तत्व। * यथा दीप्तो, पेढाल पुं० (पेढाल) दृढभूमिनामकाङ्ग देशीयजनपदीये, आव० संदंसणेण पीई, पीई उ रई रई उ वीसंभो। 1 अ०। "ततो सामी दढभूमिं गतो, तीसे बाहि पेढालं नाम उजाण, वीसंभाओ पणओ, पंचविहं वड्डए पेज।। तत्थ पोलोसं नाम चेइयं'' आव० 1 अ०। "दढभूमी बहुभेच्छा, पेढालसंदर्शनेनोभयोरपि प्रथमतः प्रीतिरुपजायते, ततः प्रीत्यारतिः ग्गाममागतो भयवा' दृढभूमिमि बहुम्लेच्छा, ता पेढाल नाम ग्राम गतो भगवान्। आ० म०१ अ०। आ० चू० / आ० क०। चेटकदुहितुः चित्तविश्रान्तिः, रतेश्च विश्रम्भोविश्वासः, विश्वासाच मिथः कथादि कुर्वतोः प्रण्योऽशुभे रागो जायते एवं पञ्चविधं पञ्चभिः प्रकारैः प्रेम सुज्येष्ठायाः पुत्रस्य महेश्वरव्यन्तरत्वेन जनिष्यमाणस्य विद्याशिक्षके स्वनामख्याते विद्यासिद्धे, आव०१ अ०। भविष्यति भरतक्षेत्राजे अष्टमे वर्द्धते / बृ० 1 उ०३ प्रक०। जिने, प्रव०७ द्वार। ती० आव०गोलाऽऽकारे, ''पेढालनिअक्कलव* प्रेयस् त्रि० अतिशयेने प्रिये, औ० / प्रकर्षण वा इज्या पूजाऽस्येति दृलाई परिमंडलत्थम्मि।'' पाइ० ना० 84 गाथा। प्रेज्यम् / पूज्ये, औ०। पेढालपुत्त पुं० (पेढालपुत्रा) भरतक्षेत्रो आगामिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्या * प्रेयं त्रि० नेतव्ये, और भविष्यति अष्टमे जिने, स०६ सम० ति०। पावापात्यीये स्थानामके *पेय नि०"वोत्तरीयानीय-तीय-कृद्ये जः" ||8/1 / 248| स्थाविरे, स्था०६ ठा०। तेन सह गौतमर्षि सम्वाद इत्थं नालन्दीयेऽइति यस्य ज्जः / प्रा०१पाद। जलमद्यदुग्धाऽऽदौ, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०) ध्ययने उक्तम्प्रश्न०। पातव्यपदार्थे, वाच०। तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, पेज्जदोसाणुगय त्रि० (प्रेमद्वेषानुगत) प्रेमद्वेषाभ्यामनुगतः / उत्त० पाई० रिद्धिस्थिमितसमिद्धे, वण्णओ-जाव पडिरुवे / तस्स णं 4 अ०। रागद्वेषानुगते, उत्त० 4 अ०। रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1081- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त णं णा (ना) लंदा*नामं बाहिरिया होत्था, अणेगभवणसयसन्निविट्ठा० जाव पडिरूवा ||1|| तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई होत्था, अड्डे दित्ते वित्ते वित्थिण्णविपुलभवणसयणाऽऽसणजाणवाहणाऽऽइण्णे बहुधणबहुजायरूवरजते आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डि यपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था।|| सूत्रार्थस्त्वयम् सप्तम्यर्थे तृतीया, यस्मिन्काले यस्मिंश्चावसरे राजगृहं नगरं यथोक्लविशेषणविशिष्टमासीत्, तस्मिन् काले तस्मिश्च समये इदमभिधीयते। राजगृहामेव विशिनष्टिप्रसादाः संजाता यस्मिंस्तत्प्रासादितमाभोगमद्वा, अत एवं दर्शनीयं-दर्शनयोग्यं दृष्टि सुखहेतुत्वात्, तथाऽऽभिमुख्येन रूपं यस्य तदभिरुप तथा अप्रतिरुपमनन्यसदृशं, प्रतिरूपं वा प्रतिबिम्बं वा स्वर्गनिवेशस्य, तदेवंभूतं राजगृहं नाम नगर 'होत्थ' त्ति, आसीत् , (तद्वर्णकः 'रायगिह' शब्दे वक्ष्यते) यद्यपि तत्कालायेऽपि सत्ता तथाऽप्यतीताऽऽख्यानकसमाश्रय णादासीदित्युक्लम्। तस्य च राजगृहस्य बहिरुत्तरपूर्वस्यां दिशि नालन्दा नामबाहिरिका आसीत्, सा चानेकभवन शतसन्निविष्टा-अनेकभवनशतसंकीर्णेत्यर्थः / / 1 / / सूत्र। *(नालन्दा चैवं व्युत्पाद्यते-प्रतिषेधवाचिनो नकारस्य तदर्थस्यैवालशब्दस्य 'डुदा दाने' इत्येतस्य धातोर्मीलनेन नालं ददातीति नालन्दा / इदमुक्तं भवति-प्रतिषेधप्रतिषेधेन धात्वर्थस्यैव प्राकृतस्य गमनात्सदाऽर्थिभ्यो यथाऽभिलषितं ददातीति नालंदाराजगृहनगर बाहिरिका, तस्यां भवं नालन्दीयमिदमध्ययन, अनेन चाऽभि धानेन समस्तोऽप्युपोदघात उपक्रमरुप आवेदितो भवति तत्स्वरूपं च पर्यन्ते स्वत एव नियुक्तिकारः 'पासावचिजे' इत्यादिगाथया निवेदयिष्यतीति)। साम्प्रतं सम्भविनमलंशब्दस्य निक्षेपं नादौ परित्यज्य कर्तुमाह-- णामअलं ठवणअलं, दव्वअलं चेव होइ भावअलं। एसो अलसद्दम्मि उ, निक्खेवो चउविहो होइ॥२०१।। तत्र-अमानोनाः प्रतिषेधवाचकाः। तद्यथा-अगौः अघट इत्याद्यकारः प्रायां द्रव्यस्यैव प्रतिषेधवाचीते अलं दानेन सहास्य प्रयोगाभावः, माकारस्त्वनागतक्रियाया निषेधं विधत्ते, तद्यथा-मा काषींस्त्वकार्य, मामस्थाः संस्थानो, युष्मदधिष्ठितदिगेव वीतायेत्यादि / नोकारस्तु देशनिषेधे सर्व निषेधे च वर्त्तते, तद्यथा-नोघटो घटैकदेशे घटैकदेशनिषेधेन, तथा हास्याऽऽदयौ नोकषायाः कषायमोहनीयकदेशभूताः, नकारस्तु समस्तद्रव्यक्रियाप्रतिषेधाऽभिधायी, तद्यथा-न द्रव्यं न कर्म न गुणोऽभावः, तथा नाकर्ष, न करोमि, न करिष्यामीत्यादि। तथाऽन्यैरप्युक्तम्"न (नैव) यातिन तत्राऽसी-दस्ति पश्चान्नवांशवत्। जहाति पूर्व नाऽऽधार-महो व्यसनसंततिः / / 1 / / " किं चान्यत् 'गतं न गम्यते ताव-दगतं नैव गम्यते। गतागतविनिर्मुक्त, गम्यमानं तु गम्यते // 1 // " इत्यादि। तदेवमत्र नकारःप्रतिषेधविधायकोऽप्युपात्तः, अलंशब्दोऽपि यद्यपि, अलंपर्याप्तिवारणभूषणेष्यपीति, त्रिष्वर्थेषु पठ्यते, तथाऽपीह प्रतिषेधवाचकेन नञा सा हचर्यात्प्रतिषेधार्थ एवं गृह्यते, तत्रा चालशब्दे नामस्थापना द्रव्यभावभेदाच्चतुर्विधो निक्षेपो भवति, ता नामालम्यस्य चेतनस्य अचेतनस्य वा अलामिति नाम क्रियते, स्थापनाऽलंतुयत्र क्वचिचित्रापुस्तकाऽऽदौ पापनिषेधं कुर्वन्साधुः स्थाप्यते, द्रव्यनिषेधस्तु नोआगमतोज्ञशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्य चौराऽऽद्यादृतस्यैहिकापायभीरुणायो निषेधः क्रियते स द्रव्यनिषेधः, एवं द्रव्येण द्रव्याद्रव्ये वा निषेधः / / 201 / / भावनिषेधं तु स्वत एव नियुक्तिकारोऽलंशब्दस्य संभविनमर्थ दर्शयन्विभणिषुराहपञ्जत्तीभावे खलु, पढमो बीओ भवे अलंकारे। ततितो उ पडीसेहे, अलसद्दो होइनायव्वो // 202 / / पर्याप्तिभावः-सामर्थ्य , तत्राऽलंशब्दो वर्तते, अलं मल्लो मल्लाय, समर्थ इत्यर्थः, लोकोत्तरेऽपि "नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा''। अन्यैरप्युक्तम्-"द्रव्यास्तिकरथाऽऽरूढः, पर्यायोदयतकार्मुकः। युक्ति सन्नाहवान् वादी, कुवादिभ्यो भवत्यलम्।।१।।" अयं प्रथमोऽलंशब्दार्थों भवति, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, द्वितीयस्त्वर्थोऽलङ्कार-अलङ्कारविषये भवेत, संभावनाया लिङ् तद्यथा अलड्कृतं देव देवेन स्वकुलं जगच नाभिसूनुना इत्यादि। तृतीयस्त्वलं शब्दार्थः प्रतिषेधे ज्ञातव्यो भवति, तद्यथा-अलं मे गृह वासेन। तथा अलं पापेन कर्मणा।' उक्तंच-"अलं कुतीर्थैरिह पर्युपासितैरलं वितर्काऽऽकुलकाहलैर्मतैः। अलं च मे कामगुणैनिषेवितैर्भयंकरा ये हि परत्राचेह च।।२०२।।" (मूलसूत्र) (तत्थ)तस्यां च नालन्दायाम् लेपो नाम 'गृहपतिः कुटुम्बिक आसीत् च चाऽऽढयो दीप्तः-तेजस्वी 'वित्तः सर्वजनविख्यातो विस्तीर्ण विपुलभवनशयनाऽऽसनथानवाहनाऽऽकीर्णो बहुधनबहुजातरूपरजतः आयोगाःअर्थोपाया यानपात्रोष्ट्रमण्ड लिकाऽऽदयः, तथा प्रयोजनं प्रयोगःप्रायोगिकत्वं तैरायोगप्रयोगैः संप्रयुक्तः-समन्वितः, तथेतश्चेतश्च विक्षिप्तप्रचुरभक्तपानो बहुदास्याऽऽदिपरिवृत्तो बहुजनस्यापरिभूतश्चासीत्। तदियता विशेषणकदम्बकनैहिकगुणाऽऽविष्करणेन द्रव्यसंपदभिहिता // 2 // अधुनाऽऽमुष्मिकगुणाऽऽविर्भावन भावसंपदभिधीयतेसे णं लेवे नाम गाहावई समणोवासए यावि होत्था, अभिगयजीवाजीवे० जाव विहरइ, निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निकं खिए निटिवति गिच्छे लद्धढे गहियढे पुच्छियडे विणिच्छि यढे अभिगहियढे अद्विमिंजापेम्माणुरागरत्ते, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अयं अट्ठ अयं परमटे सेसे Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1082- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त अणहे, उस्सियफलिहे अप्पावयदुवारे चियत्तंतेउरप्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुग्नं पोसह सम्म अणु पालेमाणे समणे निग्गंथे तहाविहेणं एसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणे बहूहिं सीलव्वयगुण विरमणपचक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणे एवं चणं विहरइ॥३॥ (सेणं लेवे इत्यादि) णमिति वाक्यालङ्कारे, सलेपाऽऽख्यो गृहपतिःश्रमणान-साधूनुपास्तेप्रत्यहं सेवत इति श्रमणोपासकः, तदनेन विशेषणेन तस्य जीवाऽऽदिपदार्थाऽऽविर्भावक श्रुतज्ञानसंपदावेदिता भवति, एतदेव दर्शयति-अभिगतजी वाजीवेत्यादिना ग्रन्थेन यावदसहायोऽपि देवासुराऽऽदिभि देवगणैरनतिक्रमणीयः-अनतिलङ्घनीयो धर्मादप्रच्यावनीय इति यावत्, तदियता विशेषणकलापेन तस्यसम्यग्ज्ञा नित्वमावेदितं भवति। साम्प्रतंतस्य विशिष्टस्मयग्दर्शनित्वंप्रतिपादयितुमाह-('निग्गंथे' इत्यादि) निर्गन्थे-आर्हतेप्रवचने निर्गता शङ्का देशसर्वरूपा यस्य स निःशङ्कः, 'तदेव सत्यं निःशद्धं यज्जिनैः प्रवेदितस्' इत्येवं कृताध्यवसायः, तथा निर्गता कासा--अन्यान्यदर्शनग्रहरूपा यस्याऽसौ निराकासाः, तथा निर्गता विचिकित्साचित्तविप्लुतिर्विद्वज्जुगुप्सा वा यस्यासौ निर्विचिकित्सः, यत एवमतोलब्धः-उपलब्धोऽर्थः-परमार्थरूपो येन स लब्धार्थो ज्ञाततत्व इत्यर्थः, तथा गृहीतः स्वीकृतोऽर्थों-- मोक्षमार्गरूपो येन स गृहीतार्थः, तथा-विशेषतः पृष्टोऽर्थो येन स पृष्टार्थो, यत एवमतो विनिश्चितार्थः, ततोऽभिगतः--पृष्टनिर्वधनतः प्रतीतोऽर्थो येन सोऽभिगतार्थः, तथा अस्थिमिजा-अस्थिमध्यं यावत् स धर्मे प्रेमानुरागेण रक्तः अत्यन्तं सम्यक्त्ववासितान्तश्चेता इति यावत्, एतदेवाऽऽविर्भावयन्नाह-'अयमाउसो!' इत्यादि। केनचिद्धर्मसर्वस्वं पृष्टः सन्नेतदाचष्टे, तद्यथा-भो आयुष्मन्निदं नैर्ग्रन्थं मौनीन्द्रप्रवचनमर्थःसद्भूतार्थः तथा प्ररूपणतया, तथेदमेवाऽऽह-अयमेव परमार्थः, कषतापच्छेदैरस्यैव शुद्धत्वेन निर्घटितत्वात्, शेषस्तु सर्वोऽपिलौकिकतीर्थिकपरिकल्पितो ऽनर्थः, तदनेन विशेषणकदम्बकेन सम्यक्त्वगुणाऽऽविष्करणं कृतं भवति / साम्प्रतं तस्यैव सम्यग्दर्शनज्ञानाभ्यां कृतो यो गुणस्तदाविष्करणायाऽऽह-('उस्सिय' इत्यादि) उच्छृतं प्रख्यातं स्फटिकवन्निर्मलं यशो यस्याऽसावुच्छृतस्फटिकः, प्रख्यातनिर्मलयशा इत्यर्थः तथा-अप्रावृतम्-अस्थगितंद्वारं गृहमुखं यस्य सोऽप्रावृतद्वारः, इदमुक्तं भवति-गृहं प्रविश्य परतीर्थिकोऽपि यद्यक्तथयति तत्तदसौ कथयतु, न तस्य परिजनोऽप्यन्यथा भावयितुं सम्यक्त्वाचयावयितुं शक्यत इति यावत्। तथा राज्ञांवल्लभान्तःपुरद्वारेषु प्रवेष्टुशीलं यस्य स तथा। इदमुक्तं भवति-प्रतिषिद्धान्यजनप्रवेशान्यपि यानि स्थानानि भाण्डागारान्तःपुराऽऽदीनि तेष्वप्यसौ प्रख्यातश्रावकाऽऽख्यगुणत्वेनास्खलितप्रवेशः, तथा चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिषूयदिष्टासुमहाकल्याणकसंबन्धितया पुण्यतिथित्वेन प्रख्यातासु तथा पौर्णमासीषु च तिसृष्वपि चतुर्मासकतिथिष्वित्यर्थः, एवंभूतेषुधर्मदिवसेषुसुष्टुअतिशयेन प्रतिपूर्णी यः पौषधौव्रताभिग्रहवि शेषस्तंप्रतिपूर्णमआहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्या व्यापाररूपं पौषधमनुपालयन् सम्पूर्ण श्रावकधर्ममनुचरति, तदनेन विशेषणकलापेन विशिष्टं देशचारित्रामावेदितं भवति / साम्प्रतं तस्यैवोत्तरगुणख्यापनेनदानधर्ममधिकृत्याऽऽह-'समणे निग्गंथे' इत्यादि सुगमं यावत् 'पडिलाभेमाणे' त्ति / साम्प्रतं तस्यैव शीलतपोभावनाऽऽत्मकं धर्ममावेदयन्नाह-(बहूहि-मित्यादि) बहुभिः-शीलव्रतगुणविरमणप्रत्याख्यानपौषधोप-वासैस्तथा यथा परिगृहीतैश्च तपःकर्मभिरात्मानं भावयन, एवं चानन्तरोक्तया नीत्या विहरतिधर्ममाचरंस्तिष्ठति, चः समुच्चये। णमिति वाक्यालङ्कारे // 3 // तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स नालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं सेसदविया नामं उदगसाला होत्था, अणेगखंभसयसग्निविट्ठा पासादीया० जाव पडिरूवा, तीसे गं सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए, एत्थ णं हत्थिजामे नामवणसंडे होत्था, किण्हे वण्णओवणसंडस्स।।।। तस्य चैवंभूतस्य लेपोपासकस्य गृहपतेः सम्बन्धिनी नालन्दायाः पूर्वोत्तरस्यां दिशि शेषद्रव्याभिधानागृहोपयुक्तशेष द्रव्येण कृता शेषद्रव्येत्येतदेवाभिधानमस्या उदकशालायाः सैवंभूताऽऽसीदनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा प्रासादीया दर्शनीयाऽभिरूपा प्रतिरूपेति, तस्याश्चोत्तर पूर्वदिग्विभागे हस्तिया माख्यो वनखण्ड आसीत् कृष्णावभास इत्यादिवर्णकः॥४|| तस्सिं च णं गिहपदेसम्मि भगवं गोयमे विहरइ, भगवं घणं अहे आरामंसि / अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावचिजे नियंठे मेयजे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोयमे तेणे व उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता भगवं गोयम एवं वयासीआउसंतो ! गोयमा ! अत्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियव्वे, तं च आउसो! अहासुयं अहादिरिसियं मे वियागरेहि सवायं, भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी अवियाइ आउसो ! सोचा निसम्म जाणिस्सामो सवायं, उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-||५| तस्मिश्च वनखण्डगृहप्रदेशे भगवान् गौतमस्वामी श्रीवर्धमानस्वामिगणधरो विहरति। अथानन्तरं भगवान गौतम स्वामी तस्मिन्नारामे सह साधुभिर्व्यवस्थितः, अथानन्तरं णमिति वाक्यालंकारे, उदकाऽऽख्यो निम्रन्थः पेढालपुत्रः पापित्यस्य पार्श्वस्वामिशिष्यस्यापत्यं शिष्यः पापित्यीयः स च मेतार्यो गोत्रेण, येनैवेति सप्तम्यर्थे तृतीया। यस्यां दिशियस्मिन्वा प्रदेशे भगवान श्रीगौतमस्वामी तस्यां दिशि तस्मिन्या प्रदेशे समागत्येदं वक्ष्यमाणं प्रोवाचेति। अत्रा नियुक्तिकारोऽध्ययनोत्थानं तात्पर्य च गाथया दर्शयि तुमाहपासावचिनो पु-च्छियाइओ अञ्जगोयम उदगो। सावगपुच्छा धम्म, सोउं कहियम्मि उवसंता॥२०५।। (पासावचीत्यादि) पार्श्वनाथाशिष्य उदकाभिधान आर्यगौ - तमं पृष्टवान्, किं तत्, श्रावक गतं-श्रावक विषयं प्रश्न, तद्यथाभो इन्द्रभूते? साधोः श्रावकाणुव्रतदाने सति स्थूलप्राणा Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1083- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त तिपाताऽऽदिविषये तदन्येषां सुक्ष्मबादराणां प्राणिनामुपघाते सत्यारम्भजनिते तदनुमतिप्रत्ययजनितः कर्मबन्धः करमान्न भवति? तथा स्थूलप्राणातिपाताऽऽदिविषये व्रतिनस्तमेव पर्यायान्तरगतं व्यापादयतो नागरिकवधनिवृत्तस्य तमेव बहिस्थं व्यापादयत इव तव्रतभङ्ग जनितः कर्मबन्धः कस्मान्न भवीत्येतत्प्रश्नस्योत्तरं गृहपति चौरग्रहण विमोक्षणोपमया दत्तवान् तच्च श्रावकप्रश्नस्यौपम्यं गौतमस्वामिना कथितं श्रुत्वोदकाऽऽख्यो निर्ग्रन्थ उपशान्तः–अपगतसंदेहः संवृत्त इति।सांप्रतं सूत्रामनुश्रियते-सउदको गौतमस्वामिसमीपसमागत्य भगवन्तमिदमवादीत् / तछथा-आयुष्मन् गौतम ! अस्ति मम विद्यते कश्चित्प्रदेशः प्रष्टव्यः, ता संदेहात्,तंच प्रदेशं यथाश्रुतं भवता यथा च भगवता संदर्शितं तथैव मम व्यागृणीहि-प्रतिपादय / एवं पृष्टः स चायं भगवान, यदि वा सह वादेन सवादं पृष्टः सदाचं वा शोभनभारतीकं वा प्रश्न पृष्टस्तमुदकंपेढालपुकामेवमवादीत्। तद्यथा अपि च आयुष्मन्नुदक ! श्रुत्वा भवदीयं प्रश्नं निशम्य चावधार्य च गुण दोषाविचारणतः सम्यगह ज्ञास्ये, तदुच्यतां विश्रब्धं भवता स्वाभिप्रायः 'सवाय' सदाचं सवाद या उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादीत् / / 5 / / आउसो गोयमा ! अत्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा तुम्हाणं पवयणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसंपन्नं एवं पञ्चक्खावेंति णण्णत्थ आभिओएणं गाहावइचोरगहणं विमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंड, एवं एहं पचक्खंताणं दुप्पचक्खायं भवइ, एवं एहं पञ्चक्खावेमाण / णं दुप्पचक्खावियव्वं भवइ, एवं ते परं पञ्चाक्खावेमाणा अतियरंति सयं पतिण्णं, कस्स णं तं हेउं? संसारिया खलु पाणा थावरा विपाणा तसत्ताए पचायंति, तसा वि पाणाथावरत्ताए पञ्चायंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववजंति तसकायाओ विप्पमुचमाण थावरकायंसि उववजंति, तेसिं च णं थावरकायंसि उववण्णाणं ठाणमेयं धत्तं // 6 // तद्यथा-भो गौतम ! अस्तीत्ययं विभक्तिप्रतिरूपको निपात इति बह्वर्थवृत्तिर्गृहीतस्ततश्चायमर्थः-सन्तिविद्यन्तेकुमार पुत्रा नाम निर्ग्रन्था युष्मदीय प्रवचनं प्रवदन्तः। तद्यथा-गृहपतिं अमणोपासकमुपसंपन्न नियमायोत्थितमेवं प्रत्याख्यापयन्ति प्रत्याख्यानं कारयन्ति, तद्यथास्थूलेषु प्राणिषु दण्डयतीति दण्डः-प्राण्युपमर्दस्तं निहायपरित्यज्य प्राणातिपातनिवृत्तिं कुर्वन्ति। तामेवापवदतिनान्योति, स्वमनीषिकाया अन्या राजाऽऽद्यभियोगेन यः प्राण्युपधातो न ता निवृत्तिरिति। तत्रा किल स्थूलप्राणिविशेषणात्तदन्येषामनुमति प्रत्ययदोषः स्यादित्या शङ्कावानाह-(गाहावइ इत्यादि) अस्य चार्थमुत्तरत्राऽऽविर्भाव यिष्यामः। येनाभिप्रायेणोदकश्चोदितवाँस्तमाविष्कुर्वन्नाह-(एवं एहमित्यादि) एहमिति वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा, एवमेव असप्राणिविशेषणत्वेनापरासभूत विशेषणरहित्वेन प्रत्खाख्यान गृहृतां श्रावकाणां दुष्प्रत्याख्यानं भवति, प्रत्याख्यानभङ्गसद्भावात्तथैवमेव प्रत्याख्यापयतामपि / साधूनां दुष्ट प्रत्याख्यानदान भवति। किमित्यत आह-एवं ते श्रावकाः | प्रत्याख्यानं गृह्णन्तः साधवश्च परं प्रत्याख्यापयन्तः स्वां प्रतिज्ञामति चरन्ति-अतिलगायन्ति। (कस्सणं हेउ ति) प्राकृतशैल्य कस्माद्धेतोरित्यर्थः ? तत्र प्रतिज्ञाभङ्ग कारणमाह-(संसारिया इत्यादि) संसारो विद्यते येषां ते सांसारिकाः। खलुरलङ्कारे, प्राणिनोजन्तवः स्थावराः प्राणिनः--पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सन्तोऽपि तथाविधकर्मोदयालासतयाठासत्वेन द्वीन्द्रियाऽऽदिभावे प्रत्यायान्ति उत्पद्यन्ते, तथा कासा अपि स्थावरतयेत्येवं च परस्परगमने व्यवस्थिते सत्यवश्यंभावी प्रतिज्ञाविलोपः / तथाहि नागरिको मया न हन्तव्य इत्येवंभूता येन प्रतिज्ञा गृहीता, स यदा बहिरारामाऽऽदौ व्यवस्थितं नागरिकं व्यापादयेत्किमे त्रावतातस्य न भवेत्प्रतिज्ञाविलोपः? एवमत्रापि येन त्रसवधनिवृत्तः कृता स यदा तमेव त्रसंप्राणिनं स्थावराकायस्थित व्यापादयेक्तिं तस्य न भवेत् प्रतिज्ञाविलोपः ? भवेदेवेत्यर्थः / एवमपि त्रासस्थावरकाये समुत्पन्नां असाना यदि तथाभूतं किञ्चिदसाधारणं लिङ्गं स्यात्ततस्ते त्रसाः स्थावरत्वेनाप्युत्पन्नाः शक्यन्ते परिहर्तु, न च तदस्तीत्येतदर्शयितुमाह-(थावरकायाओ इत्यादि) स्थावरकायात्सकाशाद्विविधम्-- अनेकैः प्रकारैःप्रकर्षेणु मुच्यमानाः स्थावरकायाऽऽयुषा तद्योग्यैश्वापरैः कर्मभिः सर्वाऽऽत्मना ासकाये समुत्पद्यन्ते, तथा असकायादपि सर्वाऽऽत्मना विमुच्यमानास्तत्कर्मभिः स्थावरकाये समुत्पद्यन्ते, तत्र चोत्पन्नानं तथाभूतत्रास लिङ्गाभावात्प्रतिझालोप इत्येतत्सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-(तेसिं च णमित्यादि) तेषां-असानां स्थावरकाये समुत्पन्नानां गृहीतत्र सप्राणातिपातविरतेः श्रावकस्याप्यारम्भप्रवृत्तत्वेनैतत्स्थाव राऽऽख्य धात्यं स्थानं भवति, तस्मादनिवृत्तल्वास्येति॥६॥ एवं एहं पचक्खंताणं सुपचक्खायं भवइ, एवं एहं पञ्चक्खा वेमाणाणं सुपचक्खावियं भवइ, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा णातियरंति सयं पइण्णं, णण्णत्थ अमिओगेणं गाहावइचो रगइणविमोक्खणयाए तसभूएहिं पाणेहिं णिहाय दंडं, एवा मेव सइ भासाए परक्कमे विजमाणे जे ते कोहा वा लोहा वा परं पचक्खावेंति अयं पि णो उदएसे णो णेआउए भवइ, अवियाई आउसो गोयमा ! तुब्भं पि एवं रोयइ॥७॥ तदेवं व्यवस्थिते नागरिकदृष्टान्तेन असमेव स्थावरत्वेनायातं व्यापादयतोऽवश्यंभावी प्रतिज्ञाविलोपो, यतस्तत एवं मदुक्तया वक्ष्यमाणनीत्या प्र(त्या) ख्यानं कुर्वतां सुप्रत्याख्यातं भवत्येवमेव च प्रत्याख्यापयतां सुप्रत्याख्यापितं भवति, एवं च ते प्रत्याख्यापयतो नातिचरन्ति स्वीयां प्रतिज्ञा मित्येतद्दर्शयितुमाह- (णण्णत्थेत्यादि) तत्र गृहपतिः प्रत्याख्यानमेवं गृह्णाति / तद्यथा-ासभूतेषु वर्तमानकाले त्रसत्वेनोत्पन्नेषु प्राणिषु दण्डयतीति दण्डः-प्राण्युपमर्दस्त विहायपरित्यज्य प्रत्याख्यान करोति, तदिह भूतत्वविशेषणात स्थावरपर्यायाऽऽपन्नवधेऽपि न प्रतिज्ञा विलोपः / तथा नान्यत्राभियोगेनेति राजाऽऽद्यभियोगादन्यता, प्रत्याख्यानमिति तथा गृहपतिचौरविमोक्षणतयेति, एतच भवद्धि सम्यगुत्कम् एतदपि असकाये भूतत्वविशेषण मभ्युपगम्यतामिति एतदभ्युपगमेऽपि हि यथा क्षीरविकृति प्रत्याख्यायिनो दधिभक्षणेऽपि न प्रतिज्ञा विलोपः / तथा त्रसभूताः सत्त्वान हन्तव्या इत्येवंप्रतिज्ञावतः स्थावरहिसायामपि न प्रत्या ख्यानत्तिचारः / तदेवं विद्यमाने सति भाषायाः प्रत्याख्यानवचः पराक्रमे भूत विशेषणाद्दोषपरिहार सामर्थ्य एवं पूर्वोक्तया Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1084- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त नीत्या सति दोषपरिहणोपाये ते केचन क्रोधाद्वा लोभाद्वा परं श्रावकाऽऽदिकं निर्विशेषणमेव प्रत्याख्यापयन्ति, तेषां प्रत्याख्यानं ददतां मृषावादो भवति, गृह्यतां चावश्यंभावी व्रतविलोप इति। तदेव-मयमपि न:-अस्मदीयोपदेशाऽभ्युपगमो भूतत्वविशेषणविशिष्टः पक्षः किं भवतां (नो) नैव नैयायिको-न्यायोपपन्नो भवति? इदमुक्तं भवति-भूतत्वविशेषणेन हि असान् स्थावरोत्पन्नान् हिंसतोऽपि न प्रतिज्ञाऽतिचार इत्यपि चैतदायुष्मन् गौतम ! तुभ्यमपि रोचते / / 7 / / सवायं भगवं गोयमे ! उदयं पेढालयुत्तं एवं वयासी आउसंतो! उदगा ! नो खलु अम्हे एवं रोयइ,जे ते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति-जाव परूवेंति, णो खलु ते समणा वा णिग्गंथा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलु ते भासं भासंति, अन्माइक्खंति खलु ते समणे समणोवासए वा, जेहिं वि अन्नेहि जीवेहिं पाणेहिं भूएहिं सत्तेहिं संयमयंति ताण वि ते अब्भाइक्खंति, कस्स णं तं हेउं? संसारिया खलु पाणा तसा वि पाणा थावरत्ताए पचायंति, थावरा वि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसकायाओ विप्पमुचमाणा थावरकायंसि उववजंति, थावरकायाओ विप्पमुचमाणा तसकायंसि उववजंति, तेसिं च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघत्तं / / 8 / / एवमेतद्यथा मया व्याख्यातमा एवमभिहितो गौतमः सद्वाचं सवाद वा तमुदकं पेढालपुत्रमेवं वक्ष्यमाणमवादीत्, तद्यथा-नो खल्वायुष्मनुदक! अस्मभ्यमेतदेवं यद्यथा त्वयोच्यते तद्रोचत इति। इदमुक्तं भवति-यदिदं असकायविरतौ भूतत्वविशेषण क्रियते, तन्निरर्थकतयाऽस्मभ्यं न रोचत इति तदेवं व्यवस्थिते भो उदक! ये ते श्रमणा वा ब्राह्मण वा एवंभूतशब्द विशेषणत्वेन प्रत्याख्यानमाचक्षते, परैः पृष्टास्तथैव भाषन्ते प्रत्याख्यानं स्वतः कुर्वन्तः कारयन्तश्चैवमिति-सविशिषणं प्रत्याख्यानं भाषन्ते, तथैवमेव सविशेषणप्रत्याख्यानप्ररूपणावसरे सामान्येन प्ररूपयन्ति, एवं च प्ररूपयन्तोन खलुते श्रमणा वा निर्ग्रन्था वा यथार्था भाषा भाषन्ते, अपि त्वनुतापयतीत्यनुतापिका तां तथा भूतां च खलु ते भाषां भाषन्ते, अन्यथा भाषणे ह्यपरेण जानता बोधि तस्य सतोऽनुतापो भवतीत्यतोऽनुतापिकेत्युच्यत इति। पुनरपि तेषां सविशेषणप्रत्याख्यानतामुल्वणदोषो द्विभावयिषयाऽऽह-(अब्भाइक्खति इत्यादि, ते हि सविशेषणप्रत्याख्यानवादिनो यथावस्थितं प्रत्याख्यानं ददतः साधून गृह तश्च श्रमणोपासकानभ्याख्यान्ति-अभूतदोषोद्भावनतोऽभ्याख्यान ददति। किं चान्यत्-(जेहिं वीत्यादि) येष्वप्यन्येषु प्राणिषुभूतेषु जीवेषु सत्त्वेषु विषयभूतेषु विशिष्य ये संयमं कुर्वन्ति संयमयन्तिा तद्यथा ब्राह्मणो न भया हन्तव्य इत्युक्ते स यदा वर्णान्तरे तिर्यक्षु वा व्यवस्थितो भवति, तद्वधे ब्राहाणवध आपद्यते, भूतशब्दाविशेषणात्तदेवं तान्यपि विशेषतानि सूकरो मया न हन्तव्य इति एवमादीनि ते भूतशब्दविशेषवादिनोऽभ्याख्यान्तिदूषयन्ति। किमित्रुयतआह-(कस्स णमित्यादि) कस्मा-1 खेतोस्तदसद्भूतं दूषणं भवतीति ? यस्मात्सांसारिकाः खलु प्राणाः परस्पर-जातिसंक्रमणभाजो यतस्ततस्त्रसाः प्राणिनः स्थावरत्वेन प्रत्यायान्ति, स्थावराश्च त्रासत्वेनेति। असकायाच सर्वाऽऽत्मना ासाऽऽयुष्कं परित्यज्य स्थावरकाये तद्योग्यकर्मो पादानादुत्पद्यन्ते, तथा स्थावरकायाच्च तदायुष्काऽऽदिना कर्मणा विमुच्यमानास्त्रसकाये समुत्पधन्ते, तेषां च त्रासकाये समुत्पन्नां स्थानमे तलाकायाऽऽख्यमघात्यम्अघातार्ह भवति। यस्मात्तेन श्रावकेण त्रासानुद्दिश्य स्थूलप्राणातिपातविरमणं कृतं, तस्य तीब्राध्यवसायोत्पादकत्वाल्लोकगर्हि तत्वाचेति। तत्रासो स्थूलप्राणतिपातानिवृत्तस्त निवृत्या च त्रसस्थानमधात्यं वर्तते, स्थावरकायाचानिवृत्त इति तद्योग्यतथा तत्स्थानं घात्यमिति / तदेवं भवदभिप्रायेण विशिष्टसत्वोदेसेनाऽपि प्राणातिपातनिवृत्तौ कृतायामपरपर्यायाऽऽपन्नं प्राणिनं व्यापादयतो व्रतभङ्गो भवति, ततश्चन कस्यचिदपि सम्यग्वतपालन स्यादित्येवमभ्याख्यात मसदभूतदोषोद्भावनं भवन्तो ददति / यदपि भवद्भिर्वर्तमानकालविशेषणत्वेन किलाऽयं भूतशब्द उपादीयतेऽसावपि व्यामोहाय केवलमुपतिष्ठते। तथा हि-भूतशब्दोऽयमुपमानेऽपि वर्तत। तद्यथा-देवलोकभूतं नगरमिदं, न देवलोक एव तथाऽत्रापि त्रसभूतानां त्रअससद्दशानामेव प्राणातिपातनिवृत्तः कृता स्यान्न तु सानामिति / अथ तादर्थ्य भूतशब्दोऽयं, यथा शीतीभूतमुदकं शीतमित्यर्थः / एवं त्रसभूतास्वासत्वं प्राप्तास्तथा च सति कासशब्देनैवगतार्थत्वापौनरूक्तयं स्यात्। अथैवमपि स्थिते भूतशब्दोपादानं क्रियते, तथा च सत्यतिप्रसङ्गः स्यात्। तथाहि-क्षीरभूत विकृतेः प्रत्याख्यानं करोम्येवं घृतभूतं मे ददस्वैवंघटभूतः पटभूत इत्येवमादावप्यायोज्यामिति / / 6 / / तदेवं निरस्ते भूतशब्दे सत्युदक आहसवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासीकयरे खलु ते आउसंतो गोयमा ! तुन्भे व्यह-तसपाणातसा आउ अन्नहा ? सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-आउसंतो उदगा ! जे तुन्भे वयह-तसभूता पाणा ते वयं वयामो तसा पाणा, जे वयं वयामो तसा पाणा ते तुब्भे वयह तसभूया पाणा, पए संति दुवे ठाणा तुल्ला एगट्ठा, किमाउसो ! इमे भे सुप्पणीयतराए भवइ, तसभूया पाणा तसा, इमे भे दुप्पणीयतराए भवइ, तसा पाणा तसा, ततो एगमाउसो ! पडिक्कोसह एक अभिणंदह अयं पि भेदो से णो णेआउए भवइ / / 6 / / सद्वाचं सवादं वा उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं गौतममेवमवादीत। तद्यथा हे आयुष्मन् गौतम ! कतरान्प्राणिनो यूयं वदथ असा एव ये प्राणाः प्राणिनस्त एव ासाः प्राणा इति, उतान्यथेति, एवंपृष्टो भगवान् गौतमस्तमुदकं सद्वाचं पेढालपुत्र मेवमवादीत्। तद्यथा-आयुष्मन्नुदक ! यान-प्राणिनो यूयं वदथ त्रसभूतास्त्रसत्वेनाऽऽविर्भूताः प्राणिनो नातीता नाप्येष्याः, किं तु ? वर्तमानकाल एव ासाः प्राणा इति, तानेव वयं वदामः सास्त्रसत्वं प्राप्तास्तत्कालवर्तिन एव ासाः प्राणा इति। Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1085- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त एतदेव व्यत्ययेन विभणिषुराह-(जे वयमित्यादि) यान्चयं वदामस्त्रसा एव प्राणास्त्रसाः प्राणास्तानेव यूयमेवं वदथ त्रसभूता एव प्राणारत्रसभूताः प्राणाः, एवं च व्यवस्थिते एते अनन्तरोक्ते / अपि स्थाने एकार्थेतुल्ये भवतोनात्रार्थभेदः कश्चिदस्त्यन्यत्रा शब्दभेदादिति, एवं च व्यवस्थिते किमायुष्मन् ? युष्माकमयंपक्षः सुष्टु प्रणीततरोयुक्तियुक्तः प्रतिभासते ? तद्यथा-असभूतां एव प्राणास्त्रसभूताः प्राणा इति अयं तु पक्षो दुष्प्रणीततरो भवति प्रतिभासते भवताम् ? तद्यथा-ठासा एव प्राणारत्रसाः प्राणाः, सन्ति चैकार्थत्वेन भवतां कोऽयं व्यामोहो? येन शब्दभेमाश्रित्यात एक पक्षमाक्रो, शयश, द्वितीयं त्वभिनन्दथ इति। तदयमपि तुल्येऽप्यर्थे सत्येकस्य पक्षस्याऽऽक्रोशनमपरस्य सविशेषण पक्षस्याभिनन्दन मित्येष दोषाभ्युपगमो भवतां नो नैयायिको-न न्यायोपपन्नो भवत्युभयोरपि पक्षयोः समानत्वात्, केवलं सविशेषणपक्षे भूतशब्दोपादानं मोहमावहतीति || वच भवताऽस्माक प्राग्दोषोद्भावनमकारि / तद्यथा त्रसानां वधनिवृत्ती तदन्येषां वधानुमतिः स्यात साधोः, तथा भूतशब्दानुपादानेऽन्तरमेव त्रसं स्थावरपर्यायाऽपन्नं व्यापादयतो व्रतभङ्ग इत्येतत्कुचोद्यजातं परिहर्तुकाम आह -- भगवं च णं उदाहु संतेगइआ मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ-णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ अणागारियं पव्वइत्तए, सावयं एहं अणु पुटवेण गुत्तस्स लिसिस्सामो, ते एवं संखवेंति ते एवं संखं ठवयंति ते एवं सखं ठावयंति नन्नत्थ अभिओएणंगाहा वइचोरगहणवि-मोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं निहाय दंडं, तं पितेसिं कुसलमेव भवइ // 10 // (भगवं च णमित्यादि) णमिति वाक्यालङ्कारे। भगवान् गौतमस्वामी, चशब्दः पुनः शब्दार्थे। पुनराहा तद्यथा-सन्ति विद्यन्ते एके केचन लघुकर्माणो मनुष्याः प्रव्रज्यां कर्तुमसमर्थाः, तदव्यतिरेकेणैव धर्म चिकीर्षवस्तेषां चैवमध्यवसायिनां साधोधर्मोपदेशप्रवणस्याग्रत इदमुक्तपूर्व भवति। तद्यथा-भोः सधो ! न खलु वयं शक्नुमो मुण्डा भवितुं प्रव्रज्या ग्रहीतुमगाराद्-गृहादनगारता-साधुभावं प्रतिपत्तुं, वयं त्वानुपूर्येण क्रमशो गोत्रास्येति गां त्रायत इति गोत्र साधुत्वं तस्य साधुभावस्य पर्यायेण परिपाल्याऽऽत्मानमनुश्लेषयिष्यामः / इदमुक्तं भवति-पूर्व देशविरतिरूपतया श्रावक्रधर्म गृस्थयोग्यमनिन्द्यमनुपालयामस्ततोऽनुक्रमेण पश्चाच्छ्रमणधर्ममिति / तत एवं ते संख्या व्यवस्था श्रावयन्ति प्रत्याख्यानं कुर्वन्तः प्रकाशयन्तिा तद्यथा-नान्यत्राभियोगेन, सचाभियोगो राजाऽभियोगो गणभियोगो बलाभियोगो देवता ऽभियोगो गुरुनिग्रहश्चेत्येवमादिनाऽभियोगेन व्यापादयतोऽपि ब्रस न व्रतभङ्गः। तथागृहपतिचोरविमोक्षणतयैत्यस्यायमर्थः कस्यचिद्गृहपतेः षट्पुत्राः, तैश्च सत्यपि पितृपितामहक्रमाऽऽयति महति वित्ते तथाविधकर्मोदयद्राज कुलभाण्डागारे चौर्यमकारि, राजपुरुषैश्च भवितव्यतानियोगेन गृहीतान्ते इत्येके। परे त्वन्यथा व्याचक्षते, तद्यथारल्लपुरे नगरे रत्नशेखरोनाम राजा, तेन च परितुष्टन रत्नमालाऽग्रमहि- षीप्रमुखान्तः पुरस्य कौमुदीप्रचारोऽनुज्ञातः, तदव गम्य नागरलोकेनापि राजानुमत्या स्वकीयस्य स्त्रीजनस्य तथैव क्रीडनमनुमतं, राज्ञा च नगरे सडिण्डिमशब्दमाघोषितम् / तद्यथा-अस्तमनोपरि कौगढीमहोत्सवे प्रवृत्ते यः कश्चित्पुरुषः समुपलभ्यते नगरमध्ये तस्याविज्ञप्तिकः शरीर निग्रहः क्रियते इत्येवं च व्यवस्थिते सत्येकस्य वणिजः षट् पुत्राः, तेच कौमुदीदिने क्रयविक्रयसंव्यवहारव्याग्रतया तावत्स्थिता यावत्सविताऽस्तमुपगतः, तदनन्तरमेव स्थगितानि च नगरद्वाराणि तेषां च तत्कालात्ययान्न निर्गमनमभूत, ततस्ते भयसंभ्रान्ता नगरमध्य एवाऽऽत्मानं गोपयित्वा स्थितास्ततो निष्क्रान्ते कौमुदीप्रचारे राज्ञाऽऽरक्षिकाः समाहूयाऽऽदिष्टा यथा सम्यक् निरूपयत यूयं नात्र नगरे कौमुदीचारे कश्चित्पुरुषो व्यवस्थित इति। तैरप्यारक्षिकैः सम्यक् निरुपयद्भिरूपलभ्य षडवणिकपुत्रवृत्तान्तो यथावस्थित एव राज्ञे निवेदितः। राज्ञाऽप्याज्ञाभङ्ग कुपितेन तेषां षण्णामपि वधः समादिष्टः / ततस्तत्पिता पुत्रवधसमाकर्णन गुरुशोकविह्वलोऽकाण्डाऽऽपतितकुलक्षयोदभ्रान्तलोचनः कि कर्तव्यतामूढतयाऽगणिताविधेयाविधेयविशेषो राजानमुपस्थितोऽवादीच गद्गदया गिरा। यथा-मा कृथा देवास्माकं कुलक्षयं, गृह्यतामिदमस्मदीय कुलक्रमाऽऽयातं स्वभुजोपार्जितं प्रभूतं द्रविणजातं, मुच्यता मुच्यताममी षट् पुत्राः, क्रियता मयमस्माकमनुग्रह इति। एवमभिहितो राजा तद्वचनमनाकर्ण्य पुनरपि सविशेषमादिदेश-असावपि वणिक्सववधाऽऽशङ्की सर्वमोचनानभिप्रायं राजानमवेत्य पञ्चानां मोचनंयाचितवान्, तानप्यसौ राजा न मोक्तुमना इत्येवमभिगम्य चतुर्मोचनकृते सादरं विज्ञप्तबास्तं, तथापि राजा तमनादृत्य कुपितवदन एव स्थितः, ततस्त्रयाणां विमोचने कृताऽऽदरस्तत्पिताऽभूत, तानप्यमुञ्चन्तं राजानं ज्ञात्वा गणितस्वापराधो द्वयोर्मोचनं प्रार्थितवान्। तत्राऽप्यवज्ञाप्रधानं नृपतिमवगम्य ततः पौरमहत्तमसमेतो राजानमेवं विज्ञप्तवान् / तद्यथा-देव ! अकाण्ड एवास्माकं कुलक्षयः समुपस्थितः, तस्माच भवन्त एव आणायालमतः क्रियतामेकमत्पुत्रविमोचनेन प्रसाद इति भणित्वा पादयोः सपौरमहत्तमः पतितो, राज्ञाऽपि संजाताऽनुकम्पेन मुक्तस्तदेको ज्येष्ठपुत्रा इति / तदेवमस्य दृष्टान्तस्य दार्टान्ति कयोजनेयम् / तद्यथा साधुनाऽभ्युपगत सम्यग्दर्शनमवगम्य श्रावकमखिलप्राणाति पातविरतिग्रहणं प्रति चोदितोऽप्यशक्तिया यदान सर्वप्राणातिपातविरतिं प्रतिपद्यते, यथाऽसौ राजा वणिजाऽत्यर्थं विज्ञापितोऽपि न षडपि पुत्रान् मुमुक्षति, नापि पञ्चचतुस्त्रि-द्विसंख्यान् पुत्रानिति। तत एकविमोक्षणेनाऽऽत्मानं कृतार्थमिव मन्यमानः स्थितोऽसावेवं साधोरपि श्राविकस्ययथाशक्ति व्रतं गृह्णतस्तदनुरूपमेवाणुव्रतदानमविरुद्धमिति, यथा च तस्य वणिजो न शेषपुत्रवधानुमतिलेशोऽप्यस्त्येवं साधोरपि न शेषप्राणिवधानु मति प्रत्ययजनितः कर्मवन्धो भवति, किं तर्हि ? यदेव व्रतं गृहीत्वा या नेव सत्वान् बादरान् संकल्पजप्राणिवधनिवृत्या रक्षति तन्निमित्तः कुशलानुबन्ध एवेत्येत्सूत्रोणैव दर्शयितुमाह-(तसेहिमित्यादि) त्रस्यन्तीति सा द्वीन्द्रियाऽऽदयस्तेभ्यः सकाशान्निवाय निहाय वा परित्यज्येति यावत् / कम ? दण्डयतीति दण्डस्तं परित्यज्य, त्रसेषु प्राणातिपातविरतिं गृहीत्वे त्यर्थः, तदपि च सप्राणातिपातविरमणव्रतं Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1056- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त तेषां देशविरतानां कुशलहेतुत्वात्कुशलमेव भवति / / 10 / / इति भवतः पक्ष इति, स च न घटते, यतो यो हि नगरधर्मरुपेतः स यच्च प्रागभिहित, तद्यथा तमेव ासं स्थावरपर्यायाऽऽपन्न नागरिकमिव बहिःस्थोऽपि नागरिक एवातः पर्यायाऽऽपन्न इत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते, बहिःस्थं व्यापादयतोऽवश्यंभावी व्रतभड़ इत्येतत् परिहर्तुकाम आह अथ सामस्त्येन परित्यज्य नगरधर्मानसौ वर्तते, अतस्तमेवेत्येतद्विशेषणं तसा वि वुचंति तसा तससंभारकडेणं कम्मुणा णामं च णं नोपपद्यते, तदेवमत्र त्रसः सर्वाऽऽत्मना त्रसत्वं परित्यज्य यदा स्थावरः अब्भुवयं भवइ, तसाउयं च णं पलिक्खीणं भवइ, तसकाय समुत्पद्यते तदा पूर्वपर्यायपरित्यागादपरपर्यायाऽऽपन्नत्वात् त्रास एवासी न भवति / तद्यथा-नागरिकः पल्ल्यां प्रविष्टस्तद्ध र्मोपेतत्वात्पूर्वधर्मद्विइया ते तओ आउयं विप्पजहंति, तेतओ आउयं विप्पजहित्ता थावरत्ताए पञ्चायंति।थावरा विवुच्चंतिथावरा थावरसंभारकडेणं परित्यागाच्च नागरिक एवासौ न भवतीति // 11 // कम्मुणा णामं च णं अब्भुवयं भवइ थावराउयं च णं पलि पुनरप्यन्यथोदकः पूर्वपक्षमारचयितुमाहक्खीणं भवइ, थावरकायट्ठिइया ते तओ आउयं विप्पजहंति, सवायं उदए पेढालपुत्ते भयवं गोयम एवं वयासी-आउसंतो तओ आउयं विप्पजहित्ता भुजो परलोइयत्ताए पञ्चायंति, ते पाणा गोयमा ! णत्थि णं से केइ परियाए जणं समणोवासगस्स विवुचंति, ते तसा विचंति, ते महाकाया ते चिरट्ठिइया॥११|| एगपाणातिवायविरए वि दंडे निक्खित्ते, कस्स णं तं हेउ? (तसा वीत्यादि असा अपि द्वीन्द्रियाऽऽदयोऽपि ासा इत्युच्यन्ते च संसारिया खलु पाणा, थावरा वि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसा साः काससंभारकृतेन कर्मणा, संभारो नाम-अवश्यंतया कर्मणो विपाणाथावरत्ताए पञ्चायंति, थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा सव्वे विपाकानुभवेन वेदनं, तचेह असनामप्रत्येक नामेत्यादिकं नामकर्माभ्यु तसकायंसि उववजंति, तसकायाओ विष्पमुचमाणा सवे पगतं भवति, आसत्वेन यत्परिबद्धमायुष्कं तद्यदोदयप्राप्तं भवति तदा थावरकायंसि उववजंति, तेसिं च णं थावरकायंसि उववन्नाणं काससंभारकृतेन कर्मणा त्रसा इति व्यपदिश्यन्ते, न तदा कथञ्चित्स्था ठाणमेन्नं धत्तं // 12 // वरत्वव्यपदेशो, यदा च तदायुः परिक्षीण भवति, णमिति वाक्यलङ्कारे, (सवायं उदए इत्यादि) सदाचं सवाद वा उदकः पेढालपुत्रो भगवन्तं त्रसकाय स्थितिक च कर्म यदा परिक्षीणं भवति, तच जघन्यतोऽन्त गौतममेवमवादीत्। तद्यथा-आयुष्मन् गौतम! नास्त्यसौ कश्चित्पर्यायो मुहूर्तमुत्कृष्टतः सातिरेकसहस्पद्यसागरोपमपरिमाण, तदा ततस्त्रस- यस्मिन्नेकप्राणातिपातविरमणेऽपि श्रमणोपासकस्य विशिष्टविषयामेव कायस्थितेरभावात्तदायुष्कं परित्यजन्ति, अपराण्यपि तत्सहचरितानि प्राणातिपातनिवृर्ति कुर्वतो दण्डः प्राण्युपमर्दनरूपो निक्षिप्त पूर्वःकर्माणि परित्यज्य स्थावरत्वेन प्रत्यायान्ति, स्थावरा अपि स्थावर परित्यक्तपूर्वो भवति / इदमुक्तं भवति-श्रावकेण असपर्यायमेकमुद्दिश्य संभारकृतेन कर्मणा तत्रोत्पद्यन्ते, स्थावराऽऽदि नाम च तत्राभ्युपगतं प्राणातिपातविरतिव्रतं गृहीतं, संसारिणां च परस्परगमनसंभवात्, तेच भवति / अपराण्यपि तत्सहचरितानि सर्वाऽऽत्मना त्रसत्वं परित्यज्य साः सर्वे ऽपि किल स्थावरत्वमुपगताः ततश्च असानामभावान्निर्विषयं स्थावरत्वेनोदयं यान्ति इत्येवं च व्यवस्थिते कथं स्थावरकायं व्यापदयतो यत्प्रत्याख्यानमिति। एतदेव प्रश्नपूर्वकं दर्शयितुमाह- (कस्य णं तं गृहीतत्रासकायप्राणातिपातनिवृत्तेः श्रावकस्य व्रतभङ्ग इति। किंचान्यत् हेउमित्यादि) णमिति वाक्यलङ्कारे कस्य हेतोरिदमभिधीयते, केन (थावराउयं च णमित्यादि) यदा तदपि स्थावराऽऽयुष्कं परिक्षीणं भवति हेतुनेत्यर्थः / सांसारिकाः प्राणाः परस्परसंसरणशीला यतस्ततः तथा स्थावरका यस्थितिश्च, सा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतोऽनन्त स्थावराः सामान्येन असतया प्रत्यायान्ति, ासा अपि स्थावरतया कालमसंख्येयाः पुद्रलपरावर्ता इति, ततस्तत्कायस्थितेरभावात्तदायुष्कं प्रत्यायान्ति। तदेवं संसारिणां परस्परगमनं प्रदाधुना यत्परेण विवक्षितं परित्यज्य भूयः पुनरपि पारलौकिकत्वेन स्थावरकाय-स्थितेरभावात् तदाविष्कुर्वन्नाह-(थावरकायाओ इत्यादि) स्थावरकायाद्विप्रमुच्यअसत्वेन सामर्थ्यात्प्रत्यान्ति, तेषां च त्रसानामन्वर्थिकान्यभिधाना मानाः स्वायुषा तत्सहचरितैश्च कर्मभिः सर्वे निरवशेषास्त्रासकाये न्यभिधातुमाह - (ते पाणा वि इत्यादि) ते अससंभारकृतेन कर्मणा समुत्पद्यन्ते, सकायादपि तदायुषा विप्रमुच्यमानाः सर्वे स्थावरकाये समुत्पन्नाः सन्तः सामान्यसंज्ञया प्राणा अप्युच्यन्ते। तथा विशेषतः समुत्पद्यन्ते, तेषां च असानां सर्वेषां स्थावरकायसमुत्पन्नानां स्थानमेतद् 'स' भयचलनयोः, इति धात्वर्थानुगमाद्भयचलनाभ्यामुपपेतास्वसा घात्यं वर्तते, तेन श्रावकेण स्थावरकायवधनिवृत्तेरकरणादतः सर्वरूप अप्युच्यन्ते, तथा महान् कायो येषां ते महाकाया योजनलक्षप्रमाण त्रसकायस्स स्थावर कायत्वेनोत्पत्तेर्निर्विषयं तस्य श्रावकस्य त्रसवधशरीरविकुर्वणात् तथा चिरस्थितिका अप्युच्यन्ते, भवस्थित्यपेक्षया निवृत्तिरूपं प्रत्याख्यानं प्राप्नोति। तद्यथा--केनचिद् व्रत मे वंभूतं गृहीतम् / त्रयस्त्रिंशन्सागरोपमाऽऽयुष्कसद्भावात्,ततस्त्रसपर्याय व्यवस्थितानामेव यथा-मया नगरनिवासी नहन्तव्यस्तचोदसित नगरमतो निर्विषयं तत्तस्य प्रत्याख्यानं तेन गृहीतं, न तु स्थावरका यत्येन व्यवस्थ्तिानामपीति। प्रत्याख्यानम्, एवमत्रापि सर्वेषां असानामभावान्निर्विषयत्वमिति॥१२॥ यस्तु नागरिकद्दष्टान्तो भवतो पन्यस्तोऽसावपि दृष्टान्तदाान्तिकयोर- एवमुदकेनाभिहिते सति तदभ्युपगमेनैव गौतमस्वामी साम्यात्केवलं भवतोऽनुपारिसतगुरुकुलवासित्वमाविष्करोति। तथाहि दूषयितुमाहनगर धर्मं रुपयुक्तो नागरिकः, स च मया न हन्तव्य इति प्रतिज्ञा गृहीत्वा सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुतं एवं वयासीणो यदा तमेव व्यापादयति बहिःस्थितं पर्यायाऽऽपत्रं तदातस्य किल व्रतभङ्ग | खलु आउसो ? अस्साकं वत्तव्वएणं तुम चे व Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1087- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त अणुप्पवदिणं अस्थि णं से परियार जे णं समणोवासगस्स सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं दंडे निक्खित्ते भवइ, कस्स णं तं हेउं? संसारिया खलुपाणा, तसा, वि पाणा थावरत्ताए पचायंति, थावरा वि पाणा तसत्ताए पञ्चायंति, तसकायाओ विप्पमुच्चमणा सव्वे थावरकायंसि उववजंति, थावरकायाओ विप्पमुचमाणा सव्वे तसकायंसि उववजंति, तेसिं चणं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघत्तं, ते पाणा वि वुचंति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकाया ते चिरविइया, ते बहुयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवति, ते अप्पयरागा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ, से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्ठियस्स पडिविरयस्स जन्नं तुब्भे वा अन्नो वा एवं वदहणत्थि णं से केइ परियाए जं से समणोवासगस्स एगपाणाए विदंडे णिक्खित्ते अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ / / 13 / / (सवायमित्यादि) साच, सवाद वा तमुदकं पेढालपुत्रा गौतमस्वाम्येवमवादीत्। तद्यथा-नो खल्वायुष्मन्नुदक! अस्माकमित्येतन्मगधदेशे आगोपालाङ्गनाऽऽदिप्रसिद्ध संस्कृत मेवोच्चार्यते तदिहापि तथैवोचारितमिति, तदेवमस्माकं संबन्धिना वक्तव्येन नैतदशोभनं, किं तर्हि ? युष्प्राकमेवानु प्रवाःनेतदशोभनम्। इदमुक्त भवति-अस्मद्वत्कव्येनास्य चोद्यस्योनुत्थानमेव / तथाहि नैतद् भूतं न च भवति नापि कदाचिदविष्यति यदुत सर्वे ऽपि स्थावरा निर्लेपतया ासत्वं प्रतिपद्यन्ते, स्थावराणामानन्त्यात्त्रसानां चासंख्येयत्वेन तदाधारत्वानुपपत्तेरित्यभिप्रायः / तथा त्रासा अपि सर्वेऽपि न स्थावरत्वं प्रतिपन्ना न प्रतिपद्यन्ते नापि प्रतिपत्स्यन्ते। इदमुक्त भवति यद्यपि विवक्षितकालवर्तिनस्त्रसाः कालपर्यायण स्थावरकायत्वेन यास्यन्ति तथाऽप्यपरापरत्रासोत्पत्त्या सजात्यनुच्छेदान्न कदाचिदपि त्रसकायशून्यः संसारो भवतीति, तदेवमस्मन्मतेनचोद्यानुत्थानमेव अभ्युपगम्य च भवदीयं पक्ष युष्मदभ्युपगमेनैव परिहियते तदेव पराभिप्रायेण परिहरति-अस्त्यसौ पर्यायः स चायम-भवदभिप्रायेण यदा सर्वे ऽपि स्थावरास्त्रासत्वं प्रतिपद्यन्ते यस्मिन्पर्याय अवस्थाविशेषे श्रमणोपासकस्य कृतासप्राणातिपातनिवृत्तेः सतः असत्वेन च भवदभ्युपगमेन सर्वप्राणिनामुत्पत्तेः तैश्च सर्वप्राणिभिस्वासत्वेन भूतैरुत्पन्नैः करणभूतैः तेषु वा विषय भूतेषु दण्डो निक्षिप्तः परित्यक्तः / इदमुक्तं भवति-यदा सर्वे ऽपि स्थावराः भवदभिप्रायेण सत्वेनोत्पद्यन्ते तदा सर्वप्राणिविषयं प्रत्याख्यानं श्रमणोपासकस्य भवतीति। एतदेव प्रश्नपूर्वकं दर्शयितुमाह- (कस्सणं हेउमित्यादि) सुगम, यावलासकाये समुत्पन्नानां स्थानमेतदघात्यम्अघाताह तत्र विरतिसद्भावादित्यभिप्रायः / ते चासानर कतिर्यड्नरामरगतिभाजः सामान्यसंज्ञया प्राणिनोऽप्यभिधीयन्ते।तथा विशेषसंज्ञया भयचलनोपेतत्वालासा अप्युच्यन्ते। तथा महान् कायः शरीरं येषां ते महाकायाः, वैकियशरीरस्य योजनलक्षप्रमाणत्वादिति। तथा चिरस्थितिकाः त्रयस्त्रिंशत्सा गरोपमपरिमाणत्वाद्भस्थितेः, तथा ते प्राणिनस्त्रसा बहुत मा भूयिष्ठा यैः श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यानं भवति, सानुद्दिश्य तेन प्रत्याख्यानस्य ग्रहणात्तदभ्युपगमेनच सर्वस्थावराणां त्रसत्वेनोत्पतेरतस्तेऽल्पतरकाः प्राणिनो यैः करणभूतैः श्रावकस्याप्रत्याख्यानं भवति / इदमुक्तं भवति- अल्पशब्दस्याभाववाचित्वान्न सन्त्येव ते येष्वप्रत्याख्यान मितीत्येवं पूर्वोक्तया नीत्या (से) तस्य श्रमणोपासकस्य महतस्त्र सकायादुपशान्तस्य--उपरतस्य प्रतिविरतस्य सतः सुप्रत्याख्यानं भवतीति संबन्धः, तदेवं व्यवस्थिते, णमिति वाक्यालङ्कारे, यद्यूय वदथ अन्यो वा कश्चित्तद्यथानास्त्य सावित्यादि सुगमम्, यावत् (णो णेयाउए भवइ त्ति)॥१३॥ साम्प्रत कासानां स्थावरपर्यायाऽऽपन्नानां व्यापादनेनापि न व्रतभङ्गो भवतीत्यर्थस्य प्रसिद्धये दृष्टान्तत्रयमाहभगवं चणं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा आउसंतो! नियंठा इह खलु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ आ (अ) णगारियं पव्वइए एसिंच णं आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, जे इमे अगारमावसंति, एएसिणं आमरणंताए दंडे णो णिक्खित्ते, केई चणं समणा.जाव वासाई चउपंचमाइं छट्ठद्दसमाइं अप्पयरो वा भुञ्जयरो वा देसं दूइजित्ता अगारमावसेजा? हंता वसेज्जा, तस्स णं तं गारत्थं वहमाणस्स से पचक्खाणे भंगे भवइ ? णोतिणढे समढे, एवमेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहिं दंडे णिक्खित्ते, थावरेहिं पाणेहिं दंडे णे णिक्खित्ते, तस्सणं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवइ, से एवमायाणह? णियंठा ! एवमायाणियव्वं // 14 // (भगवं च णमित्यादि) णमिति वाक्यालङ्कारे / चशब्दः पुनः शब्दार्थे, पुनरपि भगवान् गौतमस्वाम्येवाह-स्वौद्धत्त्यपरिहरणार्थमपरानपि ततः स्थविरान साक्षिणः कर्तुमिदमाह-निर्ग्रन्थाः! युष्मतस्थविराः खलु प्रष्टव्यास्तद्यथा-आयुष्मन्तो निर्ग्रन्थाः! युष्माकमप्येत वक्ष्यमाणमभिमतमाहोस्विन्नेति / अवष्टम्भेन चेदमाह-युष्माकमप्येतदभिप्रेतं यदहं वष्मि / तद्यथा-शान्तिरुपशमस्तत्प्रधाना एके केचन मनुष्या भवन्ति, न नारकतिर्यग्देवाः किं तर्हि? मनुष्याः, तेऽपि नाकर्मभूमिजानाऽपि म्लेच्छा अनार्या वा, तेषां चार्यदशेत्पन्नानामुपशम प्रधानान। मेतदुक्तपूर्व भवति, अयं व्रतग्रहणविशेषो भवति। तद्यथा-ये इमे मुण्डा भूत्वाऽगाराद्गृहान्निर्गत्यानगारतां प्रतिपन्नाः, प्रव्रजिता इत्यर्थः / एतेषां चोपर्यामरणान्तं मया दण्डो निक्षिप्तः-परित्यक्तो भवति / इदमुक्तं भवति कश्चित्तथाविधो मनुष्यो यतीनुद्दिश्य व्रतंगृह्णाति, तद्यथा न मया यावज्जीवं यतयो हन्तव्याः, तथा ये चेमेऽगारं-गृहवासमावसन्ति तेषां दण्डो निक्षिप्त इत्येवं केषाञ्चिद् व्रत ग्रहणविशेषे व्यवस्थिते सति इदमपदिश्यते तत्र के चन श्रमणाःप्रव्रजिताः कियन्तमपि कालं प्रवज्यापर्यायं प्रति Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1058- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त पाल्य, तमेव कालविशेष दर्शयति-यावद्वर्षाणि चत्वारि पञ्च वा षड् दश वा, अस्य चोपलक्षणार्थत्वादन्योऽपि कालविशेषो द्रष्टव्यः। तमेवाऽऽहअल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं तथा देशं च (दूइज्जइ त्ति) विहत्य कुतश्चित् कर्मोदयात्तथाविधपरिणतेरगारंगृहवासं वसेयुर्गृहस्था भवेयुरित्येवंभूतः पर्यायः किं सम्भाव्यते ? उत नेत्येवं पृष्टा निम्रन्थाः प्रत्यूचुः-हन्त! गृहवास व्रजेयुस्तस्य च यतिवध-गृहीतव्रतस्यतंगृहस्थं व्यापादयतः किं व्रतभङ्गो भवेत? उतनेति / आहू:-नेति, एवमेव श्रमणोपासकस्यापि असेषु दण्डो निक्षिप्तो न स्थावरेष्विति, अतस्त्रसं स्थावरपर्यायांऽऽपन्नं व्यापादयत स्तत्प्रत्याख्यानभङ्गो न भवतीति // 14 // साम्प्रत पुनरपि पर्यायाऽऽपन्नस्यान्यथात्वं दर्शयितुं द्वितीयं दृष्टान्तं प्रत्याख्यातृविषयगतं दर्शयितुकाम आहभगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो ! | नियंठा ! इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्तो वा तहप्पगारेहिं कुले हिं आगम्म धम्म सवणवत्तियं उवसंक मेज्जा ? हंता उवसंकमेजा। तेसिं च णं तहप्पगाराणं धम्म आइक्खियव्वे ? हंता आइक्खियव्वे / किं ते तहप्पगारं धम्मं सोचा णिसम्म एवं वएज्जा-इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं संसुद्धं णेथाउयं सल्ल(ग) कत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्म निजाणमग्गं निव्वाणमगं अवि तहमसंदिद्धं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं एत्थं ठिया जीवा सिझंति वुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति, तमाणाए तहा गच्छामो तहा चिट्ठामो तहा णिसीयामो तहा तुयझामो तहा भुंजामो तहा भासामो तहा अब्भुट्ठामो तहा उट्ठाए उढेमो त्ति पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामो त्ति वएज्जा? हंता वएज्जा। किं ते तहप्पगारा कप्पंति पव्वावित्तए? हंता कप्पंति। किं ते तहप्पगारा कप्पंति मुंडावित्तए ? हंता कप्पंति / किं ते तहप्पगारा कप्पंति सिक्खावित्तए ? हंता कप्पंति। किं ते तहप्पगारा कप्पंति उवट्ठावित्तए ? हंता कप्पंति / तेसिं च णं तहप्पगाराणं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ? हंता णिक्खित्ते। से णं एयारुवेणं विहारेणं विहरमाणा ०जाव वासाइं चउपंचमाई छट्ठद्दसमाई वा अप्पयरो वा मुजयरो वा देसं दूइजेत्ता अगारं वएजा? हंता वएज्जा। तस्स णं सव्वापाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते ? णो इणढे समटे से जे से जीवे जस्स परेणं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते, से जे से जीव जस्स आरेणं सव्वपाणेहिं० जाव सत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते , से जे से जीवे जस्स इयाणिं सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे गो णिक्खिते भवइ, परेणं असंजए आरेणं संजए, इयाणिं असंजए, असं जयस्स णं सव्वपाणेहिं. जाव सत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, से एवमायाणह ? णियंठा ! से एवमायाणियव्वं / / 15 / / (भगवं च णमित्यादि) भगवानेव गौतमस्वाम्येवाऽऽहा तद्यथा-गृहस्थाः यतीनामन्तिके समागत्य धर्म श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्य तदुत्तरकालं संजातवैराग्याः प्रवज्यां गृहीत्वा पुनस्तथाविधक्रमोदयात्तामेव त्यजन्ति, ते च पूर्व गृहस्थाः-सर्वाऽऽरम्भप्रवृत्तास्तदारतः प्रव्रजिताः सन्तो जीवोपमईपरित्यक्तदण्डः पुनः प्रवज्यापरित्यागे सति नो परित्यरुदण्डाः, तदेवं तेषां प्रत्याख्यातॄणां यथाऽवस्थात्रायेऽप्यन्यथात्व भवत्येवं त्रसस्थावरयोरपि द्रष्टव्यम्। एतच "भगव च णमुदाहु'' इत्यादेग्रन्थस्य से एवमायाणियव्वं" इत्येतत्पर्यवसानस्य तात्पर्यम्। अक्षरघटना तु सुगमेति स्वबुद्ध्या कार्या। तदेवं द्वितीयं दृष्टान्तं प्रदाधुना तृतीयं दृष्टान्तं परतीर्थिकोद्देशेन दर्शयितुमाह - भगवं च णं उदाहु णियंठा ! खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो नियंठा ! इह खलु परिव्वाइया वा परिव्वाइआओ वाअन्नवरेहितो तित्थायायणेहिंतो आगम्म धम्म सवणवत्तियं उवसंकमज्जा? हंता उवसं कमज्जा / किं तेसिं तहप्पगारेणं धम्मे आइक्खियवे ? हंता आइक्खियव्वे / तं चेव उवट्ठावित्तए जाव कप्पति ? हंता कप्पंति। किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभुजित्तए? हंता कप्पंति। तेणं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणातं चेवजाव अगारं वएज्जा ? हंता वएज्जा / ते णं तहप्पगारा कप्पंति संभुजित्तए?णो इणढे समटे से जे से जीवे जे परेणं नो कप्पंति संभुंजित्तए, से जे से जीवे आरेणं कप्पंति संभुंजित्तए, से जे से जीवे जे इयाणिं णो कप्पंति संभुंजित्तए, परेणं अस्समणे आरेणं समणे इयाणिं अस्समणे, अस्समणेणं सद्धिं णो कप्पंति समणाणां निग्गंथाणं संभुंजित्तए, से एवमायाणह? णियं ठा! से एवमायाणियव्वं / / 16 / / (भगवं च णमुदाहुरित्यादि.जाव से एवमायाणियव्वं ति) उत्तानार्थम्। तात्पर्यार्थस्त्वयम्-पूर्वं परिव्राजकाऽऽदयः सन्तोऽसंभोग्याः साधूनां गृहीतश्रामण्याः साधूनां संभोग्याः संवृत्ताः पुनस्तदभावे न्यसंभोग्या इत्येवं पर्यायाऽन्यथात्वं असस्थावराणामप्यायोजनीयमिति // 16 // तदेवं दृष्टान्ताये-प्रथम दृष्टान्ते हन्तव्यविषय भूतो यतिगृहस्थभावेन पर्यायभेदो दर्शितो, द्वितीये दृष्टान्ते प्रत्याख्यातृ विषयगतो गृहस्थयतिपुनर्गृहस्थभेदेन पर्यायभेदः प्रदर्शितः तृतीये तु दृष्टान्ते परतीथिंकिसाधुभावो निष्क्रमणभेदेन संभो, गासंभोगद्वारेण पर्यायभेदव्यस्थापित इति। तदेवं दृष्टान्त प्राचुर्येण निर्दोषां देशविरतिं प्रसाध्य पुनरपि तदगतमेव विचारं कर्तुकाम आह भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणो वासगा भवंति, ते सिं च णं एवं वुत्तपुत्वं भवइणो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता आगाराओ अणगारियं पटवइत्तए, वय णं चाउद्दसहमु विट्ठपुण्णिमासिणीसु पडि पुण्णं पोसह सम्म Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1086- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त अणुपालेमाणाविहरिस्सामो, थूलगं पाणाइवायं पचक्खाइस्यामो, एवं थूलगं मुसावायं थूलगं अदिन्नादाणं मेहुणं थूलगं परिग्गहं पच्चक्खाइस्सामो, इच्छापरिमाणं करिस्सामो, दुविहं तिविहेणं,मा खलु ममऽट्ठाए किंचि करेह वा, करावेहवा, तत्थ वि पञ्चक्खाइस्सामो, ते णं अभोचा अपिञ्चा असिणाइत्ता आसंदीपेठियाओ पचारुहिता, ते तहा कालगया किं वत्तव्वं सियासम्म कालगत त्ति ? वत्तव्वं सिया, ते पाणा विवुचंति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकाया ते चिरट्ठिइया, ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते अप्पयंरागा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपचक्खायं भवइ, इति से महायाओ जंणं तुब्भे वयह तं चेव ०जाव अयं पि भेदे से णो णे याउए भवइ।।१७।। (भगवं च णमुदाहुरित्यादि) पुनरपि गौतस्वामी उदकं प्रतीद-माह। तद्यथा-बहुभिः प्रकारेस्त्रससद्भावः संभाव्यते, ततश्चाशून्यस्तैः संसार- / स्तदशून्यत्वेन निर्विषयं श्रावकस्य त्रसवधनिवृत्तिरुपं प्रत्माख्यानम्। तदधुना बहुप्रकारकाससं भूत्याऽशून्यतां संसारस्य दर्शयति। भगवानाहसन्तिविद्यन्ते शान्तिप्रधाना वा एके केचन श्रमणोपासका भवन्ति, तेषां चेदमुक्तपूर्व भवति-संभाव्यते च श्रावकाणमेवंभूतस्य वचसः संभव इति। तद्यथा-न खलु वयं शक्नुमः प्रवज्यां ग्रहीतुं, किं तु ? वयं णमिति वाक्यालंकारे, चतुर्दश्यपष्टमीपौर्णमासीषु संपूर्ण पौषधमाहारशरीसत्कारब्रह्मचर्याव्यापार रुपंपौषधं सम्यगनुपालयन्तो विहरिष्यामः, तथा-स्थूल प्राणातिपातमृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनापरिग्रहं प्रत्याख्यास्या मो द्विविधमिति कृतकारितप्रकारद्वयेनानुमतेः श्रावकस्या प्रतिषिद्धत्वात्, तथा-त्रिविधेनेति मनसा वाचा कायेन च तथा मा इति निषेधे, खलु इति वाक्यालङ्कारे, मदर्थ पचनपाचनाऽऽदिकं पौषधस्य मम कृते मा काष्टे, तथा परेण मा कारयत, तत्राप्यनुमतावपि सर्वथा यदसंभवि तत्प्रत्याख्या स्यामः, ते एवं भूतकृतप्रतिज्ञाः सन्तः श्रावकाः अभुक्तवा अपीत्वा अस्वात्वा च पौषधोपेतत्वादासन्दीपीठिकातः प्रत्यारुह्यअवतीर्य सम्यक पौषधं गृहीत्वा कालं कृतवन्तः ते तथा प्रकारेण कृतकालाः सन्तः किं सम्यकृतकाला उताऽसम्यागिति? कथं वक्तव्यं स्यादिति ? एवं पृष्टर्निग्रन्थैवश्यमेवं वक्तव्यं स्यात्-सम्यकालगठा इत्येवं च कालगतानामवश्यं भावी तेषां देवलोकषूत्पादः, तदुत्पन्नश्च त्रस एव, ततश्च कथं निर्विषयता प्रत्याख्यानस्योपासकस्येति // 17 // पुनरन्यथा श्रावकोद्देशेनैव प्रत्याख्यानस्य विषयं प्रदर्श तियुमाह - भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ, णो खलु वयं संचाण्मो मुंडा भवित्ता आगाराओ० जाव पव्वइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्ठमुट्ठि पुण्णमासिणीसु० जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियंसंलेहणाजू (झू) सणाजू (झू) सिया भत्तापाणं पडियाइक्खिया० जाव कालं अणवकं खमाणा विहरिस्सामो, सव्वं पाणाइवायं पञ्चाक्खाइस्सामो० जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खाइस्सामो तिविहं तिविहेणं, मा खलु ममऽट्ठाए किंचि वि० जाव आसंदीपेढियाओ पचोरुहित्ता एते तहा कालगया, किं वत्तव्वं सिया सम्मं कालगय त्ति? वत्तव्वं सिया, ते पाणा विवुचंति० जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ / / 18 / / (भगवं च णमित्यादि) गौतमस्वाम्येवाऽऽह / तद्यथा-सन्ति विद्यन्ते एके केचन श्रमणोपासकाः, तेषां चैतदुक्तपूर्व भवति। तद्यथा-खलुन शक्नुमो वयं प्रव्रज्यां ग्रहीतुं, नाऽपि चतुर्दश्यादिषु सम्यक् पौषधं पालयितुं वयं चापश्चिमया संलेखनक्षपण्या क्षपितकायाः यदि वा-संलेखनाजोषणयासेवनया जोषिता-सेविता उत्तमार्थगुणैरित्येवंभूताः सन्तो भक्तपानं प्रत्याख्याय काल दीर्घकालमनवकाङ्क्षमाणा विहरिष्यामः। इदमुक्त भवति-न वयं दीर्घकाल पौषधाऽऽदिकं व्रतं पालयितुं समर्थाः, किंतु वयं-सर्वमपि प्राणातिपाताऽऽदिकं प्रत्याख्याय संलेखनया संलिखितकायाश्चतुर्विधाऽऽहारप रित्यागेन जीवितं परित्यक्तुमलमिति / एतत्सूत्रोणैव दर्शयति-(सव्वं पाणाइवायमित्यादि) सुगमम् / यावत्ते तथा कालगताः किं वक्तव्यमेतत्यात्सम्यकृते कालगता इति? एवं पृष्टा निर्ग्रन्था एतदूचुर्यथा ते सन्मनसः शोभनमनसस्ते कालगता इति, ते च सम्यक् संलेखनया यदा कालं कुर्वन्ति तदाऽवश्यमन्यतमेषु देवलोकेषूत्पद्यन्ते, तत्रा चोत्पन्ना यद्यपि ते व्यापादयितुं न शक्यन्ते तथापि त्रसत्वात्ते श्रावकस्य त्रसवधनिवृत्तस्य विषयंता प्रतिपद्यन्ते॥१८॥ पुनरप्यन्यथा प्रत्याख्यानस्य विषयमुपदर्शयतुमाहभगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति। तं जहा महइच्छा महारंभा महापरिग्गहा अहम्मिया.जाव दुप्पडियाणंदा ०जाव सवाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरया जावजीवाए, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणं ताए दंडे णिक्खित्ते, ते ततो आउगं विप्पजहंति, ततो मुजो सगमादाए दुग्गइगामिणे भवंति, ते पाणा वि वुचंति, ते तसा वि वुचंति ते महाकाया ते चिरहिइया ते बहुयरगा आयाणसो, इति से महायाओ णं जंणं तुब्भे वदह तं चेव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ / / 16 / / (भगवं च ण उदाहुरित्यादि) भगवानाह-एके केचन मनुष्या एवं भूता भवन्ति / तद्यथा-महेच्छामहारम्भा महापरिग्रहा इत्यादि सुगम यावधैर्येषु वा श्रमणोपासकस्याऽऽदीयत इत्यादा नं प्रथमव्रतग्रहणं तत आरभ्याऽऽमरणान्ताद्दण्डो निक्षिप्तः परित्यक्तो भवति। ते च ताद्दग्विधस्तास्माद्भवात्कालात्यये स्वायुषं विजहन्ति, व्यक्तवा सजीवितं ते भूयः-पुनः स्वकर्नस्वकृतं किल्विषमादायगृहीत्वा दुर्गतिगामिनो भवन्ति / एतदुक्तं भवति–महाऽऽरम्भपरिग्रहत्वात्ते मृताः पुनरन्यतरपृथिव्यां नारकासत्वनोत्पद्यन्ते, तेच सामान्य संज्ञया प्राणिनो विशेषसंज्ञ Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1090- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त या त्रासा महाकायाः चिरस्थितिका इत्यादि पूर्ववद्यावत् (णो णेयाउए त्ति) ||16|| पुनरप्यन्येन प्रकारेण प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह - भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति / तं जहा-- अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया ०जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया जावञ्जीवाए, जेहिं समणो वासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते तओ आउगं विप्पजहंति ते तओ भुजो सगमादाए सोग्गाइगा मिणो भवंति, ते पाणा वि वुचंति जाव णो णेयाउए भवइ / / 20 / / (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) पूर्वोत्केभ्यो महारम्भपरिग्र हवदादिभ्यो विपर्यस्ताः सुशीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानन्दाः साधव इत्यादि सुगम यावत् 'णो णेयाउए भवइ त्ति / एते च सामान्यश्रावकाः, तेऽपि त्रसेष्वेवान्यतरेषु देवेषूत्पद्यन्ते, ततोऽपि न निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति / / 20 / / किञ्चान्यत्भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा भवंति / तं जहाअप्पेच्छा अप्पारंभो अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया जाव एगचाओ परिग्गहाओ अप्पडिविरओ, जेहिं समणो वासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, ते तओ आउगं विप्पजहंति, ततो भुजो सगमादाए सोग्गइगामिणो भवंति, ते पाणा वि वुचंति जाव णो णेयाउए भवइ ! // 21 // (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) सुगमम् / यावत् (णो णेयाउएत्ति) एते चाल्पेच्छाऽऽदिविशेषणविशिष्टा अवश्यं प्रकृतिभद्रतया सद्धतिगामित्वेन त्रासकायेषूत्पद्यन्ते इति द्रष्टव्यम्।।२१।। किञ्चान्यत्भगवं च णं उदाहु संतेगइया मणुस्सा मवंति / तं जहा आरणिया गामणियं तिया कण्हुई रहस्सिया, जे हिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते भवइ, णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया पाणभूय जीवसत्तेहिं, अप्पणा सचामोसाई एवं विप्पडिवे दें ति-अहं ण हंतव्यो, अन्ने हंतव्वा, जाव कालमासे कालं किच्चा अन्नयराइं आसुरियाई किट्विसियाई जाव उवक्ततारो भवंति, तओ विप्पमुचमाणा भुजो एलमूयत्ताए तमोरूवत्ताए पञ्चायंति, ते पाणा वि वुचंति जाव णो णेयाउए भवइ / / 22 / / (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) गौतमस्वाम्येव प्रत्याख्यानस्य विषय दर्शयितुमाह-एके केचन मनुष्या एवंभूता भवन्ति। तद्यथा-अरण्ये भवा / आरण्यकास्तीर्थिकविशेषाः, तथा आवसथिकास्तीर्थिकविशेषा एव, तथा ग्रामनिमन्तिाकाः, तथा (कण्हुई रहस्सिय त्ति) चित्कार्य रहस्यकाः, क्वचिद्रहस्यकाः, एते सर्वेऽपि तीर्थिकविशेषाः, च नो बहु संयता हस्तपादाऽऽदिक्रिया सुतथा ज्ञानाऽऽवरणीयावृतत्वान्न बहुविरताः सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेभ्य-स्तत्स्वरूपापरिज्ञानात्तद्वधादविरता इत्यर्थः। ते तीथिकविशेषा बहुसंयताः स्वतोऽविरता आत्मना सत्यामृषाणि वाक्यान्येवमिति वक्ष्यमाणरीत्या वियुञ्जन्ति / “एवं विप्पडिवेदेति'' वचित्पाठः, अस्यायमर्थः-एवंविधप्रकारेण परषां प्रतिवेदयन्तिज्ञापयन्ति, तानि पुनरेवभूतानि वाक्यानि दर्शयति / तद्यथा-अहं न हन्तव्योऽन्ये पुनर्हन्तव्याः तथाऽहं नाज्ञापपितव्यः, अन्ये पुनराज्ञापयितव्या इत्यादीन्युपदेशवाक्यानि ददति / ते चैवमेवोपदेशदायिनः स्त्रीकामेषु मूर्छिता गृद्धा अध्युपपन्ना यावद्वर्षाणि चतुःपञ्चमानि वा षड्दशमानि वा अतोऽप्यल्पतरं वा प्रभूततरं वा कालं भुक्तवोत्कटा भोगा भोगभोगास्तांस्ते तथाभूताः किञ्चिदज्ञानतपःकारिणः कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेष्वासुरीयेषु किल्विषेव्वसुरदेवाधर्मषु स्थानेषूपपत्तारो भवन्ति / यदि वा-प्राण्युपमर्दोपदेशदायिनो भोगाभिलाषुका असूर्येषुनित्यान्धकारेषु किल्विष प्रधानेषु नरकस्थानेषु ते समुत्पद्यन्ते, ते च देवा नारका वा त्रसत्वं न व्यभिचरन्ति, तेषु च यद्यपि द्रव्यप्राणातिपातो न संभवति, तथापि ते भावतो यः प्राणातिपातस्तद्विरतेर्विषयता प्रतिपद्यन्ते, ततोऽपि च देवलोकाच्च्युता नरकोद्धताः क्लिष्टपञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु तथाविधामनुष्येषु चैडमूकतथा समुत्पद्यन्ते, तथा (तमोरूवत्ताए त्ति) अन्धवधिरतया प्रत्यायान्ति, ते चोभयोरप्यवस्थयोस्वसत्वं न व्यभिचरन्ति, इत्यतो न निर्विषयं प्रत्याख्यानम्, एतेषु च द्रव्यतोऽपि प्राणातिपातः संभवतीति // 22 // साम्प्रतं प्रत्यक्षसिद्धमेव विरतेर्विषयं दर्शयितुमाहभगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा दीहाउया जे हिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खत्ते भवइ, ते पुव्वामेव कालं करेंति, करित्ता पारलोइयत्ताए पञ्चायंति, ते पाणा वि कुच्चंति, ते तसा वि वुचंति ते महाकाया ते चिरचिट्ठइया ते दीहाउया ते बहुयरगा, जेहिं समणोवासगस्स सुपञ्चक्खायं भवइ, ०जाव णो णेयाउए भवइ / / 23 / / (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) भगवानाह-यो हि प्रत्याख्यानं गृह्णाति तस्माद्दीर्घाऽऽयुष्काः प्राणाः-प्राणिनः, तेच नारकमनुष्यदेवा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चश्च सम्भवन्ति, ततः कथं निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति। शेषं सुगमम्। (जावणो णेयाउए भवइ)॥२३॥ भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा समाउया, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए. जाव दंडे णिक्खित्ते भवइ, ते सयमेव कालं करेंति, (कालं) करित्ता पारलोइयत्ताए पञ्चायंति, ते पाणा वि वुचंति, तसा वि वुचंति, ते महाकाया से समाउया ते बहुयरगा, जेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, जाव णो णेयाउए भवइ // 24 // एवमुत्तरसूत्रामपि तुल्याऽऽयुष्क विषयं समानयोगक्षेमत्वाद् व्याख्येयम् // 24 // Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1061- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त भगवं च णं उदाहु संतेगइया पाणा अप्पाउया, जे हिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंडे णिक्खित्ते | भवइ, ते पुत्वामेव कालं करें ति, करित्ता पारलोइयत्ताए / पञ्चायंति, ते पाणा वि वुचंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया ते अप्पाउया ते बहुयरगा पाणा, जेहिं समणोवास गस्स सुपचक्खायं भवइ, जाव णो णेयाउए भवइ // 25 / / तथाऽऽल्पाऽयुष्कसूत्रमप्यतिस्पष्टत्वात सूत्र सिद्धमेव / इयांस्तु विशेषो-यावत्ते न मियन्ते तावत्प्रत्याख्यानस्य विषयाखासेषु वा समुत्पन्नाः सन्तो, विषयतां प्रतिपद्यन्ते इति॥२५॥ पुनरपि श्रावकाणामेव दिखतसमाश्रयणतः प्रत्याख्यानस्य विषय दर्शयितुमाहभगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ–णो खलु ायं संचाएमो मुंडे भवत्तिा.जाव पव्वइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसह मुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसह अणुपालित्तए, णो खलु वयं संचाएमो अपच्छिमं० जाव विहरित्तए, वयं च णं सामाइयं देसावगासियं पुरत्था पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा एतावता जाव सव्वपाणेहिं० जाव सव्वसत्तेहिं दंडे णिक्खित्ते सव्यपाणभूयजीवसत्तेहिं खेमंकरे अहमंसि, तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसा जाव तेसु पञ्चायंति, जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा विजाव अयं पि भेदे से०॥२६|| (भगवं च णमित्यादि) सुगमं यावत् (वयं ण सामाइयं देसाऽवकासियं ति) देशेऽवकाशों देशावकाशः, तत्रा भवं देशावकाशिकम् / इदमुक्तं भवति-पूर्वगृहीतस्य दिव्रतस्य योजनशताऽऽदिकस्य यत्प्रतिदिन संक्षिप्ततरं योजनगव्यूतिपत्तनगृहमर्यादाऽदिकं परिमाणं विधत्ते तद्देशावकाशि कमित्युच्यते। तदेव दर्शयति-(पुरत्था पाईणमित्यादि) प्रातरेव प्रत्याख्यानावसरे दिगाश्रितमेवंभूतं प्रत्याख्यानं करोति, तद्यथा--प्राचीनं-पूर्वाभिमुखं प्राच्या दिश्येतावन्मयाऽद्य गन्तव्य प्रतीचीन-प्रतीच्यामपरस्यां दिशि, तथा दक्षिणाभिमुखंदक्षिणस्यामेवमुदीच्या दिश्येतावन्मयाऽद्य पञ्चयोजनमात्रां तदधिकमूनतरं वा गन्तव्यमित्येवभूतं स प्रतिदिनं प्रत्याख्यानं विधत्ते, तेन च गृहीतदेशाकाशिकेनोपासकेन सर्वप्राणिभ्यो गृहीतपरिमाणात्परेण दण्डो निक्षिप्तः परित्यक्तो भवति / ततश्चासौ श्रावकः सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेषु क्षेमकरोऽमस्मि इत्येवमध्यवसायी भवति, ता गृहीत परिमाणे देशे ये आरेण त्रासाः प्राणा येषु श्रमणोपासकस्याऽऽदान इत्यादेरारभ्याऽऽमरणान्तो दण्डो निक्षिप्तः-परित्यक्तो भवति, ते च त्रसाः प्राणाः स्वाऽऽयुष्कं परित्यज्य तौव गृहीतपरिमाणदेश एव-योजनाऽऽदिदेशाभ्यन्तर एव ासाः प्राणास्तेषु प्रत्यायान्ति। इदमुक्तं भवति-गृहीतपरिमाणदेशे त्रसाऽऽयुष्कं परित्यज्य त्रसेष्वेवोत्पद्यन्ते, ततश्च तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्रत्याख्यान भवत्युभयथापि त्रसत्वसद्भावात् / शेषं सुगम, यावत् (णो णेयाउए भवतीति) // 26| तत्थ आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव० जाव थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते ते पाणा वि वुचंति, ते तसा ते चिरहिइया. जाव अयं पि भेदे से०॥२७|| तत्थ जे आरेणं तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे० तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसा थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते पाणा वि० जाय अयं पि भेदे से० // 28|| तत्थ जे आरेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेवजे तसा पाणा जेहिं समणो वासगस्स आयाणसो आमरणंताए, तेसु पचायंति, तेसु समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते पाणा वि० जाव अयं पि भेदे से णो० // 27 // तत्थ जे ते आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्तेअणट्ठाए णिक्खित्ते, ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ताते तत्थ आरेणं चेवजे थावरा पाणा जेहिं समगोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए अणंट्ठाए ते पाणा वि० जाव अयं पिभेदे से णो०॥३०॥ तत्थ जे ते आरेणंथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए०तेसु पच्चायंति, तेहिं समणोवासगस्स सुपचक्खायं भवइ, ते पाणा वि०जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ // 31 // तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए ०ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्तातत्थ आरेणंजेतसापाणाजेहिंसमणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पञ्चायंति, तेहिं समणो Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1062- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेढालपुत्त वासगस्स सुप्पञ्चक्खायं भवइ, ते पाणा विजाव अयं पिभेदे से णो णेयाउए भवइ / / 32 / / तत्थ जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए० ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते तेसु पञ्चायंति, जेहिं सणोवासगस्स अट्ठाए अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते जाव ते पाणा विजाव अयं पि भेदे से णो०॥३३।। तत्थ ते परणं तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए ०ते तओ आउं विप्पजहंति, विप्पजहिता ते तत्थ परेणं जे तसथावरा पाणा जेहि समणोवास गस्स आयाणसो आमरणंताए० तेसु पञ्चायंति, जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते पाणा वि० जाव अयं पि भेदे से णो णेयाउए भवइ॥३४॥ एवमन्यान्यप्यष्ठ सूत्राणि द्रष्टव्यानि सर्वाण्यपि, नवरं तत्रा प्रथम सूत्र तदेव यद्वयाख्यातं, तच्चैवभूतम्। तद्यथा-गृहीत परिमाणे देशे ये त्रसास्ते गृहीतपरिमाणदेशस्थास्तेष्वेव त्रासेषूत्पद्यन्ते। तथा द्वितीय सूत्रां त्वारादेशवर्तिनस्त्रसा आरादेशवर्तिषु स्थावरेषूत्पद्यन्ते / / 27 / / तृतीय त्वाराद्देशवर्तिनस्त्रसा गृहीत परिमातद्देशाद् बहिये ासाः स्था वराश्च तेषूत्पद्यन्ते॥२८॥तथा चतुर्थसूत्रो त्वारा शवर्त्तिनो ये स्थावरास्ते लद्देशवर्तिष्वेवासेषूत्पद्यन्ते।।२६।। पञ्चमं सूत्रांतुआराद्धेशवर्तिनो ये स्थावरास्तेषु तद्देशवर्तिष्वेवस्थावरेषूत्पद्यन्ते।। 30 // षष्ठ सूत्रं तुपरदेशवर्तिनी ये स्थावरास्ते गृहीतपरिमाणास्तेषु सस्थाव रेषूत्पद्यन्ते // 31 // सप्तमसूत्रं त्विदम्-परदेशवर्तिनो ये त्रसस्थावरास्ते आराद्देशवर्तिषु सेषूत्पद्यन्ते॥३२॥ अष्टसूत्रां तु परदेशवर्तिनो ये त्रसस्थावरास्ते आराहे शवर्तिषु स्थावरेषूत्पद्यन्ते॥३३॥ नवमसूत्रंतु परदेशवर्तिनी ये ठासस्थावरास्ते परदेशवर्तिष्वेव ासस्थावरेषूत्पद्यन्ते। एवमनया प्रक्रियया नवापि सूत्राणि भणनीयानि। तत्रा यत्र यत्रा ासास्तत्राऽऽदानशः-आदेराग्भ्य श्रमणो पासकेनाऽऽमरणान्तो दण्डस्त्यक्त इत्येवं योजनीयं, यत्रा तु स्थावरास्तत्रार्थाय दण्डो न निक्षिप्तो-न परित्यक्तोऽनर्थाय च दण्डः परित्यक्त इति। शेषाक्षरघटना तु खबुद्धया विधेयेति॥३४॥ तदेव बहुभिर्दृष्टान्तैः सविषयतां श्रावकप्रत्याख्यानस्य प्रसाभ्याधुनाऽत्यन्तासंबद्धधतां चोद्यस्य सूत्रोणैव दर्शयितुमाहभगवं च णं उदाहु ण एतं भूयं ण एतं भव्वं ण एतं भविस्संति जं णं तसा पाणा वोच्छिजिहिंति थादरा पाणा भविस्संति, थावरा पाणा वि वोच्छिजिहिंति, तसा पाणा भविस्संति, अव्वोच्छिन्नेहिं तसथावरेहिं पाणेहिं जं णं तुब्भे वा अन्नो वा एवं वदहणत्थि णं से केइ परियाए जाव णो णेवाउए भवइ // 35 / / (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) भगवान् गौतमस्वाम्युदकं प्रत्येतदाह / तद्यथा-नैतद्भमनादिके काले प्रागतिक्रान्ते नाप्येतद्देशेऽनन्ते काले भाव्यं, नाप्येतद्वर्तमानकाले भवति। ये त्रसाः प्राणाः सर्वथा निर्लेपतया स्वजात्युच्छेदेनोच्छत्स्यान्तिस्थावरा भविष्यन्ति इति। तथा स्थावराश्च प्राणिनः कालत्रयेऽपि नैव समुच्छेत्स्यन्तित्रसा भविष्यन्ति, यद्यपि च तेषां परस्परसंक्रमेण गमनमस्तितथापिन सा मस्त्येनान्यतरेषामिता सद्भावः / तथाहिन ह्येवभूतः संभवोऽस्ति यदुत प्रत्याख्यायिनमेकं विहाय परेषां नारकाणा द्वीन्द्रियाऽऽदीनां तिरश्चा मनुष्यदेवानां च सर्वदाऽप्यभावः / एवं च त्रसविषय प्रत्याख्यानं निर्विषयं भवति, यदि तस्य प्रत्याख्यानिनो जीवत एव सर्वेऽपिनारकाऽऽदयस्त्र साः समुच्छिद्यन्तेन चास्य प्रकारस्य संभवोऽस्त्युक्तन्यायेनेति स्थावराणां चानन्तानामनन्तत्वादेव नासंख्येयेषु ासेषूत्पाद इति सुप्रतीतभिदं, तदेवमव्यवच्छिन्नैस्त्रसैः स्थावरैश्च प्राणिभिर्यद्वदतंयूयमन्यो वा कश्चिद्वदति। तद्यथा नारत्यसौ पर्यायो या सविषयोऽपि दण्डपरित्याग इति, तदेतत्त्कनीत्या सर्वमशोभनमिति // 35 // साम्प्रतमुपसंजिघृक्षुराहभगवं च णं उदात्रु आउसंतो! उदगाजे खलु समणं वा माहणं वा परिभासेइ मित्ति मन्नति आगमित्ता णाणं आगमित्ता दंसणं आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ, जे खलु समणं वा माहणं वा णो परिभासइ मित्ति मन्नंति आगमित्ताणाणं आगमित्तादंसणं आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ, तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिसिं पाउन्मूते तामेव दिसिं पहारेत्थगमणाए॥३६।। (भगवं च णं उदाहुरित्यादि) गौतमस्वाम्याह-आयुष्मन्नुदक! यः खलु श्रमण वा यथोक्तकारिणं माहनंवा सब्रह्मचर्योपेतं परिभाषतेनिन्दति मैत्री मन्यमानोऽपि, तथा सस्यकज्ञानमागम्य, तथा दर्शनं चारित्रांच पापाना कर्मणामकरणाय समुत्थितः स खलु लघुप्रकृतिः पण्डितमन्यः परलोकस्य सुगतिलक्षणस्यः तत्कारणस्य वा सत्संयमस्य पलिमन्थायतद्विलोडनाय तद्विधाताय तिष्ठति। यस्तु पुनर्महासत्त्वोरत्नाकरवद् गम्भीरो न श्रमणाऽदीन् परिभाषते, तेषु च परमां मैत्री मन्यते, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्यनुगम्य, तथा पापानां कर्मणामकरणायोत्थितः स खलु परलोकविशुद्ध्याऽवतिष्ठते। अनेन च परपरिभाषावर्जनेन यथा व स्थितार्थस्वरूपदर्शनतो गौतमस्वामिना स्वौद्धत्यं परिहतं भवति, तदेवं यथावस्थितमर्थ गौतमस्वामिनाऽवगभितोऽप्यु दकः पेढालकपुत्रो यदा भगवन्तं गौतममनाद्वियमाणो यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिश गमनाय संप्रधारितवान् // 36 // Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेढालपुत्त 1063- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेमाबंध तं चैवमभिप्रायमुदकं दृष्ट्वा भगवान्गौतम पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं स्वाम्याह। तद्यथा करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करित्ता वंदइ, नर्मसति भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा ! जे खलु तहाभूतस्स वंदित्ता नमसतित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडियमणं धम्म उवसं पञ्जित्ता णं विहरित्तए। तए णं समणे भगवं महावीरे उदयं एवं सोचा निसम्म अप्पणो चेव सुहुमाए पडिलेहाए अणुत्तरं वयासी-अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करे (ह) हि, तए जोगखेमपयं लंभिए समाणे सोविताव तं आढाइ, परिजाणाति, णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्सं अंतिए वंदति, नमसति, सक्कारेइ सम्माणेइ० जाव कल्लाणं मंगलं चाउज्जमाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म देवयं चेइयं पञ्जुवासति // 37 / / उवसंपन्जिता णं विहरइ त्ति वेमि॥४०|| आयुष्मन्नुदक! यः खलु तथाभूतयस्य श्रमणस्य ब्राह्मणस्य वाऽन्तिके ततोऽसौ गौतमस्वामी तं गृहीत्वा तीर्थकरान्तिकं जगाम, उदकश्च समीपे एकमपि योगक्षेमायं पद्यते-गम्यते येनार्थस्त स्पदं योगक्षेमपदं, भगवन्तं बन्दित्वा पञ्चयामिकधर्मग्रहणायोस्थितो, भगवताऽपि तस्य किंभूतम? आर्यम्-आर्यानुष्ठानहेतुत्वादार्य तथा धार्मिक तथा शोभन सप्रतिक्रमणः पञ्चयामो धर्मो ऽनुज्ञातः, स च तं तथाभूतं धर्ममुपसंपद्य वचन सुवचनंसद्गति हेतुत्वात्तदेधं भूतं पदंश्रुत्वानिशम्यावगस्य चाऽऽत्मन विहरतीति। इति परिसमाप्तयथे, ब्रवीमीति पूर्ववत् सुधर्मस्वामी एव तदनुत्तरं योगक्षेम पदमित्येवमवगम्य सूक्ष्मया कुशाग्रीयया बुद्धया स्वशिष्यानिद माहा तद्यथा-सोऽहं ब्रवीमियेन मया भगवदन्ति के श्रुताप्रत्युपेक्ष्य पर्यालोच्य, तद्यथा-अहमनेनैवंभूतमर्थपदं लम्भितः-प्रापितः मिति। सूत्रा० 2 श्रु०७ अ० / वाणिजकग्रामे पेढालगृहपतिन भद्रायां सन्नसावपि तावल्लौकिकस्तमुपदेशदातारमाद्वियते -पूज्योऽय मित्येव जनिते स्वनामख्याते पुरुष स च द्वात्रिंशत् कन्याः परिणीय वीरान्तिके जानाति, तथा कल्याण मङ्गल देवतामिव स्तौति पर्युपास्ते च, यद्यप्य प्रव्रज्य बहुवर्षाणि प्रव्रज्या परिपाल्य संलेखनया मृत्या सर्वार्थसिद्ध विमाने सौ पूजनीयः किमपि नेच्छति तथाऽपि तेन वस्य परमार्थोपकारिणो उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरो पपातिकदशानांतृतीये वर्ग अष्टमायथाशक्ति विधेयम् // 37 // ध्ययने सूचितम्। अणु०। स्था। तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी-एतेसिणं | पेढिया स्त्री० (पीठिका) ग्रन्थभूमिकायाम्, यस्यामुक्तायामेव ग्रन्थार्थोऽभंते ! पदाणं पुट्विं अन्नाणयाए असवणयाए अबोहिए अणमि वतिष्ठता आ० म०१ अ०। रा०। नि० चू०। गमेणं अदिट्ठाणं असुयाणं अमुयाणं अविन्नायाणं अव्वोगडाणं पेढिपाय पुं० (प्रतिपाद) मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भ करणाय पादेषु, अणिगूढाणं अविच्छिन्नाणं अणिसिट्ठाणं अणिवूढाणं अणुवहारि "नाणामणिमया पेढावादा। "जी०३ प्रति०४ अधि०। (अत्र प्राकृतयाणं एयम४ णो सद्दहियं णो पत्तियं णो रोझ्यं, एतेसि णं भंते ! व्याकरण चिन्त्यम्) पदाणं एहि जाणयाए सवणयाए बोहिए० जावउवहारणयाए एयमद्वं पेण्डव धा० (प्रस्थाप) प्रस्थानकारणे, "प्रस्थापेः पट्टव पेण्डवौ" सदहामि, पत्तियामि, रोएमि, एवमेव से जहेयं तुब्भे वदह // 38|| // 4 // 37 / / इति प्रपूर्वस्य तिष्ठतेय॑न्तस्य पेण्डवाऽऽदेशः। प्रा०४ पाद। तदेव गौतमस्वामिनाऽभिहित उदक इदमाह-तद्यथैतषां पदानां पूर्वम पेम न० (प्रेमन्) अभिष्वङ्गलक्षणे रागे, औ० / मायालोभरुपे (उत्त०६ ज्ञानयाश्रवणतया बोध्या चेत्यादिना विशेषण कदम्बकेन न श्राद्धनं अ०) स्नेह, स्था० 3 ठा०३ उ० / 'प्रथमतरमथेदं चिन्तनीयं न कृतवान् साम्प्रतं तु युष्मदन्तिके विज्ञायैनमर्थ श्रहधेऽहम् // 38 // वाऽऽसीद, बहुजनदयिते न प्रेम कृत्वा जनेन। हतहृदय निरास त्कीब! तए णं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी-सद्दाहाहि णं संतप्यसे किं, न हि ज जडगत तोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते॥१॥ आचा० अजा! पत्तियाहि णं अञ्जो ! रोएहि णं अञ्जो ! एवमेयं जहा णं १श्रु०२ अ०५ उ०। अम्हे वयागो, तएणं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयम एवं वयासी कन्नसुक्खेहिं सद्देहि, पेमं नाभिनिवेसए। इच्छामिणं भंते! तुभं अंतिए चाउज्जमाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं दारुणं कक्कसं फासं, काएणा अहिआसए / / 26 / / सपडिक्कमणं धम्म उवसपजिताणं विहरित्तए।।३।। कर्णसौख्यहेतवःकर्णसौख्याः शब्दाः वेणुवीणाऽऽदि-सम्बन्धिनस्तेषु एवमवगम्य गौतमस्वाम्युदकमेवाह-यथाऽस्मिन्नर्थे श्रद्धानं कुरु नान्यथा प्रेमरागंन अभिनिवेशयेत् न कुर्यादित्यर्थः। तथा दारुणमनिष्ट, कर्कशसर्वज्ञोक्तं भवतीति मत्तवा, पुनरप्युदक एवमाह इष्टमेवैतन्मे, किं कठिन, स्पर्शमुपनतं सन्तं काये न अधिसहेन्न तत्र द्वेषं कुर्यादिति, त्वमुष्माचातुर्थामिकाद्धर्मात्पञ्चयामिकं धर्म सम्प्रति सप्रतिक्रमणमुप- | अनेनाऽऽद्यन्तयो रागद्वेषनि राकरणेन सर्वेन्द्रिय विषयेषु रागद्वेषप्रतिबंधो संपद्य विहर्तुमिच्छामि।।३।। वेदितव्यः। इति सूत्राऽर्थः / / 26 / / दश० 8 अ०। तए णं से भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे | पेमरागरत्त त्रि० (प्रेमरागरक्त) कामराग्रथिलीकृते, तं०। भगवं महवीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता तए णं से उदए | पेमाबंध पुं० (प्रेमाबन्ध) प्रेमरुपे आ-समन्ताद् बन्धे प्रेम्णो व Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेमाबंध 1064- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेसप्पओग न्धाभावे, 'गते प्रेमाबन्धे प्रणयबहमाने च गलिते, निवृत्ते सद्भावे जन इव | पेलुकरण न० (पेलुकरण) लाटदेशे रूतसम्बन्धिनी यापूणिकेति प्रसिद्धा जने गच्छति पुरः / समुत्प्रेक्ष्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि ! गतांस्तांश्च दिवसान्न ____ सैव महाराष्ट्रकविषये पेलुरित्युच्यते, तस्याः करणं निर्वर्तकम् / जाने को हेतुर्दलतिशतधा यन्न हृदयम? ||1||" आचा०१ श्रु०२ अ० वंशाऽऽदिमय्यां शलाकायाम्, यया पेलुः क्रियते। विशे० / 5 उ०। पेलुगन० (पेलुक) अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। पेम्मन० (प्रेमन)'तैलाऽऽदो' ||8||18|| इति मद्वित्वम्। 'पेम्म / " | पेलेज्जा प्रेरयेत-क्रिया। संयमभारं बलादपहत्याऽऽपातयेत्। बृ०१ उ० राग. प्रा०२ पाद। 2 प्रक०। पेय पुं० (प्रेत) मृते, व्यन्तरविशेष च / भ०३ श०७ उ०। पेल्ल धा० (क्षिप) प्रेरणे, "क्षिपेर्गलस्थाडक्खसोल्ल पेल्लणोल्ल* प्रेयस त्रि० अतिशयेन प्रिये, औ० / स्त्रियां प्रेयसी। औ०। छुह-हुल-परीघताः" / / 8 / 4 / 143 / / इति क्षिपेः पेल्लाऽऽदेशः। प्रा०४पाद। पेयकाइय पुं० (प्रेतकायिक) व्यन्तर विशेषे, भ०३ श०७ उ०। * प्रेर्य त्रि० दरिने, 'पेल्लस्स तेण कप्पति / पेल्लो दरिद्रो। नि० चू० पेयदेवलकाइय पुं० (प्रेतदेवलकायिक) प्रेतसत्कदेवतानां सम्बन्धिनि, 130 / भ०३श०७उ०। पेल्लग पु० (प्रेरक) श्वगवीनां स्वगृहे प्रविशन्तीनां निवारके, बृ० 1 उ०२ पेया स्त्री० (पेया) अल्पतण्डुलसहिते राखे दुग्धे, ध०२ अधि० / __ प्रक०। सार्थाऽधिपस्य सार्थस्य प्रवत्तक, नि० चू०।१६ उ०। दुग्धकाञ्जिके, प्रव० 4 द्वार / वाद्यविशेषे, रा०1 पेल्लण न० (प्रेरण) चोदने, नि० चू० 17 उ० / पेयाल न० (पेयाल) प्रमाणे नं०ाआ० म०। व्य० अपरिज्ञाने अन्तर्गमने, आ० चू० 1 अ० / ''निवग्गसुत्तत्थगहणपेयाला उभयलोगफलवती।'' पेल्लण्णया स्त्री० (प्रेरणा) विषयार्थिना प्रेरणे, बृ० 1 उ०२ प्रक० / आ० क० 1 अ० / सारे प्रधाने, "पंच अइयारा जाणियव्वा न | पेल्लिअ (देशी) पीडिते, दे० ना०६ वर्ग 57 गाथा। समारियव्वा / " पेल्लिय त्रि० (प्रेरित) पातिते, व्य०२ उ०। सारा :-प्रधानाः स्थूलत्वेन शक्यव्यपदेशात्। उपा० 1 अ०। पेश्च धा० (प्र+ईक्ष) दर्शने, प्रा० / पेच्छइ। "छस्य श्चोऽनादौ" पेरंत पुं० (पर्यन्त) "एतः पर्यन्ते" ||8/2065 / / इत्येका रात्परस्य // 4365 / / इति छरय श्चः मागध्याम्। "तिरिश्चि पेश्चदि। "तिर्यक् र्यस्य रः / 'परंतो।' अवयविनः सर्वान्तिमप्रदेशे आ०३ पाद / प्रेक्षते / प्रा० 4 पाद। ''परिजूरियपेरतं / " वसन्तसमये परिजीर्णपर्यन्तम् / अनु० / 'छेआ पेस पुं०स्त्री० (प्रेष्य) यलोपः। "नदीर्घाऽनुस्वारात्" || 2|| पेरंत अद्धंतो।' पाइ० ना० 173 गाथा। इति सस्य प्राप्त द्वित्वं न / प्रा०२ पाद। प्रेषणयोग्ये, सूत्र०२ श्रु०२ पेरंतवच्च न० (पर्यन्तवर्चस्) मण्डपे गृहे, "मण्डवं परंतवच्चं भण्णति, सव्यं अ० / आदेश्ये, प्रश्न० 2 आश्र0 द्वार। कर्मकरे, सूा० 1 श्रु०५ अ०२ वा सीथाण सीताणस्स वा पेरंतवच भण्णति" नि० चू०३ उ०। उ० / प्रेषणयोग्ये भृत्याऽऽदौ, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। पेरज्झ न० (परावश्य) पराधीनत्वे, भ०७ श०८ उ०। तथाविधप्रयोजनेषु आज्ञप्तिकरे, बृ०१ उ०३ प्रक०। नगरान्तराऽऽदिषु प्रेष्यन्ते। ज्ञा०१ श्रु०२ अ० सिन्धुविषये एव सूक्ष्मचर्मणि पशौ तच्चर्मपेरण (देशी) ऊर्ध्वस्थाने, दे० ना० 6 वर्ग 56 गाथा। निष्पन्ने वस्त्र, आचा०२ श्रु०१चू०५ अ० 1 उ०। पेरिज (देशी) साहाय्ये, दे० ना०६ वर्ग 58 गाथा। पेसग पुं०स्त्री० (प्रेष्य) कर्मकरे, सूत्र०१ श्रु०२ अ० उ०। पेरित त्रि०(प्रेरित) प्रणुन्ने, आचा० 1 श्रु०५ अ०१उ०। आव० / चा०। नि० चू०। पेसगजण पुं० (प्रेषकजन) प्रयोजनेषु प्रेषणीयलोके, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। पेलवपुं० (पेलव) सुकुमारे, औ०। कोमले, जं०३ वक्षः। निःसत्त्वे, बृ० / पेसगपेसग पुं० (प्रेष्वप्रेष्य) कर्मकरस्य कर्मकरे, सूत्रा०१ श्रु०२ अ० २उ०। 1303 प्रक०। "सिणेहा पेलवा होइ।" गणान्निर्गते यस्यापि गणस्याऽऽचार्यस्व वा स्नेहः परस्परं पेलवः प्रतनुर्भवति। व्य०१० उ० / मृदुनि, पेसण न० (प्रेषण) व्यापारणे बृ०१ उ०३ प्रक०। नियोजने / सूत्रा०१ "कोमलयं सुहफासं, सोमालं पेलवं मउयं / ' पाइ० ना०८८ गाथा। श्रु०४ अ० 2 उ०। भृत्याऽऽदेर्विवक्षितक्षेत्राबहिः प्रयोजनाय व्यापारणे, पेलवत्तण न० (पेलवत्व) मृदुत्व-लघुत्वे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। प्रव०। कार्ये, दे० ना०६ वर्ग 57 गाथा। पेलवाइरेग पुं० (पेलवातिरेक) मृदुत्वलधुत्वगुणे, "हयलाला पेसणआरी (देशी) दूत्याम, दे० ना०६ वर्ग 56 गाथा। पेलवाइरेग / ' हयलाला-अश्वलाला तस्या अपि पेलवाम तिरेकेण पेसता स्त्री० (प्रेष्यता) आदेश्यतायाम्, भ० 1207 उ०। हयलालापेलवातिरेक बाहुलकादेवं समासः / विशिष्टमृदुत्वलघुत्व- पेसपडिमा स्त्री० (प्रेष्यप्रतिमा) नव मासान् प्रेष्यैरप्यारम्भ न कारयतीति गुणैरुपेतम्। आव० 1 अ०। नवम्यामुपासकप्रतिमायाम्, ध०२ अधि०। पेलु न० (पेलुक) पूणिकया वलिते रुते, बृ० 1 उ० 3 प्रक० / नि० चू०। पेसपसुणिमित्त न० (प्रेष्यपशुनिमित्त) कर्मकरगवादिहेतौ, प्रश्न०१ लाटदेशे रूतसम्बन्धिनी या पूणिका इति प्रसिद्धा सैव महाराष्ट्रविषये ___ आश्र0 द्वार। पेलुरित्युच्यते। विशे०। पेसप्पओग पुं० (प्रेष्यप्रयोग) प्रेष्यस्य- आदेश्यस्य प्रयोगः / वि Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेसप्पओग 1065- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पेहामंडव वक्षितक्षेत्राद् बहिः प्रयोजनाय स्वयं गमने व्रतभङ्गभयाऽऽपन्नस्य व्यापारणे, पञ्चा०१ विव०।०। पेसयंतिया रखी० (पेषयन्तिका) गोधूमाऽऽदीनां घरट्टाऽऽदिना पेषण कारिकायाम, ज्ञा० 1 श्रु०७ अ०। पेसल त्रि० (पेशल) उत्त०। मनोज्ञे, जी०३ प्रति०४ अधि०। प्रज्ञा०। सूत्र / 'धम्मं च पेशलं नचा तं पट्टविज्ज भिक्खं / 'प्रति० / मिष्टवाक्ये विनयाऽऽदिगुणसमन्विते, सूत्र०१श्रु०१३ अ०1"ललिअंवग्गुं मंजूं. मंजुलयं पेसलं कलं महुर।" पाइ० ना०८८ गाथा। पेसलेस न० (प्रेसलेस) प्रेषचर्मसूक्ष्मपक्ष्मनिष्पन्ने वस्त्रविशेषे, आचा 2 श्रु०१चू०५ अ०१ उ०। नि० चू०। पेसवणप्पओग पुं० (प्रेषणअयोग) बलाद विनियोज्य, प्रेष्य स्तस्य प्रयोगः / अभिगृहीतप्रवीचारदेशव्यतिक्रम भयात्वयाऽवश्यमेव गत्वा मम गवाऽऽद्यानेयमिति, इद वा ता कर्तव्यमित्येवंभूते देशावकाशिवताविचारे, ध०२ अधि० 1 उपा० / आव०। पेसविअ त्रि० (प्रेषित) प्रस्थापिते, "पेसविअंपट्टवि।" पाइ० ना० 201 गाथा। पेसाय पुं० (पैशाच)सुप्तप्रमत्तकन्याग्रहणाऽऽत्मके विवाहभेदे, ध० 1 अधि०। पिशाचसम्बन्धि, बृ०२ उ०। पेसिय त्रि० (प्रेषित) प्रेषिते, "दुओ पेसिओ।" आ० म०१ अ०। पेसी स्त्री० (पेशी) घनस्वरुपे मांसखण्डे, तं० / दीर्घाऽऽकारे बुक्षमध्यावयवे, नि० चू० 15 उ०।फल्याम्, आचा०२ श्रु०१ चू०७ अ०२ उ० / त०। बृ०। पेसुण्ण न० (पैशुन्य) परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटने प्रज्ञा०२१ पद। औ०। प्रच्छन्नमसद्दोषाऽऽविष्करणे, दशा०६ अ०। प्रव०। परगुणा• ऽसहनतया तद्दोषोद्धट्टने, सूत्रा०१ श्रु०१६ अ०। पिशुनकमणि, रा०१ प्रश्न० / स्था०। ज्ञा०। (अत्रार्थे पावट्ठाण' शब्दोऽवलोकनीयः) 'अट्ठारस पावठाणगाइ त्ति' सप्तत्रिंशदधिकद्विशततम द्वारमाहसव्वं पाणाइवायं 1, अलिय 2 मदत्तं च 3 मेहुणं सव्वं 4! सव्वं परिग्गहं 5 तह, राईभत्तं 6 च कोसिरिमो // 65 / / सव्वं कोहं 7 माणं 8, मायं लोहं १०च राग 11 दोसे 12 या कलहं 13 अब्भक्खाणं 15, पेसुन्नं 15 परपरीवायं 16 // 66|| मायामोसं 17 मिच्छा-- दसणसल्लं 18 तहेव वोसरिमो। अंतिमऊसासम्मी, देहं पि जिणाइपच्चक्खं / / 67 / / सर्व सप्रभेदं प्राणातिपातं 1, तथा सर्वमलीक-मृषावादं 2, तथा सर्वमदत्तम्-अदत्ताऽऽदानं 3, तथा सर्वं मैथुनं 4, तथा सर्वपरिग्रहं 5, तथा सर्व रात्रिभक्तंच-रजनि (नी) भाजनं 6, व्युत्सृजामः-परिहरामः / तथा सर्व क्रोधं 7. मानं 8, माया 6 लोभं च 10 रागद्वेषी च 11-12, तथा कलहम् 13, अभ्याख्यानं 14, पैशुन्यं 15, परपरिवाद, 16, मायामृषां 17, मिथ्यात्वदर्शनशल्यं च 18. तथैव सप्रभेदं व्युत्सृजामः। एतान्यष्टादश पापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि। न केवलमेतान्येव, किं तु अन्ति मे उच्छवासे; परलोकगमनसमयं इत्यर्थः / देहमपि निजं शरीरमिति व्युत्सृजामस्तत्राऽपि ममत्वमोचनात्, जिनाऽऽदि प्रत्यक्षतीर्थकरसिद्धाऽऽदीनां समक्षमिति / तत्रा प्राणातिपात मृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनपरिग्रहरात्रिभक्तक्रोधमानमायालोभाः प्रतीताः, तथा रागोऽनभिव्यत्कमायालोभलक्षणस्वभावभेदमभिष्वङ्गमात्रम् / (दोसो त्ति) द्वेषण द्वेषः, दूषणं वा दोषः, स चानभिव्यत्कक्रोधमानलक्षणभेदः स्वभावोऽप्रीतिमात्राम् / कलहोराटी अभ्याख्यानंप्रकटमसदोषाऽऽरोपणं, पैशुन्यं पिशुनं कर्म, प्रच्छन्नं सदसघोषाऽऽविर्भावनम् / तथा परेषा परिवादः परपरिवादो, विकत्थनमित्यर्थः / तथा माया च - निकृतिः, मृषा च मृषावादः, मायया वा सह मृषा मायामृषा, प्राकृतत्वात्-''मायामोसं वा'' दोषद्वययोगदोषोपलक्षणं, वेशान्तरकरणेन लोकप्रतारणमित्यन्ये। तथा मिथ्यादर्शनविपर्यस्ता दृष्टिः, तदेव तोमराऽऽदिशल्यमिव शल्यं, दुःखहेतुत्वान्मिथ्यादर्शनशल्यमिति / स्थानाङ्गे च रात्रिभोजन पापस्थानमध्ये न पठितं , किंतु परपरिवादाग्रतोऽरतिरतिः, तस्य चायमर्थः-अरतिश्चतन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद्वेगलक्षणः, रतिश्च तथाविधाऽऽनन्दरूपा, अरतिरतिरित्येक्कमेव विवक्षितं, यतः कधन विषये या रतिस्तामेव विषयान्तरापेक्षयाऽरति व्यपदिशन्ति / एवमरतिमेव रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति। ततो रागपदस्थाने "पिज्ज" पद च पठन्ति। तत्र च प्रियस्य भावः कर्म वा प्रेम, अर्थस्तु रागपदवाच्य एवेति। प्रव०२३७ द्वार। पेहण न० (प्रेक्षण) अवलोकने, "चारुपेहणी।" उत्त०२२ अ०। पेहमाण त्रि० (प्रेक्षमाण) पर्यालोचने, आचा० 1 श्रु०६ अ०५ उ० / प्रकर्षण पश्यति, दश०५ अ०१ उ०। आचा०।आ० म०। दृश्यवस्तूनि पश्यति। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। सूत्रः। पेहा स्त्री० (प्रेक्षा) बुद्धौ, उत्त०१ अ० / चिन्तायाम्, आव० 4 अ० / प्रत्युपेक्षणायाम.बृ०१ उ०३ प्रक०। पेहाअसंजम पुं० (प्रेक्षाऽसंयम) प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा। असंयमभेदे, स च स्थानोपकरणाऽऽदीनि अप्रत्युपेक्षणम-विधिप्रत्युपेक्षणं वा। स० 17 सम०। पेहाए अव्य० (प्रेक्ष्य) दृष्टवेत्यर्थे, आचा०१ श्रु०६ अ० 4 उ०। पेहादोस पुं० (प्रेक्षादोष) कायोत्सर्गदोषविशेषे, प्रव०। अणुमेहंतो तह वा- नरो व्व चालेइ हुट्ठफुडे / / 66 // अनुप्रेक्षमाणो नमस्काराऽऽदिकं चिन्तयनुत्सर्गतो वा नरइव चालयत्योष्ठपुटाविति प्रेक्षादोष इत्येकोनविंशतिः / प्रव 5 द्वार। पेहामंडव पु० (प्रेक्षामण्डप) प्रेक्षणार्थमण्डपे, प्रव० 266 द्वार। Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेहिय 1066- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पोक्खलाविभाग पेहिय त्रि०(प्रेक्षित) दृष्ट, आचा०२ श्रु०१ चू०५ अ०१उ०। भावेक्तः। / पोंडयन०(पौण्डज) बनीफलादुत्पन्ने कार्यासिके, सूत्रा०१०१ अ० वक्रावलोकने, उत्त० 32 अ०। नि० चू०। 1 उ०नि० चू०। *प्रेक्ष्य अव्य० दृष्ट्वेन्यर्थे , सूत्रा० 1 श्रु०२ अ० 1 उ०। पोंडरीग न० (पुण्डरीक) शताम्बुजे, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / प्रज्ञा० / पेहुण न० (पेहुण) पिच्छे, "पिच्छाइंपेहुणाई। पाइ० ना० 126 गाथा। | लोमपक्षिविशेषे, प्रज्ञा० 1 पद / जी० / भगवत ऋषभस्याऽदिगणधरे, देना। व्य०४ उ०। क्षीरवरद्वीपाधिपतौ, स्था० 10 ठा० / पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिणीराजमहापदमपुत्रो, आ० चू० 4 अ०। आव०। आ० म०। पेहुणग न० (पेहुणक) मयूरपिच्छकृतव्यजने, आचा०२ श्रु०१ चू०१ सूत्रकृतागाध्ययनभेदे, आ० चू०१ अ०। सूत्रा०। एकोनविंशे ज्ञाताध्यअ०७ उ०। मयूराङ्गमय्या पिच्छायाम्, बृ०१ उ०३ प्रक० / दश० ज०। यने, स०१६ सम०। सप्तमदेवलोकीये विमानभेदे, स०१८ सम०। पेहुणमिंजिया स्त्री० (पेहुणमिञ्जिका) मयूरपिच्छमध्यवर्तिन्यां मिन्जा पों डरीगतव न० (पुण्डरीकतपस्) चैत्रापौर्णमास्यां पुण्डरीकपूजागुंत याम्, ज०१ वक्ष० / आ० म० / प्रज्ञा०। उपवासाऽऽद्यन्यतरस्मिन् तपसि, पञ्चा० 16 विव०। पेहुणहत्थग पु० (पेहुणहस्तक) मयूराऽऽदिपिच्छसमहे, दश० 4 अ०।। पोंडरीगिणी स्त्री० (पुण्डरीकिणी) पुण्डरीकाणि श्वेतपद्मानि विद्यन्ते मयूर पिच्छकृतव्यजने, आचा०२ श्रु०१चू०१अ०७उ०। यस्यां सा पुण्डरीकिणी। सूत्र०२ श्रु०१ अ०। पुष्करिण्याम्, जम्बूद्वीपे पोअपुं०(पोत) बालके, "डहरो डिभो चुल्लो, सिस् सिलबोय अब्भओ मन्दरस्योत्तरेण लक्ष्मीदेव्यावासभूते, स्था० 3 ठा०४ उ०। आ० चू०। पोओ।" पाइ० ना०५८ गाथा। जलवहनमार्गे, "पोओ वहणं। "पाइ० जम्बूद्वीपे पुष्कलावर्तीविजयक्षेत्रा युगलराजधानीयुगले, "दो पोडना० 273 गाथा। धववृक्षलघुसर्पयोः, दे० ना०६ वर्ग 81 गाथा। रीगिणीओ।" स्था०२ ठा०३ उ०। आचूला आ० म० ज०। आ० क०। पोअंड (देशी) मुक्तभये, षण्डं च। दे० ना०६ वर्ग 61 गाथा। * पोण्डरीकिणी स्त्री० पौण्डरीकाणि-श्वेतशतपत्राणि विद्यन्ते यस्या पोअंत (देशी) शपथे, दे० ना०६ वर्ग 62 गाथा। सा पौण्डरीकिणी प्राचुर्ये मत्वर्थीय इतिः। बहुपदमायाम्, (सूत्रा०२ श्रु० पोअइआ स्त्री० (देशी) निद्रालुतायाम्, “पोअइआ य वयली मयाली 2 अ०) पश्चिमाञ्जनादेरुत्तर दिग्वर्त्तिन्यां पुष्करिण्याम्, ती० 23 य।' पाइ० ना० 148 गाथा। निद्राकरलतायाम, दे० ना०६ वर्ग 63 कल्प० / द्वी० / महाविदेहमध्यनगरीभेदे, विपा० 2 श्रु०२ अ०। गाथा। पोक धा० (व्याह्न/वि+ आ+ ह ) कथने, "व्याहगेः कोक पोक्को" पोअलअ (देशी) आश्विनमासोत्सवाऽपूपयोः, बालवसन्त इत्यन्ते / दे० 8476 / / इति व्याहरतेः पोक्काऽऽदेशः / पोझाइ / व्याहरति / प्रा०४ ना०६ वर्ग 81 गाथा। पाद। अग्रे स्थूलोन्नते, उत्त०१२ अ०। पोआअ (देशी) ग्रामप्रधानपुरुषे, दे० ना०६ वर्ग 60 गाथा। पोकनास नि० (पोक्कनास) पोक्का–अग्रे स्थूलोन्नता मध्ये निम्ना नासा यस्य स पोकनासः / चिप्पटनासे, उत्त० 12 अ०। पोआइस्त्री० (पोताकी) शकुन्तिकायाम्, परिव्राजकप्रयुक्ते (आ० चू०१ ! पोक्करिय न० (पूत्कारित) भावे त्कः / आहूते, "तओ मरणभीयाए अ०) विद्याविशेषे च। आ० क०१ अ०। पोक्करिय। दर्श०३ तत्त्व। पोआल (देशी) वृषभे, दे० ना०६ वर्ग 62 गाथा। पोक्काण पुं० (पोक्काण) म्लच्छजातीये मनुष्ये, म्लेच्छभेदे च / प्रश्न०१ पोइअ त्रि० (प्रोत) 'परोवेलु' (गुजराती) "आविअं पोइयं" पाइ० आश्र० द्वार। ना०२६८ गाथा / काविन्दके, खद्योत इत्यन्ते। दे० ना०६ वर्ग 63 | पोक्कार पु० (पूत्कार ) आह्वाने, विशे०। गाथा। पोक्खर न० (पुष्कर)"ष्क स्कयो म्नि" ||24|| इतिष्कस्य पोइआ (देशी) निद्राकरलतायाम्, दे० ना०६ वर्ग 63 गाथा। खः / प्रा०२ पादाखद्वित्वम्। खस्यकः। ओत्संयोगे" ||8/1/116|| पोइय (देशी) पोतित इतस्ततः स्पन्दिते, बृ० 1 0 2 प्रक०। इति उकारस्यौकारः / प्रा० 1 पाद। कमले, नि० चू० 12 उ०। पोई स्त्री० (पोयी) ताम्बूलाऽऽकृतिपणे लघुकलायतुल्यफले शाकत्वेनोप- | पोक्खरिणी स्त्री० (पुष्करिणी) पुष्करवत्यां चतुष्कोणायां वाप्याम्, प्रश्न० युक्तवल्लीभेदे, प्रज्ञा०१ पद। 1 आश्र0 द्वार।"असोगवणियाए आगहा पोक्खरिणी संछन्नयत्तं / " पोउआ (देशी) करीषानौ, दे० ना०६ वर्ग 61 गाथा। आव०६ अ०। स्था०। पोंड न० (पौण्ड) "पोंडा वमणी तस्स फलं" नि० चू० 3 उ० / फले, पोक्खल न० (पुष्कर) पद्मकेसरे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८ उ01 प्रश्न०४ आश्र० द्वार। महा०। पुष्पे च। उत्त० 3 अ०। यूथाधिपती, दे० पोक्खलच्छिल्लय न० (पुष्करच्छिल्लक)। जलरुहभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। ना०६ वर्ग 60 गाथा। पोक्खलपाल पुं० (पुष्करपाल) वज्रसेननृपपुत्रो, आ० चू० 1 अ०। पॉडबद्धणिया स्त्री० (पौण्डबर्द्धनिका ) गोदासगणस्य तृतीय शाखायाम, पोक्खलविभाग पुं० (पुष्करविभाग) पद्मकन्दे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ कल्प०३ अधि०८ क्षण। अ०८ उ० Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोक्खलि 1097- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पोग्गल पोक्खलि पु० (पुष्कलि) श्रावस्तीवास्तव्ये शतकापरनामके श्रावके भ० 8 श०१ उ०। ('संख' शब्देऽस्य कथां वक्ष्यामि) पोग्गल पुं० (पुगल) पूरणगलनधर्माः पुद्गलाः।"श्रोत्संयोगे" ||1| 116|| इत्युकारस्यौकारः। परमाणुद्विप्रदेशिकाऽऽदौ द्रव्यविशेषे, आ० म०१ अ०। प्रा०। "स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दमूर्तस्वभावकाः। संघातभेदनिष्पन्नाः पुदगला जिनभाविताः // 1 // " दर्श० 4 तत्त्व। पुद्गलाना लक्षणमाहसद्दऽन्धयारउज्जोओ, पहा छायाऽऽतवेइ वा। वनगंधरसा फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं / / 12|| शब्दो-ध्वनिरूपः, पौगलिकः तथा अन्धकारं तदपि पुद्गलरूप, तथा उदद्योतोरत्नाऽऽदीना प्रकाशः तथा प्रभाचन्द्राऽऽदीनां प्रकाशः, तथा छायावृक्षाऽऽदीनां छाया शैत्यगुणा तथा आतपो रवरुष्णप्रकाशः, इति पुदगलस्वरूपं वाशब्दः समुच्चये, वर्णगन्धरसस्पर्शाः, पुद्गलानां लक्षणं ज्ञेयम्। वर्णाः- शुल्कपीयहरि तरक्तकृष्णाऽऽदयः, गन्धः-दुर्गन्धसुगन्धाऽऽत्मको गुणः, रसाःषट्-तीक्ष्णकटुककषायाऽऽम्लमधुरलवणाऽऽद्याः, स्पर्शाः-शीतोष्णखरमृदुस्निग्धरूक्षलघुगुर्वादयः, एते सर्वेऽपि पुद्गलास्ति कायस्कन्धलक्षणा वाच्याः ज्ञेया इत्यर्थः, एभिलक्षणैरेव पुद्गला लक्ष्यन्ते इति भावः / उत्त०२८ अ०। वर्णाऽऽदिकगुणभेदो, ज्ञायते पुद्गलस्य च। (20) (वर्णेति) वर्णगन्धरसस्पर्शाऽऽदिकगुणैः पुद्रलद्रव्यस्य अन्येभ्यो धर्माऽऽदिद्रव्येभ्यो भेदोज्ञायते। वर्णाः पञ्च शुल्कपीत हरितरक्तकृष्णभदात्। गन्धौ द्वौ-सुरभ्यसुरभी चेति। रसाः षट्-तिक्तकटुककषायाम्लमधुरलवणभेदात् / स्पर्शा अष्टौशीतोष्णे, खरमृदु, लघुमहती, स्निग्धरूक्षे च / / 'इति। सर्वमप्येतत्पुद्गल-भेदाद्धिद्यते। द्रव्या० 10 अध्या०। पुद्गलास्तिकायभेदः / पुद्गलाश्चतुर्विधा :खंधा, खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला। ते समासओ पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा-वण्णपरिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया, फासपरिणया, संठाणपरिणया। प्रज्ञा०१ पद / ('अजीव' शब्दे प्रथमभागे 204 पृष्ठे सव्याख्यानमतेद् दर्शितम्) पुद्गला अनन्ताः एगपएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता / एवमेगसमय द्वितिया एगगुणकालगा पोग्गला अणंता पण्णत्ता ०जाव एगगुणलुक्खा पुग्गला अणंता पण्णत्ता। (एगप्पएसोगढित्यादि) सुगमम्। नवरमेकत्र प्रदेशे-क्षेत्रास्यांशविशेष अवगाढा आश्रिता एकप्रदेशावगाढाः, ते च परमाणुरूपाः स्कन्धरूपाश्चेति / एवं वर्ण 5 गन्ध २रा 5 स्पर्श 8 भेदविशिष्टशः पुद्गलावाच्याः। अत एवाक्तम-"जाव एगगुणलुक्खत्यादि।" स्था०१ ठा०। ('जीवा ण दुट्टाण' स्था०२ ठा०४ उ०। 'जीवा णं तिट्टाण० स्था०३ ठा०४ उ० जीवा णं चउहाण० स्था० 4 ठा० 4 उ०। 'जीवा णं पंचट्ठाण०' स्था०५ ठा०३ उ० / 'जीवा णं छट्टाण० स्था०६ ठा०। "जीया णं सत्तट्टाण०' स्था०७ ठा० / 'जीवा ण अट्ठाण० स्था०८ठा०। जीवा णं नवट्टाण० स्था०६ ठा०॥ 'जीवा णं दसट्ठाण० स्था०१० ठा० / इत्यादिसूत्राणि 'पावकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 878 पृष्ठे गतानि) पुद्गलान् द्रव्यक्षेत्राकालभावैः द्विस्थानकावतारेण निरूपयन्नाह / अनन्ताः-- दुपएसिया खंधा अणते। पण्णत्ता, दुपएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। एवं० जाव दुगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। "दुपएसि'' इत्यादि सूत्राायोविंशतिः, सुगमा चेय नवरं यावत्करणात् "दुसमयटिए' इत्यादिसूत्राण्येक विंशतिवीच्यानि। कालं पञ्चद्विपञ्चाष्ट भेदाद्वर्णगन्धर सस्पर्शाश्चाश्रित्येति। वा चना चैवम्-"दुसमयट्ठि (इ)या पोग्गललेत्यादि।' स्था०२ ठा०४ उ०। पुद्गलस्कन्धान प्रति त्रिस्थानकमाह -- तिपएसिया खंधा अनंता पण्णत्ता / एवं जाव तिगुणलुक्ख पोग्गला अणंता पण्णत्ता। (तिपएसिएत्यादि) स्पष्टमिति / सर्वसूत्रेषु व्याख्यातशेष कण्ठ्यम्। स्था० 3 ठा०४ उ०। चतुःप्रदेशिका :चउप्पएसिया खांधा अनंता पण्णत्ता। चउप्पसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। चउसमयट्ठिईया पोग्गला अणंता पण्णत्ता / चउगुणकालगा पोग्गला अणंता पण्णत्ता जाव चउग्गुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता / स्था०४ ठा०४ उ०। पञ्च पुद्गला अनन्ता:पंचपएसिया खंधा अर्णता पण्णत्ता। पंचपएसोगाढा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। जाव पचगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता / स्था०५ ठा० 3 उ०॥ षट्प्रदेशिका: पुदला अनन्ताःछप्पएसिया णं खंधा अणंता पण्णत्ता। छप्पएसोगाढा पोग्गला अणं०प०, छसमयहिइया पोग्गला अणं०प०, छग्गुणकालगा पोग्गला० जाव छग्गुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता० जाव छग्गुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। स्था०६ठा०। पुद्गला:सत्तपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता। सत्तपएसोगाढा पोग्गला० जाव सत्तगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। स्था०७ ठा०! अष्टप्रदेशिकाःअट्ठपएसिया खंधा अणंतापण्णत्ता। अट्ठपएसोगाढा पोग्गला० जाव अट्ठगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता / स्था०८ ठा०। नवप्रदेशिका:नवपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता / नवपदेसोगाढा पुग्गला अणंता पण्णत्ता। नवगुणलुक्खा पुग्गला अणंता पण्णत्ता / स्था० ६ठा०। दशप्रदेशिका:दसपएसिया खंधा अणंता पण्णत्ता / दसपएसोगाढा पुग्गला अणंता पण्णत्ता। दससमयढिइया पोग्गला अणंता पञ्चपुतला Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1068- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पोग्गल पण्णत्ता। दसगुणाकालगा पोग्गला अणंता पण्णत्ता / एवं वण्णेहिं गंधेहिं रसेहिं फासेहिं० जाव दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता। 'दसेत्यादि'' सूत्रावृन्द, सुगमंच, नवरं दशप्रदेशा येषां ते तथा, त एव दशप्रदेशिका दशाणुकाः स्कन्धाः समुच्चया इति द्रव्यतः पुद्गलचिन्ता, तथा दशप्रदेशेष्वाकाशस्यावगाढा आश्रितादशप्रदेशावगाढा इति क्षेत्रतः तथा दशसमयान स्थितिर्येषां ते तथेति कालतः, तथा दशगुण एकगुणकालापे क्षया दशाभ्यस्तः कालोवर्णविशेषो येषां ते दशगुणकालकाः, एवमन्यैश्चतुर्भिर्वर्णाभ्यां गन्धाभ्यां पञ्चभी रसैरष्टाभिः स्पर्शविशेषिताः पुद्गला अनन्तावाच्याः। अतएवाऽऽह-(एवमित्यादि)". जाव दसगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पण्णत्ता / 'इत्यनेन भावतः पुगलचिन्तायां विंशतितम आलापको दर्शितः। इह चानन्तशब्दोपादानेन वृद्ध्यादिशब्देन चानन्तमङ्गलभिहितमयं चानन्तशब्द इह सर्वाध्ययनानामन्तेपठित इति सर्वेष्वप्यन्तमगलतया बोद्धव्य इति तदेवं निगमित मनुगमद्वारांशभूतं सूत्रस्पर्शकनियुक्तिद्वाराणि तु सर्वाध्यनेषु प्रथमाध्ययनवदनुगमनीयानि। स्था० 10 ठा०। द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्गलाः भिद्यन्ते परिशटन्तिदोहिं ठाणेहिं पोग्गला साहन्नति / तं जहा-सयं वा पोग्गला साहन्नति, परेण वा पोग्गला साहन्नति / दोहिं ठाणेहिं पोग्गला भिजंति। तं जहा-सयं वा पोग्गला भिजंति, परेण या पोग्गला भिजंति / दोहिं ठाणेहिं पोग्गला परिसडति / तं जहा--सयं वा पोग्गला परिसडंति, परेण वा पोग्गला परिसडंति, एवं परिवडंति, विद्धंसंति। (दोहीत्यादि) सूत्रपञ्चकं कण्ठ्यं, नवरं स्वयं चेति स्वभावेन वा अभ्राऽऽदिष्विव पुद्गलाः संहन्यन्ते-सम्बध्यन्ते कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं परेण वा पुरुषाऽऽदिना वा संहन्यन्तेसंहताः क्रियन्ते कर्मप्रयोगोऽयम्, एवं भिद्यन्ते विघटन्ते यथा परिपतन्ति पर्वतशिखराऽऽदेरिवेति परिशटन्ति कुष्ठाऽऽदेनि मित्तादगुल्यादिवत् विध्वस्यन्ते-विनश्यन्ति घनपटलवदिति // 5 // पुगलानेव द्वादशसूत्राणि निरुपयन्नाह - दुविहा पोग्गला पण्णत्ता / तं जहा-भिन्ना चेव, अभिन्ना चेव। दुविहा पोग्गला पण्णत्ता / तं जहा-मिउरधम्मा चेव, नो मिउरधम्मा चेव / दुविहा पोग्गला पण्णत्ता / तं जहा परमाणुपोग्गला चेव, नो परमाणुपोग्गला चेव / दुविहा पोग्गला पण्णत्ता / तं जहा-सुहुमा चेव, बायरा चेव / दुविहा पोग्गला पण्णत्ता / तंजहा-बद्धपासपुट्ठा चेव, नो बद्धपासपुट्ठा चेवा दुविहा पोग्गला पण्णत्ता / तं जहा परियादितचेव, अपरियादितचेव / दुविहा पोग्गला पण्णत्ता। तं जहा–अत्ताचेव, अणत्ता चेव। दुविहा पोग्गला पण्णत्ता / तं जहा-इट्ठा चेव, अणिट्ठा चेव / एवं कंता, पिया, मणुन्ना, मणामा। (दुविहेत्यादि) भिन्नाः- विघटिता इतरे त्वभिन्नाः स्वयमेव भिद्यन्ते / इति भिदुराः, भिदुरत्वं धर्मो येषां ते भिदुरधर्माणः, अन्तर्भूतभावप्रत्ययोऽयम्। प्रतिपक्षः प्रतीत एवेति। परमाश्च तेऽणवश्चेति परमाणवः नो परमाणवः स्कन्धाः सूक्ष्माः येषां सूक्ष्मः परिणामः शीतोष्णस्निग्धरूक्षलक्षणाश्चत्वार एव स्पर्शास्ते च भाषाऽऽदयः। बादरास्तु येषां बादरः परिणामः पञ्चाऽऽदयश्च स्पर्शाः ते चौदारिकाऽऽदयः 4 पार्श्वेन स्पृष्टाः देहत्वचा छुप्ताः रेणुवत् पार्श्वस्पृष्टाः ततो बद्धाः गाढतरसंश्लिष्टास्तनौ तोयवत् पार्श्वतः स्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चेति राजदन्ताऽऽदित्वात् बद्धपार्श्वस्पृष्टाः। आह च-'"पुट्ट रेणु व्व तणुम्मि बद्धमप्पोकयं पएसेहिं / ' इति। एते च घ्राणेन्द्रियाऽऽदि ग्रहणगोचराः तथा नो बद्धाः किं तुपार्श्वस्पृष्टा इत्येकपदनिषेधे श्रोत्रेन्द्रियग्रहणगोचराः। यत उत्कम् - "पुढे सुणेइ सई, रूवं पुण पासई अपुढे तु / गंधं रसं च फासं, बद्धं पुढे वियागारे // 1 // " इति / उभयपदनिषेधे श्रोत्राऽऽद्यविषयश्चुर्विषयाश्चेति / इयमिन्द्रियापेक्षया बद्धापार्श्वस्पृष्टता पुद्गलानां व्याख्याता; एवं जीवप्रदेशापेक्षया परस्परापेक्षया च व्याख्येयेति / (परियाइय त्ति) विवक्षितपर्यायमलीताः पर्याप्ता वा सामस्त्यगृहीताः कर्मपुद्गलवत् प्रतिषेधः सुज्ञातः। आत्ता गृहीताः स्वीकृता जीवेन परिग्रहमात्रतया शरीराऽऽदितया वा इष्यन्ते स्म अर्थ क्रियार्थिभिरितीष्टाः कान्ताः-कमनीयाः विशिष्टवर्णाऽऽदियुक्ताः प्रियाः प्रीतिकरा इन्द्रियाऽऽह्वादका मनसा ज्ञायन्ते शोभना एत इत्येवं विकल्पमुत्पादयन्तः शोभनत्य प्रकर्षाऽऽद्येते मनोज्ञाः-मनसो मताः वल्लभाः सर्वस्याप्युपभो तुः सर्वदा च शोभनत्वप्रकर्षादव निरुक्तिविधिना - (मणामा इति 12) व्याख्यानान्तरं त्वेवम्--इष्टावल्लभाः सदैव जीवानां सामान्येन कान्ताःकमनीयाः सदैव तद्भावेन प्रिया अद्वेष्याः सर्वेषामेव मनोज्ञाः-कथयाऽपि मनोरमाः मन आमामनःप्रियाश्चिन्तयाऽपीति विपक्षः सुज्ञातः सर्वति स्था०२ टा०३ उ०। त्रिभिः प्रकारैः स्थानैरच्छिन्नाः पुद्गलाश्चलन्तितिहिं ठाणेहिं अच्छिन्ने पोग्गाले चलेजा / तं जहा–आहा रिजमाणे वा पोग्गले चलेजा, विउव्वमाणे वा पोग्गले चलेज्जा, ठाणाओ ठाणं संकामेज्जमाणे वा पोग्गले चलेजा। (तिहीत्यादि) छिन्नाः खड्गाऽऽदिनापुद्रलाः समुदायात् चलन्त्येवेत्यत आह-"अण्छिन्नपुद्गल इति।" (आहारिज्जमाणेत्ति) आहारतया जीवेन गृह्यमाणः स्वस्थानाचलति जीवेनाऽऽकर्षणात् एवं विक्रियमाणो विक्रियकरणवशवर्तितयेति, स्थानात् संक्रम्यमाणो हस्ताऽऽदिनेति / स्था०३टा० 130 / स्थानैरच्छिन्नाः पुद्गलाश्चलन्ति / इन्द्रियार्थाश्च पुद्गलधर्मा इति। पुद्गलस्वरूपमाहदसहिं ठाणेहिं अच्छिन्ने पुग्गले चलेजा-आहारिजमाणे वा चलेजा, परिणामिजमाणे वा चलेजा, ओस्सस्सेजमाणे वा चलेजा, परियायेजमाणे वा चलेज्जा, णिस्ससिज्जमाणे वा चलेजा, वेदिज्जमाणे वा चलेजा, निजरिजमाणे वाचलेजा, विओविजमाणे वा चलेजा, जक्खाइट्टे वा चलेजा, वातपरिगए वा चलेजा। Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1066- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पोग्गल (दसही यादि) स्पष्ट, नवरम् (अच्छिण्णं त्ति) अच्छिन्न :- अपृथग्भूतः शरीरे विवक्षितस्कन्धे वा संबद्ध एव चलेत् स्थानान्तरं गच्छते (आहारिजमाणे त्ति) आहियमाण:-खाद्यमान पुद्गल आहारे वा अभ्यवाहियमाणे सति पुदलश्चलेत परिणम्यमानः पुद्गल एवोदराग्निना खलरस भावन परिणम्यमाने वा भोजने उच्छवास्यमान उच्छ्वासवा गुपुरल उच्छवास्यमाने वा उच्छसिते क्रियमाणे एव निःश्वस्यमानो निःश्वस्यमाने वा वेद्यमानो निर्जीर्यमाणश्च कर्मपुदलः। अथवा-वेद्यमाने निर्जीर्यमाणेच कर्मणि वैक्रियमाणो वैक्रियशरीरतया परिणम्यमानो वैक्रियमाणे वा शरीरे परिचार्यमाणो मैथुनसंज्ञया विषयीक्रियमाणः शुक्रपुरलाऽऽदिपरिचार्य - माणे वां भुज्यमाने स्त्रीशारीराऽऽदौ शुकाऽऽदिरेव यक्षाऽऽविष्टोभूताऽऽद्यधिष्ठितो यक्षाऽऽविष्ट वा सति पुरुषे यक्षाऽऽवेशे वा सति तच्छरीरलक्षणः पुगलो वातपरिगतो देहगतवायुप्रेरितो वातपरिगते वा देहे सति बाह्यावातेन चोरिक्षप्त इति / स्था० 10 ठा०॥ परमाणपुद्गलः किं सार्द्धः समध्यः, एवं द्विप्रदेशिको यावदनन्त प्रदेशिक:दुपदेसिए पुच्छा ? गोयमा ! सअड्डे णो अणड्डे / तिपदेसिए जहा परमाणुपोग्गले / चउप्पदेसिए जहा दुपदेसिए। पंचपदेसिए जहा तिपदेसिए। छप्पएसिए जहा दुपदेसिए। सत्तपएसिए जहा तिपदेसिए / अट्ठपएसिए जहा दुपदेसिए / णवपदेसिए जहा तिपदेसिए। दसपदेसिए जहा दुपदेसिए। संखेज्जपएसिएणं भंते ! खंधे पुच्छा ? गोयमा ! सिय असड्ढे, सिय अणड्डे, एवं असंखेजपएसिए वि / एवं अणंतपदेसिए वि। (परमाणु इत्यादि) (सिय अणड्डे त्ति) यः रामसङ्ख्य प्रदेशाऽऽत्मकः स्कन्धः स सार्द्धः, इतरस्त्वनर्द्ध इति। परमाणवः सार्धा :परमाणुपोग्गलाणं भंते ! किं ससड्डा अणड्डा? गोयमा ! असवा वा अणड्डा वा, एवं जाव अणंतपदेसिया / परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सेए णिरेए ? गोयमा ! सिय सेए सिय णिरेए / एवं जाव अणंतपदेसिए। परमाणुपोग्गला णं भंते ! किं सेया णिरेथा ? गोयमा! सेवा वि, णिरेया वि। एवं 0 जाव अणंतपदेसिया। परमाणुपोग्गले णं भंते सेए कालओ केवचिरं होई? गोयमा ! जहण्णेण एकं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं / परमाणुपोग्गले णं भंते ! णिरेए कालओ के / वचिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेण असंखेनं कालं, एवं जाव अणंतपदेसिए। परमाणुपोग्गले णं भंते ! सेया कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वद्धं / परमाणुपोग्गला णं मंत! णिरेया कालओ केवचिरं होइ। गोयमा ! सव्वद्धं एवं जाव अणंतपदेसिया। (परमाणुपोग्गलेत्यादि) यदा बहवोऽणवः समसंख्याः भवन्ति तदा साभः, यदातुं विषमसंख्यास्तदा अनाः, संघातभेदाभ्यामनवस्थितस्वरुपत्वात्तेषामिति। पुद्गलाधिकारादेवेदमुच्यते-(परमाणु इत्यादि।) (सेए त्ति) चलः, सैजत्वं चोत्कर्षतोऽप्यावलिका संख्येयभागमात्रमेव, निरेजतया औत्सर्गिकत्वादत एव निरेजत्वमुत्कर्षतोऽसख्येयं कालमिति / (निरेए त्ति) निश्चलः बहुत्वसूत्रे (सव्वद्धं ति) सर्वाद्धासर्वकालं परमाणवः सैजाः सन्ति, न हि कश्चित्स समयोऽस्ति कालायेऽपि यत्र परमाणवः सर्व एव न चलन्तीत्यर्थः / एवं निरेजा अपि सर्वाद्धामिति। भ० 25 श०४ उ०। (अत्र निर्ग्रन्थीपुत्रां प्रति नारदपुत्रस्य प्रश्नः ‘णियंठिपुत्त' शब्दे चतुर्थभागे 2088 पृष्ठे उक्तः) (परमाणवः सार्धः समध्या इत्यनन्तरमेवोत्कम्) परमाणुपुरलानामन्तरम्। तत्र परमाणवादीनां सैजत्वाऽऽद्यन्तरमाह - परमाणुपोग्गलस्स णं मंते ! सेयस्स के वइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! सहाणंतरं पडुच जहण्णेणं एवं समयं, उकोसेणं असंखेज्जइकालं / परट्ठाणंतरं पञ्च जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं असंखेजकालं / णिरेयस्स केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा! सट्ठाणंतरं पडुच जहणणेणं एक समयं, उक्कोसेण आवलियाए असंखेज्जइभाग! परहाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक्क सभयं, उक्कोसेणं असखेजइकालं। दुपदेसियस्स णं भंते ! खंधस्स पुच्छा ? गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं / परट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अंणंतं कालं / णिरेयस्य केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं, उकोसेणं / आवलियाए असंखेजइभागं / परहाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं; एवं जाव अणंतपदेसियस्स। परमाणुग्गोला णं भंते ! सेयाणं केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! णत्थि अंतरं णिरेयाणं केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! णत्थि अंतरं, एवं जाव अणंतपदेसियाणं खंधाणं! (परमाणु इत्यादि) (सट्टाणंतरं पडुच्च त्ति) स्वस्थानं परमाणोः परमाणुभाव एव, ता वर्त्तमानस्य यदन्तरं चलनस्य च व्यवधानं निश्चलत्वभवनलक्षणं तत्स्वस्थानान्तरं, तत्प्रतीत्य (जहण्णेणं एक समयं ति) निश्चलता जघन्य काललक्षणम् (उक्कोसेण असंखेनं काल ति) निश्चलताया एवोत्कृष्टकाललक्षणं, तत्रा जघन्यतोऽन्तरं परमाणुरेकं समयं चलनादुपरम्य पुनश्चलतीत्येवम्, उत्कर्षतश्च स एवासङ्ख्येयं काल क्वचित्स्थिरो भूत्वा पुनश्चलतीत्येवंदृश्यमिति। (परट्ठाणतरं पडुच त्ति) परमाणोर्यत्पररथाने न्दयणुकाऽऽदावन्त भूतस्यान्तरं चलनव्यवधानं तप्तरस्थानान्तरं, तत्प्रतीत्य (जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं ति) परमाणु पुदगलो हि भ्रमन द्विप्रदेशाऽऽदिकस्कन्धमनुप्रविश्य जघन्यतः तेन सहक समयं स्थित्वा पुनम्यति, उत्कर्षतस्तु सङ्खयेय काल द्विप्रदेशाऽऽदितया स्थित्वा पुनरेकतया भ्राम्यमतीति (नि Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1100- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पोग्गल रेयस्सेत्यादि) निश्चलः सन् जघन्यतः समयमेक परिभम्य पुनर्निश्चलस्तिष्ठति, उत्कर्षतस्तु निश्चलतः सन्नावलिकाया असङ्घ येयं भागे चलनोत्कृष्टकालरूपं परिभ्रम्य पुनर्निश्चलः एव तिष्ठतीति स्वस्थानान्तरमुक्तम्। परस्थानान्तरंतुनिश्चलः सन्ततः स्थानाचलितो जघन्यतो द्विप्रदेशाऽऽदौ स्कन्धे एकं समयं स्थित्वा पुनर्निश्चल एव तिष्ठति / उत्कर्षत स्त्वसङ्ग येयं कालं तेन सह स्थित्वा पृथग्भूत्वा पुनस्तिष्ठति (दुपएसियस्सेत्यादि) (उच्नेसेणं अणतं काल ति) कथं द्विप्रदेशिकः संप्रचलितस्ततोऽनन्तैः पुद्गलैः सह कालभेदेन सम्बन्धं कुर्वन्ननन्तेन कालेन पुनस्तेनैव परमाणुना सह सम्बन्ध प्रति पद्य पुनश्चलतीत्येवमिति। सैजाऽऽदीनामेवाल्पबहुत्वमाह - एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सेयाणं णिरेयाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा परमाणुपोग्गला सेया, णिरेया असंखेज्जगुणा एवं जाव असंखेज्जपएसियाणं खंधाणं / एएसि णं भंत! अणंतपदेसियाणं सेयाण य निरेयाण य कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्यत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा णिरेया सेया अणंतगुणा। एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखेज्जपएसियाणं अखेसंजपएसियाणं अणंतपएसियाणं खंधाणं सेयाण य णिरेयाण य दव्वट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपसट्टयाए कयरे कयरे जाव० विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा णिरेया दव्वट्ठयाए अणंतपएसिया खंधा सेया दव्वट्ठयाए अणंतगुणा / परमाणुपोग्गला सेया दव्वट्ठयाए अणंतगुणा। संखेजपएसिया खंधा सेया दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा / असंखेजपएसिया खंधा सेया दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा / परमाणुपोग्गला णिरेया दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा / संखेज्जपएसिया खंधा णिरेया दव्वट्टयाए संखेनगुणा / असंखेजपएसिया खंधा णिरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा / पदेसट्टयाए एवं चेव, णवरं परमाणुपोग्गला अपदेसट्टयाए भाणियव्या / संखेज्जपएसिया खंधा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, सेसं तं चेव / दव्वट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा णिरेया दव्वट्ठयाए ते चेव पदेसट्ठयाए अणंतगुणा / अणंतपदेसिया खंधा सेया दव्वट्ठयाए अणंतगुणा ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपोग्गला सेया दव्वट्ठअपएसट्ठयाए अणंतगुणा / संखेजपएसिया खंधा सेया दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, तेचेव पदेसट्ठयाए संखेनगुणा, असंखेजपएसिया खंधा सेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा ते चेव, पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा / परमाणुपोग्गला णिरेया दव्वसट्टयाए अपदेस?याए असंखेज्जगुणा, संखेजपएसिया खंधा णिरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्ञगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेजगुणा; असंखेजपएसिया खंधा णिरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा; ते चेव पदेसट्ठयाए असखेज्जगुणा। (एएसिणमित्यादि) (णिरेया असंखेगुणेत्ति) स्थितिक्रियाया औत्सर्गिकत्वाद्बहुत्वमिति अनन्तप्रदेशिकेषु सैजाअनन्तगुणाः, वस्तुस्वभावात् / एतदेव द्रव्यार्थप्रदेशार्थोभयार्थनिरुपन्नाह - (एएसि णमित्यादि) तव द्रव्यार्थताया सैजत्वनिरेजत्वाभ्यामष्टौ पदानि। एवं प्रदेशार्थतायामप्युभयार्थतायां तु चतुर्दश, सैजपक्षे, निरेजपक्षे च परमाणुष द्रव्यार्थाप्रदेशार्थपदयोर्द्रव्यार्था प्रदेशार्थतत्येवमेकी करणेनाभिलापात्। अथ ''पएसट्टयाए एवं चेव त्ति'' अत्रातिदेशे वोविशेषोऽसावुच्यते, नवरम् (परमाणु इत्यादि) परमाणुपदे प्रदेशार्थतायाः स्थानेऽप्रदेशार्थतयेति वाच्यमप्रदेश-त्वात्परमाणूनां तथा द्रव्यार्थतासूत्रो संख्यात प्रदेशिका निरेजाः निरेजपरमाणुभ्यः संख्यातगुणा उक्ताः / प्रदेशार्थतासूत्रे तु तेभ्योऽसंख्येयगुणा वाच्या यतो निरेजपरमाणुभ्यो द्रव्यार्थतया निरेजसंख्यातप्रदेशिकाः संख्यातगुणा भवन्ति, तेषु च मध्ये बहूनामुत्कृष्टसंख्यातक प्रमाणप्रदेशत्वान्निरेज परमाणुभ्यस्ते प्रदेशतोऽसंख्येयगुणा भवन्ति, उत्कृष्टसंख्यातक स्योपर्येक प्रदेशप्रक्षेपेऽप्यसंख्यातकस्य भावादिति। अथ परमाण्वादीनामेव सैजत्वाऽऽदि निरूपयन्नाह - परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं देसेए, सव्वेए, णिरेए? गोयमा! णो देसेए, सिय सव्वेए, सिय णिरेए / दुपदेसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा / गोयमा। सिय देसेए, "सिय' सव्वेए, सिय णिरेए, एवं ०जाव अणंतपदेसिएए / परमाणुपोग्गला णं भंत ! किं देसेया, सव्वेया, जिरेया ? गोयमा ! णो देसेया, सव्वया वि, णिरेया वि। दुपदेसिया णं भंत! खंधा पुच्छा ? गोयमा ! देसेया वि सवे या वि णिरे या वि; एवं ०जाव अणं तपदे सिया। परमाणुपोग्गले णं भंते ! सव्वेए कालओ के वचिरं होइ ? गोयमा! जहणणे णं एवं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं / णिरेए कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एषां समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जइकालं ! दुपदेसिए णं भंते ! खंधे देसेए कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसणं आवलियाए असंखेज्जइभागं / णिरेए कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं / णिरेए कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्को सेणं असंखेनं कालं, एवं ०जाव अणंतपदेसिए। परमाणुपोग्गला णं भंते! सव्वेया कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सद्ध। णिरेया कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वद्धं / दुपदेसिया णं भंते ! खंधा देसेया कालओ Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1101 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गल केवचिरं होइ? गोयमा ! सव्वद्धं / सव्वेया कालओ केवचिरं होइ? सव्वद्धं / णिरेया केवचिरं होइ? सव्वद्धं / एवं० जाव | अणंतपदेसिया। परमाणुपोग्गलस्स णं भंते? सव्वेयस्स कालओ केवचिरं अंतरं होइ? गोयमा! सट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उकोसेणं असंखेज्जं कालं / परट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं एवं चेव / णिरेयस्य केवइ०? सट्ठाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं / परट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं असंखेचं कालं / दुपदेसियस्स णं भंते! खंधस्स देसेयस्स केवइयं कालं अंतर होइ? गोयमा! सट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं असंखेचं कालं / परट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं / सटवेयस्स केवइयं कालं? एवं चेव जहा देसेयस्स / णिरेयस्स केवइयं कालं? सट्ठाणंतरं पडुच जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइमागं / परहाणंतरं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं एवं० जाव अणंतपदेसियस्स। परमाणु पोग्गलाणं भंते! सव्वेयाणं केवइयं कालं अंतर होइ? गोयमा ! णत्थि अंतरं / णिरेयाणं केवइयं०? णत्थि अंतरं / दुपदेसियाण भंते! खंधाणं देसेयाणं केवति कालं०? णत्थि अंतरं / सव्वेयाणं केवइ०? णत्थि अंतरं / णिरेयाणं केवइ०? णत्थि अंतरं / एवं० जाव अणंतपदेसियाणं / अल्पबहुत्वम्एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सव्वेयाणं णिरेयाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा परमाणुपोग्गला सव्वेया, णिरेया असंखेज्जगुणा। एएसिणं भंते! दुपदेसियाणं खंधाणं देसेयाणं सव्वेयाणं णिरेयाणं य कयरे कयरे० जाव विसेससाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा दुपदेसिया खंधा सव्वेया, देसेया असंखेज्जगुणा, णिरेया असंखेज्जगुणा, एवं० जाव असंखेज्जपएसियाणं खंधाणं / एएसिणं भंते! अणंतपदेसियाणं खंधाणं देसेयाणं सव्वेयाणं णिरेयाणं य कमरे० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा सव्वेया, णिरेया अणंतगुणा, देसेया अणंतगुणा। एएसिणं भंते! परमाणु पोग्गलाणं संखेजपएसियाणं असंखेज्जपएसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाणं देसेयाणं सवेयाणं णिरेयाणं दव्वट्ठयाए पदेसट्ठयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा सव्वेया दव्वसट्ठयाण, अणंतपदेसिया खंधा णिरेया दव्वसट्ठयाण अणंतगुणा, अणंतपदेसिया खंधा देसेया दव्वसट्ठयाए अणंतगुणा, असंखेज्जपदेसिया खंधा सव्वेया दव्वट्टयाए अणंतगुणा, संखेज्जपदेसिया खंधा सव्वेया दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा / परमाणुपोग्गला सव्वेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, संखेज्जपदेसिया खंधा देसेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, असंखेजपएसिया खंधा देसेया दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, परमाणुपोग्गला णिरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, संखेज्जपदेसिया खंधा णिरेया दवट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेञ्जपदेसिया खंधा णिरेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा पदेसट्ठयाए, एवं दव्वट्ठपदेसट्ठयाए वि, णवरं परमाणु पोग्गला अपदेसद्वयाए भाणियव्वा / संखेजपएसिया खंधा णिरेया पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, सेसं तं चेव / दव्वट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया खंधा सव्वेया दव्वट्ठयाए ते चेव, पएसट्ठयाए अणंतगुणा, अणंतपदेसिया खंधा णिरेया दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, ते चेवपदेसट्टयाए अणंतगुणा, अणंतपएसिया खंधा देसेया दट्वट्ठयाए अणंतगुणा ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा, असंखेजपएसिया खंधा सव्वेया दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, ते चेव पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, संखेजपएसिया खंधा सव्वेया दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा ते चेव पदेसठ्ठयाए संखेजगुणा, परमाणुपोग्गला सव्वेया दव्वट्ठअपएसट्टयाए असंखेजपएसिया देसेयादव्वळुयाए असंखेज्जगुणा, ते चेवपदेसट्ठयाए संखेजगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा देसेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा,ते चेव पदेसट्ठयाए असंखेज्जगुणा, परमाणुपोग्गला णिरेया दव्वट्ठअएएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, संखेज्जपदेसिया दव्वट्ठयाए संखेजगुणा, ते चेव पदेसट्ठयाए संखेनगुणा, असंखेञ्जपदेसिया णिरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा। (परमाणु इत्यादि) इह सर्वेषा मल्पबहुत्वाधिकारे द्रव्यार्थतायां परमाणुपदस्य सर्वजत्वनिरेजत्वविशेषणात् संख्येयाऽऽदीनां तु त्रयाणां प्रत्येक देशैजसर्वजनिरजत्दै विशेषण देकादश पदानि भवन्त्येवं प्रदेशार्थतायामपि, उभयार्थताया त्वेतान्येवविशतिः, सर्वजपक्षे निरेजपक्षे च परमाणुषुद्रव्यार्थप्रदेशार्थपदयोर्द्रव्यार्था प्रदेशार्थतेत्येव मेकीकरणेनाभिलापादिति। भ० 25 श० 4 उ० / परमाणुपुरल एजते वेपतेपरमाणु पोग्गलं णं भंते! एयइ वेयइ० जाव सं तं भावं प Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1102- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गल रिणमइ? गोयमा! सिय एयइ वेयइ० जाव परिणमइ सिय णो एयइ०जावणो परिणमइ।दुपदेसिएणं भंते! खंधे एयइ०जाव परिणमइ! गोयमा! सिय एयइ० जाव परिणमइ, सिय नो एयइ० जाव नो परिण्णमइ, सिय देसे एयइ देसे नो एयइ। तिपएसिए णं भंते! खंधे एयइ? गोयमा! सिय एयइ, सिय नो एयइ, सिय देसे एयइ नो देसे एयइ, सिय देसे एयइ सिय नोदेसा एयंति, सिय देसा एयंति नो देसे एयइ / चउप्पएसिए णं मंते! खंधे एयइ? गोयमा! सिय एयइ, सिय नो एयइ, सिय देसे एयइणो देसे एयइ सिय देसे एयइ,णो देसा एयंति, सिय देसा एयंतिनो देसे एयइ, सिय देसा एयंति नो देसा एवंति।जहा चउप्पदेसिओ तहा पंचप्पएसिओ० जाव तहा अणंतपएसिओ॥ (परमाणुमित्यादि) (सिय एयइत्ति) कदाचिदेजते कदाचित्कत्वात्सर्वपुद्रलेष्वेजनाऽऽदिधर्माणां द्विप्रदेशिके त्रयो विकल्पाः-स्यादेजनं, स्यादनेजनं, स्याद्देशेनैजनं, देशेननिजनं चेति 3, ह्यंशत्वात्तस्येति / त्रिप्रदेशके पञ्च आद्यास्त्रयस्तएव द्वयणुकस्यापि तदीयस्यैकस्यांशस्य तथाविधपरिणा मेनैकदेशतया विवक्षितत्वात् / तथा देशस्य एजनं देशयोश्चानेजनमिति चतुर्थः, तथा देशयोरेजनं देशस्य चाने जनमिति पञ्चमः। एवं चतुःप्रदेशकेऽपिनवरं षट्, तत्र षष्ठोद्देशयोरेजनं, देशयारेव चानेजनमिति। द्विप्रदेशिकाऽऽदयः कथं परमाणवादिकं स्पृशन्ति? परमाणुपोग्गले णं भंते! असिधारं वा खुरधारं वा उग्गाहेजा? हंता उम्गाहेजा। से णं तत्थ छिज्जेज वा, भिजेज वा! गोयमा! णो दणट्टे समढे, नो खलु तत्थसत्थं कमइ, एवं०जाव असंखेजपएसिओ। अणंतपएसिए णं भंते! खंधे असिधारं वा खुरधारं वा उग्गाहेजा? हंता उग्गाहेजा। सेणं तत्थ छिज्जेज वा, मिज्जेज वा? गोयमा? अत्थेगइए छिज्जेज वा, भिजेज वा, अत्थेगइए णो छिज्जेज्ज वा, णो भिजेज वा / एवं अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं तहिं, णवरं ज्झिायएज भाणियवं, एवं पुक्खल संवट्टस्स महामेहस्स मज्झं तहिं उल्ले सिया, एवं गंगाए महाणईए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा, तहिं विणिहायमावजेजा, उदगावत्तं वा उदगविंदु वा उग्गाहेज्जा, सेणं तत्थ परियावज्जेज्जा। पुद्गलाधिकारादेवेदं सूत्रावृन्दम् (परमाणु इत्यादि) (उग्गा हेज त्ति) अवगाहेत-आश्रयेत, छिद्यते-द्विधाभावं यायात्, भिद्यतेविदारणभावमात्रां यायात्। (नोखलु तत्थ सत्थं कमइत्ति) परमाणुत्वाद्, अन्यथा परमाणुत्वमेव न स्यादिति। (अत्थेगइए छिज्जेज त्ति) तथाविधवादरपरि णामत्वात्। (अत्थेगइए नो छिज्जेज्ज त्ति) सूक्ष्मपरिणामत्वात् / (उल्ले सिय त्ति)। आो भवेत्। (विणिहायमावज्जेज ति) प्रतिस्खलनमापद्येत (परियावज्जेज्ज त्ति) पर्यापद्येतविनश्येत्। दुपएसिए णं भंते! खंधे किं सअड्डे समज्झे सवएसे, उदाहु अणड्ढे अमज्झे अपएसे? गोयमा! सअड्डे अमज्झे सवएसे, णो अणड्डे णो समज्झे णो अपएसिए / तिपएसिए णं भंते! खंधे पुच्छा? गोयमा! अणड्डे समज्झे सपएसे, नो सअड्डे नो अमज्झे नो अपएसे जहा दुपएसिओ तहा जे समा ते भाणियव्वा, जे विसमा ते जहा तिपएसिओ तहा भाणियव्वो। संखेज्जपएसिएणं भंते मावळेज त्ति) प्रतिस्खलनमापद्येत (परियावजेज ति) पापद्येतविनश्येत्। दुपएसिए णं भंते ! खंधे किं सअड्डे समज्झे सवएसे, उदाहु अणड्डे अमज्झे अपएसे? गोयमा! सअड्डे अमज्झे सवएसे, णो अणड्डे समज्झे णो अपएसिए। तिपएसिएणं भंते! खंधे पुच्छा? गोयमा! अणड्डे समज्झे सपएसे, नो सअड्डे नो अमझे नो अपएसे जहा दुपएसिओ तहाजे समाते माणियव्वा,जे विसमा ते जहा तिपएसिओ तहा भाणियय्वो / संखेज्जपएसिए णं भंते! खंधे किं सअड्डे पुच्छा? गोयमा! सिय सअड्डे अमज्झे सपएसे, सिय अणड्डे समज्झे सपएसे, जहा संखेजएसिओ तहा असंखेजपएसिओ वि अणंतपएसिओ वि / परमाणुपोग्गले णं मंते! परमाणुपुग्गलं फुसमाणं किं देसेणं देसं फुसइ, देसेणं देसे फुसइ, देसेणं सव्वं फुसइ, देसेहिं देसं फुसइ, देसेहि देसे फुसइ, देसेहिं सव्वं फुसइ, सव्वेणं देसे फुसइ, सव्वे णं देसे फुसइ, सव्वेणं सव्वं फुसह? गोयमा! नो देसेणं देसं फुसइ, नो देसेणं देसे फुसइ, नो देसेणं सव्वं फुसइ, नो देसेहिं देसं फुसइ, नो देसेहिं देसे फुसइ, नो सवेणं देसं फुसइ,नो सवेणं देंसे फुसइ, सव्वेणं सव्वं फुसइ / परमाणुपोग्गले दुपएसियं फुसमाणे सत्तमनवमेहिं फुसइ / परमाणुपोग्गले तिपएसियं फुसमाणे णिप्पच्छिमएहिं तिहिं फुसइ जहा परमाणुपोग्गले तिपएसियं / फुसाविओ, एवं फुसावेयव्वो० जाव अणंतपएसिओ दुपएसिए णं मंते! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा? तइयनवमे हिं फुसइ, दुपएसिओ दुपएसिय फु समाणो पढमतइयसत्त-मनवमेहिं फुसइ, दुपएसिओ तिपएसियं फुसमाणो आदिल्लएहि य पच्छिल्लएहिं तिहिं फुसइ, मज्झिमएहिं तिहिं विपडिसेहेयव्वं / दुपएसिओ जहा तिपएसियं / फुसाविओ, एवं फुसावेयव्वो० जाव अणंतपएसियं / तिपिएसिए णं भते! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा? तइयछट्ठएवमेहि फुसइ, तिपएसिओ दुपएसियं फुसमाणो पढमएणं तइयएणं चउत्थछट्टसत्तमनवमेहि फुसइ तिपएसिओ तिपएसियं फुसमाणो सव्वेसु वि ठाणेसु फुसइ जहा तिपएसिओ तिपएसियं फुसाविओ, एवं तिपएसिओ० जाव अणंतपएसिएणं संजोएयव्वो, जहा तिपएसिओ, एवं० जाव अणंतपएसिओ भाणियय्वो। (दुपएसिए इत्यादि) यस्य स्कन्धस्य समा० प्रदेशाः Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गल स साझे, यस्य तु विषमाः स समध्यः, संख्येयप्रदेशाऽऽदिस्तु स्कन्धः समप्रदेशिक इतरश्च तत्र यः समप्रदेशिकः स साझेऽमध्यः, इतरस्तु विपरीत इति / (परमाणुपोग्गले णं भंते! इत्यादि) 'किं देसेणं देस' इत्यादयो नवविकल्पाः / तत्र देशेन स्वकीयेन देशं तदीयं स्पृशति देशेनेत्यनेन देशं देशान् सर्वमित्येवं शब्दायपरेण त्राय एवं देशैरित्यनेन 3, सर्वेणेत्यनेन च त्रय एवेति। अत्र च सर्वेण सर्वमित्येक एव घटते, परमाणोनिप्शत्वेन शेषाणामसम्भवात्। ननु यदि सर्वेण सर्व स्पृशति इत्युच्यते तदा परमाण्वोरेकत्वापत्तेः कथमपरापरपरमाणुयोगेन घटाssदिस्कन्धनिर्वृत्तिरिति / अत्रोच्यते-सर्वेण सर्व स्पृशतीति कोऽर्थः? स्वात्मना तावन्योन्यस्य लगतो न पुनरर्धाऽऽधशन अर्धाऽऽदि-देशस्य तयोरभावाद् घटाऽऽधभावापत्तिस्तु तदैव प्रसज्येत यदा तयोरेकत्वापत्तिर्भवति, न च तयोः सा, स्वरूपमेदात्। (सत्तमन वमेहिं फुसह ति) | सर्वेण देश सर्वेण सर्वमित्येताभ्यामित्यर्थः, तत्रा यदा द्विप्रदेशिकः प्रदेशब्दयावस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति, परमाणोस्तदेशस्यैव विषयत्वात्, यदा तु द्विप्रदेशिकः परिणामसौक्ष्म्यादेकप्रदेशस्थी भवति तदा तं परमाणुः सर्वेण सर्व स्पृशतीत्युच्यते। (णिप्पंच्छिमएहिं तिहि फुसइ ति) त्रिप्रदेशे कमसौ स्पृशंस्त्रिाभिरन्त्यैः स्पृशति, तत्रा यदा त्रिप्रदेशिकः प्रदेशत्रयस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति, परमाणोस्तद्देशस्येव विषयत्वात् यदा तु तस्यैका प्रदेशे द्वौ प्रदेशावन्यत्रा एकोऽवस्थितः स्यात्तदा एकप्रदेशस्थित परमाणुद्वयस्य परमाणोः स्पर्शविषयत्वेन सर्वेण देशौ स्पृशतीत्युच्यते, ननु द्विप्रदेशिकेऽपि युक्तोऽयं विकल्पस्तत्राऽपि प्रदेशद्वयस्य स्पृश्यमानत्वात्, नैवम् / यतस्तत्र द्विप्रदेशमात्रा एवावयवीति कस्य देशो स्पृशति, त्रिप्रदेशिके तु त्रयापेक्षया द्वयस्पर्शन एकोऽवशिष्यते, ततश्च सर्वेण देशौ त्रिप्रदेशिकस्य स्पृशतीति व्यपदेशः साधुः स्यादिति, यदा त्वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्व स्पृशतीति स्यादिति। (दुपएसिएणमित्यादि) (तइयनवमेहि फुसइ त्ति) यदा द्विप्रदेशिको द्विप्रदेशस्थस्तदा परमाणुदेशेन सर्व स्पृशतीति तृतीयः, यदा त्वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्वमिति नवमः / (दुपएसिओ दुपएसियमित्यादि) यदा तु द्विप्रदेशिको प्रत्येक द्विप्रदेशावगाढो तदा देशेन देशमिति प्रथमः, यदा त्वेक एकत्रान्यस्तु द्वयोस्तदा देशेन सर्वमिति तृतीयः। तथा सर्वेण देशमिति सप्तमः। नवमस्तु प्रतीत एवेति। अनया दिशाऽन्येऽपिव्याख्येया इति। भ०५ श०७ उ० / स्थानः पुदला बहिर्न गच्छन्तिचउहिं ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचाएइ बहिया लोगंता गमणयाए गइअभावेणं निरुवग्गहयाए लुक्खत्ताए लोगाणुभावेणं / (चउहीत्यादि) व्यक्त, परमन्येषां गतिरेव नास्तीति "जीवा यपोग्गला य'' इत्युक्तम्-(नो संचाए त्ति) न शक्नुवन्ति नाल (बहिय ति) बहिस्तात्-लोकान्तात, अलोकमित्यर्थः। गमनतायैगमनाय, गन्तुमित्यर्थः / गत्यभावेन लोकान्तात् परतस्तेषां गतिलक्षणस्वभावाभावादधो दीपशिखावत्तथा निरुपग्रहतया धर्मास्तिकायाभावेन तजनितगत्युपष्टम्भा भावात् गन्त्र्याऽऽदिरद्दितपमुक्त्, तथा रक्षतया तिकतामुष्टिवत् लोकान्तेषु हि पुरला रुक्षतया तथा परिणमन्ति यथा परतो गमनाय नालं कर्मपुदलाना तथा भावे जीवाअपि सिद्धास्तु निरुपग्रहतया वेति लोकाऽनुभाषनलोकमर्यादया विषयक्षेत्रादन्यत्रा मार्तण्डमडलवादिति। स्था० 4 ठा०६ उ०। (मार्तण्डमण्डल भ्रमन् स्वक्षेत्र एवावतिष्ठत इति राद्धान्तः / अत्र विशेषो 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे "जस्स जओ आइचो (47) इत्यादिगाथाभिर्दर्शितः। नवीनास्तुमार्तण्डमण्डले भ्रमणाभावं कल्पयन्ति) (परमाणुपुद्गलानामन्तरम् 'अंतर' शब्दे प्रथमभागे 78 पृष्ठे गतम्) (द्रव्यक्षेत्रावगाहनाभावस्थानाऽऽयुषां पुद्रलानामल्पबहुत्वम् 'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथम भागे 648 पृष्ठे उक्तम्) (क्षेत्रानुपाताऽऽदिनाऽल्पबहुत्वम् 'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे 646 पृष्ठे उत्तम) अचित्ता अपि पुद्गला अवभासन्त इति 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 448 पृष्ठे उक्तम्) महाकर्मणो यावद् महावेदनस्य सर्वतः पुद्गला वध्यन्ते-- से नणं भंते! महाकम्मस्स महासवस्स महाकिरियस्स महावेयणस्स सव्वओ पोग्गला वज्झंति, सव्वओ पोग्गला चिजंति, सव्वओ पोग्गला उवचिजंति, सया समियं पोग्गला वज्झंति, सया समियं पोग्गला चिजति, सया समियं पोग्गला उवचिजंति, सया समियं च णं तस्स आया दुरूवत्ताएदुवण्णत्ताए दुगंधताए दुरसत्ताए दुफासत्ताए अणिठ्ठत्ताए अकंतअप्पियअसुभअमणुण्णअमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अहिज्झियत्ताए अहत्ताए नो उद्धृत्ताए दुक्खत्ताए, नो सुहत्ताए भुजो मुजो परिणमति? हंता गोयमा! महाकम्मस्स तं चेव / से केणं? गोयमा! से जहानामए वत्थस्स अहतस्स वा धोयस्स वा तंतुगयस्स वा आणुपुव्वीए परिभुजमाणस्स सव्वओ पोग्गलो वज्झंति सव्वओ पोग्गला चिजंति० जाव परिणमंति, से तेणटेणं / से णूणं भंते! अप्पासवस्स अप्पकम्मस्स अप्पकिरियस्स अप्पवेयणस्स सव्वओ पोग्गला मिजंति, सव्वओ पोग्गला छिजंति, सव्वओ पोग्गला विद्धंसंति, सवओ पोग्गला परिविद्धंसंति सया समियं पोग्गला मिजंति, छिचंति, विद्धंसंति, परिविद्धंसंति, सया समियं च णं तस्स आया सुरुवत्ताए पसत्थं नेयव्वं० जाव सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ? हंता गोयमा!० जाव परिणमइसे केणद्वेणं? गोयमा! जहानामए वत्थस्स जल्लियस्स वा पंकियस्स वा मइल्लियस्स वा रतिल्लियस्स वा आणुपुव्वीए परिकम्मिन्ज-माणस्स सुद्धेणं वारिणा धोव्वमाणस्स सव्वभो पोग्गला भिजति जाव परिणमंति, से तेण?णं / (महाकम्मस्सेत्यादि) महाकर्मणः स्थित्याद्यपेक्षया महा Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गल क्रियस्य अलघुकायिक्यादिक्रियस्य महाश्रवस्य बृहन्मिथ्यात्वाऽऽदिकर्मबन्धहेतुकस्य महावेदनस्य महापीडस्य सर्वतः- सर्वासु दिक्षु सर्वान् वा जीवप्रदेशानाश्रित्य बध्यन्ते आसङ्कलनतश्चीयन्ते बन्धनत उपचीयन्ते निषेकरचनतः, अथवा-बध्यन्ते बन्धनतश्चीयन्ते निधत्तत उपचीयन्ते, निकाचनतः / (सया समिय ति) सदासर्वदा सदात्वं च व्यवहारतोऽसातत्येऽपि स्यादित्यत आह-समितं संततं (तस्स आयत्ति) / यस्य जीवस्य पुदला बध्यन्ते तस्याऽऽत्माबाह्याऽऽत्मा शरीरमित्यर्थः / (अणिट्टत्ताए त्ति) इच्छाया अविषयतया। (अकंतत्ताए ति) असुन्दरतया (अप्पियत्ताए त्ति) अप्रेमहेतु तया (असुभत्ताए त्ति) अमङ्गलतयेत्यर्थः / (अमणुन्नत्ताए त्ति) न मनसा भावतो ज्ञायतेसुन्दरोऽयमित्यमनोज्ञस्तद्भावस्तत्ता तया (अणिच्छियत्ताए त्ति) अनीप्सिततया प्राप्सुमवाच्छितत्वेन। (अहिज्झियत्ताए त्ति) भिध्यालोभः, सा संजाता यत्रा स भिध्यितो, न भिध्यितोऽभिध्यितस्तद्भावस्तत्ता तया। (अहत्ताए त्ति) जघन्यतया (नो उड्डत्ताए त्ति) न मुख्यतया / (अहयस्स त्ति) अपरिभुक्तस्य / (धोयस्स ति) प्रक्षालितस्य (तंतुगयस्स व ति) तन्तोस्तुरीवेमाऽऽदेरपनीतमात्रस्य "वज्झंती'' त्यादिता पदायेणेह वस्त्रस्य पुगलानां च यथोत्तरं संबन्धप्रकर्ष उक्तः / (भिजति त्ति) प्रात्कनसम्बन्धविशेषत्यागात् / (विद्धसति ति) ततोऽधः पातात् (परिविद्धसतित्ति) निःशेषतया पातात्। (जल्लियस्सत्ति) यल्लितरययानलगनधर्मोपेतमलयुक्तस्य / (पंकियस्स त्ति) आर्द्रमलोपेतस्य (मइलियस्स त्ति) कठिनमलयुक्तस्य। (रइल्लियस्स त्ति) रजोयुक्तस्य (परिकम्मिन्जमाणस्सत्ति) क्रियमाणशोधनार्थो पकमस्य। भ०६ श० ३उ01 अचिताः पुद्गलाः प्रयोगपरिणताःतिविहा पोग्गला पन्नता। तं जहापओगपरिणया,मीसापरिणया, वीससापरिणया॥ (तिविहा पुग्गलेत्यादि) प्रयोगपरिणताजीवव्यापारेण तथाविधपरिणतिमुपनीता यथा पटाऽऽदिषु कर्माऽऽदिषुया (मीस ति) प्रयोगविश्रसाभ्यां परिणता यथा पटपुद्गला प्रयोगेण पटतया विश्रसा परिणामेण चाभोगेऽपि पुराणतयेति विश्रसास्वभावतस्तत्-परिणता अभेन्द्रधनुरादिवदिति। पुद्गलप्रस्तावा द्विश्रसापरिणतपुद्रलरुपाणाम्। स्था० 3 ठा०३ उ०। ('परिणाम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 602 पृष्ठे उत्कमेतद्भेददर्शककदम्बकम्) (सुरभिगन्धपुदगला दुरभिगन्धपुद्गलतया परिणमन्तीति' परिणाम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उत्कम्) __ सरूपाः सकर्मलेश्याः पुदगला:अस्थि णं भंते? सरूविंसकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति० 4? हंता अस्थि / कयरे भंते! सरुवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति० जाव पभासंति 4? गोयमा! जाइं इमाओ चं दिमसूरियाणं देवाणं विमाणे हिंतो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ पभासेंति, एएणं गोयमा। ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति।। (अत्थि) णमित्यादि (सरूवि त्ति) सह रूपेण मूर्ततया ये ते सरूपिणो वर्णाऽऽदिमन्तः। (सकम्मलेस्म त्ति) पूर्ववत् पुद्गलाः स्कन्धरूपाः / (ओभासंति त्ति) प्रकाशन्ते / (लेस्साओ ति) तेजांसि (बहिया अभिनिस्सडाओ त्ति) वहिस्तादभिनिः सृतानिर्गताः / इह च यद्यपि चन्द्राऽऽदिविमानपुदगला एव पृथिवीकायिकत्वेन सचेतनत्वात् सकर्मलेश्यास्तथापि तन्निर्गतप्रकाशपुद्गलानांत तुकत्येनोपचारात् सकर्मलेश्यात्वमवगन्तव्यामिति। पुद्गलाधिकारादिदमाह नैरयिकाणां कियन्तः पुद्गला आगच्छन्ति णेरइयाणं भंते! किं अत्ता पोग्गला अणत्ता पोग्गला? गोयमा ! णो अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला / असुरकुमाराणं भंते! किं अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला? गोयमा! अत्ता पोग्गला णो अणत्ता पोग्गला, एवं० जाव थणियकुमाराणं / पुढवीकाइयाणं पुच्छा? गोयमा! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता वि पोग्गला, एव-०जाव मणुस्साणं वाणमंतरजोइसियदेमाणियाणं, जहा असुरकुमाराणं / णेरइयाणं भंते! किं इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला? गोयमा! णो इहा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला, जहा अत्ता भणिया एवं इट्ठा वि कंता वि पिया विमणुण्णा वि भाणियव्वा, एवं पंच दंडगा / / (नेरइयाणमित्यादि) (अत्त त्ति) आअभिविधिना त्रायन्ते दुःखात्संरक्षातित सुखं चोत्पादयति इति आत्राः, आप्ता वा एकान्तहिताः, अत एव रमणीया इति वृद्धाः ख्यातम् / एते च मनोज्ञाः प्राग्व्याख्यातास्ते दृश्याः तथा (इद्वेत्यादि) प्राग्वत्। भ०१४ श०६ उ०। जीवः पुद्गली, अपुद्गलो वा ?जीवे णं भंते! किं पोग्गली, पोग्गले?गोयमा! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि। से केणट्ठणं भेतं / एवं बुच्चइजीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि? गोयमा! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं करी, एवामेव गोयमा! जीवे वि सोइंदियचविखंदियघाणिंदियजिभिंदियफासिंदियाइं पडुच्च पोग्गली, जीवं पञ्च पोग्गले, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुचइ-- जीवे पोग्गली वि, पोग्गलं वि। नेरइएणं भंते! किं पोग्गली, पोग्गले? एवं चेवा एवं० जाव वेमाणिए नवरं जस्सजइइंदियाई तस्स तइ भाणियव्वाइं / सिद्धे णं भंते! किं पोग्गली, पोग्गले? गोयमा! नो पोग्गली, पोग्गले / से केणट्टेणं? गोयमा! जीवं पडुच्च, से तेणढेणं एवं बुचइ-सिद्धे णो पोग्गली, पोग्गले / सेवं मंते भंते ति। (जीवे णमित्यादि) (पोग्गली व शि) पुद्गलाः श्रो Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1105 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गल साऽऽदिरूपा विद्यन्ते यस्याऽसौ पुद्गली (पुग्गले वित्ति) पुगल इति संज्ञा जीवस्यततस्तद्योगात्पुद्गल इति। एतदेव दर्शयन्नाह-(से केणेत्यादि) भ०८ श० 10 उ० (जीवाना पापकर्मतया पुद्गलोपचयः पावकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 876 पृष्ठे उक्तः) (देवो बाह्यपुद्गलानादायप्रभुरागन्तुमिति 'गंगदत्त' शब्दे तृतीयभागे 780 पृष्टेऽस्ति) नैरयिकाणा निर्जरापुद्रले आसितुं त्वग्वर्तितु वा कल्पते - णेरझ्याणं भंते! पावे कम्मे जे य कडे एवं चेव एवं० जाव वेमाणियाणं / णेरइया णं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति, तेसि णं भंते! पोग्गलाणं सेयकालंसि कइभागं आहारें ति, कइभागं णिज्जरेंति? मागंदियपुत्ता! असंखेज्जइभागं आहारेंति, अणंतभागं णिज्जरेंति / चक्कियाणं भंते! केइ तेसु णिज्जरापोग्गलेसु आसइत्तए वा० जाव तुयट्टित्तए वा? णो इणट्टे समढे, अणाहारमेयं वुइयं समणाउसो!, एवं० जाव वेमाणियाणं, सेवं भंते भंते त्ति / (णेरइया इत्यादि) (सेयकालंसि ति) एष्यति काले ग्रहणानन्तरमित्यर्थः। (असंखेज्जइभागं आहारिति त्ति) गृहीतपुदलानामसंख्येयभागमाहारीकुर्वन्ति, गृहीतानामेवानन्त भागं निर्जरयन्ति मूत्राऽऽदिवत्यजन्ति / (चक्किय त्ति) शक्नुयात् / (अणाहरणमेयं वुइयं ति) आध्रियते अनेने त्याधरणमाधारस्तन्निषेधोऽनाधरणामधर्तुमक्षमम्, एतन्निर्जरा पुदलजातम् उक्तं जिनैरिति / भ०१८ श०३ उ०। एष पुदलः अतीतोऽनागतः भविष्यश्च - एस णं भंते! पोग्गले तीतमणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तव्यं सिया? हंता गोयमा! एस णं पोग्गले तीतमणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तव्वं सिया? एस णं भंते ! पोग्गले पड़प्पण्णं सासयं भवतीति वत्तव्यं सिया? हंता गोयमा! तं चेव उच्चारेयव्वं / एस णं भंते ! पोग्गले अणागयमणंतं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्बं सिया? हंता गोयमा! तं चेव उच्चारेयव्वं / एवं खंधेण वि तिण्णि आलावगा, एवं जीवेण वि तिणि आलावगा भाणियव्वा। (एस णं भंते! इत्यादि) (पोग्गले त्ति) परमाणुरुत्तरत्र स्कन्धग्रहणात्। (तीतं ति) अतीतम् / इह च "सर्वे ऽध्वभावकालाः''इत्यनेनाऽधारे द्वितीया / ततश्च सर्वस्मिन्नतीत इत्यर्थः / (अणतं त्ति) अपरिमाणमनादित्वात् / (सासयं ति) सदा विद्यमानं, न हि लोकोऽतीतकाले न कदाचिच्छून्य इति (समयं ति) कालम् (भुवि त्ति) अभूत्, इति, एतद्वक्तव्यं स्यात्, सद्भतार्थत्वात् / (पडुप्पणं ति) प्रत्युत्पन्न वर्त्तमानमित्यर्थों वर्तमानस्याऽपि शाश्वतत्वं सदा भावादेवमनागतस्याऽपीति / अनन्तरं स्कन्ध उक्तः स्कन्धश्चस्वप्रदशोऽपेक्षया जीवोऽपि स्यादिति, जीवसूत्राम् / भ० 1 श०४ उ०। (अवशेष विषयम 'पोग्गलत्थिकाय' शब्दे वक्ष्यामि) समयपरिभाषया मांसे, (235 गाथा) विशे० / व्य०। | नि००। 'पोग्गला तिण्णिजलयरं थलयर, खहयरं च / नि० चू०१ उ०। आलम्भिकायां नगा शङखवनस्योद्यानस्याऽदूरसामन्ते परिवसति परिव्राजके, भ०११ 2012 उ०। (पुदलपरिव्राजकवक्तव्यता 'इसिभद्दपुत्त' शब्दे द्वितीयभागे 634 पृष्ठे गता) ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसति त ते णं पोग्गला संतप्पंति, ते णं पोग्गला संतप्पमाण्णा तदणंतराई वाहिराई पोग्गलाई संतवेंतीति / एस णं से समिते तावक्खेत्ते, एगे एवमाहंसु? एगे पुण एवमाहंसु-ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला नो संतप्पंति / ते णं पोग्गला असंतप्पमाणा तदणंत्तराई बाहिराई पोग्गलाई णो संतावेंतीति / एस णं से समिते तावक्खेत्ते, एगे एवमाहंसु 2 / एगे पुण एवमाहंसु-ताजे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसं तिते णं पोग्गला अत्थेगतिया संतप्पंति, अत्थेगतिया णो संतप्पंति, तत्थ अत्थेगइआ संतप्पमाणा तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाई अत्थेगतियाइं संताति, अत्थेगतियाइं णो संतावेतीति / एस णं से समिते तावक्खेत्ते, एगे एवमाहंसु 3 / वयं पुण एवं वदामोताजाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेसाओ उच्छूढाओ अभिणिसट्ठाओ बाहित्ता पता ति, एतासिणं लेसाणं अंत रेसु अएणतरीओ छिण्णलेस्साओ संमुच्छंति, तते णं ताओ छिण्णलेस्साओ संमुच्छियाओ समाणीओ तदणंतराई बाहिराई पोग्गलाइं संतावेंतीति। एस णं से समिते तावक्खेत्ते। (सूत्रा 30) 'ता जेणं' इत्यादि 'ता' इति पूर्ववत्,ये, णमिति वाक्यालङ्कारे, पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति, ते पुद्गलाः सूर्यलेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्तेसन्तापमनुभवन्ति, सन्तप्यन्त इति कर्मकर्तरि प्रयोगः। ते च पुद्गलाः सन्तप्यमानाः तदभन्तरान् तेषां सन्तप्यमानाना पुद्गलानामव्यवधानेन ये स्थिताः पुद्गलास्ते तदनन्तरास्तान् ब्राह्यान पुगलान, सूवे चनपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् / सन्तापयन्ति, इतिशब्दः प्रस्तुतवक्तव्यता परिसमाप्तिसूचकः। एसणं' इत्यादि, एतत् एवं स्वरुपं (से) तस्य सूर्यस्य समितम्-उपपन्नं तापक्षेत्रम्। अत्रोपसंहारमाह-एगे एवमाहसु' 1, एके पुनरेवमाहुः-'ता इति पूर्यवत्,येणमिति प्राग्वत्, पुद्गलाः सूर्यस्यलेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्गलान सन्तप्यन्ते-नसन्तापमनुभवन्ति, यश्च पीठफकाऽऽदीनां सूर्यलेश्यासंस्पृष्टानां सन्ता प उपलभ्यते स तदाऽऽश्रितानां सूर्यलश्यपुद्गलानामेव स्वरूपेण, न पीठफलकाऽऽदिगतानां पुद्गलानामिति न प्रत्यक्षविरोधः। ते, णमिति प्राग्वत्, पुद्गला असन्ताप्यमाना स्तदनन्तराम् बाह्यान् पुद्गलाष सन्तापयन्तिनोष्णीकुर्वन्ति, स्वतस्तेषामसंतप्तत्वात्, इतिशब्दः प्राग्वद् व्यक्तः, 'एस णं' इत्यादि एतत्एवं स्वरूपं 'से' तस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रां समितम्-उपपन्नमिति / अत्रोपसंहारमाह-(एगे एवमाहंसु 2.) एके पुनरेवमाहुः-- 'ता' इति पूर्ववत्, णमिति प्राग्वत् ये पुद्गलाः सूर्यस्त लेश्यां स्पृशन्ति ते पु-- Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गल 1106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलत्थिकाय गला अस्तीति प्राकृतत्वान्निपातत्वाद्वा सन्ति एककाः केचन पुद्गला ये सूर्यलेश्यासंस्पर्शतः सन्तप्यन्ते-सन्तापमनु भवन्ति, तथा सन्त्यककाः केचन पुद्गला ये न सन्तप्यन्ते; तत्र ये सन्त्येककाः सन्तप्यमानास्ते तदनन्तरान् बाह्यान पुगलान् अस्त्येतत् यत् एककान्-कांश्चित्सन्तापयन्ति, अस्त्येद्यदेककान्-कांश्चिन्न सन्तापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववत् 'एसणं' इत्यादि,एतत्-एवंस्वरूपं, 'से' तस्य सूर्यस्य समितम्उपपन्नं तापक्षेत्रम्।अत्रोपसंहारमाह-(एगेएव माहंसु 3) एतास्तिस्त्रोऽपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपास्तथा च एता व्युदस्य भगवान् भिन्नं स्वमतमाह--, 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवंवक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः / तमेव प्रकारमाह-"ता जईए (जाओ इमाओ)"इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, या इमाः प्रत्यक्षत उपलभ्यमानाश्चन्द्रसूर्याणां देवानां सत्केभ्यो विमानेभ्यो लेश्या उच्छूढाः, एतदेव व्याचष्टे अभिनिः सृतास्ताः प्रतापयन्तिवाद्यं यथोचितमाकाशवर्ति प्रकाश्यं प्रकाशयन्ति, एतासां चेत्थं विमानेभ्यो निःसृतानां लेश्यानामन्तरेषुअपान्तरालेष्वन्यतराश्छिन्नलेश्याः सम्मूर्च्छन्ति, ततस्ता मूलच्छिन्ना लेश्या सम्मूर्छिताः सत्यस्तदनन्तरान् बाह्यान् पुद्गलान् सन्तापयन्ति, इतिशब्दः पूर्ववत्, एसणं इत्यादि, एतत्-एवंस्वरूपं, 'से' तम्य सूर्यस्य समितम्-उपपन्न तापक्षेत्रामिति। तदेवं तापक्षेत्रास्य स्वरुपसम्भव उक्तः / सू०प्र०६ पाहु० / (नैरयिकाऽऽदीना कतिविधाः पुद्गला भिद्यन्ते चीयन्ते इत्यादि 'जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1536 पृष्ठे उत्कम्) पोग्गलकायपुं० (पुद्गलकाय) प्राणिशरीरे, “वाउकाएणं फुडं पोग्गलकायं।" स्था०७ ठा०1 पोग्गलक्खेव पुं० (पुद्गलक्षेप) नियन्त्रितक्षेत्रा बहिः स्थितस्य कस्याचिल्लेष्टवाऽऽदिक्षेपणेन स्वकार्यस्मरणे देशावकासि, कद्रतातिचारे, ध० 2 अधि०। पोग्गलजोणिय त्रि० (पुद्गलयोनिक)पुद्गलाः शीताऽऽदिस्पर्शा योनिः येषांते तथा। शीताऽऽदियोनिजनितेषु, भ०१४ श०६ उ०। पोग्गलट्ठियइय त्रि० (पुदलस्थितिक) पुद्गला आयुष्ककर्मपुद्गलाः स्थितितेषां ते तथा। पुद्रलजनितस्थितिकेषु, भ०१४ श०६ उ०। पोग्गलत्थिकाय पुं० (पुद्गलास्तिकाय)। पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, पृषोदराऽऽदित्वादिष्टरूपसिद्धिः / कल्प०१ अधि० 4 क्षण। पुद्गलाः - परमाण्वादयः। अनन्ताणुकरस्कन्धपर्यन्तास्ते हि कुतश्चिद् द्रव्याद्रलन्तिवियुज्यन्ते, द्ग--व्रपूरयन्तीति भावः / ते च तेऽस्तिकायाश्चात समासः। "स्पर्शरस गन्धवर्णशब्दमूर्तिस्वभावकाः। संघातभेदनिष्पन्नाः, (पुद्गला) जिनदेशिताः / / 11 / " इत्युक्तलक्षणेषु द्रव्येषु, आव०४ | अ०। स०। पुद्गलास्तिकायस्य लक्षणानि - पोग्गलस्थिकाए पुच्छा? गोयमा ! पोग्गलत्थिकाए णं जीवाणं | ओरालियवेउध्वियआहारगतेयाकम्मा सोइंदिय चक्खिंदियघाणिजिभिं दियफासिं दियमणजोगवइजो गकायजोगआणापाणाणंच गहणं पवत्तंति,गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए। (पोग्गलत्थिकाए णमित्यादि) इहौदारिकाऽऽदिशरीराणां श्रोत्रेन्द्रियाऽऽदीना मनोयोगान्तानामानप्राणानां च ग्रहणं प्रवर्त्त इति वाक्याऽर्थः / पुद्गलमयत्वादौदारिकाऽऽदीनामिति / भ०१३ श०४ उ०1 पुद्गलास्तिकायस्य पयार्या :पोग्गलत्थिकायस्स णं भंते ! पुच्छा? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पण्णत्ता / तं जहा-पोग्गलेति वा, पोग्गलत्थिकाए ति वा परमाणुपोग्गले ति वा दुपदेसिए ति वा तिपदेसिए ति वा० जाव असंखेजपएसिएति वा अणंतपएसिए ति वा खंधे जे यावण्णे तहप्पगारा सब्वे ते पोग्गलत्थिकायस्स अभिवयणा पण्णत्ता, सेवं भंते ! भंते ति॥ भ०२० श०२ उ०। (एकः पुद्गलास्तिकायः संहत्य स्कन्धो भवति) (पुद्गलानां वर्णगन्धाऽऽदीना 'वण्ण' शब्दे वक्ष्यामि)। पोग्गलत्थिकाए पंचवण्णे पंचरसे दुगंधे अट्ठफासे रूवी अजीवे सासए अवट्ठिए० जाव० दव्वओ णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दव्वाई, खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालाओण कयावि णसि० जाव निचे, भावओ वन्नमंते गंधमते रसमंते फासमंते, गुणओ गहणगुणे / / पुद्गलाास्तिकायश्च तयोस्तौव भावादिति। (गहणगुणे त्ति) ग्रहणम्औदारिकशरीराऽदितया ग्राह्यता. इन्द्रिया ग्राह्यता वा वर्णाऽऽदिमत्वात् परस्परसंबन्धलक्षणं वा तद्गुणो धर्मो यस्य स तथा। स्था० 5 ठा० 3 उ०। (लोकस्य वकस्यां कस्यां दिशि पुद्गलाश्चीयन्ते इति 'दव्य' शब्दे चतुर्थभागे 2464 पृष्ठे उक्तम्) एकः पुद्गलास्तिकायप्रदेश:एगे भंते ! पोग्गलस्थिकायप्पएसे किं दव्वं दव्वदेसे 2, दव्वाई 3, दध्वदेसा 4, उदाहु-दव्वं च दव्वदेसेय 5, उदाहु-दव्वं च दव्वदेसाय 6, उदाहु-दव्वाइंच दव्वदेसे य७. उदाहु-दव्वाई चदव्वदेसाय? गोयमा! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे, नो दव्वाई, नो दव्वदेसा, नो दव्वं च दव्वदेसे य, नो दव्वं च दव्वदेसा य, नो दव्वाइंच दव्वदेसे य, नो दव्वाइंच दव्व, दव्वदेसे पुच्छा? गोयमा! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे, सिय दव्वाइं, सियदव्वदेसा, सिय दवं च दव्वदेसे य, नो दव्वं च दव्वदेसा य, सेसा पडिसेहेयव्वा / तिण्णि भंते! पोग्गलत्थिकायप्पएसा किं दव्वं, दव्वदेसे पुच्छा? गोयमा! सिय दध्वं? सिय दव्वदेसे 2, एवं सत्त भंगा भाणियव्वा० जाव सिय दव्वाइं च दव्वदेसे य, नो दव्वाई च दव्वदेसाय। चत्तारिभंते! पोग्गलत्थिकायप्पएसा, किदव्वं दव्वदेसे पुच्छा? गोयमा! सिय दव्वं, सियदव्वदेसे, अट्ठवि भंगा भाणियव्वा Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलत्थिकाय 1107 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरिणाम 0 जाव सिय दव्वाइं च दव्वदेसा य, जहा चत्तारि भणिया, एवं (तिविहे त्यादि) पुद्गलानामुणवादीनां प्रतिघातः-स्खलनं पुद्रलप्रतिपच छ सत्त० जाव संखेजा असंखेज्जा अणंता। भंते! पोग्गल- घातः, परमाणुश्चासौ पुद्गलश्च परमाणुपुद्गलः, स तद् अनन्तरं प्राप्य स्थिकायप्पएसा किं दव्वं दव्वदेसे य, एवं चेव० जाव सिय प्रतिहन्येतगतेः प्रतिघातमापद्येत रुक्षतया या तथाविधपरिणामान्तदव्वाइं च दव्वदेसा य। रादतितः प्रतिहन्येत लोकान्ते वा परतो धर्मास्तिकायाभावादिति। स्था० (एगे भंते ! पोग्गलत्थिकाए इत्यादि) पुद्गलास्तिकायस्य एकाणु- ३ठा०४ उ01 काऽऽदिपुद्गलराशेः प्रदेशोनिरंसोंऽशः पुद्गला स्तिकायप्रदेशः- | पोग्गलपरिणाम पुं० (पुद्गलपरिणाम) पुद्रलानां पर्यायभूते चतुर्विधे परमाणुः द्रव्यं गुणपर्याययोगि द्रव्यदेशो-द्रव्यावयवः। एवमेकत्वबहुत्वाभ्यां परिणामे, स्थान प्रत्येक विकल्पाश्चत्वारो द्विकसंयोगा अपि चत्वार एवेति प्रश्नः। उत्तरं तु | चउविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते / तं जहा-वण्णपरिणामे, स्याद द्रव्यं द्रव्यान्तरासम्बन्धे सति, स्याद्रव्यदेशो द्रट्यान्तरसम्बन्धे गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे। सति, शेषविकल्पाना तुप्रतिषेधः, परमाणोरेकत्वेन बहुत्वस्य द्विकसंयो- (चउव्विहेत्यादि) परिणामः-अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनं, नच सर्वथा गस्य चाऽभावादिति। (दो भंते! इत्यादि) इहाऽष्टासु भङ्गकेषु मध्ये आद्याः विनाशः। उक्त च-"परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम्। पञ्च भवन्ति, न शेषास्तत्रा द्वौ प्रदेशौ स्याद् द्रव्यं, कथं? यदा तो न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः / / 1 // " इति। तत्रा वर्णस्य द्विप्रदेशिकस्कन्धतया परिणतौ तदा द्रव्यं? यदा तु ह्यणुकस्कन्ध कालाऽऽदेः परिणामोऽन्यथाभवन, वर्णन वा कालाऽऽदिनेतरत्यागेन भावगतावेव तौ द्रव्यान्तरसम्बन्धमुपगतौ तदा द्रव्यदेशः 2, यदा तु तौ पुदलस्य परिणामो, वर्णपरिणामः, एवमन्येऽपि॥६|| स्था० 4 ठा०१ द्वावपि भेदेन व्यवस्थितौ तदा द्रव्ये 3, यदातुतावेव व्यणुकस्कन्धताम- उ०। (इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः 'परिणाम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 602 नापद्य द्रव्यान्तरेण सम्बन्धमुपगतौ तदा द्रव्यदेशौ 4, यदा पुनस्तयोरेकः पृष्ठे गतः) के वलतया स्थितौ, द्वितीयश्च द्रव्यान्तरेण सम्बद्धस्ततो द्रव्यं च नैरयिकाणां यावकैमानिकानामिष्टाऽनिष्टपुद्रलपरिणामःद्रव्यदेशश्चेति पञ्चमः 5 / शेषविकल्पाना तु प्रतिषेधोऽसम्भवा दिति। णेरड्या दसट्ठाणाइं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति। तं जहा अणिट्ठा (तिण्णि भंते! इत्यादि) त्रिषु प्रदेशेष्वष्टमविकल्प वर्जाः सप्त विकल्पाः सदा अणिट्ठा रूवा अणिट्ठा गंधा अणिट्ठा रसा अणिट्ठा फासा सम्भवन्ति / तथाहि यदा ायोऽपि त्रिप्रदेशिकस्कन्धतया परिणता- अणिट्ठा गई अणिट्ठा ठिई अणिढे लावण्णे अणिढे जसो कित्ति स्तदा द्रव्यं?यदा तु ते त्रिप्रदेशिकस्कन्धतापरिणता एव द्रव्यान्तर- अणिढे उट्ठाणकम्मबलवीरियपु रिसक्कारपरक्कमे। असुरकुमारा सम्बन्धमुपगतास्तदा द्रव्यदेशः 2, यदा पुनस्ते त्रयोऽपि भेदेन व्यवस्थिता दस द्वाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। तं जहा-इट्ठा सदा इट्ठा द्वौ वा व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल एवं स्थितस्ततः (दव्वाइं ति३) यदा तु रूवा० जाव इट्ठउहाणे कम्मबलवीरियपुरिसक्कार परक्कमे, एवं० ते त्रयोऽपि स्कन्धतामगता एव द्वौ वा व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल जाव थणियकुमारा / पुढवीकइया छ हाणाई पचणुब्भवमाणा एवमित्येवं द्रव्यान्तरण सम्बद्धास्तदा (दव्वदेसा इति 4) यदा तुतेषां द्वौ विहरंति। तं जहा-इटाणिट्ठफासा इट्टाणिट्ठगई, एवं जाव परक द्वयणुकतया परिणतावेकश्च द्रव्यान्तरेणं सम्बद्धोऽथवा एकः केवल एव में, एवं० जाव वणस्सइकाइया। वेइंदिया सत्त हाणाई पच्च स्थितौ द्वौ तु द्वयणुकतया परिणतस्य द्रव्यान्तरेण सम्बद्धौ तदा (दव्वं च णुब्भवमाणा विहरंति / तं जहा-इट्ठाणिट्ठरसा, सेसं जहा दव्वदेसे यत्ति 5) यदा तु तेषामेकः केवल एव स्थितौ द्वौ च भेदेन एगिदिया / तेइंदिया अट्ठ ट्ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरति / तं द्रव्यान्तरेण सम्बद्धौ तदा (दव्वं च दव्वदेसा स त्ति 6) यदा पुनस्तेषां द्वी जहा–इट्ठाणिद्वगंधा, सेसं जहा बेइंदियाणं। च उरिंदियाणं छ भेदेन स्थितावेकश्च द्रव्यान्तरेण सम्बद्धस्तदा (दव्वाई चदव्वदेसे यत्ति ट्ठाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति। तं जहा-इहाणिहरूवा, सेसा 7) अष्टमविकल्पस्तु न सम्भवति, उभयत्र त्रिषु प्रदेशेषु बहुवचना- जहा तेइंदियाणं। पंचिदियतिरिक्खजोणिया दस हाणाई भावात्ः प्रदेशचतुष्टयाऽऽदौ त्वष्टमोऽपि सम्भवत्युभयत्राऽपि बहुवचन- पचणुब्भवमाणा विहरंति। तं जहा-इट्ठाणिट्ठसद्दा० जाव परक्कमे। सद्भवादिति। भ०८ श० 10 उ० एवं मणुस्सा वि / वाणमंतरजोइ-सियवेमाणिया जहा असुरपोग्गलदव्व न० (पुगलद्रव्य) पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, पुदलाश्च ते कुमारा। द्रव्याणि च तानि पुद्गलद्रव्याणि। दश०१ अ०। तत्रा (अणिट्ठागइ त्ति) अप्रशस्तविहायोगतिनामोदय सम्पाद्या पोग्गलपडियाय पुं० (पुद्गलप्रतिघात) अणवादीनां पुद्गलानां स्खलने नरकगतिरूपा वा (अणिट्ठा ठिइ त्ति) नरकावस्थानारूपा नरकास्था / ऽऽयुष्करूपा वा (अणिढे लावण्णे त्ति) लावण्यं शरीराऽऽकृतिविशेषः। तिविहे पोग्गलपडिघाए पण्णत्ते। तं जहा-परमाणुपोग्गले "अणि8 जसो कित्ति त्ति' प्राकृतत्वादनिष्ठति द्रष्टव्यं, यशसा सर्वदिपरमाणुपोग्गलं पप्प पडिहम्मेजा लुक्खत्ताए वा पडिहम्मेज्जा गामिप्रख्याति रूपेण पराक्रमकृतेन वा सह कीर्तिरेकादिग्गालोगते वा पडिहम्मेजा। मिनी प्रख्यातिनिफलभूता वा; यशः कीर्तिः अनिष्टत्वं च तस्या दुः Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरिणाम 1108 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट प्रख्यातिरूपत्वात (अणिटे उहाणेत्यादि) उत्थानाऽऽदयाषीयन्तिराय- दुदुम्मि समारोहो, भेए उक्केरिया य उक्तरं। क्षयोपशमाऽऽदिजन्यघीर्यविशेषाः, अनिष्टत्वं च तेषां कुत्सितत्वादिति। वीससपओगमीसग-संघायविओगविविहगमो॥२॥" (पुढावेकाइयेत्यादि) (छट्टाणाई ति) पृथिवीकायिकानामेकेन्द्रियत्वेन वर्णपरिणामः पञ्चानां श्वेताऽऽदीना वर्णानां परिणतिस्तद्वयादिपूर्वोत्कदशस्थानकमध्ये शब्दरूपगन्धरसा न विषय इति स्पर्शाऽऽदीन्येव संयोग परिणतिश्च, एतत्स्वरूपं च गाथाभ्योऽवसेयम्। ताश्चेमा :षट् ते प्रत्यनुभवन्ति। (इहाणिहाफास त्ति) सातासातोदयसम्भवाच्छु "जइ कालगमेगगुणं सुक्किलयं पि हविज्ज बहुयगुणं / भाशुभक्षेत्रोत्पत्तिभावाच / (इटाणिटा गइ ति) यद्यपि तेषां स्थावरत्वेन परिणामिज्जइ कालं, सुक्केण गुणाहियगुणेणं // 1 // गमनरुपा गतिर्नाऽस्ति स्वभावतस्तथाऽपिपरप्रत्यया सा भवन्ती शुभाऽ- जइ सुक्किलमेगगुणं, कालगदव्वं तु बहुगुणं जइय। शुभत्वेनेष्टाऽनिष्ट व्यपदेशाहाँ स्याद् / अथवा यद्यपि पापरुषत्वात्ति- परिणामिज्जइ सुळं, कालेण गुणाहियगुणेणं / / 2 / / र्यग्गतिरनिष्टैव स्यात्तथाऽपि ईषत्प्राम्भाराऽप्रतिष्ठानाऽऽदिक्षेत्रोत्पत्ति जइ सुछ एक्कगुणं, कालगदव्वं पि एक्कगुणमेव। द्वारेणेष्टाऽनिष्टा गतिस्तेषां भावनीयेति / एवं जाव परक्क मे त्ति" कावोयं परिणाम, तुल्लगुणत्तेण संभवइ // 3 // वचनादिदं दृश्यम्- "इट्ठाणिहा ट्ठिईसाचगतिवद्भावनीया। (इट्टाणि? एवं पंच विवण्णा, संजोएणतु वण्णपरिणामो। लावण्णे) इदं च मण्यन्धपाषाणा ऽऽदिषु भावनीयम्। (इटाणिढे जसो एकत्तीस भंगा, सव्वेऽवि यते मुणेयव्वा / / 4 / / कित्ती) इयं सत्प्रख्यात्यसत्प्रख्यातिरूपा मण्यादिष्वेवावसे येति / एमेव य परिणामो, गंधाण रसाण तह य फासाणं। (इहाणिडेउढाण० जावपरक्कमेत्ति) उत्थानाऽऽदिच यद्यपि तेषां स्थावर- रांठाणाण य भणिओ, संजोगेण बहुविगप्पो॥५॥ त्वान्नास्ति तथाऽपि प्राग्भवाऽनुभूतोत्थानाऽऽदि संस्कारवशात्तदिष्टम- एकत्रिंशद्भगा एवं पूर्यन्ते-दश द्विकसंयोगाः दश त्रिकसंयोगाः, पञ्च निष्ट चावसेयमिति / (बें दिया सत्तट्ठाणाई ति) शब्दरूपगन्धानां चतुष्कसंयोगाः, एकः पञ्चकसंयोगः, प्रत्येकं वर्णाश्च पञ्चेति। अगुरुतदविषयत्वाद्रसस्पर्शाऽऽदिस्थानानि च, शेषाणि एकेन्द्रियाणामिवेष्टाऽ- लघुपरिणामस्तु परमाणोरारभ्य याव दनन्तानन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः, निष्टाऽवसेयानि, गतिस्तु तेषां नासत्वाद्रमनरुपा द्विविधाऽप्यस्ति, सूक्ष्माः, शब्दपरिणामस्तत विततघनशुषिरभेदाचतुर्दा, तथा ताल्वोष्ठभवगतिस्तूत्पत्तिस्थान विशेषणेष्टाऽनिष्टाऽवसेयेति। भ०१४ श०५ उ01 पुटव्यापाराऽऽद्य भिनिवर्त्यश्च अन्येऽपि च पुगलपरिणामाश्छायाऽऽदयो पुद्रलपरिणाम : भवन्ति। ते चाभीकइविहे णं भंते! पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे "छाया य आयवो वा, उज्जोओ तह य अंधकारो य। पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते / तं जहा-वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, एसो उ पुग्गलाणं, परिणामो फंदणा चेव / / 1 / / रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे। वण्णपरिणामेणं सीया जाइपगासा, छाया णाइच्चिया बहुविगप्पा। भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा- उण्हो पुण प्यगासो, णायव्वो आयवो नाम / / 2 / / कालवण्णपरिणामे० जाव सुकिल्लवण्णपरिणामे / एवं एएणं नवि सीओ न वि उण्हो, समो पगासो य होइ उजोओ। अमिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे, रसपरिणामे पंचविहे, कालं मइल तमं पि य, वियाण त अंधयारं ति॥३॥ फासपरिणामे अट्ठविहे / संठाणपरिणामे णं भंते! कइविहे दब्बस्स चलण पप्फ-दणा उसा पुण गई उ निद्दिट्टा। पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-परिमंडलसंठाण- वीससपओगमीसा, अत्तपरेणं तु उभओऽयि // 4 // " परिणामे०जाव आययसंठाणपरिणामे।। तथाऽभ्रन्द्रधनुर्विद्युदादिषु कार्येषु यानि पुद्गलद्रव्याणि परिणतानि (कइविहे णमित्यादि) (वण्णपरिणामे त्ति) यत्पुवलो पान्तरत्यागा- तद्विस्वसाकरणमिति // 8 // सूत्रा०१ श्रु० 1 अ० 130 / द्वर्णान्तरं यात्यसौ वर्णपरिणाम पत्थेवमन्यत्राऽपि (परिमंडलसंटाणपरि- | पोग्गलपरियट्टपुं० (पुद्गलपरिवर्त) पुदगलानांरूपिद्रव्याणामाहार कवर्जिणाम त्ति) इह परिमण्डल संस्थानं वलयाऽऽकारं, यावत्करणाच- | तानामौदारिकाऽऽदिप्रकारेण गृण्हत एकजीवापेक्षया परिवर्तनंसामस्त्येन "वसंठाणपरिणामे तससंठाणपरिणामे चउरंससंठाणपरिणामे, त्ति'' स्पर्शः पुद्गलपरिवर्तः, स च यावता कालेन भवति इति स कालोऽपि दृश्यम् / भ० 8 श० 10 उ० / पुद्रलद्रव्याणां च दशविधः परिणामः, पुद्गलपरिवर्त्तः / अनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपे कालभेदे, स्था० 3 ठा० तद्यथा-बन्धनगतिसंस्थानभेदवर्णगन्धर सस्पर्शा गुरुलघुशब्दरूप इति / 4 उ०। अनु०। पं० सं०। तत्रा बन्धः स्निग्धरक्षात्वात्, गतिपरिणामो देशान्तप्राप्तिलक्षणः, पुदगलपरावर्त्तप्ररूपणा - संस्थानपरिणामः परिमण्डलाऽऽदिकः पञ्चधा, भेदपरिणामः-खण्ड- रायगिहे० जाव एवं वयासी-दो भंते ! परमाणु पोग्गला प्रतरचूर्णकानुतटिकोत्करिका भेदेन पञ्चधैव / खण्डाऽऽदिस्वरूप- एगयओ साहणं ति, एगयओ साहणित्ता किं भवइ? प्रतिपादक चेदं गाथाद्वयम्। तद्यथा गोयमा! दुपदेसिए खंघे भवइ, से भिज्जमाणे दुहा कज्जइ, "खंडेहिँ खंडभेय, पयरब्भेय जहन्भपडलस्स। एगयओ परमाणुपोग्गले , एगयओ परमाणु पोग्गले भवइ / चुण्ण चुण्णियभेयं, अणुतडियं वंसवक्कलिय॥१॥ तिणि भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणित्तए किं Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट भवइ? गोयमा! तिपदेसिए खंधे भवइ / से मिज्जमाणे दुहा वि खंधे एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 3, तिहा कञ्जमाणे एगयओ तिविहा वि कन्जइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले दो परमाणुपोग्गला एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ, अहवाएगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, तिहा कत्रमाणे तिणि एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ परमाणुपोग्गला भवंति / चत्तारि भंते! परमाणुपोग्गला पुच्छा? चउप्पदेसिए खंधे भवइ 5, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले गोयमा ! चउप्पदेसिए खंधे भवइ, से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति 6, अहवा-एगयओ दो वि चउहा वि कज्जइ, दुहा कञ्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले दुपदेसिया खंधा एगयमो तिपदेसिए खंधे भवइ 7, चउहा एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा-दो दुपदेसिया खंधा कञ्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पएसिए भवंति, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ खंधे भवइ 8, अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए, खंधे भवइ, चउहा कज्जमाणे चत्तारि परमाणुपोग्गला दुपदेसिए खंधे एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा-एगयओ भवंति। पंच भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा? गोयमा! पंचपएसिए / परमाणुपोग्गले एगयओ तिण्णि दुपदेसिया खंधा भवंति 10, खंधे भवइ, से मिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि चउहा वि पंचहा वि पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ कजइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ 11, अहवा- एगयओ तिण्णि परमाणुचउप्पदेसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ पोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति 12, छहा कज्जमाणे तिपदेसिए खंधे भवइ, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपो- एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिएखंधे भवइ,१३ ग्गला एगयओ तिपदेसिए खाधे भवइ / अहवा-एगयओ सत्तहा कन्जमाणे सत्त परमाणुपोग्गला भवंति 14 / अट्ठ परमाणुपोग्गले एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति, चउहा कन्ज परमाणुपोग्गला पुच्छा? गोयमा! अट्ठपदेसिए खंधे भवइ० जाव माणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे दुहा कञ्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ सत्तपदेसिए खंधे भवइ, पंचहा कन्जमाणे परमाणुपोग्गला भवंति / छब्भंते ! / भवइ 1, अहवा-एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, एगयओ परमाणु पुच्छा? गोयमा! छप्पदेसिए खंधे भवइ, से भिञ्जमाणे छप्पएसिए खंधे भवइ 2, अहवा-एगयओ तिपदेसिए खंधे दुहा वि तिहा वि० जाव छट्विहा विकज्जइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ 3, अहवा-दो चउप्पदेसिया एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ पंचपएसिएखंधे भवइ, अहवा- खंधा भवंति 4, तिहा कन्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ, भवंति, एगयओ छप्पदेसिए खंधे भवइ 5, अहवा-एगयओ अहवा-दो तिपदेसिया खंधा भवंति, तिहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ पंचपदेसिए खंधे दो परमाणुपोग्गल एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ, अहवा- भवइ 6, अहवा--एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपदेसिए एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, एगयओ खंधे एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 7, अहवा-एगयओ दो तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा-तिण्णि दुपदेसिया खंधा भवंति, दुपदेसिया खंधा एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 8, अहवाचउहा कञ्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, एगयओ दो तिपदेसियाई तिपदेसिए खंधे भवइ, अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला खं धाइं भवंति , चउहा क जमाणे एगयओ तिण्णि एगयओ दुपदेसिया खंधा भवंति,पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ 10, अहवापरमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, छहा कञ्जमाणे एगयओ दोण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, छ परमाणुपोग्गला भवंति / सत्त भंते! परमाणुपोग्गला पुच्छा? एगयओ चउप्पदेसिए खधे भवइ 11, अहवा-एगयओ दो गोयमा! सत्तपएसिए खंधे भवइ, से मिजमाणे दुहा वि० जाव परमाणुपोग्गला एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति 12, सत्तविहा वि कज्जइ / दुहा कञ्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दो दुपदेसिया खंधा एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ? 1, अथवा-एगयओ दुपदे सिए भवंति, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ 13, अहवा-चत्तारि खंधे एगयओ पंचपएसिएखंधे भवइ२ अहवा एगयओ तिपदेसिए दुपदेसिया खंधा भवंति 14, पंचहा कज्जामाणे एगयओ चत्तारि Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1110 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पदेसिए खंधे मवइ 15, अहवाएगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ। तिपदेसिए खंधे भवइ 16, अहवाएगयओ दो परमाणुपोग्गला | एगयओ तिण्णि दुपदेसिया खंधा भवंति 17, छहा कन्जमाणे एगयओ पंच परमाणु पोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे भवति 18, अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति 16, सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे भवति 20, अट्ठहा | कज्जमाणे अट्ठ परमाणुपोग्गला भवंति 21 ! णव भंते! परमाणुपोग्गला पुच्छा? गोयमा!० जाव णवहा कज्जइ, दुहा कञ्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ, एवं एकेक्कसंचारिएहिं जाव अहवा-एगयओ चउप्पदेसिए खंधे एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवति / , तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ सत्तपएसिएखंधे भवइ 5, अहवाएगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ | छप्पदेसिए. खंधे भवइ 6, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ 7, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दो चउप्पदेसिया खंधा भवंति , अहवा-एगयओ दुपदेसिए एगयओ तिपदेसिए एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 6, अहवा-तिपिण तिपदेसिया खंधा भवंति 10, चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ छप्पएसिए खंधे भवति 11, अहवा-एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ 12, अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 13, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति, एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ, 14, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति 15, अहवा-एगयओ तिण्णि दुपदेसिया खंधा एगयओ तिपदेसिए / खंधे भवति 16, पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ पंचपदेसिए खंघे भवति 17, अहवा-एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवति 18, अहवाएगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गल एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति 16, अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खाधा एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ 20, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ चत्तारि दुपदे सिया खंधा भवंति 21, छहा कन्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 22, अहवा-एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ २३,अहवा-एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ तिणि दुपदेसिया खांधा भवंति 24, सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छपरमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ 25, अहवा-एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंध भवंति 26, अट्ठहा कज्जमाणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ 27, णवहा कन्जमाणे णव परमाणुपोग्गला भवंति 28 / दस भंते! परमाणुपोग्गला पुच्छा? गोयमा ! जाव दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ णवपदेसिए खंधे भवइ 1, अहवाएगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ अट्ठपदेसिए खंधे भवइ 2, एवं एक्के कं संचारेंति० जाव अहवा-दो पंच पदेसिया खंधा भवंति 5, तिहा कन्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ अट्ठपदेसिए खंधे भवइ 6, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ सत्तपदेसिए खंधे भवइ 7, अहवाएगयओ परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ, एगयओ छप्पदेसिए खंधे भवइ 8, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पदेसिए खंधे एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ६, अहवा-एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ पंचयदेसिए खंधे भवइ (5), अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो चउप्पदेसिया खंधा भवंति 6, अहवा-एगयओ दो तिपदेसिया खंधा एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 7, चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ सत्तपदेसिए खंधे भ० 1, अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपेदसिए खंधे एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ 2, अहवाएगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ 3, अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पदेसिया खंधा भवंति 4, अहवा-एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 5, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिण्णि तिपदेसिया खंधा भवंति 6, अहवा-एगयओ तिणि दुपदेसिया खंधा एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 7, अहवा एगयओ दो दुपदेसिया खंधा एगयओ दो तिपदेसिया Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1111 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट खंधा भवंति 8, पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारिपरमाणुपोग्गला एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ 6, अहवाएगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ, एगयओ पंचपदे सिए खंधे भवइ 10, अहवा-एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 3, अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा एगयओ चउप्पदेसिए खंधे भवइ 4, अहवाएगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवंति 5, अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिण्णि दुपदेसिया खंधा एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ 6, अहवा--पंच दुपदेसिया खंधा भवंति 7, छहा कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ 1, अहवा-एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ चउप्पएसिएखंधे भवइ२,अहवा-एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ दो तिपदेसिया खंधा भवन्ति 3, अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा एगयओ तिपदेसिया खंधे भवइ 4, अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ चत्तारि दुपदेसिया खंधा भवंति 5, सत्तहा कञ्जमाणे एगयओछप्परमाणुपोग्गलाएगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ 1, अहवा-एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिएखंधे एगयओ तिपदेसिएखंधे भवइ२, अहवा-एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ तिण्णि दुपदेसिया खंधा भवंति, 3, अट्ठहा कन्जमाणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे भवइ 4, अहवा-एगयओ छ परमाणुपोग्गला एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति ५,णवहा कञ्जमाणे एगयओ अट्ठ परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे भवइ 6, दसहा कञ्जमाणे दस परमाणुपोग्गला भवंति ! संखेज्जा णं भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति एए किं भवंति? गोयमा! संखेज्जपएसिए खंधे भवइ, से भिन्जमाणे दुहा वि० जाव दसहा वि संखेजहा वि कज्जइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ 1, अहवा-एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ 2, अहवा एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ संखेज पएसिए खंधे० 3, एवं० जाव अहवा-एगयओ दसपदेसिए खंधे भवइ, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे, अहवा-दो संखेजपएसिया खांधा भवंति 11 / तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु पोग्गला एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ६, अहवाएगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ संखेन्जपदेसिए खंधे भवइ 2 / अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ 3, एवं जाव अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ 10 / अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दो संखेन्जपएसिया खंाधा 11 / अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति 12 / एवं जाव अहबा-एगयओ दुपदेसिए खाधे एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति 20, अहवा-तिण्णि संखेजपएसिया खंधा भवंति 21, चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ, अहवा--एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ २।अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ तिपदेसिए खंधे एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ 3, एवं० जाव अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओदसपएसिएखंधे एगयओसंखेज्जपएसिएखंधे भवइ 10 / अहवा-एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति 11 / अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो संखेन्जपएसिया खंधा भवंति 12 / एवं० जाव अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति 20 / अहवाएगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिण्णि संखेजपएसिया खंधा भवंति 21 अहवा-एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ तिण्णि संखेजपएसिया खंधा भवंति / एवं० जाव अहवा-एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ तिण्णि संखेज पएसिया खंधा भवंति / एवं एएणं कमेणं पंचसंजोगो विभाणियव्वो० जाव णव संजोगा। दसहा कज्जमाणे एगयओ णव परमाणुपोग्गला एगयओ संखेजपएसिए खंघे भवइ? अहवा-एगयओ अट्ठ परमाणुपोग्गला एगयओ दुपदेसिएएमयओ संखेजपएसिएखंधे भवइ२। एवं एएणं कमेणं एकेको पूरेयव्वो० जाव अहवा-एगयओ दसपएसिए खंधे भवइ, एगयओ णव संखेजपएसिया खंधा भवंति, अहवा-दस संखेजपएसिया खंधा भवंति 11 / संखेज्जहाकज्जमाणे संखेन्ज परमाणुपोग्गला भवंति असंखेज्जहाणं भंते! परमाणुपोग्गलाएगयओ साहणंति एगयओ साहणित्ता किं भवंति? गोयमा! असंखेज्जपएसिए खंधे भवति / से भिज्जमाणे दुहा वि० जाव दसहा वि संखेज्जहा वि Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1112 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट ५१मा असंखेज्जहा वि कज्जइ / दुहा कञ्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ, एवं जाव अहवा-एगयओ दसपएसिए खंधे भवइ, एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ / अहवा-एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवइ 11 / अहवा - दो असंखेजपएसिया खंधा भवंति 12 / तिहाकनमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति? अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपदेसिए एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवति। एवं० जाव अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवइ 10 / अहवा–एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओसंखेञ्जपएसिए खंधे एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ 11 / अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवति / अहवा-एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति 13 / एवं जाव अहवा-एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे एंगयओ दो असंखेज्जपदेसिया खंधा भवंति 22 / अहवा-तिण्णि एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ असंखेजपएसिए खंधे असंखेजपएसिया खंधा भवति 23, चउहा कज्जमाणे भवइ / एवं चउक्कसंजोगो०जाव दसकसंजोगो एवं जहेव असंखेज्जपएसियस्स णवरं असंखेजयं एगं अब्भहियं जाणियव्व जाव अहवा-दस असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति। संखेज्जहा कञ्जमाणे पगयओ संखेज्जा परमाणुपोग्गला एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ / अहवा-एगयओ संखेजा दुपएसिया खंधा एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ, एवं० जाव अहवा-एगयओ संखेज्जा दसपएसिया खंधा एगयओ असंखेजपएसिया खंधा एगयओ असंखेज्जपएसिएखंधे भवइ, अहवा-संखेज्जा असंखेजपएसिया खंधा भवंति। असंखेज्जहा कज्जमाणे असंखेज्जा परमाणुपोग्गला भवंति / अणंता णं भंते! परमाणुपोग्गला जाव किं भवंति? गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवइ, से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि० जाव दसहा वि संखेज्जहा असंखेज्जहा अणंतहा वि कजइ, दुहा कन्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ एवं जाव अहवा दो अणंतपदेसिया खंधा भवंति, तिहा कञ्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ अणंतपए-- सिए खंधे भवइ / अहवा-एगयओ परमाणु पोग्गले एगयओ दुपदेसिए एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ० जाव अहवाएगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ असंखेजपएसिएखंधे एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ / अहवा-एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति, अहवा-एगयओ दुपदेसिए खंधे एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति / एवं जाव एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपदेसिया खंधा भवंति। अहवा-एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति। अहबा-एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपदेसिया खंधा भवंति। अहवा-एगयओ संखेजपदेसिए खंधे एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति / अहवा-तिण्णि अणंतपदेसिया खंधा भवंति 25 / चउहा कजमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ / एवं चउक्कसंजोगो० जाव असंखेजसंजोगो / एए सव्वे जहेव असंखेज्जाणं भणिया तहेव० जाव अणंताण वि भाणियध्वं णवरं एक अणंतगं अब्भाहियं भाणियव्वं जाव अहवा एणयओ संखेज्जा संखेज्जपदेसिया खंधा एगयओ अणंतपदेसिए खंध भवइ / अहवा-एगयओ संखेज्जा अणंतपदेसिए खंधा एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ / अहवा-संखेज्जा अणंतपदेसिया खंधा भवंति / अंसखेजहा कज्जमाणे एगयओ असंखेज्जा परमाणुपोग्गला एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ / अहवाएगयओ असंखेज्जा दुपएसिया खंधा एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ० जाव अहवा एगयओ असंखेजा संखेज्जपएसिया खंधा एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ / अहवा-एगयओ असंखेज्जा असंखेज्जपएसिया खंधा एगयओ अणंतपदेसिए खंधे भवइ / अहवा-एगयओ असंखेजा अणंतपदेसिया खंधा भवंति / अणंतहा कज्जमाणे अणंता परमाणुपोग्गला भवंति 575 / एएसि णं भंते! परमाणुपोग्गलाणां साहणणा-भेदाणुवाएणं अणंताणं पोग्गलपरियट्टाणं अणंताणंता पोग्गलपरियट्टा समणुगंतव्वा भवंतीतिमक्खाया? हंता गोयमा! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणाभेदाणु० जाव मक्खाया। (एगयओ त्ति) एकत्वतः- एकतयेत्यर्थः / (साहण्णति त्ति) संहन्येतेसंहतौ भवत इत्यर्थः / द्विप्रदेशिकस्कन्धस्य भेदे एको विकल्पः, त्रिप्रदेशिकस्य द्वौ, चतुःप्रदेशिकस्य चत्वारः, पञ्चप्रदेशिकस्य षट्, षट्प्रदेशिकस्य दश, सप्तप्रदेशिकस्य चतुर्दश, अष्टप्रदेशिकस्यैकविंशतिः नवप्रदेशिकस्याष्टाविंशतिः, दशप्रदेशिकस्य चत्वारिंशत, सं Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1113 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट ख्यातप्रदेशिकस्य द्विधा भेदे 11 विधा भेदे 21 चतुर्धाभेदे 31 पञ्चधा भेदे 41 षोढात्वे 51 सप्तधात्वे 61 अष्ट धात्वे७१ नवधात्वे८१ दशधात्वे 61 संख्यातभेदत्वे त्वेकएव / विकल्पमेवाऽऽह-(संखेनहा कज्जमाणे संखेजा परमाणुपोग्गला भवंति त्ति) असंख्यातप्रदेशिकस्य तु द्विधाभावे 12 शिधात्वे 23 चतुर्द्धात्वे 34 पञ्चधात्वे 45 षोढात्वे 56 सप्तधात्वे 67 अष्टधात्वे 78 नवधात्वे 56 दशभेदत्वे 100 संख्यातभेदत्वे द्वादश 12 संख्यात भेदकरणे त्वेक एव। तमेवाऽऽह-(असखेज्जा परमाणुपोग्गला भवति त्ति) अनन्तप्रदेशिकस्य तु द्विधात्वे 13 त्रिधात्वे 25 चतुत्वेि 37 पञ्चधात्वे ४६षविधत्वे 61 सप्तधात्वे 85 नवधात्वे 67 दशभेदत्वे 106 संख्यातत्वे 12 असंख्यातत्वे 13 अनन्तभेदकरणे त्वेक एव विकल्पः। तमेव आह -(अणंतहा कज्जमाणे इत्यादि) "दो भंते! परमाणुपोग्गला साहणंति'' इत्यादिना पुद्गलानां प्राक् संहननमुक्तम्-''से भिज्जमाणे दुहा काइ'' इत्यादिनान तेषामुकोऽथतावेवाश्रित्याऽऽह - (एएसि णमित्यादि) एतेषामनन्तरोक्तस्वरुपाणां परमाणुपुद्गलाना, परमाणूनामित्यर्थः / (साहणणाभेदाणुवाएणं ति) 'साहणणं ति" प्राकृतत्वात्संहननंसडातो, भेदश्चवियोजनं, तयोरनुपातो योगः संहववभेदानुपातस्तेन सर्वपुद्गलद्रव्यैः सह परमाणूना संयोगेन वियोगेनचेत्यर्थः। (अणंताणंत त्ति) अनन्तेन गुणिता अनन्ता अनन्तानन्ताः; एकोऽपि हि परमाणुहणुका ऽऽदिभिरनन्ताणुकान्तैर्द्रव्यैः सह संयुज्यमानोऽनन्तान्परित्तान्लभते, प्रतिद्रव्यं परिवर्तभावात्, अनन्तत्वाच्च परमाणूना प्रतिपरमाणु चानन्तत्वात्परिवर्तानां परमाणुपुद्रलपरिवर्ताना मनन्तानन्तत्वं द्रष्टव्यमिति। (पुग्गलपरियट्टत्ति) पुदलैः-पुद्रल द्रव्यैः सह परिवर्त्ताः--परमाणूना मीलनानि पुदलपरिवर्ताः समनुगन्तव्या-अवगन्तव्या भवन्ति इति हेतोराख्याताः-परूपिताः, भगवद्भिरिति गम्यते / मकारश्च प्राकृतशैलीप्रभवः। दण्डकः। अथ पुगलपरावर्तस्यैव भेदाभिधानायाऽऽहकइविहे णं भंते! पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते? गोयमा! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते / तं जहा–ओरालियपोग्गलेपरियट्टे, वेउटिवयपोग्गलपरियट्टे तेयापोग्गलपरियट्टे, कम्मापोग्गलपरियडू, मणपोग्गलपरियट्टे वइपोग्गलपरियट्टे, आणापाणुपोग्गलपरियट्टे। (कइविहे णमित्यादि) (औरालियपोग्गलपरियट्टेत्ति) औदारिकशरीरे वर्तमानेन जीवेन यदौदारिकशरीरप्रायोग्य द्रव्याणामौदारिकशरीरतया सामस्त्येन ग्रहणमसावौदारि कपुगलपरिवर्तः, एवमन्येऽपि। णेरइयाणं भंते! कइविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते? गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते / तं जहा-ओरालियपोग्गलपरियट्टे, वेउव्वियपोग्गलपरियट्टे, ०जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, एवं० जाव वेमाणियाणं / (नेरइयाण त्ति) नारकजीवानाम् अनादौ संसारे संसरतां सप्तविधः पुद्गलपरावतः प्रज्ञप्तः। भ०१२श०४ उ०। तिविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते / तंजहा-अतीते, पडुपन्ने अणागए। स्था०३ ठा०४ उ०। सप्रपञ्चं पुद्रलापरावर्त गाथात्रयेण निरूपयितुकामः प्रथमं तावत्तस्यैव भेदान्, परिमाणं चाऽऽहदव्वे खित्ते काले, भावे चउह दुह बायरो सुहमो। होइ अणंतुस्मप्पिणि -- परिमाणो पुग्गलेपरट्टो !!6! द्रव्ये द्रव्यविषयः, क्षेत्र क्षेत्राविषयः, काले कालविषयः, भावे भावविषयः, इत्थं चतुर्धाचतूरूपः पुद्रलपरावर्तो, भवतीत्युत्तरेण संटडू। पुनरेकैको द्रव्याऽदिको द्विविधो-द्विप्रकारो भवति / द्वैविध्यमाह -- (बायरो सुहुमो त्ति) बादरससूक्ष्मभेदभिन्नः। अयमर्थः-द्रव्यपुद्गलपरावर्तों द्वेधाबादरः, सूक्ष्मश्च / क्षेत्रापुद्रलपरावर्तो द्वधा-बादरः सूक्ष्मश्च / कालपुद्रलपरावर्तो द्वेधा-बादरः, सूक्ष्मश्च / भावपुद्गलपरावर्तो द्वेधा-वादरः, सूक्ष्मश्च / कियत्काल प्रमाणः पुनरयमेकैक इत्याह-(होइ अणतुस्सप्पिणिपरिमाणो त्ति) भवति-जायते, उत्सर्पन्ति प्रतिसमयं कालप्रमाणं जन्तूनां शरीराऽऽयुः प्रमाणाऽऽदिकमपेक्ष्य वृद्धिमनु भवन्तीत्युत्सर्पिण्यः, ततोऽनन्ता उत्सर्पिण्यः, उपलक्षणत्वादवसर्पन्ति प्रतिसमयं कालप्रमाणं जन्तूनां शरीराऽऽयुः प्रमाणाऽऽदिकमपेक्ष्य हानिमनु भवन्तीत्यवसपिण्यः, परिमाणं यस्य सोऽनन्तोऽसर्पिण्यवसर्पिणीपरिमाणः पूरणगलनधर्माणाः पुगलाः, तेषां पुगलनां चतुर्दशरजवात्मकलोकवर्ति-समस्तपरमाणूनां परावर्त औदारिकाऽऽदि शरीरातया गृहीत्वा मोचनं यस्मिन् कालविशेष स पुद्रलपरावर्तः / यद्यपि क्षेत्राऽऽदिविषयस्य पुद्गलपरावर्तरुपोऽन्यर्थो न घटा प्राञ्चति, तथाऽप्यन्यथा ब्युत्पादितस्याऽपिशब्दस्याऽन्यथागोशब्दवत् प्रवृत्तिदर्शनात्समयप्रसिद्धमर्थ विषयीकरोतीति न कश्चिद्दोष इति॥८६| द्रव्यपुद्गलपरावर्तो बादरः सूक्ष्मश्च भवतीत्युक्तम्। अतः क्रमप्राप्त बादरसूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्तस्वरूपंप्ररूपयन्नाहउरलाइसत्तगेणं, एगजिओ मुयइ फुसिय सव्वअणू / जत्तियकालि स थूलो, दव्वे सुहुमो सगन्नयरा॥१७॥ सूचकत्वात्सूत्रस्य औदारिकाऽऽदिसप्तकावेन औदारिक परमाणूनौदारिकशरीरतया, आदिशब्दाद्वैक्रियपरमाणून वैक्रियशरीरतया, तैजसपर - माणूस्तैजसशरीरातया, कार्मण परमाणन् कार्मणशरीरतया, भाषापरमाणून भाषात्वेन, प्राणापान परमाणून प्राणपानतया, मनोवर्गणा परमाणून मनस्त्वन। न पुनराहाकशरीरमप्यत्र ग्राह्य, कादाचित्कत्वात्तल्ला भस्येति। स्पृष्ट्वा परिणमथ्य तथा परिणामं नीत्वा एकजीवोविवक्षितैकसत्वो मुञ्चतित्यजति सर्वाणूश्चतुदशरज्ज्वात्मक वर्तिसमस्तपरमाणून। (जत्तियकालि त्ति) यावता कालेन विभक्तिव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात्, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-"व्यत्ययोऽप्यासामिति / स इत्थं पुद्रलस्पर्शमानेनोपमितः कालविशेषः स्थूलो बादरः (दवि ति) द्रव्यपुद्गलपरावर्तो भवतीति प्रक्रमः / इह किल संसारकान्तारे पर्यटन्नेकजीवोऽनेकैर्भवग्रहणैः सकललोकवर्तिनः सर्वानपि पुद्गलाम्यावता कालेन औदारिकशरीरवैक्रियशरीरतैजस शरीरभाषाप्राणापानमनः काम मा Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1114 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट णशरीरलक्षणपदार्थसप्तकभावेन यथास्व परिणमय्य मुञ्चति स | तावत्प्रमाणः कालो द्रव्यतो बादरः पुद्रलपरावर्तो भवतीति तात्पर्यम् / इत्यभिहितो बादरो द्रव्यपुद्गलपरावर्तः / इदानीं सूक्ष्मद्रव्यपुद्रलपरावर्तमाह-(सुहुमो सगन्नयर त्ति) सूक्ष्मो द्रव्यपुरलपरावर्तो भवतीति सम्बन्धः / कथमित्याह-सप्तकान्यतरस्मात्-सप्तकान्यतरेण, विभक्तिव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात्। इदमत्रा हृदयम् सप्तानामौदारिकवैक्रिय तैजसभाषा प्राणापानमनः कार्मणमध्यादन्यतरेण पुनरेकेन केनचिदौदारिकादिना पूर्वप्रदर्शितप्रकारेण सकललोकवर्तिपुद्रलाना स्पशने औदारिकाऽऽदिशरीरतया गृहीत्वा मोचने सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्ता भवति / विवक्षितभेदा विशेषैः षड् भिर्भेदैः परिणमिता अपि न गृह्यन्त इति / एके त्वाचार्य एवं द्रव्यपुदगलपरावर्तस्वरूप प्रतिपादयन्ति / तथाहि-यदैको जीवोऽने कैर्भव ग्रहणैरोदारिकशरीरवैक्रियशरीर तैजसशरीरकार्मणशरीरच तुष्टयरुपतया यथास्वं सकललोकवर्तिनः सर्वान् पुगलान परिणमय्य मुञ्चतितदा बादरो द्रव्यपुदलपरावर्तो भवति। यदा पुनरौदारिकाऽऽदिचतुष्टयमध्यादेकेन केनचिच्छरीरेण सर्वपुदगलान् परिणमय्य मुञ्चति शेषशरीरपरिणमितास्तु पुदला न गृह्यन्ते एव तदा सूक्ष्मो द्रव्यपुरलपरावर्तो भवतीति॥८७॥ उक्तो द्वेधाऽपि द्रव्यपुद्रलपरावर्तः। सम्प्रति क्षेत्राकालभावपुद्गलपरावर्तान् बादर - सूक्ष्मभेदभिन्नान्निरूपयन्नाह - लोगपएसोसप्पिणि-समया अणुभागवंधठाणा य जह तह कममरणेणं, पुट्ठा खित्ताइ थूलियरा // 8 // लोकस्य-चतुर्दशरज्जवात्मक क्षेत्रखण्डस्य प्रदेशानिर्विभागा भागा लोकप्रदेशाः / तथोत्सर्पिणीशब्देनावसर्पिण्य प्युपलक्ष्यते, दिनग्रहणे रात्र्युपलक्षणवत्, तयोः समयाः परमनिकृष्टकालविशेषा उत्सर्पिपिण्यवसर्पिणीसमयाः, समयस्वरुपं च पट्टशाटिकापाटनदृष्टान्तादुत्पलपत्रशत भेदोदाहरणा चावसेयम्। ततो लोकप्रदेशाश्चोत्सर्पिण्यवसर्पिणी समयाश्चेति द्वन्द्वः। तथाऽनुभागस्यरसस्य बन्धो बन्धनं तस्य निमित्तभूतानि अनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानीत्यर्थः / चः समुच्चये। ततश्चैते प्रत्येकं त्रयोऽपि पदार्था यदा मरणशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धाद्यथा तथा मरणेनक्रमोत्क्रमाभ्यां प्राणपरित्यागलक्षणेन स्पृष्टाव्याप्ता भवन्ति तदा (खित्ताइथूत्ति) क्षेत्रपुद्गलवपरावर्तकाल पुगलपरावर्तभावपुद्रलपरावर्ताः स्थूलाबादरा भवन्ति। यदा पुनस्त एव लोकाऽऽकाशप्रदेशा उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमया अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि चेति प्रत्येक त्रयोऽपि पदार्थाः क्रममरणेन पूर्वस्पृष्टाऽऽकाशप्रदेशाऽऽ दिभ्योऽव्यवधानतः प्राणपरित्यागलक्षणेन स्पृष्टा भवन्ति तदा क्षेत्रपुद्गलपरावर्तकालपुगल परावर्तभावपुद्रलपरावर्ताः (इयर त्ति) इतरेसूक्ष्मा भवन्तीति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थः पुनरयम्-यदाऽनन्तभवभ्रमणशीलो जन्तुरनन्तरेषुव्यवहितेषु चापरापराऽऽकाशप्रदेशेषु नियमाणः सर्वानपि चतुर्दशपरावती भवति, नवर यष्वपरप्रदेश वृद्धिरहितेषु पूर्वावगाढेष्वेव नमःप्रदे शेषु मृतस्तेन गण्यन्तेऽपूर्वास्तुदूरव्यवहिता अपि स्पृष्टा गण्यन्त एवेति। कालतस्तु यदोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयेषु सर्वेष्वपि क्रमेणोत्क्रमेण चानन्तानन्तैर्भवैरेको जन्तुम॒तो भवति तदा बादरकालपुनलपरावर्ता भवति, केवलं येषु समयेष्वेकदा मृतोऽन्यदाऽपि यदि तेष्वेव समयेषु म्रियते तदा ते नगण्यन्ते, यदा पुनरेकद्वितीयाऽऽदिसमयक्रममुल्लङ्यापि अपूर्वेषु समयेषु मियते तदा ते व्यवहिता अपि समया गण्यन्त इति / भावतः पुरलपरावर्त उच्यते-अनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानि मन्दप्रवृद्धप्रत्तराऽऽदिभेदेनाऽसंख्येयानि वर्तन्ते, एतेषां चासंख्येयत्वप्रमाणमुत्तरत्रा वक्ष्यामः। ततो यदैकेकस्मिन्ननुभाग बन्धाध्य वसायस्थाने क्रमेणोत्क्रमेण य नियमाणिन जन्तुनाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशमियमाणेन जन्तुनाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेश प्रामाणानि सर्वाण्यपि तानि स्पृष्टानि भवन्ति तदा बादरो भावपुद्गलपरावर्तो भवति; अत्राऽपि यदध्यवसायस्थानमे कदा मरणेन स्पृष्ट त देवान्यदाऽपि यदि स्पृशति तदा तन्न गण्यते, अपूर्व तु दूरव्यवहितमपि स्पृष्ट गण्यत एवेति भाविता बादराः क्षेत्रपुद्रलपरावर्तकालपुद्गल परावर्तभावपुद्रलपरावर्ताः / साम्प्रतमेत एव सूक्ष्मा भाव्यन्ते-इह येष्वा काशप्रदेशेष्ववगाढो जन्तुरेकदा मृतस्तेभ्योऽनन्तरव्यवस्थितेष्वेव नमःप्रदेशेष्वन्यदाऽपि यदि मियतेऽपरस्यां वेलायां तेषामप्यनन्त व्यवस्थितेष्वाकाशप्रदेशेष्वन्यस्यां वेलायाम् तेषामप्यनन्तरव्यवस्थितेष्वाकाशप्रदेशेष्वन्यस्यांतुवेलायाम् तेषामप्यनन्तरेष्वन्येष्वेवं तावन्नेयं यावदित्थमपरापरेषु नैरन्तर्यव्यवस्थितेषु नभःप्रदेशेषु क्रमेण नियमाणो जन्तुः सर्वानपि लोकाऽऽकाशप्रदेशान् स्पृशति, ये चापरप्रदेशवृद्धिरहिताः पूर्वावगाढा एव दूरव्यवस्थिता वाऽऽकाशप्रदेशा मरणेन स्पृष्टास्ते च न गण्यन्ते तदा सूक्ष्मः क्षेत्रपुद्गलपरा-वर्त इति / पञ्चसंग्रहाशास्त्रे तु सूक्ष्मबादरभेदतो द्विविधोऽपि क्षेत्रापुद्गल-परावर्तः इत्थं व्याख्यातः-यथा-चतुर्दशरज्जवात्मकलोकस्य सर्वप्रदेशेषु प्रत्येक यावता कालेनैकजीवो मृतो भवति / कोऽर्थः?यावन्तो लोकाऽऽकाशप्रदेशास्ते प्रदेशे प्रदेशे क्रमोत्क्रमाभ्यां मरणं कुर्वाणेन यदा सर्वे व्याप्ता भवन्ति तदा बादरः क्षेत्रापुद्गल परावर्तः, सूक्ष्मस्तुयावता कालेन प्रथमप्रदेशानुवद्धप्रदेशक्रमेण मृतो भवति, कोऽर्थः?-- यत्राऽऽकाशप्रदेशे मृतस्तदनन्तरप्रदेशक्रमेण यदा सर्वेऽपि लोकाऽऽकाशप्रदेशा मरणेन व्याप्तां भवन्ति तदाऽसौ भवति, व्यवहितेषु च मरणं न गण्यते। यद्यपि जीवस्यैकप्रदेशेऽवस्थानमेव नास्ति तथाऽपि जीवावगाहनावस्थानानां प्राधान्येनैकः परिकप्यते, तस्माद्गणनाप्रवृत्तिः, अमुना च प्रकारेण प्रभूतकालख्यापनं कृतं भवतीति / सूक्ष्मस्तु कालपुद्गलपरावर्तस्तदा भवति यदोत्सर्पिण्या अवसर्पिण्या वा प्रथमसमये कश्चिन्मृतस्ततः पुनरपि समयोनविंशतिकोटीकोटी भिरतिक्रान्ताभिर्भूयोऽपि स एव जन्तुः कालान्तरेण तस्या एव द्वितीयसमये म्रियते पुनरपि कदाचित्तथैव ताभिरतिक्रान्ताभिस्तस्याएव तृतीयसमये, एवं चतुर्थपञ्चमषष्ठाऽऽदिसमयक्रमणानन्तानन्तैर्भवैर्यावत्सर्वेऽऽप्युत्सर्पिण्यवसर्पिण्योविंशतिसाग...... .141: या मरणाच्याता भवान्ताय तु प्रथमाऽ5दिसमयक्रममुल्लडण्य व्यवहितसमयाः पूर्वस्पृष्टा वा मरणेनव्याप्तास्ते तु Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट न गृह्यन्त एवेति / सूक्ष्मो भावपुद्रलपरावर्त उच्यते--इहकिलाऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि बध्यमानकर्मपुद्गलेषु ताद्दशाऽनुभागपलिच्छेदनिर्वर्तकानि असंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाणानि मन्दप्रवृद्धप्रवृद्धतराऽऽदिभेदतो वर्तन्ते, तत्र च सर्वस्तोकानुभागपलिच्छेदजनके कषायोदये वर्तमानः कश्चिजन्तुम॒तः, ततः कदाचित पुनरपि तस्मादनन्तरव्यवास्थते द्वितीयेऽनुभागबन्धावसायस्थाने विशेषाधिकाऽनुभागपलिच्छेदजनके वर्तमानो मृतः पुनरपितस्मात् कदाचिद्विशेषाऽधिकाऽनुभागपलिच्छेदजनके तृतीये, एवं क्रमेण क्रमेण विशेषाधिकाऽनुभागपलिच्छेद जनकाऽध्यवसायस्थानकेषु वर्तमानस्य मरणं तावद्वाच्य यावत्सर्वोत्कृष्टाऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थाने म्रियमाणेन जन्तु नाऽनन्तानन्तैमरणैः सर्वाण्यपि स्पृष्टानि भवन्तीति व्यवहितानि पूर्वस्पृष्टानि च न गण्यन्त इति // 18 // व्याख्यातं सप्रपञ्चं पुद्गलपंरावर्तस्वरुपम्। कर्म०५ कर्म०। पोग्गलेपरियट्टो इह, दवाइ चउव्विहो मुणेयव्यो। एकेको पुण दुविहो, बायरसुहुमत्तमेएणं // 35 / / इहास्मिन्-पारमेश्वरे प्रवचने पुद्रलपरावर्तो द्रव्याऽऽदितो द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतश्चतुर्विधः-चतुःप्रकारो ज्ञातव्यः। तद्यथा-द्रव्यपुगलरावर्तः, क्षेत्रपुद्रलपरावर्त्तः, कालपुद्गलपरावतः, भावपुगलपरावर्त्तश्च / 'मुणेयव्यो' इत्यत्र "ज्ञोजाणमुणौ" ||847 / / इति प्राकृतलक्षणाज्जानातेमुण इत्यादेशः, पुनरप्येकैकः पुद्रलपरावर्तो बादरसूक्ष्मत्यभेदेन द्विधा--द्विप्रकारः, तद्यथा-बादरः, सूक्ष्मश्च // 35 // तत्रा बादर-सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्तावाहसंसारम्मि अडतो, जावय कालेण फुसिय सव्वाणू। इगु जीवु मुयइ बायर, अन्नयरतणुहिओ सुहुमो // 36 // संसरन्ति प्राणिनोऽस्मिन्निति संसारः-चतुर्दशरज्जवात्मक क्षेत्र, तस्मिन् संसारे अटन-परिभ्रमन्नेको जीवः सकलेऽपि संसारे ये केचन परमाणवस्तान् सनिपि यावता कालेन स्पृष्ट्वा मुञ्चति-औदारिकादिरुपतया परिभुज्य परिभुज्य परित्यजति, तावान् कालविशेषो बादरद्रव्य पुद्रलपरावर्त्तः / किमुक्तं भवति?यावता कालेनैकेन जीवेन सर्वे ऽपि जगदर्तिनः परमाणवो यथायोगमौदारिकवैक्रिय तैजसकार्मणभाषाप्राणपानमनस्त्वेन परिभुज्य परित्यक्ता स्तावान् कालविशेषो बादरद्रव्यपुद्रलपरावर्त्तः। सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्त्तमाह - (अन्नयरतणुडिओ सुहुमो) औदारिकाऽऽदीनां शरीराणामन्यत-मस्यां तनौशरीरे स्थितः सन् यावता कालेनैको जीवः संसारं परिभमन् सर्वानप्यणून स्पृष्ट्वापरिभुज्य मुञ्चति, तावान् कालविशेषः सूक्ष्मद्रव्यपुद्रलपरावतः / इयमत्रा भावना-यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाऽऽकाशभाविनः परमाणव औदारिकाऽऽद्यन्यतमैक विवक्षितशरीररुपतया परिभुज्य निष्ठां नीयन्ते, तावान् कालविशेषः सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्त्तः, पुद्रलानां परमाणूनामौदारिकाऽऽदिरुपतया विवक्षितैकशरीररुपतया वा सामस्त्येन परावर्तः-परिणमनं यावति काले सतावान् कालः पुदलपरा वर्त्तः, इदं च शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तम्, अनेन च व्युत्पत्ति निमित्तेन स्वैकार्थसमवायिप्रवृत्तिनिमित्त मनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणी मानत्वरूपं लक्ष्यते, तेन क्षेत्रापुद्रलपरवाऽऽदौ पुगल परावर्तनाऽभावेऽपि प्रवृत्तिनिमित्तस्याऽनन्तोत्सार्पिण्यव सर्पिणीमानत्वरूपस्य विद्यमानत्वात्पुदलपरावर्त्तशब्दः प्रवर्त्तमानो न विरुद्धयते / यथा गोशब्दः पूर्व गमने व्युत्पादितः, तेन च गमनेनव्युत्पत्तिनिमित्तेन स्वैकार्थसमवायिखुरक कुदलाडगूल सारस्रऽऽदिमत्वरूपं प्रवृतिनिमित्तमुपलक्ष्यते, ततो गमनरहितेऽपि गोपिण्डे प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावाद्गोशब्दः प्रवत्तते इति। अस्मिश्च सूक्ष्मे द्रव्यपुरलपरावर्ते विवक्षितेकशरीरव्यतिरेकेणाऽन्यशरीरतया ये परिभुज्य परिभुज्य परित्यज्यन्ते ते न गण्यन्ते, किं तु प्रभूतेऽपि काले गते सति विवक्षितैशरीररुपतया परिणम्यन्ते, ते एव गण्यन्ते। तदेवमुक्तः सूक्ष्मबादरभेदभिन्नो द्रव्यपुद्गलपरावर्त्तः॥३६॥ सम्प्रति बादर-सूक्ष्मभेदभिन्न क्षेत्रपुद्गलपरावर्त्तमाह -- लोगस्स पएसेसु, अणंतरपरंपराविभत्तीहिं। खेत्तम्मि बायरो सो, सुहुमो उ अणंतरमयस्स // 37 // लोकस्यचतुर्दशरज्ज्वात्मकस्याऽनन्तरपरम्परा विभक्तिभ्याम्, अनन्तरप्रकारेण परम्पराप्रकारेण च, सर्वेषु प्रदेशेष्वेकस्य जीवस्य मृतस्य यावान कालविशेषो भवति, स तावान् क्षेत्राविषयो बादरपुद्गलपरावतः। किमुकं भवति? यावता कालेनैकेन जीवेन क्रमेणोत्क्रमेण वा यत्र तत्र म्रियमाणेन सर्वेऽपि लोकाऽऽकाशप्रदेशा भरणसंस्पृष्टाः क्रियन्ते, स तावान्कालविशेषः क्षेत्र बादरपुद्गलपरावर्त्तः। ___सम्प्रति क्षेत्रसूक्ष्मपुद्रलपरावर्त्तमाह'सुहुमोउ अणंतरमयस्स' चतुर्दशरजवात्मकस्य लोकस्य सर्वेषु प्रदेशेष्वनन्तरमृतस्यैकस्य जीवस्य यावान् कालविशेषः स तावान् सूक्ष्मः-सूक्ष्मक्षेत्रपुद्गलपरावर्तो भवति। इयमा भावना-यद्यपिजीवस्याऽवगाहना जघन्याऽपि असंख्येयप्रदेशाऽऽत्मिका भवति, तथाऽपि विवक्षिते कस्मिंश्चिद्देशे नियमाणस्य विवक्षितः कश्चिदेकः प्रदेशोऽवधिभूतो विवक्ष्यते, ततस्तस्मात्प्रदेशादन्यत्र देशान्तरे ये नमः प्रदेशामरणेनाऽवाप्यन्ते, ते न गण्यन्ते, किं त्वनन्तेऽपि काले गते सति विवक्षितात्प्रदेशादनन्तरो यः प्रदेशो मरणेन व्याप्तो भवति, सगण्यते,तस्मादप्यनन्तरो यः प्रदेशो मरणेन व्याप्तः स गण्यते / एवमानन्तर्य्यपरम्परया यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाऽऽकाशप्रदेशा मरणेन स्पृष्टा भवन्ति, तावत्कालविशेषः सूक्ष्मक्षेत्रपुद्रलपरावर्त्तः, उक्तो बादरसूक्ष्मभेदभिन्नः क्षेत्रापुद्गलपरावर्तः।।३७ / / सम्प्रति बादर-सूक्ष्मभेदभिन्नं कालपुद्गलपरावर्तमाह -- उस्सप्पिणिसमएसुं, अणंतरपरंपराविभत्तीहिं। कालम्मि बायरो सो, सुहुमो उ अणंतरमयस्स॥३८॥ इहोत्सर्पिणीग्रहणेनाऽवसर्पिण्यप्युपलक्ष्यते। ततोऽयमर्थः-उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयेषु सर्वेष्वपि अनन्तरपरम्पराविभक्तिभ्याम्अनन्तरप्रकारेण परम्पराप्रकारेण च मृतस्ययावान् कालो भवति, तावान् बादरः कालपुद्गलपरा मर्त्तः / एतदुक्तं भवति-यावता कालनैको जीवः सर्वा Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट नप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयान् क्रमेणोत्क्र मेण वा मरणेन व्याप्तान करोति, तावान्कालविशेषो बादरपुद्रलपरावर्त्तः / सूक्ष्मकालपुरलपरावर्त्तमाह(सुहुमो उ अणंतरमयस्स) समस्तेष्वप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणी समयेष्वनन्तरमृतस्य, उत्सर्पिणीप्रथमसमयादारभ्य, ततः परं क्रमेण मृतस्यैकस्य जीवस्य यावान् कालविशेषो भवति, तावान् सूक्ष्मः-सूक्ष्मकालपुद्गलपरावतः / अत्राऽपीयं भावनाइहोत्सर्पिणीप्रथमसमये कश्चिजीवो मृत्युमुपागतः ततो यदि समयोनविंशतिसागरोपमकोटी मिरत्तिकान्ताभिभूयोऽपि स एव जन्तुरुत्सर्पिणीद्वितीय समये म्रियते, तदा स द्वितीयः समयो मरणस्पृष्टो गण्यते, शेषारूतु समया मरणस्पृष्टा अपि सन्तो न गण्यन्ते। यदि पुनस्तस्मिन्नुत्सर्पिणी द्वितीयसमये न म्रियते, किन्तु समयान्तरे, तदा सोऽपिन गृह्यते; किं त्वनन्ता स्वप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु गतासु यदोत्सर्पिणीद्वितीय समये एव मरिष्यति तदा समयोगण्यते। एवमानन्तर्यप्रकारेण यावता कालेन सर्वेऽप्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमया मरणव्याप्ता भवन्ति, तावान् कालविशेषः सूक्ष्मकालपुद्रलपरावर्त्तः, उत्को बादरसूक्ष्मभेदभिन्नः कालपुद्रलपरावतः॥३८॥ साम्प्रतं बादर-सूक्ष्मभेदभिन्नं भावपुद्गलपरावर्त्तमाहअणुमागट्ठाणसु, अणंतरपरपराविभत्तीहिं। भावम्मि बायरो सो, सुहुमो सव्वेसणुक्कमसो // 36 // इहानुभागस्थानानि कर्मप्रकृतिसंग्रहाधिकारे बन्धनकरणे अनुभागबन्धविचारे "एकज्झुवसायसमजियस्स दलियस्स किं रसो तुल्लो?" इत्यादिना ग्रन्थेन स्वयमेव वक्ष्यति, तानि चाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि तेषां चानुभाग स्थानानां निष्पादका ये कषायोदयरूपा अध्यवसायविशेषास्तेऽप्यनुभागस्थानामित्युच्यन्ते, कारणे कार्योपचारात् / ते चाऽप्यनुभागबन्धाध्यवसाया असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेश प्रमाणाः / सम्प्रत्यक्षरयोजना-अनुभागस्थानेषु अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानेषु असख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणेषु सर्वेष्वपि यावता कालनैको जीवोऽनन्तरपररम्परारुपे ये विभक्तीविभागौ. ताभ्यामानन्तयेण पारम्पर्येण चेत्यर्थः। मृतो भवति, तावान् कालविशेषो बादरभावपुरलपरावर्त्तः / किमुक्तं भवति? यावता कालेन क्रमेणोत्क्रमेण वा सर्वेष्व, प्यनुभागबन्धा ऽध्यवसायस्थानेषु वर्तमानो मृतो भवति तावत्कालो बादरभावपुद्गलपरावतः। ___ सूक्ष्म भावपुद्गलपरावर्त्तमाह - (सुहमो सव्वेसणुक्कमसो) सर्वेष्वनुभागबन्धाऽध्यवसा यस्थानेष्वनुक्रमशः-परिपत्या यावता कालेन मृतो भवति, तावत्कालः सूक्ष्मः- / सूक्ष्मभावपुगलपरावतः / इयमत्रा भावना कश्चिदज्जन्तुः सर्वजघन्ये कषायोदयरुपे अध्यवसाये वर्तमानो मृतः, ततो यदि स एव जन्तुरनन्तेऽपि काले गते सति प्रथमादनन्तरे द्वितीयेऽध्यवसायस्थाने वर्तमाने मियते, तन्मरणं गण्यते, न शेषाण्युत्क्रमभावीन्यनतान्यपि मरणानि / ततः कालान्तरे भूयोऽपि यदि द्वितीयस्मादनन्तरे तृतीये ऽभ्यवसायस्थाने वर्तमानो म्रियते, तदा तृतीयं मरणं गण्यते। न शेषाण्यपान्तरालभावीन्यनन्तान्यपि मरणानि। एवं क्रमेण सर्वाण्यप्यनुभागबन्धाऽध्यवसाय - स्थानानि यावता कालेन मरणेन स्पृष्टानि भवन्ति, तावान् कालविशेषः सूक्ष्मभावपुद्रलपरावर्त्तः / इह सर्वाऽपि बादरपुद्रलपरावर्तप्ररूपणा पिनेयानां सूक्ष्मपुद्रलपरावर्तप्ररुपणा सुखाधिगातिनिमित्तं कृता, न हि कोऽपि बादरपुद्रलपरावर्त्तः कचिदपि सिद्धान्त प्रदेशे प्रयोजनवानुपलक्ष्यते, केवल तस्मिन्प्ररूपिते सति सूक्ष्मपुद्रलपरावर्त्तः प्ररुप्यमाणो विनयैः सुखेनाऽधिगम्यते, इति तत्प्ररूपणा क्रियते। तथा इह चतुणामपि सूक्ष्मपुदल परावर्तानां परमार्थतो न कश्चिद्विशेषः, तथाऽपि जीवाभिगमाऽऽदौ पुद्रलपरावतः क्षेत्रतो बाहुल्येन गृहीतः, क्षेत्रात मार्गणायां तस्योपादानात् / तथा च तत्सूत्रम्-"जं से साइए सपज्जवसिए मिच्छादिट्ठी से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण्ण अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अवहं पोग्गलपरियट्ट देसूणं / " इत्यादि / तत इहाऽपि पुद्रलपरावर्तग्रहणे क्षेत्रापुट्रलपरावर्तो ग्राहा इति !! पं० सं०२ द्वार। एगमेगस्स णं भंते! जेरइयस्स केवइया ओरालियपोग्गल परियट्टा अतीता? गोयमा! अणंता / केवइया पुरुक्खडा? गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि जहणणे क्को वा दो या तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / एगमेगस्स णं भंते? असुरकुमारस्स केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा? एवं चेव। एवं० जाव वेमाणियस्स। एगमेगस्सणं भंते ! णेरइयस्स केवइया वेउव्वियपोग्गलपरियट्टा अतीता? गोयमा ! अणंता, एवं जहेव ओरालियपोग्गलपरियट्टा तहेव वेउब्वियपोग्गलपरियट्टा भाणियव्वा, एवं० जाव वेमाणियस्स, एवं० जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टा, एए एगइया सत्त दंडगा भवंति। णेरयाणं भंते! केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता, गोयमा ! अणंता। केवइया पुरक्खडा? अणंता, एवं० जाव वेमाणियाणं, एवं वेउव्वियपोग्गलपरियट्टा वि, एवं० जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टा वि० जाव वेमाणि याणं, एवं एए पोहत्तिया सत्त चउव्वीसदंडगा। एगमेगस्स णं भंते! जेरइयस्स णेरइयत्ते केवइया ओरालिया पोग्गलपरियट्टा अतीता? णत्थि एक्को वि। केवइया पुरक्खडा? नत्थि एक्को वि। एगमेगस्स णं भंते! णेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया ओरालियपोग्गलपरियथा? एवं चेव / एवं० जाव थणियकुमारत्ते जहा असुरकुमारत्ते / एगमेगस्सणं भंते! णेरझ्यस्स पुढविकाइयत्ते केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता? अणंता / के वइया पुरक्खडा? कस्सइ अस्थि, कस्सइणत्थि, जस्सत्थिजहण्णेणं एको वा दोवा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवं० जाव मणुस्सत्ते, वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्ते Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1117 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट जहा असुरकुमारत्ते / एगमेगस्स णं भंते! असुरकुमारस्स चातीतानागतकालसंवन्धिनि (एगुत्तरिया० जाव अणता व त्ति) अनेनेदं णेग्इयत्ते केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा? एवं जहा णेरइ- सूचितम-करसइ अत्थि, कस्सइनस्थि, जस्सऽस्थि तस्स जहण्णेण यस्स वत्तव्वया भणिया तहा असुरकुमारस्स वि भाणियव्वा० एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा अणता वत्ति / एवं जत्थ जाव वेमाणियत्ते, एवं जाव थणियकुमारस्स / एवं पुढविका- येउब्वियसरीरंतत्थ एगुत्तरिउत्ति। यत्र वायुकार्य मनुष्यपञ्चेन्द्रयतिर्यक्षु इयस्स वि, एवं० जाव वेमाणियस्स / सव्वेसि एको गमओ / व्यन्तरादिषु च वैक्रिय शरीरं तौकी वेत्यादिवाच्यमित्यर्थः / (जत्थ एगमेगस्स णं भंते! णेरझ्यस्स णेरइयत्ते केवइया वेउव्वियपो- नत्थीत्यादि) यत्राऽप्कायाऽऽदौ नास्ति वैक्रिय तत्र यथा पृथिवीकाग्गलपरियट्टा अतीता? अणंता / केवइया पुरक्खडा? एगुत्त- यिकत्वे तथा वाच्यं, न सन्ति वैक्रियपुद्गलपरावर्ता इति वाच्यमित्यर्थः। रिया० जाव अणंता वा / एवं ०जाव थणियकुमारत्ते / (तेयापोग्गलेत्यादि) तैजसकार्मणपुद्रलपरावर्ता भविष्यन्त एकाऽऽदयः पुढवीकाइयत्ते पुच्छा? णत्थि एक्को वि। केवइया पुरक्खाडा? सर्वेषु नारकाऽऽदिजीवपदेषु पूर्ववद्वाच्याः, तैजसकार्मणयोः सर्वेषु णत्थि एक्को वि, एवं जत्थ वेउव्वियसरीरं अत्थि तत्थ एगुत्तरि- भावादिति। (मणपोग्गलेत्यादि) मनःपुद्गलपरावर्ताः पञ्चन्द्रियेष्वेव याओ, जत्थ णत्थि तत्थ जहा पुढविकाइयत्ते तहा भाणियव्वं० सन्ति, भविष्यन्तश्च ते एकोतरिकाः पूर्ववद्वाच्याः। (विगलिन्दिएसु नत्थि जाव वेमाणियस्म वेमाणियत्ते, तेयापोग्गलपरियट्टा कम्मापो- त्ति) विकलेन्द्रियग्रहणेन चैकन्द्रिया अपि ग्राह्याः, तेषामपीन्द्रियाणा ग्गलपरियट्टा सव्वत्थ एगुत्तरिया भाणियव्वा, मणपोग्गलपरियट्टा मरांपूर्णत्वान्मनोवृत्तेश्चाऽभावादतस्तेष्वपि मनः पुदलपरावर्तान सन्ति सटवेसु पंचिं दिएसु एगुत्तरिया, विगलिं दिएसु णत्थि, (वइपुग्गलपरियट्टा एवं चेव त्ति) तेजसाऽऽदिपरिवर्त्त वत्सर्वनारकावइपोग्गलपरियट्टा एवं चेव, णवरं एगिदिएसु णत्थि, भाणियव्वा, ऽऽदिजीवपदेषु वाच्याः, नवरमेकेन्द्रियेषु वचनाभावान्न सन्तीति वाच्याः / आणापाणुपोग्गलपरियट्टा सव्वत्थ एगुत्तरिया, एवं ०जाय 'नेरइयाण" इत्यादिना पृथक्त्वदण्डकानाह - 'जाव वेमाणियाणं' वेमाणियस्स वेमाणियत्ते / णेरइयाणं भंते / णेरइयत्ते केवइया इत्यादिना पर्यन्तिमदण्डको दर्शितः। ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता? णत्थिा केवइया पुरक्खडा? अथौदारिकाऽऽदिपुद्रलपरावर्तानां स्वरुपमुपदर्शयितुमाह - णत्थि एको वि, एवं जाव थणियकुमारत्ते / पुढविकाइयत्ते से केणऽढेणं भंते! एवं वुच्चइ-ओगलियपोग्गलपरियट्टे, पुच्छा? अणंता / केवइया पुरक्खडा? अणंता, एवं० जाव ओरालियपोग्गलपरियट्टे? गोयमा! जं णं जीवेणं ओरालिय - मणुस्सत्ते वाणमंतरजोइसिय वेमाणियत्ते जहाणेरइयत्ते, एवं० सरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपाउग्गाई दव्वाइं ओरालियसत्त वि पोग्गलपरियट्टा भाणियव्वा, जत्थ अत्थि तत्थ अतीता सरीरत्ताए गहियाई वद्धाइं पुट्ठाई कडाई पट्ठवियाई निविट्ठाई वि, पुरक्खडा विअणंता माणियव्वा, जस्स णत्थि तस्स दो वि अभिणिविट्ठाई अभिसमण्णागयाइं परियागयाइं परिणामियाई पत्थि भाणियव्वा, जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते केवइया णिजिण्णाई णिसिरियाई निसिट्ठाई भवंति,से तेणद्वेऽणं गोयमा! आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अतीता? अणंता, केवइया पुर- एवं वुचइ--ओरालियपोग्गलपरियट्टे ओरालियपोग्गलपरियट्टे, क्खडा? अणंता। एवं वेउवियपोग्गलपरियट्टे वि, णवरं वेउव्वियसरीरे वट्टमाणेणं एगमेगस्सेत्यादि) अतीता अनन्ता अनादित्वात् अतीतकालस्स वेउव्वियसरीरपाउग्गाई, सेसं तं चेव / एवं० जाव आणापाणुजीवस्य चानादित्वात् अपरापरपुरलग्रहण स्वरुपत्वाचेति। (पुरक्खडे पोग्गलपरियडेवि, णवरं आणापाणुपाओग्गाइंसव्वदव्वाइं आणाति) पुरस्कृता भविष्यन्ति। (कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि त्ति) कस्यापि पाणुत्ताए सेसं तं चेव। जीवस्य दूरभव्याऽभव्यस्य वा ते सन्ति कस्यापि न सन्ति, उद्धत्य या (से केणऽढणमित्यादि) (गहियाई ति) स्वीकृतानि (बद्धाई ति) मानुष त्यमासाद्य सिद्धिं यास्यति संख्येयैरसंख्येयैर्वा भवैर्यास्यतियः जीवप्रदेशैरात्मीकरणात् / कुत इत्याह-(पुट्ठाई ति) यतः पूर्वं स्पृष्टानि, सिद्धिं तस्यापि परिवृत्तो नास्त्यनन्तकालपूर्वत्वात् (तररोत्ति) (एगत्तिय | तनौ रेणुवत्, अथवा-पुष्टानिपोषितन्यपरा परग्रहणतः / (कडाई ति) दि) एचिका एकनारकाऽऽद्याश्रिताः / (सत्त ति) औदारिकाऽऽदि- पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि। (पट्ठवियाईति) प्रस्थापितासप्तविधपुद्गलविषयत्वात् सप्तदण्डका श्चतुर्विशतिदण्डका भवन्ति / निस्थिरीकृतानि जीवेन। (निविट्ठाइंति) यतः स्थापितानि ततो निविष्टानि एकत्वपृथक्त्यदण्डकानां चायं विशेषः-एकत्वदण्डकेषु पुरस्कृतपुद्गलप- जीव स्वयम् (अभिनिविट्ठाई ति) अविधिना निविष्टानि, सर्वाण्यपि जीवे रावर्ताः कस्यापिन सन्त्यपि बहुत्वदण्डकेषु तुते सन्ति जीवसामान्या- स्वआइनीत्यर्थः / (अभिसमन्नागयाइं ति) अभिषिधिना सर्वाणीत्यर्थः / ऽऽश्रयणादिति। (एगमेगस्सेत्यादिनत्थि एको वित्ति) नारकत्वं वर्तमान- समन्वागतानिसंप्राप्तानि जीवन रसानुभूतिं समाश्रित्य (परियाइयाई ति) स्यौदारिकपुद्गलग्रहणाभावादिति। (एगमेगरसणं भते! नेरइयस्स असुर- पर्याप्तानिजीवेन सर्वाव यवरात्तानि तद्रसाऽऽदानद्वारेणं / (परिणाकुमारत्ते इत्यादि) इह च नैरयिकस्य वर्तमानकालीनस्य असुरकुमारत्वे | मियाइं ति) रसानुभूतित एव परिणामान्तरमापादित्तानि / (निजिण्णाई) Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोग्गलपरियट्ट 1118 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोग्गलपरियट्ट ति)। क्षीण्णरसीकृतानि / (निसिरियाई) जीवप्रदेशभ्यो निःसृतानि। नन्तगुणता न प्राणपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालस्येति, ततो मनःपुद्गलकथम् ?(निसिट्ठाई ति) जीवेन निसृष्टानिस्वप्रदेशास्त्याजितानि / परिवर्त्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणः, कथं, यद्यप्यानप्राणपुगलेभ्यो मनःइहाऽऽद्यानि चत्वारि पदानि औदारिकपुरलानां ग्रहणविषयाणि तदुत्त- पुद्रला सूक्ष्मा बहुप्रदेशाश्वेत्यल्पकालेन तेषां ग्रहणं भवति तथाऽप्येराणि तुपञ्चस्थितिविषयाणि, तदुत्तराणि तु चत्वारि विगमविषयाणीति। केन्द्रिया ऽऽदिकायस्थितिवशान्मनसश्चिरेण लाभान्मानसपुदलपरिअथपुद्रलपरावर्तानां निर्वर्तनकाल तदल्पबहुत्वं च द वर्तो बहुकालसाध्य इत्यनन्तगुण उक्तः, ततोऽपि वाकपुद्गलपरिवर्तशयन्नाह निवर्त्तनाकालोऽनन्तगुणः, कथं, यद्यपि मनसः सकाशादाषा शीघ्रतरं ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते ! केवइयं कालं णिव्वत्तिज्जइ? | लभ्यते द्वीन्द्रियाऽऽद्यवस्थायां च भवति तथाऽपि मनोद्रव्येभ्यो भाषागोयमा ! अणंताहिं उस्सप्पिणीआ सप्पिणीहिं एवइयकालस्स द्रव्याणामतिस्थूतमया स्तोकानामेवैकदा ग्रहणात्ततोऽनन्तगुणो वाकपुद्रणिव्वत्तिजइ / एवं वेउव्वियपोग्गलपारयट्टे वि, एवं० जाव लपरिवर्त्तनिवर्तनाकाल इति, ततोऽपि वैक्रियपुगल परिवर्त्तनि-वर्तानाआणापाणुपोग्गलपरियट्टे वि। एयस्स णं भंते! ओरालिपोग्गल- कालोऽनन्तगुणो वैक्रियशरीरस्याति बहुकाललभ्यत्वादिति। परियट्टणिव्वत्तणाकालस्स वेउवियपोग्गलजाव आणा पुद्गलपरिवर्तानामेवाल्पबहुत्वं दर्शयन्नाहपाणुपोग्गलपरियट्टणिव्वत्तणाकालस्स कयरे कयरेहिंतोजाव एएसि णं मंते ! ओरालियपोग्गल परियट्टाणं जाव आणाविसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे कम्मगपोग्गलपरियट्ट पाणुपोग्गलपरियट्टाण य कयरे केयरहितो० जाव विसेसाहिया णिव्वत्तणाकाले, तेयापोग्गलपरियट्टणिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, वा? गोयमा! सव्वत्थोवा वेउव्वियपोग्गलपरियट्टा वइपोग्गल ओरालियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, आणापाणु- परियट्टा अणंतगुणा, मणपोग्गल परियट्टा अणंतगुणा०जाव पोग्गलपरियट्ट णिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, मणपोग्गलपरियट्ट- आणापाणुपोग्गलापरियट्टा अणंतगुणा, ओरालियपोग्गलणिव्वत्त (ट्ट) णाकाले अणंतगुणे, वइपोग्गलपरियट्टणिव्वत्त- परियट्टा अणंतगुणा, तेयापोग्गलोपरियट्टा अणंतगुणा, कम्माणाकाले अणंतगुणे, वेउव्विय पोग्गल परियट्टणिव्वत्तणाकाले पोग्गलपरियट्ट अणंतगुणाः, सेवं भंते! त्ति भगवं जाव० विहरइ। अणंतगुणे। (एएसि णमित्यादि) सर्वस्तोका वैक्रियपुगलपरिवर्त्ता बहुकमकालनि(ओरालिएत्यादि) (केवइयकालस्स त्ति) कियता कालेन निर्वय॑ते। वर्तनीयत्वात्तेषा, ततोऽनन्तगुणा वाग्विषया अल्पतरकालनिर्वय॑त्वादेवं (अणताहिं उसप्पिणीओसप्पिणीहिं ति) एकस्य जीवस्य ग्राहकत्वात् पूर्वोत्कयुक्त्या बहुबहुतराः क्रमेणान्येऽपि वाच्या इति। भ०१२ 204 पुद्गलाना चानन्तत्वात् पूर्वगृहीतानां च ग्रहणस्यागण्यमानत्वादनन्ता उ०। आचा०। महा०। पञ्चा०। कर्म० / यो० वि० / स्था० अवसर्पिण्य इत्यादि सुष्ठूत्कमिति। (सव्वत्थोवे कम्मगपोग्गलेत्यादि) | पोग्गलपरिसाडपुं० (पुद्गलपरिशाट) पुद्गलानां परिशटनकरणप्रेरणे. (64 सर्वस्तोकः कार्मणपुद्रलपरिवर्त निर्वर्तनाकालः, तेहि सूक्ष्मा बहुतमपर- | गाथा) क० प्र०२ प्रक०। माणुनिष्पान्नश्च भवन्ति, ततस्ते सकृदपि बहवो गृह्यन्ते, सर्वेषु च | पोग्गलपेल्लण न० (पुद्गलप्रेरण) पुद्गलाः-परमाणवस्तत्सङ्गातसमुद्भावनारकाऽऽदिपदेषु वर्त्तमानस्य जीवस्य तेऽनुसमयं ग्रहणमायान्तीति | बादरपरिणाम प्राप्ता लोष्टाऽऽदयोऽपि तेषां प्रेरणं क्षेपणम्। देशावकाशिस्वल्पकालेनापि तत्सकलपुद्रलग्रहणं भवतीति। ततस्तैजसपुगलपरिवर्त। कव्रतस्य पञ्चमेऽतिचारे, ध०२ अधि०। निर्वत्तनाकालोऽनन्तगुणो, यतः स्थूलत्वेन तेजसपुद्रलाना मल्पानामे- | पोग्गलविवागिणी स्त्री० (पुद्रलविपाकिनी) पुदलविषये विपाकः-फलदाकदा ग्रहणम्, एकदाग्रहणे चाल्पप्रदेशनिष्पन्नत्वेन तेषामल्पानामेव नाभिमुख्यं पुद्रलविपाकः, स विद्यते यासां ताः पुगलविपाकिन्यः / तदणूनां भ्रहणं भवत्यतोऽनन्तगुणोऽसाविति तत औदरिकपुद्रलपरिवर्त, पुदलविषयकफलप्रदानाभिमुग्वासु कर्म प्रकृतिषु, पं० स०३ द्वार। (ताश्च विर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणो, यत औदारिकपुरला अतिस्थूराः, स्थूराणां षड्विंशतिः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 268 पृष्ठे दर्शिताः) चाल्पानामेवैकदा ग्रहणं भवति, अल्पतरप्रदेशाश्चते ततस्ततहणेऽप्ये- पोग्गलायण न० (पुद्रलायन) कौत्सगोत्रीपुगलनामार्ण्य पत्थे स्था०७ कदाऽल्पा एवाणवो गृह्यन्ते, नच कार्मणतैजसपुगलबत्तेषां सर्वपदेषु ग्रहण ठा०। मस्त्यौदारिकशरीदिणामेव तद्ग्रहणादतो बृहत्तैव कालेन तेषां ग्रहणमिति पोग्गलि(ण) पुं० (पुद्रलिन) पुद्गलाः-श्रोत्राऽऽदिरुपा विद्यन्ते यस्य य तत आनप्राणपुदलपरिवर्तनिवर्त्तना कालोऽनन्तगुणो, यद्यपि हि पुद्गली। श्रोत्राऽऽदिरुपपुदलशालिनि, 'जीवेणं भंते! पोग्गली पोग्गले।" औदारिकपुरलेभ्य आनप्राणपुद्रलाः सूक्ष्माः बहुप्रदेशिकाश्चेति तेषाम- भ० 8 श०१० उ०। ल्पकालेन ग्रहणं सम्भवति, तथाऽप्वपर्याप्तकावस्थायां तेषामग्रहणात् | पोग्गलिय त्रि० (पौद्रलिक) पुद्रलाऽऽत्मके पुद्गलस्वरुपग्राहिणि, अष्ट० पर्याप्तकावस्थायामप्यौदारिकशरीरपुद्रलापेक्षया तेषामल्पीयसामेव | 16 अष्ट० 1 शाल्योदने, पिं०। ग्रहणात् न शीघ्रतद्गहणमित्यौदारिकपुदलपरिवर्त्त निवर्त्तनाकालाद- पोच (देशी) सुकुमारे, दे० ना०६ वर्ग 60 गाथा। Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोचड 1116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोट्टसालग पोचड त्रि० (पोचड) असारे, ज्ञा० 1 श्रु० 3 अ० / मलिने, मि० चू० 11 वयवप्रधाना, एता विद्या गृहाण परिव्राजकमथिन्य इति गाथाऽर्थः / / उ० / विलीने, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। ''रयहरणं च से अभिमंतेउं दिण्णं, जइ अन्नं पि उढेइ, तो रयहरणं पोट्ट न० (पोट्ट) देशी उदरे, आ० क०१ अ० दे०ना० / आ० म०। आ० भमाडिज्जासि, तो अजेयो होहिसि, इंदेणाऽवि सक्किहिसि नो जेतुं, ताहे चु० जठरे, उपा० 2 अ०! ताओ विजाओ गहाय गओ सभं, भणियं चाऽणेणएस किं जाणति?, पोट्टलिय पुं० (पोट्टलिक) पोट्टलिकावाहके, नि० चू०१६ उ०। एयस्स चेव पुव्वपक्खो होउ, परिवाओ चिंतेइएए निउणा तो एयाण चेव पोट्टलिया स्त्री० (पोट्टलिका) पोटली इति ख्याते वस्तुकम्बलाऽऽदिमये सिद्धतं गेण्हामि, जहा मम दो रासी, त जहा-जीवाय, अजीवा या ताहे वेष्टनके, भ०१श०६ उ०। इयरेण चिंतियं एतेण अम्ह चेव सितो गहिओ, तेण तस्स बुद्धिं परिभूय पोट्टसालग पुं० (पोट्टशालक) लोह पट्टबद्धपोट्टजम्यूवृक्षशाला योगाच तिन्नि रासी ठविया-जीवा, अजीवा, नोजीवा। तत्थ जीवा संसारत्था, पोट्टशालकः / जीवाजीवराशिदयप्ररुपके नोजीवा, ख्यतृतीयराशिस्था अजीवा घडाऽऽदि, नोजीवा घिरोलियाछिन्नपुच्छाई, दिलुतो दंडो, जहा पकगोष्ठामाहिलेन पराजिते परिव्राजक विशेषे, स्था० 7 ठा० / दंडस्स आदि मज्झ अग्गं च, एवं सव्वे भावा तिविहा, एवं सो तेण "इहान्तरजिकापुर्यो , बलश्रीरभवन्नृपः। निप्पट्टपसिणवागरणो कओ, ताहे सो परिष्वायओ रुट्ठो विच्छुए मुयइ, तत्र भूतगुहोद्याने, तस्थुः श्रीगुप्तसूरयः।।१।। ताहे सो तेसिं पडिवक्खे मोरे मुयइ, ताहे तेहिं हएहिं विछिएहिं पच्छा तच्छिाग्यो रोहगुप्ताऽऽख्यो, ग्रामेऽन्यत्र स्थितोऽभवत्। सप्पे मुयइं. इयरो तेसिं पडिघाए नउले मुयइ, ताहे उंदरे तेसिं मजारे, समागच्छत्युपाचार्ये, सच प्रायेण वन्दितुम / / 2 / / मिए तेसिं वग्घे, ताहे सूयरे तेसिं सीहे, काके तेसिं उलूगे, ताहे पोयागी परिवाट वादिराट् कोऽपि, तत्राऽऽयातः कुतोऽपि हि। मुयइ, तेसिं ओलाई, एवं जाहे न तरइ ताहे गद्दभी मुका, तेण य सा पोट्टे बध्वाऽयसः पट्ट, जम्बूशालां करेऽवहन् / / 3 / / रयहरणेण आहया, सा परिवायगस्स उवरि छरित्ता गया, ताहे सो परिवायगो हीलिजंतो निच्छूढो, ततो सा परिव्वायगं पराजिणित्ता गओ पृष्टः किमेतदूचेऽथ, पोट्ट स्फुटति विद्यया। बद्धस्ततोऽयसः पट्टो, जम्बूशाला च मत्करे।।४।। आयरियसगासं, आलोएइ-जहा जिओ एवं, आयरिया आह- कीस तए उहिएण न भणियं?-नस्थित्ति तिन्नि रासी, एयस्स मए बुद्धिं परिभूय जम्बूद्वीपसमस्तेऽपि, समानः कोऽपि नास्ति मे। पणणविया, इयाणि पि गंतु भणाहि-सो नेच्छइ, मा मे ओहावणा हो उ पटहं वादयामास, स गर्वाद्वादिनः प्रति / / 5 / / त्ति, पुणो पुणो भणिओ भणइ-को वा पत्थ दोसो? जइ तिन्नि रासी पोट्टे पट्टः करे शाला, पोट्टशालोऽय सोऽभवत्। भणिया, अस्थि चेव तिन्नि रासी, आयरिया आह - अजो! असदभावो, वारितो रोहगुप्तेन, पटहस्तस्य वाद्यहम्।।६।। तित्थगरस्स आसायणा य, तहा वि न पडिवज्जइ, ततो सो आयरिएण गुरुणां स तदाचख्यौ, गुरवोऽप्यस्ततः। समं वायं लग्गो, ताहे आयरिया राउल गया भणंति-तेण मम सिस्रोण न भव्य विदधे वत्स! यतोऽसौ विद्यया बली // 7 // अवसिद्धंतो भणिओ। अम्हं दुवे चेव रासी, इयाणिं सो विप्पडिवन्नो, तो वादे पराजितोऽप्येष, विद्यया युध्यतेऽधिकम्।" तुब्भे अम्हं वायं सुणेह पडिस्सुयं राइणा, ततो तेसिं रायसभाए रायपुरओ आo h01 अ०1 आव, डियं, जहेगदिवसं उट्ठाय 2 छम्मासा गया, ताहे राया भणइ-मम तस्स इमाओ सत्त विजाओ, तं जहा, भाष्यगाथा रजं अवसीदति, ताहे आयरिएहिं भणिय-इच्छाइ मए एचिरं कालं विच्छुय सप्पे मूसग, मियी वराही य कायपोआई। धारिओ, एत्ताहे पासह कल्लं दिवसं आगए निगिण्हामि, ताहे पभाए एयाहिं विजाहिं, सो उ परिव्वायओ कुसलो / / 137 // भणइ-कुत्तियावणे परिक्खिज्जउ, तत्थ सव्वदव्वाणि अस्थि, आणेइजीवे तत्रा वृश्चिकेति वृश्चिकप्रधाना विद्या गृह्यते, सर्पति सर्पप्रधाना 'मूसग' अजीवे नो जीवे य, ताहे देवयाए जीवा आजीवा य दिएणा, नोजीवा त्ति मूषकप्रधाना, तथा मृगी नाम विद्या मृगीरूपेणोपघातकारिणी, एवं नस्थि, एवमादि चोयालसएणं पुच्छाणं निग्गहिओ।" वाराही च, 'कागपोत्ति त्ति' काकविद्या, पोतकीविद्या च, पोताक्यः अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह भाष्यकार :शकुनिका भण्यन्ते, एतासु विद्यासु एताभिर्वा विद्याभिः स परिव्राजकः सिरिगुत्तेणऽवि छलुगो, छम्मासे कविऊण वाये जिओ। कुशल इति गाथाऽर्थः। आहरणकुत्तियावण, चोयालसएण पुच्छाणं / / 136 / / सो भणइ- किं सका एताहे निलुक्किउं? ततो सो आयरिएण भणिओ- निगदसिद्धा, 'नवरं चोयालसयं-तेण रोहेण छम्मूलपयत्था पढियसिद्धाउ इमाउ सत्तप गहिया, तं जहां-दव्वगुणकम्मसामन्नविसेसा छट्टओ य समवाओ, डियक्खविजाओ गेण्ह, तं जहा। भाष्यगाथा - तत्थ दव्वं नवहा, तं जहा-भूमी उदयं जलणो पवणो आगासं मोरी नउलि विराली, वग्घी सीही उलूगि ओवाई। कालो दिसा अप्पओ मणोय त्ति, गुणा सत्तरस, तं जहा-रुवं एयाओ विजाओ, गेण्ह परिवायमहणीओ।।१३८ / / रसो गंधो फासो संखा परिमाणं पहत्तं संओगो विभागो परापरत्तं मोरी नकुली बिराली व्याघ्री सिंही च उलूकी ('ओवाई' त्ति) ओला- | वुझी। सुहं दुक्खं इच्छा दोसो पयत्तो य, कम्मं पंचधा-उक्खे - Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोट्टसालग 1120 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोतय जं०। वर्ण अवक्खेवणं आउंचणं पसारणं गमणं च, सामण्णं तिविह-महासा- नान्यद्भग्रहणं षष्ठं श्रूयते भगवत इत्येतदेव षष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं, मण्ण१ सत्तासामण्ण त्रिपदार्थसबुद्धिकारि 2 सामण्णविसेसो द्रव्यत्वा- यस्माच भवग्रहणदिदं षष्ठ, तदप्येतस्मात् षष्ठमेवेति सुष्ठूच्यते, तीर्थकरऽऽदि३। अन्ये त्वेवं व्याख्यानयन्तित्रिपदार्थसत्कारी सत्ता, सामण्ण- भवग्रहणात्षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति। सं०१ सम०। हस्तिनापुरे भद्रायां द्रव्यत्वा ऽऽदि, सामन्नविसेसो पृथिवीत्वाऽऽदि, विसेसा अंता (अणता जाते तत्पुठो, स च वीरान्तिके प्रव्रज्य मासिकया संलेखनया मृत्वा य) इह पचयहेऊय समवाओ, एए छत्तीसं भेया। एत्थ एकके चत्तारि भंगा सर्वार्थसिद्धे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकदशाना भवंति, तं जहा-भूमी अभूमी नोभूभी नोअभूमी, एवं सव्वत्थ, तत्थ तृतीयवर्गस्य नवमेऽध्ययने सूचितम्। अणु०१ श्रु० 3 वर्य०१ अ०। कुत्तियावणे भूमी मग्गिया लेटठुओ लद्धो अभूमीए पाणियं नोभूमीए पोट्टिला स्वी० (पोट्टिला) तेतलिपुरनगरे कनकरथस्य राज्ञोऽमात्यस्य जलायेव तु नो राश्यन्तरं, नोअभूमीए लेटुए चेव एवं सव्वत्थ॥" तेतलिपुत्रास्य समये कलादस्य मूषिकारदारकस्य दुहितरि, ज्ञा०१ श्रु० आह च भाष्यकार : 14 अ०। आ०चू० / आ०म०। ('तेतलिसुय' शब्दे चतुर्थभागे 2352 जीवमजीवं दाउं, णोजीवं जाइओ पुणोऽजीवं। पृष्ठे कथोक्ता) देइ चरिमम्मि जीवं,न उणोजीवं सजीवदलं // 140 / / पोट्टिलायरिय पु० (पोट्टिलाचार्य) पुट्टलशब्दे उत्के वीरत्रयोविंशभवततो निग्गहिओ छलूगो, गुरुणा से खेलमल्लो मत्थए भग्गो / ततो जीवप्रियामित्रदीक्षाग्राहकमुनौ, कल्प०१ अधि०२क्षण। निद्धाडिओ, गुरु वि पूतिओ णगरे य घोसणयं कयंवद्धमाणसामी जयइ पोट्टवती स्त्री० (प्रोष्ठपदी) प्रोष्टपदा उत्तरभाद्रपदा तस्यां भवा प्रोष्ठपदी। भाद्रपदमासभाविन्याम्, चं० प्र०१० पाहु०५ पाहु० पाहु०। सू० प्र०॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह भाष्यकार :वाए पराजिओ सो, निव्विसओ कारिओ नरिंदेणं। पोडइल न० (पोठइल) तृणभेदे, प्रज्ञा०१ पद। घोसावियं च णयरे, जयइ जिणो वदुमाणो त्ति // 141 // पोडिअ (देशी) पूर्णतायाभ, दे० ना०६ वर्ग 28 गाथा। निगदसिद्धा, "तेणाऽवि सरक्खडिएणं चेव वइसेसियं पणीय, तं च पोढ त्रि० (पौढ) समर्थे, व्य०५ उ० / विशे० / "पक्का सहा समत्थ य, पक्कला पञ्चला पोढा / ' पाइ० ना०३६ गाथा। अण्णमण्णेहिं खाई णीयं, तं चोलूयपणीयन्ति वुच्चइ, जओ सो पोणय त्रि० (देशी) त्रसस्थावदहानष्पन्न पूयमाने, नि० चू०१ उ० गोत्तेणोलूओ आसि।।'' आव० 1 अ०। पोणिआ (देशी ) सूत्रभृत्तों, दे० ना० वर्ग 61 गाथा। पोट्टसारणी स्त्री० (पोट्टसारणी) अतीसाराऽऽख्ये रोगभेदे, आ० क०४ पोत पुं० (पोत) प्रवहणे, बृ० 4 उ० / 'पोतं वहावेति। नि०चू०१ उ०। अ० / आव०। व्य० / प्रश्न / निवसने, अनु० / वस्त्रे चिलिमिलिकायाम, बृ०२ उ०। पोट्टसीसवेयणा स्त्री० (पोट्टशीर्षवेदना)६ त०। उदरमस्तक वेदनायाम्, वस्त्राचिलिमिलिकायाम्, बृ०१ उ०३ प्रक०। जं०२ वक्ष०। पोत्तकम्मन० (पोतकर्मन्) पोतं वस्वामित्यर्थः, तत्र कर्म पोतकर्म। वस्त्रे, पोट्टिल पुं० (पोट्टिल) उत्सर्पिण्या भारते वर्षे भविष्यति चतुर्थे तीर्थकरे, पल्लवनिष्पन्नटिउल्लियारुपे कर्मणि ग०२ अधि०। स०। ती०। प्रव०।ति०। पुट्टिल इति प्रकरणे उत्कवक्तव्याताके आचार्य, पोतगन० (पोतक) ताड्यादिपत्रासंघातनिष्पन्ने, आचा०२ श्रु०१चू०५ आ०क० 1 अ०। आ०चू०1 आ०म०। वीरस्य त्रयस्त्रिंशद्भवानां प्रथम अ०१ उ०। भवजीवे, स०। पोतघाय पुं० (पोतघात) शावग्राहके, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणाओ छटे पोट्टिल पोतणपुर न० (पोतनपुर)। स्वनामख्याते नगरे, यत्र पोतनपुरे परतीभवग्गहणे एगं वासकोडिं सामन्नपरियागं पाउणित्ता सहस्सारे थिभिः सह वाद उपस्थितः, ततस्तैः सह सद्वादं दत्वा महतीं जिनकप्पे सव्वट्ठविमाणे देवत्ताए उववन्ने / शासनप्रभावनां कृत्वा भगवान् निर्वृत्तः। बृ०६ उ०। "इहास्ति पोतनपुर, (समणेत्यादि) किल भगवान् पोट्टिलाऽभिधानो राजपुत्रो वभूव, तत्रा नगरं जितसागरम्। भूरिः श्रीजिनसंशोपि, नाबृताखिलजन्तुकम्॥१॥" वर्षकोटी प्रव्रज्या पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः, आ० क० 1 अ। ('तिविटु' शब्दे चतुर्थभागे 2324 पृष्ठ विस्तरः) ततो नन्दनाऽभिधानो राजसूनुः छत्रागनगर्यों जज्ञे इति तृतीयः। तत्र "पोतणपुरेणगरे सोमचंदो राया, तस्स धारिणी देवी, पोतणं नाम आसवर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तप्त्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवरविजय मपदं / " आ० चू० 1 अ०। पुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थः / ताते ब्राह्मणकुण्डग्रामे पोतणा स्त्री० (पोतना) महाविदेहीय नगरीभेदे, आ० चू०१ अ०॥ ऋषभदत्त ब्राह्मणस्य भार्याया देवानन्दाऽभि धानायाः कुक्षावुत्पन्न इति | पोतपूसमित्त पुं० (पोतपुष्यमित्र) दुर्बलिकापुष्पमित्रागच्छीये स्वनामख्यते पञ्चमः / ततस्त्रयशीतितमे दिवसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थमहा- | साधौ, आ० चू०१ अ01 राजस्य त्रिशलाभिधानभायाः कुक्षाविन्द्रवचनकारिणा हरिनैगमेषि- पोतय न० (पोतक) कासिके, बृ०२ उ०। शणाऽऽदिवल्को पात्ते, नि० नाम्ना देवेन संहतस्तीर्थकरतया च जात इति पृष्ठः। उत्कभवग्रहणं हिविना चजात इति पृष्ठः / उत्कभवग्रहण हिविना / चू०१उ01 आ००। Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोता 1121 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोत्थग पोता स्त्री० (पोता) शाटिकायाम, विशे०। पोतिय न० (पौतिक) पोतमेव पौतिकम्। कार्यासिके, स्था० 5 ठा०३ उ०। ज्ञा०॥ * पोतिय पुं० वस्त्रधारिणि वानप्रस्थे, औ० / भ० / नि०। पोत्त पुं० (पौत्र) पुत्रास्यापत्ये, भ०१२ श०२ उ० / घस्त्रो बृ० 1 उ०२ | प्रक०। पोत्तअ (देशी ) वृषे, दे० ना० 6 वर्ग 62 गाथा। पोत्तखेल पुं० (पोतखेल) गोरसभावितायां तुषरवृक्षगुटिकायाम्, 'गुलति तुवररुक्खवुत्तगुलियाओ कजति गोरसभावितो पोत्तखेलो भण्णति / नि० चू०१२ उ०। पोत्ती ( देशी) कार्ये , दे० ना० वर्ग 60 गाथा। पोत्तुल्लया स्त्री० (पोतपुत्तलिका) वस्त्रामयपुत्रिकायाम्, परिधानवस्त्रे, ज्ञा० 1 श्रु०१८ अ०। पोत्थन० (पुस्त)"ओत्संयोगे"||८1१1११६। इत्युत ओत्वम्। प्रा०१ पाद / लेप्ये, विशे०। पुस्तके, ग०२ अधि०। पोत्थकर्म न० (पुस्तकर्मन्) पुस्तं ताडपत्राऽऽदि, ता कर्म। पुस्तच्छेदनिष्पन्ने रूपके, अथवा-पुस्तमिह संपुटकरूपं गृह्यते, ता कर्म / पुस्तकमध्ये वर्तिकालिखिते रूपके, अनु० / आचा० / पोत्थकार पु० (पुस्तकार) पुस्तकशिल्पोपजीविनि, अनु०। पोत्थग न० (पुस्तक) लेप्ये, स्था० / ध० / दश०नि०चू० / पं० व० / जीत०। तच्च पचविधम् - गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुडक फलए तहा छिवाडी य। एवं पोत्थयपणयं, पण्णतं वीयरागेहिं 1 / स्था० 4 ठा० 2 उ०। (एषां स्वरुप, स्वस्वशब्दे द्रष्टव्यम्।) अथपुस्तकपञ्चके तावद्दोषानुपदर्शयतिसंघस अपडिलेहा, भारो अहिकरणमेव अविदिन्नं / संकामणपलिमंथो, पमाएँ परिकम्मणा लिहणा / / 147 / / पुस्तकाऽऽदिकंग्रामान्तरं नयतः स्कन्धे संघर्षः स्यात, ततश्च व्रणोत्पत्यादयो दोषाः, शुषिरत्वाच तत्र प्रत्युपेक्षणा न शुद्धयति, भारो मार्ग गच्छतो भवेत्। अधिकरणं च कुन्थुपनकाऽऽदिसंरक्तिलक्षणं भवति। यद्वा-तन्पुस्तक स्तेनैरपहियेत ततोऽधिकरणं, तीर्थकरैरदत्तश्चायमुपधिः, स्थानान्तरं च पुस्तक संक्रामयतः परिमन्थः, प्रमादोनाम पुस्तके लिखितमस्तीति कृत्वा न गुणयति, अगुणनाच्च सूत्रनाशऽऽदयो दोषाः। / परिकर्मणायां च सूत्रार्थ परिमन्थो भवति / अक्षरलेखनं च कुर्वतः कुन्थुप्रभृति कासप्राणिव्यपरोपणेन कृकाटिकाऽऽदिबाधया च संयमात्मविराधना। किं चपोत्थग जिणदिर्सेतो, वागुर लेवे य जाल चक्के य। लोहिय लहुगा आणा-दि मुयणे संघट्टणा बाधे / / 418 / / पुस्तके शुषिरतया यो जन्तूनामुपघातस्तत्रा जिनैः-तीर्थकृद्भिर्वागुरया लेपेन जालेन चक्रेण च दृष्टान्तः कृतः (लोहियत्ति) यदि तेषां पुस्तकान्तर्गतानां जन्तूनां लोहितंरुधिरं भवेत्ततः पुस्तकबन्धनकाले अक्षराणि परिस्पर्शात् तत् रुधिरं परिगलेत्। (लहुग त्ति) यावतो वारांस्तत्पुस्तक बध्नाति मुञ्चति वा अक्षराणि वा लिखति तावन्ति चतुर्लघूनि, आज्ञाऽऽ-- दयश्च दोषाः / पुस्तकस्य मोचने बन्धे च संघट्टनम् उपलक्षणत्वात् परिनापनमपद्रावणं वा यदापद्यते, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिचउरंगवगुरापरि-बुडो वि फिट्टे ज अवि मिगोऽरण्णे। छीरखउरलेवे वा, पडिओ णउणो पलाएज्जा / / 146 / / चतुरङ्ग सेनारुपा वागुरा, तया परिवृत्तोऽपि-समन्ताद्वेष्टितोऽपि मृगोऽपीति संभावनायां, संभाव्यतेऽयमर्थोयत्तथाविधक्षताऽऽदिगुणोपेतो मृगोऽऽरण्ये तादृशादपायात्स्पिटेत्, न पुनःपुस्तकपत्रान्तरप्रविष्टा जीवाः स्फिटेयुः / तथा शकुन्तः पक्षी, स चेह मक्षिकाऽऽदिः क्षीरे वा-दुग्धे, खपुरे वा-चिक्कणद्रव्ये, लेपेवा अवश्रावणाऽऽदौ पतितोऽपि पलायेत्, न पुनः पुस्तकजीवास्ततः पलायितुं शक्नुयुः / सिद्धत्थगजालेणं, गहितो मच्छो वि णिप्फडेजाहि। तिलकीडगा व चक्के, बला पलाए न ते जीवा / / 150 / / सिद्धार्थाः सर्षपाः तेऽपियेन जालेनगृह्यन्तेतत् सिद्धार्थकजाल तेनाऽपि गृहीतो मत्स्यः कदाचिन्निस्फिटत्। तथाचक्रे तिलपीडमयन्त्रो प्रविष्टास्तिलकीटका वा निर्गच्छेयुः, न च ते जीवास्ततः पुस्तकान्निर्गन्तुं शक्नुयुः। जइ तेसिं जीवाणं, तत्थ गयाणं तु लोहियं होज्जा। पीलिज्जते धणियं, गलेज तं अक्खरे फुसितं // 151 // यदि तेषां तत्रा गतानां पुस्तकपत्रान्तरे वा स्थितानां जीवानां कुन्थुप्रभृतीनां लोहित भवेत्, ततः पुस्तकबन्धनकाले तषां 'धणियं' गाढवर पीड्यमानानां तदनन्तरोक्तं रुधिरमक्षराणि स्पृष्टवा बहिः परिगलेत। अत एवजत्तियमित्ता वारा-उ मुंचई बंधई व जति वारा। जति अक्खराणि लिहती, तति लहुगा जं च आवजो // 152 / / यावन्मात्रान् वारान् पुस्तक मुञ्चति छाटयति, यावतो वारांश्च बध्नाति / 'यति वा' यावन्ति अक्षराणि लिखति त ति त्ति' तावन्ति चतुर्लघूनि, यच्च कुन्थुपनकादीना संघट्टनपरितापनमपद्रवणं वा आपद्यते, तन्निषन्नं प्रायश्चित्तम्। बृ०३ उ०। इमं पोत्थगपणगं / गाहा - गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुड पिहुलो तहा छिवाडी य। साली वीही कोदव, रालओ रण्णतणाइँ पणगं व // 25 / / दीहो बाहल्लपुहत्तेण तुल्लो चउरंसो गंडी पोत्थगो, अंते Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोत्थग 1122 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोय तणुओ मज्झे पिहुलो अप्पबाहल्लो कच्छवी, चउरंगुलो दीहो या "वलहीपुरम्मिनयरे, देवटिप्पमुहसयलसंधेहिं। वृत्ताकृती मुट्ठीपोत्थगोः, अहवा-चउरंगुलदीहो चउरंसे मुट्ठीपोत्थयो / पुत्थे आगमलिहिओ, नवसयअसीइ वीराओ॥१॥" दुगाइफलगा संपुडं / दीहो हस्सो वा पिहुलो अप्पबाहल्लो छिवाडी, अन्ये वदन्तिअहवा-तणुपत्तेहिं उस्सीओ छिवाडी। 'रालउ ति' कंगुपललसभगाइ 'नवशत्यशीतिवर्षे , वीरसेनाङ्ग जार्थमानन्दे। आरन्नतणा। सङ्घसमक्ष समहं, प्रारब्धं वाचितुं विज्ञैः / / 1 / / " गाहा इत्याद्यन्तर्वाच्यवचनात् श्रीवीरनिर्वाणात् अशीत्यधिकनवशत वर्षातिअप्पडिलेहियदूसे. तूली उवहाणगं च नायव्वं / क्रमे कल्पस्य सभासमक्षं वाचना जाता, तां ज्ञापयितुमिदं सूत्रांन्यस्तगंडुवहाणाऽऽलिंगिणि, मसूरए चेव पोत्तमए॥२६॥ मिति / तत्वं पुनः केवलिनो विदन्तीति / (वायणंतरे त्ति) वाचनान्तरे एगबहुकसेरगा तूली अक्कडोडुगाइतूलभरिया वा तूली, रुयादि- पुनरयं त्रिनवतितमः संवत्सरः कालो गच्छतीति दृश्यते। अत्रा केचिद्वपुन्नसिरोवहाणमुवहाणगं, तस्सोवरि गंडपदेसे जा दिज्जति सा गंडुवधा- दन्तिवाचनान्तरे कोऽर्थः? प्रत्यन्तरे "तेणउप 'इति दृश्यते, यत्कल्पस्य णिगा, जाणुकोप्परादिसु जा दिज्जति सा आलिंगिणी, चम्मवत्थकतं वा पुस्तके लिखनं, पर्षदि वाचन वा अशीत्यधिकनववर्षशतातिक्रमे इति वट्टरुयादिपुत्रं विवसणं मसूरगो। इमंदुप्पडिलेहियपणगं। नि० चू०१२ उ०॥ वचित्पुस्तके लिखितं तत्पुस्तकान्तरे त्रिनवत्यधिकनववर्ष शतातिक्रमे पुस्तकलेखने फलम् इति दृश्यते इति भावः / अन्ये पुनर्वदन्ति "अशीत्ययम्'-अशीतितमे जिनवचनं दुःषमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुन- संवत्सरे इति कोऽर्थ? पुस्तके कल्पलिखनस्य हेतुभूतः। अयं श्रीवीरात् स्कन्दिलाऽऽचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तं, ततो जिनवचनबहुमानिना दशमस्य शतस्य अशीतितमसंवत्सरलक्षणः कालो गच्छति "वायणंतरे" तल्लेखनीयं, वस्त्राऽऽदिभिरभ्यर्चनीयं च। यदाह-"न ते नरा दुर्गतिमा- इति कोऽर्थः? एकस्याः पुस्तक लिखनरुपाया वाचनाया अन्यत्पर्षदि प्नुवन्ति, न मूकतां नैव जडस्वभावम्। न धान्धतां बुद्धिविहीनतां च, ये वाचनरुपं यद्वाचनान्तरं तस्य पुनर्हेतुभूतो दशमस्य शतस्यायं त्रिनवतिलेखयन्तीह जिमस्य वाक्यम् ।।१॥"जिनाऽऽगमपाठकानां भक्तितः तमः संवत्सरः / तथा चायमर्थ:-नवशताशीतितमवर्ष कल्पसूत्रास्य सन्मानं च। यदाह-"पठति पाठयते पठतामसौ, वसनभोजनपुस्तक- पुस्तके लिखनं नवशतत्रिनवतितमवर्षे च कल्पस्य पर्षद्वाचनेति। तथोक्त वस्तुभिः / प्रतिदिन कुरुते य उपग्रह, स इह सर्वविदेव भवेन्नरः / / 1 / ' श्रीमुनिसुन्दरसूरिभिः स्वकृतस्तोत्ररक्षकोशे-'वीरास्त्रिनन्दाङ्क 663 लिखितानां च पुस्तकानां संविनगीतार्थेभ्यो बहुमानपूर्वकं व्याख्यापेन, शरद्यचीकरत्, त्वचैत्यपूते ध्रुवसेनभूपतिः / यस्मिन्महे संसदि कल्पवाचव्याख्यायनार्थ दानं, व्याख्यायमानानां च प्रतिदिन पूजापूर्वकं श्रवण नामाद्यां तदानन्दपुरं न कः स्तुते? // 1 / / '' पुस्तकलिखनकालस्तु चेति। ध०२ अधि०। पुस्तकानां धीकल्पाऽऽद्यागमजिन चरित्राऽऽदि- यथोक्तः प्रतीत एव-"वलहीपुरम्म नयरे।" इत्यादि वचनात् / तत्व सत्कानां न्यायार्जितवित्तेन विशिष्टपत्रविद्धाक्षरा ऽऽदियुक्तया लेखनम्। पुनः केवलिनो विदन्तीति। कल्प०१ अधि०६क्षण। (शाश्वतप्रतिमातथा वाचनं संविग्नगीतार्थेभ्यः प्रौढाऽऽडम्यरैः प्रत्यहं पूजाऽऽदिबहुमान- वर्णकम् 'विजयदेव' वक्तव्यातायां वक्ष्यामि) पूर्वकं व्याख्यापनम, उपलक्षणत्वात्तद्वाचनभणनाऽऽदिकृतां वस्त्राऽऽदि- पोत्थार पुं० (पुस्तककार) पुस्तककरणशिल्पोजीविनि, जी०३ प्रति 4 भिरुपष्टम्भदानम् / यतः-"ये लेखयन्ति जिनशासन पुस्तकानि, अधि०। व्याख्यानयन्ति च पठन्ति च पाठयन्ति / श्रृणवन्ति रक्षणाविधौ च / पोत्थी स्त्री० (पुस्ती) पोतकन्यकायां ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाम, उत्त० समाद्रियन्ते, ते मर्त्य दवशिवशर्म नरालभन्ते / / 1 / / " इत्यादि पूर्व | 13 अ०। जिनाऽऽगमे धनवपनाधिकारे प्रदर्शितमेवेति / (70 श्लोक) ध०२ पोद्दाम त्रि०(प्रोद्दाम) प्रबलतरे, प्रति०। अधि०। पोप्फल न० (पूगफल)"ओत्पूतर - बदर नवमल्लिका नवफाकदा पुस्तकाऽऽरुढः सिद्धान्तो जात: लिका पूगफले" // 8/1/170 // इति सस्वरव्यञ्जनेन सहोतः। समणस्स भगवओ महावीरस्स० जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स ! "सोपारी" इति प्रसिद्ध फलभेदे, स्त्रीत्वमप्यत्रा- 'पोप्फली। प्रा०१ नव वाससयाई विइकं ताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं पाद। असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ / वायणंतरे पुण अयं तेणउए पोम न० (पदम्) "ओत्पद्मे" |161 // इति आदेरत ओत्वम्। संवच्छरे काले गच्छइ इति दीसइ / / 148 / / प्रा०१पाद / कुसुम्भके, नि० चू०१ उ०। तत्रा भगवतो निर्वृतस्य नव वर्षशतानि व्यतिक्रान्तानि, दशमस्य च / पोमर (देशी) कौसुम्भरक्ते वस्खे, दे० ना०६ वर्ग 63 गाथा। वर्षशतस्यायमशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति, यद्यपि एतस्य सूत्रस्य / पोमिल पुं० (पोमिल) स्थविरस्याऽऽर्यवज्रसेनस्य स्वानानख्याते स्थविरे, व्यक्तया भावार्थो न ज्ञायते, तथापि यथा पूर्वटीकाकारैव्याख्यातं तथा कल्प०२ अधि०८क्षण। व्याख्यायते। तथाहि-अत्रा केचिद्वदन्तियत्कल्पसूत्रस्य पुस्तकलिखन- पोय पुं०न० (पोत) लघुबालकयोग्ये वस्त्रखण्डे, पिं०। आधा० / वस्त्रे, कालज्ञानाय इदं सूत्रां श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणैः लिखित, तथा धायमों स्था०३ ठा०१ उ०। (अत्रा विशेषः लक्षणं च धावण' शब्दे चतुर्थभागे यथा - श्री वीरनिर्वाणदशीत्यधिकनवयर्षशताति क्रमे पुस्तकाऽऽरुढः 2750 पृष्ठे गतम्) सागरप्रवहणे आ० म०१ अ०। विपा०1 वोहित्थे, सिद्धांतो जातः तदा कल्पोऽपि पुस्तकाऽऽरुढो जात इति / तथोक्तम्- | आव० 4 अ०। शिशौ, सूत्र०१श्रु०१४ अ०। Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयण 1123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसी पोयणन० (प्रोतन) आत्मनि प्रवेशने, आ०म०१ अ०। सूत्रा०ा आश्रम- "तित्थयरभासितो जस्सत्थो गथो गणधरनिबद्धो तं पोराणं। अहवाविशेषे, आ०म० अ०। पापबद्ध पोराणं / ' नि० चू० 11 उ० / पुराणो वृद्धः पुराणं वा पायणपुर न० (पोतनपुर) प्रसन्नचन्द्रराजपालिते नगरभेदे, आ० म०१ शास्त्रविशेषस्तज्ज्ञो निपुणप्रायो भवतीति। नैपुण् कभेदे, स्था०६ ठा०। अ० / आव० / तत्रैव वज्रसिंहो नाम राजाऽभवत्। दर्श० 1 तत्त्व। उत्त० / पुराणेषु भवं पौराणम् / रा० / पुराणजाते, जी०, प्रति०४ अधि०। "आसी य पोयणपुरे, अज्जा नामेण पुप्फचूल त्ति / तीसे धम्मायरिओ, पुराणायामवस्थायां जाते, व्य०१ उ०। बहुस्सुओ अन्नियापुत्तो।।१।।' संथा०।व्य०। पोराणएदुद्धर पु० (पौराणदुर्द्धर) पौराणमिव पौराणं यादृशमतीतद्वपोयय पुं० (पातज) पोतवद् वस्त्रवज्जरायुवर्जिततया शुद्धदेहाद् योनि योर्मासात् ताद्दशभिदानीमप्यतिबहुत्वेनेति भावः / दुद्धरतया भङ्गाऽऽविशेषाजाताः पोताऽऽदिवद्वोहित्थाज्जाताः पोता इव वा वस्त्रसंमार्जिता कुलतया प्राकृतजनैर्धारयितुमशक्यं धरतेऽर्थात् प्रवचनमिति पौराणइव जाताः पोतजाः / भ०७ श०५ उ० / 'अन्येष्वपि दृश्यते" / / 3 / 2 दुर्द्धरः / तथाविधे विशिष्टप्रावचनिके, व्य०३ उ०। 1101 // इति डप्रत्ययः / जनेरिति वचनात् / हस्ति वल्गुलीचर्मज पोराणिय पुं० (पौराणिक) पुराणवेत्तरि, सूत्रा०१ श्रु० 1 अ०३ उ०। लौकाप्रभृतिषु, दश० 4 अ०। जी० / सूत्रा० / प्रतिबन्धभेदे, तत्राय पुराणैस्तीर्थकरगणधरलक्षणैः पूर्वपुरुषैः प्रणीते, वृ० 4 उ०। हस्त्यादिरयमिति वा प्रतिबन्धः स्यात् / स्था० 6 ठा० / पोरिसग्घी स्त्री० (पौरुषघ्नी) "प्रवज्यां प्रतिपन्नो यस्तद्विरोधेन वर्त्तते। असदारम्भिणस्तस्य, पौरुषनीति कीर्तिता // 1 // " ('गोयरचरिया' पोतक पुं० (बालके,) वस्त्रे च / अथवा-पोतको बालक इति वा / अथवापोतकं वस्वमिति वा प्रतिबन्धः स्यात्। स्था० 6 ठा०। सूत्रा०। शब्दे तृतीयभागे 1007 पृष्ठे वर्णिता) भिक्षाभेदे, ध०३ अधि० / हा०। पोरिसी स्त्री० (पौरुषी) पुरुषः प्रमाणमस्याः सा पौरुषी। ध० 2 अधि०। पोयाई स्त्री० (पोताकी) शकुनिकायाम्, सहस्रशः शकुनिविकुर्वाणारूपे पुरुषप्रमाणायां छायायाम्, आचा०१ श्रु०६ अ० 1 उ० / सूत्रा० / परिव्राजकविद्याभेदे, आ० म०१ अ०। विशे०। तत्प्रमितः कालोऽपि पौरुषी। प्रहरे, प्रव०४ द्वार। पोर त्रि०(पौर) पुरजाते, प्रा०१ पाद। कतिकाष्ठा किंप्रमाणा पौरुषीच्छाया* पूतर पुं०"ओत्पूतर बदर नवमालिका नवफलिका--पूगफले" ता कतिकटुं ते सूरिए पोरिसीच्छायं णिव्वत्तेति आहितेति 18111170 / / इतिपूतरशब्दे आदेः स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन सहोत्। वदेजा? तत्थ खलु इमाओ तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, क्षुद्रप्राणिभेदे, प्रा०१पाद। तत्थेगे एवमाहं। पोरकच न० (पौरकृत्य) द्वासप्ततिकलानामन्यतमे पौराणां परिपालना ‘ता कइकट्ठ ते' इत्यादि पूर्ववत्। कति--किंप्रमाणा काष्ठाप्रकर्षों यस्याः ऽऽत्मके कलाभेदे, स०। सा कतिकाष्ठा, तां कतिकाष्ठां-किं प्रमाणां? ते-तव मते सूर्यः पौरुषीं पोरकव्वन० (पुरःकाव्य) पुरतः पुरतः काव्ये। शीघ्रकवित्वे, जं०२ वक्षः / पुरुष भवा पौरुषी तां पौरुषी छायां निवर्तयति-निवर्तयन्नाख्यात इति ज्ञान वदेत्? किं प्रमाणां पौरुषीच्छायामुत्पादयन् सूर्यो भगवान् त्वया आख्यात पोरगन० (पर्वक) हरितवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। इति वदेदिति सङ्गे पाऽर्थः / एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः * पोरच्छ पुं० दुर्जने, “पोरच्छो पिसुणो मच्छरी खलो मुहुमहो य प्रतिपत्तयस्तावतीरुपदर्शयति-'तत्थ' इत्यादि, ता-तस्याः पौरुष्याः उप्फालो।" पाइ० ना०७२ गाथा। दे० ना०। छायायाः प्रमाणचिन्तायां प्रथमतस्तावदिमास्तापक्षेत्र स्वरुपविषयाः पोरजायन० (पर्वजात) पर्वसमुत्पन्ने, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०८ उ०। खलु तिस्त्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्याः। तद्यथा-ता-तेषां त्रयाणां परतीर्थिपोरबाल पु० (पौरपाट) वैश्यजातिविशेषे, ती०४ कल्प। कानां मध्ये एके प्रथमा एवमाहुः / सू०प्र०६ पाहु०। (पुद्गलाः संतप्यन्ते पोरबीय न० (पर्वबीज) पर्वमात्राबीजजन्ये वनस्पतिभेदे, आचा०१ श्रु० सूर्यलश्यातो, न वेति 'पोग्गल शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1105 पृष्ठे गतम्।) चू०१ अ०८ उ० 1 सूत्रा० / इक्ष्वादौ, स्था० 4 ठा० 1 उ०। सम्प्रति किंप्रमाणां पौरुषीच्छायां निर्वर्तपोरय (देशी) क्षेत्रो, दे० ना० 6 वर्ग 26 गाथा। यतीत्येतत् बोद्धुकामः पृच्छन्नाहपोरयाम न० (पर्वाऽऽयाम) अङ्गुष्ठपर्वणि प्रतिष्ठितायाः प्रदेशिन्यास्त- ता कतिकट्ठे ते सूरिए पोरिसीच्छायं णिव्वत्तेति आहितेप्ति दपान्तराले तावत्प्रमाणाऽऽयामे, बृ०३ उ०। वदेजा? तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, पोराण त्रि० (पुराण) पुरातने, औ०। पूर्वमुत्पन्ने, नि० चू०४ उ०। प्राग्भावे, तत्थेगे एवमाहंसुता अणुसमयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिव्वत्तेइ पूर्व जाते, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। दशा० / अतीतकालभाविनि, ज्ञा० आदितेति वदेजा, एगे एवमाहंसु१ / एगे पुण एवमाहंसुता अणुमु१ श्रु०१६ अ० / जरठे, विपा०१ श्रु०१ अ०1 दशा० / ग्रन्थविशेषे, | हुत्तमेव सूरिएपोरिसिच्छायं णिव्वत्तेति आहितेति वदेज्जा, एतेणं अ Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी 1124 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसी मिलावेणं णेतव्वं, ता जाओ चेव ओयसंठित्तीए पणुवीसं पडिवत्तीओ ताओ चेव णेतव्याओ, जाव अणुउस्सप्पिणीमेव सूरिए पोरिसीच्छायं णिवत्तेति आहिताति वदेजा, एगे एवमाहंसु / वयं पुण एवं वदामोता सूरियस्स णं उच्चत्तं च लेसं च पडुच छाउद्देसे उच्चत्तं च छायं च पडुच लेसुद्देसे लेसं च छायं च पडुच्च उच्चतोइसे, तत्थ खलु इमाओ दुबे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु ता अत्थि णं से दिवसे जंसिणं दिविसंसि सूरिए चउपोरिसीच्छांयं णिव्वत्तेइ, अत्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसीच्छायं णिव्वत्तेति, एगे एवमाहंसु१, एगे पुण एवमाहंसु ता अस्थि णं से दिवसे जंसिणं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसीच्छायं णिव्वत्तेति अत्थि णं से दिवसे जंसि दिवसंसि सूरिए नो किंचि पोरिसिच्छायं णिव्वत्तेति 2, तत्थ जे ते एवमाहंसुताण अस्थि से दिवसे जंसिणं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसियं छायं णिव्वत्तेति, अस्थि णं से दिवसे नंसि णं दिवसंसि सूरिए दोपोरिसियं छायं निव्वत्तेइ, ते एवमाहंसुता जताणं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसिए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहपिणया दुवालसमुहत्ता राई भवति, तेसिं च णं दिवसंसि सूरिए चउपोरिसियं छायं निव्वत्तेति, ता उग्गमण-मुहुत्तंसि य अस्थमणमुहुत्तंसि य लेसं अभिवड्वेमाणे नो चेव णं णिव्वुड्डेमाणे, ता जताणं सूरिए सव्वाबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, तंसि च णं दिवसं सि सूरिए दुपोरिसियं छायं निव्वत्तेइ, तंजहा-उग्गमण मुहुत्तंसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य, लेसं अभिवड्डेमाणे नो चेवणं निव्युड्डेमाणे 1, / तत्थ णं जे ते एवमाहंसु ता अत्थिणं से दिवसे जंसिणं दिवसंसि | सूरिए दुपोरिसियं छायं णिव्वत्तेइ, अत्थि णं से दिवसे जंसिणं दिवसंसि सूरिए णो किं चि पोरिसियं छायं णिव्वत्तेति ते एवमाहंसु, ता जता ण्णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसिए अट्ठारमुहुत्ते दिवसे भवति जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिव्वत्तेति, तं जहा-उग्गमण.. मुहुत्तंसि अत्थमणमुहुत्तंसि य लेसं अभिवड्वेमाणे णो चेव णं णिव्वुड्वेमाणे, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तवाणं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तंसि चणं दिवसंसि सूरिए णो किंचि पोरिसीए छायं णिव्वत्तेति, तं जहा-उग्गमणमुहुत्तंसि य अत्थमणमुहुत्तंसि य, नो चेव णं लेसं अभिवुड्डेमाणे वा निव्वुड्ढेमाणे वा / ता कइ कहूं ते सूरिए पोरिसीच्छायं निव्वत्तेइ आहिय त्ति वइजा? तत्थ इमाओ छण्णउइपडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-अस्थि णं ते से देसे जंसिणं देसंसिं सूरिए एगपोरिसियं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसुता अस्थिणं से देसे जंसि देसंसि सूरिए दुपोरिसियं छायं णिव्वत्तेति, एवं एवं एतेणं अभिलावेणं णेतव्वं, जाव छण्णउतिं पोरिसियं छायं णिव्वत्तेति, तत्थ जे ते एवमाहंसुता अस्थि णं देसे जंसिणं देसंसि सरिए एगपोरिसियं छायं णिव्वत्तेति, ते एवमाहंसुता सरियस्स णं सव्वहेट्ठिमातो सूरप्पडिहितो बहित्ता अभिणिसट्ठाहिं लेसाहिं ताडिज्जमाणाहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमाणिज्जाओ भूमिभागाओ जावतियं सूरिए उड्ढे उच्चतेणं एवतियाए एगाए अद्धाए एगेणं छायाणुमाणप्पमाणेणं उमाए तत्थ से सूरिए एगपोरिसियं छायं णिव्वत्तेति, तत्थ जे ते एवमाहंसुता अस्थि णं से देसे जंसिणं देसंसि सूरिए दुपोरिसिं छायं णिव्वत्तेति ते एवमाहंसुता सूरियस्स णं सव्वहेट्ठिमातो सूरियपडिधीतो बहित्ता अभिणिसद्विताहिं लेसाहिं ताडिज्जमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमाणिज्जातो भूमिभागातो जावतियं सूरिए उढं उच्चतेणं एवतियाहिं दोहिं अद्धाहिं दोहिं छायागुमाणप्पमाणेहिं उमाए एत्थ णं से सूरिए दुपोरिसियं छायं णिव्वत्तेति, एव णेयव्यं० जाव तत्थ जे ते एवमाहंसुता अत्थि णं से देसे जंसि णं देसंसि सूरिए छपणउहिं पोरिसियं छायं णिव्वत्तेति ते एव माहंसुता सूरियस्स णं सव्वहिट्ठिमातो सूरप्पडिधीओ बहित्ता अभिणिसट्ठाहिं लेसाहिं ताडिज्जमाणीहिं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो जावतियं सूरिए उढं उचत्तेणं एवतियाहिं छण्णवतीए छायाणुमाणुप्पमाणेहिं उमाए एत्थ णं से सूरिए छण्णउतिं पोरिसियं छायं णिव्वत्तेति एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वदामोसातिरेगअउणट्ठिपोरिसीणं सूरिए पोरिसीछायं णिव्वत्तेति, अबद्धपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा, सेसे वा? ता तिभागे गते वा सेसे वा, ता पोरिसी गं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा? ता चउभागे गते वा सेसे वा। ता दिवद्धपोरिसीणं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा? ता पंच Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी 1125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसी मभागे गते वा सेसे वा, एवं अद्धपोरिसिं छोडं पुच्छा दिवसस्स भागं छोडं वा करणं० जाव ता अद्धअउणासट्ठिपोरिसीछाया | दिवसस्स किं गते वा सेसे वा? ता एगणबीससतभागे गते वा सेसे वा, ता अउणसट्टिपोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा वावीससहस्सभागे गते वा सेसे वा, ता सातिरेगअउणसट्ठि पोरिसी गं छाया दिवसस्स किं गते वा सेसे वा? ताणत्थि किंचि गते वा सेसे वा, तत्थ खलु इमापणवीसनिविट्ठा छाया पण्णत्ता। तंजहा-खंभच्छाया, रज्जुच्छाया, पागारच्छाया, पासायच्छाया, उवग्गच्छाया, उच्चत्तच्छाया, अणुलोमच्छाया | आरुभिता, समा, पडिहता, खीलच्छाया, पक्खच्छाया, पुरत्तो उदया, पुरिमकंढमाउवगता, पच्छिमकंठभाउवगता, छायाणुवादिणी, किट्ठाणुवादिणाछाया, छायच्छाया, गोलच्छाया, तत्थ णं गोलच्छाया अट्ठविहा पण्णत्ता / तं जहा-गोलच्छाया अबद्धगोलच्छाया गाढलगोलच्छाया अबद्धगाढलगोलच्छाया गोलवलिच्छाया, अवड्डगोलावलिच्छाया, गोलपुंजच्छाया, अबद्धगोलपुंजच्छाया। (सूत्रा 31) 'ता कइकट्ट ते' इत्यादि 'ना' इति पूर्ववत्, कतिकाष्ठा-किं--प्रमाणां भगवन्। त्वया सूर्यः पौरुषीच्छायां निवर्तयन्नाख्यात इति वदेत्? एवमुक्ते भगवान प्रथमतो लेश्या स्वरुपविषये यावन्त्यः परतीर्थिणानां प्रतिपत्तयस्तावती रुपदर्शयति-'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र-तस्या पौरुष्या छायायां विषये लेश्यामधिकृत्य खल्विमाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्याः। तद्यथा-ता-तेषां पञ्चविंशतः परतीथिकानांमध्ये एके एवमाहुः-ता इति पूर्ववत्, अनुसमयमेव प्रतिक्षणमेव सूर्यः पौरुषीच्छायाम, इह लेश्यावशतः पौरुषीच्छाया भवतीति ततः कारणे कार्योपचारात् पौरुषीच्छायेति लेश्या द्रष्टव्या, तां निवर्तयति निर्वर्तयन्नाख्यात इति वदेता किमुक्तं भवति? प्रतिक्षणमन्यामन्यां सूर्यो लेश्यां निवर्तयन् आख्यात इति वदेत / अत्रोपसंहारः-'एगे एवमाहसु,' (एवमित्यादि) एवम्-उक्तेन प्रकारेण एतेन अनन्तरोदितेनाऽभिलापेन सूर्यपाठगमेन या एव ओजःसस्थितौ पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तय उक्ताः ता एव क्रमेणात्रापि नेतव्याः। (ताश्च 'ओयसंठिइ' शब्दे द्वितीय भागे 62 पृष्ठे दर्शिताः) तावद्यावचरमप्रतिपत्तिप्रतिपादकमिदं सूत्रम्- 'एगे पुण एवमाहसु--ता अणु ओसप्पिणिउस्सप्पिणिमेव सूरिए' इत्यादि / मध्यमास्त्वालापका एवं ज्ञातव्याः-'एगे पुण एवमाहंसुता अणुमुहत्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ आहियत्ति वएजा, एगे एत्र माहसु' इत्यादि। तदेवं लेश्याविषयाः परप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति तद्विषयं स्वमतमाह - 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरेवं वदामः कथमित्याह- 'ता सूरियस्स णं 'इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, सूर्यस्य, णमिति वाक्याऽलङ्कारे, उच्चत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायोद्देशः / किमुक्तं भवति?-यथा सूर्यःउच्चैरुच्चैस्तरामधिरोहति यथा च मध्याह्रादूर्ध्वं नीचर्नीरस्तरा मतिक्रामिति एतदपिलौकिकव्यवहाराऽऽपेक्षया उच्यते, लौकिका हि प्रथमतो दूरतरवर्तिनं सूर्यम् उदयमानमतिनीचस्तरां पश्यन्ति. ततः प्रत्यासत्रं प्रत्यासनतरं भवन्तमुच्चै रुचैस्तरां मध्याह्रादूर्ध्व च क्रमेण दूर दूरतरं भवन्तं नीचर्नीचस्तरामिति, तथा यथा लेश्याः सञ्चरन्ति, तद्यथा-अतिनीचैस्तरां वर्तमाने सूर्ये सर्वस्याऽपि प्रकाश्यस्य वस्तुन उपरि प्लवमाना वस्तुनो दूरतः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य वस्तुनो महती महत्तरा छाया भवति, उचैरुचै स्तरां वर्द्धमाने सूर्य प्रत्यासन्नाः प्रत्यासन्नतराः परिपतन्ति, ततः प्रकाश्यस्य वस्तुनो हीना हीनतरा छाया भवति, तत एवं तथा तथा वर्तमानं सूर्यस्योचत्वं लेश्यां च प्रतीत्य छायाया अन्यथा भवन्त्या उद्देश्यो ज्ञातव्यः; इह प्रतिक्षणं तत्तत्पुद्रलोपचयेन तत्तत्पुद्गलहान्यावा यत् छायाया अन्यत्वंतत्केवल्येव जानाति, छ्यस्थस्तूद्देशतः। तत उत्कम् छायोद्देश इति' 'उच्चत्तं च छायं च पडुच लेसोद्दस इति / तथा तथा विवर्त्तमानं सूर्यस्योचत्वं छायां च हीना हीनतरमधिकामधिकतरा च तथा तथा भवर्ती प्रतीत्य-आश्रित्य लेश्यायाःप्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रत्यासन्नं प्रत्यासन्नतरं दूर दूरतरं वा परिपतन्त्या उद्देशो ज्ञातव्यः। तथा 'लेसं च छायं च पडुच्च उच्चत्तोडेसे' इति, लेश्यां प्रकाशस्य वस्तुनो दूर दूरतरमासन्नमासन्नतरं परिपती छायां च हीना हीनतरामधिकामधिकतरां च तथा तथा भवन्ती प्रतीत्य सूर्यगतस्योचवत्वस्य तथा तथा विवर्तमानस्योद्देशो ज्ञातव्यः / किमुक्तं भवति? त्रीण्यप्येतानि प्रतिक्षणमन्यथाऽन्यथा विवर्त्तन्ते, तत एकस्यद्वयस्य वा तथा तथा विवर्त्तमानस्योद्देशत उपलम्भादितरस्याऽप्युदंशतोऽवगमः कर्तव्य इति / तदेव लेश्यास्वरुपमुक्तम् / सम्प्रति पौरुष्याश्छायायाः परिमाणविषये परतीर्थिकप्रतिपत्ति सम्भवं कथयति - (तत्थेत्यादि) ता-तस्यां पौरुष्यांश्छायायाः परिमाणचिन्तायां विषये खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्ते / तद्यथा-तत्रा-तेषां द्वयानां परतीर्थिकानां मध्ये एके एवमाहु:-अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसेसूर्य उद्गमनमुहूर्ते अस्त्तमनमुहूर्ते च चतुष्पौरुषीचतुष्पुरुषप्रमाणांपुरुषग्रहणमुपलक्षणं, तेन सर्वस्याऽपि प्रकाश्यस्य वस्तुनश्चतुर्गुणां छायां निर्वर्त्तयति, अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे उगमनमुहूर्ते अस्तमनमुहूर्ते च द्विपौरुषी-द्विपुरुष प्रमाणा छायां सूर्यो निर्वर्त्तयति, अत्राऽपिपुरुषग्रहणमुपलक्षणं, ततः सर्वस्याऽपि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणां छायां निर्वर्तयतीतिद्रष्टव्यम्। अोपसंहारं :'एगे एवमाहं सु' 1 एके पुनरेवमाहुः-'ता' इति पूर्ववत्, अस्ति स दिवसो यरिमन् दिवसे उगमनमुहुर्ते अस्तमनमुहूर्तेच सूर्या द्विपौरुषी-पुरुषद्वयप्रमाणां छायां निवर्तयति, पुरुषप्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्याऽपि प्रकाश्यवस्तुनो द्विगुणा छाया निवर्तयतीत्यर्थः, तथा अस्तिस दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्योऽस्तमनमुहूर्ते उगमनमुहूर्ते च न काञ्चिदपि पौरुषी छाया निवर्तयति। सम्प्रत्येत एव मते भावयति-(तत्थेत्यादि) तत्रतेषां द्वयानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहुः अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे चतुष्पौरुषी छायां सूर्यो निर्वर्त्तयति, अस्तिसदिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्यो द्वि Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी 1126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसी पौरुषी छायां निवर्तयति / एवं स्वमतविभावनाऽर्थमाहुः-'ताजया ण' इत्यादि, तायदा यस्मिन् काले, णमितिवाक्याऽलङ्कारे, सर्वाऽभ्यन्तरं मण्डलमुपसडक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यश्चतुष्पौरुषींचतुष्पुरुषप्रमाणां छायां निवर्तयति। तद्यथाउगमनमुहुर्तेऽस्तमनमुहुर्तेचस चोगमनमुहूर्तेऽस्तमनमुहूर्तच चतुष्पौरुषी छायां निवर्तयति, लेश्यामभिवर्द्धयन् प्रकाश्यवस्तुन उपरि प्लवमानां दूर दूरतरं परिक्षिपन्नो चैव-नैव निर्वेष्टयन-प्रकाश्यवस्तुन उपरिप्लवमानां प्रत्यासन्नं प्रत्यासन्नतरं परिक्षिपन तथा सति छायाया हीनहीनतरत्व सम्भवात् ता जया णं इत्यादि, तायदा सर्वबाह्य मण्ड, लमुपसडकम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षि का अष्टादशमुहूर्ता रात्रिभर्वति, जघन्यो द्वादशमुहूर्तो दिवसः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यो द्विपौरुषींपुरुषद्यप्रमाणां छायां निर्वर्तयति। तद्यथा-उदगमनमुहूर्ते अस्तमनमुहुर्ते च, स च तदा द्विपौरुषी छायां निर्वर्त्तयति, लेश्यामभिवर्द्धयन् नो चैव निर्वेष्टयन, अस्य वाक्यस्य भावाऽर्थः प्राग्वद् भावनीयः। तथा तत्र-तेषां द्वयानां मध्ये ये वादिन एवमाहुः-अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे स सूर्यो द्विपौरुषी छायां निवर्तयति अस्ति स दिवसो यस्मिन् दिवसे सूर्योन काञ्चिदपि पौरुषी छाया निवत्तयति,तएवं स्वमतविभावनार्थमाचक्षते-- 'ताजग्राणं' इत्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसङक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या द्वादशमुहूर्तो रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे सूर्यो द्विपौरुषी छायां निवर्त्तयति। तद्यथा-उगमन मुहूर्तेऽस्तमनमुहुर्ते च, स च तदानीं द्विपौरुषी छायां निवर्तयति लेश्यामभिवर्द्धयन् नो चैव निर्वेष्टयन्, 'ता जयाणं' इत्यादि, तायदा णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः सर्व बाह्य मण्डलमुपसडकम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्ता रात्रिः, जघन्यो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसस्तस्मिंश्च दिवसे उगमनमुहुर्तेऽस्तमनमुहूर्ते च सूर्यो न काञ्चिदपि पौरुषी छायां निर्वर्त्तयति, 'नो चेवणं' इत्यादि, न च - नैव तदानीं सूर्यो लेश्यामभिवर्द्धयन् भवति निर्वेष्टयन् वा अभिवर्द्ध (य) ने अधिकाऽधिकतराया निर्वेष्ट (य) ने हीनहीनतरायाश्छायायाः सम्भवप्रसङ्गात्। तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान् गौतमः स्वमतं पृच्छति-'ता कइकट्ठ' इत्यादि, यद्येवं परतीथिकानां प्रतिपत्ती 'ता' तर्हि भगवन्! स्वमतेन त्वया कतिकाष्ठां किं प्रमाणां सूर्यः पौरुषी छायां निवर्तयन आख्यात इति वदेत्ता भगवान् स्वमतेन देशविभागतः पौरुषी छायां तथा तथा अनियतप्रमाणां वक्ष्यति, परतीर्थिकास्तु प्रतिनियतामे व प्रतिदिवसं देशविभागेनेच्छन्ति, ततः प्रथमतस्तन्मतान्ये वोपदर्शयति-, तत्थेत्यादि, तत्र-तस्मिन् देशविभागेन प्रतिदिवसं प्रतिनियतायाः पौरुष्याश्छायाया विषये षण्णवतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञाप्तः। तद्यथा-ता-तेषा षण्णवतेः परतीर्थिकानां मध्ये एके एवमाहुः-'ता' इति पूर्ववत्, अस्ति स देशो यस्मिन् देशे सूर्य आगतः सन् एक पौरुषीम्-एकपुरुषप्रमाणां पुरुषग्रहणमुपलक्षणं सर्वस्याऽपि प्रकाश्यवस्तुनः, स्वप्रमाणां छायां निर्वर्तयति। अत्रोपसंहारः-'एगे एवमाहसु१. 'एके पुनरेवमाहुः-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्यो द्विपौरुषी-द्विपुरुषप्रमाणां, पुरुषग्रहणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्याऽपि वस्तुनः प्रकाश्यस्य द्विगुणामित्यर्थः, छायां निर्वर्तयति, अत्रोपसंहारः-'एगे एवमाहेसु' २'एवं' इत्यादि, एवम् उक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोदिनाभिलापेन सूत्रपाठगमनेन शेषप्रतिपत्तिगतमपि सूत्रा नेतव्यं तावद्यावच्चरम-प्रतिपत्तिगत सूत्र, तदेव खण्डशो दर्शयति-'छन्नउ' इत्यादि, एतच्चैवं परिपूर्ण द्रष्टव्यम्"एगे पुण एवमाहसु अत्थिणं से देसेजंसिणं देसंसि सूरिएछन्नउइपोरिसिं छायं निव्वत्तइ आहिय तिवएखा, एगे एवमासु'' मध्यमप्रतिपत्तिगतास्त्वालापकाः सुगमात्वात्स्वयं परिभावनीयाः सम्प्रत्येतासामेव षण्णवतिप्रतिपत्तीनां भावनिका चिकीर्षुराह 'तत्थ' इत्यादि, ता -तेषां षण्णवतिपरतीथिकानांमध्ये येतेवादिन एवमाहुः-अस्तिस देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्यः एकपौरुषी-प्रकाश्यवस्तुनः स्वप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति, त एवं स्वमतविभावानार्थमाहुः-'ता सूरियस्सणं'। इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, सूर्यस्य सर्वाऽधस्तनात्सूर्य प्रतिधेः-सूर्यप्रतिधानात्, सूर्यनिवेशादित्यर्थः। बहिर्निःसृताया लेश्यास्ताभिः (ताडिजमाणाहिं ति) ताड्यमानाभि रस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद्भूमिभागाद यावति सूर्य ऊर्ध्वमुचैस्त्वेन व्यवस्थित एताक्ताऽध्वना सूत्रेचाध्वशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः प्राकृतत्वात्, एकेन च छायाऽनुमानप्रमाणेन प्रकाश्यस्य वस्तुनो यदुहेशतः प्रमाणमनुमीयते तेन, इहाऽऽकाशदेशे सूर्यसमीपे प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणं नैव साक्षात् परिग्रहीतु शक्यते, किन्तु देशतोऽनुमानेन ततश्छायाऽनुमानप्रमाणेनेत्युत्कम् (उमाए त्ति) अवमितः परिच्छिन्नो यो देशः-प्रदेशो यस्मिन् प्रदेशे आगतः सन् सूर्य एकपौरुषी, पुरुषग्रहण-स्योपलक्षणत्वात् सर्वस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः प्रमाणभूता छायां निर्वर्त्तयति। इयमत्र भावना-प्रथमत उदयमाने सूर्ये या लेश्या विनिर्गत्य प्रकाशमाश्रितास्ताभिः प्रकाश्यवस्तुदेशे ऊर्द्ध क्रियमाणाभिः किञ्चित्पूर्वाऽभिमुख मवनताभिःप्रकाश्येन च वस्तुना यः सम्भाव्यते परिच्छिन्न आकाशप्रदेशे तत्राऽऽगतः सूर्यः प्रकाश्यवस्तुप्रमाणां छायां निर्वर्त्तयति। एवमुत्तरत्राऽपि भावना कार्या, (तत्थेत्यादि) ता येते वादिन एवमाहुः-अस्ति स देशो यस्मिन् देशे समागतः सूर्या द्विपौरुषी छायां निवर्तयति त एवं स्वमतविस्फारणार्थमाहुः-(ता सूरियस्स णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् सूर्यस्य सर्वाऽधस्तात् सूर्यप्रतिधे-सूर्यनिवेशाद्वहिनि: सृताभिर्लेश्याभिस्ताड्यमानाभिरस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या चहुसमरमणीया भूमिभागादूर्ध्वमुच्यत्वेन व्यवस्थितः एतावद्भयां द्वाभ्याममद्धाभ्यां द्वाभ्यां छायाऽनुमानप्रमाणाभ्यां प्रकाश्यवस्तु-प्रमाणाम्यामवमितःपरिच्छिन्नो यो देशस्तत्रा समागतः सूर्यो द्विपौरुषीप्रकाश्यवस्तुनो द्विगुणा छायां निवर्तयति, एवमेकै प्रतिपत्तावेकैकच्छायाऽनुमानप्रमाण वृद्धया तावनेतव्यं यावत्पण्णवतितमा प्रतिपत्तिः,तदगतानिच सूत्राणि स्वयं परिभावनीयानि, सुगमत्वात्, तदेवमुक्ताः परतीर्थिकप्रतिपत्तयः। सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-'वयंपुण' इत्यादि, वयं पुनरेववक्ष्यमाणेन प्रकारेण वदामः, तमेव प्रकारमाह - (सातिरेगेत्यादि) सूर्य उगमसमये अस्तमनसमये च सातिरेकैकोनषष्टिपुरुषप्रमाणां छायां निर्व Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी 1127 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसी तयति। एतदेव विभावयिषुराह–'ता अवड्डे' इत्यादि अपगतमर्द्ध यस्याः वड्डमाणे चारं चरइ। सा अपार्दा सा चाऽसौ पौरुषी च अपार्द्धपौरुषी छाया, पुरुषग्रहण- श्रावणमासस्य शुद्धसप्तभ्यां सूर्यः सप्तविंशत्यङ्गुलिका, हस्तप्रमाणस्योपलक्षणत्वात् सर्वस्याऽपि वस्तुनः प्रकाश्यस्थाऽर्द्धप्रमाणा छाया शङ्केरिति गम्यते, पौरुषीछायां निर्वयं दिवसक्षेत्रां रविकरप्रकाशमाकाशं एवमुत्तत्राप्युपलक्षण व्याख्यानं द्रष्टव्य, दिवसंस्य किंगते-कतमे भागे निवर्तयन्-प्रकाशहान्या हानि नयन रजनिजत्रमन्धकाराऽऽकान्तमागते शेष वेति कतितमे भागे शेषे भवति? भगवानाह-ता' इत्यादि, काशमभिवर्द्धयन-प्रकाशहानिवृद्धिं नयन्चारं चरतिव्योममण्डलं भ्रमणं 'ता' इति पूर्ववत् दिवसस्य त्रिभागे गते भवति, दिवसस्य त्रिभागे वा शेषे करोति / अयमत्र भावार्थः--इह किल स्थूलन्यायमाश्रित्य आषाढ्या (ता इत्यादि) पौरुषी पुरुषप्रमाणा, प्रकाश्यस्य वस्तुनः स्वप्रमाणा चतुविंशत्यकुलप्रमाणा पौरुषी छाया भवति, दिनसप्तके सातिरेकच्छायाइत्यर्थः / छाया कि गतेकतितमे भागे गते, शेषे वेति कतितमे वा भागे शेषे हुलं वर्द्धते। ततश्च श्रावणशुद्धसप्तम्यामङ्गुलत्रयं वर्द्धते, सातिरेकैकविभवति? भगवानाह-दिवसस्य चतुर्भाग गतेचतुर्भागे शेषेवा, प्रकाश्यस्य शतितमदिनत्वात, तस्याः तदेवमाषाट्याः सातिरेकैरङ्कुलैः सह सप्तविंशवस्तुनः स्वप्रमाणभूता छाया अन्यत्र ग्रन्थान्तरे सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम- तिरडलानि भवन्ति निश्चयतस्तु कर्कसंकान्तेरारभ्य यत् सातिरेकैकधिकृत्योक्ता / तथा च नन्दिचूर्णिग्रन्थः-'पुरिस त्ति संकू पुरिससरीरं वा, विंशतितमंदिनं तत्रोक्ररूपा पौरुषीछाया भवति / / स०२७ सम० / ततो पुरिसे निष्फन्ना पोरिसी, एवं सव्वस्स वत्थुणो यदा स्वप्रमाणा छाया ध०। कर्कसंकान्ती पूर्वाह्नऽपराहे वायदा शरीरप्रमाणच्छाया स्यात्तदा भवति तदा पोरिसी हवइ, एवं पोरिसीपमाणं उत्तरायणरस अंते पौरुषी तद्युकृ : कालोऽपि पौरुषीप्रहर इत्यर्थः तदेखा याम्योत्तराऽऽयता दक्खिणायणस्स आईए इक्क दिणं भवइ, अतो परं श्रद्धा एगसहि भागा यदा देहच्छायापर्यन्तः स्पृशति तदा सर्वदिनेषु पौरुषी।यद्वा-पुरुषस्योअंगुलस्स दक्खिणायणे वड्डति, उत्तरायणे हस्संति, एवं मंडले मंडले स्य दक्षिणकर्णनिवेशितार्कस्य दक्षिणाऽयनाऽऽद्यदिने यदा जानुच्छाअन्ना पोरिसी" इति। तत इदंसकलमपि पौरुषीविभागप्रमाणप्रतिपादनं याद्विपदा तदा पौरुषी। यथासर्वाभ्यन्तरं मण्डलमधिकृत्यावसेयं, तथा 'ता' इति पूर्ववत्, द्वयर्द्ध- आसाढमासे दुपया, पोसे मासे चउप्पया। पौरुषीसार्द्धपुरुषप्रमाणा छाया दिवसस्य किंभागे कतितमे भागे गते चित्तऽऽसोएसु मासेसु, तिपया होइ पोरिसी॥१॥" भवति, किं शेषे या-कतितमे वा भागे शेष? भगवानाह 'ता' इति पूर्ववत्, हानिवृद्धी त्वेवम्दिवसस्य पञ्चमे भागे गते वा भवति, शेषे वा पञ्चमे भागे (एवमित्यादि) "अंगुलं सत्तरत्तेणं, पक्खेण तु दुअंगुल। एवमुक्तेन प्रकारेण अर्द्धपौरुषीम् अर्द्धपुरुषप्रमाणां छायां क्षिप्त्वा क्षिप्त्वा बड्डए हायए वावि, मासेण चउरंगुलं / / 1 / / " इति। पृच्छा-पृच्छासूत्रां द्रष्टव्यं, 'दिवसभागं तिपूर्वपूर्वसूत्राऽपेक्षया एकैक- "साहुवयणे णं'' इत्यत्रा च पादोनप्रहरेणाप्यधिकारः, अतस्तत्रा मधिकं दिवसभागं क्षिप्त्वा क्षिप्त्वा व्याकरणम् उत्तरसूत्रं ज्ञातव्यम् / पौरुषीछायोपरि प्रक्षेपोऽयम्-"जिट्ठामूले आसाढसावणे छहिऽगुलेहि तच्चैवम् "विपोरिसीणं छाया किं गए वा सेसे वा? ता छन्भागगए वा सेसे पडिलेहा / अट्ठहि बिश्रतइअम्मी, तइए दस अट्ठहिं च उत्थे / / 1 // " वा, ता अड्डाइज्जपोरिसी णं छाया किं गए वा सेसे वा? ता सत्तभागगए वा पौराषीप्रत्याख्यानसमान प्रत्याख्याना सार्द्धपौरुषी त्वेवम्-''पोसेतणुसेसे वा'' इत्यादि। एतच एतावत् तावत् यावत् 'ता उगुणट्ठी' इत्यादि छायाए, नवहिंपएहिं तुपोरिसी सड्ढा / तावेकेका हाणी, जावासाढे पयासुगम, सातिरेकैकोनषष्टिपौरुषीतुछाया दिवसस्य प्रारम्भसमये पर्यन्त- तिन्नि ॥१॥"पूर्वार्दोऽग्रेवक्ष्यमाणोऽपिप्रमाणप्रस्तावादिहेव विज्ञेयः, "पोसे समये वा, तत आह–'ता नत्थि किंचि गए वा सेसे वा' इति, सम्प्रति विहत्थिछाया, बारस अंगुलपमाण पुरिमद्धे। मासे दुअंगुलहाणी, आसाढे छायाभेदान व्याचष्ट- (तत्थेत्यादि) तत्र तस्यां छायायां विचार्यमाणायां निडिआ सव्वे / / 1 / / ध०२ अधि० / सुखावबोधार्थे स्थापना चैषाम् खल्वियं पञ्चविंशतिविधाः छायाः प्रज्ञप्ताः? तद्यथा-(खंभच्छायेत्यादि) काल: 12 / y . प्रायः सुगम, विशेषव्याख्यानं चामीषा पदानां शास्वान्तराद्यथासम्प्रदाय वाच्यं, गोलच्छायेत्युकं , ततस्तामेव गोलच्छायां भेदत आह-(तत्थेत्यादि) तत्र-तासां पञ्चविंशतिच्छायानां मध्ये खल्वियं गोलच्छाया 104 अष्टविधा प्रज्ञप्ता / तद्यथा-'गोलच्छाया' गोलमात्रास्य छाया गोल मात्रयः 2 च्छाया, अपार्द्धस्यअर्द्धमात्रास्य गोलस्य छाया अपार्द्धगोलच्छाया, जामिना.३० | 8 | 38 गोलानामावलिर्गोलाय लिस्तस्याः छाया गोलावलिच्छाया, अपार्द्धायाः- अपार्द्धमात्राया गोलावलेश्छाया अपार्द्धगोलावलिच्छाया, गोलानां मा३ | 8 | 10| 4 | 6 | 8 | 0010 पुजो गोलपुजो, गोलोत्कर इत्यर्थः; तस्य छाया गोलपुञ्जच्छाया, 010 4 | 106 |00 | 12 अपार्द्धस्य–अर्द्धमात्रस्य गोलपुञ्जस्य छाया अपार्द्धगोलपुञ्जच्छाया। सू०प्र०६पाहु०। श्रावणशुद्धसप्तम्याम् ..|30|83 | 8 | 6 | 006 सावणसुद्धसत्तमीए णं सूरिए सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं बहाव.. 2 | 8 णिव्वत्तइत्ता णं दिवसक्खेत्तं निववमाणे रयणिखेत्तं अभिणि 33 . 2 1000 अंडल Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी 1128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसी सम्प्रति पौरुषीपरिमाणप्रतिपादकमेकविंशतितमप्राभृतं विवक्षुराह - पव्वे पन्नरसगुणे, तिहिसहिए पोरसीऍ आणयणे। छलसीइसयविभत्ते, जलद्धं तं वियाणाहि॥१॥ जइ होइ विसम लद्धं, दक्खिणमयणं हविज नायव्वं / अह हवइ समं लद्धं, नायव्वं उत्तरं अयणं // 2 // युगमध्ये यस्मिन् पर्वणि यस्या तिथौ पौरुषीपरिमाणं ज्ञातुमिष्ट ततः पूर्वे युगादित आरभ्य यानि पर्वाणि अतिक्रान्तानि तानि ध्रियन्ते धृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, गुणयित्वा च विवक्षितायास्तिथेः पूर्वमतिकान्तास्तिथ यस्ताभिः सहितानि क्रियन्ते, कृत्वा च षडशीत्यधिकेन तेषां भागो हियते इहैकस्मिन्नयने त्र्यशीत्यधिकमण्डलशत परिमाणे चन्द्रनिष्पादितानां तिथीनां षडशीत्यधिकं शतं भवति, ततस्तेन भागहरणं, हृते च भागे यल्लब्धं तत् विजानीहि-सम्यगवधारयेत्यर्थः। तत्रा यदि विषमं भवति, तद्यथाएककस्त्रिकः पञ्चकः सप्तको नवको वा तदा तत्पर्यन्तवति दक्षिणमयनं ज्ञातव्यम्। अथ भवति। लब्धं सम, तद्यथाद्विकश्चतुष्कः षट्कोऽष्टको दशको वा तदा तंत्पर्यन्तवर्ति उत्तरायणंमवसेयम् / तदेवमुक्ता दक्षिणायनोत्तरा यणपरिज्ञानोपायाः। सम्प्रति षडशीत्यधिकेन शतेन भागे हते यच्छेषमवतिष्ठते, यदि वा भागासम्भवे यत् शेष तिष्ठति तद्गतविधिमाहअयणगए तिहिरासी, चउग्गुणे पव्वपायभइयम्मि। जं लद्धमंगुलाणि य, खयबुड्डी पोरिसीए उ॥३॥ यो भागासंभवेन शेषत्वतोऽयनगतस्तिथिराशिर्वर्तते स चतुर्भिर्गुण्यते, गुणयित्वा व पर्वपादेन युगमध्ये यानि सर्वसंख्यया पर्वाणि चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यानितेषां पादेनचतुर्थाशन, एकत्रिंशता इत्यर्थः / तेषां भागे हृते यल्लब्धं तान्यकुलानि, अङ्गुलांशाश्च पौरुष्याः क्षयवृद्धया ज्ञातव्यानि, दक्षिणायनपदध्रुवराशेरुपरि वृद्धौ ज्ञातव्यानि, उत्तरायणे पदध्रुवराशेः क्षय इत्यर्थः, अथैयंभूतस्य गुणकारस्य भागहारस्य वा कथमुत्पत्तिः? उच्यते-यदि षडशीत्यधिकेन शतेन चतुर्विशतिरकुलानि क्षये वृद्धौ वा प्राप्यन्ते, तत एकस्यां तिथौ का वृद्धिः क्षयो वा? | राशिकाय स्थापना-१८६, 24, 1 अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमो राशिश्चतुर्विशतिरूपो गुण्यते, जातः स तावानेव, तत आद्येन राशिना षडशीत्यधिकशतरूपेण भागो हियते, तत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वात् भागोन लभ्यते, ततः छेद्यछेदकराश्योः षट्केनापवर्तना, जात उपरितनो राशिश्चतुष्करूपोऽधस्तन एकत्रिंशत्, लब्धमेकस्या तिथौ चत्वार एकत्रिंशद्भागाः क्षये वृद्धौ वेति चतुष्को गुणकार उक्त एकत्रिशद्भागहार | दक्षिणायने द्विपादयोः-पदद्वयस्योपरि अडलानां वृद्धिर्ज्ञातव्या। उत्तरायणे चतुर्व्यः पादेभ्यः सकाशादडलाना हानिः। तत्रा युगमध्ये प्रथमे संवत्सरे दक्षिणायने ततो दिवसादारभ्य वृद्धिस्तन्निरूपयतिसावणबहुलपडिवए, दुपया पुण्ण पोरसी धुवं होइ। चत्तारि अंगुलाई, मासेण य वड्डए तत्तो॥५॥ एकत्तीसइभागा, तिहिए पुण अंगुलस्स चत्तारि। दक्खिणअयणे वुड्डी, जाव चत्तारि उ पयाइँ // 6 // युगस्य प्रथमे संवत्सरे श्रावणमासिबहुलपक्षे प्रतिपदि पौरुषी द्विपदापदद्वयप्रमाणाधुवराशिर्भवति, ततस्तस्याः प्रतिपद आरभ्य प्रतितिथिक्रमेण तावद्र्द्धते यावन्मासेन सूर्यमासेन सार्द्धत्रिशद-होरात्राप्रमाणेन चन्द्रमासापेक्षया एकशिता तिथिभिरित्यर्थः (एकतीसेत्यादि) यत एकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिशद्भागा वर्द्धन्ते, एतच्च प्रागेव भावितं, परिपूर्णे तु दक्षिणायने वृद्धिः परिपूर्णानि चत्वारि पदानि, ततो मासेनसूर्यमासेन सार्द्ध त्रिंशदहोरात्रप्रमाणेन एकत्रिंशत्तिथ्यात्मकेनेत्युत्कम्। तदेवमुक्ता वृद्धिः। सम्प्रति हानिमाह - उत्तरश्रयणे हाणी, चउहिँ पायाहिं जाव दो पाया। एवं तु पोरिसीए, वुड्डिखया होंति नायव्वा / / 7 / / युगस्य प्रथमसंवत्सरे उत्तरायणे माघमासबहुलपक्षे सप्तम्याआरम्भ चतुर्व्यः पादेभ्यः सकाशात् प्रतितिथि एकत्रिंशद्भागचतुष्टयहानिस्तावदवसेया यावदुत्तरायणपर्यन्तेद्वौपादौ पौरुषीति।एवं प्रथमसंवत्सरगतो विधिः / द्वितीये संवत्सरे श्रावणे मासि बहुलपक्षे त्रयोदशीमादौ कृत्वा वृद्धिः, माघमासे शुल्कपक्षे चतुर्थी मादिं कृत्वा क्षयः / तृतीये संवत्सरे श्रावणमासे शुल्कपक्षे दशमी वृद्धरादिः, माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपत् क्षयस्याऽऽदिः / चतुर्थसंवत्सरे श्रावणमासे बहुलपक्षे सप्तमी वृद्धेरादिः, माघमासे बहुलपक्षे त्रयोदशी क्षयस्याऽऽदिः। पञ्चमे संवत्सरे (वुड्डिखया होति नायव्वा) एवमुक्तेन प्रकारेण पौरुष्याम्-पौरुषीविषयौ वृद्धिक्षयौ यथाक्रमं दक्षिणायने उत्तरायणे च वेदितव्यौ। तदेवमुक्तं करणम्। सम्प्रतिकरणस्य भावना कियते-- कोऽपि पृच्छति-युगे आदित आरभ्य पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चभ्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति? तत्रा चतुरशीतिर्धियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्चम्यां तिथौ पृष्टमिति पञ्च चतुरशीतिश्च पञ्चदशभिर्गुण्यते. जातानि द्वादश शतानि षष्टयधिकानि 1260 / तेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वादशशतानि पञ्चषष्टयधिकानि 1265 / तेषां षडशी• त्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धाः षट्आगतं षट् अयनानि अतिकान्तानि, सप्तममयनं वर्तते, तद्गतं च शेषमेकोनपञ्चाशदधिकं शतं तिष्ठति तत् चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि षण्णवत्यधिकानि 566 / तेषामेकशिता भागहरणे लब्धा एकोनविंशतिः 16, शेषाः तिष्ठन्ति सप्त, तत्र द्वादशाङ्गुलानि पाद एकोनविंशतेदशभिः पदं लब्धं, शेषाणि तिष्ठन्ति सप्ताङ्गुलानि, षष्ठं चायनमुत्तरायणं, तच गतं, सप्तमंच दक्षिणायनं वर्तते, ततः पदमेकं सप्ताङ्गुलानि पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते, जाता इति। इह यल्लब्धं तान्यङ्गुलानि क्षये वृद्धौ वेत्युक्तं, तत्रा कस्मिन्नयने कियत्प्रमाणाराशेरुपरि वृद्धौ कस्मिन् वा अयने किं प्रमाणराशेः क्षये इत्येतन्निरूपणार्थमाह - दक्खिणवुड्डी दुपया-उ अंगुलाणं तु होइ नायव्वा / उत्तरअयणे हाणी, कायदा चउहि पायाहिं।।४।। Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी 1126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसी नि त्रीणि पदानि सप्त अडलानि, ये च सप्त एकत्रिशद् भागाः शेषीभूता / वर्तन्ते, तान यवान कुर्मः, तत्राष्टौ यवा अङ्गुले इति, ते सप्त अष्टभिर्गुणण्यन्ते जाताः षट्पञ्चाशत 56 तस्य एकत्रिंशता भागे हृते लब्ध एको यवः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य पञ्चविंशतिरेकत्रिंशद् भागाः, आगतं पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां त्रीणि पदानि सप्त अड्डलानि एको यवः, एकस्य च यवस्य पञ्चविंशतेरेकशिद्भागा इत्येतावती पौरुषीति। तथा अपरः कोऽपि पृच्छतिसप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां प्रतिपदा पौरुषीति। तत्रषण्णवतियित, तस्याधस्तात् पञ्चमी षण्णणवतिश्च पञ्चदशभिगुण्यते, जातानि चतुर्दश शतानि चत्वारिंशदधिकानि 1440, तेषां मध्येऽधस्तु ता एव प्रक्षिप्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि पञ्चत्वारिंशदधिकानि 1445, तेषां च षडशीत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त अयनानि, शेषं तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकं शतं 143. तत् चतुर्भिगुण्यते, जातानि द्विसप्तत्यधिकानिपञ्च शतानि 572, तेषामेकत्रिंशता भागो हियते, लब्धान्यष्टादशाङ्गुलानि 8 तेषां मध्ये द्वादश भिरङ्गुलैः पदमेति, लब्धमेकं पदं षट् अगुलानि, उपरि चांशा उद्धरन्ति चतुर्दश, ते यवाऽऽनयनार्थमष्टभिर्गुणयन्ते, जातंद्वादशोत्तरं शतम् 112. तस्यैकत्रिशता भागे हृते लब्धास्वयो यवाः, शेषास्तिष्ठन्ति यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिशद् भागाः, सप्त वा यवान्यतिक्रान्तानि, अष्टमं वर्तते, अष्टम चायनमुत्तरायणम्, उत्तरायणे च पदे चतुष्करुपात ध्रुवराशेर्दा निर्वक्तव्या, तत एक पद, सप्त अडगुलानि, त्रायो यवा एकस्य च यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिशद्भागा इति पदचतुष्टया न्यायान्त्यतो शेष तिष्ठति द्वेपदे चत्वारि अडुलानित्रयो यवा एकस्य च यवस्य एकोनविंशतिरेकत्रिशद्भागा द्वादश एकत्रिंशद्भागाः, एतावती युगाऽऽदितः सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्या पौरुषीति। एवं सर्वत्र भावनीयम्। सम्प्रति पौरुषीपरिमाणदर्शनतोऽयनग तपरिमाणज्ञापनार्थ करणमाह - चुड्डी वा हाणी वा, जावइया पोरिसीऍ दिट्ठा उ। तत्तो दिवसगएणं, जं लद्धं तं खु अयणगयं / / 8 / / पौरुष्यां यावती वृद्धिर्हानिर्वा दृष्टा ततः सकाशात् दिवसगतेन प्रवर्द्धमानेन हीयमानेन वा औराशिककर्मानुसारेण ततो यल्लब्धं तत् अयनं गतम्, अयनस्य तावत् प्रमाणं गतं वेदितव्यम्। एष करणगाथाऽक्षरार्थः / भावना त्वियम्तत्रा दक्षिणायनेपदद्वयस्योपरि चत्वारि अङ्गुलानि वृद्धौ दृष्टानि, ततः कोऽपि पृच्छति-कियद् गतं दक्षिणायनस्य?, अा त्रैराशिककर्मावतारो-यदिचतुर्भिरडगुलस्यैक त्रिंशदभागैरेका तिथिर्लभ्यते, ततश्चतुभिरडलैः कति तिथी र्लभामहे? राशित्रयस्थापना-४,१,४। अचान्त्यो राशिरडलरूप इत्येकत्रिशद्भागकरणार्थमेकत्रिशता गुण्यते, जातं चतुर्विशत्यधिकं शतम् 124, तस्य चतुष्करूपेणाऽऽदिराशिना भागो हियते, लब्धा एकत्रिशत्तिथयः, आगतं दक्षिणायेन एक त्रिशत्तमायां तिथौ चतुरडगुलपौरुष्यां वृद्धिरिति / तथा-उत्तरायणे पदचतुष्टयार डगुलाष्टकं हीनं पौरुष्या उपलभ्य कोऽपि पृच्छति-किं गतमुत्तरायणस्य? अत्रापि राशिक, यदि चतुर्भिरङ्गुलस्यैकत्रिं शद्भागैरेका तिथिर्लभ्यते, ततोऽष्टभिरडलैः कति तिथयो लभ्यन्ते? राशिायस्थापना 4, 1,8, अत्रान्त्येन राशिरेकत्रिंशदागकरणार्थमकत्रिंशता गुण्यते, ततो जाते द्वे शते अष्टाचत्वारिंशदधिके 248, ताभ्यां मध्यो राशिरेककरूपो गुण्यते, जाते त एव द्वेशते अष्टाचत्वारिंशदधिके 248, तयोराद्येन राशिना चतुष्करूपेण भागहरण, लब्धा द्वाषष्टिः आगतमुत्तरायणे द्वाषष्टित मायां तिथौ अष्टावड्गुलानि पौरुष्यां हीना नीति। ज्यो० 21 पाहु०। चैत्राऽऽश्विनपूर्णमासीषु पौरुषीमानम्चेत्तासोए पुण्णमासीसु सइ छत्तीसंगुलियं सूरिए पोरिसीछायं निव्वत्तेइ। यदि अश्वयुजः पौर्णमास्यां षट्त्रिंशदङ्गुलिका पौरुषी छाया भवति तदा कार्तिकस्य कृष्ण सप्तम्यामडगुलस्य वृद्धिंगतत्वात्सप्तत्रिंशदड्गुलिका भवतीति। स०३० सम०। कार्तिकबहुलसप्तम्याम् - कत्तियबहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्ततीसंगुलियं पोरिसीछायं निव्वत्तइत्ता णं चारं चरइ। फाल्गुनपूर्णिमायाम्फग्गुणपुण्णमासिणीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरिसीछायं निव्वतइत्ता णं चारं चरइ / एवं कत्तियाए वि पुण्णिमाए। (फग्गुण पुण्णमासिणीए त्ति) अत्राध्येयं कथम्? उच्यते-''पोसे मासे चउप्पया'' इति वचनात्, पौषीपौर्णमास्यामष्ट चत्वारि अङ्गुलानि पतितानीत्येवं फाल्गुनपौर्णमास्यां चत्वारिंशदङ्गुलिका पौरुषी छाया भवति / कार्तिक्यामप्येवमेव। यतः-"चेतासोएसु मासेसु.तिपया होइ पोरिसी।''इत्युक्तम्। ततः पदत्रयस्य षट्त्रिंशदडगुलप्रमाणस्य कार्तिकमासातिक्रमे चतुरङ्गुलवृद्धौ चत्वारिंशदङ्गुलिका सा भवतीति / स० 40 सम०। ओघ०।५०व०। ('पमाणकाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 478 पृष्ठे दर्शिता) (पौरुषीकृत्यानि 'पइदिणकिरिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उत्कानि।) चउपोरिसिओ दिवसो,राई चउपोरिसीचेव॥२०६६। तव चतसृभिः पौरुषीभिर्दिवसो भवति, एवं रात्रिरपि। इति नियुक्तिगाथाऽर्थः / / 2066 / / ननु पौरुष्याः किं मानम्? इति विनेयप्रश्नमाशङ्कय भाष्यकारः प्राऽऽहपोरिसिमाणमनिययं, दिवसनिसावुड्डिहाणिभावाओ। हीणं तिन्नि मुहुत्त-द्धपंचमा माणमुक्कोसं // 2070 / / न नियतं मानमन्ति पौरुष्याः / कुतः? दिवसनिशावृद्धिहानिभावात् / इदमुक्तं भवति-दिवसस्य रात्रोर्वा चतुर्थो भागः पौरुषी भण्यते / ततश्चेयं दिवसस्य राठोर्वा वृद्धि हानिभ्यां वृद्धा हीना च भवति / तत्रा दिवससम्बन्धिन्याः पौरुष्याः सर्वहीनं जघन्यमानमिह त्रयो मुहूर्ताः षट्यटिका मकर सक्रान्तिदिने द्रष्टव्यम, रात्रिसम्बन्धिन्या Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी 1130- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसी अपि जघन्यमिदमेव मानम्, केवलं कर्कसङग्रान्तिरजन्यां मन्तव्यम्। / उत्कृष्ट तु मानमस्या अर्धपञ्चममुहूर्त्ता नव घटिका दिवससम्बन्धिन्याः कर्कसक्रान्तौ, रात्रिसम्बन्धिन्यास्तुमकरसक्रान्ताविति।।२०७०।। जघन्यायाः पौरुष्या उत्कृष्टायाश्च प्रारभ्य प्रतिदिनं किं स्विद् वर्द्धते, किं वा हीयते? इत्याशक्याऽऽहबुड्ढी वावीसुत्तर- सयभागो पइदिण मुहूत्तस्स। एवं हाणी वि मया, अयणदिणभागओ नेया॥२०७१।। इह जघन्यपौरुष्याः प्रतिदिनं वृद्धिर्भवतिः कियती? इत्याह मुहूर्तस्य द्वाविंशत्युत्तरशततमो भागः, उत्ककृष्टपौरुष्यास्तु प्रतिदिन हानिर्भवति, साऽपि चैवमेव मता, मुहूर्तस्यद्वाविंशत्युत्तरशततमो भाग इत्यर्थः। इयं च पौरुष्या वृद्धि निश्चोत्तरायण–दक्षिणायन-दिनभागतो ज्ञेया। इदमत्र हृदयम्-षभिर्मासैस्तावदुत्तरायणं दक्षिणायनदिन भागतो ज्ञेयं भवति, एवं दक्षिणायनमपि। तत्रोत्तरायणे प्रतिदिनं चतुर्भिः पानीयपलैर्वर्द्धमानानां दिवसानामुत्कृष्ट दिवसे षड् मुहूर्त्ता वर्द्धन्ते, रात्रीणा त्वनयैव हान्या ही यमानानां सर्वहीनायां रात्रौ षड् मुहूर्ताहीयन्ते! एवं दक्षिणायनेऽपि, नवरंरात्रोः षड्मुहूर्तावर्द्धन्ते, दिवसस्य तुहीयन्त इति व्यत्ययोऽवगन्तव्यः। ततश्चैवं सति षड्भिः षड्भिर्मासर्दिनरजन्योर्यथायोगं षड् मुहूर्ता वर्धन्ते हीयन्ते च / मासेन त्वेकस्य मुहूर्तस्य वृद्धिहानी / सूर्य संवत्सरस्तु षटषष्टयधिकैस्त्रिभिर्दिनशतैर्भवति / ततश्चैकैक मयनं त्र्यशीत्याधिकदिनशतेनाऽतिक्रामति। मासे तु सूर्यसम्बन्धिनी सार्धत्रिंशदिनानि भवन्ति, यश्चमासे मुहूर्तो वर्धते तस्यैतैः भवति, अत एकैकस्या अपि घटिकाया एकषष्टिभागाः कल्प्यन्ते ततो घटिकाद्वय एकषष्टिभागानां द्वाविंशं शतं भवति। सार्धत्रिंशदिनमाने च मासे रात्रिदिनपौरुषी णामपि प्रत्येकं द्वाविंशं शतं भवति / अत एतेन द्वाविंशेन शतेन मुहूर्त्तगनघटि कैकषष्टिभागानां द्वाविंशस्य शतस्य भागे हत एकैको द्वाविंशततमो घटिकैकषष्टिभागः समागच्छति। स च प्रतिदिनभेकैकस्या दिनरात्रिपौरुष्या यथायोगं वर्धत, हीयते चेति। अतः साधूत्कम्-'बुड्डी वावीसुत्तर' इत्यादि // 2071 // __ अथवा-प्रकारान्तरेणाऽप्यस्याऽर्थस्याऽवबोधार्थमाह - उकोस-जहण्णाणं, जदंतरालमिह पोरिसीणं तं। तसीयसविभत्तं, बुड्डि हाणिं च जाणाहि॥२०७२।। उत्कृष्टा नवघटिकाप्रमाणा पौरुषी, जघन्या तु षडघटिकाप्रमाणेत्युत्कमेव। एतयोश्च जघन्योत्कृष्टयोः पौरुष्योर्यदघटिकात्रायलक्षणमन्तरालं तदयनगतत्र्यशीतिशतविभक्तं प्रतिदिनं पौरुष्या वृद्धि हानि च जानीहि / इदमुक्तं भवति त्र्यशीतेन दिनशतेन तिस्त्रो घटिका वर्धन्ते हीयन्ते वा पौरुष्याः, तर्हि प्रतिदिनं तस्याः किं वर्धते हीयते वा? इत्यस्य जिज्ञासायां घटिकात्रयस्य त्र्यशीतेन भागो हियते, तत एकैका घटिकैकषष्टिभिगिः क्रियते, ततस्त्रयशीत्यधिकं शतमेकवष्टिभागानां भवति, तस्य च त्र्यशीतेनैव दिनशतेन भागे हृते प्रतिदिनमेकषष्टिभागो वृद्धौ हानौ वा पौरुष्या लभ्यत इति स एवाऽर्थः, अस्याप्येकस्यैकषष्टि भागस्य मुहूर्तद्वाविंशशततमभागरुपत्वादिति। विशे०। ता पौरुष्येव न ज्ञायते किं प्रमाणा? अतस्तत्प्रति-- पादनाायाऽऽहपोरिसिपमाणकालो, निच्छयववहारओ जिणक्खाओ। निच्छयओ करणजुओ, ववहारमतो परं वोच्छं // 281 / / पौसष्याः प्रमाणकालो द्विविधः, निश्चयतो व्यवहारतश्च ज्ञातव्यः, तत्रा निश्चयतो--निश्चयनयाऽभिप्रायेण करणयुत्को गणितन्यायात्, अतः परं व्यावहारिको-व्यवहारन यमतेन वक्ष्ये। तत्र निश्चयपौरुषीप्रमाणाकालप्रतिपादनायाऽऽह - अयणाई य दिणगणे, अट्ठगुणेगट्ठिभाइए लद्धं / उत्तरदाहिणमाई,पोरिसि पयसुज्झपक्खेवा // 26 // दक्षिणायने उत्तरायणदिनानि, उत्तरायणे दक्षिणायन दिनानि मीलयित्वा गण्यन्ते, स राशिरष्टभिर्गुण्यते, एकषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धेऽसलानि, द्वादशाङ्गुलैः पादः यावता भवति (उत्तरत्ति) मकरदिने 4 पादाः / (दाहिण त्ति कर्कदिने 2 पादौ, शेषेषु पदशुद्धिप्रक्षेपौ!) व्यवहारतोऽधुना पौरुषीप्रमाणकालप्रतिपादनायऽऽहआसाढ मासे दुपया, पोसे मासे चउप्पया। चित्तासोएसुमासेसु, तिपपा हवइपोरिसी॥२८३।। आषाढ़े मासे पौर्णमास्यां द्विपदा पौराषी भवति, पदं च द्वादशाकुल ग्राह्य, पौषे मासे पौर्णमास्यां चतुष्पदा पौरुषी भवति, तथा चैत्राश्वयुजपौर्णमास्यां त्रिपदा पौरुषी भवति। अधुना कियती वृद्धिः कियत्सु दिनेषु कियती वा हानिरि त्येतत्प्रतिपादयन्नाहअंगुणं सत्तरत्तेणं, पक्खेणं तु दुअंगुलं / वड्डए हायए वावि, मासेणं चउरंगुलं // 24 // आषाढपौर्णमास्या आरभ्याङ्गुलं सप्तरात्रोण वर्द्धते, पक्षेण तु अङ्गुलद्रय वर्धते, तथा मासेनाङ्गुलचतुष्टयं वर्द्धते, इयं च वृद्धिरुत्तरोत्तरं तावन्नेया यावत्पौषमासपौर्णमास्यां पदचतुष्टयेन पौरुषी जायते, हानिरपि पौर्णमास्याः परत एवमेव च द्रष्टव्या, यदुताङ्गुलं सप्तरात्रोणापव्हियते, पक्षेणाङ्गुलद्वयं, मासेनाङ्गुल चतुष्टयम्, एवमियं हानिरुत्तरोत्तरं तावन्नेया यावदाषाढपौर्णमास्यां द्विपदा पौरुषी जायेता स्थापना चेयस्"आसाढपुण्णिमाए पद 2 पोरुसी सावणपुण्णिमाए पद 2 अंगुल 4, भद्दवयपुणिमाए पद 2 अंगुल 8, आसोयपुण्णिमाए पद 3, कत्तियपुन्निमाए पद 3 अंगुल 4, मग्गसिरपुण्णिमाए पद 3 अंगुल 8 पोसपुण्णिमाए पद 4, एत्तिअंजाव वुड्डी होइा माहपुण्णिमाए पद 3 अंगुल 8. फग्गुणपुणिणमाए पद 3 अंगुल 4, चेत्तपुण्णिमाए पद 3, वइसाहपुन्निमाए पद 2, जेठ्ठपुन्निमाए पद 2 अंगुल 4, आसाढपुन्निमाए पद 2 इत्तियं जाव हाणी। भावत्थो इमोसावणस्सपढमदिवसाओ आरभ वुड्डी जदा भवति तदा दिवसे अंगुलस्स सत्तमो भागो किंचिप्पूणो वडइ, Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसी 1131 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोरिसीपञ्चक्खाण इमभणिअंहोइ-सावणस्स पढमदिवसे दोहि पएहिं पोरिसी होइ अंगुलस्स सत्तमेण भागेण किंचिप्पूर्णण अहिया, एवं वितियदिवसे दो पयाई दो अ सत्तमभागा अंगुलस्स किंचिप्पूणा एवं एयाए वुड्डीए ताव जाव सावण पुणिमाए दो पयाई चत्तारिय अंगुलाई धुड्डी जाया, एवं इमाइ कम वुड्डीए ताव नेयव्वं जाव पोसमासपुण्णिमा। तत्थ चउप्पया पोरिसी, ततो परं माहपढमदिवसाउ आरब्भ हाणी एतेण चेव कमेण नायध्वा० जाव आसाढपुण्णिमा।" आह-इदमुक्त सप्तभिर्दिवसैरङ्गुलं वर्द्धते, तथा पक्षणाङ्गुलद्वयं वर्द्धत इत्युक्तं, तदयं विरोधः, कुतो? यदा पक्षेणाडुगुलद्वयंवर्द्धते तदा डगुलं सप्तभिः सार्द्धर्दिवसैर्वर्द्धते? आचार्यस्त्वाहसत्यमेतत, किन्त्वनेनैव तत्प्रख्याप्यतेवरं किञ्चिद् वृद्धायां पौरुष्या पारितं मा भून्न्यूनायां, प्रत्याख्यानभङ्ग भयात्, न्यूनता च पौरुष्यामेवं भवति, यदि याऽसौ मातुमारब्धा छाया, तस्यां यदि प्रदीर्घायां भुङ्क्ते तदा न्यूना पौरुषी, अधिका चतदा भवति यदा सा छाया स्वल्पा भवतीति। ___ अधुना येषु मासेष्वहोरात्राणि पतन्ति तान् मासान् प्रतिपादयन्नाह - आसाढबहुलपक्खे, भद्दवए कत्तिए य पोसे य। फग्गुणवइसाहेसु य, बोद्धव्वा ओमरत्ताओ॥२८५।। आषाढस्य मासस्य बहुलपक्षे--कृष्णपक्षेऽहोरात्रपतति, तथा भाद्रपदबहुलपक्षे कार्तिकबहुलपक्षे पौषबहुलपक्षे फाल्गुन बहुलपक्षे वैशाखबहुलपक्षे चाहोरात्राणि पतन्ति। 'ओमरतं' अहोरात्रं न च तैरहोरात्रौः पतद्धिरपि पौराष्या न्यूनता वेदितव्या, अस्याऽर्थस्य ज्ञापनार्थमिदमुक्तम्। एवं तावत्पौरुष्याः प्रमाणमुपगतं, या तुपुनरश्चरम पौरुषी सा कियत्प्रमाणा भवतीत्यतस्तत्स्वरूपप्रति-- पादनाथाऽऽहजेट्ठामूले आसा-ढसावणे छहिं ऽङ्गुलेहि पडिलेहा। अट्ठहिं वीअतियम्मिय, तइए दस अट्ठहि चउत्थे // 286 // ज्येष्ठामूले मासे तथाऽऽषाढश्रावणे षड्भिरङ्गलैर्या वदद्याऽपि पौरुषी न पूर्यते तावचरमपौरुषी भवति। (अट्ठहिँ बीअतियम्मि ति) भाद्रपदे आश्वयुजे कार्तिक चाऽस्मिन् द्वितीयत्रिके-ऽष्टभिरङ्गुलविदद्यापि पौरुषी न पूर्यते तावचरमपौरुषी भवति। (तइए दस त्ति) मार्गशिरे पौषे माघे च एतस्मिन् तृतीये त्रिके दशभिरङ्गुलैर्यावदद्याऽपि पौरुषीन पूर्यत ताचरमपौरुषी भवति। (अट्ठहि चउत्थेत्ति) फाल्गुने चैत्रे वैशाखेच अस्मिंश्चतुर्थे त्रिकेऽष्टभिर गुलैर्यावन्न पूर्वत पौरुषी तावच्चरम पौरुषी भवति। ओघ०। पोरिसीपञ्चक्खाण न० (पौरुषीप्रत्याख्यान) प्रथमपौरुष्यां चतुर्विधाऽऽहारप्रत्याख्याने, तत्प्रत्याख्याने षड् 6 आकाराः / प्रव० 4 द्वार। नमु (का) कारपोरिसीए, पुरिमड्ढेगासणेगठाणे य। आयंबिल ऽभत्तट्टे, चरमे य अभिग्गहे विगई / / 1567 // दो छच सत्त अट्ठ, सत्तट्ठ य पंच छच पाणम्मि। चउ पंच अट्ठ नवयं, पत्तेयं पिंडए नवए।।१५९८ / / दोचेव नमुकारे, आगारा छच्च पोरिसीए उ। सत्तेव य पुरिमड्डे, एगासणगम्मि अट्टेव / / 1566 || सत्तेगट्ठाणस्स उ, अद्वेवायंबिलम्मि आगारा। पंचेव अभत्तढे, छप्पाणे चरिमि चत्तारि॥१६००।। पंच चउरो अभिग्गहि, निव्वीए अट्ट नव य आगारा। अप्पाउराण पंचउ, हवंति सेसेसु चत्तारि।।१६०१॥ आव०॥ ('आसां गाथानामर्थः पंचक्खाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 104 पृष्ठ गतः) षट् चेति पौरुष्यां तु. इह च पौरुषी नामप्रत्याख्यानविशेषः, तस्यां षट् आकार भवन्ति। इह चेदं सूत्रम्पोरिसिं पञ्चक्खाति, उग्गते सूरे चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अण्णत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साधुवयणेणं सव्वसमाहिवत्तियागा रेणं वोसिरह। अनाभोगसहसाकारसंगतिः पूर्ववत्, प्रच्छन्नकालाऽऽदीनांत्थिदं स्वरुपम्-"पच्छण्णातो दिस उरएण रेणुणा पव्वएणवा अएणएणा वा अंतरिते सूरोण दीसति, पोरिसी पुषणत्ति कातुंपारितो, पच्छा णातं, ताहे ठाइतव्य ण भग्ग, जति भुजति तो भग्गं, एवं सव्वेहि वि, दिसामोहेण कस्सइ पुरिसस्स कम्हि वि खेत्ते दिसाभोहो भवति, सो पुरिमं पच्छिम दिसं जाणति, एवं सो दिसामोहेण अइराग्गदं पि सूरं द? उस्सूरीभूतं ति मण्णाति, णाते ठाति, साधुणो भणंति-उग्घाड पोहसी ताव सो पजिमितो, पारित्ता मिणत्ति, अन्नो वा मिणइ, तेणं से भुंजंतस्स कहितं ण पूरितंति, ताहे ठाइदव्वं समाधी णाम तेण य पोरिसी पचक्खाता, अआसुकारितं चदुक्खं जातं अण्णस्स वा, ताहे तस्स पसमणणिमित्तं पाराविजति ओसह वा दिजति, एत्थंतराणाते तहेव विवेगो।" सप्तैव च पुरिमार्द्धपुरिमार्द्ध प्रथमप्रहरद्वय कालावधिप्रत्याख्यानं गृह्यते, तत्र सप्त आकारा भवन्ति / इह च इदं सूत्राम्-'सूरे उग्गते' इत्यादि, षडाकारा गतार्थाः, नवरं महत्तराकारः सप्तमः, असावपि सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्याने साकारे कृताधिकारे अौव व्याख्यात इति न प्रतन्यते। आव०।६ अ०। ध०॥ पञ्चा०ाल०ए०॥ "पोरिसिं पच्चक्खाइ'' इत्यादि आवइयकषष्ठाध्यनसूत्रार्थ एवमपि व्याख्यातःपुरुषः प्रमाणमस्याः सा पौरुषी छाया, तत्प्रमितः कालोऽपि पौरुषी, प्रहर इत्यर्थः / तां प्रत्याख्याति/अघ"काललाध्यनो रत्यन्तसंयोगे" // 2 // 3 // 5 // इति द्वितीया। ततः पौरुषी यावत्प्रत्याख्यानं करोतीत्यर्थः / एवमन्यत्राऽपि, कथं चतुर्विध मप्याहारमशनाऽऽदिक व्युत्सृजतीति? अन्यत्रानाभोगाऽऽद्याकारेभ्यस्तत्रानाभोगसहसाकारौ पूर्ववदन्या प्रच्छनकालात् दिड्मोहात साधुवचनात्, सर्वसमाधिप्रत्ययाकाराचा प्रच्छन्नता च कालस्य घनतरधनाघनपटलेन विस्फुरद्रजसा गुरुतरगिरिणा चान्तरितत्वात् दिवाकरो न दृश्यते, तत्र पौरुषी पूर्णो ज्ञात्वा भुजानस्यापूर्णायामपि पौडष्यां न भङ्गः, ज्ञात्वा तु अर्द्धभुक्तेनाऽपि तथैव स्यातव्यं Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोरिसीपञ्चक्खाण 1132 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोसह यावत्पौरुषी पूर्णा भवति, पूर्णायांततः परं भोक्तव्यम् / अपूर्णा पौरुषीति णयरे सद्दालपुरे णाम कुम्भकारे।" आ० म० 1 अ० / उपा० / आ० तु ज्ञाने तु भुञ्जानस्य भङ्ग एवेति। दिग्मोहस्तु यदा पूर्वामपि पश्चिमेति चू० / स्था०। अन्त०॥ जानाति तदाऽपूर्णायामापि पौरुष्यां भुजानस्य न भङ्गः / कथमपि | पोलासाढ न० (पोलासाढ) श्वेताम्बिकायां नगर्या पोलासोद्याने स्वनामोहोपगमे तु पूर्ववदर्द्धभुक्तेनापि स्थातव्यम्, अन्यथा तु भङ्ग एवेति। मख्याते चैत्ये, यत्रााऽऽUषाढादयो व्यक्तिका निलवा जाताः / विशे० / तथा साधुवचनम्-"उद्घाटा पौरुषी''इत्यादिकं विभ्रमकारणं, तत् पोलिअ (देशी) सैनिके, दे० ना०६ वर्ग 62 गाथा। श्रुत्वा भुञानस्यन भङ्गो, भुजानेन तुज्ञाते अन्येन वा केनापि निवेदिते पोलिंदी स्त्री० (पोलिन्दी) पुलिन्दसम्बन्धिन्या ब्राहम्या लिपेर्भेदे, प्रश्न० पूर्ववत् तथैव स्थातव्यम् / तथा कृतपौरुषी प्रत्याख्यानस्य सहसा १आश्र० द्वार। संजाततीव्रशूलाऽऽदिदुःखतया / समुत्पन्नयोरातरोद्रध्यानयोः सर्वथा | पोलिया स्त्री० (पोलिका) बहुभिस्तिलैर्निष्पादितायाम्, आचा०१ श्रु० निराशः सर्वसमाधिः, स एव प्रत्ययः कारणं, स एवाऽऽकारः प्रत्याख्या- / 1 अ०५ उ० / आव०। नापवादसर्वसमाधिप्रत्ययाकारः। पौरुष्यामपूर्णायामप्यकरमात्शूलाऽऽ पोल्ल त्रि० (पोल) रिक्ते , तं०। "पोल्ले य मुट्ठी जह से असारे अयंतिए दिव्यथायामुत्पन्नाया तदुपशमनायौषधपथ्याऽऽदिकं भुजानस्य न कूडकहावणे य / राढावणी वेरुलियप्पगासे, अमग्घए होइ य जाणप्रत्याख्यात भङ्गु इति भावः / वैद्याऽऽदिर्वा कृतपौरुषीप्रत्याख्यानोऽन्य- एसु // 42 / / " उत्त०२० अ०। स्याऽऽतुरस्य समाधिनिमित्तं यदा अपूर्णायामपि पौरुष्यां भुङ्क्ते तदा | पोल्लगमुट्ठि स्त्री० (पोल्लकमुष्टि) रिक्तमुष्टी, "तं। रिक्तमुट्ठी विव बालन भङ्गः, अर्द्धभुक्ते त्वातुरस्य समाधौ मरणे चोत्पन्ने सति तथैव भोजन- लोभणिज्जाओ" (स्त्रियः) रिक्तमुष्टिवत् - पोल्लक मुष्टिवत् बाललोभत्यागः। सार्द्धपौरुषीप्रत्याख्यानं पौरुषीवद्वाच्यं, तस्य तदन्तर्गतत्वादिति। नीया अव्यक्तजनलोभनयोग्याः, बल्कलचीरीतापसवत्। तं०। प्रव० 4 द्वार / श्राद्धानां पौरुष्यादि प्रत्याख्यानं चतुर्विधाऽऽहारमेव पोस पुं० (पौष)भावे घञप्रत्ययः / पोषणे, प्रव०६ द्वार० तदर्थितो वा भवति, अन्यथाऽपि वेत्यध्य ''निसिपो रिसिपुरिमेगासणाइसवाण पोष्यतीति पोषः, तेन सेव्यमानेन पुष्यत इति पोषः, आत्मानं वा तेन दुतिचउहा।" इति भाष्यवचनात् द्विविधाऽऽहारं त्रिविधाऽऽहारं चतुर्वि- पोषयतीति पोषः। मृगीपदे, नि० चू०६ उ०१ धाऽऽहारं वा कर्तुं कल्पते / / 5 / / ही०३ प्रका०। *पोस पुं० पुस उत्सर्गे, पुसति-पुरीषमुत्सृजति अनेनेति। अपानदेशे, पोरिसीमंडल न० (पौरुषीमण्डल) पुरुषः-शडकुः, पुरुष शरीर वा, जी०३ प्रति० 4 अधि०। तस्मान्निष्पन्ना पौरुषी। "तत आगतः" // 413 / 74 / / इत्यण / आह * पौष पुं० पुष्यनक्षत्रयुक्तपूर्णिमान्तके मासभेदे, स०२६ सम०। आ० चूर्णिकृत्-''पुरिसो ति संकू। नं०। पुरुषः शङ्कःशरीरं वा तस्मान्निष्पन्ना म०।"हेमतो पोसमग्गसिरो।' पाइ० ना० 207 गाथा। पौरुषी / पा० / (अत्रा विशेषव्याख्यानम् ‘पडिक्कमण' शब्देऽस्मिन्नेव पोसंत न० (पोषान्त) 6 त०। मृगीपदस्य (योनेः) अधस्तने प्रान्ते, नि० भागे 304 पृष्ठे गतम्।) चू०६उ01 पोरिसीय न० (पौरुषिक) पुरुषः परिमाणमस्येति पौरुषिकम् / पुरुष- | पोसण न० (पोषण) भरणे, सूत्रा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। प्रतिजागरणपरिमिते, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। करणे. सूत्रा०१ श्रु०२ अ०१उ०। अर्थदानाऽऽदिना सम्माने, आचा० पोरेवच न० (पौरपत्य) पुरस्य पतिः पुरपतिः, तस्य कर्म पौरपत्यम्।। १श्रु०२ अ०१ उ०।यवसाऽऽदिदानतः पुष्टीकरणे, प्रश्न०२ आश्र० सर्वेषामग्रेसरत्वे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। पुरोवर्तित्वे, विपा०१ श्रु०१ द्वार। अ०स०। जं०। ज्ञा०।जी०। प्रज्ञा०। सर्वेषामात्मीयानां मध्येऽग्रेसरत्वे, * पोसन न० पुस उत्सर्गे इति धातोरनटि पोसनम् / अपाने, जं०३ आ० म०१ ।औ०। भ०। वक्षा पोलन० (पोल) शुषिरे, पं०व०२ द्वार। पोसय त्रि० (पोषक) रक्षके, पक्ष्यादिपोषके, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। ये पोलच (देशी) खेटितभूमौ, दे० ना०६ वर्ग 63 गाथा। तित्तिरकुक्कुटमयूरान पोषयन्ति / व्य० 2 उ०। स्था०। पं० चू०। पोलड्डण न० (प्रोल्लण्ड) प्रकर्षण द्विस्त्रिल्लिङ्घने, ज्ञा०१ 01 अ०। | *पोसक पुं० पायौ, बृ०४ उ०। पोलमराय पुं० (प्रोलमराज) काकतीये नृपभेदे, ती० 46 कल्प। पोसवत्थ न० (पोषवस्त्र) कामं पुष्यतीति पोषं, कामोत्पादकारि शोभनपोलासन० (पोलास) श्वेताम्ब्यां नगा स्वनामख्याते उद्याने स्था०७ मित्यर्थः। तच तद्वस्वं च / मनोहरवस्त्रे, "अभिक्खणं पोसवत्थं परिठा० / 'पोलासं उजाणं, तत्थ अज्जासाढा नाम आयरिया।'' उत्त० 4 | हिंति / तदभीषणभनवरतं तेन शिथिलाऽऽदिव्यपदेशेन परिदधति अ० / आ० चू० / कल्प०। स्वाभिप्रायमावेदयन्त्यः साधुप्रतारणार्थ परिधानं शिथिलीकृत्य पोलासपुर न० (पोलासपुर) पुरभेदे, या सद्दालपुत्रा आसीत्। 'पोला- पुनर्निबध्नन्ति (स्त्रियः) सू।०१ श्रु० 4 अ०१उ०। सपुरंणाम णयर, सइसंववणे उजाणे जियस तू राया, तत्थ णं पोलासपुरे | पोसह पुं० (पोषध) पोष-पुष्टिं प्रक्रमाद् धर्मस्य धत्ते करोतीति Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह 1133 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोसह पोषधः / अष्टमीचतुर्दशीपौर्णमास्यमावास्यापर्वदिनानुष्ठये व्रतविशेषे, ध० 2 अधि०। सूत्रा० / ज्ञा०। स्था०। औ० / अव० / तं० / दश० / अनु० / भ० स०। पञ्चा०। दशा०। विधिसूत्राम् - पोसहोववासे चउविहे पन्नते / तं जहा-आहारपोसहे, सरीरसक्कारपोसहे, बंभचेरपोसहे, अव्वावारपोसहे (11) इह पौषधशब्दो रुढ्या पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टम्या दितिथयः, पूरणत्पर्व, धर्मोपचयहेतुत्वादित्यर्थः, पौषधे उयवसनं पौषधोपवासः नियमाविशेषभिधानं चेदं पौषधोपवास इति / अयं च पौषधोपवाससच्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः। तद्यथा-आहारपौषधः, आहारः प्रतीतस्तद्विषयस्तन्निमित्तं पौषध आहारपौषधः, आहारनिमित्तं धर्मपूरणं पर्वेति भावना। एवं शरीरसत्कारपौषधः, ब्रह्मचर्यपौषधः, अत्रा चरणीयं चर्यम्, "अचो यत् // 3 / 1 / 67 / इत्यस्मादधिकारात्"गदमदचरथमश्चानुपसर्गे' // 3 / 1 / 100 / / इत्यस्माद् / ब्रह्मकुशलानुष्ठानम्। यथोत्कम् - 'ब्रह्म वेदा ब्रह्म तपो, ब्रहा ज्ञानं च शाश्वतम्। "ब्रह्म च तच्चर्ये चेति समासः, शेषं पूर्ववत्। तथा अव्यापारपौषधः। एत्थपुण भावत्थे इमो-आहारपोसहो दुविहोदेसे, सव्वे या देसे अमुगा विगती आयंबिलं वा एक्कसिं वा दो वा, सव्वे चउविहो वि आहारो अहोरत्तं पच्चक्खाओ, सरीरसक्कारपोसहोणहाणुव्वट्टवन्नगचिले वणपुप्फगंधतंबोलाण वत्थभरणाण य पडिचागोय, सो विदेसे सव्वे य। देसे अमुगं सरीर सक्कारं करेमि, अमुगं न करेमि त्ति / सव्वे अहोरत्त / बंभचेर पोसहो देसे सव्वे य, देसे दिवा रत्तिं वा एक्कसिं दो वावारे त्ति, सव्वे अहोरत्तिं बंभयारी भवति, अव्वावरे पोसहो दुविहो-देसे सव्वे य, देसे अमुगंवावारं न करेमि, सव्वे सयलवावारे हलसगडघरपरकमादीओ न करेति, एत्थ जो देसपोसह करेइ सामाइयं करेइ वा न वा, जो सव्व पोसह करेइ सो नियमा कयसामाइओ, जदि न करेति तो नियमा वंचिज्जति, त कहिं?, चेझ्यघरे साहुमूले वा घरे वा पोसहसालाए वा उम्मुक्कमणिसुवन्नो पढतोपोत्थगं वा वायंतो धम्मज्झाणं झायइ, जहा एए साहुगुणा अह असमत्थो मंदभग्गो धारेउं विभासा।' 'आव०६ अ०। संपूर्णो विधिः पौषधस्य - आहारतनुसत्कारा-ब्रह्मसावद्यकर्मणाम् / त्यागः पर्वचतुष्टय्यां, तद्विदुः पौषधव्रतम्॥३६ / / पर्वचतुष्टयीअष्टमीचतुर्दशीपूर्णिमाऽमावास्यालक्षणा, तस्याम, आहारः प्रतीतः, तुनसत्कारः-स्नानोद्वर्तनवर्णकवि लेपनपुष्पगन्धविशिष्ट - वस्वाऽऽदिः, अब्रह्ममैथुनं, सावद्यकर्म कृषिवाणिज्याऽऽदि, एतेषा यस्त्यागस्तत्पौषधव्रतं विदुर्जिना इत्यवन्यः। यतः सूत्राम्-''पोसहोववासे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-आहारपोसहे, सरीरसक्कारपोसहे, बंभचेरपोसहे, अव्वा वारपोसहे (11 आव०६ अ०।) 'त्ति।ता पोषपुर्टि प्रकमाद्धर्मस्य धते इति पोषधः, स एव व्रतं पोषधव्रतमित्यर्थः, पोषधो पलास इत्यप्युच्यते, तथाहि-पोषध उत्कनिर्वचनो ऽवश्यमष्ट- म्यादिपर्वदिनाऽनुष्ठये व्रतविशेषस्तेनोपवसनम्-अवस्थानं पोषधोप वासः, अथवा-पोषधः अष्टम्यादिपर्वदिवसः उपेति सह उपावृत्तदोषस्य सतो गुणैराहारपरिहाराऽऽदिरुपैर्वास उपवासः / यथोत्कम् –''उपावृत्तस्य दोषेभ्यः, सम्यग्वासो गुणैः सह। उपवासः स विज्ञेयो, न शरीर विशोषणम् ॥१॥"इति। ततः पोषधेषूपवासः पोषधोपवासः, आवश्यकवृत्तावित्थं व्याख्यात्वात्-तथाहि- "इह पोषधशब्दो रुढ्या पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः, पूरणात्पर्वधर्मोपचयहेतुत्वादित्यर्थः, पोषधेषूपवसनं पोषधोपवासः-नियमविशेषाभिधानं चेदमिति / '' इयं च व्युत्पत्तिरेवः प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याऽऽहाराऽऽदिचतुष्कवर्जनेषु समवायाङ्ग वृत्ती श्रीअभयदेवसूरि भिरेवमेव व्याख्यातत्वात्। पौषधश्च आहार१ शरीरसत्कार ब्रह्मचर्याऽ३ व्यापार / भेदाचचतुर्द्धा, एकैकोऽपि, देशसर्वभेदाद द्विधेत्यष्टधा, तत्राऽऽहारपोषधोदेशतो विवक्षितविकृतेरविकृतेराचाम्लस्य वा सकृदेव द्विरेध वा भोजनमिति, सर्वतस्तु चतुर्विधस्याप्या हारस्याहोरानं यावत्प्रत्याख्यानं१, शरीरसत्कारपोषधोदेशतः शरीरसत्कारस्यै कतरस्याकरणं, सर्वतस्तु सर्वस्याऽपि तस्याकरणं 2, ब्रह्मचर्यपोषधोऽपि देशतो दिवैवरासावेव सकृदेव द्विरेव वास्त्रीसेवा मुक्तवा ब्रह्मचर्यकरणं, सर्वतस्तु अहोरात्र यावत् ब्रह्मचर्यपालनं 3, कु (अ) व्यापारपोषधस्तु देशत एकतरस्य कस्याऽपि कुव्यापारस्याकरणं, सर्वतस्तु सर्वेषां कृषिसेवावाणिज्यपाशुपाल्यगृहकर्मादीनामकरणम् 4 / इह च देशतः कुव्यापारनिषेधे सामायिकं करोतिवा न वा, सर्वतस्तु कुव्यापारनिषेधे नियमात्करोति सामायिकम्, अकरणे त तत्फलेन वञ्च्यते, सर्वतः पोषधव्रतं च चैत्यगृहे वा साधुमूले वा गृहे वा पौषधशालाया था त्यत्कमणिसुवर्णाऽऽद्यलङ्कारो व्यपगतमालाविलेपनवर्णकः परिहतप्रहरणः प्रतिपद्यते, ताच कृते पठति, पुस्तकं वाचयति, धर्मध्यानं ध्यायति, यथा एतान् साधुगुणानह मन्दभाग्योनसमर्थो धारयितुमिति आवश्यकचूर्णिश्रावकप्रज्ञप्ति वृत्याद्युत्को विधिः / योगशास्त्रवृत्तो त्वयमधिकः / तथाहि-"यद्याहारशरीरत्सत्कारब्रा वर्यपोषधवत्कुव्यापारपोषधमप्यन्यत्रानाभोगे त्याद्याका रोचारणपूर्वकं प्रतिपद्यते, तद सामायिकमपि सार्थकं भवति, स्थूलत्वात्पोषधप्रत्याख्यानस्य, सूक्ष्मत्वाच सामयिकव्रतस्येति / तथा पोषधवताऽपि सावधव्यापारे न कार्य एव, ततः सामायिकम कुर्व स्तल्लाभाद् भ्रश्यतीति, यदि पुनः सामाचारीविशेषात् सामायिकमिव द्विविधं त्रिविधेनेत्यवं पौषधं प्रतिपद्यते, तदा सामायिकार्थस्य पोषधेनैव गतत्वान्न सामायिकमत्यन्तं फलवत् यदि परं पोषधसामायिकलक्षणं व्रतद्वयं प्रतिपन्नं मयेत्यभिप्रायात्फलवदिति। एतेषां चाऽऽहाराऽऽदिपदानां चतुर्णो देशसर्वविशेषिता नामेकद्द्यादिसंयोगजा अशीतिर्भङ्गा भवन्ति। तथाहि-एककसंयोगाः प्रागुत्का एवाष्टौ / द्विक संयोगाः षट् एकैकस्मिश्च द्विकयोगदेसे देसे 1 देसे सव्वे 2 सव्वे देसे 3 सव्वे सव्वे 4 एवं चत्वाररचत्वारो भङ्गा भवन्ति, सर्वे चतुविंशतिः 24 / त्रिकयोगाश्चत्वारो भवन्ति, एकैकस्मिश्च त्रिकयोगे देशसर्वापेक्षया देसे देसे देसे 1 देसे देसे सव्ये 2 देसे सव्वे देसे 3 देसे सव्वे सव्वे 4 सव्वे देसे देसे 5 सव्वे देसे सव्वे 6 सव्वे सवे देसे 7 सय्वे Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह 1134 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोसह सव्ये सव्वे 8 एवमष्टावष्टौ भवन्ति,सर्वे द्वात्रिंशत् 32 / चतुष्कयोगे एकः, तत्रदेशसर्वापक्षया षोडश१६भङ्गाः-देसे देसे देसे देसे 1 देसे देसे देसे सव्वे 2 देसे देसे सव्वे देसे 3 देसे देसे सव्वे सव्वे 4 देसे सव्वे देसे देसे देसे 5 देसेसवे देसे सव्वे 6 देसे सव्वे सव्वे देसे७ देसे सव्वे सव्ये सव्वे सव्वे देसे देसे देसे सब्वे देसे देसे सव्वे 10 सव्वे देस सव्वे देसे 11 सव्वे देसे सव्वे सव्वे 12 सव्वे सव्वे देसे देसे 13 सव्वे सव्वे देसे सव्वे 14 सव्वे सव्ये सव्वेदेसे 15 सव्वे सव्वेसव्वेसव्ये 16 एव सर्वेषां मीलने८० अशीतिर्भङ्गाः स्युः स्थापना यन्त्रकाणि चेमानिएतेषां मध्ये पूर्वाऽऽचार्यपरम्परया समाचारीविशेषेणा ऽऽहारपोषध एव देशसभेदाद् द्विधाऽपि सम्प्रति क्रियते, निरवद्याऽऽहारस्य सामायिकेन सहाविरोधदर्शनात्। पोषधस्याऽशीतिभङ्गयन्त्रकाणिएकसंयोगा देशतः 4 आ० पो० दे०१ स०पो० दे०२,बं० पो० दे०३। एककभङ्गाः सर्वतः ४-आ० पो० स०५.स०पो० स०६, बं०पो० स० 71 सर्वसामायिकव्रतवता साधुना-अ० पो० दे०४, अ० पो० स०८। उपधानतपोवाहिश्रावकेणाप्याहारग्रहणात्। शेषास्वयः पोषधाः सर्वत एवोचार्यन्ते, देशतस्तैः प्रायः सामायिकस्य विरोधात्, यतः सामायिके -आहारशरीरत्योगे 4 आ० पो०दे०स० पो० दे०१, आ० पो० दे० स० पो० स०२, आ० पो० स०स० पो० दे०३, आ०पो० स० स०पो० स० 4 / आहारब्रह्मयोगे आ० पो० दे०बं० पो० दे०५, आ०पो० दे० बं० पो० स०६, आ० पो० स० ब० पो० दे०७, आ० पो० स० बं० पो० स०८/ आहारव्यापारयोगे-४ आ० पो० दे० अ० पो० दे०६, आ० पो० दे० अ० पो० स०१०, आ० पो० स० म०पी० दे०११, आ० पो० स०अ० पो० स०१२। शरीरब्रह्मयोगे 4 स०पो० दे० बं० पो० दे०१३, स० पो० दे० बं० पो० स०१४,स०पो० स० ब० पो० दे०१५, स०पो० स० बं० पो० स०१६ / शरीरव्यापारयोगे 4 स० पो० दे० अ० पो० दे०१७, स०पो० दे० अ० पो० स०१८, स०पो० स० अ० पो० दे० 16, स० पो० स०अ० पो० स०२०। ब्रह्मव्यापारयोगे ४-बं० पो० दे० अ० पो० दे०२१, बं० पो० दे० अ० पो० स०२२, बं० पो० स० अ० पो० दे० 23, बं०पो० स० अ०पो० स०२४ आहारऽऽदिचतुर्णा त्रिकयोगे भङ्गाः 4 / / तौकस्मिन्दे० दे० दे० इत्याद्यष्टयोजने 32 आहारशरीरब्रह्मयोगिकस्य दे० दे० दे० इत्यादियोगेऽष्टौ आ० पो० दे०स०पो० दे० बं० पो० दे० 1, आ० पो० दे० स०पो० दे० बं० पो० स०२, आ०पो० दे० स०पो० स० बं० पो० दे०३, आ० पो० दे० स० पो० स० बं० पो० स०४, आ० पो० स०स०पो० दे० ब० पो० दे०५, आ० पो० स० स०पो० दे०५० 'पो० स०६,आ० पो०स०स०पो० स०व० पो० दे०७, आ० पो० स० स०पो० स० बं० पो० स० 8 ।आहारशरीव्यापारयौगिकस्य दे० दे० दे० इत्यादियोगेऽष्टौ यथा-आ० पो० दे० स० पो०दे० अ० पो० दे०६, आ० पो० दे०स०पो० दे० अ० पो०स०१०, आ० पो० दे० स० पो० / स० अ० पो० दे०११, आ० पो० दे० स० पो० स०अ०पो० स०१२, आ०पो० स०स०पो० दे० अ० पो०दे०१३, आ० पो० स०स०पो० दे० अ० पो० स०१४, आ० पो०स०स० पो० स०अ० पो० दे०१५, आ०पो० स०स०पो० स०अ०पो० स०१६। सावजंजोगपच्चक्खामि' इत्युच्चार्यते, शरीरसत्काराऽऽदित्राये तु प्रायः सावधो योगः स्यादेव, निरवद्यदेहसत्कारव्यापारवपि विभूषाऽऽदिलोभ निमित्तत्वेन सामायिके निषिद्धावेव, आहारस्य त्वन्यथा शक्तयाभावे धर्माऽनुष्ठानानिर्वाहार्थ साधुवदुपासकस्याप्य नुमतत्वात्। उत्कं चाऽऽवश्यकचूर्णो आहारब्रह्मव्यापारयोगि कस्य दे० दे० दे० इत्यादियोगेऽष्टौ यथा-आ० पो० दे० बं० पो० दे० अ० पो० दे० 17, आ०पो० दे०बं० पो० दे० अ० पो० स० 18, आ० पो० दे० बं० पो० स०अ० पो०दे० 16, आ० पो० दे० बं० पो० स० अ० पो० स०२०, आ० पो० स० बं० पो० दे० अ० पो० दे० 21, आ० पो० स० ब० पो० दे० अ० पो० स०२२ आ० पो० स० 0 पो०स०अ० पो० दे०२३, आ० पो० स०बं०पो० स०अ० पो० स० 24 / शरीरब्रह्माव्यापारयौगिकस्य पूर्ववत् अष्ट भङ्गाः-स० पो० दे० बं० पो० दे० अ० पो० दे०२५, सं०पो० दे०६०पो० दे० अ० पो० स 26, स० पो० दे० बं० पो० स०अ० पो० दे०२७, स०पो० दे०बं०पो० स० अ० पो० स०२८, स० पो० स० बं०पो० दे० अ० पो० दे० 26, स० पो० स० बं०पो० दे० अ० पो० स 30, स०पो० स० बं० पो० स० अ० पो० दे० 31, स० पो० स० बं० पो० स० अ० पो० स०३२ / चतुःसंयोगिकस्य दे० दे० दे० दे० इत्यादियोगे 16 भङ्गाः 8 आ० पो० दे० स० पो० दे० बं०पो० दे० अ० पो० दे०१, आ० पो० दे० स० पो० दे० ब० पो० दे० अ० पो० स०२, आ० पो० दे० स० पो० दे० ब० पो० स०अ० पो० दे०३, आ० पो० दे०स०पो० दे०बं० पो० स०अ० पो० स०४, आ० पो० दे० स०पो० स० ब० पो० दे० अ० पो० दे०५, आ० पो० दे०स०पो० स० बं० पो० दे० अ०पो० स०६, आ०पो० दे० स० पो० स० बं० पो० स०अ० पो० दे०७, आ० पो० दे० स०पो० स० बं० पो० स० अ० पो०स०८, आ० पो०स०स०पो० दे० बं० पो० दे० अ० पो० दे०६, आ० पो० स०स०पो० दे०बं० पो० दे० अ० पो० स०१०, आ० पो० स० स०पो० दे० बं०पो० स०अ०पो० दे०११, आ० पो० स०स० पोस० बं० पो० स० अ० पो० स०१२, आ० पो० स० स० पो० स० बं० पो० दे० अ०पो० दे०१३, आ० पो०स०स०पो० स० बं०पो० दे० अ० पो० स० 14. आ० पो० स० स० पो० स० ब० पो० स० अ० पो० दे०१५, आ० पो० स० स० पो०स० बं० पो० स०अ० पो० स०१६। पोषधव्रताधिकारे तु "तं सत्तिओ करिज्जा, तवो अ जं वण्णिओ समा-सेणं / देसावगासिएणं, जुत्तो सामाइएणं वा / 11 / / '' निशीथभाष्ये ऽप्युत्कं पौषधिनमाश्रित्य-"उद्दिकडं पि सो भुंजे 'इति, चूर्णी च "जं च उद्दिट्टकडं तं कडसामाइओऽवि भुंजे' इति। इदं च पोषधसहित सामायिकापेक्षयैव संभाव्यते, केवलसामायिके तु मुहूर्त्तमात्रामानत्वेन पूर्वाऽऽवार्यपरम्परा ऽऽदिनाऽऽहा Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह 1135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोसह रग्रहणस्याक्रियमाणत्वात्, श्राक्कप्रतिक्रमण सूत्रचूर्णावप्युक्रम-"जइ देसओ आहारपोसहिओ तो भरापाणस्स गुरुसक्खिम पाराविता आवस्सिअंकरित्ता ईरिआसमिईए गंतु घरं इरियावहि पडिक्कमइ, आगमणालोअणं च करेइ, चेइए वंदेइतथा संडासयं पमञ्जिता पाउंछणे निसीअइ, भायणं पमज्जइ, जहोचिए अ भोअणे परिवेसिए पंच मंगलमुचारेइ, सरेइ पञ्चक्खाणं, तओ वयण पमज्जिता "असुरसुरं अचवचवं, अदुअमबिलंबिअ अपरिसार्डि / मणवयणकायगुत्तो, भुंजइ साहु ब्व उवउत्तो।।१।।" जायामायाए भुचा फासुअजलेण मुहसुद्धि काउंनवकारसरणेण उट्ठाइ, देवे वंदइ, वंदणयं दाउ संवरणं काऊण पुणोवि पोसहसालाए गंतु सज्झायंतो चिट्टई त्ति / अतो देशपोषधे सामायिकसद्भावे यथोत्कविधिना भोजनमागमानुमतमेव दृश्यते / पोषधग्रहण पालनपारणविविधस्त्वयम् -"इह जम्मि दिणे सावओ पोसह लेइ, तम्मि दिणे घरवावारं वजिअपोसहसालाएगहियपोसह जुग्गोवगरणो पोसहसालं साहुसमीवे वा गच्छइ, तओ अंगपडिलेहणं करिय, (अङ्ग प्रतिलेखनाः पञ्चविंशतिः / ताश्च 'पडिलेहणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 341 पृष्ठ "दिहिपडिलेह एगा० इत्यादिगाथाभ्यां प्रतिपादिताः।) उच्चारपासवणे थडिलं पडिलेहिय, (उचारप्रश्वणस्थण्डिलानां प्रतिलेखना 'पडिलेहणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 348 पृष्ठ गता।) गुरुसमीवे नवकारपुव्वं वा ठवणायरिय टावइत्ता, ('ठवणायरिय' शब्दे चतुर्थभागे 1663 पृष्ठे तत्स्थापनविधिर्गतः / ) इरियं पडिक्कमिय खमासमणेण वंदिय, पोसहमुहपत्ति पडिलेहइ। तओ रनमासमणं दाउंउद्धडिओ भणइ 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! पोसहं संदिसावेमि' बीयखमासमणेण पोसह ठामि त्ति भणिय नमुक्कारपुव्वं पोसहमुच्चारेइ 'करेमि भंते! पोसहं आहारपोसह सव्वओ देसओवा, सरीरसक्कारपोसहं सवओ, बंभचेरपोसहं सव्वओ, अध्यावारपोसहं सव्वओ चउविहे पोसहे ठामि० जाव अहोरत्तं पञ्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि' एवं पुत्तिपेहणपुवं खमासमणदुगेण सामाइअंकरिय पुणो खमासमणदुगेण जइवरिसारत्तो तओ कट्टासणगं सेसट्टमासेसु पाउंछाणगं संदिसाविअखमासमणदुगेण सज्झाय करेइ / तओ पडिक्कमणपुट्वं करिय खमारसमणदुगेण बहुवेलं संदिरााविय खमासमणपुव्वं पडिलेहणं करेमि त्ति भणिय, मुहपत्तिं पाउंछणगं परिहरणं च पेहिय, साविया विपुण पुत्ति पाउंछणगमुत्तरीयं के चुगं साडियं व पेहिय, खमासमणं दाउं भणइ-'इच्छाकारि भगवन! पडिलेहणा पडिलेहावउ' तओ इच्छंति भणिय, ठवणायरियं पेहिय, ठविय, खमासमणपुव्वं उवहिमुहपत्ति पेहिय खमासमणदुगेण उवहिं संदिसाविय वत्थकंबलाइ पडिलेहेइ, तओ पोसहसालं जयणाएपमजिय, कजयं उदरिय, परिहविय, इरियं पडिक्कमिय गमणागमणमालोइय खमासमणपुव्वं मंडलीए साहु व्व सन्झायं करेइ, तओ पढइ गुणइ पोत्थयं | वा वाएइ० जाव पउणपोरिसी, तओ खमासमणपुव्वं पुत्तिं पहिय तहेव सज्झायइ० जाव कालवेला, जइ देवा वंदियव्वा हुंति, तो आवस्सियापुव्वं चेझ्यहरे देवे वंदइ, जइ पारणइ तो परचक्खाणे पुगणे खमारामणपुव्वं पुत्तिं पेहिय खमासमणं दाउ भणइ-"पारावह पोरिसी पुरिमड्ढो वा चउआहारकओ तिहारकओ आसि, निथ्वीएणं आयंबिलेणं एगासणेणं पाणाहारेण वा जा काइ वेला तीए, तओ देवे वंदिअ सज्झायं करिय नियगिहे गंतु जइ हत्थसयाओ बाहिं लो इरियं पडिक्कमिय आगमणमालोइय अहासंभव अतिहिसविभा गवयंफासिय निचले आसणे उवयिसिय हत्थे पाए मुहं च पडिलेहित्ता नमुक्कारं भणिय फासुयमरत्तदुट्ठो जिमेइ, पोसहसालाए वा पुव्वसंदिट्ठनियसयणेहिं आणियं, नोभिक्खं हिंडइ। तओ पोसहसालाए गंतुंइरियं पडिक्कमिय देवे वंदिय वंदणं दाउंतिहारस्स चउहारस्स वा पच्चक्खाइ, जइ सरीरचिंताए अट्ठो तो आवस्सियं करिय साहु व्व उवउत्तो निद्धीवे थंडिले गंतुं विहिणा उच्चारपासवणं वोसिरिय सोय करिय पोसहसालाए आगंतु इरिय पडिक्कमियखमासमणपुव्वं भणइ - 'इच्छाकारेण संदिराइ भगवन! गमणागमण आलोयउ इच्छ वसति हुता आवसीकरी अवरदक्खिणविसि जाइउ दिसालो अं करिय अणुजाणह जस्सुग्गह त्ति भणिय, संडासए थंडिलं च पमजिअ, उच्चारपासवणं वोसिरिय, निसीहियं करिय, पोसहसालाए पविट्टा, आवंतजंतेहि जं खंडिअंजं विराहिअंतस्स मिच्छामि दुक्कड।' तओ सज्झायं करेति, जावल्पच्छिमण्हरो, तओखमासमणपुव्वं पडिलेहणं करेमि, बीयखमासणेणं पोसहसालं पमन्जेमि त्ति भणिय सावओ पुत्ति पाउछणगं पहिरणगं च पेहेइ, साविया पुण पुत्तिं पाउंछणगं साडिअं कंचुगमुत्तरीयं च पेहेइ, तओटवणायरियं च पेहिय,पोसहसाल पमज्जिय खमासमणपुव्वं उवहिमुहपत्तिं पहिय खमासमणेण मंडलीए जाणुडिओ सज्झायं करिय वंदणं दाउं पचक्खाणं करिय खमासमणदुगेण उवहिं संदिसाविय वत्थकंबले पडिलेहिय सज्झाय करेइ, जो पुण अभट्ठी सो सव्वावेहि अंते पहिरणगं, साविया पुण गोसिव्व उवहिं पडिलेहेइ, कालवेलाए पुण खमासमणपुव्वं राज्झाए अतोवहिं च बारस बारस काइयउचारभूमीओ पेहेइ। यतः -" बारस बारस तिन्नि अ, काइअउच्चारकालभूमीओ। अंतोबहिं अहिआसे, अणहिआसेण पडिलेहा // 1 // " स्थापना -- वडी नीति संथारानई समीपिं - आगाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अणहियासे 1, आगाढे मज्झे उचारे पासवणे अणहियासे 2, आगाढे दूरे उचारे पासवणे अणहियासे 3 / लघुनीति-आगाढे आसन्ने पासवणे अणहियासे 1, आगाढे मज्झे पासवणे अणहियासे 2, आगाढे दूरे पासवणे अणहियासे 3 / उपाश्रय नां बार मांहि लई पासई आगाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अहियासे 1, आगाढे मज्झे उचारे पासवणे अहियासे 2, आगाढे दूरे उचारे पासवणे अहियासे 3 / उपाश्रयद्वार बाहिर लई पासइ आगाढे आसन्ने पासवणे अहियासे 1, आमाढे मज्झे Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह 1136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोसह पासवणे अहियासे 2, आगाढे दूरे पासवणे अहियासे 31 अणागाढे आसन्ने उचारे पासवणे अणहियासे 1, अणागाढे मज्झे उचारेपासवणे अहियासे 2, अणागाढे दूरे उच्चारेपासवणे अणहियासे 3 / अणागाढे आसन्ने पासवणे / अणहियासे 1, अणागाद मज्झे पासवणे अणहियासे 2, अणागाढे दूरे पासवणे अणहियासे 3 / स्थण्डिलस्थाने-अणागाढे आसन्ने उच्चारे | पासवणे अहियासे 1, अणागाढे मज्झे उचारे पासवणे अहियासे 2, अणागाढे दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे 31 अणागाढे आसन्ने पासवणे अहियासे 1, अणागाढे मज्झे पासवणे अहियासे 2, अणागाढे दूरे पासवणे अहियासे 3 / तओ पडिक्कमणं करिय सइ संभवे साहूणं विस्सामणा खमासमण दाऊण सज्झायं करेइ० जाव पोरिसी, तओखमासमणपुव्वं भणइ-इच्छाकारेण संदिसह भगवन ! बहुपडिपुन्ना पोरिसी राइसंथारए ठामि,तओ देवेवंदिय सरीरचिंतसोहिय सव्वं बाहिररुवहिं पेहिय जाणुवरि संथारुत्तपट्ट मेलिय जओ पाए भूमि पमज्जिय सणियं संथरइ, तओ वामपाएण संथारं संघट्ठिय पुत्तिं पहिय निसीहीइ नमो खमासमणाणं / अणुजाणह जिद्विज त्ति भणंतो संथारए उवविसिय नमुक्कारतिअ तिन्नि वारे सामाइयं कड्डिय "अणुजाणह परमगुरु, गुरुगुणरयथोहि मंडियसरीरा। बहुपडिपुन्ना पोरिसी, राईसंथारए ठामि / / 1 / / अणुजाणह संथारं, वाहुवहाणेण वामपासेणं। कुक्कुडिपायपसारण, अंतरंत पमज्जए भूमि।।२।। संकोइयसंडासा, उव्वदृते य कायपडिलेहा। दव्वाई उवओगं, ऊसासनिरंभणाऽऽलोए।।३।। जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्स इमाएँ रयणीए। आहारमुवहिदेहं, सव्वं तिविहेण वोसिरियं // 4 // " चत्तारि मंगलमिचाइभावणाभाविय नमुक्कारं समरंतो रओहरणाइणा सरीरग संथारगरसुवरिभागं च पमज्जिअवामपासेण बाहूबहाणेण सुयइ, जइ सरीरचिंताए अट्ठो संथारंगं अन्नेण संघट्टाविय आवस्सियं करिय पुव्वपहियथंडिले काइअं वोसिरिय इरियं पडिक्कमिय गमणागमणमालोइअ जहनेण वि तिन्नि गाहाओ सज्झाइय नमुक्कार समरंतो तहेव सुयइ। पच्छिमजामे इरियं पडिक्कमिय 'कुसुमिणुदुसुमिणकाउस्सग्ग' चिइवंदणं च काउं आयरियाइ वंदिय सज्झायं करेइ, जाव पडिक्कमणवेला, तओ पुव्वं व पडिक्कमणाइ जाव मंडलीए सज्झाऊँ करिअ जइ पोसह पारिउकामो तो खमासमणं दाउं भणइ- 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्! मुहपुत्तिं पडिलेहेमि। गुरु भणइ- 'पडिलेहइ' तओ पुत्तिं पहिय खमासमणं दाउं भणइ-'इच्छाकारेण संदिसह पोसह पारउ? गुरु भणइ -- 'पुणो विकायव्यं' (व्वो) बीयखमासमणेणं भणइ- 'पोसह पारिओ।' गुरु भणइ-'आयरोन मुत्तव्यो। तओ उद्धवडिओ नमुक्कारं भणिव जाणुडिओ भूमिट्ठियसिरो भणइ - "सागरचंदो कामो, चंदवडिसो सुदंसणो धन्नो। जेसिं पोसहपडिमा, अखंडिआ जीवियतो वि।।१।। अन्ना सलाहणिज्जा, सुलसा आणंद कामदेवा य। जेसि पसंसइ भयवं, दढव्वयं तं (दढव्वयत्त) महावीरो / / 2 / / पोसहविधे लीधउँ विधे पारिओ विधि करता जइकाई अविधिखंडनविराधना मने वचने कायाई तस्स मिच्छामि दुक्कड' एवं सामाइअंपि, नवरंसामाइयवयजुत्तो, जाव मणे होइ नियमसंजुत्तो। छिंदइ असुहं कम्म, सामाइअ जत्तिआ वारा // 1 // छउमत्थो मूढमणो, कित्तिअमित्तं च संभरइ जीवो। जं च (न) सुमरामि अहं, मिच्छा मि दुक्कडं तस्स॥२॥ सामाइअपोसहसु-ट्ठिअस्स जीवस्स जाइ जो कालो। सो सफलो बोधव्यो, सेसो संसारफलहेऊ॥३॥ तओसामायिक विधइंलिधउँ इच्चाई भणइ, एवं दिवसपोसह पि. नवरं'जाव दिवसे पजुवासामि, त्ति भणइ, देवसिआइपड्डिकमणे कए पारेउ कप्पइ। रात्रिपोषधमप्येवं, नवरं मज्झाहाओ परओ जाव दिवसस्स अतोमुहुत्तो ताव धिप्पइ, तहा 'दिवस सेसं रत्तिं पञ्जुवासामि त्ति भणइ, पोसहपारणए साहुसंभवे नियमा अतिहिसंविभागवयं फासियपारेयव्वं / " अत्र च पर्वचतुष्टयीति तस्यामवश्यकर्त्तव्यत्वोपदर्शनार्थमुक्ता, न तु तस्यामेवेति नियमदर्शनाय "सव्वेसु कालपट्येसु, पसत्थो जिणमएतहा जोगो। अट्ठमिचउकसीसुं, निअमेण हविज पोसहिओ / / 1 / / " इति। आवश्यकचूादौ तथा दर्शनात्। न च 'चाउद्दसट्ठमुद्दिद्यपुषिण-मासीसु पडिपुण्णं पोसह अणुपालेमाणा' इति सूत्रकृताङ्गादौ श्रायकवर्णनाधिकारीयाक्षरदर्शना दष्टम्यादिपर्वस्वेव पोषधः कार्यो न शेष दिवसेष्विति वाच्य, विपाक श्रुताड़े सुबाहुकुमारकृतपौषधत्रायाऽभिधानत्, तथा च सूत्रम्-"तएणसे सुबाहुकुमारे अन्नया कयाइ चाउद्दसट्ठभुद्दिष्टपुणिणमासीसु० जाव पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसह पडिजागरमाणे विहरइ" इति। एतदव्रतफलं त्वेवमुक्तम्-"कंचणमणिसोवाणं, थंभसहस्सुस्सिअं सुवण्णतलं। जो कारिज जिणहरं, तओ वि तवसंजमो अहिओ॥१॥" एकस्मिन् सामायिके मुहूर्त्तमात्र "वाणवई कोडीओ" इति गाथया प्रागुक्तलाभः, स त्रिंशन्मुहूर्त्तमानेऽहोरात्रपौषधे त्रिशद्गुणो बादरवृत्या। स चायम्- "सत्तत्तरि सत्त सया, सतहत्तरि सहसलक्ख कोडीओ। सगवीसं कोडिसया, नवभागा सत्तपलिअस्स।।१।" अङ्कतोऽपि-२७७७७७७७७७७/७/६ एतावत्पल्यायुर्वन्ध एकस्मिन् पोषधे // 36 // इति प्रतिपादितं तृतीयं शिक्षापदव्रतम् / ध०२ अधिos पौषधमेव स्वरूपतो दर्शयन्नाह -- पोसेइ कुसलधम्मे, जंताऽऽहारादिचागऽणुट्ठाणं / इह पोसहो ति भण्णति, विहिणा जिणाभासिएणेव // 14 // अथ पोषधं तत्त्वतो निरुप्य मेदतस्तन्निरूपयन्नाह - आहारपोसहो खलु, सरीरसक्कारपोसहे चेव। बंभऽव्वावारेसु य, एयगया धम्मवुड्डित्ति।।१५।। पञ्चा० 100 विव० स्था०। आ० चू०। ('उवासगपडिमा' शब्दे 2 भागे 1103 पृष्ठे व्याख्या गता।) Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह 1137 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोसह अस्यातिचारा :तयाणंतरं च णं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अझ्यारा जाणियव्वा न समायरियव्वा। तं जहा-अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे 1, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियसिज्जा संथारे 2, अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमी 3, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियउच्चारपासवणभूमी। पोसहोववासस्स सम्मं अणणुपालणया। उपा०१ अ०। (एषां पदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने) प्रव० / अत्र हीरविजयसूरि प्रति प्रश्नाः-पौषधवत्यो नार्योऽध्वनि देवगुरु गुणगानं कुर्वन्तीति वास्ति? अत्र नेयं शास्त्रोत्का रीतिरिति बोध्यम् / 10 प्र०। ही०३ प्रका० / श्राद्धस्य गृहे पौषधोचार:-तथा श्राद्धो गुरुमुखने पौषधमुचारयति, तदा गमनाऽऽगमने आलोचयति न वेति, अत्र यदि स्वयं पौषधकरणानन्तरं गमनाऽऽगमनं कृते, भवस्तदा गुरुमुखेन पौषधकरणाऽवसरे ते आलोचयति नान्यथेति। प्र०ाही०३ प्रका०ा तथा पोषधेशकलातसंस्तारिक व्यापारयितुं कल्पते, न वेति? तथा तंबोलो भक्षयितुं कल्पते, न वेति?. तथा जेमनोपकरणानि कथं गृह्यन्ते? यतस्ता मुत्कलानीत वस्तु कल्पते, न वेति? अत्रा शकलातसंस्तारिक पौषधमध्ये व्यापारयितु कल्पते, तथा तंबोलो लवङ्ग काष्टिकाऽऽदिकः कारणे पोषधमध्ये भक्षयितुं कल्पते, तथा मुत्कलानी तोपकरणानां शुद्धयमानतानिषेधो ज्ञातो नास्तीति।११ प्र०ाही०४ प्रका० / पौषधे उच्चारिते सामायिकोचारणम्-पौषधे उच्चारिते कः सावधव्यापारः स्थितो वर्तते यदर्थं सामायिकमुच्चार्यते, तथा पोषधे देशावकाशिकं नोचार्य्यत, सामायिके चोचार्यते, तत्र किं प्रयोजनम्? इति। अत्र पौषधकरणाऽनन्तरं यत्सामायिकमुच्चार्यते तत्सहजापतितनवमव्रताऽऽरांधनार्थ , यत्पुनर्देशावकाशिक न क्रियते तत् पौषधिको निरवद्यतया गमनाऽऽदौ प्रवर्तते, तेन तत्करणे किं प्रयोजनमिति, सामायिकमध्ये देशावकाशिककरणं तु सामायिके द्विघटिकामाने पारितेऽपि ततः परं विरतिकरणार्थम् / इति // 23 प्र० / ही० 4 प्रका०। पौषधिकस्य मस्तकबन्धाऽऽदिपौषधिकः श्राद्धौ वस्त्रेण मस्तकंबन्धयित्वा देवगृहमध्ये गत्वा देववन्दनं करोति न वेति? अत्र पौषधिकश्राद्धस्य मुख्यवृत्या मस्तकबन्धनाधिकारो नास्ति, कारणे पुनः 'फालीओ' इति प्रसिद्धवस्त्रेण बन्धनं देवगृहमध्ये देववन्दनाऽऽदिक्रियायां क्रियमाणायां छोटितं विलोक्यते, अन्यो विशेषो ज्ञातो नाऽस्तीति // 33 प्र० / ही०४ प्रका० / तथा अन्यतीर्थीयः कश्चिद्यदि तुर्यव्रतमुच्चारयति, तदा किं नन्दिं विनाऽष्युच्चार्यते, उतनन्दिसहितमेवेति अत्रा अन्यतीर्थीयः कश्चितुर्यव्रत मुचारयति तदा नन्दिं विनाऽपि उच्चार्यते तदाश्रित्य निषेधः कोऽपि ज्ञातो नास्तीति। ३६प्र० / तथा पौषधिकश्राद्धो यद्याहारं गृह्णाति तदा तस्य जेमनानन्तरं चैत्यवन्दनाकरणमन्तरा पानीयं पातुं शुद्धयति, न वा०? तथा स्वाभाविकउपधानवाहकश्चाहारग्राऽऽहकपौषधिकः सन्ध्यासमयप्रतिलेग्वनां केनानुक्रमेण करो तीति? अा पौषधिकश्रद्धस्याऽऽहारप्रहणानन्तरं चैत्यवन्दनायं कृतायामेव पानीयं पातुं शुद्धयति, नान्यथा, यतः पौषधमध्ये श्राद्धस्याऽपि बही क्रियारातिर्यतिवदेव वर्तते, तथा आहारग्राहकपौषधिकः सन्ध्यासमये प्रतिलेखनायां मुखवस्त्रिकाः प्रतिलिख्य परिधानां शुकं परिवृत्य'पडिलेहण पडिलेहावो" इत्यादेशं मार्गयित्वा तत्कृत्यं च विधाय उपधि मुखपटी प्रतिलिख्य स्वाध्यायं कृत्वा वन्दनकद्वयं दत्वा प्रत्याख्यानं कृत्वा०"उपधि संदिसावु उपधिपडिलेहुं।" इत्यादेशद्विकं क्षमाश्रमणद्विकेन मार्गयतीति समाचारी वर्तते, उपधानपौषधिकस्यायं विशेषायत्पानीयपानानन्तरं गुरुपाचे स्थापनाऽऽचार्यपाचे वा मुखवस्त्रिका प्रतिलिख्य वन्दनकद्वयं दत्त्वा च प्रत्याख्यानं करोति, न पुनः प्रतिलेखनासमये वन्दनकदानप्रत्याख्याने करोति, अन्यदन्तरं तु ज्ञातं नास्तीति / / 37 प्र० / तथा रात्रिपौषधिकः प्रश्रवणोच्चारभूम्योः कति मण्डलकानि करोतीति? अव रात्रिपौषधिकः प्रश्रवणेचारपरिष्ठावपन भूम्योश्चतुर्विशतिमण्डलकानि करोति, द्वादश मध्ये द्वादश बहिश्च, ''बारस बारस तिन्नि अ।'' इति वचनादिति // 38 प्र० / तथा यः संध्यायां रात्रिपौषधं करोति स तदुचारणानन्तरं पानीयं पिवति, न येति? अत्रा यः सन्ध्यायां रात्रिपोषधंकरोत्तितस्याऽऽहारपौषधः सर्वत एवोचार्यत, न देशतस्तेन दिवसपौषधो भवतु, मा० वा० परं रात्रिपौषधकरणानन्तरं स पानीयं न पिवतीति // 36 प्र० / तथा--त्रिविधाऽऽहार प्रत्याख्याननिर्विकृतिकैकाशनकद्वयशनकेषु कृतेषु आशाकभक्षणं शुद्धयति, न वेति? अंत्र निर्विकृताऽऽदिषु त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्यानेषु एकान्तेन आर्द्रशाकभक्षणनिषेधो ज्ञातो नास्ति, संवरार्थन गृह्णति तदा वरमिति।। 40 प्र० / तथा दिवसपौषधिकः सन्ध्यासमयप्रतिलेखनां कृत्वा यदि रात्रिपौषधं करोति तदा किं प्रतिलेखनादेशान् पुनरपि मार्गयति? उत प्रागमार्गितैरेव तैः शुद्धयतीति, अत्र प्रतिलेखना देशाः पुनर्मार्गिता विलोक्यन्त्रौ इति॥४१ प्र०। ही० 4 प्रका० / पोषधे पारणम्-पौषधसामायिकयोर्ग्रहणानन्तरं तयोः पारणकाले प्राप्ते ग्राहकशरीरेल्कामनायं किं विधेयमिति? अत्र पौषधसामायिकयोः पारणकाले प्राप्ते यदि ग्राहकरय शरीरेल्कामना भवति, तदा समीपस्था अन्यवेलायां प्राप्तायां पारणविधि श्रावयन्ति, यावच न श्रावितस्तावत् महतीं विराधनां कर्तु न ददतीति संभाव्यते इति // 43 प्र०। ही०४ प्रका०। तथा-पौषधोचारपाठे "देसउ'' इति पदमाहारपौषधे एव वर्तते, न तु शरीरसत्काराऽऽदिपौषधेषु, तेन स्वयं स्वशरीरे वैयावृत्यविलेपनाऽऽदेः करणं कारापणं च कल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधिकानां कारणमन्तरेण स्वयं विलेपनाऽऽदिकर्तुं कारयितुंचन कल्पते, यद्यन्यः कश्चिदक्तया करोति तदा कल्पतेऽपीति / 70 प्र०। सेन०२ उल्ला०। तथा-- पौषधग्राहिण्य आर्यिका गुरोः पुरो गूंहलिकां कुर्वन्ति, न वा, द्रव्यस्तवत्वादिति प्रश्ने, उत्तरम् द्रव्यस्तवत्वान्न शुद्धयतीति।१६३ प्र० / सेन० 2 उल्ला० / तथा गणीनांपुरः श्राद्धाः श्राद्ध्यश्चपौषधदेशमार्गयन्ति, तदा गणय आदेश ददति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम-उपधानाऽऽदिविशेष Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह 1138 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोसह क्रियां विना पौषधं कुर्वतां श्राद्धाऽऽदीनां गणय आदेश न ददति, श्राद्धाऽऽदयस्त्वादेशं मार्गयित्वा पोषधाऽऽदिक्रियां कुर्वन्तीति वृद्धपरम्पराऽस्तीति। 46 प्र०। सेन०३ उल्ला तथा पोषधदिने श्राद्धः प्रतिक्रमणं कृत्या देवान् वन्दित्वा पश्चात्पौषधं करोति, तथा कृतपौषधः शुद्धयति न वेति प्रश्ने, उत्तरम् पौषधं कालवेलायां कृत्वा प्रतिक्रमणं च कृत्या देवान् बन्दत् इति विधिः, कालातिक्रमाऽऽदिकारणवशात्तु पूर्व देवान् वन्दित्वा पश्चात्पौषधं गृहातीति। 125 प्र०। सेन०३ उल्ला० / तथापौषधवतीनां श्राद्धाना कर्पूराऽऽदिभिः कल्पाऽदिपुस्तकपूजा पौषधवतीनां श्राद्धानां च हलिकान्यूञ्छनकाऽदिकरण शुद्धयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम-पौषधवतीमां श्राद्धानां कर्पूराऽऽदिभिः कल्पाऽऽदि-पुस्तकंपूजा न घटते, द्रव्यस्तवरूपत्वाद, गुरुपारम्पर्येणाऽपि तथाऽदृष्टत्वाच, एवं पौषधवतीनां श्राद्धानां गूंहलिकन्यूँछनकाऽऽद्याश्रित्यापि ज्ञेयमिति। 170 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / तथा पौषधपारणानन्तरं स्त्रीसेवनेन पौषधरय दूषणं लगति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधस्य दूषणं न लगति, पर पातिथिविराधना भवतीति / / 216 प्र० / सेन०३ उल्ला० / तथा देशावकाशिकं पौषधस्थाने क्रियते, तत्रा का क्रियाविधिः? / तथादेशावकाशिकमध्ये पूजास्नात्राऽऽदिकं सामायिकं कर्तुं कल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-देशावकाशिके "देसावगासिअं उवभोगपरिभोगं पचक्खामि''इत्याद्येवाऽऽचारविधिस्तथा स्वचिन्तितानुसारेण पूजास्नात्राऽऽदिकं सामायिकं च क्रियते, न कश्चिदेकान्त इति। 221 प्र०। सेन०३ उल्ला०ा तथा-पोषधे पारिते सामायिकपारणमुखवस्त्रिकायां प्रतिलिख्यमानायां पञ्चेन्द्रियछिन्दने जाते सति पौषधपारणे मुखवस्त्रिका पुनः प्रतिलेखिता विलोक्यते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पोषधः पुनः पारितो विलोक्यते इति / 242 प्र० ! सेन०३ उल्ला०। तथा"उम्मुक्कभूसणगो''इत्यक्षरानुसारेण पौषधमध्ये श्राद्धानामा-भरणमोचनमुत्कमस्ति, सांप्रतंतुते परिदधति, तत्कथमिति प्रश्ने, उत्तरम्उत्सर्गमार्गेण यदि सर्व्वतः पौषधं प्रतिपद्यते तदा तन्मोचनमेव युत्कं, विभूषालोभाऽऽदिनिमित्तवेन सामायिके तयोरपि निषिद्धत्वादिति वचनात् यदि देशतः करोति तदा तत्परिधानमपि भवतीति। 365 प्र० / सेन०३ उल्ला०। तथा-"मज्झणहाओ परओ० जाव दिवसस्स अंतो मुहुत्तो ताव धिप्पइ'' इति समाचारीमध्ये विद्यते तेन तृतीययामादक मध्याहन्त्परतः रात्रिपौषधः कर्तुं कल्पते, वेतिप्रश्ने, उत्तरम्-मध्याहात्परतः पौषधग्रहणं शुद्धयति, पर सांप्रतीनप्रवृत्या प्रतिलेखनात अर्वाग न कार्यत, किं तु परत इति / 302 प्र० / सेन०३ उल्ला० / तथा - घटिकाद्वयाऽऽदिशेषरात्रिसमये पौषधं करोति कश्चित्, कश्चिच वस्त्राङ्गप्रतिलेखनां कृत्वा तत्करोति, तयोर्मध्ये कः शास्त्रोत्कविधिरिति प्रश्ने, उत्तरम्-पश्चात्यरात्रौ पौषधकाले पौषधविधानमिति मौलो विधिः, कालातिक्रमेतद्विधानं त्वापवादिकमिति।३१२ प्र०। सेन०३ उल्ला० / तथा पौषधिकस्य भोजनाक्षराणि कसन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधिकस्य भोजनाक्षराणि पञ्चाशकचूर्णी, श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्राचूादौ व्यत्कानि सन्तीति / 337 प्र० / सेन०३ उल्ला० / तथा सिद्धान्ते "पडिपुण्णं पोसह पालेमाणे 'इति पाठः टीकाया प्रतिपूर्णमहोरात्रमिति व्याख्यात, ततः केवलदिवसपौषधाक्षराणि क सन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्उत्तराध्ययनसूत्रपञ्चमाध्ययने-"अगारिसामाइ अंगाई'' एतद्राथावृत्यनुसारेण प्रति पूर्ण पौषधकरणं प्रायिकं ज्ञेयमिति / 336 / प्र० / पौषधिकः पट्टपट्टिकालिखितप्रतिमा वासेन पूजयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् पौषधिकः कारणं विना पट्टा ऽऽदिकं न पूजयतीति ज्ञेयमिति। 3400 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / तथा-द्वादशव्रतपौषधवहने श्राद्धानां प्रारम्भवासरे किमाचामाम्लं कार्यत, अथवा एकाशनक तथा भोजने चाऽऽर्द्रशाकाऽऽदिग्रहणं कल्पते, नवेति प्रश्ने, उत्तरम्-श्राद्धानां द्वादशव्रत पौषधवहने यथाशक्ति तपो विधेय, तथाऽऽर्द्रशाकभक्षणं तु कारण विना न कल्पते इति। 368 प्र०।सेन०३ उल्ला० तथा-पौषधकारिणः श्राद्धाः कियती भुवं यावद्यान्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधकारिणः श्राद्धा ईसिमित्यादिना धर्मार्थ यथेष्ट ब्रजन्ति, न चात्र भूभागनियम इति / 364 प्र० / सेन०३ उल्ला०॥ तथा-पौषधकं कर्तुकामस्योपवासं कर्तुका मस्य च रात्रौ सुखभक्षिकाभक्षणं कल्पते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधोपवास कर्तुकामस्य श्राद्धस्य मुख्यवृत्या रात्रौ सुखभक्षिकाभक्षणं न कल्पते, यस्य तु सर्वथा तद्विना न चलति, स प्रथमरात्रिप्रहरद्वयं यावत्कदाचित्सुखभक्षिका भक्षयति, तथा पौषधस्योपवासस्य वा भङ्गो न भवति, यदि तु तत्कालानन्तरं भक्षयति, तदा भङ्गो भवतीति।४५३ प्र०। सेन०३ उल्ला०। अथ गणिज्ञानसागरकृत प्रश्नस्तदुत्तरं च यथाअन्यग्रामादागत्य पौषधं लात्वा पुनस्तत्र याति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्पौषधविधिना याति, तदा निषेधोः ज्ञातो ना स्तीति।४८५ प्र० / सेन० 3 उल्ला० / तथैकप्रहरदिवस घटनादनु पौषधग्रहणं शुद्धयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-प्रहरदिवसाननुपौषधग्रहणं नशुझ्यतीति परम्पराऽस्तीति। 464 प्र० / सेन०३ उल्ला०। अथ देवगिरिसंघकृतप्रश्नः तदुत्तरं च। यथा-ये श्राद्धा दैवसिकपौषधं गृहीत्वा पश्चात्संध्यायां भाववृत्तौ यदा रात्रिपौषधं गृहन्ति तदा पौषधसामायिककरणानन्तरं "सज्झाय करौं, वहुवेल करस्यु उपाधि पडिले हुँ" इत्यादेशान् मार्गयन्ति, किंवा "सज्झाय करूँ''इत्यनेन सरतीति प्रश्ने, उत्तरम्-'"सज्झाय करूँ।" इल्यादेशमार्गणेन सरति, बहुवे लादेशमार्गणनियमस्तु नास्ति, यतः स प्रातमार्गितोऽस्तीति बोध्यम्। 60 प्र०। सेन०४ उल्ला०ा तथोज्जायिनीस घकृतप्रश्नः तदुत्तरं च - यथा कश्चित्पौषधिकश्रावको गुरोरर्थपौरुषीचैत्यवन्दनवेलायामुपसर्गहरस्तोत्रां कथयति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्पौषधिकश्राद्धौ गुर्वग्रेऽर्थपौरुषीचैत्यवन्दने उपसर्गहरस्तोत्रं कथयतीति निषेधो ज्ञातो नास्ति, वृद्धपरम्परया प्रवृत्तिरपि दृश्यते इति 85 प्र० / सेन० 4 उल्ला०। तथा पौषधमध्ये सामायिकमध्ये चर्चालापकहुडिका वाच्यते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-सा मनसि वाच्यते, न तु बाढस्वरेण, सिद्धान्तालापकगर्भितत्वादिति। 101 प्र० / सेन० 4 उल्ला० / तथापौषधे सामायिके च शतहस्ताद् बहिर्गमने ईर्यापथिकी प्रतिक्रम्य गमनाऽऽगमनाऽऽलोचनं क्रियते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-पौषधमध्ये शतहस्ताद बहिर्गमनानन्तरमीर्यापथिकी प्रतिक्रम्य गमनःऽऽगमनाऽऽलोचनविधिईश्यते, सामाचार्यामपि कथितमस्ति, सामायिके तु शतहस्ताद्वहिर्गमनमेव नोत्कमिति / 113 प्र० / सेन०४ उल्ला० Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसह 1136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पोसह तथा - श्राद्धाः पौषधमध्ये सान्ध्यप्रतिलेखनाः काजकोद्धरण कदा पौषधाऽऽदिग्रहणार्थ साधारण स्थानस्य निरवद्यधर्मिजनाऽऽकीर्णस्थाकुर्वन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-श्राद्धाः पौषधमध्ये सान्ध्यप्रतिलेखनादेशी नविधापनं सा च धर्मिजानार्थ कारिता प्रगुणिता च निरवद्यत्वेन यथावसर मार्गयित्वा प्रोञ्छनकं च रवणकं च प्रतिलिख्य यद्येकाशनक तदा परिधा- साधूनामप्युपाश्रयत्वेन प्रदेया, तदानस्य महाफलम् / यतः-"जो देइ नाशकुं परावृत्य 'पडिलेहा पडिलेहाणा हाओ"इत्यादेशमार्गणं विधाय उवसयं जइवराण तवणिअमजोगजुत्ताणं। तेण दण्णा वत्थऽनपत्तसयचकाजकोद्धरणं कुर्वन्तीति श्राद्धविधिप्रमुखग्रन्थेषु प्रोक्तमस्ति, पश्चादु- णासणविगप्पा।।"ध०२ अधि० / आ० म० / पधि प्रतिलिख्य काजकं निष्कास्य परिष्ठापयन्तीति परम्पराऽस्तीति। पोसहिय पुं० (पौषधिक) कृतोपवासाऽऽदौ श्रावके, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। 145 प्र० / सेन०४ उल्ला०। अथ उणीयारसंघकृतप्रश्नः तदुत्तरं च।। पोसहोववास पुं० (पौषधोपवास) पोष-पुष्टिं कुशलधर्माणं धत्ते यथा-वृसिकलपादिने पोषधकरणे लाभः पूजाकरणे वेति प्रश्ने, उत्तरम् यदाहारत्यागाऽऽदिकमनुष्ठानं तत्पौषधम् / अथवा-पौषधं पर्वदिनमष्टमुख्यबृध्या पौषधकरणे महान लाभः, कारणविशेषे तु यथा प्रस्तावो म्यादि, तत्रोपवास उत्कार्थः पौषधोपवास इति / तेनोपवसनम्भवति तथा करणे लाभ एवास्ति, यतो जिनशासने एकान्तवादो ज्ञातो अवस्थानहोरात्र यावदिति पौषधोपवास इति। स०११ सम०। स्था०। नास्तीति। 151 प्र० / सेन० 4 उल्ला०।। पर्वदिनोपवसने, भ०८ श०५ उ०। आहाराऽऽदित्यागपौषधरुपे उपवासे, पोसहपडिया स्त्री० (पौषधप्रतिमा) चतुरोमासांश्चतुःपा पर्वप्रतिमाऽ कल्प० 1 अधि० 6 क्षण / पञ्चा० / (चातुर्विध्यमस्य 'पोसह' शब्दे नुष्ठानखण्डितं पौषधं पालयतीति / चतुर्थ्यामुपासकप्रतिमायाम, ध०२ ऽस्मिन्नेव भागे 1133 पृष्ठे उत्कम्) अधि० / प्रश्न। पोसहोववासणिरय पुं०स्त्री० (पौषधोपवासनिरत) पौषधोपवाससइह यद्वर्जययत्यसौ रुदाह ऽऽसत्के, स०१सम०। अप्पडिदुप्पलेहिय-सेज्जासंथारयाइ व नि। पोसाऽऽसाढ पुं० (पोषाऽऽषाढ) पौषाऽऽषाढमासद्वन्दे, "पोसासाढेसुणं सम्मं च अण्णणुपालण-माहाराऽऽदीसु एयम्मि।।१६।।। मासेसु सइ उक्कोसेणं अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सइ उक्कोसेणं 'अप्पडि त्ति पदावयवे पदसमुदायोपचारात' अप्पडि लेहिय त्ति' अलारसमुहुत्ता राती भवइ / " स०१८ सम०। पोसिअ (देशी) दुःस्थे, दे० ना०६ वर्ग 61 गाधा। दृश्यम् / ततश्चाप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्या संस्ताराकाऽऽदि वर्ज * पोसित त्रि० पुष्टि नीते, उत्त० 27 अ०। यति परिहरति। तत्राप्रत्युपेक्षितमनिरीक्षितं, दुष्प्रत्युपेक्षितं दुर्निरीक्षितं, * प्रोषित त्रि० प्रवासं गते, आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। शय्या शयनं, तदर्थः संस्तारकः-कम्बल्यादि-खण्डम् / अथवा पोसी स्त्री० (पौषी) पुष्येण नक्षत्रोण युत्का पूर्णिमा पौषी, पौषे भवा वा शय्यावसतिः, सर्वाङ्गीणशयनं वा, संस्तारकश्च ततो लघुतर इति / पौषी। पौषमासभाविन्या पौर्णमास्याम, अमायांच। चं० प्र०१०पाहु०। समाहारद्वन्द्वात् शय्यासंस्तारकन्। आदिशब्दादप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित ज०। सू० प्र०। शय्यासंस्तारकमप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षितोचारप्रस वणभूमिमप्रमार्जित पोह पुं० (प्रौह) हस्तिगुल्फे, है०। दुष्प्रमार्जितोचारप्रसवणभूमिं चेति / सम्यग्यथागमं च अननुपालन पोहण (देशी) लधुमत्स्ये, दे० ना०६ वर्ग 62 गाथा। मनाराधनं भोजनाऽऽद्यौत्सुक्याऽऽदिभिः / आहाराऽऽदिष्विति सप्तम्याः पोहत्तियसुत्तन० (पृथकत्विकसूत्र) पृथक्त्वसूत्रेषु बहुवचनान्तसूत्रोषु भ० षष्ठयर्थत्वादाहारशरीर सत्कारब्रह्मचर्याय्यापारपोषधानाम्, एतस्मिन्निति 5 श०४ उ०। पोषधे, वर्जयतीति प्रकृतमिति। तदेवमियं पोषधप्रतिमा ग्रन्थान्तराऽभि प्रयावदी पुं० (प्रजापति) "वाऽधोरो लुक्" ||14|368 || इति प्रायेणाऽष्टम्यादिपर्वसु सम्पूर्णपोषधाऽनुपालना रुपोत्कर्षतश्चतुर्मास रलुग्वा / ब्रह्मणि, दक्षाऽऽदौ चा "जइ सो धडदि प्रयावदी, केत्थु वि प्रमाणा भवति। इति गाथाऽर्थः / / 16 / / पञ्चा० 10 विव०। लेप्पिणु सिक्खु / जेत्थुवि तेत्थु एत्थु वि जगि, भण तो तेहि सारिक्खु पोसहवयन०(पौषधव्रत) पौषधएव व्रतं पौषधव्रतम्। पौषधोपवासे, ध०।। / / 1 / / ' प्रा० 4 पाद / यदि स घटयति प्रजा पतिः कुत्राऽपि लिखित्वा आहारतनुसत्कारा-ब्रह्मासावद्यकर्मणाम्। शिक्षाम् / यत्राऽपि तत्राऽप्या जगति भण तस्याः सादृश्यम्। (सूत्र त्यागः पर्व चतुष्टय्या, तद्विदुः पोषधव्रतम् // 36 / / 404) प्रा०४ पाद। ध०१ अधिo प्रस्स धा० (दृश) प्रेक्षणे, "दृशेः प्रस्सः "|8|4|383 / / इति (अस्यव्याख्या 'पोसह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1133 पृष्ठे गता।) अपभ्रंशे दृशेर्धातोः 'प्रस्स' आदेशः। 'प्रस्सदि। पश्यति / प्रा०४ पाद। पोसहविडि पुं० (पोषधविधि) पोषं-पुष्टिं धर्मस्य दधातीति पोषधस्तस्य प्राइम्ब अव्य० (प्राय) प्राउ' शब्दार्थे , प्रा० 4 पाद। विधिः। आहारशरीरसत्कारब्रहाचर्याव्यापारे, आतुः। प्राइव अव्य० (प्रायाम्) 'प्राउ' शब्दार्थ, प्रा०४ पाद। पोसहसाला स्त्री० (पौषधशाला) पौषधं पर्वदिनाऽनुष्ठानम उपवासा- प्राउ अव्य० (प्रायस्) बाहुल्ये, “प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्वऽऽदि, तस्य शाला गृहविशेषः पौषधशाला। ज्ञा०१ श्रु०१ अ० पौषधा- पग्गिम्वाः" / / 841414 / / अपभ्रंशे प्रायस इत्येतस्य प्राउ प्राइव 5ऽदिग्रहणार्थ साधारणस्थाने,ध०।तथा पौषधशालायां श्राद्धाऽऽदीनां / प्राइम्व पग्गिम्ब इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति। Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राउ ११४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 प्रिय * "अन्ने ते दीहर लोअण, अन्नु तं भुअ जुअलु / अन्नु सधणथणहारु तं अन्नु जि मुहकमलु // 1 // अन्नु जि केसकलाषु, सु अन्नु जि प्राउ विहि। जेण णिअम्बिणि घडिअ, स गुणलावण्णणिहि / / 2 / / प्राइब मुणिहिंवि भंतडी, ते मणिअणा गणंति। अखइ निरामइ परमपइ, अज्ज विलउन लहंति // 3 // असुजले प्राइम्ब गोरिअ-हे सहि! उव्वत्ता नयणस। तें सम्मुह संपेसिआ, दिति तिरिच्छी घत्त पर / / 4 / / एसी पिउ रुसेसुहउँ, रुट्ठी मइँ अणुणेइ। पग्गिम्ब एइ मणोरह, दुक्करु दइउ करेइ / / 5 / / '' प्रा० 4 पाद। प्रिय त्रि० (प्रिय)"वाऽधो रो लुक्|| 8 / 4 / 398||" इति रलुग्वा अपभ्रंश। 'जइ भग्गा पारक्कडा, तो सहि मज्झु प्रियेण / ' प्रा० 4 पाद। इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुANDA श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमदविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' पकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / / * अन्ने ते दीर्घलोचने, अन्यत्तद् भुजयुगलम्। अन्यः स धनस्तनभार--स्तदन्यदेव मुखकमलम्॥१॥ अन्य एव केशकलापः, स अन्य एव प्रायो विधिः / वेन नितम्बिनी घटिता 'सा गुणलावण्यनिधिः / / 2 / / प्राणो मुनीनामपि भ्रान्ति-स्तेन मणिकान् गणयन्ति। अक्षये निरामये परम-पदेऽद्यापि लयं न लभन्ते / / 3 / / अश्रुजलेन प्रायो गौर्याः, सखि! उद्वृत्ते नयनसरसी। तेन (अपरेण) संमुखे सपोषिते दत्तस्तिर्यग्घातं केवलम् / / 4 / / एष्यति प्रियो रुषिष्या - म्यहं रुष्टां मामनुनयति। प्राय दतान्मनोरथान्, दुष्कारन् दयिता करोति / / 5 / / Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फग्गू वाच०। फग्गुण पुं० (फाल्गुन) फल्गुनश्चूर्णभेदो नीयतेऽस्मिन्। नी-डः / फाल्गुने फकार: मासे, फल-उनन्-गुक् च स्वार्थे प्रज्ञाऽऽद्यण। अर्जुने मध्यमपाण्डवे० वाचकाफाल्गुनी पौर्णमासी अत्र। मासे अण् / चैत्रावधिके द्वादशे मासे, फ पुं० (फ) फ क्क्डः / पारदर्शने, देवे, न्याये, ज्ञाने, नीरधौ, अर्के, वर्षस्य हि चैत्राऽऽदित्वम् / वाच० / 'फग्गुणे अब्भसंघडा'। स्था० 4 ठा० 4 उ०1"सिसिरो फग्गुणमाहो।' पाइ० ना० 207 गाथा। आ० माहेन्द्रे, जालके, अहे: फूत्कारे च। अयने, बीजे, फले, निष्फले, ध्वनी म०। स०। वक्रवमनि, लाभे, लोभे, विपर्यये, मूतौं, अयने, एका० / रुक्षकथने, फग्गुणी स्त्री० (फाल्गुनी) फल-उनन्-गुक्-गौराऽऽदि-डीए / झञ्झावाते, वर्द्धके, जृम्भाऽऽविष्कारे, फलभागे च / न० / वाच०। काकोडुम्बरिकायाम्, अश्विन्यवधिके भगदेवताके एकादशे, अर्यमदेवपरोक्षे, हिते च। त्रि०ा एका०। ताके द्वादशे नक्षत्रो च। वाच०। "महा यदो फागुणी ओ य।" स्था०२ फंदस्पन्द-ईषत्कम्पे, भ्वादि० आत्म० अक० सेट् इदित्।"ष्पस्पयोः टा०३ उ०। अनु०। श्रावस्त्यां नगर्यो वास्तव्यस्य शालेतिकापितुर्गृहपतेः फः॥८/२२५३।।"इति प्राकृतसूत्रेण स्पस्यफः।फंदइ।प्रा०२पाद / स्वनामख्याता या भार्यायाम, (तत्कथोपासकदशाया दशमेऽध्ययने 'इमे य वद्धा फंदंति, मम हत्थ जमागया" अस्थितिधर्मातया गत्वरा 'सालेइयापिया' शब्दे दृश्या) फल-उनन्-गुक् च, स्वार्थे प्रज्ञाऽऽदृश्यन्ते सुरक्षिता अपि यान्तीत्यर्थः / (45 गाथा) उत्त० 14 अ०। घणडीप। अश्विन्यवधिके एकादशे, द्वादशे नक्षत्रो च। फाल्गुनीभिर्युक्ता फंदंत त्रि० (स्पन्दमान) ईषचलति, स्था० 6 ठा०।"फंदंते वि ण मुचए पौर्णमासी अण। चान्द्रफाल्गुन मासपौर्णमास्याम, वाच०। सू०प्र०१० ताहे।" स्पन्दमानोऽपि ततः पाशान्न मुच्यते। सूत्र० 1 श्रु० 4 अ० 1 उ०। पाहु०६ पाहु० पाहु० ज०। चं० प्र०। फंदण न० (स्पन्दन) किञ्चिचलने, ज्ञा० 1 श्रु० 3 अ०। फग्गुमई स्त्री० (फल्गुमती) कस्याञ्चिदटव्यां निवसतोरुत्क लकलिङ्गफंदिय त्रि० (स्पन्दित) ईषचालिते, जं०१ वक्षः। वीणा मधिकृत्य भिधानयोत्रिोश्चौर्य्यवृत्या जीवतोः स्वनामख्यातायां भगिन्याम, "फंदियाए' स्पन्दिताया नखाग्रेण स्वरविशेषो त्पादनार्थमीषचालि आचा०२ शु०१ चू०२ अ०१ उ०। (तत्कथा द्रव्यशय्योदाहरणावसरे तायाः / जी०३ प्रति 4 अधि०। 'सिज्जा' शब्दे वक्ष्यते) ''चलुचुलिअ फंदिअं फुरिअं।" पाइ० ना० 160 गाथा। फग्गुमित्त पुं० (फल्गुमित्र) आर्य्यपुष्पगिरेः शिष्ये आचार्यधनगिरेगुरी फंफसअ (देशी) लताभेदे, दे० ना० 6 वर्ग० 83 गाथा। गौतमसगोत्रे स्वनामख्याते स्थविरे, "थेरस्सणं अजपूसगिरिस्स फंस (स्पृश) सप” --तदा-पर-सक०। अनिट् / "स्पृशः फास - कोसियगुत्तस्स अज्जफगुमित्ते थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते।' कल्प०२ फंस - फरिस - छिव - छिहालुङ्खलिहाः" ||4|18|| अधि०८ क्षण | "वंदामि फग्गुमित्तं, गोयमं धणगिरि च वासिहूँ।" इति प्राकृतसूत्रोण स्पृशतेरेते सप्ताऽऽदेशाः / 'फासइ। फंसइ। फरिसइ।' कल्प०२ अधि०८ क्षण। प्रा०४ पाद। "फरिसो फंसो"। पाइ० ना०२४० गाथा। फग्गुरक्खिय पुं०(फल्गुरक्षित) दशपुरनगरस्थसोमदेवद्विजात् रुद्रसो* विसंवद ( विरोधे) "विसंवदेर्विअट्ट-विलोट्ट-फंसाः" || मायां भाव्यामुप्तपन्ने आर्य्यरक्षितस्याऽऽचार्य्यस्यानुजे स्वनामख्याते 14/126 / / इति प्राकृतसूत्रोण विसपूर्वस्य वदेः फंस आदेशः / प्रा० 4 श्रमणे, (तत्कथा अञ्जरक्खिय' शब्दे प्रथम भागे 212 पृष्ठे गता)"माया य रु।सोमा, पिया य नामेण सोमदेवुत्ति / भाया यफगुरक्खिय, तोसलिफंसण (देशी) युत्कमलिनयोः, दे० ना०६ वर्ग 87 गाथा। पुत्ता य आयरिया / / 775 / / " आव०१ अ० / दर्श० / विशे० / आ० फंसुली (देशी) नवमालिकायाम्, दे० ना०६वर्ग 82 गाथा। म० / स्था०। आ० चू०। फकवई स्त्री० (भगवती) भगोपेतायाम् "चूलिका - पैशाचिके फग्गुसिरि पुं० (फल्गुश्री) अस्यामवसर्पिण्या दुष्पमायामन्ते भविष्यस्य तृतीय-तुर्ययोराद्यद्वितीयौ" ||8|4|325 / / इति प्राकृतसूत्रोण चरमयुगप्रधानस्य दुःप्रसहाचार्यस्य गच्छस्य स्वनामख्याते श्रमणे, पैशाच्यां फः। प्रा०४ पाद। ताद्दश्यां स्वनामख्यातायां श्रमणयाम्, ति०। "दुप्पसहो श्रणगारो, फग्गु त्रि० (फल्गु) फल गुक् च / रम्ये सारे, निरर्थके, वाच० / निस्सारे, नामेण अपच्छिमो पवयणस्स / फग्गुसिरी नामेणं, साविय समणाण आ० म०१ अ०। अल्पे च / आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। धूलिरुपे / पच्छिमया // 31 / / ति० / जिनदत्त श्रावकस्य स्वनामख्यातायां चूर्णभेदे, काको (दु) दुम्बरिकायाम्, गया तीर्थस्थनद्याम्, वाच० / आविकायाम, स्त्री०। "तंपिणं जिणदत्तफग्गुसिरीनाम सावगमिहुणं / ' अजितजिनस्य स्वनामख्यातायां प्रथमाऽऽर्यिकायां च / स्त्री० / 'फग्गू महा०४ अ०। अजियस्स।" ति० / स०। प्रव० / वसन्तसमये मिथ्यावाक्ये च / पुं०। / फग्गू ( देशी ) वसन्तोत्सवे, दे० ना०६ वर्ग 82 गाथा। पाद। Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1142 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फरसुराम फड ( देशी) अहिसर्वाङ्गफणयोः, दे० ना०६ वर्ग 86 गाथा। इवावधिज्ञान प्रभायाः प्रतिनियते विच्छेदविशेषे, तथा चाऽऽह जिनभद्रफट पुं० स्फुट विकाशे। अच् / सर्पाणां फणायाम, वाच०। उपा०२ अ०। गणिक्षमाश्रमणः स्वोपज्ञभाष्यटीकायाम्-'" स्पर्द्धकोऽयमवधिविच्छेदभ०। ज्ञा०। विशेषः" इति। नं० / अपवरकाऽऽदिजालकान्तरस्थ प्रदीपप्रभानिर्गम * स्फडपरिहासे, चुरा० उभ० सक० सेट् इदित्। स्फण्डयति। अपस्फ- स्थानानीवावधिज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशम जन्यान्यवधिज्ञान निर्गमस्थाण्डत्। वाच० नानी फडुकान्युच्यन्ते। विशे०। आ० म०। फडण न० (स्फटन) विशोधने, नि० चू०३ उ० / 'भोओ फडा | फड्गफडुपवेस त्रि० (स्फर्द्धकस्पर्धप्रवेश) स्पर्द्धकस्पर्धकैः प्रविशत्सु, फणत्थे।"पाइ० ना० 151 गाथा। न पुनः सर्वेऽप्येकत्र पिण्डीभूयेति भावः / बृ०१ उ०२ प्रक० / फडाडोव पुं० (स्फटाऽऽटोप) फणाऽऽडम्बरे, 'फडाऽऽडोवकरणद- | फड्डगणिद्देस पुं० (स्पर्द्धकनिर्देश) स्पर्द्धकप्ररुपणायाम्. क० प्र०२ प्रक० / क्खं / " उपा०२ अ०। फणासंरम्भे भ० 15 श० / ज्ञा० / फडुगवई पुं० (स्पर्द्धकपति) चौराणां मूलपल्लीवशवर्तिनी नामन्यासा फडिय पुं० (स्फटिक) स्फटिरिव कायति इचार्थे कन्। स्वनामख्याते ___पल्लीनां पत्यौ, मूलपल्ली मुक्तवा या अन्याः पल्लयस्तासामधिपतयो स्वच्छेमणौ, वाच० / स्फटिकनिभे वस्त्रे च / 'फडिगपाहाणणिभा।" मूलपल्लीवशवर्तिनः स्पर्द्धकफ्तय उच्यन्ते। बृ०१ उ० 3 प्रक०। स्फटिका अच्छा इत्यर्थः / स्फटिकनिभं वस्त्रम्। नि० चू०७ उ० / स्वार्थे फडगावहि पुं० (स्पर्द्धकावधि) अपवरकजालकान्तरस्थ प्रदीपप्रभोपमे अण्-स्फाटिकमप्या। वाचा अवधिज्ञानभेदे, "जालंतरत्थदीव प्पहोवमे फड्ढगावही होइ / नित्तो फडीय पु० (स्फटीक) 'फडीय' शब्दार्थे, नि० चू०७ उ०। विमलो मंदो, मलीमसो मीसरुवोय ॥१॥"नि० चू०१ उ०। (तद्वक्तव्यता फड्डु पु० (स्पर्द्ध) समुदाये० आ० चू० 1 अ० / संधर्षे, धा० / पराभिभ- | 'ओहि' शब्दे तृतीयभागे 144 पृष्ठे गता) बेच्छायाम, वाचन फड्डाल त्रि० (स्पर्द्धवत्)"आल्विवल्लोल्लाल-वन्त-मन्ते-रमणा फडग न० (स्पर्द्धक) स्पर्द्धः, संघर्षः समुदायः, पिण्ड इत्यनर्थान्तरम्।। मतोः" / / 8 / 2 / 156 / / इति प्राकृतसूत्रेण मतोः स्थाने आलाऽऽदेशः / स्पर्द्ध एव स्पर्द्धकम् / समुदाये, आ० चू० 1 अ०। 'तत्थ पव्वइयगा संघर्षवति, प्रा०२ पाद। फडुगेहिं एति। 'आ० म० 1 अ०। स्पर्धन्त इवोत्तरवृद्धया वर्गणा अोति फण पुं० (फण) फण-अच् / दाकारे संकोचविकाशवति सर्पमस्तके, स्पर्द्धकम् / "द्वहुलम् / " इतिवचनादधिकरणे घः / वर्गणसमुदाये, वाच० / “सत्थिपलंछणफणंकियपडागा।' आव० 4 अ०। 'भोओ क० प्र० 1 प्रक० / कर्म01 अथ स्पर्द्धक इति कः शब्दार्थः? उच्यते- फड़ा फणत्थे। पाइ० ना० 151 गाथा / गतौ, अनायासेनोत्पत्तो, एकोत्तरवीर्यभागवृद्धया परस्परं वर्गणा या तत्। कर्म०५ कर्म० / अथ धा०ावाचा किमिदं स्पर्द्धकमिति?. उच्यते-इह तावदनन्तानन्तैः परमाणुभिर्मिष्य- फणण नं (फणन) क्वाथने, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०२ उ०। नान् स्कन्धान जीवः कर्मतया गृहा ति, तत्र चैकैकरिमन् स्कन्धे यः फणसपुं० (पनस) पन्-असच्। "पाटि-परुष-परिघ-परिखा-पनससर्वजघन्यरसः-परमाणुस्तस्याऽपि रसः, केवलिप्रज्ञया छिद्यमानः पारिभद्रे फः" ||8|11232 / / इति सूत्रोण फः / प्रा० 1 पाद / सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान् सविभागान् प्रयच्छीतीति, अपर एकाधिकान्, कण्ठकिफले, वाच० / बहुबीजके वृक्षभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०ा रा०। अन्यस्तु द्वयधिकान्. एवमेकोत्तरया वृद्धया तावन्नेयं, यावदन्यः परमाणुः फणि(न्) पुं० (फणिन्) फणाऽस्त्यस्य इति / सर्पे , फणवदादयोऽप्यत्रा। सिद्धानन्तभागेनाभव्येभ्योऽनन्तगुणेनाधिकान् रसभागान प्रयच्छति. वाच० / चिट्ठइ फणी। प्रा०१ पाद। स्था०। तद्रूपे लाञ्छने च / प्रव० तत्र जघन्यरसा ये केचन परमाणवस्तेषां समुदायः समानजातीयत्वादेका 26 द्वार। "उरओ अही भुअंगो, भुअंगमो फणी भुअयो।"पाइ० ना० वर्गणा इत्युच्यते, अन्येषां त्वेकाधिकरसभागयुगाना समुदायो द्वितीया 26 गाथा। वर्गणा, अपरेषां तुद्वयधिकरसभागयुत्कानां समुदायः तृतीया वर्गणा। फणिके उ पुं० (फणिकेतु) नागराजे, टिपुरीवर्णकमधिकृत्य "दक्षिणे एवम नया दिशा एकैकरसा विभागवृद्धानां परमाणूनां समुदायरुपा वर्गणाः जयति चेल्लणपावों, भात्युदक्तदपरः फणिकेतुः। " ती०४२ कल्प। सिद्धानामनन्तभागकल्पाः अभव्येभ्योऽनन्तगुणा वाच्याः, एतासां च | फणिह पुं० (फणिह) कङ्कते, ग०२ अधि०। 'संडासगं च फणि (लि) हं समुदायः स्पर्द्धकनुच्यते इत ऊर्द्धमेकोत्तरया निरन्तरं वृद्धया प्रवर्द्धमानो च।' फणिहं केशसंयमनार्थ कङ्कतम्। सूत्रा०१ श्रु० 4 अ०२ उ०। रसो न लभ्यते, किं तु सर्वजीवानन्तगुणैरेव रसभागैस्ततस्तेनैव क्रमेण | फणुजय पुं० (फणोद्यत) हरितवनस्पतिकायभेदे, प्रज्ञा०१ पद। ततः प्रभृति द्वितीयं स्पर्द्धकमारभ्यते, एवमेव च तृतीयम्, एवं तावद्वाच्यं फरअ ( देशी) फलके, दे० ना० 6 वर्ग 82 गाथा। यावदनन्तानि स्पर्द्धकानि, तेभ्य एव चेदानी प्रथमाऽऽदिवर्गणा गृहीत्या फरसुराम पुं० [परशु( )राम] परशुधारी रामः / शाक० / जमदग्निपुत्रो विशुद्धिप्रकर्षवशादनन्तगुणाहीनरसाः कृत्वा पूर्ववत् स्पर्द्धकानि करोति, स्वनामख्याते ब्राह्मणे, येन सप्तकृत्वः क्षत्रिया व्यापादिताः। (तत्कथा न चैवंभूतानि कदाचनापि पूर्व कृतानि, ततोऽपूर्वाणि इत्युच्यन्ते / पं० 'जमदग्गि, शब्दे चतुर्थभागे 1401 पृष्ठेगता) "पशुरामः सप्तकृत्वः, सं० 1 द्वार। आ० चू० / गवाक्षजालाऽऽदिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया क्षितिं निःक्षत्रिया व्यधात्। आ० क० 1 अ० / रा०। Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरिस 1143 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फरुसवयण फरिसपुं० (स्पर्श) त्वसंयोगे, "करिसो फंसो 'पाइ० ना० 240 गाथा / * स्पृश धा० स्पर्श , प्रा०४ पाद। फरुस न० (परुष) -उषन् / 'पाटि परुष-परिघापंरिखा-पनस-- पारिभद्रे फः"111१।२३२।। इति प्राकृतसूत्रोण पस्यफः। प्रा०१ पाद। निष्ठुरवचने, वाच०। जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ० / प्रश्नः / औ०। मर्मोद्धाटनपरे वाक्ये, आचा०२ श्रु०१चू० 4 अ०१ उ०परुष वचः परचेतोविकारीति। सूत्रा०१ श्रु०१४ अ०। पीडाकारिवचने च / "णया वि किंचि फडसंचएज्जा। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। कर्मसंश्लेषाद् यावान्निर्ममत्या दल्पसत्वैरनुष्ठेयत्वात्कर्कशमन्तप्रान्ताऽऽहारोपभोगाद्वा परुषम। संयमे, सूत्रा०१ श्रु०१४ अ०।''ओएतहीयं फरुसं वियाणे।" सूत्र०१ श्रु०१४ उ01 तीव्र, 'फरुसा उदीरिया।" आचा०२ श्रु०४ चू०। कठोरे, उत्त०१ अ०।''कढिणाय ककसा निठुरा खरा खप्पुरा फरुसा।'' पाइ० ना०७४ गाथा। परुष कर्कशमिति। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। सूत्रा०।उत्त०। ज्ञा०। 'पुढे फरुसेहि माहणे। परुषैर्दण्डकशाssदिभिः वाभिर्वा / सूत्र०५ श्रु०२ अ०२ उ०। दुष्ट, “फरुसाइंदुतितिक्खाई। " एरुषाणि कर्कशानि दुष्टानि वा / आचा० 1 श्रु० अ० 1 उ० / अनायें पीडाकारिणि, सूत्रा० 1 श्रु०२ अ०१ उ० / “फरुसिय णो वदेति।" परुषतां कर्कशता पीडाकारितामिति / आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ० / चित्रवर्णे च / त्रि० / नीलीझिण्टयाम्, वाचः / फरुसगपुं० (परुषक) कुम्भकारे, फरुसग' शब्देन समयप्रसिद्धया कुम्भकारोऽभिधीयते। विशे०। बृ०४ उ० / नि०चू०। (तद्वत्कव्यता 'श्रीणद्धि शब्दे चतुर्थभागे 2412 पृष्ठे गता) फरुसत्त न० (परुषत्व) निष्ठुरभाषितायाम्, व्य०१ उ०। फरुसधरिसणा स्त्री० (परुषर्धषणा) निष्ठुरवचननिर्भर्त्सने, औ०। प्रश्न०। फरुसभासि(ण) पुं० (परुषभाषिण) निष्ठुरभाषिणि, व्य०१उ०। फरुसवयणन० (परुषवचन) जन्मकर्माऽऽशुद्धटनतः दुष्टशैक्षेत्यादिनिष्टुरबचनाऽऽत्मके वचनभेदे, स्था०६ ठा०। प्रव०। बृ०। 'फरुसणेहवञ्जिय।। नि००१ उ०। तहेव फरुसा भासा, गुरुभ्ओवघाइणी। सच्चा विसान वत्तव्वा,जओ पावस्स आगमो // 1 // तथैव परुषा भाष निष्ठुरा-भावस्नेहरहिता, गुरुभूतोपघातिनीमहा- | भूतोपघातवती, यथा कश्चित्कस्यचित् कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तदा तं दासमित्यभिदधतः, सर्वथा सत्याऽपि सा ब्राह्यार्थ तथाभावमङ्गीकृत्य न वत्कव्या, यतो यस्या भाषायाः। सकाशात् पापस्याऽऽगमः-अकुशलबन्धो भवतीति सूत्रार्थः / दश०७ अ०। अथपरुषवचनमाहदुविहं च फरुसवयणं, लोइय लोउत्तरं समासेणं / लोउत्तरियं ठप्पं, लोइय वोच्छेमिमं णाणं // 40 // द्विविध परुषवचनं समासतो भवति--लौकिकं, लोकोत्तरिकं च / तत्र लोकोत्तरिक स्थाप्यं, पश्चाद्भणिष्यत इत्यर्थः। लौकिक तु परुषवचनमिदानीनेव वक्ष्ये, तोदं ज्ञातं भवति। अन्नोन्नसमणुरत्ता, वाहस्स कुडुं वियस्स वि य धूया। तासिं च फरुसवयणं, आमिसपुच्छा समुप्पणं // 41 / / व्याधस्य, कुटुम्बिनोऽपि च 'धूता' दुहितरौ अन्योन्य समनुरत्के, परस्परं सख्यौ इत्यर्थः / तयोश्च पराषवचनमामिषपृच्छया समुत्पन्नम्। ___ कथमिति चेत्? उच्यतेकेणाऽऽणीतं पिसियं, फरुसं पुण पुच्छिया भणति वाही। किं खु तुमं पित्ताए, आणीयं उत्तरं वोच्छं // 42 // व्याधदुहित्रा पुद्रलमानीतं, ततः कुटुम्बिदुहित्रा सा भणिता-केनेदं पिशितमानीतम्? ततो व्याधी-व्याधदुहिता पृष्टा सती परुषवचनं भणति - किं खु त्वदीखेन पित्रा आनीतम् / कुटुम्बिदुहिता भणति - कि मदीयपिता व्याधो, येन पुद्रलमानयेत् / एवं लौकिकं परुषवचनम्। अथोत्तरं-लोकोत्तरिक वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेवाऽऽह - फरुसम्मि चंडरुद्दा, अवंतिलाभे य सेह उत्तरिए। आलत्ते वाहित्ते, वावारिऍ पुच्छिएँ णिसिद्धे।।४३।। परुषवचने चण्डरुद्र उदाहरणम्-अवन्त्यां-नगर्या शैक्षस्य लाभस्तस्य संजातम् / इति तदुदाहरणस्यैव सूत्रकृता एतल्लोको तरिक परुषवचनम् / एतचैतेषु स्थानेषूत्पद्यते (आलत्ते इत्यादि) आलप्तो नामअयं कि तव वर्तत ? इत्येव माभाषितः / व्याहतः-इत एहीत्येवमाकारितः / व्यापारितः-इदमिदं च कुर्विति नियुक्तः। पुष्टः-किं कृतं किं या न कृतमित्यादि पर्यनुयुत्कः / निसृष्टोगृहाण भुडश्व पिवेत्येवमादिष्टः / एतेषु पञ्चसु स्थानेषु पराषवचन संभवति। इतिनियुक्तिगाथासमासार्थः / अथैनां विवरीषुश्चण्डरुद्रदृष्टान्तं तावदाहओसरणे सवसंयो, इन्भसुतो वत्थभूसिसरीरो। दोसणग चंडरुद्दे, एस पबंचेति अम्हे ति॥४४॥ भूति आणय आणीते, दिक्खितो कंदिउंगता मित्ता। वत्तोसरणे पंथं,पहावय दंडगाऽऽउट्ठो॥४५॥ उज्जयिन्यां नगर्या रथयात्रोत्सवे ओसरणे' बहूनां साधूनाम् एकत्र मीलकः समजनि, तत्र सक्यस्यो वस्त्राभूषितशरीर इभ्यसुतः साधूनामन्तिके समायातो भणति-मां प्रव्राजयत। ततः साधवः चिन्तयन्ति-एष प्रपञ्चतिविप्रतारयत्य स्मानिति / तैश्चण्डरुद्राऽऽचार्यस्य दर्शनं कृतं, घृष्यतां कलिना कलिरिति कृत्वा / ततश्चण्डरुद्रस्योपस्थितः--प्रव्राजयत मामिति। ततस्तेनोत्कम्-भूति-क्षीरमानय। ततस्तेन भूतावानीतायां लोचं कृत्वा दीक्षितस्ततस्तदीयानि मित्राणि क्रन्दित्वाप्रभूतं रुदित्वा स्वस्थान गतानि वृत्ते चसमवसरणेचण्डरुद्रेण शैक्षोभणितः पन्थान प्रत्युपेक्षस्व येन प्रभाते व्रजानः, ततः प्रत्युपेक्षिते पथि प्रभाते पुरतः शैक्षपृष्ठतश्चण्डरुद्रो (वयति) व्रजति। सचशैक्षो गच्छन् स्थाणवास्फि-टितस्तश्चण्डरुद्रोरुष्टोदुष्ट शैक्ष इति भणन् शिरसि दण्डकेन ताडयति / शैक्षो मिथ्या दुष्कृतं करोति, भणति च-सम्यगायुत्को गमिष्यामि / ततश्चण्डरुद्रस्तदीयोपशमेन आवृत्तश्चिन्तयतिः अहो अस्याभिनवदीक्षितस्यापि व्रियान् शमप्रकर्षो मम Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरुसवयण 1144 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फरुसवयण तु मन्दभागस्य चिरप्रजिस्याप्येवंविधः परमकोटिमुपगतः क्रोध इति परिभावयति, क्षपकश्रेणिमधिरुढस्य केवलज्ञानमुत्पेदे। एवं चण्डरुद्रस्य दुष्ट शैक्ष इत्यादिभणनमिवपरुषवचनं मन्तव्यम्। अथाऽऽलप्ताऽऽदिपदेषु परुष भवतीति। यदुक्तं तस्य व्याख्यानमाहतुसिणीए हुंकारे, किं ति व किं वडगरं करेसि त्ति / किं णिव्वुत्ति ण देसी, केवतियं वावि रडसि त्ति // 46|| आचार्याऽऽदिभिरालप्तो व्याहतो व्यापादितः पृष्टो निसृष्टोवा तूष्णीको भवति, हुङ्कार वा करोति, किमिति वा भणति, किं वा वटकर करोषीति ब्रवीति, किं निवृत्ति न ददासीति व्रते, कियद्वा रटिष्यसीति भणति। एते सर्वेऽपि परुषवचन प्रकाराः। अथैतेष्वेव प्रायश्चित्तमाह - मासो लहुओ गुरुगो, चउरी मासा हवंति लहु गुरुगा। छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च / / 4 / / लघुको मासो गुरुको मासश्चत्वारोमासा गुरुवः षण्मासा लघवः षण्मासा गुरुवः छेदो मूलं, तथा द्विकमनवस्थाप्यं पाराञ्चिकं चेति। एतदेव प्रायश्चितं चारणिकया गाथादयेन दर्शयतिआयरिएणाऽऽलित्तो, आयरिओ चेव तुसिणिओ लहुओ। रडसि त्ति छग्गुरुं तं, वाहित्तू गुरुगाऽऽदिछेदंतं // 48|| लघुगाई वावारिते, मूलंतं गुरुगाई पुच्छिए णवमं / णीसढे छसु पदेसु, छल्लहुगाऽऽदितु चरिमंतं / / 46 / / आचार्येणाऽऽलप्त आचार्य एव तूष्णीको भवति मासा लघु / अथवाहुङ्काराऽऽदिकं रटसीति पर्यन्तं करोति तदा षड्गुरुकान्तम् / तद्यथाहुडारं करोति मासगुरुकमिति / भाषते न मस्तकेन वन्दे इति ब्रवीति चतुर्लघु। किं वटकर करोषीति वुवाणस्य चतुर्गुर। किं निवृत्ति न ददारिस इति भाषमाणस्य षड् लघु। कियन्तं वा कालं रटसीति ब्रुवतः षट्गुरु। व्यादृतस्य तूष्णीकताऽऽदिषुमासगुरुकादारब्धं छेदान्तं ज्ञेयम्॥ व्यापारितस्य चतुर्लघुकादारब्धं मूलान्तम्। पृष्टस्य चतुर्गुरकादारब्ध नवममनवस्थाप्यम्। निसृष्टस्य इदं गृहाण भुङ्गक्ष्व द्रव्यायुत्कस्य षट्स्वपि तूष्णीकाऽऽदिपदेषु षट्लघुकादारब्धं चरमपाराञ्चिक तदन्तं ज्ञातव्यम्। एवमाचर्येणाऽऽचार्यस्थाऽऽलताऽऽदिपदेषु शोधिरुत्का। अथ वाऽऽचार्येणैवाऽऽलप्ताऽऽदीनाम् उपाध्यायप्रभृती __ना शोधि दर्शयितुमाह - एवमुवज्झाएणं, भिक्खू थेरेण खुड्डएणं च / आलत्ताइपरहि, इक्किक्किपयं तु हारिज्जा / / 5 / / एवम् -आचार्यवत् उपाध्यायेन भिक्षुणा स्थविरेण क्षुल्लकेन च सममालताऽऽदिपदैः प्रत्येक तूष्णीकताऽऽदिप्रकारषट्के यथक्रमम् एकैकं प्रायश्चित्तपदं हासयेत् / तद्यथा-आचार्या उपाध्यायमनुरुपेणाऽऽभिलापेनालपति ततो यधुपाध्याय; तूष्णीक आस्ते तदा गुरुभिन्नमासः | हुङ्कारं करोति मासलघु / एवं / यावत्किमेतावन्मात्रमारटसीति भणत: षट्लघु। व्यादृतस्यैतष्वेव तूष्णीकाऽऽदिषु लघुमासादारब्धं षड् गुरुका- | न्तम्। व्यापारितस्य गुरुमासऽऽदिकं छेदान्तम्। पृष्टस्य चतुर्लघुकाऽऽदिकं मूलान्तम्। निसृष्टस्य चतुर्गुरकाऽऽदि कमनवस्थाप्यान्तं द्रष्टव्यम्। एवमाचार्येणैव भिक्षोरा लप्ताऽऽदिषुपदेषु लघुभिन्नमासादारब्धं मूलान्तम्। स्थविरस्य गुरुविंशति रागिन्दिवादारब्धं छेदान्तम्। क्षुल्लकस्य लघुविंशतिरात्रिान्दिवादारब्धं षट्गुरुकान्तं प्रायश्चितं प्रतिपत्तव्यम् / एवं तावदाचार्यस्याऽऽचार्याऽदिभिः पञ्चभिः पदैः समंचारणिका दर्शिता। साम्प्रतमुपाध्यायाऽऽदीनां चतुर्णमप्याचार्याऽऽदिपदपञ्चकेन चारिणकां दर्शयतिआयरियादभिसेगो, एक्कगहीणो तहिकिणा भिक्खू / थेरो तु तहेक्केणं, थेरा खुडो वि एक्केणं / / 51 / / आचार्यादभिषेक-उपाध्याय आलपकाऽऽदिपदानि कुर्वाणश्चारणिकायामेकेन प्रायश्चित्तपदेन हीनो भवति। तद्यथा- उपाध्याय आचार्यमालपतिक्षमाश्रमणाः कथ वर्तन्ते? इत्यादि। एवमालप्ते तूष्णीक आस्ते भिन्नमासो गुरुकम्। हुङ्कारं करोतिमासलघुकाऽऽदिकं मूलान्तम्, निसृष्ट स्य वा। एवं तेनैव चारणिकाक्रमेण तावन्नेयं यावदुपाध्यायेनाऽऽर्चायस्य निसृष्टस्य किमेतदारटसीति ब्रुवाणस्यानवस्थाप्यम् / अथोपाध्याय उपाध्यायमालपति तत आलप्ताऽऽदिषु पञ्चसुपदेष तूष्णीकताऽऽदिभिः षड्भिः पदैः प्रत्येकं चार्यमाणैर्लघुभिन्नमासादारब्धं मूले तिष्ठति / एवमुपाध्यायेनैव भिक्षोरालप्ताऽऽदिषु पदेषु तूष्णीकताऽऽदिभिरेव पदैर्गुरुविशतिरात्रिन्दिवादारब्धं, छेदान्तम्। स्थविरस्य लघुविंशतिरा त्रिंदिवादारब्धं षटगुरुकान्तम्। क्षुल्लकस्य पञ्चदशरात्रिन्दिवादारब्धं षट्लधुकान्तं द्रष्टव्यम्। यदा तु भिक्षुराचार्याऽऽदीना लपति तत उपाध्यायाऽऽदेरेकेन पदेन (न) हीनो भवति, सर्वचारणिकाप्रयोगेण, लघुकपञ्चदशरात्रिन्दिवादारब्धं प्रायश्चित्तं मूले तिष्ठितीत्यर्थः। यदातुस्थविर आलपति तदा भिक्षोरेकेन पदेन हीनो भवति, सर्वचारणिकाप्रयोगेण गुरुरात्रिन्दिवादारब्धं छेदे तिष्ठतीत्यर्थः।। यदा तु क्षुल्लक आचार्याऽऽदीनालपति तदा सोऽप्येकेन पदेन हीनो भवति। तद्यथा-क्षुल्लक आचार्यमालपति यद्याचार्यः तूष्णीकाऽऽदीनि पदानि करोति तत आलप्ताऽऽदिषु पञ्चसु पदेषु लघुविंशति रात्रिन्दिवादारब्धं षट्गुरुके तिष्ठति / एवं क्षुल्लकेनैवोपाध्यायस्याऽऽलप्ताऽऽदिषु पदेषु तूष्णीकताऽऽदिभिः षड्भिः पदैः प्रत्येकं चार्यमाणैर्गुरुपञ्चदशकादारब्धं षट्लघुकान्तम् / भिक्षार्लधुपञ्चदशकादारब्धं चतुर्गुरकान्तम्। स्थविरस्य गुरुदशकादारब्धं चतुर्लघुकान्तम्। क्षुल्लकस्य लघुदशकादारब्धं मासगुरुकान्तं प्रायश्चितं भवति। एवं सर्वचारिकाप्रयोगेण लघुदशकादारब्धं षड्गुरुके तिष्ठतीति। एवं तावन्निर्ग्रन्थानामुत्कम्। अथ निर्ग्रन्थीनामतिदिशन्नाह - भिक्खुसरिसी तु गणिणी, थेरसरिच्छी तु होइ अमिसेगा। भिक्खुणि खुड्डसरिच्छी, गुरुलहुपणगाइ दो इयरा / / 52 / / इह निर्गन्थीवर्गेऽपि पञ्च पदानि / तद्यथा - प्रवत्तिनी अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका च / तथाऽत्रा गणिनी प्रवर्तिनी, सा भिक्षुसद्दशी मन्तव्या। कि मुक्तं भवति? प्रवर्तिनी Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फसवयण 1155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फरुसवयण प्रभृतीनां पञ्चानामन्यतमामालप्ताऽऽदिभिः प्रकारैरालपति, सा चालप्यमाना तूष्णीकाऽऽदिपदषट्कं करोति, ततो भिक्षावालपति यदाचार्याऽऽदीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत्तासां प्रवर्तिनीभृतीनांमन्तव्यम्। अथाभिषेका प्रवर्तिन्यादीनामन्यत रामालपति, सा च तूष्णीकाऽऽदिपदानि करोति, ततः स्थविरे आलपति यदाचार्याऽऽदीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत् तासा द्रष्टव्यम्। अतएषाऽऽह -स्थविरसदृशा अभिषेका भवति / अथ भिक्षुणी प्रवर्तिनीप्रभृतिकामालपति, सा च तूष्णीकाऽऽदीनि करोति, ततः क्षुल्लके आलपतियदाचार्याऽऽदीनां प्रायश्चित्तमुक्तं तत्तासामापे यथाक्रम ज्ञेयम्। अत एवाऽऽह-भिक्षुणी क्षुल्लकसदृशी। अथ स्थविरा प्रवर्तिनी प्रभृतिकामालपति, ततः प्रवर्तिन्या तूष्णीकाऽऽदिपदषट्कं कुर्वाणाया गुरुपञ्चदशकाऽऽदिकं षट्लघुकान्तम्। अभिषेकाया लघुपञ्चदशकाssदिकं चतुर्गुरुकान्तम् / भिक्षुण्या गुरुदशकाऽऽदिकं चर्तुलघुकान्तम् / भिक्षुण्या गुरुदशकाऽऽदिकं चर्तुलघुकान्तम्। स्थविराया लघुदशकाऽऽदिकं मासगुरुकान्तं क्षुल्लिकाया गुरुपञ्चकाऽऽदिकं मासलघुकान्तं ज्ञेयम् / अथ क्षुल्लिकाप्रवर्तिनीप्रभृतिकामालपति, सा च तूष्णीकाऽऽदीनि पदानि करोति, ततः प्रवर्तिन्या लघुपञ्चदशकाऽऽदिकं चतुर्गुरुकान्तम् / अभिषेकाया गुरुदशकाऽऽदि चतुर्लघुकान्तम् / भिक्षुण्या लघुदशकाऽऽदिकं मासगुरुकान्तम् / स्थविराया गुरुपञ्चकाऽऽदिकं मासलघुकान्तम् / क्षुल्लिकाया लघुपञ्चकाऽऽदिकं गुरुभिन्नमासान्तं मन्तव्यम्।अपर एवाऽऽह-(गुरुलहुपणगाइदो इयर त्ति) इतरे स्थविराक्षुल्लके तयोर्द्वयोरपि यथाक्रमं गुरुपञ्चकाऽऽदिक लघुपञ्चकाऽऽदिकं च प्रायश्चितं भवति / इह परुषग्रहणेन निठुरकर्कशे अपि सूचिते। ततस्तयोः प्रायश्चितं दर्शयितुं परुषस्य च प्रकारान्तरेण शोधिमभिधाप्तुमाह - लहुओ उलहुस्सगम्मी, गुरुगो आगाढफरुसवयमाणो! निठुरकक्कसवयणे, गुरुगा य ततो कओ जं वा / / 53 // लधुस्वके स्तोकेपरुषवचने सामान्यतोऽभिधीयमाने मासलघु, आगाढपरुषवदतो मासगुरु, निष्ठुरवचने कर्कशवचनेचचत्वारो गुरुकाः, यच ते फ्रुषभणिताः प्रद्वेषतः करिष्यन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। अथ किमिदं निष्ठुरं किं वा कर्कशमित्याशङ्काऽवकाशं विलो क्याऽऽह - निव्वेद पूछिछतम्मी, उन्भामइल त्ति निवरं सव्वं / मेहुणसंसहूं क-कसाइ णिव्वेद साहेति // 54 / / कयाऽपि महेलया कोऽपि साधुः पृष्टः-केन निदेन त्वं प्रव्रजितः / स / प्राऽऽह-मदीया भोजिका उद्घामिका दुःशीला अतोऽहं प्रव्रजितः / एवमादिकं सर्वमपि निष्ठुरमुच्यते। तथा मैथुने संसृष्ट विलीनभावं दृष्ट्वा प्रव्रजितोऽहम् / एवं निर्वेदं यत्कथयति तदेवमादीनि तानि कर्कशानि। इदमेव व्याचष्टेमयं व जं होइ रयावसाणे, तं चिक्कणं गुज्झ मलं छरंतं। अंगेसु अंगाई णिगृहयंती, णिव्वेयमेयं मम जाण सोम्मे! ||55 / / सखेदणीसह विमुक्कगत्तो, भारेण छिन्नो ससई व दीहं। हीओ मिजं आसि रयावसाणे, अणेगसो तेण दम (वयं) पवण्णो // 56 // यत् रतावसाने मृतमिव भवति तदेवंविधं गुह्य चिक्कणं मलं क्षरत्परिगलत् भार्या चात्मीयेष्वङ्गेषु आत्मा चान्येवाङ्गानि जुगुप्सनीयतया निगृहयन्ती मया दृष्टा, एतन्मे निर्वेद निर्वेदकारणं हे सौम्ये! जानीहि।। तथा सखेदम् ('नीसट्ठ) अत्यर्थ विमुक्तगात्रा:-शिथिलीकृताङ्गो भारेण छिन्न:-शुटितो भारवाहको यथा दीर्घ निःश्वसति तथा अहमपिरतावसाने यदनेकश एवं विध आसम् - अभूवम्, तदतीव हीतो लज्जितः, तेन निर्वेदेन (दम) संयमम् / पाठान्तरेण-व्रतं वा, प्रपन्नोऽहम् / गतं परुषवचनम्। बृ०६ उ०। तथा च निशीथसूत्रम्जे मिक्खू लहुस्सगं फरुसं वयइ, वयंतं वा साइजइ / / 17 / / लहुस्सं-ईषदल्पं-स्तोकमिति। यावत् फरुसंणेहवज्जियं यं अणं साहुं वदति-भाषते इत्यर्थः / तं फरुसं। चउव्विहं तंदवे खेत्ते काले, भावम्मि य लहुस्सगं भवे फरुसं। एतेसिंणाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुटवीए॥३७॥ एतेसिं दप्ववेत्तकालाणं। जहासंखे इमं वक्खाणंदव्वम्मि वत्यपत्ताऽऽदिएसुखेत्तें संथारवसधिमादीसु। काले तीतमणागत, भावे भेदा इमे होति / / 38 / / आदिगहणेणं डगलगसूहपिप्पलगाऽऽदओ विघेप्पंति। "दव्वे वत्थपत्तादिएसुंति" अस्यव्याख्यावत्थाऽऽदिमपस्संतो, भणाति को णु सुवती महं तेणं? खेत्ते को मं द्वाए, चिट्ठति मा वा इहं ठाहि॥३६॥ वत्थपत्तसूइगाऽऽदि अप्पणो वया अपस्संतो एवं भणाति-महं अस्थिति काउं इमरसाभावेण को णिलभति, इमस्स भावेण वा महं तेणं हडं, एवं दव्वओ लहुस्सयं फरुसं भासति / खेत्तओ लहुस्सयं फरुसंतस्स संथारभूमीए किं चि ठियं पासित्ता भणति-को ममं संथारगभूमीए ठाति अप्पं जाणमाणो? अधवा-मामसंथारगभूमीए ठाहि।। (38 गा०) "काले तीतमणागतेति' अस्य व्याख्या / गाहागंतव्वस्स न कालो, सुहसुत्ता केण बोहिता अम्हे? हीणाहिऐं कालं वा, केण कयमिणं हवति गंतव्वं // 40 // तेसाहुणो पगे गंतमणा, ततो उट्ठाविजंतो भणति-गंतव्वस्सण कालो अजवि, सुहसुत्ता केण वेरिएण अधण्णेण पडिबोहिया अम्हे? अधवाहीण अधियं वा कालं केण कयमिणं? तंच इमं भवतिकाले हीणातिरित्तं गंतव्वं। गाहाओसहपडिलेहपरिणा-पाओसियसुवणभिक्खसज्झाए। हीणातिरित्तकरणे, एमादी वादितो फरुसं॥४१॥ गिलाणस्स ओ सहट्टाए गंतव्वे हीणातिरित्तं, अहवाआयरिया पसणाऽऽदिणि मित्ते गिलाणो सहो वओगे वा पञ्चू Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरुसवयण 1146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फल सावरण्हेसु पडिलेहणं पडुच परिणणेति जेण पोरिसिमादियं पचक्खाय चोदग आह -तो किमिति दव्याऽऽदिफरूसं, भण्णति भावफरूसमेव तस्स पारेउकामस्स भत्ताऽऽदीणं वा गंतुकामरस उग्धाडणे च त्ति, भत्तप- भन्नइ? आचार्य आह-द्रव्यादीनाम् उपचारणमात्र, यतस्ते क्रोधादयः चक्खायस्सवा समाहिपाएगाऽऽदि आणेयव्वा हीणाधिकं कत, पादोसियं द्रव्यादिसमुत्या भवन्तीत्यर्थः। वा काउं सुविणे सुविउकामाणं भिक्खं वा हिंडिउकामाण सज्झाए भावफरुसउप्पत्तिकारणभेदा इमे - पट्टवणवेल पडुच्च कालवेल वा, एवमादिसु कारणेसु हीणाधिकं करेंतो आलत्ते वाहिते, वावारिते पुच्छिते णिसट्टे य। वाइओ फरुस वएज्जा। फरुसवयणम्मि एए, पंचेव गमा मुणेयव्वा॥४८॥ अहवा इमो फरुसवयणुप्पायप्पगारो -- आलत्ते वाहित्ते बावारिते एषांठायाणां व्याख्यागच्छसि ण ताव कालो, लभसु धितिं किं चडप्पडस्सैवं? आलावो देवदत्ता-दि किं भो ति किं वदे देति / अतिपच्छा सि विबुद्धो, किं वऽज्झसितं पएतव्वं / / 4 / / वाहरणं एहि इओ, वावारण गच्छ कुण वा वि||४६|| गुरुणा पुर्व संदिट्टो ओसहातिगमणे अण्णं, तत्थेव गंतुकामं साधु कंठा। पुच्छति-गच्छसि?, सो पुच्छितो साधू फरूसं वयतिण ताव कालो, पुच्छणिसट्टाण दुवण्ह वि इमा व्याख्यालभसु धिति, किं चडप्पडस्सेव? अहवा-सोचेवं पुच्छिओ भणति पुच्छा कताकतेसुं, आगतंकचंतआतुरादीहिं / 'पच्छद्धं कंठ। णिसिरण हंदसु भुंजसु, पियसं वा एतिम भत्तं / / 50|| एस गाहत्थो पडिलेहणाऽऽदिपदेसु जत्थ जुज्जते तत्रा तत्र सर्वत्रा योज्यं / कंटा। नि० चू० 2 उ० अथवा-दव्वाऽऽदिणिमित्त एवं फरुसं भासति फरुसवयणे इमे दोसावत्थं वा पायं वा, गुरुण जोगं तु केणिमं लद्धं? एतेसामण्णतरं, जे भिक्खू लहुस्सगं वदे फरूसं। किंवा तुमं जतिस्ससि, इति पुट्ठो वेति तं फरुसं // 43 // सो आणा अणवत्थं,मिच्छत्तविराधणं पावे // 58|| एगेण अभिग्गहाणभिग्गहेण साहुणा गुरुपाउग्गं वत्थं पत्तं संथारगाऽऽदि कारणाओ पुण भासेज्जा वि बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वइज्ज खरसज्झे। उग्गमियं, तमण्णेण साहुणा दिट्ट, तेण सो उग्गामेंतसाहू पुच्छिओ अणुसासणा वदेसी, वएज च विकिंचणट्ठाए।।५६।। केणुग्गमित? सो भणति-गया। त्वं चाक्षमाः, पाषाणवल्लद्धो अलद्धिमा खित्ताइचित्तो भणेज वा, भणिया वा आयरियादि, खरसज्झा वा लब्भसि, एवं फरुसमाह। भणेजा, अन्नहा नवाइ मृदू वि अनुसासणं पडुचऽदि वा विकिंचितव्वो इदाणी खेत्तं पडुच गाहा फरुसवयणेणं, सो य फरुसावितो असहमाणो गच्छइ। नि० चू० 2 उ०। खेत्त महा जणजोग्गं, बसधी संचारगा य पाओग्गा। भदन्तं प्रति परुषवाक्यनिषेधो यथा। सूत्राम्केणुग्गमिता एते, तहेव फरुसं वदे पुट्ठो॥४४|| जे भिक्खू भदंतं फरुसंवदइ, वदंतं वा साइजइ / / 2 / / क्षेोऽप्येवं। गाहा - इदाणिं तीतमणागतकालं पडुच गाहा जं लहुसगं तु फरुसं, बितिउद्देसम्मि वणितं पुट्विं / उउवासमुहो कालो, तीतो केणेस जाइओ अम्ह? ते चेव य आगाढं, दसमुद्देसम्मि नायव्यं // 34 // जो एस्सति वा एस्से, तहेव फरुसंवदे अहवा / / 45|| जहा बितिउद्देसे फरुसंतहा इहं पि उस्सग्गववातेहिं वत्तव्यं, णवर इह उदुत्ति उदुबद्धकालो, वास त्ति वासकालो अहवा-उदुत्ति रिऊ, तस्सि आयरियसुत्तणिवाओवासः सुखेन उउवासः सुखः। शेष कण्ठा। जे भिक्खू भदंतं आगाढं फरुसंवदइ, वदंतं वा साइज्जइ॥३॥ दव्याऽऽदिसु पच्छित्तं भण्णति गाहासूाम्दव्वे खेत्ते काले, मासो लहुओ उ तीसु वि पदेसु। एसेव गमो णियमा, मीसगसुत्ते वि होति घेतव्यो। तकालविसुद्धो वा, आयरियादी चतुण्हं पि / / 46 / / आगाढफरूसमीसे, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि||३५|| दव्वखेत्तकालनिमित्तं फरुसंवयंतस्स दोहिं वि लहू। जो एतेसुदोसु पुव्वुत्तेसु सुत्तेसुगमो सोचेव इह मीलगसुत्ते गमो दट्ठव्यो, इदाणिं भावफरुसं णवरं संजोगपच्छित्तं भाणियब्बा नि० चू० 10 उ०। भावे पुण कोधाऽऽदी, कोहाऽऽदि विणा नु किं भवे फरुसं? | फरूससाला स्त्री० (परुषशाला) कुम्भकारशालायाम्, बृ०३ उ०। उवयारो पुण कीरति, दव्वाति समुप्पती जेण // 47 // फरूसासि(ण) पुं० (परुषाशिन्) रूक्षाशिनि, 'फरूसासी लट्ठिगहा।" पुणसट्टो विसेसणे, किं विशेषयति? भण्णति-दव्वादिएसु वि कोहाऽऽ-- परुषशिनो रुक्षाशितया च प्रकृति क्रोधनाः। आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। दिभावो भवति, इह तु दव्वाऽऽदिणिरवेक्खो कोहाऽऽदिभायो घेप्पइ। / फल न०(फल) गतौ, भ्वादि० पर० सक० सेट् / फलति। अफालीत्। एवं विशेषयति / दव्वाऽऽदिसु वि कोहाऽऽदिणा विणा फरुसण भवति। सण माता / ज्वला० कर्तरि वाऽणः। फलः। फालः। वाचला आ० चू०। Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल 1147 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फलवड्डिय * फल नं० फल अच् / वृक्षाऽऽदीनां शस्ये, वाच०। फलानि ना लिकेर- उ० फलकवदुर्बलशरीरे, "अविहम्माणे फलगावतही।“फलकवदवदाडिमाऽऽदीनि / पञ्चा०८ विव० / 'फला एतट्टिया। ' तं०। प्रज्ञा०। कृष्टः यथा फलकमुभाभ्यामपि पावाभ्यां तष्ट घट्टितं सत्तनु भवति, फलं त्रापुष्याऽऽदीति। स्था०६ ठा०। विपा० उत्त०। सूत्रा०। (फलभेद- अरत्कद्विष्ट वा सभवत्येवमसावपि साधुः सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा निरूपणाय फलसूत्रम् (253) / 'पुरिसजाय शब्दे अौव भागे 1018 निष्टप्तदेहस्तनुर्दुर्बलशरीरोऽरत्कद्विष्ट श्चेति। सूत्रा० 1 श्रु०७ अ०। पृष्ठे समुक्तम्।) लाभे० उद्देश्ये, जातीफले, त्रिफलायाम, कक्कोले, * फलकाऽऽपदर्थिन् पुं० फलं कर्मक्षयरूपं तदेव फलक, तेनाऽऽपदि वाणाग्रे, फाले, दाने, मुष्के, फलके, वाच०। काष्ठफलके, सूत्रा० 1 श्रु० संसारभ्रमणरूपायामर्थः प्रयोजनं फलकाऽऽपदर्थः, स विद्यते यस्यासौ 11 अ०। कार्य० बृ०१ उ०२ प्रक०। स०। सूत्रा०। आव० / साध्ये, फलकाऽऽपदर्थी। संसारभ्रमणरूपायामापदि कर्मक्षयरूपफलेनार्थिनि, पञ्चा० 8 विव०। प्रयोजने, सूत्रा०१ श्रु०१२ अ० / दर्श०। भ०। नि० आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०। चू० / विपा०। ज्ञा० / विशे०। वेगे चारयो वेगश्चेष्टाऽनुभवः फलमित्य- * फलकावस्थायिन् पुं० तक्ष्यमाणोऽपि दुर्वचनवास्यादिभिः कषायानर्थान्तरम्। आव०१ अ० / कुटजवृक्षे, पुं० / वाच०। (संवेगाऽऽदीना ऽभावतया फलकवदवतिष्ठते तच्छीलश्चेति फलकावस्थायी। वासीचफलानि संवेगाऽऽदिशब्देषु द्रष्टव्यानि) न्दनकल्पे, "समाहियचे फलगावतट्ठी।" आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०। फलग न० (फलक) फलमेव फलकम् / फलशब्दार्थे , आचा०१ श्रु०८ फलचारण पुं० (फलचारण) नानाद्रुमलतागुल्मपुष्पाण्युपादाय पुष्पसूक्ष्म अ०६ उ०। शयनोपयोगिन्येकपट्टाऽऽदिरुपे प्रतले आयते काष्ठानिर्मित जीवानविराधयन कुसुमतलदला वलम्बनसङ्गततया पुष्पचारणः / वस्तुनि, बृ० 3 उ० / आचा० / उत्त० / शयनं खट्वाफलकाऽऽदि।। चारणभेदे, ग०२ अधि०1 प्रव०। आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। स्था० अवष्टम्भनार्थे काष्ठाविशेषे, औ०। फलप्परूवणा स्वी० (फलप्ररूपणा) फलं कार्ये तस्य प्ररुपणा प्रज्ञापना भ० / उपा०। प्रश्न० 1 "पीढफलग सेज्जासंथारएणं / ' रा०। ज्ञा० / फलप्ररूपणा / कार्यप्रज्ञापनायाम्,ध०१ अधि०। स्था०। 'फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था फलकमिव काष्ठशकलमि- / फलप्पहाण त्रि० (फलप्रधान) सफले, नं०। वेति / सूत्रा० 1 श्रु०५ अ० 1 उ०।" ते भिण्णदेहा फलगं व तट्ठा।" / फलभाव पुं० (फलभाव) कार्यभावे, "हेउफलभावओ हुति। “फलभावतः फलकमिवोभाभ्यां क्रकचाऽऽदिनाऽवतष्टाः / सूत्र० 1 श्रु०५ अ०१ कार्यभावेन। पं०व०१ द्वार। उ०। संपुटफलके, स्था०४ ठा०२ उ०। खेटके, छूतोपकरणविशेष, फलभोयण न० (फलभोजन) फलान्याम्राऽऽदीनि तेषां भोजनम् / फल प्रश्रे०१ आश्र० द्वार।फलकानिसपुटफलकानिखेटकानि वा अवष्टम्भ- अपुष्याऽऽदि, तस्य भोजनम् / भुज्यत इति भोजनमिति कृत्वा तदेव वा नानि वा द्यूतोपकरणानि वा। औ०। जं० / सोपानाङ्गभूते काष्ठाऽऽदि- भोजनम् / फलभोजनं फलस्य भक्षणे, फलरूपे भक्षणे च। स्था०६ ठा०। पट्टे, "सुवण्णरुप्पमया फलगा।"जी०३ प्रति०४ अधि०। आ० म०। / फलव त्रि० (फलवत्) साध्यसाधके, "सव्वं चिय फलवई भवइचेट्ठा।" पट्टिकायाम्, उत्त० 1 अ० / फलकं पट्टिका, यस्यां लिखित्वा पठ्यते / पञ्चा०४ विव०। समवसरणफलके च। ध०। तच्च कारणे अवष्टम्भार्थ भवति उत्सर्गतश्च फलवड्डिय न० (फलवर्द्धिक) मेतार्यनगरसमीपस्थे (सांप्रत फलोधीति साधूनामवष्टम्भो न युक्रः, प्रत्युपेक्षितेऽपि स्तम्भाऽऽदौ कुन्थुपिपीलिका- ख्याते) नगरभेदे, तत्रत्ये चैत्येच। तचैत्यस्थेपार्श्वनाथे, पुं०। फलवर्द्धिऽऽदिजन्तु संचारस्य दुर्वारत्वात्-यतः 'अव्वोच्छिन्ना तसा पाणा, कनगरस्थायां स्वनामख्यातायां देव्यां च / स्त्री०। ती०। पडिलेहा न सुज्झई। तम्हा हट्ठपहट्टस्स, अवठ्ठभो न कप्पई॥१॥" तद्वत्क्रव्यता यथाइति / ग्लान्यादिकारणे तु घनमसृणाऽऽदिगुणोपेते फलके पाषाणमये "सिरिफलवद्धि (ड) अचेझ्य-परिट्ठियं पणमिऊण पासजिणं। स्तम्भे सुधामृष्ट कुलये कुङ्यसंलग्नोपधिविण्टलिकाया वाऽवष्टभी-तेति। तस्सेव वेमि कप्पं, जहासुअंदलिअकलिदप्पं / / 1 / / " "अतरतस्स उपासंगा, जेणं दुक्खति तेणऽवट्ठभे, संजमपेट्टीथमे, सेले अस्थिसकलखीणदोसमेडत्तयनगरसमीवडिओ वीरभवणाइनाणाविउतह कुडविट्ठलिए।।१॥"ध०३अधि०। चर्ममये असप्रतिघातनि- हदेवालयाभिरामो फलवद्धीनामगामो, तत्थ फलवद्धीनामधिज्जाए देवीए वारके स्फुरके, पदार्थभेदे, वाच०।"भरिएहिं फलएहिं।" हस्तपाशितैः भवणमुतगसिहरं चिट्ठइ, सो अरिद्धिसमिद्धोविकालकमेण उवस्सयाओ स्फुरकैः / विपा० 1 श्रु०८ अ०1ज्ञा०। आचा०। संजाओ, तहा वि तत्थ कित्तिआवि वाणिअगा आगंतूण अवसिंसु तेसु फलगपट्टिया स्त्री० (फलकपट्टिका) काष्ठाऽऽदिपट्टिकायाम्, “फलग- एगो सिरिसिरिमालवसमुत्तामणी धम्मिअलोअगामगामणी 'धंधलो" पट्टियाए सिरिकताए रूवं लिहिऊण दंसेइ।" आ० / म०१ अ०। नाम परमसावओ हुत्था। बीओ अतारिसगुणो चेव ओसवालकुलनहयफलगमग्ग पुं० (फलकमार्ग) मार्गभदे, यत्रा कर्दमाऽऽदिभया रफलकैर्ग- लनिसाकरो सिवंकरो नाम। ताण दुण्हं पि पभूआओ गायीओ आसिं। म्यते / सूत्रा०१ श्रु०११ अ01 तासि मज्झे एगा धंधलस्स धेणू पइदिणं दुज्झंती वि दुद्धं न देइ। तओ फलगसेज्जा स्त्री० (फलकशय्या) फलकं प्रतलमायतं काष्ठं तद्रूपा शय्या धंधलेण गोवालो पुच्छिमो-किमेसाधेणू तुमए चेव बाहिरे दुज्झइ, अन्नेण फलकशय्या। फलकरूपायां शय्यायाम्, स्था०६ ठा०। वा केणावि, जेण सान बुद्धं देइ? तओ गोवालेण सवथाइंकाऊण अप्पा फलगावतट्ठि(ण) पुं० (फलकावकृष्टिन) फलकवत् वास्यादिभिरूभयतो निरवराहीकओ। तओ गोवालेण समं निरिक्खंतेणं एगया उचरयडस्स बाह्यतोऽभ्यन्तरतश्चावकृष्टः फलकावकृष्टी। आचा०१ श्रु०८ अ०६ / उवरि वोरितओ समीचे चउहिंवि थणेहिं खीरं झरती दिट्ठा सा सुरही। Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलवड्डिय 1148 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फलिअ एवं पइदिणं पिच्छतेण वंसिआ धंधलस्स। तेण चिं-तिअनूणं कोइ इत्थ लिंडयाइहाणवट्टमाणपासनाह पडिमाणं करिज जत्ता कया हवइ ति जक्खाइदेवयाविसेसो भविस्सइ भूमिमज्झडिओ। तओ गिहमागएण संपदायपुरिसाणं उवएसो। तेण सुहपसुत्तेण रत्तीए सुमिणओ उवलद्धो / जहा-एगेण पुरिसेण वुत्तं - "इअफलवद्धिपुरट्ठिअ-पासजिणिंदस्स कप्पमविअप्पं / इत्थ रयडए भवयं पासनाहो गब्भहरदेवलियामज्झे चिट्ठइ, सं बाहिं निसुताणं भव्या-ण होउ कल्लाणनिप्फत्ती॥१॥' निकासिऊण पूरहि। तओ धंधलेण पहाए बुद्धेण सिवंकरस्स निवेइयो "इत्याप्तजनस्य मुखात्, किमप्युपादाय संप्रदायलवम्। सुमिणवुत्तंतो। तओ दोहि पि कोऊलाउलियमाणसेहि वलिपूआविहा- ग्रथितं जिनप्रभसूरिभिः, कल्पं फलवर्द्धिपार्श्वविभोः॥ 2 // " णपुव्वं उद्देहि रयडभूमि खणावित्ता कडिओ गम्भहरदेउलियासहिस ती०५४ कल्प। तफणिफणामंडिओ भयवं पाससामी, पइदिअहं पूयंति महया इड्डीयते फलवाइण पुं० (फलवादिन) फलवदनशीले, "दुग्गई फलवाईणं। सूत्रा० दोवि। एवं पूइज्जते भुवणनाहे पुणो विअहिट्ठायगेहिं सुमिणे आइट्ठ तेसि। १श्रु०११ अ०॥ जहा-तत्थेव पएसे चेइअंकारावेह त्ति।तओ तेहिं पहिट्ठचित्तेहिं दोहिं वि फलविंटिय पु० (फलवृन्तिक) फलवृन्तोद्भवे त्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा० निअविहवाणुसारेण चेइअंकारावेउमादत्त। पयट्टिआ सुत्तहारा कम्मट्ठा 1 पद / जी०। णेसुजाव अग्गमंडले निप्पन्ने, तेसिं अप्पट्टिअत्तेण दव्वेण निद्धणअसम फलविवाग पुं० (फलविपाक) फलरुपो विपाकः फलविपाकः। फलरुपत्थयाए नियत्तो कम्मट्ठाओ, तओ धणिय आवन्ना दो वि परमोदासया। विपाके, स०॥ तयणतरे रयणीए पुणो वि अहिट्टायगसुरेहिं सुमिणे भणियं, जहा से समासओ दुविहे पण्णत्ते। तं जहा दुहविवागे,सुह विवागे य। अइप्पभाए अलवतेसुकाएसु देवस्स अग्गओ दम्माणं सत्थि पइदिणं फलस्य कार्यस्य विपाको व्यत्क्रीकरणम्। फलस्य व्यत्क्रीकरणे, स० पिच्छस्सह,ते दम्मा केइ अकजे चइयत्त त्ति / तेहिं तहेव दिढे. ते दम्भे 55 सम०। फलामिव वृक्षसाध्यमिव विपाकः कर्मणामुदयः फलविपाकः / घित्तूण सेसकम्मट्ठायं कारवेउमाढतं जाव पडिपुण्णा पंच वि मंडवा य कर्मणामुदये, प्रश्न०१ आअ० द्वार०। फलस्येचाऽलावुकाऽऽदेः विपाको विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था फलवि पाकः / कर्मणां रसप्रकर्षालहुमंडवाय, तिहुयणजणचित्तच मुक्कारकारए बहुनिप्पन्नम्मि चैइअम्मि वस्थायाम, भ०६श०३२ उ०। तेसिं पुत्तेहिं चिंतिअंकतो एअंदवं संपञ्जइ, जं अविच्छेए कम्मट्ठायं फलविसेस पुं० (फलविशेष) भोगाऽऽदिके साध्यभेदे, ''भोगाइफलविउप्पस्सइत्ति? / अहएमि दिणे अइप्पहाए चेव खंभाइअंतरिआ होऊण सेसा।' पञ्चा०६ विव०। निहुअंदकुमारद्धा, तम्मि दिवसे देवेहिं न पूरिअंदम्माण सत्थिअ, आसन्न फलविहि पुं० (फलविधि) फलप्रकारे, प्रश्न०२ आअ० द्वार। फलच मिच्छरजं नाऊण पयत्तेण आराहिया विअहिट्ठायगान पूरिसु दिव्वं वि विहिपरिमाणं करेइ।' उपा० 1 अ०। ("आणंद'' शब्दे द्वितीयभागे विउं तदवत्थो चेइयकम्मट्ठाओ एगारससएसु इक्कासीइसमहिएसु 1181 106 पृष्ठे सूत्राम्) विक्कमाइ (च) वरिसेसु अइकतेसु रायगच्छमंडणसिरीसीलभद्दसूरिपट्ट फलसाहण न० (फलसाधन) फलार्थमारम्भप्रवर्त्तने, आचा०१ श्रु०५ पइटिएहिं महावाइंदियवरगुणविंदविजयपत्तपइटेहिं सिरिधम्मघोससूरिहिं अ०१ उ०। पासनाहचेइअसिहरे चउव्विहसंघमसमक्खं पइट्ठा कआ। कालंतरेण फलसुरा स्त्री० (फलसुरा) तालफलद्राक्षाखजूरादिनिष्पन्ने सुराभेदे, वृ० कलिकाल माहप्पेण कलिप्पिआ वंतरा हवंति अत्थिरचित्ता य त्ति 2 उ०। पमायपरवसेसु अहिट्ठायगे सुसुरत्ताणसहाबुद्दाणेण दिन्नं फुरमाणं, जहा फलहि पुं० (फलधि) हलावयवभेदे, "एक्कणं हत्थेणं हलं बाहेइ, एक्केणं एअस्स देवभवणस्स केणावि भगो न कायव्वो त्ति, अन्नं च विवंकिर __ फलही उप्पाडेइ। उत्त०३ अ०। भयवओ अहिट्ठायगानसहति त्ति संघेण विवंतरं नठाविअं, विगलिअंगस्स फलही (देशी) काप्पासे, दे० ना०६ वर्ग 82 गाथा। भगवआ महयाइमाहप्पाइ उवलब्भात, पझ्वारस च पासबहुलदसमाए | फलाकि ट्ठि स्वी० (फलाऽऽकृष्टि)स्त्रीणां चतुष्षष्टि-कलास्वन्यतमे जम्मकल्लाण यदिणे चाउद्दिसाओ विसावयसंघा आगतूण नचीअन- | कलाभेदे, कल्प०१ अधि०७क्षण। हवा इअकुसुमाभरणरोहणइंदपयाईहिं मणहरजत्तामहिम कुणता फलावंचगजोग पुं० (फलावञ्चकयोग) "फलावञ्चकयोगस्तु. सद्भ्य संघपूआईहिं सासणं पभाविता निद्दलंति दूसमा समयविलसियाई वि एव नियोगतः। सानुबन्धफलावाप्तिधर्मासिद्धौ सतां मता // 1 // इत्युक्तठवंति गुरु सुकृतसंसारं, इत्थ य चेइए धरणिंदपउमावईखित्तवाला लक्षणे योगभेदे, षो०। अहिट्ठायगा संघस्स विग्धपदभार उवसामिति पणयओआणं मणोरहे अ फलावह त्रि० (फलाऽऽवह) फलसंयुक्ते, षो० 15 विव० / पूरिति, इव्वो विअथिप्पिरपईवहत्थं पुरिसं चेइअमज्झे संचरंतं पासंति, फलासव पुं० (फलाऽऽसव) मद्यभेदे, “फलासवेइ वा। प्रज्ञा० 17 पद समाहिश्रमणा इत्थ रतिं वुत्था भविअजणा एअम्मि महातित्थभूए 4 उ०। पासनाह दिट्टे कलिकुंडलकुछडेसरसिरिपव्व संखेसरभेरीसयमहुरा- | फलाहार पु० (फलाऽऽहार) तापसभेदे, नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अ०। पाणारसीअहिच्छत्ताथभंणवअजाहरपब्वय मनयरदेव पट्टण करहेड- | फलिअत्रि० (फलित) 'फुलिअफलिअंच दलिअं, उद्दलि।" पाइ० यनागइहरिसिरपुरसामिणि चारुपट्टीपुरी उल्लेणीसु सुद्धदंसतीहरिकिंखि | ना०१८१ गाथा। Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलिआरी 1146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फणिय फलिआरी (देशी) दूर्वायाम्, दे० ना०६ वर्ग 83 गाथा। फलिणी स्त्री० (फलिनी) प्रियङ्गो, “फलिणी पियमा पियंगूय।' पाइ० ना० 14 गाथा। फलिह पुं० (परिघ) परि-हन्-क-निः। "पाटि-परुष-परिध-- परिस्रा-पनस-पारिभद्रे फः"॥८/११२३२।। इति प्राकृतसूत्रेण फः / प्रा०१ पाद। "हरिद्राऽऽदौलः" // 814254 / / इति प्राकृतसूत्रेण लः। प्रा०१ पाद। मार्गपरिहननात् परिघः। नगरद्वाराऽऽदिसम्बनिधन्यामर्गलायाम्, नं०। दश०! "असिवे णो फलिहा।" पाइ० ना० 240 गाथा। "अग्गला फलिहो।"पाइ० ना०२६७ गाथा। नि० चू०। औ०। रा०। प्रप्न। ज्ञा०। स्था०। अर्गलादण्डे च। औ०। * फलिक न० प्रहेणकाऽऽदौ, ''फलियं पहेणगाई।'' स्था०३ ठा०३ उ०। वमनीवृक्षे, तत्फले च। अनु०। * स्टफिक पुं० स्फटिव कायति, इवार्थे कन्। "पाटि-परुष-परिघपरिम्रा-पनस-पारिभद्रे फः"11८1१।२३२।। इति प्राकृतसूत्रोण पस्यफः। प्रा०१पाद।"निकष - स्फटिक-चिकुरे हः"॥८१ 1186 / / इति प्राकृतसूत्रेण कस्य हः // प्रा० 1 पाद। "स्फटिके लः"॥८1१1१६७॥इति प्राकृतसूत्रेण टस्य लः। प्रा०१पाद। स्वनामख्याते मणिभेदे, स्था० 10 ठा० / रा०। सूत्रा०। चं० प्र० / ज्ञा० / उत्त० / स्फटिकमये रत्नप्रभायाः पृथिव्या स्वनामख्याते काण्डे, स्था० 10 ठा०। स्फटिकमिव स्फटिकम् / अन्तःकरणे, सूत्रा०२ श्रु०२ अ०। स्फटिकमिव स्वच्छत्वात्। स्फतिकम्। आकाशे, भ०१६ श०३ उ०। फलिहकूड न० (स्फटिककूट) जम्बूद्वीपस्य गन्धमादनवक्ष स्कारपर्वतस्याधोलोकनिवासिन्या भोगंकराया दिक्कुमार्या निवासभूते स्फटिकरत्नमये स्वनामख्याते कूटे, स्था० 8 ठा० / जं० / कुण्डलवरद्वीपस्थस्य कुण्डलशैलस्योत्त रस्यां दिशि स्थिते स्मनामख्याते कूटे, द्वी०। राचक द्वीपस्थरुचकपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि स्थिते स्वनाभख्याते कूटे च / द्वी०। फलिहगिरि पुं० (स्फटिकगिरि) कैलाशे, "फलिहगिरि केलासो।'' पाइ० ना० 178 गाथा। फलिहमल्लपुं० (स्फटिकमल्ल) भृगुकच्छादागते उज्जयिनी नगरस्थेना ऽट्टणमल्लेन सह कृतयुद्धे स्वनामख्याते मल्ले, आव० 4 अ०। फलिहा स्त्री० (परिखा) परितः खन्यते खन-डः / "पाटि-परुषपरिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फः" ||811232 // इति / प्राकृतसूत्रोण फः। प्रा०१पाद। "हरिद्राऽऽदौलः"||१४२५४।। इति प्राकृतसूत्रेण लः।प्रा०१पाद। पुराऽऽदौ रिपुप्रभृतीना दुष्प्रवेशतासिद्धये गरीरुपायां वेष्टानाऽऽकारभूमौ, वाच० / परिखा, खातं, वलयमिति / ज्ञा० 1 श्रु० 13 अ० / सा चाध उपरि च समखातेति / औ० / रा०। उपरि विशाला अधः संकुचितेति। प्रज्ञा०२ पद। परिखोपरि विशाला अधः संकुचिता, खातेति तूभयत्रापि सममिति। जी०३ प्रतिक ३अधि०। आचा। फलिडोवहड न० (फलिकोपहृत) उपहृतमुपहितं भोजनस्थाने ढौकितं, भत्कमिति भावः / फलिक प्रहेणकाऽऽदि, तच तदुपहृतं चेति फलिकोपहृतम्। अवगृहीताभिधानपञ्च मपिण्डषणाविषयभूतं उपहृतभेदे, व्य०। यदाह व्यवहारभाष्येफलियं पहेणगाई, वंजणभक्खेहिँ वा विरहियं तु। भोत्तुमणस्सावहियं, पंचमापिंढे सण एसा!। व्य०२ उ०। फली (देशी) लिङ्गवृषयोः, दे० ना०६ वर्ग 86 गाथा। फलुस्सुक्क न० (फलौत्सुक्य) अभ्युदयाऽऽशंसायाम्, द्वा२१ द्वा०। फलोवागय पुं० (फलोपगत) फलान्युपगच्छतीतिफलोपगः फलोपगतो वा। 'फलोवगय' इत्येवं वाच्यम्। 'फलोवा' 'इति प्राकृतलक्षणवशात् / बहलफले वृक्षभेदे, स्था० 3 ठा० 1 उ०। 'फलोवागएसुवा।' आचा० 2 श्रु०२चू०३अ०। फलोवारुक्खसमाण पुं०(फलोपगतवृक्षसमान) 'फलोवगयरुक्खण समाण इति वाच्ये 'फलोवारुक्खसमाण' इति प्राकृतलक्षणवशात्। पुरुषभेदे, स्था० 4 ठा०३उ०। फल्ल न० (फल्य) / फलाय हितं यत् / पुष्पे, वाच० / फलाय हितः फल्यः / सौत्रिके वस्त्रे, बृ०१ उ०३ प्रक०। फव्वही (देशी) लाभे, 'फव्वीहामो कहम्हे। फव्वीहामो त्ति 'देशीपदत्वात् यद्दच्छया भक्तपानं लभामहे / बृ० 1 उ०३ प्रक०। फसल (देशी) सार - स्थासकयोः, दे० ना० 6 वर्ग 87 गाथा। (काबर चिा गुजराती) "फसलं सबलं सारं, किम्मीरं चित्तलं च बोगिल्ल।' पाइ० ना०६४ गाथा। फसलाणिअ (देशी) कृतविभूषे, दे० ना०६ वर्ग 83 गाथा। फसलिअ (देशी) कृतविभूषे, दे० ना०६वर्ग 83 गाथा। फसुल (देशी) मुक्ते , दे० ना०६ वर्ग 82 गाथा। फा स्वी० (फा) मृगमारीचे, फणायाम्, भषणे, निष्ठुरोत्कौ, कलायाम्, केकायाम्, उत्कण्ठायाम, तनौ च / 'फावतो मृगमारीचे, फा फणा भषणे च फा।" एका० अथवा स्त्रियाम्। "निष्ठुरोक्तिकलाकेकोत्कण्ठातनुषु कथ्यते।'' एका०। फाइ सी० (स्फाति) स्फाय-भावे त्किन् / वृद्धौ, वाच० / 'फातीए मुच्छाए। नि० चू०१ उ०। फाईकय त्रि० (स्फातीकृत) स्फीतिमुपनीते, "फाईकयमन्न-भन्नेसि / ' आ० म०१ अ०। फाणिय न० (फाणित) फण-णिच्क्तः / गुडविकारभेदे वाच० / फाणितो द्रवगुडः / ध०२ अधि० / प्रज्ञा०। औ०। दशः। फाणितं गुडपानकम्। पिं० / 'फाणयं वा' उदकेन द्रवीकृतो गुडः कथितो वा। आचा०२ धु०१ चू० 1 अ० 4 उ०। द्रविकः पिण्णुड एव पानीयेन द्रावितः, एतदुभयमपि फाणिलमुच्यते / बृ०२ उ० / "फाणियाणि दोन्नि / "द्रयगुडे, पिं०। 'फाणिओ गुडो भण्णति / सो दुविहो-दवगुडो, खंडगुडो था।" नि० चू०४ उ०। क्वा, "णिवप्फाणियाइ वा।' फाणितं काथ इति। प्रज्ञा० १७पद 4 उ०। पञ्चा०। Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाणियगुल ११५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फास फाणियगुल पुं० (फाणितगुड) द्रवगुडे, भ०१८ श०५ उ०।। फारुसियन० (पारुष्य) परुषतायाम्, ''फारुसियं समादिय। “आचा० 1 श्रु०६अ०४उ०। फाल धा० (पाट) पट्-णिच् / "पाटि - परुष -परिघ-परिना पनस पारिभद्रे फः"||८1१।२३२।। इति प्राकृतसूत्रोण ण्यन्तस्य पाटेः पस्य फाऽऽदेशः / प्रा०१ पाद। "चपेटापाटौ वा" ! 111168|| इति प्राकृतसूत्रेण पाटेर्यन्तस्य टस्य लो वा / 'फालइ। फालेइ। फाडइ। फाडेइ।' प्रा०१ पाद। * फालन० फलाय-शस्याय हितम्। अण्। फल्यते-विदार्य्यते भूमिर नेन वा घन् / स्वनामख्याते लाङ्गलमुखस्थे लौहभेदे, वाच० / , ''फालसरिसजीहं / ' फालं - द्विपञ्चाशत्पलप्रमाण लोमयो दिव्यविशेषः। ज्ञा०१ श्रु० 8 अ०। 'फालसरिसा से दंता।" फाला लोहमयकुशास्तत्सदृशाः, दीर्घत्वात् / उपा०२ अ०। फालमस्त्यस्य अच् / बलदेवे, महादेव च। पुं०। फलस्य विकारः अण् / कासवसे, त्रि०। फालकरणके दिव्यपरीक्षाभेदे, न०। फलेषु भवः अण। जम्बीरबीजाऽऽदौ, पु०॥ वाच०। फालण न० (स्फाटन) विदारणे, आव०६ अ०। प्रश्न० / स०। फालि स्त्री० (फालि) शाखायाम्, "संवलिफालि ध्व अग्गिणा दड्डा।" संथा०। खण्डे, "अंबपेसियं वा।" आम्रपेशी आमफाली। आचा०२ श्रु०१ चू०७ अ०२ उ01 फालिअ त्रि० (पाटित) द्विधाकृत, ''फालिअं ओरंपिअ च ओरत्तं / ' पाइ० ना०१६८ गाथा। फालित्ता त्रि० (स्फालायितृ) स्फालनकर्त्तरि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। फालियन० (फालिक) महार्घमूल्ये वस्त्रभेदे, 'फालियाणि वा।' आचा० 1 श्रु०१ चू० 5 अ० 1 उ०। * स्फाटित त्रि० विदारिते, उत्त० 16 अ० / आव० / प्रश्न०। * स्फाटिक न० रत्नविशेषे, कल्प० 1 अधि० 3 क्षण / आ० म०। फालियवण्णाभ त्रि० (स्फटिकवर्णाभ) स्फटिकवर्णवदाभा यस्य स तथा / स्फटिकवर्णसदृशवर्णो पेते, भ०१२ श०। फालिहद्द पुं० (पारिभद्र) परितो भद्रमस्त्यस्य प्रज्ञाऽऽद्यण। "पाटि --- परुष-परिघ-परिखा-पनस-पारिभद्रे फः" ||811 / 254 / / इति प्राकृतसूत्रोण फः / प्रा०१पाद। "हरिद्राऽऽदौ लः" ||8/1/ 254 / / इति लः / प्रा०१पाद / वृक्षभेदे, वाच०। फाली स्त्री० (फाली) 'फालि' शब्दार्थे, संथा। फासपुं० (स्पर्श) ग्रहणे, स्तेये च। चुरा०-उभ०-सक० सेट्। सर्वत्र लवराम(च) वन्द्रे / / 8 / 276 / / इति प्राकृतसूत्रोण संयुक्तस्योपरिस्थितस्व रस्य लुक् / प्रा०२ पाद। "लुप्त य रव-श-ष-सां दीर्घः' / / 8 / 1 / 43 / / इति प्राकृतसूत्रोण रलोपेकृते शकारात्पूर्वस्य दीर्घः / प्रा०१पाद।"र्श-र्ष-तप्त-वजे वा" / / 8 / 2 / 105 / / इति प्राकृतसूत्रेण संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारो वा / प्रा० 2 पाद / फासइ। फरिसइ / स्पर्शयति। अपस्पर्शत्। वाच०। स्पृशतीति स्पर्शः। स्पर्शन्द्रिये, विशे०। प्रज्ञा० / सम्म० / 'स्पृश' स्पर्श / स्पृश्यते। छुप्यत इति स्पर्शः। 'अकर्तरि च०"॥३।३।११।। इति धप्रत्ययः / प्रज्ञा० 23 पद / स्था० / त्वगिन्द्रियग्राह्ये पृथिव्युदकज्वलनवृत्तिके, सम्म० / स्पर्शनकरणविषये, स्था०१ ठा०। कर्कशाऽऽदिके गुणभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०। स०। आ० म०। औ० / प्रा०ा पं०सं० / कर्म०॥ "फासाइं पडिसंवेइ।'"स्था०२ ठा०२ उ०। आ० म०। जी०। भ०। "विराहणा फासभावबंधो य।" नि० चू०१७ उ०। ते चाष्टौ कवर्कशमृदुगुरुलघुशीतोष्णस्त्रिग्धरुक्षभेदात्। विशे०। आचा०। पं०स०। उत्त० / अनु० / प्रव० प्रज्ञा०। अट्ठ फासा पण्णत्ता / तं जहा-कक्खडे, मउए, गुरुए, लहुए, सीए, उसिणे, निद्धे,लुक्खे / स्था०८ ठा०॥ स्पर्शाः० संबाधनाऽऽलिङ्गनचुम्बनाऽऽदिका इति। आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। ते च प्रत्येकं द्विविधा : दुविहा फासा पण्णत्ता।तं जहा-अत्ता चेव, अणत्ता चेव० जाव मणामा / स्था०२ठा०३उ० "एगे फासे।" एकत्वं सामान्यतः सजातीयविजातीयव्यावृत्तरूपापेक्षया वा भावनीयम्। स्था०१ ठा०। स्पर्शवर्णकश्च मणीनधिकृत्य - तेसिणं मणीणं इमेयारुवे फासेपण्णत्ते / से जहानामए आईणेइ वा, रुपइवा, चूरेइवा, नवणीएइवा, हंसतृणीएइ वा, सिरीसकुक्षुमनिचएइ वा, बालकुसुमपतारासीइ वा / प्रज्ञा० 23 पद। रा०1 स्पृश्यते- स्पर्शेन्द्रियेणानुभूयते इति स्पर्शः। उपतापे, आचा० १श्रु० 8 अ०२ उ० / दंशमशकाऽऽदिके परीषहोपसर्गाऽऽत्मके दुःखविशेषे, सूत्र। एते भो कसिणा फासा, फरुसा दुस्सहिया सया। हत्थीसरसंवित्ता, कीवाऽवस गया गिह / / 17 / / सूत्रा० 1 श्रु०३ अ० 1 उ०। (अस्या व्याख्यानम् परिसह शब्देऽस्मिनेव भागे 648 पृष्ठे गतम्) नरकाऽऽदिके दुःख विशेषे, ''पुव्वं दंडा पच्छा फासा पुव्व फासापच्छा दंडा।" आचा०१श्रु०५ अ०४ उ०। गाढप्रहाराऽऽदिजनिते दुःखविशेषे, 'फासा य असमंजसा।" आचा०१श्रु 6 अ० 1 उ०॥ अदुवा फासा फुसंति ते फासे पुढे वीरो अहियासए। अथवां-तेषु ग्रामाऽऽदिषु स्थानेषु तिष्ठतो गच्छतो वा स्पर्शाः दुःखविशेषा आत्मसंवेदनीयाः स्पृशन्ति-अभिभवन्ति, ते चतुर्विधाः / तद्यथाघट्टनतक्षणकण्डनाऽऽदेः पतनता, भ्रमिमूर्छाऽऽदिना स्तम्भनता, वाताऽऽदिनाश्लेषणता, तालुनः पातादडगुल्यादेर्वा स्यात्, यदि वा-वातपितश्लेष्माऽऽ दिक्षोभात् स्पर्शाः स्पृशन्ति / अथवा-निष्किञ्चनतया तृणस्पर्शदशमशक-शीतोष्णाऽऽद्यापादिताः स्पर्शाः दुःखविशेषाः कदाचित्स्पृशन्ति-अभिभवन्ति, तैश्च स्पृष्टः परीषहस्तान् स्पर्शानदुःख विशेषान् धीरोऽक्षोभ्योऽधिसहेत नरकाऽऽदिदुःखभावनयाऽबनध्यको - दयाऽऽपादितं पुनरपि मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य सम्यत्कितिक्षेतेति। आचा०१ श्रु०६ अ०५ उ०। अचेलं तणफासा फुसंति सीयफासा फुसंति तेउफासा फुसंति दंसमसगफासा फुसंति एगयरे अण्णयरे विरू वरूवे फासे अहियासेति। Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फास 1151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फासणा अचेल कचिद् ग्रामाऽऽदौ त्वकूत्राणाभावात् तृणशय्यशायिन स्पर्शाः परुषास्तृणैर्वा जनिताः स्पर्शा दुःखविशेषा स्तृणस्पर्शास्त्र कदाचित पृशन्ति, तांश्च सम्यगदीनमन स्कोऽधिसहत इति संबन्धः / तथा भीतरपर्शाः स्पृशन्त्युपतापयन्ति,तेज उष्णस्तत्स्पर्शाः स्पृशन्ति, तथा दशमशकस्पर्शाः स्पृशन्त्येतेषां तुपरीषहाणामेकतरेऽविरुद्धा दंशमशकतृणस्पर्शाऽऽदयः प्रादुर्भवेयुः, शीतोष्णाऽऽदिपरीषहाणां वा परस्परविरुद्धानामन्यतरे प्रादुःष्युः, प्रत्येकं बहुवचननिर्देशश्च तीव्रमन्दमध्यमावस्था-संसूचकः, इत्येतदेव दर्शयति-विरूप-वीभत्सं मनोऽनाह्वादि विविध वा मन्दाऽऽदिभेदाद् रूपं स्वरूपं येषां ते विरूपरूपाः / के ते? स्पर्शाः दुःखविशेषाः, तदापाद कास्तृणाऽऽदिस्पर्शा वा, तान् सम्यक् करणेनापध्यानरहितो ऽधिसहते / आचा० 1 श्रु०६ अ० 3 उ० / दुःखोत्पादके शीतोष्णाऽऽदिके, "ससद्दफासा फरुसा बुदीरिया / ' आचा० 2 श्रु०४ चू० / स्पृश्यतेऽनेन वस्तुतत्वमिति स्पर्शः / वस्तु तत्वज्ञाने, षो० 12 विव० / (स्पर्शलक्षणम् 'दिक्खा' शब्दे चतुर्थभागे 2508 पृष्ठे गतम्) अन्योऽन्यं संघट्टने, बृ०१ उ०३ प्रक० / सम्पर्के, सूत्रा०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। अभिभवे, आचा०१ श्रु०५ उ०। आराधने, 'फारोइ अणुत्तरं करणं / " स्पृशत्याराधयति / बृ०१ उ०२ प्रक०। पालने, "तिविहेण फासयते।" स्पृशन् पालयन्निति / भ० 15 श०७ उ० / पञ्चा० / ग्रहणे, रोगे, युद्धे, गुप्तचरे उपतापके, वायौ, वाच०। अष्टाशीतिमहाग्रहेष्वन्यतमे स्वनामख्याते महाग्रहे. "दो फासा।" स्था० २ठा०३ उ०। फासंत त्रि० (स्पृशत्) पालयति, पञ्चा० 10 विव०। फासकरण न० (स्पर्शकरण) प्रयोगकरणभेदे, तब विशिष्टेषु भोजनाssदिषु सत्सु यद्विशिष्टाऽऽपादनम्। सूत्रा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। फासकीवपुं०(स्पर्शल्कीब) क्लीबभेदे, "गोवालगकंचुओ फासे फासकीवो तंपादणित्ता अप्पणो गोवालकंचुयं काउंउव्वट्टणाइ करेइ। नि० चू०४ उ०। फासजोग पु०(स्पर्शयोग) स्पर्शो ज्ञान, तेन योगः सम्बन्धः स्पर्शयोगः। ज्ञानसम्बन्धे, षो०१२ विव०। फासण न० (स्पर्शन) स्पृश ल्युट् / ग्रहणे, स्पर्श च / वाच० / दुःखने, "एयाई फासाइंफुसति वालं।" सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। इन्द्रियभेदे, प्रव० 67 द्वार। णिच ल्युट् / स्पर्शने, दाने च। स्पृशकर्तरि लयुट्। वायौ, -पु०।वाचन फासणकिरिया स्त्री० (स्पर्शनक्रिया) क्रियाभेदे, आ० चू०। स्पर्शनक्रिया द्विविधा --जीवनस्पर्शनक्रिया, अजीवस्पर्शनक्रिया। तत्रा जीवस्पर्शनक्रियास्त्रीपुंनपुंसकंवा स्पृशति, संघट्टयतीत्यर्थः। अजीवस्पर्शनक्रियासुख स्पर्शार्थ मृगलोमाऽऽदिवस्त्रजातं, मुक्तकाऽऽदिवा रत्नजातं स्पृशतीति / आ० चू० 4 अ० फासणा स्वी०(स्पर्शना) स्पर्श, प्राप्ती, स्पर्शना प्राप्तिरवगाहो खम्भ इति। आ० चू०६ अ०। क्षेत्रस्पर्शनयोरयं विशेष:-क्षेत्रमवगाहाऽक्रान्तप्रदेशमात्राम् / स्पर्शना तु प्रदेशाद्वहिरपि भवति / तथा च परमाणुद्रव्यमाश्रित्य तावदवगाहना स्पर्शयोर्विशेषविविदिक्याऽऽह - अवगाहणाइरित्तं, पि फुसइ बाहिं जहाऽणुणोमिहियं / एगपएसं खेत्तं, सत्तपएसा य से फुसणा।।४३२॥ इह यत्रावगाढस्तत् क्षेत्रामुच्यते, यत्ववगाहनातो बहिरप्यतिरिक्तं क्षेत्र स्पृशति सा स्पर्शनाऽभिधीयते, इति क्षेत्रस्पर्शनयोर्विशेषः, यथा परमाणोः, आगमे यौकस्मिन्प्रदेशेऽवगाढः, तदेकप्रदेश क्षेत्रमभिहितम, सप्तप्रदेशातु (से) तस्य स्पर्शना प्रोत्क, यौकस्मिन् प्रदेशेऽवगाढस्तम् अन्यांश्च षदिकसंवन्धिनः षट्नभःप्रदेशान् परमाणुः स्पृशतीति कृत्वेति / / 432 // प्रकारान्तरेणापि क्षेत्रस्पर्शनयोर्भेदमाह - अहवा जत्थोगाढो,तं खेत्तं विग्गहे मया फुसणा। खेत्तं च देहमित्तं, संचरओ होइ से फुसणा।।४३३।। पाठसिद्धेव / विशे० / (स्पर्शनाद्वारम् 'आणुपुव्वी' शब्दे द्वितीयभागे 135 पृष्ठ गतम्) ('परमाणुपोग्गल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1100 पृष्ठे स्पर्शनासूत्रां गतम्) अथ नानाजीवानधिकृत्य क्षेत्रस्पर्शने प्राऽऽहहोंति असंखेजगुणा, नानाजीवाण खेत्तफुसणाओ (534) एकस्याऽऽभिनिबोधिकज्ञानिजीवस्य ये क्षेत्रास्पर्शने, ताभ्यां सकाशाद् नानाऽभिनिबोधिकजीवानां याः क्षेत्रस्य स्पर्शनास्ता असंख्येयगुणाः, नानाऽऽभिनिबोधिकजीवानां सर्वेषाम संख्येयत्वादिति भावः। विशे० / स्पर्शनामेवाऽधिकृत्याऽऽह - लोयंते भंते ! अलोयंतं फुसइ, अलोयंतेऽविलोयंतं फुसइ? हंता गोयमा ! लोयंते अलोयंतं फुसइ, अलोयंतेऽवि लोयंत फुसइ। तं भंते ! किं पुढे फुसइ, अपुढे फुसइ० जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ? दीवंते मंते! सागरंतं फुसइ, सागरते वि दीवंत फुसइ? हंता० जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ, एवं एएण अभिलावेणं उदयते परेयंतं, छिदंते दूसंतं, छायंते आयंवंतं० जाव णियमा छद्दिसिं फुसइ। (लोयंते भंते अलोयंत मित्यादि) लोकान्तः सर्वतो लोकावसानम्, अलोकान्तस्तुतदनन्तर एवेति। इहाऽपि (पुटुंफुसइइत्यादि) सूत्राप्रपञ्जो दृश्योऽत एवोक्तं (जाव नियमा छदिसिं ति) एतद्भावना चैवम्स्पृष्टभलोकान्तस्पृशति, स्पृष्टत्वंचव्यवहारतो दूरस्थस्याऽपि दृष्टम्, यथाचक्षुः स्पर्श इत्थत उच्यते, अवगाढम्-आसन्नमित्यर्थः, अवगाढत्वचाऽऽसत्तिमात्रमपि स्यादत उच्यते, अनन्तरावगाढमव्यवधानेन सम्बद्धं नतुपरम्परावगाढ श्रृङ्खलाकटिका इव परस्परसम्बद्ध, तञ्चाऽणुस्पृशति, अलोकान्तस्य क्वचिद्विवक्षया प्रदेशमात्रत्वेन सूक्ष्मत्वात् बादरमपि स्पृशति, वचिद्विवक्षयैव बहुप्रदेशत्वेन बादरत्वात्, तम्ऊर्द्धमधस्तिर्यक्च स्पृशति, ऊर्द्धादिदिक्षु लोकान्तस्याऽलोकान्तस्य च भावात्। तं चाऽऽदौ मध्येऽन्ते चस्पृशति, कथमधस्तिर्यगूर्द्धवलोकप्रान्तानामादि मध्यान्तकल्पनात् त च स्वविषये स्पृशति / स्पृष्टाऽगाढाऽऽदौ नाविषये अस्पृष्टाऽऽदा Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणा 1152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फासणा वितितं चाऽऽनुपूर्व्या स्पृशति। आनुपूवी चेह प्रथम स्थाने लोकान्तस्ततोऽनन्तरं द्वितीय स्थाने अलोकान्त इत्येवम वस्थानतया स्पृशति / अन्यथा तु स्पर्शनैव न स्यात्तं च षट्सु दिक्षु स्पृशति, लोकान्तरय पार्श्वतः सर्वतोऽलोकान्तस्य भावात् / इह च विदिक्षु न स्पर्शनाऽरित / दिशा लोकविष्कम्भ प्रमाणत्वाद्विदिशांचतत्परिहारेण भावात्। एवं द्वीपान्तसागरान्ताऽऽदिसूत्रेषु स्पृष्टाऽऽदिपदभावना कार्या, नवर द्वीपसागरान्तादिसूो 'छदिसि'' इत्यस्यैवम्भावनायोजनराहस्वावगाढा द्वीपाश्च समुद्राश्च भवन्ति, ततश्चोपरितनानधस्तनांश्च दीपसमुद्रान प्रदेशानाश्रित्योविऽधो दिग्द्वयस्य स्पर्शना वाच्या, पूर्वाऽऽदिदिशा तु प्रतीतव, समन्ततस्तेषामवस्थानात्। (उदयंते पोयंत ति) नद्याधुदकान्तः पोतान्त / नौपर्यवसानमिहा प्युच्छयाऽपेक्षया ऊर्द्धदिक् स्पर्शना वाध्या / जलनिमज्जने चेति / (छिदंते दूसंतं ति) छिद्रान्तो दूष्यान्त वस्त्रान्त स्पृशति, इहाऽपि षड्दिक्रपर्शना भावना वस्त्रोच्छूयाऽपेक्षया, अथवाकम्बलरुपवस्त्रपोट्टलिकायां तन्मध्योत्पन्नजीवभक्षणेन तन्मध्यरन्ध्राऽपेक्षया लोकान्तसूत्रवत्षड्दिक्रस्पर्शना भावयितव्या। (छायंते आयवत ति) इह छायाभेदेन षड्दिग्भावनैवम्--आरापेव्योमवर्तिपक्षिप्रभृतिद्रव्यस्य याछायातदन्त आतपान्तं चतसृषु दिक्षुस्पृशति, तथा तस्या एव छायाया भूमेः सकाशाद् तद् द्रव्यं यावदुच्छ्रयोऽस्ति। ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्द्धमधश्च स्पृशति। अथवा-प्रासादवरण्डिकाऽऽदेर्या छाया तस्या भित्तेरवतरन्त्या आरोहन्त्यावा; अन्त आतपान्त मूर्द्धवधश्च स्पृशतीति भावनीयम्। अथवा तयोरेव छायाऽऽतपयोः पुगलानामसख्ये प्रदेशावगाहित्वादुच्छ्रय सद्भावस्तत्सद्भवारुचोख्वाऽधो विभागरततश्च छायान्त आतपान्त मूर्द्धमधश्च स्पृशतीति। भ०१ श०६ उ०। परमाणुपोग्गले णं भंते वाज्याए णं फुडे, वाउयाए वा परमाणुपोग्गले णं फुडे? गोयमा! परमाणुपोग्गले वाउयाए णं फुडे, णो वाउयाए पोग्गले णं फुडे / दुपदेसिए णं भंते! खंधे वाउयाए णं एवं चेव / एवं० जाव असंखेन्जपएसिए। अणंतपएसिएणं भंते ! खंधे वाउयाए णं एवं चेव। एवं० जाव असंखेज्जपएसिए। अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे वाउयाए पुच्छा? गोयमा! अणंतपएसिए खंधे वाग्याए णं फुडे वाउयाए अणंतपएसिए णं खंधे णं सि फुडे, सिय णो फुडे / वत्थी णं मंते ! वाउयाए णं फुडे वाउयाए वस्थिणा फुडे? गोयमा ! वत्थी वाउयाए णं फुडे, णो वाउयाए वत्थिणा फुडे। (वाउवाए णं फुडे त्ति) परमाणुपुद्रलो वायुकायेन स्पृष्टो व्याप्ती मध्ये क्षिप्त इत्यर्थः। 'नो वाउयाए" इत्यादि। नो वायुकायः परमाणुपुरलेन स्पृष्टो व्याप्तो मध्ये क्षिप्तो वायोर्महत्वादणोश्च निःप्रदेशत्वेनातिसूक्ष्मतया ध्यापकत्वाभावादिति / (अणंतपएसिए णमित्यादि) अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धो वायुना व्याप्तो भवति, सूक्ष्मतरत्वात्, वायुकायः पुनरनन्तप्रदेशिकस्कन्धेन स्या व्याप्तः स्यान्न व्याप्तः। कथम्? यदा वायुस्कन्धापेक्षया महानसौ भवति तदा वायुस्तेन व्याप्तो भवत्यन्यदा तु नेति / (वत्थीत्यादि) वस्तिह॒तिः वायुकायेन स्पृष्टो व्याप्तः सामस्त्येन तद्विवर- परिपूरणाओ वायुकायो वस्तिना स्पृष्टो, वस्तेर्वायुकायस्य परित एव भावात्। भ०१८ श० 10 उ०। (आकाशथिलस्पर्श'आगासथिग्गल' शब्दे द्वितीयभागे 66 पृष्ठे उक्तः) धर्मास्तिकायाऽऽदीना स्पर्शो यथाएगे भंते! धम्मत्थिकायप्पएसे केवइएहिं धम्मत्थि कायप्पएसेहिं पुढे? गोयमा! जहण्णपदे तिहिं, उक्कोसपदेछहिं / केवइएहिं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे? गोयमा ! जहण्णपदे चउहि, उक्कोसपदे सत्तहिं / केवइएहिं आयासस्थि कायप्पएहिं पुढे? गोयमा सत्तहिं / केवइएहिं जीवत्थिकायप्पएसेहिं पुढे? गोयमा! अणंतेहिं / केवइएहिं पोग्गलत्थिकायप्पएसेहिं पुढे? गोयमा! अणंतेहिं / केवइएहिं अद्धासमएहिं पुढे? सिय पुढे सिय णो पुढे जइ पुढे णियम अणंतेहिं। (धम्मस्थिकायप्पएसे इत्यादि) (जहण्णए तिहिं ति) जघन्यपदंलोकान्तनिष्कुटरूप, यौकरय धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशस्यातिस्तोकैरन्यैः स्पर्शना भवति। तच्च भूम्यासन्नापवरककोणदेशप्राय इहोपरितनेनैकेन द्वाभ्या च पार्श्वत एको विवक्षितप्रदेशः स्पृष्ट एव जघन्येन त्रिभिरिति। (उकोरापए छहिं ति) विवक्षितस्यैक उपर्ये काऽधश्चत्वारो दिक्षु इत्येवं षभिरिदं प्रतरमध्ये, (जहण्णपदे चउहिं ति) धर्मास्तिकायप्रदेशो जघन्यपदेऽधर्मास्तिकाय-प्रदेशैश्चतुर्भिः स्पृष्ट इति / कथम? तथैव जयश्चतुर्थस्तु धर्मास्तिकायप्रदेश स्थानस्थित एवेति / उत्कृष्टपदे सप्तभिरिति कथम? घडदिकषट्के सप्तमस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशस्थ एवेति 2 / आकाशप्रदेशः सप्तभिरेव लोकान्तेऽपि अलोकाऽऽकाशप्रदेशाना विद्यमानत्वात् 3 / (केवतिएहिं जीबत्थिकायप्पएसेत्यादि) (अणतेहिं ति) अनन्तैरनन्तजीवसम्बन्धिनामनन्तानां प्रदेशानां तौकधारितकायप्रदेशे पार्श्वतश्च दिक्रियाऽऽदौ विद्यमानत्यादिति 4 ! एवं पुदलास्तिकायप्रदेशैरपि 5 / (केवइएहिं अद्धासमएहिं इत्यादि) अद्धासमयः समयक्षेत्र एव न परतोऽतः स्यात् स्पृष्टः स्यान्नेति। (जइ पुढे नियम अणतेहिं ति) अनादित्वाददासमयानाम्। अथवा वर्तमान समयाऽऽलिहितान्यऽनन्तानि द्रव्याण्यनन्ता एव समया इत्यनन्तैस्ते स्पृष्टा इत्युच्यते इति। एगे भंते / अहम्मत्थिकायप्पएसे केवइएहिं धम्मत्यिकायप्पएसे हिं पुढे? गोयमा! जहण्णपदे चउहिं उकोसपदे सत्तहिं / केवइएहिं अहस्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे? गोयमा / जहण्णपदेतिहि, उक्कोसपदे छहिं। सेसंजहाधम्मत्थिकायस्स। अधारितकायप्रदेशस्य शेषाणां प्रदेशः स्पर्शना धम्मास्तिकायप्रदेशस्पर्शनानुसारेणावसेया। एगे भंते! आगासस्थिकायप्पएसे के वइएहिं धम्मत्थि कायप्प-एसे हिं पुढे? गोयमा ! सिय पुढे, सिय णो पुढे, जइ पुढे जद्दण्ण-पदे एक्केण वा दोहिं वा तिहिं वा, उकोसपदे सत्तहिं / एवं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिं वि। केवइएहिं आगासस्थिकायप्पएसे हिं पुढे? गोयमा! छहिं / के वइएहिं जी Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणा 1153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फासणा वत्थिकायप्पएसेहिं पुढे ? गोयमा! सिय पुढे, सिय णो पुढे, जइ पुढे णियम अणंतेहिं, एवं पोग्गलत्थिकायप्पदेसेहिं वि, अद्धासमएहिं।। (एगे भंते! आगासत्थिकायप्पएसे इत्यादि) सिय पुढे त्ति लोकमाश्रित्य (सिय नो पुढे त्ति) अलोकमाश्रित्य (जइ पुढे इत्यादि) यदि स्पृष्टस्तदा जघन्यपदे एकेनधर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः / कथम्? एवं विधलोकान्तवर्त्तिना धर्मास्तिकायैकप्रदेशेन शेषधर्मास्तिकायप्रदेशेभ्यो निर्गतेनैकेऽग्र भागवर्त्यलोकाऽऽकाशप्रदेशाः सन्ति स त्रिभिर्धर्मास्तिकाय प्रदेशः स्पृष्टः, स चैवम्-यस्त्येवं लोकान्ते कोपागतो व्योमप्रदेशोऽसावेकेन धास्तिकायप्रदेशेन तदवगाढेनान्येन च उपरिवर्तिनाऽधोवर्त्तिना वा, द्वाभ्यां च दिग्द्वयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुर्भिः, यश्चाध उपरि च तथा दिग्द्वये तत्रैव वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पञ्चभिर्यः पुनरध उपरिच तथा दिक्ाये तौव वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स षड्भिः यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रोव वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सप्तभिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टो भवतीति? एवधर्मास्तिकायप्रदेशैरपि 2, (केवइएहिं आगासस्थिकायप्पएसेहिं छहिं ति) एकस्य लोकाऽऽकाशप्रदेशस्याऽलोकाऽऽकाशप्रदेशस्य वा; षड्दिग्व्यवस्थितैरेव स्पर्शनात् षड्भिरित्युक्तम 3 / जीवास्तिकायसूत्रो (सिय पुढे त्ति) यद्यसौ लोकाऽऽकाशप्रदेशो विवक्षितस्ततः स्पृष्टः (सिय नो पुढे त्ति) यद्यसावलोकाऽऽ काशप्रदेशविशेषस्तदा न स्पृष्टो जीवानां तत्राभावादिति 4 / एवम् पुद्रलाऽद्धाप्रदेशः 6 / ' एगे मंते! जीवत्थिकायप्पएसे केवइएहिं धम्मत्थिकायपुच्छा? जहण्णपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं, एवं अहम्मत्थि कायप्पदेसेहिं वि / केवइएहिं आगासस्थिकायपुच्छा? सत्तहिं। केवइएहिं जीवत्थिकायपुच्छा? सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। (एगे भंते ! जीवत्थिकायप्पएसे इत्यादि) जघन्यपदे लोकान्तकोणलक्षणे सर्वाल्पत्वात्तत्रा स्पर्शकप्रदेशानां चतुर्भिरिति। कथम्? अध उपरि वा, एको द्वौ च दिशोरेकस्तु या जीवप्रदेश एवावगाढ इत्येवम् / एकश्य जीवास्तिकायप्रदेश एकत्राऽऽकाशप्रदेशाऽऽदौ केवलिसमुद्घात एव लभ्यत इति / (उक्कोसपए सत्तहिं ति) पूर्ववत् 1. (एवं अहम्मेत्यादि) पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयम्। एगे भंते! पोग्गलत्थिकायप्पदेसे केवइएहिं धम्मस्थि कायप्पएसेहिं? एवं जहेव जीवत्थिकायस्स। धम्मास्तिकायाऽऽदीनां 4, पुद्गलास्तिकायस्य चैकैक प्रदेशस्य स्पर्शनोक्ता। अथ तस्यैव द्विप्रदेशाऽऽदिस्कन्धानां तां दर्शयन्नाह - दो मंते ! पोग्गलत्थिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थि कायप्पएसेहिं पुट्ठा? गोयमा। जहण्णपदे छहिं, उक्कोसपदे बारसहिं। एवं अहम्मत्थिकायप्पदेसेहिं वि / केवइएहिं आगासत्थि कायपुच्छा? गोयमा! वारसहिं,सेसंजहा धम्मस्थिकायस्स। इह यबिन्दुद्वयं तत्परमाणुद्वयमिति मन्तव्यम्, तत्रा चार्वाचीनः परमाणुर्धर्मास्तिकायप्रदेशेन अर्वाक स्थितेन स्पृष्टः परभागवर्ती चपरतः स्थितेनैव द्वौ, तथा ययोः प्रदेशयोर्मध्ये परमाणु स्थाप्येते तयोरणेतनाभ्यां तौ स्पृष्टावेकनेको द्वितीयेन च द्वितीय इति चत्वारो द्वौ चावगाढत्वादेव स्पृष्टांवित्येव षट् / (उक्कोसपए वारसहिं ति) कथम्? परमाणुद्वयेन द्वौ प्रदेशावगाढत्वास्पृष्टौ द्वौ चाधस्तनानुपरितनौ च द्वौ पूर्वापरपार्श्वयोश्च द्वौ द्वौ दक्षिणोत्तरपार्श्वयोश्चैकैक इत्येवमेते द्वादशेति / एवमर्मास्ति. कायप्रदेशैरपि 2 / (केवतिएहिं आगसत्थिकायप्पएसेहिं वारसहिं ति) इह जघन्यपदं नास्ति लोकान्तेऽप्याकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वादिति द्वादशभिरित्युक्तम् 3 (सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स त्ति) अयमर्थः- "दो भंते! पोग्गलस्थिकायप्पएसा केवइएहिं जीवत्थिकायप्पएरोहिं पुट्ठा? गोयमा! अणतेहिं 4 / एवं पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरपि 5, अद्धासमयैः स्यात्स्पृष्टौ स्यान्न, यदि स्पृष्टी तदा नियमादनन्तैरिति 6 / तिणि भंते! पोग्गलत्थिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पदे से हिं पुट्ठा? गोयमा! जहण्णपदे अहहिं उक्कोसपदे सत्तरसहिं; एवं अहम्मत्थिकायप्पदेसेहिं वि / के वइएहिं आगासत्थि०? सत्तरसहिं, सेसं जहा धम्मत्थिका यस्स / एवं एएणं गमएणं भाणियव्वा. जाव दस, णवरं जहण्णपदे दोण्णि पक्खिवियव्या, उक्कोसेणं पंच / चत्तारि पोग्गलत्थिकाय? जहण्णपदे दसहिं, उक्कोसपदे वावीसाए। पंचपोग्गलत्थिकाय? जहण्णपदे वारसहिं, उक्कोस पदे सत्तावीसाए। छपोग्गलत्थिकाय०? जहण्णपदे चउद्दसहिं, उक्कोसेणं बत्तीसाए। सत्तपोग्गलत्थिकाय०? जहण्णपदे सोलसहिं, उक्कोसपदे सत्ततीसाए। अट्ठपोग्गलत्थिकाय०? जहण्णपदे अट्ठारसहिं, उक्कोसपदे वायालीसाए / णव पोग्गलत्थिकाय०? जहण्णपदे वीसाए, उक्कोसपदे सीयालीसाए / दसपोग्गलत्थिकाय०? जहण्णपदे वावीसाए, उक्कोसपदे वावण्णाए। आगासत्यिकाय? सव्वत्थ उक्कोसेगं भाणियव्वं / / (तिण्णि भते! इत्यादि) (जहाण्णपए अट्टहिं ति) कथम्? पूर्वोक्तनयमतेन अवगाढप्रदेशस्त्रिाधा अधस्तनोऽपि उपरितनोऽपि वा त्रिधा द्वी पार्श्वत इत्येवमष्टौ। (उकोसपए सत्तरहिं ति) प्रागवद्भावनीयम्। इह च सर्वत्रा जचन्य पदे विवक्षितपरमाणुभ्यो द्विदुणा द्विरूपाधिकाश्च स्पर्शक प्रदेशा भवन्ति उत्कृष्टपदे तु विवक्षितपरमाणुभ्यः पञ्चगुणा द्विरूपाधिकाश्च ते भमन्ति, तत्र चैकाणोर्द्विगुणत्वे द्वौ द्वयसहितत्वे चत्वारोजघन्यपदे स्पर्शकाः प्रदेशाःउत्कृष्टपदेल्वेकाणोः पञ्चगुणत्वे द्विकसहितत्वे च सप्तस्पर्शकाः प्रदेशा भवन्ति, एवंठ्यणुकत्र्यणुकाऽऽदिष्वपि। एतदेवाऽऽह (एवं एएणं गमेणं इत्यादि) (आगासत्थिकायस्स सव्वत्थ उक्कोसपयं भाणियध्वं ति) सर्वत्रा एकप्रदेशिकाऽऽद्यनन्तप्रदेशिकान्ते सूत्रागणे उत्कृष्टपदमेव न जघन्यकमित्यर्थः, आकाशस्य सर्वत्र विद्यमानत्वादिति। Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणा 1154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फासणा संखेजाणं भंते! पोग्गलत्थिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पदेसेहिं पुच्छा? जहण्णपदे तेणेव संखेन्जएणं दुरूवाहिएणं, उक्कोसपदे तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं / / केवइएहिं अहम्मत्थिकाएहिं०? एवं चेव / केवइएहिं आगासथिकाय? तेणेव संखेन्जएणं पंचगुणेणं दुरुवाहिएणं / केवइएहिं जीवत्थिकाय? अणंतेहिं / केवइएहिं पोग्गलत्थिकाय? अणंतेहिं / केवइएहिं अद्धासमएहिं०? सिय पुढे, सिय णो पुढे० जाव अणंतेहिं ! असंखेज्जा भंते! पोग्गलत्थिकायप्पदेसा के वइएहिं धम्मस्थिकायप्पदेसेहिं०? जहण्णपदे तेणेव असंखेनएणं दुगुणेणं दुरावाहिएणं, उक्कोसपदे तेणेव असंखेज्जएणं पंचगुणएणं दुरुवाहिएणं, सेसं जहासंखेज्जाणं० जाव णियमं अणंतेहिं। (संखेज्जा भंते! इत्यादि)(तेणेव त्ति) यत्संख्येयकमयः स्कन्धस्तेनैव प्रदेशसंख्येयकेन द्विगुणेन द्विरुपाधिकेन स्पृष्टः / इह भावना-विंशतिप्रदेशिकः स्कन्धो लोकान्ते एकप्रदेशे स्थितः, सच नयमतन विंशत्यावगाढप्रदेशैविंशत्यैव च नयमतेनैवाधस्तनैरुपरितनैर्वा, प्रदेशाभ्यां च | पार्श्वप्रदेशाम्वां स्पृश्यत इति / उत्कृष्टपदे तु विंशत्या निरुपचरितैरवगाढप्रदेशः, एवमधस्तेने 20 रुपरितनैः 20 पूर्वापरपार्श्वयोश्च विंशत्या 2 द्वाभ्या च दक्षिणोत्तरपार्श्वस्थिताभ्यां स्पृष्टस्ततश्च विंशतिरूपः संख्याताणुकः स्कन्धः पञ्चगुणया विंशत्या प्रदेशानां प्रदेशद्वयेन च स्पृष्ट इति। अत एवोक्तम-(उक्कोसपदे तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरुवाहिएणं ति)"असंखेज'' इत्यादौ षट्सूत्री तथैव। अणंता भंते! पोग्गलत्थिकायप्पदेसा केवइएहिं धम्मत्थिकाय०? एवं जहा-असंखेज्जा तहा अणंता णिरवसेसं / "अणंता भंते!" इत्यादिरपिषट्सूत्री तथैव, नवरमिह यथा जघन्यपदे औचात्तारिका अवगाहप्रदेशा अधस्तना उपरितनावा तथोत्कृष्टपदेऽपि, न हि निरुपचरिता अनन्ता आकाशप्रदेशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसंख्यात प्रदेशाऽऽत्मक्त्वादिति / इह च प्रकरणे इमे वृद्धोत्कगाथे भवतः'धम्माइपएसेहि, दुपएसाई जहण्णयपयम्मि। दुगुणदुरुवहिएणं, तेणेव कह तुहु फुसेजा? // 1 // एत्थ पुण जहण्णयपयं, लोगते तत्थ लोगमालिहिजं / फुसणा दावेयव्वा, अहवा खंभाइकोडीए॥२॥ इति। एगे भंते! अद्धासमए केवइएहिं धम्मत्थिकायप्पदेसेहिं पुढे०? | सत्तहिं केवइएहिं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे? एवं चेय। एवं आगासत्थिकाय पएसेहिं०? केवइएहिं जीवत्थि कायप्पएसेहिं०? अणंतेहिं / एवं० जाव अद्धासमएहिं / (एगे भंते! अद्धासमए इत्यादि) इह वर्तमानसमयविशिष्टः समयक्षेत्रामध्यवर्ती परमाणुरद्धासमयो ग्राह्यः / अन्यथा तस्य धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशैः सप्तभिः स्पर्शना न स्यादिह च जघन्यपदं नास्ति मनुष्यक्षेत्रो मध्यवर्तित्वाद्धासमयस्य, जधन्यपदस्य च लोकान्त एव सम्भवादिति। तत्रा सप्तभिरिति कथम्? अद्धासमयविशिष्ट परमाणुद्रव्यमेका धर्मास्तिकाय प्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य षट्सु दिक्ष्विति सप्तेति, जीवास्तिकायप्रदेशैश्वानन्तरेकप्रदेशेऽपि तेषामनन्त यात्। (एवं० जाव अद्धासमयेहि ति) इह यावत्करणादिदं सूचितम्-एकोऽद्धासमयोऽनन्तैः पुद्रलास्तिकायप्रदेशैरद्धासमयैश्च स्पृष्ट इति / भावना चास्यैवम्अदासमयविशिष्टमेणुद्रव्यमद्धासमयः, सचैकः पुद्रलास्तिकायप्रदेशैरनन्तैः स्पृश्यते. एकद्रव्यस्थाने पार्श्वतश्चानन्तानां पुद्गलाना सद्भायात, तथा अद्धासमथैरनन्तै रसौस्पृश्यते, अद्वासमयविशिष्टानामनन्तानामप्यणुद्रव्याण मद्वासमयत्वेन विवक्षितत्वात्, तेषां च तस्य स्थाने तत्पावतश्च सद्भावादिति। धर्मास्तिकायाऽऽदीनां प्रदेशतः स्पर्शनोक्ता। अथ द्रव्यतस्तामाहधम्मत्थिकाए णं भंते! केवइएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे? णत्थि एक्केण वि / केवइएहिं अहम्मत्थिकायप्पदेसे हिं०? असंखेजेहिं। केवइएहिं आगासस्थिकायप्पदेसेहिं०? असंखेजेहिं / केवइएहिं जीवत्थिकायप्पदेसेहिं०? अणंतेहिं / केवइएहिं पोग्गलत्थिकायप्पदेसेहिं०? अणंतेहिं। अद्धासमयेहिं सिय पुढे, सिय णो पुढे, जइ पुढे णियमा अणंतेहिं। (धम्मत्थिकाए णमित्यादि) (नत्थि एगण वित्ति) सकलस्यधर्मास्तिकायद्रव्यस्य प्रश्नितत्वात्तदव्यतिरिक्तस्य च धर्मास्तिकायप्रदेशेरयाभावादुक्तम्, नास्ति-न विद्यते अयं पक्षो यदुत एकेनापि धर्मास्तिकायप्रदेशेनाऽसौ धर्मास्तिकायः स्पृष्ट इति, तथा धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय प्रदेशैरसंख्येयैः स्पृष्टः धर्मास्तिकायस्पर्शनत एव व्यवस्थितत्वादधर्मास्तिकाय सम्बन्धिनाम संख्यातनामपि प्रदेशानामिति, आकाशास्तिकाय प्रदेशैरप्यसंख्येयैः असंख्येयप्रदेशस्वरूपलोकाऽऽकाश प्रमाणत्वाद्धर्मास्तिकायस्य, जीवपुद्गलप्रदेशैस्तु धर्मास्तिकायो ऽनन्तैः स्पृष्टस्तद्व्याप्तयाः धर्मास्तिकाय स्यावस्थितत्वात्तेषां चानन्तत्वादद्धासमयैः पुनरसौ स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्र, यः स्पृष्टः सोऽनन्तैरिति 6 / अहम्मत्थिकारणं भंते! के वइएहिं धम्मत्थिकाय? असंखेजेहिं / केवइएहिं अहम्मत्थि०? णत्थि एक्कण वि; सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। एवमधर्मास्तिकायस्य 6, आकाशास्तिकायस्य 6, जीवास्तिकायस्य 6, पुद्रलास्तिकायस्य 6, अद्धासमयस्य च 6, सूत्राणि याच्यानि, केवलं या धर्मास्तिकायाऽऽ दिस्तत्प्रदेशैरेव चिन्त्यते तत्स्वस्थानमितरच परस्थानं, तत्र स्वस्थाने (नत्थि एगेण वि पुढे) इति निर्वचनं वाच्यम्, परस्थाने च धर्मास्तिकायाऽऽदित्रायसूत्रेषु 3 असंख्येयैः स्पृष्ट इति वाच्यम्,असंख्यातप्रदेशत्वाद्धर्मास्तिकाययोस्तत्संस्पृष्टाऽऽकाशस्य च जीवाऽऽदित्रायसूत्रषु चानन्तैः स्पृष्ट इति वाच्यम्, अनन्तप्रदेशत्वातेषामिति / एतदेव दर्शयन्नाहएवं एएणं गमएणं सत्वे वि सट्ठाणएणं णत्थि एक्के ण वि पुट्ठा, परट्ठाणे हिं आदिल्लएहिं तिहिं असंखे अएहिं Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणा 1155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फासणा भाणियव्यं, पच्छिल्लएसु तिसु अणंता भाणियव्वा जाव अद्धासमओ त्ति। केवइएहिं अद्धासमएहिं पुढे? णस्थि एक्केण वि। इह चाss काशसूत्रेऽयं विशेषो द्रष्टव्यः आकाशास्तिकायो धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशः स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्रा यः स्पृष्टः सोऽसंख्येयैर्धर्माधर्मास्तिकयषोः प्रदेशैः जीवास्तिकायाऽऽदीनांत्वनन्तैरिति / (जाव अद्धासमउत्ते) अद्धासमयसूत्रां बाघत्सूत्राणि वाच्यानमीत्यर्थः। "जाव केवइएहिं" इत्यादौ यावत्करणादद्धासूत्रो आद्यं पदपञ्चकं सूचितं, षष्ठ तुलिखित मवाऽऽस्ते, तत्र तु (नत्थि एगेण व त्ति) निरुपचरितस्याऽद्धासमयस्यैकस्यैव भावात्, अतीतानागतसमयोश्चानिष्टानुत्पन्नत्वेनासत्वाअसगयान्तरेण स्पृष्टताऽस्तीति / भ०१३ श०४ उ०। स्पर्शनाधिकारादधोलोकाऽऽदीनां धर्मास्तिकायाऽऽदिगता स्पर्शनां दर्शयन्नाहअहेलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसइ? गोयमा! सातिरेगं अलु फुसइ / तिरिवलोएणं भंते! पुच्छा? गोयमा! असंखेज्जइभागं फुसइ / उड्डलोए णं भंते! पुच्छा? गोयमा / देसू०णं अद्धं फुसइ। (अहेलोए णमित्यादि) (सातिरेगमद्धं ति)लोकव्यापकत्वा धर्मास्तिकायस्य सन्तिरेकसप्तरज्जुप्रमाणत्वाचाधो लोकस्य (असंखेजइभागं ति) असंख्यातयोजनप्रमाणस्य धर्मास्तिकायस्याष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तियग्लोकोऽ संख्यान्तभागवर्तीति तस्यासावसङ्ख्येयभागं स्पृशतीति (देसोण अद्धं ति) देशोनसप्तरज्जुप्रमाणत्वादूईलोकस्येति। इमा णं भंते! रयणप्पभा णं पुढवी धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसइ, असंखेज्जइभागं फुसइ, संखेज्जे भागं फुसइ, असंखेजे भागं फुसइ, सव्वं फुसइ? गोयमा! णो संखेजइगागं फुसइ, असंखेजइभागं फुसइ, णो संखेजे भागं फुसइ, णो असंखेजेभागं फुसइ, नो सव्वं फुसइ, इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही घम्मत्थिकायस्स किं संखेजइभागं फुसइ? गोयमा! जहा रयणप्पभाए तहा घणोदहिघण वायनणुवाया वि। इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए उवासंतरे धम्मत्थिकायस्स किं संखेजइभागं फुसइ, असंखेज्जइभागं फुसइ पुच्छा? गोयमा! संखेजइभागं फुसइ, णो असंखेजइभागं फुसइ, नो संखेज्जे भा०, नो असंखेजे भा०, नो सव्वं फुसइ, उवासंतराइं सव्वाईजहा रयणप्पभाए पुढवीए वत्तव्वया भणिया एवं० जाव अहे सत्तमाए जबूद्दीवाइया दीवा लवणसमुदाइया समुदा, एवं सोहम्मे कप्पे० जावईसिप्पडमाराए पुढवीए ते सव्वे वि असंखेजइभागं फुसइ / सेसा पडिसेहे-यव्वा / एवं अघम्प्रत्थिकाए, एवं लोयागासे वि। गाहा"पुढवोदहीघणतणू-कप्पा गेवेज्जऽणुक्तरा सिद्धी। संखेजइभार्ग अं-तरेसु सेसा असंखेजा।।१।। (इमाण भंते! इत्यादि) इह प्रतिपृथिवि पञ्च सूत्राणि, देवलोकसूत्राणि द्वादश, प्रवेयकसूत्राणि त्रीणि, अनुत्तरेषत्प्राग्भारसूत्रो द्वे। एवं द्विपञ्चाशत्सूत्राणि / धर्मास्तिकायस्य किं सङ्ख्येयं भागं स्पृशन्तीत्याद्यभिलापेनाव सेयानि, तत्रावका शान्तराणि सङ्ख्येयभागं स्पृशन्ति, शेषास्त्वसंख्येयभागमिति, निर्वचनम् / एतान्येव सूत्राण्यधर्मास्तिकायलोकाऽऽकाशयोरिति / इहोक्तार्थ सङ्ग्रहगाथा भावितार्थव। भ०२ श० 10 उ०। जंबूदीवस्स णं भंते! दीवस्स पदेसा लवणसमुदं पुट्ठा? हंता पुट्ठा। ते णं भंते! किं जंबूद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे? गोयमा! जंबूदीवे णं दीवे नो खलु ते लवणसमुद्दे / लवणसमुहस्स पदेसा जंबूद्दीवं दीवं पुट्ठा? हंता पुट्ठा / ते णं भंते! किं लवणसमुद्दे जंबूद्दीवे दीवे? गोयमा ! लवणाणं समुद्दे नो खलु ते जंबूद्दीवे दीवे। जम्बूद्वीपस्य, णमिति पूर्ववत् / भदन्त! द्वीपस्य प्रदेशाः-स्वसीमागतचरमरूपा लवणसमुद्र स्पृष्टाः / कतरिक्तप्रत्ययः। स्पृष्टवन्तः? काक्वा पाठ इति प्रश्नार्थत्वावगतिः / पृच्छतञ्चायमभिप्रायः यदि स्पृष्टास्तर्हि वक्ष्यमाणं पृछ्यते, नो चेत् तर्हि नेति भावः / भगवानाह - (हतेत्यादि) हन्तेति प्रत्यबधारणे, स्पृष्टाः। एवमुत्के भूयः पृच्छति-(ते णमित्यादि) ते भदन्त! स्वसीमागतचरमरूपाः प्रदेशाः किं जम्बूद्वीपः, किं वा लवणसमुद्रः? इह यत् येन स्पृष्ट तत् किञ्चित् तदव्यपदेशप्रश्नवदुपलब्धं, यथा सुराष्ट्रभ्यः संक्रान्तो मगधदेशमागध इति, किञ्चित् पुनर्न तद्व्यपदेशमाक्, यथा तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाऽङ्गुलिये ठेवेति इहापिचजम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवणसमुद्र स्पृष्टवन्तस्ततो व्यपदेशचिन्तायां संशय इति प्रश्नः? भगवानाह - गौतम! जम्बूद्वीपे एव. णमिति निपात स्थावधारणार्थत्वात् ते चरमप्रदेशा द्वीपो जम्बूद्वीप सीमावर्तित्वात् न खलु ते जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा जम्बूद्वीपसीमान मतिक्रम्य लवणसमुद्रसीमानमुपगताः किं तु-रवसीमागता एव लवणसमुद्रं स्पृष्टवन्तः, त तस्तटस्थतया संस्पर्शभावात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाऽङ्गुलिरिय ते स्वव्यपदेशं भजन्ते, नव्यपदेशान्तरम् / तथा चाऽऽह-नो खलु जम्बूद्वीपचरमप्रदेशा लवणसमुद्रः, एवम् (लवणस्सणं भंते! समुहस्स पदेसा इत्यादि) लवणविषयमपि सूत्रां भावनीयम् / जी०३ प्रति०। जंबूद्दीवेणं भंते! दीवे किण्णा फुडे, कइहिं वा काएहिं फुडे, किं धम्मत्थिकारणं० जाव आगासत्थि काएणं फुडे ? गोयमा ! णो धम्मत्थिकाए णं फुडे, धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे, धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे / एवं अधम्मत्थिकायस्स वि, आगासत्थिकायस्स वि, पुढविएणं फुडे० जाव वणस्सइकाएणंफुडे,तसकाइए णं सिय फुडे, सियनोफुडे,सिय अद्धासमएणंफुडे।एवं लवणसमुद्दे Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणा 1156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फासणाम धायइसंडे दीवे, कालोए समुद्दे, अभिंतरपुक्खरद्धे बाहिरपुक्खरखे एवं चेव, नवरं अद्धासमएणं नो फुडे,एवं० जाव सयंभूरमणसमुद्दे / एवं जम्बूद्वीपाऽऽदिविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, नवरं बहिः पुष्करा‘चिन्तायाम (अद्धासमए ण नो फुडे इति) अद्धासमयो यः अर्द्धतृतीयसमुद्रान्तर्वती न बहिरेतच धर्म सड्ग्रहणिटीकायां भाक्ति, ततो बहिर्दीपसमुद्राणामद्धा समयस्पर्शनप्रतिषेधे जम्बूद्वीप लवणे गाहा - एसा परिवाडी इमाहि गाहाहि अणुगंतव्वा / तं जहा"जंबूदीवे लणे, धायइकालोयपुक्खरे वरुणे। खीरघयखोयनंदिय - अरुणवरे कुंडले रुयए॥१॥" सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तवर्ती जबूद्वीपस्तत्परिकरो लवणसमुद्रः, तदनन्तरं धातकीखण्डाभिधानो द्वीपस्ततः कालोदः समुद्रस्तदनन्तरं पुष्करवरो द्वीपः, अत ऊर्द्ध द्वीपसदृशनामानः समुद्राः ततः पुष्करवसमुद्राः, तदनन्तरं वरुणवरो द्वीपो वरुणोदः समुद्र, क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्रः घृतवरो द्वीपोघृतोदः समुद्रः, इक्षुवरो द्वीप इक्षुवरः समुद्रः नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः समुद्रः / एतेऽष्टावपि च समुद्रा एकप्रत्यवतारा एकैकरुपा इति भावः / अत ऊस तु द्वीपाः समुद्राश्च त्रिप्रत्यवताराः। तद्यथा(अरुण इति) अरुणोऽरुणवरोऽरुणबरावभासः, कुण्डलः कुण्डलवरः कुण्डलवरावभासः, रुचको रुचकवरो रुचकवरावभास इत्यादि / एष चात्रा क्रमः-नन्दीश्वरसमुद्रानन्तरमरुणद्वीपोऽरुणसमुद्र स्ततोऽरुणवरो द्वीपोऽरुणवरः समुद्र इत्यादि। कियन्तः खलु नामग्राहद्वीपसमुद्रा वक्तुं शक्यन्ते, ततरतन्नाम संग्रहमाह"आभरणवत्थगंधे, उप्पतिलए य पउमनिहिवयणे / वासहरदहनईओ, विजयावक्खारकप्पिंदा // 2 // कुरुमंदिरआवास, कूडा नक्खत्तचंदसूरा य / देवे नागे जक्खे, भूए य सयंभुरमणे य / / 3 / / " एवं जहा बाहिरपुक्खरद्धे भणिए तहा० जाव सयं भूरमणे समुद्दे० जाव अद्धासमए णं णो फुडे / "आभरणवत्थेत्यादि'' गाथाद्वयन / यानि कानिचिदाभरणनामानि हाराऽर्द्धहारात्रावलि कनकावलिप्रभू, यानि च वस्त्रनामानि चीनाऽघंशुकप्रभृतीनि, यानि च गन्धनामानि कोष्टपुटाऽऽदीनि, यानि चोत्पलनामानि जलरुहचन्द्रो द्योगप्रमुखानि च, तिलकप्रभृतीनि वृक्षनामानि, यानि पद्मनामानि शतपत्रासहस्रपत्रप्रभृतीनि, यानि च पृथिवीनामानि पृथिवीशर्करावालुकेत्यादीनि यानि च नवानां निधानानां चतुर्दशाना चक्रवर्तिरत्नाना क्षुल्लहिमवदादीनां वर्षधर पर्वताऽऽदीनां पद्माऽऽदीनां गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां नदीनां कच्छाऽऽदीनां विजयानां माल्यवदादीनां वक्षस्कारपर्वताना सौधर्माऽऽदीनां कल्पानां शक्राऽऽदीनामिन्द्राणां देवकुरुत्तकुरुमन्दराणामावासाना शक्राऽऽदिसम्बन्धिनां मेरुप्रत्यासन्नाऽऽदीनां कूटानां क्षुल्लहिमवदादिसम्बन्धिना नक्षत्राणां कृत्तिकाऽऽदीनां चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्राणां त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानि / तद्यथा-हारो दीपो, हार-समुद्रः हारवरावभासो द्वीपो, हारवरावभासः समुद्र इत्यादिना प्रकारेण त्रिप्रत्यवतारास्तावद्वक्तव्याः यावत्सूर्यो द्वीपः, सूर्यः समुद्रः, सूर्यवरो द्वीपः, सूर्यवरः, समुद्रः, सूर्यवरावभासाद्वीपः, सूर्यवरावभासः समुद्रः। उक्तञ्च जीवाभिगमचूर्णी"अराणाई दीवसमुद्दा तिपडायोरा / '' यावत्सूर्यवरावभासः समुद्रः, सूर्यवरावभासपरिक्षेपे देवो द्वीपः, ततो देवः समुद्रः, तदनन्तरं नागो द्वीपो नागः समुद्रः, ततो यक्षो द्वीपो, यक्षः समुद्रः, ततो भतो, द्वीपो भूतः समुद्र, स्वयंभूरप्रणो द्वीपः स्वयंभूरमणः समुद्रः, एते पञ्च देवाऽऽदयो द्वीपाः पञ्च देवाऽऽदयः समुद्राः एकरूपान पुनरेषां त्रिप्रत्यवतारः। उक्तं च जीवाभिगमचूर्णी-एतेपञ्चदीपाः पञ्चसमुद्रा एकप्रकारा इति। जीवाभिगमसूत्रेऽप्युक्लम्-"देवे नागे जक्खे, भूए य सयंभुरमणे या एकवे व भाणियव्वो तिण्हपडोयर नत्थि। 'इति। पूर्वमाकाराथिग्गलशब्देन लोकः पृष्टः, अधुना लोकशब्देनैवतं पिपृच्छिषुराहलोगे णं भंते! किण्णा फुडे कइहिं वा काएहिं जहा आगासथिग्गले / अलोएणं भंते! किण्णा फुडे कइहिं वा काएहिं पुच्छा? गोयमा ! नो धम्मत्थिकाएणं फुडे० जाव नो आगासस्थिकारणं फु डे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे, आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, नो पुढविकाएणं फुडे० जाव नो अद्धासमएणं पुढे एगे अजीवपदेसे अगुरुलहुए अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागणे / / "लोएण भंते! किण्णा फुडे' इत्यादि पावसिद्धम्लोक सूत्रमपि पाठसिद्ध, नवरमङ्गे (अजीवदव्वदेसे इति) अलोक एकोऽजीवद्रव्यदेश आकाशास्तिकायस्स देश इत्यर्थः, परिपूर्णः त्वाकाशास्तिकायो न भवति, लोकाऽऽकाशेन हीनत्वात; अत एवागुरुलघुकोऽमूर्तत्वात्, अनन्तैर्गुरुलघुकगणैः संयुक्तः प्रतिप्रदेश स्वपरभेदभिन्न नामनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां भावात् / किं प्रमाणतो लोक इति चेदत आह - सर्वाकाशमनन्त भागोनलोकाऽऽकाभावः प्रज्ञा० 15 पद 1 उ० / पं० सं०। क० प्र०।औ०। (समुदघातगतानां देशतः स्पर्शा:ऽदि समुग्घाय' शब्दे वक्ष्यामि) फासणाम् न० (स्पर्शनामन) 'स्पृश' संस्पर्श / स्पृश्यते इति स्पर्शः।" अकर्तरि० // 3 / 3 / 16 // इतिघजप्रत्ययः / स च कर्कशमृदुलघुगुरुस्त्रिग्धरुक्षशीतोष्णभेदादष्टप्रकारः। तन्निबन्धनं नाम स्पर्शनाम। प्रज्ञा०२३ पद / पं० सं०। कर्म० / अनु० / स्पृश्यते इति स्पर्शः कर्कशाऽऽदिः, तद्धेतुत्वात कर्मापि स्पर्शनाम / कर्म०१ कर्म० / नामर्मभेदे, स० 42 सम० / प्रव० / श्रा०। फासनामे पुच्छा? गोयमा! अट्ठविहे पण्णते। तं जहाकक्खडफासनामे० जाव लुक्खफासणामे / / तत्रा यदुदयाजन्तु शरीरेषु कर्क शः स्पों भवति यथा Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासणाम 1157 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फासिंदिय पाठविशेष ऽऽदीनां तत्कर्कशस्पर्शनाम / एवं शेषाण्यपि स्पर्शनामानि भावनीयानि। प्रज्ञा० 23 पद। स्पर्शभिधायके शब्दे, तदपि पूर्वक्दष्टधा। अनु०॥ फासपरिणय त्रि०(स्पर्शपरिणत) स्पर्शतः परिणतः, स्पर्श रूपतया परिणमति, परिणमिष्यतीति स्पर्शपरिणतः / स्पर्शपरिणते स्कन्धाऽऽदिके, प्रज्ञा०१पद। (स्पर्शपरिणतानामष्टविधत्वम् 'परिणाम' शब्देऽस्मिन्नेव भाग 608 पृष्टे गतम्) फासपरिणाम पुं०(स्पर्शपरिणाम) परिणामभेदे, प्रज्ञा०। फासपरिणामे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते / तं जहा-कक्खडफासपरिणामे० जाव लुक्खफास परिणामे य / प्रज्ञा०१३ पद। स्था०। (अत्र भङ्ग विधिः 'पोग्गलपरिणाम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1108 पृष्ठे दर्शितः) फासपरियारग पुं० (स्पर्शपरिचारक) परिचरति-सेवते स्त्रियमिति परिचारकः स्पर्शतः परिचारकः स्पर्शपरिचारकः / स्पर्शादेवोपशान्तवेदोपतापे स्पर्शपरिचारणकारके, स्था०। दोसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा पण्णत्ता / तं जहा–सणंकुमारे चेव, माहिंदे चेव। स्था०२ठा०४उ०। प्रज्ञा। फासपरियारण न० (स्पर्शपरिचारण) वदनचुम्बनस्तनमर्दन बाहुग्रहणजघनोरुप्रभतिगात्रासंस्पर्शरूपे परिचारणभेदे. "इच्छामोणं अच्छराहिं सद्धि फासपरियारं करेत्तए।"प्रज्ञा०३४ पद। फासमंत त्रि० (स्पर्शवत्) स्पर्श-प्रशंसायां मतुप। स्था० 4 टा०४ उ०। शोभनस्पर्शवति. सूत्रा०२ श्रु०१ अ०।''फासवंताणिय।" आचा०२ श्रु०१चू०४ अ०१ उ०। फासामय त्रि० (स्पर्शमय) स्पर्शेन्द्रियविषयोपादानरूपे सौख्याऽऽदौ, 'फासामयाओ सोक्खाओ फासामएणं दुक्खेणं।" स्था०६ ठा०। फासावेह पुं) (स्पर्शावध) स्पर्शस्तत्त्वज्ञान, तस्याऽऽवेधः संस्कारः / तत्त्वज्ञानसंस्कारे, षो०१४ विव०।। फासिं दिय न० (स्पर्शन्द्रिय) त्वगिन्द्रिये, सम्म०३ काण्ड। (संस्थानाऽऽदिवत्कय्यता 'इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे 548 पृष्ठे गता) "उउभयमाणसुहेसु य, सविभवहिययमणनिव्वुइक रेसु / फासेसु रज्जमाणा, रमंति फासिंदियवसट्ठा / / 1 // " कण्ठ्या, नवरम्-ऋतुषु हेमन्ताऽऽदिषु भज्यमानानि-सेव्यमानानि यानि सुखानि सुखकराणि तानि तथा तेषु, सविभवानि समृद्धियुत्कानि, महावचनानि इत्यर्थः / हितकानि प्रकृत्यनुकूलानि, सविभवानां वा श्रीमता हितकानि यानि तानि तथा. मनसो निर्वृतिकराणि यानि तानि तथा। ततः पदकायस्य द्वयस्य वा कर्मधारयोऽतस्तेषु सक्चन्दनाङ्गनावसनतूल्यादिषु, द्रव्येष्विति गम्यते। ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। फासिंदिय दुइंतण-स्स अह एत्तिउ हवइ दोसो। जं खणइ छयं कुंजर-स्स लोहंकुसो तिक्खो // 10 // भावना प्रतीतैव / / 10 / / "जितशत्रुर्महाराजो, वसन्तपुरपत्तने। सुकुमाखतमस्पर्शाः, तत्प्रिया सुकुमालिका // 1 // तदीयस्पर्शलाखस्या द्राज्यचिन्तां मुमोच सः / एवं व्रजति काले च, सर्वरालोच्य मन्त्रिाभिः / / 2 / / तं निःसार्य समं पत्न्या, राज्येऽस्थाप्यत तत्सुतः / यातस्य च महाटव्या, राज्ञी तृष्णाऽऽतुराऽभवत् // 3 / / पानीयं प्रार्थयामास, ततः प्रेम्णा नराधिपः / बध्वाऽञ्चलेन तन्नेत्रे, गा भैषीरित्युदीर्य च // 4 // कृत्वा पापुटं बाहु-शिरोरत्केन पूरितम्। तदन्तर्मूलिकाऽक्षेपि, येन न स्त्याननां व्रजेत् / / 5 / / अपाय्यत्तादृश रत्कं, तामथ व्यथितां क्षुधा। भोजयित्वोरुमांसानि, रोहिण्याऽऽरोहयद् व्रणम्॥६।। ततः सछापि देशऽगा-द्रषणैः कृतनीविकः। वाणिज्यमकरोतत्र, पडगुस्तदूरक्षकः कृतः // 7 // पङ्गोर्गीतेन सा क्षिप्ता, तं पति कर्तुमैहत। गत गङ्गातटोद्याने, गङ्गायां पतिमक्षिपत्।।८।। द्रव्ये निष्ठां गते शेष, वहन्ती मस्तकेन तम्। गायन्ती तेन सार्द्ध च, भिक्षते स्त्र गृहे गृहे / / 6 / / किमेतदिति पृष्टाऽऽख्यत्पितृभ्यां दत्त ईदृशः / स च भर्ता वहन बाहे, तटमासाद्य निर्ययौ / / 10 / / अर्थका पुराऽऽसन्ने, श्रान्तस्तरुतलेऽस्वपीत्। तस्योद्यतपुण्यशेषण, तच्छाया पर्यवर्तते // 11 // तदा पुत्रो मृतःक्ष्माभृदश्वराजोऽधिबासितः। तमुपेत्य स्थितः सोऽश्वो. हेषते स्म च हर्षतः / / 12 / / ततश्च हयहेषाभिर्नृणां जयजयाऽऽरवैः। प्रबुद्धोऽश्व तमध्यास्य, नीत्वा राज्ये न्यवेश्यत / / 13 / / साऽपि तत्राऽऽगता राज्ञः, केनापि कथिता यथा। देव! देवाङ्गना काऽपि, पहुं शिरसि विभ्रती॥१४॥ दृष्टा भिक्षा भमन्त्यत्रा, गीतगानपरायणा। आनायिता च सा राज्ञा, दृष्टा पृष्टा कथं न्विदम्।।१५।। साऽवददेव! दत्तोऽयं, पितृभ्यां पतिरीदृशः। ततः परिव्रतात्वेन, वहाम्येनं शिरःस्थितम् / / 16 / / राज्ञोत्कम - बाहुभ्यां शोणितं पीत-मुरुमांसं च भक्षितम्। गङ्गायां वाहितो भर्ता, साधु साधु पतिव्रते ! / / 17 / / ज्ञात्वा नृपं लज्जिता सा, खचरित्रोण पापिनी। निर्वासिता नरेन्द्रेण, निजोपार्जितभागभूत // 18 / / राज्यभंशाय राज्ञोऽभूदवश्यं स्पर्शनेन्द्रियम्। तस्मादिय तु पापात्मा, रुलिता सुकुमालिका // 16 // आ० क०१ अ०। आ० चू०। स्पर्शन्द्रियविषयविपाकोदाहरणे महेन्द्रो राजपुत्राः। तत्कथा चेयम् - विश्वपुरे धरणेन्द्रो राजा, महेन्द्रः पुत्राः, मदनः श्रेष्ठिपुत्रो मित्र, मदनस्य चन्द्रवदना भार्या, साऽन्यदा पतिमित्राय महेन्द्राय गृहाऽऽगताय स्वहस्तेन ताम्बुलमर्पयति, तस्या हस्तस्पर्श सुकुमारज्ञात्वासोऽध्युपपन्नः। स्पर्शनेन्द्रियपरवशतया ततस्तया सह हास्यं करोति, एवं प्रसङ्गतोऽतीचारमपि सेवते स्म। अन्यदा राजा महेन्द्रस्य राज्यं दातुमिच्छति, इतश्च महेन्द्रेणचन्द्रवदनासुकुमारस्पर्शलुब्धेन मदनहन्तु नियुक्ताः, सेवकाः,तेमदनं प्रहारैर्जर्जरयन्ति Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासिंदिय 1158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 तलारक्षेद्देष्टा राज्ञः पावें नीताः। राज्ञा पृष्टा नियुक्ताः-केन यूयं प्रहिताः? फासियं तयं भणियं। " स्था०७ ठा०। पं०व०। आचा०। आ० चू०। तेऽप्यूचुः-महेन्द्रकुमारेण / ततो राज्ञा सम्यक् वृतान्तं ज्ञात्वा स देशान्निः स्पृष्टमित्यस्य स्थाने प्राकृते फासियमिति / स्पर्शो वा संजातोऽस्येति काशितः। चन्द्रवदना लात्वा स गतो विदेशान्तरे, मदनो वैद्यैः सजीकृतः / इति च स्पर्शितमिति / प्रव० 4 द्वार। आचा०। राजाऽन्यपुत्राय राज्यं दत्वा प्रव्रज्य मोक्षं गतः / मदनोऽपि तथाविध फासिया स्त्री०(स्पर्शिका) आव०६ अ० / बिन्दुनिपाते, सम०३४ सम०। खीचरितं दृष्टवा संविग्नः प्रव्रज्य वैमानिको देवो जातः / चन्द्रवदनामहेन्द्रो ज्ञा० / आचा०। विदेशे भ्रमन्तौ चौरर्निर्गृहीतो वव्वरकुले विक्रीतौ / ता रुधिराऽऽकर्षण फासी स्त्री० (स्पर्शी) जलस्पर्शिकायाम, व्य०७ उ०। वेदना सहेते, भवमनन्तं भ्रान्तौ। इति स्पर्शनेन्द्रिय विषयविपाके महेन्द्र- फासुअ त्रि० (प्रासुक) प्रगता असव-- उच्छवासादयः प्राणा यस्मात् स कथा। ग०३ अधि०। प्रासुकः / स्था०४ ठा० 4 उ० / दश० / प्रगता असवो मतुबलोपादफासिंदियणिग्गह पु० (स्पर्शन्द्रियनिग्रह) स्पर्शेन्द्रियस्य निग्रहः-स्वविष- सुमन्तः-सहजसंसत्किजन्मानो यस्मात्तत्प्रासुकम् / उत्त० 1 अ० / याभिमुखमनुधावतो नियमनं स्पर्शेन्द्रिय निग्रहः / स्पर्शेन्द्रियनियमने. स्था०। जीवरहिते, दर्श० 4 तत्व / प्रश्नः / सूत्रा० / उत्त० / आचा०। उत्त०२६ अ०। सकलजीवोपाधिरहिते, दर्श० 5 तत्व / आधाकाऽऽदिदोषरहिते. फासिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ? फासिंदिय "फासुयअकयअकारिय, अणणुमयणुदिट्ठभोईय।' दश०१ अ०। निग्गहेण मणुन्नामणुन्नेसु फासेसु रागद्दोसनिग्गहं जणयइ, केरिसयकप्पणे जं०, फासुयगं फासुयं तु के रिसगं तप्पचइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ // 66 // जीवनदं जं दव्यं, तं पि य ज एसणिज्जंतु / पं० भा०१ कल्प। हे भगवन्! स्पर्शेन्द्रियनिग्रहेण जीवः कि जनयति? तदा गुरुराह - हे "निर्जीवं यच यद्रव्य, मिश्र नैव च जन्तुभिः / तत्प्रासुकमिति प्रोत्कं शिष्य! स्पर्शनेन्द्रियनिग्रहेण जीवो मनोज्ञाऽमनोज्ञेषु स्पर्शषु रागद्वेषनिग्रहं जीवाजीवविशारदैः॥१॥ पं० चू०१ कल्प। 'फासुयं ति विद्धत्थजोणि जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म नबध्नाति, पूर्ववद्धं च कर्म निर्जरयति॥६६|| त्ति नि० चू०१ उ०। अपक्कफलस्य प्रासुकत्वे जेसलमेरुसंघकृतप्रश्नो उत्त० 26 अ०। यथा-अपक्कफलं बीजकर्षणादनु घटिकाद्वयान्तरे प्रासुकं भवति, न वेति फसिंदियणिव्वट्टिय त्रि० (स्पर्शेन्द्रियनिवर्तित) स्पर्शन्द्रियेण निर्वर्त्तितो- प्रश्नः / अत्रोत्तरं यथा--अत्रा अग्निलवणाऽऽदिप्रबलसंस्कारे प्रासुक निष्पादितः स्पर्शन्द्रियनिवर्तितः / स्था० 10 ठा। भवति, नान्यथेति। 1 प्र० / ही० 4 प्रका० / *स्पर्शन्द्रियनिर्वृत्तिकः त्रि० स्पर्शेन्द्रियेण निवृत्तिर्यस्य स स्पर्शन्द्रिय- | फासुएसणिज त्रि० (प्रासुकैषणीय) जीवरहिते एषणीये, आहारऽऽदौ, भ०। निर्वृत्तिकः / स्पर्शेन्द्रियेण निष्पन्नपुद्रलाऽऽदौ, स्था० 10 ठा०। फासुएसणिज्जं भंते! भुंजेमाणे किं बंधइ ४,०जाव उदचिणाइ? फासिंदियवलन० (स्पर्शन्द्रियबल) स्पर्शेन्द्रियविषयग्रहण सामर्थ्याऽs- गोयमा ! फासुएसणिज्जं भुजमाणे आउयवञ्जाओ सत्त त्मके बलभेदे. स्था० 10 ठा०। कम्मपयडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ फासिंदियमुंड पुं० (स्पर्शेन्द्रियमुण्ड)स्पर्शेन्द्रियं मुण्डयति-अपनयति पकरेइ जहा से संबुडेणं, णवरं आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, स्पर्शेन्द्रियमुण्डः। अपनीतस्पर्शेन्द्रियविषये मुण्डभेदे, स्था० १०टा०। सिय नो बंधइ, सेसं तहेव० जाव वीईवयइ, से केणद्वेणं० जाव फासिंदियविसय पुं० (स्पर्शन्द्रियविषय) स्पर्शन्द्रियविषयभूते स्त्रीकले- वीईवयइ? गोयमा! फासुएसणिशं भुंजमाणे समणे निग्गंथे वराऽऽदौ, "फासिंदियविस यतिव्वगिद्धा।" प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। आयाए धम्म नाइक्कमइ, आयाए धम्म अणइक्कममाणे फासिंदियसंवर पुं० (स्पर्शेन्द्रियसम्बर) स्पर्शेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषनि- पुढविकयं अवकंखइ० जाव तसकायं अवकंखइ, जेसिं पिय रोधने, प्रश्न०५ संव० द्वार। (अस्य विस्तरः परिणहवेरमण' शब्देऽस्मि- णं जीवाणं सरीराइं आहारेइते वि जीवे अवकंखइसे तेणटेणं० नेव भागे 566 पृष्ठे गतः) जाव वीईवयइ / / भ०१श०६ उ०। फासित्ता अव्य० (स्पृष्टवा) स्पृशक्तवा। स्पर्श कृत्वेत्यर्थे , "सम्म कारण | फासुयविहार पुं० (प्रासुकविहार) निर्जी वआश्रये, भ०। फासित्ता।" प्राप्येत्यर्थे च। कल्प० 3 अधि०६क्षण। आचा०। उत्त० / किं ते भंते ! फासुयविहारं? सोमिला ! जंणं आरामेसु उज्जास्था०। स्पृष्टवेत्यर्थे च / स्था०२ ठा०४ उ०। णेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थीपसुपंड गवज्जियासु वसहीसु फासिय त्रि० (स्पृष्ट) स्पृशः-त्कः / गृहीते, दशा०७ अ०। प्राप्ते० प्रव०४ फासुएसणिज पीढफलगसेना संथारगं उवसंपज्जिता णं विहारामि, सेत्तं फासुयविहारं / भ०१८ श०१० उ०। * स्पर्शित त्रि० स्पर्शः संजातोऽस्येति। प्रव० 4 द्वार। गृहीते, दशा०७ फिक्की (देशी) हर्षे , दे० ना०६ वर्ग 83 गाथा। अ० / प्राप्ते च / प्रत्याख्यानमधिकृत्य -"सम्म कारण फासिया। फिट्ट धा० दंश - अधःपतने, दिवा० पर० सक० सेट् / "मशेः स्पृष्टाप्रतिपत्तिकाले विधिना प्राप्ता / " उचिए काले विहिणा, पत्तं जे | फिड फिट्ट-फुड फुट्ट-चुक-भुल्लाः ||८|४|१७७।इ-- द्वार। Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फुडविसय ति प्राकृतसूत्रेण भंशरेते षडादेशाः / फिडइ। फिट्टइ / फुडइ / फुट्टइ।। फुक्करण न० (फत्करण) मुखेन धमने, दश० 4 अ०। चुक्कइ / भुल्लइ / पक्षे-भंसइ / प्रा० 4 पाद / भ्रश्यति / अभ्राशोत्। | फुक्कार पुं०(फूत्कार) फूदित्येवमनुकरणे, वाच०। आचा०१ श्रु०१ अ० अभशील / वेट् / वाच०। 7 उ०। फिट्टत त्रि० (भ्रश्यत्) व्यतिक्रामति, बृ० 1 उ०२ प्रक० / "तप्पभिई फुक्का (देशी ) मिथ्यायाम्, दे० ना० 6 वर्ग 84 गाथा। फिट्टइ। नि० चू०१ उ०।। फुक्की (देशी ) रजक्याम्, दे० ना०६ वर्ग 84 गाथा। फिड धा०(भ्रंश) 'फिट्ट शब्दार्थ , प्रा०४ पाद। फुक्किय त्रि० (फूत्कृत) फूदित्येवंशब्दिते. वाच०। आव०४ अ०। फिडिअजि० (भ्रष्ट) समुदायाच्च्युते, "भट्ट फिडि अंचुछ। 'पाइ० ना० फुग्ग त्रि० (फुग्ग) अंसम्बद्धे, "फुग्गफुग्गाओ ति। परस्परा सम्बद्धरो१६१ गाथा। मिके, विकीर्णे रोमिके इत्यर्थः / उपा० 2 अ०। * स्फिटित त्रि० परिभ्रष्ट,बृ०२ उ० व्या ओघ०। "इमो य गोसालो फुट्ट धा०(भ्रंश) 'फिट्ट' शब्दार्थे , प्रा०४ पाद। भगवंतो फिडिओ।''आ० म० 1 अ० / 'फिडिया भिक्खावेला / " फुट धा० स्फुट- 'स्फुट' भेदने, धा० चुरा०-उभ०-सक० - सेट। आ०म०१ अ० / ओघ01 विप्रणष्ट, "मग्गफिडिया वा मग्गतो विप्पणहा।' "स्फुटि--चलेः" ||4 / 231 / / इति प्राकृतसूत्रोणानयो रन्त्यव्यनि० चू०१उ० / अतिक्रान्ते, दूरीभूते च। औ०। जनस्य वा द्वित्वम्। फुडइ। फुडइ। प्रा० 4 पाद। स्फोटयति। स्फोटयते। फिड्डी (देशी ) वामने, दे० ना०६ वर्ग 84 गाथा। अपुस्फुटत्। वाच०। फिप्प ( देशी) वामने, दे० ना०६ वर्ग 83 गाथा। * स्फुट त्रि० स्फुट-कः। विदीर्णे उपा०२ अ०। नाणेणं पोट्टफुट्टइ।" फिप्फसन० (फिप्फस) अन्त्रान्तर्वर्तिमासविशेषरूपे / सूत्र०१ श्रु०५ आ०म०१ अ०1"सव्वत्थरज्जे फुट्ट भणइ।" आव०४ अ०। विकीर्णे, अ० 1 उ०। ) उदरमध्यावयविशेषे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। "फुट्टसिरं'' स्फुटितमबन्धनत्वेन विकीर्ण शिर इति शिरोजातत्वात्केशा फिप्फिसन० (फिप्फिस) 'फिफ्फरस' शब्दार्थे , सूत्रा०१श्रु०५ अ०१ उ०। यस्य। ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०भ०। विपा०। शोधिते, "फुट्टाणं सालीणं / ' फिसग पुं० (फिसक) पुते, उपा० 2 अ०। सूर्याऽऽदिना स्फुटा:-स्फुटीकृताः, शोधिता इत्यर्थः / ज्ञा०१ श्रु०७ अ० / निर्मल, चं० प्र० 1 पाहु०। "फुडवियडपायडत्थं, वोच्छामी एस फिह धा० स्पृह - 'स्पृह' इच्छायाम, धा० चुरा०-उभ० - सक० सेट् / णं पत्तो / ' स्फुटो निर्मलस्तात्प-नववो धकश्मलहितः / पिं० / "स्पृहः सिहः // 14 // 34 // इति प्राकृत सूत्रेण स्पृहेर्ण्यन्तस्य सिहाऽऽदशो वा / प्रा० 4 पाद।"ष्प-स्फयोः फः" // 2 // 53 // विशुद्धे, पं० चू०१ कल्प० / ज्ञा० / अवितथे, उत्त० 16 अ० / ज्ञा०। सप्रकाशे, भ० १श०२ उ० / व्यत्कः स्पष्टः प्रकटः प्रत्यक्षः। उपा०२ इति प्राकृतसूत्रेण फः / प्रा०२ पाद। सिहइ। फिहइ। प्रा० / स्पृहयति। अ०। ज्ञा० / आ० म०। नि० चू० / भ० / प्रति०। विशे०। औ० / उत्त० / अपस्पृहत्। वाच०। प्रश्न० / द्वा० / ज्योतिषोत्केषु मेषाऽऽदिराशिषु, अंशविशेषस्थितेषु फिहयालु त्रि० (स्पृहयालु) स्पृह -आलुच् / स्पृहाशीले. वाच० / सूर्याऽऽदिग्रहेषु, पुं०। तेषां तत्तदशकलाऽऽदिषु गती, स्त्री०। उत्प्रेक्षया "गुणान्तरेण स्पृहयालुरेव।स्या०। द्योतने, न० / सर्पफणायाम, वाच० / उपा० 2 अ० / अतिकायस्य फिहा स्त्री० (स्पृहा) स्पृह-अङ्। "स्पृहायाम्" / / 8 / 2 / 23 / / इति महोरगेन्द्रस्य स्वनामख्यातायामप्रहिष्यां च। स्त्री०। स्था०४ ठा०१ प्राकृतसूत्रोण संयुक्तस्य वाछः / प्रा०२ पाद / पक्षे-"ष्पस्फयोः फः" उ०म० / / 8 / 2 / 53 / / इति प्राकृतसूत्रोण फः / प्रा०२ पाद। इच्छायाम, अष्ट *स्पृष्ट त्रि० स्पृश-त्कः। "त्केनाऽप्फुण्णाऽऽदयः" ||8 / 4 / 258|| 11 अष्ट। इति प्राकृतसूत्रेण स्पृशः कान्तस्य निपातः / प्रा० / स्था० / भ० / फिहावह त्रि० (स्पृहावह) आशालोलुपे, अष्ट० 11 अष्ट। व्याप्ने, स्था०४ ठा०३उ० / आश्लिष्ट, उत० 240 / फी स्त्री० (फी) सगर्भयोषिति, "सगर्भा योषिता फी स्यात्। एका०। फुड "विसयं फुड।' पाइ० ना०२६७ गाथा। 'फिट्ट' शब्दार्थ , प्रा० 4 * फुफमा स्त्री० गोमयागौ, 'फुफमा कोउआ करीसग्गी' पाइ० ना० पादा 153 गाथा। फुडंत त्रि० (फुट्यमान) विदार्यमाणे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / विपा०॥ फुफुआ (देशी) करीषानौ, दे० ना० 6 वर्ग 84 गाथा। ज्ञा०। फुफुग पुं० (फुम्फुक) करीषाऽग्रौ, बृ०१ उ० 3 प्रक० / 'फुफु क' शब्दो फुडण न० (स्फुटन) स्फुट-ल्युट्। विकशने, वाच०। द्वैधी भावगमने, देशीरूपत्वात् कारीषवाचकः जी०२ प्रति० / तं०। प्रश्न० १आश्र0 द्वार। विघटने च। ज्ञा० 1 श्रु० 8 अ०। फुटा ( देशी) केशबन्धने, दे०ना०६ वर्ग 84 गाथा। फुडवयण न० (स्फुटवचन) परिस्फुटवाक्ये, दशा० 4 अ०। फुफुल्लइत्ता अव्य० (पम्फुलित्वा) अतिशयेन पुनः पुनर्वा फलित्वेत्यर्थे , फुडविसय त्रि० (स्फुटविशद) अत्यन्तव्यक्ते, औ०। "गोणाऽऽदयः" ||3 / 174|| इति प्राकृतसूत्रोण निमातितः। प्रा० * स्फुटविषय त्रि० स्फुटार्थे , औ० / "फुडविसयमहुर गभीरणा२पाद। दियाए।" रा०। Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुडा 1160- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फूडिजंत ण फुडास्त्री०(स्फुटा) अतिकायस्य महोरगेन्द्रस्य च महिष्याम्. स्था०४ मच्छो।" स्फुरति-स्पन्दते। ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। प्रश्न०। "पयंति ठा०१उ०। णं णेरइए फुरते।" स्फुरन्त इतश्चेतश्च विहलमात्मानं निक्षिपन्तः। फुडाहोव पुं० (स्फटाऽऽटोप) फणाऽऽडम्बरे, उपा०२ अ०॥ सूत्रा० १श्रु०५ अ०१३०। 'फुरंत्विज्जुञ्जसंतसिहरस्स।नं०। उत्त०। फुडिअत्रि० (स्फुटित) 'फुडिअंफलियं च दूलिअंउद्दरिअं।" पाइ० | फुरण न० (स्फुरण) स्फुर-ल्युट्। ईषत्स्पन्दने, वाच० स्था०२ठा०४ ना०१८१ गाथा। उ०प्रकम्पने ज्ञा० श्रु०५ अ०1 चेष्टने० स्था०१ ठा०।"कणी फुरणं / ' फुडित्ता अव्य० (स्फुटित्वा) स्फुटं कृत्वेत्यर्थे , प्रकाशीभूयेत्यर्थे, स्था० पाइ० ना० 273 गाथा। ७ठा०। फुरफुरतं त्रि० (फुरफुरायमाणा) प्रकम्पमाने, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। * स्फोटयित्वाअव्य० विशीर्णे कृत्वेत्यर्थे , स्था०२ ठा० 4 उ०। प्रश्न०।पीड्योद्वेल्ले च। पिं०1"ताव णं फुरफुरेजा।" महा०१ अ०। फुडिय त्रि०(स्फुटित) स्फुट-त्कः। विकशिते, व्यक्तीकृते, परिहासिते, फुराविति (देशी) अपहारयतीत्यर्थे, "पव्वइउमणा उ ते फुराविंति।" भिन्ने च। वाच०। स्था० 4 ठा०४ उ०। संजातराजीके, ज्ञा० 1 श्रु०७ "फुराविति त्ति" देशीपदमेतत् / अपहारयन्ति। व्य०३ उ०। अ० / आ० म०। "फुडितच्छविविच्छविया।" स्फुटिता राजिशत- | फुरिअन० (स्फुरित) स्पन्दिते, "चुलुचुलिफंदिअंफुरि।" पाइ० संकुलेति। जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। विकृते च। "फुड़ितच्छवि न० 160 गाथा। निन्दिते, दे० ना०६ वर्ग 84 गाथा। स्था०। विच्छविया।"विपादिकाविचर्चिकादिभिर्विकृतत्वचः। प्रश्न०२ आश्र० फुरित्ताअव्य० (स्फुरित्वा) स्फुरणं कृत्वेत्यर्थे , स्था०। *स्फोरयित्वा अव्य० (स्फुरन्तं) कृत्वेत्यर्थे , स्था०७ ठा०। स्पन्द द्वार। फुडि (जि)त्ता अव्य० (स्फोटित्वा) स्था० 2 ठा० 4 उ०। (अर्थस्तु कृत्वेत्यर्थे च। स्था०२ ठा०४ उ०। 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 166 पृष्ठे गतः) फुरिय त्रि० (स्फुरित) स्पन्दिते, स्था० 2 ठा० 4 उ० / "चिंतासाय ग्मवगाहगाणस्स फुरियं दाहिणलोयणं / " दर्श०१ तत्व / चेष्टिते, न०। फुड्डयन० (फुड्डक) लघुतरगच्छैकदेशे, "फुड्डाफुड्डिअप्पेगइया वायंति।" स्था०। फुङ्गकं-लघुतरो गच्छदेश एव गणावच्छेदकाधिष्ठित इति। औ०। फुलिंग पुं०स्त्री० (स्फुलिङ्ग) स्फुल-इङ्गच्। स्फु इत्यव्यक्त शब्दोलिङ्गिति फुत्ति स्त्री० (स्फूर्ति) स्फुरणे, विकशने, प्रतिभायां च / वाच०। आ०म० -- गच्छति यस्मात् लिगिधा। पृ० वा०। अग्निकणे, वाच०।"फुलिंग१ अ० / प्रतिक्षणं प्रवर्द्धमानकान्तौ च / "मूर्तिः स्फूर्तिमती सदा जालामालासहस्सेहि।" भ०३ श०२ उ० / हिमे च / गुडविकारभेदे, विजयते।" स्फूर्तिः प्रतिक्षणं प्रवर्द्धमानकान्तिः, संनिहितप्रतिहार्यत्वं स्त्री० वाचा वा, तद्वती। प्रति०। फुल्लन० (फुल्ल) पुष्पे, दश०। फुप्फुसन० (फुप्फुस) उदरान्तर्वर्तिन्यन्त्रविशेषे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। पुप्फाणि अकुसुमाणि अ, फुल्लाणि तहेव हॉति पसवाणि। सूत्र०। सुमणाणि असुहुमाणि अ, पुष्फाणं होति एगट्ठा // 36|| फुड धा० (भ्रम) चलने, भ्याल-पर०-सक०-सेट्। "ममेः टिरिटि पुष्पाणि कुसुमानि चैव फुल्लानि प्रसवानिच सुमनांति चैव 'सूक्ष्माणि' ल्ल-तुण्दुल्ल-ढण्ढल्ल-चकम्म- मम्मड-ममड-भमाड सूक्ष्मकायिकानि चेति।।३६।। दश०१ अ०। तलअण्ट-झण्ट, झम्प, भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुस- फुल्लंघअपुं०(पुष्पंधय) भ्रमरे, "फुल्लंधआ रसाऊ, भिंगा भसलाय परीपराः" // 5 // 169 / / इति प्राकृतसूत्रेण भ्रमेः फुमाऽऽदेशः। महुअरा अलिणो। इंदिंदरा दुरेहा धुअगाया छप्पया भमरा / / 12 / / " फुसइ। भ्रमति। प्रा० 4 पाद। पाइ० ना० 12 गाथा। भ्रमरे, दे० ना०। फुमंत त्रि० (फुमत्) मुखेन फूत्कुर्वतिदश०४ अ०नि० चू०। आचा०। फुसिअ त्रि० (स्पृष्ट) उन्मृष्ट "उम्मुटुं पुंछिअं फुसि।" पाइ० ना० फुमण न० (फुमन) फूत्करणे दश० 4 अ०। 188 गाथा। जे भिक्खू अप्पणोपायं फूमेजवा, रएखवा, मंखेज वा, फूमंतं / फुसित्ताअव्य० (स्पृष्टवा) श्लिष्टवेत्यर्थे , स्था० 4 ठा०४ उ०। वा रयंतं वा मंखेतं वा साइजइ / नि० चू०३ उ०। फुसी स्त्री० (स्पर्शी) फासो' शब्दार्थे, व्य०७ उ०। "इत्थेण वा मुहेण वा फूमेज्ज वा, वीएजवा।" (फूमेज वेति) मुखवायुना फूअ (देशी) लोहकारे, दे० ना०६ वर्ग 85 गाथा। शीतीकुर्यात्। आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०७ उ०। फूमंत त्रि० (फूमत) 'फुमंत' शब्दार्थे, दश० 4 अ०। फुमावंत त्रि० (फुमयत्) फूत्करणे, नि० चू०१७ उ०। फूमण न० (फूमन) 'फुमण' शब्दार्थे , दश० 4 अ०। फुमिजंत शि० (फुम्यमान) फूक्रियमाण्णे, नि० चू०३ उ०। फूमावंत त्रि० (फूमयत्) फूत्करणे, नि० चू०१७ उ०। फुरंत त्रि० (स्फुरत्) इतस्ततः स्पन्दमाने, "फुरइ थलविरल्लिओ | फूमिअंत त्रि० (फूम्यमान) 'फुमिजंत' शब्दार्थे , नि० चू०३ उ०। Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेडण 1161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फोड फेडण न० (स्फेटन) आच्छोटने, बृ०॥ फेण पुं० (फेन) "डिंडीरो पुप्फओ फोणो।" पाइ० ना० 132 गाथा। | बुदुदे, कल्प० 1 अधि०३ क्षण। फेणग पुं० (फनक) पानीयप्रस्फोटके, उत्त० 16 अ०। रा०। औ०। फेणपुंज पुं० (फेनपुञ्ज) डिण्डीरोत्करे, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। प्रश्न०/०। फेफस न० (फेप्फस) फिप्फस' शब्दार्थे , सूत्रा०१ श्रु०५ अ०१०।। फेण्बड (देशी) वरुणे, दे० ना०६ वर्ग 85 गाथा। फेणबंध (देशी) वरुणे, दे० ना० 6 वर्ग 85 गाथा। फेणमालिणी स्त्री० (फेनमालिनी) जम्बुमन्दरपश्चिमायां शीताया महा नद्याः कूलवर्तिन्या स्वनामख्यातायामन्तनद्याम, स्था० 6 ठा० / "दो फेणमालिणीओ।' स्था० 2 ठा०२ उ०। जम्बूद्वीपस्य महाविदेहे वर्षे वप्रावतीविजयस्थायां नद्यां च।" वप्पवईविजए अवराईया रायहाणी, फेणमालिणी गई।" जं०४ वक्षः। फेलाया (देशी) मातुलान्याम, दे० ना०६ वर्ग 85 गाथा। फेल्ल ( देशी) दरिद्र, दे० ना०६ वर्ग 85 गाथा। फेल्लुसण (देशी) पिच्छलदेशे, दे० ना०६ वर्ग 86 गाथा। फेस (देशी) त्रासद्भावयोः, दे० ना०६ वर्ग 87 गाथा। फोइय (देशी) मुत्कविस्तारितयोः, दे० ना०६ वर्ग 87 गाथा। फोक्क (देशी) अग्रे स्थूलोन्नते, उत्त०१२ अ०।। फोकसणास त्रि० (फोक्कनास) 'फोक्कत्ति 'देशीपदम्। ततश्च फोक्का अग्रे स्थूलोन्नता च नासाऽस्येति। स्थूलोन्नता अनासिके, उत्त०१२ अ०। फोड पुं० (स्फोट) स्फुटत्यर्थो यस्मात् / स्फुट-घत्र / व्याकरणोत्के वर्णातिरिक्ते पूर्वपूर्ववर्णानुभवसहित चरमवर्णव्यङ्गयार्थप्रत्याय के अखण्डे शब्दभेदे, वाच० / अत्रा वैयाकरणाः प्राऽऽहु:-"यस्मादुचरितात् ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिः स शब्दः / ननु अत्र किं गकारौकारविसर्जनीयाः ककुदादि मदर्थप्रतिपादकत्वेन शब्दव्यपदेशं लभन्ते, आहोस्वित्तदव्यतिरित्कः पदस्फोटाऽऽदिः? तत्रानतावद्वर्णा अर्थप्रत्यायाकाः यतस्ते किं समुदिता अर्थप्रतिपादकाः, उत व्यस्ताः? यदि व्यस्तास्तदैकेनैव वर्णेन गवाद्यर्थप्रतिपत्ति रुपादितेति द्वितीयाऽऽदिवर्णोच्चारणमनर्थक भवेत् / अथ समुदिता अर्थप्रत्यायकाः। तदपि न संगतम्।क्रमोत्पन्नानामनन्तर विनष्टत्वेन समुदायासंभवात्। न च युगपदुत्पन्नानां समुदायप्रकल्पना, एकपुरुषापेक्षया युगवदुत्पत्यसंभवात् प्रतिनियत स्थानकरणप्रयत्नप्रभवत्वात् तेषाम् / न च भिन्नपुरुषप्रयुक्तगकारौकार विसर्जनीयानां समुदाये ऽप्यर्थप्रतिपादकत्वं द्दष्ट, प्रति नियत क्रमवर्णप्रतिपायुत्तर काल भावित्वेन शाब्द्याः प्रतिपत्तेः संवेदनात्। न चान्त्यो वर्णः पूर्ववर्णानुगृहीतो वर्णानां क्रमोत्पादे सत्यर्थप्रत्यायकः, पूर्ववर्णानमन्त्यवर्ण प्रत्यनुआहकत्वायोगात् यतो नान्त्यवर्ण प्रति जनकत्वं पूर्ववर्णानां तदुपकारित्वम्, वर्णाद्वर्णोत्पत्तेरभावात-प्रतिनियतस्थानकरणाऽs दिसंपाद्यत्वाद् वर्णानां, वर्णाभावेऽपि च वर्णोत्पत्तिदर्शनान्न / वर्णजन्यल्वम् / अथार्थज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं पूर्ववर्णानामन्त्यवर्ण प्रत्युपकारकत्वम् / एतदप्ययुत्कम, अविद्यमानानां सहकारित्वानुपपत्तेः / अत एव प्रात्कनवर्णविज्ञानानामपि सहाकारित्वमयुक्तम् न च पूर्ववर्णसंवेदनप्रभवाः संस्काराः तत्सहायता प्रतिपद्यन्ते, यतः संस्काराः स्वोत्पादकविज्ञानविषय स्मृतिहेतवो नार्थान्तरज्ञानमुत्पादयितुं समर्थाः-न हि घटज्ञानप्रभवः संस्कारः पटे स्मृति विदधद्द्दष्टः / न च तत्संस्कारप्रभवाः स्मृतय सहायता प्रतिपद्यन्ते, युगपदयुगपद्विकल्पानुपपत्तेः। न हि स्मृतीनां युगपदुत्पत्तिः, अयुगपदुत्पन्ननां वाऽवस्थितिरस्ति। न च समस्त संस्कारप्रभवैका स्मृतिस्तत्सहकारिणी, परस्परविरुद्धानेकपदार्थानुभवप्रभवप्रभूतसंस्काराणामप्येक स्मृतिजनकत्वप्रसत्केः, न अनेक वर्णसंस्करजत्वं स्मृतेः संभवतीति कुतोऽस्या अन्त्यवर्णसहकारित्वम् ? न चान्यविषया स्मृतिरन्यत्रा प्रतिपत्तिं जनयति, खदिरव्यापृतपरशोः कदिग्च्छेदक्रियाजनकत्वप्रसत्केः / न चान्यवर्णनिरपेक्ष एव 'गोः' इत्यत्रान्त्यो वर्णः ककुदादिमदर्थप्रत्यायकः, पूर्ववर्णाचारणवैयर्थ्यप्रसत्केः घटशब्दान्तव्यवस्थितस्याऽपिततप्रत्यायकत्वप्रसत्केश्च / तस्मान्न वर्णाः समस्तव्यस्ता अर्थप्रत्यायकाः संभवन्ति। अस्ति च गवादिशब्देभ्यः ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिरिति तदन्यथानुपपत्या वर्णव्यतिरिक्तोऽर्थप्रतिपत्तिहेतुः स्फोटाख्यः शब्दो ज्ञायते। श्रोत्राविज्ञाने च वर्णव्यतिरिक्तः स्फोटात्मा निरवयवोऽक्रमः स्फुटमवभातीति तस्याऽध्यक्षतोऽपि सिद्धिः / तथाहि-श्रवणव्यापारानन्तरभाविन्यभिन्नार्थावभासा संविदनुभूयते, नचासौ वर्णविषया, वर्णानां परस्परव्यावृत्तरुप त्वादेकावभासजन कत्वविरोधात् तदजनकस्यातिप्रसडत स्तद्विषत्वानुपपत्तेः / न चेयं सामान्यविषया, वर्णत्वव्यतिरेकेणापर सामान्यस्य गकारौकारविसर्जनीयेष्वसंभवात् वर्णत्वस्य च प्रतिनियतार्थ प्रत्यायकत्वायोगात्। न चेयं भ्रान्ता, अबाध्यमानत्वात्। च चाबाध्यमानप्रत्ययगोचरस्यापि स्फोटाऽऽख्यस्य वस्तुनोऽसत्वम्, अवयविद्रव्यस्याप्यसत्वप्रसत्केः / एव मप्यवयव्यभ्युपगमे स्फोटाभ्युपगमोऽवश्यंभावी ततुल्ययोग क्षेमत्वात् / स च वर्णेभ्यो व्यतिरित्को नित्यः, अनित्यत्वे संकेतकालानुभूतस्य तदैव ध्वस्तत्वात् कालान्तरे देशान्तरे च गोशब्द श्रवणात् ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिर्न स्यात्, असङ्केतिताच्छशब्दादर्थ प्रतिपत्तेरसंभवात्। संभवे वा द्वीपान्तरादागतस्य गोशब्दाद् गवार्थप्रतिपत्तिर्भवेत्। सङ्केतकरण वैयर्थ्यं च प्रसज्येत। तस्मान्नित्यस्स्फोटाख्य शब्दो व्यापकश्च सर्वत्रकरुपतया प्रतिपत्तेः। असदेतदिति वैशेषिकाः। ते ह्याहुः -एकदा प्रादुर्भूता वर्णास्वार्थप्रतिपादका न भवन्तीत्यत्राविप्रतिपत्तिरेव / क्रमप्रादुर्भूतानां न समुदाय इत्यत्राप्यविप्रतिपत्तिरेव / अर्थप्रतिपत्तिस्तूपलभ्यमाना त्पूर्ववर्णध्वंसविशिष्टदन्त्यवर्णात् / न चाभावस्य सहकारित्वं विरुद्धं वृन्तफल संयोगाभावस्येवाऽप्रति बद्धगुरुत्वविशिष्टफलप्रपातक्रियाजनने, दृष्ट चोत्तरसंयोग विदधत् प्रात्कनसंयोगाभावविशिष्ट कर्म परमाणवग्निसंयोगश्च परमाणौ तद्वतपूर्वरुपप्रध्वंसविशिष्टो रक्ततामुत्पादयन्। यद्वा-उपलभ्यमानोऽन्त्यो वर्ण : पूर्ववर्ण विज्ञानाभायविशिष्ट: Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोड 1162 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फोड पदरुपतामासादयन् पदार्थे प्रतिपत्तिं जनयति, प्रात्कनवर्णसवित्प्रभवसंस्कारसव्यपेक्षो वा? न च संस्कारस्य विषयान्तरे कथ विज्ञानजनकत्वमिति प्रेय॑म, तद्भावभावितयाऽर्थप्रतिपत्तेरुपलब्धेः पूर्ववर्णविज्ञानप्रभव संस्कारश्चान्त्यवर्णसहायतां पूर्वपूर्वसंस्कारप्रभवतया प्रणालिकया विशिष्टः समुत्पन्नः सन् प्रतिपद्यते / तथाहि-प्रथमवणे तावद्विज्ञानं तेन च संस्कारो जन्यते, ततो द्वितीयवर्णविज्ञानं तेन पूर्ववर्ण विज्ञानाऽऽहितसंस्कारसहितेन विशिष्टः संस्कारो जन्यते, ततस्तृतीयवर्ण ज्ञानं, तेन पूर्वसंस्कारविशिष्टनापरो विशिष्टतरः संस्कारो निर्वर्यंत इति यावदन्त्यः संस्कारोऽर्थप्रतिपत्तिजनकान्त्यवर्णसहायः तथा भूतसंस्कारप्रभवस्मृतिसव्यपेक्षो वाऽन्त्यो वर्णः पदरुपः पदार्थप्रतिपत्तिहेतुः / अथवा शब्दार्थोपलब्धिनिमित्तादृष्ट नियमादविनष्टा एव पूर्ववर्णसंवित्प्रभवाः संस्कार अन्त्यसंस्कारं विदधति, तस्मात्पूर्ववर्णेषु स्मृतिरुपजाता अन्त्यवर्णेनोपलभ्यमानेन सद्दार्थप्रतिपत्तिमुत्पादयति, वाक्यार्थप्रतिपत्तौ वाक्यस्याप्ययमेव न्यायोऽङ्गीकर्त्तव्यः। वर्णाद्वर्णो त्यत्यभावप्रतिपादनं च सिद्धसाधनमेव / तदेवं यथोत्क सहाकारिकारणसव्यपेक्षादन्या द्वर्णादर्थप्रतिपत्तिरन्वयव्यति रेकाभ्यामुपजायमानत्वेन निश्चीयमाना स्फोटपरिकल्पनां निरस्यति / तदभावेऽप्यर्थप्रतिपत्तैरुकप्रकारेण संभवेऽन्यथानु पपत्तेः प्रक्षयात् / न हि दृष्टादेव कारणात् कार्योत्पत्तावद्दष्ट तदन्तरपरिकल्पना युक्तिसङ्गता अतिप्रसङ्गात्। कि च यद्युपलभ्यमाना वर्णा व्यस्तसमस्ता नार्थप्रतिपत्तिजननसमर्थाः स्फोटाभिव्यत्कावपिन समर्था भवेयुः / तथाहि-न समस्तास्ते स्फोटमभिव्य - जयन्ति सामस्त्यासंभवात्। नापि प्रत्येक वर्णान्तरवैफल्पप्रसङ्ग देकेनैव स्फोटाभिव्यक्तेर्जनितत्वात् / न च पूर्ववर्णैः स्फोटस्य संस्कारेऽन्त्यो वर्णस्तस्याभिव्यञ्जक इति, नवर्णान्तरवैयर्थ्य, अभिव्यक्तिव्यतिरिकसंस्कार स्वरुपानवधारणात् / तथाहि-न तावत्तत्र तैः वेगाऽऽख्यः संस्कारो निर्वय॑त, तस्य मूर्तेष्वेव भावात्। नापि वासनारुपाः अचेतनत्वात् / स्फोटस्य तचै तन्याभ्युपगमे वा स्वशास्त्राविरोधः / नापि स्थितिस्थापकः तस्यापि मूर्तद्रव्यवृत्तित्वात्, स्फोटस्य चामूर्तत्वाभ्युपगमात्। किं च -असौ संस्कार: स्फोटरुपस्तद्धर्मोवा? तावदाद्यः कल्पः रकोटस्य वर्णोत्पाद्यत्वप्रसत्केः / नापि द्वितीयः, व्यतिरिक्ताव्यति रिक्तविकल्पानुपपत्तेः / तथाहि असौ धर्मः स्फोटाव्यतिरिक्तः, अव्वतिरित्को वा? याव्यति रित्कस्तदा तत्करणे स्फोट एव कृतो भवेदिति तस्यानित्यत्वप्रसत्केः स्वाभ्युपगमविरोधः / अथ व्यतिरित्कस्तदा तत्संबन्धानुपपत्तिः तदनुपकारकत्वात्, तस्योपकाराभ्युपगमे व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तविकल्पः, तत्रापि पूर्वोक्त एव दोषोऽनवस्थाकारी। न च व्यतित्कधर्मसद्भावेऽपि स्फोटस्यानभिव्यत्किस्वरुपव्यवस्थितस्य पूर्ववदर्थप्रतिपत्ति हेतुत्वम् तत्स्वरुपत्यागे वाऽनित्यत्वप्रसक्तिः / अथ न व्यतिरिक्तसंस्कारकृतनुपकारमपेक्ष्य पूर्वरुपपरित्यागादसावर्थ प्रतिपत्ति जनयति, किंतु-संस्कारसहायोऽविचलितरुप एवैककार्यकारित्वस्यैव सहकारित्याभ्युपगमात्; नन्वेवम्-वर्णानामप्यन्यकृतोपकारनिरपेक्षाणामेककार्य निर्वर्तनलक्षण सहकारित्ववत्सहकारिसहितनामर्थप्रति पत्तिजननेकिम परस्फोट कल्पनयाऽप्रमाणिकया कार्यम्? किं चपूर्ववर्णः संस्कारः स्फोटस्य क्रियमाणः किमेकदेशैः क्रियते, सर्वाऽऽत्मना वा? यद्येकदेशैः, तदा ते ततोऽर्थान्तरभूतात, अनर्थान्तरभूता वा? | यद्यर्थान्तरभूतास्तदा तेषा तदनुपकारे संबन्धासिद्धिः; उपकारे व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्त विकल्पोत्कदोषानुषङ्गः / न च समवायादनुपकारेऽपि तेषा तत्संबन्धिता, तस्यानभ्युपगमात् / परैरभ्युपगमे च स्वकृतान्तविरोधोऽर्थान्तरभूतत्वे चैकदेशानां तेभ्य एवार्थप्रतिपत्तेः न रफोटस्यार्थप्रत्यायकता / अपि च एकदेशानार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वाभ्युपगमे च वरं वर्णानामेव तदभ्युपगतम्; एवं लोकप्रतीतिरनुसृता भवेत् / अथाव्यतिरिक्तास्तदेकदेशास्तदा स्फोटस्यैकेनैव संस्कृतत्वाद परवर्णोचारणवैयर्थ्यम् / न च पूर्ववर्णसवितप्रभवसंस्कारसहित स्तत्स्मृतिसहितो वाऽन्त्यवर्णः स्फोटसंस्कारकः एवं भूत स्यास्यार्थप्रतिपत्तिजननेऽपि शक्तिप्रतिघातभावात् स्फोटपरिकल्पना निरवसरैव। अपि च स्फोटसंस्कारः स्फोटविषय संवेदनोत्पादनमुताऽऽवरणापनयन? यद्यावरणापनयनं तदैकौकदाऽऽवरणापगमे सर्वदेशावस्थितैः सर्वदाव्यापिनित्यरुपतयोपलभ्यते तस्य नित्यत्वव्यापित्वा भ्यामपगताऽऽवरणस्य सर्वत्र सर्वदोपलभ्यस्वभावत्वात्, अनुपलभ्यस्वभावत्वे वा न केनचित कदाचित् कुत्राचिदुपलभ्येत / अथैकदेशाऽवरणापगमः क्रियते, नन्वेमावृतानावृतत्वेन सावयवत्वमस्यानुषज्येत / अथ निर्विभागत्वादेकत्रानावृतः सर्वत्रत्राऽऽनावृतोभ्युपगम्यते तदा तदवस्थाऽशेषदेशावस्थितै रुपलब्धिप्रसत्किर्यथा च निरवयवत्वादेकत्रानावृतः सर्वत्रानावृत स्तथा तत एवैकत्राप्यावृतः सर्वत्रौवावृतः इति मनागपि नोपलभ्यते। किं च - एकदेशाः स्फोटादर्थान्तरम् अनर्थान्तर वा? अर्थान्तरत्वेऽपि शब्दस्वभावाः, अशब्दात्मका वा? यद्यशब्दात्मका नार्थप्रतिपत्तिहेतवः अथ शब्दस्वभावाः, तत्रापियदि गोशब्दस्वभावास्तदा चात्र गोशब्दानेकत्यप्रशक्तिः / अथ-अगोशब्दस्वरुपा न तर्हि गवार्थप्रत्यायका भवेयुः / अथाऽव्यतिरिक्तास्तदा स्फोट एवं संस्कृत इति सर्वदेशावस्थितैयापिनस्तस्य प्रतिपत्तिप्रसत्किरिति पूर्वोत्कमेव दूषणम्। किंञ्च एकदेशाऽऽवरणापाये स्फोटस्य खण्डशः प्रतिपत्तिः प्रसज्येत। अथस्फोट विषय संविदुत्पादस्तत्संस्कारः; सोऽपि न युत्कः; वर्णानामर्थप्रतिपत्तिजनन इव स्फोटप्रतिपत्तिजननेऽपिसागाऽसंभावात न्यायस्य समानत्वात्। यदिच-स्फोट उपलभ्यस्वभावः सर्वदोपलभ्यते, अनुपलभ्यस्वभावत्वे आवरणापगमेऽपि तत्स्वभावनतिक्रमान्मनागपि नोपलभ्यते इत्यर्थाप्रतिपत्तितः शाब्दव्यवहार विलोपः। अनेनैव न्यायेन वायूनामपि तदव्यजकत्वमयुत्कं वायूनाञ्च व्यजकत्वपरिकल्पने वर्णवैफल्यप्रसक्तिः स्फोटाभिव्यत्कावर्थप्रतिपादने वा तेषामनुपयोगात्। स्थिते च स्फोटस्य वर्णोच्चारणात् प्राक् सद्भावे वर्णाना वायुनां वा व्यञ्जकत्वं परिकल्प्येतान च तत्सद्भावः कुतश्चित्प्रमाणादवगत इति न तत्परिकल्पना ज्यायसी / यदपि प्रत्यभिज्ञाज्ञानं स्फोटस्य नित्यत्वप्रसाधकं वर्णोच्चारणात् प्रागप्यस्तित्वमवबोधयति इत्यभ्यपगतं तदपि-प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य साद्दश्यनिबन्धनत्वेनात्रा विषये प्रतिपादितत्वात्-असंगतम्, एकगोव्यक्तौ संकेतितात् गोशब्दाद् गोव्यक्तयन्तरे अन्यत्राान्यदा च नित्यत्वमन्तरेणापि प्रतिपत्तिर्यथा संभवति तथा प्रतिपादितं, प्रति पादयिष्यते च, नातोऽपि स्फोटस्य प्राग व्यञ्जकात् सत्वसिद्धिरिति। "नादेनाऽऽहितवीजायामन्त्येन ध्वनिना सह। आवृत्तपरिपाकायां, बुद्धौ शब्दोऽवभासते / / 65 / / '' इति भर्तृहरिवचो निरस्तं द्रष्टव्यम् / यदपि 'विभिन्नतनुषु वर्णे - Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोड 1163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 फोड ष्वभिन्नाऽऽकारं श्रोत्रान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यध्यक्ष स्फोटसद्भावमवबोधयति' इत्युत्कम् / तदप्यसारम् ; घटाऽऽदिशब्देषु परस्परच्यावृत्तनेकवर्णव्यतिरित्कस्य स्फोटात्मनोऽर्थप्रत्यायकस्यैकस्याध्यक्ष प्रतिपत्तिविषयत्वेना प्रतिभासनात् / तचाभिन्नावमासमात्रादभिन्नार्थव्यवस्था, अभ्यथा-दूरादविरलानेकतरुष्वेकतरुबुद्धेरेकत्व व्यवस्थाप्रसक्तः। नचाविरलानेकतरुष्वेकत्वबुद्धेर्वाध्यमानत्वात्। नैकत्वव्यवस्थापकत्वम्, स्फोटप्रतिभास-बुद्धेरपि बाध्यत्वस्यदर्शितत्वात्। न चैकत्वावभासः स्फोटसद्भावमन्तरेणानुपपन्नः, वर्णत्वान्त्यवर्ण विषयत्वेनाप्येकत्वावभासस्योपपद्यमानत्वानिरवयव स्याकमस्य नित्यत्वाऽऽदिधर्मो पेतस्य स्फोटस्यैकावभा सज्ञानेनाननुभवात. अन्यथाऽवभासस्य चान्यथाभूतार्थी व्यवस्थापकत्वाद्, व्यवस्थापनेऽतिप्रसङ्गात् / अवयवि द्रव्यं त्ववयवजन्यत्वेन तदाश्रित्वेन चाध्यक्षप्रत्यये प्रतिभासत इति न तन्नयायः स्फोटे उत्पादयितुं शक्यः / तन्न स्फोटाऽऽत्मा शब्दो वर्णेभ्यो व्यतिरिक्तः / अथ तदव्यतिरिक्तोऽसावभ्युपगम्यते, तदा वर्णनानात्वे सन्नानात्वप्रसक्तिः तदेकत्वे वावर्णानामप्येकत्वप्रसक्तिः।३२ गा०टी०। सम्म० 1 काण्ड (मीमांसाकमतोद्धाटन तन्निरसनाऽऽदिविषयस्तु सम्मतिटीकात एव ज्ञेयो, नेह प्रतायते विस्तरभयात्) स्फोटाऽऽख्यते वर्णभेदे च / वाच०स्था०१० ठा०।। फोडकम्म न० (स्फोटकर्मन्) स्फोटः--पृथिव्यादिविदारणम्, एतदेव कर्म स्फोटकर्माध०२ अधि०।स्फोटिभूमेः स्फोटनम्, हल कुद्दालाऽऽदिभिः सैव कर्म स्फोटिकर्म / भ०८ श०५ उ० / स्फोटजीविकायाम, तद्रूपे / कर्माऽऽदानभेदे च / ध०२ अधि०। आ० चू०। उपा०।"फोडीकम्म 'उडत्तेणं हलेणं वा भूमि फोड़ओ।"श्रा० / पञ्चा० / ध० 20 / आव०। प्रव० / स्फोटकर्म वापीकूपतडागाऽऽदिखननम्। यद्वा-हलकुदालाऽऽदि ना भूमिदारणं पाषाणाऽऽदिघट्टनं वा, यवाऽऽदिधान्यानां सक्तवादिकरणेन विक्रयो वा! यदुल्कम् "जवचण्या गोहू-ममुग्गममासकरडिप्पभिइधन्नाणं / सत्थुअदालिकणिका - तदुलकरणाइँ फोडणयं // 1 // अहवा कोडीकम्म, सीरेण भूमिफोडणं जंतु। उत्तणयं च तहा, य सीलकुट्टत्तयं चेति // 2 // " प्रव०६ द्वार / एतच वर्जनीयम् / उक्तं च-"सरःकूपाऽऽदिखननं, शिलाकुडनकर्मभिः / पृथिव्यारम्भसम्भूतैर्जीवनं स्फोटजीविका।।१।।" अनेन च पृथिव्या वनस्पतित्रासाऽऽदिजन्तूनां च धालो भवतीति दोषः स्पृष्ट एव / ध०२ अधि०। फोडजीविया स्त्री० (स्फोटजीविका) स्फोटकर्मणि, ध०२ अधि०। ('वित्ति' शब्देऽषष्टभागे स्फोटजीविकानिषेधं वक्ष्यामि) फोडण न० (स्फोटन) स्फुट-ल्युट् / विदारणे, विकाशने च / वाच०। स्था०२ ठा०१ उ०। व्यञ्जनवासनार्थे राजिकाजीरकादिके वस्तुनि, त्रि। पिं०। फोडय पुं० (स्फोटक) स्फुट्-वुल् / व्रणभेदे, विदारके च / वाच० / स्था०१०ठा०। फोडिअय (देशी) राजिकाधूमितयोः, सिंहाऽऽदिविधौ च / दे० ना०६ वर्ग 88 गाथा। फोडिय त्रि० (स्फोटित) भिन्ने, स्था०५ ठा०१ उ०। विदारिते, स्था० 2 ठा० 130 / औ०। जीरकहिड्डधूपवारिसते व्यञ्जनभेदेच। व्य०१ उ०। फोटीकम्म न० (स्फोटीकर्मन्) 'फोडकाम' शब्दार्थे, ध०२ अधि० भ०। फोफसन० (फोफस)'फुप्फुस' शब्दार्थे , प्रश्न०१आश्र० द्वार। फोफा ( देशी) भीतिपदे शब्दे, दे० ना०६ वर्ग 86 गाथा। फोल्लण न० (फोल्लण) भक्षणे, ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। फोस पुं० (रफ्यस) 'रफ्यस' उत्सर्गे, स्फ्यस्यन्ति-पुरीषमुत्सृजन्त्यनेनेति व्युत्पत्तिः / अपानप्रदेशे, तं० / उद्गमे, दे० ना० 6 वर्ग 86 गाथा। इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु र श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 Hd श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' 5 __फकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् // Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध बकार: ब पुं०(ब) पवर्गमध्यमोऽयं वर्ण औष्ठ्यः / स्पर्शसंज्ञः / बल-डः / सूचने, तन्तुसन्ताने, वयने, वहने, घटे, समुद्रे, यौनो, जने च। वाचका विकल्पे, गगने, गिरी, कलभे, खगगभ, पदे, अल्पे, कर्मणि, विभूतिकारे, विन्दी, बलाऽऽकृष्ट, विमोचने, नले न० / अमले, त्रि०। वल्ल्याम्, काहलायां, शृङ्खलायां च / स्त्री०। एका०। "बो दन्त्यौष्ठयस्तथोष्ठयोऽपि, वरुणे वारुणे वरे। शोषणे यवने गन्धे, वासे वृन्दे च वारिधौ / / 87 // वन्दने वदने वादे, वेदनाया च वा स्त्रियाम्। झञ्झावाते तथा मन्त्र, सर्वमन्त्रे मृताऽऽत्मके।।८८" एका०। बइल्ल पुं० (वलीवर्द) 'गोणाऽऽदयः / / 8 / 2 / 174 / / इति निपातः / प्रा०२ पाद आ०म०। पुंगवे, तं०। बलीवर्दे, दे० ना०६ वर्ग 61 गाथा / बउल पुं० (बकुल) बकुलनामके वृक्षे, ''केसरो बउलो।" पाइ० ना० 254 गाथा। "क-ग-0"||८1१।१७७ / / इति कलुक। बउहारी (देशी) समाजेन्याम, देखना०६वर्ग 67 गाथा। बंक त्रि०(वक्र) कुटिले, स्था०। बंझ त्रि० (बन्ध्य) अनियतकार्यकर्त्तरि, सूत्रा०२ श्रु० 1 अ०। विफले, षो० 12 विव०। स०। अपत्यफलापेक्षया निष्फलायां स्त्रियाम्, नि०१ श्रु०३ वर्ग०३ अ०। ज्ञा० / आ० म० / अर्थशून्ये, सूत्र०१ श्रु०११ अ० / षशित्तममहाग्रहे, सू० प्र०२० पाहु०। कल्प०। पूर्व धीरयति, अयुनर्वन्धकानां कर्मप्रकृतिबन्धश्च अस्मिन् बन्धशब्दे दृष्टव्यः। प्रज्ञा०। बंदि पुं० (वन्दिन्) चारणे, "मंगलपाढय--मागह-चारण वे आलिआ बंदी।" पाइ० ना० 32 गाथा। बंध पुं० (बन्ध) मनुष्यगवादीना रजुदामनकाऽऽदिभिः संयमने, ध०र०। आव०ा आचा०। ज्ञा०। भृत्ये, दे० ना०६ वर्ग 86 गाथा। निगडाऽऽदिभिः संयमने, व्य०६ उ०। श्रा०। पञ्चा०। रज्जवादिबन्धने, ज्ञा०१श्रु०८ अ० प्रश्न०। जं०।जीवस्य कर्मपुदलसंप्लेषे, स०१ सम०। आश्रवनिमित्ते सकषायस्याऽऽत्मनः कर्मवर्गणापुद्गलेः संश्लेषविशेषे सम्म०३ काण्डा अष्टप्रकारकर्मपुरलैः प्रतिप्रदेशं जीवस्या वष्टम्भे, आचा०२ श्रु० 3 चू०१अ01 (कर्मपुद्गलानाम्) विशिष्टरचनयाऽऽत्मनि स्थापने, आव० 3 अ०। जीवकर्मसंयोगे, आ०म०१ अ०।आत्मकर्मणोरत्यन्तं संश्लेषे, उत्त० 1 अ० / प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाऽऽत्मकत्रया कर्मपुगलानां जीवेन स्वव्यापारतः स्वीकरणे, सूत्रा०। णत्थि बंधे व मोक्खे वा, णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि बंधे व मोक्खे वा एवं सन्नं निवेमए / / 15 / / सूत्र०२ श्रु०५ अ०। ('अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे 205 पृष्ठ व्याख्यातम्) कर्मण्णामभिनवग्रहणे, पा०।कर्मपुदलजीव प्रदेशान्योन्याऽऽगमे, दशा० 10 अ० / ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिपुगल योगे, दश० 4 अ०। जीवकर्मयोगे, दश०४ अ०। पं० सू०॥ बन्धसत्वम्तत्र च सर्वबन्धास्त्रा (अ)वनिरोधः अशेषकर्मपरिक्षय सामोपपत्तेः तदेव च निःशेष भवदुःखविटपिदावानलकल्प साक्षन्मोक्षाकरणं, तदूध्यानवांश्चायोगिकेवली निःशेषितनलकलङ्कोवाप्तशुद्धनिजस्वभाव ऊद्धर्वगतिपरिणाम स्वाभाव्यात् निवातप्रदेशप्रदीप शिखावदूद्धर्व गच्छत्येकसमयेन आलोकान्तात् विनिर्मुक्ताऽशेषबन्धनस्य प्राप्तनिजस्वरुपस्याऽऽत्मनो लोकान्तेऽवस्थानं मोक्षः / 'बन्धवियोगो मोक्षः' इति वचनात्। अाच जीवाऽऽजीवयोरागम दिवाऽध्यक्षानुमानतोऽपि सिद्धिः प्रदर्शिता, आश्रषस्याऽपि तथैव, कर्मयोग्यपुद्गलाऽऽल्मप्रदेशानां परस्पराऽनुप्रवेशस्वभावस्य तु बन्धस्याऽनुपलब्धावप्यध्यक्ष तोऽनुमानात्प्रतिपत्तिः। तथा हि-अशेषज्ञेयज्ञानस्वभाव स्याऽऽत्मनः स्वविषयेऽप्रवृत्तिर्विशिष्टद्रव्यसम्बन्धनिमित्ता, पीतहत्पूरपुरुषस्वविषयज्ञानाऽप्रवृत्तिवत्, यच ज्ञानस्य स्वविषयप्रतिबन्धकं द्रव्यं तज्ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदि वस्तु सत्पुद्गलरुपं कर्म, आत्मनश्च सकलज्ञेयज्ञानस्वभावता स्थविषया प्रवृत्तिश्च छद्मस्थाऽवस्थायां प्राक्पदर्शितैव। औदारिकाऽऽद्यशेषशरीरनिबन्धनस्याऽनेकावान्तर भेद भिन्नाऽष्टविधकर्माऽऽत्मकस्य कार्मणशरीरस्य सर्वज्ञप्रणीताऽऽगमात् सिद्धेः कथंन ततो बन्धसिद्धिः? न च कार्मणशरीरस्य मूर्तिमत्वात् सत्वे उपलब्धिः स्यात् अनुपलम्भाचतदसदिति वाच्यमयतोन सर्वे मूर्तिमदुपलभ्यते, सौक्ष्म्यात्। पिशाचाऽऽदिशरीरस्येव औदारिकादिशरीरनिमित्ततयोप कल्पितस्याऽनुपलम्भेऽप्य पहोतुमशक्यत्वात्। कथमनुपलभ्यमानस्याऽस्तित्वं तस्येति चेत्, न; आप्तवादात्तस्य सिद्धेः / न च तदभाव औदारिकाऽऽद्यपूर्वशरीर योग आत्मनः स्यात् / न हि रजवाकाशयोरिव मूर्त्ताऽमूर्तयोर्बन्धविशेषयोगः कार्मणशरीरविनाभूतश्चामुक्तेः सदात्मेति तस्य कथञ्चिन्मूतत्वम् / ततश्च-औदारिकाऽऽशरीरसंबन्धो रजूघटयोरिवोपपत्तिमान् / अथ सूक्ष्मशरीरसिद्धावप्याश्रवनिरपेक्षाः परमाणवो वाय्वादिसूक्ष्म द्रव्यनिमित्तपरमाणुद्रव्यवद्भविष्यन्तीति न बन्धहेत्वाश्रवसिद्धिः, नैतत, कोडीकृतचैतन्यप्रयोजनस्या चेतनस्याऽऽश्रवनिरपेक्ष परमाणुहेतुत्वानुपपत्तेः / नाभ्यन्तरीकृत चैतन्यप्रयोजनस्य आकाशद्रव्याऽऽदेवगिः बुद्धिः शरीराऽऽरम्भाऽऽदिनिरपेक्ष परमाणुजन्यता परस्याऽपि सिद्धा अतः तृष्णानबुद्धस्य चैतन्यस्य मनोवाक्कायव्यापारवतः कर्मवर्गणापुद्रलसचिवस्य कार्मणशरीरनुविद्धस्य तथा विधतच्छरीरनिर्वर्तकत्वम्, अन्यथा तथाविधकारणप्रभवतच्छरीराऽभावे आत्मनो बन्धाऽ भावतः संसारिसत्यविकलं जगत् स्यादेव। तीर्थान्तरीयैरपि आतिवाहिकाऽऽदिशब्दवाच्यतयाऽभ्युपगम्यमानं कार्मणशरीरं सकलदृष्टपदार्था विसंवाद्यर्ह दुत्काऽऽगमप्रति-पाद्यमवश्यमभ्युपगन्तव्यम् / अन्यथा-सकलद्दष्टाऽदृष्टव्यवहारोच्छेद प्रसङ्गःनच-अचेतनस्य तस्य कथं भवान्तरप्रापकत्वम्? चेतनाधिष्ठितस्याऽचेतनस्याऽपि देवदत्त व्यापारप्रयुक्त देशान्तर प्रापणशक्तिमनूनौद्रव्यवद् अचेतनस्यापि तत्प्रापकत्वा विरोधात्। न च सदा चैतन्याऽनुषत्कस्य तस्याऽचेत नव्यपदेशयोगितेति प्राक् प्रतिपादितत्वात्। तदेवम् अनुमानाऽऽगमाभ्यां बन्धस्य सिद्धिः। (63 / गाथा टी०) सम्म०३ काण्ड। Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध एगे बंधे / स्था०। व्याख्या - बन्धन बन्धः, सकषायत्वात् जीवः कर्मण्णो योग्यान् / पुद्रलानादत्ते यत् स बन्ध इति भावः / स च प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावभेदात् चतुर्विधोऽपि बन्धसामान्यादेकः, मुक्तस्य सतः पुनर्बन्धाभावाद्वय एको बन्ध इति / अथवा-द्रव्यतो बन्धो निगडाऽऽदिभिः, भावतः कर्मणा तयोच बन्धनसामान्यादेको बन्ध इति / स्था० 1 टा० / बन्धस्यैव स्वरूपमाह-"प्रवाहतोऽनादिमानिति / " प्रवाहतः परम्परातोऽनादिरान आदिभूतबन्धकालविकलः / अौवार्थे उपचयमाह-''कृतकत्वेऽव्यतीतकालवदुपपत्तिरिति। "कृतकत्वेऽपि स्वहेतुभिर्निष्पादितत्वेऽपि, बन्धस्यातीतका णस्येवोपपत्तिर्घटनाऽनादिमत्त्वस्य वक्तव्या / किमुक्तं भवति प्रतिक्षणं क्रियमाणोऽपि बन्धःप्रवाहापेक्षयाऽऽतीतकाल वदनादिमानेवाध०१ अघि०। बन्धप्रकार: "बंधो दुविहो-दुषयाणं चउप्पयाणं च अडाए अणहाए य। अणट्ठाए न बट्टेइ बंधेउ। अट्ठाए दुविहो-सावेक्खो य, निरवेक्खा य / निरवेक्खो निचलं धणियं जं बंधइ, सावेक्खो जं दामारिणा जं सक्केइ पलीवणगादिसु मुचिउं, छिदिउवा, तेण संचरपासएण बंधेयव्वं, एवं ताव चउप्पयाणं / दुपयाणं पि दासो वा, चोरो वा, पुत्तो वा अपढतगादि जइ वज्झइ तो सविकम्माणि बंधेयव्वाणि, रक्खियव्वाणि य, जहा अग्गिभयादिसु न विणस्सति, ताणिकिर दुपयचोप्पयाणि सावर्गण गेण्हियव्वाणि अबद्धाणि चेव अत्यंति, बहो वि।" आव०६ अ० / आ० चू०। (इत्यादि वह' शब्दे विस्तरतो वक्ष्यते) द्रव्यबन्ध निरूपयन्नाहकइविहे णं भंते! बंधे पण्णत्ते? मागंदियपुत्ता! दुविहे बंधे पण्णत्ते / तं जहा-दव्यबंधे य, भावबंधे य / दव्वबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? मागंदियपुत्ता! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा पओगबंधे य, वीससाबंधे य / वीससाबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? मागंदियपुत्ता! दुविहे पण्णत्ते / तं जहासादीयवी ससावंधे य, अणादीयवीससाबंधे य! पओगवीस साबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? मागंदियपुत्ता! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा सिढिलबंधणबंधे य, धणियबंधणबंधे य। (कइविहे णमित्यादि) (दव्वबंधे य त्ति) द्रव्यबन्ध आगमाऽऽदिभेदादनेकविधः केवलमिहोभयव्यतिरिक्तो ग्राह्यः, स च द्रव्येण स्नेहरज्ज्यादिना द्रव्यस्य वा, परस्परेण बन्धो द्रव्य-बन्धः। (भावबंधेय त्ति) भावबन्ध आगमाऽऽदिभदाद्वधा / सचेह नोआगमतो ग्राह्यः तत्र भावेन मिथ्यात्वाऽऽदिना भावस्य चोपयोगभावभ्यतिरेकाजीवस्य बन्धा भावबन्धः / (पओयबंधे त्ति) जीवायोगेण द्रव्याणां बन्धनम्। (वीससाबंधे यत्ति)। स्वभावतः (साईयवीससाबंधे यत्ति) अभ्राऽऽदीनाम्। (अणाईयवीससाबंधे यत्ति) धर्मास्तिकायाऽऽधर्मास्तिकायाऽऽदीनाम्। (सिढिलबंध- | णबंध यत्ति) तृणपूलिकाऽऽदीनाम् (धणियबंधणबंधे यत्ति) रथचक्राऽऽ- | दीनामिति। भावबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? मागंदिय पुत्ता! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-मूलपगडिबंधे य, उत्तरपगडिबंधे याणेरइयाणं भंते! कइविहे भावबंधे पण्णत्ते? मागंदियत्ता! दुविहे पण्णत्ते / तं जहामूलपगडिबंधे य, उत्तरपगडिबंधे य / एवं ०जाव वेमाणियाणं / णाणावरिणजस्स णं भंते! कम्मस्स कइविहे भावबंधे पण्णत्ते / मागंदियपुत्ता! दुविहे भावबंधे पण्णत्ते / तं जहा-मूलपगडिबंधे य, उत्तरपगडिबंधे य / णेरइयाणं भंते! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कइविहे भावबंधे पण्णत्ते? मागंदियपुत्ता! दुविहे भावबंधे पण्णत्ते / तं जहा-मूलपगडिबंधेय, उत्तरपगडिबंधे य। एवं०जाव वेमाणियाणं णाणावरणिज्जेणं जहा दंडओ भणिओ एवं० जाव अंतराइयं भाणियव्वो। (620) भ० 18 श०३ उ०। प्रेमद्वेषबन्धौदुविहे बंधे पण्णत्ते / तं जहा-पेजबधे चेव, दोसबंधे चेव। (दुविहेत्यादि) प्रेमरागो मायालोभकषायलक्षणो, द्वेष स्तु क्रोधमानकषायलक्षणः / यदाह-''मायालोभकषायश्चेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्रम् / क्रोधो मानश्च पुनर्दोष इति समास निर्दिष्टः॥१॥'इति। प्रेम्णः प्रेमलक्षणचितविकारसम्पादक मोहनीयकर्मापुद्गलराशेर्बन्धनं जीवप्रदेशेषु योगप्रत्ययः प्रकृतिरूपतया प्रदेशरूपतया च संबन्धनं, तथा कषायप्रत्ययतः स्थित्यनुभागविशेषाऽऽपादनं च प्रेमबन्धः। एवं द्वेषमोहनीय सम्बन्धो द्वेषबन्ध इति। उक्त हि-"जोगा पयडिपएस. ठिइ अणुभागं कसायओ कुणइ।।" इति। स्था० 2 ठा०४ उ० / बृ०। आतु०। जीवप्रयोगानन्तरबन्धपरम्परबन्धाःकइविहे गं भंते! बंधे पण्णते? गोयमा! तिविहे बधे पण्णत्ते। तं जहा--जीवप्पओगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे / रइयाणं भंते! कइविहे बंधे पण्णत्ते? एवं चेव / एवं० जाव वेमाणिए / णाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे बंधे पण्णत्ते / तं जहा-जीवप्पओगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे / णेरइयाणं भंते! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते? एवं चेव / एवं० जाव वेमाणियस्स, एवं० जाव अंतराइयस्स! णाणावरणिज्जोदयस्सणं भंते! कम्मस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे बंधे पण्णत, एवं चेव / एवं णेरइयाण वि, एवं० जाव वेमाणिए, एवं० जाव अंतराइओदयस्स। इत्थीवेदस्सणं भंते! कइविहे बंधे पण्णत्ते? एवं चेव असुरकुमाराणं भंते! इत्थीवेदस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते? एवं चेवा एवं० जाववेमाणिए, णवरं जस्स इत्थिवेदो अत्थि, एवं पुरिसवेदस्स विएवं चेव / णपुंसगवेदस्स वि० जाव वेमाणिए। णवरं जस्स जो अत्थि वेदो / दंसणमोहणिज्जस्स णं भंते ! Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध कम्मस्स कइविहे बंधे? एवं णिरंतरं० जाव वेमाणिए / एवं चरित्तमोहणिजस्स वि० जाव वेमाणिए / एवं एएणं कमेणं / ओगलियसरीरस्स० जाव कम्मगसरीरस्स आहारसण्णाए० जाव परिग्गहसण्णाए कण्हलेस्साए० जाव सुक्कलेस्साए सम्मठ्ठिीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छद्दिट्ठीए आभिणि-वोहियणाणस्स० जाव के वलणाणस्स मइअण्णाणस्स सु अअण्णाणस्स विभंगणाणस्य / एवं आमिणिबोहियणाण-विसयस्स णं भंते! कइविहे बंधे पण्णत्ते, जाव० केवलणाण-विसयस्स वि, मतिअण्णाणविसयस्स सुअअण्णाणविसयस्स विभंगणाणविसयस्स, एएसिं पदाणं तिविहे बंधे पण्णत्ते / सवे ते चउवीसदंडगा भाणियव्वा, णवरं जाणियव्वं जस्स जं अस्थि० जाव वेमाणिए। विभंगणाणविसयस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे बंधे पण्णत्ते / तं जहा-जीवप्प-ओगबंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे / / (कइविहे णमित्यादि) (जीवप्पओगबन्धे त्ति) जीवस्य प्रयोगेण मनःप्रभृतिव्यापारेण बन्धः कर्मपुरलानामात्मप्रदेशेषु संश्लेषो बद्धस्पृष्टाऽऽदिभावकरणं जावप्रयोगबन्धः। (अनंतरं बंधे ति) येषां पुगलानां बद्धानां सतामनन्तरः समयो वर्तते तेषामनन्तरबन्ध उच्यते, येषां तु बद्धानां द्वितीयाऽऽदिः समयो वर्तते तेषां परम्परबन्ध इति। (नाणावरणिज्जोदयस्स त्ति) ज्ञानाऽऽवरणीयोदयस्यज्ञानाऽऽवरणीयोदयरूपस्य कर्मण उदयप्राप्तज्ञानाऽऽ वरणीयकर्मण इत्यर्थः अस्य च बन्धो भूतभावापेक्षयेति। अथवा-ज्ञानाऽऽवरणीयतयोदयो यस्य कर्मणस्यत्तथा। ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्म हि किं चित् ज्ञानाऽऽद्यावारकतया विपाकतो वेद्यते किञ्चित्प्रदेशत एवं इत्युदयेन विशेषितं कर्म / अथवा-ज्ञानाऽऽवरणीयोदये यद् बध्यते वेद्यते वा तत् ज्ञानाऽऽवरणीयोदयमेव तस्येत्येवमन्यत्रापि (सम्मट्टिीएत्यादि) ननु "सम्मट्टिीए" इत्यादौ कथं बन्धो दृष्टिज्ञानानान पौलिकत्वात्? अत्रोच्यते-नेह बन्धशब्दे न कर्मपुगलानां बन्धो विवक्षितः, किं तुसम्बधमात्राम् तच जीवस्य दृष्ट्यादिभिर्द्धमः सहास्त्येव जीवप्रयोगबन्धाऽऽदि व्यपदेश्यत्वं च तस्य जीववीर्यप्रभवत्वात् अत एवाभिनिबोधिक ज्ञानविषयस्येत्याद्यपि निरवा, ज्ञानस्यज्ञेयेन सह सम्बन्धविवक्षणादिति। इह संग्रहगाथे"जीवप्पओगबंधे, अणतपरंपरे य बोधव्वे। पगडी 8 उदये 8 वेदे 3, दसण मोहे चरित्ते य॥१॥ ओरालियबेउव्विय--आहारगतेयकम्मए चेव। सण्णालेसादिट्ठी३, नाणा५ऽनाणेसु३ तस्विसए 8 // 2 // भ० 20 श०७उ०। चतुर्विधबन्धःचउविहे बंधे पण्णत्ते। तं जहा-पगइबंधे, ठिइबंधे अणुभागबंधे, पएसबंधे / स०४ सम० / स्था० श्रा०। बन्धव्याख्यानं संप्रति यदुत्कम--'वुच्छे बंधविहसामीय त्ति तन्निर्वाहणार्थ बन्धविधानं व्याचिव्यासुराह - (बंधो पयइटिइरसपएस त्ति / 21 | गाथा) बन्धशब्दस्य प्रत्येकमभिरसम्बन्धात्प्रकृतिबन्धः, स्थितिबन्धः रसबन्धः प्रदेशबन्ध इति अमुना प्रकारेण बन्ध चतुर्धा भवति / तत्र स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धानां यः समुदायः स प्रकृतिबन्धः, अध्यवसायविशेषगृहीतस्य कर्मदलिकस्य यत् स्थितिकालनियमनं स स्थितिबन्धः, कर्मपुद्गलानामेव शुभोऽशुभो वा घात्यघाती वा यो रसः सोऽनुभागबन्धो रसबन्ध इत्यर्थः / कर्मपुद्रलानामेव यद्ग्रहणं स्थितिरसनिरपेक्षं दलिकसंख्याप्राधान्येनैव करोति स प्रदेशबन्धः। उत्कं च"ठिइबंध दलस्स ठिई, पएसंबंधो पएसगहणं जं। ताण रसो अणुभागो, तस्समुदाओ पगइबंधो॥१॥" अन्यत्राप्युत्कम्"प्रकृतिः समुदायः स्यात्, स्थितिः कालावधारणम्। अनुभागो रसः प्रोत्कः, प्रदेशो दलसञ्चयः॥१॥" कर्म० 5 कर्म० / (एते प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धाः कम्म' शब्द तृतीयभागे 283 पृष्ठे दर्शिताः) अथैकैकाध्यवसायगृहीतकर्मपुदलद्रव्यस्य यस्मिम् कर्मणि यावन्मात्रो भागो भवतीत्येतदभिधित्सुराह-थेवो आउ तदसो त्ति) इहाष्टविधबन्धकेन जन्तुना यदेकेनाध्यवसायेन विचित्रातागर्भेण गृहीतं दलिकं तस्याष्टी भागा भवन्ति, सप्तविधवन्धकस्य सप्त भागाः, षड्विबन्धकस्य षड् भागाः, एकविधबन्धकस्यैको भागः / ता यदायुर्वन्धकालेऽष्टविध बन्धको जन्तुर्भवति तदा शेषकर्मस्थित्यपेक्षयाऽऽयुषोऽल्पस्थितित्वेन गृहीतस्य तस्यानन्तस्कन्धाऽऽत्मककर्मद्रव्यस्यांशोभागः सर्वस्तोकः आयुष्करूपतया परिणामति / ततो नाम्नि गात्रे च तुल्यस्थितित्वेन स्वस्थाने द्वयोरपि भागः समः / ततः आयुष्कभागवधिकोविशेषाधिक इति // 76 || विग्घाऽऽवरणे मोहे, सव्वोवरि वेयणीय जेणप्पे। तस्स फुडत्तं न हवइ, ठिईसेसेण सेसाणं / / 8 / / विघ्न स्यान्तरायस्य आवरणयोर्ज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणयोर्भागः, समः स्वस्थाने त्रयाणामपि तुल्यस्थितिकत्वात् / नामगोत्रापेक्षया त्वधिकोविशेषाधिक इत्यर्थः / ततोऽन्तरायज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणभागान्मोहे-मोहनीये भागोऽधिको विशेषाधिकः / ननु तर्हि वेदनीयस्य किंरुपो भागो भवतीत्याह-सर्वोपरि वेदनीये स्वकर्मभागोपरिष्टाद्विशेषाधिको भागो भवति। इदमुक्तं भवति शेषकर्मापेक्षया तावन्मोहनीयस्योपरि भागः उक्तः वेदनीयस्य पुनर्मोहनीय भागादपि सकाशादुपर्येव भागः। अत्र विनेयः पृच्छतिकिं पुनरहि कारण येनोत्कक्रमेण कर्मणां भागाऽऽधिक्यं भवतीति। अत्र वेदनीयस्य तावद्भागाऽऽधिक्ये कारणमाह- "तस्स फुडत्तं न हवइ त्ति' येन कारणेनाल्पेस्तो-केदलिके सति तस्य वेदनीयस्य कर्मणः स्फुट-त्वंसुखदुः खानुभवव्यक्तिरिति यावत्। (न-नैव भवति-जायते। एतदुक्तं भवति-सुखदुःखजननस्वभावं वेदनीयं कर्म तद्भावपरिणताश्च पुद्रलाः स्वभावात्प्रचुरा एव सन्तः स्वकार्य सुखदुःखरूपं व्यक्तीकर्तुं समर्थाः, शेषकर्मपुरला पुनःस्वल्पा अपि स्वकार्य निष्पादयन्ति / दृश्यते च पुदलानां स्वकार्यजननेऽल्पबहुत्वकृतं सामर्थ्यवैचित्र्यम / यथा Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध - हि-घृष्टवादिकदशनं बहुतरमुपभुक्तं तृप्तिलक्षणं स्वकार्यमातनोति मूद्रीकाऽऽदिकं त्वल्पमपि भुक्तं तृप्तिमुपकल्पयति। यथा विषं स्वल्पमपि मारणाऽऽदिकार्य साधयति, लेष्टुकाऽऽदिकं तु प्रचुरमित्येवमिहापि उपनयः कार्यः / तस्मात्प्रभूतावेदनीय-पुद्रलाः सुखदुःखे साधयन्तीति सुखदुःख स्फुटत्वकारणा-द्वेदनीयस्य महान इति स्थितम्। शेषकर्मणा भागस्य हीनाधिकत्वे कारणमाह-(ठिईविसेसेण सेसाणं ति) वेदनीयाच्छेषकर्मणामायुष्काऽऽदीना भागस्य हीनत्वमाधिक्यं वा विज्ञेयम्। केनेत्याह स्थितिविशेषेण हेतुभूतेन यस्य नामगोत्राऽऽदेरायुष्काऽऽद्यपेक्षया महती स्थितिस्तस्य तदपेक्षया भागोऽपि महान्, यस्य त्वसौ हीना तस्य सोऽपि हीन इति भावः। ननु स्थित्यनुरोधेन भागो भवषायुषः सकाशाजामगोत्रायो वः संख्यातगुण प्राप्रोति तत्किमित्युक्त विशेषाधिक इति? सत्यमेतत्, किं तु सर्वो ऽपि नरकगत्यादिकर्मकलाप आयुष्कोदयमूलः तदुदय एव तस्योदयात्, अत आयुष्कं प्रधानत्वाद्बहुपुद्रलद्रव्यं लभते। यद्येवं तदपेक्षया-प्रधानत्वान्नामत्रयोर्भागस्य विशेषाधिकत्वमयुक्तमिति। सत्यमेतत्, किंतुनामगोत्रो सततबन्धिनी, ततस्त दपेक्षया बहुद्रव्यमाप्नुतः, आयुष्कं तु कदाचित्कबन्धत्वादल्पद्रव्यमाप्रोति। इदमुक्तं भवति-स्थित्वनुसारेण संख्यातगुणहीनताप्राप्तावपि शेष कर्मोदयाऽऽ क्षेपकत्वेन प्रधानत्वान्नामगोगापेक्षया किंचिदूतमेव भागमायुष्कं लभते, नामगोत्रो त्वप्रधानतया हीनताप्राप्तावपि सततबन्धित्वादायुष्कापेक्षया। विशेषाधिकमेव भागं लभते / ननु तथापि ज्ञानाऽऽवरणाऽऽद्यपेक्षया मोहनीयस्य संख्यातगुणो भागः प्राप्रोति, तत्स्थितेानाऽऽवरणीयाऽऽदिस्थित्यपेक्षया संख्यातमुणात्वात्, अतः कथं विशेषाधिक उक्तः? सत्यं, दर्शनमोहनीलक्षणाया एकस्या एव मिथ्यात्वप्रकृतेः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीलक्षणा स्थितिरुक्ता, चारित्रमोहनीयस्य तु कषायलक्षणस्य चत्वारिंशत्सागरोपभ कोटीकोटीलक्षणैव स्थितिः, अतस्तदनुसारेण विशेषाधिक एव तद्भाग उक्तो न तु संख्यातगुणः / दर्शनमोहनी अद्रव्यं तु सर्वमेव चारित्रमोहनीयदलिकात् सर्वघातित्वे नानन्तभाग एवं वर्तत इति न किञ्चित्तेन वर्धत इति।युक्तिमात्रां चैतत्, निश्चयस्तु श्रीसर्वज्ञवचनप्रामाण्यादेवातीन्द्रियार्थप्रतिपत्तिः। भवत्येवंतथाऽप्येकस्मिन् समये गृहीतद्रव्यस्य कथमटधा परिणामः कथं चैव भागाऽऽदिकल्पनेति चेदुच्यते-अचिन्त्यत्वाज्जीवशक्ते विचित्रात्वाच्च पुद्गल परिणामस्य जीवव्यतिरिक्तानामपि ह्यभ्रेन्द्रधनुरादिपुद्गलानां विचित्रा परिणतिरवलोक्यते किमुत जीवपरिगृहीता नामित्यलं विस्तरेणेति / / 80 // मूलप्रकृतीनां भागप्तरूपणा। ___साम्प्रतमुत्तरप्रकृतीनां भागप्ररूपणां चिकीर्षुराह - नियजाइलद्धदलिया-णतंसो होइ सव्वघाईणं। वज्झंतीण विभञ्जइ, सेसं सेसाण पइसमयं / / 1 / / यत्र यत्र प्रकृतयो यस्यां यस्यां मूलप्रकृतौ पठिता विद्यन्ते, तासां सैव प्रकृतिर्निजजातिर्विज्ञेया / तया तया निजनिजमूलप्रकृतिरूपया निजजात्या यल्लब्धं प्राप्तं दलिकाग्रं यस्य योऽनन्तांश:-अनन्तभागः सर्वघातिरयुक्तः स एव सर्वघातिनीनां प्रकृतीनां केवलज्ञानाऽऽवरणकेवलदर्शना ऽऽवरणनिद्रापञ्चकमिथ्यात्वसंज्वलनवर्जद्वादशकषायलक्षणानां विंशतिसंख्यातामपि भवति-जायते / काऽत्रा युक्तिरिति चेदुच्यते-इहाष्टानामपि मूलप्रकृतीनां प्रत्येकं यं स्निग्धतराः परमाणवस्ते स्तोकाः ते च स्वस्वमूलप्रकृतिपरमाणूनामनन्ततमो भागः, त एव च सर्वघतिप्रकृतियोग्याः, तस्मिंश्चानन्ततमे भागे सर्वघातिरसयुक्तंऽपसारिते शेषस्य दलिकस्य देशघातरसोपेतस्य का वातत्याह-(वज्झती च विभज्जइ इत्यादि) बध्यमानानां न त्वबध्यमानानां विभज्यतेविभागीक्रियते विभज्य विभज्य दीयत इत्यर्थः। शेषं सर्वघाति प्रकृत्यनन्तभागावशिष्ट प्रदेशाग्रम्। कासाबध्यमानानां विभज्यत इत्याह शेषाणां सर्वधातिप्रकृत्यवशिष्टानाम्। कथमित्याह-प्रतिसमयंप्रतिक्षणं बन्धनविभजनक्रिययो रुभयोरपि क्रियाविशेषणमिदं योजनीयम् / अयमत्रा तात्पयर्थिः-इह ज्ञानाऽऽवरणस्य पञ्च तावदुत्तरप्रकृतयः तासु चैका केवलज्ञानाऽऽवरणलक्षणा सर्वघातिनि, शेषाश्चतस्रो देशघातिन्यः, तत्रा ज्ञानाऽऽवरणस्य भागे यद्दलिकमायाति तस्य यदनन्तभागवर्विसर्वघातिरसोपेतं द्रव्यं तत्केवलज्ञानाऽऽवरणस्यैव भागतया परिणमति, शेष तु देशघातिर सोपेतं द्रव्यं चतुर्धा विभज्यते, तच मतिज्ञानाऽऽवरणश्रुत ज्ञानाऽऽवरणमनः पर्यायज्ञानाऽऽ वरणेभ्यो दीयते। दर्शनाऽऽवरणस्य च नवोत्तरप्रकृतयः,तासुचकेवलदर्शनाऽऽवरण निद्रापञ्चकचेति षट् सर्वधातिन्यः, शेषास्तिस्रो देशधातिन्यः, तत्र दर्शनाऽऽवरणस्य भागे यद्रव्यमागच्छति तस्यमध्येयत्सर्वघातिरसोपेत मनन्ततम भागवर्तिद्रव्या षभिभागैर्भूत्वा सर्वघातिंप्रकृतिषट्करूपतयैव परिणामति, शेषं तु देशघातिरसयुक्तं द्रव्यं शेषप्रकृतित्रायभागरूपतयेति / वेदनीयस्य पुनः सातरूपाऽसातरूपा वैकैच प्रकृतिरेकदा बध्यते, न युगपदुभे अपि, सातासातयोः परस्पर विरोधात्, अतो वेदनीयभागलब्धं द्रव्यमेकस्या एव बध्यमानायाः प्रकृतेः सर्व भवति। मोहनीयम्य स्थित्यनुसारेण यो मूलभागः आभजति तस्यानन्ततमो भागः सर्वघातिप्रकृतियोग्यो द्वधा क्रियते, अर्धदर्शनमोहनीस्थार्ध चारित्र मोहनीयस्य तत्रार्धदर्शमोहनीयसक्तं समग्रमपि मिथ्यात्वमोहनीयस्य ढोकते, चारित्रमोहनीयस्य तु सत्कमधू द्वादशधा क्रियते, तेच द्वादशभागा आद्येभ्यो द्वादशकषायेभ्यो दीयन्ते, स्वस्थाने तु कषायद्वादशकस्यापि तुल्यं, शेषं तु देशघातिरससमन्वितं द्रव्यं द्विधा क्रियते, तौको भागः कषायमोहनीयस्य, द्वितीयो नोकषायमोहनीयस्य / तत्र कषायमोहनीयस्य भागश्चतुर्धा क्रियते, ते चत्वारोऽपि भागाः संज्वलनकोधमानमायालोभानां दीयन्ते। नोकषायमोहनीयस्य पुनर्भागः पञ्चधा क्रियते, ते च पञ्चापि भागा यथाक्रमं त्रयाणां वेदानामन्यस्मै वेदाय बध्यमानाय, हास्यरतियुगलारतिशोक युगलयोरन्यतरस्मै पुगलाय, भयजुगुप्साभ्यां च दीयन्ते, नान्येभ्यः, बन्धाभावात् / न हि नवापि नो कषाया युगपद्वन्धमायान्ति, किंतु यथोक्ताः पञ्चैव। आयुषस्तु भागे यद्रव्यमागच्छति तत्सर्वमेकस्या एव बध्यमानप्रकृतेर्भवति, यत आयुष एकस्मिन्काले एकैव प्रकृतिबंध्यत इति। नामकर्मणो भामभावना कर्म Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध -- प्रकृत्यभिप्रायेण दर्श्यते / तत्रेयं गाथा"पिंडपगईसु वज्झ-तिगाणा वन्नगंधरसफासाणं / सव्वेसिं संघाए, तणुम्मि य तिगे चउक्के वा // 1 // अस्या अक्षरार्थगमनिका-पिण्डप्रकृतयो-नामप्रकृतयः / यदुक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णो-"पिंडपगईओ नामपगाईओ त्ति / तासु मध्ये बध्यमानानामन्यतप्रगति जाति शरीरबन्धन संहघातनसंहननसंस्थानाङ्गोपाङ्गानु पूर्वीर्णा वर्णगन्धसस्पर्शागुरुलघुपराघातोपघातोच्छवासनिर्माणतीर्थ कराणाम् आतपोदद्योत प्रशस्ताप्रशस्त विहायोगतित्रस स्थावरबादरसूक्ष्मपर्याप्ता पर्याप्तप्रत्येक साधारण स्थिरास्थिर शुभाशुभसुभग दुर्भग सुस्वर दुःस्वरादेयानाऽऽदेययशः कीर्त्ययश: कीर्त्यन्तराणां च मूलभागो विभज्य समर्पणीयः / अौव विशेषमाह - (वर्णोत्यादि) वर्णगन्धरसस्पर्शानां प्रत्येक यद्भागलब्धं दलिकमायाति तत्सर्वेभ्यस्तेषा मेवावान्तरभेदेभ्यो विभज्य विभज्य दीयते। तथाहिवर्णनाम्नो यद्गागलब्धं दलिकं तत्पञ्चधा कृत्वा शुक्लाऽऽदिभ्योऽवान्तरभेदेभ्यो विभज्य विभज्य दीयते, एवं गन्धरसस्पर्शानामपि यस्य यावन्तो भेदास्तस्य संबन्धिनो भागस्थततिभागाः कृत्या तावदभ्योऽवान्तरभेदेभ्यो दातव्याः। तथा संघाते तनौ च प्रत्येकं यद्भागलब्धं दलिक मायातितत्रिधा चतुर्धा वा कृत्वा त्रिभ्यश्चतुभ्यो वा दीयते। तत्रौदारिकतैजसकार्मणानि वैक्रियतेजसकर्माणानि वा त्रीणि शरीराणि संघातान् वा युगपद्वघ्नता त्रिधा क्रियते, वैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्मण रुपाणि चत्वारि शरीराणि संघातान् वा बध्नता चतुर्धा क्रियते। सत्तेकार विगप्पा बंधण नामाण' बन्धननाम्नां भागलब्धं यहलिकमायाति तस्य सप्त विकल्पाः-सप्त भेदाः शरीराये, एकादश वा विकल्पाः शरीरचतुष्टये क्रियन्ते / तत्रौदारिकौदारिक-१ औदारिकतैजस 2 औदारिककार्मणा 3 औदारिकतैजसकार्मण 4 तैजसतैजस 5 तैजसकार्मणा 6 कार्मणकार्मण 7 लक्षणबन्धनानि बनता सप्त, वैक्रियचतुष्काऽऽ हारकचतुष्कतैजसत्रिकलक्षणान्येकादश बन्धनानि बध्नता एकादश, अवशेषाणां च प्रकतीनां यद्भागलब्ध दलिकमायाति तन्न भूयो विभज्यते, तासां युगपदवान्तरद्वित्र्यादिभेदबन्धा भावात्, तेन तासां तदेव परिपूर्णे दलिक भवतीति। गोत्रस्य तु यद्भागाऽऽगतं द्रव्यं तदेकस्या एव बध्यमानप्रकृतेः सर्वं भवति, यगोत्रस्यैकदा उच्चैर्गोत्रलक्षणा नीचैर्गोत्रलक्षणा यैकैव प्रकृतिर्वध्यते। अन्तरायभागलब्धं तु द्रव्यं दानान्तरायाऽऽदिप्रकृतिपञ्चकतया परिणमति, यत एताः पञ्चापि ध्रुवबन्धित्वासर्वदैव बन्धन्त इति / ननु "वज्झं तीण विभज्जइ त्ति वचनेन बध्यमानानामेवायं भागवि, धिरुक्तः, यदा च स्वस्वगुणस्थाने बन्धव्यवच्छेदः संपद्यते तदा तासां भागलब्धं द्रव्यं कस्या भागतया भवतीति, अत्रोच्यते-यस्याःप्रकृतेर्बन्धो व्यवच्छिद्यते तद्भागलब्धं द्रव्यं यावदेकाऽपि सजातीयप्रकृतिर्वध्यते तावत्तस्या एव तद्भवति। यदा पुनः सर्वासामपि सजातीयप्रकृतीनां बन्धो व्यवच्छिन्नो भवति न च मिथ्यात्वस्येवापरा सजातीया प्रकृतिरस्ति तदा तद्भागलभ्य द्रव्यं सर्वमपि मूलप्रकृत्यन्तर्गताना विजातीय प्रकृतीनामपि भवति। यदाताअपि व्यवभवन्ति तदा तद्दलिक सर्वमध्यन्यस्या मूलप्रकृतेः संपद्यते / निदर्शनं चात्र तथा स्त्यानलिशिकस्य बन्धव्यवच्छेदे तद्भागलभ्यं द्रव्यं सर्वमपि सजातीययोः निद्राप्रचलयोर्भवति तयोरपिबन्धविच्छेदे सति स्वमूलप्रकृत्यन्तर्गतानां चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणाऽऽदीना विजातीया नामपि भवति, तेषामपिच बन्धे विच्छिन्ने उपशान्तमोहा ऽऽद्यवस्थाया निःशेष सातवेदनीयस्यैव भवति। मिथ्यात्वस्य तु बन्धविच्छेदे सति सजातीयाभावातद्भगलभ्यं दलिकं सर्वे विजातीयानामेव क्रोधाऽऽदीनाद्यद्वादशकषायाणा भवतीत्यनया दिशा तावन्नेय यावात्सूक्ष्मसंपरायगुणस्थाने मोहनीयस्य भागलभ्यं द्रव्य षट्भागतया भवति, तत ऊद्धर्वमुपशान्ताऽऽद्यवस्थायां सर्वथा शेषमूलप्रकृतीनां बन्धविच्छेदे तद्भागलभ्यं द्रव्यं सर्व सातवेदनीयस्यव भागतया भवतीति। अत्रौव कर्मप्रकृति टीकाकारोपदर्शितं स्वस्वोत्तर प्रकृतीनामुत्कृष्टपदे जघन्यपदे चाल्पबहुत्वं विनेयजनानुप्रहाय प्रदर्श्यतेतत्रोत्कृष्टपदे सर्वस्तोकं प्रदेशाप्रकेवलज्ञानाऽऽ वरणस्य, ततो मनःपर्यवज्ञानाऽऽवरणस्यानन्तगुणं ततोऽवधिज्ञानाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं ततः श्रुतज्ञानाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं, ततो मतिज्ञानाऽऽवरणस्य विशेषाधिकम्, तथा दर्शनाऽऽवरणे उत्कृष्टपदे सर्वस्तोकं प्रचलायाः प्रदेशाग्रं, ततो निद्राया विशेषाधिक, ततः प्रचलाऽप्रचलाया विशेषाधिक, ततो निद्रानिद्राया विशेषाधिक, ततः स्त्यानद्धर्विशेषाधिकं, ततः केवलदर्शनाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं, ततोऽवधिदर्शनाऽऽवरणस्यानन्तगुणं ततोऽचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणस्य विशेषाधिक, ततश्चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं, तथा सर्वन्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रमसातवेदनीयस्य, ततः सातवेदनीयस्य विशेषाधिकम्।तथा मोहनीये सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रमप्रत्याख्यानाऽऽवरणमानस्य, ततोऽप्रत्याख्यानावरणक्रोधस्य विशेषाधिकं, ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणमाया विशेषाधिकम, ततोऽप्रत्याख्यानावरणलोभस्य विशेषाधिकं, ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणमानस्य विशेषाधिकं. ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणक्रोधस्य विशेषाधिक, ततः प्रत्याख्यानाssवरणमायाया विशेषाधिकं, ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणलोभस्य विशेषाधिक, ततोऽनन्तानुबन्धिमानस्य विशेषाधिकं, ततोऽनन्तानुवन्धिक्रोधस्य विशेषाधिकं, ततोऽनन्तानुबन्धिमायाया विशेषाधिक, ततोऽनन्तानुबन्धिलोभस्य विशेषाधिकम्, ततोमिथ्यात्वस्य विशेषाधिकम, ततो जुगुप्साया अनन्तगुणं, ततो भयस्य विशेषाधिकम्, ततो हास्यशो-कयोर्विशेषाधिकं, स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यम्, त् पुनः तो रत्यरत्योर्विशषाधिकं, तयोः पुवः स्वस्थाने तुल्यम्, ततः स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोर्विशेषाधिकं, स्वस्थाने तु परस्परं द्वयोरपि तुल्यम्. ततः संज्वलनक्रोधस्य विशेषाधिकं, ततः संज्वलनमानस्य विशेषाधिकम्, ततः पुरुषवेदस्य विशेषाधिकम्, ततः संज्वलनमायाया विशेषाधिकं, ततः संज्वलनलोभ स्यासंख्येयगुणम्, तथा चतुर्णानप्यायुषामुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्र (सर्वस्तोक तिर्यडमनुष्याऽऽयुषोः स्वस्थाने तु परस्पर तुल्यं, ततो देवनारकाऽऽयुषोरसंख्येयगुणं स्वस्थाने) परस्परं तुल्यम, नामकर्मण्युक्तकृष्टपदे प्रदेशानां गतौ देवगतिनर Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध कगत्थोः सर्वस्तोक, स्वस्थाने तु द्वयोरपि तुल्यम्, ततो मनुजगतो विशेषाधिकं, ततस्तिर्यग्नता विशेषाधिकम्। तथा जातौ चतुर्णा द्वीन्द्रियाऽऽदिजातिनाम्रामुत्कृष्टपद प्रदेशाऽग्रसर्वस्तोकं, स्वस्थानेतुतेषां परस्पर तुल्यं, तत एकेन्द्रियजातेर्विशेषाधिकम् / तथा शरीरनानि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रमाहारकशरीरस्य, ततो वैक्रियशरीरस्य विशषाधिकं, तत औदारिकशरीरस्य विशेषाधिक, ततस्तैजसशरीरस्य विशेषाधिकं ततः कार्मणशरीरस्य विशेषाधिकम्। एवं संघातनाम्रोऽपि द्रष्टव्यम्। तथा बन्धननामि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशागमाहारकाऽऽहारकबन्धननाम्रः, तत आहारकतैज सबन्धननाम्रो विशेषाधिकम्। तत आहारककार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिक. तत आहारकतैजसकार्मणवन्धननाम्नो विशेषाधिक, ततो वैक्रियवैक्रियबन्धननाम्नो विशेषाधकं, ततो वक्रियतजसबन्धननाम्रो विशेषाधिकं, ततो वैक्रियकार्मणयन्धनना नो विशेषाधिकं, ततो वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकं, तत औदारिकौदारिबन्धननाम्नो विशेषाधिक तत औदारिकतैजसम्बन्धननाम्नो विशेषाधिक, तत औदारिकंकामणबन्धननाम्रो विशेषाधिकं, तत औदारिकतैजसकार्मणबन्धननाम्रो विशेषाधिकं, ततत्तैजसतैजसबन्धननाम्रो विशेषाधिक, ततस्तैजसकार्मणबन्धननाम्रो विशेषाधिक, ततः कार्मणकार्मणबन्धननानो विशेषाधिकम्। तथा संस्थाननानि संस्थानानामाद्यन्तवर्जानां चतुर्णामुत्कृष्ट पदे प्रदेशाग्रं सर्व स्तोक, स्यस्थाने तु तेषां परस्परं तुल्य, ततः समचतुर ससंस्थानस्य विशेषाधिक, ततो हुण्डसंस्थानस्य विशेषाधिक, तथाऽङ्गापाङ्गनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशागमाहार काङ्गोपाङ्गनाम्नः ततो वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाभ्रो विशेषाधिकं, ततोऽप्यौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्रो विशेषाधिकम् / तथा संहनननानि सर्वस्तोकमाद्यानां पञ्चानां संहननानामुत्कृष्टपदे प्रदेशाग, स्वस्थाने तु तेषां परस्परंतुल्यं, ततः सेवार्तसंहननस्य विशेषाधिकम्। तथा वर्णनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं कृष्णवर्णनाम्नः, ततो नीलवर्णनाम्नो विशेषाधिक, ततोलोहित वर्णनाम्नो विशेषाधिकं,ततो हारिद्रवर्णनाम्नो विशेषाधिकं, ततः शुक्लवर्णनाम्नो विशेषाधिकम्। तथा गन्धनाम्नि सर्वस्तोक सुरभिगन्धनाम्नः, तता दुरभिगन्धनाम्नो विशेषाधिकम् / तथा रसनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशागं कटुरसनाम्नः, ततस्तिक्तरसनाम्नो विशेषाधिकं, ततः काषायरसनाम्नो विशेषाधिकं, ततोऽम्लरसनाम्नो विशेषाधिक, ततो मधुरसनाम्नो विशेषाधिकम् / तथा स्पर्शनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्ट पदे प्रदेशाग्रं कर्कशगुरुस्पर्शनाम्नोः, स्वस्थानं द्वयोरपि परस्परं तुल्यं, ततः स्निग्धोष्णस्पर्शनाम्नोर्विशेषाधिकं, स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यम् / तथाऽऽनुपूर्वी नाम्नि | सर्वतॊकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्र देवगतिनरकगव्यानुपूर्योः, स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यं, ततो मनुजगत्यानुपूा विशेषाधिक, ततस्तिर्यग्गत्यानुपूा विशेषाधिकम्। तथा विहायोगतिनानम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्र प्रशस्तविहायोगतिनाम्नः, ततोऽप्रशस्तविहायोगतिनाम्नो विशषाधिकम्।तथा सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रंासनाम्नः, ततो विशेषाधिक स्थावरनाम्नः / एवं बादरसूक्ष्मयोः पर्याप्तापर्याप्तयोः प्रत्येकसाधारणयोः स्थिरास्थिरयोः शुभाशुभयोः सुभगदुर्भगयोः सुस्वरदुःस्वरयोरादेयाना देययोर्यशः कीर्त्ययशः कीयोर्याच्यम्। आत पोदद्योतयोरुत्कृष्टपदे प्रदेशागं सर्वस्तोक, स्वस्थाने तुद्वयोरपि तुल्यम्। निर्माणोंच्छावासपराघातोपघानागुरुलघुतीर्थकराणां त्वल्पबहुत्वं नास्ति, यत इदमल्पबहुत्वं सजातीयप्रकृत्य पेक्षया प्रतिपक्ष प्रकृत्यपेक्षया वा चिन्त्यते, यथा कृष्णाऽऽदिवर्णनाम्नः शेषवर्णोपेक्षया, प्रतिपक्षप्रकृत्यपेक्षया वा यथा सुभगदुर्भगयोः, न चैताः परस्परं सजातीया अभिन्नैकमूलपिण्डप्रकृत्यभावात्, नापि विरुद्धा युगपदपिबन्धसंभवात्। तथा गोोसर्वस्तोक मुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं नीचैर्गोत्रस्य, तत उच्चैर्गोत्रस्य विशेषाधिकम् / तथाऽऽन्तरायकर्मणि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं दानान्तरायस्य, ततो लाभान्तरानस्य विशेषाधिकं, ततो भोगान्तरायस्य विशेषाधिकं, तत उपभोगाऽन्तरायस्य विशेषाधिकं ततो वीर्यान्तरायस्य विशेषाधिकम् / तदेवमुक्तमुत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्राल्पबहुत्व, संप्रति जघन्यपदे तदभिधीयते-तत्रा सर्वस्तोक जघन्यपदे प्रदेशाग्र केवलज्ञानाऽऽवरणस्य, ततो मनःपर्यवज्ञानाऽऽवरणस्यानन्तगुणं ततोऽवधिज्ञानाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं ततः श्रुतज्ञानाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं, ततो मतिज्ञानाऽऽवरणस्य विशेषाधिकम्। तथा दर्शनाऽऽवरणस्य सर्वस्तोक जघन्यपदे प्रदेशाग्रं निद्रायाः, ततः प्रचलाया विशेषाधिकं, ततो निद्रानिद्राया विशेषाधिकं, ततः प्रचलाप्रचलाया विशेषाधिकं, ततः स्त्यानर्द्ध विशेषाधिकं, ततः केवलदर्शनाऽऽवरणस्य विशेषाधिकं, ततोऽवधिदर्शनाऽऽवरणस्यानन्तरगुणं ततोऽच क्षुर्दर्शनाऽऽवरणस्य विशेषाधिक, ततश्चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणस्य विशेषाधिकम्। तथा मोहनीयं सर्वस्तोकं जघन्यपदे प्रदेशाग्रमप्रत्याख्यानाऽवरणामानस्य, ततोऽप्रत्याख्यानाऽ वरणक्रोधस्य विशेषाधिकं, ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणमाया विशेषाधिक, ततोऽप्रत्याख्याना ऽऽवरणलोभस्य विशेषाधिकम् / तत एवमेव प्रत्याख्यानाऽऽवरण मानक्रोधमायालोभानन्तानु वन्धिमानक्रोधमायालोभाना यथोत्तरं विशेषाधिक वक्तव्यम् / ततो मिथ्यात्वस्य विशेषाधिकम्। ततो जुगुप्साया अनन्तगुणम्। ततो भयस्य विशेषाधिकम् / ततो हास्य-शोकयोर्विशेषाधकं, स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परतुल्यम्। ततो रत्यरत्योर्विशेषाधिकं, स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यम्। ततोऽन्यतरवेदस्य विशेषाधिकम्। ततः संज्वलनमानक्रोधमायालोभानां यथोत्तरं विशषाधिकम्। तथाऽऽयुपि सर्वस्तोक जघन्यपदे प्रदेशाग्रंतिर्यडमनुष्याऽऽयुषोः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यं, ततो देवनारकाऽऽयुषारसंख्येयगुणं स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यम्। तथा नामकर्मणि गती (सर्वस्तोक) जघन्यपदे प्रदेशागंतिर्यगतेः ततो मनुजगतेर्विशेषा-धिकं, ततो देवगतेरसंख्येयगुणं, ततो नरकगतेरसंख्येयगुणम् / तथा जातौ सर्वस्तोकं जघन्यपदे प्रदेशाग्रं चतुर्णी द्वीन्द्रियाऽऽदिजातिनाम्ना, तत एकेन्द्रियजाते विशेषाधिकम्। तथा शरीरनानि सर्वस्तोकमौदारिकशरीरनामः, ततस्तैजसशरीरानाम्नो विशेषाधिक, ततः कार्मणशरीरनाम्नो विशेषाधिकम, ततो वैक्रियशरीरनाम्नोऽसङ्ख्येयगुणम्। ततोऽप्याहारशरीरनाम्नोऽसंख्येयगुणम्। एवं सघातनाम्नोऽपि वाच्यम् / अङ्गोपाङ्गनाम्नि सर्वस्तोक जघ Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1170- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध न्यपदे प्रदेशाग्रमौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम्नः, ततो वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नोऽसंख्ये यगुणं, ततोऽप्याहारकाङ्गोपाङ्गनाम्नोऽसंख्येयगुणम् / तथा सर्वस्तोक जधन्यपदे प्रदेशांग्र नरकगति देवगत्वानुपूर्योः स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यं, ततो मनुजानुपूया विशेषधिकं, ततस्तिर्यग्गत्थानुपूर्व्या विशेषाधिकम्। तथा सर्वस्तोकं असनाम्नः, ततः स्थावरनाम्नो विशेषाऽधिकम्। एवं वादरसूक्ष्मयोः पर्याप्तापर्याप्तोः प्रत्येक साधारणयो श्व शेषाणांतुनामप्रकृतीनामल्यबहुत्वं न विद्यते।तथा सातासातवेदनीययोरुधैर्गोनीचैर्गोत्रयोरपि। अन्तराये पुनर्यथोत्कृष्टपदे तथैवावगन्तव्यमिति / / 81 / / प्रतिपादित मूलोत्तरप्रकृतीनां भागस्वरुपम्। संप्रति भागलब्धदलिक प्रभूततरं गुणश्रेणिरचनयैव जन्तुः क्षपयत्यतो गुणश्रेणिस्वरुपप्रतिपादनार्थमाह -- सम्मदरसव्वविरई, अणविसंजोयदंसखवगे य। मोहसमसंतखवगे, खीणतजोगियर गुणसेढी॥८२।। गुणश्रेणय एकादश भवन्तीति संबन्धः / कुत्र कुत्रेत्याह- 'सम्मदरसव्वविरइ' इत्यादि, तत्रा (सम्म ति) सम्यक्तवं सम्पग्दर्शनं तज्ञामे एका गुणश्रेणिः / तथा विरतिशब्दस्य प्रेत्यक सम्बन्धाइरविरतिस्तल्लाभे द्वितीया गुणश्रेणिः / सर्वविरतिः संपूर्णविरतिस्तल्लाभेतृतीया गुणश्रेणिः / (अणविसंजोय त्ति) अनन्तानुबन्धिविसंयोजनायां चतुर्थी गुणश्रेणीः / (दसखवगे ति) पदैकदेशे पदप्रयोगदर्शनादर्शनस्यदर्शनमोहनीयस्य क्षपको–दर्शनक्षपकस्तत्रा तद्विषया पञ्चमी गुणश्रेणिः। चशब्दः समुच्चये। (मोहसम त्ति) मोहस्यमोहनीयस्य शमः शमक उपशमकः, स चोपशमश्रेण्यारुढोऽनिवृत्तिबादरः सूक्ष्मसंपरायश्चाभिधीयते, तत्र मोदशमे षष्ठी गुणश्रेणिः। (संत ति) शान्त उपशान्तमोहगुणस्थानकवर्ती तत्रा सप्तमी गुणश्रेणिः। (णवगि त्ति) क्षपकः क्षपकश्रेण्यारुढोऽनिवृत्ति बादरः सूक्ष्मसंपरायश्च निगद्यते, तत्र क्षपकेऽष्टमी गुणश्रेणिः / (खीण त्ति) क्षीणस्यक्षीणमोहस्य नवमी गुणश्रेणिः / (सोजगि त्ति) सयोगिकेवलिनो दशमी गुणश्रेणिः (इतरत्ति) अयोगिकेवलिन एकादशी गुणश्रेणिरिति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थः पुनरयमसम्यक्तवलाभकाले मन्दविशुद्धिकत्वाजीवो दीर्घान्तर्मुहूर्त वेद्यामल्पतरप्रदेशाग्रं च गुणश्रेणि मारनयति / ततो देशविरतिलाभे संख्येयगुणहीनान्तर्मुहूर्तवेद्याम संख्येयगुणप्रदेशाग्रा च ता करोति। ततोऽप्यनन्तानुबन्धिवि संयोजतायां सडख्येयगुणहीनान्तमुहूर्तवैद्यामसङ्ख्येयगुण प्रदेशाग्रां च तां विदधाति / ततो दर्शनमोहनीयक्षपकः सडखयेयगुणहीनान्तर्मुहूर्त्तवेद्यामसख़येयगुणप्रदेशाग्रां च तां निमीपयति / ततोऽपि मोहशमकः सखयेयगुणहीनान्तर्मुहूत्त वेद्यामसइखयेयगुणप्रदेशाग्रां च तां विरचयति। ततोऽप्युपशान्तमोहगुणस्थानकवर्ती सङखयेयगुणहीनान्तर्मुहूर्त वेद्याममख्येयगुणप्रदेशनां च तां विरचयति / ततोऽपि क्षपकः सङ्ख्येयगुणहीनान्तर्मुहूर्तवेद्याम सङ्ख्येयगुणप्रदेशाग्रां च तां विरचयति। ततोऽपि क्षीणमोहः संख्येयगुणहीनान्तर्मुहूर्त वेद्यामसंख्येयगुणशमप्रदेशग्रां च तां कुरुते। ततोऽपि सयोगिकवली भगवान् संख्येयगुणहीनान्तर्मुहूर्त्तवेद्यामसंख्येयगुणप्रदेशमा च तां विधते। ततोऽप्ययोगिकेवली चस्माविशुद्धिपरिकल्पितः संख्येयगुणहीनान्तर्मुहूर्त्तवेद्यामसंख्येयगुणप्रदेशाग्रां च तां परिकल्पयति। तदेवं यथा यथाऽतिविशुद्धिस्तथा तथा हस्वकालबहुप्रदेशाग्रत्वं च गुणश्रेणर्भवतीति / / 82 // निरूपिता गुणश्रेणिरेकादशधा / कर्म०५ कर्म / (गुणस्थानम् 'गुणट्ठाण' शब्दे तृतीयभागे 14 पृष्ठ गतम्) सम्प्रति यो जन्तुर्यथाविधः सन्नुत्कृष्टं यथाविधश्च जघन्य प्रदेशबन्धं विधत्ते इत्येतत् स्वामित्वद्वारेण निरूपयन्नाह अप्पयरपयडिबंधी, उक्कडजोगी य सन्निपज्जतो। कुणइ पएसुक्कोसं, जहन्नयं तस्स वच्चासे |||| अल्पतराश्च ताः प्रकृतयश्चाल्पतरप्रकृतयस्तासां बन्धः स विद्यते यस्यासावल्पतरप्रकृतिबन्धी / यो यो मौलानां मौलतराणां चाल्पप्रकृतिभेदानां बन्धकः स स उत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति, भागानामल्पत्वसद्भावात्। उत्कटयोगी-उत्कटवीर्यवान् सर्वोत्कृष्टयोव्यापारे वर्तमाने इत्यर्थः / 'चः' समुच्चये, स च भिन्नक्रमे पर्याप्तश्चति योक्ष्यते / संज्ञा मनोविकल्पनलब्धिः सा विद्यते यस्यासौ संज्ञीः पर्याप्तश्च समाप्तपयाप्तिकः, करोति-विदधाति प्रदेशानामुत्कर्ष उत्कृष्टत्वं प्रदेशोत्कर्षस्तमुत्कृष्टप्रदेशमितियावत्। इह संज्ञीति विशेष्यं, शेषाणि तु विशेषणानि। अत्रा च यो मनःपूर्विकां क्रियां विदधाति तस्य सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टा चेष्टा भवति, तथैव चोत्कृष्टप्रदेशबन्धो भवतीति संज्ञिग्रहणम्। संज्ञयपि जघन्य योग्युत्कृष्टयोगी च भवत्यतो जघन्ययोगियुदासार्थमुत्कृष्टयोगिग्रहणं तस्यैवोत्कृष्टप्रदेश बन्धात्। संज्ञयप्यपर्याप्तकोनोत्कृष्टप्रदेशबन्धं विदधातुमल्पवीर्यत्वात् तस्येति पर्याप्त ग्रहणम्। एवंविधस्यापि बहुतरप्रकृतिबन्धकस्य भागबाहुल्यात स्तोकप्रदेशबन्धो लभ्यते इत्यल्पतरप्रकृतिबन्धीत्युत्कम् / तस्मादेवंविधविशेषण विशिष्टो जन्तुरुक्तष्ट प्रदेशबन्धं विधत्ते इति / तर्हि जघन्य प्रदेशबन्धं कथंकरोतीत्याह-(जहन्नयं तस्स वचासे त्ति) जघन्य एव जघन्यकः "यावाऽऽदिभ्यः // 7 / 3 / 15 / / आकृतिगणोऽयम्। इति स्वार्थ कः प्रत्ययः / तं जघन्यकं प्रदेशबन्धम् इति प्रक्रमः / तस्य पूर्वप्रदर्शितस्य विशेषस्य विशेषणकलापकस्य च व्यत्यासे विपर्यये सति जन्तुः करोतीतियोगः / अयमर्थः-बहुतरप्रकृतिबन्धको मन्दयोगोऽपर्याप्तकोऽ संज्ञी जीवो जघन्यप्रदेशबन्ध विदधातीति ||86|| अभिहितः सामान्योत्कृष्टजघन्यप्रदेशबन्धस्वामी। सम्प्रति मूलप्रकृतीरुत्तरप्रकृतीश्च प्रतीत्योत्कृष्ट प्रदेशबन्धस्वामिनं निरूपयन्नाह - मिच्छ अजयचउ आऊ, वितिगुणविणु मोहि सत्त मिच्छाइ। छण्हं सतरस सुहुमो, अजया देसा वितिकसाए / / 10 / / (आउत्ति) आयुष उत्कृष्ट प्रदेशबन्धस्वामिनः पञ्च। तद्यथा-(मिच्छत्ति) मिथ्याष्टिः: (अजयचउ ति) अयतेनाविरतसम्यग्दृष्टिनोपलक्षिताश्चत्वारोऽविरतसम्यग्दष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तलक्षणाः पञ्चैय जनाः" अप्पयरपयडिबंधी" इत्यादिभणितगाथासंभवद्विशेषणविशिष्टा आयुष उ Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1171 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध त्कृष्ट प्रदेशबन्धमुपकल्पयन्ति। सम्यग्मिथ्यादृष्टिरपूर्वकरणाऽऽदयश्चाऽऽमुने बध्नन्तीतिनेह गृहीताः। सास्वादनस्तायुबंधनात्येव स किमित नगृहीतः? इति चेदुष्यते तन्नोत्कृष्ट-प्रदेशभिबन्धनोत्कृष्टयोगाऽभावात्। तथाहि अनन्तानुबन्धिनामुत्कृष्टोऽनुत्कृष्टश्च प्रदेशबन्धा मिथ्यादृष्टी साद्यधुवएच भणिष्यते, यदि तुसास्वादनेऽप्युत्कृष्टयोमोलभ्यते तदाऽसावप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नात्येव, अतो यथाऽविरताऽऽदिष्वप्रत्याख्यानाऽऽवरणाऽऽदिप्रकृतीनामुत्कृष्ट प्रदेशबन्धसद्भावतोऽनुत्कृष्टः / प्रदेशबन्धः साऽऽद्याऽऽदि चतुर्विकल्पोऽप्यभिधास्यते तथैवानन्तानुबन्धिनां मिथ्यात्वभागलाभात् सास्वादने उत्कृष्टप्रदेशबन्धसद्भावतोऽनुत्कृष्टः प्रदेशबन्धः साद्याऽऽदिचतुर्विकल्पोऽपिस्यात्, न चैवं निर्हिश्यते, तस्माज्ज्ञायतेऽल्पकालभावित्वेन तथाविधप्रयत्नाभावादन्यतो वा कुतश्चित्कारणात्सास्वादनस्योत्कृष्टयोगो नास्ति / किंच-अनन्तरमेवोत्तरप्रकृतिस्वामित्त्वे मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदि प्रकृतीना प्रत्येक सूक्ष्मसंपरायाऽऽदिषत्कृष्ट प्रदेशबन्धमभिधाय भणितशेषप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टिमेवोत्कृष्ट प्रदेशबन्धस्वामिनं निर्देक्ष्यति न सास्वादनं, यद्वक्ष्यति -- "सेसा उक्कोसपएसगा मिच्छो।" बृहच्छतकेऽप्युत्कम्"सेसपएसुक्कंड (कोस) मिच्छो त्ति। अतोऽपिज्ञायते 'नास्ति सास्वादनस्योत्कृष्ट योगसंभवः / अतो ये सास्वादनमप्यायुष उत्कृष्टप्रदेशस्वामिन मिच्छन्ति सन्मतमुपेक्षणीयमिति स्थितम्। (वितिगुणविणु मोहि सत्त मिच्छा इति) मोहनीयस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धस्वामित्वे द्वितीय तृतीयगुणौ विना सास्वादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके च वर्जयित्वा शेषाणि मिथ्यादृष्टयादीनि अनिवृत्तिबादरान्तानि सप्त गुणस्थानकान्यधिक्रियन्ते। इदमत्र हृदयम्-मिथ्यादृष्टयविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणा निवृत्तिबादरगुणस्थानकवर्तिनः सप्त जना उत्कृष्टयोगे वर्तमानाः सप्तविधबन्धका मोहस्योत्कृष्ट प्रदेशबन्धं कुर्वन्ति / अन्ये तु - सास्वादनमिश्रावपि संगृह्य 'मोहस्स नव उ ठाणाणि त्ति" पठन्ति, तच न युक्तियुक्तं, यतः सास्वादनस्योत्कृष्टयोगो न लभ्यते इत्युक्तमेव, मिश्रेऽप्युकृष्टयोगो न लभ्यते। तथाहि-द्वितीयकषायाणामुत्कृष्टप्रदेशबन्धस्वामिनमविरतमेव निर्देष्यति "अजया देसा वितिकसाए'' इति वचनात् / यदि तु मिश्रे अप्युत्कृष्टयोगो लभ्यते तदा सोऽपि तत्स्वामितया निर्दिश्यत, न च वक्तव्य मिथादल्पतरप्रकृतिबन्धकोऽविरत इत्ययमेव गृहीतो, यतोऽविरतोऽपि मूलप्रकृतीनां सप्तविधबन्धकस्तत्रा गृहीष्यते, मिओऽपि सप्तविधबन्धक एव, उत्तरप्रकृतीरपि मोहनीयस्य सप्तदशाविरतो बध्नाति, मिश्रेऽप्येतावतीरेव, तस्मादुत्कृष्टयोगभावं विहाय नापरं तत्परित्यागे कारणं सभीक्षामहेइति। मिश्रेऽप्युत्कृष्टयोगा भावात्सप्तैव मोहोत्कृष्टप्रदेशबन्ध का इति स्थितम्। 'छह सत्तरस सुहुम त्ति / ' मूलप्रकृतीनां षण्णां ज्ञानाऽऽवरणदर्शना ऽऽवरणवेदनीयनामगोत्रान्तराय लक्षणानाम्। सूचकत्वात्सूत्रस्य सूक्ष्मसंपराय उत्कृष्टयोगे वर्तमान उत्कृष्ट प्रदेशबन्धं विदधाति, सूक्ष्मसंपरायो हि मोहायुषी न बध्नात्यतस्तद्भागोऽधिकोलभ्यत इत्यस्यैव ग्रहणमिति। तथा सप्तदशाना ज्ञानाऽऽवरणपञ्चकदर्शनाऽऽवरण | चतुष्टय सात्रवेदनीययश: कीयुकच्चैर्गोत्रान्तरायपञ्चलक्षणानामुत्तर प्रकृतीनां सूक्ष्मसंपराय उत्कृष्टयोगे वर्तमान उत्कृष्टप्रदेशबन्ध विदधाति, मोहाऽऽयुषी असौ नबध्नातीत्यव तद्भागोऽधिको लभ्यते। अपरं च-दर्शनाऽऽवरणभागो नामभागश्च सर्वोऽपीह यथासंख्यं दशर्नाऽऽवरणचतुष्कस्वयशः कीर्तेश्चैकस्या भवतीति सूक्ष्मसंपरायस्यैव ग्रहणम् / (अजया देसा वितिकसाए त्ति) अयता अचिरतसम्यग् दृष्टयः सप्तविधबन्धका उत्कृष्टयो गे वर्तमाना द्वितीयकषायान् प्रत्याख्यानाऽऽषरणानुत्कृष्टप्रदेश बन्धान विदधति, मिथ्यात्वमनन्तानुबधिनश्चैते नबध्यन्त्यतस्तद्भागद्रव्यमधिकं लभ्यत इत्यमीषामेव ग्रहणमा तथा देशा-देशविरताः सप्तविधविधवम्यका उत्कृष्टयोगे वर्तमानास्तृतीय कषायान् प्रत्याख्यानाऽऽवरणाऽऽख्यानुत्कृष्ट प्रदेशबन्धात् कुर्वते, प्रत्याख्यानाऽऽवरणानामप्यमी अबन्धका अतस्तद्भागोऽधिको लभ्यत इति कृत्या / / 60|| पण अनियट्टी सुखगइ, नराउसुरसुभगतिग विउव्विदुर्ग। समचउरंसमसायं, वइरं मिच्छो व सम्मो वा / / 11 || (पण त्ति) पञ्च प्रकृतीः पुरुषवेदसंज्वलनत्ततुष्टलक्षणा, अनिवृत्तिबादरः सर्वोत्कृष्टयोगे वर्तमान उत्कृष्ट प्रदेशबन्धः करोति / तत्र पुरुषवेदस्य पुंवेदसंज्वलनचतुष्टयाऽऽत्मकं पञ्चविध बधन्नसावुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करोति, हास्यरतिभय जुगुप्साभागो लभ्यत इत्यस्यैव ग्रहणम् / संज्वलनक्रोधस्य निवृत्तिबादरः पुंवेदबन्धे व्यवच्छिन्ने संज्वलक्रोधाऽऽदिचतुष्टयं बन्धन्नुत्कृष्टयोगे वर्तमान उत्कृष्ट प्रदेशवन्धं विदधाति, मिथ्यात्वाऽऽद्यकषायद्वादशकभागः सर्वनोषायभागश्च लभ्यत इति कृत्वा / संज्वलनमानस्य स एव कोधबन्धे व्यवच्छिन्नं संज्वलनमानाऽऽदित्रयं बध्नन्नुकृष्टप्रदेशबन्धं मानस्य करोतिक्रोधभागो लभ्यत इति कृत्वा। स एव मानबन्धे व्यवच्छिन्ने मायालोभौ बध्नन् मायाया उत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति मानभागोऽपि लभ्यत इति कृत्वा / स एवं मायाबन्धे व्यवच्छिन्ने लोभमेक बध्नस्तस्यैवोत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति एकं द्वौ समयौ, एतच्च विशेषणं प्रागपि द्रष्टव्यं समस्तमोहनीय भागस्तत्रा लभ्यत इति लोभबन्धकस्यैव ग्रहणमिति / तथा सुखगतिः प्रशस्तविहयोगतिः, नरायुः, त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् सुरत्रिकं सुरगतिसुरानुपूर्वीसुराऽऽयुर्लक्षणं, सुभगत्रिकं सुभगसुस्वराऽऽदेयस्वरूपम, वैकियद्विकम्वैकियशरीरवैकियाङ्गोपाङ्ग लक्षणं, समचतुरस्र संस्थानम्, असातवेदनीयम्, (वइरं ति) वजऋषभनाराचसंहननम्, इत्येतास्त्रयोदश प्रकृतीमिध्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिा उत्कृष्टप्रदेशाः करोति। तथाहि-असातं यथा मिथ्यादृष्टिः सप्तविधबन्धको बध्नाति, तथा सम्यग्दृष्टिरपि सप्तविधबन्धक एवैतद्वध्नात्यतः प्रकृतिलाघवाऽऽदिविशेषाभावादुत्कृष्टयोगे वर्तमानौ द्वावप्यसातमुत्कृष्ट प्रदेशबन्धं कुरुतः देवमनुष्याऽऽयु षोरप्यष्टावध बन्धकावुत्कृष्टयोगे वर्तमानौ द्वावप्यविशेषे गोत्कृष्टप्रदेशबन्धं कुरुतः / देवगतिदेवानुपूर्वी वैकियशरीर वैकियाङ्गोपाङ्ग समचतुरससंस्थान प्रशस्तविहायोगति सुभगसुस्वराऽऽदेयलक्षणा नवनामप्रकृतयो नाम्नोऽटाविंशति बन्धकाले एव बन्धमागच्छन्ति, नाधस्तनेषु पूर्वोकृरूपेषु अयो Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1172 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध विंशतिपञ्चविंशतिषविंशतिबन्धेषु / तां चाष्टाविंशतिं देवगति प्रायोग्यां मिथ्यादृष्टि सास्वादनौ स्त्यानद्धित्रिक बध्नीत इति नेह गृहीतौ। मिथसम्यगदृष्टिमिथ्यादृष्टिश्च बध्नाति / तथाहि-देवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चे- स्त्वेतन्न बध्नाति, केवलमुक्रनीत्या तस्योत्कृष्टयोगो न लभ्यते इति न्द्रियजातिकियशरीरं वैकियाङ्गोपाङ्गं तैजसकार्मण समचतुरप्रसंस्थानं सोऽपि नेहाधिकृतः / हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सानां तु ये ये सम्यग् वर्णचतुष्कमगुरुलघुनाम पराघातनाम उपघातनाम उच्छवासनाम दृष्टयोऽविरताऽऽद्यपूर्वकरणान्तानां मध्ये तद्बन्धकास्ते ते उत्कृष्टयोगे प्रशस्तविहायोगतिनाम वासनाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम वर्तमाना उत्कृष्ट प्रदेशबन्धममिनिर्वर्तयन्ति मिथ्यात्वभागो लभ्यत इति स्थिराऽस्थिरयोरेकतर शुभाऽशुभयोरेकतरं सुभगनाम सुस्वरनाम सम्यग दृष्टिप्रहणम्। तीर्थकरनाम्नोऽप्यविरताऽऽद्यपूर्वकरणान्तः सम्यग आदेयनाम यशःकीर्त्ययशःकीयोरेकतर निर्माणनामति देवगतिप्रा- दृष्टिर्मूलप्रकृतिसप्तविबन्धकः दैवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिवैक्रिययोग्याष्टाविंशतिबन्धसहचरिता एता नव प्रकृतीनिवर्तयति / सप्तविध- शरीरं वैक्रियाङ्गोपाङ्गं समचतुरस्रसंस्थानमुच्छ्वासनाम पराघातनाम बन्धको सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टी उत्कृष्टयोगे वर्तमानावविशषेणोत्कृष्ट- प्रशस्त विहायोगतिस्त्रसनाम वादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरप्रदेशा विधत्तः, यत एषाऽष्टा विंशतिर्मिथ्यादृष्टिसास्वादनमिश्राविरति- स्थिरयोः शुभाशुभयोर्यशः कीर्त्ययशः कीयाः पृथगन्यतर सुभगनाम देशविरताना देवगति प्रायोग्य बनताभवसेया। अष्टाविंशतेरुपरितनेष्वे- सुस्वरनामाऽदेयनाम वर्णचतुष्कं तैजसकामणे अगुरुलघूपघातनाम कोन त्रिशदादिबन्धस्थानेष्वप्येता। नव प्रकृतयो बध्यन्ते, केवलं तत्रा निर्माणमित्येतामष्टाविंशति तीर्थकरनाम सहितामेकोनत्रिशतं देवगतिभागबाहुल्यादुत्कृष्टः प्रदेशबन्धो न लभ्यत इत्यष्टाविंशति सहचरितत्वेन प्रागोभ्यामुत्तरप्रकृतीबंध्नन्नुत्कृष्टयोग वर्तमान उत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति, ग्रहणम् / वज्रऋषभनाराचस्यापि सम्यग दृष्टिमिथ्यादृष्टिवा सप्तविधब- मिथ्यादृष्टितन्न बध्नातीति सम्यग्दृष्टिग्रहणम् / तीर्थकरनामसहिताश्च न्धको नाम्नो वजऋषभनाराच सहितामेकोनत्रिशतं तिर्यग्गतितिर्य- त्रयोविंशत्यादिकाः पूर्वोक्तरूपा नाम्न उत्तर प्रकृतयो न बध्यन्ते, त्रिंशदेगानुपूयौ पञ्चेन्द्रियजातिरौदारिकशरीरमौदारिकाडोपाड्गं तेजस कत्रिशद् बन्धौ तु पूर्वोक्तनीत्या तीर्थकरनामसहितौ बध्येते, केवलं तत्र कार्मण वजऋषभनाराचसंहननं समचतुरस्त्रसंस्थानं वर्णचतुष्कम् अगुरु- भागबाहुल्यादुत्कृष्टप्रदेशबन्धो न लभ्यत इति शेषपरिहारेणैकोनविंशलघु उपधातं पराघातम् उच्छवासनाम प्रशस्तविहायोगतिः ासनाम त्प्रकृतिबन्धग्रहणम्। तथा सुयतिः-शोभनसाधुः प्रस्तावादप्रमत्तयतिरबादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिराऽस्थिरयोरेकतरं शुभाशुभयोरे- पूर्वकरणश्च गृह्यते, द्वयोरपि प्रमादरहितत्वेन सुयतित्वात् / ततश्चैतो कतर सुभगनाम सुस्वरनाम आदेयनामयशः कीर्त्ययशः कीरिकतर द्वावपि देवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिवैकियशरीरं वैकियङ्गोपाङ्ग निर्माणमिति लक्षणाम् मनुष्यगतिमनुष्यानुपू- पञ्चयों न्द्रियजाति- समचतुरस्त्रसंस्थानं पराघातनामोच्छ्वासनाम प्रशस्तविहायोगतिस्त्र रौदारिकशरीरमौदारिकाङ्गोपाङ्गे तैजसकार्मणे समचतुरस्रसस्थानं नाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरनाम शुभनाम सुभगनाम वज़ऋषभनाराच संहननं वर्णचतुष्कमगुरुलघु पराघातम् उपघातनाम सुस्वरनामाऽऽदेयनाम यशःकीर्तिनाम वर्णचतुष्कं तैजसकार्मणे अगुरुउच्छ्वास नाम प्रशस्त विहायोगतिः त्रसनाम बादरनाम पर्याप्तनाम लघुनामोपघातनाम निर्माणनामाऽऽहाराकशरीरमाहारकाङ्गोपाङ्गमित्येप्रत्येक नाम स्थिराऽस्थिरयोरेकतरं शुभाशुभचोरेकतरं सुभगनाम तदेवगतिप्रायोग्यं त्रिंशन्नामोत्तरप्रकृतिकदम्बकं बध्नन्तावुत्कृष्टयोगे सुस्यरनाम आदेयनाम यशः कीर्त्ययशः कीोरेकतरं निर्माणमिति वर्तमानावाहारकनिकमहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्ग लक्षणमुत्कृष्टलक्षणा वा निर्वर्तयन्नुत्कृष्टयोगे वर्तमान उत्कृष्ट प्रदेश बन्धं करोति / प्रदेश बध्नीतः, तीर्थकर नामसहिते एकत्रिंशद्वन्धेऽप्येतद्वध्यते, किंतु एकोनत्रिशतोऽधस्तनबन्धेष्विदं न बध्यते, त्रिंशद्वन्धे तु बध्यते / केवलं तत्रा भागवाहुल्यान्न गृह्यते / तथा शेषा भणितचतुःपञ्चाशत्प्रकृतिभ्य भागबाहुल्यात्तत्रोत्कृष्टप्रदेशबन्धोन लभ्यत इत्येकोनशिंद्वन्धगतस्यैव उद्घरितास्त्यानद्धित्रिकमिथ्यात्वानन्तानुबन्धि चतुष्टयस्त्रीवे दनपुंसक ग्रहणमिति सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टयोरविरोधेन भावितस्त्रयोदशानामपि वेदनारकाऽऽयुष्कतिर्यगायुष्कनरक गतिनरकाऽऽनुपूर्वीतिर्यग्गतितिर्यप्रकृतीनामुत्कृष्टः प्रदेशबन्ध इति / / 11 / / गानुपूर्वीमनुष्यगति मनुष्याऽऽनुपूर्वेकेन्द्रियजाति द्वीन्द्रियाजातित्रीनिद्दापयलादुजुयल - भग्रकुच्छातित्थ सम्मगो सुजई। न्द्रिय जाति चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिय जाति-औदारिकशरीरौदारिकाआहारदुर्ग सेसा, उक्कोसपएसगा मिच्छो / / 62|| ङ्गोपाङ्ग तैजसकार्मणप्रथमवज्र संहननप्रथमवर्जसंस्थानवर्णचतुष्काऽ निद्रा प्रचला द्वयोर्युगलयोः समाहारो द्वियुगलं हास्यरत्यरतिशोका- गुरुलधूपघातपराघातोच्छासाऽऽतपोदूद्योताप्रशस्त विहायोगति त्रसऽऽख्यं, भयं, (कुच्छ त्ति) जुगुप्सा (तित्थं ति) तीर्थकरनामेत्येतत्प्र- स्थावरावादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तप्रत्येकसाधारण स्थिरास्थिर शुभाऽशुकृतिनवकं, सम्यग्गच्छति ज्ञानाऽऽदिमोक्षमार्गमिति सम्यम्मः सम्यगदृष्टिः भदुर्भग दुःस्वरानादेयायशः कीर्तिनिर्माण नीचैर्गात्राणि चेत्येताः षट्षष्टिउत्कृष्टयोगे वर्तमान उत्कृष्टप्रदेशं बध्नाति। ता निद्राप्रचलयोरविरत- प्रकृतयउत्कृष्टप्रदेशका उत्कृष्टप्रदेशबन्धा (मिच्छो त्ति) मिथ्यादृष्टिरेव करोति। सस्यग् दृष्टयादयोऽपूर्वकरणान्ताः सर्वोत्कृष्टयोगे वर्तमानाः सप्तवि- तथाहि मनुष्यद्विकपञ्चेन्दियजात्यौदारिकद्विकतैजसकार्मणवर्णचतुष्काऽ धबन्धकाले एक द्वौ वा समयावुत्कृष्ट प्रदेशबन्धं कुर्वन्ति। आयुर्द्रव्यभागो- गुरुलघूपघातपराघातोच्छवा सासबादर पर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिर ऽधिको लभ्यत इति सप्तविधबन्धकग्रहणं, इत्यानद्धित्रिकं सम्यग्दृष्टयो शुभाशुभायशः कीर्तिनिर्माणलक्षणाः पञ्चविंशतिप्रकृतीमुकत्या शेषा न बध्नन्त्यस्तद्भागलाभोऽपि भवतीति सम्यग्दृष्टीनामेव ग्रहणम् / / एकचत्वारिंशत्सम्यग्दृष्यन्धएवनागच्छन्ति। सास्वादनस्तुकाञ्चिद्वध्ला Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध ति परं तस्योत्कृष्टयोगो न लभ्यते अत एता एकचत्वारिंश त्प्रकृतीमिथ्यादृष्टिरेवोत्कृष्टयोगे वर्तमानो मूलप्रकृतीनामुत्तर प्रकृतीनां च यथासंभवमल्पलरबन्धक उत्कृष्टप्रदेशाः करोति / या अपि चोत्कस्वरुपाः पञ्चविंशतिप्रकृतयः सम्यग्दृष्टबन्धे समागच्छन्ति तास्वपि मध्ये औदारिकलैजसकार्मणवर्णाऽदि चतुष्कागुरुलधूपघातबादरप्रत्येकास्थिराशुभायशः कीर्तिनिर्माणलक्षणानां पञ्चदशप्रकृतीनामपर्याप्तकेन्द्रियोग्यो नाम्नरषयोविंशतिप्रकृतिनिष्पन्नस्तैजसकार्मणवर्णादिचतुष्काऽगुरुलधूपघातनिर्माणतिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्ये केन्द्रियजात्यौदारिक शरीरहुण्डसंस्थानासस्थावरसूक्ष्मैकतरापर्याप्त प्रत्येक साधारणान्यातरास्थिराशुभदुर्भगानादेयायशः कीर्तिलक्षणो बन्धः तेनैव सह बध्यमानानामुत्कृष्टप्रदेशवन्धो लभ्यते नोत्तरैः पञ्चविंशत्यादिबन्धैः भागबाहुल्यात्। शेषाणां तुमनुष्यद्विकपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकाङ्गोपराघातोच्छवासत्रास पर्याप्तस्थिरशुभलक्षणानां दशप्रकृतीना यथासंभव पर्याप्त केन्द्रियापर्याप्तसयोग्यपञ्चविंशतिबन्धेनैव सह बध्यमानानामुत्कृष्टः प्रदेशबन्धो * लभ्यते नोनरैः, षड्विंशत्यादिबन्धैर्भागबाहुल्यादेव / नाप्यधस्तनेन त्रयाविंशतिबन्धेन तौतासां बन्धाभावादेव / तीच त्रयोविंशतिपञ्चविंशतिबन्धी सम्यगदृष्टर्न भवतः देवपर्याप्त मनुष्यप्रायोग्यबन्धकत्वात्तस्येत्यत एतासामपि पञ्चविंशतिप्रकृतीनां यथोत्कप्रकारेण त्रयोविंशत्या पञ्चविंशत्या च सह बध्यमानानां सप्तविधबन्धक उत्कृष्टयोगो मिथ्यादृष्टिरेवोत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोतीति।शा निरुपतिमुत्तर प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धस्वामित्वम्। अधुना तासामेव जघन्यप्रदेशबन्धस्वामित्वमभिधित्सुराह - सुमुणी दुन्नि असन्नी, निरयतिगसुराउसुरविउविदुगं। सम्मो जिणं जहन्नं, सुहुमनिगोयाइखणि सेसा 63|| सुमुनिः--प्रमादरहितत्वेन प्रधानसाधुः-अप्रमत्तयतिः / (दुन्नि त्ति) द्वे प्रकृती आहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणं जघन्यप्रदेशे बध्नाति। अयमर्थ :-परावर्तमानयोगो घोलनयोगीत्यर्थः / अष्टविधबन्धकः स्वप्रायोग्यरार्वजघन्यवीर्य व्यवस्थितो नाम्नो देवगतिर्देवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रिय शरीरं वैक्रियाङ्गोपाङ्गं समचतुरस्रसंस्थानम् उच्छवासनाम पराघातनाम प्रशस्त-विहायोगतिस्त्रसनाम बादरनाम पर्यातकनाग प्रत्येकनाम स्थिरनाम शुभनाम यशःकीर्तिनाम सुभगनाम सुस्वरनामाऽऽदेयनाम वर्णचतुष्कं तैजसकार्मण अगुरुलघूपघातं निर्माण तीर्थकरनामाऽऽहारशरीरमाहारकाङ्गो पाङ्ग मित्येवमेकत्रिशतं प्रकृतीबंधनन्न प्रमत्तयतिराहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणे द्वे प्रकृती जघन्यप्रदेशे बध्नाति। त्रिशद्वन्धेऽप्येते बध्येते परं तत्राल्या भागा इत्येकत्रिशद्वन्ध ग्रहणम्। एतच्च प्रकृतिद्वयमन्यत्र न बध्यत इत्यप्रमत्तयति ग्रहणम्। तथाsसंज्ञी सामान्योत्कावपि घोलमानयोगः परावर्त्तमानयोग इत्यर्थः। नरकत्रिकं नरकगतिनरकानुपूर्वी नरकाऽऽयुर्लक्षणं, सुरायुः इत्येताश्वतस्रः प्रकृतीर्जघन्यप्रदेशबन्धाः करोति। तथाहि-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिक द्विन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया देवनारकेषूत्पत्यभावादे वैताश्यतस्रः प्रकृतीन बध्नन्तीति नेहाधिक्रियन्ते। असंझ्यप्यपर्याप्तकस्तथा विधसंल्कविशुद्धयभावान्ता बध्नात्यतः सूत्रो सामान्योत्कावपि 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः" इति न्यायात् पर्याप्तकोऽसौ द्रष्टव्यः / सोऽपि योकस्मिन्नेव वाग योगे काययोगे वा विरमवतिष्ठभानो गृह्येत तदा तीव्रचेष्टो भवेत्। योगात्तु योगान्तरं पुनः संक्रामतः स्वभावादल्पचेष्टो भवतीति परावर्त्तमानयोग्रहणम् / ततश्च परावर्त्तमानयोगोऽष्टविध बध्नन्नपर्याभोऽसंज्ञी स्वप्रायोग्य सर्वजघन्यवीर्ये वर्तमानः प्रस्तुत प्रकृति चतुष्टयस्यैक चतुरो वा समयान्यावज्जघन्यप्रदेशबन्धंकरोतीतिपरमार्थः / पर्याप्तजघन्ययोग स्योत्कृष्टतोऽपि चतुःसमयावसानत्वादुत्तरत्राप्येष कालनियमो द्रष्टव्यः / ननु पर्याप्तसंज्ञी किमित प्रकृतप्रकृतिचतुष्टयं न बध्नातीति चेदुच्यते-प्रभूतयोगत्वाजघन्योऽपि हि पर्याप्तसंज्ञियोगः पर्याप्तासंइयुत्कृष्ट-योगादप्यसंख्येयगुण इति। तथा-(सुरविउविदुगंति) द्विकशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात्सुरद्विकं सुरगतिसुरानुपूर्वी रुपं, वैक्रियद्विक वैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्गलक्षणं, जिननामतीर्थकरनामेत्येतत्प्रकृतिपञ्चकम् (सम्मो त्ति) सम्यगदृष्टिः 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः।" इति न्यायाद्भवाऽऽद्यसमये वर्तमानः (जहन्नं ति) जघन्य-जघन्यप्रदेश करोति / तथा हि-कश्चिन्मनुष्यस्तीर्थकरनाम बद्धवा देवेषु समुत्पन्नः प्रथमसमय एव मनुष्य गतिप्रयोग्यां तीर्थकरनामसहितां नामप्रकृतित्रिशतं मनुष्यगतिर्मनुष्यानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिरौदारिक शरीरमौदारिकाङ्गोपाङ्गं समचतुरस्त्रसंस्थान वजऋषभनाराच संहननं पराघातमुच्छवासं प्रशस्तविहायोगतिरस बादरं पर्याप्त प्रत्येक स्थिरास्थिरयोरेकतर शुभाशुभयोरेकतरं यशः-कीर्त्ययशः कीोरेकतरं सुभगं सुस्वरमादेयं तीर्थकरनाम वर्णचतुष्कं तैजसकार्मणे अगुरूलघूपधातं निर्माणमिति लक्षणां बध्नन्मूलप्रकृतिसप्तविध बन्धकोऽविरत सम्यग् दृष्टिः स्वप्रायोग्यजघन्यवीर्ये वर्तमानस्तीर्थकरनामजघन्य प्रदेश बन्धं करोति / नारकोऽपि श्रेणिकाऽऽदिवदेवं तद्वन्धकः संभवति, परमिह देवोऽल्पयोगत्वादनुत्तरवासी गृह्यते, नारकेषुत्वेवंभूतो जघन्ययोगो न लभ्यतेऽतस्तेषु समुत्पन्नो नेह गृहीतः, तिर्यञ्चस्तु तीर्थकरनाम न बध्यन्तीत्युपेक्षिताः, मनुष्यास्तु भवाऽऽद्यसमये तीर्थकरनामसहितां नाम एकोनत्रिंशतमेव वघ्नन्त्यतस्तत्राल्पा भागा भवन्ति / एकत्रिशद्वन्धस्तु तीर्थकरनागसहितः संयतस्यैव भवति, तत्रा च बीर्यमल्पं न लभ्यते, अन्येषु तु नामबन्धेषु तीर्थकरनामैव न बध्यते अतःशेषपरिहारेण त्रिंशद्वन्धकस्य देवस्यैव ग्रहणं, देवद्विकवैक्रियद्विकयोस्तु बद्धतीर्थकरनामदेवनारकेभ्यश्च्युक्त्वा समुत्पन्नो मूलप्रकृतिसप्तविधबन्धको देवगतिर्देवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियशरीरं वैक्रियाङ्गोपाङ्ग समचतुरससंस्थानमुच्छवास पराधातं प्रशस्तवि हायोगतिस्रसनाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरास्थिरयोरेकतरं शुभाशुभयोरेकतरं यशःकीर्वयश:कीयोरेकतर सुभगनाम सुस्वरनाम आदेयनाम वर्णचतुष्टयं तैजसकार्मणे अगुरुलघूपघात निर्माणं तीर्थकरनामेति लक्षणां देवगतिप्रयोग्यां नामैकोनत्रिशतं निर्वर्तयन् स्वप्रायोग्यं सर्वजघन्यवीर्ये व्यवस्थितो भवाऽऽद्यसमये वर्तमानो मनुष्यो जघन्यप्रदेशबन्धं करोति / देवनारका हितावद्भप्रत्ययादेवैतत्प्रकृति चतुष्टयं न बध्नन्तीति नेहाधि Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1174 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध कृताः। तिर्यचः पुनभागभूमिजा भवाऽऽद्यरत्रमयेऽपि बध्नन्तयेतत् केवलं ते देवगतिप्रायोग्यामष्टाविंशतिमेव पूर्व प्रदर्शितस्वरुपांत्वयन्ति, नैक्रान- | त्रिंशदादिबन्धाः तेषां तीर्थकराऽऽहारक-सहितत्वात्। तिरइवां तु तदबन्धकत्वात्। अतस्तेषु भागा अल्पे लभ्यन्ते इति तेऽपीह नाधिक्रियन्ते। मनुष्यस्याऽप्यष्टाविंशति बन्धकस्य भागा बहबो न लभ्यन्ते, त्रिंशदेकत्रिशद्वन्धौ तु देवगतिप्रायोग्यौ सयतस्य भवतः तत्र च वीर्यमल्पं न लभ्यते / अन्ये तु देवगतिप्रायोग्यबन्धा एव न सन्तीत्यालोच्यैकोन त्रिशद्वन्धकस्य मनुष्यस्यैव ग्रहणम् / ननु तिर्यक्षु पर्याप्तासंज्ञी देवगतिप्रायोग्य मेतत्प्रकृतिचतुष्टयं बध्नाति स कस्मादिह नाङ्गीकृतः। उच्यतेप्रभूतयोग्वात्, अपर्याप्तसंज्ञियोगाद्धि पर्याप्तसंज्ञियोगो जघन्योऽप्यसंख्येयगुण इति / (सुहुमनिगोयाइखणि सेसत्ति) सूक्ष्मनिगोदजीबोऽपर्याप्तक आदिक्षणेभवाऽऽद्यसमये शेषा भणितैकादशप्रकृतिभ्योऽवशिष्टा नवोत्तरशतसंख्याः प्रकृतीराश्रित्य सर्वजधन्ययीर्यलब्धियुत्को यथासंभवं च वटीः प्रकृतीबंधनन् जघन्यप्रदेशबन्धाः करोति, सर्वासामप्यत्रा बन्धसद्धावात, सर्वजघन्यवीर्यस्य चाौव संभवादिति।।६३॥ निरुपितं जघन्यप्रदेशबन्धस्वामित्वम्। अधुना प्रदेशबन्धमेव साद्याऽऽदिभङ्ग कैर्निरुपयन्नाह - दंसणछग भयकुच्छा-बितितुरियकसायविग्घनाणाणं / मूलछगऽणुक्कासो, चउह दुहा सेसिसव्वत्थ / / 94 || दर्शनषटकंचक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवल दर्शनाऽऽवरणनिद्रा प्रचलालक्षणं, भयं, जुगुप्सा, (बितितुरियकसाय त्ति) कषायशब्दस्य प्रत्येकं योगात् द्वितीयकषायाअप्रत्याख्यानाऽऽवरणस्तृतीयकषायाःप्रत्याख्यानाऽऽवरणाः तुर्याश्चतुर्थाः कषायाः-संज्वलनकषायाः, विधानि पञ्चदानलाभभोगापभोगबीर्यान्तरायाऽऽख्यानि, ज्ञानानिज्ञानावऽऽरणानि मतिज्ञानाऽऽवरणश्रुतज्ञानाऽऽवरणावधिज्ञानाऽऽवरणमनः पर्यायज्ञानाऽऽवरणकेवलज्ञानाऽऽवरणलक्षणानिपञ्च, इत्येता सामुत्तरप्रकृतिषु मध्ये त्रिंशतः प्रकृतीनाम्। तथा (मूलछगेति) मूलप्रकृतिषटके ज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणभेदनीयनामगोत्रान्तरायलक्षणेऽनुत्कृष्ट एव प्रदेशवन्धः / (चउह त्ति) चतुर्धा साद्यनादिधुवाध्रुवरुपचतुर्विकल्पोऽपि भवतीत्यर्थः / इह तावद्या सर्वबहवः कर्मस्कन्धा गृह्यन्ते स उत्कृष्टः प्रदेशबन्धः, ततः स्कन्धहानिमाश्रित्य यावत्सर्वस्तोककर्मस्कन्धग्रहण तावत्सर्वोऽप्यनुत्कृष्ट इत्युत्कृष्टानुत्कृष्टप्रकारद्वयेन सर्वोऽपि प्रदेशबन्धः संगृहीतः। यत्र सर्वस्तोककर्मस्कन्धग्रहणं स जघन्यप्रदेशबन्धः। ततः स्कन्धवृद्धिमाश्रित्य यावत्सर्वबहु स्कन्धग्रहणं तावत्सर्वोऽप्यजघन्य इति जघन्याजघन्यप्रकार द्वयेन सर्वोऽपि प्रदेशबन्धः संगृहीत इत्यनया परिभाषया दर्शना ऽऽवरणषटकाऽऽदीनामुत्तरप्रकृतीनाममुत्कृष्ट प्रदेशबन्धः साद्याऽऽदि चतुर्विकल्पो भवतीति। तथाहि-चक्षुर्दर्शनाऽवरणाऽचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणावधिदर्शनाऽऽवरणके वल दर्शनाऽऽवरण लक्षणप्रकृति चतुष्कविषयः क्षपकस्योपशमकस्य वा सूक्ष्मसंपरायस्य सर्वोत्कृष्टयोगे वर्तमानस्यैकं द्वौ, वा समयो यावदुत्कृष्टः प्रदेशबन्धः प्राप्यते। सूक्ष्मसंथरायो हि मोहनीयाऽऽयुः कर्मद्वयं सर्वथा नबध्नाति, दर्शनाऽऽवरणस्याप्य तदेव प्रकतप्रकृतिचतुष्टयं बध्नाति, न शेषप्रकृतीः, अता मोहनीयाऽऽयूभॊगयोर्यथास्वमत्र प्रवेशान्निद्रापञ्चकभागस्यापि चात्रा प्रवेशादहुद्रव्यामह लभ्यत इति सूक्ष्मसंपरायग्रहणम्। उत्कृष्टश्च प्रदेशबन्ध उत्कनात्या उत्कृष्टेनैव योगेन भवतीत्युत्कृष्टयोगग्रहणम् / उत्कृष्टयोगाबन्धागकालश्चैतावानेव भवतीत्येकद्विसमयग्रहणम् / एतं चोत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कृत्वोपशान्त मोहावस्था चाऽऽरुह्य पुनः प्रतिपत्योत्कृष्ट योगाद्वाऽत्रीव प्रतिपस्य यदाऽनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति तदाऽसौ सादिः एतच स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिः सदा निरन्तरं बध्यमानत्वात्. ध्रुवोऽभष्यानाम्, अध्रुवो भव्यानामिति। निद्राप्रचलाद्विकस्य त्वविरतसम्यगदृष्टयादयोऽपूर्वकरणान्ताः सर्वोत्कृष्टयोगवृत्तयः सप्तविधबन्धकाले एकं द्वौ वा समयावुत्कृष्ट प्रदेशबन्धं विदधति, आयुर्द्रव्यभागोऽधिको लभ्यत इति सप्तविधबन्धकग्रहणम्। स्त्यानद्धित्रिकं सम्यगदृष्टयो न बध्नन्तीत्यतद्भागलाभोऽपि भवतीति सम्यग्दृष्टीनामेव ग्रहणम् / मिथ्यादृष्टिस्वादनौ स्त्यानद्धित्रिकं बध्नीत इति नेह गृहीतौ / मिश्रस्त्वेतन्न बध्नाति, केवलमुत्कनीत्या तस्योत्कृष्टयोगो न लभ्यत इति सोऽपि नेहाधिकृतः। एते चाविरतसम्यग् दृष्टयादयो यदोत्कृष्ट योगाद्वन्धव्यवच्छेदाता प्रतिपत्यानुत्कृष्ट प्रदेशबन्धमुपकल्पयन्ति तदाऽसौ सादिः, सम्यक्तवसहित चोत्कृष्टयोगम प्राप्तपूर्वाणमनादिः, ध्रुवोऽभव्यानामध्रुवो भव्यानामिति। तथा भयजुगुप्सयोः सम्यग्दृष्टिविरता ऽऽदिरपूर्वकरणान्त उतकृष्टयोगे वर्तमान उत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति मिथ्यात्वभागो लभ्यत इति सम्यग्दृष्टिग्रहणम् / कषायभागः पुनः सजातित्वात्कषायाणामेव भवति, नैतयोः / मिथ्यादृष्टिस्तु मिथ्यात्वं बध्नातीति मिथ्यात्वभागो न लभ्यत इति ततस्येहाग्रहणम् / सास्वादनमिश्रयोस्तु लभ्यते मिथ्यात्वमागः केवलमुक्तनीत्या तयोरुत्कृष्टयोगो न लभ्यत इति तावपि नेहाधिकृतौ। अपूर्वकरणोपरिवर्तिनस्तु भयजुगुप्से न बध्नन्तीत्यपूर्वकरणन्तविशेषणम्। एते चाविरत सम्यग् दृष्टयादयो यदोत्कृष्टयोगाद्वन्धव्यवच्छेदाता प्रतिपथ्याऽनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धु मुपकल्पयन्ति तदा असौ सादिः, तत्स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिः ध्रुवोऽभव्यानाम्, अधुवो भव्यानामिति / तथाऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणचतुष्टयस्योत्कृष्टयोगो ऽविरतसम्यग्दृष्टिः सप्तविधबन्धक उत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति, मिथ्यात्वमनन्तानुबन्धिनश्चासौ न बध्नात्यतस्तद्भागद्रव्य मधिकं लभ्यत इत्यस्यैव ग्रहणम्। मिथ्यादृष्टिमिथ्यात्वमनन्तानुबन्धिनश्च सास्वादनस्त्वनन्तानुबन्धिनो बध्नातीति तयोरग्रहणम् / मिश्रस्तु मिथ्यात्वमनन्तानुबन्धिनश्च न बध्नाति, केवलमुत्कनीत्या तस्योत्कृष्टयोगो न लभ्यते, देशविरताऽऽदयस्त्वप्रत्याख्यानाऽवरणान्न बध्नन्तीति शेषव्युदासेनाविरत सम्यग दृष्टिरेवाधिकृतः / एष चाविरत सम्यग् दृष्टियंदा बन्धव्यच्छेदादुत्कृष्टयोगाद्वा प्रतिपथ्य पुनरनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं विदधाति तदाऽसौ सादिः तत्स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिः धुवोऽभव्यानाम्, अधूवो भव्यानामिति / तथा प्रत्याख्यानाऽऽवरणचतुष्टय स्योत्कृष्टयोगो देशविरतः सप्तविधबन्धक उत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति। अप्रत्याख्यानाऽऽवरणानामप्रासावबन्धकोऽतस्तद्धागोऽधिको लभ्यत इति। एष च देशविरतो यदा बन्धय्य - वच्छेदादुत्कृष्ट योगाद्वा प्रतिपस्य पुनरनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति तदा Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1175 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध ऽसौ सादिः, तत्स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिः धुर्वो ऽभव्यानाम, अधुवो भव्यानामिति। तथा संज्वलनक्रोधस्यनिवृत्तिया दरः पुंवेदबन्धे व्यवच्छिन्ने संज्वलनक्रोधाऽऽदिचतुष्टयं बध्नन्नुत्कृष्टयोगे स्थित उत्कृष्ट प्रदेशबन्धे करोति। मिथ्यात्वाऽऽद्यकषायद्वादशकभागः सर्वनोकषायभागश्चलभ्यत इति कृत्वा। संज्वलनमानस्य स एव क्रोधबन्धेव्यवच्छिन्ने संज्वलनमानाऽऽदित्रायं बध्नन्नुत्कृष्टप्रदेश करोति क्रोधभागो लभ्यत इति कृत्या। सएव मानबन्धे व्यवाच्छन्ने मायालोभौ बध्नन्मायाया उत्कृष्टप्रदेश करोति मानभागोऽपि लभ्यत इति कृत्वा / स एव मायाबन्धे व्यवच्छिन्ने लोभमेकं बध्नस्तस्यैवोत्कृष्ट प्रदेशं करोति एकं० द्वौ वा समयौ, एतच्च विशेषणं प्रागपि द्रष्टव्यं, समस्तमोहनीयभागस्तत्र लभ्यत इति लोभबन्धकस्यैव ग्रहणम्। एष चानिवृत्तिबादरौ यथा बन्धव्यवच्छेदुत्कृष्टयोगाद्वा प्रतिपत्त्य पुनरनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति तदाऽसौ सादिः, तत्स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिः धुर्वी ऽभव्यानाम् अधुवो भव्यानामिति / तथा ज्ञानाऽऽवरणपञ्चकान्तराय पञ्चकविषयः क्षपकस्योपशमकस्य वा सूक्ष्मसंपरायस्य सर्वोत्कृष्टयोगे वर्तमानस्यैक द्वौ वा समयौ यावदुत्कृष्टः प्रदेशबन्धः प्राप्यते। सूक्ष्मसंपरायो हि मोहनीयाऽऽयुः कर्मद्वयं न बध्नाति एतयोगियोरप्या ज्ञानाऽऽवरणपञ्चकेऽन्तरायपञ्चके च यथास्वं प्रवेशाद् बहुद्रव्यमिह लभ्यत इति सूक्ष्मसंपरायग्रहणम्। इह चोत्कृष्टप्रदशबन्धं कृत्वोपशान्तमोहवस्था चाऽऽरुहा पुनः प्रतिपत्योत्कृष्टयोगाद्वाऽत्रैव प्रतिपत्य यदा पुनरनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति तदाऽसौ सादिः, एतच्च स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिः सदा निरन्तरं बध्मानत्वात् ध्रुवोऽभव्यानाम्, स्कृष्टः प्रदेशबन्धः साद्याऽऽदिचतुर्विकल्पोऽपि भावितः / शेषत्रायस्य का वार्तेत्याह-(दुहा सेसि सव्वत्थ ति) शेषे भणितोद्धरिते द्विधा-द्विविकल्पः साद्यधुवलक्षणो वन्धो भवतीत्यर्थः / तत्रानुत्कृष्टभणनक्रमेणोत्कृष्टस्त्रिशतोऽपि प्रकृतीनां सूक्ष्मसंपरायाऽऽदिषु दर्शितः, स च तत्प्रथमतया बध्यमानत्वात्सादिः सर्वथा बन्धाभावेऽनुत्कृष्टबन्धसंभवे वाऽवश्यं न भवतीत्यधुवः / जघन्य पुनरेतासां त्रिंशत्प्रकृतीनां प्रदेशबन्धोऽपर्याप्तस्य सर्वमन्दवीर्यलब्धिकस्य सप्तविधबन्धकस्य सूक्ष्मनिगोदस्य भवाऽऽद्यसमये लभ्यते। जघन्यप्रदेशबन्धो हि जघन्ययोगेन भवतीत्युक्तम्, स चास्यैव व यथोक्तविशेषण विशिष्टस्य लभ्यते। द्वितीयाऽऽदिसमयेषु पुनरसावसंख्येय गुणवृद्धेन वीर्येण वर्धते इति भवाऽऽद्यसमयग्रहणम् / द्वितीयाऽऽदिसमयेष्वयमप्यजघन्यं बध्नाति, पुनः संख्यातेनासंख्यातेन वा कालेन पूर्वोक्तजघन्ययोग प्राप्य स एव जघन्य प्रदेशबन्धं करोति, पुनरजघन्यमित्येवं जघन्याजघन्योयः प्रदेशबन्धयो संसरतामसुमता द्वावप्येतौ साद्यधुवा भवतः / इति भावितस्त्रिशत उत्तरप्रकृतीनामनुकृष्टयप्रदेशबन्धश्चतुर्दा, उत्कृष्टजघन्याजघन्यप्रदेशबन्धश्च द्विधा / शेषे का वार्ते त्याह- "दुहा सेसि सव्वत्थ त्ति' पदं भूयोऽप्यनुवर्त्यते। शेषे भणिसत्रि शत्प्रकृत्यवशिष्ट स्त्यानर्द्धित्रिकमिथ्यात्वानन्तानुबन्धि चतुष्टयवर्णाऽऽदिचतुष्कतैजसकार्मणाऽगुरुलघूघात निर्माणलक्षणे सप्तदशध्रुवप्रकृतिकदम्बके औद्धा- रिकवैक्रियाऽऽ हारकशरीरायाङ्गोपाङ्ग त्रयसंस्थ नषटकसंहननषटकजाति पञ्चक्गतिचतुष्काविहायोगतिद्विकानुपूर्वी चतष्कतीर्थकरनामो च्छवासनामोद्यतनामाऽऽनपनाम पराघातनाम सदशकस्थावरद्दश कोर्गोत्रमी चेाितासासातवेदनीयहा स्यरत्यरतिशो कवेदत्रयाऽऽयुश्चतुष्टयलक्षणत्रि सप्ततिसंख्या ध्रुवबन्धिप्रकृति समूहे च सर्वत्रोत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्याजघन्यलक्षणे चतुर्विकल्पेऽपि प्रदेशबन्धे द्विधा दप्रकाराः सादिरधुवश्च बन्ध भवति / तथाहि-अधुवबन्धिनीनामधुवबन्धि त्यादेवोत्कृष्टानुत्कृष्टजधन्या-जघन्यस्तत्प्रदेशबन्धः सर्वोऽपि साद्यध्रुव एव भवति / स्स्यानद्धित्रिकमिथ्यात्वानन्तानुबन्धिनां सप्तविधबन्धक उत्कृष्टयोगे वर्तमानो मिथ्यादृष्टिरुकृष्टप्रदेशबन्धमेकं द्वौ वा समयौ यावत् करोति, सम्यगदृष्टिरेताः प्रकृतीन बध्नातीति मिथ्यादृष्टिग्रहम् / मिथ्यात्ववर्जा एताः प्रकृतीः सास्वादनोऽपि बध्नाति, परं भणितप्रकोरण सास्वादनस्योत्कृष्टयोगो नलभ्यत इति तस्याग्रहणम्। उत्कृष्टयोगस्यैतावानेव काल इत्येकद्वि-समयनियम् / उत्कृष्टयोगात् प्रतिपत्य स एवानुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति, पुनः स एवोत्कृष्टमित्येवं द्वावप्येतो साद्यध्रुवौ / जघन्यप्रदेशबन्धं पुनरेतासां सर्वजघन्यबीर्यलब्धिर्भवाऽऽद्यसमये वर्तमानः सप्तविधं बध्नन्नपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदाः करोति। द्वितीयाऽऽदिसमयेषु च स एवाऽजघन्यं करोति। कालान्तरेण पुनः स एव जघन्यं करोती त्येतावपि द्वौ साऽऽद्यध्रुवौ भवतः। तथा वर्णचतुष्कतैजसकार्मणा गुरुलधूपघातनिर्माणलक्षणस्य प्रकृतिनवकस्याप्युक्तन्यौत्कृष्टानुत्कृष्टी जघन्याजघन्यो च प्रदेशबन्धौ साद्यध्रुवावेवमेव वक्तव्यौ। नवरमुत्कृष्टयोगो मूलप्रकृतिसप्तविधबन्धको नामस्तिर्यग्गतिस्तिर्यगानुपूर्वी एकेन्द्रिय जातिरौदारिकशरीरं हुण्डसस्थानं स्थावरनाम बादर सूक्ष्मयोरन्यतरत् अपर्याप्तक प्रत्येक साधारणयोरन्यतरत् अस्थिरनाम अशुभनाम दुर्भगनाम अनादेयनाम अयशः कीर्तिवर्णचतुष्क तैजसकार्मणे अगुरुलधूपघात निर्माणमित्येवं त्रयोविंशतिमुत्तरप्रकृतीर्बध्नन्मिथ्यादृष्टिरुत्कृष्ट-प्रदेशबन्धको वाच्यः, शेषं तथैव / नाम्नों हिपञ्चविंशत्यादिबन्धग्रहणे बहवो भागा भवन्तीति त्रयोविंशतिबन्धग्रहणम्। इति भाविता उत्तरप्रकृतीराश्रित्योत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्याजघन्यप्रदेशबन्धेषु, साद्याऽऽदिविकल्पाः। सम्प्रति मूलप्रकृतीः प्रतीत्य उत्कृष्ट प्रदेशबन्धादिभङ्गेषु साद्याऽऽदिभङ्ग कानभिधित्सुराह- (मूलछगेऽऽणुकोसो चउह त्ति) मूलषटके मूलप्रकृतिषटके ज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायलक्षणे अनुत्कृष्टः प्रदेशबन्धश्चतुर्धा साऽऽद्यनादिध्रुवाध्रुवलक्षणश्चतुः प्रकारो भवति। तथाहि-प्रस्तुतकर्मषविषयः क्षपकस्योपशमकस्य वा सूक्ष्मसंपरायस्य सर्वोत्कृष्टयोगे वर्तमानस्यैकं द्वौ वा समयौ यावदुत्कृष्टः प्रदेशबन्धः प्राप्यते। सूक्ष्म संपरायो हि मोहनीयाऽयुः कर्मद्वयं न बध्नाति / कित्येतदेव प्रस्तुतकर्मषटकंबध्नात्यतो मोहनीयाऽऽयुर्भागयोरौवकर्मषटके प्रवेशो, बहुद्रव्यमिह लभ्यत इति सूक्ष्मसंपराय ग्रहणम्, उत्कृष्टच्च प्रदेशबन्ध उत्कनीत्या उत्कृष्टनैव योगेन भवतीत्युत्कृष्टयोगग्रहणम्, उत्कृष्टयोगावस्थानकालश्चै, तावानेव भवतीत्येकद्विसमयग्रहणम्। एवं चोत्कृष्ट प्रदेश Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध बन्धं कृत्वोपशान्तमोहावस्थां चाऽऽरुहा पुनः प्रतिपत्य उत्कृष्ट - योगाद्वाऽौव प्रतिपत्य यदा पुनरनुत्कृष्टयप्रदेशबन्धं करोति तदाऽसौ सादिः, एतच स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिः सदानिरन्तरं बध्यमानत्यात्, ध्रुयोऽभव्यानाम्, अधुवो भव्यानाम्, इत्युक्तः षण्णां मूलप्रकृतीनामनुत्कृष्टप्रदेशबन्धश्चतुर्विकल्पः / शेषबन्धत्रिके साधाऽऽदिभग कानाह(दुहासेसि सव्वत्थ त्ति) शेषेभणितोद्धरितेजघन्याजघन्योत्कृष्ट प्रदेशबन्ध लक्षणे शिके द्विधा-साऽऽद्यधुवलक्षणो द्विप्रकारो बन्धो भवति / तत्रानुत्कृष्टभणनप्रसङ्गेनोत्कृष्टः सूक्ष्मसंपरायेऽनन्तरं दर्शितः, स चतत्प्रथमतया बध्यमानत्वात्सादिः, उपशान्ताऽऽद्यवस्थायां पुनरनुत्कृष्टबन्धगमने चावश्यं न भवतीत्यधुवः, जघन्य पुनरमीषां षण्णां कर्मणां प्रदेशगन्धोऽपर्याणारा सर्वमन्दबीर्यलब्धिकस्य सप्तविधबन्धस्य सूक्ष्मनिगोपरय भवाऽऽद्यसमये लभ्यते / जघन्यप्रदेशबन्धो हि जघन्ययोगेन भवतीत्युत्कम्। स चास्यैव यथोक्तविशेषणविशिष्टस्य लभ्यते, द्वितीयाऽऽदिसमयेषु त्वसावसंख्येयगुणबृद्धेन वद्धत इति भवाऽऽद्यसमयग्रहणम् / द्वितीयाऽदिसमयेष्वयमप्यजघन्यं बध्नाति, पुनः संख्यतिना-ऽसंख्यातेन वा कालेन पूर्वोत्कजघन्ययोगं प्राप्य स एव जघन्यदेशबन्धं करोति, पुनरजघन्यमित्येवं जघन्याजधन्ययोः प्रदेशबन्धयोः संसरतामसुमता द्वावप्येतौ साद्यधुर्वो भवति इति। भाविता मूलप्रकृति षट्लकस्योत्कृष्टाऽऽदिबन्धविकल्पाः साद्याऽऽदि भङ्ग कैः अथावशिष्टयोर्मो हाऽयुषोरुत्कृष्टा- ऽऽदिप्रदेशबन्धान साद्याऽऽदिविकल्पतः प्ररूपयन्नाह - (दुहा सेसि सव्वत्थ त्ति) शेषे भणितोद्धरिते मोहे आयुषि च सर्वोत्कृष्टेऽनुत्कृष्ट जघन्येऽजघन्ये च प्रदेशबन्धे द्विधा साद्यध्रुवलक्षणा द्विविकल्पो बन्धो भवति / ता मिथ्यादृष्टिः सम्यगदृष्टिाऽनिवृत्तिबादरान्तः सप्तविध बन्धकाले उत्कृष्टयोगे वर्तमानो मोहनीयस्योत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति, पुनरनुत्कृष्टयोग प्राप्यानुत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति, पुनरुत्कृष्ट, पुनरप्युनुत्कृष्टमित्येवमुत्कृष्टानुत्कृष्टप्रदेश बन्धयोः संसरतांजन्तूना मोहस्योत्कृटानुत्कृष्टप्रदशेबन्धौ द्वावपि साद्यध्रुवौ भवतः, जघन्याजघन्यौ त्वेतत्प्रदेशबन्धौ यथा सूक्ष्मनिगोदाऽऽदिषुसंसरतामसुमतां कर्मषटकस्थानन्त - रमेव भावितौ तथाऽत्रापि निर्विशेष भावनीयो। आयुष्कस्यत्वध्रुवबन्धित्वादेव तत्प्रदेशबन्ध उत्कृष्टाऽऽदिचतुर्विकल्पोऽपि साद्यध्रुव एव भवतीति |64 || निरूपितः प्रदेशबन्धः साद्याऽऽदिप्ररूपणतः। संप्रति प्रागुत्कचतुर्विधबन्धे योगस्थानानि कारणं प्रकृतयः प्रदेशाश्च तत्कार्य प्रवर्त्तन्ते, तथा स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानानि कारण स्थितिविशेषास्तु तत्कार्यम्, अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानानि कारणम्, अनुभागस्थानानि तु तत्कार्यं वर्तन्ते इति कृत्वा सप्तानामप्येषां पदार्थानां परस्पर मल्पबहुत्वमभिधित्सुराहसेढिअसंखिज्जंसे, जोगट्ठाणाणि पयडिठिइमेया। ठिइबंधज्झवसाया–णुभागठाणा असंखगुणा / / 65 // योगो-वीर्य तस्य स्थानानि वीर्याविभागांशसंघातरूपाणि / कियन्ति पुनस्तानि भवन्तीत्याह -- (सेढिअसंखिजंसे त्ति) श्रेणेरसंख्येयांशः / एतदुक्तं भवति-श्रेणर्वक्ष्यमाणरूपाया असंख्येयभागे यावन्त आकाश प्रदेशा भवन्ति तावन्ति योग स्थानानि / एतानि चोत्तरपदापेक्षया सर्वस्तोकानीति शेषः। तत्र यथैतानियोगस्थानानि भवन्ति तथोच्यतेइह किल सूक्ष्मनिगोदस्यापि सर्वजघन्यवीर्यलब्धियुक्तस्य प्रदेशाः केचिदल्पवीर्ययुक्ताः, के चित्तु बहुबहुतरबहुतमवीर्यो पेताः / तत्र सर्वजधन्यवीर्ययुक्तस्यापि प्रदेशस्य संबन्धि वीर्य केवलिप्रज्ञाछेदेन छिद्यमानमसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेश प्रमाणान् भागान् प्रयच्छति, तस्यैवोत्कृष्टवीर्ययुक्ते प्रदेशे यद्वीर्यं तदेतेभ्योऽसंख्येयगुणान् भागान् प्रयच्छति। उक्तं च"पनाए छिजंता, असंखलोगाण जत्तिय पएसा। तत्तिय वीरियभागा, जीव पएसम्मि इक्किक्क // 1 // सव्वजहन्नगविरिए, जीवपएसम्मि तत्तिया संखा। तत्तो असंखेगुणिया, बहुविरिए जियपएसम्मि / / 2 / / " भागा-अविभागपलिच्छेदा इति चानान्तरम्। ततः सर्वस्तोकाविभागपलिच्छेदकलितानां लोकाऽसंख्येयभागवर्त्य संख्येयप्रतरप्रदेशराशिसंख्यानांजीवप्रदेशाना समानवीर्यपलिच्छेदतया जघन्यैका वर्गणा, तत एकेन योगपलिच्छदेना धिकानां तावतामेव जीवप्रदेशानां द्वितीया वर्गणा, एवमेकैकयोगपलिच्छेदबृद्धया वर्धमानानां जीवप्रदेशानां समानजातीयरूपाघनीकृतलोकाऽऽकाशश्रेणेरसंख्येय भागप्रदेशराशिप्रमाणा वर्गणा वाच्याः। एताश्चैतावात्योऽप्यसत्कल्पनया षट्स्थाप्यन्ते। तत्र जघन्यवर्गणाया जीवप्रदेशा असंख्येयवीर्यभागान्विता अप्यसत्कल्पनया दश भागान्विताः स्थाप्यन्ते / ते च जीवप्रदेशा एकैकस्या वर्गणायामसंख्येप्रतरप्रदेशमाना अप्यसत्कल्पनया त्रयस्त्रयः स्थाप्यन्ते। एताश्चैतावत्यः समुदिता एकं वीर्यस्पर्धकमित्युच्यते। अथ स्पर्धक इति कः शब्दार्थः? उच्यते-एकैकोत्तरवीर्यभागवृद्धया परस्परं स्पर्धन्ते वर्गणा यत्र तत्स्पर्धकम् / तत ऊर्ध्वमकेन द्वयादिभिर्वा वीर्यपलिच्छेदैरधिका जीवप्रदेशान प्राप्यन्ते किं तर्हि प्रथमस्पर्द्धकचरमवर्गणायां जीवप्रदेशेषु यावन्तो वीर्यपलिच्छेदास्तेभ्योऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणैरेव वीर्यपलिच्छेदरधिका जीवप्रदेशालभ्यन्तेऽस्तेषामपि समानवीर्यभागानां समुदायो द्वितीयस्पर्धकस्याऽऽद्यवर्गणा।तत एकेन वीर्यभागेनाधिकानां समुदायो द्वितीया वर्गणा। एवमेकोत्तरवृद्धिक्रमेणैता अपि श्रेण्यसंख्येयभागवर्तिप्रदेशमाना। वाच्यः / एतासामपि समुयायो द्वितीय स्पर्धकम्। इत ऊर्ध्व पुनरप्येकोत्तरवृद्धिर्न लभ्यते, किं तहसंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशतुल्यैरेव वीर्यभागैरधिकास्तत्प्रदेशाः प्राप्यन्तेऽतस्तेनैव क्रमेण तृतीयस्पर्धकमारभ्यते, पुनस्तेनैव क्रमेण चतुर्थम्, पुनः पञ्चममित्येवमेतान्यपि वीर्यस्पर्धकानि श्रेण्य संख्येयभाग वर्तिप्रदेशराशि प्रमाणानि वाच्यानि। एतेषां चैतावतां स्पर्धकाना समुदाय एकंयोगस्थानकमुच्यते / इदं तावदेकस्य सूक्ष्मनिगोदस्यभवाऽऽद्यसमये सर्वजधन्यवीर्यस्य योगस्थानकमभिहितम् तदन्यस्य तु किञ्चिदधिकवीर्यस्य जन्तोरनेनैव क्रमेण द्वितीय योगस्थानकमुत्तिष्ठते, तदन्यस्य तु तेनैव क्रमेण तृतीय, तदन्यस्य तु तेनैव क्रमेण चतुर्थमित्यमुना क्रमेणैतान्यपि योगस्थानि नानाजीवानां कालभेदेनैकजीवस्यवा श्रेणेरसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेश शिप्रमाणानि भव Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1177 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध न्ति / ननु जीवानामनन्तत्वात दाद्योगस्थानान्यनस्तानि करमान्न / भवन्ति? नैतदेवं, यत एवैकस्मिन् सदृशे योगस्थानेऽनन्ताः स्थावरजीवा वर्तन्ते, असास्त्वेकैकस्मिन् सदृशे योगस्थानेऽसंख्याता वर्तन्ते, तेषां च तदैककमेव विवक्षितम्, अतो विसदृशानि यथोत्कमानान्येव योगस्थानकानि भवन्ति / तथाऽपर्याप्ताः सर्वेऽप्येकैकस्मिन् योगस्थानके एकसमयमेवावतिष्टन्ते, ततः परमसंख्येयगुणवृद्धेषु प्रतिसमयभन्योऽन्ययोगस्थानकेषु संक्रामन्ति। पर्याप्तास्तु सर्वेऽपि स्वप्रायोग्ये सर्वजधन्ययोगस्थानके जघन्यतः समयमुत्कृष्टतश्चतुरः समयान् यावद्वर्तन्ते / ततः परमन्यद्योगस्थान कमुपजायते। स्वप्रायोग्योत्कृष्टयोगस्थानकेषु तुजघन्यतः समयमुत्कृष्टस्तु द्वौ समयौ / मध्यमेषु जघन्यतः समयमुत्कृष्टरन्तु कचित्वीन् क्वचिचतुरः क्वचित्पञ्च क्वचित षट् क्वचिप्तसप्त क्वचिदष्टौ समयान्यावद्वर्तन्ते इति, अयं चैतावानपि योगोक्वचित्सप्तमनः प्रभृतिसहकारिकारणवशात्प्यसंक्षिप्त सत्यमनोयोगासत्य मनोयोगसत्य मृषामनोयोगासन्यमृषा मनोयोगसत्यवाग्योगा सत्यवाग्योगसत्यमृषावाग्योगासत्य मृषावाग्योगादारिकमिश्र काययोगवैक्रियकाययोगवै क्रियमिअकाययोगाऽऽहारकमिश्रकाययोगकार्मणकाययोग भेदतः पञ्चदशधा प्रोक्तः, इत्यलं प्रसङ्गेन / एतेभ्यश्च योगस्थानेभ्योऽसंख्येयगुणाअसंख्यातगुणिताः (पयडि त्ति) भेदशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् प्रकृतिभेदा ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनां भेदाः। (असंस्वगुण ति) पदमनुभागबन्धस्थानानि यावत्सर्वत्रा योजनीयम्। इयमत्र भावना-इह तावदावश्यकाऽऽदिष्ववधिज्ञानदर्शनयोः क्षयोपश मवैचित्र्यादसंख्यातास्ताव दा भवन्ति (भणिताः) ततश्चैतदावरणबन्धस्यापि तावत्प्रमाणा भेदाः संगच्छन्ते. वैचित्र्येण बद्धस्यैव विचित्राक्षयोपशमोपपत्तेरिति। कथं पुनः क्षयोपशमवैचित्र्येऽप्यसंख्येय भेदत्वं प्रतीयत इति चेदुच्यतेक्षेत्रतारतम्येनेति / तथाहि-सिमयाऽऽहारक सूक्ष्म पनकसश्वावगाहनामानं जघन्यमवधिद्विकस्यक्षेत्र परिच्छेद्यतयोत्कम्। यदाह सकलश्रुतपारदृश्वा विश्वानुग्रहकाम्यया विहितानेकशास्त्रसंदर्भो भगवान श्रीभद्रबाहुस्वामी - "जावइयतिसमयाऽऽहारगस्स सुहमरस पणयजीवस्स / ओगाहणा जहन्ना, ओहिक्खेत्तं जहन्नं तु॥१॥" उत्कृष्टं तु सर्वबहुतैजस्कायिकजन्तूनां शुचिः सर्वतो भ्रमिता यावन्मात्रं क्षेत्रां स्पृशति तावन्मात्रां तस्य प्रमाणं भवति / यदाहुः श्रीमदाराष्यपादा:- "सव्वबहुअगणिजीवा, निरंतर जत्तियं भरिजंसु / खेत्तं सव्वदिसागं, परमोहिक्खेत्तनिहिट्ठो // 1 // " इति ततो जघन्यात्क्षेत्रादारभ्य प्रदेशवृद्धया प्रवृद्धोत्कृष्टक्षेत्राविषयत्वे सत्यसंख्येयभेदत्वमवधिद्विकरय क्षेत्रातारतम्येन भवति, अतस्तदावारकस्यावधिद्विकस्यापि नानाजीवानां क्षेत्राऽऽदिभेदेन बन्धवैचित्र्यादुदयवैचित्र्याद्वाऽसंख्येयगण भेदत्वम् / एवं नानाजीवानाश्रित्य मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीना शेषाणामप्यावरणानां तथाऽन्यासामपि सर्वासा मूलप्रकृतीनामुत्तरः-प्रकृतीनां च क्षेत्राऽऽदिभेदेन बन्धवैचित्र्यादुदयवैचित्र्याद्वाऽसंख्याता भेदाः संपद्यन्ते इति। उत्कं च"जम्हा उ ओहिविसओ, उक्कोसो सव्वबहुयसिहिसूई। जत्तियमित्तं फुसई, तत्तियमित्तप्पएससमो।।१।। तत्तारतम्मभेया, जेण बहुं हुति आवरणजणिया। तेणासखगुणं तं, पयडीण जोगओ जाणे ॥२॥'इति। चतसृणामानुपूर्वीणां बन्धोदयवैचित्र्येणासंख्याता भेदास्ते च लोकस्यासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशितुल्या इति बृहच्छतकचूर्णिकारोत्को विशेषः / ननु जीवानामनन्तत्वात्तेषां बन्धोदयवैचित्र्येणानन्ता अपि प्रकृतिभेदाः करमान्न भवन्ति?, नैतदेव, सदृशानां बन्धोदयानामेकत्वेन विवक्षितत्याद्विसदृशास्त्वेतावन्त एव तद्भेदा भवन्ति। ते च भेदाः प्रकृति भेदत्वात्प्रकृतय इत्युच्यन्ते / ततश्च योगस्थानेभ्योऽसंख्यात गुणाः प्रकृतयः यत एकैकस्मिन् योगस्थाने वर्तमान नाजीवैः कालभेदादेकजीवेन वा सर्वा अप्येताः प्रकृतयोबध्यन्तइति तथा तेभ्यः प्रकृतिभेदेभ्यः स्थितिभेदाः स्थितिविशेषा अन्तर्मुहूर्तसमयाधिकान्त मुहूर्त द्विसमयाधिकान्तर्मुहूर्तत्रिसमयाधिकान्तर्मुहूर्ताऽऽदिलक्षणा असंख्यातगुणा भवन्ति, एकैकस्याः प्रकृतेरसंख्यातैः स्थिति विशेषैर्वध्यमानत्वात् / एकमेव हि प्रकृतिभेदं कश्चिज्जीवोऽन्येन स्थितिविशेषेण बध्नाति, स एव चतं कदाचिदन्येन, कदाचिदन्यतरेण कदाचिदन्यतमेनेत्येवमेकं प्रकृतिभेदमेकं च जीवमाश्रित्यासंख्याताः स्थितिभेदा भवन्ति, किं पुनः सर्वप्रकृतीः सर्वजीवानाश्रित्य प्रकृतिभेदेभ्यः स्थिति भेदानामसंख्यातगुणत्वमिति, अतः प्रकृतिभेदेभ्यः स्थितिभेदा असंख्यातगुणा भवन्ति इति। तथा स्थितिभेदेभ्यः सकाशात् स्थितिबन्धा-ध्यवसायाः पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्यातगुणानि। तत्रा स्थानस्थितिः कर्मणोऽवस्थानं तस्या बन्धः स्थितिबन्धः / अध्यवसानानि-अध्यवसायाः, ते चेह कषायजनिता जीवपरिणामविशेषाः / तिष्ठन्ति जीवा एष्विति स्थानानि। अध्यवसाया एव स्थानान्यध्यवसायस्थानानि / स्थितिबन्धस्यकारणभूतान्यध्यवसायस्थानानि स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानानि।तानि स्थितिभेदेभ्योऽसंख्येयगुणानि, यतः सर्वजघन्योऽपि स्थितिविशेषोऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेश प्रमाणेरध्यवसायस्थानर्जन्यते, उत्तरेषु तुस्थितिविशेषास्तैरेव यथोत्तरं विशेषवृद्धजन्यन्तेऽतः स्थितिभेदेभ्यः स्थितिवन्धा ध्यवसायस्थानान्तसंख्यातगुणानि सिद्धानि भवन्ति / तथा (अणुभागहाण त्ति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादनुभागस्था नान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि तत्रानुपश्चाद्वन्धोत्तरकाल भज्यते-सेव्यते-अनुभूयते इत्यनुभागो रसस्तरय बन्धोऽनुभागबन्धः / अध्यवसानान्यध्यवसायास्ते चेह कषायजनिता जीवपरिणामविशेषाः। तिष्ठन्ति जीवा येष्विति स्थानानि। अध्यवसाया एव स्थानान्यध्यवसाय स्थानानि / अनुभागबन्धस्य कारणभूतान्यध्यवसायस्थाना न्यनुभागबन्धाध्यव सायस्थानानि / स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानेभ्यस्तन्यसंख्येयगुणानि भवन्ति। स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान होकैकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणमुत्कम्, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानं त्वेकैकं जघन्यतः सामयिकमुत्कृष्टतस्त्वष्टसामयिकान्त मेवोत्कम्, अत एकैकस्मिन्नपि नगरकल्पे स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थाने तदन्तर्गतानिनगरान्तर्गतोचैर्तीचैह कल्पानि नानाजीवान् कालभेदेनैकं जीव वा समाश्रित्याऽसंख्येय लोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाणान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि भवन्ति / तथाहि-जघन्यस्थितिजनकानामपि स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानानां मध्ये यदाद्यं सर्वलघुस्थिति Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1178 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध कं बन्धाध्यवसायस्थान त स्मिन्नपि देश क्षेत्रकालभावजीव भेदेनां संख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाणन्यनु भागबन्धा ध्यवसायस्थानानि प्राप्यन्ते, द्वितीयाऽऽदिषु तु तान्यप्यधिका न्यधिकतराणि च प्राप्यन्त इति सवेष्वऽपि स्थितिबन्धा ध्यवसायस्थानेषु भावना कार्या, अतः स्थितिबन्धा ध्यवसायस्थानेभ्योऽनुभागबन्धाध्य वसाय स्थानान्य संख्येयगुणानीति / / 65 / / तत्तो कम्मपएसा, अणंतगुणिया तओ रसच्छेया। जोगा पयदिपएस, ठिइअणुभागं कसायाओ॥६६।। ततस्तेभ्योऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेभ्यः कर्मप्रदेशाः-कर्मस्कन्धा अनन्तगुणिता भवन्ति / अयमत्र तात्पर्यार्थः प्रत्येकम भव्यानन्तगुणैः सिद्धानन्तभागवर्तिभिः परमाणुभिर्निष्पन्नान् भव्यानन्तगुणनेव स्कन्धान्मिथ्यात्वाऽऽ दिमिर्हेतुभिः प्रति समयं जीवो गृह्यतीत्युत्कम्, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानितु सर्वाण्यप्यसंख्येयलोका ऽऽकाशप्रदेशप्रमाणन्येवामिहितानि,अतोऽनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानेभ्यः कर्मेप्रदेशा अनन्तगुणाः सिद्धा भवन्ति / तथा (तओ रसच्छेय त्ति) ततस्तेभ्यःकर्मप्रदेशेभ्यो रसच्छेदा अनन्तगुणा भवन्ति। तथाहि-इह क्षीरनिम्बरसाऽऽधिश्रयणैरिवानुभागबन्धाध्यवसाय स्थानै स्तणऽलेष्विव कर्मपुगलेषु रसो जन्यते, स चै कस्यापि परमाणौः सम्बन्धी केवलिप्रज्ञया छिद्यमानः सर्वजीवनन्तगुणान विभागपलिच्छेदान् प्रयच्छति, यस्माद्भगादतिसूक्ष्मतपाऽन्यो भागो नोत्तिष्ठति सोऽविभागपलिच्छेद उच्यते, एवंभूताश्चानुभागस्याऽविभागपलिच्छेदा रसपर्यायाः सर्वकर्म स्कन्धेषु प्रतिपरमाणुसर्वजीवानन्तगुणाः संप्राप्यन्ते। उत्क-च-''गहणसमयम्मि जीवो, उप्पाएइ उगुणे सपचयओ। सव्वजियाणतगुणे, कम्मपएसेसुसव्वेसु / / 1 / / " गुणशब्देनेहाविभागपलिच्छेदा उच्यन्ते, शेषं सुगमम् / कर्मप्रदेशाः पुनः प्रतिस्कन्धं सर्वे अपि सिद्धानामप्यनन्तभाग एव वर्तन्तेऽतः कर्मप्रदेशेभ्यो रसच्छेदा अनन्तगुणाः सिद्धा भवन्ति इति। अत्राऽऽह-ननूक्तो भवद्भि सप्रपञ्च प्रदेशबन्धः, परं कस्माद्धेतोर# जीवः करोतीति वकत्व्यमिति प्रश्नमाशक्य प्रदेशबन्धस्य प्रसङ्गतः पूर्वोक्तानां प्रकृतिस्थि त्यनुभागबन्धानां च हेतून्निरुपयन्नाह - (जोगा पयडिपएस, टिइ अणुभाग कसायाओ त्ति) योगो, वीर्य, शक्तिः, उत्साहः, पराक्रम इति पर्यायाः / त स्माद्योगात्प्रकरणं प्रकृतिः, कर्मणां ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिस्वभावः, प्रकृष्टाः पुद्गलास्तिकायदेशाः प्रदेशाः कर्मवर्गणान्तःपातिनः, कर्मस्कन्धाः प्रकृतयश्च प्रदेशाश्च प्रकृतिप्रदेशं समाहारो द्वन्द्वः। तज्जीवः करोतीति शेषः। प्रकृति प्रदेशबन्धयोर्योगो हेतुरित्यर्थः। एतदुक्तं भवतियद्यपि षडशीतिकशास्त्रे मिथ्यात्वाविरिति कषाययोगाः सामान्येन कर्मणो बन्धहेतव उकात्स्तथाऽप्याद्यकारणत्रयाभावेऽप्युप शान्तमोहाऽऽदिगुणस्थानकेषु केवलयोगसद्धावे वेदनीयलक्षणा प्रकृतिस्तत्प्रदेशाच बध्यन्ते, अयोग्यवस्थायां तु योगाभावेन बध्यन्ते, इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां ज्ञायते प्रकृतिप्रदेशबन्धयोर्योग एव प्रधानं कारणम्। तथा-(ठिइअणुभागं कसायाओ त्ति) स्थान स्थितिः कर्मणोऽन्तर्मुहूर्ताऽऽदिकं सप्ततिसागरोपमकोटी कोटी पर्यन्तमवस्थान मित्यर्थः / अनुपश्चाद्वन्धोत्तरकालं भजनंस्थितेः सेवनमनुभवनं यस्यासावनुभागो रस इत्यर्थः / स्थितिश्चानुभागश्च स्थित्यनुभागं समाहारो द्वन्द्वः / तज्जीवः करोतीति शेषः। कस्मादित्याह-कषायात् कषायवशात्। इयमत्र भावनाकषायाः क्रोधमानमायालोभास्तजनितो जीवस्याध्यवसायविशेषः कषायशब्देनेहोच्यते। कषाया हयुदीरणा नानाजीवानां कालभेदेनैकजीवस्य वा सर्वजघन्याया अवि ज्ञानावरणाऽऽदिकर्मस्थितेर्निवर्तकान्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेश प्रमाणान्यन्तमॊहूर्ति कान्यध्यवसायस्थानानि जनयन्ति, समयाधिकतज्जधन्यस्थितिजनकानि तु त एव तेभ्यस्तानि विशेषाधिकानि जनयन्ति, द्विसमयाधिकतजघन्यस्थितिजनकानि पुनस्त एवानन्तरेभ्यस्तानि विशेषाधिकानि जनयन्ति, त्रिसमयाधिकतज्जघन्यस्थितिजनकानि पुनस्त एवानन्तरेभ्यस्तानि विशेषाधिकानि जनयन्ति, एवं समयोत्तवृद्धतज्जघन्यस्थितिजनकानि विशेषाधिकानि तावदाच्यानि यावत्त एव कषायाः समयोनोत्कृष्टज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिस्थितिजनकाध्यवसायस्थानेभ्यः सर्वोत्कृष्टतत् स्थिति जनकाध्यवसायस्थानानि विशेषाधिकानि निर्वर्तयन्ति, एतानि सर्वाण्यपि मिलितान्यसंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाणन्येव भवन्ति।स्थाप्यमानानि च विषयचतुरस्त्रं क्षेत्रमास्तृणन्ति / स्थापना चेयम्-तदेवमेतैः कषायजनिताध्यवसायैजन्यत्वात् कर्मणः स्थिति कषायप्रत्यया सिद्धा। तथा तेषामेव कषायाणां संबन्धि यलिकमुदयं प्राप्तं तत्रा यदनुभागस्थानकमुदेतिः तेन जीवस्य योऽध्यवसायो जन्यते तद्वशेन बध्यमानकर्मणामनुभागो निष्पद्यते / तथाहि-इह तावदनन्तैः परमाणुभिर्निष्पन्नान् स्कन्धान जीवः कर्मतया गृह्यति, तायैकैकस्कन्धे यः सर्वजघन्यरसः-परमाणुः सोऽपि केवलिप्रज्ञया छिद्यमानः किल सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान् भागान् प्रयच्छति, अपरस्तुतानप्येकाधिकान्, अन्यस्तुतानपि व्याधिकानित्यादिवृद्धया तावन्नेयं यावदन्त्य उत्कृष्टरसः परमाणुमौलर शेरनन्तगुणानपि रसभागान् प्रयच्छति। अत्र च जघन्यरसा ये केचन परमाणुवस्तेषु सर्वजीवानन्तगुणरसभागयुत्केष्वप्यसत्कल्पनया शतं रसांशानां परिकल्प्यते। एतेषां च समुदायः समानजातीयत्वादेका वर्गणेत्यभिधीयते। अन्येषां त्वेकोत्तरशतरसभागयुत्कानामणूना समुदायो द्वितीयाऽन्या वर्गणा। अपरेषांद्वयुत्तरशतरसभागयुत्कानामणूनां समुदायस्तृतीयावर्गणा / अपरेषां तुव्युत्तरशतरसभागयुत्का नामणूनां समुदायश्चतुर्थी वर्गणा / एवमनयादिशा * एकैकर सभागवृद्धानामणूनां समुदायरूपा वर्गणा सिद्धानामनन्तभागे ऽभव्येभ्योऽनन्तगुणा वाच्याः / एतासां चैतावतीनां वर्गणानां समुदायः स्पर्धकमित्युच्यते, स्पर्धन्तु इवाऽत्रोत्तरोत्तररसवृद्धया परमाणुवर्गणेति कृत्वा / एताश्चानन्तरोत्कानन्तकप्रमाणा अप्यसत्कल्पनया षट्थाप्यन्ते, इदमेक स्पर्धकम् / इत ऊर्ध्वमेकोत्तरया निरन्तरवृद्धया वृद्धो रसो न लभ्यते, किं तर्हि सर्वजीवानन्तगुणैरेव रसभागैर्वृद्धो लभ्यत इति तेनैव क्रमेण द्वितीयं स्पर्धकमारभ्यते, ततस्तथैव तृतीयमिन्यादि यावदनन्तान्यनुभागस्पर्धकान्युत्तिष्ठन्ति / एषां चानुभागस्पर्धकानां सिद्धानन्तभागवर्तिनामभव्येम्योऽनन्त गुणानां समुदायः प्रथममनुभागस्थानकं भवति / अन्येषु त्वधिकरसेषु स्कन्धेषु तेनैव क्रमेण द्वितीय तावत्प्रमाणमेवानुभागस्थान कमुत्तिष्ठति। अपरेषुत्वधिकरसेषु स्कन्धेषु तेनैव क्रमेण तृतीय Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध मनुभागस्थानकमुत्तिष्ठतीत्येवं सर्वेष्वपि कषायकर्मस्कन्धेष्व संख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणान्यनुभागस्थानानि भवन्ति / ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिसमस्त कर्मस्कन्धेष्वप्येत्तावन्त्येवामूनि भवन्ति, परं तावदिह कषाया एव कारणत्वेन षिचारयितुं अक्रान्ताः, तत्राच-जघन्यान्यनुभागस्थानान्युत्कृष्टतश्चतुरः समयान्णवदुदये समागच्छन्ति, मध्यमानितु कानिचिदद्धौ समयौ, कानिचित्रीन समयान्, अपराणि चतुरः समयान्. अन्यानिपञ्च समयान्, अन्यानिषट् समयान्, अपराणि सप्त समयान्, अन्यान्यष्टौ समयान्यावदुत्कृष्टत उदये समागच्छन्ति। उत्कृष्टानुभागस्थानान्मुत्कृष्टतोद्वौसमयौयावदुदयेसमागच्छन्ति, ततः परं सर्वत्रान्यत् परावर्तते। जघन्यस्तु सर्वाण्यपि समयस्थितीन्येव भवन्ति; अतस्तज्जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नोऽव्यवसायोऽप्येतावत्का लस्थितिक एव भवति, तेन च जघन्याऽऽदिभेदेनाध्यवसायवैचित्र्येण बध्यमानकर्मानुभागो जघन्याऽऽदिभेदविचित्रो जन्यते, अतः कषायानुभागजनिताध्यवसायवैचित्र्यनिर्वय॑ त्वात्कर्मणामनुभागः कषायप्रत्ययः सिद्धः / मिथ्यात्वाविरतिकारणद्वयाभावेऽपि कषायसद्भावेऽपि प्रमत्ताऽऽदिषु स्थित्यनुभागबन्धौ भवतः, कषायाभावे तूपशान्तमोहऽऽदिषु न भवतः, इतीहाप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां ज्ञायते कषाया एव स्थिरयनुभागबन्धयोः प्रधानं कारणमिति / / 16 / / कर्म०५ कर्म०। ___ अधुना बन्धस्य मूलहेतून गुणास्थानकेषु चिन्तयन्नाह -- 'इगचउपणतिगुणेसु" इत्यादि / इहेवं पदघटना एकरिमन्मिथ्या दृष्टिलक्षणे गुणस्थानके चत्वारो मिथ्यात्वा विरतिकषाययोगलक्षणाः प्रत्ययाहेतवो यस्य स चतुःप्रत्ययो बन्धो भवति। अयमर्थ:-मिथ्यात्वा दिभिश्चतुर्भिः प्रत्ययैर्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकवर्ती जन्तुर्मानाऽऽवरणाऽऽदिकर्म बध्नाति। तथा चतुर्पु गुणस्थानकेषु सास्वादनमिश्राऽविर तदेवशविरतिलक्षणेषु त्रयो मिथ्यात्ववर्जिता अविरतिकषाय योगलक्षणाः प्रत्यया यस्य स त्रिप्रत्ययो बन्धो भवतीति। अयमर्थः-सास्वादनाऽऽदयश्चत्वारो मिथ्यात्योदयाभावात्तद्वर्ज स्त्रिाभिः प्रत्ययैः कर्म बध्नन्ति देशविरत गुणस्थानके यद्यपि देशतः स्थूलप्राणातिपातविषया विरतिरस्ति तथापि साऽल्पत्वान्नेह विवक्षिता, विरतिशब्देनेह सर्वविरतेरेव विवक्षितत्वादिति / तथा पञ्चसु गुणस्थान केषु प्रमत्ताऽप्रमत्ताऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायलक्षणेषु द्वौ प्रत्ययो कषाययोगाभिख्यौ यस्य स द्विप्रत्ययो बन्धो भवति / इदमुत्कं भवतिमिथ्यात्वाविरतिप्रत्यय द्वयस्यैतेष्वभावाच्छेषेण कषाययोगप्रत्ययद्वयेनाऽमी प्रमत्ताऽऽदयः कर्म बध्नन्तीति। यथा त्रिखूपशान्तमोहक्षीणमोह सयोगिकेवलिलक्षणेषु गुणस्थानकेषु एक एव मिथ्यात्वाऽविरति कषायाऽभावाद्योगलक्षणः प्रत्ययो यस्य स एकप्रत्ययो भवति। अयोगिकेवली भगवान् सर्वथाऽप्यबन्धक इति // 52 // भाविता मूलबन्धहेतवो गुणस्थानकेषु / संप्रत्येतानेव मूलबन्धहेतून विनेयवर्गानुग्रहार्थमुत्तर प्रकृतीराश्रित्य चिन्तयन्नाह - चउ मिच्छमिच्छअविरइ, पञ्चइया सायसोलपणतीसा। जोगे विणु तिपचइया - हारगजिणवञ्ज सेसाओ / / 53 / / प्रत्ययशब्दस्य प्रत्येक संबन्धाचतुःप्रत्ययिका सातलक्षण प्रवृत्तिः / मिथ्यात्वप्रत्ययिकाः षोडश प्रकृतयः / मिथ्यात्वाविरति प्रत्ययिकाः पञ्चत्रिंशत्प्रतयः। योग बिना त्रिप्रत्ययिका मिथ्यात्वा विरतिकषायप्रत्ययिकाऽऽहारकद्विकजिनवर्जाः शेषाः प्रकृतय इति गाथाऽक्षरार्थः / भावाऽर्थः पुनरयम्-सात लक्षणा प्रकृतिश्चत्वारः प्रत्ययामिथ्यात्वाऽविरतिकषाययोगा यस्याः सा चतुःप्रत्ययिका / "अतोऽनेकस्वरात्" ||7 / 2 / 6 / / इति इकप्रत्ययः मिथ्यात्वाऽऽदिभिश्चतुर्मिरपि प्रत्ययैः सातं बध्नत इत्यर्थः / तथाहि-सातं मिथ्यादृष्टौ बध्यत इति मिथ्यात्वप्रत्ययं, शेषा अप्यविरत्या दयस्त्रयः प्रत्ययाः सन्ति, केवलं मिथ्यात्वस्यैवेह प्राधान्येन विवक्षितत्वात्, तेन तदन्तर्गगत्वेनैव विवक्षिताः, एवमुत्तत्रापि। तदेव मिथ्यात्वाभावे ऽप्यविरतिमत्सु साखादनाऽऽदिषु बध्यत इति अविरतिप्रत्ययम् / तदेव कषाययोगवत्सु प्रमत्ताऽऽदिषु सूक्ष्मसंपरायाऽवसानेषु बध्यत इति कषायप्रत्ययम् / योगप्रत्ययस्तु पूर्ववत्तदन्तर्गतो विवक्ष्यते। तदेवोपशान्ताऽऽदिषु केवलयोगवत्सु मिथ्यात्वाऽविरतिकषायाभावेऽपि बध्यत इति योगप्रत्ययम् / इत्येवं सातलक्षणा प्रकृतिश्चतुः प्रत्ययिका / तथा मिथ्यात्वप्रत्ययिकाः षोडश प्रकृतयः / इह यासां कर्मस्तवे-"नरयतिग जाइयावर चउहुंडायव छेवड्डनपुमिच्छं। सोलतो "इति गाथाऽवयवेन नारकत्रिकाऽऽदिषोडशप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टावन्त उक्तः, ता मिथ्यात्वप्रत्यया भवन्तीत्यर्थः / तद्भावे बध्यन्ते तद्भावे तत्तरत्रा सास्वादनाऽऽदिषु न बध्यन्त इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां मिथ्यात्वमेवासां प्रधान कारणं, शेषप्रत्ययायं तु गौणमिति / तथा मिथ्यात्वाऽविरतिप्रत्ययिकाः पञ्चत्रिंशत्प्रकृतयः / तथाहि -''सासणि तिरि थीण दुहग तिग, अणुमज्झागिइ संघयण चउ निउज्जोय कुखगइरिथ' इति सूत्रााऽवयवेन तिर्यत्रिकप्रभृतिपञ्चविंशतिप्रवृत्तीनां सास्वादने बन्धव्यवच्छेद उत्कः। तथा-''वहरनरतियवियकसाया-उरलदुगंतो 'इति सूत्रावयवेन वज्रर्षभनाराचाऽऽदीनां दशानां प्रकृतीनां देशविरते बन्धव्यच्छेद उत्कः एवं च पञ्चविंशतेर्दशानां च मीलने पञ्चत्रिंशत् प्रकृतयो मिथ्यात्वाऽविरतिप्रत्ययिका एताः शेषप्रत्ययद्वयं तु गौण, तद्भावेऽप्युत्तरत्रा तद्वन्धाऽभावादिति भावः / भणितशेषा आहारका द्विकतीर्थकरनामवर्जाः सर्वा अपि प्रकृतयो योगवर्जा त्रिप्रत्ययिका भवन्ति, मिथ्यादृष्टयविरतेषु सकषायेषु च सर्वेषु सूक्ष्मसंपरायायसानेषु यथा संभवं बध्यन्त इति मिथ्यात्वाऽविरतिकषायलक्षण प्रत्ययत्रयनिबन्धा भवन्तीत्यर्थः उपशान्तमोहाऽऽदिषु केवलयोगवत्सु योगसद्भावे ऽप्येतासांबन्धो नास्तीति योगप्रत्ययवर्जनमन्वयव्यतिरे कसमधिगम्यत्वात्कार्यकारणभावस्येति इदयम्। आहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणाऽऽहारकद्विक तीर्थकर नाम्नोस्तु प्रत्ययः ‘सम्मत्तगुणनिमित्तं, तित्थयरं संजमेण आहारं" इति वचनात् संयमः-सम्यक्तवं धाऽभिहित इतीह तर्जनमिति // 53 // उत्कं प्रासङ्गिकम्। इदानीमुत्तरबन्धभेदान् गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह - पणन्न पन्न पन्ना तिय-छहियचत्त गुणचत्तछ घउ दुगवीसा। सोलक दस नव नव, सत्त हेउणो न उ अजोगिम्मि / / 54 / / मिथ्यादृष्टी पञ्चपञ्चाशद्बन्धहेतवः / सासादने पञ्चाशद् ब Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1150 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध न्धहेतवः / चतुःशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात्यधिकचत्वारिं शदित्यर्थः, बन्धहेतवो मिश्रगुणस्थानके / षडभिकचत्वारिंशद् बन्धहेतवोऽविस्तगुणस्थानके / एकोनचत्वारिंशद् बन्धहेतवो देशविरतगुणस्थानके / विंशतिशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात्षडिवशतिबन्धहेतवः प्रमत्तगुणस्थाने। चतुर्विशतिबन्धहेतवो ऽप्रमत्तगुणस्थानके / द्वाविंशतिबन्धहेतवोऽपूर्वकरणे / षोडशबन्धहेतवोऽनिवृत्तिबादरे। दशबन्धहेतवः सूक्ष्मसंपराये। नव बन्धहेतत्र उपशान्तमोहे / नवबन्धहेतवः क्षीणमोहे। सप्तबन्धहेतवः सयोगिकेवलिगुणस्थाने / न तु नैवाऽयोगिन्येकोऽपि बन्धहेतुरस्ति, बन्धाऽभावादेवेति // 54 // अथाऽमूनेव बन्धहेतून् भावयन्नाहपणपन्न मिच्छि हारग-दुगूण सासाणि पन्न मिच्छ विणा। मिस्सदुकम्म अण विणु, तिचत्त मीसे अह छ चत्ता / / 55 / / मिथ्यादृष्टावाहारकाऽऽहारकमिश्रलक्षणद्विकोनाः पञ्चपञ्चाशदपन्धहेतयो भवन्ति, "आहारकद्विकवर्जनं तु संयमवतां तदुदयो नाऽन्यस्य' इति वचनात्। सास्वादने मिथ्यात्वपञ्चकेन विना पञ्चाशबन्धहेतवो भवन्ति, पूर्वोत्कायाः पञ्चाशतो मिथ्यात्वपञ्चकेऽपनीते पञ्चाशद् बन्धहेतवः सासादने द्रष्टव्याः। मिश्रे त्रिचत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति। कथमित्याह--मिश्रद्विकमौदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणम्, (कम्मत्ति) कार्मणशरीरम् (अण त्ति) अनन्तानुबन्धिनस्तैर्विना / इयमत्रा भावना'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं'' इतिवचनात् सम्यग्मिथ्यादृष्टः परलोकगमना भावादौदारिक मिश्रवैक्रियमिश्रद्विकं कार्मणं च न संभवति, अनन्तानुबन्ध्युदयस्य चाऽस्य निषिद्धत्वादनन्तानुवन्धि चतुष्टयं च नास्ति, अत एतेषु सप्तसु पूर्वोत्कायाः पञ्चाशतोऽपनीतेषु शेषास्त्रिचत्वारिंशद्बन्धहेतवो मिश्रे भवन्ति / अथाऽनन्तरं षट्चत्वारिंशद्वन्धहेतवो भवन्ति // 55 // सदु मिस्सकम्म अजए, अविरइकम्मुरलमीसविकसाए। मुत्तु गुणचत्त देसे, छवीस सहारदु पमत्ते // 56 / / केत्याह-अयते-अविरते, कथमित्याह-(सदु मिस्सकम्मत्ति) द्वयोर्मिश्रयोः समाहारो द्विमिश्र, द्विमिश्रंच कार्मणं च द्विमिश्रकार्मणं, सह द्विमिश्रकार्मणेन वर्तते या त्रिचत्वारिंशत्। इयमत्रा भावना-अविरतसम्यग्दृष्टः परलोकगमनसंभवात् पूर्वाऽपनीतमौदारिकमिश्रवैक्रिय मिश्रलक्षणद्विक कार्मणं च पूर्वोत्कायां त्रिचत्वारिंशति पुनः प्रक्षिप्यते, ततोऽविरते षट्चत्वारिंशबन्धहेतवो भवन्ति। तथा देशे-देशविरते एकोनचत्वारिशद्वन्धहेतवो भवन्ति। कथमित्याह-अविरतिस्रसाऽसंयमरूपा, कार्मणम्, औदारिकमिश्र, द्वितीय कषायानप्रत्याख्यानाऽऽवरणन मुक्तवा शेषा एकोनचत्वारिदिति। अत्रायमाशयः-विग्रहगतावपर्याप्तकाव स्थायां च देशविरतेरभावात्कार्मणो दारिकमिश्रद्वयं न संभवति, सासंयमाद्विरतत्वालासाविरतिर्न जाघटीति / ननु त्रसासंयमात् संकल्पजादेवासी विरतो नत्वारम्भजादपि तत्कथमसौ त्रासाविरतिः सर्वाऽप्यपनीयते? सत्य, किं तु गृहिणामशक्यपरिहारत्वेन सत्यप्यारम्भजात्र साविरतिर्न | विवक्षितेत्यदोषः एतच्च वृहच्छतकबृहचूर्णि मनुसृत्य लिखितमिति न स्वमीनषिका परिमावनीया / तथाऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणोदयस्याऽस्य निषिद्धत्वादित्यप्रत्याख्या नाऽऽवरणचतुष्टयं न घटा प्राञ्चति, तत एते सप्त पूर्वोत्कायाः षटचत्वारिंशतोऽपनीयन्ते, तत एकोनचत्वारिंशद्वन्धहेतवः शेषा देशविरते। भवन्ति तथा षडिवशतिर्बन्धहेतवः प्रमत्ते भवन्ति (साहारदुत्ति) सहाऽऽहारद्विकेनाऽऽहारकाऽऽहार कमिश्रलक्षणेन वर्तते इति साऽऽहारकद्विका // 56|| अविरइ इगार तिकसा-यवज्ज अपमत्ति मीसदुगरहिया। चउवीस अपुव्वे पुण, दुवीस अविउव्वियाहोर / / 57 // साविरतेर्देशविरतेऽपनयनाच्छेषा एकादशाविरतय इह गृह्यन्ते / तृतीयाः कषायाः त्रिकषायाः प्रत्याख्यानाऽऽवरणास्त दर्जास्तद्विरहिता साहारकद्विका च सेवैकोनचत्वारिंशत्षडिंवशतिर्भवति। इदमत्रहृदयम्प्रमत्तगुणस्थान एकादशधाऽविरतिः प्रत्याख्यानाऽऽवरणचतुष्टयं च न संभवति, आहारकद्विक च संभवति, ततः पूर्वोत्काया एकोनचत्वारिंशतः पञ्चदशकेऽपनीते द्विके च तत्र प्रक्षिप्ते षडिंवशतिबन्धहेतवः प्रमत्ते भवन्तीति / तथाऽप्रमत्तस्य लब्ध्यनुपजीवनेनाऽऽहारकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणमिश्रद्विकरहिता सैव षडिवशतिश्चतुर्विशतिर्बन्धहेतवोऽप्रमत्ते भवन्ति। अपूर्वे-अपूर्वकरणे पुनः सैव चतुर्विशतिक्रियाऽऽहारकरहिता द्वाविंशतिबन्धहेतवो भवन्तीति / / 57 // अछहास सोल बायरि, सुहुमे दस वेयसंजलणति त्रिणा। खीणुवसंति अलोभा, सजोगि पुव्वुत्त सय जोगा।।५८ / / एते च पूर्वोत्का द्वाविंशतिबन्धहेतवः 'अछहासा' - हास्यरत्यरतिशोकभय जुगुप्सालक्षणहास्यषहरहिताः षोडश बन्धहेतवः (बायरि त्ति) अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानके भवन्ति, हास्याऽऽदिषट्कस्यापूर्वकरणगुणस्थानक एवं व्यवच्छिन्नत्वादिति भावः / तथा त एव षोडशत्रिकशब्दस्य प्रत्येक संबन्धद्वेदत्रिकं स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणं सज्वलनकि संज्वलनक्रोधमानमायारुप, तेन विना दश बन्धहेतवः सूक्ष्मसंपराये भवन्ति / वेदत्रायस्य संज्वलनक्रोधमानमायात्रिक कस्य चानिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानक एव व्यवच्छिन्नत्वात्।तएव दश अलोभाः-लोभरहिताः सन्तो नव बन्धहेतवः / क्षीणमोहे उपशान्तमोहे च भवन्ति, मनोयोगचतुष्कवाग्यो गचतुष्कौदारिक काययोगलक्षणा नव बन्धहेतव उपशान्तमोहे क्षीणमोहे च प्राप्यन्ते, न तु लोभस्तस्य सूक्ष्मसंपराय एव व्यवच्छिन्नत्वात् / सयोगिकेवलिनि पूर्वोक्ताः सप्त योगाः / तथाहिऔदारिकमौदारिकमिश्र कार्मण प्रथमान्ति मौ मतोयोगौ प्रथमान्तिमौ वाग्योगौ चेति। तत्रौदारिकसंयोग्य वस्थायामौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगो समुद्घातावस्थायामेव वेदितव्यौ। "मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु / कार्मण शरीरयोगी, चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च // 1 // ' इति प्रथमान्ति ममनोयोगी भगवतोऽनुत्तरसुराऽऽदिभिर्मनसा पृष्टस्य मनसैव देशनात् प्रथमान्तिमवाग्योगौ तु देशनाऽऽदिकाले / अयोगिकेवलिनि न कश्चिद्वन्धहेतुर्योगस्यापि व्यवच्छिन्नत्वात् / / 55 / / उत्का गुणस्थानकेषु बन्धहेतवः। कर्म० 5 कर्म० (बन्धोदयसत्ता संबेधचिन्ता च गुणस्थानकेषु जीवस्थानेषु च 'कम्म' शब्दे तृतीयभागेऽधिका कृता)। Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध ११८१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध प्रशस्ताध्यवसानयुक्तो भव्यो देवेषूपपद्यते पाक्षिकाः, दृष्टयः, अज्ञानं, ज्ञान, संज्ञाः, वेदः, कषायाः, योगः, उपयोजीवे णं वसत्थज्झवसाणजुत्ते भविए सम्मट्ठिी तित्थकर- गश्च बन्धवक्तव्यतास्थानम् / तदेवमेतान्ये कादशाऽपि स्थानानीति नामसहियाओ णामस्स णियमा एगूणतीसं उत्तरपगडीओ निबं- गाथार्थः / तत्रानन्तरोत्पन्नाऽऽदिविशेषविरहित जीवामाश्रित्यैकादशधिता बेमाणिएसु देवेसु देवत्ताए उववजह। भिरुक्तरूपैरिबन्धवक्तव्यताम् (भ०) अभिधातुमाहजीवःप्रशस्ताध्यवसानाऽऽदिविशेषेण वैमानिकेषुत्पत्तुकामो नामकर्मण जीवे णं भंते! पावं कम्मं किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ 1 / एकोनविशदुत्तरप्रकृतीर्बध्नाति / ताश्चेमाः-देवगतिः 1, पञ्चेन्द्रिय- बंधी, बंधइ, ण बंधिस्सइ 2 1 बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ 3 / जातिः 2, वैक्रियद्वयम् 3-4, तैजसकार्मणशरीरे 5-6, समचतुरस्त्र बंधी ण बंधइ, ण बंधिस्सइ? गोयमा! अत्थेगइए जीवे बंधी, संस्थानम् 7, वर्णाऽऽदिचतुष्कम्-६-१०-१, देवानुपूर्वी 12, अगुरु- बंधइ, बंधिस्सइ 1, अत्थेगइए जीवे बंधी, बंधइ, ण बंधिस्सइ लघु 13, उपघातम 14, पराघातम 15, उच्छ्वासम् 16, प्रशस्त- 2, अत्थेगइए जीवे बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सई 3 / अत्थेगइए विहायोगतिः 17, सम् 18, बादरम् 16, पर्याप्तम् 20. प्रत्येकम् 21, जीवे बंधी, ण बंधइ, ण बंधिस्सइ। स्थिरा ऽस्थिरयोरन्यतरत् 22, शुभाऽशुभयोरन्यतरत् 23, सुभगम् 24, (जीवे णं इत्यादि) (पावं कम्म त्ति)। अशुभं कर्म बन्धीति बद्धवान्। सुस्वरम् 25. आदेयानादेययोरन्यतरत् 26, यशःकीर्तिः 27, निर्माणम् (बंधइति) वर्तमाने (बंधिस्सइत्ति) अनागते इत्येवं चत्वारो भगा बद्धवा२८, तीर्थकरश्चेति 26 / स०२६ सम०। नित्येतत्पदलब्धाः नबन्धीत्येतत्पदलभ्या स्त्विह न भवन्त्यऽऽतीतकासूक्ष्मपरंपरायस्य -- लेडबन्धकस्य जीवस्याऽसंभवात्तत्रा च बद्धवान् बध्नाति, भत्स्यति चेत्येष सुहुमसंपराए णं भगवं सुहमसंपरायभावे वट्टमाणो सत्तरस प्रथमः, अभव्यमाश्रित्य बद्धवान् बध्नातिन भत्स्यतीति द्वितीयः, प्राप्तकम्मपगडीओ निबंधति / तं जहा-आभिणिवोहियणाणावरणे, व्यक्षपकत्वं भव्य विशेषमाश्रित्य बद्धवान्न बध्नाति, भत्स्यतीत्येष सुयनाणावरणे, ओहिनाणावरणे, मणपज्जवनाणावरणे, केवलि- तृतीयो, मोहोपशमे वर्तमानभव्यविशेषमाश्रित्य ततः प्रतिपतितस्य तस्य नाणावरणे, चक्खुदंसणावरणं, अचक्खुदंसणावरणं, ओहिद- पापकर्मणोऽवश्यबन्धनात् बद्धवान्न बध्नाति, न भत्स्यतीति चतुर्थः क्षीण सणावरणं, केवलदसणावरणं, सायावेयणिज्जं, जसोकित्तिनाम, मोहमाश्रित्येति उचागोयं, दाणंतरायं, लामंतरायं भोगतरायं, उवभोगंतरायं, लेण्याद्वारेवीरिअअंतरायं। संलेस्से णं भंते! जीव पावं कम्मं किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ, तथा सूक्ष्मसंपराय उपशमकः क्षपको वा सूक्ष्मलोभ कषायकिट्टि- बंधी, बंधइ, ण बंधिस्सइ पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए बंधी, कावेदको भगवान् पूज्यत्वात् सूक्ष्मसंपरायभावे वर्तमानस्ताव गुणस्था- बंधइ, बंधिस्सइ, अत्थेगइए एवं चउभंगो। कण्हलेस्से णं भंते! नके ऽवस्थितेनातीताऽऽगतसूक्ष्म संपरायपरिणाम इत्यर्थः, सप्तदश जीवे पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए बंधी, कर्मप्रकृतीर्निवध्नाति, विंशत्युत्तरे बन्धप्रकृतिशते अन्या न बध्नाती- बंधइ, बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी, बंधइ, ण बंधिस्सइ, एवं त्यर्थः, पूर्वतरे गुणस्थानकेषु बन्धं प्रतीत्यान्यासां व्यवच्छिन्नत्वात्तथो- जाव पम्हलेस्से, सव्वत्थ पढमवितिया भंगा सुक्कलेस्से जहा तानां सप्तदशाना मध्यादेका साताप्रकृतिरुपशान्तमोहाऽऽदिषु बन्धमा- सलेस्से तहेव चउभंगो / अलेस्से णं भंते / जीवे पावं कम्मं किं श्रित्याऽनुयाति, शेषाः षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते / यदाह - "नाणं 5 बंधी पुच्छा? गोयमा! बंधी, ण बंधइ, ण बंधिस्सइ। तराय 5 दसग, दंसणचत्तारी 4 उच्च 15 जसकित्ती 16 / एया सोलस सलेश्यजीवस्य चत्वारोऽपि स्युः यस्माच्छुक्ललेश्यस्य पापकर्मणोऽयपयडी, सुहुमकसायम्मि वोच्छिन्ना / / 1 / / ' सूक्ष्मसंपरायात्परे न धकत्वमप्यस्तीति कृष्णलेश्याऽदिपञ्चक युक्तस्य त्वाद्यमेव भङ्गकद्वयं, बन्धन्तीत्यर्थः / स० 17 सम० / (संयताना बन्धः 'संजत' शब्दे तस्य हि वर्तमानकालिको मोहलक्षणपापकर्मण उपशमः, क्षयो वा वक्ष्यामि) (निन्थिानां बन्धः णिग्गंथ' शब्दे चतुर्थभागे 2041 पृष्ठ गतः) नास्तीत्येवमन्त्यद्वयाभावः, द्वितीयस्तु तस्य सम्भवति, कृष्णाऽऽदिलेजीवलेश्यापाक्षिकदृष्टिज्ञानाऽऽदिद्वारैर्बन्धवव्यता श्यावतः कालान्तरे क्षपकत्वप्राप्तो न भत्स्यतीत्येतस्य संम्भवादिति, जीवा य 1 लेस्स 2 पक्खिय 3, दिट्ठी 4 अण्णाण 5 णाण 6 अलेश्योऽयोगिकेवली तस्य च चतुर्थ एव लेश्याभावे बन्धकत्वाभावादिति। सण्णाओ७। वेय 8 कसाए 6 जोगे 10, उवओगे 11 एक्कारस पाक्षिकद्वारम् - वि ठाणे ॥१॥"तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे० जाव एवं कण्हपक्खिए णं भंते ! जीव पावं कम्म पुच्छा? वयासी। गोयमा! अत्थे गइए बंधी पढमवितिया भंगा / सुक्क - (जीवा यत्ति) जीवाः प्रत्युद्देशक बन्धवक्तव्यतायाः स्थानंततो लेश्याः | पक्खिए णं भंते! जीवे पुच्छा? गोयमा ! चउभंगो भा Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1182- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध णियव्वो / सम्मदिट्ठीणं चत्तारि भंगा, मिच्छहिट्ठीणं पढमबितिया, सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं चेव / णाणीणं चत्तारि भंगा। आभिणिबोहियणाणीणं० जाव मण्णपज्जवणांणीणं चत्तारि मंगा। केवलणाणीणं चरिमो मंगो जहा अलेस्सा। अण्णाणीणं पढमबितिया। एवं मतिअण्णाणीणं सुअअण्णाणीणं विभंगणाणीण वि आहारसण्णोवउत्ताणं० जाव परिग्गह-सण्णोवउत्ताणं पढमवितिया,णोसण्णोवउत्ताणं चत्तारिसवेदगाणं पढमवितिया। एवं इत्थिवेदगा पुरिसवेदगा णपुंसगवेदगाण वि / अवेदगाणं चत्तारि।सकसायीणं चत्तारि, कोहकसाईणं पढमवितिया भंगा। एवं माणकसायस्स वि | मायकसायस्स वि लोमकसायस्स चत्तारि भंगा। अकसाईणं भंते। जीवे पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइएबंधी, णं बंधइ, बंधिस्सइ। अत्थेगइएबंधी, णबंधइ, ण बंधिस्सइ, सजोगिस्स चउभंगो, एवं मणजोगिस्स वि, वइजोगिस्स वि, कायजोगिस्स वि / अजोगिस्स चरिमो। सागारोवउत्ते चत्तारि, अणागारोवउत्ते विचत्तारिभंगा। कृष्णापाक्षिकस्याऽऽद्यमेव भङ्गकद्वयं वर्तमाने बन्धाभावस्य तस्याऽमावात्, शुक्लपाक्षिकस्य तु चत्वारोऽपि, स हि बद्धवान्बन्ध्नाति, भत्स्यति च, प्रश्नसमयापेक्षयाऽनन्तरे भविष्यति समये तथा बद्धवान, बध्नाति,नभत्स्यति क्षपकत्वप्राप्तौ, तथा बद्धवान्न बध्नाति च उपशमे भत्स्यति च तत्प्रतिपाते 3 / तथा बद्धवान्न बध्नाति न च भत्स्यति क्षपकत्वे इति। अतएवाऽऽह-(चउभंगो भाणियव्वो त्ति) ननुयदि कृष्णपाक्षिकस्य नभत्स्यतीत्यस्य सम्भवाद् द्वितीयो भङ्गक इष्टस्तदा शुक्लपाक्षिकस्याऽवश्यं सम्भवात्कथं प्रथमभङ्ग इति? अत्रोच्यते-पृच्छानन्तरे भविष्यत्कालेऽबन्धकत्वस्य भावात् / उक्तं च वृद्धैरिह साक्षेपपरिहारम् - 'बंधिसयबीयभंगो, जुञ्जइ जइ कण्हपक्खियाईणं / तो सुक्कपक्खियाणं, पढमो भंगो कहिं गिज्झो॥१॥" उच्यतेपुच्छाणंतरकालं, पइपढमो सुक्कपक्खियाईणं। इयरेसिं अविसिढि कालं पइबीयओ भंगो॥१॥" इति। दृष्टिद्वारे-सम्यगदृष्टश्चत्वारोऽपिभङ्गाःशुक्लपाक्षिकस्येव भावनीयाः, मिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टीनामाद्यौ द्वावेव वर्तमानकाले मोहलक्षणपापकर्मणो बन्धभावेनान्त्यद्वयाभावादत एवाऽऽह - (मिच्छेत्यादि) ज्ञानद्वारे - (केवलणाणीणं चरमो भंगो त्ति) वर्त्तमाने एष्यत्काले बन्धाऽभावात् / (अण्णाणीणं पढमवीय त्ति) अज्ञाने-मोहलक्षणपापकर्मणः क्षपणोपशमनाभावात् संज्ञाद्वारे (पढमवीय त्ति) आहाराऽऽदिसंज्ञो प्रयोगकाले क्षपकत्वोपशमकत्वाभावात्। (नोसण्णोवउत्ताणं चत्तारित्ति) नोसंज्ञोप- 1 युक्ता आहाराऽऽदिषु गृद्धिवर्जितास्तेषांचचत्वारोऽपि क्षपणोयशमसम्भवादिति। वेदद्वारे-(संवेयगाणं पढमवीय रि) वेदोदये हि क्षपणोपशमौन स्यातामि त्याद्यद्वयम्-(अवेयगाणं चत्तारि त्ति) स्वकीये वेदे उपशान्ते बध्नाति, भंतस्यति च मोहलक्षणं पापकर्मयावत्सूक्ष्म संपरायो न भवति, प्रतिपतितोवा मत्स्यतीत्येवं प्रथमः। तथा वेदेक्षीणे बध्नाति, सूक्ष्मसपरायाऽऽद्यवस्थायांचन भन्स्यतीत्येवं द्वितीयः, तथोपशान्तवेदः सूक्ष्मसम्परायाऽऽदौ न बध्नाति, प्रतिपतितस्तु भत्स्यतीति तृतीयः / तथा क्षीणे वेदे सूक्ष्मसंपरायाऽऽदिषु न बध्नाति, न चोत्तरकालं भत्स्यतीत्येवं चतुर्थः, बद्धवानिति च सर्वत्रा प्रतीतमेवेति, कृत्वा न प्रदर्शितमिति / कषायद्वारे-(सकसाईणं चत्तारित्ति) तथाऽऽद्यो भव्यस्य द्वितीयो भव्यस्य प्राप्तव्यमोहक्षयस्य तृतीय उपशमकसूक्ष्मसम्परायस्य चतुर्थः क्षपकसूक्ष्मसम्परायस्य / एवं लोभकषायिणोऽपि बाध्यम् / (कोहकसाईणं पढमवीय त्ति) इहाऽभव्यस्य प्रथमो द्वितीयो भव्यविशेषस्य तृतीयचतुर्थी त्विह न स्तो, वर्तमानेऽबन्धकत्वस्याभावात्। (अकसाईणमित्यादि) तत्रा (बंधी न बंधइ बंधिस्सइ त्ति) उपशमिकमाश्रित्य (बंधी न बंधइन बंधिस्सइत्ति) क्षपकमाश्रित्येति।योगद्वारे-(सजोगिस्स चउभंगो त्ति) अभव्यभव्यविशेषोपशमक क्षपकाणां क्रमेण चत्वारोऽप्यवसेयाः। (अजोगिस्स चरिमो त्ति) बध्यमानभत्स्यमानत्वयोस्तस्याभावादिति। दण्डक:णेरइएणं भंते! पावं कम्मं किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ पुच्छा? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी पढ मवितिया। सलेस्से णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं एवं चेव / एवं कण्हलेस्से विणीललेस्से वि काउलेस्से वि। एवं कण्हपक्खिए विसुक्कपक्खिए वि।सम्मदिट्ठी मिच्छा-दिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी गाणी आमिणिबोहियणाणी सूअणाणी ओहीणाणी अण्णाणी मइअण्णाणी सुअअण्णाणी विभंगणाणी आहारसण्णोवउत्ते० जाव परिग्गहसण्णोवउत्ते सवेदए णपुंसगवेदए सकसाई० जाव लोभकसाई सजोगी मणजोगी बइजोगी कायजोगी सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते एए सव्वेसुपदेसु पठमवितिया भंगा भाणियव्वा। एवं असुरकुमारस्स वि वत्तव्वया, णवरं तेउलेस्सा इत्थिवेदगा पुरिसवेदगा य अमहिया, णपुंसगवेदगाण भण्णइ, सेसंतंचेव सव्वत्थ पठमवितिया भंगा। एवं० जाव थणियकुमारस्स / एवं पुढवीकाझ्यस्स वि।आउकायस्स वि०जावपंचिंदियतिरिक्ख जोणियस्ससव्वत्थ पढमवितियाभंगा, णरंजस्सजा लेस्सा दिट्ठीणाणं अण्णाणं वेदो जोगो जस्स जं अत्थितं तस्स भाणियव्वं, सेसं तहेव।मणूसस्स जबेवजीवपदेवत्तव्वयासबेव णिरवसेसाभाणियव्वा।वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स। जोइसियस्स वेमाणियस्स एवं चेव, णवरं Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध लेस्साओ जाणियव्वाओ, सेसं तहेव भाणियव्वं / / (नेरइए णमित्यादि) (पढमवीय त्ति)। नारकत्वाऽऽदौ श्रेणीद्वयाभावाप्रथमद्वितीयावेत / एवं सलेश्याऽऽदिविशेषितं नारकपदं वाच्यमेवमसुरकुमाराऽऽदिपदमणि। मणमासेग्यादि) / या जीवस्य निर्विशेषणस्य सलेश्याऽऽदिपदविशेषितस्य च चतुर्भङ्ग्यादिवक्तव्यतोक्ता सा मनुष्यस्य तथैव निरवशेषा वाच्या, जीवमनुष्ययोः समानधर्मात्वादिति / तदेवं सवे ऽपि पञ्चविंशतिर्दण्डकाः पापकमौऽऽश्रित्योक्ताः / एवं ज्ञानाऽऽवरणीयमपि आश्रित्य पञ्चविंशतिर्दण्डका वाच्याः। एतदेवाऽऽह। ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिकर्मबन्धा :जीवे णं भंते ! पाणावरणिज्जं कम्मं किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ? एवं जहेव पावकम्मस्स वत्तव्वया भणिया, तहेव णाणावरणिज्जस्स वि वत्तव्वया भाणियव्वा, णवरं जीवपदे मणुस्सपदे य सकसायी०जाव लोभकसायम्मिय पढमवितिया भंगा अवसेसं तं चेव० जाव वेमाणिए / एवं दरिसणावरणिजेण वि दंडगो भाणियव्वो णिरवसेसं। जीवेणं भंते! वेदणिज्जं कम्म किं बंधी पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए बंधी, बंधइ बंधिस्सइ; अत्थेगइए बंधी, बंधइ, ण बंधिस्सइ अत्थेगइए बंधी, ण बंधइ, णबंधि बंधइ / तलेस्से वि एवं चेव ततियविहूणा भंगा। कण्हलेस्से० जाव पम्हलेस्से पढमवितिया भंगा। सुक्कलेस्से नतियविहूणा भंगा। अलेस्से चरिमो भंगो। कण्हपक्खिए पढमवितिए सुक्कपक्खिया ततियविहूणा, एवं सम्मद्दिट्ठिस्स मिच्छादिट्ठिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स पढमवितिया / णाणिस्स ततियविहूणा, आमिणिबोहियणाणी जाव मणपज्जवणाणी पढमवितिया / केवलणाणी ततियविहूणा, एवं णो सण्णोवउत्ते अवेदए अकसायी सागारोवउत्ते अणागारावउत्ते, एएसुततियविहूणा, अजो गम्मि च चरिमो, सेसेसु पढमबितिया। नेरइए णं भंते! वेदणिज्जं कम्म किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ / एवं नेरइयादीया० जाव वेमाणिय त्ति जस्स जं अस्थि सव्वत्थ विपढमवितिया, नवरं मणुस्सेसु जहा जीवे / जीवे णं भंते! मोहणिज्जं कम्मं किं बंधी,बंधइ, बंधिस्सइ? जहेव पावं कम्मतहेव मोहणिशं पिणिरवसेसं जाव वेमाणिए। एतच समस्तमपि पूर्ववदेव भावनीयं, यः पुना विशेषस्तत्प्रतिपादनार्थमाह - नवरमित्यादि / पापकर्मदण्डके जीवपदे मनुष्यपदे च यत्सकषायिपदं लोभकषायिपदं च तत्रा सूक्ष्मसम्परायस्य मोहलक्षणपापकर्माऽबन्धकत्वेन चत्वारो भङ्गा उक्ताः इह त्वाद्यावेव वाच्याव वीतरागस्य ज्ञानाऽऽवरणीय बन्धकत्वादिति, एवं दर्शनाऽऽवरणीयदण्डकाः वेदनीयदण्डको प्रथमे भङ्गेऽभव्यो द्वितीये भव्यो यो निर्वास्यति, तृतीयोन संभवति, वेदनीयमबद्धवा पुनस्तद्वन्धनस्याऽसम्भवात्। चतुर्थे / त्वयोयी। (सलेसे वि एवं चेव तइयचिहूण्णा भंग त्ति) इह तृतीययस्याऽभावः पूर्वोक्तयुक्तेरवसेयः। चतुर्थः पुनरिहाभ्युपेतोऽपि सम्यग्राऽवगम्यते। यतः (बंधी नबंधति, न बंधिरराइ) इत्येतदयोगिन एव संभवति, स च सलेश्यो न भवतीति / केचित्पुनराहुरत एव वचनादयोगिता प्रथमसमये घण्टालालान्यायेन परमशुक्ललेश्याऽस्तीति सलेश्यस्य चतुर्थभङ्गकः सम्भवति, तत्वं तु बहुश्रुतगम्यमिति / कृष्णलेश्याऽऽदिपञ्चके अयोगित्वस्याभावादाद्यावेव शुल्कलेश्ये जीवे सलेश्यभाविता भङ्गा वाच्याः। एतदेवाऽऽह-(सुक्कलेस्से इत्यादि) (अलेस्से इत्यादि) अलेश्यः-शैलेशीगतः सिद्धश्च तस्य च बद्धवान्न च बध्नातिन भत्स्यतीत्येक एवेत्येदेषाऽऽह- (अलेस्से चरमो त्ति) (कण्ठपविखएपढमवीयपय ति) कृष्णपाक्षिकस्याऽयोगित्वाऽभावात्। (सुक्कपक्खिए तइयबिहुण त्ति) शुक्लपाक्षिको यस्मादयोग्यपि स्यादतस्तृतीयबिहीनाः शेषा स्तस्य स्युरिति। (एवं सम्मदिट्ठिस्स वित्ति) तस्याऽप्योगित्वसंभवेन बन्धासम्भयात् मिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टयाश्चोतयोगित्वाऽभावेन वेदनीयाऽबन्धकत्वं नाऽस्तीत्याद्यावेव स्यातामत एवाऽऽह- (मिच्छदिट्टीत्यादि) ज्ञानिनः केवलिनश्चाऽयोगित्वेऽन्ति मोऽस्ति, आभिनिबोधिकाऽऽदिष्वयोगित्याभावान्नान्तिम इत्यत्र आह-(नाणिस्सेत्यादि) एवं सर्वायत्राऽयोगित्वं सम्भवति तत्रा चरमो, यत्रा तु तन्नास्तितत्राऽऽद्यौ द्वावेवेति भावनीयमिति। आयुःकर्मदण्डकेजीवे णं भंते ! आउयकम्मं किं बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ? गोयमा! अत्थेगइए बंधी चउभंगो सलस्से० जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा। अलेस्से चरिमो भंगो। कण्हपक्खिएणं पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ / अत्थेगइए बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ। सुक्कपक्खिए सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा। सम्मा, मिच्छादिट्ठी पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए बंधी,ण बंधइ, बंधिस्सइ / अत्थेगइए बंधी, ण बंधइ, ण बंधिस्सइ / णाणी० जाव ओहिणाणी चत्तारि भंगा। मणपज्जवणाणी पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ / अत्थेगइए बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ / अत्थेगइए बंधी, ण बंधइ, ण बंधिस्सइ। केवलणाणी चरिमो भंगो / एवं एएणं कमेणं णो सण्णोवउत्ते वितियविहूणो जहेवमणपज्जवणाणे। अवेदए अकसाई यततियचउत्थो जहेव सम्मामिच्छत्ते / अजोगिम्मि चरिमो सेसेसु पदेसु चत्तारि भंगा० जाव अणागारोवउत्ते / णेरइए ण्णं भंते! आउय कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइएचत्तारिभंगा, एवंसव्वत्थ वि णेरइयाणं चत्तारि भंगा; णवरं कण्हलेस्सेसु कण्हपक्खिए य पढमततिया भंगा, सम्मामिच्छत्तेततियचउत्थो / असुरकुमारे एवं चेव, णवरं कण्हलेस्सेसु वि चत्तारि भंगा भाणियव्वा, सेसं जहा णेरइयाणं / एवं जाव थणियकुमार | पुढवीकाइयाणं सव्वत्थ Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1184 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध वि चत्तारि भंगा, णवरं कण्इपक्खियपढमततियभंगा। तेउलेस्से पुच्छा? गोयमा ! बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ / सेसेसु सव्वत्थ / चत्तारि भंगा, एवं आउक्काइयवणस्सइकाइयाणवि णिरवसेसं ते उक्काइयवाउकाइयाणं सव्वत्थ वि पढमततिया भंगा बेइंदियतेइदियचउरिदियाणं पिसव्वत्थ वि पढमततिया भंगा, णवरं सम्मत्ते आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे ततिओ भंगो।। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हपक्खिए पडमततिया भंगा, सम्मामिच्छत्ते ततियचउत्थो भंगो, सम्मत्ते ण्णाणे आभिणिबोहियणाणे सुअणाणे ओहिणाणे, एएसु पंचसु बितियविहूणा भंगा, सेसेसु चत्तारि भंगा! मणुस्साणं जहाजीवाणं, णवरं सम्मत्ते ओहियणाणे सुयणाणे ओहियणाणे एएसु बितियविहूणा भंगा, सेसं तं चेव। वाणमंतरजोइसियवेमाणिया। जहा असुरकुमारा। णामगोयं अंतराइयं च एयाणि जहा ण्णाणावरणिज्जं सेवं भंते! भंते! त्ति० जाव विरहइ। (चउभंगो ति) ता प्रथमोऽभव्यस्थ, द्वितीयो यश्चरमशरीरो भविष्यति तस्य, तृतीयः पुनरुपशमकस्य, स ह्ययुर्वद्धवान् पूर्वमुपशमकाले न बध्नाति, तत्प्रतिपतितस्तु भन्त्स्यति, चतुर्थस्तु क्षपकस्य / स ह्यायुबद्धवान्न बध्नाति, न च भत्स्यतीति। "सलेसे" इह यावत्करणात्कृष्णलेश्याऽऽ दिग्रहः / तत्रयो न निर्वास्यति तस्य प्रथमो, यन्तु चरमशरीर तयोत्पत्स्यते तस्य द्वितीयः, अबन्धकाले तृतीयः चरमशरीरस्य च चतुर्थः, एवमन्यत्राऽपि। (अलेस्से चरिमो ति) अलेश्यः-शैलेशीगनः सिद्धश्च, तस्य च वर्तमान भविष्यत्काल योरायुषोऽबन्धकत्वाचरमो भङ्गः, कृष्णपाक्षिकस्य प्रथमस्तृतीयश्च सम्भवति। तत्र च प्रथमः प्रतीत एव, तृतीयस्त्वायुष्काबन्धकाले नबध्नात्येवोत्तरकाले तु तद्भत्रयतीत्येव स्यात्। द्वितीयचतुर्थो तुतस्य नाभ्युपगम्येते कृष्णपाक्षिकत्वे सति सर्वथा तद्भत्स्यमानताया अभाव इति विवक्षणात् शुक्लपाक्षिकस्य सम्यग्दृष्टश्च चत्वारस्तत्रा बद्भवान् पूर्व बध्नातिच बन्धकाले भत्स्यति चाबन्धकाल स्योपरि इत्येकः, बद्धवान, बध्नाति, न भत्स्यति चरम शरीरत्वे इति द्वितीयः / तथा बद्धवान्न बध्नात्यबन्धकाले उपशमाऽवस्थायां वा भत्स्यति च पुनर्बन्धकाले प्रतिपतितो वेति तृतीयाः चतुर्थस्तु क्षपकस्येति, मिथ्याद्दष्टिस्तु द्वितीय भड़के नभत्स्यति चरमशरीरप्राप्ती तृतीये न बध्नात्यबन्धकाले, चतुर्थे न बध्नात्यबन्धकाले न भत्स्यति च चरमशरीरप्राप्तविति। (सम्मामिच्छेत्यादि)। सम्यग्मिथ्यादृष्टिरायुर्न / बध्नाति, चरमशरीरत्वे च कश्चिन्न भत्स्यत्यपि इति कृत्वाऽन्त्यावेवेति ज्ञानिना चत्वारः प्राग्वद्भावयितव्याः, मनःपर्यायज्ञानिनो द्वितीयवर्जाः, तत्रासौ पूर्वमायुर्बद्धवानिदानीं तु देवऽऽयुर्बध्नाति, ततो मनुष्याऽऽयुभेत्स्यतीति प्रथमः, बद्धवा न भत्स्यतीति न सम्भक्त्यवश्य देवत्ये मनुष्याऽऽयुषो बन्धनादिति कृत्वा द्वितीयो नास्ति। तृतीय उपशमकस्य, स हि न बध्नाति, प्रतिपतितश्च भंत्स्यति, क्षपकस्य चतुर्थः / एतदेव दर्शयति-(मणपजवेत्यादि) (केवलनाणे चरमोत्ति) केवली हि आयुर्न बध्नाति, न च मंत्स्यतीति कृत्वा, नोसंज्ञोपयुक्तस्य भङ्ग कायं द्वितीयवर्जे मनःपर्यववद्भावनीयम्। एतदेवाऽऽह-(एवं एएणं इत्यादि) (अवेदए इत्यादि) अवेदकोऽकषायी च क्षपक उपशमको वा, तयोश्च वर्तमानबन्धो नारत्यायुष उपशकश्च प्रतिपतितो भत्स्यति, क्षपकस्तु नैव भत्स्यतीति कृत्वा, तयोस्तृतीययुक्त 4 सवेद 1 स्त्रीवेदाऽऽदि 3 सकषाय 1 क्रोधाऽऽदिकषाय 4 सयोभि 1 मनोयोग्यादि 3 साकारोपयुक्ता ऽनाकारोपयुक्त लक्षणेषु चत्वार एवेति / नारकदगुडके - (चत्तारि भंग ति) तत्र नारक आयुर्बद्धवान्, बध्नातिबन्धकाले भत्स्यति भवान्तरे इत्येकः, प्राप्तव्यसिद्धिकस्य द्वितीयः, बन्धकालाऽऽभाव भाविबन्धकालं चोपेक्ष्य तृतीयः / बद्धपरभविकाऽऽयुषोऽनन्तरं प्राप्तव्य घरमभवस्य चतुर्थः एवं सर्वत्रा / विशेषमाह - (नवरमित्यादि) लेश्यापदे कृष्णलेश्येषु नारकेषु प्रथमतृतीयौ। लथाहि-कृष्णलेश्यो नारको बद्धवान, बध्नाति, भंत्स्यति चेति प्रथमः प्रतीतएव। द्वितीयस्तुनास्ति, यतः कृष्णलेश्यो नाहकस्तियल्पद्यते मनुष्येषु वा चरमतरीरेषु, कृष्णलेश्या हि पञ्चमनरकपृथिव्यादिषु भवति, न च ततः उदवृत्तः सिद्धयतीति। तदेवमसौ नारकस्तिर्यगाद्यायुर्बद्धवा पुनर्भेत्स्यति, अचरमशरीरत्वादिति / तथा कृष्णलैश्यो नारक आयुष्काबन्धकाले तन्न वध्नाति, बन्धकाले तु मंत्स्यतीति तृतीयः / चतुर्थस्तु तस्य नास्ति, आदुबन्धकत्वस्थाऽमावादिति। तथा कृष्णपाक्षिकनारकस्य प्रथमः प्रतीत एव, द्वितीयो नास्ति, यतः कृष्णपाक्षिको नारक आयुर्वद्धवा पुनर्न भवत्स्यतीत्येतन्नास्ति, तस्य चरमभवाऽभावात् तृतीयस्तु स्यात्, चतुर्थो ऽपि नोक्तयुक्तेरेवेति / (सम्मामिच्छते तइयचउत्थ त्ति) सम्यग्मिथ्यादृष्टेरायुषो। बन्धाभावादिति, असुरकुमारदण्डके (कण्हलेस्से वि चत्तारि भंग ति) नारकदण्डके कृष्णलेश्यनारकस्य किल प्रथमतृतीयावुक्तासुरकुमारस्य तु कृष्णलेश्यस्यापि चत्वार एव, तस्य हि मनुष्यमत्यवाप्तौ सिद्धिसम्भवेन द्वितीयचतुर्थयोरपि भावादिति, पृथिवीकायिकदण्डके-(कण्हपक्खिए पढ़मतइया भंग ति) इह युक्तिः पूर्वोक्तैवानुसरणीया, तेजोलेश्यापदे तृतीयो भङ्गः, कथं? कश्चिद्देवस्तेजोलेश्यः पथिवीकायिकेषु उत्पन्नः, सचाऽपर्याप्तकाऽवस्थायां तेजोलेश्यो भवति, तजोलेश्याऽद्धायां चापगतायामायुर्बध्नाति, तस्मात् / तेजोलेश्यः पृथिवीकायिक आयुर्बद्धवान् देवत्वेन बध्नाति, तेजोलेश्याऽवस्थायां भत्स्यति च, तस्यामपगतायमित्येवं तृतीयः। (एवं आउकाइयवणस्सइकाइयाण विति) उक्तन्यायेन कृष्णपाक्षिकेषु प्रथमतृतीयभडौ, तेजोलेश्यायां च तृतीयभङ्गसम्भवस्तेष्वित्यर्थोऽन्या तु चत्वारः (तेउकाइ-एत्यादि) तेजस्कायिकवायुकायिकानां सर्वत्र एकादशस्वपि उवृत्तानामनन्तरं मनुष्येष्वनुत्पत्या सिद्धिगमनाऽभावेन द्वितीय-चतुर्थाऽसम्भवात मनुष्येष्वनुत्पत्ति श्चैतेषां"सत्तममहिनेरइया, तेऊवाऊअणुतरुव्वट्टा / न य पावे माणुस्सं तहेव संखाऽऽउया सव्ये॥१॥" इति वचनादिति। (वेइदिएत्यादि) विकलेन्द्रियाणां Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध सर्वा प्रथमतृतीयभड़ो, यतस्तत उद्वृत्तामानन्तर्येण सत्य पि मानुषत्वे निर्वाणाऽभावस्तस्मादवश्यं पुनस्तेषामायुषो बन्ध इति / यदुक्तम्विकलेन्द्रियाणां सर्वा प्रथमतृतीयभङ्गाविति, तदपवादमाह - (नवरं संमत्ते इत्यादि) सम्यक्तवे ज्ञाने आभिनिबोधिके श्रुते च विकलेन्द्रियाणां तृतीय एव, यतः सम्यक्त्वाऽऽदीनि तेषां सासादनभावेनापर्याप्तकावस्थायामेव तेषु चापगतेष्वायुषो बन्ध इत्यतः पूर्वभवे बद्धवन्तः सम्यक्त्वाऽऽद्यवस्थायां न बध्नन्ति, तदनन्तरञ्च भत्स्यतीति तृतीय इति / (पंचिदियतिरिक्खेत्यादि) पञ्चेन्द्रियतिरश्या कृष्णपाक्षिकपदे प्रथमतृतीया कृष्णपाक्षिको हि आयुर्बद्धवा अबद्धवा वा तदबन्धकोऽनन्तरमेव न भवति तस्य सिद्धिगमना ऽयोग्यत्वादिति। (सम्मामिच्छते तइयचउत्थि ति) सम्यग्मिथ्यादृष्ट रायुषो बन्धभावात् तृतीयचतुर्थावेव, भावित तत् प्रागेवेति / (संमत्ते इत्यादि) पञ्चेन्दियतिरश्चा सम्यक्त्वाऽऽदिषु पञ्चसु द्वितीय वर्जा भङ्गा भवन्ति / कथम? यदा सम्यग्दृष्ट्यादिः पञ्चेन्द्रियतिर्थडायुर्बध्नाति तदा देवेष्वेव, स च पुनरपि भत्स्यतीति न द्वितीयसम्भवः, प्रथमतृतीयौ तु प्रतीतावेन, चतुर्थः पुनरेवम्-यदा मनुष्येषु बदाऽऽयुरसौ सम्यक्त्वाऽऽदि प्रतिपद्यतेऽनन्तरं च प्राप्तव्यचरमभवस्तदैवेति (मणुस्साणं जहा जीवाणं ति) इति विशेषमाह (नवरमित्यादि) सम्यक्त्वसामान्यज्ञानाऽऽदिषु पञ्चसु पदेषु मनुष्या द्वितीयविहीनाः। भावना चेह पञ्चेन्द्रियतिर्यकसूत्रावदव सेयेति। भ०२६श०१ उ०। प्रथमोद्देशके जीवाऽऽदिद्वारकादशकप्रतिबद्धन्वभिः पापकर्माऽऽदिप्रकरणैर्जीवाऽऽदीनि पञ्चविंशतिजीवस्थानानि निरूपितानि, द्वितीयऽपि तथैव तानि चतुर्विशतिर्निरूप्यन्ते, इत्येवं संबद्धस्याऽस्येदमादिसूत्रम्अणंतरोववण्णाए णं भंते! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा तहेव? गोयमा! अत्थेगइए बंधी पढमवितिया भंगा / सलेस्से णं भंते अणंतरोववण्णे णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा ! पढमवितिया भंगा, एवं खलु सव्वत्थ पढमवितिया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य ण पुच्छिज्जइ, एवं० जाय थणियकुमारा / बेइदियतेइंदियचउरिं दियाणं वइजोगो ण भण्णइ / पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं ओहिणाणं विभंगणाणं मणजोगो वइजोगो एयाणि पंच ण भण्णंति / मणुस्साणं अलेस्सासम्मा मिच्छित्तमणपज्जव णाणकेवल णाणविभंगणाणणोसण्णोवउत्ते अवेदगअकसायी मणजोगी वइजोगी अजोगी एयाणि एक्कारस पयाणि ण भण्णंति। वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा णेरइयाणं तहेव तिण्णि ण भण्णति, सव्वेसिं याणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्थ पढमवितिया भंगा। एगिदिया सव्वत्थ पढमवितिया जहा पाये। एवं णाणावर णिज्जेण वि दंडओ, एवं आउयवजेसुजाव अंतराइए दंडओ। अणंतरोववण्णए णं भंते! णेरइए आउयं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा ! बंधी, ण बंधइ, बंधिस्सइ / सलेस्से णं भंते! अणंतरोववण्णाए णेरइए आउयं कम्मं किं बंधी?, एवं चेव ततिओ भंगो। एवं जाव अणागारोवउत्ते सव्वत्थ विततिओ भंगो / एवं मणुस्सवजं० जाव वेमाणिया / मणुस्साणं सव्वत्थ ततिओ चउत्थो भंगो, णवरं कण्हपक्खिएसु ततिओ भंगो सव्वेसिं णाणत्ताई चेव। सेव भंते! भंते! त्ति। (अणंतरोववण्णाए णमित्यादि) इहाऽऽद्यावेव भङ्गो, अनन्तरोत्पन्ननारकस्य मोहलक्षणपापकर्माबन्धकत्वासम्भवा त्तद्धि सूक्ष्मसम्परायाऽऽदिषु भवति, तानि च तस्य न संभवन्तीति (सव्वत्थ त्ति) लेश्याऽऽदिपदेषु, एतेषु च लेश्याऽऽदिपदेषु सामन्यतो नारकाऽऽदीनां सम्भवन्त्यपि, यानि पदान्यनन्तरोत्पन्ननारकाऽऽदीनामपर्याप्तकत्वेन सन्ति, तानि तेषां न प्रच्छनीयानीति दर्शपन्नाह -(नवरमित्यादि) अत्रसम्यगमिथ्यात्वाऽऽक्तत्रयं यद्यपि नारकाणामस्ति तथाऽपीहा नन्तरोत्पन्न तया तेषां तन्नास्तीति न प्रच्छनीयमेवमुत्तरत्रापि। आयु:-कर्मदण्डके - (मणुरसाणं सव्वत्थ तइयचउत्थ त्ति) यतोऽनन्तरोत्पन्नो मनुष्यो नायुर्बध्नाति, भन्स्यति पुनश्चरमशरीरस्त्वसौ न बध्नाति, न च भन्स्यतीति (कण्हपक्खिएसु तइओ त्ति) कृष्णपाक्षिक्त्वेन न भन्त्स्यंतीत्येतस्य पदस्याऽसम्भवात् तृतीय एव। (सव्वेसि नाणत्ताई ताई चेव त्ति) सर्वेषां नारकाऽऽदिजीवानां यानि पापकर्मदण्डकेऽभिहितानि नानत्वानि तान्येवाऽऽयुदण्डकेऽ पीति / भ० 26 श०२ उ०। परंपरोववणाए णं भंते! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा ! अत्थेगइए पढमवित्तिओ एवं जहेव पढमओ उद्देसओ तहे व परंपरोववण्णएहिं विइओ उद्देसओ भाणियंटवो / णेरइयादीओ तहेवणावदंडगसंगहिओ अट्ठाण्ह वि कम्मपगडीणं जा जस्स कम्मस्स वत्तव्वया सातस्स अहीणमतिरित्ता णेयव्वा० जाव वेमाणिया, अणागारोवउत्ता सेवं भंते! भंते! त्ति। (परंपरोक्वण्णाए णमित्यादि) (जहेव पढमो उद्देसओत्ति) जीवनारकाऽऽदिविषयः केवलं तत्र जीवनारकाऽऽदिपञ्चविंशतिः पदान्यभिहितानि, इह तु नारकाऽऽदीनि चतुर्विशतिरेवेत्येतदेवा ऽऽह-(णेरइओश्रोत्ति) नारकाऽऽदयोऽत्रा वाच्या इत्यर्थः / (तहेव नवदंडगसंगहिओ त्ति) पापकर्मज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिप्रतिबद्धा ये नव दण्डकाः प्रागुत्कास्तैः संगृहीतोयुक्तो य उद्देशकः स तथा / भ०२६श०३ उ०। एवं चतुर्थाऽऽदय एकादशाऽनन्ता:अणंतरोवगाढए णं भंते! णेरइए णं पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा ! अत्थे गइए एवं जहेव अणंतरोववण्णएहिं Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध बंध 1186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 णवदंडगसहिओ उद्देसओ भणिओ तहेव अणंतरोवगाढएहिं वि अहीणमतिरित्तो भाणियव्वो,णेरइयादिए.जाव वेमाणिए। सेवं भंते! भंते! त्ति / परंपरोवगाढए णं भंते! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी, जहेव परंपरोववण्णएहिं उद्देसो सो चेव णिरवसेसो भाणियव्वो, सेव भंते ! भंते ! त्ति / अणंतराऽऽहारए णं भंते! जेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! एवं जहेव अहंतरोववण्णाएहिं उद्देसो तहेव णिरसेसो, सेवं भंते! भंते! त्ति। परंपराऽऽहारए णं भंते! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी, पुच्छा? गोयमा! एवं जहेव परंपरोववण्णाएहिं उद्देसो तहेव णिरवसेसो भाणियव्वो, सेवं भंते! भंते! त्ति। अणंतरपज्जत्तए णं भंते! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! एवं जहेव अणंतरोववण्णएहिं उद्देसो तहेव णिरवसेसं, सेवं भंते! भंते! त्ति / परंपरज्जतए णं भंते! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! एवं जहेव परंपरोववण्णएहिं उद्देसो तहेव णिरवसेसो भाणियव्वो, सेवं भंते! भंते! ति।। (अणतरोवगाढे त्ति) उत्पत्तिसमयापेक्षयाऽत्रानन्तराब गाढत्वमवसेवम्, अन्यथाऽनन्तरोल्पन्नानन्तराऽवगाढयो र्निविशेषतान स्यादुक्ता चासो"जहेव वाणमंतरोववण्णएहि इत्यादिना एवं परम्परावगाढोऽपि (अणंतराऽऽहारए त्ति) आहारकत्वप्रथमसमयवर्ती परम्पराऽऽहारकस्त्वाहारकत्वस्य द्वितीयाऽदिसमयवर्ती (अणंतरपज्जतए त्ति) / पर्याप्तकत्वप्रथम समयवर्ती सच पर्याप्तिसिद्धावपि तत उत्तरकालमेव पापकर्मा ऽऽदिबन्धलक्षणकारी भवतीत्यसावनन्तरोपपन्नकवद्व्यपदिश्यते। अत एवाऽऽह-(एवं जहेव अणंतरोववण्णाए हीरयादि) चरमाऽचरमौचरिमे णं मंते! णेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! एवं जहेव परंपरोववण्णाएहिं उद्देसो तहेव चरिमेहिं णिरवसेसं, सेवं भंतेभिंते! त्ति 1 0 जाव विहरइ / अचरिमे णं भंते! जेरइए पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए जहेव पढमुद्देसए तहेव पढमवितिओ भाणियव्वो सव्वत्थ० जाव पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं / अचरिमे णं भंते! मणुस्से पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी, बंधइ, ण बंधिस्सइ। अत्थेगइए बधी, ण बंधइ, ण बंधिस्सइ। सलेस्से णं भंते! अचरिमे भणुस्से पावं कम्मं किं बंधी, एवं चेव तिण्णि भंगा चरिमविडूणा भाणियव्वा, एजहेब पढमुद्देसे, णवरं जेसु तत्थ वीससु पदेसु चत्तारि भंगा तेसु इह आदिल्ला तिण्णि भंगा भाणियव्वा चरिमभंगवञ्जा। अलेस्सा केवलणाणी अजोगीय एए तिण्णि विण पुच्छिज्जंति, सेसं जहेव। बाणमंतरजोइसियवेमाणिए जहाणेरइए। अचरिमे णं भंते! णेरइए णाणावरणिज कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! एवं जहेव पावं णवरं मणुस्सेसु सकसाईसुलोभकसाएसुय पढमवितिया भंगा, सेसा अट्ठारस चरिमविहूणा सेसं तहेव० जाव वेमाणिया। दरिसणावरणिज्जं पि एवं चेव णिरवसेसं / वेयणिज्जे सव्वत्थ वि पढमवितिया भंगा० जाव वेयाणिया,णवरं मणुस्सेसु अलेस्सकेवली अजोगी य णस्थि / अचरिमे णं भंते! णेरइए मोहिणज्जं कम्म किं बंधी पुच्छा? गोयमा! जहेव पावं तहेव णिरवसेसं० जाव वेमाणिए / अचरिमे णं भंते! जेरइए आउयं कम्मं किं बंधी पुच्छा? गोयमा! पढमततिया भंगा। एवं सव्वपदेसु विणेरइयाणं पढमततिया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्ते ततिओ भंगो / एवं० जाव थणियकुमार पुढवीकाइय आउकाइयवणस्सइ-काइयाणं तेजोलेस्साए ततिओ भंगो। सेसेसु पदेसु सव्वत्थ पढमततिया मंगा / तेउकाइयवाउकाइयाणं सव्वत्थ पढमततिया भंगा। वेइंदिय तेइंदियचउरिदियाणं एवं चेव, णवरं सम्मत्तओहियणाणे आमिणिबोहियणाणे सुअणाणे एएसु चउसु वि ठाणेसु ततिओ भंगो पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते ततिओ मंगो, सेसपदेसु सव्वत्थ पढमततिया भंगा, मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेदए अकसाइम्मियततियभंगो। अलेस्सकेवलणाणअजोगी यण पुच्छिजंति, सेसपदेसु सव्वत्थ पढमततिया भंगा, वाणमंतरजोइसिया वेमाणिया जहा रइया / णामं गोयं अंतराइय च जहेव णाणावरणिजं तहेव णिरवसेस, सेवं भंते / भंते! त्ति० जाव विहर।। (चरिमेणं भंते / नेरइए त्ति) इह चरमो यः पुनस्तं भवं न प्राप्स्यति। (एवं जहेवेत्यादि) इह च यद्यपि अविशेषेणाऽतिदेशः कृतस्तथापि विशेषोऽवगन्तव्यः / तथाहि चरमोद्देशकः परम्परोपन्नकोद्देशकवद्वाच्य इत्युक्तं परंपरोद्देशकश्च प्रथमोद्देशकवत्, तत्रा मनुष्यपदे आयुष्कापेक्षया सामान्यत श्चत्वारो भङ्गा उत्कास्तेषु च चरममनुष्यस्याऽऽयुः कर्मबन्धमाश्रित्य चतुर्थ एव घटते, यतो यश्चरमोऽसायायुर्बद्ध वान्न बध्नाति, नच भत्स्यतीति, अन्यथा चरमत्वमेव न स्यादि त्येवमन्यत्रापि विशेषोऽवगन्तव्य इति। अचरमो यस्तमेव पुनः प्राप्यस्यति, तत्राचरमोदेशके पञ्चेन्द्रिय तिर्यगन्तेषु पदेषु पापकर्माऽऽश्रित्याऽऽदौ भङ्गका मनुष्याणांतु चरमभङ्गकवस्त्रियः, यतश्चतुर्थश्वरमस्येति। एतदेव दर्श Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1187 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध यति- (अचरिमेण भंते! मणूसे इत्यादि) (वीससु पएसु त्ति) तानि | चैतानिजीव 1 सलेश्य 2 शुक्ललेश्य 3 शुक्लपाक्षिक 4 सम्यग्दृष्टिज्ञानि 5-6 मतिज्ञान्यादिचतुष्टय 10 नोसंज्ञोपयुक्ता 11 वेद 12 सकषाय 13 लोभ्कषायि 14 सयोगि१५ मनोयोग्यादिाय१८ साकारोषयुक्ताऽ 16 नाकारोपयुक्तलक्षणानि 20 / एतेषु च सामान्वेन भङ्ग कचतुष्क सम्भवऽप्यचरम-त्वान्मनुष्यपदे चतुर्थी नास्ति, चरमस्यैव तद्भावादिति / (अलस्से इत्यादि) अलेश्याऽऽदयस्त्रायश्चरमा एव भवन्तीति, ते चेह न द्रष्टव्याः ज्ञानाऽऽवरणीयदण्डकोऽप्येव, नवरं विशेषोऽयम् - पापकर्मदण्डके सकषायलोभकषायिषु आद्यास्त्रयो भङ्ग का उत्काः, इह त्वाद्यौ द्वावेव, यत एते ज्ञानाऽऽवरणीयमबद्धा पुनर्वन्धका न भवन्ति। कषायिणा सदेव ज्ञानाऽऽवरणबन्धकत्वाचतुर्थस्त्वचरमत्वादेवन भवतीति (वेयणिजे सव्वत्थ वि पढमवीय त्ति) तृतीयचतुर्थवोर सम्भवादेयतयोहि प्रथमः प्रागुक्तयुक्तेन सम्भवति, द्वितीयस्त्वयोगित्व एव भवतीति। आयुर्दण्डके --- (अचरिमे गं भंते। नेरइए इत्यादि)(पढमततिया भंग ति) तत्रा प्रथमः प्रतीत एव, द्वितीयस्त्वचरमत्वान्नास्त्यचरमस्य ह्यायुर्बन्धोवश्य भविष्यत्यन्यथाऽचरमत्वमेव न स्यादेवं चतुर्थोऽपि, तृतीय तुन बध्नात्यायुस्तदबन्धकाले पुनर्भन्त्स्य त्यचरमत्वादिति, शेषपदानां तु भावना पूर्वोक्तानुसारण कर्त्तव्येति। भ० 26 श०११ उ०। (किं कर्मबन्धं कतिकर्मप्रकृतीबध्नाति, कति वेदयते, इति 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 261 पृष्ठ उक्तम्) ज्ञानाऽऽवरणीय कर्म किं स्त्री बध्नाति, पुरुषो वा इत्यादि वक्तव्यतानाणवरणिलं णं भंते! कम्मं किं इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, नपुंसओ बंधइ, नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसओ बंधइ? गोयमा! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ, नपुंसओ वि बंधइ, नो इत्थी नो पुरिसो, नो नपुंसओ सिय बंधइ, सिय नो बंधइ। एवं आउगवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ। आउगं भंते! कम्मं किं इत्थी बंधइ, पुरिसपुच्छा? गोयमा! इत्थी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, एवं तिन्नि विभाणियव्वा / नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसओ न बंधइ। (नाणावरणिजे ण भते! कम्मं किं इत्थी बंधइ) इत्यादि प्रश्नस्तत्रा न स्त्री न पुरुषो न नपुंसको वेदोदयरहितः स चानिवृत्तिबादरसपरायप्रभृतिगुणस्थानकवी भवति, तत्राचा ऽनिवृत्तिबादरसंपरायसूक्ष्मसंपरायो ज्ञानाऽऽवरणीयस्य बन्धको सप्तविधषविधबन्धकत्वात उपशान्तमोहाऽऽदि स्त्वबन्धक एकविधबन्ध कत्वादत उक्तम्-स्याद्वध्नाति स्यान्न बध्नाति, इति। (आउगं ण भंते!) इत्यादि प्रश्नस्तत्र वयादि त्रयमायुः स्याद्वध्नाति. स्यान्न बध्नाति, बन्धकाले बध्नाति, अबन्धकाले न बध्नात्यायुषः सकृदेवैकत्रा भवे बन्धात् निवृत्त स्त्रयादिवेदस्तुन बध्नाति, निवृत्तिया दरसंपरायाऽऽदिगुण स्थानकेष्वायुर्वन्धस्य व्यवच्छिन्नत्वात्। संयत:णाणावरणिज्जं णं मंते ! कम्मं किं संजए बंधइ, असंजए, एवं संजयाऽसंजए बंधइ, नो संजए नो असंजए नो संजयाऽसंजए बंधइ? गोयमा ! संजए सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, असंजए बंधइ, संजयाऽसंजए वि बंधइ, नो संजए नो असंजए नो संजयाऽसंजए न बंधइ / एवं आउगवजाओ सत वि आउने हेट्ठिल्ला तिणि भयणाए उवरिल्लो न बंधइ / भ०६ श० ३उ०1 दृष्टिसंज्ञानाणावरणिजणं भंते! कम्मं किं सम्मदिट्ठी बंधइ मिच्छदिट्ठी बंधइ, सम्मामिच्छद्दिट्ठी? गोयमा! सम्मट्ठिी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, मिच्छद्दिट्ठी बंधइ, सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ / एवं आउगवजाओ सत्त वि आउए हेट्ठिल्ला दो भयणाए सम्मामिच्छदिट्ठीन बंधइ। नाणाऽऽवरणं किं सन्नी बंधइ, असन्नी बंधइ, नो सन्नी, नो असन्नी बंधइ? गोयमा! सन्नी सिय बंधइ, सियन बंधइ, असन्नी बंधइ, नो सन्नी नो असन्नीनबंधइ. एवं वेयणिज्जाऽऽउगवजाओ छ कम्मप्पगडीओ वेयणिज्ज हेढिल्ला दो बंधइ, उवरिल्ला भयणाए आउगं हेढिल्ला दो भयणाए उवरिल्ले न बंधइ।) (सम्मदिट्टी सिय त्ति) सम्यग्दृष्टिः- वीतरागस्तदितरश्च स्यात्तत्रा वीतरागो ज्ञानाऽऽवरणं न बध्नास्येकविधबन्धकत्वा दिरश्च बध्नातीति स्यादित्युक्तं, मिथ्यादृष्टिमिश्रदृष्टी तु बध्नीत एवेति। (आउए हेहिल्ला दो भयणाए ति) सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टी आयुः स्याद्वध्नीतः स्यान्न बध्नीत इत्यर्थः / तथाहि-सम्यग्दृष्टिरपूर्वकरणाऽऽदिरायुर्न बध्नाति, इतरस्तु आयुर्वन्धकाले तद्वध्नाति, अन्यदा तु न बध्नात्येवं मिथ्यादृष्टिरपि, मिश्रदृष्टिस्तवायुर्न बध्नात्येव, तद्वन्धाऽध्यवसायस्थानाभावादिति / सज्ञिद्वारे - (सन्नी सिय बंधइ त्ति) संज्ञी मनःपर्याप्तयुक्तः, स च यदि वीतरागस्तदा ज्ञानाऽऽवरणं न बध्नाति, यदि पुनरितरस्तदा बध्नाति ततः स्यादित्युक्तम्। (असन्नी बंधइत्ति) मनः पर्याप्तिविकलो बध्नात्येव / (नोसन्नीनोअसन्नि ति) केवली सिद्धश्च न बध्नाति, हेत्वभावात् / (वेयणिजं हेडिल्ला दो बंधति त्ति) संज्ञी असंज्ञी च वेदनीयं बध्नीत, अयोगिरिसद्धवजनिांतद्वन्धकत्वात्। (उपरिल्ले भयणाए त्ति) उपरतिनोनोसंज्ञी नोअसंज्ञी, स च सयोगायोगकेवली सिद्धश्च, तत्र यदि सयोगकेवली तदा वेदनीयं बध्नाति, यदि पुनरयोगकेवली सिद्धो वा, तदा न बध्नाति, अतो भजनयेत्युक्तम्। (आउग हेडिल्ला दो भयणाए त्ति) संज्ञी चाऽऽयुः स्याद्वनीत, अन्तर्मुहूर्तमेव तद्वन्धात्। (उवरिल्ले न बंधइत्ति) कवली सिद्धाश्चाऽऽयुर्न बध्नातीति। भवसिद्धिद्वारमनाणावरणिज्जं कम्मं किं भवसिद्धिए बंधइ, अभवसिद्धिए, नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए बंधइ ? गोयमा ! भवसिद्धिए भयणाए अभवसिद्धिए बंधइ, नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए न बंधइ, एवं आउगवज्जा सत्त वि आउगं हेछिल्ला दो भयणाए उवरिल्लो न बंधइ। (भवसिद्धिए भयणाए ति) भवसिद्धिको यो वीतरागः स न बध्नाति ज्ञानाऽऽवरण तदन्यस्तु भव्यों बनातीति Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध भजनयेत्युत्कम्। (नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए त्ति) सिद्धः स चन बध्नाति। (आउयं दो हेडिल्ला भयणाए त्ति) भव्योऽभव्याश्चाऽऽयुर्बन्धकाले बध्नीतोऽन्यदातु न बध्नीत इत्यतो भजनयेत्युक्तम्। (उवरिल्ले न बंधइ त्ति) सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः। दर्शनद्वारेनाणाऽऽवरणं किं चक्खुदंसणी बंधइ, अचक्खुदंसणी बंधइ, ओहिदसणी बंधइ, केवलदंसणी बंधइ? गोयमा! हेहिल्ला तिण्णि भयणाए उवरिल्ले ण बंधइ, एवं वेयणिज्जवजाओ सत्त वि वेयणिज्जं हेछिल्ला तिण्ण बंधइ केवलदसणी भयणाए / (हेडिल्ला तिण्णि भयणाए त्ति) चक्षुरवधिदर्शनिनो यदि छअस्थवीतरागारतदान ज्ञानाऽऽवरणं बध्नन्ति, वेदनीयस्य च बन्धकत्वात्तेषा सरागास्तु बध्नन्ति अतो भजनयेत्युक्तम्। (उवरिल्ले न बंधइ त्ति) केवलदर्शनी भवस्थः सिद्धो वा, न बध्नाति, हेत्वभावादित्यर्थः। (वेयणिजे हेडिल्ला तिन्नि बंधइत्ति) आद्यारत्रयो दर्शनिनः छद्मस्थवीतरागाः सरागाश्च वेदनीयं बध्नन्त्येवा (केवलदसणीभयणाए त्ति) केवलदर्शनीसयोगिकेवली बध्नाति, अयोगिकेवली सिद्धश्च न बध्नातीति भजनयेत्युक्तम्। पर्याप्तद्वारेनाणाऽऽवरणिज कम्मं किं पज्जत्तओ बंधइ, अपजत्तओ बंधइ नो पञ्जत्तओ नो अपज्जत्तओ बंधइ? गोयमा! पज्जत्तए भयणाए अपज्जत्तए बंधइ, नो पज्जत्तए नो अपज्जत्तए न बंधइ, एवं आउगवजाओ आउंगहेट्ठिल्ला दो भयणाए उवरिल्ले ण बंधo|| (पज्जत्तए भयणाए त्ति) पर्याप्तको-वीतरागः सरागश्च स्यात्तत्र वीतरागो ज्ञानाऽऽवरणं न बध्नाति, सरागस्तु बध्नाति, ततो भजनयेत्युक्तम् / (नो पजत्तए नो अपज्जत्तए नबंधइ त्ति) सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः (आउग हेडिल्ला दो भयणाए त्ति) पर्याप्तकाऽपर्याप्तकावायुस्तद्वन्धकाले बध्नीतोऽन्यदा नेति भजना। (उवरिल्ले नेति) सिद्धो न बध्नातीत्यर्थः। भाषक:नाणाऽऽवरणं किं भासए बंधइ, अभासए? गोयमा! दो वि भयणाए, एवं वेयणिज्जवजाओ सत्त वेयणिज्जं, भासए बंधइ, अभासए भयणाए॥ भाषको भाषालब्धिमास्तदन्यस्त्वभाषकस्तत्र भाषको वीतरागो ज्ञानाऽऽवरणीय न बध्नाति, सरागस्तु बध्नाति, अभाषकस्त्वयोगी सिद्धश्च न बध्नाति. पूथिव्यादयो विग्रहगत्यापन्नाश्च बध्नन्तीति। (दो वि भयणाए त्ति) इत्युक्तम्। (वेवणिज भासए त्ति) सयोग्यवसानस्याऽपि भाषकस्य सवेदनीयबन्धकत्वात्। (अभासएभयणाए त्ति) अभाषकस्त्वयोगी सिद्धश्च न बध्नाति, पृथिव्यादिकस्तु बध्नातीति भजना। परीतद्वारेणाणाऽऽवरणं किं परित्ते बंधइ, अपरित्ते बंधइ, नो परित्ते नो / अपरित्ते बंधइ? गोयमा ! परित्ते भयणाए अपरित्ते बंधइ, नो परित्ते नो अपरित्ते न बंधइ, एवं आउमवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ आउए परित्तो वि अपरित्तो वि भयणाए नो परित्तो नो अपरित्तो न बंधइ।। (परिते भयणाइ त्ति) परीतः-प्रत्येकशरीरोऽल्पसंसारोवा, स च वीतरागोऽपि स्यान्न चासौ ज्ञानाऽऽवरणीयं बध्नाति, सरागपरीतस्तु बध्नातीति भजना। (अपरित्तबंधइ त्ति) अपरीतः साधरणकायोऽनन्तसंसारः, सच बध्नाति। (नो परिते नो अपरित्ते न बंधइत्ति) सिद्धोन बध्नातीत्यर्थः। (आउयं परित्तो वि अपरित्तो विभयणाए त्ति) प्रत्येकशरीराऽऽदिः आयुर्वन्धकाल एवाऽऽयुर्बध्नातीति न तु सर्वदा ततो भजनेति, सिद्धस्तु नवधनात्येवेत्यत आह-(णो परित्ते इत्यादि) ज्ञानद्वारेणाणाऽऽवरणं किं आमिणिवोहियनाणी बंधइ सुयनाणी ओहिनाणी मणपज्जवनाणी केवलनाणी हेट्ठिल्ला चत्तारि भयणाए केवलीनाणी न बंधइ, एवं वेयणिज्जवञ्जाओ सत्त वि वेयणिज्जं हेट्ठिल्ला चत्तारि बंधइ केवलनाणी भयणाए णाणाऽऽवरणं किं मतिअण्णाणी बंधइ, सअअण्णाणी, विभंगणाणी? गोयमा! आउगवजाओ सत्त विबंधइ, आउग भयणाए।। (हेहिल्ला चत्तारि भयणाए त्ति) आभिनिबोधिकज्ञानिप्रभृत य चत्वारो ज्ञानिनो ज्ञानाऽऽवरणं वीतरागाऽवस्थायां न बध्नन्ति, सरागावस्थायां तु बध्नन्तीति भजना। (वेयणिज्ज हेडिल्ला चत्तारि वि बंधतीति) वीतरागाणामपि छद्मस्थानां वेदनीयस्य बन्धकत्वात् / (केवलणाणी भयणाए त्ति) सयोगकेवलिना वेदनीयस्य बन्धनादयोगिनां सिद्धानां चाबन्धनाद् भजनेति। योगद्वारेणाणाऽऽवरणं किं मणजोगी ण बंधइ, वइजोगी कायजोगी अजोगी बंधइ? गोयमा! हेट्ठिल्ला तिण्णि भयणाए अजोगी न बंधइ / एवं वेयणिज्जवजाओ वेयणिज़ हेहिल्ला बंधइ, अजोगी न बंधइ।। (हेट्ठिल्ला तिन्नि भयणाए ति) मनोवाकाययोगिनी ये उपशान्त मोहनीय मोहसयोगि केवलिनस्ते ज्ञानाऽऽवरणं न बध्नन्ति, तदन्ये तु वघ्नन्तीति भजना / (अजोगी न बंधइ त्ति) अयोगी-अयोगके वली सिद्वस्थ न बध्नातीत्यर्थः। (वेयणिज हेछिल्ला बंधति त्ति) मनोयोग्यादयो बध्नन्ति, सयोगानां वेदनीयस्य बन्धकत्वात्। (अजोगीण बंधइ त्ति) अयोगिनः सर्वकर्मणामबन्धकत्वादिति। उपयोगद्वारेनाणावरणं किं सागारोवउत्ते बंधइ, अनागारोवउत्ते बंधइ? गोयमा ! अट्ठसु वि भयणाए। (अट्ठसु वि भयणाए ति) साकारऽनाकारवुपयोगौ सयो Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध गानाभयोगानां च स्याता, तत्रोपयोगद्वयेऽपि सयोगा ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिप्रकृतीर्यथा योगं बध्नन्ति, अयोगास्तु नेति भजनेति। आहारद्वारेनाणाऽऽवरणं किं आहारए बंधइ, अणाहारए बंधइ ?गोयमा! दो वि भयणाए, एवं बेयणिज्जाउगवजाणं छण्हं वेयणिजं आहारए बंधइ, अणाहारए भयणाए आउए आहारए भयणाए अणाहारए न बंधइ।। (दो वि भयणाए त्ति) आहारको वीतरागोऽपि भवति, न चासो ज्ञानाऽऽवरणं बध्नाति, सरागस्तु बध्नातीति आहाको भजनया बध्नाति, तथा अनाहारकः केवली विग्रहगत्यापञ्चश्च स्यात्तत्रा केवली न बध्नाति इतरस्तु बध्नातीति अनाहारकोऽपि भजनयेति / (वेयणिज आहारए बंधइत्ति)अयोगिवर्जानां सर्वेषां वेदनी यस्य बन्धकत्वात्। (अणाहारए भयणाए त्ति) अनाहारको विग्रहगत्यापन्नः समुद्घातकेवली च बध्नाति, अयोगी सिद्धश्य न बध्नानीति भजना। (आउए आहारए भयणाए त्ति) आयुर्वन्धकाल एवाऽऽयुषो बन्धनात्, अन्यदा त्वबन्धनाद्रजनेति / (अणाहारए णं बंधइ त्ति) विग्र हगतिगतानामप्यायुष्कस्याऽबन्धकत्वादिति। सूक्ष्मद्वारेणाणाऽऽवरणं किं सुहमे बंधइ, बादरे बंधइ, नो सुहुमे नो बादरे बंधइ?गोयमा! सुहुमे बंधइ, बादरे भयणाए, नो सुहुमे नो बादरे न बंधइ / एवं आउगवजाओ सत्त वि आउए सुहमे बादरे भयणाए नो सुहुमे नो बादरे न बंधइ। (बायरे भयणाए त्ति) वीतरागबादराणां ज्ञानाऽऽवरणस्या बन्धकत्वासरागबादराणां च बन्धकत्वाद्भजनेति। सिद्धस्य पुनरबन्धकत्वादाह(नो सुहमे इत्यादि) (आउए सुहमे बायरे भयणाए त्ति) बन्धकाले बन्धनादन्यदा त्वबन्धना ति। चरमद्वारेणाणाऽऽवरणं किं चरिमे, अचरिमे बंधइ? गोयमा! अट्ठ वि भयणाए। (अह विभयणाए त्ति) इह यस्य चरमो भवो भविष्यति स चरमः, यस्य / तु नासौ भविष्यति सोऽचरमः सिद्धश्चाऽसावचरमः, चरमभवाऽभावात्, तत्र चरमो यथायो गमष्टाऽपि बध्नाति, अयोगित्वे तु नेत्येवं भजना, अचरमस्तु संसारी अष्टाऽपि बध्नाति, सिद्धस्तुनेत्येवमत्राऽपि भजनेति / अथाऽल्पबहुत्वद्वारम -- एएसिणं भंते ! जीवाणं इत्थिवेयगाणां पुरिसवेयगाणां नपुंसगवेयगाणं अवेयगाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा?गोयमा! सव्वत्थोवा पुरिसवेयगा, इत्थीवेयगा संखेनगुणा, / अवेयगा अणंतगुणा, नपुंसगवेयगा अणंतगुणा, एएसिं सव्वेसिं पयाणं अप्पबहुगाई उच्चारियव्वाइं जाव सव्वत्थोवा जीवा अचरिमा चरिमा अणंतगुणा / सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (इत्थिवेयगा सखेज्जगुणे त्ति) यतो देवनरतिर्यकपुरुषेभ्यः ततस्त्रियः क्रमेण द्वात्रिंशत्सप्तविंशतित्रिगुणाद्वात्रिंशत्सप्तविंश तित्रिरुपाधिकाश्च भवन्तीति / (अवेयगा अणंतगुण त्ति) अनिवृत्तिबादरसम्परायाऽऽदयः सिद्धाश्चाऽवेदाः, अतस्तेऽनन्तत्वात् स्त्रीवदेभ्योऽनन्तगुणा भवन्ति / (नपुंसगवेयगा अणंतगुण ति) अनन्तकायिकानां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानामिह गणनादिति। (एएसिं सव्वेसिमित्यादि) एतेषांपूर्वोक्तानां संयताऽऽदीनां चरमान्तानां चतुर्दशानां द्वाराणां तगतभेदाऽपेक्षयाऽल्पबहुत्व मुचारयितव्यम्। तद्यथा ''एएसिंण भंते ! संजयाणं असंजयाण संजयाऽसंजयाणं नोसंजयनोअसंजयनोसंजयाऽसंजयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा थोवा वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा संजयाऽसंजया, असंखेजगुणाः नोसंजया नोअसंजया नोसंजयाऽसंजया अणतगुणा, असंजया अणंतगुणा" इत्यादि प्रज्ञापनाऽनुसारेण वाच्यं यावच्चरमाऽऽअल्पबहुत्वम् / एतदेवाऽऽह - (जाव सव्वत्थोवा जीवा अचरिमेत्यादि) अगाऽचरमा अभव्याश्चरमाश्च ये भव्याश्चरमं भवं प्राप्स्यन्ति, सेत्स्यतीत्यर्थः / ते चाऽचरमेभ्यो ऽनन्तगुणा यस्मादभव्येभ्यः सिद्धा अनन्त गुणा भणिता यावन्तश्च सिद्धास्तावन्त एव चरमा यस्माद्यावन्तः सिद्धा अतीताद्धायां तावन्त एव सेत्स्यन्त्यनागताऽद्वायाम्। भ०६श० 3 उ० पं० सं०। जीदे णं भंते ! हसमाणे वा उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधई? गोयमा! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा, एवं जाव वेमाणिए पोहुत्तिएहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। "जीवा णं भंते! हसमाणा वा उस्सुयमाणा वा कइ कम्म्मपगडीओ बंधति?गोयमा! सत्तविहबधंगा वि अट्टविह बंधगा वि'' इत्यादिषु (जीवेगिदिएत्यादि) जीवपदमेकेन्द्रियपदानि च पृथिव्यादीनिवर्जयित्वाऽन्येषु एकोनविंशतौ नारकाऽऽदिपदेषुत्रिकभङ्गोभङ्गकत्रयं वाच्यं, यतो जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बहुत्वज्जीवानां सप्तविधबन्ध काश्चाऽष्टविधबन्धकाश्चेत्येकैकभङ्गो लभ्यते, नारकाऽऽदिषु तु त्रयम्। तथाहि-सर्व एव सप्तविधबन्धकाः स्युरित्येकः। अथवा-सप्तविधबन्धकाश्चाऽष्टविधबन्धकश्चेत्येवमेव द्वितीयः / अथवा-सप्तविधबन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाश्चेत्येवं तृतीय इति। भ०५ श०४ उ०। निद्रायमाणस्य कर्मबन्धःजीवे णं भंते! निद्वायमाणे वा पचलायमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ?गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा एवं जाव वेमाणिए पोहत्तिएसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो भ०५ श० 4 उ०। Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध 1160 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंध यतमानस्य पापं कर्म न बध्यतेअजयं चरमाणो य, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कुडुयं फलं ||1|| अजयं चिट्ठमाणो य, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं // 2 // अजयं आसमाणो क, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कऽयं फलं / / 3 / / अजयं सयमाणो य, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं // 4 // अजयं भुंजमाणो य, पाणभूयाइँ हिसंइ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं / / 5 / / अजय भासमाणो अ, पाणभूयाइँ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं // 6|| अयतं चरन्नयतम् अनुपदेशेनाऽसूत्राज्ञयेति, क्रियाविशेषणतत्, चरन्-- गच्छन, तुरेवकारार्थः, अयतमेव चरत्, ईर्यासमितिमुल्लडष्य न त्वन्यथा, किमित्याह - प्राणिभूतानि हिनस्तिप्राणिनोद्दीन्द्रियादयः, भूतानि -एकेन्द्रियास्तानि हिनस्तिप्रमादाऽनाभोगाभ्यां व्यापादयतीति भावः, तानि च हिंसन बध्नाति पापं कम्मं अकुशलपरिणामादादत्ते क्लिष्टज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदि तत् (से) भवति कटुकफलं तत्पापं कर्म (से) तस्य-अयतचारिणो भवति, क टुकंफलमित्यनुस्वारोऽलाक्षणिकः अशुभफलं भवति, मोहाऽऽदिहेतुतया विषाकदारुणमित्यर्थः // 1 // एवमयतं तिष्ठन्नूर्द्धस्थानेनासमाहितो हस्तपादाऽऽदि विक्षिपन शेष पूर्ववत् ॥सा एवमयतमासीनोनिषण्णतया अनुपयुक्त आकुचनाऽऽदिभावेन शेष पूर्ववत् / / 3 / / एवमयतं स्वपन्नसमाहितो दिवा प्रकामशय्याऽऽदिना वा, शेष पूर्ववत् / / 4 / / एवमयतं भुजाना निःप्रयोजन प्रणीतं काकशृगालभक्षिता दिना का, शेषं पूर्ववत्।।५।। एवमयत भाषमाणो गृहस्थभाषयानिष्ठुरमन्तरभाषाऽऽदिना वा, शेष पूर्ववत्॥६॥ अत्राऽऽह-यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः सूत्रमकहं चरे कहं चिट्टे, कहमासे कह सए। कहं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ?||7|| कथं-केन प्रकारेण चरेत् कथं तिष्ठेत्, कथमासीत्, कथं स्वपेत, कथं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति / / 7 / / आचार्य आह सूत्राम -- जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं पए। जयं भुजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ||8|| यतं चरेत्-सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः, यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादाऽऽद्यविक्षेपेण यतमासीत-उपयुक्त आकुञ्चनाऽऽद्य करणेन्, यतं स्वपेत्समाहितो रात्रौ प्रकामशय्याऽऽदि परिहारेण यतं भुजानः-सप्रयोजनमप्रणीत प्रतरसिंहभक्षिताऽऽदिना, एवं यतं भापमाणः साधुभाषया मृदु कालप्राप्तं च पापं कर्म क्लिष्टम्-अकुशलानुवन्धि ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदि न बध्नाति नाऽऽदत्ते, निराश्र(स्र)वत्वा द्विहितानुष्ठानपरत्वादिति।।८।। किंच-सूत्रम् सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाई पासओ! पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ / / 6 / / सर्वभूतेष्वात्मभूतः सर्वभूताऽऽत्मभूतः, य आत्मवत् सर्वभूतानि पश्यतीत्यर्थः तस्यैवं सम्यग्वीतरागात्केन विधिना भूतानिपृथिव्या-दीनि पश्यतः सतः पिहिताऽऽश्रवस्य स्थगितप्राणातिपातऽऽद्याश्रवस्य दान्तस्य इन्द्रियतोइन्द्रियदमेन पापं कर्म न बध्यतेतस्य पापकर्मबन्धो न भवतीत्यर्थः / / 6 / / एवं सति सर्वभूतदयावतः पापकर्मबन्धो न भवतीति। ततश्च सर्वाऽऽत्मना दयायामेव यतितव्यम्, अलं ज्ञानाऽऽभ्यासे नाऽपि मा भूत् अव्युत्पन्नविनेयमतिविभ्रम इति तदपोहायाऽऽहपढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही, किंवा नाही छे अपावगं // 50|| प्रथमम् आदौ ज्ञान-जीवस्वरुप संरक्षणोपायफलविषयं ततः-तथाविधज्ञानसमनन्तरं दयासंयमस्तदेकान्तोपादेयतया भावतस्तत्प्रवृत्तेः, एवम्-अनेन प्रकारेण ज्ञान पूर्वक क्रियाप्रतिपत्तिरुपेण तिष्ठित--आस्ते सर्वसंयतः. सर्वःप्रवजितः, यः पुनरज्ञानीसाध्योपायफलपरिज्ञानविकलः स किं करिष्यति? सर्वत्रान्धतुल्यत्वात् प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ता भावात, किंवा कुर्वन् ज्ञास्यति छेक-निपुणं हितं-कालाचितं पापकं वा अतो विपरीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव, समप्रनिमित्ताभावादन्धप्रदीप्तपलायनघुणा क्षरकरणवत् / अत एवान्याप्युक्तम'गीयत्थो य विहारो बीयो गीयत्थमीसिओ भणिओ।' इत्यादि। अतो ज्ञानाभ्यासः कार्यः। तथा चाऽऽह सूत्रमसोचा जाणइ कल्लाणं, सोचा जाणइ पावगं। उभयं पि जाणई सोचा जं छेयं तं समायरे / / 11 / / श्रुत्वा-आकर्ण्य ससाधनस्वरुपविपाकं जानाति-बुद्धयते कल्याण कल्पो-मोक्षस्तमणति नयतीति कल्याणंदयाऽऽख्यं संयमस्वरुप, तथा श्रुत्वा जानाति पापकम्-असंयमस्वरूपम्, उभयभपि संयमाऽसंयमस्वरुपं श्रावकोपयोगि जानाति श्रुत्वा, नाऽश्रुत्वा, यतश्चैवमत इत्थं विज्ञाय यत् छेकनिपुणं हितं-कालोचितं तत्समाचरेत् कुर्यादित्यर्थः। उक्तमेवार्थं स्पष्टयन्नाह सूत्रम्जो जीवे वि न याणइ, अजीवे वि न जाणइ। जीवा जीवे अयाणंतो, कह सो नाहीइ संजमं?|१२|| जो जीवे वि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणइ। जीवाजीवे वियाणंतो, सो हुनाहीइ संजमं / / 13 / / यो जीवनपि-पृथिवीकायिकाऽऽदिभेदभिन्नान् न जानाति, अजीवानपि-संयमोपघातिनो मद्यहिरण्याऽऽदीन् न जानाति, जीवाजीवानजानन कथमसौ ज्ञास्यति संयमं? तद्विषयं तद्विषयाज्ञानादिति भावः ॥१२सा ततश्च यो जीवनपि जानात्य जीवानपि जानाति जीवाजीवान्विजानन् स एव ज्ञास्यत्ति संयममिति। प्रतिपादितः पञ्चम उपदेशाऽ धिकारः / दश०४ अग बंधग पु० (बन्धक) बध्नात्यनेक प्रकारं कम प्रदेशै: स Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण हेति बन्धकः / बन्धकर्तृजीवेषु, जीवस्थानभेदभिन्नेषु, पं० सं०१ द्वार। ('जीवडाण' शब्दे चतुर्थभागे त दा दर्शिताः) बंधट्ठाण न० (बन्धस्थान)बन्धरूपे स्थानभेदे, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ01 ('ठाण' शब्दे चतुर्थभागे 1666 पृष्ठे वस्तरः) (बन्धनस्थानेषु बन्धोदयसत्तासंबंधमाश्रित्य भङ्गाः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 261 पृष्ठे दर्शिताः। बंधण न० (बंधन) बध्यन्त इति बन्धनानि। "भुजि वत्यादिभ्यः कर्मापादाने"।५।३।१२८।। इति कर्मण्यनट। कर्म०२ कर्म०। बध्यतेजीवप्रदेशैरन्योन्यानुबेधरूपतया व्यवस्थाप्यत इति बन्धनम्। सूत्रा०१ शु०१७०१ उकासन्धाने, प्रश्न०१आश्र०द्वार। बन्धाऽऽदिविरचितैमयूरबन्धाऽऽदिभिः (उत्त 1 अ०) संयमे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। रज्जयादिना यन्त्रणे, औ०। सूत्र०। रज्जुनिगडाऽऽदिभिः संयमने, आव० 4 अ० किं बन्धनं किं वा तत्त्रोटनम् - बुज्झिज ति तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया। किमाह बंधणं वीरो; किं वा जाणं तिउट्टई ?||1|| (बुध्येतेत्यादि) सूत्रामिदंसूत्रकृताङ्गाऽऽदौ वर्तते। अस्य चाऽऽचाराङ्गण सहाऽयं संबन्धः। तद्यथा--आचाराङ्गेऽभिहितम्-"जीवो छक्कायपरूवणा य तेसिं वडेण बधो ति" इत्यादि तत्सर्व बुध्येतेत्यादि, यदि वेह केषांचिद्वादिना ज्ञानादेव मुक्त्यवासिरन्येषां क्रियामात्रात्, जैनानां तूभाभ्यां निःश्रेयसाधिगम इत्वेतदनेन श्लोकेन प्रतिपाद्यते। तत्राऽपि ज्ञानपूर्विका क्रिया फलवती भवतीत्यादौ बुध्येत इत्यनेन ज्ञानमुक्तं , "त्रोटयेत्' इत्यनेन च क्रियोक्ता / तत्रायमर्थो-बुध्येत-अवगच्छेद्बोधं विदध्यादित्युपदेशः। किं पुनस्तबुध्येत सदाह बन्धनं बध्यतेजीवप्रदेशेरन्योन्यानुवेधरुपतया व्यवस्थाप्यत इति बन्धनंज्ञानाऽऽवरणाऽऽद्यष्टप्रकार कर्म तद्धेतवो वा मिथ्यात्वाऽविरत्यादयः, परिग्रहाऽऽरम्भाऽऽदयो वा। न च बोधमात्रादभिलषितार्थावाप्तिर्भवतीत्यतः क्रियां दर्शयति- तच्च बन्धनं परिज्ञाय विशिष्टया क्रिययासंयमानुष्ठानरुपया त्रोटयेद्-अपनयेदात्मनः पृथक्कुर्यात्परित्यजेद्वा। एवं चाभिहितेजम्बूस्वाम्यादिको विनेयो बन्धाऽऽदिरुपं विशिष्ट जिज्ञासुः पप्रच्छ–किमाह-किमुक्तवान् बन्धनं वीरस्तीर्थकृत? किं वा जानन्-अवगच्छ स्तद्वन्धनं त्रोटयति ततो वा जुट्यतीति श्लोकार्थः // 1 // बन्धनस्वरुपनिर्वचनायाऽऽहचित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि। अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ / / 2 / / (चित्तमंतमचित्तं वेत्यादि) इह बन्धनं-कर्म तद्धेतवो वाऽभिधीयन्ते। तत्रान निदानमन्तरेण निदानिनो जन्मेति, निदानमेव दर्शयति-तत्रापि सर्वाऽऽरम्भाः कर्मोपादानरुपाः प्रायश आत्मात्मीयग्रहोत्थाना इतिकृत्वाऽऽदौ परिग्रहमेव दर्शितवान् / चित्तमुपयोगो ज्ञानं तद्विद्यते यस्य तचित्तवत्-द्विपदचतुष्पदाऽऽदि। ततोऽन्यद चित्तवत्-कनकरजताऽऽदि, तदुभयरुपमपि परिग्रह परिगृहा कृशमपिस्तांकमपि तृणतुषाऽऽदिकमपीत्यर्थः / यदि वा कसन कसः-परिग्रहणबुद्धया जीवस्य गमनपरिणाम इति यावत् / तदेवं स्वतः परिग्रहं परिगृह्याऽन्यान्या ग्राहयित्वा गृह्यतो वाऽन्याननुज्ञाय दुःखयतीति दुःखम्-अष्ट प्रकारं कर्म तत्फलं वा असालोदयाऽऽदिरुपं तरमान्न मुच्यत इति, परिग्रहाऽऽग्रह एव परमार्थतोऽनर्थमूलं भवति। तथा चोत्कम्'ममाऽद्दमिति चैष यावदभिमानदाहज्वरः, कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नशः / / यशःसुखपिपासितैरयमसावनों त्तरैः, परैरपसदः कुतोऽपि कथमप्यपाकृष्यते // 1 // " तथा च"द्वेषारथाऽऽयतनं धृतेरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधिः, व्याक्षेपस्य सुहन्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः। दुखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं पापस्य वासो निजः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च / / 1 / / तथा च परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टषु काङ्काशोकौ प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगेऽतृप्तिरित्येवं परिग्रहे सति दुःखाऽऽत्मका बन्धनात्र मुच्यतं इति // 2 // परिग्रहवतश्चावश्यंभाव्यारम्भस्तस्मिंश्च प्राणातिपात इति दर्शयितुमाह - सयं तिवायए पाणे, अदुवा अन्नेहिं घायए। हणंतं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड्वइ अप्पणो // 3 // (सयं तिवायए पाणे इत्यादि) यदि वा-प्रकारान्तरेण वन्धनमेवाऽऽह(सयंतीत्यादि) सपरिग्रहवानसंतुष्टो भूयस्तदर्जनपरः समर्जितोपद्रवकारिणि च द्वेषमुपगतस्ततः स्वयम्-आत्मना त्रिभ्योमनोवाक्षायेभ्य आयुर्बलशरीरेभ्यो वा पातयेत् व्यावयेत् प्राणान-प्राणिनः, अकारलोपाद्वा अतिपातयेत् प्राणानीति। प्राणाश्चाऽमी "पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलंच उच्छवासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरक्ताःस्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा / / 1 / / " तथा स परिग्रहाऽऽग्रही न केवल स्वतो व्यापादयति, अपरैरपि घातयति, घ्नतश्चान्यान् समनुजानीते, तदेव कृतकारितानुमतिभिः प्राण्युपमर्दनेन जन्मान्तरशतानुबन्ध्यात्मनो वैरं बर्धयति, ततश्च दुःखपरम्परारुपाद् बन्धनान्न मुच्यते इति। प्राणाऽतिपातस्य चोपलक्षणार्थत्वात् मृषावादाऽऽदयो ऽपि बन्धहेतवो द्रष्टव्या इति // 3 // पुनर्बन्धनमेवाऽऽश्रित्याऽऽहजस्सिं कुले समुप्पन्ने, जेहिं वा संवसे नरे। ममाइ लुप्पई बाले, अण्णे अण्णेहिं मुच्छिए|४|| (जस्सिमित्यादि) यस्मिन्-राष्ट्रकूटाऽऽदौ कुले जातो, यैर्वासइ पांसुक्रीडितैर्वयस्यैर्भार्याऽऽदिभिर्वासह संबसेन्नरस्तेषु मातृपितृ भ्रातृ भगिनीभार्यावयस्याऽऽदिषु ममाऽयमिति-ममत्ववान् स्निान लुप्यतेविलुप्यते, ममत्वजनितेन कर्मणा नारकतिर्यड्मनुष्या-भरलक्षणे संसारे भ्रम्यमाणो बाध्यते-पीड्यते। कोऽसौ? बालः-अशः, सदसद्विवेकरहितत्वादन्येष्वन्येषु च मूर्छितोगृद्धो-ऽध्युपपन्नो, ममत्वबहुल इत्यर्थः। पूर्वे तावन्मातापित्रोस्तदनु भार्यायां पुनः पुत्राऽऽदौ स्नेहवानिति / / 4 / / Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण साम्प्रतं यदुक्तं प्राक्-किं वा जानन् बन्धनं त्रोटयतीति अस्य निर्वचनमाहवित्तं सोयरिया चेव, सव्वमेयं न ताणइ। संखाए जीविअंचेवं, कम्मुणा उ तिउट्टइ।।५।। (वित्तमित्यादि) वित्तं-द्रव्यं, तच सचित्तमचित्तं वा। तथा सोदर्याभातृभगिन्यादयः, सर्वमपि चैतद्वित्ताऽऽदिकं संसारान्तर्गतस्याऽसुमतोऽतिकटुकाः शारीरमानसीवेदनास्स मनुभवतोनत्राणायरक्षणाय भवतीत्येतत्संख्यायज्ञात्वा / तथा जीवितं च प्राणिना स्वल्पमपि तत्संख्याय ज्ञपरिज्ञया। प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु सचित्ताऽचित्तपरिग्रहप्राण्युपघातस्वजन स्नेहाऽऽदीनि बन्धनस्थानानि प्रत्याख्याय कर्मणः सकाशात्रुटयति अपगच्छत्यसौ, तुरवधारणे, त्रुटोदेवेति। यदिवा-कर्मणा-क्रियया संयमानुष्ठानरुपया बन्धनात् त्रुट्यति, कर्मणः पृथग्भवतीत्यर्थः / / 5 / / अध्ययनार्थाधिकाराभिहितत्वात् स्वसमयप्रतिपादनानन्तरं ___ परसमयप्रतिपादनाभिधित्सयाऽऽह - एए गंथे विउक्कम्म, एगे समणमाहणा। अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहिँ माणवा।।६।। (एए गंथे विउक्कम्मेत्यादि) एतान्-अन्तरोत्कान ग्रन्थान व्युत्क्रम्य- | परित्यज्य स्वरुचिविरचितार्थेषु ग्रन्थेषु सक्ताः सिताः-बद्धाः, एके न सर्वेइति सम्बन्ध H / ग्रन्थातिक्रमश्चैतेषां तुदक्तार्थानभ्युपगमात्, अनन्तग्रन्थेषु चायमर्थोऽभिहि तस्तद्यथा-जीवास्तित्वे सति ज्ञानाऽवरणीयाऽदिकर्मबन्धनं, तस्य हेतवो मिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादाऽऽदयः परिग्रहाऽऽम्भाऽऽदयश्चा तत्त्रोटनं च सम्यक् दर्शनाऽऽद्युपायेन, मोक्षसद्भावश्चेत्येव-मादिकः, तदेवमेके श्रमणाः-शाक्याऽऽदयो बार्हस्पत्यमतानुसारिणश्चमाहणाः(न) एतानहदुत्कान ग्रन्थानतिक्रम्य परमार्थमजानाना विविधम् अनेकप्रकारमुत्प्रावल्येन सिताबद्धाः स्वसमयेष्वभिनिविष्टाः / तथा च शाक्या एवं प्रतिपादयन्ति तथा- 'सुखदुःखेच्छाद्वेष ज्ञानाऽ5धारभूतोनास्त्यात्मा कश्चित्, किं तु विज्ञानमेवैकं विवर्त्तत' इति / 'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा' इत्यादि। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०ा करण्डकाऽऽदिबन्धनरुपे कौतुककर्मणि बृ०१ उ०२ प्रक०। इह योगैस्तदनुरुपपुगलस्कन्धान् गृहीत्वा शरीराऽऽदि रुपतया परिणमयतीत्युक्तं, तत्र तान् पुद्गलान् किं जीवो देशेन गृह्यति, उत सर्वात्मनेत्येव प्रश्नावकाशमाशड्क्योत्तरं वितितीर्घराह - एगमवि गहणदव्वं, सव्वप्पणयाएँ जीवदेसम्मि। सव्वप्पणया सव्व-त्थ वाऽवि सव्वे गहणखंधे // 21|| इह जीवः स्वप्रदेशावगाढमेव दलिकं गृह्यन्ति, नत्वनन्तर परम्परप्रदेशाऽवगाढं तत्रौकस्मिन् जीवप्रदेशे यदवगाढंग्रहणद्रव्यंग्रहणप्रायोग्यं दलिक तदेकमपि गृह्यन्ति (सव्वप्पणयाए त्ति) सर्वाऽऽत्मना गृह्यन्ति सर्वरेवाऽऽत्मप्रदेशैह्य तीत्यर्थः। जीवप्रदेशानां सर्वेषामपि शृखलाऽवयवानामिव परस्परं सम्बन्धविशेषभावात्। तथाहि-एकस्मिन् जीवप्रदेशे स्वक्षेत्रा- | ऽवगाळग्रहणप्रायोग्यद्रव्यग्रहणाय व्याप्रियमाणं सर्वेऽप्यात्माप्रदेशा अनन्तरपरम्परतया तदद्रव्यग्रहणाय व्याप्रियन्ते। यथा हस्तागेण कस्मिंश्चिद्वाह्ये घटाऽऽदिके ग्रह्यमाणे मणिबन्धकूपरांसाऽऽदयोऽपि तद्ग्रहणाय अनन्तर परम्परतया व्याप्रियन्ते, तथा (सव्वत्थ वा वित्ति) सर्व्वापिसर्वेष्वपि जीवप्रदेशेषु येऽवगाढाग्रहणप्रायोग्याः स्कन्धास्तानपि ग्रहणप्रायोग्यान स्कन्धान सर्वान् गृह्यन्ति जीवः सर्वाऽऽत्मना, सर्वरवाऽऽत्मप्रदेशः एकैकस्कन्धग्रहणं प्रति सर्वजीवप्रदेशानामनन्तरपरम्परतया व्याप्रियमाणत्वादिति // 21 // इह पुद्रलद्रव्याणां परस्पर संबन्धः स्नेहतो भवति। ततोऽवश्यं स्नेहप्ररुपणा कर्तव्या / सा च त्रिधा तद्यथा-स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररुपणा, नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररुणा, प्रयोग प्रत्ययस्पर्धकप्ररुपणा च। तत्र स्नेहप्रत्ययरूपस्नेहनिमित्तस्य स्पर्धकस्य प्ररुपणा स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररुपणा। तथा शरीरबन्धननामकर्मोदयतः परस्परं बद्धानां शरीरपुरलाना स्नेहमधिकृत्य स्पर्धकप्ररुपणा नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररुपणा / शब्दार्थश्चायाम्-नामप्रत्ययस्य बन्धननामनिमित्तस्य शरीरप्रदेशस्पर्धकस्य प्ररुपणा नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररुपणा। तथा प्रकृष्टो योगः प्रयोगः, तेन प्रत्ययभूतेनकारणभूतेन ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां स्नेहमधिकृत्य स्पर्धकप्ररुपणा प्रयोगप्रत्ययस्पर्ध कप्ररुपणा तका प्रथमतः स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररुपणार्थमाह - नेहप्पचयफडग-मेगं अविभामवग्गणा जंता। हस्सेण बहू बद्धा, असंखलोगे दुगुणहीणा / / 22 / / (नेह त्ति) स्नेहप्रत्यय-स्नेहनिमित्तम् एकैकस्नेहाऽविभाग वृद्धानां पुगलवर्गणानां समुदायरुपं स्पर्धकं स्नेहप्रत्यय स्पर्धकम्, तचैकमेव भवति। तस्मिँश्च स्पर्धकेऽविभागवर्गणा एकैकरनेहाविभागाऽधिकपरमाणुसमुदायरुपा वर्गणा अनन्ता द्रष्टव्याः। तत्र इस्वेन-अल्पेन स्नेहेन ये बद्धा-युक्ताः पुद्गलास्ते बहवः, अर्थाच्च प्रभूतेन स्नेहेन बद्धाः स्तोकाः। तथा असंखलोगे दुगुणहीण त्ति' आदिवर्गणायाः परतोऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणा वर्गणा अतिक्रम्य याऽनन्तरा वर्गणा तस्यां पुद्रलाः प्रथमवर्गणागतपुरलाऽपेक्षया द्विगुणहीना भवन्ति। पुनरपि ततोऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेश प्रमाणा वर्गणा अतिक्रम्याऽनन्तरायां वर्गणाया पुद्रला द्विगुणहीना भवन्ति / एवं तावद्वाच्यं यावद्भक्ष्यमाणा संख्येयभाग हानिगता चरमा वर्गणा / इयमत्र भावना-इहयः सर्वोत्कृष्टः स्नेहः स केवलिप्रज्ञाच्छेदनकेन छिद्यते, छित्वा छित्वा च निर्विभागा भागाः पृथक पृथक् व्यवस्थाप्यन्ते। तत्र जगति ये केचित् परमाणव एकेन स्नेहस्य निर्वि भागेन भागेन युक्ताः सन्ति, तेषां समुदायः प्रथमा वर्गणा / ये पुनभ्यां स्नेहाऽविभागाभ्यां युक्ताः परमाणवः सन्ति, तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा / एवं त्रिभिः स्नेहा विभागैर्युक्तानां समुदायस्तृतीया वर्गणा / एवं संख्येयैः स्नेहाऽविभागैर्युक्तानां संख्येया वर्गणा वाच्याः। असंख्येयैः स्नेहाऽविभागैर्युक्तानां पुनरसंख्येया वर्गणाः / अनन्तैः स्नेहाऽविभागैर्युक्तानां त्वनन्ता वर्गणाः। द्विधा चात्र प्ररुपणा, तद्य Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण था-अनन्तरे पनिधया, परम्परोपनिधया च। तत्र तावत्प्रथमतोऽनन्त- रोपत्तिधया प्ररुपणा क्रियते--प्रथमायां वर्गणायामक स्नेहाविभागयुक्तपुद्गलसमुदायरुपायां वावन्तः पुद्गलास्तदपेक्षया द्वितीयस्यां वर्गणायां स्नेहाविभागद्वययुक्तपुरलसमूहरुपाया पुद्रला असंख्येयभागहीना भवन्ति / ततोऽपितृतीयस्यां वर्गणायामसंख्येयभागहीनाः / एवं प्रतिवर्गणामसख्येयभाग हान्या पुद्रलास्तावद्वाच्या यावदनन्ता वर्गणा गता भवन्ति। ततोऽनन्तरायां पुद्गलाः प्राक्तनवर्गणागतपुद्गलापेक्षया संख्येयभाहीना भवन्ति। ततोऽग्रेतन्यामपि वर्गणायां पुद्रलाः संख्येयभागहीनाः / एवं सङ्ख्येयभागहान्याऽपि वर्गणा अनन्ता वाच्याः / ततोऽनन्तरायां वर्गणायां पुद्गलाः प्राक्तनवर्गणागतपुद्गलापेक्षया पुदलाः संख्येयगुणहीनाः भवन्ति / एवं संख्येयगुणहान्याऽप्यनन्ता वर्गणा वाच्याः। ततोऽनन्तरायां वर्गणाया पुद्रलाः प्रात्कनवर्गणागत-पुद्गलापेक्षयाऽसंख्येय गुणहीना भवन्ति। ततोऽग्रेतन्यामपि वर्गणायां ततोऽग्रेतन्यामपि वर्गणायां पुद्गलाः संख्येयगुणहीनाः।पुद्गला असंख्येयगुणहीनाः। एवमसंख्येयगुणहान्याऽऽप्यनन्ता वर्गणा वक्तव्याः। ततोऽनन्तरायां वर्गणायां पुद्गलाः प्रात्कनवर्गणागत पुद्रलापेक्षयाऽनन्तगुणहीना भवन्ति / ततोऽग्रेतन्यामपि वर्गणायां पुरला अनन्तगुणहीनाः। एवमनन्तगुणहान्याऽप्यनन्ता वर्गणा वाच्याः यावत्सर्वोत्कृष्टा वर्गणाः। तदेव कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररुपणा। संप्रति परम्परोपनिधया क्रियते--ता प्रथमवर्गणायाः परतोऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणा वर्गणा अतिक्रम्य या पराअन्या वर्गणा तस्या पुद्रलाः प्रथमवर्गणागतपुद्रलापेक्षया द्विगुणहीना भवन्ति, अर्धा भवन्ति इत्यर्थः / ततः पुनरप्य संख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणा वर्गणा अतिक्रम्य या परा-अनन्तरा वर्गणा तस्यां पुद्रला अर्धा भवन्ति / एवं भूयो भूयस्तावदवगन्तव्यं यावदसङ्ख्येयभागहानिगता चरणा वर्गणा। ततः परं सख्येयभागहानिगता वर्गणाः सङ्घयेया अतिक्रम्यानन्तरायां वर्गणायां पुद्रला असङ्खयेय भागहानिगतचरमवर्गणापुद्रलाऽपेक्षयाऽर्धा भवन्ति / ततः पुनरपि संङ्खयेया वर्गणा अतिक्रम्यानन्तरायां वर्गणायां पुद्गला अर्धा भवन्ति। एवं भूयो भूयस्तावद्वक्तव्यं यावत्सलयेयभागहानावपि चरमा वर्गणा / उपरितनीषु चतसृषु हानिषु इयं परम्परोपनिधान सम्भवति। यतः प्रथमायामपि सङ्घयेयगुणहानिवर्गणायां पुद्गलाः सङ्खयेयभागहानिसत्कचरम वर्गणान्तर्गत पुद्गलाऽपेक्षया सङ्ख्ययगुणहीनाः प्राप्यन्ते / सङ्गयेयगुणहीनाश्च जघन्यतोऽपि त्रिगुणहीनाश्चतुर्गुणहीना या गृह्यन्ते, नतु द्विगुणहीनाः, यतः सङ्खयेयं प्रायः सर्वत्राप्यजघन्योत्कृष्ट त्रिप्रभृत्येव गृह्यते, न तु द्वौ, नापि सर्वोत्कृष्ट तदुक्तमनुयोगद्वारचूर्णी"सिद्धते य जत्थ जत्थ संखेज्जगगाहणं तत्थ तत्थ अजहण्णमणुकोसयं दट्ठव्वं ति।" तत इतऊर्ध्व द्विगुणहीनान प्राप्यन्ते, किंतु त्रिगुणचतुर्गुणाऽऽदिहीना इति नेयं द्विगुणहान्या परम्परोपनिधा संभवति। तस्मान्मूलत आरभ्यान्यथाऽत्रा परम्परोपनिधया प्ररुपणा क्रियते-असङ्खयेयभागहानी प्रथमान्तिमवर्गणयोरपान्तराले प्रथमवर्गणाऽपेक्षया काश्चिद्वर्गणा असत येयभागहीनाः काश्चित्सङ्गयेयभागहीनाः काश्चिन्सङ्ख्येयगुणहीनाः काश्चिदसख्येयगुणहीनाः काश्चिदनन्तगुणहीनाः / एवम-समयेयभागहानी प्रथमवर्गणापेक्षया पञ्चापि हानयः संभवन्ति / संख्येयभागहानी तु पुनरसङ्गयेयभागहानिवर्जाः शेषाश्चतस्त्रोऽपि हानयः सम्भवन्ति / तद्यथा-संख्येयभागहानिप्रथमान्तिमवर्गणयोरपान्तराले प्रथमवर्गणाऽपेक्षया काश्चिदर्गणाः संख्येयभागहीनाः काश्चित्सवयेयगुणहीनाः / काश्चिदसंख्येयगुणहीनाः, काश्चिदनन्तगुणहीनाः / संख्येयगुणहानी पुनरसंख्येयभागहानि संख्येयभागहानिवर्जाः शेषास्तिस्यो हानयः संभवन्ति। तद्यथा-संख्येयगुणहानौ प्रथमान्तिवर्गणयोरपान्तराले प्रथमवर्गणापेक्षया काश्चिद्वर्गणाः संख्येयगुणहीनाः काश्चिदसवयेयगुणहीनाः, काश्चिदनन्तगुणहीनाः / असङ्खयेयगुणहानौ पुन॰ एव हानी, तथाहिअसङ्गयेयगुणहानी प्रथमान्तिमवर्गणयोरपान्तराले प्रथमवर्गणा पेक्षया काश्चिद्वर्गणाः असङ्घयेयगुणाहीनाः काश्चिदनन्तगुणहीनाः / अनन्तगुणहानी त्वनन्तगुणहानिरेवैका, तदेवं कृता परम्परोपनिधया प्ररुपणा / साम्प्रतमल्पबहुल्वमुच्यते-तत्राऽसंख्येयभागहानौ वर्गणाः स्तोकाः / ताभ्यः संख्येयभागहानौ वर्गणा अनन्तगुणाः। ताभ्योऽपि संख्येयगुणहानौ वर्गणा अनन्तगुणाः ताभ्योऽप्यसंख्येयगुण हानौ वर्गणा अनन्तगुणाः / ताभ्योऽप्यसंख्येयगुणाहानौ वर्गणा अनन्तगुणाः / ताभ्योऽप्यनन्तगुणहानी वर्गणा अनन्तगुणाः / तथाऽनन्तगुणहानी पुगलाः सर्वस्तोकाः / तेभ्योऽसङ्खयेयगुणहानौ पुगला अनन्तगुणाः / वेभ्योऽपि समयेयगुणहानी पुद्गला अनन्तगुणाः। तेभ्योऽपि सजयेयभागहानौ पुद्गला अनन्तगुणाः / तेभ्योऽप्यसङ्ख्येयभागहानी पुद्गला अनन्तगुणाः // 22 // तदेवमुक्तं सप्रपञ्च स्नेहप्रत्ययं स्पर्धकम्। इदानीं नामप्रत्ययस्पर्धकप्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररुपणां चिकीर्षु रिदमाहनामप्पओगपच्चय-गेसु वि नेया अनंतगुणणाए। धणिया देसगुणा सिं, जहन्नजेट्टे सगे कट्ट।।२३।। (नाम त्ति) इह नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररुपणायां षडनुयोगद्वाराणि / तद्यथाअविभागप्रपरुपणा 1, वर्गणाप्ररुपणा 2, स्पर्धकप्ररुपणा 3, अनन्तरप्रसपणा 4, वर्गणापुद्गलस्नेहाऽविभागसकलसमुदायप्ररुपणा 5, स्थानप्ररुपणा 6 चेति। तत्रा प्रथमतोऽविभागप्ररुपणा क्रियते-औदारि-काऽऽदिशरीरपञ्चकवायोग्यानां परमाणूनायो रसः,सकेचलि प्रज्ञाछेदनकेन छिद्यते, छित्वा धनिर्विभागाभागाः क्रियन्तेतेचनिर्विभागा भागा गुणपरमाणवोवा भावपरमाणवो वा प्रोच्यन्ते। एषाऽविभागप्ररुपणा / तोकेन स्नेहाविभागेन युक्ताः शरीरयोग्याः पुदला न भवन्ति / किमुक्तं भवति?-औदारिकौदारिकबन्धनाऽऽदीनां पञ्चदशाना बन्धनानामन्यतमस्यापि बन्धनस्य विषया न भवन्तीत्यर्थः / नापि द्वाभ्यां स्नेहाविभागाभ्या युक्ता / नापि त्रिभिर्नापि समयेयै प्यसङ्गयेयाप्यनन्तैः, कित्वनन्तानन्तैरेव सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणैः, ततस्तेषां पुद्गलानां समुदायः प्रथमा वर्गणा, सा च जघन्या। तत एकेन स्नेहाविभाषेनाधिकानां पुद्रलानां समुदायो द्वितीया वर्गणा / द्वाभ्यां Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1194 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण स्नेहाविभागाभ्यामधिकानां समुदायस्तृतीया वर्गणा / एवमेकैकाविभागवृद्धया निरन्तरं तावद्वर्गणा वाच्या यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा भवन्ति / एतासां च समुदाय एक स्पर्धकम् / तत इत | ऊर्ध्वमेकेन स्नेहाविभागेनाधिकः परभाणवो न प्राप्यन्ते, नापि द्वाभ्यां, नापि त्रिभिः, नापि संख्येयैः, नाप्यसंख्येयैः, नाप्यनन्तैः, कि त्वनन्तानन्तरैव सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणैरधिकाः प्राप्यन्ते / ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा / तस्यां कियन्तः स्नेहाविभागा:? इति चेदुच्यते-यावन्तः प्रथमस्पर्धकमप्रथमवर्गणायां रनेहाविभागास्तावन्तो द्विगुणाः / तत एकेन स्नेहाविभागेनाधिकानां परमाणूना समुदायो द्वितीया वर्गणाः। द्वाभ्यां स्नेहाविभागाभ्यामधिकानां समुदायस्तृतीया वर्गणाः / एवमैककस्नेहाविभागवृद्धया निरन्तर वर्गणास्ताव - द्वाच्या यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा भवन्ति / ततस्तासां समुदायो द्वितीयं स्पर्धकम् / ततः पुनरप्यत ऊर्ध्वमेकेन / स्नेहाविभागेनाधिकाः परमाणवो न प्राप्यन्ते, नापि द्वाभ्यां, नापित्रिभिः यावन्नापि संख्येयैः, नाप्यसंख्येयैः, नाप्यनन्तैः किं त्वनन्तानन्तैरेव सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणैः / ततस्तेषां परमाणूना समुदायस्तृतीय स्पर्धकरय प्रथमा वर्गणा / तस्यां कियन्तः स्नेहाऽविभागा इति चेदुच्यते-यावन्तः प्रथमस्पर्धक-सत्कप्रथमवर्गाणायां तावन्तस्त्रिगुणाः / तत एकेन स्नेहाविभागेनाधिकानां परमाणूनां समुदायो द्वितीया वर्गणा। द्वाभ्यां स्नेहाविभागभ्यामधिकानां समुदायस्तृतीया वर्गणा / एवमेकैकस्नेहाविभागवृद्धया निरन्तर वगणास्तावद्वाच्या यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्त भागकल्पा भवन्ति / ततस्तासां समुदायस्तृतीय स्पर्धकम् / ततः पुनरप्यत ऊर्ध्वमेकेन स्नेहाविभागेनाधिकाः परमाणवो न प्राप्यन्ते, नापि द्वाभ्यां नापि त्रिभिः,यावन्नापि संख्येयः, नाप्यनन्तैः किं त्वनन्तानन्तैरेव सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणैरधिकाः प्राप्यन्ते। ततस्तेषां समुदायश्चतुर्थस्य स्पर्धकस्य प्रथमावर्गणा। तस्यां कियन्तः स्नेहाविभागाः? इति चेदुच्यते-प्रथमस्पर्धकसत्कप्रथमवर्गणायां यावन्तः स्नेहाविभागास्तावन्तश्चतुर्गुणाः / एवं यतिसंख्यं यतिसंख्य स्पर्धकं चिन्तयितुमारभ्यते, तद्यथा पञ्चमं दशमं विंशतितमं सहस्रतमं लक्षतमं तावत्संख्यागुणिताः प्रथमस्पर्धक सत्कप्रथम वर्गणागताः स्नेहाविभागास्ततिसंख्यस्य ततिसख्यस्य स्पर्धकस्याऽऽदि वर्गणायां द्रष्टव्याः / तानि च स्पर्धकानि कियन्ति भवन्तीति चेदुच्यते-अभव्येभ्योऽनन्त गुणानि सिद्धानामनन्तभागकल्पानि / अनन्तराणि कियन्ति भवन्तीति चेदुच्यते-रुपो न स्पर्धकतुल्यानि। तथाहि-चतुर्णामन्तराणि त्रीएयेष भवन्ति, (नो) नाधिकानि। एवमत्रीपि भावनीयम् / वर्गणास्त्वानन्तर्येण द्वे वृद्धी भवतः / तदथा-एकैकाविभागवृद्धिः, अनन्तानन्तविभागवृद्धिश्च। तत्रौकैकाविभागवृद्धिः स्पर्धकगतानां वर्गणानां यथोत्तरमनन्तधिभागवृद्धिः पाश्चात्यस्पर्धकगतचरमवर्गणपेक्षयोत्तर स्पर्धकस्याऽदिवर्गणायाः पारम्पर्येण पुनः प्रथमस्पर्धकसत्कम प्रथमवर्गणापेक्षया षडपि वृद्धयोऽवगन्तव्याः / तद्यथा-अनन्तभागवृद्धिः असंख्येयभागवृद्धिः संख्येयभागवृद्धिः, संख्येयगुणवृद्धिः, असंख्येयगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धिश्चेति। तदेवं कृता वर्गणाप्ररुपाणां स्पर्धकप्ररुपणा अनन्तरप्ररुपणा च / / सांप्रतं वर्गणागतपुद्रलस्नेहाविभागसमुदायप्ररुपणा क्रियते-तत्रा प्रथमस्य शरीरस्थानस्य प्रथमायां वर्गणायां स्नेहाविभागाः स्तोकाः / ततो द्वितीयस्य शरीरस्थानस्य प्रथमवर्गणायाः मनन्तगुणाः। तेभ्योऽपि तृतीयशरीरस्थानस्य प्रथमवर्गणायाम नन्तगुणाः / एवमनन्तगुणया श्रेण्या सर्वाण्यपि स्थानाति नेतव्यानि। शरीरस्थानानि च वक्ष्यमाणस्पर्धकसङ्ख या प्रमाणानि / संप्रति शरीरपरमाणूनामेव तत्तद्वन्धनयोग्या नामल्पबहुत्वमभिधीयते तत्रौदारिकौदारिकबन्धनयोव्याः पुद्गलाः सर्वस्तोकाः / तेभ्य औदारिकतैजलबन्धनयोग्याः अनन्तगुणाः। तेभ्योऽप्यौदारिककार्मणबन्धनयोग्या अनन्तगुणाः। तथा वैक्रिय-वैक्रियेबन्धनयोग्याः पुद्गलाः सर्वस्तोकाः / तेभ्योऽपि वैक्रियतैजसबन्धनयोग्याः अनन्तगुणाः / तेभ्योऽपि वैक्रियकार्मणबन्धनयोग्याः अनन्तगुणाः / तेभ्योऽपि वैक्रियतैजसकार्मणबन्धवयोग्या अनन्तगुणाः। तथा आहारकाऽऽहारकबन्धनयोग्याः पुद्रलाः सर्वस्तोकाः। तेभ्योऽप्याहारकतैजसबन्धनयोग्या अनन्तगुणाः / तेभ्योऽप्याहारकर्मणाबन्धन योग्या अनन्तगुणाः / तेभ्योऽप्याहारकतेजसकार्मणबन्धनयोग्या अनन्तगुणाः। तेभ्योऽपि तैजसतैजसबन्धनयोग्या अनन्तगुणाः। तेभ्योऽपि तैजसकार्मणबन्धनयोग्या अनन्तगुणाः। तेभ्योऽपि कार्मणकार्मणबन्धनयोग्या अनन्तगुणा इति।। सांप्रतं स्थानप्ररुपणावसरः / तत्रा प्रथमं स्पर्धकमादौ कृत्वाऽभव्येभ्यो ऽनन्तगुणैः सिद्धानन्तकल्पै गैरनन्तैः स्पर्धकैरेकं प्रथम शरीरप्रायोग्य स्थानं भवति / ततस्ततिभिरेव स्पर्धकैरनन्तभागवृद्धद्वितीयं शरीरस्थानं भवति / पुनस्ततिभिरेव स्पर्धकैरनन्तभागवृद्धस्तृतीयं शरीरस्थानम् / एवं निरन्तरं पूर्वस्मात् पूर्वस्मादुत्तरोत्तराणि अनन्तभागवृद्धानि शरीरस्थानान्यड्डलमात्रक्षेत्रासङ्घयेयभागगत प्रदेशराशि प्रमाणानि बाध्यानि / एतानि च समुदितानि एक कण्डकमभिधीयते / तस्माष्व काण्डकादुपरि यदन्यच्छरीरस्थान तत्कण्ठकगतचरमशरीरस्थानापेक्षया असमयेयभागवृद्धम् / तस्मात्यराणि पुनर्याग्यान्यानि शरीरस्थानानि अङ्गुलमात्राक्षेत्रासङ्ग येभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि तानि सर्वाण्यपि यथोत्तरमनन्तभागवृतान्यवसेयानि। एतानि च समुदितानि द्वितीय कण्डकम्। तस्मान्न द्वितीयात्कण्डकादुपरि यदन्यच्छरीरस्थान तत्पुनरपि द्वितीयकण्डकगतचरमशरीर स्थानापेक्षयाऽसंख्येयभागवृद्धम् / ततः पराणि पुनरप्यन्यानि यानि शरीरस्थानानि अङ्गुलमात्रक्षेत्रा सवयेयभागगतप्रदेश राशिप्रमाणानि तानि सर्वाण्यपि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धान्यवसे यानि / एतानि च समुदितानि तृतीयं कण्डकम्। ततः पुनरप्येकम सङ्घ येयभागवृद्धम् / ततः पुनरपि कण्डकमात्राणि शरीरस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धान्यवसेयानि / एवमसनये - यभागान्तरितानि अनन्तभागवृद्धकण्डकानि तावद्वाष्यानि यावदस येयभागवृद्धानामपि स्थानानामनन्तरान्तराभाविनां कण्डकं भवति / कण्डक नाम समयपरिभाषया अङ्गलमाठाक्षेत्रासङ्खये यभागग Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1195 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण त्तप्रदेशाशिप्रमाणा सङ्ख्या अभिधीयते। ततः पराणि यथोत्तरमनन्त- ___ मन्दमतीनां सुखावबोधाय मोदकद्दष्टान्तेन विभाव्यते यथा किल भागवृद्धानि कण्डकमात्राणि शरीरस्थानानि वाच्यानि / ततः पण्मेक कश्चिन्मोदको वातविनाशिद्रव्यनिष्पन्नः प्रकृत्या वातमुपशमथति, संख्येयभागवृद्धं स्थानम्। ततो मूलादारभ्य वावन्ति स्थानानिप्रागति- / पित्तोपशमकद्रव्यनिष्पन्नः पित्तम्। कफाऽपहारिद्रव्यनिष्पन्नः कफमित्येक्रान्तानि तावन्ति तथैवाऽ(तौवाऽ) भिधायपुनरप्येकं संख्येयभागवृद्धं वंस्वरुपा प्रकृतिर्मोदकस्य। तथा तस्वैव स्थितिः कस्यचिंदिनमेकम्, स्थानमभिधानीयम् / एवं वक्ष्यमाणक्रमेण षट्स्थानकवृद्धया शरीर- अपरस्य दिन द्वयम्, अन्यस्य मासाऽऽदिक कालं यावत्। तथा तस्मैव स्थानानि तावद्धक्तव्यानि यावदसंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाणानि रसः स्निग्धमधुराऽऽदिः कस्यचिदेक स्थानकोऽपरस्य द्विस्थानक भवन्ति। उत्का नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररुपणा। साम्प्रतं प्रयोगप्रत्ययस्पर्द्ध- इत्यादि। तथा तस्यैव प्रदेशाः कणिकाऽऽदिरुपाः कस्यचिदेकप्रसूतिकप्ररुपणा क्रियते-तत्र प्रयोगोयोगः तत्स्थानवृद्धयावो रसः कर्मपरमा- प्रमाणाः कस्यचिद द्विप्रकृतिप्रमाणा इत्यादि। तथा कर्मणोऽपि किश्चिणुषु केयलयोगप्रत्ययतोवायमानेषु परिवर्धते स्पर्धकरुपतया तत्प्रयोग- ज्ज्ञानमातृणोति,किश्चिद्दर्शनं, किश्चिसुखदुःखेजनयति, किश्चिन्मोहप्रत्ययस्पर्धकम्। उकंच-"होइपओगो जोगो तट्ठाणविबद्धणाएँ जोड यतीत्येवंस्वरुपा प्रकृतिः। तथा स्थितिस्तस्यैव कर्मणः कस्यचिलिांशरसो। परियड्ढई जीवे, पयोगफडु तर्य वेंति॥१॥" तस्य पञ्चाऽनुयोग त्सागगरोपमकोटी कोटीप्रमाणाः, अपरस्य सप्ततिसागरोपमकोठीकोठीद्वाराणि। तद्यथा-अविभागप्ररुपणा 1, वर्गणाप्ररुपणा २,स्पर्धकप्ररुपणा प्रमाणा इत्यादि / तथा रसः कस्यचिदेकस्थान कोऽपरस्य द्विस्थानक 3, अन्तरप्ररुपणा, स्थानप्ररुपणाघ 5, इति। एताश्च यथा नामप्रत्य- इत्यादि। तथा प्रदेशाः कस्यचिद्व हुतराः कस्यचिच बहुतमा इति // 23 // यस्पर्धक प्रागभिहितास्तथैवात्राप्यवगन्तव्याः। तथाऽत्रा प्रथमस्थान तत्र प्रकृतिभेदत एव कर्मणां मूलोत्तरवि-- सत्कप्रथमवर्गणायां सकलपुगलस्नेहाविभागाः सर्वस्तोकाः / तेभ्यो भागो भवति, नान्यथेत्यावेदयन्नाहद्वितीयस्थान सत्कप्रथमवर्गणायामनन्तगुणाः तेिभ्योऽपितृतीयस्थान- मूलुत्तपगईण्णं, अणुमागविसेसओ हवइ भेओ। सत्क प्रथमवर्गणायामनन्तगुणाः / एवं तापनेवं यावदन्तिमं स्थानम् / अविसेसियरसपइउ, मगईगंधो मुणेयव्वो // 24 // तथा व प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक मेवाधिकृत्यान्यत्राप्युक्तम्-"अविभाग- (मूलु त्ति) इह प्रकृतिशब्दो भेदपर्यायोऽप्यस्ति। तथा चाऽऽह भाष्यवग्गफडग, अंतरठाणाइँ एत्थजह पुव्वि। ठाणा' वग्गणाओ अणंतगुणणाएँ कृत्-"अहवा पयडी भेओ" इति / ततो मूलोत्तरप्रकृतीनांमूलोत्तरगच्छति // 1 // ' अत्राऽऽदिशब्दात्कण्डकाऽऽदिपरिग्रहः॥ इदानीमल्प- भेदानां कर्मणाः सम्बन्धिनामनुभाग विशेषतः--स्वभावविशेषतो बहुत्यमुच्यते-स्नेहप्रत्ययस्पर्धकस्य जघन्यवर्गणायां सकलपुदलगताः ज्ञानाऽऽवारकत्वाऽऽदिलक्षणात् भेदो भवतिः, नानाऽन्यथा। अनुभागस्नेहाविभागाः सर्वस्तोकाः। ततस्तस्यैव स्नेहप्रत्ययस्पर्धकस्योत्कृष्ट- शब्दश्चाऽत्र स्वभावपर्यायोऽवगन्तव्यः / तदुक्तं चूर्णी-"अनुभागो त्ति वर्गणायामनन्तगुणाः / तेभ्योऽपि नामप्रत्ययस्पर्धकस्य जधन्यवर्गणा- सहावो" इति / इह बन्धनकरणे प्रकृतिबन्धाऽऽदयः प्रत्येकमुपरि यामनन्तगुणाः / तेभ्योऽपि तस्यैवोत्कृष्टवर्गणायामनन्तगुणाः। तेभ्योऽपि सुप्रपञ्चं वक्तव्याः / प्रकृत्वादयच प्रतिकर्म सङ्कीर्णा इति कश्चिद् प्रयोगप्रत्यय स्पर्धकस्य जघन्यवर्गणायामनन्तगुणाः / तेभ्योऽपि व्यामुह्येत, अतस्तन्मोहापनोपदाय प्रकृतिबन्धं तुशब्दोपलक्षणद्वारेण तस्यैवोत्कृष्टवर्गणायामनन्तगुणाः / उत्कं च - "निण्हं पि फडगाणं, अन्याँश्च स्थितिबन्धाऽऽदीन् वैचित्येन (ऽयेण) स्पष्टयन्नाह - जहण्ण उक्कोसगा कमा ठविउं। णेयाऽणंतगुणाओ, उवग्गणा णेहफड्डाओ (अविसेसियेत्यादि) रसः स्नेहोऽनुभाग इत्येकार्याः / तस्य प्रकृतिः // 1 // ' सम्प्रति गाथाऽर्थो विद्रियते-मामप्रत्ययेषु प्रयोगप्रत्ययेष्वपि च स्वभावः / अविशेषिताऽविवक्षिता रसप्रकृतिः, उपलक्षणत्यात स्थित्यास्पर्धकेषु आविभागवर्गणाऽऽदयः प्राग्वन्नेयाः। तथाहि-स्नेहप्रत्यय- दयोऽपि, यस्मिन्न विवक्षितो रसबन्धोऽविशेषितसंप्रकृतिः। प्रकृतिबन्धो स्पर्धक इवात्राणि अविभागवर्गणा एकैकस्नेहाऽविभागवृद्धपरमाणु वर्गणा ज्ञातव्यः, तुशब्दस्याधिकार्यसंसूचनात् अविवक्षितरसप्रकृतिप्रदेशः अनन्ता / तथा स्तोकेन सेहेन बद्धाः पुद्रला बहव इतरे स्तोकः स्थितिवन्धः, अविवक्षितप्रकृति स्थितिप्रदेशो रसबन्धः, अविवक्षितस्तोकतरोः / यच-"असंखलोगे दुगुणहीणा'' इति, तदत्रासंभवान्न प्रकृतिस्थितिरसः प्रदेशबन्ध इत्यपिद्रष्टव्यम्। प्रकृतिबन्धे च यावन्स्यः सुम्बध्यते / स्नेहप्रत्ययस्पर्धकेऽपि हि तत् यथासंभव स्तोकमेव कालं" प्रकृतयो बन्धमायान्ति, यश्च यासां बन्धं प्रति स्वामी, तदेतत्सर्व यावत्योजितम्, नपुनः सर्वत्रापि।तथा (सि ति) एषां स्नेहप्रत्ययनाम- शतकादवसेयम्। प्रकृतिदेशबन्धौ च योयतो भवतः "जोगा पयडिपएस" प्रत्ययप्रयोगप्रत्यय स्पर्धकानां प्रत्येकं स्वके-आत्मीये जघन्योत्कृष्ट वर्गणे इति बध्नात्। तत्र प्रकृतिबन्धः उक्तः।। साम्प्रतं प्रदेशबन्धौ वक्तुमयबुद्धया पृथक कृत्वा ततः क्रमेण तासु / (धणिया देसगुण त्ति) धणिया- समप्राप्तः / तत्राष्टविधबन्धकेन जन्तुना यदेकेनाध्यवसायेन चित्रातानिचिता देशगुणा निर्विभागरुपाः सकलपुदलगतस्नेहाविभागा इत्यर्थः। गर्भेण गृहीतं दलिकं तस्याऽष्टौ भागा भवन्ति, सप्तविधबन्धस्य तु सप्त तेऽनन्तगुणनया-अनन्तगुणिततया ज्ञातव्याः / तदेवं कृता पुगलानां भागाः, षड्डिधबन्धस्य षड्भागाः, एकविधबन्धकस्य एको भागः // 24 // परस्परं सम्बन्धहेतुभूतस्य स्नेहस्य प्ररुपणा। सम्प्रति बन्धनकरण सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीनां भागविभागोपदर्शनार्थमाहसामर्थ्यतो बध्यमानकर्मपुद्गलानां प्रकृति स्थित्यनुभागप्रदेशविभागो जं सव्वघाइपत्तं, सगकम्मपएसणंतमो भावो। Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण आवरणाण चउद्धा, तिहा य अह पंचहा विग्घे // 25 // (जति) यत्-कर्मदलिकं सर्वघातिप्राप्त केवलज्ञानाऽ ऽवरणीयाऽऽदिरुपसर्वघातिप्रकृतिषु गतं तत् स्वकर्मप्रदेशानाम नन्ततमो भागः स्वकीयाया ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिरुपाया मूल प्रकृतयों मौलो भागस्तस्यानन्तमो भाग इत्यर्थः / काऽत्रयुक्तिरिति चेदुच्यते-इहाष्टानामपि मूलप्रकृतीनां प्रत्येक ये स्निग्धतराः परमाणवस्ते स्तोकाः ते च स्वस्वमूलप्रकृति परमाणूनामनन्ततमो भागः। तएव च सर्वघाति प्रकृतियोग्या इति यत्सर्वघातिप्राप्तं तत् स्वस्वमूलप्रकृतिप्रदेशानामन्ततमो भागः। तस्मिंश्चानन्ततमे भागेऽपसारिते शेष यद्दलिकं तत्सर्वघातिप्रकृतिव्यतिरित्केभ्यः तत्कालबध्य मानेभ्यः स्वस्वमूलप्रकृत्यवान्तरभेदेभ्यो विभज्य विभज्य दीयते। तथाहि-(आवरणेत्यादि) आवरण्योः -ज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽ वरणयोः प्रत्येक सर्वघातिप्रकृतिनिमित्तमन्ततमे भागेऽपसारिते सति शेषस्य दलिकस्य यथाक्रमं चतुर्धा त्रिधा च विभागः क्रियते, कृत्वा च शेषदेशघातिप्रकृतिभ्यो दीयते / तथा विघ्नान्तराये यो मूलभागः स समग्रोऽपि पञ्चधा कृत्वा दानान्तरायाऽऽदिभ्यो दीयते। इयमत्रा भावनाज्ञानाऽऽवरणीयस्य स्थित्यनुसारेण यो मूलभाग आभजति, तस्या ऽनन्ततमो भागः केवलज्ञाना ऽऽवरणाय दीयते। शेषस्य चत्वारो भागाः क्रियन्ते ते च मतिज्ञानाऽऽवरणश्रुतज्ञानाऽऽवरणाऽवधि ज्ञानाऽऽवरणमनः, पर्यवज्ञानाऽऽवरणेभ्यो दीयन्ते / दर्शनाऽऽवरणीयस्याऽपि यो मूलभाग आभजित तस्याऽनन्ततमं भागं षोढा कृत्वा निद्रापञ्चककेवलदर्शनाऽऽवरणाभ्यां सर्व घातिभ्यां प्रयच्छति (जीवः)। शेषस्य च त्रायो भागाः क्रियन्ते, तेच चक्षुर चक्षुरवधिदर्शनाऽऽवरणेभ्यो दीयन्ते। अन्तरायस्य पुनर्यो मूलभाग आभजति समग्रोऽपि सर्वघात्यवान्तरभेदाऽभवात् पञ्चधा कृत्वा दानाऽन्तरायाऽऽदिभ्यो दीयते / / 25 / / मोहे दुहा चउद्धा, य पंचहा वा वि वज्झमाणीणं / वेयणियाउयगोए-सु वज्झमाणीण भागो सिं॥२६|| (मोहे त्ति) मोहे-मोहनीये स्थित्यनुसारेण यो मूलभाग आभजति तस्याऽनन्ततमो भागः सर्वघातिप्रकृतियोग्यो द्विधा क्रियते, अर्धे दर्शनमोहनीयस्य, अर्ध चारित्रामोह नीयस्य। तत्राऽर्धदर्शनमोहनीयस्य सत्कं समग्रमपि मिथ्यात्वमोहनी यस्य ढोकते / चारित्रामोहनीयस्य तु सत्कमर्ध द्वादशधा क्रियते तेच द्वादशभागा आद्येभ्यो द्वादशकषायेभ्यो दीयन्ते / सम्प्रति शेषदलिकभागविधिरुच्यते (मोहे दुहेत्यादि) शेषस्य च मूलभागस्य द्वौ भागौ क्रियते एकः कषायमोहनीयस्य, अपरो नोकषायमोहनीयस्य / तत्रा कषायमोहनीयस्य भागः पुनश्चतुर्धा क्रियते, ते च चत्वारोऽपि भागाः संज्वलनक्रोधाऽऽदिभ्यो दीयन्ते नोकषायमोहनीयस्य तु भागः पञ्चधा क्रियते, ते च पञ्चाऽपि भागा यथाक्रमं त्रयाणा वेदानामन्यतमस्मै वेदाय बध्यमानाय हास्यरतियुगलाऽरतिशोकयुगलयोरन्यतरस्मै युगलायभयजुगुप्साभ्यां च यन्ते / नाऽन्येभ्यः, बन्धाऽभावात् / न हि नवाऽपि नोकषाया युग द्वन्धमायान्ति, किं तु | यथोक्ताः पञ्चैव / तथा वेदनीयाऽऽयुर्गोत्रोषु यो मूलभाग आभजित स / एतेषामेव एकैकस्याः प्रकृतैर्बध्यमनाया ढौकते, द्विप्रभृतीनाममीषां / युगपदबन्धाऽभावात् // 26 // पिंडपगईसु वज्झं-तिगाण वण्णरसगंधफासाणं / सव्वासिं संघाए, तणुम्मिय तिमे चउक्के वा / / 27 / / (पिंड त्ति) पिण्डप्रकृतयो-नामप्रकृतयः। यदाह चूर्णिकृत- "पिंडएगईओ नामपगईओ त्ति।'' तासु मध्ये बध्यमामानामन्य तमनतिजातिशरीरबन्धनसंघातनसंस्थानाङ्गोपाङ्गानुपूर्वीणां वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलधूपघातपराघातोच्छवासनिर्माण तीर्थकराणामातपोद्द्योतप्रशस्ताऽऽप्रशस्तविहायोगातित्रसस्था वरबादरसूक्ष्मपर्याप्ताऽपर्याप्त - प्रत्येकसाधारणस्थिराऽस्थिरशुभा ऽशुभसुस्वरदुःस्वरसुभगदुर्भगाऽऽदेयाऽनादेययशः कीर्व्ययशः कीर्त्यन्यतराणां च मूलभागो विभज्य समर्पणीयः / अौव विशेषमाह-(वण्णेत्यादि) वर्णरसगन्धस्पर्शाना प्रत्येकं यद्भागलब्ध दलिकमायाति तत्सर्वेभ्यस्तेषामवान्तरभेदेभ्यो विभज्य विभज्य दीयते। तथाहि-वर्णनाम्नो यद्भागलब्ध दलिकं तत्पञ्चधा कृत्वा शुक्लाऽऽदिभ्योऽवान्तर भेदेभ्योविभज्य प्रदीयते। एवं गन्धरसस्पर्शानामपि यस्य यावन्तो भेदास्तस्य संबन्धिनो भागस्य तति भागाः कृत्वा तावद्भयोऽवान्तर भेदेभ्यो दातव्याः। तथा संघाते तनौ च प्रत्येक यद्भागलब्धं दलिकमायाति तत्रिधा चतुर्धा वा कृत्वा त्रिभ्यश्चतुभ्यो वा दीयते। तत्रौदारिकतैजसकार्मणानि वैक्रियतैजसकार्मणानि वा श्रीणि शरीराणि संघातानि वा युगपद बध्नता शिधा क्रियते, वैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्मणरुपाणि चत्वारि शरीराणि संघातानि वा बध्नता चतुर्धा क्रियते // 27 // सत्तेक्कारविगप्पा, बंधणनामाण मूलपगईणं। उत्तरसगपगईण य, अप्पबहुत्ता विसेसो सिं||२८|| (सत्ते त्ति) बन्धननाम्नां भागलब्धं यद्दलिकमायाति तस्य विकल्पाः सप्त भेदा एकादश का विकल्पाः क्रियन्ते। तत्रौदारिकौदारिक 1 औदारिकतैजस 2 औदारिकार्मण 3 औदारिक तैजसकार्मण 4 तैजसतैजस 5 तेजकार्मण 6 कार्मणकार्मण ७रुपाणि वैक्रियचतुष्कतैजसत्रिकरुपाणि वा सप्त बन्धनानि बध्नता सप्त वैक्रियचतुष्काऽऽहारकचतुष्कतैजसत्रिक लक्षणान्येकादश बन्धनानि बध्नता एकादश। अवशेषाणां च प्रकृतीनां यद्भागलब्धं दलिकमायाति, तन्न भूयो विभज्यते,तासां युगपदवान्तरद्वित्र्यादि भेदबन्धाऽभावात् / तेन तासां तदेव परिपूर्ण दलिकं भवति / इहैकाध्यवसायगृहीतस्य कर्मदलिकस्य परमाणवो विभागशः कृत्वा मूलप्रकृतिभ्य उत्तरप्रकृतिभ्यश्च दत्ताः। तत्रनज्ञायतेजघन्यपदे उत्कृष्ट - पदे उत्कृष्टपदे वा कस्याः कियान् भागस्ततो विशेषपरिज्ञानार्थमाह - (मूलपगईत्यादि) आसांमूलप्रकृतीनामुत्तरस्वप्रकृतीनां च परस्पर भागस्य विशेषो ऽल्पयबहुत्वात शास्त्रान्तरोक्तात् द्रष्टवयः। तत्रा मूलप्रकृतीना मल्पबहुत्वं दर्श्यत इह कर्मणां स्थित्यनुसारतो भाग आभजति, यस्य बृहती स्थितिस्तस्य बृहद्भागः, यस्य स्तोका तस्य स्तोक इति / तत्राऽऽयुषो भागः सर्वस्तोकाः / तस्य सर्वस्याऽ (सर्वेभ्योऽ) प्यन्येभ्यः स्तोकस्थितिकत्यात्। तत्स्थितेरुत्कर्षतोऽपि त्रायस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणत्वात्। ततो नामगोत्रायोर्भागो वृहत्तरः। तयोः स्थितेर्विशु Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण तिसागरोपमकोटीप्रमाणत्वात् / स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यः, सामनस्थितिकत्वात् / ततोऽपि ज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽ वरणाऽन्तरायाणा गृहत्तमः / तेषां स्थितेरिंशत्सागरोपम कोटीकोटीप्रमाणत्वात्, स्वस्थानेतुपरस्परं तुल्य एव, तुल्यस्थितिकत्वात्। ततोऽपि मोहनीयस्य बृहत्तमः, तस्य स्थितेः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वात्। वेदनीयं यापि ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदिभिः सह समस्थितिकं, तथाऽपि तस्य भागः सर्वोत्कृष्ट एव वेदितव्यः। अन्यथा स्पष्टतरस्वफलसुखदुःखोपदर्शकत्वानुपपत्तेः / इदानीं स्वस्वोत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टपदे जघन्यपदे चाऽल्पबहुत्वनभिधीयते-तत्रोत्कृष्टपदे सर्वस्तोकं केवलज्ञानावरणस्य प्रदेशाऽग्रम् ततो मनःपर्यवज्ञानाऽऽवरणी यस्याऽनन्तगुणम्। ततोऽवधिज्ञानाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम् / ततः श्रुतज्ञानाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम्। ततोऽपि मतिज्ञानाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम् / तथा दर्शनाऽऽवरणीये उत्कृष्टपदे सर्वस्तोकं प्रचलायाः प्रदेशाप्रम्।ततो निद्राया विशेषाधिकम्। ततोऽपि प्रचलाप्रचलाया विशेषाधिकम्। ततोऽपि निद्रानिद्राया विशेषाधेकम्। ततः स्त्यान॰ विशेषाधिकम्। ततः केयलदर्शनाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम्। ततोऽवधिदर्शनाऽऽवरणीयास्याऽनन्तगुणम्। ततोऽचक्षुदर्शनाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम् / ततोऽपि चक्षुर्दर्शनाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम् / तथा सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रमसातवेदनीयस्य। ततो विशेषाधिकं सातवेदनीयस्य / तथा मोहनीये सर्वस्तोकमुकृष्टपदे प्रदेशाग्रमप्रत्याख्यानाऽऽवरणमानस्य / ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणकोधस्य विशेषाधिकम्। ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणमायाया विशेषाधिकम्। ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणलोभस्य विशेषाधिकम् / ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणभानस्य विशेषाधिकम् / ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणक्रोधस्य विशेषाधिकम् / ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणमायाया विशेषाधिकम्। ततः प्रत्याख्यानाऽऽवरणलोभस्य विशेषाधिकम्। ततोऽनन्तानुबन्धि मानस्य विशेषाधिकम्।ततोऽनन्तानुबनिधक्रोधस्य विशेषाधिकम्। ततोऽनन्तानुबन्धिमायाया विशेषाधिकम्। ततोऽनन्तानुबन्धिलोभस्य विशेषाधिकम्। ततो मिथ्यात्वस्य विशेषाधिकम्। ततो जुगुप्साया अनन्तगुणम्। ततो भयस्य विशेषाधिकम्।ततो हास्यशोकयोर्विशेषाधिकम्, स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्यम्। ततो रत्यरत्योर्विशेकवेदयो विशषाधिकं, तयोः पुनः स्वस्थाने तुल्यम ततः स्त्रीवेदनपुंसक वेदयोविशेषाधिक तुल्यम् / ततः संज्वलनक्रोधस्य विशेषाधिकम्। ततः संज्वलनमानस्य विशेषाधिकम्। ततः पुरुषदेवस्य विशेषाधिकम्। ततः संज्वलनमायाया विशेषाधिकम्। ततः संज्वलनलोभरयाऽ संख्येयगुणम्। तथा चतुर्णामप्यायुषामुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्र परस्परं तुल्यम् / नामकर्मणि उत्कृष्टपद प्रदेशाऽम गतौ देवगतिनरकगत्योः सर्वस्तोकम् / ततो मनुजगतौ विशेषाधिकम्। ततस्तिर्यग्गतौ विशेषाधिकम्। तथा जातो चतुर्णोद्रीन्द्रियाऽऽ दिजातिनानामुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं सर्वस्तोकं, स्वस्थाने तु तेषा परस्परं तुल्यम् / तत एकेन्द्रियजातेर्विशेषाधिकम् / तथा शरीरानानि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशागमाहारकशरीरस्य। ततो वैक्रियशरीरनाम्रो / विशेषाधिक् / तत औदारिकशरीरनाम्नो विशेषाधिकम्, ततस्तैजसशरीरनाम्रो विशेषाधिकम् / ततोऽपि कार्मणशरीरनाम्रो विशेषाधिकम्। एवं संघातननान्यपि द्रष्टव्यम् / तथा बन्धननामि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशागमाहारकाऽऽहारकबन्धनमाम्नः / तत आहारकतैजसनाम्नो विशेषाधिकम्। तत आहारककार्मण बन्धननाम्नो विशेषाधिकम्। तत आहारकतैजस कार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम्। ततो वैक्रियवैक्रियशरीर बन्धननाम्नो विशेषाधिकम् / ततो वैक्रियतैजसबन्धननाम्नो विशेषाधिकम् / ततो वैक्रियकार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम् / ततो वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम्। तत औदारिकौदारिकबन्धननाम्नो विशेषाधिकम्। तत औदारिकतैजसबन्धनाम्नो विशेषाधिकम्।तत औदारिककार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम्। ततोऽप्यौदारिकतैजसकार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम् / ततस्तैजसतैजसबन्धननाम्नो विशेषाधिकम्। ततस्तैजकार्मणबन्धननाम्नो विशेषाधिकम्। ततः कार्मणकार्मण बन्धननाम्नो विशेषाधिकम्। तथा संस्थाननानि संस्थानानामधन्तवर्जानां चतुर्णामुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं सर्वस्तोक, स्वस्थाने तु तेषां परस्परंतुल्यम्। ततः समचतुरस्रसंस्थानस्य विशेषाधिकम्। ततोऽपि हुण्डसंस्थानस्य विशेषाधिकम्। तथाऽङ्गोपाङ्गनाम्नि सर्वस्तोक मुत्कृष्टपदे प्रदेशागमाहारकाङ्गोपाङ्गनाम्नः। ततो वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नो विशेषाधिकम्। ततोऽप्यौदारिकाङ्गोपाङ्ग नाम्नो विशेषाधिकम्।तथा संहनननाम्नि सर्वस्तोकमाद्यानं पञ्चानां संहननामुत्कृष्टपदे प्रदेशागं, स्वस्थाने तु तेषां परस्परं तुल्यम् / ततः सेवार्तसंहननस्य विशेषाधिकम् / तथा वर्णनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रं कृष्णवर्णनाम्नः। ततो नीलवर्णनाम्नो विशेषाधिकम्।ततो लोहितवर्णनाम्नो विशेषाधिकम्। ततोहारिद्रवर्णनाम्नो विशेषाधिकम्। ततोऽपि शुल्कवर्णनाम्नो विशेषाधिकम् / तथा गन्धनाम्नि सर्वस्तोकं सुरभिगन्धनाम्नः / ततो विशेषाधिकं दुरभिगन्धनाम्नः। तथा रसनाम्निसर्वस्तोकं कटुरसनाम्नः / ततस्तित्करसनाम्नो विशेषाधिकम् / ततः कषायरसनाम्नो विशेषाधिकम् / ततः अम्लरसनाम्नां विशेषाधिकम् / ततोऽपि मधुररस नाम्नो विशेषाधिकम्। तथा स्पर्शनाम्नि सर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे कर्कशगुरुस्पर्शनाम्नोः प्रदेशागम्, स्वस्थानेतुद्वयोरपि परस्परंतुल्यम्। ततोमृदुलघुस्पर्शनाम्नोर्विशेषाधिकम् स्वस्थाने तु द्वयोरपि तयोः परस्पर तुल्यम् / ततो रुक्षशीत स्पर्शनाम्नो विशेषाधिक, स्वस्थाने तु तयोर्द्वयोरपि परस्पर तुल्यम्। ततः स्निग्धोष्णस्पर्शनाम्नोर्विशेषाधिकम, स्वस्थानेतुतयोरपि द्वयोः परस्परं तुल्यम्। तथाऽऽनुपूर्वी नाम्नि सर्वस्तोकं प्रदेशाग्र देवगतिनरकगत्यानुपूर्व्याः स्वस्थाने तुद्वयोरपि परस्परंतुल्यम्। ततो मनुजगत्यानुपूर्व्या विशेषाधिकम्। ततस्तिर्यगानुपूर्व्या विशेषाधिकम्। तथा सर्वस्तोकम् उत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रे त्रसनाम्नः / ततो विशेषाधिकं स्थावरनाम्नः / तथा सर्वस्तोकप्रदेशाग्रंपर्याप्तनाम्नः। ततो विशेषाधिकमपर्याप्तनाम्नः। एवं स्थिराऽस्थिरयोः शुभाऽशुभयोः सुभगदुर्भगयोः आदेयाऽनादेययोः सूक्ष्मवादरयोः प्रत्येक साधारणयोर्वाच्यम् / तथा सर्वस्तोकमयशः कीर्तिनाम्नः प्रदे Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण शाग्रम। ततो यश कीर्तिनाम्नः सङ्ख्येयगुणम्। शेषाणामात पोदद्योतप्रशस्ताऽप्रशस्तविहायोगति सुस्वरदुःस्वराणां परस्परं तुल्यमुत्कृष्टपदे प्रदेशाग्रम् / निर्माणोच्छवासपराघातोपघाता ऽगुरुलधुतीर्थकराणात्वल्पबहुत्वं नास्ति, यत इदमल्प बहुत्वं सजातीयप्रकृत्यपेक्षया, यथा कृष्णाऽऽदिवर्णनाम्नः शेषवणपिक्षं, प्रतिपक्षप्रकृत्यपेक्षया वा यथा सुभगदुर्भगयोः / न चैताः परस्परं सजातीया अभिन्नैकमूलपिण्डप्रकृत्यभावात्। नाऽपि विरुद्धा युगपदपिबन्धसम्भवात्। तथा-ठोसर्वस्तोकमुत्कृष्टपदे प्रदेशागं नीचैर्गोत्रस्य / ततो विशेषाधिकमुचैर्गात्रास्य / तथाऽन्तराये स्वस्तोकं दानाऽन्तरायस्य / ततो लाभाऽन्तरायस्य विशेषाधिकम्। ततो भोगान्तरायस्य विशेषाधिकम्। तत उपभोगान्तरायस्य विशेषाधिकम् / ततो वीर्यान्तरायरायस्य विशेषाधिकम् / तदेव मुत्कमुत्तरप्रकृतीनामुत्कृष्टपदे प्रदेशाऽग्राऽल्पबहुत्वम्। सम्प्रति जघन्यपदे तदभिधीयते-तत्रा सर्वस्तोकं जघन्यपदे प्रदेशागं केवलज्ञानाऽऽवरणीयस्य। ततो मनःपर्यवज्ञानाऽऽवरणीयस्या ऽनन्तगुणम्। ततोऽवधिज्ञानाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम् / ततः श्रुतज्ञानाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम् / ततोऽपि मतिज्ञानाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम्।तथा दर्शनाऽवरणीये सर्वस्तोक जघन्यपदे प्रदेशाग निद्रायाः। ततः प्रचलाया विशेषाधिकम् / ततो निद्रानिद्राया विशेषाधिकम्। ततः प्रचला प्रचला प्रचलाया विशेषाधिकम् / ततः स्त्यान विशेषाधिकम् / ततः केवलदर्शनाऽऽवरणस्य विशेषाधिकम् / ततोऽवधिदर्शनाऽऽ वरणरयानन्तगुणम् / ततोऽचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम्। ततोऽपि चक्षुर्दशनाऽऽवरणीयस्य विशेषाधिकम् / तथा मोहनीये सर्वस्तोक जघन्यपदे प्रदेशाग्रमप्रत्याख्याना ऽऽवरणमानस्य / ततः अप्रत्याख्यानाऽऽवरणक्रोधस्य विशेषाधिकम् / ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणमायाया विशेषाधिकम् / ततोऽप्रत्याख्यानाऽऽवरणलोभस्य विशेषाधिकम् / तत एवमेव प्रत्याख्यानाऽऽवरणमानक्रोधमाया लोभाऽनन्तानुबन्धिमानक्रोधमायालोभानां यथोत्तरं विशेषाधिकं वक्तव्यम्। ततो मिथ्यात्वस्य विशेषाधिकम् / ततो जुगुप्साया अनन्तगुणम् / ततो भयस्य विशेषाधिकम्। ततो हास्यशोकयोर्विशेषाधिकम्, स्वस्थाने तु तयोः परस्परं तुल्यम्। ततो रत्यरत्योर्विशेषाधिकम् / स्वस्थाने तु तयोरपि परस्परं तुल्यम्। ततोऽन्यतरवेदस्य विशेषाधिकम् / ततः संज्वलनमानक्रोधमायालोभानां यथोत्तरं विशेषाधिकम्। तथा ऽऽयुषि सर्वस्तोक जघन्यपदे प्रदेशाग्रं तिर्यग्मनुष्याऽऽयुषोः। ततो देवनारकाऽऽयुषोरसंख्येयगुणम्।तथा नाम्नि गतौ सर्वस्तोक जघन्यपदे प्रदेशाग्रं तिर्यग्गतेः / ततो विशेषाधिक मनुजगतेः / ततो देवगतेरसंख्येयगुणम्। ततो निरयगतेरसंख्येय गुणम्। तथा जातौ सर्वस्तोकं चतुर्णा द्वीन्द्रियाऽऽदिजातिनाम्नाम्। तत एकेन्द्रियजातेर्विशेषाधिकम् / तथा शरीरनाम्नि सर्वस्तोकमौदारिकशरीरनाम्नः। ततस्तेजसशरीरनाम्नो विशेषाधिकम्। ततः कार्मणशरीरनाम्नो विशेषाधिकम्। ततो वैक्रियशरीरनाम्नो ऽसंख्येयगुणम्। ततोऽप्याहारकशरीरानाम्नोऽसंख्येयगुणम्। एवं संघातननाम्नोऽपि वाच्यम्। अङ्गोपाङ्गनाम्नि सर्वस्तोकं जघन्यपदे प्रदेशाग्रमौदरिकाङ्गोपाङ्ग नाम्नः / ततो वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम्नोऽसंख्येयगुणम्। ततोऽप्याहाकाऽङ्गोपाङ नाम्नोऽसंख्येयगुणम् / तथा सर्वस्तोकं जघन्यपदेनरक गतिदेवगत्यानुपूर्योः प्रदेशागम्। ततो मनुजगत्यानुपूर्व्या विशेषाधिकम्। ततोऽपि तिर्यग्गत्यानुपूर्व्या विशेषाधिकम् / तथा सर्वस्तोकं ासनाम्नः ततो विशेषाधिक स्थावरनाम्नः / एवं बादरसूक्ष्मयोः पर्याप्ताऽपर्याप्तयोः प्रत्येकसाधारणयोश्च। शेषाणांतुनामप्रकृतीनामल्प बहुत्वं न विद्यते।तथा साताऽसातवेदनीयोरुचैर्गोत्रनीचर्गोत्रायोरपि। अन्तराये पुनर्यथोत्कृष्टपदे तथैवाऽवगन्तव्यम् / इह यदा जन्तुरुत्कृष्ट योगस्थाने वर्तते, यदाच मूलप्रकृती, नामुत्तरप्रकृतीनां च स्तोकतराणां बन्धकः, तथा यदा संक्रमकाले प्रकृत्यन्तदलिकानामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति तदोत्कृष्टप्रदेशाऽग्रसंभवः / तथाहि-उत्कृष्ट योगे वर्तमानो जीव उत्कृष्ट प्रदेशग्रहणं करोति। तथा स्तोकतराणा मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च यदा बन्धकस्तदा शेषाबध्यमानप्रकृतिलभ्योऽपि भागस्तासां बध्यमानानामाझजति। तथा प्रकृत्यन्तरदलिकानामुत्कृष्टप्रदेश संक्रमकाले विवक्षितासु प्रकृतिषु बध्यमानासु प्रभूताः कर्मपुद्गलाः प्रविशन्ति / तत एतेषु कारणेषु सत्सूत्कृष्टप्रदेशाग्रसंभवो भवति / विपर्यासे तु जघन्यप्रदेशाग्रसंभवः // 28 // तदेवमुत्कौ प्रकृतिप्रदेशबन्धौ / सम्प्रति स्थित्यनुभागबन्धप्ररुपणाऽवसरः / तत्रा बहु वक्तव्यत्वात् प्रथमतोऽनुभागवन्धस्यैव प्रतपणा क्रियते। तत्र चतुर्दशाऽनुयोगद्वारणि / तद्यथा-अविभागाप्ररुपणा 1. वर्गणाप्ररुपणा 2, स्पर्धकप्ररुपणा 3, अन्तरप्ररुपणा 4, स्थानप्ररुपणा 5, कण्डकप्ररुपणा 6, षटस्थानप्ररूपणा 7, अधस्तनस्थानप्ररूपणा 8, वृद्धिप्ररुपणा 6, समयप्ररुपणा 10, यवमध्यप्ररुपणा 11, ओजोयुग्मप्ररूपणा 12, पर्यवसानप्ररुपणा 13, अल्पबहुत्वप्ररुपणा 14 / तत्राऽविभागप्ररुपणार्थमाह - गहणसमयम्मि जीवो, उप्पाएई गुणे सपञ्चयओ। सव्वजियाणंतगुणे, कम्मपएसेसु सव्वेसुं॥२६॥ (गहण ति) इहाऽनुभागस्य कारणं काषायिका अध्यवसायाः, "ठिइअणुभाग कसायओकुणइ” इति वचनात्। ते च द्विधा-शुभा, अशुभाश्च / तका शुभैः क्षीरखण्डरसो पममाहादजननमनुभागं कर्मपुद्रलानामावत्ते, निम्बधोषातकीरसोपमं चाऽशुभैः / ते च शुभा अशुभा वा काषायिका अध्यवसायाः प्रत्येकम् असङ्ख्येयलोकाऽऽकाश प्रमाणाः / केवलं शुभा विशेषाधिका द्रष्टव्याः। तथाहि-यानेवानुभागबन्धाऽध्यवसायान् क्रमशः स्थापितान संक्लिश्यमानः क्रमेणऽधोऽध आस्कन्दति, तानेव विशुद्धमानः क्रमेणोवोर्ध्व मारोहति / ततो यथा प्रासादादवतरतो यावन्ति सोपानस्थानानि भवन्ति तावन्त्येवाऽरोहतोऽपि, तथाऽत्रापि यावन्त एव संक्लिश्यमानस्याऽशुभाऽध्यवसायास्तावन्त एव विशुध्यमानस्याऽपि शुभाऽध्यवसायाः। उक्तं च- "क्रमशः स्थितासु काषायिकीषु जीवस्य भावपरिणतिषु / अवपतनोत्पतनाऽद्धे, संक्लेशाऽद्धाविशोध्यद्धे // 1 // " केवलं क्षपकोयेष्वध्यवसायेषु वर्तमानः क्षपकश्रेणिमारोहति, तेभ्यः पुनर्न निवर्तते, तस्य प्रतिपाताऽभावात्, अतस्तेऽधिका इति तदपेक्षया विशेषाऽधिकाः शुभाऽवसायाः Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1196 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण तत्रा शुभेनाऽशुभेन वा एकेन केनचिदध्यवसायेन स्वप्रत्ययत इति स्वस्य आत्मनः संबन्धिनानुभागबन्धं प्रति प्रत्ययेन प्रत्ययभूतेनकारणभूतेन जीवो ग्रहणसमये योग्यपुद्गलाऽऽदानसमयं सर्वेषु कर्मप्रदेशेषु एकैकस्मिन् कर्मपरमाणावित्यर्थः / गुणान्-रसस्य निर्विभागान-भागान् उक्तस्वरुपान् सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानुत्पादयति। इयमत्रा भावला-इह पूर्व कर्मप्रायोग्यवर्गणाऽन्तः पातिनः सन्तः कर्मपरमाणवोन तथा विधविशिष्टरसोपेता आसीरन्, किं तु प्रायो नीरसा एकस्वरुपाश्च / यदा तु जीवेन गृह्यन्ते, तदानीं ग्रहणसमये एव तेषां काषायिकेणाऽध्यवसायेन सर्वजीवेभ्योऽप्यनन्तगुणा रसाऽविभागा आपद्यन्ते, ज्ञानाऽऽवरणकत्वाऽऽदिविचित्रास्य भावता च। आचिन्त्यस्त्वात् जीवानां पुदलानां च शक्तेः / न चैतदनुपपन्न, तथादर्शनात् / तथाहि-शुष्कतृणाऽऽदिपरमाणा ऽत्यनन्तनीरसा अपि गवादिभिर्गृहीत्वा विशिष्टक्षीराऽऽदिर सरुपतया सप्तधातुरुपतया च परिणम्यन्ते इति // 26 // अाऽऽह-ननु तान् रसस्याऽविभागान किं सर्वेष्वपि कर्मपरमाणुषु तुल्याचुत्पादयति, आहोश्विद्विषमान्? / उच्यते-विषमान्। तथाहिकेषुचित्परमाणुषु स्तोकान्। तांश्च जघन्यतोऽपि सर्वजीवाऽनन्तगुणान्। केषुचित्तेभ्योऽपि प्रभूतान्। केषुचिश्च प्रभूततमान् / तत्र न ज्ञायते केषु कियन्त इति तन्निरुपणार्थ वर्गणाऽऽदिप्ररुपणामाहसव्वऽप्पगुणा ते पढ-मवग्गणा सेसिया विसेसूणा। अविभागुत्तरियाओ, सिद्धाणमणंतभागसमा // 30 // (सव्व त्ति) येषां परमाणूनां समस्तान्यपरमाणवपेक्षया अल्पे गुण्णाःस्तोकारसाऽविभागास्ते सर्वाऽल्पगुणाः परमाणवः समुदिताः प्रथमा वर्गणा / तस्यां च कर्मपरमाणवो ऽतिशयेन प्रभूताः / शेषाश्च वर्गणा विशेषहीनाः कर्मपरमाणवपेक्षया / तथाहि-प्रथमवर्गणाऽपेक्षया द्वितीयवर्गणायां कर्मपरमाणवो विशेषहीनाः। ततोऽपितृतीयस्यां वर्गणायां विशेषहीनाः। एवं तावद्वाच्यं यावत्सर्वोत्कृष्टा वर्गणा / एताश्च कथंभूता इत्याह -- (अविभागुत्तारियाउ त्ति ) अविभोगात्तरा एकैकस्नेहाऽविभा गाधिका इत्यर्थः / तथाहि प्रथमवर्गणापरमाणवपेक्षया ये परमाणव एकेन रसाऽविभागेनाऽभ्यधिकास्तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा। तेभ्योऽप्येकेन रसाऽविभागेनाऽधिकानां समुदायस्तृतीया वर्गणा / एवमेकैकाऽविभागवृद्धया वर्गणास्तावद्वक्तव्या यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा भवन्ति इति॥३०॥ कृता वर्गणाप्ररुपणा। सम्प्रति स्पर्धकप्ररुपणामाहफडुगमणंतगुणियं, सव्वजिएहिं पि अंतरं एवं / सेसाणि वग्गणाणं, समाणि ठाणं पढममित्तो॥३१॥ (फडग त्ति) अभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पा अनन्ता | वर्गणा एक स्पर्धकम् / एषां स्पर्धकप्ररुपणा / / संप्रत्यन्तरप्ररुपणा क्रियतेइत ऊर्ध्यमकेन रसाऽविभागेनाऽभ्यधिकाः परमाणवो न प्राप्यन्ते, नापि द्वाभ्यां, नापि त्रिभिः, नापि संख्येयैः, नाप्यसंख्येयैः, नाप्यनन्त्रौः, किं त्वनन्ताऽनन्तैरेव सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणैरभ्यधिकाः प्राप्यन्ते। ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा। तत एकेन रसाऽविभागेनाऽधिकानां परमाणूनां समुदायो द्वितीया वर्गणा / द्वाभ्यां रसाऽविभागाभ्यामधिकानां परमणूना समुदायस्तृतीया वर्गणा / एवमेकैकरसाऽविभागवृद्धया वर्गणास्ताववाच्या यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्त भागकल्पा भवन्ति। ततस्तासां समुदायो द्वितीयं स्पर्धकम्। ततः पुनरप्यत ऊर्ध्वमकेन रसाऽविभागेनाभ्यधिकाः परमाणवो न प्राप्यन्ते, नापि द्वाभ्या नापि त्रिभिः, नापि संख्येयैः, नाप्यसंख्येयैः, नाप्यनन्तैः किं त्वनन्ताऽनन्तैरेव सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणैः। ततस्तेषां समुदायस्तृतीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा। ततः पुनरप्यत ऊर्ध्वं यथोत्तरमेकैकरसाऽविभागवृद्धया द्वितीयाऽऽदिका वर्गणास्तावद्वाच्या यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तभागकल्पाभवन्तिा ततस्तासां समुदायस्तृतीय स्पर्धकम् / एवं स्पर्धकानि तावद्वाच्यानि यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागकल्पानि भवन्ति / तेषां समुदाय एकमनुभागबन्धस्थानम् / तथा चाऽऽह-"अणंतगुणियं सव्वजिएहि पि" इत्यादि। प्रथमस्पर्धकचरम वर्गणाया द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गणायाश्चानन्तरमपि सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणितं द्रष्टव्यम। एषाऽन्तरप्ररुपणा / एवं शेषाण्यपि स्पर्धकान्यन्तराणि च यथोक्तप्रमाणान्यवगन्त व्यानि / तानि च स्पर्धकानि एकानि - एकस्पर्धकसत्कवर्गणानां समानि अभव्येभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्त भागकल्पानीत्यर्थः। एकं प्रथम सर्वजघन्यमनुभागबन्धस्थानं भवति / अनुभागबन्धस्थानं नामैकेन काषायिकेणाध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपरमाणूना रसस्पर्धकसमुदाय परिमाणम् // 31 // कृता स्थानप्ररुपणा। कण्डकप्ररुपणार्थमाहएत्तो अंतरतुल्लं, अंतरमणंतभागुत्तरं बिइयमेवं / अंगुलअसंखभागो, अणंतभागुत्तरं कम्मं // 32 // (एतो त्ति) इतः-प्रथमस्थानादारभ्य द्वितीयस्थानादाक् अन्तरमन्तरतुल्यं प्रागुक्तप्रमाणान्तरतुल्यं द्रष्टव्यम् / इदमुक्तं भवति-यथा प्रथमस्पर्धकचरमवर्गणाया द्वितीयस्पर्धकाऽऽदि वर्गणायाश्चान्तर सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणं समुद्दिष्टम् एवमिहाऽरि प्रथमस्थानान्तिमस्पर्धकचरमवर्गणाया द्वितीयस्थानाऽऽद्य स्पर्धकप्रथमवर्गणायाश्चान्तरं सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणमव गन्तव्यम् / तच द्वितीय स्थानं स्पर्धकापेक्षयाऽनन्तभागोत्तर मनन्तभागवृद्धम्।यावन्ति प्रथमे स्थाने स्पर्धकानि तावद्भ्योऽनन्तभागाधिकानि द्वितीय स्थाने स्पर्धकान्यवसेयानीत्यर्थः / एवं यथोत्तरमनन्तभागवृतान्युप दर्शितप्रकारेण स्थानानि तावद्वाच्यानि यावदडलाऽसंख्येय भागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति। एतेषां च समुदाय एक कण्डकम् (अणतभागुत्तरं त्ति) अनन्तभागोत्तरमनन्तभगोत्तरस्थान समुदायरुपत्वात्कण्डक मप्यनन्तभागोत्तरमुक्तम् / एषां कण्डकप्ररुपणा॥ सम्प्रतिषट्थानप्ररुपणा क्रियते-तस्मात्-प्रथमात्कण्डकात् परं यदन्यदनुभागबन्धस्थानं भवति तत्स्पर्धकाऽपेक्षयाऽसंख्येयभागाधिकम् / तस्मात्पराणितु कण्डकमात्राणि स्थानानि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि। ततः परंपुनरप्येकमन्यदनुभागबन्धस्थानमसंख्येयभागाऽधि Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1200 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण कम् / ततः पुनरपि कण्डकमात्राणि स्थानानि यथोत्तरमनन्त भागवृद्धानि / ततो भूयोऽप्येकमसंख्येयभागाधिक स्थानम् / एवमनन्तमधिकै : कण्डकप्रमाणैः स्थानैर्व्यवहितान्यसंख्येय भागाधिकानि स्थानानि तावद्वत्कटयानि यावत्तान्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति / कण्डकंच समयपरिभाषायाऽङ्गलमात्रक्षेत्राऽसंख्येयभागगतप्रदेशराशि संख्याप्रमाणमभिधीयते / ततश्चरमादसंख्येयभागाधिकात् स्थानात् पराणि यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि कण्डकमात्राणि स्थानानिवाच्यानि / ततः संख्येयभागा धिकमेकं स्थानं वक्तव्यम्। ततो मूलादारभ्य यावन्ति स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति पुनरपि तथैवाभिधाय पुनरप्येक संख्येयभागाधिक स्थानं वक्तव्यम् / अमूनि चैव संख्येयभागाधिकानि स्थानानि तावद्वत्कच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति। तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि संख्येयभागाधिकस्थानप्रसङ्गे संख्येयगुणाधिकमेकं स्थानवक्तव्यम् / ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्त्यनुभागबन्ध स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तथैव वाच्यानि। ततः पुनरप्येक संख्येयगुणाऽधिक स्थानं वक्तव्यम् / ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य यावन्ति स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्त्यनुभाग बन्धस्थानानि तथैव वक्तव्यानि / ततः पुनरप्येकं संख्येयगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम्। अमून्यप्येवं संख्येयगुणाधिकानि स्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति / पूर्वपरिपाट्या पुनः संख्येयगुणाधिकस्थानप्रसङ्गे ऽसंख्येयगुणाधिक स्थानं वक्तव्यम्। ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्त्यनुभागबन्ध स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तथैव पुनरपि वाच्यानि / ततः पुनरप्येकमसंख्येयगुणाऽधिकं स्थानं वक्तव्यम् / ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्त्यनुभागबन्धस्थानानि वक्तव्यानि। ततः पुनरप्येकमसंख्येयगुणाधिकं स्थान वक्तव्यम्। अमूनि चैवमसंख्येयगुणाधिकानि स्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति। ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसंख्येय गुणाधिकस्थानप्रसङ्गेऽनन्तगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम् / ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्त्यनुभागबन्ध स्थानानि प्रागभिहितानि तावन्ति पुनरपि तथैव वाच्यानि / ततो भूयोऽप्येकमनन्तगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम् / ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति स्थानानि तथैव वक्तव्यानि / ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम्। एवमनन्तगुणाधिकानि स्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावन्कण्डकमात्राणि भवन्ति इति // 32 // इदानीं सूत्रममुश्रियतेएगं असंखभागे - णणंतभागुत्तरं पुणो कंडं / एवं असंखभागु-त्तराणि जा पुव्वतुल्लाणि // 33 // (एग ति) ततः-प्रथमात् कण्डकादुपरि एकमनुभाग बन्ध-स्थानम्। | (असंखभागेण) असंख्येयेन भागेनाऽधिकं द्रष्टव्यं पूर्वस्थानगतस्पर्धकापेक्षयाऽसंख्येयभागाधिकैः स्पर्धकैरधिकं द्रष्टव्यमित्यर्थः ततः पुनरप्यनन्तभागोत्तरं कण्डयथोत्तर मनन्त भागवृद्धानां स्थानानां कण्डकम् / ततः पुनरप्येकमसंख्येयभागाधिकं स्थानम् / एवमनन्तभागवृद्धकण्ड कव्यवहितान्यसंख्येयभागाधित नि स्थानानि तावद्वक्तव्यानि याव त्पूर्वतुल्यानि भवन्ति, कण्डकमात्राणि भवन्तीत्यर्थः / ततः पुनरप्यनन्तभागवृद्धस्थानानां कण्डकमभिधाय ततः परमेक संख्येयभागोत्तरं सख्येयभागाधिकमेकं स्थानं द्रष्टव्यम्॥३३॥ तथा चाऽऽहएग संखेजुत्तर मेत्तो तीयाण तिच्छिया बीयं / तागा वि पढमसमाई, संखेज्जगुणोत्तरं एक्वं / / 34 / / (एगं त्ति) (एतो त्ति) इत:-संख्येयभागाधिकात् स्थानात् परतोमूलादारभ्य यावन्त्यनुभागबन्धस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्त्यतिक्रम्यगत्वा द्वितीय संख्येयभागाधिकं स्थानं वक्तव्यम् / तान्यपि संख्येयभागाधिकानि स्थानान्युपदर्शितप्रकारेण तावद्वाच्यानि यावत्प्रथमसमानि भवन्ति प्रथमकण्डकतुल्यानि भवन्तीत्यर्थः। ततः पूर्वपरिपाट्या। संख्येयभागाधिकस्थानप्रसङ्ग संख्येय गुणोत्तरसंख्येयगुणाधिकं स्थानमेकं वक्तव्यम्॥३४॥ एत्तो तीयाणि अइ-च्छियाणि बिइयमवि ताणि पढमस्स। तुल्लाणऽसंखगुणियं, एक तीयाण एकस्स // 35 / / (एत्तो त्ति) इतः-संख्येयगुणोत्तरादनुभागबन्धस्थानात् यावन्ति मूलत आरभ्य प्रागतीतानि-अतिक्रान्तान्यनुभाग बन्धस्थानानि तावन्त्यतिक्रम्य-द्वितीयं संख्येयगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम्। तान्यप्येवं तावद्वक्तव्यानि यावत्प्रथमस्याऽनन्तभागवृद्धस्थानकण्डकस्य तुल्यानि भवन्ति। ततः पूर्वपरिपाट्या पुनः संख्येयगुणाधिकस्थानप्रसङ्गे असंख्येयगुणाधिकं स्थानमेकं वक्तव्यम्। ततो मूलत आरभ्य यावन्त्यतीतानितावन्ति भूयोऽप्यतिक्रम्यगत्वा द्वितीयकम संख्येयगुणाधिकं स्थानं वक्तव्यम। बिइयं ताणि समाइं, पढमस्साणंतगुणियमेगं तो। तीयाणइच्छियाणं-ताण वि पढमस्स तुल्लाई॥३६ / / (बिइय ति) तान्यप्यसंख्येयगुणाधिकानि स्थानानि प्रथमस्थ मूलभूतस्थानन्तभागवृद्धकण्डकस्य समानितुल्यानि भवन्ति / ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसंख्येयगुणाधिक स्थानप्रसङ्गेऽनन्तगुणितम्-अनन्तगुणाधिकं स्थानमेकं वक्तव्यम्। ततो मूलत आरभ्य यानि अनुभागबन्धस्थानानि अतीतानि तानि भूयोऽप्यतिक्रम्यगत्वा द्वितीयमनन्तगुणाऽधिकं स्थान वक्तव्यम्। एवं तान्यप्यनन्तगुणाधिकानि स्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्प्रथम स्यानन्तभागवृद्धस्थानकण्डकस्य तुल्यानि भवन्ति / ततः पूर्वपरिपाट्या पञ्चकवृद्धयनन्तरं पुनरप्यनन्तगुणाधिक स्थानमुत्पद्यते, किं वा नेति चेदुच्यते-नोत्पद्यते, षट्थानकस्य परिसमाप्तत्वात्। एतरप्रशमं षट्स्थानकम्॥३६॥ अरिमंञ्च षट्स्थानकेऽनन्तभागवृद्धिः, असंख्येयभागवृद्धिः, संख्येयभागवृद्धिः, संख्येयगुणवृद्धिः, असंख्येयगुणवृद्धिः, अनन्तगुणवृद्धिश्चोक्ता / तत्रा कियन्मात्रेणा नन्ताऽसंख्येयसंख्येयतमेन भागेन कियन्मात्रोण वाऽनन्ताऽ संख्येयसंख्येयगुणकारेण वृद्धिर्भवतीति तत्परिज्ञानार्थमाहसव्वजियाणमसंखे- अलोग संखेज्जगस्स जेट्ठस्स। भागो तिसु गुणणा तिसु,छट्ठाणमसंखिया लोगा।॥३७॥ Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण (सटवे त्ति) आधासु तिसृषु वृद्धिष्वनन्ताऽसंख्येयसंख्येयानां भागो यथाकम सर्वजीवानामसंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशानप्मुत्कृष्टस्य च संख्येयस्य द्रष्टव्यः / उत्तरासु च तिसृषु वृद्धिषु गुणनागुणकारोऽनन्ताऽसंख्येयसख्येयानां यथाक्रम मेतेषामेव सर्वजीवाऽऽदीनामवगन्तव्या। इदमुक्तं भवति-प्रथम स्याऽनुभागबन्धस्थानस्य सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृतेसति यल्लब्ध सोऽनन्तभाग इह ग्राह्यः / तेनाभ्यधिक द्वितीयमनुभागस्थानम्। तस्याऽपि सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागे हते सति वल्लब्धतेनाभ्यधिकं तृतीयमनुभागबन्धस्थानम्। एवं यदयदनुभागबन्धस्थानमनन्तभागवृद्धमुपलभ्यते तत्तत्पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्याऽनुभाबन्धस्थानस्य सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागे हते सति यल्लभ्यते तेन तेनाऽनन्ततमेन भागेनाऽभ्यधिकमवगन्तव्यम्।तथाऽसंख्येय-भागाधिकं नामपाश्चात्यस्याऽनुभागबन्धस्थानस्याऽसंख्येय लोकाऽऽकाशप्रदेशप्रामाणेन राशिना भागे हते सति यल्लभ्यते सोऽसंख्येयतमो भागः / तेनाऽसंख्येयतमेन भागेनाभ्यधिकम संख्येयभागाधिकं द्रष्टव्यम्।तथा संख्येयभागाधिकं नाम पाश्चात्यस्यानुभागबन्धस्थानस्य उत्कृष्टन संख्येयेन भागे हृते सति यल्लभ्यते स संख्येयतमो भागः। तेन संख्येयतमेन भागेनाभ्यधिकमवगन्तव्यम्। तथा संख्येयगुणवृद्ध नाम पाश्चात्यमनुभागबन्धस्थानमुत्कृष्टसंख्येयकप्रमाणेन राशिना गुण्यते / गुणिते च सति यावान् राशिर्भवति एतावत्प्रमाणमवगन्तव्यम्। तथाऽसंख्येयगुणवृद्ध नाम पाश्चात्यमनुभागबन्ध स्थानमसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशसंख्याप्रमाणेन राशिना गुण्यते / गुणिते च सति यावान् राशिर्भवति तावत्प्रमाणामवसेयम् / एवमनन्तगुणवृद्धमपि भावनीयम् / प्रथमस्य षट्स्थानकस्य परिसमाप्तौ सत्यामुपरि यदन्यदनुभागस्थानमु पजायतेऽनन्तभागवृद्धं तत् द्वितीयस्य षट्स्थानकस्य प्रथममवगन्तव्यम् / तदपि च द्वितीयं षट्स्थानकं पूर्वक्रमेण सकलमपि वक्तव्यम्। एवं शेषाण्यपिषट्स्थानकानि वक्तव्यानि। तानि च तावद्वत्कव्यानि यावदसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति / तथा चाऽऽह-''छट्ठाणमसंखियालोगा।'' अा कश्चित्प्रश्नयति-ननु प्रथमानुभाग बन्धस्थानस्य सर्वजीवप्रमाणेन राशिना भागोऽपहियते किं रसाविभागापेक्षया,उतपरमाण्वपेक्षया, यद्वा स्पर्धका ऽपेक्षया? तत्रन तावदसाविभागापेक्षया, प्रथमस्थानात् द्वितीय स्थानेऽपि रसाऽविभागानां संख्येयाऽऽदिगुणनया प्राप्यमाणत्वात् / तथाहि- प्रथमे स्थाने प्रथमे स्पर्धक प्रथमवर्गणायामनन्ता अपि रसाऽविभागाः किलाऽसत्कल्पनया सप्त। ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टौ। तृतीयस्यां नव। चतुर्थ्यादश। इदमेकं स्पर्धकम्। इतऊध्यै त्वेकोत्तरवृद्धया रसाऽविभागान प्राप्यन्ते, किंतु सर्वजीवानन्तगुणाधिकाः ते च किलाऽसत्कल्पनया सप्तदश / एते / च द्वितीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम्। ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टादश। तृतीयस्यामेकोनविंशतिः / चतुर्थ्यां विंशति। इदं द्वितीयं स्पर्धकम् / ततः पुनरप्यत ऊर्ध्वमेकोत्तरवृद्धया रसाऽविभागा न प्राप्यन्ते, किंतु सर्वजीवानन्तगुणाधिकाः। ते च किलाऽसत्कल्पनया सप्तविंशतिः।। एते च तृतीयरुप-स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम्। ततो द्वितीयस्यां वर्गणायानष्टाविंशतिः। तृतीयस्यामेकोनत्रिंशत्। चतुर्थ्या शित्। इदंतु तृतीय स्पर्धकम् / ततः पुनरप्यज्ञऊर्ध्वमेकोत्तरबृद्धया रसाऽविभागान प्राप्यन्ते, किं तु सर्वजीवानन्तगुणाभ्यधिकाः / ते च किलाऽसत्कल्पनया सप्तत्रिशत् / एते चतुर्थस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम् / ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टात्रिंशत्। तृतीयस्यामेकोनचत्वारिंशत्। चतु• चत्वारिशत् / इदं चतुर्थ स्पर्धकम् / एतानि च किलाऽसत्कल्पनया। प्रथममनुभागबन्ध स्थानम्। अाच रसाऽविभागः सर्वसंख्यया षट्सप्तत्यधिकानि त्रीणि शतानि / इत ऊर्ध्व त्वेकोत्तरवृद्धया रसाऽविभागा न प्राप्यन्ते, किंतु सर्वजीवानन्तगुणाभ्यधिकाः। ते च किलाऽसत्कल्पनया सप्तचत्वारिंशत्। एतेच द्वितीयस्य स्थानस्य प्रथमस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम् / ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टचत्वारिंशत्। तृतीय स्यामेकोनपश्चाशत्। चतुर्यो पञ्चाशत् / इदं द्वितीय स्थाने प्रथमं स्पर्धकम् / इत ऊर्ध्व त्वेकोत्तरवृद्धया रसाऽविभागान प्राप्यन्ते, किंतु सर्वजीवा-नन्तगुणाधिकाः ते च किलाऽसत्कल्पनया सप्तपञ्चाशत् / एते च द्वितीयस्थाने द्वितीयस्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम् / ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टपञ्चाशत् / तृतीयस्या मेकोनषष्टिः चतुर्थ्या षष्टिः / इदं द्वितीयस्थाने द्वितीयं स्पर्धकम् / इत ऊर्ध्वमकोत्तरवृद्धया एसाविभागा न प्राप्यन्ते, किं तु सर्वजीवानन्तगुणाधिकाः / ते च किलाऽसत्कल्पनया सप्तषष्टिः / एते च द्वितीय स्थाने तृतीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम् / ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टषष्टिः / तृतीयस्यामेकोनसप्ततिः / चतुर्थ्यां सप्ततिः / इदं द्वितीय स्थानेतृतीयं स्पर्धकम् / तत इतऊर्ध्वं पुनरप्येकोत्तरवृद्धया रसाऽविभागान प्राप्यन्ते, किं तु सर्वजीवाऽनन्तगुणाधिकाः / ते च किलाऽसत्कल्पनया सप्तसप्ततिः। (एते च द्वितीय स्थाने चतुर्थस्य स्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायाम) ततो द्वितीयस्यां वर्गणायामष्टसप्ततिः तृतीयस्यामेकोनाऽशीतिः / चतुर्थ्यामशीतिः इदं च द्वितीयस्थाने चतुर्थ स्पर्धकम् / एतानि च किलाऽसत्कल्पनया द्वितीयं स्थानम् / अत्रा च रसाऽविभागाः सर्वसख्यया षोडशाऽधिकं सहस्त्रम्। तदेवं प्रथमस्थानगतरसाऽविभागपेक्षया द्वितीयस्थाने रसाऽविभागाः संख्येयगुणाः प्राप्यन्ते / उत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिंस्तु स्थाने पूर्वपूर्वस्थानाऽपेक्षया प्रभूताः प्रभूततमा इति न क्वापि रसाविभागाऽपेक्षया पूर्वस्थानादुत्तरस्य स्थानस्याऽनन्तभागाधिकत्वं प्राप्यते। नाऽपि परमाण्वपेक्षयाऽनन्त भागाधिकत्वसम्भवः, यतो यथा यथाऽनुभागोवर्धते तथा तथा पुद्गलाः स्तोकाः स्तोकतराः प्राप्यन्ते। ततः प्रथमस्थान-गतपरमाण्वपेक्षया द्वितीय स्थाने परमाणवः किञ्चिदूना एव भवन्ति नानन्तभागाधिकाः / एवमुत्तरेष्यपि स्थानेषु पूर्वपूर्वस्थानाऽपेक्षया हीनहीनतरपरमाणुत्यं द्रष्टव्यम् / नाऽपि स्पर्धकाऽपेक्षया प्रथमस्थानाऽऽदीना सर्वजीवप्रमाणेन राशिना भागाऽपहारः संभवति, प्रथमस्थानाऽऽदिगतस्पर्धकानामभव्याऽनन्तगुण सिद्धाऽनन्तभागकल्पत्तयऽतीव स्तोकत्वादिति / अत्रोच्यते- इयं हि षट्स्थानकप्ररुपणा सयम श्रेण्यादिगतसकलषटस्थानकव्यापकलक्षणतया प्ररुप्यते Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1202 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण ततो यद्यप्यनन्तगुणवृद्धात् स्थानादर्वाकृतनेषु स्थानेषु सर्वजीवप्रमाणेन राशिना स्पर्धकापेक्षया भागहारो न संभवति, तथाऽप्युत्तरेषु स्थानेष्वन्येष्वपि च द्वितीयाऽऽदिषु षट्स्थानेषु तथा सर्वेष्वपि संयमश्रेण्यादिगतेषु संभवतीति न कश्चिद् विरोधः, बाहुल्येन सर्वत्राऽपि संभवात्, "सर्वजीवप्रमाणेन राशिना भागो हियते'' इति वचनाच अनन्तगुणवृद्धात् स्थानादगिपि पूर्वस्थानेभ्य उत्तरोत्तरस्थानानां सर्वस्तोकाऽनन्तभागाऽधिकत्वमवसेयम् / यद्यपि च पूर्वपूर्वस्थानापेक्षयोत्तरोत्तरस्थानेषु किञ्चिद्धीनहीनतराः परमाणवः प्राप्यन्ते तथाऽपि स्तोकस्तोकतरैः परमाणुभिर्वर्गणाऽऽदीनां संभवादुक्तस्वरुपस्पर्धकबाहुल्यं न विवध्यते। तदेवमुक्ता षट्स्थानकप्ररुपणा / / साम्प्रतमधस्तन स्थानप्ररुपणा क्रियते-तका प्रथमादसंख्येयभागवृद्धात् स्थानादधः कियन्त्यनुभागबन्धस्थानान्यनन्तभागवृद्धानि? उच्यते-कण्डकमात्राणि / तथा प्रथमात्संख्येय-भागवृद्धात्स्थानात् अधः कियन्त्यसंख्येयभागवृद्धानि स्थानानि? उच्यते कण्डकमात्राणि / तथा प्रथमात्संख्येयगुणवृद्धात्स्थान्मदधः कियन्ति संख्येयभागवृद्धानि स्थानानि? उच्यते-कण्डकमात्राणि / तथा प्रथमादसंख्येयगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि? उच्यते-कण्डकमात्राणि। तथा प्रथमादनन्तगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्त्य संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि? उच्यते-कण्डकमात्राणि / इयमुत्तरोत्तरस्थानादधोऽधि आनन्तर्येण मार्गणा / इदानीमेकान्तरिता मार्गणा क्रियते तत्र प्रथमात्संख्येयभागवृद्धात् स्थानादधः कियन्त्यनन्तभागवृद्धानि स्थानानि? उच्यतेकण्डकवर्गः, कण्डकं च / तथा प्रथमात्संख्येयगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्त्यसंख्येयभाग वृद्धानि स्थानानि? उच्यते-कण्डकवर्गः, कण्डकंच / तथा प्रथमादसंख्येयगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति संख्येय-भागवृद्धानि स्थानानि? उच्यते-कण्डकवर्गः, कण्डकं च / तथा प्रथमादनन्तगुणवृद्धात् स्थानादधः कियन्ति संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि? उच्यते-कण्डकवर्गः कण्डकं च। एवमुक्तप्रकारेण व्यन्तरिता त्र्यन्तरिता चतुरन्तरिता च मार्गणा स्वधिया परिभाषनीया / / 37 / / तदेवं कृताऽधस्तनस्थान प्ररुपणा। साम्प्रतं वृद्धिस्थानप्ररुपणा क्रियतेवुड्डी हाणी छक्कं, तम्हा दोण्हं पि अंतमिल्लाणं। अंतोमुत्तमावलि, असंखभागा उसेसाणं // 38 // (बुड्डि त्ति) इह जीवाः परिणतिविशेषतः कर्मपरमाणुष्वनु-भागस्य षद्धिधामुक्त स्वरुपां वृद्धि हानि वा कुर्वन्ति / तस्मात् कां वृद्धिं कियन्तं कालं यावत् कुर्वन्तीत्यवश्यं कालप्रमाणामभिधानीयम्। तत्र द्वयोवृद्धिहान्योरन्तिमयोरनन्तगुणवृद्धयनन्तगुणहानिरुपयोरन्तर्मुहूर्तमवगन्तव्यम्। किमुक्तं भवति? अन्तर्मुहूर्त कालं यावनिरन्तर जीवाः परिणामविशेषतः प्रतिसमयमनुभागान् पूर्वस्मात् पूर्वस्मादनन्त गुणवृद्धाननन्तगुणहीनान् वा बध्नन्तिा तथा शेषाणां पञ्चानामाद्यानं वृद्धीनां हानीनांवा आवलिकाया असंख्येयभागमात्रः कालो वेदितव्यः / इदमुक्तं भवति-अनुभागानामाद्याः पञ्च वृद्धीहानी, आवलियकाया असंख्येयभागमात्रां कालं यावन्निरन्तरं जीवाः परिणामविशेषतः कुर्वन्ति / एषा च हानिवृद्धिकालप्ररुपणोत्कर्षतोऽवगन्तव्या। जघन्यतस्तु म अपि वृद्धयो हानयो वा एक द्वौ वा समयौ यावदवगन्तव्याः // 38|| इदानीमेतेष्वुभागस्थानेषु बन्धमाश्रित्याऽवस्थाने कालमानमाह - चउराई जावट्ठग- मेत्तो जावं दुगं तिसमयाणं / ठाणाणं उक्कोसो, जहण्णओ सव्वहिं समओ // 36 / / (चउराइति) चत्वार आदिर्यस्याः सा चतुरादिः-वृद्धिः / सा च समयानामवस्थितकालनियामकानां तावद् द्रष्टव्या यावदष्टौ समयाः / इत ऊर्ध्व पुनः समयाना हानिर्वक्तव्या। सा च तावद्वक्तव्या यावत् द्विकम्। सा च वृद्धि निर्वा चतुशदिका स्थानानामनुभागबन्धस्थानानामुत्कर्षतो द्रष्टव्या। जघन्यतस्तु सर्वेषामपि समयः / इयमत्रा भावनायानि अनुभागबन्धस्थानानि जीवाः पुनः पुनस्तान्येव चतुरः समयान् यावद् बध्नन्ति तानि चतुः सामयिकानि। तानि च मूलादारभ्याऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति / तेभ्य उपरितनानि स्थानानि पञ्चसामयिकानि तान्यप्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशराशि प्रमाणानि। तेभ्य उपरितनानि स्थानानि षट् सामयिकानि, तान्यप्यसंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशराशिप्रमाणानि। तेभ्य उपरितनानि स्थानानि सप्तसामयिकानि, तान्यप्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि। तेभ्य उपरितनान्यष्टसामयिकानि, तान्यप्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि। तेभ्य उपरितनानि पुनः स्थानानि सप्त सामयिकानि, तान्यप्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशराशि प्रमाणानि / तेभ्य उपरितनानि षट् सामयिकानि, तान्यप्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशराशि प्रमाणानि, एवं तावद्वाच्यं यावद् द्विसामयिकानि॥३६॥ तदेवं कृता समयप्ररुपणा। इदानी यान्यनुभागबन्धस्थानानि अष्टसामयिकानि तानि यस्यां वृद्धौ हानौ वा प्राप्यन्ते तामाहदुसु जवमझं थोवा-णि अट्ठसमयाणि दोसु पासेसु / समऊणियाणि कमसो, असंखगुणियाणि उप्पिं च // 40 // (दुसुत्ति) द्वयोर्विकल्पयोरनन्त गुणवृद्धयनन्तगुणहानि-रुपयोर्यवमध्यं वति।यवस्य मध्यमिवयवमध्यमष्टसामयिका न्यनुभागबन्धस्थानानीत्यर्थः / यथा यवस्य मध्यं पृथुलमुभयतः पार्श्वे चहीने हीनतरे, तथाऽत्रापि कालतः पृथुलानि अष्टसामयिकानि अनुभागबन्धस्थानानि, उभयपार्श्ववर्तीनि च सप्तसामयिकाऽऽदीनि कालतो हीनानि हीनतराणि। ततोऽष्टसामायिकानि यक्स्य मध्यमिव यवमध्यम्, तानि च प्रथमादष्टसामयिकात् स्थानादारभ्य सर्वाण्यप्यसंख्येयलोकाऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणानि अनन्तगुणवृद्धौ प्राप्यन्ते। सप्तसामयिकानां हि चरमादनुभागबन्धस्थानात् प्रथममष्ट सामयिक स्थानमनन्तगुणवृद्धम् / ततः शेषाण्यपि तदपेक्षयाऽ नन्तगुणवृद्धान्येव भवन्ति। तथाऽष्टसामयिकानां चरमादनुभाग बन्धस्थानादुपरितनं सप्तसामयिकं स्थानमनन्तगुणवृद्धम् / ततस्तदपेक्षया पाश्चात्यान्यष्टसामयिकान्यनुभागबन्धस्थानानि सर्वाण्यप्यनन्तगुणहीनान्येव भवन्ति / तदेवमष्टसामयिका न्यनन्तगुणवृद्धौ अनन्तगुणहानी Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1203 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण च प्राप्यन्ते। अष्टसामयिकानि चोपलक्षणं, तेनाऽऽद्यानि चतुः सामयिकानि सर्वान्तिमानि च द्विसामयिकानि वर्जयित्वा शेषाणि सर्वाण्यपि पञ्च सामयिकाऽऽदीनि प्रत्येकमुक्तप्रकारेणा ऽनन्तगुणवृद्धावनन्तगुणहानौ च वेदितव्यानि। आद्यानि पुनः चतुः सामयिकान्यनन्तगुणहानावेव / तथाहि-पञ्चसामयिकमाद्यमनु भागबन्धस्थानं चतुःसामयिकचरमाऽनुभागबन्धस्थाना पेक्षयाऽनन्तगुणवृद्धम्। ततस्तदपेक्षया पाश्चात्यानि चतुः सामयिकानि रार्वाण्यप्यनुभागबन्धस्थानान्यनन्तगुण हानावेव प्राप्यन्ते, द्विसामयिकानित्वनन्त गुणवृद्धावेव। तथाहि-त्रिसामयिकानां चरमादनुभागबन्धस्थानादाद्यं। द्विसामयिकमनु भागबन्धस्थानमनन्तगुणवृद्ध, ततस्तदपेक्षया सर्वाण्यप्यनन्त गुणवृद्धान्येव / कृता यवमध्यप्ररूपणा / साम्प्रतं चतुःसामयिका ऽऽदीनां स्थानानामल्प बहुत्वमाह - (थोवाणीत्यादि) सर्वस्तोकानि यवमध्यभूतानि अष्टसामयिकानि स्थानानि / अतिचिरबन्धकालयोग्यानि हिस्थानानि स्तोकान्येव प्राप्यन्ते इति कृत्वा तेभ्योऽसंख्येयगुणानि पूर्वोत्तरलक्षणोभयपार्श्ववर्तीनि सप्तसामयिकानि अल्पतरबन्धकालविषयत्वात्। स्वस्थाने तुद्रयान्यपि परस्परंतुल्यानि। तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि उभयपार्श्ववर्तीनिषट्सामयिकानि स्वस्थाने तु द्वयान्यपि परस्परं तुल्यानि ! तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि उभयपार्श्ववर्तीनि पञ्चसामयिकानि / स्वस्थाने तु द्वयान्यपि परस्परं तुल्यानि। तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि उभयपार्श्ववतीनि चतुःसामयिकानि / स्वस्थाने तु द्वयान्यपि परस्परं तुल्यानि तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि त्रिसामयिकानि। तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि द्विसामयिकानि। (दोसु पासेसु त्ति) अष्टसामयिकेभ्योऽनन्तरं द्वयोः पार्श्वयोः क्रमशःक्रमेण समयोनानि समयोनानि सप्त सामयिकाऽऽदीनि स्थानानि असंख्येयगुणानि तायद्वक्तव्यानि यावच्चतुःसामयिकानि। तेभ्य उपरि च त्रिसामयिकानि द्विसामयिकानि च क्रमशोऽसंख्येयगुणानि वक्तव्यानीति गाथाऽर्थः / / 4 / / संप्रति सर्वेषामेवाऽनुभागबन्धस्थानानां समुदायमधिकृत्य विशेषसंख्यानिरुपणार्थमाहसुहुमगणिपवेसणया, अगणिकाया य तेसि कायठिई। कमसो असंखगुणिया-ण (अ) ज्झवसाणाणि चऽणुणभागे 41 (सुहुम ति) सूक्ष्माऽनौ-सूक्ष्माग्निकाये प्रवेशनमुत्पादो येषां ते सूक्ष्माग्निप्रवेशनकाः। तथाऽग्निकाया-अग्निकायत्वे नाऽवस्थिताः। तथा तेषामनिकायानां कायस्थितिः कायस्थितिकालः। एते क्रमशः-क्रमेणाऽसंख्येयगुणिताः / तथा ऽनुभागे-अनुभागविषयेऽध्यवसानानि, कार्य कारणोपचारादध्यवसायनिवानियान्यनुभागबन्धस्थानानि, तान्यसंख्येयगुणानि / उक्तं च - "सुहुमगणिं पविसंता, चिट्टता तेसि कायठिइकालो। कमसो असंखगुणिओं, तत्तो अणुभागठाणाई।।१।।" इयमत्र भावना-ये एकस्मिन् समये सूक्ष्माऽग्रिकायेषु मध्ये प्रविशन्तिउत्पद्यन्ते ते स्तोकाः, ते चाऽसंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाणाः / तेभ्योऽपि येऽग्निकायत्वेनावतिष्ठन्ते तेऽसंख्येयगुणाः तेभ्योऽप्यग्नि कायस्थितिकालोऽसंख्येयगुणः। ततोऽप्यनुभागबन्ध स्थानान्यसंख्येयगुणानि / / 41 / / संप्रत्योजोयुग्मप्ररुपणाऽवसरः-तत्र ओजः-विषम, सम युग्मं तत्प्ररुपणा चैवम्-इह कश्चिद्विव क्षितो राशिः स्थाप्यते, तस्य कलिद्वापरस्रोताकृतयुग संज्ञैश्चतुर्भिर्भागो हियते। भागे च हते पति यद्येकः शेषो भवति तर्हि स राशिः पूर्वपुरुषपरिभाषया कल्योज उच्यते, यथा त्रयोदश / अथ द्वौ शेषौ तर्हि द्वापरयुग्मः, यथा चतुर्दश / अथ त्रयः शेषारततरबेतौजो, यथा पञ्चदश / यदा तु न किञ्चिदवतिष्ठते, कि तु सर्वाऽऽत्मना निर्लेप एव भवति, तदा स कृतयुगो, एथा षोडश। उक्तंच"चउदसदावग्जुम्मा, तेरस कलिओजतहयकङजुम्मा। सोलसतेओजो खलु, पन्नरसेव खु विन्नेया॥१॥" ||41 // तत्राऽविभागाऽऽदयो यादृगराशिरुपा वर्तन्ते तादृगराशिरुपमाहकडजुम्मा अविभागा, ठाणाणि य कंडगाणि अणुभागे। पज्जवसाणमणंतगु-णाओ उप्पिं न (अ) णं तगुणं / / 42 // (कडजुम्मे त्ति) अनुभागे-अनुभागविषयेऽविभाग स्थानानि कण्डकानि च कृतयुग्मानि कृतयुग्मराशिरुपाणि द्रष्टव्यानि। कृतौजोयुग्मप्ररुपणा।। सम्प्रति पर्यवसानद्वारमाह - ‘पजवसाणेत्यादि / ' अनन्तगुणाद्अनन्तगुणवृद्धि कण्डकादुपरि पञ्च-वृद्धयात्मकानि सर्वाणि स्थानानि गत्वा पुनरनन्तगुणवृद्धं स्थानं न प्राप्यते, षट् स्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् / ततस्तदेवं सर्वाऽन्तिमं स्थानं षट्स्थानकस्य पर्यवसानमिति // 42 // सम्प्रत्यल्पबहुत्वप्ररुपणार्थमाह -- अप्पबहुमणंतरओ, असंखगुणियाणऽणंतगुणमाई। तविवरीयमियरओ, संखेज्जक्खेसु संखगुणं // 43 // (अप्पत्ति) इह द्विधाऽल्पबहुत्वप्ररुपणा-अनन्तरोपनिधया, परम्परोपनिधया चा तौकस्मिन्षट्स्थानकेऽन्ति मस्थानादारभ्य पश्चानुपूर्व्याऽनन्तरोपनिधया प्ररुपणा क्रियते-अनन्त-गुणान्यनन्तगुणवृद्धानि स्थानान्यादौ कृत्वा शेषाण्यसंख्येय-गुणितानि वक्तव्यानि। तद्यथासर्वस्तोकान्यनन्त गुणवृद्धानि स्थानानि, कण्डकमात्रात्यात्तेषाम् / तेभ्योऽसंख्येय गुणवृद्धानि / स्थानान्यसंख्येयगुणानि कोगुणकारः? भण्यते-कण्डकम्, एककण्डकप्रक्षेपश्च / कुत एतदवसीयत इति चेद्? उच्यते-इह यस्मादेकैकस्याऽनन्तगुणवृद्धस्य स्थानस्याऽधस्तादसंख्येयगुण वृद्धानि स्थानानि कण्डकमात्राणि प्राप्यन्ते / तेन कण्डकं गुणकारः / अनन्तगुणवृद्धस्थान कण्डकाचोपरि कण्डकमात्राण्यसंख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि प्राप्यन्ते, न त्वनन्तगुणवृद्धं स्थानं, तेनोपरितनकण्डकस्याधिकस्य तत्रा प्रक्षेपः। तेभ्योऽप्यसंख्येय गुणवृद्धेभ्यः स्थानेभ्यः संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि असंख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि संख्येयभागाधिकानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि / तेभ्योऽप्यसंख्येयभागाधिकानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि। तेभ्योप्यसंख्येयभागाधिकानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि। तेभ्योऽप्यनन्तभागवृद्धानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि। गुणकारश्च सर्वत्रापि कण्डकम् उपरिचैककण्डक प्रक्षेपः / तथाहिएकैकस्याऽसंख्येयगुणवृद्धस्य स्थानस्याऽधस्तात् संख्येयगुण वृद्धानि स्थानानि कण्डकमात्राणि प्राप्यन्ते। तेन कण्डकंगुणकारः। असंख्येयगुणवृद्धकण्डकाचोपरि कण्डकमात्राणि संख्येयगुणवृद्धानि स्था -- Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1204 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण नानि प्राप्यन्ते / तदनन्तरं त्वनन्तगुणवृद्धमेव स्थानं भवति, नत्यसंख्येयगुणवृद्धम्। प्रथमाचाऽनन्तगुणवृद्धात् स्थानादाक् असंख्येयगुणवृद्धस्थानाऽपेक्षया संख्येयगुण वृद्धानि स्थानानि चिन्त्यन्ते। नतत उर्ध्वमपि। तेनोपर्वकस्वेक्ष कण्डकल्याऽथिकस्य प्रक्षेपः / एवं संख्येयभागवृद्धाऽदीनामपि स्थाज्ञानामसंख्येयगुणत्वे गुणकारभावना द्रष्टव्या। तदेवं कृता ऽनन्तरोपनिधयाऽल्पबहुत्व प्ररूपणा।। संप्रति परम्परोधनिधया तां कुर्वन्नाह- (तव्विवरीयनयरओ त्ति) इतस्तः- इतरस्यां परम्परोपनिधायां तद्विपरीत येन कमेणोक्तननन्तरोपनिधायां तद्विपरीतं द्रष्टव्यम् / इहाऽऽदित आरभ्य वक्तव्यमित्यर्थः / तथाहि-सर्वस्तोकानि अनन्तभागवृद्धानि स्थानानि यस्मादाद्यानुभागबन्धस्थानादारभ्यानन्तभागवृद्धानि स्थानानि कण्डकमात्राण्येव प्राप्यन्ते, नाधिकानि। तेभ्योऽप्यसंख्येयभागवृद्धानि स्थानानि असंख्येयगुणानि / कथमिति चेद् उच्यते अनन्तभागवृद्धकण्ड-कादुपरितनं प्रथममसंख्येयभागवृद्धं स्थानं यदि पाश्चात्य-कण्डकसत्कचरमस्थानाऽपेक्षयाऽसंख्येयेन भागेनाऽधिकं, तत उपरितनमनन्तभागवृद्धं स्थानं तदपेक्षया सुतरामसंख्येयभागवृद्धं भवति / अनन्तभागवृद्ध हि तत्प्रथमाऽसंख्येयभागवृद्धस्थाना पेक्षया / अनन्तभागवृद्धकण्डकसत्कचरमस्थानापेक्षयात्वसंख्येयभागाधिकमेव। तत उपरितनानि स्थानानि विशेषतो विशेषतरतोऽसंख्येयभागाधिकानि तावद् द्रष्टव्यानि यावत्संख्येयभागाधिक स्थानं न भवति। तदेवं यतः प्रथमा-दसंख्येयभागवृद्धात्स्थानादारभ्य प्रथमात् संख्येयभागवृद्धात् स्थानादगपान्तराले यानि स्थानानि तानि सर्वाण्यप्य-संख्येयभागवृद्धानि प्राप्यन्ते। तस्मादनन्तभागवृद्धेभ्यः स्थानेभ्योऽसंख्येयभाग वृद्धानि स्थानाव्यसंख्येयगुणानि भवन्ति, तेभ्योऽपि संख्येयभागवृद्धानि स्थानानि संख्येयगुणानि / कुल एत वसीयत इति चेदुच्यते-प्रथमे संख्येयभागवृद्ध स्थाने पाश्चात्यमनन्तर स्थानमधिकृत्य संख्येयभागवृद्धिः प्राप्यते। यद्यपि प्रथमेऽपि संख्येयभागवृद्धे स्थाने संख्येयभागवृद्धिः प्राप्ता, तर्हि ततः प्रथमात्र स्थानादुत्तरेषामनन्तभागवृद्धाऽसंख्येयभागवृद्धानां स्थानानां सुतरां संख्येयभागवृद्धिर्भवति। यतोऽनन्तभागवृद्धिर संख्येयभागवृद्धिर्वापूर्वपूर्वा (न)न्तरस्थानापेक्षया। प्रथमसंख्येय भागवृद्धात्पुनः प्राक्तनमनन्तरं स्थानमधिकृत्य सर्वाण्यप्यनन्तभावृद्धानि। असंख्येयभागवृद्धानि च स्थानानि यथोत्तरं सविशेषविशेषतरं संख्येयभागवृद्धानि भवन्तिा सविशेषतरसंख्येयभागवृद्धिश्च तावद्वक्तव्या यावन्मौलं / द्वितीयं संख्येयभागाधिक स्थानं न भवति। द्वितीय मौलं संख्येयभागाधिकं स्थानं द्वाभ्या साऽतिरेकाभ्यां संख्येयभागाभ्यामधिकमवनन्तव्यम्। तृतीय त्रिभिः साऽतिरेकैः। चतुर्थ चतुर्भिः साऽतिरेकैः / एवंतावद्वाच्यं यावदुत्वृष्टसंख्येयतुल्याभ्यन्तराऽन्तराभावीनि मौखानि संख्येयभागवृद्धानि यथानानि भवन्ति। एतावन्ति चा ऽन्तराले यावन्ति स्थानानि तावन्ति सर्वाण्यपि संख्येयभागवृद्धानि स्थानानि, किं त्वेकेन सर्वान्तिमेन स्थानेन न्यूनानि द्रष्टव्यानि। यत उत्कृष्टसंख्यातमसंख्येयभागवृद्ध स्थानं संख्येयगुणंभवति। (द्विगुणत्वात्).ततस्तत्परित्यज्यते। तोह यावन्ति असंख्येय भागवृद्धानि स्थानान्यनन्तरमुक्तानि तावन्ति एकैकस्मिन्नन्तराऽन्तराभाविना संख्येयभागकृद्धाना स्थानानामन्तरे वाप्यन्ते / तानि चाऽन्तराऽन्तराभावीनि मौलानि संख्येयभागवृद्धानि स्थानानि प्रस्तुतचिन्तायामुत्कृष्टसंख्यातक तुल्यानि गृह्यन्ते। केवलं तदेवैकं सर्वान्तिम संख्येयभागवृद्धं परित्यजन्ते। ततोऽसंख्येयभागवृद्धेभ्यः स्थानेभ्यः संख्येयभागवृतानि स्थानानि संख्येयगुणान्येव भवन्ति / तेभ्योऽपि संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि संख्येयगुणानि / कथमिति चेत? उच्यतेप्रथमात्संख्येयभागवृद्धात् स्थानात् प्राक्तनं यदनन्तरं स्थानं तदधिकृत्योत्तराणि अन्तराऽन्तराभावीनि मौलानि संख्येवभागवृद्धानि स्थानानि उत्कृष्टसंख्यातकतुल्यानि गत्वा चरमं स्थानं द्विगुणं सधिकमुपलब्धम्। ततः पुनरपि तावन्मात्राण्येव स्थानानि गत्वा चरमं स्थानं सातिरेक त्रिगुणम्, एवमेव चतुर्गुणम्। एवं तावद्वाचं यावदुत्कष्टसंख्येगुणं भवति। ततः पुनरप्यत्कृष्टसंख्यातकतुल्यानि स्थानानि गत्वा चरमं यदेकेन गुणेन वृद्ध भवति, तजघन्याऽसंख्येयगुणं भवति। तस्मात्संख्येयभागवृद्धेभ्यः स्थानेभ्यः संख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि संख्येयगुणान्येव भवन्ति। तथा चाऽऽह (संखज़क्खेसु संखगुण) संख्येयाऽऽख्येषु संख्येयभागवृद्धसंख्येयगुणरुपेषु स्थानेषु संख्येयगुणं सख्येयगुणता वक्तव्या। तेभ्योऽपि संख्येयगुणवृद्धेभ्यः स्थाने भ्योऽसंख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि असंख्येयगुणानि। कथमिति चेद्? उच्यते इह यतः प्रागुक्तादनन्तराद् जघन्याऽसंख्येयगुणात् स्थानात् पराणि सर्वाण्यप्यनन्तभागवृद्धाऽसंख्येभागवृद्धसंख्येयभागवृद्ध संख्येयगुणवृद्धाऽसंख्येयगुणवृद्धानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि प्राप्यन्ते, ततः संख्येयगुणवृद्धेभ्यः स्थानेभ्योऽसंख्येयगुणवृद्धानि स्थानानि असंख्येयगुणानि भवन्ति। तेभ्योऽप्यनन्तगुणवृद्धानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि / कथमिति चेद्उच्यते-इह प्रथमादनन्तगुणवृद्धात् स्थानादारभ्य यावत् षट्स्थानकपरिसमाप्तिस्तावत् सर्वाण्यपिस्थानानि अनन्तगुणवृद्धानि। तथाहि-यदि प्रथमभनन्तगुणवृद्ध स्थान पाश्चात्यमनन्तरस्थानमधिकृत्याऽनन्तगुणाधिकं जातम्। तत उत्तराणि अनन्तभागवृद्धाऽऽदीनि स्थानानि तदपेक्षया सुतरामनन्तगुणवृद्धानि भवन्ति। यावन्ति च स्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति एकैकस्मिन्ननन्तगुण वृद्धानामन्तराऽन्तराभाविनां स्थानानामन्तरे भवन्ति / कण्डकमात्राणि च तान्यन्तराणि / ततः प्रागुक्तेभ्योऽसंख्येयगुणवृद्धेभ्यः स्थानेभ्योऽनन्तगुणवृद्धानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि भवन्ति इति // 43 // तदेवं कृता-ऽल्पबहुत्वप्ररुपणा। तत्करणाचौक्तान्यनुभागवन्ध स्थानानि। साम्प्रतमेतेष्वनुभागबन्धस्थानेषु निष्पादकत्वेन यथा जीवा धर्तन्ते तथा प्ररुपणा कर्तव्या / तत्र चाऽष्टावनुत्योगद्वाराणि। तद्यथा-एकैकस्मिन् स्थाने जीवप्रमाणप्ररुपणा 1, अन्तरस्थानप्ररुपणा 2, निरन्तरस्थानप्ररुपणा 3 नानाजीवकालप्रमाणप्ररुपणा 4, वृद्धिप्ररुपणा 5, यवमध्यप्ररुपणा 6, स्पर्शनाप्ररुपणा७, अल्पबहुत्वप्ररुपणा 8 च। तत्रा प्रथमत एकैकस्मिन् स्थाने नानाजीवप्रमाण-प्ररुपणार्थमाह - थावरजीवाऽणंता, एक्कक्के तसजिया असंखेजा। लोगा सिमसंखेज्जा, अंतरमह थावरे नत्थि॥४४|| Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1205 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण (थावरे त्ति) एकैकस्मिन् स्थावराणां बन्धं प्रति प्रायोग्येऽनुभाग बन्धस्थानेऽनन्ताः स्थावरजीवाबन्धकत्वेन प्राप्यन्ते। असप्रायोग्ये चैकैकस्मिन्ननुभागबन्धस्थाने जघन्येनैको द्वौ बोत्कर्षतोऽसंख्ययाः-भावलि- | काया असंख्येयभागमात्रामसजीवाः प्राप्यन्ते / / साम्प्रतमनन्तर स्थानप्ररुपणामाह - (लोगासिमेत्यादि) एषां त्रसजीवानामसंख्येया लोका असंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाणानि अनुभागबन्धस्थानानि अनन्तरम्। एतावन्ति बन्धं नाऽऽयान्तीत्यर्थः / इदमुक्तं भवति-त्रसप्रायोग्यानियानि स्थानानि त्रासजीवानां बन्धं नाऽऽयान्ति, तानिजघन्यपदे एक द्वे वा उत्कर्षतोऽसंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशप्रमाणानि भवन्ति। अथ स्थावरे स्थावरप्रायोग्येषु स्थानेषु अन्तरं न विद्यते सर्वाण्यपि स्थावरप्रायोग्याणि स्थानानि सर्वदैव स्थावरजीवैर्वध्यमानानि प्राप्यन्त इत्यर्थः / कथमेवं गम्यत इति चेदुच्यते इह स्थावरजीवा अनन्ताः स्थावराणां बन्ध प्रति प्रायोग्यानिचस्थानानि पुनरसंख्येयानिततोऽन्तरं न प्राप्यन्ते॥४५॥ सम्प्रति निरन्तरस्थानप्ररुपणार्थमाहआवलिअसंखभागो, तसा निरंतर अहेगठाणम्मि। नाणाजीवा एवइ-कालं एगिंदिया निचं / / 45 / / (आवलि त्ति) अत्रा तृतीयार्थे प्रथमा / बन्धमाश्रित्य त्रसजीवैर्निरन्तराणि / किमुक्तं भवति?-त्रासजीवैर्निरन्तरं बध्यमानानि अनुभागबन्धस्थानानि जघन्येन द्वे त्रीणि वा प्राप्यन्ते, उत्कर्षते आवलिकाया असंख्येयभागमात्राणि / कथमेतदवसेयमिति चेदुच्यते-स्तोकासजीवाः स्थानानि पुनरसप्रायोग्याणि असंख्येयानि, ततो न सर्वाणि सजीवैः क्रमेण निरन्तर बध्यमानानि प्राप्यन्ते, किं तूत्कर्षतोऽपि यथोक्तप्रमाणान्येव / सम्प्रति नानाजीवकालप्ररुपणार्थमाह (अहेगठाणम्मीत्यादि) एकैकमनुभागबन्धस्थानं नानाजी वैर्बध्यमानं कियन्तं कालं यावदविरहित प्राप्यते? इति प्रश्ने सति, उत्तरं दीयते-ासप्रायोग्ये एकैकस्मिअनुभागबन्ध स्थाने नानारुपास्त्रसाजीवा जघन्येनैकं समयम्, उत्कर्षतः (एवइकालं ति) एतावन्तं कालं पूर्वोक्त स्वरुपमावलिकाया असंख्येयभागमात्रां कालं यावदित्यर्थः / निरन्तरंबन्धकत्वेन प्राप्यन्ते। परतोऽवश्यं तद्वन्धशून्यं भवतीत्यर्थः / इयमत्रा भावना-एकैकी असप्रायोग्यमनुभागबन्धस्थानमन्यैरन्यैश्च त्रासजीवैर्निरन्तरंबध्यमानंजघन्येनैकं समयं द्वौ वा समयौ यावत्प्राप्यते। उतकर्षत स्त्वावलिकाया असंख्येयभागमात्र कालम् / (एगिंदिया निचं त्ति) स्थावरप्रायोग्य एकैकस्मिन्ननुभाग बन्धस्थाने नानाविधा एकेन्द्रिया नित्यंसर्वकालमविरहितं बन्धकत्वेन प्राप्यन्ते, नकदाचनाऽपि तद्वन्धनशून्यं भवतीत्यर्थः / अत्रापीय भावना एकैकं स्थावरप्रायोग्य मनुभागबन्धस्थान मन्यैरन्यैश्च स्थावरजीबैनिरन्तरं बध्यमानं सर्वकालमवाप्यते, न तु कदाचनाऽपि बन्धरहितं भवतीति / / 45 / / तदेवं कृता नानाजीवानाश्रित्य कालप्ररुपणा। संप्रति वृद्धिप्ररुपणाऽवसरः। तत्रा च द्वे अनुयोगद्वारे। तद्यथा-अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा च। तत्राऽनन्तरोपनिधामाह - भाव, जहन्नठाणे, जा जवमझं विसेसओ अहिया। एत्तो हीणा उको-सगं त्ति जीवा अणंतरओ // 46 // (थोव त्ति) जघन्येऽनुभागबन्धस्थाने बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः सर्वस्तोकाः। ततो द्वितीयेऽनुभागबन्धस्थाने विशेषाधिकाः / ततोऽपि तृतीयेऽनुभागबन्धस्थाने विशेषाधिकाः। एवं तावद्वाच्य यावद यवमध्य सर्वमध्यं, सर्वमध्यान्यष्टसामयिकानीत्यर्थः / इत ऊर्ध्व पुनर्जीवा अनन्तरतः-आनन्तर्येण, क्रमेणेत्यर्थः / विशेषतो हीना विशेषहीना वक्तव्याः / ते च तावद् यावदुत्कृष्ट द्विसामयिक स्थानमिति / / / 46 // गताऽनन्तरोपनिधा। परम्परोपनिधामाह - गंतूणमसंखेने, लोगे दुगुणाणि जाव जवमज्झं। एत्तो य दुगुणहीणा, एवं उक्कोसगं जाव।।४६।। (गतूणमिति) जघन्याऽनुभागबन्धस्थानबन्धकेभ्यो जीवेभ्योजघन्यानुभागबन्धस्थानादारभ्याऽसंख्येयलोका ऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि स्थानान्यतिक्रम्य परं यदनुभागबन्धस्थानंतद्वन्धका जीवा द्विगुणा वद्धा भवन्ति / ततः पुनरपि तावन्ति स्थानान्यतिक्रम्याऽपरस्यानुभाग बन्ध स्थान स्य बन्धका द्विगुणवृद्धा भवन्ति / एवं द्विगुणवृद्धिस्तावद्वक्तव्या यावावमध्यम्। ततोऽसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि स्थानान्यतिक्रम्याऽपरस्यानुभागबन्धस्थानस्य ये बन्धका जीवास्तेऽनन्तरमुक्तेभ्यो जीवेभ्यः सकाशात् द्विगुणहीना भवन्ति ततः पुनरपि तावन्ति स्थानान्यतिक्रम्याऽपरस्यऽनु भागबन्धस्थानस्य बन्धका द्विगुणहीना भवन्ति। एवं द्विगुणहानिस्तावद्वक्तव्या यावत्स्वस्वप्रायोग्यं सर्वोत्कृष्टमनु भागबन्धस्थानमिति // 47 // नाणंतराणि आवलि-य(अ) संखभागो तसेसु इयरेसुं। एगंतरा असंखिय-गुणाइँ ठाणंतराइं तु // 48 // (नाणंतराणीति) नानाऽन्तराणिनानाप्रकाराणि द्विगुण वृद्धिद्विगुणहान्यपान्तरालरुपाणि यानि तानि सेषुत्रसकायेषु आवलिकाया असंख्येयतमे भागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि भवन्ति / ननु आवलिकाया असंख्येय भागमात्राण्येवानुभागबन्धस्थानानि त्रासजीवैर्निरन्तरं बध्यमानानि प्राप्यन्ते, एतच प्रागेवोक्तम् / तत्कथं ासेषु द्विगुणवृद्धिद्धिगुणहान्यन्तराणि यथोक्तप्रमाणानि भवन्ति। एवं ह्येकाऽपि द्विगुणवृद्धिर्द्विगुणहानिर्वा न प्रापोतीति भावः / नैष दोषः, यतः प्रागावलिकाऽसंख्येयभागमात्राणि त्रसजीवैर्निरन्तरं बध्यमानतया प्राप्यमाणान्युक्तानि / इह तु यद्यप्यावलिकाया असंख्येयभागमात्रेभ्यः स्थानेभ्यः पराणि स्थानानिबध्यमानानि सम्प्रति न प्राप्यन्ते, तथाऽपि कदाचित्प्राप्यन्ते। तेषु च जीवा उत्कृष्टपदे क्रमेण विशेषाधिका लभ्यन्ते। ततो यथोक्तप्रमाणानि द्विगुणवृद्धिद्विगुणहानि स्थानानि न विरुध्यन्ते। तथा इतरेषु स्थावरेषु एकस्मादन्तरात्त्रासकायसत्कादसंख्येयगुणानि नानारुपाण्यन्तराणि भवन्ति। किमुक्तं भवति? त्रासकायिकाना Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण मेकस्मिन् द्वयोद्विगुणहान्योर्वाऽपान्तराले यानि स्थानानि तेभ्योऽसंख्येयगुणानि स्थावरकायिकानां द्विगुणवृद्धिद्विगुण हान्यन्तराणि / इह त्रसजीवेषु द्विगुणवृद्धिंद्विगुणहान्यन्तराणि स्तोकानि एकस्मिन् द्विगुणवृद्धिस्थानयोर्द्विगुणहानिस्थानयोर्वा ऽपान्तराले यानि स्थानानि तान्यसंख्येयगुणानि; एवं त्रसानाम्। स्थावराणा पुनर्रयोगुिणवृद्धयोर्द्धिगुणहान्योर्वा एकस्मिन्नपान्तराले यानि स्थानानि तानि स्तोकानि, द्विगुण वृद्धिगुणहान्यन्तराणि पुनरसंख्येयगुणानि॥४८॥ कृता वृद्धिप्ररुपणा / / सम्प्रति यवमध्यप्ररुपणा क्रियते यवमध्य स्थानानि अष्टसामयिकानि शेषस्थानापेक्षयाऽसंख्येयभाग मात्राणि। तथा यवमध्यस्याऽधस्तनानि स्थानानि स्तोकानि / ततो यवमध्यस्योपरितनानि असंख्येयगुणानि। उक्तं च "जवमज्झ ठाणाई, असंखभागो उसेसठाणाण / हेडम्मिहों दि थोवा, उवरिम्मि असंखगुणियाणि // 1 // " कृता यवमध्यप्ररुणा। सम्प्रति स्पर्शनाप्ररुपणामाहफासणकालो तीए, थोवो उक्कोसगे जहन्ने उ। होइ असंखेज्जगुणो, य उ कंडगे तत्तिओ चेव // 46 / / जवमज्झकंडगोवरि, हेट्ठो जवमज्झओ असंखगुणो। कमसो जवमज्झुवरिं, कंडगहेट्ठा य तावइओ // 50 // जवमज्झुवरि विसेसो, कंडगहेट्ठाय सव्वहिं चेव। जीवप्पाबहुमेवं, अज्झवसाणेसु जाणेज्जा / / 51 / / (फासणे ति) अतीते काले एकस्य जीवस्योत्कृष्ट द्वे सामयिके इत्यर्थः / अनुभागबन्धस्थाने स्पर्शनाकालः स्तोकः / अतीते काले परिभ्रमता जन्तुना द्विसामयिकान्यनुभागबन्ध स्थानानि स्तोकमेव कालं स्पृष्टानीत्यर्थः / जघन्ये पुनरनुभागबन्धस्थाने प्राथमिकेषुचतुःसामयिकेष्वित्यर्थः अतीते काले स्पर्शनाकालोऽसंख्येयगुणः। (कंडगे तत्तिओ चेव) कण्डकमुपरितनानि चतुःसामयिकानि स्थानानि तेषु तावन्मात्राः स्पर्शनाकालो यावन्मात्रा आद्येषु चतुःसामयिकेषु / ततो यवमध्येषु स्थानेषु अष्टसामयिकेष्वित्यर्थः। स्पर्शनाकालोऽसंख्येयलगुणः / ततः कण्ड-कस्योपरिवर्तिचतुः सामयिकस्थान- संघातरुपस्योपरितनेषु त्रिसामयिकेष्वित्यर्थः / स्पर्शनाकालोऽसंख्येयगुणः। ततो यवमध्यस्याऽधस्तात् पचषट्सप्तसामयिकेष्वसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः / ततः क्रमशः क्रमेण यवमध्यादुपरितनेषु कण्डकाचतुःसामयिकस्थानसंघातरुपाद धस्तनेषु पञ्चषट्सप्तसामयिकेषु स्थानेषु तावन्मात्र एव स्पर्शनाकालोयावन्मात्राः पाश्चात्येषु पञ्चषट्सप्तसामयिकेषु, ततो यवमध्यस्योपरितनेषु सामयिकपर्यन्तेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु यः स्पर्शनाकालः स विशेषाधिकः। ततोऽपि कण्डकस्य यवमध्यस्योपरिवर्तिचतुः सामयिकस्थानसंघातरूपस्याऽ धस्तात् सर्वेष्वपि स्थानेषु जघन्यचतुःसामयिकपर्यन्तेषु स्पर्शनाकालः समुदितो विशेषाऽधिकः। ततोऽपि ससर्वेष्वपि स्थानेषु स्पर्शनकालो विशेषाधिकः / कृता स्पर्शनाप्ररुपणा।। सम्प्रत्यल्पबहुत्वप्ररूपणामाह-जीवप्पाबहु इत्यादि। यथा स्पर्शनाकालस्थाऽल्पबहुत्वमुक्तम्, एवं जीवानामपि अध्यवसानेषु अनुभागबन्धस्थाननिमित्तभूतेषु वर्तमानानामल्पबहुत्वं जानीयात् / तद्यथा उत्कृष्टदध्यवसानेषु द्विसामयिकानुभागनिबन्धनभूतेषु वर्तमाना जीवाः स्तोकाः। ततो जघन्येषु चतुः सामयिकानुभागबन्धनिबन्धनभूतेष्व संख्येयगुणाः / एतावन्त एव चोपरिवर्तिचतुःसामयिकाऽनुभाग बन्धस्थाननिबन्धनेष्वध्यवसानेषु / ततोऽपि यत्रमध्यकल्पाऽनुभागबन्धस्थाननिबन्धनेष्वसंख्येयगुणाः। ततोऽपि त्रिसामयिकानुभागबन्धस्थाननिमित्तेष्वसंख्येयगुणाः / ततोऽप्याद्यपञ्चषट्सप्तसामयिकानुभागबन्धस्थानहेतुष्वध्यवसानेषु, असंख्येयगुणाः। एतावन्त एवोपरितनपञ्चषट्सप्तसामयिकानुभागबन्धस्थानानिबन्धनेष्वध्यवसानेषु ततो यवमध्योपरिवर्तिनिः शेषानुभागबन्धस्थाननिबन्धनभूतेष्वध्यवसानेषु वर्तमाना जीवा विशेषाधिकाः / ततोऽपि सर्वेऽपि अनुभागबन्धस्थाननिबन्धनेषु विशेषाधिकाः / इति / / / 46 // 50 // 51 / / तदेवमनुभागबन्धस्थानेषु तन्निबन्धनेषु चाध्यवसानेषु यथा जीवा वर्तन्ते, तथा प्ररुपणा कृता। सम्प्रत्येककस्मिन् स्थितिस्थानाध्यवसाये नानाजीवाऽपेक्षया कियन्तोऽनुभागबन्धाऽध्यवसायाः प्राप्यन्ते इति तन्निरुपणार्थमाहएक्के कम्मि कसायो-दयम्मि लोगा असंखिया होति। ठिइबन्धट्ठाणेसु वि, अज्झवसाणाण ठाणाणि // 52 // (एकेकम्मि त्ति) एकैकस्मिन् कषायोदये स्थितिस्थाननिबन्धनभूते नानाजीवापेक्षयाऽनुभागबन्धाऽध्यवसाय स्थानानि 'कृष्णाऽऽदिलेश्यापरिणामविशेषरुपाणि सकाषायोदया हि कृष्णाऽऽदिलेश्यापरिणामविशेषा अनुभागबन्धहेतवः" इति वचनात् असंख्येया लोका भवन्ति, असंख्येयलोकाऽऽकाश प्रदेशाप्रमाणानि भवन्तीत्यर्थः / तथा जघन्यस्थितेरारभ्योत्कृष्टां स्थितिं यावद्यावन्तः समयास्तावन्ति स्थितिस्थानानि / तथाहि-जघन्या स्थितिरेकं स्थितिस्थानम् / सैव समयोत्तरा द्वितीयं स्थितिस्थानम्। द्विसमयोत्तरा तृतीयं स्थितिस्थानम् / एवं समयवृद्धया तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः। एवं चाऽसंख्येयानि स्थितिस्थानानि भवन्ति। तेषु चाऽसंख्येयेषु स्थितिबन्धस्थानेषु प्रत्येकमेकैकस्मिन् स्थितिबन्धस्थानेऽध्यवसायस्थानानि तीव्रतीव्रतरमन्दमन्द तराऽऽदिकषायोदयविशेषरुपाणि असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेश प्रमाणानि भवन्ति / 52|| सम्प्रत्यनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानां वृद्धिमार्गणा क्रियते। सा द्विधा-अनन्तरोपनिधया परम्परोपनिधया च। तत्राऽनन्त रोपनिधया तावद् वृद्धिमार्गणां चिकीर्षुराहथोवाणि कसाउदये, अज्झवसाणाणि सव्वडहरम्मि। विइयाइ विसेसहिया-णि जाव उक्कोसगं ठाणं // 53 // (थोवाणि त्ति) (सव्वडहरम्भि त्ति) सर्वजघन्ये कषायोदये स्थितिबन्धहेतावनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि कृष्णाऽऽदि लेश्यापरिणामविशेषरुपाणि स्तोकानि। ततो द्वितीयाऽऽदौ यथोत्तरं विशेषाधिकानि तावद्वाच्यानि यावदुत्कृष्ट स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानम्। एतदुक्तं भवति-द्वि Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1207 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण तीये कषायोदये विशेषाधिकानि / ततोऽपि तृतीये विशेषाधिकानि। ततोऽपि चतुर्थे विशेषाधिकानि। एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्ट कषायोदयरुपं स्थितिबन्धाऽध्यवसाय स्थानमिति / / 53 / / कृताऽनन्तरोपनिधया वृद्धिमार्गणा। सम्प्रति परम्परोपनिधया तामभिधित्सुराह ... गंतूणमसंखेज्जे, लोगे दुगुणाणि जाव उक्कोसं। आवलिअसंखभागो, नाणागुणवुड्डिठाणाणि / / 54 / / (गंतूणं ति) जघन्यात् कषायोदयादारभ्याऽसंख्येयलोकाका ऽऽशप्रदेशप्रमाणानि कषायोदयस्थानानि गत्वाअतिक्रम्य परं यद्भवति स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानं तस्मिन्ननुभाग बन्धाध्यवसायस्थानानि जघन्यकषायोदयस्थानसत्कानुभाग बन्धाध्यवसायस्थानाऽपेक्षया द्विगुणानि भवन्ति। पुनरपि तावन्ति। कषायोदयस्थानानि गत्वा यदपरं स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानं तस्मिन् द्विगुणानि भवन्ति / एवं भूयो भूयस्ता वद्वाच्यं यावदुत्कृष्ट कषायोदयस्थानम्।यानि चाऽन्तराऽन्तरा नानारुपाणि द्विगुणवृद्धिस्थानानि भवन्ति तानि कियन्ति? इति चेदुच्यते-आवलिकाया असंख्येयभागः-आयलिकाया असंख्येयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि भवन्तीत्यर्थः / / 54|| सव्वाऽसुभपगईणं, सुभपगईणं विवज्जयं जाण / ठिइबंधट्ठाणेमु वि, आउगवजाण पगडीणं / / 55 / / (सव्व त्ति) सर्वासामशुभप्रकृतीनां ज्ञानाऽऽवरणपञ्चकनव दर्शना5ऽवरणाऽसातवेदनीयमिथ्यात्वषोडशकषायनवनो कषायणरकायु:पञ्चेन्द्रियजातिवर्जजातिचतुष्टयसमचतुर स्रवर्जसंस्थानपञ्चकवज्रर्षभनाराचवर्जसंहननपञ्चक कृष्णनीलवर्ण दुरभिगन्धतिक्तकटुरसकर्कशगुरुरुक्षशीत स्पर्शरूपाऽशुभकुवर्णाऽऽदिनवकनरकगतिनरकाऽऽनुपूर्वी तिर्यग्गति तिर्यगानुपूर्व्यप्रशस्तविहायोगत्युपघातस्थावरसूक्ष्माऽपर्याप्त साधारणाऽस्थिराऽशुभदुर्भगदुःस्वराऽनादेयाऽयशः कीर्तिनीचे र्गोत्राऽन्तरायपञ्चकलक्षणाना सप्ताऽशीतिसंख्यानामेषा मनन्तरोक्ताऽनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानां वृद्धिमार्गणा द्रष्टव्या। (सुभपगईणमित्यादि) शुभानां प्रकृतीनांसातवेदनीयतिर्यगायुर्मनुष्याऽऽयुर्देवाऽ5युर्देवगतिमनुष्यगतिपञ्चे न्द्रियजातिशरीरपञ्चकसंघातपञ्चकबन्धनपञ्चदशकसमचतुर स्वास्थानाऽङ्गोपाङ्गत्रयवज्रर्षभनाराचसंहननशुभवर्णाोकादश कदेवानुपूर्वीमनुष्यानुपूर्वीपराघातगुरुलघूच्छवासातपोद् द्योतप्रशस्तविहायोगतित्रासबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसुभग सुखराऽऽदेययशः कीर्तिनिर्माणतीर्थकरोचैर्गोत्रलक्षणानामेकोन सप्ततिसख्यानां विपर्ययं जानीहि, तद्यथा-उत्कृष्ट कषायोदयेऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि सर्वस्तोकानि। द्विचरमे कषायोदये विशेषाधिकानि। त्रिचरमे कषायोदये विशेषाधिकानि / चतुश्चरमे कषायोदये विशेषाधिकानि / एवं तावद्वाच्यं यावत्सर्वजघन्यं कषायोदयस्थानम्। इयभवन्तरोप निधया वृद्धिमार्गणा। परम्परोनिधया तुवृद्धिमार्गणेयम-उत्कृष्टकषायोदयस्थानादारभ्याऽसंख्येयलोकाऽऽकाशात् प्रदेशराशिप्रमाणानि कषायोदयस्थानानि अधोभागेनाऽतिक्रम्य यदपरमधः कषायोदयस्थानं तस्मिन्ननु आमबन्धाऽ व्यवसायस्थानानि उत्कृष्टकषायोदयसत्काऽनुभा गबन्धाऽध्य वसायस्थानाऽपेक्षया द्विगुणानि भवन्ति / पुनरपि तावन्ति कषायोदयस्थानानि ततः प्रभृत्यधोभागेनाऽतिक्रम्य यदपरमधःकषायोदयस्थानं तस्मिन् द्विगुणानि भवन्ति / एवं भूयो भूयस्तावद्वाच्य यावजघन्यकषायोदयस्थानम् / यानि चाऽन्तराऽन्तरा नानारुपाणि द्विगुणवृद्धिस्थानानि तान्यावलिकाया असंख्येयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि भवन्ति। असूनि चाऽवलिकाया असंख्येयभागमात्राणि शुभप्रकृतीनामशुभप्रकृतीनां च प्रत्येक द्विगुणवृद्धिस्थानानि स्तोकानि / एकस्मिन्नपि द्विगुणवृद्धयपान्तराले कषायो दयस्थानानि असंख्येयगुणानि / तदेयं स्थितिबन्ध हेतुष्वध्यवसायेषु अनुभागबन्धहेतूनामध्यवसायानां प्ररुपणा कृता। संप्रति स्थितिबन्धस्थानेष्वनुभागबन्धप्ररुपणां चिकीर्षुराह- (ठिइबंधेत्यादि) स्थितिबन्धस्थानेष्वपि आयुर्वजानां सर्वासां प्रकृतीनां कषायोदयेष्वनुभागवन्धा ऽध्यवसायस्थानवदनुभाग बन्धस्थानानि वक्तव्यानि।तद्यथा-तत्रा पूर्वोक्तानामायुर्वर्जानाभशुभप्रकृतीनां जघन्यस्थिताव नुभागबन्धस्थानाव्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानितानि च स्तोकानि। ततो द्वितीयस्थितौ विशेषाधिकानि / ततोऽपि तृतीयस्थितौ विशेषाऽधिकानि। एवं तावद्वाव्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः / तथा पूर्वोक्तानामायुर्व नामशुभप्रकृतीनामुत्कृष्ट स्थितावनुभागबन्धस्थानान्यसंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमा णानि तानि च स्तोकानि / तेभ्यः समयोनायामुत्कृष्टस्थितॊ विशेषाधिकानि / एवं तावद्वाच्यं यावजघन्या स्थितिः, इति // 55 / / तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधया वृद्धिमार्गणा। सम्प्रति परम्परोपनिधया तां चिकीर्षुराह - पल्लाऽसंखियभाग, गंतुं दुगुणाणि आउगाणं तु / थोवाणि पढमबंधे, ठिइयाइ असंखगुणियाणि // 56 // (पल्लत्ति) पूर्वोक्तानामायुर्वर्जानामशुभप्रकृतीनां जघन्य-स्थितेरारभ्य पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राणि स्थितिस्थानान्य तिक्रम्य यदपरं स्थितिस्थानं तस्मिन् अनुभागबन्धस्थानानि जघन्यस्थितिसत्कानुभागबन्धस्थानेभ्यो द्विगुणानि भवन्ति। ततः पुनरपि तावन्ति स्थितिस्थानान्यतिक्रम्य यदपरं स्थितिस्थानं तस्मिन् द्विगुणान्यनुभागबन्धस्थानानि भवन्ति। एवं भूयो भूयस्तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः। तथा पूर्वोक्तानामायुर्वजनिां शुभ प्रकृतीनामुत्कृष्टस्थितेरारभ्य पल्यो पमाऽसंख्येयभागमात्राणि स्थितिस्थानान्यतिक्रम्य यदपरमधः स्थितिस्थानं तस्मिन्ननुभागबन्धस्थानान्युत्कृष्टस्थितिस्थान सत्काऽनुभागबन्धस्थानेभ्यो द्विगुणानि भवन्ति / ततः पुनरपि तावन्ति स्थिति रथानान्यधोऽवतीर्याऽधस्तनं यदपरं स्थितिस्थानं तस्मिन् द्विगुणानि भवन्ति / एवं तावद्वाच्यं यावजघन्या स्थितिः। एतानि चशुभप्रकृतीनां च प्रत्येकद्विगुण वृद्धिस्थानानि आवलिकाया असंख्येयभागे यावन्तः समथास्ता वत्प्रमाणानि भवन्ति। तथा द्विगुणवृद्धिस्थानानि स्तोकानि, आवलिकाया असंख्येयभागत्वात्। एकस्मिन् द्विगुणवृद्ध्योर पान्तराले स्थितिस्थानानि असंख्येयगुणानि, पल्योपमाऽ संख्येयभागगुणत्वात्। तथा चतुर्णामप्यायुषां जघन्यायां स्थितौ सर्वस्तोकान्यनुभागबन्धस्थानानि ततः समयाधिकायांजघन्यस्थितौ असंख्येयगुणानि। त Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1208 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण तोऽपि द्विसमयाधिकायामसंख्येयगुणानि, एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः, इति // 56 // साम्प्रतमनुभागबन्धस्थानानां तीव्रमन्दतापरिज्ञानार्थमनु भागबन्धाऽध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिमभिधातुकाम आह - घाईणमसुभवण्णर-सगंधफासे जहन्नठिइबंधे। जाणज्झवसाणाई, तदेगदेसो य अन्नाणि / / 57 // पल्लाऽसंखिय भागो, जावं बिइयस्स होइ बिइयम्मि। आ उकस्सा एवं, उवघाए वा वि अणुकड्डि।।५८३|| (घाईणमिति) इह प्रायो ग्रन्थिदेशे वर्तमानस्याऽभव्य जीवस्य यो जघन्यस्थितिबन्धस्तस्मात् स्थितिवृद्धौ अनुकृष्टिरभिधीयमानाऽनुसतट्या सातवेदनीय मनुजद्विकदेव द्विकतिर्यग्द्विकपञ्चेन्द्रियजातित्रासबादरपर्याप्तप्रत्येक समचतुरस्रसंस्थानवर्षभनाराचसंहननप्रशस्तविहायोगति स्थिरशुभसुभगसुस्वराऽऽदेययशःकीयुचैर्गोत्रानीचैर्गोत्राणाम भव्यप्रायोग्यजघन्यबन्धाऽऽदयोरपि अनुसर्तव्याः / तत्रा धातिना पञ्चविधज्ञानाऽऽवरणनवविधदर्शनाऽऽवरणमिथ्यात्वषोडश कषायनयनोकषायपञ्चविधाऽन्तरायलक्षणानां कर्मणा मशुभगन्धवर्णरसस्पर्श च। अषष्ठ्यर्थे सप्तमी। अशुभानां वर्णगन्धरसस्पर्शानां च कृष्णनीलदुरभिगन्धतिक्तकटुकगुरु कर्कशरुक्षशीतरुपाणां जघन्यस्थितिबन्धे यान्यनुभागबन्धा ऽध्यवसायस्थानानि तेषामेकदशो द्वितीय स्थितियन्धेऽनुवर्तते- अन्यानि च भवन्ति / इदमुक्तं भवति-जघन्यस्थिति बन्धाऽऽरम्भे यान्यनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि, तेषामसंख्येयतम भागं मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि द्वितीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भे प्राप्यन्ते अन्यानि च भवन्ति / द्वितीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भे च यान्यनुभगबन्धाऽध्यवसायस्थानानि, तेषामसंख्येयतमं भाग मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि तृतीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भेप्राप्यन्ते, अन्यानि च भवन्ति, तृतीयस्थितिबन्धा ऽऽरम्भे च यान्यनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि, तेषामसंख्येयतम भाग मुक्त्या शेषाणि सर्वाण्यपि चतुर्थस्थितिबन्धाऽऽरम्भे प्राप्यन्ते, अन्यानि च भवन्ति / एवं तावद्वाच्यं यावत्पल्योपभा ऽसंख्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति / अत्रा जघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भे भाविनामनुभागबन्धाऽध्य वसायस्था नानामनुकृष्टिः परिसमाप्ता। ततोऽनन्तरमुपरितने स्थितिबन्धे द्वितीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भभाविनामनुभागबन्धा ध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिमियति। तथा चाऽऽह (विइयस्स होइ बिइयम्मि) द्वितीयस्य स्थितिबन्धस्य संबन्धि नामनुभाग बन्धाऽध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिद्धितीये यत्रा जघन्यस्थिति बन्धाऽऽरम्भाविनामनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्ता। ततोऽनन्तरे परिनिष्ठां याति तृतीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भभाविनां चाऽनुभागबन्धाऽध्यवसा यस्थानानामनुकृष्टिः ततोऽप्यनन्तरे परिसमाप्तिं याति / एवं तावद्वाळ यावदुक्त प्रकृतीनामात्मीयाऽऽत्मीयोत्कृष्टा स्थितिर्भवति। तथा चाऽऽह-(आ उक्कस्सा एवं) एवम्-अमुना प्रकारेण आउत्कर्षादवनन्तव्यम् / तथोपघातेऽप्येवमेवाऽनुकृष्टि रभिघातव्या, यथा घाति प्रकृतीनामभिहिता अनुकृष्टिरिति, अनुकर्षणम्-अनुकृष्टि रनुवर्तनमित्यर्थः // 57|| // 58|| परघाउज्जोउस्सा-माऽऽयवधुवनामतणुउवंगाणं। पडिलोमं सायस्स उ, उक्कोसे जाणि समऊणे // 56 / / ताणि य अन्नाणेवं, ठिइबंधो जा जहन्नगमसाए। हेदुजोयसमेवं, परत्तमाणीण उसुभाणं // 60 // (परघाउ त्ति) पराघातोद्योतोच्छ्वासाऽऽतपानां शुभवर्णा ऽऽधकादशयागुरुलघुनिर्माणरुपाणां ध्रुवनाम्नां (तणुउवंगाणंति) इह तनुग्रहणेन शरीरसंघातबन्धनानिगृह्यन्ते। ततश्च शरीरपञ्चकसंघातपञ्चकबन्धनपञ्चदशकाङ्गो पाङ्गत्रयाणां चानुकृष्टिः प्रतिलोममभिधातव्या। तद्यथाएतासा प्रकृतीना मुत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भेयान्यनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानानि, तेषामसंख्येय भाग मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपिएक समयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे प्राप्यन्ते, अन्यानि च भवन्ति, एकसमयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे च यान्यनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानानि तेषामसंख्येयतमं भागं मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि द्विसमयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे प्राप्यन्ते, अन्यानि च भवन्ति / एवं तावद्वाच्यं यावत्पल्योपमा संख्येयभागमात्राः स्थितयोऽधोऽधोऽतिक्रान्ता भवन्ति / अत्रोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भभाविनामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानां स्थितिस्थाने स्थितिस्थानेऽसंख्येयासंख्येय भागमोचनेनानुकृष्टिः परिसमाप्ता / ततोऽनन्तरमधस्तने स्थिति स्थानं एकसमयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भभाविनामनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिनिष्ठां याति / ततोऽप्यधस्तनतरे द्विरसमयोनोत्कृष्टास्थितिबन्धाऽऽरम्भ भाविनामनुभागबन्धाध्य-वसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्ति मियति। एवं तावद्वाच्यं यावदुक्तप्रकृतीनां सर्वासामपि आत्मीया जघन्या स्थितिर्भवति / (सायस्सेत्यादि) सा तस्योत्कृष्टा स्थिति बनतो यान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि समयोनो त्कृष्टास्थतिबन्धाऽऽराम्भेऽपि तानि भवन्ति अन्यानि च यानि समयोनोत्कृष्टस्थिति बन्धाऽऽरम्भे भवन्ति द्विसमयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धारम्भेऽपि तानि भवन्ति अन्यानि च। एवं तावद्वाच्यं यावदसातेऽसातस्य जघन्यः स्थितिबन्धः। किमुक्तं भवति?-यावत्प्रमाणाः स्थितयोऽसातस्यजघन्यानुभागबन्धप्रायोग्याः सातेन च सह परावर्त्य परावर्त्य बध्यन्ते तावत्प्रमाणासु सा तस्य स्थितिषु तानि चान्यानि चेत्येवं क्रमोऽनुसरणीयः। (हेटुजोयसमं ति) अधस्तादुदद्योतसभंवक्तव्यं यथा प्रागुद्द्योतस्याभिहितं तथाऽत्रापि वक्तव्यमित्यर्थः / तद्यथा-असातस्य जघन्यस्थितिबन्धाद्धस्तने स्थितिस्थाने यान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि तानि कानिचिदुपरितन स्थितिस्थानसत्कानि कानिचिदन्यानि / तस्मादप्यधस्तने स्थितिस्थाने यानि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि तानि कानिचित्प्राक्तनस्थितिस्थानसत्कानि, कानिचिदन्यानि। अनेन च क्रमेणाधोमुखं तावन्नेयं यावत्पल्योपमासंख्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति / तत्र चासातजघन्यस्थितिबन्ध तुल्यस्थितिस्थानसत्कानामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानाना मनुकृष्टिः परिसमाप्तियाति। एतदुक्तं भवति-असातजघन्य स्थितिबन्धतुल्यस्थिति स्थानसत्कानामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामधोऽध एकैकस्मिन् स्थितिस्थानेऽसंख्येये भागे व्यवच्छिद्यमानेपल्योपमा Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण संख्येयभागमात्राासु स्थितिष्वतिक्रान्तासु सर्वाऽऽत्मना परिसमाप्तिर्भवतीति। ततोऽसातजघन्यबन्धतुल्यस्थिति स्थानादधस्तनस्थितिस्थानसत्कानामनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानानामनुकृष्टिः पल्योपभाऽसंख्येयभागमात्रादधः स्थितौ निष्ठामेति। एवं तावद्वाच्यं यावत्सातस्य जघन्या स्थितिः। (एवं परित्तमाणीण उसुभाण) यथा सातवेदनीयस्तोक्तं , तथा सर्वासा परावर्त्तमानप्रकृतीनां शुभानां मनुजद्विकदेचद्विकपञ्चेन्द्रि यजातिसमचतुररत्रसंस्थानयजर्षभनाराचसंहननप्रशस्त विहायोगति स्थिरशुभसुभगसुस्वराऽऽदेययशः कीर्युच्चै र्गोत्ररुपाणां पञ्चदशसंख्यानां नामग्राहमनुकृष्टिरभिधातव्या इति // 56 // 60 / / इदानीमसातस्योच्यतेजाणि असायजहन्ने, उदहिपुहुत्तं ति ताणि अण्णाणि। आवरणसमुप्पेवं, परित्तमाण्णीणमसुभाणं / / 61 // (जाणि त्ति) असातस्य जघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भे यान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थितिस्थानानि तानि समयाधिक जघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽपि भवन्ति, अन्यानि च। यानि समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धारम्भेऽनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानानि तानि द्विसमयाधिकजधन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽपि भवन्ति, अन्यानि च। एवं तावद्वाच्यं यावत्सागरोपमशत पृथक्त्वं भवति / यावन्मात्रासु सातवेदनीयस्य स्थितिषु तानि चाऽन्यानि चेत्येवं क्रमोऽनुकृष्टर भिहितस्तावत्प्रमाणास्वेवाऽसातवेदनीय स्थितिष्वपिजघन्यस्थितेरारभ्य तानि चाऽन्यानिचेत्येवम, नुकृष्टिरभिधातव्या। एता एव च स्थितयः सर्वजघन्या ऽनुभागबन्धप्रायोग्याः / यत एतावत्यः स्थितयः सातात्परावृत्य परावृत्य बध्यन्ते। परावर्तमानश्च प्रायो मन्दपरिणामो भवति। तत एतासु जघन्यानुभागबन्धसंभवः / इत ऊर्ध्वत्वसातमेव केवलं बध्नाति। तदपिच तीव्रतरेण परिणामेन।ततो. न तत्रा जघन्याऽनुभागबन्धसंभव इति / (आवरणसमं उप्पिं ति) तत उपरितनीनां स्थितीनां यथा ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदेरुक्तं तदेकदेशोऽन्यानि चेति तथैवाभिधातव्यम्, तद्यथा-असातस्य जघन्याऽनुभागबन्धप्रायोग्यानां स्थितीनां या चरमा स्थितिस्तद्वन्धाऽऽरम्भे यान्यनुभागबन्धाऽध्यवसाय स्थानानि, तेषामेकदेशस्त दुपरितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्तते, अन्यानि च भवन्ति / ततोऽप्युपरितनस्थितिबन्धाऽरम्भे प्राक्तन स्थितिस्थानसत्काऽनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानामे कदेशोऽनुवर्तते, अन्यानि च भवन्ति / एवं तावद्वाच्यं यावत्पल्योप माऽसंख्येय भागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति / अत्र जघन्यानुभाग वन्धप्रायोग्यचरमस्थितिसत्काऽनुभागबन्धाऽध्यवसायस्था नानामनुत्कृष्टिः परिसमाप्तिमेति / ततोऽप्युपरितन स्थितिबन्धे जघन्यानुभागबन्धप्रायोग्यस्थित्यनन्तरस्थिति सत्कारऽनु भागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिं याति / एवं तावद्वाच्यं यावदसातस्योत्कृष्टा स्थितिर्भवति। (एवं परित्तमाणीणमसुभाणं) यथाऽसातवेदनीयस्योक्तम्, एवं शेषाणामपि परावर्त्तमानप्रकृतीनामशुभानां नरकद्विक पञ्चेन्द्रियजाति वर्जशेषजातिचतुष्टयप्रथमवर्ज संस्थानप्रथम वर्जसंहननाऽप्रशस्तविहायोगतिस्थावरसूक्ष्मसाधारणाऽपर्याप्ताऽस्थिराऽशुभदुर्भगदुःस्वराऽ- नादेयाऽयशः कीर्तिरुपाणां सप्तविंशतिसंख्यानां प्रत्येकं नामग्राहमनुकृ. ष्टिरभि धातव्या इति॥६१ // इदानी तिर्यद्विकनीचैर्गोत्राणामनुत्कृष्टिमभिधातुकाम आहसे काले सम्मत्तं, पडिवजंतस्स सत्तमखिईए। जो ठिइबंधो हस्सो, इत्तो आवरणतुल्लो य॥६२|| जा अभवियपाउग्गा, उप्पिमसायसमया उ आ (जा) जेट्ठा। एसा तिरियगतिदुगे, नीयागोए य अणुकड्डी // 63 / / (सेति) सप्तमपृथिव्यां वर्तमानस्य नारकस्य (से काले) अनन्तरसमये सम्यक्त्वं प्रतिपत्तुकामस्य यो ह्रस्वोजघन्यः स्थितिबन्ध इत ऊर्ध्व स्थितिबन्धोऽनुकृष्टिमधिकृत्याऽऽवरण तुल्यो ज्ञातव्यः। सच तावद्यावदभव्यप्रायोग्या जघन्या स्थितिः / तत्र तिर्यम्गतिमधिकृत्य भावना क्रियते सप्तमपृथिव्यां वर्तमानस्य नारकस्य सम्यक्त्वं प्रतिपत्तुकामस्य तिर्यगतेजघन्यां स्थिति बनतो थान्यनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानानि, तेषामसंख्येयतम भागं मुक्त्वाऽन्यानि सर्वाण्यपि द्वितीयस्थितिबन्धा ऽऽरम्भेऽनुवर्तन्ते, अन्यानिच भवन्ति। द्वितीयां च स्थिति बनतो यानि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि, तेषामसंख्येयतमं भांग मुक्त्वाऽन्यानि सर्वाण्यपि तृतीयस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्त्तन्ते, अन्यानि च भवन्ति। एवं तावद्वाच्यं यावत्पल्योपमाऽसंख्येय भागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति / अत्रा जघन्यस्थितिसत्कानुभाग बन्धाऽध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिमियति। तत उपरितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भे द्वितीयस्थितिस्थानसत्काऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्ति याति। ततोऽप्युपरितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भे तृतीयस्थितिसत्का ऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थाना नामनुकृष्टिः परिसमाप्तिमेति। एवं तावद्वाच्यं यावदभव्यप्रायोग्यो जघन्यस्थितिबन्धः / (उप्पिं असायसमया उ आ जेट्ठा) तत उपरिष्टात्-अभव्यप्रायोग्यजघन्यस्थितिबन्धादारभ्येत्यर्थः / असातेन समतातुल्यता ज्ञातव्या। (आजेट्टत्ति) यावज्जेष्ठोत्कृष्टा स्थितिः। एतदुक्तं भवति-अभव्यप्रायोग्यां जघन्या स्थिति बनतो यानि अनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि तानि तत उपरितनस्थितौ सर्वाणि भवन्ति, अन्यानि च। तस्यामपि यानि अनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि तानि उपरितनस्थितौ सर्वाणि भवन्ति, अन्यानि च। एवं तावद्वाच्य यावत्सागरोपमशत पृथक्त्वम्। एताश्च प्रायोऽभव्यप्रायोग्य जघन्याऽनुभागबन्ध विषयाः स्थितयः / एता हि मनुष्यगति रुपया प्रतिपक्षप्रकृत्या सह परावृत्य परावृत्य बध्यन्ते। परावृत्य बन्धे च प्रायः परिणामो मन्द उपजायते। तत एता जघन्याऽनुभागबन्धविषयाः। एतासां चरमस्थिती यान्यनुभाग बन्धाऽध्यवसायस्थानानि तेषामसंख्येयं भागं मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि तदुपरितनस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्तन्ते अन्यानि च भवन्ति / तत्रापि यानि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थाननि, तेषामसंख्येयं भाग मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि तत उपरितन स्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्तन्ते, अन्यानि च भवन्ति / एवं तावद्वाच्यं यावत्पल्योपमासंख्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति / अत्र जघन्याऽनुभागबन्धविषयचरमस्थिति सत्कानुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिस Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1210- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण माप्ता / तत उपरितने स्थितिबन्धे जघन्याऽनुभागबन्धविषयचर मस्थित्यनन्तरस्थितिसत्काऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानाना मनुकृष्टिः परिसमाप्ति याति। एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः। (एसा तिरियगति दुगे, नीयागोए य अणु कड्डी) एषा-अनन्तरोक्ताऽनुकृष्टिः तिर्यग्गतिद्विके तिर्यगा ति तिर्यगानुपूर्वी लक्षणे नीचैर्गोत्रे च द्रष्टव्या। तत्र यथा तिर्यग्गतौ भाविता तथा तिर्यगानुपूर्यो नीचैर्गोत्रेच स्वयमेव भावनीयेति॥६॥६३|| सम्प्रति ासाऽऽदिचतुष्कस्याऽनुकृष्टिमभिधातुकाम आह तसवायरपज्जत्तग-पत्तेयगाण परघायतुल्लाओ। जावट्ठारसकोडा-कोडी हेट्ठा य साएणं // 64|| (तस त्ति) असबादरपर्याप्तप्रत्येकनाम्नामनुकृष्टिः पराघा ततुल्या पराघातस्येव द्रष्टव्या / सा र्चापरितनात् स्थिति स्थानादारभ्याऽधोऽधोऽवतरणेन यावदधस्तादष्टादशकोटी कोट्यः सागरोपमाणां तिष्ठन्ति। ततोऽधस्तात् सातेन तुल्याऽनुकृष्टिरभिधातव्या / तत्र त्रसनाम्नो भाव्यते-ताठासनाम्न उत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे यान्यनुभागबन्धाध्यवसा यस्थानानि तेषामसंख्येयं भाग मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि समयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽनुवर्तन्ते, अन्यानि च भवन्ति / समयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽपि च यान्यनु भागबन्धाध्यवसायस्थानानि तेषामसंख्येयं भाग मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि द्विसयोनोत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽपि अनुवर्तन्ते, अन्यानि च भवन्ति। एवं तावदाच्य यावत्पल्योपमासंख्येयंभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति / अत्रोत्कृष्टस्थितिसत्काऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानाना मनुकृष्टिः परिसमाप्ता / ततोऽधस्तने स्थितिस्थाने समयोनोत्कृष्ट स्थितिसत्काऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्तिं याति / ततोऽप्यधस्तने स्थितिस्थाने द्विसमयोनोत्कृष्टस्थितिसत्कानुभागबन्धाध्यवसायस्थानाना मनुकृष्टिः परिसमाप्तिमेति। एवमधोऽधोऽवतरणेन तावद्वाच्य यावद्ध-स्तादष्टादशसागरोपमकोटीकोट्यस्तिष्ठन्ति। ततोऽष्टादश सागरोपमकोटीकोटीचरमस्थितौ यान्यनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानानि तान्यधस्तनस्थितिबन्धाऽऽरम्भे सर्वाण्यपि भवन्ति, अन्यानि च। यानि चाऽधस्तनस्थितिबन्धा ऽऽरम्भेऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि तानि ततोऽप्यधस्तन स्थितिबन्धाऽऽरम्भे सर्वाण्यपि भवन्ति, अन्यानि च। एवं तावद्वाच्यं यावदभव्यप्रायोग्यजघन्याऽनुभागबन्धविषय स्थावरनामसत्कस्थितिप्रमाणाः स्थितयो गता भवन्ति / ततोऽनन्तरमधस्तने स्थितिस्थाने प्राक्तनानन्तरस्थितिस्थान सत्कानामनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामसंख्येयं भागं मुक्त्वा सर्वाण्यपि तान्यनुवर्तन्ते, अन्यानि च भवन्ति। ततोऽप्य धस्तनतरे स्थितिबन्धे प्राक्तनानन्तरस्थितिस्थान सत्कानामनु भागबन्धाऽध्यवसायस्थानामसंख्येयं भागं मुक्त्वा शेषाणि तानि सर्वाण्यप्यनुवर्तन्ते, अन्यानि च भवन्ति। एवं तावद्वाच्यं यावत् पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति। अा जघन्यानुभागबन्धविषयस्थावरनामसत्कस्थितिप्रमाणतया निहितानां प्रथमस्थितर्यान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि तेषामनुकृष्टि परिसमाप्ता। ततोऽधस्तने स्थितिस्थाने द्वितीयस्थितिस्थान सत्काऽनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः परिनिष्ठामेति। एवं तावद्वाच्य यावञ्जधन्या स्थितिः। एवं बादर पर्याप्तप्रत्येकनाम्नामपि भावना कार्या॥६४॥ तणुतुल्ला तित्थयरे, अणुकड्डी तिवमंदया एत्तो। सव्वपगईण नेया, जहन्नयाई अणंतगुणा // 65|| (तणुतुल्ल त्ति) तीर्थकरनाम्नि अनुकृय॑िथा शरीरनाम्नि प्रागभिहिता यथा द्रष्टव्या। इत ऊर्ध्वमनुभागानां तीव्रमन्दता द्रष्टव्या। तत्र सर्वासां प्रकृतीनामात्मीयाऽऽत्मीयजघन्याऽनुभाग बन्धादारभ्य यावदुत्कृष्टोऽनुभागबन्धस्तावत् स्थितिबन्धेस्थितिबन्धेऽनन्तगुणा तीव्रमन्दता वक्तव्या यथोत्तरमनन्तगुणोऽनुभागवक्तव्य इत्यर्थः। तत्राप्यशुभ प्रकृतीनां जघन्यास्थितेरारभ्योर्ध्वमुखं क्रमेणानन्तगुणो वक्तव्यः। शुभप्रकृतीनां तूत्कृष्टस्थितेरारभ्याधोमुखं याव जघन्या स्थितिः। तदियं सामान्यतस्तीव्रमन्दताऽभिहिता। सम्प्रति विशेषत उच्यते तत्रघातिकर्मणामप्रशस्तवर्णगन्धरसस्पर्शानामुपघातस्य च जघन्यायां स्थितौ जघन्योऽनुभागः सर्वस्तोकः। ततो द्वितीयस्यां स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितौ जघन्याऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवं तावद्वाच्य यावन्निवर्तनकण्डकं भवति / निवर्तनकण्डकं नाम-यत्रा जघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भ भाविनामनुभागबन्धाध्यवसायम्थानानामनुकृष्टिः परिसमाप्ता। तत्पर्यन्ता मूलत आरभ्य स्थितयः पल्योपमाडसंख्येयभागा मात्राप्रमाणा उच्यन्ते / इति / / 6 / / निव्वत्तणा उ एकि-कस्स हेट्ठोवरिं तु जेट्ठियरे। चरमठिईणुकोसो, परित्तमाणीण उ विसेसो॥६६|| (निव्वत्तणं त्ति) ततो निवर्तनकण्डकस्य चरमस्थितौ जघन्याऽनुभागाजघन्यस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः कण्डकादुपरि प्रथमस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततो द्वितीयस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः कण्डकादुपरि स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽधस्तना तृतीयस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽधस्तनादुपरितृतीयस्थिता उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः कण्डकादुपरितृतीयस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवमेकैकोऽधस्तादुपरि च यथाक्रम ज्येष्ठ उत्कृष्ट इतरश्च जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणतया तावद्वाच्यो यावदुत्कृष्टायां स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टोऽनुभागोऽद्याप्यनुक्तस्तिष्ठति। शेषः सर्वोऽप्युक्तः। तत सर्वोत्कृष्टायाः स्थितिर्जघन्यानुभागात् कण्डकमात्राणां स्थितीनां प्रथमस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणो वक्तव्यः। ततोऽप्यनन्तरायामुपरितनस्थितावुकृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽप्यनन्तरायामुपरितनस्थितावुकृष्टोऽ नुभागोऽनन्तगुणः। एवं निरन्तरमुक्तृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणतया तावद्वक्तव्यो यावत्कृदुष्टा स्थितिः। तथा चाऽऽह-(चरमठिईsणुकोसो) चरमस्थितीनां कण्डकमात्राणां पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राणामित्यर्थः। उत्कृष्टोऽनुभागो निरन्तरमनन्तगुणतया नेतव्यः। इदानीं शुभ प्रकृतीनां तीव्रमन्दताऽभिधानावसरः-तत्रा पराधातप्रकृति मधिकृत्योच्यतेपराघातस्योत्कृष्टायां स्थितौ जघन्यपदे Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1211 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण जघन्योऽनुभागः सर्वस्तोकः / ततः समयोमायामुत्कृष्टस्थितौ जघन्योsनुभागोऽनन्तगुणः / ततोऽपि द्विसमयोनायामुत्कृष्ट स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवं तावद्वाच्यं जावत्पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्राः स्थितयो गता भवन्ति, निवर्तनकण्डकमतिक्रान्तं भवतीत्यर्थः / तत उत्कृष्टायां स्थितादुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततो निवर्तनकण्डकादधः प्रथमस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततः समयोनाया मुत्कृष्टस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततो निवर्तनकण्डकादधो द्वितीयस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवं तावद्वाच्यं यावत्पराघानस्य जघन्यस्थितौ जघन्यानुभागोऽनन्तगुणः कण्डकमात्राणां च स्थितीना मुत्कृष्टोऽनुभागोऽद्याप्यनुक्तन्तिष्ठति। शेषः सर्वोऽप्युक्तः। ततोजघन्यस्थितेरारभ्योर्ध्व कण्डकमात्राः स्थितीरतिक्रम्य चरमायां स्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणो वक्तव्यः। ततोऽधस्तनस्थितावुत्कृष्टाऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवं तावद्वाच्यं यावजघन्यस्थितादुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवं शरीरपञ्चकसंघातपञ्चकबन्धनपञ्चदशकाऽङ्गोपाङ्गायप्रशस्त वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघुच्छवासाऽऽत पोद्योतनिर्माणतीर्थकराणामपि भावनीयम् / (परित्तमाणीण उ विसेसो) परावर्तमानप्रकृतीनां विशेषो द्रष्टव्यः / स चैवम् यावतीना तानि चाऽन्यानि चेत्येवमनुकृष्टिभिहिता, तावतीनां सर्वासामपि जघन्योऽनुभागस्तावन्मात्रा एव द्रष्टव्यः / तानि चान्यानि चेत्येवमनुकृष्टिविषयाभ्यस्तु परतो जघन्यो यथोत्तरमनन्त गुणस्तावद्रक्तव्यो यावत् कण्डकस्याऽसंख्येया भागा गता भवन्ति, एकोऽवशिष्यते // 66|| तथा चाऽऽह - ताणन्नाणि त्ति परं, असंखभागाहिं कंडगेक्काण। उक्कोसियरा नेया, जा तकंडकोवरि समत्ती / / 67 / / (ताणि त्ति)तानि चान्यानि चेत्येवमनुकृष्टः परं कण्डकस्याऽसंख्येयेभ्यो भागेभ्य ऊर्ध्व कण्डकमात्राणामेकैकस्याश्च स्थितेर्यथासंख्यमुत्कृष्टा इतरे च जघन्या अनुभागा अनन्तगुणा ज्ञेयाः / एतदुक्तं भवति-तानि चान्यानि चेत्येवमनुकृष्टः परं जघन्योऽनुभागो यथोत्तरमनन्तगुणस्तावद्वाठ्यः यावत् कण्डकमात्राणां स्थितीनामसंख्येया भागा गता भवन्ति, एकोऽवतिष्ठते। ततो यतः स्थितेरारभ्य तानि चान्यानि चेत्येव मनुकृष्टिरारब्धा, तत्प्रभृतीनां स्थितीनां कण्डकमात्राणां यथोत्तरमनन्तगुणतयोत्कृष्टोऽनुभागो वक्तव्यः। ततो यतः स्थितिस्थानाजधन्यानुभागमुक्त्वा निवृत्तस्तत उपरितने स्थिति स्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणोवाच्यः / एवमेकैकं जघन्यानुभागमुत्कृष्टानुभागानां च कण्डकं कण्डक तावद्वदेत् यावजघन्या नुभागविषयाणां स्थितीनां तानि चान्यानि चेत्येवमनुकृष्टः परं कण्डकं परिपूर्ण भवति। उत्कृष्टाश्चानुभागाः सागरोपमशत पृथक्त्वतुल्या भवन्ति / तत उपरि जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / पश्चादेक उत्कृष्टोऽनुभागः। ततः पुनरप्येको जघन्योऽनुभागः, पुनरप्येक उत्कृष्टोऽनुभागः, एवं तावद्वाच्यं यावज्जघन्यानुभाग विषयाः स्थितयः सर्वा अपि परिसमाप्ता भवन्ति / उत्कृष्टानुभाग विषयाश्च कण्डकमात्राः स्थितयो ऽद्याप्यनुक्ता स्तिष्ठन्ति। शेषाः सर्वा अप्युक्ताः। ततस्तासांयथोत्तरमुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणो वाच्यः। तथा चाऽऽह-(जातक्कडकोवरि समत्ती) यावत्तेषां जघन्याऽनुभागानां कण्डकस्य चोपरितनस्य परिसमाप्तिः / इदमुक्तं भवति-अनन्तगुणतयाऽभिहितानां जघन्यानुभाग विषयाणां स्थितीनां कण्डकादुपरि एकैकोत्कृष्टानुभागान्तरिता जघन्यानुभागास्तावद्वक्तव्या यावत्तेषां सर्वेषामपि परिसमाप्तिरुपज्जायते / ततो ये कण्डकमात्रा उत्कृष्टानुभागाः केवलास्तिष्ठन्ति, तेऽपि यथोत्तरमनन्तगुणास्तावद्वाच्या यावत्सर्वसमाप्तिर्भवतीति गाथार्थः / / ता साताऽसाते अधिकृत्य भावना विधीयते-सातस्योत्कृष्टायां स्थितौ जघन्योऽनुभागः सर्वस्तोकः / ततः समयोनायामुत्कृष्टस्थितौ जघन्योऽनुभागस्तावन्मात्र एव / द्विसमयोनायामप्युत्कृष्टस्थितौ जघन्योऽनुभागस्तावन्मात्र एव / एवमधोऽधोऽवतीर्य तावद्वक्तव्यो यावत्सागरोपमशतपृथक्त्वमतिक्रान्तं भवति / ततोऽधस्तनस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततोऽप्यधरतनस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवं तावद्वाच्यं यावत् कण्डकस्याऽसंख्ययभागा गता भवन्ति, एकोऽवशिष्यते / एताश्च स्थितयः संख्येयभागहीनकण्डक मात्राः साकारोपयोगसंज्ञा इति व्यवन्हियन्ते, साकारोपयोगेनैवैतासांबध्यमानत्वात्। तत उत्कृष्टस्थिती उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणो वक्तव्यः। ततः समयोनायामुत्कृष्ट स्थितावुत्कुष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽपि द्विसमयोनाया मुत्कृष्टस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवमधोऽधोऽवतरणेनोत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणस्तावद् वक्तव्यो यावत्कण्डकमात्राः स्थितयोऽतिक्रान्ता भवन्ति। ततो यतः स्थितिस्थानाजघन्यमनुभागमुक्त्वा निवृत्तस्ततोऽधस्तात् स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः पुनरपि प्रागुक्तानामुत्कृष्टानुभागविषयाणां स्थितीनामधस्तात् कण्डकमात्रासु उत्कृष्टोऽनुभागः क्रमेणानन्तगुणो वाच्यः। ततो यतः स्थितिस्थानाजघन्यमनुभागमुक्त्वा निवृत्तस्ततोऽधस्तने स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणो वक्तव्यः। ततः पुनरपि कण्डकमात्राणां स्थितीनामुक्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवमेकस्याः स्थितेर्जघन्योऽनुभागः कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणतया तावद्वाच्यो यावज्जघन्यानुभागविष-याणामेकैकस्थितीनां त्रानि चान्यानि चेत्येवमनुकृष्टः परं कण्डक परिपूर्ण भवति। उत्कृष्टानुभागविषायाश्च स्थितयः सागरोपमशतपृथक्त्वमात्राः / तत एकस्याः स्थितेर्जघन्यानुभागोऽनन्तगुणः। ततः सागरापमशतपृथक्त्वादधस्तनस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः पुनरपि प्रागुक्तस्थितिस्थानादधस्तनस्थितौ जघन्योऽनुभागो ऽनन्तगुणः / ततः सागरोपमशतपृथक्त्वादधस्तनद्वितीयस्थिती उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तएगुणः / एवमेकैकं जघन्यमुत्कृष्ट चानुभागमनन्तगुणतया वदन् तावद्व्रजेद्द्यावत्सर्वजघन्यन्या स्थितिः। कण्डकमात्राणं च स्थितीनामुत्कृष्टानुभागा-अद्याऽप्यनु क्तास्तिष्ठन्ति, शेषाः सर्वेऽप्युक्ताः / ततस्तेऽप्यधोऽधः क्रमेणानन्तगुणा वक्तव्यायावत्सर्वजघन्या स्थितिः / एवं मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वी देवगतिदेवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातिसम चतुर स्रसंस्थानवज्रर्षभनाराचसंहननप्रशस्तविहायोग Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1212- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण तिस्थिःशुभसुभगसुस्वराऽऽदेययशःकीर्युचैर्गोत्राणामपि वक्तव्यम् / / संप्रत्वसातवेदनीय स्योच्यते-तत्रासातस्य जघन्यस्थिती जघन्योऽनुभागः सर्वस्तोकः। द्वितीयस्यां स्थितौ जघन्योऽनुभागस्तावन्मात्र एव / तृतीयस्यामपि स्थितौ जघन्योऽनुभागस्तावन्मात्र एव / एवं तावद्वाच्यं वावत्सागरोपमशतपृथक्त्वं भवति / तत उपरितनस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः एवं तावद्वाच्यं यावत्कण्डकस्यासङ्ख्ये या भागा गता भवन्ति, एकोऽवतिष्ठते / ततोऽसाख्य जघन्यस्थितावुत्कृष्ट पदे उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोद्वितीयस्यां स्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोः। ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवं तावद्वाच्यं यावत् कण्डकमात्राः स्थितयो गता भवन्ति। ततो यतः स्थितिस्थानाजघन्यमनुभाग मुक्त्वा निवृत्तस्तत उपरितने स्थितिस्थाने जघन्योsनुभागोऽनन्तगुणः / ततः प्रागुक्तादुत्कृष्टानुभागविषयात्कण्डकादुपरि प्रथमस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽपि द्वितीवस्यां स्थिती उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितौ ढत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवं तावद्वाच्यं यावत्पुनरपि कण्डकमात्राः स्थितयो गता भवन्ति। ततः पुनरपि यतः स्थितिस्थानाजघन्यानुभाग मुक्त्वा निवृत्तस्तस्योपरितने स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततो भूयोऽपि प्रागुक्तकण्डकद्वयादुपरिकण्डकमात्राणां स्थितीनामुत्कृष्टोऽनुभागो यथोत्तरमनन्तगुणो वक्तव्यः / एवमेकैकस्याः स्थितेर्जघन्योऽनुभागः कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुत्कऽष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणतया तायद्वक्तव्यो यावज्जघन्यानुभागविषयाणामेकैकस्थितीनां तानि चान्यानि चेत्येवमनुकृष्टः परं कण्डक परिपूर्ण भवति। उत्कृष्टानुभागविषयाश्च स्थितयः सागरोपमशतपृथक्त्वमात्राः / तत उपरि एकस्याः स्थितेर्जधन्योऽनुभागोऽनन्तगुणो वाच्यः ततः सागरोपमशतपृथक्त्वादुपरितनस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततःपुनरपि प्रागुक्तात् स्थितिस्थानादुपरितने स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः सागरोपमशतपृथक्त्वादुपरि द्वितीयस्यां स्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः एवमेकैकं जघन्यमुत्कृष्ट चानुभागमनन्तगुणं वदन् तावत् व्रजेद्यावदसातवेदनीयस्य सर्वोत्कृष्टा स्थितिर्भवति / कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टानुभागा अद्याप्यनुक्ता अवतिष्टन्ते शेषाः, सर्वेऽप्युक्ताः। ततस्तेऽपि यथोत्तरमनन्तगुणा वक्तव्या यावदुत्कृष्टा स्थितिः एवं नरकगतिनरकानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातिवर्जजातिचतुष्टयप्रथमवर्जसंस्थानपञ्चकप्रथमवर्जसंहननपञ्चकाऽप्रशस्तबिहायोगतिस्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणास्थिराशुभदुर्भवदुःस्वरानादेयायशःकीर्तीनामपि तीव्रमन्दताऽभिधातव्या // संप्रति तिर्यग्गतेस्तीव्रमन्दताऽभिधीयतेसप्तमपृथिव्यां वर्तमानस्य नैरयिकस्य सर्वजघन्ये स्थितिस्थाने जघन्यपदे जघन्याऽनुभागः। सर्वस्तोकः। ततो द्वितीयस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्त-गुणः। ततोऽपि तृतीयस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवं तावद्वाच्य यावन्निवर्तनकण्डकमतिक्रान्तं भवति / ततो जघन्यस्थितावुत्कृष्टपदे उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततो निवर्तनकण्डकादुपरि प्रथमस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततो द्वितीयस्थितावुत्कृष्टोऽनुभानोऽनन्त गुणः। ततः कण्डकादुपरि द्वितीयस्थिनौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततस्तृतीयस्या स्थितादुरकृष्टोऽनुमानोऽनन्तगुणः। एवं तावद्वाव्यं यावदभव्यप्रायोन्यजघन्यानुभागबन्धस्याऽयश्वरमस्थितिः। अभव्यप्रायोग्यजघन्यानुभागबन्धस्याधः कण्डकमात्राणां स्थितीनामुत्कृष्टानुभागा अद्याप्यनुक्ताः सन्ति, शेषास्तुक्ताः। ततोऽभव्यप्रायोग्य जाघन्यानुभागबन्धविषये प्रथमस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्त गुणः। द्वितीयस्यां स्थितौ जघन्योऽनुभागस्तावन्मात्र एव। तृतीयस्यामपि स्थितौ जघन्योऽनुभागस्तावन्मात्र एवा एवं तावद्वाच्यं यावत्सागरोपमशतपृथक्त्वभावाः स्थितयोऽतिक्रान्ता भवन्ति / एतासां च स्थितीनां पूर्वपुरुषः परावर्तमानजघन्यानुभागबन्धप्रायोग्या इति नाम कृतम्। एतासां चोपरि प्रथमस्थितौ जघन्यानुभावीऽनन्तगुणः। ततोऽपि द्वितीयस्यां स्थिती जघन्योनुभागोऽनन्तगुणः / ततोऽपितृतीवस्यां स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवंतावद्वाच्यं यावन्निवर्तनकण्डकस्य असंख्येया भागा गता भवन्ति, एकोऽवतिष्ठते। ततो यतःस्थितिस्थानादुत्कृष्टमनुभागम् उक्त्वा निवृत्तस्तत उपरितने द्वितीये स्थितिस्थाने उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽप्युपरितने स्थितिस्थाने उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽपि तृतीये स्थितिस्थानं उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवं तावद्वाच्य यावदभव्यप्रायोग्य जघन्यानुभागबन्धस्याधश्वारमा स्थितिः। ततो यतः स्थितिस्थानाजघन्यमनुभागमुक्त्वा निवृत्तस्ततः उपरितने स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽभव्यप्रायोग्यजघन्यानुभागबन्धविषये प्रथमस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततोऽपि द्वितीयस्यां स्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवं तावद् वाच्यं यावत् कण्डकमात्राः स्थितयोऽतिक्रान्ता भवन्ति। ततो यतः स्थितिस्थानाजघन्यमनुभागमुक्त्वा निवृत्तस्तत उपरितने स्थितस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽप्यभव्यप्रायोग्यजधन्यानुभागबन्धविषये कण्डकादुपरि पुनरपि कण्डकमात्राणां स्थितीनामुत्कृष्टोऽनुभागो यथोत्तरमनन्तगुणो वक्तव्यः। एवमेकस्याः स्थितेर्जधन्यमनुभाग कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टमनुभागं वदता तावद्न्तव्यं यावदभव्यप्रायोग्यजघन्यानुभागबन्धीविषये चरमस्थितिः। ततो यतः स्थितिस्थानाजघन्यमनुभाग मुक्त्वा निवृत्तस्तत उपरितने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततोऽभव्यप्रायोग्यजघन्यानुभागबन्धस्योपरि प्रथमस्थितावुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। तत उपरि प्रागुक्ताजघन्यानुभागबन्धादुपरि द्वितीयस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः प्रागुक्तादुत्कृष्टनुभागादुपरितने स्थितिस्थाने उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। एवमेकस्याः स्थितेर्जघन्यमेकस्याश्चोत्कृष्टमनुभागं वदता तावद्गन्तव्यं यावदुत्कृष्टस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टानुभागा अद्याप्यनुक्ताः सन्ति, शेषाश्च सर्वेऽप्युक्ताः ततस्ते यथोत्तरमनन्तगुणास्तावद्वक्तव्या यावदुत्कृष्टा स्थितिः / एवं तिर्यगानुपूर्व्या नीचैर्गोत्रय च तीव्रमन्दताऽभिधातव्या / / सम्यति त्रसनाम्नोऽभिधीयतेत्रसनाम्न उत्कृष्टस्थितौ जघन्यपदे जघन्योऽनुभागः सर्वस्तोकः। ततः समयोनायामुत्कृष्टस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततोऽपि द्विसमयोनायामुत्कृष्टस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवमधोऽधोऽ Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1213 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण ऽवतरणेन जघन्योऽनुभागोऽनुभागोऽनन्तगुणतया तावद्वक्तव्यो यावत्कण्डकमात्राः स्थितयोऽतिक्रान्ता भवन्ति। ततः उत्कृष्टायां स्थिती उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततः कण्डकादधः प्रथमस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः समयोनायामुत्कृष्टस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततः कण्डकादधस्तन्यां द्वितीयास्यां स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्त गुणः ततो द्विसमयोनायामुत्कृष्टस्थितो उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्त गुणः / एवं तावदाच्यं यावदष्टादशसागरोपमकोटीकोटीनामु परितनी स्थितिः अष्टादशकोटीकोटीनां चोपरि कण्डकमात्राणां स्थितीनामुत्कृष्टानुभागा अद्याप्यनुक्ताःसन्ति / शेषं सर्वमुक्तम् / ततोऽष्टादशकोटीकोटीनां सत्कायामुत्कृष्टस्थितौ जघन्योऽनु भागोऽनन्तगुणः / ततः समयोनायामुत्कृष्टस्थितौ जघन्योऽनुभाग स्तावन्मात्र एव। द्वि समयोनायामप्युत्कृष्ट स्थितौ जघन्योऽनुभाग स्तावन्मात्रा एव / एवमधोऽधोऽवतरणेन तावद्वाच्यं यावदभव्य प्रायोग्यो जघन्यस्थितिबन्धः। ततोऽधस्तन्यां प्रथमस्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततो द्वितीयस्यां स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवं तावद्वाच्यं यावत्कण्ड कस्यास ख्येया भागागता भवन्ति, एकोऽवतिष्ठते। ततोऽष्टादश सागरोपमकोटीकोटीनामुपरिष्टात् कण्डमात्राणां स्थितीनां चरमस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततो द्विचरमस्थिता वुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततस्त्रिचरमस्थितावुत्कृष्टोऽनु भागोऽनन्तगुणः / एवमधोऽधोऽवतरणेन तावद्वच्यं यावत्कण्डकमतिक्रान्तं भवति, अष्टादशकोटीकोटीनामुपरि अनन्तरा स्थितिरतिक्रान्ता भवतीत्यर्थः / ततोयतः स्थितिस्थाना जघन्यमनुभागमभिधायनिवृत्तस्ततोऽधस्तने स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततः पुनरप्यष्टादश सागरोपम कोटीकोटीन सत्कायाप्रच्चरम स्थितेरारभ्याऽधोऽधः कण्डकमा त्राणां स्थितीनामुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणो वक्तव्यः ततोयतः स्थितिस्थानाजघन्यानुभागमभिधाय निवृत्तस्ततोऽधस्तने स्थितिस्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततः पुनरपि प्रागुक्तात्कण्डकादधः कण्डकमात्राणां स्थितीनामधोऽधः क्रमेणोत्कृष्टा अनुभागा अनन्तगुणा वक्तव्याः / एवमेकस्याः स्थितेर्जघन्य मनुभाग कण्डकमात्राणां रिधतीनामुत्कृष्टाननु भागान् वदतातावदन्तव्य यावदभव्यप्रायोग्यजघन्यानुभाग बन्धविषये जघन्या स्थितिः ततो यतः स्थिति स्थानाजघन्यानु भागमु क्त्वा निवृत्तस्त तोऽधस्तने स्थिति स्थाने जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततोऽभव्यप्रायोग्यजघन्यानुभाग बन्धविषयादधः प्रथमस्थितौ उत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः। ततः प्रागुक्ताजघन्यानुभागादधः स्थितौ जघन्योऽनुभागोऽनन्तगुणः / ततोऽप्यभव्य प्रायोग्यजघन्यानुभागबन्धविषयादधो द्वितीयस्थिता वुत्कृष्टोऽनुभागोऽनन्तगुणः / एवमेकस्याः स्थितेर्जघन्यमनुभागभेकस्याश्च स्थितेरुत्कृष्ट वदताऽधोऽधस्तावदवतरीतव्यं यावज्जघन्या स्थितिः। कण्डकमात्राणां च स्थितीनामुत्कृष्टा अनुगाः अद्याप्यनुक्ताः सन्ति, शेषाः सर्वेऽप्युक्त; / ततस्तेऽप्यधोऽधः क्रमेणानन्तगुणास्तावद्वक्तव्या यावजघन्या स्थितिः / एवं बादरपर्याप्तप्रत्येकनाम्नामपि तीव्रमन्दताऽभिधातव्याः। (विशेषतस्त्वनुकृष्टिस्तीव्रमन्दताच पटस्थापनातोऽवसेया) साद्यनादिप्ररुपणा। स्वामित्वं घातिसंज्ञा स्थानसंज्ञा शुभाऽशुभप्ररुपणा (प्रत्ययप्रतपणा विपाकप्ररुपणा) च यथा 'शतके तथाऽवगन्तव्या इति॥६७।। तदेवमुक्तोऽमुभागबन्धः / सम्प्रति स्थितिबन्धाभिधानावसरः / तत्रा च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि। तद्यथा-स्थितिस्थानप्ररुपणा 1, निषेकप्ररुपणा 2, अबाधाकण्डकप्ररुपणा 3, अल्पबहुत्वप्ररुपणा 4, च। तत्र स्थितिस्थानप्ररुपणार्थमाहठिइबंधट्ठाणाई, सुहुमअपज्जत्तगस्स थोवाइं। बायरसुहुमेयर बिति-चउरिंदियअमणसन्नीणं // 68|| संखेजगुणाणि कमा, असमत्तियरे य बिंदियाइम्मि। नवरमसंखेज्जगुणा-ई संकिलेसाई (य) सव्वत्थ / / 66 / / (टिइत्ति) इह जघन्यस्थितेरारभ्योत्कृष्टां स्थितिं यावत् यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि स्थितिस्थानानि / तथाहि- जघन्यायाः स्थितेरेकं स्थितिस्थानम् / सैव समयाधिका द्वितीय स्थितिस्थानम्। द्विसमयाधिका तृतीयं स्थिति स्थानम् / एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः। तानि च स्थितिस्थानानि सूक्ष्मस्यापर्याप्तस्य सर्वस्तोकानि। तेभ्योऽपर्याप्तबादरस्य संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि सूक्ष्मपर्याप्तकस्य संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि पर्याप्तबादरस्य संख्येयगुणानि / एतानि च पल्योपमासंख्येयभागगतसमयप्रमाणानि द्रष्टव्यानि। ततोऽपर्याप्तद्वीन्द्रियस्याऽसंख्येयगुणानि। कथमेवं गम्यते? इति चेदुच्यते-द्वीन्द्रियाणामपप्तिानां स्थिति स्थानानि पल्योपमासंख्येयभागगतसमयप्रमाणानि, पाश्चात्यानिच पल्योपमासंख्येयभागगतसमयप्रमाणानि। ततः पाश्चात्येभ्योऽमून्यसंख्येयगुणान्येवोपपद्यन्ते। तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य स्थितिस्थानि / संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तकस्य संख्येयगुणानि। तेभ्योऽपि तस्यैव पर्याप्तस्य संख्येयगुणानि। तेभ्योऽपि चतुरिन्द्रियस्यापर्याप्तस्य सङ्खयेयगुणानि / तेभ्योऽपि चतुरिन्द्रियस्यपर्याप्तस्य सङ्घ येयगुणानि / तेभ्योऽप्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्यापर्याप्तस्य सङ्खयेयगुणानि / तेभ्योऽप्यसज्ज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य सङ्ख्येयगुणानि। तेभ्योऽपि संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्यापर्याप्तस्य सङ्खयेयगुणानि। तेभ्योऽपि संज्ञिपञ्चेन्द्रिस्य पर्याप्तस्य सङ्ख्येयगुणानि। (असमत्तियरे य त्ति) असमाप्तानामपर्याप्तानामि तरेषां च पर्याप्तानां बादराऽऽदीनां स्थितिस्थानानि क्रमेण सङ्खयेयगुणानि वक्तव्यानीति / नवरमेकेन्द्रियाणां स्थितिस्थानान्यभिधायाऽनन्तरं द्वीन्द्रियस्य प्रथमे भेदेऽपर्याप्तरुपे स्थितिबन्धस्थानान्यसङ्खयेयगुणानि वक्तव्यानि / तथैव च युक्तिपूर्व प्रागुक्तानि (संकिलेसाइँ (य) सव्वत्थ) संक्लेशाश्च सर्वत्र-सर्वेषु स्थानेष्वसंख्येयगुणा वक्तव्याः, आस्तां द्वीन्द्रियस्य, प्रथमभेदेऽपयप्तिलक्षणे स्थितिस्थानान्यसङ्खये यगुणानीति च शब्दार्थः / तद्यथासुक्ष्मस्यापर्याप्तस्य संक्लेशस्थानानि सर्वस्तोकानि / तेभ्योऽपर्याप्तबादरस्थासङ्ख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि पर्याप्तसूक्ष्मस्यासङ्ख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि पर्याप्तबादरस्यासख्येयगुणानि। तेभ्योऽपि द्वीन्द्रियस्याऽपर्याप्त Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1214 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण स्याऽसङ्ख्येयगुणानि / एवं पर्याप्तद्वीन्द्रियपर्याप्ताऽपर्याप्त त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां यथोत्तरम सङ्ख्येयगुणानि वक्तव्यानि / कथमेवं गम्यते सर्वत्राप्यसंख्येयगुणानि संक्लेशस्थानानीति चेद् उच्यते-इह सूक्ष्मस्यापर्याप्तस्य जघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भे यानि संक्लेशस्थानानितेभ्यः समयाधिकजघन्यस्थिति बन्धाऽऽरम्भे संक्लेशस्थानानि विशेषाधिकानि। तेभ्योऽपि द्विसमयाधिकजघन्यस्थितिबन्धाऽऽरम्भेऽपि विशेषाधिकानि / एवं तावद्वाच्यं यावत्तस्यैवोत्कृष्टा स्थितिस्तदुत्कृष्टस्थितिबन्धाऽऽरम्भे च संक्लेशस्थानानि जघन्यस्थितिसत्कसंक्लेशस्थाना पेक्षयाऽसंख्येयगुणानि लभ्यन्ते। यदैतदेव तदा सुतरामपर्याप्त बादरस्य संक्लेशस्थानानि अपर्याप्यसूक्ष्मसत्कसंक्लेशस्थाना पेक्षया असंख्येयगुणानि भवन्तिा तथाहि-अपर्याप्तसूक्ष्मसत्क स्थिति स्थानापेक्षया बादरापर्याप्तस्य स्थितिस्थानान्यसंख्येयगुणानि। स्थितिस्थानवृद्धौ च संक्लेशस्थानवृद्धिः / ततो यदा सूक्ष्मापर्याप्तस्यापि स्थितिस्थानेष्वतिस्तोकेषु जघन्यस्थितिरथान सत्कसंक्लेशस्थानापेक्षया उत्कृष्ट स्थितिस्थाने संक्लेशस्थानान्यसंख्येयगुणानि भवन्ति, तदा बादरापर्याप्तस्थितिस्थानेषु सूक्ष्मापर्याप्तस्थितिस्थानापेक्षया ऽसंख्येयगुणेषु सुतरां भवन्ति / एवमुत्तरत्रापि असंख्येयगुणत्वं भावनीयमिति // 68||66 // एमेव विसोहीओ, विग्घाऽऽवरणेसु कोडिकोडीओ। उदही तीसमसाते, अद्धं थीमणुयदुगसाए।।७०।। एमेव त्ति-(एमेव विसोहीओ ति) तथा संक्लेशस्थानान्य संख्येयगुणतया प्रागुक्तानि एवमेवअसंख्येयगुणतयैवेत्यर्थः / विशोधयोऽपिविशोधिस्थानान्यपि वक्तव्यानि / यतो यान्येव संक्लिश्यमानस्य संक्लेशस्यानानि तान्येव विशुध्यमानस्य सतो विशुद्धिस्थानानि भवन्ति / एतच प्रागेव सप्रपञ्चं भावित, नेह भूयो भाव्यते। ततो विशोधिस्थानान्यपि संक्लेशस्थानवत् क्रमेण सर्वत्राप्यसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि। साम्प्रतनुत्कृष्टत्तरस्थितिप्रतिपादनार्थमाह--(विग्धत्ति) अनन्तरायमावरणं ज्ञानाऽऽवरणं दर्शनाऽऽवरणं च / तत्रा पञ्चानामनन्तरायप्रकृतीनां पञ्चानां ज्ञानाऽऽवरणप्रकतीनां नवानां च दर्शनाऽऽवरणप्रकृतीनामसातवेदनीयस्य चोत्कृष्टा स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमाणां कोटीकोट्यः / इहद्विधा स्थितिः-कर्मरुपतावस्थानलक्षणां, अनुभवयोग्या च / ता कर्मरुपतावस्थानलक्षणामेव स्थितिमधिकृत्य जघन्योत्कृष्ट प्रमाणाभिधानमिदमवगन्तव्यम्। अनुभवप्रायोग्या पुनरबाधाकालहीना। येषां च कर्मणां यावत्यः सागरोपम कोटीकोट्यस्तषां तावन्ति वर्षशतानि अबाधाकालः / तथाहि मतिज्ञानाऽऽवरणस्य त्रिशत्सागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिरतस्तस्याऽवाधाकालोऽप्युतकृष्टस्त्रिंशद्वर्षशतान्यवगन्तव्यः। यतस्तन्मतिज्ञानाऽऽवरणमुत्कृष्टस्थितिकं बद्ध सत्रिंशद्वर्षशतानि यावन्न काश्चिदपि स्वोदयतो जीवस्य बाधामुत्पादयति / अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः एवं श्रुतज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनामप्युक्तप्रकृतीनामबाधाकालोऽबाधा कालहीनश्च कर्मदलिकनिषेको भावनीयः। तथा स्त्रीवेदेमनुष्याद्रिके मनुष्यगतिमनुष्यानुपूर्वीरुपेसात वेदनीये च पूर्वोक्तस्य स्थितिप्रमाणस्यार्धमुत्कृष्टस्थितितया द्रष्टव्यं पञ्च दशसागरोपमकोटीकोट्यः स्त्रीवेदाऽऽदीनामुत्कृष्टा स्थितिरव गन्तव्येत्यर्थः / पञ्चदशवर्षशतान्यबाधाकालोऽबाधाकाल हीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / / 7 / / तिविहे मोहे सत्तरि, चत्तालीसा य वीसई य कमा। दस पुरिसे हासरई, देवदुगे खगइचेट्ठाए॥७१ // (तिविहे त्ति) त्रिविधे त्रिप्रकारे मोहे-मोहनीये मिथ्यात्व लक्षणे दर्शनमोहनीये, षोडशकषायलक्षणे कषायमोहनीये, नपुंसकवेदारतिशोकभयजुगुप्सारुपे च नोकषायमोहनीये, यथासंख्यमुत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमकोटी कोट्यः सप्ततिः चत्वारिंशत् विंशतिश्चा यथासङ्ख्यमेव च सप्तचत्वारि द्वे च वर्षसहस्त्रे अबाधाकालः अबाधाकालहीनश्य कर्मदलिकनिषेकः / इह पुरुषवेदहाम्यरतीनां विशेषतो वक्ष्यमाणत्वात् स्त्रीवेदस्य चोक्तत्वान्नोकषायमोहनीयग्रहणेन नपुंसकवेदारतिशोकभयजुगुप्सानामेव ग्रहणमवगन्तव्यम् / (दस पुरिसेत्यादि) पुरुष-पुरुषवेदे हास्ये रतौ देवद्विकेदेवगति देवानुपूर्वीरुपेस्रगतौ चेष्टायां प्रशस्त विहायोगतौ दशसागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टाः स्थितिः दशवर्षशतानि चाऽबाधाकालः / अबाधाकालहीनश्च कर्म दलिकनिषेकः // 71|| थिरसुभपंचगउच्चे, चेवं संठाणसंघयणमूले। तव्वीयाई विवुड्डी, अट्ठारस सुहुमंविगलतिगे // 72 / / (थिर त्ति) स्थिरे, शुभपञ्चके शुभसुभगसुस्वराऽऽदेययशः कीर्तिरुपे, उचैर्गोत्रे च / तथा (संठाणसंघयणमूलेत्ति) मूले-प्रथमे संस्थाने समचतुरसलक्षणे, प्रथमे च संहनने वज्रर्षभनाराचसंज्ञे। एवं पूर्वोक्तप्रकारेणोत्कृष्टा स्थितिर वगन्तव्या, दशसागरोपमकोटोकोट्य उत्कृष्टा स्थितिर वगन्तव्येत्यर्थः / दशवर्षशतानि चाबाधा। अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः (तव्वीयाइ विवुड्डी) तेषां संस्थानानां संहनानां च मध्ये द्वितीयाऽऽदिषु द्वितीयतृतीयाऽऽदिषु संस्थानेषु संहननेषु च द्विवृद्धिः-द्विकवृद्धिः क्रमेणावसेया। तद्यथा-द्वितीययोः-संस्थानसंहननयोदशसागरोपमकोटी कोट्य उत्कृष्टा स्थितिर्द्वादशवर्षशतानिचाबाधाकालः / अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / तृतीययोः संस्थानसंहननयोश्चतुर्दशसारोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, चतुर्दशवर्षशताति चाबाधाकालः, अबाधा कालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / चतुथयोः संस्थानसंहननयोः षोडशसागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, षोडशवर्षशतान्यबाधाकाल अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / पञ्चभयोः संस्थानसंहननयोरष्टादशसागरो पमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, अष्टादशवर्षशतानि चाबाधाकालः, आबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / षष्ठयोः संस्थानसंहनयोर्विशतिसागरो पमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, द्वे वर्षसहस्वे अबाधाकालः, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः। (अट्ठारससुहुमविगलतिगे) सूक्ष्मत्रिके-सूक्ष्मापर्यातसाधारणरुपे, विकलत्रिकेद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियजातिलक्षणे, अष्टादशसागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, अष्टादशवर्षशतान्यवाधाकालः, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः // 72 // Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1215 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण तित्थगराऽऽहारदुग, अंतो वीसासनिचनामाणं। तेत्तीसुदही सुरना-रयाउ सेसाउ पल्लतिगं / 73 / / (तित्थगर त्ति) तीर्थकरे, आहारकद्विके आहारकशरीराऽऽहारकाऽङ्गोपाङ्गरुपे अन्तःकोटीकोटी उत्कृष्टा स्थितिः / अन्तर्मुहूर्तमबाधाकालः, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / (वीसासनिचनामाणं) शेषाणां नामप्रकृतीनां नरकगतिनरकाऽऽनुपूर्वीतियग्द्विकैकेन्द्रियजातिपञ्चेन्द्रिय जातितैजसकार्मणौदारिकवैक्रियशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गवैक्रियाङ्गोपाङ्ग वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघूपधातपराघातोच्छ्वासाऽऽतपोद्योताप्रशस्तविहायोगतिसस्थावरबादर पर्याप्त प्रत्येकास्थिराशुभदुर्भगदुः स्वरानादेयायशःकीर्तिनिर्माण लक्षणानां नीचैर्गोत्रस्य च विंशतिः सागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः, विंशतिवर्षशतानि चाबाधाकालः, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः। (तेत्तीसुदही सुरनारयाओ) सुराऽयुषो नारकाऽऽयुषश्चोत्कृष्टा स्थितिस्त्रय स्त्रिंशदुदधयः-सागरोपमाणि पूर्वकोटी त्रिभागाभ्यधिकानीति शेषः। पूर्वकोटीत्रिभागश्चाबाधाकालः। अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः। (सेसाउपल्लतिगं) शेषाऽऽयुषोर्मनुष्य तिर्यगायुषोः पल्यत्रिकंत्रीणिपल्योपमानि पूर्वकोटीत्रिभागा भ्यधिकानीति शेषः / पूर्वकोटीत्रिभागश्चाबाधाकालः। अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / एतच पूर्वकोट्यायुष श्चतुर्गतिगमनयोग्यान् उत्कृष्टस्थितिबन्धकान् तिर्यड्मनुष्यान् प्रतिद्रष्टव्यम्। तानेवाऽऽश्रित्य यथोक्तरुपाया उत्कृष्टस्थितेः पूर्वकोटित्रिभागरुपायाश्चाबाधायः प्राप्यमाणत्वात् / / 73 / / साम्प्रतमसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाऽऽदीन् बन्धकानाश्रित्याऽऽयुषा मुत्कृष्टां स्थितिं प्रतिपादयन्नाहआउचउक्कुक्कोसो, पल्लाऽसंखेज्जभागममणेसु। सेसाण पुव्वकोडी, साउतिभागो अवाहा सिं // 7 // (आउत्ति) श्रमनस्केष्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु आयुरुत्कृष्टस्थितिबन्धकेषु चतुर्णामप्यायुषां परभवसंबन्धिनामुत्कृष्टा स्थितिः,पल्योपमासंख्येय भागमात्राः, पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकेति शेषः / पूर्वकोटित्रिभाग श्चाबाधाकालः / अबाधाकालहीनचश्च कर्मदलिकनिषेकः / शेषाणां चैकेन्द्रिय द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तानाम संक्षिपञ्चेन्द्रिय संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां चापर्याप्तानामायुष्युत्कृष्ट स्थितिबन्धकानां परभवाऽऽयुष उत्कृष्टस्थितिबन्धः पूर्वकोटी स्वस्वभवात्रिभागाभ्यधिको वेदितव्यः। (सिं ति) एषां स्वस्वभवत्रिभागोऽबाधाकालः / अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिक निषेकः॥७४|| इदानीमायुर्वर्जानां सर्वकर्मणामबाधाकालपरिमाण प्रतिपादनार्थमाह - वाससहस्समवाहा, कोडाकोडी दसगस्स सेसाणं। अणुवाओ अणुवट्टण---गाउसु छम्मासिगुक्कोसो।।७५ / / (वास ति) कोटीकोटीदशकस्य दशानां सागरोपम कोटीकोटीनां वर्षसहसंदशवर्षशतानि अबाधा भवति। शेषाणांद्वादशचतुर्दशपञ्चदशषोडशाष्टादशविंशतित्रिशचत्वारिं शत्सप्ततीनामनुपातोऽनुसारः कर्त्तव्यः, पैराशिकमनु सर्तव्यमित्यर्थः / तथाहि यदा दशानां सागरोपमकोटी कोटीनां वर्षसहस्त्रमबाधा प्राप्यते, तदा द्वादशानां सागरोपमकोटी कोटीना वर्षसहस्त्रं शतद्वयं चाऽबाधा भवति. चतुर्दशानां वर्षसहस्र शतचतुष्टय च / एवं सर्वत्राध्यनु सर्तव्यम् / (अणुवट्टणगाउसु छम्मासिगुकोसो) अनपवर्तनीयाऽऽयुष्केषु देवनारकासंख्येयवर्षाऽऽयुष्कतिर्यड्मनुष्येषुपरभवाऽऽयुष्कोत्कृष्ट स्थितिबन्धकेषुपरभवाऽऽयुष उत्कृष्टाsबाधा पाण्मासिकीषण्मासप्रमाणा द्रष्टव्या / षण्मासावाशेषे एवं तेषां परभवऽऽयुर्बन्धकत्वात् / केचित्पुनर्युगलधर्मिणां पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणामबाधामिच्छन्ति / तदुक्तम्-'पलियासंखिज्जंऽसं, जुगधम्माणं वयंतण्णे'' इति // 75 // तदेवमुक्तोत्कृष्टा स्थितिः / सम्प्रति जघन्यामभिधातुकाम आह - भिन्नमुहुत्तं आवरण-विग्घं दंसण चउक्कलोभंते। बारस सायमुहुत्ता, अट्ठ य जसकित्तिउच्चेसु / / 76 / / (भिन्न त्ति) पञ्चानां ज्ञानाऽऽवरणीयानांपञ्चानामन्तरायाणां चतुर्णा - दर्शनाऽऽवरणानां चक्षुरचक्षुरवधि केवलदर्शनाऽऽवरणरुपाणां सर्वान्तिमस्य च लोभस्य संज्वलन संज्ञस्य भिन्नमुहूर्तमन्तर्मुहूर्त जघन्या स्थितिः, अन्तर्मुहूर्तमयाधाकालः, अबाधाकलहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः। सातवेदनीयस्यजघन्या स्थितिज्दश मुहूर्तोः, अन्तर्मुहूर्त चायाधाकालः, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / इहकाषायिक्या एव स्थितेजघन्यत्व प्रतिपादनमभिप्रेतम् / अतो द्वादश मुहूर्त्ता इत्युक्तम् / अन्यथा सातवेदनीयस्य जघन्या स्थितिः समयद्वयमात्राऽपि सयोगिकेवल्यादौ प्राप्यते। तथा यशाकीयुचैर्गोत्रयोरष्टौ मुहूर्ता जघन्या स्थितिः, अन्तर्मुहूर्तमबाधा, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः।।७६।। दो मासा अलुद्धं, संजलणे पुरिस अट्ठ वासाणि। भिन्नमुहुत्तमबाहा, सव्वासिं सव्वहिं हस्से // 77 / / (दो मास त्ति) संज्वलनानां द्वौ मासौ / अर्धाधं च जघन्या स्थितिः। एतदुक्तं भवति-संज्वलक्रोधस्य द्वौ मासौ जघन्या स्थितिः। संज्वलनमानस्य मासः। संज्वलनमायाया अर्धमासः। तथा पुरुष-पुरुषवेदस्याष्टौ वर्षाणि जघन्या स्थितिः / सर्वत्राऽप्यन्तमुहूर्तमबाधा। अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / अबाधाकालमप्रमाणप्रतिपादनार्थमाह-(भिन्नेत्यादि) सर्वासामपिप्रकृतीनामुक्तानां वक्ष्यमाणानां च सर्वस्मिन्नपि ह्रस्वेजघन्ये स्थितिबन्धे भिन्नमुहूर्तमबाधा द्रष्टव्या। तथैव च प्राक् प्रतिपादिता वक्ष्यते चेति // 77|| संप्रत्यायुषो जघन्यस्थितिप्रतिपादनार्थमाह - खुड्डागभवो आउसु, उववायाउसु समा दस सहस्सा। उक्कोसा संखेजा, गुणहीणाऽऽहारतित्थयरे।७८|| (खुड्डागभवो त्ति) तिर्यगायुषो मनुष्याऽऽयुषश्च जघन्यास्थितिः क्षुल्ल-कभवः / तस्य किं मानमिति चेदुष्यते-आवलिकानां द्वे शते षट् पञ्चाशदधिके / अपि चैक स्मिन्मुहूतें घटिकाद्वयप्रमाणे सप्तत्रिशच्छतानि त्रिसप्तत्यधिकानि प्राणापानानां हष्टा नवकल्पजन्तुसत्कानां भवन्ति / एकस्मिंश्च प्राणापाने साधिकाः सप्तदश क्षुल्लकभवाः / सकलेच मुहूर्ते पञ्चषष्टिसहस्राणि पञ्चशतानि षट्त्रिंशदधिकानि क्षुल्लकभवानां भवन्ति / अत्रापि 'सुव्वहिं हस्से'' इति Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण वचनादन्तर्मुहूर्तमबाधा, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः। तथा उपपाताऽऽयुषो देवानां नारकाणां चाऽऽयुषो जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि, अन्तर्मुहूर्तमबाधा, अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः / / अधुना तीर्थकराऽऽ हारकयोर्जघन्यां स्थितिमभिधातुकाम आह(उकोसेत्यादि) आहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गतीर्थकरनाम्नां योत्कृष्टा स्थितिः प्रागुक्ताऽन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा सा संख्येयगुणहीना जघन्या स्थितिर्भवति / साऽपि चान्तःसागरो पमकोटीकोटीप्रमाणैव / ननुतीर्थकरनामकर्म तीर्थकर भवादाक् तृतीये भवे बध्यते। तदुक्तम्"बज्झइत्तं तुभर्यवओ, तइयभवो (वे) सक्कइत्ताणं। 'तत्कथं जघन्यतोऽप्यन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणातस्य स्थितिरुपपद्यते? / तदयुकम्, अभिप्रायाऽपरिज्ञानात्।" बज्झइतंतु'' इत्यादिकं निकाचनापेक्षयोत्कम्, इतरथा तु तृतीय-भवादक्तरामपि बन्ध्यते / उक्तं च विशेषणचत्याम्-"कोडाकोडीअयरोवमाणतित्थयरनामकम्मठिई। वज्झइयतं अणंतर-भवम्मि तइयम्मि निद्दिष्टुं // 1 // " ततः कथमेतत् परस्परं युज्यते? अत्रोत्तरम्-"जं बज्झइत्ति भणिय, तत्थ निकाइज्जइ त्ति नियमोऽयं / तदवंझफलं नियमा, भयणा अनिकाइयावत्थे / / 1 / / " आह-यदि तीर्थकरनाम्नो जघन्याऽपि स्थितिरन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा, तर्हि तावत्याः स्थिते स्तिर्यग्भवभ्रमणमन्तरेण पूरयितुमशक्यत्वात् तिर्यग्ग तावपि तीर्थकरनामसत्कर्मा जन्तुः कियन्तं काल यावद्भवेत्। तथा च सत्यागमविरोधः। आगमे हि तिर्यग्गतौ तीर्थकरनामसत्कर्मा सन् प्रतिषिध्यते / नैष दोषः 'निकाधितस्यैव तीर्थकरनामकर्मणस्तिर्यग्गतौ सतः प्रतिषेधात्। उक्तं च "जमिह निकाइयतित्थं, तिरियभवे तं निसेहियं संतं / इयरम्मि नऽत्थिदोसो, उव्वट्टोवट्टणासऽज्झे॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-इह-अस्मिन् प्रवचने यत्तीर्थकरनामकर्म निकाचितमवश्यवेद्यतया स्थापितं तदेव स्वरुपेण सद्विमानं, तिर्यग्गती निषिद्धम् / इतरस्मिन-पुनरनिकाचिते उद्वर्तनापर्वतनासाध्ये, तिर्यग्भवे विद्यमानेऽपि न कश्चिद्दोष इति / अत्रापि चान्तर्मुहूर्तमबाधा / ततः पर दलिकरचनायाः संभवादवश्यं प्रदेशोदयसंभवः / / 7 / / उक्तशेषाणां प्रकृतीनां जघन्यस्थितिप्ररुपणार्थमाहवग्गुकोसटिईणं, मिच्छत्तुक्कोसगेण जं लद्धं / सेसाणं तु जहन्नो, पल्लासंखेज्जगेणूणो॥७६ / / (वणुक्कोस त्ति) इह ज्ञानाऽऽवरणप्रकृतिसमुदायो ज्ञानाऽऽ वरणीयवर्ग इत्युच्यते / एवं दर्शनाऽऽवरणप्रकृतिसमुदायो दर्शनाऽऽवरणीयवर्गः / वेदनीयप्रकृतिसमुदायो वेदनीयवर्गः / दर्शनमोहनीयप्रकृतिसमुदायो दर्शनमोहनीयवर्गः / चारित्र मोहनीयप्रकृतिसमुदायश्चारित्रामोहनीयवर्गः / नोकषायमोहनीय प्रकृतिसमुदायो नोकषायमोहनीयवर्गः। नामप्रकृतिसमुदायो नामवर्गः / गोत्रप्रकृतिसमुदायो गोत्रवर्गः / अन्तरायप्रकृति समुदायोऽन्तरायवर्गः / एतेषां वर्गाणानां याऽऽत्मीयात्मीयोत्कृष्टा स्थितिस्त्रिशत्सागरोपमकोटीकोठ्यादिलक्षणा, तस्या मिथ्यात्वस्योत्कृष्टया स्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटी कोटी लक्षणया भागे हते सति यल्लभ्यते तत्पल्योपमाऽ संख्येयभागन्यून सदुक्तशेषाणां प्रकृतीनां जघन्यस्थितेः परिणाममवसेयम्। तथाहि-दर्शनाऽऽवरणीयवेदनीययोरुत्कृष्टा स्थितिस्त्रिंशत्-सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा, तस्या मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हते सति 'शून्यं शून्येन पातयेत' इति वचनाल्लब्धास्वयः सागरोपमसप्तभागाः, ते पल्योपमासंख्येयभागहीना निद्रापञ्च कासातवेदनीययोजघन्या स्थितिः। एवं मिथ्यात्वस्य सप्तसप्तभागाः पल्योपमासंख्येयभागहीनाः, संज्वलनवर्जानां द्वादशकषायाणां चत्वारः सप्तभागाः पल्योपमासंख्येय भागहीनाः। तथा नोकषायमोहनीयस्य नामकर्मणो गोत्रास्य च स्वस्वोत्कृष्टायाः स्थितेविंशतिसागरोपम कोटीकोटीप्रमाणाया मिथ्यात्वस्थित्या सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणया भागे हते सति यौलब्धौ द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागी, तौ पल्योपमासंख्येयभागहीनौ पुरुषवेदवर्जानामष्टानां नोकषायाणां देवद्विकमरकद्विकवैक्रियद्विकाऽऽहारकद्विकाऽयशः कीर्ति तीर्थकरवर्जशेषनामप्रकृतीनां नीचैर्गोत्रस्य च जघन्या स्थितिः / वैक्रियषट्कस्य देवगतिदेवानुपूर्वी नरकगतिनरकाऽनुपूर्वीवैक्रिय शरीरवैक्रियाऽङ्गोपागलक्षणस्य द्वौ सप्तभागौ सहसगुणितौ पल्योपमासंख्येयभागहीनी जघन्या स्थितिः / यतस्तस्य वैक्रिय षट्कस्य जघन्यस्थितिबन्धका असंज्ञिपञ्चेन्द्रियास्ते च जघन्यां स्थितिमेतावर्तीमव बन्धन्ति, न न्यूनाम्। तदुक्तम्वेउव्विय (विउव्य) छक्के तं, सह-स्स ताड़ियंजअसण्णिओ तेसिं। पलिआसंखंऽसूणं, ठिइ अबाहूणियनिसेगो॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका "वग्गुकोसठिईण, मिच्छन्तुकोसियाए' इत्यनेन करणेन यल्लब्धं तत् सहस्राताडितंगुणितम् / ततः पल्योपमस्यासंख्येयनांशेनभागेन न्यूनं सत् वैक्रियषट्के-उक्तस्वरुपे जघन्यस्थितः परिणाममवसेयम् / कुत इत्याह-यद यस्मात्कारणात्तेषां वैक्रियषट्कलक्षणानां कर्मणा असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिया एव जघन्यस्थितेर्वन्धकाः। तेच जघन्यां स्थितिमेतावतीमेव बध्नन्ति, नन्यूनाम्, अन्तर्मुहूर्त्तमबाधा, अबाधाकालहीना च कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेक इति / / 7 / / सम्प्रत्येकेन्द्रियाणां जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धप्रतिपादनार्थमाहएसेगिंदियडहरो, सव्वासिं ऊणसंजुओ जेट्ठो। पणवीसा पन्नासा, सयं सहस्सं च गुणकारो॥८०।। कमसो विगलअसन्नी-ण पल्लसंखेज्जभागहा इयरो। विरए देसजइदुगे, सम्मचउक्के य संखगुणो // 1 // (एसे त्ति) सर्वासां प्रकृतीनां वैक्रियषट्काऽऽहारकतीर्थ करवर्जितानामेषोऽनन्तरोक्तः “वगुकोसठिईणं, मिच्छन्तुक्कोसगेण जलद्धं / सेसाणं तु जहण्णो, पल्लासंखेजगेणुणो। 76 ||" इत्येवलक्षणः स्थितिबन्धो डहरोजघन्य एकेन्द्रियाणां द्रष्टव्यः। तथाहि ज्ञानाऽऽवरण दर्शनाऽऽवरणवेदनीयान्तराया गामुत्कृष्टा स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटी प्रमाणा, तस्या मिथ्यात्वस्थित्योत्कृष्टया सप्ततिसागरोपमकोटीकोटी प्रमाणया भा Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1217- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण गेहते सतिलब्धाः सागरोपमस्य त्रयः सप्त भागाः, तेचपल्योपमासंख्येयभागहीनाः क्रियन्ते, एतावत्प्रमाणां जघन्यां स्थिति ज्ञानाऽऽवरणपञ्चकदर्शनाऽऽवरणनवकासातवेदनीया न्तरायपञ्चकानामेकेन्द्रिया बध्नन्ति, न न्यूनाम् / एवं मिथ्यात्वस्य जघन्यां स्थितिमेकं सागरोपम पल्योपमासंख्यय भागहीनं कषायमोहनीयस्य / चतुरः सागरोपमस्य सप्तभागान् पल्योपमासंख्येयभागहीनान् नोकषायाणाम्। तथा वैक्रियषट् काऽऽहारकद्विकतीर्थकरवर्जितानां शेषनामप्रकृतीनां गोत्र प्रकृतिद्वयस्य च द्वौ सागरोपमस्य सप्तभागौ पल्योपमाऽसंख्येय भागहीनावेकेन्द्रिया वध्नन्ति (ऊणसंजुओ जेटु ति) स एव जघन्यः स्थितिबन्ध ऊनेन पल्योपमासंख्येयभागलक्षणेन संयुतः सन्नुत्कृष्टस्थितिबन्ध एकेन्द्रियाणां वेदितव्यः / तद्यथा-ज्ञानाऽऽवरणपञ्चकदर्शनाऽऽवरणनवकासातवेदनीयान्तराय पञ्चकानां त्रयः सागरोपमस्य सप्तभागाः परिपूर्णा उत्कृष्टः स्थितिबन्धः। एवं सर्वत्रापि भावनीयम्। उक्त एकेन्द्रियाणां जघन्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः / / सम्प्रति विकलेन्द्रियाणामाह-(पणवीसेत्यादि) एकेन्द्रियाणां सत्क उत्कृष्टः स्थितिबन्धः पञ्चविंशत्वादिना गुणकारेण गुणितः सन् क्रमशः क्रमेण विकलानांविकलेन्द्रियाणां द्वित्रिचतुरिन्द्रियलक्षणा नामसंज्ञिना चासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां चोत्कृष्टः स्थितिबन्धो वेदितव्यः / तद्यथा-एकेन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिन्यधः पञ्चविंशत्या गुणितो द्वीन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो भवति / स एवैकेन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः पञ्चाशता गुणितस्वीन्द्रियाणामुत्कृष्टः स्थितिबन्ध / शतेन गुणितश्चतुरिन्द्रियाणाम्। सहस्रेण गुणितोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामिति। (पल्लसंखेअभागहा इयरो) स एव द्वीन्द्रियाऽऽदीनामात्मीय आत्मीय उत्कृष्टः स्थितिबन्ध पल्योपमासंख्येयभागहीनः सन् इतरो जघन्यः स्थितिबन्धो वेदितव्यः / / सम्प्रति सर्वेषामपि जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धानामल्पबहुत्वमाभिधीयते तत्रासूक्ष्मसम्परायस्य जघन्यस्थितिबन्धः सर्वस्तोकः / ततो बादरपर्याप्तकस्य जघन्य स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः / ततोऽपि सूक्ष्मपर्याप्तकस्य जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः। ततोऽप्यपर्याप्तबादरस्य जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽप्यपर्याप्तसूक्ष्मस्थ जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि अपर्याप्तसूक्ष्मस्योत्कृष्टः स्थिति'बन्धो विशेषाधिकः। ततोऽप्यपर्याप्तबारस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि सूक्ष्मपर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि बादरपर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः। ततो द्वीन्द्रियस्यपर्याप्तस्य जघन्या स्थितिबन्धः संख्येयगुणः / ततस्तस्यैवापर्याप्तस्यजघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः। ततोऽपि तस्यैव द्वीन्द्रियस्याऽपर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि द्वीन्द्रियपर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि त्रीन्द्रियपर्याप्तस्यजधन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः। ततोऽपि तस्यैव त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः। ततोऽपि त्रीन्द्रियापर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि पर्याप्तत्रीन्द्रियस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततश्चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यः स्थिति बन्धः संख्येयगुणः / ततोऽप्यपर्याप्त चतुरिन्द्रियस्य जघन्यः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽप्यपर्याप्तचतु रिन्द्रियस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि पर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः। ततोऽपि तस्येवापर्याप्तस्य जघन्यःस्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि तस्यैवापर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽपि तस्यैव पर्याप्तस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततः संयतस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः / (विरए इत्यादि) विरतेसंयते, अत्र चजघन्य उत्कृष्टश्च स्थितिबन्ध उक्त एव / ततो देशयतिद्रिके देशविरतद्विके जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धलक्षणे तथा सम्यक्त्वचतुष्केऽविरतसम्यग्दृष्टौ पर्याप्तऽपर्याप्त च प्रत्येक जघन्योत्कृष्टस्थितिबन्धके स्थितिबन्धो यथोत्तर संख्येयगुणो वक्तव्यः। तद्यथा-संयतोत्कृष्टस्थितिबन्धात् देशविरतस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः। ततो देशविरतस्यैबोत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः। ततः पर्याप्तविरतस्य सम्यग्दृष्टर्जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः। ततोऽप्यपर्याप्ताविरतस्य सम्यग्दृष्टैर्जघन्यः स्थितिबन्धः / संख्येयगुणः, ततोऽप्यपर्याप्ताविरतसम्यग-दृष्टरुत्कृष्टः स्थिति बन्धः संख्येयगुणः / ततोऽपि पर्याप्ताविरतसम्यग्दृष्टरुत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः॥८१॥ सन्नीपज्जत्तियरे, अभिंतरओ य (उ) कोडिकोडीओ। ओघुक्कोसो सन्नि-रस होइ पञ्जत्तगस्सेव / / 82 // (सन्नि त्ति) अविरतसम्यगद्दष्टेः पर्याप्तस्य सत्कादुत्कृष्ट स्थितिबन्धात् संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः। ततोऽपि तस्यैवापर्याप्तस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः / ततोऽपि तस्यैवापर्याप्तस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्योत्कृष्टः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः। (अभिंतरओ य (उ) कोडिकोडीउत्ति) संयतस्योत्कृष्टात् स्थितिबन्धादारभ्य यावदपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्योत्कृष्टः स्थितिबन्ध एव सर्वोऽपि सागरोपमकोटीकोठ्या अभ्यन्तर एवं द्रष्टव्यः / एकेन्द्रियाऽऽदीनां तु सर्वजघन्यसर्वोत्कृष्टस्थितिबन्ध परिमाणं प्रागेव प्रत्येकमुक्तम्। संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकस्य पुनरुत्कृष्ट : स्थितिबन्धो य एव प्रागोधेनसामान्येनोक्त उत्कृष्टः स्थितिबन्धः स एव वेदितव्यः।।८तदेवं कृता स्थितिस्थान (बन्ध) प्ररुपणा। सम्प्रति निषेकप्ररुपणावसरः। तत्रा च / अनुयोगद्वारे-अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा च। तत्रानन्तरोपनिधा प्ररुपणार्थमाह - मोत्तूण सगमबाहे, पढमाएँ ठिइएँ बहुतरं दव्वं / एत्तो विसेसहीणं, जावुक्कोसं ति सव्वस्सिं // 83|| (मोत्तूण त्ति) सर्वस्मिन्नपि कर्मणि बध्यमाने आत्मीयमबाधाकाले मुक्त्वापरित्यज्य ऊर्ध्वं दलिकनिक्षेपं करोति। तत्रा प्रथमायां स्थिती समयलक्षणायां प्रभूततरं द्रव्यं कर्मदलिकं निषिञ्चति / (एत्तो विसे सहीणं ति) इतः प्रथमस्थितेरुवं द्वितीयाऽऽदिषु स्थितिषु समयसमयप्रमाणासु विशेषहीन विशेषहीनं कर्मदलिकं निषिञ्चति / Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1218 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण तथाहि-प्रथमस्थितेः सकाशात् द्वितीयस्थितौ विशेषहीनम्। ततोऽपि तृतीयस्थितौ विशेषहीनम् / ततोऽपि चतुर्थस्थितौ विशेषहीनम् / एवं विशेषहीनं विशेषहीनं तावद्वाच्यं यावत्तत्तत्समयबध्यमानकर्मणामुत्कृष्टा स्थितिः, चरम समय इत्यर्थः / / 83 // कृताऽनन्तरोपनिधाप्ररुपणा। सम्प्रति परम्परोपनिधाप्ररुपणार्थमाह - पल्लासंखियभाग, गंतुं दुगुणूणमेवमुक्कोसा। नाणंतराणि पल्ल-स्स मूलभागो असंखतमो // 54 // (पल्ल त्ति) अबाधाकालादूर्ध्व प्रथमस्थितौ यन्निषिक्तं कर्मदलिक तदपेक्षया द्वितीयाऽऽदिषु स्थितिषु समयसमयरुपासु विशेषहीनविशेषहीनतरं दलिकमारभ्यमाणं पल्योपमासंख्येयभागमात्रासु स्थितिष्यतिक्रान्तासु दलिकं द्विगुणोनं भवति, अर्धं भवतीत्यर्थः / ततः पुनरप्यत ऊर्ध्वमत दपेक्षया विशेषहीन विशेषहीनतरं दलिकमारभ्यमाणपल्योपमा संख्येयभागमात्राप्रमाणासु स्थितिष्वतिक्रान्तासु अर्धे भवति / एवमर्धाऽर्धहान्या तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः, स्थितेश्चरमसमय इत्यर्थः / क्रियन्ति पुनरेवं द्विगुणहानिस्थानानि भवन्तीत्येतन्निरुपणार्थमाह - (नाणंतराणील्यादि) नानाप्रकाराणि यान्यन्तराणि अन्तरान्तरा द्विगुणहानिस्थानानि भवन्ति, तान्युत्कृष्टस्थितिबन्धे पल्योपमस्य सम्यन्धिनः प्रथमवर्गमूलस्याऽसंख्येयतमे भागे यावन्तः समयास्तावत् प्रमाणानि भवन्ति / उक्तं च - "पलिओवमस्स मूला, असंखभागम्मि जत्तिया समया। तावइया हाणीओ, ठिइबंधुक्कोसए नेया।।१।।' ननु मिथ्यात्व मोहनीयस्योत्कृष्टस्थितेः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वा देतावत्यो हानयः सम्भवन्तु, आयुषस्तूत्कृष्टस्थितेः, त्रायस्त्रिंशत्सागरोपमसमयमात्रत्वात् कथमेतावत्यो हानयः सम्भवन्तीति? उच्यते-इहाऽसंख्येयतमो भागोऽसंख्येयभेदाऽऽत्मकः, असंख्यातस्याऽसंख्यातभेदभिन्नत्वात्। ततः पल्योपमप्रथमवर्गमूलस्याऽसंख्येयतमो भाग आयुष्यतीवाल्प तरो गृह्यते इत्यविरोधः / तथा सर्वाणि द्विगुणहानिस्थानानि स्तोकानि / एकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेकस्थानानि असंख्ययगुणानि इति // 84 // कृता निषेकप्ररुपणा। सम्प्रत्यबाधाकण्डकप्ररुपणार्थमाहमोत्तूण आउगाई, समए समए अबाहहाणीए। पल्लासंखियभागं, कंडं कुण अप्पबहुमेसिं / / 5 / / (मोत्तूण त्ति) आयूंषि चत्वार्यपि मुक्त्वा शेषाणां सर्वेषामपि कर्मणामबाधाहानौ समये समये पल्योपमाऽसंख्येयभागलक्षणं कण्डकमुत्कृष्टस्थितेः सकाशाद्धीनं करोति / तथाहि-उत्कृष्ट यामबाधायां वर्तमानो जीवः स्थितिमुत्कृष्टां बध्नाति, परिपूर्णामकसमयहीनां वा। एवं यावत्पल्योपमासंऽख्येयभाग हीनां वा / यदि पुनरुत्कृष्टाऽबाधा एकेन समयेन हीना भवेत्ततो नियमात्पल्योपभाऽसंख्येयभागमात्रेण कण्डकेन हीनामेवोत्कृष्टां स्थिति बध्नाति / तामप्येकसमयहीनां वा द्विसमयहीना वा यावत्पल्योपमाऽसंख्येयभागहीना वा। यदि पुनीभ्यां हीनोत्कृष्टाऽबाधा भवेत्ततो नियमात्पल्योपमाऽसंख्येयभागलक्षणकण्डकद्वयहीनामेवो त्कृष्टां स्थिति बध्नाति। तामप्येकसमयहीनां वा यावत्पल्योपमाऽसंख्येयभागहीना वा। एवं यतिभिः समयैरुनाऽबाधा भवति, ततिभिरेव कण्डकैः पल्योपमाऽसंख्येयभागलक्षणैरुना स्थितिद्रष्टव्या यावदेकत्रा जघन्या बाधा भवति, अन्यत्र च जघन्या स्थिति। तदेवमबाधा गतसमयसमयहान्या स्थितेः कण्डकहानिप्ररुयणा कृता / सम्प्रत्यल्पबहुत्वप्ररुपणार्थमाह-(अप्पबहुमेसि)एषां वक्ष्यमाणानामल्पबहुत्वं वक्तव्यम्।।८।। केषामिति चेत्तानेवाऽऽह - बंधाऽबाहाणुक्कसि - (सइ) यरं कंडकअबाहबंधाणं / ठाणाणि एकनाणं-तराणि अत्थेण कंडं च // 86 // (बंध ति) (बंधाबाहाणुक्कसियरं ति) उत्कृष्टः स्थिति बन्धो जघन्यः स्थितिबन्धः उत्कृष्टाऽबाधा जघन्याऽबाधा / (कंडकअबाहबंधाणं ठाणाणि त्ति) कण्डकस्थानानि अबाधा-स्थानानि स्थितिबन्धस्थानानि च। एग (क) नाणंतराणि ति] एक द्विगुणहान्योरन्तरं नानारुपाणि चान्तराणि द्विगुणहानिस्थानरुपाणि। (अत्थेणं कंडं च त्ति) जघन्याऽबाधाहीनया उत्कृष्टाऽबाधया जघन्यस्थितिहीनाया उत्कृष्टस्थितेर्भागे हते सति यावान् भागो लभ्यते, वान् अर्थेन् कण्डकमित्युच्यते, इत्याम्नायिका व्याख्यानयन्ति। चः समुच्चये। पञ्चसङ्ग्रहे पुनरेतस्य स्थानेऽबाधाकण्डकस्थानानीत्युक्तम् / तत्र चैवं मूलटीकाकारण व्याख्याकृता अबाधा च कण्डकानि चाऽबाधाकण्डकं / समाहारो द्वन्द्वः, तस्य स्थानानि अवाधाकण्डकस्थानानि। तयोर्द्वयोरपि स्थानसंख्येत्यर्थः। एतेषादशानां स्थानानामल्प बहुत्वमुच्यते-तत्र संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु अपर्याप्तकेषु वा बन्धकेषु आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां सर्वस्तोका जघन्याऽबाधा। सा चाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणा। ततोऽबाधा स्थानानि कण्डकस्थानानि चाऽसंख्येयगुणानि / तानि तु परस्परं तुल्यानि / तथाहिजघन्यामबाधामादिं कृत्वोत्कृष्टाऽबाधाचरम समयमभिव्याप्य यावन्तः समयाः प्राप्यन्ते, तावन्त्यबाधास्थानानि भवन्ति। तद्यथा-जघन्याऽबाधा एकमबाधास्थानं सैव सामयाधिका द्वितीयम् / द्विसमयाधिका तृतीयम् / एवं तावद्वाच्य यावदुत्कृष्टाबाधाचरमसमयः / एतावन्त्येव चाऽवाधाकण्डकानि, जघन्याबाधात आरभ्य समयं समयं प्रति कण्डकरय प्राप्यमाणत्वात् / एतच प्रागेवोक्तम् / तेभ्य उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका, जधन्याबाधायास्तत्र प्रवेशात् / ततो दलिकनिषेकविधौ द्विगुणहानिस्थानानि असंख्येयगुणानि, पल्योपमप्रथमवर्गमूलाऽसंख्येयभागगतसमयप्रमाणत्वात्। तत एकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेकस्थानान्यसंख्येयगुणानि, तेषामसंख्येयानि पल्योपमवर्गमूलानि परिमाणमिति कृत्वा तेभ्योऽपि अर्थेन कण्डकमसंख्येयगुणम्। तस्माजघन्यः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः, अन्तःसागरोपमकोटीकोटी प्रमाणत्वात्। संज्ञिपज्वेन्द्रिया हि श्रेणिमनारुढा जघन्यतोऽपि स्थितिबन्धमन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणमेव कुर्वन्ति / ततोऽपि स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि। तत्रज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणवेदनीयान्तरायाणामेकोनत्रिशद् गुणानि समधिकानि मिथ्यात्वमोहनीयस्यैकोनसप्ततिगुणा Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण नि समधिकानि / नामगोत्रयारेकोनविंशतिगुणानि समधिकानि / तेभ्य संख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणा अवगन्तव्याः। अत्रा च द्वेधा प्ररुपणा। उत्कृष्टा स्थितिर्विशेषाधिका, जघन्यस्थितेरबाधायाश्च तत्र प्रवेशात्। तद्यथा-अनन्तरोपनिधया, परम्परोपनिधया च। तत्रानन्तरोयनिधया तथा संज्ञिपञ्चेन्द्रियेष्वसंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु वा पर्याप्तकेषु प्रत्येकमायुषो प्ररुपणामाह-(हस्साविसेसवुड्डी) आयुर्वर्जानां कर्मणां हस्वाजघन्यात् जघन्याऽबाधा सर्वस्तोका। ततो जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येय गुणः, स स्थितिबन्धात् परतो द्वितीयाऽऽदिषु स्थितिस्थानबन्धेषु विशेषवृद्धिःचक्षुल्लकभवरुपः। ततोऽबाधास्थानान्यसंख्येयगुणानि। जघन्याबाधा- विशेषाधिक वृद्धिरवसेया। तद्यथा-ज्ञानाऽऽवरणीयस्य जघन्यस्थिती रहितः पूर्वकोटी त्रिभागारहित इति कृत्वा। ततोऽप्युत्कृष्टाऽबाधा विशेषा- तद्वन्धहेतुभूता अध्यवसायानाना जीवाऽपेक्षयाऽसंख्येयलोकाऽऽकाशधिका। जघन्याबाधाया अपि तत्र प्रवेशात्। ततो द्विगुणाहानिस्थाना- प्रदेश प्रमाणाः। ते चान्यापेक्षया सर्वस्तोकाः। ततो द्वितीयस्थितौ विशेन्यसंख्येयगुणानि, पल्योपमप्रथमवर्ग मूलासंख्येयभागगतसमयप्र- षाधिकाः। ततोऽपि तृतीयस्थितौ विशेषाधिकाः। एवं तावद्वाच्यं यावदुमाणत्वात्। तेभ्योऽप्येकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेकस्थानान्यसंख्ये- त्कृष्टा स्थितिः। एवं सर्वेष्वपि कर्मसु वाच्यम्। (आऊणमसंखगुणवुड्डी) यगुणानि / तत्र युक्तिः प्रागुक्ताऽवगन्तव्या। ततः स्थितिबन्धस्थाना- आयुषां जघन्यस्थितेरारभ्य प्रतिस्थितिबन्धमसंख्येयगुणवृद्धिर्वक्तव्या। न्यसंख्येय गुणानि। तेभ्योऽप्युत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः, जघन्य- तद्यथा-आयुषो जघन्यस्थितौ तद्वन्धहेतुभूता अध्यवसाया असंख्येयस्थितेरबाधायाश्च तत्रा प्रवेशात् / तथा पञ्चेन्द्रियेपु संशिष्वसंज्ञिष्व- लोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणाः / ते च सर्वस्तोकाः / ततो द्वितीयस्थितौ पर्याप्तषु चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रिय द्वीन्द्रियबादरसूक्ष्मैकेन्द्रियेषु च पर्याप्ताप- असंख्येयगुणाः / ततोऽपि तृतीयस्थितावसंख्येयगुणाः। एवं तावद्वाच्य यप्तेिषु प्रत्येकमायुषः सर्वस्तोका जघन्याऽबाधा। ततो जघन्यः स्थिति- यावदुत्कृष्टा स्थितिः / / 87 // तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररुपणा। बन्धः संख्येयगुणः, सच क्षुल्लकभवरुपः / ततोऽबाधास्थानानि संख्ये सम्प्रति परम्परोपनिधया तां करोतियगुणानि / ततोऽत्युत्कृष्टाऽबाधा विशेषाधिका / ततोऽपि स्थितिबन्ध- पल्लासंखियभागं, गंतुं दुगुणाणि जाव ऊक्कोसा। स्थानानि संख्येयगुणानि / जघन्यस्थितिन्यून पूर्वकोटि प्रमाणत्वात्। नाणंतराणि अंगुल-मूलच्छेयणमसंखतमो।। || तत उत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकाः, जघन्यस्थितेबाधायाश्च तत्रा (पल्ल त्ति) आयुर्वजनिां सप्तानां कर्मणां जघन्यस्थितौ थान्यध्यवसायप्रवेशात्। तथाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रियसूक्ष्मवाद- स्थानानि, तेभ्यः / पल्योपमाऽसंख्ययभाग मात्राः स्थितीरतिक्रम्य रैकेन्द्रियेषु पर्याप्तापर्याप्तेष्वायुर्वर्जाना सप्तानां कर्मणां प्रत्येकमयाधास्था- परस्मिन्नन्तरे स्थितिस्थाने द्विगुणान्य- ध्यवसायस्थानानि भवन्ति / नानि कण्डकानि च स्तोकानि परस्परं चतुल्यानि, आवलिकाऽ संख्येय- तेभ्योऽपि पल्योपमाऽसंख्येयभा गमात्राः स्थितीरतिक्रम्याऽनन्तरे भागगतसमयप्रमाणत्वात्। ततो जघन्याऽबाधाऽसंख्येय गुणा, अन्तर्मु- स्थितिस्थाने द्विगुणान्यध्य वसायस्थानानि भवन्ति / एवं द्विगुणवृद्धिहूर्तप्रमाणत्वात् / ततोऽप्युत्कृष्टाऽबाधा विशेषाधिका, जघन्याबाधाया स्तावद्वक्तव्या यावदुत्कृष्टा स्थितिरिति / एकस्मिन् द्विगुणवृद्धयोन्तरे अपि तत्र प्रवेशात्। ततो द्विगुणहीनानि स्थानान्यसंख्येयगुणानि। तत स्थितिस्थानानि पल्योपमवर्गमूलान्यसंख्येयानि / नानाद्विगुण वृद्धिएकस्मिन् द्विगुण हान्योरन्तरेनिषेकस्थानान्यसंख्येयगुणानि। ततोऽर्थेन स्थानानि चाकुलवर्गमूलच्छेदनकाऽसंख्येयतमभाग प्रमाणानि। एत दुक्तं कण्डकमसंख्येयगुणम्। ततोऽपि स्थितिबन्धस्थनान्यसंख्येय गुणानि, भवति-अङ्गुलमात्राक्षेत्रगतप्रदेशराशेर्यत् प्रथम वर्गमूलं तन्मनुष्यप्रमाणपल्योपमाऽसंख्येयभागगतसमयप्रमाणत्वात्। ततोऽपि जघन्यस्थिति- हेतुराशिषण्णवतिच्छेदनविधिना तावच्छिद्यते, यावद्भागं न प्रयच्छति। बन्धोऽसंख्येयगुणः। ततोऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, पल्योप- तेषां च छेदनकानाम संख्येयतमे भागे यावन्ति छेदनकानि तावत्सु माऽसंख्येयभागेनाभ्यधिकत्वादिति।।८६॥ तदेवमुक्तमल्पबहुत्वम्। यावानाकाशप्रदेश राशिस्तावत्प्रमाणानि नानाद्विगुणस्थानानि भवइदानी स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानप्ररुपणा कर्त्तव्या। तत्र च त्रीण्यनु- न्तीति / / 88|| तदेवं कृता प्रगणना। योगद्वाराणि। तद्यथा-स्थितिसमुदाहारः, प्रकृति समुदाहारः, जीवसमु- साम्प्रतमनुकृष्टिश्चिन्त्यते / सा च न विद्यते / तथाहि ज्ञानावssदाहारश्च / समुदाहारः-प्रतिपादनम्।ता स्थितिसमुदाहारेऽपि त्रीण्य- रणीयस्य जघन्यस्थितिबन्धे यान्यध्यवसाय स्थानानि, तेभ्यो नुयोगद्वाराणि। तद्यथा-प्रगणना, अनुकृष्टि, तीव्रमन्दता च। तत्र प्रगण- द्वितीयस्थितिबन्धेऽन्यानि, तेभ्योऽपितृतीयस्थितिबन्धेऽन्यानि, एवं नाप्ररुपणार्थमाह तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः। एवं सर्वेषामपि कर्मणां द्रष्टव्यम्। इदानीं ठिइबंधे ठितिबन्धे, अज्झवसा णाणऽसंखया लोगा। तीव्रमन्दता वक्तुमवसरप्राप्ता, सा स्थाप्या, अग्रवक्ष्यमाणत्वात्। तदेवमहस्सा विसेसवुड्डी, आऊणमसंखगुणवुड्डी।।७।। भिहितः स्थितिसमुदाहारः / / सम्प्रति प्रकृतिसमुदाहार उच्यते-तत्राच (ठिइबंधे त्ति) इह सर्वेषामपि कर्मणां जघन्यस्थितिः परत उत्कृष्ट- द्वे अनुयोगद्वारे। तद्यथा--प्रमाणाऽनुगमः, अल्प बहुत्वं च / तत्रा प्रमाणास्थितेश्चरमसमयमभिव्याप्य यावन्तः समयास्तावन्ति स्थितिस्थानानि ऽनुगमे ज्ञानाऽऽवरणीयस्य सर्वेषु स्थितिबन्धेषुकियन्त्यध्यजघन्यस्थितिसहितानि प्रत्येकं भवन्ति / एकैकस्मिंश्च स्थितिस्थाने वसायस्थानानि? उच्यते असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणानि। बध्यमाने तद्वन्धहेतुभूताः काषायिका अध्यवसाया नानाजीवाऽपेक्षयाऽ | एवं सर्वकर्मणामपि द्रष्टव्यम् इदानीमल्पबहुत्वमभिधातुकाम आह Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1220 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण ठिइदीहयाएँ कमसो, असंखगुणियाणऽणंतगुणणाए। पढमजहण्णुक्कोसं, वितियजहन्नाइया चरमा |86 / / (ठिइदीहयाए त्ति) स्थितिदीर्घतया क्रमशः-क्रमेणाऽध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि / यस्य यतः क्रमेण दीर्घा स्थितिस्तस्य ततः क्रमेणाध्यवसायस्थानान्य संख्येयगुणानि वक्तव्यानीत्यर्थः / तथाहि सर्वस्तोकान्यायुषः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि। तेभ्योऽपि नामगोत्रयोर संख्येयगुणानि / नन्वायुषः स्थितिस्थानेषु यथोत्तरम संख्येयगुणा वृद्धिः, नामगोत्रयोस्तु विशेषाधिका, तत्कथमायुरपेक्षया, नामगोत्रयोरसख्येयगुणानि भवन्ति? उच्यते-आयुषो जघन्यस्थितावध्यवसायस्थानान्यतीव स्तोकानि, नामगोत्रयोः पुनर्जघन्यायां स्थितौ अतिप्रभूतानि, स्तोकानिचाऽऽयुषः स्थितिस्थानानि, नामगोजयोस्त्वति प्रभूतानि, ततो न कश्चिद् दोषः नामगोत्रयोः सत्कं स्थिति बन्धाध्यवसायस्थानेभ्यो ज्ञानाऽऽवरणीयदर्शनाऽऽवरणीय वेदनीयान्तरायाणां स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानान्य सख्येयगुणानि / कथमिति चेदुच्यते-इह पल्योपमासङ्ख्येयभाग मात्रासु स्थितिष्वतिक्रान्तासु द्विगुणवृद्धिरुपलब्धा। तथा च सत्येकैकस्याऽपि पल्योपमस्यान्तेऽसड्ख्येयगुणानि लभ्यन्ते। किं पुनर्दशसागरोपमकोटीकोट्यन्ते इति तेभ्योऽपि कषायमोहनीवस्य स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानान्यसङ्ख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि दर्शनमोहनीयस्य स्थितिबन्धाऽध्य वरसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि। उक्तः प्रकृतिसमुदाहारः।। सम्प्रति स्थितिसमुदाहारे या प्राक् तीवमन्दता गोक्ता, साऽभिधीयते -- (अणंतेत्यादि) प्रथमायां स्थिती जघन्य स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानम्। ततस्तस्यामेवोत्कृष्टम् / ततो द्वितीयस्थितौ जघन्यम् / एवमादि आ चरमात् उत्कृष्टस्थितौ चरम स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानं यावत् क्रमेणानन्तगुणतया वक्तव्यम् / तद्यथा ज्ञानाऽऽवरणीयस्य जघन्यस्थितौ जघन्य स्थितिबन्धाऽध्यवसावस्थानं सर्वमन्दानुभावम्। ततस्तस्यामेव जघन्यस्थितौ उत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्त गुणम् / ततोऽपि द्वितीयस्थितौ जघन्य स्थितिबन्धाऽध्यवसाय स्थायमनन्तगुणम् / ततोऽपि तस्याभेव द्वितीयस्थिती उत्कृष्टमनन्तगुणम्। एवं प्रतिस्थिति जघन्यमुत्कृष्टं च स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणतया तावद्वक्तव्यं यावदुत्कृष्टायां स्थितौ चरम स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थानम नन्तगुणम् / / 86 / / तदेवं स्थितिसमु. दाहारोऽपि निरवशेष उक्तः प्रकृति समुदाहारश्च / सम्प्रति जीवसमुदाहारमभिधित्सुराह - बंधंती धुवपगडी, परित्तमाणिगसुभाण तिविहरसं। चउ विग विट्ठाणगयं, विवरीयतिगं च असुभाणं ||10| (बंधंति त्ति) ज्ञानाऽऽवरणीयपञ्चकदर्शनाऽऽवरणीय नवक मिथ्यात्वषोडशकषायभयजुगुप्सातैजसकार्मणवर्णगन्धरस स्पर्शागुरुलधूपघातनिर्माणान्तरायपञ्चकलक्षणाः सप्तचत्वारिंशत्संख्या ध्रुवप्रकृतीर्बन्धनन्ति / परावर्त्तमानशुभप्रकृतीनां सातवेदनीय देवगतिमनुजगति पञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियाऽऽहारकौदारिकशरीरसमचतुरससंस्थानवजर्षभनाराच संहनाङ्गोपाङ्गन्नयमनुजानुपूर्वी देवानुपूर्वीपराधातोच्छवासाऽऽ तपोदद्योतप्रशस्तविहायोगतिासाऽऽदिदशकतीर्थ करनामनरकाऽऽयुवर्जशषाऽऽयुष्कायोचैर्गोत्रलक्षणानां चतुस्त्रिंशत्संख्यानां त्रिविध त्रिप्रकारम्। तद्यथा-चतुःस्थानगतं त्रिस्थानगतं द्विस्थानगतं चरममनुभाग बध्नन्ति। इह शुभप्रकृतीनां रसः क्षीराऽऽदिरसोपमः / अशुभप्रकृतीनां तु घोषातकीनिम्बाऽऽदिरसोपमः। उक्तं च - 'घोसाडइनिंबुवमो, असुभाण सुभाण स्त्रीरखंडुवमो " इति / क्षीराऽऽदिरसश्च स्वाभाविक एकस्थानिक उच्यते / द्वयोस्तु कर्षयोरावर्तने कृते सति योऽवशिष्यते एकः कर्षः सतिस्थानिकः त्रयाणां कर्षाणामावर्तने कृते सति य उद्वरित एकः कर्षः स त्रिस्थानगतः / चतुर्णा तु कर्षाणामावर्त्तने कृते सति योऽवशिष्टः एकः कर्षः स चतुःस्थानगतः / एकस्थानगतोऽपि रसो जललवबिन्दुचुलुकप्रसृत्यजलिकरक कुम्भद्रोणाऽऽदिषु प्रक्षेपात् मन्दमन्दतराऽऽद्यसंख्यभेदत्वं प्रतिपद्यते / एवं द्विस्थानगताऽऽदिष्वपि रसेष्वसंख्येयभेदत्ववाच्यम्। एतदनुसारेण च कर्मणामपिरसेष्वेकस्थानमतत्वाऽऽदि स्वधिया परिभावनीयम् / एकस्थानगताच रसात् कर्मणां द्विस्थानगताऽऽदयो रसा यथोत्तरमनन्तगुणा वाच्याः / तदुक्तम् - "अणतगुणिया कमेणियरे।" तथा केवलज्ञानाऽऽवरणवर्जानां चतुर्णा ज्ञानाऽऽवरणीयानां, केवलदर्शनाऽऽवरणवर्जानां त्रयाणां चक्षुरादिदर्शनाऽऽवरणीयाना, पुरुषवेदसंज्वलनचतुष्टयान्तरायपञ्चकानां च सर्वसंख्यया सप्तदशप्रकृतीनां बन्धमाश्रित्य चतुर्धाऽपिरसः, सम्भवति / तद्यथा-एकस्थानगतो द्विस्थानगतस्विस्थानगतश्चमुःष्स्थानगतश्च / शेषाणां तु शुभप्रकृतीनामशुभप्रकृतीनां वा द्विस्थानगतः त्रिस्थानगतश्चतुःस्थानगतश्चानतु कदाचनाऽप्येक स्थानगत इति वस्तुस्थितिः / / ताशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगताऽऽदिक्रमेण रसख्य नौविध्यं प्रतिपाद्य सम्प्रत्यशुभप्रकृतीनां रसस्य त्रैविध्यमाह-(विवरीयतिग च असुभाणं) ता एव धुवप्रकृतीबंधन्तो यदि परावर्तमाना अशुभप्रकृतीबंध्नन्ति, तदा तासामनुभागं विपरीतत्रिक विपरीतं त्रिकं यस्य स तथा ते बध्नन्ति। तद्यथा-द्विस्थानगतं त्रिस्थानगतं चतुःस्थानगतं च / इह ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यां स्थिति बध्वन् शुभप्रकृतीनां बन्धमागतानां चतुःस्थानगतं रस बध्नाति, अशुभप्रकृतीनां तु द्विस्थानगतम्। अजधन्यां ध्रुव प्रकृतीनां स्थिति बघ्नन् शुभप्रकृतीनामशुभप्रकृतीनां वा यथायोग बन्धमागतानां त्रिस्थानगतं रसं बध्नाति / उत्कृष्टां च स्थिति ध्रुवप्रकृतीनां बध्नन् शुभप्रकृतीनां द्विस्थानगतम शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रसं बध्नाति। ततः शुभप्रकृतिगतरसत्रौविध्यक्रमापेक्षयाऽशुभप्रकृतीनां रसत्रौविध्यक्रमस्य वैपरीत्यमुक्तम् // 6 // अथ के शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं त्रिस्थानगत्तं द्विस्थानगतं वा रसं बध्नन्ति? उच्यतेसव्वविसुद्धा बंध-ति मज्झिमा संकिलिट्ठतरगा या धुवपगडि जहन्नटिइं, सव्वविसुद्धा उबंधंति // 11 // तिहाणे अजहण्णं, विट्ठाणे जेट्टगं सुभाण कमा। सट्ठाणे उ जहन्नं, अजहन्नुक्कोसमियरासिं / / 6 / / (सव्वात्ति) ये सर्वविशुद्धा जन्तचस्ते परावर्त्तमानशुभप्रकृतीना चतुःस्थानगत रस बध्नन्ति / ये पुनर्मध्यमपरिणामास्ते त्रि Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1221 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण स्थानगतं रसं बध्नन्ति / संक्लिष्टतरपरिणामास्तु द्विस्थानगतम् / ये पुनस्तद्योग्य भूमिकाऽनुसारेण सर्वविशुद्धाः परावर्त्तमाना अशुभप्रकृतीबध्नन्ति ते तासां द्विस्थानगत रसं निवर्तयन्ति / मध्यमपरिणामास्त्रिस्थानगतम् / संक्लिष्टतरपरिणामास्तु चतुःस्थानगतम् ! (धुवपगडीत्यादि) ये सर्वविशुद्धाः शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रसं बध्नन्ति, ते ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यां स्थिति निवर्तयन्ति। (तिट्टाणे इति) षष्ठ्यर्थे सप्तमी, परावर्त्तमानशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानगतस्य रसस्य ये बन्धकास्ते ध्रुवप्रकृतीनामजघन्यां मध्यमां स्थिति बध्नन्ति / द्विस्थानगतस्य रसस्य ये बन्धकास्ते ध्रुवप्रकृतीनांज्येष्ठामुत्कृष्टां स्थिति बध्नन्ति। तथा इतरासां परावर्त्तमानाऽ शुभप्रकृतीनां ये द्विस्थानगत रसं बध्नन्ति, ते ध्रुवप्रकृतीना जघन्यां स्थिति स्वस्थाने स्वविशुद्धिभूमिकाऽनुसारेणेत्यर्थः, बध्नन्ति, परावर्तमानाशुभप्रकृतिसत्कद्विस्थानगतरसन्धहेतु-विशुद्ध्यनुसारेण जघन्यां स्थिति बध्नन्ति, नत्वतिजघन्यामित्यर्थः / जघन्यस्थितिबन्धो | हि ध्रुव प्रकृतीनामेकान्तविशुद्धौ सम्भवति, न च तदानीं परावर्तमानाऽशुभप्रकृतीनां बन्धाः संभवन्ति / ये पुनः परावर्त्तमानाऽशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानगतस्य रसस्य बन्धकास्ते ध्रुव प्रकृतीनामजघन्यां स्थिति बध्नन्ति / तथा ये परावर्त्तमानाऽशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रस बध्नन्ति ते ध्रुवप्रकृतीनामुत्कृष्टां स्थिति निवर्तयन्ति / / 6 1||2|| इह द्विधा प्ररुपणा-अनन्तरोपनिधया, परम्परोपनिधया च / तत्राऽनन्तरोपनिधया प्ररुपणामाह - थोवा जहन्नियाए, होति विसेसाहिओदहिसयाइं। जीवा विसेसहीणा, उदहिसयपुहुत्तमो जाव।।६३ / / (थोव ति) परावर्तमानानां शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगत रसबन्धकाः सन्तोज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदीनां ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः स्तोकाः। द्वितीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकः। ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः एवं तावद्विशेषाधिका वक्तव्या यावत्प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रान्तानि भवन्ति / ततः परं विशेषहीना स्तावद् वक्तव्या यावद्विशेषहनावपि (उदहिसयपुहुत्तं ति) प्रभूतानि सागरोपमशतानि भवन्ति / 'मो' इति पादपूरणे / पृथक्त्वशब्दोऽत्रा बहुत्वयाची। यदाह चूर्णिकृत्-'पुहुत्तसद्यो बहुत्तवाचीति।" इति।।६३|| एवं तिट्ठाणकरा, विट्ठाणकरा य आ सुभुक्कोसा। असुभाणं विट्ठाणे, तिचउट्ठाणे य उक्कोसा ||4|| (एवं ति) परावर्तमानानां शुभप्रकृतीनां त्रिस्थानगतंरसं निवर्तयन्तः सन्तो ध्रुवप्रकृतीनां स्वप्रायोग्यजघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः स्तोकाः / ततो द्वितीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः / ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः / एवं तावद्वाच्यं यावत्प्रभूतानि | सागरोपमशतान्यतिकामन्ति। ततः परं विशेषहीना विशेषहीनास्तावद्वकव्या यावद्विशेषहानावपि प्रभूतानि सागरोपमशताति गच्छन्ति / तथा परावर्तमानाशुभ प्रकृतीनां द्विस्थानगतं रसं निवर्तयन्तो ध्रुवप्रकृतीनां स्वप्रायोग्यजघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः स्तोकाः / ततो द्वितीयस्यां स्थिती विशेषाधिकाः / ततोऽपि तृतीयस्यां (स्थितौ) विशेषाधिकाः / एवं तावद्वाच्यं यावत्प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रामन्ति / ततः परं विशेषहीनास्तावद्वक्तव्या यावद्विशेषहानावपि प्रभूतानि सागरोपमशतानि प्रयान्ति / परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां च द्विस्थानगतरसबन्धका एवं तावद्वक्तव्या यावत्तासां परावर्तमान शुभप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः उत्कृष्टस्थितिगतद्विस्थानर बन्धका इत्यर्थः / (असुभाणमित्यादि) अशुभपरावर्त्तमान प्रकृतीनां प्राग्दर्शितक्रमेण प्रथमतो द्विस्थानगतरसबन्धका वक्तव्याः। ततस्विस्थानगतरस बन्धका वक्तव्याः। ततश्चतुः- स्थानगतरसबन्धकाः। ते च तावद्वक्तव्या यावदुत्कृष्टा स्थितिः। इयमत्रा भावना-अशुभपरावर्त्तमानप्रकृतीनाजघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः स्तोकाः। ततो द्वितीयस्यां स्थिती विशेषाधिकाः / ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः / एवं विशेषाधिका विशेषाधिकास्तावद्वक्तव्या यावत्प्रभूतानि सागरोपमशतानि गच्छन्ति। ततः परं विशेषहीना विशेषहीनास्ता वद्वक्तव्या यावद्विशेषहानावपि प्रभूतानि सागरोपमशतानि यान्ति / अशुभपरावर्त्तमानप्रकृतीनां त्रिस्थानगतरसबन्धकाः सन्तो ध्रुवप्रकृतीनां स्वप्रायोग्यजघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः स्तोकाः ततो द्वितीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः / एवं प्रागिव तावद्वाच्य यावद्विशेषहानावपि प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रामन्ति। तथाऽशुभपरावर्त्तमानप्रकृतीनां चतुः स्थानगतरसबन्धकाः सन्तो ध्रुवप्रकृतीनां स्वप्रायोग्यजघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना जीवाः स्तोकाः। ततो द्वितीयस्यां स्थिती विशेषाधिकाः। ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः। एवं तावद्वाच्य यावत् प्रभूतानि सागरोपमशतानि गच्छन्ति। ततः परं विशेषहीना विशेषहीनास्तावद्वक्तव्या यावद्विशेषहानावपि प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रामन्ति। अशुभपरावर्त्तमानप्रकृतीनां च चतुःस्थानगतरसबन्धका एवं विशेषहीना विशेषहीनास्तावद्वक्तव्या यावत्तासामशुभपरावर्त्तमानप्रकृतीनामुत्कृष्ट स्थितिर्भवति, उत्कृष्टस्थितिगतचतुःस्थानकरसबन्धका इत्यर्थः // 64|| तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररुपणा। सम्प्रति परम्परोपनिधया तामाह - पल्लासंखियमूला-नि गंतु दुगुणा य दुगुणहीणा य। नाणंतराणि पल्ल- रस मूलभागो असंखतमो ||15|| (पल्ल ति) परावर्त्तमानशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतरस बन्धका ध्रुवप्रकृतीना जघन्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना ये जीवास्तदपेक्षया जघन्यस्थितः परतः पल्योपमस्या संख्येयानिवर्गमूलानिपल्योपमस्यासंख्येयेषु वर्गमूलेषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्यपरस्मिन् स्थितिस्थाने वर्तमाना जीवा द्विगुणा भवन्ति / ततः पुनरपि पल्योपमासंख्येयवर्गमूलप्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्यान्तरे स्थितिस्थाने द्विगुणा भवन्ति / एवं द्विगुणास्तावद्वक्तव्या यावत्प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रामन्ति। ततः परं पल्योपमाऽसंख्येयवर्ग मूलप्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्यपरस्मिन् स्थितिस्थाने विशेषवृद्धिगतचरमस्थिती बन्धकत्वेन वर्त Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1222 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण माना ये जीवास्तदपेक्षया द्विगुणहीना भवन्ति, अर्धा भवन्तीत्यर्थः / ततः पुनरपि पल्योपमाऽसंख्येयवर्गमूलप्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्यापरस्मिन् स्थितिस्थानेऽर्धा भवन्ति / एवं तावद्वाच्यं यावद् द्विगुणहानावपि प्रभूतानि सागरोपमशतान्यति क्रामन्ति / एवं परावर्त्तमानशुभप्रकृतीना त्रिस्थानकरसबन्धका द्विस्थानगतरसबन्धकाश्च, अशुभपरार्त्तमानप्रकृतीना तु द्विस्थानरसबन्धकारित्रस्थानरसबन्धकाश्चतुः स्थानरस बन्धकाश्च वक्तव्याः / एकस्मिन् द्विगुणवृद्धयन्तरे द्विगुणहान्यन्तरे वा स्थितिस्थानानि पल्योपमस्याऽसंख्येयानि वर्गमूलानि पल्योपमस्यासंख्ययेषु वर्गमूलेषु यावन्तः समया स्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः / नानाऽन्तराणि नानारुपाद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानि (लक्षणानि) स्थानानिपल्योपमस्य सम्बन्धिनः। प्रथमवर्गमूलस्याऽसंख्येयतमे भागे यावन्तः समयास्ता वत्प्रमाणानि भवन्ति / नानाद्विगुणवृद्धिद्विगुणहानिस्थानि स्तोकानि। एकरिमन् द्विगुणवृद्ध्यन्तरे द्विगुणहान्यन्तरेवा स्थितिस्थानानि असंख्येयगुणानि !|65|| अणगारप्पाउग्गा, विट्ठाणगया उ दुविहपगडीणं / सागारा सव्वत्थ वि, हिट्ठा थोवाणि जवमज्झा / / 66 // ठाणाणि चउट्ठाणा, संखेजगुणाणि उवरिमेवं ति। तिहाणे बिट्ठाणे,सुभाणि एगंतमीसाणि ||7|| उवरिं मिस्साणि जह-नगो सुभाणं तओ विसेसहिओ। होइ सुभाण जहण्णो, संखेजगुणाणि ठाणाणि / / 68|| बिट्ठाणे जवमज्झा, हेट्ठा एगंत मीसगाणुवरि। एवं तिचउहाणे, जवमज्झाओ य डायठिई||EIR अंता कोडाकोडी, सुभविट्ठाण जवमज्झओ उवरिं। एगंतगा विसिट्ठा, सुभजिट्ठा डायठिइजेट्ठा।।१००|| (अणगार त्ति) द्विविधानामपि-शुभानामशुभाना च परावर्त मानप्रकृतीनां रसा अनाकारप्रायोग्याः बन्ध प्रत्यनाकारोपयोग योग्या बन्धमधिकृत्य तथाविधमन्दपरिणामयोग्या इत्यर्थः / नियमात द्विस्थानगता एव नान्ये / तुरेवकारार्थः / उक्तं च - "तुः स्याद्भेदेऽवधारणे / ' सकाराः साकारोपयोगयोग्या बन्धमधि कृत्य तीव्रपरिणामयोग्याः। पुनः सर्वत्राऽपि द्विस्थानाऽऽदौ प्राप्यन्ते द्विस्थानगतास्त्रिस्थानगताश्चतुःस्थानगताश्च रसा बन्धमाश्रित्य साकारोपयोगयोग्या भवन्तीत्यर्थः / / इदानीं सर्व स्थितिस्थानानामल्पबहुत्वमाह- (हिट्ठा थोवाणीत्यादि) परावर्त्तमानशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानकरसयवमध्यादधः स्थितिस्थानानि सर्वस्तोकानि। तेभ्यश्चतुः स्थानकरसयव मध्यस्यैवोपरि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानकरसयवमध्यादधः स्थिति स्थानि संख्येयगुणानि। तेभ्योऽपित्रिस्थानकरसयवमध्यस्यो परिस्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि। (एवं तिहाणे ति) एवं संख्येयगुणतयाऽध उपरिच त्रिस्थानेऽपि रसे स्थितिस्थानानि वक्तव्यानीत्यर्थः / तेभ्योऽपि परावर्त्तमानशुभप्रकृतीनां द्विस्थान करसयवमध्यादध:-स्थितिस्थानानि एकान्तसाकारो फ्योगयोग्यानि संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि द्विस्थानकर सयवमध्यादधः पश्चात्येभ्यः ऊर्ध्व स्थितिस्थानानि मिश्राणि साकाराऽनाकारोपयोगयोग्यानि संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि द्विस्थानकरसयवमध्यस्योपरि मिश्राणि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि। तेभ्योऽपि शुभानां परावर्त्तमानप्रकृतीनां जधन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः / ततोऽप्यशुभपरावर्तमान प्रकृतीनां जघन्यस्थितिबन्धः विशेषाधिकः / ततोऽप्यशुभपरा वर्तमानप्रकृतीनामेव द्विस्थानकरसयवमध्यादध एकान्तसाकारोप योगयोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि / ततस्तासामेव परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसयवमध्यादधः पाश्चात्येभ्य ऊर्ध्व मिश्राणि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि। तेभ्योऽपि तासामेवाशुभपरा वर्तमानप्रकृतीनां द्विस्थानकरसयवमध्यादुपरि स्थितिस्थानानि मिश्राणि संख्येयगुणानि। तेभ्योऽप्युपरि एकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि तासामेव परावर्तमानाऽशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानकर सयवमध्यादधः स्थिति स्थानानि संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसययमध्यस्योपरि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि / तेभ्योऽप्यशुभपरावर्तमानप्रकृतीनामेव चतुः स्थानकरसयवमध्यादधः स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि यवमध्यादुपरि डायस्थितिः संख्येयगुणा / यतः स्थितिस्थानादपवर्तनाकरणवशेनोत्कृष्टां स्थितिं याति तावती स्थिति[यस्थितिरित्युच्यते। ततोऽपि सागरोपमाणामन्तः कोटीकोटी संख्येयगुणा। ततोऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसयवमध्यस्योपरि यानि मिश्राणि स्थितिस्थानानि तेषामुपर्यकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि / तेभ्योऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः / ततोऽप्यशुभपरावर्तमानप्रकृतीनां बवा डायस्थितिर्विशेषाधिका / यतः स्थितिस्थानात् माण्डूकप्लुतिन्यायेन डायाफालां दत्त्वा या स्थितिबध्यते ततः प्रभृति तदन्ता तावती स्थितिबंद्धा डायस्थितिरिहोच्यते। सा चोत्कर्षतोऽन्तःसागरोपमकोटीकोट्यूना सकलकर्मस्थिति प्रमाणा वेदितव्या। तथाहि-अन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां स्थितिबन्धं कृत्वा पर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय उत्कृष्टां स्थिति बध्नातीति नान्यथा / ततोऽपि परावर्तमानाशुभप्रकृतीनामुल्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिक इति।। सम्प्रत्यस्मिन् विषये जीवानामल्पबहुत्वमाह -- संखेज्जगुणा जीवा, कमसो एएसु दुविहपगईणं। असुभाणं तिट्ठाणे, सव्वुवरि विसेसओ अहिया||१०१।। (संखेज त्ति) सर्वस्तोकाः परावर्तमानशुभप्रकृतीनां चतुः स्थानकरसबन्धका जीवाः / तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः / तेभ्योऽपि द्विस्थानकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः / तेभ्योऽपि परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि चतुःस्थानकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः / तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसबन्धका विशेषाधिकाः। तथा चाऽऽह--(असुभाणमित्यादि) अशुभानामशुभप्रकृतीनां त्रिरथाने त्रिस्थानकस्य रसस्य बन्धकाः सर्वेषामुपरि विशेषाधिका वक्तव्याः। एवं बंधणकरणे, परूविए सह हि बंधसयगेणं / Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1223 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण बंधविहाणाहिगमो, सुहमभिगंतुं लहुं होई / / 102 / / (एवं ति) एवम्-उक्त प्रकारेणाऽस्मिन् बन्धकरणे बन्धशतकेनबन्धशतकाऽऽख्येन ग्रन्थेन सह प्ररुपिते सति। एतेन किल शतककर्मप्रकृत्योरेककर्तृकता आवेदिता द्रष्टव्या।बन्धविधानस्य पूर्वगतस्य सुखमधिगन्तुंसुखेन ज्ञातुमिष्यमाणस्याधिगमोऽवबोधो लघुशीघ्रं भवति / क०प्र०२ प्रक०। (कारुण्यप्रतिज्ञया बन्धननिषेधः 'कालुण्णपडिया' शब्दे तृतीयभागे 680 पृष्ठे गतः) स्ववशीकरणे, सूत्रा०१ श्रु०४ अ०१ उ०। निर्मापणे, स्था०२ ठा०१ उ०! दुर्वचनैः संयमने, स्था०८ ठा०। संयोजने, नि० चू०१६ उ०। पुद्गलाऽऽदिविषयसम्बन्धे, भ०। प्रयोगविस्रसाबन्धौकइविहे णं भंते! बंधे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे बंधे पण्णत्ते / तं जहा-पओगबंधे य, वीससाबंधे य / वीससाबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहासाइयवीससा बंधे य, अणाइयवीससाबंधि य / अणाइयवीससाबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणाइयवीससाबंधे, अधम्मत्थिकाय अण्णमण्णअणाइयवीससाबंधे, आगासत्थिकायअण्णमण्ण-अणाइयवी ससाबंधे / धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणाइयवीस-साबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे, नो सव्वबंधे। एवं अधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणा इयवीससाबंधे वि, आगासथिकायअण्णमण्णअणाइयवीससाबंधे वि। अधम्मत्थि कायअण्णमणाअणाइयवीससाबंधे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! सव्वद्धं / एवं अधम्मत्थिकायं, एवं आगासत्थिकायं। कइविहे णमित्यादि) (बंधे त्ति) बन्धः-पुद्रलाऽऽदि-विषयसम्बन्धः। (पओगबंधेयत्ति) जीवप्रयोगकृतः। (वीससाबधेयत्ति) स्वभावसम्पन्नः / यथासत्तिन्यायमाश्रित्या ऽऽह-(वीससेत्यादि) (धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणाइयवी ससाबंधे य त्ति) धर्मास्तिकायस्याऽन्योन्यं प्रदेशानां परस्परेण योऽनादिको विससाबन्धःस तथा। एवनुत्तरत्राऽपि। (देसबंधे त्ति) देशतो देशापेक्षया बन्धो देशबन्धः यथा सङ्कलिकाकटिकानाम् / (सव्वबंधे त्ति) सर्वत :-सर्वाऽऽत्मना बन्धः सर्वबन्धो यथा क्षीरनीरयोर्देशबन्धे (नोसव्वबंधेत्ति) धर्मास्तिकायस्य प्रदेशानां परस्परसंस्पर्शन व्यवस्थितत्वात् देशबन्ध एव न पुनः सर्वबन्धस्तत्र ोकस्य प्रदेशस्य प्रदेशान्तरैः सर्वथा बन्धेऽन्योन्यान्तविन एकप्रदेशत्वमेव स्यान्नासंख्येयप्रदेशत्वमिति। (सव्व त्ति) सर्वाऽद्धाम् सर्वकालम्। साऽऽदिविस्रसाबन्ध:साइयवीससाबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! तिबिहे पण्णत्ते! तं जहा-बंधणपञ्चइए, भायणपचइए, परिणामपञ्चइए। से किं तं बंधणपचइए? बंधणपच्चइए जणं परमाणुपोग्गला / दुपएसिया तिपएसिया० जाव दसपएसिया संखेजपएसिया असंखेजपएसिया अणंतपएसियाणं खंधाणं वेमायनिद्धयाए वेमायलुक्खयाए वेमायनिद्धलुक्खयाए एवं बंधणपचइएणं बंधे समुप्पज्जइ / जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं / सेत्तं बंधपच्चइए / से किं तं भायणपत्रइए? भायणपचइए जंणं जुण्णसुराजुण्णगुलजुण्णतंदुलाणं भायण पचइएणं बंधे समुप्पज्जइ जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं / सेत्तं भायणपच्चइए। से किं तं परिणामपञ्चइए? परिणामपञ्चइए जंणं अज्झाणं अज्झरुक्खाणं जहा तइयसए० जाव अमोहाणं परिणामपञ्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ। जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासा / सेत्तं परिणामपञ्चइए। सेत्तं साइए वीससाबंधे। (साइयवीससाबंधे त्ति) सादिको यो विससाबन्धः सतथा (बंधणपञ्चइए त्ति) बध्यतेऽनेनेति बन्धनं विवक्षितसिग्धताऽs दिको गुणः, स एव प्रत्ययो-हेतुर्यत्र स तथा। एवं भाजनप्रत्ययः, परिणामप्रत्ययश्च नवरं, भाजनमाधारः, परिणामोरुपान्तरगमनम्। 'जं णं परमाणुपोग्गल'' इत्यादौ, परमाणुपुद्गलः परमाणुरेव (वेमायनिद्धयाए त्ति) विषमा मात्रा यस्याः सा विमात्रा सा चासौ सिग्धता चेति विमात्रनिग्धता तया / एवमन्यदपि पदद्वयम्। इदमुक्तं भवति"समनिद्धयाए बन्धो, न होइ समलुक्खयाएँ विन होइ। वेमायनिद्धलुक्ख-तणेण बंधो उ खंधाणं / / 1 / / अयमर्थः-समगुणसिग्धस्य समगुणसिग्धेन परमाणुद्वयणुकाऽऽ दिना बन्धो न भवति, समगुणरुक्षस्याऽपि समगुणरुक्षेण यदा पुनर्विषमा मात्रा तदा भवति बन्धः / विषममात्रानिरुपणार्थं चोच्यते-''निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएण / निद्धस्स लुक्खेण उवेइ, बंधो, जहण्णवज्जो विसमो समो वा // 1 // " इति / (बंधणपचइएणं ति) बन्धनस्य-बन्धस्य प्रत्ययो हेतुरूक्तरुपविमात्रसिग्धताऽऽदिलक्षणो बन्धनमेव वा, विवक्षितस्नेहाऽऽदिप्रत्ययो बन्धनप्रत्ययस्तेन, इह बन्धनप्रत्ययेनेति सामान्य, विमात्रासिग्धतयेत्यादयस्तुतद्भेदा इति। (असंखेज्ज कालं ति) असंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरुपम्। (जुन्नसुरेत्यादि) तत्र जीर्णसुरायाः स्त्यानीभवनलक्षणो बन्धो जीर्णगुडस्य जीर्णतन्दुलानां च पिण्डीभवनलक्षणः। प्रयोगबन्ध:से किं तं पओगबंधे? पओगबंधे तिविहे पण्णत्ते / तं जहाअणाइए वा अपज्जवसिए वा, साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए / तत्थ णं जे से अणाइए अपञ्जवसिए से णं अट्ठण्डं जीवमज्झप्पएसाणं तत्थ वि णं तिण्हं तिण्हं अणाइए अपञ्जवसिए सेसाणं साइए, तत्थ णंजे से साइए अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं। Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1224 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण (पओगबंधे त्ति) जीवव्यापारबन्धः / स च जीवप्रदेशानामौदारिका ऽऽदिपुगलानां वा 'अणाईए' वेत्यादयो द्वितीयवारत्रयो भङ्गास्तत्रा प्रथमभङ्गोदाहरणायाऽऽह-(तत्थ णं जे से इत्यादि) अस्य किल जीवस्याऽसंख्येयप्रदेशकस्याष्टौ ये मध्ये प्रदेशास्तेषामनादिरपर्यवसितो बन्धो यदाऽपि लोकं व्याप्य तिष्ठति जीवस्तदाऽप्यसौ तथैवेति अन्येषा पुनर्जीवप्रदेशानां विपरिवर्त्तमानत्वान्नास्त्यनादिरपर्यवसितो बन्ध एतेषामुपर्यन्ये चत्वार एवमेतेऽष्टौ एवं तावत्समुदायतोऽष्टानां बन्ध उक्तोऽथ तेष्वेकैकेनाऽत्मप्रदेशेन सह यावतां परस्परेण बन्धो भवति तद्दर्शनायाऽऽह-(तत्थ वि णमित्यादि) तत्राऽपि तेष्वष्टासु जीवप्रदेशेषु मध्ये त्रयाणां त्रयाणामेकैकेन सहानादिरपर्यवासितो बन्धः, तथा हिपूर्वोक्तप्रकारेणावस्थितानामष्टानामुपरितनप्रतरस्ययः कश्चिद्विवक्षितस्तस्य द्वौ पार्श्ववर्तिनावेकश्चाधोवतीत्येते त्रयः सम्बध्यन्ते, शेषस्त्वेक उपरितनः, त्रयश्चाधस्तनान सम्यध्यन्ते व्यवहितत्वादेवमधस्तनप्रतराऽपेक्षयाऽपीति चूर्णिकारव्याख्या। टीकाकारव्याख्या तु दुरवगमत्वात्परिहतेति / (सेसाणं साइए त्ति) शेषाणामध्यमाष्टाभ्योऽन्येषां सादिर्विपरिवर्त्तमानत्वादेतेन प्रथमभङ्ग उदाहतः। अनादिः सपर्यवसित इत्यय तु द्वितीयो भङ्ग इह न संभवत्यनादिसम्बद्धानामष्टानां जीवप्रदेशानामपरिवर्त्तमानत्वेन बन्धस्य सपर्यवसितत्वानुपपत्तेरिति। अथ तृतीयो भङ्ग उदाहियते (तत्थ णं जे से साइएत्यादि) सिद्धानां सादिरपर्यवस्नितो जीवप्रदेशबन्धः, शैलेश्यवस्थायां संस्थापितप्रदेशानां सिद्धत्वे विचलनाभावादिति। अथ चतुर्थभङ्ग भेदत आहतत्थ णं जे से साइए सपज्जवसिए से णं चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-आलावणबंधे, अल्लियावणबंधे, सरीरबंधे, सरीरप्पओगबंधे। से किं तं आलावणबंधे? आलावणबंधे जंणं तणभाराण वा कट्ठभाराण वा पत्तभाराण वा पलालभाराण वा वेल्लभाराण वा वेत्तलयावागवरत्तरज्जवल्लिकुसदभ माइएएहिं आलावणबंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उनोसेणं संखेचं कालं / सेत्तं आलावणबंधे / से किं तं अल्लियावणबंधे? अल्लियावणबंधे / चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-लेसणाबंधे, उच्चयबंधे, समुचयबंधे, साहणणाबंधे / से किं तं लेसणाबंधे? लेसणाबंधे जं णं कुड्डाणं कुट्टिमाणं खंभाणं पासायाणं कट्ठाणं चम्माणं घडाणं पडाणं कडाणं छुहाचिक्खिल्लसिलेसलक्खमहुसित्थमाइएहिं लेसणएहिं-बंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज कालं / सेत्तं लेसणबंधे। से किं तं उच्चयबंधे? उच्चयबंधे जं णं तणरासीण या कट्ठरासीणं वा पत्तरासीण वा तुसरासीण वा भुसरासीण वा गोमयरासीण वा | अवगररासीण वा उच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेणं संखेज्ज कालं / सेत्तं उच्चयबंधे। (तत्थणंजे से साइए इत्यादि) (आलावणबंधेत्ति) आलाप्यते आलीनं क्रियते एभिरिति आलापनानि रज्जवादीनि तैर्बन्धस्तृणाऽऽदीनामालापनबन्धः / (अल्लियाबणबंधे ति) अल्लियावणंद्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण श्लेषाऽऽदिना आलीनस्य करणं तद्रूपो यो बन्धः स तथा (सरीरबन्धे त्ति) समुद्धाते सति यो विस्तारितसंकोचितजीवप्रदेशसंबन्धविशेषवशात्तैजसाऽऽ दिशरीरप्रदेशाना बन्ध विशेषः, स शरीरिबन्धः, शरीरबन्ध इत्यन्ये। तत्रा शरीरिणः समुद्धाते विक्षिप्तजीवप्रदेशानां सङ्कोचने यो बन्धः स शरीरिबन्ध इति / (सरीरप्पओगबंधे त्ति) शरीरस्यौदारिकाऽऽदेर्यः प्रयोगेण वीर्यान्तरायक्षयोपशमाऽऽदि जनितव्यापारेण बन्धस्तत् पुद्रलोपादानं शरीररुपस्य वा प्रयोगस्य यो बन्धः स शरीरप्रयोगबन्धः / (तणभाराण वत्ति) तृणभारास्तृणभारकास्तेषाम् (वेत्तेत्यादि) वेत्रलताजलवंशकम् (वाग त्ति) वल्कोवस्वाचर्ममयी, रज्जुः सनादिमयी, वल्ली त्रपुष्पाऽऽदिका, कुशानिर्मूलदर्भाः,दर्भास्तु समूलाः आदिशब्दाचीवराऽऽदिग्रहः 1 (लेसणाबंधेत्ति) श्लेषणाश्लथद्रव्येण द्रव्ययोः सम्बन्धनंतद्रूपो यो बन्धः स तथा। (उचयबंधे त्ति) उच्चय-ऊर्द्ध चयनराशीकरणं तद्रूपो बन्ध उचयबन्धः / (समुच्चयबंधे त्ति)। सङ्गत उच्चयापेक्षया विशिष्टतर उच्चयः समुच्चयः स एव बन्धः समुच्चयबन्धः। (साहणणाबंधे त्ति) संहननमवयवानां सघातनं तद्रूपो यो बन्धः स संहननबन्धो, दीर्घात्वाऽऽदि चेह प्राकृतशैलीप्रभवमिति / (कुट्टिमाणं ति) मण्णिभूमिकानम्। (छुहाचिक्खिल्लेत्यादौ) (सिलेस त्ति)।श्लेषो वज्रलेपः / (लक्ख त्ति)। जतु / (महुसित्थ त्ति) / मदनम् आदिशब्दात्-गुग्गलरालाखल्यादिग्रहः / (अवगररासीण व त्ति) कचवरराशीनाम्। (उचएणं ति) ऊर्द्ध चयनेन। (अगडतलावनई इत्यादि)। प्रायः प्राग्व्याख्यातमेव / (देससाहणणाबंधे यत्ति)। देशेन देशस्य संहननलक्षणो बन्धः सम्बन्धः शकटाङ्गाऽऽदीनामिवेति देशसंहननलक्षणो बन्धः। (सव्वसाहणणाबंधे य त्ति)। सर्वेण सर्वस्य संहनन बन्धः। (सव्वसाहणणाबंधेयत्ति)। सर्वेण सर्वस्य संहनन लक्षणो बन्धः-सम्बन्धः, क्षीरनीराऽऽदीनामिवेति सर्वसंहननबन्धः / शरीरबन्धः से किं तं समुचबंधे? समुचयबंधे जं णं अगडतडागनदीदहवावी पुक्खरिणीदीहियाणं गुंजालियाणं सराणं सरपंतियाणं विलपंतियाणं देवकुलसभापव्वयथूभखाइयाणं परिहाणं वागारट्टालगचरियदारगोपुरतोरणाणं पासायघरसरणलेण आवणाणं सिंघाडगतिगचउक्कचचरचउम्मुहमहापहमाईणं छुहाचि-क्खिल्लसिलासमुच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं / सेत्तं समुच्चयबंधे से किं तं साहणणाबंधे? साहणणाबंधे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-देससाहणणाबंधे य, सव्यसाहणणाबंधे य / से किं तं देससाहण णाबंधे? देससाहणणाबंधे जं गं सगडरहजाणजुग्गगिल्लि थिल्लिसीयसंदमाणियलोहीलोहकडाहक डुच्छुयआसणसयण खंभभंडमत्तोवगरणमाईणं देससाहण Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण णाबंधे एवं चेव समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेचं कालं / सेत्तं देससाहणणाबंधे / से किं तं सव्वसाहणणाबंधे? सव्वसाहणणाबंधे से णं खीरोदगमाईणं / सेत्तं सव्वसाहणणाबंधे। सेत्तं अल्लियावणबंधे। से किं तं सरीरबंधे? सरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पुव्वप्पओग पचइए, पडुप्पण्णप्पओगपच्चए य / से किं से पुव्वप्पओगपच्चइए? पुव्वप्पओगपचइए जंणं नेइयाणं संसारत्थाणं सव्वजीवाणं तत्थ तत्थ तेसु तेसु कारणेसु समोहणमाणाणं जीवप्पएसाणं बंधे समुप्पज्जइ। सेत्तं पुव्वप्पओगपचइए। से किं तं पडुप्पण्णप्प ओगपच्चइए? / पडुप्पण्णप्पओगपञ्चइए जंणं के वलनाणिस्स अणगारस्स केवलिसमुग्घाइएणं समोहयस्स तओ समुग्घायाओ पडिनियत्तमाणस्स अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जइ, किं कारणं ताहे से पएसा एगत्तीगया भवंति / से तं पडुप्पण्णप्पओगपच्चइए। सेतं सरीरबंधे। से किं तं सरीरप्पओगबंधे? सरीरप्पओगबंधे पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा ओरालियसरीरप्पओगबंधे, वेउव्वियसरीरप्पओगबंधे, आहारगसरीरप्पओगबंधे, तेयासरीरप्पओगबंधे, कम्मासरीरप्प ओगबंधे। ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगिदियओरालियरीरप्पओग बंधे० जाव पंचिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे। एगिदिय-ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे, एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जद्दा ओगाहणसंठाणे ओरालियसरीरस्स तहा भाणियव्वो० जाव पजत्तगब्भवतियमणुस्सपंचिदियओरालिय सरीरप्पओगबंधे य, अपञ्जत्तगगडमवक्कं तियमणुस्स० जाव बंधे य॥ (जणं सगडरहेत्यादि) शकटाऽऽदीनि च पदानि प्राग्व्याख्यातान्यपि शिष्यहिताय पुनख्यिायन्ते-तत्रा च (सगड त्ति) गन्त्री। (रह त्ति) स्यन्दनः / (जाणत्ति) यानं-लघुगन्त्री। (जुग्ग त्ति) युग्य-गोल्लविषयप्रसिद्ध द्विहस्तप्रमाण वेदिकोपशोभितं जम्पानम्। (गिल्लि त्ति) हस्तिन उपरि कोल्लरं यन्मानुषं गिलतीव / (थिल्लि त्ति) अडुपल्लाणं (सीय त्ति) शिविकाकूटाकारेणाऽऽच्छादितजम्पानविशेषः / (संदमाणिय त्ति) पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषः / (लोहे त्ति) / मण्डकाऽऽदिपचनभाजनम्। (लोहकडाहे त्ति) भाजनविशेष एव। (कडुच्छुय त्ति) परिवेषणभाजनमासनशयनस्तम्भाः प्रतीताः। (भंड त्ति) मृन्मयभाजनम् (मत्त त्ति)। अमत्रभाजनविशेषः / (उवगरण त्ति)। नानाप्रकारं तदन्योपकरणमिति। (पुव्वप्पओगपच्चइए यत्ति) पूर्वःप्राक्कालाऽऽसेवितः प्रयोगो जीवव्यापारो वेदनाकषायाऽऽदिसमुद्धातरुपः प्रत्ययः कारणं यत्रा शरीरबन्धे स तथा स एव पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः (पडुप्पन्नप्प-ओगपचइए यत्ति) प्रत्युत्पन्नोऽप्राप्तपूर्वो वर्तमान इत्यर्थः, प्रयोगः केवलि समुद्धातलक्षणव्यापारः प्रत्ययो या स तथा स एव प्रत्युत्पन्न प्रयोगप्रत्यधिकः (नेरइयाणमित्यादि) (तत्थ तत्थ त्ति) अनेन समुद्धातकरणक्षेत्राणां बाहुल्यमाह - (तेसु ते सुत्ति)अनेन समुद्धातकारणानांवेदनाऽऽदीनां बाहुल्यमुत्कम्। (समोहण्णमाणाण त्ति) समुद्धन्यमानानांसमुद्धात शरीराबहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपलक्षणं गच्छतां (जीवप्पएसाणंति) इह जीवप्रदेशानामित्युक्तावपि शरीरबन्धाऽधिकारात् "तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेश'' इति न्यायेन जीवप्रदेशाऽऽश्रिततैजसकार्मणशरीरप्रदेशानामितिद्रष्टव्यं, शरीरबन्ध इत्यत्र तु पक्षे समुद्धातेन विक्षिप्य संकोचितानामुपसर्जनीकृततैजसाऽऽ दिशरीरप्रदेशानां जीवप्रदेशानामेवेति। (बंधे त्ति) बन्धोरचनाविशेषः(जं णं केवलेत्यादि) केवलिसमुद्धातेन दण्ड? १कपाट रमथिकरणा ३न्तरपूरण 4 लक्षणेन समुपहतस्य विस्तारितजीवप्रदेशस्य ततः समुद्धातात्प्रतिनिवर्तमानस्य प्रदेशान्संहरतः समुद्धातप्रति-निवर्तमानत्वं च पञ्चमाऽऽदिष्वनेकेषु समयेषु स्यादित्यतो विशेषमाह-(अंतरामथे वट्टमाणस्स त्ति) निवर्तनक्रियाया अन्तरेमध्येऽवस्थितस्य पञ्चमसमय इत्यों , यद्यपि च षष्ठाऽऽदिसमयेषु तैजसाऽऽदिशरीरसङ्घातः समुत्पद्यते तथा ऽप्यभूतपूर्वतया पञ्चमसमय एवाऽसौ भवति, शेषेषु तु भूतपूर्वत यैवेति कृत्वा "अंतरामथे वट्टमाणस्स'' इत्युक्तमिति / (तेयाकम्माणं बंधे समुप्पणइ त्ति) तैजसकार्मणयोः शरीरयोर्बन्धःसधात समुत्पद्यते। (किं कारण ति) कुतो हेतोरुच्यते। (ताहे त्ति) तदा समुद्धातनिवृत्तिकाले (से त्ति) तस्य केवलिनः प्रदेशाजीवप्रदेशाः (एगत्तीगय त्ति) एकत्वं गताः सनातमापन्ना भवन्ति, तदनुवृत्त्या च तैजसाऽऽदि शरीर प्रदेशाना बन्धः समुत्पद्यत इति प्रकृतं, शरीरिबन्ध इत्यत्रा तु पक्षे (तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जइ ति) तैजस कार्मणाऽऽश्रय भूतत्वातैजसकार्मणा शरीरिप्रदेशास्तेषां बन्धस्समुत्पद्यत इतिव्याख्येयमिति। ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा? वीरियसजोगसद्दव्वयाए पमादपचया कम्मं च जोगं च आउयं च भवं च पडुच ओरालियसरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं ओरालियसरीरप्पओगबंधे। एगिंदिय ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते? कस्स कम्मस्स उदएणं? एवं चेव / पुढविकाइएगिदिय ओरालियसरीरप्पओगबंधे वि एवं चेव, एवं० जाव वणस्सइकाइया, एवं बेइंदिया, एवं तेइंदिया, एवं चउरिदिया। तिरिक्खजोणियपंचिदियओरालियसरीरप्प ओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? एवं चेवामणुस्सपंचिदियओरालियसरीरप्पओगबंघेणंभंते! कस्सकम्मस्सउदएणं? गोयमा !वीरियसजोगसद्दव्वयाए पमादपचया० जाव आउयं पडुच्च मणुस्सपंचिदियओरालियसरी Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण - रप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं / मणुस्सपंचिदियओरालिय सरीरप्पओगबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि। एगिदियओरालियसरीर-परप्पओगबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सव्वबंधे? एवं चेवा एवं पुढविकाइया, एवं० जाव मणुस्सपंचिंदियओरालिय-सरीरप्पओगबंधे णं मंते! किं देसबंधे, सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे वि सव्वबंधे वि / ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं मंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! सव्वबंधे वि एक समयं, देसबंधे वि जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसणं तिण्णि पलिओवमाई समयऊणाई। एगिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा ! सव्वबंधे एक समयं, देसबंधे जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साइं समयऊणाई। पुढवीकाइयएगिदियपुच्छा? गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे जहण्णेणं खुड्डागभवम्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साई समयऊणाई, एवं सव्वेसिं सव्वबंधो एक समयं, देसबंधो जेसिं नत्थि वे उब्वियतरीरं तेसिं जहण्णे णं खुड्डाग भवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं जा जस्स उक्कोसिया ठिई सा समयऊणा कायव्वा / जेसिं पुण अत्थि वेउटिवयसरीरं तेसिं देसबंधे जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समयऊणा कायव्वा० जाव मणुस्साणं देसबंधे जहण्णेणं एवं समय, उक्कोसेणं तिणिण पलिओवमाइं समयऊणाई। (वीरियसजोगसद्दव्वयाए त्ति) वीर्य-वीर्यान्तरायक्षयाऽदिकृता शक्तिः, योगाः मनःप्रभृतयः, सह योगैर्वर्तते इति सयोगः, सन्ति-विः, द्रव्याणि तथाविधपुरला यस्य जीवस्यासौ सद्रव्यो वीर्यप्रधानः सयोगो वीर्यसयोगः स चासौ सद्दव्यश्चेति विग्रहः। तद्भावस्तत्ता तया वीर्यसयोगसद्व्यतया सवीर्यतया सयोगतया सद् द्रव्यतया च जीवस्य तथा (पमायपच्चइए त्ति) प्रमादप्रत्ययात्प्रमादलक्षण कारणात्तथा। (कम्मच त्ति) कर्मचैकेन्द्रियजात्यादिकमुदयवर्ति / (जोगं च ति) योग च काययोगाऽऽदिकम्। (भवं च त्ति) तिर्यग्भवाऽऽदिकमनुभूयमानम् (आउयं च त्ति) आयुष्कं च तिर्यगायुष्काऽऽद्युदयवर्त्ति। (पडुच त्ति) प्रतीत्याऽऽश्रित्य) (ओरालिएत्यादि) औदारिकशरीरप्रयोगसम्पादकं यन्नाम तदौदारिकशरीरप्रयोगनाम् तस्य कर्मण उदयेनौदारिकशरीर प्रयोगबन्धो भवतीति शेषः / एतानि च वीर्यसयोगसद्रव्यताऽऽ दीनि पदान्यौदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मोदयस्य विशेषणतया विवक्षितकम्मोदयस्तेनेत्यादिना प्रकारेण स्वतन्त्राणि चैतन्यौदारिकशरीरप्रयागबन्धस्य कारणानि, तत्रा च पक्षेयदौदाकशरीरप्रयोगबन्धः कस्य कर्माण उदयेनेति पृष्ट यदन्यान्यपि कारणान्यभिधीयन्ते तद्विवक्षितकर्मोदयोऽभि हितान्येव सहकारिकारणान्यपेक्ष्येह कारणतयाऽवसेय इत्यस्यार्थस्य ज्ञाप- | नार्थमिति / (एगिदियेत्यादौ) (एवं चेव त्ति) अनेनाधिकृतसूास्य पूर्वसूत्रासमताऽभिधानेऽपि, "ओरालिय-सरीरप्पओगनामार'' इत्यत्रा पदे ''एगिदियओरालियसरीरप्प-ओगनामाए'' इत्ययं विशेषो दृश्य एकेन्द्रियौदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्येहाधिकृतत्वादेवमुत्तरत्राऽपि वाच्यामिति / (देसबंधे वि, सव्वबंधे वित्ति) तत्रा यथाऽपूपः स्नेहभृततप्ततापिकायां प्रक्षिप्तः प्रथमसमये घृताऽदि गृह्णात्येव शेषेषु तु समयेषु गृह्णति विसृजति वा / एवमवं जीवो यदा प्राक्तनशरीरकं विहायान्यं गृह्णाति तदा प्रथमसमये उत्पत्तिस्थानगतान् शरीरप्रायोग्यपुद्रलान् गृहत्ये-वेत्यय सर्वबन्धः। ततो द्वितीयाऽऽदिषु समयेषु तान् गृह्णति विसृजति चेत्येषच देशबन्धस्ततश्चैवमौदारिकस्य देशबन्धौऽप्यस्तीति सर्वबन्धोऽप्यस्तीति। (सव्वबंधे एक समय ति) अपूपदृष्टान्तेनैव तत्सर्वबन्धस्य एकसमयत्वादिति / (देसबन्धे इत्यादि) / ता यदा वायुर्मनुष्याऽऽदिर्वा चैक्रिय कृत्वा विहाय च पुनरौदारिकस्य समयमेक सर्वबन्धं कृत्वा पुनस्तस्य देशबन्धकुर्वन्नेकसमयानन्तरं भियते तदा जघन्यत एक समयं देशबन्धोऽस्य भवतीति / (उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं समयूणग त्ति) कथं यस्मादौदारिकशरीरिणां त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षतः स्थितिस्तेषु च प्रथमसमये सर्वबन्धक इति समयन्यूनानि त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षत औदारिकशरीरिणां देशबन्धकालो भवति। (एगिदियओरालिय इत्यादि) देशबन्धे (जहाणेणं एक समयं त्ति) कथं वायुरौदारिकशरीरी वैक्रिय गतः पुनरौदारिकप्रतिपत्तौ सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धकश्चैक समयं भूत्वा मृत इत्येवमिति। (उकासेण वावीसमित्यादि) एकेन्द्रियाणा-मुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिस्तत्रार्सा प्रथमसमये सर्वबन्धकः शेषकाल देशबन्धक इत्येव समयोनानिद्वाविंशतिवर्षसहस्राण्येकेन्द्रियाणामुत्कर्षतो देशबन्धकाल इति / (पुढविकाइ-एत्यादि) देशबन्धे / (जहण्णेणं खुड्डागं भवग्रहण तिसमयूण त्ति) कथम् औदारिकशरीरिणा क्षुल्लकभवग्रहण जघन्यतो जीवितम्, तच्च गाथाभिर्निरूप्यते'दोन्नि सयाइं नियमा, छप्पन्नाई पमाणओ हों ति। आवलियपमाणेणं, खुड्डागभवम्गद्दणमयं / / 1 / / पण्णट्ठिसहस्साई,पंचेव सयाइँ तह य छत्तीसा। खुड्डागभवग्गहणा, हवंति अंतोमुहुत्तेण / / 2 / / सत्तरसभवग्गहणा, खुड्डागा हुंति आणुपाणम्मि। तेरस चेव सयाइं, पंचाणउमाइअंसाणं // 3 // इहोक्तलक्षणस्य (265536) मुहूर्तगतक्षुल्लकभव ग्रहणराशेः सहस्रत्रयशतसप्तकत्रिसप्ततिलक्षणेन (3773) मुहुर्तगलोच्छ्वासराशिना भागे हुते यल्लभ्यते तदेकोच्छवासे क्षुल्लकभवग्रहणपरिमाणं भवति, तच सप्तदशाऽवशिष्टस्तूक्तलक्षो ऽशराशिर्भवतीति। अयमभिप्रायोयेषामंशानां त्रिभिः सहस्त्रैः सप्तभिश्च त्रिसप्तयधिकशतैः क्षुल्लकभवग्रहणं भवति तेषामशानां पञ्चनवत्यधिकानि त्रयोद Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1227 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण शशतान्यष्टादशस्यापि क्षुल्लकभवग्रहणस्य तत्रा भवन्तीति, तत्र यः पृथिवीकायिकरित्रसमयेन विग्रहेणाऽऽगतः स तृतीयसमये सर्वबन्धकः शेषेषु देशबन्धको भूत्वा आक्षुल्लकभवग्रहणं मृतोः, मृतश्च सन्नविग्रहेणाऽऽगतो यदा सर्वबन्धक एव भवतीति, एवं च येते विग्रहसमयास्रयस्तैरुन क्षुल्लकभवग्रहणमित्युच्यते / (उकोसेणं वावीसमित्यादि) भावितमेवेति / (देसबंधो जेसिं नत्थीत्यादि) अयमर्थः-अप्तेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां क्षुल्लक भवग्रहणं त्रिसमयोनं जघन्यतो देशबन्धो यतस्तेषा वैक्रिय शरीरं नास्ति, वैक्रियशरीरे हि सत्येकसमयो जघन्यत औदारिकदेशबन्धः पूर्वोक्तयुक्त्या स्यादिति। (उक्कोसेणं जाजस्सेत्यादि) तत्राऽयं वर्षसहस्राणि सप्तोत्कर्षतः स्थितिः, तेजसामहोरात्राणि त्रीणि, वनस्पतीनां वर्षसहस्राणि दशद्वीन्द्रियाणां द्वादशवर्षाणि, त्रीन्द्रियाणामेकोनपञ्चाशदहोरात्राणि, चतुरिन्द्रियाणां षण्मासास्तत एषां सर्वबन्धसमयोना उत्कृष्टतो देशबन्धस्थिति भवतीति। (जेसिं पुणेत्यादि)।तेच वायवः पञ्चेन्द्रियतिर्यचो मनुष्याश्च, एषां जघन्येन देशबन्ध एकं समय, भावना च प्रागिव। (उक्कोसेणमित्यादि) तत्र वायूनां त्रीणि, वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः, स्थिति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पल्योपमत्रयमिय चस्थितिः सर्वबन्धसमयोना उत्कर्षतो देशबन्धस्थितिरेषां भवतीति। अतिदेशतो मनुष्याणां देशबन्धस्थितौ लब्धायामप्यन्तिमसूत्रत्वेन साक्षादेव तेषां तामाह-(जावमणुस्साणमित्यादि) उक्त औदारिकशरीरप्रयोग बन्धस्यकालः। अथ तस्यैवाऽन्तरं निरुयन्नाह - ओरालियसरीरप्पओगबंधंतरे णं भंते! कालओ के वचिरं होइ? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं उक्कोसेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पुव्यकोडिसमयाहियाइं देसबंधतरं जहण्णेणं एवं समयं, उन्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं तिसमयाहियाइं। (ओरालिय इत्यादि) सर्वबन्धान्तरं जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं कथं त्रिसमयविग्रहेणौदारिकश रीरिष्वागतस्तत्राद्वौ समयौ अनाहारकस्तृतीयसमये सर्वबन्धकः क्षुल्लकभवं च स्थित्वा मृत औदारिकशरीरिष्वेवोत्पन्नस्तत्राच प्रथमसमये सर्वबन्धकएवं सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चान्तर क्षुल्लकभवो विग्रहगति-समयायोनः (उक्कोसेणमित्यादि) उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोटिसमयाभ्यधिकानि सर्वबन्धान्तरं भवतीति, कथं मनुष्याऽऽदिष्वविग्रहेणाऽऽगतस्तत्र च प्रथमसमय एव सर्वबन्धको भूत्वा पूर्वकोटिं च स्थित्वा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपम स्थिति रकः सर्वार्थसिंद्धको वा भूत्वा त्रिसमयेन विग्रहेणौदा रिकशरीरी सम्पन्नस्तत्र च विग्रहस्य द्वौ समयावनाहारक स्तृतीये च समये सर्वबन्धकयोः औदारिकशरीरस्यैव च यौ तौ द्वावनाहारकसमययोरेकः पूर्वकोटीसर्वबन्धसमयस्थाने क्षिप्तस्ततश्च पूर्णा पूर्वकोटी | जातैकश्च समयोऽतिरिक्त एवं च, सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चोत्कृष्टमन्तर यथोक्तमानं भवतीति। (देसबंधंतरमित्यादि) देशबन्धान्तरंजघन्येनैकं समय, कथं देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेणौवोत्पन्नस्ताचप्रथम एव समये सर्वबन्धको द्वितीयाऽऽदिषु च समयेषु देशबन्धकः सम्पन्नस्तदेवं देशबन्धस्य देशबन्धस्य चान्तरं जघन्यत एकः समयः सर्वबन्धसंबन्धीति। (उक्कोसेणमित्यादि) उत्कृष्टत स्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि त्रिसमयाधिकानि देशबन्धस्य देशबन्धस्यान्तरं भवति, कथं देशबन्धको मृत उत्पन्नश्च त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाऽऽयुः सर्वार्थसिद्धादौ, ततश्चच्युत्वा त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीर सम्पन्नस्तत्रा च विग्रहस्य समयद्वयेऽनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धकोऽजनि, एवं चोत्कृष्टमन्तराल देशबन्धस्य देशबन्धस्य च यथोक्तं भवतीति। एगिदियओरालियपुच्छा? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयऊणं उकोसेणं वावीसं वाससहस्साई समयाहियाई देसबधंतरं, जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / (एगिदिएत्यादि) एकेन्द्रियस्यौदारिकसर्वबन्धान्तरंजघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, कथं त्रिसमयेन विग्रहेण पृथिव्यादिष्वागतस्तत्रा च विग्रहस्य समयद्वय मनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततः क्षुल्लकं भवग्रहणं त्रिसमयानं स्थित्वा मृत्वा अविग्रहेण च यदोत्पद्य सर्वबन्धक एव भवति तदा सर्वबन्धयोर्य थोक्तमन्तरं भवतीति / (उक्कोसेणमित्यादि) उत्कृष्टतः सर्वबन्धान्तरं द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयाऽधिकानि भवन्ति, कथमविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वागतः प्रथम एव च समये सर्वबन्धकस्ततो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थित्वा समयोनानि विग्रहगत्या त्रिसमययाऽन्येषु पृथिव्यादिषूत्पन्नस्ताच समयद्वयमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये सर्वबन्धकः सम्पन्नोऽनाहारकसमययोश्चैको द्वाविंशतिवर्षसहस्रेषु समयोनेषु क्षिप्तस्ततपूरणार्थ ततश्च द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयश्चैक एकेन्द्रियाणां सर्वबन्धयोरुत्कृष्टमनन्तरं भवतीति-(देसबंधंतरमित्यादि) तोकेन्द्रियौदारिकदेशबन्धान्तरं जघन्येनैक समयं कथं देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेण सर्वबन्धको भूत्वा एकस्मिन् समये पुनर्देशबन्धक एवजात एवं च देशबन्धयोर्जघन्यत एकः समयोऽनन्तरं भवतीति। (उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं ति) कथं वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रिय गतस्ततश्चान्तर्मुहूर्ते स्थित्वा पुनरौदारिकशरीरस्य सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोरुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तरमिति। पुढवीकाइयएगिं दियपुच्छा? सवबंधं तरं जहे व एगिदियस्स तहेव भाणियव्वं, देसबंधंतरं जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं तिण्णि समया जहा पुढवीकाइयाणं एवं० जाव चउरिंदियाणं वाउकायवजाणं, णवरं सव्वबंधंतरं उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समयाहिया कायव्वा, वाउका Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1228 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण इयाणं सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साई समयाहियाई देसबंधंतरं जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालियपुच्छा? गोयमा? सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं पुवकोडी समयाहिया / / देसबंधंतरं जहा एगिदियाणं तहापंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं, एवं मणुस्साण वि णिरवसेसं भाणियव्वं० जाव उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / / (पुढवीकाइएत्यादि)(देसबंधंतरं जहण्णेणं एकसमयं उक्कोसेण तिण्णि समय त्ति) कथं पृथिविकायिको देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहगत्या पृथिवीकायिकेष्वेवोत्पन्न एक समयं च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जात एवमेकसमययोर्देश बन्धयोर्जधन्येनान्तरम्। तथा पृथिवीकायिको देशबन्धको मृतः संस्त्रिसमयविग्रहण तेष्वेवोत्पन्नस्ताच समयद्वयमनाहार कस्तृतीयसमयेच सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धकोऽभूत्, एवं च त्रयः समया उत्कर्षतो देशबन्धयोरन्तरमिति / अथाऽप्यकायाऽऽदीनां बन्धान्तरमतिदेशत आह - (जहा पुढविकाइयाणमित्यादि) अौव च सर्वथा समतापरिहारार्थमाह-(नवरमित्यादि) एवं चादिदेशतो यल्लब्ध तद्दीत अप्कायिकानां जघन्यं सर्वबन्धान्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनमुत्कृष्ट तु सप्तवर्षसहस्राणि समयाधिकानि देशबन्धान्तरं तुजघन्यमेकः समय उत्कृष्ट तु प्रयः समयाः। एवं वायुवर्जानां तेजः प्रभृतीनामपि नवरमुत्कृष्ट सर्वबन्धान्तरं स्वकीया स्थितिः समयाधिका याच्या, अथातिदेशे वायुकायिकवर्जानामित्यनेनातिदिष्टबन्धान्तरेभ्यो वायुबन्धान्तरस्य विलक्षणता सूचितेति, वायुबन्धान्तरं भेदेनाह - (वायुकाइयाणमित्यादि) ता च वायुकायिकाना मुत्कर्षेण देशबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त कथं वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियमन्तर्मुहूर्त कृत्वा पुनरौदारिकसर्वबन्ध समयान्तरमौदारिकदेशबन्ध यदा करोति तदा यथोक्तमन्तरं भवतीति (पंचेदियेत्यादि) तत्र सर्वबन्धान्तरं जघन्य भावितमेवा उत्कृष्ट तुभाव्यते-पञ्चेन्द्रियतिर्यगविग्रहेणोत्पन्नः प्रथम एव च समये सर्वबन्धकस्ततः समयोनां पूर्वकोटि जीवित्वा विग्रहगत्या त्रिसमयया तेष्वेवोत्पन्नस्तत्रा च द्वावनाहारकसमयौ तृतीये च समये सर्वबंधकः सम्पन्नोऽनाहार कसभययोश्चैकः समयः समयोनायां पूर्वकोट्यां क्षिप्तस्तत्पूरणार्थ मेकस्त्वधिक इत्येवं यथोक्तमन्तरं भवतीति, देशबन्धान्तर तु यथैकेन्द्रियाणां तचैवं जघन्यगेकः समयः कथं देशबन्धको मृतः सर्वबन्धसमयानन्तरं देशबन्धको जातः, इत्येवमुत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त, कथम् औदारिकशरीरी देशबन्धकस्सन् वैक्रिय प्रतिपन्नस्तत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरौदारिकशरीरी जातस्ता च प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयाऽऽदिषु तु देशबन्धक इत्येव देशबन्धयोरन्तमुहूर्तमन्तरमपीति. एवं मनुष्याणामपीत्येतदवाऽऽह - (जहा पंचिदिएत्यादि)। औदारिकबन्धान्तरं प्रकारान्तरेणाऽऽहजीवस्स णं भंते! एगिदियत्ते नोएगिदियत्ते पुणरवि एगिदियत्ते एगिंदियओरालियसरीरप्पओगबंधंतरं कालओ केवचिरि होइ? गोयमा! सवबंधंतरं जहण्णेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं दोसागरोवमसहस्साई संखेजवास मज्झहियाई, देसबंधतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं दोसागरोवमसहस्साइंसंखेज्जवासमज्झहियाई। जीवस्स णं भंते! पुढवीकाइयत्ते नोपुढवीकाइयत्ते पुणरवि पुढवीकाइयत्ते पुढवीकाइयएगिंदिय-ओरालियसरीरप्पओगबंधं तरं कालओ केवचिरं होई? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं दोखुड्डागभवम्गहणाई, एवं चेव उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ णं अणंता लोगा असंखेज्जा पुग्गलपरियट्ठा ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो, देसबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भावग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं अणंतं कालं०जाव आवलियाए असंखेजइभागो जहा पुढवीकाइयाणं, एवं वणस्सकाइयवज्जाणं० जाव मणुस्साणं वणस्सकाइयाणं दो खड्डाइं एवं चेव, उक्कोसेणं असंखेज कालं असंखेजाओ ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा, एवं देसबंधंतरं पि उक्कोसेणं पुढविकालो। (जीवरसेत्यादि) “एवं चेव त्ति' करणात् “तिसमयूणाई ति'' दृश्यम् / (उक्कोसेणं अणंत कालं ति) इह कालानन्तत्वं वनस्पतिकायस्थितिकालापेक्षयाऽनन्तकालमित्युक्तं तद्विभजनार्थमाह - (अणंताओ इत्यादि) अयमभिप्रायस्त स्याऽनन्तस्य कालस्य समयेष्ववसर्पिण्युत्सर्पिणीसमयैरपहिय माणेष्वनन्ता अवसपिण्युत्सर्पिण्यो भवन्तीति (कालओ त्ति) इदं कालापेक्षया मानम् (खेत्तओ त्ति) / क्षेत्रापेक्षया पुनरिदम् -(अणंता लोग त्ति) अयमर्थस्तस्याऽनन्तकालस्य समयेषु लोकाऽऽकाशप्रदेशैरपहियमाणेष्वनन्ता लोका भवन्ति / अथ तत्रा क्रियन्तः पुद्रलपरावर्त्ता भवन्तीत्यत आह-(असंखेज्जेत्यादि) पुद्रलपरावर्त्तलक्षणं सामान्येन पुनरिदम् -दशभिः कोटी-कोटीभिरद्धापल्योपमानामेक सागरोपम, दशभिः सागरो पमकोटीकोटीभिरवसर्पिण्युत्सर्पिण्यप्येवमेव ता अवसर्पिण्यु त्सर्पिण्योऽनन्ताः पुद्रलपरावर्त्तः, एतद्विशेषलक्षणं त्विहैव चक्ष्यतीति, पुद्गलपरायन्नामेवाऽसंख्यातत्वनियमनायाऽऽह--(आवलिएत्याहि) असंख्यातसमयसमुदायश्चावलिकेति / (देसबंधतरमित्यादि) भावना त्वेवम् -- पृथिवीकायिको देशबन्धकः सन्मृतः पृथिवीकायिकेषु क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्त्वा मृतः सन पुनरविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च सर्वबन्धसभयानन्तरं देशबन्धको जातः, एवं चसर्वबन्धः समयोनाधिकमेकं क्षुल्लभवग्रहणं देशबन्धयोरन्तरमिति / (वणस्सइकाइयाणं दोन्नि खुड्डाई) Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण ति) वनस्पतिकायिकानां जघन्यतः सर्वबन्धान्तरं द्वे क्षुल्लके भवग्रहणे ''एवं चेव ति" करणात् त्रिसमयोने इति दृश्यम् एतद्भावना चवनस्पतिकायिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणोत्पन्नस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकस्तृतीयसमये च सर्वबन्धको भूत्वा क्षुल्लकभवं च जीवित्वा पुनः पृथिव्यादिषु क्षुल्लकभवमेव स्थित्वा पुनरविग्रहेण वनस्पतिकायिकेष्वेवोत्पन्नः प्रथमसमये च सर्वबन्धकोऽसाविति सर्वबन्धयोस्त्रिसमयोनेद्वे क्षुल्लकभवग्रहेण अन्तरं भवत इति। (उक्कोसेणमित्यादि) अयं च पृथिव्यादिषु कायस्थितिकाले (एवं देसबंधरतरं पित्ति) यथा पृथिव्यादीनां देशबन्धान्तरं जघन्यमेवं वनस्पतेरपि। तच क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकम्। भावना चास्य पूर्ववत्। (उक्कोसेणं पुढविकालो त्ति) उत्कर्षेण वनस्पतेर्देशबन्धान्तरं पृथिवीकायस्थितिकालोऽसंख्यातावसर्पिण्यादिरुप इति। अथौदारिकदेशबन्धकादीनामल्पत्वादित्रिरुपणायाऽह - एएसिणं भंते! जीवा णं ओरालियसरीरदेसबंधगाणं सव्वबंधगाण य अबंधगाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सव्वबंधगा, अबंधगा विसेसाहिया, देसबंधगा असंखेनगुणा / / (एएसिमित्यादि) तत्रा सर्वस्तोकाः सर्वबन्धकातेषामुत्पत्ति समय एव भावादबन्धका विशेषाधिका यतो विग्रहगतौ सिद्धत्वा ऽऽदौ चते भवन्ति / तेच सर्वबन्धकापेक्षया विशेषाधिका, देशबन्धका असंख्यातगुणा देशबन्धकालस्याऽसंख्यातगुणत्वा देतस्य सूत्रास्य भावनां विशेषतोऽग्रे वक्ष्याम इति॥ अथ वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धनिरूपणायाह - वेउव्वियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कइविहे पण्णते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पओगबंधे य, पंचिंदियवेउव्वियसरीरप्पओगबंधे य। जइ एगिदियवेउव्वियसरीरप्पओगबंधे, किं वाउकाइयएगिदियवेउ व्वियसरीरप्पओगबंधे, अवाउकाइयएगिदियवेउव्वियसरीरप्प ओगबंधे य / एवं एएणं अमिलावणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउव्वि सरीरभेओ तहा भाणियव्वो० जाव पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो दवाइयकप्पाऽतीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरप्पओग बंधे य, अपञ्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय० जाव प्पओग बंधे य / वेउव्वियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? ! गोयमा! वीरियसजोगसद्दव्वयाए० जाव आउयं वा लद्धिं वा पडुच्च वेउव्वियसरीरप्पआगनामाए कम्मस्स उदएणं वेउव्वियसरीरप्प ओगबंधे / वाउकाइयएगिंदियवेउव्वियसरीरप्पओग पुच्छा? गोयमा ! वीरियसजोगसद्दव्वयाए एवं चेव० जाव लद्धिं पडुच्च० जाव वाउकाइयएगिदियसरीरप्पओगबंधे / रयणप्पभापुढ विनेरइय पंचिदियवेउव्वियसरीरप्पओगबंधे णं मंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा! वीरियसजोगसद्दव्वयाए० जाव आउं वा पडुचरयणप्पभापुढवि० जाव बंधे, जाव० अहे सत्तमाए / तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउटिवयसरीरपुच्छा? मोयमा! वीरिय० जहा वाउकाइयाणं / मणुस्सपंचिंदियवेउव्वियसरीरप्पओग पुच्छा? एवं चेव असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिदियवेउव्विय० जाव बंधे / जहा स्यणप्पभापुढविणेरइयाणं एवं०जाव थणियकुमारा, एवं वाणमंतरा, एवं जोइसिया, एवं सोहम्मकप्पो वगया वेमाणिया, एवं० जाव अच्चुयगेवेजगकप्पातीयवेमाणिया णेयव्वा / अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणिया एवं चेव / वेउव्वियसरीरप्पओगबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सय्वबंधे? गोयमा! देसबंधे वि सव्वबंधे वि। वाउकाइयएगिदिय एवं चेव। रयणप्पमापुढविनेरइया एवं० जाव अणुत्तरोववाइया। वेउव्विय सरीरप्पओगबंधे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सव्वबंधे जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेण दो समया, देसबंधे जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई / वाउकाइयएगिंदियवेउव्वियपुच्छा? गोयमा! सव्व बंधे एवं समयं, देसबंधे जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं अंतो मुहत्तं / (वीरियेत्यादौ) यावत्करणात् (पमायपचया कम्मं च जोगं च भवं च त्ति) द्रष्टव्यम् (लद्धि व ति) वैक्रियकरणलब्धिं वा प्रतीत्य / एतच्च वायुपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यानपेक्ष्योक्तं तेन वायुकायाऽऽदिसूत्रेषु लब्धि वैक्रियशरीरबन्धस्य प्रत्ययतया वक्ष्यति, नारकदेवसूत्रेषु पुनस्तान् विहाय वीर्यसयोसद् द्रव्यताऽऽदीन् प्रत्ययतया वक्ष्यतीति / (सव्वबंधे जहणणेणं एक समय ति) कथं वैक्रियशरीरघूत्पद्यमानोलब्धितो वा तत्कु वन समयमेक सर्वबन्धको भवतीत्येवमेक समयं सर्वबन्ध इति। (उकोसेणं दो समय त्ति)। कथमौदारिकशरीरी वैक्रियता प्रतिपद्यमानः सर्वबन्धको भूत्वा मृतः पुनारकत्वः देवत्वं वा यदा प्राप्नोति तदा प्रथमसमये वैक्रियस्य सर्वबन्धक एवेति कृत्वा वैक्रियशरीररस्य सर्वबन्ध उत्कृष्टतः समयद्वयमिति। (देसबंधे जहण्णेणं एक समयं ति) कथमौदारिकशरीरी वैक्रियता प्रतिपद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धको भवति / द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृत इत्येवं देशबन्धको जघन्यत एकं समय मिति / (उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई ति) कथं देवेषु नारकेषु चोत्कृष्टास्थितिषूत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्धकस्तेन सर्वबन्धसमयेनोनानि ासस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कर्षतो देशबन्ध इति। (वाउकायिएत्यादि)। देसबंध जहण्णेणं एक समयं ति) कथं वायुरौदारिकशरीरी सन् वैक्रियं गतस्ततः प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृत इत्येवं जघन्येनैको देशबन्धसमयः। (उक्कोसेणं अंतोमुत्त ति) वैक्रियशरीरेण स एव यदान्तमुर्हत्तमा मास्ते तदोत्कर्षतो देशबन्धोऽन्तर्मुहूर्ते लब्धिवैक्रियश ... Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1230 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण रीरिणो जीवतोऽन्तर्मुहूर्तात्परतोन वैक्रियशरीरावस्थानमस्ति पुनरौदारिकशरीरस्यावश्यं प्रतिपत्तेरिति / / रयणप्पभापुढविनेरइयपुच्छा? गोयमा! सव्वबंधे एक समयं, देसबंधं जहण्णेणं दमवाससहस्साई तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं सागरोवम समयूणं / एवं० जाव अहे सत्तमाए, णवरं देसबंधे जस्स जा जहणिया ठिई सा तिसमयऊणा कायव्वा० जाव उक्कोसा समयऊणा / पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहा वाउकाइयाणं असुरकुमारनागकुमार० जाव अणुत्तरोव वाइयाणं जहा नेरइयाणं,णवरं जस्स जा ठिई सा भाणियव्वा० जाव अणुत्तरोववाइयाणं सव्वबंधे एक समयं, देसबंधे जहण्णेणं एक्कतीससागरोवमाई तिसमयऊणाई। उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो वमाइं समयऊणाई (रयणप्पभेत्यादि) (देसबंधं जहण्णेणं दसवाससहस्साइ त्ति) कथं 'सिमयविग्रहेण रत्नप्रभायां जघन्यस्थित रकः समुत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको वैक्रियस्य तदेवमाद्य समयायन्यून वर्षसहस्रदशकंजघन्यतो देशबन्धः / (उक्ोसेणं सागरोवमं समयूणं ति)। कथमविग्रहेण रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थितिरिकः समुत्पन्नस्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्धकस्तेन सर्वबन्ध सगयेनोनं सागरोपममुत्कषतो देशबन्ध इति, एवं सर्वत्र सर्वबन्धः समयं, देशबन्धश्च जघन्यो विग्रहसमयत्रयन्यूनो निजनिजजघन्यस्थितिप्रमाणो वाच्यः, सर्वबन्धसमयन्यूनो त्कृष्ट - स्थितिप्रमाणश्चोत्कृष्टदेशबन्ध इत्येतदेवाऽऽह - एवं जावेत्यादि) पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां वैक्रियसर्वबन्ध एकं समयं, देशबन्धस्तु जघन्यत एकसमयमुत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त मेतदेवातिदंशेनाऽह-(पंचिदियेत्यादि) यच-"अंतोमुहुर्त नरए-सु होइ चत्तारि तिरियमणुएसु। देवेसु अद्धमासो, उकोस विउव्वणाकालो।।१।।" इति वचनसामदिन्त मुहूर्त चतुष्टयं तेषां देशबन्ध इत्युच्यते, तन्मतान्तरमित्यवसेयमिति / उक्तो वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धस्य कालः। अथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाह - वेउव्वियसरीरप्पओगबंधंतरेणं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एकं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ, जाव आवलियाए असंखेजइभागो, एवं देसबधंतरं पि। वाउकाइयवेउव्वियसरीरपुच्छा? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं / एवं देसबंधंतरं पि। तिरिक्खजोणि-पंचिदियवेउ व्विय सरीरप्पओगबंधंतरपुच्छा?गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहुत्तं / एवं देसबंधंतरं पि। एवं मणुयस्स वि। (वेउदिवएत्यादि) (सव्वबंधतरं जहण्णेण एक समयं ति) कथमौदा- | रिकशरीरी वैक्रियं गतः प्रथमसमये सर्वबन्धको, द्वितीये देशबन्धको भूत्वा मृतो देवेषु नारकेषु वा वैक्रियशरीरिष्व विग्रहेणोत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवमेकः समयः सर्वबन्धान्तरमिति / (अकोसेणं अणंत कालं ति) कथमौदारिकशरीरी वैक्रियं गतो वैक्रियशरीरिषु वा देवाऽऽदिषु समुत्पन्नः, सच प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वादेशबन्धं च कृत्वा मृतस्ततः परमनन्तकालमौदारिकसशरीरिषु वनस्पत्यादिषु स्थित्वा वैक्रियशरीरवत्सूत्पन्नस्तत्रा च प्रथमसमये सर्वबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति। (एवं देसबंधंतरं पित्ति) जघन्यनैकं समयमुत्कृष्टतो ऽनन्तकालमित्यर्थः, भावनाचास्य पूर्वोक्तानुसारेणेति / (वाउकाइएत्यादि) (सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं ति) कथं वायुरौदारिकशरीरी वैक्रियशक्तिमापन्नस्तत्रा च प्रथमसमये सर्व बन्धको भूत्वा मृतः पुनर्वायुरेव जातस्तस्य वा पर्याप्तकस्य वैक्रियशक्ति विर्भवतीत्यन्तमुहूर्त्तमात्रोणाऽसौ पर्याप्तको भूत्वा वैक्रियशरीरमारभते, तत्र चासौ प्रथमसमये सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त्तमिति / (उक्कोसेणं पलिओवमरस असंखेजइभाग ति) कथं वायुरौदारिकशरीरी वैक्रियं गतस्तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्या मृतस्ततः परमौदारिकशरीरिषु वायुषु पल्योपमाऽसंख्येयभागमति बाह्यवश्यं वैक्रियं करोति, तत्रा च प्रथमसमये सर्वबन्ध एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति / (एवं देसबंधंतरं पित्ति) / अस्य भावना प्रागिवेति। (तिरिक्खेत्यादि) (सव्वबंधंतर जहन्नेणं अंतोमुहत्तं ति) कथं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वैक्रियं गतस्ता च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततः परं देशबन्धकोऽन्त मुहूर्तमात्र, तत औदारिकस्य सर्वबन्धको भूत्वा समय देशबन्धको जातः पुनरपि श्रद्धेयमुत्पन्ना वैक्रिय करोमीति पुनवैक्रियं कुर्वतः प्रथमसमयं सर्वबन्ध एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति। (उक्कोसेणं पुटवकोडिपुहुत्तं त्ति) कथं पूर्वकोट्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वैक्रियं गतस्तत्र च प्रथम समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्वा कालान्तरे मृतः पूर्व कोट्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्ष्वेवोत्पन्नः पूर्वजन्मनः सह सप्ताष्टौ वारान् नततः सप्तमेऽष्टमे वा भवे वैक्रिय गतस्ता च प्रथमसमये सर्वबन्धं कृत्वा देशबन्धं करोतीत्येवं सर्वबन्धयोरुत्कृष्ट यथोक्तमन्तर भवतीति। (एवं देसबंधतरं पित्ति) भावना चास्य सर्वबन्धान्तरोक्तभावनाऽनुसारेण कर्त्तव्येति। वैक्रियशरीरबन्धान्तरमेव प्रकान्तरेण चिन्तयन्नाहजीवस्स णं भंते! वाउकाइयत्ते नो वाउकाइयत्ते पुण्णरवि वाउकाइयत्ते वाउकाइयएगिदियवेउव्वियपुच्छा? गोयमा! सव्व बंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो / एवं देसबंधंतरं पि। (जीवस्स इत्यादि) (सध्वबंधंतरं जहन्ने णं अंतो मुहुरा ति) क थं वायु 4 कि यशरीरं प्रतिपन्नस्तत्रा च प्रथम समये सर्व बन्धको भूत्वा मृतस्ततः पृथिवीकायिके षूत्पन्नस्तत्राऽपि क्षुल्लक भवमात्रां स्थित्वा पुनर्वायुतिस्ताऽपि कतिपयान Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1231 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण क्षुल्लकभवान् स्थित्वा वैक्रिय गतस्तत्राच प्रथमसमये सर्व बन्धकोजात- | स्ततश्च वैक्रियस्य वैक्रियस्य च सर्वबन्धयोरन्तरं बहवः क्षुल्लकभवास्ते च बहवोऽप्यन्तर्मुहुत्तमन्तर्मुहूर्ते , बहूनां क्षुल्लकभवानां प्रतिपादितत्वात्, ततश्च सर्वबन्धान्तरं यथोक्तं भवतीति। (उकोसेणं अणतं कालवणस्सइकालो त्ति) कथं वायुर्वेक्रियशरीरी भवन् मृतो वनस्पत्यादिष्वनन्तं कालं स्थित्वा वैक्रियशरीरं पुनर्यदा लप्स्यते तदा यथोक्तमन्तरं भविष्यतीति। (एवं देसवंधतर पित्ति) भावना चास्य प्रागुक्तानुसारेणेति। रत्नप्रभासूत्रोजीवस्स णं भंते! रयणप्पभापुढपिनेरइयत्ते नोरयणप्पभापुढ विपुच्छा? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो, देसबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो एवं० जाव अहे सत्तमाए, णवरं जा जस्स ठिई जहणिया सा सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुर्तमभहिया कायव्या, सेसं तं चेव / पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्साण य जहा चाउकाइयाणं, असुरकुमारनागकुमार० जाव सहस्सारदेवाणं, एएसिं जहा रयणप्पभापुढविनेरझ्याणं, नवरं सव्वबंधंतरं जस्स जा ठिई जहन्निया सा अंतोमुहुर्तमब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव। (सव्वबंधंतरंमित्यादि) एतद्भाव्यते रत्नप्रभानारको दशवर्ष सहस्रस्थितिक उत्पत्तौ सर्वबन्धकरतत उवृत्तस्तुगर्भजपञ्चे न्द्रियेष्वन्तर्मुहूर्त स्थित्वा रत्नप्रभाया पुनरप्युत्पन्नस्ता च प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवं सूत्रोक्तं जघन्यमन्तरं सर्वबन्ध योरिति, अयं च यदाऽपि प्रथमोत्पत्तौ सिमयविग्रहेणोत्पद्यते तदाऽपि न दशवर्षसहस्राणि त्रिसमयन्यूनानि भवन्ति अन्तर्मुहूर्तस्य मध्यात्समयत्रायस्य तत्र प्रक्षेपान्न च तत्प्रक्षेपेऽप्यन्तर्मुहुर्तत्त्वव्याघातस्तस्यानेकभेदत्वादिति। (उक्कोसेणं वणस्सइकालो त्ति) कथं रत्नप्रभानारक उत्पत्तौ सर्वबन्धकस्तत उदवृत्तश्चानन्तं कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तौवोत्पद्यमानः सर्वबन्ध इत्येवमुत्कृष्टमन्तरमिति / (देसबंधंतरं जहन्नेणं अतोमुहत्तं ति) कथं रत्नप्रभानारको देशबन्धकस्सन् मृतोऽन्तर्मुहूर्ताऽऽयुः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्तयोत्पद्य मृत्वा रत्नप्रभानारकतयोत्पन्नस्तत्र च द्वितीयसमये देशबन्ध इत्येवं जघन्य देशबन्धस्यान्तरमिति (उक्कोसेणमित्यादि) भावना प्रागुक्तानुसारेणेति, शर्करप्रभा-दिनारकवैक्रियशरीर बन्धस्यान्तरमतिदेशतः संक्षेपार्थमाह -(एवं जावेत्यादि) द्वितीयाऽदिपृथियीषु जघन्या स्थितिः क्रमेणैकं त्रीणि सप्तदश द्वाविंशतिश्च सागरोपमाणीति, पञ्चेन्द्रियेत्यादौ (जहा वाउकाइयाण त्ति) जयन्येनान्तमुहूर्त्तमुत्कृष्टः पुनरनन्तं कालमित्यर्थोऽसुरकुमाराऽऽदयस्तु सहस्त्रारान्ता देवा उत्पत्तिसमये सर्वबन्धं कृत्वास्वकीयां च जघन्यस्थितिमनुपाल्य पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु जघन्ये नान्तर्मुहूर्तायुष्कत्वेन समुत्पद्य मृत्वा च तेष्वेव सर्वबन्धका जाता एवं च तेषां वैक्रियस्य जघन्य सर्वबन्धान्तरंजघन्यातत्स्थितिरन्तर्मुहूर्ताधिका वक्तव्याः उत्कृष्ट त्वनन्त कालं यथा रत्नभानारकाणामित्येतद्दर्शयन्नाह -(असुरकुमारेत्यादि) तत्रा जघन्य स्थितिरसुरकुमाराऽऽदीनाव्यन्तराणां च दश वर्षसहस्राणि ज्योतिष्काणा पल्योपमाष्टभागः सौधर्माऽऽदिषु तु (पलियं अहियं दोसा रसाहिया सत्तदस य चोदसेत्यादि) आनतसूत्रेजीवस्सणं भंते! अणायदेवत्ते नोआणयदेवत्ते पुच्छा? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अट्ठारससागरोवमाई वासपुहुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो, देसबंधंतरं जहन्नेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो, एवं० जाव अचुए, नवरं जस्स जा ठिई सा सव्व बंधंतरं जहन्नेणं वासपुहत्तमभहिया कायव्वा, सेसं तं चेव / गेविजकप्पातीयपुच्छा? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं वावीसं सागरोवमाइं वासपुहुत्तममहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो, देसबंधंतरं जहन्नेणं वासपुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो।। (सव्वबंधंतरंमित्यादि) एतस्य भावना ओनतकल्पीयो देष उत्पत्तौ सर्वबन्धकः स, चाष्टादशसागरोपमाणि तत्र स्थित्वा ततश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्येषु स्थित्वा पुनस्तौवोत्पन्नः प्रथमसमये चाऽसौ सर्वबन्धक इत्येवं सर्वबन्धान्तरं जघन्यमष्टः दशसागरापमाणि वर्षपृथक्त्वाधिकानीति, उत्कृष्ट त्वनन्तं कालम्। कथं स देवस्तस्माचयुतोऽनन्त काल वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तौवोत्पन्नः प्रथमसमये चाऽसौ सर्वबन्धक इत्येवमिति। (देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपुहुत्त त्ति) कथं स एव देशबन्धकः संश्च्युतो वर्ष पृथक्त्वं मनुष्यत्वमनुष्यमनुभूय पुनस्ताव गतस्तस्य च सर्वबन्धानन्तरं देशबन्ध इत्येवं सूत्रोक्तमन्तरं भवति। इह च यद्यपि सर्वबन्धसमयाधिकं वर्षपृथक्त्वं भवति तथाऽपि तस्य वर्षपृथक्त्वादनान्तरत्वविवक्षया न भेदेन गणनमिति, एवं प्राणताऽऽरणाच्यतु प्रेषेयक सूत्रााण्यपि, अथ सनत्कु माराऽऽदि सहस्रारान्ता देवा जघन्यतो नवदिनाऽऽयुष्केभ्य आनताऽऽद्य च्युतान्तास्तु नवमासाऽऽयुष्केभ्यः समुत्पद्यन्त इति जीवसामस्खे अभिधीयते। ततश्च जघन्यं तत्सर्वबन्धान्तरंतत्तदधिकतद्जघन्यस्थितिरुपं प्राप्नोति। सत्यमेतत्, केवलं मतान्तरमेवेदमिति। अनुत्तरविमानसूत्रो (उक्कोसेणमित्यादि) उत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं देशबन्धान्तरं च संख्यातानि स गरोपमाणि यतो नानन्तकालमनुत्तरविमानच्युतः संसरति / तानि च जीवसमासमतेन द्विसंख्यानीति। अथ वैक्रिय शरीरदेशबन्धकाऽऽदीनामल्पत्वाऽऽदि निरुपणाया ऽऽह - जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववाइयपुच्छा? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाइं वासपुहुत्तमन्महियाई, उक्कोसेणं संखेजाइ सागरोवमाई, देसबंधंतरं जहन्नेणं वासहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइंसागरोवमाइं। एतेसिणं भंते! जीवाणं वेउव्वियसरीरस्स Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1232 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहितो. जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा वेउव्वियसरीरम्स सव्वबंधंगा, देसबधंगा असंखेनगुणा, अबंधगा अणंतगुणा। (एएसीत्यादि) तत्रा सर्वस्तोका वैक्रियसर्वबन्धकास्तत्काल स्याल्पत्वात् देशबन्धका असंख्यातगुणास्तत्कालस्य तदपेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वादबन्धकास्त्वजनागुणाः / सिद्धानां वनस्पत्यादीनां च तदपेक्षया अनन्तगुणत्वादिति। अथाऽऽहारकशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याऽऽह - आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णते? गोयमा! एगागारे पण्णत्ते / जइएगागारे पण्णत्ते कि मणुस्साऽऽहार गसरीरप्पओगबंधे, अमणुस्साऽऽहारगसरीरप्पओगबंधे? गोयमा! मणुस्साऽऽहारगसरीरप्पओगबंधे, नोअमणुस्साऽऽहार गसरीरप्पओगबंधे, एवं एएणं अमिलावेणं जहा ओगाहण संठाणे० जाव इड्डिपत्तपमत्तसंजयसम्मविट्ठीपज्जत्तसंखेजवा साउयकम्मभूमिगब्भवक्कंतियमणुस्साऽऽहारगसरीरप्पओग बंधे, नोआणिड्डिपत्तपमत्त० जाव आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उयएणं? गोयमा! वीरियसजोगसद्दव्वयाए० जावलद्धिवो पडुच्च आहारगसरीरप्प ओगनामाए कम्मस्स उदएणं / आहारगसरीरप्पओगबंधे आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि। आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सव्वबंधे एक समयं, देसबंधे जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहत्तं / आहारगसरीरप्पओगबंधंतरेणं, भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा अवड्व पोग्गलपरियट्ट देसूणं / एवं देसबंधंतरं पि। (सव्वबंधे एक समय ति) आद्यसमय एवं सर्वबन्धभावात्। (देसबंधे जहण्णेणं अतोमुहुत् उक्कोसेण विअंतोमुहुरा ति) कथं जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्तमात्रामेवाऽऽहारकशरीरी भवति, परत औदारिकशरीरस्यावश्यं ग्रहणात्तत्र चान्तर्मुहूर्त आद्यसमये सर्वबन्ध उत्तरकालं च देशबन्ध इति / अथाऽऽहारक शरीरप्रयोगबन्धस्यैनान्तरनिरुपणायाऽऽह - (आहारेत्यादि) (सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अतोमुहुत्तं ति) कथं मनुष्य आहारक शरीरं प्रतिपन्नस्तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्ततोऽन्त मुंहतमात्रां स्थित्वा औदारिकशरीरं गतस्तत्राप्यन्तर्मुहूर्त स्थितः पुनरपितस्य संशवाऽऽद्याहारकशरीरकरणकारण मुत्पन्नं, ततः पुनरप्याहारकशरीरं गृह्णति, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धक एवेत्येव च सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त द्वयोरप्यन्त मुहूर्तयोरेकत्वविवक्षणादिति / (उक्कोसेण अणत कालं ति)। कथयतोऽनन्तकालादाहारकशरीरं पुनर्लभत इति, कालानन्त्यमेव विशेषेणाऽऽह-(अणताओ उसप्पिणीओओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोग त्ति) एतद्व्याख्यान प्राग्वत् / अथ तत्र पुद्गलपरावर्तपरिमाणं किं भवतीत्याह-(अषड्ढपोग्गलपरियट्ट देसूण ति) अपार्द्धम-अपगमार्द्धमर्द्धमात्रामित्यर्थः पुद्गलपरावर्त प्रागुक्तस्वरुपम्, अपार्द्धमप्यर्द्धतः पूर्णे स्यादत आह-देशोनमिति / एवं (देसबंधतरं पि त्ति) जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पुनरपार्द्ध पुद्गलपरावर्त देशोनम्। भावना तुपूर्वोक्तानुसारेणेति। अथाऽऽहारकशरीरदेशबन्धकाऽऽदीनामल्पत्वाऽऽदिनि रुपणायाऽऽहएएसिंणं भंते ! जीवाणं आहारगसरीरस्स देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाणं कयरे कयरेहितो. जाव विसेसाहिया वा? गोयमा सव्वत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सव्वबंधगा, देसबंधगा संखेज्जगुणा, अबंधगा अणंतगुणा। (एएसीत्यादि) तत्र सर्वस्तोका आहारकस्य सर्वबन्धका स्तत्सर्वबन्धकालस्याऽल्पत्वादेशबन्धकाः संख्यातगुणास्त देशबन्धकालस्य बहुत्वादसंख्यातगुणास्तुते न भवन्ति, यतो मनुष्या अपि संख्याताः किं पुनराहारकशरीरदेशबन्धका अबन्धकास्त्वनन्तगुणाः, आहारकशरीर हि मनुष्याणा तत्राऽपि संयतानाम्, तेषामपि केषांचिदेव कदाचिदेव च भवतीति / शेषकाले ते शेषसत्वाश्चाबन्धकास्ततश्चसिद्धबनस्पत्यादी नामनन्तगुणत्वादनन्तगुणास्त इति।। अथ तैजसशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याऽऽहतैयासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगिदियतेयासरीरप्पओगबंधे य, बेइंदियतेयासरीरप्पओगबंधे य .जाव पंचिदियतेयासरीरप्प ओगबंधे य / एगिंदियतेयासरीरप्पओगबंधे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते? एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा-ओगाहणसंठाणे. जाव पजत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पायतीवेमाणियदे पंचिंदियतेयासरीरप्पओगबंधे य अपञ्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो ववाइय० जाव बंधे य / तेयासरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा? वीरियसजोगसद्दव्वयाए० जाव आउयं वा पडुन तेयासरीरप्पओयणामाए कम्मस्स उदएणं तेयासरीरप्पओगबंधे / तेयासरीरप्पओगबंधे णं भंते! किं देसबंधे, सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे, णो सव्वबंधे / तेयासरीर प्पओगबंधे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए / तेयासरीरप्पओगबंधंतरे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ / गोयमा! अण्णाइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं / एएसि णं भंते! जीवाणं तेयासरीरस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहिंता० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थो Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1233 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण वा जीवा तेयासरीरस्स अबंधगा देसबंधगा अणंतगुणा / / / अपरियावणयाए सायावेयणिजकम्मा-सरीरप्पओगनामाए (ते येत्यादि)(नोसव्वबंधे त्ति) तैजसशरीरस्यानादित्वान्न सर्वबन्धो- कम्पस्स उदएणं सायावेयणिज्जन्जाव बंधे। असायवियणिजऽस्ति, तस्य प्रथमतः पुगलोपादानरुपत्वादिनि। (अणाइए वा अपजव- पुच्छा? गोयमा ! परपुक्खणयाए परसोयणयाए जहा सत्तगसए सिएत्यादि) तत्रायं तैजसशरीरबन्धोऽनादिरपर्थवसितोऽभयानाम् , दुस्समाउद्देसए ०जाव परितावणयाए असायावेयणिज्जकम्मा० अनादिः सपर्य चसिस्तस्तु भव्यानामिति / अथ तेजसशरीरप्रयोग- जाव पओगबंधे / मोहुणिज्जकम्मासरीरपुच्छा? गोयमा! तिव्ववन्धस्यै, चान्तरनिरूगणायाऽऽह-(तियेत्यादि) (अवाइयस्सेत्यादि कोहयाए तिव्वमाणयाए तिव्वमाययाए तिव्वलोहयाए निव्वदंयस्मात्संसारस्थो श्रीवस्तैजसशरीरबन्धनद्यरूपेणाऽपि सदाऽविनिर्मुक्त सणामोहणिज्जयाए तिब्वऽचरित्तमोहणिज्जयाए मोहणिज्जएव भवति, तस्माद्वयरूपस्याप्यस्य नारत्त्यन्तरमिति अथ तेजसशरीर- कम्मासरीरप्पओग०जाव पओगबंधे? णेरइयाउयकम्मादेशबन्धकाऽबन्धकानामल्पत्वाऽऽदिनिरूपणायाऽऽह-(एएसी-त्यादि) / सरीरप्पओगबंधे णं भंते !पुच्छा? गोयमा ! महोरंभयाए तत्र सर्वस्तोकास्तैजसशरीरस्थाऽबन्धकाः सिद्धानामेव तद् वन्धक- महापरिग्गहियाए पंचिंदियवहेणं कुणिमाहारेणं णेरइयाउयत्वात्, देशयन्धकास्त्यनन्तगुणा स्तद्देशब। कम्मासरीरप्पओगणा माए कम्मस्स उदएणं णे रइयाअथ कार्मणशरीयायोगबन्धमधिकृत्याऽह - ज्यकम्मासरीरoजाव पओगबंधे तिरिक्खजोणियाग्यकम्माकम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते! कइविहे पण्णते? गोयमा! सरीरपुच्छा? गोयमा ! माइल्लयाए नियडिल्लयाए अलियअट्ठविहे पण्णत्ते / तं जहा-नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्प-ओगबंधे वयणेणं कूडतुल्लकूडमाणेणं तिरिक्खजोणियाउयकम्मा० जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पओगबंधे / नाणावरणिज्जकम्मा जाव प्पओगबंधे / मणुस्साउयकम्मासरीरपुच्छा? गोयमा! सरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा! पगइभद्दयाए पगइविणीययाए साणुक्कोसणयाए अमच्छरियत्ताए नाणपडिणीयाए नाणणिएहवणयाए नाणंतराएणं नाणप्पदोसेणं मणुस्साउयकम्मा० जाव पओगबंधे / देवाउयकम्मासरीरणाणचासायएणं नाणविसंवादणाजोगेणं नाणावरणिजकम्मा पुच्छा? गोयमा! सरागसंजमेणं संजमाऽसंजयेणं बालतयोसरीरप्पओगनामाए कम्मस्स उदएणं नाणावरणिज्जकम्मा कम्मेणं अकामणिज्जराए देवाउयकम्मासरीर० जावपओगबंधे / सरीरप्पओगबंधे।। सुभनामकम्मा-सरीरपुच्छा? गोयमा! काउजुययाए भावुजुय(नाणपडिणीययाए त्ति) ज्ञानस्य-श्रुताऽऽदेस्तदभेदा ज्ज्ञानवंता वा याए भासुजुययाए अविसंवादणाजोगेणंसुभणामकम्मासरीर जाव या प्रत्यनीकता सामान्येन प्रतिकूलता सा तथा तया। (नाणनिन्हवणयाए पओगबंधे। असुभणामकम्मासरीर पुच्छा? गोयमा! कायअणत्ति) ज्ञानस्य-श्रुतस्य श्रुतगुरुणां वा या निहवता-अपलपनं सा तथा / जुययाए० जाव विसंवादणाजोगेणं असुभणाम-कम्मासरीर० तया-(नाणंतरायेणं ति) ज्ञानस्य श्रुतस्यान्तरायस्तद्ग्रहणाऽऽदौ विघ्रो / जाव पओगबंधे। उच्चागोयकम्मासरीर पुच्छा? गोयमा! जातियः स तथा तेन / (नाणप्पओसेणं ति) ज्ञानेश्रुताऽऽदौ ज्ञानवत्सु वा यः अमदेणं कुलअमदेणं बलअमदेण्णं रूवअमदेणं तवअमदेणं प्रदेषोऽप्रीतिः स तथा तेन। (नाणचासायणाए त्ति) ज्ञानस्य ज्ञानिना या लाभअमदेणं सुअअमदेणं इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकमासरीर. याऽत्याशातनाहीलना सातया तया / (नाणविसंवायणाजोएणं ति) जाव पओगबंधे। णीयागोयकम्मरीरपुच्छा? गोयमा! जातिमदेणं ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा विसंवादनयोगो व्यभिचारदर्शनाय व्यापारो यः स कुलमदेणं बलमदेणं० जाव इस्सरियमदेणं णीयागोयकम्मातथा तेन / एतानि च बाहानि कारणानि ज्ञानाऽऽवरणीयकामणशरीरबन्धे। सरीर०जाव पओगबंधे / अंतराइयकम्मासरीरपुच्छा? गोयमा! अथान्तरं कारणमाह - दाणंतराएणं लाभतराएणं भोगंतराएणं उवमोगंतराएणं वीरियंदरिसणावरणिज्नकम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते! कस्स तराएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं कम्मस्स उदएणं? गोयमा! दंसणपडिणीययाए एवं जहा अंतराइय कम्मासरीरप्पओगबंधे। णाणावरणिज्ज कम्मासरीरनाणावरणिज,नवरं दसणनामधेयव्वं जावदसणवि-संवायणा प्पओगबंधे णं भंते! किं देसबंधे सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे, जोगेणं दंसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मस्स णो सव्वबंधे, एवं जाव अंतराइयं / णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पउदएणं जाव पओगबंधे। सायावेयणिज कम्मासरीरप्पओगबंधे ओगबंधे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! पाणणुकंपयाए तं जहा-अणाइय एवं जहेव तेयगस्स संचिट्ठणा तहेव एवं० जाव भूयाणुकंपयाए एवं जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसए० जाव अंतराइयकम्मस्स / णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधंतरेणं Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1234 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण भंते! कालओ केवचिरं होइ? गोयमा! अणाइयस्स एवं जहा तेयगसरीरस्स अंतरं तहेव० जाव अंतराइयस्स। एएसिणं भंते! जीवाणं णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरे० जाव अप्पाबहुगं जहा तेयगस्स एवं आउयवजं० जाव अंतराइयं / आउयस्स पुच्छा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा आउयकम्मस्स देसबंधगा, अबंधगा संखेज्जगुणा। (नाणावरणिज्जमित्यादि) ज्ञानाऽऽवरणीयहेतुत्वेन ज्ञानाऽऽ वरणीयलक्षणं यत्कार्मणशरीरप्रयोगनाम तत्तथा तस्य कर्मण उदयेनेति / (दंसणपडिणीययाए त्ति) इह दर्शनचक्षुर्दर्शनाऽऽदि। (तिव्वदंसणमोहणिज्जयाएत्ति) तीव्रमिथ्यात्वतयेस्यर्थः / (तिव्यचरित्तमोहणिज्जयाए त्ति) कषायव्यतिरिक्तं नोकषायलक्षणमिह चारित्रमोहनीय ग्राह्यं तीवकोधतयेत्यादिना कषायचारित्रामोहनीयस्य प्रागुक्तत्वादिति। (महारंभयाए त्ति) अपरिमितकृष्याद्यारम्भतयेत्यर्थः। (महापरिग्गहयाए त्ति) अपरिमाणपरिग्रहतया (कुणिमाहारेणं ति) मांसभोजनेनेति / (माइल्लयाए त्ति) परवञ्चनबुद्धिवत्तया (नियडिल्लयाए त्ति)निकृतिः- वञ्चानार्थ चेष्टा, माय प्रच्छादनार्थ मायान्तरमित्येके, अत्याऽदारकरणेन परवञ्चनमित्यन्ये / तद्वत्तया (पगइभहयाएत्ति) स्वभावतः परानुपतापितया। (साणुक्कोसयाए ति) सानुकम्पतया। (अमच्छरिययाए त्ति) मत्सरिक:परगुणानामसोढा, तद्भावनिषेधोऽमत्सरिकता तया (सुभनामकम्मेत्यादि) इह शुभनाम देवगत्यादिकम्। (कायउज्जुयाए त्ति) कायर्जुकतया परावञ्चनपरकायचेष्टया। (भावुजुययाएत्ति) भावर्जुकतया परवञ्चनपरमनः-प्रवृत्येत्यर्थः (भासुज्रययाए त्ति) भाषर्जुकतया भावार्जवनेत्यर्थः / (अविसंवायणजोगेणं ति) विसंवादनमन्यथा प्रतिपन्नस्यान्यथाकरण तद्पो योगोव्यापारस्तेन वा योगः-सम्बन्धो विसंवादनयोगस्तन्निषेधोऽविसंदनयोगस्तेनेह च कायर्जुकताऽऽदित्रयं वर्तमानकालाऽऽश्रयमविसंवादनयोगस्त्वतीतवर्त्तमानलक्षणकालद्वयाऽऽश्रय इति। (असुभनामकम्मेत्यादि) इह चाऽशुभनामनरकगत्यादिकम्। (कम्मासरीरप्पओगबंधे णमित्यादि) कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध प्रकरणं तैजसशरीरप्रयोगबन्धप्रकरणवन्नेयम् / यस्तु विशेषोऽसावुच्यते-(सव्वत्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स देसबंधग त्ति) सर्वस्तोकत्वमेषामायुर्वन्धाद्धायाः स्तोकत्वादबन्धाद्धायास्तु बहुगुणत्वात्तदब बन्धकाः संख्यातगुणाः / नन्वसंख्यातगुणास्तदबन्धकाः कस्मान्नोक्तास्तदबन्धाऽद्धाया असंख्यातजीवितानाश्रित्यासंख्यातगुणत्वात्। उच्यते-इदमनन्तकायिकानाश्रित्य सूत्रम्। तत्रा चानन्तकायिकाः संख्यातजीविता एव, ते चाऽऽयुष्कस्याबन्धकास्तद्वेश बन्धकेभ्यः संख्यातगुणा एव भवन्ति / यद्यबन्धकाः सिद्धाऽऽदय स्तन्मध्ये क्षिप्यन्ते, तथाऽपि तेभ्यः संख्यातगुणा एव ते, सिद्धाऽऽद्यबन्धकानामनन्तानामप्यनन्तकायिकाऽऽयुर्बन्धका ऽपेक्षयाऽनन्तभागत्वादिति / ननु यदायुषोऽबन्धकाः सन्तो बन्धका भवन्ति, तदा कथं न सर्वबन्धसम्भवम्तेषामुच्यते, न ह्यायुः प्रकृतिरसती सर्वा तैर्निबध्यते। औदारिकाऽऽदिशरीरवदिति न सर्वबन्धसम्भव इति। प्रकारान्तरेणौदारिकाऽऽदि चिन्तयन्नाह - जस्स णं भंते! ओरालियसरीरस्स सव्वबंधे से णं भंते! वेउव्वियसरीरस्स किं बंधए, अबंधए? गोयमा! णो बंधए, अबंधए। आहारगसरीरस्स किं बंधए, अबंधए? गोयमा! णो बंधए, अबंधए / तेयासरीरस्स किं बंधए, अबंधए? गोयमा! बंधए ! णो अबंधए! जइबंधए कि देसबंधए, सव्वबंधए? गोयमा! देसबंधए, णो सव्वबंधए। कम्मासरीरस्स किं बंधए, अबंधए? जहेव तेयगस्स० जाव देसबंधए णो सव्वबंधए। जस्स णं भंते! ओरालियसरीरस्स देसबंधे ते णं भंते ! वेउटिवयसरीरस्स किं बंधए, अबंधए? गोयमा! णो बंधए अबंधए, एवं जहेव सव्वबंधे णं भणियं तहेव देसबंधेण वि भाणियव्यं० जाव कम्मगस्स। जस्सणं भंते ! वेउव्वियसरीरस्स सव्वबंधे से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए? | गोयमा! णो बंधए, अबंए / आहारगसरीरस्स एवं चेव तेयगस्स कम्मगस्स य जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियव्वं० जाव देसबंधे णो सव्वबंधे। जस्सणं भंते! वेउव्वियसरीरस्स देसबंधे से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं बंधए, अबंधए? गोयमा! णो बंधए अबंधए, एवं जहेव सव्वबंधे णं भणियं तहेव देसबंधेण वि भाणियव्वं० जाव कम्मगस्सा जस्सणं मंते! आहारगसरीरस्स सव्वबंधे से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं बंधए, अबंधए? गोयमा! णो बंधए अबंधए, एवं वेउव्वियस्स वि तेयगकम्माणं जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणि-यव्वं / जस्स णं भंते! आहारगसरीरस्स देसबंधे से णं मंते! ओरालियसरीरस्स एवं जहा आहारगसरीरस्स सव्वबंधे णं भणियं तहा देसबंधेण विभाणियव्वं जाव कम्मगस्स। जस्सणं भंते! तेयासरीरस्स देसबंधे से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं बंधए, अबंधए? गोयमा! बंधए वा अबंधए वा / जइ बंधए किं देसबंधए, सव्वबंधए? गोयमा! देसबंधए वा सव्वबंधए वा / वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए? एवं चेव / एवं आहारगस्स वि। कम्मगसरीरस्स किं बंधए, अबंधए? गोयमा! बंधए, णो अबंधए। जइबंधए किं देसबंधए, सव्वबंधए? गोयमा! देसबंधए, णो सव्वबंधए जस्स णं भंते! कम्मासरीरस्स देसबंधे से णं भंते! ओरालियसरीरस्स जहा तेयगस्स वत्तव्वया भणिया तहा कम्मगस्स वि भाणियव्वा० जाव तेयासरीरस्स० जाव देसबंधए, णो सव्वबंधए। Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1235 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण (जस्सेत्यादि) (नोबंधए त्ति) न होकसमये औदारिकवैक्रिययो बन्धो विद्यत इति कृत्वा नोबन्धक इति / एवमाहारकस्यापि, तैजसस्य पुनः सदैवाऽविरहितत्वाद्वन्धको देशबन्धेन, सर्वबन्धस्तु नास्त्येव तस्येति। एवं कार्मणशरीरस्यापि वाच्यमिति / एवमौदारिकसर्वबन्धमाश्रित्य शेषाणां बन्धचिन्तार्थोऽनन्तरदण्डक उक्तोऽथौदारिकस्यैव देशबन्धमाश्रित्यान्माह - (जस्स णमित्यदि) अथ वैक्रियस्य सर्वबन्धमाश्रित्य शेषाणां बन्धचिन्तार्थोऽन्यो दण्डकस्तत्रा च / (तेयगस्स कम्मगस्स य जहेवेत्यादि) यथौदारिकशरीरसर्वबन्धकस्य तैजसकार्मणयोर्देशबन्धकत्वमुक्तमेवं क्रियशरीरसर्वबन्धकस्यापितयोर्देशबन्धकत्वंवाच्यमिति भावः / वैक्रियदेशबन्धदण्डक आहारकस्य सर्वबन्धदण्डको देशबन्धदण्डकच सुगम एव, तैजसदेशबन्धदण्डके तु (बंधए वा अबंधए व त्ति) तेजसदेशबन्धक औदारिकशरीरस्य बन्धको वा, रयादबन्धको था, तत्र विग्रहे वर्तमानोऽबन्धकोऽविग्रहस्थः पुनर्बन्धकः स एवोत्पत्तिक्षेत्र-प्राप्तिप्रथमसमये सर्वबन्धको, द्वितीयाऽऽदौ तु देशबन्धक इति। एवं कार्मणशरीरदेशबन्धदण्डकेऽपि वाच्यमिति। अथौदारिकाऽऽदिशरीरदेशबन्धकाऽऽदीनामल्पत्वाऽऽदि निरुपणायाऽऽह - एएसि णं भंते! सव्वजीवाणं ओरालियवेउदिवय आहारगतेयाकम्मासरीरगाणं देशबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरे० जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा आहारगसरीरस्स सव्वबंधगा, तस्स चेव देसबंधगा संखेज्जगुणा 2, वेउव्वियसरीरस्स सव्वबंधगा असंखंज्जगुणा 3, तस्स चेव देसबंधगा असंखेज्जगुणा 4, तेयाकम्मगाणं दोण्ह वि तुल्ला अबंधगा अणंतगुणा 5, ओरालियसरीरस्स सव्वबंधगा अणंतगुणा ६,तस्स चेव अबंधगा विसेसाहिया,तस्स चेव देसबंधगा असंखेज्जगुणा 8, तेयाकम्मगाणं देसबंधगा विसेसाहिया , वेउव्वियसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया 10, आहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसहिया। एते हि विग्रहगतिकाः सिद्धाऽऽदयश्च भवन्ति / तत्रा च सिद्धाऽऽदीनामत्यन्ताल्पत्वेनेहाऽऽविवक्षा विग्रहगतिकाश्च वक्ष्यमाणन्यान्ये न सर्वबन्धकेभ्यो बहुतरा इति। तेभ्यस्तदबन्धका विशेषाधिका इति / तस्यैव चौदारिकस्य देशबन्धकाः असंख्यातगुणा विग्रहाद्धापेक्षया देशबन्धाद्धाया असंख्यात-गुणत्वात्तैजसकामणयोर्देशबन्धका विशेषाधिक यस्मात्सर्वेऽपि संसारिणस्तैसकार्मणयोर्देशबन्धका भवन्ति / तत्रा च ये विग्रहगतिका औदारिकसर्वबन्धका वैक्रियादिबन्धकाश्च ते औदारिकदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्त इति / ते विशेषाधिका। इति। वैक्रियशरीरस्याबन्धका विशेषाधिका यस्माद्वैक्रियस्य बन्धकाः प्रायो देवनारका एव, शेषास्तु तद बन्धकाः सिद्धाश्च, तत्र सिद्धास्तैजसाऽऽदिदेश बन्धवेभ्योऽतिरिच्यन्त इतितैर्विशेषाधिका उक्ताः। आहारकशरीरस्याऽबन्धका विशेषाधिका यस्मान्मनुष्याणामेवाऽऽहारकशरीर वैक्रिय तु तदन्येषामपि / ततो वैक्रियबन्धेभ्य आहारकबन्धकानां स्तोकत्वेन वैक्रियाऽबन्धकेभ्य आहारकाऽबन्धका विशेषाधिका इति। इह चेय स्थापना औदारिकस्य वैक्रियस्य सर्वबन्धका |सर्वबन्धका अनन्तगणाः६, असंख्यगुणाः३, देशबन्धका देशबन्धकाः असंख्यगुणाः 8, असंख्यगुणाः 4, अबन्धकाः अबन्धका विशेषाधिकाः७ |शेषाधिका : 10 आहारकस्य तैजसस्य कार्मणस्य सर्वबन्धकाः न सन्ति नसन्ति सर्वस्तोकाः१ सर्वबन्धकाः, सर्वबन्धकाः, देशबन्धका : देशबन्धकाः देशबन्धकाः संख्यगुणाः 2, विशेषाधिकाः 6, विशेषाधिकाः 6, अबन्धकाः वि- अबन्धकाः अबन्धकाः शेषाधिका: 11 अनन्तगुणाः 5 अनन्तगुणाः 5 इहाल्पबहुत्वाधिकारं वृद्धाः गाथाभिरेवं प्रपञ्चितवन्तः "ओरालसव्वबंधा, थोवा अब्बंधया विसेसहिया। तत्तो य देसबंधा, असंखगुणिया कहं भेया ? ||1 // " इहौदारिकसर्वबन्धाऽऽदीनामल्पत्वाऽऽदिभावनार्थं सर्वबन्धाऽऽदिस्वरुपंतावदुच्यते "पढमम्मि सव्वबंधे,समए सेसेसु देसबंधोउ। सिद्धाईण अबंधो, विग्गहगइयाण य जियाण // 2 // " इह ऋजुगत्था विग्रहगत्या चोत्पद्यमानानांजीवानामुत्पत्ति क्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबन्धो भवति। द्वितीयाऽऽदिषु देशबन्धः, सिद्धाऽऽदीनामित्यत्राऽऽदिशब्दाद्वैक्रियाऽऽदिबन्धकानां च जीवानामौदारिकस्याबन्ध इति। इह च सिद्धादीनामबन्धकत्वेऽप्यत्यन्ताल्पत्वेनाविवक्षणाद्विग्रहिकानेव प्रतीत्य सर्वबन्धकेभ्योऽबन्धका विशेषा उक्ताः इत्येतदेवाऽऽह "इह पुण विग्गहिय चिय, पडुच्च भणिया अबंधगा अहिया। सिद्धा अणंतभाग म्मि सव्वबंधाण वि भवंति॥३॥" साधारणेष्वपि सर्वबन्धभावात्सर्वबन्धका सिद्धेभ्योऽनन्तगुणा यत एवं ततः सिद्धास्तेषामनन्तभागे वर्तन्ते। यदि च -सिद्धा अपि तेषामनन्तभागे वर्तन्ते तदा सुतरां वैक्रियबन्धकाऽऽदयः प्रतीयन्त एव, ततस्तान्विहाय एव सिद्धपदमेवेहाधीतमिति / अथ सर्वबन्धकानामबन्धकानां च समताऽभिधानपूर्वकमबन्धकानां विशेषाधिकत्वमुपदर्श यितुमाह - "उजुआ य तेगबका, दुहओ बंका गई भवे तिविहा। पढमाइसव्वधा, सव्वे वीया य अद्धं तु॥४॥ तइयाइ तइयभागों, लब्भइ जीवाण सव्यबंधाण। इह तिन्नि सव्वबंधा, रासी तिन्नेव य अबंधा / / 5 / / रासिप्पमाणओ ते, तुल्ला बंधा य सव्वबंधा य। संखापमाणओ पुण, अबंधगा मुण जहऽन्भहिया॥६॥" ऋज्ज्वायतायां गतौ सर्वबन्धका एवाऽऽद्यसमये भवन्त्येव- मेक स्तेषां राशि, एकवक्राया ये उत्पद्यन्ते तेषां ये प्रथमे समये तेऽबन्धकाः, द्वितीय तु सर्व बन्धका इत्येवं तेषां द्वितीयो राशिः, स चैकवक्राभिधानद्वितीय गत्योत्पद्यमानानामर्द्धभूतो भवतीति. द्विवकया गत्या ये पुनरुत्पद्यन्ते ते आये समयद्वये अबन्धकास्तृतीये तु सर्वबन्धकाः / अयं च Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण सर्वबन्धकाना तृतीयो राशिः, स च द्विवक्राभिधानतृतीयगत्यो त्पद्यमाना-नां त्रिभागभूतो भवति, तृतीयसमयभावित्वात्तस्य, एवं च त्रायः सर्वबन्ध-कानां राशयस्रय एव चाबन्धकानां समयभेदेन राशिभेदादिति, एवं च ते राशिप्रमाणतस्तुल्या यद्यपि भवन्ति तथापि संख्याप्रमाणबोधिका अबन्धका भवन्ति। ते चैवम्"जे एगसमझ्या ते, एगनिगोयम्भि, छिदिसिं एंति। दुसमइया तिपयरिया, तिसमइया सेसलोगाओ॥७॥" ये एकसामयिका ऋजुगत्योत्पद्यमानका इत्यर्थः / ते एकस्मिन् निगोदे साधारणशरीरे लोकमध्यस्थिते षड्भ्यो दिग्भ्योऽनुश्रेण्या आगच्छन्ति ये पुनर्द्विसमयिका एकवक्रगत्योत्पद्यमाना इत्यर्थः / ते त्रिप्रतरिका :प्रतरत्रयादागछन्ति, विदिशो वक्रेणागमनात्, प्रतरश्च वक्ष्यमाणस्वरुपः, ये पुनस्त्रिसमयिकाः समयायेण वक्रद्वयेन चोत्पद्यमानकारते शेषलोकात् प्रतरत्रायातिरिक्तलोकादा गच्छन्तीति / / प्रतरप्ररुपणायाऽऽह"तिरियाऽऽययं च चउदिसि, पयरमसंखप्पएसबाहल्लं। उड्डे पुव्वावरदा-हिणुत्तरा जाय दो पयरा।।८॥" लोकमध्यगतैकनिगोदमधिकृत्य तिर्यगायतश्चतसृषु दिक्षु प्रतरः प्रकल्प्यते, असंख्येयप्रदेशबाहल्यो विवक्षितनिगोदोत्पादकालोचितावगाहनाबाहल्य इत्यर्थस्तन्मात्रबाहल्यावेव। (उडुति) ऊवधिोलोकान्तगतौ पूर्वापरायतो दक्षिणोत्तरायतश्चेतिद्वौ प्रतराविति। अथाधिकृतमल्पबहुत्वमुच्यते "जे तिपयरिया ते छ-दिसिएहिंतो भवंतऽसंखगुणा। सेसा वि असंखगुणाः, स्वेत्ताऽसंखेनगुणियत्ता // 6 // " 'ये जीवारित्रप्रतरिका एकवक्रया गत्योत्पत्तिमन्तस्ते षड् दिक्केभ्य अजगत्या षड्भ्यो दिग्भ्य आगतेभ्यस्सकाशाद्ववन्त्य संख्यगणाः शेषा अपि ये त्रिसमयकाः शेषलोकादागतास्तेऽप्यसंख्येयगुणा भवन्ति। कुतः क्षेत्राऽसंख्यातगुणितत्वाद्यतः षड्दिक्कक्षेत्रात् त्रिप्रतरमसंख्येयगुण, ततोऽपि शेषलोक इति। ततः किमित्याह --- "एवं विसेस अहिया, अबंधया सव्वबंधएहितो। ति समइयविग्गहं पुण, पडुच्च सुत्त इमं होइ // 10 // " वक्रद्वयमाश्रित्येदं सूत्रद्वयमित्यर्थ :"चउसमयाविग्गहे पुण, संखेज्जगुणा अबंधगा होति। एएसिं निदरिसण, ठवणारासीहिं वोच्छामि॥११॥ पढ़मो होइ सहस्सं, दुसमइया दो विलक्खमेक्केछ / तिसमइया पुण तिन्नि वि, रासी कोडी भवेकेक्का // 12 // " प्रथम ऋजुगत्युत्पन्नसर्वबन्धकराशिः सहस्रं परिकल्पितः, क्षेत्रास्याल्पत्यात्, द्विसमयोत्पन्नानां द्वौ राशी, एकोऽबन्धकानामन्यः सर्वबन्धकाना तौ च प्रत्येक लक्षमानौ तत क्षेत्रस्य बहतरत्वात. ये पनस्त्रिभिः समयैरुत्पद्यन्तेतेषां त्रयो राशयस्तत्रचाऽऽद्ययोः समययोरबन्धकराशी, तृतीयस्तु सर्वबन्धकराशिस्ते च त्रयोऽपि प्रत्येक कोटीमाना तत्क्षेत्रस्य बहुगतत्वादिति, तदेवं राशित्रयेऽपि सर्वबन्धकाः सहसंलक्षं कोटी चैवं सर्वस्तोकाः, अबन्धकास्तु लक्ष कोटीद्वयं चेत्येवं विशेषाधिकास्तइति "एएसिं जहसंभव -- मत्थोववणं करेज रासीण। एतो असंखगुणिया, वोच्छं जह देसबंधा से।।१३।। एगो असंखभागो, वट्टइ उव्वट्टणोववायम्मि। एगनिगोए निचं, एवं सेसेसु विसए वा / / 14 / / अंतोमुत्तमेव, ठिई निगोयाण जं विणिदिट्ठा। पल्लमृति निगोया, तम्हा अंतोमुहत्तेणं / / 15 / / " अनेन च गाथाद्रयेनोद्वर्तनाभणनात् विग्रहसमयसंभवोऽन्त मुहूर्तान्ते परिवर्तनामणनाच निगोदस्थितिसमयमानवमुक्तम् / ततश्च -- "तेसिं ठिइसमयाण, विग्गहसमया हवंति जइ भावे। एवं तिभागे सवे, विग्गहिया सेसजीवाणं॥१६॥ सव्वे विय विग्गहिया, सेसाणं जं असंखभागस्मि। तेणासखगुणा दे-सबंधया अबंधएहिंतो॥१७॥ वेउव्वियआहारण-तेयाकम्मापढियसिद्धाई। इह वि विसेसो जो ज-त्थ तत्थ तं तं भणीहामि // 18 / / वेउव्विसव्वबंधा, थोवा जे पढमसमयदेवाई। तस्सेव देसबंधा, असंखगुणिया कई के वा? ||16 / / " उच्यते"तेसिं चियजे सेसा, ते सव्वे सव्वबंधए मोप्तुं। होंति अबंधाणंता, तव्वजा सेसजीवा जे॥२०॥' अयमर्थः तेषामेव वैक्रियबन्धकानां सर्वबन्धकान्मुक्त्वा ये शेषास्ते सर्वेवैक्रियस्य देशबन्धका भवन्ति, अत्र च सर्वबन्धकान् मुक्त्वेत्यनेन कथमित्यस्य निर्वचनमुक्तं, ये शेषा, इत्यनेन तु के वेत्यस्येति, अबन्धकास्तु तस्याऽनन्ता भवन्ति, ते च के? ये तद्वर्जा : वैक्रियसर्वदेशबन्धकवर्जाः शेषजीवास्ते चौदारिकाऽऽदिबन्धका देवाऽऽदयश्च वैग्रहिका इति // 20 // "आहारसव्वबंधा, थोवा दो तिन्नि पंच वा दस वा। संखेज्जगुणा दंसे, तओ पुहुत्तं सहस्साणं / / 21 / / तव्वज्जा सव्वजिया, अबंधया ते हवंतिणंतगणा। थोवा अबंधया ते-यगस्स संसारमुक्का जे।२२॥" तदर्जा-आहारकबन्धवाः सर्वजीवा अबन्धका इत्याहारका बन्धकस्वरूपमुक्तं, तेच पूर्वेभ्योऽनन्तगुणा भवन्ति। "सेसा य देशबंधा, तव्वज्जा ते भवंतऽणंतागुणा। एवं कम्मगभेया, वि नवरि नाणत्तमाउम्मि॥२३॥" तचाऽऽयुर्नानात्वमेवम्"थोवा आउयबंधा संखेजगुण अबंधया हॉति। तेयाकम्माण सव्वबंधगा नत्थि णाइत्ता / / 24 // " संख्यातगुणा आयुष्कारबन्धका इति यदुक्तं तत्रा प्रश्नआह"असंखेज्जगुणाउ-गस्स किं अबंधगा न भण्णंति। जम्हा असंखभागो, उ वट्टइ एगसमएणं // 25 // " अयमभिप्रायः-एकोऽसंख्यभागो निगोदजीवानां सर्वदोधर्तते, स च बद्धाऽऽयुषामेव, तदन्येषामुद्वर्तनाभावात्, तेभ्यश्च ये शेषास्तेऽबद्धाऽऽयुषस्ते च तदपेक्षयाऽसंख्यातगुणा एवेत्येवम संख्यातगुणा आयुष्काबन्धकाः स्युरिति। अत्रोचयते "भण्णइ एगसमइओ, कालो उट्वट्टणाइँ जीवाणं / बंधणकालो पुण आ-उगस्स अंतोमुत्तो उ॥२६॥" अयमभिप्रायः-निगोदजीवभवकालाऽपेक्षया तेषामायुर्बन्ध कालः संख्यात भागवृत्तिरित्यबन्धकाः संख्यातगुणा एव। एतदेव भाव्यते"जीवाण ठिईकाले, आउयबंधऽद्धभाइए लद्धं / एवइभागे आउ-स्स बंधया सेसजीवाणं / / 27 // " निगोदजीवानां स्थितिकालः अन्तर्मुहूर्तमानः, सच कल्पनया समयलक्ष, तत्राऽऽयुर्बन्धाद्धाया आयुर्वन्धकाले नान्तमुहूर्त माने नै व कल्पनया समयसहस्रलक्षणे न भाजिते सति य - Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1237 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण ल्लब्ध कल्पनया रातरुपं च एतावति भागे वर्तन्ते आयुर्बन्धकाः शेषजीवाणां तदबन्धकानामित्यर्थः, ता किल लक्षाऽपेक्षया शतं संख्येयतमो भागोऽतो बन्धकेभ्योऽबन्धकाः संख्येयगुणा भवन्तीति। एतदेव भाव्यते-- "ज संसेजइभागो ठिइकालस्साऽऽउबंधकालो उ। तम्हा संखगुणा से, अबंधया बंधएहितो।।२८।।" (से ति) आयुषः / "सजोगऽप्पायबहुय, आहारगसव्वबंधगा थोवा। तस्सेव देसबंधा, संखगुणा ते य पुव्वुत्ता।।२६ / / तत्तो वेउव्वियस व्यबधगा दरिसिया असंखगुणा। जनसंखा देवाऽऽह, उववजंतेगसमएण।।३०।। तस्सव देसबंधा, असंखगुणिया हवंति पुव्वुत्ता। तेवगकम्माबंधा-ऽणतगुणिया य ते सिद्धा। 131 / / तत्तो उ अणतगुणा,ओरालियसव्वबंधगा होति। तस्सेव लओ बंधा, देसब्बंधा य पुवुत्ता।।३२।। तत्तो तेयगकम्मा-ण देसबंधा भवे विसेसऽहिया। ते चेवोरालियदे-सबंधगा होंति मेवन्ने।।३३।। जे तस्स सव्वबंधा, अबंधगा जेय नेरइयदेवा। एपहिसाहियाते.पूणाइके सव्वसंसारी।।३४।। वेउब्वियस्स तत्तो, अबंधगा साहिया विसेसेण। ते चेवइ नेरइया-इँविरहिया सिद्धसंजुत्ता।।३५ / / आहारगस्स तत्तो, अबंधगा साहिया विसेसेण / ते पुण के सव्वजिया, आहारगलद्धिए मोत्तु / / 36 / / " भ०८श०६उ०। कइविह णं भंते! बंधे पण्णते? गोयमा! दुविहे बंधे पण्णत्ते। तं जहा-इरियावहियाबंधे य, संपराइयबंधे य। (कइविहेत्यादि) (बंधे त्ति) द्रव्यतो निगडाऽऽदिबन्धो, भावतः कर्मबन्धः / इह च प्रक्रमात्कर्मबन्धोऽधिकृतः / (इरियाबहियाबंधेउ त्ति) ईयागमनं तत्प्रधानः पन्थामार्गःईर्यापथस्तत्रा भवमैर्यापथिक, केवलयोगप्रत्ययं कर्म, तस्य यो बन्धः, स तथा चैकस्य वेदनीयस्य। (संपराइयबंधे य त्ति) संपरेतिसंसारं पर्यटति एभिरिति संपरायाः कषायास्तेषु भवं सांपरायिकं कर्म, तस्य यो बन्धः स सांपरायिकबन्धः कषायप्रत्यय इत्यर्थः / स चावीतरागगुण स्थानकेषु सर्वेष्विति। भ०५ श० 8 उ01 ('इरियाबहियबंध' शब्दे 2 भागे 627 पृष्ट तद्वत्कव्यता। 'संपराइयबंध' शब्दे तद्वक्तव्यता च।) सहजं तु मलं विद्या-त्कर्मसंबन्धयोग्यताम् / आत्मनोऽनादिमत्वेऽपि, नायमेनां विना यतः / / 164 / / सहज तु सहजं पुनर्मलं विद्याज्-जानीयान, कामित्याह कर्मसंबन्धयोग्यतांज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मसंश्लेषनिमित्त भावम्। कस्येत्याहआत्मनोजीवस्य / कुत इत्याह - अनादिमत्वेऽपि बन्धस्य न-नैवायं बन्धः, एना योग्यतां जीवस्य विनाऽन्तरेण, यतः-यस्मात्कारणात्किलानादिमान भावो गमनाऽऽदिर्ग कञ्चन हेतुं स्वस्वभावलाभे अपेक्षते, बन्धश्च प्रवाहापेक्षयैवाऽनादिमांस्ततो न जीवयोग्यतामन्तरेणैव उपप द्यतेऽन्यथाऽनेकदोषप्रसङ्गात्। एतदेव दर्शयतिअनादिमानपि शेष, बन्धत्वं नातिवर्तते। योग्यतामन्तरेणापि, भावेऽस्यातिप्रसङ्गता।।१६५।। अनादिमानपि हि आदिभूतबन्धकालविकलोऽपि प्रवाहापेक्षया किं पुनव्याक्तिमपेक्ष्याऽऽदिमानित्यपिहि शब्दार्थः। एवबन्धो, बन्धत्यं जीयेन गृह्यमाणकारर्मणवर्गणा पुद्रलरुपतया कृतकत्वम्, नातिवर्तते-अतिक्रामति। ततो यो वो बन्धः स स बध्यमान-योग्यतामपेक्षतः, यथा वस्त्रकम्बलाऽऽदीनां मजिष्ठालाक्षाऽऽदिरागरुपः, बन्धश्च जीवस्य कर्मणा संयोगस्तरमादवश्यं तयोर्योग्यतामपेक्षते इति / अत्रीय विपक्षे बाधामाह -योग्यता योग्यकषायपरिणतिरुपा मन्तरेणाऽपि विना किं पुनः प्राच्यप्राच्यतराऽऽदिबन्धमित्यपि शब्दार्थः / भावेसत्तायामस्य बन्धस्याभ्युपगम्यमानेऽति प्रसङ्गताऽतिव्याप्तेः सत्वमिति। इदमेव भावयतिएवं चानादिमान मुक्तो, योग्यताविकलोऽपि हि। बध्येत कर्मणा न्याया-तदन्यामुक्तवृन्दवत्॥१६६ / / एवं चातिप्रसङ्गे च सति, अनादिमान्मुक्तः सदा शिवरुपः परपरिकल्पितः। किमित्याह-योग्यताविकलोऽपि हि प्रस्तुत योग्यतारहितः, किं पुनस्तद्युक्त इत्यपिहिशब्दार्थः / बध्येत पारवश्यमानीयेत, कर्मणाsदृष्टसंज्ञेन, न्यायातयोग्यतावैकल्याऽऽदिविशेषलक्षणात्। दृष्टान्तमाह - "तदन्यामुक्तवृन्दवत् “तस्मादनादिमतो मुक्ताद्यदन्यदमुक्त वृन्दं संसारि जीवलक्षण तद्वत्। अत्रा पर :तदन्यकर्मविरहा-न चेत्तद्वन्ध इष्यते। तुल्ये तद्योग्यताभावे, न तु किं तेन चिन्त्यताम् ? ||167 / / दन्यकर्मविरहात्तस्मात्संप्रतिबन्धुमिष्टाद्यदन्यत्प्राकालबद्धं कर्म तद्विरहात्, ने चेद्यदि, तद्बन्धस्तस्मादनादिमतो मुक्तस्य बन्ध इष्यते अभिमन्यते आचार्याः / तुल्ये-समाने सर्वजन्तुषु, तद्योग्यताभावे कर्मबन्धयोग्यताया विरहः / न त्विति परपक्षा-क्षमायाम्। किं प्रयोजन तेन प्राच्यकर्मबन्ध विरहेणोत्तरतया परिकल्पितेन, चिन्त्यतां-परिभाव्यतामेतत् / अयमभिप्रायः-यदि योग्यतामन्तरेणाऽपि शेषसंसारिणां कर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते तदाऽनादिमुक्तेऽपि सोऽस्तु, उभयत्रोऽपि योग्यता विरहाविशेषात्। अथोपसंहरन्नाहतस्मादवश्यमेष्टव्या, स्वाभाविक्येव योग्यता। तस्यानादिमती सा च, मलनान्मल उच्यते // 168 // तरमाद्-अनादियुक्तकर्मबन्धप्रसङ्गाद्धेतोरवश्यं नियमेनेष्टव्या स्वाभाविक्येवस्वभावभूतैव योग्यता कर्मबन्धं प्रति। तस्याऽऽत्मनोऽनादिमती अनादिकालप्रवृत्ता। सा च योग्यता पुनर्मलनात् जीवस्वभावविष्कम्भणान्मल उच्यत इति। एनामेव तन्त्रान्तरमताऽऽविष्करणेन समर्थयमान आह दिदृक्षाभावबीजाऽऽदि-शब्दवाच्या तथा तथा। इष्टा चान्यैरपि ह्येषा, मुक्तिमार्गावलम्बिभिः / / 166 // पुरुषस्य प्रकृतिविकारान् द्रष्टु मिच्छा दिदृक्षा सांख्यानां, Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1238 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधण भवबीज शैवाना, भ्रान्तिरुपाऽविद्या वैदान्तिकानामनादिक्लेश रुपा कश्चिन्निāष्ट्रमशक्यः प्रमोदोहर्षो , विभृम्भते-समुच्छलति, चेतस्यन्तः वासना सौगतानां, ततो दिदृक्षाभवबीजाऽऽदिभिः शब्दैरुच्यते या सा। करणेऽस्य सत्साधकस्य, कुतः कस्माद्धेतोः, तेन प्रमोदविजृम्भणेन तथा तथा तेन तेन दर्शनभेदप्रकारेणेष्टाचाभिमतैव, अन्यैरप्यस्मद्वि- खेदोऽपि यः प्रागत्यन्तरुपतयोक्तः प्रमोदस्तावजृम्भत एवेत्यपिशब्दार्थः / लक्षणैः, किं पुनरस्माभिरित्यपिहि शब्दार्थः / एषा कर्मबन्धयोग्यता। लभते प्राप्नोत्यन्तरम वकाशमिति। मुक्तिमार्गावलम्बिभिर्निवृत्तिपुर पथप्रस्थितैरिति। अथ दार्शन्तिकमधिकृत्यैतद्विशेषमाहएवं सति यत्सिद्धं तदाह न चेयं महतोऽर्थस्य, सिद्धिरात्यन्तिकी न च / एवं चापगमोऽप्यस्याः, प्रत्यावर्त सुनीतितः। मुक्तिः पुनर्रयोपता, सत्प्रमोदाऽऽस्पदं ततः॥१७५ / / स्थित एव तदल्पत्वे, भावशुद्धिरपि ध्रुवा / / 170 // नच-नैवयं विद्याऽदिविषया महतो गरीयसोऽर्थस्य साध्यस्य सिद्धिएवं चास्यां च कर्मबन्धयोग्यतायां सत्याम, अपगमोऽपि व्यावृत्ति- | रुक्तरुपाऽऽत्यन्तिकी अत्यन्तभवा, न च भूत्वाऽपि पुनर्विनाशात्। मुक्तिःरूपोऽनपग मस्तावदस्त्येवेत्यपिशब्दार्थोऽस्यायोग्यतायाः प्रत्यावर्त प्रति पुनर्दयोपेता महत्वाऽत्यन्तिक भावयुक्तासत्प्रमोदाऽऽस्पदं सतः सर्वातिपुद्रलपरावर्त्त नैकस्मिन्नेव चरमावर्ते इत्यर्थः। सुनीतितो दोषाणां क्रम- शायिनः प्रमोदस्य स्थान, ततो द्वयोपितत्वाद्धेतोरिति / यो० वि० / इह ह्रासलक्षणात्सन्न्यायात्, स्थित एव-प्रतिष्ठिते एव, ततस्तल्पत्वेमला- द्विधा बन्धोमहाबन्धश्च, इतरश्च। तत्रा मिथ्याद्दष्टिर्महाबन्धः, शेषश्चेतल्पत्वे भावशुद्धिरपि परिणतिनिर्मलता, किं पुनः प्रत्यावर्त मलापगम रश्च। यो०वि०॥ इत्यपिशब्दार्थो, धुवानिश्चिता स्थिता, अन्यथा मलापगस्यैवाभावा सम्प्रति "संते वा पनरबंधणे तिसयं" इति गाथासूचित दिति। बन्धनपञ्चदशकं व्याचिख्यासुराहततः शुभमनुष्ठानं, सर्वमेव हि देहिनाम्। ओरालविउव्वाऽऽहा-रयाण सगतेयकम्मजुत्ताणं। विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वेन, तथाबन्धेऽपि तत्त्वतः॥१७१।। नवबंधणाणि इयरदु-साहियाणं तिन्नि तेसिं च // 36 / / ततो भावशुद्धः सकाशाच्छुभं श्रेयस्कारि अनुष्ठानं धर्मार्थाऽऽदिगोचरं औदारिकवैक्रियाऽहारकशरीराणां नवबन्धनानीति योगः। कीदृशानासर्वमेव, हि स्फुट, देहिनां शरीरभाजाम, केनेत्याह-विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वेन मित्याह-स्वकतैजसकाम॑णयुक्तानां प्रत्येकं स्वकतैजसकार्मणानां व्यावृत्तात्यन्तवितथाभिनिवेश भावेन, 'तथाबन्धेऽपि' तत्प्रकाराल्पा:- मध्यादन्यतरेण युक्तानामित्यर्थः / (नव त्ति) नवसंख्यानि बन्धनानिबल्पतरबन्धसद्भावेऽपि किं पुनस्तस्याप्यभाव इत्यपिशब्दार्थः / तत्थतो- न्धनप्रकृतयो भवन्तीति / औदारिकवैक्रियाऽहारकाणां त्रयाणामपि निश्चयवृत्या जायत इति। प्रत्येक स्वनाम्ना तैजसेनकार्मणेन च योगाद् द्विकसंयोगनिष्पन्नान्येकेकनात एवाणवस्तस्य, प्राग्वत् संक्लेशहेतवः। स्यौदा रिकाऽऽदेस्त्रीणि त्रीणि बन्धनानि भवन्ति, तेषां च त्रयाणां तथाऽन्तस्तत्वसंशुद्धे--रुदग्रशुभभावतः / / 172 / / त्रिकाणा मीलने नव बन्धनानीति। तथाहि-औदारिकौदारिक बन्धनन-नैवात एव विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वादेवाऽणवो-ज्ञानाऽऽवरणादि कर्माण- नाम्, औदारिकतैजसबन्धननाम्, औदारिककार्मण बन्धननाम्। वस्तस्य चरमपुद्गलपरावर्त्तवर्त्तिनो जन्तोः। प्राग्वत् प्राच्यपरावर्तेष्विव। वैक्रियवैक्रियबन्धननाम, वैक्रियतैजसबन्धननाम, वैक्रियकार्मणबन्धसंक्लेशहेतवो मालिन्यनिबन्धना जायन्ते, तथेति हेत्वन्तरसमुचये, ननाम / आहारकाऽऽहारकबन्धननाम, आहारक तैजसबन्धननाम्, अन्त स्तत्वसंशुद्धेरन्तस्तत्वमात्मा तस्य संशुद्धेः स्वभावभूतम लक्षयाद् आहारककार्मणबन्धननाम्, ता पूर्वगृहीतैरौदारिकशरीरपुरलैः सह य उदग्रउत्कृष्टः शुभो भावस्तस्मात्। गृह्यमाणौदारिकपुरलानां बन्धो येन क्रियते तदौदारिकौदारिकबन्धनअयं चास्य तथाविधकर्मबन्धो भवन्नपिन तथा नाम् / येनौदारिक पुगलानां तैजसशरीरपुरलैः सह सम्बन्धी विधीयते विधभयाय संपद्यत इति दर्शयन्नाह - तदौदारिकौदारिकतैजसबन्धननाम्।येनौदारिकपुद्गलानां कार्मणशरीर सत्साधकस्य चरमा, समयाऽपि विभीषिका। पुगलैः सह सम्बन्धी विधीयते तदौदारिककार्मणबन्धननाम / एवमेनन न खेदाय यथाऽत्यन्तं, तद्वदेतद्विभाव्यताम् // 173 / / न्यायेनान्यान्यपि बन्धनानि वाच्यानि / शेषबन्धननिरुपणायाऽऽहसत्साधकस्य तथाविधां विद्या सम्यग् साधयितुं प्रवृत्तस्य पुंसश्चरमा "इयरदुसहियाणं तिन्नि त्ति' इतरे स्वकीयनामापेक्षयाऽन्ये तैजसपर्यन्तवर्तिनी समयाऽपि सनिहिताऽपि, किं पुनर्दूर इत्यपिशब्दार्थो , कार्मणशरीरे, ततः प्राकृतत्वा दन्यथोपन्यासेऽपि द्वे च ते इतरे च द्वीतरे विभीषिका वेतालाऽऽदिदर्शनरुपा, नखेदाय श्रमाय, यथाऽत्यन्तमतीव, ताभ्यां सहितानि युक्तानि द्वीतरसहितानि / यद्गा (दु त्ति) द्विकं इतरच तद्वत् साधकचरमविभीषिकावत्, एतत् चरमाऽऽवर्तकर्मबन्धरूपं वस्तुः, तदद्विक चेतरद्विकं तेन सहितानि इतरद्विकसहितानि तेषां द्वीतरसहि विभाव्यतां विमृश्यता, विवेकवता प्रधानाऽनागतवस्तुप्रतिबन्धा- तानामितरद्विकसहितानां वा / औदारिकवैक्रियाऽऽहारकाणा मत्रापि चेतस इति। योज्यम्। त्रीणि बन्धनानि भवन्ति / अयमाशयः-प्रत्येकमौदारिक दृष्टान्तमेवाधिकृत्याऽऽह वैक्रियाऽऽहारकाणा तैजसकार्मणाभ्यां युगपत् संयोगे त्रिकसंयोगरुपाणि सिद्धरासन्नभावेन, यः प्रमोदो विजृम्भते। त्रीणि बन्धनानि भवन्ति। तथाहि-औदारिकतैजसकामणबन्धननाम, चेतस्यस्य कुतस्तेन, खेदोऽपि लभतेऽन्तरम् ? // 174 / / / वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननाम, आहारकतैजसकामणबन्धननाम्। अर्थः सिद्धेर्विद्याऽऽदिवशीभावस्याऽऽसन्नभावेन-सन्निहितत्वेन, यः / पूर्वोक्त एव / न केवल मेषा मौदारिकाऽऽदीनामितर द्विक सहिता नामेव Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधण 1236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधणविमोयणगइ त्रीणि बन्धनानि भवन्ति, किंतु-(तेसिंच त्ति) त्रीणीति शब्दो डमरुक- तैजसपुदलानां कार्मणपुरलानाम् / किं विशिष्टानाम मित्याहमणिन्यायादत्रापि योज्यः / ततोऽयमर्थ :- तयोश्चेतर शब्दवाच्य- | "निबद्धबज्झंतवाण त्ति।" निबद्धाश्च बध्यमानाञ्च निबद्धबध्यमानायोस्तैजसकार्मणयोः स्वनाम्ना इत्तरेण च योगे त्रीणि बन्धनानि भवन्ति / स्तेषां निबद्धबध्यमानानां पूर्वबद्धानां बध्यमानानां च यत् कर्म संबन्धं यथा तैजस तेजसबन्धननाम, तैजसकार्म णबन्धननाम, कार्मण- परस्परं मीलनं करोति दारुणामिव जतु, अत एव जतुसमं तदीदारिकाकार्मणबन्धननाम / तदेवं नव त्रीणि त्रीनि च मिलितानि पञ्चदश ऽऽदिबन्धनमादि शब्दाद्वैक्रियबन्धनमाहारक बन्धनं तैजसबन्धनं बन्धनानीति / अत्राऽऽह–पञ्चानां शरीराणां द्विकाऽऽदियोगप्रकारेण कार्मणबन्धनंज्ञेयम्-ज्ञातव्यमितिगाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-इह पविशतिः संयोगा भवन्ति / त तुल्यबन्धनानि च कस्मान्न भवन्ति? पूर्वगृहीतैरौदारिकपुरलैः सह परस्परं गृह्यमाणानौदारिक पुगलानुदितेन उच्यते-औदारिक वैक्रियाऽऽहारकाणा परस्परविरुद्धानामन्योऽ- येन कर्मणा बध्नात्यात्माऽन्योन्यसंयुक्तान् करोति, तदौदारिकशरीरन्यसंबन्धाभावातपञ्चदशैव भवन्ति.नाधिकानि। आह-यथा पञ्चदश बन्धननाम दारुपाषाणाऽऽदीना जतुरा लाप्रभृतिश्लेषद्रव्यतुल्यम् / बन्धनानि भवन्ति, एवमनेनैव क्रमेण पञ्चदश सङ्घाता अपि करमान्ना पूर्वगृहीतैर्वक्रियपुद्गलैः सह परस्पर गृह्यमाणान् वैक्रियपुगलानुदितेन येन भिधीयन्ते, सङ्घातितानामेव बन्धनभावात् / तथाहि-पाषाणयुग्मस्य कर्मणा बध्नात्यात्मा ऽन्योन्यसंयुक्तान् करोति, तज्जतुसम वैक्रियशरीरकृतसंघातस्यैवोत्तरकालं वज्रलेपरालाऽऽदिना बन्धनं क्रियते। तदसत् बन्धननाम्। पूर्वगृहीतैराहारकशरीरपुरलैः सह परस्परं गृह्यमाणानाहारक यतो लोके ये स्वजातौ संयोगा भवन्ति त एव शुभाः, एवमिहापि पुद्गलानुदितेन येन कर्मणा बध्नात्यात्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति, स्वशरीरपुरलानां स्वशरीरपुरलैः सह ये संयोगरुपाः संघातास्ते शुभा तज्जतुसममाहारकशरीरबन्धननामा पूर्वगृहीतैस्तैजस पुदलैः सह परस्परं इति प्राधान्यख्यापनाय पञ्चैव संघाता अभिहिता इति।।३६ / / कर्म० गृह्य माणाँस्तैजसपुद्रलानुदितेन येन कर्मणा बध्नात्यात्माऽन्योऽन्य१ कर्म०। संयुक्तान् करोति तज्जतुसमतैजसशरीरबन्धननाम पूर्वगृहीतैः कर्मणपुद्गलैः बंधणचुय त्रि० (बन्धनच्युत) वृन्ताऽऽदिरुपाद् बन्धनाच्च्युते, "ताले सह परस्परं गृह्यमाणान कार्मणपुद्रलानुदितेन येन कर्मणा बध्यनात्याजह बंधणचुए, एवं आउखयम्मि तुट्टति।" तालफलं यथा बन्धनात त्माऽन्यो ऽन्यसंयुक्तान् करोति, तज्जतु सम) कार्मणशरीरबन्धननाम् / यदि पुनिरदं शरीरपञ्चकपुद्लानामौदारिकाऽऽदिशरीरनाम्नः सामवृन्ताच्च्युतः भूमौ पतति एवं जन्तुरपि स्वाऽऽयुःक्षये त्रुट्यतिच्यवते। दि गृहीतानामन्योऽन्यसंबन्धकारि बन्धनपञ्चकंन स्यात्ततस्तेषां सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०।। शरीरपरिणतो सत्यामप्यसंबन्धत्वात् पवनाऽऽहतकुण्डस्थिता-स्तीमिबंधणच्छेयणगइ स्त्री० (बन्धनच्छेदगति) बन्धनस्य-कर्मणः सम्बन्धस्य तसक्तूनामिबैका स्थैर्य न स्यादिति।।३४ / / कर्म०१ कर्म०। वा छेदेनऽभावे गतिर्जीवस्य शरीरस्य वा जीवाद् बन्धनच्छेदनगतिः। बंधणपञ्चइय पुं० (बन्धनप्रत्ययिक) बध्यतेऽनेनेति बन्धनं विवक्षितस्निगतिभेदे, भ०८ श०६उ०। धिताऽऽदिकोगुणः, स एव प्रत्ययो हेतुर्यत्र स तथा। बन्धनजे बन्धे, भ० बंधणच्छेयणया स्त्री० (बन्धनच्छेदनता) एरण्डफलस्येव कर्मबन्धन ८श०६ उ०। च्छेदने, भ०६श०७ उ०॥ बंधणपरिणाम पुं० (बन्धनपरिणाम) पुद्गलानां परस्पर संश्लेषपरिणामे, बंधणणाम न० (बन्धननामन्) बध्यन्ते-गृह्यमाणाः पुद्गलाः पूर्वगृहीतपुद्गलैः स्था० १०टा०। सह संश्लिष्टाः क्रियन्ते येनत द्वन्धनं, तदेव नाम बन्धननाम / कर्म०१ सर्वत्र बन्धनपरिणामलक्षणं चैतत्कर्म० / यदुदयादौदारिकाऽऽदिपुद्गलानां पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां च "समणिद्धयाएँ बंधो, न होइ समलुक्खयाए वि न होइ। परस्परमन्यशरीरपुद्गलैश्च सह सम्बन्धः / तस्मिन्नामकर्मभेदे, कर्म०। वेमायनिद्धलुक्ख-तणेण बंधो उ खंधाणं / / 1 / / " तत्पञ्चधा / तद्यथा- औदारिकबन्धनम्, वैक्रियबन्धनम्, आहारक एतदुक्तं भवति-समगुणस्निग्धस्य समगुणस्निन्धेन परमाण्णवादिना बन्धनम्, तेजस बन्धनम्, कार्मणबन्धनम् / तत्रा य दुदयादौदारिक बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्याऽपि समगुणरूक्षेणेति यदा विषमा मात्रा पुदलानांपूर्व गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तेजसाऽऽदिशरीरपुद्रलैश्च तदा भवति बन्धः / विषममात्रानि रुपणार्थमुच्यते--"निद्धस्स निद्धेण सह संबन्धस्तदौदारिकबन्धनम्। एवं वैक्रियबन्धनम्, आहारक बन्धनं दुयाहियेणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहियेणं / निद्धस्स लुक्खेण उवेइ च भावनीयम्। यदुदयात्पुनस्तैजसपुद्गलाना पूर्वगृहीतानां गृह्यमाणानां बंधो, जहण्णवज्जो विसमो समो वा / / 1 / / " इति। स्था० 10 ठा०। च परस्परं कार्मणशरीरपुद्गलैश्च सह संबन्धस्तत्तैजसबन्धनम्। यदुदयात् बंधणविमोयणगइ स्त्री (बन्धनविमोचनगति) बन्धनविच्युतानां विस्तरकर्मपुद्रलानां पूर्व गृहीताना गृह्यमाणानां च परस्परं संबन्धस्तत्कार्मण- तया नियाघातेन गमने, प्रज्ञा०। बन्धनम्। केचित्पुनर्बन्धस्य पञ्चदश भेदानाचक्षते, ते च पञ्चसंग्रहा- से किं तं बंधणविमोयणगती? बंधणविमोयणगतीजणं अवाण ऽऽदिग्रन्थतो वेदितव्याः / कर्म०६ कर्म०। पं० सं०। प्रव०। वा अंवाडगाण वा मातुलुंगाण वा चिल्लाण वा कविट्ठाण वा साम्प्रतं बन्धननामस्वरुपमाह -- भव्वाण वा फणसाण वा दालिमाण वा पारेवताण वा उरलाइपुग्गलाणं, निबद्धबझंतयाण संबंधं / अक्खल्लोवाण वा चाराण वा तंदुलाण वा पक्काणं परियागगताणं जं कुणइ जउसमं तं, उरलाईबंधणं नेयं // 34 // बंधणाओ विप्पमुक्काणं णं णिव्वाधाएणं अहे वीसाए गती औदारिकाऽऽदिपुगलानामादिशब्दाक्रियपुद्गलानामाहारक पुद्रलानां पवत्तइ / प्रज्ञा०१६ पद। Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधणुम्मुक्क 1240 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधमोक्खसिद्धि बंधणुम्मुक्क त्रि० (बन्धनोन्मुक्त) स्नेहाऽऽत्मकेन कर्माऽऽत्मकेन वा / बन्धनेन प्राबल्येन मुक्ते, सूत्रा० 1 श्रु०३ अ० 4 उ०। बंधणोवक्कम पुं० (बन्धनोपक्रम) बन्धन कर्मपुद्रलानां जीवप्रदेशानां च परस्परं सम्बन्धनमिदं च सूत्रमात्रबदलोहश लाकासंबन्धोपममवगन्तव्यं तस्योपक्रम उक्तार्यो बन्धनोपक्रमः। आसकलितावस्थस्य वा कर्मणो बद्धावस्थीकरण संबन्धनम् / तदेवोपक्रमो वस्तुपरिकर्मरुपो बन्धनोपक्रमः। उपक्रमभेदे, स्था०। बंधणोवक्कमे चउव्दिहे पण्णत्ते / तं जहा-पगइबंधणोवक्कमे, ठिइ बंधणोवक्कमे, अणुभावबंधणोवक्कमे, पएसबंधणोवक्कमे / / बन्धनोपक्रमो-बन्धनकरणं चतुर्दा, ता प्रकृतिबन्धन स्योपक्रमा जीवपरिणामो योगरुपस्तस्य प्रकृतिबन्धहेतुत्वादिति। स्थितिबन्धनस्याऽपि स एव, नवर कषायरुपः स्थितेः कषायहेतु कत्वादिति। अनुभागबन्धनोपक्रमोऽपि परिणाम एव, नवरं कषायरुपः, प्रदेशबन्धनोपक्रमस्तु स एव योगरुप इति / यत उक्तम् - "जोगा पयडिपएस, ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ / " इति / प्रकृत्यादिबन्धनानामान्तर्माहूर्तानान्तः कोटीकोटी रुपाऽऽरम्भा वा उपक्रमा इति। स्था० 4 ठा०२ उ०। बंधदसा स्वी० (बन्धदशा) दशाध्ययनप्रतिबद्धे श्रुतभेदे, स्था०। बंधदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा-"बंधे मुक्खे य देवड्डी, दसारे मंडले इय" / आयरियविप्पडिवत्ती उवज्झाय विप्पडिवत्ती भावणा विमुत्ती सातोकम्मे। बन्धदशानामपि बन्धाऽऽद्यध्ययनानि श्रौतेनार्थेन व्याख्या तव्यानि। स्था०१० ठा०1 बंधपय न० (बन्धपद) देहिनां कुवासनाहेतुत्वात्परसभय पदे प्रकृतिस्थि त्यनुभागप्रदेशलक्षणभेदभिन्नस्य प्रतिपादके, अनु० / बंधप्पमोक्ख पुं० (बन्धप्रमोक्ष) बन्धात्सकाशादात्मनः पृथग् बन्धने, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। बंधभेय पुं०(बंधभेद) मूलप्रकृतिबन्धरुपस्याष्टविधस्योत्तर प्रकृतिबन्ध स्वभावस्य च सप्तनवतिप्रमाणस्य प्रज्ञापने, ध०१ अधि०। बंधमोक्खसिद्धि स्त्री० (बन्धमोक्षसिद्धि) बन्धमोक्षसिद्धी, विशे०। मण्डिकगणधरवक्तव्यताकिं मन्ने बंधमोक्खा, संति न संति त्ति संसओ तुज्झ। वेयपयाण य अत्थं, न याणसी तेसिमो अत्थो।।१८६४॥ मण्डिक! त्वमित्थं मन्यसे-किं बन्ध मौक्षौ स्तो, न वा? इति / अयं | चानुचितस्तव संशयः, विरुद्धवेदपदश्रुतिनि बन्धनन्वात्। तथाहि-"स एव विगुणो विभुर्न बध्यते संसरतिवा० न मुच्यते मोचयति वा, न वा एष बाह्यमभ्यन्तरवा वेदा' इत्यादीनि वेदपदानि; तथा-"नह वैसशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाऽप्रियेन स्पृशतः।" इत्यादीनि च / एतेषां चार्थ त्वं न जानासि, यतोऽयमेतदर्थस्तव चेतसि वर्त्तते, तद्यथा-स एषः-अधिकृतो जन्तुः, विगुणः-सत्व-रजस्- | तमोगुण-रहितः, विभुः-सर्वगतः, न बध्यते-पुण्य-पापाभ्यां न युज्यत इत्यर्थः, संसरति वा 'न' इत्यनुवर्तते. न मुच्यते--न कर्मणा वियुज्यते, बन्धस्यैवाऽभावात्, मोचयति वा नान्यम्, इत्यनेनाऽकर्तृकस्व माहनवा एष बाह्यम् आत्मभिन्न महदहङ्काराऽऽदि, अभ्यन्तरं निजस्वरुपमेव, वेदविजानाति, प्रकृतिधर्मत्वाज्झानस्य, प्रकृतेचाचेतनत्वात्। ततःच्चामूनि किल बन्धमोक्षाऽभावप्रति पादकानि। तथा 'न ह वै-नैवेत्यर्थः, सशरीरस्य प्रियाऽप्रिय योरपहतिस्तीतिबाह्याऽऽध्यात्मिक नादिशरीरसन्तान युक्तत्वात् सुख-दुःखयोरपहतिः संसारिणोनास्तीत्यर्थः, अशरीरंवा वसन्तम्-अमूर्त्तमित्यर्थः, प्रियाऽप्रिये नस्पृशतः, तत्कारणभूतस्य कर्मणोऽभावादिस्वर्थः / अमूनि च बन्धमोक्षा ऽभिधायकानीति। अतः संशयः / तत्र "स एष विगुणो विभुः" इत्यादीनां नायमर्थः, किन्त्वयं वक्ष्यमाणलक्षण इति // 1803 / / अाभाष्यम् - तं मन्नसि जइ बंधो, जोगो जीवस्स कम्मुणा समयं / पुव्वं पच्छा जीवो, कम्मं व समं वं ते होजा? ||1805 / / "वेयपयाण य'' इत्यत्र चशब्दाद् युक्तिं च त्वं न जानासि / कुतः? यस्मादायुष्मन्! मण्डिक! त्वमेवं मन्यसे-जीवस्य बन्धो यदि कर्मणा समक-सार्ध योगः-संयोगोऽभिप्रेतः सखल्वादिमान्, आदिरहितोवा? यद्यादिमान्, ततः कि पूर्व जीवः प्रसूयेत पश्चात् कर्म, पूर्व वा कर्म पञ्चाजीवः प्रसूयते, समं वा युगपद वा तौ द्वावपि प्रसूर्ययाताम्? इति पक्षायमिति // 1805|| अत्राऽऽद्यपक्षस्य दूषणमाहन हि पुव्वमहेऊओ, खरसंगं वाऽऽयसंभवो जत्तो। निकारणजायस्स य, निकारणउ चिय विणासो।।१८०६।। 'पूर्व जीवः पश्चात्कर्म' इत्येतदयुक्तम्, यतो न कर्मणः पूर्व (खरसंग वायसंभवो जुत्तो) खरशृङ्गस्येवाऽऽत्मनः सम्भवो युक्तः, अहेतुकत्वात्, इह यदहेतुक तद्न जायते, यथाखरशृङ्गम्, यच जायते तद् निर्हेतुकमपि न भवति, यथा घटः, निष्कारणस्य च जातस्य निष्कारण एव विनाशः स्यादिति // 1806 // अमुमेव विकल्पं दूषयितुमाहअहवाऽणाइ च्चिय सो, निक्कारणओ न कम्मजोगो से। अह निकारणओ सो, मुक्तास्स वि होहिइस भुञ्जो॥१८०७।। अथ चेत् कर्मणः पूर्वमात्माऽनादिकालसिद्ध एव, इति किं तस्य सहेतुक-निर्हेतुकचिन्तया? इति। अत्रोच्यते-(निक्कारणओ इत्यादि) यद्येवम्, ततः (से) तस्य जीवस्य कर्मयोगः कर्मबन्धो न प्राप्नोति, अकारणत्वात, नभस इव। अथ निष्कारणोऽप्यसो भवति, तर्हि मुक्त, स्याऽपि भूयः स भविष्यति, निष्कारणत्वा ऽविशेषात्, ततश्च मुक्तावप्यनाश्वास इति / / 1807 // यदिवाहोज स निचं मुक्को, बंधाभावम्मि को ब से मोक्खो? Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिद्धि 1241 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधमोक्खसिद्धि न हि मुक्कव्वक्एसो, बंधभावे मओ नभसो।।१८०८ / / वीजाङ्कुरवदिति। ततश्च किं पूर्व जीवः पश्चात् कर्म?' इत्यादि प्लवत एव, अनादित्वात् तत्संतानस्येति / / 1813 // एतदेव कर्मसन्तानस्याऽनादित्वं साधयन्नाह - अत्थि स देहो जो क --म्मकारणं जो य कञ्जमण्णस्स। कम्मं च देहकारण-मत्थि य जं कज्जमण्णस्स // 1814 / / अस्ति स कश्चिद् देहो योऽप्रेतनस्य कर्मणः कारणम्, यश्चान्यस्याsतीतस्य कर्मणः कार्यम्। तथा कर्माऽपि समस्ति। किं विशिष्टम्? इत्याह - यदप्रेतनरय देहस्स कारणम्, यच्चान्यस्याऽतीतस्य कार्यमिति / एवमनादौ संसारे नकचि विश्राम्यति, अतोऽनादिदेह-कर्मसन्तान इति / आह-ननु बन्धमोक्षाविह साधियितुं प्रस्तुतौ, ततः कर्म सन्तानस्याऽ नादित्वसाधनभसंबद्धमिव लक्ष्यते। तदयुक्तम्, अभिप्रायापरिज्ञानात्, न ह्यकृतं कर्म सम्भवति। 'क्रियत इति कर्म' इति व्युत्पत्तेः, यच्च तस्य करणमसावेव बन्ध इति कथं न तत्सिद्धिः? // 1814 // ननु यदि क्रियत इति कर्मोच्यते, तर्हि कोऽस्य देहस्य च कर्त्ता? इत्याह - कत्ता जीवो कम्म-स्स करणओ जह घडस्स घडकारो। एवंचिय देहस्स वि, कम्मकरणसंभवाउ त्ति॥१८१५ / / बन्धाऽभावे कः किल तस्य मोक्षव्यपदेशः? न ह्यबद्धस्य नभसः कस्याऽपि मुक्तव्यपदेशो मतः, बन्धपूर्वकत्वाद्मोक्षस्य। तस्माद् न 'पूर्वे जीवः पश्चात् कर्म' इति प्रथमविकल्प इति॥१८०८|| अथ पूर्वे कर्म पश्चाजीवः, युगपद्वा द्वावपि' इति पक्षद्वयस्व प्रतिविधानमाह - न य कम्मस्स वि पुटवं, कत्तुरभावे समुन्भवो जुत्तो। निकारणओ सो विय, तह जुगवुप्पत्तिभावे य // 1806 || न हि कत्ता कजं ति य, जुगवुप्पत्तीऍ जीवकम्माणं। जुत्तो ववएसोऽयं, जह लोए मोविसाणाणं // 1810 / / न च जीवात् प्राक् कर्मणोऽपि समुद्भवो युक्तः, कर्तुजीवस्य तदानीमभावात्, अक्रियमाणस्य च कर्मत्वाऽयोगात्, निष्कारण श्वेत्थमसौ कर्मसमुद्भवः स्यात्, ततोऽकारणजातस्याऽकारणत एव विनाशोऽपि स्यादिति / तथा युगपदुत्पत्तिभावे च 'प्रत्येकपक्षोक्ता दोषाः वाच्याः' इतिशेष:-निर्हेतुकत्वात् प्रत्येकवदुभयस्याऽपि समुदितस्याऽनुत्पत्तिरिस्यादि। न च युगपदुत्पन्नयोर्जीवकर्मणोः कर्तृकर्मभावो युज्यत इत्येतदेवाऽऽह - 'न हीत्यादि न हि युगपदुत्पन्नयोर्जीवकमर्णोः 'अयं जीवः कर्ता इदं वा ज्ञानावऽऽस्णाऽऽदिपुद्गलनि कुरम्य कर्म' इति व्यपदेशो युज्यते, यश्चा लोके सव्येतरगोविषा णयोरिति // 1806 / / / / 1810 / / द्वितीय मूलविकल्पमधिकृत्याऽऽहहोजाणाईओवा, संबंधो तह वि न घडए मोक्खो। जोऽणाई सोऽणतो, जीवनहाणं व संबंधो // 1811 // स्यादेतत्, अनादिरेव जीवकर्मणोः सम्बन्धः-संयोगः। ननुतथाऽपि मोक्षो न घटते, यस्मादयोऽनादिः संयोगः सोऽनन्तो दृष्टः,यथा जीवनभसोः। न ह्याकाशेन सह जीवस्य कदाचिदपि संयोगो निवर्तते / एवं कर्मणाऽपि सहाऽसौ न निवर्त्तत, तथा च सति मुक्त्यभावप्रसङ्ग इति॥१८११।। उपसंहरन्नाहइय जुत्तीऍ न घटइ, सुव्वइ य सुईसु बंधमोक्ख त्ति। तेण तुह संसओऽयं, न य कजोऽयं जहा सुणसु // 1812 // इत्येवं युक्तयुक्त्या बन्धो मोक्षश्चन, घटते, श्रूयते च श्रुतिषु वेदवाक्येष्वसौ। ततस्तव संशयोऽयम् / यथा चाऽयं न कार्यस्तथा शृणु सौम्य। इति। उक्तः पूर्वपक्षः॥१८१२॥ अत्रा प्रतिविधीयते-तत्रा यत् तावदुक्तम् किं पूर्व जीवः पश्चात् कर्म, उत व्यत्ययः?' इत्यादि। तत् सर्वमयुक्तम् / कुतः? इत्याह संताणोऽणाईओ, परोप्परं हेउ हेउमावाओ। देहस्स य कम्मस्स य, मंडिय! बीयंकुराणं व // 1813 / / शरीर-कर्मणोरनादिः सन्तान इति प्रतिज्ञा, परस्परं हेतु हेतुमद्भावात्, | कुलालवद घटस्य, करणं चेह जीवस्य कर्म निवर्तयतः शरीरमवगन्तव्यम् / एवं देहस्याऽऽप्यात्मैव कर्ता, कर्मरुपंकरणं कर्मकरणं तत्संभवात्तद्युतत्वात्, दण्डाऽऽदिकरण-समेतकुलालवदिति॥१८१५॥ अथाऽत्रा प्रेर्य परिहारं चाऽऽह - कम्मं करणमसिद्धं, च ते मई कजओ तयं सिद्ध / किरियाफलओ य पुणो, पडिवज तमग्गिभूइ ध्व // 1816 // स्यादेतत्, अतीन्द्रियत्वेनासिद्धत्वात् कर्मणः करणत्वम सिद्धम् तदयुक्तम्, यतः कार्यतः कार्यद्वारेण तत् सिद्धमेव, तथाहि-विद्यमानकरणं शरीराऽऽदि, कृतकत्वात्, घटाऽऽदियत्, यचास्य करणं तत्कर्मव, तस्मादस्त्येव तत्। अथवा-विद्यमानकरणमेवा-ऽऽत्मशरीरलक्षणद्वयम्, कर्तृकार्यरुपत्वात्, कुलालघटाऽऽदिवत्। यच्च कर्तुरात्मनः शरीरमुत्पादयतः करणं तत् कर्मेति कथं न तत्सिद्धिः? तथा फलवत्यो दानाऽऽदिक्रियाः, चेतनाऽऽरब्धक्रियारुपत्वात्, यच तासां फलं तत् कर्म। इत्यग्निभूतिरिव त्वमपि प्रतिपद्यस्वेति / / 1816|| यचोक्तम्- 'योऽनादिः संयोगः सोऽनन्तो दृष्टः' इत्यादि। जं संताणोऽणाई, तेणाऽणंतोऽवि ण्णायमेगंतो। दीसइ संतो वि जओ, कल्यइ वीयंऽकुराईणं / / 1817 / / 'यद्-यस्माजीव-कर्मसंयोगसन्तानोऽनादिस्तेन तस्माद नन्तोऽपि' इति नायमेकान्तः, यतोऽनादिरपि संयुक्तयोर्वस्तुनोः सन्तानः सान्तोऽपि क्वचिद् दृश्यते, यथा बीजाऽङ्कुराऽऽदीनां सन्तान इति॥१८१७।। Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिद्धि 1242 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधमोक्खसिद्धि तथाहि - अण्णयरमणिय्वत्तिय-कलं बीयंकुराण जं विहयं / तत्थ हओ संताणो, कुक्कुडिअंडाइयाणं च / / 1818 / / जह देह कंचणोवल-संजोगोऽणाइसंतइगओ वि। वोच्छिन्नइ सोवायं, तह जोगो जीव-कम्माणं / / 1816 / / बीजाऽडरयोर्मध्येऽन्यतरदनिर्वतितकार्यमेव यद् विहितं व्यवच्छिन्नं तत्रानयोर्हतोव्यवच्छिन्नः सन्तानः। एवं कुछुट्याण्डकयोः, पितापुत्रायोरपि च वक्तव्यम् / यथा वा काश्चनोपल्योरनादिकालप्रकृत्तसन्तानभावगतोऽपि संयोगः सोपायम्-अग्नितापाऽऽद्युपायाद्व्यवच्छिद्यते, तथा जीवकर्मणोरपि संयोगोऽनादिसन्तानगतोऽपि तपः-संयमाऽऽद्युपायाद् व्यवच्छिद्यते, इति न मोक्षाभाव इति!|१८१८॥१८१६।। अत्र परस्य प्रश्नमुपन्यस्योत्तरमाह - तो किं जीवनहाण व, अह जोगो कंचणोवलाणं व ? | जीवस्सय कम्मस्सय, भण्णइ दुविहो विन विरुद्धो।।१९२०। पढमोऽभव्वाणं चिय, भव्वाणं कंचणोवलाणं व। जीवत्ते सामण्णे, भव्योऽभव्वो त्ति को भेओ? ||1821 // आह-जीवस्य कर्मणश्च योऽयं परस्परं योगः सोऽनादिः सन् किं जीवनभसोरिवानन्तः, अथ काञ्चनो-पलयोरिव सान्तोऽपि स्यात्? उभयथाऽपि दर्शनात् किमत्रा प्रतिपद्यामहे? / भण्यतेऽत्रोत्तरम् - द्विधाऽप्ययमविरुद्धः, ता प्रथमोऽनाद्यनन्त-रुपोऽभव्यानां द्रष्टव्यः / यस्तु काञ्चनो पलयोरिवाऽनादिः सान्तोऽसौ भव्यानां विज्ञेयः / आह ननु जीवत्वसाम्येऽपि' अयं भव्यः' 'अयं चाऽभव्यः' इति किं कृतोऽयं विशेषः? न च वक्तव्यम् यथा जीवत्वे समानेऽपि नारकतिर्यगादयो विशेषास्तथा भव्याऽभव्यत्वविशेषोऽपि भविष्यतीति, यतः कर्मजनिता एव नारकाऽऽदिविशेषाः, न तु स्वाभाविकाः, भव्याऽभव्यत्वविशेषोऽपि यदि कर्मजनितस्तदा भवतु को निवारयिता? न चैवमिति॥१८२०॥ 1821 / / एतदेवाऽऽहहोउ द जइ कम्मकओ, न विरोहो नारगाइभेउ व्व। भणाइ य भव्वाऽभव्वा, सभावओ तेण संदेहो।।१८२२।।। भवतु वा यदि कर्मकृतोऽयं भव्याऽभव्यत्वविशेषो जीवाना मिष्यते, नाऽत्र कश्चिद् विरोधः, नारकाऽऽदिभेदवत्, न चैत दस्ति, यतो भव्याऽभव्याः स्वभावत एव जीवा न तु कर्मतः' इति यूयं भणथ, तेनाऽस्माकं संदेह इति। // 1822 // परेणैवमुक्ते सत्याहदव्वाइत्ते तुल्ले, जीवनहाणं सभावओ भेओ। जीवाऽजीवाइगओ, जह तह मव्वेयरविसेसो॥१५२३॥ यथा जीवनभसोर्द्रव्यत्वसत्व प्रमेयत्व-ज्ञेयत्वाऽऽदौ तुल्येऽपि जीवाऽजीवत्वचेतनाऽचेतनत्वाऽऽदिस्वभाषतो भेदः, तथा जीवानामपि जीवत्वसाम्येऽपि यदि भव्याऽभव्यकृतो विशेषः स्यात् तर्हि को दोषः? इति / / 1823 // इत्थं संबोधितो भव्यत्वाऽऽदिविशेषमभ्युपगम्य दूषणान्तरमाह एवं पि भव्वभावो, जीवत्तं पि व सभावजाईओ। पावइ निश्चो तम्मि य, तदवत्थे नत्थि निव्वाणं / / 1824 / / नन्वेवमपि भव्यभावो नित्योऽविनाशी प्राप्नोति, स्वभावजातीयत्वात्स्वाभाविकत्वाज्जीवत्ववद्व्यत्वमिति चेत्, तदयुक्तम्-यतस्तस्मिन् भव्यभावे तदवस्थे नित्यावस्थायिनि नास्ति निर्वाणम्-"सिद्धो न भव्यो नाप्यभव्यः" इति वचनादिति // 1824 // नैवं कुत इत्याहजह घडपुव्वाभावो-- ऽनाइसहावो वि सनिहणो एवं / जइ भव्वत्ताभावो, भवेज किरियाएँ को दोसो // 1825 / / यथा घटस्य प्रागभावोऽनादिस्वभावजातीयोऽपिघटोत्पत्तौ सनिधनोविनश्वरोदृष्टः,एवं यदि भव्यत्वस्यापि ज्ञानतपः सचिवचरणक्रियोपायतोऽभावः स्यात्तर्हि को दोषः संपद्यते, न कश्चिदिति। आक्षेपपरिहारौ प्राऽऽह - अणुदाहरणमभावो, खरसिंग पि व मई न तं जम्हा। भावो चिय स विसिट्ठो, कुंभाणुप्पत्तिमेत्तेणं // 1826 / / स्यान्मतिः परस्य-नन्वनुदाहरणमसौ प्रागभावः, अभावरुप तयैवावस्तुत्वात्, खरविषाणवत् / तन्न, यस्माद्भाव एवाऽसौ घटप्रागभावः, ततकारणभूतानादिकालप्रवृत्तपुरलसंघातरुप, केवल घटानुत्पत्तिमात्रेण विशिष्ट इति // 1826 / / भवतु तर्हि घटप्रागभाववद्रव्यत्वस्य विनाशः, केवलमित्थं सति दोषान्तरं प्रसजति। किमित्याहएवं भव्वुच्छेओ, कोट्ठामारस्स वा अवचउत्ति। तं नाणंतत्तणओs-णागयकालंबराणं व // 1827 / / नन्वेवं सति भव्योच्छे दो-भव्यजीवैः संसारः शून्यः प्राप्नोति, अपचयात् / कस्य यथा समुच्छेदः? इत्याह - स्तोकस्तोकाऽऽकृष्यमाणधान्यस्य-धान्यभृतकोष्ठागारस्य। इदमुक्तं भवति कालस्याऽऽनन्त्यात्षण्मासपर्यन्ते चावश्यमेकस्य भव्यस्य जीवस्य सिद्धिगमनात्क्रमेणापचीय मानस्य धान्यकोष्ठागारस्येव सर्वस्याऽपि भव्यराशेरुच्छेदः प्राप्नोतीति / अत्रोत्तरमाह-तदेतन्न, अनन्तत्वाद्भव्यराशेः, अनागतकालाऽऽकाशवदिति। इह यद् बृहदनन्तकेनानन्तं, तत् स्तोकस्तोकतयाऽपचीयमानमपि नोच्छिद्यते, यथा प्रतिसमयं वर्तमानतापत्याऽपचीयमानोऽप्यनागतकालसमयराशिः प्रतिसमयं बुद्धया प्रदेशापहारेणापचीयमानः सर्वनभः प्रदेशराशिर्वा, इति न भव्योच्छेदः॥१८२७॥ कुतः? इत्याह - जंचातीताणागय-काला तुल्ला जओ य संसिद्धो। एक्को अणंतभागो, भव्वाणमईयकालेणं / / 1828 / / एस्सेण तत्तिउ चिय, जुत्तो जं तो वि सव्वभव्वाणं / जुत्तो न समुच्छे ओ, होज मई कहमिणं सिद्धं // 1826 / / मव्वाणमणंतत्तण-मणंतभागो व किह व मुक्कोसिं। Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिद्धि 1243- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधमोक्खसिद्धि कालाद ओ व मंडिय ! मह वखणाओ वि पडिवजा / / 1830 / / / यस्माश्चातीतानागतकालौ तुल्यावेव, यतश्चातीतेनाऽपि कालेनैक एव निगोदानन्ततमो भागोऽद्यापि भव्यानां सिद्धः, एव्यताऽपि-भविष्यत्कालेन तावन्मात्रा एव भव्यानन्तभागः सिद्धि गच्छन् युक्तो घटमानको, नहीनाधिको, भविष्यतोऽपिकालस्यातीततुल्यत्वात् तत एवमपि सति न सर्वभव्यानामुच्छेदो युक्तः, सर्वेणाऽपि कालेन नदनन्तभागस्यैव सिद्धिगमनसंभवोपदर्शनात्। अथ परस्य मतिर्भवत्-तत्कथमिदं सिद्ध यदुत-अनन्ता भव्यास्तदनन्तभागस्य सर्वेणैव कालेन सेत्स्यतीति? अत्रोच्यते-कालाऽऽदय इयानन्तास्तावद् भव्याः तदनन्त भागस्य च मुक्तिगमनात्कालाऽऽकाशयोरिव, न सर्वेषामुच्छेद इति प्रतिपद्यस्व, मद्वचनाद्वा मण्डिक! सर्वमैव अद्धेहीति।।१८२८||१८२६॥१८३०॥ कथं पुनस्त्वद्वचनात्सर्वमेतत् सत्यतया प्रतिपद्यामहे? इत्याहसब्भूयमिणं गिबहसु, मह वयणाओऽवसेसवयणं व / सव्वण्णुताइओ वा, जाणय मज्झत्थवयणं वा // 1831 // मण्णसि किइ सव्वण्णू, सव्वेसिं सव्वसंसयच्छेया। दिटुंताभावम्मि वि, पुच्छउ जो संसओ जस्स।।१८३२॥ सद्भूतमिदमनन्तरोक्तं सर्वमपीति गृहाण त्वं, मद्वचनत्वाद्यथा त्वत् संशयाऽऽदिविषयमवशेष मद्वचनं, सर्वज्ञत्वादित्यादिभ्यो वा हेतुभ्यः, आदिशब्दावीतरागत्वाऽऽदिपरिग्रहः, ज्ञायकमध्य स्थवचनवदित्ययमत्र दृष्टान्त इति। अथैव भन्यसे-कथमिव सर्वज्ञस्त्वम्? अत्रोच्यते--सर्वेषां सर्वसंशयच्छेदात्। अन्यस्य सर्वसंशयच्छेत्तुः कस्याप्यदर्शनात्कोऽत्रा दृष्टान्तो? न कश्चिदिति / अत्रोच्यते-किमत्रा दृष्टान्तान्वेषणेन? तदभावेऽपि हि यो यस्य संशयः स तं सर्वमपि पृच्छतु. येन स्वप्रत्ययसिद्ध एव मयि सर्वज्ञत्वनिश्चयो भवतीति / / 1831 / / 1832|| अत्र प्रेरकः प्राहभव्वा वि न सिज्झिस्सं-ति केइ कालेण जइ वि सव्वेण। नणु ते वि अभव्व चिय, किं वा भव्वत्तणं तेसिं // 1833 // ननु भव्या अपि सन्तो यदि सर्वेणापि कालेन सर्वेऽपि न सेत्स्यन्ति, तर्हि येषां सिद्धिर्न भविष्यति, अभव्या एवते किं न व्यपदिश्यन्ते? केन वा विशेषेण तेषां भव्यत्वम्? इति निवेद्यतामिति // 1833 / / अत्रोत्तरमाह -- भण्णइ भव्वो जोग्गो, न य जोग्गत्तेण सिज्झए सव्वो। जइ जोग्गम्मि वि दलिए, सव्वम्मिन कीरए पडिमा / / 1834 / / भण्यते अत्रोत्तरम-किम्? इत्याह--भव्योऽत्र सिद्धिगमनयोग्योऽभिप्रेतो, नतु यः सिद्धिगति यास्यत्येव, नच योग्यत्वमस्तीत्येतावतैव सर्वः सिध्यति, किंतु गमनसापमग्रीसम्भवे सति। दृष्टान्तमाह-यथा हेममणिपाषाणचन्दनकाष्ठाऽऽदिके योग्येऽपि प्रतिमाऽहेऽपि दलिके न सर्वस्मिन् प्रतिमा विधीयत, किं तु यौव तन्निष्पत्तियोग्या सामग्री सम्भवति तत्रवासी क्रियते। न च तद् सम्भवमात्रोण प्रतिमाविषये अयोग्यता भवति / नियमचह नैव विधीयते यदुत-प्रतिमायोग्ये वस्तुनि प्रतिमा भवत्येवेति, किं तु यदा तदा वा तद्योग्य एव सा भवति, नान्यत्रोति / एवमिहापि न भव्यः इत्येतावन्मात्रेणैव सर्वः सिद्ध्यति, किं तु सामग्रीसंपत्ती, न च तदसम्पत्तावपि तस्याभव्यता भवति, किंतुयदा तदावा भव्यस्यैव मुक्तिभिव्यस्येति / / 1834 // दृष्टान्तान्तरमाहजह वा स एव पासा-णकणगजोगो विओगजोग्गो वि। न विजुज्जइ सव्वो चिय, स विजुज्जइ जस्स संपत्ती // 1835 / / किं पुण जा संपत्ती, सा जोग्गस्सेव न उ अजोग्गस्स। तह जो मोक्खो नियमा, सो भव्वाणं न इयरेसिं // 1836 // यथा वा स एव पूर्वोक्तः सुवर्णपाषाणकनकयोोगो वियोग योन्यताऽन्वितोऽपि सर्वो न वियुज्यते, किंतु स एव वियुज्यते, यस्य वियोगसाभग्रीसम्प्राप्तिरिति / किं पुनः? एतद्दुजमुत्क्षिप्य ब्रूमः-या वियोगसामग्रीसम्प्राप्तिः सा वियोगयोग्यस्यैव सुवर्णो पलस्य भवति, न तु तदयोग्यस्य, तथा तेनैव प्रकारेण यः सर्वकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः स नियमाद्भत्र्या नामेव भवति, नेतरेषामभव्यानामितिभव्याऽभव्ययोर्विशेष इति॥१८३५॥१८३६॥ अथ प्रकारान्तरेणाऽऽक्षेपपरिहारौ प्राऽऽहकयगाइमत्तणाओ, मोक्खो नियो न होइ कुंभो व्य / नो पद्धसागावो, भुवि तद्धम्मा विजं निचो॥१८३७ / / अणुदाहरणमभावो, एसो वि मईन तं जओ नियओ। कुंभविणासविसिट्ठो, भावो चिय पोग्गलमओ य॥१८३८ / / ननु मोक्षो नित्यो न भवति, किं त्वनित्यो विनाशी कृतकत्वादा दिशब्दात्प्रयत्नानन्तरीयकत्वाऽऽदिपरिग्रहः, कुम्भवदिति दृष्टान्तः / अत्रोच्यते-अनैकान्तिकता हेतूनां, विपक्षेऽपि गमनाद्यस्मादिह घटादिप्रध्वंसाभावः कृतकाऽऽदिस्वभावोऽपि नित्य एव, तदनित्यत्वे घटाऽऽदेस्तद्रूपतयैवोन्मजनप्रसङ्गादिति / अथैवं परस्य मतिर्न केवलं पूर्वोक्तः प्रागभावः किं त्वेषोऽपि प्रध्वंसाभावोऽभावत्वेनावस्तुत्वादनुदाहरणमेव / तदेतन्न, यतो-यस्मानियतो-निश्चितः कुम्भविनाशविशेषेण विशिष्टः पुद्रला-ऽऽत्मको भाव एवायमपि प्रध्वंसाभावः। अतो युक्तमेतदुदाहरणमिति / एतच्च मोक्षस्य कृतकत्वमभ्युपगम्योक्तम्।।१८३७॥१८३८।। यदिवा-न भवत्येव कृतको मोक्ष इति दर्शयन्नाह - किं वेगतेण कयं, पोग्गलमत्तविलयम्मि जीवस्स। किं निव्वत्तियमहियं, नभसो घडमेत्तविलयम्मि? ||1836 / / किमिह पुद्रलमात्राविलये सति समस्तकमपुद्गलपरिशाटसमये जीवस्याऽऽत्मनः स्वतत्वे वृत्तिमादधत एकान्तेन कृतं-विहितं, येन कृतकोमोक्षः स्यात् ? एतदुक्तं भवति-इहाऽऽत्मकम्र्मेपुरलवियोंगो मोक्षोऽभिप्रेतः / तत्र तपः संयम प्रभावतो जीवात्कर्माणि पृथग्जायमाने किमात्मनः क्रियते येन कृतकत्वादनित्यत्वं मोक्षस्य प्रतिपाद्यते? अथ सएवाऽऽत्म कर्मवियोगः क्रियमाणत्वात्कृतकः, ततोऽनित्य इ Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिद्धि 1244 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधमोक्खसिद्धि असर्वगत आत्मा, कर्तृत्वात, कुलालवत्। नच कर्तृव्यम सिद्ध, भोकृत्वद्रष्टत्वाऽऽधनुपपत्तेरिति // 1842 / / यदि वा-किमनेनैकान्तिकेन नित्यत्वग्रहेण? एकान्ताऽनित्य त्ववादिनिराकरणार्थमेव ह्येवमभिहितं, परमार्थ तस्तु सर्वमेव वस्तु जैनाना भवनभङ्गस्थित्यात्मकमेवेति दर्शयन्नाह - को वा निचग्गाहो, सव्वं चिय वि भवभंगट्ठिइमइयं / पज्जायंतरमित्त-प्पणादनिच्चाइववएसो॥१८४३|| गतार्था। नवरं पर्यायान्तरमात्रस्यार्पण-प्रधानभावेन विवक्षणं तस्मादनिल्याऽऽदिव्यपदेशस्तथाहि-घटः पूर्वेण मृत्थिण्डपर्यायेणु विनश्यति, घटपर्यायतया पुनरुत्पद्यते, मृदुपतया त्ववतिष्ठते। ततश्च यो विनष्टरुपताऽऽदिपर्यायो यदापितः प्रधानभूतो विवक्ष्यते, तदा तेनानित्यत्वाऽऽ दिव्यपदेशः / एवमसावपि मुक्तः संसारितया विनष्टः, सिद्धतयोत्पओ त्याशड्क्याऽऽह? किं निव्वत्तियमित्यादि'' मुद्राऽऽदिना घटमात्रास्य विलये-विनाशे सति किं नाम नभसोऽभ्यधिकं निर्वर्तितम् ? न किंचिदित्यर्थः / एवमिहापि कर्ममात्रविनाशे सति किं जीवस्याधिकं कृतं, येन तदेका कितारुपस्य मोक्षस्य कृतकत्वेनानित्यत्वं स्यात? स एव कर्मणो विनाशो घटविनाशवत्क्रियमाणत्वात्कृतकस्ततः सर्वकर्मक्षयलक्षणो मोक्षोऽनित्य इति चेत्तदयुक्तं, यतो यथाऽयमेव घटविनाशो यः केवलाऽऽकाशसद्भावो न पुनस्तृतो विभिन्नोऽसौ, न चाऽऽकाशस्य किमप्यधिक क्रियते, तस्य सदाऽवस्थितत्वेन नित्यात्वादेव मिहाप्ययमेव कर्मणो विनाशो यः केवलाऽऽत्मसद्भावो, न त्वात्मनो विभिन्नोऽसौ, न चाऽऽत्मनः किञ्चिदधिक विधीयते, तस्याऽपि न मोवन्नित्यत्वात्तस्मान्न मोक्षस्य कृतकत्वमनित्यत्वं वा / कथञ्चिचानित्यत्वे सिद्धसाध्यतैव, द्रव्यपर्यायो मयरुपतया सर्वस्याऽपि वस्तुनो नित्याऽनिम्यरुपत्वादिति // 1836 / / आह ननु कर्मपुरला ये निर्जीर्य जीवेन परित्यक्तास्ते लोकमेवाभिव्याप्य तिष्ठन्ति, न पुनस्तद्वहिः क्वापि गच्छन्ति, जीवोऽपि च लोकमध्य एव तिष्ठति / ततश्च यथा घटवियुक्तस्या ऽप्याकाशस्य तत्कपालपुद्रलसंयोगस्तदवस्य एव, एयं कर्मवियुक्तस्याऽप्यात्मनो निर्जीर्णतत्पुद्रलसंयोगः समस्त्येव, इति कथं पुनरपि न तस्य तद्वन्ध इत्याशङ्कयाऽऽह - सोऽणवराहो व्व पुणो, न वज्झए बंधकारणाभावा। जोगा य बंधहेऊ, न य सो तस्सासरीरो त्ति / / 1840 / / स-मुक्तो जीवः पुनरपि न बध्यते, बन्धकारणाभावाद्, अनपराधपूरुषवत्, मनोवाकाययोगाऽऽदयश्च बन्धहेतवोऽभिधीयन्ते, न च ते मुक्तस्य सन्ति, शरीराऽद्यभावान्न च कर्मवर्गणागतपुद्गलसंयोगमात्ररुपोऽत्रा बन्धोऽधिक्रियते, अतिप्रसङ्गाऽऽदिदोषाऽऽघ्रातत्वात्, किंतु मिथ्यात्वाऽऽदितद्धे तुनिबन्धन इति / / 1840 // आह-नन्वयं मुक्ताऽऽत्मा सौगतानामिव भवतामप्यभि प्रायेण पुनरपि भवे प्रादुर्भवति, न वेत्याशक्याऽऽह-- न पुणो तस्स पसूई, वीयाभावादिहंकुरस्से व। बीवं च तस्स कम्मं, न य तस्स तयं तओ निचो? // 1841 / / न तस्य-मुक्तस्य पुनरपि भवप्रसूतिर्जायते, बीजाभावात् कारणस्यासत्वाद्यथाऽड्डरस्य तदभावान्न प्रसूतिः बीजं चास्य कर्मवावगन्तव्यम्, तच मुक्तस्य मास्त्येव, ततः पुनरावृत्यभावा श्रित्योऽसाविति॥१८४१।। इत्यश्च नित्यो मुक्तः / कुतः? इत्याहदव्वामुत्तत्तणओ, नहं न निच्चो मओ सदव्वतया।। सव्वगयतावत्ती, मइत्ति तं नाणुमाणाओ।।१८४२11 स--मुक्ताऽऽत्मा नित्य इति प्रतिज्ञा, (दव्वामुत्ततण्णउत्ति) द्रव्यत्वे सति अमूर्तत्वादिति हेतुः / (दव्यत्तय त्ति) यथा द्रव्यत्वे सति अमूर्त नभ इति दृष्टान्तः। अथैवंभूता मतिः परस्य स्यादनेन हेतुना सर्वगतत्वाऽऽपत्तिरण्यामनः सिध्यति / तथाहि-सर्वगत आत्मा, द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वाम्नभोवत / ततश्च धर्मविशेषविपरीतसाधनाद्विरुद्धोऽयम् / तदेतन्न / कुतोऽन नानादनुमान वाधितत्वात् सवगतत्वस्येत्यर्थः, तथा हि- विनश्यति, द्विसमयसिद्धतयोत्पद्यते, द्रव्यत्व जीवत्वाऽऽदिभिस्त्ववतिष्ठते / ततोऽर्पितपर्याये णानित्यत्वाऽऽदिव्यपदेश इति॥१८४३।। मुक्तस्यावस्थानक्षेत्रनिरुपणार्थमाहमुत्तस्स कोऽवगासो, सोम्म! तिलोगसिहरं गई किह से। कम्मलहुया तहागइ परिणामाईहि भणियमिदं / / 1844 / / मुक्तस्स-क्षीणसमस्तकर्मणो जीवस्य कोऽवकाशम्वात स्थानमिति पृष्टे सत्याह-सौम्य! त्रिलोकशिखरं लोकान्त इत्यर्थः / ननु कथम् (से) तस्याऽकर्मणो जीवस्यैतावद् दूरमितो गतिः प्रवर्तते? / कर्मनिबन्धना हि जीवानां सर्वाऽपि चेष्टा, ततो विहायोगत्यादिकाभावेऽपि गतिचेष्टायामतिप्रसङ्गप्राप्नोति। अत्रोच्यते-(कम्मलहुय त्ति) कपिगमे सति लाघवात् समयमेकं तद्गतिप्रवृत्तिरित्यर्थः तथागतिपरिणामात्कर्मक्षये सिद्धत्ववद-पूर्वगतिपरिणामलाभादित्यर्थः, यथा हि-समस्तकर्मक्षयादपूर्व सिद्धत्वपरिणामं जीवः समासादयति तथोर्द्धगतिपरिणाममपीति भावः। आदिशब्दादपरमपि तद्गतिकारणं समयभणितभि दमवगन्तव्यम् / तद्यथा-"लाउय एरंडफले, अग्गी धूमो यइसु धणुविमुझो / गइ पुष्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गई उ॥१॥१८४४|| अथान्यत् प्रेर्यमाशक्य परिहरतिकिं सक्किरियमरूवं, मंडिय! भुवि चेयणं च किमरूवं। जह से विसेसधम्मो, चेयनंतह मया किरिया।।१८४५ / / आह-तत्वाकाशकालाऽऽदयोऽमूर्त्ता निष्क्रिया एव प्रसिद्धास्तत्कि नाम त्वया रूपममूर्त सद्वस्तु सक्रियं दृष्ट, येन मुक्ताऽऽत्मनः सक्रियत्वमभ्युपगम्यते? ननु निष्क्रिय एव मुक्ता ऽऽत्मा प्राप्नोति, अमूर्त्तत्वादाकाशअदिति भावः / अत्रोच्यते-मण्डिक! त्वमप्येतत्कथयभुवि किमरुपं सद्वस्तु चेतनं वीक्षितं, येन मुक्तात्मा चेतनोऽभ्युपगम्यते? अमूर्त्तत्वाद् चेतन एवायं प्राप्नोति, आकाशवदिति। तस्माद्यथा (से) तस्यजीवस्य अरुपेभ्य आकाशाऽऽदिभ्यस्तद्रूपत्वे समाने - ऽन्योऽपि चैतम्यत्रक्षणी विशेषधर्मः समस्ति, तथा क्रियाऽपि गता, सक्रियत्वमपि विशेषधर्मोऽस्तु को विरोध इतिभाव? ||1845|| Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिद्धि 1245 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधमोक्खसिद्धि यथोक्तम् -निष्क्रियो मुक्ताऽऽत्मा, अमूर्तत्वात्तदनैकान्तिकमेव, प्रतिबन्धाभावादिल्याह। अथवा मुक्ताऽमुक्तविशेषमपहाय सामान्येनाऽऽत्मनः सक्रित्वं साधयन्नाह - कत्ताइत्तणओ वा, सक्किरिओऽयं मओ कुलालो व्व। देइप्फंदणओ वा, पचक्खं जंतपुरिसो व्व / / 1846 / / अथवा-सक्रियोऽयमात्मा, कर्तृत्वात्कुलालवदादिशब्दाद् भोक्तृत्वादित्यादि वाच्यम्। अथवा-सक्रिय आत्मा, प्रत्यक्षत एव देहपरिस्पन्ददर्शनाद्यन्त्रापुरुषवदिति / / 1846|| पराऽऽशङ्का प्रतिविधानं चाऽऽह - देहप्फंदणहेऊ, होज पयत्तो त्ति सो वि नाकिरिए। होज्जादिट्ठो व सई, तदरुवत्ते नण्णु समाणं / / 1847 / / रूवित्तम्मि स देहो, वचो तप्फंदणे पुण्णो हेऊ। पइनिययपरिप्फदण - मचेयणाणं न वि य जुत्तं / / 1547 / / अथैवं द्रूवे-देहपरिस्पन्दहेतुरात्मनः प्रयत्नो नतु क्रिया, अतोनाऽऽत्मनः सक्रियत्वसिद्धिरित्यभिप्रायः। अत्रोत्तरमाहसोऽपि प्रयत्नो नभसीवा - ऽक्रिय आत्मनि न संभवल्यतः सक्रिय एवाऽसौ। अमूर्तस्य च प्रयत्नस्य देहपरिस्पन्दहेतुत्वे कोऽन्यो हेतुरिति वाच्यम्? अन्यहेतुनिरपेक्षः स्वतएवायं परिस्पन्दहेतु रिति चेत् यद्येवम्, आत्माऽपि तद्धेतुर्भविष्यति, कमन्तर्गडुना प्रयत्नेन? अथादृष्टः कोऽपि देहपरिस्पन्दहेतुः नत्वात्मा, निष्क्रियत्वात्।। ननु सोऽप्यदृष्टः किं मूर्तोऽमूर्तो वा? यद्यमूर्त स्तात्माऽपि देहपरिस्पन्दहेतुः किं नेप्यते, अमूर्त्तत्वाविशेषात्? अथ मूर्तिमानदृष्टः, तर्हिस कार्मणशरीर लक्षणो देह एव, नान्यः संभवति। तस्यापि च वहिर्दृश्यदेह परिस्पन्दहेतुतया व्याप्रियमाणस्य परिस्पन्दो द्रष्टव्यः तस्य चान्यो हेतुर्वाच्यस्तस्याप्यन्यस्तस्याऽपि चान्य इत्यनवस्था। अथ स्वभावादेवाऽदृष्टस्य कार्माणदेहस्य परिस्पन्दः प्रवर्तते, तर्हि बहिर्दृश्यस्याऽपि देहस्य तत एव तत्प्रवृत्तिर्भविष्यति, किमदृष्टकार्मणदेहपरिकल्पनेन? अस्त्वेवमिति चेत् तदयुक्तम्, अचेतनानामेवंभूतप्रतिनियतविशिष्टपरिस्पन्दनस्य स्वभाविक त्वानुपपत्तेः, "नित्यं सत्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणाद् / " इत्यादिदोषप्रसंगात्तस्मात्कर्मविशिष्ट आत्मैव प्रतिनियतदेह परिस्पन्दनहेतुत्वेन व्याप्रियत इति सक्रियोऽसाविति ||1847 // 1848|| भवतु तर्हि भवस्थस्य सकर्मणो जीवस्य क्रिया, मुक्तस्य तु कथमसावित्याथशड्क्य परिहरन्नाह - होउ किरिया भवत्थ-स्स कम्मरहितस्स किं नितित्ता सा? नणु तग्गइपरिणामा, जह सिद्धत्तं तहा सा वि॥१८४६ / / पूर्वार्द्धनाक्षेपः पश्चार्द्धन तुपरिहारः,प्राग्व्याख्यातार्थ एवेति / / 1846 / / / अपरस्त्वाहकिं सिद्धलपपरओ, न गई धम्मत्थिकायविरहाओ। सो गइउवग्गहकरो, लोगम्मि जमत्थि नालोए / / 1850 / / यद्युक्तन्याऐन मुक्तस्य गतिक्रियया सक्रियत्वमिष्यते, तर्हि सिद्धाऽऽ लयात्-सिद्धावस्थितिक्षेत्रात् परतोऽलोकेऽपि किमित तस्य गतिर्न प्रवर्तते? अत्रोच्यते-परतोधा स्तिकायविरहात्। तद्विरहोऽपि कुतः? इत्याह-यद्यरमाद सौधर्मास्तिकायो लोक एव समस्ति, नालोके / मा भूदसावलोके किं तेन प्रस्तुतानुपयोगिना कर्त्तव्यं, तद्विरहेऽपि भवतु मुक्तस्य तत्रा गतिः, नियमाभावात्? तदयुक्तं, यतो जीवानां पुद्गलानां च गतेर्गमनस्योपग्रह उपष्टम्भस्तत्कारी स एव धर्मास्तिकायो नान्यस्ततस्तस्याऽलोकेऽभावात्कथ लोकात्परतोऽर्लोकऽपि मुक्ताऽऽत्मनां गतिः प्रवर्तते? इति / / 1850 // कथं पुनरेतदवसीयते यदुत-लोकादन्योऽप्यलोकपदार्थः कश्चिदस्तीत्याशड्क्याऽऽहलोगस्स त्थि विवक्खो,सुद्धत्तणओ घङस्स अघडो व्व / सधडाइ चिय मई, न निसेहाओ तदणुरूवो // 1841 / / अस्ति लोकस्य विपक्षो, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वा दियह व्युत्पतिमत्ता शुद्धपदेनाभिधीयते तस्य विपक्षो दृष्टो यथा घटस्याघटः, यश्च लोकस्य विपक्षः सोऽलोकः / अथ स्यान्मतिर्न लोकोऽलोक इति यो लोकस्य विपक्षः स घटाऽऽदि पदार्थानामन्यतम एव भविष्यति, किमिह वस्त्वन्तरप परिकल्पनया? तदेतन्न, पर्युदासनञा निषेधान्निषेध्यस्यैवानु रुपोऽा विपक्षोऽन्वेषणीयः, न लोकोऽलोक इत्यत्रा च लोको निषेध्यः, स चाऽऽकाशविशेषः, अतोऽलोकेनाऽपि तदनुरुपेण भवितव्यं, यथेहा पण्डित इत्युक्ते विशिष्टज्ञानविकलश्चेतन एव पुरुषविशेषो गम्यते, नाऽचेतनो घटाऽऽदिः, एवमिहापि लोकानुरुप एवालोको मन्तव्यः / उक्त च -"नमयुक्तभिवयुक्तं वा, यद्धि कार्य विधीयते। तुल्याधिकरणेऽन्यस्मिंल्लोकेऽप्यर्थगतिस्तथा // 1 // " नलव युक्तमन्यसदृशाधि करणे तथा ह्यर्थगतिः।" तस्माल्लोकविपक्षत्वादस्त्यलोक इति / / 1851 / / अथालोकास्तित्वादेव धधिमास्तिकायौ साधयन्नाह - तम्हा धम्माऽधम्मा, लोयपरिच्छेयकारिणो जुत्ता। इहरागासे तुल्ले, लोगोऽलोगो त्ति को भेओ !||1852 / / लोगविभागाऽभावे, पडिघायाभावओऽणवत्थाओ। संववहाराभावो, संबंधाभावओ होजा।।१८५३॥ यस्मादुक्तप्रकारेणास्त्यलोकः, तस्मादलोका स्तित्वादेवावश्यं लोकपरिच्छेदकारिभ्या धर्माधर्मास्तिकाया भ्यां भवितव्यम्, अन्यथाssकाशे सामान्ये सत्ययं लोकोऽयं चालोक इति कृतोऽयं विशेषः स्यात्? तस्माद् यत्रा क्षेत्रो धम्मधिर्मास्तिकायौ वर्तेते, तल्लोकः, शेषं त्वलोक इति लोकाऽलोकव्यवस्थाकारिणो धाऽधर्मास्तिकायौ विद्यते इति / (लोगेल्यादि) यदि हि धर्माधर्माभ्यां लोकविभागो न स्याप्ततो लोकविभागाभावेऽवशिष्ट एव सर्वस्मिन्नप्याकाशे गतिपरिणताना पुद्रलानां च प्रतिघाताभावेन तद्गत्यवस्थाना भावादलोकेऽपिगमनात्तस्य चानन्तत्वात्तेषा परस्पर संबन्धो न स्यात् / ततश्च औदारिकाऽऽदिकार्मणवर्गणापर्यन्तपुरलकृतो जीवानां वन्धमोक्षसुखदुः खसंभवसंसरणाऽऽदिव्यवहारो न स्याज्जीवस्य च जीवेन सहान्योऽन्यमीलनाभावात् तत्कृतोऽनुग्रहोपघाताऽदिव्यवहारो न स्यादिति / / 1852 / / 1853 / / Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिद्धि 1246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधमोक्खसिद्धि ततः किमित्याह - निरणुग्गहणत्तणाओ, न गई परओ जलादिव झसस्स। जो गमणाणुग्गहिया, सो धम्मो लोगपरिणामो / / 1854 / / ततो लोकात्परतोऽलोके जीवपुगलानां न गतिः, निरनुग्रह त्वात्, तत्र गत्यनुग्रहकर्तुरभावादित्यर्थः। यथा जलात्परतो झषस्य मत्स्यस्य गतिर्न भवत्युपग्राहकाभावादिति।यश्चात्र जीवपुरलगतेरनुग्रहकर्ता सलोकपरिमाणो धर्मास्तिकाय इति॥१८५४।। तत्र प्रयोगमाहअत्थि परिमाणकारी, लोगस्स पमेयभावओऽवस्सं / नाणं पि व नेयस्सा--लोगत्थित्ते न सोऽवस्सं // 1855 / / अस्ति लोकस्य परिमाणकारि, प्रमेयत्वात्, ज्ञानमिव शेयस्य / अथवा-जीवाः पुद्रलाश्च लोकोऽभिधीयते, ततोऽस्ति तत्परिमाणकारी, प्रमेयत्वाद्यथा-शाल्यादीनां प्रस्थः यश्चेह परिमाता स धर्मास्तिकायः, सचावश्यमलोकस्यास्तित्व एव युज्यते, नान्यथा आकाशस्य सर्वत्राऽविशिष्टत्वात्त स्माल्लोकाग्रे सिद्धस्वावस्थानमिति प्रस्तुतम् / / 1855 / / अथ प्रकारान्तरेणऽऽक्षेपपरिहारौ प्राऽऽह - पयणं पसत्तमेवं, थाणाओ तं च नो जओ छट्ठी। इह कत्तिलक्खणेयं, कत्तुरणत्थंतरं थाणं / / 1856 // ननु स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानमित्यधिकरणसाधनोऽयं शब्दस्ततश्च सिद्धस्य स्थान सिद्धस्थानमिति समासस्ततश्चैवं सति सिद्धस्य पतन प्रसक्तं, स्थानात्पर्खतपादपाऽऽद्यग्रस्थितदेवदत्तस्येव, फलस्येव वा। यस्य किल काऽपि पर्वतादवस्थानं, तस्य कदाचित् कस्याऽपि पतनमपि दृश्यते, अतः सिद्धस्याऽपि तत्कदाचित्प्रापोतीति भावः। तच न, यतः सिद्धस्य स्थानमितीयं कर्तरि षष्ठी / ततश्च सिद्धस्य स्थानमिति कोऽर्थः? सिद्धः तिष्ठति, नतु तदर्थान्तरभूतं स्थानमस्तीति॥१८५६।। अथवानहनिच्चत्तणओ वा, थाणविणासपयणं न जुत्तं से। तह कम्माभावाओ, पुणकियाभावओ वा वि।।१८५७।। अर्थान्तरत्वेऽपि स्थानस्य न पतनं सिद्धस्य यतोऽर्थान्तरं स्थानं नभ एव, तस्य च नित्यत्वाद्विनाशो नयुक्तस्तदभावे च कुतः पतनं मुक्तस्य? कर्मचाऽऽत्मनः पतनाऽऽदिक्रियाकारणं, मुक्तस्य च कर्माभावात् कुतः पतनक्रिया? या च समयमेकमस्याप्यूर्द्ध गतिक्रिया, तस्याः कारणम् "लाउयएरंडफले'' इत्यादिना दर्शितमेव। पुनः क्रिया च मुक्तस्य नास्ति, कारणाभावान्निजप्रयत्नप्रेरणाऽऽकर्षणविकर्षण गुरुत्वाऽऽदयो हि पतनकारणम्, तत्सम्भवश्च मुक्तस्य नास्ति, हेतोरभावादितिकुतोऽस्य पतनमिति? // 1857 // किं च स्थानात् पतनमित्यनैकान्तिकमेवेति दर्शयतिनिचत्थाणाओवा, वोमाईणं पढणं पसज्जेजा। अह न मयमणेगंतो, थाणाओऽवस्सपडणं ति॥१८५८ / / ननुच स्थानात्पतनमिति स्ववचनविरुद्धमिदम्, अस्थानादेव पतनस्य युज्यमानत्वाद्। अथ स्थानादपि पतनमिष्यते, तर्हि नित्यमेव स्थानाद् / व्योमाऽऽदीनां पतनं प्रसज्येत। अथ न तत्तेषां मत, तर्हि स्थानात्पतनमित्यनैकान्तिकमेवेति / / 1858|| अथान्येन प्रकारेण प्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाह - भवओ सिद्धो त्ति मई, तेणाइमसिद्धसंभवो जुत्तो। कालाणाइत्तणओ, पढमसरीरं व तदजुत्तं // 1856 / / अथ स्यान्मतिः परस्य-यतो भवात्सोरात्सर्वोऽपि मुक्ताऽऽत्मा सिद्धस्तेनततः सर्वेषामपि सिद्धानामादिमत्त्वादवश्यमेव केनाप्यादिसिहेन भवितव्यम्। तदयुक्तम् / यतो यथा सर्वाण्यपि शरीराण्यहोरात्राणि च सर्वाण्यादियुक्तान्येव, अथ च कालस्याऽनादित्वाद् नाद्यशरीरम्, आधाऽहोरानं वा किमपि ज्ञायते, तथा कालस्यानादित्वात्सिद्धोऽपि नाद्यः प्रतीयत इति // 1856 / / - अथान्यदपि प्रेर्य परिहारं चाऽऽहपरिमियदेसेऽणंता, किह माया मुत्तिविरहियत्ताओ। निययम्मि व नाणाई, दिट्ठीओ वेगरूवम्मि॥१८६०॥ आह-परिमितदेशमेव सिद्धिक्षेत्र, तत्र कथमनादिकावर्तिनोऽनन्ताः सिद्धा मान्ति? अत्रोत्तरमाह-अमूर्त्तत्वात्सिद्धाः परिमितेऽपि क्षेत्रोऽनन्तास्तिष्ठन्ति, यथा प्रतिद्रव्यमेव अनन्तानि सिद्धानां सम्बन्धीनि केवलज्ञानकेवल दर्शनानि सम्पतन्ति, दृष्टयो वा यथैकस्यामपि नर्तक्यां सहस्त्रशः प्रपतन्ति, परिमितेऽपि वाऽपवरकाऽऽदिक्षेत्रो बलयोऽपि प्रदीपप्रभा मान्ति, एवभिहामूर्ताः सिद्धाः कथं परिमितक्षेत्रोऽनन्ता नमास्यन्ति, मूर्तानामपि प्रदीपप्रभाऽऽदीनां बहूनामेकत्रावस्थानं दृश्यते, किमुताऽमूर्त्तानामिति भावः / / / / 1860 / / तदेवं युक्तिभिः सप्रसङ्गौबन्धमोक्षौ व्यवस्थाप्य वेदवावक्य द्वारेणाऽपि तद्व्यवस्थामाह - न हवइ ससरीरस्स, प्पियाऽप्पियाबहतिरेवमाईणं। वेयपयाणं च तुमं, न सदत्थं मुणसि तो संका।।१८६१।। तुह बंधे मोक्खम्मि य, सा य न कज्जा जओ फुडो चेव। ससरीरेयरभावो, नणु जो सो बंध मोक्खे त्ति / / 1862 / / व्याख्या-" न हि वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्त्य शरीरं वा वसन्तं प्रियाऽप्रिये न स्पृशतः।" इत्यादीनां च वेदपदानां सदर्थ त्वं (न मुणसि) न जानासि, ततो बन्धे मोक्षे च तव सौम्य! शङ्का, सा च न कार्या, यतो ननुयः सशरीरेतरभावः स स्फुट एव बन्धो मोक्षश्चेति कथं शड्का युज्यते? एतदुक्तं भवति-सशरीरस्येत्यनेन बाह्याऽऽध्यामि कानादिशरीरसन्तानस्वरूपो बन्धः प्रोक्तः तथा अशरीरं वा बसन्तमित्यनेन त्वशेषशरीरापगम-स्वभावो मोक्षः प्रतिपादितः। "तथा स एष विगुणो विभुर्न बध्यते' इत्यादीन्यपि पदानि संसारिजीवस्य बन्धमोक्षभावप्रतिपादकानित्वं मन्यसे / तच्चायुक्तम् / मुक्तजीवविषयत्वात्तेषाम्। मुक्तस्य च बन्धाऽऽद्यभावेऽविप्रतिपत्तिरेवेति। तदेवं भगवता छिन्नस्तस्य संशयः // 1861 / 1862 / / ततः किमित्याहछिन्नम्मि संसयम्मी, जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं / Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधमोक्खसिद्धि 1247 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधसामित्त सो समणोपव्वइओ, अद्ध द्विहि सह खंडियसएहिं / / 1963 / व्याख्यापूर्ववत्, नवरम् अर्द्धचतुर्थे : शिष्यशतैः सह प्रव्रजितोऽयमिति / / 1863 / / विशे० / आ० म०। कर्म० / तत्र मिथ्यात्वाऽऽदिभिर्बन्धहेतुभिरजनचूर्णपूर्ण समुद्रकवन्निरन्तरं निश्चिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैरात्मनः क्षीरनीवसहव्ययः पिण्डबद्वाऽन्योन्यानुगमभेदाऽऽत्मकः सम्बन्धो बन्धः। कर्म०५ कर्म०। पं० सं०। साइन्ख्य प्रतिबन्धसिद्धिःनानाऽऽश्रयायाः प्रकृतेरेव बन्धमोक्षौ, संसारश्च, न पुरुषस्येति, तदप्यसारम्, अनादिभवपरम्पराऽनुबद्धया प्रकृत्या सहयः पुरषस्य विवेकाऽग्रहणलक्षणोऽविष्वग्भावः स एव चेन्न बन्धस्तदा को नामाऽन्यो बन्धः स्यात? प्रकृतिः सर्वोत्पत्तिमता निमित्तमिति च प्रतिपद्यमानेनाऽऽयुष्मता संज्ञाऽन्तरेण कर्मैव प्रतिपन्नं, तस्य चैवस्वरूपत्वादचेतनत्वाच्च / यस्तु प्राकृतिकवैक्रियकारिक दाक्षिणभेदात्रिविधो बन्धः। तद्यथा-प्रकृतावात्मज्ञानाद् ये प्रकृतिमुपासते तेषां प्राकृतिको बन्धः ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहङ्कारबुद्धीः पुरुषबुद्धयोपासते तेषां वैकारिकः / इष्टाऽऽपूर्वे दाक्षिणः। पुरुषतत्वानभिज्ञो हीष्टापूर्तकारी कामोपहतमना बद्धयते इति "इष्टाऽऽपूर्त मन्यमाना वरिष्ठ, नान्यत् श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढाः / नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेन भूत्वा, इमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति।।१।।" "इतिवचनात / स निविधोऽपि कल्पनामात्रं कथञ्चिन्मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाययोगेभ्योऽभिन्नस्यरुपत्वेन कर्मबन्धहेतुष्वेवान्त भर्भावात्। बन्धसिद्धौ च सिद्धस्तस्यै च निर्याधः संसारः / बन्धमोक्षयोपच्चैकाधिकारणत्वाद्य एव बद्धः स एव मुच्यते इति / स्या० 15 श्लो०। बंधमोक्खोववत्ति स्त्री० (बन्धमोक्षोपपत्ति) मिथ्यात्वाऽऽदिहे तुभ्यो जीवस्य कर्मपुरलानां च वययःपिण्डयोरिव वा परस्परमविभागपरिणामेनावस्थानरूपस्य बन्धस्य सम्यदर्शन ज्ञानचारित्रेभ्य कर्मणामत्यन्तोच्छेदलक्षणस्य मोक्षस्य घटनायाम, ध०१ अधि०। बंधव पुं० (बान्धव) मातृपित्रादिषु, उत्त० 188 / सूत्रा० स्वज्ञातिषु भ्रातृपितृव्येषु, "पुत्तदारं च बंधवा।" उत्त०१८ अ०। आचा०। निकटवर्तिषु स्वजनेषु, उत्त०१३ अ०। बंधविहा स्त्री० (बन्धविधा) विधानानि विधा-भेदाः बन्धस्य विधा बन्धविधाः / बन्धस्य प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपेषु, प्रकारेषु कर्म०५ कर्म०। बृ०॥ बंधविहि पुं० (बन्धविधि) बन्धस्य विधिर्बन्धविधिः / बन्ध प्रकारे, पं० सं०१ द्वार। बंधसामित्तन० (बन्धस्वामित्व) बन्धकत्वे, (कर्मणां बन्धकत्वम् 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे उक्तम्) ('बन्ध' शब्दे च गत्यादिद्वाराण्यश्रित्य सूत्राणि प्रदर्शितानि / इह तु सगृह्य प्रदृर्श्यते) मार्गणास्थानेषु बन्ध-"सम्यग् बन्धस्वामित्वदेशकं बर्द्धमानमानम्य / बन्धस्वामित्वस्य, व्याख्येय लिख्यते किं चित् / / 1 / / '' इह स्वपरोपकाराय यथार्थाभिधानं बन्ध स्वामित्वप्रकरणमारिप्सुराचार्या मङ्गलाऽऽदिप्रतिपाऽऽदिकां गाथामाहबंधविहाणविमुक्कं, वंदिय सिरिवद्धमाणजिणचंदं। गइआईसुं बुच्छं, समासओ बंधसामित्तं / / 1 / / इह प्रथमार्द्धन मङ्गल द्वितीयार्द्धनाभिधेयं साक्षा दुक्त प्रयोजन संबन्धी तु सामर्थ्यगम्यौ। तच बन्धः कर्मपरमाणूनांजीवप्रदेशैः सह संबन्धस्तस्य विधानं मिथ्यात्वाऽऽदिभिर्बन्धहेतुभि निर्वर्तनं बन्धविधानं तेन विमुक्तः स तथा तं बन्धविधानविमुक्तं वन्दित्वा श्रीवर्द्धमानजिनचन्द्रम् / वक्ष्येऽभिधास्ये समासतः-संक्षेपतो न विस्तरेण / किमित्याह-बन्धस्वामित्वं बन्धः कर्माऽणूनां जीवप्रदेशैः सह संबन्धस्तस्य स्वामित्वमाधिपत्यं जीवानामिति गम्यते / केचु ? (गईयाईसुति) गतिरादिर्येषां तानि गत्यादीनि, आदिशब्दादिन्द्रियाऽऽदिपरिग्रहः / तेषु गत्यादिषुमार्गणास्थानेषु / कर्म 3 कर्म०। (तानि मग्गणाठाण' शब्दे वक्ष्यामि) तत्र बन्धं च प्रतीत्य विंशन्युत्तरं प्रकृतिशतमधि क्रियते। तथाहि-ज्ञानाऽऽवरणे उत्तरप्रकृतयः पञ्च, दर्शनाऽऽवरणे नव, वेदनीय द्वेमोहे सम्यक्त्वमिश्रवर्जा षड्विशतिः आयुषि चतस्त्रः नाम्नि भेदान्तरसम्भवेऽपि सप्तषष्टिः, गोत्रे द्वे, अन्तराये पञ्च, सर्वमीलने विंशत्युत्तरशत मित्येतच प्राक सविस्तर कर्मविपाके भावितमेव। सम्प्रति विंशत्युत्तरशतमध्यगतानामेव वक्ष्यमा णार्थों पयोगित्येन प्रथमं कियतीनामपि प्रकृतीनां संग्रह पृथक्करोतिजिण सुरविउ वाहारदु, देवा उय नरयसुहुमविगलतिगं। एगिदि थावरायव, नपु मिच्छ हुण्ह छेवटुं।।२।। अण मज्झागिइसंघयण, कुखग निय इस्थि दुहगथीणतिगं / उज्जोय तिरियदुर्ग, तिरिनराउ नरउरलदुगरिसह / 3 (युग्मम्) जिननाम 1 सुरद्विकं-सुरगतिसुरानुपूर्वी रूपं 3, वैक्रियद्विकं वैक्रियशरीरंवैक्रियाङ्गोपागलक्षणम् 5 / आहारकद्विकमाहार कशरीरं तदङ्गोपाङ्गं च 7 / देवाऽऽयुष्कं च 8 / नरकत्रिकं नरकगतिनारकानपूर्वीनरकाऽऽयुष्करूपं 11, सूक्ष्मत्रिकं सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणलक्षणम् 14 / विकलत्रिकं द्वित्रिचतुरिन्द्रिय जातयः 17 / एकेन्द्रियजातिः 18, स्थावरनाम 16, आतपनाम 20, नपुंसकवेदः 21, मिथ्यात्वं 22, हुण्डसंस्थानं 23 सेवार्तसंहननम् 24 (अण त्ति) अनन्तानु बन्धिक्रोधमानमाया लोभाः 28 मध्याऽऽकृतयो मध्यमसंस्थानानि न्यग्रोधमण्डलं सादि वामनं कुब्जं चेति 32 मध्यमसंहननानि ऋषभनाराचं नाराचमर्द्धनाराचं कीलिका चेति 35 (कुखग त्ति) अशुभविहायोगतिः 37 नीचैर्गोत्र, स्वीवेदः 36 दुर्भगत्रिक दुर्भगदुःस्वराऽनादेयरुपं 42 स्त्यानर्द्धित्रिकं निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानद्धिलक्षणम् 45, उद्योतनाम 46 तिर्यद्विकं तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी रूपम् ४८तिर्यगाऽऽयुः 46 नराऽऽयुः 50 नरद्विकंनरगतिनरानुपूर्वी लक्षणम् 52 औदारिकद्विकमौदारि कशरीरमौदारिकाङ्गोपाङ्गनामच 54 वज्रऋषभनाराचसंहननम्५५ / इति पञ्चपञ्चाशत् प्रकृतिसङ्ग्रहः। अर्थतस्य प्रकृतिसंग्रहस्य यथास्थानमुपयोगं दर्शयन्मार्गणास्थानानां प्रथमं गतिमार्गणास्थानमाश्रित्य बन्धः प्रतिपाद्यतेसुरइगुणवीसवजं, इगसउ ओहेण बंधहिं निरया। Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधसामित्त 1248 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधसामित्त तित्थ विणा मिच्छि सयं, सासणि नपुचउ विणा छनुइ।४। "जिणं सुरविउ वाहरित्यादि "गाथोक्ताः क्रमेण सुरद्विकाऽद्यकोनविंशतिप्रकृतीवर्जयित्वा शेषमेकोत्तरशतमोघेन नारका बघ्नन्ति / अयमत्राभिप्रायः-एता एकोनविंशतिप्रकृतीर्बन्धाधि-कृतकर्मप्रकृतिविंशत्युत्तरशतमध्यान्मुक्त्वा शेषस्यैकोत्तरशतस्य नरकमती नानाजीवापेक्षया सामान्यतो बन्धः / सुरद्विकाऽऽद्येकोनविंशतिप्रकृतीनां तु भवप्रत्ययादेव नारकाणामबन्धकल्वात् / सामान्येन नरकगतौ बन्धमभिधाय सम्प्रति तस्यामेव मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानचतुष्टयविशिष्ट तं दर्शयति-"तित्थ विणेत्यादि " प्रागुक्तभेकोत्तरशतं तीर्थकरनाम विना मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके शतं भवति / एतच शतं नपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्डसंस्थानसेवार्त्तसंहननप्रकृतिवतुष्कं विना सासादनगुणस्थानके षण्णवतिनरिकाणां बन्धे // 4 // विणु अणछवीस मीसे, विसयरि समम्मि जिणनराउजुया। इय रण्णाइसु भंगो, पंकाइसु तित्थयरहीणो।। 5 / / प्रागुक्ता षण्णवतिरनन्तानुबन्ध्यादिषड्विशतिप्रकृतीविना मिश्रगुणस्थाने सप्ततिः / सैव जिननामनराऽयुर्युता सम्यगदृष्टिगुणस्थानके द्विसप्ततिः / इत्येवं बन्धमाश्रित्य भङ्गो, रत्नाऽऽदिषु रत्नप्रभाशर्कराप्रभावालुकाप्रभाभिधानप्रथमनरकपृथिवीत्रये द्रष्टव्यः / पङ्कप्रभाऽदिषु पुनरेष एव भङ्गस्तीर्थकरनामहीनो विज्ञेयः / अयमर्थः-पडप्रभाधूमप्रभातमःप्रभासु सम्यक्त्वसद्भावेऽपि क्षेत्रमाहात्म्येन तथाविधाऽध्यवसायाऽभावात्तीर्थकरनामबन्धो नारकाणां नास्तीति / ततस्तत्र सामान्येन शतं. मिथ्यादृशां च शतं, सासादनानां षण्णवतिः, मिश्राणां सप्ततिः, अविरतसम्यग्दृष्टीनामेकसप्ततिः। इह सामान्यपदेऽविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने च रत्नप्रभाऽऽदिभङ्गस्तीर्थकरनाम्ना हीन उक्तो, मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रेषु त्रिषु गुणस्थानकेषु पुनस्तस्य प्रागेवाऽपनीतत्वात्तदवस्थ एव // 1 // अजिणमणुआउ ओहे, सत्तमिए नरदुगुचविणुमिच्छं। एगनवइ सासाणे, तिरिआउ नपुंसचउवजं / / 6 / / रत्नप्रभाऽऽदिनरकत्रयसामान्यबन्धाधिकृतकोत्तरशतमध्यात् जिननाममनुजायुऽऽषी मुक्त्वा शेषा नवनवतिरोघबन्धे सप्तपृथिव्या नारकाणां भवति / सैव नवनवतिर्नरगतिनरानुपूर्वीरूपनरद्विकोचैर्गोत्रैर्विना षण्णवतिर्मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने भवति / सैव षण्णवतिस्तिर्यगायुर्नपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्डसंस्थानसेवार्तसंहननवर्जिता एकनवतिः सासादने सप्तम्यां नारकाणाम्।।६।। अणचउवीसविरहिया, सनरदुगुच्चा स सयरि मीसदुगे। सतर सओ ओहि मिच्छे, पज्जतिरिया विणु जिणाहारं। 7 / प्रागुक्तैकनवतिरनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विशतिप्रकृतिभिर्विरहिता नरद्विकोचैर्गोत्राभ्यां च सहिता सप्ततिर्भवति। सा च (मीसदुगे त्ति) मिश्राऽ- | विरतगुणस्थानद्वये द्रष्टव्या / इह सप्तम्यां नराऽऽयुस्तावन्न बझ्यते एव, तद्वन्धाभावेऽपि च मिश्रगुणस्थानकेऽविरतगुणस्थानके च नरद्विक बध्यते / अयमर्थोनरद्विकस्य नराऽऽगुणः सह नाऽवश्यं प्रतिबन्धो, यदुत यत्रैवाऽऽयुर्बध्यते तत्रैव गत्यानुपूर्वीद्वयमपि तस्याऽन्यदाऽपि बन्धात्। मिथ्यात्वसासादनयोस्तु कलुषाध्य बलायत्वेन प्रतिषाद्याऽच तिर्यग्गतौ तदाह-" सतर सओ" इत्यादि विंशत्युत्तरशतं जिननाम आहारकद्विकं च विना शेषं सप्तदशोत्तरशतमोघे मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने च पर्याप्तास्तिर्यचो बध्नस्ति / अत्रौघे तिरश्चां सत्यपि सम्यक्त्वे भवप्रत्ययादेय तथाविधाध्यवसायाऽमावात्तीर्थकरनाम्नः संपूर्णसंयमाभावादाहारकद्विकस्य च बन्धो नास्तीति हृदयम्॥७॥ विलु नरयसोल सासणि, सुराउ अण एगतीस विणु मीसे। ससुराउ सयरि सम्मे, वीयकसाए विणा देसे // 8 // प्रागुक्तं सप्तदशोत्तरशतं नरकत्रिकाऽऽदिषोडशप्रकृतीविनाएकोत्तरशत सासादने पर्याप्ततिरश्वाम् / एतदेवैकोत्तरशतं सुराऽऽयुरनन्तानुबन्ध्याऽऽद्यकत्रिंशत्प्रकृतीश्न विना एकोन सप्ततिः, सा मिश्रगुणस्थाने बध्यते। अयं भावार्थ:-" सम्मामिच्छद्दिट्टी, आउबंधं पिन करेइ।'' इति वचनादत्र सुरनराऽऽयुषोरबन्धः, अनन्तानुबन्ध्यादयश्च फञ्चविंशतिप्रकृतयः सासादन एव व्यवच्छिन्नबन्धाः, तथा-मनुष्यास्तिर्यश्चश्व मिश्रगुणस्थानकस्था अविरतसम्यग्दृष्टिवद्देवाहमेव बध्नन्ति / तेन नरद्विकौदारिकद्विकवजऋषभनाराचानामपि बन्धाभावः / एषैव एकोनसप्ततिः सुराऽऽयुषा सहिता सप्ततिः सम्यक्त्वेऽविरतगुणस्थानके भवति। सा सप्ततिर्द्वितीयकषायैरप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभैर्विना षट्षष्टिर्देशविरतगुणस्थाने बध्यते।।८।। अथ तिर्यग्गतिबन्धाधिकार एव ग्रन्थलाधवार्थ मनुष्यग तावपिबन्धं दर्शयतिइय चउगुणेसु वि नरा, परमजया सजिण ओहु देसाई। जिणएक्कारसहीण्णं, नवसउ अपज्जत्ततिरियनरा।।६।। यथा पर्याप्ततिरश्वां चतुर्षु मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्राविरतिगुणस्थानेषु सप्तदशोत्तरशताऽऽदिको बन्ध उक्त इत्येवं पर्याप्तनरा अपि चतुर्यु मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्राविरतिगुणस्थानेषु सप्तदशोत्तरशताऽऽदिबन्धस्वामिनो गन्तव्याः। परमयता अविरतसम्यग्दृष्टयः पर्याप्तनराः। (सजिण ति) अविरतसम्यग-दृष्टिपर्याप्ततिर्यग्बन्धयोग्यसप्ततिर्जिननामसहिता एकसप्ततिस्ता बध्नन्ति, जिननामकर्मणोऽपिबन्धकत्वात्तेषाम् / (ओहु देसाइति, देशविरताऽऽदिगुणस्थानकेषु गुणस्थानकानाश्रयणे च पर्याप्तनराणां पुनरोधः सामान्यो बन्धोऽवसेयः। स च कर्मस्तवोक्त एव, यतः कर्मस्तवग्रन्थे सामान्यतो गुणस्थानकेषु बन्धः प्रतिपादितो, न पुनः किशन गत्यादिमार्गणास्थानमश्रित्य / स चात्र बहुषु स्थानेषूपयोगीति मूलतोऽपि दर्शाते " अभिनवकम्मग्गहणं, बंधो ओहेण तत्थ वीससयं। तित्थयराहारगदुग-वजं मिच्छम्मि सतरसयं॥१॥ नरयतिग३जाइ३थावर-चउपहुंडायवच्छिवट्ठनपुमिच्छं। सोलतो इगहियसव, सासणि तिरि 3 थीण 3 दुहगतिग 3 // 2 // अण मज्झ गिइ४संघ यण४चउ निउज्जोय कुखगइस्थिति। पणवीसेता मीसे, चउसयरि दुआउय अबंधा / / 3 / / Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधसामित्त 1246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधसामित्त सम्मे सगसयरि जिणाउयंधि वइरन रतिगखियकसाया। उरलदुगंतो देसे, | सत्तट्ठी तियकसायंतो।।४।। नेवढि पमते सो चाअरइअथिर दुग अजस अस्सायं / क्षुच्छिज्ज छच सत्त व, नेइ सुराउ जया निह / / 5 / / गुणसद्धि अप्पमत्ते, सुराउ वंधं तु जइ इछागच्छे। अन्नह अट्ठावन्ना, जं आहारदुर्ग बंधे।६।। अहवन्न अपुव्वाइमि निद्ददुगंतो छपन्न पणभागे। सुरदुग पणिदि सुखगइ तय नव उरत्त विणु नणुवंगा // 7 // समचउर निमिणजिण, वन्नअगुरुलहुचउट्टालसि तीसंतो। चरिमे छवीसबंधो, छसरईकुच्छभयभेओ ||8|| अनियट्टिभागपपानो इवोगहीणो दुवीसविहबंधो। पुम संजलणचउण्ह, क्रमेण छेओ सतर सुहुमे / / 6 / चउदसणु चजस नाणविन्दायसग ति सोलस च्छेओ। तिसु सायबंध छेओ। इत्येतासां दशानामपि गाथानां व्याख्यानं कर्मस्तवटीकातो बोद्धव्यम्।। इत्योघबन्धः। इह कर्मस्तवोक्तगुणस्थानक बन्धान्नरतिरश्चां मिश्राऽविरतगुणस्थानकयोरयं विशेष:-कर्मस्तवे मिश्रगुणस्थानके चतुःसप्ततिः अविरतसम्यग् दृष्टिगुणस्थानके सप्तसप्ततिः। तिरश्चां पुनर्मनुष्यद्विकोदारि कद्विकवजऋषभनाराचसंहननरूपप्रकृतिपञ्चकस्य बन्धाभावामिश्रगुणस्थानके एकोनसप्ततिः अविरतसम्यग् दृष्टौ सुराऽऽयःक्षेपे सप्ततिः। नराणां तु मिश्रे एकोनसप्ततिः अविरत सम्यग् दृष्टौ तीर्थकरनामक्षेपे एकसप्ततिः। अस्यां च एकसप्ततौ यदि मनुष्यद्विकोदारिकद्विकवनऋभनाराचसंहननप्रकृति पञ्चकं नराऽऽयुष्कं च क्षिप्यते तदा कर्मस्तवोक्ता सप्तसप्ततिर्भ वत्यविरतगुणस्थानके। तथा कर्मस्तवे देशविरतगुणस्थानके या सप्तषष्टिरुक्ता सा तिरश्चां जिननामरहिता षट्षष्टिर्देशविरत गुणस्थाने भवति / प्रमत्ताऽऽदीनि गुणस्थानानि तिरश्चां न संभवन्ति। नराणां तु सर्वगुणस्थानकसंभवेनदेशविरताऽऽदि गुणस्थानकेषु कर्मस्तवोक्त एव सर्वोऽप्यन्यूनाधिक ओघबन्धो वाच्यः / ततश्च पर्याप्तनराणां सामान्येन बन्धे विंशत्युत्तरशतं प्रकृतीनां प्राप्यते 120, तेषामेव मिथ्यादृशां सप्तदशोत्तरशतम् 117, सासादनानामेकोत्तरशतं 101, मिश्राणामेकोनसप्ततिः 66, अविरतसम्यग्दृष्टीनामेकसप्ततिः७१, देशविरताना सप्तषष्टिः 67, प्रमत्तानां त्रिषष्टिः 63, अप्रमत्तानामेकोनवष्टिरष्टपञ्चाशद्वा 56, 58, निवृत्तिबादराणां प्रथमे भागेऽष्टपञ्चाशत् 58, भागपञ्चके षट्पञ्चाशत् 56, सप्तमभागे षड्विशतिः 26, अनिवृत्तिबादराणामाद्ये भागे द्वाविंशतिः 12, द्वितीये एकविंशतिः 21, तृतीये विंशतिः 20, चतुर्थे एकोनविंशतिः 16, पञ्चमेऽष्टादश च 18, सूक्ष्मसंपरायाणांसप्तदश 17. उपशान्तमोहक्षीणगोह सयोगिनामेका सातलक्षणा प्रकृतिबन्धे प्राप्यते, अयोगिनां तु बन्धाभावः / एवमन्यत्राप्योघबन्धः। उक्तस्तिर्यग्नराणां पर्याप्तानां बन्धः / अथ तेषामेव अपर्याप्तानां तमाह - "जिण इक्कारसहीणं" इत्यादि। यदेव नराणामोघबन्धे विंशत्युत्तरशतं तदेव जिननामाऽऽद्येकादश प्रकृतिहीन शेषं नवोत्तरशतमपर्याप्त तिर्यानरा ओघतो मिथ्यात्वे च बध्नन्ति / यद्यपि करणाऽपर्याप्तो ? मनुष्यो वा जिननामकर्म सम्यक्त्वप्रत्ययेन बध्नाति, तथाऽपीह नराणां लब्ध्याऽप प्तित्वेन विवक्षणान्न जिननामबन्धः / / 6 / / तिर्यगतौ मनुष्यगतौ च बन्धस्वामित्त्यमुक्तम्। साम्प्रतं देवगतिमधिकृत्य तदुच्यतेनिरय व्व सुरा नवरं, ओहे मिच्छे इगिंदितिगसहिया। कप्पदुगे वि य एवं, जिणहीणो जोइभवणवणे।।१०।। सुरा अपि नारकवदोघतोऽविशेषतश्च तद्वन्धस्थानिनोऽव गन्तव्याः / नवरमय विशेषः-ओघे मिथ्यात्वगुणस्थानके च बन्धमाथित्य सुरा एकेन्द्रियाऽऽदित्रिकसहिता द्रष्टव्याः। ततोऽयमर्थः यो नारकाणामेकोत्तरशतरुपः ओव बन्धः स एवं केन्द्रियजातिस्थावरनामाऽऽतपनामप्रकृतित्रायसहितः सुराणां सामान्यतो बन्धश्चतुराशतम् 104, तदेव मिथ्यात्व जिननामरहितं त्र्युत्तरशतम् 103, एतदेवैकेन्द्रियजातिस्थावरा ऽऽतपनपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्ड सेवार्तलक्षण प्रकृतिसप्तकहीनं सासादने षण्णवतिः 66, षण्वतिरेवानन्तानुबन्ध्या दिषड्विशतिप्रकृतिसहिता मिश्रे सप्ततिः 70, सैचजिननामनराऽऽयुष्कयुत्ता द्विसप्ततिस्तामविरतसम्यग् दृष्टयो देवा बध्नन्तीति सामान्येन देवगतिबन्धः। साम्प्रतं देव विशेषनामोचारणपूर्वकंतमाह-(कप्पदुगे इत्यादि) कल्पद्विकेऽपि सौधर्मेशानाऽऽख्यदेवलोके द्वयेऽप्येवं सामान्यदेवयन्धवद्वन्धो द्रष्टव्यः / तथाहि-सामान्येन चतुरग्रशतम् 104, मिथ्यादृशां त्र्यग्रशतं 103, सासादनाना षण्णवतिः 66, मिश्राणां सप्ततिः 70, अविरताना द्विसप्ततिः 72, देवौद्यो जिननामकर्महीनो ज्योतिष्कभवनपतिव्यन्तर देवेषु तद्देवीषु च विज्ञेयः, जिनकर्मसत्ताकस्य तेषूत्पादाऽभावेन तत्र तद्वन्धासंभवात्ततः सामान्यतस्यधिकशतम् 103, मिथ्यात्वेऽपि त्र्यधिकशत 103, सासादनेषण्णवतिः, 66 मिश्रेसप्ततिः 70, अविरते एकसप्ततिः७१।१०।। रयणु व्व सणंकुमारा-इ आणायाई उजोयचउरहिया। अप्पजतिरिय व्व नवसय मिगिदि पुढविजलतरुविगले॥११॥ सनत्कुमाराऽऽद्याः सहस्रारान्ता देवारत्न प्रभाऽऽदि प्रथम-पृथिवीजयनारकवत् बन्धमाश्रित्य द्रष्टव्याः। तद्यथा-सामान्येनैकाग्रशतं 101, मिथ्यादृशां शतं 100, सासादनानां पण्णवतिः 63, मिश्राणां सप्ततिः, अविरताना द्विसप्ततिः 72 / आनताऽऽद्या ग्रैवेयकनवकान्ता देवा अपि उद्द्योतनामतिर्यग्ग तितिर्यगानुपूर्वीतिर्यगाऽऽयुः प्रकृतिचतुष्करहिता रत्नप्रभाऽऽदिनारकवदेव द्रष्टव्याः ततः सामान्यतः सप्तनवर्ति ते बध्नन्ति 67, मिथ्यादृशः षण्णवतिं 66, सासादना द्विनवति 12, मिश्रेऽविरते चोदयोताऽऽदिचतुष्कस्य प्रागेवाऽपनीतत्वासंपूर्ण एव रत्नप्रभाऽऽदिभङ्गस्ततो मिश्राः सप्ततिं 70, अविरता द्विसप्ततिं बध्नन्ति७२, मिथ्यात्वाऽऽदिगुण स्थानत्रयाभावात्पञ्चानुत्तरयिमानदेवा एतामेवाऽ-विरतगुणस्थानसत्का द्विसप्तति७२, बध्नन्तीत्यनुक्तमपि ज्ञेयम्, इति। उक्तदेवगतो बन्धस्वामित्व, तद्भणनाच गतिबन्ध, मार्गणा समाप्ता। साम्प्रतमिन्द्रियेषु कायेषु च तदारभ्यते (अपजेत्यादि) अपर्याप्ततिर्यग्वन्नवोत्तरशतमेके Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधसामित्त १२५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधसामित्त न्द्रियष्टध्वीजलतणविकलयेषु द्रष्टव्यम् / अयमर्थः-विंशत्युत्तर- | शतमध्यात् जिननामाऽऽोकादश प्रकृतीभुक्त्वा शेषं नवोचरशतमेकेन्द्रिया विकलेन्द्रियाः पृथ्वीजलवनस्पति कायाश्च सामान्यपदिनो | मिथ्यादृशश्च बध्नन्ति॥११॥ अर्थतेषामेव सासादनगुणस्थाने बन्धमाहछनवइ सासाणि विणु, सुहुमतेर केइ पुण बिंति चउनवई। तिरियनराऊहिं वि-णा तणुपजत्तिं न ते जंति / / 2 / / प्रागुक्तं नवोत्तरशतं सूक्ष्मत्रिकाऽऽदिप्रकृतित्रयोदशकं मिथ्यात्वे एवं व्यवच्छिन्नबन्धमिति कृत्वा तद्विना षण्णवतिः सासादने एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपृथ्वीजलवनस्पतिकायानां भवति। केचित्युनराचार्या ध्रुवते-- चतुर्नवति, तिर्यनराऽऽयुष्काभ्यां विना, यतस्ते एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाऽऽदयः सासोदनाः सन्तस्तनुपर्याप्तिं नयान्त्यतस्ते तिर्यग्नराऽऽयुरबन्धकाः-अयं भावार्थः-तिर्यग्रराऽऽयुषोस्तनुपर्याप्तया पर्याप्तैरेव बध्यमानत्यात्। पूर्वमतेनशरीर पर्याप्त्युत्तरकालमपिसासादनमा वस्येष्टत्वादायुर्वन्धोऽभिप्रेतः। इह तुप्रथममेव तन्निवृत्तेर्नेष्ट इतिपण्णवतिः। तिर्यग्नराऽऽयुषो विना मतान्तरेण चतुर्नवतिः / 12 / / उक्तः एकेन्द्रियाऽऽदीनां बन्धः / अथ पञ्चेन्द्रियाणां त्रसकायिकानां च तमाहओहपणिंदितसे गइ-तसे जिणिकार नरतिगुचविणा। मण्णवयजोगे ओहो, उरले नरभंगु तम्मिस्से / / 13 / / ओधो विंशत्युत्तरशताऽऽदिलक्षणः कर्मस्तवोक्तः पञ्चेन्द्रियेषु त्रसकायिकेषु चाऽवगन्तव्यः / तद्यथा-सामान्यतो विंशत्युत्तरशतम् 120, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् 117, सासादने एकोत्तरशतम् 101, मिश्रे चतुःसप्ततिः 74, अविरते सप्ततिः 77. देशेसप्तषष्टिः 67, प्रमत्ते त्रिषष्टिः 63, अप्रमत्तं एकोनषष्टिः 56, अष्टपञ्चाशद्वा 58, निवृत्तियादरे प्रथमभागे ऽष्टपञ्चाशत् 58, भागपञ्चके षट्पञ्चाशत् 56, सप्तमभागे षड्विंशतिः 26, अनिवृत्तिबादरे आधे भागे द्वाविंशतिः 22, द्वितीये एकविंशतिः 21, तृतीये विंशतिः 20, चतुर्थे एकोनविंशतिः 16, पञ्चमेऽष्टादश 18, सूक्ष्मेसप्तदश 17, शेषगुण स्थानत्राये सातस्यैकस्य बन्धः 1, अयोगिनि बन्धाऽभावः। गतित्रसास्तेजोवायुकायास्तेषु जिनानाभाऽऽद्येकादश प्रकृती रत्रिकमुच्चैर्गोत्रांच विना विंशत्युत्तरशतं शेष पञ्चोत्तरशतं बन्धेलभ्यते, सासादनाऽऽदि भावस्तुनैषां सम्भवति यत उक्तम् - "न हु किंचि लभिज्ज सुहुमतसा।" सूक्ष्मासास्तेजीवायुकायजीवा इति। एव मुक्त इन्द्रियेषु कायेषु च बन्धः। संप्रति योगेषुतं प्रतिपादयन्नाह -(मणवयजोगे इत्यादि) सूचकत्वात् सूत्रास्य सत्यादिमनोयोगचतुष्के तत्पूर्वक सत्यादिवाग्योगचतुष्के च ओध बन्धो विंशत्युत्तरशता ऽऽदिलक्षणः कर्मस्तवोक्तो ज्ञेयः। तत्रा सत्याऽऽदिस्वरुपं त्विदम्-सत्यं यथाऽस्ति जीवः सदसद्रूपो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुतत्वचिन्तनपरं सत्यम्। विपरीतं त्वसत्यम् / मिश्रस्वभावं सत्यासत्यम्, यथा ध दिरपलासा ऽऽदिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति विकल्पनापरमा तथा यन्न सत्यं नापि मृषा तदसत्यामृषा इह विप्रतिपत्तौ सत्यां यद्वस्तु प्रतिष्ठाऽऽशया सर्वज्ञमतानुसारेण विकल्पये, यथाऽस्ति जीवः सदसद्रूपइत्यादि तत्किल सत्वं परिभाषितम्। यत्पुनर्विप्रतिपत्तौ सत्वां वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशया सर्वज्ञमत्तोत्तीर्ण विकल्प्येत, यथा नास्तिजीव एकान्तनित्यो वेत्यादि' / तदसत्यम् / यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशामन्तरेव स्वरूपमात्रपालोचनपरं यथा हे देवदत्त ! घटमानय, गां देहिमामित्यादिचिन्तनपरंतदऽसत्यामृषा, इदं स्वरूपमात्रा पर्यालोचनपरत्वान्न यथोक्तलक्षणं सत्यं भवति, नापि मृषेति / इदमपि व्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यम् / निश्चयनयमतेन तु विप्रतारणाऽऽदिबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति, अन्यथा तुसत्ये। (उरले त्ति) मनोवाग्योगपूर्वक औदारिककाययोगे नरभङ्गः "इह चउगुणेसु वि नरा'' इत्यादिना प्रागुक्तस्वरूपः / यथा ओघे विंशत्युत्तरशतम् 120, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरप्रशतम् 117, सासादनेएकोत्तरशतम् 101, मिश्रेएकोनसप्ततिः 66, अविरतेएकसप्ततिः 71, इत्यादि मनोरहितवाग्योगे विकलेन्द्रियभङ्ग / केवल-काययोगे त्वेकेन्द्रियभङ्गः (तम्भिस्से त्ति) तन्मिश्रे-औदारिकमिश्रयोगे॥१३॥ सम्प्रतिबन्ध उच्यतेआहारछग विणोहे, चउदससउ मिच्छि जिणपणगहीणं। सासणि चउनवह विणा, नरतिरियाऊ सुहुमतेर।।१४।। विंशत्युत्तरशतमाहारिकाऽऽदिप्रकृतिप्रट्कं विना शेष चतुर्दशाधिकशत पोघबन्धे प्राप्यते। अयं भावार्थः औदारिकमिभं कार्मणेन सह, तचापर्याप्तावस्थायां केवलिस मुद्घातावस्थायां वा, उत्पत्तिदेशे हि पूर्वभवादनन्तरमागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनैव केवलेनाऽऽहारयति। ततः परमौदा रिकस्याप्यारब्धत्वादौदारिकेण कार्मणमिश्रेण यावच्छरीरस्य निव्यत्तिः केवलिसमुद्धातावस्थायां द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्रमौदारिकामिति। अपर्याप्ताऽवस्थायां च नाहारका ऽऽदिषट्कं बद्धयते इति तन्निषेधः / केवलिसमुद्धातावस्थायां पुनरेकस्य सातस्यैव बन्धोऽभिधास्यते। एतदेव चतुर्दशोत्तर शतमौदारिक-मिश्रकाययोगी मिथ्यात्वे जिननामाऽऽदिप्रकृति पञ्चकहीनं शेषं नवोत्तरशतं बध्नाति। सरवसासादने चतुर्नवतिंबध्नाति, नवोत्तरशतमध्यान् मुक्त्वा नरतिर्यगायुषी सूक्ष्मत्रिकाऽऽदित्रायोदशप्रकृतीश्च नरतिर्यगायुषोरपर्याप्तत्वेन सासादने बन्धाभावात् सूक्ष्मत्रिकाऽऽदित्रयोदशकस्य तु मिथ्यात्व एव व्यवच्छिन्नबन्धतया च / / 14 / / अणचउवीसाइविणा, जिणपणजय सम्मि जोगिणो सायं / विणु तिरिनराउ कम्मे, वि एवमाहारदुगि ओहो।।१५।। प्रागुक्ता चतुर्नवतिरनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विशति प्रकृतीविना जिननामाऽऽदिप्रकृतिपञ्चकयुता च पञ्चसप्ततिस्तामौदारिक मिश्रककाययोगी सम्यक्त्वे बध्नाति। तथासयोगिन औदारिकमिश्रस्थाः केवलिसमुद्घाते द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु सातमेवैकं बध्नन्ति / एवं गुणस्थानकचतुष्ठक एवौदारिकमिश्रयोगो लभ्यते नान्यत्र / अथ कार्मणयोगाऽऽदिषु बन्धः प्रतिपाद्यते-(विणु तिरीत्यादि) यथौदारिकमिश्रे बन्धविधिरोघतो विशेषतश्चोक्तः, एवं कार्मणयोगेऽपि तिर्यग्रराऽऽयुषी बिना वाच्यः, कार्मणकाययोगे तिर्यग्नरायुषोर्बन्धभावात। कार्मणकाययोगो ह्यपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च जीवस्य मिथ्यात्वसासादनाऽविरत Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधसामित्त 1251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधसामित्त गुणस्थानकायोपतस्य लभ्यते। उक्तं च - "मिच्छेसासाणो वा, अविरयसंमम्मि अहव गहियम्मि। जंति जिया परलोए, सेसिक्कारसगुणे मुत्तु !!1!" तथा सयोगिनः केचलिसमुद्घाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु चेति गुणस्थानकचतुष्टये एव कार्मण काययोगो नाऽन्यत्रा। ततो विशत्युत्तरशतमध्यादाहारकषट्क तिर्थनराऽऽयुः प्रकृतीर्मुक्त्वा शेषस्य द्वादशोत्तरशतस्य सामान्येन कार्मणकाययोगो बन्धस्तदेय द्वादशोत्तरशतं जिनाऽऽदिपञ्चकं विना शर्ष सप्तोत्तरशतं कार्मणकाययोगे मिथ्यादृशो बध्नन्ति तदेव सप्तोत्तरशतं सूक्ष्माऽऽदित्रयोदश प्रकृतिर्मुक्त्वा शेषां चतुर्नवति कार्मणयोगे सा साहवा बध्नन्तिः। चतुर्नवतिरेचानन्तानुबन्ध्यादिचतुविशतिप्रकृतीविना जिननामाऽऽदिप्रकृतिपञ्चकसहिता च पञ्चसप्ततिस्ता कार्मण योगेऽविरता बध्नन्ति / सयोगिनस्तु कार्म ......काययोगे सातमेवैकं बध्नन्ति। तथा आहारककाययोगश्चतुर्दशपूर्वविदः आहारकमिश्रकाययोगश्च तस्यैवाऽऽहारकशरीरस्य प्रारम्भसमये परित्यागसमये च औदारिकेण सह द्रष्टव्यः। तत आहारकद्विक आहारकशरीरतन्मिश्रलक्षणे योगद्वये ओद्यः कर्मस्तवोक्तः प्रमत्तगुणस्थानवर्ती त्रिषष्टिप्रकृतिबन्धरूपः / एतत्काययोगद्वयं हि लब्ध्युपजीवनात्ममत्तस्यै च न त्वप्रमत्तस्य / / 15 // सुरओहो वेउव्ये, तिरियनराउरहिओ य तम्मिस्से / चेयतिगाइम विय तिय-कसाय नव दुचउ पंच गुणे / / 13 / / / सुरौघः सामान्यदेवबन्धो वैक्रियकाययोगे द्रश्व्यः। तद्यथा-सामान्येन चतुरगशतम् 104, मिथ्यात्वे व्युत्तरशतं 103, सासादने षण्णवतिः 66, मिश्रे सप्ततिः 70, अविरते द्विसप्ततिः 72, / तथा तन्मिश्रे वैक्रियमिश्रे स एव सुरौघस्तिर्यनराऽऽयुष्करहितो वाच्यः। इह देवनारका निजाऽऽयुः षण्मासावशेषा एवाऽऽयुर्बध्नन्ति, अतो वैक्रियमिश्रयोगे उत्पत्ति प्रथम-समयादनन्तरमपर्याप्तावस्था संभविनि आयुयबन्धाभावः / तथा चागौघे द्वघुत्तशतं 102, मिथ्यात्वे एकोत्तरशतं 101, सासादने चतुर्नवतिः 64, अविरते एकसप्ततिः 71 / वैक्रियमिश्रयोगो मिश्रता चास्यात्रा कार्मणकायेनैव सह मन्तव्या। अयमपिंच मिथ्यात्वसा सादनाऽविरतगुणस्थानकत्रय एव लभ्यते, नान्यत्र। यद्यपि देशविरतस्याम्बडाऽऽदेः प्रमत्तस्य तु विष्णुकुमाराऽऽदेवैक्रिय कुर्वतो वैक्रियमिश्रवैक्रियसंभवः श्रूयते, परं स्वभावस्थस्य वैक्रिययोगस्यात्रा गृहीतत्वाद्, अथवा-रवल्पत्वादन्यतो वा कुतोऽपि हेतोः पूर्वाऽऽचार्यैः स नोक्तः / एवं योगेषु बन्धत्वामित्व मुक्तम् / अथ वेदाऽऽदिषु तदभिधित्सुः प्रथम गुणस्थानकानितेष्वाह-(वेयतिगेत्यादि) वेदत्रिके-स्त्रीवेदषुवेदनपुंसक वेदरूपे नवनवसंख्याकानि (संजलणेत्यादि) अग्रेतनयाथास्थ पढ़मेति' पदस्याऽत्रापि संबन्धात्प्रथम नि मिथ्यात्वाऽऽदीनि अनिवृत्तिबादरान्तानि गुणस्थानकानि भवन्ति, ततः परं वेदानामभावात् / एतेषु यः कर्मस्तवोक्तः सामान्यबन्धः। सद्रष्टव्यः / तद्यथा-सामान्यतो नानाजीवापेक्षया विशन्युत्तर शतम् 120, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् 117 सासादने एकोत्तरशतम् 101, मिश्रे चतुःसप्ततिः७४, अविरतेसप्तसप्ततिः 77, देशविरते सप्तषष्टिः 67, प्रमत्ते त्रिषष्टिः 63, अप्रमत्ते एकोनषष्टिः | 56, अष्टपञ्चाशद्वा 58, निवृत्तिबादरे प्रथमभागेऽष्टपञ्चाशत् 55, भागपञ्चके षट्पञ्चाशत् 56, सप्तमभागे षड्विंशतिः 26. अनिवृत्तिबादरे आधे भागे द्वाविंशतिः 22 / एवमन्यत्रापि गुणस्थानकेषु यथासम्भव कर्मस्तवोक्तो बन्धो वाच्यः / कषायद्वारे आद्येऽनन्तानुबन्धि क्रोधमानभायालोभरुपे कषायचतुष्के द्वे प्रथमे मिथ्यात्वसासादनाऽऽख्ये गुणस्थानके, तत्र तीर्थङ्करबन्धस्य सम्यक्त्वप्रत्ययत्वादाहारकद्विकबन्धस्य च संयमहेतुत्वा दनन्तानुबन्धिषु तदभावात्सामान्येन सप्तदशोत्तरशतम् 117, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् 117, ससादने एकोत्तरशतम् 101, द्वितीयेऽप्रत्याख्यानाऽऽख्ये कषायचतुष्के चत्वारि प्रथमानि मिथ्यात्वसासादनामिश्राऽविरतनामकानि गुणस्थानकानि, तत्राऽऽहारकद्विकबन्धाभावेन सामान्येन अष्टादशोत्तरशतम् 118, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् 117, सासादने एकोत्तरशतम् 101, मिश्रे चतुःसप्ततिः 74, अविरते सप्ततिः 77. तृतीये प्रत्याख्यानाऽऽवरणाऽऽरव्ये कषायचतुष्के पञ्च आद्यानि मिथ्यात्वाऽऽदीनि देशविरतान्तानि गुणस्थानकानि, देशविरते सप्तषष्टिः, शेषाणि तथैव // 6 // संजलणतिंगे नव दस, लोभे घउ अजइ दुति अनाणतिगे। वारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा अहक्खाय चरमचऊ॥१७॥ संज्वलनत्रिके--संज्वलनक्रोधमानमायारूपे नवाऽऽद्यानि गुणस्थानकानिता सामान्यबन्धान्निवृत्तिबादरं यावद्वेदत्रिकन्यायेन विंशत्युत्तरशताऽऽदिको बन्धः अनिवृत्तिबादरे तु प्रथमे भागे द्वाविंशतिः 22, द्वितीये पुंवेदरहिता एकविंशतिः२१, तृतीये संज्वलनक्रोधरहिता विंशतिः 20, चतुर्थे संज्वलनमानरहिता एकोनविंशतिः 16, पञ्चमे संज्वलनमायारहिता अष्टादश 18, संज्वलनलोभस्य तु सूक्ष्म सम्परायेऽपि भावात्तत्र दश प्रथमानि गुणस्थानानि, तत्रा नव तथैव, दशमे तु सूक्ष्मसम्पराये सप्तदश प्रकृतयः / संयमद्वारे अयतेऽसंयते चत्वारि आद्यानि गुणस्थानानि, तत्र सामान्यतोऽविरतसम्यग्दृष्टेरपि संगृहीतत्वाजिननामक्षेपात्सप्त दशोत्तरशतं जातमष्टादशोत्तरशतम् 118, मिथ्यात्ये सप्तदशोत्तरशतम् 117, सासादने एकोत्तरशतम् 101, मिश्रे चतुःसप्ततिः 74, अविरते सप्ततिः 77 / ज्ञानद्वारे- अज्ञानत्रिके-मत्यज्ञानश्रुताऽज्ञानविभङ्गरूपे द्वे, मिथ्यात्वासासादनेत्रीणि वा गुणस्थानकानि मिश्रेण सह, अयमाशयः-मिश्रे ज्ञानाशोऽज्ञानांशश्चास्ति, तत्र यदाऽज्ञानांशप्राधान्यं विवक्ष्यते तदा-अज्ञानत्रिके गुणस्थत्रकद्वयमेव, ज्ञानांशप्राधान्यविवक्षायां तु तृतीय मिश्रमपि, तत्रौघे सप्तदशोत्तरशतम् 117, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् 117, सासादने एकोत्तरशतम् 101. मिश्रे चतुःसप्ततिः 74 / दर्शनद्वारे-चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोः प्रथमानि द्वादश गुणस्थानानि, परतस्तु चक्षुरचक्षुषोः सतोरप्यनुपयो गित्वेनाव्यापारात्। तत्रौघे विंशत्युत्तरशतम् 120, मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् 117, इत्यादि यावत् क्षीणमोहे सातबन्धः 11 यथाख्याते चरमगुणस्थानकचतुष्कं, तत्र सामान्यतः 1. उपशान्तमोहे 1, क्षीणमोहे 1, सयोगिनि 1, अयोगिनि। 17 // मणनाणि सग जयाई, समइयच्छेय चउ दुन्नि परिहारे / Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधसामित्त 1252 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधसामित्त केवलिदुगि दो चरमा-जवाइ नव मइसुओहिदुगे॥१८॥ मनापर्यायज्ञाने सप्त यातऽऽदीनि-प्रमत्तसंयताऽऽदीनि क्षीण मोहन्तीनि। | तत्र सामान्यत आहारकद्धिकसहिता त्रिषष्टिर्जाता पञ्चषष्टिः ६५,प्रमत्ते 63, इत्यादियावत् क्षीणमोहे 1, केवलसातबन्धः। सामायिक क्षेदोपस्थापने चचत्वारि यताऽऽदीनि क्षुणस्थानानि तत्रा सामान्यतः पञ्चषष्टिः 65, प्रमत्ते 63 त्रिषष्टिरित्यादि भागवत्। सूक्ष्मसंपरायगुण स्थानकाऽऽदौ तु सूक्ष्मसंपरायाऽऽदिचारित्राऽभावात्। तथा द्वेगुणस्थानके प्रमत्ताप्रमत्तरूपे परिहारविशुद्धिचारिको नोत्तराणि, तस्मिंश्चारित्र वर्तमानस्य श्रेण्यारोहणप्रतिषेधात् तत्रा सामान्यतः 65, प्रमत्ते 63, अप्रमत्ते 56, अष्टपश्चाशद्वा / वेचलद्विककेवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे द्वे चरमे-अन्तिमे सयोविके वल्ययोगि-केवल्याख्ये गुणस्थानके भवतः। अत्रौधे एकव्य सातस्य बन्धः सयोगिनि च अयोगिनि शून्यं, तथा मतिश्रुतयोरवधिद्विके चावधिज्ञानाऽवधिकदर्शनलक्षणेऽयताऽऽदीनि अविरतसम्यग्-दृष्टयादीमि क्षीणमोहपर्यवसाननि नव गुणस्थानकानि भवन्ति / सयोग्यादी केवलोत्पत्या मत्यादेरभावात् तत्रौघतोऽप्रमत्ता-ऽऽदेर्मत्यादिमत आहारकद्विकस्यापि बन्धसंभवादेकोनाशीतिः 76, विशेषचिन्तायामविरताऽऽदिगुणस्थानकेषु कर्मस्तवोक्तः सप्तसप्तत्यादिमितो बन्धो द्रष्टव्यः / / 18|| अड उवसमि चउ वेयगि, खइए इक्कार मिच्छतिगि देसे। सुहुमि सठाणं तेरस, अहारगि नियनियगुणोहो // 16 / / इहाऽयताऽऽदीति पदं सर्वत्र योज्यते / ततोऽयताऽऽदीनि उपशान्तमोहान्तान्यष्टौ गुणस्थानान्यौपशमिकसम्यक्त्वे भवन्ति, ता सामान्यत औपशमिकसम्यक्त्वे वर्तमानानां देवमनुजाऽऽयुषोर्बन्धाभावात् 75, अविरतेऽपि 75, देशे सुराऽऽयुरबन्धात् 66, प्रमत्ते 62, अप्रमते 58, इत्यादि यावदुपशान्ते ? वेदके क्षायोपशमिकाऽपरपर्यायऽयताऽऽदीन्य प्रमत्तान्तानि चत्वारि गुणस्थानकानि, तत्रौघे 76 अविरते 77 देशे 67, प्रमत्ते 63 अप्रमत्ते 56-58 वा, अतः परमुपशमश्रेणावीपशामिक क्षपकश्रेणौ पुनः क्षायिकं, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं तूदीर्णमिथ्यात्वक्षयेऽनुदीर्णमिथ्यात्वो पशमे च भवतीति। उक्तं च - "मिच्छत्तं जमुइण्णं, तं स्वीणं अणुइयतु उवसंत। मीसीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं / / 1 / / " तथा क्षायिकसम्यक्वेऽयता-ऽऽदीन्ययोगिकेवलिपर्य वसानान्येकादश गुणस्थानकानि। तत्रौघे 76 अविरते७७ देशे 67 इत्यादि यावदयोगिनि शून्यम् / क्षायिकसम्यक्त्व स्वरूपमिदम्- "खीणे दसणेमोहे, तिविहम्मि वि भवनियाण भूयम्मि। निप्पचवायमउलं, संमत्तस्वाइयं होइ।।१।।' तथा मिथ्यात्वत्रिके-मिथ्यादृष्टिसात्वादनमिश्रत्वाक्षणे देसे-देशविरते सूक्ष्मे सूक्ष्मसम्पराये स्वस्थानं निजस्थानम्। अयमर्थः-मिथ्यात्वमार्गणास्थाने मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं सासादनमार्गणास्थाने सासादनं गुण स्थान मिश्रमार्गणास्थाने मिश्रगुणस्थानं देशसंयममार्गणास्थाने देशविरतगुणस्थानं सूक्ष्मसंपरासंयमे सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानम्। अत्र च स्वस्वगुणस्थानीयो बन्धः यथा मिथ्यात्ये ओघतो विशेषतश्च 117, एवं सासादने 101, मिश्र७४, देशे६७, सूक्ष्मे 17 आहारकद्वारे त्रायोदश गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टयादीनि सयोगिकेवल्यन्तानि आहारकेजीवे , लभ्यन्तेऽयोगी त्वनाहारकस्तत्रौघतः 120, मिथ्यात्वे 117 इत्यादि यावत्सयोगिनि सातरूपैका प्रकृतिबन्धे भवति / एवं वेदाऽऽदिषु मार्गणास्थानेषु गुणस्थानकान्युपदी संप्रतितेषुबन्धातिदेशमाह - (नियनियगुणोहो ति) निजनिजगुणोषः एतेषु वेदाऽऽदिषु यानि स्वस्त्रगुणस्थानानितेष्वोधः कर्मस्तवोक्तो बन्धो द्रष्टव्य इत्यर्थः स च यथास्थान भावित एव / / 16 / / यश्च प्रागुक्तमष्टौपशमिकसम्यक्त्वे गुणस्थानानीति तत्रा कञ्चिद्विशेषमाह - परमुवसमि वटुंता, आउ न बंधति तेण अजयगुणे! देवमणुआउहीणो, देसाइसु पुण सुराउ विणा / / 20 / / सर्वत्र वेदाऽऽदिषु निजनिजगुणोघो वाच्य इत्युक्तम् परमौपशमिकेऽयं विशेष--औपशमिके वर्तमाना जीवा आयुर्न बध्नन्ति तेनाऽऽयतगुणस्थानके देवमनुजाऽऽयुर्यो हीन ओघो वाच्यो, नरकतिर्यगायुषोः प्रागेव मिथ्यात्वसासादनयौर पनीतत्वान्न तद्धीनता। तथा देशाऽऽदिषुदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तेषु पुनरोधः सुराऽऽयुर्विना ज्ञेयः। औपशुमिकसम्यक्त्वे तूपशमश्रेण्या प्रथमसम्यक्त्वलाभेवा भवति जीवस्या उक्तं च - "उवसामगसेडिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मत्तं / जो वा अकयतिपुंजो, अववियमिच्छो लहइ सम्मं // 1 // " ननु क्षायोपशमिकौपशमिकसम्यक्त्वोः कः प्रतिविशेषः? उच्यते-क्षायोपशमिके मिथ्यात्वदलिकवेदनं विपाकतो नास्ति, प्रदेशतः पुनर्वेद्यते। औपशमिके तु प्रदेशतोऽपि नास्तीति विशेषः / उक्तं वेदाऽऽदिषु बन्धस्वामित्वम्। अथ लेश्याद्वारमुच्यतेओहे अट्ठारसयं, आहारदुगूण आइलेसतिगे। तं तिच्छोणं मिच्छे, साणाइसु सव्वहिं ओहो / / 21 / / आद्यलेश्यात्रिके-कृष्णनीलकापोतलेश्यात्राये वर्तमाना जीवा ओघे सामान्येन विंशत्युत्तरशतमाहारकद्विकोनं जातमष्टादशाधिकशतं तद्वधनन्ति, आहारकद्धिकस्य शुभलेश्याभिर्बध्यमानत्वात्।तदष्टादशाधिकशतं तीर्थकरनामोनं सप्तदशोत्तरशतं मिथ्यात्वगुणस्थानके बध्नन्ति / सासादनाऽऽदिषु गुणस्थानकेषु पुनः सर्वत्र लेश्याषट्केऽप्योधः सामान्यबन्धो द्रष्टव्यः / ततोऽत्रा सासादनमिश्राविरतेष्वोधः कर्मस्तवोक्तः / / 21 / / तेऊ नरयनवृणा, उज्जोयचउ नरयबार विणु सुक्का। विणु नरयबार पम्हा, अजिणाहारा इमा मिच्छे / / 22 / / विंशत्युत्तरशतं नरकत्रिकाऽऽदिप्रकृतिनवकोनं तेजोलेश्यायामोघत एकादशोत्तरं शत बध्यते, कृष्णाऽऽद्यशुभलेश्या प्रत्यय-त्वान्नरकत्रिकाऽऽदि प्रकृतिनवकबन्धस्य। इदमेवैकादशोत्तरशतं जिननामाऽऽहारकद्विकरहितं शेषमष्टेत्तरशतं मिथ्यात्वे बध्यते / सासादनाऽऽदिषु षट्सु गुणरस्थानकेषु ओघः विंशत्युत्तरशतमध्यादुद्द्योताऽऽदिसतुष्कं नरकत्रिका दिद्वादशकं च मुक्त्वा शेषं चतुरूत्तरशतमोघतः शुक्ललेश्याया बध्यते, उद्योताऽऽदिप्रकृतीनां तिर्यग्नरकप्रायोग्यत्वेन देवनरप्रायोग्यबन्धर्के: शुक्ललेश्यावद्भिरबध्यमानत्वात् / एतदेव चतुरुत्तरं शतं जिननामाऽऽहारकद्भिरहितं शेषमेकांत्तरशतं मिथ्या-- Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधसामित्त 1253 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधहेउ त्वे बध्यते / सासादने तदीयैकोत्तरशतरूपौधबन्धादुद्द्योताऽऽदि- संबन्धाचत्वारि मिथ्यात्वसासादनमिश्रावि गुणस्थानानि प्राप्यन्ते। एतद् प्रकृतिचतुष्टयारपसारेण शेषा सप्तनवतिर्बध्यते। मिश्राऽऽदिष्वेकादश- गुणस्थानचतुष्के परिणमविशेषतः पण्णामपि लेश्याना भावाणात् / गुरु स्थानकेषु तदवरथः स्वस्वगुण स्थानीयो बन्धो द्रष्टव्यः। विंशत्युत्तर- द्वयोस्तेजः पद्यलेश्ययोमिथ्यात्वाऽऽदीनि सप्त गुणस्थानानि, तयोरशतमध्यान्नरकत्रिकाऽऽ दिप्रकृतिद्वादशकं विना शेषमष्टोत्तरशतं प्रमत्तगुणस्थानकान्तमपि यावद्भावात् / शुक्ललेश्यायां त्रयोदश पद्यलेश्यायामोघतो बध्यते, तल्लेश्यावतां सनत्कुमाराऽऽदिदेवानां मिथ्यात्वाऽऽदीनि गुणस्थानानि, तस्या मिथ्यादृष्टिगुणस्थानात्प्रभृति तिर्यक्प्रायोग्य बध्नतामुद्द्योताऽऽदिप्रकृतिचतुष्कस्य बन्धसंभवान्नात्रं यावत्सयोगिकेवलिगुणस्थानकं तावदपि भावात् / अयोगी त्वलेश्यः / तद्द्वगन्धा भावः / एतदेवाष्टोत्तरशतं जिननामाऽऽहारकद्विकरहितं शेष इह च लेश्याना प्रत्येकमसंख्येयानि लोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवपञ्चोत्तरशतं मिथ्यात्वे बध्यते, सासादनाऽऽदिषु षट्सु गुणस्थान-केषु सायस्थानानि, ततो मन्दाध्यवसायस्थानापेक्षया शुक्ललेश्याऽऽदीयथास्थित एकोत्तरशताऽऽदिरूपः स्वस्वौघबन्धो द्रष्टव्यः। 'अजिणाहारा नामपि मिथ्यादृष्टयादौ संभवो न विरुध्यते। तथा कृष्णाऽऽदिलेश्यात्रयं इमा मिच्छे त्ति' प्रथमलेश्यात्रिकस्य' ओहे अट्ठारसयं' इत्यादिना यदिहाविरतगुणस्थानकान्तमुक्तं तद् बृहद्वन्धस्वामित्वानुसारेण, षडनिर्धारितत्वेनेमारतेजः पाशुक्ल लेश्या मिथ्यात्वगुणस्थानके जिनना शीतिके तु तस्य प्रमत्तगुणस्थानकान्तं यावदभिहितत्वात् / तथाहि - माऽऽहारकद्विकरहिता विज्ञयाः, तेजोलेश्याऽऽदिषु नरकनवकाऽऽद्यूनो "लेस्सा तिन्नि पमत्तता, तेउ पम्हा उअप्पमतता। सुक्का जाव सजोगी, यः सामान्यबन्धः प्रतिपादितः स मिथ्यात्वगुणस्थानके जिनाऽऽदि निरुद्धलेसो अजोगित्ति।।१।।" तत्वं तु श्रुतधरा विदन्ति। इति प्रतिपाप्रकृतित्रायरहितो विधेय इत्यर्थः। तथा च दर्शितमेय / / 22 / / दितंगत्यादिषु बन्धस्वामित्वं तत्प्रतिपादनाच समर्थित बन्धस्वामित्वसंप्रति भव्याऽऽदिद्वाराण्यभिधीयन्ते प्रकरणम् / इतिशब्दाः परिसमाप्तौ / बन्धस्वामित्वमेतज्ज्ञेयंबोद्धव्यं, सव्वगुणभव्वसन्निसु, ओहु अभव्वा असन्नि मिच्छसमा। कर्मस्तवं श्रुत्वात्रा बहुषु स्थानेषु तदुक्त बन्धातिदेशद्वारेण भणनात्। कर्म० सासणि असन्नि सन्नि व, कम्मणभंगो अणाहारे / / 23 / / 3 कर्म०। बंधहेउपुं० (बन्धहेतु) कर्मणां बन्धकारणे, कर्म० 1 कर्म०। (बन्धहेतुषु सर्वगुणस्थानकोपेते भव्ये संज्ञिनि च मार्गणास्थाने सर्वगुणस्थानकौघः प्रायश्चित्तव्यवस्था 'भय' शब्दे वक्ष्यते) कर्मस्तवोक्तः / अभव्या असंज्ञिनश्च चिन्त्यमाना मिथ्यादृष्टिगुण - अथ ''कीरइ जिएण हेऊहिं जेणं तो भन्नए कम्मं / '' इत्यादौ यदुक्तं स्थानकसमाः / अयमर्थः यथा मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतबन्धः कर्मस्तवे तद्व्याख्यानार्थ यस्य कर्मणो यद्वन्धहेतवस्तान् वचन हेतुद्वारेण क्वाऽपि उक्तस्तथाऽभव्योऽ संगी च सामान्यतो मिथ्यात्वे च सप्तदशोत्तरशतं च हेतुमद्वारेण दिदर्शयिषुराह - बध्नाति / सासादने पुनरसंज्ञी संज्ञिवदेकोत्तरशतबन्धक इत्यर्थः / पडिणीयत्तणनिण्हवउवघायपओसअंतराएणं। अनाहारके तु मार्गणास्थाने कार्मणकाययोगभगो ‘विणु तिरिनराउ अच्चासायणयाए, आवरणदुर्ग जिओ जयइ।।५३ / / कम्मेवि' इत्यादिना योगमार्गणास्थाने प्रतिपादितोऽवगन्तव्यः। कार्मण आवरणद्विकंज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणरूपंजीवो जयति, धातूनामकाययोगस्थस्यैव संसारिणोऽनाहरकत्वात्, कार्मणभङ्गश्चायम् नेकार्थत्वाद्ध्नातीति सम्बन्धः / तत्र ज्ञानस्य मत्यादेानिनां साध्वाविंशत्युत्तरशत मध्यादाहारकद्विकदेवाऽऽयुर्नरकत्रिकतिर्यनराऽयु: दीनां ज्ञानसाधनस्य पुस्तकाऽऽदेः प्रत्यनीकत्वेन तदनिष्टाऽऽचरणप्रकृत्यष्टकं मुक्त्या शेषस्य द्वादशोत्तरशतस्यानाहारकें सामान्येन बन्धः / लक्षणेन निहवेन न मया तत्समीपेऽधीतमित्यादिस्वरूपेण, उपघातेन तथा जिननाम सुरद्विकं वैक्रियद्विकं च द्वादशोत्तरशत मध्यान्मुक्त्वा भूलतो विनाश स्वरूपेण प्रद्वेषेण आन्तराप्रीतिरूपेण अन्तरायेण भक्तपाशेषस्य सप्तोत्तरशतस्याना हारके मिथ्यादृष्टौ बन्धः / तथा सूक्ष्माऽऽ नवसनो पाश्रयलाभनिवारणलक्षणेन, अत्याशातनया च जात्यायुद् दित्रयोदश प्रकृतीमुक्तवा शेषायाश्चतुर्नवतेः सासादनस्थेऽनाहारके घट्टनाऽऽदिहीलारूपया ज्ञानाऽऽवरणं कर्म जयतीति सर्वत्रा द्रष्टव्यम्। बन्धः / तयाऽनन्तानुबन्धाऽऽदिचतुविंशतिप्रकृतीश्चतुर्नवतेमध्या- एतचोपलक्षणम्, अतो ज्ञान्यवर्णवादेनाऽऽचार्योपाध्याया ऽऽद्यविनयेनान्मुक्त्वा शेषायाः सप्ततेर्जिननामसुरद्विकवैक्रियद्विकयुक्तायाः पञ्चसप्त- काले स्वाध्यायकरणेन काले च स्वाध्यायाविधानेन प्राणिवधाऽतेरनाहारके बन्धः। तथा सयोगिनी केवलिसमुद्घाते तृतीय चतुर्थप- नृतभाषणस्तैन्याब्रह्मपरिग्रह रात्रिभोजनाविरमणाऽऽदिभिश्च ज्ञानाऽऽञ्चमसमयेष्वनाहारक एकस्याः सातप्रकृतेर्बन्धः / / 23 // वरणं जयतीत्याद्यपि वक्तव्यमिति। एवं दर्शनाऽऽवरणेऽपि वाच्यम्, नवरं अथ प्राग्यदुक्तं लेश्याद्वारे-'साणाइसु सव्वहिं ओहो त्ति' सासाद- दर्शनाभिलाषो वक्तव्यः / तथाहिदर्शनस्य चक्षुर्दर्शनाऽऽदेः दर्शयिनां नाऽऽदिषु गुणस्थानेषु सर्वत्र लेश्याषट्के ओघो द्रष्टव्य इति, तान ज्ञायत साध्यादीनां दर्शनसाधनस्य श्रोत्रानयन-नासिकाऽऽदेः सम्मत्यनेकान्तआदिशब्दात्कस्यां लेश्यायां कियन्ति गुणस्थानानि गृह्यन्ते इत्यतो जयपताकाऽऽदिप्रमाणशास्त्रपुस्तकाऽऽदेर्वा प्रत्यनीकत्वेन तदनिष्टाऽऽलेश्यासु गुणस्थानकान्युपदर्शयन् प्रकरणसमर्थना, प्रकरणज्ञानोपायं चरणलक्षणेन निहवेननमया तत्समीपेऽधीतमित्यादिस्वरूपेण, उपघातेन चाऽऽह मूलतो विनाशेन, प्रद्वेषण आन्तराप्रीत्यात्मकेन, अन्तरायेण भक्तपानवसतिसु दुसु सकाइ गुणा, चउ सगतेर तिबंधसामित्तं / नोपाश्रय लाभनिवारणेन, अत्याशतनया च जात्यादिहीलया दर्शनाऽऽवरण देविंदसूरिलिहियं, नेयं कम्मत्थयं सोउं // 24 // कर्म जयतीति सर्वत्र द्रष्टव्यम्। उपलक्षणमिदम्। अतो दर्शनिनांदूषणग्रहणेन तिसृष्वाद्यासु कृष्णनीलकापोतलेश्यासु 'चउ' इत्यादिना यथाक्रम | श्रवणकर्तननेत्रोत्पाटमनासाच्छेदजिहाविकर्तनाऽऽदिना प्राणिवधानृतभाव Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधहेउ 1254 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधहेउ णस्तैन्याब्रह्मपरिग्रहरात्रिभोजनाविरमणाऽऽदिभिश्च दर्शनाऽऽवरण दुविहं पिचरणमोहं, कसायहासाइविसयविवसमणो। जयतीत्याद्यपि वक्तव्यम्। यदवादि श्रीहेमचन्द्रसूरिपादैः-''ज्ञानदर्शन- बंधइ नरयाउ महारंभपरिग्गहरओ रुहो // 56 / / योस्तद्वतद्धेतूनां च ये किल। विननियपैशुन्याऽऽशातनाघातमत्सराः द्विविधमपिद्विभेदमपि चरणमोहंचारित्रमोहनीयम् कषायमोहनीय||१॥" ते ज्ञानदर्शनाऽऽचारकर्महतव आश्रवाः / / 53 / / उक्ता ज्ञानावरण- नोकषायमोहनीयरूपं जीवो बध्नातीति सम्बन्धः किं विशिष्ट इत्याहदर्शनाऽऽवरणबन्धहेतवः। कपायहास्याऽऽदिविषयविवशमनाः। तत्र कषाया:-क्रोधाऽऽदय उक्तइदानीं वेदनीयस्य द्विविधस्याऽपि तानाह - स्वरूपाः षोडश, हास्याऽऽदयोहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सा इति गुरुभत्तिखंतिकरुणाबयजोगकसायविजयदाणजुओ। गृहान्ते, विषयाः शब्दरूप रसगन्धस्पर्शाऽऽख्याः पञ्च / ततः कषायाश्च दढधम्माई अज्जइ, सायमसायं विवजयउ॥५४ / / हास्याऽऽदयश्च विषयाश्च कषायहास्याऽऽदिविषयास्तैर्विवशं विसंस्थूलं इह युतशब्दस्य प्रत्येकं योगरततो गुरवो मातापितृधर्माऽऽ चार्याऽs- पराधीनं मनो मानसं यस्य स कषायहास्याऽऽदिविषय विवशमनाः / दयस्तेषां भक्तिरासनाऽऽदिप्रतिपत्तिर्गुरुभक्तिस्तयायुतो गुरुभक्तियुतो- इदमत्रा हृदयम्कषायाविवशमनाः कषायमोहनीयं बध्नाति, हास्याऽऽदिगुरुभक्तिसमन्वितो जन्तुः सातं सातवेदनीय मर्जयतिसमुपार्जयतीति विवशमनास्तु हास्याऽदिमोहनीयं हास्यमोहनीयरतिमोहनीयासम्बन्धः / शान्तियुतः क्षमाऽन्वितः, करुणायुतोदयापरीतचेताः, ऽरतिमोहनीय शोकमोहनीयभय मोहनीयजुगुप्सामोहनीयाऽऽख्य व्रतयुतोमहाव्रताऽणुव्रतादिस मन्वितः, योगयुतोदशविधचक्रवालसा- नोकषायमोहनीयं बध्नाति, विषयविवशमनाः पुनर्वे दायाऽऽख्य माचार्याधाचरणप्रगुलः, कषायविजययुतः-क्रोधाऽऽदिकषायपरिभवन- नोकषायमोहनीय बध्नाति / सामान्यतः सर्वेऽपि कषायहास्याऽऽदिशीलः, दानयुतोदानरुचिः दृढधर्माआपत्स्वपि निश्चलधर्मः, आदि- विषया द्विविध स्यापि चारित्रामोहनीयस्य बन्धहेतवो भवन्ति / शब्दाद्वालवृद्धालानाऽऽदिवैयावृत्यकरणशीलो जिनचैत्य पूजापरायणश्च यत्प्रत्यपादिसातमर्जयतिबध्नाति / यदवाचि "कषायोदयतस्तीव्रः, परिणामोय आत्मनः। "देवपूजागुरूपास्ति-पात्रदानदयाक्षमाः। चारित्रामोहनीयस्य, स आश्रव उदीरितः॥१॥ सरागसंयमो देश--संयमोऽकामनिर्जरा / / 1 / / उत्प्रासन सकन्दर्पोपहासो हासशीलता। शौचं बालतपश्वेति, सद्वेद्यस्य स्युराश्रवाः।" बहुप्रलापो दैन्योक्तिहस्यिस्यामी स्युराश्रवाः / / 2 / / तथा विपर्ययतः सातबन्धविपर्ययेणासातमर्जयति, तथाहि-गुरूणाम देशाऽऽदिदर्शनौत्सुवयं, चित्रो रमणखेलने। वज्ञायकः, क्रोधनो, निर्दयो, व्रतयोगविकलः, उत्कट-कषायाः, परचित्ताऽऽवर्जना चेत्या श्रवाः कीर्तिता रतेः // 3 // कार्पण्यवान्, सद्धर्मकृत्यप्रमत्तः, हस्त्यश्वबलीवर्दाऽऽदिनिर्दयदमन असूया पापशीलत्वं, परेषां रतिनशनाम्। वाहनलाञ्छनाऽऽदिकरणप्रवणः, स्वपरदुः खशोकवधतापक्रन्दनपरि अकुशलपोत्सहनं, चारतेराश्रवा अमी॥४|| देवनाऽऽदिकारकश्चेति / यदभ्यधायि-''दुःखशोकबधास्तापक्रन्दने परशोकाऽऽविष्करणं, स्वशोकोत्पादशोचने। परिदेवनम् / स्वान्यो भयस्थाः स्युरसद्वेद्यस्यामी इहाऽऽश्रवाः / / 1 / / " रोदनादिप्रसक्तिश्च, शोकस्यैते स्युराश्रवाः / / 5 / / स्वयं भयपरीणामः, परेषामथ भापनम्। इति॥५४॥ उक्ता वेदनीयस्य बन्धहेतवः।। आसनं निर्दयत्व च, भयं प्रत्याश्रवा अमी।।६।। साम्प्रतं मोहनीयस्य द्विविधस्याऽपि तानाह - उम्मग्गदेसणामग्गनासणादेवदव्वहरणे हिं। चतुर्वर्णस्य संघस्य, परिवादजुगुप्सने। सदाचारजुगुप्सा च, जुगुप्सायां स्युराश्रवाः / / 7 / / दंसणमोहं जिणमुणिचेइयसंघाइपडिणीओ।।५५ / / ईया विषादगायें च, मृषावादोऽतिवक्रता / उन्मार्गस्य भवहेतोर्मोक्षहेतुत्वेन देशना कथनमुन्मार्गदेशना, मार्गस्य परदारताऽऽसक्तिः, स्त्रीवेदस्याऽऽश्रवा इमे|६|| ज्ञानदर्शनचारिकतालक्षणस्य मुक्तिपथस्य नाशनाऽपलपनं मार्गनाशना, स्वदारमात्रासन्तोषो–उनीा मन्दकषायता। देवद्रव्यस्य चैत्यद्रव्यस्य हरणं भक्षणोपेक्षणप्रज्ञाहीनत्वलक्षणम् / तत अवक्राऽऽचारशीलत्वं, पुंवेदस्याऽऽश्रवा इति / / 6 / / उन्मार्गदेशना च मार्गनाशनाच देवद्रव्यहरणं च तैहेतुभिर्जीवो दर्शनमोहं स्त्रीपुंसानङ्गसेवोग्राः, कषायास्तीव्रकामता। मिथ्यात्वमोहनीयभर्जयति / तथा जिनमुनिचैत्यसवाऽऽदिप्रत्यनीकः पाखण्डिस्वीव्रतभङ्गः, षण्ढवेदाऽऽश्रवा अमी।।१०।। तत्रजिनास्तीर्थकराः, मुनयः-साधवः, चैत्यानिप्रतिमारूपाणि, सङ्घः साधूनां गईणा धर्मोन्मुखानां विघ्नकारिता। साधुसाध्वी श्रावकश्राविकालक्षणः आदिशब्दासिद्धगुरुश्रुताऽऽदि मधुमासविरतानामविरत्यभिवर्णनम् / / 11 / / परिग्रह स्तेषां प्रत्यनीकोऽवर्णवादाशातनाऽऽद्यनिष्टनिर्वर्तको दर्शनमोह विरताविरताना चान्तरायकरणं मुहुः। मर्जयति / यदभाणि अचारित्रगुणाऽऽख्यानं, तथा चारित्रदूषणम् / / 12 / / "वीतरागे श्रुते सङ्के, धर्मे सर्वसुरेषु च। कषायनोकषयाणामन्यस्थानामुदीरणम् / "श्रवर्णवादिता तीव्रमिथ्यात्वपरिणामिता ||1|| चारित्रमोहनीयस्य, सामान्येनाऽऽश्रवा अमी / / 13 / / सर्वज्ञसिद्धदेवापह्नवो धार्मिकदूषणम्। अभिहिता मोहनीयस्य बन्धहेतवः। संप्रति चतुर्विधस्था प्यायुषस्तानाह उन्मार्गदर्शनानर्थाऽऽग्रहोऽसंयतपूजनम् / / 2 / / --- "बंधइ नरयाउ'' इत्यादि। बध्नाति-अर्जयति नरकाऽऽयुरिकाऽऽयुष्क असमीक्षितकारित्वं, गुर्वादिष्ववमानना। जीवः / किविशिष्ट इत्याह-'महारम्भपरिग्रहरतो' महारम्भरतो महापरिग्रहइत्यादयो दृष्टिमोहस्याऽऽश्रवाः परिकीर्तिताः॥३॥||५५|| | रतश्चेत्यर्थः / रौद्रपरिणामो गिरिभेदसमानकषायरौद्रध्यानारूषितचेतो Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधहेउ 1255 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंधहेउ वृत्तिरित्यर्थः / उपलक्षणत्वात् पञ्चेन्द्रियवधाऽऽदिपरिग्रहः / यन्न्यगादि "पञ्चेन्द्रियप्राणिवधो, बहारम्भपरिग्रहौ। निरनुग्रहता मांसभोजनं स्थिरवैरता / / 1 / / रौद्रध्यानं मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिकषायता। कृष्णनील कपोताश्च, लेश्या अनृतभाषणम्॥२॥ परद्रव्यापहरण, मुहुमैथुनसेवनम्। अवशेन्द्रियता चेति, नरकाऽऽयुष आश्रवाः // 3 // " इति / / 56 / उक्ता नरकाऽऽयुषो वन्धहेतवः। इदानी तिर्यगायुषस्तानाहतिरियाउगूढहियओ, सढो ससल्लो तहा मणुस्साउ। पयइई तणुकसाओ, दाणरुई मज्झिमगुणो य॥५७ // तिर्यगायुर्वध्नाति जीवः / किंविशिष्ट इत्याहगूढहृदय उदायिनृपमारकाऽऽदिवत्तथाऽऽत्माभिप्राय सर्वथैव निगृहति यथा नापरः कश्चिद्वेत्ति / शठोवचसा मधुरः परिणामे तु दारुणः / सशल्योरागाऽऽदिवशाऽऽचीनकव्रतनियमाति चारस्फुरदन्तः शल्योऽनालोचिताप्रतिक्रान्तः। तथाशब्दादुन्मार्गदेशनाऽऽदिपरिग्रहः उक्तं च"उन्मार्गदेशना मार्गप्रणाशो गूढचित्तता। आर्तध्यानं सशल्यत्वं, मायारम्भपरिग्रहौ // 1 // शीलवते सातिचारोनीलकापोलेश्यता। अप्रत्याख्यानकषायास्तिर्यगायुष आश्रवाः॥२॥" उक्तास्तिर्यगायुर्बन्धहेतवः / / अथ मनुष्याऽऽयुषस्तानाह''मणुस्साउ'' इत्यादि। मनुष्याऽऽयुर्जीवो बध्नाति। किंविशिष्ट इत्याहप्रकृल्यास्वभावेनैव तनुकषायो रेणुराजिसमानकषायः दानरुचिर्यत्र तत्रा वा दानशीलः, मध्यमास्तदुचिताः केचिद् गुणाः क्षमामार्दवाऽर्जवाऽऽदयो यस्य स मध्यमगुणः। अधमगुणस्य हि नरकाऽऽयुः संभवादुत्तमगुणस्यतु सिद्धेः सुरलोकाऽऽयुषो वा सम्भवादिति भावः / चशब्दादल्प परिग्रहाल्पाऽऽरम्भादिपरिग्रहः / उक्ता मनष्याऽऽयषो बन्धहेतवः। आहच"अल्पौ परिग्रहाऽऽरम्भौ, सहजे मार्दवार्जवे। कापोतपीतलेश्यात्वं, धर्मध्यानाऽनुरागिता // 1 // प्रत्याख्यानकषायत्वं, परिणामश्च मध्यमः। सविभागविधायित्वं, देवतागुरुपूजनम्॥२॥ पूर्वाऽऽलापप्रियाऽऽलापौ, सुखप्रज्ञापनीयता / लोकयात्रासु माध्यस्थ्यं, मानुषाऽऽयुष आश्रवाः // 3 // " इति / / 57 // सम्प्रति देवायुऽऽषस्तानाहअविश्यमाइ सुराउं, बालतवोकामनिज्जरो जयइ। सरलो अगारविल्लो, सुहनामं अन्नहा असुइं // 58 / / अविरत:-अविरतसम्यग्दृष्टिः सुराऽऽयुर्देवाऽऽयुष्कं जयतिबध्नाति। आदिशब्दाद्देशविरतसरागसंयतपरिग्रहः। वीतराग संयतस्त्वतिविशुद्धत्वादायुर्न बध्नाति, घोलणापरिणाम एवं तस्य बध्यमानत्वात् / बालं तपो यस्य स बालतपाः, अनधिगत परमार्थस्वभावो दुःखगर्भमोहगर्भवैराग्योऽज्ञानपूर्वक निर्वर्विततपः प्रभृतिकष्टविशेषो मिथ्यादृष्टिः, सोऽप्यात्मगुणानुरूपं किञ्चिदसुराऽऽदिकाऽऽयुर्बध्नाति। यदाह भगवान् भाष्यकार:-"बालतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया। वरेण य पडिबद्धा, मरि असुरेसु जायंति॥१॥" अकामस्या निच्छतो निर्ज कर्मविचटनलक्षणा यस्यासावकामनिर्जरः / इदमुक्तं भवति "अकाम तण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीयायवदंसमसगअण्हाणगसेयजल्लमलपंकपरिग्गहेणं दीहरोगवारगनिरोहबंधणयाए गिरितरुसिहरनिवडणयाए जलजलणपवेसअणसणाईहिं'- उदकराजिसमानकषायस्तदुचितशुभपरिणामः कश्चिद्व्यन्तराऽऽदिकाऽऽयुर्बध्नाति / उपलक्षणत्वात् कल्याणमित्रसंपर्कमानसो धर्मश्रवणशील इत्यादिपरिग्रहः / यदाहुः "सरागसंयमो देशसंयभोऽकामनिर्जरा। कल्याणमित्रासंपर्को , धर्मश्रवणशीलता / / 1 // पात्रो दानं तपः श्रद्धा, रत्नत्रयाविराधना। मृत्युकाले परिणामो, लेश्ययोः पद्मपीतयोः // 2 // बालं तपोऽग्नितोयाऽऽदि-साधनोल्लम्बनानि च। अव्यक्तसामायिकता, देवस्याऽऽयुष आश्रवाः॥३॥" उक्ता देवाऽऽयुषो बन्धहेतवः। संप्रति नामकर्म यद्यपि द्विचत्वारिंशदादिभेदादनेकधा तथापि शुभाशुभविवक्षया विविध मित्यस्य द्विविधस्यापि बन्धहेतूनाह - "सरलो" इत्यादि, सरल:- सर्वत्रा मायारहितः। गौरवाणि ऋद्धिरससातलक्षणानि विद्यन्तेयस्यस गौरववान्, न गौरववान् अगौरववान "आल्विल्लोल्लालवंतमतेत्तेरमणामतोः" ||8|2|156 / / इति प्राकृतसूत्रोण मतोः स्थाने इल्लादेशः। उपलक्षणत्वात् संसार भीरुः, क्षमामार्दवाऽऽर्जवाऽऽदिगुणयुक्तः शुभं देवगतियशः-कीर्तिपञ्चेन्द्रियजात्यादिरूपं नामकर्म बध्नाति। अन्यथोक्त विपरीतस्वभावः / तथाहिमायावी, गौरववान, उत्कटक्रोधाऽऽदिपरिणामोऽशुभं नरकगत्ययशः कीत्ये केन्द्रियाऽदिजातिलक्षणं नामकर्मार्जयतीति / उक्तं च - "मनोवाकायवक्रत्वं, परेषां विप्रतारणम्। मायाप्रयोगो मिथ्यात्वं, पैशुन्यं चलचित्तता / / 1 / / सुवर्णाऽऽदिप्रतिच्छन्दकरणं कूटसाक्षिता। वर्णगन्धरसस्पर्शान्यथोपपादनानि च // 2 // अङ्गोपाङ्गच्यावनानि, यन्त्रपज्जरकर्म च। कूटमानतुलाकर्माऽन्यनिन्दाऽऽत्मप्रशंसनम्॥ 3 // हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्ममहारम्भपरिग्रहाः। परुषासभ्यवचनं, शुचिवेषाऽऽदिना मदः // 4 // मौखर्याक्रोशौ सौभाग्योपघाताः कार्मणक्रियाः। परकौतूहलोत्पादः, परहास्यविडम्बने।।५। वेश्याऽऽदीनामलङ्कारदानं दावाग्निदीपनम्। देवाऽऽदिव्याजागन्धाऽऽदिचौर्यतीव्रकषायता // 6 // चैत्यप्रतिश्रयाऽऽरामप्रतिमानां विनाशनम्। अङ्गाराऽऽदिक्रिया चेत्यशुभस्य नाम्न आश्रवाः // 7 // एत एवान्यथारूपास्तथा संसारभीरुता। प्रमादहानं सद्भावार्पणं क्षान्त्यादयोऽपि च / / 8 // दर्शने धार्मिकाणां च, संभ्रमः स्वागतक्रिया। परोपकारसारत्वमाश्रवाः शुभनामनि।।६।।" इति // 58 // उक्ता नाम्नो बन्धहेतवः। सम्प्रति गोत्रस्य द्विविधस्याऽपि तानाहगुणपेही मयरहिओ, अज्झयणज्झावणरुई निचं / पकुणइ जिणाइभत्तो, उचं नीयं इयरहा उ / / 16 / / गुणपेक्षीयस्य यावन्तं गुणं पश्यति, तस्य तमेव प्रेक्षते पुरस्करोति, दोषेषु सत्स्वप्युदास्त इत्यर्थः / मदरहितोवि Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधहेउ 1256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभ शिष्टजातिलामकुलैश्चर्य बलरूपतपः श्रुताऽऽदिसंयत्समन्वितो ऽदि | बंधुक्किट्ठठिइस्त्री० (बन्धोत्कृष्टस्थिति) बन्धमाश्रित्योत्कृष्टायां स्थितौ, निरहङ्कारः / नित्यं सर्वदाऽध्ययनाभ्यापनारुचिः स्वयं पठतीतराश्च क० प्र०२ प्रक०। पं० सं०। पाठयति, अर्थतश्च स्वयमभीक्षणं विमृशति परेषां च व्याख्यानयति, | बंधुजीव पुं० (बन्धुजीव) द्विप्रहरप्रकाशिपुष्पप्रधाने वृक्षविशेष प्रज्ञा०१ असा वा पठनाऽऽदिशक्ती तीव्रबहुमानः परानध्ययमाध्यापनोप- पदा रायणाननुमोदते / तथा जिनाऽऽदिभक्तो जिनानांतीर्थनाथानामादि- बंधुदत्त पुं० (बन्धुदत्त) षड्दर्शनप्रवीणस्य विदुरनाग्रः साङ्ग थाऽऽचार्यस्य शब्दासिद्धाऽऽचार्योपाध्याय साधुचैत्यानामन्येषां च गुणगरिष्ठाना मक्तो वादजयेन प्रव्राजके साधौ, ध० र 03 अधि० 6 लक्ष०। बहुमानपरः / प्रकरोति प्रकर्षण समुपार्जयत्युच्चमुच्चैोत्रम्। नीचं नीचैर्गोत्रा बंधुमई स्त्री० (बन्धुमती) वसन्तपुरवसतिकस्य श्रेष्ठिनो महेलायां सुन्दर्यो मितरया तु भणितविपरीतस्वभावः / उक्तं च - जीतायां स्वनामख्यातायां दारिकायाम्, पिं० / चम्पाया नगा "परस्य निन्दाऽवज्ञोपहासाः सदगुणलोपनम् / राजगृहस्य चान्तरा गोवरग्रामे गोशल्लिनः कुटुम्बिनः स्त्रियाम्, आ० सदसद्दोषकथनमात्मनस्तु प्रशंसनम्॥१॥ चू०१ अ०। आ० म०। आ० क0 1 राजगृहे नगरेऽर्जुनस्य भालाकारस्य सदसद्गुणशंसा च,स्वदोषाऽऽच्छादनं तथा। भार्यायाम्, अन्त०१ श्रु०६ वर्ग 3 अ०। (बन्धुमतीज्ञातम् 'अणुभडवेस' जात्यादिभिर्मदश्चेति, नीचैर्गोत्राऽऽश्रवा अमी।। 2 // शब्दे 1 भागे 361 पृष्ठे गतम्) नीचैर्गोत्राऽऽअवविपर्यासो विगतगर्वता। बंधुर त्रि० (बन्धुर) सुन्दरे, ''राइरं राहं रम्म, अहिराम बंधुरं मणुज च / वाक्कायचित्तर्विनय, उश्वैर्गोत्राऽऽश्रवा अमी।। 3 // " लट्ठ कंतं सुहयं, मणोरमं चारु रमणिज्जं // १॥'पाइ० ना० 14 गाथा। इति॥५६ / उक्ता गोत्रास्य बन्धहेतवः / बंधुविप्पहूण त्रि० (बन्धुविप्रहीण) विद्यमानबान्धवविप्रमुक्त, प्रश्न० 1 साम्प्रतमन्तरायस्य ये बन्धहेतवस्तानभिधित्सु : शास्वामिदं आश्र० द्वार। समर्थयन्नाह बंधुसिरी स्त्री० (बन्धुश्री) मथुराया नगर्यो श्रीदामस्य राज्ञो भार्यायां जिणपूयाविग्घकरो, हिंसाऽऽइपरायणो जयइ विग्छ / नन्दिषणमातरि, विपा०१ श्रु०६ अ०। इय कम्मविवागोऽयं, लिहिओ देविंदसूरिहिं॥६०॥ बंधूय पु०(बन्धूक) रक्तपुष्पप्रधाने वृक्षभेदे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। बंधेयव्व त्रि० (बद्धव्य) बन्धनकर्मीभूते कर्मणि, पं० सं०१द्वार। (बद्धव्या जिनपूजार्विघ्नकरः सवाद्यदोषोपेतत्वाद् गृहिणामप्येषाऽविधे ये हि कर्म प्रकृतयः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 258 पृष्ठे दर्शिताः) त्यादिकुदेशनाऽऽदिभिः समयान्तस्तत्वदूरीकृतो जिनपूजा मिषेधक बंधोल्ल (देशी) मेलके, दे० ना०६ वर्ग 86 गाथा। इत्यर्थः / हिंसा जीववध आदिशब्दादनृतभाषण स्तैन्याब्रह्म परिग्रहरात्रि बंभ न०(ब्रह्मन्) बृहत्वाश्च ब्रह्म / महति, षो०१६ विव०। भोजनाविरमणाऽऽदिपरिग्रहस्तेषु परायणस्तत्परः। उपलक्षणत्वात्मोक्ष परमाऽऽत्मनि, द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च / तत्र -- 'परं मार्गस्य ज्ञानचारित्राऽऽ देस्तद्दोषग्रहणाऽऽदिना विधं करोति, साधुभ्यो सत्यज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इति श्रुतिप्रसिद्धम् / कल्प०१ अधि० 6 क्षण / वा भक्तपानोपा श्रयोपकरणभेषजाऽऽदिकं दीयमान निवारयति, तेन विपा० / आ० म०। मोक्षे, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। भुक्ताः श्रियः सकलचैतद्विदधता मोक्षमार्गः सर्वोऽपि विनितो भवति, अपरेषामपि सत्वानां कामदुधास्ततः किं०? दानलाभभोगपरिभोगविघ्नं करोति, मन्त्राऽऽदिप्रयोगेण च परस्य वीर्यम सम्प्रीणिताः प्रणयिनः स्वधनैस्ततः किम्?। पहरति, हठाच वधबन्ध रोधाऽऽदिभिः परं निश्चेष्ट करोति, छेदनभेद दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं?, नाऽऽदिभिश्च परस्येन्द्रियशक्तिमुपरहन्ति / स किमित्याहजयतिधातूना कल्पं स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम्?।।१।। मनेकार्थत्वादर्जयति विघ्र पञ्चप्रकारमप्यन्तरायकर्ल / इति पूर्वोक्त इत्थं न किञ्चिदपि साधन साध्यजातं, प्रकारेण कर्मविपाकः-कर्मविपाकनामकं शास्त्रमयं संप्रत्येवनिगदितस्व स्वप्नेन्द्रजालसदृशं परमार्थशून्यम्। रूपो लिखितोऽक्षरविन्यासीकृतो देवेन्द्रसूरिभिः करालकलिकाल अत्यन्तनिर्वृतिकरं यदपेतबन्धं, मातालतलावमजद्विशुद्धधर्म धुरोद्धरणधुरीणश्रीमज्जगचन्द्रसूरिचर तद् ब्रह्म वाञ्छत जना यदि चेतनाऽस्ति // 2 // " विशे०। णसरसीरुहचचरी कैरिति। कर्म०१ कर्म० / अशेषमलकलङ्कविकल्पयोगिशर्मणि, आचा० 1 श्रु० 3 अ० 1 उ० / बंधाइपसाहग त्रि० (बन्धाऽऽदिप्रसाधक) बन्धमोक्षाऽऽदिगुणे पं०व० "अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना / / शास्त्रयुक्तिशतेमापि, न 4 द्वार। गम्यं यद् बुधा जमुः।। 3 / / बंधाबंध पुं० (बन्धबन्ध) कति प्रकृतीबंधन कति प्रकृतीबंधा तीत्येवं अष्ट०२६ अष्ट० / या सृष्टिर्बम्हणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलम्बिनी। मुनेः बन्धसमकालिकसत्ताकबन्धे, भ०१६ श०२ उ० / परानपेक्षान्तर्गुणसृष्टिस्ततोऽधिका॥७॥ अष्ट० 20 अष्ट। बंधिऊणे अव्य० (बध्या) आवृत्येत्यर्थे , "वत्थेणं बंधिऊण, णासं अहवा * ब्रह्मन् पुं० जगत्पितामहे कमलयोनौ, सूत्रा०१ श्रु०१ अ० जहा समाहीए।' पञ्चा० 4 विव०। 3 उ० / ब्रह्मा हि चतुर्मुखी विष्णुनाभिकमलादुत्पद्य सकलं बंधु पुं०(बंधु) भ्रातरि "बंधूसयणो सणाही य। "पाइ० ना० 101 गाथा। | जगज्जनयामास / स पञ्चमुख एवोत्पन्नः पश्चात् चतु:शि Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभ 1257 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभ राः सञ्जात इत्यादिपुराणप्रसिद्धम् / हा० 1 अष्ट० / अभिजिलक्षणस्य बहा देवता / चं० प्र० 10 पाहु० 12 पाहु० पाहु० / अनु० / ब्रहालोकाऽभिधानपञ्चमदेवलोकस्येन्द्र, स०६० सम०। आव०। स्था०। दो बम्हा। स्था०२ ठा०३ उ०। स०। औ०। जम्बूद्वीपे भारत वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते द्वितीयबलदेव-वासुदेवमातरि, स० / स्था० / आव०। दशाश्रुतस्कन्धस्य जनहितानाम्नीवृत्तैः कारके स्वनामख्याते सूरौ, दशा० 1 अ०। अहोरात्रस्य नवमे मुहूर्ते. चं० प्र० 10 पाहु०। स०। कल्पाद्वा० 1 मैथुनविरतौ, जं०२ वक्ष०। स०। उत्त० / कुशलानुष्ठाने, “ब्रह्म तत्वं तपो ज्ञानं, ब्रहा विप्रः प्रजापतिः।" आव०६ अ०। ब्रह्मनिक्षेपः-- बंभम्मी य चउकं, ठवणाए होइ बंभणुप्पत्ती। सत्तण्हं बण्णाणं, नवण्ह वण्णंतराणं च / / 18 // तत्रा ब्रह्म नामाऽऽदि (भेदाद) चतुर्दा, ता नामब्रह्म-ब्रह्येत्यभिधानम्, असद्भावस्थापना अक्षाऽऽदौ, सद्भावस्थापना प्रतिविशिष्ट्यज्ञोपवीताऽऽद्याकृतिमृल्लेप्याऽऽदौ द्रव्ये, अथवा-स्थापनायां व्याभृयायमानायां ब्राहाणोत्पत्तिर्वक्तव्या, तत्प्रसङ्गेनचसप्तानां वर्णानां नवानाच वर्णान्तराणामुत्पत्ति भणनीयेति। यथाप्रतिज्ञातमाह - एका मणुस्सजाई, रजुप्पत्तीइ दो कया उसभे। तिपणेव सिप्पवणिए, सावगधम्मम्मि चत्तारि।।१६।। यावन्नाभेयो भगवान्नाद्यापि राजलक्ष्मीमध्यास्ते, तावदेकैव मनुष्यजातिः, तस्यैव राज्योत्पत्तौ भगवन्तमेवाऽऽश्रित्यये स्थितास्ते क्षत्रियाः, शेषाश्च शोचनाद्रोदनाच शूद्राः, पुनरनयु त्पत्तावयस्काराऽऽदिशिल्प - वाणिज्यवृत्या वेशनाद्वैश्याः, भगवतो ज्ञानोत्पत्तौ भरतकाक (कि) णीलाञ्छनाच्छावका एव ब्राह्मणा जज्ञिरे, एते शुद्धास्त्रयश्चान्ये गाथान्तरितगाथया प्रदर्शयिष्यन्ते। साम्प्रतं वर्णवर्णान्तरनिष्पन्नं संख्यानमाहसंजोगे सोलसर्ग, सत्त य वण्णा उनव य अंतरिणो। एए दो वि विगप्पा, ठवणा बंभस्स णायव्वा / / 20 / / संयोगेन षोडश वर्णाः समुत्पन्नाः, ता सप्त वर्णा नवतु वर्णान्तराणि, एतच वर्णवर्णान्तरविकल्पद्वयं स्थापनाब्रोति ज्ञातव्यम्। साम्प्रत पूर्वसूचितं वर्णत्रयमाह / यदि वा-प्रागुद्दिष्टान् सप्त वर्णानाहपगई चउक्कगाणंतरे य ते हुंति सत्त वण्णा उ। आणंतरेसु चरमो, वण्णो खलु होइ णायव्वो / / 21 / / प्रकृतयश्चतसः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राऽऽख्या आसमिव चतसृणा मनन्तरयोगेन प्रत्येकं वर्णत्रायोत्पत्तिः / तद्यथा-द्विजेन क्षत्रिययोषितो जातः प्रधानक्षत्रियः सङ्करक्षत्रियो वा। एवं क्षत्रियेण वैश्ययोषितो वैश्येन शुद्रयाः प्रधानसङ्करभेदो वक्तव्यावित्येवं सप्त वर्णा भवन्ति, अनन्तरेषु भवा आनन्तरास्तेषु योगेषु चरमवर्णव्यपदेशो भवति ब्राह्मणेन क्षत्रियायाः क्षत्रियो भवतीत्यादि, सच स्वस्थाने प्रधानो भवतीति भावः। इदानीं वर्णान्तराणां नवानां नामान्याह - अंबटुग्गनिसाया, य अजोगवं मामहा य सूया य। खत्ता य विदेहा वि य, चंडाला नवमगा हुंति / / 22 // अम्बष्ठः 1, उग्रः 2, निषादः 3, अयोगवं 4, मागधः 5, सूतः 6, क्षत्ता 7, विदेहः 8, चाण्डालश्चेति / / कथमेते भवन्तीत्याहएगंतरिए इणमो, अंबट्ठो चेव होइ उग्गो य। बिइयंतरिअ निसाओ, परासरं तं च पुण वेगे // 23 // पडिलोमे सुद्दाई, अजोगवं मागहो य सूओ अ। एगंतरिए खत्ता, वेदेहा चेव नायव्वा / / 24 / / वितियंतरेय नियमा, चंडालो सोऽवि होइ णायव्वो। अणुलोमे पडिलोमे, एवं एए भवे भेया // 25 / / आसामर्थो यन्त्रकादवसेयः। तचेदम्ब्रह्मपुरुषः वैश्या स्त्री अम्बष्ठः / क्षत्रियः पुरुषः शूद्री स्त्री उग्रः / ब्राह्मणः पुरुषः शूद्री स्त्री निषादः, पारासरो वा। शूद्रः पुरुषः वैश्या स्त्री अयोगवम्। वैश्यपुरुषः क्षत्रिया स्त्री मागधः / क्षत्रियः पुरुषः ब्रहास्त्री सूतः। शूद्रः पुरुषः क्षत्रिया स्त्री क्षप्ता। वैश्यपुरुषः ब्राह्मस्त्री वैदेहः 1शूद्रपुरुषः बाह्यस्वीचाण्डालः। एताति नव वर्णान्तराणि / इदानी वर्णान्तराणां संयोगोत्पत्तिमाह - उग्गेणं खत्ताए, सोवागो बेणवो बिदेहेणं। अंबट्ठीए सुद्दीऍ, चुक्कसो जो निसाएणं / / 26 / / सूएण निसाईए, कुक्करओ सो वि होइ णायव्यो। एसो बीओ मेओ, चउव्विहो होइ णायव्वो॥२७॥ अनयोरप्यर्थो यन्त्रकादवसेयः तचेदम्-उग्रपुरुषः क्षत्ता स्त्री श्वपाकः / विदेहः पुरुषः क्षत्ता स्त्री वैणवः / निषादः पुरुषः अम्बष्ठी स्त्री, शूद्री स्त्री वा वुकसः। शूद्रः पुरुषः निषादस्त्री कुक्कुरकः / गतं स्थापनाब्रह्म। इदानीं द्रव्यब्रह्मप्रतिपादनायाऽऽह - दव्वं सरीरभविओ, अन्नाणी वत्थिसंजमो चेव। भावे उ वत्थिसंजम, णायव्वो संजमो चेव / / 28 / / ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तं शाक्यपरिव्राजकाऽऽदीनामज्ञा नानुगतचेतसा वस्तिनिरोधमात्र विधवाप्रोषितभर्तृकाऽऽदीनां च कुलव्यवस्थाऽर्थ कारितानुमतियुक्त द्रव्यबह्म, भावब्रह्म तु साधूनां वस्तिसंयमः अष्टादशभेदरूपोऽप्ययं संयम एव, सप्तदशविध-संयमाभिन्नरूपात्वादस्येति / अष्टादश भेदास्त्वमी-"दिव्यात्कामरतिसुखात्, त्रिविध त्रिविधेन विरतिरिति नवकम्। औदारिकादपि तथा, तद् ब्रह्माऽष्टादशविकल्पम् / / 1 // " चरणनिक्षेपार्थमाहचरणम्मि होइ छक्कं गमाहारो गुणो व चरणं च। खित्तम्मि जम्मि खित्ते, काले कालो जहिं जो उ / / 29 / / चरणं नामाऽऽदि षोढा व्यतिरिक्त द्रव्यचरणं त्रिधा भवति, गतिभक्षणगुणभेदात्, तत्रा गतिचरणं गमनमेव, आहारचरणं मोदकाऽऽदे: गुणचरणं द्विधा-लौकिकं , लोकोत्तरं च Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभ 1258 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 लौक्किं यत् द्रव्यार्थ हस्तिशिक्षाऽऽदिक वैद्यकाऽऽदिकं वा शिक्षन्ते, ब्रह्मणा उप्तो ब्रह्मोप्तो लोक इत्यर्थः / परे एवं व्यवस्थिताः / तथाहिलोकोत्तरं साधूनामनुपयुक्तचरणमुदायिनृपमारकाऽऽदेर्वा क्षेत्रचरण तेषामयमभ्युपगमः। ब्रह्मा जगत्पितामहः / सचैक एव जगदवासीत् तेन च यस्मिन् क्षेत्र गत्याहाराऽऽदि चर्यतेव्याख्यायते वा, शब्दसामान्यान्त- प्रजापतयः सृष्टास्तैश्च क्रमेणैत त्सकलं जगदिति। सूत्र०१ श्रु०१ अ० भर्भावाद्वा शालिक्षेत्राऽऽदिचरणमिति, कालेऽप्येवमेव / 3 उ० / एषां च मतमयथार्थमीश्वरकृतलोकाखण्डनेनास्य दूषितत्वात्। भावचरणमाह - सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। भावे गइमाहारो, गुणो गुणवओ पसत्थमपसत्था। बंभंड न० (ब्रह्माण्ड) अण्डववृत्ते पौराणिकसंमतलोके, आचा० १श्रु० गुणचरणे पस्सत्थे-ण बंभचेरा नव हवंति // 30 // ६अ०३ उ०। भावचरणमपि गत्याहारगुणभेदात् त्रिधा, तत्र गतिचरणं साधोरुप- | बंभंडपुराण न० (ब्रह्माण्डपुराण) जगतो ब्रह्मकृतत्वप्रतिपादके पुराणे, युक्तस्य युगमात्रदत्तदृष्टर्गच्छतः, भक्षणचरणमपि शुद्ध पिण्डमुपभुजा- "भरहो विचम्मरयणे खंधावारं ठवेऊण उवरिछत्तरयणं ठावेइ मणिरयणं नस्य, गुणचरणमप्रशस्तं मिथ्या दृष्टीनां सम्यग दृष्टीनामपि सनिदान छत्तरयणवत्थिभाए ठवेइ। ततो पभिइ लोगेण अंडसंभवं जगपणीयं ति।" प्रशस्तं, तेषामेव कर्मोद्वेष्टनार्थम् मूलोत्तर गुणकलापविषयम्, इह तद् ब्रह्माण्डपुराणम्। (344 गा०) आ० म०१ अ०। चानेनैवाधिकारो, यतो नवाप्यध्ययनानि मूलोत्तरगुणस्थापकानि बंभकूड न० (ब्रह्मकूट) महाविदेहे स्वनामख्याते वक्षस्कार पर्वते, जं०। निर्जरार्थमनुशील्यन्ते। आचा०१ श्रु०१ अ०१उ० / उत्त०नि०चू०। कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे बंभकडे णामं वक्खारपव्वए ईषत्प्राग्भारायां पृथिव्यां तस्याः सकललोकमयत्वात्। स०१२ सम०॥ पण्णत्ते ? गोयमा! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीआए महाणईए अष्टादश ब्रह्माणि उत्तरेणं महाकच्छस्स पुरत्थिमेणं कच्छावईए पञ्चच्छिमेणं एत्थ अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते / तं जहा-ओरालिए कामभोगे णेव णं महाविदेहे वासे बं (म) म्ह कूडे णामं वक्खारपव्वर पण्णत्ते। सयं मणेणं सेवइ, नावि अन्नं मणेणं सेवावेइ, मणेणं सेवंतं वि उत्तरदाहिणायए पाई णपडीयवित्थिणे सेसं जहा चित्तकूडस्स० अन्नं न समणुजाणइ। ओरालिए कामभोगे नेव सयं वायाए सेवइ, जाव आसयंति / बम्हकूडे चत्तारि कूडा पण्णत्ता / तं जहा-- नेव अन्नं वायाए सेवावेइ, वायाए सेवंतं वि अन्नं न समणुजाणइ, सिद्धाययणकूडे १बम्हकूडे 2 महाकच्छकूडे 3 कच्छावइकूडे ओरालिए कामभोगे नेव सयं काएणं सेवइ, नावि अन्नं कारणं 4 एवं ०जाय अट्ठो बम्हकू डे इत्थ देवे पलिओवमठिइए सेवावेइ, काएणं सेवंतं वि अन्नं न समणुजाणइ, दिव्वे कामभोगे परिवसइ, से तेणटेणं। नेव सयं मणेणं सेवइ, नावि अन्नं मणेणं सेवावेइ, मणेणं सेवंतं (कहि णमित्यादि) सर्व व्यक्तम् / ब्रह्मकूटनामा द्वितीयो वक्षस्कारः वि अन्नं न समणुजाणइ, दिव्वे कामभोगे नेव सयं वायाए सेवइ, चित्रकूटाऽतिदेशेन यावत्पदादायामसूत्राऽऽदिकं भूमिरमणीय-सूत्रान्त नावि अन्नं वायाए सेवावेइ, वायाए सेवंतं वि अन्नं न समणुजाणइ च सर्व वाच्यम्। अथात्र कूटवक्तव्य माह (बम्हकूडे चत्तारि कूडा) इत्यादि दिव्वे कामभोगे नेव सयं काएणं सेवइ, नावि अन्नं कारणं व्यक्त, नवरम एवं चित्राकूटवक्ष स्कारकूटन्यायेन वाच्यं यावत्' समा सेवावेइ, कारणं सेवंतं वि अन्नं न समणु-जाणइ / स०१८ उत्तरदाहिणेणं परुप्परति''इत्यादि ग्राह्यम् / अर्थो ब्रह्मकूटशब्दार्थः।" सम०। से केणदेणं भते! एवं युचइ बम्हकूडे इत्यालापकेन उल्लेख्यः। ब्रह्मकूटनामा * ब्रह्मन् न०बृहमनिन्। "हेर्नो ऽच्च।" (उणा० 565) इति नकारस्या- देवश्चात्रा पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तदेतेनार्थो ऽतिसुगमः / ज० कारत्वम्। वेदे, तपसि, सत्ये, तत्वे यथार्थे, तुरीये सर्वगुणातीते विशुद्धे 4 वक्ष। चित्स्वरूपेच। हिरण्यगर्भे, विप्रे० ऋत्विग्विशेषे च। पुं०। उज्जवलदत्तेन | बंभगिरि पुं० (ब्रह्मगिरि) नासिक्यपत्तनसमीपवर्तिस्वना मख्याते महादुर्गे, दन्तोष्ट्याऽऽदित्वमेव साधितम् / मेदिनीकारेण ओष्ठयाऽऽदित्वेन | ती०२६ कल्प। कीर्तनात्तथात्वमपि, किंतु तन्मूलं मृग्यम् / वाच० / आर्यसुहस्तिनः / बंभगुत्ति स्त्री० (ब्रह्मगुप्ति) ब्रह्मचर्यगुप्तौ, ग० / प्रथमशिष्ये, कल्प०२ अधि०८ क्षण। 'नव बंभचेरगुत्तीओ पण्णत्ताओ।तं जहाविवित्ताई सयणाऽऽसणाई * ब्राह्म पुं० अलंकृत्य कन्यादानरूपे विवाहभेदे, स०। सेवित्ता भवइ, नो इत्थिसंसत्ताई नो पसुसंसत्ताई नो पंडगसंत्ताई१, षष्ठदेवलोके हि ब्राह्माऽऽदीनि विमानानि - नो इत्थीण कह कहेत्ता हवइ / " नो स्त्रीणां के वलानां कथां जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पभं बंभकं तं बंभवणं धर्मदेशनाऽदि-लक्षण वाक्यप्रतिबन्धरूपाम् 2 / 'नो इत्थिठाणाई बंभलेसं बंभज्झयं बंभसिंग बंभसिद्धं बंभकूडं बंभुत्तरवडिंसर्ग सेवित्ता भवति स्थानं निषद्या।३। "नो इत्थीणं मणोहराई मणोरमाई विमाणं देवत्ताए उववन्ना तेसि णं देवाणं एक्कारस सागरोवमाई इंदिआई आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ 4 / णो पणीयरसभोई 5 / णो ठिई पण्णत्ता। स०११ सम०। पाणभोयणस्स अइमातमाहारएसया भवइ६। णो पुव्वरयं पुव्वकीलियं बंभउत्त त्रि० (ब्रह्मोप्त) ब्रह्माऽऽहितबीजोत्पन्ने, "बंभउत्ते अयं लोए।' | सरित्ता भवइ 7 / णो सहानुवाती णो रूवाणुवाई नो सिलोगाणुवाई Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभगुत्ति 1256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेर , 8 | नो सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवइ 6 / " इति ब्रह्मगुप्तिः / ग०१ तपः प्रभृतीनुत्तमान् प्राप्नोति नाऽन्यथा। यदाहअधि० / स्था० 6 ठा० / स० / आ० चू० / "जइ ठाणी जइ मोणी, जइ झाणी वक्कली तवस्सी वा। बंभचेर न० (ब्रह्मचर्य) ब्रह्मच-कुशलानुष्ठान, तच्च तचर्ये चाऽऽसेव्यमिति पत्थंतो अ अबंभ, बंभावि न रोयए मज्झ॥१॥ ब्रह्मचर्यम्। स्था० 6 ठा०। "ब्रह्मचर्यतूर्यसौन्दर्यसौण्डीर्ये यो रः" तो पढियं तो गुणियं, तो मुणियं तो य चेइओ अप्पा। / / 8 / 2 / 63 / / इतिर्यस्य सः / प्रा०२पाद। "ब्रह्मचर्ये चः" ||1 / 5 / / आवडियपेल्लियाम-तिओ विन कुणइ अकजं / / 2 / / " इति ब्रह्मचर्यशब्दे चकारोत्तरवर्तिनोऽकारस्यैकारः / प्रा०१ पाद / यमा-अहिंसाऽऽदयः, नियमा-द्रव्याऽऽद्यभिग्रहाः पिण्ड-विशुद्ध्यादयो विशुद्धतयोऽनुष्ठाने, दश० अ० 1 उ० / संयमे० स्था० 6 ठा० / वा, ते च ते गुणानां मध्ये प्रधानाश्च तैर्युक्तं यत्त-तथो / अब्रहाविरमणे, स्था०२ ठा०१ उ०। आ० चू०। वस्तिनिरोधे, सूत्र०१ (हिमवंतमहंततेयमतं) हिमवतः पर्वतविशेषात्सकाशान्महत् गुरुकं ध्रु०३ अ०१ उ०। मदनपरित्यागे, आचा०१श्रु० अ०४ उ०।मैथुनव्रते, तेजस्वि-प्रभाववद्यत्तत्तथा / यथाहि-पर्वतानां मध्ये हिमवान् गुरुकः स्था० 6 ठा० / स्त्र्यादिपरिभोगाभावमात्रो, भ०१२०१ उ०। मैथुन प्रभावांश्च, एवं व्रतानामिदमिति भावः। आह चविरतिरूपं ब्रह्मचर्य द्विधा-सर्वतो, देशतश्च / तत्र सर्वथा-सर्वस्त्रीणां "व्रतानां ब्रहाचर्य हि, निर्दिष्ट गुरुकं व्रतम्। मनोवामायैः सङ्गत्यागः सर्वतो ब्रहाचर्यम्। तचाष्टदशधा-'यतो योग तजन्यपुण्यसम्भार-संयोगाद्गुरुरुच्यते॥१॥" शास्त्रो'' दिव्यौदारिककामाना, कृतानुमतिकारितैः / मनोवाकायत तन्त्रान्तरीयैरप्युक्तम्स्त्यागी, ब्रह्मष्टादशधा मतम् / / 1 / / " इति / तदितरहेशस्तत्रोपाशकः "एकतश्चतुरो वेदाः, ब्रह्मचर्यं च एकतः। जर्वतोऽशक्तो देशतस्तत्स्वदारसन्तोषरूपंपरदारवर्जनरूपंवा प्रतिपद्यते। एकतः सर्वपापानि, मद्यं मासं च एकतः॥१॥" ध०२ अधि०। प्रशस्त प्रशस्थ गम्भीरमतुच्छं स्तिमितं स्थिरं मध्यं देहिनोऽन्तः करणं किं ब्रह्मचर्य , कथं कर्तव्यं, के कुर्वन्ति यस्मिन् सति तत्तथा, आर्जवैः-ऋजुतोपेतैः साधुजनै राचरितमासेवितं जंबू! एत्तो य बंभचेरं उत्तमनवनियमनाणदंसणचरित्तसम्म मोक्षस्य च मार्ग इव मार्गो यत्त त्तथा / वाचनान्तरे-प्रशस्तैः प्रशस्यैः गम्भीरैरलक्ष्यदैन्याऽऽदिविकारैः स्तिमितैः कायचापलाऽऽदिरहितर्मतविणयमूलं यमनियमगुणप्पहाणजुतं हिमवंतमहंततेयमंतं ध्यस्थैः राग द्वेषानाकलितैः आर्जवसाधुजनैराचरितं मोक्षमार्गस्य यत्तपसत्थगंभीरथिमियमज्झं अज्जवसाहुजणाचरियं मोक्खमग्गं तथा, विशुद्धा रागाऽऽदिदोषरहितत्वेन निर्मला या सिद्धिः कृतकृत्यता विसुद्धसिद्धिगइनिलयं सासयमव्वा वाहमपुणब्भवं पसत्थं सोम्म सैव गन्यमानत्वादगतिर्विशुद्धसिद्धिगतिर्जीवस्य स्वरूपं सैव निलय इव सुहं सिवमचलमक्खयकरं जतिवरसारक्खियं सुचरियं निलयः स्वरूपैः सर्वसिद्धानां निलयनाद्विशुद्धसिद्धिगति निलयः सुभासियं नवरि मुणिवरेहिं महापुरिसधीरसूरधम्मियधिति शास्वतः साद्यपर्यवसितत्वात् अव्याबाधः क्षुधादिवाधारहितत्वात् अपुनमंताण य सयाविसुद्धं भवं भध्वजणाणुचरियं निस्संकि यं र्भवस्ततः पुनर्भवसम्भवाभावात् प्रशस्तः उक्तगुणयोगादेव, सौम्यो निभयं नित्तुसं निरायासं निरुवलेवं निव्वुइघरं नियमनिप्पकंपं रागाऽऽद्यभावात् सुखः सुखस्वरूपत्वात् शियः सकलद्वन्द्ववर्जितत्वात् तवसंजममूलदलियणेम्मं पंचमहव्वयसुरक्खियं समिति अचलः स्पन्दनाऽऽदिवर्जितत्वात अक्षयश्च तत्पर्यायाणामपि कथञ्चिगुत्तिगुत्तं झाणवरकवाङसुकयमज्झप्पदिण्णफलिहं सन्नद्धबद्धो दक्षपत्वात् अक्षतो वा पूर्णः पौर्णमासीचन्द्रवत्तंकरोतीत्येवंशीलं यत्तथा, च्छइयदुग्गतिपहं सुगतिपहदेसगं च लोगुत्तमं च बयमिणं पउम मकारस्त्विह पाठे आगमिकः, पाठान्तरेणसिद्धिगतिनिलयं शाश्वतहेतुसरतलागपालिभूयं महासगडअरगतुंवभूयं महाविडिमरुक्ख त्वात् शाश्वतम्, अय्याबाधहेतुत्वादव्याबाधम्, अपुनर्भवहेतुत्वादपुनक्खंघभूयं महानगरपागारकवाडफलिहभूयं रज्जुपिणद्धो व्व र्भवम्। अतएव प्रशस्तं सौम्यं च सुखहेतुत्वाच्छिवहेतुत्वाच सुखशिवम्। इंदकेऊ विसुद्धगेणगुणसंपिणद्धं जम्मि य भग्गम्मि होइ सहसा अचलनहेतुत्वाद्रचलनम्। अक्षयकरणादक्षयकरणं, ब्रह्मचर्यमिति प्रक्रमः / सव्वं संभग्गमहियचुण्णियकुसल्लियपल्लट्ठपडियखंडिय यतिवरैः मुनिप्रधानैः संरक्षितपालितंयत्तत्तथा, सुचरितशोभनंशोभानानुष्टानं परिसडिय विणासियं विणयसीलतवनियमगुणसमूह। (1) / / सुचरितत्वेऽपि ना विशेषेणोपदिष्टं मुनिभिरिति दर्शयन्नाह सुसाधित सुष्टु (जंबू इत्यादि) तत्र जम्बूरित्यामन्त्रणम्। (एत्तो यत्ति) इतश्चादत्ता प्रतिपादितं "नवरि त्ति केवलं मुनिवरैर्महर्षिभिः महापुरुषाश्च ते दानविरमणाभिधानसंवरभणनादनन्तरम्। (बंभचेरं ति) ब्रह्मचर्याऽऽ- जात्याधुत्तमाः।धीराणांमध्ये शूराश्चात्वन्त साहससधनाः, तेचतेधर्मिका भिधान चतुर्थ संवरद्वारमुच्यते इति शेषः / कि स्वरूपं तदित्याह- धृतिमन्तश्चेति कर्मधारयोऽतस्तेषामेव, चशब्दस्याऽवधारणार्थत्वात्सदा उत्तमाः-प्रधाना ये तपः- प्रभृतयस्ते तथा, तत्रा तपः-अनशनाऽऽदि विशुद्धं निर्दोषम् / अथवा-सदाऽऽपि सर्वदैव कुमाराऽऽद्यवस्थासु नियमाः-पिण्डवि शुद्धयादयः, उत्तरगुणाः--ज्ञान विशेषबोधो, दर्शन- सर्वास्वपीत्यर्थः शुद्धं निर्दोषमनेन चैतदपास्तम् / यदुक्तम् - "अपुत्रस्य सामान्यबोधः, चारित्रां सावद्ययोगनिवृत्तिलक्षणं, सम्यक्त्वं मिथ्यात्व- गतिनास्ति, स्वर्गो नैव च नैवचातस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद्धर्म चरिष्यसि मोहनीयक्षयोपशमाऽऽदिसमुत्थो जीवपरिणामः, विनयःअभ्युत्थानाss- // 1 // " इति। अत एवोच्यते "अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम्। धुपचाराः, तत एतेषां मूलमिव मूलम् कारणं यत्तत्तथा, ब्रह्मचर्यवान् हि / दिवं गतानि विप्राणामकृत्या कुलसन्ततिम् / / 1 / / '' भव्यम् योग्य कल्याण Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेर 1260- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेर मित्यर्थः / तथा भव्यजनानुचरित निःशङ्कितम्-अशङ्कनीयं ब्रह्मचारी हि जनाना विषयनिस्पृहत्वादशङ्कनीयो भवति / तथा-निर्भयं ब्रह्मचारी हि अशङ्कनीयत्वान्निर्भयो भवति। निस्तुषमिव निस्तुषं विशुद्धतन्दुलकल्प, निरायासं-न खेदकारणं, निरुपलेपस्नेहवर्जित, तथा निवृत्तेःचित्तस्वास्थ्यस्य गृहमिव गृह यक्षत्तथा। आह च - "क्व यामः क नु तिष्ठामः, किं कुर्मः किं न कुर्महे? रागिणश्चिन्तयन्त्येव, नी रागाः सुखमासते॥१॥" नीरागाश्च ब्रह्मचारिण एव, तथा नियमेनाऽवश्यभावेन निष्प्रकम्पम्-अविचलं निरतिचारं यत्तत्तथा, व्रतान्तर हि सापवादमपि स्यादिदं च निरपवादमेवेत्यर्थः / आह च- "ण वि किंचि अणुन्नायं, पडिसिद्ध वावि जिणवरिदेहि। मोत्तुं मेहुणभावं, णतं विणा रागदोसेहिं / / १॥"ततः पदद्वयस्य कर्मधारये निवृत्तिगृहनियमनिष्प्रकम्पमिति भवति, तपः संयमर्योर्मूलदलिक मूलदलमादिभूतद्रव्यं तस्य (नेम्म ति) निभं-- सदृशं यत्तत्तथा, पञ्चानां महाव्रतानां मध्ये सुष्टु अत्यन्त रक्षितं रक्षणं पालनं यस्य तत्तथा, समितिभिरीसिमित्याभिर्गुप्तिभिर्मनोगुप्त्यादिभिर्वसत्यादिभिर्वा नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभिर्युक्तं गुप्तं वायत्तत्तथा, ध्यानवरमेवप्रधानध्यानमेव कपाट सुकृतं सुविरचितं रक्षणार्थे यस्य अध्यात्मैव च सद्भावनारूढं चित्तमेव (दिण्णो त्ति) दत्तो ध्यानकपाटहढीकरणार्थपरिघोऽर्गला रक्षणार्थमेव यस्य तत्तथा, सन्नद्ध इवबद्ध इव अवस्थगित इव (ओच्छाइय) आच्छादित इव निरुद्ध इत्यर्थः, दुर्गतिपथः दुर्गतिमार्गो येन तत्तथा, सुगतिपथस्य देशकं दर्शकं यत्तथा, तच लोकोत्तमं च व्रतमिदं दुष्करत्वात् / यदाह - "देवदाणवगंधव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा / बंभचारि नमसंति, दुक्कर जंकरितिते॥१॥'' (पउमसरतलागपालिभूर्य ति) सरः-स्वतः संभयो जलाऽऽशयविशेषः तडागश्च स एव पुरुषाऽऽदिकृ तइति समाहारद्वन्द्वः / पद्मप्रधानं सरस्तडागंपद्मसरस्तडागमिव मनोहरत्वे नोपादेयत्वात् पदासरस्तडागं धर्मस्तस्य पालिभूतं रक्षकत्वेन पालीकल्पं यत्तत्तथा, तथा महाशकटारका इव महाशकटारकाः क्षान्त्यादिगुणास्तेषां तुम्बभूतमाधारसामा नाभिकल्पं यत्तत्तथा, महाविटपवृक्ष इव - अतिविस्तारभूरुह इव महाविटपवृक्षः आश्रितानां परमोपकारत्वसाधाद्धर्म स्तस्य स्कन्धभूतं तस्मिन् सति सर्वस्य धर्मशाखिन उपपद्यमा नत्वेन नालकल्पं यत्तत्तथा। (महानगरपागारकवाडफलिहभूयं ति) महानगरमिव महानगरं विविधसुखहेतुत्वसाधाधर्मः तस्य प्रकार इव कपाटमिव परिघमिव यत् तन्महानगरप्राकारकपाटपरिघभूतमिति, रज्जुपिनद्धइव इन्द्रकेतु रश्मिनियन्त्रितेवेन्द्र-यष्टिविशुद्धाऽनेकगुणसंपिनवं निर्मलबहुगुणपरिवृत्तं यस्मिश्च यत्रा च ब्रह्मचर्ये भग्नेविराधिते भवति सम्पद्यते सहसा अकस्मात् सर्व सर्वथा संभग्नं घट | इव मर्दितं मथितं दधीव विलोडितंचूर्णित चणक इवापष्ट कुशल्यितमन्तः | प्रविष्टतोमराऽऽदिशल्यशरीरमिव सजातदुष्टशल्यं (पल्लट्ट त्ति) पर्वतशिखराद गण्डशैल इव स्वाऽऽश्रयाचलितं पतितं प्रासादशिखराऽऽदे: कलशाऽऽदिरिवाधो निव्रतितं खण्डितं दण्डइव विभागेन छिन्नंपरिशटिन कुष्ठाऽऽधुपहताङ्गमिव विध्वस्तविनाशितं च भस्मीभूतं पवनविकीर्ण दार्विव निस्सत्ताकतां गतम्। एषां समाहारद्वन्द्वः कर्मधारयो वा। किमेवंविधं भवतीत्याह-विनयशीलतयोनिय मगुणसमूह विनयशीलतपोनियम लक्षणानां गुणानां वृन्दम्। इहच समूहशब्दस्य छान्दसत्वान्नपुंस कनिर्देशः / तं बंभं भगवंतं गहगण्णणक्खत्ततारगाणं वा जहा उडुपती मणिघुत्तसेलप्पबालरत्तरयणागराणं च जहा समुद्दोवेरुलिओचेव जहा मणीणं जह मउडो चेव भूसणाणं वत्थाणं चेव खोमजुयलं अरविंदं चेव पुप्फजेटुं गोसीसं चेव चंदणाणं हिमवंतो चेव ओसहीणं सीतोदा चेव निन्नगाणं उदहीसु जहा सयंभूरमणो रुयगवरो चेव मंडलिकपव्वयाण पवरे एरावण इव कुंजराणं सीहो व्व जहा मिगाणं पवरे पवगाणं चेव वेणुदेवे धरण्णो जहा पण्णगई दराया कप्पाणं चेव बंभलोए संभासु यह जहा भवे सुहम्मा ठिइसु लवसत्तम व्व पवरा दाणाणं चेव अभयदाणं किमिराओ चेव कं बलाणं संघयण्णे चेव वञ्जरिसमे संठाणे चेव समचठरंसे झाणेसु य परमसुक्कज्झाणं नाणेसु य परमकेवलं तु सिद्धं लेसासु य परमसुक्कलेस्सा तित्थकरे चेव जहा मुणीणं वासेसु जहा महाविदेहे गिरिराया चेव मंदरवरे वणेसु जहा णंदणवणं पवरं दुमेसु जहा जंबू सुदंसणा वीसुयजसा जीय नामेण य अयं दीवो तुरगवती गयवती रहवती नरवती जह विस्सुते चेव राया रहिए चेव जहा महारहगते एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एक्कम्मि बंभचेरे। (2) / (तमिति) तदेवभूतं ब्रह्मचर्य भगवन्तं भट्टारकं तथा गृहगणनक्षत्रतारकाणां वा यथा उडुपतिश्चन्द्रः प्रवर इति योगस्तथेद व्रतानामिति शेषः / वाशब्दः पूर्वविशेषणापेक्षया समुचये। तथा-मणयश्चन्द्रकान्ताऽऽद्या मुक्ता मुक्ताफलानि शिला प्रवालानि विदुमाणि रक्तरत्नानि पद्मरागाऽऽदीनि तेषामाकरा उत्पत्तिभूमयो ये ते तथा तेषां वा, यथा समुद्रः प्रवरस्तथेदं व्रतानामिति शेषः सर्वत्र दृश्यः। वैडूर्य चैव रत्न विशेषो यथा मणीनां मुकुट चैवं भूषणानां वस्त्राणामिव क्षौमयुगलं कार्यासिक वस्त्रस्य प्रधानत्वात्। इह चेवशब्दो यथार्थो द्रष्टव्यः (अरविंद चेव त्ति) अरविन्दं पदां यथा पुष्पज्येष्ठमेवमिदं व्रतानां (गोसीस चेव त्ति) गोशीर्षाभिधानं चन्दनं यथा चन्दनानां (हिमवन्तो चेव त्ति) हिमवानिव औषधीना यथा हिमवान् गिरिविशेष औषधीनासद्भुतकार्यकारिवनस्पतिविशेषाण मुत्पत्तिस्थानवमेवं ब्रह्मचर्यमौषधीनामामझैषध्यादीनामागमप्रसिद्धानामुत्पत्तिस्थानमिति भावः। (सीतोदा चेव ति) शीतोदेव निम्नगाना नदीना, यथा नदीनां शीतोदा प्रवरा तथेदं व्रताना-मित्यर्थः / उदधिषु यथा स्वयंभूरमणोऽन्तिमसमुद्रो महत्वे प्रवर एवमिदं व्रताना प्रवरमिति (रुयगवरे चेव मण्डलिए पव्वयाण पवरे त्ति) यथा माण्डलिकपर्वताना मानुषोत्तरकुण्डल वररुचकवराऽभिधानाना मध्ये रुचकवरस्त्र Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेर 1261 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेर थोदशद्वीपवर्ती प्रवरः, एवमिदं व्रतानां प्रवरमिति भावः / तथा ऐरावणः शक्रगजो यथा कुञ्जराणां प्रवर एवमिदं व्रतानाम्, सिंहो वा यथ मृगाणामाटव्यपशूनां प्रवरः प्रधानः एवमिदं व्रतानाम्, (पवगाणं चेव त्ति) प्रवकाणामिव प्रकमात् सुपर्णकुमाराणां यथा वेणुदेवः प्रवरस्तथा व्रतानां ब्रहाचर्यमिति प्रकृतम् / यथा धरणो पन्नगेन्द्राणां भुजगवराणां नागकुमाराणां राजा पन्नगेन्द्रराजः पन्नगानां प्रवर एवमिदं व्रतानामिति प्रक्रमः / कल्पानामिव देवलोकानां यथा ब्रह्मलोकः पञ्चदेवलोकः तत् क्षेत्रस्य महत्वात्तदिन्द्रस्यातिशुभपरिणामत्वात् प्रवर एवमिदं व्रतानां सभासु च प्रतिभवनविमानभाविनीषु सुधर्मसभा उत्पादसभा अभिषेकसभा अलङ्कारसभा व्यवसायसभा चेत्येवं लक्षणासु पञ्चसु मध्ये यथा सुधर्मा भवति प्रवरा तथेदं व्रताना मिति स्थितिषु आयुष्केषु मध्ये लवसप्तमाऽनुत्तरभव स्थितिर्वा शब्दो यथाशब्दार्थः / ततो यथा प्रवरा प्रधानातथेदं व्रतानामिति तत्रैकोनपञ्चाशत् उच्छवासानां लवो भवति / ब्रीह्यादिस्तम्बलवनं वा लवस्तत्प्रमाणः कालोऽपि लवः, तत्तो लवैः सप्तमैः-सप्तप्रमाणैः सप्तसंख्यैर्विवक्षताध्यवसाय विशेषस्य मुक्तिसम्पादकस्याऽपूर्यमाणैर्या स्थितिबध्यते सा लवसप्तमेत्यभिधीयते / तथा (दाणाणं चेव अभयदाणं ति) दानानां मध्ये अभयदानमिव प्रवरमिदं, तत्र दानानि ज्ञानधर्मोपग्रहाभयदानभेदात्वीणि (किमिरागो व्व कंबलाणं ति) कम्बलानां वासोविशेषाणां मध्ये कृमिराग इव कृमिरागत्क कम्बलमिव प्रवरमिदंव्रतानां तथा (संहणवेचेववारिसहे त्ति) संहननानां षण्णां मध्ये वज्रऋषभनाराचसंहननमिव प्रवरमिदं व्रतानामिति। (संठाणे चेव चउरंसे त्ति) शेषसंस्थानानां चतुरस्रसंस्थानमिवेदं प्रवरं व्रतानां, तथा ध्यानेषु च परमशुल्क ध्यानं शुल्कध्यानचतुर्थभेदरुपं यथा प्रवरमेवभिदं व्रतेष्विति गम्यम् ! (नाणेसु य परम केवल तु सिद्ध ति) ज्ञानेत्वाभिनि बोधिकाऽऽदिषु परमं च तत्केवलं परिपूर्ण विशुद्धं वा मतिश्रुता वधिमनः पर्यायापेक्षया परमकेवलं क्षायिकज्ञानमित्यर्थः, तरेवकारार्थः, सि....... प्रवरतया प्रसिद्धं यथा तथेदमपि व्रतेष्विति गमनीयम् / लेश्यासु च कृष्णाऽऽद्यासु परमशुल्कलेश्या शुल्कध्यानतृतीयभेदवर्तिनी यथा प्रवरा तथेदं व्रतेष्विति गम्यम्। तीर्थकर चैव यथा मुनीनां प्रवरस्तथैवेदं व्रतानां वर्षेषुक्षेत्रविशेषेषु यथा महाविदेहस्तथेदं व्रतेषु (गिरिराया चेव मंदरवरे त्ति) चेवशब्दस्य यथार्थत्वाद्यथा मन्दवरोजम्बूद्धीपमेरुर्गिरिराजस्तथेदंव्रतराजः, वनेषु भद्रशालनन्दसौमनसपण्डकाभिधानेषु मेरुसम्बन्धिषु यथा नन्दनवनं प्रवरमेवमिदिमिति द्रुमेषु तरुषु मध्ये यथा जम्बूः सुदर्शनेति सुदर्शनाभिधाना विश्रुतयशाः विख्याता एवमिदमिति / किंभूता जम्बूः?-यस्या नाम्नाऽयं द्वीपः जम्बूद्वीप इत्यर्थः, तथा तुरगपतिर्गजपतिः स्थपरिनरपतिर्यथा विश्रुतश्चैव राजा तथेदमपि विश्रुतमिति भावः, रथिकश्चैव यथा महारथगतः पराभिभावी भवतीत्येवमिहस्थः कर्मरिपुसैन्याभिभावी भवतीति निगमयन्नाह - एवमुक्तक्रमेणानेके गुणाः प्रवरत्वबिश्रुतत्वाऽऽदयोऽनेक मिदर्शनाभिधेयाअहीना प्रकृष्टा अधीना च स्वाऽऽयुत्ता भवन्ति। केत्याहएकस्मिन् ब्रह्मचर्ये चतुर्थे व्रते। जम्मिय आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सव्वं, सीलं तवो य विणओ य संजमो य खंत्ती गुत्ती मूत्ती तहे व इहलोइय पारलोइयजसे य कित्ती य पञ्चओ य तम्हा निहुएण, बंमचेरं चरियव्वं सव्वओ विसुद्धं जावञ्जीवाए० जाव सेयट्ठिसंजउ त्ति एवं भणियं बयं भगवया / तं च इमं"पंचमहव्वयसुव्वयमूलं, समणमणाइलसाहुसुत्तिण्णं। वेरविरामणपञ्जवसाणं, सव्वसमुद्दमहोदहितित्थं // 1 // तित्थकरेडि सुदेसियमग, नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं। सव्वपवित्तसुनिम्मियसार, सिद्धिविमाणअवंगुयदारं // 2 // देवनरिंदनमराियपूर्य, सव्वजगुत्तममंगलमर्ग। दुद्धरिस गुणनायकमेकं, मोक्खपहस्स बडिंसगभूयं / / 3 / / " तथायस्मिंश्च ब्रहाचर्य आराधिते पालिते आराधितं पालितं व्रतमिदं निन्थप्रव्रज्यालक्षणं सर्वम्-अखण्ड तथा शीलं समाधानं तपश्च विनयश्च संयमश्च क्षान्तिगुप्तिर्मुक्तिर्निर्लोभता सिद्धिर्वा, तथैवेति समुच्चये, तथा-ऐहलौकिकपारलौकिक यशांसि चकीर्तयश्च प्रत्ययश्च, आराधिता भवन्तीति प्रक्रमः / तत्रायशः पराक्रमकृतं, कीर्तिर्दानफलभूता। अथवा-सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिर्यशः एकदिग्गामिनी कीर्तिः, प्रत्ययः साधुरयम् इत्यादिरुपा जनप्रतीतिरिति। यतएवंभूतं तस्मान्निभृतेन इत्यादिरापा जनप्रतीतिरिति। यत एवंभूतं तस्मान्निभृतेन स्तिमितेन ब्रह्मचर्य चरितव्यमा सेवनीय, किंभूत? सर्वतो मनःप्रभृतिकरणत्रययोत्रायेण विशुद्ध निरवद्यं यावज्जीवया प्रतिज्ञया यावञ्जीवतया वा आजन्मेत्यर्थः / एतदेवाऽऽयावत् श्वेतास्थिसंयत इति श्वेतास्थिता च साधो म॒तस्य क्षीणमासांऽऽदिभावे सतीति इतिशब्दो व्यवस्थितवाक्यार्थसमाप्तौ, भङ्गयन्तरेण ब्रह्मचर्य व्रतं स्तोतुं प्रस्तावयति। एवं वक्ष्यमाणेन च वचनेन भणितं व्रतं ब्रह्मचर्यलक्षणं भगवता श्रीमहावीरेण, (तं च इम ति) तचेदं वचनं पद्यायप्रभृतिकम्-(पंचमहव्वयसुव्वयमूल) पञ्चमहाव्रतनामकानि यानि सुव्रतानि तेषां मूलमिव मूलं यत् / अथवापञ्चमहाव्रताः साधवस्तेषां सम्बन्धिनां शोभननियमानां मूलं यत्, अथवा-पञ्चाना महाव्रतानां सुव्रतानांवाऽणुव्रतानां मूलं यत्तत्तथा / अथवा-हे पञ्चमहायत! सुव्रत! मूलमिदं ब्रह्मचर्यमिति प्रकृतम् ! (समणमणाइलसाहुसुचिन्नं) (समण ति) सभाव यथा भवतीत्येवमनाविलैरकलुषैः शुद्धस्वभावैः साधुभिर्यतिभिः सुष्टु चरितमासेवितं यत्तत्तथा। (वेराविरमणपज्जवसाणं) वैरस्य परस्परानुशयस्य विरमणं विरामकरणमुपशमनयनं निवर्त्तनं पर्यवसानं निष्ठाफलं यस्य तत्तथा / (सव्वसमुद्दमहोदहितित्थ) सर्वेभ्यः समुद्रेभ्यः सकाशन्महानुदधिः स्वयंभूरमण इत्यर्थः, तद्वद्यदुर्निस्तरत्वेन तत्सर्वसमुद्रमहोदधिस्तथा तीर्थमिव तीर्थ पवित्रताहेतुर्यत्र तत्तथा / अथवासर्वसमुद्रमहोदधिः संसारोऽतिदुस्तरत्वासन्निस्तरणे तीर्थमिव तरणोपाय इव तत्तथेति वृत्ताऽर्थः॥१॥ (तित्थकरहिं सुदेसियमणं ति) तीर्थकरैर्जिनैः सुदेशितमार्गे सुष्टु दर्शितं गुप्त्यादि तत्पालनोपायं (निरयतिरिच्छविवनियमगं) नरकतिरश्यां संबन्धी विवर्जितो निषिद्धेमार्गोगतिर्यनतत्तथा। (सव्यपवित्तसुनिम्मियसारं) सर्वपवित्राणि समस्तपावनानि सुनिर्मितानि सुष्टु विहितानि साराणि Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेर 1262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेर प्रधानानि येन तत्तथा / (सिद्धिविमाणअवंगुयदार) सिद्धेर्विमानानां किशब्दस्य क्षेपार्थत्वादसारमित्यर्थः, प्रमाद एव दोषो यतः तत्तत्प्रमादचाप्रावृत्तमपगताऽऽवरणीकृतमुद्घाटित मित्यर्थः, द्वारं प्रवेशमुखं येन वेश्यं पार्श्वस्थानां ज्ञानाचाराऽदिवाहिवर्तिनां साध्वाभासानां शीलमनुतत्तथेति वृत्तार्थः / / 2 / (देवनरिंदमंसियपूयं) देवानां नराणां ष्ठानं निष्कारणं शय्यातरपिण्डपरिभोगाऽऽदिपार्श्व स्थशीलं, ततः पद चेन्ट्रैर्नमस्यिता नमस्कृता ये तेषां पूज्यमर्चनीयं यत्तत्तथा / (सव्वज- त्रयस्य कर्मधारस्तस्य करणमासेवनं यत्तत्तथा / एतदेव प्रपञ्चतेगुत्तममंगलमग्ग) सर्वज, गदुत्तमानां मङ्गलानां मार्ग उपायोऽग्रं वा प्रधान अभ्यञ्जनानि च घृतवशाम्रक्षणाऽदिना तैलमज्जनानि च तैलस्ना-नानि यत्तत्तथा (बुद्धरिसं गुणनायकमेक्क) दुर्द्धर्षमनभिभवनीयं गुणान्नयति तथा अभीक्ष्णमनवरतं कक्षाशीर्षकरचरणवदनानां धावनं च -- प्रक्षालन प्राययतीति गुणनायकमेकम-द्वितीयमसदृश (मोक्खपहस्स यडिंसग संवाहन गात्रकर्म च हस्ताऽऽदिगात्रचम्पनरुपमङ्ग परिकर्म परिमर्दनं च भूयं) मोक्षपथस्य सम्यग्दर्शनाऽऽदेरवतंसकभूतं शेखरकल्पं, प्रधान सर्वतः शरीरमलनमनुलेपनं च विलेपनं चूर्ण:-गन्धद्रव्यक्षोदैर्वासश्च मित्यर्थः / इति दोधकाऽर्थः।। 3 / / शरीराऽऽदिवासनम् धूपर्न चाऽगुरुधूपाऽऽदिभिः शरीरपरिमण्डनं च जेण सुद्धचरिपणं भवति सुवंभणो सुसमणो सुसाहू सइसी स तनुभूषणं वकुशं कुर्वरं चित्र प्रयोजनमस्येति वाकुशिकं नखकेशवस्त्रमुणी स संजए स एव भिक्खू जो सुद्धं चरति बंभचेरं इमं चरति समारचनाऽऽदिकं तच हसितं च हासः भणितं च प्रक्रमाद्विकृतं नाट्यं च रागदोसमोहपवडणकरं किं मज्झपमागदोसपासत्थ सीलकरणं नृत्तं च गीत च गानं वादितं च पटहाऽऽदिवादनं नटाश्च नाटयितारो अब्भंगणाणि य तेल्लमजणागि य अभिक्खणं कक्खसी नर्त्तकाश्च ये नृत्यन्ति जल्लाश्च वरत्राखेलकः मल्लाश्च प्रतीताः, एतेषा सकरचरणवयणधोवणसंवाहणगायकम्मपरिमद्दणाणु लेवण प्रेक्षण च नानाविधवंशखेलकाऽऽदिसबन्धि वेलम्बकाश्च विडम्बका चुण्णवासधूवणसरीरपरिमंडणवाउसिक हसियभणियनट्ट विदूषका इति द्वन्द्वः / छान्दसत्वाश्च प्रथमाबहुवचनलोपो दृश्यः / गीयवाइयनड नट्टगजल्लमल्लपेच्छणवे लंवक जाणि य वर्जयितव्या इति योगः / किं बहुनायानि च वस्तूनि शृङ्गारागाराणि शृङ्गररसगेहानीव्यानि चोक्तव्यतिरिक्तानि एवमोदिकानि एवं प्रकाराणि सिंगारागाराणि य अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमबंभचेर तपःसंयमब्रह्मचर्याणा घातश्चदेशतः, उपघातश्च सर्वतो विद्यते येषु तानि घातोवघाइयाई अणुचरमाणेणं बंभचेर वजेयव्वाइं सव्वकालं भावेयव्यो भवति य अंतरप्पा इमेहिं तवनियमसीलजोगेहिं तपःसंयमब्रह्मचर्यघातोपघातिकानि। किमत आह-अनुचरता आसेव मानेन ब्रह्मचर्य वर्जयितव्यानि सर्वकालम अन्यथा ब्रह्मचर्यव्याधातो णिच्कालं किं ते अणहाणकअदंतधावणसेयमल्लजल्लधारणं भवतीति। तथा भावयितव्यश्च भवत्यन्तरात्मा एभिर्वक्ष्यमाणैः तपोनिमूणवयकेसलोए य खमदमअचेलगखुप्पिवासलाघवसीतोसिण यमशीलयोणैः-तपः प्रभृतिव्यापारैर्नित्यकालसर्वदा किं ते तद्यथा कट्ठसेज्जाभूमिनिसेनापरघरपवेसलद्धावलद्धमाणावमाण निंदण अस्नानक चादन्तधावनं च प्रतीते। स्वेदमलधारणं च , ता स्वेदःदंसमसकफासनियमत्तवगुणविणयमादिएहिं जहा रे थिरतरकं प्रस्वेदः मलः-कक्खडीभूतः याति च लाति चेति जल्लोमलविशेषः / होइ बंभचेरं इमं च अबंभचेरवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पावयणं एवं मौनव्रतं च केशलोचश्च प्रतीतौ, क्षमा च क्रोधनिग्रहः, दमश्चेन्द्रियभगवया सुकहियं पेचा भाविकं आगमोसिभर सुद्धं नेयाउयं निग्रहः, अचेलकं च वस्वाभावः, क्षत्पिपासे च प्रतीते, लाघवं चाल्पोपअकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाण विउसमणं (4) धित्वं, शीतोष्णे च प्रतीते काष्ठशय्या च फलकाऽऽदिशयनं, भूमिनिषद्या तथा येन शुद्धचरितेन-सम्यगासेवितेन भवति सुब्राह्मणे यथार्थ च भूम्यासनं, तथा परगृहप्रवेशे चशय्याभिक्षाऽऽद्यर्थ लब्धे चाभिमताशनामत्वात् सुश्रमणः सुतपाः सुसाधुनिर्वाणसाधक योगसाधकः तथा (स नाऽऽदावपलब्धे वेषल्लब्धेऽलब्धे वा यो मानश्चाभिमान अपमानश्च इसि त्ति) स यथोक्तऋषिर्यथावद्वस्तुद्रष्टा यः शुद्ध चरति, ब्रह्मचर्यमिति दैन्यं निन्दनं कुत्सनं दंशमशकस्पर्शश्च नियमश्च द्रव्याऽऽद्यभिग्रहः योगः / (स मुणित्ति) स यथोक्तो मुनिमन्ता स संयतः संयमवान् स एव नपश्चानशनाऽऽदि गुणाश्च मूलगुणाऽऽदयः विनयश्चाभ्युत्थानाऽऽदिभिक्षुः भिक्षणशीलो यः शुद्धं चरति ब्रह्मचर्यमिति अब्रह्मचारी तु न ब्राहाण भिरिति द्वन्द्वः / तत एते आदिर्येषां योगानां ते तथा तैर्भावयितव्यो ऽऽदिरिति। आह च भवत्थ्यन्तरात्मेति प्रकृतम्। भावना चास्नानाऽऽदीनामासेवा मानाप"सकलकलाकलापकलितोऽपि कविरपि पण्डितोऽपि हि, प्रकटित माननिन्दनदेशाऽऽदि स्पर्शानां चोपेक्षेति कथमेभिर्भावयितव्यो भवत्यसर्वशास्त्रतत्वाऽपि हि वेदविशारदोऽपि हि॥ न्तरात्मेत्याह-यथा (से) तस्य ब्रह्मचारिणः स्थिरतरकं भवति ब्रह्मचर्यम् मुनिरपि वियति विततनानाद्भुतविभ्रमदर्शकोऽपि हि "इमंच" इत्यादि प्रवचनस्तवनं पूर्ववत्। प्रश्न०४ संक० द्वार। स्फुटमिह जगति तदपि न स कोऽपि हियदि नाक्षाणि रक्षति?" अहावरं चउत्थं महत्वयं पचक्खानि सव्वं मेहुणं से तथा इदं च वक्ष्यमाणं पार्श्वस्थशीलकरणमनुचरता ब्रह्मचर्य वर्जयति- | दिव्वं वा माणुसंवा तिरिक्खजोणियं वा णेव सयं मेहुणं व्यानीत्यस्य वक्ष्यमाणपदस्य वचनपरिणामांद्वर्जयि तव्यामिति योगः। गच्छे जा तं चेवं अदिग्णदाणवत्तव्वया भाणियत्वा० जाव किंभूतं रतिश्च विषयरागो, रागश्च पित्रादिषु स्नेहरागोः, द्वेषश्च प्रतीतो, बोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति / तत्थिमा मोहश्चाज्ञानमेषां प्रवर्द्धन करोति यत्तत्तथा / किं मध्यं यस्य तत्किमध्यं / पढमा भावणा-णो णिग्गंथे अभिक्खणं 2 इत्थीणं कहं Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेर 1263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेर कहित्तए सिया। केवली वूया-णिग्गंथेणं अभिक्खणं 2 इत्थीणं कहं कहेमाणे संति भेदा संति विभंगा संति के वलिपण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा, णो णिग्गंथे णं अभिक्खणं अभिक्खणं इत्थीणं कहं कइित्तए सिय त्ति पढमा भावणा / / 1 / / चतुर्थव्रतप्रथमायां स्त्रीणां संबन्धिनो कथां न कुर्यात्। प्रथमा भावना। आचा०२ श्रु०३ चू०। तस्स इमाओ पंचभावणाओ चउत्थव्वयस्स हुंति-अबंभचे रवे रमणपरिक्खणट्ठयाए पढम सयणाऽऽसणधरदुवार अंगणाआगासगवक्खसालअहिलोयणपच्छवत्थुकपसाहण्हाणि काऽवकासा, अवकासा जे य वेसियाणं अच्छंति य नत्थ इत्थिकाओ अभिक्खणं मोहदोसरतिरागवड्वणीओ कहिंति य कहाओ बहुविहाओते हु वज्जणिज्जा इत्थिसंसत्तसंकिलिट्ठा अण्णे विय एवमादी अवकासा ते विहु वञ्जणिज्जा जत्थ मणोविन्भमो वा भंगो ना भंसगो वा अटुं रुदं च होज्ज झाणं तं तं च वज्जेज्ज ऽवजभीरु अणायतणं अंतपंसवासी एवमसंपत्तवास वसहीसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा आरयमण-विरयगामधम्मे जितिंद्दिए बंभचेरगुत्ते / (5) (तस्सेत्यादि) तस्य चतुर्थस्य व्रतस्येमाः पञ्च भावना भवन्ति अब्रह्मर्यवितमणपरिक्षणार्थतायै, तत्र (पढमं ति) पञ्चानां प्रथम भावनावस्तु स्त्रीसंसक्ताऽऽश्रयवर्जनलक्षणम्। तचैवम्-शयनं शय्या आसनं विष्टरं गृह गेहदारं तस्यैव मुखम् अङ्गणमजिरम् आकाशमनावृतस्थानं गवाक्षो वातायनः शाला भाण्डशालाऽऽदिका अभिलोक्यते अवलोक्यते यत्रास्थैस्तद भिलोकनमुन्नतस्थानम्। (पच्छ वत्थुग त्ति) पञ्चाद्वास्तुकं पश्चात गृहकं तथा प्रसाधकस्व मण्डनस्य स्वातिकायाश्च स्नानक्रियाया येऽवकाशा आश्रयाः ते तथा ते चेतिद्वन्द्वः। ततस्ते स्त्रीसंसक्तेन संक्लिष्टा वर्जनीया इति सम्बन्धः। तथा अवकाशा आश्रयाः (जेय वेसियाणं ति) ये च वेश्यानां तथा आसते च तिष्ठन्ति च यत्रा येष्ववकाशेषु च स्त्रियः किंभूताः अभीणमनवतर मोहदोषस्याज्ञानस्य रतेः कामरागस्य, रागस्य च-स्नेहरागस्य वर्धना वृद्धिकारिका यास्ता स्तथा कथयन्ति च प्रतिपादयन्ति कथा बहुविधा बहुप्रकाराः जातिकुलरुपनेपथ्यविषयाः स्त्रीसम्बन्धिनीः पुरुषाः स्त्रियो वायोति प्रकृतम्। मोहदोषेत्यादिविशेषण कथास्वपि मुज्यते, (ते हु वजणिज्ज त्ति) ये च शयनाऽऽदयो ये च वेश्या नामवकाशा येषु वाऽऽसते स्त्रियः कथयन्ति च कथास्ते वर्जनीयाः / हुक्यिा लङ्कारे / किंविधा इत्याह - (इत्थिसंसत्तसंकिलिट्ठ ति) स्त्रीसंसक्तेन स्त्रीसम्बन्धेन संक्लिष्टा ये ते तथा, न केवलमुक्तरुपा वर्जनीयाः। अन्येऽपि चैवमादय अवकाशा आश्रया वर्जनीया इति। किं बहुना-(जत्थेत्यादि) उत्तरा वीप्साप्रयोगादि ह वीप्सा द्दश्या, ततो यत्र यत्र जायते मनोविममो वा चित्तभ्रान्तिब्रह्मचर्यमनुपालयामि न वेत्वेवरुपं शृङ्गाररसप्रभवं मनसोऽस्थिरत्वम्। आह च- "यचित्तवृत्तेरनवस्थितत्वं, शृङ्गारजं विभ्रम उच्यतेऽसौ।' भङ्गो वा ब्रह्मव्रतस्य सर्वभङ्ग इत्यर्थः। अंशना वा देशतो भगः, आर्तम् इष्टविषयसंयोगाऽभिलाषरुपं, रौद्रं वा भवेद्धयानंतदुपायभूतहिंसानृतादत्तग्रहणाऽनुबन्धरुपंतत्तदनायतनमिति योगः वर्जयेत, कोऽसावित्याह - अवद्यभीरुः पापभीरुः वयंभीरुर्वा वय॑ते इति वयं पापं, वज़भीरुर्वा वजं च वज्रवद्गुरुत्वा(पापमेवेति, अनायतनं साधूनामनाश्रय इति। किं भूतोऽवद्यभीरुः अन्ते इन्द्रियाननुकूले प्रान्ते तत्रैव प्रकृष्टतरे आश्रये वस्तु शीलमस्येत्यन्तप्रान्तवासीति निगमयन्नाह-एवमनन्तरोक्तन्यायेन असंसक्तः स्त्रीभिरसंबद्धो वासोनिवासो यस्याः सा तथाविधा या वसतिराश्रयस्तद्विषयो यः समितियोगः सत्प्रवृत्तिसम्बन्धः सतथा तेन भावितो भवस्यन्तरात्मा। किंविधः-आरतमभिविधिना आसक्तं ब्रह्मचर्ये मनोयस्य य आरतमनाः विरतो निवृत्तो प्रामस्येन्द्रियवर्गस्य धर्मो लोलुपतया तविषयग्रहणस्वभावो यस्य स तथा / ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः / अत एवाऽऽहजितेन्द्रियः ब्रह्मचर्यगुप्त इति। प्रश्न०४ संव० द्वार। अहावरा दोचा भावणा-णो णिग्गंथे इत्थीणं मणोहराई मणोहराइं इंदियाइं आलोइत्ताए अभिक्खणं 2 णिज्झाइत्तए सिया। केवली बूया-णिग्गंत्थेणं इत्थीणं मोहराई मणोहराई इंदियाइं आलोएमाणे णिज्झाएमाणे संति भेया संति विभंगा० जाव धम्माओ भंसेज्जा, णो णिग्गंथे इत्थीणं मणेहराइमणोहराई इंदियाइं आलोइत्तए णिज्झाइत्तए सिय त्ति दोचा भावणा। द्वितीयायां तु तदिन्द्रियाणां मनोहारीणि नाऽऽलोकयेत् / आचा०२ श्रु०३चू०। वितियं नारीजणस्स मज्झे न कहेयव्वा कहा विचित्ता विव्वोयविलासासंपउत्ता हाससिंगारलोइयकह व्व मोहजणणी न आवाहविवाहवरकाह विव इत्थीणं वा सुभगदुब्भगकहा चउसट्टि च महिलागुणा णा वन्नदेसजातिकुलरुवणामनेवत्थ परिजणकहाओ इत्थिमाणं अण्णा वि य एवमाइयाओ कहाओ सिंगारकलुणाओ तवसंजमबंभ चेरघाओवघाइयाओ अणुचरमाणेणं बंभचेररं न कहेयव्वा, न सुणेयव्वा, न चिंतियव्दा, एवं इत्थीकहविरतिसमितिजोगेणं भाविओ भवति अंतरप्पा आरतमणविरयगामधम्मे जितिदिए बंभचेरगुत्ते / (6) (वीय ति ) द्वितीयं भावनावस्तु / किं तदित्याह-नारीज नस्य मध्ये स्त्रीपर्षदोऽन्तः (न) नैव कथयितव्या। केत्याह-कथा वचनप्रबन्धरुपा विचित्र विविधा विविक्ता या ज्ञानोपष्टम्भा ऽऽदिकारणवर्जा / कीदृशीत्याह-विव्वोकविलाससंप्रयुक्ता। तत्रा विव्वोकविलासलक्षणमिदम्"इष्टानामर्थाना, प्राप्तावभिमानगसर्वभूतः। स्त्रीणामनादरकृतो, विव्वोको नाम विज्ञेयः॥१॥" Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेर 1264 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेर विलासलक्षणं पुनरिदम्"स्थानाऽऽसनगमनानां, हस्तभूनेद्धाकर्मणां चैव। उत्पद्यते विशेषो, यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात्।। 11 // " अन्ये त्वाहु :-"विलासो नेत्रजो ज्ञेयः।''इति। तथा हासः प्रहसिकाभिधानो रसविशेषः / शृङ्गारोऽपि रसविशेष एवातयोश्च स्वरुपाभिदम्"हास्यो हासप्रकृति- हाँसो विकृताङ्गवेषचेष्टाभ्यः / भवति परस्थाभ्यः स ब, भूम्ना स्त्रीनीचयालगतः / / 1 / / " तथा"व्यवहारः पुनार्यो-रन्योन्यं रक्तयो रतिप्रकृतिः। शृङ्गारः स द्वधा, सम्भोगो विप्रलम्भश्च॥१॥" एतत्प्रधाना या लौकिकी असंविनलोकसम्बन्धिनी कथा-वचनरचना सा तथ सा वा मोहजननी मोहोदीरिका, वाशब्दो विकल्पार्थः / तथा (न) नैव आवाहोऽभिनवपरिणीतस्य बधूवर स्याऽऽनयनं विवाहश्च पाणिग्रहण तत्प्रधाना या वरकथा परिणेतकथा आवाहविवाहवरा वा याः कथा सा तथा, साऽपि न कथयितव्येति प्रक्रमः / स्त्रीणां वा सुभगदुर्भगकथा सा, सा च सुभगा दुर्भगा वा ईदृशी वा सुभगा दुर्भगा वा भवतीत्येवंरुपा न कथयितव्येति प्रक्रमः / चतुःषष्टिश्च महिलागुणाः आलिङ्गनाऽऽदीनामष्टानां कामकर्मणा प्रत्येकमष्टभेदत्वेन चतुःषष्टिमहिलागुणा वात्स्ययनप्रसिद्धाः, ते वा न कथयि तव्याः / तथा-(न) नैव देशजातिकुलरुपनामेपथ्यपरिजन कथा वा कथयितव्येति प्रक्रमः। तत्र लाटाऽऽदिदेश सम्बन्धिनीनां स्त्रीणां वर्णन देशकथा, यथा-लाट्यः कोमलचना रतिनिपुणा वा भवन्तीत्यादि / जातिकथा / यथा-"धिग ब्राह्मणीर्धवाभावे, या जीवन्ति मृता इव। धन्या मन्येजने शूद्रीः, पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः // 1 // " तथा कुलकथा यथा अहो चौलक्यपुत्रीणा, साहसं जगतोऽधिकम् / पत्युर्मृत्यौ विसन्त्यगौ, याः प्रेमरहिता अपि / / 1 / / " इति / रुपकथा यथा-'चन्द्रवक्ता सरोजाक्षी. सद्री: पीनघनस्तनी। किं लाटी नो मता सास्याद्देवानामपि दुर्लभाः // 1 // " नामकथा-सा सुन्दरीति सत्य सौन्दर्यातिशयसमन्वितत्वात्। नेपथ्यकथा यथा ''धिणनारीरौदीच्याः, बहुवसनाऽऽच्छादिताङ्ग लति कत्वात् / यद्यौवन न यूना, चक्षुर्मोदाय भवति सदा // 1 // " परिजनकथा यथा"चेटिकापरिवारोऽपि, तस्याः कान्तो विचक्षणः। भावज्ञः स्नेहवान् दक्षो, विनीतः सत्कुलस्तथा // 11 // ' किंबहुना? अन्या आप च एवामादिका उक्तप्रकाराः कथाः स्त्रीसम्बन्धिकथाः शृङ्गारकरुणाः शृङ्गारमृदवः शृङ्गाररसेन करुणाऽऽपादिका इत्यर्थः / तपःसेयमहब्रह्मचर्य घातोपघातिका अनुचरता ब्रह्मचर्य न कथतियव्या न श्रोतव्याः, अन्यतः न चिन्तयितव्या या यतिजनेन / द्वितीयभावनानि गमनायाऽऽह-एवं स्त्रीकथाविरतिसमितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मा आरतमनोविरतग्रामधर्मा जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति प्रकटमेव / प्रश्न० 4 सवं० द्वार / अहावरा तचा भावणा-णो णिग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाई सुमरित्तए सिया, केवली धूया-णिग्गंथेणं इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाई सरमाणे संति भेया० जाव भंसेज्जा, णो णिग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाइं सरित्तए सिय ति तथा भावणा। आचा०२ श्रु०३ चू०॥ ततियं नारीण इसियभणियं चेट्ठियविप्पे क्खिगतिविलास कीलियं विव्वोइयनट्टगीयवाइयसरीरसंठाणवणकरचरणनयण लावणरुवजोव्वणयोधराऽऽधरवत्थालंकार भूसखाणि य मुज्झोवकासियाई अण्णाणि य एवमाइयाइं तवसंजमबंभचेरघा ओवघाइयाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं न चक्खुसा न मनसा न वयसा पत्थेयव्वाइं पावकम्माई, एवं इत्थीरुवविरतिसमितिजो गेण भावितो भवति अंतरप्पा आरतमणविरयगामधम्मे जितिदिए बंभचेरगुत्ते / (7) (तइयं ति) तृतीयं भावनावस्तु स्त्रीरुपनिरीक्षणवर्जनम् / तचैवम्नारीणां-रवीणा हसितं भणित हास्यं सविकारं भणितं च, तथा चेष्ठितं हस्तन्यासाऽऽदि विप्रेक्षितं निरीक्षितं गतिर्गमनं विलासः पूर्वोक्तलक्षणः क्रीडितं घूताऽऽदिक्रीडा, एषां समाहार द्वन्द्वः, विव्योकितं पूर्वोक्तलक्षणो विवोकः, नाठां नृत्य, गीतं गानं, वादितं वीणावादनं, शरीरसंस्थान इस्वदीर्घाऽऽदिक, वर्णो गौरत्वाऽऽदिलक्षणः, करचरणनयनानां इस्वदीर्घाऽऽदिकं, वर्णो गौरत्वाऽऽदिलक्षणः, करचरणनयनानां लावण्य स्पृहणीयता, रुपच आकृतिः, यौवनं तारुण्य, पयोधरौ स्तनौ, अधरः अधस्तनौष्ठः, वस्त्राणि वसनानि, अलङ्कारा हाराऽऽदयः भूषणं च मण्डनाऽऽदिना विभूषाकरणमिति द्वन्द्वः। ततस्तानि च न प्रार्थयितव्यानीनिः सम्बन्धः / तथा गुह्याव काशिकानि भूता लज्जनीयत्वात् स्थगनीया अवकाशा देशाः अवयवा इत्यर्थः / अन्यानिच हासाऽऽदिव्यतिरिक्तानि, एवमादि कान्येवप्रकाराणि तपः संयमब्रह्मचर्यघातोपघातिकानि अनुचरताब्रहाचर्य नचक्षुषा नवचसा प्रार्थयितव्यानीति पापकानि पापहेतुत्वादिति / एवं स्त्रीरुपविरतिसमितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मेत्यादि निगमनवाक्य व्यक्तमेवेति। प्रश्न० 4 संव० द्वार। अहावरा चउत्था भावणा-णाऽतिमत्तपाणभोयणभोई, से णिग्गंथे न पणीयरभोयणभोई,से णिग्गंथे केवली बूया अतिमत्तपाणभोयणभोई से णिग्गथे पणीयरभोयणभोई संति भेदा० जाव भंसेज्जा, णातिमत्तपाणभोयणभोई से णिग्गंथे णो पणीयरसभोयणभोइ ति चउत्था भावणा / आचा०२ श्रु०३ चू०। चउत्थं पुव्वरयपुव्वकीलियपुव्वसंगंथगंथसंथुया जेते आवाहवीवाहचोल्लकेसु य तिहिसुजण्णेसु उस्सवेसुय सिंगारा गारचारुवेसाहिं हावभालपललियविक्खेवविलाससालिणीहिं अणुकूलपेम्मिकाहिं सद्धिं अणुभूया सयणसंपयोगा उउसुहवरकुसुमसुरभिचंदणसुगंधिवरवासधूवसुहफरिसवत्थ भूसणगुणोववेया रमणिज्जाउज्जगेयपउरनडनट्टयजल्ल मल्लमुट्ठियवेलंवगकहगपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंबबीणियतालायरपकरणाणिय बहूणि महुरसरगीयसुस्सराई अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमबंभचेरघाओवधातियाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं न ताइंसमणेणं लंमा दट्ठन Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेर 1265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेर कहेउं नाऽवि य सुमरिलं जे एवं पुव्वरयपुव्वकीलियविरतिसमिइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमणविरयणामधम्मे जितिंदिए बंभचेरगुत्ते / (8) (चउत्थं ति) चतुर्थ भावनावस्तु यत्कामोदयकारिवस्तुदर्श नभणनस्मरणवर्जनम् / तचैवम्-पूर्वरतं गृहस्थावस्थाभाविनी कामरतिः, पूर्वक्रीडितं गृहस्थावस्थाऽऽश्रयं द्यूताऽऽदिक्रीडम, तथा पूर्वेपूर्वकालभाविनः सग्रन्थाः श्वशुरकुलसंबन्ध सम्बद्धाः शालक-शालिकाऽऽदयः ग्रन्थाश्च शालकाऽऽदिसम्बन्धा स्तद्भार्यास्तत्पुत्राऽऽदयः संश्रुताश्च दर्शनभाषणाऽऽदिभिः परिचिता येते तथा, तत एतेषां द्वन्द्वः। तत एतेन श्रमणेन लभ्याः न द्रष्टुं न कथयितुं नाऽपि स्मुर्तमिति सम्बन्धः। तथा(जे ते त्ति) ये एते वक्ष्यमाणाः केष्वित्याह- (आवाहविवाहचोलएसु य त्ति) आवाहो-वध्वा वरगृहाऽऽ नयनम्, विवाहः पाणिग्रहणम् / चोलकेति-"विहिणा चूलाकम्मं बालाणं चोलयं नाम'' इति वचनाचौलक बालचूडाकर्म, शिखाधारणमित्यर्थः ततस्तेषु. चशब्दः पूर्ववाक्यापेक्षया समुच्चयार्थः, तिथिषु मदनत्रयोदशीप्रभृतिषु, यज्ञेषु नागाऽदिपूजादिषु, उत्सवेषु इन्द्रोत्सवाऽदिषु ये स्त्रीभिः सार्द्ध शयनसम्प्रयोगास्ते न लभ्या द्रष्टुमितियोगः। किंभूताभिः? शृङ्गाररसागारभूताभिः, शोभननेपथ्याभि श्चेत्यर्थः, स्त्रीभिरिति गम्यते। किंभूताभिविभावप्रललिता विक्षेपविलासशालिनीभिः / तत्रा हावाऽऽदिलक्षणम् - "हावो मुखविकारः स्यात्, भावः स्याच्चित्तसम्भवः / विलासो नेवजो ज्ञेयो, विभ्रमो भूयुगान्तयोः // 1 // " अथवा विलासलक्षणमिदम् - "स्थानाऽऽसनगमनाना, हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव। उत्पद्यले विशेषो, यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात्॥१॥" प्रललितं ललितमेव / तल्लक्षणं चेदम् - "हस्तपादाङ्ग विन्यासो, भूनेत्रो (त्रौ)ष्ठप्रयोजितः। सुकुमारो विधानेन, ललितं तत्प्रकीर्तितम्॥१।।'' विक्षेपलक्षणं त्विदम् -- "अप्रयत्नेन रचितो, धम्मिल्लश्लथबन्धनः। एकोशदेशधरणै-स्ताम्बूलवलाञ्छनः॥१॥ ललाटोकान्तलिखिता, विषमा पत्रालेखिकाम्। असमन्जसविन्यस्त-मञ्जन नयनाब्जयोः / / 2 / / तथाऽनादरबद्धत्वात्, ग्रन्थिर्जघनबाससः। वसुधालम्बितप्रान्तः, स्कन्धात् स्रस्तं तथांशुकम्।।३।। जघने हारविन्यासो, रसनायास्तथोरसि। इत्यवज्ञाकृतं यत्स्या -दज्ञानादिव मण्डनम् / / 4 / / वितनोति परां शोभां, स विक्षेप इति स्मृतः॥" एभिर्याः शालन्ते शोभन्ते तास्तथा ताभिः अनुकूलम प्रतिकूलं प्रेमप्रीतिर्यासा ता अनुकूलप्रेमिकास्ताभिः (सद्धिं ति) सार्द्ध सह अनुभूता वेदिता शयनानि च स्वापाः सम्प्रयोगाश्च सम्पर्काः शयनसम्प्रयोगाः, कथंभूताः?, क्रुतुसु खानि ऋतुशुभानि वा कालोचितानीत्यर्थः, यानि वरकुसुगानि च सुरभिचन्दनं च सुगन्धयो वरचूर्णरुपा वारसश्च धूपश्च शुभस्पर्शानि वा सुखस्पर्शानि वा वस्त्राणि च भूषणानि चेति द्वन्द्वः तेषां योगुणस्तैरापपेता युक्तास्ते तथा, तथा रमणीयाऽऽतोद्यगेयप्रचुरनटाऽऽदिप्रकरणानि च न लभ्यानि, द्रष्टुमितियोगः / तत्र नटा नाटकानां नाटयितार: नर्तका ये नृत्यन्ति जल्ला वस्त्राखेलका मल्लाः प्रतीताः, मौष्टिका मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति (बेलवग त्ति) विडम्बका विडूषका, कथकाः प्रतीताःप्लवका ये उप्सलवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति, खासका ये रासकान् गत्यन्ति, जयशब्दप्रयोत्कारो भाण्डावा इत्यर्थः / आख्यायका ये शुभाशुमख्यान्ति, ससा महावंशागखेलकाः, मखाश्चिाफलकहस्ताः भिक्षाकाः, 'तूणइल्ला' तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणिका वीणावादकाः, तालाचराः प्रेक्षाकारिविशेषाः एतेषां द्वन्द्वः, तत एषां यानि प्रकरणानि प्रक्रियास्तानि च तथा बहून्येनकविधान (महुरस्सरगीयसुस्सराई ति) मधुरस्वराणांकलध्वनीना गायकानां यानि गीतानि-गेयानि सुस्वराणि शोभनखड् जादिस्वरविशेषाणि तानितथा। किंबहुना? अन्यानि च उक्तव्यतिरिक्तानि, एवमादिकानि एवंप्रकाराणि तपःसंयमब्रह्मचर्यघातोघातिकानि अनुचरता ब्रह्मचर्य (न) नैव यानि तानि कामोत्कोचकारीणि श्रमणेन संयतेन ब्रह्मचारिणेति० भावः (लब्भ त्ति) लभ्यानि उचितानि द्रष्टुं प्रेक्षितुं न कथयितु नापि च स्मुर्त 'जे' इति निपातः, निगमयन्नाह-एवं पूर्वरत पूर्वक्रीडितविरतिसमितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मा आरतमनोविरतग्रामधर्मा जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति। प्रश्न०४ संव० द्वार। अहाचरा पंचमा भावणा-णो णिग्गंथे इत्थीपमुपंडगसंसचाई सयणासणाइं से वित्तइ सिया, के वली ब्याणिग्गंथे णं इत्थीपसुपंडसंसत्ताईसयणासणाई सेवेमाणे संति भेया० जाव भंसेजा णो णिग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्तए सिय त्ति पंचमा भावणा / 5 एतावया चउत्थे महव्वए सम्मं कारणं फासेइ० जाव आराहिते यावि भवति, चउत्थं भंते! महव्वयं / आचा०२ श्रु०३ चू०। पंचमगं आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जए संजए सुसाहू ववगयखीरदसहिसप्पिनवणीयतेल्लगुडखंडमच्छंडिय-महुमज्ज मंसखजविगइपरिचत्तकयाहारे न दप्पणं न बहुसो न नितिकं न सायसूपाहिकं न खलु तहा भोत्तव्वं-जहा से जाया मायाए भवइ, न य भवति विब्भमो न भंसणा य धम्मस्स, एवं पणीया हारविरतिसमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्पा आरयमण विरयगामधम्मे जिइंदिए बंभचेरगुत्ते / (6) पञ्चम भावनावस्तु प्रणीतभोजनवर्जनम् / एतदेवाऽऽह - आहारोऽशनादिः स एव प्रणीतोगलत्स्नेहविन्दुः, स च स्निरधभोजनं चेतिद्वन्द्वः / तस्य विवर्जको यस्स तथा, संयतः संयमवान् सुसाधुः निर्वाणसाधक योगसाधनपरः, व्यपगता अपगता क्षीरदधिसर्पिर्नवनीत - तैलगुड खण्डमत्स्यण्डिका यतः स तथा, मत्स्यण्डिका चेह खण्डशर्करा मधुसद्यमा सखाद्यकलक्षणाभिः विकृतिभिः परित्यक्तो यः स तथा, ततः पदद्वयरु कर्मधारयः, स एवंविधः, कृतो भुक्त आहारो येन स Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेर 1266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेरगुत्ति तथा। किमित्याह-(न) नैव दर्पणं दर्पकारकमाहार, भुञ्जीतेति शेषः। तथा न बहुशो दिनमध्ये न बहुकृत्व इत्यर्थः / (न नियगं ति) न नैत्यिक नप्रतिदिनमिति यावतानशाकसूपाधिक, शालनकदालप्रचुरमित्यर्थः / (नखद्ध) न प्रभूतं यत आह - 'जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुओ णोवसमं उवेति / एवें दियग्गी ति पकामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्स॥१॥" इति। किंबहुना तथा तेन प्रकारेण हितमिताऽऽहारित्वाऽऽदिना भोक्तव्यं, यथा (से) तस्य ब्रह्म चारिणो यात्रा संयमयात्रा सैव यात्रामात्रं तस्मै यात्रा मात्राय भवति / आह च - "जह अभंगण 1 लेवो 2, सगडक्खवणाण जत्तिओ होइ। इय संजमभरवहणट्ठयाएँ साहूण आहारो॥ 1 // " न च - नैव भवति विभ्रमो धातूपचयेन मोहोदयान्मनसो धर्म प्रति अस्थिरत्वं भ्रंशनं वा चलनं धर्माद् ब्रह्मर्यलक्षणात्। निगमनमाह-एवं प्रणीताऽऽहारविरतिसमितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मा आरतमनोविरतग्रामधर्मा जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्त इति। एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुप्पणिहियं इमेहिं पंचहि वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं णिचं आमरणंतं च एसो जोगो णेयव्वो धिइमया मतिमया अणासवो अकुलसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सुद्धो सव्वजिणमणुणाओ एवं च उत्थं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं (आराहियं) आणाए अणुपालियं भवति, एवं नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परुवियं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवियं सुदेसियं पसत्थं // 27 // (10) प्रश्न०४ संव० द्वार। न मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। (31+) मुण्डितेन श्रमणो निर्ग्रन्थो न स्यात्। ओंकारेण ॐभूर्भुवः स्वस्तीत्यादिना ब्राह्मणो न स्यात् / उत्त० 25 अ०। समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो // (32+)|| समतया समयत्वेन शत्रुमित्रायोरुपरिसमानभावेन श्रमणो भवति ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणो भवति, ब्रह्मपूर्वोक्तमहिंसासत्यचौर्या भावाऽमैथुननिलोभरुपंतस्य ब्रह्मणश्चरणमङ्गीकरण ब्रह्मचर्य तेन ब्राहा उच्यते / उत्त० 25 अ०। (श्रावकाणां ब्रह्मचर्य स्तदारसन्तोष एवेति परदारगमण' शब्दे 526 पृष्ठे व्याख्यातम्) अथ चतुर्थस्यातिचारानाहब्रह्मव्रतेऽतिचारस्तु, करकर्माऽऽदिको मतः! सम्यक् तदीयगुप्तीनां, तथा चाननुपालनम्।।५१ / / ब्रहावते-मैथुनव्रते अतिचारस्तुशब्दो विशेषणार्थः, करकर्माऽऽदिः, तथा च-परिणामवैचित्र्येण तदीयगुप्तीनां तस्य ब्रह्मव्रतस्येमास्तदीयास्ताश्च ता गुप्तयश्च स्वयादिसंसत्कवसतित्यागाऽऽदिरुपास्तासां सम्यक् भावशुद्धयाऽननुपालनम् अनाचरणं भवतीति संबन्धः / यतः-"मेहुणस्स अइआरो, करकम्माईउ होइ णायब्यो। तग्गुत्तीणं च तहा, अणुपालणमो ण सम्मं तु॥१॥' इत्युक्तास्तुर्यव्रता तिचाराः।ध०३ अधि०। ब्रह्मचर्यप्रशंसा-''शक्यं ब्रहाव्रतं घोरं, शूरैश्च न तु कातरैः। करिपर्याणमुद्राह्य, करिभिर्न तु रासभैः।।१।।' किंच-"देवदाणवगंधव्या, जक्खरक्खसकिंनरा / बंभयारि नमसंति, दुक्कर जंकरिति ते // 2 // " संथा० 13 गाथा टी०। ब्रह्मचर्यप्रतिपादकान्यध्ययनान्यपि ब्रह्मचर्याणि। आचाराङ्गस्य शस्त्रापरिज्ञाऽध्ययनाऽऽदिष्वध्ययनेषु, ब्रह्मचर्याणि नव बंभचेरा पण्णत्ता / तं जहा-सत्थपरिण्णा, लोगविजओ, सीओसणिज्जं, सम्मत्तं, आयंती,धुतं, विमोहायणं, उवहाणसुतं, महपरिण्णा।। / (662) तथा कुलानुष्ठानं ब्रहाचर्य तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि तानि चाऽऽचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिबद्धानीति / स०६ सम० / स्था० / सूत्रा०। तेसु चेव बंभचेर ति बेमि। तेष्वेव परमार्थतो ब्रह्मचर्य नान्येषु नवविधब्रह्मचर्य गुप्तयभावात्। यदि वा-ब्रह्मचर्याऽऽख्योऽयं श्रुतस्कन्ध एतद्वाच्यमपि ब्रह्मचर्य तदेतेष्वोवापरिग्रहवत्सु, इति रधिकारपरिस समाप्तौ, ब्रवीम्यहम्। आचा०२ श्रु०५ अ०२ उ01 बंभचेरअगुत्ति रखी०(ब्रह्मचर्याऽगुप्ति) ब्रह्मचर्याऽरक्षणे, स०। नव बंभचेरअगुत्तिआ पण्णत्ता / तं जहा-इत्थीपसुपंडगसंस त्ताणं सिज्जासणाणं सेवणया० जाव सायासुखपडिबद्धे यावि भवइ / स०६ सम० नव बंभचेरअगुत्तीओ पण्णत्ताओ / तं जहा-नो विवित्ताई सयणासणाइं से वित्ता भवइ, इत्थीसंसत्ताई पसुसंसत्ताई पंडगसंसताइं 1, इत्थीणं कहं कहेत्ता भवइ, 2, इत्थिट्ठाणाई सेवित्ता भवइ ३,इत्थीणं इंदियाईमणोरमाइं० जाव निज्झाइत्ता भवइ, पणीयरसभोई 5, पाणभोयणस्स अइमायमाहारए सया भवइ 6, पुव्वरयं पुव्वकीलियं सरित्ता भवइ 7, सद्दाणुवाई सिलोगाणुवाई ८,०जाव सायासुक्खपडिवद्धे या वि भवइ / / (663) स्था०६ ठा०1 बंभचेरगुत्ति स्त्री० (ब्रह्मचर्यगुप्ति) ब्रह्मचर्यस्य–मैथुनव्रतस्य गुप्तयो, रक्षाप्रकारा ब्रह्मचर्यगुप्तयः। पा० / मैथुनविरतिपरिरक्षणो पाये, स०८ सम० / स्था०1 ब्रह्मचर्यगुप्तयःनव बंभचेरगुत्तीओपण्णत्ताओ। तंजहा-विवित्ताईसयणा-सणाई सेवित्ता भवइ, नो इत्थीसंसत्ताई, नो पसुसंसत्ताइं, नोपंडगसंसत्ताई 1, नो इत्थीणं कहं कहेत्ता भवइ 2, नो इत्थिट्ठा-णाई सेवित्ता भवइ 3, नो इत्थीणं इंदियाईमणोहराईमणोरमाइं आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ 4, नो पणीयरसभोइ भवइ 5, नो पाणभोयणस्स अ Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेर 1267 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेरगुत्ति इमायमाहाराए सया भवइ 6, नो पुव्वरयं पुव्वकीलियं सरित्ता भवइ७, नो सद्दाण्णुवाई नो रुवाणुवाई नो सिलोगाणुवाई भवइ 8, नो सायासुक्खपडिबद्धे आवि भवइ / स्था०६ ठा०। स०। प्रव० / ध०। आ० चू०। आव०। सूत्रा०। (अनन्तरमेव 'बंभचेरसमाहिट्ठाण' शब्दे व्याख्यास्यामि) बंभचेरपराइय त्रि० (ब्रह्मचर्यपराजित) ब्रह्मचर्य वस्तिनिरोधस्तेन पराजितः। उपस्थसंयमपराभग्ने, सूत्रा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। बंभचेरपोसह पुं० (ब्रहाचर्यपौषध) चरणीयं चर्यम् / "अचो यत् / / 3 11 / 67 / / '' इत्यारयाधिकारात् 'गदमदचरयमश्चाऽनुप सर्गे / / 3 11 / 100 / / " इति यत्। ब्रहा कुशलाऽनुष्ठानं, तच्च चर्य चेति तत्पौषधः। आव० 6 अ०। पौषधभेदे, स च देशतो दिवैव रात्रावेव सकृदेव द्विरेव वा स्त्रीसेवा मुक्तवा ब्रह्मचर्यकरणम्। सर्वतस्तु अहोरात्र वा ब्रह्मचर्यकरणम्। ध०२ अधि०। बंभचेराभट्ठ पु० (ब्रह्मचर्यभ्रष्ट) अगपतब्रह्मर्य, ब्रह्मचर्यशब्दो मैथुनविरति- / वाचकः / तत्रौघतः संयमवाचकश्च। आव०३ अ०। बंभचेररय पुं० (ब्रह्मचर्यरत) ब्रह्मचर्याऽऽसक्ते, "बंभचेररएसया।" उत्त / 16 अ०। बंभचेरवसाऽऽणयण न० (ब्रह्मचर्यवशाऽऽनयन) ब्रह्मचर्य मैथुनविरतिरुप वशमानयत्यात्माऽऽयत्तं करोति दर्शनाऽऽक्षेपाऽऽदिनेति ब्रह्मचर्यवशाऽनयनम्। ब्रह्मचर्यभ्रंशके, दश०। न चरे (ज) वेससामंते,बंभचेरवसाणए। बंभयारिस्स दंतस्स, हुजा तत्थ विसोत्तिआ II || न चरेद्वेश्यासामन्ते न गच्छेद्रणिकागृहसमीपे / किंविशिष्ट ? इत्याहब्रह्मचर्यवशाऽऽनये -- ब्रह्मचर्य मैथुनविरतिरुपं वशमान यत्यात्माऽऽयत्त करोति दर्शनाऽऽक्षेपऽऽदिनेति ब्रह्मचर्यवशाऽऽ नयनं तस्मिन् / दोषमाह - ब्रह्मचारिणः साधोर्दान्तस्य इन्द्रियनो इन्द्रियदमाभ्यां भवेत्। अत्रा वेश्यासामन्ते विस्त्रोतसिका तद्पसंदर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमशस्यशोषफला चित्तविक्रियेति सूत्रार्थः / दश०५ अ०१उ०। बंभचेरवास पुं० (ब्रह्मचर्यवास) ब्रह्मचर्ये मैथुनविरमणे तेन वा वासो ब्रह्मचर्यवासः / स्था० 5 ठा० 1 उ०। ब्रह्मचर्येणब्रह्म विरमणेन वासोरात्रौ स्वापः तत्रौव वा वासो निवासो ब्रहाचर्य वासः / ब्रहाचर्येणवस्थाने, स्था० 2 ठा०१ उ०। बंभचेरबिम्ब पुं० (ब्रह्मचर्यविघ्न) मैथुनविरमणव्याघाते, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। बंभचेरसाहिट्ठाण न० (ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान) ब्रह्मचर्यस्थैर्यस्य हेतो, उत्त०१६ अ०। दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि। संप्रति-सूत्रानुगमे सूत्र-मुचारणीयम्।। तचेदम् - सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिट्ठाणा पन्नता / जेभिक्खू सोचा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिं दिए गुंत्तबभयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा / / 1 / / श्रुतं मयाऽऽयुष्मन् ! तेन भगवतैवमाख्यातं-कथितम्। कथमित्याह-- सोपस्कारत्वात् सूत्रास्य यथेति गम्यते, ततो यथेह क्षेत्रे प्रवचने वा 'खलु' निश्चयेन स्थविरैः गणधरैर्भगवद्भिः परमैश्वर्याऽऽदियुक्तैर्दश ब्रह्मचर्य समाधि स्थानानि प्रज्ञप्तानि-प्ररुपितानि। कोऽभिप्रायः-नैषा स्वमनीषिका, कि तु भगवताऽप्येवमाख्यातं मया श्रुतं ततोऽत्रा मा अनास्था कृथाः, तान्येव विशिनष्टि-ये इति यानि ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि भिक्षुः श्रुत्वाऽऽकर्ण्य शब्दतो निशम्यावधार्याऽर्थतः (संजमबहुले त्ति) संयममाश्रवविरमणाऽऽदिकं वह्निति बहुसख्यं यथा भवत्येवं लाति गृह्णाति। कोऽभिप्रायः?विशुद्धविशुद्धतरं पुनः पुनः संयमंकरोतीति संयमबहुलो, मयूरव्यसकाऽऽदित्वात्समासः / यदि वा-बहुलः प्रभूतः संयमोऽस्येति बहुलसंयमः / सूत्रो पूर्वापरनिपातस्यातन्त्रत्वाद अतएव संवर आश्रवद्वारनिरोधः तद्बहुलः बहुल संवरोवा, तत एव समाधिश्चित्तस्वास्थ्यं तद्बहुलो बहुल समाधिर्वा, गुप्तो मनोवाक्कायगुप्तिभिः, गुप्तत्वादेव गुप्तानि विषयप्रवृत्तितो रक्षितानि इन्द्रियाणि श्रोत्राऽऽदीनि येन से तथा, तत एव गुप्तं नवगुप्तिसेवनात् ब्रह्मेति ब्रह्मचर्य चरितुम आसेवितुं शीलमस्येति गुप्तब्रह्मचारी सदासर्वकालम् अप्रमत्तः प्रमादविरहितो विहरेत् अप्रतिबद्धविहारितया चरेद्, एतेन संयमबहुलात्वाऽऽदिदशब्रह्मचर्यसमाधिस्थानफलमुक्तमेतद विनाभावित्वात्तस्येति सूत्रार्थः / कयरे खलु थेरेहिं भगवंते हिं दस बंभचेरसमाहिट्ठाणा पण्णत्ता? इमे खलु ते 0 जाव विहरिज्जा / तं जहा-विवित्ताई सयणाऽऽसणाई सेविज्जा से निग्गंथे णो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणाऽऽसणाई से वित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहं इति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथस्स खलु इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संकावा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजेजा, भेयं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हविज्जा, केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ वा भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणसणाई सेवित्ता हवइ से णिग्गंथे / / 2 / / कतराणीत्यादि प्रश्नसूत्रामिमानीत्यादि निर्वचनसूत्रां च प्राग्वत् / तान्येवाऽऽह-(तजहत्यादि) तद्यथेत्युपन्यासे, विविक्तानि स्त्री-पशुपण्डकाऽऽकीर्णत्वविरहितानि शय्यते येषु तानि शयनानि च फलसंस्तारकाऽऽदीनि आस्यते येषु तान्यास नानि च पादपीठपुज्छनाऽऽदीनि शयनाऽऽसनानि, उपलक्षणात्त्वात्स्थानानिच सेवेतमजेत्यः स निर्गन्थः Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेरसमाहिट्ठाण 1268 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेरसमाहिट्ठाण द्रव्यभावग्रन्थानिष्क्रान्तो भवतीति शेषः / इत्थमन्वये नाऽभिधा __ स्त्रीकथा / तत्र-जातिः ब्राह्यण्याऽऽदिः / कुलम्-उग्राऽऽदि, रुपम्याव्युत्पन्नविनेयाऽनुग्रहायाऽमुमेत्यर्थ व्यतिरेकेण्णाऽऽह-(नो) नैव महाराष्टिकाऽऽदि संस्थानम्-नेपथ्यम् तत्तद्देशप्रसिद्धम, तां कथयिता स्त्रियश्च दिव्या मानुष्यो वा पशवश्च अर्जेंडकाऽऽदयः पण्डकाच- भवति। (से निग्गथे त्ति) य एवंविधः स निर्ग्रन्थः। शेष प्रश्नप्रति वचना:नपुंसकानि स्त्रीपशुपण्डकास्तैः संसत्कानि-आकीर्णानि स्त्रीपशुपण्डक- भिधायि प्राग्वदिति सूत्रार्थः / संसत्कानि शयनाऽऽसनान्यु त्करुपाणि सेविता उपभोक्ता भवति तृतीयमाहतदित्यनन्तरोक्त, कथं केनोपपत्तिप्रकारेण?, इति चेदेवं यदि मन्यसे, नो निग्गंथे इत्थीहिं सद्धिं संनिसेजागए विहरित्ता हवइ से अत्रोच्यते-निर्गथन्यस्य खलु निश्चितं स्त्रीपशुपण्डसंसत्कानि शयनाऽऽ निगथे। तं कहामिति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथस्सखलु इत्थीहिं सनानि सेवमानस्योपभुजानस्य (बंभयारिस्स त्ति) अपिशब्दस्य सद्धिं संनिसेज्जागयस्स विहरमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका गम्यमानत्वात् ब्रह्मचारिणोऽपि सतो ब्रह्मचर्ये शङ्का वा किमेताः सेवे उत वा कंखा वा जाव भंसेज्जा तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीहिं सद्धिं नेत्येवंरुपा। यदि वा-इहान्येषामिति गम्यते, ततः शङ्का वाऽन्येषामेव संनिसेञ्जागए विहरइ॥३॥ यथा किमसावेवविधशयना ऽऽसनसेवी ब्रह्मचार्युत नेति काङ्खा वाख्याद्य- नो स्वीभिः सार्द्ध सह सम्यक् निषीदन्त्युपविशन्त्यास्या मिति सन्निभिलाषरुपा विचिकित्सा वा धर्म प्रति चित्तविप्लुतिः समुत्पद्यते जायते। षद्याः पीठाऽऽद्यासनं तस्यां गतः स्थितः सन्निषद्यागतः सन् विहर्ताऽअथवा-शङ्का स्त्रयादिभिरत्यन्ता पहृतचित्ततया विस्मृतसकलाऽऽप्तोप- वस्थाता भवति। कोऽर्थः?स्त्रीभिः सहकाऽऽसने नोपविशेदुत्थितास्वपि देशस्य-"सत्यं वच्मिहितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः / अस्मिन्नसारे हितासु मुहुर्त तत्रानोपवेष्टव्यमिति संप्रदायो, य एवंविधः स निर्ग्रन्थो, न संसारे, सारं सारङ्गलोचना।।१।।" इत्यादि कुविकल्पाम विकल्पयतो त्वन्य इत्यभिप्रायः, शेष प्रश्नप्रतिवचनाभिधायी पूर्ववदिति सूत्रार्थः / मिथ्यात्वोदयतः कदाचिदेतत्परिहार एव न तीर्थकृद्विरुक्तो भविष्यति, चतुर्थमाहएतदासेवने वा यो दोष उक्तः सदोष एवन भवतीत्येवरुपः संशय उत्पद्यते णो णिग्गंथे इत्थीणं इंदियाइं मणोहराईमणोरमाई आलोइत्ता कासावा तत एव हेतोः-''प्रियादर्शनामेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरः?। निज्झाएत्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहं इति चेदायरियाऽऽह-- प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणाऽपि चेतसा।।१।।' इत्याभिधायकान्या- निग्गंथस्स खलु इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाई न्यनीलपटाऽऽदिदर्शनाऽऽग्रहरुपा, विचिकित्सा वा धर्म प्रति किम् मणुण्णाइं० जाव निज्झाएमाणस्स बंभचारिस्स बंभचेरे, जाव एतावतः कष्टाऽनुष्ठास्य फलं भविष्यति, नवा? तवरमेतदासेवनमेवाऽ- भंसेजा तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीणं इंदियाई निज्झाएज्जा॥४॥ स्त्वित्येवंरुपा, भेदं वा विनाश, चारित्रस्येति गम्यते, लभेत प्राप्भुयात्, नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि नयननासिकाऽऽदीनि मनश्चितं हरन्ति दृष्टउन्माद वा कामग्रहाऽऽत्मकं प्राप्नुयात् स्त्रीविषयाऽभिलावातिरेकत मात्रााण्याक्षिपन्तीति मनोहराणि, तथा मनो रमयन्ति इति दर्शनान्तरस्तथाविधाचित्तविस्पवसंभवात्, दीर्घकालिकं वा प्रभूतकालभा मनुचिन्त्यमानान्याहादयन्तीति मनोरमाणि, आलोकिता समन्ताद् द्रष्टा विरोगश्च दाहज्वराऽऽदिरातङ्कश्च आशुघाती शूलाऽऽदिरोगाऽऽतकं भवेत् निर्याता दर्शनान्तरे मतिशयेन चिन्तयिता यथा अहो सलवणत्वं स्यात्, संभवति हि स्त्रयाधभिलाषा ऽतिरेकतोऽरोचकत्वं ततश्च लोचनयोः ऋजुत्वं नासावंश स्येत्यादि / यद्वा-आड् ईषदर्थ, तत ज्वराऽऽदीनि, केवलिप्रज्ञप्तात् धात् श्रुतचारित्ररुपात समस्ताद् आलोकिता ईषद् द्रष्टा निर्याता प्रबन्धन निरीक्षिता भवति यः स भ्रश्येदधः प्रतिपतेत्, कस्यचिदतिल्किष्टकर्मोदयात् सर्वथा धर्मपरित्याग निर्ग्रन्थोऽन्यत्प्रतीत मेवेति सूत्रार्थः। संभवाद्यत एवं तस्मादित्यादि निगमनवाक्यं प्रकटार्थमेवेति सूत्राऽर्थः पञ्चममाह॥२।उक्तं प्रथमं समाधिस्थानम्। नो निग्गंथे इत्थीणं कुडूडंतरंसि वा दूसंतरंसिवा भित्तियंतरंसि द्वितीयमाह वाकूइयसई वा रुइयसई वा गीयसदं वा हसियसई वा थणियसद्धं नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति चेदाय वा कंदियसई वा विलवियसह वा सुणित्ता हवइ से णिग्गंथे, तं रियाऽऽह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कहं कहे माणस्स कहं इति चेदायरियऽऽह-इत्थीणं कुड्डंतरंसि वा दूसंतरंसि बंभयारियस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिमिछा वा समुप्प वा भित्तियंतरंसि वा जाव विलक्यिसद वा सुणमाणस्स बंभयाजिज्जा, भेयं वा लभिज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा० जाव धम्माओ भंसेज्जा तम्हा रोगायकं हविजा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु णिग्गंथे णो इत्थीणं कुड्डंतरंसि वा० जाव सुणेमाणे खलु नो निग्गंथे इत्थीणं कहं कहिज्जा / / 2 / / विहरेजा।। 5 // नो रखीणाम् एकाकिनीनामिति गम्यते / कथाः-वाक्यप्रबन्ध रुपाः। / नो स्त्रीणां कु ड्यं खटिकाऽऽदिरचितं तेनान्तरं व्यवधान यदि वा-रत्रीणां कथा-''कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा, लाटी विदग्ध- कुढ्यान्तरं तस्मिन वा, दूष्य वस्त्रं तदन्तरे वा, यवनिकान्तर प्रिया।'' इत्यादिका / अथवा-जाति-कुलरुपनेपथ्यभेदाचतुर्द्धा | इत्यर्थः / भित्तिः पकेटकाऽऽदिरचिता तदन्तरे वा शब्दः सर्वत्र Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेरसमाहिट्ठाण 1266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेरसमाहिट्ठाण विकल्पाभिधावी, स्थित्वेति शेषः / कूजितशब्दंवा विविधविहग भाषयाः अव्यक्तशब्द सुरतसमयभाविनं रुदितशब्द वा रतिकल हाऽऽदिक भानिनीकृतं गीतशब्द वा पञ्चमाऽऽदिहुकृतिरुपं हसितशब्दं वा कहकहाऽऽदिक स्तनितशब्दं वा रति समय कृतम, क्रन्दितशब्दं वा प्रोषितभर्तृकाऽऽदिकृताऽऽक्रन्दरुपं विलपितशब्द वा प्रलापरुपं श्रोता यो न भवति स निर्ग्रन्थः / शेष स्पष्टम्। इति सूत्रार्थः / षष्ठमाहनो निग्गंथे पुव्वरयं पुव्वकीलितं अणुसरित्ता भवइ तं कहं? इति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथयस्स खलु इत्थीणं पुव्वरयं पुव्य कीलियं अनुसरमाणस्स बंभचारिस्स बंभचेरे संका वा० जाव भंसेज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरेञ्जा॥६॥ नो निर्गन्थः पूर्वस्मिन् गृहावस्थालक्षणे काले रतं स्त्रयादिभिः सह विषयानुभवनं पूर्वरत पूर्वक्रीडितं वा स्त्रयादिभिरेव पूर्वकालभावि दुरोदराऽऽदिरमणाऽऽत्मकं, वाशब्दस्य गम्यमानत्वात, अनुस्मर्ता अनुचिन्तयिता भवति। शेषं माग्वदिति सूत्रार्थः / सप्तममाह - नो निग्गंथे पणीयं आहारमाहारित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथस्स पणीयं पाणभोयः णं आहारेमाणस्स बंभचारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा जाव भंसेज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे पणीयं आहारमाहारेजा / / 7 / / (नो) नैव प्रणीत-गलद्विन्दु, उपलक्षणत्वादन्यमप्यत्यन्त धातूद्रेककारिणमाहारमशनाऽऽदिमाहारयिता-भोक्ता भवति यः स निर्गन्थः, शेष व्याख्यातमेव, नवरं प्रणीत पानभोजनम् इति पानभोजनयोरेवोपादानम, एतयोरेव मुख्यतया यतिभिराहार्य माणत्वादन्यथा खाद्यस्वाद्ये अप्येवंविधे वर्जनीये, एवेति सूत्रार्थः। अष्टममाहनो निग्गंथे अइमायाए पाणभोयणं आहरित्ता हवइ से निग्गंथे, तं कहमिति चेदायरियाऽऽह-अइमायाए पाणभोयणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिज्जा, भेयं वा लभिज्जा, उम्माय वा पाउणिजा, दीहकालियं वा रोगायंकं हविजा, केवलिपन्नताओवाधम्माओ भंसिञ्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथ०जाव अइमायमाहा रेज्जा / / 8 || (नो) नैव अतिमात्रया मात्रातिक्रमेण तत्र मात्र–परिमाणं, सा च पुरुषस्य-द्वात्रिीशकवलाः स्त्रियाः पुनरष्टाविंशतिः। उक्तं हि- "वत्तीसं किर कवला, आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महिलियाए, अट्ठावीसं भवे कवला।। १॥"अतिक्रमस्तु तदाधिक्यसेवन, पानभोजन प्रतीतमेव, आहारयिता भोक्ता भवति यः स निग्रन्थ,शेष तथैवेति सूत्रार्थः नवममाहनो विभूसाणुवाई हवइ से निगंथे, तं कहं? इति चेदायरियाऽऽह-विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थीजणस्स पत्थणिज्जे भवइ, तओ णं तस्स इथिजणेणं अमिलसिज्ज माणस्स बंभचारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा० जाव भंसेज्जा, तम्हा खलु नो निग्गंथे विभूसागुवाई सिया / / 6 / / (नो) नैव विभूषणं विभूषा शरीरोपकरणाऽऽदिषु स्नानधावनाऽऽदिभिः संस्कारस्तदनुपाती, कोऽर्थः?ततकर्ता भवति यः स निर्ग्रन्थः, ततः कथमिति चैत्? उच्यते-(विभूसावत्तिए त्ति) विभूषां वर्तयितुम्-विधातुं शीलमस्येति विभूषावर्ती , तच्छीलिका णिन्, स एव विभूषावर्तिकः, स किमित्याह-विभूषितमलंकृतं स्नानाऽऽदिना संस्कृतमिति यावत्, शरीरंदेहो यस्य स विभूषित-शरीरः। तथा च "उज्जवलवेष पुरुषं दृष्टवा स्त्री कामयते'' इति वचनात् युवतिज नप्रार्थनीयो भवति / आह च सूत्राकार:-''इत्थिजणस्स अहिलसणिज्जे हवइ त्ति। ततः को दोषः?, इत्याह-ततः स्वीजनाभिलषणीयत्वतः णमिति प्राग्वत्, तस्य निर्गन्थस्य स्त्रीजनेन युवतिजनेनाभिलष्यमाणस्यप्रार्थ्यमानस्य ब्रह्मचारिणोऽपि ब्रहाचर्य शङ्कावा, यथा किमेतास्तावदित्थं प्रार्थयमाना उपभुजे? आयतौ तुयदावि तद्भवतु, उतश्वित् कष्टाः शाल्मलीश्लेषाऽऽदयो नरक एतद्विपाका इति परिहरामीत्येवंरुपः संशयः, शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः / दशममाहनो सद्दाणुवाई रुवाणुवाई रसाणुवाई गंधाणुवाई फासाणुवाई भवेजा स णिग्गंथे, तं कहं? इति चेदायरियाऽऽह-निग्गंथस्स खलु सदरुवसगंधफासाणुवाइयस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिज्जा, भेयं या लमिज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हविज्जा, के वलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा, तम्हा खलु नो निग्गथे सहरुवरसगंधफासाणुवाई भवेजा, से निग्गंथे दसमे बंभचेरसमाहिट्ठाणे भवति / भवंति य इत्थ सिलोगा। (नो) नैव, शब्दो मन्मनभाषिताऽऽदि, रुपंकटाक्षनिरीक्षणाऽऽदि चित्राऽऽदिगतं वा स्त्रयादिसबन्धि, रसोमधुरादिरभि बृंहणीयो, गन्धः सुरभिः, स्पर्शः स्पर्शनानुकूलः कोमलमृणालाऽऽदेरेतानभिष्वङ्ग हेतुन् अनुपतति अनुपातीत्येवंशीलः शब्दरुपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवति यः स निर्गन्थः / तत्कथमिति चेदित्यादि सुगम, दशमं ब्रह्मचर्य समाधिस्थानं भवतीति निगमनम्। इह च प्रत्येक स्त्रयादिसंसत्कशयनाऽऽदेः शङ्काऽऽदिदोषदर्शन तदत्यन्त दुष्टतादर्शकं प्रत्येकमपायहेतुतां प्रति तुल्यबलत्वख्यापकं चेति सूत्रार्थः / (भवंति य इत्थ सिलोगत्ति) भवन्ति-विद्यन्ते अोति उक्त एवार्थे , किमुक्तं भवति? उत्कार्थाभिधायिनः श्लोकाः पद्यरुपाः। तं जहाजं विवित्तमणाइण्णं, रहियं थीजणेण य। Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेरसमाहिट्ठाण 1270- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभचेरसमाहिट्ठाण बंभचेरस्स रक्खट्ठा, आलयं तु निसेवए।॥१॥ मणपल्हायजणणिं, कामरागविवद्धणिं / बंभचेररओ भिक्खू, थीकहं तु विवज्जए।।२।। समं च संथवं थीहिं, संकहं च अभिक्खणं। बंभचेररओ भिक्खू, निचसो परिवज्जए / / 3 / / अंगपञ्चंगसंठाणं, चारुल्लवियपोहियं / बंभचेररओ थीणं, सो अगिज्झं विवज्जए / / 4 / / कुइयं रुइयं गीयं, हसियं थणिय कंदियं / बंभचेररओ थीणं, सो अगेज्झं विवज्जए।। 5 / / हा किडं रइंदप्पं, सहसाऽवत्तासियाणि य। बंभचेररओ थीणं,णाणुचिंते कयाइ वि॥६॥ पणीयं भत्त पाणं च, खिप्पं मयविवडणं / बंभचेररओ भिक्खू, निचसो परिवजए।।७।। धम्मलद्धं मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं। णाइमत्तं तु भुजिज्जा, बंभचेररओ सया।। 8 / / विभूसं परिवजिज्जा, सरीरपरिमंडणं। बंभचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए // 6 // सद्दे रुवे य गंधे य, रसे फासे तहेव य / पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवजए।। 10 // तद्यथेत्युपदर्शने, यो विविक्तो रहस्यभूतस्तत्रीव वास्तव्यस्त्रयाद्यभावादनाकीर्ण:-असकुलस्तत्त त्प्रयोजना ऽऽगतस्त्रयनाकुलत्वाद्रहितः परित्यकोऽकालचारिणा बन्दनश्रवणाऽऽदिनिमित्ताऽऽगतेन स्वीजनेन, चशब्दात्पण्डकैः षण्डाऽऽदिपुरुषश्च, प्रक्रमापेक्षया चैव व्याख्या, अन्यत्रापि चैवं प्रक्रमाऽऽद्यपेक्षत्वं भावनीयम् / उक्तं हि"अर्थात प्रकरणाल्लिङ्गा दौचित्याद देशकालतः / शब्दार्थाः प्रविभज्यन्ते, न शब्दादेव केवलात् // 1 // " ब्रह्मचर्य स्योक्त रुपस्य रक्षार्थ पालननिमित्तमालवः आश्रयः, सर्वत्रलिङ्गव्यत्ययः प्राग्वत्, यत्तदोर्नित्यं संबन्धात् तं, तुः पुरणे, निषेवते-भजते॥१॥ मनश्चित तस्य प्रहादः-अहो / अभिरुपा एता इत्यादिविकल्पज आनन्दस्त जनयतीति मनः प्रहादजननी, तामत एव काभरंगो विषयाऽभिष्वङ्गस्तस्य विवर्द्धनी विशेषेण वृद्धिहेतुः कामरागविवदर्द्धनी, तो शेष स्पष्टम, नवरं स्त्रीकथाम् - "तद्वकां यदि मुद्रिता शशिकथा।" इत्यादिरुपाम् // 2 // समं च सह संस्तवं परिचयं स्वीभिः निषद्याप्रक्रमादेकाऽऽसनभोगेनेति गम्यते, संकथां च ताभिरेव समं सन्ततभाषणाऽऽत्मिकाम'भीक्ष्ण-पुनः पुनः (णिचसोत्ति) नित्यम्, अन्यत् स्पष्टम्॥३॥ अङ्गानिशिरःप्रभृतीनि, प्रत्यङ्गानिकुचवकाादीनि. संस्थान कटीनिविष्टकराऽऽदि सन्निवेशाऽऽत्मकम् अमीषां समाहारनिर्देशः, अङ्गप्रत्यङ्गयो संस्थानम्-आकाराविशेषोऽङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानं, चारुशोभनमुल्लपित च - मन्मनभाषिताऽऽदि तत् सहगतमुखाऽऽदिविका रोपलक्षणमेतत्. प्रेक्षितं च अर्द्धकटाक्षवीक्षिताऽऽदि, उल्लपितप्रेक्षितं ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां संबन्धि चक्षुषा गृह्यत् इति चक्षुर्गाह्य सद्विवर्जयेत् / किमुक्तं भवति?चक्षुषि हि सति रुपग्रहणमवश्यं भावि, परं तद्दर्शनऽपि तत्परिहार एव / कर्तव्यो न तु रागवशगेन पुनः पुनस्तद्देव वीक्षणीयमिति / उक्तं हि - "असक्का रुवमहट्ट, चक्खुगोयरमागयं / रागदोसे उजे तत्थ, ते बुहो परिवजए // 1 // // 4 // 'कुइयं' सूत्रां प्रायो व्याख्यातमेव, नवरं कुब्यान्तराऽऽदिष्विति शेषः / / 5 / / हाससूामपि तथैव, नवरं रति दयितासङ्ग जनितां प्रीति, दर्प मनस्विनीमानदलनोत्थं गर्व सहसाऽकासितानि च पराड्मुखदयिताऽऽदेः सष्ठदित्रासोत्पादकान्यक्षिस्थगनमर्मघट्टनाऽऽदीनि। पठ्येत च "हस्सं दप्पं रतिं किड्डु, सह भुत्ताऽऽसियाणि य / ' अा च (सहेति) खीभिः सार्द्ध मुक्तानि च भोजनानि आसितानि च स्थितानि भुक्ताऽऽसितानि, शेषं स्पष्ट, नवरं सर्वत्र पूर्वकृतत्वं प्रक्रमादपेक्षणीयम् // 6 // "पणीयं'' सूत्रां निगदसिद्धमेव, नवरं मदः-कामोद्रेक इह कथ्यते, तस्य विवर्द्धनमतिबृहकतया विशेषतो वृद्धिहेतु परिवर्जयेत्।। ७॥धर्मादनपेतं धर्म्यमेषणीयमित्यर्थः, लब्धंप्राप्तं गृहस्थेभ्य इति गम्यते, न तु स्वयमेवोपरस्कृतम् / पठ्यते च - "धम्मलद्धं ति" धर्मेण हेतुनोपलक्षणत्वात् धर्मलाभेन वा न तु कुण्डलाऽऽदिकरणेन लब्धं धर्मलब्धम्। पठ्यते च -(धम्मलद्धति) धर्मउत्तमः क्षमा ऽऽदिरुपः / यथाऽऽह वाचकः-''उत्तमः क्षमामाईवाऽऽर्जवसत्य शौचसंयमतपस्त्यागाऽकिञ्चन्यब ह्यचर्याणि धर्मः / (तत्वार्थे 6 अ०६ सू०) इति। तं लब्धं-प्राप्तुं कथं ममायं निरतिचारः स्यादिति। मितम्-''अद्धमसणस्स'इत्यादि आगमोक्तमना न्वितमाहारमिति गम्यते / काले प्रस्तावे यात्राऽर्थ संयमनिर्वाहणार्थ, न तु रुपाऽऽद्यर्थ प्रणिधानवांश्चित्तस्वास्थ्योपेतो न तुरागद्वेषवशगो भुञ्जीत, नेति निषेधे मात्रामतिक्रान्तोऽतिमात्रः, अतिरिक्त इत्यर्थः, तम्।यदि वा-''ईषदर्थे क्रियायोगे, मार्गदायां, परिच्छेदे।" इत्यादिना मात्राशब्दस्य मर्यादार्थस्यापि दर्शनादतिमात्रामतिक्रान्तमर्याद, तशब्दस्यैवकारार्थत्याद्व्यवहित संबन्धत्वाच नैव भुजीताभ्यवहरेत्ब्रह्मचर्ये रत आसक्तो ब्रह्मचर्यरतः सदा सर्वकालं कदाचित्कारणतोऽति मात्रस्याप्याहारस्य अदुष्टत्वात्। // 8 // विभूषामुपकरणगता मुत्कृष्टवस्त्राऽद्यात्मिकां परिवर्जयेत्परिहरेच्छरीरपरिमण्डनं केशश्मश्रुसमारचनाऽदि ब्रह्मर्यरतो भिक्षुः शृङ्गारार्थविलासार्थ न धारयेन्न स्थापयेन्न कुर्यादिति यावत् 16 || (सद्दे ति) स्पष्टमेव नवरं काम इच्छामदनरुपस्तस्य द्विविधस्यापि गुणाः साधनाभूता उपकारका इति यावत्। उक्तं हि- "गुणः साधन मुपकारकम्।" कामगुणास्तानेवंविधान शब्दाऽदीन् इति सूत्रादशकार्थः / / 10 / / संप्रति यत्रा प्राक् प्रत्येकमुक्तं शङ्का वा स्यादित्यादि तद् दृष्टान्ततः स्पष्टयितुमाहआलवो थीजणाइण्णो थीकहा य मणोरमा। संथवो चेव नारीणं, तासिं इंदियदरिसणं // 11 // कुइयं रुइयं गीयं, हसियं भुत्तासियाणि य / पणीयं भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोयणं / / 12 / / गत्तभूसणमिटुं च, कामभोगा य दुज्जया। नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउड जहा॥ 13 // सूत्राायमपि प्रतीतं, नवरं संस्तवः-परिचयः, स चेहाप्ये का ऽऽसनभोगे ने ति प्रक्रमः / / 1 / / कूजिताऽऽदीनि हसितप Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभचेरसमाहिट्ठाण 1271 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त यन्तानि कुड्यान्तराऽऽद्यवस्थितिनिषेधोपलक्षणानि, भुक्ताऽऽ सितानि च, स्मृतोनीति शेषः / तत्रा भुक्तानि भोगरूपाणि आसितानि स्वयादिभिरेव सहावस्थितानि, हास्याऽऽद्युपलक्षणं चैतत्॥१२॥ गात्राभूषणमिष्ट चेति, चशब्दोऽपिशब्दार्थः तत इष्टमप्यास्ता विहितं, तथा काम्यन्त इति कामाः, भुज्यन्त इति भोगाः, विशेषणसमासः ते चेष्टाः शब्दाऽऽदयः, नरस्योपल क्षणत्वात् स्त्रयादेश्च आत्मगवेषिणः विषं गरलस्तालपुटं सद्योघाति यौष्ठपुटान्तर्वर्तिनि तालमात्रकालविलम्बतो मृत्युरुपजायते यभेन्यौपम्ये ततोऽयमर्थः-यथैतद्विपाकदारुण तथा स्त्रीजनाऽऽकीर्णाऽऽलयाऽऽद्यपि शङ्काऽऽदिकरणत संयमाऽऽत्मभावजीवितस्येतरस्य च नाशहेतुत्वादिति सूत्रात्रयार्थः / / 13 // सम्प्रति निगमयितुमाह - दुजए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए। संकाठाणाणि सव्वाणि, वज्जिज्जा पणिहाणवं / / 14 / / धम्माऽऽरामे चरे भिक्खू, धिइमं धम्मसारही। धम्माऽऽरामरए दंते, बंभचेरसमाहिए / / 15 / / दुःखेन जीयन्त इति दुर्जयास्तान कामभोगान् उक्तरूपान् (निचसो त्ति) नित्यं परिवर्जयेत् सर्वप्रकारं त्यज्येत् शङ्का स्थानानि चानन्तरोक्तानि, पूर्वत्र चस्य भिन्नक्रमत्वात्सर्वाणि दशापि वर्जयेदन्यथाऽऽज्ञाऽनवस्थामिथ्यात्वविराधनादोष संभवः, प्रणिधानवान् एकामनाः। एतदर्जकश्च कि कुर्यादित्याह -- धर्म आराम इव पापसन्तापोपतप्तानां जन्तूना निर्वृत्तिहेतुतया अभिलषितफलप्रदानतश्व धर्माऽऽरामस्त स्मिंश्चरेद् गच्छेत्प्रवर्त्ततेति यावत्। यता-धर्मे आ समन्ताद्रमत इति धाऽऽरामः, संचरेत्संयमाध्वनि यायात भिक्षुः प्राग्वत्धृतिमान् धृतिःचित्तस्वास्थ्यं तद्वान्। स चैवं धर्मसारथिरिति। "ठिओ उठावए परं।' इति वचनादन्येषामपिधर्मे प्रवर्त्तयिता ततः अन्यानपि धर्मे व्यवस्थितानुपलभ्य विशेषता धर्माऽऽरामरतः-आसक्तिमान् धर्माऽऽरामरत- स्तथा च-दान्त उपशान्तो ब्रह्मचर्ये समाहितः-समाधानवान् ब्रहाचर्यसमाहित इति सूत्रद्वयार्थः। ब्रह्मचर्यविशुद्ध्यर्थोऽयं सर्वोऽप्युपक्रम इति तन्माहात्म्यम् - देवदाणवगंधव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं / / 16 // देवा ज्योतिष्कवैमानिकाः, दानवा भुवनपतयः, गन्धर्वयक्षराक्षसकिन्नरा व्यन्तरविशेषाः, समासः सुकर एव / उपलक्षणं चैतद्-भूतपिशाचमहोरगकिंपुरुषाणामेते सर्वेऽपि ब्रह्मचारिणं ब्रह्मचर्यवन्तं, यतिमिति शेषः / नमस्यन्ति नमस्कुर्वन्ति, दुष्करं कातरजनदुरनुचरम् / (जे त्ति) यः करोत्यनुतिष्ठति, तदिति प्रक्रमाब्रह्मचर्यमिति सूत्राऽर्थः / / 16 // सम्प्रति सकलाऽध्ययनार्थमुपसंहारमाहएस धम्मे धुए नि (चे) यए, सासए जिणदेसिए। सिद्धा सिझंति झाणेणं, सिज्झिस्संति तहा परे / / 17 / / त्ति बेमि। एष दृष्टानन्तरोक्तो धर्मो ब्रह्मचर्यलक्षणो धुवः-स्थिरः परप्रवादिभिर- प्रकम्प्यतया, प्रमाणप्रतिष्ठित इति यावत् / नित्यः अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरचभावो द्रव्यार्थितया शाश्वतः शश्वदन्यान्यरूपतया उत्पन्नः पर्यायार्थितया, यद्वा-नित्यः त्रिकालमपि सम्भवाच्छाश्वतोऽनवरतभवनात्, एकार्थिकानि वा नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमुक्तानि, जिनस्तीर्थकृद्भिदेशितः प्रतिपादितो जिनदेशितः। अस्यैव त्रिकालगोचरफलमाह --- सिद्धाः पुरा अनन्तासूत्सर्पिण्यव सर्पिणीषु सिद्ध्यन्ति, चः समुच्चये, महाविदेहे, इहाऽपि वा तत्कालाऽपेक्षया अनेनेति ब्रह्मचर्यलक्षणेन धर्मेण सेत्स्यन्ति तथा परे अन्येऽनन्ताया मनागताद्धायामि ति सूत्राऽर्थः / / 17 / / इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमि इति पूर्ववत्। उत्त०१६ अ०॥ बंभण पु०स्त्री० (ब्राह्मण) ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः / ब्रह्मणो मुखजे वर्णे, "बंभणस्स मुहातो विप्पा णिग्गया" इति पुराणम्। नि० चू० 1 उ० / "अन्नया उउसमए जमदग्गिणा भणिया-अहं ते चरुं साहेमि / " श्रीऋषभस्य ज्ञानोत्पत्तौ श्रावका एव ब्राह्मणा जज्ञिरे। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। विशुद्धब्रह्मचारिणि, द्वा० 27 द्वा०। दशा बंभणगाम पुं० (ब्राह्मणग्राम) नन्दोपनन्दपाटकद्वयभूषिते स्वनामख्याते ग्रामे, आ० म०१ अ०। आ० चू०। बंभणय न० (ब्राहाणक) ब्राह्मणहिते शास्त्रे, कल्प०१ अधि०१ क्षण। वेदव्याख्यानरूपे शास्त्रे, औ०। आ० चू०। बंभणवसिट्ठणाय न० (ब्राह्मणवसिष्ठज्ञात) सामान्यग्रहणे प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनोपादानज्ञापके उदाहरणे, यथा ब्राह्मणा आयाना वसिष्ठोऽप्यायात इति / दश०५ अ० 1 उ०। बंभणाह पुं० (ब्रह्मनाभ) आगमिष्यत्यामुत्सर्पिण्या भविष्यति तीर्थकरे, सूत्रा०१ श्रु०१५ अ01 बंभणिया स्त्री० (ब्राह्मणिका) हालाहले, "हालाहलो यबंभणिआ।" पाइ० ना० 226 गाथा। बंभणी (देशी) हालाहले, देखना०६ वर्ग 60 गाथा। बंभत्थलय न०(ब्रह्मस्थलक) स्वनामख्याते स्थलके, यत्र विश्रान्ति म्यता ब्रहादत्तचक्रवर्तिना कृता। उत्त० 13 अ01 बंभदत्तपुं० (ब्रहादत्त) “पारिणामिया'' शब्दे अौव भागे 617 पृष्ठ उदाहृते वरधनुषाऽमात्येन मोचिते कुमारे, आ० म०१ अ०। आचा० / नं०। दश० / काम्पिल्य नगरजाते स्वनामख्याते अवसर्पिण्या द्वादशे भरतचक्रवर्तिनि, आ० क० 1 अ० / ती०। निचू० / स०। ति० / अथ ब्रह्मत्तहिण्डीमभिदधत् प्रथम पूर्वभवचरित्रामाह। उत्त०२ अ०। 'साएए चंडवडिसयस पुत्तो।' इत्यादि / उत्त०१३ अ०। ('वित्तसंभूइया' शब्दे 3 भागे 1182 पृष्ठे व्याख्यातम्) जाईपराजिओ खलु, कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि। चुलणीऍ बंभदत्तो, उववण्णो जलिणगुम्माओ॥१॥ जातिपराजित इति जात्या प्रस्तावाचाण्डालाऽऽख्यया पराजितोऽभिभूतः, स हि वाराणस्यां हस्तिनागपुरे च वक्ष्य माणन्यायतो नृपेण नमु चिनाम्ना च द्विजे न चाण्डाल इति नगरनिष्कासनन्यक्काराऽऽदिना पुरा जन्मन्यपमानित इ | Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1272 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त त्येवमुक्तः, यता-जातिभिर्दासाऽऽदिनीचस्थानोत्पत्ति भिरुपर्युपरि जाताभिः पराजित इति पराभवं मन्यमानः अहो! अहमधन्यो यदित्थं नीचास्वेव जातिषु पुनः पुनरुत्पन्न इति।खलुक्यालङ्कारे, स चैवंविधः, किमित्याह-(कासि त्ति) अफार्षीत्, किमित्याह-निदान चक्रवर्तिपदावाप्तिर्मम भवेदित्येवमात्मकं, तुः पूरणे, क्वेदं कृतवानित्याह(हत्थिणपुरसिम्म त्ति) हस्तिनागपुरे चुलन्यां ब्रह्मदत्तः (उववण्णो त्ति) उत्पन्नः पद्मगुल्मादिति नलिनगुल्मविमानात्, च्युत्त्वेति शेषः इति सूत्राक्षरार्थः / / भावार्थस्त्वयम्-स हि ब्रह्मदत्तः पूर्वजन्मनि वाराणस्या संभूतनामा चाण्डालश्चित्राश्च तज्जयेष्ठ आसीत्, तत्र च नमुचिनामा ब्राह्मणो ममान्तः पुरमपधर्षितमनेनत्युत्पन्नकोपेन राज्ञा समर्पितो मारणनिमित्तं मातङ्गाधिपस्य तत्पितुः, उक्तश्चायमेतेनयदि मत्सुतौ सकलकलाकुशलौ विधत्से ततोऽस्ति ते जीवितमन्यथा नेति, ग्रारब्धं च तदर्थिनाऽनेन तद्गृह एवातिगुप्तस्थानस्थितेन त्तदध्यापन, ग्राहिती तौ व्याकरणवीणापुरःसराः सकला अपिकला, अन्यदा च शुश्रूषापराया तन्मातरि मोहोदयादय मुपपतित्वमाजगाम, ज्ञातस्तजनकेन, इष्टश्य मारयितुं, ज्ञातं सत्ताभ्यां, ज्ञापितं चास्मै, उपाध्यायोऽयमावयोस्ततो मा भूदस्याऽऽपदिति, तदवगमाच पलायितोऽसौ ततः स्थानात्, प्राप्तो हस्तिनागपुरं, कृतः सनत्कुमारचक्रवर्तिना मन्त्री। इतश्च ती चिासंभूती सातिशयगीतकलाऽऽक्षिप्ततरुणीज नात्यासक्तिहेतुतया त्याजितस्पृश्यास्पृश्यविभागौ जनेन राज्ञे निवेदितौ, यथा विनाशित नगरमाभ्या, निषिद्धस्तेन नगरस्यान्तस्तत्प्रचारः, कदाचिक तावतिकुतूहलतया कौमुदीमहविलोकनार्थमागती, दृष्टौ जनेन, कदर्थितावत्यर्थ , प्रवव्रजतुश्च तत एवोत्पन्नवैराग्यो, जातौ विकृष्टतपोनिष्टप्तदेही, प्राप्ताश्चाभ्यां तेजोलेश्याऽऽदिलब्धयः, समापतितश्चाग्रतो हस्तिनागपुरं, प्रविष्टो भासपारणके तत्र भिक्षार्थ सम्भूतयतिर्दृष्टश्च नमुचिना, जातोऽस्य चेतसि दुरध्य वसायोमदुश्चरितमयं प्रकाशयिष्यतीति निर्भसितो धिग् मुण्ड! चाण्डाल! व नगरस्यान्तः प्रविष्टोऽसीत्यादि निष्ठुरवचोभिः, प्रहत इष्टिकोपलशकलाऽऽदिभिस्तत्परिजनेन, तदनु च समस्तलोकेन, कुपितश्चासौ तेभ्यः समस्तजन दहनक्षमामसह्यतेजोलेश्या मोक्तुमुपचक्रमे, तच च मुखविनिर्यद्व हलधूमपटलान्धकारितदिक्चक्रवाले व्याकुलितः सान्तःपुरः सतत्कुमारचक्रवर्ती सकलो नगरलोकश्च समायातस्तत्पाचे, तवृत्तान्तश्रवणतश्चिाश्च, प्रारब्धस्तैरनेकधा सान्त्वनवचनै रुपशमयितुं, तथापि तत्राऽऽत्मानस्मरत्यतिकोपवशमे भगवति मा भूदस्माकस्माद्भस्मीभवनमिति स्त्रीरत्नसहितो महीपतिस्तं क्षमयांबभूव, यथा-भगवन् ! क्षमितव्यमस्माकमिदमिति, अस्मिंश्चान्तरे स्त्रीरत्नकोमलाऽऽलापसमुत्पन्नतदभिलाषो विगलितानुशयश्चाण्डालजातिरेव ममैवमनेकधा कदर्थनाहेतुरिति चिन्तयश्चिायतिना निवार्यमाणोऽपि यदि ममास्यतपसः फलमस्ति तदाऽन्यजन्मनि चक्रवर्तित्वमेव मम भूयादू येनाहमप्येव ललितललनाविलासाऽऽस्पदसुत्तम जातिश्च भवामीति निदानवशगोऽनशनं प्रपेदे। ततः स तपोऽनुभावतो नलिनगुल्मविमाने वैमानिकत्वेनाजनि, ततश्च ल्लयुमश्चुलन्यां ब्रह्मदत्तः समुत्पेदे ! क? इत्याह -(कंपिल्ले संभूओ (२+गाथा) काम्पिल्य इति पाश्चालमण्डलस्य तिलक इव काम्पिल्यनाम्नि नगरे संभूत इति पूर्वजन्मनि संभूतनामा। अमुंपादमतिक्रान्तसूत्रोत्तरपादद्वयं चैतददितार्थप्रसङ्गायार्थान्तराभिधानद्वारतः स्पृशन सूत्रास्पर्शिकनियुक्तिमाह - राया य तत्थ बमो, कडओ तइओ कणेरुदत्तो त्ति / राया य पुप्फचूलो, दीहो पुण होइ कोसलिओ / / 336 // एएपंच वयंसा, सव्वे सह दारदरिसणो भोचा। संवच्छर अणूणं, वसंति एक्केकरजम्मि।। 337 // राया य बंभदत्तो, धणुओ सेण्णावई य वरधणुओ। इंदसिरी इंदजसा, इंदुवसू चुलणिदेवीओ।। 338 / / राजा च तापाञ्चालेषु काम्पिल्ये ब्रह्म इति ब्रहानामा काशी जनपदाधिषः कटकस्तृतीयः कुरुषु गजपुराधिपतिः करेणुदत्त इति राजा च अड़ेषु चम्पास्वामी पुष्पचूलो यः किल ब्रह्मपत्न्याश्चु (ल) सिन्या भ्राता दीर्घ इति दीर्घपृष्ठः पुनर्भवति कौशलिकः साकेतपुराधिपतिः / / 336 // एतेऽनन्तरोक्ताः पञ्च वयस्याः सर्वेसमस्ताः सह दारान्पश्यन्तीत्येवंशीलाः सहदारदर्शिनः। किमुक्तं भवति?-एककालकृतकलत्रस्वीकाराः समानक्यस इति यावत्। (भोच त्ति) भुक्तवा संवत्सरं वर्षमन्यून परिपूर्ण वसन्त्यासरे, तत्कालाऽपेक्षया वर्तमानता, एकैकराज्ये एकैकसम्बन्धिनि नृपतित्वे / एष तावद्वाथाद्वयार्थः / / 337 / / तृतीयगाथा तु तात्पर्यतो व्याख्याते-ब्रह्मराजस्येन्द्रश्रीप्रमुखा श्वतस्वो देव्यस्ता च चुलन्याः पुत्रोऽजनि, धनुनाम्नः सेनापतेरपितत्रैवाहनि सुतः समुदपादि, कृतानि द्वयोरपि मङ्गलकौतुकानि, दत्तानि च दीनानाथेभ्यो दानानि, विहितं स्वसमये राजपुत्रस्य ब्रह्मदत्त इति नाम, इतरस्य तुवरधनुरिति, कालक्रमेण च जातौ कलाग्रहणोचितौ, ग्राहितौ सर्वा अपि कलाः, अस्मिश्चान्तरे मरणपर्यवसानतया जीवलोकस्य मृतो ब्रहाराजः कृतमौद्ध दैहिकमतिक्रान्तेषु च कतिपयदिनेषुतद्वयस्यैरभिषिक्तो राज्ये ब्रह्म दत्तः, पर्यालोचितं च तैर्यथैष नाद्यापि राज्यधुराधरणधौरेय इति पालयितुमुचितः कतिचित्संवत्सराणि, निरूपतस्तैस्तत्र दीर्घपृष्ठः, गताः स्वस्वदेशेषु कटकाऽऽदयो, जातश्च सर्वत्राप्रतिहतप्रवेशतया दीर्घपृष्टस्रु सह चुलन्याः संबन्धः ज्ञातं चैतदन्तः पुरपालिकया, न्यवेदिच तया धनुर्नाम्नः सेनापथिमन्त्रिाणः सकलमपि तत् वृत्तं, निरूपितस्तेन वरधनुर्यथा न कदाचित् कुमारस्त्वया मोक्तव्य इति / आरब्धश्चासौ तथैवानुष्ठातुम्, अन्यदा चायं विदितदीर्घपृष्ठचुलनीवृत्तान्तः केनचिदुपायेनामू निवारयामीति विजातिशकुनिक संग्रहणकमानीय कुमारायो पनिन्ये, तच्चातिनियमितमादायान्तः पुरस्यान्तः किलोन्याऽपि य एवंदुष्टाशीलः सोऽस्माभिरित्थं नियन्त्रणीय इति तौ स्वयं स्वसहचरैश्च डिम्भैरुद्घोषयन्ती प्रतिदिनमितश्चेतश्च भ्रमितुमारब्धौ, उपलब्धं च तत्ताभ्यामनुष्टीयमान दीर्घपृउन कुपितश्चासौ कुमाराय, भणि ता च चुलनी-यथाऽयमुपायेन केनापि विनाश्यता, यतोन विषकन्दल इवैष उपेक्षितः क्षेमंकरः अस्माक भवितेति, प्रतिपन्नं च तत्तया दुरन्ततया मोहोदयस्य, निरूपितश्च ताभ्यामुपायो यथाऽस्मै पुष्पचूलमातुलेन स्वदुहिता पुष्पचूला नाम पूर्व्वद ते Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1273 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त ति तामसौ परिणाय्यते, कार्यते चैतच्छयनाय जतुगृहम् एतच्च तन्मन्त्रितमशेषमपि तथैवान्तः पुररक्षिकया निवेदितंधनोः, तेनापि विनष्टमेतदिति पर्यालोच्य कुमारसंरक्षणाय प्रयक्षः कर्तु मुपचक्रमे , तथाहि-पृष्टोऽरगवनेन दीर्घपृष्ठो यथा वयमिदानी वृद्धास्तत् किमिदानीमपरेण? युष्माभिरनुज्ञाता धर्ममवैतत्कालोचितं कुर्मः, तेनाऽऽलोचितम् यथैष दुरात्मा दूरस्थो न सुन्दर इति, उक्तश्च-यथैतत्वद्रहितमखिलमपि राज्य विनश्यत्यत इहैव स्थितो जपहोमदानाऽऽदिभिर्धर्म मुपचिनु / तेन चोक्तम्-यदादिशन्ति भवन्तः इत्युक्तवा च गतः स्वगृह, कारितं चानेन भागीरथ्यास्तटे स्वनिवासस्थान, निरूपितं तत्रा सत्रां, खानिता च तत्र प्रत्ययिकपुरुषैर्जतुगृहं यावत् सुरङ्गा, ज्ञापिताऽसौ वरधनोः इतश्च गणितं तत् परिणयनलग्नं, निष्पन्नं च जतुगृह, प्रेषिता च मन्त्रिवचनतोऽन्यव कन्यका मातुलेन, समागतो लग्नदिनः, कृतं सर्वसमृद्धचोपयमन, शायितश्च रजन्यां जतुगृहे, कुमारः, प्रदीपितं च द्वार एव सुप्तजनायां रजन्या, ज्ञातं चाऽऽसन्नस्थितेन वरधनुना, उत्थापितः कुमारः, दृष्ट च सर्वतः प्रदीप्तमेतेन, उक्तश्च वरधनुः मित्र ! किमिदानीं क्रियता मिति, तेनोक्तममा भैषीः, यतः प्रतिविहितमा तातेन, अत्रान्तरे चाऽऽगतं नागकुमारद्वयानुकारि भुवनमुद्भिद्य पुरुषद्वयम्, अभ्यधाच तत्मा भैष्टाम्, आवां हि धनोर्गृहजातौ दासचेडकौ, तत् क्रियता प्रसादां, निर्गम्यता सुरङ्गामार्गेण, इत्युक्तौ च तो गतौ सुरङ्गाद्वार, दृष्ट चतत्रा प्रधानमश्वद्वयम्। उक्तं च ताभ्यां चेटकाभ्यामेतावारुह्य देशान्तरापक्रमेणाऽऽत्मानं रक्षतां दीर्घपृष्ठाद्भवन्तौ यावत्कवचिदवसरः शुभो भवति, ततस्तद्वचनमाकर्ण्य किं किमेतत्? इत्याकुलितचेतसो ब्रह्मदत्तस्य कथितः सर्वोऽपि वरधनु ना चुलनीवृत्तान्तः, अभिहितं च-यथैदमेवेदानीं प्राप्तकाल मिति, विनिर्गतौ च तत्प्रधानमश्वयुग लमारुह्येति तृतीय गाथातात्पर्यार्थः / एवं च प्राप्तावसरा ब्रह्मदत्तहिण्डी। ततस्तत्र ये कन्यालाभा ये च तत्पितरस्तदुपदर्शनाय गाथापञ्चकमाहचित्ते य विजुमाला, विजुमई चित्तसेणओ भद्दा। पंथग णागजसा पुण, कित्तिमई कित्तिसेणो य॥३३६॥ देवी य नागदत्ता, जसवइ रयणवइ जक्खहरिलो य। वच्छीय चारुदत्तो, उसभो कच्चाइणीय सिला।। 340 // धणदेवे वसुमित्ते, सुदंसणे दारुए य नियडिल्ले / पोत्थी पिंगल पोए, सागरदत्ते य दीवसिहा / / 341 / / कंपिल्ले मलयवई वणराई सिंधुदत्त सोमाय / तह सिंधुसेण पञ्जु-ण्णसेण वाणीर पइगा य / / 342 / / हरिएसा गोदत्ता, कणेरुदत्ता कणेरुपइगा य। कुंजरकणेरुसेणा, इसिवुड्डी कुरुमई देवी।। 343 / इदं च सोपस्कारतया व्याख्याते-चित्रश्च चित्रनामा जनक स्तदुहितरौ विद्युन्माला विद्युन्मती च / तथा-चित्रासेनकः पिता, भद्रा च तददुहिता / तथा पन्थकः पिता, नागयशाः कन्यका / पुनः समुचये, तथा कीर्तिमती कन्या, कीर्तिसेनश्च तत्पिता। तथा-देवी च नागदत्ता यशोमती रत्नवती च, पिता च सर्वासामपि यक्षहरिलः / चः समुच्चये, वच्छी च कन्या, चारुदत्तः पिता, तथा वृषभो जनकः कात्यायनसगोत्रा तत्सुता शिला नाम। तथा धन (ण) देवो नाम वणिक, अपरश्च वसुमित्रः, अन्यश्च सुदर्शनो दारुकश्च निकृतिमान् मायापरः, चत्वारोऽमी कुक्कुटयुद्धव्यतिकरे मिलिताः, तत्राच पुस्ती नाम कन्यका, तथा पिङ्गला नाम कन्या, पोतश्च तत्पिता, सागरदत्तश्च वणिक् तदङ्गजा च दीपशिखा। तथा-काम्पिल्यः पिता, मलयवती दुहिता, तथा धनराजी नाम कन्या, तजनकश्च सिन्धुदत्तः तथा तस्यैवान्या सोमा च नाम कन्या, तथा सिन्धुसेनप्रद्युम्नसेनयोर्यथाक्रमं वानीरनाम्नी प्रतिकाभिधान चेति / पठ्यते च-प्रतिभा वेति / द्वे दुहितरौ, तथा हरिकेशा गोदत्ता करेणुदत्ता करेणुपदिका च, (कुंजरकणेरुसेण त्ति) सेनाशब्दस्य प्रत्येकमभिरसम्बन्धात् कुञ्जरसेना करेणुसेना च, ऋषिवृद्धिः कुरुमती च देवी सकलान्तः पुरप्रधाना अष्टौ, कुरुमती च स्त्रीरत्नं ब्रह्मदत्तेनावाप्तेति सर्वत्र शेषः / अतिप्रसिद्धत्वाच तदेतजनकनाम्नामनभिधानमिति गाथापञ्चकाऽर्थः / अधुना येषु स्थानेषु असौ (ब्रह्मदत्तः) भ्रान्तस्तान्यभिधातुमाहकंपिल्लं गिरितडगं, चंपा इत्थिणपुरं च साएयं / समकडगं नंदोसा, वंसीपासाय समकडगं // 344 / / समकडगाओ अडवी, तण्हा वडपायवम्मि संकेओ। गहणं वरघणुअस्स य, बंधणमक्कोसणं चेव / / 345 / / सो हम्मई अमचो, देहि कुमार कहिं तु मे नीओ ? | गुलियविरेयणपीओ, कवडमओ छड्डिओ तेहिं / / 346 / / तं सोऊण कुमारो, भीओ अह उप्पहं पलाइत्था। काऊण थेररूवं, देवो वाहेसि य कुमारं / / 347 // वडपुडग बंभथलयं, वडथलगं चेव होइ कोसंबी। वाणारसि रायगिह, गिरिपुर महुरा य अहिछत्ता / / 348 // वणहत्थी य कुमार, जणयइ आहारण वसण गुणलुद्धो। वच्चंतो वडपुरओ, अहिछत्तं अंतरा गामो // 346 / / गहणं नईकुडंगं, गहणतरागाणि पुरिसहिययाणि / देहाणि पुण्णपत्तं, पियं खु णो दारओ जाओ / / 350 / / सुपइटे कुसकुंडिं, भिकुंडिवित्तासियम्मि जियसत्तू। महुराओ अहिछत्तं, वच्चंतो अंतरा लभइ / / 351 / / इंदुपुरे रुद्द (भद्द) पुरे, सिवदत्तविसाहदत्तधूयाओ। बडुअत्तणेण लभई, कन्नाओ दोन्नि रज्जं च / / 352 / / रायगिहमिहिलहत्थिण-पुरं च चंपा तहेव सावत्थी। एसा उनगरहिंडी, वोधव्वा बंभदत्तस्स / / 353 / / रयणुप्पया य विजओ, बोधव्वो दीहरोसमुक्खे य / संभरण नलिणिगुम्म, जाईइ पगासणं चेव / / 354 / / Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1274 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त गाथा एकादश / आसामपि तथैव व्याख्या, काम्पिल्यं पुरं यत्राऽस्य जन्म, ततोऽसौ गतो गिरितटक सन्नियेशं तस्माचम्पा, ततो हस्तिनापुरं चानन्तरं च साकेतं, साकेतात्समकटक, ततश्च नन्दिनामकं सन्निवेश, ततोऽवस्यानक नाम स्थान, ततोऽपि चाऽरण्यं परिभ्रमन् वंशीति वंशगहनं तदुपलक्षितं प्रासादं वंशीप्रासाद ततोऽपि समकटकम् // 344 / / समकटकादटवीं , तां च पर्यटतो ब्रह्मदत्तस्य तृडतिशयतः शुष्ककण्टौष्ठतालुताऽजनि, ततस्तेनोक्तो वरधनुः-भ्रातः! बाधते मां तृट् तदुपहर कुतोऽपि जलम्, अत्रान्तरे दृष्टोऽनेन निकटयर्ती वटपादपः, शायितस्तत्र शीतलच्छाये तत्पल्लवोपरचितस्रस्तरे ब्रह्मदत्तः, कृतश्च वरधनुना तेन सह सड्केतो-यथा यदि मां कथश्चिद्दीर्घपृष्ठप्रहितपुरुषाः प्राप्स्यन्ति ततोऽहमन्योक्त्याऽभिज्ञानं करिष्ये, तत इतस्त्वया पलायितव्यमिति। गतोऽसौ जलान्वेषणाय, दृष्ट चैकत्र पद्मिनी खण्डमण्डितं सरो, ग्रहीत च पद्मिनीपत्रपुटके जलम्, प्रत्यावृत्तस्य च ब्रह्मदत्ताऽभिमुखमागन्तुं ग्रहणं तवटाऽऽसन्नदेशे कथञ्चिदुपलब्धनदपसरणवृत्तान्तैर्दीर्घपृष्ठप्रहितपुरुषैः अतिदोषवद्भिर्वरधनोर्बन्धनं वल्लीवितानेन आक्रोशन चैव दुष्टववसा कृतम्।। 345 / / अन्यच्च स हन्यते मुष्टिप्रहाराऽऽदिभिरमात्यो वरधनुः भण्यते च-यथा देहीति ढोकय कुमारमरे! दुराचार! क पुनरसौ नीतः त्वया राजपुत्र इति?। अत्रा चाऽन्तरे सकेतमनुसरता पठितमिदमनेन-- "सहकारमञ्जरीमनु, धावति मधुपो विमुच्य मधु मधुरम्। कमले कलयन् पश्चात्संकोचकृता स्वतनुबाधाम् / / 1 / / " (गुलियविरेयणपीओ ति) प्राकृतत्वात् पतिविरेचनगुलिकः, स हि तैर्ग्रहीतुसुपक्रान्तोऽन्यथा ऽऽत्मनो विमुक्तिमनवगच्छन् पूर्वलब्धा विरेचनगुटिका प्रथममेव पयसा पीतवान्, विरक्तश्च, तया जाताश्च मुखे फेनबुदबुदाः। एवं च कपटेन मृतः कपटमृतो मृत इति छर्दितस्त्यत्कस्तैः / / 346 / / इतश्च तत्पठित श्रुत्वा कुमारो भीत इति त्रस्तः / अथाऽनन्तरम् (उप्पह ति) उत्पथेन (पलाइत्थ त्ति) पलायितवान, तथा च तं पलायमानमवलोक्य कृत्या स्थविररूपं देवः किमस्य सत्त्वमस्त्युत नेति परीक्षणार्थम् (वाहेसि य त्ति) वाहितवान् व्यंसितवानित्यर्थः कुमाररम्॥३४६॥ ततश्च परिभ्रमतो वटपुरकं तस्माश्च ब्रह्मस्थलकं वटस्थलकं चैव भवति विश्रामविषयः कौशाम्बी वाराणसी राजगृह गिरिपुरं मथुरा अहिच्छ्वा च / 348 / / ततोऽपि गच्छता ऽरण्यानीं प्रविष्टन दृष्टास्तापसाः प्रत्यभिज्ञातश्च तैर्ब्रह्मराजस्यास्मन्निजकस्य सुत इति धृतश्चातुर्मास तत्रा च तापसकुमारकैः सह क्रीडतैकस्मिन् दिनेऽवलोकितो वन हस्ती समुत्पन्नं च नृपसुतसुलभमस्य कुतूहलं, प्रारब्धश्च विविधगज शिक्षाभिरमुखेदयितुमारूढश्च निष्पन्दीकृत्य तत् प्रवृत्त श्चासौ कुमारापहरणाय, वीक्षितश्च कियदपि दूरं गतेनैकस्तरुर्लग्नश्च तदधो व्रजति हस्तिनि विटयेकदेशे | कुमारः, अपक्रान्ते च करिणि ततस्तरोरुत्तीर्य विमूढदिग्भागो भ्रमितुमारेभे | भ्राम्यंश्चारण्याद्विनिर्गत्य गतो वटपुरं वटपुराच प्रस्थितः श्रावस्ती गच्छंश्च प्राप्तस्तथाविधमे कमन्तरा ग्रामम् उपविष्टश्च तन्निकट विटपिनि विश्रमितुं, दृष्ट चैकेन तात्य श्रेष्ठिना, नीतश्च तेन स्वगृहं, कृतं चाम्यागतकर्त्तव्यं, परिणायितश्चनैमित्तिकाऽऽदेशतः स्वदुहितरमुपचरितश्च भुजगनिर्मोकसदृशै विविधवसनैर्वजेन्द्रनीलाऽऽदिप्रधानमणिभिः कटककेयूरकुण्डलाऽऽदिभिश्चाऽऽभरणैः, ततस्तद्गुण लुब्धमानसः स्थितस्तौव कियत्कालं, जनयति तदा तद् दुहितरि कुभारम् / / 346 / / इतश्च प्राप्ताः कृतान्तानुकारिणो दीर्घपृष्ठप्रहितपुरुषाः, प्रारब्धाः समन्ततस्तमवलोकितुमुप लब्धतद् वृत्तान्तश्च नष्टस्तद्भयात्प्रचलितश्च सुप्रतिष्ठपुरा भिमुखं गन्तुं, ता च मिलितः कश्चिद्विटः कार्पटिको, दृष्ट चाभिमुखमागच्छत् किश्चित्तथाविधं मिथुनकं, दृष्ट्वा च तदङ्गना मुदाररूपा कुमारमयमवोचत् यदि युष्मत्प्रसादतः कथश्चिदेनां कामयेय इति, ततस्तदुपरोधात्तेनोक्तम्-प्रविश तर्हिवंशीकुडङ्ग स्थितः पथि कुमारः, प्राप्तं च मिथुनम्. उक्तस्तत्पतिर्मदीयं कलामिह गर्भशूलाभ्याहतमास्ते तद्विसर्जय क्षणमेकं स्वकीयपल्ली , विसर्जिता चासौ तेनानुकम्पापरेण, दृष्टश्च तयाऽसौ, जातस्तस्या अपि तदनुरागः, प्रवृत्तं च तयोर्मोहनकम एवं च कियतीमपि वेलामतिक्रम्य विनिर्गताऽसौ कुडङ्गात्, उक्तं चाऽऽत्मान ख्यापयितुं कुमारं प्रति, यथा-गहनंनदीकुडङ्ग, ततोऽपि गहनतराण्येव गहनतरकाणि पुरुषहृदयानि भवन्ति / अयं चानेन ध्वनितोऽर्थः यथा वयं जानीमः स्त्रीहृदयान्यतिगहनानि, भवचित्तेन च तान्यपि जितानीत्युक्त्वा पतिं प्रत्याययितुमाह-(देहाणिं ति) देहीदानी पूर्णदानी पूर्णपाठाम्-अक्षतभृतभाजनं प्रियंखलु नो ऽस्माकं यहारको जात इति, ते इति वक्तव्ये यन्न इत्युत्कं तदैक्यं द्योतयितुम्, इत्युक्त्वा च तय धूर्त्या गृहीतं ब्रह्मदत्तोत्तरीयं, गता च पत्यैव सह, ततश्च निर्गतोऽसौ कुडगात्कृतश्च परिहासः, प्रवृत्तो गन्तुं प्राप्तः सुप्रतिष्ठम्।।३५०॥ तत्राच कुसुकुण्डी नाम कन्या (भिकुंडिवित्तासियम्मि जियसत्तु नि) आर्षत्वादुभयत्र सूपव्यत्ययः भिकुण्डिवित्रासितादि-कुण्डिनामनृपति निष्कासिताजितशत्रोः जितशत्रुनामंनृपतेः सकाशान्मथुरांतो ऽहिच्छत्रा व्रजन्नन्तरेऽन्तराले लभते-प्राप्नोति॥३५१।। तथैन्द्रपुरे शिवदत्तो नाम (रुद्रपुरे च) भद्रपुरे च विशाखदत्ताऽभिधानः, तदुहितरो वटुकत्वेन दीर्घपृष्ठपुरुषभीत्या कृतब्राह्मणवेषेण लभते कन्येद्वराज्यं च / / 352 // ततो राजगृहं मिथिला हस्तिनापुरं चम्पा तथैव श्रावस्तीम्, अभ्रमीदिति शेषः / एषा त्वनन्तरमुपदर्शिता नगरहिण्डिबर्बोद्धव्या ब्रह्मदत्तस्येति // 353 / / एवं च भ्रमतोऽस्य मिलिताः कटककरेणु दत्ताऽऽदयः पितृवयस्याः, गृहीताः कियन्तोऽपि प्रत्यन्तराजानः, चक्ररत्नं समुत्पन्नं, प्रारब्धस्तदुपदर्शितमार्गेण दिग्विजयः, प्राप्तः काम्पिल्ये, निर्गतः तदभिमुखं दीर्घपृष्ठो, लग्न मनयोरायोधनं, विनिपातितोऽसौ ब्रह्मदत्तेन, एवं च बोधद्धव्यस्तस्यदीर्घपृष्ठविषयरोषमोक्षश्च, अत्रान्तरे मिलिताः परिणीतकन्याः पितरः, समुत्पन्नानि च यथावसरं शेषरत्नानि, साधितषट्खण्डमपि भरतं, प्राप्ताश्च नवापि निधयः परिणतं चक्रवर्तिपदम्, एवं च सुकृतपुण्यफलमुपभुजतोऽति क्रान्तः कियानपि कालोऽन्यदा चोपनीत देवतया मन्दारदाम, समुत्पन्नं तद्दर्शनादस्य जातिस्मरणनुभूतानि Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1275 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त मयैवंविधकु सुमदामान्यह हि नलिनगुल्मविमाने देवोऽभवमित्ये कादशनियुक्तिगाथाऽर्थः / / 354 / / इत्थं तावत् काम्पिल्ये संभूतः चक्रवर्ती जातश्चित्रास्यतु का वार्तेत्याह"कंपिल्ले संभूओ," चित्तो पुण जाओ पुरिमतालम्मि। सेट्टिकुलम्मि विसाले, धम्मं सोऊण पव्वइओ !! 2|| पादत्रयम्। चित्राः पुनर्जातः पुरिमताले, स हि चित्रनामा महर्षिः, तत्र संभूतिनाम्नि भ्रातरि तथाऽनशनं प्रतिपन्नवस्यहो हुरन्तो मोहश्चित्रा कर्मपरिणतिश्चञ्चलं चित्तमित्यादि विचिन्त्य चतुर्विधमप्याहार प्रत्याख्यातवान्, मृत्वा च पण्डितमरणेन समुत्पन्नस्तत्रौव नलिनगुल्मनाम्नि विमाने, ततस्ता स्वस्थितिमनुपाल्योत्पन्नः पुरिमतालपुरे, तत्रापि क्वेत्याह-श्रेष्ठिकुले वणिक्प्रधानान्वये, विशाले विस्तीर्णे पुत्रपौत्राऽऽदिवृद्धिमति, प्राप्तवयाश्च तथाविधस्थविरसन्निधौधर्मयतिधर्म क्षान्त्यादिकं श्रुत्वाऽऽकयर्य प्रव्रजितः प्रव्रज्या प्रतिपन्नवानिति सूत्रभावार्थः / ततः किमित्याहकंपिल्लम्मि य नयरे, समागया दो वि चित्तसंभूया। सुहदुक्खफलविवागं, कहिंति ते एगमेगस्स॥३।। काम्पिल्ये च नगरे ब्रह्मदत्तोत्पत्तिस्थाने समागतौ मिलितौ द्वावपि चित्रसंभूतौ जन्मान्तरनामतः सुखदुःखफलविपाकं सुकृतदुष्कृतकर्मानुभवरूपं (कहिंति त्ति) कथयतः स्मेति शेषः। ततश्च कथितवन्तौ तो चित्रजीवयतिब्रह्मदत्तौ (एगमेगस्स ति) एकैकस्य परस्परमिति यावदिति सूत्राक्षरार्थः। भावार्थस्तु नियुक्तिकृतोच्यतेजाईए पगास निवे-यणं च जाईपगासणं चित्ते / चित्तस्स य आगमणं, इड्डिपरिचागसुत्तत्थो / 355 / / तदा हि ब्रह्मदत्तो जातिस्मरणोपलब्धस्वजातीनां "दासा दसन्नए आसी।" इत्यादिना सार्द्धश्लोकेन जनाय प्रकाशनं निवेदनं च-य इम द्वितीयश्लोक पूरयति तस्मै राज्यार्द्धमहं प्रयच्छामीति विहितवान्, ततस्तदर्थिना जनेन उ ष्यते तद् ग्रामनगराऽऽकराऽऽदिषु पठ्यमानं चाऽऽकर्णितं कर्योपका चित्रजीवयतिना, ततस्तथाविधज्ञानातिशयोपयोगतः स्वजातीरुपलभ्य जातोऽस्याभिप्रायो यथा गत्वा तं जन्मान्तर निजभ्रातरं संभूतजीवमवषोधयामि इति, प्रस्थितस्ततः स्थानात्प्राप्तः क्रमेण काम्पिल्यं, स्थितस्तबहिरुद्याने, श्रुतश्चारघट्टिकपिरपठ्यमानः सार्द्धश्लोकः, पूरितश्चानेन द्वितीयश्लोकोऽवधारितश्चारघट्टिकेन, धावितश्चाऽसौ नृपसकाशं राज्यलोभेन, पठितं चैतेन तत्पुरतः, परिपूर्ण श्लोकद्वय, जातस्तदाकर्णनात्तस्य चित्ताऽऽवेशो, निरुद्धश्च तज्जनिमूर्छया श्वासमार्गो, निमीलितं लोचनयुगलं लुठितः रस आसनात् निपतितो भुवि, किमेतत् किमेतदित्या-दिनाऽऽकुलितः सर्वोऽपि तत्परिच्छ्दो, दृष्टश्च तेनारघट्टिकः, ताडितः पाणिप्रहाराऽऽदिभिरारटितमेतेन न मयैतत्पूरितं न मयेति, किं त्वन्येनैव भिक्षुणैतत्का- | लिकन्दलि मूलेनेति / अत्रान्तरे लब्धा चेतना, प्राप्त च स्वास्थ्य वक्रवर्तिना / उक्तं च-छाऽसौ श्लोकपूरयिताऽऽस्त इति?कथितस्त दव्यतिकरो यथा-केनचित् भिक्षुणैतत्पूरितं न त्वमुनेति, पृष्टं च पुनरनेन हाँ त्फुल्लनयनयगुलनक्क तमुसाथिति, कथित मारघट्टिकेनर्देव! मदीयवाटिकायामेतचाऽऽकर्ण्य प्रचलितः सबलवहिनः सकलान्तः पुरसमन्वितश्च तदर्शनाय, प्राप्तस्तदुद्यानं, दृष्टो मुनिः, वन्दितः सबहुमानम्, उपवेसितश्चैकासने, पप्रच्छतु : परस्परमनामयं, कथयामास तुश्च यथास्वमनुभूतसुखदुःखफलविपाक, तत्कथनानन्तरं च वर्णिता निजसमृद्धिश्चक्रवर्तिना, प्ररूपितस्तद्विपाकदर्शनत स्तत्परित्यागश्चित्रयतिना, एतावानेव प्रस्तुताध्ययनसूत्रा स्यार्थो ऽभिधे य इति सूत्रानियुक्तिगाथयोर्भावार्थः। सम्प्रति यदुक्त-सुखदुःखफलविपाकं तौ कथयामासतुरिति, तंत्राचक्रवर्ती यथा कथयामास तथा सम्बन्धपुरः सरमाह - चक्कवट्टी महिड्डीओ, बंभदत्तो महाजसो। मायरं बहुमाणेण, इमं वयणमव्ववी॥ 4 // आसि मो भायरो दो वि, अण्णमण्णवसाणुगा। अण्णमण्णमणूरत्ता, अण्णमण्णहिएसिणो / / 5 / / दासा दसण्णए आसी, मिया कालिंजरे णगे। हंसा मयंगतीराए, सोवागा कासिभूमिए।॥६॥ देवा य देवलोगम्मि आसि अम्हे महिडिआ। इमा णो छट्ठिया जाई, अण्णमणेण जा विणा // 7 // चक्रवर्ती महर्द्धिको बृहद्विभूतिः ब्रह्मदत्तो महायशा भ्रातरं जन्मान्तरसोदर्य बहुमानेन मानसप्रतिबन्धेनेदं वक्ष्यमाणलक्षणं वचनवाक्यमब्रवीदुतयान्, यथा (आसिमौत्ति) अभूवाऽऽवां भ्रातरौ द्वावप्यन्योन्यपरस्पर वशगायत्ततामनुगच्छन्तौ यौ तावन्योऽन्यवशानुगी, तथा अन्योऽन्यमनुरक्तावतीव स्नेहवन्तौ, तथाऽन्योऽन्यहितैषिणो परस्परशुभाभिलाषिणी, पुनः पुनरन्योऽन्यग्रहणं च तुल्यचित्तताऽतिशयख्यापनार्थम्, मकारश्च सर्वत्रालाक्षणिकः, केषु पुनर्भवेष्वित्थमावामभूवेत्याह-दासौ दशाणेदशार्णदेशे (आसि त्ति) अभूव, मृगौ कालिञ्जरे कालिञ्जरनाम्नि नगे, हंसौ मतगतीरे उक्तरूपे, श्वपाको चाण्डालौ (कासिभूमिए त्ति) काशीभूग्या काश्यभिधाने जनपदे, देवौ च देवलोके सौधर्माऽभिधानेऽभूव, (अम्हे त्ति)आवां महर्द्धिकौ, न तु किल्विषिको, (इमा णो त्ति) इयमावयोः षष्ठयेव षष्ठिका जातिः / कीदृशी येत्याह- (अण्णमण्णेण त्ति) अन्योऽन्येनपरस्परेण या विना, कोऽर्थः? परस्परसाहित्यरहिता वियुक्तयोर्यकेति भावः / इति सूत्रचतुष्टयाऽर्थः / इत्थं चक्रवर्तिनोक्ते मुनिराहकम्मा णिदाणपगहा, तुम्मे राय! विंचितिया। तेसिं फलविवागेणं, विप्पओगमुवागया / / 8 / / कम्माणि ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनि नितरां दीयन्ते लूयन्ते, दीयन्ते वा खण्ड्यन्ते तथाविधसानु बन्धफलाभावतस्तपः प्रभृतीन्य ने नेति निदान साभिष्वङ्ग प्रार्थनारूपं, तेन प्रकर्षण Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1276 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त कृतानिविहितानि निदानप्रकृतानि, निदानवशनिबद्धानीतियोऽर्थः त्वया राजन्! विचिन्तितानीति, तद्धेतुभूताऽऽर्तध्याना ऽऽदिध्यानतः कर्माण्यपि तथोच्यन्ते तेषामेवंविध कर्मणां फलं चाऽसौ विपाकञ्च शुभाऽशुभंजनकत्वलक्षणाः फलविपाक स्तेन, यद्वा कम्ण्य नुष्ठानानि (णियाणपयडत्ति) निदानेनैव शेषशुभा-ऽनुष्ठानस्याऽऽच्छादितत्वात् प्राग्वत् प्रकटनिदानानि त्वया राजन! विचिन्तितानि कृतानीतिणावत्। तेषा फलंक्रमात् कर्म तद्विपाकेन विप्रयोग विरहमुपागती प्राप्तौ।किमुक्तं भवति? यत्तदा त्वयाऽस्मन्निवारितेनाऽपि निदानमनुष्ठितं तत्फलमेतद्यदावयोस्तथा भूतयोरपि वियोग इति सूत्राऽर्थः / इत्थमवगतवियोगहेतुश्चक्री पुनः प्रश्नयितुमाहसचसोयप्पगडा, कम्मा मए पुरा कडा। ते अञ्ज परिभुंजामो, किं नु चित्ते वि से तहा / / 6 / / सत्यं-मृषाभासापरिहाररूपं, शौचम्-अमायमनुष्ठानं, ताभ्यां प्रकटानिप्रख्यातानि कर्माणि प्रक्रमाच्छुभाऽनुष्ठानानि शुभप्रकृतिरूपाणि वा मया पुरा कृतानि, यानी ति गम्यते। तान्यद्य-अस्मिन्नहनि, शेषतद्भवकालोपलक्षणं चैतत् (परिभुंजामो त्ति) परिभुजे तद्विपाकोपनतस्त्रीरत्नाऽऽदिपरिभोग द्वारेण वेश्ये, यथेति गम्यते, किमिति प्रश्ने, नुइति वितर्के, चित्रोऽपि चित्रानामाऽपि, कोऽर्थो ? भवानपि (से इति) तानि तथा परिभुङ्क्ते? नैवभुङ्क्ते, भिक्षु१कत्वाद्भवतस्मथा च किमिति भवताऽपि मयैव सहोपार्जितानि शुभकर्माणि विफलानिजातानीत्याशय इति सूत्राऽर्थः1 मुनिराहसव्वं सुचिन्नं सफलं नराणं, कडाण कम्माण न सुक्खु अत्थि। अत्थेहिं कामेहि अ उत्तमेहिं, आया ममं पुण्णफलोववेओ / / 10 // जाणाहि संभूय! महाणुभागं, महिड्डियं पुन्नफलोववेयं / चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं, इड्डी जुई तस्स वि अप्पभूया / / 11 / / महत्थरूवा वयणप्पभूया, गाहाऽणुगीया नरसंघमज्झे। जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया, इहऽजयंते समणोऽम्हि जाओ।॥१२॥ सर निरवशेष, सुचीपर्णशोभनमनुष्ठितं, तपःप्रभृतीति गम्यते, दीर्घशब्दस्य सुचीर्णे प्रोषितव्रतम इत्यादि रूढितः साधुत्वं, सह फलेन वर्तत इति सफल, नराणामित्युपलक्षण त्वादशेषाणामपि प्राणिना, किमिति? यतः कृतेभ्योऽर्थादवश्यवेद्य तयोपरचितेभ्यः कर्मभ्यो न मोक्षो मुक्तिरस्तीति, ददति हितानि निजफलमवश्यमिति भावः। प्राकृतत्वाच सुप्व्यत्ययः, स्यादेतत्त्वयैव व्यभिचार इत्याह अर्थः-द्रव्यैरयैर्वा प्रार्थनीयैः वस्तुभिरिलि गम्यते / कामैश्च मनोज्ञशब्दाऽऽदिभिरुत्तमैः-प्रधानैः, लक्षणे तृतीया ततएतदुपलक्षितः सन् आत्मा मम पुण्यफलेनशुभकर्माफलेनोपपेतोऽन्वितः स पुण्यफलोपपेत इति।। 10 // यथा त्वं जानासि-- अवधारयसि संभूत! पूर्वजन्मनि संभूताभिधान! महानुभागं बृहत्माहात्म्यं महर्द्धिकं सातिशयविभूतियुक्तमत एव पुण्यफलोपेतं चित्रमपि जानीहि अवबुद्धयस्व तथैवाविशिष्टमेव राजन! नृप! किमित्येवमत आहऋद्धिः-संपत् द्युतिर्दीप्तिस्तस्याऽपीति जन्मान्तरनामतश्चित्राभिधानस्य, ममापीति भावः / चशब्दो यस्मादर्थे, ततो यस्मात्प्रभूता बह्रीत्यर्थः यद्वा-आत्मा मम पुण्यफलोपेत इत्यनेन चित्रा एवाऽऽत्मानं निर्देिशति, तथा जानीहि संभूत इत्यादावात्मेत्यनुवर्ततेऽर्थव शाच विभक्तिपरिणामः / ततश्चैवं योज्यते हे संभूत! यथा त्वमात्मानं महानुभागाऽदिविशेषणविशिष्ट जानासि तथा चिामपि जानीहि, चित्रनाम्नो ममापि गृहस्थभावे एवंविधत्वादेवेति भावः / शेषं प्राग्वत् 191 / / यदि तवाप्येवंविधा समृद्धिरासीत्तत्किमिति प्रव्रजित इत्याहमहानपरिमितोऽनन्त द्रव्यपर्यायाऽऽत्मकतया अर्थोऽभिधेयं यस्य तन्महार्थ रूप-स्वरूपं तु चक्षुह्यो गुणः, ततो महार्थ रूपं यस्याः सा तथा, महतो वाऽर्थान् जीवाऽऽदितत्वरूपान् रूपयति-दर्शयतीति महार्थरूपा, (वयणप्पभूय ति) वचनेनाप्रभूता अल्पभूता वा अल्पत्वं प्राप्ता वचनाल्पभूता वचनात् प्रभूता वा स्तोकाक्षरेति यावत्, केयमीदृशीत्याह-गीयत इति गाथा, सा चेहार्थाद्धम्मौभिधायिनी सूत्रपद्धतिः अन्विति-तीर्थकृद् गणधराऽदिभ्यः पश्चाद्गीता अनुगीता कोऽर्थः? तीर्थकाराऽऽदिभ्यः? श्रुत्वाप्रतिपादिता, स्थविरैरिति शेषः / अनुलोम वा गीताऽनुगीता अनेन श्रोत्रानुकूलैव देशना क्रियते इति ख्यापितं भवति / केत्याह-नराणां पुरुषाणां सङ्घ समूहस्तन्मध्ये, गाथामेव पुनर्विशेषयितुमाह-यांगाथां भिक्षवो मुनयः शीलं चारित्रं तदेव गुणो, बद्धागुणः पृथगेव ज्ञान, ततः शीलगुणेन शीलगुणाभ्यां वा चारित्रज्ञानाभ्यामुपेता-युक्ताः शीलगुणोपेताः इहारिमन् जगति (अजयंते त्ति) अर्जयन्ति-पठनश्रवणतदर्थानुष्ठाना ऽऽदिभिरावर्जयन्ति / यद्वा-"ज भिक्खुणो' इत्यत्र श्रुत्वेति शेषः / ततो यां श्रुत्वा (जयंत त्ति) इहास्मिन् जिनप्रवचने यतन्ते यत्नवन्तो भवन्ति, सोपस्कारत्वात्सा मयाऽप्याकर्णिता, ततः श्रमणस्तपस्वी अस्म्यहंजातो, नतुदुःखदग्धत्वादिति भावः। पठ्यते च-(सुमणो त्ति) सुमनाः शोभनमना इति सूत्रत्रयार्थः / / 12 / / इत्थं मुनिनाऽभिहिते ब्रह्मदत्तः स्वसमृद्ध्या निमन्त्रायितुमाह - उच्चोअए महु कक्के य बंभे, पवेइया आवसहा य रम्मा। इमं गिहं वित्तधणप्पमूयं, पसाहि पंचालगुणोववेयं / / 13 // नमुहिं गीएहि य वाइएहिं, नारीजणेहिं परिवारयंतो। भुंजाहि भोगाइँ इमाईं भिक्खू, मम रोयई पव्वा हु दुक्खं // 14 // Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त १२७७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त उचोदयो मधुः कर्कः, चशब्दात् मध्यो, ब्रह्मा च पञ्च प्रधानाः प्रसादाः तत्र निरर्थकतया मत्तबालकगीतवत् रुदित योनितया च प्रवेदिताः, मम वर्धकिपुरस्सरैः सुरैरुपनीता इत्यर्थः / आवसथाश्च विहरावस्थमृतप्रोषितभर्तृकागीतवत्, कि मित्याह-गीतं गानं, तथा सर्व शेषभवनप्रकारा रम्या रमणीयाः। पाठान्तरतश्च-आवसथा अतिरम्या: नृत्य गात्राविक्षेपणरूपं विडम्बितमिव विडम्बितं, यथा हि यक्षाऽऽविष्टः सुरम्यावा, एते तु यौव चक्रिणे रोचते तत्रौव भवन्तीति वृद्धाः। किश्च- पीतमद्याऽऽदिर्वा यतस्ततोहस्तपादाऽऽदीन् विक्षिपत्येवं नृत्यन्नपीति, इद प्रत्यक्षं गृहमवस्थितप्रासादरूपं, वित्त प्रतीतं, तच तद्धनं च तथा सर्वाण्याभरणानि मुकुटाङ्गदाऽऽदीनि भारा स्तत्वतो भारस्वरूपहिरण्याऽऽदि, लेनोषेतयुक्तं वित्तधनोपेतम्। पठन्तिच-(चित्तधणप्पभूयं त्वात्तेषा, तथाविधवनिताभर्तृकारितसुवर्ण स्थगितशिलापुत्रकाऽऽभरति) तत्र प्रभूतं बहुचित्रामाश्चर्थमनेकप्रकार वा धनस्मिन्निति प्रभूत- णवत्, सर्वे कामाः शब्दाऽऽदयो दुःखाऽऽवहाः मृगाऽऽदीनामिवाऽऽयती चित्राधनम्। सूत्रो तुप्रभूतशब्दस्य परनिपातः प्राग्वत्, प्रशाधि प्रतिपालय दुःखावाप्तिहेतुत्वात्, मस्सरेाविषादाऽऽदिभिश्चित्तव्याकुलत्वोत्पादपञ्चाला नाम जनपदरतस्मिन् गुणा इन्द्रियोपकारिणो रूपाऽऽदय- कत्वान्नरका ऽऽदिहेतुत्वाचेति।।१६।। तथा बालानां विवेकरहितानामस्तैरूपेतं पञ्चालगुणोपेतम्। किमुक्तं भवति? पञ्चालेषु यानि विशिष्ट- भिरामा श्चित्ताभिरतिहेतवो ये तेषु, दुःखाऽवहेषूक्तन्यायेनदुःखप्रापकेषु वस्तूनितान्यस्मिन् गृहे सर्वाण्यपि सन्ति, तदा पञ्चाला नामत्युदीर्ण- नतत् सुख कामगुणेषु मनोज्ञशब्दाऽऽदिषु, सेव्यमानेष्विति शेषः। राजन्! त्वात्पञ्चालग्रहणम्, अन्यथा हि भरतेऽपि यद्विशिष्टवस्तु तत् तद्गेह एव पृथिवीपते! "विरत्तकामाणं ति"प्राग्वत्, कामविरक्तानां विषयपराङ्तदाऽऽसीत्।।१३।। किंच-(नट्टहिं ति) द्वात्रिंशत्पात्रो पलक्षित्तै ट्यै- मुखानां तप एव धनं येषां ते तपोधनास्तेषां यत् सुखमिति संवन्धः / नृत्तैर्वा विविधाङ्गहारा ऽऽदिस्वरूपैर्गी तैामस्वरमूर्छनालक्षणैः, चस्य भिक्षूणां यतीनां शीलगुणयोर्वा सूत्रत्वाद्रतानामाशक्तानामिति सूत्राभिन्नक्रमत्वात्। (वाइएहिं ति) वादिौश्च मृदङ्ग मुकुन्दाऽऽदिभिर्नारीज- द्वयार्थः॥ 17 // बालेत्यादिसूत्रां चूर्णिकृता न व्याख्यातं, कचित्तु दृश्यत नान स्त्रीजनान परिवारयन् परिवारीकुर्वन् / पठ्यते च - (पवियारयतो इत्यस्माभिरुन्नीतम्। त्ति।) प्रविचारयन् सेवमानो, (भुजाहि त्ति) भुसव भोगानिमान् परि सम्प्रतिधर्मफलोपदर्शनपुरःसरमुपदेशमाहदृश्यमानान, सूत्रत्वात्सर्वा लिङ्ग व्यत्ययः। भिक्षो! इह तुयद् गजतुरङ्ग- नरिंद! जाई अहमा नराणं, माऽऽद्यनभिधाय स्त्रीणामेवाभिधानं तत् स्त्रीलोलुपत्वात्तस्य, तासागेव सोवागुजाई दुहओ गयाणं / वाऽत्यन्ताऽऽक्षेपकत्वख्यापनार्थ, कदाचिचित्रो वदेदित्थमेव सुख- जहिं वयं सव्वभणस्सवेसा, मित्याह--मह्यं रोचतेप्रतिभाति प्रवज्या, हुरचधारणे, भिन्नकमश्च, दुःखमेव वसीय सोवागनिवेसणेसु / / 18 // न मनागपि सुखं, दुःख हेतुत्वादिति भावः / इति सूत्राद्वयार्थः // 14 // तीसे य जाईइ उ पावियाए, इत्थं चक्रिणोक्ते मुनिः कं कृतवानित्याह वुच्छा मुसोवागनिवेसणेसुं। तं पुव्वनेहेण कयाणुरायं, भव्वस्स लोगस्स दुगुंछणिज्जा, नराहिवं कामगुणेसु गिद्धं / इहं तु कम्माई पुरेकडाई / / 16 / / धम्मस्सियो तस्स हियाऽणुपेही, सो दाणि सिं राय महाणुभागो, चित्तो इमं वक्कमुदाहरित्था / / 15 / / महिड्डिओ पुण्णफलोववेओ। तं ब्रह्मदत्तं पूर्वस्नेहेन जन्मान्तरप्ररूढप्रणयेन कृतानुराग विहिता- चइत्तु भोगाइँ असासयाई, भिष्वङ्गनराधिपं राजानं कामगुणेष्वभिलषमाणशब्दाऽऽदिषु गद्धमभि- आयाणहे अभिनिक्खमाहि।। 20 // काङ्क्षाऽन्वितं धाऽऽश्रितो धर्मस्थितस्तस्येति चक्रिणो हितं पथ्यम- नरेन्द्र! चक्रवर्तिन! जायन्तेऽस्यामिति जातिरधमा निकृष्टा नराणां नुगेक्षते पर्यालोचयतीत्येवं शीलो हितानु-प्रेक्षीकथं नु नामास्य हित मनुष्याणां मध्ये स्वपाकजातिः चाण्डालजातिः (दुहउ त्ति) द्वयोरपि स्यादिति चिन्तनपरश्चित्राजीवयतिरिदं वाक्यं, पाठान्तरतोवचन वा गतयोः प्राप्तयोः / किभुक्तं भवति?-यदाऽऽवां स्वपाकजातादुत्पन्नौ तदा (उदाहरित्थ त्ति) उदाहृतवानुक्त-वानिति सूत्रार्थः / / 15 / / सर्वजनगर्हिता जातिरासीत्, कदाचि त्तामवाप्याप्यन्य-ौवोषितौ किं तदुदाहृतवानित्याह स्यातामित्याह-यस्यां वय, प्राग्वच बहुवचनं सर्वजनस्याशेषलोकस्य सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नट्ट विहं वियं / द्वेष्याव प्रीतिकरौ (वसीय त्ति) अवसाव उषितौ, केषु स्वपाकानां सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा / / 16 // निवेशनानि गृहाणि स्वपाक निवेशनानि तेषु, कदाचित्तत्रापि बालाभिरामेसु दुहावहेसु, विज्ञानविशेषाऽऽदिना अहील नीयावेव स्यातामित्याह तस्यां च जाती णं तं सुहं कामगुणेसु रायं!। स्वपाकसंबन्धिन्या च, तुः विशेषणे, ततश्च जात्यन्तरेभ्यः कुस्तितत्वं विरत्तकामाण तवोधणाणं, विशिनष्टि पापेन पापिका तस्यां कुत्सितायां, पापहेतु भूतत्वेन वा जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं / / 17 / / पामिका, तस्यां पापिकायां या नरकाऽऽदिकुगतेरिति गम्यते / सर्वमशेषं विलपितामिव विलपितं निरर्थकतया रुदितयोनितया च, | (वुच्छेति) उषितो, 'सु' इत्यावां, केषु? स्वपाकनिवेशनेषु, की Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1278 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त दृशौ?सर्वस्य लोकस्य जुगुप्सनीयौ हीलनीयौ, इहेत्यम्मिन् जन्मनि, तुः पुनरर्थस्तत इह पुनः कर्माणि शुभाऽनुष्ठानानि (पुरेकडाइं इति) पूर्वजन्मोपार्जितानि विशिष्ट जात्यादिनिबन्ध नानीति शेषः / तत उत्पन्नप्रत्ययैः पुनस्तदुपार्जन एव यत्नो विधेयो, न तु विषयाऽभिष्वङ्गव्याकुलितमानसैरेवं स्थेयमिति भाव इति। यतश्चैवमतः स इति यः पुरा संभूतनामा अनगार आसीदिदानीमस्मिन् काले 'सि त्ति' पूरणे, यद्वा(दाणिसिं ति) देशीयभाषयेदानी राजा महानुभागो महर्द्धिकः पुण्यफलोपेतश्च सन् दृष्टधर्मफलत्वेनाभिनिष्क्रमेति संबन्ध। अथवा सोपस्कारत्वाद्यत् स एव त्वमिदानी राजा महानुभागाताऽऽद्यन्वित इह जातस्तत्कर्माणि पुराकृतानीति पूर्वेण संबन्धः। कोऽर्थः? पुराकृतकर्मविजृम्भितमेवैतत्, कथमन्यथा तथाभूतस्यैवंविध-समृद्धयवाप्तिरिति भावः / यतश्चैवमतोऽभिनिष्क्रमेति संबन्धः / किं कृत्वेत्याह-त्यवत्वाऽपहाय भुज्यन्त इति भोगाद्रव्यनिचयाः कामा वा तानशाश्यताननित्यानादीयते सद्धिवे कैह्यते इत्यादानश्चारिधर्मस्तद्धेतोरभिनिष्कमाऽऽभिमुख्येन प्रव्रजितो भय, गृहस्थतायां हिन सर्वविरतिरूपचारित्रसम्भव इति भावः / पटन्ति च-"आयाणमेवा अणुचितयाहि इति / स्पष्टमिति सूत्रत्रयाऽर्थः। क एवमकरणे दोष इत्याह - इह जीविए राय! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमागो। से सोयई मधुमुहोवणीए, धम्म अकाऊण परम्मि लोए / 21 // इह जीविते मनुष्यसम्बन्धिन्यायुषि राजन्नशाश्वतेऽस्थिरे (धणियं तु | त्ति) अतिशयेनैव न तु ध्वजपटप्रान्ताऽऽद्यन्या स्थिरवस्तुसाधारणतया पुण्यानिपुण्यहेतुभूतानि शुभाऽनुष्ठानान्यकुर्वाणः स इति पुण्यऽनुपार्जक: शोचते दुःखाऽऽतः पश्चातापं विधत्ते मृत्युरायुःपरिक्षयस्तस्त मुखभिव मुखं मृत्युमुखं शिथिलीभवद्वन्धनाऽऽद्यवस्था तदुपनीतस्तथा विधकर्मभिरुपढौकितो मुत्युमुखोपनीतः सन् धर्म शुभाऽनुष्ठानमकृत्वाऽननुष्ठाय (परम्म त्ति) चस्य गम्यमान त्वात् परस्मिंश्च लोके जन्मान्तररूपे गत इति शेषः / नरकाऽऽ दिषु सह्यासातवेदनाऽऽतिशरीरः शशिनृपतिवत् किं न मया तदैव सदनुष्ठानमनुष्ठितमिति खिद्यत एवाधर्मकारीति सूत्राऽर्थः / स्यादेतत्, मृत्युमुखोपनीतस्य परत्रा वा दुःखाभिहतस्य स्वजनाऽऽदयस्त्राणाय भविष्यन्तिः, ततो न शोचिष्यते इत्याशड्क्याऽऽहजहेह सीहो व मियं गहाय, मचू णरं णेइ हु अंतकाले। न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मंऽसहरा भवंति / / 22 / / न तस्स दुक्खं विभयंति णायओ, न मित्तवग्गा ण सुया ण बंधवा। एगो सयं पचणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं / / 23 / / यथेत्यौपम्ये, इहेति लोके, सिंहो मृगपतिः, वेति पूरणे, यद्वा-वाशब्दोऽयं विकल्पाऽर्थे , ततो व्याघ्राऽऽदिर्वा मृगं कुरङ्ग गृहीत्वोपादाय प्रक्रमात म्वमुख परलोक वा नयतीति सम्बन्धः / एवं मृत्युः कृतान्तो, नरं पुरुष, नयति, हुरवधारणे, ततोनयत्येव, कदा? अन्तकाले जीवितव्याऽवसानसमये। किमुक्तं भवति? यथाऽसौ सिंहेन नीयमानो न तस्मै अलमेव मयमपि जन्तुर्मृत्युना, कदाचित् स्वजनस्ता साहाय्यं करिष्य त्यत आह-न तस्य मृत्युना नीयमानस्य माता वा पिता वा (भाय त्ति) वाशब्दस्येह गम्यमानत्वात् भ्राता वा काले तस्मिन् जीवितान्तरूपेऽश प्रक्रमाजी-वितव्यभागं धारयन्ति मृत्युना नीयमानं रक्षन्तीत्यंशधराः, यथा हि नृपाऽऽदौ स्वजनसर्वस्व मपहरति स्वदंविणदानतः स्वजनाऽऽदिभिस्तद्रक्ष्यते नेवं स्वजीवित - व्यांशदानतः तञ्जीवितं मृत्युना नीयमानम्। उक्तं हि.-" न पिता भ्रातरः पुत्राः, न भार्या न च बान्धवाः / न शक्ता मरणात्त्रातुं, शक्ताः संसारसागरे॥१॥" इति। अथवा--अंशो दुःखभागस्त हरन्त्यपनयन्ति येतेऽशहरा भवन्तीति इदमेवाभि व्यनक्तिआद्यव्याख्याने तु स्यादेतत्जीवितारक्षणेऽपि दुःखांशहारिणो भविष्यन्त्यत आह-नतस्य मृत्युना नीयमानस्य तत्काल भाविना दुःखेनात्यन्तपीडितस्य दुःखंशरीरं मानसं वा विभजन्ति विभागीकुर्वन्ति ज्ञातयो दूरवर्तिनः स्वजनाः न मित्रवर्गाः सुहृत्समूहा न सुताः पुत्राः, नबान्धवाः निकटवर्तिनः स्तजनाः, किंतु एकोऽद्वितीयः स्वयमात्मना प्रत्यनुभवति वेदयते दुःखं क्लेशं किमिति? यतः कर्तारमेवोपार्जथितारमेव, अनुयात्यनगुच्छति, किं तत् ?कर्म, येन तत्कृतं तस्यैव फलमुपनयतीति भाव इति सूत्राद्वयाऽर्थः। इत्थमशरणत्वभावनामभिधायैकत्वभावनामाह - चिचा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधण्णं च सव्वं / कम्मप्पबीओ अवसो पयाई, परं भवं सुंदर पावगं वा / / 24 // तमिक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं दहिउं तु पावगेणं / मज्जा य पुत्तो वि य णायओ य, दायारमण्णं अणुसंकमंति।। 25 / / त्यक्त्वा-उत्सृज्य, द्विपदं च भावीऽऽदि, चतुष्पदं चहस्त्यादि, क्षेत्राम्इक्षुक्षेत्राऽऽदि, गृहं धवलगृहाऽऽदि (धण त्ति) धनं कनकाऽऽदि, धान्य शाल्यादि, चशब्दाद् वरखाऽऽदि च, सर्व निरवशेष, ततः किमित्याहकम्मैवाऽऽत्मनो द्वितीय-मस्येति कर्माऽऽत्मद्वितीयोऽवशोऽस्वतन्त्र, प्रकर्षण याति प्राप्रोति प्रयाति, कं? परमन्यभवं जन्म (सुदर त्ति) विन्दुलोपात सुन्दर स्वर्गाऽऽदि, पापकं वा नरकाऽऽदि स्वकृत कम्मानुरूपमिति भावः। तत्र किमन्यदर्शनिनामिव सशरीर एव भवाऽन्तरं यात्युतान्यथेति? उच्यते औदारिकशरीराऽपेक्षया ऽशरीर एव, तर्हि तत् त्यक्तत्वेत्यत्रा का वार्तेत्याह-(तदिति) यत्तेन व्यक्तम् एकमद्वितीय तद् द्वितीयस्य जन्तोरन्यत्र संक्रमणात् तुच्छमसारमत एव कु Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त त्सितं शरीरं शरीरकमनयोस्तु विशेषणसमासः / (से) तस्य भवान्तरगतस्य सम्बन्धि चीयन्ते मृतकदहनाय इन्धनान्यस्था मिति चितिः काष्ठरचनाऽऽत्मिका, तस्यां गतं स्थितं चितिगतं दग्धवा, तुः पूरणे, पावके नाग्निना भार्या व पुत्रोऽपि च ज्ञातयश्च दातारमभिलषितवस्तुसम्पादयितारमन्यत्, अनुसंक्रामन्त्युष सर्पन्ति, ते हि गृहमनेनावरुद्धमास्त इति तद्वहिनिष्कास्य जनलज्जाऽऽदिना च भस्मसात्कृत्य कृत्या च लौकिककृन्यान्या क्रन्धु च कतिचिद्दिनानि पुनः स्वार्थतत्परतया तथाविधमन्य मेवाऽनुवर्तन्ते न तु तत्प्रवृतिमपि पृच्छन्ति, आस्तां तदनुममन मित्यभिप्राय इति सूत्रद्वयाऽर्थः। किंचउवणिज्जइ जीवियमप्पमायं, वण्णं जरा हरइ नरस्स राय ! / / पंचालराया! वयणं सुणाहि, मा कासि कम्माणि महालयाणि // 26 // उपनीयते ढौक्यते प्रक्रमात मृत्यवे तथाविधकर्मभिर्जीवित मायुरप्रमादं प्रमादं विनैव, आवीचिमरणतो निरन्तरमिस्यभिप्रायः, सत्यपिचजीविते वर्ण सुस्निग्धच्छाया ऽऽत्मकं जरा विश्रसा हरत्यपनयति नरस्य मनुष्यस्य राजन् ! चक्रवर्तिन् ! यतश्चैवमतः पञ्चालराज! पञ्चालमण्डलोद्भवनृपते!, वचनं वाक्यं शृण्वाऽऽकर्णय, किं तत्? मा कार्षीः कानि? कर्माण्यसदारम्भरूपाणि (महालयाणि त्ति) अतिशयमहान्ति महान्याऽऽलयः कर्माऽऽ'लेषो येषु तानि, उभयत्रा पञ्चेन्द्रिय व्यपरोपणकुणिमभक्षणाऽऽदीनीति सूत्राऽर्थः। एवं मुनिनोक्ते नृपतिराह-- अहं पि जाणामि जहेह साहू! जं ये तुमं साहसि वक्कमेयं / मोगा इमे संगकरा भवंति जे दुजया अजो! अम्हारिसेहिं॥२७॥ अहमपि न केवल भवान्नित्यपिशब्दाऽर्थः / जानाम्यवबुध्ये, तथेतिशेषः, यथा येन प्रकारेण इहास्मिन् जगति साधो! यत् (मे) मम त्वं साधयसि कथयसि, वाक्यमुपदेशरूपं वचः, एतत् यदनन्तरं भवतोक्तम्। तत् किं न विषयान्परित्यजसि? अत आह-भोगाः शब्दाऽऽदय इमे प्रत्यक्षाः सङ्गकराः प्रतिबन्धोत्पादका भवन्ति ये, यत्तदोश्च नित्याभिसम्बन्धात्ते दुःखेन जीयन्ते अभिभूयन्ते इति दुर्जया दुस्त्यजा इति यावत्। (अज्जो ति) आर्य! अस्मादृशैर्गुरुकर्मभिर्जन्तुभिरिति गम्यते! पठ्यते च -''अहं पिजाणामि जो एत्थ सारो, “पादत्रयं तदेव, अहमपि जानामि योऽत्र सारः-यदिह मनुजजन्मनि प्रधानं चारित्रधर्माऽऽत्मक, घस्य गम्यमानस्वाद्यच मे त्वं साधयसि, शेष प्राग्वदिति सूत्राऽर्थः। किंचहत्थिणपुरम्मि चित्ता! दटूर्ण नरवई महिड्डीयं / कामभोगेसु गिद्धेणं, नियाणमसुहं कडं // 28 // तस्स मे अपडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं। जाणमाणो विजं धम्मं, कामभोगेसु मुच्छिओ // 26 / / हस्तिनागपुरे (चित्ता इति) आकारोऽलाक्षणिकः, हे चित्रा ! चित्रनामन् मुने ! दृष्ट्वा नरपति सनत्कुमारानामानं चतुर्थचक्रवर्तिन महर्द्धिक सातिशयसंपद कामभोगेषूक्तरूपेषु गद्धेनाऽमिकाढावता निदानं जन्मान्तरे भोगाऽऽशंसाऽऽत्मकम शुभमशुभाऽनुबन्धि कृतं निर्वतितमिति // 28 // कदाचित्तत्र कृतेऽपि ततः प्रतिक्रान्तः स्यादत आह-(तस्स त्ति) सुव्यत्ययेन तस्मान्निदानात् (मे) ममाप्रतिक्रान्तस्याप्रति निवृत्तस्य, तदाहि त्वया बहुधोच्मानेऽपि न मचेतसः प्रत्यावृत्तिरभूदितीदर्मतादृशमनन्तरवक्ष्यमाणरूपं फलं कार्य, यत् कीदृगित्याह-(जाणमाणो वि ति) प्राकृतत्वाजानन्नप्यवबुध्यमानोऽपि यदहं धर्म श्रुतधर्माऽऽदिकं, कामभोगेषु सूञ्छितो गृद्धस्तदेतत्कामभोगेषु मूर्च्छनं मम निदानकर्मणः फलम्, अन्यथा हि ज्ञानस्य फलं विरतिरिति कथं न जानतोऽपि धर्माऽनुष्ठानावाप्तिः स्यादिति भावः / इति सूत्राद्वयाऽर्थः। पुनर्निदानफलमेवोदाहरणतो दर्शयितुमाह - नागो जहा पंकजलाऽवसण्णो, द₹ थलं नाभिसमेइ तीरं! एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा, ण भिक्खुणो भग्गमणुव्वयामो // 30 // नागो हस्ती, यथेति दृष्टान्तोपदर्शकः, पङ्कप्रधान जल पङ्कजल यत्कलमित्युच्यते, तत्राऽवसन्नो निमग्नः पङ्कजलावसन्नः सन् दृष्ट्वाऽवलोक्यं स्थलं जलविकलभूतलं (न) नैवाभिसमेति प्राप्नोति तीर पारमपेर्गम्यमानत्वात्तीरमप्यास्तां स्थलमिति भावः। इत्येवंविधनागवत्, वयमित्यात्मनिर्देशे, कामगुणेषुत्करूपेषु गृद्धा मूर्छिता न भिक्षोः साधोर्गि पन्थानं सदाचारलक्षणम्, अनुव्रजामोऽनुसरा मः। अमी हि पङ्कजलोपमाः कामभोगाः, ततस्तत्परतन्त्रतया नतत्परित्यागतो निरपायतया स्थलमिव मुनिमार्गमवगच्छन्तो ऽपि पङ्कजलावमनगजवद्वयमनुगन्तुं शक्नुम इति सूत्राऽर्थः। पुनरनित्यतादर्शनाय मुनिराह - अच्चेइ कालो तुरंति राइओ, न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा उवेच भोगा पुरिसं चयंती, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी॥३१॥ अत्येति अतिक्रामिति, कालो यथाऽऽयुःकालः, कि मित्येव-मुच्यते? अत आह त्वरन्ति शीघ्रं गच्छन्ति रात्रयो रजन्यो, दिनोपलक्षणं चैतत्, ततोऽनेन जीवितव्यस्यानित्यत्वम्। उक्तं हि- "क्षणयामदिवसमासच्छलने गच्छन्ति जीवितदलानि / इति विद्वानपि कथमिह, गच्छसि निद्रावशं रात्रौ? // 1 // ' अथवा 'अत्येति अतीव याति, कोऽसौ? कालो. कुत एतत् ? यतः त्वरन्ति रात्रयो, न चापि भोगाः पुरुषाणां नित्याः शाश्वताः अपेभिन्नक्रमत्वान्न केवलं जीवित मुक्तनीतितः न नित्यं, किं तु भोगा अपि, यत उपेत्य स्वप्रवृत्या, न तु पुरुषाभिप्रायेण भोगाः पुरुष त्यजन्ति परिहरन्ति, कमिव क इवेत्याह-द्रुमं वृक्ष यथा Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1280 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदत्त क्षीणानि विनष्टानि फलानि यस्यासौ क्षीणफलस्तं, वेत्यौपम्ये, उक्तं हि - "मिव पिव विव व्वव विअ इवार्थ वा" ।।८।२।१८२|भित्रक्रमश्चाय ततः पक्षीव विहग इव, फलोपमानि हि पुण्यानि, ततस्तदपगमे क्षीणफल वृक्षमिव पुरुषं पक्षिवद्रोगा विमुञ्चन्तीति सूत्रार्थः / यत एवमत :जईऽसि भोगे चइउं असत्तो, अज्जाइँ कम्माइँ करेहि राय? धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकंपी, तं होहिसि देवो इओ विउव्वी // 132 / / यदि तावदसि त्वं भोगान्त्यक्तुम् अपहातुम्, अशक्तः असमर्थः, पठ्यत च-(जइ तसि भोगे चइउं असत्तो ति) यदि चैव तावत् कर्तुमशक्तस्ततः किमित्याह-आर्याणि हेय धर्मेभ्योऽतिनि-स्त्रिंशताऽऽदिभ्यो दूरयातानि शिष्टजनोचिता नीति यावत्, कर्माण्यनुष्ठानानि कुरु राजन्! धर्मे प्रक्रमाद् गृहस्थधर्मे सम्यगदृष्ट्यादिशिष्टयाऽऽचरिताऽऽचारलक्षणे स्थितः सन् सर्वप्रजानुकम्पी समस्तप्राणिदयापरः, ततः किं फल मित्याह तत इत्यार्यकर्मकरणाद्भविष्यसि देवो वैमानिक इत इत्यस्मान्मनुष्यभवादनन्तरम्। (विउवि त्ति) वैक्रिय शरीरवानित्यर्थ इति वृद्धाः गृहस्थधर्मस्यापि सम्यक्त्व देशविरतिरूपस्य देवलोकफलत्वेन उक्तत्वादिति भावः / इति सूत्रार्थः। एवमुक्तोऽपि यदाऽऽसौ न किञ्चित्प्रतिपद्यते तदा तदविनेयतामवधार्यमुनिराह - न तुज्झ भोए चइऊण बुद्धी, गिद्धोऽसि आरंभपरिग्गहेसु। मोहं कओ इत्तिउ विप्पलावो, गच्छामि राय! आमंतिओऽसि / / 33 / / नेति प्रतिषेधे, तव भोगान शब्दाऽऽदीनुपलक्षणत्वादनार्थ कर्माणि वा. (चइऊण ति) त्यक्तुम्, यद्वा-सोपष्कारत्वाद्भोगाँ स्त्यक्त्वा धर्मो मया विधेय इति बुद्धिरवगतिः, किं तु गृद्धो मूर्छितोऽसि भवसि, केषु? आरम्भपरिग्रहेसुअवद्यहेतुषु व्यापारेषु चतुष्पदद्विपदाऽऽदिस्वीकारेषु च (मोह ति) मोघं निष्फलं यथा भत्येवं सुपव्यत्ययाद्वा मोघोनिष्फलो मोहेन वा पूर्वजन्मनि मम भ्राताऽऽसीदित स्नेहलक्षणेन कृतो विहित एतावान् विप्रलापो विविधव्यर्थवचनोपन्यासाऽऽत्मकः संप्रति तुगच्छामि व्रजामि राजन्नामन्त्रिः संभाषितोऽनेकार्थत्वा द्धात्नांतूनां पृष्टो वाऽसि भवसि / अयमाशयः अनेकधा जीवितानित्यत्वाऽऽददर्शनद्वारेणानुशिष्यमाणस्यापि ते न मनागपि विषयविरक्तिरित्यविनेयत्वादुपेक्षैव श्रेयस्करी / उक्तं हि- 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधि कक्लिश्यमानाविनेयेषु।' तत्त्वा०-६ सू०७ अ) इति सूत्रार्थः / इत्थमुक्त्वा गते मुनौ ब्रह्मदत्तस्य यदभूतदाहपंचालराया वि य बंभदत्तो, साहुस्स तस्स वयणं अकाउं। अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे, अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो॥३४॥ (पंचालराया वि य त्ति) अपिः पुनरर्थे , चः पूरणे, ततः पञ्चालराजः पुनर्ब्रह्मदत्तोब्रहादत्ताभिधानः साधोस्तपस्विन स्तस्यानन्तरोक्तस्य वचनं हितोपदेशदर्शकं वाक्यमकृत्या वज्रतन्दुलवत् गुरुकर्मतयाऽत्यन्त दुर्भेदत्वादननुष्ठाय अनुत्तरान्सर्वोत्तमान् भुक्त्वा अनुपाल्य कामभोगानुक्तरूपाननुत्तरे स्थित्यादिभिः सकलनरकज्येष्ठे अप्रतिष्ठान इति यावत्, स ब्रह्मदत्तो नरके प्रतीते प्रविष्टः तदन्तरुत्पन्नः तदनेन निदानस्य नर कपर्यवसानफलत्वमुपदर्शित भवतीति सूत्रार्थः। इह चास्य शेषवक्तव्यतासूचिका अपि नियुत्किगाथाः पञ्च दृश्यन्ते। तद्यथाइत्थीरयणपुरोहियभिजाणं वुग्गहो विणासम्मि। सेणावइस्स भेओ, वक्कमणं चेव पुत्ताणं / / 355 / / संगाम अत्थिभेओ, मरणं पुण चूयपायउजाणे। कडगस्स य निब्मेओ, दंडो य पुरोहियकुलस्स / / 356 / / जउघरपासायम्मि य, दारे य संवरे य थाले य। तत्तो अ आसए हथिए य तह कुंडए चेव / / 357 // कुक्कुडरहतिलपत्ते, सुदंसणो दारुण य नयणिल्ले। पत्तच्छिज्जसयंबर, कलाओ तह आसणे चेव / / 358 / / कंचुयपज्जुण्णम्मि य, हत्थो वणकुंजरे कुरुमई य। एए कन्नालंभा, बोद्धव्वा बंभदत्तस्स // 356 / / एतास्तु विशिष्टसंप्रदायाभावान्न विवियन्ते। सम्प्रति प्रसङ्गत एव चित्रवक्तव्यतोच्यतेचित्तो वि कामेहिं विरत्तकामो, उदत्तचारित्ततवो महेसी। अणुत्तरं संजम पालइत्ता, अणुत्तरं सिद्धिगई गउत्ति॥ 35 // त्ति बेमि / / चित्रोऽपि जन्मान्तरनामतश्चित्राभिधानस्तपस्व्यपि, अत्राऽपि अपिः पुनरर्थे , ततश्चित्रः पुनः कामेभ्योऽभिलषणी यशब्दाऽऽदिभ्यो विरक्तः पराड्मुखीभूतः, कामोऽभिलाषोऽ स्येति विरक्तकामः, उदात्तप्रधान चारित्रांच सर्वविरतिरूप, तपश्च-द्वादशविधं यस्य स उदात्तचारित्रतपाः। पाठान्तरेउदग्रचारित्रतपा वा महेषी महर्षिर्वा, अनुत्तरं सर्वसंयम स्थानोपरिवर्तिन (संजम त्ति) संयममाश्रवोपरमणाऽऽदिकं पालयित्वाऽऽसेव्य अनुत्तरां सर्वलोकाऽऽकाशोपरिवर्तिनीमति प्रधानां वा सिद्धिगतिं मुक्तिनाम्नीं गतिं गतः प्राप्तः / इति सूत्राऽर्थः / इतिः परिसमाप्ती, व्रवीमीति पूर्ववत / उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्ते च पूर्ववत्। उत्त०१३ अ०।०। स्था०। "ब्रह्मदत्ते मृति प्राप्ते, द्वादशे चक्रवर्तिनि। स्त्रीरत्न तत्सुतोऽवादीद्भोगान् भुड्क्ष्व मया सह / / 2 // तयोक्तं न मम स्पर्शः, सह्यते चक्रिणं विना। तं प्रत्याययितु वाजी, मुखाद्यावत्कटीं तया / / 3 / / रस्पृष्टः करेण तत्कालं, गलद्रेतः क्षयान्मृतः / तथाऽप्यपत्ययतस्यकत्वालोहमयनरम // 4 // परिरेभे तया सोऽपि, देवादाशु व्यसीयत। Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभदत्त 1281 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभदेवयाग ततोऽभूत्यत्ययस्तस्य, दृष्टं को वा न मन्यते ? // 5 // " आ० क०१अ० त०। स्था०। अजितस्वामिनः सुव्रतस्वा मिनश्च प्रथमभिक्षादायके, आ० म० 1 अ०। नि० चू० / स्था। बंभदत्ते णं राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तधणूइं उड्डं उच्चत्तेणं सत्त य बाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए अपइट्ठाणे णरए नेरइयत्ताए उववन्ने / स्था० १०ठा०। तथा चक्षुर्विकलो ब्रह्मदत्तचक्री रात्रौ द्विनवतिसहस्त्राधि कलक्षरुपाणि करोति, तानि कि चक्षुर्विकलानि, स्वाभावि कानि वेति प्रश्ने, उत्तरम्ब्रह्मदत्तचक्री यानि रूपाणि विकुर्वति तानि प्रायशश्चक्षुर्विकलानीति प्र० 460 सेन०३ उल्ला०॥ बंभदीव पुं० (ब्रहाद्वीप) आभीरविषये कृष्णावेणानद्योर्मध्यद्वीपे, नि० चू० 13 उ०। पिं०। बंभदीवियसीह पुं० (ब्रहाद्वीपिकसिंह) ब्रह्मद्वीपिकाशाखोफ्लक्षिते सिंहनामके आचार्ये, नं०। बंभदीविया स्त्री० (ब्रह्मदीपिका) ब्रह्मद्वीपे आर्यसमितिसूरी णामन्तिके प्रवाजितैः पादलिप्तप्रमुखैस्तापसपञ्चशतकैः प्रचलितायां शाखायाम्, कल्प। थेरेहिंतो णं अज्जसमिएहिंतो गोयमसगोत्तेहिंतो इत्थ णं बंभदीविया साहा णिग्गया। आभीरदेशे अचलपुराऽऽसन्ने कन्नावेनानद्योर्मध्ये ब्रह्मद्वीपे पञ्चशती तापसानामभूत, तेष्वेकः पादलेपेन भूमाविव जलोपरि गच्छन् जलालिप्तपादो वेन्नामुत्तीर्य पारणार्थ याति, ततः अहो एतस्य तपः शक्तिः जैनेषु न कोऽपि प्रभावीति श्रुत्वा श्राद्धः श्रीवजस्वामिमातुला आर्यसमितसूरय आहूताः तैरूचे-स्तोकमिदं पादलेपशक्तिरिति / श्राद्धस्ते स्वगृहे पादपादुका धावनपुरस्सरं भोजिताः ततस्तैः सहैव श्राद्धा नदीतटमगुः, सच तापसोधायमालम्ब्य नद्यां प्रविशन्नेव बुडितुं लग्नः, ततस्तेषामपभाजना, इतश्च तत्राऽऽर्मसमित सूरयोऽभ्येत्य लोकबोधनाय योगचूर्णं क्षिप्तवा ऊचुर्वन्ने! परम्पारं यास्याम इत्युक्ते कूले मिलिते, बभूव बाश्चर्यम्, ततः सूरयस्तापसाऽऽश्रमे गत्वा तान्प्रतिबोध्य प्रावाजयन्, ततस्तेभ्यो ब्रह्मद्वीपिका शाखा निर्गता / कल्प० 2 अधि०८क्षण। अचलपुरश्रावकसमुदायकथा चेयम् - "बहभद्दसालभावे-ण पउरसोमणससंगयत्तेण। निजिणिय कणयअचल, अचलपुरं अत्थि वरनयर / / 1 / / तत्थऽत्थि जइणपवयण-पभावणाकरणपवणमणकरणा। उस्सग्गऽववायविऊ, बहवे सुमहड्डिया सड्डा / / 2 / / कन्नाविन्नानइअं-तरम्मतत्थेव तावसा बहवे। निवसिंसु तत्थ एगो, विसारओ पायलेवम्मि॥३।। सोपयलेवबलेण, निच्चं संचरइ सलिलपूरे वि। थलमग्गे इव धणिय, जणयंतो विम्हयं लोए॥ 4 // तं दटुं गुद्धजणो, दुस्सहमिच्छत्ततावसं तत्तो। महिसो विवऽन्नदसण-पंके निस्संकमणुखुत्तो॥५॥ जह पचक्खं अम्हा–ण सासणे दीसए गुरुपहावो। नतहा तुम्ह इय सो, धिट्टो धरिसेइ सङ्कजणं / / 6 / / मिच्छत्तथिरीकरणं, मा मुद्धाणं हवेउ इय सड्ढा / उरसग्गपयं लीणा, तं दिट्ठीए विन नियंति॥७॥ अह मउलियकुमयपमो-यकइरवो वइग्सामिमाउलओ। सिरिअज्जसमियसूरी, सूरु व्व समागओ तत्थ।। 8 // सव्विड्डीए सव्वे, वि सावया ते लहुं समागम्म। भूमिलितमउलिकमला, गुरुपयकमलं नमसंति / / 6 / / वाहजलुल्लियनयणा, सुदीणवयणा, य निययतित्थस्स। संसंति तावसकयं, तामसमसमंजसं सव्वं / / 10 // अह भणइ गुरू सड्ढा! अविदड्डजणं इमो कवडबुद्धी। केणाऽवि पायलेवप्पमुहपयारेण वंचेइ॥११॥ नहुकाऽवितवोसत्ती, तवस्सिणो तावसस्स एयस्स। तंसोउ ते सड़ा, वंदिय गुरुणो गया सगिहं / / 12 // अववायकरणसमय, नाउं ते सावया विमलमइणो। अह तं तावसमइआ-दरेण भुत्तुं निमंतंति // 13 // सो विय बहुलोयजुओ, पत्ती एगस्त सावगस्स गिहे। तं दटुटुं समयन्नू, सहसा अब्भुट्ठिए सो वि।। 14 // उववेसिय भणइ इम, पक्खालावेसु निययपयपउमं। न हवइ गुरुएसु धुवं अत्थीणं पत्थगा विहला तस्स अणिच्छतस्य वि, पाए पाऊय उसिणनीरण। तह सो धोयइ जह तत्थ लेवगंधो विन हुठाइ॥१६॥ गरुयपंडिवत्तिपुव्वं, तं भुंजावइन सो पुणो गुणइ। भोयणआसायं पिह, भाविविगोवणभएण भिस / / 17 // जलथंभकुंडुदंसण-समुस्सुएणं जणेण परियरियो। सरियानीरं पूणरवि, जिमिउसो तावसो पत्तो।।१८।। अज्ज वि य लेवअसो, कोऽवि हविज्ज त्ति चितिय पविट्ठो। नइतीरे बहु वुडो, पकुणतो बुडबुडारावं / / 16 / / किचिरममुणा माया-विणा वयं वंचिय त्ति चिंतता। मिच्छत्तिणोऽवि जाया, तयाऽणुरत्ता जइणधम्म / / 20 // तक्कालं तुमुलकरे, नयरजणे तहय दत्ततालम्भि। पत्ता समियाऽऽपरिया, फुरंतबहुजोगसंजोगा / / 21 / / काउमणा जिणसासण-पभावणं सरिय अंतरालम्मि। जोगविसेसं खिविउं, लोयसमक्खं इय भणिसु // 22 // विण्णे! तुह परतीरे, गंतु वयमिच्छिमो तओ झत्ति। तत्तडदुर्ग पि मिलियं, सायं, चिंचादलजुगं व / / 23 / / तत्तो अमंदआणंदपुन्नचउवन्नसंघपरियरिया। सिरिअजसमियगुरुणो, परतीरभुवं समणुपत्ता / / 24 / / तेतावसा निएउं, आयग्यिपयंसियप्पभावंतं। सव्वे गयमिच्छत्ता, तेसिं समीवे पवजिंसु / / 25 / / ते बंभद्दीवनिवा-सिणु त्ति तेसिं पहाणवासम्मि। बंभद्दीवगनामा, समणा सुयविस्सुया जाया।॥ 26 // इय समियकुमयतावा, भविजणमण नयणसिहिपमोयकरा। नवजलहरसारिच्छा, गुरुणो अन्नत्थ विहरिंसु // 27 // ते सावया वि सुइर, सिरिजिणवरपवयणं पभावित्ता। परिपालिय गिहिधम्मा, सुगईए भायणं जाया // 28 // " 'इत्युत्सर्गापवादद्वयकुशलधियो दग्धमिथ्यात्वकक्षाः, विस्फूर्जद्धर्मलक्ष्या अचलपुरवर श्रावकाः सुष्ठु दक्षाः। श्रीमत्तीर्थेशतीर्थस्वपरहितकरोत्सर्पणायै बभूवुः तस्माद्व्याः ! विवेकद्रुमघनसलिलं कौशलं तत्र धत्त / / 26 // " ध०र०२ अधि०६ लक्ष०। बंभदेवयाग न० (ब्रह्मदेवताक) ब्रह्माभिधदेवताके, सू० प्र० 10 पाहु० 12 पाहु० पाहु०। Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभप्पहाण 1282 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभसेण बंभप्पहाण त्रि० (ब्रह्मप्रधान) ब्रह्म ब्रह्मचर्य कुशलानुष्ठानं वा, प्रधानमुत्तम क्षेत्राज्ञाः परमब्रह्म विस्फुसलिङ्ग कल्पः, तेषां च ततः पृथग्भावेन ब्रह्मत्तात यस्य / ब्रह्मचर्येणोत्तमे, औ०। एव कश्चिदपरो हेतुरिति, सा तल्लयेऽपि तथावि धैव, तद्वदेव भूयः बंभबंधु पुं० (ब्रह्मबन्धु) जातिमात्रब्राहाणे, पिं०। निर्गुणे, स्था० 5 ठा० पृथक्तवाऽऽपत्तिः, एवं हि भूयो भव भावेन न सर्वथा जितभयत्वं, 3 उ०। सहजभवभावव्यवच्छित्तौ तु तत्तत्स्वभावतया भवत्युक्तवत् शक्तिरूपेबंभयारि (ण) पुं० (ब्रहाचारिन) ब्रह्मणश्चरणं ब्रह्मचारः, स विद्यते यस्यासो णापि सर्वथा भयपरिक्षय इति निरुपचरितमेतत, नसकृद्धिचटनस्वभावत्व ब्रह्मचारी / आतु०। मैथुनविरते संयते, आव० 3 अ० / नवविधब्रहा- कल्पनया-ऽद्वैतऽप्येवमेवादोष इति न्याय्यं वचः, अनेक दोषोपपत्तेः / चर्यगुप्तिगुप्ते, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०६ उ०।सूत्र० "जहा विरालाऽऽ- तथाहि-तद्विचटनं शुद्धादशुद्धाद्वा ब्रह्मण इति निरूपणीयमेतत्, वसहस्स मज्झे, न भूसगाण वसही पसत्था। एमेव इत्थीणिलयम्स मज्झे, शुद्धविचटने कुतम्तेषामिहाशुद्धिः, अशुद्धविचटने तु तत्र लयोऽपार्थकः, ण बंभयारिस्स खमो णिवासो।।१।।" उत्त० 32 अ० / पार्श्वनाथस्य न चैवमेकमविभाग च तदिति, अनेकत्वे च परमताङ्गीकरणमेव, चतुर्थगणधरे, स्था०८टा०। स०। प्रश्न० / कल्प०। उत्ता तथा "जो तद्विभागानामेव नीत्या आत्मात्वादिति / एतेन यदाह - देइ कणयकोडी, अहवा कारेइ कणयजिणभवणं / तस्स न तत्तिअ पन्न, "परमब्रह्मण एते, क्षेत्रवि ऽशा व्यवस्थिता वचनात्। जत्तिअ बंभव्वए धरिए // 1 // एतद् ब्रह्मचर्य किं दिवससत्कं, वह्रिस्फुलिङ्गकल्पाः,समुद्रलवणोपमास्त्वन्ये॥१॥ यावज्जीवसम्बन्धि वेति प्रश्ने, उत्तरम्-एतद्बहाचर्य मुख्यवृत्त्या सादिपृथक्तवममीषा-मनादि वाऽहेतुकाऽऽदि वा चिन्त्यम्। यावजीवसम्बन्धि, अध्यवसायविशेषेण दिवसाऽऽदिसम्बन्ध्यपीति। 32 युक्त्या ह्यतीन्द्रियत्वात्, प्रयोजनाऽभावतश्चैव / / 2 / / कूपे पतितोत्तारण-कर्तुस्तदुपायमार्गणं न्याय्यम्। प्र० सेन००४ उल्ला०। ननु एतितः कथमयमिति, हन्त तथादर्शनादेव / / 3 / / बंभलिज न० (ब्रह्मलीय) सुस्थितसुप्रतिबुद्धाभ्यां निर्गतस्य कोटिक भवकूपपतितसत्त्वो-तारणकर्तुरपि युज्यते ह्येवम्। गणस्य प्रथमकुले, कल्प०२ अधि० 8 क्षण। तदुपायमार्गणमलं, वचनाच्छेषव्युदासेन / / 4 / / बंभलोय पुं० (ब्रह्मलोक) ब्रह्मनाभकेन्द्रपालिते पञ्चमदेवलोके, स्था० एवं चाऽद्वैते सति, वर्णविलोपाऽऽद्यसङ्गतं नीत्या। 10 ठा०। प्रज्ञा०। औ०। द०प० / उपा०। (तद् वक्तव्यता 'ठाण' शब्दे ब्रह्मणि वर्णाभावात, क्षेत्राविदो द्वैतभावाच्च / / 5 / / " चतुर्थभागे 1707 पृष्ट गता) इत्यादि। एतदपि प्रतिक्षिप्तम्, श्रद्धामात्रगम्यत्वात्, दृष्टेष्टा ऽविरुद्धस्य "बंभलोए णं कप्पे छ विमाणपत्थडा पण्णत्ता। तं जहाअरए, वचनस्य वचनत्वात्, अन्यथा ततः प्रवृत्यसिद्धेः, वचनाना बहुत्वात मिथो विरए नीरए, निम्मले, वितिमिरे, विसुद्धे ।"स्था० 6 ठा० / विरुद्धोपपत्तेः, विशेषस्य दुर्लक्ष्यत्वात्, एकप्रवृत्तेरपरयाधितत्वात्, प्रव०। विशे०/ अनु०॥ तत्त्यागादितरप्रवृत्तौ यदृच्छावचनस्याप्रयोजकत्वात् तदनन्तरनिराबंभवं पुं० (ब्रह्मवित) ब्रह्माऽशेषमलकलङ्कविकल्पयोगिशर्म वेत्तीति करणादितिन ह्यदुष्ट ब्राह्मणं प्रव्रजितं वाऽवमन्यमानो दुष्टं वा मन्यमानः ब्रह्मवित् / यदि वा-अष्टादशधा ब्रह्मेति / ब्रह्मवेत्तरि, 'धम्मवं बंभव।" तद्भक्त इत्युच्यते, नच दुष्टतरावगमो विचारणमन्तरेण, विचारश्च युक्तिगर्भ आचा०१ श्रु०३ अ०। इत्यालोचनीयमेतत्, कूपपतितोदाहरण मप्युदाहरणभावं, न्यायानुपबंभवइ पुं० (ब्रह्मवतिन्) ब्रह्मणो मोक्षस्य व्रतं ब्रह्मव्रतम्, तद्यस्यास्तीति। पत्तेः, तदुद्भुताऽऽदेरपितथादर्शनाऽभावात्, ताचोत्तारणे दोषसम्भवात्, कुशलानुष्ठायिनि, सूत्रा० 2 श्रु०६ अ० / ब्राह्मणजातिभक्ते, सूत्रा०२ तथा कर्तुमशक्यत्वात्, प्रयासनैष्फल्यात. न चोपायमार्गणमपि न U०६अ। विचाररूपं, तदिहाऽपि विचारोऽनाश्रयणीय एव,दैवाऽऽयत्तं च तत्, बंभवज्झा स्वी० (ब्रह्मवध्या) ब्रह्महत्यायाम्, ब्रह्मबधजनिते (नि० चू० अतीन्द्रिय च दैवमिति युक्तेरविषयः, शकुनाऽऽद्यागमयुक्तिविषय ताया 12 उ०) पापे, बृ० 1 उ०२ प्रक०। तु समान एव प्रसङ्ग इतरत्राऽपि इति, तस्माद्यथाविषयं त्रिकोटिपरिशुद्धबंभवडिंसय न० (ब्रह्मावतंसक) ब्रह्म बृहत्वात्सकलो लोकस्तदवतंसकं विचारशुद्धितः प्रवर्तितव्यम्। ल०। मुकुटरूपम्। सिद्धशिलायाम, स० 12 सम०। बंभविज्ञा स्त्री० (ब्रह्मविद्या) परमार्थप्रकारे, आ०म० 1 अ० / बभवण न० (ब्रह्मवन) षष्ठदेवलोकाय स्वनामख्यात विमाने, स०११ | बंभसंति पुं०(ब्रह्मशान्ति) स्वनामख्याते महर्द्धिकयक्षे, जी०१ प्रति०। सम०। बंभवयन(ब्रह्मवत) ब्रह्मचर्य, नि० चू०१०। "शक्यं ब्रह्मव्रत घार, बंभसाहण पुं०१ (ब्रह्मसाधन) ब्रह्म ज्ञान साधनं यस्य स ब्रह्म साधनः / शूरैश्च न तु कातरैः / करिपर्याणमुद्वाह्यं करिभिर्न तु रासभैः // 1 // ", अथवा-ब्रह्म आत्मा, स एव साधने यस्य सः। ब्रह्मज्ञान साधनके, आत्मस०१ सम०। महा०। साधनके च। अष्ट०२८ अष्ट०। बंभवादि(ण) पुं० (ब्रह्मवादिन) ब्रह्म वदति तच्छीलश्चेति ब्रह्मवादी। | बंभसुत्तय न० (ब्रहासूत्रक) यज्ञोपवीते, आ० म०१ अ०। ब्रह्मद्वैतवादिनि, सम्म०१ काण्ड। (तद्वादश्च 'एगावाइ' शब्दे तृतीय बंभसेण पुं० (ब्रह्मसेन) ऋषभदेवस्य पुत्रशतकान्तर्गत द्विचत्वारिंशत्तमे भागे 35 पृष्ठे दर्शितः / (आता' शब्दे द्वितीयभागे 166 पृष्ठे च | पुत्रो, कल्प०१ अधि०७ क्षण। वाराणसीवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, आत्मभेदप्रस्तावे उपदर्शितः) लेशतस्त्विह तन्मत दूष्यते-ता हि | ध०२०। ती०॥ Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभसेण 1283 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बंभसेण 'गङ्गाविभूषिता नन्दि-कलिता वृषभूषिता। शम्भोर्मूर्तिरिवात्रास्ति पुरी वाराणसी वरा // 1 // दारिद्रयमुद्रितस्तत्र, ब्रह्मसेनोऽभवद्वणिक् / यशोमती च तत्पत्नी, सोऽन्यदाऽगान बहिः पुरात्।।२।। भव्यानां धर्ममाख्यान्तं दृष्ट्वोद्यानगतं मुनिम्। प्रणम्य मुद्रितः श्रेष्ठी. निषसाद तदन्ति के // 3 // मुनिराख्यदहो भव्याः! यावजीवोऽयमेजति। तावदाहारमादत्ते, तावत् कर्माणि चार्जयेत् / / 4 / / ततोऽप्यनन्तदुःखानि, सहतेदुःसहान्यसो। तस्मात्सुखैविणाऽऽहार - गृद्धिस्त्याज्या मनीषिणा // 5 // श्रेष्ठयूचेऽर्थादशक्योऽय-मुपदेशः प्रभो! ननु। मुनिः प्रोचे गृहस्थाना-मस्ति भोः! पौषधव्रतम्॥६॥ तत्राऽऽहारागसत्कारा-ऽब्रह्मव्यापारवर्जनम्। देशतः सर्वतो वाऽपि, कर्तव्यं द्विविधं त्रिधा / / 7 / / यावत्कालमिदं धन्यो, विभर्ति श्रावको व्रतम्। तावत्काल स विज्ञेयो, यत्याचारानुपालकः / / 8 / / श्रुत्वेत्यत्रान्तरे कश्चि-च्छ्राद्धः क्षेमधेराभिधः। बभाषे पौषधाऽऽख्येन, व्रतेनानेन म कृतम् / / 6 / / श्रेष्ठयूवेऽथ मुनि नत्वा, किं विद्वेषोऽस्य पौषधे?। प्रकृत्या भद्रकस्याऽपि, जातस्य श्रावके कुले॥ 10 // मुनिः स्माऽऽह भवादस्मात्, तृतीयेऽयं भवेऽभवत्। नगर्या किल कौशाम्ब्यां, क्षेमदेवाभिधो वणिक् / / 11 / / भ्रातरो तत्रा चाऽभूतां, महेभ्यो श्रावकोत्तमौ। जिनदेवाभिधो ज्येष्ठौ, धनदेवः कनिष्ठकः / / 12 // कुटुम्बभारमारोप्य, जिनदेवोऽन्यदाऽनुजे। पौषधं पौषधागारे, प्रत्यहं विधिना व्यधात् / / 13 // अन्यदा पौषधरथस्य, तस्योत्पेदेऽवधिस्ततः। ज्ञात्वा ज्ञानोपयोगेन सोऽवादीदनुजं यथा / / 14 // वत्सावशिष्टमायुस्ते, नूनं जाने दिनान् दश। विधेहि बान्धव स्वार्थ , सावधानमना भृशम् // 15 // धनदेवस्ततः कृत्वा, चैत्ये पूजां गरीयसीम्। दत्त्वा दानं च दीनाना-मदीनो निर्निदानकम्॥१६॥ संघं च क्षमयित्वाऽसौ, विधायानशन सुधीः। तृणसंस्तारके तस्थौ, स्वाध्यायध्यानतत्परः / / 17 // क्षेमदेवोऽथ तीव-मूचे भो भोः। कथं भवेत्? | गृहस्थस्य ससंगत्वा-दवधिज्ञानमीद्दशम? ||18 // अथैतदपि चेत् सत्यं, भवेद्भद्रंततो भृशम्। ग्रहीष्ये पौषधं ज्ञान-भानोः पूर्वाचलोपमम् // 16 / / धनदेवोऽथ तत्राह्नि, स्मरन पञ्चनमस्क्रियामा विपद्य द्वादशे कल्पे, इन्द्रसामानिकोऽजनि / / 20 // कलेवरस्य तस्याऽऽशु, यथा संनिहितामरैः। गन्धाम्बुपुष्पवृष्ट्याद्यैश्चक्रैतष्टैर्महामहः // 21 // क्षेमदेवोऽपि वीक्ष्यैत-दीषच्छ्रद्धालुतां दधतः। पौषधं प्रायशश्चक्रे, धर्मकामो यदा तदा / / 22 // कृत्वाऽऽषाढवतुर्मासे, सोऽन्यदा पोषधव्रतम्। तपस्विन्यां तपस्ताप- क्षुत्तृडार्को व्यचिन्तयत्।। 23 / / अहो! दुःखमहो ! दुःखं, क्षुत्तृधर्माऽऽदिसंभवम। एवमाातिचर्याऽसौ, पौषधं हि ततो मृतः / / 24 // व्यन्तरेषु सुरो भूत्वा, सोऽभूत क्षेमंङ्करो ह्ययम्। यत्पौषधान्मृतः प्राक् तत, त्रस्तोऽद्यापि तदाख्यया।। 25 / / ब्रह्मसेन इति श्रुत्वा, प्रणिपत्य पुनर्मुनिम्। पौषधव्रतमादाय, धन्यंमन्यो ययौ गृहम् // 26 // ततः प्रभृति स श्रेष्ठी, सुखेन प्राप्तजीविकः / कियत्कालमतीयाय, कुर्वाणं पौषधव्रतम् / / 27 / / अन्यदा तत्पुराधीशे, मृतेऽकस्मादपुत्रिणि। पुरेऽरिभिर्भज्यमाने, श्रेष्ठ्यसौ शस्तमानुषः // 28 // गत्वा मगधदेशेष ग्रामे प्रत्यन्तवर्तिनि। कस्मिन्नाजीविकाहेतोरध्युवास विधेर्वशात्॥२६॥ एकदा सतु संप्राप्ते, चतुर्मासकपर्वणि। धर्मानुष्ठानकरणे, लालसोध्यातवानिति // 30 // अहो! मे हीनपुण्यत्व-महो! मे विधिवक्रता। यदहं न्यपतं स्थान, साधुसाधर्मिकोज्झिते।।३१।। अभविष्यदर्हच्चैत्य, मा चेत्तत्तदा मुदा। विधिसारमवन्दिष्ये, द्रव्यतो भावतोऽपि च / / 32 // गुरवोऽप्यभविष्यश्चे-दासर्वत्र निःस्पृहाः। अदास्यं द्वादशाऽऽवर्त, वन्दनं तत्तदहिषु / / 33 / / एवं विचिन्त्य स श्रेष्ठीः श्रेष्ठधीर्गहकोणके। स्वाऽऽयत्तं पौषधं चक्रे. कर्मव्याधिसदौषधम् // 34 / / इतश्च तद् गृहे नित्यं, क्रयविक्रयणच्छलात्। चत्वारः पुरुषाः केचि-निषेदुर्दुष्टबुद्धयः / / 35 / / ततश्च तैनरतिः , श्रेष्ठिनः पौषधक्षणः / सब्रह्मा ब्रह्मसेनोऽपि, कालेऽस्वाप्सीद्यथाविधि / / 36 / / निशीथप्रहरादूर्द्ध, तस्मिन् सुप्तेऽथ ते नराः। प्रविश्य तत्रा खात्रोणाऽऽ-रेभिरे मोषितुं गृहम् / / 37 / / प्रबुद्धः श्रेष्ठ्यथो गेह, मुष्यमाणं विदन्नपि। मनागपि शुभध्याना-नाचालीदचलाचलः / / 38 // संवेगतिशयात्सोऽनु-शिष्टिमित्यात्मनो ददौ। रेजीव! धनधान्याऽऽदौ, मा महः सर्वथा यतः / / 36 // एतद्बाह्यमनित्यंच, तुच्छं चातुच्छदुःखदम। एतस्माद्विपरीते तु, धर्मे चित्तं दृढं कुरु // 40 // श्रुत्वेस्यात्मानुशिष्टिं ते, तस्कराः श्रेष्ठिनो मुखात्। एवं विभावयामासुर्भावनां भवनाशिनीम // 41 // धन्योऽयमेव येनासो, स्वस्यापि स्वस्य निःस्पृहः / अधन्या वयमेवैक, ये परार्थ जिहीर्षवः / / 42 // ततश्च लघुकर्मत्वा-जातिस्मृतिमवाप्य ते। सर्वेऽपि देवतादत्त-लिङ्गा आददिरे व्रतम्॥४३॥ अथोदयमिते सूर्य, श्रेष्ठ्यकस्माद् विलोक्य तान्। नत्वाऽप्राक्षीत्किमेतद्वः, पूर्वापरविरोधकृत्? || 44 / / ततः सुपुण्यकारुण्या-वनयो मुनयोऽभ्यधुः। अत्रास्ति वास्तवश्रीभि- याप्ता तुरुमिणी पुरी।। 45 // तस्यामश्यामलस्वान्ताः, केशरिद्विजसूनवः। आसन्नाऽऽसन्नकल्याणाश्चत्वारो विप्रपुङ्गवाः / / 46 / / पितर्युपरते स्तोकशोकशङ्कनिपीडिताः। ये निर्ययुर्भवोद्विग्ना-स्तीर्थदर्शनकाम्यया।। 47 / / अद्राक्षुः पथि गच्छन्तो, मुनिमेकं क्षुद्दादिभिः। मूछा गतं ततो भक्त्या , तं सज्जीवचक्रिरे क्षणात् / / 46 / / सकर्णा धर्ममाकर्ण्य, तत्पार्श्वे जगृहतम्। विहरन्तः सम तेन, पेटुः पूर्वगताऽऽद्यपि / / 46 / / Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंभसेण 1284 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बज्ऊ कृतजालिमदाः किञ्चित, कृत्वाऽनशनमत्तमम्। ते चत्वारोऽपि पञ्चत्व माप्यागुः प्रथम दिवम्।। 50 / / ततश्च्युक्त्वा च ते सर्वे –ऽप्यौव भरतावनी / अभवाम वयं जाति-मदतस्तास्करे कुले / / 51 / / मुष्णन्तश्चाद्य ते सद्म-स्वनुशिष्टिश्रुतेस्तव। संजातजातिस्मरणाः, अगृहीम व्रतं वयम् / / 52 / / धर्मलाभोऽस्तु तत्तुभ्य-मभ्यण्णेशिवसंपदे। विधिप्रधानधर्मानु-ष्ठागमिश्चलचेतसे // 53 // इत्युदित्वा महाऽऽनन्द-पुरखजनसत्वराः। अत्वरा अपि तेऽन्यत्र, विहर्तुं मुनयो ययुः / / 54 / / सुच्चिर ब्रह्मसेनोऽपि, प्रतिपालितसङ्गतः। आराधनाविधेम॒त्वा, पदमव्ययमभ्ययात् / / 55 / / एवं ज्ञात्वा शुद्धभावप्रभाव - प्राप्तब्रहा ब्रह्मसेनस्य वृत्तम्। दत्तस्वान्ता विध्यनुस्यूतधर्मानुष्ठाने तत्संततं सन्तु सन्तः॥५६॥" इति ब्रह्मसेनकथा। ध०र०२ अधि०६ लक्ष०। बंभसोय न० (ब्रह्मशौच) शुचिविधया ब्रह्मचर्याऽऽदिकुशला नुष्ठानरूपे शौचभेदे, (इति लोकोत्तरिकाः) आपोहिष्ठामये अप्शौत्रो, स्था०५ ठा० 3 उ०॥ बंभहर (देशी) कमले, दे० ना०६ वर्ग 61 गाथा। बंभाणगच्छ पुं० (ब्रह्माणगच्छ) गच्छभेदे, "बंभणागच्छमंडणसिरिज सोभद्दसूरिणो बंभाइत्तनयरोवरि विहरंता।" ती० 26 कल्प। बंभाणगपुर न० (ब्रह्मणकपुर) मरुमण्डले स्वनामख्याते पुरे यत्र सत्यपुरस्थवीरस्वामिपित्तलमयप्रतिमाप्रतिष्ठापको नाहडो जज्ञे / ती०१६ कल्प। बंभादि पुं० (ब्राह्मयादि) आदिदेवज्येष्ठपुत्रीप्रभृती, पञ्चा०१६ विव०। बंभादिगुणरयण न० (ब्रह्माऽऽदिगुणरत्न) ब्रह्मचर्यतपः संयम प्रभृतिषु दौर्गत्यदुःखपहारितया रत्नकल्पेषु साधुगुणेषु, बृ० 1 उ०३ प्रक०। बंभावत्त पुं०(ब्रह्माऽऽवर्त) स्वनामख्याते विमाने, स०११ सम०। बंभिददेवया स्त्री० (ब्रह्मेन्द्रदेवता) ब्रह्मलोकेन्द्र, अङ्गदिकायां भीअजित स्वामिशान्तिदेवताऽवसरः। ती०४२ कल्प। बंभी स्त्री० (ब्राह्मी) ऋषभदेवस्य सुमङ्गलायां देव्या, भरतेन सह जातायां पुत्र्याम्, ति० / सा च बाहुबलिने भगवता दत्ता प्रवजिता प्रवर्तिनी भूत्त्वा चतुरशीतिपूर्व शतसहस्त्राणि सर्वाऽऽयुः पालयित्वा सिद्धा। कल्प०१ अधिक ७क्षण। प्रव०। पञ्चा०। आ० म० / प्रज्ञा०भा०यू०। लिपिभेदे, स०। बंभीएणं लिबीए अट्ठारसविहे लेक्खविहाणे पण्णत्ते। तं जहाबंभी, जवणालिया, दोसऊरिया, बरोट्टिया, खरमाविया, महाराइया, उचत्तरिया, अक्खरपुत्थिया भोणवयत्ता, श्रेयणतिया, णिण्इइया, अंकलिवि,गणिअलिवि, गंधव्वलिवि, आदस्सलिवि, माहेसरलिवि, दामिलिवि, होलिंदिलिवि। (बभित्ति) ब्राह्मी आदिदेवस्य भगवतो दुहिता, ब्राही वा संस्कृताऽऽ-- दिभेदा वाणी तामाश्रितेनैव या दर्शिताऽक्षरलेखन प्रक्रिया सा ब्राह्मी लिपिरतस्तस्या ब्राह्मया लिपेणंभित्यलङ्कारे, लेखोलेखनं तस्या विधान भेदो लेखविधानं प्रज्ञप्तम् तद्यथा एतत्स्वरुपं न दृष्टमिति न दर्शितम्। तथा यल्लोके यथाऽस्ति यथा वा नास्ति, अथवा स्याद्वादभिप्रायस्तत्त देवास्ति, नास्ति चेत्येवं प्रवदतीत्यस्तिनास्तिप्रवाद, तचतुर्थं पूर्व तस्य / स०१८ सम०।"णमो बंभीए लिवीए।" लिपिः पुस्तकाऽऽदावक्षरविन्यासः सा चाष्टादशप्रकाराऽपि श्रीमन्नाभेय जिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिकाया दर्शिता, ततो ब्राह्मीत्यभिधीयते / आह च - "लेहं लिणी विहाणं, जिणेण बंभीऍ दाहिणकरेण।'' इत्यतो ब्राह्मीति स्वरूपविशेषण लिपेरिति / भ० 1201 उ०। "क्षेत्रे माहाविदेहेऽभू-नगरी पुण्डरीकिणी। वैरनामाभिधस्तत्र, चक्रवर्ती किलाभवत् / / 1 / / वैरसेनाऽभिधानस्य, जिननाथस्य सोऽन्तिके। चतुर्भिर्भातृभिर्युक्तः, प्रक्वाज विरागतः // 2 // प्राप्तपारः श्रुताम्भोधे-नियुक्तो गच्छपालने। विजहार महीं सार्ध, साधुभिः पञ्चभिः शतैः / / 3 / / तभ्राता बाहुनामा यो, लब्धिमानुद्यमान्वितः / वैयावृत्त्यं चकारासौ, साधूनामशनाऽऽदिभिः / / 4 / / सुबाहुनामको यस्तु, स साधूनामस्विन्नधीः / स्वाध्यायाऽऽदिप्रस्विन्नानां, सदा विश्रामणा व्यधात्।। 5 / / अन्यौ पीठमहापीठ-नामानौ तस्य सोदरौ। स्वाध्यायाऽऽदिमहारामे, रेमाते रम्यकेऽनिशम्॥ 6 / / कदाचित्सूरिराद्यौ तौ, श्लाधयामास भावतः / अहो धन्याविमौ साधू, साधुनिर्वाहणोद्यतौ / / 7 / / एवं श्रुत्वेतरावेवं, भावयामासतुर्मुनी। लौकिकव्यवहारस्थाः, अहो जल्पन्ति सूरयः / / 8 / / करोति यो हि कार्याणि, स एव श्लाष्यते जने। सुमहानप्यकुर्वाण-स्तृणायाऽपि न मन्यते / / 6 / / इत्येवं चिन्तया ताभ्यां, स्त्रीकर्म समुपार्जितम्। मृत्वा गता विमाने ते, सर्वार्थसिद्धिनामके / / 10 / / च्युत्वा ततोऽपि सञ्जातः, एकः श्रीनाभिनन्दनः। अन्ये तु सूनवस्तस्य, तत्रौको भरतोऽभवत् / / 11 / / अन्यो बाहुबली ब्राह्मी, सुन्दरी चेति जज्ञिरे। सर्वे ते कर्मनिर्मुक्ताः, सम्प्राप्ता निर्वृतिश्रियम्।।१२।। पञ्चा०१६विव० बक्कर (देशी) परिहासे, दे० ना०६ वर्ग 86 गाथा। बज्झ त्रि० (बध्य) “साध्वस-ध्य ह्यां झः"||८२२६||साध्वसे संयुक्तस्य ध्यायोश्च झः / प्रा० 2 पाद भारणार्थ स्थापिते, अष्ट० १३अष्ट० / व्यापादनीये, दश०७ अ०। आव०1 प्रश्नः / भ०। आ० म० / हननयोग्ये आचा०२ श्रु०१चू०४ अ०२ उ०। तेसिं च णं पुरिसागं मज्झगयं एगं पुरिसं पासइ, अव ओडगबंधणं उक्खित्त कण्णणासं कण्णासं णेहतप्पियगत्तं बज्झकरकडिजुयणियंसियं कंठे गुणरत्तमल्लदाम चुण्णगुंडियगायं चुण्णयं वज्झपाणापीयं तिलं तिलं चेव छिज्जमाणंकाणणिमंसाइं स्वावियंतं पावं कसासएहिं इम्ममाणं। Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बज्ऊ 1285 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बत्तीसट्ठाण (अवओडगबधणं ति) अबकोटकेन कृकाटिकाया अधोनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तम् / (उक्खित्तकन्नना स ति) उत्पाटित कर्णनासिकम् (नेहतुप्पेयगत्तं ति) खेहस्त्रेहितशरीर (वज्झकरकडिजुयणियंसियं ति) अध्यश्चासौ करयोर्हस्तयोः (कडि त्ति) कटीदेशयुगं युग्मं मिवसित इव निवसितश्चेति सभासोऽतस्तम्। अथवा-बध्यस्य यत् करकटिकायुगं निन्दाचीवरिकाद्वयं तन्निवसितो यः स तथा (कंठे गुणरत्तमल्लदाम) कण्ठे गले गुण इव कण्ठसूत्र मिव रक्तं लोहितं माल्यदाम पुष्पमाला यस्य स तथा तम्। (चुन्नगुंडियगायं ति) गैरिकक्षोदावगुण्डितशरीरं (चुप्णयं ति) सन्त्रास्तं (बज्झपाणपीयं ति) बङ्ख्या बाह्या वा प्राणा उच्छवासाऽऽदयः प्रीताः प्रिया यस्य स तथा तं (तिलं तिलंचेव छिज्जमाणं ति) तिलशश्छिधमानमित्यर्थः / (कागणिमसाई खावियं तंति) काकिणीमासानि तदेहोस्कृत्तहस्वम सखण्डानि खाद्यमानम्। (पावं ति) पापिष्ठ. खर्खराः कशाः अश्वत्रासमाय चर्ममया वस्तुविशेषाः, स्फुटित वंशा वा तैर्हन्यमान्न ताज्यमानम्। विपा० श्रु०२ अ०। बाह्य त्रि० बहिर्भवो बाह्याः 1 आतु०। दश० / बहिर्वतिनि, पञ्चा० 10 विव०। बन्ध पु० बन्धनकारणे, रञ्जुवागुराऽऽदिबन्धे च / सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। "अहतं पवेज बज्झं, अहे बज्झस्स ण वए।'' सूत्रा 1 श्रु० 2 अ० 1 उ०। बझंत त्रि० (बध्यमान) हन्यमाने, श्रा० / कर्म०। बन्ध्यमान त्रि० कर्मणि यक्। "बन्धो ज्झः।८।४।२४७॥" इति बन्धेर्धातोरन्त्यस्य ज्झः।" तत्संनियोगे च क्यस्य लुक् / प्रणह्यमाने, प्रा०४ पाद। बज्झओ अव्य० (बाह्यतस्) द्वितीयाचतुर्थीपञ्चमीसप्तमी वृत्ती बाह्य शब्दार्थे, 'किं ते जुद्धेण वज्झओ।" आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। बज्झकिरिया स्त्री० (बाह्यक्रिया) बाह्याऽऽचारप्रतिपत्ती, अष्ट०६ अष्ट। बज्झगंथचाग पुं० (बाह्यग्रन्थत्याग)धनधान्यस्वजनवस्त्रा ऽऽदित्यागे, षो० 1 विव०। बज्झतव न० (बह्यप्तपत) परतीर्थिकैरपि सुज्ञेये तपोभेदे, दश० / "अणसणमूणोयरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसोसलीणया य बज्झो तवो हाइ" / / 47 / / दश० 1 अ० / (अनशनाऽऽदिशब्देषु व्याख्या एवाम्) बज्झदिट्टि त्रि० (बाह्यादृष्टि) संसाररक्ते, अष्ट। बाह्याद्दष्टेः सुधासार-धटिता भाति सुन्दरी। तत्त्वद्दष्टस्तु सा साक्षात्, विणमूत्रापिठरोदरी।। 4 / / अष्ट०१६ अष्ट०। बज्झदूय पुं० (बध्यदूत) बध्यचिन्हे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। बज्झपट्टपुं० (बद्धपट्ट) चर्मविशेषपट्टिकायाम, प्रश्न०३ आश्र0 द्वार। बज्झपाणपिय त्रि०(बध्यप्राणप्रिय) बध्यान्च हन्तव्याः प्राणप्रीताश्च उच्छ्वासाऽऽदिप्राणप्रियाः प्राणप्रीता वा भक्षितप्राणायेते तथा। बध्यता गतत्वेन प्राणाऽऽदावासक्ते, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार / विपा० / बज्झपुरिस पुं० (बध्यपुरुष) बध्येषु नियुक्ते पुरुषे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। बज्झप्पण पु० (बाह्याऽऽत्मन्) देहमनोवचनाऽऽादेषु आत्म त्वभासनकरे, सर्वपीद्गलिकप्रवर्तनेषु आत्मनिष्ठेषु आत्मत्वबुद्धौ, अष्ट० 15 अष्ट० / बज्झप्पियसंबंधणसंजोग पुं० (बाह्यर्पितसंबन्धसंयोग) "लेसाकसायवेयण वेदो अन्नाणमिच्छमीस च। जावइया ओदइया, सवो सो बाहिरो जोगो / / 1 / / " इति लेश्याऽऽद्यौद यिकभावैरात्मनः, संबन्धे, उत्त०२ अ०। ('संजोग' शब्दोवीक्ष्यः) बज्झपाण त्रि० (बध्यमान) पीड्यमाने, उत्त०२३ अ०। "साऽऽमिसं कुललं दिस्स, बज्झमाणं निरामिसं।" उत्त०१४ अ०। आचा०॥ बज्झवग्ग पुं०(बाह्यवर्ग) पुत्रकलत्राऽऽदिके, अष्ट० 8 अष्ट०। बवणी स्त्री० (बर्द्धनी) बर्द्धयति प्रमार्जयति इति बर्द्धनी। बहुकारिकायाम्, विपा०१ श्रु०१ अ०। बढल नि० (बठर) "शीघ्राऽऽदीनांबहिल्लाऽऽदयः" ||814422|| इति बठरस्थाने बढलाऽऽदेशः / मूर्खे, प्रा० 4 पाद। बणिय पुं० (बणिज) व्यापारोपजीविनि वैश्ये, आ० क० 1 अ०। सूत्रा०। उत्त० / ज्ञा० / बवाऽऽदीना करणानामन्यतमे, आ० चू०१ अ०। स्था० / उत्तक / विशे०।०। सूत्रा० / जं०आ० म०।ये आपणस्थिता व्यवहरन्ति ते वणिजः, ये पुनरापणेन विनाऽप्यध्वस्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति (तेऽपि) वणिजः। बृ०१ उ०३ प्रक०। बणियग्गाम पु०(बणिजग्राम) शिवनन्दापतेरानन्दस्याऽऽवासीभूते नगरे, आ०म०१ अ०। बणियधम्म पुं०(वणिजधर्म) वणिग्नयाये, व्य०२ उ०। "लौल्येन किञ्चित् कलया च किञ्चित्, पापेन किञ्चित्तुलया च किञ्चित्। किञ्चिच किञ्चिच्च समाहरन्तः, प्रत्यक्षचौरा वणिजो भवन्ति / / 1 // अधीते यत्किञ्चित्तदपि मुषितुं ग्राहकजन, मृदु ब्रूते यद्वा तदपि विवशीकर्तुमपरम्। प्रदत्ते यत् किञ्चित्तदपि समुपादातुमधिकं, प्रपञ्चोऽयं वृत्तेरहह ! गहनः कोऽपि वणिजाम्॥२॥" ध०२ अधि०। बत्तीस स्त्री० (द्वात्रिंशत्) व्यधिकायां त्रिंशति, 'बत्तीसं किरकवला पुरिसस्स आहारो। नि० चू० 1 उ०। बत्तीसइबद्धणाडय न० (द्वात्रिंशद्बद्धनाटक) द्वात्रिशद्भभक्ति निबद्ध द्वात्रिशत्पात्रानिबद्धे च नाटके, विपा०२ श्रु०१ अ०। बत्तीसट्ठाण न० (दात्रिशतस्थान) गणिसंपदि, व्य०। Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसट्ठाण 1286 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बफलक्ख बतीसाए ठाणसु, जो होइ अपरिनिहितो) नऽलमत्थो तारिसो होइ, ववहार ववहरित्तए।। 240 / / बत्तीसाए ठाणेसु, जो होइ परिणिहितो। अलमत्थो तारिसो होइ, ववहारं ववहरित्तए / / 241 // बत्तीसाए ठाणेसु, जो होइ अपतिहितो। णऽलमत्थो तारिसो होइ, ववहारं ववहरित्तए / / 242 / / बत्तीसाए ठाणेसु, जो होइ सुपतिद्वितो। अलमत्थो तारिसो होइ, ववहारं ववहरित्तए / / 243 / / श्लोकचतुष्टयमपि पूर्ववत्। संप्रति तान्येव द्वात्रिंशतस्थानान्याहअट्ठविहा गणिसंपइ, एक का चउविहा मुणेयव्वा / एसा खलु बत्तीसा, ते पुण ठाणा इमे हुंति // 244 // गणिन आचार्यस्य संपदष्टविधा अष्टप्रकारा, एकैका च भवति चतुर्विधा ज्ञातव्या। एवं खलु द्वात्रिंशत् स्थानानि भवन्ति / व्य० 10 उ०। बत्तीसदोस पुं० (द्वात्रिंशद्दोष) द्वात्रिंशत्संख्यामिते सूत्रादोषे, विशे०। ('सुत्ताणुओग' शब्दे वक्ष्यामि) बत्तीसपुरिसोवयारपुं० (द्वात्रिंशतपुरुषोपचार) कामशास्त्रसद्धेषु द्वात्रिं शत्संख्याकेषु पुरुषेषु, अनु०। विधा०।। बत्तीसबत्तीसिया स्त्री० (द्वात्रिंशद्वात्रिशिका) द्वात्रिशता द्वात्रिशद् गाथापरिमितैर्ग्रन्थैर्निबद्धे यशोविजयोपाध्यायरचिते ग्रन्थाविशेष, द्वा०। 'प्रतापार्के येषां स्फुरति विहिताऽकब्बरमनःसरोजप्रोल्लासे भवति कुमतध्वान्तविलयः / विरेजुः सूरीन्द्रास्त इह जयिनो हीरविजयाः, दयावल्लीवृद्धौ जलदजलधारायितगिरः॥ 1 // प्रमोद येषां सदगुणगणभृतां विभ्रति यशःसुधां पायं पायं किमिह निरपायं न विबुधाः। अमीषां षट् इत तर्कोदधिमथनमन्थानमतयः, सुशिष्योपाध्याया बभुरिह हि कल्याणविजयाः॥२॥ चमत्कार दत्ते त्रिभुवनजनानामपि हदि, स्थितिमी यस्मिन्नधिकपदसिद्धिप्रणयिनी। सुशिष्यास्ते तेषां बभुरधिकविद्याऽर्जितयश:प्रशस्तश्रीमाजः प्रवरबिबुधा लाभविजयाः / / 3 / / यदीया द्दालीला ऽभ्युदयजननी माद्दशि जने, जडस्थाने ऽप्यर्कद्युतिरिव जवात् पङ्कजवने। स्तुमस्तच्छिष्याणां बलमविकलं जीतविजयाऽभिधानां विज्ञानां कनकनिकषस्निग्धवपुषाम् / / 4 / / प्रकाशार्थ पृथ्व्यास्तरणिरुदयाद्रेरिह यथा, यथा वा पाथीभृत्सकलजगदर्थे जलनिधेः / तथा वारावणस्याः सविधमभजन् ये मम कृते, सतीर्थ्यास्ते तेषां नयविजयविज्ञा विजयिनः / / 5 / / यशोविजयनाम्ना त-चरणाम्भोजसेविना। द्वात्रिंशकानां विवृति-चक्रे तत्वार्थदीपिका // 6 // महार्थे व्यर्थत्वं क्वचन सुकुमारे च रचने, बुधत्वं सर्वत्राप्यहह! महतां कुव्यसनिताम्। नितान्तं मुर्खाणां सन्सि करतालैः कलयता, खलानां सादगुण्ये कचिदपि न दृष्टिर्निविशते॥ 7 // अपि न्यून दत्त्वाऽभ्यधिकमपि संसील्य सुनयैर्वितत्य व्याख्येयं वितथमपि सङ्गोप्य विधिना। अपूर्वग्रन्थार्थप्रथनपुरुषार्थाद्विलसतां, सतां दृष्टि सृष्टिः कविकृतविभूषोदयविधौ // 8 // अधीत्य सुगुरोरेनां, सुदृढं भावयन्ति ये। ते लभन्ते श्रुतार्थज्ञाः, परमानन्दसम्पदम्॥६॥ प्रत्यक्षरं ससूत्रायाः, अस्या मानमनुष्टुभाम्। शतानि च सहस्राणि, पञ्चपञ्चाशदेव च / / 10 // " द्वा०३२ द्वा०। बत्तीसिया स्त्री० (द्वात्रिंशिका) माणिकाया द्वात्रिंशत्तमभा गवर्तित्वादष्ट पलप्रमाणा द्वात्रिशिका / रसमानविशेषे, अनु० बद्ध त्रि० (बद्ध) वशीकृते, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उ० / वन्धनतो (भ० 13 श०७ उ०) गाढश्लेषे, स्था० 10 ठा० / गाढतरमाश्लिष्टे, विशे०। स्था०। यथा तनौ तोयम्। स्था०२ ठा० 3 उ०। जीवेन सह संयोगमात्रमापन्ने, विशे० / तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृते, आलिङ्गि तानन्तरमात्म प्रदेशैरागृहीत. नं०। औ० / उदीरणावलिको प्राप्ते कर्मणि, आ० म०१ अ० / गद्यपद्यरूपतया रचिते, विशे०। आ० म०। बर्धन० पुं० धर्मशकले, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ० 1 बास्त्रुटिततलिकाऽऽदिबन्धनार्थ गृह्यन्ते / ध०३ अधि०। पं०व० / सदानिते. "बद्ध संदाणिअंनिअलिअंच।' पाइना० 167 माथा। बद्धे, 'बद्धंसगिल्लं।" पाइ० ना० 221 गाथा / बध्ये, “बज्झो बद्धो।" पाइ० ना०२३६ गाथा। बद्धअ (देशी) त्रापुपट्टाऽऽख्यकर्णाऽऽभरणविशेषे, दे० ना० 6 वर्ग 86 गाथा। बद्धगुय न० (बद्धगुद)पुरीषोत्सिसृक्षायां सत्यामपि पुरीषा बतरणरोधके उदररोगभेदे, आचा०१ श्रु०६अ०१ उ०। बद्धट्ठिय न० (बद्धास्थिक) सञ्जातास्थिके फले, नि० चू०१५ उ०। बद्धपासपुट्ठत्रि० (बद्धपार्श्वस्पृष्ट) पार्चेन स्पृष्टाः देहत्वाच्छुप्ताः रेणुवत् पार्श्वस्पृष्टाः ततोबद्धाः गाढतरं संश्लिष्टा स्तनौ तोयवत्, पार्श्वतः स्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चति राजदन्ताऽऽदित्वात् बद्धपार्श्व-स्पृष्टाः। बद्धेषु पार्श्वस्पृष्टेषु च पुद्रलेषु, स्था०२ ठा० 1 उ०। बद्धफल त्रि० (बद्धफल) क्षीरकस्य फलतया बन्धनाद् जातफले, ज्ञा० 1 श्रु०७ अ०। बद्धमूल त्रि० (बद्धमूल) यस्य हि मूलं भूम्यादौ नद्धम् / तस्मिन्, "जेणं से तिलथभए आसत्थबीसत्थए पच्छा पाए बद्धमूले तत्थेव पइट्ठिए।" भ०१५ 20 // बद्धमुक्क त्रि० (बद्धभुक्त) द्वन्द्वः / इह जन्मनि जीवनसम्बद्धे, अन्यजन्मनि जीवनोज्झिते, उत्त०१ अ०। बद्धरुद्ध त्रि० (बद्धरुद्ध) रज्ज्वादिसंयमिते, वारकाऽऽदिनिरुद्ध च। प्रश्न० ३आश्र० द्वार। बद्धलक्ख पुं० (बद्धलक्ष्य) अनुष्ठेयं प्रति अविचलितलक्ष्ये, पं० सू०४ सूत्र० Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बद्धवम्मिय 1287 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बल बद्धवम्मियपु० (बद्धवर्मिक) बद्धधर्म तनुत्राणविशेषो येषां ते बद्धवर्माणस्त एव बद्भवमिकाः। तेषु, विपा० 1 श्रु०२ अ०। बद्धसुय न० (बद्धश्रुत) पद्याऽऽत्मके श्रुते, विशे० / 'बद्धं तु दुबालसंग गणिणिदिष्टं / " बद्धं तु द्वादशाङ्गमाचाराऽऽदि गणिपिटकं गणिनिर्दिष्ट लोकोत्तरं, लौकिकं तु भारताऽऽदि। आ० म०१ अ०। बद्धियग पुं० (बर्द्धितक) नपुंसकभेदे, यस्य बालस्यैव छेदयित्वा द्वौ भातरावपनीतौ / बृ०४ उ०। बद्धीसगन० (बद्धीसक) बाद्यविशेषे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार। बद्धेल्लग त्रि० (बद्ध) स्वार्थे इल्लकप्रत्ययः / नद्धे, अनु०। बधग त्रि० (बधक) स्वयं हन्तरि, जी०३ प्रति०४ अधि०। बप्प देशीसुभटे, पितरि चान्ये। देवना०६ वर्ग 88 गाथा। बप्पभट्टिसूरि पु० (बप्रभट्टिसूरि) सिद्धसेनसूरिशिष्ये आमराजप्रतिबोधके आचार्य , विक्रमसम्बत्८०० मितेऽयं जातः, 865 वर्षे स्वर्गतः। जै० इ०। बप्पीह (देशी) चातके, दे० ना० 6 वर्ग 60 गाथा। "सारगो चायओ य बप्पीहो।"पाइ० ना० 126 गाथा। बप्फन० (वाष्प) अश्रुणि, "बप्फ बाहोय नयणजलं।"पाइ० ना० 112 गाथा। बप्फाउल (देशी) अत्युष्णे, दे० ना० 6 वर्ग 62 गाथा / बब्बरपुं०(बर्बर) अनार्यदेशभेदे, वजे, अनार्यजातिभेदे च। प्रज्ञा०१पद। सूत्र०। प्रव०। आ० चू०आचा० / कल्प०। स्था०। जी०। बब्बरिया स्त्री० (बर्बरिका) बर्बरदेशोत्पन्नायां दास्याम, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०।औ० म०नि०।सआवश्यकवृत्तिग्रन्थप्रकरणविशेषे, आव० .1 अ०। वरं वृणुतेत्येवमाख्यानं बर्बरिका। हा० 26 अष्ट०५ श्लोक। बब्बरी (देशी) केशरचनायाम्, देवना० ६वर्ग 60 गाथा। बब्बूल पुं० (बब्बूल) वृक्षभेदे, स्था० 4 ठा०३ उ०। बब्भ (देशी) बधे, दे० ना०६ वर्ग 58 गाथा। बभंत त्रि० (उहामान) "डभोदुहलिह वह रुधामुचातः।" ||8|| 245 / / इत्यन्तस्य कर्मणि बकाराऽऽक्रान्तो भकारः। प्राप्यमाणे, प्रा० ४पाद। बब्भागमपुं० (बह्वगम) बहुश्रुते, बृ०४ उ०। बब्भासा स्त्री० (बन्भासा) नदीभेदे, यस्यां हि नद्यां पूरादतिरिच्यमानायां तत्पूरपानीयभावितायां क्षेत्रभूमौ धान्यानि प्रकीर्यन्ते / बृ० 1 उ०२ प्रक०। बभिआअण पु० (बाभ्रव्यायण) बभुऋषेोापत्ये, जं० 4 वक्ष० / मूलनक्षत्रनं बाभ्रव्यायणगोत्रम्। नं०। बंब्भु पुं० (बभु) नकुल, पञ्चा०१४ विव० / स्वनामख्याते प्रषिभेदे च। पञ्चा०२ विव०। बमाल (देशी) कलकले. दे० ना०६ वर्ग 60 गाथा। बम्हन० (ब्रह्मन्) "पक्ष्मश्मष्मस्मह्या म्हः।" ||8/274 / / इति हकाराऽऽक्रान्तमकारस्य मकाराऽऽक्रान्तो हकारः। प्रा०२पाद। महति, बृहति, षो० 15 विव० / कुशलानुष्ठाने, स्था० 6 ठा० / प्रजापतौ, पुं०। श्रवणनक्षत्रस्याधिपतिर्देवता ब्रह्मा / स्था०२ ठा०३ उ०। श्रीशीतलस्य जिनस्य यक्ष, स च चतुर्मुखस्त्रिनेत्राः, सितवर्णः पद्माऽऽसनोऽष्टभुजो मातुलिङ्गमुद्रपाशकाभययुक्तदक्षिणपाणिचतुष्टयो नकुल गदाऽङ्कशाक्षसूत्रयुक्तवामपाणि-चतुष्टयश्च / प्रथ० 26 द्वार / " पुंस्यन आणो राजवच / / 8 / 3 / 56 / इति अनस्थाने आणाऽऽ देशः। 'बम्हाणो / बम्हा' / प्रा०३ पाद। बलन० (बल) शक्त्युपचये, आचा०१ श्रु०२ अ०२ उ०। शारीरे (ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०) सामर्थ्य, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०! आचा० / आ० चू०। स्था०। चं० प्र०। विशे०।०।आ० म०1 उपा० जी०1"बलं ति वा, सामत्थं तिवा, परक्कमो त्ति वा, थामो त्ति वा एगट्ठा।" नि० चू०१उ० / जी०। औ० / देहप्राणे, भ०७ श०७ उ० / औ० / ज्ञा०। उपा० / बलं द्विविधशारीर, मानसं च / विशे० / संहननविशेष सगुत्थे प्राणे, नि०१ श्रु०४ वर्ग 1 अ०।ज्ञा० स्था०। रा०1०॥ पं० चू०। अनु०। सू०प्र०। चक्रवर्तिप्रभृतीना बलातिशयप्रति पादनार्थमाहसोलस रायसहस्सा, सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं / अंछंति वासुदेवं, अगडतडम्मी ठियं संतं / / 71 / / घेत्तूण संकलं सो, बामगहत्थेण अंछमाणाणं / अँजिज्ज बिलिंपिज्ज व, महुमहणं ते न चाएंति / / 72 / / इह वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमविशेषलातिशयो वासुदेवस्य प्रदीतषोडशराजसहस्राणि सर्वबलेन हस्त्यश्वरथप दातिसंकुलेन सह शृडखलानिबद्धं, 'अछति' देशीवचनमेनत। आकर्षन्ति वासुदेव अवटतट कूपढलं स्थितं सन्त, ततश्च गृहीत्वा शृखलाममौ वामहस्तेन (अंछमाणाणं ति) आकर्षतां भुजीत, विलिम्पेद्वा अवज्ञया दृष्टः सन् पुनस्ते मधुमथनं नशक्नुवन्त्याक्रष्टुमिति वाक्यशेषः। चक्रवर्तिबलप्रतिपादनार्थमाह दो सोला बत्तीसा, सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं / अंछंति चक्कवाट्टि, अगडतडम्मी ठियं संतं / / 73 // घेत्तूण संकलं सो, बामगहत्थेण अंछमाणाणं / भुंजेज विलिंपेज व, चक्कहरं ते न चाएंति / / 74 / / द्वौ षोडशको द्वात्रिंशत् , तत् द्वात्रिंशदित्येववाच्ये द्वौ षोडशका वित्याभिधानं चक्रवर्तिना वासुदेवात् द्विगुणऋद्धिख्यापनार्थम्, राजसहस्राणीति गम्यते। सर्वबलेन सह शृड खलानिबद्धमा कर्षन्ति चक्रवर्तिनम् अवटतटे स्थितं सन्तं गृहीत्वा शृङ् खलामसौ वामहस्तेनाऽऽकर्षता भुञ्जीत विलिम्पेद्वा, न पुनस्ते चक्रधरं चक्रवर्तिनं शक्नुवन्त्या क्रष्टुमिति वाक्यशेषः। संप्रति तीर्थकरबलप्रतिपादनार्थमिदमाह जं केसवस्स उ बलं, दुगुणं तं होइ चक्कवट्टिस्स। Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल 1288 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बलभावणा तत्तो बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा / / 75 / / | बलकूड न० (बलकूट) मेरोरुत्तरपूर्वस्या नन्दवचने बलनाम्ना देवेनायत् केशवस्य तु बलं तद् द्विगुणं भवति चक्रवर्तिनः, ततः शेषलोकबलाद् __धिष्ठिते कूटे, स्था०६ ठा० / स०। बला बलदेवा बलवन्तः, केशवबलापेक्षया त्वर्द्धबला इति प्रतिद्वारमव- | बलकोट्ठ पु० (बलकोष्ठ) गङ्गातीरे हरिकेशाधिपे ब्रह्मदत्तपूर्व भपितरि गन्तव्यम् / तथा-निरवशेषवीर्यान्त रायक्षयादपरिमितं बलं येषां ते चाण्डाले,उत्त०८ अ०। अपरिमितबलाः / के ते? इत्याह - जिनवरेन्द्रास्तीर्थकृतः / तथा-- बलक्ख न० (बलाक्ष) कण्ठाऽऽभरणविशेषे, तच्च रूढिगम्यम्। औ०। ततश्चक्रवर्तिनो बलाबलवन्तो जिनवरेन्द्राः / कियता बलेनेत्याह - बलगल न० (बल्कल) तरुत्वचि, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। अपरिभितेन बलेन बलवन्त इति भावः / आ० म०१ अ० / विशे०। बलण न० (बलन) बलनेन विशिष्टावस्थाप्रापणे, विशे०। ध० / सू० प्र० / (द्विविधं बलम्-सम्भवं, सम्भाव्यं चेति 'वीरिय' शब्दे बलण्णु पुं० (बलज्ञ) बलज्ञातरि, आचा० 1 श्रु० 8 अ० 3 उ०। वक्ष्यते) भारवहनाऽऽदिसामर्थ्य , स्था०४ ठा०२ उ०। बलवति, प्रश्न बलदेव पुं०(बलदेव) वासुदेवज्येष्ठभ्रातरि, आ० क०१ अ०। अन्त०। 5 आश्र० द्वार। सारे० व्य० 4 उ० / आचा०। रा० / चतुरङ्गे, स्था० 3 ती०। प्रव०। तिला आ०म०। स०। अनु० स्था०। प्रज्ञा० आ० चू० / ठा०४ उ० / सैन्ये, ज्ञा० १श्रु०१ अ०। औ० आ०म० / हस्त्यादिवाहने, नि०। (अवसर्पिण्यां च भरत ऐरवते च नव बलदेवाः 'दसारमंडल' शब्दे स्था० 4 ठा०२ उ०। "बलं चउव्विह–पाइक्कबलं, आसबलं, हथिबलं, चतुर्थभागे 2485 पृष्ठे व्याख्याताः) सङ्कर्षणाऽऽख्ये कृष्णवासु देवज्येष्ठभ्रातरि, आ० म०१ अ०। पा०। ज्ञा० / उत्त०। रहबलं। नि० चू०६ उ०। महाविदेहे वर्षे सलिलावतीचक्रवर्तिविजये वीतशोकाया नगर्या राजनि महाबलस्य पितरि, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / बलदेवपडिमा स्त्री० (बलदेवप्रतिमा) पाषाणाऽऽदिमय्यां बलदेवमूर्ती, एका प्रतिमाऽऽवर्तग्रामे आसीत्, यन्मन्दिरे एकदा छद्मस्थविहारे श्रीवीरः स्वनामख्याते हस्तिनापुरनगरवास्तव्ये गृहपतौ, सच स्थविराणामन्तिके समवसृतः। आ० म०१०। प्रव्रज्य संलेखनया मृत्वा द्विसागरोपमाऽऽयुष्कतया सौधर्मे कल्पे बलबलिय पुं० (बलबलिक) चक्षूरोगविशेषविशिष्ट, महा० 3 अ०। बलविमाने देवत्वेनोपपन्नः, ततश्व्युत्तवा महाविदेहे सेत्स्यतीति। नि०१ बलबुद्धिविवकृण न० (बलबुद्धिविवर्द्धन) शरीरसामर्थ्यस्य मेधायाश्च श्रु०३ वर्ग: अ०। स्वनामख्याते हस्तिनापुरराजे, भ०११श०१ उ० / विवर्धने, ग०२ अधि०। ऋषभदेवस्य सप्ताशीतितमे (कल्प०१ अधि०७ क्षण) स्वनामख्याते बलभद्दपुं० (बलभद्र) भरतपौत्रस्य महायशसः पौत्रो, आ० चू० 1 अ०। क्षत्रियपरिवाजे, औला आव०। राजगृहे मौर्यवंशीये स्वनामख्याते राजनि, उत्त० 3 अ०। आ० दसविहे बले पण्णत्ते / तं जहा-सोइंदियबले० जाव फासिं म०। येनाऽव्यक्तिकनिहवाः प्रतिबोधिताः। विशे०। स्था०। आ० चू०। दियबले, नाणबले, दंसणबले, चरित्तबले, तवबले, वीरियबले। नि० / सङ्कर्षण बलदेवे, स० / स्वनामख्याते सुग्रीवनगरराजे, यस्य स्था०१० ठा०1 भार्यायां मृगावत्यां मृगापुत्रनाम्ना विश्रुतः पुत्र आसीत्। उत्त०१८ अ०। *ग्रह धा० उपादाने. "ग्रहो बल-गेण्ह-हर--पङ्ग-निरुवारा ('मियापुत्त' शब्दे कथा वक्ष्यते) हिपुचआः" ||8||206 / / इति ग्रहे: बलाऽऽदेशः। 'बलइ' / प्रा० बलभाणु पुं० (बलभानु) बलमिठाराज्ञो, भगिनी भानुश्री। तत्पुत्रे, नि० 4 पाद। चू०१० उ०। (तत्कथा 'पञ्जुसवणाकप्प' शब्दऽस्मिन्नेव भागे 240 पृष्ठ *आरुह धा० उच्चैर्गमने, आरोहे (पे) र्बलः / / 8 / 4 / 47 / / इति गता) आरुहेर्यन्तस्य बलाऽऽदेशः / बलइ / आरोवइ / ' प्रा० 4 पाद। बलभावणा स्त्री० (बलभावना) देवबलपर्यालोचने, बृ०। "धातवोऽर्थान्तरेऽपि"||८|४|२५६ / / इति बलः प्राणने पठितः। अथ बलभावना। तत्र बल द्विधा-भावबलं, खादनेऽपि वर्तते। 'बलइ खादति, प्राणनं करोति वा / प्रा० 4 पाद। शारीरबलं च। तत्र च भावबलमाह"थाम सारं च बलं।" पाइ० ना० 164 गाथा। कृष्ण भ्रातरि, ''रामी भावो उ अभिस्संगो, सो उपसत्थो व अप्पसत्थो वा। सीरी मुसला- उहो बलो कामपालो य।" पाइ० ना० 23 गाथा। नेहगुणओ उ रागो, अपसत्थ पसत्थओ चेव / / 523 / / बलआ स्त्री० (बलाका) "वाऽव्ययोतूखाताऽऽदावदातः" ||811 | भावो नाम अभिष्वङ्गः, स तु द्विधा-प्रशस्तः, अप्रशस्तश्च / तत्रा 167 // इत्यादेशकारस्य हस्यः / पक्षिविशेष, प्रा०१ पाद। अपत्यकलत्राऽऽदिषु स्नेहजनितरागः सोऽप्रशस्तः। यः पुनराचार्योपाबलआमुह-पुं० (बड़वामुख)।"डो लः" ||8|11202 / / इति / ध्यायाऽदिषु गुणबहुमानप्रत्ययो रागः स प्रशस्तः / तस्य द्विविधस्यापि असंयुक्तस्य डस्य लः। प्रा०१ पाद / समुद्रस्ये कालानले, प्रा०१ पाद। भावस्य येन मानसावष्टम्भेना सौ व्युत्सर्ग करोति तद्भावबलं मन्तव्यम्। बलआगालपुं०(बड़वानल)"क०ग०च०ज० त०द०प० य० वां०- शारीरमपि बलं शेषजनापेक्षया जिनकल्पार्हस्यातिशायिकमिष्यते। प्रायोलुक्" ||8111177 // इति वलुक् / प्रा०१ पाद: "डालः" आह - तपोज्ञानप्रभृतिनिः भावनाभिर्भावयतः कृशतरं शरीरं भवति। 1519/202 // इति डस्यल:/प्रा०पाद। ततः कुतोऽस्य शारीरं बलं भवति? Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलभावणा 1286 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बलयानुह उच्यते धारे, ज०२वृक्ष०ा धं० प्र० / गुर्जरधरित्र्याः पश्चिमभागे राजधान्या, कामं तु सरीरबलं, हायइ तवनाणभावणजुधस्स / तत्रान्तिमो राजा शिलाऽऽदित्यो नाम राजा गजनीपतिना हम्मीरेण संवत् देहावचए वि सती, जह होइ धिई तहा जयइ।। 524 / / 845 वर्षे पराभग्नः, राज्यं च तदैव नष्टम् / ती०१६ कल्प / यत्र कामं तुः-अवधारणे, अनुमतमेवास्माकं यत्तपोज्ञानभाव नायुक्तस्य पुस्तकाऽऽरूढः सिद्धान्तो जातः। कल्प०१ अधि०६ क्षण। 'बलहीशरीरबल हीयते, परं देहापचयेऽपि सति यथा धृतिर्मानसावष्टम्भलक्षणा पुरम्भि नयरे। (अठा विस्तरः 'पोत्थग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1122 पृष्ठे निश्चला भवति तथाऽसौ यतते, धृतिबलेन सम्रागात्मानं भावयतीत्यर्थः। गतः।) आह-इत्थं धृतिबलेन भावयतः को नाम गुणः स्यात् ? बलभीसं ठिय त्रि० (बलभीसंस्थित) 'बलभी चउकोणमीसिदीउच्यते हाऊ।" यस्य ग्रामस्य चतुर्ध्वपि कोणेषु ईषद्दीर्घा वृक्षा व्यवस्थिताः स कसिणा परीसहचम्, जइ उट्ठिजा हि सोवसग्गा वि। बलभीसंस्थितः। बृ०१ उ०२ प्रक०। दुद्धरपहकरवेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं / / 525 // बलमित्त पुं० (बलमित्र) वीरमोक्षाच्चतुर्थे शतके जाते भारत प्रधानराजे, धिइ धणिय बद्धकच्छो, जो होइ अणाउलो तमन्भहिओ। ती०२० कल्प। ति०"ज रयणिं सिद्धिंगओ अरहा तित्थकरो महावीरो बलभावणाएँ धीरो, संपुण्णमणोरहो होइ / / 526 / / तं रयणिं अवंतीए अहिसित्तो पालओराया। पालगराया सद्धिं, वण्णसवं कृस्तना संपूर्णा परीषहचमू मार्गात् च्यवते निर्जरार्थं परिषोढव्याः ठियाण णंदाण। मरूयाणं अट्ठसयं, तीसंपुणपूसमित्ताणं॥ 1 // बलमित्त भाणुमित्ता" / ति०। परीषहाः क्षुदादयस्त एव तेषां वा चमू: सेना सा यात्तिष्ठतः सम्मुखीभूय परिभावनाय प्रगुणा भवेत् सोपसर्गाऽपि दिव्याऽऽद्युपसर्गः कृतसहाय बलय न० (बलय) चक्रवाले, स्था०५ ठा०१उ०। कटक विशेषे, औ०। आचा०ा स्था०।०। बलयमिव बलयम्। वक्रत्वात्। प्रश्न०२आश्र० काऽपि। तथा दुर्द्धर दुर्वह पन्थानं सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपं मोक्षमार्ग करोतीति द्वार / एकोनविंशे गौणमृषावादे, प्रश्न० 2 आन० द्वार / येन भावेन दुर्द्धरपथ करस्तथाविधो वेगः प्रसरो यस्याः सा दुर्द्धरपथकरवेगा, भय बलयमिव वक्र वचनं चेष्टा वा प्रवर्तते। तस्मिन् भ०१श०६ उ० / स०। जननी संत्रासकारिणी अल्पसत्त्वानां कापुरुषाणां तागेवंविधामपि स मायारूपे, सूत्र०१ श्रु० 13 अ० / वृत्ताऽऽकारनद्या दिजलकुटिलजिनकल्पप्रतिपक्षुकामो योधयति / कथंभूतो?धृतिरेव धणियमत्यर्थ गतियुक्तदेशे, सूत्रा०२ श्रु०२ अ०। नद्यादिवेष्टितभूभागे, आचा०१ श्रु० बद्धा कक्षा येन स तथा अनाकुल औत्सुक्यरहितः अव्यथितो निष्प्रक 2 अ० 5 उ०। यत्रोदकं बलयाऽऽकारण व्यवस्थितमुदकरहिता वा गर्ता म्पनः स बलभावनया तां योधयित्वा धीरः सत्वसंपन्नः सन् संपूर्ण दुःखनिर्गमप्रवेशा। सूत्रा० 1 श्रु०३ अ०३ उ० / तालतमालाऽऽदिषु मनोरथो भवति, परीषहोपसर्गान् पराजित्य स्वप्रतिमा पूरयतीत्यर्थः। वनस्पतिभेदेषु, भ० 15 श०। जी०। अपि च -- से किं तं बलया? बलया अणेगविहा पण्णत्ता त जहाधिइबलपुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। "ताले तमाले तक्कलि, तेयाली सालि सारकल्लाणे। तं तु न विज्जइ सजं, जंधिईमंतो न साहेइ।। 527 / / सरले जावति केयइ, कंदलि तह धम्मरुक्खे य॥ 1 // सर्वा अप्येताः तपःप्रभृतयो भावना धृतिबलपुरस्सरा भवन्ति, न हि भुयरुक्ख हिंगुरुक्खे, लवंगरुक्खे य होइ बोधव्वे / धृतिबलमन्तरेण षाण्मासिकतपः करणाऽऽद्यनु गुणाः तास्तथा भावयितुं पूयफली खजूरी, बोधव्वा नालिएरी य॥ 2 // " शक्यन्ते। किंवा तत्तु तत्पुनः साध्य कार्य जगति न विद्यते, यद्धृतिमान् जे यावण्णे तहप्पगारा सेत्तं बलया। प्रज्ञा० 1 पद / आचा० / ज्ञा०। सात्विकः पुरुषो न साधयति, 'सर्वे सत्वे प्रतिष्ठितम्' इति वचनात्. ए पृथिवीनां वेष्टनेषु घनोदधिधनवाततनुवातलक्षणेषु, स्था० २टा०४ उ०। तेन "अव्वोच्छित्ती मण'' इत्यादि द्वारगाथाया उपसर्गसह इति यत्पदं बलयमयग पुं० (वलन्मृतक) बलन्तः संयमाभ्रश्यन्तः, अथवा-बुभुक्षातद्भावित, बलभावनया उपसर्गसहत्वभावादिति। बृ०१ उ०२ प्रक० / ऽऽदिना बेल्लन्तो ये मृतास्ते बलन्मृतकाः। बलन्मरणेन मृतेषु, औ० / बलभावनायां बल द्विविधम्-शारीरं, मानसं च / तत्र शारीरमपि बलं बलयमरण न० (बलन्मरण) बलता संयमान्निवर्तमानाना परीषहाऽऽदिजिनकल्पाहस्य शेषजनातिशायिक मेवेष्टव्यम्, तपः प्रभृतिभिस्त्वप- बाधितत्वान्मरणं बलन्भरणम् / मरणभेदे, स्था०२ठा०४ उ०। 'बलयं कृष्यमाणस्य यद्यपि शारीरं बलं तथाविधं न भवति, तथापि धृति बलयमाणे जो मरण मरइ हीणसत्ततया, संजमजोगेसु बलतो हीणसत्तबलेनाऽऽत्मा तथा भावयितव्यो यथा महद्भिरपि परीषहोपसर्गर्ने बाध्यते। तया जो अकामगो मरइ, एयं बलयमरण, गलं वा अप्पणे बलेइ।'' नि० विशे। चू०११ उ०। बलभी स्त्री० (बलभी) गृहाणामाच्छादने, जी०३ प्रति : अधि०। छदिरा- | बलयामुह पुं० (बडवामुख) मेरोः पूर्वस्यां दिशि महापाता - Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलयामुह 1260 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बला लकलशे प्रव०२द्वार। स०। आ० म०। जी01 आघ०। बलयाऽऽयय त्रि० (बलयाऽऽयत) वृत्ताऽऽयते, सूत्रा०१ श्रु०६ अ०। बलयाविमुक्क त्रि० (बलयविमुक्त) भावबलयं रागद्वेषौ, ताभ्यां विप्रमुक्तः। / सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। संसारबलयात्, कर्मबन्धनाद्वा विमुक्त, सूत्रा० 1 श्रु०१० अ०। मायाविमुक्ते, सूत्रा०१ श्रु०१२ अ०। बलवट्टी (देशी )सख्याम, दे० ना 6 वर्ग 61 गाथा। बलवं कि० (बलवत्) बलं सामर्थ्य, तद्यस्यास्तीतिबलवान, रा०। अनु० / अतिशयितबले, द्वा० 25 द्वा। बलं शारीरिक मानसिकं च यस्यास्ति च बलवान्। रा०। विद्यामन्त्र चूर्णाऽऽदिबलोपेते, व्य०१ उ०।। जो जस्सुवरिं तु पभू, बलियतरो वा वि जस्स जो उवरिं। एसो बलवं भणितो, सो गिहपतिसामितेणाऽऽदि / 206 / / यः पुरुषः यस्य पुरुषस्योपरि प्रभुत्वं करोति सो बलवं भण्णति / अहवाअप्पभूवि जो बलवं सो वि बलवं भण्णति, सो पुण गृहपतिसाभिगो वा तेणगादि वा! नि० चू० 1 उ० समर्थे, आचा०२ श्रु०१चू०५ अ० 2 उ०। सहस्रयोधिनि, नि० चू०१उ० प्रभूतसैन्ये, औ०। निवर्तयितुमशक्ये, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। अ-होरा त्रस्याष्टममुहूर्ते, कल्प०१ अधि०६ क्षण / 0 / चं० प्र०॥ बलवाउयपुं० (बलव्याप्त) सैन्यव्यापारपरायणे, दशा० 16 अ० / औ०। बलवाहणकहा स्त्री० (बलवाहनकथा) राजकथाभेदे, स्था०२ ठा०२ उ०। (व्याख्या रायकहा' शब्दे) बलवीरिय पुं० (बलवीर्य) भरतपौत्रस्य महायशसः प्रपौत्रो, आ० चू०१ .अ०। आव०। बलसंपण्ण पुं० (बलसंपन्न) संहननसमुत्थेन प्राणेन संपन्ने, औ०। रा०। बलसार पुं० (बलसार) स्वनामख्याते राजर्षा, तं०। बलसिरी पुं० (बलश्री) स्वनामख्याते अन्तरञ्जिकानगरी राजे, आ० चू० 1 अ० / यदग्रतः औराशिकाऽऽचार्येण रोहगुप्ते वन्दनार्थमागते गोष्ठामाहिलेन पोट्टशालो वादी पराजितः। विशे०। स्था०। बलभद्रस्य मृगापुत्रोति प्रसिद्ध पुत्रो उत्त० 18 अ०। ('मियापुत्त' शब्दे कथा) बलसोहिया स्त्री० (बलशोधिका) तथाविधायां स्त्रियाम्, तं०ा 'बलसोहिया। बलं पुरुषवीर्य प्रसङ्गेऽसङ्गे वा शोधयन्ती गालयन्तीत्येवशीला बलशोधिका / यद्वाबलेन स्वसामर्थ्य लक्षणेन निशाऽऽदौ जारपुरुषाऽऽदीनां शोधिका शुद्धिकारिका बलशोधिका / यद्वाबलयोः रलयौरक्यात् वरशोधिकाः स्वेच्छया पाणिग्रहणकरणत्वात्धम्मिल्लस्त्री वृन्दवत्। तं०1 बलहरणन० (बलहरण) धारणयोरुपवर्तितिर्यगायतकाष्ठ, "मो भ'' इति यत्प्रसिद्धम्। भ०१ श०५ उ०। बला स्त्री० (बला) श्रीकुन्थोरच्युताऽऽख्यायां शासनदेव्याम्, प्रव० 27 द्वार।यन्यामवस्थायां पुरुषस्य बलं भवति सा बलयोगाद बला। पुरुषस्य त्रिशत्तमवर्षांदनन्तरं चत्वारिंशत्तमवर्षपर्यन्तदशाभेदे, "चउत्थी य बला नाम, ज नरो दसमस्सिओ। सपत्थो बलं दरिसेउ, जइ होइ निरुवडवो / / 1 / / ' स्था० 10 ठ०। योगदृष्टिभेदे, ध०१ अधि० / बलादृष्टिः काष्ठाग्निकणतुल्या, ईषद्विशिष्टोक्तबोधद्वयात्, तद्भावेनात्र मनाक स्थितिवीर्य, अतः पटुप्राया स्मृतिरिह प्रयोगसमये, तद्भावे चार्थप्रयोगमात्राप्रीत्या यत्नलेशभावादिति / योगदृष्टिभेदे, ध०१ अधि०। सुखस्थिगऽऽसनोपेतं,बलायां दर्शनं दृढम् / परा च तत्त्वशुश्रूषा, न क्षेपो योगगोचरः / / 10 // (सुखमिति) सुखमनुवैजनीय स्थिरं च निष्कम्पं यदासनं तेनोपेत सहितम्, उक्तविशेषणविशिष्टस्यैवाऽऽसनस्य योगाङ्गत्वात् / यत् पतञ्जलिः "(तत्र) स्थिरसुखमासनमिति (246) " / बलायां दृष्टौ दर्शनं दृढ काष्ठाऽग्निकणोद्योत सममिति कृत्वा। परा प्रकृष्टा च तत्वशुश्रूषा तत्त्वश्रवणेच्छा जिज्ञासासम्भवात् / न क्षेपो योगगोचरस्तदनुवैगे उद्वेगजन्यक्षेपा भावात्।। 10 / / असत्तृष्णात्वराऽभावात्, स्थिरं च सुखमासनम् / प्रयत्नश्लथताऽऽनन्त्य समापत्तिबलादिह // 11 // (असादिति) असंतृष्णाया असुन्दरलालसायास्त्पराया श्वान्यान्यफलौत्सुक्यलक्षणाया अनावात् स्थिरं सुखं चाऽऽसनं भवति। प्रयत्नस्य श्लथताऽल्केशेनैवाऽऽसनं बध्नामीतीच्छायामङ्गलाघवेन तन्निबन्धः, आनन्त्ये चाऽऽकाशाऽऽदिगते समापत्तिरवधानेन मनस्तादात्म्याऽऽ-पादन दुःखहेतुदे हाहङ्काराभावफलं तद्वलादिह बलायां दृष्टौ भवति / यथोक्तम् "प्रयत्नशैथिल्याऽऽनन्त्य (न्त) समापत्तिभ्याम्। (247) / / 11 / / अतोऽन्तरोयविजयो, द्वन्द्वानमिहतिस्तथा (5 परा) दृष्टदोषपरित्यागः, प्रणिधानपूरः सरः।। 12 // (अत इति) अतो यथोत्कादासनादन्तरायाणामङ्ग मेजया ऽऽदीना विजयः ! द्वन्द्वैः शीतोष्णाऽऽदिभिरनभिहतिर्दु:खाऽप्राप्तिः परा आत्यन्तिकी, 'ततो द्वन्द्वानाभिघातः' (248) इत्युक्ते: / दृष्टानां च दोषाणां मनःस्थितिजनितक्लेशाऽऽदीनां परित्यागः प्रणिधानपुरस्सरः प्रशस्ताऽवधानपूर्वः // 12 // कान्ताजुषो विदग्धस्य, दिव्यगेयश्रुतौ यथा। यूतो भवति शुश्रूषा, तथाऽस्यां तत्त्वगोचरा / / 13 / / (कान्तेति) कान्ताजुषः कामिनीसहितस्य विदग्धस्य गेयनीतिनिपुणस्य दिव्यस्याऽतिशयि तस्य गेयस्य किन्नराऽऽ दिसम्बन्धिनः श्रुतौ श्रवणे यथायूतो यौवनगामिनः कामिनो भवति शुश्रूषा. तथाऽस्वां बलायां तत्वगोचरा शुश्रूषा / / 13 // अभावेऽस्याः श्रुतं व्यर्थ ,बीजन्याम इवोषरे। श्रुताभावेऽपि भावेऽस्याः, ध्रुवः कर्मक्षयः पुनः॥ 14 // (अभाव इति) अस्या उक्त लक्षणशुश्रूषाया अभावे, श्रुतमर्थ श्रवणं व्यर्थम्, ऊषर इव बीजन्यासः / श्रुतौऽभावेऽ Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बला 1261 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बलि पादा प्यर्थश्रवणाऽभावेऽप्यस्या उक्तशुश्रूषाया भावे पुनः धुवो निश्चितः यन्तो नियन्ते, ये च तद्वलवता संयमानुष्ठानान्निवर्तमानानां मरणं बलवकर्मक्षयः / अतोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यामियमेव प्रधान फलकारणमिति न्मरणं तुशब्दो विशेषणार्थः, भगवतपरिणतीनां व्रतिनामेवैतदिति विशेषभावः / / 14 / / यत्य येषां हि संपमयोगानामेवाऽसंभवात् कथं तद्विषादः? सदभावे च योगाऽऽरम्भ इहाऽऽक्षेपात्, स्यादुपायेषु कौशलम्। कथं तदिति? प्रव० 157 द्वार। उप्यमाने तरौ दृष्टा, पयः सेकेन पीनता / / 15 / / बलाहग पुं० (बलाहक) शरत्कालभाविनि मेघे, आ० म०१ अ०। जी०। (योगेति) इह बलायामक्षेपादन्यत्रा चित्ताभ्यासाद्योगाऽऽरम्भे उपायेषु रा० भ० / ज्ञा०। योगसाधनेषु कौशलं दक्षत्वं भवति, उत्तरोत्तर मतिवृद्धियोगादिति भावः / बलाहगास्त्री० (बलाहका) जम्बूद्वीपे विद्युत्प्रभवक्षस्कार पर्वते स्वस्तिकउप्यमाने तरी पयः से केन पीनता दृष्टा, तद्वदिहाऽप्यक्षेपेणैवमतिपीनत्व- कूटवासिन्यां दिकुमार्याम्, स्था० 2 ठा०१ उ०। अधोलोकवासिन्यां लक्षणमुपायकौशलं स्यात् / अन्यथा पूर्णपयः सेकं विनोप्तस्य तरोरिव दिकुमारीमहत्तरिकायाम्, स्था०८ ठा०1ऊर्ध्वलोकवासिन्यां दिकुमारीप्रकृताऽनुष्ठानस्य कायमेवा-कौशललक्षणं स्यादिति भावः / / 15 / / महत्तरिकायाम्, जं०५ वक्ष०। आ० म०। ति०।आ० चू०। आ० क०। द्वा०२२ द्वा० / बलायां दृष्टौ दृढं दर्शन स्थिरसुख मासनं परमात्मतत्त्व बलाहय पुं० (बलाहक) मेघे, "अब्भाई धूमजोणी, बलाहया जलहरा च शुश्रूषायोगगोचरोत्क्षेपः स्थिरचित्ततया योगसाधनोपायकौशलंच भवति / __ जीमूआ।' पाइ० ना० 27 गाथा।। ध०१ अधि० / यो०वि०। बलि पुं० (बलि) "वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्" ||8/135 ! / इति बलागा स्त्री० (बलाका) विसकण्टिकायाम, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / प्राकृते वा स्त्रीत्वम्। प्रा०१पाद। देवतानामुपहारे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। अनु० / प्रज्ञा० / "उअ निच्वल णिप्फंदा. भिसिणी पत्तम्मि रेहइ प्रश्न०। पञ्चा० / 'बलिं करेंति। नगरबलिवदितश्चेतश्च क्षिपन्तीत्यर्थः / यदिवा-कोष्ठबलिं कुर्वन्तीति। सूत्र०१श्रु०५ अ०२ उ० बलि किजउ बलाआ। णिम्मलमरगअभाअणपरिहिआ संखसुत्ति व्व ॥१॥"प्रा०२ सुअणस्सु। 'प्रा० 4 पाद। औत्तराहाणा मसुरकुमाराणां राजनि, प्रज्ञा० 2 पाद / "बलिस्स ण वइरोयणि दस्स सट्टिसामाणियसाहस्सी बलाणगन० (बलानक) द्वारे, नि० चू०८ उ०। पण्णत्ता।' बले रौदीच्यामसुर कुमारनिकायराज, स०६ सम० जी० / बलामोडीदेशी हठे, "दृढो य मड्डा बलामोडी।'' पाइ ना० 175 गाथा। स्था०। आ०म०॥ (अस्योत्पातपर्वतः 'उप्पायपव्वय' शब्दे द्वितीयभागे बलात्कार, द०ना०६ वर्ग 65 गाथा। 837 पृष्ठे उक्तः) बलाऽवलविचारण न० (बलाऽबलविचारण) बलं शक्तिः स्वस्य परस्य बलिस्स णं वइरोयणरण्णो सोमस्स एवं चेव जहा चमरस्स वा द्रट्यक्षेत्राकालभावकृतं सामर्थ्यमबलमपि तथैव तयो विचारणं लोगपालाणां ते चेव बलिस्स वि। स्था० 10 ठा०। पर्यालोचनम् / बलाऽबलपरिज्ञाने, ध० / बलं शक्तिः स्वस्य परस्य वा कहि णं भंते! बलिस्स बइरोयणिंदस्स बइरोयणरणो सभा द्रव्यक्षेत्रकालभावकृतं सामर्थ्यम् / अवलमपि तथैव, तयोर्विचारणं सुहम्मा पण्णत्ता? गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पर्यालोचनम्, बलाबल परिज्ञाने हि सर्वः सफल आरम्भः, अन्यथा तु पवयस्स उत्तरेण तिरियमसंखेजे जहेव चमरस्स० जाव विपर्ययः / यदाह - "स्थाने समवतां शक्तया, व्यायामे वृद्धिगङ्गिनाम्। बायालीसं जोअणसहस्साई उग्गाहित्ता० एत्थ णं बलिस्स अयथावलमारम्भो, निदानं क्षयसंपदः / / 1 / / " इति। अतएव च पठयते बइरोयणिंदस्स बइरोयणरण्णस्स रुयगिंदे णामं उप्पायपव्वए कः कालः कानि मित्राणि, व्ययाऽऽगमौ / कश्चाहं का च मे शक्तिरिति पण्णत्ते सत्तरसएकवी सजोयसणसए, एवं परिमाणं जहेव चिन्त्यं मुहुर्मुहुः // 1 // " इति। ध० 1 अधि०। तिगिच्छिकू डगस्स पासायवडिंसगस्स वि तं चेव पमाणं बलाभिओग पुं० (बलाभियोग) बलं हठप्रयोगस्तेनाभियोगः / ध०२ सीहासणं सपरिवारं बलिस्स परिवारेणं अट्ठो तहेव, णवरं अधि०। बलात्कारेण नियोजने, आ०म०१ अ०। राज-गणव्यतिरिक्त रुयगिंदप्पभाई, सेसं तं चेव, जाव० बलिचंचारायहाणीए स्य बलवत्पारतन्त्र्यस्य नियोगे, उपा०१ अ०। आ० म०। अण्णेसिंच० जाव णिचे रुयगिंदस्सणं उप्पायपव्वयस्स उत्तरेणं बलायमरण न० (बलवन्मरण) संयमयोगेभ्यश्चलता भगव्रत परिणतानां छकोडिसए तहेव० जाव चत्तालीसं जोअणमहस्साइं उग्गाहित्ता, व्रतिनां मरणे, स०१७ सम०1 एत्थ णं बलिस्स बइरोयणिंदस्स बइरोयणरण्णस्स बलिचंचा बलन्मरणमाह णामं रायहाणी पण्णत्ता, एग जोगणसयसहस्सं पमाणं तहेव० संजमजोगविसन्ना, मरंति जे तं बलायमरणं तु (24) जाव बलिपेढिस्स उववाओ० जाव आयरक्खा सव्वं तहेव संयमयोगाः संयमव्यापारास्तैस्तेषु वा विषण्णाः संयमयोग विषण्णाः, जिरवसेस, णवरं साइरेगं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता, से सं तं अतिदुश्चर तपश्चरणमाचारतुमक्षमा व्रतं च कुलाऽऽ दिलज्जया मोक्तुम- चेव० जाव बली वइरोयणिंदे बली, सेवं भंते! भंते! त्ति० जाव शक्नुवन्तः, कथञ्चिदस्माकमितः कष्टानुष्ठानात् मुक्तिर्भवतु, इति चिन्त- | विहरई॥ Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलि 1262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बलिया (कहि णमित्यादि (जहेव चमरस्स त्ति) यथा चमरस्य द्वितीय शताष्ट- ताप्रतिबद्ध समस्त-सूत्रातिदेशायाऽऽह - (सव्वं तहेव निरवसेसं ति) मोद्देशकाभिहितस्य सुधर्मसभास्वरुपाभिधायकं सूत्र तथा बलेरपि सर्वथा साम्यपरिहारार्यमाह (नवरमित्यादि) अयमर्थ :-चमरस्य वाच्यम्, तचतत एवावसेयम्। (एवंपरिमाणं जहेव त्ति) (तिगिच्छिकूडरस सागरोपमस्थितिः प्रज्ञप्तेत्युक्तं, बलेस्तु सातिरेक सागरोपमस्थितिः त्ति) यथा चमरसत्कस्य द्वितीयश ताष्टमोद्देशकाभिहितस्यैव तिगिच्छि- प्रज्ञप्तेति वाच्यमिति / भ० 16 श० 6 उ० / षष्ठवासुदेवस्य पुरुष कूटाभिधानस्योत्पात पर्वतस्य प्रमाणमभिहितं तथाऽस्यापि रुचकेन्द्रस्य पुण्डरीकस्य प्रतिशत्रौ, आव०१०। ति०। प्रव० / ती०। वाच्यं, तदपितत एवावसेयम्। (पासायवर्डिसगस्स वितं चेव पमाणं ति) बलिअपुं० (बलिक) कठिने, "गाढ बाढं बलिअंधणिवं दढं अइसएण यत्प्रमाणं चमरसम्बन्धिनस्तिगिच्छिकूटाभिधानोत्पातपर्वतो परिवर्तिनः | अचत्था' पाइ० ना०६० गाथा। प्रासादावतंसकस्य तदेव बलिसत्कस्याऽपि रुचकेन्द्राभिधानोत्पात- बलिअब्भत्थणन० (बल्यभ्यर्थन) बलेचिने, "वलिअब्भत्थणे महुमपर्वतोपरिवर्तिनस्तस्य तदन्यदपि द्वितीयशतकादेवावसेयम्। (सीहासण हणु.लहूईहूआ सोऽइ। जइ इच्छह बडुत्तणउ, देहुम मग्गहु कोइ॥१॥" सपरिवार बलिस्स परिवारेणं ति) प्रासादावतंसकमध्यभागे सिंहासन बलेरभ्यर्थन सोऽपि मधुमथनो नारायणोऽपि लघुकीभूतः। अथयदीच्छथ बलिसत्कं, बलिसत्कपरिवारसिंहासनोपेतवाच्यमित्यर्थः / तदपि द्वितीय वृद्धत्त्वं बृहत्त्वं तर्हि परं ददत, कोऽपि मा मार्गय इत्यर्थः / प्रा० 4 पाद। शताष्टमोद्देशकविवरणोक्तचमरसिंहासनन्यायेन वाच्यं केवलं तत्र चमरस्य बलिउट्ठ पुं० (बलिपुष्ट) काके, "बलिउहा रिट्ठा बु-ऊणा च ढंका य सामानिकाऽऽसनानां चतुःषष्ठिः सहस्राऽऽत्मरक्षा ऽऽसनानां तु तान्येव कायला काया।" पाइ० ना 44 गाथा। चतुर्गुणान्युक्तानि, बलेस्तु सामानिकाऽऽसनानां षष्टिः सहस्राण्यात्म बलिकडा स्त्री० (बलिकृता) साधुनिमित्तं कूराऽऽदिना विशोधिकोटिं रक्षाऽऽसनाना तु तान्येव चतुर्गुणा नीत्येतावान् विशेषः / (अट्ठो तहेव गमितायां वसतौ, स्था०५ ठा०२ उ०। ग०। या संयतनिमित्तं बलिः नवरं रुयगिंदप्पभा इति) यथा तिगिच्छिकूटस्य नामान्वर्थाऽभिधायक कृतः। बृ० 1 उ०। वाक्यं तथाऽस्याऽपि वाच्यं, केवल तिगिच्छिकूटान्वर्यप्रश्नस्योत्तरे बलिकम्म न० (बलिकर्मन) देवताऽऽदिनिमित्ते (सूत्र०२ श्रु०२ अ०) यस्मात्ति-गिच्छिप्रभाण्युत्पला ऽऽदीनि तत्रा सन्ति तेन तिगिच्छिकूट लोकरुढे (उपा०७ अ०) उपहारोपढौकने, उपा०७ अ०। इत्युच्यते इत्युक्तमिह तु रुचकेन्द्रप्रभाणि तानि सन्तीति वाच्यं, रुच बलिचंचा स्त्री० (बलिचञ्चा) वैरोचनेन्द्रस्य बलेः राजधान्याम्, भ० 3 श० 1 उ०। केन्द्रस्तुरत्नविशेष इति / तत्पुनरर्थतः सूत्रमेवमध्येयम-"से केणद्वेणं बलिपाहुडिया स्त्री० (बलिप्राभृतिका) बलिरुपे प्राभृतिका दोषदुष्टेऽन्ने, भंते! एवं बुधइ-रुयगिंदे रुयगिंदे उप्पायपव्वए? गोयमा! रुयगिदेणं बहूणि "बलिणहुडिया नाम अग्गिम्मि छुब्भति चउदिसिं वा अचणिं न करेति, उप्पलाई पउमाई कुमुयाई० जाव रुयगिंदवह्याई रुयगिंदलेसाई ताहे साहुस्स देति, तं न वट्टति।' आ० चू० 4 अ०। आव०। रुयगिंदप्पभाई से तेणट्टेणं रुयगिंदे रुयगिंदे उप्पायपव्वए ति।" (तहेव बलिपेढिया स्त्री० (बलिपीठिका) प्रतिमापूजनावसरे वासोगिरण थाने, जाव त्ति) यथा चमरचञ्चाव्यतिकरे सूत्रमुक्तमिहापि तथैव वाच्यम् / "तीसे ण सानंदाए पोक्खरिणीए उत्तरपुरच्छिमेणं महया बलिपेढिया तचेदम् - "पणपण्णं च कोडीओ पण्णासं च सयसहस्साई पण्णासंच पण्णत्ता।" रा०। सहस्साई वीईवइत्ता इमं च रयणप्पभं पुढविं ति। (पमाणं तहेव प्ति) बलिमादिन० (बल्यादि) उपहारप्रभृतौ, पञ्चा०६ विव०। यथा चमरचञ्चायाः / तच्चेदम्-''एग जोयणसयसहस्सं आयाम बलिमुह पुं० (बलिमुख) "साहामओ बलिमुहो पवंगमो वाणरो कई विक्खंमेणं तिणि जोयणसयसहस्साई सोलसयसहस्साई दोषिण य पवओ।" कपौ, पाइ० ना०४३ गाथा। सत्तावीसे जोयणसए तिपिण य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरसयं अंगुलाई बलिय त्रि० (बलिक) बलमस्यास्तीति बलिकः / भ० 12 श०३ उ० / अद्धगुलयं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्त ति।" (जाव बलवति, बृ०६ उ० / प्राणवति, स्था० 4 ठा०३ उ०। रा०। अत्यर्थे, बलिपेढस्सत्ति) नगरीप्रमाणा भिधानानन्तरं प्राकारतद्वारोपकारिक बृ०३ उ०। लयनप्रासादावत सकसुधर्मसभाचैत्यभवनोपपात सभाइदाभिषेक बलित त्रि० चलिते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। बलयः संजातोऽस्य बलितः। सभाऽलङ्कारिकसभाव्यवसायसभाऽऽदीनां प्रमाण स्वस्वरुपंचतावद्वाच्य जी० 3 प्रति०४ उ० / प्रश्न० / वृते, रा०। आ० म०। यावद्वलिपीठस्य, तच स्थानान्तरादवसेयम्। (उववाओ त्ति) उपपात बलियतर न० (बलिकतर) गाढतरे, भ०६ श०३३ उ०। ज्ञा०। सभायां बलेरुपपातवक्तव्यता वाच्या। सा चैवम्-"तेणं कालेणं तेणं बलियत्तन० (बलिकत्व) बलमस्यास्तीति बलिकस्तदूभावो बलिकत्वम् / समएणं बली वइरोयणिंदे अहुणोववण्णमेत्तए समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए सबलतायाम्, केषाञ्चित् अपापिना बलिकत्वं, केषाञ्चिद् पापिनां पजत्तभावं गच्छइ।'' इत्यादि। (जाव आयरक्ख त्ति) इह यावत्करणा- दुर्बलिकत्वं साध्विति / भ०१२ श०२ उ०। ('जयंती' शब्दे चतुर्थभागे दभिषेकोऽलङ्कारग्रहणं पुस्तकवाचनं सिद्धाऽऽयतन प्रतिमाऽऽद्यर्चनं 1416 पृष्ठे दर्शितम्) सुधर्मसभागमनं, तत्रस्थस्य च तस्य सामानिका अगमहिष्यः पर्षदोऽ- 1 बलिया स्त्री० (बलिका) बलवत्याम, व्य० 4 उ० / उपचितमा नीकाधिपत्तयः आत्मरक्षाश्च पार्श्वतो निषीदन्तीति वाच्यम्। एतद्वक्तव्य- सशोणितायाम, बृ० 3 उ० / शूर्भे , दुर्वलिकया कण्डिताना Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिया 1263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बह बलिकया छर्दितानाम्, दुर्बलिकाबलिके उदूखलशूर्पा सम्भाव्यते। आ० गुडूची --- कूष्माण्डीतुम्बी पुष्पफलीप्रभृतिषु, जं०२ वक्ष० / वनस्पतिम०१ अ०। भेदेषु, जी०१ प्रति०। बलिवइसदेव न० (बलिवैश्वदेव) बलिना वैश्वानरपूजायाम्, "बलिवइ भेदा:-- सदेवे करेइ। बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः / भ० 12 श०२ उ०। से किं तं बल्लीओ ? बल्लीओ अणेगविहाओ पण्णत्ताओ। तं आव० / नि०। आ० म०। जहाबलिस न० (बडिश) डो लः / / 8 / 1 / 202 / / इति डस्य लः / 'बडिस / "पूसफली कालिंगी, तुंबी तपुसी य एल बालुंकी। बलिस / ' मत्स्यबन्धनवंश्याम, प्रा०१ पाद। घोसातई पडोला, पंचंगुलिआ य णाली य / / 26 / / बलिस्सह पुं० (बलिस्सह) स्वनामख्याते महागिरिशिष्ये, कल्प० 2 कंगूलया कदुइया, कंकोडइ कारिएल्लई सुभगा। अधि० 8 क्षण। "तत्तो कोसियगुत्तं, बहुलस्स सरिव्वयं वंदे / " तत्र कुवहा य वागली पव्वबल्ली तह देवदाली य / / 27 / / महागिरी प्रधानशिष्यावभूताम् / तद्यथा बहुलो, बलिस्सहश्च / तो च अप्फोडा अइमुत्तय, नागलया कण्हसूरबल्ली य! द्वावपि यमलभ्रातरौ कौशिकगोत्रौ च, तयोरपि च मध्ये बलिस्सहः संघट्ट सुमिणसा वी, जाइसुमिण कुविंदबल्ली य॥२८॥ प्रवचनप्रधान आसीत्, अतस्तमेव निनंसुराह -ततोमहागिरेरनन्तरं मुद्दिय अंबाबल्ली, वीराली जियंति गोबाली। कौशिकगोत्रं बहुलस्य सदृशक्यसं समानवयसं, तयोरपि यमलभ्रातृ धाणी सामाबल्ली, गुंजाबल्ली य वत्थाणी॥ 26 // त्वादन्दे नमस्करोमि / नं०। ससवि दुगोत्तफुसिया, गिरिकण्णइ मालुया य अंजणई। बलीवद्द पुं० (बलीवर्द) पुङ्गवे, स्था० 4 ठा०२ उ० / दहफुल्लइकागणिया, गलोय तह अक्कवोंदी य / / 30 // " जे यावणे तहप्पगारा सेत्तं बल्लीओ। प्रज्ञा०१ पद। बलुल्लड न० (बल)"योगजाश्चैषाम् // 841430 // अपभशे अडडुल्लानां योगभेदेभ्यो ये जायन्ते डडअ इत्यादयः प्रत्ययास्तेऽपि म०६ / आचा०। ज्ञा० / सू०। स्था० / जी०। स्वार्थे भवन्ति, अनेन डुल्लडडप्रत्ययः / डित्वादकारलोपः / सामर्थ्य लोमसिय तउसि मुहिय, तंबोलादीय बल्लीतो / / 42 / / लोमशिका त्रापुपिका तम्बूलिका इत्येवमादिका वल्ल्यः / व्य०६ उ०। उदाहरणम्-"साभिपसाउ सलजु पिउ, सीमासंधिहि वासु। पेविखवि बव्वाह (देशी) दक्षिणहस्ते, दे० ना० 6 वर्ग 86 गाथा। बाहु बलुल्लड़ा, धण मेल्लइ नीसासु / / 1 / / ' एवं बाहुबलुल्लडउ। अत्र बह पुं० (बध ) हनन, बधः / शिरश्छेदाऽऽदिसमुद् भूतपीडायाम, विशे० / त्रयाणां योगः। प्रा०४ पाद। औ० / कम्बाऽऽदिघाते, उत्त० 1 अ०। यष्टयादिताडने, ज्ञा०१ श्रु०२ *बले अव्य० / "बले निर्धारणनिश्चययोः" / / 8 / 2 / 165 / / बले अ० / स० उत्त० / आव०। श्रा० / हिंसायाम, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। इति निर्धारणे निश्चये च प्रयोक्तव्यम्। निर्धारणे, "बले पुरिसोधणजओ लकुटाऽऽदिप्रहारे व्य०६ उ०। भ०। आचा०। प्रब०। कृतकारितानुमखत्तिआण।" निश्चये, 'बले सीहो।' सिंह एवायम्। प्रा० 2 पाद। तिभि रुपमर्दनाऽऽदिके, आचा० 1 श्रु०१ अ० 2 उ० / पाणिलत्ताबल्ल पुं० (बल्ल) निष्पावे, स्था० 5 ठा० 3 उ० / प्रव०।गुज्जात्रायपरिमिते कशाऽऽदिभिस्ताडने, आव० 4 अ०। प्राण्युपमर्द, सूत्र०२ श्रु०६ प्रतिमानभेदे, "गुञ्जात्रायेण बल्लः स्यात्, गद्याणे तेच षोडशा" वाच०। अ०। मारणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / विनाशे, प्रश्न०५ संव० द्वार। बल्लई स्त्री० (बल्लकी) वीणाविशेषे, प्रश्न०५ संव० द्वार। राण ज०। द्विपदाऽऽदीनां निर्दयताडने, ध०२ अधि० / प्रश्न० / दश० / बल्लभ त्रि० (बल्लभ) इष्टे, पञ्चा०२ विव०। दयिते, आचा०१ श्रु०२ कशाऽऽदिभिर्हनने, पञ्चा०१ विव०।"क्रयेण क्रायको हन्ति, उपभोगेन अ०३ उ० / आ० म०। "नारीणं होह बल्लहो।" अनु० / "हरे खादकः / घातको बधचित्तेन, इत्येष त्रिविधो बधः // 1 // दश०१ बहुबल्लहो।" प्रा०२ पाद। अ० / क्रुधाबधः स्थूलाऽदत्ताऽऽदानविरतेराद्योऽतिचारः / बधः चतुष्पदाबल्लभराय पुं० (बल्लभराज) चौलुक्यवंशीये मूलराजादनन्तरे अणहि ऽऽदीनां लगुडाऽऽदिना ताडनम् / स च स्वपुत्राऽऽदीनां विनयग्राहणार्थ (ल)ल्लपट्टनराजे, ती०२२ कल्प०। क्रियते / ध०२ अधि० / बधो द्विपदानां चतुष्पदानां वा स्यात्. सोऽपि बल्लर न० (बल्लर) क्षेत्रविशेषे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / हरितस्थाले, सार्थकोऽनर्थको वा / तत्राऽनर्थकस्तावद्वि धातुं न युज्यते, सार्थकः उत्त०१६ अ01 गहने, उत्त 16 अ०। "बल्लराणि पलीवेजा।" आव० पुनर सौ द्विविधः-सापेक्षो, निरपेक्षश्च। तत्रा निरपेक्षो निर्दयताडनं, स 4 अ०। नकर्तव्यः / सापेक्षः पुनः श्रावकेणाऽऽदित एव भीतपर्षदा भवितव्यं, यदि बल्लव पुं० (बल्लव) गोपे, को०। पुनः कोऽपि न करोति विनयं तदा तं मर्माणि मुक्तवा लत्तया दवरकेण वा बल्लह त्रि० (बल्लभ) 'बल्लभ' शब्दार्थे , पञ्चा०२ विव० / सुकृदद्विर्वा ताडयेत्। ध०२ अधि०। बलदेवस्य रेवतीकुक्षि सम्भवे पुत्रे, बल्लहराय पुं०(बल्लभराज) 'बल्लभराय' शब्दार्थे, ती० 25 कल्प। स चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य सर्वार्थे उपपद्य सेत्स्यतीति। नि०१श्रु०५ बल्ली स्त्री० (बल्ली) अपुषी वालुङ्की को शातकी कालिङ्गी नागबल्ली- | वर्ग 4 अ०। Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहग 1294 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहपरीसह बहग पुं० (बधक) घन्तीति बधकाः / प्राण्युपमर्दकर्तृषु, दश०१ अ०। स्वयं हन्तृषु, ज०२ वक्ष०। 'कुर्याद् वर्षसहस्रं तु. अहन्यहनि मजनम्। | सागरेणाऽपि कृत्स्नेन, बधको नैव शुध्यति॥१॥" उत्त०१२ अ०। बहडाइचणयर न० (बृहदादित्यनगर) सरयूसविधे स्वनामख्याते पुरे, "अलावुदीणसुरताणस्समल्लिकेण हेव्वसे नामेणं बहडाइचनगराओ।" ती०३६ कल्प। बहता स्त्री० (ब्यधता) ताडनतायाम्, भ० १२श०६उ०। बहपरिणय पु० (बधपरिणत) मारणाध्यवसायवति, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। बहपरीसह बध (व्यघ)-पुं० (परीषह) बधो व्यधो वा यष्टया दिताडनं तत्परिषहणं च परैर्हि दुरात्मकैः पाणिपार्णिलत्ताकशाऽऽदिभिः प्रद्वेषाऽऽदितः कोपकलुषितान्तः करणेन क्रियमाणस्य ताडनस्य (प्रव०८६ द्वार) क्षान्त्यवलम्बनतः सहने, भ०८ श०८ उ०।"हतः सहेतैव मुनिः, प्रतिहन्यान्न साम्यवित्। जीवानाशात् क्षमायोगात्, गुणाऽऽसेः क्रोधदोषतः / / 1 // " आव०१ अ०। 'सहेत हन्यमानोऽपि, प्रतिहन्यान्मुनिर्न तु। जीवनाशात्कुधो दौष्ट्यात्, क्षमया च गुणार्जनात्॥१॥ध०३ अधि०। एतदेव सूत्राकृदाहहओ न संजले भिक्खू, मणं पि न पओसए। तितिक्खं ऊपरमं नचा, मिक्खुधम्मं विचिन्तए।। 26 / / कश्चिदाक्रोशमाोणातुष्यन्नधमाधमो बधमपि विदध्यादिति बधपरीषहमाह-हतोयष्ट्यादिभिस्ताडितो न संज्वलेत् कायतः कम्पनप्रत्याहननाऽऽदिना वचनतश्च प्रत्याक्रोशदानाऽऽदिना भृशं ज्वलन्तमिवाऽऽत्मानं नोपदर्शयत्, भिक्षुः मनश्चित्तं तदपि न प्रदूषयेत् न कोपतो विकृतं कुर्वीत, किं तु तितिक्षां क्षमाम् “धर्मस्य दया मूलं, न चाऽक्षमावान् दयां समाधत्ते / तस्माद्यः शान्तिपरः, स साधयत्युत्तमं धर्मम् / / 1 // " इत्यादिवचनतः परमा धर्मसाधनं प्रति प्रकर्षवती ज्ञात्वाऽवगम्यं भिक्षुधर्म यतिधर्म, यद्वाभिक्षुधर्म क्षान्त्यादिकं वस्तुस्वरुपं वा चिन्तयेत्, यथा-क्षमामूल एव मुनिधर्मोऽयं चास्मन्निमित्तं कर्मोपचिनोत्यस्मदोष एवायमतो नैन प्रति कोप उचितः। इति सूत्रार्थः / अमुमेव प्रकारान्तरेणाऽऽह - समणं संजय दत्तं, हणिज्जा कोऽवि कत्थऽवि। नत्थि जीवस्स नासु त्ति, ण तं पेहे असाहुवं / / 27 / / (समणं ति) श्रमणं सममनसंवा, न तथाविधबधेऽपि धर्म प्रति प्रहत चेतसं, श्रमणश्च शाक्याऽऽदिरपि स्यादित्याह-संयतं पृथिव्यादिव्यापादननिवृत्तं, सोऽपि कदाचिल्लाभाऽऽदिनिमित्तं बाह्यवृत्त्यैव सम्भवेदत्त आह–'दान्तम्' इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन हन्यात्ताडयेत, कोऽपीति तथाविधोऽनार्यः कुत्रापि ग्रामाऽऽदौ, तत्र किं विधेयमित्याह-नास्ति जीवस्याऽऽत्मन उपयोगरूपस्य नाशोऽभावः, तत्पर्यायविनाशरूपत्वेन हिंसाया अपि तत्र तत्राऽभिधानादितीत्यस्माध्देतो तमिति घातकं प्रेक्षत असाधुमर्हति यत्प्रेक्षणं भुकुटिभङ्गाऽऽदियुक्तं तदसाधुवत, किंतु रिपुजय प्रति सहायोऽयमिति धिया साधुवदेव प्रेक्षतेति भावः / अथवा-अपेर्गम्यमानत्वात् नतप्रेक्षेताप्यसाधुनातुल्यं वर्तत इत्वसाधुवत्, किं पुनरपकारायोपतिष्ठेत् संल्किवाति वा? असाधुर्हि सत्यां शक्तो प्रत्युपकारायोपतिष्ठते असत्यां तु विकृतया दृशा पश्यति संल्केशं वा कुरुत इत्येवमभिधानम्। पठ्यतेच- "नय पेहे असाहुयं ति'' चकारस्यापिशब्दार्थस्य भिन्नक्र मत्वा-त्प्रेक्षेतापि न चिन्तयेदपि न,कामसाधुनां, तदुपरि द्रोहस्वभाव-ताम् / पठन्ति च"एवं पेहेन संजओ' इति सूत्रार्थः / / 27 / / अधुना 'वणे त्ति द्वार, तत्रा 'हतो (तः) संज्वलेत इत्यादि सूत्रमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह-- सावत्थी जियसत्तू, धारणि देवी य खंदओ पुत्तो! धूया पुरंदरजसा, दत्ता सा दंडईरण्णो / / 111 // मुणिसुव्वयंतेवासी, खंदगपमुहा य कुंभकारकडे / देवी पुरंदरजसा, दंडइ पालग मरूए य / / 112 / / पंचसया जंतेणं, बहिया उ पुरोहिएण रुटेणं / रागद्दोसतुलग्गं, समकरणं चिंतयंतेहिं / / 113 / / श्रावस्ती जितशत्रुर्धारणी देवी च स्कन्दकः पुत्रो दुहिता पुरन्दरयशा, दत्ता सा दण्डकिराजाय, मुनिसुव्रतान्तेवासिनः स्कन्दकप्रमुखाश्च कुम्भकारकटे देवी पुरन्दरयशा दण्डकिः पालकः मर / पञ्चशतानि यन्त्रण घातितानि, तुः पूरणे पुरोहितेन राष्टेन पालव, गद्वेषयोस्तुलाग्रमिव तदनभि भाव्यत्वेन रागद्वेषतुलाग्रं समकरण माध्यस्थ्यपरिणाम भावयद्भिः स्वकार्य साधितमिति शेषः / इति गाथात्रयाक्षरार्थः / / भावार्थस्तु संप्रदायादवसेयः। स चायम् - "सावत्थीए नयरीए जितसत्तू राया, धारि (र) णी देवी, तीसे पुत्तो खंदओ नाम कुमारो, तस्स भगिणी पुरन्दरजसा सा कुंभकारकडे नयरे, दंडगी नाम राया तस्स दिन्ना, तस्स य दंडकिस्स रण्णो पालगो नाम मरुओ पुरोहिओ। अण्णया सावत्थीए मुणि सुव्वयसामी तित्थयरो समोसरिओ, परिसा निग्गया, खंदओ वि निगओ, धम्मं सोचा सावगो जाओ। अण्णया सोपालकमरुको दूयत्ताए आगतो सावत्थिनयरि, अत्थाणिमज्झे साहूणं अवण्णं वयमाणो खंदएणं निप्पिट्टपसिणवागरणो कओ, पओसमावण्णो, तप्पभिई चेव खंदगस्स छिद्दाणि चारपुरिसेहिं मम्गावितो विहरति, जाव खंदओ पचहि जणसएहिं कुमारो लग्गएहि सद्धिं मुणिसुव्वयसामिसगासे पव्वइओ,बहुस्सुतो जातो, ताणि चेव से पंच सयाणि सीसत्ताए अणुण्णायाणि। अण्णया खंदओ सामि आपुच्छति-वचामि भगिणीसगांस? सामिणा भणियंउवसगो मारणंतिओ। भणति-आराहगा विराहगावा? सामिणा भणियंसव्वे आराहगा तुम मोत्तु / सो भणति-एयं लट्ठ जदि एत्तिया आराहगा, गओ कुंभकारकड, मरुएणं जहिं उज्जाणे ठितो तहिं आउहाणि णूमियाणि / राया दुग्गाहिओ-जहा एस कुमारो परीसहपराजितो एएण उवाएणं तुमं मारेत्ता रजं गिहिहि त्ति, जदि तेविपचओ उजाणंपलोएहि, आउहाणि ओलइयाणि दिट्ठाणि, ते बंधिऊण तस्स चेव पुरोहियस्स समप्पिया, तेण सव्वे पुरिसजतेण पीलिया तेहि सम्म अहियासियं तेसि केवलनाणं उप्पण्ण सिद्धा य / खंदओ वि Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहपरीसह 1295 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहप्फइदत्त पासे धरिओ, लोहियचिरिबाहिं भरिजंतो सव्वओ पच्छा जंते पीडितो पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् / / 1 / / " आ० चू० 1 अ०। निदाणं काऊण अग्गिकुमारेसु उववण्णो / तं पि से रयहरणं रुहिरलित्त / बहप्फइचरियन० (बृहस्पतिचरित) बृहस्पतिः शुभाशुभफल प्रदश्चिन्त्यते पुरिसहत्थो ति काउं गिद्धेहिं पुरंदरजसाए पुरओ पाडियं, सा वि तद्दिवस यत्र तादृशे शास्त्रे. सू० प्र० 20 पाहु। अधिई करति जहा साहू न दीसति, तं च णाए दिलु, पञ्चभिन्नाओ य बहप्फइदत्त पु० (बृहस्पतिदत्त) महेश्वरदत्तपुत्र, स्था० / कौशाम्ब्यां कंबलो, णिज्जिाओ छिण्णाओ, ताए चेव दिण्णो, ताए णायं-जहा ते बृहस्पतिदत्तनामा ब्राह्मणः, सचान्तः पुरव्यतिकरे उदायनेन राज्ञा तथैव मारिया, ताहे, खिंसितो रायापाव! विणट्ठोऽसि।ताए चिंतियंपव्वयामि, कदर्थयित्वा मारितो, जन्मान्तरे चासावासीत् महेश्वरदत्तनामा पुरोहितः, देवेहि मुणिसुव्वसयगासं नीया, तेण वि देवेणं णगरं दई सजणवय, अज्ज स च जितशत्रो राज्ञः शत्रुजयार्थ ब्राह्मणाऽऽदिभि:मं चकार, तत्रा वि दंडगारणं ति भण्णति / अरण्णस्सयवणा क्खाया भवति / " तेन प्रतिदिनमेकैकं चातुर्वर्ण्यदारकमष्टभ्यादिषु द्वौ चतुर्मास्यां चतुरश्चतुरः द्वारगाथायां वनमित्युत्कम्। 'एत्थ तेहिंसाहूहिं बहपरीसहो अहियासितो षण्मा स्यामष्टावष्टौ संवत्सरे षोडश षोडश परचक्राऽऽगमेऽष्टशतमष्टशतं सम्म, एवं अहियासेयव्य / न जहा खंदएण नाहियासियं।'' उत्त०२ अ०। परचक्र च जीयते, तदेवं मृत्वाऽसौ नरकं जगामेत्येव ब्राह्मणवक्तव्यताबधपरीषहमङ्गीकृत्याऽऽह -- निबद्ध पञ्चममिति। स्था० 10 ठा० / अप्पेगे खुधियं भिक्खुं, सुणी डंसति गुसए। बृहस्पतिदत्तवक्तव्यतातत्थ मंदा विसीयंति, तउ पुट्ठा व पाणिणो || // जंबू! ते णं काले णं ते णं समए णं कोसंबी णामं णयरी होत्था (अप्पेगे इत्यादि)अपिः सम्भावने, एकः कश्चिच्छ्वाऽऽदिः लूषयतीति रिद्धथमियसमिद्धा, बाहिं चंदोत्तरणे उज्जाणे सेयभद्दे जक्खे, लूषकः प्रकृत्यैव कूरो भक्षकः, क्षुधितं बुभुक्षितं भिक्षामटन्तं भिक्षु दशति तत्थ णं कोसंबीए गयरीए सयाणीए णामं राया होत्था भक्षयति दशनैरङ्गावयवं विलुम्पति। महयाहिमवंत०, तस्स णं सयाणीयस्स रण्णो मियावतीए देवीए तत्रा तस्मिन श्वाऽऽदिभक्षणे सतिमन्दा अज्ञा अल्पसत्वतया विषीदन्ति अत्तए उदयणे णामं कुमारे होत्था अहीणजुवराया / तस्स णं दैन्यं भजन्ते / यथा तेजसाऽग्निना स्पृष्टा दह्यमानाः प्राणिनो जन्तवो उदयणस्स कुमारस्स पउमावई णामं देवी होत्था / तत्थ णं वेदनाऽऽर्ताः सन्तो विषीदन्ति गात्रं संकोचयन्त्यार्तध्यानोपहता भवन्ति, सयाणीयस्स सोमदत्ते णामं पुरोहिए होत्था रिउवेदे यजुव्वेदे एवं साधुरपि क्रूरसत्वैरभिद्रुतः संयमाद् भ्रश्यत इति, दुःसहत्वाद् ग्राम सामवेए अथव्वणवेए० / तस्स णं सोमदत्तस्स पुरोहियस्स कण्टकानाम्। सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 1 उ०। वसुदत्ता णामं भारिया होत्था / तस्स णं सोमदत्तस्स पुत्ते बहपरीसहविजय पुं० (बधपरीषहविजय) निशितकृपाणमुद्ग राऽऽदि- वसदत्ताअत्तए बहस्सइदत्ते णामं दारए होत्था अहीणसव्वंगे। ते प्रहरणताडनाऽऽदिभियापाद्यमानशरीरस्य व्यापादकेषु मनागपि णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे समोसरिए / ते मनोविकारमकुर्वतो मम पुराकृतकर्मणामेव फलं, तन्न मे किञ्चिदप्यमी णं काले णं ते णं समए णं भगवं गोयमे तहेव० जाव रायमग्गं वराकाः कुर्वन्ति। अपि च-विशरारु स्वभावंशरीरमेतैर्बाध्यते, नान्तर्ग- उग्गाढे तहेव पासइ हत्थी आसे पुरिसमज्झे पुरिसं चिंता तहेव तानि मम ज्ञानदर्शनचारित्राणीति चिन्तयतो वासीतक्षणचन्दनानुलेप- पुच्छइ पुव्वभवं, भगवं वागरेइ / एवं खलु गोयमा! ते णं काले नमसमदर्शिनः यत् सम्यक् बधपीडासहनम्। तस्मिन्, पं० सं०४ द्वार। णं ते णं समए णं इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे सव्वओभद्दे वहप्फइ पुं० (बृहस्पति)"बृहस्पतिवनस्पत्योः सोवा" // 8266 // णामणयरे होत्था रिद्धत्थमियसमिद्धे, तत्थ णं सव्वओभद्दे णयरे अनयोः संयुक्तस्य सो वा भवति / 'बहस्सई / बहप्फई / भयस्सई। जियसत्तू णामं राया होत्था। तत्थणं जियसत्तुस्स रण्णो महेसर भयप्फई। प्रा०२ पाद। "वृहस्पतौ वहोमयः" / / 8 / 2137|| दत्ते णामं पुरोहिए होत्था रिउवेदे० जाव अथव्वणकुसले यावि बृहस्पतिशब्दे वह इत्यस्यावयवस्य भय इत्यादेशो वा भवति। भयस्राई। होत्था / तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए जियसत्तुस्स रण्णो भयप्फई। भयप्पई। पक्षे–बहस्सई। बहप्फई। बहप्पई। प्रा०२ पाद।" रज्जबलविवद्धणट्ठयाए कल्लाकल्लिं एगमेगं माहणदारगं एगमेगं वा बृहस्पतौ" |/1 / 138 // इतीकारे उकारे च।" ष्पस्पयोः खत्तियदारगं एगमेगं वइस्सदारगं एगमेगं सुद्ददारगं गिण्हावेइ फः" ||8/2253 / / इति फो भवति / बिहप्फई। बुहप्फई। बहप्फई। / गिण्हावे इत्ता तेसिं जीवंतगाणं चेव हयउडए गिण्हावेइ, प्रा०१ पादा तारकाकारग्रहे ज्योतिष्कदेवभेदे, स्था०६ढा०।पुष्यनक्ष- गिण्हावेइत्ता जियसत्तुस्स रण्णो संतिहोमं करेइ, करेइत्ता तए स्य बृहस्पतिर्देवता। णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठमीचउद्दसीसुदुवे दुवे माहणखत्तिय दो बहप्फई / स्था० 2 ठा०३ ज०। जं०। सू० प्र०। वइस्ससुद्दे चउण्हं मासाणं चत्तारि चत्तारि छण्हं मासाणं अट्ठ चतुश्चत्वारिशे महाग्रहे, चं० प्र०२०पाहु०। सू०प्र०। प्रश्न०। प्रज्ञा० / अट्ठ संवच्छ रस्स सोलस सोलस जाहे वि य णं जियसत्तू णं ज्यो०। कल्प० / अविश्वासगर्भशास्त्राऽऽचार्य, स्वनामख्याते आचार्ये, राया परबलेणं अभिजुञ्जइ ताहे तहिं वि य णं से महेसरदत्ते "जीणे भोजनमाोयः, कपिलः प्राणिनां दयाम्। बृहस्पतिरविश्वास, | पुरोहिए अट्ठसयं माहणदारगाणं अट्ठसयं खत्तियदारगाणं अट्ठसयं Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहप्फइदत्त 1266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहिर वइस्सदारगाणं अट्ठसयं सुद्ददारगाणं पुरिसेहिं गिण्हावेइ, तिभागावसेसे दिवसे सूलीभिण्णकए समाणे कालमासे कालं गिण्हावे इत्ता तेसिं जीवंताणं चेव हयउडियाओ गिण्हावेइ किच्चा इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेव पुढवी, तओ गिण्हावेइत्ता जियसत्तुस्स रण्णो संतिहोमं करेइ, करेइत्ता तए हत्थिणाउरे णयरे मियत्ताए पञ्चाइस्सइ / से णं तत्थ वाउरिएहिं णं से परबले खिप्पामेव विद्धंसइ वा, पडिसेहिज्जइ वा; तए णं बहिए समाणे तत्थेव हत्थिणाउरेणयरे सेविकुलंसि पुत्तत्ताए बोहिं से महेसरदत्ते पुरोहिए एयकम्मे 4 सुबहुपावं० जाव समजिणित्ता सोहम्मे कप्पे महाविदेहे सिज्झिहिति। विपा०१ श्रु०५ अ०। तीसं वाससयाई पर० कालमासे कालं किच्चा पंचमाए पुढवीए बहल (देशी) पड़े, दे० ना०६ वर्ग 86 गाथा / दृढे, त्रि०ा जं०३ वक्षः। उक्कोसेणं सत्तरसागरोवमट्ठिईए णरएसु उववण्णे, से णं तओ वाहल्यविशिष्ट, पञ्चा० 5 विव०तमिस्रसमूहे, सू० प्र०२० पाहु०। अणंतरं उध्वट्टित्ता इहेव कोसंबीए णयरीए सोमदत्तस्स | बहलिय पुं० (बहलिक) म्लेच्छजातिभेदे, तद्देशे च / प्रश्न०१ आश्र० पुरोहियस्स वसुदत्ताए भारियाए पुत्तत्ताए उववण्णे / तएणं तस्स द्वार। रा०। दारगस्स अम्मापियरो णिव्वत्तवारसाहस्स इमं एयारुवं णामधिज्जं बहली स्त्री० (बहली) बहलदेशोत्पन्नायां दास्याम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। करेइ-जम्हाणं अम्हे इमे दारए सोमदत्तस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए भ० 1 आ० म० / ऋषभपुरावाहुवलिराज्ये, वाहुबले-बहलीदेशे तम्हा णं होउ अम्हे दारए बहस्सइदत्ते णामेणं / तए णं से तक्षशिलायां राज्यं दत्तम्। कल्प०१अधि०७ क्षण। आ० चू० / दशा०। बहस्सइदत्ते दारए पंचधाई परिग्गहिए० जाव परिवड्डइ। तएणं बहविरइस्त्री० (बधविरति) व्यापारनिवृत्तौ प्रज्ञा०१पद। से बहस्सइदत्ते णामं कुमारे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणविण्णाए बहस्सइपुं० (बृहस्पति) 'बहप्फइ' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद। होत्था, उदयणस्स कुमारस्स पियबाल-वयस्सए यावि होत्था बहस्सइचरिय न० (बृहस्पतिचरित) बहप्फइचरिय' शब्दार्थे, सू०प्र० २पाहु०। सहजायए सहवड्डियए सह पसुकीलयए / तए णं से सयाणीए बहस्सइदत्तपुं० (बृहस्पतिदत्त) 'बहप्फइदत्त' शब्दाथें, स्था० 10 ठा० / राया अण्णया कयाइ काल धम्मुणा संजुत्ते, तए णं से उदयणे बहावह पुं० (बधाऽऽवह) बध प्राण्युपमर्दमावहतीति बधाऽऽवहः / हिंसके, कुमारे बहूहिं राईसर० जाव सत्थवाहप्पभिईहिं सद्धिं संपरिबुडे सूत्र०२ श्रु०६ अ०। रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे सयाणीयस्स रण्णो महया बहि अव्य०(बहिस्) वह इसुन। बाह्ये, वाच० / स०३४ सम०। स्था०। इड्डीसक्कारसमुदएणं णीहरणं करेइ, क रेइत्ता बहूई लोयाई रा०। मयकिचाई करेइ / तए णं से बहवे राईसर० जाव सत्थवाहे बहिंविहार पुं० (बहिर्विहार) वहिः संसाराद् विहारः स्थाने बहिर्विहारः / उदयणं कुमारं महया महया रायामिसेएणं अभिसिंचइ। तएणं मोक्षे, उत्त०१४ अ०। से उदयणे कुमारे राया जाए महया० / तए णं से बहस्सइदत्ते बहिणी स्त्री० (भगिनी) "दुहितृ-भगिन्योधूआ बहिण्यौ" // 12 दारए उदयणस्स रण्णो पुरोहिए उदयणस्स रण्णो अंतेउरे / 126|| इति भगिनीस्थाने बहिणी इत्यादेशः / प्रा०२ पाद। स्वसरि, बेलासु य अवेलासु य कालेसु य अकालेसु य राओ य वियाले "भल्ला हुवा जु मारिआ, बहिणिः महारा कंतु।'' प्रा० 4 पाद। "बहिणी य पविसमाणेअणया कयाइपउमावईदेवीए सद्धिं संपलग्गे यावि ससा।" पाइ० ना० 252 गाथा। होत्था / पउमावईदेवीए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे बहिय त्रि० (बधित) हते. ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। विहरइ / इमं च णं उदयणे राया ण्हाए जाव विभूसिए जेणेव बहिया अव्य० (बहिस्) नगराऽऽदेबहिस्तादर्थे स्था० 6 ठा० / भ०। चं० पउमावई देवी तेणेव उदयणे राया बहस्सइदत्तं पुरोहियं प्र०। "चपाए णयरीए बहिया पुण्णभद्दे चेइए।" औ०। भ० / आचा०। पउमावईण देवीए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे पासइ, स्था०। आव०। पासइत्ता आसुरुत्ते तिबलियं भिउडि णिलाडे साहट्ट वहस्सइदत्तं बहियापोग्गलक्खेवपुं० (बहिःपुद्गलक्षेप) अभिगृहीतदेशाद् बहिः प्रयोपुरोहियं पुरिसेहिं गिण्हावेइ, गिण्हावेइत्ता० जाव एएणं विहाणेणं जनसद्भावे परेषा प्रबोधनाय लेष्टवादिपुद्गलप्रक्षेपे, उपा० 1 अ०। 'बहिया वज्झं आणवइ / एवं खलु गोयमा! बहस्सइदत्ते पुरोहिए पुरा पोग्गलक्खेव" (28 गा०) देशावकाशिक व्रतं हि गृह्यते मा भूगमनाऽऽपोराणाणं जाव विहरइ / बहस्सइदत्ते णं भंते! दारए इओ कालगए गमनाऽऽदिव्यापारजनितः प्राण्युपमर्द इत्यभिप्रायेण / स च स्वयं कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति ? गोयमा! बहस्सइदत्ते कृतोऽन्येन वा कारित इति न कश्चित् फले विशेषः / पञ्चा०१ विव०। दारए पुरोहिए चउसहिँ वासाइं परमाणु पालयित्ता अजेव | बहिर पुं०(बधिर) "ख-घ-थ-ध-भाम् / 8 / 1 / 187 / / इ Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहिर 1267- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुगुण तिधस्यहः। प्रा०१ पाद। श्रोत्रशक्तिविकले, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। एवं पुनः केवलज्ञानमनन्तपर्यायत्वात् तदपि भावबहुकमिति गाथाऽर्थः / बधिरत्वमप्यधिवशादनेकशः परिसंवेदयते, तदावृत्तश्च सदसद्विवेक- उत्त०११ अ०। विकलत्वाद् ऐहिकाऽऽमुष्मिकेष्टफलक्रियाऽनुष्ठान शून्यतां बिभर्तीति। ''बहुदासीदासमहिसगवेलगप्पभूयाई।" बहवो दासीदासा येषुतानि / उक्तं च -- (स्था०) 'बहुधणबहुजायस्वरययाई।" बहुधनं गणिमधरिमाऽऽदि येषु 'धर्मश्रुतिश्रवणमङ्गलवर्जितो हि, तानि तथा बहुजातरूपं च सुवर्ण रजतञ्च रूप्यं येषु तानितथा। पश्चालोकश्रुतिश्रवणसंव्यवहार बाह्यः। कर्मधारयः / स्था० 8 टा०। औ० / भ० / "बहुदव्वजुत्तिसंभारा / " किं जीवतीह बधिरो भुवि यस्य शब्दाः, बहुद्रव्ययुक्तिसंभाराः / रा०। सूत्र०।बहूनां द्रव्याणामुपबृहकाणां युक्तयो स्वप्नापलब्धधननिष्फलतां प्रयान्ति // 1 // मीलनानि तासा संभारः प्राभूत्यं येषु ते बहुद्रव्ययुक्तिसंभाराः। जी०३ स्वकलत्रवालपुत्राक- मधुरवचः श्रवणबाह्यकर्णस्य। प्रति 4 उ०। "बहुपहरणाऽऽवरणभरियजुद्धसज्जं। "बहुनां प्रहरणानामा अधिरस्य जीवितं किं, जीवन्मृतकाऽऽकृति धरस्य? // 2 // " वरणानां च स्फुरकङ्कटाऽऽदीनां भृतो युद्धसञ्जश्च यः य तथाऽतस्तम्। आचा० 1 श्रु०२ अ 3 उ०। 'कहिते कहिते कज, भणाति बहिर व्वन / भ०७ श०६उ०। सुयं मे।" कथिते 2 कार्य बधिर इव भणति ब्रूते--न मया श्रुतमिति स / बहुअत्रि० (बहुक) स्वार्थ कः। "स्वार्थे कश्च वा" / / 8 / 2 / 164 / / प्रा० बधिर इव बधिरः। दुर्व्यवहारिभेदे, व्य०३ उ०। (बधिरोल्लापकथा २पादा अत्यन्ते, रा०। "अणणुओग' शब्दे प्रथमभागे 286 पृष्ठे गता) बहुअट्ठिय न० (बहस्थिक) प्रभूतास्थिके, "बहुअट्टियं मसं परिभाएत्ता।" बहिरिय त्रिी० (बघिरित) बधिरीकृते, आ० म०१ अ०। आचा०२ श्रु०१चू० 1 अ० 10 उ० / दश01 बहिल्लेस्स त्रि० (बहिर्लेश्य) संयमाद् बहिर्निर्गताध्यवसायो यस्य स बहुअर त्रि० (बहुतर) "कगचज०॥८1१1१७७॥ इत्यादिना तलुक् / बहिर्लेश्यः। असंयमाध्यवसिते, आचा०१ श्रु०६ अ०५ उ०। अतिशयिते बहुशब्दार्थे , प्रा०२ पाद। बहुआगम पुं०(बहागम) बहुरागमोऽर्थपरिज्ञानं यस्यासी बह वागमः / बहु त्रि० (बहु) त्रिप्रभृतिषु, व्य० 1 उ० / नि० चू० / प्रश्न० / बृ०। यावद प्रभूतसूत्रार्थज्ञातरि, व्य० 3 उ० / तथा बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स नन्तेषु, सूत्रा०२ श्रु० 4 अ०। प्रचुरे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०२ उ०। सू० बवागमः जघन्येनाऽऽचारप्रकल्पधरो निशीथाध्ययनसूत्रार्थधर इत्यर्थः / प्र० / भूयसि बृ०२ उ० / स्था०। प्रभूते, भ०२ श०५ उ०। प्रश्न०। जघन्यत आचार -प्रकल्पग्रहणादुत्कर्षतो द्वाददशाङ्गविदिति द्रष्टव्यम्। सूत्रा० / अत्यर्थे, स०३ सम० / आचा० भिन्नजातीये, स्था०६ ठा०। व्य०३ उ०। बहुनिक्षेपः। नामाऽऽदिभेदाद् बहुश्चतुर्धास च नामाऽऽदिः, तत्रा बहुओघपय न० (बहोघपद) यस्मिन् क्षेत्रो बहून्योघतः सामान्येन पदानि नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यतस्तु बहभिधातुमाह क्रूरचौर्याऽऽधुपसर्गस्थानानि भवन्ति।तादृशे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१उ०। दव्वबहुएण बहुगा, जीवा तह पोग्गला चेव (310) बहुओदय पुं० (बह्वोदक) ग्रामे एकरात्रिकेषु नगरे पञ्चरात्रिकेषु (औ०) भावबहुएण बहुगा, चोद्दस पुव्वा अणंतगमजुत्ता। वानप्रस्थभेदेषु, औ०! भावे खओवसमिए, खइयम्मि य केवलं नाणं / / 311 // बहुकंटय पु० (बहुकण्टक) प्रभूतकण्टके, "बहुकंटयं मच्छयं परिभाएता।" (दव्वबहुएणं ति) आर्षत्वात् द्रव्यतो बहुत्वं द्रव्यबहुत्वं तेन बहुकाः प्रभूता आचा०॥ जीवा उपयोगलक्षणाः, तथा पुद्रलाः स्पर्शाऽऽ दिलक्षणाश्चशब्दः पुदलानां बहुकम्म (ण) नं० (बधूकर्मन) विवाहे कन्यापाक्षिके कर्मणि, आ० म० जीवापेक्षया बहुत्वं ख्यापयति, ते ह्येकैफस्मिन् संसारिजीवप्रदेशेऽनन्ता १अ०। एव सन्ति, एवोऽवधारणे, जीवपुद्रला एवं द्रव्यबहवः तत्रा धमाधाऽऽ बहुकर्मन् न० महाकर्मणि, भ०६श०३ उ०। (बहुकर्मणः सर्वतः पुद्गला काशानामेकद्रव्यत्वात्, कालस्यापि तत्त्वतः समय रूपत्वेन बहुत्वाभावा बध्यन्ते इति पोग्गल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे११०३ पृष्ठे उत्कम्) दिति गाथाऽर्थः / / 310 / / (भाव बहुएणं ति) प्राग्वत् (बहुग त्ति) बहुकानि बहुकूरकम्म न० (बहुक्रूरकर्मन्) बहूनि क्रूराणि दारुणान्यनुष्ठानि यस्य चतुर्दशसंख्यानि (पुटव त्ति) पूर्वाण्युत्पादपूर्वाऽऽदीनि (अणंतगमजुत्त त्ति) भवन्ति स बहुक्रूरकर्मा / सूत्र०१ श्रु०७ अ० / जन्मान्तरोपात्तानां अनन्ता अपर्यवसिता गम्यते वस्तुस्वरूपमेभिरिति गमा वस्तुपरिच्छेद क्रूराणां कर्मणामुपभोक्तरि, सूत्रा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। प्रकारा नामाऽऽदयस्तैर्युक्तान्यन्वितान्यनन्तगम युक्तानि पर्यायाऽऽद्युप- बहुकोहपुं० (बहुक्रोध) बहुः कोधोऽस्येति बहुक्रोधः। प्रभूतकोपकषाये, लक्षणं च गमग्रहणम् / उक्तं हि - "अणता गमा अर्णता पज्जवा अर्णता आचा०१श्रु०५अ०१उ०॥ हेतु।' इत्यादि। अनेनैतदात्मकत्वा त्पूर्वाणां तेषामप्यानन्त्यमुक्तम्। बहुखज त्रि०(बहुखाद्य) बहुभक्ष्ये, पृथक्करणयोग्ये, आ० चा०२ श्रु० क्व पुनरमूनि भावे वर्तन्ते येन भावब्रहून्युच्यन्त इत्याह-भाव इत्यात्म- १चू० 4 अ०२ उ०। पर्याय क्षयोपशमिके चतुर्दश पूर्वाणि वर्तन्त इति प्रक्रमः / आह - किं न बहुगुण 0i (बहुगुण) प्रचुरगुणे, प्रति० / 'बहुगुणकु क्षायिक भावे किञ्चिद्भावबह्वस्तीत्याह - क्षायिके च कम्मक्षयादुत्पन्ने / सुमसमिद्धो / ' बहवो ये गुणा उत्त गुणाः शुभफलरूपा Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुगुण 1298 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुपडिसेवि(ण) स्त एव कुसुमानितैः समृद्धो यः स तथा। प्रश्न०५ संव० द्वार। चैक यो नामयति स शेषा अपि प्रकृतीमियति, वो वा बहून स्थितिबहुगुणकलिय त्रि० (बहुगुणकलित) अनेकविज्ञानाऽऽदिगुण सहिते, ग० | शेषान्नामयति सोऽनन्तानुबन्धिनमेकं नामयति मोहनीयं था,यथा 2 अधि०। ोकेनसप्तभिर्मोहनीयकोटीकोटिभिः क्षयमुपागताभिर्जाना ऽऽवरणीयबहुगुणप्पगप्प न० (बहुगुणप्रकल्प) बहवो गुणाः स्वपक्षसिद्धि परपक्ष- दर्शनाऽऽवरणीयवेदनीयान्तरायाणामेकोनविंशभिर्नामगोत्रयोरेकोनदोषोद्भावनाऽऽदयो माध्यस्थ्याऽऽदयो वा प्रकल्पन्ते प्रादुर्भवन्त्यात्मनि विंशतिभिः शेषकोटीकोट्याऽपि देशोनया मोहनीयक्षपणा) भवति, येष्वनुष्ठानेषु तानि बहुगुणप्रकल्पानि। प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमना- नान्य इत्यतोऽपदिश्यते यो बहुनामः स एव परमार्थत एकनाम इति, नाम ऽऽदिषु माध्यस्थ्यवचन प्रकारेषु वाऽनुष्ठानेषु, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। इति क्षपकोऽभिधियते, उपशामको वा उपशमश्रेण्याश्रयेणैकबहूपशमता बहुजंपिर पुं० (बहुवावदक) बहुवतरि, "बाउल्लो जंबुल्लो, मुहुलो बह्रकोपशमता वा वाच्येति। आचा०१श्रु०३ अ०४ उ०। बहुजपिरो य वायालो।" पाइ० ना०६६ गाथा। बहुणिवेस पुं० (बहुनिवेश) बहुरनर्थसम्पादकत्वेनासदभिनि वेशो यस्य बहुजण पुं० (बहुजन) बहवो जनाः साधवो गच्छवासितया संयमसहाया स बहुनिवेशः / असदाभिनिविष्टे, सूत्र० 1 श्रु० 13 अ० / बह्वाये, यस्य स बहुजनः। सूत्रा० 1 श्रु०१३ अ० / भ० / गच्छवासिनी साधी, ओघ / आचा०। बहुषु जनेषु. प्रभूतलोकेषु, पञ्चा०२ विव०। "बहुजणधिक्कारलजइया।" बहुणिव्वट्टियफल त्रि० (बहुनिवर्तितफल) बहूनि निर्वर्तितानि बद्धाबहुजनधिकारशब्देन लजायितः प्राप्ता लज्जा येन तथा। प्रश्न०३ आश्र० स्थीनि फलानि येषु ते तथा। सञ्जातप्रभूतकालकेषु, आचा०२ श्रु०१ द्वार। बहवो जना आलोचनाऽऽचार्या यस्मिन्नालोचने तद् बहुजनम्। चू० 4 अ०२ उ०। दश०। आलोचनभेदे, स्था० / "एमस्साऽऽलोइत्ता, जो आलोए पुणो वि बहुतरग न० (बहुतरक) प्रभूततरके, आ० म०१ अ०। अण्णरस / ते चेव य अवराहे, तं होइ बहुजणं नाम।।१।।" इति। स्था० बहुतरगुणसाहण न० (बहुतरगुणसाधन) अनल्पतरगुणनिष्पादने, पञ्चा०१८विव०। १०ठा। बहुत्त त्रि० (प्रभूत) "प्रभूते व" / / 8 / 1 / 233 / / इति पस्य वः / / बहुजणणमणपुं०(बहुजननमन) बहुजनैर्नम्यते स्तूयत इति बहुजननमनः। वबयोरैक्यात् बहुत्त / प्रा०१पादा तैलाऽऽदित्वाद् द्वित्वम्। प्रा०२ पाद। प्रभूतलोकप्रणम्ये, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। बहुदुक्ख पुं० (बहुदुःख) बहूनि दुःखानि कर्मविपाकाऽऽपादि तानि यस्य बहुजणपाउग्गया स्त्री० (बहुजनप्रायोग्यता) बहवो जना बहुजनाः जन्तोः स तथा। आचा०१ श्रु०६अ०१ उ० / बहु दुःखं प्राप्तव्यमनेनेति प्रस्तावात्साधवः / अथवा-बहुसंख्याको जनो, जातावेकवचनं, तत्रापि बहुदुःख / आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० / नारकाऽऽदिदुःखप्राप्तियोग्ये स एवार्थः / तस्य प्रायोग्यं योग्यमिति। तस्य भावो बहुजनप्रायोग्यता / नारकाऽऽदिदुःखकारणत्वाद् गौण प्राणबधे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / मतिसम्पर्दोदे, दशा० 4 अ०। बहुष्वपि हिंसाऽऽदिषु सर्वेष्वपि दोषः प्रवृत्तिलक्षणो बहुदोषः / बहुर्वा बहुजणविरुद्धसंग पुं० (बहुजनविरुद्धसङ्ग) बहुजनैः प्रभूतलोकै सह ये बहुविधो हिंसाऽनृताऽऽदिरिति बहुदोषः। रौद्रध्यानस्य द्वितीये लक्षणे, विरुद्धास्तदपकारकत्वेन विरोधवन्तस्तैः सार्द्ध यः सङ्गः सम्पर्कः स स्था० 4 ठा० 1 उ०। औ०। ग०। आ० चू०। तथा / बहुभिर्लोकविरुद्धानां सम्पर्के, ज्यो०१ पाहु०। बहुदेवसिय त्रि० (बहुदैवसिक) बहुदिवसपर्युषिते, "अणाहा राऽऽदि बहुजणसद्द पुं० (बहुजनशब्द) बहूनां जनानां परस्पराऽऽलापाऽऽदिरूपे कक्केण वासं वासिते, पच्छा एगरातिसंवासिततं वि बहुदेवसिय भण्णइ।" शब्दे, भ०६श०३३ उ०।। नि० चू०१४ उ०। बहुजणसमुइया स्त्री० (बहुजनसमुदिता) बहूनां जनानां मध्ये गृहीतायां बहुदेसिय त्रि० (बहुदेश्य) ईषद्बहुके, "बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव प्रव्रज्यायाम्, "बहुजणसमुत्तियाए, णिक्खमण होति जंवुणामस्स।" | पघंसेजा।' आचा०२ श्रु०१चू०५ अ०१ उ०। 50 भा०१ कल्पना "बहुजणसमुत्तियाए जवूनाम अक्खाणय।" प० / बहदोस त्रि०(बहदोष) "एकापसती दोवा तिणिवा पसतीतो दोसा, तेण चू०१ कल्प०! परेण बहूदोसा भण्णंति।" इत्युक्ते प्रसृति त्रयाधिके, नि० चू०१४ उ०। बहुण पुं० (देशी) चौरधूर्तयोः, दे० ना०६ वर्ग 67 गाथा। बहुदोसणिवारणत्त न० (बहुदोषनिवारणत्व) अन्योन्यहननधनद्दरणाबहुणंदण पुं० (बहुनन्दन) बहूनि चत्वारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्द ___ऽऽद्यनैकविधानर्थनिषेधकतायाम, पञ्चा०७ विव०। नवनः / मेरौ, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। बहुधमणी स्त्री० (बहुधमनी) अनेकशिरासु, तं० / बहुणड पुं० (बहुनट) नटवद् योगार्थ बहून्वेषान् विधत्ते इति बहुनटः। | बहुपक्खियपुं० (बहुपाक्षिक) बहुस्वजने, व्य०७ उ०॥ आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। बहुपडिपुण त्रि०(बहुपरिपूर्ण) अतिपरिपूर्ण, स्था० 6 टा०। बहुणाम पु० (बहुनाम) बहुकर्मोपशमके, "जे एगणामे से बहुं णाम, जे बहुपडिविरत त्रि० (बहुप्रतिविरत) केषुचित्प्राणातिपातविर मणाऽऽदिबहु णामे से एगणामे। 'यो हि प्रवर्धमानशुभाध्यव सायाधिरूढकण्डकः | व्रतेषु वर्तमाने, दशा० 10 अ०। एकम् -अनन्तानुबन्धिनं क्रोध नामयति क्षपयति स बहूनपि मानाऽऽदीन् | बहुपडिसेवि (ण) पुं० (बहुप्रतिसेविन्) बहूनां मासिकस्थानानां नामयति क्षपयत्यप्रत्याख्याना ऽऽदीन् वा स्वभेदान्नामयति, मोहनीय / प्रतिसेविनि, व्य०१ उ०। Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुपमायमूल 1266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुपुत्तिया बहुपमायमूलन० (बहुप्रभादमूल) बहवः प्रमादा मद्य-विकथाऽऽदयस्तेषां मूल कारणं यत् तत् / बहूनां प्रमादानां कारणे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। | बहुपया स्त्री० (बहुपदा) कर्णशृगाल्यादिकायां बहुचरणायाम्, अनु० / बहु पर न० (बहुपर) बहुत्वेन परं बहुपरम् / परभेदे, आचा० / २श्रु० 2 0 1 अ01 बहुपसण्ण त्रि० (बहुप्रसन्न) अतिस्वस्थीभूते, पिं०। औ०। बहुपाउरण न० (बहुप्रावरण) तुङ्गवृतौ, "बहु पावरणं णारातुगहि करेंति।" | नि० चू०३ उ०। बहुपुक्खल त्रि० (बहुपुष्कल) बहुसंपूर्णे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०! प्रचुरोदकभते, सूत्रा०२ श्रु०२ अ०। बहुपुत्तिया स्त्री० (बहुपुत्रिका) स्वनामख्यातायां सौधर्मकल्पदेव्याम्, स्था० / बहुपुत्रिका देवी तत् प्रतिबद्धं, सैवा ध्ययनमुच्यते। तथाहिराजगृहे महावीरवन्दनाथ सौधर्माद्वहु पुत्रिकाऽभिधाना देवी समवततार, धन्दित्वा च प्रतिजगाम / केयम् ? इति पृष्ट गौतमेन भगवानवादीतवाराणस्या नगर्यां भद्राभिधानस्य सार्थवाहस्य सुभद्राऽभिधाना भार्येय बभूव / सा च बन्ध्या पुत्रार्थिनी भिक्षार्थभागतमार्यासंघाटकं पुत्रलाभं पप्रच्छ। स च धर्ममचीकथत्, प्रावाजीच सा बहुजनापत्येषुप्रीत्याऽभ्यहु'द्वर्तनपरायणा सातिचारा मृत्वा सौधर्ममगमत् / ततश्च्युतं च विमेलसंनिवेशे ब्राह्मणीत्वेनोत्पत्स्यते / ततः पितृभागिनेयभार्या भविष्यति, युगलप्रसवा च सा षोडशभिर्वर्षा त्रिशदपरयानि जनयिष्यति, ततोऽसौ तन्निर्वेदादार्याः प्रक्ष्यति, ताश्च धर्म कथयिष्यन्ति, थावकत्वं च सा प्रतिपत्स्यते कालान्तरे प्रव्रजिष्यति, सौधर्म चन्द्रसामा निकतयोत्पद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति।। स्था० 1 ठा०। जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम णगरे गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया / तेणं कालेणं तेणं समएणं बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्ति याए विमाणे सभाए सुहम्माए बहुपुत्तियंसि सीहासणंसि चउहिं सामाणियसहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे० जाव भुंजमाणी विहरइ / इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी आभोएमाणी पासति समणं भगवं महावीर जहा सूरियाभे०जावणमंसित्तासीहासणवरंसि पुरत्था भिमुहा सन्निसन्ना आभियोगा जहा सूरियाभस्स सूसरा घंटा आभिओगियं देवं सद्दावेइ जाणविमाणं जोयणसहस्सवित्थिन्नं, जाणविमाणवन्नओ० जाव उत्तरिल्लेणं निजाणमग्गेणं जोयण / सहस्सेहिं विग्गहाहिं आगता जहा सूरियाभे धम्मकहा सम्मत्ता। तते णं सा बहुपुत्तिया देवी दाहिणं भुयं पसारेति देवकुमाराणं अट्ठसयं देविकुमारियाणं वामाओ भुयाओ विउव्वइ, तयाणंतरं च णं बहवे दारगा य दारियाओ य डिंभयाओ य विउव्वइ नट्ट विहिं जहा सूरियाभो उवदंसित्ता पडिगता भंते त्ति भवयं गोयमं समणं भगवं कूडागारसाला बहुपुत्तियाए णं भंते! देवीए सा दिव्या देविड्डी पुरत्था 0 जाव अभिसमन्नागता / एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नगरी, अंवसालवणे चेइए, तत्थ णं वाणारसीए नगरीए भद्दे नाम सत्थवाहे होत्था अजे० जाव अपरिभूते। तस्सणं भद्दस्स सुभद्दा नाम भारिया सुउमाला वंझा अवियाउरा जाणुकोप्परमाता यावि होत्था। तते णं तीसे सुभद्दाए सत्थवाहीए अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकाले कुटुंब जागरियं इमेयारूवे० जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था / एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहणं सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरामि, नो चेवणं अहं दारगं वादारियं वा पयामि, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मगाओ० जाव सुलद्धे णं तासिं अम्मगाणं मणुयजम्म जीवितफले, जासिं मन्ने नियकुच्छिसंभूयगाणं थणदुद्धलद्धंगाइं महुरसमुल्लावगाणि मम्मणजंपियाई थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणगाणि पण्हयंत्ति पुणो पुणो य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिहिऊणं उच्छंगनिवेसियाणि दें ति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पणिए अहं णं अधम्मा अपुन्ना अकयपुन्ना जंता एग मवि न पत्ता ओहय० जाव झियाति / तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वताओ णं अजाओ इरियासमिताओ भासा समिताओ एसणासमिताओ आयाणभंडमत्तगजिक्खे वणा समिताओ उचारपासवणखेल्लसिंघाणजल्लमल्लपारिट्ठा वणसमियाओ मणगुत्ताओ बइगुत्ताओ कायगुत्ताओ गुत्तिं दिया गुत्तवं भयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुट्विं चरमाणीओ गमाणुगामं दूइज्जमाणीओ जेणेव वाणारसी नगरी तेणे व उवागयाओ, उवागच्छित्ता अहापडिरुपं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा० जाव विहरति। ततेणं तासिं सुव्वयाणं अजाणं एगे संघाडए वाणारसीए नयरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे भहस्स सत्थवाहस्स गिहं अणुप्पवितु / तते णं सुभद्दा सत्थवाही ताओ अजाओ एज्जमाणीओ पासति, पासइत्ता हटे तुट्टे खिप्पामेव आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेइत्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छइत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता विउलेणं, असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अज्जाओ! भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धिं विउलाई भोग भोगाइं भुंजमाणी विहरामि, नो चेवणं अहं दारगं वादारियं वा पयामि, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मगाओ० जाव एगमवि न पत्ता, तं तुन्भे अजाओ बहुणायाओ बहुपंडियाओ बहूनि गामागरनगर० जाव सन्निवेसाई आहिंडह, बहूणं राईसरतलवर० जाव सत्थवा हप्पभितीणं गिहाई अणुपविसह, अत्थि मे ! के वि कहिं वि विजापओए Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुपुत्तिया 1300 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुपुत्तिया वा मंतपओए वा वमणं वा विरेयणं वा वत्थिकम्मे वा ओसज्झे वा भेसळे या उवलद्धे, जे णं अहं दारगं वा दारियं वा पयाएज्जा / तते णं ताओ अजाओ सुभई सत्थवाहिं एवं बयासीअम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ० जाव गुत्त बंभयारिणीओ णो खलु कप्पति अम्हं एयमढें कण्णेहिं विणिसामित्तए, किमंग ! पुण उवदेसित्तए वा समायरित्तए या, अम्हे णं देवाणु प्पिए! णं तवविचित्तं के वलिपन्नतं धर्म परिकहेमो / तते णं सुभद्दा सत्थवाही तासिं अजाणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठ तुट्ठा ताओ अज्जाओ तिक्खुत्तो वंदति, नमंसति, एवं बदासी-सदहामि णं अजाओ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि, रोएमि णं अज्जाओ! निग्गंथाओ! पावयणं एवमेवं अवितहमेवं० जाव सावगधम्म पडि वजए / अहासुहं देमाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह / तते णं सुभद्दा तत्थ तासिं अजाणं अंतिए० जाव पडिवद्धति, पडिवञ्जित्ता ताओ अजाओ वंदइ, नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसजेति। तते णं सुभद्दा सत्थवाही समणोवासिया जाया० जाव विहरति / तते णं तीसे सुभद्दाए समणोवासियाए अन्नया कदाइ पुव्वरत्त० कुटुंबजागरियं अयमे या० जाव समुप्पजित्था / एवं खलु अहं सुभद्दे णं सत्थवाही विउलाइं भोगाभोगाइं जाव विहरति, नो चेवणं अहं दारगं वा दारियं, तं सेयं खलु ममं कल्लं 0 जाव जलंतं० जाव भहस्स आपुच्छित्ता सुव्वयाणं अजाणं अंतिए अज्जा भवित्ता अणगारा० जाव पव्वइत्तए, एवं संपेहेति, संपेहेतित्ता कल्लं जेणेव भद्दे सत्थवाहे तेणेव उवागते करतल० एवं बयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं सद्धिं बहूई वासाई विउलाई भोगभोगाइं० जाव विहरामि,नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुडभेहिं अब्भणुन्नाया समाणी सुव्वयाणं अजाणं० जाव पव्वइत्तए / तते णं से भद्दे सत्थवाहे सुभदं एवं बयासी-मा णं तुम्हे देवाणुप्पिया! इदाणिं मुंडा० जाव पव्वयाहि, भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए! मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई ततो पच्छा भुत्तभोई सुव्वयागं अज्जाणं जाव पव्वहिसि। तते णं सुभद्दा सत्थवाही भद्दस्स सत्थवाहस्स एयमद्वं नो आढाति, नो परियाणाति, दुचं पि तचं पि भई सत्थवाहं एवं बयासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुम्हे हिं अब्भणुण्णाया समाणी० जाव पव्वइच्चए / तते णं से भद्दे सत्थवाहे जाहे नो संचाए - ति बहूहिं आघवणाहि य एवं पन्नवणाहि विनवणाहि य आघवित्तए वा० जाव विनवित्तए वा, ताहे अकामए चेव सुभद्दाए निक्खमणं अणुमन्नित्था / तते णं से भद्दे सत्थवाहे विउलं असणं पाणं खाइमं साइम उवक्खडावेति, मित्तनाति० ततो पच्छा भोयणवेलाए० जाव मित्तनातिं सकारेति, सक्कारेतित्ता सुभदं सत्थवाहिं ण्हायं० जाव पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहेति / ततो सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तनाइ० जाव संबंधिसंपरि बुडा सव्विड्डीए० जाव रवेणं वाणारसीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं अजाणं उवस्मए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छ इत्ता पुरिससहस्सदाहिणिं सीयं ठवेति, सुभदं सत्थवाहिं सीयातो पचोरुभति / तते णं भद्दे सत्थवाहे सुभई सत्थवाहिं पुरओ काउंजेणेव सुव्वया अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वआओ अज्जाओ वंदति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सुभद्दा सत्थवाही ममं भारिया इट्ठा कंता० जाव मणामा मा णं वातियपित्तिय सिंभियसंनिवातिया विविहा रोयातंका णो फु संति, एस णं देवाणु प्पिए! संसारभउविग्या भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता० जाव पव्वयाति, तं एवं अहं देवाणुप्पियाणं सीसिणं भिक्खं दलयामि, पडिच्छे तुम्हं देवाणुप्पिया! सीसिणीभिक्खं / अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह / तते णं सा सुभद्दा सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ठा तुट्ठा सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, करेतित्ता जेणेव सुव्वयाओ अजाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सुव्वयाओ अजाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेइत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-आलित्ते णं भंते! जहा देवाणंदा तहा पव्वइया० जाव अजा जाया० जाव गुत्तबंभयारिणी! तते णं सा सुभद्दा अन्नदा कदापि बहुजणस्स चेडरूवे समुत्थिता० जाव अज्झोववन्ना अब्भंगणं च उव्वट्टणं च फासुयं पाणं च अलत्तगं च कंकणाणि च अंजणं च वन्नगं च चुन्नगं च खेल्लगाणि य खजगाणि य खीरं च पुप्फाणि य गवे सति, गवे सित्ता बहुजणस्स दारए वा दारिया वा कुमारे य कुमारिया तेहिं तेहिं डिभए य डिभियाओ अप्पेगइयाओ अब्भंगेति, अप्पेगइयाओ उव्वदृति, एवं अप्पेगइया फासुयपाणएणं ण्हावेति, अप्पेगइया पाए रएति, अप्पेगइया उट्टे रएति, अप्पेगइया अच्छीणि अंजे० Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्सुयपूया 1301 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुस्सुयपूया ति, अप्पेगतिया उसुए करेति, अप्पेगइया तिलए करेति, ससत्तविहारी अहाछंदा अहाछंदविहारी बहूइं वासाई अप्पेगइया दिगिंदलए करेति, अप्पेगइया पंतियाओ करेति, सामनपरियाग पाउणति, अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं अप्पेगइया छिज्जाई करेति, अप्पेगइया वन्नएणं समालभइ, झूसित्ता तीसं भत्ताइ अणसणाए छेदित्ता छेदित्ता तस्स ठाणस्स अप्पेगइया चुन्नएणं समालभइ, अप्पेगइया खेलणगाइंदलयति, अणालोइय पडिकंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अप्पेगइया खज्जगाई दलयति, अप्पेगइया खीरभोयणं भुंजावेति, बहुपुत्तिदेवित्ताए उववन्ना। तते णं सा बहुपुत्तिया देवी अहुणोवअप्पे गइया पुप्फाइं आमुयति, अप्पेगइया पादेसु ठवेति, वन्नमित्ता समाणी पंचविहाए पजतीए० जाव भासामणपज्जतीए, अप्पेगइया जंघासु करेइ, एवं उरूसु उच्छगे कडीए पिट्टे उरंसि एवं खलु गोयमा ! बहुपुत्तियाए देवीए सा दिव्या देवड्डी 0 जाव खंधे सीसे अकरतलपुडेणं गहाय हलं ओहलेमाणी ओहलेमाणी अभिसमन्नागता। से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-बहुपुत्तिया देवी आगायमाणी आगायमाणी परिहायमाणी पुत्तपिवासंच धूयपिवासं बहुपुत्तिया देवी ? गोयमा ! बहुपुत्तियाणं देवीणं जाहे जाहे च नित्तपिवासं च पचणुब्भवमाणी विहरति / तते णं ताओ / सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो उवज्झाइयं करेइ ताहे ताहे बहवे सुव्वयाओ अजाओ सुभदं अजं एवं बयासी-अम्हे णं दारए य दारिया य डिभए य डिभियाओ य विउव्वइ, जेणेव देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरिया समियाओ 0 जाव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सक्कस्स गुत्तबंभचारिणीओ, नो खलु अम्हं कप्पति जातकम्मं करेत्तए; देविंदस्स देवरन्नो दिव्वं देवढि दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवाणुभावं उवदंसेति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुञ्चति - बहुपुत्तिया देवी तुमं च णं देवाणुप्पिए ! बहुजणस्स चेडरूयेसु मुच्छिया० जाय ब०२१ बहुपुत्तियाए णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पन्नता ? अज्झोववन्ना अब्भंगणं 0 जाव नत्तिपिवासं च पचणुब्भवमाणी गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता। बहुपुत्तिया णं भंते ! विहरसि / तं णं तुमं देवाणुप्पिया? एयस्स ठाणस्स आलोएहि देवी ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं ०जावपायच्छित्तं पडिवजाहि। ततेणं सासुभद्दा अज्जा सुव्वयाणं चइत्ता कहिं गच्छहिति, कहिं उववजहिति? गोयमा ! इहेव अजाणं एयम४ नो आढाति, नो परिजाणाति, अणाढायमाणी जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरि पायमूले विभेलसन्निवेसे अपरिजाणमाणी विहरति / तते णं ताओ समणीओ निग्गंथीओ माहणकुलंसि दारियत्ताए पचायाहिति। तते णं तीसे दारियाए सुभई अजं हीलें ति, निदंति, खिंसंति, गरिहंति, अभिक्खणं अम्मापियरो एकारसमे दिवसे वितिक्कते समाणे० जाव बारसेहिं अभिक्खणं एयम४ निवारेति / तते णं तीसे सुभद्दाए अज्जाए दिवसेहिं वितिक्कं तेहिं अयमेयारूवं नामधिज करेहिंति-होउ समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिजमाणीए० जाव अभिक्खणं णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधेनं सोमा। तते णं सोमा अभिक्खणं एयम४ निवारिजमाणीए अयमेयारूवे अब्भस्थिए। उम्मुकबालभावा विनतपरिणयमेयं जोव्वणगमणुप्पत्ता रूवेण जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था-जया णं अहं अगारवासे आवसामि, या जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा० जाव तते णं अहं अप्पवसा, जप्पभिई च णं अहं मुंडा भवित्ता भविस्सति। तते णं तं सोमंदारियं अम्मापि-यरो उम्मुक्कबालआगाराओ अणगारियं पव्वइया तप्पभिइं च णं अहं परवसा, भावं विन्नाय जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिरूविएणं सुक्केणं नियगस्स पुटिव च ममं समणीओ निग्गंथीओ आति, परिजातणें ति, भायणिजस्स रट्ठकूडयस्स भारियत्ताए दलइस्सति। ततेणं तस्स इयाणिं नो आढायंति, नो परिजाणंति, तंसेयं खलु मे कल्लं० भारिया भविस्सति इट्ठा कं ता० जाव भंडकरंडगसमाणा जाव जलंते सुव्वयाणं अजाणं अंतियाओ परिनिक्खमित्ता तिल्लकेला इव सुसंगोविता चेलपेडा इव सुसंपरिहिता पाडिएकं उवसग्गं उक्संपजित्ता णं विहरित्तए, एवं संपेहेति, रयणकरंडगो विव सुसारक्खिया सुसंगोविता मा णं सोमं० जाव संपेहेइत्ता कल्लं जाव जलंते सुव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ विविहा रोयातका फुसंतु / तते णं सा सोमा माहणी रट्ठकूडेण पडिनिक्खमति, पाडिएकं उवस्सयं उवसंपज्जिता णं विहरति / सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी संवच्छरे संवच्छरेजुयलगं तते णं सा सुभद्दा अज्जा अण्णोहट्ठिता अणिवारिता सच्छंदमती पयायमाणी सोलसेहिं संवच्छरेहि बत्तीसं दारगरूपे पयाति / तते बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिता जाव० अभंगणं च 0 जाव णं सा सोमा माहणी रट्ठकूडेण सद्धिं वि ऊलाई भोगभोगाई नत्तिपिवासं च पञ्चणुब्भवमाणी विहरति / तते णं सा सुभद्दा मुंजमाणी संवच्छरे संवच्छरे जुयलगं पयायमाणी सोलसेहिं अज्जा पासत्था पासत्थविहारी, एवं ओसन्ना कुसीला संसत्ता ___ संवच्छरेहिं वत्तीसं दारगरूपे पयाइति / तते णं सा सोमा मा Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्सुयपूया 1302 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुस्सुयपूया हणी तेहिं बहूहिं दारगेहि य दारियाहि य कुमारेहिय कुमारियाहि / एवं खलु अहं अज्जाओ रट्ठकूडेणं सद्धिं विउलाई 0 जाव य डिभएहि य डिभियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ताणसेज्जाएहि य संवच्छरे संवच्छरे जुगलं पयायामि सोलसहिं संवच्छरेहिं वत्तीसं अप्पेगइएहिं थणयाएहिं अप्पेगइएहिं पीहणगपाएहिं अप्पेगइएहिं दारगरूवे पयाया, तते णं अहं तेहिं बहूहिं दारएहि य जाय परंगणएहिं अप्पेगइएहिं परक्कममाणेहिं अप्पेगइएहिं पक्खोल- डिभियाहि य अप्पेगएहिं उत्ताणसेज्जाएहि जाव सुत्तमाणेहिं एएहिं अप्पेगइएहिं पूर्ण मग्माणेहिं अप्पेगइएहिं खीरं मग्गमाणेहिं दुजातेहिं जाव नो संचाएमि विहरित्तए, तमिच्छामिणं अज्जाओ अप्पेगइएहिं तेल्लं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं खिल्लणयं मग्गमा- तुम्हं अंतिए धम्मं निसामि-त्तए। तते णं ताओ अज्जाओ सोमाए णेहिं अप्पेगइएहिं खजं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहिं कूरं मग्गमाणेहिं माहणीए विचित्तं जाव केवलिपन्नतं धम्म परिकहेंति। तते णं पाणियं मग्गमाणेहिं हसमाणेहिं रूसमाणेहिं अक्कोसेमाणेहिं सा सोमा माहणी तासिं अजाणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठा अकुम्ममाणे हिं हणमाण्णेहिं हम्ममाणे हिं विपलायमाणे हिं जाव हयहियया ताओ अजाओ वंदइ, नमसइ, वंदित्ता अणुगममाणे हिं रोयणमाणे हिं कंदमाणे हिं विलवमाणे हिं नमंसित्ता एवं बयासी-सहहामि णं अज्जाओ निग्गंथं पावयणं कूयमाणे हिं उच्छूयमाणे हिं निदायमाणेहिं णिग्घायमाणे हिं जाव अब्भुढेमि णं अज्जाओ निग्गंथं पावयणं, एवमेयं अज्जओ पलवमाणेहिं इहट्टमाणेहिं वममाणेहिं छद्दमाणेहिं भुत्तमाणेहिं जाव से जहयं तुभे वयह जं नवरं अजाओ रहकू डं मुत्तपुरीसवमिय-सुलित्तोवलित्ता मइलवसणपुटवडा जाव आपुच्छामि; तते णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा 0 जाव असुई वीभच्छा परम-गंधा नो संचाएइ रट्टकूडेणं सद्धिं विउलाई पव्वयामि / अहासुहं देवाणुप्पिए ! मापडिबंधं करेह / तते णं भोगभोगाई भुंजमाणी विहरित्तए। तते णं तीसे सोमाए माहणीए सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसजेति / तते णं सा सोमा माहणी जेणेव रट्ठकूडे तेणेव अन्नया कयाई पुत्वरत्तावरत्ततकालसमयंसि कुटुंबजागरियं उवागता करतल 0 एवं बयासी-एवं खलु मए देवाणुप्पिया। जागरमाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं अजाणं अंतिए धम्म निसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिते जाव इमे हिं बहूहिं दारगेहि य जाव डि भयाहि य अप्पे गइएहिं अभिरूविते, तते णं अहं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अब्मणुनाया उत्ताणिज्जएहि य ०जाव अप्पेगइएहिं सुत्तमाणे हिं दुल्जाएहिं सुव्वयाणं अजाणं जाव पव्वइत्तए / तते णं से रहकूडे सोम दुजमएहिं हयविप्पहयभग्गेहिं एगप्पहारपडिएहिं जेणं मुत्तपुरीसं माहणिं एवं बयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! इदाणिं मुंडा वमियं सुलित्तोवलित्ता जाव परमदुडिभगंधा नो संचाएमि भवित्ता०जाव पव्वयाहि, भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धिं रट्ठकू डे णं सद्धिं जाव विहरित्तए, तं धन्नाओ णं ताओ विउलाई भोगभोगाई, ततो पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अजाणं अम्मयाओ जावजीवियफले, जओ णं वंझाओ णं भवियाओ अंतिए मुंडा 0 जाव पव्वयाहि / तते णं सा सोमा माहणी अवियाओ राओ जाणुकोप्पर-मायाओ सुरभिसुगंधगंधियाओ रट्टकूडस्स एयमढें पडिसुणेति / तते णं सा सोमा माहणी विउलाई माणुस्सगाई भोगाई भुंजमाणीओ विहरंति, अहं णं हाया०जाव सरीरा चेडियाचक्कवालपरि-किण्णा साओ गिहाओ अधन्ना अपुम्ना नो संचाएमि रट्ठकूडेणं सद्धिं विउलाई जाव पडिनिक्खमति,विभेलसनिवेसंमज्झं मझेणं जेणेव सुव्वयाणं विहरित्तए / तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अज्जाओ अजाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुटिव जेणेव अञ्जाओ वंदइ, नमसइ, पजुवासइ / तते णं ताओ सुव्वयाओ विभेले संनिवेसे अहापडिरूपं उग्गहं जाव विहरंति / तते णं अज्जाओ सोमाए विचित्तं केवलिपन्नतं धम्म परि कहेति, जहा तासिं सुव्वयाणं अजाणं एगे संघाडए विभेलसन्निवेसे उच्चानीय जीवा बुज्झंति, तते णं सा सोमा माहणी सुव्वयाणंअज्जाणं जाव अडमाणे रट्टकूडस्स गिह अणुपवितु। तते णं सा सोमा अंतिए०जाव दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिविज्जत्ता माहणी ताओ अज्जाओ एजमाणीओ पासति, पासइत्ता हट्टतुट्ठा सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं खिप्पामेव आसणाओ अब्भुतुति, अब्भुढेइत्ता सत्तट्ठपयाई पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगता। तते णं सा सोमा माहणी अणुगच्छति, अणुगच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता समणोवासिया जाया अभिगतजाव अप्पाणंभावेमाणी विहरति।तते विउलेणं असणपाणखाइम-साइमेणं पडिलाभित्ता एवं वयासी- | णं ताओ सुव्वयाओ अजाओ अन्नदा कयायि विभेलाओ सन्निवेसा Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुपुत्तिया 1303 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुमाण -ओ पडिनिक्खमंती बहिया जणवयविहारं विहरति / तते णं ताओ सुव्वयाओ अञ्जओ अन्नदा कयाइ पुव्वाणु० जाव विहरति / तते णं सा सोमा माहणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा हट्ठा तुट्ठा हाया तहेव निग्गया ०जाव वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता धम्मं सोचा जाव नवरं रट्ठकूडं आपुच्छामि, तते णं पव्वयामि / अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं करेह / तते णं सा सोमा माहणी सुव्वयं अजं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सुव्वयाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, जेणेव सए गिहे जेणेव रट्ठकूडे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करतलपरिग्गहियं तहेव आपुच्छइजाव पव्वइत्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं करेह / तते णं रहकूडे विउलं असणं तहेव जाव पुव्वभवे सुभद्दा० जाव अजा जाता इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारी। तते णं सा सोमा अजा सुव्वयाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहिं छट्ठट्ठमदुआलस ०जाव भावेमाणी बहूई वासाइं सामनपरियागं पाउणित्ता 2 मासियाए संलेहणाए, सद्धिं भत्ताई अणसणाए 2 आलोइय पडिकं ता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो सामाणियदेवत्ताए उववजिहित। तत्थ णं अत्थेगइया णं दो सागरोवमा ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सोमस्स वि देवस्स दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। से णं भंते ! सोमे देवे तातो देवलोगाओ आउक्खएणं जाव चयं चइत्ता कहिं गच्छहिति, कहिं उववज्जहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे ०जाव अंतं काहिति / एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेण अयमढे पन्नते / नि०१ श्रु०३ वर्ग० 4 अ०। ग०। पूर्णभद्रस्य यक्षेन्द्रस्य स्वनामख्यातायामग्रमहिष्याम्, भ०१०श०५ उ० ज्ञा०। स्था०। बहुप्पकार त्रि०(बहुप्रकार) बहवः प्रकारा येषां जातिभेदेनते बहुप्रकाराः / जी०३ प्रति०४ उ०। प्रश्न०। विविधेषु, प्रश्न०५ संक० द्वार। बहुफासुय त्रि० (बहुप्रासुक) बहुधा प्रासुकं बहुप्रासुकम्। अचिरकालकृतत्वात् विस्तीर्णत्वात् दूरावगाढत्वात् त्रसप्राणबीजरहितत्वाचानेकविधेऽचित्ते, भ०८ श०६ उ० बहुबीयग पु० (बहुबीजक) बहूनि बीजानि फलेषु येषां ते तथा! भ०२२ श०१ वर्ग 1 उ०। उदुम्बरकपित्थास्तिकतिन्दुकबिल्वानलकपनसदाडिममातुलिङ्गाऽऽदिषु वृक्षभेदेषु, आचा०१ श्रु०४ अ०५ उ०। प्रज्ञा०। भ० / बहूनि बीजानिवर्तन्तेयस्मिस्त बहुवीजं पम्पोटकाऽऽदिकमभ्यन्तरे पु(प) टादिरहितकेकलबीजमयं तस्मिन्फले; तच्च प्रतिबीजं जीवोपमर्दसम्भवाद्वर्जनीय, यच्चाभ्यन्तरपु (प) टादिसहितबीजमयं दाडिमटिण्डुराऽऽदि तचाभक्ष्यतया व्यवहरन्ति / ध०२ अधि० / नि० चू० / ('वणस्सइ' शब्दे विस्तरः।) बहुव्रीहि पुं० (बहुव्रीहि) अन्यपदार्थप्रधाने समासभेदे, अनु० / 'सर्वत्रा लवरामवन्द्र०" / / 8 / 2 / 76 / / इति रलुक्। से किं तं बहुव्वीहिसमासे? बहुव्वीहिसमासे-फुल्ला इमम्मि गिरिम्मि कुडयकयंबा सो इमो गिरी फुल्लियकुडयकयंबो / से तं बहुव्वीहिसमासे / / अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः; पुष्पिताः कुटजकदम्बा यस्मिन् गिरौ सोऽयं गिरिः पुष्पितकुटजकदम्बः। अनु०। बहुवेला स्त्री० (बहुवेला) बहीवेला वारा अभीक्ष्णमित्यर्थः, यत्कार्यमुन्मेषनिमेषोच्छ्वासाऽऽदि विधीयते प्रतिवेलं द्रष्टुं न शक्यते तद्बहुबेला अभिधीयते। पञ्चा० 12 विव०। बहुवेलाभाविनि अक्षिधूचालनाऽऽदिसूक्ष्मकार्य, ध०३ अधि०। बहुभंगिय न० (बहुभङ्गिक) दृष्टिवादस्थेद्वाविंशतिसूत्रान्तर्गतेऽन्यतमसूत्रे, स०१२ अङ्ग। बहुभद्द पुं० (बहुभद्र) 'भदि' कल्याणे सुखे चेति वचनात् / बहुसुखे, पं० चू०१ कल्प। बंदे तं भगवंतं, बहुभद्द सुभद्द सव्वओ भदं / पं० मा०१ कल्प। पं० चू०। बहुमज्झदेसभागपुं० (बहुमध्यदेशभाग) मध्यश्चासौ देशभागश्च देशावयवो मध्यदेशभागः / स चानात्यन्तिक इति बहुमध्यदेशभागः / न प्रवेशाऽऽदिपरिगणनया निष्टङ्गितोऽपि तुप्राय इति। अथवा-- अत्यन्तं मध्यदेशभागः / प्रायोऽत्यन्ते वा मध्यदेशभागे, स्था० 4 ठा०२ उ०। बहुमय पुं० (बहुमत) बहु मतो बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशात् बहुरिति वा मतो बहुमतः / भ०२ श० 1 उ० / ज्ञा० / बहुष्वपि कार्येषु मते, अनल्पतया अस्तोकतया मतेच। ज्ञा०१०१ अ०रा०ा आ०क०। तं०। औ० / कल्प० / अतीवाभीष्टे, जी०१ प्रति०। बहुमाइ(ण) पुं० (बहुमायिन्) क्रोधाऽऽदिकषायमध्यभूताया मायाया ग्रहणे सर्वेषामेव ग्रहणात् / कषायैः काषकषे, आचा०१ श्रु० 2 अ०५ उ० / कुरुकुचाऽऽदिभिः कल्कतपसा च बहुनिकृतिपरे, आचा० 1 श्रु० 5 अ०१उ०। बहुमाण पुं० (बहुमान) आन्तरे प्रीतिविशेषे, आ० म० 1 अ० / घ०। पञ्चा० / षो०। हार्दे प्रतिबन्धविशेषे, जीत० / उत्त० / आन्तरभावप्रतिबन्धे, दश०६ अ०१ उ० / गुणानुरागे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० रुचिविषयाऽऽन्तरप्रीति विशेषे, षो०२ विव० / व्य० / ध० / दर्श०। ग०॥ नि० / चू०। जी०। पक्षपाते, पञ्चा०३ विव० / नि० चू०। द्वा०। प्रव० / बहुमानं प्रीतिस्तद्विषये, यतो बहुमानेनैवान्तरचित्तप्रमोदलक्षणेन पठनाऽऽदि विधेयं, न पुनर्बहुमानाभावेन / प्रव० 6 द्वार। अचित्तचिन्तामणिकल्पतीर्थकरप्रतिबन्धे, पं० सू० 4 सूत्र / व्य० / अन्तरङ्गप्रीतिविशेषे, यथा--"धन्यास्ते वन्दनीयास्ते, तैस्वैलोक्यं पवित्रितम्। यैरेष भुवनक्लेशी, काममल्लो निराकृतः।।१।।" पञ्चा० 1 विव० / बहुमानविनययोर्विशेष दर्शयतितथा श्रुतग हणो द्यतेन गुरोर्बहुमानः कार्य: / बहुमानो ना -- Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुमाण 1304 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुल माऽऽन्तरो भावप्रतिबन्धः / एतस्मिन् सत्यक्षेपेणाऽधिकफलं श्रुतं भवति / पुलिंदो आगओ अच्छिणऽत्थि अप्पणो अच्छी अल्लीए उक्खणिऊण "विणयबहुमानेसु चउभंगी-एगस्स विणओ, न बहुमाणो / अवरस्स सिवगरस लाएति / बंभणा पतीतो। तस्स बंभणस्स भत्ती पुलिंदरस बहुमाणो, ण विणओ। अन्नरस विणओ वि. बहुमाणो वि। अण्णरस ण बहुमाणो। एवं नाणमंतेसु भत्ती बहुमाणो य कायव्यो। नि० चू० 1 उ०। विणओ, ण बहुमाणो। इत्थ दोण्ह वि विसेसोपदंसणत्थं इमं उदाहरणं- बहुमाय त्रि० (बहुमाय) कपटप्रधाने, सूत्र० 1 श्रु० 2 उ० / एगम्मि गिरिकंदरे सिवो, तंचबंभणो पुलिंदोय अच्चति, बंभणो उवलेवण-- बहुमिलक्खु त्रि०(बहुम्लेच्छ) बहुप्रत्यान्तिके, आचा०२ श्रु०२ चू० सम्मजणोवरिअभिसेयपयओ सुईभूओ अचित्तायुणति विणयजुत्तो, ण ४अ01 पुण बहुमाणेण / पुलिंदो पुण तम्मि सिवे भावपडिबद्धो गल्लोदएण बहुमुल्ल त्रि० (बहुमूल्य) बहु प्रभूतं धनं द्रव्यं मूल्य येषां तानि / पहावेति, ण्हविऊणं उवविट्ठो सिवो य तेण समं आलावसंकहाहिं महाद्रव्येषु, औ०। अत्थति / अन्नया य तेसिं बंभणेणं उल्लावसहो सुओ, तेण पडियरिऊण बहुमुह न० (बधूमुख) दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ / / 8 / 114|| इति दीर्घस्य उवलद्धोतुम एरिसो चिव कडपूयणसिवो, जो एरिसेण उच्छिट्टएण सम हस्वः / बधूवदने, प्रा०१ पाद। दुर्जने, दे० ना०६ वर्ग 62 गाथा। मंतेसि, तओ सिवो भणति / एसो मे बहुमाणेइ, तुम पुण्णो न तहा। अन्नया व अच्छीणि उक्खणिऊण अत्थइ सिवो, बंभणो य आगंतु बहुय न० (बहुक) बहेव बहुकम् / अपरिमिते आलजालरूपे, उत्त०१ रडियमुवसंतो। पुलिंदो य आगओ, सिवस्स अच्छि न पेच्छति तओ अ०। प्रभूते, तं०। अप्पयं अच्छि कंडफ, लेण उवक्खणित्ता सिवस्स लाएइ / तओ सिवेण बहुरय न० (बहुरजस्) बहुरजस्तुषाऽऽदिकं यस्मिद् बहुरजः। 'बहुरी' बंभणो पत्तियाविओ ! एवं णाएमतेसु विणओ बहुमाणो य दो इति ख्यातेभ्रष्टधान्ये, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०१ उ०। पहुके,आचा० विकायव्वाणि / ' दश०३ अ०॥ 2 श्रु०१ चू० 1 अ०६ उ०। प्रभूते कर्मणि, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / बहुबध्य-मानकर्मणि बहुपापे बहुष्वारम्भाऽऽदिषु रते, आचा०१ श्रु०५ भत्तिबहुमानयोर्विशेष इत्थम् - अ०१ उ० / बहुसावद्याऽऽरम्भसक्ते, ध०२ अधि०। बहुषु समयेषु बहुमाणे भत्ति भवई, नो भत्तीए वि माणे चउ लहुया। वस्तूत्पत्तिमधिकृत्य रताः सक्ता बहुरताः। दीर्घकालं द्रव्य प्रसूतिप्ररूपिषु गिरिणिज्झरे सिव मरुओ, भत्तीऐं पुलिंदओ माणे॥१४॥ जमालिप्रवर्तितनिह्नवेषु, आ० म०१ अ० / बहुष्वेव समयेषु क्रियानिबहुहा माणण बहुमाणो, सो य बहुमाणो णाणाइसंजुत्तो काययो / सो ष्पत्तिरित्येवमसद्भाव प्रतिपन्नेषु, उत्त० 3 अ०। बहुभिरेव समयैः कार्य दुविहो भवति-भत्ती, बहुमाणं च / कोभत्तिबहुमाणाणं विसेसो ? निष्पद्यते नैकसमयेनेत्येवंविधवादिषु जमालिमतानुसारिषु औ० / भण्णति-गाहापच्छद्धा अब्भुट्ठाणडडग्गहणपायपुंछणाऽऽसणप्पदाणग- विशे०। (बहुरता जमालेः कदोपपन्नाः। अत्र भावार्थस्तावत्कथा-- हणाऽऽदीहिं सेवा जा सा भत्ती भवति / णाणदसणचरिततवविणयप- नकादवसेयः तच जमालि' शब्दे चतुर्थभागे 1406 पृष्ठ) भावणा तिगुणर जियरस जो रसो पीतिपडिबंधो सो बहुमाणो भण्णति। बहुरव पुं० (बहुरव) भूरिशब्दे प्रभूततरयशसि, दशा० 6 अ०। स०। एत्थ चउभंगो कायव्योभत्तीणामेगस्स णो बहुमाणो / तत्थ पढमभंगे बहुराणा (देशी) खड्गधारायाम्, दे० ना०६ वर्ग 61 गाथा। वासुदेवपुत्तो पालगो। बितियभंगे सेडुओ, संबो वा। ततियभंगे गोयमो। बहुरावा (देशी) शिवायाम् दे० ना०६ वर्ग 61 गाथा। चउत्थे कविला कालसोयरिआइ। इदाणिं भत्तिबहुमाणाणं अण्णोण्णा बहुरिया स्त्री० (बहुरिका) संमार्जन्याम्. बृ०१ उ०२ प्रक०। ऽऽरोवणं कजति / जओ भण्णति-'" बहुमाणे भत्ति गाहा / ' जत्थ बहुमाणो तत्थ भत्ती भवे, ण वा भत्तीए बहुमाणो। भत्तिओ 'बहुकारलोवं बहुरुण्ण न० (बहुरुदित) प्रभूतेऽश्रुविमोचने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। काऊण भण्णति' माणो / भत्तिं बहुमाणं वाण करेंति चउलहुया। अहवा बहुरूव त्रि० (बहुरूप) नानारूपे नानरूपधरे साधौ, महा० 4 अ०। भत्तिं ण करेंति बहुमाण ण करेंति आणाइणो य दोसा भवति / ('पवज्जा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 767 पृष्ठेवक्तव्यता गता) भत्तिबहुमाणविसेसणत्थं उदाहरण भण्णति-गोरगिरीणाम पव्वओ तस्स | बहुरूवा खी० (बहुरूपा) भूतेन्द्रस्य भूतराजस्य सुरूपस्या ग्रमहिष्याम्, णिज्झरे सिवो, तंच एगो बंभणो पुलिंदओय अचेति। बंभणो उवलेवणादि | स्था० 4 ठा० 1 उ० / ज्ञा०। (पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे काउंण्हवणऽचणं करोति। पुलिंदो पुण उवयारवज्जियं गल्लोल्लपाणिएण प्रथमभागे १७१पृष्ठे उक्ता) पहावेति; तं च सिवो ओणमिऊण पडिच्छइ, आलावं च करेइ। अन्नया | बहुरोगि(ण) पु० (बहुरोगिन्) चिरकालं बहुभिर्वा रोगैरभिभूते, दश० बंभणेण अलावसद्दो सुओ, पडियरिऊण जहाभूतंणातं, उवालद्धो यसो १०अ०॥ सिवोतुमं एरिसो कडपूयणसियो जो एरिसेण उच्छिट्टएण समं मंतेसि। | बहुल त्रि० (बहुल) व्याप्ते, रा०। प्रचुरे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। रा० / संथा० / तओ णिवो भणइ-एसो मे बहु माणेइ तुमं पुण न तहा / अण्णया य सूत्र० / स्था० / ज्ञा० / अनुपरते, स्था० 4 ठा० 1 उ० / प्रश्न० / ज्ञा० / अच्छीणि उक्खणिऊण अत्थाइ सिवो। बभणो आगओ रडिउमुवसंतो। | बहुशब्दार्थ, रा०। औ० / अनेकप्रकारे, आ० म० 1 अ० / धने, औ०। Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुल 1305 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुसालग स्थूले, स्था० 4 ठा०२ उ० / "क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद् आ०म०१०। विभाषा क्वचिदन्यदेव / विधेर्विधान बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विधं बोहलुक | बहुवित्थर त्रि० (बहुविस्तर) अनेकभेदे, नि० चू०१३ उ०। दर्श०। वदन्ति // 1 // इत्युक्तरूपे व्याकरणप्रसिद्ध विकल्पे, दश० 2 अ०। / बहुवियप्प त्रि० (बहुविकल्प) अनेकभेदे, राग०१ काण्ड। श्रीवर्द्धमान-स्वामिने प्रथमभिक्षादायके कोल्लागसन्निवेशवासिब्राह्मणे, बहुविरय पुं० (बहुविरत) सर्वेष्वपि प्राणातिपातविरमणा ऽऽदिषु प्रवर्त्तमाने, आ० ग० 1 अ०। आ० चू०। "कोल्लाए सण्णिवेसे बहुलेणाम माहणे सूत्रा०२ श्रु०२ अ०।सर्वप्राणिभूतजीवसत्त्वेभ्यस्तत्स्वरूपापरिज्ञानापरिवसइ / " भ०१५ श०। ('गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1015 त्तद्वधाद् विरते, सूत्रा०२ श्रु०७ अ०। पृष्ठेऽमयधिकार उक्तः।) दृष्टिवादान्तर्गत स्वनामख्याते सूत्रो, स० 12 बहुविह त्रि० (बहुविध) बहवो विधा भेदा यस्य स बहुविधः। स्था०६ ठा०। अङ्ग / कृष्णपक्षे, आ० म०१ अ01 'बहुलो कसणपक्खो।' पाइ० अनेकप्रकारे, ध०२ अधि०। प्रश्न०। सूत्र० / विपा० / व्य०।०। ना०२६८ गाथा। बहुवी स्त्री० (बही) "तन्वीतुल्येषु / / 8 / 2 / 13 / / " इति मध्ये उकारः। बहुलदोस त्रि० (बहुलदोष) बहुर्वा बहुविधो हिंसाऽनृताऽऽदिरिति बहुदोष | स्त्रीत्वविशेषे बहुशब्दार्थे, प्रा०२ पाद। इति / रौद्रध्यानस्य द्वितीयलक्षणे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / बहुसंकप्प त्रिी० (बहुसंकल्प) बहवः संकल्पाः कर्त्तव्याध्यवसाया यस्य बहुलपक्ख पुं० (बहुलपक्ष) कृष्णपक्षे, उत्त० 26 अ० / यत्रा ध्रुवराहुः स बहुसंकल्पः / बहुकर्तव्याध्यवसिते, आचा० 1 श्रु० 5 अ० 1 उ०। स्वविमानेन चन्द्रविमानमावृणेति तेन योऽन्धकारबहुल: पक्षः स बहुसंजय पुं० (बहुसंयत) सर्वसावद्यानुष्ठानेभ्यो निवृत्ते सूत्रा०२ श्रु०२ बहुलपक्षः / ज०७ वक्षः। सू० प्र० / ज्यो०1 अ०।दशा०। बहुला स्त्री० (बहुला) आलभिकापुरीजातचुल्लशतकश्रमणोपासकस्य यसका बहुसंपत्त त्रि० (बहुसंप्राप्त) ईषदूने संप्राप्ते, भ०२ श०१ उ०। भार्यायाम, उपा०५ अ०। एकवर्णायां गवि, अनु० / बहुलाया गोः सुतो | बहुसपुण्ण त्रि० (बहुसपूर्ण) इषदपरिसमाप्ते, कल्प०३ अधि०६ बाहुलेयः / आ० म०१ अ० / गवि, "नंदी तंबा बहुला, गिट्ठी गोला य बहुसंभूयफल त्रि० (बहुसंभूतफल) बहूनि संभूतानि पाकातिशयतः रोहिणी सुरही।'' पाइ० ना० 45 गाथा। ग्रहणकालोचितफलानि येषु ते तथा। तेषु, आचा०२ श्रु०१चू० 4 अ० 2 उ०। दश। बहुलावण न० (बहुलावन) मथुरानगरीस्थेलौकिकवने, ती०८ कल्प० / बहुसगड त्रि० (बहुशकट) बहुरथे, आचा०२ श्रु०२चू०४ अ०। बहुलिया स्त्री० (बहुलिका) आनन्दस्य गृहपतेहदास्याम, आ० चू०१ अ०। आ० म० अग्निकसहजातायां चेटक पुत्र्याम्, आ० चू०१ अ०। बहुसच्च पुं० (बहुसत्य) अहोरात्रस्य दशमे, चं० प्र०२० पाहु०। जा आ०म०। बहुसढ पुं० (बहुशठ) बहुभिः प्रकारैः शठे, आचा०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। बहुलो ह पुं० (बहुलोभ) सर्वमेतदाहाराऽऽदि लोभाकरोतीत्यतो बहुसम वि० (बहुसम) प्रभूतसमे, चं० प्र०२० पाहु० / आचा० / सू० प्र० / अत्यन्तसमे, स्था०६ ठा०। रा०ा बृद्धिहानिवर्जित, भ०१३ श० बहुलोभः / अतिलुब्धे, आचा०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। 4 उ० / कल्प०। बहुलोहणिज्ज त्रि० (बहुलोभनीय) बहून लोभयन्ति विमोहयन्ति बहुलोभनीयाः। उत्त० पाई० 4 अ०1 बहुलोभोत्पादके, उत्त० 4 अ०। बहुसमउल्लन० (बहुसमतुल्य) समतुल्यशब्दः सदृशार्थः। अत्यन्तसम तुल्ये, स्था० 2 ठा०३उ०। बहुवयण न० (बहुवचन) बहयोऽर्था उच्यन्तेऽनेनोक्तिर्वेति वचनं, बहूनाम बहुसमरमणिज्ज त्रि० (बहुसमरमणीय) अत्यन्तसमे, रम्ये च / भ० 14 र्थानां वचन बहुवचनम्। स्था०३ ठा०४ उ०। बहुत्वप्रतिपादके वचनभेदे, श०६ उ० / रा०। प्रज्ञा० ११पद / बहुवचनम्-वृक्षा इति। आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०१ बहुसमाइण्ण त्रिी० (बहुसमाकीर्ण) अत्यन्तमाकीर्णे, भ०५ श०६ उ०। उ० / ल० बहुसयणपुं० (बहुस्वजन) बहुपाक्षिके. बृ०१उ०२ प्रक०। बहुवाइ (ण) पुं० (बहुवादिन्) अनेकधा व्याकर्त्तरि, आचा० 1 श्रु०६ बहसलिलुप्पीलोदया स्त्री० (बहुशलिलोत्पीलोदका) प्रति अ०२ उ०1 श्रोतोवाहिताऽपरसरिति, दश०७ अ०। बहुवावार पुं०(बहुव्यापार) सामान्यसाधुषु, पं०व०२ द्वार। बहुसालग पुं० (बहुशालक) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्रा शालवने उद्याने बहुविग्ध नं० (बहुविध) प्रचुरान्तराये, "श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति स्थितस्य वीरस्य पूतनानाम्नी व्यन्तरी उपसर्ग कृतवती। आ० चू०१ महतामपि / अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वाऽपि यान्ति विनायकाः / ||1 // " | अ०। आ० म०। Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुसुह 1306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुस्सुयपूया बहुसुहन० (बहुसुख) मोक्षाऽऽख्ये परमार्थसुखे, सूत्रा०१ श्रु०३ अ० ४उ०। * बहुशुभ न० प्रभूतसुखे, आव० 3 अ०। बहुसेया स्त्री० (बहुसेया) बहुः सीयन्ते अवबध्यन्ते यस्मिन्नसौ / सेयः कर्दमः स यस्यां सा बहुसेया। प्रचुरकर्दमायाम्, सूत्रा०२ श्रु०२ अ०॥ *बहुश्वेता स्त्री० बहुश्वेतपद्मसम्भवात् स्वच्छोदकसम्भवाद् बाहुल्येन श्वेतायां पुष्करिण्याम्. सूत्र०२ श्रु०२ अ०॥ बहुसो अव्य० (बहुशस) अनेकवारे, व्य०१उ०। अनेकश इत्यर्थे, पञ्चा० 1 विव० / क० प्र० / ग० / बृ० / आचा० / विशे० / "बहुसो त्ति वा भुजोभुज्जो त्ति वा एगट्ठा।" नि० चू०२० उ०। बहुस्सुईकय पुं० (बहुश्रुतीकृत) बहुश्रुतत्वेन मते अबहुश्रुतत्वे, भ० 15 श०। बृ०॥ बहुस्सुयपुं० (बहुश्रुत) आगमावृद्धे, दश० 8 अ०। अष्ट। बहश्रृतमाहबहुसुए जुगप्पहाणे, अभिंतर बाहिरं सुयं बहुहा / होति चसहग्गहणा, चारित्तं पी सुबहुयं पि॥२५१।। यस्य बहुधा बहुप्रकारामभ्यन्तरमङ्गप्रविष्ट बाह्यमङ्गबाह्य-श्रुतं भवति विद्यते, तथा स विशुद्धिकर इत्यत्रा चशब्दग्रहणात् सुबहुकं चारित्रमपि यस्य स युगप्रधानो बहुश्रुतः / व्य० 10 उ०। शास्त्रार्थपारगे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। बहुप्रचुरं श्रुतमागमः सूत्रातोऽर्थतश्च यस्य उत्कृष्टतः सम्पूर्णदशपूर्वधरे, जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयवस्तुवेदिनि, स्था० 8 ठा० / प्रव० / बहुसूत्रार्थो भयधरे, बृ०।। तिविहो बहुस्सुओ खलु, जहन्नओ मज्झिमो य उक्कोसो। आयारपकप्पे क-प्पे णवम दसमे य उक्कोसो।।४०४|| त्रिविधः खलु बहुश्रुतः। तद्यथा-जघन्यो, मध्यमः उत्कृष्टः। तत्रा55वारप्रकल्पो निशीथं, तद्धारी जघन्यो बहुश्रुतो, मध्यमः (कप्पे त्ति) कल्पव्यवहारधरः उत्कृष्टो नवमदशम पूर्वधरः / बृ० 1 उ०१ प्रक० / व्य० / आ० क०।आ०म०नि० चू०। बहुविधे, उत्त०२ अ०। * बहुसूत्र पुं० बहु कालोचितं सूत्रामाचाराऽऽदिकं यस्य स बहुसूत्राः / तस्मिन, व्य०३उ०। दशा०।। बहुस्सुयपूया स्त्री० (बहुश्रुतपूजा) बह्वागमस्योचितप्रतिपत्ती, उत्त०। संप्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयम्, तचेदम् - संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो। आयारं पाउक्करिस्सामि, आणुपुटिव सुणेह मे // 1 // संयोगाद्विप्रमुक्तस्यानगारस्य भिक्षोः आचरणमाचार उचितक्रिया, विनय इति यावत्। तथा च वृद्धाः- "आयारो त्ति वा, विणउ त्ति वा एगट्ठ / त्ति। स चेह बहुश्रुतपूजाऽऽत्मक एव गृह्यते, तस्या एवात्राधिकृतत्वात्, तं प्रादुष्करिष्यामि प्रकटयिष्यामि आनुपूर्व्या, श्रृणुत (मे) मम, कथयत इति शेषः / इति सूत्रार्थः / / 1 / / इह च बहुश्रुतपूजा प्रक्रान्ता, सा चबहुश्रुतस्वरूपपरिज्ञान एवं कर्तुं शक्या, बहुश्रुतस्वरूपं च तद्विपर्ययपरिज्ञाने तद्विविक्तं सुखेनैव ज्ञायत इत्यबहुश्रुत-स्वरूपमाहजे यावि होइ निविजे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। अभिक्खणं उल्लवई, अविणीऍ अबहुस्सुए।।२।। (जे यावि त्ति) यः कश्चित् चापिशब्दो भिन्नक्रमी उत्तरत्रा योक्ष्यते, भवति जायते, निर्गतो विद्यायाः सम्यक् शास्वाावमरूपाया निर्विद्यः, अपिशब्दसंबन्धात् सविद्योऽपि, यः स्तब्धोऽहङ्कारी, लुब्धः रसाऽऽदिगृद्धिमान्, न विद्यते इन्द्रियनिग्रहः-इन्द्रियनियमनाऽऽत्मकोऽस्येत्यनिग्रहः अभीक्ष्णं पुनः पुनः उत्प्राबल्येनासंबद्धभाषिताऽऽदिरूपेण लपतिवक्ति उल्लपति अविनीतश्च विनयविरहितः (अबहुस्सुए त्ति) यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् सोऽबहुश्रुतः, उच्यत इति शेषः सविद्यस्याऽप्यबहुश्रुतत्वं बाहुश्रुत्यफलाभावादिति भावनीयम्, एतद्विपरीतस्त्वर्थाद्वहुश्रुतः। इति सूत्रार्थः / / 2 / / कुतः पुनरीदृशमवहुश्रुतत्वं बहुश्रुतत्वं वा लभ्यते ? इत्याहअह पंचहिँ ठाणेहिं, जेहि सिक्खा न लब्भई। थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽऽलस्सेण य / / 3 / / अह अट्ठहिँ ठाणेहिं, सिक्खासीलेति दुचई। अहस्सिरे सया दंते, ण य मम्ममुदाहरे // 4 // नासीले ण विसीले, ण सिया अइलोलुए। अक्कोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति वुचई / / 5 / / अथेत्युपन्यासार्थः, पञ्चभिः पञ्चसंख्यैस्तिष्ठन्त्येषु कर्मवशगा जन्तय इति स्थानानि तैर्येरिति वक्ष्यमाणैर्हेतुभिः शिक्षणं शिक्षा ग्रहणाऽऽसेवनाऽऽत्मिका न लभ्यते नावाप्यते, तैरीदृशमबहुश्रुतत्वमवाप्यत इति शेषः / कैः पुनःसानलभ्यते? इत्याह स्तम्भान्मानात् क्रोधात् कोपात् प्रमादेन मद्यविषयाऽऽदिना रोगेण गलत्कुष्ठाऽऽदिना आलस्येनानुत्साहाऽऽत्मना, शिक्षा न लभ्यत इति क्रमः / चः समस्तानां व्यस्तानां च हेतुत्वमेषां द्योतयति॥३॥ इत्थमबहुश्रुतत्वहेतूनभिधाय बहुश्रुतत्वहेतूनाह–अथाष्टभिः स्थातैः शिक्षायां शीलः स्वभावो यस्य, शिक्षा वा शीलयत्यभ्यस्यतीति शिक्षाशीलः-द्विविधशिक्षाऽभ्यासकृत्, इतिशब्दः स्वरूपपरामदर्शकः, उच्यते-तीर्थकृदगणधराऽऽदिभिरिति गम्यते, तान्येवाऽऽहि - (अहस्सिरे त्ति) "तृन इर'' इति प्राकृतलक्षणादहसहनशील, अहसिता न सहेतुकमहेतुकं वा हसन्नेवाऽऽस्ते, सदा सर्वकाल दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमवान्. (न च) नैव मर्म परापभाजनाकारि कुत्सितं जात्याधुदाहरेद् उद्घट्टयेत् / / 4 / / (न) नैव अशीलः अविद्यमानशीलः, सर्वथा विनष्टचारित्राधर्म इत्यर्थः, न विशीलः विरूपशीलः, अतीचारकलुषितव्रत इति यावत्, न स्यात् न भवेद्, इह पूर्वत्रा च संभावने लिट्, अतिलोलुपः, अतीव रसलम्पटः, अक्रोधनः अपराधिनि अनपराधिनि वा न कथञ्चित कुद्धयति, सत्यम् अवितथभाषणं तस्मिन् रतः-आसक्तः सत्वरत् इति, निगमयितुमाह - शिक्षाशील इत्यनन्तरोक्तगुणभागुच्यते, स च Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्सुयपूया 1307 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुस्सुयपूया बहुश्रुत एव भवतीति भावः / इह च स्थानप्रक्रमेऽप्येवमभिधानं धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदनन्यत्वख्यापनार्थ, विशेषाभिधायित्वा-च क्वचित् केषा-ञ्चिदन्तर्भावसम्भवेऽपि पृथगुपादानं, परिहार-द्वयमपीदमुत्तरतापि भावनीयम्। इति सूत्रायाऽर्थः / / 5 / / (उत्त०)। किं च - अबहुश्रुतत्वे बहुश्रुतत्वे वाऽविनयः, विनयश्च मूलकारणम्, तत्त्वत उक्तहेतूनामप्यनयोरेवान्तर्भावात्। विनीतस्थानान्याह - अह पण्णरसहि ठाणेहिँ , सुविणीए त्ति वुचइ। नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुतूहले // 10 // अप्पं च अहिक्ख्विइ, पबंधं च न कुव्वइ। मित्तिजभाणो भयइ, सुयं लद्धं न मञ्जइ॥११॥ न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पइ। अप्पियस्सऽवि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासइ॥१२॥ कलहडमरवजए, बुद्धे अ अमिआइए। हिरिमं पडिलीणो, सुविणीए त्ति वुचइ।।१३।। अथ पञ्चदशभिस्स्थानैस्सुष्टु शोभनो विनीतो विनयान्वितस्सु विनीत इत्युच्यते, तान्येवाह - (णीयावित्ति त्ति) नीचमनुद्धतं यथा भवत्येव नीचेषु वा शय्याऽऽदिषु वर्तते इत्येवंशीलो नीचवर्ती गुरुषु न्यगवृत्तिमान्। यथाऽऽहै -- "नीयं सेजं गई ठाणं णीयं च आसणाणि य / णीयं च पाएँ वंदिज्जा, णीअं कुजा य अंजलि / / 1 / / ' अचपलः नाऽऽरब्धकार्य प्रत्यस्थिरः, अथवा अचपलो गतिस्थानभाषाभावभेदत श्चतुर्दा / तत्र गतिचपल :-- द्रुतचारी, स्थानवपल :- तिष्ठन्नपि चलन्नेवाऽऽस्ते हस्ताऽऽदिभिः भाषाचपल:- असदसभ्यासमीक्ष्यादेशकालप्रलापिभेदाचला, ता असदविद्यमानमसभ्यमखरपरुषाऽऽद्यसमीक्ष्यअनालोच्य प्रलपन्तीत्येवंशीला असदसभ्यासमीक्ष्यप्रलापिनत्रयः, अदेशकालप्रलापी चतुर्थः अतीते कार्ये यो वक्ति-यदिदं तत्रा देशे काले वाऽकरिष्यत् ततः सुन्दरमभविष्यत्, भावचपलः, सूत्रोऽर्थ वाऽसमाप्त एव योऽन्यद् गृह्णाति, अमायी न मनोज्ञमाहाराऽऽदिकमवाप्य गुर्वाऽऽदिवञ्चकः, अकुतूहलः न कुहुकेन्द्रजालाऽऽद्यव-लोकनपरः अल्पं च इति स्तोकमेव अधिक्षिपति तिरस्कुरुते। किमुक्तं भवति ? नाधिक्षिपत्येव तावदसा कञ्चन, अधिक्षिपन वा कञ्चन कङ्कटकरूपं धर्म प्रति प्रेरयन्नल्पमेवाधिक्षिपति, अभाववचनो वा अल्पशब्दः / तथा च वृद्धाः-- "अल्पशब्दो हि स्तोकेऽभावे च।" ततो नैव कञ्चना धिक्षिपति, प्रबन्धं चोक्त रूपं न करोति, मित्रीय्यमाण उक्तत्यायेन भजते मित्रीयितारमुपकुरुते, न तु प्रत्युपकारं प्रत्यसमर्थः कृतघ्नो वा श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति, किं तु मददोषपरिज्ञानतः सुतरामनवमिति, न च नैव पापपरिक्षेपी उक्तरूपः, न च मित्रोभ्यः कृतज्ञतया कथञ्चिदपराधेऽपि कुप्यति, अप्रियस्यापि मित्रास्य रहसि (कल्लाण त्ति) कल्याणं भाषते। इदमुक्तं भवति-मित्रमिति यः प्रतिपन्नः स यद्यप्यपकृतिशतानि विधत्ते / तथाऽ--प्येकमपि सुकृतमनुस्मरन्न रहस्यपि तद्दोषमुदीरयति / तथा चाऽऽह .. "एकसुकृतेन दुष्कृतशतानि ये नाशयन्ति ते धन्याः / न त्वेकदोषजनि - तो येषां कोपः स च कृतघ्नः // 1 // " इति / कलहश्च वाचिको विग्रहः,डमरं च-प्राणिघाताऽऽदिभिस्तद्बमको, बुद्धो बुद्धिमान् एतच सर्वत्रानुगम्यत एवेति न प्रकृत सङ्ख्याविरोधः / (अभिजातिष्ट त्ति) अभिजातिः कुलीनता, तां गच्छति उत्क्षिप्तभारनिर्वाहणाऽऽदिनेत्यभिजातिगः, हीःला सा विद्यतेऽस्य हीमान्, कथञ्चित्कलुषाध्यवसायतायामप्यकार्यमाचरयन् लज्जते, प्रतिसलीनो गुरुसकाशेऽन्यत्र वा कार्य विना न यतस्ततश्चेष्टते / प्रस्तुतमुपसंहरन्नाह- सुविनीतः सुविनीतशब्दवाच्य इतीत्येवंविधगुणान्वित उच्यते। इति सूत्राऽष्टकार्थः // 13 // यश्चैवं विनीतः स कीद्दक् स्यादित्याह - वसे गुरुकुले निचं, जोगवं उवहाणवं / पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लडुमरिहइ / / 14 / / वसेत आसीत् क्व ? गुरूणाम्-आचार्याऽऽदीनां कुलम् अन्वयो गच्छ इत्यर्थः, गुरुकुलं, तत्रा तदाज्ञोपलक्षणं च कुलग्रहणं नित्यं सदा, किमुक्तं भवति? यावज्जीवममपि गुर्धाज्ञायामेव तिष्ठत्। उक्तं हि-'णाणस्स होइ मागी।'' इत्यादि। योजनं योगः-व्यापारः स चेह प्रकमाद्धर्भगत एवं तद्वान्, अतिशायने मतुप् / यद्वा-योगः समाधिः, सोऽस्यास्तीति योगवान्, प्रशंसायां मतुप्। उपधानम्-अङ्गानाध्ययनाऽऽदौ यथायोगमाचाम्ला ऽऽदितपोविशेषस्तद्वान यद्यस्योपधानमुक्तं तत् कृच्छ्भीरुतयो त्सृज्यान्यथ वाऽधीते शृणोति वा, नियम्-अनुकूलं करोतीति प्रियड्करः, कथञ्चित् केनचिदपकृतोऽपि न तत्प्रतिकूलमाचरति, किंतु ममैव कर्मणामयं दोष इत्यवधारयन्नप्रियकारिण्यपि प्रियमेव चेष्टते, अत एव च (पियं वाइ त्ति) केनचिदप्रियमुक्तोऽपि प्रियमेव वदतीत्येवंशीलः प्रियवादी, यद्वा-प्रियङ्कर आचार्याऽऽदेरभिमताऽऽहारऽऽदिभिरनुकूलकारी, एवं प्रियवाद्यप्याचार्याभिप्रायानुवर्तितयैव वक्ता, तथा चाऽस्य को गुणः? इत्याह-स एवंगुणविशिष्टः शिक्षा शास्त्रार्थग्रहणाऽऽदिरूपा लब्धुमवाप्तुमर्हति योग्यो भवतीति, अनेनैवाविनीतस्त्वेतद्विपरीतः शिक्षा लब्धुं नार्हति इत्यर्थादुक्तं भवति, तथा च यः शिक्षां लभते स बहुश्रुतः, इतरस्त्वबहुश्रुत इति भावः। इति सूत्रार्थः। एवं च सविपक्षं बहुश्रुतं प्रपञ्चतोऽभिधाय प्रतिज्ञातंतत्प्रतिपत्ति रूपमाचारं तस्यैव स्तवद्वारेणाऽऽह - जह संखम्मि पयं निहितं, दुहओ वि विरायई। एवं बहुसुए भिक्खू, धम्मो कित्ती तहा सुयं / / 15 / / यथा इति दृष्टान्तोपन्यासः शङ्खे जलजे पयो दुग्धे निहितं न्यस्तम् (दुहओ वित्ति) द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां द्विधा, नशुद्धताऽऽदिना स्वसंबन्धिगुणलक्षणेनेकनैव प्रकारेण, किं तु स्वसंबन्ध्याश्रयसंबन्धिगुणद्वयलक्षणेन प्रकारद्वयेनापीत्यपिशब्दार्थः, विराजते शोभते; तत्र हि न तत्कलुषीभवति, न चाम्लतां भजते नापि च परिश्रवति एवमनेन प्रकारेण बहुश्रुते (भिक्खु त्ति) आर्षत्वाद्भिक्षौ तपस्विनी; धर्मः यतिधर्मः, कीर्तिः श्लाघा, तथेति, धर्मकीर्तिवत् श्रुतम् आगमो विराजत इति संबन्धः / किमुक्त Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्सुयपूया 1308 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुस्सुयपूया - भवति? यद्यपि धर्मकीर्तिश्रुतानि निरुपले पताऽऽदिगुणेन स्वयं शोभाभाजि, तथाऽपि मिथ्यात्वाऽऽदिकालुष्यविगमतो निर्मलताssदिगुणेन शङ्ख इव पयो बहुश्रुते स्थितन्याश्रयगुणेन विशेषतः शोभन्ते, तान्यपि हि न तत्रा मालिन्यम्अन्यथाभावहार्निवा कदाचन प्रतिपद्यन्ते, अन्यत्रत्वन्यथाभूतभाजस्थपयोवदन्यथाऽपि स्युः। वृद्धास्तुव्याचक्षतेयथेन्यौपम्ये, "संखम्मिसंखभायणे पर्यखीरं निहितंठवितं, "न्यस्तमित्यर्थः, "दुहओ उभओसंखोखीरंच,अहवा–ठवंतओ खीरच, संखेण परिस्सवति ण य अबीभवति, विरायइ सोभति, एवमुवसंहारे अणुमाणे वा बहुस्सुओ सुत्तत्थविसारओ जानक इत्यर्थः / तस्स एवं भिक्खुभायणे दितस्स धम्मो भवति, कित्ती जसो, तथा सुयमाराहियं भवइ, अपत्ते दितस्स असुयमेव भवति। अहवा-इहलोए परलोए य सोभति पत्तदाई। अहवा-एवं गुणजाइए भिक्खू बहुस्सुए भवति, धम्मो कित्ती जसो य भवति, सुयं से (सुयमाराहियं) हवति, अहवा-इहलोए परलोए य विरायइ, अहवा-सीलेण य सुएण य / 'इति सूत्रार्थः / पुनर्बहुश्रुतस्तवमाह -- जहा से कंबोयाणं आइण्णे कंथए सिया। आसे जवेण पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए।१६।। यथा येन प्रकारेण स इति प्रतीतः काम्बोजाना कम्बोजदेशोद्भवानां प्रक्रमादश्वानां, निर्धारणे षष्ठी, आकीर्णो व्याप्तः शीलाऽऽदिगुणैरिति गम्यते, कन्थकः प्रधानोऽश्वो यः किलदृपच्छकलभृतकुतुपनिपतनध्वनेर्न संत्रस्यति, स्याद्भवेदश्वस्तुरङ्गमो, जवेन वेगेन प्रवरः प्रधानः एवमित्युपनये, तत ईदशो भवति बहुश्रुतः, जिनधर्माप्रपन्नो हि वतिनः काम्बोजा इवाश्वेषु जातिजवाऽऽदिभिर्गुणैरन्यधार्मिकापेक्षया श्रुतशीलाऽऽदिभिर्वरा एव, अयं त्वाकीर्णकन्थकाश्ववत् तेष्वपि प्रवरः। इति सूत्रार्थः / / 16 // किंचजहाऽऽइण्णसमारूढे, सूरे दढपरक्कमे। उमओ नंदिघोसेणं, एवं हवइ बहुस्सुए।।१७।। यथा आकीपण जात्यादिगुणोपेतं तुरङ्ग में सम्यगारूढोऽध्यासित आकीर्णसमारूढः, सोऽपि कदाचित कातर एव स्यादत आह-शूरचारभटो दृढो गाढः पराक्रमः शरीरसामर्थ्याऽऽसत्मको यस्य स तथा, (उभओ त्ति) उभयतो वामतो, दक्षिणतश्च / यद्वा-अग्रतः, पृष्टतश्च। नन्दीघोषण द्वादशतूर्यनिनादाऽऽत्मकेन, यद्वा-आशीर्वचनानि नान्दी-'जीयास्त्वमि' त्यादीनि तद्घोषेण बन्दिकोलाहलाऽऽत्मकेन, लक्षणे तृतीया एवं भवति बहुश्रुतः, किमुक्तं भवति? यथैवंविधः शूरोन केनचिदभिभूयते न चान्यस्तदाश्रितस्तथाऽयमपि जिनप्रवचनतुरङ्गाऽऽश्रितो दृष्यत्परवादिदर्शनेऽपि चाऽास्तस्तद्विजयं च प्रति समर्थः, उभयतश्च दिनरजन्योः स्वाध्यायघोषरूपेण स्वपक्षरपक्षयोर्वा चिरं जीवत्वसौ येनानेन प्रवचनमुद्दीपितमित्याद्याशीर्वचनाऽऽत्मकेन नान्दीघोषेणोपलक्षितः परतीथिंभिरतीव मदावलिप्तैरपि नाभिभवितुं शक्यः, न चात्रा प्रतपत्येत दाश्रितोऽन्योऽपि कथञ्चिज्जीयते। इति सूत्रार्थः / / 17 // तथाजहा करेणुपरिकिणे, कुंजरे सट्ठिहायणे। बलवंते अप्पडिहए, एवं हवइ बहुस्सुए॥१८|| यथा करेणुकाभिर्हस्तिनीभिः परिकीर्णः परिवृत्तो यः स तथा, न पुनरेकाक्येव कुञ्जरो हस्ती षष्टिायनान्यस्येति षष्टिहायनः षष्टिवर्षप्रमाणः, तस्य ह्येतावत्कालं यावत्प्रतिवर्ष बलोपचयः ततस्तदपचय इत्येवमुक्तम्, अत एव च (बलवंते त्ति) बलं शरीरसामर्थ्यमस्यास्तीति बलवान् सन् अप्रतिहतो भवति, कोऽर्थः? नान्यैर्मदमुखैरपि मतङ्गजैः पराङ्मुखीक्रियते. एव भवति बहुश्रुतः सोऽपि हि करेणुभिरिव परप्रसरनिरोधिनीभिरौत्पत्तिक्यादिबुद्धिभिर्विद्याभिश्च विविधाभिर्वृतः षष्टिहायनतया चात्यन्तस्थिरमतिः, अतएव च बलवत्वेनाप्रतिहतो भवति, दर्शनोपहन्तृभिर्बहुरपि न प्रतिहन्तुं शक्यते। इति सूत्रार्थः / / अन्यच्चजहा से तिक्खसिंगे, जायक्खंधे विरायइ। वसहे जूहाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए।१६।। यथा स तीक्ष्णे निशिताग्रे शृङ्गे विषाणे यस्य स तथा, जातः अत्यन्तोपचितीभूतः, स्कन्धः प्रतीत एवास्येति जातस्कन्धः, समस्ताङ्गोपाङ्गोपचितत्वोपलक्षणं चैतत्, तदुपचये हि शेषाङ्गान्युपचितान्येवास्य भवन्ति, विराजते विशेषेण राजते शोभते, वृषभः प्रतीतो, यूथस्य गवां समूहस्याधिपीतः स्वामी यूथाधिपतिः सन्, एवं भवति बहुश्रुतः सोऽपि हि परपक्षभेत्तृया तीक्ष्णाभ्यां स्वशास्रपरशास्त्राभ्यां शृङ्गाभ्या मिवोपलक्षितो गच्छगुरुकार्यधुराधरणधौरेयतया च जातस्कन्ध इब जातस्कन्धः, अत एव च यूथस्य साध्वादि समूहस्याधिपतिः आचार्यपदवीं गतः सन् विराजते / इति सूत्रार्थः / / अन्यचजहा से तिक्खदाडे, ओदग्गे दुप्पहंसए। सीहे मियाण पवरे, एवं हवइ बहुस्सुए।।२०।। यथा स तीक्ष्णा निशिता दंष्ट्राः प्रतीता एव यस्य स तीक्ष्ण-दंष्ट्रः, उदग्र उत्कट: उदग्रवयः स्थितत्वेन वा उदग्रः, अतएव (दुप्पहंसए त्ति) दुःप्रधर्ष एव दुःप्रधर्षकोऽन्यै र्दुरभिभवः, सिंहः केसरी, मृगाणामारण्यप्राणिना प्रवरः प्रधानो भवति, एवं भवति बहुश्रुतः। अयमपि हि परपक्षभेत्तृतया तीक्ष्णदंष्ट्राभिरिव नैगमा ऽऽदिनयैः प्रतिभाऽऽदिगुणोदग्रतया च दुरभिभवः, इत्यन्तीर्थाना मृगस्थानीयानां प्रवर एव / इति सूत्रार्थः / / अपरंचजहा से वासुदेवे, संखचक्कगदाधरे। अप्पडिहयबले, जोहे, एवं हवइ बहुस्सुए।।२१।। यथा य वासुदेवो विष्णुः शङ्खश्च पाञ्चजन्यः चक्र च सुदर्शन गदा च कौमोदकी शङ्खचक्रगदास्ता धारयति बहतीति शङ्खचक्रगदाधरः अप्रतिहतम् अन्यैः स्खलयितुमशक्यं बलं सामर्थ्यमस्येस्यप्रतिहतबलः / किमुक्तभवति ? एकंसहजसामर्थ्यवानन्यच तथाविधायोधान्वित इति Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्सुयपूया 1306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुस्सुयपूया युध्यत इति योधः सुभटो भवति, एवं भवति बहुश्रुतः सोऽपि होकं स्वाभाविकप्रतिभाप्रागल्भ्यदान् अपरं शङ्गचक्रगदाभिरिव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रौरुपेत इति, योध इव योधः कर्मवैरिपराभवं प्रति इति सूत्रार्थः / अपरं चजहा से चाउरते, चक्कवट्टी महिड्डिए। चउदसरयणाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए।।२२।। यथा स चतसृष्वपि दिक्ष्वन्तः पर्यन्त एकत्र हिमावानन्या च दिकाये ससुद्रः स्वसम्बन्धितया अस्येति चतुरन्तः, चतुर्भिर्वा हयगजरथनराऽऽ मकैरन्तः शत्रुविनाशाऽऽत्मको यस्य स तथा, चक्रवती षट्खण्डभरताधिपो, महती ऋद्धिः समृद्धिरस्यति महर्द्धिकः दिव्यानुकारिलक्ष्मीकश्चतुर्दश च तानि रत्नानि चतुर्दशरत्नानि। तानि चामूनि- "सेणावति गाहवइ, पुरोहियगय तुरंग वड्डड्ग इत्थी। चवं छत्तं चम्म, मणि कागणि खम्ग दंडो य ||1|| तेषामधिपतिः चतुर्दशरत्नाधिपतिः एवं भवति बहुश्रुतः, सोऽपि ह्यासमुद्रमहीमण्डलख्यातकीर्तिस्तिसृषु दिक्षु अन्यत्र च वन्दीभूतविद्याधरवृन्द इति दिक्चतुष्टयव्यापिकीर्तितया चतुरन्त उच्यते, चतुर्भिर्वा दानाऽऽदिधर्मरन्तः कर्मवैरिविनाशोऽस्येति चतुरन्तः ऋद्धयश्चामर्षांपध्यादश्चक्रवर्तिनमपि योधयेदित्येवंविधपुलाकलध्यादयश्च महत्य एवास्य भवन्ति, सन्ति चास्यापि चतुर्दश रत्नोपमानि सकलातिशयनिधानानि पूर्वाणीति कथं न चक्रवर्तितुल्यताऽस्येति सूत्रार्थः। अन्यचजहा से सहस्सक्खे, वजपाणी पुरंदरे। सक्के देवाहिवई, एवं हवइ बहस्सुए।।२३।। यथा स सहस्रमक्षीण्यस्येति सहस्राक्षः सहस्रलोचनः, अत्र च संप्रदाय:-"सहस्सक्ख त्ति पंच मंतिसया देवाणं तस्स, तेसिं सहस्सं अच्छीण, तेसि नीईए विक्कमति, अहवा-जं सहस्सेणं अच्छीणं दीसति तं सो दाहिं अच्छीहिं अन्भहियतराग पेच्छइ ति।" वजं वज्राभिधानमायुधं पाणावस्येति वज्रपाणिर्लोकोक्त्या च पूर्दारणात् पुरन्दरः / क ईदृगित्याह-शक्रो देवाधिपतिर्देवानां स्वामी, एवं भवति बहुश्रुतः सोऽपि हि श्रुतज्ञानेनाशेषातिशयरत्ननिधानतुल्येन लोचनसहरप्रेणेव जानीते, यश्चैवं तस्यैवंविधत्वोपलक्षण, व्रजमपि लक्षणं पाणौ संभवतीति वज्रपाणिः, पूश्च शरीरमप्युच्यते, तद्विकृष्टपोऽनुष्ठानतो दारयतीव दारयतीति पुरन्दरः शक्रवत् देवैरपि धर्मेऽत्यन्तनिश्चलतया पूज्यत इति तत्पतिरप्युच्यते। तथा चाऽऽह-"देवा वितं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो।" इति सूत्रार्थः। अपिचजहा से तिमिरविद्धंसे, उत्तिटुंति दिवायरे। जलंते इव तेएणं, एवं हवइ बहुस्सुए।॥२४॥ यथा सः तिमिरम् अन्धकार विध्वंसयत्यपनयति तिमिरविध्वंसः, | उत्तिष्ठन्नुद्गच्छन् दिवाकरः सूर्यः, स हि ऊर्द्ध नभोभागमाक्रामन्नति तेजस्यितां भजते, अवतररतु न तथेत्येवं विशेष्यते, यद्वा-उत्थानं प्रथममुगमन, रात्र चाय नतीव्र इति तीव्रत्वाभावख्यापकमेतत् अन्यदा हि तीव्रोऽयमिति न सम्यग दृष्टान्तः स्यात्, ज्वलन्निव ज्वाला गुञ्चन्निव तेजसा महसा, एवं भवति बहुश्रुतः सोऽपि ह्यज्ञानरूपतिमिरापहारकः संयमस्थानेषु विशुद्धविशुद्धतरा-ध्यवसायत उपसर्पस्तेपस्तेजसा च ज्वलन्निव भवति / इति सूत्रार्थः / अन्यच्चजहा से उडुवई वंदे, नक्खत्तपरिवारिए। पडिपुण्णे पुण्णमासीए, एवं हवइ बहुस्सए / / 2 / / यथा सउडूना नक्षत्राणां पतिः प्रभुरुडुपतिः, क इत्याहचन्द्रः शशी. नक्षत्रौरश्विन्यादि भिरुपलक्षणत्वाद् ग्रहैस्ताराभिश्च परिवारः परिकरः सञ्जातोऽस्येति परिवारितो नक्षत्रपरिवारितः, प्रतिपूर्णः समस्तकलोपेतः, स चेदृक् कदा भवत्यत आह–पौर्णमास्याम्। इह च चन्द्र इत्युक्ते मा भून्नामचन्द्राऽऽदावपि इत्युडुपतिग्रहणम्, उडुपतिरपिचकश्चिदेकाक्येव भवति, मृगपतिवत् अत उक्तं नक्षत्रापरिवारितः, सोऽप्यपरिपूर्णोऽपि द्वितीयाऽऽदिषु सम्भवतीति परिपूर्णः पौर्णमास्यामित्युक्तम्, एवं भवति बहुश्रुतोऽसावपि हि नक्षत्राणाभिवानेकसाधूनामधिपतिस्तथा तत्परिवारितः सकलकलोपेतत्वेन प्रतिपूर्णश्च भवति। इति सूत्रार्थः / अपरं चजहा से सामाइयाणं, कोट्ठागारे सुरक्खिए। नाणाधन्नपडिप्पुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए।।२६।। यथा स (सामाइयाणं ति) समाजः समूहस्तं समवयन्ति सामाजिकः। समूहवृत्तयो लोकास्तेषाम्, पठन्ति च (सामाइयंगाणं ति) तत्र च श्यामा अतसी तदादीनि च तान्यङ्गानि चोपभोगाङ्गया श्यामाऽऽद्यङ्गानि धान्यानि तेषाम् (कोट्ठागारे त्ति) कोष्ठा धान्यपल्ल्यास्तेषामगारं तदाधारभूतं गृहम्, उपलक्षणत्वादन्यदपि प्रभूतधान्यस्थानं, या प्रदीपनकाऽऽदिभयाद्धान्यकोष्ठः क्रियन्तेतत् कोष्ठागारमुच्यते, यदि वा-कोष्ठान् आ समन्तात् कुर्वत तस्मिन्निति कोष्ठाकारः, “अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् / / 3 / 3 / 16 // (पाणि०) इतिघञ्।तथा सुष्टुप्राहरिकपुरुषाऽऽदिव्यापारणद्वारेण रक्षितः पालितो दस्युमूषकाऽऽदिभ्यः सुरक्षितः, स च कदाचित्प्रतिनियतधान्यविषयोऽप्रतिपूर्णश्च स्यादत आहनाना अनेक प्रकाराणि धान्यानि शालिमुद्गाऽऽदीनि तैः प्रतिपूर्णो भृतो नानाधान्यप्रतिपूर्णः, आद्यपक्षे तु विशेषणे नपुंसकलिङ्गतया नेये, एवं भवति बहुश्रुतः, असावपि सामाजिकलोकानामिव गच्छवासिनामुपयोगिभिर्नानाधान्यैरिवाङ्गोपाङ्गप्रकीर्णकाऽऽदि भेदैः श्रुतज्ञानविशेषः प्रतिपूर्ण एव भवति, सुरक्षितश्च प्रवचनाऽऽधारतया, यत उक्तम्- "जेण कुलं आयत्तं, तं पुरिसं आयरेण रक्खेह।" इत्यादि। इति सूत्रार्थः। अपिचजहा सा दुमाण पवरा, जंबू नाम सुदंसणा। आणाढियस्स देवस्स, एवं हवइ बहुस्सुए।।२७।। Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुस्सुयपूया 1310 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बहुमुह यथा सा द्रुमाणां मध्ये प्रवरा प्रधाना जम्बूनाम्ना-अभिधानेन सुदर्शना बहुश्रुतोऽयमपि ह्यक्षयसम्यग-ज्ञानोदको नानाऽतिशयरत्नवांश्च भवति, नाम सुदर्शना न हि यथायममृतोपमफला देवाऽऽद्याश्रयश्च तथा अन्यः यदि वा अक्षत उदयः-प्रादुर्भावो यस्य सोऽक्षतोदयः। इति सूत्रार्थः। कश्चिद्रुमोऽस्ति, दुमत्वं फलव्यहारश्चास्यास्तत्प्रतिरूपतयैव, वस्तुतः साम्प्रतमुक्तगुणानुवादतः फलापदर्शनतश्च तस्यैव पार्थिवत्वेनोक्तत्वात्, वज्रवैडूर्याऽऽदिमयानि हि तन्मूलाऽऽदीनि तत्रा माहात्म्यमाह - तत्रोत्कानि, सा च कस्येत्याह - अनादृतस्यानादृतनाम्नो, देवस्य जम्बू-द्वीपाधिपतेय॑न्तरसुरस्य आश्रयत्वेन संबिन्धनी, एवं भवति समुद्दगंभीरसमा दुगसया, बहुश्रुतः, सोऽपि हमृतोपमफलकल्पश्रुतान्वितो देवाऽऽदीनामपि च अचक्किया केणइ दुप्पहंसया। पूज्यतयाऽ-भिगमनीयः, शेषद्रुमोपमसाधुषु च प्रधानः / इति सूत्रार्थः। सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइओ, अन्यच खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया।॥३१॥ जहा सा नईण पवरा, सलिला सागरंगमा। (समुद्दगंभीरसम ति) आर्षत्वाद्गाम्भीर्येण अलब्धमध्याऽऽत्मकेन सीया नीलवंतपहवा, एवं हवइ बहुस्सुए।।२८| गुणेन समा गाम्भीर्यसमाः समुद्रस्य गाम्भीर्यसमाः समुद्रगाम्भीर्यसमाः यथा सा नदीनां सरिता प्रवरा प्रधाना सलिलं जलमस्यामस्तीति, (दुरासय ति) दुःखेनाऽऽश्रीयन्तेऽभिभव बुद्ध्या आसाद्यन्ते वा जेतु अर्श आदेराकृतिगणत्वादचि, सलिला नदी, सागरं समुद्रं गच्छतीति सम्भाव्यन्ते केनापीति दुराशया दुरासदा वा, अत एव (अचक्किय ति) सागरङ्गमा समुद्रपातिनीत्यर्थः, न तु क्षुद्रनदीवदपान्तराल एव विशीर्यत, अचकिता अत्रासिताः, केनचिदित परीषहाऽऽदिना परप्रवादिना वा, शीता शीतानाम्नी नीलवान् मेरोरुत्तरस्यां दिशि वर्षधरपर्वतस्ततः तथा दुःखेन प्रधय॑न्ते पराभिभूयन्ते केनापीति दुष्प्रधर्षाः त एव दु:प्रभवति, पाठान्तरतः प्रवहति वा नीलवत्प्रभवा, नीलवतप्रवहा वा एवं प्रधर्षकाः, के एवंविधाः? इत्याह-(सुयस्स पुण्णा विउलस्स त्ति) शीतानदीवद्भवति बहुश्रुतः०, असावपि हि सरितामिवान्यसाधूनामदेष सुब्वयत्ययात् श्रुतेनाऽऽगमेन पूर्णाः-परिपूर्णा वि पुलेन अङ्गानङ्गाश्रुतज्ञानिनां वा मध्ये प्रधानो विमलजलकल्पश्रुतज्ञानान्वितश्च, तथा-- ऽऽदिभेदतो विस्तीर्णेन तायिनस्त्रायिणो वा एवंविधाश्च बहुश्रुता एव, सागरमिव मुक्तिमेवाऽसौ गच्छति. तदुचितानुष्ठान एवास्य प्रवृत्तत्वात्, तानेव फलतो विशेषयितु-माहक्षपयित्वा विनाश्य कर्म ज्ञानाऽऽवरन ह्यन्यदर्शनिनामिव देवाऽऽदिभव एवास्य विवेकिनो वाच्छा, तथा च णाऽऽदि, गम्यत इति गतिस्ता-मुत्तमां प्रधानां, मुक्तिमिति यावत्, गताः कथमस्य तेषामिव प्रायोऽपान्तरालावस्थानाम्, नीलवतुल्याच उच्छ्रि प्राप्ता उपलक्षणत्वाद्गच्छन्ति गमिष्यन्ति च / इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि तोच्छ्रितमहाकुलादेवास्य प्रसूतिः, कथमिवान्यथैवविधयोग्यतासंभवः / बहुवचननिर्देशः पूज्यताख्यापनार्थ व्याप्तिप्रदर्शनार्थ च। इति सूत्रार्थः / इति सूत्रार्थः। इत्थं बहुश्रुतस्य गुणवर्णनाऽऽत्मिकां पूजामभिधाय किंच शिष्योपदेशमाह - जहा से नगाण पवरे, सुमहं मंदरे गिरी। तम्हा सुयमहिटेजा, उत्तमट्ठगवेसए। नाणोसहिपञ्जलिए, एवं हवइ बहुस्सुए।।२६।। जेणऽप्पाणं परं चेव, सिद्धिं संपाउणिज्जति // 32 // यथा स नगाना पर्वताना मध्ये प्रवरोऽतिप्रधानः सुमहानतिशयगुरुरत्युच इति यावत्, मन्दरो मन्दराऽभिधानः, कः पुनरसौ ? इत्याह - त्ति वेमि॥ गिरिः किमुक्तं भवति ?- मेरुपर्वतः नानौषधिभिः अनेकविधविशिष्ट- यस्मादमी-मुक्तिगमनावसाना बहुश्रुतगुणास्तरमाच्छुतम् आगमधितिमाहात्म्यवनस्पतिविशेषरूपाभिः प्रकर्षण ज्वलितो दीप्तो नानौषधि हेदध्ययनश्रवणचिन्तनाऽऽदिनाऽऽश्रयेत्, उत्तमः प्रधानोऽर्थः प्रयोजनप्रज्वलितः, ता ह्यतिशायिन्यः प्रज्वलन्त्य एवाऽऽसते इति तद्योगाद मुत्तमार्थः, स च मोक्ष एव तं गवेषयति अन्वेषयतीति उत्तमार्थगवेषको येन सावपि प्रज्वलित इत्युक्तो, यद्वा- प्रज्वलिता नानौषधयोऽस्मिन्निति श्रुताऽऽश्रयणेन आत्मानं स्वं परं चान्यं तपस्य्यादिकम, एवोऽवधारणे, प्रज्वलितनानौषधिः प्रज्वलितशब्दस्य तु परनिपातः प्राग्वद् एवमिति भिन्नकमश्च सम्प्रापयेदित्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः ततः सिद्धिं मुक्तिगतिम्, मन्दरवद्भवति बहुश्रुतः, श्रुतमाहात्म्येन ह्यसावत्यन्तस्थिर इति शेषगिरि- (संपाउणिज्जसि त्ति) सम्यक् प्रापयेदेव नेह कश्चित्सन्देहः / इति सूत्रार्थः / कल्पापरस्थिरसाध्वपेक्षया प्रवर एव भवति, तथाऽन्धकारेऽपि प्रकाशन- इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्। उक्तोऽनुगमः। सम्प्रति नयास्तेऽपि शक्त्यन्विता आमर्षांपध्यादयः तत्रातिप्रतीता एव। इति सूत्रार्थः / / पूर्ववदेव। उत्त०११ अ०। किंबहुना ? बहुस्सुयया स्त्री० (बहुश्रुतता) युगप्रधानाऽऽगमतायाम, उत्त०१ अ०। जहा से संयभूरमणे, उदही अक्खओदए। श्रुतसम्पभेदरूपैषा। स्था० 8 ठा०। णाणारयणपडिपुन्ने, एवं हवइ बहूस्सुए।।३०॥ बहुहा स्त्री० (बहुधा) अनेकवाशब्दार्थे , आचा०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। यथा स स्वयम्भूरमणः स्वयम्भूरमणाभिधानः उदधिरसमुद्रोऽक्षय- | पञ्चा०। मविनाश्युदकं जलं यस्मिन् स तथा नाना-रत्नै नानाप्रकारैः | बहू स्त्री० (बधू) रमण्याम्, को० // मरकताऽऽदिभिः प्रतिपूर्णो भृतो नानारत्नप्रतिपूर्णः, एवं भवति | बहूमुह न० (बधूमुख) 'बहुमुह' शब्दार्थे, प्रा० 1 पाद। Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहेडअ 1311 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बादर बहेडअ पुं० (विभीतक) वृक्षविशेषे, "अक्खो बहेडओ।'' पाइ० ना० | ध०२ अधि० अन्यत्रापि व्यवहारे निजस्वस्याऽवलनेधार्थमिदमिति 241 गाथा। चिन्त्यं, धर्मार्थिनाऽतः साधर्मिकैरेव सह मुख्यवृत्त्या व्यवहारोन्याय्य - बहेडय पुं० (विभीतक) 'पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिकहरिद्रा स्तत्पाचे स्थितस्य निजस्वस्य धर्मोपयोगित्वसंभवात् तथाविभीतकेष्वत्' ||८1१८८इसोऽत्। प्रा० 1 पाद। एत्पीयूषाऽऽपीड परमत्सरमपि न कुर्यात, कर्माऽऽयत्ता हि भूतयः किं मुधा मत्सरेण बिभीतक-कीदृशेदृशे " 118 / 1 / 105 / / इतीत एत् / प्रा० 1 पाद / भवद्वयेऽपि दुःखकरेण ? तथा-धान्यौषधवत्राऽऽदिवस्तु-विक्रयार्थावपि स्वनामख्याते वृक्षभेदे, "आमलकानि हरीतक्यो विभीतकानि च दुर्भिक्षव्याधिर्वृद्धिवस्त्राऽऽदिवस्तुक्षयाऽऽदि जगदुःखकृत्सर्वथा त्रिफलाशब्देन व्यवह्रियन्ते भिषग्-भिः। वाच०। नाभिलषेत्, नापि देवात्तज्जातमनुमोदेत, मुधा मनोमालिन्याऽऽद्यापतेः / तदाहुःबाउल्ली स्त्री० (पुत्तली) पुत्तलिकायाम्, पाइ० ना० 117 गाथा। "उचि मुत्तूण कलं, दव्वाइकमागयं च उक्करिसं / बाड न० (बाट) एकधान्यनिष्पन्ने लोकप्रसिद्ध खाद्यभेदे, ध०२ अधि०। निवडिअमपि जाणतो, परस्स संतं न गिणिहज्जा / 1 // " बाढ त्रि० (बाढ) घनीभूते, "गाढ गाढ़ बलियं, धणियं दढं अइसएण उचित कल्लाशतं प्रति चतुष्फपञ्चकवृद्ध्यादिरूपा 'वयाजे स्याद् द्विगुणं अचत्थ।" पाइ०ना०६०गाथा। वित्तम्" इत्युक्तेर्द्विगुणद्रव्ये त्रिगुणधान्याऽऽदिरूपा वा ता, तथा-द्रव्यं बाण (देशी) सुभग-पनसयोः, दे० ना०६ वर्ग 97 गाथा। गणिमधरिमाऽऽदि, आदिशब्दात्तत्तद्गताने कभेदग्रहः, तेषां द्रव्याऽऽदीनां बाणिज्जन० (बाणिज्य) बणिग्जनोचिते, तं० / क्रयविक्रयस्वरूपे (प्रव०६ क्रमेण द्रव्यक्षयलक्षणेनाऽऽगतः संपन्नो य उत्कर्षोऽर्थवृद्धिरूपस्तं मुक्त्वा द्वार। ध०) व्यापारे, ध० / बणिजां बाणिज्यमेव मुख्यवृत्तयाऽर्थार्जनो शेषं न गृण्हीयात, कोऽर्थ ? यदि कथञ्चित्पूगफलाऽऽदिद्रव्याणां क्षयाद् पायः श्रेयान् / पठ्यतेऽपि 'महुमहणस्स य वच्छे, न चेव कमलायरे द्विगुणाऽऽदिलाभः स्यात्तदा तमदुष्टाऽऽशयतया गृण्हाति न त्वेतचिन्तयेसिरी वसई / किं तु पुरिसाण ववसायसायरे तीरसुहडाणं / / 1 / / " त्सुन्दरं जातं यत्पूगफलाऽऽदीनां क्षयोऽभूदिति / तथा निपतितमपि वाणिज्यमपि स्व सहायनीबीबलस्व-भाग्योदयकालाऽद्यनुरूपमेव परसत्कं जानन्न गृह्णीयात्, कलाऽन्तराऽऽदौ क्रय-विक्रयाऽऽदौ च देशकुर्याद् अन्यथा-सहसा त्रुट्याद्यापत्तेः / वाणिज्ये व्यवहारशु द्धिश्च कालाऽऽद्यपेक्षया य उचितः शिष्टजनानिन्दितो लाभः स एव ग्राह्यः। ध० द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुतित्रा द्रव्यतः दञ्चदशकाऽऽदानाऽऽदि 2 अधि० / (परवञ्चने का हानिरिति 'परवंचण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे बह्वारम्भाऽऽदिनिदानं भाण्डं सर्वाऽऽत्मना त्याज्यं, स्वल्पाऽऽरम्भ एष 545 पृष्ठे दर्शितम्) वाणिज्ये यतनीयम्, दुर्भिक्षाऽऽदावनिर्वाह तु यदि बह्वारम्भं खरकर्मा बाणियकम्मंत न० (बाणिजकान्त) यत्र वाणिज्यार्थ बहवो मिलन्ति ऽऽद्यप्याचरति, तदाऽनिच्छुः स्वं निन्दन सशूक्रतयैव करोति। लोकास्तादृशे स्थाने, दशा० 10 अ०। यदुक्तं भावश्रावकलक्षणे बाणियग पु० (बाणिजक) बणिजि, प्रश्न० 2 आश्र0 द्वार / आचा०। "वल्लइ तिव्वाऽऽरंभ, कुणइ अकामो अनिव्वहंतो च / बृ०। 'पिहुडे ववहरंतस्स, बाणियओ देइ धूयर / ' 'उत्त० 21 अ० / थुणइ निरारंभजणं, दयालुओ सध्वजीवेसु / / 1 / / कल्प० / आ० म०। धन्ना य महामुणिणो, मणसा वि करति जे न परपीड। बाणियग्गाम पुं० (वाणिजग्राम) दूतीपलाशकचैत्योपशोभिते मगधदेशीये आरंभपावविरया, भुंजंति तिकोडिपरिसुद्धं / / 2 / / " नगरे, भ० 11 श० 3 उ० / निश्चयाद् द्वादशवर्षारात्रान् (कल्प०१ अदृष्टमपरीक्षितंच पण्यं न स्वीकार्य, समुदितंशङ्काऽऽस्पदं च समुदितैरेव अधि०६क्षण / आ० चू०) यत्रोज्झितकपुत्रा आसीत् (स्था० 10 ठा० / ग्राह्य, न त्वेकाकिना, विषमपाते तथैव सहायकऽऽदिभावात् / क्षेत्रतः आ०म० / विपा०) आनन्दनामा श्रमणोपासकश्चा सीत्। उपा०१ अ० स्वचक्रपरचक्रमान्द्यव्यसनाऽऽद्युपद्रवरहिते धर्मसामग्रीसहिते च क्षेत्रो आ० चू० व्यवहार्य, न त्वन्या बहुलाभेऽपि कालतोऽष्टाहिकात्रयपर्वतिथ्यादौ / बाणियधम्म पुं० (वणिगधर्म) बणिग्न्याये, बृ०। ('अट्ठजाय' शब्दे व्यापारस्त्याज्यः, तथा वर्षाऽऽदिकालविरुद्धोऽपि व्यापारस्त्याज्यः, प्रथमभागे 241 पृष्ठे एको वणिग्नयाय उदाहृतः) भावतस्त्वनेकधा क्षत्रियऽऽदिभिः सायुधैः सह व्यवहारः स्वल्पोऽपि प्रायो बाणी स्त्री० (बाणी) बचने, दश०७ अ०। न गुणाय, उद्धारके च नटविटाऽऽदिविरोधकारिभिः सह न व्यवहार्य, कलाऽन्तरव्यवहारोऽपि समधिकग्रहणकाऽऽदानाऽऽदिनैवोचितोऽन्यथा बादर त्रि० (बादर) अतिबहलतरे, जी०३ प्रति 4 अधि० / भ० / नि० तन्मार्गणाऽऽदिहेतु क्लेशविरोधधर्महान्याद्यनेकानर्थ प्रसङ्गात् चू० / बादरनामकर्मो दयाचक्षुर्गाह्यतां गते पृथिवीकायाऽऽदौ, प्रज्ञा०१ अनिर्वहस्तु यदि उद्धारके व्यवहरति, तदा सत्यवादिभिरेव सह, पद। प्रश्न०। पा० / स्थूरे, आ० / येषां बादरः परिणामः / स्था० 2 ठा० 3 उ०॥ कलाऽन्तरमपि देशकालाऽऽद्यपेक्षयैकद्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकवृद्धयादिरूप विशिष्टजनानिन्दितमेव ग्राह्यां, स्वयं वा वृद्ध्या धने गृहीते अधोलोकाऽऽदिषु बादराः। बादरजीवकायान् प्ररूपयन् सूत्रात्रयमाह - तद्दायकरस्यावधेः प्रागेव देयं, जातु धनहान्यादिना तथाऽशुक्तोऽपि अहेलोगे णं पंच बादरा पण्णत्ता / तं जहा-पुढविकाइया, शनैश्शनैस्तदर्पण एव यतते, अन्यथा विश्वासहान्या व्यवहारभङ्ग प्रसङ्गः। / आउकाइया, बाउकाइया, वणस्सइकाइया, उराला तस. Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादर 1312- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बारसंगी पाणा / उड्डलोगे णं पंच बादरा एए चेव / तिरियलोगे णं पंच दर्शयति, विचित्रत्वात्कर्म शक्तरिति / कर्म०१ कर्म०। पं० सं०। पं० बायरा पण्णत्ता।तं जहा-एगिदिया जाव पंचिदिया। सं०।प्रव०। "अहे" इत्यादि सुगमम्, नवरमधऊर्ध्वलोकयोस्तैजसा बादरा न बादरणिगोयदव्ववग्गणा स्त्री० (बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा) बादरनिगोदजीसन्तीति पञ्चैते उक्ताः, अन्यथा षट् स्युरिति, अधोलोकग्रामेषु ये बादरा वानामौदारिकतैजसकार्मणेषु शरीरनामकर्मसु प्रत्येकं ये जीवानन्तगुणाः स्तैजसास्तेऽल्पतया न विवक्षिताः, ये चोर्द्धकपाटद्वये ते उत्पत्तुकाम पुद्गलाः विस्रसापरिणामेनोपचयमायान्ति। तेषु, पं० सं०५ द्वार।क० प्र०। त्वेनोत्पत्तिस्थानास्थितत्वादिति। (उराला तस त्ति) त्रसत्वं तेजोवायु बादरबोंदिपुं० (बादरबोन्दि) बादरा बोन्दिः शरीर येषा ते बादरबोन्दयः। ष्वपि प्रसिद्धमस्ततद् व्यवच्छेदेन द्वीन्द्रियाऽऽदिप्रतिपत्त्यर्थमोराल बादरनामकर्मोदयवर्तिषु जीवेषु, बृ०१उ०३ प्रक० / ग्रहणम, ओरालाः स्थूला एकेन्द्रियापेक्षयेति, एकमिन्द्रियं करण स्पर्श- बादरबोंदिधर पुं० (बादरबोन्दिधर) पर्याप्तत्वेन स्थूलाऽऽकार धरे, लक्षणमेकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयात्तदावरणक्षयोपशमाच येषां ते / बादराऽऽकारधारिणि, म०५८ श० 4 उ० / सू० प्र० / स्था०। एकेन्द्रियाः पृथिव्याऽऽदयः एवं द्वीन्द्रियादयोऽपि, नवरमिन्द्रियविशेषो | बादरसंपराय पुं० (बादरसम्पराय) बादरा अकिट्टीकृताः सम्परायाः जातिविशेषश्च वाच्य इति एकेन्द्रिया इत्युत्कमिति / स्था० 5 डा० 3 सज्वलनक्रोधाऽऽदयो यस्मिन् सः। स्था० 8 ठा० / सङ्ख्येयानि उ०। (बादराः पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायाः पृथिव्यादिशब्देषु) असारे, लोभखण्डान्युपशमयति। आ० म०१ अ०। अनिवृत्तिबायराऽऽख्यनज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। वमगुणस्थानवर्त्तिजीवे, स०१४ सम०। उत्त०। एयस्सणं भंते! पुढवीकाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयस्स बायरअपज्जत्तपुं० (बादराऽपर्याप्त) 'बादरअपजत्त' शब्दार्थे, स०१३ सम०। वाउकाइयस्स वणस्सइकाइयस्स कयरे काए सुव्वबादरे, कयरे बायरणाम न० (बादरनाम) 'बादरणाम' शब्दार्थे, कर्म०१ कर्म०। काए सव्वबादरतराए ? गोयमा ! वणस्सइकाइए सव्वबादरे, बायरणिगोयदव्ववग्गणा स्त्री० (बारदनिगोदद्रव्यवर्गणा) 'बादरणिगोयदवणस्सइकाइए सव्वबादरतराए ? एयस्स णं भंते ! पुढवीकाइ- व्ववग्गणा' शब्दार्थे, पं० सं० 5 द्वार। यस्स आऊकाइयस्स तेऊकाइयस्स वाउकाइयस्स कयरे बायरबोंदिपुं०(बादरबोन्दि) 'बादरबोदि शब्दार्थे, बृ०१ उ० 3 प्रक०। सव्वबादरे, कयरे काए सव्वबादरतरा ? गोयमा ! पुढवीकाइए | बायरबोदिधर पुं० (बादरबोन्दिधर) 'बादरबोंदिधर' शब्दार्थे, भ० 18 सव्वबादरे पुढवीकाइए सव्वबादरतराए 2 / एयस्स णं भंते ! श० 4 उ०। आऊकाइयस्स तेऊकाइयस्स वाउकाइयस्स कयरे काए बायरसंपराय पुं० (बादरसम्पराय) बादरसंपराय' शब्दार्थे स्था०८ ठा०। सव्वबादरे, कयरे काए सव्वबादरतराए ? गोयमा ! आउकाइए बायालीस स्त्री० (द्वाचत्वारिंशत्) व्यधिकायां चत्वारिशतसडख्यायाम, सव्वबादरे, आउकाइए सव्वबादरतराए 3 / एयस्स णं भंते ! कल्प०१ अधि०१क्षण। तेऊकाइयस्स वाउकाइयस्स कयरे काए सव्वबादरे, कयरे काए बार नं० (द्वार) "सका लवरामव (च)न्द्रे" ||चा२७६।। इति क्वचित्पसव्वबादरतराए ? गोयमा ! तेऊकाए सव्वबादरे, तेऊकाए | र्यायेण (कलमच बारं। टार गहमरखे पापाट। सव्वबादतरतराए। भ० 16 श० 3 उ०। बारत्तगपुं०(बारत्रक) बास्त्रकपुरराजस्याभयसेनस्यामात्ये. बृ०१ उ० बादरअपज्जत्त पुं० (बादराऽपर्याप्त) बादरत्ववति अपर्याप्तावस्थाऽऽपन्ने 1 प्रक० / आ० चू०। नि० चू०। पिं०। (बास्त्रकामात्यस्य प्रवज्याग्रहणम् जीवे, स०१ सम०। 'छड्डिय' शब्दे तृतीयभागे 1346 पृष्ठे उत्कम्) बादरणाम न० (बादरनामन) नामकर्मभेदे, यदुदयाजीवा बादरा भवन्ति, बारत्तगपुर न० (बारकपुर) बास्त्राकामात्याधिष्ठिते, नगरे आव० 4 अ०। बादरत्वं च परिणामविशेषः / कर्म० / न चक्षुर्ग्राह्यत्वमिष्ठ बादरस्याप्येकै- बारवई स्त्री० (द्वारावती) सौराष्ट्रदेशराजधान्याम्, यत्रा कृष्णो वासुदेव कस्य पृथिव्यादिशरीरस्य चक्षुर्गाह्यत्वाभावात्तस्माजीवविपाकित्वेन आसीदरिष्टनेमिश्च / नि०१ श्रु०३ वर्ग 1 अ० / आ० म०। सूत्रा० / जीवस्यैव कञ्चिद्भादरपरिणाम जनयत्त्येतन पुद्गलेषु, किंतु जीवविषा- प्रव० / आ० क० / अन्त० / आ० चू०। ('णिसढ' शब्दे चतुर्थभागे क्यप्येतत् शरीर पुद्गलेष्वपि काञ्चिदप्यभिव्यक्तिं दर्शयति। तेन बादराणां 2136 पृष्ट वर्णक उक्तः) बन्तरसमुदितपृथिव्यादीनां चक्षुषा ग्रहणं भवति, न सूक्ष्माणा ........ बारस त्रि० (द्वादशन्) व्यधिकेषु दशसु, औ०। उत्त०। जीवाविपाकिकर्मणः शरीरे स्वशस्किप्रकटनमयुक्तमितिचेत् / नैवं, * द्वादश त्रि० द्वादशसडख्यापूरके, औ०। जीवविपाक्यपि क्रोधो भूभङ्गत्रिबलीतरङ्गितालिकफलकक्षरत्-स्वेदज- बारसंगी स्त्री० (द्वादशाङ्गी) द्वादशानामङ्गानां समुदायरूपे लकणनेत्राऽऽद्यातामत्वपरुषवचनवेपथुप्रभृतिविकार कुपितनरशरीरेऽपि | प्रवचने, विशे० नैषा द्वादशाङ्गी कदाचिन्नासीत्. न कदाचि -- Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसंगी 1313- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बाल न भवति, न कदाचिन्न भविष्यति, भूता भवति भविष्यति च धुवा नित्या शाश्वती। दशा० 10 // बारससमञ्जियपुं० (द्वादशसमर्जित) एकत्र समये ये समुत्पद्यन्ते तेषां यो राशिः सद्वादशप्रमाणः स्यात् तेषु। उत्पतौ द्वादशवृन्दपिण्डितेषु, भ०२ श०१० उ०। बारसावत्तन०(द्वादशावत) द्वादशाऽऽक्र्ताः सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा यरिंमत वादशाऽऽवतम्। स०१२ सम० / द्वादशभिः कायव्यापारैर्युक्त कृतिकर्मणि, प्रव०२ द्वार। आव०। ध०। बारसाहपु० (द्वादशाऽऽख्य) द्वादशानामहां समाहारे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। बारसाहदिवसपुं० [ द्वादशा(ख्य)हदिवस] द्वादशानां पूरणो द्वादशः, स एवाऽऽख्यो यस्य य द्वादशाऽऽख्यः / स चासौ दिवसश्चेति विग्रहः / अथवा--द्वादशं च तदहश्चेतिद्वादशाहः। तन्नामको दिवसोद्वादशाहदिवसः। स्था०६ ठा0। द्वादशाऽऽख्यो दिवसो द्वादशाऽऽख्यदिवसः / अथवा द्वादशानामहां समाहारः द्वादशाहस्तस्य दिवसो, येनद्वादशाहः पूर्यते। जन्मदिनाद द्वादशेऽति "बारसाहदिवसे अयमेयारूवं गोणं गणनिष्फन नामधिज करेंति।" स्था०६ ठा० भ०। बारसी स्त्री० (द्वादशी) पक्षस्य द्वादशेऽहोरात्रो, विशे०। ज्यो०। द०प०। पुराणेषु द्वादशीशब्देनैकादशी उच्यते। स्था० 1 ठा०। बारह त्रि० (द्वादशन्) "क-ग-च-ज-त-द-प-य-0"।। 8.1 / 177 / / इत्यादिना दलुक् / प्रा०१ पाद। "संख्यागद्दे रः" / / 1 / 216 / / इति दस्य रः / व्यधिकेषु दशसु, प्रा०१पाद / बालपुं० (बाल) अभिनवप्रत्यग्रे, सूत्र०१श्रु०५ अ०१उ०।अचिरकालजाते, रा०। जन्मत आरभ्याष्टौ वर्षाणि यावद् शिशौ, ध०३ अधि०। ग० / प्रव० / पिं० / नि० चू० / विशे०। पं० चू० / 'आ षोडशाद् भवेद् बालो, यावत्क्षीरान्नवर्तकः। "आचा० 1 श्रु०२अ०१ उ०। सूत्रा०। बालप्रवज्या। बाल त्ति दारस्स इमा वक्खाणगाहा - तिविहो य होति बालो, उक्कोसो मज्झिमो जहण्णो य। एतेंसि पत्तेयं, तिण्हं पिपरूवणं वोच्छं॥२२७|| तिविहबालस्स पत्तेयं इमं वक्खाणं - सत्तऽट्ठगमुकोसो, छप्पण मज्झो तु जा चतु जहण्णे। एवं वयणिप्फणं, भावे उ वयाणुवत्ती वा / / 228 / / जम्मणतो सत्तऽवरिसो जो सो उक्कोसो बालो, छपंचवरिसो मज्झिमो, एगाऽऽदि जाव चउवरिसो एस जहण्णो / एयं वा लत्तं वततो निष्पन्नं प्रायसो भावे वताणुवत्ती भवति, वासबो वयोणाणुवत्तत्ति / / 228|| कह? जहा बालो सबालभावो / करगगाहा / अहवासद्दतो णव भेदोजहन्नजहन्नो, जहन्नमज्झो, जहण्णुक्कोसो। एवं मज्झुक्कोसेसु वि तिन्नि तिन्नि भेदा वत्तव्वा इमं तिविह बालकरण लक्खणं च उक्कोसो गाधा। उक्कोसो दट्ठणं, मज्झिमओ वा निवारितो संतो। जो पुण जहण्णवालो, हत्थोवाचितो विण विंठाति / / 226 / / जं पुण ते वारिता करेंति तं केरिसं ? गाहाछिदंतमछिंदंता, तिण्णि वि हरिताऽऽदि वारिता। उक्कोसा जति छिंदति, तणाणि पुण ठाति तो दिट्ठा // 230 // आदिसद्दातो पुढवादिसु आलिंण्णसिंचणतावणवीयणसंघट्टणाऽऽदि दहव्वा / उक्कोसो जति तेसु छेदणाऽऽदिसु पयट्टतितो गुरुणा अण्णेण वा दिट्टमेत्तो चेव अवारिओठायति / मज्झिमो पुण यदावारितोतदा टायति / जहण्णवालो जदा हत्थे घेत्तुं धरितो तदा ठायति, तहा वि वामहत्थेणं छिदति, पादेण वा। इयाणिं ते केरिस बाले मेरं करेंति, तिविहं बालल क्खण च भण्णतिमंडलगम्मि वि चरितो, एवं वा चिट्ठ चिट्ठति तहेव। मज्झिमओ मा छिंदसु, ठाइति ठाणं ण हिं चिट्टे॥२३१।। मंडल मा लिह त्ति मेरं अलंघित्ता एत्थ चिट्ठइत्ति भणितो ठिया निसन्ना निव्यिन्ना वा / हरिताऽऽदि वा अछिंदता उक्कोसो जहेब भणितो तहेव ठिलो। मज्झिमो वि हरिताऽऽदि छिंदतो जदा वारितो तदा चिट्ठति / मंडले विनिरुद्धो मेरे लंधित्तु पासे ण चिट्ठति, इमो जहण्णो। गाहादाहिणकरम्मि गहितो, वामकरणं स छिंदति तणाणि / न य ठाति तहिं ठाणे, अह रुन्भति विस्सरं रुयति // 232 / / हरिताऽऽदिसु पुव्वद्धं गतार्थ / जहन्नवालो मंडलेणं निरुद्धणं तम्मि मंडलठाणे च चिट्ठति, पाएण वा मंडलं भंजेति। अह बालो रुज्झति मंडले तो चड़प्फडंतो विस्सरं रोयति / / एसेवत्थो इमाए गाहाए भण्णति-- जह भणितो तह तु ट्ठिय, पढमो वितिएण फेडियं ठाणं / ततिओ ण ठाति ठाणे, एस विही होति तिण्हं पि॥२३३।। कंठा। एस तिण्ह विबालाणं सरूवे विपरूणाविही वक्खाआ इमं तिविह बालं जो पटवावेति तस्सं सिक्खावेंतस्स असिक्खाविंतरस वा इम पच्छित्तं। गाहा - अउणत्तीसा वीसा, एगुणवीसाय तिविहें बालम्मि। पढमें तवों वितिएँ मीसो, ततिए तव एम मूलं च / / 234|! उकोसवाले अउणतीसा, मज्झिमे धीसा, जहण्णे एगूणवीसा। पढ़म त्ति उक्कोसे जदा सव्वे तवट्टाणगता तया तेसु चेव ठाणेसु छेदो पयट्टेति, वितिए मज्झिमे तवछेदो जुगवं गच्छति, एयं मीसं भण्णति / ततिए त्ति जहण्णेण तवो चेव केवलो भवति, पव्वावेतस्स वा मूलं चेव।। उक्कोसवालस्स अउणत्तीसं तिज वुत्तं तस्सिमा चारणविही एगुणतीसं दिवसे, सिक्खार्वेतस्स मासियं लहुयं। उक्कोसगम्मि बाले, ते चेव असिक्खणे गुरुगा / / 235 / / अण्णे अउणत्तीसं, गुरुओ सिक्खमसिखे य चउलहुगा। पुणरवि अउणत्तीसं, लहुगा सिक्खेतरा गुरुगा / / 236 / / अण्णे वि अउणतीसं, गुरुगा सिक्खे असिक्ख छल्लहुगा / छल्लहुगा सिक्खम्मी, असिक्ख गुरुगा अउणतीसं॥२३७।। एमेव य छेदादी, लहुगा गुरुगा य होंति मासादी। Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल 1314 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बाल - - सिक्खावेंतमसिक्खे, मूलक्कदुर्ग तहेक्कं // 238|| एतेसिं चउण्णं गाहाणं इमा सवित्थरा बक्खाणभावणा-उक्कोसगबालं पव्वावेत्ता सिक्खावेंतस्स एगूणतीसं दिवसा मासलहू, असिक्खावेतस्स मासगुरु, अन्ने एगूणतीसं दिवसे सिक्खावेतस्स मासगुरु, असिक्खावेंतस्स चउलहू अन्ने एगूणतीसं सिक्खावेंतस्स चउगुरू, अन्ने एगूणतीसं दिवसे सिक्खातस्स चउगुरू, असिक्खावेंतस्सछल्लहू-अन्ने एगूणतीस दिवसे सिक्खावेतस्स छल्लहू, असिक्खावेंतस्स छगुरू, अन्ने एगुणतीसं दिवसे सिक्खावेतस्स छग्गुरु, असिक्खावेतस्स मासलहू छेदो, अन्ने एगूणतीसं दिवसे सिक्खावेंतस्स मासलहू छेदो , असिक्खावें तस्स मासगुरू छेदो, अन्ने एगुणतीस दिवसे सिक्खावेंतस्स मासगुरू छेदो, असिक्खावेंतस्स चउगुरू छेदो। अन्ने एगूणतीसं दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहू छेदो, असिक्खावें तस्स चउगुरू छेदो, अन्ने एगूणतीस दिवसे सिक्खावें तस्स चउगुरु छेदो, असिक्खावेतस्स छल्लहू छेदो, अन्ने एगूणतीसं दिवसे सिक्खावेंतस्स छल्लहू छेदो, असिक्खावें तस्स छग्गुरू छेदो 2 / अन्ने एगूणतीसं दिवसे सिक्खावें तस्स छग्गुरू छेदो, असिक्खवेंतस्स एगदिणे मूलं, ततो सिक्खावेंतस्स एगदिणे मूलं, ततो असिक्खावेंतस्स एगं दिणं अणवटुं, ततो सिक्खवेंतस्स पारंची। अहवा एसेव गमो, दिणाहि सिक्खेतरवजितो होति। मासादी तव छेदो, पणगादीए दिक्केक्कं / / 236 / / अहवा उक्कोसेण बालस्स तवो मासादी चेव छेदो पुण लहु-गुरुगो पणगादी तावणेयव्या जाव छम्मासे सिक्खासिक्खेसु मूलादिया एकेकदिण बहु / गाहाअहवा एसेव तवो, छेदो पणगादितो लहू गुरुगा। जाव च्छम्मासेण उ, तत्तो मूलं दुगं चेव / / 240 / / अथवा उक्कोस बालंपवावेतस्स अउणतीसं दिवसे मासलहुं तवो, अन्ने अउणतीसं दिवसे मासगुरू तवो एवं अउणतीस अछडुंतेहिं चउलहुगा चउगुरू छल्लहू छग्गुरू छेदाय नेयव्वा, मूलादी एके दिणं, एत्थ सिक्खा असिक्खा या न कायव्वा। गाहामज्झिम वीसं लहुगो, सिक्खमसिक्खस्स मासिओ छेदो। अण्णे वीसं लहुओं, छेदेतर मासकं चेव // 241 / / अण्णे वीसं सिक्खे, मांस गुरुया व अस्सिक्खे। छेदो वा गुरुओ वा, सिक्खम्मी चेव चउलहुगा॥२४२।। एवं अद्धोकंती, नेयव्वा जाव छग्गुरुच्छेदो! तेण परं मूलेक्कं , दुगं च एक्के कयं जाण // 243 // अहवा सिक्खाऽसिक्खे, तवछेदा मासियादिजा लहुगां। एवं जा छम्मासा, मूलदुगं वा तहिक्किक्कं / / 244 / / दो लहुया दो गुरुया, तव छेदो जाव हों ति छग्गुरुगा। तेण परं मूलेक्कं, दुगं च एक्कक्कयं जाण // 245 / / एतेसिं दोण्हं गाहाणं इमा भावणा-मज्झिमं पव्वावेत्ता वीस दिवसे, सिक्खावेंतस्स मासलहू तवो, असिक्खावेंतस्स मासलहू छेदो, अन्नं वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स मासगुरू तवो, असिक्खायेंतस्स मासगुरू छेदो, अन्ने वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स मासगुरु छेदो, असिक्खावेंतस्म चउलहू छेओ, अन्ने वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहू छेदो असि-- क्खावें तस्स चउगुरू तवो। एवं अद्धोक्कतीए तवछेदाणेयव्या जाव छग्गुरू छेदो, ततो सिक्खाऽसिक्खासु मूलाऽणवठ्ठपारंचिया एक्कक्कदिण नेयध्वा / अहवा-मज्झिमे अन्ने वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहू तवो, अण्णे वीस दिवसे सिक्खावेंतस्स चउलहू तवो, असिक्खायेंतस्स चउलहू छंदो, असिक्खा-वेंतस्स छल्लहू तवो, अन्नेवीसं दिवसे सिक्खावेंतस्स छल्लहू तवो, अन्ने वीसं दिवसे सिक्खावेंतस्स छल्लहू छेदो , असिक्खावेंतस्स एगदिणं मूलं सिक्खावेंतस्स एगं दिणं मूलं, असिक्खावेंतस्स एगं दिणं अणवट्ठो, ततो सिक्खावेंतो एग दिणं अणवट्ठो, असिक्खाते पारंची, ततो सिक्खावेंते एग दिणं पारची। ___ इयाणिं जहण्णो वीसं गाहा - एगुणवीस जहण्णे, सिक्खावेंतस्स मासिओ छेदो। सो चेव असिक्ख गुरू, अद्धक्कंतीऍ जा चरिमं / / 246 / / अहवा पढमे छेदो, तद्दिवसं चेव मूलं वा / एमेव होइ वितिए, ततिए पुण होइ मूलं तु // 247 // जहन्नं पव्वावें तो एगूणवीस दिवसे सिक्खावेंतस्स मासलहू छेदो, असिक्खावेंतस्स मासगुरू छेदो, अण्णे एगूणवीस दिवसे सिक्खावेतस्स मासगुरू छेदो, एवं छेदो अद्धोकंतीए णेयव्यो, मूलं अणवढं पारंचिया एककदिणं णेयव्वा / अहवा-उक्कोसबालं पव्वावेंतस्स छेदो भवति, मूल वा एवं वितिए वि मज्झिमे; जहन्ने पुण मूलमेव / चोदकाऽऽह - कहं छेदो मूलं वा ? आचार्यऽऽह - यदि चरणसंभवो ततः छेदो, चरणाभावे मूलं, जधन्ये पुण चरणाभाव एव, तेन मूलं। विविधं बालं पव्वावें तस्स आणादिया इमे दोसा उड्डा हाऽऽदी-- बंभस्स तु चरमफलं, अयगोलो चेव हों ति छक्काया। राईभत्ते चारय, अयसँऽतराए य पडिबंधा।।२४८|| तं बालं दट्ठ अतिसयक्यणेण भणंति गिहिणो अहो इमेसि समणाणं इहभवे चेव बभवयस्स फलं दीसति, अहवा-एतेसिं चेव जणिओ क्ति संकाए चउगुरु, निस्संकिते मूलं / अयगोलोविव अगणिपक्खित्तो सुधंतो अगणिपरिणतो जतो जतो छिप्पइ ततो ततो डहति, एवं सो बालो अयगोलसमाणो मुक्को जतो जतो हिंडति ततोततो छक्कायवहो य भवति। सो य राओ भत्तं पाणं ओभासति, जति राओ देति तो रातीभोयणं विराथितं, अध ण देति तो परियावणाणिप्फण्णं / भणति य लोगोइमस्स बालत्तणे चेव बंधणागारो उववन्नो, इमे य समणा चारपालत्तण करेंति, जेण एवं बालं निरुभंति / अयसो य अध णिरांभंति अयसोणिरणुकंपा समणा, बला य बाले णिरुभति, अंतराय भवति, बालपडिबंधेण य ते ण विहरति जे णितियवासे दोसा ते वा भवंति। Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल 1315 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बाल - किंचान्यत् गाहाऊणट्ठ णत्थि चरणं, पव्यावें तो वि भस्सते चरणा। मूलावरोहिणी खलु, णारभती वाणिओ बेधं|२४६।। ऊण?वरिसे बाले चरितं न विजति, जो वि य पव्वावेति से णियमा चरित्ता भस्सति। अत्र प्रतिषेधद्वारेण दृष्टान्तः जहा लोभत्थी वणिओ मूलं जेण तुट्टति तारिसं पण्णे णो किणाति, जत्थ लाभयं पिच्छति तं किणति, एवं जे चरित्तातो भरसंतितेन पव्वावेइ, जेण भस्सतितंपव्वावेति। बालं पय्यावेंतस्स य जम्हा इमतवोकम्म भस्सति तम्हा न पटवावेतिउग्घायमणुग्घायं, णाऊणं छव्विहं तवोकम्म। तवगुणक्खणमेयं, जिणचउदसपुट्विएहिं खु॥२५०।। लहू उग्घायं गुरू अणुग्घात, एतेहिं दोहि भेदेहिं छविधं तवोकम्मं भवति / कहं पुण छव्यिह ? भण्णति गाहाउग्घायमणुग्घाओ, मासो चउमास छव्विह तवो उ। एसेव छविहो बी, छेओ सेसाण एके कं // 25 // मग्घातो 2, एवं चतुमासछम्मासादि उग्घाताणुग्घातादि एवं छव्यिह तवोकाम, छेदो वि एसो चेय छव्विहो, सेसा मूलादिया एकेका भवंति, तप आत्मको गुणः, तप एव वा गुणः तपोगुणः, तपोगुणस्य लक्षणं तपोलक्षणं, लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, मासेनोपलक्षितः मासिकलक्षणः तपः / एवं चतुर्मासषड्मासेष्वपि, एतदेव षड्विधं तपोगुणलक्षणं बालप्रवाजने भवति, न पञ्चकाऽऽदिरित्यर्थः / बितियपदेण बालो पव्वाविञ्जति 'जिणचोद्दसपुच्चीए दिक्ख त्ति / ' अस्य व्याख्यापव्वार्वे ति जिणा खलु, चोद्दसपुव्वीय जो य अइसेसी। एए अव्ववहारी, गच्छगए इत्थिमो नाओ // 252 / / जिणा चोदसपुव्वी अतिसेसी वा पव्वावेति / शिष्याऽऽह - अम्हं एते अव्ववहारी जहा गच्छगता पव्वावेति तथा मे अक्खह के वा जिणादीहिं पव्वाविता? अतो भन्नति। गाहासत्त्थाए अइमुत्तो, मणओ सेजंभवेण पुध्वविदा। पध्वाविओय चोरो, छम्मासो सीहगिरिणा वि॥२५३।। उवसंते व महाकुले, णातीवग्गे विसण्णिसेज्जतरे। अजाकारणजाते, अणुण्णाया य पव्वज्जा / / 254 / / शास्ता तीर्थकरः, तेण अतिमुत्तकुमारो पव्वावितो, चोद्दसपुव्वविदेण सिशंभवेण पुत्तो मणगो पव्वावितो, अवितह-णिमित्तं अतिसयद्वितेण सीहगिरिणा चोरो पव्वावितो, बालपटवायणे इमं गच्छवासिकारणउवसंते वि महाकुले नातीवग्गे। एतेसिं दोण्ह विदाराणं इमं वक्खाणं / गाहा-- विपुलकुले अस्थि बालो, णातीवग्गे य छेवगादिमते। जणवादरक्खुए सा-र वेति आसण्णबालाई // 255|| किं पि विपुल वित्थिण्णकुलं उवसंत पटवजापरिणतं, णवरं तत्थ बालपडिबन्धो, जइ अम्हएत बालं पव्यावह तोसव्वेपव्वयामो, तेवत्तव्याणियसमीवे बाल ठवेह, तुज्ञपुण पव्ययह, जति न ठवेंति णीया वाण इच्छतितो सह बालेण पव्वाविज्जति बहुगुणतरं ति काउं, मा तप्पडिबंधेण सव्वाणि अत्भुतं। अहवकरसविसाधुस्ससयणवग्गा सम्यो असिवादिणा मओ, नवरेक बालं जीवति, न यतस्स कोवि वावारवाहओ अस्थि, ताहे सो साधू अयसवादरक्खओ हेउतं बालं आसन्नं पुत्तं भातिय पव्वावेत्ता संरक्खति। गाहाएवं सन्नितराण वि, अजाए च पडिबंधपडिणीए। कजं करेमि सचिवो, जदि मे पटवावयह बालं / / 256 / / सम्मदिविसतियं बालं अणाहयं पिएवं चेव सारवें ति।तरो त्ति-सेज्जातरो, तस्स विसतियं बालं अणाहं पव्याति। अज्जा पडिणीएण कामातुरेण या केण वि बाला परिभुत्ता, तस्स य समावुत्ती, तेण डिंडिबंधी जातो, गर्भसंभवेत्यर्थः / सा य संजमत्थी न परिचइयव्वा जया परत्तया तया बालं पव्वावेयव्वं सत्यकिवत् / कारणजत्ते त्ति कुलगणसंघकज्जे अन्नम्मि वा गच्छादिए कज्जे सचिवो मंती सो भणेज्जा अहं वो तुम्हें इमं कजं करेमि, जइ मे इमं बाल अलक्खणं मूलनक्खत्तियं वा पव्यावह, ताहे पव्वावेजा। आयसद्दग्गहणातो असिक्कंताराऽऽदिसु कोवि भणेजा-अहं मे परितप्पामि, जइसे इमं बाल पव्वावेह, एमादिकारणेहिं अणुण्णाता बालपव्वजा। गच्छवासीण पटवावियाण य तेसि इमा वट्ठावणविही। गाहा भत्ते पाणे धोवणे, सारणे तह वारणे। कारणसभावातो, गाहेयव्या पयत्तेणं / / 257 / / णिद्धं महुरं रितुक्खमं च से भत्तं देति, पाणं पि से मधुरादि इ8 दिजति, रातो विभत्तपाण ठवेति, धोवणंति-अग्भंगणुव्वट्टणण्हाणंच से फासुएण कीरति, कप्पकरणेण च तेयस्सी भवति, लेवाडाति वा सव्वंसे धोवंति पडिलेहणाऽऽदि पुव्वकहितेसु अत्थेसुपुणो सारणा कजति असमायादिकरणं करेंतो हरियाई वा छिदंतो खेल्लंतो वा वारिज्जति। चरणकरणेसु यणिउज्जति, सज्झायं च पयत्तेणं गाहिज्जति। णिद्धमधुरभत्तगुणा इमे गाहा - णिद्धमधुरेहिं आउ, पुस्सति देहिंदिधा य मेहा य / अत्थंति जत्थ णज्जति, सढाऽऽइसु पीढगादीया।।२५८|| चोदकाऽऽह -- कथमायुषः पुष्टिः? आचार्याऽऽह-यथा देवकुरोत्तरकुरासु क्षेत्रस्य स्निग्धगुणत्वादायुषो दीर्घत्वं, सुसमसुसमायां च कालस्य स्निग्धत्वाद् दीर्घत्वमायुषः / तथा इहापि स्निग्धमधुराऽऽहारत्वात् पुष्टिरायुषो भवति, सा च न पुद्गलवृद्धेः किं तु युक्तग्रास - ग्रहणात. क्रमेण भोगेत्यर्थः / देहस्य च पुष्टिरिन्द्रियाणां च पटुत्वं भवति, मेधा च खीराऽऽदिणा भवति। जत्थ य सो बालो णज्जति अमुगस्स पुत्तो त्ति, तत्थ गामे नगरे देसे रज्जे वा अच्छंति, जाव महल्लो जातो, सड्ढाइ Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल 1316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बालग्ग कुले य अंतरपीणगपीठगादी सव्वं से अहाकड भवति। इत्थी वि बाली एवं | गोयामा! णेरइया बाला णो पंडिया, णो बालपंडिया / एवं वेव। बाले ति दारं गयं। नि० चू०११ उ०। बाल इव बालः / अज्ञे, सूत्र० / चउरिदियाणं / पंचिंदियतिरिक्खपुच्छा ? गोयमा ! पंचिंदिय१श्रु०१० अ०। तिरिक्खजोणिया बाला णो पंडिया, बालपंडिया वि, मणुस्सा तदेवमनिभृताऽऽत्मा किंभूतो भवतीत्याह - जहा जीवा, बाणमंतरजोइसिय वेमाणिया जहा णेरइया। अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मण्णति। (जीवाणमित्यादि) प्रागुक्तानां संयताऽऽदीनामिहोक्तानां च पण्डिताअलं बालस्स संगणं, वेरं वड्डति अप्पणो॥३॥ ऽऽदीनां यद्यपि शब्दत एव भेदो, नार्थतस्तथाऽपि संयतत्वाऽऽदिव्यपदेशः क्रियाव्यपेक्षः, पण्डितत्वाऽऽदिव्यपदेश स्तु बोधविशेषापेक्ष इति / भ० हीभयाऽऽदिनिमित्तः चेतोविप्लवो हासस्तमासाद्य अङ्गीकृत्य स 17 श०२ उ०ा ऊरणिकाऽऽदिलोमनि, अनु० केशे, प्रश्न०१आश्र० कामगृध्नुर्हत्वाऽपिप्राणिनो नन्दीति क्रीडति मन्यते, वदति च महातोहा द्वार। सूत्रा०। काश्यपगोत्रान्तर्गतगोत्राविशेषप्रवर्तक| स्था०७ ठा० / ऽऽवृतोऽशुभाध्यवसायो यथैते पशवो मृगयार्थ सृष्टाः, मृगया च सुखिनां मूर्खे, "बाला मूढा मंदा, अयाणया बालिसा जडा मुक्खा।' पाइ० ना० क्रीडायै भवति, इत्येव मृवावादादत्ताऽऽदाना ऽऽदिष्वप्यायोज्यम्, यदि 71 गाथा। नामैवं ततः किमित्याह-अलमित्यादि, अलं पर्याप्त बालस्याज्ञस्य यः प्राणातिपाताऽऽदिरूपतः सङ्गो विषयकषायाऽऽदिमयो वा तेनाइल, बालअ (देशी) बणिक्पुत्र, दे० ना०६वर्ग, 62 गाथा। बालस्य हास्याऽऽदिसङ्गेनालं, किमिति चेद् ? उच्यते-(वेरमित्यादि) बालक पुं० "नादियुज्योरन्येषाम्" / / 8 / 4 / 327 / / इति कस्य गो न पुरुषाऽऽदिबधसमुत्थं वैरं तद्बालः सङ्गाऽनुषङ्गी सन्नात्मनो वर्द्धयति, चूलिकापैशाचिके। शिशौ, प्रा०४ पाद। तद्यथा-गुणसेनेन हास्यानुषङ्गादग्निशर्माणं नानाविधै रुपायैरुपहसता बालउल्ली (देशी) पञ्चालिकायाग, दे० ना० 6 वर्ग 62 गाथा। नवभवानुषङ्गि वैर वर्द्धितम्, एवमन्यत्राऽपि विषयसङ्गाऽऽदावायोज्यम्। बालकिच्च पुं० (बालकृत्य) बालस्येव कृत्यं यस्यस बालकृत्यः। बालवदयतश्चैवमतः किमित्याह नालोचितकारिणि, सूत्रा०२ श्रु०६ अ०। तम्हाऽतिविजो परमं ति णचा, बालकीला स्त्री० (बालक्रीडा) द्यूताऽऽदिपायां, बालिशजनाऽऽचरितआयंकदंसी ण करेति पावं / क्रीडायाम्, ध००। यस्माद्वालसङ्गि नो वैरं वर्द्धते तस्मादतिविद्वान् परमं मोक्षपदं सम्प्रति बालक्रीडापरिहाररूपं पञ्चम भेदमभिधित्सुर्गाथासर्वसंवररूपं चारित्र वा सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शन वा, एतत्परमिति ज्ञात्वा पूर्वार्द्धमाह - किं करोतीत्याह--(आयंक इत्यादि) आतङ्को नरकाऽऽदिदुःखं, तद् द्रष्टु बालिसजणकीला वि हु, मूलं मोहस्सऽणत्थदंडाओ। शीलमस्येत्यात-इदर्शी, स पापं पापानुबन्धि कर्म न करोति, बालिशजनक्रीडाऽपि बालजनाऽचरितक्रीडाऽपि द्युताऽऽदिरूपा / उक्त उपलक्षणार्थत्वान्न कायरति नानुमन्यते। आचा०२ श्रु०३ अ०२ उ०। च - "चउरंग - सारि-पट्टिय-वट्टाई, लावयाइजुद्धाई / पण्हुत्तरसूत्रा० / रागद्वेषोदयवर्तिनि, सूत्र० 1 श्रु० 5 अ० 1 उ०। रागद्वेषोत्कटे जमगाई, पहेलियाईहिं नो रमइ।।१।।" इति। आसता सविकारजल्पिसूत्र०५ अ०१ श्रु०१ उ०। आचा०। रागद्वेषोत्कटचेतसि, सूत्रा०१ श्रु० तानित्यपिशब्दार्थः / हुरलङ्कारे / लिङ्ग चिहं मोहस्यानर्थदण्डत्वात् 3 अ०४ उ०। हिताहितप्राप्तिविवेकरहिते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। निष्फलप्रायाऽऽरम्भप्रवृत्तेरि हाप्यनर्थजनकत्वेन च जिनदासस्येव ।ध० हेयोपादेयविकले, उत्त० 8 अ०। सदसद्विवेक-विकले, सूत्रा०१ श्रु० 202 अधि०२ लक्ष० / ध०। 3 अ०१ उ०। जी० / उत्त०। कषायकलुषितान्तराऽऽत्मनि, सूत्रा०१ श्रु०१ अ०८ उ० / आचा० / बालिशे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / प्रथा बालकुसुमरासिपुं० (बालकुसुमराशि) अचिरकालजानानां कुमुदपत्राणां शिशवः सदसद्-विवेक-वैकल्याद्यत् किञ्चनकारिणो भाषिणो वा राशौ. रा०। भवन्ति तथा ये स्वयमज्ञाः सन्तः परानपि मोहयन्ति ते बाला उच्यन्ते। बालग पुं० (बालक) शिशौ, मूर्खे , कामिनि, तं० / गवादिबालनिष्पन्नसूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०।दर्श०। मूढे, अष्ट० 31 अष्ट०। सूत्र०ातं० / __ बालके सुघरि कागृहके, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८ उ० / गवादिस०। उत्त०। विशिष्टविवेकविकले, "बालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमबुद्धि- बालधिबालनिष्पन्नबालके, ग०२ अघि०। विचारयति सद्वृत्तम्।" षो०१ विव० / "तत्र बालो रतो लिङ्गे।" | बालगउवगृहण न० (बालकोपगूहन) 6 त० / बालका मूर्खाः कामिन बालाऽऽदिषु मध्ये लिङ्गे लिङ्ग मात्र रतो बालो लिङ्गमात्राप्राधान्या इत्यर्थः। तेषामुपगृहानानि प्रच्छन्नरक्षणाऽऽदीनि। परपुरुषाणां प्रच्छन्नरपेक्षयाऽसदारम्भत्वात् / द्वा०१ द्वा / द्रव्या०। अज्ञानाविरतिरूप ___ क्षणेषु, केशकलापना रचनासुतं०। विवेकविकले, आतु०। स०। सर्वविरति परिणामाभाववति, आ० तु०। बालग्ग न० (बालाग्र) के शानामग्रभागे, अष्टभिः रथरेणुर्देवकुरुत्त स्था०। प्रा० / अनु० / असंयते, बृ०३ उ०। कुरुमनुष्याणां सम्बन्धिकं बालागं भवति / तैरष्टभिर्हरिवर्षरम्यक एतदेव बालत्वाऽऽदि जीवाऽऽदिषु निरूपयन्नाह - मनुष्यबालागं, तैरष्टिभिर्हमवतै रण्यवत मनुष्यबालागं, तैरष्टभिः जीवा णं भंते ! बाला पंडिया बालपंडिया? गोयमा ! जीवा पूर्वविदेहापरविदेहमनुष्यबालागं, तैरप्यष्टभिर्भरतैरवत मनुष्यबालाग्रम् / बाला वि पंडिया वि बालपंडिया वि / णेरइयाणं पुच्छा ? | इह चैवं बालाग्राणां भेदे सत्यपि बालाग्रजाति सामान्यविवक्षया Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालग्ग 1317 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बालपंडियमरण बालाग्रमिति सामान्येनैकमेव सूत्रो निर्दिष्टमिति (1404 गाथा) प्रव० लोगेण जाणणानिमित्तं भेरी कया, जो देइ सोताडेइ, ताहे लोगो पविसइ, 254 द्वार / ज्यो०। अनु० / स्था०। एवं वचइ कालो, सामी समोसरितो, ताहे साहू संदिसावेंता भणियाबालग्गपोत्तिया स्त्री० (बालागपोतिका) देशीशब्दो वाऽयम् / आकाशे मुहुत अत्यह, अणेसणा, तम्मि जिमिए भणिया-ओयरह, गोयमो तडागगतमध्यस्थिते क्रीडास्थाने लघुप्रासादेचं० प्र०४ पाहु० तडाग भणिओ मम क्यणेण भणिज्जासि भो अणेगपिंडिया ! एगपिंडितो ते स्योपरि प्रासादे, जी०३ प्रति०४ अधि०। चं० प्र०।०। जलमध्य दटुमिच्छई, ताहे गोयमसामिणा भणितो रुट्ठो, तुम्भे अणेगाणि मन्दिर, उत्त०६अ०। बलभ्याम, उत्त०६अ। पिंडसयाणि आहारेइ, अहं एगं पिंड भुंजामि, तो अहं चेव एगपिंडिओ, मुहुत्तरस्स उवसतो चिंतेतिण एते मुसं वंदति, किह होज्जा ? लद्धा बालचंदपु० (बालचन्द्र) शुक्लपक्षद्वितीयाचन्द्रे, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०। सुती, होमि अणेगपिडिओ जहिवसं मम पारणयं तदिवसं अणेगाणि साकेत नगरे चन्द्रावतंसकस्य राज्ञः प्रियदर्शनायां जाते पुत्रो, आ० म० पिंडसताणि करेंति, एए पुण अकयमकारियं भुंजति, तं सच्चं भणंति, १अ०। ऐरवते प्रथमवर्तमान तीर्थकरे, प्रव०७ द्वार। आसडकृतविवेक चिततेण जाई संभरिया. पत्तेयबुद्धो जातो, अज्झयणं भासइ, इंदनागेण मञ्जा उपदेशकन्दल्याश्चोपरि टीकाकारके, अयं च ग्रन्थकार: अरहया उक्त सिद्धोय। एवं बालतवेण सामाइयं लद्धं तेण।" आ० म० विक्रम संवत्-१३२२ वर्षे आसीत्। जै० इ०। १अ०। बालचंदाणण पुं० (बालचन्द्राऽऽनन) भरतक्षेत्रजर्षभजिनसम कालिके बालतवस्सि (ण) पु० (बालतपस्विन्) लौकिकतापसे (462 गाथा) ऐरवतजे प्रथमतीर्थकरे, ति०। आ०म०१ अ०। बालचावल न० (बालचापल) एकान्ताज्ञानरक्तस्य स्वरूपानपेक्षिवचने, बालतवोकम्म न० (बालतपःकर्मन्) बाला इव बाला मिथ्यादृशस्तेषां अष्ट०१६ अष्ट। तपःकर्म। मिथ्यादृशां तपः क्रियायाम्, स्था०४ ठा०४ उ०। बालजण पुं० (बालजन) मूर्खलोके, तं०। सूत्रा०ा निर्विवेकतया ऽसदनु बालदिवायर पुं० (बालदिवाकर) प्रथममुद्गच्छति सूर्ये , स हि उदये ठानप्रवृत्ते, सूत्रा०१ श्रु०२ अ०३० उ०! मूर्ख , उत्त०२० अ०। रक्तो भवतीति बालपदोपादानेन रक्तवस्तूपमानत्वेन वर्ण्यते / जं० बालण्ण पुं० (बालज्ञ) बलं जानातीति बलज्ञः / छान्दसत्वाद्दीर्घत्वम्। वक्षनरा० जी०। आत्मबलसामर्थ्यज्ञ, यथाशक्त्यनुष्ठानविधायिनी अनिगूहितबलवीर्ये, बालपंडिय पुं० (बालपण्डित) अविरतत्वेन बालत्वात् विरतत्वेन च आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। पण्डितत्वात् बालपण्डितः / संयताऽसंयते, स्था० 3 ठा० 4 उ० / बालतवन० (बालतपस्) बालं तपो यस्य स बालतपाः।अनधिगतपरमार्थ देशविरते, अनु० / सूत्र०। बृ० / बालपिण्डतोभयव्यवहारानुगतत्वात् स्वमावे दुःखगर्भमोहगर्भवैराग्याज्ञानपूर्वकनिर्वर्तिततपःप्रभृतिकष्टविशेष देशविरतिसामायिके विशे० / सर्वविरतिपरिणामाभावात् बालं मिथ्यादृष्टौ, कर्म०१ कर्म० / बालतपसालाभे दृष्टान्त :-"वसंतपुर नगर, स्थूलप्राणातिपाताऽऽदिवि रमणाच पण्डितं बालं तच तत्पण्डितं च तत्थ सेट्ठिघर मारीए उस्साइय, तत्थ इंदनागो नाम दारओ, सो गिलाणो बालपण्डिततदयोगान्मरणमपि बाल पण्डितम्। बालपण्डितमरणे,आतु०॥ पाणियं मग्गइ जाव सव्वाणि मयाणि पेच्छइ / दारं पि लोगेण कंटियाए बालपंडियमरण न० (बालपण्डितमरण) श्रावकमरणे, प्रव०। ढक्कियं ताहे सो सुणइयछिड्डएण निग्गतूण तम्मि नगरे कप्परेण भिक्खं जाणीहि बालपंडिय- मरणं पुण देसविरयाणं / हिंडइ, लोगो से देइ भूयपुटवे त्ति काउं एवं सो संवड्डइ। इतो य एगो सत्थवाहो रायगिह जाउकामो घोसणं घोसावेइ तेण सुयं, सत्थेण समं जानीहि बालपण्डितमरण मिश्रमरणं, पुनः शब्दः पूर्वापेक्षया पस्थितो, तत्थ तेण सत्थे कूरो लद्धो, सो जिमितो न जिण्णो, विशेषद्योतनार्थः। देशात्सर्वविरतविषयापेक्षया स्थूलप्राणिव्यपरोपणाबितियदिवसे सत्थवाहेण दिट्टो चिंतेइ नूणं एस उववासितो, सो य ऽऽदेर्विरता देशविरतास्तेषां देशविरतानाम्। प्रव०१२७ द्वार। अव्वत्तलिंगी। बिइय-दिवसे हिंड तस्स सेट्ठिणा बहु निद्धं न दिन्नं, सो देसिक्कदेसविरओ सम्मद्दिट्ठी मरिज जो जीवो। तेण दुवे दिवसा अजिण्णएण अत्थइ, सत्थवाहो जाणइ-एसटु छट्ठण तं होइ बालपंडिअ-मरणं जिणसासणे भणियं // 1 // खमइ / तस्स महती आस्था जाता / सो तइयदिवसे हिंडतो सत्थवा- (देशविरतव्याख्या 'देसिक्कदेसविरय' शब्दे चतुर्थभागे 2634 पृष्ठे हेण सद्दावितो-कीस कल्लं नागतो? तुहिक्को अत्थइ, जाणइ।जहा गता) तथा सम्यगविपरीता नवश्रद्धानरूपा दृष्टिदर्शनं यस्याऽसौ छ8 कयं, तहा से दिण्णं, तेणऽवि अण्णे दो दिवसे अत्थावितो,लोको वि सम्यगदृष्टिः एवंविधो यो जीवः श्रावकसम्बन्धी मियते, तदिह मरण परिणतो, अण्णस्स विनिमित्तं कयं, तस्स विन गेण्इ। अन्ने भणंति- जिनशासने बालपण्डितमरणमिति भवति भणितं, शेषशासनेषु एसो एगपिंडितो तेणतं अट्ठापय लद्धं, सत्थवाहेण भणितो-मा अन्नस्स बालमरणाऽऽदिभाषाया एवाभावात् ता सर्वविरतिपरिणामाभा वादालं कूरं गेण्हिज्जासि, जाव नगरं गमिस्सइ ताव अहं देमि, गया नगरं तेण से स्थूलप्राणातिपाताऽऽदिविरमणाच पण्डितं बालं च तत्पण्डितं च णियघरे मढो कतो, ताहे सीसं मुंडावेइ, कासायणि चीवराणि गेण्हइ, बालपण्डितं, तद्योगात मरणमपि बालपण्डितमित्यर्थः / जिनशासने च ताहे विक्खातो, जातो, ताहे जद्दिवस से पारणयं तदिवसं लोगो आणेइ मरणमनेकधा कथितम् आवीचिमरणाऽऽदिभेदात्। तचानेकविधमपि इह भत्तं, एगस्स पडिच्छा, ततोलोगो न जाणइ, कस्स पडिच्छियं ति, ताहे | पञ्चधा परिकल्पितम् / तद्यथा-मिथ्याद्दशां बाल बालमरणमविरतस Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालपंडियमरण 1318 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बालमरण म्यगदृष्ट बोलमरणं देशविरतस्य बालपण्डितमरणं, छद्मस्थयतीनां इत्यादिभेदेन प्रक्रमाद् सौधर्माऽऽदीन् उपगच्छन्तीति कल्पोपगास्ते म पण्डितमरणं, केवलिनां पण्डितपण्डितमरणं चेति। आतु०॥ तु कल्पान्ते तेषु श्रावकस्य पूर्वमबद्धाऽऽयुषो जघन्यतः सौधर्मादारभ्य कदा पुनरसौ श्रावको बालपण्डितमरणेन म्रियते ? इत्याह उत्कृष्टतोऽच्युतं यावदेव गमनसंभवात, नियमेन तस्योपपातः / अथ श्राद्धधर्माऽऽराधकोऽप्रतिपतितधर्मा कतमे भवे सिद्धो भवतीत्याहआसुक्करे मरणे, अच्छिन्नाए य जीवियाऽऽसाए। नियमान्निश्चयेनोत्कृष्टतः षड्भवानङ्गीकृत्य सप्तमे भवे सिद्ध्यति। नाएहि वा अमुक्को, पच्छिमसंलेहणमकिया||६|| इय बालपंडियं हो-इ मरणमरिहंतसासणे दिलु। आशु-शीघ्रं, करणं कार आशुकारः, अतर्कितो मरणावसरस्तेन मरणं, इत्यमुना पूर्वोक्तप्रकारेण पर्यन्तसमयेऽपि सर्वविरतेरनङ्गीकरणं बालम्, तस्मिन् मरणे अचिन्तितोपस्थिते इत्यर्थः, एवं झटिति प्रत्यासन्नीभूते अनशनप्रतिपत्तिश्च पण्डितं च, बालं च तत् पण्डितं च बालपण्डितम्, मरणे बालपण्डितमरणं कुर्यात्। अथवा-अच्छिन्ना इति न छिन्ना त्रुटिता भवति मरणमर्हच्छासने जिनप्रवचने दृष्ट भणितम्आतु०। कार्य जीविताऽऽशा तस्यां तया वा क्रामणे च मरणकाले समांगतेऽपि बालपंडियवीरियन० (बालपण्डितवीर्य) देशविरतस्य संयमासंयमविषये संलेखनाऽऽद्यकृत्वा च यन्मियते तद्वालपण्डितमरणम्, स्वज्ञानैर्वा यत्तैर्न वीर्ये, बृ० 3 उ०। सूत्रा०। मुक्तो नानुमतः, पश्चिमकालकर्तव्यसंलेखनांतपः प्रभृतिकाम् अकृत्वाच यन्मरणं करोति तद्वालपण्डितमरणमुक्तमित्यग्रेतन गाथायां संबन्धः॥६॥ बालपण्ण त्रि० (बालप्रज्ञ) मूर्खप्राये, सूत्र०१श्रु०१३ अ०। बालब्भवायणा स्त्री० (बालभ्यवाचना) बलभीपुरजायां वाचनायाम्, (तां सच कथं गृहे म्रियते? इत्याह च 'वायणा' शब्दे दर्शयिष्यामि ) ज्योतिष्करण्डकसूत्रकर्ता बालभ्यः। आलोइय निस्सल्लो, सघरे चेवाऽऽरुहित्तु संथारं। ज्यो०२ पाहु०। जइ मरद देसविरओ, तं वुत्तं बालपंडिययं / / 7 / / बालममत्तन० (बालममत्व) लघौ शिष्ये ममत्वकरणे, ध०३ अधि०। (आलोइय) आलोच्य गीतार्थः सुगुरुसमीपे आलोचनां दत्वा, निर्गतं बालमरण न० (बालमरण) बाला इव बाला अविरतास्तेषां मरणं बालमशल्यं यस्मात् मूलगुणोत्तरगुणविराधनारूपं, भावशल्यरहित इत्यर्थः रणम् / स० 17 सम० / मिथ्यादृशां मरणे, "अविरयमरणं बालं / " एवंविधः सन् स्वगृहे निजगृहे एवाऽऽरुह्यङ्गीकृत्य संस्तारकमनशन- बाला इव बाला अविरतास्तेषां मरणं बालमरणमिति ब्रुवते इति संबन्धः / प्रतिपित्तिकालाह दर्भप्रस्तरणरूपं, संस्तारकविधिसाध्यमनशनमप्यु- प्रव०१५७ द्वार। उत्त०। पचारत्संस्तारकमुच्यते, कृतानशनःसन् यदि म्रियतेदेशविरतः समाधि बालमरणनिमान् तदुक्तं बालपिण्डमरणम् // 7 // से किं तंबालमरणे ? बालमरणे दुवालसविहे पण्णत्तेतं जहाउक्तेन विधिना विधेयमित्याह बलयमरणे, वसट्टमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणे, जो भत्तपरित्राए, उवक्कमो वित्थरेण निद्दिट्ठो। गिरिपडणे, तरुपडणे, जलप्पवेसे जलणप्पवेसे विसमक्खणे सो चेद बालपंडिय, मरणे नेओ जहाजुग्गं |8|| सत्थोवाडणे, वेहाणसे, गिद्धपिढे / इचेएणं खंदया ! दुवालयो भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णके श्रावकस्याऽनशनप्रतिपत्तिं कुर्वत उपक्रमः विहेणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं संीएइ, तिरियमणुयदेवअणाइयं च णं अणवदग्गं प्रथमतः सर्वकृत्यविधिरूपो विस्तरेण "अह हुज्ज देसविरओ० 26 / दीहद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टइ, से तं बालमरणेणं अनियाणो०३०। नियदव्व०३१॥" इत्यादिगाथात्रायेणोक्तो, गुरुसङ्घ मरमाणे वह वइ / से तं बालमरणे / पूजासाधर्मिकस्वजनवात्सल्यदानाऽऽदिदानजिनचैत्यकारापणबिम्बनिर्मापणतत्प्रतिष्ठापनसिद्धान्तलेखनतीर्थयात्राविधानजिनशासन (दुबालसविहेणं बालमरणेणं ति) उपलक्षणत्वादस्यान्येनापि बालमरप्रभावनाऽऽदिपुण्यानिकृतपूर्वः श्राद्धोऽन्त्यसमये स्वजनमुत्कलापनचैत्य णान्तः पातिना मरणेन म्रियमाण इति। (वड्इ वड्डइ त्ति) संसारवर्द्धनेन वन्दगुरुद्वादशाऽऽवर्तवन्दनदानाऽऽलोचनाग्रहणपुनः सम्यक्वतोचार भृश वर्द्धते जीवः / इदं हि द्विर्वचनं भृशार्थ इति। भ०२ श०१उ०।व्य० / सर्वजीवक्षामणचतुः शरणप्रतिपत्त्यादिपुरस्सरमनशनमङ्गीकरोती आचा० / ("भत्तपचक्खाण' शब्दे तत्प्रकारं वक्ष्यामि) ('मरण' शब्दे त्यादिरूपः स एवाऽत्राप्यध्ययने बालपण्डितमरणे वर्णयितव्ये यथायोग्य काँश्चिद् विधीन् दर्शयिष्यामः) ज्ञेयः || बालमरणानि प्रशंसतिअथ तस्यैवंविधाऽऽराधनायुक्तस्य क्वोपपातः? इति दर्शयति जे भिक्खू गिरिपडणाणिवा १मरुपडणाणि वा 2 तरुपडणाणि वेमाणिएसु कप्पो-वगेसु नियमेण तस्स उववाओ। वा 3 भिगुपडणाणि वा मरु 1 तर 2 गिरि 3 भिगुपक्खंदाणि वा जलप्पवेसाईणि वाजणपवेसाणि वा 10 जल पक्खंदाणि नियमा सिज्झइ उक्को-सएण सो सत्तमम्मि भवे || वा 11 विसभक्खणाणि वा 12 सत्थुप्पाडणाणि वा 13 विमाने भवा वैमानिकाः, तेच ज्योतिष्का अपि भवस्तीति तद्व्यवच्छेदाय वसट्टमरणाणिवा 14 तब्भवमरणाणिवा 15 अंतोसल्ल्मरणाणि विशेषणमाह --- (कप्पोवगेसु) कल्पान् "सोहरणा वारणं ति अत्था य' | वा 16 वेहाणसमरणाणि वा 17 गिद्धपिट्ठ मरणाणि वा 18 Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमरण 1316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बालमूलराय बलयमरणाणि वा 0 जाव अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि वा बाल मरणाणि वा पसंसइ, पसंसंतं वा साइजइ / / 19 / / एषां व्याख्या ग्रन्थेनव। गाहागिरिपवडणाऽऽदिमरणा, जेत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते। तेसिं अण्णतराणं, पसंसते आणमादीणि // 507 / / तेसिं सुत्ताभिहियाणं दुवासण्ह बालमरणाणं अण्णतराणं पसंसइ, आणादिया दोसा, चउगुरुं च पच्छित्तं। गिरिमरुतरुभिगूणं चउण्ह वि इमं वक्णाणं / गाहा - जत्थ पवातो दीसति, सो तु गिरी मरु अदिस्समाणे तु। नदितडमादी उ मिगू, तरूउ अस्सोयवडमादी / / 508 / / गिरिमरुणं विसेसो, जत्थ पव्वए आरूढेहिं अहो पवायणट्ठाणं दीसइ सो गिरी भन्नइ, अदीसमाणे मरू / भिगुणदितडा, आदिसद्दातो विजू खायं अगडो वा भन्नइ, पिप्पलवडमादी तरू एतेहिंतो जो अप्पाण मुंचइ मरण च ववसिअंतं पवडणं भन्नइ। एते चउरो वि पवडणसामन्ना एक्को मरणभेदो, एतेषुचेव चउसु पक्खंदण पवडणं। पक्खंदणाण इमे भेदा / गाहा-- पडणं तु उप्पतित्ता, पक्खंदण धाविऊण जं पडति। तं पुण गिरिम्मि जुज्जति, नदितडपडणं भिगहिं वा / / 506 / / / थाणत्यो उड़े उप्पइत्ता जो पडइ वस्त्रडेवने डिंडिकवत् एवं पवडणं, जं पुण अदूरओ धावित्ता पडइतं पक्खंदणं। अहवा-ठियणिसन्नणिवन्नस्स अणुप्पइत्ता पवडमाणस्स पवडणं, उप्पाइय पवखंदणं तं पुण पडणं पक्खंदणं वा गिरिम्मि जुज्जइ, घडतीत्यर्थः / णदितडभिगूहिं वा पडणं पक्खंदणं च जुञ्जइ, तस्सु कहं पक्खंदणं जुज्जइ ? अओ भन्नइ। गाहा - ओलंविऊण संपा-ठियस्स तरुतो पवडणं होति। पक्खंदमणुपतित्ता, अंदोलेऊण वा पडणं / / 510 / / हत्थेहिं साहाए लग्गिउं ओलंविउं पडतस्स पवडणं रुक् -खग्गओ वा समपादवियरस अणुप्पइत्ता पवडमाणस्स पवडण, रुक्खाट्ठियस्स जं उप्पइत्ता पडणं तं पक्खंदण; हत्थेहिं वालंविउजं अंदोलइत्ता पडइतंवा पक्खंदणं, चउरो वि पक्खंदणापक्खंदणसमाणसामन्नं बिइओ मरणभेदो, जलणपवेसापवेससामन्नओं तइओ मरणभेदो, जलजलणपक्खंदणे चउत्थो मरणभेदो सेसा विसभक्खणाइया अट्ठपत्तेयभेदो, विसभक्खणं पसिद्ध, सत्थेण अप्पणा अप्पाणं विवावाएइ। बलयवसट्टाणं इमं वक्खाणं / गाहाबलयं बलायमाणे, जो मरणं मरति हीणसत्ततया। सोतिंदियादिविसए, जो मरति वसट्टमरणं तु // 511 / / सञ्जमजोगेसु बलबोहीणऽसत्तमाए जो अकामगो मरइएवं बलयमरणं, गलं या अप्पणो बलेइ इंदियविसएसु रागदोसे कसायवसहो स मरतो वसट्टमरण मरई। अंतोसल्लाणं इमं वक्खाणं / गाहातम्मी चेव भवम्मी, मयाण जेसिं पुणो वि उप्पत्ती। तं तब्भवियं मरणं, अविगयभावं मसल्लं च // 512|| जम्मि भवे वट्टइ तस्सेव भवस्स हेउसु वट्टमाणो आसुयं बंधित्ता पुणो तत्थेव वज्झिउकामस्स जं मरणं तं तब्भवमरणं / एवं मणुयतिरियाण चेव संभवइ। अंतोसल्लमरणं दुविहं-दव्वे, भावे यादवेणरायाऽऽदिणा सल्लियमरणं, भावेमूलुत्तराइयारे पडिसेवित्ता गुरुणो अणालोइत्ता पलिउंचमाणस्स वा भावसल्लसल्लियस्स एरिसस्स वियडभावस्स अंतोसल्लमरण वेहाणसं मरेज्जए अप्पाणं उद्धं लंबेइ गिद्धेहिं पुट्ठ, गृधैर्भक्षितव्यमित्यर्थः / तं गोमाइकलेवरे अत्ताणं पक्खिवित्ता गिद्धेहि अप्पाणं भक्खावेइ / अहवा--पेट्टोदराऽऽदिसु अलत्तपुडगं दाउं अप्पाणं गिद्धेहि भक्खावेइ। एते दुबालस्स बालमरणा पसंसमाणस्स इमे दोसा - मिच्छत्तथिरीकरणं, से परीसहपराइतेक्कतरं। णिक्किबया सत्तेसु य, होती जे जत्थ ते पड़ती।।५१३।। अहो इमो साहू एमंतसुट्ठियप्पा इमे गिरिपवडणाइ मरणे पसंसइ, एते धुवं करणिज्जा नत्थि इत्थ दोसो। एवं मिच्छत्ताइ-ट्ठियाणं मिच्छत्ते थिरीकओ भावो भवइ, पसंसिए बालमरणे सेहो परीसहपराजिओ बारसण्ह एगतरं पडिवजेजा, जे य बालमरणे पसंसिए अप्पाणं अइवाएजा तेसु सत्तेसु णिग्घिणया कया भवइ, तदिवराहणाणिप्फण्णं च पच्छित भवइ, तम्हा णो पसंसेजा। इमे य ते कारणा। गाहाबितियपदमणप्पज्झे, पसंसिओ कोविते व अप्पज्झे। जाणते वावि पुणो, कज्जेसुचउप्पगारेसु॥५१४।। ते य बहुप्पगारा कजा इमे / गाहाकयम्मि मोहभेसजे, अठायंते तहा विउ। जुंगित्तु आमए वावि, असज्झं पण्णवें ति उ॥५१५|| साहुस्स उदिनमोहस्स विज्जादिणा मोहभेसज्जे कए तहाऽवि मोहानि से जा अथायमाणे कण्हत्तिना सहसा पादादिजुंगियं वा कुट्टवाहिणा वा असज्झेण गहिय, गोणसामाइक्खयं वा असझं पंडियमरणे असत्ते एतेण इमेण विहिणा बालमरणेण पन्नवेंति। गाहा - तत्थ दसण्ह अवाए, आदिल्लाणं मरण दंसेत्ता। दोण्णि पसंसंति विऊ, वेहाणसगट्टमटुं च // 516 / / पवडणादीया अंतोसल्लपज्जवसाणे एतेदोसा। एतेसिंजीवववरोवणाऽऽदि अवाए दसेता ते पडिसेहित्ता दोण्हं वेहाणसगवसट्टमरणाणं गुणे आगमविऊ पसंसंति, पंडियमरणमसत्ते ते वि पत्तव्यं इत्यर्थः / भणियं दुयालसविह बालमरणं / नि० चू०११ उ01 (अकाममरणम् इति मरण शब्दे विवरिष्यते) बालमूलराय पुं० (बालमूलराज) अणहिल्लपट्टननगरे चौलुक्यवंश्ये कुमारपालानन्तरे स्वनामख्याते राजनि, ती०२५ कल्प०। Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालय 1320 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बालुयाजल - -- बालय न० (बालज) बालेभ्य ऊरणिकाऽऽदिलोमभ्यो जातं बालजम्।। बाला। पाइ० ना०५८ गाथा। बालनिष्पन्ने सूत्रभेदे, अनु०। बालागणिते यगुण त्रि० (बालाग्नितेजोगुण) बालोऽभिनवप्रत्य बालयं पंचविहं पण्णत्तं / तं जहा--उणियं, उट्टियं, ग्रोऽग्निस्तेन तेजोऽभितापः स एव गुणो यस्य सतथा। परेण प्रकर्षण तप्ते, मियलोमियं, कोतवं, किट्टिसं / से तं बालयं / सूत्रा०१श्रु०५ अ०१ उ०। (बाप्यं पंचविहमित्यादि) बालेभ्य ऊरणिकाऽऽदिलोमभ्यो जातं बालज, बालावबोहण न० (बालवबोधन) अमन्दमतीनां प्रतारेण, द्रव्या०६ तत्पञ्चविध प्रज्ञप्तम्। तद्यथा-ऊर्णाया इदमौर्णिकम् उष्ट्राणामिदमौष्ट्रिकम्। | अध्या०। एते द्वे अपि प्रतीते। ये मृगेभ्यो ह्रस्वका मृगाऽऽकृतयो बृहत्पुच्छा बालि(ण) नि० (बालिन) बालप्रधाने, अनु०।सुग्रीवभ्रातरि वानरराजे, आटविकजीवविशेषास्तल्लोमनिष्पन्नं मृगलोभिकम्, उन्दुररोमनिष्पन्न | बालाः केशास्ते श्यामलनिचितकुञ्चिताऽऽदिगुणोपेता येषां ते बालिनः। कोतवम्, ऊर्णाऽऽदीनां यदुद्धरितं किट्टिसं तनिष्पन्नं सूत्रमपि किट्टिसम्।। सुकेशेषु बृ० 1 उ०३ प्रक०। स्वनामख्याते ऋषिभेदे च / येन अष्टापदे अथवा-एतेषामेवोर्णाऽऽदीनां द्विकाऽऽदिसंयोगतो निष्पन्न सूत्र किट्टिसम्। कृतकायोत्सर्गेण पादाङ्गुष्ठ प्रपीडनतोऽष्टापदमुत्तम्भयन् रावणो अथवा उक्तशेषपश्यादिजीवलोम निष्पन्नं सूत्रां किट्टिसं / से तमित्यादि नम्नीकृतः / ती० 47 कल्प०। निगमनम्। अनु० / आ० म०पं० भा०। पं० चू० / सूत्र० / नि० चू०। बालिखिल्ल पुं० (बालिखिल्य) स्वनामख्यातेषु ऋषिगणेषु, सम्यगदृष्टिबालया स्त्री० (बालता) मूर्खतायाम्, आचा० 1 श्रु० 6 अ० 4 उ० / | राजभेदे च। सम्प्रापुरत्र शत्रुञ्जये। ती०१ कल्प०। अज्ञान-तायाम्, आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। बालिस त्रि० (बालिश) अज्ञे, सूत्रा० 1 श्रु०७ अ० / मूर्ख , "बाला मूढा बालरज्जु रत्री० (बालरज्जु) गवादिबालमय्या रजौ, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। मंदा, अयाणया बालिसा जडा मुक्खा।' पाइ० ना०७१ गाथा। बालव न० (बालय) कालकरणभेदे, विशे० / क्वाऽऽदिष्वन्यतमे, आ० | बाली स्त्री० (बाली) तूणविशेषे, रा०। आ० चू० / म०१ अ०। आ० चू०। उत्त० / सू० प्र०। सूत्रा०। बालु पुं० (बालु) द्वादशे परमाधार्मिके, यः कदम्बपुष्पाऽऽका रासु वज्राऽऽबाललोभणिज त्रि० (बाललोभनीय) अव्यक्तजनलोभनयोग्ये त०।। कारासु वा वैक्रियबालुकाऽऽकारासुतप्तासु चणकानिव नारकान पचति / बालवच्छास्त्री० (बालबत्सा) स्तन्योपजीविशिशुकायां स्त्रियाम, पिं०। स० 15 सम० / प्रव० / सूत्र। बालवयणीय त्रि० (बालवचनीय) प्राकृतपुरुषाणामपि गर्हो , आचा०१ तडतडतस्स भन्जंति, भजणे कलंबुबालुगापट्टे / श्रु०६ अ०४ उ०। बालूगा जेरइया, लोलंती अंवरतलम्मि।।१।। बालविहवा स्त्री० (बालविधवा) बालत्वे रण्डात्वं प्राप्तायां स्त्रियाम् , औ०। बालुकाख्याः परमाधार्मिका नारकानत्राणांस्तप्तबालुकाभृतभाजने बालवीयणय न० (बावबीजनक) चामरविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०३ अ०। चणकानिव (तडतडित्ति) स्फुटतः (भजति) भृजन्ति पचन्ति। केत्याहस्था० / ओघाबालैर्मयूरपिछैर्वा रचितेव्यजनके, सूत्रा०१ श्रु०६ अ०। कदम्बपुष्पाऽकृतिबालुका कदम्ब बालुका तस्याः पृष्टमुपरितलं तस्मिन् पातयित्व अम्बरतले च लोलयन्तीति / सूत्रा०१ श्रु० 5 अ०१ उ०। बालविरिय न० (बालवीर्य) मिथ्यादृशामविरतिलक्षणे सामर्थ्य , तच अभव्या-नामनाद्यपर्यवसितं, भव्यानांत्वनादिसपर्य, वसितम्। सूत्र० प्रश्न० / आ० चू०। आव०।। 1 श्रु०८ अ०नि० चू०। ('वीरिय' शब्दे एतद्व्याख्यास्यते) बालुंक पुं० (बालुङ) चिर्भटविशेषरूपे अनन्तजीववनस्पतिभेदे, ज्ञा०१ बालवीरियलद्धिपुं० (बालवीर्यलब्धि) असंयते, भ० 8 श०२ उ०।। श्रु०६ अ० / नि० चू०। आचा० / आ० क०। बालुंड पुं० (बालुण्ड) आन्तरशरीरावयवविशेषे, तं०। बालहाण न० (बालधान) पुच्छे, ज्ञा० 1 श्रु०३ अ०। म०! बालुयग्गाम पुं० (बालुकाग्राम) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र छामस्थिकबालहि पुं० (बालधि) पुच्छे, आचा० 1 श्रु०२ अ०५ उ०। विहारेण भगवान् वीरस्वामी सगोशालः समवसृतः। आ० क० 1 अ०। बाला स्त्री० (बाला) बालस्येयमवस्था धर्मधर्मिणोरभेदाद् बाला आ० चू०। आ० म०। वर्षशताऽऽ-युषो दशवर्षाऽऽत्मिकायां दशायाम्, स्था० 10 ठा० / बालुयप्पभास्त्री० (बालुकाप्रभा) बालुकायाः परुषापांशूत्कररुपायाः प्रभा जायमित्तस्स जंतुस्स,जा सा पढमिया दसा। यस्या सा बालुकाप्रभा। प्रव०१७४ द्वार। तृतीयनरकपृथिव्याम, भ०१ न तत्थ सुहं दुक्खं वा, न हु जाणंति बालया / / 1 / / श० 4 उ०। प्रज्ञा० / अनु० / स्था०। जातमात्रास्य जन्तोः-जीवस्य या सा प्रथमिका दशा दशवर्षप्रमाणा- | बालुया स्त्री० (बालुका) सिकतायाम्, प्रज्ञा० 1 पद / चं० प्र०। आ० ऽवस्था (तत्थ त्ति) तस्यां प्रथमदशायां प्रायेण सुखंदुःखं वा नेति नास्ति, क० / जी०। रा०ा रेणुकणेषु, तं०। 'बालुया कवले चेव, निस्सारे उय तथाऽऽत्मपरेषां सुखं दुःखं नैव जानन्ति बालका जातिस्मरणाऽऽ- संजमे / / " उत्त० 16 अ०। दिज्ञानविकला इति / त० / 'चेडी दिल्लिदिलिआ. य दुद्धगंधिअमुही | बालुयाजल न० (बालुकाजल) बालुकाया उपरि वहति जले, ओघ० / Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावण्ण 1321 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बाहिरिया बावण्ण स्त्री० (द्वापञ्चाशत्) द्वयधिकायां पञ्चाशति, स०५२ सम०। बाहिंखरियता स्त्री० (बहिःखरिकता) नगरबहिर्वर्तिवेश्यात्वे प्रान्तजनबावत्तरि स्त्री० (द्वासप्तति) व्यधिकायां सप्ततौ, "बावत्तरिकलापंडिया।" वेश्यात्वे, भ०१५श०। लेखाऽऽद्याः शकुनरुतपर्यन्ता गणितप्रधानाः कलाः प्रायः पुरुषाणामेवा- | बाहिंसंवुक्का स्त्री० (बहिःसंवुक्का) गोचरचर्याभेदे, पं० व० 2 द्वार। भ्यासयोग्याः, स्त्रीणां तु विज्ञेया एवति / विपा०१ श्रु०२ अ०। औ०। बाहिज्ज न० (बाधिर्य) बधिरत्वे, विशे०। भ० / प्रज्ञा०। "बावत्तरि सव्वसुमिणा।" द्विगृद्धि दशानां चतुर्थमध्य- बाहिज्जमाण त्रि० (बाध्यमान) पीड्यमाने, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। यनम् / स्था० 10 ठा०। बाहिर त्रि० (बाह्य) बर्हिभवं बाह्यम् / बहिर्जाते, स्था० 2 ठा० 1 उ०। बावल्लि स्त्री०(बावल्लि) बल्लिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। अप्रत्यासन्ने, स्था० 8 ठा० / नगराऽऽदेाह्ये कृते स्वाऽऽचारपरिभ्रंशाद् बावीस स्त्री० (द्वाविंशति) व्यधिकायां विंशतौ, द्वाविंशतिसंख्येषु, विशिष्टजनबहिर्वर्तिनि, विपा० 1 श्रु०३ अ०। "सभिंतरवाहिरए, उत्त०२ अ०1 तवोकम्मसि उज्जुओ।" उत्त० 16 अ०। 'बहिसो बाहिं बाहिरौ'' बासहि स्त्री० (द्वाषष्टि) व्यधिकायां षष्टिसंख्यायाम्, रा०। // 8 / 2 / 140 // इति बाहिराऽऽदेशः / प्रा० 2 पाद। बाहिरणियसिणी स्त्री०(बाह्यनिवसनी) साध्व्युपकरणभेदे, "बाहिरगा बाहपुं० (बाष्प)"बाष्पे होऽश्रुणि" ||270|| बाष्पशब्दे संयुक्तम्य जा खलुंगो, कडीए दोरेण पडिबद्धा। नि० चू० 4 उ० / बाह्या निवसनी हो भवति। इतिष्पख्य हः / अश्वभिधेये नेत्रजले, प्रा०२ पाद। अश्रुणि, यावत्खलुङ्कस्तावत्कट्या दवरकेण प्रतिबद्धा भवतीति। पं०व०३ द्वार। "बफ वाहो य नयणजलं / " पाइ० ना०११२ गाथा। बाहिरतवन० (बाह्यतपस्) बाह्यमित्यातेव्यमानस्य लौकिकैरपि तपस्तया बाहगदोसपुं० (बाधकदोष) यैर्दोर्पोरर्थकामरागाऽऽदिभिः स धर्माधिकारी ज्ञायमानत्वात्प्रायो बहिः शरीरस्य तापकत्वाद् वा तपसि दुनोति शरीरपुरुषो बाध्यते कुशलानुष्ठानतश्च्याच्यते। तेषु, पञ्चा०१ विव० / कर्माणि यत्तत तप इति। स्था०६ठा०। पा० / स०। पं० व०। भ०। बाहगदोसविवक्ख पुं० (बाधकदोषविपक्ष) बाधकदोषप्रतिपक्षभावना बाहिरपुक्खरद्ध न० (बाह्यपुष्कराद्ध) मानुषोत्तरपर्वतात् परतः याम, पञ्चा० 1 विव०। पुष्करद्वीप-स्याट्टे, सू० प्र० 16 पाहु०। बाहप्पमोयणन० (वाष्पप्रमोचन) अश्रुविमोचने, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। बाहिरप्प पुं० (बाह्याऽऽत्मन्) काये, तस्य स्वाऽऽत्मधिया प्रतीयमानस्याह बाहल पुं० (बाहल) जनपदभेदे, "बाहलविसए एगो दमगो।' आ० म० स्थूलोऽहं कृश इत्याधुल्लेखेनाधिष्ठायकत्वात् द्वा०२ द्वा०। 1 अ०। बाहिरप्पवहा स्त्री० (बहिःप्रवहा) शरीराद् बहिः पूयाऽऽदि क्षरन्त्यां बाहल्ल पुं० (बाहल्य) बहलस्य भावो बाहल्यम्। पिण्डभावे उत्सेधे, ___ नाड्याम्, विणा० 1 श्रु०१ अ०। जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। भ० / प्रज्ञा०। पृथुत्वे, विस्तारे, स्था० बाहिरभंडमत्तोवगरणोवहि पुं० (बाह्यभाण्डमात्रोपकरणोपधि) बाह्यो 4 ठा०२ उ० / प्रमाणे, ज्ञा० 1 श्रु०३ अ०। कर्मशरीरव्यतिरिक्ते ये भाण्डमात्रोपकरणे तद्रूपो य उपधिः स तथा। बाहा स्त्री० (बाधा) बाधृ' लोडने। बाधते इति बाधा। कर्मण उदये, स० तत्रा भाण्डमात्रा भाजनरूपा, परिच्छद उपकरणं च वस्त्राऽऽदीति / 70 सम०। व्यवधाने, स०५२ सम०। आचा०। आ० म०। चं० प्र०। उपधिभेदे, भ०१८ श०७ उ०। .. आक्रमणे, रा०। पीडायाम्, आव० 40 परस्परं संश्लेषतः पीडने, | बाहिरवत्ति स्त्री० (बाह्यव्याप्ति) पक्षीकृत एव विषये साधन–साध्यतेरज०१वक्ष०। व्याप्तिरन्ताप्तिरन्या तु बहिव्याप्तिरिति / व्याप्तिभेदे, रत्ना०३ परि०। * बाहु स्त्री० 'बाहोरात्" / / 8 / 1 / 36 / / बाहुशब्दस्य रिषयामाकारा- | बाहिराबाहिराणुओग पुं० (बाह्याबाह्यानुयोग) अनुयोगभेदे, स्था०। न्ताऽऽदेशः / बाहा। बाहू / प्रा० 1 पाद। "स्वराणां स्वराःप्रायोऽपभ्रंशे" "बाहिराबाहिरे।" बाह्याबाह्य, तत्र जीवद्रव्यं बाह्यं, चैतन्यधर्मेणाऽऽका।। 8 / 4 / 326 / / इति बाहुस्थाने बाहा। प्रा४पाद। "बहया धणुपट्ठाओ शास्तिकायाऽऽदिभ्यो विलक्षणत्वात्, तदे वाबाह्यममूर्तत्वाऽऽदिना अह एग सोहियाण धणुपट्ट। जं तत्थ हवइ सेसं, तस्सऽद्धे निविसे बाह धर्मेणामूर्तत्वादुभेयषामपि चैतन्येन वाऽबाह्यं जीवास्तिकायाच्चैतन्य॥१॥ " जं०। लक्षणत्वादुभयोरप्यथवा घटाऽऽदि द्रव्यं बाह्यं कर्म चैतन्याऽऽदित्वमबाहिं अव्य० (बहिस्) "बहिसो बाहि--बाहिरौ " / / 8 / 2 / 140 / / बाह्यमाध्यात्मिकमिति यावदित्येवमन्यो द्रव्यानुयोग इति। स्था० १०ठा०। बहिःशब्दस्य बाहिं बाहिर इत्यादेशौ भवतः। बाहिं।बाहिरं। "अनाभ्य- | बाहिरिया स्त्री० (बाहिरिका) बहिर्भ या बाहिरिका / न्तरे, प्रा०१पाद। "अध्यात्माऽऽदिभ्य इक ण'' / / 6 / 3178 // इति इकण प्र Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहिरिया 1322- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बिंबफल त्ययः / प्राकारबहिर्वर्तिन्यां गृहपद्धती, बृ०१ उ०२ प्रक०। ओघ०। / बिइय त्रि० (द्वितीय) "पदयोः सन्धिर्वा ||8 / 1 / 5 / / इति सन्धिविबाहु पुं० (बाहु) भुजे, स्था० 10 ठा० / ऋषभपूर्वभवजीवस्य महाविदेहे कल्पः / विइओ। बीओ। द्वित्वसङ्ख्यापूरणे, प्रा०१पाद। पुण्डरीकिण्यां नगर्या वैरनाभचक्रवर्विनो भ्रातरि,आ० म० 1 अ०। बिइयंतर न० (द्वितीयान्तर) प्रतिवृक्षमूलक्षेत्रायोरपान्तराले, बृ०१ उ० पञ्चा० / आ० चू०। ऋषभदेवस्य सुमङ्गलायां जातेपुत्रो, आ०म० 110 / 2 प्रक०। * बभु पुं० (नकुले) ज्ञा०१ श्रु०१७ अ० / भुजायाम्, 'भुआ बाहू।" बिइयदुय न० (द्वितीयद्वय) द्वयोः पूरणे द्वये, दश० 1 अ०। पाइ० ना०२५१ गाथा। बिइयपय न० (द्वितीयपद) उत्सर्गपदापेक्षयाऽपवादपदे, ग०२ अधि०। बाहुजुद्ध न० (बाहुयुद्ध) योधप्रतियोधयोरन्योन्यं सारिबाबोरखनिभ्रंसया बिइयसमोसरण न० (द्वितीयसमवसरण) ऋतुबद्धकाले, बृ० 3 उ०। वल्गने, ज०२ वक्ष ज्ञा०। स०। बिइया स्त्री० (द्वितीया) द्वितीयदिवससम्बन्धिन्या रात्रौ, चं० प्र०१० बाहुजोहि(ण) पुं०(बायोधिन) बाहुभ्यां युध्यत इति बाहुयोधी। बाहु पाहु०१४ पाहु० पाहुं० / अमौट्शसिति वचनत्रयरूपे विभक्तिभेदे, "बिइया उवएसणे।" उपदेशने कर्मणि द्वितीया। यथा-भण इमं श्लोक, युद्धकतरि, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०॥ कुरुवातं, ददाति तं, याति ग्रामम् / स्था० 8 ठा०। बाहुत्तरण न० (बाहूत्तरण) भुजाभ्यां पारगमने, पञ्चा०६ विव०। बिइयाएसपुं० (द्वितीयदेश) द्वितीय प्रकारे, बृ०१3०३ प्रक०। बाहुत्तरणकप्पपुं० (बाहूतरणकल्प) भुजपारगमनतुल्ये, पञ्चा०६ विव०। बिउण त्रि० (द्विगुण) द्वौ गुणो यत्रेति। "सर्वत्र लवरामवन्द्रे" |8| बाहुपसिण पुं० (बाहुप्रश्न) बाहवो भुजास्तद्विषयाः प्रश्नाः यत्रा / प्रश्नव्या- | 76 // इति दलुक्। प्रा०२ पाद। "तद्विवसं विउणो लाहो। " आव० 1 अ०। करणानां दशमे अध्ययने, प्रश्नः / बिंझ पुं० (बिन्ध्य) “साध्वस-ध्य-ह्यां झः" / / 8 / 2 / 26 / / इति ध्यस्य बाहुप्पमहि(ण) पुं० (बाहुप्रमर्दिन) बाहुभ्यां प्रमृनातीति बाहुप्रमर्दी। झः ! प्रा० 2 पाद / "ड-अ-ण-नो व्य ञ्जने ||8 / 1 / 25 / / बाहुभ्यां प्रमर्दके, औ०। ज्ञा०। इत्यनुस्वाराऽऽदेशः / प्रा० १पाद। "न दीर्घानुस्वारात् / / 8 / 2062 / / बाहुबलि पुं० (बाहुबलि) सुन्दरीसहजे ऋषभदेवपुत्रो, आ० म०१ अ०। इति झस्य द्वित्वनिषेधः / स्वनामख्याते गङ्गादक्षिणकूलस्थे पर्वतविशेषे, दशपुरनगरे आर्यरक्षितसूरेः स्वनामख्याते गणप्रधाने शिष्ये, यस्थ कल्प०। अष्टम-कर्मप्रवादपाठश्रवणतो गोष्ठामाहिलो निहवो जातः / आ० क० बाहुबली पंचधणुसयाई उड्व उच्चतरेणं पण्णत्ता स्था०५ ठा० 1 अ01 आ० चू०। आ० म०। क० 1 अ०। आ० चू० / आ० म०1 2 उ० / आचा० / आ० म०। बिंट न० (वृन्त) बन्धने, "बंधणं बिंट।' पाइ० ना० 226 गाथा। (सच बाहलीदेशे तक्षशिलायामभिषिक्त इति। उसह' शब्दे द्वितीयभागे * बिंटसुरा स्त्री० मद्ये, "बिंटसुरा पिट्ठखउरिआ मइरा।" पाइ० ना० 1126 पृष्ठे उक्तम्) ('भरह' शब्दे भरतबाहु-बलियुद्धं वीक्ष्यम्) 21 गाथा। विमलाद्रौ, ती०१ कल्प०। (वन्दनायागतः प्रभुम् / अदृष्ट्वा धर्मचक्र | बिंदुइअत्रि० (बिन्दुकित) बिन्दुयुक्ते, "बिंदुइअंकणइअंकणायणं / " मकरोदिति कथाशेषं च 'उसभ' शब्दे द्वितीयभागे 1138 पृष्ठे गतम्) पाइ ना० 165 गाथा०। बाहुया स्त्री० (बाहुका) त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी० 1 प्रति०। बिंबन०० (बिम्ब) प्रतिरूपके, बृ० 4 उ०। आव०। ज्ञा०। प्रतिमायाम्, बाहुलगपुं० (बाहु) भुजे, तं०। पञ्चा०६ विव० / (जिनप्रतिमाकारणाऽऽद्यधिकारः 'चेइय' शब्दे बाहुलेय पुं० (बाहुलेय) बाहुलाया गोरपत्ये, अनु० / तृतीयभागे 1266 पृष्ठे दर्शितः) गर्भप्रतिबिम्बे गर्भाऽऽकृतौ आर्तव परिणामे अग), "अवस्थितं लोहितमङ्गनायाः, वातेन गर्भ ब्रुवतेऽनबाहुवण्ण त्रि० (बभ्रुवर्ण) पिङ्गले. ज्ञा० 1 अ० 17 अ०। भिज्ञाः। गर्भाऽऽकृतित्वात्कटुकोष्णतीक्ष्णैः, श्रुते पुनः केवल एव रक्ते" बाहूयपुं० (याहूक) स्वानामख्याते शीतोदकपरिभोगेऽपि सिद्धे लौकिक / / 1 / / स्था० 4 ठा०४ उ०ाफलविशेषे, "गोल्हफलं बिम्बं।" पाइ० ना० महर्षी, सूत्र०२ श्रु०३ अ०४ उ०। 255 गाथा। बिइज्जत्रि० (द्वितीय) "वोत्तरीयानीय-तीय-कृद्ये जः 18/1248 // | बिंबइय (देशी) भूषिते. आ०म०१ अ०। इति यस्य द्विरक्तो अः / बिइजो / बीओ द्वित्वसङ्ख्यापूरणे, प्रा०१ बिंबपइट्टा स्त्री० (बिन्यप्रतिष्ठा) सर्वज्ञप्रतिनिधेस्तद् गुणाध्यारोपे, जी० पाद। "जं जस्स होइ सरिसं, तंतस्स बिइज्जियं देइ / / " आ० म० 1 अ०। 1 प्रति०। बिइज्जअ त्रि० (द्वितीय) सहाये, "दुइओ बिइज्जओ अणु अरो सहाओ | बिंबफल न० (बिंबफल) बिम्बयाः सत्कं फलं बिम्बफलम् / प्रज्ञा०२ सहयरो य।' पाइ० ना०५६ गाथा। पद / पक्वगोल्हाफले, जं० 2 वक्ष / जी०। तं०। Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिंबभूय 1323 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बीमच्छ बिंबभूय न० (बिम्बभूत) जलचन्द्रवत्तदर्थशून्ये, कूटकार्षापणवद् वा | बिस न० (बिस) कमलनालसूक्ष्मतन्तुषु, "विसं मुणालं।" पाइ० ना० वाऽसत्ये, सूत्र०१श्रु०१३ अ०। 256 गाथा। बिंबमुल्लन० (बिम्बमूल्य) प्रतिमावेलने, पञ्चा० 8 विव० / बिसरीर त्रि० (द्विशरीर) द्वे शरीरे येषा ते द्विशरीराः। द्वितीयभवे सेत्स्य* बिंबवय न० भिलावानाम्नि ओषधौ, "बिंबवयं भल्लायं / ' पाइ० मानेषु, "बिसरीरेसु नागेसु उववज्जेज्जा। "द्वेशरीरे येषां ते द्विशरीरस्तेषु ना०१४८ गाथा। ये हि नागशरीरं त्यक्त्वा मनुष्यशरीरमवाप्य सेत्स्यन्ति ते द्विशरीराः / बिंबी स्त्री० (बिम्बी) बिम्बफलके गोल्हाऽऽरव्ये लताभेदे, आ० क० 1 अ०। भ०१२ श०७ उ०। दश०। स्था० / उडलोए णं चत्तारि बिसरीरा पण्णत्ता। तं जहापुढविकाइया, बिंबोवणय (देशी) क्षोभ-विकारोच्छीर्षकेषु, दे० ना० 6 वर्ग 67 गाथा। आउकाइया, वणस्सइकाइया, ओरालतसपाणा। बिजुप्पभ पु० (विद्युत्प्रभ) वक्षस्कारपर्यतभेदे, स्था०। (उड्डेत्यादि) द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः, एक पृथिवीकायिकाऽऽदिबिट्टि स्त्री० (पुत्रिका)"शीघ्राऽऽदीनां बहिल्लाऽऽदयः" / / 84) शरीरमेव, द्वितीयं जन्मान्तरभावि मनुष्यशरीरं, ततस्तृतीयं केषाञ्चिन्न 422 / / इति पुत्रिकास्थाने बिट्टि आदेशः / प्रा० 4 पाद / तनुजायाम, भवत्यन्तरमेव सिद्धिगमनात् / (ओरालतस त्ति) उदाराः स्थूला "बिट्टिए मइ भणिअतुहुँ, मा करु वंकी दिहि।"प्रा० 4 पाद। द्वीन्द्रियाऽऽदयो न तु सूक्ष्मा स्तेजोवायुलक्षणास्तेषामनन्तरभवे बिदलपुं० (द्विदल) तुबरीफलाऽऽदेरर्द्धभागे, आ० म०१ अ०। आचा०। मानुष्यत्वाप्राप्त्या सिद्धिर्न भवतीति शरीरान्तरसम्भवात्तथोदाराबिदलकडपु० (द्विदलकट) द्विदलं वंशदलं, तन्मयः कटो द्विदलकटः / सग्रहणेन द्वीन्द्रियाऽऽदिप्रतिपादनेऽपीह द्विशरीरतया पञ्चेन्द्रिया एव वंशमये कटे बृ०१उ०३ प्रक०। आचा०। वंशशफलकृते, स्था० 4 ठा० ग्राह्याः विकलेन्द्रियाणामनन्तरभवे सिद्धेरभावात्। उक्तं च - "विगला 4 उ०। लभेज्ज विरई,ण हु किंचि लभेज सुहुमतस त्ति।"लोकसम्बन्धाऽऽयातेऽबिदलचडुलगच्छिन्न त्रि० (द्विदलचटुलकच्छिन्न) मध्यपाटिते खण्डश- धोलोकतिर्यग्लोकयोरतिदेशसूत्रो गतार्थे इति। स्था० 4 ठा०३ उ०। श्छिन्ने. सूत्रा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। बिसरीरि (ण) पुं० (द्विशरीरिन) द्वयोः शरीरयोः समाहारो द्विशरीरं बियवर पुं० (द्विजवर) ब्राह्मणमुख्ये, पं०व० 4 द्वार। तोषामस्तीति। शरीरद्वयवत्सु, स्था०२ ठा०२ उ०। (देवो महर्द्धिको बिराली स्त्री० (विडाली) मार्जारजातिविशिष्टायां स्त्रियाम्, 'मज्जारीओ द्विशरीरेषु उपपद्यते, तस्य वक्तव्यता 'उववाय' शब्दे द्वितीयभागे 668 बिरालीओ।' पाइ० ना० 150 गाथा। पृष्ठे गता) बिलन० (बिल) रन्ध्रे, ज्ञा०१श्रु०१६ अ०भ०। "बिलमिव पन्नगभूए।" बीअत्रि० (द्वितीय) "सर्वत्रा लवरामवन्द्रे" ||8|2|76 / / इति दलुक् / बिल बिलमिव असस्पर्शनात् नागो हिबिलमसंस्पृशन् आत्मानं तत्र द्वित्वसंख्यापूरके, प्रा०२ पाद। प्रवेशयत्येवं भगवानप्याहार मसंस्पृशन् सोपलम्भानपेक्षः सन्नाहारय - बीअअ (देशी) असनवृक्षे, दे० ना०६ वर्ग 63 गाथा। तीति / विपा० 1 श्रु०७ अ० / कूपे० , रा०। बीअजमण (देशी) बीजमलनखले, दे० ना० 6 वर्ग 63 गाथा। बिलकोलीकारग पुं० (बिलकोलीकारक) परव्यामोहनाय विस्वरव- / बीअयन० (बीजक) अशनवृक्षे, "बीअयं असणं। पाइ० ना० 258 गाथा / चनवादिनि, विस्वरवचनकारिणी च / प्रश्न०३ आश्र० द्वार। बीअवाय पुं० (बीजबापक) विकलेन्द्रियजीवविशेषे, अनु० / बिलत्थगण न० (बिलस्थगन) कोलाऽऽदिकृतविलेष्विष्टकाशकला बीभच्छत्रि० (बीभत्स) द्रष्टुमयोग्यत्वात्। (ज्ञा०१ श्रु०५ अ01) जुगुप्सोऽऽदिप्रक्षिप्योपरि गोमयमृत्तिकाऽऽदिना पिधाने, व्य० 4 उ०। त्पादके, भ०६ श० 33 उ० / प्रश्नादशा०1शुक्र-शोणितोच्चारप्रश्रवबिलधम्म पुं० (बिलधर्म) बिलाऽऽचारे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। एकस्यामेव णाद्यनिष्टे उद्वेजनीये वस्तुनि, तद्दर्शनश्रवणादि प्रभवे जुगुप्साप्रकर्षरूपे वसतौ गृहस्थैः सम संवत्यै कत्रावस्थाने, बृ०१उ०३ प्रक०। ओघ०। रसे, अनु०। बिलपंति स्त्री० (बिलपङ्क्ति) बिलानीव बिलानि कूपास्तेषां पतयो अथ बीभत्सं हेतुतो लक्षणतश्वाह - बिलपङ्क्तयः / कूपततिषु, जं० 1 वक्ष० / रा० अनु०। जी०। असुइ कुणिम दुईसण-संजोगब्भासगंधानिप्फणो। बिलमग्ग पुं० (बिलमार्ग) गुहाऽऽद्याकारेण बिलेन गम्यमाने मार्गे , सूत्रा० निव्वेअऽविहिंसा ल-क्खणो रसो होइ बीमच्छो / / 12 / / १श्रु०११अ०। अशुचि-मूत्रपुरीषादि वस्तुकुणपं-शवः अपरमपि यदुदर्शनं गलल्लाबिलवज्जिय त्रि० (बिलवर्जित) दर्पाऽऽदिरहिते, पं०व०२ द्वार। लादिकरालं शरीरादि तेषा संयोगाभ्यासाद्अभीक्ष्णं तद्दर्शनादिरूपात्तबिल्ल न० (बिल्व) वृक्षविशेषे, 'मालूरं सिरिफलं बिल्लं / ' पाइ० ना० गन्धाच निष्पन्नो बीभत्सो रसोभवतीति संबन्धः, किलक्षण इत्याह-निर्वेद१४८ गाथा। बहुबीजफलके वृक्षभेदे, पुं०। प्रज्ञा०१ पद। श्चअकारस्य लुप्तस्य दर्शनादविहिंसा च तल्लक्षण यस्य स तथा, तत्र निर्वे Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहिरिया 1325 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बिंबफल दः उद्वेगः अविहिंसा जन्तुघातादिनिवृत्तिः इह च शरीरादेरसारतामुप- बीयण्णास पुं० (बीजन्यास) पुण्याऽनुबन्धिपुण्यस्य सम्यक्त्वस्य वा लक्ष्य हिंसादिपापेभ्यः कश्चिन्निवर्तते इत्यविहिंसाऽपि तल्लक्षणत्वे- निक्षेपे, ''बीजन्यासः सोऽयं मुत्कौ विनिवेशितः परमः। षो० 8 विव० / नोत्केति। बीयपइट्ठिय त्रि० (बीजप्रतिष्ठित) शाल्यादिबीजगते, आहारशयनाऽऽदौ, असुइमलभरिअनिज्झर-सभावदुग्गंधि सव्वकालं पि। दश० 4 अ०। धण्णाउ सरीरकलिं, बहुमलकलुसं विभुंचंति / / 13 / / / बीयबीय न० (बीजबीज) सम्यक्त्वाऽऽक्षेपकशासनप्रशंसाऽऽदिके, 50 मानिसको सू०४ सूत्र। 'असुइ' इत्यधुसारतास्वरूपः गाह-कलिः-जघन्य-कालविशेषः / कलहो वा तत्र सर्वानिष्टहे तुत्वासर्वकलहमूलत्वाद्वा शरीरमेव कलिः | बीजबुद्धि पु० (बीजबुद्धि) बीजमात्रोणोपलम्भके, आ० चू० 1 अ० / शरीरकलिस्लं मूर्छात्यागेन मुक्तिगमनकाले सर्वथा त्यागेन वा धन्याः बीजमिव विविधार्थाधिगमरूपमहातरुजननात् बुद्धिर्यस्येति (औ०) केचिद्विमुञ्चन्तीति संटङ्कः / कथंभूतम्-अशुचिमलभृतानि निर्झराणि व्युत्पत्तेः य एक बीजभूतमर्थपदमनुसृत्य शेषमपि तथैव प्रभूततरमर्थपदओत्रादिविवराणि यस्य तथा सर्वकालमपि स्वभावतो दुर्गन्धं तथा निवहमवगाहते। बृ०१उ०२ प्रक०1"जो अत्थपएणऽत्थं, अणुसरइस बहुमलकलुषमिति, एवं वाचनान्तराण्यपि भावनीयानि। अनु०। तिरश्चा बीयबुद्धी अ।" पा० / उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सदित्यादिवदर्थप्रधान बीभत्साः, कामाः, जुगुप्सात्मका भवन्ति - 'जुगुप्साप्रकृतिभित्सो पदमर्थपद तेनैकेनापि बीजभूतेनाधिगतेन योऽन्यं प्रभूतमप्यर्थमनुसरति रस' इति / अनु०। स बीजबुद्धिरिति। विशे० / प्रज्ञा० / नं०। प्रव० / आ० म०। बीभच्छदरिसण न० (बीभत्सदर्शन) बीभत्सं भयङ्करं दर्शनमाकृतिर बीयभूय पुं० (बीजभूत) बीजकल्पे हेतौ, पञ्चा० 1 विव०। वलोकन वा रोगादिना कृशावस्थायां यस्य व-पुषस्तद् बीभत्सदर्शनम्। बीजभोयण न० (बीजभोजन) शालितिलाऽऽदिभोजने, औ०। तं० / भयानकदर्शने, भयङ्करे, तं०। बीयभोयणा स्त्री० (बीजभोजना) बीजानि भोजने यस्यां सा बीजबीमच्छदरिसणिज त्रि० (बीभत्सदर्शनीय) विरूपे, प्रश्न० 1 आश्र० भोजना। बीजभोजनवत्यां परिष्ठापनायाम्, आव० 4 अ०। द्वार / भयङ्कररूपे, तक। बीयमित्त- बीजमात्र--बीजस्येव मात्रा परिमाणं यस्य सः / स्वरूपतः बीभच्छा स्त्री० (बीभत्सा) निन्दायाम, जी० 3 प्रति०१ अधि०२ उ०। स्वल्पे, भ०७ श०६ उ०। बीयरुइ पुं०(बीजरुचि) बीजमिव बीजम्, यदेकमप्यनेकार्थप्रतिबोधोबी(वी) य न० (बीज) उत्पत्तिकारणे, सूत्रा०२ श्रु०३ अ० / विशे० / त्पादक वचस्तेन रुचिर्थस्य ह्येकेनापि जीवाऽऽदिना पदेनावगतेनानेकेषु स्था० / शौक्रपुद्रले, शौक्राः पुद्गलाः। ते च द्विधा चिक्कणाः, सस्निग्धा पदार्थेषु रुचिरुपैति स बीजरुचिः / स्था० 10 ठा० / प्रज्ञा० / उत्त० / उच्यन्ते। व्य०६ उ०। उत्त०।अनुङ्करितावस्थे (बृ०४ उ०) शाल्यादौ, एकेन पदेनानकेपदतदर्थप्रतिसंधाद्वारोदके तैलबिन्दुवतु प्रसरलशीला सूत्रा०१ श्रु०७। स्था० / आचा०। ज्ञा०। उत्त० / प्रश्न० / बीज द्विविध रुचिर्बीजरुचिः / ध०२ अधि० / प्रव० / 'निस्सग्गुवदेसरुई, आणारुइ भवति-योनि भूतम्, अयोनिभूतं च / दश० 4 अ०। 'बीए जोणिभूए सुत्तबीयरुइचेव। अभिगमवित्थाररुई, किरियासंखेच धम्मरुई॥१॥" जीवो वक्कमइ सो व अन्नो वा' योन्यवस्थे बीजे योनिपरिणामजह प्रज्ञा०१ पद। नीत्यर्थः / बीजस्य हि द्विधाऽवस्था योन्यवस्थाऽयोन्यवस्था च / यदा योन्यवस्था न जहाति बीजमुज्झितं व जन्तुना तदा योनिभूतमुच्यते, बीयरुहपुं० (बीजरुह) बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाः। शाल्यादिवनस्पतिषु, दश०४ अ० स्था०। आचा०। योनिस्तुजन्तोरुत्पत्तिस्थानमविनष्टमिति, तस्मिन बीजे योनिभूते जीवो त्युत्कामत्युत्पद्यते / आचा० श्रु०५ अ०१ उ० / कुसुमपुरोप्ते बीजे. बीयवकं ति स्त्री० (बीजव्युत्क्रान्ति) बीजेभ्यो वनस्पतीनामुत्पत्ती, मथुरायांनाङ्कुरः समुद् --भवति। यौव तस्य बीज, तौवोत्पद्यते प्रसवः "वणस्सइकाइयाण पंचविहा बीयवकंती एवमाहिजई"त०।"अगमूल||१|| सूत्र०२ श्रु०३ अ०। नि० चू० वनस्पतीनां तत्तदवनस्पतीनां पोरुक्खंधबीयरुहा छट्ठा वि एगेंदिया संमुच्छिमा बीया। सूत्रा०२ नवोद्भिन्ने किशलये, कल्प० 3 अधि० क्षण। सत्यक्त्वे, पं० सू० 4 सूत्र / श्रु०३ अ०) सम्यग्दर्शनभावे हेतौ, दर्श० तत्त्व। बीयसंसत्तन० (बीजसंसक्क) बीजैः संसत्के ओदनाऽऽदिके, बीजेषु अपरेण बीयंबीयग पुं० (बीजबीजक) स्वनामख्याते पक्षिणि, भ०१३ श०६ उ०। संसत्केषु चाऽऽरनालाऽऽदिषु, दश०६ अ०। बीयकाय पुं० (बीजकाय) बीजमेव कायो येषां ते तथा। अग्रमूलस्कन्ध बीयसुहूम न० (बीजसूक्ष्म) शाल्यादिबीजस्य मुखभूले कणिकायाम, लोके तुषमुखमित्युच्यमानायाम, दश० 8 अ० / स्था० / से किं तं त्वग्वीजेषु वनस्पतिकायेषु. सूत्रा० 2 श्रु० 3 अ०। बीयसुहमे ? बीयसुहुमे पंचविहे पन्नत्ते। तंजहा-किण्हे० जाव सुकिल्ले। बीयगपुं० (बीजक) अनशवृक्षे, आचा०२ श्रु०२ चू० 3 अ०। सुवर्णे व्य० अस्थि बीअसुहुमे कण्णियासमाणवण्णए नाम पन्नत्ते / जे छउमत्थे णं० 10 उ०। रा०। जं०। जी०। जाव पडिलेहियव्वे भवइ / से तं बीयसुहुमे / कल्प० 3 अधि०६ क्षण। बीयगकुसुम न० (बीजककुसुम) असनाख्यवनस्पतिपुष्पे, रा०। बीया स्त्री० (द्वितीया) प्रतिपदोऽनन्तरितायां तिथौ. 'पा Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीया 1325 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बुद्ध डिवए पडिवत्ती, नस्थि विवत्ती भणति दीयाए।" द०प०। बीयावपुं० (बीजाप) दक्षिणापरस्यां दिशि स्वनामख्याते शुद्धविदिग्वाते. आ०म०१ अ०। बीयासवपुं०(बीजाऽऽसव) बीजैर्निष्पाद्ये आसवे, प्रज्ञा०१ पद। बीस स्त्री० (विंशति) द्विरावृत्तदशसंख्यायाम, स्था०२ टा० 1 उ०। बीसइया स्त्री० (विंशतिका) हरिभद्रसूरिविरचितविंशति - पद्यमयविंशतिखण्डके ग्रन्थभेदे, प्रति०। व्य०। बीसा स्त्री० (विंशति) "ईर्जिह्वा-सिंह-त्रिंशद्-विंशतीत्या / " / / 1 / 12 / / इति विंशतिशब्देकारस्य तिशब्देन सह ईत्वम्। प्रा०१ पाद / "विंशत्यादेर्लुक्"11८/१।२८|| इत्यनु स्वाराऽऽगमः / प्रा० 1 पाद। बीहि पुं०(ब्रीहि) सामान्यशालौ, भ०६ श०६ उ०। प्रज्ञा०। स्था०। षाष्ठि (ष्टि) काऽऽदौ धान्ये, ध०३ अधि०। जं०। बीहिय त्रि०(भीत)"मियो भा-बीहौ" ||4 // 53 // इति विभेते/हा ऽऽदेशः। संजातभये, प्रा०४ पाद। बुंदिणी (देशी) कुमारीसमूहे. दे० ना०६ वर्ग 64 गाथा। बुंदी स्त्री० शरीरे, "मुत्ती गत्तं बुंदी, संघयणं विग्गहो, तणूकाओ।" पाइ० ना०५६ गाथा। चुम्बन-सूकरयोः, दे० ना०६ वर्ग 68 गाथा / बुंदीर (देशी) महिष-- महतोः, दे० ना०६ वर्ग 68 गाथा। बुंधन० (बुध्न) "वक्राऽऽदावन्तः // 8/1 / 26 / / इत्यनुस्वाराऽऽगमः / मूले, प्रा० 1 पाद। बुक्क धा० (गर्ज) महाशब्दकरणे, "गर्जेर्बुक्कः" ||4|18|| इति गर्जतेर्बुक्काऽऽदेशः / बुक्कइ / गर्जति / प्रा०४ पाद। बुक्कण पुं० (बुक्करण) "बलिउट्ठा रिट्ठा बु–क्का ढका य कायला काया।" पाइ० ना०४४ गाथा। काके, दे० ना०६ वर्ग 44 गाथा। बुक्कस न० (बुक्कस) मुद्गाऽऽदीना तुषे, उत्त० 8 अ० / वर्णान्तर भेदे, उत्त० पाई०३ अ०। यस्य शूद्रः पिता भवति माता ब्राह्मणी तत्पुत्रो बुक्कस इत्युच्यते। उत्त० 3 अ०। बुक्का स्त्री० (बुक्ला) "बुक्का मुट्ठी।" पाइ० ना० 226 माथा। मुष्टी, ब्रीहिमुष्टी इत्यन्ये। दे० ना०६ वर्ग 64 गाथा। बुक्कासार (देशी) भीरौ, दे० न०६ वर्ग 65 गाथा। बुज्झमाण त्रि० (उह्यमान) अभिमुखं नीयमाने, सूत्रा० 1 श्रु०११ अ०। * बुध्यमान त्रि०"त्व-थ्व-द्र-ध्वांच-छ-ज-झाः कचित्" |चा२।१५।। इति ध्यस्थाने झः।प्रा०२ पादा बुज्झा वेति वा पचक्खाण त्ति वा एगहा।" आ० चू०१अ01 अवगच्छति, सूत्रा०१ श्रु०१० अ०। बुज्झिअत्रि० (बुद्ध)ज्ञाते, "कलिअंविइविण्णा य अहिगयं बुज्झिअं मुणि।" पाइ० ना०६१ गाथा। बुत्ती (देशी) ऋतुमत्याम, दे० ना०६ वर्ग 64 गाथा। बुद्ध पुं०(बुद्ध) अवगततत्त्वे, स०। द्वा०ादश०। आचा०। सूत्रः। उत्त०।। बुद्धभगवति, "सुद्धोअणी दसबलो, सक्को सुगओ जिणो बुद्धो।"पाइo ना० 20 गाथा / बुध्यते स्म केवल ज्ञानेनेति बुद्धः केवलज्ञानेन अवगतवस्तुतत्त्वे, उत्तल पाई०१ अ०। सूत्रा० / आचा०। कल्प० / अनु० / ध०। पा० / प्रव० / आ० म० / विज्ञानवति, आ० चू०५ अ०। जीवाऽऽदितत्वं बुद्धवति भ०१ श०१ उ० / स०! औ० / स्था० / सूत्रा० / केवलज्ञानदर्शनाभ्यां विश्वावगमात् (आ०म० अ०। औ०) कालायवेदिनि, सू०१श्रु०१४ अ०ा तत्त्वार्थ ज्ञानवति, कल्प०१ अधि०६क्षण / स्था० / सर्वतत्त्वबुद्धे, कल्प०१ अधि० 2 क्षण / ब्रोधिसत्त्वे, हा० 26 अष्ट० / बोधि प्राप्ते, हा०२३ अष्ट० / स० / अज्ञाननिद्राप्रसुप्त जगत्यपरोपदेशेन जीवाजीवाऽऽ दिरूपं तत्त्वं बुद्धवान् बुद्धः / स्वसंविदितेन ज्ञानेनान्यथा बोधायोगात् (त०। आ० म०1) सर्वज्ञसर्वदर्शिस्वभावबोधरूपे, ल०। रा०।०। दुविहा बुद्धा पण्णत्ता / तं जहा-णाणबुद्धा चेव, दंसण बुद्धा चेव। द्विविधा बुद्धाः, एते च धर्मत एव भिन्ना न धर्मितया ज्ञानदर्शनयोरन्योन्याविनाभूतत्वादिति / स्था०२ठा०४ उ०॥ तिविहा बुद्धा पण्णत्ता / तं० जहा-नाणबुद्धा, सणबुद्धा, चरित्तबुद्धा। स्था०३ ठा०२ उ०। आचार्य, उत्त० 1 अ०। सूत्र०। आ० म० / शाक्यानां तीर्थकृति, सूत्रा०१ श्रु०१ अ०४ उ०। यो हि पार्श्वजिनकाले काश्या उत्तरस्या दिशि कपिलवस्तुसंनिवेशे शुद्धोदनस्य राज्ञोमायादेव्यामग्रम हिष्या जज्ञे, त्रिशद्वर्षाणि गृहिपर्यायं परिपा,ल्व जातकपुत्राः प्रवव्राज, षड् वर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य सर्वज्ञतामवाप्य काशिकोशलमगधेषु धर्मचक्र प्रवाशीतितमे वर्षे सिद्ध इति ललितविस्तराऽऽदीनां बौद्धग्रन्थानामतिसंक्षेपः / यो० वि०। सर्व क्षणिक पञ्चस्कन्धाऽऽत्मकं, नित्यानुमेयमप्रत्यक्ष, विज्ञानमात्ररूप, शून्याऽऽत्मक वेति चतुर्धापदेशो बुद्धस्य सूत्रान्ति कवैभाषिकयोगाऽऽचारमाध्यमिक संज्ञैश्चतुर्भिः शिष्यैरभिगृहीतोऽस्माभिः क्षणिकवादविज्ञानवादशून्यवादादिशब्दे निवेशितस्तत्र तत्रौय सप्रत्युत्तरो वेदितव्यः / सूत्र०१ श्रु०१ अ० 1 उ० / नास्तीह कश्चिदभाजनं सत्त्व इति सर्वेबुद्धा भविष्यन्तीति, तन्मतेऽभव्या नसन्ति सर्वेषां मुक्त्यर्हत्वात्। ध०२ अधि०। अथ बौद्धमतं निरूप्यतेतत्राहि पदार्था द्वादशाऽऽयतनानि तद्यथा-चक्षुरादीनि पञ्च रूपाऽदयश्च विषयाः पश्च शब्दाऽऽयतनं धर्माऽऽयतनं च, धर्माः सुखाऽऽदयो द्वादशाऽऽयतनपरिच्छेदके प्रत्यक्षानुमानेद्वे, एव प्रमाणे। तत्रा चक्षुरादीन्द्रियाण्यजीवग्रहणेनैवो पात्तनि, भावेन्द्रियाणि तु जीवग्रहणेनेति, रूपाऽऽदयश्च विषया अजीवोपादानेनोपात्ता न पृथगुपादातव्याः, शब्दाऽऽयतन तु पौगलिकत्वाच्छब्दस्यां जीवाग्रहणेन गृहीतं, न च प्रतिव्यक्ति पृथक पदार्थता युक्तिसङ्गतेति; धर्माऽऽत्मकं सुखं दुःखं च यद्यसातोदयरूपं ततो जीवगुणत्वाजीवेऽन्तर्भावः। अथ तत्कारणं कर्मततः पौगलिकत्वादजीव इति / प्रत्यक्षं च तैनिर्विकल्पकमिष्यते, तचानिश्चयाऽऽत्मकतया प्रवृत्तिनिवृत्त्योरनङ्गभित्यप्रमाणमेव, तदप्रामाण्ये तत्पूर्वकत्वादनुमानमपीति, शेषरत्वाक्षेपपरिहारोऽन्यत्र सुविचारित इति Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्ध 1326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बुद्धि नेह प्रतन्यते। सूत्रा० 1 श्रु०१२ अ०। (अकिरियावाइ' शब्दे प्रथमभागे 127 पृष्टेऽप्ययं प्रतिक्षिप्तः) बुद्धगर पु० (बुसकर) षट्त्रिंशत्तमे ऋषभदेवपुत्रो, कल्प०१ अधि०१क्षण। बुद्धजागरिया स्त्री० (बुद्धजागरिका) व्यपोढाज्ञाननिद्राणां प्रबोधे, ''बुद्धा बुद्धजागरियं जागरेंति।" बुद्धाः केवलावबोधेन ते च बुद्धानां व्यपोढाज्ञाननिद्राणां जागरिका प्रबोधो बुद्धजागरिका, तां जाग्रतिं कुर्वन्ति। भ०१२ श०१ उ०। बुद्धतत्तपुं० (बुद्धतत्व) संयते, स्था० 3 ठा० 4 उ०। बुद्धपडिमा स्त्री० (बुद्धप्रतिमा) शाक्यसिंहाऽऽदिबुद्धमूर्ती, व्य०१ उ०। बुद्धपुत्त पुं० (बुद्धपुत्रा) बुद्धानामाचार्याणां पुत्र इव पुत्रो बुद्ध पुत्रः। आचार्याणां शिष्ये, उत्त०१ अ०। बुद्धप्पवाय पुं० (बुद्धप्रवाद) आप्तप्रवादे, पं०व०१द्वार। बुद्धबोहिय त्रि० (बुद्धबोधित) आचार्याऽऽदिबोधिते. पा०। बुद्धबोहियसिद्ध पुं० (बुद्धबोधितसिद्ध) बुद्धबोधिता आचार्याऽऽदिबोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धबोधितसिद्धाः / सिद्धभेदे पा०। ध०। ल०। श्रा०। नं०। प्रज्ञा० / आ० चू०। बुद्धमाणि(ण) पु० (बुद्धमानिन्) पण्डितमानिनि, वयमेव प्रतिबुद्धा धर्मतत्त्वमित्येवं मन्यमाने, "तमेव अविआणता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो। (25 गाथा)' सूत्रा 1 श्रु०११ अ०। बुद्धवयणन० (बुद्धवचन) अवगततत्त्वीर्यकरगणधरवचने, दश०१० अ० / औ०। भगवतामर्हतां वचने सर्वस्वभाषाऽनुगते वचने, रा०ा (बुद्धवचनातिशयाः 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 31 पृष्ठे गताः) बुद्धसासण न० (बुद्धशासन) बौद्धाऽऽगमे, "सूक्ष्मयुक्तिश तोपेतं, सूक्ष्मबुद्धिकरं परम्। सूक्ष्मार्थदर्शिभिदृष्ट, श्रोतव्यं बुद्धशासनम्॥१|| स्था० 7 ठा० / 'गन्ता च नास्ति कश्चिद्, गतयः षड़ बौद्धशासने प्रोक्ताः। गम्यत इति च गतिः स्याच्छुतिः कथं शोभना बुद्धिः? ||1|| सूत्र०१श्रु० 12 अ०। आ०म०। अनु०। बुद्धाइसेस पुं० (बुद्धातिशेष) तीर्थकृतामतिशये, स०३४ सम०।। बुद्धि स्त्री० (बुद्धि) महत्तत्त्वाऽऽख्ये जडानवबोधस्वरूपे, स्या० / 'मेहा मई मणीसा, विन्नाणं धी चिई बुद्धी'' पाइ० ना०३१ गाथा / अध्यवसाये, सूत्र०१ श्रु०१२ अ० स्या०। मत्यादि पञ्चविधेज्ञाने, स्या०। उपयोगो ज्ञानमित्येतच ज्ञानविशेषः / सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। तथाविधोहरहिते शब्दार्थश्रवणमात्रजे ज्ञाने, यदाह-''इन्द्रियार्थाऽऽश्रया बुद्धिः / ज्ञानं तथाविधेन गृहीतार्थतत्त्वपरिच्छेदः। द्वा० 23 द्वा०। बुद्धः परप्रकाश्यत्वम्। द्वा०११ द्वा०॥ बुद्धेः क्षणिकत्वनिराकरणम् - तथात्वे (क्षणिकत्ये) वा तस्याः (बुद्धेः) न ततस्संस्कारः तदभावान्न स्मरणं, तदभावाच न प्रत्यभिज्ञाऽऽदिव्यवहारः न हि विनष्टात्कारणात् कार्यम्, अन्यथा चिरतरविनष्टादपि ततस्तत्प्रसङ्गात्, अनन्तरस्य कारणत्वे सर्वमनन्तरं तत्कारण मासज्येत / अथैकार्थसमवायिज्ञान- | मनन्तरं तत्कारणं, न; ज्ञानस्याऽऽत्मनो भेदे समवायस्य सर्वज्ञाऽविशेष इत्यसिद्धम् विनष्टाच कारणात्कथमनन्तरं कार्य , येनाऽऽनन्तर्य कार्यकारणभावनिबन्धनत्वेन कल्प्येत? न हि तत्कारणं, नापि तत्तस्य कार्य, तदभाव एव भावात् / न हि यदभावेऽपि यद्भवति तत्तस्य कार्यमितरकारणमिति, व्यवस्था, अतिप्रसङ्गात् / विनश्यदवस्थं कारणमिति चेन्न / सोऽपि विनश्यदवस्था यदि ततो भिन्ना, तर्हि तया तदभिसंबन्धाभावादनुपकाराद् विनश्यदवस्थम् इति कुतो व्यपदेशोऽतिप्रसङ्गादेव? उपकारे वा सोऽपि यदि ततो व्यतिरिक्तोऽतिप्रसङ्गोऽनवस्थाकारी। अव्यतिरेके विनश्यदवस्यैव तेन कृता स्यात्, तामपि यद्यविनश्यदवस्थमेव कारणमुत्पादयत्किं प्रकृतेऽपि विनश्यदवस्थाकल्पनेन ? विनश्यदवस्थं चेत्तां कुर्यादन्या तर्हि ततोऽर्थान्तर भूता विनश्यदवस्था कल्पनीया। तया तदभिसंबन्धाभावः अनुपकाराद्। उपकारे वा तदवस्थः प्रसङ्गोऽनवस्था च / तथा चापरापरविन श्यदवस्थोत्पादनेनोपक्षीणशक्तित्वात्प्रकृतकार्योत्पादमनवसरं प्रसत्कम् विनश्यदवस्थायास्तत्रा समवायात्तद्विनश्यदवस्थमित्यपिवार्तम्, विहितोत्तरत्वात्। अयाऽभिन्ना, तर्हि विनश्यदवस्था, कारणैसंमयसंगता. एवं च विनश्यदवस्थं कारणं कार्य करोतीति, कोऽर्थः? स्वोत्पत्तिकाल एव करोतीत्यर्थः। समायातस्तथा च कार्यकारणयोः सव्येतरगोविषाणवदेककालत्वान्न कार्यकारणभावः, तथाऽपि तद्भावे सकलकार्यप्रवाहस्यैकक्षणवर्तित्वम् / अथ न सौगतस्येवाणोरण्वन्तर व्यतिक्रमलक्षणेन क्षणेन क्षणिकत्वयेनायंदोषःकिं तु षट् समयस्थित्यनन्तरनाशित्वंतत्, ननु कालान्तरस्थायिनि तथा व्यवहार कुर्यन, सहस्रक्षणस्थायिन्यपि तत्रातं किं न कुर्यात् ? अपि चपूर्वपूर्वक्षणसत्तातः उत्तरोत्तरक्षणसत्ताया भेदाभ्युपगमेतदेव सौगतप्रसिद्ध क्षणिकत्वमायातम्। अभेदाभ्युपगमे पूर्वक्षणसत्तायामेवोत्तरक्षणसत्तायाः प्रवेशादेकक्षणस्थायित्यमेव, नषट्क्षणस्थायित्वं बुद्धः परपक्षे संभवति, भेदेतरपक्षाभ्युपगमे, चाऽनेकान्तसिद्धिः, षट्क्षणस्थानानन्तरं च निरन्वयविनाशेन ततः किंचित्कार्य सम्भवतीत्युक्तम्। न चैवं बुद्धिक्षणिकत्ववादिनः वचित्कालान्तरावस्थायित्वं सिद्ध्यति, तद्ग्रहणाभावात् / तथाहि - पूर्वकालबुद्धेस्तदैव विनाशान्नोत्तर कालेऽस्तित्वमिति न तेन तया सांगत्यं कस्यचित्प्रतीयते, अति प्रसगात्। उत्तरबुद्धेश्च पूर्वसंभवान्न पूर्वकालेन तत्तयाऽपि प्रतीयते। उभयत्राऽऽत्मनः सद्भावात्ततस्तत्प्रतीतिरित्यपि नोत्तरम्, आकाशसद्भावात्तत्प्रतीतिरित्यस्यापि भावात् / तस्या चेतनत्वान्नेति चेत्, स्वयं चेतनत्वे आत्मनः स येन स्वभावेन पूर्व रूपं प्रतिपद्यते न तेनोत्तरम्, न हि नीलस्य ग्रहणमेव पीतग्रणं, तयोरभेदप्रसङ्गात् / अथान्येन स्वभावेन पूर्वमयग-च्छन्ति, अन्येनोत्तरमिति मतिस्तथासत्यनेकान्त सिद्धिः / स्वयं चाऽऽत्मनश्चेतनत्वे किमन्यथा बुध्या ? यस्याः क्षणिक्त्वं साध्यते ? अथ स्वयं नचेतन आत्मा, अपितु बुद्धिसंबन्धात्चेतयत इत्याप्यचेतनस्वभावपरित्यागे नित्यताऽऽत्मनोऽन्यबुद्धिकल्पनावैफल्य च, स्वयमपि तत्संबन्धात् प्रागपि तथाविधस्वभावाविरोधात् / तत्संबन्धेऽपि तत्स्वभावापरित्यागे'ज्ञानसंबन्धादात्मा चेतयते' इत्यपि विरुद्धमेव / अथ तत्समवायिकारणत्वात् चेतयते, न स्वयं, चेतन स्वभावोपादानादिति तर्हि येन स्वभावेन पूर्वज्ञानं प्रति समवायिकारणमात्मा तेनैव यद्युत्तरं प्रति, तथा सति पूर्वमेव तत्कार्यं ज्ञानं सकल भदेत, न ह्यविक Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1327 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 ले कारणे सति कार्यानुत्पत्तिर्युत्का, तस्याऽतकार्यत्वप्रसङ्गात्। अथ पूर्व सहकारिकारणाभावान्न तत्कार्य, किं पुनः स्ययमसमर्थस्याकिञ्चितकरेण सहकारिणा किञ्चित्करत्वेऽपि यदि तत्ततो भिन्नं क्रियते प्रतिबन्धासिद्धिरनवस्था वा अभिन्नस्य करणेऽप्यात्मन करणमिति कार्यता / कथञ्चिदभिन्नस्य करणे तबुद्धिरपि, ततः कथञ्चिदभिन्नेति न एकान्तेन तस्याः क्षणिकता (1 गाथा टी०) सम्म०१ काण्ड। (1 गाथा टी०) बुद्धेर्गुणत्वम्तथाहि-गुणो बुद्धिः, मतिबिध्यमानद्रव्यकर्मभावे सति सत्तासंबन्धित्वात्, यो यःधतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावे सति सत्तासंबन्धो स स गुणः, यथा, रूपाऽऽदिः,तथा चबुद्धिः, तस्माद् गुणः। न च प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वमसिद्ध बुद्धेः। तथाहि-बुद्धिर्द्रव्यं न भवति, एकद्रव्यत्वाद, यददेकद्रव्यं सत्तद् द्रव्यं न भवति, यथा रूपाऽऽदि, तथा च बुद्धिः, तस्मानविशेषवत्वे सत्ये केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्, यद्यत्सामान्यविशेषेवत्वे सत्येकेन्द्रियप्रत्यक्षं तत्तदेकद्रव्यं, यथा रूपाऽऽदि, तथा च बुद्धिः, तस्मादेक द्रव्या / न च एकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वाद्' इत्युच्यमाने आत्मना व्यभिचारः, तस्यैकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वे विवादात् / आपि वायुना, तत्रापि तत्प्रत्ययक्षत्वस्य विवादाऽऽस्यदत्वात. तथापिरूपत्वाऽऽदिना व्यभिचारः, तनिनवृत्त्यर्थं 'सामान्यविशेषवत्वे सति' इति विशेषणोपादानम् / न च रूपस्यान्तः करणग्राह्यतया द्वीन्द्रियग्राह्यता, चक्षुरिन्द्रियस्यैव 'च, क्षुषा रूपं पश्यामि' इति व्यपदेशहेतोः, तत्र करणत्वसिद्धिः, मनसस्त्वान्तरार्थप्रतिपत्तावेवाऽसाधारणकरणत्वात्। अथवैकद्रव्या बुद्धिः, सामान्यविशेषवत्वे अगुणवत्त्वे च सत्यचाक्षुषप्रत्यक्षत्वात्, शब्दवत्। तथा, न कर्म बुद्धिः संयोगविभागाकारणत्वात, यद्यत् संयोगविभागाकारणं तत्तत्कर्म न भवति, यथा रूपाऽऽदि, तथा च बुद्धिः तस्मान्न कर्म / तस्मात्सिद्धः प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावो बुद्धः / न च सत्तासंबन्धित्वमसिद्धं युद्धेः, तत्र 'सत्' इति प्रत्ययोत्पादात्। न च सत्ता भिन्ना न सिद्धा, तद्भेदप्रतिपादकप्रमाणसद्भावात्। तथा हि-यस्मिन् भिद्यमानेऽपि या भिद्यते तत् ततोऽर्थान्तरं, यथा भिद्यमाने वस्त्राऽऽदावभिद्यमानो देहः, भिद्यमाने च बुद्ध्यादौन भिद्यते सत्ता, द्रव्याऽऽदौ सर्वत्र सत्सद्' इति प्रत्ययाभिधानदर्शनात्, अन्यथा तदयोगात् / सा च बुद्धिसंबद्धा, ततस्तत्र विशिष्टप्रत्ययप्रप्रतीतः / तथाहि-यतो यत्र विशिष्टप्रत्ययः स तेन संबद्धः, यथा दण्डो देवदत्तेन, भवति च बुद्ध्यादौ सत्तातस्तत्प्रत्ययः ततस्तया संबवेति / प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वाद्' इत्युच्यमाने सामान्याऽऽदिना व्यभिचारः तनिनवृत्यर्थे 'सत्तासंबन्धित्वाद्' इति वचनम् / ‘सत्तासंबन्धित्वाद्' इत्युच्यभाने द्रव्यकर्मभ्यामनेकान्तः, तन्निवृत्यर्थे प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावे सति इति विशेषणं, तदेवं भवत्यतोऽनुमानाद् बुद्धेर्गुणत्वसिद्धिः, (अस्मदाद्युपलभ्यमानत्वं च बुद्धेस्तदेकार्थसमवेतानन्तरज्ञानप्रत्यक्षत्वान्नासिद्धम्। (1 गाथा टी०) सम्म०१ काण्ड। यदपि चिद्रूपत्वादुद्धर्भेदप्रसाधनायपरैरनुमानमुपन्यस्यतेयद्यदुत्पत्तिमत्वनाशित्वाऽऽदिधर्मयोगि तत्तचेतन, यथा रसाऽऽदयः तथा च बुद्धिरिति स्वभावहेतुरिति / तत्राऽपि वक्तव्यम्-किमिदं स्वतन्त्रसाधनम्, आहोश्वित् प्रसङ्गसाधनमिति ? तत्र स्वतन्त्रसाधानेऽन्यतरासिद्धो हेतुर्यतो यथाविधमुत्पत्तिमत्वमपूर्वोत्पादलक्षणं नाशित्वं च निरन्व गविनाशा ऽऽत्मक प्रसिद्ध बौद्धस्य न तथाविधं सांख्यस्य, तयोराविर्भावतिरोभावरूपत्वेन तेनाङ्गीकरणात्, यथा च साख्यस्य तौ प्रसिद्धौ न तथा बौद्धस्येति कथं नान्यतरासिद्धता ? न च शब्दमात्रासिद्धौ हेतुसिद्धिः, वस्तुसिद्धौ वस्तुन एव सिद्धस्य हेतुत्वात् / तदुत्कम् - "तस्यैव व्यभिचाराऽऽदौ, शब्देऽप्य व्यभिचारिणि / दोषवत्साधनं शेयं, वस्तुनो वस्तुसिद्धितः / / 1 / / '' इति / अथ प्रसङ्ग साधनमिति पक्षः तदा साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणप्रदर्शनादनकानितकता, नात्रा प्रतिबन्धोऽस्ति चेतनस्योत्पाद्-नाशाभ्यां न भवितव्यमिति। यदपि प्रकल्पितम् "वत्सविवृद्धिनिमित्तं, क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य। पुरुषविमोक्षनिमित्तं, तथा प्रवृतिः प्रधानस्य // 1 // ' (साङ्घयकारिका 57) इति तथापि न सम्यक् / यतः क्षीरमपि न स्वातन्त्र्येणं वस्तविवृद्धि चेतस्याधाय प्रवर्तते, किं तर्हि ? कादाचित्केभ्यः स्वहेतुभ्या प्रतिनियतेभ्यः समुत्पत्तिमासादयति। तच लब्धाऽऽत्मलासं वत्सविवृद्धिनिमित्ततामुपयातीत्याचेतनमपि प्रवर्त्तते इति व्यपदिश्यते, मत्वेवं प्रधानस्य कादाचित्कीप्रवृत्तिर्युक्ता, नित्यत्वात्तस्यान्यहेत्वभावाच्च / तथाहि-न तावत्कादाचित्ककारणुसन्निधानायत्ता कादाचित्की शक्तिरस्य युत्का तदभावात् / नापि स्वाभाविकी सदा सन्निहिता, अविकलकारणत्वेन सर्वस्याभ्युययनिःश्रेयसलक्षणस्य पुरुषार्थस्य युगपदुत्पत्तिप्रसङ्गात्।न च बुद्धिचैतन्ययोरभेदेऽपि चैतन्यस्याऽऽत्मत्वप्रतिषिद्धमेव, यतो नास्माभिः चैतन्ये आत्मशब्दनिवेशः प्रतिषिध्यते, किं तर्हि यस्तता नित्यत्वलक्षणोधर्मः समारोपितः स एव निषिध्यते, तन्नित्यत्वेऽक्षसंहतेवैफल्यप्रसत्केः, तदुत्पत्यर्थत्वात्तस्या-नित्यत्वे चोत्पत्तेरसंभवात् / न हि वः सदाऽस्तित्वेतदर्थ जनतेन्धनमाददीत। तन्न नित्यैकरूपं चैतन्य युक्सिङ्गतम् / (3 गाथा)। सम्म०१ काण्ड। अवग्रहेहारूपे मतिज्ञानभेदद्वये, नं० / अवग्रहे बुद्धिरपायधारणे मतिः। नं०। अष्टो बुद्धिगुणाः। ते चामोसुस्सूसइ पडिपुच्छइ, सुणेइ गिण्हइ य ईहए चाऽवि। तत्तो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा सम्मं // 561 / / विनययुत्को गुरुमुखात् श्रोतुमिच्छति शुश्रूषते, पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छतितदधीतं श्रुतं निःशङ्कितं करोतीत्यर्थः / तचाऽधीतं श्रुतमर्थतः शृणोति / श्रुत्वाऽवग्रहण गृह्णाति, गृहीत्वा चेहया ईहते पर्यालोचयतिकिमिदमित्यम् ? उतान्यथेति ? चशब्दः समुच्चार्थः / अपिशब्दात्पर्यालोचयन् किञ्चित्स्वबुद्ध्याऽप्युत्प्रेक्षते / ततस्तदनन्तरमपोहते च एवमेतद्यदादिष्टं गुरुभिरेवं निश्चिनोति / निश्चिते चार्थे सदैव चेतसि धारयति, करोति च सम्यक्तदुत्कानुष्ठानं, श्रुताऽऽज्ञानुष्ठानस्यापि तदावरणक्षायोपशमगुरुचित्ताऽऽवर्जनाऽऽदिहेतुत्वेन श्रुतप्राप्त्युपायत्वादिति। अथवा यद्यदाज्ञापयति कार्यजातं गुरुस्तत् तत् सम्यगनुग्रहं मायमानः श्रोतुमिच्छति शुश्रूषति। पूर्वनिरूपितश्च कार्यकरणकाले पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति। इत्थं चाऽऽराधितस्य गुरोरन्तिके सूत्रां, तदर्थ वा सम्यग शृणोति। श्रुतं चावग्रहण गृह्णाति, इत्यादि पूर्ववत् / अन्ये तु व्यालक्षतेप्रतिपृष्टेन गुरुणा पुनरादिष्टश्च संस्तद्वचः सम्यक् शृणोति, श्रुत चावग्रहेण सम्यगृहातीत्यादि तथैव, यावत्करोति च गुरुभणितं सम्यगिति। एवंगुराधनविषयत्वेनाष्टावपि गुणा व्याख्यायनते, श्रुतावाप्ती Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1328 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बुद्धिसागर मूलोपायत्वाद् गुर्वाराधनायाः / इति नियुक्तिगाथाऽर्थः / उदिटुंतसाहियाऽवयविवागपरिणामा। हियनिस्सेसफलवई, बुद्धीपरिसुस्सूसई उसोउं, सुयमिच्छइ सविणओ गुरुमुहाओ। णामिया नाम / / 1 / / 'इति। अभयकुमाराऽऽदीनामिवेति। स्था० 4 ठा० 4 उ०नं०।कर्मा आ०क०।दर्श०। स०। आ० म०। ज्ञा०। (अत्रा पडिपुच्छइ तं गहियं, पुणो वि निस्संकियं कुणइ / / 562 / / विस्तरः 'परिणामिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 616 पृष्ठे गतः)। परमातिसुणइ तदत्थमहीउं, गहणेहाऽवायधारणा तस्स। शये, तिस्रो हि बुद्धयः परमातिशयरूपाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्ते / तद्यथासम्म कुणइ सुयाऽऽणं, अन्नं पि तओ सूयं लहइ / / 563 / / कोष्टबुद्धिः, पदानुसारिणीबुद्धिः बीजबुद्धिश्च / नं०। परलोकप्रवणायां द्वितीयं व्याख्यानमाह - बुद्धौ, उत०२ अ० / रुक्मिवर्षधरपर्वते महापौण्डरीकह्न देवतायाम, स्था० 2 ठा० 3 उ० / जं० / बुद्धिसाफल्यकारणत्वात् अहिंसायाम, सुस्सूसइ वा जं जं, गुरवो जपंति पुव्वभणिओ य। यदाह-वाहत्तरिकलकुसला, पंडियपुरिसा य पंडिया चेव। सव्वकुणइ पडिपुच्छिऊणं, सुणेइ सुत्तं तदत्थं वा / / 564!! कल्लाणपवरं जोधम्मकला न याणंति ।।१।।"धर्मश्चाहिं सेव / प्रश्न तिम्रोऽपि व्याख्यातार्था एव, नवरं द्वितीयगाथायां शृणोति तदर्थ १संब० द्वार। श्रुतार्थम्, एवं चसूातोऽर्थतश्च अधीत्य श्रुतं ततस्तस्य श्रुतस्य ग्रहणेहा- ! बुद्धिंदियन० (बुद्धीन्द्रिय) स्पर्शरसनाघ्राणचक्षुःश्रोत्रालक्षणेषु ज्ञानेन्द्रियेषु, पायधारणाः सम्यक्करोतीत्यत्र संबध्यते। तथा (सुयाऽऽणं ति) श्रुताऽऽज्ञा सूत्रा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। श्रुतोक्ताऽनुष्ठान सम्यक्करोतीत्यावृत्त्याऽत्रापि संबध्यते। एवं च कुर्वाणोऽ बुद्धिकूडन० (बुद्धिकूट) रुक्मिवर्षधरपर्वते महापुण्डरीकदहसुरीकूटे, जं० न्यदपि श्रुतं लभत इति तृतीयगाथायाम्-"सुस्सूसइ पडिपुच्छइ सुणेइ 4 वक्ष०। त्ति एतावान्नियुक्तिगाथाऽवयवो व्याख्यातः / तीत्यादेरर्थः प्राक्कथितः बुद्धिजुत्त त्रि०(बुद्धियुक्त) प्राज्ञे, पं०व०४ द्वार। स्वयमेव द्रष्टव्य इति // 564 // विशे०। धानं०। बुद्ध्यतेऽनयेति बुद्धिः। बुद्धिपरिसा स्त्री० (बुद्धिपर्षद्) बुद्धिमत्पुरुषसमन्वितस्य राज्ञः परवादिअश्रुतनिश्रुतमतिज्ञाने, स्था०। प्रवादपरीक्षणार्थे पर्षभेदे, बृ०१ उ०१ प्रक०। चउध्विहा बुद्धी पण्णत्ता / तं जहा-उप्पइया, वेणइया, बुद्धिबोहिय नि० (बुद्धिवोधित) नन्दीवृत्तौ "खित्तो गाहण' गाथाविचारे कम्मिया, पारिणामिया। बुद्धद्वारे सस्तोकाः स्वयंबुद्धसिद्धाः, तेभ्योऽपि प्रत्येकबुद्धसिद्धाः उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, न तु क्षयोपशमकारण- संख्येयगुणाः तेभ्योऽपि बुद्धिबोधितसिद्धाः संख्येयगुणाः तत्कथम् ? मस्याः / सत्यं, किं तु स खल्वन्तरङ्गत्वात् सर्वबुद्धिसाधारण इति न यतो बुद्धिबोधिताना केवल श्राद्धसभाऽग्रे व्याख्यानस्य दशबैकालिकविक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासाऽऽदिकमपेक्षत इति / अपि च - वृत्त्यादौ निषेधदर्शनात, इति प्रश्ने, उत्तरम्-बुद्धिशब्देन तीर्थकर्यः, बुद्ध्युत्पादात्पूर्व स्वयमदृष्टोऽन्यत श्याश्रुतो मनसाऽप्यनालोचितस्त- सामान्यसाध्व्यश्चो च्यन्ते,तातीर्थकरीणामुपदेशे विचार एव नास्ति, स्मिन्नेव क्षणे यथावस्थितोऽर्थो गृह्यते यया सा लोकद्वयाविरुद्धैकान्ति- सामान्य साध्वीनां तु यद्यपि केवलश्राद्धानां पुरस्तादुपदेशनिषेधः, कफलवती बुद्धिरौत्पत्तिकीति / यदाह-''पुव्वमहिट्ठमसुयमवेइयत तथाऽपि श्राद्धीमिश्रिताना कारणे केवलानां च पुरस्तादुपदेशः संभवक्खणविसुद्धगहियत्था / अटबाहयफलजोगा, बुद्धी उप्पत्तियाणाम् त्यपीति न काऽप्यनुपपत्तिरिति / 254 प्र० / सेन० 3 उल्ला० / // 1 / / " इति / नटपुत्रारोहकाऽऽदीनामिवेति। (अत्रविशेषः 'उप्पत्तिया' | बुद्धिमंत त्रि० (बुद्धिमत्) धीमति, पञ्चा० 1 विव०। औत्पत्ति क्यादिचतुशब्दे द्वितीयभागे 825 पृष्ठे गतः) तथा विनयो गुरुशुश्रूषा स कारणम- चिंधबुद्धयुपेते, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। हिताहितविवेक विकले, दर्श०१ स्यास्तत्प्रधाना वैनयिकी। अपिच- "कार्यभरनिस्तरणसमर्था धर्मार्थ तत्व। पण्डिते, पञ्चा०७विव०। कामशास्त्राणाम् / गृहीतसूत त्रार्थसारलोकद्वयफलवती चेयम् / / 2 / / बुद्धिल पुं० (बुद्धिल) परस्य बुद्धिंलात्युपजीवतीति बुद्धिलः / परबुद्ध्युइति / यदाह - 'भरणित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला। पजीविनि स्वयमजे, तस्स पंडियमाणिस्स. बुद्धिलस्स दुरप्पणो। मुद्धं उभओ लोगफलवती विणयसमुत्था हबइ बुद्धी / / 1 / / " इति। नैमित्ति पाएण अक्कम्म, वादी वायुरिवागतो / / 1 / / " व्य०१० उ० ! ओ००। कसिद्धपुत्राशिष्याऽऽदीनामिवेति / (अत्र विस्तारम् 'वेणइया' शब्दे स्वनामख्याते कुक्कुटपोषके श्रेष्ठिनि, उत्त० 13 अ०। वक्ष्यामि) अनाचार्यकं कर्म, साऽऽचार्यक शिल्पं, कादाचित्कं वा कर्म, बुद्धिवद्धण न० (बुद्धिवर्द्धन) बोधो बुद्धिरवगम इत्यर्थः / बुद्धिं वर्धयतीति नित्यव्यापारस्तुशिल्पमिति कर्मणो जाता कर्मजा अपि च -काभि- | बुद्धिवर्धनम्। बुद्धिजनके, पं० चू०१ कल्प०। निवेशोपलब्ध कर्मपरमार्था कम्मभ्यिासविचाराभ्यां विस्तीर्णा प्रशंशा बुद्धिविणीय त्रि० (बुद्धिविनीत) बुद्धिचतुष्कोपेते विनीते, व्य० 3 उ०। फलवती चेति / यदाह- "उवओगदिट्ठसारा, कम्मपसंगपरिघोलन- (अा विस्तरः 'आयरिय' शब्दे द्वितीयभागे 321 पृष्ठे गतः) विसाला। साहुकार-फलवती, कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी / / 1 / / '' इति। बुद्धिविण्णाण न० (बुद्धिविज्ञान) मतिविशेषभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपहैरण्यककर्षकाऽऽदीनामिवेति परिणामस्तु दीर्घकालः पूर्वापरार्थाव- परिच्छेदे, भ०११श०११ उ०। लोकनाऽऽदिजन्य आत्मधर्मः स प्रयोजनमस्यास्तत्प्रधाना वेति | बुद्धिसागर पुं० (बुद्धिसागर) अभयदेवसू रिगुरौ, "तस्यापरिणामिकी। अपि च-अनुमान कारणामात्रदृष्टान्तः साध्यसाधिका चार्य जिने श्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्द्धिनः, तद्बन्धोवयोविपाके, च पुष्टीभूताऽभ्युदयमोक्षफला चेति / यदाह'अणुमाणहे- | रपि बुद्धिसागर इति ख्यानस्य सूर्र भुवि / छन्दो बन्धनिबद्ध Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिसागर 1326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बेअद्ध बन्धुरवचः शब्दाऽऽदिसलक्षणः, श्रीसंविनविहारिणः श्रुतनिधे श्चारित्रा- | बुहहियय पु० (बुद्धहृदय) बुद्ध हृदयं मनो यस्य स बुद्धहृदयः / चूडामणेः ।।१।।ज्ञा०२ श्रु०२ वर्ग 1 अ०। पञ्चा० / स्था०। विवेकमनरके, कार्येष्वमूढलक्ष्ये, स्था० 4 ठा०४ उ०। पुद्धिसिद्ध) परिनिष्टितचतुर्विधबुद्धौ सिद्धभेदे, आ० म०। / बुभुक्खा स्त्री० (बुभुक्षा) क्षुधि, स्था० १०टा० / विपुला विमला सुहुमा, जस्स मई जो चउव्विहाए वा। बूर पुं० (बूर) वनस्पतिविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आ० म०। जी०। बुद्धीए संपन्नो, स बुद्धिसिद्धो इमा साय। कल्प० / औ०। रा०। सू० प्र०। ज०नि०। भ०। वनस्पतिविशेषा विपुला विस्तारवती, एकपदेनानेकपदानुसारिणीति भावः / विमला वयवविशेषे, भ०२ श०५ उ०। संशयविपर्ययानध्यवसायमलरहिता, सूक्ष्मा अत्यन्तदुरवबोधसूक्ष्म- | बूरणालिया स्त्री० (बूरनालिका) बूरभृतायां शुषिरवंशाऽऽदिरुपायां व्यवहितार्थपरिच्छेदसमर्था यस्य मतिः सबुद्धिसिद्धः। यदिवा-यश्च- नालिकायाम्, भ०२ श०५ उ०। तुर्विधया औत्पत्तिक्यादिभेदाभिन्नया बुद्ध्या सम्पन्नः स बुद्धिसिद्धः / सा बेधा० (बू) कथने, "स्वराणां स्वराः"॥४२३८|| इति ऊकारच चतुर्विधा बुद्धिः / आ० म०१ अ०। (औत्पत्तिक्यादिबुद्धिविचारः स्थाने एकारः। बेमि। ब्रवीमि। प्राधा० 4 पाद। सर्वज्ञापदेशेना हमिदं सर्व स्वस्वथाने द्रष्टव्यः) पूर्वोक्त प्रतिपादयामि। प्रश्न०२ संव० द्वार। बुद्धोवघाइ(ण) पुं०(बुद्धोपघातिन) आचार्यस्योपघातकारिणी, उत्त० "हो" रतिटिया 1 अ०। (अत्रा युगप्रधानाऽऽचार्यकुशिष्योदाहरणम् ‘विणय' शब्दे | 'वे' इत्यादेशः। द्वित्वसंक्याभेदे, "दोहिं वेहिं कयं / " प्रा०३ पाद। वक्ष्यते) बेअड्ड पुं० (बैताढ्य) भरताऽऽदिक्षेत्रस्य द्वे अर्द्ध करोतीति बैतादयः / बुब्बुअ (देशी) वृन्दे, दे० ना० 6 वर्ग 64 गाथा। पृषोदराऽऽदित्वाद् रूपसिद्धिः। भरताऽऽदिक्षेत्राविभाकारिणि पर्वत, ज०। बुब्बुयपुं० (बुदबुद) पानीयप्रस्फोटके, उत्त०१६ अ० तोय शलाकायाम्, अथ वैताढ्यनाम्नो निरुक्तं पृच्छतिया वर्षे निपतित पानीयमध्ये बुबुदास्तोयशलाका रूपा उत्तिष्टन्ति से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ-बेअड्डे पव्वए, बेअड्डे पव्वए ? तस्मिन्वर्षे च / नि० चू०१६ उ०। विशे० चं० प्र० / आव० / गोयमा ! बेअड्डे णं पव्वए भरह वासं दुहा विभयमाणे विभयमाणे बुयाण त्रि० (बुवाण) व्यक्तवाचि, ''गब्भाइ मिजंति बुयाऽबुयाणा, णरा चिट्ठइ। तं जहा-दाहिणड्डभरहं च, उत्तरडभरहं च / बेअडगिरि-- परे पचसिहाकुमारा। (10)" सूत्र 1 श्रु०७ अ०। कुमारे अइत्थ देवे महिडीए० जाव पलिओवमट्ठिईए परिवसइ। बुलंबुआ (देशी) बुदबुदे, दे० ना०६ वर्ग 65 गाथा। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-बेअड्डे पव्वए, बेअड्ढे पव्वए। बुस न० (बुष) यवाऽऽदीनां तुषे, स्था० 8 ठा०। अदुत्तरं च णं गोयमा ! बेअड्डस्स पव्वयस्स सासए णामधेजे बुह पु० (बुध) विशिष्टविवेकसम्पन्ने, पो०१ विव० / विदुषि, पञ्चा० 4 पण्णत्ते / जंण कयाइ ण आसि, ण कयाइ ण अस्थि, ण कयाइ विव०। जानाने. सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। अवगततत्त्वे, अष्ट०२६ ण भविस्सइ, भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे णिअए सासए अष्टा एकचत्वारिंशन्महाग्रहे, स्था०। अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिचे। दो बुहा। स्था०२ ठा०३ उ०। सू० प्र०। (से केणट्टेण मित्यादि) अत्र प्रश्नसूत्र प्रागवत्, उत्तरसूत्रोतु वैताढ्यः चन्द्रपुत्रो ज्योतिष्कभेदे, प्रज्ञा०२ पद / स्था० / बुधत्वकार्ययुक्ते, पर्वतः णमिति प्राग्वत्, भारत वर्षभरतक्षेत्रां द्विधा विभजन द्विधा विभजन स्था० / “पठकः पाउकश्चैव, ये चान्ये कार्यतत्पराः / सर्वे व्यसनिनो लिष्ठति। तद्यथा-दक्षिणार्द्धभरतंच, उत्तरार्द्धभरतं च। तेन भरतक्षेत्रस्य राजन् ! यः क्रियावान् स पण्डितः / / 1 // " स्था०४ ठा०४ उ० 'मृगा द्वे अर्द्ध करोतीति वैतादयः पृषोदराऽऽदित्वाद्रूपसिद्धिः। अथ प्रकारान्तरेण यथा मृत्युभयस्य भीताः, उदविनवासे न लभन्ति निद्राम् / एवं बुधा नामान्वर्थमाह अथवा-वैतात्यगिरिकुमारोऽत्रदेवो महर्द्धिको, यावत्करज्ञानविशेषयुद्धाः संसारभीता न लभन्ति निद्राम् // 1 // " आ० चू०३ णात् 'महज्जुई'' इत्यादिपदसंग्रहः पल्योपमस्थितिकः परियसति। तेन अपिण्डित, “चउरानिउणाकुसला, आविउसाबुहायपरट्ठा।" , वैताळ्यः इति नामान्वर्थो विजयद्वारखद् ज्ञेयः सदृशनामकस्वामिकत्वात् / पाइ० ना०६० गाथा। "अदुत्तरं च ण'' इत्यादि प्राग्वत् / जं० 5 वक्ष० / (अयं सव्याख्या बुहजण पुं० (बुधजन) समयजलोके, पञ्चा०१६ विव०। 'भरह' शब्दे दर्शयिष्यते) भरतैरवतयोः कच्छाऽऽदिषु च प्रत्येकमेकैकः / बुहप्फइ पुं० (बृहस्पति) "पस्पयोः फः" ||8 / 2 / 53 / / इति रुपस्य स्था०६ ठा०३उ०। फः। सुरगुरौ, प्रा०२ पाद। जंबू ! सुकच्छे दीहबे यड्ढे नव कूडा पण्णत्ता / तं जहाबुहरूव पुं० (बुधरूप) बुध्यते यथाऽवस्थितं वस्तुतत्त्वं सारतरविषय- "सिद्धे सुकच्छ खंडग, माणी बे अड्डे पुन्न तिमिसगुहा / विभागविचारणया इति बुधः प्रकृष्टो बुधो बुधरूपः / नैसर्गिकाऽऽधि- सुकच्छे वे समणे य, सुकच्छकूडाण नामाइं॥१॥" एवं० गभिकान्यतरसम्यग् दर्शनविशदीकृतज्ञानशालिनि प्राणिनि, स्था०२ जाव पुक्खलावइम्मि दीहबे अड्डे, एवं वच्छे दीहबे-अड्डे ठा०१उ०। एवं० जाव मंगलावइम्मि दीहबे अड्डे / / जंबू ! विजुप्पमे Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेअड्ड 1330- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बोगिल्ल वक्खारपव्वए नव कूडा पण्णत्ता / तं जहा-"सिद्धे य विज्जुनामे, (बेइंदिया इत्यादि) सूानवकम्, इदमपि प्रायस्तथैव, नवरं द्वीन्द्रियादेवकुरा पम्हकणगसोवत्थो / सीओदाए सनले, हरिकूडे चेव भिलापः कर्त्तव्यः, तथा-क्रमयः अशुच्यादिसम्भवाः अलसाः प्रतीताः बोद्धव्वे / / 1 / / " जंबू ! पम्हे दीहबेअड्डे नव कूडा पन्नत्ता / तं मातृवाहकाः ये काष्ठशकलानि समोभयाग्रतया सम्बध्नन्ति, वास्याकारजहा- "सिद्धे पम्हे खंडग माणी बेअड्डए'' एवं चेव० जाव मुखा वासीमुखा :- "सिप्पिय त्ति' प्राकृतत्वात् शुक्तयः शङ्ख्याः ससिलावइम्मि दीहबे अड्डे, एवं कप्पे दीहबेयड्ढे एवं० जाव प्रतीताः शङ्खनकाः तदाकृतय एवात्यन्तलघवो जीवाः वराटकाः गंधिलावइम्मि दीहबेयड्ढे नवकूडा पण्णत्ता / तं जहा- "सिद्धे कपर्दकाः जलौकसः दुष्टरक्ताकर्षिण्यः चन्दनकाः अक्षाः, शेषास्तु यथा गंधिल खंडग, माणी बेयड पुन्न तिमिसगुहा / गंधिलावइ सम्प्रदाय वाच्याः, वर्षाणि द्वादशैव स्विति सूत्रनवकार्थः / उत्त०३६ अ०। बेसमणे, कूडाणं होंति नामाइं॥१॥"एवं सव्वेसुदीहबेयजेसु बेड (देशी) नावि, दे० ना०६ वर्ग 65 गाथा। दो कूडा सरिसनामगा, सेसा ते चेव / जंबू ! मंदरउत्तरेणं नीलवंते | बेड्डा (देशी) श्मश्रुणि, दे० ना० 6 वर्ग 65 गाथा। वासहर-पव्वए नव कूडा पण्णत्ता / तं जहा- "सिद्धे नीलवएँ बेयगिरिणाहपुं०(वैताळ्यगिरिनाथ) वैताट्यपर्वतदेवे, स्था०६ ठा० / विदेहे, सीया कित्ती य नारिकंता य / अवरविदेहे रम्मगकूडे | बेली (देशी) स्थूणायाम, दे० ना० 6 वर्ग 65 गाथा / "थूणादिअली उवदंसणे चेव // 1 // " स्था०६ ठा। सव्वे वि दीहबेयड्ड पव्वया | बेली।" पाइ० ना० 143 गाथा। पणवीसं गोयमा ! उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। स०२५ सम०। सव्वे बेल्लग पुं० (बलीवर्द) वृषभे, “साहुणो ठिया, तत्थेगो वेल्लगो तस्स विणं वट्टबेयवपव्वया उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। स०१००० सम०। कुंभगारस्स।" आ० म० 1 अ०। दर्श०। आव०। बेह पुं० (बेध) बेधनं बेधः / विशे०। कुन्ताऽऽदिनाशस्त्रेण भेदने, स०११ बेअडकूड न० (वैताढ्यकूट) वैताळ्यगिरिनाथदेवनिवासाद्वैताढ्यकूडम् / अङ्ग / कीलिकाऽऽदिभिर्नासिकाऽऽदिबेधने, आव० 4 अ०1 रन्ध्रोत्पास्था० 3 ठा० 1 उ०। सर्वेषां वैताढ्यानां स्वनामख्याते कूडे, स्था० दने, धर्मानुबेधे, बर्धबधे द्यूतविशेषे, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। 6 ठा०। बेहाइय न० (बेधातीत) बेधो धर्मानुबेधस्तस्मादतीतम्। अधर्मप्रधाने, बेइंदिय पुं०(द्वीन्द्रिय) जीवभेदे, उत्त०1 "बेहाइयं च णो वए।" बेधो - धर्मानुबेधः, तस्मादतीतमधर्मप्रधान तत्र तावद् द्वीन्द्रियवक्तव्यता प्रतिपिपादयिषुराह - बचो नो वदेत् / यदि वा-बेध इति बर्धवेदो द्यूतविशेषः, तद्वतं वचनमपि बेइंदिया उजे जीवा, दुविहा ते पकेत्तिया। नो वदेदास्तां तावक्रीडनमिति। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। बेहिय न० (द्वैधिक) पेशीसंपादनेन द्वैधीभावकरणयोग्ये, दश० 7 अ० / पज्जत्तयमपञ्जता, तेसिं भेये सुणेह मे // 126 / / आचा०। किमिणो सोमंगला चेव, अलसा माइवाहया। * व्याहिक त्रि० द्वाभ्यामहोभ्यां जाते, ज्यो०२ पाहु। वासीमुहा य सिप्पीया, संखा संखणगा तहा।।१२७।। बोंड (देशी) चूचुके, दे० ना०६ वर्ग 66 गाथा। पल्लोयाणुल्लया चेव, तहेव य वराडगा। बोंद (देशी) मुखमित्यर्थे, दे० ना०६ वर्ग 66 गाथा। जलूगा जालगा चेव, चंदणा य तहेव य / / 128|| बोंदिस्त्री० (बोन्दि) शरीरे, औ०। स्था०। तं० / बोन्दिः, तनुः शरीरमिति इति बेइंदिया एए, णेगहा एवमायओ। पर्यायाः। अनु०. प्रश्नः / ज्ञा० / भ०। आ० म०। अव्यक्तावयवशरीरे, लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया।।१२६।। भ० 106 उ० / पञ्चा० / प्रश्न० 1 काये, आव० 5 अ०। संतई पप्प ऽणाईया, अपज्जवसियावि य। बोंदिचियपुं० (बोन्दिचित) अव्यक्तावयवं शरीरं बोन्दिः, तया चिताः पुदला ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य / / 130 // ये ते तथा। भ०१श०६ उ०। अव्यक्ताऽवयश रीररूपतया चितेषु, भ० १०श०८ उ०। वासाइं वारसेव उ, उक्कोसेण वियाहिया। बोंदिधरपु० (बॉन्दिधर) प्रधानसुव्यक्तावयवशरीरोपेते, चं० प्र० 20 पाहु०। बेइंदियआउठिई, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं / / 131 / / बोंदी (देशी) रूप-मुख-तनुषु, दे० ना०६ वर्ग 66 गाथा। संखिज्जकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं / बोकड (देशी) छागे, दे० ना०६ वर्ग 66 गाथा। बेइंदियकायठिई, तं कायं तु अमुंचओ / / 132 // बोक्कस पुं० (बोक्कस) अनार्यदेशभेदे, ता जाते म्लेच्छभेदे च / सूत्रा०१ अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं / श्रु०६ अ०। प्रव०। प्रज्ञा०। बेइंदियजीवाणं, अंतरेयं वियाहियं / / 133 / / बोक्सालिया पुं०(बोकसालिक) तन्तुवाये, आवा०२ श्रु०१ चू०१ अ० एएसिं वन्नओ चेव, गंधओ रसफासओ। २उ०॥ संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्सओ।।१३।। बोगिल्ल (देशी) भूषिताऽऽटोपयोः, दे० ना० 6 वर्ग 66 गाथा। Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोगिल्ल 1331 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बोडुर चित्रले - "फसल सबलं सारं, किम्मीरं चित्तं च बोगिलं।'' पाइ० ना० 'जिण्णकप्पिया य दुविहा, पाणिपाया पडिग्गहधरा य। 64 गाथा। पाउरणमपाउरणा इकिका ते भवे दुविहा / / 1 / / बोह (देशी) धार्मिके, तरुणे, इत्यन्ये / दे० ना० 6 वर्ग 66 गाथा। दुग तिग वउक्क पणग, नव दस एकारसेव बारसगं। एए अट्ट विगप्पा, जिणकप्पे हों ति उवहिस्स॥२॥" बोडघेरन० "अलंबुसं बोडघेरं च / " पाइ० ना० 258 गाथा। इह केषाजिञ्जिनकल्पानां, रजोहरणं मुखवस्त्रिका चेति द्विविध बोडियपुं० (बोटिक) वीरमोक्षात् षट्शतेषु वर्षेषुगतेषु रथ वीरपुरे समुत्पन्ने, उपधिः, अन्येषांतु कल्पेन सह त्रिविधः, कल्पद्वयेन तु सह चतुर्विधः, निवे, विश०। कल्पत्रयेण सह पञ्चविधः / केषाञ्चित्तु मुखयस्त्रिका, रजोहरणं च / बोटिकनिह्ववानभिधित्सुराह - तथा-(बृ० 3 उ०) "पत्तंपत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पायकेसरिया / पटलाइँ छव्वाससयाइँ नबु-त्तराई तइआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स। रयत्ताणं, च गोच्छमो पायनिजोगो / / 1 / / " इति सप्तविधः पाठानिर्योग तो बोडियाण दिट्ठी, रहवीरपुरे समुप्पएणा // 2550 / / इति / एवं च नवविधः / कल्पेन तुहदशविधः। कल्पद्वयेन सबैकादशविधः। कल्पत्रायेण तु समं द्वादशविध उपधिः केषाचिजिनकल्पिकानामिति / सुबोधार्था।।२५५०|| तदेतत् श्रुत्वा शिवभूतिना प्रोक्तम्-यद्येवं तहि किमिदानीमौधिक अथ बोटिकोत्वत्तेरेव संग्रहगाथाद्वयमाह औपग्रहिकश्चैतावानुपधिः परिगृह्यते ? स एव जिनकल्पः किं न क्रियते ? रहवीरपुरं नगरं, दीवगमुजाणमजकण्हे य। ततो गुरुभिरुक्तम् - जम्बूस्वा मिनि व्यवच्छिन्नोऽसौ, संहननाऽऽद्य सिवभूइस्सुवहिम्मी, पुच्छा थेराण कहणा य / / 2551 / / भावात्, सांप्रतं न शक्यते एव कर्तुम् / ततः शिवभूतिना प्रोक्तम्मयि जीवति स किं व्यवच्छिद्याते? नन्वहमेव तं करोमि. परलोकार्थिनास एव बोडियसिवभूईओ,बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती। निष्परिग्रहो जिनकल्पः कर्तव्यः, किं पुनरनेन कषायभयमूर्छाऽऽदिकोडिन्नकोट्टवीरा, परंपराफाससमुप्पन्ना / / 2552 / / दोषविधिना परिग्रहानर्थेन ? अत एव श्रुते निष्परिग्रहत्वमुक्तम्, अचेलएतद्भावार्थः कथानकगम्यः। तच्चेदम्-रथवीरपुरं नाम नगरम्, तबहिश्च काश्च जिनेन्द्राः, अतोऽचेलतैव सुन्दरेति / ततो गुरुणा प्रोक्तम्-हन्त ! दीपकाभिधानमुद्यानम्, तत्रा चाऽऽर्यकृष्णनामनः सूरयः समागताः, यद्येवम, तर्हि देहेऽपि कषायभयमूर्छाऽऽदयो दोषाः कस्यापि संभवन्ति, तरिमश्च नगरे सहसमल्लः शिवभूति म राजसेवकः समस्ति, स च इति सोऽपिव्रतग्रहणानन्तरमेव त्यक्तव्यः प्राप्नोति। यच्च श्रुते निष्परिग्रहराजप्रसादाद् विलासान् कुर्वन् नगरमध्ये पर्यटति, रातोश्च प्रहरद्वयऽ- त्वमुक्तं तदपि धर्मोपकरणेष्वपि मूर्छा न कर्तव्या, मूर्छाऽभाव एव तिक्रान्ते गृहमा-गच्छति, ततएतदीयभार्या तन्मातरं भाणति- ''निर्वेदि- निष्परिग्रहत्वमवसेयम्, न पुनः सर्वथा धर्माप करणस्यापि त्यागः / ताऽहत्वपुत्रोण, न खल्वेष रात्रो वेलायां कदाचिद्प्यागच्छति, तत जिनेन्द्रा अपि सर्वथैव अचेलकाः, "सव्वे वि एगदूसेण निग्गया जिणवरा उजागरकेण बुभुक्षया च बाध्यमाना प्रत्यहं तिष्ठामि। ततस्तया प्रोक्तम् चउव्वीसं।" इत्यादि वचनात् / तेदवं गुरुणा स्थविरैश्च यथोक्ताभिर्वक्ष्यवत्से ! यद्येवं, तर्हि त्वमद्य स्वपिहि, स्वयमेवाहं जागरिष्यामि। ततः कृतं माणाभिश्च युक्तिभिः प्रज्ञाप्यमानोऽपि तथाविधकषायमोहाऽऽदिवध्वा तथैव, इतरस्यास्तु जाग्रत्या रात्रिप्रहरद्वयेऽतिक्रान्ते समागत्य कार्मोदयाद् न स्वाऽऽग्रहाद् निवृत्तोऽसौ, किं तु चीवराणि परित्यज्य शिवभूतिना प्रोत्कम् 'द्वार-मुद्घाटयत। ततः प्रकुपितया मात्रा प्रोत्कम् निर्गतः, ततश्च बहिरुद्याने व्यवस्थितस्यास्योत्तरा नाम भगिनी बन्दनार्थ गता। सा च त्यक्तचीवर तंभ्रातरमालोक्य स्वयमपि चीवराणि - 'दुनयविधे! यौतस्यां वेलायां द्वाराण्युद्धाटितानि भवन्ति तत्र गच्छ, त्यक्तवती / ततो भिक्षार्थं नगरमध्ये प्रविष्टा गणिकया दृष्टा / तत इत्थं न पुनरेवं तव पृष्ठलग्नः कोऽप्यत्रा सरिष्यति। ततः कोपाऽहङ्कारभ्यां प्रेर्यमा विवस्त्रां बीभत्सामिमां दृष्ट्वा ‘मा लोकोऽस्मासु विरासीत् इन्तयणोऽसौ निर्गतः। पर्यटता चोद्धाटितद्वारः साधूपाश्रयो दृष्टः, तत्रच साधवः निच्छन्त्यपि तया वस्त्र परिधापिताऽसौ / तत एष व्यतिकरोऽनया कालग्रहण कुर्वन्ति / तेषां च पार्श्वे तेन वन्दित्वा व्रतं याचितम् / तैश्व शिवभूतेर्निवेदितः / ततोऽनेन विवस्त्रायोषिद् नितरां बीभत्सा अतिलराजवल्लभः मात्राऽऽदिभिरमुत्कलितश्च इति न दत्तम्। ततः खेलम जनीया च भवति इति विचिन्त्य प्रोक्ताऽसौतिष्ठत्वित्थमपि, न त्यक्तव्यं ल्लका दीक्षा गृहीत्वा स्वयमेव लोचः कृतः। साधुभिर्लिङ्ग समर्पितम्। त्वयैतद्वस्त्रम्। देवतया हि तवेदं प्रदत्तमिति। ततः शिवभूतिना कौणिडविहृताच सर्वेऽप्यन्यत्र / कालान्तरेण पुनरपि च तत्रत्राऽगताः / ततो न्यकोट्टवीरनामानौद्वौ शिष्यौ दीक्षितौ। गाथाऽक्षरार्थोऽपि किश्चिदुच्यते राज्ञा शिवभूतेबहुमूल्यं कम्बलरत्नं दत्तम्। तत आचार्यैः शिवभूतिरक्त: - कोडिन्नेत्यादि) कौणिडन्यश्च कोट्टवीरश्चेति / 'सर्वो द्वन्द्वो किमनेन तव साधूना मार्गाऽऽदिप्वनेकानर्थहेतुना गृहीतेन ? ततस्तेन विभाषयकवद् भवति, इति वचनात् कौण्डिन्यकोट्टवीरम्, तस्मात गुर्वप्रतिभासेनाऽपि सङ्गोप्य मूर्छया तद् विधृतम्। गोचरचर्याभिश्चाऽऽगतः कौण्डिन्यकोदवीरात्, परम्परास्पर्शमाचार्यशिष्यसम्बन्धलक्षणमधिप्रत्यहं तदसो संभालयति, न तु क्वचिदपि व्यापारयति / ततः गुरुभि- कृत्योत्पन्ना सञ्जाता बोटिकदृष्टिः इत्यध्याहारः / इत्येवं बोटिकाः मुंछितोऽयमा इति ज्ञात्वाऽन्यता दिने तमनापृच्छयैव बहिर्गतस्य परोक्षे रामुत्पन्नाः // 2551 / / 2552 / / विशे०। (स च शिवभूतिः बहुविवाद तत् कम्बलरत्नं पाटयित्वा साधूनां पादप्रोज्छन्कानि कृतानि। अन्यदा कृतवान गुरुभिरिति 'सिवभूइ' शब्दे वक्ष्यामि) च सूरयो जिनकल्पिकान् वर्णयन्ति। तद्यथा (निशीथनियुक्तिद्वितीयोद्देशे)- | बोडुर (देशी) श्मश्रुणि, दे० ना०६ वर्ग 65 गाथा। Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोडिय 1332 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बोहि * बोड्डिय कपर्दिकायाम्, "केसरि न लहइ वोड्डिय, विगय लक्खेहि | बोहहर (देशी) मागधे, दे० ना० 6 वर्ग 97 गाथा। घेप्पंति।" प्रा०४ पाद। बोहाणंदपरिक्खय पुं० (बोधाऽऽनन्दपरिक्षय) बोधो ज्ञानं तस्याऽऽनन्दबोदर (देशी) पृथौ, दे० ना०६ वर्ग 66 गाथा। तस्यस्य परिक्षयः / ज्ञानाऽऽनन्दधाराक्षये, अष्ट०३१ अष्ट०। बोद्ध त्रि० (बौद्ध) सुगतशिष्ये, प्रव० 116 द्वार। सम्म०। बोहारी (देशी) संमार्जन्याम्, दे० ना० 6 वर्ग 67 गाथा। * बोद्रह पुं० यूनि, "जुअणो जुआ जुआणो, पुअंडओ योद्र हो तरुणो।" बोही स्त्री०पुं० (बोधि) बोधनं बोधिः / औणाऽऽदिक इकन् -प्रत्ययः / पाइ० ना०६२ गाथा। प्राकृते स्वीत्वम्। परमार्थबोधे, विशे०। सम्यक्त्वाधिगमे, आ० चू०२ बोव्व (देशी) क्षेत्रो, दे० ना०६ वर्ग 66 गाथा। अ० / आतु० / जिनप्राणीतधर्मप्राप्तौ, आ० / प्रति०। ल० / दश० / बोर पुं०स्त्री० (बदर) "ओत्पूतर-बदर--नवमालिका-नवफलिका पञ्चा० / प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तौ,ध०२अधि०।उत्त०। सकल दुःखविवेकपूगफले // 8/1 / 170 // इत्यादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनौत्। बोरं। भूते जिनशासनावबोधे, आव०३ अ०1 सम्यग्दर्शने, भ०७ श०१ उ०। बोरी प्रा०१ पाद। प्रज्ञा०। कर्कन्धुवृक्षे, अणु०। स्था०। सम्यग्दर्शनावासौ, सूत्रा०१ श्रु०२अ०३ उ०। ध०। औ०। उत्त०। बोरी स्त्री० (बदरी) 'बोरी ककधू " पाइ० ना० 154 गाथा। दुविहा बोही पण्णत्ता / तं जहा-पाणबोही चेव, दंसणबोही बोलधा० (गम) गतौ, 'गमेः अई-अइच्छाणुवजावसोकु साकुस-पचड्डु चेव / स्था० 2 ठा०४ उ०। पच्छंद-णिम्मह-णी, णीण-णीलुक्क-पदअरभं-परिअल्ल-बोल (व्याख्या स्वस्व-शब्देऽवसेया) परिअल णिरिणास-णिवहाव-सेहावहराः / / 8 / 4 / 16 / / इति गमधा- तिविहा बोही पण्णत्ता / तं जहा-णाणबोही चेव, दंसणबोही तोर्वोलाऽऽदेशः / बोलइ। गच्छति। प्रा०४ पाद। चेव, चरित्तबोही चेव। * बोल पुं० अच्यक्तवर्णे ध्वनौ, भ० भ०३३ उ० / वर्णव्यक्तिवर्जित (तिविहेत्यादि) कण्ठ्यं सुबोध, किंतु बोधिः सम्यबोधः इह च चारित्रं ध्वनौ विपा० 1 श्रु०३ अ०।०। रा०।ज्ञा० भ०। औ०।बहूनामा - बोधिफलत्वाद् बोधिरुच्येते / जीवोपयोगरूपत्वाद्वा बोधिविशिष्टाः नामव्यक्ताक्षरध्वनिकले, जं० 2 वक्ष० / आर्त्तानां बहूना कलपूर्वक पुरुषास्त्रिधा ज्ञानाऽऽदयः। स्था०३ ठा०२ उ०। (कथं दुर्लभो बोधिर्भवमेलापके, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / भ० / अव्यक्ताक्षरध्वनिसमूहे, भ० तीति। 'दुल्लहबोहिय'' शब्दे चतुर्थभागे 2577 पृष्ठे गतम्) 3107 उ०। मुखे हस्ते दत्त्वा महता शब्देन फूत्करणे, जं०७ वक्षः। सुलभबोधि:सू०प्र० / कोलाहले, रा०। वृन्दशब्दे, बृ०१३०३ प्रक०। घोषधिविशेषे, से भयवं ! किं पुण काऊणं एरिसा सुलहबोही जाया सा गन्धरसप्राणपर्यायौ / है / सुगहियनामधिज्जा माहणी, जाए एयावइयाणं भव्यसत्ताणं अबोलदिलिव स्त्री० (बोलतिलिपि) ब्राह्मया लिपेर्भदे, स०१८ सम०। णंतसंसारघोरदुक्खसंतत्ताणं सद्धम्मदेसणइएहिं तु सासयबोलमाण त्रि० (बोलत्) विशेषत उल्लठतीव बुवाणे, जी०३ प्रति०४ सुहपदाणपुव्वगमब्भुद्धरणं कयंति? गोयमा! जं पुथ्वं पुष्वभवे अधि०। सचभावभवंतरंतरेहि णं णीसल्ले आजम्माऽऽलोयणं दाऊणं बोलंत त्रि० (बोडयत्) निमजयति, सूत्रा० 1 श्रु०५ अ० 1 उ०। सुद्धभावाए जहोवइट्ठ पायच्छित्तं कयं, पायच्छित्तसत्तीमाए य बोल्लणअत्रि० (कथपितृ) कथस्थाने बोल्लाऽऽदेशः। णेर-निटिणिलोपः। समाहीए य कालं काऊण सोहम्मे कप्पे सुरिंदग्गमहिसी जाया प्रा० दु०४ पाद / 'तृनोऽणः " 4443 / / इत्यप/शे तमणुभावेणं / से भयवं ! किं से णं माहणीजीवे तब्भवंतरम्मि तृन्प्रत्ययस्य 'अणअ' आदेशः। वाचके, प्रा० 4 पाद। समाणी निरगंथी अहेसि,जे णं णीसल्लमालोइत्ता णं जहोवइट्ठ पायच्छित्तं कयं ति? गोयमा ! जे णं से माहणीजीवे से णं बोह पुं० (बोध) संवेदने, आभिनिबोधे, स्था० 5 ठा० 3 उ० / ज्ञाने, तज्जम्मे बहुलसिद्धीए जाए महिड्डीए य सयलगुणाऽऽहारभूए स्या० / षो०। प्रज्ञोन्मीलते,ध०३ अधि०। उत्तमा सीलाहिट्ठियतणू महतवस्सी जुगप्पहाणे णं समणे बोहण न० (बोधन) प्रत्यायने, विशे० / मार्गभ्रष्टस्य मार्गसंस्थापने अणगारे गच्छाहिवई अहेसि णो णं समणी। महा०२ चू०। आमन्त्रणे च / स 6 अङ्ग। लब्भंति सुरसुहाई, लब्मंति नरिंदपवररिद्धीओ। बोहपरिणइस्त्री० (बोधपरिणति) सम्यग्ज्ञानस्थिरतायाम, ल०। म पुणो सुबोहिरयणं, लब्मइ मिच्छत्ततमहरणं / / 43 / / बोहय पुं० (बोधक) बोद्धरि, अन्यांश्च बोधयन्तीति बोधकाः / ध०२ सडा० 1 अधि०१ प्रस्ता० / सम्यग्बोधे, बोधिफले, चारित्र, स्था० अधि० / जी० / ल० / अन्येषां बोधके, कल्प० 1 अधि० 6, क्षण। 3 ठा०२ उ० / अहिंसायाम, तद्गौणनामसु परिगणनात् / रात्र बोधिः जीवाऽऽदितत्त्वस्य परेषां बोधयितरि, भ०१ श०१ उ०। स०। सर्वज्ञधर्मप्राप्तिः अहिंसारूपत्वाच तस्याः, अहिंसा बाधिरुक्ता। अथवा-- बोहदुट्ठि स्त्री० (बोधवृष्टि) तत्त्वावगमस्य दीक्षाऽवसरादारभ्य वर्द्धत, अहिंसा साऽनुकम्पा। सा च बोधिकारणमिति बांधिरेवोच्यते। प्रश्न०१ पञ्चा०२ विव०॥ सम्ब०द्वार। Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोहिऊण 1333 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 बोहिसत्त बोहिऊण स्त्री० (बुद्धवा) ज्ञात्वेत्यर्थे,'बोहिऊणं पव्यइया।" दश० राज्यं प्राज्यसुखं च कर्मलधुताहेतोरवाप्नोत्ययम्। 2 अ. तत्त्वाऽतत्त्वविवचनैककुशलां, बोधिं न तु प्राप्तवान्, बोहिग पुं० (बोधिक) मालवस्तेने, बृ० 1 उ०३ प्रक० / आव०।। कुत्राप्यक्षयमोक्षसौख्यजननी, श्रीसर्वविद्देशिताम् / / 2 / / बोधिलब्धा यदि भवे-देकदाऽप्यत्रा जन्तुभिः / अनार्यम्लेच्छे, व्य०२ उ० / नि० चू० बृ०। इयत्कालं न तेषां त-द्भवे पर्यटनं भवेत्॥३।। बोहिगतेणपुं०(बोधिकस्तेन) मानुषहारके,बृ०१ उ०३ प्रक०। "जमेत्थ द्रव्यचारिठामप्येतै-बहुशः समवाप्यत। माणुसाणि हरंति ते बोहिगतेणा भण्णति।" नि० चू०१ उ०। सज्ज्ञानकारिणी काऽपि, न तु बोधिः कदाचन / / 4 / / बोहित्थ पु० (बोहित्थ) पोते, दश०१ चू०। प्रवहणे, दे० ना०६ वर्ग येऽसिध्यन् ये च सिद्धयन्ति,ये सेत्स्यन्ति च केचन। 66 गाथा। ते सर्वे बोधिमाहात्म्या-त्तस्माद् बोधिरुपास्यताम् / / 5 / / " बोहिद पुं० (बोधिद) बोधिर्जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्तत्त्वार्थश्रद्धनलक्षण प्रव०६७ द्वार। सम्यग्दर्शनरुपा, तां ददातीति बोधिदः। रा०जी०। सम्यक्तयदायके, बोहिय त्रि० (बोधित) विकाशिते, तं०। कल्प०१ अधि०१क्षण। 'बोहिदाणं" (16) इह बोधिर्जिनप्रणीत- बोहिलाम पुं० (बोधिलाभ) सम्यग्दर्शनप्राप्तौ, पञ्चा० 6 विव० / धर्मप्राप्तिः, इयं पुनर्यथाप्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणत्रायव्यापारभिव्यङ्गयम जिनप्राणीतधर्मलाभप्राप्तौ, ल०। प्रेत्य जिनधर्मप्राप्तौ, प्रति०। आय० / भिन्नपूर्वग्रन्थिभेदतः पश्चानुपूर्त्या प्रशम संवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्या बोधिभेदोऽपि तीर्थकराऽतीर्थकरयोाय्य एव; विशिष्टेतरफलयोः भिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन, विज्ञप्तिरित्यर्थः। ल०। बोधि परम्पराहेत्योरपि भेदात् एतदभाते तद्विविशिष्टेतरत्यानुपपत्तेः / भगव द्वोधिलाभो हि परम्परया भगवद्भावनिर्वर्तन स्वभावो, न त्वन्तकृतददतीति बोधिदाः / ल०। केवलिबोधिलाभवदतत्स्वभावः तद्वत्तत्त स्तद्भावासिद्धेरिति; तत्तत्कबोहिदुल्लहत्तभावणा स्त्री०(बोधिदुर्लभत्वभावना) जिनधकप्राप्ते - ल्याणाऽऽक्षेपकानादितथाभव्यता-भावभाज एते इति / जन्मान्तरे दोर्लभ्यपर्यालोचने, ध०३ अधि०। प्रव०। सम्यक्त्वाऽऽदिसद्धर्मप्राप्ती, पा०। ध०। अथ बोधिदुर्लभत्वभावना बोहिलाभवत्तिय पुं० (बोधिलाभप्रत्यय) अर्हत्प्रणीतधर्मावामिनिमित्ते, "पृथ्वीनीर हुताशवायुरुषु। क्लिष्टेनिजैः कर्मभिः, ध०२ अधि०। भ्राम्यन् भीमभवेऽत्रा पुद्गल–परावर्ताननन्तानहो / बोहिसत्त पुं० (बोधिसत्त्व) बोधिः-सम्यग्दर्शनं, तेन प्रधानः सत्त्यो जीवः काममकामनिर्जरतया सम्प्राप्य पुण्यं शुभं, बोधिसत्त्वः, सम्यग्दर्शनप्रधाने महोदये सदोधिस्तीर्थकरपदयोग्यः सत्त्वः, प्राप्नोति ासरूपता कथमपि, द्वित्रीन्द्रियाऽऽद्यामिह / / 1 / / भव्यत्याद् / भावितीर्थकरे, द्वा० 15 द्वा०। (अस्य स्वरूपम् 'सम्मद्दिहि' आर्यक्षेत्रसुजातिसत्कुलवपुर्नीरोगतासम्पदो, शब्दे विस्तरतो दर्शयिष्यते) 3 इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुWR श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 10082 SIDEO श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' (OTICD बकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् // ..................................................................... Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1334 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मंजण तI. भकारः भंगय पुं० (भङ्गक) वस्तुविकल्पे, स्था० 10 टा० / गमे, आ० म०१ अ० / विशे०। भंगसमुक्कित्तण न० (भगसमुत्कीर्तन) विभज्यन्ते विकल्प्यन्ते इति कृत्वा विकल्पा भङ्गा उच्यन्ते तेषां समुत्कीर्तनं समुच्चारणं भङ्गसमुत्कीर्तनम्। तद्भावो भङ्गसमुत्कीर्तनता / प्रत्येकभङ्गानां द्वयादिसंयोगभङ्गानां च भ पुं०(भ) भा-कः। पितरि, भ्रातरि, पितृव्ये, अतिभीते, जलदे, भ्रमरे, समुच्चारणे, अनु०। शूलिनि, भावे "पितृभ्रातृपितृव्येषु, भोऽतिभीते भ आकुले।' एका०। भमसुहुम न० (भङ्गसूक्ष्म) भड़ा भड़का वस्तुविकल्पाः तल्लक्षणं सूक्ष्म ''भकारः पुंसि जलदे, भ्रमरे भावशूलिनोः / 'इति च / एका०। भ्रान्ती, भगसूक्ष्मम् / सूक्ष्मभेदे, सूक्ष्मता चास्य भजनीयपदबहुत्वे गहनभावेन शुक्राऽऽचार्य, छन्दोग्रन्थोक्ते अन्त्योपान्त्यलघुयुक्ते वर्णत्रिके च / वाच० / सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वादिति। स्था० 10 ठा०। नक्षत्रो मेषाऽऽदिराशौ, ग्रहे, वाच० / भगे, भोगे, गगने. पुण्ड्रे, चन्द्रे च। न०।"भ नक्षत्रो भगे भोगे।" एका०।"नंपुसके भं नक्षत्रो, गगने पुण्डू भंगा स्त्री० (भङ्गा) अतस्याम्, बृ०२ उ०। स्था०1 विजयायाम्, वाच०। चन्द्रयोः।" इति च / एका०। ड्रीप भगी। तत्रैवार्थे , प्रज्ञा०१ पद। भइत्ता अव्य० (भक्त्वा) संसेव्येत्यर्थे, स्था०६टा०। भंगि स्वी० (भङ्गि) भज्ज इन पृषोद० -- कुत्वम् वा डीप / विच्छेदे, भनिर्विच्छत्तिरिति / व्य०८ उ०। कौटिल्ये, विन्यासे, कल्लोले, भेदे, भइय त्रि० (भजित) विकल्पिते, व्य० 6 उ०। व्याजे च / वाच० / साधारणशरीरबादरवनस्पति कायिकभेदे, प्रज्ञा०१ * भक्त त्रि० अपवर्तिते, औ०। सेवनीये, बृ०१ उ०१ प्रक० / विकल्पिते पद / नीललेश्यावर्णकमधिकृत्य- "भंगि त्ति वा भंगिरए त्ति वा / " च। व्य०६उ०। प्रज्ञा० 17 पद / भङ्गी वनस्पतिशेष स्तस्या रजो भङ्गीराजः 'प्रज्ञा० भइयव्व त्रि० (भक्तव्य) विकल्पनीये, विशे० अनु०। 17 पद 4 उ०। भइरव न० (भैरव) भीरोरिदम् अण् / "अइर्दैत्याऽऽदौच" ||8/1 / | भंगि(ण) पुं० (भनिन) भङ्गबहुले नं०। 151 / / इति प्राकृतसूत्रोणकारस्य 'अइइत्यादेशः। प्रा०१ पाद। भये, | मंगिय न० (भाङ्गिक) भङ्गा-अतीस, तन्मयं भाङ्गिकम् / स्था० तद्गति, भयसाधने च। त्रि० / नाठ्याऽऽदिप्रसिद्ध भयानके रसे, शङ्करे, 5 ठा०३ उ०। 60 / नानाभत्रिविकलेन्द्रियलालानिष्पन्नं भाङ्गि कम्। तदवतारभेदे, रागभेदे, नदभेदे च। पुं०। भयङ्करे, ''धोरा दारुणभासुर-- आचा०१ श्रु०१ चू०५ अ० 1 उ०। वस्त्रभेदे, स्था० 3 ठा०३ उ०। भइरव-लल्लक्क-भीम-भीसणया।'' पाइ० ना०६५ गाथा। "भंगिओ अदसिमाई।" नि० चू० 1 उ०1 अतसी पुण भंगविही होइ भएधा० (भजेत) सेवेत गृह्णीयात् इत्यर्थे बृ०१ उ०२ प्रक०। णायव्वा।" नि० चू०१ उ०॥ भएज्जाधा० (भजेत) गृह्णीयादित्यर्थे , बृ०१ उ०२ प्रक०। मंगी स्त्री० (भगी) 'भगी' शब्दार्थ, व्य०८ उ०। भओदिदग्ग त्रि० (भयोद्विग्न) भयाऽऽकुले, प्रश्न०१ आश्र० द्वार।। भंगुर त्रि० (भड्गुर) भञ्ज-धुरच् कुटिले, नदीनां वक्रे, वाच० भङ्गशीले, भंगपुं० (भङ्ग) भ घञ्। पराजये, खण्डे, मेदे, वाच०। भङ्गः, प्रकारो, ___ आचा०१ श्रु०६ अ० 1 उ०॥ अष्ट० / चले, स्था० 5 ठा०३ उ० / भग्ने भेद इत्यर्थः / अनु०। स्था० / प्रव०। नि० चू० भज्यते विकल्प्यते इति च / औ०। आ० म० / वक्र, "कुडिलं व भंगुरं / ' पाइ० ना० 173 / भङ्ग / वस्तुविकल्पे, अनु०। विशे०। द्वयादिसंयोगभड़के, भ०१श०३ भंगोवदंसण न० (भङ्गोपदर्शन) भङ्गानां प्रत्येक स्वाभिधियेन त्र्यणुकाउ०। अनु०। भङ्गा भङ्गका वस्तुविकल्पाः। ते च द्विधा-स्थानभङ्गकाः, ऽऽद्यर्थ न सहोपदर्शनम्। भङ्गानां स्वविषयभूतेनार्थेन सहोचारणे, अनु०। क्रमभङ्गकाश्च / तत्राऽऽद्या यथा-द्रव्यतो नामैका हिंसा, न भावतः 1 / मंछा स्त्री० (भस्त्रा) भस्-गन्। चर्मप्रसेविकायाम्, अग्निसंधु क्षणे चर्मनिअन्या भावतो, न द्रव्यतः 2 / अन्या भावतो. द्रव्यतम्घ 3 / अन्यान र्मित यन्त्राभेदे, गौ०-डीए। अौवार्थे कन्। टापून इत्वम् / भस्वकाऽभावतः नापि द्रव्यत इति 4 / इतरे तु द्रव्यतो हिंसा, भावतश्च / प्यावार्थे, वाच०।"भंछा णिव्वत्तिया।" भ०१४ श० 8 उ०। द्रव्यतोऽन्या न भावतः शनद्रव्यतोऽन्या भावतः 3 / अन्या नद्रव्यतो न मंज धा० (भज्ज) आमईने, प्रा० 4 पाद। "भज्जेर्वेमय-मुसुमूरभावत इति 4 / स्था० 10 ठा० / क्रम भङ्गा यथाएक एव जीवः, एक एवाजीव इत्यादि स्थापना / स्थानभङ्गास्तु यथा-प्रियधर्मा नामकः, मूरसूर-सूड-विर-पविरज करज्ज-नीरजाः" ||8|4106|| नो दृढधर्मेत्यादि। आव० 4 अ०। विनाशे, स्था० 10 ठा० / नद्यादीना भजेरेते नवाऽऽदेशा वा भवन्ति / वेमयइ / मुसुमूरइ / मूरइ / सूरइ / कल्लोलविशेषे, कल्प०१ अधि०३क्षण। विच्छित्तौ, रा०। कौटिल्ये, सूडइ / विरइ / पविरजइ। करज्जइ। नीरजइ। भंजइ / प्रा०४ पाद / भये, पारचनाभेदे, गमने, जलविनिर्गम, वाच०। आर्यदेशभेदे, च, यत्रा मंजग पुं० (भञ्जक) वृक्षे, "भंजगा इव सणिणवेसं / ' आचा०१ श्रु०६ पापा नगरी। "पावा भंगे य।" प्रज्ञा०१ पद / प्रव० / सूत्रा० आव०। अ०१ उ०। (साधुश्रावकप्रत्याख्यानविषये भङ्गाः ‘पचक्खाण' शब्दे दर्शिताः) | भंजण न० (भजन) भञ्ज-ल्युट् / आमईने, प्रश्न० 1 आश्र० (प्रावेशनकभङ्गाः 'पावेसणय' शब्देऽस्मिन्नेवभागे गताः) (पोषधभङ्गाः द्वार / ज्ञा० / सूत्रा० / मोट ने, 'भजति अंगमंगाणि।" सूत्रा० 'पोसह शब्दे) 1 श्रु०५ अ०१ उ०1"भंजंति बालस्स वहेण पुट्टी।" सूत्रा० Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंजाण 1335 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भंडीरवण 1 श्रु०५ अ०३ उ०। भज णिच्-ल्युट्-टाप। विनाशे, स्त्री०। आव० मंडण न० (भण्डन) वाक्कलहे, विशे० / ज्ञा० / प्रश्न० / स०। बृ०। आ० 3 अ०। 'विराहणा खंडणा भंजणा य एगट्ठा। नि० चू० 1 उ०। म०। तं० / नि० चू० / “एगतो भंडिउं पि अणुबद्धा।" भण्डित्वाऽपि भंजणहं अव्य० (भतुम्) "तुम एवमणाणहमणहिं च" ||4|| भण्डनं कलहस्तमाप कृत्वा / व्य०१ उ०। 'वुग्गहो त्ति वा कलहो त्ति वा 441 / / इति प्राकृतसूत्रोणापभ्रंशे तुमः स्थाने अणहमादेशः / मर्दयितु भडणं ति वा विवादो त्ति वा एगट्ठा। नि० चू०१६ उ०॥ दण्डाऽऽदिभिर्युद्ध मित्यर्थः, प्रा० 4 पाद। च / भ०१२श०५ उ01 भंड पुं० (भण्ड) भडि-अच्। अश्लीलवाक्यभाषके, वाच० / छिन्नशिरसि, भंडणामिलासि(ण) पु० (भण्डनाभिलाषिन्) कलहाभिलाषुके, ज्ञा० मागधे, मण्डने, सख्याम्, दौहित्रो च / दे० ना०६ वर्ग 106 गाथा। 12016 अ०। लासके, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। मुखनयनौष्ठकरचरणभूविकारपूर्विकायाः भंडपडह पु० (भाण्डपटह) पणवे, जं०२ वक्षः। परिहासाऽऽदिजनिकाया विडम्बनक्रियायाः कारक इति। आव०६ अ०। भंडमत्तणिक्खेवणासमिय त्रि० (भाण्डमात्रानिक्षेपणासमिन) भाण्ड*भण्ड न० भा अण्डच्। भण-डः। स्वार्थे अण्। हिरण्याऽऽदिके पण्य- मात्रायावस्वाऽऽद्युपकरणजातस्य। यद्वा--भाण्डस्य वस्वाऽऽदेम॒णमयवस्तुनि, ज्ञा०१ श्रु०१०। भाण्डानि क्रयाणकानिलवणाऽऽदीनि। भाजनस्य वा मात्रस्य च पात्र विशेषस्य यन्निक्षेपणमोचनं तत्र च समितः प्रश्न०१ आश्र० द्वार। उपा०। भाण्ड क्रयाणकमिति / औ०। आभरणे, प्रस्युपेक्ष्यप्रमाय मोचनात् यः स तथा / भाण्डमात्रानिक्षेपणाऔ० / भ० / ज्ञा०ा तं० / गृहवर्तिनि साधूपाश्रयवर्तिनि च वस्त्राऽऽद्यु- समितियुते, कल्प०१ अधि०६ क्षण। पकरणे, भ०८ श०५ उ० / आतु०। मृण्मयाऽऽदिपात्रे, भ० 8 श० 5 भंडल (देशी) कलहे, दे० ना०६ वर्ग 102 गाथा। उ० / प्रश्न० / अनु० / साधूनां भाजनविशेषे, भाण्डमुपकरणम्, भंडवाल पुं० (भाण्डपाल) भाण्डानि, परकीयक्रयाणकवस्तूनि भाटकावस्वााऽऽद्युपकरणम् / मृण्मयादिपात्रां, साधुभाजनविशेषश्च / स्था०३ ऽऽदिना पालयतीति भाण्डपालकः / क्रयाणकव स्तूनां भाटकाऽऽदिना ठा०१ उ० / 'भंड परिग्गहो खलु।' भाण्ड खलु पतद्ग्रह उच्यते / व्य० पालके, गोवालो भंडवालो वा।" उत्त०२६ अ०। 130 / भाजने, स्थाने च। "भंडाओ भंडंसाहरिजमाणाणं।'' भाण्डात् भंडवेयालिय पुं० (भाण्डवैचारिक) भाण्डविचारः कर्मास्येति भाण्डस्थानात् भाण्ड भाजनान्तरमिति। जी० 3 प्रति० 4 अधि० / ज०। वैचारिकः / कर्भाऽऽवार्यभेदे, अनु०। प्रज्ञा०। रा० / उपा० / प्रश्नः / क्षुरे, क्षुरेण मुण्डने, बृ० 4 उ01 आव० / वणिजां भंडसाला स्त्री० (भाण्डशाला) घटकरकाऽऽदिभाण्डगृहे. बृ०। भाण्डमूलधने, अश्वभूषायाम्, नदीकूलद्वयमध्ये पात्रे च / गईभाण्डे वृक्षे, पुं० / शाला यत्र घटकरकाऽऽदि भाण्डजातं संगोपितमस्ति / बृ०२ उ०। भण्डस्य भावः अण्। भण्डचरित्रो, न० 1 वाच०। वृन्ताके, दे० ना०६ नि० चू०। वर्ग 100 गाथा। भंडायरिय त्रि०(भाण्डागारिक) भाण्डारनियुक्ते, ज्ञा०१श्रु०१ अ०। रा०। भंडत त्रि०(भण्डमान) कलहयति, ध्य० 10 उ०। भंडार पुं०(भाण्डकार) शिल्पाऽऽचार्य्यभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। भंडकरंडग न० (भाण्डकरण्डक) आभरणभाजने, भ० 2 101 उ० / भंडिया स्त्री० (भण्डिका) गन्त्र्याम्, गृ० 3 उ० / स्थाल्यां च। स्था०८ भंडकरंडगसमाण त्रि० (भाण्डकरण्डकसमान) भाण्डम्-आभरण ठा० / नि० चू०। करण्डक भाजनम्, तत्समानो भाण्डकरण्डकसमानः। आदेये, भ०६ भंडी स्त्री० (भण्डी) भडि-अच् / गौरा भीष् / मजिष्ठायाम, शिरीषे च / श०३३ उ०। औ०। तं। भ०॥ वाच०। गन्त्र्याम् प्रश्न०२ आश्र०द्वार। व्य०। नि० चू०। ७०।"भंडी भंडकिरिया स्त्री० (भण्डक्रिया) कक्षावादनाऽऽदिके भण्ड व्यापारे, ध० सगडी भण्णति।' नि० चू०३ उ०। "जा भंडि दुय्यला उ, तं तुज्झे 2 अधि०। वंधहो पयत्तेणं / " व्य०६ उ01"भंडीए जोइत्ता।" आ० म०१ अ०। भंडखाइय त्रि० (भाण्डखादिक) या स्थाप्यते तन्नाशके लवणाऽऽदिके स्वार्थे कन् ह्रस्वः / तत्रौवार्थे, वाच० / शिरीषवृक्षे, अटट्याम्, वस्तुनि, आ० चू० 3 अ०! असतीस्त्रियाम्, गन्त्र्याम, दे० ना०६ वर्ग 106 गाथा। भंडगन० (भाण्डक) भाण्डमेव भाण्डकम्। पात्राऽऽदिके उपकरणे, उत्त० भंडीरवड पुं० (भण्डीरवट) मथुरानगरस्थे स्वनामख्याते वटे, आ० चू० 26 अ०। आचा० / सूत्रा० / व्य० / म्लेच्छजातिभेदे, पु०। प्रश्न०१ 10 // आश्र०द्वार। भंडीरवडिंसय न० (भाण्डीराऽवतंसक) मथुरानगरस्थे स्वनामख्याते भंडगुरु त्रि० (भाण्ड्गुरु) भाण्डेनोपकरणेन गुरुर्भाण्डकगुरुः / उपकरणेन चैत्ये, 'महुरा णयरी, भंडीरवडिंसयं चेइयं / ' आ० चू० 1 अ० / गुरुके, नि० चू०१८ उ०। मथुरानगरस्ये स्वनामख्याते उद्याने च। 'महुराए णयरीए भंडीरवडिंसए भंडचालण न० (भाण्डचालन) भाण्डाऽऽदीनां पिठरकाऽऽदीनां पण्या - उजाणे" ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। दीनां वा चालनं स्थानान्तरस्थापनं भाण्डचालनम्। भाण्डानां स्थाना- | मंडीरवण न० (भाण्डीरवन) मथुरानगरस्थे स्वनामख्याते न्तरस्थापने, प्रश्न०३ सम्ब०द्वार। वने, ती० 8 कल्प० / आ० म० / “भण्डरीवनयात्रा Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंडीरवण 1336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भंत यां० बाहके लिकुतूहली / " आ० क० 1 अ० / मथुरानगरस्थे सुखकल्याणस्वरूप ! 'भदुइ सुखकल्याणयोः इति वचनात् / स्वनामख्याते चैत्ये च। "तत्थ भंडीरवणं चेइयं / " आ० म०१ अ०। प्राकृतशैल्या वा भवस्य-संसारस्य भयस्य वा-भीतेरन्तहेतुत्वात् मंडु (देशी) मुण्डने, दे० ना०६ वर्ग 100 माथा० / भवान्तो भयान्तो वा / जं०१ वक्ष० / "करेमि भंते ! सामाइयं / ' भंत पुं० (भगवन्) भग ऐश्वर्यादिकः षड्विधो विद्यते यस्य स भगवान् / भदन्तः सुखवान् कल्याणवांश्च। 'भदुड्' सुखकल्यणयोः, इति वचनात गुरौ, विशे०। जिनसिद्धाऽऽदिके च / विशे०। औणा ऽऽदिकाऽन्तप्रत्ययान्तस्य निपातने रूपम / अथवा-भवान्त इत्येतस्याऽऽर्षत्वात् मध्यभव्यञ्जनस्य लोपे रूपं भंते इति।"अत एत्सौ * भजन्त पुं० 'भज्ज' सेवायामिति धातुस्तस्य भजते-सेवते इति पुंसि मागध्याम् / / 8 / 4 / 287 / / इत्येकारोऽर्द्धमागध-त्वादार्षस्य! ध० भजन्तः / अथवा-सेवते शिवगतीनसिद्धगति-प्राप्तान इति भजन्तः / 2 अधि०। अथवा-दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं शिवमार्ग भजते इति भजन्तः। अथवासेव्यश्च यस्मादसौ मोक्षार्थिनां तस्माद भज्यते-सेव्यते इति भजन्तः। अधुना भंते !' इति द्वितीयद्वारव्याख्यानार्थ - विशे०। माह होइ भयंतो भवअं-तगो य रयणा भयस्स छन्भेया। 'भंते त्ति' नेदं भदन्त इत्यामन्त्रणं किन्तु भजन्त इति, भदन्त इति / 'भदुड्' कल्याणे सुखे च। अस्मादौणाऽऽदिको __कया व्युत्पत्या? इत्याह ऽन्तप्रत्ययः, औणाऽऽदिकत्वादेव नलोपः भदन्तः कल्याणः सुखश्चेअहवा'भय सेवाए, तस्स भयंतो त्ति सेवए जम्हा। त्यर्थः / प्राकृतत्वादामन्त्राणे भंते!' इति भवति। अथवा-प्राकृतशैल्या सिवगइणो सिवमग्गं, सेव्यो य जओ तदत्थीणं // 3446|| भवान्त इति द्रष्टव्यम् / भवान्तभवनात् भवान्तो गुरुः / यदिवा-अन्तं करोतीत्यन्तकः भयस्यान्तको भयान्तकः, तस्य सम्बोधनम् / अथवा 'भज' सेवायामिति भजधातुः तस्य भजते सेवप्त इति भजन्तः, उभयत्राऽपि प्राकृतत्वात् भन्ते ! इति भवति। आ० म०१ अ०। तस्य सम्बोधनं हे भजन्त गुरो ! सचेह कस्मात् ? उच्यते-यस्मात्सेवते, कान? शिवगतीन् सिद्धिगति प्राप्तान, अथवा--दर्शन-ज्ञान एवं सव्वम्मी व -- नियम्मि एत्थं तु होइ अहिगारो। चारित्रालक्षणं शिषमार्ग मोक्षमार्गम्। अथवा सेव्यश्च यस्मादसौ तदर्थिनां सत्तभयविप्पमुक्के, तहा भयंते भवते य / / मोक्ष मार्गार्थिनां तस्माद्भज्यते सेव्यते इति भजन्त इत्युच्यते हति एवम् - उक्तेन प्रकारेण सर्वस्मिन्नेकभेदभिन्ने भयाऽऽदौ वर्णित सति // 3456|| विशे० / गुरौ, जिनसिद्धाऽऽदिके च। विशे०। अना प्रकृते भवत्यधिकारः / सप्तभयविप्रमुक्तो यस्तेन भयान्तो, भवान्तश्च * भदन्त त्रि० भदि, झच् न लोपः / पूजिते, भदूड' सुखकल्याण- भदन्तस्ताभ्यामिति / आ० म० 1 अ०। योरिति वचनात् भदेरौणाऽऽदिकाऽन्तप्रत्ययान्तस्य निपातः / परम- *भान्त पुं० "भा"दीप्तौ, भाति ज्ञानतपोगुणदीप्त्येति भान्तः। विशे० / कल्याणयोगिनि परमसुखयोगिनि च गुरी, पा० / आतु० / व्य० / भ० / गुरौ, जिनसिद्धाऽऽदिके च। विशे० / कल्प० / ध० / आ० चू० / जिनसिद्धाऽऽदिके च / विशे०। * भ्रान्त पुं० मिथ्यात्वाऽऽदिबन्धहेतुभ्यो भ्राम्यति अनवस्थितो भवतीति तथा च भदन्तशब्दार्थ व्याचिख्यासुराह - भ्रान्तः / गुरौ, विशे० जिनसिद्धाऽऽदिके च। विशे०। 'भदि' कल्लाण-सुहत्थो, धाऊ तस्स स भदंतसद्दोऽयं / | * भ्राजन्त पं० ज्ञानतपोगणदीप्त्या भ्राजते इति भ्राजन्तः। गरौ, विशे० / स भदंतो कल्लाणो, सुहो य कल्लं किलाऽऽरुग्गं / / 3436 / / जिनसिद्धाऽऽदिके च / विशे०। तं सत्थं निव्वाणं, कारणकजोवयारओ वा वि। अथवा-भ्रान्तो भ्राजन्तो वा गुरुरुच्यते, कथम् ? तस्साहणमणसद्दो, सद्दत्थो अहव गच्चत्थो।।३४४०॥ इत्याहकल्लमणइ ति गच्छइ, गमयइ व बुज्झइ व बोहयइ व त्ति। अहवा'भा' 'भाजो वा, दित्तीए )इतस्स भंतो त्ति। भणइ भणावेइ व जं, तो कल्लाणो स चाऽऽयरिओ।।३४४१।। भाजंतो चाऽऽयारिओ,सो नाणतवोगुणजुईए॥३४४७।। 'भदि' कल्याणे सुखे च इति भदिधातुः कल्याणार्थः सुखार्थातस्य अथवा 'भा' धातुः 'भ्राज' धातुर्वा-(दित्तीए त्ति) दीप्तौ पठ्यते। तस्य भदिधातोर्भदन्त इत्यौणाऽऽदिकप्रत्यये भदन्तशब्दोऽयं निष्पद्यते। ततः भान्तो भ्राजन्त इति वा भवति। स चैवम्भूतः कः? इत्याह-आचार्यः। स स्थितमिदं स भदन्तः कल्याणः सुखश्च। विशे०। च कथं भाति, भाजते वा ? इत्याह ज्ञान-तपोगुणदीप्तयेति। * मयान्त पुं० भयस्यान्तो भयान्तः / आ० म०१ अ० / भयस्य अथवा-भान्तो भगवान् वाऽसाविति दर्शयन्नाह - भीतेरन्तहेतुत्वात भयान्तः। जं०१ वक्षः / सप्तविध भयस्यान्तं गतो भयान्तः / गुरौ, जिनसिद्धाऽऽदिके च। विशे०। आ० चू०। अहवा भंतोऽवेओ, जं मिच्छत्ताइबंधहेऊओ। * भवान्तपुं० भवस्य-संसारस्यान्तहेतुत्वाद् भवान्तः। ज०१ वक्ष०। अहवेसग्यिाइभगो, विजह से तेण भगवंतो॥३४४८|| भवस्यान्तं गतो भवान्तः, भवानामन्त इव वर्त्तते भवान्तः / आ० चू०१ अथवा-'भ्रम' अनवस्थाने, इत्यस्य धातोः भ्रान्त इत्युच्यते, यस्मादअ० गुरी, जिनसिद्धाऽऽदिके च। विशे०। 'कहि णं भते ! जंबुद्दीवे।" पेतोऽसौ मिथ्यात्वाऽऽदिबन्धहेतुभ्य इति / अथवा-ऐश्वर्याऽऽदिकः (भंतेत्ति) गुरोरामन्त्राणम् / एकारो मागधभाषा प्रभवः / ततश्च हे भदन्त ! | षड्विधो भगो विद्यते (से) तस्य तेन भगवान् गुरुरिति // 3448 // Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंत 1337 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भंत अथवा - भवान्तो भयान्तो वाऽयमित्यादर्शयन्नाह - नाणस्स होइ भागी, थिरतरओ दंसणे चरित्ते य। नेरइयाइभवस्स च, अंतो जं तेण सो भवंतो त्ति / धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति // 3456 / / अहवा भयस्य अंतो, होइ भयंतो भयं तासो // 3446 / / गीयावासो रई धम्मे, अणाययणवजणं; अथवा -यस्मान्नारकाऽऽदिभवस्यान्तहेतुत्वादन्तोऽसौ तेन भवान्त | निग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं / / 3460 / / इति। अथवा-भयस्याऽन्तो भयाऽन्तो भवति, भयं च त्रास उच्यत इति / रूपकत्रायं पाठसिद्धम् // 3458|| 3456 / / 3460 / / विशे०। अपिचअथाऽन्त शब्दव्युत्पादनार्थमाह - आवस्सयं पि निच्चं, गुरुपामूलम्मि देसियं होइ। अम गचाइसु तस्से-ह अमणसंतोऽवसाणमेगत्थं / वीसुपि हुसंवसओ, कारणओ जदभिसेजाए।।३४६१।। अमइ च जं तेणंऽतो, भयस्स अंतो भयंतो त्ति // 3453 / / विशे०। (अत्र विस्तरः 'आवस्सय' शब्दे द्वितीयभागे 455 पृष्ठे गतः) अम रोगे वा अंतो, रोगो भंगो विणासपज्जाओ। अथवा नेदं गुरोरामन्त्रणम्, किन्त्वात्मन एवेति दर्शयति जं भवभयभंगो सो, तओ भवंतो भयंतो य॥३४५४।। आयामंतणमहवा-ऽवसेसकिरियाविसग्गओ तं च। अमधातुर्गत्यादिषु अर्थेषु पठ्यते, तस्येहान्त इति रूपं भवति, अमनम्, सामाइएगकिरिया, नियामगं तदुवओगाओ॥३४७०।। अन्तः अवसानमित्येकार्थम् / अमतीति वा यस्मात्तेनान्त इति कर्तरि अथवा आत्मन आत्मजीवस्याऽऽमन्त्राणमिदं हे भो जीव ! सामायिक साध्यते. भयस्यान्तो भयान्त इति / अथवा- 'अम रोगे' रोगो भङ्गे, करोम्यहम्। कथम् ? अवशेषक्रियाविसर्गतः, सर्वा अपि क्रिया विसृज्येततश्चान्तो रोगो, भङ्गो, विनाश इति पर्यायशब्दा एत इत्यर्थः / एवं च त्यर्थः। तचाऽऽत्माऽऽमन्त्राणं सामायिकैवक्रियाया नियामक नियमार्थम सति यस्माद्भवस्य भयस्य च भङ्गहेतुत्वाद्भङ्गोऽसौ गुरुस्ततो भवान्तो त दुपयोगात् तस्यामेवैकस्यां सामायिक क्रियायामुपयोगादिति भयान्तश्चेति। // 3470|| ननु भवद्भिर्युत्पादितानां भदन्ताऽऽदिशब्दानां स्थाने कथं एवं च सति किमुक्तं भवति? इत्याह"भंते' इति निष्पद्यत इत्याह एवं च सव्वकिरिया-ऽसंपन्नया तदुवउत्तकरणं च। एत्थ भयंताईणं, पागयवागरणलक्खणगईए। वक्खायं होइ निसी-हियाओ किरिओवओगुव्व / / 3471 / / संभवओ पत्तेयं, द-य-ग-वगाराऽऽइलोवाओ॥३४५५।। एवं च सति सर्वासामपि प्रत्युपेक्षणाऽऽदिक्रियाणां परस्परमसम्पन्नहस्सेकारताऽऽदे-सओय भंते त्ति सव्वसामन्नं / ताऽऽन्योन्यमनाबाधता तस्यामेव प्रारब्धैकक्रियायामुपयुक्तकरणं चाssगुरुआमंतणवयणं, विहियं सामाइयाईए॥३४५६।। त्माऽऽमन्त्राणेन व्याख्यातं विशेषेण कथितं भवति, यथा नैषेधिक्या अत्र भदन्ताऽऽदीनाम, आदिशब्दादजन्त-भान्त-भाजन्त-भ्रान्त नैषेधिकरणेन बाह्यक्रियानिषेधतो वसत्यभ्यन्तरक्रियोपयोग एव कथितो भगवन्त-भवान्त-भयान्त-परिग्रहः, प्राकृतव्याकरणलक्षणगत्या भवत्येवमिहापीति ||3471 / / यथासंभवं प्रत्येकंद-य--ग-वकाराऽऽद्यक्षरलोपात्तथा हस्बैकारान्ताऽ अथवा जिनसिद्धाऽऽद्यामन्त्राणार्थोऽयं ऽदेशतश्च। (भंत त्ति) सर्वसामान्यं पदं, निष्पद्यते इति शेषः। तत्रा भदन्त भदन्तशब्द इति दर्शयति-- इत्या दकारस्य, भयान्त इत्यत्रयकारस्य, भगवन्त इत्यत्र गवकारयो अहवा जहसंभवओ, भदंतसद्दो जिणाइसक्खीणं / र्लोपः कर्त्तव्यः। आदिशब्दाद भजन्त इत्यादिषुयकाराऽऽद्यराणां लोपो आमंतणाभिधाई, तस्सक्खिज्जे थिरव्वयया॥३४७२।। द्रष्टव्यः / भान्त इत्यादिषु भाऽऽदी ना हस्वत्यऽऽदेशः। भन्त इति पदेवस्थित अन्ते एकाराऽऽदेशः कर्तव्य इति / भन्ते ! इत्येतच्च पदं गहियं जिणाइसक्खं, मइत्ति तल्लज्जगोरवभयाओ। गुर्वामाणवचनं सामायिकसूत्रास्याऽऽदौ विहितमिति। सामाइयाइयारे, परिहरओ तं थिर होइ॥३४७३|| ___ 'भदन्त इति पदस्याऽऽमन्त्रणवचनतामेव भावयति अथवा यथासम्भवतो ये के चनातिशयज्ञानिनो जिनसिद्धाऽदयः आमंतेड करेमी, मंते सामाइयं ति सीसोऽयं / सम्भवन्तिः तेषां जिनाऽऽदीनां साक्षिणामामन्त्रणाऽभिधायी भदन्त शब्दः, भो भो जिनाऽऽदयो भदन्ताः! युष्मत्साक्षिकं करोऽम्यहं सामायिआहामंतण्वयणं, गुरुणो किं कारणमिणं ति?||३४५७।। कम्' इति / तस्ताक्षिकत्वे च सामायिककर्तुः स्थिरव्रतता भवतीति / 'करेमि भंते ! सामायई' इत्येवं शिष्योऽयमामन्त्रयति गुरुम् / आह कथम् ? इत्याह-जिनाऽऽदिसाक्षिकं गृहीतं मया सामायिकम्, अतः पर: ननु गुरोरामाणवचनमिदमादौ विहितम्, इत्यत्रा किं कारणम् ? परिपालनीयमेवेदम्, इत्यनया वासनया सामायिकातिचारान् परिहरतइत्येतत कथ्यतामिति // 3457 / / स्तस्य तत् सामायिकव्रत स्थिर भवति। कुतः? इत्याह-(तल्लजेत्यादि) सूरिराह - तेषां - जिनाऽदीना सत्का या लज्जा, तेषु च यद् गौरवं यो बहुमानः यच भण्णइ गुरुकुलवासे, वसं गहत्थं जहा गुणत्थीह। तदीयं भयं तस्मादिति // 3472 // 3473|| विशे०। निचं गुरुकुलवासी, हविज सीसो जओऽभिहियं // 3458 // | * भ्रान्त त्रि० भ्रम-क्तः। मिथ्याज्ञानयुक्ते, वाच० / "भ्रान्त Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंत 1338 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भंभाभूय प्रान्तधिया।'' भान्तः विपर्ययाऽभिभूतपूर्वापरग्रन्थतात्पर्यानिश्च माता विपव्ययाऽामभूतपूवापरग्रन्थतात्पय्यानिश्च- / प्ररूपितमिति // विशे०। यात्। प्रति०। भिन्न एवाभेदाध्यवसायेन प्रवर्तमानस्य प्रत्ययस्य भ्रान्त- | भंभल (देशी) अप्रिये, दे० ना० 6 वर्ग 110 गाथा। मूर्खे , भित्तौ, द्वारगृहे त्वम्। तथाहि-योऽतस्मिंस्तदिति प्रत्ययः स भ्रान्तः। यथा मरीचिकाया | च। दे० ना०६ वर्ग 110 गाथा। जलप्रत्ययः। सम्म० 1 काण्ड। भ्रमणयुक्ते च। धुस्तूरे, पुं०भावे क्तः। मंभसार पुं० (भम्भसार) राजगृहनगरोत्पन्नस्य चम्पापुरीवास्तव्यस्य भ्रमणे, न० / दश० 4 अ०1वाच०। कूणिकस्य नृपतेः पितरि श्रेणिकाऽपरनामधेये राजगृहनगरस्थे स्वनामभंतसंभंत न० (भ्रान्तसंभ्रान्त) दिव्ये नाट्यविधिभेदे, 'अप्पेगइया ख्याते नृपे, आ० क० 4 अ०। औ०।"तते ण से कूणिए राया भंभसारभंतसंभतंणामं दिव्वं णड्डविहिं उवदंसेइ।"रा०। पुत्ते।" औ०। भम्भातु श्रेणिकं चक्रे, भम्भसाराऽभिधोऽथ सः।" आ० मंताभंत न० (भ्रान्ताभ्रान्त) स्वनामख्याते दिव्ये नाट्यविधी, आ० म० क०४ अ०1 10 / खिति-चण - उसम-कुसग्गं, रायगिहं चंप-पाडलीपुत्त। भंतेसामाइय न० (भदन्तसामायिक) भदन्तं च तत्सामायिकभदन्त नंदे सगडाले थू-लभवसिरिए वररुची य।।१२८४।। सामायिकम्। कल्याणप्रापके सुखावहे च भावसामायिके, विशे०। "एईए वक्खाणं-अतीतअद्धाए खिइपइडियं णयरं, जियसत्तू राया, अथवा-भदन्तशब्दोऽयं नाऽऽमलाणार्थः किं तु सामायिकस्यैव तस्स णयरस्स वत्थूणि उस्सण्णाणि, अण्णं णयरट्टाणं वत्थुपाडएहिं विशेषणार्थ इति दर्शयन्नाह भग्गावेइ, तेहिं एग चणगक्खेत्तं अतीव पुप्फेहिं फलेहिं य उववेयं दटुं, चणगणवरं निवेसियं, कालेण तस्स वत्थूणि खीणाणि, पुणो विवत्थु अहवा भंते च तयं, सामइयं चेइ मंतसामइयं / मग्गिजइ, तत्थ एगो वसहो अण्णेहिं पारद्धो एगम्मि रणे अच्छइ, न पत्तमलक्खणमेवं, भंतेसामाइयं तं च // 3474 / / तीरइ अण्णेहिं वसहेहिं पराजिणिउं, तत्थ उसमपुर निवेसिय, पुणरवि भदन्तंचतत्सामायिकं च भदन्तसामायिक करोऽम्यहं कश्याणप्रापकं कालेण उच्छन्नं, पुणो वि मग्गंति, कुसथंबो दिट्टो अतीव पमाणाकितिसुखाऽऽवहं च यत्सामायिक तदहं करोमि, नाऽन्यदित्यर्थः। ''भंतेसा- विसिट्ठो, तत्थ कुसग्गपुरं जायं, तम्मि य काले पसेणई राया, तंचणयरं माइय।' इत्या तुयदेवमेकारा।न्तत्वं तदेतदलक्षणम्-अलाक्षणिकमतो पुणो पुणो अग्गिणा उज्झइ, ताहे लोगभयजणणनिमित्तं घोसावेइजस्स लुप्यत इति। (तं च ति) तच किमर्थमेवं विशिष्यते // 3474 / / घरे अग्गी उठेइ लो णगराओ निच्छुभइ, तत्थ महाणासियाणं पमाएण किमन्यदपि सामायिक विद्यते? इत्याह रणो चेव घराओ अग्गी उडिओ, ते सच्चपइण्णा रायाणो-जइ अप्पगंण नामाऽऽइवुदासत्थं, नणु सो सावज्जजोगविरई उ। सासयामि तो कह अन्नं ति निग्गओ णयराओ, तस्स गाउयमित्ते ठिओ, ताहे दंडभडभोइया बाणियगा य तत्थ वचंति, भणति कहिं वच्चह ? गम्मइ भण्णइ न जओ, तत्थ वि नामाइसब्भावो // 3475 / / आह-रायगिह ति, कओ एह ? रायगिहाओ, एवं जयरं रायगिह जाय नामस्थापनाऽऽदिसामायिकव्युदासार्थमिदमेवं विशिष्यते, नामाऽऽदि जया य राइणो गिहे अग्गी उडिओ तओ कुमारा जं जस्स पियं आसो सामायिकानां कल्याणप्रापकत्वसुखाऽऽवहत्या भावात्, भदन्तविशेष हत्थी वा तं तेणं णीणिए सेणिएण भंभा णीणिया, राया पुच्छइ-केण किं णाद्भावसामायिकमिह गृह्यत इति भावः / आह-नन्वसौ नामाऽऽदि णीणियं ति? अण्णो भणइ–मए हत्थी आसो एकमाइ, सेणिओ पुच्छिन्नो व्युदासः-"सावज जोगं पचक्खामिः "इत्यादिवचनात्सावद्यवो भंभा, ताहे राया भणइ सेणियं - एस ते तत्थ सारो भंभत्ति ? सेणिओ विरतिर्गम्यते / न हि साव द्ययोगविरतिरूपाणि नामाऽऽदिसामायिकानि भणइ-आमं, सों य रण्णो अचंतपिओ, तेण से णामं कथंभभसारो त्ति।" भवन्तीति / भण्यतेऽत्रोत्तरम्- (न त्ति) न त्वद्वचो युज्यते, तत्राऽपि (1284 गाथा) आव० 4 अ०। सावद्ययोगविरतौ नामस्थापनाऽऽदिरूपसम्भवात्। इदमुक्त भवति यदि भभास्त्री० (भम्भा) तूर्यभेदे, आ० म०१ अ०। औ० न०। आ० क०। भावसावद्ययोगविरतिरसौ गृह्यते, तदा भवेत्साध्यसिद्धिः, न चैतदस्ति, नि० चू०।तूर्यविशेषे, दे० ना० 6 वर्ग 100 गाथा। "अष्टशतं भम्भानाम्।" नियामकाभावाद्, भदन्तविशेषणे तु सामायिकस्येयमपि भावरूपा 'भम्भा ढकेति।' रा०जी० / भम्भाढक्का निःस्वनानीति सम्प्रदायः / गम्यते, नामाऽऽदिरूपसावध योगविरतेर्भदन्तसमायिकरूपत्वायोगा जं०२ वक्ष०ा भम्भाभेरीति। भ०१२०१ उ०। गुज्जा भम्भेति। आचा० दिति // 3475 // 1 श्रु०१ अ०७ उ०। दुःखाऽऽर्तगवा दिभिः 'भौं भाँ' इत्यस्य शब्दस्य अथवा-'भन्ते शब्दात् षष्ठी द्रष्टय्येति दर्शयन्नाह करणे च / भ०७ श० 6 उ०। भंतस्स व सामइयं, भंतेसामाइयं जिणाऽभिहियं / भभाभूय पुं० (भम्भाभूत) भाँ भाँ' इत्यस्य शब्दस्य दुःखाऽऽर्तगवादिभिः न परप्पणीयसामा-इयं ति भंतेविसेसणओ।।३४७६।। करणं भम्भोच्यते, तद्भूतो यः स भम्भाभूतः, भम्भा वा मेरी, सा चान्तः अथवा-''करेमि भंतेसामाइय'' इत्यत्र भदन्तस्य भगवतः सम्बन्धि / शून्या ततो भम्भवे यः कालो जनच्छयाच्छून्यः स भम्भाभूतः। दुःखासामायिकमहं करोमीत्येवं च द्रष्टव्यम् / ततश्च 'भन्ते' इति विशेष ऽऽर्तगवादिभिः 'भाँ भाँ' इत्यस्स शब्दस्य करणं प्राप्ने, जनच्छयाच्छून्ये णाजिनाभिहितं सामायिक करोम्यहं, न पुनः परप्रणीतं कुतीर्थिक- | च कालाऽऽदौ, भ०७श०६ उ०। Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंभावायग 1336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भग्ग भंभावायगपुं० (भम्भावादक) ढक्कावादके. अष्टशतंभम्भावादकानाम्। रा०। / च। पुतसन्धिभवे व्रणविशेषे, बृ०३ उ० / नि० चू० / जी० / जं०। भंभी स्त्री० (भम्भी) नीतिभेदे, व्य० 1 उ०। असत्याम, दे० ना० 6 वर्ग विपा० / ज्ञा०। ''भगंदल रांचाहेज वा पलिमहेजवा। " आचा०२ श्रु०२ गथा। चू०६ अ०।" अप्पणो पुताधिट्ठाणे क्षतं वृमिजालसंपागणं भवति त्ति।" नि० चू०३ उ०। विपा०। मंसधा (भंस) अधःपतने, "दंशेः फिड-फिट्ट फुड-फुट्ट--चुक्क--- भुल्लाः " ||814/177 / / इति प्राकृतसूत्रोण भ्रंशरेतेष हादेशा वा भगंदलि(न्) पु० (भगन्दरिन्) भगन्दररोगवति, विपा० / १श्रु०७ अ०। आव०। भवन्ति / किडइ। फिट्टइ। फुडइ। फुट्टइ।चुक्कइ। भुल्लइापक्षे-भसइ। प्रा० 4 पाद। "साहु अक्कम्म, धम्माओ, जो भंसेइ उवट्टिय / " आव०४ भगवंत पुं० (भगवान्त) यस्मात्सुरासुरनरोरगतिर्यग्योनौ जीवलोकः अ०। केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भंसेजा।" आचा०२ श्रु०३ चू०। कामभोगरतितृषितगृद्धिमूर्छिताध्युपपन्नः स तेन भगवता वान्त इत्यतो भगवान्तः / त्यक्तकामभोगाऽऽदिके जिनाऽऽदिके, पं० चू०१ कल्प० / भक्ख ज० (भक्ष्य) भक्ष्यते इति भक्ष्यम्। प्रव०५५ द्वार / खण्डखाद्याऽऽदिके व्यञ्जनभेदे, चं०प्र०२पाहु०। प्रव० सू०प्र०। प्रश्नका स्था० / *भगवत् पुं० भगः समग्रेश्वर्याऽऽदिलक्षणाः स विद्यते यस्य स भगवान्। पञ्चा०। भ० / 'भक्खणविहिपरिभाणं करेइ।"खरविशदमभ्यवहार्य विशे० स्था०। समग्रेश्वर्याऽऽदिगुणयुक्ते सर्वज्ञे, सूत्रा०१ श्रु०२ अ०३ उ०।०प्र०। उत्त०। पा० / आचा०। अने०1 अष्ट० / जं०। स्था०। भक्ष्यमित्यत्र रूढमिह पक्वान्नमात्रं तद्विवक्षितम् / उपा० 1 अ० / रा०।दश। लादशा०ा औलानं०। आव०१० सू०। "इस्सरिभक्ष्याणि मोदकानीति / प्रश्न०३ आश्र0 द्वार / भक्षणयोग्ये, त्रि०। याइगुणो भगो सो से अत्थितितो भगवं।"पं०भा०१कल्प। उक्त च वाच० "इस्सरियरूवसिरिजस, धम्मपयत्तामया भगाभिक्खा / तत्तेसिमसाभक्खग त्रि० (भक्षक) भक्षणकर्त्तरि, आ० म०१ अ०। मण्णा, सति जतो तेण भगवंतो।।" आ० म०१ अ०1"समग्रे चैश्वर्य भक्खणविहिपुं० (भक्षणविधि) भक्षणविधौ, उपा०१ अ०। ('आणंद' / भक्तिनम्रतया त्रिदशपतिभिः शुभानुबन्धिमहाप्रातिहार्यकरलक्षणं, रूपं शब्दे द्वितीयभागे 110 पृष्ठे विधिः) पुनः सकलसुरस्वप्रभावविनिर्मिताइ गुष्ठरूपाङ्गारनिदर्शनातिशयभक्खणिज्ज त्रि० (भक्षणीय) भोक्तव्ये, हा० 17 अष्ट० / सिद्ध, यशस्तु रागद्वेषपरीषहोपसर्गपराक्रमसमुत्थं नौलोक्याऽऽनन्दभक्खर पुं० (भास्कर) भासं करोतीति भास्करः / आ० चू०१ अ० / कार्याकालप्रतिष्ठ, श्रीः पुनर्घातिकाच्छेदविक्रमावाप्तकेवलाऽलोक निरतिशयसुखसंपतसमन्विता परा, धर्मस्तु सम्यगदर्शनाऽऽदिरूपी भास-कृ-टच् ! कस्का० सः / सूर्य , आदित्यस्य सविता भास्करो दानशीलतपोभावनामयः साऽऽश्रवानाश्रवो महायोगाऽऽत्मकः, प्रयत्नः दिनकर इत्यादयः पर्ष्यायाः / आ० चू०१ अ०। अग्नौ, वीरे, अर्कवृक्षे, पुनः परमवीर्यसमुत्थ एकरात्रिक्यादिमहाप्रतिमाभावहेतुः समुद्घातसिद्धान्तशिरोमणिग्रन्थकृत्पण्डिते च। स्वर्णे ,न०। वाच०। शैलेश्यवस्थाव्यङ्गच : समग्र इति / अयमेवभूतो भगो विद्यते येषां ते भक्खराभ पुं० (भास्कराऽऽभ) गौतमगोत्रोत्पन्ने गोत्रप्रवर्तके मुनौ, "जे भगवन्तः। ध०२ अधि०1 भगवानर्कयोनिवर्जितद्वादशभगशब्दार्थवान् / गोयमा ते भक्खराभा।" स्था०७ ठा०। नन्वन्त्योऽर्थस्तुवर्ण्य एव, परमर्कः कथं वयः? सत्यम् उपमानतया भग पु०(भग) न०। भज्यते इति भगः। भज्-घञ्। समग्रैश्वर्याऽऽदिके अर्को भवति परं, वत्प्रत्ययान्तत्वात् अर्कवानित्यर्थो न लगतीति गुणे, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०१ उ०। आ० म० ज०। रा०। सूत्रा० / वर्जितः / कल्प० 1 अधि०१क्षण। जिने, 'पयडे भगवंतवयणम्मि।'' विशे०। आव०। पं० सू० / उक्तं-च - "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य भगवद्वचने जिनाऽऽगमे। पञ्चा०६ विव० / प्रश्न / पूज्ये, भगवानिति यशसः श्रियः / धर्मस्यार्थस्य यत्नस्य, षण्णा भग इतीङ्गना / / 1 / / '' महात्मनः संज्ञेति। व्य०३ उ०1 भ० / संस्था०। पा० / साधौ च। आचा० स्था० 1 टा०1 आ० चू०।०।ल०। प्रज्ञा० / विशे० / अणिमाऽऽद्यष्ट- 2 श्रु० 1 चू० 4 अ०१ उ० / स्त्रिया डीप। ''महिलाएं भगवइओ, विधैश्चर्ये, सूर्ये, वीर्य्य, यशसि, श्रियाम्, ज्ञाने, वैराग्ये, योनी, प्रश्न० जिणजणणीओ जयंम्मि, जहा''भगवत्यः पूज्याः। संधा०। "सुयदेवया 4 आश्र० द्वार / इच्छायाम्, माहात्म्ये, यत्ने, धर्मे, मोक्षे, सौभाग्ये, भगवई। पा० / प्रा० / आचा०। ज्ञा० / दुर्गायां च / वाच०। कान्तौ, चन्द्रे च / यदाहुः-भगोऽर्कज्ञानमाहात्म्ययशोवैराग्यमुक्तिषु / भगलीअज्झयण न० (भगल्यध्ययन) अन्तकद्दशाऽध्ययन-प्रथमवर्गरूपवीर्यप्रयत्नेच्छा-श्रीधर्मेश्वर्ययोनिषु / / 1 / / कल्प०१ अधि०१ स्याष्टमेऽध्ययने, स्था० 10 ठा० / क्षण। पूर्वफल्गुनीनक्षत्राधिष्ठातरिदेवभेदे, सू०प्र०१०पाहु०१२ पाहु०। | भगिणी स्त्री० (भगिनी) भग यत्नः पित्रादितो द्रव्याऽऽदाने ऽस्त्यस्या स्था०। भगोनामा देवविशेष इति। जं०७वक्ष०ातदधिष्ठातृके पूर्वफल्गु- | इति। सहजातायाम, अनु० / जं० / नि० चू०। आ० म०। नीनक्षत्र च / अनु० / गुह्यमुष्कयोमध्यस्थाने च। पुं० / वाच० / दश०। / भगीरह पुं० (भगीरथ) सूर्यवंश्ये दिलीपराजपुत्र राजभेदे येन गङ्गा बृ० / नि० चू०। भूमितलमवतारिता / वाच०1 शत्रुञ्जयपर्वते च / एतच्च शत्रुज्जयपर्वतदो भगा। स्था०२ ठा०३ उ०। स्यैकविंशतिगौणनामस्वन्यतमन्नाम। ती०१ कल्प० / भगंदल पुं० (भगन्दर) भगं गुह्यमुष्कमध्यस्थानं दारयति / द्दखश-मुम् | भग्ग कि० (भग्न) भञ्जक्तः / पराजिते, खण्डिते, वाच० / वि Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग्ग 1340- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भजिया सधिते, आव०४ अ०। ज्ञा० / नि० चू०। मर्दिते, आधा० 2 श्रु०१ चू० 1171!" गा० / भर्ग ईश्वरः, उरिति ब्रह्मा, दयति पालयति जगदिति दो 1 अ०१ उ० / विकृते, उपा०२ अ०। विनाशिते, आव०५ अ०। विष्णुः भर्गश्च उश्च दश्चेति द्वन्द्वः। ब्रह्मविष्णुमहेश्वरेषु, लोके हि जगद् असमर्थीभूते च। ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। "सगं भग्गं / " पाइ० ना०२४३ ब्रह्मोत्यादयति रजोगुणाऽऽश्रितः विष्णुः स्थापयति सत्त्वगुणाऽऽश्रितः गाथा। ईश्वरः संहरति तामसभावाऽऽश्रितः। गा०। * भर्ग पुं० भूस्ज घञ्भर्जाऽऽदेशे कुत्वम्। ईश्वरे, गा०। वाच०। शिवे, भग्गोदेव पुं० (भर्गोदेव) भर्गश्च उश्च तेषामपि देव आराध्यः परमेश्वरे, ज्योतिःपदार्थे , आदित्यान्तर्गत ऐश्वरे तेजसि, वाच०। गा० / न च वाच्यं न तेषामाराध्य इति, तेषामपि संध्याऽऽदिश्रवणता। "आदित्यान्तर्गत वर्चा, भर्गाऽऽख्यं तन्मुमुक्षुभिः / तथाहिजन्ममृत्युविनाशाय, दुःखस्य त्रितयस्य च।।१।। "अष्टवर्गान्तगं बीजं, कवर्गस्य च पूर्वकम्। ध्यानेन पुरुषैर्यच. द्रष्ठव्यं सूर्यमण्डले।" / वह्निनोपरि संयुक्तं, गगनेन विभूषितम्।।१।। इति याज्ञवल्क्यः / तस्य तेजस ईश्वरत्वम् “यदादित्यगतं तेजो, एतद्देविः परं तत्त्वं, योऽभिजानाति तत्त्वतः। जगदासयतेऽखिलम् / यचन्द्रमसि यच्चानौ, तत्तेजो विद्धि मामकम् संसारबन्धनं छित्वा, स गछेत्परमां गतिम्॥२॥" ||1|| इति गीतायामुक्तम्। भावे घाभर्जने, धातरि च। त्रि० / वाच० / इति वचनप्रामाण्यात् / गा०। लिप्ते, दे० ना०६ वर्ग 66 गाथा। भचक्क न० (भचक्र) ज्योतिश्चक्रे, "आहुरन्ये भचक्रस्य विश्वेचारेण या भग्गइ पुं० (भग्नजित्) क्षत्रियपरिवजिके, औ०। स्थितिः।" (12 श्लोक) द्रव्या० 10 अध्या०। भग्गकडि पुं० (भगकटि) विकृतवक्रपृष्णौ, उपा० 2 अ०। मज त्रि० (भाज्य) भाज्यते विभाज्यते इति यत्। भाजकर्मणि यत् / विभजनीये, वाच० / विल्पनीये, विशे० / अनु० / प्रव० / दश०। भग्गघर न० (भग्रगृह) विकृते गृहे, व्य० 1 उ०। भज्जण न० (भर्जन) चणकाऽऽदीनां पाकविशेषाऽऽपादने, अणु०। भ्राष्टपभग्गजोग पुं० (भग्रयोग) भग्नस्य पुनः संस्करणे, पं०व०५ द्वार। चने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। विपा० / सूत्रा० / पाके० विपा०१ श्रु०३ भग्गणियम पुं० (भग्ननियम) नियमभङ्गवति, उपा० 3 अ०। अ०। "भलमजणाणि य। भ्राष्टे अम्बरीषे भर्जनं पाकविशेषकरणम् / भग्गपोसह त्रि० (भग्रपौषध) पौषधभगवति, उपा० 3 अ० / प्रश्न०१आश्र० द्वार। भर्जनसाधने पात्रो च। विपा० 1 श्रु०३ अ०। भग्भव पुं० (भार्गव) भृगुर्लो कप्रसिद्धऋषिविशेषः तच्छिष्यो भार्गवः। | भजा स्वी० (भार्या) मियते पोष्यते भत्रेति भार्या / उत्त० पाई०१ अ०। ब्राह्मपरिव्राजकभेदे, औ०। वाच० / भृगोरपत्यं तद्गोत्रापत्यं वा अण् / भृ–णयत्। "द्यय्या जः ॥पारा२४।। इति प्राकृतसूत्रेण संयुक्तस्य शुक्राऽऽचार्य , परशुरामे, धन्विनि, गजे च। तेन प्रोक्ता तेनाधीता ज्ञाता जः / भजा। प्रा०२ पाद / चौर्यसमत्वात् 'स्याद् - भव्य--चैत्यवा अण। वेदप्रसिद्ध विद्याभेदे, पार्वत्या, लक्ष्म्या, दूर्वायां च / स्त्री० / चौर्यसमेषु यात्' / / 8 / 2 / 107 / / इति प्राकृतसूत्रेण संयुक्तस्य यात्पूर्व डीप्। वाच०। इद् भवति। भज्जा / प्रा०२ पाद। विधिनोढायां स्त्रियाम्, वाच०। ज०२ भग्गवअ त्रि० (भग्नव्रत) स्थूलप्राणातिपातविरत्यादिभगवति उपा० वक्ष०। सम्म०"भजा पत्ता य ओरसा।" भाया कलत्रम् / सूत्र०१ ३अ०। श्रु०६ अ०भरणीये, त्रि० / वाच०। "जाय पत्ती दारा, घरिणी भज्जा भग्गवणिय कि० (भग्नवणित) व्रणितः सन् भनो भग्रव्रणितः। राजदन्ता- पुरंधी य॥" पाइ० ना० 57 गाथा। ऽऽदिदर्शनाद् भनशब्दस्य पूर्वनिपातः / व्रणितत्वाद् भने, "भग्गवणिया भजिउ त्रि० (भ्रष्ट) भस्ज- तृन् / भर्जनकर्तरि, "गय-घडभजिउ वि जोहा, जिणंति सेन्नं उदिण्णं वि।।“ व्य०२ उ०। जंति।" प्रा०४पाद। भग्गवेपपुं० (भार्गवेश) गोत्राभेदे, "भरणी भग्गवेससगोत्ते।"च० प्र०१० | मजिजमाण कि० (भय॑मान) पच्यमाने, आचा 2 श्रु०१चू०१ अ०६ उ०। पाहु०१५ पाहु० पाहु०। सू० प्र०।०। भज्जिम त्रि० (भर्जिम) भर्जनयोग्ये, दश०७ अ०। पचनयोग्ये च। आचा० भग्गसामत्थ त्रि० (भग्नसामर्थ्य) सामर्थ्यरहिते, "णिरणुबंधे वा असुह- | 2 श्रु०१ चू० 4 अ०२ उ०। कम्मे भग्गसामत्थे पं० सू०१ सूत्र। भन्जिय त्रि० (भर्जित) आमर्दिते, "असई भज्जियं दुक्खुत्तो वा भजियं भग्गो पुं० (भर्गो) अवतीति उ:-दाहकः, भर्ग ईश्वर उ: दाहको यस्य स तिक्खुत्तो वा भजिय। आचा०२ श्रु०१चू०१अ०१ उ०। अनिमात्रभर्गो / कामे० गा०। पके, उपा०८ अ०। भग्गोद पुं० (भर्गोद) अवतीति उ:-दाहकः अवतेर्धातुपाठे दाहार्थक्या * भ्र (भृ) त्रि० (ए) अग्निपके, विपा० 1 श्रु०८ अ० / “निरभज्जियं पाठात् / भर्ग ईश्वर उर्दाहको यस्य स भर्गो-कामः तं ददात्याराधकेभ्यो | ति।" अग्न्यर्द्धपक्कमिति / आचा० 2 श्रु०१ चू० 1 अ० 1 उ० / भर्गोदः / शिवे, तथा च शिव धर्मोत्तरं सूत्रम्- पूजया विपुलं राज्य- धानायाम, स्त्री०। प्रश्न०५ संव० द्वार। मग्निकार्येण सम्पदः / तपः पापविशुद्ध्यर्थ, ज्ञानं ध्यानं च मुत्किदम् | भज्जिया स्त्री० (भर्जिका) वास्तुलाऽऽदिशाके, स्था० 3 ठा० 1 उ०। Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्ट 1341 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तकहा भट्टपुं० (भट्ट) भट-तन् स्तुतिपाठवृत्तिमति जातिभेदे, स्वामित्चे, वेदाभिज्ञे पण्डिते च / वाच०। स्वामिन्याम्, स्त्री० / टाप् / वाच० / दश०७ अ०। भट्टारगपुं०(भट्टारक) भट-भाषणे क्विपतृ-णिच-बुल नाट्योक्ते नृपे, वाच० / आचार्ये च / आव० 4 अ०। आ० म० / "भट्टारएण मम आयरिएणं / " आ० म० 1 अ० / ''पव्ययाह भङ्कारगरस पायमूले।" आव०३ अ० / “से किमा (हु) उभंते ! आगमवलिया समणा णिग्गंथा।" अथ किं भदन्त ! भङ्गारका आहुः प्रतिपादयन्तीति। स्था० 5 ठा०२ उ०। भट्टिपुं० (भर्तृ) धृ-तृच।"गोणाऽऽदयः" ||8 / 2 / 174|| इति प्राकृतसूत्रेण निपातः। प्रा०२ पाद०। स्वामिनि, अधिपती, राजनि, पोषके, धारणकर्तरि च / नि। डुभृञ् धारणपोषणयोरिति वचनातत्। ज०१ वक्ष०। भ०। आ०म०। स्था०। विपा०। जी० / प्रज्ञा०। औ०।स०। जी०। "भत्तारं जो विहिंसइ।" आव०४ अ०। ज्ञा० / स०। भट्टिअ (देशी) विष्णो, दे० ना०६ वर्ग 100 गाथा। भट्ठ त्रि० (भ्रष्ट) भृश-क्तः / च्युते, अधः पतिते च / वाच० / दश० १चू० / "भट्ठा समाहिजोगेहिं / ' भ्रष्टाः स्खलिताः। सूत्रा०१ श्रु०४ अ० 1 उ०। नि० चू० / विनष्टे, ग० 1 अधि० / अपेते, आव० 3 अ०। खण्डिते, ग०२ अधि०। दूरतः पलायिते च। जी०३ प्रति 4 अधिक। रा० / लिङ्गमा त्रोपजीविनि, पुं०। प्रति०।। * भ्राष्ट पुं० अम्बरीषे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। 'भट्ट फिडिअचुक्क / ' पाइ० ना० 161 गाथा। भट्ठचरित्त त्रि० (भ्रष्टचारित्रा) खण्डचरित्रो, 'भट्टचरित्तस्स णिग्गहं विहिणा।" ग०२ अधि०। भट्टरय त्रि० (भ्रष्टरजस) भ्रष्ट वातोद्भूततया दूरतः पलायित रजो यस्मात् तद् भ्रष्टरजः। रजोरहिते, रा०। जं०। आ० म०। भट्ठायार नि० (भ्रष्टाऽऽचार) भ्रष्टः सर्वथा विनष्ट आचारो ज्ञानाऽऽचाराऽऽदिर्यस्य सः / विनष्टाऽऽचारे, ग०। मट्ठायारो सूरी, भट्ठारायाणुविक्खओ सूरी। उम्मग्गठिओ सूरी, तिणि चि मग्गं पणासंति। ग०१ अधि०। भट्ठि स्त्री० (भ्रष्टि) पाश्वादिवर्जितभूमौ, भ०७ श०७ उ01 भड धा० (भट) पोषणे, भ्वादि, पर-सक-सेट् / "टो डः" ||8||1| 195|| इति प्राकृतसूत्रोण डः / प्रा० 1 पाद / भटति / अभाटीत् / अभटीत्। भाषणेऽयं घटाऽऽदिः / णिचि भाटयति। वाच०। * भटपुं० भट-अच्। योद्धरि, वीरे, वाच०। भटाः शौर्यवन्त इति। ज्ञा० १श्रु०१ अ० स्था० अन्त०। रा०।भ०। आ० म०। महा० / चारभटे, भटाश्चारभटा बलात्कारप्रवृत्तयस्तस्करा इति। औ०। ज्ञा०। भयाभावेनाविचलिते, स्था०५ ठा०१ उ०। म्लेच्छभेदे, नीचभेदे, रात्रिश्चरे च। इन्द्रवारुण्याम, वाच०। भडक्खइता स्त्री० (भटखादिता) भटस्तथाविधबलोपदर्शन लब्धभोजनाऽऽदेः खादिता तस्येव खादितं भक्षणं यस्यां सा भटखादिता / प्रवज्याभेदे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। भण धा० (भण) कथने, भ्वादि० पर० सक० सेट् / भणति / अभाणीत् / अभणीत्। चडिवा ह्रस्वः। अवीभणत्। अवभाणतावाच०।"व्यञ्जनाददन्ते" |236 / / इति प्राकृतसूत्रेणाकारः / भणइ / प्रा०४ पाद / भणन्ति-प्ररूपयन्ति। प्रश्न०२ आश्र० द्वार। नि० चू०। * भण पुं० भणति प्रतिपादयतीति भणः। प्रतिपादके, नं०। भणंत त्रि० (भणत) प्रतिपादयति, उत्त० पाई०६ अ०। भणग पुं० (भणक) भणति प्रतिपादयतीति भणः, भण एव भणकः / "कश्च / " इति प्राकृतलक्षणात् स्वाश्च कः / प्रतिपादके, "भणगं झरगं करगं, पभावगं णाणदंसणगुणाणं।'' नं०। भणण न० (भणन) प्ररूपणे, विशे०। भणावण न० (भाणन) भणनार्थ प्रेरणे, नि० चू०१ उ०। भणिइ स्त्री० (भणिति) भण-क्तिन् / ग्रहाऽदित्वादिट् / कथने, वाच० भाषायाम्, अनु०1"वाणी वाया भणिई, सरस्सई भारई गिरा भासा।" पाइ० ना०५१ गाथा। भणिऊण अव्य० (भणित्वा) कथयित्वेत्यर्थे, नि० चू०१उ०। भणिय त्रि० (भणित) प्रतिपादिते, आ० म० 1 अ० / प्रव० / औ० / दर्श०। प्रश्न० / नि० चू० / उत्त०। विशे०। सूत्र० / आव०। आचा०। वचने, औ० / समागते, प्रयोजने, मर्मभणितपरिहारेण, विवक्षितार्थमात्रप्रतिपादने, रा०। भणनाऽऽरम्भे, विपा० 1 श्रु०७ अ० / स्वीणां विकृतभणने, प्रश्न० 4 संव० द्वार। भणितं भणनं गम्भीरं मन्मथाद्दीपि चेति। जी०१ प्रति०४ अधि०। जं०। भणितं-मन्मथोद्दीपिका विचित्रा भणितिरिति / सू० प्र०२० पाहु०। चं० प्र०। रतकूजिते च / ज्ञा० 1 श्रु० भत्त पुं० (भक्त) न० भज' सेवायाम् क्तः / दश 1 अ० / अन्ने, वाच० / ओदनाऽऽदिके, आव० 4 अ०। तणमुलाऽऽदिके, सूत्र०१श्रु० 4 अ०२ उ०। भक्तं-राद्धधान्यं सुखभक्षिकाऽऽदि।ध०२ अधि० / भोजनमाने च। स्था०२ ठा०४ उ०। ज्ञा० / अनु०। उत्त०। स० / विपा०। प्रव०। उपा०॥पञ्चा०। दश०। औ०।"भत्ताइँ विगिचियं सुद्धो। भक्ताऽऽद्यशनपानखाद्यरूपम् / जीत० / "कंतारभत्तेइ वा दुभिक्खभत्तेइ वा पाहुणगभत्तेइ वा गिलाणभत्तेइ वा वद्दलिया-भत्तेइ वा।" औ०। भक्तप्रत्याख्याने, कल्प०२ अधि०८ क्षण / भक्तियुक्ते, तदात्मके विभक्ते च / वि०। वाचल। भत्तकरण न० (भक्तकरण) ओदनाऽऽदिकरणे, आचा०१ श्रु०१ अ० 4 उ०। भत्तकहा स्त्री० (भक्तकथा) भक्तस्य-भोजनस्य कथा भक्तकथा / विकथाभेदे, स्था०। भत्तकहा चउव्विहा पण्णत्ता / तं जहा-भत्तस्स आवावकहा, भत्तस्स णिव्वावकहा, भत्तस्स आरंभकहा, भत्तस्स णिहाणकहा। Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तकहा 1342 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण शाकघृताऽऽदीन्येवावन्तितस्या रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवं रूपा कथा आवापकथा / एतावन्तस्तका पक्कापक्वान्नभेदा व्यज्जनभेदा वेति निर्वापकथा इति / तित्तिराऽऽदीनां मियतां तत्रोपयोग इत्यारम्भकथा। एतावत् द्रविणं तत्रोपयुज्यत इति निष्ठानकथेति। उक्तं च - "सागधयादायावाको, पक्कापक्को य होइ निवाओ। आरंभ तित्तिराई, गिट्ठाण जा सयसहस्सं / / 123 / / " इति। (नि० चू०) इह चामी दोषाः-"आहारमंतरेणवि, गेही ओ जायए सइंगालं / अजिइंदिय ओदरिया, वाओ * अण्णुण्णदोसा य॥१२४॥" (नि० चू०१ उ०) इति / स्था० 4 ठा० 4 उ०। आव०। दर्श०। ग०। आ० चू०। औ०। स०। इदाणिं भत्तकह त्ति दारं / भत्तस्स कहा चउव्विहा इमो - आवावं निव्यावं, आरंभं बहुविहं च णिहाणं। एता कहा कहिते, चउ जमला सुकिला चउरो // 122 / / चउ जमला सुकिल्ला चउरो, वक्खाणं तहेव तवकालवि-सेसिअ, णवरं सुकिल्लत्ते आलावो, सुकिल्ला नाम लहुगा। अह गिद्धस्स वक्खाणंसागघतादावावो, पक्कापक्को य होइ णिव्याओ। आरंभ तित्तिरादी, णिट्ठाणं जा सतसहस्सं / / 123 / / सागो-मूलगाऽऽदि, सागो-घयं वा एत्तियं गच्छति, पक्कं अपक्क वा जं परस्स दिजति सो णिव्यावो। आरंभो एत्तिया तित्तिरादि मरंति। णिहाणं निप्फत्ती, जा लक्खेणं भवति। आहारकहादोसदरिसणत्थं गाहा - आहारमंतरेणा-वि गिहिहतो जाइए सइंगालं / अजितिंदिय ओयरिया, वाओ व अणुण्णदोसा तु / / 124 / / अंतरं णाम आहाराभावो, आहाराभावेऽवि अत्थत्थं गेहिस्स सतः जायते सइंगालदोसा / किं चान्यत्-लोके परिवादो भवति-जिइंदिया ण एए, जेण भत्तकहाए करेत्ता चिट्ठति, रसणिंदियजए य सेसिंदियजओ भवति / ओदारिया णामः जीवियाहेउं पव्वइया, जेण आहारकहाए अत्थति, ण सज्झायज्झाणजोगेहि। किं चान्यत्-अणुण्णदोसो य त्ति। गेहीओ सातिजणा-जहा अंतदुट्ठस्स भावपाणातिवातो, एवं एत्थ वि सातिजणा, सातिजणाओ य छज्जीवकायवहाणुण्णा भवति / वासघाओ भत्तकहापसंगदोसा एसणं ण साहेति। आहारकह त्ति दारं गतं / नि० चू० १उ०। भत्तकाल पुं० (भक्तकाल) भोजनसमये, उत्त० पाई० 12 अ० / भत्तकिण्हुगलिया स्त्री० (भक्तकृष्णगुलिका) विद्युन्मालियक्षेण वणिङ्नावा वीतभयनगरं प्रापितायाः देवाधिदेवस्य प्रतिमायाः, वीतभयनगरनृपतेर्महिष्या प्रभावत्या स्थापितायाः शश्रूषाकारिण्यां स्वनामख्यातायां दास्याम, नि० चू०१० उ०। भत्तट्ठ पुं० (भक्तार्थ) भक्तेन भोजनेनार्थ:-प्रयोजन भक्तार्थः। भोजनेन प्रयोजने, प्रव० 4 द्वार। 'एगो चिट्टेज भत्तहा। भक्तार्थम्-आहारर्थम्। | उत्त०१ अ० / भक्तार्थमुदरपूरण मात्रमिति / ओघ० / भोजननिभित्ते / भोजनमण्डल्यादौ, त्रि०ा उत्त० पाई०१०। प्रव०। भत्तट्ठि(ण) पुं० (भक्तार्थिन्) भक्तप्रयोजनवति, भक्तार्थिनी ये तस्मिन्नहनि भुञ्जते। पं०व०२ द्वार। भत्तपइण्णगन०(भक्तप्रकीर्णक) ग्रन्थभेदे, प्रति०। (तत्स्वरूपतः पतः "भत्तपरिण्णा' शब्दे दर्शयिष्यामि)। भत्तपचक्खाण न० (भक्तप्रत्याख्यान) अनशनभेदे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। उत्तः / ('मरण' शब्दे विस्तरः) भक्तपरिज्ञाऽऽख्ये मरणभेदे, ध०। आहारस्य परित्यागा-त्सर्वस्य त्रिविधस्य वा। भवेद्वक्तपरिज्ञाऽऽख्यं, द्विधा सपरिकर्मणाम् / / 151 / / सर्वस्य चतुर्विधस्य वा / अथवा-त्रिविधस्य पानकरहितस्याऽऽहारस्य परित्यागाद्वर्जनाद्धेतोभक्तपरिज्ञाऽऽख्य-भक्तपरि-ज्ञानागकमुक्तलक्षणं मरणं भवेत्-स्यादिति क्रियाऽन्वयः। तच्च केषां भवतीत्याह - (सपरिकर्मणाम्) वैयावृत्तसहिताना, परिकर्म च स्वकृतमिङ्गिनीमरणेऽप्यस्तीत्यत आह-(द्विधेति) द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां, स्वयं परेभ्योऽपि च परिकर्मकारिणा मित्यर्थः / अवाय भावः-यः प्रव्रज्याकालादारभ्य विकटनां दत्त्वा पूर्व शीतलोऽपि परलोकं प्रतिपश्चात्काले संजातसंवेगो यथोचितां च संलेखनां कृत्वा गच्छमध्यवर्ती समाश्रित मृदुसंस्तारक: समुत्सृएशरीरोपकरणममत्वस्त्रिविधं चतुर्विध वा आहारं प्रत्याख्याय स्वयमेवोद ग्राहितनमस्कारः समीपवर्ति साधुदत्तनमस्कारो वोद्वर्तनापरिवर्तनाऽऽदि कुर्वाणः समाधिना काल करोति तस्य भक्तप्रत्याख्यानम्, अपं च परेभ्यः परिकर्मणां कारयति, यत उत्कर्षतोऽस्याऽष्टचत्वारिंशन्निर्यामका भवन्ति। ध०३ अधिo1 भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पन्नते / तं जहा-णीहारिमे चेव, अणीहारिमे चेव, णियम सपडिक्कमे / स्था० 2 ठा०४ उ० / भत्तपरिणाएँ विहिं, वुच्छमि अहाणुपुव्वीए।।३६४।। सम्प्रति भक्तपरिज्ञाया विधिमानुपूा वक्ष्यामि / प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपव्वज्जादी काउं, नेयव्वं ताव जा अवोच्छित्ती। पंच तुलेऊणऽप्पा, सो भत्तपरिण्णं परिणतो उ॥३६५॥ प्रवज्यामादिं कृत्वा तावन्नेतव्यं यावदव्यवच्छित्तिः / किमुक्तं भवति? प्रथमतः प्रव्रज्या, तदनन्तरं ग्रहणाऽऽसेवनारूपां शिक्षा, ततः परं पञ्च महाव्रतानि, तदनन्तभर्थग्रहणं, ततोऽनियतोवासः, ततः परिपूर्णा गच्छस्य निष्पत्तिं कृत्वा, तदनन्तरं 'तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण यलेण य'' इत्येवंरूपाभिः पञ्चभिस्तुलनाभिरात्मानं तोलयित्वा भक्तपरिज्ञां प्रति परिणतो भवति। सपरक्कमे य अपर-क्कमे य वाघाएँ आणुपुव्वीए। सुत्तत्थजाणएण य, समाहिमरणं तु कायव्वं // 366|| भक्तपरिज्ञारूपं नाम मरणं द्विधा-सपराक्रमम, अपराक्रमं च। तत्रा सपराक्रम द्विविधम्-व्याघातिमम्, नियाघातं च / तत्रा सपराक्रमे एकैकस्मिन् व्याघाते कर्मणि घञ्प्रत्ययाऽऽनयनात् व्याधातिमे, चशब्दानिव्याघाते च समुपस्थिते सूत्रार्थज्ञापकेन समाधिमरणं कर्त्तव्यम्। Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1343 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण एतदेव व्याचष्टे - भिक्खवियारसमत्थो, जो अन्नगणं च गंतु वाएइ। / एस सपरक्कमो खलु, तविवरीतो भवे इयरो।।३६७।। यः स्वस्य परस्य वा निमित्तं भिक्षायां विचारे च गन्तुं समर्थो , यदिवाअन्यगणं गत्वा वाचयति, स भक्तप्रत्याख्यानं प्रतिपित्सुः सपराक्रमः तविपरीतोभिक्षाऽऽदावसमर्थो भवति इतर:-अपराक्रमः, तद्गतं मरणमपि यथाक्रममं सपराक्रमम, अपराक्रमं च। एकेक तं दुविहं, निव्वाघायं तहेव वाघायं। वाघातो विय दुविहो, कालाऽतियरो य इयरो वा // 368 / / तत्-सपराक्रमम, अपराक्रमं च मरणमेके कं द्विविधमनियाघातं, व्याघात च। तत्र व्याघातोनाम यथा अच्छभल्लेन कालादोष्ठौ च खादितौ / अथवा अवर्म व्याघातः, ततो मरणं प्रतिपद्यते। नियाघात यथोक्तव्याघातरहितं व्याघातोऽपि च द्विविधः कालातिचारः, इतरश्च / कालमतिचरति अतिक्रममतीति कालातिचारः कालसहो, यतपिचरेण मरण तथा पूतिगोनशेन दष्टस्य तं दष्टकालमतीत्य विंशतिराभिन्दिवाऽऽदिषुमरणम्, इतरः कालानतिचारो यत्तदिवसमेव मर्तुकामो भक्तं प्रत्याचष्ट इति। तं पुण अणुगंतव्वं, दारेहिं इमेहिँ आणुपुव्वीए। गणनिस्सरणादिएहिय, तेसि विभागं तु वोच्छमि||३६६॥ तेन पुनर्नियाघातदिभिर्वक्ष्यमाणैर्गणनिः सरणाऽऽदिद्वारैरानुपूर्त्या क्रमणानुगन्तव्यं, तेषां च द्वाराणां विभागं वक्ष्यामि। तमेव वक्तुकाम आहगणनिस्सरणे परगणे, सिति संलेह अगीयऽसंविग्गो। एगाऽऽभोगण अण्णे, अणापुच्छ परिच्छ आलोए।।४००।। ठाण वसहीए सत्थे, णिज्जवया दव्वदायणा चरिमे। हाणीय अपरियंत, निजर संद्यारुवत्तणादीणि // 401 // सारेत्तण य कवयं, निव्वाघाएणा चिंधकरणं तु। अंतो वहि वाघातो, भत्तपरिन्ना' कायव्वो / / 402 / / गणात्-स्वगणाद् निःसरणा वक्तव्या, तथा परगणगमनं तथा (सिति त्ति) द्रव्यभावरूपा निभेणिर्वक्तव्या, तथा संखेलना, तथा अगीतस्यअगीतार्थस्य समीपे न भक्तं प्रत्याख्यातव्यम् / तथा (असंविग्गे त्ति) असंविग्नस्याऽपि समीपे न प्रत्याख्यातव्यम् / तथा (एग त्ति) एको निर्यापको न कर्त्तव्यः, किंतु बहवः परतो वा भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्य विषये आभोगन कर्तव्यम्। तथा अन्यो यदि भक्तं प्रत्याख्यातुमुद्यातस्तर्हि यदि निर्यापकाः पूर्यन्ते तदास प्रतीष्यते,शेषकालं नेति। तथा आचार्येण गच्छरम्यानापृच्छाया स भक्तप्रत्याख्यान न प्रतिपादयितव्यः। तथा तेन भक्तं प्रत्याख्यातुकामेन गच्छस्य, गच्छेनाऽपि तस्य परीक्षा कर्तव्या। तथा भक्तपरिज्ञा प्रतिपत्तुकामेव नियमत आलोचना दातव्या / / 400 / / तथा प्रशस्ते स्थानेप्रशस्तायां वसतौ भक्तपरिज्ञा प्रतिपत्तव्या / तथा निर्यापकाः गुण सम्पन्नाः समर्पणीयाः / तथा चरमकाले तस्यभक्तगत्याख्यातुकामस्य द्रव्यदर्शन प्रधानसमस्ताऽऽहारद्रव्योपदर्शनं विधेयम्। (हाणि त्ति) भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्य प्रतिदिनवरामाहारस्य हानिर्विधेया। तथा अपरिश्रान्तः सर्वकर्माणि प्रतिचारका वर्तन्ते। (निज त्ति) निर्जरा वक्तव्या। तथा संस्तारको याद्दशो भवति कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य कर्त्तव्यस्तादृशो वक्ष्यते। तथा तस्य कृतभक्तप्रत्याख्यानस्याद्वर्त्तनाऽऽदीनि यथासमाधि करणी यानि / / 401 / / तथा प्रथमद्वितीयपरीषहाभ्या त्याजित स्मारयित्वा स्वं स्वरूपमनर्थत्वा ऽऽदिलक्षणं कवच-कवचभूतमशनं प्रयोक्तव्यम् / तथा जीववतो मृतस्य च तस्य चिह करणं विधेयम् / एतं नियाघातेन भक्तपरिज्ञाव्याघाताभावेन प्रतिपत्तव्यम्। अथान्तः–ग्रामाऽऽदिषु बहि:-उद्यानाऽऽदिषु भक्तपरिज्ञाया व्याघातः संजातः, ततो गीतार्थनामुपायो भवति कर्तव्यः / एष द्वारगाथाऽर्थः। साम्प्रतमेतदेव विवरीषुः प्रथमतो (1) गणनिस्सरण द्वारमाहगणनिस्सरणम्मि विही, जो कप्पे वण्णितो समासेणं / सो चेव निरवसेसो, भत्तपरिण्णाएँ दसमम्मि॥४०३।। गणनिस्सरणे यो विधिः कल्पे-कल्पाध्यय्ने सप्तविधः सप्तप्रकारो वर्णितः, स एव व्यवहारे दशमे उद्देशके भक्तपरिज्ञायां भक्तपरिज्ञाधिकारे निरवशेषी वक्तव्यः (स च विधिः 'उपसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 1008 पृष्ठादारभ्य दर्शितः।) गणनिस्सरणद्वारं गतम्। इदानीं (2) परगणद्वारम् / परगणे गत्वा भक्तप्रत्याख्यानं कर्तव्यम् - किं कारणं चंकमणं, थेराण इहं तवोकिलंताणं / अब्भुञ्जयम्मि मरणे, कालुणियाझाण वाघातो // 10 // किं कारणं स्वगणादपक्रमणं क्रियते ? सूरिराहस्थविराणाम् आचार्याणां संलेखनातपोभिः क्लान्तानामिह स्वगणे अभ्युते भक्तपरिज्ञालक्षणमरणे समुपस्थितानां शिष्याणाम् आचार्यानुरागेण रोदनक्रन्दनाऽऽदीनि कुर्युः रोदनाऽऽदिकं च तेषामा-काश्रुतपातं दृष्ट्वा तेषाममुपरि कारुण्यमुपजायते, ततो ध्यानध्याघातः। अन्यच्चसगणे आणाहाणी, अप्पत्तिय होइ एवमादीयं / परगणे गुरुकुलवासो, अप्पत्तियवजितो होइ।।४०५|| यो गणधरः स्थापितः तस्याऽऽज्ञा केचित् न कुर्वन्ति, तथा केपाञ्चिदुपकरणनिमित्तमप्रीतिः, आदिशब्दात् गणभेदो, बालाऽऽदीनामुविताऽऽध करणदर्शनमित्यादिपरिग्रहः। तत एवं स्वगणे आज्ञाहानिरप्रीतिरसेवनाऽऽदिकं ध्यानव्याघातकारणमुपतिष्ठते, ततः परगणे गत्वा भक्तप्रत्याख्यानं प्रतिपद्यते / यत एवं गुरुकुलवास आसेवितो भवति / किंविशिष्ट इत्याह प्रीति वर्जितोऽप्रीतिश्च समस्ताऽपि परिहता भवतीति भावः। अप्रीत्यादिक यथा स्वगणे भवति तथा प्रदर्शयतिउवगरणनिमित्तं तु, वुग्गहो दिस्स वावि गणभेयं / बालादी थेराण व, उचियाकरणम्मि बाघातो॥४०६|| उपक रणनिमित्तं साधूनामाचार्य कृ तभक्त प्रत्याख्याने व्युद् गह:-कलहो भवति / अथवा-तं गणधरं के चिन्न मन्यन्ते, ततः स्वस्वपक्षपरिगहतो गणभेदः, तत एवमुपकरणनि - Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपचक्खाण 1344 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मत्तपच्चक्खाण मित्त गणभेदं दृष्ट्वा उपलभ्य, तथा बालाऽऽदीना बालवृद्धाऽसहग्लानाऽऽदीनां स्थविराणां चाा विकरणे उचितकरणाऽदर्शनेऽप्रीतिरुपजायते, तया चाप्रीत्या ध्यानव्याघातः। अयं च परगणे प्रतिपन्ने गुणःसिणेहो पेलवो होइ, निग्गते उभयस्स उ। आहवा चावि वाघाते, नो सेहादि विउग्गमे / / 407 / / स्वगणान्निर्गतस्योभयस्यापि-गणस्य, आचार्यस्य वा स्नेहः परस्पर पेलवः-प्रतनुर्भवति, अन्यच्च (आहच) काचित्प्रथमपरीषहेण त्याजितस्य भक्तपरिज्ञा, तस्यां यो व्याघातो-विलोपः-स्यात् तस्मिन् व्याघातेन स्वगणादशैक्षकाऽऽदीना व्युद्गमो जायते, आघातपरिज्ञानाभावात् / अथवा-विपरिणामोऽपि स्यात् / तथाहि-स्वगणे स्थितं भनप्रतिज्ञ जानन्ति, ज्ञात्वा च सर्वा अपि प्रतिज्ञा एतेषामीदृश्य एवेति विपरिणामं गत्वा संयम लोपयन्ति। सम्प्रति (3) 'सिति' द्वारमाह - दव्वसिती भावसिती, अणुओगधराण जेसिमुवलद्धा। नहु उड्डगमणकट्ठा, हेट्ठिल्लपयं पसंसंति॥४०८|| संजमठाणाणं कं-डगाण लेसाठितीदिसेसाणं / उवरिल्लपयक्कमणं, भावसिती केवलं जाव।।४०९।। सितिर्नाम-ऊर्द्धमधो वा गच्छतः सुखोत्तारावतारहेतुः काठाऽऽदिमयः पन्थाः। सा द्विधा-द्रव्ये, भावे च। ता द्रव्येशितिनिःश्रेणिः, सा द्विधाऊर्द्धगमने, अधोगमने च / ता ययाऽधस्तात् भूमिगृहाऽऽदिष्वतीर्यते सा अधोगमने। यया चोर्द्धपरिमाणे आरुह्यतेसा ऊर्द्धगमने। भावसितिरपि द्विधा-प्रशस्ता, अप्रशस्ता च / तत्र यैहेतुभिस्तेषामेव संवमस्थानानांसंयमकण्डकानां लेश्यापरिणाम विशेषाणां वा याऽधस्तनेष्वधस्तनेष्वपि संयमस्थानेषु गच्छति साऽप्रशस्ता भावशितिः। यैः पुनर्हेतुभिस्तेषामेव संयमाऽऽदिस्थानानामुपरितनेषूपरितनेषु विशेषेष्यध्यारोहति सा प्रशस्तोच्वोपरितन एव क्रमेण भावसितिस्तावद्रष्टव्यं यावत् केवलज्ञानम्।ता येषामनु-योगधराणा माचार्याणा मेय द्रव्ये भावे च शितिरुपलब्धा भवति ते (न हु) नैव ऊर्ध्वगमने कार्य कर्तव्ये अधस्तनपदं प्रशंसन्ति, न तासुसपदि गमनायाशुभाध्यवसायप्रवृत्तिमातन्वते, किंतु शुभेष्यध्यवसायेष्वारोहन्ति / गतं सितिद्वारम्। संप्रति (4) संलेखनाद्वारमाह - उक्कोसा य जहन्ना, दुविहा संलेहणा समासेण / छम्मासा उजहण्णा, उक्कोसा बारससमा उ||४१०॥ संलेखना समासेन द्विविधा प्रज्ञप्ता / तद्यथा-उत्कृष्टा जघन्या च / चशब्दात्-मध्यमा च। तत्र जघन्या षण्मासा, उत्कृष्टा द्वादशसगाद्वादशवर्षाः। चिट्ठ उताव जहन्ना, उक्कोसं तत्थ जाव वुच्छामि। जं संलिहिऊण मुणी, साहेती अत्तणो अत्थं / / 411 / / तत्रा तयोर्जघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये जघन्या यावत्तिष्ठतु, पश्चाद्वक्ष्यमाण त्वात, उत्कृष्टां तावद् वक्ष्यामि, यदित्यव्ययं यथा मुनय आत्मनं संलिख्याऽऽत्मनोऽर्थ साधयन्ति। तमेवाऽऽह - चत्तारि विचित्ताई, विगईनिजूहियाइं चत्तारि। एगतरमायामे-नातिविगिट्टे विगिट्टे य॥४१२। चत्वारि वर्षाणि विचित्तााणि विचित्रतपांसि करोति। किमुक्लं भवति ? चत्वारि वर्षाणि यावत्कदाचिचतुर्थ कदाचित् षष्ट कदाचिदष्टममेव दशद्वादशादीन्यपि करोति, कृत्वा च पारणक सर्वकामगुणितेनाऽऽहारेण पारयति। ततः परमन्यानि चत्वारि वर्षाण्युक्तप्रकारेण विचित्रतपांसि करोति विकृतिनिhहितानि। किमुक्तं भवति? विचित्रां तपः कृत्वापारणके निर्षिकृतिकं भुङ्क्ते उत्कृष्टरसवर्जं च, ततः परतोऽन्ये द्वेवर्षे एकान्तरमायामं करोति, एकान्तरं चतुर्थ कृत्वा आयामेन पारयति, एवभेतानि दश वर्षाणि गतानि, एकादशस्य वर्षस्याऽऽदेशान् नातिविकृष्टं तपः कृत्वा आयामेन परिमितं भुङ्क्ते, नातिविकृष्ट नाम तपश्चतुर्थ षष्ठं यावदवगन्तव्यम्। ततः परमन्यान् विकृष्ट तपः कृत्वा मा शीघ्रमेव मरण यायासमिति कृत्वा पारणके परिपूर्ण घ्राण्या आयामं करोति, विकृष्ट नामाऽऽष्टमादिकम्। साम्प्रतमेतदेव व्याचिख्यासुराहसंवच्छराणि चउरो, होति विचित्तं चउत्थमादीयं / काऊण सव्वगुणियं, पारेइ उ उग्गमविसुद्धं // 413 / / आदिमानि चत्वारि संवत्सराणि विचिा तपश्चतुर्थाऽऽदिकं भवति, तच कृत्वा पारयति भुङ्क्ते सर्वगुणितंसर्वगुणेन संयुतमाहारमुदगमविशुद्धम्। पुणरवि चउरण्णे तू, विचित्त काऊण विगतिवज्जं तु! पारेइ सो महप्पा, गिद्धं पणियं च वज्जेइ॥४१४॥ पुनरप्यन्यानि चत्वारि वर्षाणि विचित्रां तपः कृत्वा स महात्मा विकृतिवर्ज पारयति, तत्रापि स्निग्धं प्रणीतं चोत्कृष्टरसं वर्जयति। अन्नाओ दोण्णि समा, चउत्थ काऊण पारि आयामं / कंजीएणं तु ततो, अण्णेकसम इमं कुणइ / / 415 / / अन्ये द्वेसमे-वर्षे चतुर्थंकृत्वा आयामं पारयति, एवंदश वर्षाणि गतानि, ततः परमन्यामेकां समावर्षमिमा वक्ष्यमाणां काञ्जिकेनायामपारणकेन करोति। कथमित्याह - तस्थिक्क छम्मासं, चउत्थ छटुं तु काउ पारेइ / आयंबिलेण नियमा, बिइए छम्मासिएँ विगिट्ठ॥४१६|| अम दसम दुवालस, काऊणाऽऽयंबिलेण पारे। अन्नेक्कहयणं तू, कोडीसहियं तु काऊण 1417 / / ता एकादशे वर्षे, एकमाद्य, षण्मासं यावत् चतुर्थ षष्ठ वा कृत्वा नियमादायामेन पारयति, द्वितीये षण्मासे विकृष्टमष्टमं दशमं द्वादशं वा कृत्वा आयामाम्लेन पारयति / एवमेकादश वर्षाणि गतानि। अन्यमेक द्वादशहायन कोटीसहितं कृत्वा। Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपञ्चक्खाण 1345 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण किमित्याहआयंबिल उसुणोदे-ण पारि हावेंतों आणुपुव्वीए। जह दी तेल्लवत्ति-क्ख ओ समं तह सरीराऽऽयू / / 418|| आयामेन उष्णोदकेन पारयति। अयमत्रा संप्रदायः-द्वादशे वर्षे कोटीसहितं प्रत्याख्यानं चतुर्थविषयं कृत्वा प्रथमं पाणकमायामेन उष्णोदकेन करोति, द्वितीयं पारणकं निर्विकृतिकेन, तृतीयं पुनरायामेन यथोक्तरूपेण, चतुर्थ निर्विकृतिकेन। एवमकान्तरितंपारणकेष्वायाम करोति। कोटीसहितं नामप्रथमदिवसे पुनरभक्तार्थं कृत्वा पारयति, एतचचतुर्थे कोटीसहितं प्रत्याख्यानम्। एवं षष्ठाष्टमाऽऽदिकोटीसहितान्यपि भावनीयानि / अथवा--अयम् अन्यो-द्वितीयः प्रकार:- एकस्मिन् दिने चतुर्थ कृत्वा द्वितीये दिवसे पारयति, तृतीय दिवसे पुनश्चतुर्थ करोति। चतुर्थे दिवसे पारयति। एतचतुथ-कोटीसहितं, षष्ठकोटीसहितमेवं षष्ठं कृत्वा पारयति, पुनः षष्ठं करोति. ततः पारयति। एवमष्टमाऽऽदिकोटीसहितान्यपि भावनीयानि। (हावेतो आणुपुष्वीए इति) तस्मिन् द्वादशे वर्षे पारणकेषु यथाकममेकैकं कवलं हापयन् पारयति, यावदेकं कवलं, ततः (शेषेषु) शिक्थेषु पारणकेषु क्रमश एकेन सिक्थेनानमेकं कवलमाहारयति, द्वाभ्यां सिक्थाभ्यां, त्रिभिः सिक्थैरेवं यावदन्ते एक सिक्थमाहारयति / कस्मादेव करोतीति चेदत आह-यथा दीपे सममेककालं तैलवर्तिक्षयं भवति, तथा शरीराऽऽयुषः समकं क्षयः स्यादिति हेतोः। पच्छिल्ले हायणे तू, चउरो धारेत्तु तेल्लगंडूसं। निसिरेन खेल्लमल्ले, किं कारण गल्लधरणं तु ?||416 / / लुक्खत्ता मुहजंतं, मा हु खुभेज त्ति तेण धारे।। मा हु नमोक्कारस्स, अपचलो सो हवेजाहि॥४२०॥ तस्मिन्यपश्चिमेद्वादशे हायने ये अन्तिमाश्चत्वारोमासास्तेष्वेकैस्मिन् पारणके एकान्तरितं तैलगण्डूषं चिरकालं धारयति, धारयित्वा खेलमल्लकेसक्षारे निसृजतित्यजति ततो वदनं प्रक्षालयति / / 416 / / किं कारणं गल्ले गण्डूषस्य धारण क्रियते? उच्यते-मा मुखयन्त्रां रूक्षत्वाद्वातेन क्षुभ्यते-एकत्रा संपिण्डी भूयते, तथा च सतिमा स नमस्कारस्य भणने अप्रत्यलः-असमर्थो भवेदिति हेतोगल्ले तैलधारणं करोति। उक्कासेगा उ एसा, संलेहा मज्झिमा जहन्ना या। संवच्छर छम्मासा, एमेव य मासपक्खेहिं / / 421 / / एषा--अनन्तरोदिता संलेखा--संलेखना उत्कृष्टा भण्णिता, मध्यमा संलेखना संवत्सरप्रमाणा, एवं प्रागुक्तेन प्रकारेण द्वादशभिर्मासैः परिभावनीया, जघन्या एषा षण्मासा द्वादशभिः पक्षैः वर्षस्थाने मासान् पक्षाँश्च स्थापयित्वा तपोविधिःप्रागिव निरवशेष उभयत्राऽपि भावनीय इति भावः। एत्तो एगतरेणं, संलेहेणं खवेत्तु अप्पाणं। कुज्जा भत्तपरिणं, इंगिणि पाओवगमणं वा / / 422 / / एतेषामुस्कृष्टमध्यमजघन्यानां संलेखनानामेकतरेण संलेखनेनाssत्मानं क्षपयित्वा कुर्यात् भक्तपरिज्ञाम, इङ्गिनीमरणं, पादपोपगमनं वा। गत (4) संलेखनाद्वारम्। अधुना (5) अगीतद्वारमाह -- अण्मीयसगासम्मी, भत्तपरिणं तु जो करेजाहि। चतुगुरुगा तस्स भवे, किं कारण जेणिमे दोसा? ||423 / / गीतार्थस्य समीपे भक्तं प्रत्याख्यातव्यं, यस्त्वगीतस्य-अगीतार्थस्य सकाशे-समीपे भक्तपरिज्ञांभक्तप्रत्याख्यानं करोति तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। कि कारणम्? उच्यते- येन कारणेन इमे वक्ष्यमाणा दोषास्तेन कारणेन। तत्रा तानेव दोषानाह - नासेती अग्गीतो, चउरंगं सव्वलोयसारंग। नट्ठम्मि य चउरंगे, न हु सुलभं होइ चउरंग // 424 / / अगीत:-अगीतार्थो निर्यापकस्तस्य कृतभक्तमत्याख्यास्य चतुरङ्ग चतुर्णामङ्गानां समाहारश्चतुरङ्ग वक्ष्यमालम् / कथं भूतमित्याहसर्वलोकसाराङ्गम्-अङ्गवरं, प्रधानमित्यनान्तरम् / सर्वेषामपित्रयाणामपि लोकानां यानि अङ्गानि तेषां सारमिति विशिष्टमङ्गं प्रधानं सर्वलोकसारङ्गम्। नष्टे च चतुरङ्गे न पुनः सुलभंसुप्रापं भवति चतुरङ्ग, किं तु चुल्लक ऽऽदिदृष्टान्तरतिशयेन दुष्प्रापं, ततोऽगीतस्य समीपे भक्तं न प्रत्याख्येयम्। किं पुण तं चउरंग, भं नटुं दुल्लभ पुणो होइ। माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तवसंजमे विरियं // 425 / / किं पुनः तचतुरङ्ग यन्नष्ठं सत् पुनर्दुर्लभं भवति ? सूरिरामानुष्यंमानुषत्वं, धर्माश्रुतिः, धर्मश्रवणं, श्रद्ध तपसि संयमे य वीर्यमिति। किह नासेति अगीतो, पढमबितिएहिं अद्वितो सो उ। ओभासे कालियाए, ते णिद्धम्मो त्ति छड्डेजा // 42 // कथं-केन प्रकारेण सोऽगीतार्थः तस्व चतुरङ्गं नाशयति? सूरिराहप्रथमद्वितीयाभ्यां क्षुत्पिपासालक्षणाभ्यां परीषहाभ्यामर्दितः-पीडितःस भक्तप्रत्याख्याता कदाचित् कालिकायां रात्रौ भक्तं च पानं च अवभाषेतयाचेत, ततः सोऽगीतार्थो न कल्पते इति कृत्वा न दद्यात्, चिन्तयति च - भक्तं प्रत्याख्याय पुनर्याचते भक्तं, तत्रापि रात्रौ, तत एष निर्धर्मा असंयतीभूत इति कृत्या तंत्यजेत्, त्यक्त्वा गच्छेत्। अंतो वा बाहिं वा, दिवा य रातो व सो विवित्तो उ। अट्टहट्टवस हो, पडिगमणाऽऽदीणि कुजाहे / / 427 / / अन्तरुपाश्रयस्य बहिरुपायश्रयस्य वा, दिवा रात्रौ वा, तेनाऽमीतार्थन विविक्तः सन् आर्त्तः-दुःखात वशातः सन् प्रतिगमनाऽऽदीनि प्रतिगमनं नामप्रतिभञ्जनं, व्रतमोक्षमित्यर्थः / आदिशब्दात्-मृत्वा कुगतिविनिपातान् वा कुर्यात्। तांश्च कुगतिविनिपातानेवाऽऽह - मरिऊणऽट्टज्झाणो, गच्छे तिरिएसु वंतरेसुं वा। संभरिऊण य रुट्ठो, पडिणीयत्तं करेजाहि // 428|| स आर्तध्यानो मृत्वा तिर्यक्षु तिर्यग्योनिषु गच्छेत् यदिवाव्यन्तरेषुवानमन्तरेषु मध्ये स समुत्पद्येत्, तव च जाति स्मृत्वा त्यक्तोऽहं तस्यामवस्थायामिति रुष्टः सन् बहुविधं प्रत्यनीकत्वं कुर्यात्। Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण अहवा वि सव्वरीए, मोयं देज्जाहि जायमाणस्स। सो दंडियाएँ हुज्जा, रुट्ठो साहे निवादीणं / / 426 / / कुज्जा कुलादिपत्था-रं सो रुट्ठो व गच्छे मिच्छत्तं / तप्पच्चयं च दीहं, भमेज्ज संसारकंतारं / / 430 / / अथवा --- शर्वर्यां पानीयं याचमानस्य रात्रौ पानीयं नास्तीति मोकप्रश्रवणं सोऽगीतार्थो दद्यात्, सचदण्डिकाऽऽदीनां सम्बन्धी निष्क्रान्तः स्यात् ततः स धातुवैषम्येण राष्टः सन् अवधावेत, अवधाव्य च नृपाऽऽदीना कथयेत्ततः प्रवचनस्य महानुडाहः / यदि वा-स राजाऽऽदिस्तत्पक्षपतितः, सोऽपि वा स्वयं रुष्टः कुलाऽऽदिप्रस्तारंकुलस्य गणस्य वा विनाशं कुर्यात्। यद्यपि च एवमादयो दोषा न भवन्ति तथाऽपि प्रथमद्वितीयपरीषहाभ्यां परितप्यमानोऽसमाधिना मृतो दुष्करमपि कृत्वाऽन्तक्रियांकल्पविमानोपपत्तिं वा न प्राप्नुयात्, किंतुवाणमन्तराऽऽदिषूपपद्येत। यदि वा-क्रषायपीडितो दृष्टिविषः सर्पो जायेत / (गच्छे मिच्छतमिति) इह भवे वा मिथ्यात्वं गच्छेत्. तत्प्रत्ययं च मिथ्यात्वप्रत्ययं च दीर्घ संसारकान्तारं भ्रमेत्। सो उ विगिंचिय दिट्ठो, संविग्गेहिं तु अन्नसाहूहिं। आसासियमणुसिट्ठो, अब्भुयमरणं वि पडिवन्नं / / 431 / / स प्रत्याख्यातभक्तो भक्तं याचमानोऽगीतार्थः साधुभिर्विविक्तः परित्यक्तः अन्यैः संविग्नः गीतार्थसाधुभिर्द्दष्टः ततस्तैराश्वासितः; आश्वास्य य अनुशिष्टः-अतिशयेन दूरमुत्साहितस्ततो यत् अभ्युद्यतमरणं त्यक्तं, तत्पुनरपि तेन प्रतिपन्न, ततः सुगतिभागी जातः / एए अन्ने य तहिं, बहवे दोसा य पञ्चवाया य / एएहि कारणेहिं, अगियत्थे न कप्पति परिण्णा / / 432|| यरमादेते-अनन्तरोदिता अन्ये च - अनुक्ता बहवो दोषाः-प्रत्यवायाश्च अगीतार्थस्य समीपे भक्तपरिज्ञाप्रतिपत्तौ, तस्मादेतैः कारणैरगीतार्थस्य समीपे परिज्ञाभक्तपरिज्ञा न कल्पते, संविग्न-गीतार्थाना च समीपे बहवो गुणाः तस्मात्तन्मार्गणा कर्त्तव्या। सा च द्विधा-क्षेत्रातः, कालतश्च। तत्र क्षेत्रतस्तामाहपंच छ सत्त सए वा, अहवा एत्तो वि सातिरेगतरे। गीयत्थपायमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो।।४३३।। पच्च षट् सप्त वा यो जनशतानि / अथवा इतोऽपि सातिरेकतराणि योजनशतानि गत्वा संविग्रपादमूलपरि (त्रा)तान्तोऽनिर्विणो मृगयेत / उक्ता क्षेत्रतो मार्गणा। कालत आहएग व दो व तिन्नि व, उक्कोसं वारसेव वासाणि। गीयत्थपायमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो / / 434|| एको द्वे त्रीणि वा उत्कर्षतो द्वादश वर्षाणि यावदपरिता -(त्रा)न्तोऽनिर्विण्णो गीतार्थपादमूलं परिमृगयेत। गीयत्थदुल्लभं खलु, पडुच कालं तु मग्गणा एसा। ते खलु गवेसमाणा, खेत्ते काले य परिमाणं / / 435 / / गीतार्थो दुर्लभो यस्मिन् काले तं गीतार्थदुर्लभं काल प्रतीत्यआश्रित्य एषा-अनन्तरोदिता क्षेत्रतः कालतश्च मार्गणाऽभिहिता। ते खलु गीतार्थ गवेषमाणा क्षेत्राविषये कालविषये च परिमाणमुत्कृष्टमेतावत् कुर्वन्ति। तम्हा गीयत्थेणं, पवयणगहियत्यसव्वसारेणं / निज्जवगेण समाही, कायव्वा उत्तमट्ठम्मि // 436|| यस्मात् क्षेत्रातः कालतश्च गीतार्थमार्गणायामेतावानादरः कृतस्तस्मात्तेन गीतार्थेन प्रवचनगृहीतार्थसर्वसारेण प्रवचनस्य गृहीतोऽर्थस्य सर्वसारो येन स तथा तेन, निर्यापकेण उत्तमार्थे व्यवस्थिस्यतेन समाधिः कर्तव्यः / गतमगीतार्थद्वारम् / अथ (6) असंविग्रद्वारमाहअस्संविग्गसमीवे, पडिवजंतस्स होइ गुरुगा उ। किं कारणं तु तहियं, जम्हा दोसा हवंति इमे // 437 / / असंविग्नसमीपेऽपि भक्तपरिज्ञा प्रतिपद्यमानस्य भवन्ति चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चितम्। किं कारणं तत्रा यस्मादिमे वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति / तानेवाऽऽह - नासेति असंविग्गो, चउरंगं सव्वलोयसारंगं ! नट्ठम्मि य चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंग / / 438|| नाशयत्यसंविग्नश्चतुरङ्ग–मानुषत्वाऽदिरूपं सर्वलोकसाराङ्ग सर्वलोकप्रधानतराङ्गं चतुरङ्गे नष्ट (न हु) नैव सुलभंसुप्रापं भवति चतुरङ्गम्। कथं नाशयतीत्यत आह - आहाकम्मिय पाणग, पुप्फा सेया बहुजणे णायं / सेज्जा संस्थारो विय, उवही वि य होइ अविसुद्धो।।४३६॥ असंविग्नो बहुजनस्य यथा तथा वा ज्ञातं करोति, यथा-एष कृतभक्तप्रत्याख्यानः, ततः स आधाकर्मिकंपानमानयति पुष्पाणि चढौकयति, सेचन च चन्दनाऽऽदिना करोति, तथा शय्यासंस्तारक उपधिश्च तेनाऽऽनीतः अविशुद्धो भवति। एते अन्ने य तहिं, बहवे दोसा य पचवाया य। एतेण कारणेणं, अस्संविग्गे न कप्पइ परिन्ना / / 440 / / एते-अनन्तरोदिता अन्येऽयनुक्ता बहवो दोषाः, प्रत्यवायाश्च / तत्र प्रत्यवायाः प्रागिवासमाधिमरणतो वाणमन्तरेषूत्पादितो, नृपाऽऽदिकथनतो वा वेदितव्याः / एतेन कारणेनाऽसंविग्ने-असंविग्नस्य समीपे परिज्ञा न कल्पते, किंतु संविग्नस्याऽन्तिके। ततः क्षेत्रतो कालतश्च मार्गणामाह - पंचे व छ सत्त सया, अहवा एत्तो वि सातिरेगा य। संविग्गपायमूलं, परिमग्गिजा अपरितंतो॥४४१॥ इयं क्षेत्रातः, कालत आहएकं व दो व तिणि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि / संविग्गपायमूलं, परिमग्गिजा अपरितंतो।।४४२।। संविग्गदुल्लभं खलु, कालं तु पडुन मग्गणा एसा। ते खलु गवेसमाणा, खेत्ते काले य परिमाणं / / 443|| Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपचक्खाण 1347 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण यस्मादेवं क्षेत्रातः कालतश्व मार्गणायामादरः कृतःतम्हा संविग्गेणं, पवयणगहियत्थसव्वसारेणं / निजवगेण समाही, कायव्वा उत्तमट्ठम्मि॥४४४|| गाथाचतुष्टयमपि प्राग्वत्। गत संवितरद्वारम्। इदानीम् (7) एकद्वारम्। एको निर्यापको न कर्तव्यः / किं तु बहवः अन्यथा विराधनाऽदिदोषप्रसङ्गात्। तमेवोपदर्शयतिएक्कम्मि उ निजवए, विराहणा होइ कज्जहाणीय। सो सेहा विय चत्ता, पायवण्णं चेव उड्डाहो // 445|| एकस्मिन् निर्यापके संयमविराधना, आत्मविराधना च भवति / तथाहि-कृतभक्तप्रत्याख्याननिमित्तं पानकग्रहणायाऽ टन् यदा क्वापि न लभते तदा मा भूत्पश्चात् ग्लानस्यासमाधिरित्याधाकर्मिकमपि तं पानक गृह्णीयात् इति संयमविराधना, निरन्तरमेकस्य क्लिश्यमानस्याऽऽत्मविराधना, तथा कार्यहनिश्च भवति तथाहि-मरणसमये समाध्युत्पादनाय सोऽपेक्षते, स च कदाचित्समये पानकाऽऽदिनिमित्तमन्यत्र गतो भवेत, तथा स भक्तप्रत्याख्याता व्यक्तः, क्षैक्षा अपि च त्याक्ताः प्रवचनं त्यक्तमुड्डाहश्चोपजायते। एतद्विभावनार्थमाहतस्सऽट्ठगतोभासण, सेहादि अदाणे सो परिचतो। दाउंब अदाउंवा, भवंति सेहा वि निद्धम्मा // 446 // तस्य-प्रत्याख्यातृभक्तस्यार्थाय पानकाऽऽदीना मार्गणाय गतो निर्यापकस्तस्य समीपे शैक्षकः अपरिणतो वा मुक्तस्तस्य समीपे (ओभासण त्ति) भक्तं याचितं ते च शैक्षकाऽऽदयो-न कल्पते एतस्य च भक्तं. कृत प्रत्याख्यानत्वादिति न ददति, अदा न च सोऽसमाधिना मरणं प्राप्नुयादिति स परित्यक्तः। ते च शैक्षा दत्त्वा अदत्त्वा वा निर्धाणो भवन्ति / तथाहि-तेषामेवं चित्तमुपजायते, यथा स्थापनामात्रा प्रत्याख्यानं यथा चैतदेवमेव हिंसाऽऽदिप्रत्याख्यानान्यपि ततः कल्पन्ते हिंसाऽऽदयोऽपीति निर्धर्माणो जायन्ते। कूयइ अदिजमाणे, मारेंति बल त्ति पवयणं चत्तं / सेहा य जं पडिगया, जणे अवण्णं पयासेंति॥४४७|| तैः-शैक्षकैरेवादीयमाने भक्ते स महता शब्देन कूजति, यथा मामेते बलान्मारयन्ति, इत्येवमुक्तेन-प्रकारेण प्रवचनं त्यक्तं, तथा शैक्षा ये प्रतिगताः--प्रतिभग्नाः सन्तो जने अवज्ञा प्रकाशयन्ति, एष उड्डाहः / गतम् (7) एकद्वारम्। अथ (8) आभोगनद्वारमाहपरतो सयं व नचा, पारगमिच्छंति अपारगे गुरुगा। असती खेमसुभिक्खे, निव्वाघाएण पडिवत्ती।।४४८|| भक्तं प्रत्याख्यातुकामः कोऽपि समागतस्तत आचार्येणा-ऽऽभोगः कर्त्तव्यो, यावदस्य भक्तप्रत्याख्यानं समाप्तिमुपयाति तावदशिवाऽद्युपद्रवो नगराऽऽदीनां वोत्थानं भविष्यति किं वा नेति, तच कथं ज्ञातव्यं? ते (तत्) स्वयमाचार्यस्यातिशयो ऽस्ति तेन ज्ञातव्यं, यदि वा निमित्तमासोगमीम, अथवा- स्वयं देवता कथयति, यथा-'कंचणपुर' गाथा (450) इत्यादि। अथ स्वतोऽतिशयो निमित्तं वा नास्ति तर्हि येषां ते सूरयः स्वयं प्रष्टव्याः, एवं स्वतः परतोवा अशिवाऽऽदीना नगरोत्थनादीनों वा भावमव-बुध्य पुनरिदं ज्ञातव्यं, किमेष प्रत्याख्यानस्य पारगो भविष्यति, किंवा नेति? तत्र यदि पारगतो ज्ञायते ततस्तपारगमिच्छन्ति। अथ चाऽपारग नेच्छन्ति तथा अपारगे इष्यमाणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / अथ स्वस्य परस्य वाऽतिशया ऽऽदिर्न विद्यते ततोऽसतिअविद्यमाने आभोगे यदि क्षेमं सुभिक्षं च तदा निर्याघातेन प्रतिपत्तिः कारायितव्याः, वर्षाकाले प्रतिपत्तिः कार्यते इत्यर्थः / एतदेवाऽऽहसयमेव चिरं वासो, वासावासे तवस्सिणं / तेण तस्स विसेसेण, वासासु पडिवजणा!|४४६॥ वर्षारात्रो वर्षोदककर्दमाऽऽदिकारणतश्चतुरः पञ्च षड् वा मासान् ग्रामाऽऽदीनामुत्थानं न भवति, क्षेमं सुभिक्षं च स्वभावेन वर्तते, तपस्विनां च वर्षावासे चिरं वासः स्वयमेव प्रवृत्तः, तेन कारणेन तस्य भक्तप्रत्याख्यातुकामस्य विशेषतो भक्तप्रत्यख्यान-प्रतिपादनके कर्तव्या। पूर्वमिदमुक्तं स्वयं देवता कथयति तन्निदर्शनमाहकंचणपुर गुरु सण्णा, देवयरुयणा य पुच्छ कहणा य। पारणगखीररुहिरं, आमंतण संघाऽणसणता / / 450 / / कलिङ्गेषु जनपदेषु काञ्चनपुरे नगरे बहुश्रुताः-बहुशिष्यपरिवाराः केचिदाचार्या विहरन्ति, ते अन्यदा शिष्येभ्यः सूत्रा--पौरुषीम्, अर्थपौरुषी च दत्त्वा संज्ञाभूमौ गताः, ते च गच्छन्तोऽपान्तरालेऽतिशये महापादपस्याधः काञ्चिद्देवतां स्त्रीरूपेण रुदन्तीं पश्यन्ति, एवं द्वितीयतृतीयदिनेऽपि / ततो गुरुभिर्यात-शत्रैः पृष्टम्-कस्मात्त्वं रोदिषि ? तस्याः कथनमहमेतस्य नगरस्याधिष्ठात्री, एतच सर्व नगरमचिराज्जलप्रवाहेण विनड्-क्ष्यति, अत्र च बहवः स्वाध्यायवन्तो वर्तन्ते, ततो रोदिमि। कोऽत्र प्रत्यय इति पृष्ट सा प्राऽऽह-अमुकस्य क्षपकस्य पारणके क्षीर रुधिर भविष्यति, तच यत्र गतानां स्वभावीभूतं भविष्यति, ता क्षेमंवसितव्यमिति / एवमुक्तवा सा गता। द्वितीयदिने क्षपकस्य पारणके क्षीरं रुधिरीभूतं ततः समस्तस्यापि सङ्घप्रधानवर्गस्याऽऽमन्त्रण, पर्यालोचन च, ततोऽनशनं समस्तस्यापि सङ्घस्येति। यदि पुनरशिवाऽऽद्युत्थाने विज्ञाते यदि भक्तं प्रत्याख्यापयति तदा स गच्छः, साधव, प्रवचनंचतेन त्यक्तम्। कथमित्याहअसिवादीहिँ वहंता, तं उवकरणं च संजया चत्ता। उवहिं विणा य छडणे, चत्तो सो पवयणं चेव // 451 / / यदि अशिवाऽऽद्युपद्रवं ग्रामाऽऽद्युत्थानं च ज्ञात्वा भक्तं प्रत्याख्यापयति, तदा तस्मिन्निा पिते एवाशिवाऽऽद्युत्थाने जाते यदि संयतास्तत्प्रतिबन्धतो न निर्गच्छन्ति, गच्छन्तो वा यदितं कृतभक्तप्रत्याख्यानं, तस्योपकरण च वहन्ति, तदा ते संयता अशिवाऽऽदिभिः कारणेस्तमुपकरणं च वहन्तस्त्यक्ताः अथोपधिं विनिर्वहन्ति, त्यक्त्वा वा सर्वथा पलायन्ते, तदा सभक्तप्रत्याख्याता परित्यक्तः, सच त्यक्तः सन् उड्डाहं कुर्यात्, मां त्यक्त्वा ते गता इति तदा प्रवचनस्य महती हीलनेति प्रवचनं त्यक्तं, तस्मादशिवाऽऽद्युत्थाने अपारगे च तरिमन् ज्ञाते स भक्तं न प्रत्याख्यातयितव्यः / गतम् (8) आभोगनद्वारम्। Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपञ्चक्खाण 1348 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपच्चक्खाण इदानीम् (6) अन्यद्वारमाह - एगो संथारगतो, वितिओ संलेहि तइय पडिसेहो। अपहुचंतऽसमाही, तस्स व तेसिं व असतीए।।४५२।। यदि तत्र द्वौ जनावग्रे स्तः / तद्यथा-एकः संस्तारगतः। संस्तारगतो नाम-संलिख्य कृतप्रत्याख्यानः द्वितीयः संलिखति संलेखनां करोति, तथा तृतीयो यद्यन्य उपतिष्ठति तर्हि तस्य-तृतीयस्य प्रतिषेधः कर्तव्यः / किं कारणमिति चेत्? अत आह (अपहुचंतेत्यादि) न प्रभवन्ति-न प्राप्यन्ते त्रयाणामपि योग्या निर्यापका न च संस्तरन्ति, ततोऽप्रभवःअप्राप्यमाणेषु तेषु संस्तारणस्यास्य वाऽसति तस्य तृतीयस्य, तयोर्वाडग्रेतनयोस्तेषां वा निर्यापकारणम्, असमाधिरुपजाय ते. प्रथम सन्ति यदि बहवो निर्यापकाः संस्तरन्ति चतदानकश्चिदनन्तरो दोषः प्रसजतीति तृतीयमपि प्रतीच्छन्ति। हवेज जइ वाघातो, वितियं तत्थ ठावए। चिलिमिली अंतरा चेव, वहिं वंदावए जणं / / 453 / / यदि तस्य कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य भवेत् व्याघातः / व्याघातो नामप्रत्याख्यानेनाऽसंस्तरण, सच बहिः सर्वत्रा ज्ञातो, दृष्टश्च भूयसा लोकेन एव कृतभक्तप्रत्याख्यान इति, तत एषा य तना कर्त्तव्यायोऽसौ द्वितीयः संलेखनां कुर्वन् तिष्ठति स तत्रा स्थाप्यते, तस्यान्तरा चिलिमिली कर्तव्या, ततो यदि यैातो दृष्टः ते वन्दकाः समागच्छेयुः तदाः स तेषां न दर्शयितव्यः, किं तु ते भक्ष्यन्ते-बहिः स्थिता यूयं वन्दध्वमिति, एवं बहिः स्थितं जनं वन्दापयेत। गतम् (6) अन्यद्वारम्। इदानीम् (10) अनापृच्छाद्वारमाहअणापुच्छाएँ गच्छस्स, पडिच्छे तं जती गुरू। गुरुगा चत्तारि विन्नेया, गच्छमणिच्छंते तं पावे / / 454|| गच्छस्यानापृच्छाया यदि तं भक्तप्रत्याख्यातुकाम गुरुः प्रतीच्छतिअभ्युपच्छति तदा तस्य-प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका विज्ञेयाः / गच्छे चानिच्छति स भक्तप्रत्याख्याता यत्प्राप्नोति असमाधिप्रभृतिक तन्निमित्तमपि तस्य प्रायश्चितं ततः गच्छ आपृष्टव्यः / किं कारणमिति चेत्? उच्यते स गच्छसाधवः सर्वं परिभ्रमन्तो जानते, यथा-एतस्मिन् क्षेत्रे मुलभम् एतत् दुर्लभं ततो मुखः पृच्छति किमेतस्मिन् क्षेत्रो यानि कृतभत्तप्रत्याख्यानस्य समाधिकारणानि द्रव्याणि तानि सुलभानि, किं वा दुर्लभानि तत्रा यदि सुलभानि ततः भक्तप्रत्यख्यान प्रतिपाद्यते। अथ दुर्लभानि तर्हि प्रतिषिध्यते, अन्यत्रा गत्वा प्रतिपद्यस्वेति। अनापृच्छाया दोषानाहपाणगाऽऽदीणि जोग्गाणि,जाणि तस्स समाहिय। अलंभे तस्स जा हाणी, परिक्वेसो य जायणे / / 455 / / असंथरे अजोग्गा वा, तत्थ निजावगा भवे। एसणाएपरिकेवो, जा वा तस्स विराहणा।।४५६।। गणस्थानापृच्छायां यानि तस्य–कृतभक्तभक्तप्रख्यानस्व समाहिते-- समाधाननिमित्तानि पानकाऽऽदीनि योग्यानि आदिग्रहणेनभक्तपरिग्रहः / तेषामलाभे तस्य-भक्तप्रत्यख्यातुः सा हानिः समाधि परिभ्रंश उपजायते / यश्च गच्छसाधूनां योग्यपानकाऽऽदेर्याचनेपरिमार्गणे परिक्लेशः // 455 / / तथा असंस्तरे-संस्तरणाभावे यः परिक्लेशोऽयोग्या वा तत्र निर्यापका भवेयुः / योगवाहिनोऽप्येते तत्रा योगवाहिनां समाधिकारकाणि पानकाऽऽदीन्युद्गमानि शुद्धानि मृगयमाणानां यः परिक्लेशः, या वा अयोग्यानिर्यापकसंपर्कतः तस्य कृतप्रत्याख्यानस्य विराधना-अनागाढाऽऽदिपरितापनाअसमाधिमरणाऽऽदिकं तत्सर्वं तन्निमित्तमतो गच्छस्य पृच्छा कर्त्तव्या / गतम् (10) अनापृच्छाद्वारम्। अधुना (11) परीक्षाद्वारमाह - अपरिच्छणम्मि गुरुगा, दोण्ह वि अण्णोण्णयं जहाकमसो। होइ विराहण दुविहा, एक्को एक्को व जं पावे / / 457 / / यो भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्तेन गच्छसाधवः परीक्षितव्याः, किमेते भाविता इति? गच्छसाधुभिरपि स परीक्षणीयः, विमेष निस्तारको भवेत्, किं वा नेति? आचार्येणापि स परीक्षितव्यः / अन्योन्य पुनर्यथाक्रमशो वक्ष्यामाणक्रमेणापरीक्षणे द्वयोरपिगच्छस्य भक्तप्रत्याख्यातुकामस्य च, प्रायश्चित्तं प्रत्येक चत्वारो गुरुकाः / तथा अपरीक्षणे भवति द्विविधा विराधना-आत्मविराधना, संयमविराधना च / तत्रा गच्छस्यात्मविराधना असमाधिमरणतः प्रत्यवायसंभवात् भक्तप्रत्यख्यातुः आत्मविराधना असामध्युत्पादात् संमयविराधना गच्छस्याभावितत्वेन एषणाया असंभवात् (एको एको वजं पावे त्ति) एको गच्छेयमनर्थं प्राप्नोति, एको वा-सभक्तप्रत्याख्याता, तन्निमित्त मपि तस्य प्रायश्चित्तमापद्यते। तम्हा परिच्छणं तू, दव्वे भावे य होइ दोण्हं पि। संलेह पुच्छ दायण, दिटुंतोऽमनकोंकणए / / 458|| यत एवमपरीक्षणे प्रायश्चित्तं, दोषाश्च तस्माद् द्वयोरपि परस्परं द्रव्ये भावे च भवति परीक्षणम्। तचैवम् भक्तं प्रत्याख्यातुकामेन परीक्षानिमित्त गच्छसाधवो भणिताः। यथा-आनयत मम योग्यं कलमशालिकूरं कथित क्षीर, ततो भक्ष्ये। अथवा अन्यद्भोजनं प्रणीतं यत्स्वभावतो रुचिकर तत आनयतेति याचते / तत्रैव याचने यदि ते हसन्ति कृष्णमुखा वा जायन्ते, तदा ज्ञेयम्-अभाविता एते इति, तेषां समीपे न प्रत्याख्यातव्यम् / अथ ते दुवते-यगणसि तत् कुर्म इति तदा ज्ञेयम्-योग्या एते इति। तथा गच्छसाधुभिः परीक्षानिमित्तं कलमशालिकूरप्रभृतिकमुत्कृष्ट द्रव्यमानेतव्यं तस्मिन्नानीते यदि स बूते-अहो सुन्दरमानीतं, भुजेऽहमिति तदा ज्ञातव्यमेष आहारलुब्ध इति न निस्तरिष्यति, वक्तव्यश्च सः, यदात्वमाहारगृद्धित्यक्ष्यसि तदा ते भक्तपरिज्ञायां योग्यता भविष्यति, नान्यदा / अथ स तमुपनीतमाहारं जुगुप्सते-किं ममैतेनाऽऽहारितेन, पर्याप्त, नाहमाहारयामिति तदा ज्ञातव्यमेष मिस्तरिष्यति, तस्मिन् वक्तव्यं प्रत्याख्याहि वयं ते निर्यापका इति / इह तमुयाचितस्य द्रव्यसंपादनमसंपादनंच सा गच्छस्य द्रव्यतः परीक्षा। यत्पुनः सकषायित्वमकषायित्वं वा ज्ञायते तद्भावपरीक्षणम् / तथा भक्तप्रत्याख्यातुरप्युपनीतं सुन्दरस्य ग्रहणमग्रहणं वा द्रव्यतः परीक्षणम भावतो गृद्ध्यद्धिपरिज्ञानामिति। आचार्यस्य तत्परीक्षणमाह-(संलेहपुच्छ इत्यादि) यदास आचार्यामुपस्थितो भवति भक्तप्रत्याख्यानेनाऽहं तिष्ठामि, तदा Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपच्चक्खाण स आचार्येण प्रष्टव्यः-किमत्र संलिखितं त्वया न वेति ततः स चिन्तयतिपश्यति मे अस्थिधर्मावशेषं शरीरं तथाऽपि प्रश्नयति-संलिखितं न वेति। एवं चिन्तयित्वा क्रोधे दर्शित क्षिप्रमङ्गलिं भक्त्वा दर्शयति-पश्य यत्र किञ्चिन्मज्जा (रक्तं) मांसं वा द्रक्ष्यसि. भवति संलिखितं किं वा नेति? एव मुक्ते गुरुराह-न ते द्रव्यसंलेख परच्छामि, कृशशरीर प्रत्यक्षत एवोपलभ्यमानत्वात् किं तु भावसंलेखे, स चाद्याऽपि न विद्यते इति तं भावसंलेखं कुरु श्रूयतां चाऽा दृष्टान्तोऽमात्यः कोकणक विषये। साम्प्रतमेनामेव गाथां व्याख्यातुं गच्छपरीक्षामाह - कलमोयणपयक्कढियाऽऽदि दव्वें आणेह झत्ति इति उदिते। भावे कसाइज्जती, तेसि सगासे ण पडिवज्जे ||15|| कलमौदनं-कलमशालिकूर, पयो-दुग्धं क्वथितम्, आदिशब्दादन्यस्याप्यभीष्टस्य भोजनस्य परिग्रहः / मम योग्यमानयतेति झटिति द्रव्ये उदिते, यदि भावे भावतः कषायन्तिकषायं कुर्वन्ति ततस्तेषां समीपे भक्तपरिज्ञान प्रतिपद्यते, अयोग्यत्वात्। अह पुण विरू वरूवे, आणीए दुगुंछिए भणंतेऽन्नं / आणेतु झत्ति ववसिएँ, पडिवज्जति तेसि तो पासे // 460|| अथ पुनर्विरूपरूपे अनेकप्रकारे आहारे आनीते जुगुप्सिते भणन्तेभणन्ति अन्यमाहारमानयामः तथैव चाऽऽनेतु झटिति व्यवसितस्ततस्तेषां पार्चे प्रतिपद्यते, यथाऽभिलषितवस्तुसम्पादकतया तेषां योग्यत्वात्। सम्प्रति गच्छस्य तत्परीक्षामाहकलमोदणे अपयता, अन्नं च समावअणुमयं जस्स। उवणीयं जो कुच्छइ, तं तु अलुद्धं पडिच्छंति // 461 / / कलमौदन कलमशालिकूरं पयसा सहोपनीतमिति, अन्यद्वा-यद्यस्य स्वभावतोऽनुमतं तस्य तदुपनीतं,सतयः। कुत्सते-निन्दति-कि ममतेन कार्यमिति? तमलुब्धमिति ज्ञात्वा प्रतीच्छन्ति / यस्तु कलमौदनाऽऽदिके उपनीते अहो सुन्दरमहं भुजे इति वदति, सलुग्ध इति न प्रत्येषणीयः। आचार्यस्य तत्परीक्षामाह - अञ्जो ! संलेहो ते, किं कतो न कवो त्ति एव उदयम्मि। मंतुं अंगुलि दावे, पेच्छह किं वा कतो न कतो // 462|| आर्य ! त्वया संलेखः, किं कृतः कि वा न कृत इत्येवमुदिते अङ्गुलि भक्त्वा दर्शयति-प्रेक्षस्व किं कृतः किं वा न कृत इति। __ तत आचार्य आहेनहु ते दव्वसंलेह, पुच्छे पासामि ते किमं। कीस ते अंगुली भग्गा, भावसंलेहमाउरे // 463 / / (नह) नैव (ते) तवद्रव्यसलेखपृच्छामि, यतः पश्यामि ते कृशंशरीरम्, तस्मात्किमित त्वया अडलिर्भग्ना? पृच्छामि भावसंलेखं, माऽक्रोधवशादातुरो भव। संप्रति "दिलृतोऽमच्चकों कणए"(४५८ गा०) इत्येतद्भावयतिरण्णा कोंकणगोऽपच्चो, दो वि निव्विसया कया। दोदिए कंजियं छोड़े, कोंकणे तच्छणा गतो // 464 // भंडी वइल्लए काए, अमच्चो जा भरेति उ। ताव पुन्नं तु पंचाहं, णलिए णिहणं गतो / / 465 / / केनाऽपि राज्ञा एकः कोङ्कणकोऽपरोऽमात्य एतौ द्वविपि कस्मिंश्चिदपराधे समकमाज्ञप्तौ-यदि पञ्चाहाभ्यन्तरे निर्विषयौन व्रजतस्ततोऽवश्य वध्याविति। तत्र कोकणको दोग्धिके तुम्बके काञ्जिकं-काञ्जिकपयांसि क्षिप्त्वा तत्क्षणात् गतः / अमात्यः पुनर्यावत् भण्डीन्थीर्बलीवदीन कायान् कापोतीर्विमर्ति तावत्पूर्ण पञ्चाहमिति नलिके शूलिकामारोपितो निधनं गतो विनाशं प्राप्तः / यथाऽसौ अमात्यः कुटुम्बोपकरणप्रतिबद्धो विनाशमुपगतः, एवं त्वमपि भावप्रतिबद्धो नाऽऽराधनाजीवितं प्राप्स्यसि / तस्मात् - इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु। न चेयं ते पंससामो, किसं साहुसरीरगं / / 466|| इन्द्रियाणि- चक्षुरादीनि, कषायान्-क्रोधप्रभृतीन् गौरवाणि ऋद्धिगौरवप्रमुखाणि कृशानि कुरु; न चेदं ते साधोः कृशं शरीरकं प्रशंसामो, भावसंलेखव्यतिरेकेण द्रव्यसंलेख्यस्यापिं अकिञ्चिकरत्वात् / गतं संलेखनद्वारम् / गतं (11) परीक्षाद्वारम्। इदानीम् (12) आलोचनाद्वारमाहआयरियपायमूलं, गंतूणं सइ परक्कमे ताहे। सव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एस उवएसो॥४६७।। ततो-द्रव्यसंलेखना भावसंलेखनाऽनन्तरं भक्तं प्रत्याख्यातुकामेन सर्वेण स्वयं शोधिं जानता अजानता च सति पराक्रमे आचार्यपादमूले गत्वा शोधिः कर्तव्या, एष तीर्थकृतां गणभृतां चोपदेशः। तत्रा शोधि जानन्तः प्रत्याहजह सुकुसलो विवेजो, अन्नस्स कहेइ अप्पणो बाहिं। वेजस्स य सो सोउं, तो पडिकम्मं समारभते / / 468 / / जाणतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं / तह वि य पागडतरयं, आलोएयव्वयं होइ॥४६६।। यथा सुकुशलोऽपि वैद्योऽन्यस्याऽऽत्मनो व्याधि कथयति, सोऽपि वैद्यस्य श्रुत्वा व्याधिकथनं ततः प्रतिकर्म समारभते / एवं प्रायश्चितविधिमात्मसो निपुणं जानताऽपि तथाऽपि प्रकटतरमालोचयितव्य भवतीति कृत्वा अन्यस्य समीपे आलोचयित-व्यम्। ततोऽप्यनेन कि कर्तव्यमत आहछत्तीसगुणसमन्ना-गएण तेण वि अवस्स कायव्वा / परपक्खिया विसोही, सुद वि ववहारकुसलेणं // 470 / / तेनाप्यजेनाऽऽचार्येण षट्त्रिंशद्गुणसमन्वागतेन, षट् त्रिशद्गुणाः "अडविहा गणिसंपय' इत्यादिना प्रागेवाभिहिता। सुष्टु अपि व्यवहारकुशलेन परपक्षिकापरपक्षे गता विशोधिर वश्यं कर्त्तव्या। कथं पुनरात्मनः शोधिजातमप्याणलोक्येदित्याह - जह वालो जंपतो, कज्जमकजं च उजुयं भणइ। तं तह आलोएज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ॥४७१।। यथा बालो जल्पन कार्यमकार्य च ऋजुकम्-अमाय भणति, तथा मायामदविप्रमुक्तस्तत्कार्यमकार्य वा गुरो पुरतः आलोचयेत्। Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1350- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण सम्प्रति मायानिर्घातने उपदेशमाह - उप्पन्ना उप्पन्ना, माया अणुमग्गतो निहंतव्वा। आलोयणनिंदणगरि-हणेहिं न पुणो अ वितियं तु / / 472 / / उत्पन्ना उत्पन्ना माथा अनुमार्गतः-पृष्ठतो लग्नेन आलोचन-निन्दनगर्हणैर्निहन्तव्या / कथमित्याह-न पुनरेव द्वितीयं वारं करिष्यामीति प्रतिपत्त्या। संप्रत्यालोचनायां दत्तायां ये गुणा भवन्ति तानुपदर्शयतिआयरविणयगुण क-प्पदीवणा अत्तसोहि उजुभावो। अज्जवमद्दवलाघव-तुट्ठी पल्हायजणणं च // 473 / / आलोचनायां दत्तायामाचारः पञ्चविध आसेवितो भवति, विनयगुणश्च प्रवर्तितो भवति, कल्पदीपनानामअवश्य-मालोचयितव्यः, अतीचार इत्यस्य कल्पस्य प्रकाशनम्-अन्वेषामुपदर्शनं, ततस्तेऽप्यन्ये एवं कुर्वन्ति / तथा आत्मनो विशोधिः-निःशल्यता कृता भवति, तथा ऋजुसंयमस्तस्य भावो-भवनं तत् कृतं भवति, तथा आर्जवभवनमार्यत्वम्, मार्दवम्-अमानत्वम्, लाघवम्-अलोभत्वमेतानि कृतानि भवन्ति / तथा आलोचिते सति निःशल्यीभूतोऽहमिति तुष्टिरुपजायते। तथा अनालोचिते अतीचारे सशल्योऽहमिति या मनस्यधृतिःपरिदाहस्तस्थापगमात् प्रहादजननं-प्रह्लादोत्पादः शीतीभवनं भवति / कः पुनः सोऽतिचारः, कुतो वा प्रभृत्त्यालोचयितव्यमत-- आहपव्वजादी आलो-यणा उतिण्हं चउक्कगविसोही। जह अप्पणो तह परे, कायव्वा उत्तमट्ठम्मि।।४७४।। त्रायाणां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामतीचारेषु प्रव्रज्याऽऽदेरारभ्ययावदुत्तमार्थाऽभ्युपगमस्तावदालोचना दातव्या / कथ-मित्याह-चतुष्कविशोध्या-एकैकस्मिन् द्रव्यतः क्षेत्रात कालवो भावतश्चातीचारविशुद्ध्या। पुनः कथमित्याह-यथाऽऽत्मना सम्यग् ज्ञेयतया तिष्ठति तथा परस्मिन् आलोचना कर्तव्या / देशतः, सर्वतो वा न किञ्चिदपि गृहितव्यमिति भावः। उत्तमार्थे -उत्तमार्थप्रतिपत्ती-कर्त्तव्यतायाम् / तत्र ज्ञान - निमित्त द्रव्यतोऽतीचाराऽऽलोचनामाह - नाणनिमित्तं आसे-वियं तु वितह परूवियं वावि। चेयणमचेयणं दा, दव्वं सेसेसु इमगं तु // 475|| ज्ञाननिमित्तं-सवित्तम्, अचित्तं द्रव्यमुद्गमाऽऽद्यशुद्धं, तथा सचेतन- 1 मचेतनं वा वितर्थ प्ररूपितं भवेत्। तद्यथा-सचित्तमचितम्वा सचित्तमिति एतत् द्रध्यतोऽतीचाराऽऽ लोचनम्। शेषेषु तु क्षेत्राऽऽदिष्विदमतीचाराऽऽलोचनम्। तदेवाऽऽहनाणनिमित्तं अद्धा--णमेति ओमे वि अत्थति तदट्ठा। नाण व आगमिस्सं, ति कुणइ पडिकम्मणं देहे // 476 / / पडिसेवति विगतीओ, मेज्झे दव्वे व एसता पिवता। वायंतस्स वि किरिया, कया उ पणगाइहाणीए / / 477|| ज्ञाननिमित्तमध्वान-पन्थानमेति-प्रतिपद्यते, अध्वानं प्रतिपन्ने च यत्सचित्तमकल्पिकमयतनया यतनया वा तदालोचयति, इदं क्षेत्रतोऽतीचाराऽऽलोचनम्, तथा ऽवमेऽपिदुर्भिक्षेऽपितदर्थ ज्ञानार्थ तिष्ठति। तत्र च तिष्ठता यदकल्पिकम् आसेवितमयतनया यतनया वा तदालोचयति। इदं कालतोऽतीचाराऽऽलोचनम् / भावत आह - (नाणं चेत्यादि) ज्ञानमहमाग मिष्यामिग्रहीष्यामीति हेतोदेहे-शरीरस्य परिकर्म करोति। यथा व्याख्याप्रज्ञप्तेः-महाकल्पश्रुतस्य वा योगं वोदुकामो घृतं पियति, प्रणीत वाऽऽहारमुपभुङ्क्ते तत्रा या अयतना कृता। अथवा-कश्चिद्रोग आसीत् नष्टोऽपि मा सः तत्काले उद्रेकं यायादिति परिकर्म करोति तच कुर्वता या अयतनाकृता निर्विकृता विकृती नानाप्रकारा निरन्तर प्रतिसेवते तत्राऽपि या अयतना कृता मेध्यानि द्रव्याणि नाम यैर्मेधा उपक्रियते, तानिद्रव्याणि एषयता-परिमार्गयता पिवतावा या अयतना व्यधायि। तथा वाचयतो वाचनाऽऽचार्यस्य पञ्चकाऽऽदिहान्या क्रिया कृता; अपिशब्दात्पञ्चकाऽऽदिहान्यातिक्रमेण वा या कृता क्रिया, तामप्यालोचयन्ति / तदेवं ज्ञाननिमित्तं द्रव्याऽऽधतीचाराऽऽलोचनमुपदर्शितम्। अधुना दर्शननिमित्तं चारित्रानिमित्तं चाऽऽह - एमेव दंसणम्मि वि, सद्दहणा नवरि तत्थ नाणत्तं / एसण इत्थीदोसे, वते वि चरणे सिया सेव / / 478|| एवमेव -अनेनैव ज्ञानगतेन प्रकारेण दर्शनेऽपि दर्शननिमित्तमपि द्रव्याऽऽद्यतीचारजातमालोचयितव्यं नवरं तत्रा नानात्वम्, दर्शनं नाम-- श्रद्धानं चरणेऽपिचारित्रोऽपि स्यादिय--मतीचारता सेविता / तद्यथाएषणामायाम-एषणाविषये (स्त्री) दोषोपेतवसतिविषये व्रतविषये वेति। सम्प्रति “तिण्हं चउक्कगविसोहि (474) इत्यस्यान्यथा व्याख्यातुमाहअहवा तिगसालंवे-ण दव्वमादी चउक्कमाहच। आसेवितं निरालं-बको च आलोअए तं तु // 476 / / अथवेति प्रकारान्तरे त्रिकसालम्बनोपतेन द्रव्याऽऽदिचतुष्कं द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणमाहत्य कदाचित् अकल्पनीयमयतनयायतनया चा आसेवितम् अथवानिरालम्बको ज्ञानाऽऽद्यालम्बरनरहितो द्रव्याऽऽदिचतुष्कमकल्पिकमासेवितवान् / एतेनैतत् ख्यापितं यत्प्रतिसेव्यते किञ्चिदकल्पिक तद् दर्पतः कल्पतः भावतः परमपर प्रकारान्तरमस्तीति / एतत् आलोचयेत्। प्रेकरः पृच्छतिपडिसेवणाऽतिचारा, जइ वीसरिया कहं वि होज्जा णु। तेसु कह वट्टियव्वं, सल्लुद्धरणम्मि सभणेणं ? ||480 // प्रतिसेवनातिचारा यदि कथमपि विस्मृता भवेयुः, तेषु शल्योद्धरणे कर्तव्ये कथं श्रमणेन वर्तितव्यम्। सूरिवर्तनप्रकारमाह - जे मे जाणंति जिणा, अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु / तं तह आलोएउं, उवट्ठितो सव्वभावेणं॥४८१।। एवं आलोयंतो, विसुद्धभावपरिणामसंजुतो। आराहओ तह वि सो, गारवपडिकुंचणारहितो।।४५२|| Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपञ्चक्खाण 1351 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण यान्ममापराधान येषु येषु स्थानेषु जिनाः-केवलिनो-भगवन्तो-- जानन्ति तानह सर्वभावेनसर्वाऽऽत्मना आलोचयितुमुपस्थितः परं न स्मरामीति वचसा च प्रकटीकर्तुं शक्नोमि, तस्माजिनदृष्टान्तमेव प्रमाणमित्यालोचयितव्यम् / यद्यपि एवं-संमुग्धाऽकारमालोचयति तथापि स गौरवप्रतिकुञ्चनारहितो विशुद्धेन भावपरिणामेन संयुक्त एवमालोचयेत् आराधकः प्रतिकुञ्चनानाममाया / गतमालोचनाद्वारम् (12) अधुना (13) प्रशस्तस्थानद्वारमाहठाणं पुण केरिसमं, होति पसत्थं तु तस्स जं जोग्गं ? भण्णति जत्थ न होजा, झाणस्स उ तस्स बाघातो।।४८३।। तस्य भक्तप्रत्याख्यातुः यत्प्रशस्तं-योग्यं स्थानं तत्कीदृशं भवति? सूरिराह-भण्यते, या तस्य-कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य ध्यानस्य व्याघातो न भवति। तानुपदर्शयतिगंधव्व नट्ट जडु-ऽस्स चक्क जंतऽग्गिकम्म फरुसे य। णंतिकरयगदेवड-डोम्बपाडहिगरायपहे॥४५४|| चारग कोट्ठग कल्ला-ल कारऍ पुप्फफलदगसमीवम्मि। आरामे अध वियडे, णागघरे पुष्वमणिए य / / 485|| गन्धर्वशालायां यत्रा गान्धर्विकाः संगीतं कुर्वन्ति तत्र, गन्धर्व शालासमीपे वा न स्थातव्यम्, ध्यानव्याघातभावात् / तथा वृत्तशालायां, वृत्तशालासमीपे वा तत्राप्युक्तदोषसंभवात्। तथा जड्डो-हस्ती, अश्वःतुरङ्गमो, हस्तिशालाय हस्ति-शालासमीपे वा, अश्वशालायां अश्वशालासमीपे वा, हस्तिकाऽऽदिविरूपशब्दश्रवणतो ध्यानव्याघातभावात्। तथा चक्रशालायां तिलपीडनशालायां, तिलपीडनशालासमीपे वा। (जंतंति) इक्षुयन्त्रशालायाम्, इक्षुपीडनशालासमीपे वा, तिलाऽऽदिदर्शनः कर्मकरगानशब्दश्रवणतो या ध्यानभङ्गोपपत्तेः। अनिकर्मलोहकारकर्मतच्छालायाम्, अग्निकारशालासमीपे वा / अग्रिपरितापतो लोहकुट्टनाऽऽदिशब्द श्रवणतो वा ध्यानव्याघातसंभवात् / तथा नंतिक्ताः-छिपास्तच्छालायाम, तस्याः समीपे वा। राजकशालायाम, राजकशालासमीपे वा / देवड शालायां, तच्छालासमीपे वा। जुगुप्सादोषात् / डोम्बालंङ्ग कास्तेऽपि गायन्ति। अथवा-चण्डालविशेषगायना डोम्बा स्तेषां शालाया, तच्छालासमीपे वा, जुगुप्सादोषात् गानशब्दश्रवणतोध्यानव्याघातभावाच। तथा पाडहिकशालायां, पाडहिकशालासमीपेवा, वादिाशब्दश्रवणतोध्यानव्याघातः 1राजपथ, राजपथसमीपे वा, राज्ञ आगच्छता गच्छता वा समृद्धिदर्शनेनिदानकरणप्रशक्तेः / / 484 / / तथा चारकं गुप्तिगृहं तत्र, तस्य समीपे वा यातनाशब्दश्रवणतो ध्यान-व्याघातभावात् / को (ष्ट्र) ष्ठकानामवट्टानां शाला, कोष्ठके, कोष्ठकसमीपे वा, वट्टाअपि गायन्ति विरूपरूपाणि च भाषन्ते, ततो ध्यानव्याघातः / तथा कल्पपालाः सुराऽऽदिविक्रयकारिणो, मद्यपा वा तेषां शालायां, तच्छालासमीपे वा यतस्ता मद्यप्रमत्ता गायन्ति फूत्कुर्वन्ति ततो ध्याने व्याघातसंभवः / तथा क्रकचक्रे-या काष्ठानि क्रकच्यन्ते, तत्रा ककचशालासमीपे वा। काष्ठक्रकचशब्द-श्रवणतःकारपत्रिकगानशब्दश्रवणतो ध्यानभ्रंशोपपत्तेः (पुप्फफलदगसमीवम्मि त्ति) पुष्पसमीपे फलसमीपे उदकसमीपे वा पुष्पाऽऽदिदर्शनतः तद्विषयाभिलाषोपपत्तेः। तथा आरामे, तत्राप्यनन्तरोदितदोषप्रसङ्गात् यथा विकटं नाम-असंगुप्तद्वारं तापानके-पाने कायिक्यादिपरिस्थापने च सागरिक (दोष) संभवात्। तथा नागगृहे. उपलक्षण मेतत्, यक्षगृहाऽऽदिषु, तत्रापि भूपसां लोकानां नानाविधकुर्वितवेषाणामागत्यागत्य गाननर्तनकरणात, तथा च सति ध्याने व्याघातसंभवः / यदि वानागाऽऽदयोऽनुकम्पया प्रत्यनीकतया, विमर्शेन वा अनुलोमान् प्रति लोमान् वा उपसर्गान् कुर्युः। पूर्व भणिते च प्राक्कल्पाध्ययनाभिहितेच भक्तप्रत्याख्यातुकामे। तदेव भावयतिपढम विइएसु कप्पे, उद्देसेसु उवस्सया जे उ। विहिसुत्ते य निसिद्धा, तविवरीए गवेसेज्जा / / 486|| कल्पे-कल्पाध्ययने द्वितीयतृतीयोरुद्देशयोर्विधिसूत्रो च, आचाराने शय्याध्ययने अवग्रह प्रतिमास्थाननिषीदनके च ये उपाश्रया निषिद्धाः, तेषु न स्थातव्यम्, किं तु तद्विपरीतान् देशान् गवेषयेत्। तथाउज्जाण रुक्खमूले, सुन्नघर अनिसट्ट हरियमग्गे य / एवंविहे न ठायइ, होज समाहीऍ वाघातो। 487 / / उद्याने, वृक्षमूले, शून्यगृहे, अनिसृष्ट-अननुज्ञाते, हरिते हरिताऽऽकुले, मार्गे च अन्यस्मिन्नपि च एवंविधे स्थाने न तिष्ठति भक्तप्रत्याख्याता, यतस्तत्र समाधेाघातो भवति। गतं (13) प्रशस्तस्थानद्वारम्। अधुना (14) प्रशस्तवसतिद्वारमाह - इंदियपडिसंचारो, मणसंखोभकरणं जहिं नत्थि। चाउस्सालाऽऽइ दुवे, अणुन्नवेऊण ठायंति॥४८५|| यत्रा इन्द्रियप्रतिसंचारो न भवति। किमुक्तं भवति? या अनिष्ठा इष्टा वा शब्दा न श्रूयन्ते, नापीष्टाऽनिष्टानि रूपाणि / एवं गन्धाऽऽदिष्वपि भावनीयम् / मनः संक्षोभकरणं च यत्र नास्ति तत्र चतुःशालाऽऽदिके द्वे वसती अनुज्ञाप्य प्रतिग्राह्ये आदि शब्दात्-त्रिशालाद्विशालाऽऽदिपरिग्रहः / वसतिद्वयं च गृहीत्वा एकत्र भक्तप्रत्याख्याता स्थाप्यते; अपरत्रा च गच्छसाधवः। किं कारणमिति चेत् ? उच्यते-अशनाऽऽदीनां गन्धेन भक्तप्रत्याख्यातुरभिलाषो माभूदिति हेतोः। पाणग जोग्गाहारे, ठवेति से तत्थ जत्थ ण उवेति। अपरिणया व सो वा, अप्पच्चयगेहि रक्खट्ठा।।४८६|| पानकं, योग्यमाहारं च (से) तस्य भक्तप्रत्याख्यातुः तत्रा प्रदेशे वृषभाः स्थापयन्ति, यत्रा (न) नैव अपरिणताः साधवः, सवा भक्तप्रत्याख्याता समागच्छन्ति / किं कारणं तत्र स्थापयन्तीन्यत आह -- अप्रत्ययगृद्धिरक्षार्थ कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य दीयमानं दृष्ट्वा मा भूदपरिणतानामप्रत्ययो, भक्त प्रत्याख्यातुस्तु तत् दृष्ट्या गृद्धिरिति हेतोः / Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपचक्खाण 1352 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण अगाऽऽह-यदि तेन भावतस्त्यक्त आहारस्ततः कथं तस्य गृद्धिरुपजायते? तत आहभुत्तभोगी पुरा जो वि, गीयत्थो वि य भाविओ। संतेसाहारधम्मेसु, सोऽपि खिप्पं तु खुब्भए।४६०॥ योऽपि पुरा-पूर्व भुक्तभोगी गीतार्थो भावितोऽपिच सोऽपि सत्सु आहारधर्मेषु आहार ग्रहणधर्मेषु क्षिप्रंशीघ्रमाहारदर्शनतः क्षुभ्यतिस्वप्रतिज्ञा विलुप्याऽऽहारं याचते। तथापडिलोमा ऽणुलोमा वा, विसया जत्थ दूरतो। ठावेत्ता तत्थ से निचं, कहणा जाणगस्स वि / / 461 / / यत्र प्रतिलोमाऽनुलोमा वा विषया दूरतस्ता तं स्थापयित्वा (से) तस्य जानतोऽपि नित्यं कथना भवति। गत (14) वसतिद्वारम्। इदानीं (15) निर्यापकद्वारमाह - पासत्थोसन्नकुसी - लठाणपरिवजिया उ निजवगा। पियधम्मऽवज्ज भीरू, गुणसंपन्ना अपरितंता / / 462 / / पार्श्वस्थाऽवसन्नकुशीलस्थानपरिवर्जिताः प्रियधर्माणोऽद्यभीरवो / गुणसम्पन्ना अपरि (त्रा) तान्ता-अपरिश्रान्ता निर्यापकाः। अथ पुनस्ते निर्यापकास्तस्य कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य किं कुर्वन्ति, कियन्तो वा ते इष्यन्ते? - उच्चत्त १दार 2 संयार 3 कहग : वादीअ५ अग्गदारम्मि 6 / भत्तं 7 पाण 8 विआरे 9-10 कहग 11 दिसा 12 जे समत्था य / / 463|| येतं-कृतभक्तप्रत्याख्यानम् उद्वर्त्तयन्ति परावर्तयन्ते ते चत्वारः 1, ये अभ्यन्तरमूले तिष्ठन्ति तेऽपिचात्वारः 2, संस्तारकारका अपि चत्वारः 3, येऽपि तस्य धर्म कथयन्ति तेऽपि चत्वारः 4 वादिनो लोकस्योल्लुण्ठवचनप्रतिकारिणः तेऽपि चत्वारः 5, अग्रद्वारे ये तिष्ठन्ति तेऽपि चत्वारः 6, ये योग्यं भक्तमानयन्ति तेऽपि चत्वारः 7, पानकस्यापि तद्योग्यस्याऽऽनेतारश्चत्वारः८, उच्चारपरिष्ठाश्चत्वारः प्रश्रवणपरिष्ठापका अपि चत्वारः 10, बहिर्लोकस्य धर्मकथकाश्चत्वारः 11, चतसृष्यपि दिक्षु साहस्रकमल्लाश्चत्वारः 12 / एते द्वादश च तुष्कका अष्टाचत्वारिशद्भवन्ति। कीदृशाः पुनरेते निर्यापकाः? इत्यत आहजो जारिसओ कालो, भरहेरवएसु होइ वासेसु / ते तारिसया तइया, अडयालीसं तु निञ्जवगा / 464|| यो यादृशः कालो भरतेष्वरवतेषु च वर्षेषु भवति ते तादृशा स्तरकालानुरूपिणो निर्यापका अष्टचत्वारिंशदवसातव्याः। एए खलु उक्कोसा, परिहायंता हवंति तिन्नेव / दो गीयत्था तइए, असुम्नकरणं जहन्नेणं // 465|| एते-अनन्तरोदितसङ्ख्याकाः खलु उत्कर्षाउत्कृष्टास्तथैक कपरि हान्या परिहीयमानास्तावद्भवन्ति यावज्जघन्येन कृतभक्तप्रत्याख्यानेन सह त्रयः / तत्रा द्वौ गीतार्थी निर्यापकौ, तृतीयो भक्तप्रत्याख्याता / तत्राय विधिः-एकस्य गीतार्थस्य भक्तपान मार्गणया गमनं, द्वितीयेन तृतीये तृतीयस्य भक्तप्रत्याख्यातुरशून्यकरणम्, एकः तत्पाघे तिष्ठति, अपरो भक्तपाने मार्गणाय गच्छतीति भावः / गतं (15) निर्यापकद्वारम्। व्य० 10 उ०। ध०। (भक्तप्रत्याख्यानवक्तव्यता 'परिहार' शब्देऽरिस्मन्नेव भागे 673 पृष्ठे विरतो गता) अधुना 'दव्वदायणा चरिमे" इत्यस्य (16) द्वारस्य व्याख्यानार्थमाहतस्स य चरिमाऽऽहारो, इट्ठो दायव्वों तण्हछेयट्ठा। सव्वस्स चरिमकाले, अतीव तण्हा समुप्पज्जे / / 466 / / भक्त प्रत्याख्यायकस्य सर्वस्यापि चरमकाले अतीव तृष्णाआहारकासा समुप्पद्यते, तेन तस्य भक्तप्रत्याख्यातु-कामस्य तृष्णाच्छेदार्थम्-आहारकाङ्क्षाव्यवच्छेदाय, इष्टश्चरमाऽऽहरो दातव्यः / नव विगति सत्त ओयण, अट्ठारस वंजणुच पाणं च। अणुपुग्विविहारीणं,समाहिकामाण उवहरिउं॥४६७|| नव विकृतयः-अनवगाहिमदशमाः शाल्यादिभेदतः, सप्तविध ओदनोऽष्टादश व्यञ्जनानि शास्त्रप्रसिद्धानि, उच्चम्-अत्तिप्रशस्यं, पानं द्राक्षापानाऽऽदि, एतत्सर्वमनुपूर्वी विहारिणामानुपूा शनैराहारमोचनेन भक्तप्रत्याख्यानं प्राप्तवतां समाधिकामानां समाधिमभिलषतां समाधिकरणनिमित्तमुपहृत्य दत्त्वा तस्य तृष्णाव्यवच्छेदः क्रियते। अथवाकालसहावाणुमतो, पुव्वं जुसितो सुओ व दिट्ठो दा। झोसिज्जइ सो से तह, जयणाएँ चउव्विहाहारो॥४६८|| कालानुमतः स्वभावानुमतश्च तेन यः पूर्वमाहारो योषितः सेवितः स कथं साधुभितिव्यः, ईदृश एतस्य कालस्वभावानुमतः आहारः श्रुतो वा कस्यापि कथनतो, दृष्टो वा कदाचित्साक्षाद्दर्शनात्परिज्ञातो यथैतस्य ईदृश आहारो रोचत इति। स चतुर्विधः अशनपानखादिमस्वादिमरूपो यतनया प्रथमत उद्माऽऽदिशुद्धास्यालाभे पञ्चकपरिहाण्या याचित्वा (से) तस्य भक्तं प्रत्याख्यातुकामस्य जोषिष्यते-दीयत इत्यर्थः / अथ को गुणस्तस्य चरमाहारेण दत्तेनेत्य? तत् आह -- तण्हाछेयम्मि कए, न तस्स तहियं पवत्तए भावो। चरिमं च एस भुंजइ, सद्धाजणणं दुपक्खे वि ||469ll तेन चरमाऽऽहारेण प्रदत्तेन तृष्णाछेदः-आहारकासाव्यवच्छेदे, कृते न भूयस्तत्राऽऽहारविषये तस्य भावः-इच्छा प्रवर्त्तते, वक्ष्यमाणवैराग्यभावनाप्रवृत्तेः। तथा चरमाहारमेष भुङ्क्ते इति श्रद्धाजननं द्विपक्षेऽपिभक्तप्रत्याख्यातुर्निर्यापकाणां चेत्यर्थः / तथाहि-भक्तप्रत्याख्याता इदं चिन्तयति-अयमभ्युद्यतमरण-समुद्रस्य तीरं प्राप्तो, दुर्लभमेतत्, निस्तीर्णोऽहं संसारादिति गाढतरंध्यानमुपगतो भवति। निर्यापका अप्येवं चिन्तयन्ति, वयमप्येवमभ्युद्यतमरणस्य तीरे प्राप्ता भविष्यामः / यस्मादेतस्य चरमाहारदाने गुणास्तस्मादवश्यं स दातव्यः / Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1353 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण अथ तृष्णाव्यवच्छेदः केनाऽऽका रेण तस्य वैराग्यभावना प्रवर्त्तत इत्याह - किं वा तन्नोवभुत्तं मे, परिणामाऽसुई तहा (सुई)। दिट्ठसारो सुहं झाति, चोयणेसेवसीयति॥५००।। चरमाऽऽहारे, प्रदत्ते तृष्णाव्यवच्छेदे च जाते स एवं वैराग्यमापन्नश्चिन्तयति, किंवा तदस्ति भोज्य, यत्पूर्वं गृहवासे, प्रवज्यापर्याये वा, मया नोपभुक्तं परं शुद्ध्यतितत भुक्तं परिमाणात्-परिणामवशेन अशुचिः सञ्जायते, तथा आहारसंज्ञोपयुक्तो जीवः कर्मणां बन्धको भवति, आहारगृद्धे निवृत्तः सुखभागी / एवं प्रत्यक्षत आगमतश्च दृष्टसार:उपलब्धतत्त्वः सुखं धर्मध्यानं ध्यायते। तथा यदि च आहारे प्रदत्ते भूयस्तावानुबन्धतः / प्रसीदति तदेतस्य तदा सीदत एषैवाधिकृतश्लोकार्थरूप चोदना-प्रज्ञापना कर्तव्या। 'झोसिज्जइ सो से तह जयणाए चउव्यि - हाऽऽहारो" (468) इत्यस्य व्याख्यानमाह - तिविहं तु बोसिरेहिइ, ताहे उक्कोसगाई दव्वाई। मन्गित्ता जयणाए, चरिमाहरं पदंसंति॥५०१।। त्रिविधं-मनसा वाचा कायेन भक्तं प्रत्याख्यातुकाम आहारं व्युत्सृक्ष्यति, तत उत्कृष्टाणि द्रव्याणि यतनया उद्गमाऽऽदि-शुद्धलाभे पञ्चकपरिहाण्या मार्गयित्वा-याचित्वा चरिममाऽऽहारं तस्य प्रदर्शयन्ति। पासित्तु ताणि कोइ, तीरप्पत्तस्स किं ममेतेहिं ? वेरग्गमणुप्पत्तो, संविग्गपरायणो होइ।। 502 / / तानि उत्कृष्टानि द्रव्याणि दृष्ट्वा कश्चित्तीरप्राप्तस्याभ्युपगतमरणसमुद्रपारमुपागतस्य ममैतेः किं कार्यमित्येवं वैराग्य मनुप्राप्तः संवेगपरायणः सर्वथा निवृत्ताहाराभिलाषो भवति। सव्वं भोचा कोई, मणुन्नरसपरिणतो भवेजाहि। तं चेवऽणुबंधंतो, देसं सव्वं व गेही य / / 503 / / कोऽपि पुनः सर्वमुत्कृष्ट भुक्त्वा मनोज्ञरसपरिणतः उत्कृष्टरसगृद्धो भवति, ततो देशं सर्व वा (गेही ति) गृह्यात् तमेवोत्कृष्टमाहारसमनुबन्धनन-अभिलषन् तिष्ठति। विगतीकयाणुबंधे, आहारऽणुबंधणाऐं वोच्छेदो। परिहायमाणे दव्वे, गुणवुड्डिसमाहिअणुकंपा / / 504 / / विकृतिषु कृतो योऽनुबन्धस्तस्मिन् सति, आहाराऽनुबन्धनायां च सत्यां तत्य विकृत्यनुबन्धस्याऽऽहारानुबन्धस्य च "किं च तन्नोवभुत्तं मे, परिणामाऽसुई तहा (500)' इति प्रकारेण व्यवच्छेदः कर्तव्यः / / 16 / / सम्प्रति (17) हानि-द्वारमाह - "परिहायमाणे' इत्यादि। यानि चरमाहा रद्रव्याण्यानीतानि तानि तद्विषयमनुबन्धं कुर्वतः परिमाणतो द्रव्यतश्च परिहीयमानानि कर्तव्यानि / अथ किं कारणं यदाहारे अनुबन्धं कुर्वन्तो भक्तं पानं च दीयते ? उच्यते- (गुणवुड्डिसमाहिअणुकंपा इति) स भक्तं प्रत्याख्यातुकामोऽनुकम्पनीयोऽनुकम्पमानस्यासमाधिमरणप्रमुक्तेः / ततो ऽनुकम्पते आहारे प्रदत्ते सति तस्य समाधिरुपजायते, समाधितश्च प्रज्ञापयितुं शक्यः प्रज्ञापि तश्चाऽऽहारव्यवच्छेद करिष्यामि, ततोऽभ्युद्यतमरणे गाद ध्यानोपगतस्य गुणवृद्धिःकर्मनिर्जरा भवति। अथ चरमाऽऽहारे द्रव्याणां परिमाणतो द्रव्यतश्च परिहानिः कथ कर्तव्येत्यत आहदविएँ परिमाणतो वा, हार्वेति दिणे जाव तिनि। बेंति न लब्मइ दुलमे, सुलभम्मि उ हो इमा जयणा / / 505 / / चरमाऽऽहारद्रव्याणि द्रव्यसंख्यया परिमाणतश्च दिने दिने यावत्रीणि दिनानि, ता परिमाणतो दिने दिने स्तोकं स्तोक तरमानयन्ति / द्रव्यपरिहानिः पुनरेवम्-यदि क्षीरं चरमाऽऽहारार्थतया समानीतं ततो द्वितीयदिवसे तन्नाऽऽनयन्ति, किं तु दध्यादिकम् / अथ चरमाऽऽहारार्थतया दध्यानीतं ततो द्वितीयदिने क्षीराऽऽद्यानयन्ति, न तु दधि / एवं द्रव्यपरिहा- निस्त्रीन दिवसान्, ततः परतः न किश्चिदानीयते तत्र दुर्लभ-द्रव्यविषये एवं बुवते न लभ्यते, सुलभे तु द्रव्ये इयं वक्ष्यमाणा यतना भवति। तामेवाऽऽह -- आहारे ताव छिंदाहि, गेहिं तो णं चइस्ससि। जं वा भुत्तं न पुव्वं ते, तीरं पत्तो तमिच्छसि / / 506 / / आहारे-आहारविषयां तावत् गृद्धिं छिन्धि, तत एतत् शरीर त्यक्ष्यसि, नान्यथा। यद्वा-पूर्व त्वया निःस्पृहतया न भुक्तं तदिदानीमभ्युद्यतमरणसमुद्रस्य तीरं प्राप्त इच्छसि / एवमनुशासनेन तस्याऽऽहाराऽऽकाक्षा विनिवर्त्तते / गतम् (17) हानिद्वारम्।। इदानीम् (18) अपरितान्तद्वारमाह - वटुंति अपरितंता, दिया व रातो व से य पडिकम्मे / पडियरग्गा गुणरयणा, कम्हरयं णिज्जरेमाणा ||507 / / प्रतिचरकाः गुणारत्नाः कर्मरजो निर्जरयतस्यस्य कृतभक्त प्रत्याख्यानस्य प्रतिकर्मणि दिवा रात्रौ वा अपरि (त्रा) तान्ता (अविश्रान्ता) वर्तन्ते। जो जत्थ होइ कुसलो, सो उन हावेइ तं सइ बलम्मि। उज्जुता सनियोगे, तस्स वि दीवेंति तं सद्धां / / 508|| यो यत्रा प्रतिकर्माणि भवति शलः, स तत्प्रतिकर्म सति बले न हापयति, किंतु सर्वेऽपि स्वस्वनियोगे उद्युक्तास्तथा वर्तन्ते, तद्यथातस्यापि कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य ताम् अम्युपगतमरण-समुद्रतीरप्राप्तत्वविषयां श्रद्धा दीपयन्ति। देइवियोगो खिप्पं, व होज्ज अहवा वि कालहरणेणं / दोण्हं पि निजरा व ड्माण गच्छो उ एयढे // 506 // तस्य कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य देहवियोगोः क्षिप्रं वा भवेत्, अथवा कालहरणेन तथाऽपि स्वस्वनियोगोधुक्तस्तैर्भवतिव्यम् / एवं च द्रयानामपि प्रतिचरकाणां प्रतिचर्य्यस्य च प्रवर्द्धमाना निर्जरा कर्मनिर्जरा भवति। गच्छो ह्येतदर्थपरस्परोपकारेणोभयेषां निर्जरा स्याद्-इत्येवमर्थमासेव्यते। गतम् (18) अपरि (त्रा)तान्तद्वारम्। . अधुना (16) निर्जराद्वारमाहकम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोए, सज्झायम्मी विसेसेणं / / 510 / / अ यतरस्मिन् योगे प्रतिलेखनाऽऽदिरूपे आयुक्त उपयुक्तः Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1354 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण सन् अनुसमयमेव-प्रतिक्षणमेव कर्म असंख्येयभवोपार्जित क्षपयति, कर्मणोऽनन्तकालम (न) व स्थानाभावादसंख्येय भवमित्युक्तम्।। स्वाध्याये पुनरायुक्तः सन् विशेषेण कर्मा क्षययति। कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, काउस्सग्गे विसेसेणं / / 511 / / कम्ममसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेणं / / 512|| कम्मसंखेज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसओ उत्तमट्ठम्मि॥५१३|| गाथात्रयमपि प्राग्वत्, नवरम्- उत्तमार्थे उत्तमार्थ प्रतिपन्नस्य वैयावृत्ये च विशेषतः कर्मनिजरा भवतीति विशेषत उभयापि यतितव्यम्। गतम् (19) निर्जराद्वारम्। अथ (20) संस्तारकद्वारमाहसंथारों उत्तमढे, भूमिसिलाफलगमादि नायव्वो। संथारपट्टमादी, दुगवीरातू बहू वा वि॥५१४॥ उत्तमार्थे व्यवस्थितस्य संस्तारको दातव्यो भूमिः-भूमिरूपः, शिला वा प्रधानशिलातलरूपः, एतौ च द्वावपि-अस्फुटितावशुषिरौ कर्तव्यौ। तत्रा स्थितो वा निषण्णो वा यथा समाधि तिष्ठतु फलकं वा संस्तारको ज्ञातव्यः तच्च फलकमेकानिकमानेतव्यम, तस्याभावे ट्यादिफलकाऽऽत्मकः तस्याप्यभावे निरन्तरकत्र्यात्मको ज्ञातव्यः / एतत् आदि शब्दस्य व्याख्यानम्। इदानीमास्तरणमाह- संस्तारकोत्तरपट्ट इत्येतप्रस्तरणभुत्सर्गतः। अपवादत आह- (बहूवा वि) यदि सोत्तरपट्टसंस्तारकमात्रो तस्य असमाधिरुपजायते तदा बहन्यपि प्रस्तार्यन्ते तस्य कल्पप्रभृतीनितह वि असंथरमाणे, कुसमादीणि तु अझुसिरतणाई। तेसऽसति असंथरणे, झुसिरतणाईततो पच्छा।।५१५|| अथ कल्पप्रभृतिसंस्तरणेऽपि तस्यासमाधिरुपजायते तदा कुशाऽऽदीनिदर्भाऽऽदीनि अशुषिराणि तृणानि प्रस्तार्यन्ते, तेषामसति-अभावे | असंस्तरणे च सति ततः पश्चात् शुषिराण्यपि तृणान्यानीयन्ते। कोद्दव पावारग णवय-तूली आलिंगिणी अ भूमीए। एमेव अणहियासे, संथारगमाइ पल्लंके / / 516 / / यदि तृणेष्वपि प्रस्तारितेषु न समाधिस्तदा कोद्रवाऽऽदेरस्थि प्रस्तार्यते / तत्रापि समाधेरनुत्पादे प्रावारणकः, तत्राऽप्यसमाधौ नवतंजीणं (ऊर्णविशेषमयम्) तत्रापि समाध्यलाभे तूली, आलिङ्गिनी चोभयतःप्रस्तार्यते / एतत्सर्व भूमौ कर्तव्यम्। अथैवमपि नाध्यास्ते-न समाधि प्राप्नोति, तदा संस्तारकाऽदि पूर्वक्रमेण पल्यड़े प्रस्तारणीय, यावत्पर्यन्ते तूलिका उभयत आलिङ्गिनी वा / गतं (20) संस्तारकद्वारम्। इदानीम् (21) उद्वर्तनाऽऽदिद्वारमाहपडिलेहणसंथारं पाणग उव्वत्तणाइनिग्गमणं / सयमेव करेइ सह, असहुस्स करेंति अन्ने उ॥५१७॥ यो भक्तप्रत्याख्याता सहः-समर्थः सः स्वयमेवाऽऽत्मीयस्योपकरणस्य प्रत्युपेक्षणं संस्तारकम्-संस्तारकप्रदानम्, पानकं पानक रणम्, उद्वर्तनाऽऽदि-उद्वर्तनापवर्त्तने अन्तः प्रदेशात् बहिः, बहिः प्रदेशादन्तः प्रवेशनं करोति, असहस्य असमर्थस्य पुनरन्ये सर्व कुर्वन्ति। कथमित्याह - कायोवचितो बलवं, निक्खमणपवेसणं च से कुणइ। तह वि य अविसहमाणं, संथारगयं तु संचारे।।५१८|| कायेन-शरीरेणोपचितो बलवान (से) तस्यान्तः प्रदेशाद्वहिनिष्क्रामण, बहिः प्रदेशादन्तः प्रवेशनं करोति, चशब्दादन्यच्चो द्वर्त्तनाऽपवर्तनाऽऽदिक सञ्चार्यमाणोऽपि सोऽवष्टम्भतः सञ्चार्यते। अथ तथाऽपि स विषहते-न समाधि प्राप्नोति तदा तं तथाऽप्यविषहमाणं संस्तारगतं सञ्चारयन्ति। संथारों मउओ तस्स, समाहिहेतुं तु होइ कायव्यो। तह विय अविसहमाणो, समाहिहेतुं उदहारणं / / 516 // समाधिहेतो:-समाधेरुत्पादनाथ यः तस्य संस्तारको मृदुको भवति वर्तव्यो यावत्पल्ल्यड्के तूल्या आलिङ्गनपट्टिकायाश्च समास्तरणमिति। तथाऽपि अविषहमाणे-समाधिमलभमाने समाधिहेतोःसमाधिसम्पादनाय इदम्वक्ष्यमाण-मुदाहरणं प्रोत्साह्यतेऽननेत्युदाहरणम्, प्रोत्साहनं कर्तव्यम्। तदेवाऽऽहधीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसनिसेविए परमरम्मे। धण्णा सिलातले गया, निरवेयक्खा निवजंति // 520 / / धन्याः केचन धीरपुरुषप्रज्ञप्ते-तीर्थकरगणधरनिरूपिते, सत्पुरुषनिषेविते- तीर्थकराऽऽदिभिरासेविते, परमरम्ये शिलातले गताव्यवस्थिता निरपेक्षाः-पराऽपेक्षारहिताः (निवजंति) निरवाप्यन्तेनितरामभ्युद्यतमरणं प्रपद्यन्ते। जति ताव सावयाकुल-गिरिकंदरविसमकडगदुग्गेसु / साहें ति उत्तिमट्ठ, घितिधणियसहायगा धीरा // 521 / / किं पुण अणगारसहा-यगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं / परलोइएन सक्का, साहेउं उत्तिमो अट्ठो॥५२२।। यदि तावत् धृतिरेव केवला धणियम्-अत्यर्थं सहायो येषां ते धृतिधनिकसहायका धीराः स्वापदाऽऽकुलेषु गिरिकन्दरेषु विषमेषु कटकेषु विषमेषु च दुर्गेषु उत्तमार्थ साधयन्ति, किं पुनरनगार-सहायकेनपरलोकेनपरलोकार्थिना अन्योन्यसडग्रह बलेन शक्यः साधयितुमुत्तमार्थ इति। जिणवयणमप्पमेयं, महुरं कन्नाऽऽहुतिं सुणे ताणं / सक्का हु साहुमज्झे, संसारमहोयहिं तरिउं / / 523|| जिनवचनमप्रमेयं मधुरं, ललितपदविन्यासाऽऽत्मकत्वात्। कर्णयोराहुतिमिव कर्णाऽऽहुति-पावकस्य घृताऽऽहुतिरिव कर्णयोराप्यायकमिति भावः / शृण्वतां साधुमध्ये स्थितानाकलेशेन शक्यः संसारमहोदधिस्तरीतुमिति। सव्वे सव्वद्धाए, सव्वन्नू सव्वकम्मभूमीसुं। सव्वगुरु सव्वमहिया, सव्वे मेरुम्मि अहिसित्ता // 524|| सव्वाहि विलद्धीहिं, सव्वे विपरीसहे पराइत्ता। Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1355 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण सव्वे वि य तित्थयरा, पावोवगया उ सिद्धिगया / / 925 / / सर्वे सर्वज्ञाः सर्वासु कर्मभूमिषु सर्वस्यामद्धायामतीताना-गतरूपायां सर्वगुरवः वः सर्वमहिताः सर्वे मेरावभिषिक्ताः सर्वे आमर्पोषध्यादिभिलब्धिमिरुपेताः सर्वे च तीर्थकरा:-तीर्थ-प्रवर्तनशीलाः सर्वान्परीषहान पराजित्य पादपोपगताः सिद्धिं गताः।। अवसेसा अणगाराऽतीयपडुप्पन्नऽणागया सवे। केई पादोवगया, पचक्खाणं गिणिं केइ॥५२६।। अवशेषाः-सर्वेऽपि च अनगाराः अतीताः प्रत्युत्पन्ना अनागताश्च केचित्पथमसंहननोपेताः पादपोपगताः, केचित्प्रत्याख्यान-भक्तपरिज्ञां, केचिदिङ्गिनी प्रतिपन्नाः। सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे विय पढमसंघयणवजा। सव्वे य देसविरया, पञ्चक्खाणेण उ मरेंति // 527 / / सर्वा अप्यार्यिकाः, सर्वेऽपिच प्रथमसंहननवर्जाः सर्वेऽपिच देशविरताः प्रत्याख्यानेन-भक्तपरिज्ञारूपेण नियन्ते। सव्वसुहप्पभवाओ, जीवियसारा उसव्वजणयाओ। आहाराओ रयणं, न विजइ हु उत्तमं लोए // 528|| सर्वस्य सुखस्य प्रभवः-उत्पादकारणं सर्वसुखप्रभवस्तस्मात्, जीवितसारात् "अन्नं वै प्राणा" इति वचनात्, सर्वस्य यतो जनकः, तस्मात् आहारमन्तरेण कस्याप्युत्पत्तेरभावात् इत्थंभूतादाहारादन्यदुत्तमं रत्नं लोके न विद्यते, कित्वाहार एव सर्वोत्तम रत्नम्। रक्षत्वमेवभावयतिविग्गहगइए सिद्धे, य मोत्तु लोयम्मि जेत्तिया जीवा। सव्वे सव्वावत्थं, आहारे हुंति उवउत्ता।।५२९।। विग्रहगतीन् विग्रहगत्यापन्नान सिद्धाँश्च मुक्त्वा शेषा यावन्तो लोके जीवास्ते सर्वे सर्वावस्थं सर्वास्ववस्थास्वाहारे उपयुक्ता भवन्ति–वर्तन्ते तत आहारः परमरत्नम्। तं तारिसयं रयणं, सारं जं सव्वलोअरयणाणं। सव्वं परिचइत्ता, पादोवगया पविहरंति॥५३०।। तत्सर्वलोकरत्नानां मध्ये सारं, तेषु सत्स्वपितृप्तेरभावात्। आहाररूपं रत्नं तत्तादृश सर्व परित्यज्य धन्याः पादपोपगताः प्रविहरन्ति। एयं पादोवगम, निप्पडिकम्मं जिणेहिँपण्णत्तं / जं सोऊणं खमओ, ववसायपरकम कुणइ // 531 / / एतत्पादपोपगम-मरणं जिनैर्निष्प्रतिकर्म प्रज्ञप्तं, यत् श्रुत्वा क्षपको व्यवसायपराक्रमं करोति। गतम् (21) उद्वर्तनाऽऽदिद्वारम्। अधुना (22) 'सारे (त्ति) ऊण य कवयं' इति __ द्वारव्याख्यानार्थमाह - कोई परीसहेहिं वाउलितो वेयणद्दिओ वावि। ओहासेज कयाई, पढमं वीअंच आसज्ज // 532 / / कश्चित् प्रथमद्वितीयपरीषहाभ्यां व्याकुलितो ध्यानाचालितो, यदिया वेदनया-पीडया अर्दितः-पीडितोऽवभाषेत-याचेत्कदाचित्प्रथममशन द्वितीयं वा पानकमासाद्याधिकृत्य। ततः किं कर्तव्यमत आहेगीयत्थमगीयत्थं, सारेउं मतिविबोहणं काउं। तं परिबोहय छठे, पढमे पगयं सिया विइए।।५३३।। स भक्तप्रत्याख्याता कदाचित्प्रान्तया देवतया अधिष्ठितोऽवभाषेत, ततः परिज्ञाननिमित्तं स्मरणं कारयितव्यः / भण्यते-कस्त्वं गीता र्थोऽगीतार्थो वा ? अथवा-दिवसो वर्तते, रात्रि। ता यदिसमस्तमवितथं ब्रूते, तदा ज्ञायते न प्रान्तदेवतयाऽधिष्ठितः, किंतु परीषहत्याजितो याचते, तदेवं गीतार्थमगीतार्थ चाऽत्मानं स्मारयित्वास्मरणीत्पादनेन यथावस्थितं मतिविबोधनं कृत्वा तं प्रतिबोध्य षष्ठे रात्रिभोजने प्रथमे अशने प्रकृतं स्यात्, द्वितीये या पानके। किमुक्तं भवति? अशने पानके चयाचिते तस्य भक्तपानाऽत्मकः कवचभूत आहारो दातव्यः / अथ किं कारण प्रत्याख्याय पुनराहारो दीयते ? तत आहहंदी ! परीसहचमू, जोहेयव्वा मणेण कारण। तो मरणदेसकाले, कवयम्भूओ उ आहारो॥५३४॥ हन्दीति चोदकाऽऽमन्त्राणे हे चोदक! परीषहचमू:-परीषहसेना, मनसा कायेन, उपलक्षणमेतत्, वाचा च योधेन-योधयितथ्या, ततस्तस्याः पराजयनिमित्तं मरणदेशकाले-मरणसमये योधस्य कवचभूत आहारो दीयते। एतदेव विभावयिषुरिदमाहसंगामदुर्ग महसिल-रहमुसले चेव तप्परूवणया। असुरसुरेंदावरणं, चेडय एगो गहं सरस्स॥५३५।। चेटकस्य-कोणिकस्य च परस्परं विग्रहे कोणिकपक्षे संग्रामद्वय मसुरेन्द्रः-अमरः कृतवान्। तद्यथा-महाशिलाकण्टकं, रथमुशलं च, तस्य प्ररूपणा, यथा व्याख्याप्रज्ञप्तौ तथा कर्तव्या। (विस्तरतः महाशिलाकण्टकसंग्रामस्वरूपम् 'महासिलाकंटय' शब्दे षष्ठभागे दर्शयिष्यते। रथमुसलसंग्रामस्वरूपं च 'रहमुसल' शब्दे तस्मिन्नेवभागे उदाहरिष्यते) असुरेन्द्रेण च शक्रेण कोणिकस्याऽऽवरणं कृतम्, कठिनवज्रमयप्रतिरूपके स क्षिप्त इत्यर्थः / ततः चेटकस्य एकः सारथिः कोणिकबधाय शरस्यकनकप्रहरण-विशेषरूपस्य ग्रह-ग्रहणं कृतवान्। एतदेव स्पष्टयतिमहसिलकंटे तहियं, वहृते कोणिओ उ रहिएण। रुक्खग्गविलग्गेणं, पिट्टे पहओ उ कणगेणं / / 536|| उप्फेडिउँ सो कणगो, कवयावरणम्मि तो तओ पडितो। तस्स पुण कोणिएणं, सीसं छिन्नं खुरप्पेणं // 537 / / तत्र महाशिलाकण्टके संग्रामे, वर्तमाने कोणिकश्चेटकस्यरथिकेन निरन्तरं शरमोक्षणत आच्छादितः, पर ते सर्वे ऽपि शराः कठिनप्रतिरूपकेऽभ्यट्य बहिः पतिताः, ततो वृक्षमारुह्य तद्विलनेन कोणिकः पृष्ठ कनकेन प्रहरणविशेषणप्रहतः,सोऽपिक्वचाऽऽवरणेकठिनप्रतिरूपकेउत्स्फिट्यततः, Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण कवचाऽऽवरणात् पतितः ततः कोणिकेन तं तथाऽध्यवसायं वृक्षविलग्रमवलोक्य कोपाऽऽवेशात्तस्य शिरः क्षुरप्रेण छिन्नम्। दिद्रुतस्स उवणओ, कवयत्थाणी इह तहाऽऽहारो। सत्तू परीसहा खलु, आराहण रजथाणीया।।५३८|| एषः-अनन्तरोदितो दृष्टान्तोऽयं तस्योपनयः-कवचस्थानीय इह तथारूप आहारः, शत्रवः परीषहाः राज्यस्थानीया आराधना / यथा शत्रुपराजयाय कवचमारोप्यते सङ्ग्रामे तथा परीषहजयाय चरमकाले | दातव्य आहारः। अौव दृष्टान्तान्तरमाहजह वा उंचियपादे, पापं काऊण हत्थिणो पुरिसो। आरुहइ तह परिण्णी, आहारेणं तु झाणवरं / / 536 / / यथा वा कोऽपि पुरुषो हस्तिनमारोढुमशक्तो हस्तिनः पादमाकुञ्चापयति, आकुञ्चाप्य तस्मिन्यादे आत्मीय पादं कृत्वा हस्तिनमारोहति, तथा परिज्ञी-भक्तपरिज्ञावान् आहारेण ध्यानवरम्--उत्तमंध्यानमारोहति। उवकरणेहिं विहूणो, जह वा पुरिसो न साहए कजं / एवाऽऽहारपरिणी, दिलंता तत्थिमे हुंति // 540 // यथा पुरुष उपकरणैत्रादिभिर्विहीनो न साधयति लवनाऽऽदिकं कार्यम्, एवमाहारमन्तरेण परिशीभक्लपरिज्ञावान् परीषहपराजयम् / तत्रोमे वक्ष्यमाणा दृष्टान्ता भवन्ति। तानेवाऽऽह --- लावए पावए जोहे, संगामे पंथगे विय। आउरे सिक्खए चेव, दिर्सेतो कवए त्ति य॥५४१॥ दातेणं नावाए, आउहपहेणोसहेहिं च।। उवकरणेहिं च विणा, जहसंखमसाहगा सव्वे // 542|| यथा प्रथश्लोकोक्तालावकाऽऽदयः सर्वे यथासङ्ख्यं दात्रादिभिर्द्वितीयगाथोक्तैर्विना न साधकाः / तथाहि-लाक्को दावेण विना लवितुं न शक्नोति / प्लावको नावा विना नद्यादिक लययितुं न, सङ्गामे योधा आयुधैर्विना शत्रुपराजयं, पथिकः पन्थानं गन्तुम् उपानद्भ्यां विना, आतुरः प्रगुणीभवितुमोषधैर्विना, शिष्यको वादित्रकर्माऽऽदि 'वादित्रा दिभिरुपकरणैर्विना। एवाऽऽहारेण विणा, समाहिकामो ण साहसमाहिं। तम्हा समाहिहेऊ, दायय्वो तस्स आहारो॥५४३।। एवं समाधिकाम आहारेण विना समाधिं न साधयति तस्मात्समाधिहेतोस्तस्याऽऽहारो दातव्यः। अत्राऽऽक्षेपपरिहारावाह - सरीरमुज्झियं जेण, को संगो तस्स भोयणे? समाधिसंधणाहेउं, दिजए सो उ अंतए॥५४४।। अथ येन शरीरमुज्झितं, को भोजने तस्य संगो येन तत् याचते ? उच्यते-न च जीविताऽऽशानिमित्तमाहारं याचते, किं तु समाधिमसहमानस्तत एतदस्माभित्विा मा तस्य समाधिव्याघातो भूयादिति समाधिसन्धानहेतोराहारः अन्तसमये दीयते। - केन विधिनेत्यत आहसुद्धं एसित्तु ठावेंति, हाणीतो वा दिणे दिणे / पुव्वुत्ताए तु जयणाए, तं तु गोति अन्नहिं / / 545 / / शुद्धम्-उद्माऽऽदिदोषरहितमेषित्वागवेषित्वा स्थापयन्ति हानौ वा शुद्धालाभे दिने दिने पूर्वोक्ताया पञ्चकपरिहाणिलक्षणया यतनया गवेषयित्वा तत् अन्यत्रा गोपयन्ति, गोपयित्वा यदि प्रतिदिन संशुद्धस्य यतनया वा अलाभे पर्युषितमपि क्रियते,ततो यथावसरं प्रयच्छन्ति 22 // सम्प्रति (23) चिह्नकरणद्वारमाहनिव्वाधाएणेवं, कालगएँ विगिंचणा उ विहिपुव्वं / कायव्वं चिंधकरणं, अचिंधकरणे भवे गुरुगा / / 546 / / एवम्-उक्तेन प्रकारेण नियाघातेनव्याघाताऽभावेन कालगते तस्य विधिपूर्व विवेचनापरिष्ठाना कर्त्तव्या। तथा कर्त्तव्यं चिह्नकरणम्, अचिह्नकरणे-चिह्नकरणस्याऽभावे प्रायश्चितं चत्वारो गुरुकाः / तच चिहकरणं द्विधा-शरीरे, उपकरणे च। तत्र शरीरे-भक्तं प्रत्याख्यातुकामेन लोचः कर्तव्यो यदि प्रत्याख्यातेऽपि भक्ते परं जीवतो लोचं वर्द्धते तथाऽप्यवश्य लोचं करोति, कारयति वा, उपकरणे रजोहरणमस्य समीपे क्रियते, चोलपट्टश्चाग्रतो, मुखे च मुखपोत्तिका। चिहकरणाऽभावे दोषानाहसरीरे उवगरणम्मि ए, अचिंधकरणम्मि सो उ रातिणिओ। मग्गणगवेसणाए, गामाणं घायणं कुणइ / / 147 / / शरीरे उपकरणे च अचिह्न करणे चिहे अकृते अयमन्यो दोषः-स कालगतो रत्नाधिकः स्यात्, तं चाकृतचिहं भद्राकृतिं दृष्टवा केचित् गृहस्थाः। चिन्तयन्ति-केनाप्येष गृहस्थो बलात्कारेण मारयित्वा त्यक्तः ततस्तैर्दण्डिकस्य कथितं, सोऽपि दण्डिकः श्रुत्वा कैश्चिन्मारितो भवेदिति तेषां मार्गणगवेषणार्थ तत्प्रत्यासन्नग्रामाणां पञ्चानां दशानां वा घातनं दण्डनं कुर्यात् 23 / / __ सम्प्रति (24 अन्तर्बहिर्व्याघात इति द्वारमाहन पगासिज्ज लहुत्तं, परीसहउदएण हुज्ज वाघातो। उप्पन्ने वाघाते, जो गीअत्थाण उववातो // 548|| स भक्तप्रत्याख्याता गृहिणांन प्रकाश्यते यतः कदाचित्परीषहस्योदयेन प्रत्याख्यानस्य व्याघातो-विलोपः स्यात, ततः समस्तस्यापि प्रवचनस्य लघुता जायते, उत्पन्ने च व्याघाते यो गीतार्थानामुपायः स प्रयोक्तव्य इति वाक्यशेषः। को गीयाण उवाओ,संलेहमतो ठविञ्जए अन्नो। अच्छह ते जोवऽन्नो, इतरो उ गिलाणपडिकम्मं / / 546 / / वसभो वाठाविज्जति, अण्णस्सासतीए तम्मि संथारे। कालगओ त्तिय काउं संझाकालम्मि णीणंति / / 550 / / भक्तप्रत्याख्याता द्विविधः एकोऽनेकश्च / ते द्विविधाः, ज्ञाताः अज्ञाताश्च / ज्ञातो नामदण्डिकाऽऽदीनां, प्राकृतजनानां च विदित स्वरूपो यथा यावज्जीवमेव भक्तं प्रत्याख्यातवान, तद्विपरीतोऽज्ञातः। तत्रा यदि ज्ञातो भक्तपरिज्ञा न निस्तरति तदा को गीतार्थागामुपायः प्रयोक्तव्यः? उच्यते तदा स जवनिकान्त Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपच्चक्खाण 1357 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण रितः स्थापितो यो वाऽन्य उत्सहते स स्थाप्यते / इतरस्य तु भक्तपरिज्ञाव्याघातवतो ग्लानपरिकर्म क्रियते, अथान्त्य संलेखनगतो न विद्यते, नाप्यन्यः कश्चिदुत्सहते, तदाऽन्यस्यासत्य भावे वृषभः स्थाप्यते तस्मिन्पूर्वभक्तप्रत्यख्यायकसत्के संस्तारे। ततो जवनिकान्तरितया लोकवन्दापनाऽऽदियतनया स करोति / यस्तु भक्तपरिज्ञाविलोपवान् सोऽल्पसागारिक एकान्ते घ्रियते, मृतस्य च ग्लानपरिकर्मा तावत् क्रियते यावत् प्रथमालिका करोति, ततोऽत्र जनमध्ये रात्री स कालगत इति प्रकाशः, स्वयं गमनेन सहायप्रदानतो वा सन्ध्याकाले तं निष्काशयन्ति। एतदेव भावयतिएवं तू नायम्मी, दंडिगमादीहिँ होइ जयणा उ। सयं गमण पेसणं वा, खिंसण चउरो अणुग्धाया / / 551 / / एवम्-उक्तेन प्रकारेण दण्डिकाऽऽदिभिति भवति यतना ज्ञातव्या। प्रथमालिकाकरणे स्वयं सर्वेषां साधूनां गमनं भवति / यदि वाससहायस्य अन्यत्रा तस्य प्रेषणम्। यस्तु तं भक्त परिज्ञाव्याघातवन्तं खिंसयति-भक्तप्रत्याख्यानप्रतिभन एष इति, तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा अनुद्घातां गुरुकाः यस्तुन ज्ञातः सयदिन निस्तरति तथामपिन प्रवचनस्योड्डाहः / गतं सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यानम्। अपराक्रमयात्रामाह - सपरिक्कमे जो उ गमो, नियमा अपरक्कमम्मि सो चेव / नवरं पुण नाणत्तं, खीणे जंघावले गच्छे / / 552 / / सपराक्रमे भक्तप्रत्याख्याने यो गमोऽभिहितः स एवापराक्रमेऽपि नियमावेदितव्यो, नवरं पुनरिदं नानात्वमपराक्रमेक्षीणे जडावले भवति स्वगच्छे एव / तथाहि-क्षीणे जवावले वृद्धत्वेन मर्तुकामः स्थगच्छे भक्त प्रत्याचष्टे। संप्रति व्याघातिममाहएमेव आणुपुथ्वी, रोगायंकेहिं णवरि अभिभूतो। बालमरणं पिय सिया, मरिजउ इमेहिं हेऊहिं / / 553 / / एवमेव अनेनैव प्रकारेणाऽऽनुपूर्व्या क्रमेण व्याघातिमं प्रतिपत्तव्यं, नवरं रोगाऽऽतङ्केरभिभूतः स न तत् प्रतिपद्यते / एतावान विशेषः-यदि पुनरेभिर्वक्ष्यमाणैहे तुभिर्यत् तदा तत् व्याघातिम बालमरणमपि स्यात्। तानेव हेतूनाहबालऽच्छभल्ल विस विसू-इका य आयंकसन्नि कोसलए। ऊसास गिद्ध रजू, ओमऽसिवे घाएँ संबद्धो // 554 // व्यालो-गोनसाऽऽदिः, अच्छभल्ल, ऋक्षो, विषं, विशू (सू) चिका च प्रतीता, आतङ्क:-क्षयाऽऽदिय्याधिः, संज्ञिकोशलके-कोशल-श्रावके प्रत्यनीके संजाते, उच्छ्वास निरोधे, गृद्धपृष्ठकरणं रजवा उत्कलम्बनम्। अवमेदुर्भिक्षे अशिवेधातोविद्युदाऽऽदिभिरभिघातः, संबद्धं वा तेन हस्तपादाऽऽदि जातमेतैर्हेतुभिर्व्याघातिमं बालमरणमपि भवति। कथमित्याह - बालेण गोणसादी, खदितो हुजा सडिउमारद्धो। कन्नोट्ठनासिगादी, विभंगिया वऽच्छभल्लेहिं // 555 / / व्यालेन गोनसाऽऽदिना स खादितो भवेत्ततः शटितुमारब्धान बालमरणमपि कुर्यात् / यदि वा- अच्छभल्लेन- ऋक्षेणकर्णोष्ठनाशिकाउदीनि विभग्नानि भवेयुः ततो बालमरणमाश्रयेत। विषाऽऽदिहेतूनाहविसलद्धो होज्जा वा, विसूइया वा सें उट्ठिया होञ्जा। आयंको वा कोई, खयमादी उढिओ होज्जा / / 556 / / तिण्णि उवारा किरिया, तस्स कया हवेज नो उ उवसंतो। जह वोमें कोसलेणं, सण्णिणा पंच उ सयाई॥५५७।। साहूणं रुद्धाई, अह यं भत्तं तु तुज्झ दाहामो। लाभंतरं च नाउं, लुद्धणं धन्न विक्कीतं / / 558|| विषेण वा कश्चित् लब्धो भवेत् वि (सू) शूचिका वा (से) तस्य उपस्थिता, आतङ्कोवा कोऽपि क्षयाऽऽदिस्तस्योत्थितो भवेत, तस्य च त्रीन् वाराम् क्रिया कृता, परं नोपशमते, ततो बालमरणं प्रतिपद्यते / तथा वा अवमे-दुर्भिक्षे कोशलेन संज्ञिना श्रावके ण, साधूनां पञ्चशतान्यन्यत्र गच्छन्ति निरुद्धानि यथाऽहं भक्तं युष्माकं दास्यामि ; तेन च पापीयसा लुब्धन लाभान्तरं-लाभ विशेष ज्ञात्वा धान्यं विक्रीतम्। ततः किमित्याहतो णाउ वित्तिछेयं, ऊसासनिरोहमादीणि कयाई। अणहीयासे तेहिं, वेयण साहूहिँ ओमम्मि ||556 / ज्ञात्वा वृत्तिच्छेदंदुर्भिक्ष वेदनामनध्यासितैरसहमानरुच्छवा सनिरोधाऽऽदीनि कृतानि, केचिदुच्छ्वासनिरोधकरणतोऽपरे गृधपृष्ठकरणतोऽप्यन्ये रज्वा वैहायसविधानतो बालमरणं प्रति पन्नवन्तः / पडिघातो वा विज्जू, गिरि भित्तीकोणयाइ वा हुन्जा। संबद्ध हत्थपाया-दओ व वातेण होजाहि // 560 / / प्रतिघातो विद्युता गिरिभित्तेः पतन्त्या गिरिकोणकाद्वा पततो भवेत, ततो बालमरणम्। अथवा-हस्तपादाऽऽदयो वा तेन संबद्धा भवेयुः तत आश्रयते बालमरणम्। तथा चाऽऽहएएहिं कारणेहिं पंडियमरणं तु काउमसमत्थो / ऊसासगिद्धपिटुं, रज्जुग्गहणं च कुजाहि॥५६१।। एतैरनन्तरोदितालभक्षणप्रभृतिभिः कारणैः पण्डितमरणं यथोक्तप्रत्याख्यानरूपं कर्तुमसमर्था उच्छ्वासनिरोधंगृद्धपृष्ठरज्जुग्रहणं वा कुर्युः / अथ किमिति ते व्यालभक्षिताऽऽदय आत्मानं घातयन्ति? उच्यतेअणुपुव्वविहारीणं, उस्सग्गनिवाइयाण जा सोही। विहरंतए न सोही, भणिया आहारलोवेणं // 562|| ये व्यालाच्छ भल्लाऽऽदिकृतव्याघातरहितास्तेषामानुपू ऋतुबद्धे मासकल्पेन वर्षा वासे चतुर्मासकल्पेन विहारिणामत्सर्गनिपातिनामुत्सर्गेण संयममनुपालयतां या चारित्राशोधिर्भवति, सा व्यालाऽच्छभल्लाऽऽदिव्याघातवति विहरति नभ Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपचक्खाण 1358 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपच्चक्खाण णिता; शोधिन भवतीत्यर्थः कस्मान्न भवतीत्याह - आहारलोपेन, ते / हि व्यङ्गत्वाऽऽदिना कारणेन न शक्नुवन्ति परिपूर्णामुत्तरगुणविशुद्धिं कर्तु, ततो यथाऽवस्थिताऽऽहारविलोपतोबालमरणमभ्युपगच्छन्ति। तदेवमुक्त भक्तप्रत्याख्यानम्। व्य०१० उ०। अत्रा भक्तपरिज्ञायां च विस्तरतो विधिः सामा चारीतोऽवसेयः। स चायम्''गंधा१ संघो 2 चिइ३ संति 4 सासणा 5 खित्त 6 भवण 7 सव्वसुरा 8| सक्कत्थय 6 संतिथुताऽऽ १०राहणदेवी चउज्जोआ 11119 सोही 12 खामण 13 संमं 14, समइय 15 वय 16 तिन्नि मंगलाऽऽलावा 17 चउसरण 18 नमो 16 अणसण 20 // वास 21 थुइ 22 ऽणुसट्टि 23 उववूहा 24 / / 2 / / " तत्र प्रथम गुरुरुत्तमार्थाऽऽराधनार्थ वासानभिमन्त्र्यग्लानस्य शिरसि क्षिपति 1, ततः प्रतिमासद्भावचतुर्विधसङ्घ (2) समन्वितो गुरुम्लनिन समम् अधिकृतदेवस्तुतिभिर्देवान्वन्दते 3, ततः शान्तिनाथकायोत्सर्गः 4, शासनदेवता 5 क्षेत्र देवता 6, भवनदेवता 7, समस्तवैयावृत्यकराणां 5, शक्र-स्तवपाठः 6, शान्तिस्तवपाठः 10, आराधना देवताऽऽराधनार्थं कायोत्सर्गः 'लोगस्सुजोयगरे' चतुष्टयचिन्तनं पारयित्वा "यस्याः सान्निध्यतो भव्याः, वाञ्छितार्थप्रसाधकाः / श्रीमदाराधनादेवी, विनवातापहाऽस्तु वः / / 1 / / " इति स्तुतिदान 11, तदनु गुरुर्निषद्यायामुपविश्य बालकालात् ग्लानमालोचनां दापयति / तओ"जे मे जाणति जिणा, अवराहा जेसुजेसु ठाणेसु। तेऽह आलोएउं, उवढिओ सव्वभावेणं॥४८१॥ (व्य० 10 उ०) छउमत्थो मूढमणो, कित्तियमित्तं पि संभरइ जीवो। जंचन समरामि अहं, मिच्छा मे दुक्कड तस्स // 1 // जं जं मणेण बद्धं, जं जं वायाए भासिअंपावं। कारण य जं च कयं, मिच्छा मे दुक्कड तस्स // 2 // हा दुट्ठ कयं हा दुट्-ठुकारिअं अणुमयं पि हा दुटुं। अंतो अंतो डज्झइ, हिययं पच्छाणुतावेणं॥३॥ जं च सरीर सुद्धं, कुडुबउवगरणरूवविन्नाणं। जीवोपघायजणयं, संजायं तं पि निंदामि // 4 // गहिंऊण य मुक्काई, जम्मणमरणेसु जाइँ देहाई। पावेसु पसत्थाई, वोसिरिआई मए ताई॥५॥" इत्यादि 12 / ततः सङ्घक्षमणा"साहूण साहुणीण य, सावयसावीण चउविहो संघों। जं मणक्यकाएहिं, साइओ तं पि खामेमि॥१॥ आयरिऍ उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे आ जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि।।१|| खाममि सव्वजीवे, जीवा खमंतु में। मित्ती सव्वभूएसु, वेर मज्झण केण इ।।२।। सव्वस्ससमणसंधस्स, भगवओ अंजलिं करिअ सीसे। सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि।।३।। ततो नमस्कारोचारपूर्वम् - "अरिहंतो मह देवो 1, इति वार 2, 13, 14 एवं सामायिक वार 3, 15 ततः पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि वारत्रयमुच्चार्यन्ते 16, ततो 'इयाई गाथा "चउसरणगमणदुक्कड-गरिहा सुकड़ा णुमोअणं कुणसु / सुहभावणं अणसणं, पंचनमुक्कारसरणं च॥१॥""चत्तारि मंगल" मित्याद्यालापकत्रायं च 17 / " ततो समणस्स भगवओ महावीरस्स उत्तमढे ठाइमाणो पचक्खाइ सव्वं पाणाइवायं 1, सव्वं मुसावायं 2, सव्वं आदिन्नादाणं 3, सव्वं मेहुणं 4, सव्वं परिग्गहं 5, सव्वं कोहं 6, सव्वंमाणं 7, सव्वं मायं 8, लोभं 6, पिजं 10, दोसं 11, कलह 12, अन्भक्खाणं 13, अरइरई 14, पेसुन्नं 15, परपरिवायं 16, मायामोसं 17, मिच्छादसणसल्लं 18 / इचेआई अट्ठारस पावट्ठा णाई जावजीवाए तिविहं तिविहेणं जाव वोसिरामि। तओ सउणसयणाइसम्मएणं वंदणं दाऊण 18, नमुक्कारपुव्व 16, गिलाणो अणसणमुचरइ। भवचरिमं पचक्खामि तियिह पि आहार असणं खाइमं साइमं अन्नत्थऽणाभोगेणं सहसागारेण महत्तरागारेण सव्वसमाहिवत्तिआगारेणं वोसिरामि। "अनाकारे तु अन्त्याऽऽकारद्वयरहितं यथा 'भवचरिमं निराकारं पच्चक्खामि चउव्विह पि आहारं सव्वं असणं सव्वं पाणं सव्वं खाइम सव्वं साइमं अन्नत्थडणाभोगेणं सहसागारेणं / " द्वयोरपि "अरिहंताइ 5 सक्खिअंबोसिरामि'' अथवा --"जइ मे हुञ्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ वेलाए। आहारमुवहि देह, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं॥१॥ 20 तओ नित्थारगपारगा होह ति" भणन् वासान् शान्त्यर्थं तसिम्मुखं क्षिपति सङ्घ 21, 'अट्ठावयम्मि उसहो' इत्यादि स्तुतेः "पञ्चानुत्तरसरणा०"इत्यादि स्तोत्रस्य भणनं 22, "जम्मजरामरणजले०' इत्यादिदेशनां च विधत्ते इत्यादि 23 / उपबृंहणा च कार्या-तथा संवेगजनकमुत्तराध्ययनाऽऽदि प्रतिदिन तत्समीपे पठ्यते / “एवं सावयस्स विनवरसावओ सम्मत्तगाहाठाणे सम्मत्तदंडयं दुबालस वयाई उच्चरइ, जहासत्तीए सत्तसु खित्तेसु धणव्वयं करेइ, तओ सामगीसब्भावे संथारयदिक्ख पि पडिबजइ।' एवं च मरणेन मृतस्य साधोः शरीरमन्यसाधुभिर्विधिना परिष्ठाप्यमिति 24, ध०३ अधि०। ग्लानभावोपगतेन भिक्षुणा भक्तपरिज्ञाऽऽख्यं मरणमभ्युपगन्तव्यमित्येतत्प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनाऽऽया तस्यास्योद्देशकस्थाऽऽदिसूत्रम्जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवु सिए पायतइएहिं तस्स णं नो एवं भवइ-तइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेस णिजाई वत्थाइं जाइज्जा 0 जाव एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं / अह पुण एवं जाणिजा-उवाइक्कं ते खलु हे मंते गिम्हे पडिवण्णे, अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिहविजा, अहा परिजुन्नाइं परिट्ठवित्ता अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पेवइयं तमे Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपचक्खाण 1356 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपचक्खाण व अभिसमिचा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव सममिजाणिया, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो अबलो अहमसि नालमहमंसि गिहतरसंकमणं मिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अमिहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वासाइमं वा आहट्ट दलइजा, से पुव्वामेव आलोइजा-आउ संतो ! नो खलु मे कप्पइ अभिहडं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भुत्तए वा पायए वा अन्ने वा एयप्पगारे। (सू०२१६) तत्र टिकल्पपर्युषितः स्थविरकल्पिको जिनकल्पिको वा स्यात्, कल्पद्वयपर्युषितस्तु नियभाञ्जिनकल्पिकपरिहारवि-शुद्धिकयथालन्दिकप्रतिमाप्रतिपन्नानामन्यतमः, अस्मिन् सूत्रोऽपदिष्टो यो भिक्षुर्जिनकल्पिकाऽऽदिभ्यां वस्त्राभ्यां पर्युषि तो वस्त्रशब्दस्य सामान्यवाचित्वादेकः क्षौमिकोऽपर और्णिकइत्याभ्या कल्पाभ्यां पर्युषितः-संयमे व्यवस्थितः, किम्भूताभ्यां कल्पाभ्या? पात्रतृतीयाभ्यां पर्युषित इत्याद्यनन्तरोद्देशकवन्नेयं यावत् "नालमहमंसि'' ति स्पृष्टोऽहं वातादिभी रोगैः 'अबल: असमर्थः 'नालं' न समर्थोऽस्भिगृहाद् गृहान्तरं सक्रमितुं, तथा भिक्षार्थ चरण-चर्या भिक्षाचर्या तगमनाय 'नालं' समर्थ इति, तदेवम्भूत भिक्षुमुपलभ्य स्याद् गृहस्थ एवम्भूतामात्मीयामवस्था वदतः साधोरवदतोऽपि परो गृहस्थाऽऽदिरनुकम्पाभक्तिरसाऽऽहृदयोऽभिहृतं जीवोपमर्दनिर्वृत्तं, किं तद् ? अशनं पानं खादिमं स्वादिमं चेत्यारादहत्य तस्मै साधये 'दलएज' त्ति दद्यादिति / तेन च ग्लानेनाऽपि साधुना सूत्रार्थमनुसरता जीवितनिष्पिपासुनाऽवश्यं मर्त्तव्यमित्यध्यवसायिना किं विधेयमित्याह-स जिनकल्पिकाऽऽदीनां चतुर्णामप्यन्यतमः पूर्वमेव-आदावेव' आलोचयेत्' विचारयेत्, कतरेणोद्गमाऽऽदिना दोषेण दुष्टमेतत् ? तत्राभ्याहृतमिति ज्ञात्वाऽभ्याहृतं च प्रतिषेधयेत्, तद्यथाआयुष्मान् गृहपते ! न खल्वेतन्ममाभिहृतमभ्याहृतं च कल्पते अशनं भोक्तुं पानंपातुमन्यद्वैतत्प्रकारमाधाकाऽऽदिदोषदुष्ट न कल्पते, इत्येवं तं गृहपति दानायोद्यतमाज्ञापयेदिति, पाठान्तरं वा "तं भिक्खु / केइगाहावई उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो समणा ! अहन्नं तव अट्टाण असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं दलामि, से पुव्वामेव जाणेजा आउसंतो गाहावई ! जन्नं तुम मम अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं या अभिहडं चेतेसि, णो य खलु मे कप्पई एयप्पगार असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा भोत्तए वा, पायए वा अन्ने वा तहप्पगारे त्ति।' कण्ठ्यं, तदेवं प्रतिषिद्धोऽपि श्रावकसंज्ञिप्रकृतिभद्रकमिथ्यादृष्टीनामन्यतम एवं चिन्तयेत्, तद्यथा-एष तावत् ग्लानो न शक्नोति भिक्षामाटितुं न चापर कञ्चन ब्रवीति तदस्मै प्रतिषिद्धोऽप्यह केनचिच्छदाना दास्यामीत्येवमभिसन्धायाऽऽहाराऽऽदिकं ढौकसति, तत्साधुरनेषणीयमिति कृत्वा प्रतिषेधयेत् / किं च-- जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खलु पडिन्नत्तो अपडि नतेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अमिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि, अहं वावि खलु अप्पडिन्नतो पडिनत्तस्स अगिलाणो गिलाणस्स अभिकंख साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए आहट्ट परिन्नं अणुक्खिस्सामि आहडं च साइञ्जिस्सामि१, आहट्ट परिन्नं आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइञ्जिस्सामि 2, आहटु परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहडं च सा इजिस्सामि 3, आहट्ट परिन्नं नो आणक्खिस्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि 5, एवं से अहाकिट्टियमेव धम्म सममिजाणमाणे संते विरए सुसमाहियलेसे तत्थ वितस्स कालपरियाए से तत्थ विअंतिकारए, इचेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं ति बेमि / (सू० 217) '' इति वाक्यालङ्कारे, यस्य भिक्षोः परिहारविशुद्धिकस्य यथालन्दिकस्य वा अयं-वक्ष्यमाणः प्रकल्पः' आचारो भवति, तद्यथा अहं च खलु 'चः समुचये 'खलुः वाक्यालङ्कारे, आह क्रियमाणं वैयावृत्यमपरैः 'स्वादयिष्यामि अभिलषिष्यामि, किम्भूतोऽहं ? प्रतिज्ञप्तौ वैयावृत्यकरणायापरैरुक्त:- अभिहितो यथा तव वयं वैयावृत्यं यथोचितं कुर्मा इति, किम्भूतैः परैः ? अप्रतिज्ञप्तैः-अनुक्ते, किम्भूतोऽहंग्लानो विकृष्टपसा कर्तव्यताऽशक्तो वाताऽऽदिक्षोभेण वा ग्लान इति, किम्भूतैरपरैः? उचित कर्त्तव्यसहिष्णुभिः / तत्रा परिहारवि--शुधिकस्यानुपाहारिकः करोति कल्पस्थितो वा परो, यदि पुनस्तेऽपि ग्लानास्ततोऽन्ये न कुर्वन्ति, एवं यथालन्दिकस्यापीति, केवलं तस्य स्थविरा अपि कुर्वन्तीति दर्शयति निर्जराम् 'अभिकाक्ष्य' उद्दिश्य 'साधम्मिकैः सदृशकल्पिकैरेककल्पस्थैरपरसाधुभिर्वा क्रियामाणं वैयावृत्त्यमहं स्वादयिष्यामि अभिकाशयिष्यामि यस्यायं भिक्षोः प्रकल्पः-आचारः स्यात् सतमाचारमनुपालयन् भक्तपरिज्ञयाऽपि जीवितं जह्यात्, न पुनराचारखण्डनं कुर्यादितिभावार्थः / तदेवमन्यन साधर्मिकेण वैयावृत्त्यं क्रियमाणमनुज्ञात / साम्प्रतं स एवापरस्य कुर्यादिति दर्शयितुमाह -चः समुचे, अपिशब्दः पुनःशब्दार्थे सच पूर्वस्माद्विशेषदर्शनार्थः 'खलुः वाक्यालङ्कारे अहं च पुनरप्रतिज्ञप्तः अनभिहितः प्रतिज्ञप्तस्य वैयावृत्त्यकरणायाभिहि तस्थ अग्लानो ग्लानस्य निर्जरामभिकाक्ष्य साधर्मिकस्य वैयावृत्त्य कुर्या , किमर्थम् ? 'करणाय' तदुपकरणाय तदुपकार येत्यर्थः, तदेवं प्रतिज्ञा परिगृह्याऽपि भक्तपरिज्ञया प्राणान् जह्यात्, न पुनः प्रतिज्ञामिति सूत्रभावार्थः / इदानी प्रतिज्ञाविशेषद्वारेण चतुर्भङ्गिकामाह-एकः कश्चिदेवम्भूता प्रतिज्ञा गृह्णति, तद्यथा-लानस्यापरस्य साधर्मिकस्याऽऽहारssदिकमन्वेषयिष्यामि, अपरं च ययावृत्त्यं यथोचित्तं करिष्यामि, तथाऽपरेण चसाधर्मिकणाऽऽहतमानीतमाहाराऽऽदिकं स्वादयिष्यामि-उपभोक्ष्ये, एवम्भूतां प्रतिज्ञामाहृत्यगृहीत्वा वैयावृत्यकुर्यादिति 1, तथाऽपरः-आहत्य प्र Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपञ्चक्खाण 1360 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपरिण्णा तिज्ञा गृहीत्वा यथाऽपरनिमित्तमन्वीक्षिष्ये आहाराऽऽदिकमाहृतं चापरेण न स्वादयिष्यामीति 2, तथाऽपरआहृत्य प्रतिज्ञामवम्भूतां, तद्यथानापरनिमित्तमन्वीक्षिष्याभ्याहारादिकमाहृतं चान्येन स्वादयिष्यामीति 3, तथाऽपरः-आहुत्य प्रतिज्ञामेवम्भूतां तद्यथा-नान्वीक्षिष्येऽपरनिमिसमाहाराऽऽदिक नाप्याहृतमन्येन स्वादयिष्यामीति 4, एवम्भूतां च नानाप्रकारां प्रतिज्ञा गृहीत्वा कुतश्चिद् ग्लायमानोऽपि जीवितपरित्यागं कुर्यात्, न पुनः प्रतिज्ञालोपमिति / अमुमेवार्थमुपसंहारद्वारेण दर्शयितुमाह - एवम उक्तविधिना 'स' भिक्षुरवगततत्त्वः शराऽऽदिनिष्पिपासुः यथाकीर्तितमेव धर्मम्-उक्तस्वरूपं सम्यगभिजानन् आसेवनापरिज्ञया आसेवमानः , तथा लाघविकमागमयन्नित्यादि यच्चतुर्थीद्देशकेऽभिहितं तदत्र वाच्यमिति, तथा शान्तः कषायोपशमाच्छान्तो वा अनादिसंसारपर्यटना विरतःसावद्यापनुष्ठानात् शोभनाः सामहृता गृहीता लेश्याःअन्तःकरणवृत्तयस्तैजसीप्रभृतयो वायेन स सुसमाहृतलेश्यः, एवम्भूतः सन् पूर्वगृहीतप्रतिज्ञापालनाऽसमर्थो ग्लानभावोपगतस्तपसा रोगाऽऽतड़ेन वा प्रतिज्ञालो पमकुर्वन् शरीरपरित्यागाय भक्तप्रत्याख्यानं कुर्यात्, 'तत्राऽपि' भक्तपरिज्ञायामपि 'तस्य' कालपर्यायेणानागताया मपि कालपर्याय एव निष्पादितशिष्यस्य संलिखितदेहस्य यः कालपर्यायोमृत्योरवसरोऽत्राऽपि ग्लानावसरेऽसावेव कालपर्याय इति, कर्मानिर्जराया उभयत्रा समानत्वात्, स भिक्षुस्ताग्लानतथाऽनशनविधाने व्यन्तिकारकः-कर्मक्षय-विधायीति। उद्देशकार्थमुपसंजिहीर्षुराऽऽहसर्व पूर्ववद् / आचा० 1 श्रु० 8 अ० 5 उ० / भक्तप्रत्याख्यानफलं प्रश्नपूर्वकमाह - भत्तपचक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? भत्तपचक्खाणेणं जीवे अणेगाई भवसहस्साइं निरंभइ / / 4 / / हे भदन्त ! भक्तप्रत्याख्यानेन-आहारत्यागेन भक्तपरिज्ञादिना जीवः किं फलं जनयति? गुरुराह-हे शिष्य ! भक्त प्रत्याख्यानेन जीवोऽनेकानि भवसहस्राणि निरुणद्धि। 10 उत्त० 26 अ०। भक्तपरिज्ञामरणमार्यिकाऽऽदीनामप्यस्ति। यत उत्कम्-"सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे वियपढमसंघयणवजा। सव्वे वि देसविरया, पचक्खाणेण उ मरंति // 527 // " (व्य०१० उ०) अत्र च प्रत्याख्यानशब्देन भक्तपरिशैव भणिता, तत्र प्राक्पादपोपगमाऽऽदेरन्यथाभणनात्। प्रक० (टी०) 157 द्वार। (भक्तप्रत्याख्यानवतो वक्त व्यताविशेषः 'अणगार' शब्दे प्रथमभागे 271 पृष्ठ गतः।) भत्तपरिण्णा स्त्री० (भक्तपरिज्ञा) भक्तं भोजनं तस्य परिज्ञा / सा द्विधाज्ञपरिज्ञा, प्रत्याख्यानपरिज्ञा च। ज्ञपरिज्ञया अनेकभेदमस्माभिर्भुक्तपूर्वमतद्धेतुकं च सर्वमवद्यमिति परिज्ञानम्। प्रत्याख्यानपरिज्ञया च "सव्वं च असणपाणं चउव्विहं जा य बाहिरा उवही। अभिंतरं च उवहिं, जावजीवंचवोसिरइ॥१॥" इत्यागमवचनाचतुर्विधाऽऽहारस्य त्रिविधा ऽऽहारस्य वा यावज्जीवमपि परित्यागाऽऽत्मकं प्रत्याख्यानं भक्तपरिज्ञा। उत्त० पाई०५ / आचा० / प्रव० स०। अनशनभेदे, प्रव०६ द्वार। पं० वा पञ्चा० / आचा० / तत्कार्यभूते भक्तप्रत्याख्यानाऽऽरय्ये मरणभेदे च / ध०३ अधि० ग्रन्थभेदे, प्रति०। भक्तपरिज्ञास्वरूपमिदम् - नमिऊण महाइसयं, माहाऽणुभावं मुणिं महावीरं / भणिमो भत्तपरिन्नं, नियसरणट्ठा परट्ठाय / / 1 / / भवगहणभमणरीणा, लहंति निव्वुइसुहं जमल्लीणा। तं कप्पहुमकाणण-सुहयं जिणसासण जयइ।।२।। मणुयत्तं जिणवयणं, च दुल्लहं पाविऊण सप्पुरिसा! सासयसुहिक्करसिए-हिँ नाणवसिएहिं होयव्वं / / 3 / / जं अज्ज सुहं भविणो, संभरणीयं तयं भदे कल्लं / मगंति निरुवसग्गं, अपवग्गसुहं बुहा तेण / / 4 / / नरविवुहे सुरसुक्खं, दुक्खं परमत्थओ तयं विति। परिणामदारुणमसा-सयं च जंता अलं तेणं / / 5 / / जंसासयसुहसाहण-माणाआराहणं जिणिंदाणं। ता तीए जइयव्वं, जिणवयणविसुद्धबुद्धीहिं / / 6 / / तं नाणदंसणाणं, चारित्ततवाण जिणपणीयाणं। जं आराहणमिणमो, आणाआराहणं विति।७।। पव्वज्जाए अन्भु-जओ वि आराहओ अहात्तं। अब्भुञ्जयमरणेणं,अविगलमाराहणं लहइ / / 8 / / तं अन्भुज्जयमरणं, अमरणधम्मेहि वन्नियं तिविहं। भत्तपरिन्ना इंगिणि, पाओवगमं च धीरेहिं / / भत्तपरिनामरणं, दुविहं सवियारमो च अवियारं। सपरक्कमस्स मुणिणो, संलिहियतणुस्स सवियारं / / 10 / / अपरक्कमस्स काले,अपहुत्तम्मी य ज तमवियारं। तमहं भत्तपरिन्नं,जहापरिन्नं भणिस्सामि॥११॥ मिइबलवियलाणमऽका-लमचुकलियाणमऽकयकरणाणं। निरवज्जमज्जकालिय-जईण जुग्गं निरुवसग्गं / / 12 / / पसमसुहसप्पिवासो, असोअहासो सजीवियनिरासो। विसयेसुविगयरागो, धम्मुज्जमजायसंवेगो।।१३।। निच्छियमरणावत्थो, वाहिग्गत्थो गिहत्थो वा। भविओ भत्तपरिन्ना-इनायसंसारनिग्गुन्नो // 14 // वाहिजरमरणमयरो, निरंतरुप्पत्तिनीरनिउरंबो। परिणामदारुणदुहो, अहो दुरंतो भवसमुद्दो।।१५।। पच्छा तावपरद्धो, पियधम्मो दोसदूसणसयग्रहो। अरिहइ पासत्थाइ वि, दोसे दोसिल्लकलिओ वि।।१६।। इय कलिऊण सहरिसं, गुरुपामूलेऽभिगम्म विणएणं / भालयलमिलियकरकम-लसेहरो वंदिउं भणइ / / 17 / / आरुहिय महसुपुरिस-भत्तपरिनापसत्थबोहित्थं / Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपरिण्णा 1361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपरिण्णा निजामएण गुरुणा, इच्छामि भवन्नवं तरिउं / / 18 / / कारुन्नामयनीसं-दसुंदरो सो वि से गुरू भणइ। आलोयणवयखामण-पुरस्सरं तं पवजेसु / / 16 / / इच्छासु त्ति मणित्ता, भत्तीबहुमाणसुद्धसंकप्पो। गुरुणो विगयावाए, पाए अभिवंदिउं विहिणा // 20 // सल्लं उद्धरिउमणो, सव्वेगुव्वेयतिव्वसद्धाओ। जं कुणइ सुद्धिहेउं, सो तेणाऽऽराहओ होइ॥२१|| अह सो आलोअणदो-सवज्जियं उजुयं जहायरियं / बालु व्व बालकाला-उ देइ आलोअणं सम्मं // 22 // ठविए पायच्छित्ते, गणिणा गणिसंपयासमग्गेण / सम्ममणुपन्निय तयं, अपावभावो पुणो भणइ / / 23 / / दारुण दुहजलयरभी-मभवजलहितारणसमत्थे। निप्फन्नवायपोए, महव्वए अम्हओ खिवसु॥२४॥ जइ वि स खंडियचंडो, अक्खण्डममहव्वओ जई जइ वि। पव्वज्जवतुट्ठावण-मुट्ठावणमरिहइतहावि।।२५।। पहुणो सुकयाऽऽणत्तिं, भिच्चा पञ्चप्पिणंति जह विहिणा। जावजीव पइन्ना-णतिं गुरुणो तहा सो वि।।२६।। जो साइयारचरणो, आउट्टिय दंड खंडियवओ वा। तह तस्स वि सम्ममुव-ट्टियस्स उट्ठावणा भणिया / / 27|| तत्तो तस्स महव्व य-पव्वयभारुन्नमंतसीसस्स। सीसस्स समारोवइ, सुगुरू वि महव्वए विहिणा!|२८|| अह हुज देसविरओ, सम्मत्तरओ रओ अ जिणवयणे। तस्स वि अणुव्वयाइं, आरोविजंति सुद्धाई ||26 / / अनियाणोदारमणो, हरिसवसविसप्पकंचुइयराइ। पूण्य गुरुं संघ, साहम्भियमाह भत्तीए॥३०॥ नियदव्वमईव जिणिं-दभवणजिणविंववरपइट्ठासु। वियरइ पसत्थपुत्थय-सुतित्थतित्थयरपूआसु // 31 // जइ से वि सव्वविरई-कयाणुराओ विसुद्धमणकाओ। छिन्नसयणाणुराओ, विसयविसाओ विरत्तो अ॥३२|| संथारऍ पव्वजं, पडिवज्जइ सो वि नियमनिरवज्जं / सव्वविरईपहाणं, सामाइयचरित्तमारुहइ॥३३॥ अह सो सामाइयधरो, पडिवन्नमहव्वओ अजो साहू। देसविरओ अचरिमं, पञ्चक्खामि त्ति निच्छइओ // 34 // गुरुगुणगुरुणो गुरुणो, पयपंकयनमियमत्थओ भणइ। भयवं भत्तपरिन्नं, तुम्हाणुमयं पवजामि // 35 // आराहणाइखेमं, तस्सेव य अप्पणो अगणिवसहो। दिव्वेण निमित्तेणं, पडिलेहइ इहरहा दोसा॥३६|| तत्तो भवचरिमं सो, पचक्खाइ ति तिविहमाहारं। उक्कोसियाणि दव्वा-णि तस्स सव्वाणि दंसिज्ज // 37 / / पासित्तु ताणि कोइ, तीरं पत्तस्सिमेहिं किं मज्झ। देसं च कोइ भुच्चा, संवेगगओ विचिंतेइ॥३८|| किं चत्तं नोवभुत्तं मे, परिणामासुइं सुई। दिट्ठसारो सुहं झायइ, चोअणे से विसीयओ॥३६।। उदरमलसोहणट्ठा, समाहिपाणं मणुन्नं मे / सो वि मरं पञ्जयव्वो, मंदं च विरेयणं खमओ॥४०॥ एलतयनागकेसर-तमालपत्तं ससक्कर दुद्धं / पाऊण कढिय सीयल, समाहिपाणं तओ पच्छा॥४१॥ महुरविरेयणमेसो, कायव्वो फोफलाइदव्येहिं / निव्वाविओ अ अग्गी, समाहिमेसो सुहं लहइ॥४२॥ जावजीवं तिविहं, आहारं वोसिरइ इहं खवगो। निज्जवगो आयरिओ, संघस्स निवेयणं कुणइ // 43 // आराहणपचइयं,खमगस्सय निरुवसग्गपचइयं / तो उस्सग्यो संघे-ण होइ सव्वेण कायव्वो ||4|| पञ्चक्खाविंति तओ, तं ते खवर्ग चउव्विहाऽऽहारं / संघसमुदायमझे, चिइवंदणपुथ्वयं विहिणा।।४५।। अहवा समाहिहउं, सागारं चयइ तिविहमाहारं। तो पाणियं पि पच्छा, वोसिरियव्वं जहाकालं / / 46|| तो सो नमंतसिरसं, घडतकरकमलसेहरो विहिणा। खामेइ सव्वसंघ, संवेगं संजणेमाणो॥४७॥ आयरिएँ उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे य। जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि // 48|| सव्वे अवराहपए, खामेमि अहं खमेउ मे भयवं / अहमवि खामेमि सुद्धो, गुणसंघायस्स संघस्स||४६।। इद वंदणखामणगरि-हणेहिं भवसयसमज्जियं कम्मं / ज्वणेइ खणेण खयं, मिगावईराइपत्ति व्व / / 5 / / अह तस्स महव्वयसु-द्धियस्स जिणवयणभावियमइस्स। पञ्चक्खायाहार-स्स तिव्वसंवेगसुहयस्स।।५१|| आराहणलामाओ, कयत्थमप्पाणयं मुणंतस्स। कलुसकलतरणिलहिँ, अणुसद्धिं देइ गणिवसभो // 52 // कुग्गहपरूढमूलं, मूला उच्छिद वच्छ ! मिच्छत्तं / भावेसु परमततं, समत्तं सुत्तनीईए।।५३|| भत्तिं च कुणसु तिव्वं, गुणाणुराएण वीयरायाणं / तह पंचनमुक्कारे, पवयणसारे रई कुणसु / / 54|| सुविहियहियनिज्झाए, सज्झाए उज्जुओ सया होसु। निच्चं पंचमहव्वय-रक्खं कुण आयपचक्खं / / 5 / / उज्झसु नियाणसल्लं, मोहमल्लं सुकम्मनिस्सल्लं / दमसु अ मुणिंदसंदो-हनिदिए इंदियमइंदे // 56 // निव्वाणसुहावाए, विइन्ननिरयाइदारुणावाए। हणसु कसायपिसाए, विसयतिसाए सयसहाए।।५७।। काले अपहू संते, सामन्ने सावसेसिए इण्हि। Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपरिणा 1362 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपरिण्णा मोहमहारिउदारण-असिलट्टि सुणसु अणुसद्धिं / / 58|| संसारमूलबीयं, मिच्छत्तं सव्वहा विवजेह। संमत्ते दढचित्तो, होसु नमुक्कारकुसलो अ।।५६।। मियतण्हियाहिँ तोयं, मन्नंति नरा जहा सतण्हाए। सुक्खाइँ कुहम्माओ, तहेव मिच्छत्तमूठमणो / / 60 / / न वितं करेइ अग्गी, नेव चिसं नेव किण्हसप्पो वि। जं कुणइ महादोसं, तिव्वं जीयाण मिच्छत्तं / / 61 / / पावइ इहेव वसणं, तुरुमिणिदत्तु व्व दारुणं पुरिसो। मिच्छत्तमोहियमणो, साउपओसाउ पावाओ॥६२॥ मा कासि तं पमायं, संमत्ते सव्वदुक्खनासणए / जं सम्मत्तपइट्ठा-इँ नाणतवविरियचरणाई॥६३।। भावाणुरायपिम्मा-णुरायसुगुणणुरायरत्तो अ। धम्माणुरायरत्तो, अ होसु जिणसासणे निचं // 64|| दंसणभट्ठो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपब्मट्ठो। दसणमणुपत्तस्स उ, परियडणं नत्थि संसारे // 65 // दसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं / सिज्झंति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिझंति॥६६।। सुद्धे सम्मत्ते अवि-रओ वि, अजेइ तित्थयरनाम। जह आगमेसिभद्दा, हरिकुलपहुसेणियाऽऽईया।।६७।। कल्लाणपरंपरयं, लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता। सम्मईसणरयणं, नग्घइ ससुरासुरे लोए॥६८|| तेल्लुक्कस्स पहुत्तं, लभ्रूण वि परिवडंति कालेणं / सम्मत्ते पुण लद्धे, अक्खयसुक्खं लहइ मुक्खं // 66 / / अरिहंतसिद्धचेइय-पवयणआयरियसव्वसाहूसु। तिव्वं करेसु भत्तिं, तिगरणसुद्धेण भावेणं / / 70 / / एगा वि सा समत्था, जिणभत्ती दुग्गइं निवारेउ। दुलहाइँ, लहावेउँ, आसिद्धि परंपरसुहाई।।७१|| विजा वि भत्तिमंत-स्स सिद्धि मुवयाइ होइ फलया य। किं पुण निव्वुइविज्जा, सिज्झिहि अभत्तिमंतस्स // 72 / / तेसिं आराहणना-भगाण, न करिज जो नरो भत्तिं / धणियं पि उज्जमतो, सालिं सो ऊसरे ववइ / / 73|| वीएण विणा सस्सं, इच्छइ सो वासमब्भएण विणा। आराहणमिच्छंतो, आराहयभत्तिमकरंतो 174|| उत्तमकुलसंपत्तिं, सुहनिप्फत्तिं च फुणइ जिणभत्ती। मणियारसिट्ठिजीव-स्स दडुरस्सेव रायगिहे।७५|| आराहणापुरस्सर-मणन्नहियओ विसुद्ध लेसाओ। संसारक्खयकरणं, तं मा मुंची नमुक्कारं / / 76 / / अरिहंतनमुक्कारो, इक्को वि हविज्ज जो मरणकाले। सो जिणवरेहि दिट्ठो, संसारुच्छेयणसमत्थो / / 77|| मिंठो किलिट्ठकम्मो, नमो जिणाणं ति सुकयपणिहाणो। / कमलदलक्खो जक्खो, जाओ चोरु त्ति सूलिहिओ।।७८|| भावनमुक्काररविव-ज्जियाइँ जीवेण अकयकरणाई। गहियाणि य मुक्काणि य, अणंतसो दव्वलिंगाई // 76 / / आराहणापडागा-गहणे हत्थो भवे नमुक्करो। तह सुगइमग्गमणे, रहु व्व जीवस्स अपडिहओ||८०॥ अन्नाणी वि य गोवो, आराहित्ता मओ नमुक्क्कारं। चंपाए सिट्ठिसुओ, सुदंसणो विस्सुओ जाओ॥८१॥ विज्जा जहा पिसायं, सुटुवउत्ता करेह पुरिसवसं / नाणं हिययपिसायं, सुहवउत्तं तह करेइ / / 2 / / उवसमइ किण्हसप्पो, जह मंतेण विहिणा पउत्तेणं / तह हिययकिण्हसप्पो , सुद्धवउत्तेण नाणेण |83|| जह मक्कडओ खणमवि, मज्झत्थो अत्थिउंन सक्केइ। तह खणमवि मज्झत्थो, विसरहिँ विणा न होइ मणो ||4|| तम्हा उद्विउमाणो, मणमक्कडओ जिणोवएसेण। काउंसुत्तनिबद्धो, रामेयव्वो सुद्दज्झाणे / / 8 / / सूई जहा समुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिया वि। जीवो तहा ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे॥८६॥ संडसिलोगेहँ जवो, जइ ता मरणाउ रक्खिओ राया। पत्तो अ सुसामन्नं,किं पुण जिणवुत्तसुत्तेणं ?||87 / / अहवा चिलाइपुत्तो, पत्तो नाणं तहा सुरतं च। उवसमविवेगसंवर-पयसुमिरण मेत्तसुयनाणो ||| परिहर छज्जीववहं, सम्ममणवयणकाजोगेहिं। जीवविसेसं नाउं, जावजीवं पयत्तेणं / / 8 / जह ते न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं / सव्वायरमुवउत्तो, इत्तो धम्मेण कुणसु दयं / / 10 / / तुंगं न मंदराओ, आगासाओविसालयं नत्थि। जह तह जयस्मि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नत्थि / / 61|| सव्वे विय संबंधा; पत्ता जीवेण सव्वजीवेहिं। तो मारंतो जीवं, मारइ संबंधिणो सव्वे ||12|| जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ। ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं।।६३|| जावइयाइँ दुखाई, हुंति चउगइगयस्स जीवस्स। सव्याई ताइँ हिंसा-फलाई निउणं वियाणहि ||4|| जं किंचि सुहमुयारं, पुहुत्तणं पगइसुंदरं जं च / आरुग्गं सोहग्गं, तं तमहिंसाफलं सव्वं / / 65|| पाणो वि पाडिहेरं, पत्तो बूढो वि सुंमुमारदहे। एगेण वि एगदिण-जिएण हिंसावयगुणेणं / / 6 / / परिहर असच वयणं, सव्वं पिचउव्विहं पयत्तेण / संजमवंतो विजओ भासादोसेण लिप्पंति।।७।। हासेण व कोहेण व, लोहेण भएण वा वि तमसच्चं / Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपरिण्णा 1363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपरिण्णा णा भणसु भणसु सचं, जीवहियत्थं पसत्थमिणं / / 15 / / कयविप्पियं पई झ-निति निहणं हयासाओ॥११५|| विस्ससणिज्जो माया, व होइ पुज्जो गुरु व्व लोअस्स। रमणीयदंसणाओ, सुउमालंगीओं गुणनिबद्धाओ। सयणु व्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ IIEII नवमालइमालाओ, व हरंति हिययं महिलियाओ॥११॥ होउ व जडी सिहंडी, मुंडी वा वक्कली व नग्गो वा। किं तु महिलाण तासिं,दंसणसुंदरजणियमोहाणं / लोए असचवाई, भण्णइ पासंडचंडालो।।१०।। आलिंगणमइरा दे-इ वज्झमालाण व विणासं / / 120 / / अंलियं सणं पि भणियं, विहणइ बहुआई सचवयणाई। रमणीपादसणं चे-सुंदरं होउ संगमसुहेणं / पडिओ नरयम्मि वसू, इक्केण असचवयणेण / / 101 / / गंधो दिवय सुरहिमा-लईइ मलणं पुण विणासो॥१२१॥ या कुणसु धीर! बुद्धिं, अप्पं च बहुं च परधणं चित्तुं / साकेयपुराहिवई, देवरई रजसुक्खपन्भट्ठो। दंतंतरसोहण्यं, किलिंचमित्तं पि अविदिन्नं // 10 // पंगुलहेउं बूढो, बूढो य नईइ देवीए / / 122 / / जो पुण अत्थं अवहरइ, तस्स सो जीवियं पि अवहरइ। सोयसरी दुरियदरी, कवडकुडी महिलिया किलेसकारी। जं सो अत्थकएणं, उज्झइ जीयं न पुण अत्थं / / 103 / / वइरविरोयणअरणी, दुक्खखणी सुक्खपडिवक्खा॥१२३।। तो जीवदयापरम, धम्म गहिऊण गिण्ह माऽदिन्नं / अमुणियमाणपरिक्कमों, सम्म को नाम नासिउं तरइ ? जिणगणहरपडिसिद्ध,लोगविरुद्धं अहम्मं च / / 104 / / वम्महसरपसरोहे, दिद्विच्छोहे मयच्छीणं / / 124|| चोरो परलोगम्मि वि, नारयतिरिएसु लहइ दुक्खाई। घणमालाउ व दुरु-नमंतसुपओहराउ वडति। मणुयत्तणे विदीणो, दारिद्दोबद्दुओ होइ॥१०॥ मोहविसं महिलाओ, आलक्कविसं व पुरिसस्स / / 125|| चोरिक्कनिवित्तीए, सावयपुत्तो जहा सुहं लहइ। परिहरसु तओ तासिं, दिढेि दिट्ठीक्सिस्स व अहिस्स। किढिमोरपिच्छचित्तियं-गुट्ठी चोराण चलणेसु॥१०६।। जं रमणिनयणबाणा, चरित्तपाणे विणासंति॥१२६।। रक्खाहि बंभचेरं, बंमगुत्तीहिं नवहिं परिसुद्धं / महिलासंसग्गीए, अग्गी इव जंच अप्पसारस्स। निचं जिणीह कामं, दोसपकामं वियाणित्ता / / 107 / / मीणं व मणो मुणिणो, विहंत सिग्घं चिय विलाइ॥१२७।। जावइया किर दोसा, इह परलोए दुहावहा हुंति। जइ वि परिचत्तसंगो, तवतणुयंगो तहावि परिवडइ। आवहइ ते उ सव्वे, मेहुणसन्नामणुस्सस्स / / 108|| महिलासंसग्गीए, कोसाभवणूसिय व्व रिसी।।१२८|| रइअरइतरलजीहा-जुएण संकप्पउक्कडफणेण। सिंगारतरंगाए, विलास बेलाऐं जोव्वणजलाए। विसयविलवासिणा, मदमुहेण बिब्वोअरोसेण / / 106 / / के के जयम्मि पुरिसा, नारिनईएन वुड्डति / / 12 / / कामभुअगेण दट्ठा, लज्जानिम्मोयदप्पदाढेण / विसयजलमोहकलं, विलासबिब्बोयजलयराइण्णं / भासंति नरा अदसा, दुस्सहदुक्खावहविसेण // 110 / / मयमयरं उत्तिन्ना, तारुन्नामहण्णवं धीरा // 130 / / लल्लकनरयवियणा-उधोरसंसारसायरव्वहणं / अभिंतरबाहिरए, सव्वे संगे तुमं विवजेहि। संगच्छईन पिच्छइ, तुच्छत्तं कामियसुहस्स / / 111 // कयकारियऽणुमईहिं, कायमणोवायजोगेहिं // 131 / / बम्महसरसयविद्धो, गिद्धो वणिउव्व रायपत्तीए। संगनिमित्तं मारइ, भणइ अलीयं करेइ चोरिकं / पाउक्खालयगेहे, दुग्गंधेणेगसो वसिओ॥११२।। सेवइ मेहणमित्थं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो // 132 / / कामाऽऽसत्तो न मुणइ, गम्माऽगम्म पि वेसियाणु व्व। संगो महाभओ जं, विहेडिओ सावरण संभेणं / सिट्ठी कुवेरदत्तो, निययसुयासुरयरइरत्तो // 113 / / पुत्तेण हिते अत्थ-म्मिं मुणिवईकुंचिएण जहा / / 133 / / पडिपिल्लियकामकलिं, कामग्घत्थासु मुयसु अणुबंधं / सव्वग्गंथविमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तोय। महिलासु दोसविसव-ल्लरीसु पयई नियच्छंतो॥११४॥ जं पावइ मुत्तिसुहं,न चक्कवट्टी वितं लहइ॥१३४|| महिला कुलं सुवंसं, पई सुयं मायरं व पियरं वा। निस्सल्लस्सेह मह-व्वयाइँ अक्खंडनिटवणगुणाई। विसयंधा अगणंती, दुक्खसमुद्दम्मि पाडेइ।।११।। उवहम्मति य ताई, नियाणसल्लेण मुणिणो वि।।१३।। नीयंगमाहिँ सुपओ-हराहिं, उप्पिच्छमंथरग्गईहिं। अह रागदोसगभं, च मोहगडभं च तं भवे तिविहं। महिलाहिँ निन्नयाहिँ व,गिरिवरगुरुया व भुजंति।।११६।। धम्मत्थं हीणकुला-ई पत्थणं मोहगडभं तं / / 136 // सुद्ध वि जियासु सुट्ठ वि, पियासु सुटु वि परूढपिम्मासु। रागेण गंगदत्तो, दोसेणं विस्सभूइमाईया। महिलासु अभुअगीसु अ, विस्संभं नाम को कुणइ ? ||117 / / मोहेण चंडपिंगल-माईया हंति दिट्ठता ||137 / / विस्संभनिन्भरं पि हु, उवयारपरं परूढपिम्मं पि। अगणिय जो मोक्खसुह, कुणइ नियाणं असारसुहहेउं। Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपरिण्णा 1364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपाणपडियाइक्खिय सो कायमणिकएणं, वेरुलियमणिं पणासेइ॥१३॥ दुक्खखयं कम्मखयं, समाहिमरणं च बोहिलाभो य। एवं पत्थेयव्वं, न पत्थणिज्जं तओ अन्नं / / 136 // उज्झिय नियाणसल्लो, निसिभत्तनिवित्तसमिइगुत्तीहिं। पंचमहव्वयरक्खं, कयसिवसुक्खं पसाहेइ।।१४०।। इंदियविसयपसत्ता, पडंति संसारसायरे जीवा। पक्खि व्व छिन्नपक्खा, सुसीलगुणपेहुणविहूणा / / 141 / / न लहइ जहा लिहतो, सुहिल्लियं अट्ठियं रसं सुणओ। सोसइ तालुयरसियं, विलिहंतो मन्नए सोक्खं / / 142 / / महिलापसंगसेवी, न लहइ किंचि वि सुहं तहा पुरिमो। सो मण्णए वराओ, सयकायपरिस्सम सुक्खं // 143 / / सुट्ट विमग्गिजंतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो। इंदियविसएसु तहा, नत्थि सुहं सुद्ध विगविट्ठ / / 144|| सोएण पवसियपिया, चक्खूराएण माहुरो वणिओ। घाणेण रायपुत्तो, निहओ जीहाइ सोदाओ / / 145 / / फासिंदिएण दुट्ठो, नट्ठो सोमालियामहीपालो। एकिकेण वि निहया, किं पुण जे पंचसु पसत्ता / / 146 / / विसयाविक्खो निवडइ, निरविक्खो तरइ दुत्तरभवोहं / देवीदीवसमागय-* भाउअगा दुन्नि दिटुंता / / 147 / / छलिया अवयक्खंता, निरावयक्खा गया अविग्घेणं / तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण होयव्वं / / 148|| विसए अवयक्खंता,पडंति संसारसायरे घोरे। विसएसु निराविक्खा, तरंति संसारकंतारं / / 146 / / ता धीर धिइबलेणं, दुईते दमसु इंदियगइंदे / तेणुक्खपडिवक्खो, हराहि आराहणपडागं / / 150 / / कोहाईण विबाग, नाऊण य तेसि निग्गहेण गुणं / निग्गिण्ह तेण सुपुरिस ! कसायकलिणो पयत्तेण / / 15 / / जं अइतिक्खं दुक्खं, जं च सुहं उत्तिमं तिलोईए। तं जाण कसायाणं, वुड्डिक्खयहेउयं सव्वं // 152 / / कोहेण नंदमाई, निहया माणेण फरसरामाई। मायाए पंडरज्जा, लोहेणं लोहणंदाई ||153|| इयउवएसामयपा-णएण पल्हाइयम्मि चित्तम्मि। जाओ सुनिव्वुओ सो, पाऊण व पाणियं तिसिओ॥१५४|| इच्छामो अणुसहि, भंते! भवपंकतरणदढलडिं / जं जह उत्तं तं तह, करेमि विणयाऽणओ भणइ / / 155 / / जइ कह वि असुहकम्मो-दएण देहम्मि संभवे वियणा। अहवा तण्हाईया, परीसहा से उदीरिजा॥१५६|| निद्धं महुरं पल्हा-यणिज्ज हिययंगम अणलियं च / तो सेहावेयव्वो, सो खवओ पण्णवंतेण / / 157|| संभरसु सुयण ! जंतं, मज्झम्मि चउव्विहस्स संघस्स। छूढा महापइण्णा, अहयं आराहइस्सामि / / 15.8 / / अरहंतसिद्धकेवलि-पचक्खं सव्वसंघसक्खिस्स। पचक्खाणस्स कय-स्स मंजणं नाम को कुणइ ? ||156 / / भालुकीए करुणं, खतोतो धोरवेयणातो वि / आराहणं पडिवन्नो, झाणेण अवंतिसुकुमालो // 16 // मुग्गिल्लग्गिरिम्मि सुको-सलो वि सिद्धत्थदइयओ भवयं / वग्घीए खजंतो, पडिवन्नो उत्तम अटुं / / 161 // गोटे पाओवगओ, सुवंधुणा गोमए पलिवियम्मि। डज्झंतो चाणक्को, पडिवण्णो उत्तम अटुं / / 16 / / अवलंविऊण सत्तं, सुमं पिता धीर ! धीरयं कुणतु। भावेसु य नेगुण्णं, संसारमहासमुदस्स / / 163 / / जम्मजरामरणजलो, अणाइमं वसणसावयाइण्णो। जीवाण दुक्खहेऊ कह रुद्दो भवसमुद्दो // 164 / / धबोऽहं जेण मए, अणोरपारम्मि भवसमुद्दम्मि। भवसयसहस्सदुलह, लद्धं सद्धम्मजाणमिणं // 165 / / एयस्स पभावेणं, पालिज्जंतस्स सइपयत्तेणं / जम्मंतरे वि जीवा, पावंति व दुक्खदोगचं / / 166 / चिंतामणी अउव्वो, एयमउव्वो य कप्परुक्ख त्ति। एसो परमो मंतो, एयं परमामयं अत्थ / / 167 / / अह मणिमंदिरसुंदर-फुरंतजिणगुणनिरंजणुज्जोओ। पंचनमुक्कारसमे, पाणे पणओ विसजेइ॥१६८|| परिणामविसुद्धीए, सोहम्मे सुरवरी महिड्डीए। आराहिऊण जायइ, भत्तपरिण्णं जहण्णं सो॥१६६|| उक्कोसेण गिहत्थो, अचुयकप्पम्मि जायए अमरो। निव्वाणसुहं पावइ, साहू सव्वट्ठसिद्धिं वा / / 170|| इय जोईसरजिणवी-रभद्द भणियाणुसारिणीमिणमो। भत्तपरिणं धन्ना, पढ़ति भावंति सेवंति।।१७१।। सत्तरिसयं जिणाणं, वगाहाण समयक्खित्तपण्णत्तं। आराहतो विहिणा, सासयसोक्खं लहइ मोक्खं / / 172 / / इति श्री भत्तपरिन्ना सम्मत्ता। भत्तपाणपडियाइक्खिय पु० (भक्तपानप्रत्याख्यात) भक्तं च पानं च भक्तपाने प्रत्याख्यायेते येन स तथा। क्तान्तस्य परनिपातः, सुखाऽऽदिदर्शनात्। भक्तप्रत्याख्यानवति, व्य०१ उ० भ०।०। अनशनिनि, कल्प०३ अधि०२क्षण। भत्तपाणपडियाइक्खियं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे नाइकमइ॥१२॥ अस्य संबन्धमाहपच्छित्तं इत्तरिओ, होइ तवो वण्णिओ य जो एस। आवकथितो पुण तवो, होति परिण्णा अणसणं तु // 204|| प्रायश्चितरूपं यदेतत् तपोऽनन्तरसूत्रो वर्णितमेतत्तप इत्वरू * ''भाउअजुयलं च भणियं च" इति पाठान्तरम्। Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्तपाणपडियाऽक्खिय 1365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्ति भवति, यत्पुनः परिज्ञारूपं तपोऽनशनं तत् यावत्कथिकम् / तत इत्वरतपः प्रतिपादनान्तरं यावत्कथिकतपः प्रतिपादनार्थमधिकृतसूत्रम्। अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य (12 सूत्रस्य) व्याख्या प्राग्वत्, नवरं भक्तपाने प्रत्याख्यायेते, यया सा तथोक्ता, तान्तस्य परनिपातः सुखाऽऽदिदर्शनात्। अत्र भाष्यम्अटुं वा हेउं वा, समीणं विरहिते कहेमाणे। मुच्छाएऽतिपडिजा, कप्पति गहणं परिणाए / / 205 / / श्रमणीनामन्यासां साध्वीना विरहिते अशिवाऽऽदिभिः कारणैरभावे एकाकिन्या आर्यिकाया भक्तपानप्रत्याख्याताया अर्थ वा हेतुं वा कथयतो निर्ग्रन्थस्य यदि सा मूर्छयाऽतिपतेत्ततो मूर्छाऽतिपतितायास्तस्याः (परिणाए त्ति) परिज्ञायामनशने सति कल्पते ग्रहणम्, उपलक्षणत्वादवलम्बनं वा कर्तुम्। इदमेव व्याचष्टेगीतत्थीणं असती, सव्वाऽसतिए व कारणे परिण्णा। पाणगभत्तसमाही, कहणा आलोचधीरवरणं / / 206 / / गीतार्थानामार्यिकाणामसत्यभावे, यदि वा-अशिवाऽऽदेः कारणतः सर्वासामपि साध्वीनामभावे, एकाकिन्या जाताया परिज्ञाभक्तप्रत्याख्यानं कृतम्। ततस्तस्याः कृतभक्तपानप्रत्ख्यानायाः सीदन्त्या योग्यपानकप्रदानेन चरमेप्सितभक्लप्रदानेन च समाधिरुत्पादनीयः कथनीयम् यथाशक्ति स्वशरीरमनाबाधया कर्त्तव्यम् / तथा आलोचम्• आलोचनां साहापियत्वा धिक् कथमपि चिरजीवतेन भयमुत्पद्यते, यथा नाद्यापि म्रियते, किमपि भविष्यतीति न जानीम इति तस्या धीरापना कर्तव्या। जति वा ण णिव्वहेजा, असमाही वा वि तम्मि गच्छम्मि। करणिज्जं अणत्थ वि, ववहारो पच्छ सुद्धो वा // 207 / / यदि वा-प्रबलबुभुक्षावेदनीयोदयतया कृतभक्तपानप्रत्याख्याना सा निर्वहेत यावत्कथिकमनशन प्रतिपालयितुं क्षमा इति यावत् असमाधिर्वा तस्मिन् गच्छे तस्या वर्तते ततोऽन्यत्र नीत्वा यद्धचितं तत्तस्याः करणीयमित्यर्थ-यावदनशनपत्याख्यानभइविषयास्तस्या व्यवहारः-प्रायश्चित दातव्यम्। अथ स्वगच्छाऽसमाधिमाशेणान्यत्रा गता ततः सा मिथ्यादुष्कृतप्रदान मात्रेण शुद्धेति। बृ०६ उ०। व्य०। प्रव०। भत्तपाणपत्थयण न० (भक्तपानपथ्यदन) भक्तपानरूपं यत्पथ्यदनं, तत्तथा / भक्तपानरूपे शबले, भ०१५ श०। भत्तपाणविउस्सग्गपुं० (भक्तपानव्युत्सर्ग) द्रव्यव्युत्सर्गभेदे, औ०। भत्तपाणवोच्छेय पुं० (भक्तपानव्यवच्छेद) भक्तमशन-मोदनादि, पानं पेयमुदकाऽऽदि, तयोर्व्यवच्छेदो निषेधोऽप्रदानं भक्तपानव्यवच्छेदः / अन्नपानाप्रदाने तदात्मके स्थूलप्राणातिपातविरमणस्य प्रथमाऽणुव्रतस्य प्रथमेऽतिचारे, उपा०१ अ०। श्रा०। पञ्चा०11०। आव०। भक्तपानव्यवच्छेदोन कस्याऽपि कर्त्तव्यः, तीक्ष्णबुभुक्षोह्येवं सत मियते, स्वभोजनवेलायां तुज्वरिताऽऽदीन् विना नियमत एवान्यान् विधृतान् भोजयित्वा स्वयं भुञ्जीत, भक्तपाननिषेधोऽपि सार्थकानर्थकभेदभिन्नो बन्धवत् द्रष्टव्यः / नवरं सापेक्षो रोगचिकित्सार्थं स्यात् अपराधकारिणि च वाचैव वदेदद्य ते भोजना ऽऽदि कारयेत्। ध०२ अधि०। भत्तपाणसंकिलेस पु० (भक्तपानसंक्लेश) भक्तपानाऽऽश्रितः। संक्लेशो भक्तपानसंक्लेशः। संक्लेशभेदे, स्था० 10 ठा० / भत्तव्वभरण न० (भर्तव्यभरण) भर्त्तव्याना भर्तु योग्याना मातृपितृगृहिण्यपत्यसमाश्रितस्वजनलोकतथाविधभृत्यप्रभृतीनां भरणं पोषणम् / भर्त्तव्यानां मातृपित्रादीनां पोषणे, तत्रा त्रीण्य वश्यं भर्त्तव्यानि, मातापितरौ, सती भार्या, अलब्धबलानि चापत्यानि। यत उत्कम् - "वृद्धौ च मातपितरौ, सती भार्या सुतान् शिशून्। अप्यकर्मशतं कृत्वा भर्त्तव्या मनुखवीत्॥१॥"ध०१ अधि०। भत्तवेयण न० (भक्तवेतन) भक्तं भोजनलक्षणं वेतनं मूल्यं भक्तवेतनम्। भोजनलक्षणे मूल्ये, उपा०७ अ०। भत्ता पु० (भर्तृ) पोषणकर्त्तरि, "पई भत्ता।'' पाइ० ना० 253 गाथा / भत्ति स्त्री० (भक्ति) भज क्तिन्। सेवायाम्, भक्तिर्विनयः सेवेति / षो०६ विव० / भक्तिरभिमुखगमनाऽऽसनप्रदानपर्युपास्त्य अलिबन्धानुव्रजनाऽदिलक्षणेति। प्रव० 148 द्वार।" अब्भुट्ठाणदंडग्गहणपायपुंछणासणप्पदाणगहणादीहिं सेवा जा सा भत्ती भवइ / " नि० चू०१ उ०। आराधनायाम, वाच०। उचितप्रतिपत्त्या विनयकरणे, आ०म०१ अ०। विनयवथावृत्यादिरूपा प्रतिपत्तिभक्तिरिति। ध०२ अधि०। यथोचितबाह्या प्रतिपत्तौ, आ० म०१ अ०। ग०11०। भक्तिरुचितोपचार इति। दश० 6 अ० 1 उ० / अभ्युत्थानाऽऽदिरूपे बहुमाने, उत्त० पाई० 1 अ०। सूत्र०। "भत्ती आयरकरणं, जहोचियं जिणवरि-दसाहूणं / " संथा। अनुरागे, ध०१ अधि०। अन्तः-करणा-ऽऽदिप्रणिधाने, आव० 2 अ० / दर्श०। भक्तैस्वैविध्य विचारामृतसंग्रहे"सात्विकी राजसी भक्ति-स्तामसीति त्रिधाऽथवा। जन्तोस्तत्तदभिप्राय-विशेषादर्हतो भवेत् / / 1 / / अर्हत्सम्यग्गुणश्रेणि–परिज्ञानैकपूर्वकम्। अमुञ्चता मनोरङ्ग-मुपसर्गे ऽपि भूयसि // 2 // अर्हत्सम्बन्धिकार्यार्थ, सर्वस्वमपि दित्सुना। भव्याङ्गिना महोत्साहात्, क्रियते या निरन्तरम् / / 3 / / भक्तिः शक्त्यनुसारेण, निःस्पृहाऽऽशयवृत्तिना। सा सात्विकी भवेद्भक्ति-लोकद्वयफलावहा // 4 // " त्रिभिर्विशेषकम् - यदैहिकफलप्राप्ति हेतवे कृतनिश्चया। लोकरञ्जनवृत्त्यर्थ, राजसी भक्तिराच्यते // 5 // द्विषदां यत्प्रतीकार-भिदे या कृतमत्सरम्। दृढाशयं विधीयेत-सा भक्तिस्तामसी भवेत्।।६।। रजस्तमोमयी भक्तिः, सुप्रापा सर्वदेहिनाम्। दुर्लभा सात्त्विकी भक्तिः, शिवावधिसुखावहा / / 7 / / उत्तमा सात्विकी भक्ति-मध्यमा राजसी पुनः। जघन्या तामसी ज्ञेया, नाऽऽदृता तत्ववेदिभिः।। ध०२ अधि०॥ Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भत्ति 1366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भद्द भत्तीइ जिणवराणं, खिजंती पुव्वसंचिआ कम्मा। भत्तोसन० (भक्तोष) भक्तं च तद् भोजनमोषं च तदाम्लं भक्तोषम्। रूढितः आयरिअनमुक्कारेण विज्ज मंताय सिज्झंति / / 1067 / / परिभृष्टचणकगोधूमाऽऽदिके, पञ्चा०५ विव० / सुखाऽऽदिकायां च / 'भक्त्या अन्तःकरणप्रणिधानलक्षणया 'जिनवराणां तीर्थकराणा भक्तोष सुखभिक्षकां भक्षयतीति। अयं च जिनगृहान्तर्भव आशातनाभेद सम्बन्धिन्या हेतुभूतया, किं ? 'क्षीयन्ते' क्षयं प्रतिपद्यन्ते 'पूर्वसञ्चि इति। ध० 2 अधि०। तानि' अनेकभवोपात्तानि 'कर्माणि ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदीनि इत्थं | भत्थ न० (भस्त्र) शरीरे, आव०५ अ०! स्वभावत्वादेव तद्भक्ते रिति / अस्मिन्नेवार्थ दृष्टान्तमाह / तथाहि- | भदत्त पुं० (भदत्त) स्वनामख्याते योगिभेदे, भगवत्पतञ्जलिभदत्तभाआचार्यनमस्कारेण विद्या मन्त्राश्च सिद्ध्यन्ति, तद्भत्किमतः सत्त्वस्य स्कराऽऽदीनां योगिनाम्। द्वा०२० द्वा०। शुभपरिणामत्वात्त सिद्धिप्रतिबन्धककर्मक्षयादिति भावनीयम् / इति भद्दन० (भद्र) भदि-रक् नलोपः। "द्रे रो न वा" ||चा।८०|| इति गाथाऽर्थः / / 1067 // प्राकृतसूत्रोण रस्य वा लुक् / प्रा०२ पाद / कल्याणे, नं० / दशा० / अतः साध्वी तद्भक्तिः वस्तुतोऽभिलषितार्थप्रसाधकत्वाद्, आमलके, दे० ना०६ वर्ग 100 गाथा। कल्याणे, "भदं सिवं।" पाइ० आरोग्यबोधिलाभाऽऽदेरपि तन्निर्वय॑त्वात् / ना० 236 गाथा। सुखे, विशे०। 'भदि' कल्याणे चेति वचनात्। विशे० / तथा चाऽऽह मोक्षप्राप्ती, स्था० 10 ठा०।"भई सव्वजगुजोय गस्स भई जिणरस भत्तीइ जिणवराणं, परमाए खीणपिज्जदोसाणं। वीरस्स। भदं सुरासुरनमंसियस्स भदंधुयरयस्स ॥३॥"नं० / ति० / आरुग्गबोहिलाभं, समाहिमरणं च पावंति॥१०६८|| मङ्गले, मुस्तके, स्वर्णे , वाच० / “स्वनामख्याते विमाने, स०१६ भक्तया जिनवराणां किंविशिष्टया? 'परमया' प्रधानया भाव -भक्त सम० / मूठ इति प्रसिद्ध शरासननामके मङ्गलवस्तुनि, ज्ञा०१ श्रु०१ येत्यर्थः। क्षीणप्रेमद्वेषणां जिनाना, किम् ? आरोग्यबोधिलाभं समाधि अ० / औ०।"अट्ठ भद्दाई।" भ०११ श०११ उ०। भद्रासने च। आ० मरणं च प्राप्नुवन्ति, प्राणिन इति। इयमत्रा भावनाजिनभक्त्या कर्मक्षयः, म०१ अ०। स्वनामख्याते तृतीय बलदेवे, स०। आव०। भारते वर्षे ततः सकलकल्याणावाप्तिरिति। अत्रा समाधिमरणं च प्राप्नवन्तीत्येत आगामिन्यामुत्सर्पिण्या भवे स्वनामख्याते भविष्यति बलदेवे, स०। -दारोग्यबोधिलाभस्य हेतुत्वेन द्रष्टवयं, समाधिमरणप्राप्तौ नियमत एव ति०। वाराणसीनगरस्थाऽऽम्रशालवनचैत्यस्थेस्वनामख्याते सार्थवाहे, तत्प्राप्तिः। इति गाथाऽर्थः // 1068|| आव० 2 अ० / तदेकाग्रचित्त (तद्वक्तव्यता 'बहुपुत्तिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1266 पृष्ठे गता) वृत्तिभेदे, विभागे, गौण्या, विशे० / च० प्र०। ज्ञा०रा०। औ०। आ० निरयावलिकोपाङ्गद्वितीयवर्गस्य कल्पावतंसकानां दशानामध्यनाना म० / जी० भ० / सू० प्र० / प्रकारे, "णिप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं / ' तृतीयाध्ययनप्रतिबद्धवक्तव्यताके स्वनामख्याः ते राजदारके, तद्वक्तस्था००६ ठा० / रचनायां च / कल्प०१ अधि० 3 क्षण। वाच०। व्यताप्रतिबद्ध तृतीयेऽध्ययनेच। तद्वक्तव्यता महापद्मवत्। नि०१ श्रु०३ भत्ति (न) नि० (भक्तिन) भक्त भोजनमस्यास्ति। भोजनवति, स्था०३ वर्ग०१ अ०। (साच'महापउम' शब्दे) मानुषोत्तरपर्वतस्थेस्वनामख्याते ठा०३ ठा०॥ नागसुवर्णे द्वी०। तुरिमिणीपुरस्थेस्वनामख्याते द्विजे, आ० के०१ अ० / (तत्कथा 'सम्मावाय' शब्देवक्ष्यते) भघिलपुरस्थेस्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, भत्तिअणुट्ठाण न० (भक्तयनुष्ठान) "गौरवविशेषयोगाद, बुद्धिमतो ध०र०। (भद्रश्रेष्ठि कथा-'उजुववहार' शब्दे द्वितीयभागे७४० पृष्ठे गता।) यद्विशुद्धतरयोगम् / कृपयेतरतुल्यमपि, ज्ञेयं तद् भक्तत्यनुष्ठानम् / कस्मिश्चिन्नगरस्थिते स्वनामख्याते श्रेष्ठिपुत्रो, त०। स्वनामख्याते ॥४॥'इत्युक्तलक्षणे अनुष्ठानभेदे, षो० 10 विव० / पञ्चा० / अष्ट० / ग्रैवेयकविमानप्रस्तटाना प्रथमे प्रस्तटे, स्था०६ ठा० / पञ्चशतसाधुभत्तिचित्त त्रि० (भक्तिचित्रा) भक्तयो विच्छित्तिविशेषाः, ताभिश्चित्रो परिवृते स्वनामख्याते आचार्ये, "इहेव भारहे वासे भद्दा नाम भक्तिचित्रः। विच्छित्तिभिरनेकरूपवति, आश्चर्य वति च। सू०प्र०१८ आयरिआ।" महा०६ अ० / कालिकाऽऽचार्य स्य शिष्ये स्वनामख्याते पाहु० / चं० प्र० / ज्ञा० / रा० / स० जी०। भ०। गौतमगोत्रोत्पन्ने आचार्ये, “गोयमगुत्तकुमारं, संपलियं तह य भद्दयं भत्तिचेइय न० (भक्तिवैत्य) भक्तया क्रियामाणे जिनायाऽऽतने, जीत०। वंदे।" कल्प०२अधि० 8 क्षण। आचार्याशिवभूतेः शिष्ये काश्यपगोत्रोनित्यपूजार्थ गृहे कारिताऽर्हत्प्रतिमा चैत्यमिति। ध०२ अधि०। त्पन्ने स्वनामख्याते आचार्ये, “थेरस्सणं अजसिवभूइस्स कुच्छसगोत्तभत्तिणय लि० (भक्तिनत) बहुमाननने, पञ्चा०६ विव०। स्स अजभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते / कल्प०२ अधि०८ क्षण। "भई भत्तिमंत त्रि० (भक्तिमत) बहुमानवति, ''अविरहियं भत्तिमतेहिं / ' वंदामिकासवंगुत्त। कल्प० २अधि० 8 क्षण। श्रावस्तीवास्तव्ये जितशत्रुपञ्चा०६ विव०। स्था०। प्रा०॥ नृपतेः पुत्रो स्वनामख्याते राजकुमारे, उत्त०पाई०२ अ०। (तद्वक्तव्यता भत्तिराग पुं० (भक्तिराग) भक्तिपूर्वक ऽनुरागे, अप्पेगझ्या जिणभत्तिरागेण।' 'तणफासपरीसह' शब्दे चतुर्थभागे 2177 पृष्ठगता) धीरत्वाऽऽदिगुणयुक्ते रा०। हस्तिविशेषे, स्था० 4 ठा०२ उ०। (भद्रलक्षणम् ‘पुरिसजाय' शब्देऽ) Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्द 1367 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भवणंदि (ण) स्मिन्नेव भागे 1020-1021 पृष्ठे गतम्) धीरत्वाऽऽदिगुणयुक्त पुरुषभेदे, स्था० 4 ठा०२ उ० / महादेवे, वृषे, स्वञ्जशने, कदम्बे, बलदेवे, रामचन्द्रे, सुमेराशैले, स्नुहीवृक्षे च। पुं०॥वाच० प्रज्ञा०१७पद 4 उ०। भाति शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितुश्चित्तनिवृत्तिमिति भद्रः। उत्त० पाई०१ अ०। भाति भन्दते वा भद्रः / कल्याणाऽऽवहे, उत्त० पाई०१ अ०। कल्याणकारिणि ज्ञा०१ श्रु०१ अ० ! कल्याणयुक्ते, आ० क०१ अ०। प्रशस्ते, स्था० 4 ठा०२ उ०। जी०। अनुत्कट रागद्वेष, व्य०१ उ०। सुशिक्षिते, "हयं भदं च वाहये।" उत्त०१ अ०। सुन्दरे, पं०भा० 1 कल्प : साधौ, श्रेष्ठे च / त्रि० / वाच०। * भाद्र पुं० भद्राभिर्युक्ता पौणमासी भाद्री, सा यस्मिन् मासे स भाद्रः। अण। चैत्राऽऽदितः षष्ठे चान्द्रेमासे, वाच०।। भद्दग त्रि० (भद्रक) भद्र कन्। सरले, कल्प०१ अधि०५ क्षण। विनीते, विशे०। मनोज्ञे, ज्ञा०१ श्रु०१५ अ०।मनोऽनुकूलवृत्तिके, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। परानुपतापिनि, स्था०५ ठा०४ उ० ज०। औ०। निरुपमकल्याणमूर्तिक, "प्रकृत्या भद्रकः शान्तः।" द्वा०२१ द्वा० / दश०। कल्याणभागिनि, जं० 2 वक्ष० / शोभनमनुष्यभवसम्पदुपेते सद्धर्मप्रतिपत्तरि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०1श्रावकभेदे, "अभूदपारे कान्तारे, म्लेच्छ एको हि भद्रकः।" आ० क०१अ०।"भद्दगसद्धेय अवियत्ते।" भद्रकः श्राद्धकः प्रसिद्धः / ओघ० | "भगवयणे गमण / " "इम भद्दगवयण जंतुम्हे संदिसह तंभे सव्वं पडिपावेस्सति।" नि० चू०१६ / उ०। कालिकाऽचार्यस्य शिष्ये स्वनामख्यातेगौतमगोत्रोत्पत्रे आचार्य, 'गोयमगुत्तकुमारं, संपलिय तह भद्दयं वंदे।' कल्प०२ अधि०. क्षण / मुस्ते, नं०। देवदारुणि, पुं० / वाच० / भाति-शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितुश्चित्तनिवृत्ति मिति भद्रः स एव भद्रकः। अश्वभेदे, उत्त० पाई० 1 अ०। भद्दगुत्त पुं० (भद्रगुप्त) उज्जयिनीनगरस्थे स्वनामख्याते आचार्य , आ० म०१ अ०। आ० चू० / "वृद्धावासे सन्त्यवन्त्या श्रीभद्रगुप्तसूरयः / ' आ० क० 1 अ०। 'भद्दगुत्ता तु नामेणं, सूरिणो जगउत्तमा। ठिया उ थेरवासेणं, जघा बलविवज्जिया॥१॥" दर्श०५ तव्व / ब्रह्मद्वीपिकायां शाखायां भवे युगप्रधाने दशपूर्विणि स्वनामख्याते आचार्य च। कल्प०२ अधि० 8 क्षण! "वंदामि अजधम्म, तत्तो वंद ये भद्दगुत्तं चानं०।। भद्दगुत्तिय न० (भद्रगुप्तिक) भद्रयशसः स्थविरान्निर्गतस्योरुपाटिक गणस्य स्वनामख्याते कुलभेदे, कल्प० 2 अधि० 8 क्षण। भद्दजस पुं०(भद्रयशस्) पार्श्वजिनस्य स्वनामख्याते गणधरे, स्था०८ ठा०। आर्यसुहस्तिनः शिष्ये भारद्वाजगोत्रोत्पन्ने स्वनामख्याते आचार्य, कल्प०२ अधि०८ क्षण। भद्दजसिय न० (भद्रयशस्क) भद्रयशसः स्थावरान्निर्गतस्योरुपाटिक गणस्य स्वनामख्याते कुलभेदे, कल्प०२ अधि० 8 क्षण। भद्दजिणपु० (भद्रजिन) भारतवर्षभाविनि भद्रकृतापरनामधेये स्वनाम ख्याते जिने, प्रव०७ द्वार। भद्दणंदि(ण) पुं० (भद्रनन्दिन्) अभयपुरस्थस्य धनावहस्य नृपस्य सुते स्वनामख्याते कुमारे, ध०२०। भद्रनन्दिकुमारकथा चैवम् "इह सुरयणसोहिल्लं, करिवयणसम समत्थि उसभपुरं। ईसाणदिसाइ तहिं, थूभकरंडं ति उज्जाणं // 1 // सम्वोउगतरुनियरे, तत्थाऽऽसी पुत्रनामजक्खस्स। संनिहियपाडिहर-स्स चेइयं बहुयजणमहियं / / 2 / / तं नयरं परिपालइ, मालइकुसुमं व मालिओ अहियं / लयकरो पवरगुणो, धणावहो नाम नरनाहो // 3 // सहसंतेउरसारा, अक्खलियविसालसील पत्भारा। तरसाऽसि महुरसुंदर-सरस्सई सरसई भजा।।४।। सा निसि कयाइवयणे, हरि विसंतं निएवि पडिबुद्धा। नरवइसमीवमुवग--म्म सम्ममक्खेइतं समिण।।५।। रज्जधरो तुह पुत्तो, होही भणिए निवेण सा एवं। होउ त्ति भणिय रइभव-णमुवगया गमइ निसिसेस / / 6 / / गोसे तोसपरक्सो, राया ण्हाओ अलंकियसरीरो। सीहासणमासीणो, सद्दावइ सुमिणसत्थविऊ॥७॥ ते वि तओ लहु बहाया, कयकोउयमंगला समागम्म। वद्धावित्तु जएणं, विजएण निवं सुहनिसन्ना / / 8|| भद्दासणम्मि पवरे, देवि ठावित्तु जवणियंतरिय / राया पुप्फफलकरो, तं सुमिणं अक्खए तेसिं|६|| सत्थाइँ वियारेउ, निवपुरओ ते कहंति जह सत्थे। वायालीस सुमिणा, तीसं वुत्ता महासुमिणा // 10 // चउदस गयाइसुमिणे, नियंति जिणचक्किमायरो तेसिं। कमसो सगचउइच्छ, हरिबलमंडलियजणणीओ।।११।। देवीए जं दिट्ठो, सुमिणे पंचाणणो तओ पुत्तो। समयम्मि रजसामी, राया होही मुणी अहवा / / 12 / / उवलद्धविउलपीई-दाणातो ते गया सगेहेसु। देवी पसत्थसंपु-नदोहला वहइ तंगभं // 13 // समए पसवइ पुत्त, कतिल्लं दिनमणि व्व पुव्वदिसा। बद्धावणयं राया, कारावइ गुरुविभूईए।।१४।। भद्दकरो नदिकरो, ति से कयं नाम भद्दनंदि त्ति। पणधाईसंगहिओ, वड्डइ गिरिगयतरु व्व कमा॥१५॥ सो समए सयलकला-कुसलो अणुकूलपरियणो धणियं। पत्तो तारुन्नमणु नपुन्नलायन्ननीरनिहिं // 16|| पासायसए पंच उ, कारिय परिणाविओ इमो पिउणा। सिरिदेवीपमुहाओ, पंचसयनरिंदधूयाओ।।१७।। ताहि समं सो विसए, विसायविसवेगविरहिओ संतो। भुंजइ देवो दोगुं-दगुदेव देवालए दिव्ये॥१८॥ थूभकरंडुजाणे, तत्थऽन्नदिणे समोसढो वीरो। बद्धाविओ नरिंदो, पउत्तिपुरिसेण लहु गंतु / / 16 / / सङ्घदुवालसलक्खे, पीईदाणं दलितु तस्स निवो। वीर वंदिउकामो, निग्गच्छइ कूणिय व्य तओ॥२०|| कुमरो वि भद्दनंदी, नंदीजुयधम्मसीलपरिवारो। पवर रहमारूढो, पत्तो सिरिवीरनमणत्थं // 21 // कुमरस्स पीइवसओ, राईसरतलवराइपुत्ता वि। वीरजिणवंदणत्थं चलिया कलिया परियणेणं // 22 // नमिय जिण ते ते सव्वे, सुणति धम्म कहेइ सामी वि।। Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दणंदि(ण) 1368 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भद्दणंदि(ण) जह वज्झति जिया इह, कम्मेहिँ जहा व मुचंति // 23 // इय सो उ भद्दनंदी, नंदियहियओ गहित्तु जिणपासे। सम्मत्तमूलमणह, गिहिधम्म सगिहमणुपत्तो / / 24 / / अह पुच्छइ सिरिगोयम-सामी सामियदुहं महावीर। पहु! एस भद्दनंदी, कुमरो अमरो इव सुरूवो।।२५।। सोमुव्व सोममुत्ती, सोहग्गनिही य सयलजणइट्ठो। साहूर्ण पि विसेसे- सम्मओ केण कम्मेण ? // 26 / / जंपइ जिणो विदेहे, आसी पुंडरीगिणीई नयरीए। विजओ नाम कुमारो, सणंकुमारो इव सुरूवो // 27 // सो कइआ वि सभवणे, भवणगुरु गुरुगुणोहकयसोह। जुगबाहुं जिणनाह, भिक्खाइ कए नियइ इतं // 28 // तो झति चत्तचित्ता-ऽऽसणो गओ संमुहं सगट्ठपए। तिपयाहिणं करित्ता, वंदइ तं भूमिमिलियसिरो॥२६॥ भणड य सामिय! आह-रगहणओ मह करेसु सुपसायं। दव्वाइसु उवउत्तो, जिणो वि पाणी पसारेइ।।३०।। अह सो विजयकुमारो, हरिसभरुभिन्नबहुलरोमंचो। विप्फारियनयणजुओ, वियसंतपसंतमुहकमलो।।३१।। आहारेण वरेण, पडिलाभइ परमभत्तिसंजुत्तो। कयकिचं अप्याणं, मन्नंतो मणवइतणूहि // 32 // चित्तं वित्तं पत्तं, तिन्नि वि एयाइँ लहिंय दुलहाई। पडिलाभंतेण तया, समल्जिय तेण फलमेय।।३३।। पुन्नाणुबंधि पुनं, उत्तमभोगा य सुलहबोहित्तं / मणुयाउयं च बद्धं, कओ परित्तो य संसारो॥३४॥ अन्नं च तहिं तइया, पाउब्भूयाइँ पंच दिव्वाई। पहयाउ ढुंदूहीओ, चेलुक्खेवा सुरेहिँ कओ॥३५।। मुक्का हिरन्नबुट्टी, वुट्टी कुसुमाण पंचवन्नाणं / गयणंऽगयम्मि घुटुं, अहो सुदाणं सुदाणं ति॥३६।। रायप्पमुहो लोओ, मिलिओ बहआ य तत्थ तेणावि। सो विजओ विजियमणो, पसंसिओ हरिसियमणेण / / 37 // भूतूण बहु कालं, विजओ भोए समाहिणा मरिगं लोयपियाइगणजओ.जाओ सो भइनदि ति॥३८|| पुच्छइ मुर्णिदभूई, किं एसो गिव्हिही समणधम्मं? भणइ जिणो गिहिस्सई, सनयम्मि समाहिओ सम्म / / 3 / / विहरइ अन्नत्थ पह, कुमरो विह कुणइ सावयं धम्म। अणुकूलविणीयसुध-म्मसीलपरिवारपरियरिओ // 40|| अह अन्नया कयाई, अट्ठमिमाईसु पव्वदियहेसु। गंतुं पोसहसालं, पासवणुचारभूमीओ।।४१।। पडिलेहिउंपमज्जिय, रइउं संथारयं च दहभस्स। तम्मि दुरूढो अट्ठम, भत्तजुयं पोसह कुणइ॥४२॥ कुमरो जिणपयभत्तो, अट्टमभत्तम्मि परिणमंतम्मि। पुव्वावरत्तकाले, चिंतिउमेवं समाढत्तो / / 43 / / धन्ना ते गामपुरा, धन्ना ते खेडकब्बडमडंबा। मिच्छत्ततिभिरसूरो, वीरजिणो विहरए जत्थ // 44 // ने चिय धन्नसुपन्ना, रायाणो रायपुत्तमाईया। वीरजिणदेसणं निसु-णिऊण गिण्हंति जे चरणं / / 45 / / इत्थं पिजइ समिजा, वीरो तेल्लुक्कबंधवो अन्न। तोऽहं तप्पयमूले, गिहिस्सं संजमं रम्म॥४६।। तस्सऽभत्थं नाउं.गोसे वीरो सभोसढो तत्थ। तो भद्दनंदिसहिओ, पहुनमणत्थं निवो पत्तो!|४७|| नमिय जिणं उवविट्टा, उचियट्ठाणे नरिंदकुमरवरा। तो नवजलहरगज्जिय-गहिरसरो भणइ इय सामी॥४८॥ भव्वा! भवारहट्टे,कम्मजलं गहिय अविरइघडीहिं। चउगइदुहविसवल्लि, मा सिंचइ जीवमंडवए।।४६।। तं सुणिय निवो पत्तो, सगिहे कुमरो उ जंपए एवं। पव्वजं गिहिस्सं, पियरो पुच्छिय परं सामि! 50 / / मा पडिबंधं कुणसु, ति सामिणा सो पयंपिओ तत्तो। पत्तो पिऊण पासे, नमिऊण कयंजली भणइ॥५१॥ वीरसगासे रम्मो, धम्मो अज्जंब! ताय! निसुआ मे। सद्दहिया, पत्तिओरो-इओय सो इच्छिओ यमए।।५।। ते वि अणुकूलहियया, भणंतितं वच्छ! धन्नकयपुन्नो। एवंदचं तचं पि, जंपिए जंपए कुमरो॥५३॥ तुब्भेहिं अणुनाओ, पव्वज संपर्य पवज्जिस्सं। सोउं एयमणिहूँ, वयणं देवी गया मुच्छ।।५४|| पउणीकया य कलुणं, विलवंती भणइ दीणवयणमिणं। जाय! तुमं मह जाओ, बहुओवाइयसहस्सेहिं॥५५।। ता कह ममं अणाहं, पुत्तय! मुत्तुं गहेसि सामन्नं। सोयभरभरियहियया-इवचिही मज्झ जीयं पि॥५६॥ ता अत्थह जायऽम्हे, जीवामो तो पउट्टसंताणे। पच्छा कालगएहिं, अम्हेहिं तुम गहिज वयं // 57 / / कुमार:बसणसयसमभिभूए, विजुलयाचंचले सुमिणसरिसे। मणुयाण जीविए मर-मगआ पत्थओ वा वि / / 58 / / को जाणइ कस्स कह,होही बोही सुदुल्लहो एस? ता धरिय धीरिमाए, अंब! तएऽहं विमुत्तव्यो / / 56 / / पितरौजाया! तुह अंग मिणं, निरुवमलवणिमसुरुवसोहिल्लं। तस्सिरिमणुहविऊणं, बूढवओ तयणु पव्वयसु॥६०।। कुमार :विविहाऽऽहिवाहिगेहं, गेहं पिप जञ्जर इमं देह / निवडणधम्मवमस्सं, इण्हिं पिहु पव्वयामि तओ॥६१।। पितरौ :सुकुलुग्गयाउलाय-नसलिलसरियाउ तुज्झदइयाओ। पंचसयाइँ इमाओ, कह मुंचसि तं अणाहाओ ?||62|| कुमार:विसमीसपायससमे, विसए असुइब्भवे असुइणोय। दुक्खतरुबीयभूए, को सेविज्जा सचेयन्नो ? // 63 // पितरौ:पुरिसपरंपरपत्तं, वित्तमिणमणिदियं तुम वच्छ! दातुं भुत्तु पकामं, पच्छा पडिवज्ज पव्वजं॥६४॥ कुमार:जलजलणपमुहसाहा- रणम्मि जलनिहितरंगतुल्लम्म ! मइमं वित्तम्मिन को पितरौ-इइत्थ पडिबंधमुव्वहइ॥६५।। पितरौ :जह तिक्खग्गधारा-इ विचरणं दुक्करं तहा पुत्त ! वयपालणं विसेसा, तुह सरिसाणं अइसुहीणं / / 66 / / कुमार:कीवाण कायराणे विसयत्तिसियाण दुक्करं एय। उज्जमधणाण धणियं, सव्वं सज्झं तु पडिहाइ॥६७॥ Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दणंदि(ण) 1366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भद्दबाहु तन्निच्छयमह मुणिउ,राया सिंचेइ एगदेवसिए। तं रजे तह पभणइ, संपइतुह वच्छ! किं देमो? // 68|| भणइ कुमारो दिजउ, रयहरणं पडिग्गहं च तो राया। लक्खदुगेणं दुन्नि वि आणावइ कुत्तियावणओ // 66 // लक्खेण कासवर्ग, सद्दाविय भणइ कुमरकेसम्गे। निक्खमणप्पाओग्गे, कप्पसु सो वि हु करेइ तहा // 70 / / देवी पडेण गहिओ, न्हविउं तह उचिउंच सियवसणे। बंधियरसणसमुग्गे, काउं ते ठवइ उस्सीसे॥७१।। राया पुणो वि कुमरं, कंचणकलसाइएहिं गहविऊण। लूहइ सयमंगाई, गोसीसेणं विलिंपेइ।७२|| परिहावइवत्थजुयं, कुमरमलं कुणइ कप्परुक्खुव्व। कारइ निवो विसिटुं, सीय थंभसयनुनिविट्ठ // 73 // तत्थाऽऽरुहिउ कुमारो, निवसइसीहासणम्म्मि पुव्वमुहो। दाहिणपासे भद्दा-ऽऽसणम्मि कुमरस्स पुण जणणी / / 74|| धित्तं रयहरणाई, वामे पासे तहंऽबधाई से। छत्तं धित्तुं एगा, वरतरुणी पिट्ठओ य ठिया // 75 / / चामरहत्थाउदुबे, उभओ पासे तहेव पुयाए। वीयणगकरा तह हुय-वहाएँ भिंगारवग्गकरा 176 // समरूवजुव्वणाणं, समसिंगाराण हरिसियमणाण। उक्खित्ता अह सीया, रायसुयाणं सहस्सेण / / 77 / / अह सुत्थियाई संप-त्थियाई सेअट्टमंगलाई पुरो। समलंकियाण हयगय-रहाण पत्तेयमट्ठसयं / / 78 // चलिया बहवे असिल-द्विकुतधयचिंधपमहुगाहातो। रत्थत्थिया य बहवे, जयजयसद पउंजंता // 7 // मग्गणजणस्स दितो, दाणं कप्पदुमुव्व सो कुमरो। दाहिणहत्थेण तहा, अंजलिमाला पडिच्छंतो॥८॥ दासिज्जंतो मग्गे, सो अंगुलिमालियासहस्सेहिं। पिच्छिज्जतोय तहा, लोयणमालासहस्सेहिं / / 1 / / पत्थिजंतो अहिय, हिययसस्सेहिं तहय थुव्वंतो। चयणसहस्सेहिँ इमो, संपत्तो जा समोसरणं / / 2 / / सीयाओ उत्तरिउं, जिणपयमूलेऽभिगम्म भत्तीए। तिपयाहिणी करेउं, वंदइ वीरं सपरिवारो।।८।। अहिवदिउंजिणिंद, भणति पियरो इमं जहेस सुओ। अम्हं एगो इट्टो, भीओ जरजम्ममरणाणं / / 84|| तो तुम्ह पयमूले, निक्खमिउं एस इच्छइतओ भे! देमो सचित्तभिक्खं, पुजा पसिऊण गिण्हंतु / / 85|| भणइ पहू पडिबंध, मा कुव्यह तयणु भद्दनंदी वि। गंतुं ईसाणदिसिं, मुंचइ सयमेवऽलंकारं / / 6 / / लुचई केसकलावं, पंचहि मुट्ठीहिऽतो तहिं देवी। तं च पडिच्छइ हंसग--पडेण अंसूणि मुंचती।।८७।। भणइ य अस्सि अट्टे, जइज मा पुत्त! तं पमाइजा। इय वुत्तुं सहाणे, पत्ता सा अह कुमारा वि॥८॥ गंतु भणइ जिणिंदं, आलित्तपलित्तयम्मि लोयम्मि। भयवं! जराइमरणे-ण देसु तन्नसणिं दिक्खं / / 86 / तो दिक्खिऊण विहिणा, जिणेण एसो इमो समणुसिट्ठो। सव्वं पिवच्छ! किरियं, जयणापुथ्वं करिनाहि ||6|| "इच्छामुत्ति" भणतो, थेराण समप्पिओ इमो तेसिं। पासे पावचरणओ. गिण्हइ इमारसंगाई18911 सुचिर पालित्तु वयं, मास रांलेहणं च काऊणं। आलोइय पडिकंतो, सोहम्मे सुरवरो जाओ / / 2 / / भूत्तणूतत्थ भोए,तत्तो आउक्खए चुओ संतो। होऊण उत्तमकुले, मणुओ पालितु गिहिधम्म।।१३।। पव्वजं काऊणं होही देवो सणंकुमारम्मि। एवं बभे सुक्के आणयकप्पे य आरणए।।१४।। तो सवृढे एवं, चउदससु भवेसुनरसुरेसु इमो। उत्तमभोए भोत्तु, महाविदेहे नरो होही / / 65|| पव्वजं पडिवज्जिय, खविउं कम्माइ केवली होउं। सो भद्दनंदिकुमरो, लहिही अवही विमुक्खमुहं // 66 // " "एवं सुपक्षं किल भद्रनन्दी, निर्विघ्माराध्य विशुद्धधर्मम्। स्वर्गाऽऽदिसौख्यं लभते स्म तस्मात्, श्राद्धस्य युक्तो गुण एष नित्यम् / / 67||" (इति भद्रनन्दिकुमारोदाहरणं समाप्तम्) ध० 201 अधि०१४ गुण। मद्दतपडिमा स्त्री० (भद्रतरप्रतिमा) प्रतिमाभेदे, स्था० 5 ठा० 1 उ०। (तद्वक्तव्यता पडिमा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 332 पृष्ठे गता) भद्दपडिमा स्त्री० (भद्रप्रतिमा) यस्यां पूर्वदक्षिणापरोत्तराभिमुखा प्रत्येक प्रहरचतुष्टयं कायोत्सर्ग करोति / एषा चाहोरात्रद यमानेत्युक्तलक्षणे प्रतिमाभेदे, औ० / कल्प० / आ० चू० / "केरिसिया भद्दा पडिमा ? भण्णइ-पुव्वाभिमुहो दिवसं अत्थइ, पच्छा रत्तिं दाहिणहुत्तो, ततो बीए अहोरत्ते अवरेण, दिवसं उत्तरेणं रत्तिं "पूर्वस्यामेकम्, अपर-स्यामेकम्, दक्षिण स्यामेकमुत्तरस्याम्, “पडिमाभदृ" (466 गा०) प्रतिमा पूर्व भगवता भद्रा कता। (आ०म०४६५ गा०टी० आ० म०१ अ०। मद्दवई स्वी० (भद्रयती) प्रद्योतनृपपुत्र्या वासवदत्ताया दास्याम्, आ० क०४ अ०। मद्दवय पुं० (भाद्रपद) चैत्राऽऽदितः षष्ठे मासे, उत्त०२६ अ० ज०। स० भद्दवया स्त्री० (भद्रपदा) भद्रग्य-वृषस्येव पदयासाम्पूर्वोत्तरभाद्रपदासु, वाच०। अनु०। दोय होंति भदवया / स्था०२ ठा०३ उ०। भद्दवाइ (न) पुं० (भद्रवाजिन्) शोभनाश्वे. 'भद्दवाइणो दमए।'' पं० व० १द्वार। भद्दबाहुपुं०(भद्रबाहु) प्राचीनगोत्रोत्पन्ने यशोभद्राऽऽचार्य शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, कल्प०१ अधि०७ क्षण / नि० चू० / भद्दबाहुं च पाईणं / "नं०। कल्प०। (भद्रबाहुवत्कव्यता। थविरावली' शब्दे चतुर्थभागे 2364 पृष्ठे गता) (वर्णकः 'पंचकप्प' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः) (वहीवक्तव्यता च कप्पववहार' शब्दे तृतीयभागे 235 पृष्ठे उक्ता) भद्रबाहुचरित्रं यथाअस्थि सिरिभरवरितु सयलट्ठगरिट्ठ मरहट्टे धम्मियजणागिपुनपरिन्नपवणपइहाणं सिरि पइट्ठाणं नाम नयरं / तत्थ यच उद्दसविज्ञाठाण पारगो छ कम्ममविऊ पयईए भद्दबाहू नाम माहणो हुत्था तस्स परमपिम्म भरसरसी वाराहमि Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भहबाहु 1370 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भद्दबाहु हिरो सहोयरो। अन्नया तत्थ चउद्दसपुव्वरयणमहेसरोनवतत्तवर निहाणपत्तमाहभद्दो सिरिभं जसोभद्दसूरिचक्कवट्टी उज्जाणवणे समोसढो। तन्नमसणकए अहमहमिगाए सयलं नयरलोयं गच्छंतं पलोइय कि चिं संजायपमोओ बाराहमिहिरेण सद्धिं भद्दबाहू सूरीणं बंदणंत्थं गओ, तं वंदिय कमवि, परमाणंदमुव्वहंतो समुचियभूभागे निविट्ठो तओ सूरीहिं हिया निव्वेयसंजणणी देसणा "संसारो दुक्खरूवो चउगईविपुलो जोणिलक्खप्पहाणो, इत्थंजीवाण सुक्खंखणमवि पवरं विजए नेव किंचि। तम्हा तच्छेयणत्थं जिणवरभणिए उज्जया होह धम्मे, खंताईण मुणीणं गुणगणकलिए सावयाणं च सारे ||1|" तं सुणिय वेरगतरंगरंगिओ आगमेसिभद्दो पणट्ठमोहनिद्दामुद्दो भद्दबाहु सहोयरं वराहमिहिर भणइवच्छाहं संजायभवविरोगो एसिं गुरूणं चरणमूले सव्वसंगपरिचायं करिय अणवजं पव्वज्जमायरिस्सं, भवया पुण घरकज्जे सुसज्जेण होयव्वं / तो वराहमिहिरो तं पइ जंपइभाय ! जइ तुम संसारसायरंतरिउमिच्छसिता कहमहं भग्गपवहणजणुव्व तत्थ मन्जेमि / जओ-''सक्कारसहिया खीरी, दियाण जह वल्लहा हवइ अहिया / ता किं सा इयराण वि, नराण न हु होइ अभिरुइया ॥१॥"एवं दिक्खाभिस जाणिऊण मा एसो भवावडे निवडउत्ति भद्दबाहुणा अणुमन्निओ। तओ दो वि भायरा गुरुपच्चक्खं सावजं पचक्खायंति। तओ भद्दबाहू गहियदुविहसिक्खो कमेण गुरुवयणकमलाओ भमरु व्व मयरदं चइ द्दसपुव्वसुत्तत्थरहस्सं पाऊण मुदिओ सुविहियचूडामणी जाओ / इओ य सिरिजसभद्दसूरीणं तस्स मणं विजाठाणो असमाणचरित्ते अजसंभूयविजओ नाम सीससेहरो आसि। अन्नम्मि दिणे सूरिपयजुग्गा सुयकेवलिणो मुणिसंभूयविजयभद्दबाहुनागमे मुणिवरे गणहरपए ठाविऊण सय सिरिजभदसूरिणो संलेहणं करिय सुरपुरसिरीए अवयंसभावमुवगया। तओ ते ससिसूरुव्व तिमिरं गोवित्थरेण हणता महिमंडले पुढो पुढो विहरति। अह तो वराहमिहिरमुणी अप्पमई चंदसूरपन्नत्तिमुहे के विगंथे मुणिऊण अहंकारनहिओ सूरिपयमहिलसंतो अजुग्गत्ति गुरूहिं नाणबलेण नाऊण नगणहरपए ठाविओइय सुयवयणं सरंतेहि- "बूढो गणहरसद्दो, गोयममाईहिं धीरपुरिसेहिं / जो तं ठवइ अपत्ते, जाणतो सो महापावो // 1 // " तओ वराहमिहिरस्स जिट्टसहोयरे सिरिभद्दबाहुगणहरे परमा अपीई जाया / जओ इमेहिं मह माणखंडणा कया अओ इत्थ ठाउं न जुज्जइ। भणियं च - 'माणि पणट्टइ जइ न तणु, तो दंस डायइज्ज।मा दुजणकर पल्लविहिँ, दंसिज्जंतु भमिज / / 1 / / " तेण पावकम्मोदएण अप्पा गुणपव्वयाऽऽरूढो वि दोसावडे पाडिओ अहो दुरंतया कम्माणं, जं तिव्वकसा ओदएण उत्तमगुणठाणेहितो मिच्छत्तगुणठाणे पडिओ, दुवालसवरिसे परिपालि यचरित्तो चइत्तु जिणसुदं पुणरवि सहावसिद्ध माहणत्तमवगओ वराहमिहिरो। भणियं च - "प्रकृत्या शीतलं नीरमुणं तदहियोगतः / पुनः किं न भवेच्छीतं, स्वभावो दुस्त्यजो यतः॥१॥' तओ चंदसूरपन्नत्तिपमुहाऽगमगंथेहिंतो कि पि किं पिरहस्संगहिऊण स्वनामेण 'वारीही संहिय त्ति' नामयं जोइससत्थं सवायलक्खपमाणं करेइ / तं च सिद्ध ताओ उद्धरियं ति पाएण सच होइ, अओ लोएसुपसिद्धं तं जातं। अन्नं च अंगोवंगेहिंतो दव्वाणुओगाओ मंततंताई मुणियं पउंजिऊण य जणमणाई रंजइ, मिच्छदिट्ठीण पुरओ नियचरियमेवं परूवेइज अहं दुवालसवरिसे दिणयरमंडले ठिओ, भयवया वि भाणुणा सगलगहमंडलमुदयत्थमणचक्काइयारठिइजोगे विवागाइअं पेसिय मह दंसियं, पेसिओ य अहं महियले, तओ मे इमं जोइससत्थं कयं जइ असचं ता किं परिमिय भासिज्जइ, मिच्छत्तं धियइमइणो धिज्जाइया वजपातसरिसं पि तव्वयणं तहेव पडिवजंति / अहो अन्नाणविलसिया एसिं, जओ "वच्छले य सिलाए, खडं बधितु मोयगमिमं ति। धुत्तेहिं भणिरेहिं, बाला लहु लोलविति।।१।।''तयणु भूदेवस्सेव तरस वन्नणमेवं कुणंता चिट्टति-जमेस वराहमिहिरो मोहणनहगमणाऽइबहुरूवाहिं विजाहिं दिप्पंतो गहणेहिं सह दुवालसवासाई भमिऊण जोइससत्थं च काऊण महियलमोइन्नो चउद्दसविजाठाणपारगो जाओ, अज्ज वि इय तप्पसिद्धी लोए विष्फुरइ, पइहाणपुराहिराओ वि वियक्खणु त्तितं पूएइ, जओ लोओ पूइयपूयगो न परमत्थविऊ, सकाचखंडसमो वि इंदनीलमणि त्ति संगहिऊण रम्ना स पुरोहिओ विहिओ, नय वियारसारा हवंति रायाणो, तं च रायपसायपत्तं मुणिऊण जणो विसेसेण सम्माणेइ। अह सिरिभद्दबाहुपहू सयलमवणिठाणं वयणामएण सिंचंतो पइट्ठाणपुरवाहिज्जाणे समोसरिओ। तत्थाऽऽगयं सूरिसरमायन्निऊण राया पोरपरिवओ वंदिउंगओ, रायाणुवित्तीए वराहमिहिरो वि। तम्मि समए रायादिसमक्खं एमेण पुरिसेण वराहमिहिरो बद्धाविओ देव ! संपर्य चेव तुम्ह घरे पुत्तो उत्पन्नो, तंसुणिय राया हरिसिओ वद्धाविय नरस्स पारिओसियं दाणं दाऊण पुरोहियं बाहरेइसाहेसुतुम, एस तुब्भ पुत्तो केरिसविज्जो किप्पमाणाऊ अम्हं च पूरणिो होही, नव त्ति / संपइ सव्वन्नुपत्तो समसत्तुमित्तो सिरिभद्दबाहुसूरी, तहा जोइसचक्कनिरिक्खणवियक्खणो तुमं च / अओ दुवे विणाणिचूडामणिणो वियारिऊण आइसह। तओ वराहमिहिरो सहावचवलमाहणजाइत्तणेण नियनाणुकरिसं च जाणावयंतो वागरेइमहाराय ! मए एयस्स जम्मकाललग्गगहाइयं वियारिय एस सूिस वरिससयपमाणाऊ तुह पुत्तपुत्ताणं च पूइओ अट्ठारसविजाठाणपारगामी भविस्सइ, एयम्मि समए जिणसमए निमित्तकहणं निसिद्धं पिमुणतो नरिंदाइलोयाओ जिणमयपभावणत्थंकडुओसहपाणं व रोगच्छेयणकए कीरंतं सुद्धमुवजायइ त्ति वियारिऊण गीयत्थसिरोमणी सिरिभद्दबाहुमहामुणी तस्स दारगस्स सत्तदिगंते विडालियाओ मरणमाइसइ। तं वयणमायन्निऊणकोवेण पञ्जलिरो वराहमिहिरो नरवई पइ जंपइदेव ! जइ एयं एयाणं वयणमन्त्रहा होइ ता तुब्भे हिमेयाणं कोवि पयंडो दंडो कायव्यो / एवं वाहरिऊण रोसारुणनयणो वराहमिहिरो रायसहिओ नियघरं गओ / तेण झत्ति गंतूणं स बालो मंदिरऽभंतरे गुत्तट्ठाणे ठाविओ चउद्दिसिंच घरबाहिं उन्भडसुहडा ससत्था निवेसिया, धाई पुण भायणाइसामग्गीसहिया अभिंतरे चेव निविडनिविड कवाडसंपुडं संघट्टिऊण जागरमाणी बालं रक्खइ, तस्सारिनुभवणस्स दुवा Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दबाहु 1371 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भद्दबाहु रदेसे सय वराहमिहिरो उवविसिय विडालसंचारं रक्खेइ. संपत्ते सत्तमे दिणे तहेव तेसिं रक्खंताणं उकिरिय विडाला महाथूला दुवारग्गला सहसा बालगोवरिपडिया। तग्धाएण य दारगो मओ। धाईए हाह त्ति वोलो कओ जणं एस मए रक्खंतीए चेव उच्छगनिहिओ विअग्गलेण बालगो निहओ। तं वजनिवायसरिसं वयणं सुणिय पुरोहिओ मुच्छानिमीलियच्छो धस त्ति धरणीतले पडिओ सिसिरोवयारेहिं पुणरवि पत्तचेयणो उग्घाडिऊण, कवाडसंपुडतं सुयं मयं पासिऊण हिययं ताडयतो रोइउं पयत्तो- 'हाहा दुरंतरे दिव्व ! रोविऊण सुरददुमं / समुम्मूलेसि किं पाप ! मत्तदति व्व मे सूयं / / 1 / / " एयाओ विरहाओ अहिययरं दूमेइ सल्लु व्व मे हिययं नाणाऽसच्चत्तण / एवं सोयं करतेण जणो विरोयाविओ। राया विविन्नायवइयरो आगंतूण तं पुराणाइभणियसंसराणिचयावयणेहिं पडिबोहेइ, इय साहेइ अभो वराहमिहिर ! सिरिभद्दबाहुसामिनिवेइयं नाणमवितह जायं, परं विडालाओ जंतस्स मरणमुवइट्टतं असच्चं दीसह, अओ तम्मरणहेउ धाईपुच्छइ, धाईए विसा अग्गला आणेऊण रन्नो दंसियातीए अग्गविभागे उकिरियं विरालियं दवण संजायविम्हओ राया सूरिरायागुणकित्तणमुहरि मुहो वजरइ अहो ! पिच्छइ जाया सेयंवराणं नाणलद्धिलच्छीओ तं सच चेव सव्वन्नुपुत्तया, जं एवमविसंवायवयणा, एवं चमक्किओ य उद्विऊण सिरिभद्दबाहुगुरुंपणमिय पुच्छइ-भयवं! केणहेऊणा पुरोहियवयणमसचं जाय तओ ? गुरू भणइ-महाराय ! एस गुरुपडिणीओ वयाई पडिवडिलं विणट्ठमई तुह पुरोहिओ, तेण हेउणा एयस्स वयणं न सच्चं होइ, जं च सव्वन्नुणा पणीयं वयणं तं जुगते विनऽनहा होई। तओ राया नायपरमत्थो जपेइ-हा मिच्छत्तधत्तूरपाणमोहियमइणा सयल मेव महियल कणयमयं मन्नमाणेण मए निरत्थणं मणुअजम्म निग्गमियं, ता भययं ! एरिसिय मह सिक्ख देह, जेण कयत्थो होमि / तओ गुरु दुग्गइगमणपडिवक्खं धम्मसिक्खं सहासमक्खं रन्नो वियरइ, सो वि तं से सुच्चा सिरसा पडिच्छइ। जप्पभिइयं मयकलेवरं वपुरोहियमतं चइय राया जिणधर्म पडिवाइ तप्पभिई च णं लोओ तमुवहसइ, सो वि नियतणरमरणेण नाणासचत्तणे णं लोयापवाएणं संजायसंसारनिव्वे ओ सव्वहा विगयसम्मत्तो संगहियमिच्छत्तो परिवायगपट्यजं पडिवन्जिय मुणिजणे पओसमावहतो अन्नाणकट्ठतवाइ सुइरमायरिय अणुट्टियपावसल्लो मरिऊण अप्पड्डिओ वंतरो जाओ। अह सो वाण मंतरो विभंगनाणेणं नियपुव्वभवमाभोइत्ता मिच्छत्तोदयवसेण जिणसासणे परमवेरं वहतो चिंतेइकया ण अहं पुव्वभववेय सायरं पवणनंदणुव्व उल्लंघिय सुहिओ हविस्सं? तओ देवकिचमकाऊण जिण भत्तिरत्ताणं साहूण सावयाईणमुवसग काउकामोतच्छिदाणि गवसेइ। तओसया अप्पमत्ताणं सावज्जलोग विरयाणं साहुणीणं अधुव्व किं पि पिच्छइ / दूसणं, तेसिंच केसमवि स मोडिउमसमत्थो हत्थेण हत्थंमलतो दंतेहि उट्टे खडतो मुट्ठिए हिययं नाडितो भित्तीएसीसं फोडतो विहत्थो होत्था। ततो तप्पुर्दिछंडियऊण किरियाकलावसिढिलाणं समणोवासयाईण छिड्डु लहिऊण स दुट्ठो वाणमंतरो विविहे उवसगे कुणइ। तओ सावया सुयसायरसुविहियायरा बुद्धिवियारेण तं वंतरकयमुक्सगं जाणिय परुप्परं मंतयंति-जहा सिंह विणा करी न वियारिजइ-जहा भाणु विणातिमिरपडलं न फेडिज्जइ, जहा पवहणं विणा सायरो न लंधिज्जइ, जहा ओसह विणा वाही न छिद्दिजइ तहा गुरूहि विणा एस उवद्दवो न विवविज्जइ ति। तओ एयरस अत्थस्स संसूइगा तेसिं सिरिभद्दबाहुसूरीणं पासे पेसिया विन्नत्तिया / तेहिं पि नाणेण वराहमिहिरबंतरस्स दुट्ठचिट्टियं नाऊण सिरिपाससामिणो उवसग्गहरत्थवणं संघकर पढियं! सव्वेहि वितं पढिातओ तप्पभावेण वायपिल्लियवद्दलु व्व विद्दुओ उवद्दवो, कप्पवल्लि व्व मणवंछियत्थजणाणी जाया सती, अओ अज्ज वितं थवणं सप्पभावं पढिजमाणं सव्वसमीहियत्थं संपाडेइ। अह जुगप्पहाणाऽऽगमो सिरिभद्दबाहुसामी-आयारंग 1 सूयगडंग 2 आवस्सय 3 दसवेयालिय 4 उत्तरज्झयण 5 दसा 6 कप्प 7 ववहार 8 सूरियपन्नत्ति-उवंग : रिसिभासियाणं१० दस निजुत्तीओ काऊण जिणसारणं पभावेऊणं पंचमसुयकेवलिपयमणुहविऊणय समए अणसणविहाणेणं तिदसाऽऽवासं पत्तो त्ति || ग०२ अधि० / कल्प० / ''सजंभवस्स सीसो, जसभद्दो तओ आसि गुणरासी। सुंदरकुलप्पसूतो, संभूतो नाम तस्सावि।।५।। सत्तमओ थिरपाहू, जाणुयसीसुपडिच्छयसुबा (पा) हू। नामेण भद्दबाहू, विदिओ सो धम्मभद्दो त्ति / / 6 / / सो पुण चउदरसपुव्वी, वारस वासाइंजोगपडिवन्नो। सुत्तत्थेण निबंधइ अत्थं अज्झयणबंधस्स // 7 // पलिया च अणाबुट्ठी, तइया आसी य मज्झदेसस्स। दुभिक्ख विप्पणट्ठा, अण्णं विसयं गता साहू / / 8 / / केहि वि विराहणाभी-रुएहिं अइभीरुएहिं कम्माण। समणेहिँ सकिलिट्ठ, पच्चक्खायाइँ भत्ताई।।६।। वेयड्डकंदरास य, नदीसु सेढीसमुद्दकूलेसु। इहलोगअपडिबद्धा, य तत्त्य जयणाएँ वहृति।।१०।। ते आगया सुकाले, सगमणसेसया ततो साहू। बहुयाणं वासाणं, समणा विसयं अणुप्पत्ता / / 11 / / ते दाइँ एक्कमिक, गयसेसा विरस दट्रूण। परलोगगमणपचा-गयं व मण्णंति अप्पाणं / / 12 / / ते बिति एक्कामिक्क, सदभाओ कस्स कित्तिओ धरंति। हंति दुट्लकालेणं, अम्हं नट्ठोतु सहभावो।।१३।। जंजरस धरइ कंठे, तं तंपरियट्टिऊण सव्वेसिं। तो णेहिँ पिंडिताई, तहिय एकारसंगाई।।१४।। ते बिति सव्वसार-स्स दिडिवायस्स नत्थि पडिसारो। कह पुव्वगए ण विणा, पवयणसारं धरेहामो / / 15 / / सम्मरस भद्दबाहु-स्स नवरि चोद्दसविओ अपरिसेसाई। पुवाई अन्नत्थ उ, न कहिंचि वि अस्थि पडिसारो।।१६।। सो विचउद्दसपुव्वी, वारस वासाइँ जोगपडिवन्नो // 17 // दिज्ज न वि दिज्ज वा वा-यण ति वाहिप्पओ ताव।।१८|| संघाडएण गंतू-ण आणितो समणसंघवयणेणं। सो संघेसरपमुहे-हिँ गणसमूहेहिँ आभट्ठो।।१६।। तं अज्जकालिय जिण-यरसंघो तं जायए सव्यो। पुव्वसुयं कस्स धारइ, पुव्वाणं वायण देहि॥२१॥ Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दबाहु 1372- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मद्दबाहु सोभणति एव भणिए, असिद्धकिलिट्टएण वयणाणं / नहु ता अहं समत्थो, इण्डिं भे वायण दाउं // 22 // अप्पट्टे आउस्सा, मज्झ किं वायणाएँ कायव्यं / एवं च भणियमित्ता, रोसस्स वसं गया साहू।।२३।। अह विण्णवंतिसाहू, हंतेवं पसिणपुच्छणे अम्ह। एवं भणतस्स तुहं, को दंडो होइतं मुणसु ? // 24 // सो भणति एव भणिए, अविसन्नो वीरवयणनियमेण। वजेयव्वो सुयनि-हवो त्ति अह सव्वसाहू अ॥२५।। तं एव जाणमाणे, नेव सि ते पाडिपुंछयं दाउं। तं ठाणं संपत्त, कह तं पासेह दाहामो (?) 1|26|| वारसविहसंभागे, विण्णवएतेय समणसंघे वि। जत्ते जाइज्जतो, न वि इच्छसि वायणं दाउं।।२७।। सो भणइ पुव्वभणिए, जसभरिओ अयंसभीरुतो वीरो। एक्कण कारणेणं, इच्छंभे वायणं दाउं॥२८॥ अप्पट्टे आउत्तो, परमटे सुट्ट दाणि उजुत्तो। नेवाह वाहरियव्वो, अहं पि न वि वाहरिस्सामि॥२६॥ पारियकाउस्सम्गो, भत्तडित्तो वा अहव सज्झाए। निंतो व अनितो वा, एवं भे वायणं दाहं / / 30 / / पादति समणसंधा, अम्हे अणुयत्तिमो तुहं छंद। देहिय धम्मो वाह. तुम्ह छंदेण दिच्छामो॥३१।। जे आसी मेहावी, उजुत्ता वाहणधारणसमत्था। ताणं पंचसयाई, सिक्खगसाहूणमहियाई॥३२॥ वेयावचगरासे, एकक से चउव्विहा दो दो। भिक्खम्मि अप्पडिबुद्धा, दिया य रत्तिं च सिक्खंति // 33 // ते एगसए साहू, वायणपरिपुच्छणाएँ परितता। आहारं अलहंता, तत्थ यजं किंचि अमुणंता // 34 // उज्जुत्ता मेहावी, सिट्टा उवायणं अलभमाणा। अह तेथोवा थोवा, सव्वे समृणा वि निस्सरिया॥३५॥" ति०। (स्थूलभद्रवृत्तम् 'थूलभद्द' शब्दे चतुर्थभागे 2415 पृष्ठे गतम्) एतेहि नासियव्वं, मए विणा, विजह सासणे भणियं। जंपुण मे अवरद्धं, एवं पुण डहति सव्वंग // 64 / / पुच्छम्मि य मयहरया, अणेगया जे मरइ संपती काले। गोरविय थूलभद्द-म्मि नासनहाइ पुव्वाई।।६५।। अह विण्णविति साहू, सगच्छया करिय अंजलिं सीसे। भद्दस्स तापसा इह, इमस्स एक्कावराहस्स॥६६।। रागेण वदोसेणव, जवपमाएण किंचि अवरद्धं / तंभे! सं (तेसिं) उत्तरगुणं, अऊणकार खमावेति॥६७।। अह सुरकरिकरउवमा--णबाहुणा भद्दबाहुणा भणिय / मा गच्छइ निव्वेयं, कारणसेयं निसामेह // 68| रायकुलसरिसभूते, सगडालकुलम्मिएस संभूतो। गेहगओ चेव पुणो, विसारओ सव्वसत्थेसु॥६६॥ कोसानामगगणिया, समिद्धकोसा य विउलकोसा या जायें घर उ विहारी, रतिसंवेसम्मि वेसम्मि॥७०|| वारस वासा वासउं, कोसाएँघरम्मि सिरिघरसमम्मि। सोऊणय पियमरणं, रण्णो वयणेण निगच्छा // 71 / / तेगिच्छसरिसवयणं, कोसं आपुच्छए सयं धणियं। खिप्पं खु एह सामिय! अहयं बहुवायरासेहं // 72 / / भवणारोहावमुक्को, छिज्जइ चंदो व्व सोमगंभीरो। परिमलसिरिं वहतो, जोण्हानिवहं ससी चेव // 73 // भवणाउ निग्गओ सो, सा रंगे परियणेण कड्डित्तो। मत्तरवरवारणगओ, इह पत्तो राउलं दारं / / 74 // अंतेउरं अगइतो, विणीयविणओ परित्तसंसारो। काऊणं सो भद्दो, रण्णो पुरओ ठिओ आसि 175 // अह भणइ नंदराया, मंतिपयं गिण्हथूलभद्द! महं। पडिवजसु ते बद्धाइँ, तिणि नगरागरसयाई॥७६॥ रायकुलसरिसभूए, सगडालकुलम्मि तं सि संभूओ। सात्थेसुथ निम्माओ, गिण्हसु पिउसतियं एयं / / 77 / / अह भणइ थूलभद्दो, गणियापरिमलसमप्पियसरीरो। सोमीकयसामत्थो पुणो वि से विण्णवेस्सामि / / 78|| अह भणति नंदराया, केइ समंदाइँ तुब्भ सामत्थं। को अण्णो वरतरओ, निम्मातो, सव्वसत्थेसु ? ||76 / / कंबलरयणेण ततो, अप्पाणं सुट्ट संवरित्ता थे। अंसूनि निण्हुयंतो, असोगवणियं अह पविट्ठो॥८॥ जित्तियमित्तं दिण्णं, तेत्तियमित्तं इमं तु भुत्त त्ति / इत्तो नवरि पडामो, झसो व मीणाउलघरम्भि / / 1 / / आणा रज्जं भोगा, रन्नो पासम्मि आसणं पढमं / सुव्वत्थ इमं न खमे, खमं तु अप्पक्खमं काउं / / 2 / / कोसं परिचिंततो, रायकुलाओ य जे परिकिलेसे। निरयेसुय जे केसे, ता हुँचति अप्पणो केसे / / 83 // तं चिय परिहियवत्थं, छित्तूणं कुणइ अग्गओआरं। कंबलरयणो गुद्धि-कार उण्णोट्टियं पुरतो॥४॥ एयं मे सामत्थं, भणइ अवणेहि मत्थतो गुढेि। तोणं केसविहूणे, केसेहिं विणा पलोएति।।८।। अह भणइ नंदराया, बच्चइ गणियाघरं जइ कहिचि। तोतं असच्चवादी, तीसे पुरतो विवाएमि॥८६|| सो कुलघरस्स सिद्धि, गणियावरसंतियं च सामिद्धि / पाएण पुणो वेढ, णातिणगरा अणवयक्खा // 8 // जो एवं पुव्वविऊ,एवं सज्झायझाणउजुत्तो। गारवकरणेण हिओ, सीलभरुव्वहणधारणया।।८८|| जह जह एही काले, तह तह अप्पावराहसंरद्धा। अणगारा पडणीए, निसंसयउ वहवेहिति / / 6 / / उप्पायणीहि अवरे, केई विजाए इत्तरणं / चउरुविहविजाहि, इट्टाहिं काहि उड्डाह ||6|| मंतेहि य चुण्णेहि य, कुच्छियविजाहि तेण निमित्तेणं / काऊण उवज्झाय, भमिहि सोऽगंतसंसारे // 11 // अह भणइथूलभद्दो, अण्णं रूवं न किंचि काहामो। इच्छामि जाणिउंजे, अहयं चत्तारि पुवाई / / 62|| ................. सुयमेत्ताई च वुग्गहाहिं ति। दस पुण ते अणुजाणे, जाण पणट्ठाइँ चत्तारि / / 3 / / एतेण कारणेण उ, पुरिसजुगे अट्ठमम्मि वारस्स। सयराहेण पणट्टा-इँ जाण चत्तारिपुव्वाइं॥६४|| अणवट्टप्पो य तवो, तवपारंची य दोवि विच्छिन्ना। चउदसपुव्वधरम्मी, धरति सेसा उजा तित्थं // 65 // तंएवमंगवंसो, य नंदवंसो मरुयवंसोय। सयराहेण पणट्ठा, समयं सज्झायवसेण // 66 // पढमो दसपुव्वीण, सगडालकुलस्स जसकरो धीरो। तामेण थूलभद्दो, अविहिं साधम्मभरो ति / / || Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दबाहु 1373 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भद्दसालवण नगमा टासिनो समग सगणुणानि भो लिं) होही अपच्छिमो किर, दम्पनीधारओ वीरो) 8)) एयरस पुव्वसुयसा-यरस्स उदहि व्व अपरिमेयस्स। सुणसु जह अत्थकाले, परिहाणी दीसए एत्थ // 66 // पुव्वसुयजल्लभरिए, विजाए सव्वमित्तदायम्मि। धम्मावायनिसिल्लो, होही लोगो सुयनिसिल्लो // 10 // " ति० कल्प०। भद्दबाहुगंडिया स्त्री० (भद्रबाहुगण्डिका) गण्डिकानुयोग भेदे, स०१२ अङ्ग०। भद्दमण त्रिी० (भद्रमनस्) भद्रं मनो यस्य सः / अथवा-भद्रस्येव मनो यस्य स तथा। धीरे, हस्तिभेदे, पुरुषभेदे च / पुं०। स्था० 4 ठा०२ उ०। महमुत्ति त्रि० (भद्रमूर्ति) प्रियदर्शने, 'भद्रमूर्तेरमुष्य च।" द्वा०१२ द्वा०। भद्दमुत्थय पुं० (भद्रमुस्तक) नागरमुस्तके, वाच० / साधा-रणशरीर बादरवनस्पतिकायिभेदे, जी०१ प्रति०। भद्दवई स्त्री० (भद्रवती) भद्राणि पुण्यानि सन्त्यास्याः। मतुप मस्य वः, डीप। वाच०। उज्जयिनीनगरस्थाया वासवदत्ताया धात्र्याम्, आ० क० '4 अ०। आव०। भद्दसालवणन० (भद्रसालवन) जम्बूद्वीपस्थस्य मेरुपवर्तस्य भूमौ स्थिते स्वनामख्याते वने, जं०१ वक्ष०ा जी०। ज्यो०। दो मद्दसालवणा (स्था० २ठा०३ उ०। मेरुमधिकृत्यभूमीए भद्दसालवणं / दो भद्दसालवणा। इति च। स्था०२ ठा० 3 उ०। भद्रसालवनं स्थानतः पृच्छतिकहिणं भंते ! मंदरे पव्वए भद्दसालवणे णामं वणे पण्णते? गोयमा ! धरणिअले एत्थ णं मंदरे पव्वए भद्दसालवणे पण्णत्ते / पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिपणे सोमणसविजप्पहगंधमायणमालवंतेहिं वक्खारपव्वएहिं सीआसीओआहि अ महाणईहिं अट्ठभागपविभत्ते मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपच्चच्छिमेणं वावीसं जोअणसहस्साई आयामेण उत्तरदाहिणेणं अड्डाइजाइं जोअणसयाई विक्खंभेणं, तीसे णं एगाएपउमवरवेइआए एगेण य वणसडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, दुण्ह विवण्णओ भाणिअव्वो क्किण्हे किण्हाभासे०जाव देवा आसयंति। / गौतम ! धरणीतलेऽत्रा मेरो द्रशालवनं प्रज्ञप्त, प्राचीनेत्यादि प्राग्वत्। सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवद्भिर्वक्षस्कारपर्वतैः शीताशीतोदाभ्यां च महानदीभ्यामष्टभागप्रविभक्तमष्टधा कृतम्। तद्यथा-एको भागो मेरोः पूर्वतः 1 द्वितीयः परतः 2, तृतीयो विद्युत्प्रभसौमनसमध्ये दक्षिणतः 3, चतुर्थो गन्धमादनमाल्य वन्मध्ये उत्तरतः 4 तथा शीतोदाया उत्तरतो गच्छन्त्या दक्षिणखण्डं पूर्व पश्चिमविभागेन द्विधाकृतं ततो लब्धः पञ्चमो ਗੁ: 7 ਗ ਵਿਚ ਗੁਲਗੁ ਧੁ ਧੁਜ਼ਰਿਜ द्विधाकतं. ततो लब्धः षष्टो भागः 6 तथा शीतया महानद्या दक्षिणाभिमुखं गच्छन्त्या उत्तरखण्डपूर्वपश्चिमभागेन द्विधाकृतं. ततोलब्धः सप्तमो भागः 7 तथा पूर्वतो गच्छन्त्या पूर्वखण्ड दक्षिणोत्तर-विभागेन द्विधाकृतं ततोलब्धोऽष्टमो भागः 8 | स्थापना मन्दरस्य पूर्वपश्चिमनतश्चद्वाविंशति द्वाविंशतियोजनसह स्राण्यायामेन / कथमिति चेदुच्यते कुरुजीवा त्रिपञ्चाशद्योजनसहस्राणि 53000, एकैकस्य च वक्षस्कारगिरेर्मूले पृथुत्वं पञ्च योजनशतानि, ततो द्वयोः शैलयोर्मूलपृथुत्वपरिमाणं योजनसहस्र, तस्मिन् पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि चतुः पञ्चाश द्योजनसहस्राणि 54000, तस्मान्मेरुव्यासे शोधिते शेषं चतुश्वत्वारिंशद्योजनसहस्राणि 44000 तथा मध्य द्वाविशतियोजनसहस्राणि 22000, पूर्वतः पश्चिमतश्च भवन्ति / अथ चेदमुपपत्त्यन्तशीतावनमुख 2622 योजनानि, अन्तरनदीषट्कम् 750 योजनानि, वक्षस्काराष्टकम् 4000 योजनानि, शीतोदावनमुखम् 2622 योजनानि / एतेषां विस्ताराः सर्वाग्रमीलने षट्चत्वारिंसद्योजनसहस्राणि / एतच लक्षप्रमाणमहाविदेहजीवायाः शोध्यते, शेषं चतुः पञ्चाशद्योजनसहस्राणि। एतावद्भद्रशालवनक्षेत्रांतच मेरुसहितमितिधरणीतलसत्कदशयोजनस्रशोधने, शेष चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, तस्यार्द्ध एकैकपार्श्वे द्वाविंशतिर्योजनसहस्राणि, उत्तरतो दक्षितश्चार्द्धतृतीयानि योजनशतानि, विष्कम्भे दक्षिणत उत्तरतश्च तद्भद्रशालवनमर्द्धतृतीययोजनशतानि, यावदेवकुरुषु प्रविष्टमित्यर्थः / अत एव देवकुरुमरूत्तरकुरव्यासार्द्ध विदह व्यास व मद्रसालवनावकाश इति प्रश्नों दूरापास्त इति। अथात्रा सिद्धाऽऽयतनाऽऽदिवक्तव्यतामाह - मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमेणं भद्दसालवणं व (प) णासं जोअणाई ओगाहित्ता, एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, पण्णासं जोअणाई आयामेणं पणवीसं जोअणाई विक्खंभेणं छत्तीसं जोअणाई उड्ड उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसण्णिविटे वण्णओ। तस्सणं सिद्धाययणस्स तिदिसिं तओ द्वारा पण्णत्ता। ते णं दारा अट्ट जोअणाई उड्न उच्चतेणं, चत्तारि जोअणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं, से आवरकणगथूमिआगा जाव वणमालाओ भूमिभागो अभाणिअवो, तस्स णं बहुमज्झ देसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिआ पण्णत्ता, अट्ठ जोअणाई आयामविक्खं भेण, चत्तारि जोअणाइं बाहल्लेणं, सव्वरयणामयी अच्छा, तीसेणं मणिपेढियाए उवरिदेवच्छंदए अट्ठ जोअणाई आयामविक्खंभेण साइरेगाई, अट्ठ जोअणाई उड्ढ उचतेण 0 जाव जिणपडिमावण्णओ / देवच्छं दगस्स . जाव धूवकडुच्छु आणं मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं भद्दसालवणं पण्णासं,एवं चउद्दिसिं पिमंदरस्स भद्दसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा, भाणियव्वा, मंदरस्सणं पव्वयस्स उत्तर पुच्छिमे णं भवसालवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्ता Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दसालवण 1374 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भद्दा रिणंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-पउमा 1 पउमप्पमा दिपरिवारयुक्तप्रासादावतंसको भणितव्यः। अथ प्रादक्षिण्येन शेषविदि२ कुमुदा 3 कुमुदप्पभा / ताओ णं पुक्खरिणीओ पण्णासं ग्गतपुष्करिण्यादिप्ररूपणायाऽऽह - (मदरस्स इत्यादि) ग्राह्य, नवर जोअणाई आयामेणं पणवीसं जोअणाई विक्खं भेणं दस दक्षिणपूर्व्यासामिति आग्नेय्या दिशीत्यर्थः / ताश्चोत्पलगुल्मादयः जोअणाई उव्वेहेणं वण्णओ! वेइआवणसंडाणं भाणिअव्वो, पूर्वक्र मेण तदेव प्रमाणं ईशानेन्द्रयोग्यशयनीयसिंहासने नेत्यर्थः / चउद्दिसिं तोरणा जाव तासि णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए दक्षिणपश्चिमायामपि नैर्ऋत्यां विदिशि पुष्करिण्याः शृङ्गाऽऽद्याः एत्थ णं महं एगे ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो पासायवडिंसए प्रादक्षिण्येन प्रासादावतंसकः शक्रस्य सिंहासनं सपरिवारम् उत्तरपश्चिपण्णत्ते, पंच जोअणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अट्ठाइं जोअणसयाई माया वायव्यां विदिशि पुष्करिण्यः श्रीकान्ताऽऽद्याः प्रासादावतंसकः विक्खंभेणं, अग्गयमूलिअ एवं सपरिवारो पासायवडिंसओ ईशानस्य सिंहासन सपरिवारम् / अत्र उत्तरदिक्सम्बद्धत्वेन ऐशानवायभाणिअव्वो / मंदरस्स णं एवं दाहिणपुरच्छिमेणं पुक्खरिणीओ- व्यप्रासादौ ईशानेन्द्रसक्तौ दक्षिणदिक् सम्बद्धत्वेन आग्नेय नैर्ऋत्यप्रसादौ उप्पलगुम्मा 1 णलिणा 2 उप्पला 3 उप्पलुजला 4 / तं चेव शक्रेन्द्रसत्काविति। जं०४ वक्षः। पमाण मज्झ पासायबाडसआ, सक्कम्स सपारवारा तण चव भद्दसिरी (देशी) श्रीखण्डे, दे० ना०६ वर्ग 102 गाथा। पमाणेणं दाहिणपञ्चच्छिमेणं विपुक्खरिणीओ भिंगा 1 भिंगनिभा भदसेणपुं० (भद्रसेन) वाराणसीवास्तव्ये स्वनामख्याते जीर्णष्ठिनि, आव० 2 अंजणा 3 अंजणप्पभा 4 पायवडिंसओ सक्कस्स सीहासणं 4 अ०। आ० का धरणस्य नागराजेन्द्रस्य स्वनामख्याते संग्रामनीसपरिवारं उत्तरपञ्चच्छिमेणं पुक्खरिणीआसिरिकता 1 सिरिचंदा काधिपतौ, स्था०५ ठा० 1 उ०। 2 सिरिमहिआ 3 चेव सिरिलया 4, पासायवडिंसओ ईसाणस्स भद्दास्त्री० (भद्रा) कल्याणकारिण्याम्, औ०। पक्षस्य द्वितीया सप्तमीद्वादसीहासणं सपरिवारं ति॥ शीतिथिषु, चं० प्र०१० पाहु०१४ पाहु० पाहु० / द०प० / जं०। सू० मेरोः पूर्वतः पञ्चाशद्योजनानि भद्रशालवनमवगाह्यातिक्र- म्यात्रान्तरे प्र०। प्रथमबलदेवस्य मातरि पोतनपुरस्थस्य प्रजापतेर्भा यायाम, महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्त पञ्चाशद्योजनान्यायाभेन पञ्चविंशतियोज आव०१ अ०। स०।"देव्यास्तस्य च भद्रायाः, बलदेवः सुतोऽभवत्। नानि विष्कभेन, षटत्रिंशद्योजनानि ऊर्बोच्चत्वेन, अनेकस्तम्भशत चतुर्भिः सूचितः स्वप्नैरचलोऽचलसौष्ठवः / / 1 / / " आ० क० 1 अ० / सन्निवेष्टित्यादिकः सूत्रातोऽर्थ तश्च वर्णकः प्रागुक्तो ग्राह्यः / अथात्र आ० म० / 'पुत्तो पयावतिस्स, भद्दा अयलो वि कुच्छिसंभूओ।"ति० / द्वाराऽऽदिवर्णकसूत्रा ण्याह - (तस्स णं इत्यादि) प्राग्वत (तरस ति। आ० चू० / तृतीयचक्रवर्तिनोमातरि, स०। आव० / द्वितीयचक्रवर्तिनी तीसे ण इत्यादि) सूत्राद्वयम्। अथोक्तरीतिमवशिष्टसिद्धायतनेषु दर्शयति भा-याम्, स०। छत्रानगरीस्थस्य जितशत्रुनृपतेर्भा-याम् सप्तमस्य - (मंदरस्स इत्यादि) मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतो भद्रशालवन पञ्चाश बलदेवस्य नन्दनस्यजनन्याम्, आ० म०१ अ० आ० चू०। कौशलिधोजनान्यवग्राह्येत्याद्यालापको ग्राह्याः / एवं चतुर्विक्ष्वपि मन्दरस्य कस्य नृपतेर्दुहितरि, "रण्णो विताहे कोसलियस्य धूया, भद्दत्ति नामेण भद्रशालवने चत्वारिं सिद्धाऽऽयतनानि भणितव्यानि, यच शिष्वतिदेष्ट अणिंदियंगी।'' उत्त० पाई० 12 अ०। चम्पानगरीस्थस्य माकन्दिसार्थव्येषु चत्वार्यतिदिष्टानि तत्रा जम्बूद्वीपद्वारवर्णके च "चत्तारि द्वारा वाहस्य भाव्याम्, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० 1 चम्पानगरीस्थस्य जिनदत्तभाणिअव्वा'" इत्येतत्सूत्राव्या ख्यानमनुसरणाय / अथैतद्रपुष्करिण्यो सार्थवाहस्य भार्यायाम, ज्ञा० 1 श्रु० 16 अ० / चम्पानगरीस्थस्य वक्तव्या :- 'मंदरस्स' इत्यादि सुगमम्। अथासांप्रमाणाऽऽद्याह-(ताओ सागरदत्तसार्थवाहस्य भार्यायाम, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। राजगृहनगरणमित्यादि) मेरोरीशान्या दिशि भद्रशालवनं पञ्चाशद्योजनान्यवगाह्या- स्थस्य धनसार्थवाहस्य भार्यायाम, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। प्रति / त्रान्तरे चतस्रो नन्दा-नन्दाभिधानाः शाश्वताः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः / राजगृहनगरस्थस्य धनावहश्रेष्ठिनो भाव्याम्, आ० म०१ अ० / आसां च प्रादक्षिण्येन नामानि पद्मा पद्मप्रभा कुमुदा कुमुदप्रभा, चैव क्षितिप्रतिष्ठिते, कस्मिंश्चिन्नगरे स्थितस्य धनश्रेष्ठिनो भार्याम्, नि० समुचये, ताश्य पुष्करिण्यः पञ्चाशद्योजनान्यायामेन पञ्चविंशतियोज- चू०१० उ०। वसन्तपुरपत्तनस्थस्य धनसार्थवाहस्य भार्यायाम, आ० नानि च विष्कम्भेन, दशयोजनान्युद्वेधेनोचत्त्वेन वर्णको वेदिकावन- क० 1 अ० / मगधदेश स्थगोवरग्रामस्थस्य पुष्पशालकौटुम्बिकस्य खण्डानां भणितव्यः प्राग्वत्, यावच्चतुर्दिशि तोरणानि / अथैतासा मध्ये भा-याम्, आ० क० 1 अ०। आ० म०। श्रेणिकनृपतेः स्वनामख्यायदस्तितदाह (तासि णमित्यादि) तासांपुष्करिणीनां बहुमध्यदेशभागे तायां भाव्याम्, तत्कथा नन्दावत्। अन्त०। पुण्ड्रयर्द्धनदेश-स्थस्य अत्रान्तरे महानेक ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराज्ञः प्रसादावतंसकः प्रज्ञप्तः / शतद्वारपुरस्थस्य सम्मुदित (सुमति) नृपतेायाम, ती० 20 कोऽर्थः तं प्रासाद चतस्रः पुष्करिण्यः परिक्षिप्य स्थिता इति पञ्चयोजन- कल्प० / भ० / ति० / शोभाञ्चान्यां नगर्या स्थितस्य सुभद्रसार्थवाहस्य शतान्यूज़्यत्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेन समचतुरस्त्र- भा-याम्, विपा०१श्रु०४ अ०। (तत्कथा 'सगड' शब्द) चम्पानगरीत्वादाया मेनापि (अन्भुग्गयमूसिआ इत्यादि) प्रासादवर्णनं प्राग्वत्।। स्थस्य कामदेव गृहपतेः स्वनामख्यातायां भार्यायाम, उपा०६ अ०। एवमुक्ताभिलापानुसारेण सपरिवार ईशानेन्द्रयोग्यशयनीयसिंहा सनाऽऽ- | आ०म०। आ० चू० / तुरुमिणीनगरीस्थायां कस्याञ्चित्स्वनामख्याता Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दा 1375 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 महा यां धिगजातिन्याम, आ० म० 1 अ० / काकन्दीनगरीस्थस्य धनसार्थवाहस्य जनन्याम्, "काकंदीणयपरीए भद्दा नाम सत्थवाही परिवसइ।" अणुला पुरिमतालनगरस्थस्य वमुगुरश्रेष्ठिनः पल्ल्याम्, आ० म०१ अ०। मखलिपुत्रस्य गोशालाकस्य जनन्याम, भ०१५ श०। आ० चू० / पश्चिमरुचकवास्तव्यायां स्वनामख्यातायां दिकुमार्याम् आ० क०१अ०। द्वी० ज०। आ० म०। स्था०। आ० चू०। नन्दीश्वरवरद्वीपस्य दक्षिणाऽञ्जनकपर्वतस्योपरिस्थितायां पुष्करिण्याम, दी। ती०। स्वनामख्यातायां नगाम,आ०च०१अ०भन्दतेकल्याणीकरोति देहिनमिति भद्रा। अहिंसायाम, प्रश्न०१सम्ब० द्वार। अहोरात्राद्वयमाने प्रतिमाभेदे च / स्था०४ ठा०१उ०। 'पंचपडिमायां।'' प्रथमा प्रतिमा द्विदिनाभ्यां भवति। स्था०५ ठा०१ उ०। (व्याख्या 'पडिमा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 332 पृष्ठे गता) राजगृहनगरवास्तव्यधन श्रेष्टिभार्यायाम.ध०र०॥ धनश्रेष्ठिज्ञातं त्विदम्"अस्थिऽत्थ मगहदेसे, देसियदंसियमहल्लकोहल्ले। रायगिह केलिगिह व, भुवणकमलाइवरनयरं / / 1 / / तत्थाऽऽसि रासिकयबहु-मणिरयणो मइधणो धणो सिट्ठी। समुवजियबहुभद्दा, भद्दा नामेण से गिहिणी॥शा धणपालो धणदेवो, धणओ धणरक्खिओ त्ति सुपसिद्धा। चउरो चउराणणआ–णणुव्व तेसिं सुया पवरा / / 3 / / कमसो तेसिं भज्जा, सिरी य लच्छी धणा य धन्ना य। निरुवमसुंदरिमसा-लिणीउ चिट्ठति सुहियाओ॥४॥ कइयावि परिणयवओ, सिट्टी चिंतइवयं गहिउकामो। एएविहिया सुहिया, तणया मे इचिरं कालं // 5 // जइ पुण का विहुसुण्हा, कुडुंबभारं धरिज अविणटुं। तो पच्छा वि अइसुही, न मुणतिगयं पि कालमिति / / 6 / / का पुण इमाण उचिया, गिहचिंताइ त्ति हुं सपुन्ना जा। स उण मईइ नेया, पुन्नणुसारेण जं बुद्धी / / 7 / / जुज्जइ तओ परिक्खा, इमाण सुहिसयणबंधुपचक्खं। जं संदविय कुटुंबा, कुडुबिणो हुति कित्तिपयं / / 8 / / इय चिंतिऊणमुई-डमंडवं ताडिऊण नियगेहे। नियमित्तनाइवरगं, निमंतए, भोयणट्ठाए || भुत्तुत्तरं च सम्मा-णिऊण तंबोल कुसुम माईहिं। तस्रा समक्खं सिट्ठी-हक्कारावेइ बहुआओ।।१०।। पण पण सालिकणे, अप्पिऊण पभणेइ रक्खिय व्य त्ति। जइया मग्गेमि तया, एए मे अप्पियवा य॥११|| एवं तिताहिँ भणिए, विसजिया गउरवेण नियसयणा। पत्ता यसयं ठाणं किमित्थ तत्तं ति सवियकका // 12 // मग्गिहिय जया ताओ, जओ तओ गिहिउं समप्पिस्सं। इय चिंतिय पढमाए, बहूइ ते उज्झिया झत्ति॥१३|| बीयाए तुसभावं, अवणेउं भक्खिया लहुं चेव। तइयाए तायसम-प्पिय ति अइगउरवपराए।।१४।। उज्जलवसणेणं बं-धिऊण पक्खिविय भूसणकरंडे। पइदिणतिकालपडियर--णजोगओ रक्खिया ते उ।1१५|| अह धन्नाए नियपिय--गेहओ सहिऊण सयणजणो। भणिओ जह पइयरिसं, वुड्डिमिमे जति तह कुणह // 16 // तेण वि वरिसारत्ते, पत्ते ते वाविया पयतेण। खुडम्मि कियारे जल-भरियम्मि परोहमणुपत्ता / / 17 / / तो सव्वे उवखणिउं. पुणरवि आरोविया कमेण तओ। ज ओ पढमे वरिसे, पसत्थओ पत्थओ तेसिं॥१८॥ वीयम्मि वच्छरे आ-ढगो उतइयम्मि खारिया जाया। तुरिए कुंभो पंचम-वरिसे पुण कुंभसहसाणि / / 16 / / अह सिट्ठिणा वि भोयण-पुरस्सरं सयमणाइ पच्चक्खं। सद्दाविय बहुयाओ, सालिकणा मग्गिया तेउ // 20 // किच्छेण सुमरिय सिरी, जओतओ अप्पए कणे पंच। अइ सवहमाविया भण-इ उज्झिया ते माए ताय ! // 21 // एवं लच्छी वि कहे-इ केवलं भक्खिया मए तेउ। आभरणकरंडाओ, ते गहिय धणा समप्पेइ // 22 // अइधन्ना धन्ना वि, मग्गिया सविणयं भणइ ताय ! ते एवमेव अइभूरि-भावमिम्हि समणुपत्ता॥२३॥ एवं भवंति एए, सुरक्खिया ताय! वाविया संता। सन्निक्खाया पुण वु-डिभावरहियत्तओ नेव // 24 // संति मम जणयगेहे, बहु कुजारेसुसंनिखित्ता ते। सगडाइवाहणेहि, तो आणावइ लहुँ सिट्ठी॥२५॥ तो नियऽभिप्पायं कहि य सिट्टिणा पुच्छिमो सयणवग्गो। किं इत्थ उवियमिहि, स आह तुब्भि चिह मुणेह॥२६॥ जंपइ धणो वि उज्झण-सीला पढम त्ति उज्झिया नाम। छारछगणाइछडण-वावारा वसउ मह गेहे // 27 / / रंधण कंडणसोहण-दलणाइ नियोगिणी हवउ वीया। नियआयरणवसेणं, भोगवई नाम सुपसिद्धा॥२८॥ जं सालिकणा जत्ते–ण रक्खिया रक्खियाभिहा तेण। मणिकणगरयणम-डारसामिणी हवउ तइयबहू // 26 / / अणइक्कमणिज्जाणा, तुरिया सव्वस्स सामिणी होउ। सालिकणारोहणवसा, रोहिणिनामा गरुयपुन्ना // 30 // एवं चदीहदंसि-तणेण काउंकुडुबसुत्थं सो। धणसिट्टी निम्मलध-म्मकम्मआराहगो जाओ॥३१।। अन्नो वि इहो विणओ, छठेंगे रोहिणीइ नायम्मि। भणिओ सुहम्मपहुणा, बहुप्प किर वित्थरेणेवं // 32 / / जह सो धणो तह गुरू, जह नायजणो तह समणसंधो। जह बहुया तह भव्वा, जह सालिकणां वयाइँ तहा॥३३॥ जह सा उज्झियनामा, ते सालिकणे समुज्झिउं पत्ता। एसणदुक्खं परम, तह कोइ जिओ कुकम्मवसा / / 34 / / सयलसमीहियसंसि-द्धिकारएतारए भवसमुद्दा। उज्झित्तु वए मरणा-इआवयाओ उवजे // 35 // अन्नो उण वीयबहु, व्व वत्थभोयणजसाइलोभेण। भुत्तुं ताई परलो-यदुक्खलक्खक्खणी होइ॥३६॥ तत्तो विय जो अन्नो, सो ताइं जीवियं व रक्खित्ता। रक्खियबहव्व जायइ,सव्वेसिंगउरवट्ठाणं / / 37 / / जो पुण तओ वि अन्नो, रोहिणिबहुय व्व वुड्डिमाणेइ। पंच वि वयाइव हवइ. संघपहाणो गणहरु व्य / / 38|| अन्नो वि इत्थ दीसइ, ववहारे उवणओइहंनाए। जह किल कस्सइ गुरूणो, सीसा चत्तारि निप्फन्ना // 39 / / आयरियत्तजुग्गा, पज्जाएणं सुएण स समिद्धा। अहु चितिउंपवत्तो, गुरू समप्पेमि कस्स गणं / / 4 / / तत्तो तेण परिच्छा-हेउं देसंतरे विहाराय। का होइ कस्स सिद्धि, ति पेसिया उचियपरिवारा।।४।। Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्दा 1376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भप्प चउरोऽवितओ पत्ता, खेमाइगुणन्निएसु देसेसु। जो तत्थ सव्वजिट्ठो, सायाबहुलो कडुयवयणो॥४२।। एगताणुवगरी, निव्वेयत्तेण तहय आणीओ। सव्यो परिवारो जह, अचिरा तस्सुज्झगो जाओ।।४३।। बीओ विसायबहुल-तणेण नियदेहसंठिइं चेव। कारेइ सादरं सी-सवम्गमवरं न उण किरियं / / 44 / / तइओ पुण सारणवा-रणाइकरणेण निचमुजुत्तो। रक्खइ पमत्तभावं, गच्छंतं तं परिवारं / / 4 / / जो पुण तुरिओ सीसो, सयलमहीमंडलोवलद्धजसो। जिणसमयामयमेहो, दुक्करसामन्ननिरओ य / / 46|| ओइन्नदेवलोग, व भूरिसंतोसपोसमणुपत्तं। निययविहारधरायल-मुवजणयंतो नियगुणेहिं / / 47 / / देसन्नू कालन्न, सुदीहदंसी जहेव कालज्जो। जाओ पभूयपरिवा-रपरिगओ विहियजणवोहो // 48 / / पत्तो गुरुणो पासे, उवलद्धो तेण तेसि वुत्तंतो। तो निययगच्छमेलण-पुव्वो दिन्नो य अहिगारो।।४६।। सचित्तमचित्तं वा, जंगच्छे छडणारिहं किंचि। पढमेण परिठ्ठावण-मिमस्स कजं ति संठवियं / / 50 / / जं भत्तं पाणं वा, उवगरणं वा गणस्स पाउग्गं। तंदुइएणापरितं-तएण उप्पाइयव्यं ति॥५१।। गुरुथेरगिलाणतव-स्सियबालसेहाइयाण य मुणीणं / रक्खादाखवियक्खण-जुग्गा तइयम्मि संठविया / / 52 / / जो पुण तेसि कणिट्टो, गुरुभाया तस्स नियगणो सव्यो। बहुपणपरायणमा-णसेण गुरुणा समुवणीओ।।५३।। एवं जहजुग्गनिउं-जणेण आराहणं परं पत्तो। सो सूरी तह गच्छो, सव्वो गुणभायणं जाओ / / 54 / / किर दीहदंसिगुणसं-गएण धणसिट्ठिणा इह पगयं। भवियमइकोवणत्थं, पयपिया उवणयविभासा // 55 // " "इति फलमकलङ्कश्लोकमस्तोकमेतद्, गुणिन इह धनाऽऽख्यश्रेष्ठिनः सन्निशम्य। गुणममलमुदारं दीर्घदर्शित्वमेव, श्रयत भविकलोकाः किं बहु व्याकृतेन? // 56 // " इतिधनश्रेष्ठिवृत्तकं समाप्तम्।ध००१ अधि० 5 गुण।ज्योतिषोक्तासु द्वितीयासप्तमीद्वादशीतिथिषु, स्त्री० / वाच० / काम्पिल्यनगरस्थस्य ब्रह्मदत्तस्य स्वनामख्यातायां महिष्याम्, "चित्तसेणओ भद्दा।'' उत्त० पाई० 13 अ० / स्वनामख्यातायां प्रथमबलदेवस्य मातारि, ति० / शाखाञ्जनीनगरस्थस्य सुभद्राऽऽख्यसार्थवाहस्य स्वनामख्यातायां भायाम्, स्था० 10 ठा०॥ हस्तिनागपुरवास्तव्यस्य कस्यचित्सार्थवाहस्य स्वनामख्यातायां भाायाम्, स्था०६ ठा०। (कथा 'पोट्टिल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1120 पृष्ठे गता) आगाभिन्यामुत्सर्पिण्या भविष्यस्य प्रथमजिनस्थ पद्मनाभस्य जनन्याम्, पुण्ड्रवर्द्धनदेशस्थस्य शतद्वारनगरस्थस्य सम्मुदितनरपतेः स्वनामख्यातायामग्रमहिष्याम्, "पुंड वद्धणदेसे सयहारे पुरे संमुइयनरखइणो भद्दाए देवीए" ती०२० कल्प० / रुचकवरद्वीपस्थायां शक्रस्य देवराजस्य सामानिकानामुत्पातपर्व- तेभ्यश्चतुर्दिक्षु स्थितासु राजधानीष्वन्यतमस्यां स्वनामख्यातायां राजधान्याम, आ० क०१ अ० / ज्योतिषोक्ते ववाऽऽदितः सप्तमे करणे, स्त्री० / न०। उत्त०। भद्दाकरी (देशी) प्रलम्बे, दे० ना०६ वर्ग 102 गाथा। भद्दाणणा स्त्री० (भद्राऽऽनना) मगधदेशस्थगोवरग्रामस्थस्य पुष्पशाल गृहपतेर्भार्यायाम्, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। भद्दावण नं० (भद्रापन) भद्रकरणे, द०प०। भद्दासण न० (भद्राऽऽसन) भद्राय लोकक्षेमायास्यतेऽत्र। आस-आधारे ल्युट् / नृपाऽऽसने, वाच० / सिंहाऽऽसने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। प्रश्न० / आसनभेदे, भद्राऽऽसनानि येषामधोभागे पीठिकाबन्धः। जी०३ प्रति० 4 अधि०। जं०। रा०॥ तद्रूपेऽष्टमङ्गलान्तर्गते माङ्गलिकवस्तुभेदे च / आ० चू०१ अ०। आ० म०। जं०। औ०। रा०। वाराणसीवास्तव्ये जीर्णश्रेष्ठिनि च। ती०३७ कल्प०॥"भद्दासणाईसीहासणाई।'' पाइ० ना० 18 गाथा। भद्दिज्जियास्त्री० (भद्रेर्यिका) भद्रयशसः स्थविरान्निर्गतस्यो-रुपाटिक गणस्य शाखाभेदे, कल्प 2 अधि० 8 क्षण। भतिया स्त्री० (भद्रिका) स्वनामख्याताय नगर्याम, "एवं विहरतो भद्वियं नयरिं गया।" आ० म०१ अ०। आ० चू०। कल्प० / द्वौ भद्रिकायां वर्षारात्रान् कृतवान् / कल्प०१ अधि०६ क्षण। भद्दिलपुर न० (भद्रिलपुर) मलयाभिधाऽऽर्य्यदेशस्थे पुरभेदे,''महिलपुरभेव मलयाए।" सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। अन्त। आव० / आ०। म०। आ० चू०। प्रव०। भदिला स्त्री० (भद्रिला) कुल्लाकसन्निवेशस्थस्य धम्मिल्लविप्रस्य भा-यां सुधर्मस्वामिनो जनन्याम्, कल्प०२ अधि०८ क्षण। आव०॥ भदुत्तरपडिमा स्त्री० (भद्रोत्तरप्रतिमा) प्रतिज्ञाविशेषे, प्रव०। भद्रोत्तरतप: प्राह - भदुत्तरपडिमाए, पण छग सत्तऽट्ट नव तहा सत्त। अड नव पंच छ तहा, नव पण छग सत्त अट्टेव / / 1546 / / तह छग सत्तऽ8 नव, पण छ सत्त सत्तऽट्ठा। पणहत्तरिसयसंपा-रणागाणं तु पणवीसा / / 1550 / / प्रतिमानाम-प्रतिज्ञाविशेषः, ततो भद्रोत्तप्रतिमायां भद्रोत्तरपसि पञ्च षट् सप्ताष्टौ नवेत्याद्या / तथा सप्ताष्टौ नव पञ्च षडिति द्वितीया / नव पञ्च षट् सप्ताष्टाविति तृतीया। षट् सप्ताष्टौ नव पञ्चेति चतुर्थी / अष्टौ नव पञ्च षट् सप्तेति पञ्चमी / इह पञ्चसप्तत्युत्तरं शतमभक्तार्थानामुपवासानां, पञ्चविंशतिस्तु पारणकानाम् / एवं च भद्रोत्तरतपसि शतद्वय दिनानां भवति / प्रव० 271 द्वार / (अत्राधिकारः 'पडिमा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 332 पृष्ठे गतः) भइत्तरवडिंसग न० (भद्रोत्तरावतंसक) विमानभेदे, स०१५ सम०। भप्प न० (भस्मन) भस-मनिन्।"भस्माऽऽत्मनोः पो वा।" 8/2 / 51 / / इति प्राकृतसूत्रोणानयोः संयुक्तस्य पो वा / प्रा०२ पाद। दग्धगोयमाऽऽदिविकारे, वाच०। अष्टाशीतिमहाग्रहान्तर्गत ऊनत्रिंशत्तमे महाग्रहे च। पुं०। स्था०। दो भासा / स्था०२ ठा०३ उ० / चं० प्र०। सू० प्र० / कल्प०। Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भप्पय 1377 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भम्हय भप्पयन० (भरमक) बहुभोजनकारके रोगभेदे, वाच० / भस्मको व्याधिः। | भमरनिउरंवभूय त्रि० (भ्रमरनिकुरम्यभूत) भ्रमरनिकुरम्बोपमे, रा० / सच वातपित्तोत्कटतया श्लेष्मन्यूनतयापजायत। आचा०१ श्रु०६अ० | भमरपत्तंगसारपुं० (भ्रमरपत्राङ्गसार) भ्रमरपक्षान्तर्गत विशिष्टकालिमोप१ उ० / भस्मेव इवार्थे कन् / कलधौते, वाच०। चिते प्रदेशविशेषे, रा०। जी०। आ० म०। भप्परासि पुं० (भस्मराशि) अष्टाशीतिमहाग्रहान्तर्गत महाग्रहे, चं० प्र० / भमरपत्तसार पुं०(भ्रमरपत्रसार) भ्रमरस्य पत्र पक्षस्तस्य सारो भ्रमर२० पाहु०। पत्रसारः। भ्रमरपत्रान्तर्गत विशिष्टश्यामतोपचिते, प्रदेशे, जं०१ वक्ष०। दो भासरासी। स्था०२ ठा०३ उ० कल्प०। सू० प्र०) भमररुयपुं० (भ्रमररात) ग्लेच्छजातिभेदे, तन्निवासभूते अनार्यक्षेत्रभेदे भ्रम पु० (भ्रम) चलने, भ्वादि० पर० सक० सेट् / ' भ्रमेष्टि च। सूत्रा०१ अ०५ अ०१ उ०। प्रव०। प्रज्ञा०। रिटिल्लदुण्दुल्ल-दण्दुल्ल-चक्कम्म-भम्मड--भमड---भमाड-- भमरावलिया स्त्री० (भ्रमरावलिका) भ्रमरपवती, रा०। जी०। तलअण्टझण्ट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुस-परी भमरिया स्त्री० (भमरिका) उदकस्थे जीवविशेषे, सूत्रा०२ श्रु०३ अ०। पराः // 84161 / / इति प्राकृतसूत्रोण भ्रमेरेते-ऽष्टादशाऽऽदेशाः वा / टिरिटिल्लइ। हुण्दुल्ल्इ। ढण्ढल्लइ। चक्कम्मइ / भमडइ। भम्माडइ। भमली स्त्री० (भ्रमरी) भ्रम-फरन्, गौ० डीए / जतुकायाम्, भ्रमरभाभमाडइ / तलअण्टइ। झण्टइ। झम्पइ। भुमइ। गुमइ। फुमइ फुसइ। यायाम, वाच० / वाद्यविशेषे च / अष्टशतं भ्रमरीवादकानाम् / रा०। ढुमइ। ढुसइ। परीइ। परइ / भमइ / प्रा० 4 पाद। भ्रमति / अभ्रमत्। आकस्मिक्या शरीरभ्रमो, आव०५ अ०। ध० ल०। आ० चू०। अभ्रमीत्। वाच०। भ्रम घञ्। भ्रान्तौ, विपा०१ श्रु०३ अ०। आकरिम- | भमस (देशी) धनपाले, दे० ना० 6 वर्ग 101 गाथा। कभ्रमी, व्य० 4 उ० / अनवस्थाने, विशे० / विपर्यासे, द्वा० 17 द्वा०। भमाड स्त्री० (भ्रामि) भ्रम-चलने-णिच्। भ्रमेस्तालिअण्ट-तमाली" मिथ्याज्ञाने, अन्यथाभूतस्य वस्तुनोऽन्यथारूपेण ज्ञाने, वाच० / ||6430 / / इति प्राकृतसूत्रोण भ्रमेय॑न्तस्य 'तालिअण्ट--तमाल' ''भ्रमोऽन्तर्विप्लवस्ता।" भ्रमोऽन्तर्विप्लवश्चित्तविपर्ययः, शुक्तिकायां इत्यादेशौ वा भवतः। तालिअण्टइ। तमाडइ। भामेइ। भमाडेइ। भमावेइ। रजतमिदमितिवद् अतस्मिंस्तद्ग्रह इति यावत् / द्वा० 17 द्वा० / ग्रा० 4 पाद। "अतस्मिंस्तन्मतिभ्रमः।' भ्रमोऽतस्मिंस्तदभाववति तन्मतिः / यदाह भमास पुं० (भमास) तृणविशेषे, “बरुओ सामुंडुओ भमासो य। 'पाइ० विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठमिति। द्वा०१८ द्वा०। जलनिर्गम ना०१४६ गाथा। इक्षुतुल्यतृणे, दे० ना०६ वर्ग 101 गाथा। स्थाने, कुन्दे भ्रमणे, वाच० / पर्यटने च। सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 3 उ० / भमिस्त्री० (भ्रमि) आवर्ते, है। भमंत त्रि०(भ्रमत्) अनवस्थिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। भमिअ अव्य० (भ्रमित्वा) "क्त्वस्तुमत्तूण-तुआणाः"||८/२।१४६|| भमण न० (भ्रमण) पर्यटने, सूत्रा०१ श्रु०१ अ० 3 उ०। इति प्राकृतसूत्रेण क्त्वास्थाने अदादेशः। भ्रमं कृत्वेत्यर्थे, प्रा० १पाद। भममुह (देशी) आवर्ते दे० ना० 6 वर्ग 101 गाथा। * भ्रमित त्रिविस्मययुक्ते, "घोलिअ,दल्लिआइं भमिअत्थे। 'पाइ० भमर पुं०(भ्रमर) "भ्रमरे सो वा" ||8/1 / 254 // इति प्राकृत सूत्रोण ना० 185 गाथा। मस्य सो वा / प्रा०१ पाद। "हरिद्राऽऽदौ लः // 8/1254|| इति प्राकृतसूत्रोण ससन्नियोगे लत्वम् / प्रा० 1 पाद / भ्रमति रौतीति भ्रमरः / भमिर त्रि० (भ्रमिन) "शीलाऽद्यर्थस्येरः"॥८।२।१४५|| इति आव०६अ। भ्रमति रौति च भ्रमरः। आ०म०१०। विशे०। अनु० / प्राकृतसूत्रोण शीलाऽऽद्यर्थे विहितस्य प्रत्ययस्येरादेशः। भ्रमशीले, प्रा० व्य० / रामाऽऽवर्ते घ। "विसालपीवरभमरोरुपडिपुण्णविमलखंधं / " 2 पाद। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० 1 जी०। "मोऽनुनासिको वा" ||4|267 // भमुआ (देशी) शृगाल्याम्, दे० ना०६ वर्ग 101 गाथा। इति प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशेऽनादौ वर्त्तमानस्यासंयुक्तस्य मकारस्यानु- भमुहा स्वी० (भू) नेत्रावयवविशेषे, औ०। "भुमआ भमुहा।' पाइ० नासिको वकारो वा / भव॑र / भ्रमर। प्रा०४ पाद। 'फुल्लंधुआ रसाऊ, ना० 252 गाथा / भूर्नेत्रार्द्धरोमाणीति / कल्प० 3 अधि० 6 क्षण / भिंगा भसला य महुअरा अलिणो। इंदिदिरा दुरेहा, धुअयाया छप्पया 'दीहाई भमुहाई।" आचा०२ श्रु०२ चू०६ अ० / 'आणामियचाव-- भमरा ||1||" पाइ० ना० 11 गाथा। भ्रमन् रौतीति भ्रमरः / प्रव० 4 रुइलकिण्हभमराइतणुकसिणणिद्धभमुहे।" आ० / द्वार / कालवणे सम्पातिनि पुरुषतया लोकव्यवहृते (प्रश्न० 1 आश्र० मम्म न० (भस्मन्) 'भप्प' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद। द्वार) चतुरिन्द्रियजीवविशेषे, विशे०।"लोगव्यवहारपरो, ववहारो भणइ भम्मय न० (भस्मक) 'भप्पय' शब्दार्थे, प्रा० 4 पाद। कालओ भमरो / परमत्थपरो भन्नइ, निच्छइओ पंचवण्णो त्ति भम्मरासि पुं० (भस्मराशि) 'भप्पराशि' शब्दार्थ, चं० प्र० 20 पाहु० / // 3586|" (अस्या व्याख्या 'णय' शब्दे चतुर्थभागे 1862 पृष्ठे गता) विशे०। आचा०। आ० म०। दश०। प्रज्ञा०। भ०। औ०। प्रश्न०।रा० भम्ह न० (भस्मन्) 'भप्प' शब्दार्थे, प्रा०२पाद। / ज्ञा० / उत्त० / सूत्र०। भम्हय न० (भरमक) 'भप्पय' शब्दार्थे प्रा०४ पाद। Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भम्हरासि 1378 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भय भम्हरासि पुं० (भस्मराशि) 'भप्परासि' शब्दार्थे, चं० प्र० 20 पाहु० / भय धा० (भज) भोगे, सेवायां च / भ्वादि० -- उभ०-सक०-अनिट् / भजति, भजते। अभाक्षीत्। भेजे / वाच०। विशे०। स्था०। *भय न० विभेत्यस्मात्। भी-अच्। भयहेतौ, भावे अच्। वाच०। भीती, उत्त०१४ अ०। सूत्र०। भयं भीतिः परित्रासोऽकस्मात्। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आचा० / प्रा० / प्रश्न० / स्था० / कल्प०। "किंभया पाणा।" ('किंभय' शब्दे तृतीय भागे 526 पृष्ठे विवृतम्) स्था०१० ठा०ा त्रासे, स्था०३ ठा०१ उ०। आचा०। अपायो।गित्वे, नि० चू०१उ०। मोहनीयप्रकृतिसमुत्थे आत्मपरिणामे, स्था०७ठा०ाभयं मोहान्तर्गता नोकषायरूपा प्रकृतिः। भयकारणे दुर्गतिगमनाऽऽदौ, “एयाहिं भयाहि पहिया।" सूत्र 1 श्रु० 2 अ०१ उ० / सनिमित्तमनिमित्तं वा यद्विभेति तद्भयम् / आभ्यन्तरग्रन्थिभेदे, बृ०१ उ०२ पक०। भयस्य निक्षेपः षड् विधःनामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्। तत्रनामस्थापने सुगमे, द्रव्यक्षेत्राकालभयान्यपि प्रतीतानि। द्रव्याद्यं द्रव्यभयमित्येवं सर्वत्र पञ्चमीतत्पुरुषसमासाऽऽश्रयणात्। अन्यथा वा यथायोगं भावनीयम्। भावभयं सप्तधा-इहलोकभयं, परलोकभयम्, अन्नदानभयम् / आकस्मिकभयम्, आजीविकाभयम्, अश्लोकभयम्, भरणभयं चेति / तत्रा यत् स्वभावात्प्राप्यते यथा मनुष्यश्च मनुष्यात्तिरश्चस्तिर्यग्भ्य इत्यादि तत् इहलोकभयम् / यत्परभवादवाप्यते यथा मनुष्यस्य तिरश्चस्तिरश्चो मनुष्यात् परलोकभयम्। आजीवनं जीविका, तस्या उच्छेदेन भयमाजीविकाभयम् इत्यादि। आ० म० 1 अ० / आ० चू०। नामाऽऽइ छव्विहं तं, भावभयं सत्तहेहलोगाई। इहलोगजं सभवओ, परलोयभयं परभावाओ।।३४५०|| किंचणमादाणं त-भयं तु नासहरणाइओ नेयं / बज्झनिमित्ताभावा, जं भयमाकम्हियं तं ति॥३४५१।। असिलोगभयमजसओ, दुज्जीवमाजीवियाभयं नाम। पाणपरिचायभयं, मरणभयं नाण सत्तमयं // 3452|| नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्तत्षड्विध भयम् / तत्राऽऽद्याः पञ्चभेदाः सुव्याख्येयाः / भावभयं तु इहपरलोयाऽऽयाणमकम्हा आजीवमरणमसिलोए'' इति वचनात् सप्तधा भवति / तथा वाह - (इहलोगाइ त्ति) तोहलोकजं भयं स्वभावतः स्वभवाद्यथा-मनुष्यस्य मनुष्यात्तिरश्चस्तिर्यग्भ्य इत्यादि। परलोकभयं तु परभवाद्यथामनुष्याऽऽदेस्तिर्यगादिभ्यः / किञ्चनं द्रव्यदानमुच्यते, तद्भयं तु न्यासहरणाऽऽदिभ्यो ज्ञेयम् या तु बाह्यानिमित्ताभावदकस्मादेव भवति तदाकस्मिकम्। अश्लोकः-अश्लाघा तद्भयं त्वयश इति। आजीविकाभयं तु दुर्जीविकाभयम् / मरणं तु नाम यत्सप्तमं भयं तत्प्राणपरित्यागभयमिति। विशे० उत्त०। ''इहपरलोयाऽऽदाणे, आजीवसिलोय तह अकम्हा य। मरणभयं सत्तमयं, विभासमेएसि वोच्छामि / / 1 / / इहलोगभयं च इमं, जं मणुयाइओ सरिसजाईओ। बीहेइ जं तु परजा इयाण परलोयभयमेयं / / 2 / / आयाणत्थो भण्णति, मा हीरिज त्ति तस्स जं बीहे। आयाणभयं तं तू, आजीवो मे ण जीवेऽहं / / 3 / / असिलोगभयं अयसो, होति अकम्हा भयं तु अणिमित्तं / मरियव्वस्स उभीए, मरणभयं होइ एयं तु॥४॥" उत्त० पाई०६ अ०। कल्प० / प्रज्ञा० / दर्श०। जे भिक्खू अप्पाणं बीभावेइ, बीभावंतं वा साइजइ॥१६७।। जे भिक्खू परं बीभावेइ, बीभावंतं वा साइज्जइ // 168 / / उभयं वा अनन्यभावे आत्मैव आत्माऽपृथग्भावे आत्मव्यतिरिक्तः परः, आत्मपरव्यपदेशेन भयं भवति, ऐहिकपारत्रिक भयोत्पादनं बीभावनं चउगुरु पच्छित्तं, आणादिया य दोसा भवंति। दिय्वमणुयतेरि-च्छयं तु आकम्हिकं व णा यव्वं / एक्ककं पिय दुविहं, संतमसंतं च णायव्वं / / 37 / / भयं चउविहं उप्पजति - पासायादिएहितो दिव्वं, तेणादी-एहितो माणुस्स, आउतेउवाउवणस्सयाइएहितोय तेरिच्छं निरयहेतुकं चउत्थं अकस्माद्यं भवति / एकक पुणो दुविहं संतासंतभेएण। पिसायतेणसिंघाइए दिह्रसुज भयं उप्पजति तं संतं, अदिडेसु असंतं / अकस्माद्वयं संतं आत्मसमुल्यं मोहनीयभय प्रकृत्युदयाद्भवति, असंतं अकस्माद्भ भयकारण संकल्पिताभिप्रायोत्पन्नम्। चोदकाऽऽह-उण इहलोकभयं, परलोगभयं आदाणभय, आजीवणाभयं, अकस्माद्यं, मरणभयं, असिलोकभयं / एवं सत्तविहं भयसुत्त, कहं चउटियह भणइ ? आचााऽऽहकामं सत्तविकप्पं, भयं समासेण तं पुणो चउहा। तत्थाऽऽदाणं नसणे-ण होज अहवा वि देहु वही॥३८|| कामं शिष्याभिप्रायानुमतार्थे , तदेव सत्तविहं भयं संखिप्पमाणं चउय्यिधं भवति। कहं पुण संखेप्पति? उचते-इहलोगभयं मणुस्सभये समोतरति / परलोगभय दिव्वतिरियभएसु समोतरति। आदाणआजीवणमरणअसिलोगभयं च तेचउरो वितिसु दिव्वादीएसु समोतरंति।कथम् ? उच्यते-जतो आदाणेण हत्थट्टितेण दिव्यमणुयतेरिच्छयणं बीभेति, आजीवणं वित्ती, साय दिव्वमणुवतेरिच्छियाऽन्यतमा भीतो, मरणं प्राणपरित्याग असावपि दिव्यमनुष्यतिर्यगन्यतमभावावस्थस्येति नारकाः किल मरणभयमिच्छंयेव। अकस्मात्कारणात् विविधमेव मरणभयम्। असिलोगो वि दिव्वमणुएसु संभवति, संतीसु य पंचेदियतिरिएसु अकस्मातद्रयं सट्ठाणे समोतरति। एवं सत्त भया चउसुभएसुसमोतारिता। एत्थ रामणस्स आदाणभयं ण होज / अहवा समणे वि देहोवहि चेव आदाणभयं भवति। चोदकाऽऽह-कह देहुवही आदाणभयं ? उच्यते गाहाएगेसिंजं भणियं, महब्भयं एतदेव विहिसुत्ता। तेणाऽऽदाणं देहो, मुच्छासहियं च उवकरणं // 36 / / बंभचेरो विधिसुतं, तत्थ भणियं, एतदेवेगे सिं महत्भय Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय 1376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भय भवति। एतदेव सरीरंएगेसिंअविरयजीवाणं महतं भयं भवति, तेण कारणेण | देहो आदाणं भन्नति, उवरगरणं च मुच्छासहियं आदाणं भवतिनासं। गाहा - रक्खसपीसायतणा-इएसु उदयम्मि दुमादीसु / तव्विवरीयमकम्हा, जो तेण परं च अप्पाणं // 40 / / रवखसपियासाऽऽदिकं दिव्वं, तेणाऽऽदिकं माणुस, उदयग्गिजकुमादियं तेरिच्छ, अकस्माद्यं च / एतेण चउब्विहेण जो अप्पाणं परं उभयं वा। गाहा - बीहावेती भिक्खू, संते लहुगा गुरू असंतम्मि। आणादी मिच्छत्तं, विराहणा होति सा दुविहा / / 11 / / संते लहुगा, असंतेसु चउगुरुगा इत्यर्थः। दुविहाआय–संजमविराहणा। नाविक्खति अप्पाणं, एवं परं खेत्तमादिणो दोसा। भूएहिं घेप्पेज्जा, भेसेज परं च ज चण्णं ||12|| जह मोहप्पगडीणं, कोहाईणं विवञ्जणा सेया। तह चउ कारणमुदयं, भयं पि ण हु सेवितं सेयं // 43 // अप्पाणं परं वा बीभावेंतो अप्पाणं परं च णावेक्खति, बीहंतो सयं परो वा, खित्तचित्तो भवेजा तत्थ मूलं / गिलाणा-रोवणा य, भीओ वा संतो तं चेव बीभावंता आहाणेजा, भीतो वा भूतेण घेप्पेज्जा ग्रहगृहीतो वा परं भीसिज्ज, तत्थ वि बहू पतावणादिया दोसा, जं च अन्यत् खेत्तादि अणवजो छकायविराहणा करेज तत्थ से कायणिप्फण्णं जम्हा भए कज्जमाणे एत्थ दोसा तम्हा भयंण कायव्यं // 42 // इमं कारणं जह मोहणिज्जस्स कोहादिया उत्तरपगडीणं वज्जणा सेया भवति, तम्हा भयं चउविह, मोहस्स उत्तरपगडी विवजेउ श्रेयं भवतीत्यर्थः / / 43|| भय उत्तपगडीओ, सेसा मोहस्स सूतिया मूले। पयडीतो तो जेहिं, पगारेहिं वज्झंति णाणणिण्हवादीहि॥४४|| णिक्कारणम्मि तेसु, व्वट्टते होति पच्छित्तं / कामं आउयवञ्जा, णिचं वज्झंति सत्तपगडीओ। जाव पवत्तइ रागो, तिव्वेसु तेसु पच्छित्तं // 45|| एवं भयं मोहणिजस्स उत्तपगडी सूचियातो भवति / एवं सव्वा चेव मोहपगडीगहिया मोहमूलपगडीए सेसा सत्तणाइया मूलपगडीओ सूइया भवंति। तो जेहिं पगडीतो इति-अट्ठ मूलपगडीओ पंचाणउई वा उत्तरपगडीतो सम्यक्तनिश्रओ बंधो नास्तीत्येवं पञ्चनयति एयातो, जेहिं बंधहेउप्पगारेहिं बज्झति तेसु वहृतस्स पच्छित्त भवति / ते य इमेणाणं जस्स समीवे सिक्खियं तं णिण्हवति, नाणिपुरिसस्स पडिणीओ अत्थेजंतो वा अंतरायं करेति, जीवस्स वा णाणोबधायं करेति, णाणिपुरिसे वा पादोसं करेति एवमादिएहिं पञ्चधिहं णाणावरणं वज्झइ, एतेसु चेव / सविसेसेसुणवधिं दसणावरणं वज्झति, भूताणुकं पया ते वयाणुपालणा, तं खंतिसंपन्नाए दोण रूइ, एए गुरुभत्ती, ते एते हिंसातो वेदणिज्ज वज्झति, विवरीय हेऊहिं असाति, मोहणिज्जं दुविहं-दसणमोहं, चरित्तमोहं च / तत्थ दंसणमोह अरहतपडिणीययाए, एवं सिद्धचेतियतवस्सिसु य धम्नसंघरस य पडिणीयत्तं करेंतो दंसणमोहं बंधति, तिव्वकसायत्ताए बहुमोयातो रागदोसंपन्नया, ते चरित्तमोहं बंधति। आउयं चउव्विहं तत्थ णिरयाउयरस इमो हेऊ, मिच्छत्तेणं महारंभया, ते महापरिग्गहा ते कुणिमाहारेण णिस्सीलया, ते रु द्दज्झाणेण य णिरयाउय निबंधति / तिरियाउयरस इमो हेतू-उम्मग्गदेसणा, ते संतमग्गविप्पणासणेणं माइल्लया, ते सढसीलता, ते ससल्लमरणेणं / एवमादिएहिं तिरिया - आउयं निबंधिता इमे मणुयाउयहेउणो-विरयतिण्हो जो जीवो तणुकसातो दाणरते पगतिभद्दयाए मणुयाउयं बंधति / देवाउयहेतू इमेदेसविरतो सव्वविरतो वालतवेण अकामणिञ्जराए सम्मदिट्ठियाए, य देवाउयं बंधति / णामं दुविह-सुहासुहं / तत्थ सामन्नतो असुभे य इमे हेतू-मणवयकायजोगेहि बंको मायावी तिहिं गारवेहिं पडिबद्धा, एतेहिं असुभं नाम बज्झति / एतेहिं चेव विवरीएहिं णीयागोयं / सामन्नतो पंचविहंतराए इमो हेतु-पाणवहेसुसावते अदिन्नादाणमेहुणपरिगहे य एतेसु रइबंधगा जिणपूयाए विग्धकरे मोक्खमग्गं पव्वजतस्स जो विग्धं करेति एतेसु अंतराइयं बंधति। विसेसहेऊ उवउज्ज वण्णए-तेसु हेउसु णिकारणे वटुंतस्सपच्छित्तं भवति। चोदकाह-जाव घायरसंपारेती ताव सव्वजीवा आउयवजातो सत्त कम्मपगडीतो णिचकालं सप्पभेदा बंधति। कह अपायच्छित्ता भवति, सपायच्छित्तस्स य सोही णस्थि सोही। अभावे य मोक्खो भावो / आचार्यऽऽह -'काम गाहा तीवेषु प्रवर्ततः प्रायश्चित्त भवति, न मंदेषु शेषं कंटं। उत्तरप्रकृतीरधिकृत्त्योच्यते / गाहा - अट्ठण्हं असुभाओ, उत्तरपगडीउ होति परिच्छत्तं। अनियाणेण सुभासुं, न होति सहाणपच्छित्तं // 46 / / अट्ठण्हं पगडीण जा असुभाओ, ताणं हेउसु वट्टलस्स पच्छित्तं जहा णाणपदोसादिएसु / जा पुण सुभाओ तासु ण भवति पच्छित्तं, जहा णाणपदोस करेति तित्थगरादिपडिणीएसुवा अनिदाणेण वा सुभं बंधतस्स पायच्छित्तन भवति जहा तित्थगनामगोत्तहेउसु अरहंतसिद्धकारगगाहा (?) जम्मि भेदे जं पच्छित्तं तं च इमं भण्णतिदेसपदोसादीसु वि, लोभे अअसरिसे फासे चउगुरुगा। लहुओ पच्छित्तं पुण, हासअरतिणिवाचउक्कम्मि॥४७॥ णाणस्स जति देसे पदोसं करोति, आदिग्गहणातो णाणस्स चेव जदि देसे पडिणीयत्तं अंतराय मच्छरं निण्हवणं वा करेति, सायावेयणिज्जरस निदाणादिएहि अप्पसत्थज्झयसाओ जदि हेतुए वट्टति, लोभकसायस्स य जइ बंधहे उए वट्टति, तो मासलहु असरिसफासबंधस्स जति हेउए वट्टति, एतेसुसव्वेसु चउलहुगा पच्छितं, हामं अ Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1350 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भय भय रती निद्रा निवाणिद्दा पयला पयलापयला एयाण छण्ह पगडीणं जति हेउसु बद्दति तो मासलहुं पच्छित्तं / गाहा सव्वे णाणपदोसा-दिएसु थीणे य होति चरिमं तु / निरयाउतुणिमवझे, मिच्छे वेदे य मूलं तु / / 4 / / तिरियाउ असुभनाम-स्स चेव हेतूसु मासिय गुरुयं। सेसासु अप्पसत्था-सु हो ति सव्वासु चउलहुगा / / 46 / / णाणरस जति सव्वरस पदोसं करेति, पडिणीयादिहेउसु वा वट्टति, थीणगिद्धिणिडाए यजति हेऊए वट्टति, तोपारंचियं पच्छित्तं णिरयाउयस्स हेऊहिं सव्वहिं णामस्स जा असुभा पगडीओ ताण य हेउए वट्टति, तो मासगुरुं पच्छित्तं, (सेसासु त्ति) चउरो दंसणभेदा लोभवजा, पारस कसाया, हासादिछक्के य हासअरतिवज्जा चउरो भेदा, नीयागोयं पंचविह च, अनंतयाण पयाण अप्पसत्थाण बंधहेउसु वटुंतस्स चउलहुगा पच्छित्त। चोदकाऽऽह - सक्का अप्पसत्था-णं तु हेतवो परिहरितु पयडीणं / साहादि पसत्थाणं, कहं णु हेतु परिहेजा? ||5|| अप्रशस्तप्रकृतिहेतवो वर्जितुं शक्यन्ते, अशुभाध्यवसायवर्जनात्, कथं नित्यकालशुभाध्यवसितः साधुः शुभप्रकृतिहेतुन् वर्जयति, तेषां शुभाध्यवसायबन्धान्। चोदक एवाऽऽह / गाहाजति वा बज्झति सातं, अणुकंपादीसु तो कहं साहू ? परमणुकंपाजुत्तो, वञ्जति मुक्खसुहणुबंधा / / 51 / / जति सातं वज्झति भूयाणुकंपया ते, आदिसहातो वयसंपन्नत्ता, ते संजमजोगुज्जमेणं खंतिसंपन्नता ते, दाणरुयाए गुरुभत्तिरागेण यतो साहू एतेहिं अणुकंपाएहिं जुत्तो पुन बंधा कहं मोक्खं गच्छति, जातं पुण्णं मोक्खगमणविग्धाय हवति। किञ्चान्यत्। गाहा - सुहमवि अवेदयंतो, अवस्स असुभं पुणो य सादयते। एवं तु णत्थि मोक्खो , कहं व जयणा भवति एत्थ ? ||5|| सुहं आवेदेतो अवस्सं पावं बधति, पुण्णपावोदयाय अवस्सं संसारो भवति, अतो एवं साहुस्स मोक्खो नत्थिा कह वा एत्थ साहुणा जतियव्वं घटितव्यमित्यर्थः। गाहाअहवा ण चेव वज्झति, पुण्णं नावि असुभोदयं पावं। सव्व अणिट्ठियकम्मो, उववज्जति केण देवेसु / / 53 / / भण्णइ जहा णु कोई, महपल्ले तु सो वयति पच्छं। पक्खिवति कुंभ तस्स तु, णत्थि खओ होति एवं तु ||54! / अन्नो पुण पल्लातो, कुंभं सोहयति पक्खिवति पच्छं। तस्स खओ भवतेवं, इय जे तू मंजया जीवा // 55 / / तेसिं अप्पा णिज्जर, वज्झति पाव तेण णत्थि खओ। अप्पबंधो जया णं, बहुणिज्जरणे तेण मोक्खो तु // 56 / / अहवा अणुकंपादिएहिं पुन्नं न वज्झति ण वा पावं सवहा अपरिक्खीएकम्मे य पुन्नाभावे देवेसु केण हेउणा उववजति? एवं चोदकेणोक्ते आचार्यऽऽह -- पुव्वतवसंजमा हों --ति एसिणा पच्छिमो अगारस्स। रागो संगो वुत्तो, संगो कमसंभवो तेण / / 57|| पूर्वा इति प्रथमाः के ते तपःसंयमश्च / यत्र तपः तत्र नियमा संयमः, यत्रा संयमः तत्रापि नियमात्तपः, उभयोरव्यभिचार-प्रदर्शनार्थ तपः संयमग्रहणम्।यथा यत्राऽऽत्मा तत्रोपयोगः, यत्रोपयोगस्तत्राऽत्मा इति सामादियं छेदोवट्ठाणीयं परिहार-विसुद्धियं सुहमसंपराग च। एते पुव्यतवसंजमा एते णियमा रागिणो भवंति, तंच अहाख्यातं चारित्रामित्यर्थः / अहवा अणसणादिया जाव सुक्कज्झाणस्स आदिमा दो भेया पुहत्तवितक्वं सवियारं, एगत्तवियक अवियार च। एते पुव्वतवा, सामाइयछेदपरिहारसुहमंच / एते पुव्वतवसंजजमा णियमा रागिणो भवंति, सुहमकिरियानियट्टी वोछिन्नकिरियमप्पडिवाइंच, एते पच्छिमतवा, अहक्खायचारित्तं पच्छिमसंजमो, एतेपच्छिमतवसंजमा नियमा अरागिणो भवन्ति। एतेहिं पुव्वतव-संजमेहिं देवेहिं उववति, सरागित्वात्; रागो तिथा संगो त्ति वा एकार्थ,यतो भणितंरागो संगो वुत्तो, अहवा कम्मजणितो जीवभावो रागो, कम्मुणा सह संजोयं पत्तो स एव संगो वुत्तो, संगातो राग इति भेदेण णिवत्तमाणं कम्म, भवति तेण कम्मुणा उदिज्जमाणेण भवो भवते संसारेत्यर्थः / ते य सरागसंजजता पल्लधण्ण-पक्खेवदिट्ठतेणं बहुसोधगा अप्पबंधा कमेण पच्छिमे तवसंजमे पप्प मोक्खं गच्छन्ति। एवं सुभगपडिबधेसुसाधवो जतन्ति जम्हा पगडीहेतवेसुएवत्तंतरस एते दोसा, तम्हान बीभे, न वा पर बीहाविजा। गाहाबितियप्पदमणपज्झे, बीभे अप्पज्झ हीणसत्ते वा। खेत्ताऽऽदिय संच परं, पवाति पडिणीय तेणं वा / / 57 / / अणप्पज्झो खेत्तादिओ सयं वा बीभेति परस्स बीभावेइ, हीण सत्तो वा अप्पज्झो बीभेज खेत्तादियं वा परप्पवादिं वा पडिणीयं अणुवसमंतं सरीरोवगरणतेणं वा दुविह वा भातो निघोसेत्यर्थः। नि० चू०११ उ०। नाटकप्रसिद्ध रसभेदे, वाच०। भयरहितस्यैव स्थिरत्वमिति निर्भयत्वमाह - यस्य नास्ति परापेक्षा, स्वभावद्वैतगामिनः / तस्य किं न भयभ्रान्ति-क्लान्तिसन्तानतानवम् ? ||1|| यस्येति - स्वभावाद्वैतगामिनः स्वकीयो भावः स्वभावो निज स्वरूप-लक्षणस्तस्याद्वैतं-द्विधा इतं भेदं गतं द्वीतं, तदेव द्वैतं, न द्वैत्तमद्वैतमभेदैक्य, तत्प्रति गच्छतीत्येवंशीलः स्वभावाद्वैतमानी पुनः पुनरभेदस्वभावे प्रवर्तनशीलस्तस्य, यस्य वक्ष्यमाणगुणकदम्बयुक्तस्य। परापेक्षा परेभ्य आत्मव्यतिरिक्त पदार्थेभ्यो याउपेक्षा देहविषयाऽऽदिभ्यः सुखाऽऽदेशकाला सा / नास्ति-न विद्यते। तस्य प्रोक्तरूपस्य / भय भ्रान्तिक्लान्तिसन्तानतानवं भयम्-इहलोकभयाऽऽदि-सप्तविधत्रासः, भ्रान्तिर्विषयाऽऽदिषु सुखप्राप्त्यादिभ्रमः क्लान्तिः सांसा Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय 1381 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भय रिकप्रवर्तते श्रान्तस्यार्तिः एतेषां द्वन्द्वे कृते, तेषां यः सन्तानः परम्पराप्रवाहस्तस्य तानवं तनोविस्तानवं तनुता, स्वल्पतेति यावत् / किं न भवेत् ? अपितु भवेदेवेत्यर्थः / / 1 / / सभयत्यनिर्भयत्वाभ्यां सांसारिकज्ञानसुखयो रसारता सारते दर्शयन्नाहभवसौख्येन किं भूरि-भयज्वलनभस्मना ? सदा भयोज्झितं ज्ञानं, सुखमेव विशिष्यते // 2 // भवेति-भो भव्य ! भूरिभयज्वलनभरमना भूरीणि च तानि भयानि च भूरिभयानि इहलोकपरलोकाऽऽदानाऽकरमादजी विकाऽपश्लोकमरणरूपाणि, तान्येव ज्वलनाः सुखेन्धनज्वलनसमर्था वह्नयस्तेभ्यो जातं यद्भस्मरक्षा तेन भयज्वलनज्वालितभस्मरूपेणेति भावः। भवसौख्येन भवे संसारे गतं यत्सुखस्य भावः सौख्यं तेन / (किम्) किं फलं? न किमपि, भयशोषिताऽऽनन्दरसत्वेन निःस्वादनीयत्वात्। सदासर्वकालम्। भयोज्झितंभयैः पूर्वोक्तस्त्यक्तम्।यद्वाभयान्युज्झितानियेन तत् / ज्ञान निजस्वरूपाऽऽवेदनम्। एवं निश्चितं सुखमानन्दरूपं, विशिष्यते सर्वाधिकसुखत्वेन भिद्यते, केवल सुखत्वेनावधार्थत इत्यर्थः / / 2 / / योगिनां भयाभावे हेतून दर्शयन्नाह - न गोप्यं क्वापि नागोप्यं, हेयं देयं च न चित् / क्व भयेन मुनेः स्थेयं, ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः ?||3|| न गोप्यमितिः मुनेः परमाऽऽत्मभावप्राप्त्युपाये प्रवृत्तस्य साधोः / क्वापि ग्रामे वने दिवा रात्री च। गोप्यंगोपनीयं कपाट वस्त्राऽऽदिभिः स्थगनीयमिति यावत्। न विद्यते केनाप्यहरणीयधर्मधनत्वात्। आरोप्यमारोपणीयं क्वचित् स्थानान्तरे न्यासत्वेन स्थापनीयमपि तस्य न विद्यते स्व भावधर्मस्यान्यत्रा नेतुमशक्यत्वात् / हेय स्वभावमध्यात्त्याज्य, देयं परस्मै स्वरूपस्य दातव्यमपि च न क्वचित् कुत्रचिदपि न विद्यते, अमेदे स्वाऽऽत्मभावे तयोर विषयत्वात् ज्ञेयं ज्ञातुं योग्यं वस्तु ज्ञानेन स्यानुभवबोधस्वभावेन / पश्यत। विलोकयतः मुनेः। भयेन प्रोक्तलक्षणत्रासेन। व कुत्र। स्थेय स्थातव्यम्। तस्य सभया स्थितिः क्वास्ति ? न वापीत्यर्थ // 3 // पूर्वोक्तहेतुतो मुनिर्निर्भय एवेत्याहएकं ब्रह्मास्त्रमादाय, निघ्नन्मोहचमू मुनिः। विभेति नैव संग्राम-शीर्षस्थ इव नागराट् // 4 // एकमिति - मुनिधर्मवर्मधारकः साधुः / एकं सर्वपरिहारेणाद्वितीयं, ब्रह्मास्त्रं ब्रह्म जीवस्य निरञ्जनावस्थाऽनुयायि शुद्धज्ञानं तदेव तद्रूपं वा अस्वम् अप्रतिहतशक्तिमद् वजाऽऽदि प्रहरणं तत् आदायगृहीत्वा, (मोहवमूम) मोहोऽज्ञानं मोहनीयकर्म वा, तस्य उपलक्षणत्वाच्छेषकर्मणामपि या चमूः सैन्यं तां, निघ्नन् नितरांध्वंसयन्। (न बिभेति) भयं न गच्छति। क इव ? संग्रामशीर्षस्थः संग्रामो युद्धं तस्य यच्छीर्ष प्रकर्षतारूपं मस्तकं तास्थितः। नागराट् गजराज इव यथा न विभेति, तथा मुनिरपि भीमपरीषहोपसर्गसम्पातेऽपिन बिभेति। ब्रह्मस्वरूपावेदने संलीनचित्तत्वेन देहपीडा न जानातीत्यर्थः / / 4 / / सजागरायां ज्ञानदृष्टौ भयभाव एवेत्याह मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चे-त्प्रसर्पनि मनोवने। वेष्टनं भयसाणां, न तदाऽऽनन्दचन्दने / / 5 / / मयूरीति - हे श्लाघ्यशील ! चेद्-यदि मनोवने हृदयरूपाऽऽरामे, ज्ञानदृष्टिः शुद्धचैतन्यस्वरूपानुपायिनी ज्ञानपरिणतिस्तद्रूपा मयूरी शिखिनी मयूराणां संहतिर्वा सा। प्रसर्पत्यपूर्वापूर्वज्ञा नपरम्पराऽऽविर्भावरूपया स्वेच्छया विलासं करोति, तदा। आनन्दचन्दने परमप्रमादरूपे श्रीखण्डवृक्ष, भयसाणां भयानि पूर्वोक्तानि तान्येव सर्पा अहयस्तषां, वेष्टनं स्वशरीराऽऽभोगेन परिवेष्टनं भयानां स्वोत्पत्तितया व्यापनं, न भवति। अयं भावः-ज्ञानेन स्वस्वरूपे अविनाशित्वाऽऽदिना निर्धारित सति भयकारणाभावः स्यादित्यर्थः / / 5 / / पुनरप्युक्तार्थमेव विशेषयन्नाहकृतमोहस्त्रवैफल्यं, ज्ञानवर्म बिभर्ति यः। क्व भीस्तस्य व वा भङ्गः, कर्मसङ्ग केलिषु? // 6 // कृतेति-हे शान्तचित्त ! यो ज्ञानी, कृतमोहारत्रवैफल्यं कृत-रचित मोहस्य पूर्वोक्तरूपस्य यान्यस्त्राणि कामक्रोध हर्षशोकारत्यज्ञानभयजुगुप्साऽऽदीनि प्रहरणानि तेषां यद्वि-फलस्य भावः कर्म वा वैफल्य विगत्तशक्तित्वं येन तत्। ज्ञानवर्म ज्ञानं स्वपरत्वविवेचनमर्थबोधस्तदेव तद्रूपंवा यदर्भ तनुत्राणं, कवचमिति याचत् तत्, बिभर्ति स्थाड़े धारयतियथार्थज्ञानं प्राप्तः / तस्य पूर्वोक्तगुणविशिष्टस्य, कर्मसङ्गरकेलिषुकर्मभिर्जानाऽऽवरणाऽऽदिभिः सह यः सगरो युद्ध तस्मिन् याः केलवो दुःखाऽऽघातरूपाः क्रीडास्तासु, भीर्मयं क भवेत् ? न कापि वाअथवा भड्पराजयः क्व ? ज्ञानोदयेन निरस्तभय-मोहनीयत्वान्न क्वापीत्यर्थः / / 6 / / / भयकृतपीडाऽज्ञानिनामेवास्तीत्याह - तूनवल्लघवो मूढाः, भूमन्त्यभे भयानिलैः। नैकं रोमापि तैनि-गरिष्ठानां तु कम्पते // 7 // तूलवदिति- हे माध्यस्थ्यभङ्ग भीरो ! मूढाः-अज्ञातस्वस्वरूपाः / तूलवल्लघवः तूलमर्कतरुरू तं, तद्वत्तत्सदृशा लघवोऽल्पा महत्त्वेन रहिताः / भयानिलैर्भयानि पूर्वोक्तानि तान्येवानिला वायवस्तै / अभे सकललोकाऽऽकाशऽऽत्मके गगनमण्डले, भ्रमन्ति नानाजन्मरूपस्थानात्स्थानान्तरे वर्तुलाऽऽकारेणाटन्ति तु-पुनः ज्ञानगतिष्ठानां ज्ञानेनपूर्वोत्केन गरिष्ठागुरुतराः विशालबोधित्वेनातिवहान्त इति यावत् तेषां / तैर्भयानिलैः। एकम् आसतांप्रभूतानिएकमपीत्यंपरर्थः / रोम देहजः सूक्ष्मः केशः। उपलक्षणतो जीवप्रदेशः, तदपि। न कम्पतेनैजत इति / / 7 / / अथोपसंहारतो निर्भयताया स्थानं दर्शयन्नाह - चित्ते परिणतं तस्य, चारित्रामकुतोभयम्। अखण्डज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम् ? ||8|| चित्त इति - हे कल्याणाऽऽचरण ! अकुतोभयं न विद्यते कुतोऽपि क स्मादपि भयं भीतिर्यस्मिंस्तदकुतो भयं, चारित्रा सकलविभावनिवृत्तिपरिणामरूपः संयमः, यस्य भव्यजनस्य, चित्तेमानसि, परिणतं सकलाऽऽत्मप्रदेशेष्वङ्गाङ्गिभा Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भय 1382 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भयग वेन व्याप्तं जातं, तस्य पूर्वोक्तरूपस्याखण्डज्ञानराज्यस्य न खण्डितंन / मोहनीयकर्मभेद इति। आव०५ अ०! दूषितं मिथ्यात्वविपर्याससंशयाऽऽशंसाऽऽदिभिराज्यं ज्ञानं स्वभाव- भयकारण न० (भयकारण) भयहेतौ, "भयकारण तु तिविहं / ' विविधे नुयायी बोधस्तदेव राज्ञो भावः कर्म वा राज्य तेजोज्ञानप्रकाशो यस्येति बाह्ये भयकारणे दिव्यमनुष्यतिर्यग्भेदभिन्न इति। आव०५ अ०। यावत् तस्य / साधोोगितः कुतः कस्मात्, भयं-भीतिर्भवत् ? न भयग नि० (भृतक) भू-क्त-स्वार्थे कन्। भियते पोष्यते स्मेति भृतः / स कस्मादपि ! यदुक्तं प्रशमरतौ-आचाराध्ययनोक्तार्थभावनाचरणगुप्त एवानुकम्पिनो भृतकः / कर्मकरे, स्था०४ ठा०१3०1 भृतका मूल्यतः हृदयस्य / न तदस्ति कालविवरं, या वचनाभिभवनं स्यात् // 1 // " कर्मकरा इति। स्था० 4 ठा०१3०। पिं०। भृतको नियतकालमवधि इति / / 8|| अष्ट०१७ अष्ट। कृत्वा वेतनेन कर्मकरणाय धृतः / जं० 2 वक्ष० / जी० / भृतको भयंकर त्रि० (भयङ्कर) भयं करोति कृ अच्-मुम् च / भयज-नके, वेतनेनोदकाऽऽद्यानयनविधायीति। दशा०६ अ० / भृत्या धनिनां गृहे ''भयंकरा येह परला नैव च।" वाच०। सूत्रा०२ श्रु०७ अ०। प्रश्न०। दिन पाटकाऽऽदिमात्रेण तदादेशकरणाय प्रवृत्तो भृतकः / ग०१ अधि० / रसभेदे, डुण्डुलविहगे च। पुं०।वाच०। अप्रशस्तमनोविनयभेदे, ग०१ ध० / "भयगाण त्ति संधाण न कायव्वं / ' ध० 2 अधि० / प्रति० / अधि० / गौणनाम्ना प्राणवधे च / प्रश्न०१ आश्र० द्वार। पोषिते, भ० 12 श०७ उ०। भृतका आबालत्वात् पोषिताः / ज्ञा०१ भयंझाण न० (भयध्यान) भयं मोहान्तर्गता नोकषायरूपा प्रकृतिस्तस्य श्रु०२ अ०। भृतको भक्तदानाऽऽदिना पोषितः। प्रश्न०२ आश्र० द्वार। ध्यानं भयध्यानम्। ध्यानभेदे, कृतगजसुकुमारापसर्गस्य सोमिलस्येव। दुष्कालाऽऽदी निश्रिते च। जं०२ वक्ष०। आतु०। सचतुर्विधःभयंत त्रि० (भजमान) भज-शानच् ।न्यायाऽऽगतद्रव्याऽऽदौ विभाजके चत्तारि भयगा पण्णत्ता तं जहा-दिवसभयए, जत्ताभयए, सेवके च। वाच०। सेवा कुर्वति च।बृ०३ उ०। आ० चू०। आव०।। उच्चत्तभयए कव्वाडभयए। स्था०४ ठा० १ठा०। * भदंत पुं० भट्टारके, उपा०२ अ०। परमकल्याणयोगिनि, "उवव- (व्याख्या 'पुरिसजाय' शब्देऽस्मिन्नेवभागे 1016 पृष्ठ गता) पिणओ भयतेहिं / " व्य०१ उ०॥ इयाणिं भयगमाह - *भयान्त पुं० भयस्य-भीतेरन्तहेतुत्वात् भयान्तः। भयान्तहेतौ, जं०१ दिवसभयए य जत्ता, कव्वाले चेव होति उव्वत्तो। वक्ष०। भयगो चउदिवहो खलु, न कप्पती तारिसे दिक्खा // 425 / / भयंतमित्तपुं० (भजमानमित्र) भरुकच्छदेशस्थे जिनदेव, स्याऽऽवार्यस्य भयगो चउव्विहो-दिवसभयगो, जत्ताभयगो कव्वालभयगो, उच्चत्तभशिष्ये स्वनामख्याते साधौ, आव० 4 अ०। यगो य / एस ताव संखेवतो चउव्यिहो विन कप्पति दिक्खेउं! मयंतवंदणय न० (भजमानवन्दनक) भजमानं मां भजते सेवायां पतितः, एतेसिं चउण्ह वि सरूवमिभंअग्रे वा मम भजन करिष्यति अतोऽहमपि वन्दनसत्कं निहोरकं निवेशयामीति बुझ्या वन्दनं भजमान-वन्दकम्। द्वादशे वन्दनकदोषे, ध०२ दिवसे दिवसे घेप्पति, छिपणेण धणेण दिवसें देवसियं। अधि०। आ० चू०। जत्ताएँ होति गमणं, उभयं वा एत्तियधणेणं / / 426|| वन्दनकमधिकृत्य द्वादशकं दोषमाह सव्वस्सिं दिणे छिन्ने वा दिणे एत्तिएहिं रूवमेहिं तुमे मेकम्मकायव्यं, एवं भयति भयस्सति व मम, इह वंदति ण्होरगं णिवेसंतो। दिणे दिणे भयगो घेप्पति। सो दिणे अपुन्ने णो कप्पति पव्वावेउ / इमो जत्ताभयगोदस जोयणाणि मम सहायेण एगागिणो वा गतव्वं एत्तिएण एमेव य मेत्तीए, गारवसिक्खाविणीतोऽहं / / धणेण, ततो पातो। ते इच्छा। अन्ने उभयं भणंति-गंतव्यं, कम्मं च से स्मर्तव्यम् आचार्य ! भवन्तं वन्दमाना वयं तिष्ठाम इत्येवं निहोरक कायव्वं ति। निवेशयन् वन्दते। किमित्याह एष तावद् जने अनुवर्त्तयति मा, सेवायां इमो कव्वालभयगो - पतितो मे वर्तते इत्यर्थः / अग्रे वा मम भजनं करिष्यत्यसौ ततश्चाहमपि वन्दनकसत्कं निहोरकं निवेशयामीत्याभिप्रायवानका वन्दनेतद्भजमान कव्वाल उड्डुमादी, हत्थभित कम्ममेत्तियधणेणं। वन्दनकम्। बृ०३ उ०। आव०। प्रव०। (उत्तरार्द्धव्याख्या तु 'वंदणगदोस' एचिरकालो वा ते, कायव्वं कम्भ जं वेत्ति // 427 // कव्वालो-खितिखगओ उड्डुमादी, तस्स कम्ममप्पिणिज्जतिदो तिन्नि भयंता त्रि० (भक्तो सेवके, उपा०२ अ०। औ०। वा हत्था खातितव्या, छिन्न अच्छिन्नं वा एत्तियं ते धणं दाहामिति / इमो भयंतार त्रि० (भयत्रातृ) भयात्त्रातरि, उपा०२ अ01 अनुस्वार स्त्वला उच्चत्ते भयगो-तुम मम एचिरकालं कम्मंकायब्वं, अहंभणामि, एत्तिय क्षणिकः। औ०। सूत्रा०। ते धणं दाहामि त्ति। भयकम्म न० (भयकर्मन्) यदुदयेन भयवर्जितस्यापि जीवस्येहलो इमा जत्ताभयगे पव्वावणविहीकाऽदिसप्तप्रकारं भयमुत्पद्यते तद्भयकर्म / नोकषा यवेदनीयकर्मभेदे, कतजते गहियमोल्ले, गहिते अकयम्मि णत्थि पव्वजा। स्था०६ ठा० / भयं मोहान्तर्गता नोकषायारूपा प्रकृतिः / आतु०। भय पटवावेते गुरुगा, गहिते उड्डाहमादीणि!|४२८|| शब्दे) Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयग 1383- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भयट्ठाण कयाए जताए गहिए मोल्ले अगहिए वा कप्पइ पटवावेउंगहिए मुल्ले बंधोदवणं करेस्सति त वेल्लस्स वि कप्पति। भयगे त्ति गतं / नि० चू० अकयाए जत्ताए णो कप्पति। सेस कंट कव्वालो वि एवं चेव। उच्चत्तभयगो 11 उ०। विकाले अपुन्ने न दिक्खिज्जति। भयजणणी स्त्री० (भयजननी) सन्त्रासकारिण्याम्, बृ०१ उ०२ प्रक०। इयाणिं कम्मे बद्धभयगाण य जे कप्पंति। न कप्पति वा ते भंगविगप्पण भयज्झवसाण न० (भयाध्यवसान) अध्यवसान दे, तच्च यथा विसेसिता भणति गजसुकुमारमारकस्य सोमिलस्य। आ० चू०११०॥ छिण्णमछिण्णे य धणा, वावारिकाल इस्सरो चेव / भयट्ट त्रि० (भयार्त) भीते, प्रश्न०२ सम्ब० द्वार। सुत्तऽत्थजाणएणं, अप्पाबहुयं च णायव्वं // 426 / / भयद्वाण न० (भयस्थान) भयं मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामः, पुवस्स इमा विभासा तस्य स्थानान्यश्रया भयस्थानानि / भयाऽऽश्रये, स्था०। वावारे काले धणे, छिण्णमछिण्णे य अट्ट भंगा तु / तच्च सप्तविधम् - साविऍ गहितें अकए, मोत्तुं सेसेसु दिक्खंति // 430 / / सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता / तं जहा-इहलोगभए ? परलोगभए छिण्णो वावारो, छिण्णो कालो. छिपण धणं, छिण्णं नाम-अमुर्ग कम्म 2, आदाणभए 3, अकम्हाभए 4, वेयणाभए 5, मरणभए 6, कायव्वं एत्तिगं कालं एत्तिएण्ण धणेणं ति। एस पढ़मभंगो। वितियभंगे धणं असिलोगभए / अच्छिएणं / एवं अट्ट भंगा कायव्वा / एतेसिं अट्ठण्ह भंगाण वावारे छिपणे भय-मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामः, तस्य स्थानान्याश्रया अछिन्ने वा काले विछिण्णाछिणे सक्खीणं पुरतो साविते धणे छिण्णे भयस्थानानि, तत्र मनुष्याऽऽदिकस्य सजातीयादन्य स्मान्मनुष्यदेरेव पहिते अकए य कम्मे ण दिक्खति, सेसेसु दिक्खंति, ते य सेसा वि सकाशाद्यद्भयं भवति तदिहलोक भयम् / इहाधिकृतमीतिमतो जाती चउत्थछट्टमभंगा, अधव सेसत्ति अट्ठसु वि भंगेसु सक्खिपुरतो असाविए लोक इहलोकस्ततो भयमिति व्युत्पत्तिः। तथा विजातीयादन्यस्मात्तिर्यग् धणे छिपणे अछिण्णे वा अगहिते कए अकए वा कम्मे दिक्खांत। देवाऽऽदेः सकाशान-मनुष्याऽऽदीनां यद्भयं तत्परलोकभयं, आदीयते इयाणि पुणो एयं चेव विसेसे त्ति - इत्यादानं धनं तदर्थ चौराऽऽदिभ्यो यद् भयं तदादानभयं अकस्मादेव गहिते व अगहिते वा, छिण्णाघणे सावए ण दिक्खें ति। बाह्यानिमित्तान पेक्षं गृहाऽऽदिष्यवस्थितस्य रात्र्यादौ भयमकरमाद्भयम्। वेदना-पीड़ा तद्भयं वेदनाभयम् / मरणभयं प्रतीतम् / अश्लोकभयम अच्छिण्णधणे कप्पति, गहिते वा अगहिते वा वि / / 431 // कीर्तिभयम् / एव हि क्रियमाणे महदयशो भवतीति तद्यान्न प्रवर्तते इति। पढमततियपंचमसत्तमे य बावारकालेसु छिण्णाछिण्णेसु सक्खिपुरतो स्था०७ठा०। सावितेसु गहिते अगहिते वा छिण्णधणे ण दिक्खेति / किं कारणम् ? उच्यते-सो भणेजमए सक्खिपुरतो सावित ति। अन्नं च मए अन्नो विन उक्तं चगहितो तुज्झ अज्झाएति / अच्छिण्णं पुण धणे कप्पति, किं कारणं? इहपरलोयाऽऽपाणाम - कम्हा आजीव मरणमसिलोए। जम्हा मोल्लस्स परिमाण न कथ, अकते ये परिमाणे ववहारो न लब्भति। सत्तभयहाणाई, इमाईं सिद्धतभणियाई॥११३४।। "इस्सरे त्ति (426)" अस्य व्याख्या - भयं मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणामस्तस्य स्थानान्याश्रया जत्थ पुण होति छिण्णं, थोवो कालो व होति कम्मस्स / भयस्थानानि, तत्रा मनुष्याऽऽदिकस्य सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यातत्थ अणिस्सरें दिक्खा, ईसरो बंधं वि कारज्जा // 432 / / ऽऽदेरेव सकाशाद्यद्भयं तदिहलोक भयम्। इहाविकृतभीतिमतो जन्तो तिौ यो लोकस्ततो भयमिति व्युत्पत्तेः १।तथा परस्माद्विजातीयात्तिर्यधणं च छिपणं बहुंच कम्मं कयं च थोवं सेस, कालो विथोवो अत्थति। गदेवाऽऽदे सकाशान् मनुष्याऽऽदीनां यद्वयं तत्परलोकभयं 2, तथा एरिसे कम्मे कप्पति, जदि अणीसरोतो दिक्खिजति, ईसरो पुण थोवं आदीयते इत्यादानं तदर्थ मम सकाशादयमिदमादास्यतीति यचौराऽऽकम्मसेसं चपला वंधितुं पि कारावेज। दिभ्यो भयं तदादानभयं 3, तथा अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं गृहाऽऽकिं कारण इस्सरेण कप्पति, अणीसरे कप्पइ ? दिष्येव स्थितस्य रात्र्यादौ भयमकस्माद्यं 4, तथा धनधान्याऽऽदिततो भन्नति हीनोऽहं दुःकाले कथं जीविष्यामीति दुःकालपतनाऽऽद्याकर्णनाद्भयम्, घेत्तुं समयसमत्थो, रायकुले अत्थहाणि कते। आजीविकाभयं 5, नैमित्तिकाऽऽदीना मरिष्यसि त्वमधुनेत्यादि कथिते पेल्लस्स तेण कप्पति, रोद्दोरुसवीरिए वा वि॥४३३।। भयं मरणभयम्।६ अकार्यकरणोन्मुखस्य विवेचनायां जनापवादमुत्प्रेक्ष्य तं पव्वावितं सेसो दरिदो सयं अप्पणो घेत्तुमसमत्थो अधमो दरिद्दो भय लोकभयमिति 7 / इमानि सप्त भयस्थानानि सिद्धान्ते भणितानि। रायकुलं गच्छति दूतगेण कडति, तत्थधणक्खतो भवति, द्रव्याभावात्तं प्रव० 234 द्वार। स०। संथा। ध०। पा०। आव०। न करोति, पल्लो-दरिदो तस्स तेण कप्पति, इस्सरोपणकवुड्डिअभिणि- भयण न० (भजन) सेवने, सूत्रा० 1 श्रु०६ अ0 ज्ञा०। भज्यते सर्वत्राऽवेसा उक्कोड वि दाउं, जो पुण दग्दिो रोद्र उरस्सेण वापि बलेण जुत्तो मा | __ऽत्मा प्रह्रीक्रियते येन स भजनः। लोले, पुं० / सूत्रा० 1 श्रु० 6 अ० / Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयणा 1384 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरणी भयणा स्त्री० (भजना) सेवायाम, ज्ञा०१ श्रु०१५ अ०। आव०। सेवा च | भयसण्णा स्त्री० (भयसंज्ञा) भयं मोहनीयोदयाद् भयोद्धान्त स्य परिभोग इति। नि० चू०१ उ० / विशे० / विकल्पे, भ० 120 5 उ०। दृष्टिवदनविकाररोमाञ्चोढ़ेदाऽऽदि क्रियैव संज्ञायते ऽतयेति भयसंज्ञा / आव० नं०। व्यापञ्चा०। उत्त० भड्ने, नि० चू०१६ उ०। तदात्मके भ०७ श० 8 उ०। स्था०। प्रज्ञा०ा भयवेदनीयोदयजनितत्रासपरिणाप्ररूपणाभेदे च / आ० चू०१ अ०। परूपे संज्ञाभेदे, जी०१ प्रति०। दर्श०। स्था०। भयणिज्ज त्रि० (भजनीय) विकल्पनीये, आ० म०१ अ०। चउहिं ठाणेहिं भयसण्णा समुप्पजह / तं जहा-हीणसत्तयाए, भयवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं, मईए, तदट्ठो-वगएणं / भयणिस्सय कि० (भयनिस्सृत) मृषाभेदे, स्था० 10 ठा०। हीनसत्त्वतया सत्त्वाभावेन, मतिभयवार्ताश्रवणभीषणदर्शनाऽऽदिभयदाण न० (भयदान) भयाद्यदानं तद्भयदानम् / भयनिभित्तत्वाता जनिता बुद्धिस्तया, तदर्थोपयोगेन इहलोकाऽऽदिभय लक्षणार्थपर्यादानमपि भयमुपचारादिति। "राजारक्षपुरोहित मधुसुखमावल्लदण्ड लोचननेति। स्था० 4 ठा०१ उ० / दर्श०। आ० चू० / प्रज्ञा० / ध०। पाशिषु च / यद्दीयते भयार्था तद्भयदानं च विज्ञेयम्॥१॥" इत्युक्तलक्षणे दानभेदे, स्था० 10 ठा०। भयाईय त्रि० (भयातीत) भयादतीतो भयातीतः / भयाद दूरीभूते, उत्त० 25 अ०। भयपडिसेवणा स्त्री० (भयप्रतिषेवणा) भयं भीतिनुचौराऽऽदिभ्यस्तस्मात्प्रतिषेवणा भयप्रतिषेवणा / प्रतिषेवणाभेदे, यथा राजाऽऽद्यभि भयाउल त्रि० (भयाऽऽकुल) भयव्यग्रे, सूत्रा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। योगान्मार्गाऽऽदि दर्शयति, सिंहाऽऽदिभयावा वृक्षमारोहति / उक्तं च - भयाणगपुं० (भयानक) विभेत्यस्मात् भी आना। व्याघ्र, राहौ, वाच० / "भयमभिओगेण सीहमाईओ।" स्था० 10 ठा०। भयजनकसङ्ग्रामाऽऽदिवस्तुदर्शनाऽऽदिप्रभवे रसभेदे, स चेह रौद्ररसेऽ न्तर्भवति / अनु० / भयङ्करे, त्रि०। वाच०। आव० 4 अ०। भयपरीसह पुं० (भयपरीषह) परीषहभेदे, उत्त 2 अ०। भयाणीय नि० (भयाऽऽनीत) भयमानीतं येन स भयाऽऽनीतः भयप्रापके, भयप्पत्त त्रि० (प्राप्तभय) भयं प्राप्ते, "भयप्पत्ते भीरू समावदेजा मोसं भ०३ श०२ उ०। वयणाए।" आचा०१ अ०३ चू०। * भयानीक न० भयं भयहेतुत्वात् अनीकं भयानीकम्। भयहेतु-भूते भयभीरु त्रि० (भयभीरु) भयेन भीते, ''भयं परिजाणइ से णिग्गंथे को सेन्ये, भ०३ श०२ उ०। भयभीरुए सिया। आचा०१ श्रु०३ चू०। भयाल पुं० (भयाल) एकोनविंशतितमस्य भारते वर्षे आगमिष्यन्त्याभयभिण्णसण्ण त्रि० (भयभिन्नसंज्ञ) भयेन-भीत्या भिन्नानष्टा संज्ञा मुत्सर्पिण्या भविष्यतो यशोधरस्य तीर्थकरस्य पूर्वभवनामधेये, स०। अन्तःकरणवृत्तिर्यस्य / भयेन नष्टान्तः करणवृत्तिके, सूत्रा०१ श्रु०१५ भयावह त्रिी० (भयाऽऽवह) भयमावहति / भयप्रापके. सूत्रा०१ श्रु० अ०१ उ०। 13 अ०। भयभेरव त्रि० (भयभैरव) भयेन भैरवोऽत्यन्तसाधवसोत्पादकः / उत्त० भर पुं० (भर) बिभर्तीति भरः। विच गुणः / धारके, पोषके च०। गा०। 15 अ०। अत्यन्तरौद्रभयजनके, 'भयभेरवसदप्पहासे ।"दश 1 अ०। * भरपु० भृ० अप्। अतिशये, वाच०। भारे, अनु०॥ दुर्निर्वहत्वाद् भर इव "भीमा भयभेरवा उराला।" उत्त०१५ अ० भरः। अतिगुरुकायें , "भरनित्थरणसमत्था।“आ० म०१ अ०। आ० भयमाण त्रि० (भजत्) सेवमाने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। उपासना चू०। संघाते, "ओसारिए धणभरो।"आव०४ अ०। "समभरघडताए विदधाने, स्था०६ ठा० / अनुवर्तमाने च / प्रव०२ द्वार। चिट्ठइ।' भ० 1 श०६ उ० / "बहुसाधुसम्मट्टै च / ध० 3 अधि० / भयमोहाणिज्ज न० (भयमोहनीय) यदुदयवशात्सनिमित्तमनिमित्तं वा आचारे, विशे० / भरणकर्त्तरि, त्रि० / वाच० / 'उप्पंको ओप्पीला, तथारूपं स्वसंकल्पतो जीवस्य सप्तविध भयं भवति तद्रूपमोहनीय- उक्केरो पहयरो गणो पयरो। ओहो निवहो संघो, संघाओ सहरो निअरो कर्मभेदे, पं० सं०३ द्वार। कर्म०। // 18 // " संदोहो निउरूं (1) बो, भरो नियाओ समूहनामाई।" पाइ० भयवंदणय न० (भयवन्दनक) कुलाद् गच्छात् क्षेत्राद्वा निष्काशयिष्ये ना०१८-१६ गाथा। अहमिति भयाद्वन्दनकं भयवन्दनकम्। एकादशे वन्दनकदोषे, ध०२ भरण न० (भरण) भू-ल्युट्। पूरणे, ज्ञा०१श्रु०२अ० स्था। घोषकलअधि०। प्रव०। आ० चू०। “भयं तु नितहणाईयं। 'निर्वृहणं गच्छान्नि- | ताया च / स्त्री०। डीप्। वाच०। ष्काशनं तदाऽऽदिकं यद्यं तेन यत्र बन्दते तद्भयवन्दनकम्। बृ०३ उ०। / भरणिज्ज त्रि० (भरणीय) पोषणीये स्था०१० ठा० / आव०। भरणीस्त्री० (भरणी) यमदेवताके अश्वन्यवधिके द्वितीये नक्षत्र, अनु०। भयवक्क न० (भयवाक्य) भयोत्पादनार्थमुच्यमाने वाक्ये, यथा नरकगतौ ज्यो० / जं०। रुधिराऽऽद्यभावेऽपि रुद्धिराऽऽदिदर्शनम् / दर्श०३ तत्त्व / दो भरणी। (स्था०२ ठा०३ उ०। चं० प्र०) भरणीणक्खत्ते भयवग्गाम (देशी) मोढेरके, दे० ना०६ वर्ग 102 गाथा। तितारे पण्णत्ते / स०३ सम० स्था०। Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1385 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह भरह पु० (भरत) भरं तनोति तन-डः / " वितस्ति -वसति-भरतकातर-मातुलिङ्गेहः" / / 8 / 1 / 214 / / इति प्राकृत-सूत्रेण तस्य हः / प्रा०१पाद। 'जडमरत' इति ख्याते मुनिभेदे, नाट्यशास्त्रस्य अलङ्कारशास्त्रस्य च कर्तरि मुनिभेदे, शवरे, तन्तुवाये, क्षेत्रे, केकयीसुते रामानुजे च। भरतेन प्रोक्तं भारतं नाट्यशास्त्रमधीयते अण् / तस्य लुक / नटेषु, दुष्यन्तेन शकुन्तलायामुत्पादिते नृपभेदे, पुं० / तस्यापत्यानि इत्र / तस्य बहुषु लुक्। भरतवंश्ये नृपे, पुं०1वाच०। नाभिकुलकरस्य पौत्रे आदिजिनस्य ऋषभदेवस्य ज्येष्ठपुत्रो भरतवर्षाधिपे स्व-नामख्याते चक्रवर्तिनि, स०। स्था०। प्रव०। ति०। आ० म०। कल्प०। पञ्चा०। "भरहो वि भारहं वासं, चिचा कामाई पव्वए।" उत्त० पाई०१८ अ०। अयोध्यायां नगा श्रीऋषभदेवपुत्राः पूर्वभवकृतमुनिज्जनवैयावृत्यार्जितचक्रिभोगः प्रथमचक्री भरतनामास्ति, तस्य नवनिधानानां चतुर्दशरत्नानां द्वात्रिशत्सहस्र नरपतीनां द्विसप्ततिसहस्रपुरवराणां षण्णवतिकोटग्रामाणां चतुरशीतिसहस्रहयगजरथानां षट्खण्डभरतस्य ऐश्वर्य कुवर्तः स्वसंपत्त्यनुसारेण साधर्मिकवात्सल्यं कुर्वनः स्वयं कारिताष्टापदशिरः संस्थित चतुर्मुखयोजनाऽऽयामजिनाऽऽयतनमध्य स्थापितनिजनिज वपुः प्रमाणोपेतश्रीऋषभाऽऽदिचतुर्विशतिजनप्रतिमावन्दनार्चनं समाचरतः श्रीभरतचक्रिणः पञ्चपूर्वलक्षाणयतिकन्तानि, अन्यदा महाविभूत्वा उद्वर्तितदेहः सर्वालङ्कारविभूषितः स भरतचक्री आदर्शभवने गतः। तत्रा स्व देहं प्रेक्षमाणस्य अङ्गुलीयकं पतितं, तच्च तेन न ज्ञातं, आदर्शभित्तौ स्वदेहं पश्यता तेन पतितमुद्रिका स्वकराङ्गुली अशोभमाना दृष्टा ततो द्वितीयाङ्गुलीतोऽपि मुद्रिकाःऽपनीता साऽप्यशोभमाना दृष्टाः ततःक्रमात्सर्वाङ्गाऽऽभरणानि उत्तरितानि तदा स्वशरीरमतीवाशोभमानं निरीक्ष्य संवेगमापन्नश्चक्री एवं चिन्तितुं प्रवृत्तः अहो ! आगन्तुकद्रव्यैरेवेदं शरीरं शोभते, न स्वभावसुन्दरम् / अपि च एतच्छरीरसङ्गेन सुन्दरमपि वस्तु विनश्यति। उक्तंच"मणुन असणं पाणं, विविहं खाइम साइमं। सरीरसंगमावन्नं, सव्वं पि असुई भवे / / 1 / / वरं वत्थं वरं पुप्फं वरं गंधविलेवणं। विणस्सए सरीरेण, वरं सयणमासणं / / 2 / / निहाणं सव्वरोगाणं, कयग्घमथिर इमं / पंचासुहभूअमयं, अपक्कापरिकम्मणं // 3 // " इति। तत एतच्छरीरकृते सर्वथा न युक्तमनेकपापकर्मकरणेन मनुष्यजन्महारणम् / यत उक्तम्-" लोहाय नावं जलधौ भिन्नत्ति, सूत्राय धैडूर्यमणि दृणाति / स चन्दनंल्पोषति भस्मराशेर्यो मानुषत्वं नयतीन्द्रियार्थे ।।१।।"इत्यादिकं चिन्तयतः तस्य भरतस्य प्राप्तभावचारित्रास्य प्रवर्द्धमानशुभाऽध्यवसायस्य क्षपक श्रेणिं प्रपन्नस्य के वलज्ञानं समुत्पन्नम / शकस्तत्रा समायातः कथयतिच-द्रव्यलिङ्ग प्रपद्यस्य येन दीक्षाया उत्सवं करोमि / ततो भरतकेवलिना स्वमस्तके पञ्चमौष्टिको लोचः कृतः / शासनदेवतया च रजोहरणोपकरणानिदत्तानि। दशससहस्वराजभिः समं प्रव्रजितो भरतः शेषचक्रिणस्त सहस्र परिवारेण प्रव्रजिताः / ततः शक्रेण वन्दितोऽसौ ग्रामाऽऽकरनगरेषु भ्रमन् भव्यसत्त्वान् प्रतिबोधयन् एक पूर्वलक्षं यावत् केवलपर्यायं पालयित्वां परिनिर्वृतः। / तत्पट्टे च शक्रेण आदित्ययशा नृपोऽभिविक्तः / उत्त०१८ अ०। (आदित्यय शोवृत्तान्तः आइचजस' शब्दे द्वितीयभागे 3 पृष्ठे गतः) भरहस्स णं रणो चाउरंतकवट्टिस्स अट्ठ पुरिसजुगाई अणुबद्धं सिद्धाइ० जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई / तं जहोआइचजसे, महाजसे, अइबले, महाबले, तेयवीरिए कित्तवीरिए दंडवीरिए, जलबीरिए। स्था०८ ठा०। आयंसघरपवेसो, भरहे पडणं च अंगुलीअस्स। सेसाणं उम्मुअणं, संवेगो नाएँ दिक्खा य / / 436 // ___अस्या नियुक्तिगाथाया भावार्थः कथातो ज्ञेयः'निर्वाणं स्वामिनि प्राप्ते, चैत्ये तत्रा च कारिते। जगाम भरतोऽयोध्या-मल्पशोकः क्रमादभूत् / / 1 / / भोगान् भोक्तुं पुनरपि, प्रावृतद्भव ईदृशः। तस्य चैवं पञ्चपूर्वलक्षी याता मुहूर्त्तवत्॥२॥ अथान्यदाऽगमचक्री, सर्वाड्कारभूषितः। द्रष्टुं स्वदर्पणागारं, यत्राङ्गं वीक्ष्यतेऽखिलम् / / 3 / / ता स्वं पश्यतो राज्ञः, पपाताडु लिमुद्रिका। न सा ज्ञाताऽथ निःशोभा-मङ्गली वीक्ष्य दध्यिवान्॥४॥ भूषणेनैव शोभेय, सहजा नेति चिन्तया। एकैकं भूषणं मुञ्चन्, सर्वाण्यपि मुमोच सः / / 5 / / निःश्रीकमथ निना-म्भोजं सर इवाखिलम्। पश्यन् स्वाङ्ग विरक्तोऽभू-दङ्गनास्वपि तन्मतिः // 6 / / एवं च ध्यायतस्तस्य, शुक्लध्याजनमजायत। उत्पेदे केवलज्ञानं, गृहिवेषभृतोऽपि हि / / 7 / / ऊवेशक्रस्तदैवेत्य, द्रव्यलिङ्गं प्रपद्यताम्। भरतेन ततो लोचः,प्रचक्रे पञ्चमुष्टिकः॥ पतद्ग्रहरजोहत्या-द्युपधिं देवताऽऽनयत्। प्रवव्राज महाराजः, सहसैर्दशभिः सह / / 6 / / निष्क्रान्ताश्चकिणोऽन्ये च, सहकपरिच्छदाः। महिमानं विधायाथ, शक्रो राजर्षिमानमत् / / 10 / / स्थित्वा केवलिपर्याये, पूर्वलक्षं स निर्वृतः। चक्रेऽष्टौ पुरुषयुगान्येषां शक्रोऽभिषेचनम्॥११॥" आ० क०१ अ०। भरहेणं राया चाउरंतचक्कवट्टी पंचधणुसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं होत्था स०५०० सम०। स्था०। (विस्तरेण भरतचक्रवर्तिनो वक्तव्यता भरवर्षवक्तव्यताऽवसरेऽत्रीव निरूपयिष्यते) उज्जयिनीनगरप्रत्यासन्ननटग्रामस्थे स्वनामख्याते नटे, उज्जयिनीमधिकृत्य 'प्रत्यासन्नो नटग्रामस्तत्राऽऽसीद् भरतो नटः।' आ०क०१ अ०० आव० मूर्च्छनानां स्वरविशेषप्रतिपादकशास्त्रकर्तरि स्वनामख्याते आचार्ये च। स्था०७ठा०। जम्बूद्वीस्थे वर्षभेदे, न०। स०७ सम०। प्रव०। कल्प० / प्रश्न०। जं०। "हिमवंतसागरंतं, वीरा मोत्तूण भारह वास" प्रश्न०४ द्वार। स्था०। भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छपुव्वसहस्साई महाराया Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह भरहेसरचरिय"नाभेयनाहस्स फुडं पवित्तं, वत्तव्वमेत्थं चरियं विचित्तं। अइप्पसिद्धं ति विगप्पिऊणं, भव्वाण निव्वाणसुहावहं ति।।१।। मोत्तूण लेसेण भणामि कि पि, जम्माउ तम्मज्झगयं इमं पि। नाणापगार भरहाहिवस्स, सव्यं पि नेयं चरियं इमाउ॥२॥ पायं तहा विऽत्थ सुमज्झभाए, खित्तस्स एयस्स पुरी विसाला। दीहा उ सा वारसजोयणाई. वित्थारएणं नवजोयणाई॥३॥ सामिस्स रजस्सऽभिसेयकाले, गया मणूसा जलआणणत्थं सुरेसुरो आसणकंपबुद्धो, समागओ झ त्ति जिणेसरम्मि॥४॥ किरीडमाईभरणाभिराम, काऊण कप्पावणिजे च चिट्ठइ। सक्को जिणिंदस्सतडोवविठ्ठो, तावाऽऽगया घित्तु जलं घडेहिं / / 5 / / दुटुं जिणं भूसियलित्तगत्त, चितंति किं काउचियं इयाणिं। चिंचित्तु चित्तेण चिरं विणीया, सिंचंति सामि चलणोवरिम्मि / / 6 / / साहू विणीया पुरिस त्ति काउं, विणीयनामेण पुरी पहाणा। पुट्विं कया जा जिणरज्जकजे, तुट्टेण सक्केण तु देवरम्मा।।७।। रजं तहिं पालइ नाहिजाओ, नरिंददेविंदकयचणो य। सयं च सामी उसभो जिणिंदो, सद्धिं सजायाएं सुमंगलाए|८|| तहा सुनंदाभरहाऽऽइएहिं, सुएहिँ ऽणेगेहि य मुत्तमेहि। सद्दाइए कामगुणे विसाले, गमेइ कालं उवभुंजमाणो / / 6 / / तिसट्ठिलक्खंहिँ सुहं सुहेणं, पुव्वाण काऊण मणोभिरामं। रजिं सुरिंदो व्व वियाणिऊण, पव्वजकालं अह देइ दाण // 10 // संवच्छरं जाव किमिच्छियंतु, वंछाए निव्वाण पयाभिलासी। दाऊण भूमिं सयलं सुयाणं, पहाणरायं भरहं तु काउं / / 11 / / अन्नाण राईण सहस्सएहिं चक्कीहिँ सद्धिं अह लेइ दिक्खं। गामाऽऽगराऽऽरामविहारगेसु. पवण्णमोणो विहरेइ सामी // 12 // किंचं अकिचंच अपुच्छिऊण, पुब्बिं जहा सामि तहा वयं पि। काहामों किं वात्थ वियारिऊण, . काऊण लोयं तु वयं पवण्णा / / 13 / / नाणत्तयालोइयकिनभायो, सामी सयं ते वि अयाणमाणा। पुच्छिति सामिं न कहेइ किं यि, समाउला तण्हछुहाभिभूया।॥१४॥ जिणस्स हिंडितु कमाणुलग्गा, केई दिणे मूढमणा उताहे। चिति वि अम्हं किमियाणि कज्जे, कजं महाकिच्छमिण भणंति // 15 // भणंति ते मूढमणा जहा भो, सामि न पुच्छित्थकिम पिपुट्ठो। तण्हाछुहावाहियसब्दगत्ता, गच्छामों गेहं भरहाहिवंतो॥१६|| सामि पमोत्तूण कहं इहाया, पयण्णभंगो विन होइ रन्नो। फलासिणो होमाँ तणेसुसत्थे, पवत्तई जाव जिणो सुतित्थं / / 17 / / एवं विचिंतितु गया उ सव्वे, गंगानईए तडसंठिएसु। वणेसु ते वक्कलचीरधारी, कंदाइ मूलाइ फलाइ खंति // 18|| गया नमी वा विणमी कह पि. जिणस्स दिक्खासमए वि दो वि। समागया तं पियरं भणंति, कत्थं महाकत्थमिणं सुवक्कं / / 16 / / रजंच रटुंच पुरं च चित्तं, काउं विभागी सयणाइ दिन्नं। ताताय अम्हाण वि किं विदेहि, ___ भणंति ते नत्थि हु किंचि अम्ह // 20 // देवाण जक्खाण य किन्नराणं नराण नारीण य खेयराणं। सुहाण सव्वाण जिणं पमोत्तुं, नो अस्थि दाया भवुणेऽखिले वि।२१।। ताजाह तुब्भे तुरियं जिणस्स, पासे तिसंझं विणयावनम्मा। भत्तीऍ राहेहऽचिरेण देही, रजं च रटुं च पहाणलोए।।२२। गया तओ दो वि जिणस्स पासे, पासंति सामि ठियओवविलु। वीरासणाई करणोवउत्तं, भिक्खाएँ गेहंसु य रीयमाणं / / 23 / / सराण आणीय घडेहिं नीरं, सिंचंति भूमीऍतलं तिसझं। आजाणुमाणं कुसुमोक्यारं, काउंगमसंतिथुणंति एवं // 24 // तं माणदाया भुवणेऽखिले वि, नटे Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1387- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह तं नाहनाहोऽसि अणाहयाणं। तं सोक्खदाया य दुहट्टियाणं, तं कप्परुक्खोऽसि फलत्थियाण // 25 // तंवदिओ देव! सुरासुरेहिं तं वन्निओ जक्खसु किंनरेहिं। तं पूइओ दाणव-खेयरहिं.' तं नाह! नाया भुवणायरस्स॥२६।। तं देव! दाया य किभिच्छ्यिस्स, तं सामि! सामी य असामियस्स। तं देहिं अम्हाण विसालवच्छ! रजंच रटुं च सुणिद्धअच्छा / / 27| परंपराएउ सिसि इच्छा, पच्छा उजाणूकरउत्तिमंगे। भूमीऍ काउं धरणीयलम्मि, तिक्खुत्तहत्तं अभिवंदिऊण ||28|| पासेसु चिट्ठति सुखग्गवग्गा; दिणे दिणे भत्तिसुनिब्भरंगा। कुणंति जा के वि दिणे तिसंझं, एवं ति ता नागपहू पहिट्ठा // 26 // जिणस्स आगच्छइ वंदणत्थं, ते तम्मि काले कुसुमोवयारं! काउंनमंसित्तु पए पहाणे, भणति तं सामि! भवाहि दाया / / 30 / / भोगाण रज्जस्स जिणायरेण, ते जायमाणे धरणो सुणेता। नागिंदराया पभणेइ भो सो, सामी असंगो परिचत्तवित्तो // 31 // ममत्तबुद्धिं न करेइ देहे. संखं व सामी उ अरंगणिज्जो। कुम्मो व गुत्तो सयलिंदिएहि, मुणालपत्तं व निरूवलेवो // 32 // गउव्व निचं अनियत्तगामी, दव्वे य भाये तहखेत्तें काले। असंगबुद्धी समसत्तुमित्तो, न देइ वा किंचि न फेडईह॥३३॥ सामिस्स सेवा अह लाभहेऊ, ता देमि तुम्हाण अहं जिणस्स। विजासहस्से अडयायलीसं, पण्णत्तिगोरीपमुहेण सग्गा // 34 // तो जाह वेयड्वनगे विसाले, तो दाहिणिल्लाए अहुत्तराए। सेढीऍ गंतूण लहु करेत्ता, पन्नाससेढीय पुरे पहाणे॥३५॥ आईए काउंरहनेउरंतु, अहा तुरिल्ले गगणंगणहूं। पुरं निवेसित्तु तडे विसाले, बहुंजणं विज्ञ्जबलेण नेउं // 36 // हिंडेह इच्छाएँ नहे सुरो व्व, एवं तिते सामिप (क) यप्पसाया। नागिंददिन्नं पडिवजयंति, अपुचमत्तीऍपसण्णमाणसा॥३७॥* गिछिहत्तु सामिस्स कयप्पणामा, नागिंदरायं अभिवंदिऊण। गंतूण सामिम्स कयप्पसाय: चिंतित्तु रोमचियसव्यगत्ता॥३८|| विजाकयं दिव्वविमानरूढा, पिऊण पासे उवदंसयति। रिद्धिं च सव्व पि कहंति वत्तं, विणीऍ गंतु भरहेसरस्स // 36 // कहति सव्वं पिजणस्समूह, नेउऽचलो भित्तु तहा करंति। तयप्पमाणे नयरे विसाले, तेसिं महीसु रिसहस्स बिब // 40|| करति भत्तिभरनिब्भरंगा, नमी महप्पा य सुदक्षिणाए। सेढीऍ इच्छापडिपुन्नभोए. अह उत्तराए विनमी वि राया // 41 // भुजेइ भए जह देवराया, सामी वि भिक्खाएँ गिहे गिहे य। हिंडेइ गामे नगरे य निच्च, न पावई भिक्खमणेसणीयं / / 42|| जओ न जाणाइ जणो किमपि। गिहागयं दिदु जिणं पहिहो। जणोऽभिमतेइ गयस्सयाहिं, पुप्फेहि मुत्ताहलदेवदूसे // 43 // पहाणअस्सेहिँ रहेहिँ निच्चं, संवच्छर जाव उचीरधारी। निरस्सणो हिंडिउ हत्थिणक्खे, पुरे विसालम्मि गओ महप्पा / / 44|| तत्थऽस्थि सोमप्पभनामराया। सेयसनामो कुमरो वरो वि। तत्धत्थि पुत्तो भरहाहिवस्स, भणंति सो बाहुबलिस्स अंते॥४५॥ विसालकित्ती गुणगामठाणं, ते दो वि सेढीऍ परोप्परंतु। कहति लद्धे सुमिणे पसत्थे। कहेइ सेयंसु जहा चलंतो॥४६॥ मेरू सठाणाउमएहि दिट्ठो, चिचा य ते उम्मयकुंभसिण्णो। ठिओ सठाणेहिं य दिप्पमाणे, सूराउ दित्ती चलिया उठाणा // 47 // किया उते ठाणठिया अणेण, सेट्ठी जहा कोइ महामहंतो। नरो रणे जुज्झइ संतगत्तो, सेयंसनामक्कयपाडिहेरो॥४८॥ *गिण्हति विजा सहसान ऊण, पन्नास आया य विगप्पसिद्धो॥३७॥ Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1388 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह हणेइ सिन्नं सयलं रिऊणं, परोप्परं साहिउ लद्धिईओ। तयत्थयं ते उ अयाणमाणा, गया सठाणं सुमिणाइँ ते उ॥४६॥ सुहं कुमारस्स परं तु अत्थि, मेरु व्व सामी वि हु निप्पकंपो। गंभीरमातोलियनीरनाहो, अमूच्छिओ चत्तममत्तसंगो॥५०॥ गेहाणुगेहं अह रीयमाणो, समागओ रायपहे विसाले। गवक्खचक्खू गयदेहमाहो, निरिक्खिओ सामि झड ति चित्तो॥५१॥ दिट्ठो कया वेरिसरूवधारी, अबोहईहाऐं गवेसणाय। एवं करंतस्स सुझाण जोगा, जाईए जायं सरणं तहा उ॥५२।। निमीलिअच्छो अह मुच्छ्याए, खणं तह चिट्टियओ परित्ता। चिंतेइ देवो जइ एज एत्थ, तो देमि भिक्खं अह एसणिज्जं // 53 // जिणस्स भत्तिभर णिब्भरंगो, नागिंददेविंदनरिंदचंद। सोक्खाण ठाणं सयलाण आसी, करेमि लोयाण तहा पवित्तिं // 54 // दंसेमि अन्नाणविमोहियाणं, विगप्पकल्लोलसमाउलस्स। सेयंससुद्धासयलोयणस्स, नरो अहिक्खूयरसस्स कुंभं // 55|| घेत्तुं समीपे पगहेइ जाव, तिगुत्तिगुत्तो इरियोवउत्तो। गिह गिहेण अह रीयमाणो, अमुच्छियप्पा सयणे धणे य॥५६।। समागओ सामि कम कमेण, दर्दू जिणं किण्हिरिसं नरम्मि। विवड्माणोसियरोमकूवो, आणंदबिंदूजलकिन्नदिट्ठी॥५७॥ सग्गं च मत्तं च अयाणमाणे, वंदितु भूमीकयपंचमंगो। भणाइ सामी! रसमेसणीय, गिहाहि तारेहि भवन्नवाओ // 58|| तओ पसारेइ जिणे सुपाणी, विसुद्धलेसे सुविसुद्धबुद्धी। पसत्थझाणोऽथ झड त्ति देइ, आणंदसंदोहमुवागओ सो // 56 / / धन्नातिधन्नं कय किच्चयं ति, जयम्मि अप्याण वि मन्नामाणो। सामी वि संवच्छरपारणम्मि, पारित्तु तं इक्खुरसं मणुन्नं / / 60 / / सुससत्थदेहो सुहपीणियंगो, अहा जहिच्छ विहरेइपच्छा। सेमागया तत्थ मराऽसुरा वि, नरा वि नारी हरिसं वहंता // 61 / / * अहो अहो दाणामण भणंति, मुचंति गंधोदयपुप्फमिस्स। उक्किट्वधारं दविणस्स झ त्ति, चेलोउखेवंतचुन्नवासं // 62 // सयं च राया य पहाणसिट्टी, समागओ सेसजणो वि तत्थ। भणंति एसो सुमिणुस्स अत्थो. पाराविओ सामि सबच्छराओ॥६३॥ तओ जणो विम्हियमाणसो उ, पुच्छेइ नायं कहमेयमेत्थ। कहेइ सव्वं भवमाइकिचं, एयम्मि लोए पुण जाव जाओ॥६४॥ जाइस्सराओ सयलं पि नायं, धम्म अधम्म जिणभिक्खदाणं। एवं जणा भत्तिभरावनम्मा. दिजाहि भिक्खं जिणनायगस्स // 6 // करेइ पीढ रयणामयं तु भिक्खालया जत्थ ठिएण तत्थ। सेयंसणामो कुमरो महप्पा, रम्म जिणाणं गयमोहएणं / / 66|| अचित्तु तं भत्तिभरो वरेहि, पुप्फेहिं गंधेहि य उत्तमेहि। दिणे दिणे भुजइ काउमेयं, पुच्छेइ लोओ किमियं कहेह॥६७।। जिणो मए जत्थ विओ रसेण, पाराविओ भत्तिसुनिन्भरेण / मा अक्कमही तु जणो जिणस्स. पाए पर पीढमिणं कयं मे॥६८|| एवं जिणो पारइ जत्थ जत्थ, लोगो वि पीढं पगरेइ तत्थ। आइचपीढं ति परंपराए, खयं गयं कालवेसण पच्छा।।६।। जहासुहं हिंडउ गामदेसे, सहस्समेवं वरिसाण पुन्न। अओ परं घाइकम खवेइ, पावेइ नाणं जिण केवलं तु // 70 / / नरेहिं सामिस्स पउतिहेउं, निउत्तएहिं भरहाहिवस्स। नाणं पहाणं कहियं च जायं, आऊहपालेण वि चक्कवत्ती।।७१।। उग्घोसमाइण्णिय इट्टसिद्धी. अद्धच्चुयं किं पि हि संतरंतो। * सुदुंदुहीओगगणंगणम्मि, समा कुणंती हरिसं वहता // 61 // Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह अणूहवंतो मणसा विचिंते, पूजारिहा दो वि ममेऽत्थ अस्थि / / 7 / / न नजई कस्स पुणोऽत्थ कज्जा, पूया जिणिंदस्स व चक्कदाइणो। नायं जहा चक्कफलं इहेव, दाही जिणो समगऽपवग्दाया / / 73 // एवं विचिंतित्तु पवित्तगत्तो, पहाओ सुई सव्वविलित्तअंगो। हारऽद्धहारक्कडयंगयाई, किरीडलोलचलकुंडलंगो / / 74|| सिंदूरपूरारुणकुंडकूड दाणदगंडस्थलभिभलस्स। पेट्टाइँघंटाजुयसोहियस्स, आरोद कंधे जइ वारणस्स।।७५।। दिक्खापवण्णे जिण्णायगम्मि, झूरेइ देवी मरुदेविनामा। सिणेहभावा भरह भणाइ, पुत्तो ममं हिंडइ चत्तसंगो // 76|| तुमं तु राया भरहे नरीसो, सुहं सुहेणं पकरेह रजें। तण्हाछुहाओ उसहो सहेई, दिणे दिणे झूरइ एवमेव।।७।। अम्मो ! जिणो सव्वज (ग) यस्सनेया, का एसॉ रिद्धी मह रज्जमेत्ता। चक्खूसु तो झूरइ नीलि जाया, नसद्दहेई वयणं तयस्स।।७८॥ सामिस्स रिद्धिं पभणेइ एहिं. दंसेइ अम्मो! जइ कोडिअंसं। अपघाइ रिद्धी जह काचखंड, अतम्मईया वयरामणिस्स / / 7 / / एवं भणित्ता पुणओ करित्तु, अउव्व आणद मण्णे वहति। देविंदरहिं अणुगम्ममाणे, ___ मयप्पवायद्धकवोलएहिं / / 8 / / एएहिं चिंद्धद्धयआउलेहि, सुतूररावभरियंवरेहि। घंटाटणकारमणोहरेहिं. सुचक्कचिक्कारपरंपरेहिं।।१।। लुरक्खुरीखुण्णमहीतलेहिं, वगंतवग्गावसकंधरहि। आवद्धबेगवसदुद्धरेहि, हएहिँ हसाभारियचरेहि / / 82|| पहाणनानावरगिल्लिथिल्लि - सुहासणासंदगजाणगेहिं।। मयंगतुगत्तुरगप्पहाण - सुदसणारूढमणोणुगेहिं।।८।। मंभाइमेरीरवपूरियासो, मंगल्लगीयजयरावरम्मो। चिंधद्धयाडोयपडायपति, लेलिज्जआयासतलावभाऊ // 84|| मज्झण्हे मज्झण्हे व नीहरित्तु, रम्भा अउज्झाएँ अहक्कमेण। जेणेव सामी सयलुज्जएइ, सव्वायरेण अह जाइ राया |8|| छत्ताइछत्तं जिणनायगस्स, पासित्तु देविं भरहो भणाइ। पेच्छामि अम्मो ! नयपुत्तरिद्धिं. न एरिसा कस्स वि अत्थि लोए॥८६॥ एवं सुणित्ता हरिसुचरंत रोमंचकंचुचयचारुगत्ता। फारेइ चक्खूजुयमूससित्तु, ता नीलि नट्ठा तिमिरं व सूरा // 87|| सुणेइ सई सुहमागहाणं, भेरीण रावं सुरताडियाणं / उकिट्टिनायं निवयं तु जंतरा, सुरासुरं जाणविमाणमूढ // 88|| माणिकहेमजुणतारफार - निप्फन्नसालत्तणचिंधरम्म विमाणमालाहिँ नहं पकिन्नं, निसाएँ तारागणसंकुलं व॥८६॥ पासित्तु देवी मनसा विचिंते, अहो अहं मोहवसा उ खित्ता। जिणो सयं एरिसरिद्धिमंतो, पिहुं पिहुं कम्ममिणं जियाण ||6|| जतोऽत्थजुतो कुसलो णुधम्मो, एवं सुहज्झाणवसाणुगासा। अउव्वजीवचिर उल्लसा उ, आरोद से दिखयगं कमेण // 1 // संजायणाणाइसया महप्पा, खावतुकासव खवित्तु कम्मं सयलं झडि ति। पत्ता सिवंसेयसओक्खरम्म, समागया देवऽसुराण संघा॥६२|| कयं ति पूयं पढमो त्ति काउं, सिद्धो इहं तस्स सरीरंग तु। सक्कारिउ खीरसमुद्दमज्झे, खिवंति खिप्पं भरहाहिवो वि॥६३|| गतुं जिणं पूयइ भत्तिजुत्तो, सामी वि देवासुरकिंनराणं। नराण नारीण य खेयराणं, कहेइ धम्म सिवसंगपावगं ||14|| भवण्णवे पोयसमाणमेवं, अन्नाणघंपावतरूकुठारं। निसम्म धम्म जिणनायगस्स, पासे पवज्जित्तु सुसावगत्तं / / 6 / / अट्ठाहिय काह अहायरेण, समागओ चक्किवरो सठाणे। गंतुं सठाणे भरहोऽवि राया, सिंहासणे पुव्यमुहोवविट्ठो॥६६॥ Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1360- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह कोडविएसबिउआणवेइ. सव्वं विणीयं यररायहाणिं। भो भो! जहा खिप्पमखेवमेव, सबाहिरभंतरमेव चित्तं / / 67|| आसीयसम्मजियओवलितं, मंचाइमंचक्कलियं करेह। कालागरुद्धूयमहम्मघंत सुगंधिगंधप्पवराऽऽदिभूयं / / 68|| सतोरणं मंगलकुंभजुत्तं, काउं कहेहेह ममे त्ति कटु। तो चक्कपूयाहिनिविट्ठदिट्टी, गतु सयंण्हाणघरे पयांणे |EEN सुवण्णमाणिक्कमए विसाले, सुनिद्धिरे तो विसई स पीढ। सुगंधिसारामललक्खपाय - सहस्सपायप्पमुहेहिं चित्ते / / 100|| तिल्लेहिँऽभंगं पढमं तु काउं. संवाहयंती पुरिसा सुछेया। संवाहिउव्वट्टियसव्वयंगो, विहीऍण्हागं पकरेइ पच्छा।।१०१।। पसत्थऽवच्चेसुपसत्थबुद्धी, नियंसए चंदणचच्चियगो। दिवित्तनाणामाणभूसियंगो, ससिव्व आणंदकरो जणाणं / / 102 / / नारीसरोसूयपहाणपुप्फ सुगंधहत्थो अभिनिक्खमेइ। जेणेव चक्कस्सघरे विसालो, जेणेव चक्के रयणे पसिद्धे।।१०३।। तेणेव गंतुंमणसेति नाउं. तस्सेव रण्णो बहवे विसाले। राइस्सराऽऽरक्खियमत्थयंति, सामि तु पेसाहि व सत्थबाहं / / 104 / / माडविकोडिवियसेट्ठिमाई, मग्गाणुलग्गा तयणुप्पयाया। विचित्तनेवत्थधरा सुवत्था, विचित्तनाणामणिभूसियंगा // 105 // विचित्तछतज्झयचिंधछन्न - नहंगणा चित्तफलप्पसत्था। तओऽत्थ खुजाउ सुचामराउ, बीजंतपासोभयसंठियाओ॥१०६|| भिंगारहत्था कलसज्जुया उ, केई सतालिंटसदीविया उ। गंधुद्धरद्धूपकडुच्छउत्थ धूमोवयारितदिसतराओ / / 107 / / बुद्धारविन्दुप्पलसारपुप्फ मालाऽऽउला आउलमम्गलम्गा। विचित्तभासाहि मणोहराउ, विणीयभावाणुगसुंदराउ ||108|| सव्वाएँ इड्डीऍ जुईऍ जुत्तो, वाइत्तगीयाऽऽरवपूरियाऽऽसो। एवं समागच्छइ चक्कमेहं, जेणेव चक्कं अह तेण जाइ।।१०।। तेणेव गंतुं अह आयरेण, आलोयमित्ते करई पण्णाम। पसत्थहत्थेण तुलोमहत्थं, परामुसित्ता ण पमज्जई हु।।११०।। पवित्तपाणीऍ सुधारयाए, अब्भुविखओ चेव सुचंदणेण। पंचगुलीचारुतलं दलाइ, दलित्तुमग्गेहिं वरेहिं पच्छा॥१११॥ पुप्फेहिं इंदीवरउप्पलेहिं. गंधेहिँ चुण्णेहिं य उत्तमेहि, गंधट्टियावट्टियचंचरीय, चलंतझंकारमणाहरेहिं // 112|| अंचित्तु आयंपकरेइ पच्छा. विचित्तवीण सुयबाहुरम्म। आरोहण पुप्फसुमल्लगंध, धूवाण भूसाभरणप्पहाणं / / 113 / / मायंगदंतप्पहपडुरेहिं, अखंडिएहिं वरसालिजेहिं। सच्छेहि तारामयतंदुलहिं काउं तओ दप्पणमाइयाई / / 114|| लिहेइ अट्ठऽट्ठसुमंगलाई. मदारइंदीवरकण्णियारं / / असोगजायंजवपंचगंतु दसद्धवण्णं कुसुमोहमासु॥११५॥ तओ पुरी मुंचइ चारुचित्तं, सुवण्णनिप्फन्नकडुच्छुएण। वेडुजवजुडभडदंडएण, दलाइ चूपक्कयधूवधूमं॥११६|| तमालतालीदलसम्मलासं, पयाहिणीकाउ तिक्खुत्तअत्तो। पचोसकित्ताइ पयाइँ सत्त, अट्टेव अच्वे अहवामजाणुं॥११७|| भूती' काउंतह दक्खिणं तु. तिक्खुत्तहुत्तो अह उत्तिमगं। इलातले मीलिय ईसिनम्मो, काउंसिरे तो करकोरयं तु॥११८|| नमेइ चक्र रयणप्पहाणं, भत्ताण जं वंछियदायगं परं। एवं करित्ता अभिनिक्खभेइ चक्काउहागारगमंडवाओ॥११६। पहिप्पबुद्धाण वरा सुसाला, तेणेव आगंतु वरे विसाले। पुव्वंमुहो तो सुहओवविठ्ठो, अट्ठारस स्सेणिपसेणिया उ॥१२०|| सद्दाविउ आणमिणं दलाइ, करेह खिप्पं च परंतु सव्व। Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह भरह 1391 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 उस्सुक्कयं सुक्ककर अदेज़, अमेजसुक्किट्ठमरप्पवेसं॥१२१।। अचडिदड तु कुदंडवज्र, विलासिणीनाडयनहरम्म / अणेगतालायरतालरम्म, कहाणपाऽऽखित्तजणेहिं किन्नं // 122 / / सुमत्तमालाउलमग्गसोह, पमोयपुण्णं नडनट्टरम्म। अट्ठाहियं चारुमहामहेण. महारिहं चककवरस्ससम्म॥१२३|| सम्माणदाणाइमहामहत्थं, काऊणिमं सव्व ममं कहेह। एवं त्ति काऊण कहंति जाव, चई वितं ताव महामहंते॥१२४।। सयाउ गेहा अभिनिक्खमाइ, तओ तितूराऽऽरवपूरियाऽऽसा / गंगानईए अह दक्खिणेणं, कूलेण जंजक्खसहस्स (जुत्त) संजुयं / / 125 / / पयाइ पुष्वाभिमुहं तु चक्क, राया य पिढे भरहाहिवो त्ति। सयं सयं साहिउमुजयंतु, छक्खंडखेत्तं भरहं इमं ति॥१२६।। कयंवपुप्फ पि व कंट्यंगो, मांडविकोडविनरे भणेइ। सजेह भो! हत्थिरहप्पहाण, पाइक्कचकं तुरयावकिन्न / / 127 // चिंधद्वयप्पंतिपरंपराहि, आपूरितासेसनह पिसेन्न। तमालकाल मयगंधलुद्ध - मुद्धालिझंकाररवाभिरामं // 128|| सिंदूरपूरारुणचच्चियंग, करेह सजं अयवारणं पि। दाऊणिमं किंकरमाणवाणं, आणत्तियं मजणगेहमासु // 126 / / तो जाइ पुव्वोइयनीऍ जाव, चंदो व्य चक्खूण सुहं जणंतो। यहाणग्गिहातो अभिणिक्खमित्तु, सेणाए जुत्तो चउरंगिणीए।।१३०।। भडेहिं सेट्टीहिय सत्थवाह राईसरामच्चतलारएहिं। उट्टाणसालाएँ गहिब्भवाए, जेणेव हत्थीरयणं पसत्थ।।१३१॥ तेणेव चाऽऽगम्म रुहेइ हत्थिं, पुव्वाचलम्मि उदए रविव्व। हारद्धहाराऽऽइविभूसियंगो, सुकुंडलुज्जोइयचारुअंगो॥१३२।। किरीडकूडब्भवचारूचंच माणिक्कमुत्ताकिरणाभिरामो। इड्वीरें दित्तीऍ जुई जुत्तो, नगाण नेय व्व विराजमाणो।।१३३।। धणो व्व चंदो वि दिप्पयंतो. सुराण मज्झेऽज्ज पुरंदरो व्व। कुरिटमालाउलछत्तछन्न नहंमाणो चामरचारुसोहो // 134 // मायगखंधोवगओ सुदिण्णो, चमूएँ जुतो चउरंगिणीए। तुरंगहेसारहचक्कचीक्का रतुंगमायंगघडाघणाए।१३५॥ पाइक्कपुक्कारयखेडखम्ग कोयंडदंडभडमीसणाए। णेयारगामागरपट्टणाणं, दोणामुहाणं णिगमागमाणं // 136 / / मडवसंवाहयखेडयाणं, पुराण साराण य पट्टणाण। आधारभूयं वसुहं जिणतो, कम कमेण रयणाइँ अग्धं // 137 / / पडिच्छमाणो व पमोयदित्त, जम्मतरोवजियपुन्नपावा। सुसाहुवेयावडिउत्थपुग्न संपुत्रबीयब्भवभाविसारो // 138 // फलेस संगिहिउकाम एव, गंगाएँ तो दाहिणकूलपत्तो। चक्काणुमग अणुगच्छमाणो, अणेगवासेसु सुहंण ठाउं॥१३६।। जेणेव तित्थं अमागहं तु. तेणेव गच्छित्तु महानरिंदो। काऊण तो जोयण वार दीहं, वित्थारओ वी नव जोअणाई||१४०|| सेण्णं तओ वट्टइ आणवेइ, करेह मे गेहवरं विसालं। सुपोसहं जत्थ करेमि तं पि, छणं करित्ता पकहेह मज्झ / / 141 // एवं भणित्ता अभिवंदिऊण, करित्तु सव्वं पकरेइ पच्छा। तओ नरिंदो गयकंधराओ, पचोरुहिता स सरीरचिटुं|१४२।। करित्तु ता पोसहमदिरम्मि, ___ गंतु पमन्जित्तु विहीऍपच्छा। रयत्तसेचं कुसयत्तणेहिं. निक्खित्तसत्तो वरबंभयारी॥१४३।। कुमारग मागहतित्थसामि, गणे करेत्ता अह ठाइ तत्थ। मुणि व्व मुत्तामणिचाउगण्णो, पसत्थचित्तो सुहझाणजुत्तो।।१४४॥ चिचा दिणे तिन्नि तओ तयंते, जलंतसूरे अडउट्ठियम्मि! निगंतु हाणं पिह मंडवाइ पवेसणाई सयलं पि कट्ट।।१४।। Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1392 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह रह रुहिता वरसेन्नजुत्तो, चक्काणुमग अणुजाइपच्छा। पाइकवुक्कारवसिंहनाय - सतारघंटारवघोसएहिं।।१४६|| चक्राणुमग्गेण उ नीरनाह, उग्गाहइत्ता इह नाहि जाव / बीओ तहिं मागहतित्थमज्झे, गिहित्तु पत्तो तुरग पसत्थं / / 147|| पहाणगंडीवसजीवदिव्यं, सुरिंदवाचं व मण्णेभिरामं। ओसंसपुंखं रयणामयं तु, नामऽकियं चारुफलावलीदं // 148 // सजीवकोदंडयजीवमज्झे, परामुसित्ता पकरित्तु सिज्ज / विसालठाणं रइउपहाण आइन्नयाइड्डियचारुठाणो॥१४६।। आसण्णदेवासुरजाणट्टा, उदाहरित्था वयणा इमाई। भो भो! सुणतु प्पवराहिराजे, देवासुरा किन्नरजक्खसिद्धा॥१५०।। तहऽतलिक्खा धरणीऍजे उ, महोरगा भूयपिसायजक्खा। तुझं भयत्ताण इमो नमामि, बाणस्स सिग्धं गमणं तु होउ।।१५१।। एवं करित्ता अभिनिस्सरेइ, सरंपहाणं तु सनाभजुत्तं / गंतूण सो वारस जोयणाई, महानिनायं कवडेइ कट्ट।। 152 / / दवण वाणं पडियं मुहग्गे, विचिंतई मागहतित्थनेया। कस्सेह कुद्धो खलु कालमचू, को का गिहे अंतग जाउकामो ||153 / / दिट्ट च कालेण व कस्स मूलं, को वा सयं मच्चुमुहं वि गता। णिहीण पुण्णे य सिरीविहूणा, अलक्खणे लज्जविवज्जिए य॥१५४॥ दुरंतपते अचउदिसे य, जो मज्झ गेहे निसिरेइ वाणं। किण्हाहिदादाहि वणेइ कड्ढुं सुरिंदचावेण जिणाइ सत्तं / / 155|| मा इन्हिया नीरभरेण तिन्नो, वाणेण वो मे वसिड सहेइ। खणं विमं कट्ट वसंत को वा, उट्ठित्तु मुंचेइ सरं करेण / / 156 / / जा वाचियं नाममिण सरत्थं, ता जाणई जाउ जहेत्थ चक्की। तिकालभावीण वि जीयमेयं, कुमार तित्थाहिवमागहाणं / / 157 / / अब्भुट्टणं जंपकरति सव्वं, सव्वाण चक्कीण नरीसराणं! एवं विचिंतित्तु सरं गहिता, हारं किरीड तुडिए कडे य॥१५८|| सुकुडले वत्थवरे विचित्ते. तित्थोदगं आभरणाइ चित्तं / माणिक्कमुत्तामणिभूसियंगो, सकिंकिणीवत्थनियंसयंगो।।१५६।। जेणेव चक्की भरहो विसालो. तेणेव चाऽऽगम्म नहंगणत्थो। करंजलिं काउ सिरे पहाणं, जएण तं वा विजएण भत्ते / / 160 / / बद्धाहि खेत्तं भरह समत्थं, ममऽजिए सिद्धमणी नरीस ! अहं तु तुझं विसए वसामि, समूद्दमझे निलयं करित्ता / / 161 / / आणाएँ तुभं च ठिओ सयाऽवि, पुविल्लवो ते अहमतिवासी। हाराइते ढोयइ ढोयणीयं, राया वितं इच्छइ सारवत्थो / / 162|| पच्छा तओ तित्थवई कुमार, सक्कारिउं अंजलि काउ सीसे। विसजिय एइ सयं सठाणे, आगंतु पचोरुहई रहाओ / / 163 / / पहाणाऽऽइयं कट्ट तओवयारं, पारेइतो भोयणमंडवंसि। सुहासणत्थो विहिएऽहमते, . उट्ठाणसालाएँ विहंत गंतु।।१६४॥ पुव्वक्कमेणेव महामह तु, कारावई तस्स सुरस्स राया। तयतिए आउहमंडवाओ, तो दिव्यचक्के वरवज्जतुल्ले॥१६५।। सुलोहियक्खे तह हेभनेमी, सुनीलमुत्ताहलभूसियंगे। सणंदिघोसे य सखिखिणीए, ककेल्लिगुजारविमंडलाभे // 166|| नचंतनाणानरनारिरम्मे, सुजायहेमामयखिंखिणिल्ले। सव्वोउयप्पुप्फकआवयारे, नहत्थजक्खस्सहसोवउत्ते / / 167|| सतूरसइब्भरियंतराले, निग्गच्छई तो रयणाण जेहो। सुदसणे दाहिणपच्छिमिल्लं, मज्झेण मज्झेण तु मंगलाणं / / 168 // रायाऽणुगमित्तु पयाणमणे, जेणेव गम्मे वरदामतित्थे। तेणेव पच्छाउपयाइ झत्ति, चक्की वि चक्काणुपएण गंतुं।।१६६॥ कमेण तेणेव-उअद्धमते, सव्विढिए आसवरंसि रूढे। Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह गंतुं तओ दाहिणले विभाए. विऊ सयं ठाणकर्म करेइ / / 170 / / कमेण तेयं वरदामनेया, सपीइदाणं दलयाइमाल। किरीडमुत्तागणयाण जालं, दिण्णम्मि एमाइ सुरेण दाणे॥१७१॥ विसजयंतो वरदामनेय, सक्कारसम्माणसुभत्तिपुव्वं / सय सठाणाऽऽगमणं करेइ, पुव्बोइयासेसमहामहाई॥१७२।। किचाऽवसाणे अवरुत्तरेण, तहेव गंतुकडग त्ति वेसं। काउंतहा पोसहअट्ठमाई तहेव तो जावऽवराहु पत्तो // 173 / / पभासनेया वितहा गमित्ता, दलाइ चूडाकडभूसणं तु। उरत्थलालंकरणं कडे य, दाणावसाणे य पभासणे यं / / 174 / / विसजिउं पुथ्वकमेण जाइ. ठाणे संय पारिउ अट्टमंऽते। आणत्तियं पुटवकमेण देइ, अदंडिमुस्संक कुदंडियज्ज / / 175 / / करेत्तु सेन्न सयलं पि हिड सतोरणं चिंधपए य छत्तं। आउज्जगीयद्धणिपूरियामं, पभाससामिस्स महं विसालं / / 176 / / * तो किंकरा तं सिरसा नमित्ता. पडिच्छियं कट्ट कहंति झत्ति। महावसाणे गयणगणत्थं, पयाइ चक्कं तु पहासतित्था1१७७॥ सिंधूऍ कूले अह दाक्खणेणं, पुव्वासुहे गेहअदूरदेसे। चक्की य चक्काणुगमेण गंतु, सवाहगामागरमज्झमज्झ॥१७८|| काउंनिवेस सिविरस्स पच्छा करेइ पुव्वेण कमेण सव्वं। आऊसय अट्टमभत्तभत्तं, स सिंधुदेवी चलियासणाउ।।१७६।। नाप्पेण नाउं जह चक्कवट्टी, समागओ एस महामहप्पा। तो जीवकप्पं सरिउंगहेइ, कुंभस्सहस्सं रयणाभिरामं // 18 // भद्दासणे दुन्न विवित्तचित्ते, ___ हेमम्मए वत्थविभूसणे य। आगम्म आगासतलावलीए, सप्पस्सयं पुव्बकमेण पुन्न।।१८१।। समप्पई अंबरकोसलीयं, * अट्ठाहियं चारु करेह खिप्पं, मणोहरालंकरणेहि जुत्तं // 176 // चक्की वि हिट्टो पगहेइ सम्म। विसज्जणे ठाणगमाइ कटु, पुव्बोइयं सव्वमिणं कमेण / / 12 / / अट्टाहियाचारुमहामहंते. पयाइ ईसाणदिसाण चक्कं / पहाणवेयड्डनगाहिमुक्खे, कमेण तो पुव्वविवणिणएण।।१८३।। सिन्नं पमोत्तुं नगदाहणेणं, तहेव वेयङ्ककुमारनेयं। आराहई आसणकंपबुद्धो, सुरो समागम्म दलाइ दाणं / / 184 // पहाणोवओगी सयल पि भंड, नाणत्तमेयं ति तहेव अण्ण। विसज्जणाई करणावसाणे, चकं तओ पुय्वदिसाएँ जाइ॥१८५|| तत्थऽस्थिसाराति सहं सुहत्थि तो तीयनेया किरि मालदेवा। पुव्वोझ्यासेसकमेण सो वि, समागआ देइ य पीइदाणं / / 186|| केऊरमाई तिलगावसाणं, पहाणइत्थीरयणस्स भूसा अण्णं पि सारंतु बहुप्पयार, सुभूसणं जा कडए तुडीए॥१८७|| महावसाणा भरहेसवाया, सुसेणसेणावइनामयं तो। सहित्तु एवं वयई महप्पा, गच्छाहि सिंधू' नइं चरत्थं॥१८८|| सुनिक्खुडं सिंधुदहीवसाणं, अण्णं पिसाहे विनमं समंच। अग्गातिसारातिपहाणयाई, अग्घाइ नाणामणिभूसणाइ॥१८६।। पडिच्छ इच्छाहि जहिच्छयाए, सुहंसुहेणं बहुसिण्णजुत्तो। खिप्पं करित्ता सयलं कहह, ममेयमाणत्तियमेत्थमासु // 16 // तह त्ति एवं विणउत्तमंगो, पवजिउं एति स (म) यम्मि सिन्ने। तओ सुसेणाहिवई महप्पा, महाबले भारहखित्तखाए // 16 // महाजसे लक्खणलक्खियंगे, मिलक्खुमास व्व सुचारुभासी। वियाणए भारहनिक्खुडाणं, निन्नाण दुग्गाण दुरासयाणं / / 162 / / कलाऽऽलए सत्थपवित्थरंतु, सेणावई तो रयणे पहिडे। सद्दित्तु माडविकुडुविलोए, आणत्तियं देइ जहेह सिग्घं / / 163 / / सजेह सारे जयवारणम्मि सेन्न समत्थं गथदंसणाई। दाऊण माणत्तिय किंकराण्णं, Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1394 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह नियर सयं गओ मज्नणगेहमज्झं।।१६४।। णहाणग्गिहाओ पडिणिक्खमित्ता, सामंतमाईहऽणुगम्ममाणे। पहाणमायंगसुखंवरूढो, पयाइ सिंधु सबलो बलिट्टो / / 165|| कमेण पत्तो रयणं पहाणं, __ चम्मं करेणं परिसंफुसेइ। जं नाम भूवं सलिले समुद्दे, अकयवित्थारविभूसियं तु॥१६६।। धन्नाण सव्वाण विठावियाणं, निप्फत्तिहेऊय दिणेसमज्झे। तो पक्खिये सिंधुतई मज्झे, तं वित्थरे वारस जोयणाई।।१६७।। सेन्नं समारोविय तत्थ सव्वं, सुहं सुहेणं तु नईतरि व्व। गामागरावासविहाररम्म, मडंवसंवाहसुकोट्टकिण्णं / / 168 / / सुसिंहले बद्ध मणीगणेहिं, सुअंचलोए परमं चरम्म। पहाणमण्णं जवणं व दीव, विचित्तनाणामणिहेमकोसं ||166|| सुयारवेलोमकएलसंडे, दीवाहिवासी वरनिक्खुडे य।। कलम्मुहे जोयणाए पयंडे, अन्ने य वेयड्डसि उत्तराउ॥२००|| मेच्छाण जाइं बहुयप्पयारं, चरेण जा सिंधुससागरंत। सव्वं च गच्छं अह ओयवेळ, सेणाहिणेयाऽखलियप्पयाओ।।२०१॥ मणोहरे तो य निउत्तिऊण, बहूसहे भूरमणिज्जभागे। तस्सेव गच्छस्स ठिओ पहिढे. __ताहे बहूदेसणगाण हिट्ठा / / 202 / / जयट्ठणाणं वरमंडलाणं, खेडाण दोणीमुहआगराणं। ते घेत्तु नाणामणि भूसणाई, दिव्वाइ अग्धाइ सुपाहुडाई॥२०३।। वत्थाइ नाणारयण इ चित्तं, रहाइ मायंगहयाइ सारं। रायारिहं जंच पवञ्जियव्यं, अन्नं च तं से उवणिंति तस्स // 204 / / कयंजलीओ पुण विन्नविंति, तुम्हेऽत्थ अम्हाण सुसामिय त्ति। नेया पहू देव इव प्पगिद्धा, तुम्हाण अम्हे विसओपभोगी / / 205 // एवं भणंता हियए पहिठ्ठा, सम्माणिउंसेन्नहिवेण सव्वे। सएसुगामेसु गयाउ मुक्का, ताहे सयं घेत्तु सपाहुडाई॥२०६।। अहीणआणेऽखलियप्पयारा, ठाणे तओ सेन्नसमत्थजुत्तो। सुहं सुहेणं नरनाहपासे, पच्चप्पिणाई सयलं तु रिद्धिं // 207|| पचंतियाणं नरनाहसेवा - पडिच्छणं साहइ भत्तिजुतो। बहुप्पयारं भरहाहिवेणं, विसजिओ पूइउ नेहसार।।२०८|| तओ सठाणे वरसेन्ननेया, गंतूण पासायवरोवरिम्मि। बत्तीसबद्धाइ सुनाडयाइ, लीलाए पेच्छं स सओवभुंजे // 206 / / ततो पुणो चक्किसुसेणनाम 'सेणावई सड्विउ आणावे। गच्छाहिं खिप्पं तिमिसगुहाए, चारुक्कवाडे य विहाडएह॥२१०।। तह त्ति आणं पडिवजिऊण, गतुंसयं पोसहमंदिरम्मि। निक्खित्तु सत्थेउ सुसंथरम्मि, ठाउं तओ कासि मुणि व्व संती॥२११॥ तयतिए पोसहमदिराओ ऽभिनिक्खमित्ता सुइहाणरत्तो। कप्पूरधूवागुरुगंधपुप्फ हत्थेसु चेडीगणगम्ममाणो।।२१।। जेणं कवाडे अह तेण गंतुं. महाविभूईए नरीसरो व्व। चकस्स वा कट्ट महामहं तु, दंडाभिहं तो रयणं पगिण्हे / / 213 / / जं वासतुल्लं वयरामयं ति, विणासणं सत्तुगणाण कंतं। सेन्नस्सुहो गंडदरीपवाय पब्भारडोलागसमीकर व / / 214|| सुहं च संति च हियं मणित्थं, मणोहराणं करणं पसत्थं। पच्चोसकिन्ना य पसत्थ सत्त, ओहाडएते य कवाडए उ॥२१५|| कुंचारवं चारुमहासरेण, सरस्सरासाररवं कुणते। सयाइँ ठाणाइँ ठिए कवाडे, एवं कहेई नरहाहिवस्स // 216|| चक्की च हत्थीवरखंधरूढो, मणिंच संगिहिउ आमुसेइ। रूवाहिए अंगुल तिणि माणं, अणग्घयत्तं सुबलं सयं च // 217 // अणोवमाभं मणिवेरुलीयं, दिव्यं सया सव्वजियाण क्त। मुद्धागय ज सयलं पि दुक्खं, हरेइ आरोगकरं सया वि॥२१८॥ तेरिच्छिया दिव्वमणुस्सया वि, Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह न किंचि दुक्खं उवसग्गया वि। करति सव्वं समरे वि नूण, असत्थमज्झे हवई सया वि // 21 // मणि पहाणं रयणं धरतो, अवट्टिआ जोव्वणकेसरोमो। न होइ होई भयवंतगुत्तो, घेत्तूण हत्थेण नराहिवो तं // 220|| गयस्स कुंभीऍउ दाहिणाए, खिवित्तु सार भम्हो नरिंदो। हारद्धहारप्पविरायवच्छो, सुराहिरायस्समरिद्धिजुत्तो // 221 / / उज्जोइयाऽऽसो य मणिप्पहाए, चक्काणुमग्गेण पयाइ दित्तो। रायासहस्सेहिंऽणुजायमग्गो, समत्थसेण्णाणुपओ विसाभो।।२२२॥ उक्किट्ठवंदीजयसिंहनाय झंकारभेरीरवपूरियाऽऽसो / अईइ दारेण उ दक्खिणेणं, महज्जुई से तिमिसंगुहाए।।२२३।। पमाणओ से चउरंगुलं जं. विसावहारी परमं पगिट्ठ। उज्जोयई बारस जोयणाई. चंदा व राईऍसमत्थरोन्नं / / 224|| न तत्थ सूरो न ससीन अग्गी, पणासई से तिमिसंधयारं। तं कामिणी दिव्वजुई गहाय, पुस्विल्लपच्छिल्लयसेन्नयस्स।।२२५।। एगासहेउ तिमिसगुहाए, एणूणपणाससुमंडलाइं। आयामविक्खमपमाणणेण, धणूण पंचस्स य माणयाणि // 226|| सुक्कोसई चंदसमे य चक्के, सुचक्कनेमिस्समसव्वभावो। सुभित्तिपज्जोयण अंतरे य, देदिप्पमाणे लहुसु प्पवित्तो // 227 / / सलाहमाणे हलिहेयमाणे, सुहं सुहेणं विसई पहिटे। जा चक्कवट्टी वरमंडलाइ, तहेब चिट्ठति गुहासया वि।।२२८|| आलोयउज्जोयभुजो गुहा सा, जाया पभावेण सुमंडलाणं। तीसे गुहाए बहुमज्झदेसे. जलाउ उम्मग्गनिमग्ग अत्थिं // 226 // तिणं व कट्ठ गयअस्सजोह, पहाणमाई पढमा तलम्मि। पडेइ बीयाउ तलम्मि नेइ, तो दो वि पुविल्लयनिक्खुडाओ॥२३०॥ गया उ जा सिंधुनई समुद्दे, तेसिंतरिट्टो पकरेइ हिट्ठो। सुवट्टई दक्खमई कलत्तं, सुसोयबंध अचलं अकंप // 231 / / अणेगथंभूसियचारुरम्म, सुहप्पवेसं सुहनिगमंच। आएसओ चक्किवरस्सतत्तो, सिधू' पुब्विल्लतडेण तेहिं॥२३२|| सुसकमेहिं अह उतरेणं कमेण पतस्स अहुत्तरे वि। कुंचारवं चारुसरं करते, ठिए सटाणे सुवरक्कवाडे।।२३३॥ तत्तो ससेन्नो परिनीहरेइ, अवोडिया उत्तरभारहम्मि। चिलाइया तेसु पयंडदंडा, अड्डा य दित्ता धणधण्णजुता / / 234|| सुवण्णमाणिक्कहिरण्णगुण्णा, वित्थिन्नपासायविसालसेन्ना। विसालसेज्जासणसावएज्जा, उइन्नजोहा हयवाहणट्ठा / / 235|| सुदंसणा सिंधुरवारसारा, गवेलहासोभयसत्तसारा। सूरा दढा वीरपक्कमा य, अणेगसंगामसएसुलद्धा / / 236|| माहप्पविक्खायबला दुजोहा, तओ य तेसि विसए पविट्ठ। बलं करे चक्कितणं सयाइ, उव्वड ठाणं अवलोइऊण।।२३७|| झायंति चिंतोयगया भणंति, कएस अप्पत्थियपत्थएसो। निहीण पुन्ने स दुरंतपंते, अलक्खणे कालकयंतगामी // 23 // एवंविहोपद्दवकारि अम्हं, अनन्ननाणोवणता य तत्थ। सब्वे गआ से मिलिया चिलाया, पासित्तु एवं रुसिया भणंति॥२३॥ जहा न आगच्छइ एस भूओ, तहा पयत्तं करिमो ससेन्ना। अग्गाणि एंतो पहरंति झत्ति, वारण मेहब्भवयं व सिन्नं / / 240 // दिसे दिसिं चक्कतणं तु नीयं, तओसुसेण रयणे अहस्से। रुहेइ खग्गं रयणं गहित्तु, चिलाइए ता सइ आसुरुत्ते॥२४१।। भीया पलाइत्तु पहारभग्गा, उद्विग्गदीणा विमणा अथामा। गया सई सिंधुतडे विसाले, मिलित्तु सव्वेगपए पसत्थे||२४|| सुवालुगासंथरए रुहति, पगेण्हिउं अट्ठमभत्तियं तु। उत्ताणगा अबरचीरधारी, मेहामुहाणं कुलदेवयाणां // 243 // Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1396 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह कुणंति ते राहणसंतचित्ता, तेसिं सुराणं अह अट्ठमंते। चलंति सिंहासणए विसाले, नाणेण नाउं अह अंबरत्था / / 244|| भणति दाहामु करेमु किं पि, तओय ते हिट्ठभणुम्मुहा य / जएण बद्धाविउदाउ अग्छ, सिरंजालिं कट्ट भणति के से॥२४५॥ अम्हाण देसे वि सईदुरप्पा. ता तं सिवारेह जहा तहा नो। पुण्णो अमागच्छइ दुड्डचित्तो, एवं-सुणेत्ता कुलदेवयाए / / 246 // अणंति एसो असझो सुगणं, नएस सत्थस्स विसस्ससज्झो। न एस अग्गीऍ हिमाण उज्झो, नएस मंताण व तंतगज्झो / / 247 // सुणेह भो देवपिया ! महप्पा, सुचकवड्डी भरहेसराया। ण एस सक्कापुरिसत्तणेण, णिवारिउं केण व पाणिणत्थ।।२४८।। तहा वि तुम्हाणुवरोहओ से, करेस्समुवसरगमहामहंत। एयं भणित्ता य तयंतियाओ, गच्छंति उप्पं कडगस्स झति॥२४६।। कुणंति वासं मुसलप्पमाणं, मुट्ठिप्पमाणं जलधारयाहिं। बहलंधपारं घणवायजुत्तं, सुभीसणं कलकयंततुल्लं॥२५०|| ते सत्तरत्तं भरहो तओ से. परामुसे धम्ममणिं पगिट्ठ। पवित्थरे बारह जोणणाई, हियाइ किंची परसं पहेय।।२५१।। कसन्नए तत्थ रुहित्तु राया, परामुसे छत्तमणि विसालं। पवित्थरे चम्म व तं पिउप्पिं, मणी ठवेइ अह मज्झभागे।।२५२।। अहो य चम्म उवरि च छत्तं, मज्झे मणि जोइयसव्वसेन्नं / न तत्थ रांगो न भयं न वाही, समेन्नजुत्तस्स नरीसरस्स॥२५३।। सव्वाणि धन्नाणि रुहंति तत्थ, सब्वाइ सागाइहवंति खिप्पं / पुव्वत्हकाले उववेंति साली, मज्झन्हकाले पविसति लोया / / 254 / / न तत्थ राई न दिणं न चंदो नक्खत्तमाला न गहा न सूरो। समुन्नयं सव्वजय पि जायं, भएण हीणं सुहसंतिजुत्तं // 25 // तओपभि बंभपुराणगतं. सुहं सुडेणं अह सत्तरत्तो। आ चिट्ठई तो अभिओगदेवा, चिंतंति एयाएँ महाजुईए // 256 / / इवीरें दित्तीऍपराऍ रन्नो, सुबकवट्टित्तमहामहाए। लद्धाएँ पत्ताऐं समागयाएँ. विवढमाणस्स वि देवहम्मा // 257|| करेंति एवं भरहेसरस्स. * पचक्खमत्ताण पराभवं तु / पेहित्तु एवं दस छत्सहस्स देवाण संबद्धसुबद्धकच्छा॥२५८।। नाणाउहा बम्मियदेहधारी, समागया नागकुरपासे। अहंसु एवं जह भो न किं वा, तुब्भे वियाणे जह एस चक्की / / 256 / / जाओ महप्पा भरहे विसाले, विक्खायाकित्ती नरदेवमज्झे। आणावहा जस्म नरा सूरा वि, कयं सहेव भरहंसमत्थं / / 260|| सदाणवं जेण बसे स तुब्भे, न याणहा कीस खली करेत्ता। एवं गए वी पडिसंकरेहा, एवं भणिजा जह किं न सिट्ठ // 261|! दिव्योवसर्ग पसमेह खिप्प, णो चेवणं पासह जीवलोयं / अजैव चित्तं न भवेह पच्छा, तुज्झेतओ तं पसमित्तु सव्वं // 262|| गच्छति आवाडचिलायपासे, कहित्तु तेसिं पि जहा पवित्तं / भणंति सा गच्छह हायगत्ता, __अग्गाइं अग्घाइँ गहाय खिप्पं / / 263 / / अन्नं पिजं सारतर हयाइ, माणिक्कमुत्ताणिदसणाई। कयंजली सीसकयप्पणामा, उवेड सामि भरह नरीसं // 264 // न उत्तमा दीणजणक्किपालु. कणति बाहं सरणाऽऽगयाण। जहाऽऽगया तं पि गया भणित्तु.. एवं सुरा तो कुलदेवया ते॥२६५|| तहा करिता सयलं चिलाया, पासम्मि गंतुं भरहस्स रन्नो। समाहि णे नायमिणं चिराउ, तुमं तु नेया भरहस्स अड्डो // 266|| चक्काइदंडप्पमुहाण सामी, चउदिसण्हं रयणाण दित्तो। तुम्हाण अम्हे सरणं पवन्ना, कया वि एवं न पुणो करस्सं॥२६७।। Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1367- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह तओ पडिच्छित्तु नरीसरण, ममाणभावाउन भाइयव्व। सम्माणिउंसंगतनेहसारं, विसज्जिया वुत्तुमिणं सुवक्कं // 268 // सेणाहियो पुवकमेण खंड, मनिवखुडं सिंधुसमागरत। पच्छिल्लयं साहिउ पद पासे, रणो सयं भुंजइ भोव लो (भो) ए॥२६६।। अहन्नया च कवर क्याई, पुवुम्मुहे चुल्लहिमाचलस्स। नितंबभाए अह दक्खिणम्मि,. जावडुमंतस्स कए करेवि॥२७०।। तयंसिए सोमदिसाए जाइ, उप्पायगं पव्वयतो तिखुत्तो। फुसेइसीसेण रहस्स पच्छा, हए निगिण्हित्तु खिवेइ उप्पिं / / 271 / / सरं वरं गंतु विसत्तरच, तो जोमणाण गिरिनायगस्स। गेहस्स मेराइ पडेइझ त्ति, पुव्वतमालावसएइसिग्घा२७२।। तंचेव सव्वं अह उत्तरिल्लो, दिसाहिवं देवणियाण भत्ते। सव्वोमहिं देइय अंढण च. तं चेव मेसं अह इ फूडे।।२७३।। रहम्मि रुढो उसहावलाम्म, तोतं तिक्खुत्तो फुसई रहेण रह ठयित्ता अह कामणीए, सनामगं पुव्वतडे लिहेइ॥२७४|| उस्सप्पिणीए तहयागरस्स, इमाएँ भागे अह पच्छिमम्मि। सचक्कवट्टी परमो नरीसो, नामेण एत्थं भरहो अहं तु॥२७५|| तओ रह वालिय खंधवारं सयं समागम्मतहेव सेसा। नमेति जूहो गिहनायगास, देवचणा चक्कवरं पयाइ॥२७६।। वेय हुत्तं अह दक्खिणाए, दिसाएँ आगंतु महामहेण। वेयड्डवासी विणमी मणम्मि, जा विजाहरलोयनेयं / भत्तट्ठमं पोसहमंदिरम्मि, तयावसाणे विनमी नरिदे॥२७७।। धुचोइए दिव्यमई पहिडे, जीयं ति काउ नरविंयजुत्ते। सिग्धं समागच्छइघेत्तु अग्धं, पमाणमाणज्जयते य गेहं / / 278|| रूवाहियं लक्खणलक्खिक्खं, अवट्टियं जोयणजोएँ निच्चं। सिंगारआगारसुचारुवेस लावन्नलीलाऽलसचारुगत्तं / / 276 / / चंदाणणं नीरयपत्तनेत, कामालय सव्वसृदाणखेत्तं / मणोणुगं भारधीपवित्त, तमिच्छियं से नमिखेयरिंदो॥२०॥ गहाय नाणमणिअंबरत्थो, जएण बद्धाविउदो विते य। भणति अम्हे भवउव्वसम्मि, भणति अण्णे अह* वासराई।।२८१|| * गयाइँ जायं समरं महतं, तयतिए तो अबला अथामा। केई करे अट्टमभत्तमंतो, दाणं अलंकारिभंडगस्स // 28 // अन्नं तहा जा महिमं करेमि, अह ब्भया सेणवइंभणाइ। साहेह गंगापुरनिक्खुड सो, एयं ति सिंधूएँ गमेण सव्वं / / 283|| पसाहिउंएइ नरीसरस्स, पासे निवेइत्तु हिओवइट्ठ। पच्छा पलोलाएँ सिहाएँ दित्तो, सिहि व्व दित्तीऍ विराजमाणो // 284|| गंगासम भुंजइ भोयभोए, तओ समेगं वरिसाण पुन्न। पहिट्ठचित्तो भरहो नरीसो, सड्डइए सव्वगुणोववेए।।२८५॥ अहन्नया चक्कहरो भणाई, सुसेणनामंकडगस्स सामि। खंडप्पवादारकवाडएउ ग्घाडेह पुव्विल्लकमेण झ त्ति // 286|| तह त्ति पुस्विल्लकमेण कट्ट, तहा जहा से तिमिसंगुहाए। उग्घाडियं तो कहए निवस्स, समेन्नए जो विसईतहेव / / 287 // तहेव सव्वं नवरं विसेसो, एसो जहा पच्छतडाउहत्तो। गया उगंगावइसागरम्मि, विसेइ खेते तह दक्खिाणिल्ले॥२८८|| ससिव्व मेहब्भवयानि गंतुं, गंगानईपच्छिमकूलदेसे। ठाउं ससेन्नो निहिलाभहे. पगिण्हई पोसहमट्ठमं पि॥२८६।। सदेवया तो य नवनिहाणा, माणिक्कमुत्तामणिहेमपुन्ना / सदेवलोओववयावहा जे. उति पुन्नोवचया तयते॥२६॥ नामाइँ तेसाण निहीण एए, पुवप्पहू गंथविवत्तियाई। जं जत्थ अत्थीतहत तहेव, * दिनान, *जातानि Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1398 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह कहेमि गाहाहिँ ठियाहिँ गच्छे / / 261 / / तेसिं सरूवं च सृठाणगाई. तन्नायमाण.................. (?) सव्वं पि आवस्सगचुन्निमज्झे, तह ट्टियाइं च जहोवइ8 / / 262 / / नेसप्पे 1, पंडुयए 2, पिंगलए ३,सव्वरयण 4, महपउमे५ / काले य 6, महाकाले 7. माणवगे 8, महानिही संखे 6 // 263 / / नेसप्पम्मि निवसा, गामागरनगरपट्टणाण च। दोणमुहमडंबाणं, खंधावारावणगिहाणं (1) // 264|| गणियरस य उप्पत्ती, माणुम्माणस्स जं पमाणं च। धन्नस्स य बीयाण य, निप्फत्ती पंडुए भणिया (2) // 26 // सव्वा आभरविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं। आसाण य हत्थीण य, पिंगलगनिहिम्मि सा भणिया (3) // 266|| रयणाइँ सव्वरयणे, चउदस विवराइँ चक्कवट्टिस्स। उप्पजंते एगिं दियाइँ पंचिंदियाई च (4) / 267|| वत्थाण य उप्पत्ती, निप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं। रंगाण य धोव्वाण य, सव्वा एसा महापउमे (5) // 268|| काले कालण्णाणं, सव्वपुराणं च तिसु वि वसेसु। सिप्पसयं कम्माणि य, तिन्नि पयाए हियकराणि (6) 266| लोहस्सय उप्पत्ती, होइ महाकालें आगराणं च। रुप्पस्स सुवनस्सय, मणिमुत्तिसिलप्पवालाणं (7) // 300|| जोहाण य उप्पत्ती, आभरणाणं च पहरणाणं च। सव्वा यजुद्धनीई, माणवगे दंडनीई य (8) // 301 / / नट्टविहि नाडगविही, कव्वस्स य चउव्विहस्स उप्पत्ती। संखे महानिहिम्मी, तुडियंगाणं च सव्वेसिं (6) // 302 // चक्कट्ठपइट्ठाणा, अठुस्सेहाय नव स विक्खंभा। बारसदीहा मंजू ससंठिया जन्हवीइ मुहे (10) // 303 / / वेरुलियमणिकवाडा, कनकमया विविहरयणपडिपुन्ना / ससिसूरचक्कलक्खण, अणुसमवयणोववत्ती या॥३०४॥ पलिओवभट्टिईया, ___ निहिसिरिनामा य तेसु खलु देवा / जेसिंते आवासा, अच्छेला आहिवचा य (11)|305 / / एएते नव निहिरयणा, पभूयधणरयणसंचयसमद्धिा। जे वसमुवगच्छंती, भरहाहिवचक्कवट्टीणं (12) // 306|| तेसिं निहाणेण महं तहेव, तयंतिए सेन्नवइंभणाइ। गिण्हाहि गंगानइनिक्खुडे वि, पुव्विल्लए सिंधुनइक्कमेण!|३०७|| तहेव सव्वं पकरितु एइ, जा सव्वअग्घे पडिअप्पईहु। सक्कारसम्माणकमेण मुक्को, सयं च जा भुंजइ भोयभोए॥३०८|| अहऽन्नया दक्षिणपच्छिमिल्ले, दिसाएँ भागम्मि पयाइ चकं / विणीयमसाज सरायहाणिं, नहंगणाऽऽरूढपहं पवन / / 306 / / तनाउ राया वि पहट्टचित्तो, कोडुम्बिए सदिउ आणावेइ। सज्जेह भो ! वारणरायभूयं, हत्थिं ससेन्नं सबलं सजोहं॥३१०।। तओ सयं मजणगेहमासु, विसित्तु न्हाउं सुइसुद्धगत्तो। अलंकिओ भूसियसव्यगत्तो.. सुकप्परुक्खं पिव सव्वइट्ठो॥३११|| मणोहरो सव्वजणंदयारी, इंदो व एरावणमत्थयत्थो। सव्वाह इड्डीऍ जुईऍ जुत्तो, चक्काणुमग अणुजाइ जाव।।३१२॥ सेट्ठीसहस्सेहिँ पसाहिऊण, वासाण सव्वं भरह समिद्धो। निहीहिँ सेणारयणेहिं राय सहस्सबत्तीसपमाणएहिं // 313 // तेएण रण्णो पुरओ पविट्ठ, अट्ठए दप्पणमंगलाई। तो कुंभभिंगरझयाइछत्ते, चक्काइए तो निहिणो महंते॥३१४|| तो सोलसे देवसहस्सए य, बत्तीसरायाण सहस्सएय। कमेण तो सेण्णवइं पगिट्टे __ गाहावई वुड्डपुरोहियं च / / 315 // बत्तीसकल्लाणउदुस्सहस्से, तोसिसि कल्लाणिजणव्वयाणं। Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ते चेव छत्तीसनिवद्धनाहा, तयंतरा तिन्नि सए ससद्धे॥३१६॥ सूयारयाणं परमाण हिट्ठो. अट्ठारसं सेणिपसेणईओ। लक्खे चुलस्सी हयमाइयाणं, तो कोडिओ छन्नवई नराणं // 317|| अन्ने य राईसरसत्थवाह __ माडंबिकोडुबिनरे बहू य। भुसंडिखग्गद्धणुदंडहत्थ मयासगारेहिँ सवेसराहिं // 318|| सचिंधमालाधयधारएहिं. यहूहिं लोएहणुगम्ममाणे। चक्काणुमग्गेण पयाइ राया, एवं सुरिंदोवमरिद्धिसारो॥३१६।। वसं मडवाइसु अड्डदित्तो, सुहं सुहेणं तु कमेण पत्तो। सुरायहाणीऍ विणीऍ बाहिं, किंचऽट्ठमं पोसहमाइ सव्वं // 320 / / जा देवनाहोऽत्थ गइंदरूढो, ससिण्णआसव्वबलोववेओ। भोत्तुं निहीमिचचओ पहिहो. विसेइ जा तंतु सरायहाणिं // 321 // विणीयनाम अमरा पहिडा, कुणंति ते सव्वपएसरम्म। सिन्नोवसिन्नोसियचिंधमालं, निसम्म रायं भरहं विसंतं॥३२२।। नारीनराणं बहवे सहस्सा, सकोउया वद्धजवा समागया। छुट्टतकेसव्वतुट्टहारा, आबद्धखग्गाउ गलंतगत्ता / / 323 // चलंतगंडाऽऽहयकुंडलंता, पीणत्थणदोलिरतुट्टहारा। ल्हसंतओ सत्तरचारुदेहा, अणुत्तरीया अबला अहन्ना // 324 // अकुंडलाऽगंडियगंडदेसा, विलुत्तसुत्ता रसणा निमगा। अडितपीणत्थणदंसियस्स, अछूढवाहेगसियंसकंचू॥३२५।। सुनूपुरगळ्यपायचारु. चंचच्चलंतूरविखित्तवच्छा। लसद्धरती वसणाइ रम्मा, विलोलदिट्टी वसणऽद्धहारा / / 326 // चलंति वगंति चलति केई, खलंति उटुंति पडति केई। हसंति भंति भणंति केई, मे मुंच मग्गं सर ओसराहि॥३२७।। सखे! सखे! केसवयं इमंते, सखे! सखे! रोयइ डिभमेयं। सखे! सखे! गिन्हइ केयमेयं, सखे ! सखे ! पस्म निवं वयंत॥३२८|| एवं जणे आउलआउलेया मिसंचरतेय पहे वएसु। जाय असंचारमिण सबाहिं, गेह गिहाओ नयरं समत्तं // 326 / / एवंविहे तोरणमालसोहे, मंचाइमंचक्कलिए जणड्डे। पासायमालवणवीहिवच्छ सिंगासरूडप्पहुलोयसोहे।॥३३०|| सुरिंदपालोपमरिद्धिसार, पविन्समाणस्स पुरस्स रणो। अच्छच्छिया कामुयरूपसिद्धि, विलोयमाणं मुहए त्थऽलाया // 331|| अन्नत्त खंधागयबाहुदेहा, अन्नत्तदायंतभिरामवच्छ। अन्तवत्थुट्ठियचंचलक्खा, अन्नत्त दायंतमणोभिरामा // 332|| अहो अहो संदणजोहुजोहा, अहो गयारूढनरिंदसोहा। अहो सुवेसो नरनाहु एसो, अहो सुकेसो य इमो नरीसो॥३३३|| अहो इमं चिंधवरं अपुवं, अहो इमं जाणवरं अपुव्वं / अहो इमा संजइया अपुव्वा, अहो इमा वेसहिया अपुव्वा // 334|| भणंति तं राय! चिरं चियाहि, भणति तं राय! जय जिणाहि। भणति तं राय! सुही भवाहि, भणति तं राय! अरी हणाहि // 335 / / केई भणति पवरा स माया, ज ओजए एस कुलप्पईवो। पुत्तो वसे भारहखित्तसामी, सुरासुराई दढणत्तसारो॥३३६|| अन्नाऽवला रूवविमोहियप्पा, धन्ना जए एस सयं सचक्खू। मिलक्खुवामक्खिविहव्वदिक्खा गुरू गह कासि करस्स कंतो॥३३७|| मुखस्सहस्सजुवथुव्वमाणो, अगंजलीओय पडिच्छमाणो। दायजमाणे सहसंगुलीहिं, उप्पिज्जमाण नयणंजलीहिं||३३८|| सुविद्धनारीगणविद्धविंदा, आसीसरावारवपुन्नकन्नो। चंचच्चलच्चीवरचारुपत उद्धव्वमाणो नयणाभिरामो // 336 / / इओ तओ चंचलाखित्तदिट्टी, जयजयाराववरे सुणंतो। सुरिंदनाहो व्व विणीए मज्झ, Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1400 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह - - - मज्झंण सव्वडिबलोववेओ।।३४०।। एवं महाइड्डिपवित्थरेण, कम कमेणं भ गंगणम्मि। पत्तो सयं तो परिपूइऊण, विसज्जिया सेसनरीसदेवा / / 341 / / वीणंसुपट्टे सुयदेयदूस उल्लोयसोहावियसव्वदेसो। विचित्तविच्छित्तिमुभत्तिचित्ते. चवखूभिरामे मणसोऽभिकतो // 342 / / माणिक्कमुत्तामणिपुप्फपुंजो वयारजुत्ते धयचिंधचित्त। सुपुन्नपुग्ने कलसोवसोहे, सुचंदणाभालकओवयारे॥३४३।। सुरिंदमेहोवमंगहसारे, विसे य पासायवरे विसाले। अंतेउर बंधयनायवर्ग, विसजिउंन्हाणघरं विसित्तु // 344 // न्हाए सय बंदणलित्तगत्ते, पवित्तवच्छंसिपसत्थगत्ते। वित्तोवयारं जिणनाधयस्स, भत्तीए पुप्फाइ फलाइएहिं // 345 / / भुंजेइ तो बंधवनाइवग्ग समन्निओऽऽहारवऊववेयं। स भोयणं वंजणभक्खभुज नाणारसहूं बहुमत्तिचित्तं // 346 / / भुचा सुहासेज्ज खणं करित्तु, बत्तीसबद्धाइँ सुनाडयाई। पासायसारोवरिरूढमित्त - सन्नाइबंधूवगएऽइरम्मे॥३४७।। सुहं सुहेणत्थइदेहमाणे, लीलाएँ जा वासरके वि राया। अहन्नया देवनरीसराया, रायाभिसेयं कुणिमो भणंति // 348|| तो पोसह काहिस अट्ठभंते तयावसाणम्मि सुराभिओगा। तेहिं तओ कासि महामहंत, सुमंडवं पीढयर तयते।।३४६॥ वजिंदसारामललोहियक्ख - माणिक्कमुत्ताहलचित्तरम्म / सिंहासणं तत्थुवरि विश्वालं. एमाइ सव्वं पकरिसु देवा / / 350|| ईसाणभागे तिदिसि सुपाण, परंपरागइयसुद्धरम्मे, कओ तए पोसहगेहमज्झ, विणीहरे पुव्वकमेण जाव।।३५१॥ न्हाओ सुई सिंधुररायरूढो, सो राइराईसरमाइजुत्तो विणीहरित्ता वरमंडवंसि, पुटिवल्लसोपाणपरंपराया // 352 // पयाहिणीकट्ट रुहित्तु पच्छा, निसीयई पुव्वमुहो विसालो। सिंहासणे तो नरनाह सवे - सहति सोपाणि अहुत्तरेण / / 353 / / सेणावईवड्डइसत्थवाह, एमाइया इति तहेव तूणं। रुहंति भागेण उ दाहिणेण, महारिह तो अभिओगदेवा // 354|| रायाभिसेयं पवरं विसालं, उव्वट्टचित्ता पकरिति हिट्ठां। पसत्थनक्खत्तमुहत्तवारं, तिहिं निसारे करणे सुजोए।।३५५।। आईएँ बत्तीस नरीसराणां, सहस्सया चारु करेंति रम्म। तो सेन्ननेयाऽऽइसुरावसाणा, भणंति जो देव! सिरं ज्यिाहि / / 356 / / निव्वत्तिउं बारसवच्छरंतो, रायाभिसेयं भरहेसरस्स। तओ अलंकति सुभूसणेहि, सुकप्पवच्छंपियरम्भदेहं।।३५७।। महामहे बारसवच्छरीए, गए गइंदे रुहिउंससेन्नो। महाविभूई बहिन्भवाओ, विसेइ मज्झं से सुमंडवाओ॥३५८।। सम्माणियासेसनरीसदेवो. विसजिओ बंधुजणस्समेओ। सुकम्मजम्मतरुवजिएइ, भुजेइ भोए विउले जहिच्छं।।३५६ / / चक्क सुछत्तं असिदंडए य, गेहम्स सव्वाउहसालजाए। चम्म मणि कागणियं नवावि. सिरी निह णे भरहस्स रण्णो॥३६०|| सुसेणगाहावइवुड्ढराय जाया विणीयाएँ पुरोहिओय। गओय वेयवनगस्स मूले, सेणीऍ इत्थीरयणुत्तराए३६१।। चउद्दसण्ह रयणन्निहीणं, नवण्ह वावत्तरि सप्पुराणं। सहस्सवत्तीस जणव्ययाण, कोडीण गामाण उ छन्नऊए॥३६२|| नवन्नऊदोणमुहस्सहस्सा, चालीसअट्ठाहिय पट्टणाणं। मड़वयाणं चउवीसपुन्ना, सुकव्वडाणं पि तहाऽऽगराणं / / 363 / / सहस्सवीसंसयसोलसत्ते, खेडाण संवाह चउद्दसत्ते। लक्खतरद्दीवगएहि पुन्ना, एगणपन्नाएँ कुरुज्जयाणं // 364 // समुद्दसीम हिमवंतमेरं, Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1401 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह छक्खंडयं भारहखेत्तमेयं। पालेइ पुवजियपुन्नभावा, सारेइएवं सयणे स्वबंधवे॥३६५|| दिट्ठातओ सुंदरि पंडुगंडा, भणेइ रुट्टो किन मज्झ विजे। अन्नं च इत्थीगयरूवसोहो, जिणेरिसा पंडररूयसोहा॥३६६।। कोडुबिया भीयमणा भणति, अत्थित्थ सामिस्स पयप्पसाया। सव्वं करे अंबिल तद्दिणाओ, सामिस्सगासम्मि वयाहिरूढा // 367 / / तो मुक्करागो पभणे नरीसो, मुक्काऽसि दिक्खं गह भोयभोए। भुंजाहि वा सुंदरि ! मे समाणं नमितु रायं पगहेइ दिक्खं // 368|| पेसेइ दूयं अह भाउगाणं, आणहिया मज्झ करेह रज। पुच्छामुताय पभणति दिन्नं, रज्जं जिणेणं भवओ अहं पि॥३६६।। तं सो करेमो पभणेहिं ताओ, जं से तओ सामि! कम कमेण / गामाणुगामं विहरं जिणिंदे, समागओ पव्वयपव्ययम्मि॥३७०।। जिणागमं नाउ कुमारगा ते. समागया सामिपयरसगासे। वंदित्तु पाए जिणनायगस्स, कहति सव्वं भरहोवइट्ट // 371 / / अप्येमुज्ज पकरेसुतुभ. कहेहणे ताय ! जमम्ह जोग्गा। निचं भुवं सव्वसुहप्पगिट्ट, सामी तओ संसयमोक्खसोक्खं / / 372 / / तेसिं विवोहट्ट जिणो कहेइ, दिद्रुतमिंगालगदाहगस्स। जहा उ कोई पुरिसो अरन्ने, गओ उ इंगालकएसु गिम्हे॥३७३|| जलेगभाणं भरिय गहाय, तं तेण पीयं अह गिम्हकाला। परिस्समाऽऽयायपगिम्हभावा, अइत्तिसालंघियसव्वदेहो॥३७४|| मुच्छावसा पीयजलो वि गेहे, ___सए गओ चिंतइ कप्पणाए। पीआ समुद्दा नइकूववावी ऽबड़े तडागे सरमाइए य॥३७६।। जुत्ताऽगडे दूर जले खिवित्तु, तणाण पूलं जलपावहे। सतत्ति मे होहिह किंच तेहिं, जीहाएँ साए पडियाएँ विंदू॥३७६॥ समुद्दतोयेण व जो न तित्तो, नईण वावीसरसीसयाणं। सतिप्पिही किं न व होज्ज एहिं, एओवमा माणुसकामभोगा // 377|| सिवोवमेऽणुत्तरवासिभोए. अणेगकोडीकडओवमाणा। तित्ती न जाया जइ भुंजिऊण, एएहिं होही अह भो किमेच्छ? ||378 // एए उ भोगा मणुयाण तुच्छा, लहुस्सगादुक्खकरा असारा। अणिच्चया से विरसावसाणा, पुत्ताऽसुईए बहुके सहेऊ // 376 / / एवविहा धम्मकहाणुवच्चं, सामी सयं साहइबोहणत्थ। सुयाण अट्ठाणउईए तेसिं, वेयालिया क्खुऽयाण (?) महंत // 380 / / संवुच्झहा किन्न भवंबुहातो, असेसया सारभवे निवद्धा। जणा सया तेण य मोक्खकज्जे, समुज्जया होहहु कज्जसज्जा॥३८१।। एकेण कोई दुह वा चऊहिं, कुमारगा जा सयले पवुद्धा। विसं व रज चइउंगहिंसु, , पप्वज्ज सावज्जविवज्जण ति॥३५२।। सुया कया रज्जधुराय तेहिं, पेसेइ तो बाहुबलिस्स दूर्य। सो आसुरत्तो भरह भणाई, बाला हु ते तुब्भ कए असज्झा // 383 / / ण दूयगा सामि ! जिणेण दिन्नं. जुत्तं च जेवरस व तुब्भ हेउ। कणीयसाओ नियभाउगाण, रजं हरेउं अवलाण तेसिं॥३८४॥ ते वा वराका अबला अथामा, चिट्ठति रज्जे जइ तायदिन्ने। किं वा कयं तं पिय गिन्हिऊण, दूओ वइंसोउ सुनिठुरं से॥३८५।। सहति सामिस्सन ते य रिद्धि, भुंजाहि रज्जं इह तायदिन्नं / आणा इमे पत्तियमेत्तवुत्ता, ' परं ससी सव्वजयप्पवित्तो॥३८६॥ पीऊसनिस्संदकरोहवासी, सहति दंता कमला य दोसा। न तस्स नूणं जइ कोऽवराहो, निसम्म दूयस्सवई सकोवं॥३८७|| भणाइ तो बाहुबली सुरत्तो, एज्जाहि सिग्घ जइतं न चित्ते। स चक्कओ सव्वबलोववेओ, तया गया गंगतडे विसाले॥३८८।। कीडावसा पायतले गहित्तु, __खित्तोऽसि आयासतले मया उ। काउंकिवं जंकलिओ पडतो, Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1402 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह अन्नं कहिज्जाहि न एत्थ खेत्ते / / 386 / / जीअंतए कि पि मए अजीयं, नो एत्थ अन्नो तुह कोइ मल्लो। मोत्तु ममं देव! नरीसमझ, दुएण सिट्टे पडियागरण // 360 / / सदेससंधीऍ झडि त्ति दो वि. ठिया ससेन्ना सबला सजोहा। जुज्झम्मि तो मल्लवरं तु गज्झे, सणक्खयं बाहुबली भणाइ॥३६१।। दलृ सयं भो किमिणा जणेण, निरावराहेण विणासिएण। जुज्झामु दो वी समगं तुरंगे, एयं पवण्णे पढमंतु जायं // 362|| दिट्ठीऍ जुज्झं तह वायवाह मुट्ठीहिँ दंडेहिं तओ य चक्की। सवत्थ हारेइ बलिस्स पासे, चितेइ तो एस किमेत्थ चक्की॥३६३॥ जस्संतिएऽहं तु बलप्पहीणो, तो देइ दंडाउह देवमेगो। तो धावई दंडमणस्सनेउं, इंत सगव्वं इह पासिऊण // 364 / / ता चिंतई बाहुबली सचिन्तो, पइन्नमुक्कस्स उवी न रत्तं / चूरेमि एवं अह मे न जुत्तं, धिरत्थु कामेण विसोधमाणे / / 365|| जेसिंकए जेट्टगभाउगस्स, चिंतिज्जई पावमचिंतणीयं / मणेण धी किंचिन अस्थि कज्ज, रजेण रट्टेण व भाउगेहिं // 366 // मे सुंदरं जंगहिया सुदिक्खा, कयंतु गिण्हामि अहं पिझ त्ति। तो गिहिउं दिक्ख मणे विचिंते, उप्पन्ननाणाइसया कणिट्टा // 367 / / चिट्ठति तेसिं छउमत्थदिही, कह कहं गत् करे पणाम। जेट्ठा भवित्ता नियभउगा वी, चिट्टामिता एत्थ ठिओ सुझाणे // 367|| खणं निरुस्सग्गगओ यजाव, उप्पज्जई नाणवरं विसालं। समत्थवत्थूणऽवभासगंज, सव्यण्णुभावज्झवसायजुत्तं // 366|| एवं पइन्नागयमाणहत्थि, सुमत्थयत्थो वरिसं अणूण। सीयाऽऽतवन्नीरपवाहपात वहिजमाणो वि न च प्पकंपे // 400 / / नाउं जिणो सुंदरिबंभनाम, अज्जाउ पेसेइ य वोहणत्य। वल्लीलयालीढतणुस्स तस्स, पुव्विं न सम्म पडिवज्जई हु॥४०१।। नगो व्व वल्लीलयलीढदेहे, दिह्रो सुई सत्तममत्तगेहे। वंदित्तु वत्ति क्किल हत्थिकंधे, रूढाण नो होइ हु दिव्वनाणं / / 402 / / विमुक्करज्जस्स सुचूजुयरस, विसुद्धलेसस्स असंगयस्स। कहंतु हत्थी रुहणं ममऽत्थि, न एत्थ अज्जा अलियं वयंति / / 403|| सकज्जमेयं वयणं चिराऊ, नायं जहा माणगयंदरूढो। को माणहेऊ गुणसायराणं, वंदामि पाए नियभाउगाणं // 404 / / एवं विचिंतित्तु महीतलाओ, जावेगपायं अह उक्खिवेइ। ता घाइकम्म सयलं दलित्तु, जाओ सयं केवलनाणधारी // 405 / / तो जाई पासे जिणनायगस्स, नमित्तु तित्थं परिसाएँ मज्झे। सुकेवलीणं विसई महप्पा, चक्की महिं भुंजइ एगछत्तं // 406|| अहऽन्नया चितइ माणसम्मि, मे भाउगा पव्वइया उ सव्वे ! न किंचि एयाऍसिरी' अस्थि, अद्धिं करेउं भरहे फलंति // 407 / / जओन पेच्छतिसुही पहिठ्ठा, सत्तूण वा जेन जणेइ दुक्खं / किं ताएँ रिद्धीए सुपावराए, तो देमि भोए नियभाउगाणं / / 408|| एवं च जा चिंतइ चक्कणाहो, सामी तहिं एइ सदेवसंघो। सीसाणुगो चामरछत्तजुत्तो, समागय नाउ जिणं नरीसो।।४०६।। सव्विविए गंतु जिणं नमित्ता, भोगेहिं तो छंडइ छेयबुद्धी। नेच्छति ते चत्तममत्तगेहा, चिंतेइतो नेच्छति चत्तसंगा॥४१०॥ किपाकभोगोवमभोगसंग, आहारदाणेण करेमि धम्म। सयाणि गड्डाण भरितु पंच, अन्नाऽऽइहारस्स गओ नरीसो।।४११॥ निमंतिउं वंदिउ भत्तिजुत्तो, कम्मतओ आहडरायपिंडं। न कप्पई सामिमिण भणेइ, चितेइ तो चत्तमहं जिणेणं / / 412|| झियायमाणो मणसा खणद्धो, जा चिट्ठई पुच्छइ ताव सको। कइविहो होइ अवम्गहो भो, - सामी ततो साहइ पंचभेओ।।४१३।। इंदस्सवक्कीसरमंडलिस्स, Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1403 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह सेज्जायरस्साहसुसंजयस्स। सक्काइ वाहिज्जइ उत्तरेण, न कपिउं से वसिउं अदिन्ने / / 414|| सक्को तओ वंदिउ भत्तिजुत्तो, भणेइ सामि समणा जिणिंदा। मेरुस्स से चेट्टह दाहिणेणं, सयंभु ! जा गिण्हह जं च कप्पं // 41 // खेत्ते मईए य मयाऽणुनायं, चक्की व हिट्ठो नमिउंजिणिंद। मया अणुन्नायमिण जहित्थं, चिट्ठति साहू य सुहं समत्थं / / 416|| कहिं करेमो अह भत्त पाणं, जमाणिय साहुकए मएह। सुरा सुसाहिंसुकरेमि जत्थ, भणाइ तो देहि मणुत्तराणं // 417 // चिंतेइ तो जाउ कुसीलरत्त गुणहिको होज हिओ ममेह। नायं जहाऽणुय्वयधारिणो मे, गुणाहिया तेसि करेमि पूयं // 418!! एवं वियारित्तु सुसावगाणं, तं भत्तपाणं दलइत्तु पच्छा। दंसेह सा हावियमप्पणो मा. सुरिदरूवं अइवोज मज्झं? 11416 / / महानरो काउमपत्थणाए, होउ ति भंगो कलिओ मणम्मि। तो दसए अंगुलिभूसियं सो, सविम्हयं हिट्ठमणो पलोए।।४२०॥ तो तीऍ कारावइ हिट्ठचित्तो, महामहं काउ नरोत्तमो ति। तमाइ काउंपइवच्छरंतु, पकीरई इंदमहूसवो त्ति / / 421 / / तं देवदेई इहयं नराणं, मेत्ती वयं होउ असेसकम्मा। खणतरं झायइएवमेवं, एवं तु काले अइगच्छमाणे॥४२२॥ लोभाभिभूया इयरे जणा वि, भुंजंति भोगा बहुया उयारा / भणंति लोगे बहुओ नरीसं, भणाइतो खाइन अस्थि मज्झ॥४२३|| अत्थि तिं सामिस्स पयप्पसाया, तो देह किं वात्थ वियारिएण। भणति भग्गा वयमेत्थ नूणं, भणाइ भो देजह पुच्छपुव्वं // 424 / / एवं तओ पुच्छइ किं भवाणं, महव्वया संति न सावगाणं। हवंतिते किंतु अणुव्वयाणि, पंचेव सिक्खाश्य सत्त होति / / 425|| देसिंतितो ते भरहाहिवस्स, राया बि लच्छेइ य कागिणीए। मासाण छण्हं तु पुणो पुणो य, संभालणा हो इयराण अन्ना // 426|| जच्छति पुत्ताइ जईण ते उ, कमेण जा एस दिओववत्ती। महव्वयाणुव्वयसंतिकम्म, जिणच्चुई जीयपयत्थखट्टा / / 427 / / वेया कया सव्वपयत्थगब्भा, सब्भावहेउ विविहाय तेसिं। मिच्छ पवन्नाण जिणतेरे ते, पभूयकालेणुसहस्स पच्छा।।४२८|| अणज्जवेया सुलसाइजन्न वक्कल्लमाईहिँ कया उपच्छा। चक्की जिणं पुच्छइ सामि ! तुब्भे, तिलोयपुज्जा भरहे अहन्ने / / 426 / जयप्पईवा कह किंघमाणा, ममोवमा वा सयलं कहेहि। जिणाण चक्कीण व केसवाणं, बलाण माणं सययं कहेह।।४३०॥ धन्ना य आय नयरे पियाएँ, गईऍजा जस्स जिणो निवस्स। एवं जिणो पुव्वसयस्सहस्सं, पगासणंवाससहस्सऊणं // 431 // काऊण सब्भूयपयत्थसत्था, जीवाइतत्ताण पहीइ कम्म। सिवं गओऽट्टावयपव्वयम्मि, सुएहिं साहूहिँ बहूहिँ सव्यं / / 432|| चक्की वि कालेण चिरा विसोउं, चित्तेण होऊणऽवलाण जेट्टे। अट्ठावयप्पव्वयमत्थयम्मि, कारेइ सो जोयणमित्तदीहं / / 433 // तिगाउउस्सेहवरं विसालं. थंभाभिरामं रयणामयं तु। सुसेहसेजागइणेगखंभ सओसियं सिद्धगिहाणुगारि॥४३४|| वेयड्डसिद्धाययण जहेव, विवन्नियं नेयमिणं तहेव। पन्नत्तिएजंबुयदीवगस्स, पेच्छामिहा तोरणजा झया य॥४३५॥ चत्तारि चाउद्दिसि चारु तस्स, दारे यदारे सुहमंडवे से। एगेगतित्तिपमुहे य रम्मे, तेसिं पुरा पेच्छणमंडवे से।।४३६।। एवं कमेण मणिपेढिया य, सव्वं च सव्वन्नुयमेव नेयं। तस्सेवणं चेइयमज्झदेसे, रम्मा सुरुवा मणिपेढिया से।।४३७।। तीसोवरि देवयछदए से, अच्चे सुरूवे विमले विसाले। तेसोवरि वन्नपमाणजुत्ता, Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1404 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह कारेइ नाभेयपभीजिणाणं / / 438|| जहट्टिया से पडिमाऽइरम्मा, ___भव्वाण निव्वाणसुहावहाय। जहा नहा रोमकया य तालू __ जीहाऽहरा नेत्तभुवे तहेव / / 436 / / कारेइ हेमज्जुणरत्तसारा, मणिम्मया सव्व जहारिहं तु। एगेगिए पिट्ठउतेसिंतेसे, पत्तेययं से पडिमा गहाय // 440 / / छत्तत्तिय कुंदसुतारहार नीहारडिंडीरहिमें दुवनं। कोरिटमालावरगंधलुद्ध मुद्धालिमालारवबद्धगीय // 441 / / सुकिंकिणीजुत्तियजाललीढं, चेटेइ सेयं उवरिंधरती। एवं दुवे चामरधारिनेया, __ पासेसु दोसुपुरओ य दो दो॥४४२॥ नागाण जक्खस्स य कुंड (ल)धारी, पत्तेययं से रयणामईओ। तत्थेवघंटाचउतीसरम्मा, तम्मत्तिया चंदणसारकुम्भा // 443 / / भिंगारआदी सयथालमाई, सव्वं पिनेयं पडिमं पडुच्च। तुरंगमाई गनराइकं वा, चंगेरओ पुप्फसुपल्लयाणं॥४४४।। सुगंधवत्थाऽऽभरणाण रम्मा, सव्वाण एसिंपडिलेयसंथा। लोमत्थणासे चउवीसछत्त सिंहासणे चामरचारुरम्मा // 445 // सिद्धत्थयत्तेल्लसमुग्ग एवं पमाणया धूयकडच्छुया य। तं चेइयं सेसेसमुप्पगिट्ठ खंभूसियं मुत्तमणित्तलं च // 446 // कुरंगईहामियसिंहअस्स नारीनरकुंजररूवरम्म। विज्जाहरक्किन्नरसिद्धजक्ख जुगोवसोहं बहुभत्तिचित्तं / / 447 / / रहंगहंसाहिमऊरमच्छ (?) (सु) सप्पनक्कम्मयरावलीढं। आरामवावीनइसिंधुरत्त विचित्तचिंधुदभडचित्तरम्मं / / 448|| विचित्तमाणिक पहापवाह उजोवियासेसनहावभोयं। जालासहस्साहिँ विभूसमाणं, सुअचिमालि व्व करावलीढ ||446 / / एवं करित्ता उगिह जणाणं, करेइ धन्ना उसभाउगाणं। बिंबाइ तेसिं अह अप्पणो य, कारेइ से पज्जवसाणमाण // 450 / / मा कोदसेअक्कनिही इमाउ, कारेइ तो जंतमया नरा उ। लोहम्मया रक्खणहेउतेसिं, नराउ कालेण सुदुच्छिया उ॥४५१॥ होहिंति तो जोयणमित्तछिन्न टंको कओ दुग्गहो नराणं। कालेण कासी स गुरुस्सयासे, गंगाजलुल्लं परियं विसालं // 452 / / पुव्वाण तो पंचसयस्सहस्सा, सद्दाइए भुंजइ भोयभोए। अहऽन्नया न्हाइ सुईवलित्तो, माणिक्कमुत्तामणिभूसियंगो 1453 / / हारद्धहारप्पविराइयंसो, पलंबपालंबकिरीडधारी। मंदारसंताणयचारुपुप्फ आबद्धवीडो कयसवसोहो॥४५४|| विसेइ आयंसगिहे विसाले, ___ सव्वंगिओ दीसइ जत्थ पाणी। पमायओ से भवितव्वयाए. एगंगुलीए गलिया य मुद्दा / / 455|| पलोयमाणस्स नियं सरीरं, - दिदि गया स उ विसोहमाणा। तपेच्छिउंरूवविमुक्कसोह, ऽवणेइ हारक्कडगाइ सव्वं / / 456 / / सदेहओ भूसणजाइरम्म, विसायवं चिंतइ चित्तमज्झे। सहावओ देहमिणं न रम्म, सोहा उसे कीरइ गंतुरोहिं॥४५७|| माणिकहेमम्मणिमाइएहिं, दव्येहिँ ऽमेज्झग्गिहसेवणाहिं। सहाइया कामगुणा नराणं, जणेति संग विरसे भवे वि11४५८|| सरीरंग ताण निहाणभूयं, तमेरिसंपेच्छ अहो ह मोहो। अणिच्चया कामगुणा दुरंता, भयावहा से विरसाऽवसाणे // 456 / / दुक्खंकरा जाव य मुंचमाणा, - आवायमित्तम्महुरावभासा / सकन्नविन्नाणजुओ नरो को, करेज संग भवहेउएसु? // 460 // अणिव्वसेसुं अवसाण दुक्ख दाणेसु तेसिं विसए समोहो। एवंविहभावमुपागयाओ, आउ व्व सेढी कमपत्तयस्स।।४६१।। खणेण जायं परमं तु णाणं, समत्थवत्थूण गणावभासं। सक्को सयं आसणकंपबुद्धो. तयंतिए एइ तुरंतगत्तो / / 462 / / गिहाहि णं तं मुणिदव्वलिंग, Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1405 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह आराहएहा ववहारजुति। गिण्हाहि सव्व पि सुरोवणीयं, __ आयारभंडोवगरं मुणीणं / / 463 / / करेइ पूर्य तु पुरंदरो तो, अन्नं पिकजं वरकेवलीणं / पहाणराईण सहस्सएहि, देसेहिं सद्धिं अभिनिक्खमाइ 11464|| पालित्तु पुव्वाण सयं सहस्सं, केवल्लिभावं मुणियं पसत्थं। कुमारगो ठत्तरिएगऊणे, सुमंडलीओ वरिसस्सहस्सं॥४६५।। नेऊण एयं च कमेण सव्वं, आउं चरित्ता चुलसीयलक्खा। पत्तो सिवं सव्वकिलेसमुक्को, सेसा सहस्सेण नरीसराण॥४६६|| सुदक्खिणापव्वरुयाविसाला, एय पसगा भणियं मुणेज्ज। सरूवमेयं जिणमंदिरस्स, निस्सा अनिस्सा य कडस्स नाउं॥४६७।। गयाणुगामित्तण मुत्तु सव्वं, जएज्ज एयाणुगमेण भव्वा ! / / (468+)|| भरहेसरचरियं सम्मत्त / दर्श०। (इतोऽभ्याधिकं जिज्ञासुना 'उसह' शब्दो द्वितीयभागे वीक्ष्यः) अथ भरतवर्षस्वरूपं जिज्ञासुः पृच्छतिकहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते? गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं दाहिणलवणसमुइस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुहस्स पच्चच्छिमेणं पचच्छिमलवणसमुदस्स पुरच्छिमेणं एत्थणं जुबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते, खाणुबहुले कंटकबहुले विसमबहुले दुग्गबहुले एव्वयबहुले पवायबहुले उज्झरबहुले णिज्झरबहुले खड्डाबहुल दारबहुले णईबहुले दहबहुले रुक्खबहुले गुच्छबहुले गुम्मबहुले लयाबहुले बल्लीबहुले अडवीबहुले सावयबहुले तेणबहुले तकरबहुले डिंबबहुले डमरबहुले दुभिक्खबहुले दुकालबहुले पासंडबहुले किवणबहुले वणीमगबहुले ईतिबहुले मारिबहुले | कुबुट्ठिबहुले अणावुट्ठिबहुले राजबहुले रोगबहुले संकिलेसबहुले अभिक्खणं अभिक्खणं संखोहबहुले पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिपणे उत्तरओ पलिअंकसंठाणसंठिए दाहिणओ धणुपिट्ठसंठिए तिधा लवणसमुदं पुढे गंगासिंधूहिं महाणईहिं वेअड्डेण य पव्वएण छन्भागपविभत्ते जंबुद्दीवदीवणउयसयभागे पंचछव्वीसे जोअणसए छच एगणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं / भरहस्सणं वासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वेअड्डे णामं वव्वए पण्णत्ते, जेणं भरहं वासं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ। तं दाहिणड्ड-भरहं च, उत्तरड्डमरहं च। (सूत्र-१०) प्रच्छकापेक्षया आसन्नत्वेन प्रथमं भरतस्यैव प्रश्नसूत्रम् / क भदन्त ! जम्बूद्वीपे भरतं नाम्ना वर्ष प्रज्ञप्तम्? भगवानाह-गौतम ! (चुल्लहिमवंतेत्यादि) चुल्लशब्दो देश्यः क्षुल्लपर्यायस्तेन क्षुल्लो महाहिमवदपेक्षया लघुर्यो हिमवान वर्षधरपर्वतः क्षेत्रसीमाकारी गिरिविशेषः, तस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि दाक्षिणात्यलवणसमुद्रस्योत्तरस्यां पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमायां पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां दिशि अत्रावकाशे भरतनाम्ना वर्ष प्रज्ञप्तम् / किं विशिष्ट तदित्याह-स्थाणवः कीलका ये छिन्नावशिष्ट - वनस्पतीनां शुष्कावयवाः 'ठुण्ठा' इति लोकप्रसिद्धाः तैर्बहुलं प्रचुर, व्याप्तमित्यर्थः / अथवा-स्थाणवो बहुला यत्र तत्तथा। एवं सर्वत्र पदयोजना ज्ञेया। तथा-कण्टका बदर्यादिप्रभवाः, विषमं निम्नोन्नतं स्थानं, दुर्ग दुर्गम स्थानं, पर्वताः क्षुद्रगिरयः, प्रपाता भृगवो यत्र मुमूर्षवो जना झम्पा ददति। अथवा-प्रपाता रात्रिधाट्यः। अवझरा गिरितटादुदकस्याधःपतनानि, तान्येव सदाऽवस्थयीनि निर्झराः, गर्ताः प्रसिद्धाः, दो गुहाः, नद्यो द्रहाश्च प्रतीताः, वृक्षा रूक्षा वा सहकाराऽऽदयः / गुच्छा वृन्ताकीप्रभृतयः, गुल्मा नवमालिकाऽदयः,लताः पद्मलताद्याः वल्लयः कूष्माण्डीप्रमुखाः, अत्र नदीद्रहवृक्षाऽऽदिवनस्पतिनामशुभानुभावजनितामेव बाहुल्य बोध्यम्, न तु एकान्तसुषमाऽऽदिकालभावि, तथाविधशुभानुभावजनितानां तेषां प्रायः प्रज्ञापक कालेऽल्पीयस्त्वात् / अटव्यो दूरतः जननिवासस्थाना भूमयः,श्वापदाहिंसजीवाः, स्तेनाश्वौराः, तदेव कुर्वन्तीति निरुक्तितस्तस्कराः सर्वदा चौर्यकारिणः, डिम्बानि स्वदेशोत्थविप्लवाः, डमराणि परराजकृतोपद्रवाः दुर्भिक्ष भिक्षाचराणां भिक्षादुर्लभत्वं, दुष्कालो धान्यमहार्घताऽऽदिनादुष्टः कालः, पाषण्ड पाषण्डिजनोत्थापितमिथ्यावादः, कृपणाः प्रतीताः, वनीपका याचकाः, ईतिः धान्याऽऽधुपद्रवकारिशलभमूषिकाऽऽदिः, मारिः मरकः, कुत्सिता वृष्टिः कुवृष्टिः, कर्षकजनानभिलषणीया वृष्टिरित्यर्थः / अनावृष्टिवर्षभाव इति / राजान आधिपत्यक रस्तद्वाहुल्यं च प्रजानां पीडाहेतुरिति / रोगाः संक्लेशाश्च व्यक्ताः / अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं पुनः पुनर्दण्डपासष्याऽऽदिना संक्षोभाश्चित्तानवस्थितता, प्रजानामिति शेषः इदं च सर्व विशेषणजातं भरतस्य, प्रज्ञापकापेक्षया मध्यमकालीनानुभावमेव व्यावर्णितं, तेनोत्तरसूत्रे एकान्तसुषमाऽऽदावस्य बहुसमरमणीयत्याऽतिस्निग्धत्वाऽऽदिकमेकान्तदुःषमादौ निर्वनस्पतिकत्वाऽराजत्वाऽऽदिकं च वक्ष्यमाणं न विरुध्यत इति / प्रागेव प्राचीनं, स्वार्थे ईन्प्रत्ययः, दिग्विवक्षायां प्राचीन पूर्वा इत्यर्थः। एवं प्रतीचीनोदीचीने अपि वाच्ये / तेन पूर्वाऽपरयोर्दिशोरायतम्, उदीचीदक्षिणयोर्दिशोर्विस्तीर्णम् / अथवा-प्राचीनप्रतीचीनावयवयोरायतम्, एवमुत्तरत्रापि / अथ तदेव संस्थानतो विशिनष्टि-उत्तरतः उत्तरस्यां दिशिपर्यङ्कस्येव संस्थितं संस्थान यस्य तत्तथा, दक्षिणतोदक्षिणस्यां दिशि आरोपितज्यस्य धनुषः कोदण्डस्य पृष्ठ पाश्चात्यभागस्तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्यतत्तथा, अतएवास्य धनुः पृष्ठशरजीवाबाहानां सम्भवः, एषां च स्वरूपस्वस्वावसरे निरूपयि Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ता ष्यते, त्रिधा पूर्वकोटिधनुःपृष्ठापरकोटिभिलवणसमुद्रं क्रमेण पूर्वदक्षिणाऽपरलवणसुद्रावयवंस्पृष्टधातूनामनेकार्थत्वाद् प्राप्तं, ग्रामप्राप्त इत्यादिवत् कर्तरि क्तप्रत्ययः / अयमर्थःपूर्वकोट्या पूर्वलवणसमुद्र धुनःपृष्ठेन दक्षिणलवणसमुद्रम्, अपरकोट्या पश्चिमलवणसमुद्रं संस्पृश्य स्थितमिति। अथेदमेव षट्खण्डविभजनद्वारा विशिनष्टिगङ्गासिन्धुभ्या महानदीभ्यां वैताढ्येन च पर्वतेन षट्सङ्ख्या भागाः षड्भागास्तैर्विभक्तम् / अयमर्थःअनन्तरोदितैस्त्रिभिर्दक्षिणोत्तरयोः प्रत्येकं खण्डत्रयकरणेन भरतस्य षट् खण्डानि कृतानीति। अथ यदि जम्बूद्वीपैकदेशभूतं भरतं. तर्हि विष्कम्भतः तस्य कतितमे भागे तदित्याह-(जबुद्दीवेत्यादि) जम्बूद्वीपद्वीपस्यजम्बूद्वीपविष्कम्भस्य नवत्यधिकशततमो वो भागस्तस्मिन् इति / अथ नवत्यधिकशततभागे कियन्ति योजनानीत्याह-पञ्च षडिशत्यधिकानि योजनशतानि, षट् च योजनस्यैकोनविंशतिभागान्। कोऽर्थः? यादृशैरेकोनविंशतिभागैः समुदितैोजनं भवति तादृशान् षड्भागान् इति विष्कभेनविस्तारेण शरापरपर्यायणेति। अत्राङ्कस्थापना यथा-५२६।६/१८अयं भावः-जम्बूद्वीपविस्तारस्यलक्षयोजनरूपस्य नवत्यधिकशतेन भागे हृते लब्धं५२६ योजनानि 6/18 / एतावानेव च भरतविस्तारः। ननु भाजकराशिनवत्यधिकशतरूपः, षड्भागास्तु योजनकोनविंशतिकलारूपा इति विसदृशमिव प्रतिभाति / उच्यतेगणितनिपुणानां सर्व सुज्ञानमेव। तथाहि-जम्बूद्वीप-व्यासस्य योजनलक्ष 100000 मितस्य नवत्यधिकशतभक्तस्यावशिष्टः षष्टिरूपो राशिर्भागदानाऽसमर्थ इति भाज्यभाजकराश्योर्दशभिरपवर्ते जाता भाज्यराशी षट् 6, भाजकराशौ 16 इति सर्वं सुस्थम्। ननुनवत्यधिकशतरूपभाजकाङ्कोत्पत्तौ किं बीजमिति? उच्यते-एको भागोभरतस्य, द्वौ भागौ हिमवतः, पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात्, चत्वारो हैमवतक्षेत्रस्य, पूर्ववर्षधरतो द्विगुणत्वात्, अष्टौ महाहिभवतः, पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात्, षोडश हरिवर्षस्य, पूर्ववर्षधरतो द्विगुणत्वात्, द्वात्रिंशन्निषधस्य, पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात् सर्वे मिलिताः 63; एते मेरोदक्षिणतः, तथोत्तरतोऽपि 63. विदेहवर्ष तु 64 भागाः सर्वाग्रण; एतैर्भागैदक्षिणोत्तरतो जम्बूद्वीपयोजनलक्षं पूरितं भवति, तत एतावान् भाजकाङ्क: 160 नवत्यधिक शतं भागानामिति / अथ यदुक्तम्- 'गंगासिंधूहि महाणईहिं वेयड्डेण य पव्वएणं छब्भागपविभत्ते' इत्यत्र वैतादयस्वरूपप्ररूपणाय सूत्रमाह''भरहस्स णं'' इत्यादि। भरतस्य वर्षस्य बहुमध्यदेशभागे वैजयन्तद्वारात् त्रिकालाधिकसाष्टत्रिंशद्विशतयोजनातिक्रमे पञ्चाशद्योजनक्षेत्रखण्डे, अत्र वैताढ्यो नामपर्वतः प्रज्ञप्तः। यः ‘णमिति' प्राग्वत्। भरतं वर्ष द्विधा विभजन् २समांशतया चक्रवर्तिकाले च समस्वामिकतया तथाऽन्यैरपि प्रकारैर्द्वयोरपि तुल्यताद्योतनार्थमिति। तत्राऽऽदावासन्नत्वेन दक्षिणार्द्धभरतं वास्तीति प्रश्नयतिकहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्वभरहे णामं वासे पण्णत्ते ? | गोयमा ! वेयड्डस्स पव्वयस्स दाहिणेणं दाहिणलवणसमुदस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुहस्स पञ्चच्छिमेणं पञ्चच्छिमलवणमुद्दस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डमरहे णाम वासे पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे अद्धचंद संठाणसंठिए तिहा लवणसमुदं पुढे गंगासिंधूहिं महाणईहिं तिभागपविभत्ते दोणि अद्वतीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं / / इदं च सूत्र पूर्वसूत्रेण समगमकतया विवृतप्राय, नवरम् अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितत्वं तु दक्षिणभरतार्द्धस्य जम्बूद्वीपपट्टाऽदावालेखदर्शनाद् व्यक्तमेव / तथा त्रिसंख्या भागास्त्रिभागास्तैः प्रविभक्त, तत्र पौरस्त्यो भागो गङ्गया पूर्वसमुद्रं मिलन्त्या कृतः, पाश्चात्यो भागस्तु सिन्ध्वा पश्चिमसमुद्रं मिलन्त्या कृतः, मध्यमभागस्तुगङ्गासिन्धूभ्यां कृत इति द्वे अष्टत्रिंशदधिके योजनशते, त्रींश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेन / किमुक्तं भवति? षट्कलाधिकषइविंशपञ्चशतयोजन 5226/16 भरतविस्तारद्वैताढ्यविस्तारे 50 योजन मिते शोधितेऽवशिष्ट चत्वारि योजनशतानि षट्सप्तत्यधिकानि षट् च कलाः 476 / 6/8 एतदर्द्ध द्वेयोजनानां शते अष्टत्रिंशदधिके तिस्रश्चापराः कलाः 238 / 3/18 इत्येवं रूपं यथोक्तं मानं भवति, एतेनास्य शरप्ररूपणा कृता, शरविष्कम्भयोरभेदादिति। अथ जीवासूत्रमाहतस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरच्छिमिल्लाए कोडीए पुरच्छिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा पञ्चच्छिमिल्लाए कोडीएपञ्चच्छिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा नवजोयणसहस्साई सत्त य अडयाले जोयणसए दुवालसए एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं तीसे धणुपुढे दाहिणेणं णवजोयणसहस्साई सत्तछावढे जोयणसए य इक्कं च एगूणवीसइभागे जोयणस्स किंचि विसेसाहिअंपरिक्खेवेणं पण्णत्ते / (तस्स जीवेत्यादि) तस्यदक्षिणार्द्धभरतस्य जीवेव जीवा ऋज्वीसवन्तिमप्रदेशपतिः ,उत्तरेण-उत्तरस्यां मेरुदिशीत्यर्थ' : प्राचीने पूर्वस्या प्रतीचीने अपरस्यां चायता आयामवती द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा क्षुप्तवती / इदमेवार्थ द्योतयति-(पुरच्छिमिल्लाए इति) पूर्वया कोट्याऽग्रभागेन पौरस्त्यं लवणसमुद्रावयव स्पृष्टा पाश्चात्यया कोट्या पाश्चात्यं लवणसमुद्रावयवं च स्पृष्टा नवयोजनसहस्राणि अष्टचत्वारिंशानि-अष्टचत्वारिंशदधिकानि सप्तयोजनशतानि द्वादश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्याऽऽयामेन६७४८ / 12/16 यच्च समवायाङ्गसूत्रे-"दाहिणड्डभरहस्सणं जीवा पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा णवजोअणसहस्साई आयामेण / " इत्युक्तं, तत्सूचामात्रत्वात् सूत्रस्य शेषविवक्षा न कृता; वृत्तिकारेण तु अयमवशिष्टराशिरूपो विशेषो गृहीत इति / अत्र सूत्रे अनुक्ताऽपि जीवाऽऽनयनेकरणभावना दर्श्यते। तथाहि जम्बूद्वीपच्यासाद विवक्षितक्षेत्रेषु शोध्यते, ततो यज्जातंतत्तेनैवेषुणा गुण्यते, ततः पुनश्चतु Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1407 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह - भिर्गुण्यते, इत्थं ससंस्कारो राशिर्विवक्षितक्षेत्रस्य जीवावर्ग इत्युच्यते। अस्माच्च मूले गृह्यमाणे यल्लभ्यते तज्जीवाकलामानं तस्य चैकोनविंशत्या भागे योजनराशिः, शेषश्च कलाराशिः। तत्र जीयाऽऽदिपरिज्ञानं चेषुपरिमाणपरिज्ञानाविनाभावि, तच न परिपूर्णयोजनसंख्याक किं तु / कलाभिः कृत्वा सातिरेकमिति विवक्षिततत्क्षेत्राऽऽदेरिषुः, सवर्णनार्थ कलीक्रियते, स चकलीकृतादेव जम्बूद्वीपव्यासात्सुखेन शोधनीय इति मण्डलक्षेत्रव्यासोऽपि १शून्य 5 रूपः कलीकरणायैकोनविंशत्या गुण्यते, जातः 16 शून्यः 5, ततो दक्षिणभरताऽर्द्धषोः साष्टत्रिंशद्विशतयोजनमित्यस्य कलीकृतस्य प्रक्षिप्तोपरितनकलात्रिकस्य 4525 रूपस्य शोधने जातः 1865475, ततश्च दक्षिणाद्धेषुणा 4525 रूपेण गुण्यते, जातः 8577024375, अयं चतुर्गुणः 34308067500 एष दक्षिणभरतार्द्धस्य जीवावर्गः, एतस्य वर्गमूलाऽऽनयनेन लब्धाः कलाः 185224, शेष कलांशाः 167324 छेदराशिरधः 370448 लब्धकलानां 16 भागे योजनः 6747 कलाः 12 इयं दक्षिणभरतार्द्धजीवा। एवं वैताळ्याऽऽदिजीवास्वपि भाव्यम्, यावद्दाक्षिणात्यविदेहार्द्धजीवा, एवमुत्तरैरावतार्द्धजीवा यावदुत्तरार्द्धविदेहजीवाऽपीति / अथ दक्षिणभरतार्द्धस्य धनुःपृष्ठं निरूपयति- (तीसे धणुपुढे इत्यादि) तस्या अनन्तरोक्ताया जीयाया दक्षिणतोदक्षिणस्यां दिशि, लवणदिशीत्यर्थः / धनुःपृष्ठमधिकारात् दक्षिणभरतार्द्धस्येति ।यद्वा-प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्यये (तीसे इति) तस्य दक्षिणार्द्धभरतस्येति व्याख्येयं, नव योजनसहस्राणि षट्षष्ट्यधिकानि सप्त च योजनशतानि एक चैकोनविंशतिभाग योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्तम् / अत्र करणभावना यथाविवक्षितेषौ विवक्षितेषुगुणे पुनः षशुणे विवक्षितजीवावर्गयुतेच यो राशिः स धनुः पृष्ठवर्ग इति व्यपदिश्यते, तस्माच वर्गमूलेन लब्धानां कलानाम् 16 भागे लब्धं योजनानि, अवशिष्ट कलाः। तथाहि- दक्षिणभरताद्धेषुकलाः 4525, अस्य वर्गः 20475625, अयंषड्गुणः 122853750 / अथ दक्षिणभरतार्द्धस्य जीवावर्गः 34308067500 / अनयोर्युतिः 34430651250 धनुःपृष्ठवर्गोऽयम् / अस्य वर्गमूले लब्धं कलाः 185555 शेषकलांशाः 263225 छेदकराशिरधस्तात् 371210 कलानां 16 भागे योजनं 9766 कला 1 ये च वर्गमूलावशिष्टाः कलाशास्तद्विवक्षया च सूत्रकृता कलाया विशेषाधिकत्वमभ्यधायि / आह-एवं जीवाकरणेऽपिवर्गमूलावशिष्टकलांशानां सद्भावात् तत्राप्युक्तकलानां साधिकल्वप्रतिपादनं न्यायप्राप्तं कथं नोक्तमिति? उच्यतेसूत्रगतेवैचित्र्यादविवक्षितत्वात् विवक्षाप्रधानानि हि सूत्राणीति / एवं वैतायाऽऽदिधनुः पृष्ठेष्वपि भाव्यं यावद्दाक्षिणात्यविदेहार्द्धधनुःपृष्ठम्। एवमुत्तरत उत्तरैरावतार्द्धधनुःपृष्ठ यावदुत्तरार्द्धविदेहधनुःपृष्ठमपीति, अत्र च दक्षिणभरतार्द्ध बाहाया असंभवः। अथदक्षिणभरतार्द्धस्वरूपं पृच्छन्निदमाहदाहिणवभरहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा० जाव णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहिं उवसोभिए। तं जहा-कित्तिमेहिं चेव, अकित्तिमेहिं चेव। (दाहिणड्डेत्यादि) दक्षिणार्द्धभरतस्य भगवन् ! कीदृशः आकारस्यस्वरूपस्य भावाः पर्यायास्तेषां प्रत्यवतारः प्रादुर्भावः प्रज्ञप्तः, कीदृशः प्रस्तुतक्षेत्रस्य स्वरूपविशेष? इति भावः / भगवानाह- गौतम! भरतस्य बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञाप्तः / ‘से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वेत्यादि' को बहुसमत्ववर्णकः सर्वोऽपि ग्राह्यः यावन्नानाविधपञ्चवर्णमणिभिस्तृणैश्चोपशोभितः। तद्यथेत्युपदर्शन। किंविशिष्टर्मणिभिस्तृणैश्च कृत्रिमैः क्रमेण शिल्पिकर्षकाऽऽदिप्रयोगनिष्पन्नः अकृत्रिमैः क्रमाद्रत्नखानिसंभूतानुपसंभूतैरुपशोभितो दक्षिणार्द्धभरतस्य भूमिभागः, अनेनास्य कर्मभूमित्वमभाणि। अन्यथा- हैमवताऽऽद्यकर्मभूमिष्वपि इदं विशेषणमकथयिष्यदिति। चकारी समुच्चयार्थी एवकाराववधारणार्थो। अथवा-चैवेत्यखण्डमव्ययं समुच्चयार्थम्, अपिचेत्यादिवत्। ननु अनेन सूत्रेण वक्ष्यमाणेनोत्तरभरतार्द्धवर्णकसूत्रेण च सह "खाणुबहुले विसमबहुले कंटगबहुले'' इत्यादिसामान्य भरतवर्णकसूत्रं विरुद्ध्यति। न चैते सूत्रे अरकविशेषापेक्षे, सामान्यभरतसूत्र तुप्रज्ञापककालापेक्षमिति न विरोध इति वाच्य मणीनां तृणानां च कृत्रिमत्वाकृत्रिमत्वमणनेनानयोरपि प्रज्ञापककालीनत्वस्यैवौचित्यात्, कृत्रिममणितृणानां तत्रैव संभवात्, प्रज्ञापककालवावसर्पिण्यां तृतीयारकप्रान्तादारभ्य वर्षशतोनदुःषमारकं यावदिति चेत् / उच्यते- अत्र "खाणुबहुले विसमबहुले" इत्यादिसूत्रस्य बाहुल्यापेक्षयोक्तत्वेन क्वचिद्देशविशेषे पुरुषविशेषस्य पुण्यफलभोगार्थमुपसंपद्यमानं भूमेबहुसभरमणीयत्वाऽऽदिकं न विरुयति, भोजकवैचित्र्ये भोग्यवैचित्र्यस्य नियतत्वात्। अनेनास्यैकान्तशुभैकान्ताशुभमिश्रलक्षणकालत्रयाऽऽधारकत्वमसूचि, एकान्तशुभे हि काले सर्वे क्षेत्रभावाः शुभाएव, एकान्ताशुभे हि सर्वे अशुभा एव, मिश्रे तु क्वचिच्छुभाः क्वचिदशुभाः, अत एव पञ्चमारकाद् यावद् भूमिभागवर्णक बहुसमरमणीयत्वाऽऽदिकमेव सूत्रकारेणाभ्यधायि, षष्ठेऽरके तु एकान्ताशुभेन तथेति सर्व सुस्थम्। अथ तत्रैव मनुष्यस्वरूपं पृच्छतिदाहिणड्डभरहे णं भंते ! वासे मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते? गोयमा! तेणं मणुआ बहुसंघयणा बहुसंठाणा बहुउच्चत्तपञ्जवा बहुआउपजवा बहूई वासाई आउयं पालेंति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी अप्पेगइया तिरियगामी अप्पेगइया मणुयगामी अप्पेगइया देवगामीअप्पेगइया सिज्झंति, बुज्झति, मुचंति, परिणिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। (सूत्र-११) प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् / निर्वचनसूत्रे भगवानाह- गौतम ! येषां स्वरूपं भवता जिज्ञासितं ते मनुजा बहूनि वज्र ऋषभनाराचाऽऽदीनि संहननानि वपुर्दृढीकारकारणास्थिनिचयाऽऽत्मकानि येषां ते तथा, तथा बहूनि समचतुरस्राऽऽदीनि संस्थानानि विशि Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1408 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह टावयवत्वनाऽऽत्मकशरीराऽऽकृतयो येषां ते तथा, बहवो ना नाविधा उच्चत्वस्य शरीरोच्छ्रयस्य पर्यवाः पञ्चधनुः शतसप्तहस्तमानाऽऽदिका विशेषा येषां ते तथा / बहव आयुषः पूर्वकोटिवर्षशताऽऽदिकाः पर्यवा विशेषा येषां ते तथा, बहूनि वर्षाणि आयुः पालयन्ति, पालयित्वा. अपिः संभावनायाम्। एके केचन निरयगतिगामिनः-नरकगतिगन्तारः एवमप्येकके तिर्यगतिगामिनः, अप्येकके मनुजगतिगामिनः, अप्येकके सिद्ध्यन्तिसकलकर्मक्षयकरणेन निष्ठितार्था भवन्ति, बुध्यन्ते केवलाऽऽलोकेन वस्तुतत्त्वं जानन्ति, मुच्यन्ते भवोपग्राहिकर्माशेभ्यः, परिनिर्वान्तिकर्मकृततापविरहाच्छीतीभवन्ति, किमुक्तं भवति?सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, इदं च सर्वं स्वरूपकथनम् अरकविशेषापेक्षया नानाजीवानपेक्ष्य मन्तव्यम्, अन्यथा सुषमसुषमाऽऽदावनुपपन्नं स्यात्। अथाऽस्य सीमाकारी वैतादयगिरिः क्वारतीति पृच्छतिकहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे वेयड्डे णामं पव्वए पण्णत्ते? गोयमा ! उत्तरड्डमरहवासस्स दाहिजेणं दाहिणभरहवासस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुहस्स पच्चच्छिमेणं पञ्चच्छिमलवणसमुदस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे बेअड्डे णाम पव्वए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीण-दाहिणवित्थिपणे दुहालवणसमुई पुढे पुरच्छिमिल्लाए कोडीए पुरच्छि मिलं लवणसमुदं पुढे पच्चच्छिमिल्लाए कोडीए पच्चच्छिमिलं लवणसमुदं पुढे पणवीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं छस्सकोसाई जोअणाई उव्वेहेणं पण्णासं ५०जोअणाई विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरच्छिमपच्चच्छिमेणं चत्तारि अट्ठासीए जोयणसए सोलस य एगणवीसइभागे जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं पण्णत्ता। कहिणं भंते ! इत्यादि / इदं प्रायः पूर्वसूत्रेण समयमकत्वात्कण्ठ्यम्। नवरम् उत्तरार्द्धभरतादृक्षिणस्यामित्यादिदिक्खरूपं गुरुजनदर्शितजम्बूद्वीपपट्टाऽऽदेः ज्ञेयम्, तथा पञ्चविंशतियोजनान्यू॰चत्वेन षट्सक्रोशानि योजनान्युद्वेधेन-भूमिप्रवेशेन, मेरुवर्जसमयक्षेत्रवर्तिगिरीणा निजनिजोत्सेधचतुर्थांशेन भूम्यवगाह-स्योक्तत्वात्, योजनपञ्चविंशतेश्चतुर्थाशे एतावत एव लाभात्, तथा-पञ्चाशद्योजनाति विष्कम्मेनेति। अत्र प्रस्तावादस्य शरः प्रदर्श्यते- स चाष्टाशीत्यधिके वे शते योजनानां कलात्रयं च-२८८३/१६ / अस्य च करणंदक्षिणभरतार्द्धशरे 238 / 3/ 16 इत्येवं रूपे वैताध्यपृथुत्वे पञ्चाशद् 50 योजनरूपे प्रक्षिप्ते यथोक्तं मानं भवति / आह- दक्षिणभरतार्द्धवदस्यापि विष्कम्भ एव शरोऽस्तु, मैवं, खण्डमण्डलक्षेत्रे आरोपितज्यधनुराकृतिः प्रादुर्भवति, तत्र चाऽऽयामपरिज्ञानाय जीवापरिक्षेपप्रकर्षपरिज्ञानाय धनुःपृष्ट, व्यासप्रकर्षपरिज्ञानाय शरः, सच धनुः पृष्ठमध्यत एवास्य भवति, प्रस्तुतगिरेश्च केवलस्य धनुराकृतेरभावेन धनुः पृष्ठस्याप्यभावात् शरोऽपि न सम्भवति, तेन दक्षिणधनुःपृष्ठेन सहैवास्य धनुः पृष्ठवस्वमिति प्राच्शरमिश्रितएवास्य विष्कम्भः शरो भवति, अन्यथा शरव्यतिरिक्तस्थाने न्यूनाधिकत्वेन प्रकृष्टव्यासप्राप्तेरेवानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेना इदमेव शरकरणं दक्षिणविदेहार्द्ध यावद्रोद्ध्यम्। एवमुत्तरतोऽपि ऐरावतवैताढ्यतः प्रारभ्योत्तरविदेहार्द्ध यावदिति। अथास्य बाहे आह-(तस्स बाह त्ति) तस्य-वैताव्यस्य बाहा दक्षिणोत्तरायता वक्रा आकाशप्रदेशपङ्क्तिः / (पुरच्छिमपच्च-च्छिमेण ति) समाहारात् पूर्वपिश्वमयोरेकै का अष्टाशीत्यधिकानि चत्वारि योजनशतानि षोडश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य एकस्यैकोनविंशतिभागस्य चार्द्धम् - अर्द्धकला, योजनस्याष्टत्रिंशत्तमं भागमित्यर्थः / आयामेन दैध्येण प्रज्ञप्ता। ऋजुबाहायास्तु पर्वतमध्यवर्तिन्याः पूर्वापरायताया मानं क्षेत्रविचाराऽऽदिभ्योऽवसेयम् / अत्र करणे यथा- गुरुधनुः पृष्ठालघुधनुः पृष्ठं विशोध्य शेषस्यार्द्ध कृते बाहा, यथा गुरुधनुः पृष्ठ वैताढ्यसत्कं कलारूपम् 204132 अस्माल्लघुधनुः पृष्ठ कलारूपम् 185555 शोध्यते, जातम् 19577, अर्द्ध कृते कलाः 6288, तासामेकोनविंशत्या भागे योजनानि 488 कलाः 16 कलार्द्ध चेति। एवं यावद्दक्षिणविदेहार्द्धबाहा, एवमुत्तरत ऐरावतवैताढ्यबाहा, यावदुत्तरविदेहाड़बाहा तावदिदं करणं भावनीयम्। अथाऽस्य जीवामाहतस्स जीवा उत्तरेण पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरच्छिमिलाए कोडीए पुरच्छिमिलं लवणसमुदं पुट्ठा पञ्चच्छिमिल्लाए कोडीए पञ्चच्छिमिलं लवणसमुदं पुट्ठा दस जोअणसहस्साइं सत्त य वीसे जोअणसए दुवालस य एगूणवीसइभागे जोअणस्स आयामेणं तीसे धणुपुढे दाहिणेणं दस जोअणसहस्साई सत्त य तेआले जोअणसए पण्णरस य एगूणवीसहभागे जोयणस्स परिक्खेवेणंरुअगसंठाणसंठिए सव्वरययामए अच्छे सण्हे लट्टे घटे मढे णीरए णिम्मले णिप्पंके णिवंकडच्छाए सप्पभे सस्सिरीए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूपे पडिरूवे उभओ पासिं दोहिं पउमववरेझ्याहिं दोहि अवणसंडेहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ते / ताओ णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोअणं उद्धं उच्चत्तेणं पंच धनुसयाई विक्खंभेणं पव्वयसमियाओ आयामेणं वण्णओ भाणियव्वो, ते णं वणसंडा देसूणाई दो जोअणाई विक्खंभेणं पउमवरवेइआसमगा आयामेणं किण्हा किण्होभासा०जाव वण्णओ। तस्य-वैतादयस्य जीवा उत्तरेण इत्यादि प्राग्वत् / नवरं दशयोजनसहस्राणि सप्त च विशानिविंशत्यधिकानि योजनशतानि द्वादश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्याऽऽयामेनेति / अत्र करणभावना यथापूर्वोक्तकरणक्रमेण जम्बूद्वीपव्यासः कलारूप: 16 शून्यः 5 अस्माद्वैताळ्यशरकलाना 5475 शोधने जातम् 1864 525 अस्मिन् वैताढ्यशरे 5475 गुणेजातम् 10372524375 तस्मिन् पुनश्चतुर्गुणे जातम् Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह 41460067500 एष वैतात्यजीवावर्गः अस्य मूले जातं छेदराशिः 407382 लब्ध कलाः 203661 शेषं कलांशाः 740 16 लब्धकलानामेकोनविंशत्या भागे लब्धानि योजनानि 10720 कलाः 11/16 शेषकलांशानाम् अर्धाऽभ्यधिकत्वात् अर्धाभ्यधिके रूपं देयमिति एककलाक्षेपे जाताः कलाः द्वादशेति 12/16 अथ अस्य धनु पृष्ठमाह- (तीसे धणुपुटुं दाहिणेणमिति) गतार्थमेतत् / नवरं दश योजनसहस्राणि सप्त च त्रिचत्वारिंशानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि पञ्चदश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्येत्यत्र करणं यथा वैताढ्येषु कलारूपः 5475 अस्य वर्गः 26675625 अयंषड्गुणः 176853750 वैताढ्यजीवावर्गश्व 41460067500 उभयोर्मी लने जातम् 41666651250 एष वैतात्यधनुःपृष्ठवर्गः अस्य मूलछेदराशिः 408264 लब्धकलाः 204132 शेषकसाशाः 77826 लब्धकलानामेकोनविंशत्या भागे लब्धं यथोक्त मानम् 10743 / 15/16 अथ किंविशिष्टोऽसौ वैतात्य इत्याह- (रुअगेत्यादि) रुचकं ग्रीवाऽऽभरणभेदः तत्संस्थानसंस्थितः सर्वाऽऽत्मना रजतमयः। 'अच्छे त्यादिपदकदम्बकं प्राग्वत्। उभयोः पार्श्वयोर्दक्षिणतः उत्तरतश्च द्वाभ्यां पावरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सर्वतः-समन्तात् संपरिक्षिप्तः / अत्र यत्पावरवेदिकाद्वयं तत्पूर्वापरतो जगत्या रुद्धत्वान्निरवकाशत्वेनैकी-भवनासम्भवात्, अन्यथा 'सव्वओ समता संपरिक्खित्तेति'' वचनेनैकेव स्यादिति / (ताओ णमिति) सर्व गतार्थ नवरं पर्वतसमिका आयामेन; वैताढ्यसमाना आयामेनेत्यर्थः। अथैतद्गतगुहाद्वयप्ररूपणायाऽऽहवेयड्ढस्स णं पव्वयस्य पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं दो गुहाओ पण्णत्ताओ, उत्तरदाहिणाययाओ पाईणपडीणवित्थिण्णाओ पण्णासं 50 जोअणाई आयामेणं दुवालस 12 जोअणाई विक्खं भेणं अट्ठम जोअणाई उड्ढे उच्चत्तेणं वइरामयकवाडोहाडियाओ जमलजुअलकवाडघणदुप्पदेसाओ णिचंधयारतिमिसाओ ववगयगहचंदसूरणक्खत्तजोइसप्पमुहाओ०जाव पडिरूवाओ। तं जहा- तमिस्सगुहा चेव, खंडप्पवायगुहा चेव। तत्थ णं दो देवा महिड्डिया महज्जुइआ महाबला महायसा महासुक्खा महाणुभागा पलिओवमट्टिईया परिवसंति / तं जहाकयमालए चेव, गट्टमालए चेव। (वेयड्डरस णमित्यादि) वैतादयस्य पर्वतस्य (पुरच्छिमपचच्छिमेण ति) अत्र सूत्रे पूर्वस्यां दिशः पूज्यत्वात् आर्षत्वाद्वा पुरच्छिम' इतिशब्दस्य प्राग निपातेऽपि पश्चिमायां पूर्वस्यामिति व्याख्येयम्, अत्र ग्रन्थे ग्रन्थान्तरे च पश्चिमाया तमिसगुहायाः पूर्वस्यां च खण्डप्रपातगुहाया अभिधानात् द्वे गुहे प्रज्ञप्ते, प्राकृतशल्या च बहुवचनम् / उत्तरदक्षिणयोरायते, एतावता य एव वैताब्यस्य विष्कम्भः स एवानयोरायाम इति भावः / प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णे इत्याद्यर्थतो व्यक्तम् / अत्र च उमास्वातिवाचककृत जम्बूद्वीपसमासप्रकरणे गुहाया विजयद्वारप्रमाणद्वारेति विशेषणदर्शनात् चतुर्योजनविस्तृतद्वारा इत्यपि विशेषणं ज्ञेयम्, वज्रमयकपाटाभ्यामयधाटिते आच्छादिते, इत्यर्थः / एते च द्वे अपि चक्रवर्तिकालवर्ज दक्षिाणाचे उत्तरपार्श्वे च प्रत्येक स दा संमीलितवज्रमयकपाटयुगले स्याताम्। अत एव यमलानि समस्थितानि युगलानि द्वयरूपाणि घनानि निश्छिद्राणि कपटानि तैः दुष्प्रवेशे, तथा नित्यमन्धकारतमिस्रगौ तुल्यार्थी प्रकर्षपराविति प्रकृष्टान्धकारं ययोस्ते तथा विशेषणद्वारा / अत्रार्थे हेतुमाहव्यपगतं ग्रहचन्द्र सूर्यनक्षत्राणां ज्योतिर्यतः स एतादृशः पन्था ययोस्ते तत्तथा। अथवा- व्यपगता ग्रहाऽऽदीनां ज्योतिषश्चानेः प्रभा ययोस्ते च तथा यावत्प्रतिरूपे। अत्र यावत्करणात् 'पासाईया" इत्यादि विशेषणत्रयम्- "अच्छाओ' इत्यादीनि वा विशेषणानि यथासंभव ज्ञेयानि। ते गुहे नामतो दर्शयति- तद्यथा- तमिस्रा गुहा चेव, खण्डप्रपाता गुहा चेव। चैवशब्दौ द्वयोस्तुल्यकक्षताद्योतनााँ, तेन पश्चिमभागवर्तिनी तमिस्रा, पूर्वभागवर्तिनी खण्डप्रपाता, इमे द्वे अपि समस्वरूपे वेदितव्ये इति / (तत्थ णमित्यादि) सर्वमेतद्विजयदेवसमगमकमिति व्याख्यातप्राय, नवरं कृतमालकस्तमिस्राधिपतिः, नृत्तमालकः खण्डप्रपाताधिपतिरिति। अथात्र श्रेणिप्ररूपणायाऽऽहतेसि णं वणसंडाणं बहुसभरमणिज्जाओ भूमिभागाओ वेअद्धस्स पव्वयस्स उभओ पासिं दस दस जोअणाई उड्डे उप्पइत्ता इत्थ दुवे विज्जाहरसेढीओ पण्णत्ताओ, पाईणपडीणाययाओ उदीणदाहिणवित्थिण्णाओ दस दस जोअणाई विक्खंभेणं पव्वयसमियाओ आयामेणं उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ताओ ताओ णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोअणं उड्ढे उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं पव्वयसमियाओ आयामेणं वण्णओणेयव्वो वणसंडा वि पउमवरवेइयासमगा आयामेणं वण्णओ। विज्जाहरसेढीणं भंते ! भूमीणं के रिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / से जहा णाम ए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहिं उवसोभिए। तं जहा-कित्तिमेहिं चेव, अकित्तिमेहिं चेव / तत्थ णं दाहिणिल्लाए विजाहरसेढीए गगणवल्लभपामोक्खा पण्णासं५०विञ्जाहरणगरावासा पण्णत्ता / उत्तरिल्लाए विज्ञाहरसेढीए रहने उरचक्कवालपामोक्खा सहिं 60 विज्जाहरणगरावासा पण्णत्ता। एवामेव सपुवावरेणं दाहिणिलाए उत्तरिल्लाए विजाहरसेढीए एगंदसुत्तरं विज्ञाहरणगरावाससयं 110 भवतीतिमक्खायं / ते विजाहरणगरा रिद्धस्थिमिअसमिद्धा पमुइअजणजाणवया ०जाव पडिरूवा तेसुणं विज्जाहरणगरेसु विज्जाहररायाणो परिवसंति महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारा रायवण्णओ भाणिअव्वो। विजाहरसेढीणं भंते ! मणुआणं के रिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! ते णं मणुआ बहुसं Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1410 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह घयणा बहुसंठाणा बहुउच्चत्तपज्जवा बहुआउपजवा० जाव योजनानि / पर्वतसमिके आयामेन वैताब्यवदिमे अति पूर्वापरोदधिस्पृष्ट सव्वदुक्खाणमंतं करेंति ! तासि णं विजाहरसेढीणं बहुसमर- इत्यर्थः / तथा प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां मणिज्जाओ भूमिभागाओ वेअडस्स पव्वयस्स उभओ पासिं दस | च वनखण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ते / एवमेकैकस्यां श्रेण्या द्वे पद्मवरवेदिके, द्वे च दस जोअणाई उड्ढे उप्पइत्ता एत्थ णं दुव आभिओग सेढीओ वनखण्डे, इत्युभयोः श्रेण्योर्मीलने चतस्रः पद्मवरवेदिकाः, चत्वारि पण्णत्ताओ, पाईणपडीणाययाओ उदीणदाहिण-वित्थिण्णाओ वनखण्डानीति ज्ञेयम्। संवादी चाऽयमर्थः श्रीमलयगिरिकृतबृहत्क्षेत्रदस दस जोअणाई विक्खंभेणं पव्वयसमियाओ आयामेणं समासवृत्त्या। तथा च तत्रोक्तम्- "एकैका च श्रेणिरुभयपार्श्ववर्तिभ्यां उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि अ वणसंडे हिं वैताढ्यप्रमाणाऽऽयामाभ्यां द्वाभ्यां द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां संपरिक्खित्ताओ वण्णओ दोण्ह विपव्वयसमियाओ आयामेणं / द्वाभ्यां वनखण्डाभ्यां समन्ततः परिक्षिप्ता / '' इति शेष सूत्रं गतार्थअमिओगसेढीणं भत्ते ! केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते? मिति। अथ तयोः श्रेण्योः स्वरूपं पृच्छति-(विज्जाहरेत्यादि) गतार्थम, गोयमा ! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, 0 जाव तणेहिं नवरम् अत्र बहुष्वादशेषु- "नाणामणिपंचवण्णेहि मणीहिं' इति पाठो न उवसोभिए वण्णाइं० जाव तणाणं सद्दो त्ति। तासिणं अभिओग दृश्यते, परं राजप्रश्नीयसूत्रवृत्त्योदृष्टत्वात् संगतत्वाच्च 'नाणाविहपंचसेढीणं तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं जाव वाणमंतरा देवा य वण्णेहिं मणीहिं तणेहिं" इति पाठो लिखितोऽस्तीति बोध्यम्। (जं० देवीओ अ आसयंति सयंतिजावफलवित्तिविसेसं पचणुब्भव- | २वक्ष०) माणा विहरंति / तासि णं आमिओगसेढीसु सक्कस्स देविंदस्स मणीनां वर्णकवत्थम् - "नानाविहेहिं पंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए। देवरण्णो सोमजमवरुणवेसमणकाइयाणं आमिओगाणं देवाणं तं जहा- किण्हेहिं, णीलेहिं, लोहिएहि, हालिद्देहि, सुकिल्लेहि या तत्थ बहवे भवणा पण्णत्ता / तेणं भवणा वाहिं वट्टा अंतो चउरंसा णं जे ते किण्हा मणी तेसि णं मणीण इमेयारूवे वण्णावारसे पण्णत्ते / से वण्णओ०जाव अच्छरधणसंघकिविण्णाoजाव पडिरूवा। तत्थ जहानामए जीमूतेति वा अंजणेति वा खंजणे तिवा कज्जलेइ वा गवलेइ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमजमवरुणवेसमणकाइआ वा गवलगुलियाइ वा भमरेइ वा भमरावलियाति वा भमरपत्तगयसारेइ बहवे आभिओगा देवा महिड्डिया महज्जुइआ०जाव महासुक्खा वा जंबूफलेइ वा अद्दारिदेइ वा पुरिपुट्टएइ वा गएति वा गयकलभएति वा पलिओमवद्वितीया परिवति / तासि णं आभिओगसेढीणं किण्हसप्पेति वा किण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेइ वा किण्हाऽसोएइ वा बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ वेअड्डस्स पव्वयस्स उभओ किण्ह -करवीरेइ वा किण्हबंधूजीवेइ वा भवे एयारूवे सिया? गोयमा ! पासिं पंच जोअणाई उड्डे उप्पइत्ता एत्थ णं वेयड्डस्स पव्वयस्स णो इणढे समढे। ते णं किण्हा मणी एतो इट्ठतराए चेव पियतराए चेव सिहरतले पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवि-स्थिपणे कंततराए चेव मणामतराए चेव मणुण्णतराए चेव वण्णेणं पण्णत्ता। जे ते णीला मणी, तेसिण मणीणं इमेयारूवे वण्णावा-से पण्णत्ते, से जहानामए दस जोअणाइं विक्खंभेणं पव्वयसमगे आयामेणं / से णं इक्काए भिंगेति वा भिंगपत्तेइ वा सुएइ वा सुयपिच्छेइ वा चासेइ वा चासपिच्छेइ पउमवरवेझ्याए इक्केण यवणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। वा नीलाइ वा नीलगुलियाइ वा सामाएति वा उच्चतएति वा वणरातीति पमाणं वण्णगो दोण्हं पि / वेयबुस्स णं भंते ! पव्वयस्स सिहर वा हलहरवसणेति वा मोरगीवाइ वा पारेवयगीवाति वा अयसीकुसुमेति तलस्स के रिसए आगारभावपडोआरे पण्णत्ते? गोयमा ! वा वाणकुसुमेति वा अंजणकेसियाकुसुमेइवा नीलुप्पलेइ वा नीलाऽसोगेइ बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / से जहा णाम ए आलिंगपु वा नीलबंधुजीवेइ वा नीलकणवीरेइ वा भवे एयारूवे सिया? णो इणढे क्खरेइ वा० जाव णाणावि (हे) ह (हिं) पंचवण्णेहिं मणीहिं समडे। तेणं णीला मणी एत्तो इट्टतरा चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता। तत्थ जे उवसोभिए० जाव वावीओ पुक्खरि-णीओ०जाव वाणमंतरा देवा ते लोहिया मणी, तेसि ण इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहाणामए य देवीओ अ आसयंति सयंति०जाव भुजमाणा विहरंति। उरभरुहिरेइ वा ससरुहिरेइ वा नररुहिरेइ वा वराहरुहिरेइवा वालदगोवेइ (तसि णं वणसंडाणमित्यादि) तयोर्वैतादयो भयपार्श्ववर्तिनोभू वा बालदिवाकरेति वा संझन्भरागेइ वा गुंजद्धरागेइ वा जासुणकुसुमेइ वा मिगतयोर्वनखण्डयोर्बहुसमरमणीयाद्भूमिभागादू वैताठ्यगिरेरुभयोः किंसुयकुसुमेइ वा पालियाकुसुमेति वा जातिहिंगुलेति वा सिलप्प-व्वालेति पार्श्वयोर्दश दश योजनान्युत्पत्यगत्वा अत्र द्वे विद्याधरश्रेण्यौविद्याधरा वा पवालंकुरेति वा लोहिक्खमणीति वा लक्खारसगेइ वा किमिरागकंबलेइ णामाश्रयभूते प्रज्ञप्ते / एका दक्षिणभागे, एका चोत्तरभागे इत्यर्थः / वा चीणपिट्ठरासीति वा रत्तुप्पलेइ वा रत्ताऽसोगेइ वा रत्तकणवीरेति वा प्राग्परायते उदग्दक्षिणविस्तीर्णे / उभे अपि विष्कम्भेन दश दश रत्तबंधुजीवेइ वा, भवे एयारूवे सिया? णो इणढ़े सभट्टे / तेणं लोहिया मणी योजनानि / अत एव प्रथममेखलायां वैतादयविष्कम्भारिवंशद् | एतो इट्टयराचेवजाववण्णेणं पण्णत्ता॥ तत्थ णं जेतेहालिद्दा मणी तेसिणं Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1411- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह मणीण इमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, से जहाणामए चंपेइ वा चंपगच्छलीइ वा हालिद्दाइ वा हलिद्दाभेदेति वा हलिद्दयलियाइ वा हरियालियालेइ वा हरियालभेदेति वा हरियालगुलियाइ वा चिउरेति वा चिउरंगरागेति वा / क्रकणएतिवावरकणगनिघसेइ वा सुवण्णसिप्पिएति वा वरपुस्सिवसणेति वा सल्लइकुसुमेति वा चंपाकुसुमेइ वा कुहंडियाकुसुमेइ वा तडउकुसुमेइ वा घोंसाडियाकुसुमेति वा सुवण्णजूहियाकुसुमेइ वा कोरिटवरमल्लदामेति वा सुहिरणियाकुसुमेति वा वीयगकुसुमेति वा पीयासोएति वा पीय - कणवीरेइ वा पीयबंधुजीवएति वा भवे एयालये सिया? णो इणढे समठे। तेणं हालिद्धा मणी एतो इट्टतरा चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता / तत्थ णं जे ते सुकिल्ला मणी, तेसि णं मणीण इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहाणामए अंकेइ वा संखेइ वा चंदेइ वा कुंदेइ वा दंतपंतीइ वा हंसावलीइ वा कोंचावलीति वा वलायावलीति वा हारावलीति वा चंदावलीइ वा सारयवलाहए तिवाधंतधोयरुप्पपट्टेइ वा सालिपिट्ठरासीइवा कुंदपुप्फरासीइ वा कुमुयरासीइ वा सुक्कछिवाडीइ वा पिहुणमंजियाइ वा भिसेइ वा मुणालीइ वा गयदंतेइ वा लवंगदलएवा पोंडरीयदलए वा सिंदुवारमल्लदामेति वा सेयाऽसोगेइ वा सेयकणयरे वा सेयबंधुजीएइ वा भवे एयारूवे सिया। णो इणढे समटे / ते णं सुकिल्ला मणी इत्तो इठ्ठयरा चेव०जाव वण्णेणं पण्णत्ता / तेसिणं मणीणं इमेयारूपे गंधे पण्णते, से जहाणामए कोट्टपुट्ठाणं वा तगरपुडाणं वा एलापुडाण वा चोयपुडाण वा दमणगपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदणपुडाणं वा उसीरपुडाणं वा मरुयगपुडाणं वा जाइपुडाण वा जूहियापुडाणं वा मल्लियपुडाण वा केयइपुडाणं वा पाडलिपुडाण वा णोमालियापुडाण वा अगरुपुडाणं वा लवंगपुडाणं वा कपूरपुडाणं वा वा-सपुडाणं वा अणुवायंसि उम्भिज्जमाणाण वा कोट्टेजमाणाण वा निभिदिजमाणाण वारूविज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाणाण या भंडातो वा भंडं साहरिज्जमाणाण वा ओराला मणुण्णा मणहरा घाणमणोनिवितिकरा सव्वतो समंता गंधा अभिनिस्सवंति भये एयारूवे सिया। णो इणडे समढे। तेसिणं मणीणं एतो इट्ठयराए चेव गंधेणं पण्णता।। तेसिणं मणीणं इमेयारूवे फासे पण्णत्ते। से जहानामए आइण्णेति वा रुएइ वा वूरेइ वा णवणीएइ वा हंसगब्भतूलीति वा सिरीसकुसुमणिचएति वा बालकुसुमपत्तरासीति वा भवे एयारूवे सिया / णो इणढे समढे / ते णं मणी एतो इट्टतराए चेव जाव फासेणं पण्णत्ता / / (रा०) "अथोभय श्रेण्योर्नगरसंख्यामाह-(तत्थणंदाहिणिलाए इत्यादि) तत्र तयोः श्रेण्योर्मध्ये दक्षिणस्यां विद्याधरश्रेण्यां गगनवल्लभप्रमुखाः पञ्चाशद्विद्याधरनगरावासाः प्रज्ञप्ताः; व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति-रिति, तेन नगरावासा राजधानीरूपा ज्ञेयाः, स्वस्वदेशप्रतिबद्धाः। यदाह- "ते दसजोयणपिहुलेहि, सेढिसु जम्मुत्तरासु सजणवया / गिरिवरदीहासु कमा, खयरंपुरा पण्ण सट्ठी य // 1 // " इति। उत्तरस्यां विद्याधर श्रेण्यां रथनूपुरचक्रबालप्रमुखाः षष्टिविद्याधरनगरावासाः प्रज्ञप्ताः। दक्षिणश्रेणेः शकाशादस्या अधिकदीर्घत्वात् / ऋषभचरित्राऽऽदौ तु दक्षिणश्रेण्या | स्थनूपुरचक्रबालम् उत्तरश्रेण्यां गगनवल्लभमुक्तम्, तरचं तुसातिशयश्रुतधरगम्यम् / अनयोर्मुख्यता च श्रेण्यधिपराजधानीत्वेनेति / एवमेवेतिउक्तन्यायेनैव सह पूर्वेण यदपरं तत् सपूर्वापरं संख्यानं तेन दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च विद्याधरश्रेण्यामेकं दशोत्तर विद्याधरनगरावासशतं भवतीति आख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति। श्रेणिद्वयगतपञ्चाशत्षष्टिसङ्कलने यथोक्तसंख्याभवनादेषां च दशोत्तरशतसंख्यानगराणां नामानि श्रीहेमाऽऽचार्यकृतश्रीऋषभदेवचरित्रादवगन्तव्यानीति। (ते विज्जाहरेत्यादि) तानि विद्याधरनगराणि ऋद्धानि भवनाऽऽदिभिवृद्धिमुपगतानि स्तिभितानि निर्भयत्वेन स्थिराणि समृद्धानि धनधान्याऽऽदियुक्तानि। ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। तथा प्रमुदिता हृष्टाः प्रमोदवस्तूनां सद्भावाद् जना नगरीवास्तव्यलोका जानपदाश्च जनपदभवास्तत्राऽऽयाताः सन्तो येषु तानि तथा / यावत्करणात् सर्वोऽपि प्रथमोपाङ्गगतश्चम्पावर्णको ग्राह्यः / (जं०१ वक्ष०) सच इत्यम्मूलम्-"तेणं कालेणं ते णं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, रिद्धत्थिनियसमिद्धा पमुइयजणजाणवया आइण्णजणमणुस्सा हलसयसहस्ससंकिट्ठविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमा कुक्कुडसंडेअगामपउरा उच्छूजवसालिकलिया गोमहिसगवेलगप्पभूता आयारवंतचेइयजुवइविविहसण्णिविट्ठबहुला उक्कोडियगायगंठिभेयभडतक्करखंडरक्खरहिया खेमाणिरुवद्दवा सुभिक्खा वीसत्थसुहावासा अणेगकोडिकुडुबियाइण्णणिव्यसुहा णडणट्टगजल्लमल्लमुट्ठियवलंबयकहगपवगलासगआइक्खगलंखमखतूणइल्लतुबवीणियअणेगतालायराणुचरिया आरामुज्जाणअगडतलागदीहियवप्पिणिगुणोववेया नंदणवणसन्निभप्पगासा।" अस्य व्याख्या-इह च बहवो वाचनाभेदा दृश्यन्ते, तेषु च यमे वाऽवभोत्स्यामहे तमेव व्याख्यास्यामः, शेषास्तुमतिमता स्वयमूह्याः। तत्रयोऽय' णं शब्दः स वाक्यालङ्कारार्थः, 'ते' इत्यत्र च य एकारः स प्राकृतशैलीप्रभवो, यथा 'करेमि भंते!' इत्यादिषु, ततोऽयं वाक्यार्थो जातः-तस्मिन् काले तस्मिन् समये यस्मिन्नसौ नगरी बभूवेति, अधिकरणे चेयं सप्तमी। अथ कालसमययोः कः प्रतिविशेषः? उच्यते-काल इति सामान्यकालो वर्तमानावसर्पिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः समयस्तु तद्विशेषो यत्र सा नगरी स राजा वर्द्धमानस्वामी च बभूव / अथवा-तृतीयैवेयं, ततश्च तेन कालेन अवसर्पिणीचतुर्थारकलक्षणेन हेतुभूतेन तेन समयेन तद्विशेषभूतेन हेतुना चम्पा नाम नयरी (होत्थ त्ति) अभवद्, आसीदित्यर्थः / ननु चेदानीमपि साऽस्ति किं पुनरधिकृतग्रन्थकरणकाले? तत्कथमुक्तमासीदिति? उच्यते-अवसर्पिणीत्वात्कालस्य वर्णकग्रन्थवर्णितविभूतियुक्ता सा तदानीं नास्तीति। 'रिद्धस्थिमियसमिद्धा' ऋद्धाभवनाऽऽदिभिवृद्धिमुपगता, स्तिमिताभयवर्जितत्वेन स्थिरा, समृद्धाधनधान्याऽऽदियुक्ता, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। 'पमुइय जणजाणवया' प्रमुदिताः- हृष्टाः प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावात्, जनाः-नगरीवास्तव्यलोका जानपदाचजनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यस्यां सा प्रमुदितजनजानपदा, पा Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1412 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ठान्तरे- ‘पमुइयजणुज्जाणजणवया / ' तत्र प्रमुदितजनान्युद्यानानि जनपदाश्च यस्यां सा तथा / 'आइण्णजणमणुस्सा' मनुष्यजनेनाऽ5कीर्णासङ्कीर्णा, मनुष्यजनाकीर्णेति वाच्ये राजदन्ताऽऽदिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्येत्युक्तम्, आकीर्णो वा गुणव्याप्तो मनुष्यजनो यस्यां सा तथा / "हलसयसहस्ससंकिट्टविकिट्ठलट्टपण्णत्तसेउसीमा'' हलानालाङ्गलाना शतैः सहपैश्च शतसहालक्षैः संकृष्टाविलिखिता विकृष्टंदूरं यावद् अविकृष्टा वा-आसन्नालष्टामनोज्ञा कर्षकाभिमतफलसाधनसमर्थत्वात्। "पण्णत्त ति" योग्यीकृता बीजयपनस्य सेतुसीमा मार्गसीमा यस्याः सा तथा, अथवा-संकृष्टाऽऽदिविशेषणानि सेतूनिकुल्याजलसेक-क्षेत्राणि सीमासु यस्याः सा तथा, अथवा-हलशतसहस्त्राणां संकृष्टन-संकषणेन विकृष्टाः-दूरवर्त्तिन्यो लष्टाः प्रज्ञपिताः-कथिताः सेतुसीमा यस्याः सा तथा, अनेन तज्जनपदस्य लोकबाहुल्यं क्षेत्रबाहुल्यं चोक्तम् / "कुक्कुडसंडेयगामपउरा" कुक्कुटाः- ताम्रचूडाः षण्डेयाः- षण्डपुत्रकाः तेषां ग्राभाः- समूहास्ते प्रचुरा:-प्रभूताः यस्यां सा तथा, अनेन लोकप्रमुदितत्वं व्यक्तीकृतं, प्रमुदितो हि लोकः क्रीडार्थ कुक्कुटान् पोषयति षण्डांश्व करोतीति। "उच्छुजवसालिकलिया।'' पाठान्तरेण"उच्छुजवसालिमालिणीया।" एतद्व्याप्तेत्यर्थः, अनेन च जनप्रमोदकारणमुक्तम्, न ह्येवंप्रकारवस्त्वभावे प्रमोदो जनस्य स्यादिति / "गोमहिसगवेल-गप्पभूया।'' गवादयः प्रभूताः-प्रचुरा यस्यामिति वाक्यम्, गवेलकाः-डरभ्राः। "आयारवंतचेइयजुवइविविहसण्णिविट्ठबहुला / " आकारवन्तिसुन्दराऽऽकाराणि आकारचित्राणि वा यानि चैत्यानिदेवताऽऽयतनानि युवतीनां च-तरुणीनां पण्यतरुणीना-मिति हृदयं, यानि विविधानि सन्निविष्टानिसन्निवेशनानि पाटकास्तानि बहुलानिबहूनि यस्यां सा तथा,"अरिहंत-चेइयजणवयविसण्णिविट्ठबहुले त्ति'' पाठान्तरं, तत्रार्हचैत्यानां जनानां वतिनां च विविधानि यानि सन्निविष्टानिपाटकास्तैर्बहुलेति विग्रहः। 'सुयागचित्तचेइयजूवसण्णिविट्ठब-हुला'' इति च पाठान्तरम्, तत्र च सुयागाः-शोभनयज्ञाः चित्रचैत्यानिप्रतीतानि, यूपचितयोयज्ञेषु यूपचयनानि, द्यूतानि वा क्रीडाविशेषाश्चितयः तेषां सन्निविष्टानिनिवेशास्तैर्बहुला या सा तथा / "उक्कोडियगायगंठिभेयभडतक्करखंडरक्खरहिया।" उत्कोटाउत्कोचा लञ्चेत्यर्थः। तया ये व्यवहरन्ति ते ओत्कोटिकाः गात्रात्- मनुष्यशरीरावयवविशेषात् कट्यादेः सकाशाद् ग्रन्थिम्-कार्षापणाऽऽदिपुट्टलिका भिन्दन्ति-आच्छिन्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदकाः। "उक्कोडियगाहगंठिभेय" इति च पाठान्तरं व्यक्त, भटाः-चारभटाः बलात्कारप्रवृत्तयः, तस्कराःतदेव-चौर्य कुर्वन्ती-त्येवंशीलाः, खण्डरक्षाः-दण्डपाशिकाःशुल्कपाला वा, एभी रहिता या सा तथा, अनेन तत्रोपद्रवकारिणाममावमाह / "खेमा'' अशिवाभावात् / "निरुवद्दवा'' निरुपद्रवा, अविद्यमानराजादिकृतोपद्रवेत्यर्थः / "सुभिक्खा'' सुष्ठु मनोज्ञा प्रचुरा भिक्षा / भिक्षुकाणां यस्यां सा सुभिक्षा / अत एव पाषण्डिना गृहस्थानां च "वीसत्थसुहावासा'' विश्वस्तानां निर्भयानामनुत्सुकानां वा सुखःसुखस्वरूपः शुभो वा आवासो यस्यां सा तथा / 'अणेगकोडिकुडुम्बियाइण्णनिब्बुयसुहा।"अनेकाः कोटयो द्रव्यसङ्घयानां स्वरूपपरिमाणे वा येषां ते अनेककोटयः तैः कौटुम्बिकैः- कुटुम्बिभिराकीसडकुला या सा तथा, सा चासो निर्वृता च-सन्तुष्टजनयोगात्सन्तोषवतीति कर्मधारयः, अत एव सा चासौ सुखा च शुभा वेति कर्मधारयः / 'नइनट्टगजलमलमुट्ठियवेलम्बयकहगपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइज्जतुम्बवीणियअणेगतालायराऽणुचरिया / ' नटाः- नाटकानां नाटयितारो नर्तका ये नृत्यन्ति अङ्किल्ला इत्येके, जल्लाः-वरत्राखेलकाः, राज्ञः स्तोत्रपाटका इत्यन्ये, मल्ला:-प्रतीताः, मौष्टिकामल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति, विडम्बकाः-विदूषकाः, कथकाः प्रतीताः, प्लवका ये उप्पलवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति, लासकाः- ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारोवा, भाण्डा इत्यर्थः, आख्यायकाः-ये शुभाशुभमाख्यान्ति, ललाः-महावंशानखेलकाः, मङ्खाः-चित्रफलकहस्ता भिक्षुकाः, 'तूणइल्ला' तूणाऽभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणिकाः-वीणावादकाः, अनेके च ये तालाचराः- तालादानेन प्रेक्षाकारिणस्तैरनुचरिताआसेविता या सा तथा।''आरामुज्जाणअगडतलायदीहियवप्पिणिगुणोववेया।" आरमन्ति येषु माधवीलतागृहाऽऽदिषु दम्पत्यादीनि क्रीडन्ति आरामाः, उद्यानानिपुष्पाऽऽदिमद् वृक्षसकुलान्युत्सवाऽऽदौ बहुजनभोग्यानि, "अगड त्ति' अवटाः-कूपाः तडागानि, प्रतीतानि दीर्घिकासारणी, "वप्पिणि ति" केदाराः, एतेषां ये गुणा रम्यताऽऽदयस्तैरुपपेतायुक्ता या सा तथा, उप अप इत इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपेतेति भवति। क्वचित्पठ्यते- "नंदणवणसन्निभप्पगासा।'' नन्दनवनंमेरोद्धितीयवनं तत्प्रकाशसन्निभः प्रकाशो यस्यां सा तथा, इह चैकस्य प्रकाशशब्दस्य लोपः उष्ट्रमुख इत्यादाविवेति। मूलम् - "उव्विद्धविउलगंभीरखायफलिहा चक्कगयभुसुंढिओरोहसयग्घिजमलकवाडघणदुप्पवेसा धणुकुडिलवंकपागारपरिक्खित्ता कविसीसयवट्टरइयसंठियविरायमाणा अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणउण्णयसुविभत्तरायमग्गा छेयायरियरझ्यदढफलिहइंदकीला।" अस्य व्याख्या- "उव्विद्धविउलगंभीरखायफलिहा'' उद्विद्धम् ऊर्द्ध विपुलंविस्तीर्णगम्भीरम् - अलब्धमध्यंखातम्-उपरि विस्तीणम् अधः सङ्कटं परिखाच-अध उपरिच समखातरूपा यस्यांसा।तथा- 'चायभुसुंढिओरोहसयग्धिजमलकवाडधणदुप्पवेसा!' चक्राणि-रथाङ्गानि अरघट्टाङ्गानि वा, गदाः-प्रहरणविशेषाः, भुसुण्डयोऽप्येवम्, अवरोधः-प्रतोलिद्वारेष्ववान्तरप्राकारः सम्भाव्यते, शतघ्न्योमहायष्टयो महाशिला वा या उपरिष्टात्पातिताः सत्यः शतानि पुरुषाणां घ्नन्तीति, यमलानिसमसंस्थितद्वयरूपाणि यानि कपाटानिधनानि चनिश्छिद्राणि तैर्दुष्प्रवेशाया सातथा। "धणुकुडिलवंकपागारपरिक्खित्ता।" धनुः कुटिलंकुटिलधनुस्ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता य सा तथा। "कविसीसयवट्टरइयसंठिययिरायमाणा।" कपिशीर्षकैर्वृत्तरचितैः वर्तुलकृतैः संस्थितैः-विशिष्टसंस्था Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1413 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह नवद्भिर्विराजमानाशोभमाना या सा तथा। "अट्टालयचरियदारगोपुरतो- | रणउण्णयसुविभत्तरायमग्गा / " अट्टालकाः-प्राकारोपरिवाश्रयविशेषाः, चरिका-अष्टहस्तप्रमाणा नमरप्राकारान्तरालमार्गाः, द्वाराणिप्राकारद्वारिकाः, गोपुराणि-पुरद्वाराणि, तोरणानिप्रतीतानि. उद्मतानिगुणवन्ति उच्चानि च यस्यां सा तथा, सुविभक्ताः-विविक्ता राजमार्गा यस्यां सातथा, ततः पद-द्वयस्य कर्मधारयः। 'छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला।' छेकेननिपुणेनाऽऽचार्येणशिल्पिना रचितो दृढो-बलवान् परिधः-अर्गला इन्द्रकीलश्चगोपुरावयाविशेषो यस्यां सा तथा। मूलम्-"विवणिवणिच्छेत्त सिप्पियाइण्णणिव्वुयसुहा सिंघाडगतिगचउक्कचचरपणियावणविविहवत्थुपरिमंडिया सुरम्मा नरवइपविइण्णमहिवइपहा अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसदमाणीयाइण्ण - जाणजुग्गा विमउलणवणलिणिसोभियजलापंडुरवरभवणसण्णिमहिया उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा // " (सूत्र-१) अस्य व्याख्या- "विवणिवणिच्छेत्तसिप्पियाइण्णणिवुयसुहा।" विपणीनां-वणिक्पथानां हट्टमार्गाणां, वणिजां च वाणिजकानां च, क्षेत्रस्थानं या सा तथा, शिल्पिभिः-कुम्भकाराऽऽदिभिराकीर्णा, अत एव जनप्रयोजनसिद्धेर्जनानां निर्वृतत्वेन सुखितत्वेन च निर्वृतसुखा च या सा तथा। वाचनान्तरे छेत्तशब्दस्य स्थाने छेयशब्दोऽधीयते, तत्र च छेकशिल्पिकाऽऽकीर्णेति व्याख्येयम्। 'सिंघाडगतिगचउकचचरपणियावणविविहवत्थुपरिमंडिया।' शृङ्गाटकंत्रिकोणं स्थानं, त्रिक-यत्र रथ्यात्रयं मिलति, चतुष्करथ्याचतुष्कमेलकं, चत्वरंबहुरथ्यापातस्थानं, पणितानिभाण्डानि तत्प्रधाना आपणाहट्टाः, विविधवस्तूनि-अनेकविधद्रव्याणि एभिःपरिमण्डिता या सा तथा। पुस्तकान्तरेऽधीयते- 'सिंघाडगतिगचउक्कचचरचउम्मुहमहापहपहेसु पणियावणविविहवेसपरिमंडिया। तत्र चतुर्मुखंचतुर देवकुलाऽऽदि. महापथोराजमार्गः, पन्थाः-तदितरः, ततश्च शृङ्गाटकाऽऽदिषु पणिताऽऽपणैः विविधवषेश जनैर्विविधवेश्याभिर्वा परिमण्डिता या सा तथा। 'सुरम्मा' अतिरमणीया। 'नरवइपविइण्णमहिवइपहा।' नरपतिनाराज्ञा प्रविकीोगमनाऽऽगमनाभ्यां व्याप्तो महीपतिपथोराजमार्गो यस्यां सा तथा, अथवा-नरपतिना प्रविकीर्णा विक्षिप्ता निरस्ताऽन्येषां महीपतीनां प्रभा यस्यां सा तथा / अथवा-नरपतिभिः प्रविकीर्णा महीपतेः प्रभा यस्या सा तथा / 'अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमाणीयाइण्णजाणजुग्गा।'अनेकैर्वस्तुरगैर्मत्तकुञ्जरैः "रहपहकर त्ति' रथनिकरैः शिविकाभिः स्यन्दमानीभिराकीर्णाव्याप्ता यानैर्युग्यैश्च या सा तथा, अथवाअनेके वरतुरगाऽऽदयो यस्याम् आकीर्णानि च गुणवन्ति यानाऽऽदीनि यस्यां सातथा, तत्र शिबिकाः- कूटाऽऽकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषाः, स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषाः, यानानिशकटाऽऽदीनि, युग्यानिगोलविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येवेति / विमउलणवणलिणिसोभियजला / ' विमुकुलाभिःविकसितकमलाभिर्नवाभिनलिनीमिः-पद्मिनीभिः शाभितानि जलानि यस्यां सा तथा। 'पंडुरवरभवणसण्णिमहिया।' पाण्डुरैः-सुधाधवलैः वरभवनैः-प्रासादैः सम्यक् नितरां महितेव महितापूजिता या सा तथा। "उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा।" सौभाग्यातिशयादुत्तानिकैः-अनिमिषितः नयनैः-लोचनैः प्रेक्षणीया या सा तथा। 'पासाइया' चित्तप्रसत्तिकारिणी। 'दरिसणिज्जा।' यां पश्यच्चक्षुः श्रमं न गच्छति। 'अभिरूवा' मनोज्ञरूपा / 'पडिरूवा' द्रष्टारं 2 प्रति रूपं यस्याः सा तथेति॥१॥" (औ०) अथ कियत्पर्यन्तः स ग्राह्य इत्याह- 'पडिरूया' इति / प्रतिरूपाणि प्रतिविशिष्टमसाधारण रूपमाकारो येषां तानि तथा तेषु, णमिति प्राग्वत्। विद्याधरनगरेषु विद्याधरराजानः परिवसन्ति। अत्र समासान्तविधेरनित्यत्वान्नादन्तता। कथंभूतास्ते इत्याह- महाहिमवान् हैमवतक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारीवर्षधरपर्वतः मलयः पर्वतविशेषः सुप्रतीतो मन्दरो मेरुः माहेन्द्रः पर्वतविशेषः शक्रो वा ते इव साराः प्रधानाः / "रायवण्णओ भाणियव्यो त्ति।" अत्राऽपि सर्वः प्रथमोपाङ्गगतो राजवर्णको भणितव्य इति। जं०१ वक्षन सच इत्थम्"तत्थ णं चंपाए णयरीए कूणिए णामं राया परिवसइ, महयाहिमयंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे अचंतविसुद्धदीहरायकुलवंससु-प्पसूए णिरंतरं रायलक्खणविराइअंगमंगे बहुजणबहुमाणे पूजिए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुद्धाहिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरेखेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिंदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीहे पुरिसवग्घे पुरिसासीविसे पुरिसपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्डे दित्ते वित्ते वित्थिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणबहुजायरूवरयते आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डि-अपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूते पडिपुण्णजंतकोसकोडागाराउहागारे बलवंदुब्बलपच्चामित्ते ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकटयं ओहयसत्तुं निहयसत्तुंमलियसत्तुं उद्विअसत्तुं निज्जियसत्तुं पराइयसत्तुं ववगयदुभिक्खं मारिभयविप्पमुक्कं खेमं सिवं सुभिक्खं पसंतडिंबडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ।" (सूत्र ६।औ०1) "विज्जाहरसेढी णमिति" सूत्रं गतार्थम्। अथात्रैव वर्तमानामाभियोगश्रेणिं निरूपयति- (तासि णमित्यादि) तयोर्विद्याधर श्रेण्योबहुसमरमणीयाभूमिभागाद्वैतादयस्य पर्वतस्योभयोः पार्श्वयोर्दश दश योजनान्यूर्द्धमुत्पत्य अत्र द्वे आ समन्तात् आभिमुख्येन युज्यन्तेप्रेष्यकमणि व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः शक्रलोकपालप्रेष्यकर्मकारिणो व्यन्तरविशेषास्तेषामावासभूते श्रेण्यौ-आभियोग्यश्रेण्यौ प्रज्ञप्ते / शेषं गतार्थ , नवरम्- “वण्णओ दोण्ह वित्ति।" द्वयोरपि जात्यपेक्षया पद्मवरवेदिकावनखण्डयोर्वर्णको वाच्य इति / (ज०१ वक्ष०) स चायम्"तीसे णं जगतीए उप्पिं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महई पउमवरवेदिया पण्णत्ता / सा ण पउमवरवेदिया अद्धजोयणं उर्दा उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणामई जगतीसमिया परिक्खेवेणं सव्वरयणामई० तीसेणं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते। तंजहा Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1414 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह वइरामया नेमा, रिट्ठागया पइट्ठाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलगा, वइरामया संधी, लोहितक्खमईओ सूईओ, णाणामणिमया कलेवरा, नानामणिमया कलेवरसंघाडा, णाणा-मणिमया रूवा, नाणामणिमया रूवसघाडा, अंकामया पक्खा, अंकामयाओ पक्खवाहाओ, जोतिरसामया, वंसा, जोतिरसामया वंसकवेल्लुया य, रयणामईओ पट्टियाओ, जातरूवमयीओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुच्छणीओ सव्वसेएरइयामतेसाणं छादणे। साणं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं खिंखिणिजालेण०जाव मणिजालेण कणयजालेणं रयणजालेण एगमेगेणं पउमवरजालेणं सव्वरयणामएणं सव्वतो समता संपरिक्खित्ता / तेणं जाला तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारऽद्धहारउवसोभितसमुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वाऽवरदाहिणउत्तरागतेहिं वाएहिं मंदाग 2 एज्जमाणा 2 कपिज्जमाणा 2 लंबमाणा 2 पझंझमाणा 2 सद्दायमाणा 2 तेणं ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमणणिवुतिकरणं सद्देणं सव्वतो संमता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा उबसोभेमाणा चिट्ठति। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाड़ा किण्णरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाड़ा गंधव्यसंघाडा वसहसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया सप्पभा समिरिया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे हयपंतीओ तहेव० जाव पडिरूवाओ, एवं हयवीहीओ० जाव पडिरूवाओ, एवं हयभिहुणाई० जाव पडिरूवाई। तीसे णं पउमवरवेझ्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे पउमलयाओ नागलताओ, एवं असोगलयाओ चंपगलयाओ चूयवणलयाओ वासंतिलयाओ अतिमुत्तगलयाओ कुंदलयाओ सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ०जाव सुविहितपिंडमंजरिवडिसकधरीओ सव्वरयणामईओ लण्हाओ घट्ठाओ मट्ठाओ णीरयाओ णिम्मलाओ णिप्पंकाओ णिकं कडच्छायाओ सप्पभाओ समिरियाओ सउज्जोयाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ से केणऽढणं भंते ! एवं बुधइपउम-वरवेइया पउमवरवेइया? गयोमा ! पउमवरवेइया तत्थ तत्थ देसे तहिं तहि वेदियासु वेदियाबाहासु वेदियासीसफलगेसु वेदियापुडतरेसु खंभेसुखंभवाहासु खंभसीसेसुखंभपुडतरेसु सूईसु सुईमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडतरेसुपक्खेसुपक्खवाहासुपक्खपेरंतरेसु बहूई उप्पलाईपउमाई० जाव सतसहस्सप ताईसव्वरयणामयाइं अच्छाई सण्हाई लण्हाइंघट्टाई मट्टाई णीरयाइं णिम्मलाई निप्पकाई निकंकडच्छायाई सप्पभाई समिरीयाई सउज्जोयाइं पासादीयाइंदरिसणिज्जाइं अभिरूवाई पडिरूवाई महता 2 वासिक्कच्छत्तसमयाइं पण्णत्ताइ समणाउसो!, सेतेणऽद्वेण | गोयमा! एवं वुच्चइ पउमवरवेदिया / पउमवरवेझ्या ण भते! किं सासया, असासया? गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया // से केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुचइसिय सासया, सिय असासया? गोयमा! दवट्टयाए सासता, वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासता, सेतेण?णं गोयमा ! एवं वुचइसिय सासता, सिय असासता। परमवरवेझ्याणं भंते! कालओकेवचिरहोति? गोयमा ! ण कया विणासि,ण क्या विणस्थि, णकया विनमविस्सति, भुवि च भवतिय भविस्सतिय घुवा नियया सासता अक्खया अव्यया अवडिया णिचा पउमवरवेदिया। (सू० 125) वनखण्डवर्णकः"तीसेणं जगतीए उप्पिं बाहिं पउमवरवेइयाए एत्थ ण एगे महं वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दो जोयणाईचक्कवालविक्खंभेण जगतीसमएपरिक्खेवेणं किण्हे किण्होभासे० जाव अणेगसगडरह-जाणजुग्गपरिमोयणे सुरम्मे पासादीए सण्हे लण्हे घटेम8 नीरए निप्पंके निम्मले निक्कडच्छाए सप्पभे समिरीए सउज्जोए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे / तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहानामएआलिंगपुक्खरेति वा मुइंगपुक्खरेति वा सरतलेइ वा करतलेइ या आयंसमंडलेति वा चंदमंडलेति वा सूरमंडलेति वा उरभचम्मेति वा उसभचम्मेति वा वराहचम्मेति वा सीहचम्मेति वा वग्घचम्मेति वा विगचम्मति वा दीविचम्मेति वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवडपच्चावडसेढीपसेढीसोतित्थयसोवत्थियपूसमाणवद्धमाणमच्छंडकमकरंडकजारमारफुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवासंतिलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं समिरीएहिं सउज्जोएहिं नाणाविहपंचवण्णेहिं तणेहि य मणीहि य उवसोहिए। जहा-किण्हेहिं० जाय सुकिल्लेहिं / तत्थ णजे ते किण्हा तणा य मणी य, तेसिंणं अयमेतारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए जीमूतेति वा अंजणेति वा खंजणेति वा कज्जलेति वा मसीइ वा गुलियाइ वा गवलेइ वा गवलगुलियाति वा भमरेति वा भमरावलियाति वा भमरपतगयसारेति वा जंबुफलेति वा अद्यारिटेति वा पुरिपुट्टएति वा गएति वा गयकलभेति वा कण्हसप्पेइ वा कण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेति वा कण्हासोएति वा किण्हकणवीरेइ वा कण्हबंधुजीवएति वा भवे एयारूवे सिया? गोयमा ! णो इणद्वे समढे, तेसिणं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इवयराए चेव कंततराए चेव पियतराए चेव मण्णुण्णतराए चेव मणामतराए चेव वण्णेणं पण्णत्ते / तत्थ णं जे ते णीलगा तणा य, मणी य तेसिं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए भिंगेइ वा भिंगपत्ते ति वा चासेति वा चासपिच्छेति वा सुएति वा सुयपिच्छति वा णीलांति वा णीलीभेएति वा णीलीगुलियाति वा सामाएति वा उच्चंतएति वा वणराईइ वा हलहरवसणेइ वा मोरगीवाति वा पारेक्यगीवाति वा अयसिकुसुमेति वा अंजणकेसिगाकुसुमेति वाणीलुप्पलेति वा णीलासोएति वाणीलकणवीरेति वाणीलबंधुजीवएति वा, भवे एयारवे सिया? णो इणले समठे। तेसिणं णीलगाणं Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1415 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह तणाणं मणोण य एतो इहतराए चेव कंततराए चेव० जाववण्णेणं पण्णत्ते / तत्थ जे ते लोहितगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूचे वण्णावासे पण्णले / से जहाणामए ससकरुहिरेति वा उरभरुहिरेति वा णररुहिरेति या वराहरुहिरेति वा महिसरुहिरेति वा बालिंदगोमएतिवा बालदिवागरेति वा संझब्भरागेति वा गुंजद्वराएति वा जातिहिंगुलुएति वा सिलप्पवालेति या पवालंकुरेति वा लोहितक्खमणीति वा लक्खारसएति वा किमिरागेइ या रतकंबलेइ वा चीणपित्तरासीइ वा जासुयणकुसुमेइ वा किंसुअकुसुमेइ वा पालि-याकुसुमेइ वा रत्तप्पलेति वा रत्ता सोगेति वा रत्तकणयारेतिवा रतबंधुजीवेइ वा, भवे एयारूवे सिया? नो इणद्वेसमठे। तेसिणं लोहियगाणं तणाण य मणीण य एतो इइतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते। तत्थणं जे तेहालिदगा तणा य मणी य, तेसिणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहा णाम ए-चंपए वा चंपयछल्लीइ वा चंपयभेएइ वा हालिद्दाति वा हालिद्दभएति वा हालिद्दगुलियाति वा हरियालेति वा हरियालभेए ति वा हरियालगुलियाति वा चिउरेति वा चिउरंगरागेति वा वरकणएति वा वरकणगनिघसेति वा सुवण्णसिप्पिएति वा वरपुरिसवसणेति वा सलइकुसुमेति वा चंपककुसुमइ वा कुहुंडियाकुसुमेति वा कोरंटकदामेइ वा तडउडा कुसुमेति वा घोंसाडियाकुसुमेति वा सुवण्णजूहियाकुसुमेति वा सुहरिन्नयाकुसुमेइ वा कोरिंटवरमलदामेति वा बीयगकुसुमेति वा पीयासोएति वा पीयकणवीरति वा पीयबंधुजीएति वा, भवे एया-रूवे सिया? नो इण8 समझे। ते णं हालिद्दा तणा य मणी य एतो इठ्ठयरा चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता। तत्थणजे ते सुकिल्लगा तणाय मणीय, तेसिणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते / से जहाना-मए-अंकेति वा संखेति वा चंदेति वा कुंदेति या कुसुमे ति वा दय-रएति वा दहिधणेइ वा खीरेइ वा खीरपूरेइ वा हंसावलीति वा कोंचावलीति वा हारावलीति वा बलायाऽवलीति वा चंदावलीति वा सारदियबलाहएति वा धंधधोयरुप्पपट्टेइ वा सालिपिहरासीति वा कुंदपुप्फरासीति वा कुमुयरासीति वा सुक्कछिवाडीति वा पेहुणमिजाति वा विसेतिवा मिणालियाति वा गयदंतेति वालवंगदलेति वा पोंडरीयदलेतिवा सिंदुवारमल्लदामेति वा सेतासोएति वा सेयकणदीरेति वा सेयबंधुजीएइवा, भवे एयारूवे सिया? णो इणट्टे समढे। तीसे पं सुकिल्लाणं तणाणं मणीण य एतो इट्ठराए चेव० जाव वण्णेणं पण्णत्ते। तेसिंण भंते ! तणाण य मणीण य केरिसए गंधे पण्णत्ते? से जहाणामएकोट्टपुडाण वा पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण वा एलापुडाण वा किरिमेरिपुडाण वा चंदणपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा उसीरपुडाण वा चंपगपुडाण वा मरुयगपुडाण वा दमणगपुडाण वा जातिपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण वा णोमालियपुडाण वा वासतियपुडाण वा केयतिपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवायंसि उभिज्जमाणाण य णिभिज्जमाणाण य कोट्टेज्जमाणाण वा रूविज्जमाणाण वा उक्किरिज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा भंडाओ वा भंड साहरिज्जमाणाणं ओराला मणुण्णा घाणभणणिवुतिकरा सव्वतो समंता गंधा अभिणिस्सवंति, भवे एयारूवे सिया? णो इणढे समढ़े। तेसि ण तणाण य मणीण य एत्तो उ इट्ठतराए चेव० जाव मणामतराए चेव गंधे पण्णत्ते / तेसिणं भते! तणाण य मणीण य केरिसए फासे पण्णत्ते? से जहाणामए आइणेति वा रूएति वा वरेति वा णवणातेति वा हंसगब्भतूलीति वा सिरीसकुसुमणिचएति वा बालकुमुदपत्तरा सीति वा, भवे एतारूवे सिया?णो इणव सम8।तेसिणं तणाण य मणीण य एतो इतराए चेव० जाव फासेण पण्णत्ते // तेसि णं भंते ! तणाण य मणीण य पुव्वावरदाहिणउत्तरागतेहिं वाएहिं मंदाय मंदायं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं खोभियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं उदीरियाण केरिसए सद्दे पण्णत्ते? से जहा णाम एसिवियाए वा संदमाणीयाए वा रहवरस्स या सछत्तरस सज्झयस्स सघंटयरस सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिखिणिहेमजालपरंतपरिक्खित्तस्स हेमवयखेत्तचित्तविचित्ततिणिसकणगनिज्जुत्तदारुयागस्स सुपिणिद्धारकमंडलधुरागस्स कालायससुकयणेमिजतकम्मस्स आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणरछयसारहिसुसंपरिगहितस्स सरसतवबत्तीसतोरणपरिमंडितस्स सकंकड़वडिंसगस्स सचावसरपहरणावरणहरियस्स जोहजुद्धस्स रायंगणंसि वा अंतेपुरंसि वा रम्मसि वा मणिकोट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघट्टिज्जमाणस्स वा णियट्टिज्जमाणस्स वा परूढवरतुरंगरस चंडवेगाइट्ठस्स ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्युतिकरा सव्वतो समंता सद्दा अभिणिस्सर्वति, भवे एतारूवे सिया? णो इगठे समझे। से जहाणामए-वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिताए अंके सुपइट्ठियाए वंदणसारकाणपडिपट्टियाए कुसलणरणारिसंपग्गहिताए पदोसपच्चसकालसमयसि मंदं मदं एइयाए वेइयाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वुतिकरा सव्वतो समंता सद्दा अभिणिस्सवति, भवे एयारूवे सिया? णो इण8 समढ़े। से जहाणामएकिण्णराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधव्वाण वा भद्दसालवणगयाण वा नंदणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमवंतमलय मंदरगिरिगुहासमण्णागयाण वा एणतोसहिताणं संमुहागयाणं समुपविट्ठाणं संनिविट्ठाणं पमुदियपक्कीलियाणं गीयरतिगंधव्वहरिसियमणाणं गज्जं पज्ज कत्थंगेय पयविद्धं पायविद्धं उक्खित्तयं पक्त्तय मंदाय रोचियावसाणं सत्तसरसमण्णागयं अट्ठारससुसंपउत्तं छद्दोसविप्पमुक्कं एकारसगुणालंकारं अट्ठगुणोववेयं गुंजंतवंसकुहरोवगूढ रत्तं तित्थाणकरणसुद्धं मधुरं समं सुललियं सकुहरगुंजंतवंसतंतीसुसंपउत्तं तालसुसंपउत्तं तालसमं रयसुसपउत्तं गहसुसंपउत्तं मणोहरं मउयरिभियपयसंचार सुरभि सुणति वरचारुरूवं दिव्वं नट्ट सज्ज गेयं पगीयाणं, भवे एयारूवे सिया? हंतागोयमा ! एवभूए सिया॥ (सूत्र- 126) तस्सणवणसंडस्स तत्थतत्थ देसे तहिं तहिं बहवे खुड्डा खुड्डियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ गुंजालिया Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ओ दीहियाओ सरसीओ सरपंतियाओ सरसरपंतीओ बिलपंतीओ अच्छाओसण्हाओ रयतामयकूलाओ वइरामयपासाणाओ तवणिज्जमयतलाओ वेरुलियमणिफालियपडलपचोयडाओणवणीयताओ सुवपणसुब्भ (ज्झ) रययमणिवालुयाओ सुहोयाराओ सुउत्ताराओणाणामणितित्थसुबद्धाओचारुचउक्कोणाओ समतीराओ आणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछणपत्तभिसमुणालाओ बहुप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधितपोंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तफुल्लकेसरोवइयाओछप्पयपरिभुज्जमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुण्णाओ परिहत्थभमंतमच्छकच्छ भअणेगसउणमिहुणपरिचरिताओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेदियापरिक्खित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ अप्पेगतियाओ आसवोदाओ अप्पेगतियाओ वारुणोदाओ अप्पेगतियाओ खीरोदाओ अप्पेगतियाओघओदाओ अप्पेगतियाओ खोदोदाओ अमयरससमरसोदाओ अप्पेगतियाओ पगतीए उदग (अमय) रसेणं पण्णत्ताओ पासाइयाओ०४। तासि ण खुड्डियाणं वावीण० जाव विलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तहिं २०जाव बहवे तिसोवाणपडिरूवया पण्णत्ता। तेसि णं तिसोवाणपडिरूवाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते / तं जहावइरामया नेमा रिट्ठामया पतिट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पामया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमइओ सूईओणाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणवाहाओ। तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेय पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता। तेणं तोरणा णाणामणिमयखंभेसु उवणिविट्टसण्णिविट्ठविविहमुत्तरोवइता विविहतारारूवोवचिता ईहाभियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवइरवेदियापरिगताभिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ता विव अधिसहस्समालणीया भिसमाणा भिडिभसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासादीया०४ / तेसिणं तोरणाण उप्पिं बहवे अट्ठ मंगलगा पण्णत्तासोत्थियसिरिवच्छणंदियावत्तवद्धमाणभद्दासणकलसमच्छदप्पणा सव्वरतणामया अच्छा सण्हा० जावपडिरूवा। तेसिणं तोरणाणं उप्पिं बहवे किण्हचामरज्झया नीलचामरज्झया लोहियचामरज्झया हारिद्दचामरज्या सुकिल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा रुप्पपट्टा वइरदंडा जलयामलगंधीया सुरूवा पासाईया० 4 / तेसिणं तोरणाणं उप्पिं बहवे छत्ताइछत्ता पडागाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थया०जाव सयसहस्सवत्तहत्थगासवरयणामया अच्छा० जावपडिरूवा। तासिणंखुड्डियाणं वावीण जाव विलपंतियाण तत्थ तत्थ देसे दसे तहिं तहिं बहवे उप्पायपव्वया णियइपव्वया जगतिपटवया दारुपय्वयगा दगमंडवगा दगमंचका दगमालका दगपासायगा ऊसडाखुला खडहडगा अंदोलगा पक्खदोलगा सव्वरणामया अच्छा० जाव पडिरुवा / तेसु णं उप्पायपव्वतेसु० जाव पक्खंदोलएसु बहवे हंसाऽऽसणाई को चासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाई पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई उसभासणाई सीहासणाई पउमासणाई दिसासोवत्थियासणाई सव्वरयणमयाई अच्छाई सण्हाई लण्हाइं घटाई मट्ठाई णीरयाई णिम्मलाई निप्पकाई निकडच्छायाई सप्पभाई सम्मिरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिजाई अभिरूवाई पडिरूवाइं। तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे 2 तहिं तहिं बहवे आलिघरा मालिघरा कयलिघरा लयाघरा अच्छणघरा पेच्छणघरा मजणघरगा पसाहणघरगागभघरगा मोहणघरगा सालघरगा जालघरमा कुसुमघरगा चित्तघरगा गंधव्यघरगा आयंसघरगा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका निक्ककडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / तेसु णं आलिघरएसु० जाव आयंसघरएसु बहूई हंसा-सणाइं० जाव दिसासोवत्थियासणाई सव्वरयणामयाइं० जाव पडिरूवाई। तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे 2 तहिं तहिं बहवे जाइमंडवगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा णवमालियामंडवगा वासंतीमडवगा दघियासुयामंडवगा सूरिल्लिमंडवगा तंबोलीमंडवगा मुद्दियामंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तमंडवगा अप्फोतामंडवगा मालुयामंडवगासामलयामंडवगा णिचं कुसुमिया० जाव पडिरूवा। तेसु णं जातीमंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा पण्णत्ता / तं जहा-हंसाऽऽसणसंठिता को चासणसंठिता गरुलासणसंठिता उण्णयासणसठिता पणयासणसंठिता दीहासणसंठिता भद्दासणसंठिता पक्खासणसंठिता मगरासणसंठिता उसभासण-संठिता सीहासणसंठिता पउमासणसंठिला दिसासोत्थियाससंठिता पण्णत्ता / तत्थ बहवे वरसयणासणविसिट्ठसंठाणसठिया पण्णत्ता। समणाउसो ! आइण्णगरूयबूरणवणीततूलफासा मउया सव्वरयणामया अच्छा० जावपडिरूवा। तत्थ णं बहवेवाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति, सयंति, चिट्ठति, णिसीदंति, तुयटृति, रमंति ललंति, कीलंति, मोहंति, पुरा पोराणाणं सुचिराणाणं सुपरिवंताणं सुभाणं कल्लाणाण कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पचणुभवमाणा विहरंति। तीसे णं जगतीए उप्पिं अंतो पउमवरवेदियाए एत्थ णं एगे मह वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाईदो ज़ोयणाई विक्खंभेणं वेइयासमएणं परिक्खेवेणं किण्हे किण्होभासे वणसंडवण्णओ मणितणसद्दविहूणो णेयव्वो। तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देया य देवीओ य आसयंति, सयंति, चिट्ठति, णिसीयंति, तुयटृति, रमंति, ललंति, कीडंति, मोहंति, पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिकताणं सुभाणं कंताणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पचणुभवमाणा विहरंति।। (सूत्र-१२७। जी०३ प्रति० 1 उ०) तथा-(पव्वयसमियाओ आयामेणं ति) पर्वतसमिकाश्चतस्रोऽपि पद्मवरवेदिका आयामेनदैर्येण अत्र तत्संबन्धानि वनखण्डान्यपि पर्वतसमान्यायामेनेति बोध्यम्। (आभि-ओगेत्यादि) प्रागधस्तनसूत्रे जगती पद्मवरवेदिकच येनेव गर्मेन व्यावर्णित स एवात्र गम इतिनपुनव्याख्यायत। (तासि णमित्यादि) तासु आभियोग्यश्रेणिषु शक्रस्याऽऽसनविशेषस्थाधिष्ठाता शक्ररतस्य दक्षिणा लोकाधिपतेरित्यर्थः। देवेन्द्रस्य देवानां मध्ये परमैश्वर्ययुक्तस्य देवराज्ञः देवेषु कान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानस्य सोमः Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1417 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह पूर्वदिक्पालो, यमो दक्षिणदिक्पालो, वरुणः पश्विमदिक्पालो, वैश्रमण उत्तरदिक्पालः, तेषां कायो निकाय आश्रयणीयत्वेन येषां, ते तथा तेषां शक्रसम्बन्धिसोमाऽऽदिदिक्पाखपरिवारभूतानामित्यर्थः / आभियोग्यानां देवानां बहूनि भवनानि प्रज्ञप्तानि, तानि, सूत्रे पुंस्त्यनिर्देशः प्राकृतत्वात् णमिति प्राग्वत्। भवनानि बहिर्वृत्तानि बहिर्वृत्ताऽऽकाराणि अन्तश्चतुरस्राणि समचतुरस्राणि (वण्णउत्ति) अत्र भवनानां वर्णको वाच्यः, स च किंपर्यन्त इत्याह- (जाव अच्छरगणसंघविकिण्ण त्ति)ततोऽपि कियत्पर्यन्त त्याह (जाव पडिरूव त्ति) स च प्रज्ञापनास्थानाख्यऽऽद्वितीयपदोक्तो यथा- 'अहे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिया उक्किन्नतरविउलगंभीरखायफलिहा पागारट्टालयकवाडतोरणपडिदुबारदेसभागा जंतसबग्धिमुसलमुसंढिपरिवारिया अउज्झा सदाजया सदागुत्ता अड्यालकोट्ठगरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरा मरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचितचंदणकलसाचंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमलदामकलावा पंचयन्नसरससुरभिमुक्क पुप्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघंतगंधुद् धुयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिन्ना दिव्यतुडियसद्दसंपणादिया सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घडा मट्ठा णीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा। (सूत्र४६ प्रज्ञा०२ पद) अत्र व्याख्या- अधस्तनभामे पुष्करकर्णिकासंस्थानस्थितानितथा उत्कीर्णमिवोत्कीर्णम् अतीव व्यक्तमित्यर्थः, उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखाणां ता उत्कीर्णान्तराः / किमुक्तं भवति? खातानां च परिखाणां च स्पष्टवेविक्त्योन्मीलनार्थमपान्तराले महती पाली समस्तीति उत्कीर्णान्तस्रः विपुलाविस्तीर्णा गम्भीराअलब्धमध्यभागाखातपरिखा येषां भवनानां परितस्तानि तथा-खातपरिखाणामयं विशेषः- परिखा उपरि उपरि विशाला अधः सङ्कुचिता, खात तूभयत्रापि सममिति, तथा प्राकारेषु वप्रेषु प्रतिभवनं अट्टालकाः। प्राकारस्योपरिवाश्रयविशेषाः- कपाटानि-प्रतोलीद्वारसत्कानि, एतेन प्रतोल्यः सर्वत्र सूचिताः- अन्यथा कपाटानामसम्भवात्, तोरणानि-प्रतोलीद्वारेषु प्रसिद्वानि, प्रतिद्वाराणिमूलद्वारापान्तरालवर्तिलघुद्वाराणि,एतद्रूपा देशभागा देशविशेषा येषु तानि तथा। यन्त्राणि नानाविधानि शतघ्न्यो-महायष्टयो माहासिला वा या उपरिष्टात् पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि घ्नन्तीति, मुसलानिप्रतीतानि, मुसण्ढ्यः-शस्त्रविशेषास्तैः परिवारितानिसमन्ततो वेष्टितानि, अत एवायोध्यानिपरैर्वोद्धुमशक्यानि, अयोद्ध्यत्वादेव सदाजयानि' सदा-सर्वकालं जयो येषु तानि सदाजयानि, सर्वकालं जयवन्तीति भावः। तथा सदासर्वकालं गुप्तानि प्रहरणैः पुरुषश्च योद्धभिः सर्वतो निरन्तरपरिवारिततया परेषामसहमानानां मनागपि प्रवेशासम्भवात्, तथा अष्टचत्वारिंशद्रेदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठकाः- अपवरका रचिताः- स्वयमेव रचना प्राप्ता येषु तानि तथा, सुखाऽऽदेदर्शनात् पाक्षिको निष्टान्तस्य परनिपातः। तथा अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तयः कृता वनमाला येषु तानि तथा / अन्ये त्वाभिदधति- 'अडयाल इति देशीशब्दः प्रशंसावाची। ततोऽयमर्थः-प्रशस्तकोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानीति, तथा क्षेमाणिपरकृतोपद्रवरहितानि शिवानिसदामङ्गलोघेतानि, तथा किङ्कराः- किङ्करभूता येऽमरास्तैः दण्डैः कृत्वोपरक्षितानि, सर्वतः समन्ततोऽपि रक्षितानि, तथा लाइअमिय लाइअंछगणाऽऽदिना भूमेरुपलेपनमिव 'उलोइआ' उल्लोइयमिव उल्लोइयं सेटिकाऽऽदिना कुड्याऽऽदिषु धवलनमिव ताभ्यां महितानीव-पूजितानीव, तथा गोशीर्षण-चन्दन-विशेषेण सरसेनरक्तचन्दनेन च दद्दरणबहलेन दर्दराभिधानाद्रिजातश्रीखण्डेन वा दत्ताः-न्यस्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तलाहस्तका येषु तानि तथा, उपचिता-निवेशिता वन्दनकलशामागल्यघटां येषुतानि तथा, बन्दनघटैः- माङ्गल्यकलशैः सुकृतानिसुष्टु कृतानि शोभनानीत्यर्थः, यानि तोरणानि तानि प्रतिद्वारदेशभागद्वारदेशभागे 2 येषु तानि तथा, देशभागाश्च देशा एव, तथा आ-सक्तो भूमौ लग्न उत्सक्तश्च-उपरि लग्नो, विपुलः-अतिविस्तीर्णो , वृत्तःअतिनिचिततया वर्तुलो (वग्धारिअ त्ति)-प्रलम्बितो माल्यदामकलापःपुष्पमालासमूहो येषु तानि तथा, पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्ताःकरप्रेरिताः पुष्पपुजास्तैर्य उपचारः- पूजा भूमेस्तेन कलितानि कालागरु' इत्यादि विशेषणत्रयं प्राग्वत्, अप्सरोगणानां सङ्घः- समुदायः तेन सम्यग् - रमणीयतया विकीर्णानिव्याप्तानि, तथा दिव्यानां त्रुटितानाम्आतोद्यानां ये शब्दास्तैः सम्यग- श्रोतृमनोहारितया प्रकर्षणसर्वकालं नदि-तानि-शब्दवन्ति। 'सव्वरयणामया' इत्यादि पदानि प्राग्वत्। तत्थ णं इत्यादि, गतार्थमेतत्। अथवैताव्यस्य शिखरतलमाह- 'तासिणं' इत्यादि, तयोः- आभियोग्यश्रेण्योर्बहुसमरमणीया भूमिभागाद्वैताट्यस्य पर्वतस्योभयोः पार्श्वयोः पञ्च पञ्च योजनान्यूर्द्धमुत्पत्त्यगत्वा अत्रान्तरे वैताढ्यस्य पर्वतस्य शिखरतलं प्रज्ञप्त, 'पाईण' इत्यादि प्राग्वत्, तच्च शिखरतलम्, एकया पद्मवरवेदिकया तत्परिवेष्टकभूतेन चैकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् / अयं भावः- यथा जगतीमध्यभागे पद्मवरवेदिकैकैव जगतीं दिक्षु विदिक्षु वेष्टयित्वा स्थिता,तथेयमपि सर्वतः शिखर-तलपर्यन्तेवेष्टयित्वा स्थिता, परमेषा आयतचतुरसाऽऽकारशिखरतलसंस्थितत्वेनाऽऽयतचतुरस्रा बोद्धव्या, अत एवैकसंख्याका, तत्परतो बहिर्वर्त्तिवनखण्डअप्येकं, न तु वैताळ्यमूलगतपद्मवरवेदिकावने इव दक्षिणोत्तरविभागेन द्वयरूपे इति। श्रीमलयगिरिपादास्तु क्षेत्रविचारबृहद्वृत्तौ- "तन्मध्ये पद्मवरवेदिकोभयपार्श्वयोर्वनखण्डौ'' इत्याहुः / प्रमाणविष्कम्भाऽऽयामविषयं, वर्णकश्च द्वयोरपि पद्मवरवेदिकाक्नखण्डयोः, प्राग्वद्ग-णितव्य इत्यध्याहार्यम्। अथ शिखरतलस्य स्वरूपं पृच्छति- (वेअड्डस्स णमित्यादि) एतत्सर्व जगतीगतपद्मवरवेदिकाया वनखण्डभूमिभागवव्याख्येयम्। जं०१ वक्ष०ा (कूटवक्तव्यता कूड शब्दे तृतीयभागे 618 पृष्ठे गता) Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1418 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह अथ दक्षिणार्द्धभरतकूटस्वरूपं पृच्छन्नाह 15) जं० १वक्ष०। (व्याख्या 'कूड' शब्दे तृतीयभागे 621 कहि णं भंते ! वेअड्डे पव्वए दाहिणभरहकूडे णामं कूडे पृष्ठे द्रष्टव्या) पण्णत्ते ? गोयमा ! खंडप्पवायकूडस्स पुरच्छिमेणं सिद्धाय अथ वर्ण्यमानस्यैतद्वर्षस्य नाम्नः प्रवृत्तिनियणकूडस्स पच्चच्छिमेणं एत्थ णं वेअड्डपव्यए दाहिणड्डभरह मित्तं पिपृच्छिषुराहकूडे णामं कूडे, पण्णत्ते, सिद्धाययणकूडप्पमाणसरिसे०जाय से केणऽढेणं भंते ! एवं वुचइ-भरहे वासे 2? गोअमा ! भरहे तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए | णं वासे वेअड्डस्स पव्वयस्य दाहिणेणं चोद्दसुत्तरं जोअणसयं एत्थ णं महं एगे पासायवडिंसए पण्णत्ते, कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, एगस्स य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अबाहाए लवणसमुदस्स अद्धकोसं विक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसियपहसिए०जाव पासाईए उत्तरेणं चोद्दसुत्तरं जोअणसयं एक्कारस य एगूणवीसइभाए 4 / तस्स णं पासायवडिंसगस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं जोअणस्स अवाहाए गंगाए महाणईए पच्चच्छिमेणं सिंधूए एगा मखिपेढिया पण्णत्ता, पंच धणुसयाई आयामविक्खंभेणं / महाणईए पुरच्छिमेणं दाहिणड्डमरहमज्झिल्लतिभागस्स बहुमअड्डाइज्जाइं धणुसयाई बाहल्लेणं सव्वमणिमई, तीसे णं ज्झदेसभाए एत्थ णं विणीआ णामं रायहाणी पण्णत्ता, पाईणमणिपेढियाए उप्पिं सिंघासणं पण्णत्तं, सपरिवार माणियव्वं / पडीणाऽऽयया उदीणदाहिणवित्थिन्ना दुबालसजोअणाऽऽयामा से केणऽट्टेणं भंते ! एवं वुचइ-दाहिणड्डभरहकूडे 2? गोयमा ! णवजोअणवित्थिण्णा धणवइमतिणिम्माया चामोयरपागारा दाहिणड्वभरहकूडे णं दाहिणड्डभरहे णामं देवे महिड्डीए जाव णाणामणिपंचवण्णकविसीसगपरिमंडिआभिरामा अलकापुरीपलिओवमट्ठिईए परिवसइ, से णं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाह संकासा पमुइयपक्कीलिआ पच्चक्खं देवलोगभूआ रिद्धिस्थिस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं मिअसमिद्धा पमुइअजणजाणवया० जावपडिरूवा // (सूत्र०४१) अणीयाणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेव अथ सम्पूर्णभरतक्षेत्रस्वरूपकथनानन्तरं केनार्थेन भगवन् ! एव-मुच्यतेसाहस्सीणं दाहिणवभरहकूडस्स दाहिणड्डाए रायहाणीए अण्णेसिं भरतं वर्ष 2? द्विवचनं प्राग्वत्। भगवानाह-गौतम ! भरते वर्षे वेताळ्यस्य बहूणं देवाण य देवीण य०जाव विहरइ / / कहिणं भंते ! दाहिण पर्वतस्य दक्षिणेन चतुर्दशाधिकं योजनशतमेकादश चैकोनविंशतिभागान योजनस्याबाधयाअपान्तराल कृत्वा तथा लवणसमुद्रस्योत्तेरेण दक्षिणडभरहकूडस्स देवस्स दाहिणड्डा णामं रायहाणी पण्णत्ता? लवणसमुद्रस्योत्तरेणेत्यर्थः, पूर्वापरसमुद्रयोर्गङ्गासिन्धुभ्यां व्यवहितत्वान्न गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेज्जदीव तद्विवक्षा, गङ्गाया महानद्याः पश्चिमायां सिन्ध्या महानद्याः पूर्वस्या समुद्दे वीईवइत्ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे दक्खिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणडभरहकूडस्स दक्षिणार्द्धभरतस्य मध्यमतृतीयभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र एतादृशे क्षेत्रे विनीता-अयोध्यानाम्नी राजधानी-राजनिवासनगरी प्रज्ञप्ता देवस्स दाहिणड्डभरहाणामं रायहाणी भाणिअव्वा जहा विजयस्स मयाऽन्यैश्च तीर्थकृतिरिति / साधिकचतुर्दशाधिकयोजनशताङ्को-त्पत्ती देवस्स, एवं सव्वकूडा णेयव्वा०जाव वेसमणकूडे परोप्परं त्वियमुत्पत्तिः भरत क्षेत्रं 500 योजनानि 26 योजनानि षट् 6 कला पुरिच्छमपच्चच्छिमेणं, इमे सिं वण्णावासे गाहा-"मज्झे योजनैकोनविंशतिभागरूपा विस्तृतम्, अस्मात् 50 योजनानि वैताट्यवेअड्डस्स उ, कणयमया तिण्णि होति कूडा उ। सेसा पव्वय गिरिव्यासः शोध्यते, जातम् 476 / 6/16 कलाः- दक्षिणोत्तरभरताकूडा, सव्वे रयणामया होंति॥१॥" माणिभद्दकूडे 1, वेअड्ड र्द्धयोविभजनयतस्यार्द्ध २३८।७/१६कलाः इयतो दक्षिणार्द्धभरतकूडे 2, पुण्णभद्दकूडे 3, एए तिण्णि कूडा कणगामया सेसा व्यासात् "उदीणदाहिण-वित्थिण्णा'' इत्यादि-वक्ष्यमाणवचनाद्विनीछप्पि रयणमया दोण्हं विसरिसणामया देवा कयमालए चेव ताया विस्ताररूपाणि नव योजनानि शोध्यन्ते, जातम् 226/3/16 णट्टमालए चेव, सेसाणं छण्हं सरिसणामया-"जण्णामया य कलाः, अस्य च मध्यभागेन नगरीत्यर्द्धकरणे 114 योजनानि अवशिष्टकूडा, तन्नामा खलु हवंति ते देवा / पलिओवमट्टिईया, हवंति / स्यैकस्य योजनस्यैकोनविंशतिभागेषु कलात्रयक्षेपे जाताः 22 तदर्द्धम पत्ते पत्तेयं / / 1 / / " रायहाणीओ जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स 11 कला इति। तामेव विशेषणैर्विशिनष्टि-'पाईण पड़ीणायया' इत्यादि पव्वयस्स दाहिणेणं तिरिअं असंखेज्जदीवसमुद्दे वीईवइत्ता | पूर्वापरयोर्दिशोरायता, उत्तरदक्षिणयोर्विस्तीर्णा, द्वादशयोजनाअण्णम्मि जंबुद्दीये दीवे बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ | ऽऽवामा नवयोजनविस्तीर्णा धनपतिमत्याउत्तरदिक्पालबुद्धया निर्मातागंरायहाणीओ भाणिअव्वाओ विजयरायहाणीसरिसयाओ (सूत्र | निर्मितस्यर्थः निपुणशिल्पिविरचितस्यातिसुन्दरत्वात्, यथा च धनप Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह तिना निर्मिता तद्ग्रन्थान्तरानुसारेण किश्चिद व्यक्तिपूर्वकमुपदर्श्यते"श्रीविभो राज्यसमये, शक्राऽऽदेशान्नवां पुरीम्। धनदः स्थापयामास, रत्नचामीकरोत्करैः / / 1 / / द्वादशयोजनाऽऽयामा, नवयोजनविस्तृता। अष्टद्वारमहाशाला, साऽभवत्तोरणोज्ज्वला।।२।। धनुषां द्वादशशतान्युच्चै-स्त्वेऽष्टशतं तले। व्यायामे शतमेकं स, व्यधाद्वप्रं सखातिकम् / / 3 / / सौवर्णस्य च तस्याङ्के, कपिशीषोवलिवेभो। मणिजाऽमरशैलस्थ-नक्षत्रालिरिवोद्गता // 4 // चतुरस्त्राश्च त्र्यसाश्च, वृत्ताश्च स्वस्तिकास्तथा। मन्दाराः सर्वतोभद्रा, एकभूमा द्विभूमिकाः॥५॥ त्रिभूमाऽऽद्याः सप्तभूम, यावत्सामान्यभूभुजाम्। प्रासादाः कोटिशस्तत्रा-भूवन् रत्नसुवणजाः।।६।। युग्मम्। दिश्यैशान्यां सप्तभूमं, चतुरस्रं हिरण्मयम्। सवप्रखात्रिकं वक्रे, प्रासाद नाभिभूपतेः।।७।। दिश्यैन्द्रयां सर्वतोभद्र, सप्तभूमं महोन्नतम्। वर्तल भरतेशस्य,प्रासादं धनदोऽकरोत् // 8 // आग्नेय्यां भरतस्यैव, सौधं बाहुबलेरभूत्। शेषाणां च कुमाराणा-मन्तरा ह्यभवत् तयोः / / 6 / / तस्यान्तराऽऽदिदेवस्य, चैकविंशतिभूमिकम्। त्रैलोक्यविभ्रम नाम, प्रासादं रत्नराजिभिः // 10 // सदप्रखातिक रम्यं, सुवर्णकलशाऽऽवृतम्। पञ्चध्वजषटव्याजा-न्नृत्यन्तं निर्मम हरिः।।११।। युग्मम्। अष्टोत्तरसहरनेण, मणिजालैरसौ बभौ। तावत्सङ्घयमुखैभूरि, ब्रुवाणमिव तद्यशः / / 12 / / कल्पद्रुमैर्वृताः सर्वे-ऽभूवन (से) भरहयौकसः। सप्राकारा बृहद्बास:-पताकामालभारिणः // 13 // सुधर्मसदृशी चारु, रत्नमय्यभवत्पुरी। युगाऽऽदिदेवप्रासादात, सभा सर्वप्रभाऽभिधा / / 14 / / चतुर्दिक्षु विराजन्ते, मणितोरणमालिकाः / पञ्चवर्णप्रभाड्कूर-पूरडम्बरिताम्बराः / / 15 / / अष्टोत्तरसहस्रेण, मणिबिम्बैर्विभूषितम्। गव्यूतिद्वयमुत्तुङ्गं , मणिरत्नहिरण्मयम् // 16 // नानाभूमिगवाक्षाऽऽन्य, विचित्रमणिवेदिकम्। प्रासादं जागदीशस्य, व्यधाच्छीदः पुरान्तरा।।१७।। युग्मम्। सामन्तमण्डलीकानां, नन्द्यावतोऽऽदयः शुभाः। प्रासादा निर्मितास्तत्र, विचित्रा विश्वकर्मणा // 15 // अष्टोत्तरसहस्र तु, जिनानां भवनान्यभूः। उच्चैर्ध्वजाप्रसंक्षुब्ध-तीक्ष्णांशुतुरगाण्यथ।।१६।। चतुष्पथप्रतिबद्धा, चतुरशीतिरुच्चकैः / प्रासादाश्चाहता रम्याः, हिरण्यकलशैर्बभुः / / 20 / / सौधानि हिरण्यरत्न-मयान्युच्चैः सुमेरुवत्। कोबेर्या सपताकानि, चक्रे स व्यवहारिणाम्॥२१॥ दक्षिणस्यां क्षत्रियाणां, सौधानि विविधानि च। अभूवन् साऽसाऽगाराणि, तेजांस्यवनिवासिनाम् / / 22 / / तद्प्रान्तश्चतुर्दिक्षु, पौराणां सौधनोटयः। व्यराजन्तद्युसद्यान-समानविशदश्रियः॥२३॥ सामान्यकारुकाणां च, बहिःप्राकारतोऽभवत। कोटिसड़ख्याश्चतुर्दिक्षु, गृहाः सर्वधनाऽऽश्रयाः॥२४।। अवाच्यां च प्रतीच्यां च, कारुकाणां बभुर्गृहाः। एकभूमिमुखारत्र्यस्रा-स्त्रिभूमिं यावदुच्छ्रिताः / / 25 / / अहोरात्रेण निर्माय, तां पुरी धनदोऽकिरत्। हिरण्यरत्नधान्यानि, वासांस्याभरणानि च / / 26 / / सरांसि वापीकूपाऽऽदीन, दीर्घिका देवताऽऽलयान्। अन्यच्च सर्व तत्राहो-रात्रेण धनदोऽकरोत्॥२७।। विपिनानि चतुर्दिक्षु, सिद्धार्थश्रीनिवासके। पुष्पाऽऽकारं नन्दनं चा-भवन् भूयांसि चान्यतः।।२८।। प्रत्येक हेमचैत्यानि, जिनानां तत्र रेजिरे। पवनाऽऽहृतपुष्पाऽऽलि-पूजितानि द्रुमैरपि / / 26 / / प्राच्यामष्टापदोऽवाच्या, महाशैलो महोन्नतः। प्रतीच्या सुरशैलरन्तु, कौवर्यामुदयाचलः / / 30 / / तत्रैवमभवन् शैलाः, कल्पवृक्षाऽऽलिमालिताः। मणिरत्नाऽऽकराः प्रोचे-जिनाऽऽवासपवित्रिताः // 31 // शक्राऽऽज्ञया रत्नमयी-मयोध्यापरनामतः। विनोतां सुरराजस्य, पुरीमिव स निर्ममे // 32 // यद्वास्तव्यजना देवे, गुरौ धर्मे च साऽऽदराः। स्थैयोऽऽदिभिगुणैर्युक्ताः, सत्यशैचदयाऽन्विताः॥३३॥ कलाकलापकुशलाः, सत्सङ्गातिरताः सदा। विशदाः शान्तसद्भावाः, अहमिन्द्रा महोदयाः // 34 // युग्मम्तत्पुर्यामृषभः स्वामी, सुरासुरनरार्चितः। जगत्सृष्टिकरो राज्य, पाति, विश्वस्य रञ्जनात्॥३५।। अन्वयोध्यमिह क्षेत्र-पुराण्यासन् समन्ततः। विश्वस्रष्ट्रशिल्पिवृन्द-घटितानि तदुक्तिभिः।।३६।।" इति। संक्षेपेण त्वेतत्स्वरूपं सूत्रकारोऽप्याह- 'चामोअरपागारे' त्यादि, चामीकरप्राकारा नानामणिकपिशीर्षपरिमण्डिता अभिरामा अलकापुरीलौकिकशास्त्र, धनदपुरी तत्संकाशातत्सन्निभा प्रमुदितजनयोगान्नगर्यपि 'तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेशः' इति न्यायात् प्रमुदिता, तथा प्रकीडिताः-कीडितुमारब्धवन्तः क्रीडावन्तः इत्यर्थः; तादृशा ये जनास्तद्योगान्नगर्यपि प्रक्रीडिता, पश्चाद् विशेषणसमासः; प्रत्यक्ष प्रत्यक्षप्रमाणेन तस्यानुमानाऽऽद्याधिकेन विशेषप्रकाशकत्वात् तज्जन्यज्ञानस्य सकलप्रतिपत्तृणां विप्रतिपत्त्यविषयत्वात्, देवलोकभूतास्वर्गलोकसमाना 'ऋद्धस्तिमितसमृद्धे' त्यादिविशेषणानि प्राग्वत, इतिः परिसमाप्तौ, नवरं प्रमुदितजनजानपदेतिविशेषणं प्रमुदितप्रक्रीडितेतिविशेषणस्य हेतुतयोपन्यस्तं तेन न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयम्। नन्वेवं प्रस्तुतक्षेत्रस्य नामप्रवृत्तिः कथं जातेत्याहतत्थ णं विणीआए रायहाणीए भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था, महया हिमवंतमहंतमलयमंद Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1420 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह र जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ। बिइओ गमो रायवण्णगस्स इमो, तत्थ असंखेज्जकालवासंतरेण उप्पज्जए जसंसी उत्तमे अभिजाए सत्तवीरिअपरक्कमगुणे पसत्थवण्णसरसारसंघयणतणुगबुद्धिधारणमेहासंठाणसीलप्पगई पहाणगारवच्छायागइए अणेगवयणप्पहाणे तेअआउलवीरिअजुत्ते अज्झुसिरघणणिचिअलोहसंकलणारायवइरउसहसंघयणदेहधारी झस 1 जुग 2 भिंगार 3 वद्धमाणग 4 भद्दमाणग 5 संख 6 छत्त 7 वीअणि 5 पडाग 6 चक्क १०णंगल 11 मुसल 12 रह 13 सोत्थिअ१४ अंकुस 15 चंदा 16 इच 17 अग्गि 18 जूय 16 सागर 20 इंदज्झय 21 पुहवि 22 पउम 23 कुंजर 24 सीहासण 25 / दंड 26 कुम्म 27 गिरिवर 28 तुरगवर 26 वरमउड 30 कुंडल 31 णंदावत्त 32 धण 33 कोंत 34 गागर 35 भवणविमाण 36 अणेगलक्खणपसत्थसुविभत्तचित्तकरचरणदेसभागे उद्धामुहलोमजालसुकुमालणिद्धमउआवत्तपसत्थलोमविरइअसिरिवच्छच्छण्णविउलवच्छे देसखेत्तसुविभत्तदेहधारी तरुणरविरस्सिबोहिअवरकमलविबुद्धगम्भवण्णे हयपोसणकोससण्णिभपसत्थपिटुंतणिरुवलेवे पउमुप्पलकुं दजाइजू हियवरचंपगणागपुप्फसारंगतुल्लगंधी छत्तीसा-अहिअपसत्थपत्थिवगुणेहिं जुत्ते अव्वोच्छिण्णातपत्ते पागडउभयजोणी विसुद्धणि-अगकुलगयणपुण्णचंदे चंदे इव सोमयाए णयणमणणिव्युइकरे अक्खोभे सागरो व थिमिए धणवइ व्व भोगसमुदयसद्दव्वयाए समरे अपराइए परमविक्कमगुणे अमरवइसमाणसरिसरूवे मणुअवई भरहचकवट्टी भरहं मुंजइ पणट्ठसत्तू / (सूत्र 42) (तत्थ णमित्यादि) तत्र विनीतायां राजधान्यां भरतो नाम राजा, सच / सामन्ताऽऽदिरपि स्यादत आह चक्रवर्ती , स च वासुदेवोऽपि स्यादतश्चत्वारोऽन्ताः-पूर्वापरदक्षिणसमुद्रास्त्रयः चतुर्थो हिमवान् इत्येवंस्वरूपास्ते वश्यतयाऽस्य सन्तीति चातुरन्तः, पश्चाच्चक्रवर्तिपदेन कर्मधारयः समुदपद्यत, महाहिमवान् हैमवतहरिवर्षक्षेत्रयोविभाजकः कुलगिरिः स इव महान् शेषपृथ्वीपतिपर्वतापेक्षया मलयः-चन्दनद्रुमोत्पत्तिप्रसिद्धो गिरिः, मन्दरोमेरुः, यावत्पदात् प्रथमोपाङ्ग (ग)तः समग्रो राजवर्णको ग्राह्य, कियत्पर्यन्त इत्याह-- राज्यं प्रशासयन् पालयन् विहरतीति। नन्वेवमपि शाश्वती भरतनामप्रवृत्तिः कथं? तदभावे च 'सेत्तं' इत्यादि वक्ष्यमाण निगमनमप्यसम्भवीत्याशया प्रकरान्तरेण तत्तत्कालभाविभरतनामचक्रवर्युद्देशेन राजवर्णनमाह- 'विइओगमो' इत्यादि, द्वितीयो गमः-पाठविशेषोपलक्षितो ग्रन्थो राजवर्णकस्यायं, 'तत्र' तस्यां विनितायामसङ्गययः कालो यैर्वर्षे स्तानि वर्षाणि असङ्खयेयानीत्यर्थः, तेषामन्तरालेन-विधालेन, अयमर्थः-प्रवचने हि कालस्यासङ्ख्येयता असंख्येयैरेव च वर्षय॑वहियते, अन्यथा समयापेक्षयाऽसङ्ख्येयत्वे / ऐदंयुगीनमनुष्याणामसङ्ख्येयाऽऽयुष्कत्वव्यवहारप्रसङ्गः तेनासंख्येयवर्षाऽऽल्मकासङ्ख्येयकाले गते एकस्माद् भरतचक्रवर्तिनोऽपरो भरतचक्रवर्ती यतः प्रकृतक्षेत्रस्य भरते-ति नाम प्रवर्तते स उत्पद्यते इति क्रियाकारकसम्बन्धः, वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत्। आवश्यकचूर्णी तु, "तत्थ य संखिज्जकालवासाउए'' इति पाठः-तत्र च-भरते सङ्ख्यातकालवर्षाणि आयुर्यस्य सः सङ्ख्यातकालवर्षाऽऽयुष्कः, तेनास्य युग्मिमनुष्यत्वव्यवहारो व्यपाकृतो द्रष्टव्यः, तेषामसङ्ख्यातवर्षाऽयुष्कत्वादिति / ननु भरतचक्रिणोऽसङ्ख्यातकालेऽतीतायुषि सगरचक्रयादिभिरिद सूत्र व्यभिचारि, तेषां भरतनामकत्याभावात् उच्यते-नहीद सूत्रमसङ्ख्येयकालवर्षान्तरेण सकलकालवर्तिनि चक्रवर्त्तिमण्डले नियमेन भरतनामकचक्रवर्तिसम्भवसूचक किन्तु कदाचित्तत्सम्भवसूचकं, यथा आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भरताऽऽख्यः प्रथमचक्री / यत आह-''भरहे अ दीहदंते, अगूढदंते असुद्धदंते / सिरिअंदे सिरिभूई, सिरिसोमे असत्तमे।।१।।" इत्यादिसमवायाङ्गतीर्थाद्वारप्रकीर्णकाऽऽदौ, सच कीदृश इत्याह- 'यशस्वी तिव्यक्तम्, उत्तसः शलाकापुरुषत्वात्, अभिजातः कुलीनः श्रीऋषभाऽऽदिवंश्यत्वात्. सत्त्वंसाहसं, वीर्यम् आन्तरं बलं, पराक्रमः शत्रुवित्रासनशक्तिरेते गुणा यस्य, एतेन राजन्योचितसर्वातिशायिगुणवत्त्वमाह, प्रशस्ताः-तत्कालीनजनापेक्षया श्लाघनीयाः वर्णः-शरीरच्छविः, स्वरोध्वनिः, सारः-शुभपुगलोपचयजन्यो धातुविशेषः शरीरदायहेतुः, संहननम्-अस्थिनिचयरूपं तनुकंशरीरं बुद्धिः-औत्पत्त्यादिका, धारणा-अनुभूतार्थवासनाया अविच्युतिः, मेधा-हेयोपादेयधीः, संस्थान-यथास्थानमङ्गोपाङ्गविन्यासः, शीलम्आचारः, प्रकृतिः-सहज, ततो द्वन्द्रे, प्रशस्ता वर्णाऽऽदयोऽर्था यस्य स तथा भवन्ति च विशिष्टाः वर्णस्वराऽऽदयः आत्रैश्वर्याऽऽदिप्रधानफलदाः, प्रधाना-अनन्यवर्त्तिनो गौरवाऽऽदयोऽर्था यस्य स तथा, तत्र गौरवंमहासामन्ताऽऽदिकृताभ्युत्थानाऽऽदिप्रतिपत्तिः, छायाशरीरशोभा, गतिः-सञ्चरणमिति, अनेकेषुविविधप्रकारेषु वचनेषुवक्तव्येषु प्रधानोमुख्यः, अनेकधावचनप्रकारश्चायं निजशासनप्रवर्त्तनाऽऽदौ "आदौ तावन्मधुरं, मध्ये रूक्षं ततः परं कटुकम्। भोजनविधिमिव विबुधाः, स्वकार्यसिद्ध्यै वदन्ति वचः॥१॥" अथवा"सत्य मित्रैः प्रियं स्वीभि-रलीकमधुरं द्विषा। अनुकूलं च सत्यं च, वक्तव्यं स्वामिना सह / / 2 / / " इति। तेजः-परासहनीयः पुण्यः-प्रतापः अभेदोपचारेण तद्वान, 'तेजसा हि न वयः समीक्ष्यते' इत्यादिवत्, आयुर्वलंपुरुषाऽऽयुषं तद् यावद्वीयं तेन युक्तः, तेन जरारोगाऽऽदिनोपहतवीर्यत्वं नास्येति भावः, पुरुषाऽऽयुषं चतदानीन्तनकाले प्राकृतजनानां पूर्वकोटिसद्भावेऽप्यस्य त्रुटिताङ्गप्रमाणं बोद्धव्यं, नरदेवस्येतावत एवाऽऽयुषः सिद्धान्ते भ Page #1429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह णनात, एतन भेदः पूर्वविशेषणादस्येति, अशुविरनिश्छिद्रम् अत एव चननिचितंनिर्भरभृतं यल्लोहशृङ्खलं तदिव नाराचवज्रऋषभं प्रसिद्ध्या बजऋषभनाराचं संहननं यत्र तं तथाविधं देहं धरन्तीत्येवंशीलः, झषोमीनः 1 युगंशकटाङ्ग विशेषः 2 भृङ्गारोजल-भाजनविशेषः 3 वर्द्धमानकं 4 भद्राऽऽसनं 5 शङ्खोदक्षिणाऽऽवतः 6 छत्रम् / प्रतीत 7 व्यजनपदैकदेशे पदसमुदायोपचाराव्यालव्यजनम्। अथवा- 'तेलुग्वा' (श्रीसिद्ध०अ०३पा०२सू० 108) इत्यनेन बालपदलोपः, चामरम् / आर्षत्वात् स्त्रीत्वं तेन व्यजनीतिनिर्देशः 8 पताका 6 चक्र 10 लागूलं 11 मुशलं 12 रथः१३ स्वस्तिकम् 14 अड्कुशः 15 चन्द्रः 16 आदित्या 17 अग्नयः प्रतीताः १८यूपोयज्ञस्तम्भः 16 सागरः-समुद्रः२० इन्द्रध्वज २१-पृथ्वी २२-पद्म २३-कुञ्जराः 24 कण्ठ्याः , सिंहाऽऽसनसिंहाङ्कितं नृपाऽऽसनं 25 दण्ड २६-कूर्म २७-गिरिवर २८-तुरग-वर २६-मुकुट 30 कुण्डलानि 31 व्यक्तानि, नन्द्यावर्त्तः-प्रति-दिग् नवकोणकः 32 स्वस्तिकधनुःकुन्तौ व्यक्तौ 33-34 गागरः स्वीपरिधानविशेषः 35 भवन-भवनपतिदेवाऽऽवासः वि-मान-वैमानिकदेवाऽऽवासः 36 एतेषां द्वन्द्वः तत एतानि प्रशस्तानि माङ्गल्यानि सुविभक्तानि- अतिशयेन विविक्तानि यान्यनेकानिअधिकसहसप्रमाणानि लक्षणानि तैश्चित्रो-विस्मयकरः करचरणयोर्देशभागो यस्य स तथा, अत्र पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, तीर्थकृतामिव चक्रिणामप्यष्टाधिकसहस्रलक्षणानि सिद्धान्तसिद्धानि / यदाह निशीथचूणोपागयभणुआणं बत्तीस लक्खणानि, अट्ठसयं बलदेववासुदेवाणं, अद्वसहस्सं चक्कवट्टितित्थगराणं 'ति। ऊर्ध्व मुखं भूमेरुद्गच्छतामड्कुराणामिव येषां तानि ऊर्ध्वमुखानि यानि लोमानि तेषां जालंसमूहो यत्र स तथा, अनेन च श्रीवत्साऽऽकारव्यक्तिर्दर्शिता, अन्यथाऽधोमुखैस्तैः श्रीवत्साऽऽकारानुद्भवः स्यात्, सुकुमालस्निग्धानिनवनीतपिण्डाऽऽदिद्रव्याणि तानीव मृदुकानि आवर्तेः-चिकुरसंस्थानविशेषैः प्रशस्तानिमङ्ग ल्यानि दक्षिणाऽऽवर्तानीत्यर्थः यानि लोभानि तैर्विरचितो यः श्रीवत्सोमहापुरुषाणां यक्षोऽन्तर्ती अभ्युन्नतोऽवयवः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारः, तेन छन्नम्-आच्छादितं विपुलं वक्षो यस्य स तथा, देशेकोशलदेशाऽऽदौ क्षेत्रतदेकदेशभूतविनीतानगर्यादी सुविभक्तो-यथास्थानविनि-विष्टावयवो यो देहस्तंधरतीत्येवंशीलः, तत्तत्कालावच्छेदेन भरतक्षेत्रे न भरतचक्रितोऽपरः सुन्दराङ्ग इत्यर्थः। तरुणस्य-उद्गच्छतो वेर्ये रश्मयः-किरणास्तै| धित-विकासितं यद्वरकमल-प्रधानसरोजं हेमाम्बुजमित्यर्थः / तस्य विबुधो-विकस्वरो यो गर्भामध्यभागस्तद्वद्वर्णः-शरीरच्छवि र्यस्य स तथा, हयपोसनं-'पुस उत्सर्ग इति' धातोरनांट हयाऽपानं, तदेव कोश इव कोशः सुगुप्तत्वात्तत्सन्निभः प्रशस्तः पृष्टस्य-पृष्ठभागस्यान्तःचरमभागोऽपानं तत्र निरुपलेपो लेपरहितपुरीषकत्वात्, पद्म प्रतीतम्, उत्पलंकुष्ठं, कुन्दजातियूथिकाः प्रतीताः, वरचम्पकोराजचम्पकः, नागपुष्पं नागकेसरकुसुमं, सारङ्गानिप्रधानदलानि, अथवा-पदैकदेशे पदसमुदायग्रहणात् सारङ्गशब्देन सारङ्गमदः-कस्तूरी, द्वन्द्वे कृते एतेषां तुल्यो गन्धः-शरीरपरिमलो यस्य स तथा, तद्धितलक्षणादिप्रत्ययात् रूपसिद्धिः, षट्त्रिंशता अधिकप्रशस्तैः पार्थिवगुणैर्युक्तः। (जं०)-(ते च पार्थिवगुणाः 'पस्थिव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 433 पृष्ठे षभिः श्लोकैर्दर्शिताः) ते च श्लोकाः पाठसिद्धार्थाः, नवरमौदार्यदाक्षिण्यं, तेन दानशौण्डतागुणादस्य भेदः, यद्यप्येतेषामेव मध्यवर्तिनः केचन गुणाः सूत्रकृता साक्षात् पूर्वसूत्रे उक्ता उत्तरसूत्रे च वक्ष्यन्ते, तथापि षट्त्रिंशत्संख्यामेलनार्थमत्र ते उक्ता इति न दोषः, उपलणाच मानोन्मानाऽऽदिवृद्धिकृत्त्वभक्तवत्सलत्वाऽऽदयोऽपि उक्ताऽतिरिक्ता ग्राह्या इति, अव्यवच्छिन्नम्-अखण्डितमातपत्रंछत्रं यस्य स तथा, एतेन पितृपितामहक्रमाऽऽगतराज्यभोक्तेति सूचितम्, अथवा संयमकालादर्वाग् न केनापि बलीयसा रिपुणां तस्य प्रभुत्वमाच्छिन्नमिति, प्रकटेविशदावदाततया जगतप्रतीते उभययोन्यौमातृपितृरूपे यस्य स तथा, अत एव विशुद्धनिष्कलङ्क यन्निजककुलं तदेव गगनं तत्र पूर्णचन्द्रः-चन्द्र इव सोमया-मृदुस्व-भावेन नयनमनसोर्निर्वृतिकरः, आह्लादक इत्यर्थः, अक्षोभोभयरहितः, सागरः प्रस्तावात् क्षीरसमुद्राऽऽदिः, स इव स्तिमितः- स्थिरश्चिन्ताकल्लोलवजितो न पुनर्येलाऽवसरवर्द्धिष्णुकल्लोललवणोद इवास्थिरस्वभाव इत्यर्थः, धनपतिरिव-कुबेर इव भोगस्य समुदयः-सम्यगुदयस्तेन सह सद् विद्यमानं द्रव्यं यस्य स भोगसमुदयसद्व्यस्तस्य भावस्तत्ता तया, भोगोपयोगिभोगाङ्ग समृद्ध इत्यर्थः, समरेसंग्रामे अपराजितो भङ्गमप्राप्तःपरमविक्रमगुणः व्यक्तम्, अमरपतेः समानं सदृशमत्यर्थतुल्यं रूपं यस्य स तथा, मनुजपतिः-नरपतिर्भरतचक्रवर्ती, उत्पद्यते इति तु प्राग्योजितमेव / अथोत्पन्नः सन् किं कुरुते इत्याह-(भरहेत्यादि) अनन्तरसूत्रेएव दर्शितस्वरूपो भरतचक्रयत्ती भरतं भुक्ते शास्तीति, प्रनष्टशत्रुरिति व्यक्तम्, अत इदं भरतक्षेत्रमुच्यते, इति निगमनमग्रे वक्ष्यते। अथ प्रस्तुतभरतस्य दिग्विजयाऽऽदिवक्तव्यतामाहतएणं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ आउहवर-सालाए दिव्वे चक्करयणे समुप्पज्जित्था, तए णं से आउहघरए भरस्स रणो आउहघरसालाए दिव्वं चक्करयणं समुप्पण्णं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमाणं दिए नदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसबिसप्पमाणहिअए जेणामेव दिव्वे चक्करयणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता करयल० जाव कटु चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणामेव बाहिरिआ उवट्ठाणसालाजेणामेव मरहे राया तेणामेव उवागच्छइ, उबागच्छइत्ता करयल० जाव जएणं विजएणं वद्धावेइ,वद्धावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिआणं आउहघरसालाए दिव्वे चक्करयणे समुप्पणे, तं एअण्णं देवाणुप्पिआणं पिअट्ठयाए पिअं णिवेएमो पिअंभे भवउ।ततेणंसे भरहे राया तस्स आउहपरिअस्स Page #1430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1422 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठ०जाव सोमणस्सिए विअसिअवरकमलणयणवयणे पयलिअवरकडगतुडिअकेऊरमउडकुंडलहारविरायंतरइअवच्छे पालंबसलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरिअं चवलं णरिंदे सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टेइत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता पाउआओ ओमुअइ ओमुअइत्ता एगसाडिअं उत्तरासंगं करेइ, करेइत्ता लिमउलिअग्गहत्थे चक्करयणाभिमुहे सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छइत्ता वामं जाणुं अंचेइ अचेइत्ता दाहिणं जाणुंधरणितलंसि णिहटु करयलजाव अंजलिं कटु चक्करयणस्स पणाम करेइ, करेइत्ता तस्स आउहधरिअस्स अहामालिअंमउडवज्जं ओमोअं दलइ, दलइत्ता विउलं जीविआरिहं पीइदाणं दलइ, दलइत्ता सक्कारेइ, सम्माणेइ, संमाणे इत्ता पडि विसज्जेइ, पडिविसज्जेइत्ता, सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे / तए णं से भरहे राया कोडं बिअपुरिसे सहावेइत्ता एवं बयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! विणीयं रायहाणिं सम्भितरबाहिरिअं आसिअ-संमज्जिअसित्तसुइगरत्थंतरवीहिअं मंचाइमंचकलिअंणाणाविहरागवसणऊसिअझयपडागाइपडागमंडिलाउल्लोइअमहिअंगोसीससर-सरत्तचंदणकलसं चंदणधडसुकय जावगंधुद्धआभिरामं सुगंधवरगंधिअंगंधवट्टिभूअं करेह, कारवेह, करेत्ता कारवेत्ता य एअमाणत्तिअं पचप्पिणह। तएणं ते कोडुबिअपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता हट्ठ० करयल०जाव एवं सामि त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता भरहस्स अंतिआओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता विणीअं रायहाणिंजाव करेत्ता कारवेत्ता य तमाणत्तिअंपच्चप्पिणंति। तए णं से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि णाणामणिरयणभत्तचित्तंसि पहाणपीढंसि सुहणिसण्णे सुहोदएहिं गंधोदएहिं पुप्फोदएहिं सुद्धोदएहिं अपुन्ने कल्लाणगपवरमज्जणविहीए मज्जिए तत्थ कोउअसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे पम्हलसुकु मालगंधकासाइअलूहि-अंगे सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते अहयसुमहग्घदूसरयणसुसंवुडे सुइमालावण्णगविलेवणे आविद्धमणिसुवण्णे कप्पिअहारऽद्धहारतिसरिअपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पिणद्धगेविज्जगअंगुलिज्जगललिअगयललिअकयाभरणे णाणामणिक डगतुडिअथंभिअभूए अहिअसस्सिरीए कुंडलउज्जोइआणणे मउड दित्तसिरए हारोत्थयसुकयवच्छे पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे मुद्दिआपिंगलंगुलीए णाणामणिकणगविमलमहरिहणिउणो अविअमिसिमिसिंतविरइअसु सिलिट्ठविसिठ्ठलट्ठसंठिअपसत्थआविद्धवीरबलए, किं बहुणा? कप्परुक्खए चेव अलंकि अविभूसिए णरिंदे सकोरंट०जाव चउचामरवालवीइअंगे मंगलजयजयसद्दकयालोए अणेगगणणायगदंडणायग०जाव दूअसंधिबालसद्धिं संपरिबुडे धवलमहामेहणिग्गए इव०जाव ससि व्व पियदंसणे णरवई धूवपुप्फगंधमल्लहत्थगए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव आउहघरसाला जेणेव चक्करयणे तेणामेव पहारेत्थ गमणाए / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बहवे ईसरपभिइओ अप्पेगइआ पउमहत्थगया अप्पेगइया उप्पलहत्थगया०जाव अप्पेगइआ सयसहस्सपत्तहत्थगया भरहं रायाणं पिट्टओ पिट्ठओ अणुगच्छंति / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बहूईओ"खुजा चिलाइवामणिवडभीओ बब्बरी बउसिआओ। जोणिअपल्हविआओ, ईसिणिअत्थारुकिणिआओ ||1|| लासिअलउसिअदमिलीसिंहलि तह आरबी पुलिंदी अ। पक्कणि बहलि मुरुंडी, सबरीओ पारसीओ अ॥२॥" अप्पे गइया बंदणकलसहत्थगयाओ चंगेरीपुप्फपडलहत्थगयाओ भिंगारआदंसथालपातिसुपइट्ठगवायकरगरयणकरंडपुप्फचंगेरीमल्लवण्णचुण्णगंधहत्थगयाओ वत्थआभरणलोमहत्थयचंगेरीपुप्फपडलहत्थगयाओ० जाव लोमहत्थगयाओ अप्पेगइआओ सीहासणहत्थगयाओ छत्तचामरहत्थगया ओतेल्लसमुग्णयहत्थगयाओ,"तेल्ले कोट्ठसमुग्गे, पत्ते चोए अ तगरमेला य / हरिआले हिंगुलए, मणोसिला सासवसमुग्गे ||1||" अप्पेगइआओ तालिअंटहत्थगयाओ अप्पेगइयाओ धूवकडुच्छु अहत्थगयाओ भरहं रायाणं पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छंति। तए णं से भरहे राया सव्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदयेणं सव्वायरेणं सव्वविभूसाए सव्वविभूईए सव्ववत्थपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडिअसहसण्णिणाएणं महया इडीए०जाव महया वरतुडिअजमगसमगपवाइएणं संखपणवपङ हभेरिझल्लरिखरमुहिमुरजमुइंगदुंदुहिनिग्घोसणाइएणं जेणेव आउहघरसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता आलोए चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता जेणेव चक्करयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थयं परामुसइ, परामुसित्ता चक्करयणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ अब्भुक्खित्ता सरसेणंगोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता अग्गेहि Page #1431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह वरेहिं गंधेहिं मल्ले हि अ अच्चिण्णइ, पुप्फारुहणं मल्लगंधवण्णचुण्णवत्थारुहणं आमरणारुहणं करेइ, करित्ता अच्छेहिं सण्हेहिं सेएहिं रययामएहिं अच्छरसातंडुलेहिं चक्करयणस्स पुरओ अट्ठऽट्ठमंगलए आलिहइ / तं जहा-सोत्थिय सिरिवच्छ णंदिआवत्त बद्धमाणग भद्दासण मच्छ कलस दप्पण अट्ठमंगलए आलिहित्ता काऊणं करेइ, उवयारंति, किं ते? पाडलमल्लिअचंपगअसोगपुण्णागचूअमंजरिणवमालिअबकुलतिलगकणवीरकुंदकोजयकोरंटयपत्तदमणयवरसुरहिसुगंधगंधिअस्स कयग्गह-गहिअकरयलपब्भट्ठविप्पमुक्कस्स दसद्धवण्णस्स कुसुमणिगरस्स तत्थ चित्तं जाणुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिगरं करेत्ता चंदप्पभवइरवेरुलिअविमलदंडं कंधणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवट्टि विणिम्मुअंतं वेरुलिअमयं कडुच्छुअंपग्गहेत्तु पयते धूवं दहइ, दहित्ता सत्तऽट्ठपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता वामं जाणुं अंचेइ,०जाव पणामं करेइ, करेत्ता आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहेसण्णिसीअइ, सण्णिसित्ता अट्ठारस सेणिपसेणीओ सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! उस्सुक्कं उक्करं उक्किट्ठ अदिज्ज अभिज्ज अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं गणिआवरणाडइज्जकलिअं अणेगतालायराणुचरियं अणुद्धअमुइंगं अभिलायमल्लदामं पमुइअपक्कीलिअसपुरजणजाणवयं विजयवेजइअं चक्करयणस्स अट्ठाहि महामहिमं करेइ, करेत्ता ममेअमाणत्तिअंखिप्पामेव पच्चप्पिणह। तएणं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रन्ना एवं वुत्ताओ समाणीओ हट्ठाओ० जाव विणएणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता भरहस्स रण्णो अंति-आओ पडिणिक्खमिंति, पडिणिक्खमित्ता उस्सुक्कं उक्करंजाव करेंति अ, कारवेंति अ, करेत्ता कारवेत्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता० जावतमाणत्तिअंपञ्चप्पिणंति। (सूत्र-४३) (तए णमित्यादि) ततो-माण्डलिकत्वप्रालेरनन्तरं तस्य-भरतस्यराज्ञ अन्यदा कदाचित् माण्डलिकत्वं भुञानस्य वर्षसहस्र गते इत्यर्थः, आयुधगृहशालायां दिव्यं चक्ररत्न समुदपद्यत, 'तए ण से' इत्यादि। ततः-चक्ररत्नोत्पत्तेरनन्तरं स आयुधगृहिको, यो भरतेन राज्ञा आयुधाध्यक्षः कृतोऽस्तीति गम्यम् / भरतस्य राज्ञ आयुधगृहशालायां | दिव्यं चक्ररत्नं समुत्पन्नं पश्यति, दृष्ट्वा च हृष्ट-तुष्टम्अत्यर्थ तुष्ट हृष्ट वाअहो मया इदमपूर्व दृष्टमिति विस्मितं, तुष्ट-सुष्छु जातं यन्मयैव | प्रथममिदमपूर्व दृष्ट यन्निवेदनेन स्वस्वामी प्रीतिपात्रं करिष्यति इति सन्तोषमापन्न चित्तं यत्र तद्यथा भवति तथा आनन्दितः-प्रमोदं प्राप्तः / यद्वा- हृष्टतुष्टः-अतीव तुष्टः, तथा चित्तेन आनन्दितः, मकारः प्राकृतत्वात् अलाक्षणिकः ततः कर्मधारयः, नन्दितोमुखसोमताऽऽदिभावैः समृद्धिमुपागतः प्रीतिः- प्रीणनं मनसि यस्य सतथा. चक्ररत्ने बहुमानपरायण इत्यर्थः / परम सौमनस्य-सौमनस्कत्वं जातमस्येति परमसौमनस्थितः। एतदेव व्यनक्तिहर्षवशेन विसर्पद-उल्लसद् हृदयं यस्य स तथा, प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थत्वान्नैतानि विशेषणानि पुनरुक्ततया दुष्टानि, यतः 'वक्ता हर्षेति,' "वक्ता हर्षभयाऽऽदिभि-राक्षिप्तमनाः स्तुवन् तथा निन्दन् / यत् पदमसकृद् ब्रूयात, ततपुनरुक्तं न दोषाय / / 1 / / " यत्रैव तदिव्यं चक्ररत्नंतत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च त्रिकृत्वः-- त्रीन् वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणंदक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणं करोति, त्रिप्रदक्षिणयतीत्यर्थः / तथा कृत्वा च (करतल त्ति।) अत्र यावत्पदात् 'करयलपरिग्गहिअंदसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं त्ति / ' अत्र व्याख्या-करतलाभ्यां परिगृहीतः-अतस्तंदश करद्वयसम्बन्धिनो नखाः समुदिता यत्र तं शिरसिमस्तके आवतः-आवर्तनं प्रादक्षिण्येन परिभ्रमण यस्य तं शिरसाऽप्राप्तमित्यन्ये। मस्तके अञ्जलिं-मुकुलितकमलाssकारकरद्वयरूपं कृत्वा चक्ररत्नस्य प्रणामं करोति, कृत्वा च आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामतिनिर्याति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव 'बाहिरिका'-आभ्यन्तरिकापेक्षया बाह्या उपस्थानशाला-आस्थानमण्डपो, यत्रैव च भरतो राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च करतलजाव' त्ति पूर्ववत। जयेनपरानभिभवनीयत्वरूपेण विजयेन-परेषामसहमानानामभि, भावकत्वरूपेण वर्द्धयतिजयविजयाभ्यां त्वं वर्द्धयस्वेत्याशिष प्रयुक्ते, वर्द्धयित्वा चैवमवादीत्। किं तदित्याह- ‘एवं खलु' इत्यादि, इत्थमेव यदुच्यते मया, न च विपर्ययाऽऽदिना यदन्यथा भवति, यद्देवानुप्रियाणा-राजपादानाम् आयुधगृहशालायां दिव्यं चक्ररत्नं समुत्पन्नं तदेव तत्, णमिति प्राग्वत्, देवानुप्रियाणां प्रियार्थतायै-प्रीत्यर्थं प्रियम्इष्ट निवेदयामः एतत् प्रियनिवेदनं प्रियं (भे ) भवतां भवतु, ततो भरतः किं चक्रे इत्याह- 'तते ण' इत्यादि, ततः स भरतो राजा तस्याऽऽयुधगृहिकस्य समीपेएनमर्थं श्रुत्वाआकर्ण्य कर्णाभ्यां निशम्य-अवधार्य हृदयेन तुष्टो यावत्सौमनस्थितः प्राग्वत् प्रमोदाऽतिरेकाये ये भावा भरतस्य संवृत्तास्तान विशेषणद्वारेणाऽऽह-विकसितकमलवन्नयनवदने यस्य स तथा, प्रचलितानिचक्ररत्नोत्पत्तिश्रवणजनितसम्भ्रमातिरेकात् कम्पितानि वरकटके प्रधानवलये त्रुटिके-बाहुरक्षको केयूरे-बाह्वोरेव भूषणविशेषौ मुकुट कुण्डले च यस्य सतथा, सिंहावलोकनन्यायेन प्रचलितशब्दो ग्राह्यः, तेन प्रचलितहारेण विराजद्र तिदं च वक्षो यस्य स तथा, पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः / प्रलम्बमानः सम्भ्रमादेव प्रालम्बोझुम्बनकं यस्य स तथा, घोलदोलायमान भूषणम् उक्तातिरिक्तं धरति यः स तथा, ततः Page #1432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1424 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह पदद्वयस्य कर्मधारयः / अत्र पदविपर्यय आर्षत्वात्, ससम्भमंसादरं मालकाः प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशननिमित्तम् अति-मञ्चाः- तेषामप्युपरि त्वरितमानसौत्सुक्यं यथा स्यात्तथा चपलं कायौत्सुक्यं यथा स्यात् तथा ये तैः कलिता नानाविधो रागो- रञ्जनं येषु तानि कौसुम्भमाञ्जिष्ठाऽऽनरेन्द्रोभरतः सिंहाऽऽसनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय च पादपीठात्- दिरूपाणिवसनानिवस्त्राणि येषुतादृशायेऊवीकृता-उच्छृता ध्वजाःपदाऽऽसनात् प्रत्यवरोहति-अवतरति प्रत्यवरुह्य च-अवतीर्य पादुके- सिंहगरुडाऽऽदिरूपकोपलक्षिता बृहत्पट्टरूपाः पताकाश्वतदितररूपा पादत्राणे अवमुञ्चति भक्त्यतिशयात्, अवमुच्य च एकः शाटो यत्र स अतिपताका:- तदुपरिवर्त्तिन्यस्ताभिर्मण्डिताम्, अब च 'लाउलोइय' तथा, तद्धितलक्षण इकप्रत्ययः। अखण्डशाटकमय इत्यर्थः, एतादृश- इत्यादिको 'गंधवट्टिभूअं' इत्यन्तो विनीतासमारचनवर्णकः प्रागभिमुत्तरासङ्गोवक्षसि तिर्यग्विस्तारितवस्त्रविशेषस्तं करोति, कृत्वा च योग्यदेवभवनवर्णक व्याख्यात इति नव्याख्यायते, ईदृशविशेषणविशिष्टां अञ्जलिना मुकुलितः- कुडमलाकारी कृतावग्रहस्तौ- हस्ताग्रभागौ येन कुरुत स्वयं कारयत परैः कृत्वा कारयित्वा च एतामाज्ञप्तिम्- आज्ञा स तथा, चक्ररत्नाभिमुखः सप्त वा अष्टौ वा पदानि, अनूपसर्गस्य प्रत्यर्पयतततस्ते किं कुर्वन्तीत्याह- 'तए णं' इत्यादि / ततोसन्निधिवाचकत्वादनुगच्छति-आसन्नो भवति, दृष्टश्चानुशब्दप्रयोगः भरताऽऽज्ञाऽनन्तरं कौटुम्बिकाः- अधिकारिणः पुरुषाः भरतेन राज्ञा सन्निधौ, यथा- "अनुनदि शुश्रुविरे चिरं रुतानि / '' इति, पदानां एवमुक्ताः सन्तो हृष्टाः करतलेत्यारभ्य यावत्पदग्राह्यं पूर्वत्, एवं स्वामिन् ! सङ्ख्याविकल्पदर्शनमेतादृशभाषाव्यवहारस्य लोके दृश्यमानत्वात्, यथाऽऽयुष्मत्पादा आदिशान्ति तथेत्यर्थः, इति कृत्वा-इति प्रतिवचनेअनुगत्य च वामजानुम् आकुञ्चयति-ऊर्ध्वं करोतीत्यर्थः, दक्षिणं जानु नेत्यर्थः, आज्ञायाः- स्वाभिशासनस्योक्तलक्षणेन नियमेन, अत्र च धरणीतले निहत्यनिवेश्य 'करतले' त्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्, 'आणाए' विणएणं इति एकदेशग्रहणेन पूर्णोऽभ्युपगमालापको ग्राह्यः, अञ्जलिं कृत्वा चक्ररत्नस्य प्रणाम करोति, कृत्वा च तस्याऽऽयुध- अंशेनाशी गृह्यते; इति (वयणं पडिसुणति त्ति) वचनं प्रतिशृण्वन्ति गृहिकस्य 'यथामालित' यथाधारित यथापरिहितमित्यर्थः, इदं च अङ्गीकुर्वन्तीति, ततस्ते किं कुर्वन्तीत्याह- 'पडिसुणित्ता' इत्यादि विशेषणं दानरसातिशयाद्यानं निर्विलम्बन देयमिति ख्यापनार्थम् / प्रतिश्रुत्य तस्यान्ति-कात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य च विनीता यदाह राजधानी , यावत्पदेनानन्तरोक्तसकलविशेषणविशिष्टां कृत्वा "सव्यपाणिगतमप्यपसव्यप्रापणावधि न देयविलम्बः। कारयित्वा च तामाज्ञप्ति भरतस्य प्रत्यर्पयन्ति। अथ भरतः किं चक्रे? नध्रुवस्वनियमः किल लक्ष्म्यास्तद्विलम्बनविधौ न विवेकः१। इत्याह- 'तएणं से भरहे' इत्यादि। ततः स भरतोराजा यत्रैव मज्जनघरं अविलम्बितदानगुणात्, समुज्ज्वलं मानवो यशो लभते। तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च मज्जनगृहम अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य च प्रथमं प्रकाशदानाद्विशदः पक्षोऽपरः कृष्णः / / 2 / / " समुक्तेनमुक्ताफलयुतेन जालेनगवाक्षेणाऽऽकुलोव्याप्तोऽभिरामश्व अवमुच्यतेपरिधीयते यः सोऽवमोचकः-आभरणं, मुकुटवर्जमुकुट यस्तस्मिन्, विचित्रमणिरत्नमयकुट्टिमतलंबद्धभूमिका यत्र स तथा मन्तरेणेत्यर्थः, अत्र 'उतोऽन्मुकुलाऽऽदिषु' (श्रीसिद्ध० अ०८ पा०१ तस्मिन्, अतएव समभूमिकत्वात् रमणीय स्रानमण्डपे, नानाप्रकाराणां सू० 107) इत्युकारस्याकारः, तस्य राजचिह्नाऽलङ्कारत्वेनादेयत्वात्, मणीनां रत्नानां च भक्तयो-यथौचित्येन रचनास्ताभिर्विचित्रैः स्नानन कार्यण्याऽऽदिना न ददातीति, एतेनान्यमनुष्याणां मौलिवेष्टनस्य पीठस्नानयोग्ये आसने सुखेन निषण्णः-उपविष्टस्सन् शुभोदकैःराजचिह्नत्यमभ्युपगच्छन्तो ये केचन जिनगृहाऽऽद्यभिगमविधौ मौलिवेष्ट तीर्थोदकैः सुखोदकैर्वानात्युष्ण तिशीतैरित्यर्थः / गन्धोदकैःनमपाकुर्वन्ति ते अशुभदर्शनत्वादपशकुनमितीवाभ्युपगच्छता आगमो चदनाऽऽदिरसमित्रैः पुष्पोदकैः-कुसुमवासितैः, शुद्धोदकैश्चस्वाक्तविध्यनुष्ठानजन्यफलेन दूरतो मुक्ता इति बोध्यं, दत्त्वा चा-यत् कि भाविकैस्तीर्थान्रुजलाशयरित्यर्थः। (मज्जिए त्ति) उत्तरसूत्रस्थ-पदेन करोतीत्याह- विपुलं जीविताहम्- आजीविकायोग्यं प्रीतिदानं ददाति, सह सम्बन्धः, एतेन कान्तिजननाश्रमज (ह) ननाऽऽदिगुणार्थ मज्जनसत्कारयति वस्त्राऽऽदिना सन्मानयति वचनबहुमाने, सत्कृत्य सन्मान्य मुक्तम्, अथारिष्टविधातार्थमाह- पुनः कल्याणकारिप्रवरमज्जनस्यच प्रतिविसर्जयति- स्वस्थानगमनतो ज्ञापयति, प्रतिविसर्य च विरुद्धग्रहपीडानिवृत्त्यर्थकविहितोषध्यादिस्नानस्य विधिना 'टुमस्जौत्' सिंहाऽऽसनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषण्ण उपविष्ट इति / अथ भरतो शुद्धौ, इत्यस्य शुद्ध्यर्थकत्वेन स्नानार्थकत्वान्मज्जितः- स्नपितोऽन्तः यत्कृतवान् तदाह- 'तएण' इत्यादि, निगदसिद्ध, किम-वादीदित्याह- पुरवृद्धाभिरिति गम्यं, कैर्मज्जित इत्याह- तत्रस्नानावसरे कौतुकानां (खिप्पामेव त्ति।) क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! विनीता राजानी सहाभ्यन्त- रक्षाऽऽदीनां शतैः, यता-कौतूहलिकजनैः स्वसेवासम्यक्प्रयोगार्थ दर्श्यमानैः रेण नगरमध्यभागेन बाहिरिकानगरबहिर्भागो यत्र तत्तथा-क्रियाविशेष- कौतुकशतैः- भाण्डचेष्टाऽऽदिकुतूहलैर्बहुविधैः-अनेक-प्रकारैः, अत्र करणे णम, आसिक्ता ईषत्सिक्ता गन्धोदकच्छटकदानात् संमार्जिताकशवर- तृतीयति। अथ स्नानोत्तरविधिमाह-'कल्लाणग' इत्यादि। कल्याणकप्रवरशोधनात् सिक्ता जलेनात एव शूचिका संमृष्टाविषमभूमिभञ्जनाद् मज्जनावसाने स्नानानन्तरमित्यर्थः / पक्ष्मलयापक्ष्मवत्या अत एव रथ्याराजमार्गोऽन्तरवीथी च अवान्तरमार्गो यस्यां सा तथा इदं च विशेषणं सुकुमालया गन्धप्रधानया कषायेण पीतरक्तवर्णाऽऽश्रयरञ्जनीयवस्तुना योजनाया विचित्रत्वात् सम्मृष्टसम्मार्जितसिक्ताशूचिकरथ्यान्त- रक्ता काषायिका तया कषायरक्ततया शाटिकयेत्यर्थः / रूक्षितंनिर्लेपरवीथिकामित्येवं दृश्यं सम्मृष्टाऽऽद्यनन्तरभावित्वाच्छूचिकत्वस्यमञ्चा- तामापादितम् अङ्ग यस्य स तथा, सरससुरभिगोशीर्षचन्दनानुलिप्तगा Page #1433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1425 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह वः, अहतं-मलमूषिकाऽऽदिभिरनुपद्रुतं प्रत्यग्रमित्यर्थः, सुमहार्घबहुमूल्य यद्दूष्यरत्नप्रधानवस्त्र तत्सुसंवृतंसुष्टुपरिहितं येन स तथा, अनेनाऽऽदी | वस्त्रालङ्कार उक्तः, अत्र च वस्वसूत्रं पूर्व योजनीय, चन्दनसूत्रं पश्चात्. क्रमग्राधान्याद व्याख्यानस्य, न हि स्नानोरिथत एव चन्दनेन वपुर्विलिग्पतीति विधिक्रमः, शुचिनीपवित्रे मालावर्णकविलेपने पुष्पसग्मण्डनकारिकु डकुमाऽऽदिविलेपने यस्य स तथा अनेन पुष्पालङ्कारमाह, अधस्तनसूत्रेवपुःसौगन्ध्यार्थमेव विलेपनमभिहितम्, अत्र तुवपुर्मण्डनायेति विशेषः; आविद्धानिपरिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा, एतेनास्य रजतरीरीमयाऽऽद्यलङ्कारनिषेधः सूचितः, मणिस्वर्णालङ्कारानेव विशेषत आह-कल्पितो-यथास्थानं विन्यस्तो हारः-अष्टादशसरिकोऽर्द्धहारोनवसरिकस्त्रिसरिकं च प्रतीत येन स तथा प्रलम्बमानः प्रालम्बोझुम्बनकं यस्य स तथा, सूत्रे च पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, कटिसूत्रेणकट्याभरणेन सुष्टु कृता शोभा यस्य स तथा, अत्र पदत्रयस्य कर्मधारयः। अथवा-कल्पितहाराऽऽदिभिः सुकृता शोभा यस्य सतथा, पिनद्वानिबद्धानि |वेयकाणिकण्ठाऽऽभरणानि अङ्गुलीयकानिअड्गुल्याभरणानि येन स तथा, अनेनाऽऽभरणालङ्कार उक्तः, तथा ललितसुकुमालेऽङ्ग के मृर्द्धाऽऽदौ ललितानिशोभावन्ति कचानाकेशानाम् आभरणानि पुष्पाऽऽदीनि यस्य स तथा अनेन केशालङ्कार उक्तः / अथ सिंहावलोकनन्यायेन पुनरप्याभरणालङ्कार वर्णयन्नाहनानामणीना कटकत्रुटिकैः-हस्तबाहाभरणविशेषैर्बहुत्वात् स्तम्भिताविव स्तम्भिती भुजौ यस्य स तथा, अधिकसश्रीक इति स्पष्ट, कुण्डलाभ्यामुद्द्योतितम् आननं मुखं यस्य स तथा, मुकुटदीप्तशिरस्कः स्पष्ट, हारेणावस्तृतम्-आच्छादित तेनैव हेतुना प्रेक्षकजनाना सुकृतरतिकं वक्षो यस्य स तथा, प्रलम्बनदीर्घेण प्रलम्बमानेनदोलायमानेन सुकृतेन-सुष्टु निर्मितन पटेनबस्नेन उत्तरीयम् उत्तराऽऽसङ्गोयस्यस तथा, प्राकृतल्यात् पूर्वपदस्यदीर्घत्वं, मुद्रिकाभिः साक्षराङ्गुलीयकैः पिङ्गला अगुल्यो यस्य स तथा, बहुब्रीहिलक्षणः कप्रत्ययः, नानामणिमयं विमलं महार्घबहुमूल्यं निपुणेन शिल्पिना 'ओअविअ ति।' परिकर्मित मिसिभिसेंत त्ति दीप्यमानं विरचितं निम्मित सुश्लिष्ट- सुसन्धि विशिष्टम् अन्येभ्यो विशेषवत् लष्ट - मनोहर संस्थितं संस्थानं यस्य तत्, पश्चात् पूर्वपदैः कर्मधारयः, एवविध प्रशस्तम् आबिद्धपरिहितं वीरवलयं येन स तथा अन्योऽपि यः (दि) कश्चिद्वीरव्रतधारी तदाऽसौ मां विजित्य मोचयत्वेतद्वलयमिति स्पर्द्धयन् (यत्) परिदधाति तीखलयमिति इत्युच्यते; किं बहुना वर्णितेनेति शेषः, 'कप्परुखए चेव त्ति' अत्र चेवशब्द इवार्थे , तेन कल्पवृक्षक इवालकृतो विभूषितश्च, तत्रालड्कृतो दलाऽऽदिभिविभूषितः फलपुष्पाऽऽदिभिः कल्पवृक्षो राजा तु मुकुटाऽऽदिभिरलड़कृतो विभूषितस्तु वस्त्राऽऽदिभिरिति, नरेन्द्रः 'सकोरंट जाव ति' अत्र यावत्करणात् 'सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेण धरिज्जमाणेणं' इति ग्राह्यम, तत्र सकोरण्टानिकोरण्टाभिधानकुसुमस्तवकवन्ति, कोरण्टपुष्पाणि हि पीतवर्णानि मालान्तेशोभार्थ दीयन्ते, मालायै हितानि माल्यानिपुष्पा णीत्यर्थः, तेषा दामानिमाला यत्र तत्तथा, एवंविधेन छत्रेण ध्रियमाणेन शिरसि, विराजमान इति गम्य, चतुर्णाम्-अग्रतः पृष्ठतः पार्श्वयोश्च वीज्यमानत्वाच्चतुःसंख्याकानां चामराणां बालैर्वी जितमङ्गं यस्येति, मङ्गलभूतो जयशब्दो जनेन कृत आलोकेदर्शन यस्य स तथा अनेन गणनायकामल्लाऽऽदिगणमुख्याः दण्डनायकाः-तन्त्रपालाः / यावत्पदात् 'ईसरतलवरमाडविअकोडुबिअमंतिमहामंतिगणगदोवारिअअमच्चचेडपीढमद्दणगरणिगमसेट्ठि-सेणावइसत्थवाह / ' इति द्रष्टव्यम् / अत्र व्याख्या- तत्र राजानो-माण्डलिकाः, ईश्वराः-युवराजानो मतान्तरण अणिमाऽऽद्यैश्वर्य-युक्ताः, तलवराः परितुष्टनृपदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः, माडम्बिकाः-छिन्नमडम्बाधिपाः, कौटुम्बिकाःकतिपय-कुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मन्त्रिणः-प्रतीताः-महामन्त्रिणोमन्त्रिमण्डलप्रधानाः, गणका-गणितज्ञा भाण्डागारिका वा, दौवारिका:-प्रतीहाराः, अमात्या-राज्याधिष्ठा-यकाः, चेटाः-पादमूलिका दासा वा, पीठमा-आस्थाने आसन्नासन्नसेवकाः; वयस्या इत्यर्थः / वेश्याऽऽचार्या वा। नगरं-तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेशेन नगरनिवासिप्रकृतयः, निगमाः-कारणिका वणिजो वा श्रेष्ठिन:-श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गाः। अथवा-नगराणां निगमाना च-वणिग्वासानां श्रेष्ठिनोमहत्तराः, सेनापतयः-चतुरङ्ग सैन्यनायकाः, सार्थवाहाःसार्थनायकाः, दूता अन्येषां राज्यं गत्वा राजाऽऽदेशनिवेदकाः, सन्धिपाला-राज्यसन्धिरक्षकाः / एषां द्वन्द्वस्ततस्तैः, अत्र तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, सार्द्ध सह न केवलं तत्सहितत्वमेय, अपि तु-तैः समितिसमन्तात् परिवृतः-परिकरित इति, नरपतिर्मज्जनगृहात् प्रतिनिष्कामतीति सम्बन्धः, किम्भूतः? प्रियदर्शनः, क इव ? धवलमहामेघः- शरन्मेघस्तस्मान्निर्गत इव, अत्र यावत्पदात्, 'गहगणदिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे' इति संग्रहःतेन शशिपदाग्रस्थ इवशब्दो ग्रहगतिविशेषणेन योज्यः, ततोऽयमर्थः सम्पन्न उपमानिर्वाहाय-यथा चन्द्रः शरदभ्रपटलनिर्गत इव ग्रहगणानां दीप्यमानऋक्षाणा-शोभमाननक्षत्राणां तारागणस्य च मध्ये वर्तमान इव प्रियदर्शनो-भवति तथा भरतोऽपि सुधाधवलान्मज्जनगृहानिर्गतोऽनेकगण-नायकाऽऽदिपरिवारमध्ये वर्तमानः प्रियदर्शनोऽभवत्, पुनः कीदृशो नृपतिः प्रतिनिष्क्रामतीत्याह-धूपपुष्पगन्धमाल्यानि पूजोपकरणानि हस्तगतानि यस्य स तथा तत्र धूपो दशाङ्गाऽऽदिः, पुष्पाणिप्रकीर्णककुसुमानि, गन्धावासाः, माल्यानिग्रथित-पुष्पाणीति। प्रतिनिष्क्रम्य च किं कृतवानित्याह- (जेणेव इत्यादि) यत्रैवाऽऽयुधगृहशाला यत्रैव च चक्ररत्न तत्रैव प्रधारितवान् गमनायगन्तुं प्रावर्तत इत्यर्थः / अथ भरतगमनानन्तरं यथा तदनुचराशुकुस्तथाऽऽह- (तएण इत्यादि) ततो-भरताऽऽगमनादनुतस्य-भरतस्य राज्ञो बहव ईश्वरप्रभृतयः-यावत्पदसड्-ग्राह्यास्तलवर-प्रभृतयः पूर्ववत्, अपिढिाथै, एके केचन पद्महस्तगताः, एके केचन उत्पलहस्तगताः, एवं सर्वाण्यपि विशेषणानिवाच्यानि,यावत्पदात्- 'अप्पेगइआ कुमुअहत्थगया अप्पेगइया नलिणहत्थ-गया अप्पेगइया सोगंधिअहत्थगया अप्पे Page #1434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह गइया पुंडरीयहत्थगया अप्पेगइया सहस्सपत्तहत्थगया इति संग्रहः। अत्र व्याख्या प्राग्वत्, नवरं भरतं राजानं पृष्ठतः पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति, पृष्ठ पृष्ठे परिपाट्या चलन्तीत्यर्थः / सर्वेषामपि सामन्तानामे कैव वैनयिकी गतिरिति ख्यापनार्थ वीप्सायां द्विर्यचनं, न केवल सामन्तनृपा एव भरतमनुजग्मुः, किन्तु-किङ्करीजनोऽपीत्याह-(तए णं' इत्यादि) ततः सामन्त-नृपानुगमनानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः सम्बन्धिन्यो बढ्यो दास्यो भरतं राजानं पृष्ठतोऽनुगच्छन्तीति सम्बन्धः। कास्ता इत्याहकुब्जाः-कुब्जिका वक्रजन्या इत्यर्थः, चिलात्यः-चिलातदेशोत्पन्नाः, वामनिकाअत्यन्तहस्वदेहा, ह्रस्वोन्नतहृदयकोष्ठा वा, वडभिकामहडकोष्ठा धक्राधः-काया वा इत्यर्थः / बर्बर्यो बर्बरदेशोल्पन्नाः, बकुशिकाःबकुशदेशजाः, जोनिक्यो-जोनकनामकदेशजाः, पलविकाः-पह्नवदेशजाः (ईसेणिआ थारुकिणिआओ त्ति) देशद्वयभवाः ईसिनिकाः थारुकिनिकाः, लासिक्यो-लासकदेशजाः, लकुशिक्यो लकुशदेशजाः, द्राविड्यो द्रविडदेशजाः / सिंहल्यः- सिंहलदेशजाः, आरब्यः-अरबदेशजाः, पुलिन्द्यः-पुलिन्द्रदेशजाः, पक्कण्यः-पक्कणदेशजाः, बहल्योबहलिदेशजाः, मुरुण्डयो-मुरुण्डदेशजाः, शबर्य:-शबरदेशजाः, पारसीका:-पारसदेशजाः / अत्र चिलात्यादयोऽष्टादश पूर्वोक्तरीत्या तत्तद्देशोद्भवत्वेन तत्तन्नामिका ज्ञेयाः, कुब्जाऽऽदयस्तु तिम्रो विशेषणमूताः, अथ यथाप्रकारेणोपकरणेन ता अनुययुस्तथा चाऽऽह अप्येकिका वन्दनकलशा मङ्गल्यघटा हस्तगता यासां तास्तथा, एवं भृङ्गाराऽऽदिहस्तगता अपि वाच्याः, तद्व्याख्यानं तु प्राग्यत्, नवरं पुष्पचङ्गे रीत आरभ्य मालाऽऽदिपदविशेषितास्तचड़े र्यो ज्ञातव्याः। लोमहस्तकचङ्गेरी तु साक्षादुपात्ताऽस्ति, अन्यास्तुलाघवार्थकत्वेन सूत्रे साक्षान्नोक्ताः, आद्यन्तग्रहणेन मध्यग्रहणस्य स्वयमेवलभ्यमानत्यात्, एवं पुष्पपटलहस्तगता माल्याऽऽदि-पटलहस्तगताश्च वाच्याः, अप्येकिकाः सिंहाऽऽसनहस्तगताः, अप्येकिकाः छत्रचामरहस्तगताः, तथा अप्येकिकाः तैलसमुद्गाः तैलभाजनविशेषास्तद्धस्तगताः। एवं कोष्ठसमुद्रकहस्तगता यावत्सर्षपसमुद्कहस्तगताः। अत्र समुद्कसंग्रहमाह- 'तेल्ले कोट्ठ-समुग्गे' इति सूत्रोक्ताः, एतदर्थस्तु राजप्रश्नीयवृत्तितोऽवगन्तव्यः, अप्येकिकास्तालवृन्तहस्तगताः-व्यञ्जनपाणयः, अप्येकिका धूपकडुच्छुकहस्तगता इति। अथ यया समृद्ध्या भरत आयुधशालागृहं प्रापतामाह- (तए णं इत्यादि,) ततः स भरतो राजा यत्रैवाऽऽयुधगृहशाला तत्रैवोपागच्छतीति सम्बन्धः, किम्भूत इत्याह- सर्वांसमस्तया आभरणाऽऽदिरूपया लक्ष्म्या युक्त इति गम्यम् / एवमन्यान्यपि पदानि योजनीयानि, नवरं युतिः- मेलः परस्परमुचितपदार्थानांतया बलेन-सैन्येन समुदयेनपरिवाराऽऽदिसमुदयेन, आदरेण प्रयत्नेन आयुधरत्नभक्त्युत्थ-बहुमा - नेन, विभूषयाउचितनेपथ्याऽऽदिशोभया विभूत्याविच्छट्टेन एवंविधविस्तारेणउक्तामेव विभूषां व्यक्त्याऽऽह- 'सव्वपुप्फे' त्यादि, अत्र पुष्पाऽऽदिपदानि प्राग्वत्, नवरम् अलङ्कारो-मुकुटाऽऽदिरेतद्रूपया सर्वेषां त्रुटितानांतूर्याणां यः शब्दोध्वनिर्यश्च स सङ्गतो निनादः- प्रतिध्वनिस्तेन, अत्र शब्दसन्निनादयोः समाहारद्वन्द्वः / अथ "सर्वमनेन भाजनस्थं वृत पीतम् / " इति लोकोक्तेः प्रसिद्धत्वात् सर्वशब्देनाल्पीयोऽपि निर्दिष्ट भवेत्ततश्च न तथा विभूतिर्वर्णिता भवतीत्याशङ्कमानं प्रत्याह- 'महया इड्डीए' इत्यादि / योजना तु प्राग्वदेव, यावत्शब्दात् महायुत्यादि. परिग्रहः / महताबृहता वस्तुटिताना-निःस्वनाऽऽदीनां तूर्याणां यमकसमकंयुगपत्प्रवादितं भाये क्तप्रत्ययविधानात् प्रवादनं ध्वनितमि - त्यर्थस्तेन, शङ्क:- प्रतीतः, पणवोभाण्डपटहो लघुपटह इत्यन्ये, पटहस्त्वेतद्विपरीतः भेरीढक्का झलरीचतुरङ्गुलनालिःकरटिसदृशी वलयाऽऽकारा, खरमुखीकाहला, मुरजोमहामईलः, मृदङ्गोलघुमईलः, दुन्दुभिः-देववाद्यम्, एषां निर्घोषनादितेन, तत्र निर्घोषोमहाध्वनि दितं च प्रतिरवः-एकवद्भावादेकवचनं पूर्वविशेषणं तूर्यसामान्यविषयमिदं तुतद् व्यक्तिसूचकमित्यनयोर्भेदः। आयुधगृहशालाप्राप्त्यनन्तरं विधिमाह'उवागच्छित्ता' इत्यादि, तत्रोपागत्य आलोके दर्शनमात्र एव चक्ररत्नस्य प्रणाम करोति, क्षत्रियैरायुधवरस्य प्रत्यक्षदेवतात्वेन सङ्कल्पनात्, यत्रैव चक्ररत्नं तत्रैवोपागच्छति, लोमहस्तकंप्रमार्जनिकां परामशतिहस्तेन स्पृशति, गृहातीत्यर्थः, परामृश्य च चक्ररत्नं प्रर्जियति, यद्यपि न तादृशे रत्ने रजः सम्भवस्तथापि भक्तजनस्य विनयप्रक्रियाज्ञापनार्थमयमुपन्यासः-प्रमाय॑ च दिव्ययोदकधारया अभ्युक्षतिसिञ्चति; स्नपयतीत्यर्थः / अभ्युक्ष्य च सरसेन गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, अनुलिप्यच अप्रैः- अपरिभुक्तैरभिनवैर्वरैर्गन्धमाल्यैश्वार्चयति / एतदेव व्यक्त्या दर्शयति-पुष्पाऽऽरोपणं माल्याऽऽरोपणं वर्णाऽऽरोपणं चूर्णाऽऽरोपणं वस्त्राऽऽरोपणं आभरणाऽऽरोपणं करोति कृत्वा च अच्छ:-अमलैः, श्लक्ष्ण:-अतिप्रतलैः-श्वेतैः रजतमयैरत एव अच्छो रसो येषां ते अच्छरसाः, प्रत्यासम्नवस्तुप्रतिबिम्बाऽऽधारभूता इयातिनिर्मला इति भावः एतादृशैस्तण्डुलैः-अत्र पूर्वपदस्य दीर्घान्तता प्राकृतत्वात्, स्वस्तिकाऽऽदयोऽष्टाष्टमङ्गलकानिमगल्यवस्तूनि आलिखतिविन्यस्यति, अत्र चाऽष्टाऽष्टेति वीप्सावचनात् प्रत्येकमष्टाविति शेयम्, यद्वाअष्टेति संख्याशब्दः अष्टमङ्गलकानीति चाखण्डः संज्ञाशब्दः, अष्टानामपि मङ्गलकानाम्, अथोक्तानामेव मङ्गलकाना व्यक्तितो नामानि कथयन् पुनर्विध्यन्तरमाह, तद्यथा-स्वस्तिकमित्यादि, व्याख्या तु प्राग्वत्, अत्र द्वितीयालोपः प्राकृतत्वात्, इमान्यष्टमङ्गलकानि आलिख्य आकार-करणेन कृत्वाअन्तर्वर्णकाऽऽदिभरणेन पूर्णानि कृत्वेत्यर्थः, करोति उपचारम्उचितसेवामिति, तमेव व्यनक्ति किन्ते इति तद्यथेत्यर्थे , तेन विवक्षित उपचारः उपन्यस्त इत्यर्थः, पाटल-पाटलपुष्पं, मल्लिका-विचकिलपुष्पंयलोके--'वेलि' इति प्रसिद्धम्, चम्पकाशोकपुन्नागाः प्रतीताः चूतमञ्जरी आम्रमञ्जरी, बकुलः-केसरो यः स्त्रीमुखसीधुसिक्तो विकसति तत्पुष्प, तिलको यः स्त्रीकटाक्षनिरीक्षितो विकसति तत्पुष्पम्, कणवीरं कुन्दंच प्रतीते कुब्जक-'कूचो' इति नाम्ना वृक्ष विशेषस्तत्पुष्पं,कोरण्टकंप्राग्वत्, पत्राणिमरुवकपत्राऽऽदीनि, दसनकः-स्पष्टः, एतैर्वरसुरभिः-अत्यन्तसुरभिः, त Page #1435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1427 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह था सुगन्धा:- शोभनचूर्णास्तेषां गन्धो यत्र स तथा, तद्धितलक्षण इकप्रत्ययः / श्वाद्विशेषाणद्वयस्य कर्मधारयस्तस्य, तथा कचग्रहोमैथुनसंरग्भे मुखचुम्बनाऽऽद्यर्थ युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशेषु ग्रहण तन्न्यायन गृहीतस्तथा तदनन्तरं करतलाद्विप्रमुक्तः सन् प्रभ्रष्टः, प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयस्तस्य, दशार्धवर्णस्यपञ्चवर्णस्य कुसुमनिकरस्य-पुष्पराशेः, तत्र चक्ररत्नपरिकरभूमी चित्रम् आश्चर्यकारिणं जानूत्सेधप्रमाणेन जानु यावदुच्चत्वप्रमाणं प्रमाणोपेतपुरुषस्य चतुरड्गुलचरणचतुर्विशत्यङ्गुलजङ्घचत्वमीलनेनाष्टविंशत्यङ्गुलरूपं तेन समाना मात्रा यस्य स तथा तम, अवधिना मर्यादया निकर-विस्तारं कृत्वा चन्द्रप्रभाः चन्द्रकान्ता वज्राणिहीरका वैडूर्याणि - बालवायजानितन्मयो विमलो दण्डो यस्य स तथा तं काञ्चनमणिरत्नानां भक्तयोविच्छिायो रचनास्ताभिश्चित्रं कृष्णागुरुः प्रतीतः, कुन्दुरुकाःचीडा, तुरुष्कः-सिल्हकः, तेषां यो धूपो गन्धोत्तमः-सौरभ्योत्कृष्टः अत्र विशेषण, परनिपातः, प्राकृतत्वात्, तेनानुविधा मिश्रा व्याप्तेत्यर्थः / तां, चशब्दो विशेषणसमुचये स च व्यवहितसम्बन्धः, तेन धूमवर्ति चधूमश्रेणि विनिर्मुश्चन्तं, वैडूर्यमयं-केवलवैडूर्यरत्नघटितंस्थालकस्थगनकाऽऽद्यवयवेषु दण्डवचन्द्रकान्ताऽऽदिरत्नमयत्वे तु अङ्गारधूमसंसर्गजनिता विच्छायता प्रादुर्भवत्, 'कडुच्छुकं धूपाऽऽधानकं 'प्रागृह्य' गृहीत्वाप्रयतः' आद्रियमाणो धूपं दहति, धूपं दग्ध्वा च प्रमार्जनाऽऽदिकारणविशेषेण सन्निधीयमानमपि चक्ररत्नम् अत्यासन्नतया मा आशातितं भूयादिति सप्ताष्टपदानि प्रत्यपसर्पति पश्चादपसरति प्रत्यपसर्म्य च वामं जानुम अचति, यावत्करणाद्-'दाहिणं जाणुंधरणिअलसि निहटु करयलपरिगहिअंदसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु' इति संग्रहः, व्याख्या च पूर्ववत्, प्रणाम करोति-समीहितार्थसम्पादकमिहेदामिति बुद्धया प्रीतः प्रणमति, प्रणाम कृत्वा च आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्कामतिनिर्गच्छतीति, 'पडिणिक्खमित्ता' इत्यादि, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सन्निषीदति-उपविशति, संनिषद्य च अष्टादश श्रेणी:-कुम्भकाराऽऽदिप्रकृतीः प्रश्रेणीस्तदवान्तरभेदान् शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीदिति। अष्टादश श्रेणयश्चमाः"कुंभार 1 पट्टइल्ला 2, सुवण्णकारा य 3 सूवकारा य 4 / गंधव्वा 5 कासवगा 6, मालाकारा य 7 कच्छकरा 8 / / 1 / / तंवोलिआईय एए, नवप्पयारा य नारुआ भणिआ। अहणं णवप्पयारे, कारुअवण्णे पवक्खामि // 2 // चम्मय रु १जंतपीलग२ गंछिअ 3 छिपाय 4 कसकारे य५ / सीवग 6 गुआर 7 भिल्ला 8 धीवर ह वण्णाइ अवदस // 3 // " चित्रकाराऽऽदयस्तु एतेष्वेवान्तर्भवन्ति, अथ पौरान प्रति किमवादीदित्याह-(खिप्पामेव त्ति) क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियावकरत्नस्याष्टानाम् अहां सभाहारोऽष्टाहं तदस्ति यस्यां महिमाया सा अष्टा ह्निका तां महामहिमां कुरुतेत्यन्वयः, कृत्वा च मम एतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयतेति / अथ क्रमेण विशेषणानि व्याकरोति-कीदृशी? उन्मुक्तं शुल्कवितव्यभाण्ड प्रति राजदेयं द्रव्यं यस्यांसा तथा ताम्, एवमुत्कराम् उत्कृष्टां च तत्र करो गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यं, कृष्ट तु-कर्षणं लभ्यग्रहणायाऽऽकषर्णम्, अदेयां विक्रयनिषेधेन अविद्यमानदातव्या, न केनापि कस्यापि देयमित्यर्थः, अमेयांक्रयविक्रयनिषेधादेव अविद्यमानमातव्याम् अभटप्रवेशाम् अविद्यमानो भटानाराजपुरुषाणामाज्ञादायिना प्रवेशः कुटुम्बिगृहेषु यस्यां सा तथा तां, दण्डलभ्यं द्रव्यं दण्डः कुदण्डेन निर्वृत्तं कुदण्डिम-राजद्रव्यं तन्नास्ति यस्यां सा तथा तांतत्र दण्डो यथापराधं राजगाहा द्रव्यं कुदण्डस्तु कारणिकानां प्रज्ञाऽऽद्यपराधात् महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्राह्य द्रव्यम्, अधरिम-न विद्यते धरिभम-ऋणद्रव्यं यस्य सा तथा ताम्, उत्तमर्णाऽधमाभ्यां परस्पर तणार्थ न विवदनीयं किन्तु अस्मत्पार्श्वे द्युम्नं गृहीत्वा ऋणं मुत्कलनीयमित्यर्थः, गणिकावरैः-विलासिनीप्रधानैर्नाटकीयैः नाटकप्रतिबद्धपात्रैः कलिता या सा तथा ताम्, अनेके ये तालाचराः-प्रेक्षाकारिविशेषास्तैरनुचरिताम् आसेविताम्, अनुद्भूताम् आनुरूप्येण यथा मार्दङ्गि कविधि उधूतावादनार्थमुत्क्षिप्ता मृदङ्गा यस्यां सा तथा ताम्, अम्लानानि माल्यदामानिपुष्पमाला यस्यां सा तथा तां, म्लानाः पुष्पमाला उत्सार्य नवा नवा आरोपणीया इत्यर्थः,प्रमुदिताहृष्टाः प्रक्रीडिताः प्रक्रीडितुमारब्धाः सपुरजना-अयोध्यावासिजनसहिताः जनपदाः कोशलदेशवासिनो जना यत्र सा तथा ता, विजयवैजयिकीम्-अतिशयेन विजयो विजयविजयः स प्रयोजनं यस्यां सा तथा ताम्, इदमायुधरत्न सम्यगारा धितं गदभिप्रेत महाविजय साधयतीत्यर्थः, 'प्रत्यये डीवा' (श्रीसिद्ध० अ०८ पा०३सू० 31) इति प्राकृत-सूत्रेण डीविकल्पस्तेन 'विजयवेजइयमिति पाठः, क्वचिद् विजयवेजयन्तचक्करयणस्स त्ति' पाठस्तत्र विजयसूचिका वैजयन्तीति विजयवैजयन्ती, साऽस्यास्तीति विजयवैजयन्तं विजयग्रहणे किमपि परं न मत्त उत्कृष्टमिति ध्वजबन्धं विधत्ते इत्यर्थः / एतादृशं यच्चक्ररत्नं यस्याष्टाहिकामिति प्राग्वदिति। अथ श्रेणिप्रश्रेणयो यच्चकुस्तदाह- 'तए ण' इत्यादि सर्व पाटसिद्धम्। अथाष्टाहिकामहामहिमापरिसमाप्त्यनन्तरं किमभूदित्याहतएणं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहिआए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीएआउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्ख-मित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसद्दसण्णिणाएणं आपूरेते चेव अंबरतलं विणीआए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता गंगाए महाणईए दाहिणिले णं कूले णं पुरच्छिमं दिसिंमागहतित्थाभिमुहे पयाते आवि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं गंगाए महाणईए दाहिणिल्ले णं कूले णं पुरच्छिमं दिसिं मागहतित्थाभिमुहं पयासतं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठ०जाव हियए कोडं विअपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्यामेव भो देवाणुप्पिआ। Page #1436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1428 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगयरहपवरजोह-कलिअं चाउरंगिणिं सेण्णं सण्णाहेह, एतमाणत्ति पच्चप्पिणह। तएणं ते कोडं बिअजाव पचप्पिणंति / तए णं से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता समुत्तजालाभिरामे तहेव०जाव धवलमहामेहणिग्गए इव ससि व्व पियदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ,पडिणिक्खमित्ता हयगयरहपवरवाहणभडचडगरपहकरसंकुलाए सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसालाजेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवा-गच्छइ, उवागच्छित्ता अंजणगिरिकडगसण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे / तए णं से भरहाहिवे णरिंदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे कुंडलउज्जोइआणणे मउडदित्तसिरए णरसीहे णरवई णरिंदे णरवसहे मरुअरायवसकप्पे अब्महिअरायतेअलच्छीए दिप्पमाणे पसत्थमंगलसएहिं संथुव्वमाणे जयसद्दकयालोए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं से अवरचामराहिं उधुव्वमाणीहिं उधुव्वमाणीहिं जक्खसहस्ससं परिवुडे वेसमणे चेव धणवई अमरवइ-सण्णिभाइ इड्डीए पहिअकित्ती गंगाए महाणईए दाहिणिल्ले णं कूले णं गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंबाहसहस्समंडिअंथिमिअमेइणीअं वसुहं अमिजिणमाणे अभिजिणमाणे अग्गाइं वराइं रथणाई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे तं दिव्वं चक्करयणं अणुगच्छमाणे अणुगच्छमाणे जोअणंतरिआहिं वसहीहिं वसमाणे वसमाणे सालए पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणिसुवण्णे ववगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले दब्मसंथारोवगए एगे अबीए अट्ठमभत्तं पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहरइ / तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमाइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोडुविअपुरिसे सद्दावेइ, सद्दा वित्ता एवं बयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! हयगयरहपवरजोहकलिअं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह चाउग्घंटं आसरह पडिकप्पेह त्ति कटु मज्जणघरं अणुपविसइ,अणुपविसित्ता समुत्त तहेव जाव धवलमहामेहणिग्गए ०जाव मज्जणधराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता हयगयरहपवरवाहण जाव सेणावइ पहिअकित्ती जेणेव वाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता चउग्घंटं आसरह दुरूठे। (सूत्र-४४) 'तए ण से' इत्यादि, ततस्तद्दिव्यं चक्ररत्नम् अष्टाहिकायां महामहिमायां निर्वृतायां-जातायां सत्याम् आयुधगृहशालातः प्रतिनिक्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च अन्तरिक्ष प्रतिपन्नंनभःप्राप्त, यक्षसहस्रसम्परिवृतंचक्रधरचतुर्दशरत्नानां प्रत्येकं देवसहस्राधिष्ठितत्वात, दिव्यतरुटितशब्दसन्निनादेन पूर्वव्याख्यातेन आपूरयदिवाम्बरतलं. शब्दाद्वैत नभः कुर्वदिवेत्यर्थः, विनीतायाः राजधान्याः मध्यं मध्येन मध्यभागेनेत्यर्थः, निर्गच्छति, निर्गत्य च गङ्गानाम्न्या महानद्या दाक्षिणात्ये कूले, उभयत्र णशब्दोवाक्यालङ्कारे, समुद्रपार्श्ववर्तिनितटे इत्यर्थः / अयं भावः-विनीतासमश्रेणी हि प्राच्यां वहन्ती गङ्गा मागधतीर्थस्थाने पूर्वसमुद्रं प्रविशति. इदमपि मागधतीर्थसिसाधयिषया पूर्व दिशं यियासु; अनुनदीतटमेव गच्छति, तच तट दक्षिणदिग्बतित्वेन दाक्षिणात्यमिति व्यवयिते, अत एव दाक्षिणात्येन कूलेन पूर्व दिशं मागधतीर्थाभिमुखं प्रयात-चलितं चाप्यभवत्, एतच्च प्रयाणप्रथमदिने यावत् क्षेत्रमतिक्रम्य स्थित तावद् योजनमिति व्यवहरियते, तच प्रमाणाइगुलनिष्पनतया भरतचक्रिणः स्कन्धावारः स्वशक्त्यैव निर्वहति, अन्येषां तु दिव्यशक्त्या इति वृद्धाः। ततः किं जातमित्याह- 'तए णं' इत्यादि, उक्तार्थप्रायं, किमवादीदित्याह-(खिप्पामेव त्ति) क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! आभिषेक्यम्-अभिषेकयोग्य हस्तिरत्नं पट्टहस्तिनमिति भावः। प्रतिकल्पयतसज्जीकुरुत, हयगजरथप्रवरयोधकलिता चतुरणिडीम, अत्र चतुःशब्दस्याऽऽत्त्वं प्राकृतसूत्रेण, उक्तैरेवाङ्गैश्चतुःप्रकारां सेना सन्नाहयतसन्नद्धां कुरुत, शेषं प्राग्वत्, 'तएणं' इत्यादि, अत्र यावत्शब्दात् 'पुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणदिआ' इति ग्राह्यम्, इदं चाभ्युपगमसूत्रमिश्रमाज्ञाकरणसूत्रं स्पष्ट त्थस्स अदूरसामंते दुवालसजोयणायाम णवजोअणवित्थिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ, करित्ता वाइरयणं सद्दावेइ, बड्डइरयणं सद्दावित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! ममं आवासं पोसहसालं च करेहि, करेत्ता ममेअमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि / तए णं से वड्डइ-रयणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणदिए पीइमणे०जाव अंजलिं कटु एवं सामी तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिसुणेत्ता भरहस्स रण्णो आवसह पोसहसालंच करेइ, करेत्ता एअमाणत्तिअंखिप्पामेव पच्चप्पिणंति / तए णं से भरहे राया आभिसेकाओ हत्थिर यणाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्तापोसहसालं अणुपविसइ अणुपविसित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमजित्ता दब्भसंथारगं संथरइ,संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्तामागहतित्थकुमरस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता पोसह- Page #1437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह मिति, अथ भरतो दिग्यात्रायियासया यं विधिमकार्षीत्तमाह-'तए ण' | मागधतीर्थ तत्रैवोपागच्छति, तत्रोपागतः सन् किं चकारेत्याह- 'उवाइत्यादि, स्नानसूत्रं पूर्ववत्, 'हये' त्यादि, हयगजरथाः प्रवराणि गच्छित्ता' इत्यादि उपागत्य च मागधतीर्थस्य दूरं च-विप्रकृष्ट सामन्तं वाहनानि वेसराऽऽदीनि भटायोद्धारस्तेषां (चडगर पहकर त्ति) च- आसन्नं दूरसामन्तं ततोऽन्यत्र, नातिदूरे नात्यासन्न इत्याशयः / विस्तारवृन्दम्, इदं च देशीशब्दद्वयं, तेन संकुलयाव्याप्तया सेनया द्वादशयोजनाऽऽयामं नवयोजनविस्तीर्ण वरनगरसदृशं विजययुक्तः सार्द्धमिति शेषः / प्रथितकीर्तिर्भरतो यत्रैव बाह्योपस्थानशाला यत्रैव स्कन्धावार:-सैन्यं तस्य निवेशस्थापनां करोतिकृत्वा च वर्द्धकिरत्नचाभिषेक्य हस्तिरत्नंतत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च अञ्जनगिरेः कटको- सूत्रधारमुख्य शब्दयति, शब्दयित्वा च एवमवादीदिति, किमवादीनितम्बभागस्तत्सन्निभमेतावत्प्रमाणमुच्चत्वेनेत्यर्थः / गजपति दित्याह-'खिप्पामेव त्ति क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! मम कृतं आवासं राजकुञ्जर नरपतिर्दुरूढे इति-आरूढ इति।आरूढश्व कीदृशया ऋझ्या पौषधशालांच, तत्र पौषधपर्वदिनानुष्ठ्यं तप उपवासाऽऽदिः, तदर्थं शाला चक्ररत्नोपदर्शितं स्था-नं याति? तदाह- 'तए णं' इत्यादि, ततः स गृहविशेषः,तां कुरु , कृत्वा मन एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयेति / 'तए णं' भरताधिपो भरतक्षेत्रपतिः, सच भरताधिपदेवोऽप्यतो नरेन्द्रः प्रस्तावाद् इत्यादि स्पष्ट, नवरम् 'आवसहं' आवासमिति / अथ भरतः किं, चक्रे वृषभसूनुः, चक्री इत्यर्थः / एतेनास्यैवाऽऽलापकस्योत्तरसूत्रे 'नरिंदे त्ति' इत्याह- 'तए ण' इत्यादि, ततः स भरतो राजा आभिषेक्याद् हस्ति रत्नात्, प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य च यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति, पदेन न पौनरुक्त्यमिति। 'हारोत्थये त्यादि, विशेषणत्रयं प्राग्वत्, नर उपागत्य च पौषधशालामनुप्रविशति, अनुप्रविश्य च पौषधशाला सिंहः सूरत्वात्, नरपतिस्वामित्वात्, नरेन्द्रः परमैश्वर्ययोगात्, नरवृषभः प्रमार्जयति, प्रमाद्यं च दर्भसंस्तारकं संस्तृणाति, संस्तीयं च दर्भसंस्वीकृतकृत्यभरनिर्वाहकत्वात्, 'मरुद्राजवृषभकल्पो' मरुतोदेवा स्तारकं दुरूहति-आरोहति, आरुह्य च मागधतीर्थकुमारनाम्नो देवस्य व्यन्तराऽऽदयस्तेषां राजानः-सन्निहिताऽऽदय इन्द्रास्तेषां मध्ये वृषभा साधनायेति शेषः / अथवा-चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, तेन मागधतीर्थकुमाराय मुख्याः सौधर्मेन्द्राऽऽदयस्तत्कल्पः; तत्सदृशइत्यर्थः, अभ्यधिकराज देवाय, अष्टमभक्तं समयपरिभाषयोपवासत्रयमुच्यते। यद्वा-अष्टमभक्तमि तेजोलक्ष्म्या दीप्यमान इति स्पष्ट, प्रशस्तैर्मङ्गलशतैः-मङ्गलसूचकवचनैः ति सान्वयं नाम, तच्चैवम्-एकैकस्मिन् दिने द्विवारभोजनौचित्येन कृत्वा स्तूयमानो बन्दिभिरिति शेषः, 'जयसद्दकयालोए' इति प्राग्वत्। दिनत्रयस्य षण्णां भवतानामुत्तरपारणकदिनयोरेकैकस्य भक्तस्य च हस्तिस्कन्धवरं गतः-प्राप्तः / केन सहेत्याह- 'सकोरण्टमाल्यदाम्ना त्यागेनाष्टम भक्त त्याज्यं यत्र तथा, प्रगृह्णाति, अनेनाऽऽहारपौषधमुक्त, छत्रेण ध्रियमाणेन सह / कोऽर्थः? यदा नृपो हस्तिस्कन्धगतो भवति प्रगृह्य च पौषधशालायां 'पौषधिकः' पौषधवान्, पौषधं नामेहाभिमतदा छत्रमपि हस्तिस्कन्धगतमेव ध्रियते, अन्यथा छत्रधरणस्यासङ्ग तदेवतासाधनार्थकव्रतविशेषोऽभिग्रह इति याक्त, नत्येकादशव्रतरूपतत्वात एवं श्वेतवरचामरैरुद्भूयमानैः-वीज्यमानैः सह इति। तेन 'गयवई स्तद्वतः सांसारिककार्यचिन्तनानौचित्यात्। नन्वेवमेकादशवृतिकोचिणर-वई दुरूढे'' इति पूर्वसूत्रेण सहास्य भेदः, अधिकार्थप्रस्तावनार्थ तानि तद्वतो ब्रहाचर्याऽऽधनुष्टानानि सूत्रे कथमुपात्तनि? उच्यतेकत्वादस्य, यक्षाणां-देवविशेषाणां सहस्राभ्यां संपरिवृतः,चक्र- ऐहिकार्थसिद्धिरपि संवरानुष्ठानपूर्विकैव भवतीत्युपायोपेयभावदर्शनार्थम्, वर्तिशरीरस्य व्यन्तरदेवसहस्रद्वयाधिष्ठितत्वात्। (वेसमणे चेव धणवई अभयकुमारमन्त्रि श्रीविजयराजधम्मिल्लाऽऽदीनामिव, अतः परमजागइति) वैश्रमण इव धनपतिः अमरपतेः सन्निभया ऋद्ध्या प्रथितकीत्ति- रूकपुण्यप्रकृतिकाः संकल्पमात्रेण सिसाधयिषितसुरसाधनसिद्धिनिश्वयं गङ्गाया महानद्या दाक्षिणात्यकूले उभयत्र 'ण' शब्दो प्राग्वत्। अथवा- जानाना जिनचक्रिणोऽतिसातोदयिनः कष्टानुष्ठानानऽष्टमाऽऽदौ नोपतिसप्तम्यर्थ तृतीया, ग्रामाऽऽकराऽऽदीनांप्राक्प्रथमारकवर्णने युग्मिवर्णना- छन्ते, किन्तु मागधतीर्थाधिपाऽऽदिः सुरः प्रभुणा हुदि चिन्तितः सन् धिकारे उक्तस्वरूपाणां सहस्रैर्मण्डितां तदानीं वासबुहुलत्वाद्भरतभूमेः गृहीतप्राभृतकः सहसैव सेवार्थमभ्युपैति। यदाहुः श्री-हेमचन्द्रसूरिपादाः स्तिमितमेदिनीकां प्रस्तुतनृपस्य प्रजाप्रियत्वात् स्तिमितानिर्भयत्वेन श्रीशान्तिनाथचरित्रेस्थिरा मेदिनी-मेदिन्याश्रितजनो यस्यां सा तथा ता, बहुब्रीहिलक्षणः "ततो मागधतीर्थाभिमुखं सिंहासनोत्तमे / कप्रत्ययः, अत्र मेदिनीशब्देन 'तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश' इति न्यायात्तन्नि- जिगीषुरप्यनाबद्धविकारो न्यषदत् प्रभुः / / 1 / / वासी जनो लक्ष्यते, एवंविधां वसुधाम् अभिजयन् अभिजयन्तत्र्त्या- ततो द्वादशयोजन्यां, तस्थुषो मागधेशितुः। धिपवशीकरणेन स्ववशे कुर्वन् स्ववशे कुर्वन् इत्यर्थः, अग्याणि वराणि- सिंहासनं तदा सद्यः, खञ्जपादमिवाऽचलत् / / 2 / / " अत्यन्तमुत्कृष्टानि रत्नानितत्तजातिप्रधानवस्तूनि आज्ञावशंवदीकृत- इत्यादि / यत्तु श्रामण्ये जगद्गुरवो दुर्विषहपरिषहाऽऽदीन्, सहन्ते तत्तद्दशाधिपाऽऽदिप्राभृतिकृतानि प्रतीच्छन् प्रतीच्छन् गृह्णन् गृहणन् तत्कर्मक्षयार्थमिति। अनेनैव साधर्म्यण पौषधशब्दप्रवृत्तिरपि, यथा चास्य तदिव्यं, चक्ररत्नमनुगच्छन्, चक्ररत्नगत्यङ्कितमार्गेण चलन्नित्यर्थः पौषधव्रतेन साधर्म्य तथा चाऽऽह-ब्रह्मचारी-मैथुनपरित्यागी, अनेन योजन-चतुःक्रोशाऽऽत्मकं तदन्तरिताभिर्वसतिभिर्विश्रामैर्वसन् वसन्। ब्रह्मचर्यपौषधमुक्तम्, उन्मुक्तमणिसुवर्णः-त्यक्तमणिस्वर्णमयाऽऽभरणः अयमर्थः- एकस्मद्विश्रामाद्योजनं गत्वा परं विश्राममुपादत्त इति,यत्रैव | व्यपगतानिमालावर्णकविलेपनानियस्मात् सतथा, वर्णकं चन्दनम्, अनेन Page #1438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1430 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह पदद्वयेन शरीरसत्कारपौषधमुक्त, निक्षिप्तं-हस्ततो विमुक्तं शस्त्रक्षुरिकाऽऽदि मुसलं च येन स तथा, अनेनेष्टदेवताचिन्तनरूपमेक व्यापार मुवत्वाऽपरव्यापारत्यागरूपं पौषधमुक्त, दर्भसंस्तारोपगत इति व्यक्तम्, एक आन्तरव्यक्तरागादिसहायवियोगात् अद्वितीय-स्तथाविधपदात्यादिसहायविरहात्, अष्टमभक्तं प्रतिजाग्रत् प्रतिजागत्पालयन् पालयन् विहरति-आस्ते इति / 'तए ण' इत्यादि, ततः स / भरतो राजाऽष्टमभक्ते परिणमतिपूर्यमाणे,-परिपूर्णप्राये इत्यर्थः। अत्र | वर्तमाननिर्देशः आसन्नातीतत्वात् 'सत्सामीप्ये सद्वद्वा। (श्रीसिद्ध०अ० ५पा० ४सू०१) इत्यनेन, पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! हयगजरथप्रवरयोधकलितां चतुरङ्गिणी सेनां सन्नाहयत, चतस्रोघण्टाश्छत्रिकैकदिशि तत्सद्भावात् अवलम्बिता चात्र स तथा तं, चकारः समुच्चये, स चाश्वरथमित्यत्र योजनी यः, अश्ववहनीयो रथोऽश्वरथो नियुक्तोभयपार्श्वतुरङ्ग मोरथ इत्यर्थः, अनेनास्य सांग्रामिकरथत्वमाह, तं प्रतिकल्पयतसजीकुरुत इति कृत्वा कथयित्वा आदिश्येत्यर्थः, मज्जनगृहमनुप्रविशतीति, 'अणुपविसित्ता' इत्यादि, अनुप्रविश्य चमज्जनगृह समुक्ताजालाऽऽकुलाभिरामे इत्यादि, तथैव प्रागुक्ताऽऽस्थानाधिकारगमवदित्यर्थः, यावद् धवलमहामेघनिर्गतो यावन्मजनगृहात्प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च हयगजरथप्रवरवाहनयावत्पदात्'भडचडगरपहगरसंकुल त्ति' ग्राह्य, 'सेणाए(वई) पहिअकिती' इत्यादि प्राग्वत्, अत्र निष्ठितपौषधस्य सतो मागधतीर्थमभियियासोर्भरतस्य यत् स्नानं तदुत्तरकालभाविबलिकर्माऽऽद्यर्थ, यदाह श्रीहेमचन्द्रसूरिपादा | आदिनाथचरित्रे- "राजासर्वार्थनिष्णातस्ततो बलिविधिं व्यधात् / यथाविधि विधिज्ञा हि, विस्मरन्ति विधिं न हि // 1 // " इति, अत्र च सूत्रेऽनुक्तमपि बलिकर्म "व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिः" इति न्यायेन ग्राह्यमिति। (संक्षेपतस्तद्विधिः 'पूया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1073 पृष्ठे गतः) अथ कृतस्नानाऽऽदिविधिर्भरतो यच्चक्रे तदाहतए णं से भरहे राया चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे समाणे हयगयरहपवरजोहकलिआए सद्धिं संपरिवुडे महयाभडचडगरपहगरवंदपरिक्खित्ते चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायवरसहस्साणुआयमग्गे महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुमिअमहासमुद्दरवभूअं पिव करेमाणे करेमाणे पुरच्छिमदिसाभिमुहे मागहतित्यणं लवणसमुदं ओगाहइ, ०जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला / तए णं से भरहे राया तुरगे निगिण्हइ, तुरगे निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, रहं ठवित्ता धणुं परामुसइ / तएणं तं अइरुग्गयबालचंदइंदधणुसंकासं वरमहिसदरिअदप्पिअद ढघणसिंगरइअसारं उरगवरपवरगवलपवरपरहुअभमरकुलणीलिणिद्धधंतधोअपट्टे णिउणोविअमिसिमिसिंतमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्तं तडितरुणकिरणतवणिज्जबद्धचिंधं दद्दरमलयगिरिसिहरकेसरचामरवालद्धचंदचिंधं कालहरिअरतपीअसुकिल्लबहुण्हारुणिसंपिणद्धजीवं जीविअंतकरणं चलजीवं धणुं गहिऊण से णरवई उसुं च वरवइरकोडिअं वइरसारतोंड कंचणमणिकणगरयणधोइट्ठसुकयपुंखं अणेगमणिरयणविविहसुविरइयनामचिंधं वइसाहं ठाइऊण ठाणं आयतकण्णायतं च काऊण उसुमुदारं इमाइं वयणाई तत्थ भाणिअ से णरदई. "हंदि सुणंतु भवंतो, बाहिरओ खलु सरस्स जे देवा / णागा सुरा सुवण्णा, तेसिं खु णमो पणिवयामि // 1 // हंदि सुणंतु भवंतो, अभिंतरओ सरस्स जे देवा। णागा सुरा सुवण्णा, सव्वे मे ते विसयवासी॥॥" इति कटु उसु णिसिरइ त्ति "परिगरणिगरिअमज्झो, वाउद्धअसोभमाणकोसेजो। चित्तेण सोभाए धणु-वरेण इंदो व्व पञ्चक्खं / / 3 / / तं चंचलायमाणं, पंचमिचंदोवमं महाचावं / छज्जइ वामे हत्थे, णरवइणो तम्मि विजयम्मि॥४॥" तए णं से सरे भरहेणं रण्णा णिसट्टे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोअणाइं गंता मागहतित्थाधिपतिस्स देवस्स भवणंसि निवइए। तए णं से मागहतित्थाहिवई देवे भवणंसि सरं णिवइ पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते रुठे चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे तिवलिअं भिउडि णिडाले साहरइ, साहरित्ता एवं बयासीकेसणं भो एस अपत्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं मम इमाए एआणुरूवाए दिव्वाए देविद्धीए दिव्वाए देवजुईए दिव्वेणं दिव्वाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उप्पिं अप्पुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरइ त्ति कटु सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता जेणेव से णामाहयंके सरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं णामाहयंकं सरं गेण्हइ, णामकं अणुव्ववाएइ, णामकं अणुप्पवाएमाणस्स इमे एआरूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्थाउप्पण्णे खलु भो ! जुबुद्दीदे दीवे भरहे वासे भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी तं जीअमेअं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं मागहतित्थकुमाराणं देवाणं राईणमुवत्थाणीअं करेत्तए, तं गच्छामिणं अहं पि भरहस्स रण्णो उवत्थाणीअं करेमि त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता हारं मउडं कुंडलाणिअ कडगाणि अतुडिआणि अवत्थाणि अ आभरणाणि असरं चणामाहयंकं मागहतित्थोदगं च गेण्हइ, गिणिहत्ता ताए उक्किट्ठाए Page #1439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1431 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मरह तुरिआए चवलाए जयणाए सीहाए सिग्याए उद्धयाए दिव्वाए | हिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे जेणेव भरहे राया तेणेव पडिनिक्खमित्ता दाहिणपच्चच्छिमं दिसिं वरदाभतित्थाऽभिमुहे उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे सखिंखिणी- पयाए याऽवि होत्था। (सूत्र-४५) आई पंचवण्णाई बत्थाई पवरपरिहिए करयलपरिग्गहिअंदसणहं 'तए णं इत्यादि, ततः स भरतो राजा चतुर्घण्टमश्वरथमारूढः सन् सिर०जाव अंजलिं कटु भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ, हयगजरथप्रवरयोधकलितया, अर्थात् सेनया इतिगम्यं, सार्द्ध संपरिवृतः बद्धावेत्ता एवं बयासी-अभिजिए णं देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे (महया इति) महाभटानां (चडगर त्ति) विस्तारवन्तः (पहगर त्ति) भरहे वासे पुरच्छिमेणं मागहतित्थमेराए तं अहण्णं देवाणुप्पि- समूहास्तेषां यद् वृन्दसमूहो विस्तारवत्समूह इत्यर्थः, तेन परिक्षिप्तःआणं विसयवासी अहण्णं देवाणुप्पिआणं आणत्तीकिंकरे अहण्णं | परिकरितः चक्ररत्नादेशितमार्गः, अनेकेषां राजवराणाम्-आबद्धदेवाणुप्पिआणं पुरच्छिमिल्ले अंतवाले तं पडिच्छंतु णं देवाणु- मुकुटराज्ञा सहौरनुयातः-अनुगतो मार्गः-पृष्ठं यस्य स तथा, महता प्पिआ! ममं इमेआरूवं पीइदाणं ति कटु हारं मउड कुंडलाणि तारतरेण उत्कृष्टिः-आनन्दध्वनिः सिंह-नादः प्रतीतः, बोलोवर्णव्यक्तिअ कडगाणि अजाव मागहतित्थोदगं च उवणेइ। तए णं से रहितो ध्वनिः, कलकलश्चतदितरो ध्वनिस्तल्लक्षणो यो रवस्तेन भरहे राया मागहतित्थकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पीइदाणं प्रक्षुभितोमहावायुवशादुत्कल्लोलो यो महासमुद्रस्तस्य रवं भूड् प्राप्तौ' पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मागहतित्थकुमारं देवं सक्कारेइ, / इति सौत्रो धातुरिति वचनाद् भूतंप्राप्तमिव दिग्मण्डलमिति गम्यते सम्माणेइ, सम्माणित्ता पडिविसञ्जेइ। तएणं से भरहे राया रहं कुर्वन्नपि, चशब्दोऽत्र इवाऽऽदेशो ज्ञातव्यः, पूर्वदिगभिमुखो मागधनाम्ना परावत्तेइ, परावत्तित्ता मागहतित्थेणं लवणसमुद्दाओ पच्चुत्तरइ, तीर्थेनघट्टेन लवणसमुद्रमवगाहते-प्रविशति, कियदवगाहते? इत्याहपच्चुत्तरित्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ , यावत् (से) तस्य रथवरस्य कूर्पराविव कूपरौ कूपराऽऽकारत्वात् पिञ्जउवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरए णिगिण्हइ, नके इति प्रसिद्धौ रथावयवौ आौ स्याताम्, अत एव सूत्रबलादन्यत्र णिगिण्हित्ता रहं ठवेइ, ठवेइत्ता रहाओ पचोरुहति, पचोरुहित्ता एतदासन्नभूतोरथचक्रनाभिरूपोऽवयवो विवक्ष्यते। यदाह- "रथाङ्गनाजेणेव मज्जणधरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता मजणघरं भिद्वयसं, गत्वा जलनिधेर्जलम्। रथस्तस्थौ रथाग्रस्थसारथिस्खलि तैर्हयैः / / 1 / / " इति / 'तए णं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा तुरगान् अणुपविसइ, अणुपविसित्ता०जावससिव्व पिअदंसणे णरवईम निगृह्णाति,अत्र तुरगाविति द्विवचनेन हयद्विके व्याख्यायमाने सूत्रार्थसिद्धौ जणधराओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ताजेणेव भोअणमंडवे सत्यामपि वरदामसूत्रेहयचतुष्टयस्य वक्ष्यमाणत्वात् बहुवचनेन व्याख्या, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए निगृह्य च रथं स्थापयति-स्थापयित्वा च धनुः परामृशति-स्पृशति, अथ अट्ठमभत्तं पारेइ, पारेत्ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ, यादृशं परामर्श तादृशं धनुर्वर्णयन्नाह- 'तए णं' इत्यादि, ततोपडिणिक्खमित्ताजेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे धनुःपरामर्शानन्तरं स नरपतिरिमानिवक्ष्यमाणानि वचनानि (भाणिअ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे त्ति) अभाणीदिति सम्बन्धः, किं कृत्वेत्याह-धनुर्गृहीत्वा 'किंलक्षणमि' णिसीअइ, णिसीइत्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ, सहावेत्ता त्याह-तत प्रसिद्ध अचिरोद्गतो यो बालचन्द्रः शुक्लपक्षद्वितीयाचन्द्रएवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उस्सुकं उक्करंजाव स्तेन, यत्तु उत्तरसूत्रे 'पंचमिचंदोवममिति' तदारोपितगुणस्यातिवक्रतामागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहि महामहिमं करेह, ज्ञापनार्थमिति, इन्द्रधनुषा च वक्रतया सन्निकाशंसदृशं यत्तत्तथा, दृप्तःकरेत्ता मम एअमाणत्ति पचप्पिणह / तए णं ताओ अट्ठारस दपितो द्वयोः समानार्थयोरतिशयवाचकत्वेन सञ्जातदातिशयो यो सेणिप्पसेणीओ भरहेणंरण्णा एवं वुत्ताओसमाणीओ हट्ठ०जाव वरमहिषः-प्रधानसेरिभो, विशेषणपरनिपातः प्राकृतत्वात्, तस्य दृढानि करें ति, करेत्ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति / तए णं से दिव्ये निबिडपुद्-गलनिष्पन्नानि अत एव धनानि-निच्छिद्राणि यानि शृङ्गाग्राणि चक्करयणे वइरामयतुंबे लोहिअक्खामयाऽरए जंबूणयणे मिए तैरचितं सार च यत्तत्तथा, उरगवरो-भुजगवरः प्रवरगवलंवरम-हिषशृङ्ग णाणामणिखुरप्पथालपरिगए मणिमुत्ताजालभूसिए सणंदिघोसे प्रवरपरभृतोवरकोकिलो भ्रमरकुलंमधुकरनिकरो नीलीगुलिका, एतासखिंखिणीए दिव्वे तरुणरविमंडलणिभे णाणामणिरयणघंटि- नीव स्निग्धंकालकान्तिमत् ध्मातमिव ध्मातं च तेजसा ज्वलद्धौतमिव आजालपरिक्खित्ते सव्वोउअसुरभिकुसुमआसत्तमल्लदामे धौतं च -निर्मलं पृष्ठपृष्ठभागो यस्य तत्तथा, निपुणेन शिल्पिना ओपिताअंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्ववुडिअसद्दस- नाम्-उज्ज्वालितानां (भिसि मिसिंत त्ति) देदीप्यमानानां मणिरत्नपिणणादेणं पूरे ते चेव अंबरतलं णामेण य सुदंसणे णरवइस्स धण्टिकानां यजालं तेन परिक्षिप्तवेष्टितं यत्तत्तथा, तडिदिवविद्युदिव पढमे चक्करयणे मागहतित्थकुमास्सदेवस्स अट्ठाहिआए महाम- | | तरुणाः-प्रत्ययाः-किरणायस्य तत्तथा, एवंविधस्य तपनीयस्य सन्बन्धीनि Page #1440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1432 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह बद्धानि विह्रानिलाञ्छनानि यत्र तत्तथा, दर्दरमलयाभिधौ यो गिरी, तयोर्यानि शिखराणि तत्सम्बधिनो ये केसराः सिंहस्कन्धके शाः, चामरबालाः-चमरपुच्छकेशाः, एषां चोक्तगिरिद्वयसत्कानामतिसुन्दर- | त्वेनोपादानम्, अर्द्धचन्द्राश्वखण्डचन्द्रप्रतिबिम्बानि चित्ररूपाणि एतादृशानि चिह्नानियत्र तत्तथा, यस्य धनुषि सिंहकेसराः बध्यन्ते स महान् शूर इति शौर्यातिशयख्यापनार्थ , चमरबालबन्धनम् अर्द्धचन्द्रप्रतिबिम्वरूपं च शोभातिशयार्थमिति, कालाऽऽदिवायाः 'प्रहारुणि त्ति' स्नायवः शरीरान्तर्वर्धास्ताभिः सम्पिनद्धाबद्धा जीवाप्रत्यचा यस्य तत्तथा, जीवितान्तकरणं, शत्रूणामिति गम्यम्, ईदृशधनुर्मुक्तो वाणोऽ- | वश्यं रिपुजयीत्यर्थः, 'चलजीवमिति' विशेषणं त्वेतवर्णकवृत्तौ षष्ठाड़े श्रीअभयदेवसूरिभिर्न व्याख्यातमिति, न व्याख्यायते, यदि च-भूयस्सु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्राऽऽदर्शेषु दृश्यमानत्वात् व्याख्यातं विलोक्यते तदा टङ्कारकरणक्षणे चलाचञ्चला जीवायस्य तत्तथा, पुनः किंकृत्येत्याह(उसु च त्ति) इषु च गृहीत्वा, तमेव विशिनष्टिवरवज्रमय्यौ कोट्यौउभयप्रान्तो यस्य स तथा, बहुव्रीहिलक्षणः कप्रत्ययः, वरवजवत सारम् - अभेद्यत्वेनाभड्गुरं तुण्डंमुखविभागो भल्लीरूपो यस्य स तथा तं, काञ्चनबद्धा मणयः-चन्द्रकान्ताऽऽद्याः कनकबद्धानि रत्नानिकतनाऽऽदीनि प्रदेशविशेषे यस्य स धोत इव धोतो निर्मलत्वात इष्टोधानुष्काप्यामभिमतः सुकृतो-निपुण-शिल्पिना निर्मितः पुङ्गपृष्ठभागो यस्य स तथा तम्, अनेकैर्मणिरत्लैर्विविधंनानाप्रकार सुविरचितं नामचिहिनिजनामवर्णपक्तिरूपं यत्र स तथा तं, पुनरपि किं कृत्वेत्याह - वैशाख वैशाखनामकं स्थानंपादन्यासविशेषरूपं स्थित्वा कृत्या, वैशाखस्थानकं चैवम्- ‘पादौ सविस्तरौ कार्या , समहस्तप्रमाणतः / वैशाखस्थानके वत्स ! कूटलक्ष्यस्य वेधने / / 1 / / इति। भूयोऽपि कि कृत्वेत्याह-इषुमुदारम उद्भटमायात-प्रयत्नवद्यथा भवत्येव कर्ण या, वदायातम्, आकृष्ट कृत्वा इमानि वचनान्यभाणीदिति, अन्वययोजनं तु | पूर्वमेव कृतं, कानि तानि वचननीत्याह-'हंदि' इति सत्ये, तेन यथाशयं बदामीत्यर्थः, अथवा- हन्दीति सम्बो-धने, शृण्वन्तु भवन्तः, शरस्यमत्प्रयुक्तस्य बहिस्तात् त्वगभागे ये देवा अधिष्ठायकास्तद्दाढ्याऽऽदिकारिणस्ते इत्यर्थः, खलु वाक्यालङ्कारे, ते के इत्याह-नागा असुराः सुपर्णागरुडकुमाराः तेभ्यः 'खुः' निश्चये, नमोऽस्तु विभक्तिपरिणामात् तान् प्रणिपतामिनमस्करोमि, नम इत्यनेन गतार्थत्वेऽपि प्रणिपतामीति पुनर्वचनं भक्त्यतिशयख्यापनार्थम्, अनेन शरप्रयोगाय साहाय्यक-र्तृणा बहिर्भागवासिनां देवानां सम्बोधनमुक्तम्, अथाभ्यन्तरभाग-वर्तिदेवानां / सम्बोधनायाऽऽह-हन्दीति प्राग्वत्, नवरमभ्यन्तरतो गर्भभागे शरस्य येऽधिष्ठायकास्तहादयाऽऽदिकारिण इत्यर्थः, तेऽत्र सम्बोध्या इत्यथः, सर्वे ते देवा मम विषयवासिनो-मम देशवासिन इत्यर्थः। सूत्रे चैकवचनं प्राकृतत्वात्, इदं च वचनं सर्वे एते देवा मदाज्ञावशंवदत्वेन मदिष्टस्य शरप्रयोगस्य साहायक करिष्यन्तीत्याशयेनेति, यथाऽत्राऽऽदिचरित्राऽऽदौ शरस्य पुङ्ग मुखरूपं देवाधिष्ठातव्यं स्थानद्वयमधिकमुक्तमस्ति तत्तयोः शरे प्राधान्यख्यापनार्थ, ननु यद्येते देवा आज्ञावशंवदास्तर्हि नमस्कार्यत्वमनुपपन्नम्? उच्यते-क्षत्रियाणां शस्त्रस्य नमस्कार्यत्वे व्यवहारदर्शनात् चक्ररत्नस्येव, तेन तदधिष्ठातृणामपि स्वाभिमतकृत्यसाधकत्येन नमस्कार्यत्वं नानुपपन्नमिति, इति कृत्वानिवेद्य इधुं निसृजतिमुवति। अथ भरतस्यैतत्प्रस्ताववर्णनाय पदद्वयमाह-(परिगर त्ति) परिकरणमल्लकच्छवन्धेन युद्धोचितवस्वबन्धविशेषेणेत्यर्थः, निगडितंसुबद्धं मध्यं यस्य स तथा, वातेन-प्रस्तावात् समुद्रवातेनोद्धृतम्उत्क्षिप्तं शोभमानं कौशेय-वस्त्रविशेषो यस्य स तथा, चित्रेण धनुर्वरण शोभते स भरत इत्यध्याहारः, इन्द्रइव प्रत्यक्षंसाक्षात्तत्प्रागुक्तस्वरूपं महाचापं चलायमानंसौदामिनीयमानं कान्तिझात्कारेणेत्यर्थः, आरोपितगुणत्वेन पञ्चमी-चन्द्रोपमं (छज्जइत्ति) राजते। 'राजेरग्घछज्जसहरीररेहाः // 814 / 100 / इति प्राकृतसूत्रेण रूपसिद्धिः, वामहस्ते नरपतेरिति, तस्मिन् विजये-मागधतीर्थेशसाधने इति। 'तएणं' इत्यादि, ततः स शरो भरतेन राज्ञा निसृष्टः सन् क्षिप्रमेव द्वादश योजनानि गत्वा मागधतीर्थाधिपतेर्देवस्य भवने निपतितः, ततः किं वृत्तमित्याह- 'तए ण' इत्यादि, ततः स मागधपतिर्देवो भवने अर्थात्-स्वकीये शरं निपतितं पश्यति, दृष्ट्वा च आशु-शीघ्रं सप्तः-क्रोधोदयाद्विमूढः, रुपलुप च विमोहने' इति वचनात्, स्फुरितकोपलिङ्गोवा, रुष्टः-उदितक्रोधः चाण्डिक्यितःसञ्जातचाण्डिक्यः, प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः, कुपितः-प्रवृद्धकोपोदयः, (मिसिमिसेमाणे त्ति) क्रोधाग्निना दीप्यमान इव, एकार्थिका वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थमुक्ताः, त्रिवलिकांतिस्रो वलयः-प्रकोपोत्थललाटरेखारूपा यस्यां सा तथा तां भृकुटि-कोपविकृत भूरूपां संहरतिनिवेशयति, संहृत्य च एवमवादीत्, किमयादीदित्याह- 'केसण' इत्यादि, (केस ति) कः अज्ञातकुलशीलसहजत्वादनिर्दिष्टनामकः, सकारः प्राकृतशैलीभवः 'मणसा वयसा कायसा' इत्यादिवत् णमिति प्राग्वत्, भो इति सम्बोधने, देवानाम् एषः-बाणप्रयोक्ता अप्रार्थितं -केनाप्यमनोरथगोचरीकृतं प्रस्तावात् मरणं तस्य प्रार्थक:-अभिलाषी। अयमर्थः- यो मया सह युयुत्सुः स मुमूर्षुरवेति, दुरन्तानि-दुष्टावसानानि प्रान्तानितुच्छानिलक्षणानियस्य स तथा, हीनायां पुण्यचतुर्दश्यां जातो हीनपुण्यचातु-दर्शः, तत्र चतुर्दशी किल तिथिर्जन्माऽऽश्रिता पुण्या पवित्रा, शुभा इति यावत् / भवति, सा च पूर्णाऽत्यन्तभाग्यवतो जन्मनि भवति, अत आक्रोशता इत्थमुक्तं, क्वचिद्- 'भिन्नपुण्णचाउद्दसे त्ति' तत्र भिन्ना परतिथिसङ्ग मेन भेदं प्राप्ता या पुण्यचतुर्दशी तस्या जात इति. हियालज्जया श्रियाशोभया चपरिवर्जितः यः णमिति पूर्ववत्, मम अस्याःप्रत्यक्षानुभूयमानाया एतद्रूपाया एतदेव समयान्तरेभड्गुरत्याऽऽदिरूपान्तरभाक् रूपं स्वरूपं यस्याः सा तथा तस्या दिव्यायाः-स्वर्गसम्भवायाः प्रधानाया वा देवानामृद्धिः-श्रीभवनरत्नाऽऽदिसम्पत्तस्याः, एवं सर्वत्र, नवरं द्युतिः-दीप्तिः शरीराऽऽभरणाऽऽदि सम्पत् तस्याः युतिर्वाइष्टपरिवाराऽऽदिसंयोगलक्षणा तस्याः दिव्येनप्रधानेन देवानुभावेनभाग्यमहिम्ना, अथवा- दिव्येनदेवसम्बन्धिनाऽनुभावेन अचिन्त्यवैक्रियाऽऽदिकरणमहिम्ना Page #1441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1433 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह सह पिता पुत्रेण सहाऽऽगतः इत्यादिवत् , लब्धाया-जन्मान्तराज्जितागः प्राप्तायाइदानीमुपस्थिताया अभिसमन्वागतायाः- भोग्यतां गताया उपरि आत्मना उत्सुको-मनसोत्कण्ठुलः परसम्पत्त्यभिलाषी पदव्यत्ययादुत्सुकाऽऽत्मा वा भवने निसृजति, इतिकृत्वा सिंहासनाद- 1 सुत्तिष्ठतीति। उत्थानानन्तरं यत्कर्त्तव्यं, तदाह- जेणेव से णाम० इत्यादि यत्रय स नामरूपोऽहतः- अखण्डितः अङ्कः-चिह्नं यत्र स तथा नामाङ्क इत्यर्थः, एवंविधः शरस्तत्रैवोपागच्छति, तं नामाहताङ्क शरं गृह्णाति नामकम् अनुप्रवाचयतिवर्णानुपूर्वीक्रमेण पठति, नामकमनुप्रवाचयतोऽयं वक्ष्य-माण एतद्रूपोवक्ष्यमाणस्वरूप आत्मन्यधि अभ्यात्म तत्र भव आध्यात्मिकः, आत्मविषय इत्यर्थः / सङ्कल्पश्च द्विधाध्यानाऽऽत्मकः, चिन्ताऽऽत्मकश्च। तत्र आद्यः स्थिराध्यवसायलक्षणरतथाविधदृढसंहमनाऽऽदिगुणोपेतानां द्वितीयश्वलाध्यवसायलक्षणस्तदितरेषामिति, तयोर्मध्येऽयं चिन्तितः-चिन्तारूपश्चेतसोऽनवस्थितत्वात, स चानभिलाषाऽऽत्मकोऽपि स्यादित्यत आह- प्रार्थितः- प्रार्थनाविषयः, अयं मम गनोरथः फलेग्रहिqयादित्यभिलाषाऽऽत्मक इत्यर्थः, मनोगतोमनस्रोव यो गतो न बहिर्वचनेन प्रकाशित इति, सङ्कल्पः समुदपद्यत. तमेवाऽऽहउत्पन्नः खलुःनिश्चये भो इत्यामन्त्रणे विचाराभिमुख्यकरणाय स्वात्मन एव, तेनेह मागधकुमारेति योज्य, जम्बूद्वीपे भरते वर्षे भरतो नाम राजा चातुरन्तचक्रवर्ती तत्- तस्माज्जीतमेतत् अतीतप्रत्युत्पन्नानागताना मागधतीर्थकुमाराणामिति मागधतीर्थस्याधिपतिः कुमारो मागधतीर्थकुमारः, मध्यपदलोपेन समासः, कुमारपदवाच्यत्वं चास्य नागकुमारजातीयत्वात्, तन्नामकाना देवानां राज्ञांनरदेवानाम् उपस्थानिकंप्राभृतं कर्तु तद् गच्छामि, णमिति प्रागवत्, अद्वमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिक करोमि, इतिकृत्वा-इति मनसिकृत्य एवं-वक्ष्यमाणं निजर्द्धिसार संप्रेक्षतेपर्यालोचयति, ततः किं करोतीत्याह-संपेहेत्ता इत्यादि, सम्प्रेक्ष्य च हाराऽऽदीनि प्रतीतानि, चकारः सर्वत्र समुच्चये, शरं च भरतस्य प्रत्यपंणाय नामाऽऽहतं नामाऽऽहताङ्कमिति निर्देशे कर्तव्ये लाघवार्थमित्थमुपन्यासः, यदा-नाम आहतं लक्षणया लिखित यत्र स तथा त मागधतीर्थोदकं च राज्याभिषेकोपयोगि एतानि गृह्मातीति सम्बन्धः / तदनन्तर किं विदधे इत्याह- "गिण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए' इत्यादि, गृहीत्वा च तया दिव्यया देवगत्या गत्यालापकव्याख्या प्राग्वत्, नवर सिंहयासिंहगतिसमानया अतिमहता बलेनाऽऽरब्धत्वात्, यच पूर्वम् ऋषभदेवनिर्वाणकल्याणाधिकारे गत्यालापककथनं यावत्पदेन अत्र च तत्कथनं विस्तरेण तद्विचित्रत्वात् सूत्रकारप्रवृत्तेरिति मन्तव्यं यत्रैव भरतो राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपन्नोनभोगतो देवानामभूमिचारित्वात् सकिङ्किणीकानिक्षुद्रघण्टिकाभिः सह गतानि पञ्चवर्णानि च वस्त्राणि प्रवरं विधिपूर्वकं यथा स्यात् तथा परिहितः परिहितवान्, यथा पश्चवर्णानि वरवाणि परिहितवान् तथा किङ्किणीरपीत्यर्थः / किमुक्त भवति? किङ्किणीग्रहणेन तस्य नटाऽऽदियोग्यवेषधारित्वदर्शनन भृशं / तस्य भरते भक्तिः प्रकटिता, अथवा-किङ्किणीसमुत्थशब्देन सर्वजनसमक्ष सेवकोऽस्मिन तुछन्नमिति ज्ञापनार्थ तत्सहित उपागतः, अथवासङिकिणीकानिबद्धकिङ्किणीकानि, तगन्धश्च शोभातिशयार्थ, करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा भरतं राजानं जयेन विजयेन वर्द्धयति, वर्द्धयित्वा चैवमवादीत, अत्र प्राग्वव्याख्यानमिति। किमवादीदित्याह- 'अभिजिएण' इत्यादि, अभिजितम्-आज्ञावशंवदीकृतं देवानुप्रियः-वन्द्यपादैः केवलकल्पसम्पूर्णत्वात् केवलज्ञानसदृश भरत वर्षभरतक्षेत्र पूर्वस्या मागधतीर्थमर्यादयामागधतीर्थ यावत्, तदहं देवानुप्रियाणां विषयवासीदेशवासी अत एवाहं देवानुप्रियाणामाज्ञप्तिकिङ्करः- आज्ञाकारी सेवकः, अहं देवानुप्रियाणां पौरस्त्यः पूर्वदिक्सम्बन्धी अन्तत्वदादेश्य-देशसम्बन्धिनं पालयतिरक्षयति उपद्रयाऽऽदिभ्य इत्यन्तपालः पूर्वदिग्देशलोकानां देवाऽऽदिकृतसमस्तोपद्रवनिवारक इत्यर्थः, 'अहण्णं देवाणुप्पिआणं' इत्यादिपदानां भिन्नभिन्नप्रकारेण योजनीयत्वादत्र न पौनरुक्त्य, तत्प्रतीच्छन्तु-गृह्णन्तु देवानुप्रियाः! मम इदम् - अग्रत उपनीतंएतद्रूपं प्रत्यक्षानुभूयमानस्वरूप प्रीतिदानसन्तोषदान प्राभृतरूपमित्यर्थः, इतिकृत्वाविज्ञप्य हाराऽऽदिकमुपनयतिप्राभृतीकरोतीति, 'तएण' इत्यादि, ततः स भरतो राजा मागधतीर्थकुमारनाम्नो देवस्य इदमेतद्रूपंप्रीतिदानं तत्प्रीत्युत्पादनार्थमलुब्धतया प्रतीच्छति गृह्णाति, प्रतीष्य च मागधतीर्थकुमारं देवं सत्कारयति वस्त्राऽऽदिना, संमानयति तदुचितप्रतिपत्त्या, सत्कार्य संमान्य च प्रतिविसर्जयतिस्वस्थानगगनायानुमन्यते / अथ तदुत्तरकर्तव्यमाह'तएणं से भरहे राया रह' इत्यादि, ततः स भरतो राजा रथं परावर्त्तयतिभरतवर्षाभिमुखं करोति, परावर्त्य च मागधतीर्थेन लवणसमुद्रात् प्रत्यवतरति, प्रत्यवतीर्य च यत्रैव विजयस्कन्धवारनिवेशो यत्रैवच-बाह्या उपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति उपागत्य च तुरुगान् निगृह्णाति निगृह्य च रथं स्थापयति, स्थापयित्वा च रथात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य च यवैव मजनगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च मज्जनगृहमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य (जाव ति) यावत्करणात संपूर्णः स्नानाऽऽलापको वाच्यः, 'ससि व्व पिअदंसणे' इति विशेषणं यावत्, स च प्राग्वत्, नरपतिर्मज्जनगृहात प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव भोजनमण्डपस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च भोजनमण्डपे सुखाऽऽसनवरगतः सन्नष्टमभक्तं पारयति, पारयित्वा च भोजनमण्डपात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैव बाह्योपस्थानशाला यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च यावत्सिहाऽऽसनवरगतः पूर्वाभिमुखो निषीदति, निषध च अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणी: शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीदिति / अत्र सूत्रे यावच्छब्दो लिपिप्रमादाऽऽपतित एव दृश्यते, संग्राहकपदाभावात्, अन्यत्र तद्माऽऽदावदृश्यमानत्वाच्चेति, अथ किमवादीदित्याह-(खिप्पामेव त्ति) सर्व प्राग्वत्, यथा राजाऽऽज्ञा पौरा विदधुस्तथा चाऽऽह- 'तएण' इत्यादि, व्यक्त, ततो मागधतीर्थकुमारदेवविजयाष्टाहिकामहामहिमानन्तरं चक्ररत्नं, कीदृशं क्व च सञ्चचारेत्याह- 'तए णं' इत्यादि, तत Page #1442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1434 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह स्तदिव्यं चक्ररत्नं वज़मयं तुम्बम् - अरकनिवेशस्थानं यत्र तत्तथा, | लोहिताक्षररत्नमया अरका यत्र तत्तथा, जाम्बूनदंपीतसुवर्ण तन्मयो नेमिः- धोरा यत्र तत्तथा, नानामणिमयम् अन्तः क्षुरप्राकारत्वात् क्षुरप्ररूपं स्थालम्- अन्तः परिधिरूपं तेन परिगतं यत्तत्तथा, मणिमुक्ताजालाभ्यां भूषितं, नन्दिः-भम्भा मृदङ्गाऽऽदिदशविधतूर्यसमुदायस्तस्य घोषस्तेन सहगतं यत्तत्तथा, सकिङ्किणीकं क्षुद्रघण्टिकाभिः सहितं, दिव्यमिति विशेषणस्य प्रागुक्तत्वेऽपि प्रशस्तताऽतिशयख्यानार्थपुनर्वचनं, तरुणरविमण्डलनिभं नानामणिरत्नघण्टिकाजालेन परिक्षिप्तंसर्वतो व्याप्तं, 'सव्वो-उअ' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्, नाम्ना च सुदर्शनं नरपतेः- चक्रिणः प्रथम-प्रधान, सर्वरत्नेषु तस्य मुख्यत्वाद्वैरि विजये सर्व-त्रामोघशक्तिकत्वाच्च चक्ररत्नं, प्रथमशब्दस्य पढमे चंदजोगे' इत्यादौ प्रधानार्थकत्वेन प्रयोगदर्शनान्नेदमसङ्गतिभाग व्याख्यानमिति, मागधतीर्थकुमारस्य देवस्य अष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्याम् आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च दक्षिणपश्चिमां दिशं नैर्ऋती विदिशं प्रतीति शेषः, वरदामतीर्थाभिमुखं प्रयातचलितं चाप्यभवत्। अयं भावः-शुद्धपूर्वास्थितस्य शुद्धदक्षिणवर्त्तिवरदामतीर्थ व्रजत आग्नेय्याविदिशागमनेप्रतीचीदिशागमने वक्रः पन्थाः तेनैवमुक्त,यश्च ऋषभचरित्रे- "दक्षिणस्यां वरदामतीर्थ प्रति ययौ ततः / चक्रं तच्चक्रवर्ती च, धातुं प्रादिरिवान्वगात्॥१॥' इत्युक्तं तन्मूलजिगमिषितदिग्विवक्षणात् / यच्चानं चक्ररत्नस्य पूर्वतः दक्षिणदिशि गमनं तत्सृष्टिक्रमेण दिग्विजयसाधनार्थम्। तएणं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं दाहिणपञ्चच्छिमं दिसिं वरदामतित्थामिमुहं पयातं चावि पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठ० कोडुंबिअपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! हयगयरहपवर चाउरंगिणिं सेण्णं सण्णाहेह, आमिसेवं हत्थिरयणं पडिकप्पेह त्ति कटु मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता तेणेव कमेणं जाव० धवलमहामेहणिग्गएक जाव सेअवरचामराहिं उद्धव्यमाणीहिं उद्धवमाणीहिं माइअवरफलयपवनपरिगरखेडयवरवम्मक वयमाढीसहस्सक लिए उक्कडवरमउडतिरीडपडागझयवेजयंतिचामरचलंतछत्तंधयारकलिए असिखेवणिखग्गचावणारायकणयकप्पणिसूललउडभिंडिमालधणुहतोणसरपहरणेहि अ कालणीलरुहिरपीअसुकिल्लअणेगचिंधसयसण्णिविढे अप्फोडिअसीहणायछेलिअहयहेसिअहत्थिगुलुगुलाइअअणेगरहसयसहस्सघणधणेतणीहम्ममाणसद्दसहिएण जमगसमगभंभाहोरंभकिणितखरमुहिमुगुंदसंखिअपरिलिवच्चगपरिवाइणिवंसवेणुवीपंचिमहतिकच्छभिरिगिसिगिअकलतालकंसतालकरघाणुत्थिदेण महता सहसण्णिणादेण सयलमवि जीवलोगं पूरयंते बलवाहणसमुदएणं एवं जक्खसहस्सपरिवुडे वेसमणे चेव धणवई अमरपतिसण्णि भाइ इड्डीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकब्बड तहेव सेसं० जाव विजयखंधावारणिवेसं करेइ, करित्ता वद्धहरयणं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो दोवाणुप्पिआ ! मम आवसहं पोसहसालं च करेहि, ममेअमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि! (सूत्र४६) 'तएण' इत्यादि ततः स भरतो राजा तद्दिव्यं चक्ररत्न दक्षिणप-श्चिमा दिशं प्रति वरदामतीर्थाभिमुखं प्रयात चापि पश्यति, दृष्ट्वाच' हट्टतुट्ठत्ति' आलापकाऽऽदिपदैकदेशग्रहणात् सम्पूर्णाऽऽलापको ग्राह्यः। स चायम्'हट्टतुट्टचित्तमाणदिए' इत्यादिकाः प्रागुक्त एव, कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीति / किमवादीदित्याह- (खिप्पामेव त्ति) प्राग्व्याख्यातार्थम्। अत्र लाघवार्थमतिदेशवाक्येनाऽऽह-तेणेव कमेणं इत्यादि, तेनैव क्रमेणपूर्वोक्तस्नानाधिकारसूत्रपरिपाट्या तावद् वाच्य यावद् 'धवलमहामेहणिग्गए' इत्यादि निगमनसूत्र, तदनुयावच्छेतवरचामरैरुद्धयूमा रित्यन्तं राजकुञ्जराधिरोहणसूत्र वाच्यमिति / अथ यथाभूतो भरतो वरदामतीर्थ प्राप्तो यथा च तत्र स्कन्धावार-निवेशमकरोत्तथाऽऽहं / अत्र च सूत्रे वाक्यद्वयं, तत्र चाऽऽदिवाक्ये 'तहेव सेस' मित्यतिदेशपदेन सूचिते ग्रन्थे 'जेणेव बरदामतित्थे तेणेव उवागच्छइ' इत्यनेनान्वययोजना कार्या / सा चैवम्- स भरतो यत्रैव वरदामतीर्थ तत्रैवोपागच्छतीति, द्वितीयवाक्ये च वि-जयस्कन्धावारनिवेशम् 'करेइ' इत्यनेनेति, किं लक्षण इत्याह- (माइय त्ति) हस्तपाशितं वरफलकप्रधानखेटकं यैस्ते तथा प्रवरः परिकरः-प्रगाढगात्रिकाबन्धः खेटकं च येषा ते तथा, फलकं दारुमय खेटकं च वंशशलाकाऽऽदिमयमिति न पौनरुक्त्यं, वर-वर्पकवचमाढ्यः-सन्नाहविशेषा येषा ते तथा, येषांच विशेष-स्तत्कलाकुशलेभ्यो वेदितव्यः, यथा वर्म लोहकुतूहलिकामयम् इत्यादि, ततः पदत्रयकर्मधारयः, येषां सहस्रैः, वृन्दवृन्दैः कलितो यः स तथा, राज्ञां हि प्रयाणसमये युद्धाङ्गानां सह सञ्च-रणस्याऽऽवश्यकत्वात्, उत्कटवराणिउन्नतप्रवरणि मुकुटानि प्रतीतानि किरीटानितान्येव शिखरत्रयोपेतानि, पताकालघुपटरूपा ध्वजाबृहत्पटरूपा, वैजयन्त्यः-पार्श्वतो लघुपत्ताकिकाद्वययुक्ताःपताका एव, चामराणि चलन्ति छत्राणि तेषां सम्बन्धि यदन्धकार-छायारूपं तेन कलितः, अत्रान्धकारशब्दान्तसमासपदाग्रे आर्षत्वात् तृतीयैकवचनलोपो द्रष्टव्यः, कलित इति च पृथगेव तेन वक्ष्यमाणानन्तरसूत्रे कलितशब्दो योजनीयोऽन्यथा तत्स्थचकारस्य नैरर्थ्यक्याऽऽपत्तेः, यद्वा-अत्र समस्तोऽपि कलितशब्दश्वकारकरणवलादेव तत्रापि योजनीय इति। प्रस्तुतविशेषणस्यायं भावार्थ:- चलतश्चक्रिणो मुकुटाऽऽदिका तत्सैन्यस्य च छत्रव्यतिरिक्ता सामग्री तथा अस्तियथाऽध्वनिमनागपि आतपक्लेशोनास्तीति, अत्र भरतसैन्यसम्बद्धा छाया भरतस्य विशेषणत्वेन सम्बद्ध्यते, सैन्यकृतो जयः स्वामिन्येत्रेति व्यवहारदर्शनात् / पुनर्भरतमेव विशिनष्टिअसयःखगविशेषाः क्षिप्यन्ते सीसकगुटिका आभिरिति क्षेपिण्याहथनालिरि Page #1443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1435 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ति लोकप्रसिद्धा, खगाः, सामान्यतः चापा:- कोदण्डाः नारा-चाःसर्बलोहवाणाः कणका-वाणविशेषाः कल्पन्यः-कृपाण्यः, शूलानिप्रतीतानि, लकुटाः प्रतीताः, भिन्दिपालाहस्तक्षेप्याः महाफला दीर्घा आयुधविशेषाः, धनविवंशमयबाणाऽऽसनानि किरातजनग्राह्याणि, तूणाः- तूणीराः, शराः- सामान्यतो वाणाः इत्यादिभिः प्रहरणैः, अत्र चकारेण पूर्वविशेषण स्थः समस्तोऽसमस्तो वा कलितशब्दो योज्यः, तेन तैः संयुक्त इति, दिग्विजयोद्यतानां राज्ञां हि शस्त्राणि सेनासहव निभवन्तीति ज्ञापित, कथमुक्तप्रहरणैः कलित इत्याह- 'कालेत्यादि' अत्र रुधिरशब्दो रक्तार्थः तेन कालनीलरक्तपीतशुक्लानि जातितः पञ्चवर्णानि, व्यक्तितस्तु तदवान्तर भेदादनेकरूपाणि यानि चिह्नशतानि तानि रान्निविष्टानि येषु तद्यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणतया बोध्यं, कोऽर्थः? राज्ञां हि शस्त्राऽध्यक्षास्तत्तज्जातीयतत्तद्देशीयशस्त्राणा निबिलम्बं परिज्ञानाय शस्त्रकोशेषु उक्तरूपाणि चिहानि निवेशयन्ति शस्त्रेषु च तत्तद्वर्णमयान केशान् कुर्वन्तीत्यर्थः / अथ तुर्यसामग्रीकथनद्वारा भरतमेव विशिनष्टि आस्फोटितंकराऽऽस्फोटरूप सिंहनादः- सिंहस्येव शब्दकरणं (छेलिअ त्ति, सेण्टितं हर्षोत्कर्षण सीत्कारकरणं, हयहेषितं-तुरङ्ग मशब्दः, हस्तिगुलु-गुलायितं गजगर्जितम, अनेकानि यानि रथशतसहस्राणि तेषां (घणघणेत ति) अनुकरणशब्दस्तथा निहन्यमानानामश्वानां च तोत्राऽऽदिजशब्दास्तैः सहितेन, तथा यमकसमक-युगपत् भम्भा-ढक्का होरम्भामहाढक्का इत्यादि तूर्यपदव्याख्या प्रागुक्तत्रुटिताङ्ग कल्पद्रुमाधिकारतो ज्ञेया नवरं कलो मधुरस्तालोधनवाद्यविशेषः, कंसतालाप्रसिद्धा करघ्मान-परस्पर हस्तताडनम् एतेभ्य उत्थितः-उत्पन्नो यस्तेन महता शब्दसन्निनादेन राकलमपि जीवलोक-ब्रह्माण्ड पूरयन्, बलं-चतुरङ्ग सैन्यं वाहनंशिविकाऽऽदि एतयोः क्रमेण समुदयोवृद्धिर्यस्य स तथा, णमिति वाक्यालङ्कारे, अथवा-बलवाहनयोः सभुदयेन युक्त इति गम्यम्, एवमुक्तेन प्रकारेण भरतचक्रिविशेषणत्वेनेत्यर्थः, मागधतीर्थप्रकर णोक्तानि यक्षसहस्रसम्परिवृत इत्यादीनि विशेषणानि ग्राह्याणि, तत्र सूत्रे साक्षाल्लिखितानीति। अथ प्रथमवाक्ये अनलिखितानि तहेव सेसं' इत्यतिदेशपदेन सूचितानि च विशेषणानि वाचयितॄणां सौकुमार्यायैकीकृत्य लिख्यन्ते, तथा 'जक्खसहस्ससंपरिवुडे वेसमगे चेव धणवई अमरवई सण्णिभाए इड्डीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकब्बडमडबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसहरसमंडिअ थिमिअमेइणीअं वसुहं अभिजिमाणे अभिजिण-माणे अग्गाइं वराई रयणाई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे तं दिवं चक्करयण अणुगच्छमाणे अणुगच्छमाणे जोअणंतरिआहिं वस-हीहिं वसमाणे वरागाणे जेणेव वरदामतित्थे तेणेव उवागच्छइ ति। व्याख्या च प्राग्वत् / अथ द्वितीयवाक्येऽपि अत्रोक्तविशेषण-सहितो यावतादसूचितो ग्रन्थो लिख्यते, यथा- "उवागच्छित्ता वरदामतित्थस्स अदूरसामते दुवालराजोयणायाम णवजोअणवि-त्थिण्ण वरणगरसरिच्छ विजयखंधावारणिवेसं करेइ ति''प्राग्वत् / अथ ततः किं चक्रे इत्याह- 'करित्ता' इत्यादि, सर्वमुक्तार्थम। अथ राजाऽऽज्ञप्त्यनन्तरं कीदृग व किरत्न कीदृशे च वैनयि कमाचचारेत्याहतए णं से आसमदोणमुहगामपट्टणपुरवरखंधावारगिहावणविभागकुसले एगासीतिपदेसु सव्वेसु चेव वत्थूसु णेगगुणजाणए पंडिए विहिण्णू पणयालीसाए देवयाणं वत्थुपरिच्छाए णेमिपासेसु भत्तसालासु कोट्टणिसु अ वासघरेसु अ विभागकुसले छज्जे वेज्झे अदाणकम्मे पहाणबुद्धी जलयाणं भूमियाण य भायणे जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु अ कालनाणे तहेव सद्दे वत्थुप्पएसे पहाणेगटिभणिकण्णरुक्खवलिवेडिअगुणदोसविआणए गुणड्डे सो लसपासायकरणकुसले चउसट्ठिविकप्पवित्थियमई णंदावत्ते य वद्धमाणे सोथिअरुअग तह सव्वओभद्दसण्णिवेसे अ बहुविसेसे उइंडिअदेवकोट्ठदारुगिरिखायवाहणविभागकुसलेइअ तस्स बहुगुणड्डे, थवईरयणे णरिंदचंदस्स। तवसंजमनिविटे, किं करवाणीतुवट्ठाई।।१।। सो देवकम्मविहिणा,खंधावारं णरिंदवयणेणं। आवसहभवणकलिअं, करेइ सव्वं मुहुत्तेणं / / 2 / / करेत्ता पवरपोसहघरं करेइ, करित्ता जेणेव भरहे राया० जाव एतमाणत्तिअं खिप्पामेव पञ्चप्पिणइ, सेसं तहेव० जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणे व बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता। (सूत्र-४७) 'तए ण' इत्यादि, ततस्तद्बर्द्धकिरत्नमहं किं करवाणि आदिशन्तु देवानुप्रिया ! इतिकर्तव्यमित्युदित्वोपतिष्ठते, राजानमिति शेषः, राज्ञ आसन्नमायातीत्यर्थः, इत्यन्वययोजनमग्रेतनपदैः सह कार्य , कीदृशं तद्वर्द्धकिरत्नमित्याह-आश्रमाऽऽदयः प्राग्व्याख्यातार्थाः, नवरं स्कन्धावारगृहाऽऽपणाः प्रतीताः, एतेषां विभागेविभजने उचितस्थाने तदवयवनिवेशने कुशलम्, अथवा- 'पुरभवनग्रामाणां, ये कोणास्तेषु निवसतां दोषाः / श्वपचाऽऽदयोऽन्त्यजातास्तेष्वेव वि, वृद्धिमायान्ति / / 1 / / ' इत्यादि योग्याऽयोग्यस्थानविभागज्ञम्, एकाशीतिः पदानिविभागाः प्रतिदैवतं विभक्तव्यवास्तुक्षेत्रखण्डानीति यावत्, तानि यत्र तानि तथा एवंविधेषु वास्तुषुगृहभूमिषु सर्वेषु चैव-चतुःषष्टिपदशतपदरूपेषु वास्तुषु, चैवशब्दः समुच्चये, स च वास्त्वन्तरपरिग्रहार्थः अनेकेषां गुणानामुपलक्षणात् दोषाणां च ज्ञायकं, पण्डा जाता अस्येति तारकाऽऽदित्वादिते पण्डितं सातिशगवुद्धिमत् अथ यदि वास्तुक्षेत्रस्यैकाशीत्याद्या विभागास्तर्हि तावता विभागानां विभाजकास्तावत्यो देवता भविष्यन्तीत्याशङ्कयाह-विधिज्ञ पञ्चचत्वारिंशतो देवतानाम् उचितस्थाननिवेशनार्चनाऽऽदिविधिज्ञमित्यर्थः / अथ यथा पञ्चचत्वारिशतोऽपि देवानामेकाशीत्यादिपदवास्तुन्यासस्तथातच्छिल्पिशास्त्रानुसारेणदर्शाते, यथा स्थापना Page #1444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह एकाशीतिपदवास्तुन्यासः। 101 ज०१ ई०१ | सू०१ | स०१०न० अ० | ई०१ | दि०१ अपव [अ० सावित्र अर्यमा 6 | पू०१ का आप अ०१ गि०१ साविता वि०१ पृथ्वीघर 6 ब्रह्मादेव विवस्वा०६ मृ०१ 201 भ०१ ग०१ रुद्रराट् मृ०१ y01 मैत्र Jo1 308 Turm 1104 रो०१ य०१शो०१ अ०१ज०१ पु०१सु०१ दो०१ चतुःषष्टिपदवास्तुन्यासः। | | अच दिoil | 401 | ज०१ | ई०१ | सू०१ | स०१F०न०१ सावित्र/ अर्थमा 4 अपव 1309 [भि०१ 709 य०१ पृथ्वीघर 4 बहादेव 4 विवम्वा०४ सो०१ रुद्रराट् | ग०१ गैत्र 4 1104 01 इन्द्रज२ मा अग्निः पूषा 10 ऽथ वितथो 11, गृहक्षत 12 यमौ 13 ततः / / 2 / / गन्धर्वो 14 भृङ्गराज 15 श्व, मृगः 16 पितृगण 17 स्तथा। दौवारिकोऽथ 18 सुग्रीव १६पुष्पदन्तौ 20 जलाधिपः 21 / / 3 / / असुरः 22 शोष 23 यक्ष्माणौ 24 - रोगो 250 ऽहि 26 मुख्य 27 एव च। भल्वाट 28 सोम 26 गित्य ३०स्तथा बाह्येऽदिति 31 दितिः 32 // 4 // आपो ३३ऽपवत्सा 34 वीशेऽन्तः, सावित्रः 35 सविता 36 ऽनिगौ। इन्द्र 37 इन्द्रजयो 38 ऽन्यस्मिन्, वायौ रुद्र 36 श्च रुद्रराट् 40 // 5 // मध्ये ब्रहा ४१ऽस्य चत्वारो, देवाः प्राच्यादिदिग्गताः। अर्यमाऽऽख्यो 42 विवस्वां 43 श्व, मैत्रः 44 पृथ्वीधरः 45 क्रमात्॥६॥ ईशकोणाऽऽदितो बाह्ये, वरकी १च विदारिका 2 / पूतना 3 पापा 4 राक्षस्यो, हेतुकाऽऽद्याश्च निष्पदाः // 7 // चतुःषष्टिपदैर्वास्तु, मध्ये ब्रह्मा चतुष्पदः। अर्यमाऽऽद्याश्चतुर्भागा, द्विद्यशा मध्यकोणगाः ||8| बहिः कोणेष्वर्द्धभागः,शेषा एकपदाः सुराः! एकाशीतिपदे ब्रह्मा, नवार्याऽऽद्यास्तु षट्पदाः / / 6 / / द्विपदा मध्यकोणेऽष्टौ, बाह्ये द्वात्रिंशदेकशः। शते ब्राहाष्टसङ्ख्यांशो, बाह्यकोणेषु सार्द्धगौ / / 10 / / अर्यमाऽऽद्यास्तु वस्वंशाः, शेषाःस्युः पूर्ववास्तुयत्। हेमरत्नाक्षताऽऽद्यैस्तु, वास्तुक्षेत्रऽऽकृतिं लिखेत्॥११।। अभ्यर्च्य पुष्पगन्धाऽऽढ्यै-बलिदध्याज्यमोदनम्। दद्यात् सुरेभ्यः सोङ्कारै-नमोऽन्तै मभिः पृथक् / / 12 / / वास्त्यारम्भे प्रवेशेवा, श्रेयसे वास्तुपूजनम्। अकृते स्वामिनाशः स्यत्, तस्मात्पूज्यो हितार्थिभिः // 13 // " अत्र च वराहमिहिरोक्त एकाशीतिपदस्य स्थापनाविधिरयम्"एकाशीतिविभागे, दश दश पूर्वोत्तराऽऽयता रेखाः। अन्तस्त्रयोदशसुराः, द्वात्रिंशद्वाह्यकोष्ठस्थाः इति। अथ प्रकृतं प्रस्तूयते-(वत्थुपरिच्छाए त्ति।) अत्र चशब्दोऽध्याहार्यस्तेन वास्तुपरीक्षायां च विधिज्ञमिति योज्यम्, 'गृहमध्ये हस्तमितं, खात्वा परिपूरितं पुनः श्वभ्रम् / यद्यूनमनिष्ट तत्, समे समं धन्यमधिक घेत्।।१॥' इत्यादि।अथवा-वास्तूनां परिच्छेद-आच्छादनंकटकम्बाऽऽदिभिरावरणं तत्र विधिज्ञ यथार्हकटकम्बाऽऽदिविनियोजनात्, तथा नेमिपार्थेषुसम्प्रदायगम्येषु भक्तशालासुरसवतीशालासु कोट्टनीषुकोट्टदुर्ग स्थायिराजसत्कं नयन्तिप्रापयन्ति यायिराज्ञामिति व्युत्पत्त्या कोट्न्यः याः कोहग्रहणायप्रतिकोट्टभित्तयउत्थाप्यन्ते तासु, चशब्दः समुच्च अ०१ स०१शो०१ ज०१९०१ अ०१ सु०१दौ०१ मिना रोगा Fr शतपदवास्तुन्यासः। 501 3 ज०१ | ई०१ | सू०१ स०१००१ अपव सावित्र/ अर्यगार पृथ्वीघर ब्रह्मादेवता 8 | विवस्वा०८ 1 मैत्र रुद इन्द्रज२ | य०१अ०१शा०१ ज०१ पु०१ सु०१दौ०१ : एतत्संवादनाय सूत्रधारमण्डनकृतवास्तुसारोक्तिरपि लिख्यते, यथा"चतुःषष्ट्या पदैर्दास्तु, पुरे राजगृहेऽचयेत्। एकाशीत्या गृहे भागः, शतं प्रासादमण्डपे / / 1 / / ईशः१पर्जन्यो २जये ३न्द्रौ५, सूर्य: 5 सत्यो 6 भृशो 7 नमः | Page #1445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1437 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ये, तथा वासगृहेषु-शयनग्रहेषु विभागकुशलंयथौचित्येन विभाजक,चः समुच्चये, तथा छेद्यछेदनाह काष्ठाऽऽदि वेध्यं-वेधनार्ह तदेव चः समुच्चये दातकर्मअङ्कनार्थ गिरिकरक्तसूत्रेण रेखादानं तत्र प्रधानबुद्धिः, तथा जलगानां जलगतानां भूमिकानां जलोत्तरणार्थकपद्याकरणाय भाजनयथौचित्येन विभाजकं, चः समुच्चये, उन्मग्नानिमग्नानद्याद्युत्तरे तस्यैतादृशसामर्थ्यस्य सुप्रतीतत्वात्, जलस्थलयोः सम्बन्धिनीषु गुहारिवव गुहासु-सुरङ्गास्वित्यर्थः / तथा यन्त्रेषु घटीयन्त्राऽऽदिषु परिखासु प्रतीतासु चःपूर्ववत् कालज्ञानेचिकीर्षितवास्तुप्रशस्ताप्रशस्तलक्षणपरिज्ञाने, "वैशाखे श्रावणे मार्गे , फाल्गुने क्रियते गृहम्। शेषमासेषु न पुनः, पौषो वाराहसम्मतः॥१॥' इत्यादिके, तथैवेति वाच्यान्तरसंग्रहे शब्देशब्दशास्त्रे सर्वकलाव्युत्पत्तेरेतन्मूलकत्वात् वास्तुप्रदेशेगृहक्षेत्रैकदेशे "ऐशान्यां देवऽगृहं, महानसं चापि कार्यमाग्नेय्याम्। नैऋत्यां भाण्डोपस्करोऽर्थधान्यानि मारुत्याम्॥१॥" इत्यादिगृहावयवविभागे शास्त्रोक्तविधिविधाने प्रधानमुख्यं गर्भिण्यो जातगर्भा डोलकिता वल्ल्यः फलाभिमुखवल्ल्य इत्यर्थः, कन्या इव कन्या:-अफला, अथवा-दूरफला वा वल्ल्यः वृक्षाश्च वास्तुक्षेत्रप्ररूढा वल्लिवेष्टितानिभावे क्तप्रत्ययविधानात् वल्लिवेष्टनानिवास्तुक्षेत्रोद्रवृक्षेष्वारोहणानि, एतेषां ये गुणदोषाः स्तेषां विज्ञायकंविशेषज्ञ, ते चेमे- ''गर्भिणी वल्लिर्वास्तुप्ररूढा आसन्नफलदा, कन्या च सा तत्रैव नाऽऽसन्नफला, वृक्षाश्च प्लक्षवटाश्वत्थोदुम्बराः प्रशस्ताः आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदा' इत्यादि, प्रशस्तद्रुमकाष्ठं वा गृहाऽऽदि प्रशस्तं, वल्लिवेष्टितानि प्रशस्तवल्लिसम्बन्धीनि प्रशस्तानि गृहमहीषुन चाप्रशस्तवल्लिसम्बन्धीनि। एनमेवार्थमाह वराहः- ''शस्त्रौषधिदुमलतामधुरा सुगन्धा, स्निग्धा समा न शुषिरा च मही नृपाणाम् / अप्य-ध्वनि श्रमविनोदमुपागतानां, धत्ते श्रियं किमुत शाश्वतमन्दिरेषु? // 1 // " पुनस्तदेव विशेषयन्नाह- गुणाऽढ्यः-प्रज्ञाधारणाबुद्धिहस्तलाघवाऽऽदिगुणवान् षोडश प्रासादाः-सान्तनस्वस्तिकाऽऽ-दयो भूपतिगृहाणि तेषा करणे कुशलः, चतुःषष्टिविकल्पाः गृहाणां वास्तुप्रसिद्धाः तत्र विस्तृता-अमूढा मतिर्यस्य स तथा, विकल्पानां चतुःषष्टिरेवप्रमोदविजयाऽऽदीनिषोडश गृहाणि पूर्वद्वाराणि, स्वस्तनाऽऽदीनि षोडश दक्षिणद्वाराणि, धनदाऽऽदीनि षोडश उत्तरद्वाराणि, दुर्भगाऽऽदीनि षोडश पश्चिमद्वाराणि, सर्वमीलने चतुःषष्टिरिति, नन्द्यावर्त्तगृहविशेषे एवमग्रेतनविशेषणेष्वपि, चःसमुच्चये, वर्द्धमाने स्वस्तिके रुचके तथा सर्वतोभद्रसन्निवेशे च बहुर्विशेषः- प्रकारो ज्ञेयतया कर्त्तव्यतया च यस्य तत् तथा, सूत्रे च क्वचित् सप्तमीलोपः प्राकृतत्वात्, नन्द्यावर्ताऽऽदिगृहविशेषस्त्वयं वराहोक्तः"नन्द्यावर्त्तमलिन्दैः, शालाकुड्यात् प्रदक्षिणान्तगतैः। द्वार पश्चिममस्मिन्, विहाय शेषाणि कार्याणि / / 1 / / द्वारालिन्दोऽन्तगतः, प्रदक्षिणोऽन्यः शुभस्ततश्चान्यः / तद्वच्च वर्द्धमाने, द्वारं तु न दक्षिण कार्यम् / / 2 / / अपरान्तगतोऽलिन्तः, प्रागन्तगतौ तदुत्थितौ चान्यौ। तदवधिविधृतश्चान्यः, प्रारद्वारं स्वस्तिकं शुभदम्।।३।। अप्रतिषिद्धालिन्द, समन्ततो वास्तु सर्वतोभद्रम्। नृपविबुधसमूहाना, कार्य द्वारेश्चतुर्भिरपि // 4" पुनस्तदेव विशिनष्टिःऊर्ध्वदण्डे भव उद्दण्डिकः, भयार्थः इकः अर्थात् ध्वजः, देवाः-इन्द्राऽऽदिप्रतिमाः, कोष्टः-उपरितनगृहं धान्यकोष्ठो वा, दारूणि वास्तूचितकाष्ठानि गिरयो दुर्गाऽऽदिक-रणार्थ जनावासयोग्याः पर्वताः, खातानिपुष्करिण्यादिकानि वाहनानि शिविकाऽऽदीनि एतेषां विभागे कुशल , ध्वजविभागस्त्वेवम्- "दण्डः प्रकाशे प्रासादे, प्रासादकरसङ्ख्यया। सान्धकारे पुनः कार्या, मध्यप्रासादमानतः।।१॥" शेष तत्तद्ग्रन्थेभ्योऽवसेयम्, इत्युक्तप्रकारेण बहुगुणाढ्यं तस्य नरेन्द्रचन्द्रस्य भरतचक्रिणः स्थपतिरत्नंवर्द्धकिरत्नम्। तपः संयमाभ्यां करणभूताभ्या निर्विष्ट लब्धमिति, किं करवाणीत्यादि तु प्राग्योजित-मेव। अथोपस्थितः सन्वर्द्धकिर्यदकरोत्तदाह- 'सो देव' इत्यादि, सः-वर्द्धकिः देवकर्मविधिना देवकृत्यप्रकारेण चिन्तित-मात्रकार्यकरणरूपेणेत्यर्थः, स्कन्धावार नरेन्द्रवचनेन आवासा-राज्ञां गृहाणि भवनानीतरेषां तैः कलितं करोति सर्व मुहूर्तेन निर्विलम्बमित्यर्थः, कृत्वा च प्रवरपौषधगृह करोति, कृत्वा च भरतो राजा यावत्पदात्तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता इति ग्राह्यम्, एतामाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयति, 'सेसं तहेव' इत्यादि, सर्व प्राग्वत्। 'उवागच्छित्ता' उपागत्य च। तते णं तं धरणितलगमणलहुं ततो बहुलक्खणपसत्थं हिमवंतकंदरंतरणिवायसंवद्धिअचित्ततिणिमदलिअं जंबूणयसुकयकूवरं कणयदंडियारं पुलयवरिंदणीलसासगपबालफलिहवररयणलेठुमणिविडुमबिभूसिअं अडयालीसाररइयतवणिज्जपट्टसंगहिअजुत्ततुंवं पघसिअपसिअनिम्मिअनवपट्टपुट्ठपरिणिट्ठिअं विसिट्ठलट्ठणवलोहबद्धकम्मं हरिपहरणरयणसरिसचक्कं कक्केयणइंदणीलसासगसुसमाहिअबद्धजालकडगं पसत्थविच्छिण्णसमधुरं पुरवरं च गुत्तं सुकिरणतवणिजजुत्तकलिअं कंकव्यणिजुत्तकप्पणं पहरणाणुजायं खेडगकणगधणुमंडलग्गवरसत्तिकोंततोमरसरसयबत्तीसतोणपरिमंडिअंकणगरयणचित्तं जुत्तं हलीमुहबलागगयदंत चंदमोत्ति अतणसोल्लिअकुंदकुडयवरसिंदुवारंकंदलवरफेणणिगरहारकासप्पगासधवले हिं अमरमणपवणजइणचवलसिग्धगामीहिं चाहिं चामराकणगविभूसिअंगेहिं तुरगेहिं सच्छत्तं सज्झयं सघंट सपडागं सुकयसंधिकम्मं सुसमाहिअसमरकणयगंभीरतुल्लघोसं वर प्परं सुचक्कं वरनेमीमंडलं वरधारातोंडं वरवइरबद्धतुंबं वरकंचणभूसिअं वरायरिअणिम्मिअंवरतुरगसंपउत्तंवरसारहिसुसंपग्गहिवरपुरिसे वरमहारहं दुरूढे आरूढे पवररयणपरिमंडिअंकणयखिंखिणीजालसोमिअं अउज्झं सोआमणिकणगतविअपंकयजासुअणजलणजलिअसुअतों डरागंगुंजद्धबंधुजीवगरत्तहिंगुलगणिगरसिंदूररुइलकुंकुमपारेवयचलणणयणकोइलदसणावरणरहताऽति Page #1446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1438 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह रेगरत्तासोगकणगके सुअयतालुसुरिंदगोवगसमप्पभप्पगासं दृढीकृते तथा युक्ते उचिते नातिलघुनी नातिमहती इत्यर्थः / ततः बिंबफलसिलप्पवालउटुिंतसूरसरिसं सव्वोउअसुरहिकुसुम- | पदत्रयस्य कर्मधारयः / एतादृशे तुम्बे यस्य स तथा तम्, प्रघर्षिताःआसत्तमल्लदामं ऊसिअसेअज्झयं महामेहरसिअगंभीरणिद्ध- प्रकर्षण घृष्टाः प्रसिताः-प्रकर्षण बद्धाः ईदृशा निर्मितानिवेशिताः नवाःधोसं सत्तुहिअयकंपणं पभाए असस्सिरीअंणामेणं पुहविविजय- अजीर्णाः पट्टाः पट्टिका यत्र तत्तथाविध यत्पृष्ट चक्रपरिधिरूपं यल्लोके लंभंति विस्सुतं लोगविस्सुतजसोऽहयं चाउग्घंटं आसरह पूंटी इति प्रसिद्ध, तत्परिनिष्ठितंसुनिष्पन्न कार्यनिर्वाहकत्वेन यस्य स पोसहिए णरवई दुरुढे / तए णं से भरहे राया चाउग्घंटं आसरहं तम्। अत्र पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्। विशिष्टलष्ट-अतिमनोज्ञे नवेसद्यस्के. दुरूढे समाणे सेसं तहेव० जाव दाहिणाभिमुहे वरदामतित्थेणं लोहवर्धे-अयश्चर्मरज्जुके तयोः कर्म-कार्यं यत्र स तम्। अयमर्थः- तत्र लवणसमुदं ओगाहइ० जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला० जाव रथ येऽवयवास्ते लोहवर्धाभ्यां बद्धा इति, हरिः- वासुदेवस्तस्य प्रहरणपीइदाणं से, णवरिं चूडामणिं च दिव्वं उरत्थगेविज्जगं सोणिअ रत्न-चक्र 'वक्कमुसलजोहि ति वचनात् तत्सदृशे चक्रे यस्य स तं, सुत्तगं कडगाणि अ०जाव दाहिणिल्ले अंतवाले०जाव अट्ठाहिअं कतनेन्द्रनीलशस्यकरूपरत्नत्रयमय सुष्टुसम्यगाहितं निवेशित महामहिमं करेति करित्ता एअमाण त्ति पचप्पिणति। तए णं से कृतसुन्दरसंस्थानमित्यर्थः / ईदृशं बद्धं जालकटकं जालकसमूहो यत्र स दिवे चक्करयणे वरदामतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए तथा तम, अयं भावः- रथगुप्ती जाल कपदवाच्या सच्छिद्ररचनाविशिष्टा महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणि अवयवविशेषा बहवस्तव शोभा जनयन्तीति, तथा प्रशस्ता विस्तीर्णा क्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जाव पूरते चेव समा अवक्रा धूर्यत्र स तं, पुरमिव गुप्त समन्ततः कृतवरूथं, रथे हि प्रायः अंबरतलं उत्तरपचत्थिमं दिसिं पभासतित्थाभिमुहे पयाते यावि सर्वतो लोहाऽऽदिमयी आवृतिर्भवति, पुरवरदृष्टान्तकथनेनायमर्थः होत्था / तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणंजाव उत्तर सम्पन्नः- यथा पुरंगोपुरभागपरित्यागेन समन्ततो वनगुप्तं भवति तथाऽयपञ्चत्थिमं दिसिं तहेव०जाव पचत्थिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं मप्यारोहस्थानसारथिस्थाने विहाय गुप्त इति, सुकिरणशोभमानकालवणसमुदं ओगाहेइ, ओगाहित्ता जाव से रहवरस्स कुप्परा न्तिकं यत्तपनीयरक्तं सुवर्ण तन्मयं योक्त्रं तेन कलित, योक्त्रेण हि उल्ला० जाव पीइदाणं से णवरं मालं मउडिं मुत्ताजालं हेमजालं बोढस्कन्धे युगं बद्ध्यत इति, अत्र च एतत्सूत्राऽऽदशेषु तवणिज्जजाल कलिअ' इति पाठोऽशुद्ध एव सम्भाव्यते, आवश्यकचूर्णी अस्यैवपाठस्य कडगाणि अ तुडिआणि अ आभरणाणि अ सरं च णामाहयंकं दर्शनात्, कड्कटकाः - सन्नाहास्तेषां नियुक्ता-स्थापिता कल्पनापभासतित्थोदगं च गिण्हइ, गिण्हित० जाव पचत्थिमेणं पभास रचना यत्र स तथा तं, यथा-शोभंतत्र सन्नाहाः स्थापिताः सन्तीति भावः, तित्थमेराए अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी०जाव पचत्थि तथा प्रहरणैरनुयातं-भृतमित्यर्थः, एतदेव व्यक्तित आह- खेटकानि मिल्ले अंतवाले, सेसंतहेव०जाव अट्ठाहिआ निव्वत्ता। (सूत्र 46) प्रतीतानि, कणकावाणविशेषाः धनूंषि मण्डलागाः-तरवारयः, वरश'तते णं' इत्यादि, णमिति प्राग्वत्, तं प्रसिद्धं वरपुरुषोभरतचक्री क्तयः- त्रिशूलानि, कुन्ताभल्लाः तोमराश्च बाणविशेषाः शराणां शतानि वरमहारथम् आरूढ इति सम्बन्धः / कीदृशमित्याह- धरणितलगमने येषु तादृशा ये द्वात्रिंशत्तूणा भस्त्रकास्तैः परिमण्डित-समन्ततः शोभितं लघुशीधं शीध्रगामिनमित्यर्थः कीदृशो वरपुरुष इत्याह- ततः-सर्वत्र कनकरत्नचित्र, तथा युक्त तुरगैरित्यनेन सम्बद्ध्यते। किविशिष्टरित्याहजयसम्भावनाजनितप्रमोदरसपुलकिततया विस्तीर्णः प्रफुल्लहृदय हलीमुख रूढिगम्यमिति बलाकोबकः, गजदन्तचन्द्रौ प्रतीतो, मौक्तिकं इत्यर्थः / अथ पुना रथं विशिनष्टिबहुलक्षणप्रशस्तं हिमवतः-क्षुद्रहिम मुक्ताफल 'तणसौलिअत्ति' मल्लिकापुष्प कुन्दश्वेतः पुष्पविशेषः कुटजवगिरेः निर्वातानिवातरहितानि यानि कन्दराऽन्तराणिदरीमध्यानि तत्र पुष्पाणिवरसिन्दुवाराणि निर्गुण्डीपुष्पाणि कन्दलानि कन्दलवृक्षविशेष - संवर्द्धिताश्चित्रा, विविधास्तिनिशारथगुमास्तएव दलिकानिदारूणि यस्य पुष्पाणिवरफेननिकरोहारो मुक्ताक्लापःकाशाः-तृणविशेषास्तेषां प्रकाशःतं, सूत्रे च पदव्यत्ययः आर्षत्वात्, जाम्बूनदसुवर्णमयं सुकृतंसुघटित औज्ज्वल्यं तद्वद्धवलैः अमरादेवा मनांसि चित्तानि पवनोवायुस्तान् वेगेन कृवरंयुगन्धरं यत्र तं, कनकदण्डिकाः कनकमयलघुदण्डरूपा, अरा यत्र जयतीति अमरमनः पवनजयिनः, अतएव चपलशीघ्रम्-अतिशीघ्रगामितं, पुलकानि वरेन्द्रनी लानि सासकानि रत्नविशेषाः प्रवालानि स्फ. नोगमनशीलाः, ततः पदद्वयकर्मधारयः, तैश्चतुर्भि:-चतुः सङ्ख्याकैः तथाः टिकवर रत्नानि-च प्रतीतानि, लेष्टवो विजातिरत्नानि मणयः चन्द्र- चामरै कनकैश्च भूषितगङ्ग येषां तेतथा तैः, चामरस्य स्त्रीत्वम् आर्षत्वात् / अथ कान्ताद्याः विद्रुमः-प्रवालविशेषः, अनयोश्च वर्णाऽऽदितारतम्यकृतो पुना रथं विशिनष्टिसच्छनंसध्वजं सघण्टसपता-कमिति प्राग्वत्, सुकृतंसुष्टु विशेषो बोध्यः तैर्विभूषितं, रचिताः प्रतिदिशं द्वादश द्वादश सद्भावात् निर्मित सन्धिकर्म सन्धियोजन यत्र सतं, सुसमाहितः- सम्यग्यथोचितअष्टाचत्वारिंशदरा यत्र ते तथा, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात, स्थाननिवेशितो यः समरकणकः- संग्रामवाद्यविशेषस्तस्य वीराणा तपनीयपट्ट:-रक्तस्वर्णमयपट्टकैलॊके महलू इति प्रसिद्धैः संगृहीते- वीररसोत्पादकत्वेन तुल्यो गम्भीरो घोषः-चीत्काररूपो ध्वनिर्यस्य स Page #1447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह तं. पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, धरे कूपरे पिञ्जनके इति प्रसिद्धे यस्य स | तं. सुचक्रं वरनेमीमण्डलंप्रधातचक्रधारावृतं वरेशोभमाने धूस्तुण्डेधूर्वी कूर्वर यस्य स तं, वरवजैर्वद्धे तुम्बे यस्य स तं, वरकाशनभूषितं, वराऽऽचार्यः-प्रधानशिल्पी तेन निर्मित वस्तुरगैः सम्प्रयुक्तं वरसारथिना सुष्टु संप्रगृहीतं स्वायत्तीकृतमिति। इह च चक्राऽऽदीना पुनर्वचन रथावयवेषु प्रधानताख्यापनार्थः, 'वरपुरिसे' इत्यादि तु पूर्वं योजितं, 'दुरूढे आरूढे' इत्यत्र समानार्थकं पदद्वयोपादानं सुखाऽऽरूढताज्ञापनार्थम्, अथवा- दुरूढे इत्यस्य सौत्रशब्दस्य विवरणरूपोऽयमारूढशब्द इति, अथार्थान्तराऽऽरम्र्भार्थ पनुरुक्तिर्न दोषायेति। उक्तमेवार्थ नामप्रकटनायरथस्याऽऽरोहकालप्रकटनाय चाऽऽह- 'पवररयणपरिमंडिअं' इत्यादि, प्रवररत्नपरिमंण्डितं कनककिङ्किणीजालशोभितम् अयोध्यमनभिभव- | नीयमित्यर्थः, सौदामिनीविद्युत्, तप्तं यत्कनकं तच्चानलोत्तीर्ण रक्तवर्ण भवतीति तप्तशब्देन विशेषितं पङ्कजंकमलं तच्च सामान्यतो रक्तं वय॑ते 'जासुअण त्ति' जपाकुसुमं ज्वलितज्वलनोदीप्ताग्निः / अत्र पदविपर्यासः प्राकृतशैलीभवः, शुकस्य तुण्डंमुखम् एतेषामिव रागोरक्तता यस्य स तं. गुजार्द्ध रक्तिकारागभागः बन्धुजीवकंद्रिप्रहरविकाशिपुष्पं रक्तः - संमर्दितो हिड्गुलकनिकरः सिन्दूरप्रतीत रुचिरं कुडकुमजात्यघुसृणं पारापतचलनः प्रतीतः, कोकिलनयने पदव्यत्यय आर्षत्वात् दशनाऽवरणम्- अधरोष्ठ तच्च सामुद्रिकेऽत्यरुणं व्यावर्ण्यते इति रतिदोमनोहरोऽतिरक्तः-अधिकारुणोऽशोकतरुः ईदृशं च कनकं किंशुकं पलाशपुष्पं तथा गजतालुसुरेन्द्रगोपको वर्षासु रक्तवर्णःक्षुद्रजन्तुविशेष एभिः समा-सदृशा प्रभाछविर्यस्य तथा एवंविधःप्रकाशःस्तेजःप्रसरो यस्य स तं, बिम्बफलंगोल्हकं 'सिलप्पवालं ति' अत्र अश्लीलशब्द इव श्रियं लातीति ऋफिडाऽऽदित्वालत्वे श्लीलम्, एवंविधं यत्प्रवाल श्लीलप्रवालंपरिकर्मितविद्रुमः शिलाप्रवाल वा विद्रुमः उत्तिष्ठत्सूरः-उद्गच्छत्सूर्यस्तेषा सदृशं, सर्वर्तुकानिषड्- ऋतुभवानि सुरभीणि कुसुमानि-अग्रथितपुष्पाणि माल्यदामानिच ग्रथितपुष्पाणि यत्र सतम्, उच्छितः- ऊर्वीकृतः श्वेतध्वजो यत्र स तं, महामेघस्य यद्रसितं-गर्जितंतद्वद् गम्भीरः रिनधो घोषो यस्य स तं, शत्रुहृदयकम्पनं, प्रभाते च-अष्टमतपःपारणकदिनमुखे चतुर्घण्टमश्वरथपौषधिकः-आसन्नपारितपौषधव्रतो नरप-तिरारूढ इति सम्बन्धः, सश्रीकं नाम्ना पृथ्वीविजयलाभमिति विश्रुतम्, अत्राऽऽरूढः पुरुषो भूविजयं लभते इति सान्वर्थनामकमित्यर्थः, कीदृशो नरप-- तिरित्याह- लोकविश्रुतयशाः, अहत-क्वचिदप्यवयवेऽखण्डितं सर्वत्रास्खलितप्रचार वा रथमित्यर्थः। रथाऽऽरोहानन्तरं भरतः किं चक्रे इत्याह-'तएणं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा चतुर्घण्टमश्वरथमारूढः सन् शेषं तथैवेति, कियत्पर्यन्तमित्याह- 'जावदाहिणाभिमुहे' इत्यादि, शेष सूत्रं मागधतीर्थगमानुसारेण ज्ञेयम् / अथोक्तं यावद्दक्षिणाभिमुखो वरदामतीर्थन वरदामनाम्नाऽवतरणमार्गेण लवणसमुद्रमवगाहते, 'सेसं तहेव त्ति' वचनात्। हयगयरहपवनजोहकलिआए सद्धिं सपरिवुडे महया भडचडगरपहगरवंदपरिखित्ते चक्करयणदेसिअमग्गो अणेगरायवरसह- | स्साणु आयमग्गे महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूअंपिव करेमाणे करेमाणे' इत्यन्तंसूत्र दृश्यं, कियद्दूर लवणसमुद्रमवगाहते इत्याह- यावत्तस्य रथवरस्य कूर्पवाराः पवतः। अत्र यावच्छन्दोन संग्राह्यपदसंग्राहकः किन्तुजलावगाहप्रमाणसूचनार्थः / 'जावपीइदाणं, ति अत्रापि मागधदेवसाधनाधिकारोक्तं सूत्रतावद्वक्तव्यं यावत्प्रीतिदान, 'से' तस्य तीर्थाधिपसुरस्य प्रीतिदानशब्देनोपचारात् प्रीतिदानार्थकविवक्षितचूडामण्यादि वस्तूच्यते, अत्र तु 'जाव दाहिणिले अंतवाले' इति सूत्रस्याग्रतोन्यासान्यथानुपपत्त्या तस्य ग्रहणं ज्ञेयं न तु दानं, तस्य 'जाव अट्ठाहिअं महामहिम करें ति त्ति' सूत्रस्थयावच्छब्देन गृहीतत्वात्. तेनायमर्थः-प्रीतिदाननि-मित्तकचूडामण्यादिवस्तुग्रहणप्रतिपादकसूत्रं यावद्वक्तव्यमिति। तत्रायं पिण्डार्थः- तुरगनिग्रहणरथस्थापनधनुः परामर्शशरमोक्षकोपोत्पादकोपापनोदनिजचिसारसंप्रेक्षणप्रीतिदानसूत्राणि मागधतीर्थसूत्राधिकारवद् ज्ञेयानीति, नवरमयं विशेषः- प्रीतिदाने चूडामणिं च दिव्यंमनोहरं सर्वविषापहारि शिरोभूषणविशेषम् उरस्थः-वक्षोभूषणविशेष ग्रैवेयकंग्रीवाभरणं श्रोणिसूत्रक कटिमेखला कटकानि- च त्रुटिकानि च, कियदूरं वक्तव्यमित्याह- 'यावद्दाहिणिल्ले अंतवाले' इति यावद्दाक्षिणात्योऽहमन्तपाल इति, प्रीतिवाक्यप्राभृतोपढौकनभरतकृततत्स्वीकरणदेवसन्माननविसर्जनरथपरावृत्तिस्कन्धावारप्रत्यागमनमजनगृहगमनस्नानभोजनकरणश्रेणिप्रश्रेणिशब्दनादिप्रतिपादकसूत्रं वक्तव्यम्, किमन्तमित्याह- 'अढाहिमहामहिमं करेंति' अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणयोऽष्टाहिका महामहिमा प्रकुर्वन्ति, एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्तीति / अथ प्रभासतीर्थाधिपसाधनायोपक्रमते- 'तए णं' इत्यादि, सर्व प्राग्वत, नवरम् उत्तरपश्चिमावायवी दिशं शुद्धदक्षिणवर्तिनो वरदामतीर्थतः शुद्धपश्चिमावर्तिनिप्रभासे गमनाय इत्थमेव पथः सरलत्वात्, अन्यथा वरदामतः पश्चिमाऽऽगमने अनुवारिधिवेलंगमनेन प्रभासतीर्थप्राप्तिदूरण स्यादिति, प्रभास-नामतीर्थ यत्र सिन्धुनदी समुद्र प्रविशति, अथ तादृक् चक्ररत्न दृष्ट्वा यन्वृपश्चक्रे तदाह- 'तए ण' इत्यादि, सर्व पूर्ववत्, परं प्रीतिदाने विशेषः, तमेव च सूत्रे दर्शयति- ‘णवरि त्ति' नवरं मालारत्नमालां मौलिं मुकुट मुक्ताजालंदिव्यमौक्तिकराशिं हेमजालं कनकराशिमिति, 'सेस तहेव त्ति' शेषन- उक्तातिरिक्तं प्रीतिदानोपढौकनस्वीकरणसुरसन्माननविसर्जनाऽऽदितथैवमागधसुराधिकार इव वक्तव्यम्, आवश्यकचूणां तु वरदामप्रभाससुरयोः प्रीतिदानं व्यत्यासेनोक्तमिति। अथ सिन्धुदेवीसाधनाधिकारमाहतए णं से दिवे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडि णिक्खमइ, पडिणिक्खमित्तान्जाव पूरे ते चेव अंबरतलं सिंधूए महाणईए दाहिणिल्लेणं कू लेणं पुरच्छिम दिसिं सिंधुदेवीभवणाभिमुहे पयाते आवि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधूए महाणईए Page #1448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1440 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरच्छिमं दिसिं सिंधुदेवीभवणाभिमुहं वाऽस्या एव देव्या असङ्ख्येयतमे द्वीपे राजधानी सिन्ध्वावर्तनकूटे च पयातं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्त तहेव० जाव जेणेव सिंधूए प्रासा-दावतंसक इति / एवं सिन्धुद्वीपे सिन्धुदेवीभवनसद्भावेऽपि अत देवीए भवणं तेणेव उवगच्छइ, उवागच्छित्ता सिंधूए देवीए एव सूत्रबलादत्रापि तदस्तीति ज्ञायते, तथा च सति 'सिन्धूए देवीए भवणस्स अदूरसामंते दुवालसजोअणायाम णवजोयण- भवणस्स' अदूरसामते इत्यादिकं 'खंधावारनिवेसं करेइ' इत्यन्त वित्थिण्णं वरणगरसारिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ० जाव वक्ष्यमाणसूत्रमप्युपपद्यतेऽन्यथा तदपि विघटतेति। तदनु भरतः किं सिंधुदेवीए अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता पोसहसालाए कृतवानित्याह- 'तएणं' इत्यादि, 'सुबोधम्-'०'जाव सिंधूए' इत्यादि। पोसहिए बंभयारी० जावदन्भसंथारोवगए अट्ठमभत्तिए सिंधुदेविं अत्र यावत्करणात् वर्द्धकिरत्नशब्दापनपौषधशालाविधापनाऽऽदि सर्वे मणसि करेमाणे चिट्ठइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठम- ग्राह्य,तेन पौषधशालायां सिंधुदेव्याः साधनायेति शेषः / अष्टमभक्तं भत्तंसि परिणममाणंसि सिंधूए देवीए आसणं चलइ, तए णं सा प्रगृह्णाति, प्रगृह्य च पौषधिकः- पूर्वव्याख्यातपौषधव्रतवान् अत एव सिंधुदेवी आसणं चलिअंपासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, ओहिं ब्रह्मचारी० जाव दब्भसंथारोवगए' इत्यादि, यावदर्भसंस्तारकोपगतः / पउंजित्ता भरहं रायं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता इमे एआरूवे अत्र यावत्करणात् उन्मुक्तमणिसुवर्ण इत्यादि सर्वं पूर्वोक्तं ग्राह्यम्, अब्भत्थिए चिंतिएपस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पञ्जित्थाउप्पण्णे अष्टमभक्तिकः कृताष्टमतपाः सिन्धुदेवीं मनसि कुर्वन्-ध्यायंस्तिष्ठति। खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णामं राया चाउरंत- 'तए णं इत्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्ते परिणमतिचक्कवट्टी, तंजीअमेअंतीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सिंधूणं देवीणं परिपूर्णप्राये जायमाने सिन्ध्वा देव्या आसनं चलति, ततः सा सिन्धुदेवी भरहाणं राईणं उवत्थाणिअं करेत्तए, तं गच्छामि णं अहं पि आसनं चलितं पश्यति, दृष्टा अवधिं प्रयुनक्ति प्रयुज्य च भरतं राजानम् भरहस्स रण्णो उवत्थाणिअं करेमि त्ति कट्ट कुंभट्ठसहस्सं अवधिना आभोगयति-उपयुङ्क्ते, आभोग्य च स्थितायास्तस्या रयणचित्तं णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अदुवे कणगभद्दा- इत्यध्याहार्यम्, अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकश्चिन्तितः प्रार्थितो मनो-गतः सणाणि य कडगाणि अ तुडिआणि अ० जाव आभरणाणि अ संकल्पः समुदपद्यत इत्थमेवान्वयसङ्गतिः स्यात्, अन्यथा भिन्नकर्तृकयोः गेण्हइ, गेण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए० जाव एवं बयासी-अभिजिएणं क्रिययोः क्त्वाप्रत्ययप्रयोगानुपपत्तिः स्यात् भिन्नकर्तृकता चैवम्देवाणुप्पिएहिं केवलकप्पे भरहे वासे अहण्णं देवाणुप्पिआणं सिन्धुदेवी आभोगयित्री सङ्कल्पश्व समुत्पादकः, इयं च सिन्धुदेवी विसयवासिणी अहण्णं देवाणुप्पिआणं आणत्तिकिं करी, तं आसनकम्पनादत्तोपयोगा सती स्मृतजातीया स्चत एवानुकूलाऽऽशया पडिच्छंतुणं देवाणुप्पिआ! मम इमं एआरूवं पीइदाणं ति कटु संजज्ञे, तेन न शरप्रमोक्षणाऽऽद्यत्र वक्तव्यम, एवं च कर्मचक्रिणां वैताळ्यकुंभऽट्ठसहस्संरयणचित्तं णाणामणिकणगकडगाणि अजाव सो सुराऽऽदीनांसाधनेऽपि जिन चक्रिणांतु सर्वत्र दिग्विजययात्राया शरप्रमोचेव गमोजाव पडिविसज्जेइ। तएणं से भरहे राया पोसहसा- क्षणाऽऽदिकमन्तरेणैव प्रवृत्तिः यतस्तत्र तेषां तथैव साध्यसिद्धिरितिस लाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव मज्जणघरे च कः सङ्कल्प इत्याह- 'उप्पण्णे त्ति उत्पन्नः खलुः-निश्चये जम्बूदीपतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता प्रहाए कयबलिकम्मे जाव नाम्नि द्वीपे भरत-नामनि वर्षे -क्षेत्रे भरतो नाम राजा चतुरन्तचक्रजेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भोअण- वी तज्जीतमेतत्-आचार एषः, अतीतवर्तमानानागतानां सिन्धुनामंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं परियादियइ, परियादित्ता० म्नीनां देवीनां भरतानां राज्ञाम्, अत्र बहुवचनं कालत्रयवर्तिना जाव सीहासणवरगए पुरत्थाऽभिमुहे णिसीअइ णिसीइत्ता अट्ठारस चक्यर्द्धचक्रिणां परिग्रहार्थम्, उपस्थानिकंप्राभृतं कर्तुं वर्त्तते इति, तद् सेणिप्पसेणीओ सद्दावे इ, सद्दावेत्ता ०जाव अठ्ठाहिआए गच्छामि, णमिति प्राग्वत् अहमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिक महामहिमाए तमाणत्ति पञ्चप्पिणंति। (सूत्र-५०) करोमीति, चिन्तितं हि कार्यं कृतमेव फलदं भवतीत्याह- 'इति कटु' 'तए ण' इत्यादि, व्यक्तार्थ , नवरं पूर्व दिशमित्यत्र पश्चिमदिग्वर्तिनः इत्यादि, इतिकृत्वाचिन्तयित्वा कुम्भानामष्टोत्तरं सहसं रत्नचित्रं प्रभासतीर्थत आगच्छन् वैतादयगिरिकुमारदेवसिसाधयिषया तद्वास- नानामणिकनक रत्नानां भक्तिः -विविधरचना तया चित्रे च द्वे कूटाभिमुख यियासुः प्रथमतः अनुपूर्वमेव याति, एतच्च दिग्विभागज्ञानं कनकभद्राऽऽसने ऋषभचरित्रेतु रत्नभद्राऽऽसने उक्ते, कटकानि च जम्बूद्वीपपट्टाऽऽदा वालेख्यदर्शनाद् गुरुजनसंदर्शितात् सुबोधं, सिन्धु- त्रुटिकानि च यावदाभरणानि च गृह्णानि, गृहीत्वा च तयोत्कृष्टये - देवीगृहाभिमुखं च चक्ररत्नं प्रयातम्। ननु सिन्धुदेवीभवनम् अत्रैव सूत्रे त्यादियावदेवमवादीदिति। अत्र यावत्पदसंग्रहो व्यक्तः, किमवादीउत्तरभरतार्द्धमध्यमखण्डे सिन्धुकुण्डे सिन्धुद्वीपे वक्ष्यते तत्कथमत्र दित्याह- ‘अभिजिए णं' इत्यादि अभिजितं देवानुप्रियः-श्रीमद्भिः तत्सम्भवः? उच्यते- महर्द्धिकदेवीना मूलस्थानादन्यत्रापि भवनाऽऽदि- केवलकल्पंपरिपूर्ण भरतं वर्ष तेनाहं देवानुप्रियाणां विषयवासिनीदेशसम्भवो नानुपपन्नो यथा सौधर्मेन्द्रा ऽऽद्यग्रिममहिषीणां सौधर्माऽऽदि- वास्तव्या अह देवानुप्रियाणामाज्ञप्तिकिङ्करी-आज्ञासेविका तत् देवलोके विमानसद्भावेऽपि नन्दीश्वरे कुण्डले वा राजधान्यः, यथा / प्रतीच्छन्तुगृह्णन्तु देवानुप्रियाः ! मगेदमेतद्रूप प्रीतिदानमिति, अत्र Page #1449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1541 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह 'ण' सर्वत्र प्राग्वत्, इति कृत्वा कुम्माष्टाधिकसहरनं रत्नचित्रं नाना-1 सिन्धुदेवीभवनतोवैतादयसुर साधनार्थ वैताळ्यसुरावासभूतं वैताठ्यकूट मणिकनकरत्नभक्तिचित्रे वा द्वे कनकभद्राऽऽसने कटकानि च यावत् स गच्छत ईशानदिश्येव ऋजुः पन्थाः, 'तए ण' इत्यादि, उक्तप्राय सर्व एव मागधसुरगमोऽत्रानुसतव्यः ताव द्यावत्प्रतिविसर्जयति। तत उत्तर- नवरं वैताट्यपर्वतस्य दाक्षिणात्येदक्षिणार्धभरतपार्दवर्तिनि नितम्ने विधिमाह- 'तए ण' इत्यादि सर्वं प्राग्वत्,नवर तावद् वक्तव्यं यावत्ताः इति, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्ते परिणमति वैतादयगिरौ कुमार श्रेणिप्रश्रेणयोऽष्टाहिकाया महामहिमा-यास्तामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्ति इव क्रीडाकारित्वात् वैतादयगिरिकुमारस्तस्य देवस्याऽऽसनं चलति, यथाऽष्टाहिकोत्सवः कृत इति। एवं सिन्धुदेव्याः गमः-सदृशपाठो नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीयः,परं अथ वैताठ्यसुरसाधनमाह सिन्धुदेवीस्थाने वैतादयगिरिकुमारदेव इति वाच्य, यच्च सिन्धुदेव्या तएणं से दिव्ये चक्करयणे सिंधूए देवीए अट्ठाहिआए महामहिमाए अतिदेशकथनं तद्वाणव्यापारणमन्तरेणैवायमपि साध्य इति सादृश्यणिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ तहेवजाव उत्तरपुरच्छिमं ख्यापनार्थमिति, प्रीतिदानम् आभिषेक्यम्-अभिषेकयोग्यं राजपरिधे यमित्यर्थः, रत्नालङ्कारमुकुटमिति आवश्यकचूर्णी तथैव दर्शनात्, शेष दिसिं वेअड्डपव्वयाऽभिमुहे पयाए आवि होत्था, तए णं से भरहे तथैव यावच्छब्दाभ्यां ग्राह्य, तत्र प्रथमो यावच्छब्दः उक्तातिरिक्तविशेराया०जाव जेणेव वेअड्डपव्वए जेणेव वेअवस्स पव्वयस्स षणसहिता गतिं प्रीतिवाक्यं प्राभृतोपनयनग्रहणे सुरसन्माननविसर्जने दाहिणिल्ले णितंबे तेर्णव उवागच्छइ, उवागच्छिता देअब्रस्त स्नानभोजने श्रेणिप्रश्रेण्यामन्त्रण सूचयति, द्वितीयस्तुअाहिककरदेशपव्वयस्स दाहिणिले णितंबे दुवालसजोअणायाम णवजोअण दानकरण इति / अथ तमिस्रागुहाऽधिपकृतमालसुरसाधनार्थमुपक्रमतेवित्थिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ, 'तए ण' इत्यादि, ततस्तदिव्यं चक्ररत्नं अष्टाहिकायां महामहिमायां करिता० जाव वेअड्डगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, निवृत्तायां सत्याम् अर्थाद्वैताळ्यगिरिकुमारस्य देवस्य यावत्पश्चिमादिश पगिण्हित्ता पोसहसालाए०जाव अट्ठमभत्तिए वेअवगिरिकुमारं देवं तमिस्रागुहाभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत्, वैतादयगिरिकुमारसाधनस्थामणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ, तर णं तस्स भरहस्स रण्णो नस्य तमिरवायाः पश्चिमावर्त्तित्वात्, 'तए णं' इत्यादि, सर्वं प्राग्वत्, अट्ठमभत्तंसि परिणममाणं सि वे अडगिरिकुमारस्स देवस्स प्रीतिदानेऽत्र विशेषः, स चायं-स्त्रीरत्नस्य कृते तिलक-ललाटाऽऽभरणं आसणं चलइ, एवं सिंधुगमो णेअव्वो, पीइदाणं आभिसेक्कं रत्नमयं चतुर्दशं यत्र लत्तिलकचतुर्दशम् ईदृशम् भाण्डालङ्कारं प्राकृतरयणालंकारं कडगाणि अतुडिआणि अवत्थाणि अ आभरणणि त्वादलङ्कारशब्दस्य परनिपाते अलङ्कारभाण्डम्, आमरणकरण्डकमिअ गेण्हइ, गेण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए०जाव अट्ठाहिअं०जाव त्यर्थः, चतुर्दशाऽऽभरणानि चैवम्- "हार १ऽवहार 2 इग 3 कणय 4 पञ्चप्पिणंति। तएणं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहियाए महामहिमाए रणय 5 मुत्तावली 6 उ केकरे७। कडए 8 तुडिए 6 मुद्दा 10, कुंडल 11 णिध्वत्ताए समाणीए जाव पचच्छिमं दिसिं तिमिसगुहाभिमुहे उरसुत्त 12 चूलमणि 13 तिलयं 14 / / 1 / / " इति / कटकानि च अत्र पयाए आविहोत्था, तएणं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं०जाव कटकाऽऽदीनि स्त्रीपुरुषसाधारणानीति न पौनरुक्त्यमित्यादि तावद् पच्चच्छिमं दिसिं तिमिसगुहाभिमुहं पयातं पासइ, पासित्ता वक्तव्यं यावद् भोजनमण्डपे भोजनं, तथैव मागधसुरस्येव महामहिमा हट्टतुट्ठचित्त० जावतिमिसगुहाए अदूरसामंते दुवालसजोअणा अष्टाहिका कृतमालस्य प्रत्यर्पयन्त्याज्ञां श्रेणिप्रश्रेणय इति। ऽऽयामं णवजोअणवित्थिण्णं०जाव कयमालस्स देवस्स तए णं से भरहे राया कयमालस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी णिव्वत्ताए सभाणीए सुसेणं सेणावई सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं जाव कयमालगं देवं मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ, तए णं वयासी-गच्छाहि णं भो देवाणुप्पिआ ! सिंधूए महाणईए तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि कयमालस्स पच्चस्थिमिल्लं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविस देवस्स आसणं चलइ, तहेव जाव वेअवगिरिकुमारस्स णवरं मणिक्खुडाणि अ ओअवेहि, ओअवेत्ता अग्गाइं वराई रयणाई पीइदाणं इत्थीरयणस्स तिलगचोहसं भंडालंकारं कडगाणि पडिच्छाहि अग्गाइं० पडिच्छित्ता ममेअमाणत्ति पच्चप्पिअन्जाव आभरणाणि अगेण्हइ, गेण्हित्ता ताए उकिट्ठाए जाव णाहि। तते णं से सेणावई बलस्स आ भरहे वासम्मि सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्मणित्ता पडिविसजेइ०जाव भोअणमंडवे विस्सुअजसे महाबलपरक्कमे महप्पा ओअंसी तेअलक्खणजुत्ते तहेव महामहिमा कयमालस्स पच्चप्पिणंति। (सूत्रम्-५१) मिलक्खु भासाविसारए चित्तचारुभासी भरहे वासम्मि 'तए णं' इत्यादि, प्राग्व्याख्यातार्थ , नवरम् उत्तरपूर्वा दिशमिति- णिक्खुडाणं निण्णाण य दुग्गमाण य दुप्पवेसाण य विआणए ईशानकोणं चक्ररत्नं वैताळ्यपर्वताभिमुखं प्रयात्तं चाप्यभवत्। अयमर्थः- अत्थसत्थकुसले रयणं सेणावई सुसेणे भरहेणं रण्णा एवं वुप्ते Page #1450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1442 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणंदिए०जाव करयलपरिग्गहिअंदसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं सामी ! तह त्ति आणाए विणएणं वयणं परिसुणेइ, पडिसुणित्ता भरहस्स रण्णो अंतिआओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए आ वासे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आभिसेक हत्थिरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवर०जाव चाउरंगिणिं सेण्णं सण्णाहेइ त्ति कटु जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ, उतागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायंच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मिअकवर उप्पीलिअसराणपट्टिए पिणद्धगेविज्जबद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टे गहिआउहप्पहरणे अणेगगणनायगदंडनायग०जाव सद्धिं संपरिखुडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मंगलजयसहकयालोए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडि णिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसे के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आभिसेकं हत्थिरयणं दुरूढे / तए णं से सुसेणे सेणावई हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेण छत्तेणं धरिज्जमाणेणं हयगयरहपवरजोहकलिआए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं सं परिवुडे महयाभड चडगरपहगरवंदपरिक्खित्ते महया उक्किट्ठिसीहणायवोलकलकलसद्देणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणे करेमाणे सव्विद्धीए सव्वज्जुईए सव्वबलेणं०जाय निग्धोसनाइएणं जेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चम्मरयणं परामुसइ, तए णं तं सिरिवच्छ-सरिसरूवं मुत्ततार-- द्धचंदचित्तं अयलमकंपं अभेजकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु अ उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाइं सव्वधण्णाइं जत्थ रोहंति एगदिवसेण वाविआई, वासं णाऊण चक्कवट्टिणा परामुढे दिव्वे चम्मरयणे दुवालस जोअणाई तिरिअं पवित्थरइ, तत्थ साहिआई, तएणं से दिव्वे चम्मरयणे सुसेणसेणावइणा परामुढे समाणे खिप्पामेव णावाभूए जाए आवि होत्था,तएणं से सुसेणे सेणामई सखंधावारबलवाहणे णावाभूयं चम्मरयणं दुरूहइ, दुरूहिता सिंधु महाणई विमलजलतुंगवीचिं णावाभूएणं चम्मरयणेणं सबलवाहणे ससेणे समुत्तिण्णे, तओ महाणईमुत्तरितु सिंधु अप्पडिहय-सासणे असेणावई कहिंचि गामागरणगरपव्वयाणि खेडकव्वडमडंबाणि पट्टणाणि सिंहलए बब्बरए अ सव्वं च अंगलोअं पलायालोअंच परमरम्भं जवणदीवं च पवरमणिरयणगकोसागारसमिद्धं आरवके रोमके अ अलसंडविसयवासी अ पिक्खुरे कालमुहे जोणए अ उत्तरवेअडसं सिआओ अमेच्छजाई बहुप्पगारा दाहिणअवरेण०जाव सिंधुसागरंतो त्ति सव्वपवरकच्छं च ओअवेऊण पडिणिअत्तो बहुसमरमणिज्जे अ भूमिभागे तस्स कच्छस्स सुहणिसण्णे, ताहे ते जणवयाण णगराण पट्टणाण य जे अ तहिं सामिआ पभूआ आगरपती अ मंडलपती अ पट्टणपती अ सव्वे घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य वत्थाणि अमहरिहाणि अण्णं च जं वरिष्टुं रायारिहं जंच इच्छिअव्वं एअंसेणावइस्स उवणेति मत्थयकयंजलिपुडा, पुणरवि काऊण अंजलिं मत्थयम्मि पणया तुम्भे अम्हेऽत्थ सामिआ देवयं व सरणागया मो तुभं विसयवासिणो त्ति विजयं जंपमाणा सेणावइणा जहारिहं ठविअ पूइअ विसजिआ णिअत्ता सगाणि णगराणि पट्टणाणि अणुपविट्ठा, ताहे सेणावई सविणओ घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य पुणरवि तं सिंधुणामधेचं उत्तिण्णे अणहसासणबले, तहेव भरहस्स रण्णो णिवेएइ, णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सक्कारिअसम्माणिए सहरिसे विसज्जिए सगं पडमंडवमइगए, तते णं सुसेणे सेणावई बहाए कयबलिकम्मे कमकोउअमंगलपायच्छित्ते जिमि-अभुत्तुत्तरागए समाणे० जाव सरसगोसीसचंदणुक्खित्त-गायसरीरे उप्पिंपासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहि वत्तीसइवद्धेहिं णाढएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणचिजमाणे उवणचिजमाणे उवगिजमाणे उवगिज्जमाणे उवलालि (लमि) जमाणे उवलालि (लभि) जमाणे महयाहयणट्टगीअ-वाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइअरवेणं इतु सद्दफरिसर सरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे मुंजमाणे विहरइ / (सूत्रम् 52) 'तए णं' इत्यादि, निगदसिद्धं, नवरं सुषेणनामानं सेनापतिसेनानीरत्नमिति, किमवादीदित्याह-'गच्छाहि णं' इत्यादि, गच्छ भो देवानुप्रिय ! सिन्ध्वा महानद्याः पाश्चात्यपश्चिमदिग्वर्त्तिनं निष्कुट कोणवर्तिभरतक्षेत्रखण्डरूपम्, एतेन पूर्वदिग्वर्तिभरतक्षेत्रखण्डनिषेधः कृतो बोध्यः, इदं च कैर्विभाजकैर्विभक्तमित्याह- पूर्वस्यां दक्षिणस्यां च सिन्धुर्नदी पश्चिमाया सागरः-पश्चिमसमुद्रः उत्तरस्यां गिरिवैतादयः, एतैः कृता मर्यादाविभागरूपा तया सहितम्, एभिः कृतविभागमित्यर्थः, अनेन द्वितीयपाश्चात्यनिष्कुटात् विशेषो दर्शितः, तत्रापि समानि च समभूभागवर्तिनि विषमाणि च दुर्गभूमिकानि निष्कुटानि च-अवान्तरक्षेत्रखण्डरूपाणि ततो द्वन्द्वस्तानि च-(ओअवेहि त्ति) साधय अस्मदाज्ञाप्रवर्तननास्मद्वशान कुरु, अनेन कथनेन प्रथमसिन्धुनिष्कुटसाधनेऽल्पीयसोऽपि भूभागस्य साधने न गजनिमीलिका विधेयेति ज्ञापितम्, एवमेवाखण्डषट्खण्डक्षितिपतित्वप्राप्तेः (ओअवेत्ता) साधयित्वा अग्न्याणिसद्यस्कानि वराणिप्रधानानि रत्नानिस्वस्वजा Page #1451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1443- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह तावुत्कृष्टवस्तूनि प्रतीच्छगृहाण, प्रतीष्य च ममैतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयेति, ततः सुषेणो यथा चक्रे तथाऽऽह-'ततेणं' इत्यादि, ततो भरताऽऽज्ञानन्तरं स सुषेणः एवं स्वामिस्तथेत्याज्ञया विनयेन वचनं प्रतिशृणोति इति पर्यन्तपदयोजना, व्याख्या त्वस्य प्राग्वत्, किंभूतः सुषेणः? सेनाहस्त्यादिस्कन्धस्तद्रूपस्य बलस्य नेताप्रभुः स्वातन्त्र्येण प्रवर्तकः भरते वर्षे विश्रुतयशाः महतः-अतुच्छस्य वलस्यसैन्यस्य प्रक्रमात् भरतचक्रवर्तिसम्बन्धिनः पराक्रमो यस्मात् तथा, दृष्ट हि बलवति प्रभौ बलं बलवद्भवतीति, एतेन 'ओअंसी ति' पदे: न पौनरुक्त्य, महात्मा उदा(र) तस्वभावः, ओजस्वी आत्मना वीर्याधिकः तेजसा शारीरेण लक्षणैश्वसत्त्वाऽऽदिभिर्युक्तः, म्लेच्छभाषासुपारसीआरवीप्रमुखासु विशारदः-पण्डितः, तत्तन्म्लेच्छदेशभाषाज्ञो हि तत्तद्देशीयम्ले-च्छान् सामदानाऽऽदिवाक्यैर्वोढुं समर्थो भवति, अत एव चित्र-विविधं चारुअग्राम्यताऽऽदिगुणोपेतं भाषत इत्येवंशीलः, भरतक्षेत्रे निष्कुटाना निम्नानां च-गम्भीरस्थानानां दुर्गमानांच-दुःखेन गन्तुं शक्यानां दुष्प्रवेशानांदुःखेन प्रवेष्टु शक्यानां भूभागानां विज्ञायकस्तत्र तद्वासीव प्रचारचतुरः, अत एवैना योग्यता विभाव्यैतादृशे शासने नियुक्तः, अर्थशारत्रनीतिशास्त्राऽदि तत्र कुशलः रत्न सेनापतिः-सैन्येशेषु मुख्यः, भरतेन राज्ञा एवमुक्तः सन् हृष्टतुष्टेत्यादि प्राग्वत्, ततः स किं करोतीत्याह'पडिसुणेत्ता' इत्यादि, सर्व चैतत् पाठसिद्ध नवरं सुषेणविशेषणं सन्नद्ध शरीराऽऽरोपणात् बद्ध कसाबन्धनतः वर्मलोहकत्तलाऽऽदिरूप सञ्जातमस्येति वम्मितम् ईदृश कवचंतनुत्राणं यस्य स तथा, उत्पीडिताऽऽगाढं गुणाऽऽरोपणादृढीकृता शराऽऽसनपट्टिकाधनुर्दण्डो येनसतथा, पिनद्धं ग्रेवयंग्रीवात्राणं ग्रीवाऽऽभरणं वा येन स तथा बद्धोग्रन्थिदानेन आविद्धः परिहितो मूर्धवेष्टनेन विमलवरचिह्नपट्टोवीरातिवीरतासूचकवस्त्रविशेषो येन स तथा, पश्चात्पदद्वयस्य कर्मधारयः, गृहीतान्यायुधानि प्रहरणानि च येन स तथा, आयुधप्रहरणयोस्तु क्षेप्याक्षेप्यकृतो विशेषो बोध्यः, तत्र क्षेप्यानि बाणाऽऽदीनि अक्षेप्यानि खङ्गाऽऽदीनि, अथवा- गृहीतानि आयुधानि प्रहरणाय येन स तथेति। 'तएणं' इत्यादि-प्राग्व्याख्यातार्थ, नवरं वाक्ययोजनाया ततः सुषेणश्चर्मरत्नं परामृशतिस्पृशति, इत्यन्तं सम्बन्ध इति, एतत्प्रस्तावाच्च रत्नवर्णनमाह- 'तएणं तं' इत्यादि, तच्चर्मरत्नम् उक्तविशेषणविशिष्ट भवतीत्यन्चयः, ततो-विस्तीर्णो विस्तृतनामक इत्यर्थः, एवंविधः इनः-स्वामी चक्रवर्तिरूपो यस्य तत् ततेनं, यस्य हस्तस्पर्शतः इच्छया वा विस्तृणाति स स्वामीत्यर्थः, श्रीवत्ससदृश-श्रीवत्साऽऽकारं रूपं यस्य तत्तथा, नन्वस्य श्रीवत्साऽऽकारत्वे चत्वारोऽपि प्रान्ताः समविषमा भवन्ति तथा चास्य किरातकृतवृष्ट्युपद्रवनिवारणार्थ तिर्यविस्तृतेन वृत्ताऽऽकारेण छत्ररत्नेन सह कथं सङ्घटना स्यादिति? उच्यते-स्वतः श्रीवत्साऽऽकारमपि सहस्रदेवाधिष्ठितत्वाद्यथावसरं चिन्तिताऽऽकारमेव भवतीति न काऽप्यनुपपत्तिः, मुक्तानांमौक्तिकानां ताराणांतारकाणाम् अर्द्धचन्द्राणां चित्राणिअलिख्यानि यत्र तत्तथा, अचलं अकम्पं द्वौ सदृशार्थको शब्दावतिशयसूचकावित्यत्यन्तदृढपरिणामं चक्रिसकलसैन्याऽऽक्रान्तत्वेऽपि न / मनागपि कम्पते, अभेद्यदुर्भेदं कवचमियाभेद्यकवचं लुप्तोपमा वजपञ्जरमिव दुर्भेदमित्याशयः, सलिलासुनदीषु सागरेषु चोत्तरणयन्त्र पारगमनोपायभूतं दिव्यंदेवकृतप्रातिहार्य चर्मरत्नंचर्मसु प्रधानं, अनलजलाऽs - दिभिरनुपघात्यवीर्यत्वात्, यत्र शणंशणधान्यं सप्तदशंसप्तदशसङ्ख्यापूरकं येषुतानि शणसप्तदशानि सर्वधान्यानि रोहन्तेजायन्ते एकदिवसेनोप्तानि, अयं सम्प्रदायः-गृहपतिरत्नेवास्मिश्चर्मणिधान्यानि सूर्योदये उप्यन्ते अस्तमनसमये च लूयन्ते इति, सप्तदश धान्यानि त्विमानि- "सालि 1 जव 2 वीहि 3 कुद्दव 4, रात्नय 5 तिल 6 मुग्ग 7 मास 8 चवल : चिणा 10 / तूअरि 11 मसूरि 13 कुलत्था 13. गोहुम 14 णिप्फाव 15 अयसि 16 सणा 17 // 1 // " प्रायो बहूपयोगीनीमानीतीयन्त्युक्तानि, अन्यत्र चतुर्विंशतिरप्युक्तानि, लोके च क्षुद्रधान्यानि बहून्यपि, पुनरस्यैव गुणान्तरमाह-वर्षजलदवृष्टिं ज्ञात्वा चक्रवर्त्तिना परामृष्ट दिव्यं चर्मरत्नद्वादशयोजनानि तिर्यक् प्रविस्तृणातिवर्द्धते, तत्रोत्तरमध्यखण्डवर्तिकिरातकृतमेघोपद्रवनिवारणाऽऽदिकार्य साधिकानि-किञ्चिदधिकानि, ननु द्वादशयोजनावधि तस्थुषश्चक्रिस्कन्धावारस्यावकाशाय द्वादशयोजनप्रमाणमेवेदं विस्तृतं युज्यते किमधि-कविस्तारेण? उच्यते- चमच्छत्रयोरन्तरालपूरणायोपयुज्यते साधिकविस्तार इति / यच्चात्र प्रकरणाद् यच्छब्देनैव विशेष्या-प्राप्ती सूत्रे पुनरपि "दिव्वे चम्मरयणे' इति ग्रहणं तदालपकान्त-रव्यवधानेन विस्मरणशीलस्य विनेयस्य स्मारणार्थम, अथ प्रकृतं प्रस्तूयते- 'तंए ण' इत्यादि, ततस्तदिव्यं चर्मरत्नं सुषेणसेनापति-ना परागृष्टं-स्पृष्ट तत् क्षिप्रमेवनिर्विलम्बमेव नौभूतं-महानद्युत्ताराय नौतुल्यं जातं चाप्यभवत्, नावाकारेण जातमित्यर्थः, 'तएणं' इत्यादि, ततः- चर्मरत्ननौभवनानन्तरं सुषेणः सेनापति:- सेनानीः स्कन्धावारस्य-सैन्यस्य ये बलवाहने-हरत्यादिचतुरङ्गशिबिकाऽऽदिरूपे ताभ्यां सह वर्तते यः स सस्कन्धावारबलवाहनः नौभूतं चर्मरत्नमारोहति, सिन्धुमहानदी विमलजलस्य तुङ्गाअत्युच्चा वीचयः-कल्लोला यस्यां सा तां नौभूतेन चर्मरत्नेन बल-वाहनाभ्यां सह वर्तते, यः स सबलवाहनः, एवं सशासनो भरता-ज्ञासहितः समुत्तीर्ण इति। 'तओ महाणई तत इति कथान्तरप्रस्तावनायां महानदी सिन्धुमुत्तीर्याऽप्रतिहतशासनः अखण्डिताऽऽज्ञः सेनापतिः सेनानीः क्वचिद् ग्रामाऽऽकरनगरपर्वतान्, सूत्रे क्लीबत्वं प्राकृतत्वात्, 'खेड़े' त्यादि, सिंहावलोकनन्यायेन क्वचिच्छब्दो-त्रापि ग्राहस्तेन क्वचित् खेटमडम्बानि क्वचित्पत्तनानि तथा सिंहलकान्. सिंहलदेशोद्भवान्, बर्बरकाँश्च बर्बरदेशोद्भवान्, सर्वं च अङ्ग लोकं बलावलोकं च परमरम्यम्, इमे च द्वे अपिम्लेच्छजातीयजनाऽऽश्रयभूते स्थाने, यवनदीपं-द्वीपविशेषम्, अत्र चकाराः समुच्चयार्थाः, एवमग्रेऽपि, त्रयाणामप्यमीषां साधारणविशेषणमाह-प्रवरमणिरत्नकनकानां कोशागाराणि-भाण्डा-गाराणि तैः समृद्धभृशं भृतम्, आरबकान् आरबदेशोद्भवानोमकांश्व-रोमकदेशोद्भवान् अलसण्डविषयवासिनश्च पिक्खुरान् कालमुखान् जोनकांश्च म्लेच्छविशेषान् ‘ओअवेऊण त्ति' पदेन योगः,अथैतैः साधितैरशेषमपि निष्कुट साधितमुत नेत्याह- उत्तरःउत्तरदिग्वर्ती वैताढ्यः, इदं हि दक्षिणसिन्धुनिष्कुटान्तेन, अ Page #1452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1444 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह स्माद्वैतादय उत्तरस्यां दिशि वर्तते इत्यर्थः, तं संश्रिताः तदुत्पत्तिकायां तथा चाऽऽह- 'तते णं' इत्यादि, ततः स सुवेणः सेनापतिः ‘पहाए' स्थिताश्च म्लेच्छजातीबहुप्रकाराः उक्तव्यतिरिक्ता इत्यर्थः, अत्र सूत्रे इत्यादि प्राग्वत, जिमितो-भुक्तवान् राजभोजनविधिना भुक्त्युत्तरंक्वचिद् विभक्तिव्यत्ययःप्राकृतत्वात्, दक्षिणापरेणनैर्ऋतकोणेन यावत् / भोजनोत्तर-काले आगतः सन् उपवेशनस्थाने इति गम्यम् / अत्र सिन्धुसागरान्त इति सिन्धुनदीसङ्गतः सागरः सिन्धुसागरः, मध्यपद- यावत्पदादिदं दृश्यम्-'आयते चोक्खे परमसुईभूए' इति, अत्र व्याख्यालोपे साधुः, स एवान्तः-पर्यवसानंतावदवधि इत्याशयः, सर्वप्रवरं कच्छ आचान्तः-शुद्धोदकयोगेन कृतहस्तमुखशौचः चोक्षोलेपसिक्थाऽऽद्यच-कच्छदेश 'ओअवेऊण त्ति' साधयित्वा स्वाधीनं कृत्वा प्रतिनिवृत्तः- पनयनेन अत एव परमशुचीभूतः-अत्यर्थं पावनीभूतः, इदं च पदत्र्य पश्चादलितो बहुसमरमणीये च भूमिभागे तस्य कच्छदेशस्य सुखेन योजनायाःक्रम-प्राधान्येन 'भुत्तुरागए समाणे' इति पदात् पूर्वं योज्यम्, निषण्णः-सुस्थस्तस्थौ, स सुषेण इति प्रकरणाल्लभ्यते, ततः किं इत्थमेव शिष्टजनक्रमस्य दृश्यमानत्वात्, अन्यथा भुक्त्युत्तरकाले जातमित्याह- 'ताहे ते जणवयाण' इत्यादि, (तदि) तस्मिन् काले ते आचमनाऽऽदिक पामराणामिव जुगुप्सापात्रं स्यात्, पुनः सेनापति इति-तच्छब्दस्योत्तरवाक्ये 'सव्वे घेत्तूण' इत्यत्र योजनीयत्वेन व्यवहितः विशिनष्टिसरसेन गोशीर्षचन्दनेनोक्षिता:-सिक्ताः गात्रे शरीरे भवा सम्बन्ध आर्षत्वात्, जनपदानांदेशानां नगराणां पत्तनानां च प्रतीताना गात्राः-शरीरावयवा वक्षः प्रभृतयो यत्र तदेवंविधं शरीरं यस्य स तथा, ये च 'तहिं तत्र निष्कुटे स्वामिकाः- चक्रवर्तिसुषेण-सेनान्योरपेक्षया अत्र यच्चन्दनेन सेचनमुक्तं तन्मार्गश्रमोत्थवपुस्तापव्यपोहाय, सिक्तं हि चन्दनमङ्गुलितापविरहितत्वादतिशीतलस्पर्श भवतीति, (उप्पिं) अल्पर्द्धिकत्वेनाज्ञातस्वामिन इत्यज्ञातार्थे कप्रत्ययः, येच प्रभूता- बहूव उपरि प्रासादवरस्य सूत्रेच लुप्तविभक्तिकतया निर्देश आर्षत्वात् गतःआकराः स्वर्णाऽऽद्युत्पत्तिभुवस्तेषां पतयः मण्डलपतयोदेशकार्य - प्राप्तः स्फुटनिरिवअतिरभसाऽऽस्फालनवशाद्विदलगिरिव मृदङ्गानां नियुक्ताः पत्तनपतयश्च, ते गृहीत्वा प्राभृतानि-उपायनानि आभरणानि मईलानां मस्तकानीव मस्तकानिउपरितनभागा उभयपार्श्वे चर्मोपनअङ्गपरिधेयानि भूषणानि-उपाङ्गपरिधेयानि रत्नानि च वस्त्राणि च द्धपुटानीति तैरुपनृत्यमान इत्यादि योज्यं, अत्र करणे तृतीया, तथा महा_णि च-बहुमूल्यानि अन्यच्च यद्वरिष्ठं-प्रधानं वस्तु हस्तिरथाs द्वात्रिंशताऽभिनेतव्यप्रकारैः राजप्रश्नीयोपाङ्गसूत्रविवृतैः पात्रैर्वा बद्धःऽदिकं राजाह - राजप्राभृतयोग्यं यच एष्टव्यम् - अभिलषणीयम् एतत्सर्व उपसम्पन्नैर्नाटकैः प्रतीतैर्वरतरुणीभिः-सुभगाभिः- स्त्रीभिः भूभुजङ्गपूर्वोक्त सेनापतेरुपनयन्ति-उपढौकयन्ति मस्तककृताञ्जलिपुटाः रागेषु परममोहनत्वेन तासामेवोपयोगात् सम्प्रयुक्तैः- प्रारब्धैरुपनृत्यततस्ते किं कृतवन्त इत्याह- 'पुणरवि' ते-तत्रत्यस्वामिनः प्राभृतो मानोनृत्यविषयीक्रियमाणस्तदभिनयपुरस्सरं नर्तनात्, उपगीयमानपनयनोत्तरकाले प्रकृताञ्जलिपरित्यागान्निवर्त्तनावसरे पुनरपि मस्त स्तद्गुणगानात्, उपलभ्यमानस्तदीप्सितार्थसम्पादनात्, महता इति केऽञ्जलिं कृत्वा प्रणतानमत्वमुपागताः यूयमस्माकमत्र स्वामिनः विशेषणं प्राग्वत् इष्टान्-इच्छाविषयीकृतान् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धान प्राकृतत्वात् स्वार्थे कप्रत्ययः, तेन देवतामिव शरणाऽऽगताः स्मो वयं पञ्चविधान् मानुष्यकान्- मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान् - कामांश्व युष्माकं विषयवासिन इति विजयसूचकं वचो जल्पन्तः सेनापतिना भोगाश्च इति प्राप्तसंज्ञकान्, तत्र शब्दरूपे कामौ स्पर्शरसगन्धा भोगा यथार्ह यथौचित्येन स्थापिताः-नगराऽऽद्याधिपत्यादिपूर्वकार्येषु इति समयपरिभाषा, भुञ्जानः अनुभवन् विहरतीति। नियोजिताः पूजिता वस्त्राऽऽदिभिः विसर्जिताः-स्वस्थानगमनायानु __ अथ तमिस्रागुहाद्वारोद्घाटनायोपक्रमतेज्ञाताः-निवृत्ताः-प्रत्यावृत्ताः सन्तः स्वकानि नि-जानि नगराणि तएणं से भरहे राया अण्णया कयाई सुसेणं सेणावई सद्दावेइ, पत्तनानि चानुप्रविष्टाः। विसर्जनानन्तरं सेनापतिर्यच्चकार तदाह- 'ताहे सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छ णं खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सेणावई' इत्यादि, तस्मिन् काले सेनापतिः सविनयोऽन्तधृतस्वामिभ तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि, विहाडेत्ता क्तिको गृहीत्वा प्राभृतानि आभरणानि भूषणानि रत्नानि च पुनरपि तां मम एअमाणत्ति पच्चप्पिणाहि त्ति, तए णं से सुसेणे सेणावई सिन्धुनामधेयां महानदीमुत्तीर्णः, 'अणह' शब्दोऽक्षतपर्यायो देश्यस्ते भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठचित्तमाणदिए ०जाव नाणहम्-अक्षतं क्वचिदप्य-खण्डितं शासनम्-आज्ञा बलं च यस्य स कररयलपरिग्गहि सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु०जाव तथा, तथैव यथा यथा स्वयं साधयामास तथा तथा भरतस्य राज्ञो पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता भरहस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिनिवेदयति निवेदयित्वा प्राभृतानि अर्पयित्वा च अत्र स्थित इति गम्यम, क्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए आवासे जेणेव पोसहसाला अन्यथा क्त्वान्तपदेन सह सङ्ग तिर्न स्यात्, ततः प्रभुणा सत्कारितो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भसंथारगं संथरइ० जाव वस्वाऽऽदिभिः सन्मानितो बहुमानवचनाऽऽदिभिः सहर्षः प्राप्तप्रभुसत्का- कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पोसहसालाए रत्वात् विसृष्टः-स्वस्थानगमनार्थमनुज्ञातः स्वकंनिजं पटमण्डपं- पोसहिए बंभयारी०जाव अट्ठम भत्तंसि परिणममाणंसि पोसहदिव्यपटकृतमडपं मध्यपदलोपी समासः, पटमण्डपोपलक्षितं प्रासादं वा सालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव मज्जणधरे अतिगतः-प्राविशत्, अथ स्वकाऽऽवासप्रविष्टो यथा सुषेणो विललास | तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहाए कयवलिकम्मे कयको Page #1453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1445 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह उअमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पादेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालं कियसरीरे धूवपुफ्फगंधमल्लहत्थगए मजणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा तेणेव पहारेत्थ ममणाए, तए णं तस्स सुसेणस्स सेणावइस्स बहवे राईसरतलवरमाडं विअन्जाव सत्थवाहप्पभियओ अप्पेगइआ उप्पलहत्थगया ०जाव सुसेणं सेणावई पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छंति, तए णं तस्स सुसेणस्स सेणावइस्स बहूईओ खुज्जाओ चिलाइआओ जाव इंगिअचिंतिअपत्थिअविआणिआउ णिउणकु सलाओ विणीआओ अप्पेगइआओ कलसहत्थगयाओ जाव अणुगच्छंतीति / तए णं से सुसेणे सेणावई सव्विड्डीए सव्वजुई०जाव णिग्घोसणाइएणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिलस्स दुवारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए पणामं करेइ, करित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे लोमहत्थेणं पमन्जइ, पमजित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खित्ता सरसैणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितले चन्चए दलइ, दलित्ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहि अमल्लेहि अ अचिणेइ, अचिणेत्ता पुप्फारुहणं जाव वत्थारहणं करेइ, करेत्ता आसत्तोसत्तविपुलवट्ट०जाव करेइ, करिता अच्छेहि सण्हेहिं रययामएहिं जच्छरसातंडुलेहिं तिमिस्सगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडाणं पुरओ अट्ठऽट्ठमंगलाए आलिहइ, तं जहासोत्थियसिरिवच्छ०जाव कयग्गहगहिअकरयलपब्भट्टचंदप्पभवइरवेरुलिअविमलदंडंजाव धूवं दलयइ, दलयित्ता वाम जाणु अंचेइ अचेत्ता करयल०जाव मत्थए अंजलिं कटु कवाडाणं पणामं करेइ, करित्ता दंडरयणं परामुसइ, तए णं तं दंडरयणं पंचलइ वइरसारमइअं विणासणं सव्वसत्तुसेण्णाणं खंधावारे णरवइस्स गडदरिविसमपन्भारगिरिवरपवायाणं समीकरणं संतिकरं सुभकरं हितकरं रण्णो हिअइच्छिअमणोरहपूरणं दिव्वमप्पडिहयं दंडरयणं गहाय सत्तट्ठ पयाई पच्चीसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे दंडरयणेणं महया महया सद्देणं तिक्खुत्तो आउहेइ। तएणं तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सुसेणसेणावइणा दंडरयणेणं महया महया सद्देणं तिक्खुत्तो आउडिआ समाणा महया महया सद्देणं कर्को चारवं करेमाणा सरसरस्स सगाई सगाई ढाणाई पच्चोसक्कित्था, तए णं से सुसेणे सेणावई तिमिसगुहाएदाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाहे विहाडेइ, विहाडेत्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता०जाव भरहं रायं करयलपरिग्गहिअंजएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं बयासी-विहाडिआणं देवाणुप्पिआ! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कबाडा एअण्णं देवाणुप्पिआणं पिअंणिवेएमो, पिअं भे भवउ, तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अंतिए एअमटुं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठचित्त-माणंदिए०जाव हिअए सुसेणं सेणावई सकारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता कोडंबिअपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेइ, हयगयरहपवर तहेव०जाव अंजणगिरिकूडस-ण्णिभं गयवरं णरवई दुरूढे / (सूत्रम्-५३) 'तए णं से भरहे राया अण्णया' इत्यादि, एतच्च निगदसिद्धं, सम्बन्धसन्तत्यव्युच्छित्यर्थ संस्कारमात्रेण विव्रियते, ततः स भरतो राजा अन्यदा कदाचित् सुषेण सेनापति शब्दयति-आकारयति, शब्दयित्या चैवमवादीत्- गच्छ क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ विघाटय-सम्बद्धौ वियोजय उद्घाटयेति यावत्, ममैतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पय, तएणं' इत्यादि, अत्र भरताऽऽज्ञाप्रतिश्रवणाऽऽदिकं मजनगृहप्रतिनिष्क्रमणान्तं प्राग्वद् व्याख्येयं, नवरं यत्रैव तमिस्त्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ तत्रैव गमनाय प्रधारितवान्-गमनसङ्कल्पमक-रोत् 'तए णं' इत्यादि, ततस्तमिस्रागुहागमनसङ्कल्पकरणानन्तरं तस्य सुषेणस्य बहवो राजेश्वराऽऽदयो जनाः सुषेणं सेनापति पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति, सर्व चात्र भरतस्य चक्ररत्नाचर्चा चिकीर्षारिव वाच्यम्, एवं चेटीसूत्रमपि पूर्ववदेव,नवरं किंलक्षणाश्चेट्यः? इङ्गितेननयनाऽऽदिचेष्टयैव आस्तां कथनाऽऽदिभिः चिन्तितं-प्रभुणा मनसि संकल्पितं यद्यत्प्रार्थितं तत्तत् जानन्ति यास्ताः तथा निपुणकुशलाःअत्यन्तकुशलाः तथा विनीता-आज्ञाकारिण्यः अप्येकका बन्दनकलशहस्तगता इत्यादि, 'तए णं' इत्यादि, ततस्तमिस्रागुहाभिमुखचलनानन्तरं सं सुषेणः सेनापतिः सर्व्वद्धर्या सर्वयुक्त्या सर्वद्युत्या वा यावन्निर्घोषनादितेन यत्रैव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ तत्रैवोषागच्छति, उपागत्य च आलोकेदर्शने प्रमाणं करोति, तदनु सर्व चक्ररत्नपूजायामिव वाच्यं, यावदन्ते पुनरपि कपाटयोः प्रणामं करोति, नमनीयवस्तुन उपचारे क्रियमाणे आदायन्ते च प्रणामस्य शिष्टव्यवहारौचित्यात् प्रणामं कृत्वा च दण्डरत्नं परामृशति, अथावसराऽऽगतं दण्डरत्नस्वरूपं निरूपयन् कथा प्रबध्नाति- 'तएण' इत्यादि, सतोदण्डरत्नपरामर्शानन्तरं तद्दण्डरत्नंदण्डेषु दण्डजातीयेषु रत्नम्उत्कृष्टम् अप्रतिहतं- क्वचिदपि प्रतिधातमनापन्नं दण्डनामकं रत्नं गृहीत्वा सप्ताष्ट- पदानि प्रत्यवष्यष्कते अपसर्पतीत्यनेन सम्बन्धः, अथ कीदृशं तदित्याह- रत्नमय्यः पञ्चलतिकाः-कत्तलिकारूपा अवयवा यत्र तत्तथा, वज्ररत्नस्य यत्सारं-प्रधानद्रव्यं तन्मयं तद्दलिकमित्यर्थः, विनाशनं सर्वशत्रुसेनानां, नरपतेः स्कन्धावारे प्रस्तावाद् गन्तुं प्रवृत्ते सति Page #1454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह गाऽऽदीनि प्राग्मारान्तपदानि प्राग्वत्,गिरयः-पर्वताः, अत्र वि- तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ एतद्देवानुप्रियाणां प्रियं शेषणानभिधानेऽपि प्रस्तावाद् गिरिशब्देन क्षुद्रगिरयो ग्राह्याः, ये निवेदयामः, अत्र निवेदकस्य सेनानीरत्नस्यैकत्वात् क्रियायाम एकसञ्चरतः सैन्यस्य विघ्नकराः यात्रोन्मुखानां राज्ञा त एवोच्छेद्याः, वचनस्यौचित्ये यन्निवेदयाम इत्थत्र बहुवचनं तत्सपरिकरस्याप्यात्मनो महागिरयस्तु तेषामपि संरक्षणीया एव, प्रपातागच्छज्जनस्खल-नहेतवः निवेदकत्वख्यापनार्थ तच बहूनामेकवाक्यत्वेन प्रत्ययोत्पादनार्थम्, पाषाणाः भृगवो वा तेषां समीकरण समभागाऽऽपादक-मित्यर्थः, एतत प्रियम्-इष्टम् (भे)-भवतां भवतु, ततो भरतः किं चक्रे इत्याहशान्तिकरम्-उपद्रवोपशामक,ननु यधुपद्रवोपशामकंतर्हि सति दण्डरत्ने 'तए ण' इत्यादि, व्यक्तम्। सगरसुतानां ज्वलनप्रभनागाधिपकृतोपद्रवो न कथमुपशशामेति? गजाऽऽरूढः सन्यन्नृपतिश्चक्रे तदाहउच्यते-सोपक्रमोपद्रवविद्रावण एव तस्य सामर्थ्यात्, अनुपक्रमोपद्रवस्तु तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ, तोतं चउरंगुसर्वथाऽनपासनीय एव, अन्यथा विजयमाने वीरदेवे कुशिष्यमुक्ता लप्पमाणमित्तं च अणग्धं तंसिअं छलंसं अणोवमजुइं दिव्वं तेजोलेश्या सुनक्षत्रसर्वानुभूती अनगारौ कथं भस्मतां निनाय? अत मणिरयणपतिसमं वेरुलिअं सव्वभूअकंतं जेण य मुद्धागएणं एवावश्यंभाविनो भावा महानुभावैरपि नापनेतुं शक्या इति, शुभकरं दुक्खं ण किंचि जाव हवइ, आरोग्गे अ सव्वकालं तेरिच्छिकल्याणकर हितकरम्-उक्तैरेव गुणैरुपकारिराज्ञः- चक्रवर्तिनो हृदयेप्सि अदेवमाणुसकया य उवसग्गा सव्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, तमनोरथपूरकं गुहाकपाटोद्घाटनाऽऽदिकार्यकरणसमर्थत्वात् दिव्यं संगामेऽवि असत्थवज्झो होइणरो मणिवरं धरतो ठिअजोव्वणयक्षसहस्रा-धिष्ठितमित्यर्थः, अत्र सेनापतेः सप्ताऽष्टपदाऽपसरणं केसअवट्ठिअणहो हवइ अ सव्वभयविप्पमुक्को, तं मणिरयणं प्रजिहीर्षो र्गजस्येव दृढप्रहारदानायाधिकप्रहारकरणार्थमिति, प्रत्यव- गहाय से णरवई हत्थिरयणस्सदाहिणिल्लाए कुंभीए णिक्खिवइ, ष्वष्कणादनु किं चक्रे इत्याह- ‘पच्चोसक्कित्ता' इत्यादि, प्रत्यवष्वष्क्य तए णं से भरहाहिवे णरिंदे हारोत्थए सुकयरइअवच्छे०जाव च तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ दण्डरत्नेन महता महता अमरवइसण्णिभाए इद्धीए पहियकित्ती मणिरयणक उज्जोए शब्देन त्रिकृत्वः-त्रीन् वारान् आकुट्टयति-ताडयति, अत्र इत्येभावे चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायसहस्साणु-आयमग्गे महया तृतीया, यथा महान शब्द उत्पद्यते तथाप्रकारेण ताडय-तीत्यर्थः, अत्र उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूअंपिव करेमाणे गुहाकपाटोद्घाटनसमये द्वादशयोजनावधिसेनानीरत्नतुरगापसरण- करेमाणे जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ, प्रवादस्तु आवश्यकटिप्पनके निराकृतोऽस्ति, यथा- 'यश्वात्र द्वादश उवागच्छित्ता तिमिसगुहं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अईइ ससि व्व योजनानि तुरगाऽऽरूढः सेनापतिः शीघ्रमपसरती'' त्यादिप्रवादः मेहंधयारनिवहं / तए णं से भरहे राया छत्तलं दुवालसंसिअं सोऽनागामिक इव लक्ष्यते, क्वचिदप्यनुपलभ्यमानत्वादिति, ततः किं अट्ठकण्णिअं अहि-गरणिसंठिअं अट्ठसोवण्णि कागणिरयणं जातमित्याह- 'तए ण' इत्यादि, ततः-ताडनादनु तमिसागुहाया परामुसइ त्ति / तए णं तं चउरंगुलप्पमाणमित्तं अट्ठसुवण्णं च दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य कपाटौ सुषेणसेनापतिना दण्डरत्नेन महता महता विसहरणं अउलं चउरंससंठाणसंठिअंसमतलं माणुम्माणजोगा शब्देनाऽऽकुट्टितौ सन्तौ महता महताशब्देन दीर्घतरनिनादिनः क्रौश्वस्येव / जतो लोगे च रंति सव्वजणपण्णवगा, ण इव चंदो ण इव तत्थ बहुव्यापित्वाद् बनुनादितत्वाच्च य आरवः-शब्दस्तं कुर्वाणौ 'सरसर- सूरे ण इव अग्गीण इव तत्थ मणिणो तिमिरं णार्से ति अंधयारे स्स त्ति' अनुकरणशब्दस्तेन तादृशं शब्दं कुर्वाणौ कपाटावित्यर्थः स्वके जत्थ तयं दिव्वं भावजुत्तं दुवालसजोअणाई तस्स लेसाउ स्वके स्वकीये स्वकीये स्थानेऽवष्टम्भभूततोडुकरूपे यत्राऽऽगतावचल- विवद्धंति तिमिरणिगरपडिसेहि-आओ, रत्तिं च सव्वकालं तया तिष्ठत इति ते यावत् प्रत्यवाष्वष्किषाता-प्रत्यपससर्पतुः, 'तए खंधावारे करेइ आलोअंदिवसभूअं जस्स पभावेण चक्कवट्टी, णं' इत्यादि, इदं च सूत्रमावश्यकचूर्णी वर्द्धमानसूरिकृताऽऽदिचरित्रे च न | तिमिसगुहं अतीति सेण्णसहिए अभिजेत्तुं बितिअमद्धभरहं दृश्यते, ततोऽनन्तरपूर्वसूत्र एव कपाटोद्धाटनमभिहितं, यदि चैतत्सूत्रा- रायवरे कागणिं गहाय तिमिसमुहाए पुरच्छिमिल्लपञ्चच्छिमिल्लेसुं ऽदर्शानुसारेणेदं सूत्रमवश्यं व्याख्येयं तदा पूर्वसूत्रे "सगाईसगाइंठाणाई" कडएसुं जोअणंतरिआई पंचधणुसयविक्खंभाइं जोअणुजोइत्यत्राऽऽर्षत्वात् पञ्चमी व्याख्येया, तेन स्वकाभ्यां स्वकाभ्यां स्थानाभ्या अकराइं चक्कणेमीसंठिआईचंदमंडलपडिणिकासाई एगूणपण्णं कपाटद्वयसंमीलनाऽऽस्पदाभ्यां प्रत्यवस्तृतावितिकिञ्चिद्विकसिता- मंडलाइं आलिहमाणे आलिहमाणे अणुप्पविसइ, तए णं सा वित्यर्थः, तेन विघाटनार्थकमिदं न पुनरुक्तमिति, ततः-कपाटप्रत्य- तिमिसगुहा भरहेणं रण्णा तेहिं जोअणंतरिएहिं०जाव जोअणुपसर्पणादनु स सुषेणः सेनापतिः तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्यस्य द्वारस्य | जोअकरेहिं एगूणपण्णाए मंडेलहिं आलिहिज्जमाणेहिं आलिहिकपाटौ विघाटयति उद्घाटयति, ततः किं कृतमित्याह- "विहाडेत्ता' जमाणेहिं खिप्यामेव अलोगभूआ उज्जोअभूआ दिवसभूआ जाया इत्यादि, प्रायः प्राग् व्याख्याज्ञार्थं, नवरं विघाटितौ देवानुप्रियाः ! | यावि होत्था। (सूत्रम्-५४) Page #1455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1447 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह 'तएणं से भरहे राया मणिरयण' इत्यादि, ततः स भरतो राजा मणिरत्नं परामृशति, किंविशिष्टम् इत्याह- 'तोतं' इति सम्प्रदायगम्यं चतुरड्गुलप्रमाणा मात्रा दैर्येण यस्य तत्तथा, चशब्दाद् व्यगुड्लपृथुलमिति ग्राहां, यदाह- 'चतुरंगुलो दुअंगुलपिहलो अ मणी' इति, अनर्धितम् अमूल्यं न केनापि तस्यार्घः कर्तुं शक्यते इत्यर्थः, तिस्रोऽसयः-कोटयो यत्र तत्तथा, ईदृश सत्षडसंषट्-कोटिक लोकेऽपि प्रायो वैडूर्यस्य मृदङ्गाऽऽकरत्वेन प्रसिद्धत्वान्मध्ये उन्नतवृत्तत्वेनान्तरितस्य सहजसिद्धस्योभयान्तवर्त्तिनोऽखित्रयस्य सत्वात् / अत्राऽऽह- षडसमित्यनेनैव सिद्धे त्र्यषडसमिति किमर्थम्? उच्यते-उभयोरन्तयोर्निरन्तर-कोटिषट्कभवनेनापि षडराता सम्भवति ततस्तद्व्यवच्छंदार्थं त्र्यसं सत्षडरसमित्युक्तं, तथा अनुपमद्युति दिव्यं मणिरत्नेषु पूर्वोक्तेषु पतिसमं सर्वोत्कृष्टत्वात्, वैडूर्य वैडूर्यजातीयमित्यर्थः, सर्वेषां भूतानां कान्तं काम्यम्, इदमेव गुणान्तरकथनेन वर्णयन्नाह- 'जेण य मुद्धागएण' इत्यादि, येन मूर्द्धगतेनशिरोधृतेन हेतुभूतेन न-किशिद्दुःखं जायते आरोग्यं च सर्वकालं भवति, तिर्यदेवमनुष्यकृताः, चशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धादुपसर्गाश्व, सर्वे न कुर्वन्तितस्य दुःखं, संग्रामेऽपि च-बहुविरोधिसमरे आस्तामल्पविरोधिसमरे अशस्त्रवध्यः, अत्र न शस्त्रवध्योऽशस्त्रवध्य इति नसमासो या 'अः स्वल्पार्थे ऽप्यभावेऽपि' इत्यनेकार्थवचनात् अ इति पृथगेव नसमानार्थनिपातो वा ज्ञेयस्तेन न शस्त्रैर्वध्यो भवति, नरो मणिवरं धरन स्थितं विनश्वरभावमप्राप्त यौवनं यस्य स तथा, स्थायियौवन इत्यर्थः, केशैः सहावस्थिता-अवद्धिष्णवो नखा यस्य स तथा पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः, भवति च सर्वभयविप्रमुक्तः, 'अत्र सर्व भाजनस्थं जलं पीतम्' इत्यदाविव एकदेशेऽपि सर्वशब्दप्रयोगस्य सुप्रसिद्धत्वाद्देवमनुष्याऽऽदिप्रतिपक्षोत्थं भयमिह ज्ञेयम्, अन्यथा-ऽश्लोकाऽऽदिभयानि महतामेव भवेयुरिति, अथैतद् गृहीत्वा नृपतिर्यच्चकार तदाह'तं मणि ति' तन्मणिरत्नं गृहीत्वा स नरपतिर्भरतो हस्तिरत्नस्य दाक्षिणात्ये कुम्भे निक्षिपति-निबध्नाति, 'कुभीए' इत्यत्र स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, 'तएणं' इत्यादि, ततः स भरताधिपो नरेन्द्रो हारावस्तृतेत्यादिविशेषणकदम्बकं प्राग्वत् मणिरत्नकृतोद्योतश्चक्ररत्नदेशितमार्गो यावत् समुद्ररवभूतामिव गुहामिति गम्यं कुर्वन् कुर्वन् यत्रैव तमिस्रागुहाया दाक्षिणात्य द्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च तमिस्रागुहा दाक्षिणात्येन द्वारेणात्येतिप्रविशति, शशीव मेघान्धकारनिवहम् / प्रवेशानन्तरं यत्कृत्य तदाह- 'तएणं' इत्यादि, ततः भरतो राजा काकणीरत्नं परामृशतीत्युतरेण सम्बन्धः, किंविशिष्टमित्याह- चत्वारि चतसृषु दिक्षु द्वे तूर्ध्वमधश्वेत्येवं षट्सङ्ख्याकानि तलानियत्र तत्तथा, तानि चात्र मध्यखण्डरूपाणि यभूमावविषमतया तिष्ठन्तीति, द्वादश अध उपरि तिर्यक् चतसृष्यपि दिक्षु प्रत्येक चतसृणामश्रीणां भावात् अश्रयः-कोटयो यत्र तत्तथा, कर्णिकाःकोणाः यत्र अश्रित्रयं मिलति तेषां चाध उपरि प्रत्येकं चतुर्णा सद्भावादष्टकर्णिकम्, अधिकरणिः-सुवर्णकारोपकरणं तद्वत् संस्थित- | संस्थान यस्य तत्तथा, तत्सदृशाऽऽकार समचतुरस्त्रत्वात्, आकृतिस्वरूप निरूप्यास्य तौल्यमानमाह-अष्टसुवर्णा मानमस्येत्यष्टसौवर्णिक, तत्र सुवर्णमानमिदं चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः श्वेतसर्षपः, षोडश श्वेतसर्षपा एक धान्यमाषफलम, द्वे धान्यमाषफले एका गुञ्जा, पञ्च गुञ्जा एकः कर्ममाषकः, षोडश कर्ममाषकाः एकः सुवर्ण इति, एतादृशैरष्टभिः सुवर्ण : काकणीरत्न निष्पद्यते इति, अत्र चाधिकारे "एतानि च मधुरतृणफलाऽऽदीनि भरतचक्रवर्त्तिकालसम्भवीन्येव गृह्यन्ते, अन्यथा कालभेदेन तद्वैषम्यसम्भवे काकणीरत्नं सर्वचक्रिणां तुल्यं न स्यात्, तुल्यं चेष्यते तत्," इत्येतस्मादनुयोगद्वारवृत्तिवचनात् एतद्देशीयादेव स्थानाङ्गवृत्ति-वचनात्, 'चउरंगुलो मणी पुण, तस्सऽद्धं चेवहोइ विच्छिण्णो / चउरंगुलप्पमाणा, सुवण्णवरकागणी नेया" ||1|| इहाङ्गुलंप्रमाणडगुलमवगन्तव्यं, "सर्वचक्रवर्त्तिनामपि काकण्यादिरत्नानां तुल्यप्रमाणत्वादिति '' मलयगिरिकृतबृहत्संग्रहणीबृहदवृत्तिवचनाच्च केचनास्य प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नत्वं, केचिच्च- "एगमेगस्स ण रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिणो अट्टसोवण्णिए कागणिरयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्ठकण्णिए अहिंगरणिसंठाणसंठिएपण्णत्ते, एगमेगाकोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं'' इत्यनुयोगद्वारसूत्रबलादुत्सेधागुलनिष्पन्नत्वं, केऽपि च एतानि सप्तैकेन्द्रियरत्नानि सर्वचक्रवर्त्तिनामात्माङ्गुलेन ज्ञेयानि, शेषाणि तु सप्त पञ्चेन्द्रियरत्नानि तत्कालीनपुरुषोचितमानातीति प्रवचनसारोद्धारवृत्तिबलादात्माड्गुलनिष्पन्नत्वमाहुः, अत्र च पक्षत्रये तत्त्वनिर्णयः सर्वविद्वेद्यः, अत्र तु बहु वक्तव्यं तत्तु ग्रन्थगौरवभिया नोच्यते इति। अस्य परामर्शानन्तरं यच्चक्रे तदाह- 'तएण' इत्यादि, ततः- परामर्शानन्तरं तत्काकणीरत्नं राजवरो गृहीत्वा यावदेकोनपञ्चाशतं मण्डलान्यालिखन्नालिखन अनुपविशतीत्युत्तरेण सम्बन्धः, कथम्भूतमित्याह-चतुरङ्गुलप्रमाणमात्रम्, अस्यैकैका अनिश्चतुरडगुलप्रमाणविष्कम्भा द्वादशाप्यश्रयः प्रत्येकं चतुरड्गुलप्रमाणा भवन्ती त्यर्थः, अस्य समचतुरस्रत्वादायामो विष्कम्भश्च प्रत्येकं चतुरङ्गुलप्रमाण इत्युक्तं भवति, यैवाश्रिरूर्वीकृता आयाम प्रतिपद्यते सैव तिर्यग्व्यवस्थापिता विष्कम्भभाग भवतीत्यायामविष्कम्भयोरेकतरनिर्णयेऽप्यपरनिर्णयः स्यादेवेति सूत्रे विष्कम्भस्यैव ग्रहणं, तद्ग्रहणे चाऽऽयामोऽपि गृहीत एव समचतुरसत्वात्तस्येति, तदेवं सर्वतश्चतुरङ्गुलप्रमाणमिदं सिद्धं यत्तु तस्सणं एगमेगा कोडी उस्सेहगुलविक्खंभा तं च समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धगुल,' इत्यनुयोगद्वारसूत्रे उक्तं तन्मतान्तरमवसेयं, तथाऽष्टभिः सुवर्णर्निष्पन्नमष्टसुवर्णम्, अष्टसुवर्णमूलद्रव्येण निष्पन्नमित्यर्थः, चकारो विशेषणसमुच्चये सर्वत्र, तथा विषं जङ्ग माऽऽदिभेदभिन्नं तस्य हरणं, स्वर्णाष्टगुणानां मध्ये विषहरणस्य प्रसिद्धत्वात्, अस्य च तथाविधस्वर्णमयत्वादिति, अतुलंतुलारहितम नन्यसदृशमित्यर्थः, चतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितमिति तु विविशेषण पूर्वोक्ताधिकरणिदृष्टान्तेन भाव्यमिति, ननु अधिकरणिदृष्टान्ते भाव्यमाने नास्य पूर्वोक्ता चतुरङ्गुलतोपपद्येत Page #1456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1448 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह अधिकरणेरधः सङ्कुचितत्वेन विषमचतुरस्रत्वादित्याह- समतलमिति, समानि न न्यूनाऽधिकानि तलानि षडपि यस्य तत्तथा, अथैतदेव यच्छब्दगर्भितवाक्यद्वारा विशिनष्टियतः काकणीरत्नात् मानोन्मान (प्रमाण) योगाः-एते मानविशेषव्यवहारा लोके चरन्ति; प्रवर्त्तन्ते इत्यर्थः, तत्र मानं धान्यमानं सेतिकाकुडवाऽऽदि, रसमान चतुःषष्टिकाऽऽदि, उन्मानं कर्षपलाऽऽदिखण्डगुडाऽऽदि-द्रव्यमानहेतुः उपलक्षणात् सुवर्णाऽऽदिमानहेतुः प्रतिमानमपि ग्राह्य गुजाऽऽदि, किंविशिष्टास्ते व्यवहाराः?सर्वजनानाम्-अधमर्णोत्तमर्णाना प्रज्ञापकाः, मेयद्रव्याणमियत्तानिर्णायकाः, अयमाशयः-यथा सम्प्रति आप्तजनकृतनिर्णयाङ्क कुडवाऽऽदिमानं जनप्रत्यायकं व्यवहारप्रवर्तकं च भवति तद्वच्चक्रवर्तिकाले कारणिकपुरुषैः काकणीरत्नाङ्कितं तत्तादृशं भवेदित्यर्थः, यच्छब्दगर्भेणैव वाक्येन माहात्म्यान्तरमाह-नापि चन्द्रः तत्र तिमिरं नाशयतीति योजनीयं, न वा सूर्यः- अत्र इक्यिालङ्कारे, एवं सर्वत्र, नवाऽग्निर्दीपाऽऽदिगतः न वा मणयस्तत्र तिमिर नाशयन्ति; प्रकाश कर्तुमलम्भूष्णव इत्यर्थः, यत्रान्धकारे अन्धकारयुक्तत्वेनाभेदोपचारात् अन्धकारमत्रास्तीति अभ्राऽऽदित्वादप्रत्ययविधानाद्वा अन्धकारवति गिरिगुहाऽऽदौ तकत्- काकणीरत्नं दिव्यंप्रभावयुक्तं तिमिरं नाशयति, अथ यदीदं प्रकाशयति तदा कियत् क्षेत्र प्रकाशयतीत्याह- द्वादश योजनानि तस्य लेश्याः- प्रभा विवर्द्धन्ते, अमन्दाः सत्यः प्रकाशयन्तीत्यर्थः, किंविशिष्टा लेश्या? तिमिरनिकरप्रतिषेधिकास्तमिस्राऽऽदिगुहायाः पूर्वापरतो द्वादशयोजनविस्तारयोस्तासां प्रसरणात् रत्तिं च त्ति' प्रथमान्तयच्छब्दाध्याहारादर्थवशाद्विभक्तिपरिमाणाच्च यद्रत्न रात्री 'चो' वाक्यान्तराऽऽरम्भार्थः सर्वकालं स्कन्धावारे दिवससदृशं, यथा दिवसे आलोकस्तथा रात्रावपीत्यर्थः, आलोकं करोति, यस्य प्रभावेण चक्रवर्ती तमित्रां गुहाम् अत्येति-प्रविशति सैन्यसहितो द्वितीयमर्द्धभरतमभिजेतुम् उत्तरभरतं वशीकर्तुमित्यर्थः, चात्रान्तरायच्छन्दगर्भितवाक्यावतारेण वाक्यान्तरप्रवेशो नाम सूत्रदूषणमिति वाच्यम्. आर्षत्वात् तस्यादुष्टत्वेन शिष्टव्यवहारात्, यथा आर्षे छन्दस्सुवर्णाऽऽद्याधिक्याऽsदावपि न छन्दोभ्रष्टत्वदोषो, महापुरुषोपज्ञत्वेनाय॑त्वात्, तथैव शिष्टव्यवहारात, राजवरोभरतः कागणिं ति पदैकदेशे पद-समुदायोपचारात् काकणीरत्नं गृहीत्वालात्वा तमिस्त्रागुहाया पौरस्त्यपाश्चात्ययोः कटकयोः-भित्त्योः प्राकृतत्वाद्विवचने बहुवचनं, योजनान्तरितानि प्रमाणाड्गुलनिष्पन्नयोजनमपान्तराले मुक्त्वा कृतानीत्यर्थः, अवगाहनापेक्षयोत्सेधागुलनिष्पन्नपञ्चधनुःशतमानविष्कम्भाणि, वृत्तत्वाद् विष्कम्भग्रहणेनाऽऽयामोऽपि तावानेवावगन्तव्यः, उत्सेधाड्गुलप्रमीयमाणावगाहनाकेन चक्रिणा हस्तात्तत्काकणीरत्नेन क्रियमाणत्वान्मण्डलानामयं च मण्डलावगाहाः स्वस्वप्रकाश्ययोजनमध्ये एव गण्यते, अन्यथा 46 मण्डलानामवगाहे पिण्डीक्रियमाणे गुहाभित्योरामाय / उक्तप्रमाणाधिकप्रमाणः प्रसज्येतेति, अत एव च योजनोद्योतकराणि- 1 योजनमात्रक्षेत्रप्रकाशकानि, यावन्मण्डलान्तरालं तावन्मण्डलप्रकाश्यं गुहाभित्तिक्षेत्रमित्यर्थः, चक्रस्य नेमिः-परिधिस्तत्संस्थानानि वृत्तानीत्यर्थः तथा चन्द्रमण्डलस्य प्रतिनिकाशानिभास्वरत्वेन सदृशानि, एकोनपञ्चाशतं मण्डलानि वृत्तहिरण्यरेखारूपाणि, काकणीरत्नस्य सुवर्णमयत्वात्, आलिखन् 2 विन्यस्यन् 2 अनुप्रवशिति गुहामिति प्रकरणाद ज्ञेयं, वीत्सावचनमाभीक्ष्ण्यद्योतनार्थ , मण्डलाऽऽलिखनक्रमश्वायंगुहायां प्रविशन् भरतः पाश्चात्यपान्थजनप्रकाशकरणाय दक्षिणद्वारे पूर्वदिकपाटे प्रथमं योजन मुक्त्वा प्रथम मण्डलमालिखति ततो गोमूत्रिकान्यायेनोत्तरतःपश्चिमदि-क्क्याटतोडके तृतीययोजनाऽऽदौ द्वितीयमण्डलमालिखति, ततस्तेनैव न्यायेन पूर्वदिक्कपाटतोडुके चतुर्थयोजनाऽऽदौ तृतीयं, ततः पश्चिमदिग्भितौ पञ्चमयोजनाऽऽदौ चतुर्थं , ततः पूर्वदिग्भित्तौ षष्ठयोजनादौ पञ्चम, ततः पश्चिमदिभित्तौ सप्तमयोजनाऽऽदौ षष्ठं, ततः पूर्वदिग्भित्तौ अष्टमयोजनादौ सप्तमम्, एवं तावद् द्वाच्यं यावदष्टचत्वारिंशत्तममुत्तरदिग्द्वारसत्कपश्चिमदिक्कपाटे प्रथमयोजनाऽऽदौ एकोनपञ्चाशत्तमं चोत्तरदिग्द्वारसत्कपूर्वदिकपाटे द्वितीययोजनाऽऽदावालिखति, एवमेकस्यां भित्तौ पञ्चविंशतिरपरस्यां चतुर्विशतिरित्येकोनपञ्चाशन्भण्डलानि भवन्ति, एतानि च किल गुहायां तिर्यम् द्वादश योजनानि प्रकाशयन्ति, ऊर्ध्वाधोभावेन चाष्टौ योजनानि, गुहाया विस्तरोच्चत्वस्य च क्रमेण एतावत एव भावात्, अग्रतः पृष्टतश्च योजनं प्रकाशयन्तीति, ननु गोमूत्रिकाविरचनक्रमेण मण्डलाऽऽलिखने कथमेषां योजनान्तरित्वं? यद्येकभित्तिगतमण्डलापेक्षया तर्हि योजनद्वयान्तरितत्वमापद्येत, अन्यथा द्वितीयमण्डलस्यैकभित्तिगतत्वप्रसङ्गः, तथा च सति गोमूत्रिकाभङ्गः, अन्यभित्तिगतमण्डलापेक्षया तु तिर्यक् साधिकद्वादशयोजनान्तरितत्वमिति, उच्यते- पूर्वभित्तौ प्रथमं मण्डलमालिखति, ततस्तत्सम्मुखप्रदेशापेक्षया योजनातिक्रमे द्वितीयमण्डलमालिखति, ततस्तत्समुखप्रदेशापेक्षया योजनातिक्रमे पूर्वभित्तौ तृतीयमण्डलमालिखतीत्यादिक्रमेण मण्डलकरणात् गोमूत्रिकाऽऽकारत्वं योजनान्तरित्वं च व्यक्तमेवेति सर्व सुरथम्, अथ पञ्चाशयोजनाऽऽयामाया गुहायामेकोनपञ्चाशता मण्डलैर्यत्प्रकाशकरणमुक्तमित्यस्यार्थस्य सुखावबोधाय संक्षेपेण मण्डलपञ्चकस्य स्थापनादय॑ते, यथा-एवं षट्कोष्ठकपरिकल्पितषड्योजनक्षेत्रे एकस्मिन् पक्षे त्रीणि अन्यत्र तु द्वे इत्युभयमीलने पञ्च मण्डलानि भवन्ति, एवमनेन गोमूत्रिकामडण्लकविरचनक्रमेण पञ्चाशद्योजनायामऽऽयां गुहायामेकोनपञ्चाशतोऽपि मण्डलकानां स्थापना स्वयं ज्ञेयेति, अन्ये तु पूर्वदिक्कपाटे आदौ योजनं मुत्वा प्रथमं मण्डलं करोति, ततः पश्चिमदिक्कपाटे तत्सम्मुखं द्वितीयं, ततः पूर्वदिक्कपाटगतप्रथममण्डलादुतरतोयोजनं मुक्त्वा पूर्वदिक्कपाटतोडकेतृतीयं, ततः पश्चिमदिक्कपाटतोडकेतत्सम्मुखं चतुर्थम्, ततः पूर्वदिक्कपाटतोडुकेतृतीयान्मण्ङलाद्योजनं मुक्त्वा पञ्चमं, ततस्तत्सम्मुखं पश्चिमदिक्कपाटतोडुके षष्ठ, पुनस्तावतैवान्तरालेन पूर्वदिग्भित्तौ सप्तम, ततस्तत्सम्मुखं पश्चिमदिग्भित्तौ अष्टमं, ततः पूर्वदिग्भित्तौ सप्तमान्मण्डलाद्योजनान्तरे नवमं, ततः पश्चि Page #1457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह मभित्तौ अष्टमात् तावतैवान्तरालेन दशममित्येवं पूर्वभित्तौ पश्चिमभित्तौ च मण्डलान्यालिखंस्तावद् गच्छति यायचरममष्टनवतितम मण्डलमुत्तरद्वारसत्कपश्चिमदिकपाटे, एवं चैकैकस्यां भित्तावेकोनपञ्चाशत् मण्डलानि उभयमीलने चाष्टनवतिरिति, अत्र चोभयोः पक्षयोर्मध्ये आद्यः आवश्यकबृहद्वृत्तिटिप्पनकप्रवचनसारोद्धारबृहद्वृत्यादावुक्तो द्वितीयस्तु मलयगिरिकृतक्षेत्रविचारवृत्त्यादाविति / अथ प्रकृतं प्रस्तूयते- 'तए णं' इत्यादि, ततोगण्डलालिखनानन्तरं सा तमिस्रागुहा भरतेन राज्ञा तैर्योजनान्तरितैर्यावधोजनोद्योतकरैरेकोनपञ्चाशता मण्डलैरालिख्यमानैः क्षिप्रमेवालोकंसौरप्रकाशं भूताप्राप्ता, एवमुद्योतंचान्द्रप्रकाशं भूता, किंबहुना? दिवसभूतादिनसदृशी जाता चाप्यभवत्, चः समुच्चये, अपिः सम्भावनाया, तेन नेयं गुहा मण्डलप्रकाशपूर्णा किन्तु सम्भाव्यते आलोकभूता, एवमग्रेतनपदद्वयमपि, क्वचिद् 'दिवसभूअ' इत्यस्य स्थाने 'दीवसयभूया' इति पाटस्तत्र दीपश-तानि भूतेति व्याख्येयम्। अथान्तणुहं वर्तमानयोः परपारं जिगमिषूणां प्रतिबन्धकभूतयोरुन्मग्नानिमग्रानामेकनद्योः स्वरूपम् (जं०) 'उम्मग्ग जला शब्दे' द्वितीयभागे 844 पृष्ठे दर्शितम्।) अथ दुरवगाहे नद्यौ विबुध्य भरतो यच्चकार तदाहतए णं से भरहे राया चक्करयणदे सिअमग्गे अणेगराय० महया उकिट्ठसीधणायजाव करेमाणे करेमाणे सिंधूए महाणईए पुरच्छिमिल्ले णं कूडे णं जेणेव उम्मग्गजला महाणई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बद्धइरयणं सद्दावेइ, सद्दा वेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! उम्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिविटे अयलमकंपे अभेजकवए सालंबणबाहाए सव्वरयणामए सुहसंकमे करेहि, क रेत्ता मम एअमाणत्तिअंखिप्पामेव पच्चप्पिणाहि, तए णं से बद्धइरयणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिए०जाव विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता खिप्पामेव उम्मग्गणि-मग्गजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसण्णिविढे०जाव सुहसंकमे करेइ, करित्ताजेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ताजाव एअमाणत्तिअंपच्चप्पिणइ, तएणं से भरहे राया सखंधावारबले उम्मग्गणिमग्गजलाओ महाणईओ तेहिं अणेगखंभसयसण्णिविटेहिं जाव सुहसंकमेहिं उत्तरइ, तए णं तीसे तिमिस्सगुहाए उत्तरिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया महया को चारवं करेमाणासरसरस्सग्गाइं सरसरस्सग्गाइंठाणाई पचोसक्कित्था। (सूत्रम्-५५) 'तएणं इत्यादि, ततः स भरतो राजा चक्ररत्नदेशितमार्गः 'अणेगराय' | इत्यादि सूत्र व्याख्या च प्राग्वत्, सिन्ध्वा महानद्याः पौरस्त्ये कूलेपूर्वतटे उभयत्रापि णशब्दो वाक्यालङ्कारे, अयमर्थः तमिरनाथा अधो वहन्ती सिन्धुस्तमित्रापूर्वकटकमवधीकृत्येवेति, उन्मानाऽपि पूर्वकटकान्निर्ग ताऽस्तीत्युभयोरेकस्थानतासूचनार्थकमिदं सूत्रं, यत्रेवोन्मग्नजला महानदी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च वर्धाकिरत्नं शब्दयति शब्दयित्वा चैवमवादीदिति। यदवादीत् तदाह- 'खिप्पामेव त्ति क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! उन्मग्ननिमग्न-जलयोर्महानद्योः अनेकानि स्तम्भशतानि तेषु सन्निविष्टौसुसंस्थितौ अत एवाचलौ महाबलाऽऽक्रान्तत्वेऽपि न स्वस्थानाच्चलतः अकम्पो-दृढौ 'सकम्पसेतुबन्धेतु तितीर॑णां सशर्दू चलनं स्यादिति दृढतरनिर्माणावित्यर्थः, अथवा- अचलोगिरिस्तद्वत् अकम्पौ, मकारोऽलाक्षणिकः, अभेद्यकवचाक्विाभेद्यकवचौ अभेद्यसन्नाहाविति, जलाऽऽदिभ्यो न भेदंयात इत्यर्थः / नन्वनन्तरोक्तविशेषणाभ्यामुत्तरतां तदुपरि पातशङ्का न स्यात्तथापि उभयपाययोर्जलपातशङ्का नापनीता भवतीत्याह- साऽऽलम्बने उपरिगच्छतामवलम्बनभूतेन दृढतरभित्तिरूपेणाऽऽलम्बनेन सहितेबा-हे- उभयपावी ययोस्तौ तथा; सर्वाऽऽत्मना रत्नमयौ आदिदेव-चरित्रप्रवचनसारोद्धारवृत्त्योस्तु क्रमेण पाषाणमयकाष्ठ मयौ तावुक्तौ स्तइति, तथा सुखेन संक्रमः- पादविक्षेपो यत्र तौ तथा, ईदृशौ संक्रमौसेतू कुरुष्व कृत्वा च मामेतामाज्ञप्तिका क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयेति / अथ स किं चकारेत्याह- 'तएणं' इत्यादि, अनुवादसूत्रत्वात् सर्व प्राग्वत्, ननु उन्मग्नजला जलस्योन्मजकत्वस्वभावत्वेन कथं तत्र संक्रमार्थकशिलास्तम्भाऽऽदिन्यासः सुस्थितो भवति? स च दीर्घपट्टशालाकारोनच जलोपरिकाष्ठाऽऽदिमयः सम्भवति, तस्यासारत्वेन भारासहत्वात्, उच्यते-वर्द्धकिरत्नकृतत्वेन दिव्यशक्तेरचिन्त्यशक्तिकत्वात्, अनेन चाऽऽचक्रिराज्यपरिसमाप्तेः सर्वोऽपि लोक उत्तरति, गुहा चतावन्तंकालमपावृतैवाऽऽस्ते मण्डलान्यपि तथैव तिष्ठन्ति, उपरते तु चक्रिणि सर्वमुपरमत इति प्रवचनसारोद्धारवृत्तेरभिप्रायः, त्रिषष्टीयाजितचरित्रे तु- "उद्घाटितं गुहाद्वार, गुहान्तमण्डलानि च / तावत्तान्यपि तिष्ठन्ति, यावजीवति चक्रभूत्॥१॥" इत्युक्तमस्ति / 'तए गं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा स्कन्धावाररूपबलसहितस्ताभ्यां संक्रमाभ्या उन्मग्ननिमग्नजले महानद्यौ उत्तरति परपारं गच्छति, एवं उत्तरतो गच्छति राजराजे उत्तरद्वारे यज्जातं तदाह- 'तए णं' इत्यादि, ततो-नधतिक्रमणानन्तरं तस्यास्तमिस्रागुहाया उत्तराहस्य द्वारस्य कपाटौ स्वयमेव सेनानीदण्डरत्नाऽऽघातमन्तरेणेत्यर्थः, 'महया महया' इति सूत्रदेशेन पूर्वसूत्रस्मरण तेन 'महया महया सद्देण' मिति बोध्यं क्रौरवं कुर्वाणौ 'सरस्सर त्ति' कुर्वन्तौ च स्वके स्वके स्थाने प्रत्यवाष्वष्क्रिषाता, व्याख्या तु प्राग्वत्, ननुयदि दाक्षिणात्यद्वारकपाटौ सेनापतिप्रयोगपूर्वकमुद्धटते तथा इमावपि कथं न तथा? उच्यते- एकशः सेनापतिसत्यापितकपाटोद्घाटनविधिसन्तुष्टगुहाधिपसुरानुकूलाऽऽशयेन द्वितीयपक्षकपाटौ स्वयमेवोद्धटेते इति। अथोत्तरभरतार्द्धविजयं विवक्षुस्तत्रत्यविजेतव्यजन __ स्वरूपमाहतेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरडभरद्दे वासे बहवे आ Page #1458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1450 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह वाडा णाम चिलाया परिवसंति अड्डा दित्ता वित्ता वित्थिण्णविउलभवणसयणाऽऽसणजाणवाहणाऽऽइण्णा बहुधण - बहुजायरूवरयया आओगपओगसंपउत्ता विच्छडिअपउर- | भत्तपाणा बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूआ बहुजणस्स अपरिभूआसूरा बीरा विकता वित्थिण्णविउलबलवाहणा बहुसु समरसंपराएसु लद्धलक्खा यावि होत्था, तए णं तेसिमावाडचिलायाणं अण्णया कयाई विसयंसि बहूइं उप्पाइयसयाई पाउन्भवित्था, तं जहा- अकाले गज्जिअं अकाले विज्जुआ अकाले पायवा पुप्फंति अभिक्खणं अभिक्खणं आगासे देवयाओ णचंति, तए णं ते आवाडचिलाया विसयंसि बहूई उप्पाइअसयाई पाउन्भूयाई पासंति, पासित्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिआ ! अम्हं विसयंसि बहूइं उप्पाइ-असयाई पाउन्भूयाई / तं जहाअकाले गञ्जिअं अकाले विज्जुआ अकाले पायवा पुप्फंति | अभिक्खणं अभिक्खणं आगासे देवयाओ णच्चंति, तं णं णज्जइ णं देवाणुप्पिआ ! अम्हं विसयस्स के मन्ने उवद्दवे भविस्सइत्ति कटु ओहयमणसंकप्पा चिंतासोगसागरं पविट्ठा करयल-पल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया भूमिगयदिद्विआ | झिआयंति, तए णं से भरहे राया चक्करयणदेसि अमग्गे०जाव समुद्दरवभूअं पिव करेमाणे करेमाणे तिमिसगुहाओ उत्तरिल्लेणं | दारेणं णीति ससि व्व मेहंधयारणिवहा, तए णं ते आवाडचिलाया भरहस्स रण्णो अग्गाणीअंएज्जमाणं पासंति, पासित्ता आसुरुत्ता रुट्ठा चंडिक्किआ कुविआ मिसिमिसेमाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिआ ! केइ अप्पत्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जे णं अम्हं विसयस्स उवरि विरिएणं हव्वमागच्छइ / तं जहा- णं घत्तामो देवाणुप्पिआ ! जहा णं एस अम्हं विसयस्स उवरि विरिएणं णो हव्वमागच्छइ त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एअमटुं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सण्णद्धबद्धवम्मियक वआ उप्पीलिअसरासणपट्टि आ पिणद्धगेविज्जा बद्ध-आबिद्धविमलवरचिंधपट्टा गहिआउहप्पहरणा जेणेव भरहस्स रण्णो अग्गीणीअं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भरहस्स रण्णो अग्गाणीएण सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था, तए णं ते आवाडचिलाया भरहस्स रण्णो अग्गाणी हयमहिअपवरवीरघाइअविवडिअचिंधद्धयपडागं किच्छप्पाणोवगयं दिसोदिसिं पडिसेहिंति। (सूत्रम्-५६) 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि, तस्मिन् काले तृतीयारकप्रान्ते तस्मिन् समये-यत्र भरत उत्तरभरतार्द्धविजिगीषया तमिस्रातो नियाति, उत्तरार्द्धभरतनाम्नि वर्षे -क्षेत्रे आपाता इति नाम्ना किराताः परिवसन्ति, आन्याः-धनिनः दृप्तादपवन्तः वित्ताः-तज्जाती येषुप्रसिद्धाः विस्तीर्णविपुलानि-अतिविपुलानि भवनानि येषां ते तथा शयनाऽऽसनानि प्रतीतानि यानानिरथाऽऽदीनि वाहनानि अश्वाऽऽदीनि आकीर्णानिगुणवन्ति येषां ते तथा, ततः पद द्वयस्य कर्मधारयः, बहुप्रभूतं धनंगणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदात् चतुर्विधं येषां तथा, बहुबहुनी जातरूपरजतेस्वर्णरूप्ये येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः आयोगोद्विगुणाऽऽदिवृद्ध्यर्थं प्रदानं प्रयोगश्च कलान्तरं तौ संप्रयुक्तौव्यापारितो यैस्ते तथा, विच्छदितेत्यक्ते बहुज नभोजनदानेनावशिष्टोच्छिष्टसम्भवात् सजातविच्छः वा सविस्तारे बहुप्रकारत्वात् प्रचुरे-प्रभूते भक्तपानेअन्नपानीय येषां ते तथा, बहवो दासीदासाः गोमहिषाश्च प्रतीताः गवेलकाउरभ्राः एते प्रभूता येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, बहुजनेनापरिभूताः, सूत्रे षष्ठी आर्षत्वात्, सूराः प्रतिज्ञातनिर्वहणे दाने वा वीराः संग्रामे विक्रान्ता भूमण्डलाऽऽक्रमणसमर्था विस्तीर्णविपुले-अतिविपुले बलवाहने-सैन्यगवादिके दुःखानाकुलत्वात्येषां ते तथा, बहुषु समरेषुसम्परायेषु, अनेन चातिभयानकत्वं सूचितं समररूपेषु सम्परायेषु युद्धेषु लब्धलक्षा-अमोघहस्ताश्चाप्यभवन, सामान्यतो युद्धेषु च वल्गनाऽऽदिरूपेषु केच न लब्धलक्षा भवेयुः परं तद्व्यवच्छेदाय समरेष्वित्युक्तम्, अथ यत्तेषां मण्डले जातं तदाह-'तएण' इत्यादि, तत इति-कथान्तरप्रबन्धे तेषामापातकिरातानाम् अन्यदा कदाचित् चक्रवागमनकालात्पूर्वम् अत्र तेषामित्येतावतैवोक्तेन प्रकरणाद् विशेष्यप्राप्ती यदापातकिरातानामित्युकं तद्विस्मरणशीलानां विने यानां व्युत्पादनायेति, विषयेदेशे बहूनि औत्पातिकशतानि उत्पातसत्कशतानि, अरिष्टसूचकनिमित्तशतानीत्यर्थः, प्रादुरभूवन- प्रकटीवभुवुः, तद्यथा-अकाले प्रावृट्कालव्यतिरिक्तकाले गर्जितम् अकाले विद्युतः अकाले स्वस्वपुष्पकालव्यतिरिक्तकाले पादपाः पुष्यन्ति अभीक्ष्णम् अभीक्ष्णं-पुनः पुनः आकाशे देवताभूतविशेषा, नृत्यन्ति / अथ ते किं चारित्याह- 'तएणं इत्यादि, ततः-उत्पातभवनान्तर ते आपातकिराता विषये बहूनि औत्पातिकशतानि प्रादुर्भूतनि पश्यन्ति, दृष्ट्वा चान्योऽन्य शब्दयन्ति-आकारयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुः, किमवादिषुः किदृशाश्च तेऽभूवन्नित्याह- ‘एवं खलु' इत्यादि, एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण खलुर्निश्चये देवानुप्रिया-ऋजुस्वभावा अस्माकं विषये बहूनि औत्पातिकशतानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथा- अकाले गर्जितम् इत्यादि प्राग्वत्, तन्न ज्ञायते देवानुप्रिया ! अस्माकं विषयस्य को 'मन्ये' इति वितकार्थे निपातः, तेन मन्ये इति सम्भावयामः उपद्रवो भविष्यति इति कृत्वा अपहतमनःसङ्कल्याविमनस्काः चिन्तयाराज्यभ्रंशधनापहाराऽऽदिचिन्तनेन यः शोक एव दुष्पारत्वात् सागरस्तत्र प्रविष्टाः करतले पर्यस्तंनिवेशितं मुखं यैस्तेतथाआर्तध्यानोपगताः भूमिगतदृष्टिकाध्यायन्ति, आप Page #1459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1451 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह तिते सङ्कट किं कर्तव्यमिति चिन्तयन्तीति, अथ प्रस्तूयमानं भरतस्य चरितमाह- 'तएण' इत्यादि, ततस्तेषामुत्पातचिन्तनानन्तरं स भरतो राजा चक्ररत्नादेशितमार्गो यावत् समुद्ररवभूतामिव गुहां कुर्वन् 2 तमित्रागुहातः औत्तराहेण द्वारेण निरतिनिर्याति शशीव मेघान्धकारनिवहात्। 'तएण' इत्यादि, ततो गुहातो निर्गमानन्तरं ते आपातकिराता भरतस्य राज्ञः अग्रानीकं सैन्याग्रभागम्- 'एज्जमाणं ति' इयत् आगच्छत् पश्यन्ति, दृष्ट्वा च 'आसुरुत्ता' इत्यादि पदपञ्चकं प्राग्वत् अन्योऽन्य शब्दयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुरिति। किमवादिषुरित्याह- 'तएणं' इत्यादि, एष देवानुप्रियाः! कश्चिदज्ञातनामकोऽप्रार्थितप्रार्थकाऽऽदिविशेषणविशिष्टो वर्तते योऽस्माकं विषयस्यदेशस्योपरि वीर्येणाऽऽत्मशक्त्या 'हव्वं ति' शीघ्रमागच्छति, तत्तस्मात्तथा 'णमिति' - इमं भरतराजानमित्यर्थः 'धत्तामो त्ति' क्षिपामो दिशो दिशि विकीर्णसैन्यं कुर्म इत्यर्थः, यथा एषोऽस्माकं विषयस्योपरि वीर्येण नो शीघ्रमागच्छेत्, सूत्रे सप्तम्यर्थे वर्तमानानिर्देशः प्राकृतत्वात्, एतस्मिन् समये किं जातमित्याह- 'इति कटु' इत्यादि, इति- अनन्तरोदितं कृत्वाविचिन्त्यान्योऽन्यस्यान्तिके एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति- ओमिति प्रतिपद्यन्ते, प्रतिश्रुत्य च सन्नद्धबद्धत्यादिपदानि प्राग्वत् यत्रैव भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकं तत्रैवोपागच्छन्ति. उपागत्य च भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकेन साधू संप्रलग्नाश्वाप्यभूवन / योद्धमिति शेषः, युद्धाय प्रवृत्ता इत्यर्थः, अथ ते कि कुर्वन्तीत्याह-'तएणं ते आवाडचिलाया' इत्यादि,ततो युद्धप्रवृत्त्यनन्तरं ते आपातकिराता भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकं हताः केचन प्राणत्याजनेन मथिताः केचन मानमथनेन घातिताश्च केचन प्रहारदानेन प्रवरवीराःप्रधानयोधा यत्र तत्तथा, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, विपतिताःस्वस्थानतो भ्रष्टाश्चितप्रधानाध्वजा गरुडध्वजाऽऽदयः पताकाश्चतदितरध्वजा यत्र तत्तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, कृच्छ्रणमहता कष्टन प्राणान् उपगतंप्राप्त कथमपि धृतप्राणमिति यावत्, दिशः सकाशादपरदिशिस्वाभिमतदिक्त्याजनेनापरस्यां दिशि प्रक्षिप्य इति शेषः, प्रतिषेधयन्ति-युद्धान्निवर्तयन्तीत्यर्थः / इतो भरतसैन्ये किं जातमित्याहतए णं से सेणाबलस्स णेआ वेढो०जाव भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं आवाडचिलाएहिं हयमहियपवरवीर० जाव दिसो दिसं पडिसेहिअंपासइ, पासित्ता आसुरुते रुढे चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे कमलामेलं आसरयणं दुरूहइ, दुरूहित्ता (जं०) (अश्वरत्न वक्तव्यता 'आसरयण' शब्दे द्वितीयभागे 473 पृष्ठे गता) सुगपत्तसुवण्णकोमलं मणाभिरामं कमलामेलं णामेणं आसरयणं सेणावई कमेण समभिरूढे कुवलयदलसामलं च रयणिकरमंडलनिभं सत्तुजणविणासणं क णगरयणदंडं णवमालिअपुप्फ सुरहिगंधिं णाणामणिलयभत्तिचित्तं च पहोतमिसिमिसिंततिक्खधारं दिव्वं खग्गरयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो वंसरुक्खसिंगट्टिदंतकालायस-विपुललोहदंडकवरवइरभेदकं० जाव सव्वत्थ अप्पडिहयं किं पुण देहेसु जंगमाणं- "पण्णासंगुलदीहो, सोलस से अंगुलाई वित्थिण्णो। अद्धंगुलसोणीको, जेट्टपमाणो असीभणिओ||१॥" असिरयणं णरवइस्स हत्थाओ तं गहिऊण जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आवाडचिलाएहिं सद्धिं संपलग्गे आवि होत्था / तए णं से सुसेणे सेणावई ते आवाडचिलाए हयमहिअपवरवीरघाइअ० जाव दिसो दिसिंपडिसेहेइ। (सूत्र-५७) 'तरण' इत्यादि, ततः - स्वसैन्यप्रतिषेधनादनन्तरं सेनाबलस्यसेनारूपस्य बलस्य नेतास्वामी वेष्टकः-वस्तुविषयवर्णकोऽत्र सेनानीसत्कः संपूर्णः पूर्वोक्तो ग्राह्यः यावद् भरतस्य राज्ञोऽग्रानीकम् आपातकिरातैर्यावत्प्रतिषेधितं पश्यति, दृष्ट्वा च आशुरुप्ताऽऽदिविशेषणविशिष्टः कमलाऽऽपीडं कमला मेलं वा नामाश्वरत्नमारोहति। अथ प्रस्तावाऽऽगतं तद्वर्णन (ज०) द्वितीयभागे 473 पृष्ठे गतम्।) कमलामेल णामेणं' इत्यादि, प्राग्वद् व्याख्येयमिति।' ततः स किं कृतवानित्याह- 'कुवलय' इत्यादि, तदसिरत्नं नरपतेर्हस्ताद गृहीत्वा स सेनानीर्यत्रैवाऽऽपातकिरातास्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चाऽऽपातकिरातैः सार्द्ध सम्प्रलग्नश्चाप्यभूद्योगुमिति शेषः, तच्छन्दवाक्यं यच्छब्दवाक्यमपेक्षत इत्याहियते यदिति, यत् किंविशिष्टमित्याह- कुवलयदलश्यामल नीलोत्पलदलसदृशमित्यर्थः, चः समुच्चये, रजनिकरमण्डल चन्द्रबिम्ब तस्य निभंसदृशं परिभ्राम्यमाणं यद्वर्तुलिततेजस्कत्वेन चन्द्रमण्डलाऽऽकारं दृश्यते इत्यर्थः, अथवा-रजनिकरमण्डलनिभं मुखे इति शेषः, शत्रुजनविनाशनं, कनकरत्नमयो दण्डोहस्तग्रहणयोग्यो मुष्टियस्य तत्तथा, नवमालिकानामकं यत्पुष्पं तद्वत् सुरभिगन्धो यस्य तत्तथा, नानामणिमय्यो लता बल्ल्याकारचित्राणि तासां भक्तयोविविधरचनास्ताभिश्चित्रम्-आश्चर्यकृत, चः विशेषणसमुच्चये, प्रधौता शाणोत्तारेण निष्किट्टीकृता अत एव- 'मिसिमिसेंति त्ति' दीप्यमाना तीक्ष्णा धारा यस्य तत्तथा, दिव्यं खड्गरत्नखड्गजातिप्रधानं लोकेऽनुपमानम् अनन्यसदृशत्वात्, तच पुनर्वहुगुणमस्तीति शेषः, कीदृशं ? वंशा वेणवः रूक्षाः-वृक्षाः शृङ्गाणि महिषाऽऽदीनाम् अस्थीनि प्रतीतानि दन्ता हस्त्यादीनां कालायसं लोह विपुललोहदण्डकश्चवरवज्रं हरिक-जातीय तेषां भेदकम्, अत्र वज्रकथनेन दुर्भद्यानामपि भेदकत्वं कथितं, किं यहुना? यावत्सर्वत्राप्रतिहतं, दुर्भेदेऽपि वस्तुनि अमोघशक्तिकमित्यर्थः, किं पुनर्जङ्गमानाचराणां पशुमनुष्याऽऽदीनां देहेषु, अत्र यावच्छब्दो न संग्राहकः किन्तु भेदकशक्तिप्रकर्षाक्तयेऽवधिवचनः अथ तस्य मानमाहपञ्चाशदगुलानि दी? यः षोडशाङ्गुलानि विस्तीर्णः अर्धागुलप्रमाणा श्रोणि:- बाहुल्य पिण्डो यस्य स तथा, ज्येष्ठम्-उत्कृष्ट प्रमाणं यस्य स तथा, एवंविधः सोऽसिर्भणितः, यदन्यत्रासेत्रिंशदङ्गुलप्रमाणत्वं Page #1460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1452 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह श्रूयते तन्मध्यममानापेक्षया / यदाह वराहः- "अड्गुलशतार्द्धमुत्तम, ऊनः स्यात्पञ्चविंशतिः खड्गः।” एतयोः सङ्ख्ययोर्मध्ये मध्यम इति, उत्तरवाक्ययोजना तु प्राक् कृता, अथ सैन्येशाऽऽयोधनादनन्तर किं जातमित्याह- तए ण इत्यादि, तत आयोधनादनन्तरं स सुषेणः सेनापतिस्तानापातकिरातान् हतमथितेत्यादिविशेषणविशिष्टान् यावत्करणात् “विहडिअचिंधद्धयपडागे किच्छप्पाणोवगए'' इति ग्राह्य, दिशो दिशि प्रतिषेधयति। अथ ते किं कुर्वन्तीत्याहतएणं ते आवाडचिलाया सुसेणसेणावइणा हयमहिआ० जाव पडिसेहिया समाणा भीआ तत्था वहिआ उव्विगा संजायभया अत्थामा अबला अवीरिआ अपुरिसक्कारपरक्कमा अधारणिज्जमिति कटु अणेगाइं जोअणाई अवक्कमंति, अवक्कमित्ता एगयओ मिलायंति, मिलायित्ता नेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता वालुआसंथारए संथरेति, संथरेत्ता वालुआसंथारए दुरूहति, दुरूहिता अट्ठमभत्ताई पगिण्हंति, पगिण्हित्ता वालुआसंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिआ जे तेसिं कुलदेवया मेहमुहा णामं णागकुमारा देवा ते मणसी करेमाणा करेमाणा चिट्ठति / तए णं तेसिमावाडचिलायाणं अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं आसणाई चलंति, तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा आसणाई चलिआई पासंति, पासित्ता ओहिं पउंजंति, पउंजित्ता आवाडचिलाए ओहिणा आभोएंति, आभोएत्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिआ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे वासे आवाडचिलाया सिंधूए महाणईए वालुआसंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठम भत्तिआ अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसी करेमाणा 2 चिटुंति, तं सेअंखलु देवाणुप्पिआ ! अम्हं आवाडचिलायाणं अंतिए पाउन्भवित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एअमटुं पडिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए० जाव वीतीवयमाणा वीतीवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे वासे जेणेव सिंधू महाणई जेणेव आवाडचिलाया | तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा संखिंखिणिआई पंचवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिआ तेआवाडचिलाए एवं बयासी-हं भो आवाडचिलाया ! जण्णं तुम्मे देवाणुप्पिआ! वालुआ-संथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिआ अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसी करेमाणा करेमाणा चिट्ठह, तए णं अम्हे मेहमुहा णागकुमारा देवा तुन्भं कुलदेवया तुम्हें अंतिअण्णं पाउडभूआ, तं वदह णं देवाणुप्पिआ ! किं करेमो, के व भे मणसाइए? तएणं ते आवाडचिलाया मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं अंतिए एअमटुं सोचाणिसम्म हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिआ० जाव हिअया उठाए उ?ति, उठेत्ता जेणेव मेहमुहा णागकुमारा देवा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं० जाव मत्थए अंजलिं कटु मेहमुहे णागकुमारे देवे जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं बयासीएस णं देवाणुप्पिए ! केइ अपत्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे० जाव हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं अम्हं विसयस्स उवरि विरिएणं हव्वमागच्छइ, तं तहा णं घत्तेह देवाणुप्पिआ ! जहा णं एस अम्हं विसयस्स उवरि विरिएणं णो हव्वमागच्छइ तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा ते आवाडचिलाए एवं बयासी-एस णं भो देवाणुप्पिआ ! भरहे गामं राया चाउरंतचक्कवट्टी महिद्धीए महज्जुईए० जाव महासोक्खे,णो खलु एस सक्को केणइ देवण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपु-रिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा सत्थप्पओगेण वा अग्गिप्पओगेण वा मंत्तप्पओगेण वा उद्दवित्तए पडिसेहित्तए वा, तहावि अ णं तुम्भं पिअट्ठयाए भरहस्स रण्णो उवसग्गं करेमो त्ति कटु तेसिं आवाडचिलाया णं अंतिआओ अवक्कमति अक्कमित्ता वेउव्विअसमुग्घाएणं सम्मोहणंति, सम्मोहणित्ता मेहाणीअं विउट्वंति, विउव्वित्ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयक्खंधावारणिवेसे तेणेव उवागच्छंति उवागछित्ता, उप्पिं विजयखंधावारणिवेसस्स खिप्पामेव पतणुतणायंति खिप्पामेव विज्जुयायंति, विज्जुयायित्ता खिप्पामेव जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासिउंपवत्ता यावि होत्था। (सूत्रम्५८) 'तए ण' इत्यादि, ततस्ते आपातकिराताः सुषेणसेनापतिना हतमथिता यावत्प्रतिषेधिताः सन्तो भीता भयाऽऽकुलाः त्रस्तानष्टाः व्यथिताः- प्रहारार्दिताः उद्विग्नाः अथ पुनर्नानेन सार्द्ध युद्ध्यामहे इत्यपुनः करणाऽऽशयवन्तः, ईदृशाः कुत इत्याह- सजातभयाःसम्यक् प्राप्तभयाः अस्थामानः सामन्यतः शक्तिविकलाः अबलाःशारीरशक्तिविकलाः पुरुषकारः पुरुषाभिमानः स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमस्ताभ्या रहिताःअधारणीयंधारयितुमशक्यं परबलमितिकृत्वा अनेकानि योजनान्य-पक्रामन्ति-अपसरन्ति पलायन्ते इत्यर्थः ततः किं कुर्वन्तीत्याह-'अवक्कमित्ता' इत्यादि, अपक्रम्य ते अपातकिराता एकतः-एकस्मिन् स्थाने मेलयन्ति मेलापकं कुर्वन्तीत्यर्थः, मेलयित्वा च यत्रैव सिन्धुमहानदी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च वालुकासंस्तारकान् संस्तृणन्तिसिकताकणमयान् संस्तारान् कुर्वन्ति Page #1461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1453 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह संस्तीर्य चवालुकासस्तारकानारोहन्ति, आरुह्य चाष्टमभक्तंप्रगृह्णन्ति, प्रगृह्य च वालुकासंस्तारोपगता उत्तानकाः-ऊर्ध्वमुखशायिनः अवसनाःनिर्वस्त्राः, एवं च परमातापनाकष्टमनुभवन्त इत्युक्तम्, अष्टमभक्तिकादिनत्रयमनाहारिणः, ये तेषां कुलदेवताः कुलवत्सला देवा मेघमुखा नाम्ना नागकुमारा देवास्तान् मनसि कुर्वन्तः 2 तिष्ठन्तीति / अथ ते देवाः किमकुर्वन्नित्याह-'तएणं' इत्यादि,ततः- चेतसि चिन्ताऽनन्तरं तेषामापातकिरातानाम् अष्टमभक्तेपरिणमति सतिपरिपूर्णप्राये इत्यर्थः, मेधमुखानां नागकुमाराणां देवानामासनानि चलन्ति, ततस्ते मेघमुखा नागकुमारा देवा आसनानिचलितानि पश्यन्ति, दृष्ट्वा चावधिं प्रयुञ्जन्ति, प्रयुज्य चाऽवधिना आपातकिरातानाभोगयन्ति, आभोग्य चान्योऽन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा चैवमवादिषुः, किमवादिषुरित्याह- ‘एवं खलु' इत्यादि, एवम्-इत्थमन्तिखलुः- निश्चये हेदेवानुप्रिया! किंतदित्याहजम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे आपातकिराताः सिन्ध्यां महानद्यां वालुकासंस्तारकान् उपगताः- प्राप्ताः सन्तः उत्तानका अवसना अष्टमभक्तिका अस्मान् कुलदेवतान् मेघमुखनामकान् नागकुमारान् देवान् मनसि कुर्वाणाः 2 तिष्ठन्तीति, ततः श्रेयः खलु भो देवानुप्रिया ! अस्माकमापातकिरातानामन्तिके प्रादुर्भवितुंसमीपे प्रकटीभवितुमितिकृत्वापर्यालोच्यान्योऽन्यस्यान्तिके एतमर्थम्- अनन्तरोक्तमभिधेयं प्रतिशृण्वन्तिअभ्युपगच्छन्ति, परस्परं साक्षीकृत्य प्रतिज्ञातं कार्य कर्तव्यमवश्यमिति दृढीभवन्तीत्यर्थः प्रतिश्रवणानन्तरं ते यच्चकुस्तदाह'पडिसुणेत्ता' इत्यादि, प्रतिश्रुत्यचते देवास्तयोत्कुष्टया त्वरितया गत्या यावद्व्यतिव्रजन्तो 2 यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपो यत्रैव चोत्तरभरतार्द्ध वर्ष यत्रैय च सिन्धुर्महानदी यत्रैव चाऽऽपातकिरातास्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य चान्तरिक्षप्रतिपन्नाः सकिङ्किणीकानि पञ्चवर्णानि वस्त्राणि प्रवराणि परिहितास्तानापातकिरातानेवमवादिषुः किमवा दिषुरित्याह'हं भो !' इत्यादि, हं भो ! इति सम्बोधने आपतकिराताः, यत् 'ण' वाक्यालङ्कारे, सर्वत्र यूयं देवनुप्रिया ! बालुकासंस्तारकोपगतायावदष्टमभक्तिका अस्मान् कुलदेवता मेघमुखान् नागकुमारान् देवान् मनसि कुर्वाणाः 2 तिष्ठत, ततो वयं मेघमुखा नागकुमारा देवा युष्माकं कुलदेवताः सन्तो युष्माकमन्तिकं प्रादुर्भूताः तद्वदत देवानुप्रियाः ! किं कुर्मः- किं कार्य विदध्मः, किम् आचेष्टामहे-कां चेष्टां कुर्मः- कस्मिन् व्यापारे प्रवर्तामहे, किंवा (भे)-भवतां मन स्वादितंमनोऽभीष्टमिति कुलदैवतप्रधानन्तरं तेयदचेष्टन्त तदाह-'तएणं' इत्यादि, ततस्ते आपातकिराता | मेघमुखानां नागकुमाराणां देवानामन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य च 'हद्वतुट्ठ' इत्यादि प्राग्वत्। उत्थानम् उत्थाऊर्ध्वं भवनंतया उत्तिष्ठन्तिऊभिवन्ति इत्यर्थः, उत्थाय च यत्रैव मेघमुखा नागकुमारा देवास्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्यच करयल' इत्यादिप्राग्वत्, मेघमुखान्नागकुमारान् देवान् जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति, वर्धयित्वा चैवमवादिषुरिति, यदवादिषुस्तदाह- 'एसणं इत्यादि, देवानुप्रिय! एष कश्चिदप्रार्थितप्रार्थकाऽऽदिविशेषणविशिष्टो अस्मद्देशोपर्यागच्छति, तेन तथा प्रकारेण | णमितिएनं घत्तेहप्रक्षिपत यथा पुनर्नाऽऽयातीति पिण्डार्थः। अथ यन्मेघमुखा ऊचुस्तदाह- 'तए णं' इत्यादि, व्यक्तं, किमवोचुस्ते इत्याह'एसणं' इत्यादि, हे देवानुप्रिया! एष भरतोनाम राजा चतुरन्तचक्रवर्ती महर्द्धिको महाद्युतिको यावन्महासौख्यः नो खलु एष भरतः शक्यः केनचिदेवेन वा वैमानिकेन दानवेन वा-भवनवासिना किन्नरेणेत्यादिपदचतुष्कं व्यन्तरविशेषवाचकं तेन वाशस्त्रप्रयोगेण वा अग्निप्रयोगेण वा मन्त्र-प्रयोगेण वा, त्रयाणामप्युत्तरोत्तरबलाधिकता ज्ञेया, शस्त्रेभ्योऽग्निस्तस्मान्मन्त्री बलाधिक इति, उपद्रवयितुं वा-उपद्रवं कर्तुं , प्रतिषेधयितुं वा-युष्मद्देशाऽऽक्रमणरूपपापकर्मतो निवर्तयितुमिति, सर्वत्र वाशब्दः समुच्चयार्थः, तथापि इत्थं दुस्साध्ये कार्ये सत्यपि युष्माकं प्रियार्थतायैप्रीत्यर्थ भरतस्य राज्ञ उपसर्ग कुर्म इति कृत्वा तेषामापातकिरातानामन्तिकादपक्रामन्तियान्ति निस्सरन्तीत्यर्थः इति प्रतिज्ञातवन्तः, ततः किं कृतवन्त इत्याह- 'अवक्कमित्ता वेउब्विअसमुग्धाएणं' इत्यादि, अपक्रम्य च-व्रजित्वा वैक्रियसमुद्धातेन-उत्तरवैक्रियार्थकप्रयत्नविशेषेण समवघ्नन्तिआत्मप्रदेशान् विक्षिपन्ति शरीराद् बहिर्विकिरन्तीत्यर्थः, समवहत्य च तैरात्मप्रदेशैर्गृहीतैः पुद्गलैर्मेधानीकम्अध्रपटलकं विकुर्वन्ति, विकुळ च यत्रैव भरतस्य विजयस्कन्धावारनिवेशस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च विजयस्कन्धावारनिवेशस्योपरि क्षिप्रमेवेत्यादि सर्वं पुष्कलसंवर्तकमेधाधिकार इव वाच्यं यावद्वर्षितुं प्रवृत्ताश्चाप्यभवंस्ते देवा इति। इति व्यतिकरे यद्भरताधिपः करोति तदाहतए णं से भरहे राया उप्पिं विजयक्खंधादारस्स जुगमुसलमुट्टिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासमाणं पासइ, पासित्ता चम्मरयणं परामुसइ, तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं वेढो भाणिअव्वोजाव दुवालसं जोअणाई तिरि पवित्थरइ तत्थ साहिआई, तए णं से भरहे राया सखंधावारबले चम्मरयणं दुरूहइ, दुरूहित्ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसइ, तए णं णवणउइसहस्सकंचणसलागपरिमंडिअं महरिहं अउज्झं णिव्वणसुपसत्थविसिहलहकंचणसुपुट्ठदंडं मिउराययवट्टलट्ठअरविंदकण्णिअसमाणरूवं वत्थिपएसे अ पंजरविराइ विविहभत्तिचितं मणिमुत्तपवालतत्ततवणिज्जपंचवण्णिअधोअरयणरूवरइयं रयणमरीईसमप्पणाकप्पकारमणुरंजिएलियं रायलच्छिचिंधं अज्जुणसुवण्णपंडुरपबत्थुअपट्टदेसभागं तहेव तवणिज्जपठ्धम्मतपरिगयं अहिअसस्सिरीअं सारयरयणिअरविमलपडिपुण्णचंदमंडलसमाणरूवं णरिंदवामप्पमाणपगइवित्थडं कुमुदसंडधवलं रण्णो संचारिमं विमाणंसूराऽऽतववायबुट्टिदोसाण यखयकरंतवगुणेहिं लद्धं- "अहयं बहुगुणदाणं, उऊण विवरीअसुहकयच्छायं / छत्तरयणं पहाणं, सुदुल्लह अप्पपुण्णाणं // 1 // " पमाणराईण तवगुणाण फलेगदेसभागं विमाणवासे वि दुल्लहतरं व Page #1462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ग्घारिअमल्लदामकलावं सारयधवलब्भरययणिगरप्पगासं दिव्वं छत्तरयणं महिवइस्स धरणिअलपुण्णइंदो / तए णं से दिवे छत्तरयणे भरहेणं रण्णा परामुढे समाणे खिप्पमेव दुवालस जोअणाइं पवित्थरइ साहिआई तिरिअं (सूत्रम्-५६) 'तए णं' इत्यादि, ततो-दिव्यवर्षानन्तरं स भरतो राजा स्वसैन्ये उक्तप्रकारेण-सप्तरात्रिप्रमाणकालेन वर्ष वर्षन्तंमेघवृष्टिं जायमानां पश्यति, दृष्ट्वा च चर्मरत्नं परामृशति, अत्रावसराऽऽगतं चर्मरत्नवर्णकसूत्रमतिदिशन्नाह-'तएण' इत्यादि कण्ठ्यम्, अथेदंछत्ररत्नं कीदृशमिति जिज्ञासूनां तत्स्वरूपप्रकटनायाऽऽह- 'तए ण' इत्यादि, तत इति प्रस्तावनावाक्योपन्यासे, छत्ररत्नं महीपतेः- भरतस्य धरणितलस्य पूर्णचन्द्र इव पूर्णचन्द्रो वर्त्तते इति योगः, किंविशिष्टं? नवनवतिसहस्रप्रमाणाभिः काञ्चनमयशलाकाभिः परिमण्डितं महार्घ बहुमूल्यम् अथवा-महान्-चक्रवर्ती तस्य अर्हयोग्यम् अयोध्यम् अयोधनीयम् अस्मिन् दृष्ट न हि प्रतिभटानां शस्त्रमुत्तिष्ठते इति भावः, निव्रणः- छिद्रग्रन्थ्याऽऽदिदोषरहितः सुप्रशस्तोलक्षणोपेतत्वात विशिष्टलष्टः-अतिमनोज्ञः; अथवा-विशिष्टः-अतिभारतया एकदण्डेन दुर्वहत्वात् प्रतिदण्डसहितः ईदृशश्च यो लष्टः काञ्चनमयः सुपुष्टोऽतिभारसहत्वात् दण्डो यत्र तत्तथा, मृदुसुकुमालंघृष्टमृष्टत्वात्राजतंरूप्यसम्बन्धिवृत्तं लष्ट यदरविन्दं तस्य कर्णिकाबीजकोशस्तेन समानं श्वेतत्वावृत्तत्वाच्च रूपम् आकारो यस्य तत्तथा, बस्तिप्रदेशो नाम छत्रमध्यभागवर्ती दण्डप्रक्षेपस्थानरूपस्तत्र, चः समुच्चये, पञ्जरेणपञ्जराऽऽकारेण विराजितं, विविधाभिर्भक्तिभिः-विच्छित्तिभीरचनाप्रकारैश्वित्रचित्रकर्म यत्र तत्तथा, एतदेव विशिष्याऽऽह- मणयः- प्राग्व्यावर्णितस्वरूपाः मुक्ताप्रवाले प्रतीते, तप्तमूषोत्तीर्णं यत्तपनीयंरक्तसुवर्ण पञ्चवर्णिकानि, सूत्रे मत्वर्थीय इकप्रत्ययः, धौतानि शाणोत्तारेण दीप्तिमन्ति कृतानि रत्नानि प्राग्व्यावर्णितस्वरूपाणि तैः रचितानि रूपाणिपूर्णकलशाऽऽदिमङ्गल्यवस्तूनामाकारा यत्र तत्तथा, पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, तथा रत्नानां मरीचिसमर्पणासमारचना तस्यां कल्पकराविधिकारिणः परिकर्मकारिण इत्यर्थःतैरनुसम्प्रदायक्रमं रञ्जितं, यथोचितस्थानं रङ्गदानात्, मकारोऽलाक्षणिकः स्वार्थे इल्लेकौ प्रत्ययौ प्राकृतशैलीभवौ, राजलक्ष्मीचिह्नम्अर्जुनाभिधानं यत्पाण्डुरस्वर्णं तेन प्रत्यवस्तृतः-आच्छादितः पृष्ठदेशभागो यस्य तत्तथा षदव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, तथैवेति विशेषणान्तरप्रारम्भे, ध्मायमानं तत्कालध्मातमित्यर्थः यत्तपनीयं तस्य पट्टस्तेन, परिगतं-परिवेष्टितं, चतुर्ध्वपि प्रान्तेषु रक्तसुवर्णपट्टा योजिताः सन्तीति, पदव्यत्ययः पूर्ववत्, अत एवाधिकसश्रीकं शारदः-शरत्कालसत्को रजनिकरः- चन्द्रस्तद्वद्विमलं निर्मलं प्रतिपूर्णचन्द्रमण्डलसमानरूपं ततो विशेषणसमासः, नरेन्द्रः-प्रस्तावाभरतस्तस्य व्यायामः-तिर्यक्प्रसारितोभयबाहुप्रमाणो मानविशेषस्तेन प्रमाणेन प्रकृत्यास्वभावेन विस्तृतं, यत्तु चक्रिपरामृष्ट साधिकद्वाद-शयोजनानि विस्तृणाति तदस्य कारणिको विस्तार इति सूचितं, कुमुदानिचन्द्रविकाशीनितेषां खण्ड-वंन तद्वद्धवल राज्ञोभरतस्य ‘संचारिम त्ति' सञ्चरणशीलं जङ्गमं विमानम् आश्रयिणां सुखाऽऽवहत्वात् सूराऽऽतपवातवृष्टयः प्रतीतास्तासां ये दोषास्तेषां क्षयकर, यद्वा-सूराऽऽतपवातवृष्टीना दोषाणां च विषाऽऽदिजन्यानां क्षयकरम्, एतच्छत्रच्छायसमाश्रितानां हि विषाऽऽदिदोषा अपि न प्रभवन्तीति विशेषः, तपोगुणैः- पूर्वजन्माऽऽचीर्णतपोगुणमहिमा लब्धं भरतेनेति शेषः / अथ गाथाबन्धेन विशेषणान्याह-विचित्रत्वात्सूत्रकारप्रवृत्तेः, अहतं न केनापि योधमन्येन रणे खण्डितमित्यर्थः, बहूनां गुणानाम्- ऐश्वर्याऽऽदीनां दानं यस्य तत्तथा, ऋतूनांहेमन्ताऽऽदीना विपरीता, अथवा-आर्षत्वात् षष्ठ्यर्थे पञ्चमी व्याख्यानेन ऋतुभ्यो विपरीता उष्णतौ शीता शीतर्ती उष्णा अत एव कृतसुखा छाया यस्य, सूत्रे क्तान्तस्य परनिपातो 'जातिकालसुखाऽऽदेर्नवा' (श्रीसिद्ध०अ०३ पा०१-सू०१५२) इत्यनेन विकल्पविधानात्, छत्रेषु रत्नम्-उत्कृष्ट प्रधानं छत्रगुणोपेतत्वात्. सुदुर्लभमल्पपुण्यानामिति, प्रमाणराज्ञांस्वस्वकालोचितशरीरप्रमाणोपेतराज्ञाम् अष्टसहस्रलक्षणलक्षितत्वात् प्रमाणीभूतराज्ञां वा-षट्खण्डाधिपत्वेन सर्वराजसम्मतत्वात्, एतेन वासुदेवाऽऽदिव्युदासस्तेषां त्रिखण्डभोक्तृत्वात्, चक्रवर्तिनां तपोगुणाना-सुचरितविशेषाणां फलानाम् एकदेशभागरूपं, सूत्रे क्लीबलिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात्, कोऽर्थः? चक्राधिपपूर्वार्जिततपसां फलं-सर्वस्य नवनिधानचतुर्दशरत्नाऽऽदिषु विभक्तं, तेन तदेकदेशभूतमिदं छत्ररत्न विमानवासेऽपिदेवत्वेऽपि दुर्लभतरं, तत्र चक्रवर्तित्वस्यासम्भवात्, 'वग्धारिअ त्ति' प्रलम्बितो लम्बतयाऽवलम्बितो माल्य दाम्नां पुष्पमालाना कलापः-समूहो यत्र तत्तथा, समन्ततः पुष्पमालावेष्टितमिति भावः, शारदानिशरत्कालभावीनि धवलान्यभ्राणिवाईलानि शारदश्च रजनिकरः चन्द्रः तद्वत्प्रकाशोभास्वरत्वजनित उद्द्योतो यस्य तत्तथा, दिव्य- सहस्रदेवाधिष्टितं शेषपदयोजना प्राक् कृतैवास्ति। अथ प्रकृतम्'तए ण' इत्यादि, ततस्तदिव्यं छत्ररत्नं भरतेन राज्ञा परामृष्ट-स्पृष्ट सत्क्षिप्रमेव चर्मरत्नवत् द्वादश योजनानि साधिकानि तिर्यक् प्रविस्तृणाति साधिकत्वं चात्र परिपूर्णचर्मरत्नपिधायकत्वेन, अन्यथा किरातकृतवृष्ट्युपद्रवः स्वसैन्यस्य दुर्वारः स्यादिति। अथ छत्ररत्नप्रविस्तरणानन्तरं यच्चक्रे तदाहतए णं से भरहे राया छत्तरयणं खंधावारस्सुवरि ठवेइ, ठवेत्ता गणिरयणं परामुसइ, वेढो० जावछत्तरयणस्सवत्थिभागसि ठवेइ, तस्स य अणतिवरं चारुरूवं सिलणिहिअत्थ मंतमेतसालिजवगोहूममुग्गमासतिलकुलत्थसट्टिगनिप्फावचणगकोद्दवकोत्थु भरिकं गुवरगरालगअणेगधण्णावरणहारिअगअलगमूलगहलिद्दलाउअतउसतुंवकालिंगकविट्ठअंबअंबिलिअसव्वणिप्फायएसुकुसले गाहावइरयणे त्तिसव्वजणवीसुअगुणे।तएणंसे गाहावइरयणे भरहस्स रण्णो तदिवसप्पइण्णणिप्फाइअपूइआणं सव्वधण्णाणं अणेगाई कुंभसहस्साई उवट्ठवेति, तए णं से भरहे Page #1463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1455 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छन्ने मणिरयणकउज्जोए चर्मरत्ने बीजवपनेन? तन्निरपेक्षतयैव तत् निष्पादयतु, तस्य दिव्यसमुग्गयभूएणं सुहंसुहेणं सत्तरत्तं परिवसइ- "ण विसे खुहा ण शक्तिकत्वात्। उच्यते-इतरकारणकलापसंघटनपूर्वकत्वेनैव कारणस्य विलिअं, णेव भयं व विज्जए दुक्खं। भरहाहिवस्स रण्णो, कार्यजनकत्वनियमात्, अन्यथा-सूर्यपाकरसवतीकारा नलाऽऽदयः खंधावारस्स वि तहेव / / 1 / / " (सूत्रम्-६०) सूर्यविद्यामहिम्ना रसवती परिपचन्तोऽपि तन्दुलसूपशाकवेषवाराऽऽदि'तएणं इत्यादि, ततः स भरतः छत्ररत्नं स्कन्धावारस्योपरि स्थाप- सामग्रीनपिरन्निति, अत एव सुकुशलम्-अतिनिपुणं निजकार्यविधायति, स्थापयित्वा च मणिरत्नं परामृशति, वेढा जाव ति अत्र वतिनिपुणं शेषं प्राग्योजितम्-अथोक्तगुणयोगि गृहपतिरत्नं यदवसमणिरत्नस्य वेष्टकोवर्णको यावदिति सम्पूर्णो वक्तव्यः पूर्वोक्तः, सच रोचितं चकार तदाह- 'तएणं' इत्यादि, ततः चर्मरत्नच्छत्ररत्नसम्पुट'तोतंचउरंगुलप्यमाणं इत्यादिकः, परामृश्य चचर्मरत्नछत्ररत्नसम्पुट- संघटनानन्तरं तद् गृहपतिरत्नं भरतस्य राज्ञः स एव दिवसस्तदिवसःमिलननिरुद्धसूर्यचन्द्राऽऽद्यालोके सैन्येऽह-निशमुद्योतार्थ छत्ररत्नस्य उपस्थानदिवसस्तस्मिन् प्रकीर्णकानाम-उप्तानां निष्पादिताना परिवस्ति भागे मणिरत्नं स्थापयति, ननु एवं सति सकलसैन्याव- पाकदशां प्रापितानां पूतानांनिर्बुसीकृतानां सर्वधान्यानामनेकानि रोधःसमजनि, तथा च-तत्र कथं भोजनाऽऽदिविधिरित्याशङ्कमानं 'कुम्भसहस्राणि' कुम्भाना राशिरूपमानविशेषाणां सहस्राणि उपस्थापप्रत्याह- 'तस्स य अणतिवरं' इत्यादि, तस्यभरतस्य राज्ञः, चो वाच्या- यति-उपढौकयति; प्राभृतीकरोतीत्यर्थः, कुम्भमान त्वेवमनुयोगद्वारन्तरद्योतनार्थः, गृहपतिरत्नकौटुम्बिकरत्नमस्तीति गम्यते, किंविशि- सूत्रोक्तं- "दो असईओ पसई. दो पसईओ सेइआ, चत्तारि सेइआओ ष्टम्? इति-अमुना प्रकारेण सर्वजनेषु विश्रुता गुणा यस्य तत्तथा, इतीति कुडओ, चत्तारि कुडया पत्थो, चत्तारि पत्थया आढयं, चत्तारि आढया किं? न विद्यते अतिवरम्-अतिप्रधानं वस्तु अपरं यस्मात्तत्तथा दोणो, सद्धि आढयाई जहण्णए कुंभे, असीति आढयाई मज्झिमए कुंभे, चारुरूपमिति व्यक्तं, तथा शिला इव शिला अतिस्थिरत्वेन चर्मरत्नं आढयसयं उमोसएकुंभेत्ति।" अत्र व्याख्या-अत्राशतिः- अवाड्मुखतत्र निहितमात्राणाम्-उप्तमात्राणां न तु लौकिक प्रसिद्धभृमिखेटन- हस्ततलरूपा मुष्टिरित्यर्थः, तत्प्रमाणं धान्यमप्यशतिरेवोच्यते, तद्वत्प्रप्रभूतिकर्मसापेक्षाणाम् 'अत्थमंत त्ति अथेवता प्रयोजनवतां भक्षणा- सृतिः-नावाकारतया व्यवस्थापिता प्राञ्जकरतलरूपोच्यते, द्वे प्रसृती ऽऽद्यर्हाणामित्यर्थः शाल्यादीनां निष्पादकं, यद्वा-शिलानिहितानां प्रति सेतिकामगधदेशप्रसिद्धो मानविशेषो, न तु इह प्रसिद्धा, तस्याः प्रस्थइति गम्यं, शाल्यादी नाम्' ' अत्थमंतमेत्त त्ति' - अस्तमयति मित्रेसूर्ये चतुर्गुणत्वात्, चतरत्रः सेतिकाः कुडवः-पलिकासमानो माप्यविशेषः, सायमित्यर्थ निष्पादकं, संवादी चायमप्यर्थः, यदुक्तं श्रीहेमाऽऽचार्यकृते चत्वारः कुडवाः प्रस्थो माणकसमानं माप्यम्. चत्वारः प्रस्था आढकःऋषभचरित्रे- "चर्मरत्नेच सुक्षेत्र, इवोप्तानि दिवामुखे। सायं धान्यान्य- सेतिकाप्रमाणः, चत्वार आढका द्रोणः- चतुः सेतिकाप्रमाणः, षष्ट्या जायन्त, गृहिरत्नप्रभावतः / / 1 / / '' इत्यादि, उभयत्र व्याख्याने पदानां आढकैः पञ्चदशभिर्दोणैरित्यर्थः, जघन्यः अशीत्या आढकैर्विशत्या व्यत्ययेन निर्देशः प्राकृत त्वात्, तत्र शालयः-कलमाऽऽद्याः यवा- द्रोणैरित्यर्थः, मध्यमः कुम्भः, तथा आढकानां शतेन पञ्चविंशत्या द्रोणैहयप्रियाः गोधूमा मुद्रा माषास्तिलाः कुलत्थाः प्रतीताः, षष्टिकाः रित्यर्थः, उत्कृष्टः कुम्भ इति, अत्र च 'सव्वधण्णाणं ति' सूत्रमुपलक्षणपर षष्ट्यहोरात्रैः परिपच्यमानास्तन्दुलाः निष्पावावल्ला वणकाः कोद्रवाः तेनान्यदपि यत्सैन्यस्य भोजनोपयोगि तत् सर्वमुपनयति, एवं सति तत्र प्रतीताः, 'कोत्धुंभरि त्ति' कुस्तुम्भोधान्यककणाः कङ्गवोबृहच्छि- भरतः कथं कियत्कालं च स्थितवानित्याह- 'तए णं' इत्यादि, ततो रस्काः 'वरग त्ति वरट्टाः रालका-अल्पशिरस्काः, उपलक्षणात् मसूरा- गृहपतिरत्नकृतधान्योपस्थापनानन्तरं स भरतः चर्मरत्नाऽऽरूढश्छऽऽदयोऽन्येऽपि धान्यभेदा ग्राह्याः, अनेकानिधान्या इति-धान्यापत्राणि त्ररत्नेन समवच्छन्नः-आच्छादितो मणिरत्नकृतोद्योतः समुद्रकसम्युट वरणो-वनस्पतिविशेषस्तत्पत्राणि एतत्प्रभृतीनि यानि हरितकानि भूत इवप्राप्त इव सुखसुखेनत्यर्थः, सप्तरात्रंसप्त दिनानियावत्परिवसति, पत्रशाकानि मेघनादवास्तुलकाऽऽदीनि, पूर्व च कुस्तुंबरीशब्देन एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह - ‘णवि संखुहा ण' इत्थादि, न (से)-तस्य धान्यभेदः संगृहीतः, इदानीं तत्पत्राणां भक्ष्यत्वेन पत्रशाकेषु संग्रह इति भरताधिपस्य राज्ञः क्षुद्-बुभुक्षा, अपिशब्दः पद्ययन्धत्वेन पादपूरणार्थम्, न पौनरुक्त्यम्, 'अल्लगमूलगहलिद्द त्ति' आर्द्रकहरिद्रे प्रतीते, एते च एवकारार्थो वा न व्यलीकंवैलक्ष्यं दैन्य-मित्यर्थः, नैव भयं नैव विद्यतं सूरणकन्दाऽऽधुपलक्षणभूते, मूलकंहस्तिदन्तकम्, इदं च गृञ्जनाऽऽदि- दुःखम्, इयमेव गाथा श्रीवर्द्धमानसूरिकृत ऋषभचरित्रे तु एवं- 'ण विसे मूलकोपलक्षणम्, एतेन कन्दमूलशाके कथिते, अथ फलशाकान्याह- खुहाण वि तिसा, णेव भयंक' शेष प्राग्वत्, 'खंध' इत्यादि, स्कन्धावारअलाबु तुम्बं त्रुपुष चिर्भटजातीयं तुम्बकलिङ्ग-कपित्थामाम्लिकाः स्यापि तथैव, यथा भरतस्य न क्षुदादि तथा सैन्यस्यापि नेत्यर्थः / प्रतीताः, इदमपि फलशाकोपलक्षणं तेन जीवन्त्यादिपरिग्रहः, अलावु ततः किं जातमित्याहतुम्ययोलम्बत्ववृत्तत्वकृतो भेदः, स च संजातीयबीजकृत इति जनप्र- तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि सिद्धिः, सर्वशब्देन चोक्तातिरिक्तशाकाऽऽदीनां ग्रहः, ननु यदि गृहपति- इमे आरूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणो गए संकप्पे रत्नमचिरक्रियया मन्त्रसंस्क्रियया धान्याऽऽदिक निष्पादयति तर्हि किं / समुप्पञ्जित्था-के सणं भो ! अपत्थिअपत्थए दुरंतपंतल Page #1464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह क्खणे० जाव परिवञ्जिए जे णं ममं इमाए एआणुरूवाए० जाव अभिसमण्णागयाए उप्पिं विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठि० जाव वासं वासइ / तए णं तस्सं भरहस्स रण्णो / इमेआरूवं अब्भत्थिअं चिंतियं पत्थिअंमणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणित्ता सोलस देवसहस्सा सण्णज्झिउं पदत्ता यावि होत्था, तए णं ते देवा सण्णद्धबद्धवम्मिअकवया०जाव गहिआउहप्पहरणा जेणेव ते मेहमुहा णागकुमारा देवा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मेहमुहे णागकुमारे देवे एवं वयासी-हं भो ! मेहमुहा णागकु मारा ! देवा अप्पत्थिअपत्थगा० जाव परिवजिआ किण्णं तुब्भि णयाणह भरहं रायं चाउरंतचक्कवट्टि महिद्धिअं० जाव उद्दवित्तए वा पडिसेहित्तए वा तहाऽवि णं तुब्भे भरहस्स रण्णो विजयखंधावारस्स उप्पिं जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणभित्ताहिं धाराहिं ओघमेधं सत्तरत्तं वासं वासह, तं एवमवि गते इत्तो खिप्पामेव अवक्कमह, अवह णं अज्ज पासह चित्तं जीवलोगं, तएणं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा तेहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा भीआ तत्था वहिआ उदिवगा संजायभया मेधानीकं पडिसाहरंति पडिसाहरित्ता जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता आवाडचिलाए एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिआ ! भरहे राया महिद्धीए० जाव णो खलु एस सक्का केणइ देवेण वा०जाव अग्गिप्पओगेण वा० जाव उवद्दवित्तए वा पडिसेहित्तए वातहावि अणं ते अम्हेहिं देवाणुप्पिआ ! तुब्भं पिअद्वयाए भरहस्स रण्णो उवसग्गे कए, तं गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिआ ! ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउअमंगलपायच्छित्ता उल्लपडसाडगा ओचूलगणिअच्छा अग्गाई वराई रयणाइं गहाय पंजलिउडा पायवडिआ भरहं रायाणं सरणं उवेह, पणिवइअवच्छ लाखलु उत्तमपुरिसा णत्थि भे भरहस्स रण्णो अंतिआओ भयमिति कट्ट, एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया / तए णं ते आवाडचिलाया मेहमुहेहिं णागकुमारेहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा उठाए उट्टेति, उढेत्ता पहाया कयबलिकम्मा कयकोउअमंगलपायच्छित्ता उल्लपडसाडगा ओचूलगणि-अच्छा अग्गाई वराई रयणाइं गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उवाग- / च्छित्ता करयलपरिग्गहिअं० जाव मत्थए अंजलिं कटु भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धाविति बद्धावित्ता अग्गाई वराई रयणाई उवणेति, उवणेत्ता एवं बयासी"वसुहर गुणहर जयहर, हिरिसिरिधीकित्तिधारकणरिंद। लक्खणसहस्सधारक, रायमिदं णे चिरं धारे।।१।। हयवइ गयवइ णस्वइ, णवणिहिवइ भरहवासपढमवई। बत्तीसजणवयसहस्सरायसामी चिरं जीव२|| पढमणरीसर ईसर, ढिअईसर महिलिआसहस्साणं / देवसयसाहसीसर, चोद्दसरयणीसर जसंसी // 3 // सागरगिरिमेरागं, उत्तरवाईणममिजिअं तुमए। ता अम्हं देवाणुप्पिअस्स विसए परिवसामो // 4 // " अहो णं देवाणुप्पिआणं इड्डी जुई जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए, तं दिट्ठाणं देवाणुप्पिआणं इद्धी एवं चेव० जाव अभिसमाण्णागए, तं खामेमु णं देवाणुप्पिआ ! खमंतु णं देवाणुप्पिआ ! खंतुमरुहंतु णं देवाणुप्पिआ ! णाइ भुजो भुजो एवंकरणयाए तिकट्ट पंजलिउडा पायवडिआ भरहं रायं सरणं उविंति / तए णं से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अग्गाइं वराइं रयणाई पडिच्छंति, पडिच्छित्ता ते आवाडचिलाए एवं वयासी-गच्छह णं भो तुब्भे ममं बहुच्छायापरिग्गहिया णिब्भया णिरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसह, णत्थि भे कत्तो वि भयमत्थि त्ति कटु लक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। तए णं से भरहे राया सुसेणं सेणावई सद्दावेइ, सद्यावेत्ता एवं वयासीगच्छाहि णं भो देवाणु प्पिआ ! दोचं पि सिंधूए महाणईए पचच्छिमं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि, ओअवे(हि)त्ता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि, पडिच्छित्ता मम एअमाणत्तिअंखिप्पामेव पचप्पिमाहि जहा दाहिणिल्लस्स ओयवणं तहा सव्वं भाणिअव्वं०जाव पच्चगुभवमाणा विहरंति / (सूत्रम्-६१) 'तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सत्तरत्त' इत्यादि, ततः समुदगकभूततयाऽवस्थानानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः सप्त रात्रे परिणमति सति अयमेतद्रूपो यावत्सङ्कल्पः समुदपद्यत, तमेव प्रादुर्भावयन्नाह- 'केसणं' इत्यादि, क-एष भोः सैनिका अप्रार्थितप्रार्थकाऽऽदिविशेषणविशिष्टो यो मम अस्यामेतद्रूपायां यावदिव्यायां देवानामिव ऋद्धिर्देवस्य वाराज्ञ ऋद्धिर्देवर्द्धिस्तस्यां सत्याम् एवं दिव्यायां देवद्युतौ दिव्येन देवानुभावेन देवानुभागेन वा देवानामिव योऽनुभागोऽनुभावो वा-प्रभावस्तेन सह लब्धायांप्राप्तायामभिसमन्वागतायां सत्याम् उपरि स्कन्धावारस्य 'जुग-मुसलमुट्ठि जाव त्ति' युगमुसलमुष्टिप्रमाणमात्राभिर्धाराभिर्वर्ष वर्षतिवृष्टिं करोति, अत्र किरातगृह्याणामेव केषाश्चिदयमुपद्रवोपक्रम इति सामान्यतो ज्ञानेऽपि 'मानधनाना प्रभूणां गर्वगर्भिता गिरस्त्वङ्काररेकारबहुला एव भवेयुः, इति क एष इत्यादिक आक्रोशस्तत्र एकवचननिर्देशः यथा उपस्थितेष्वपि बहुषु वेरिषुस को वर्त्तते यो मामुपतिष्ठते इत्यादौ, इति भूपतिभावं परिभावं परिभाव्य यक्षा यच्चकुस्तदाह- 'तए Page #1465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1457 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह गं' इत्यादि, ततश्च उक्तचिन्तासमुत्पत्यनन्तरं भरतस्य ममेतादृशं यावत्सङ्कल्पं समुत्पन्न ज्ञात्वा चतुर्दशरत्नाधिष्ठायकदेवसहस्राणि चतुर्दश द्वे सहस्र स्वाङ्गाधिष्ठातृदेवभूते इत्येवं षोडशदेवसहस्राः यद्यपि स्त्रीरत्नस्य वैताठ्यसाधने सम्पत्स्यमानत्वेन रत्नाना त्रयोदशसहस्रा एव सम्भवेयुस्तथापि सामान्यत एतद्वचनमिति सन्नद्रुप्रवृत्ताश्चाप्यभवन्-युद्धायोद्यता अभूवन्नित्यर्थः, कथमित्याह-'तएण' इत्यादि, अनुवादसूत्रत्वात्प्राग्वत्, किमवोचुस्ते भरतस्य सन्निहिता देवा इत्याह- हे भो ! मेघमुखा-इत्यादि प्राग्वत्, किमिति प्रश्ने न जानीथेत्यत्र काकुपाठेन व्याख्येयं, तेन न जानीथ किं यूयम्? अपि तु जानीथ, भरतं राजानं चतुरनन्तचक्रवर्त्तिनं यदेष न कश्चिदपि देवदानवाऽऽदिभिः शस्त्रप्रयोगाऽऽदिभिरुपद्रवयितुंवा प्रतिषेधयितुं वा शक्यते इति, अज्ञानपूर्विका हि प्रवृत्ति-महतेऽनाय प्रवर्तकस्य च बाढं बालिशभावोद्भावनाय च भवे-दिति भापयन्तस्ते यथा उत्तरवाक्यमाहुस्तथाऽऽह- तथापि- जागत्यजय्यं जानन्तोऽपीत्यर्थः, यूयं भरतस्य राज्ञो विजयस्कन्धावारस्योपरि यावर्ष वर्षत तत्तस्मादेवमविमृष्टकारितायां सत्यामपि गते अतीते कार्य किं बहु अधिक्षिपामः? तस्य क्रियाऽऽन्तराऽऽपादनेन संस्कारानहत्वात् इतः क्षिप्रमे-- वापक्रामतः-मत्कुणा इवापयातः, अथवेति विकल्पान्तरे यदि नापक्रामत तर्हि अद्यसाम्प्रतमेव पश्यत चित्रंजीवलोकवर्तमानभवादन्यं भवं पृथिवीकायिकाऽऽदिकम, अपमृत्युप्राप्नुत्तेत्यर्थः, क्रियादेशेऽत्र पक्षमीप्रयोगः, ननु निरुपक्रमायुऽऽषा देवानामपमृत्योरसम्भवात् सबाधमिदं वचनम्, उच्यते- सूत्राणां विचित्रत्वेन भयसूत्रत्वेन विवक्षणान्न दोषः। 'तए णं' इत्यादि, सर्वं प्राग्वत्, नवरं मेघानीकं प्रतिसंहरन्ति-धनघटामपहरन्ति, वृष्टयुपरमेचततः सम्पुटाचक्रिसैन्यं निर्गच्छदुपलभ्य लोकिकैरुक्तं ब्रह्मणा सृष्टमिदमण्डक तत इयं जगतः प्रसूतिरित्येवं सर्वत्र प्रवादोऽभूत्ततोऽपिच ब्रह्माण्ड-पुराणं नाम शास्त्रमभूदिति प्रसङ्गारोध्यमिति / अथ यदुक्तम् ‘एवं वयासित्ति' तत्र किमवादिषुरित्याह- 'तएणं' इत्यादि, हे देवानुप्रिया! एष भरतो राजा महर्द्धिको यावन्नो खलु एष शक्यते देवाऽऽदिभिरस्व प्रयोगाऽऽदिभिर्यावन्निषेधयितुं तथाऽपिअस्माभिर्देवानुप्रिया ! युष्माकं प्रीत्यर्थ भरतस्य राज्ञ उपसर्गः कृतः, तद्गच्छत देवानुप्रिया यूयं स्नाना- | ऽऽदिविशेषणाः आगे - सद्यः स्नानवशाज्जलक्लिन्नौ पटश टकौउत्तरीयपरिधाने येषां ते तथा एतेन सेवाविधादविलम्बः सूचितः, अवचूलकम् अधोमुखाञ्चलं मुत्कलाञ्चलं यथा भवत्येवं नियत्थं येषां ते तथा, एतेन परिहितवस्त्रबन्धनकालावध्यपि न विलम्बो विधेय इति सूचितम्, अथवाऽनेनाबद्धकच्छत्वं सूचितं, तदुपदर्शनेन स्वदैन्यं दर्शितमिति, बद्धकच्छत्वदर्शन हि उत्कटत्वसम्भावनाया जनप्रसिद्धत्वात्, अग्याणि वराणि रत्नानि गृहीत्वा प्राञ्जलिकृताः- कृतप्राञ्जलयः पादपतिताःचरणन्यस्तमौलयो भरतं राजाने शरणमुपेतयात प्रणिपतितवत्सलाःप्रणम्रजनहितकारिणः खलु उत्तमपुरुषाः, नास्ति (भे) भवतां भरतस्य राज्ञोऽन्तिकाद्भयमिति कृत्वा इति उदित्वेत्यर्थः, यस्या दिशः प्रादुर्भूता- | स्तामेव दिशं प्रति गता इति। अथ भग्नेच्छाम्लेच्छा यच्चकुस्तदाह- 'तए | ' इत्यादि, सर्व गतार्थ, नवरं रत्नान्युपनयन्ति-प्राभृतीकुर्वन्तीत्यर्थः, अथ यदुक्तम्- ‘एवं वयासि त्ति।' तत्र किमवादिषुरित्याह- 'वसुहर' इत्यादि, हे वसुधर ! द्रव्यधर षट्खण्डवर्तिद्रव्यपते इति यावत्, अथवा तेजोधर गुणधरगुणवान् जयधरविद्वेषिभिरधर्षणीय ! ही:- लज्जा श्रीःलक्ष्मीधृतिः- सन्तोषः कीर्त्तिः-वर्णवादः, एतेषां धारक नरेन्द्रलक्षणसहखाणाम, अनेकलक्षणानां धारक (णो) अस्माकं राज्यमिदं चिरं धारयः पालय इत्यर्थः, अस्माद्देशाधिपतिर्भव चिरकालं यावदिति प्रथमगाथार्थः // 1 // 'हयवइ गयवई इत्यादि, हे हयपते ! गजपते ! हे नरपते ! नवनिधिपते ! हे भरतवर्षप्रथमपते! द्वात्रिंशज्जनपदसहस्राणां-देशसहस्राणां ये राजानस्तेषां स्वामिन् ! चिरंजीव चिरंजीव इति द्वितीयगाथार्थः 12 पढमणरीसर ईसर' इत्यादि, हे प्रथमनरेश्वर ! हे ऐश्वर्यधर ! हे महिलिकासहस्राणां-चतुःषष्टिस्त्रीसहस्राणां हृदयेश्वर-प्राणवल्लभ देवशतसहस्राणां-रत्नाधिष्ठातृमागधतीर्थाधिपाऽऽदिदेव-लक्षणमीश्वर ! चतुर्दशरत्नेश्वर ! यशस्विन् इति तृतीयगाथार्थः / / 3 / / तथा 'सागर' इत्यादि, सागरः पूर्वापरदक्षिणाऽऽख्यः समुद्रः गिरिः- क्षुद्रहिमाचलस्तयोमर्यादा-अवधिर्यत्र तत्तथा, उक्तदि-त्रये समुद्रावधिकमुत्तरतो हिमाचलावधिकम्, उत्तरापावीनम्- उत्तरार्द्धदक्षिणार्द्धभरतं परिपूर्णभरतमित्यर्थः, त्वयाऽभिजित, यदत्र भरतस्य हिमवगिरिपर्यन्तता व्याख्याता तदवश्यं साधयिष्यमाणत्वेन भाविनि भूतवदुपचारः' इति न्यायात्, अन्यथा नवनिधिपते ! चतुर्दशरत्नेश्वर इत्यादिविशेषणानामप्यनुपपत्तिः, नवनिधीनां तथा सम्पूर्णचर्तुदशरत्नानामथैव सम्पत्स्यमानत्वात्, (ता)-तस्माद्वयं देवानुप्रियस्य विषये परिवसामः, युष्माकं प्रजारूपाः स्म इत्यर्थः, इति चतुर्थगाथाऽर्थः // 4|| तथा अहो इति आश्चर्ये, देवानुप्रियाणाम् ऋद्धिषुतिर्यशो बल वीर्यं पुरुषकारः पराक्रम एतेषां व्याख्यान प्राग्वत्, ऋझ्यादीन्याश्चर्यकारीणि कृत इत्याहदिव्यासर्वोत्कृष्टा देवस्येव द्युतिः,एवं दिव्यो देवानुभावो देवानुभागो वा लब्धः - प्राप्तः अभिसमन्वागतो देवपादरित्यध्याहार्य, परतः श्रुतेऽपि गुणातिशये आश्चर्योत्पत्तिः स्यात्, दृष्ट तु सुतरामित्याशयेनाऽऽह- तद् दृष्टा देवानुप्रियाणां ऋद्धिः-सम्पत् / चक्षुः- प्रत्यक्षेणानुभूतेत्यर्थः, श्रवणतो दर्शनस्यातिसंवादकत्वात्. एवं चैवेति उक्त-यायेन दृष्टा देवानुप्रियाणां द्युतिः, एवं यशोबलाऽऽदिकमपि दृष्टमित्यादि वाच्यं, यावदभिसमन्वागत इति पदं, यावत्पदसंग्रहस्तु- 'इड्डी जसे बले वीरिए' इत्यादिकोऽनन्तरोक्त एव, तत्क्षमयामो देवानुप्रिया वयं, सानुशयाऽऽशयत्वात् स्वबालचेष्टितं क्षमन्तां देवानुप्रियाः ! क्षन्तुमर्हन्तिक्षमा कर्तु योग्या भवन्ति देवानुप्रियाः महाशयत्वात्, प्राकृतत्वाद्वर्तमानार्थे पञ्चमी, 'णाइ त्ति' नैव 'आई' इति निपातोऽवधारणे भूय एवंकरणतायै सम्पत्स्यामह इति शेषः, अत्र ताकारः प्राकृतशैलीभवः, इति कृत्वा प्राञ्जलिकृताः पादपतिता भरतं राजाने शरणमुपयान्ति, अथ प्रसादाभिमुखभरतकृत्यमाह- "तए णं से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाण' इत्यादि, ततः स भरतो राजा तेषामापातकिरातानामग्याणि वराणि रत्ना Page #1466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1458 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ति प्रतीच्छति-गृह्णाति- प्रतीच्छ्य च तानापातकिरातानेवमवादीत्गच्छत भो ! देवानुप्रियाः यूयं, स्वस्थानमिति शेषः, मम बाहुच्छायया परिगृहीताः स्वीकृताः मया शिरसि दत्तहस्ताः निर्भया निरुद्विग्नाःउद्वेगरहिताः सुखं सुखेन परिवसत, अत्र 'छायायां हो कान्तौ वा' इत्यनेन (श्रीसिद्धहे० अ०८ पा०१ सू०२४६) सूत्रेण वैकल्पिकविचित्वान्न हकारत्वं, नास्ति (भे)-भवतां कुतोऽपि भयमिति कृत्वा सत्कारयति, सन्मानयति, सत्कृत्य सन्मान्य च प्रतिविसर्जयति- स्वस्थानगमनायातिदिशति / अथ किरातसाधनोत्तरकालं नरेन्दुः किं चक्रे इत्याह- 'तए णं से भरहे राया सुसेण' इत्यादि, ततः- किरातसाधनानन्तरं भरतः सुषेणं सेनापति शब्दयति, शब्दयित्वा च एवमवादीत- गच्छ भो देवानुप्रिय ! द्वितीयम् अपिः समुचये, पूर्वसाधितनिष्कुटापेक्षया सिन्ध्या महानद्याः पश्चिमं पश्चिमभागवर्त्ति निष्कुट-प्राग्व्यावर्णितस्वरूपं सिन्धुः नदी सागरः- पश्चिमाब्धिः उत्तरतः क्षुल्लहिमवगिरिदक्षिणतो वैताट्यगिरिश्व तैमर्यादा यस्य तत्तथा, एतैः कृतविभागमित्यर्थः, शेषं प्राग्वत्, लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह- 'जहा दाहि-णिल्ल' इत्यादि, यथा दाक्षिणात्यस्य सिन्धुनिष्कुटस्य ओअवणं' साधन तथा सर्व भणितव्यं, तावद्वक्तव्य यावत्सेनानीर्भरतविसृष्टः पञ्चविधान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् विहरति। अथ तदनन्तरं किं जातमित्याहतए णं दिवं चक्करयणे अण्णया कयाइ आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमिता अंतलिक्खपडिवण्णे० जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं चुल्लहिम-वंतपव्व-यामिमुहे पयाते यावि होत्था / तए णं से भरहे राया तं दिव्यं चक्करयणं० जाव चुल्लहिमवंतवासदरपव्वयस्स अदूरसामंते दुवालसजोयणायामं० जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, तहेव जहा मागहतित्थस्सजाव समुद्दरव भूयं पिव करेमाणे करेमाणे उत्तरदिसाभिमुहे जेणेव चुलहिमवंतवासहरपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चुलहिमवंत वासहरपव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ, फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ, णिगिण्हित्ता तहेव० जाव आयतकण्णायतं च काऊण उसुमुदारं इमाणि वयणाणि तत्थ भाणीम से णरवई० जाव सव्वे मे ते विसयवासि त्ति कट्ट बद्धं वेहासं उसु णिसिरइ, परिगरणिगरिअमज्झे० जाव तएणं से सरे भरहेणं रण्णा उर्ल्ड वेहासं णिसट्टे समाणे खिप्पामेव गावत्तरि जोअणाई गंता चुलहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स मेराए णिवइए, तए णं से चुलहिमवंतगिरिकुमारे देवे मेराए सरं णिवइअंपासइ, पासित्ता आसुरुते रुद्रु० जाव वीइदाणं सव्वोसहि च मालं गोसी-सचंदणं कडगाणिजाव दहोदगं च गेण्हइ, गेण्हित्ता ताए उकिट्ठाए०जाव उत्तरेणं चुलहिमवंतगिरिमेराए अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी-०जाव अहण्णं देवाणुप्पिआणं उत्तरिल्ले अंतवाले०जाव पडिविसजेइ। (सूत्रम्-६२) 'तए णं दिटवे चक्करयणे' इत्यादि, ततः- ओत्तराहसिन्धुनिष्कु- | टसाधनानन्तरं तद्दिव्य चक्ररत्नम् अन्यदा कदाचित् आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रानति, प्रतिनिष्क्रम्य च अन्तरिक्षपतिपन्नं, यावत्पदात् 'जक्खसहस्ससपरिवुडे दिव्वतुडिअसद्दसण्णिणाएणं पूरेन्ते चेव अंबरतलं' इति, उत्तरपूर्वस्यां दिशि ईशाने कोणे क्षुद्रहिमवत्पर्वताभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत्, ततः-शिबिरनिवेशात् क्षुद्रहिम-वगिरिमध्यं पियासोः उत्तरपूर्वायां चलनमेव ऋजुमार्गः, ततो नरेन्दुर्यत्कृतवांस्तदाह- 'तए णं से भरहेराया तं दिव्वं चक्करयण' इत्यादि,ततः स भरतस्तदिव्यं चक्ररत्नम् अभिक्षुद्रहिमवद्रिरि प्रयातं दृष्ट्वा कौटम्बिकपुरुषाज्ञापनं हस्तिरत्नप्रतिकल्पनं सेनासन्नाहनं स्नानविधानं हस्तिरत्नाऽऽरोहणं मार्गाऽऽगतपुरनगरदेशाधिपवशीकरणं तत्प्राभृतस्वीकरणं चक्ररत्नानुगमन योजनान्तरितवसतिवसनं च करोतीत्यादिपिण्डार्थः प्रथमयावत्पदग्राह्यः, अत्र यावत्पदसंग्राह्यसूत्रलिखने बहुविस्तरः स्यादितितदुपेक्षा, ततः क्षुल्लहिमवगिरिसमीपे द्वादशयोजनायामम् अत्र यावच्छब्दान्नवयोजनविस्तीर्णाऽऽदिविशेषणविशिष्ट स्कन्धावारं निवेशयति, वर्द्धकिरत्नं शब्दयति पौषधशालां विधापयति, पौषधं च करोतित्यादि ज्ञेयं, क्षुद्रहिमवगिरिकुमारस्य देवस्य साधनायेति शेषः, कियत्पर्यन्त इत्याह-यावत्समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणः कुर्वाण इति, अत्र'तहेव त्ति' पदवाच्यमष्टमभक्तप्रतिजागरणं तत्समापन कोटुम्बिकाऽऽज्ञापन सेनासन्नाहनम् अश्वरथप्रतिकल्पनं स्नानविधानम् अश्वरथाऽऽरोहण चक्ररत्नमार्गानुगमनं च करोतीत्यादि ज्ञेयं, सैन्यसमुत्थकलकलरवेण समुद्ररवभूतमिव पृथिवीमण्डलं कुर्वन् 2 उत्तरदिगभिमुखो यत्रैव च क्षुद्रहिमवद्वर्षधरपर्वतः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चक्षुलहिमवद्वर्षवरपर्वत त्रिकृत्वः- त्रीन्वारान् रथशिरसा- रथाग्रभागेन काकमुखेनेत्यर्थः स्पृशति, अतिवेगप्रवृत्तस्य वेगिवस्तुनः पुरस्थप्रतिबन्धकमित्यादिसंघटने विस्ताडनेन वेगपातदर्शनादत्र त्रिरित्युक्तं, स्पृष्ट्वा च तुरगान् निगृह्णातिवेगप्रवृत्तान् वाजिनो रक्षति, तदनु वृत्तं यत्तदाह- 'णिगिण्हिता' इत्यादि, तुरगांश्चतुरोऽपि निगृह्य च तथैव मागधतीर्थाविकारवद्व-क्तव्यं कियद्दूरं यावदित्याहयावदावतकर्णाऽऽयतं च कृत्वा इषुमुदारमिति अत्र तहेव त्ति' वचनात् रथस्थापन धनुर्ग्रहणं शरग्रहणं च वक्तव्यं, ततस्तं शरं तथाविधं कृत्वा तत्र इमानि वचनान्यभाणीत् स नरपतिरत्र यावत्पदेन- "इंदि सुणंतु भवंतो" इत्यादिगाथाद्वयं वाच्यम् सर्वे मे ते विसयवासीतिपर्यन्तम् इति कृत्वा- इत्युचार्य ऊर्ध्वम् उपरि, एतच शुभपर्यायं स्यात् यथोर्ध्वलोकः शुभलोक इत्यादि अत उक्तम्- विहायसि आकाशे क्षुद्रहिमवगिरिकुमारस्य तत्राऽऽवासम्भवात् इषु निसृजति, 'परिगरणिगरि-अमज्झो जाव त्ति' अत्रावसरे वाणमोक्षप्रकरणाधीतं 'परिगरणि-गरिअमज्झो' इत्यादिपदोपलक्षितं यावच्छब्देन परिपूर्ण गाथाद्वयं वाच्यामिति। ततः किं जातमित्याह- 'तए णं' से इत्यादि, तत स शरो भरतेन राज्ञा ऊर्ध्व विहायसि निसृष्ट सन् क्षिप्रमेव द्विसप्तति योजनानि यावद् गत्वा क्षुद्रहिमवगिरिकुमारस्य देवस्यमर्यादायामुवितस्थाने निपतति, तएणं इत्यादि, ततः सक्षुद्रहिमवगिरिकुमारो देवो निजमर्यादायां शरं निपतितं पश्यति, द्रष्टा च Page #1467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह आसुरुप्तो रुष्ट इत्यादावेशेषणविशिष्टो यावत्करणात् भृकुटिं करोति अधिक्षिपति, शरं गृह्णाति, नाम च वाचयतीत्यादि ग्राह्य, प्रीतिदानं सर्वोषधी:- फलपामन्तवनस्पतिविशेषान् राज्याभिषेकाऽऽदिकार्योपयोगिनः माला कल्पद्रुमपुष्पमालां गोशीर्षचन्दनं च हिमवत्कुञ्जभवं कटकानियावत्पदात् त्रुटितानि वस्त्रानि आभरणानि शरंचनामाङ्कमिति ग्राह्य, द्रहोदक च-पद्मदहोदकं गृह्णाति, गृहीत्वा च तयोत्कृष्टयाऽत्र यावत्पदात् देवगत्या व्यतिव्रजति-भरतान्तिकमुपसर्पति, विज्ञपयति चेति ज्ञेयम्, उरस्यां क्षुद्रहिमवतो गिरेमर्यादायाम् अहं देवानुप्रियाणां विषयवासी यावत्पदात् 'अहं देवाणुप्पिआणत्तीकिंकरे' इति ग्राह्यम्, अहं देवानुप्रियाणाम् औत्तराहो लोकपालः, अत्र यावत्पदात् प्रीतिदानमुपनयति तद्, भरतः प्रतीच्छति, देवं सत्कारयति सन्मानयतीति, ग्राह्य, तथा कृत्वा च प्रतिविसर्जयति। अथाधिकोत्साहादष्टमभक्त तपस्तीरयित्वा कृतपारणक एवावधिप्राप्तदिग्विजयात कर्तुकामःश्रीऋषभभूः ऋषभकूटगमनायोपक्रमतेतए णं से भरहे राया तरए णिगिण्हइ, णिगिण्हित्ता रहं पारावत्तेइ, परावत्तिता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उसहकूडं पव्वयं तिक्खुतो रहसिरेणं फुसइ, फुसित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं ठोइ, ठवित्ता छत्तलं दुवालसंसिअं अट्ठकण्णिअं अहिगरणि-संठि सोवण्णि कागणिरयणं परामुसइ परामुसित्ता उसभकूडस्स पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लंसि कडगंसि णामगं आउडेइ"ओसप्पिणीइमीसे, तइआएँ समाइ पच्छिमे भाए। अहमंसि चक्कवटी, भरहो इअ नामधिजेणं // 1 // अहमंसि पढमराया, अहयं भरहाहिवो णरवरिंदो। णत्थि महं पडिसत्तू, जिअंमए भारह वासं // 2 // " इति कट्टणामगं आउडेइ, णामगं आउडित्ता रहं परावत्तेइ, परावत्तित्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव वाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता०जाव चुलहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहधरसालाओपडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता० जाव दाहिणिं दिसिं वेअड्डपव्वयाभिमुहे [याते यावि होत्था / पसूत्रम्-६३] 'तए णं' इत्यादि। ततो-हिमवत्साधनानन्तरं स भरतो राजा तुरगान् निगृह्णातिदक्षिणपार्श्वस्थहयावाकर्षति, वामपार्श्वस्थहयौ पुरस्करोति, निगृह्य च रथं परावर्त्तयति, परावर्त्य च यत्रैवर्षभकूटं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च ऋषभकूट पर्वत त्रिकृत्वो रथशीर्षण स्पृशति, स्पृष्ट्वा च रथ स्थापयति, स्थापयित्वा च षट्रतलं द्वादशासिकम् अष्टकर्णिकम् अधिकरणिसंस्थितं सौवर्णिकस्वर्णमयमष्टसुवर्णमयत्वात् काकणीरत्नं परामशति, एतेषां पदाना व्याख्यानं प्राग्वत्, परामृश्य च ऋषभकूटस्य पर्वतस्य | पौरस्त्ये कटके नामैव नामकं स्वार्थे कप्रत्ययः। आउडेइ त्ति' आजुडति सम्बद्धं करोति, लिखतीत्यर्थः / कथं लिखतीत्याह-'ओसप्पिणि' इत्यादि। अवसर्पिण्याः, अत्र षष्ठीलोपः प्राकृतवात्, अस्यास्तृतीयायाः समायाः-तृतीयारकस्य पश्चिमभागे तृतीये भागे इत्यर्थः अहमस्मि चक्रवर्ती भरत इति नाम धेयेन-नाम्ना // 1|| अहमस्मि प्रथमराजाप्रधानराजाप्रथम-शब्दस्य प्रधानपर्यायत्वाद्यथा ‘पढ़में चंदजोगे' इत्यादौ, एतद्व्याख्यानेन ऋषभे प्रथम-राजत्वं नाऽऽगमेन सह विरुध्यते, अहं भरताधिपः-भरतक्षेत्राधिपः, नरवराः-सामन्ताऽऽदयस्तेषामिन्द्रः नास्ति मम प्रतिशत्रु:- प्रतिपक्षः जितं मया भारत वर्षमिति कृत्वा नामकं 'आउडेइ त्ति' लिखति, अस्य सूत्रस्य निगमार्थकत्वान्न पौनरुक्त्यम्, अथ कृतकृत्यो यव्यवस्यति तदाह- 'णामगं आउडित्ता' इत्यादि, नामकं लिखित्वा रथं परावर्त्तयति, परावर्त्य च यत्रैव विजयस्कन्धावारनिवेशो यत्रैव च बाह्योपस्थानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च, अत्र यावत्पदात् तुरगान्निगृह्णाति, रथं स्थापयति, ततः प्रत्ववरोहति, मज्जनगृहं प्रविशति, स्नाति, ततः प्रतिनिष्क्रामति, भुक्ते, बाह्योपस्थानशालायां सिंहासने उपविशति, श्रेणीप्रश्रेणी: शब्दापयति, क्षुलहिमवद्गिरिकुमारदेवस्याष्टाहिकाकरण सन्दिशति, ताश्च कुर्वन्ति, आज्ञा च प्रत्यर्पयन्तीति ग्राह्य, ततस्तदिव्यं चक्ररत्नं क्षुल्लहिमवनिरिकुमारस्य देवस्याष्टाहिकायां महामहिमायां निवृत्तायां सत्यामायुध-गृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य च यावच्छब्दादन्तरिक्षप्रतिपन्नाऽऽदिविशेषणग्रहः, दक्षिणां दिशमुद्दिश्य वैताढ्यपर्वताभिमुखं प्रयातं चाप्यभवत्। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणंजाव वेउडस्स पव्वयस्स उतरिल्ले णितंबे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वेअद्धस्स पव्वयस्स उत्तरिल्ले णितंबे दुवालमजो-यणायाम०जाव पोसहसालं अणुपविसइ०जाव णमिविणमीणं विज्जाहरराईणं अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता पोसहसालाए०जावणमिविणमिविज्जाहररायाणो मणसी करेमाणे 2 चिट्ठइ, तए णं तस्स भरहस्सरण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि णमिविणमिविजाहररायाणो दिव्वाए मईए चोइअमई अण्णमण्णस्स अंतिअं पाउन्भवंति, पाउन्भवित्ता एवं वयासी-उप्पण्णे खलु भो देवाणुप्पिआ! जंबुद्दीवे दीये भरहे वासे भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी, तंजीअमे अं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं विज्ञाहरराईणं चक्कयट्टीणं उवत्थाणिकरेत्तए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिआ ! अम्हे वि भरहस्स रण्णो उवत्थाणि करेमो इति कटु विणमीणाऊणं चक्कवट्टि दिव्वाए चोइअमई माणुम्माणप्पमाणजुतं तेअस्सिं रूवलक्खणजुत्तं ठिअजुटवणके सवहिअणहं सव्वरोगणासणिं बलकरिं इच्छिअसीउण्हफासजुत्तं "तिसु तणुअंतिसु तंबं तिवलीगतिउण्णयं तिगंभीरं / तिसु कालं तिसु से अंतिआयतं तिसु अवित्थिण्णं // 1 // " Page #1468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1460 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह समसरीरं भरहे वासम्मि सव्वमहिलप्पहाणं सुंदरथणजघणवरकरचलणणयणसिरसिजदसणजणहिअयरमणमणहरिं सिंगारागार० जाव जुत्तोवयारकुसलं अमरवहूणं सुरूवं रूवेणं अणुहरंत्ति सुभदं सुभद्दम्मि जोव्वणे वट्टमाणिं इत्थीरयणं णमी अरयणाणि य कडगाणि य तुडिआणि अगेण्हइ, गेण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए० जाव उर्दूआए विज्जाहरगईए जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिंखिणीयाई०जाव जएणं विजएणं वद्धावेंति वद्धावेत्ता एवं बयासी-अभिजिएणं देवाणुप्पिआ! जाव अम्हे देवाणुप्पिआणं आणत्तिकिंकरा इति कटु तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ ! अम्हं इमं० जाव विणमी इत्थीरयणं णमी रयणाणि समप्पेइ। तए णं भरहे राया० जाव पडि-विसजेइ, पडिविसज्जित्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता मजणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता भोअणमंडवे० जाव नमिविनमीणं विजाहरराईणं अट्ठाहि-अमहामहिमा, तए णं से दिव्वे चक्करयणे आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ० जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं गंगादेवीभवणाभिमुहे पयाए आवि होत्था, सच्चेव सव्वा सिंधुवत्तव्वया० जाव नवरं कुंभट्ठसहस्सं रयणचित्तं णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अदुवे कणगसीहासणाई सेसं तं चेव०जाव महिम त्ति। (सूत्रम्-६४) 'तएणं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा तदिव्यं चक्ररत्नंदक्षिणा-दिशि वैताढ्यपर्वताभिमुखं प्रयातं पश्यति, दृष्ट्वा चप्रमोदादि तावद् वक्तव्यं यावद्भरतो यत्रैव वैतादयस्य पर्वतस्योत्तरपार्श्ववर्ती नितम्बः- कटकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च वैताढ्यस्य पर्वतस्योत्तरभागवर्तिनि नितम्बे द्वादशयोजनाऽऽयाम, यावत्पदकरणात् नवयोजनविस्तीर्णमित्यादिकं स्कन्धावारनिवेशाऽऽदि वाच्य, पौषधशालामनुप्रविशति भरतः, अत्र यावत्पदात् पौषधविशेषणानि सर्वाणि वाच्यानि, नमिविनम्योः- श्रीऋषभस्वामिमहासामन्तकच्छमहाकच्छसुतयोविद्याधरराज्ञोः साधनायाष्टमभक्तंप्रगृह्णाति, प्रगृहा च पौषधशालायां यावच्छब्दात् पौषधिकाऽऽदिविशेषणविशिष्टो नमिविनमिविद्याधरराजानौ मनसि कुर्वाणो मनसि कुर्वाणस्तिष्ठति, एते खगाअनुकम्प्याः एतेषामुपरि बाणमोक्षणेन प्राणदर्शनं न क्षत्रियधर्म इति सिन्ध्वादिसुरीणामिवानयोर्मनसि करणमात्ररूपे साधनोपाये प्रवृत्तः, तेन न द्वादशवार्षिकयुद्धमप्यत्राभिहितं, यत्तु हेमचन्द्रसूरिभिरादिनाथचरित्रे शरमोचनाऽऽदि चूर्णिकृता तु युद्धमात्रं द्वादशवर्शावधि अण्णे भणंति' इत्युक्त्वा उक्तं तन्मतान्तरमवसेयमिति, अत्रान्तरे यज्जातं तदाह- 'तएणं इत्यादि,तस्य भरतस्याष्टमभत्त परिणमिति सति नमिविनमी विद्याधरराजानौ दिव्यया दिव्यानुभावजनितत्वात्मत्याज्ञानेन चोदितमती प्रेरितमतिको अवधिज्ञानाऽऽद्यभावेऽपि यत्तयोर्भरतमनोविषयकज्ञानं तत्सौधर्मेशानदेवीनां मनः- प्रविचारिदेवानां कामानुषक्तमनोज्ञानमिव दिव्यानुभावादवगन्त व्यम्, अन्यथा तासामपि स्वविमानचूलिकाध्वजाऽऽदिमात्रविषयकावधिमतीनां तद्विरसाज्ञानासम्भवेन सुरतानुकूलचेष्टान्मुखत्वं न सम्भवेदिति, एतादृशावन्योऽन्यस्यान्तिकं प्रादुर्भवतः, प्रादुर्भूय च एवमवादिपाता, किमवादिषातामित्याह- 'उप्पण्णे खलु' इत्यादि, उत्पन्नः खलुःअवधारणे भो देवानुप्रिया ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतवर्षे भरतनामा राजा चतुरन्तचक्रवर्ती तस्माजीतमेतत् कल्प एषोऽतीतवर्तमानानागताना विद्याधरराज्ञां चक्रवर्तिनामुपस्थानिक प्राभूत कर्तु, तद् गच्छामो देवानुप्रिया ! वयमपि भरतस्य राज्ञ उपस्थानिकं कुर्मा 'इति कट्ट' इत्यादि इति कृत्वा-इति अन्योऽन्यं भणित्वा विनमिरुत्तरश्रेण्याधेपतिः सुभद्रां नाम्ना स्त्रीरत्न नमिश्च दक्षिणश्रेण्यधिपतिः रत्नानि कटकानि त्रुटिकानिच गृह्णातीत्यन्वयः। अथ कीदृशः सम् विनमिः किं कृत्वा सुभद्रां कन्यारत्नं गृहणातीत्याह- दिव्यया मत्या नोदितमतिः सन् चक्रवर्तिनं ज्ञात्वा, अत्रानन्तरोक्तसूत्रतश्चक्रवर्तित्वे लब्धेऽपि यत् ‘णाऊण' चमवट्टि इत्याधुक्तं तत् सुभद्रा स्त्रीरत्नमस्यैवोपयोगीति योग्यताख्यापनार्थ, किंलक्षणां सुभद्रामित्याह- 'मानोन्मानप्रमाणयुक्ता' तत्र मानं जलद्रोणप्रमाणता, उन्मान- तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता यश्च स्वमुखानि नव समुच्छितः स प्रमाणोपेतः स्यात् / अयमर्थः - जलपूर्णायां पुरुषप्रमाणादीषदतिरिक्तायां महत्यां कुण्डिकायां प्रवेशितो यः पुरुषः सारपुद्गलोपचितो जलस्य द्रोणं त्रिटङ्कसौवर्णिकगणनापेक्षया द्वात्रिंशत्सेरप्रमाणं निष्काशयति, जलद्रोणोनां वा तां पूरयति स मानोपेतः, तथा सारपुद्गलोपचितत्वादेव यस्तु-लायामारोपितः सन्नद्धभारंपलसहस्राऽऽत्मकं तुलयति स उन्मानोपेतः, तथा यद्यस्याऽऽत्मीयमगुल तेनाङ्गुलन द्वादशाङ्गुलानि मुखं प्रमाणयुक् अनेन च मुखप्रमाणेन नव मुखानि पुरुषः प्रमाणयुक्त : स्यात्, प्रत्येक द्वादशाङ्गुलैनवभिर्मुखैरष्टोत्तरशतमगुलानां सम्पद्यते, ततश्चैतावदुच्छ्रयः पुरुषः प्रमाणयुक्तः स्यात्, एवं सुभद्राऽपि मानोन्मानप्रमाणयुक्ता, तथा तेजस्विनी व्यक्तं रूपसुन्दराऽऽकारो लक्षणानि च-छत्रादीनि तैर्युक्तां, स्थितमविनाशित्याद्यौवनं यस्याः सा तथा, केशवदवस्थिता-अवद्धिष्णवो नखा यस्याः सा तथा, ततः पदद्वयकर्मधारये ताम्। अयं भावः- भुजमूलाऽऽदिरोमाण्यजहद्रोमस्वभावान्येव तस्याः स्युरिति, अन्यथा तत्केशपाशस्य प्रलम्बतया व्याख्यानम् उत्तर-सूत्रे करिष्यमाणं नोपपद्यते,( तस्याः स्पर्शः चक्रवर्तिनः सर्वदोषनाशक इत्यर्थः, त चैवमन्तरामये दाघज्वरोपगते ब्रह्मादत्तचक्रवर्तिनि व्यभिचारः, प्रत्यासन्नमृत्योस्तदानी तत्स्पर्शसहने सामर्थ्याभावात् अवश्यंभाविवस्तुत्वाच्च (ही० वृत्तौ) सर्वरोगनाशनी , तदीयस्पर्शमहिम्ना सर्वे रोगा नश्यन्तीति, तथा बलकरी सम्भोगतो बलवृद्धिकरी नापरपुरन्ध्रीणामिवास्याः परिभोगे परिभोक्तुबलक्षय इति भावः / ननु यदि श्रूयते समये हस्तस्पृष्टाश्वग्लानिदर्शनेन स्त्रीरत्नस्य स्वकामुकपुरुषविभीषिकोत्पादनं तर्हि कथमेतदुपपद्यते ? उच्यते- चक्रवर्त्तिनमेवापेक्ष्यैतद्विशेषणद्वयस्यव्याख्यानात्, यत्तु सत्यपि स्त्रीरत्ने ब्रह्मदत्तचक्रभृतो दाहानुपशमः तत्र समाधानमधस्तनग्रन्थ दण्डकवर्णनव्याख्यातोऽवसेयम्, ईप्सिताऋतुविपरीतत्वेनेच्छागोच Page #1469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह रीकृता ये शीतोष्णस्पर्शास्तैर्युक्ताम् उष्णर्ती शीतस्पर्शा शीतौ / देवानुप्रिया ! अस्माकमिदं यावच्छब्दादेतद्रूपं प्रीतिदानमितिकृत्वा उष्णस्पर्शा मध्यमा मध्यमस्पर्शामिति भावः। त्रिषुस्थानेषुमध्योदर- विनमिः स्त्रीरत्न नमिश्वरत्नानि समर्पयति। अथ भरतो यदकार्षीत्तदाहतनुलक्षणेषु तनुका कृशां तनुमध्या तनूदरी तन्वङ्गीतिकविप्रसिद्धेः, ननु 'तए णे इत्यादि, ततः स भरतो राजा यायच्छब्दात् प्रीतिदानग्रहणससामुद्रिकेऽन्यान्यपि दन्तत्वगादीनि तनूनिकथितानि च सति कथं तनूनां त्कारणाऽऽदि ग्राह्य , प्रतिविसर्जयति, प्रतिविसृज्य च पौषधशालातः त्रिसङ्ख्याङ्कता युज्यते इति? उच्यते-विचित्रत्वात् कविरुचेस्त्रिकसङ्- प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च मज्जनगृहमनुप्रविशति, अनुप्र-विश्य ख्याविशिष्टानुप्रासभासुरं बन्धं निबध्नता ग्रन्थकारेण स्त्रीपुंससाधार- चस्नानविधिः पूर्णोऽत्र वाच्यः ततो भोजनमण्डपे पारणं वाच्यं, यावच्छणानि यानि त्रिकरूपाणि लक्षणानि तानि तथैव निबद्धानि, यानि तु ब्दादत्र श्रेणिप्रश्रेणिशब्दनम् अष्टाहिकाकरणाज्ञापनमिति, ततस्ता त्र्यधिकसङ्ख्याकानि तेभ्योऽत्र रत्नाप्रस्तावात् केवलं स्त्रीजात्युचितानि नमिविनम्योर्विद्याधरराज्ञोरष्टाहिका महामहिमां कुर्वन्तीति शेषः, आज्ञा लक्षणानि समुचित्यानुप्रासाभङ्गार्थ त्रिकरूपत्वेन निबद्धानि तेन नेहापर च प्रत्यर्पयन्तीति प्रसङ्गाद् बोध्यमिति, अथ दिग्विजयपरमाङ्गभूतस्य ग्रन्थविरोधः, अतएवदन्तत्वगादीनि तनून्यपि तस्या अत्र न विवक्षिता चक्ररत्नस्य को व्यतिकर इत्याह- 'तए णं इत्यादि, ततोनमिविनमिनीति, एवमुत्तस्त्रापि भाव्यं, त्रिषुदृगन्ताधरयोनिलक्षणेषु स्थानेषु ताम्रार खचरेन्द्रसाधनानन्तरं तद्दिव्यं चक्ररत्नमायुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामक्तां, दृगन्तरक्तत्वं हि स्त्रीणां दृक्चुम्बने पुरुषस्यातीव मनोहरं सीत्यादिकं प्राग्वत्. नवरमुत्तरपौरस्त्यां दिशम्- ईशानदिशं, वैताढ्यतो भवतीति, त्रयो वलयोमध्यवर्तिरेखारूपा यस्याः सा तथा ताम्, अत्र गङ्गादेवीभवनाभिमुखं गच्छतः ईशानकोणगमनस्य ऋजुमार्गत्वात, अत्र द्वितीयैकवचनलोपः। त्रिवलीकत्वं स्त्रीणामतिप्रशस्य पुंसां तु तथाविधं निर्णे तुकाभेन जम्बूद्वीपाऽऽलेख्यं द्रष्टव्यं, गङ्गादेवीभवनाभिमुखं प्रयात न, यदाह- "शस्त्रान्तं स्त्रीभोगिन माचार्य बहुसुतं यथासङ्ख्यम् / चाप्यभवत्, सैव सर्वा सिन्धुदेवीवक्तव्यता गङ्गामिलापेन ज्ञेया यावएकद्वित्रिचतुर्भिर्वलिभिर्विद्यान्नृपं त्ववलिम्।।१।।" तथा त्रिषुस्तनजघ त्प्रीतिदानमिति गम्यं, नवरं तत्रायं विशेषः- रत्नविचित्रं कुम्भाष्टाधिकनयोनिलक्षणेषु उन्नता त्रिषुनाभिसत्वस्वररूपेषु गम्भीरां त्रिषुरोमराजी सहरसं, नानामणिकनकरत्नमयी, भक्तिः- विच्छित्तिस्तया विचित्रे च द्वे चूचुककनीनिकारूपेष्ववययेषु कृष्णां त्रिषुदन्तस्मितचक्षुर्लक्षणेषु श्वेतां कनकसिंहासने, शेष प्राभृतग्रहणसन्मानदानाऽऽदिकं तथैव, यावदष्टात्रिषुवेणीबाहुतालोचनेषु आयतां प्रलम्बां त्रिषु श्रोणिचक्रजघनस्थ हिका महिनेति, यच ऋषभकूटतः प्रत्यावृत्तो नगङ्गां साधयामास तद्वैतालीनितम्बबिम्बेषु विस्तीर्णा समशरीरां समचतुरससंस्थानत्वात्, भरते ढ्यवर्त्तिविद्याधराणामनात्मसात्करणेन परिपूर्णोत्तरखण्डस्यासाधितवर्षे सर्वमहिलाप्रधानां, सुन्दरं स्तनजघनवरकरचलननयनं यस्याः सा त्वात् कथं गङ्गानिष्कुटसाधनायोपक्रमेते इत्यवसेयं, यचास्य गङ्गादेवीतथा तां, शिरसिजाः-केशा : दशनादन्तास्तैर्जनहृदयरमणी-द्रष्ट्टलो भयने भोगे न वर्षसहस्रातिवाहनं श्रूयते तत्प्रस्तुतसूत्रे चूर्णा चानुक्तमपि कचित्तक्रीडाहेतुकम् अत एव मनोहरी पश्चात् पदद्वयस्य कर्मधारयः, ऋषभचरित्रादवसेयम्। 'सिङ्गारागारा' इत्यत्र यावत्पदात् "सिङ्गारागारचारुवेसं संगयगयहसिअभणिअचिट्टिअविलाससंललिअसंलावनिउण इति'' संग्रहः / शृङ्गारस्य अथागतो दियात्रामाहप्रथमरसस्यागार - गृहमिय चारुर्वेषो यस्याः सा तथा तां सङ्गताउचिता तएणं से दिव्वे चक्करयणे गंगाए देवीए अट्ठाहियाए महामहिमाए गतहसितभणितचेष्टितविलासा यस्साः सा तथा, तत्र गतंगमनं, निव्वत्ताए समाणीए आउहधरसालाओ पडिणिक्खमइ, हसितंस्मितं, भणितंवाणी, चेष्टितं च अपुरुषचष्टविलासोनेत्रचेष्टा तथा पडिणिक्खमित्ता०जाव गंगाए महाणईए पञ्चच्छिमिल्लेणं कूलेणं सह ललितेनप्रसन्नतया ये संलापा:- परस्परभाषणलक्षणास्तेषु निपुणा दाहिणदिसि खंडप्पवायगुहाभिमुहे पयाए आवि होत्था, तते णं या सा तथा, तथा युक्ताः- सङ्गता ये उपचारालोकव्यवहारास्तेषु कुशला से भरहे रायाजाव जेणेव खंडप्पवायगुहा तेणेव उवागच्छइ, या सा तथा, ततः पदत्रयकर्मधारयः तां, अमरवधूना सुरूपंसौन्दर्य उवागच्छित्ता सव्वा कयमालकवत्तय्वया अवा, णवरि रूपेणानुहरन्तीम्-अनुकुर्वती भद्रेकल्याणकारिणि यौवने वर्तमानां, शेषं णट्टमालगे देवे पीतिदाणं से आलंकारिअभंडं कडगाणि असेसं तु प्राग्योजितार्थ, 'गिणिहत्ता' इत्यादि, गृहीत्वा तयोत्कृष्टया त्वरितया सव्वं तहेव०जाव अहाहिआ महाम० / तए णं से भरहे राया यावदुधूतया विद्याधरणत्या यत्रैव भरतो राजा तत्रैवोपागच्छतः, उपा- णट्टमालगस्स देवस्स अट्ठाहिआएम० णिव्वत्ताए समाणीए सुसेणं गत्य चान्तरिक्षप्रतिपन्नो सकङ्किणीकानि, यावत्पदात् पञ्चवर्णानि सेणावई सद्दावेइ, सद्दांवेत्ताजाव सिंधुगमो अव्वोजाव वस्त्राणि प्रवरपरिहितौ इत्यादिजयेन विजयेन वर्द्धयतः वर्द्धयित्वा चैवम- गंगाए महाणईए पुरच्छिमिल्लं णिक्खुडं सगंगासागरगिरिमेरागं वदिषाताम्- अभिजित देवानुप्रियैः, यावत्शब्दात् सर्वं मागधगमवद्वाच्यं, समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेइ, ओअवेत्ता अग्गाणि वराणि 'नवरमुत्तरेण चुल्लहिमवंतमेराए' इति 'अम्हे णं देवाणुप्पिआणं विसय- रयणाणि पडिच्छई, पडिच्छित्ता जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवावासिणो त्ति आवां देवानुप्रियाणां आज्ञप्तिकिङ्करावितिकृत्वा तत्प्रतीच्छन्तु गच्छइ, उवागच्छित्ता दोच्चं पिसक्खंधावारवले गंगा महाणई वि Page #1470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह मलजलतुंगवीइं णावाभूएणं चम्मरयणेणं उत्तरइ, उत्तरित्ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आमिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता अग्गाइं वराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहिअं० जाव अंजलिं कटु भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ वद्धावेत्ता अग्गाइं वराई रयणाई उवणेइ / तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अग्गाइं वराई रयणाई पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सुसेणं सेणावई सक्कारेइ, सम्माणेइ, पडिविसजेइ, तए णं से सुसेणे सेणावई भरहस्स रण्णो सेसं पि तहेव० जाव विहरइ, तएणं से भरहे राया अण्णया कयाइ सुसेणं सेणावइरयणं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छ णं भो। देवाणुप्पिआ ! खंडप्पवायगुहाए उत्तरिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडे हि, विहाडेत्ता जहा तिमिसगुहाए तहा माणिअव्वं०जाव पिअं मे भवउ, सेसं तहेव०जाव भरहो उत्तरिल्लेणं दुवारेणं अईइ, ससिव मेहंधयारनिवहं तहेव पविसंतो मंडलाई आलिहइ, ती-से णं खंडगप्पवायगुहाए बहुमज्झदेसभाए०जाव उम्मग्गणिमग्ग-जलाओ णामं दुवे महाणईओ तहेव, णवरं पञ्चच्छिमिल्लाओ कडगाओ पवूढाओ समाणीओ पुरच्छिमेणं गंगं महाणई समति, सेसं तहेव, णवरिं पञ्चच्छिमिल्लेणं कूलेणं गंगाए संकमवत्तव्वया तहेव ति, तए णं खंडगप्पवायगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया महया ऊचारवं करेमाणा करेमाणा सरससरस्सगाई ठाणाई पच्चोसक्कित्था, तए णं से भरहे राया चक्करयणदेसियमग्गेजाव खंडगप्पवायगुहाओ दक्खिणिल्लेणं दारेणं णीणेइ ससिव्व मेहंधयारनिवहाओ। (सूत्रम्-६५) 'तएण' इत्यादि, ततो गङ्गादेवीसाधनानन्तरं तद्दिव्यं चक्ररत्नं गङ्गाया देव्या अष्टाहिकायां महिमायां निवृत्तायां सत्यामायुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति, यावत्पदादन्तरिक्षप्रतिपन्नपदाऽऽदिपरिग्रहः, गङ्गाया महानद्याः पश्चिमे कूले दक्षिणदिशि खण्डप्रपातगुहाभिमुखं प्रयात चाप्यभवत्, ततः स भरतो राजा चक्ररत्नं पश्यतीत्यादिकं तावद्वक्तव्यं वावत्खण्डप्रपातगुहायामागच्छतीति पिण्डार्थः / सर्वाकृतमालवक्तव्यतातमिसागुहाधिपसुरव्यक्तव्यता नेतव्या ज्ञातव्येत्यर्थः, नवरं नाट्यमालको नृत्तमालको वा देवो गुहाधिपः प्रीतिदानं 'से' तस्य आलङ्कारिकभाण्डम्- आभरणभृतभाजनं कटकानि शेषम्-उक्तविशेषातिरिक्तं सर्वं तथैव- सत्कारसन्मानाऽऽदिकं कृतमालदेवतावदक्तव्यं यावदष्टा हिका, अथ दाक्षिणात्यगङ्गानिष्कुटसाधनाधिकारमाह'तए णं' इत्यादि, ततः- खण्डप्रपातगुहापतिसाधनानन्तरं स भरतो राजा नाट्यमालकस्य देवस्याष्टाहिकायां पूर्णायां सुषेणं सेनापति शब्दयति, शब्दयित्वा च 'जाव सिन्धुगमो त्ति' यावत्परिपूर्णः ‘एवं वयासीगच्छाहिणं भो देवाणुप्पिआ ! सिन्धुए' इत्यादिकः सिन्धुगमःसिन्धुनदीनिष्कुटसाधनपाठो गङ्गाऽभिलापेन नेतव्यः यावद् गङ्गाया महानद्याः पौरस्त्यं निष्कुटंगङ्गायाः पश्चिमतो बहन्त्याः सागरेण पूर्वतः परिक्षेपकारिणा गिरिभ्यां दक्षिणतो वैतादयेन उत्तरतो लघुहिमवता कृता या मर्यादाव्यवस्था तय सह वर्त्तते यत्तत्तथा, अन्यत्सर्व प्राग्वत् सूत्रतो व्याख्यातश्च गङ्गागमेन परिभावनीयम्, अथनाट्यमालदेवस्य वशीकरणप्रयोजनमाह- 'तएणं' इत्यादि, ततोगङ्गानिष्कुटसाधनानन्तरं स भरतः सुषेणं सेनापतिरत्नं शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीदिन्यादिकम् अत्र गुहाकपाटोद्घाटनाज्ञापनाऽऽदिकम् एकोनपञ्चाशन्मण्डलाऽऽलेखनान्तं सर्व तमिस्रागुहायां मिव ज्ञेयम्, अत्र यो विशेषस्तन्निरूपणार्थमाह- 'तीसे णं' इत्यादि, तस्याः- खण्डप्रपातगुहायाः बहुमध्यदेशभागे यावत्पदात् 'तत्थ णं' इत पदमात्रमवसेयम्, उन्मग्नजलानिमग्नजले नाम्ना द्वे महानद्यौ स्तः, तथैव-तमिस्रागुहागतोन्मग्नानिमग्नानदीगमेन ज्ञातव्ये, नवरं खण्डप्रपातगुहायाः पाश्चात्यकटकात् प्रव्यूढे सत्यौ पूर्वेण गङ्गा महानदी समाप्नुतः- प्रविशतः, शेषं विस्ताराऽऽयागोद्वेधान्तराऽऽदिकं तथैव-तमिस्रागतनदीद्वयप्रकारेणावसेयं, नवरं गङ्गायाः पाश्चात्यकूले संक्रम-वक्तव्यतासेतुकरणाऽऽज्ञादानतद्विधानोत्तरणाऽऽदिकं ज्ञेयं, तथैव-प्राग्वद् ज्ञेयमिति, अथैतस्मिन्नवसरे दक्षिणतो यजातं तदाह- 'तए ण' इत्यादि, प्राग्व्याख्यातार्थम्, अथोद्घाटितयोगुहादक्षिणद्वारकपाटयोः प्रयोजनमाह- 'तएणं' इत्यादि, ततः कपाटोद्घाटनानन्तरंस भरतो राज्ञा चक्ररत्नदेशितमार्गः, यावत्करणात् 'अणेगरायवरसहस्साणुआयमग्गे महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूअं पिव करेमाणे' इति पदानां परिग्रहः, खण्डप्रपातगुहातो दक्षिणद्वारेण निरति शशीव मेहान्धकारनिवहात्, प्राग्व्याख्यातं, ननु चक्रिणां तमिस्रया प्रवेशः खण्डमपातया निर्गमः किङ्कारणिकः ? खण्डप्रपातया प्रवेशस्तमिस्रया निर्गमोऽस्तु, प्रवेशनिर्गमरूपस्य कार्यस्योभयत्र तुल्यत्वात्? उच्यते-तमिस्रया प्रवेशे खण्डप्रपातानिर्गमे च सृष्टिः, तया च क्रियमाणस्य तस्य प्रशस्तोत्वात्, अन्यच्च खण्डप्रपातया प्रवेशे आसन्नोपस्थीयमान ऋषभकूटे चतुर्दिक्पर्यन्तसाधनमन्तरेण नामन्यासोऽपि न स्यादिति / अथ दक्षिणभरतार्दाऽऽगतो भरतो यचक्रे तदाहतए णं से भरहे राया गंगाए महाणईए पञ्चच्छिमिल्ले कूले दुवालसजोअणायाम णवजोअणविच्छिणंजाव विजय खंधावारणिवेसं करेइ, अवसिटुं तं चेव० जाव निहिरयणाणं अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, तए णं से भरहे राया पोसहसालाए०जाव णिहिरयणे मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइ त्ति, तस्स य अपरिमिअरत्तरयणा धुपमक्खयमवया सदेवा लोकोपचयंकरा उवगया णव णिहिओ लोगविस्सुअजसा / तं जहा Page #1471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह " नेसप्पे १पंडुअए 2, पिंगलए 3 सव्वरयण 4 महपउमे 5 // काले ६अ महाकाले 7, माणवगे महानिही 8 संखे // 1 // " "णेसप्पम्मि णिवेसा, गामागरणगरपट्टणाणं च। दोणमुहमडंबाणं, खंधावारावणगिहाणं ||1|| गणिअस्स य उप्पत्ती, माणुम्माणस्स जं पमाणं च / घण्णस्स य बीआण य, उप्पत्ती पंडुए भणिआ॥२॥ सव्वा आभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं / आसाण य हत्थीण य, पिंगलगणिहिम्मि सा भणिआ ||3|| रयणाई सव्वरयणे, चउदस वि वराइं चक्कवट्टिस्स। उप्पञ्जते एगि-दिआइपंचिंदिआइंच // 4 // वत्थाण य उप्पत्ती, णिप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं। रंगाण य धोव्वाण य, सव्वा एसा महापउमे / / 5 / / काले कालण्णाणं, सव्वपुराणं च तिसु वि वंसेसु / सिप्पसयं कम्माणि अ, तिणि पयाए हियकराणि // 6 // लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकालि आगराणं च / रुप्पस्स सुवण्णस्सय, मणिमुत्तसिलप्पवालाणं // 7 // जोहाण य उप्पत्ती, आवरणाणं च पहरणाणं च / सव्वा य जुद्धणीई, माणवगे दंडणीई अ॥८॥ णट्टविही णाडगविही, कव्वस्स य चउव्विहस्स उप्पत्ती। संखे महाणिहिम्मी, तुडिअंगाणं च सव्वेसिं // 6 चक्कट्ठपइट्ठाणा, अठुस्सेहा य णव य विक्खंभा। बारसदीहा मंजूससंठिआ जण्हवीइ मुहे // 10 // वेरुलिअमणिकवाडा, कणगमया विविहरयणपडिपुण्णा। ससिसूरचक्कलक्खण, अणुसमवयणोववत्ती या।।११।। पलिओवमट्ठिईआ, णिहिसिरिणामा य तत्थ खलु देवा। जेसिं ते आवासा, अकिज्जा आहिवच्चा य / / 12 / / एए णव णिहिरयणा, पभूयधणरयणसंचयसमिद्धा। जे क्समुपगच्छंती, भरहाविव चक्कवट्टीणं // 13 // " तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, एवं मजणघरपवेसो० जाव सेणिपसेणिसद्दावणया० जाव णिहिरयणाणं अट्टाहि महामहिम करेइ, तएणं से भरहे राया णिहिरयणाणं अट्ठाहिआए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावइरयणं सद्दावेइ, सहावेत्ता / एवं बयासीगच्छणं भो देवाणुप्पिआ! गंगामहाणईए पुरच्छिमिल्लं णिक्खुडं दुच्चं पिसगंगासागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि, ओअवेत्ता एअमाणत्तिपच्चप्पिणाहि तितएणं से सुसेणे तं चेव पुव्ववणि भाणिअय्वं० जाव ओअवित्ता तमाणत्ति पच्चप्पिणइ, पडिविस इ०जाव भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। तए णं से दिव्वे चक्करयणे अन्नया कयाइ आउहघरसालओ पडि णिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअ०जाव अपूरेते चेव विजयक्खंधावारणिदेसं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, दाहिणपचच्छिमं दिसिं विणीअं रायहाणिं अभिमुहे पयाए आवि होत्था। तए णं से भरहे राया जाव पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठ०जाव कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं बयासी-खिप्पमेव भो देवाणुप्पिआ ! आमिसेक्कं० जाव पच्चप्पिणंति। (सूत्रम्-६६) 'तए णं' इत्यादि, ततो- गुहानिर्गमानन्तरं स भरतो राजा गङ्गाया महानद्याः पश्चिमे कूले द्वादशयोजनाऽऽयामं नवयोजनविस्तीर्ण, यावत्पदात् ‘वरणगरसरिच्छं' इति ग्राह्य, विजयस्कन्धावारनिवेश करोति, अवशिष्टवर्द्धकिरत्नशब्दाऽऽज्ञापनाऽऽदिकं तदेव यन्मागधदेवसाधनावसरे उक्तमिति, यावच्छब्दात्पौषधशालादर्भसंस्तारकसंस्तरणाऽऽदि ज्ञेयं, निधिरत्नानामष्टमभक्तं प्रगृह्णाति, ततः स भरतो राजा पौषधशालायां यावत्पदात् 'पोसहि' इत्यादिकम्, 'एगे अबीए इत्यन्तं पदकदम्बकं ग्राह्य निधिरत्नानि मनसि कुर्वन् 2 तिष्ठति, इत्थमनुतिष्ठतस्तस्य किं जातमित्याह-'तस्सय' इत्यादि.तस्यभरतस्य चशब्दोऽ न्तराऽऽरम्भे नव निधयः उपागता-उपस्थिता इत्यन्वयः, किंभूताः? अपरिमितानि रक्तानि उपलक्षणादनेकवर्णानि रत्नानि येषु ते तथा, इदं च विशेषणं तन्मतापेक्षया बोध्यं यन्मते निधिष्वनन्तरमेव वक्ष्यमाणाः पदार्थाः साक्षादेवोत्पद्यन्ते इति, अयमर्थः-एतेषां मते नवसु निधिषु केषाश्चित्तु मते कल्पपुस्तकप्रतिपाद्या अर्थाः साक्षादेव तत्रोत्पद्यन्ते इति, एनयोरपरमतापेक्षया 'अपरिमिए' इत्यादि विशेषणमिति, तथा धुवास्तथाविधपुस्तकवैशिष्ट्य रूपस्वरूपस्यापरिहाणे : अक्षयाः अवयविद्रव्यस्यापरिहाणेः अव्ययास्तदारम्भकप्रदेशापरिहाणेः, अत्र प्रदेशापरिहाणियुक्तिः समयसंवादिनी पद्मवरवेदिकाव्याख्यासमये निरूपितेतिततोऽवसेया, अत्र पदद्वये मकारोऽलाक्षणिकः, ततः पदत्रयकर्मधारयः, सदेवा अधिष्ठायकदेवकृतसान्निध्या इति भावः / लोकोपचयङ्कराः यत्र, "नवा खितकृदन्ते रात्रेः" (श्रीसि० अ०३ पा०२ सू० 126) इति सूत्रे योगविभागेन व्याख्याने तीर्थड्कराऽऽदिशब्दवत् साधुत्वं ज्ञेयं, यद्वा-देवनागसुवण्णकिंनरगणस्सब्भूअभावथिए, इत्यादि-वदार्षत्वादनुस्वारे लोकोपचयकराः-वृत्तिकल्पककल्पपुस्तकप्रतिपादनेन लोकानां पुष्टिकारकाः लोकविख्यातयशस्का इति, अथ नामस्तानुपदर्शयति-तद्यथेत्युपदर्शन नैसर्पस्य देवविशेषस्यायं नैसर्पः, एवमग्रेऽपि भाव्यम, अथ यत्र निधौ यदाख्यायते तदाह- ‘णेसप्पे' इत्यादि, नैसर्पनामनि निधौ निवेशाः- स्थापनानि स्थापन विधयो ग्रामाऽऽदीनां गृहपर्यन्तानां व्याख्यायन्ते, तत्र ग्रामोवृत्त्यावृतः आकरोयत्र लवणाऽsधुत्पद्यते नगरंराजधानीपत्तनंरत्नयोनिर्दोणमुखंजलस्थलनिर्गमप्रवेश मडम्बम्-अऎद्धतृतीयगव्तान्तामरहितं स्कन्धावारः- कटकम् आपणो Page #1472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह हट्टः, गृहं भवनम् उपलक्षणात् खेटकर्बटाऽऽदिग्रहः // 11 // अथ द्वितीयनिधानवक्तव्यतामाह- 'गणिअस्स' इत्यादि, गणितस्यसङ्ख्याप्रधानतया व्यवहर्त्तव्यस्य दीनाराऽऽदेः नालिकेराऽऽदेर्वा, चशब्दात् परिच्छेद्यधनस्य मौक्तिकाऽऽदेरुत्पत्तिप्रकारः, तथा मानसेतिकाऽऽदि तद्विषयं यत्तदपिमानमेव धान्याऽऽदि मेयमिति भावः, तथा उन्मानंतुलाकर्षाऽऽदि तद्विषयं यत्तदप्युन्मानं खण्डगुडाऽऽदि धरिमजातीयं धनमित्यर्थः, ततः समाहारद्वन्द्वस्तस्य च यत्प्रमाणं लिङ्गविपरिणामेन तत्पाण्डुके भणितमिति सम्बन्धः,धान्यस्यशाल्याऽऽदे/जानां चवापयोग्यधान्यानामुत्पत्तिः पाण्डु के निधौ भणिता // 2 // अथ तृतीयनिधिस्वरूपं निरूप्यते- 'सव्वा आभरण' इत्यादि,सर्व आभरणविधियः पुरुषाणां यश्च महिलानां तथाऽश्वाना हस्तिनांच सयथौचित्येन पिङ्गलकनिधौ भणितः लिङ्गविपरिणामः प्राकृतशैलीभवः / / 3 / / अथ चतुर्थनिधिः- 'रयणाई' इत्यादि। रत्नानि चतुर्दशापि वराणि चक्रवर्त्तिनश्चक्राऽऽदीनि सप्तैकेन्द्रियाणि सेनापत्यादीनि च सप्त पञ्चेन्द्रियाणि सर्वरत्नाऽऽख्ये महानिधावुत्पद्यन्ते, तदुत्पत्तिः तत्र व्यावर्ण्यत इत्यर्थः, अन्ये त्वेवमाहुः- उत्पद्यन्ते एतत्प्रभावात् स्फातिमद्भवन्तीत्यर्थः / / 4 / / अथ पञ्चमो निधिः- 'वत्थाण य' इत्यादि, सर्वेषां वस्त्राणां च या उत्पत्तिस्तथा सर्वविभक्तीनांवस्त्रगतसर्वरचनानां रङ्गानांच-मञ्जिष्ठावृमिरागकुसुम्भाऽऽदीनां 'धोव्वाण यत्ति' सर्वेषां प्रक्षालनविधीनां च या निष्पत्तिः सर्वा एषा महापानिधौ / / 5 / / अथ षष्ठो निधिः-'काले कालण्णाणं' इत्यादि, कालनामनि निधौ कालज्ञानंसकलज्योतिः शास्त्रानुबन्धि ज्ञान तथा जगति त्रयो वंशाः वंशः, प्रवाहः, आवलिका इत्येकार्थाः, तद्यथा-तीर्थकरवंशश्चक्रवर्त्तिवंशो बलदेववासुदेववंशश्च, तेषु त्रिष्वपि वंशेषु यद्भाव्यं यच्च पुराणमतीतमुपलक्षणमेतद्वर्तमानं शुभाशुभ तत्सर्वमत्रास्ति, इतो महानिधितोज्ञायत इत्यर्थः, शिल्पशतं-विज्ञानशतं घटलोहचित्रवस्वनापितशिल्पानां पञ्चानामपि प्रत्येक विंशतिभेदत्वात् कर्माणि च-कृषिवाणिज्याऽऽदीनि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि त्रीण्येतानि प्रजाया हितकाराणि निहिाभ्युदयहेतुत्वात् एतत्सर्वमत्राभिधीयते॥६॥ अथ सप्तमो निधिः- 'लोहस्सय' इत्यादि, लोहस्य च नानाविधस्योत्पत्तिर्भवति महाकाले निधौ, तत्र तदुत्पत्तिराख्यायते इत्यर्थः, तथा रूप्यस्य सुवर्णस्य च मणीनां चन्द्रकान्ताऽऽदीनां मुक्तानां-मुक्ताफलानां शिलानां-स्फाटि काऽऽदीनां प्रवालानां च सम्बन्धिनाम् आकराणामुत्पत्तिर्भवति, महाकाले निधाविति योगः / / 7 / / अथाष्टमः- 'जोहाण य' इत्यादि, योधानां-शूरपुरुषाणां, चशब्दात् कातराणामुत्पत्तिरभिधीयते, यथायोधत्वं कातरत्वं च जायते तथाऽत्राभिधीयते इत्यर्थः, तथा आवरणानां च-खेटकानां सन्नाहानां वा प्रहरणानाम्-अस्यादीनां च सर्वा च युद्धनीतिः- व्यूहरचनाऽऽदिलक्षणा 'सर्वाऽपि च दण्डेनोपलक्षितानीतिर्दण्डनीतिः-सामाऽऽदिश्चतुर्विधा माणवकनाम्नि निधावभिधीयते, ततः प्रवर्तत इति भावः // 8|| अथ नवमः- 'णट्टविही णाडगविही' इत्यादि, सर्वोऽपि नृत्यविधिः नाट्यकरणप्रकारः सर्वोऽपि च नाटकविधिः- अभिनेयप्रबन्धप्रपञ्चनप्रकारः तथा चतुर्विधस्य काव्यस्य ग्रन्थस्य धर्मा१र्थरकाम३मोक्षVलक्षणपुरुषार्थनिबद्धस्य,अथवा संस्कृत प्राकृतारपभ्रंश३संकीर्ण४भाषानिबद्धस्य गद्य१पद्यरगेय३चौर्णपदबद्धस्य वा उत्पत्तिःनिष्पत्तिस्तद्विधिः, तत्राऽऽद्यं काव्यचतुष्कं प्रतीतं, द्वितीयचतुष्के संस्कृतप्राकृते सुबोधे, अपभ्रंशः- तत्तद्देशेषु शुद्धंभाषितं, सङ्कीर्णभाषाशौरसेन्यादिः, तृतीयचतुष्कं गद्यम्- अच्छन्दोबद्धं शस्त्रपरिज्ञाऽध्ययनवत्, पद्यं-छन्दोबद्धं विमुक्त्यध्ययनवत्, गेयंगन्धा रीत्या बद्धं गानयोग्यं, चौर्णबाहुलकविधिबहुलंगमपाठबहुलं निपातबहुलं निपाताव्ययबहुलं ब्रह्मचर्याध्ययनपदवत्, अत्र चेतरयोर्गद्यपद्यान्तविऽपि यत्पृथगुपादानं तदानधर्माऽऽधेयधर्मविशिष्टतया विशेषणविवक्षणार्थ, शङ्के महानिधौ, तथा त्रुटिताङ्गानां च तूर्याङ्गाणां सर्वेषां वा तथातथावाद्यभेदभिन्नानामुत्पत्तिःशखेमहा-निधाविति॥ अथ नवनामपि निधीनां साधारणं स्वरूपमाह- 'चक्कट्ठ' इत्यादि, प्रत्येकमष्टसु चक्रेषु प्रतिष्ठान-अवस्थानम् येषां ते तथा, यत्र यत्र बाह्यन्ते तत्र तत्राष्टचक्रप्रतिष्ठिताएव वहन्ति, प्राकृतत्वादष्टशब्दस्य परनिपातः, अष्टौ योजनानि उत्सेधः- उचैस्त्वं येषां तेतथा, नवचयोजनानीतिगम्यते, विष्कम्भेणविस्तारेण नवयोजनविस्तारा इत्यर्थः, द्वादशयोजनदीर्धाः मंजूषावत्संस्थिताः, जाहव्यागङ्गाया मुखे यत्र समुद्रं गङ्गां प्रविशति तत्र सन्तीत्यर्थः, "इत्यूचुस्ते वयं गङ्गामुखमागधवासिनः / आगतास्त्वां महाभाग !, स्वद्भाग्येन वशीकृताः / / 1 / / " इति त्रिषष्टीयचरित्रोक्तेः, चक्रयुत्पत्तिकाले च भरतविजयानन्तरं चक्रिणा सह पातालमार्गेण भाग्यवत्पुरुषाणां हि पदधिःस्थितयो निधय इति चक्रिपुरमनुयान्ति, तथा वैडूर्यमणिमयानि कपटानि येषां ते तथा, मयट्प्रत्ययस्य वृत्त्या उक्तार्थता, कनकमयाः- सौवर्णाः विविधरत्नप्रतिपूर्णाः शशिसूरचक्राऽऽकाराणि लक्षणानिचिह्नानियेषां ते तथा, प्रथमाबहुवचनलोपः प्राकृतत्वात्, अनुरूपा सर्मा-अविषमा वदनोपपत्तिः-द्वारघटना येषां तेतथा, पल्योपमस्थितिका निधिसदृग्नामानः खलु, तत्र च निधिषु ते देवा येषां देवानां तएव निधयः आवासाः- आश्रयाः, किंभूताः-अक्रेयाः-अक्रयणीयाः, किमर्थमित्याह-आधिपत्याय आधिपत्यनिमित्तं, कोऽर्थः? तेषामाधिपत्यार्थी कश्चित्क्रयेणमूल्यदानाऽऽदिरूपेण तान् न लभते इति, किन्तु पूर्वसुचरितमहिम्नैवेत्यर्थः, एतेनव निधयः प्रभूतधरत्नसंचयसमृद्धाः ये भरताधिपानांषट्खण्डभरतक्षेत्राधिपानां चक्रवर्त्तिनां वशमुपगच्छन्तिवश्यतां यान्ति एतेन वासुदेवानां चक्रवर्तित्वेऽप्येतद्विशेषणव्युदासः, निधिप्रकरणे चावस्थानाङ्ग प्रवचनसारोद्धाराऽऽदिवृत्तिगतानि बहूनि पाठान्तराणि ग्रन्थविस्तरभयादुपेक्ष्यैतत्सूत्रादर्शदृष्ट एव पाठो व्याख्यातः। अथ सिद्धनिधानो भरते, यच्चक्रे तदाह- 'तएणं' इत्यादि व्यक्तम्, अथ षट्खण्डदत्तदृष्टिर्भरतो यथोत्सहते तथाऽऽह- 'तएणं' इत्यादि, इदमपि प्रायो व्यक्तं , नवरं गङ्गाया महानद्याः पौरस्त्यं निष्कुटमित्युक्ते उदीचीनमपि स्यादिति द्वितीयमित्युक्तम्, अवशिष्टे न अस्यैव प्राप्तावसरत्वात्, गङ्गायाः पश्चिमतो वहन्त्याः सागराभ्यां Page #1473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह प्राच्यापाच्याभ्या गिरिणा-वैतादयेनोत्तरवर्त्तिना कृता या मर्यादा- 1 तयणंतरं चणं णव महाणिहिओ पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिआ। क्षेत्रविभागस्तया सह वर्तते यत्तत्तथा, अथ सुषेणां यच्चक्रे तदाह- 'तए / तं जहा-णेसप्पे पंडुयएन्जाव संखे, तयणंतरं च णं सोलस णं' इत्यादि, ततः- स्वाम्याज्ञप्त्य नन्तरं सुषेणस्तं निष्कुट साधय- देवसहस्सा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिआ, तयणंतरं च णं तीत्यादि, तदेव पूर्ववर्णित दाक्षिणात्यसिन्धुनिष्कुटवर्णित भणितव्यन्, बत्तीसं रायवरसहस्सा अहाणुपुव्वीए संपट्ठिआ, तयणंतरं च णं कियत्पर्यन्तमित्याह-यावन्निष्कुट साधयित्वा तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयति- सेणावइरयणे पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिए, एवं गाहावइरयणे प्रतिविसृष्टो यावद् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति। अथ साधिताखण्ड वद्धइरयणे पुरोहिअरयणे, तयणंतरं च णं इत्थिरयणे पुरओ षट्खण्डे भरते सति यच्चक्रमुपचक्रमे तदाह- 'तएणं' इत्यादि, ततो अहाणुपुटवीए०जाव तयणंतरं च णं बत्तीसं उडुकलाणिआ गङ्गादक्षिणनिष्कुट विजयानन्तरं तद् दिव्यं चक्ररत्नम् अन्यदा सहस्सा पुरओ अहाणुपुष्वीए० जाव तयणंतरं च णं बत्तीसं कदाचिदायुधगृहात् प्रतिनिष्क्रामति, विशेषणैकदेशा अत्राशेषविशेषण जणवयकल्लाणिआसहस्सा पुरओ अहाणुपुव्वीए तयणंतरं च णं स्मारणार्थ, तेनान्तरिक्षप्रतिपन्नं यक्षसहस्रसम्परिवृतं दिव्युत्रुटितसन्नि बत्तीसं बत्तीसइबद्धा णाडगसहस्सा पुरओ अहाणुपुव्वीए० जाव नादेनाऽऽपूरयदिवाम्बरतलं विजयस्कन्धावारनिवेशं मध्यंमध्येनविजय तयणंतरं चणं तिणि सहा सूअसया पुरओ अहाणुपुथ्वीए०जाव स्कन्धावारस्य मध्यभागेन निर्गच्छति, दक्षिणपश्चिमां दिशिंनैर्ऋतीं तयणंतरं च णं अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ पुरओ०जाव तयणंतरं विदिशं प्रति विनितां राजधानी लक्षीकृत्याभिमुखं प्रयात चाप्यभवत्, च णं चउरासीइं आससयसहस्सा पुरओ०जाव तयणंतरं च णं अयं भावः- खण्डप्रपातगुहाऽऽसन्नस्कन्धावारनिवेशाद् विनीता चउरासीई हत्थिसयसहस्सा पुरओ अहाणुपुटवीए०जाव जिगमिषोर्नैर्ऋत्यभिमुखगमनलाघवायेति भावः, अथाभिविनीतं प्रस्थिते तयणंतरं च णं छण्णउई मणुस्सकोडीओ पुरओ अहाणुपुव्वीए चक्रे भरतः किं चक्रे इत्याह- 'तएणं इत्यादि, ततः चक्रप्रस्थानादनन्तर संपद्विआ, तयणंतरं चणं बहवे राईसरतलवर जाव सत्थवा हप्पमिईओ पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिआ तयणंतरं च णं बहवे स भरतो राजा तद्विव्यं चक्ररत्नमित्यादि यावत्पश्यति, दृष्ट्वा च असिग्गाहालट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहाचावग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा हृष्टतुष्टाऽऽदिविशेषणः कौटुम्बिक पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा फलगग्गाहा परसुग्गाहा पोत्थयम्गाहा बीणग्गाढा कूअग्गाहा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो- देवानुप्रिया ! आभिषेक्यं, यावत्करणात् हडप्फग्गाहा दीविअगाहा सएहिं सएहिं रूवेहिं, एवं वेसे हिं हस्तिरत्नं प्रतिकल्पयत, सेना सन्नाहयत, ते च सर्व कुर्वन्ति, आज्ञा च चिंधेहिं निओएहिं सएहिं 2 वत्थेहिं पुरओ अहाणुपुटवीए प्रत्यर्पयन्ति। संपत्थिआ, तयणंतरं च णं बहवे दंडिओ मुंडिणो सिहंडिणो अथोक्तमेवार्थ दिग्विजयकालाऽऽद्यधिकार्थविवक्षया जडिणो पिच्छिणो हासकारगा खेडुकारगा दवकारगा विस्तरवाचनया चाऽऽह चाडुकारगा कंदप्पिआ कुकुइआ मोहरिआ गायंता य दीवंता तए णं से भरहे राया अजिअरज्जो णिज्जिअसत्तू उप्पण्ण य(वायंता) नचंता य हसंता य रमंताय कीलंता य सासेंता य समत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे णवणिहिवई समिद्धकोसे बत्तीस सावेंताय जावेंता य रावेंताय सोम॑ताय सोभावेंताय आलोअंता रायवरसहस्साणुआयमग्गे सट्ठीए वरिससहस्सेहिं केवलकप्पं य जयजयसदं च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुथ्वीए संपडिआ भरहं वासं 'ओयवेइ, ओअवेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, एवं उववाइअगमेणं जाव तस्स रण्णो पुरओ महआसा आससद्दावित्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! आमिसेक्कं धारा उभओ पासिं णागा णागधरा पिट्ठओ रहा रहसंगेली हत्थिरयणं हयगयरह तहेव अंजण गिरिकूडसण्णिभं गयवई अहाणुपुथ्वीए संपट्ठिआ इति / तए णं से भरहाहिवे परिंदे णरवई दुरूढे / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आभिसेक्कं हत्थिर- हारोत्थए सुकयरइ-अवच्छे०जाव अमरवइसण्णिभाए इद्धीए यणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुटवीए पहिअकित्ती चक्करयणदेसिअमग्ग अणेगरायवरसहस्साणुसंपट्ठिआ, तं जहा-सोस्थिअसिरिवच्छ०जाव दप्पणे,तयणंतरं आयमग्गे०जाव समुद्दरवभूअं पिव करेमाणे 2 सटिवद्धीए च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्वा य छत्तपडागाजाव संपद्विआ, सव्वज्जुईए०जाव णिग्घोसणाइयरवेणं गामागरणगरखेडतयणंतर च वेरुलिअभिसंतविमलदंडं०जाव अहाणुपुव्वी ए कब्वडमडंब जाव जोअणं-तरिआहिं वसहीहिं वसमाणे संपट्ठिअं, तयणंतरं च णं सत्त एगिदि-अरयणा पुरओ अहाणु- 2 जेणेव विणीआ रायहाणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुवीए संपत्थिआ, तं जहा-चक्करयणे १छत्तरयणे 2 चम्मरयणे विणीआए रायहाणीए अदूरसामंते दुवालसजोअणायाम ३दंडरयणे / असिरयणे 5 मणिरयणे 6 कागणिरयणे 7 णवजोयणवित्थिण्णं जाव खंधावारणिवेसं करेइ, करेत्ता Page #1474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह वद्धहरयणं सदावेइ, सद्दावेत्ता०जाव पोसहसालं अणुप-विसइ, अणुपविसित्ता विणीआए रायहाणीए अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता० जाव अट्ठमभत्तं पडिजागरमाणे 2 विहरइ / तए णं | से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता कोडं बिअपुरिसे सद्दावेइ, / सद्दावेत्ता तहेव०जाव अंजण-गिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दूरूढे, तं चेव सव्वं जहा हेट्ठा, णवरि णव महाणिहिओ चत्तारि सेणाओण पविसंति, सेसो सो चेव गमोजाव णिग्घोसणाइएणं विणीआए रायहाणीए मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव | भवणवरवडिंसगपडिदुवारे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तए णं तस्स भरहस्सरण्णो विणीअंरायहाणिं मझमज्झेणं अणुपविसमाणस्स अप्पेगइआ देवा विणीअं रायहाणिं सभंतरबाहिरि# आसिअसम्मज्जि-ओवलितं करेंति, अप्पेगइआ मंचाइमंचक- / लिअं करेंति, एवं सेसेसु विपएसु अप्पेगइआ णाणाविहरागवसणु-स्सियधयपडागामंडितभूमिअं, अप्पेगइआलाउल्लोइअमहिअंकाति, अप्पेगइआ० जाव गंधवट्टिभू अं करेंति, अप्पेगइआ हिरण्णवासं वासिंति, सुवण्णरयणवइरआ-भरणवासं वासेंति, तएणं तस्स भरहस्स रण्णो विणीअंरायहाणिं मज्झमज्झेणं अणुपविसमाणस्स सिंघाडग० जाव मह पहेसु बहवे अत्थरिथआ कामत्थिया भोगस्थिआ लाभत्थिआ इद्धिसिआ किब्बिसिआ कारोडि आ कारवाहिआ संखिया चक्कि आ णंगलिआ मुहमंगलिआ पूसमाणया वद्धमाणया लंखमंखमाइआ ताहि ओरालाहिं इट्ठाहिं कंताहिं पिआहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगलााहिं सस्सिरीआहिं हिअयगमणिज्जाहिं हिअयपल्हायणिज्जाहिं वग्गू हिं अणुवरयं अभिणं दंता य अमिथुणंता य एवं बयासी-जय जय णंदा! जय जय भद्दा ! भद्रं ते अजिअं जिणाहि जिअं पालयाहि जिअमज्झे वसाहि इंदो विव देवाणं चंदो विव ताराणं चमरो विव असुराणं धरणे विव | नागाणं बहूई पुव्वसय-सहस्साइं बहूईओ पुवकोडिओ बहूईओ पुचकोडाकोडीओ विणीआए रायहाणीए चुल्लहिमवंत गिरिसागरमेरागस्स य केवलकप्पस्स भरहस्स वासस्स गामाग- 1 रणगरखेडकब्बडमडं बदोणमुहपट्टणासमसण्णिवेसेसु सम्म पयापालणोवजिअलद्धजसे महया०जाव आहेवचं पोरेवचं०जाव विहराहि त्ति कटु जयजयसई पउंजंति, तए णं से भरहे राया णयणमालासहस्से पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे वयणमालासहस्सेहिं अमिथुव्वमाणे अमिथुव्वमाणे हिअयमालासहस्से हिं ठण्णंदिज्जमाणे उण्णंदिजमाणे मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छि प्पमाणे 2 कंतिरूवसोहग्गगुणेहिं पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे दाइज्जमाणे दाहिणहत्थेणं बहूणं णरणारीसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छेमाणे पडिच्छेमाणे भवणपंतीसहस्साई समइच्छमाझे समइच्छमाणे तंतीतलतुडिअगीअवाइअरवेणं मधुरेणं मणहरेणं मंजुमंजुणा घोसेणं अपडिबुज्झमाणे अपडिबुज्झमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव सए भवणवरवडिं सयदुवारे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता आमिसेक्कं हत्थिरयणं ठवेइ, ठवेत्ता अभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पचोरुहइ पच्चोरुहित्ता सोलस देवसहस्से सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्माणेत्ता बत्तीसं रायसहस्से सक्कारेइ, सम्भाणेइ, सम्माणेत्ता सेणावइरयणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्माणेत्ता एवं गाहावइरयणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्माणेत्ता तिषिण सट्टे सूअसए सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्माणेत्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सक्कारेइ, सम्माणेइ सम्माणेत्ता अण्णे वि बहवे राईसर०जाव सत्थवाहप्पभिईओ सक्कारेइ, सम्माणे इ, सम्माणेत्तापडिविसजेइ, इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जाणवयकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धेहिं णाडयसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे भवणवरवडिंसगं अईइ जहा कुवेरो व्व देवराया कैलाससिहरिसिंगभूअं ति, तए णं से भरहे राया मित्तणाइणिअगसयणसंबंधिपरिअणं पच्चुवेक्खइ, पच्चुवेक्खित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता०जाव मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ताजेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ, पारेत्ता उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसइबद्धेहि णाडएहिं उवलालिज्जमाणे उवलालिजमाणे उवणचिज्जमाणे उवणचिजमाणे उवगिज्जमाणे उवगिज्जमाणे महया०जाव मुंजमाणे विहरइ / (सूत्रम्-६७) 'तए ण' इत्यादि, ततः स भरतो राजा अर्जितराज्योलब्धराज्यो निर्जितशत्रुरुत्पन्नसमस्तरत्नस्तत्रापि चक्ररत्नप्रधानो नव निधिपतिः समृद्धकोशः-सम्पन्नभाण्डागारः द्वात्रिंशद्राजवरसहरौरनुयातमार्गः षष्ट्या वर्षसहस्रः केवलकल्पंपरिपूर्ण भरतवर्ष साधयित्वा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया! आभिषेक्यं 'हत्थि त्ति' हस्तिवर्णक स्मारणं 'हयगयरह त्ति' से नासन्नाहनस्मारणं तथैव पूर्ववत्, स्नानविधिभूषणविधिसैन्योपस्थितिहस्तिरत्नो पागमनानि वाच्यानि, अञ्जनगिरिशृङ्ग सदृशं गजपतिं नरपतिरारूढवान् / अथ प्रस्थिते नरपतौ के पुरतः के पृष्ठतः के पार्श्वतश्च Page #1475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह प्रस्थितवन्त इत्याह- 'तए णं' इत्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञ आभिषेक्यं हरितरत्नमारूढस्य सत इमान्यष्टाष्टमङ्गलकानि पुरतो यथानुर्पूर्या-यथाक्रम संप्रस्थितानि चलितानि, तद्यथा-स्वस्तिकश्रीवत्स० यावत्पदात् पूर्वोक्तमङ्गलकानि ग्राह्यानि, यद्यप्येकाधिकारप्रतिबद्धत्वेनाखण्डस्याधिकारसूत्रस्य लिखनं युक्तिमत्तथापि सूत्रभूयिष्ठत्वेन वृत्तिर्दूरगता वाचयितॄणां सम्मोहाय स्यादिति प्रत्येकाऽऽलापक वृत्तिर्लिख्यते इति, 'तयणंतरं च णं' इत्यादि तदनन्तरं च पूर्णजलभृतं 'कलशभृङ्गार' कलश:- प्रतीतः भृङ्गार:- कनकालुका, ततः समाहारादेकवद्भावः, इद च जलपूर्णत्वेन मूर्तिमद् ज्ञेयं, तेनाऽऽलेख्यरूपाष्टमङ्गलान्तर्गतकलशादयं कलशो भिन्नः, दिव्येव दिव्याप्रधाना, चः समुच्चये, स च व्यवहितसम्बन्धः छत्रविशिष्टा पताका च, यावत्पदात् 'सचामरा दसणरइअआलोअदरिसणिज्जा वाउचूअविजयवेजयंती अब्भुस्सिआ गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुव्वीए' इति ग्राह्यम्, अत्र व्याख्यासचामरा-चामरयुक्ता-दर्शन-प्रस्थातुर्दृष्टिपथेरचिता मङ्गल्यत्वात् अत एवाऽऽलोके-बहिः प्रस्थानभाविनि शकुनानुकूल्याऽऽलोकने दर्शनीयाद्रष्टुं योग्या, ततो विशेषणसमासः, काऽसावित्याह- वातोद्धृता विजयसूचिका वैजयन्तीपार्श्वतो लघुपताकाद्वययुक्तः पताकाविशेषः प्राग्वत्, उच्छ्रिता-उच्चा गगनतलमनुलिखन्ती अत्युच्चतया, एते च कलशाऽऽदयः पदार्थाः पुरतोयथानुपूर्व्या संप्रस्थिता इति, 'तए ' इत्यादि, ततो वैडूर्यमयो 'भिसंत त्ति' दीप्यमानो विमलो दण्डो यस्मिस्तत्तथा, यावत्पदात् पलम्ब कोरण्टमल्लदामोवसोहिअंचन्दमंडलनिभं समूसिअं विमलं आयवत्तं पवर सिंहासणं च मणिरयणपायपीढ सपाउआजोगसमाउत्त बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिअंति, अत्र व्याख्याप्रलम्बेन कोरण्टाभिधानवृक्षस्य माल्यदाम्ना, पुष्पमालयोपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं समुच्छितम् ऊयी कृतं विमलमातपत्रं-छत्रं प्रवरं सिंहासनं च मणिरत्नमयं पादपीठं-पदासनं यस्मिंस्तत्तथा, स्वः-स्वकीयो राजसत्क इत्यर्थः, पादुकायोगः-पादरक्षणयुगं तेन समायुक्तं, बहवः किङ्कराः- प्रतिकर्म पृच्छाकारिणः कर्मकराः- ततोऽन्यथाविधास्ते च ते पुरुषाश्चेति समासः / पादातंपदातिसमू-हरतैः परिक्षिप्त-सर्वतोवेष्टितं तैधृतत्वादेवपुरतोयथानुपूर्व्या संप्रस्थितं, 'तए णं' इत्यादि, ततः सप्त एकेन्द्रियरत्नानि पृथिवीपरिणामरूपाणि पुरतः संप्रस्थितानि, तद्यथाचक्ररत्नाऽऽदीनि प्रागभिहितस्वरूपाणि, चक्ररत्नस्य च एकेन्द्रियरत्नखण्डसूत्रपाठादेवात्र भणन, तस्य मार्गदर्शकत्वेन सर्वतः पुरः संचरणीयत्वात्, अत्र च गत्यानन्तर्यस्य वक्तुमुपक्रान्तत्वादिति, 'तयणंतरं च णं णव महाणिहिओ पुरओ' इत्यादि, ततो नव महानिधयोऽग्रतः प्रस्थिताः पातालमार्गेणेति गम्यम्, अन्यथा तेषां निधिव्यवहार एवन सङ्गच्छते, तद्यथा-नैसर्पः पाण्डुको यावच्छखः सर्व प्राग्वत्, उक्ता स्थावराणां पुरतो गतिः किड्करजनधृतत्वेन दिव्यानुभावेन वा, अथ जङ्गमानां गतेरवसर इति 'तयणंतरंच णं सोलस देव' इत्यादि, ततः षोडश देवसहस्राः पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थिताः, 'तयणंतरं च णं बत्तीसं' इत्यादि, व्यक्तं- 'तएण' इत्यादि व्यक्तं, नवरं पुरोहितरत्नशान्तिकर्मकृत, रणे प्रहारार्दितानां मणिरत्नजलच्छटया वेदनोपशामक, हस्त्यश्वरत्नगमनं तु हस्त्यश्वसेनया सहैव विवक्ष्यते तेन नात्र कथनं, 'तएणं' इत्यादि, ततो द्वात्रिंशत् ऋतुकल्याणिकाः ऋतुषु षट्स्वपि कल्याणिकाः- ऋतुविपरीतस्पर्शत्वेन सुखस्पर्शाः। अथवाऽमृतकन्यात्वेन सदा कल्याणकारिण्यः, नतु चन्द्रगुप्तसहायपर्वतभूपतिपाणिगृहीतमात्रप्राणहारिनन्दनृपनन्दिनीवद्विषकन्यारूपास्तासां सहस्राः पुरतः प्रस्थिताः, समर्थविशेषणाद्विशेष्यं लभ्यते इति लक्षणगुणयोगाद्राजकन्या अत्र ज्ञेयास्तासामेवजन्मान्तरोपचितप्रकृष्टपुण्यप्रकृतिमहिम्ना राजकुलोत्पत्तिवद् यथोक्तलक्षणगुणसम्भवात् जनपदाग्रणीकन्यानामग्रेतनसूत्रेणाभिधानाच्च तासां सहस्राः पुरतो यथानुपूर्व्या-यथाज्येष्ठलघुपर्यायं संप्रस्थिताः, तथा द्वात्रिंशत् 'जण-यव त्ति' जनपदाग्रणीनां देशमुख्यानां कल्याणिकानां सहस्राः अग्रेतथैव, अत्रपदैकदेशे पदसमुदायोपचाराज्जनपदग्रहणेनजनपदाग्रण्यो ज्ञेयाः, न चैवं स्वमतिकल्पितमिति वाच्यं, 'तावतीभिर्जनपदाग्रणीकन्याभिरावृतः / ' इति श्रीऋषभचरित्रे साम्मत्यदर्शनात्, तदनन्तरं द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशता पात्रः- अभिनेतव्यप्रकारैर्बद्धाः- संयुक्ता नाटकसहस्राः पुरतो यथानुा प्रथमं प्रथमोढापितृप्राभृतीकृतनाटकं ततस्तदनन्तरोढानाटकमिति क्रमेण सम्प्रस्थिताः, एतेषां चोक्तस ख्याकता द्वात्रिंशता राजवरसहौः स्वस्वकन्यापाणिग्रहणकारणे प्रत्येक करमोचनसमयसमर्पिते-कैकनाटकसद्भावात्, 'तयणतरं चणं तिणि सट्टा सूयसया' इत्यादि / ततः त्रीणि सूपानां पूर्ववदुपचारात् सूपकाराणां शतानिषष्टानि-षष्ट्यधिकानि वर्षदिवसेषु प्रत्येकमेकैकस्य रसवतीवारकदानात् ततः कुम्भकाराऽऽद्या अष्टादश श्रेणयः तदवान्तरभेदाः प्रश्रेणयः ततः चतुरशीतिरश्वशतसहस्राः ततश्चतुरशीतिर्हस्तिशतसहस्राः ततः षण्णवतिर्मनुष्याणां पदातीना कोट्यः पुरतः प्रस्थिताः, 'तयणंतरं च णं' इत्यादि, ततो बहवो राजेश्वरतलवराः, यावत्पदात् 'माडबिअको९विय' इत्यादि-परिग्रहः / सार्थवाहप्रभृतयः पुरतः सम्प्रस्थिताः, अर्थः प्राग्वत्, 'तयणंतर चणं इत्यादि, ततो बहवोऽसिःखड्गः स एव यष्टिः- दण्डोऽसियष्टिस्तद्ग्राहाः- तद्ग्राहिणः, अथवा असिश्च यष्टिश्चेतिद्वन्द्वेतग्राहिण इति, एवमग्रेऽपि यथासम्भवमक्षरयोजना कार्या, नवरं कुन्ताश्चामराणि च प्रतीतानि, पाशा-बूतोपकरणानि, उत्त्रस्ताश्वाऽऽदिबन्धनानि वा फलकानि-सम्पुटकफलकानिखेटकानि वा अवष्टम्भानि वा द्यूतोपकरणानि वा पुस्तकानि- शुभाशुभपरिज्ञानहेतुशारखपत्रसमुदायरूपाणि, वीणाग्राहा व्यक्तं, कुतपः- तैलाऽऽदिभाजनं, 'हडप्फो -द्रम्माऽदिभाजनं, ताम्यूलार्थे पूगफलाऽऽदिभाजनंवा, 'पीढग्गाहा दीविअग्गाहा' इति पदद्वयं सूत्रे दृश्यमानमपि संग्रहगाथायामदृष्टत्वेन न लिखितं, तद्व्याख्यानं त्वेवम्- पीठम् - आसनविशेषःदीपिका च प्रतीतेति, स्वकः 2 स्वकीयैः २-रूपैः-आकारैः, एवं स्वकीयैः२ इत्यर्थः। वेषैःवस्त्रालङ्काररूपैः चिह्नः-अभिज्ञानः नियोगःव्यापारः स्वकीयप Page #1476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह थ्यैः-आभरणैः सहिता इति, अबद्धसूत्रे च पदानि न्यूनाधिकान्यपि लिपिप्रमादात् सम्भवेयुरिति तन्नियमार्थ संग्रहगाथा सूत्रबद्धा क्वचिदादर्श दृश्यते / यथा "असिलट्ठिकुंतचात्रे, चामरपासे अ फलगपोत्थे / वीणाकूवग्गाहे, तत्तो य हडप्फगाहे अ॥१॥" 'तय णं' इत्यादि, ततो बहवो दण्डिनो दण्डधारिणः मुण्डिनः- अपनीतशिरोजाः, शिखण्डिनःशिखाधारिणः, जटिनोजटाधारिणः, पिच्छिनोमयूराऽऽदिपिच्छवाहिनः, हास्यकारका इति व्यक्तं,खंडंद्यूतविशेषस्तत्कारकाः, द्रवकारकाःकेलिकराः, चाटुकारकाः- प्रियवादिनः- कान्दपिका:-कामप्रधानकेलिकारिणः, 'कुकुइआ' इति-कौत्कुच्यकारिणो भाण्डाः, 'मोहरिआ' इति-मुखरा वाचाला असम्बद्धालापिन इति यावत्, गायन्तश्च गेयानि वादयन्तश्च वादित्राणि नृत्यन्तश्च हसन्तश्च रममाणाश्च अक्षाऽऽदिभिः क्रीडयन्तश्च कामक्रीडया शासयन्तश्चपरेषां गानाऽऽदीनि शिक्षयन्तः श्रावयन्तश्च-इदंचेदंच परुत्परारि भविष्यतीत्येवंभूतवचांसि श्रवणविषयीकारयन्तः जल्पन्तश्वशुभवाक्यानि रावयन्तश्च शब्दान् कारयन्तः स्वजल्पितान्यनुवादयन्त इत्यर्थः, शोभमानाश्च स्वयं शोभयन्तः परान् आलोकमानाश्चराजराजस्यावलोकनं कुर्वन्तःजयजयशब्दं च प्रयुञ्जानाः पूरतोयथानुपूर्व्या पूर्वोक्तपाठक्रमेण सम्प्रस्थिताः, इहगमे क्वचिदादर्श न्यूनाधिकान्यपि पदानि दृश्यन्ते इति, एवमुक्तक्रमेण औपपातिकगमेनप्रथमोपाङ्गगतपाठेन तावद् वक्तव्यं यावत्तस्य राज्ञः पुरतो महाश्वाः- बृहत्तुरङ्गा अश्वधरा अश्वधारकपुरुषाश्च उभयतोभरतोपबाह्यगजरत्नस्य द्वयोःपार्श्वयोनागाः-गजा नागधराः- गजधारकपुरुषाश्च, पृष्ठतो रथाः रथसङ्गेली:-रथसमुदायः, देश्योऽयं शब्दः,चः समुच्यये, आनुपूा सम्प्रस्थिताः, अत्र यावत्पदसंग्रहश्चायं सवर्ण कसेनाङ्गानि, तत्राश्वाः- 'तयणंतरं च णं तरमलिहायणाणं हरिमेलामउलमल्लिअच्छाणं चंचुच्चिअललिअपुलिअचलचवलचंचलगईणं लंधणवग्गणधावणधोरणतिवइजइणसिक्खियगईणं ललंतलामगललायवरभूसणाणं मुहभंडगओचूलगथासगअहिलाणचामरगण्डपरिमण्डिअकडीणं किंकरवरतरुणपरिग्गहिआ अट्ठसयं वरतुरगाणंपुरओ अहाणुपुटवीए संपडिअंति, तदनन्तरं 'तरमल्लिहायणाणं ति' तरोवेगो बलंवा तथा 'मल्लमल्लिधारणे' ततश्च तरोमल्लीतरोधारको वेगाऽऽदिकृत् हायनः- संवत्सरो वर्त्तते येषां ते तथा, यौवनवन्त इत्यर्थः, अतस्तेषां वरतुरङ्गाणामिति योगः, 'वरगल्लिमासणाणं ति' क्वचित्पाठः / तत्र प्रधानमाल्यवतामत एव दीप्तिमतां चेत्यर्थः, हरिमेलावनस्पतिविशेषस्तस्या मुकुलंकुड्मलं मल्लिका च-विचकिलक्लातद्वदक्षिणी येषां तथा तेषां ते शुत्काक्षाणामित्यर्थः, 'चंचुच्चियं ति’ प्राकृतत्वेन चञ्चुरितंकुटिलगमनम् , अथवा चञ्चुः-शुकचञ्चुस्तद्वद्वक्रतयेत्यर्थः, उचितम्, उचितीकरणं पादस्योत्पाटनं चञ्चुचितं च तचलितं च विलासवद्गतिः पुलितं च-गतिविशेषः प्रसिद्ध एव, एवंरूपा चलोवायुराशुगत्वात् तद्वच्चपलचञ्चला-अतीव चपला गतिर्येषां तेतथा तेषां, शिक्षितम्-अभ्यस्तं लङ्घनगर्ताऽऽदेरतिक्रमणं वलानं-उत्कूईनं धावनंशीघ्रगमनं धोरणं गतिचातुर्य , तथा त्रिपदीभूमौ पदत्रयन्यासः, पदत्रयस्योन्नमनं वा जयिनीगत्यन्तरजनशीला गतिश्च येषां ते तथा तेषां, पदव्यत्ययः प्राकृत्वात्, लालनादोलायमानानि 'लाम ति आर्षत्याद् रम्याणि गललातानिकण्ठे न्यस्तानि वरभूषणानि येषां ते तथा तेषां, तथा मूखभाण्डकं मुखाऽऽभरणम् अवचूलाः- प्रलम्बगुच्छाः स्थासकादप्पणाऽऽकारा अश्वालङ्काराः,अहिलाणं मुखसंयमनम् एतान्येषां सन्तीति मुखभाण्डकावचूलस्थासकाहिलाणाः- मत्वर्थीयलोपदर्शनादेवं प्रयोगः, तथा चमरीगण्डै:- चामरदण्डै:परिमण्डिता कटिर्येषां ते तथा, ततः कर्मधारयस्तेषां, किङ्करभूता ये वरतरुणावरयुवपुरुषास्तैः परिगृहीतानां दवरकितानामित्यर्थः, अष्टोत्तरं शतं वरतुरगाणां पुरतो यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितम् / अथेभाः- 'तयणंतरं चणं ईसिदंताणं ईसिमत्ताणं ईसितुंगाणं ईसिउच्छंग उन्नयविसालधवलदंताणं कंचणकोसी-पविट्ठदंताणं कंचणमणिरयणभूसिआणं वरपुरिसारोहगसंपउत्ताणं गयाणं अट्ठसयं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपत्थिअंति, ईषद्दान्तानांमनाग्ग्राहितशिक्षाणां गजानामिति योगः ईषन्मत्तानां यौवनाऽऽरम्भवर्त्तित्वात् ईषत्तुङ्गानाम् उच्चानां तस्मादेव उत्सङ्ग इवोत्सङ्गः-पृष्ठदेशः ईषदुत्सङ्गे उन्नता विशालाश्च यौवनाऽऽरम्भवर्त्तित्वादेव तेच तेधवलदन्ताश्चेति समासोऽतस्तेषां, काञ्चनकोशी-सुवर्ण-खोला तस्यां प्रविष्टा दन्ताः, अर्थाद् विषाणाऽऽख्या येषां तेतथा तेषां, काञ्चनमणिरत्नभूषितानामिति व्यक्तं, वरपुरुषा- येआरोहका निषादिनस्तैः सम्प्रयुक्तानां सज्जितानां गजानांगजकलभानामष्टोत्तरं शतंपुरतो यथानुपूर्व्या, सम्प्रस्थितम्, अथ रथाः- 'तयणंतरंचणं सच्छत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सनंदिघोसाण सखिंखिणीजालपरिक्खित्ताणं हेमययचित्ततिणिसकणगणिजुत्तदारुगाणं कालायससुकयणेमिजंतकम्माणं सुसिलिट्ठवत्तमण्डलधुराणं आइण्णवरतुरगसुसंपउत्ताणं कुसलणरच्छेअसारहिसुसंपग्गहिआणंबत्तीसतोणपरिमंडिआणंसकंकडबडेंसगाणं सचावसरपहरणावरणभरिअजुद्धसज्जाणं, अट्ठसय रहाणं पुरओ अहाणुपुदीए संपट्ठिअंइति, उक्तार्थ चेदं प्राक् पद्मवरवेदिकाधिकारगतरर्थवर्णने, नवरमत्र विशेषणानां बहुवचननिर्देशः कार्यः,तत उक्तविशेषणानां रथानामष्टशतंपुरतोयथानुपूासम्प्रस्थितम्! अथपदातयः- 'तयणंतरं चणं असि-सत्तिकुंततोमरसूललउडभिंडमालधणुपाणिसज्जं पाइत्ताणी पुरओअहाणुपुव्वीए संपत्थिअंति, 'ततः पदात्यनीकं पुरतः सम्प्रस्थितं, कीशमित्याह-अस्यस्यादिनिपाणौ हस्तेयस्य तत्तथा,सज्जंचसयामाऽऽदिस्वामिकार्ये, तत्रास्यादीनि प्रसिद्धानि, नवरंशक्तिः-त्रिशूलं शूलंतु एकशूलं 'लउडत्ति' लकुटो भिन्दिपालः प्रागुक्तस्वरूप इति। अथ भरतः प्रस्थितः सन्पथि यद्यत् कुर्वन्यत्राऽऽगच्छति तदाह- 'तएणं' इत्यादि, ततः स भरताधिपो नरेन्द्रो हारावस्तृतसुकृतरतिदवक्षा यावदमरपतिसन्निभया ऋद्धा प्रथितकीर्तिश्चक्ररत्नोपदिष्टमार्गोऽनेकराजवरसहस्रानुयातमार्गो यावत्समुद्ररवभूतामिव मेदिनी कुर्वन् 2 सर्वद्ध्या यावन्नि!षनादितेन युक्त इतिगम्यं,ग्रामाऽऽकरनगरखेटकर्वटमडम्बयावत्पदात् द्रोणभुखपत्तनाऽऽश्रमसम्बाधसहस्रमण्डितां स्तिमितमेदिनीकां व Page #1477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह . 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह सुधामभिजयन् 2 अग्याणि-वराणि रत्नानि प्रतीच्छन् 2 तद्दिव्यं चक्ररत्नमनुगच्छन् 2 योजनान्तरिताभिर्वसतिभिर्वसन् 2 यत्रैव विनीता राजधानी तत्रैवोपागच्छती, तत्राऽऽगतः सन् यदकरोत्तदाह- 'उवागच्छित्ता' इत्यादि, व्यक्तं, नवरं विनीताया राजधान्या अष्टमभक्तमित्यत्र विनीताधिष्ठायकदेव साधनाय विनीता राजधानी मनसि कुर्वन् 2 अष्टमं परिसमापयतीत्यर्थःनन्विदमष्टमानुष्ठानमनर्थकं, वासनगर्याश्चक्रवर्तिना पूर्वमेव वश्यत्वात्? उच्यते-निरुपसर्गेण वासस्थैर्यार्थमिति यदाह'निरुवसम्गपच्चयत्थं विणीअंरायहाणिं मणसी करेमाणे 2 अट्ठमभत्तं पगिण्हइ' इति प्राकृत ऋषभचरित्रे, अथाष्टमभक्तसमाप्त्यनन्तरं भरतो यच्चक्रेतदाह- 'तएणं' इत्यादि, स्पष्ट, 'तहेव त्ति' पदसंग्रहश्वा-ऽऽभिषेक्यगजसजनमज्जनगृहमजनाऽऽदिरूप; अथ विनीता प्रवे-शवर्णके लाघवायातिदेशमाह-'तं चेव सव्यं' इत्यादितदेव सर्वं वाच्यं यथा 'हेवा'अधस्तनसूत्रे विनीता प्रत्यागमने वर्णनं तथा-ऽत्रापि प्रवेशे वाच्यमित्यर्थः, अत्र विशेषमाह-नवरं महानिधयो नव न प्रविशन्ति, तेषां मध्ये एकैकस्य विनीताप्रमाणत्वात् कुतस्तेषांतत्रावकाशः? चतरत्रः सेना अपि नप्रविशन्ति, शेषः स एव गमः- पाठो वक्तव्यः, कियत्पर्यन्तमित्याहयावन्निर्घोषनादितेन युक्तो विनीताया राजधान्या मध्यंमध्येनमध्यभागेन यत्रेव स्वकं गृहं यत्रैव च भवनवरावतंसकस्यप्रधानतरगृहस्य प्रतिद्वार-बाह्यद्वार तत्रैव गमनाय प्रधारितवान्- चिन्तितवान्, प्रवृत्तवानित्यर्थः, प्रविशति चक्रिण्याभियोगिकसुरा यथा 2 वासभवन परिएकुर्वन्ति तथाऽऽह- 'तएणं' इत्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो विनीता राजधानी मध्यभागेन प्रविशतः अपिवाढम् एके केचन देवा विनीतां साभ्यन्तरबाहिरिकाम् आसिक्तसम्मार्जितोलिप्तां कुर्वन्ति, अप्येकके तां मशातिमशकलितां कुर्वन्ति, अप्येकके नानाविधरागवसनोच्छ्रितध्वजपताकमण्डिताम्, अप्येकके 'लाउल्लोइअमहिता' कुर्वन्ति, अप्येकके गोशीर्षसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितलेत्यादिविशेषणां कुर्वन्ति, कियद्यावदित्याह-यावद गन्धवर्तिभूतां कुर्वन्ति, अमीषां विशेषणानामर्थः प्राग्वत्, अप्येकके हिरण्यवर्ष वर्षन्ति-रूप्यस्याघटितसुवर्णस्य वा वर्ष वर्षन्ति, एवं सुवर्णवर्ष रत्नवर्ष वज्रवर्षम् आभरणवर्ष वर्षन्ति, वज्राणिहीरकाणि, पुनः प्रविशतो राज्ञो यदभूत्तदाह- 'तए णं' इत्यादि। ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो विनीतां राजधानी मध्यमध्येनानुप्रविशतः शृङ्गाटकाऽऽदिषु, यावच्छब्दादत्र त्रिकचतुष्काऽऽदिग़हः, महापथपर्यन्तेषु स्थानेषु बहवोऽार्थिप्रभृतयस्ताभिरुदाराऽदिविशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिरभिनन्दयन्तश्चाभिष्टुवन्तश्च एवमेवादिषुरिति सम्बन्धः / तत्र शृङ्गाटकाऽऽदिव्याख्या प्राग्वत् अर्थार्थिनोद्रव्यार्थिनः कामार्थिनोमनोज्ञशब्दरूपार्थिनः भोगार्थिनोमनोज्ञगन्धरसस्प आर्थिनः लाभार्थिनोभोजनमात्राऽदिप्राप्त्यर्थिनः ऋद्धि-गवादिसम्पदम् इच्छन्त्येषयन्ति वा ऋद्ध्येषाः, स्वार्थिककप्रत्ययविधानात्ऋद्ध्येषिकाः / किल्विषिकाः- परविदूषकत्वेन पापव्यवहारिणो भाण्डाऽऽदयः कारोटिकाकापालिकाः ताम्बूलस्थगीवाहका वा, करंराजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्ये- | वंशीलाः कारवाहिनस्तएव कारवाहिकाः, कारवाधिता वा शाखिकाऽऽदयः शब्दाः श्रीऋषभनिष्क्रमणमहाधिकारे व्याख्याता इति ततो व्याख्येया इति / अथ ते किमवादिषुरित्याह-'जय जय नन्दा:' इत्यादि पदद्वयं प्राग्वत्, भद्रं ते-तुभ्यं भूयादितिशेषः अजितं प्रतिरिषुजय जितम्आज्ञावशंवद पालय, जितमध्येआज्ञावशंवदमध्ये वसतिष्ठ विनीतपरिजनपरिवृतोभूया इत्यर्थः, इन्द्र इव देवानांवैमानिकानां मध्ये ऐश्वर्यभृत, चन्द्र इव ताराणांज्योतिष्काणां चमर इवासुराणा दाक्षिणात्यानामित्यर्थः, एवं धरण इव नागानामित्यत्रापि ज्ञेयम्, अन्यथा सामान्यतोऽसुराणामित्युक्ते बलीन्द्रस्य नागानामित्युक्ते च भूताऽऽनन्दस्योपमानत्वेनोपन्यासो युक्तिमान् स्यात्, दाक्षिणात्येभ्य उदीच्यानामधिकतेजस्कत्वात्, बहूनि शतसहस्राणि यावद् वहीः कोटीः वहीः पूर्वकोटाकोटी: विनीतया राजधान्याः क्षुल्लहिमवगिरिसागरमर्यादाकस्य केवलकल्पस्य भरतवर्षस्य ग्रामाऽऽकरनगरखेटकर्वटमडम्बद्रोणमुखपत्तनाऽऽश्रमसन्निवेशेषु सम्यक् प्रजापालनेनोपार्जितसल्लब्धं निजभुजवीर्यार्जित, न तु नमुचिनेव सेवाऽऽधुपायलब्धं यशोयेनस तथा, 'महया जावत्ति' यावत्पदात् 'हयणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडि-अघणमुईगपहुप्पवाइअरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे' इति संग्रहः / आधिपत्यं पौरपत्यम् / अत्रापि यावत्पदात्- 'सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे त्ति' ग्राह्यम्, अत्र व्याख्या प्राग्वत, विचर इति कृत्वा जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति। अथ विनीता प्रविष्टः सन् भरतः किं कुर्वन् छाऽऽजगामेत्याह 'तए णं से भरहे राया णयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे' इत्यादि, ततः सभरतो राजा नयनमालासहसः प्रेक्ष्यमाणः प्रेक्ष्यमाणः इत्यादिविशेषणपदानि श्रीऋषभनिष्क्रमणमहाधिकारे व्याख्यातानीति ततो ज्ञेयानि, नवरम् - अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे दाइजमाणे' इत्यत्रजनपदाऽऽगतानां जनानां पौरजनैरड्गुलिमालासहसैर्दीमान इत्यपि, यत्रैव स्वकं गृहपित्र्यः प्रसादः यत्रैव च भवनवरावतंसकंजगद्वर्त्तिवासगृहशेखरभूतं राजयोग्य वासगृहमित्यर्थः, तस्य प्रतिद्वारं तत्रैवोपागच्छति, ततः किं करोतीत्याह'उवागरिछत्ता-'इत्यादि, उपागत्य आभिषेक्यं हस्तिरत्नं स्थापयति, स्थापयित्वा च तस्मात्प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य च विसर्जनीयजनो हि विसर्जनाधासरेऽवश्यं सत्कार्य इति विधिज्ञो भरतः षोडश देवसहस्रान् सत्कारयति समानयति. ततो द्वात्रिंशत राजसहस्रान्, ततः सेनापतिरत्नगृहपतिरत्नाऽऽदीनि त्रीणि सत्कारयति संमानयति, ततः त्रीणि षष्टानिषष्ट्यधिकानि सूपशतानिरसवतीकारशतानि ततः- अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणीततः- अन्यानपि बहून राजेश्वरतलवराऽऽदीन् सत्कारयति, संमानयति, सत्कार्य संमान्य च पूर्णे उत्सवेऽतिथीनिवप्रतिविसर्जयति, अथ यावत्परिच्छदो राजा यथावासगृहं प्रविवेश तथाऽऽह'इत्थीय्यणेणं' इत्यादि, स्त्रीरत्नेनसुभद्रया द्वात्रिंशता ऋतुकल्याणिकासहसैा त्रिंशता जनपदकल्याणिकासहसैः द्वात्रिंशता द्वात्रिंशब्दबैनाटकसहसैः सार्द्धसंपरिवृतो भवनवरावतंसकमतीतिप्रविशति, प्राकरणि कत्वादनुक्तोऽपि भरतः कर्त्ता गम्यतेऽत्र वाक्ये, यथा Page #1478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1470 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह कुबेरो-देवराजा धनदोलोकपालः कैलासंस्फटिकाचलं, किंलक्षण? भवनवरावतंसकं शिखरिशृङ्गं गिरिशिखरं तद्भुतंतत्सदृशमुञ्चत्वेनेत्यर्थः, लौकिव्यवहारानुसारेणाय दृष्टान्तः, अन्यथाकुबेरस्य सौधर्मावतंसकनाम इन्द्रकविमानादुत्तरतो वल्गुविमाने वासस्य श्रूयमाणत्वादागमेन सह विरुद्ध्यते। प्रविश्य यचक्रे तदाहतएणं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ रजधुरं चिंतेमाणस्स इमेआरूवेजाव समुप्पज्जित्था, अभिजिएणं मए णिअगबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमेण चुलहिमवंतगिरिसागरमे राए केवलकप्पे भरहे वासे, तं सेअंखलु मे अप्पाणं महया रायामिसेएणं अभिसेएणं अभिसिंचावित्तए त्ति कटु एवं संपेहेति, संपेहित्ता कलं पाउप्पभाए०जाव जलंते जेणेव मज्जणघरे०जाव पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइउवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअति, निसीइत्ता सोलस देवसहस्से बत्तीसं रायवरसहस्से सेणावइरयणे० जाव पुरोहियरयणे तिण्णि सढे सूअसए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ अण्णे अ बहवे राईसरतलवर ०जाव सत्थवाहप्पभिअओ सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासीअभिजिए णं देवाणुप्पिआ ! मए णिअग-बलवीरिअ०जाव केवलकप्पे भरहे वा से तं तुब्भे णं देवाणुप्पिआ ! ममं महयारायाभिसेविअरह, तए णं से सोलस देवसहस्सा जावप्पभिइओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठकरयलमत्थए अंजलिं कटु भरहस्स रण्णो एअमटुं सम्मं विणएणं पडिसुणे ति, तए णं से भरहे राया जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता०जाव अट्ठमभत्तिए पडिजागरमाणे विहरइ। तएणं से भरहे राया अट्ठमभत्तसिं परिणममाणंसि अमिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरच्छि मे दिसीभाए एगं महं अभिसे अमण्डवं विउव्वेह, विउवित्ता मम एअमाणत्तिणं पञ्चप्पिणह, तए णं ते ओभिओगा देवा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठाजाव एवं सामि त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणे ति, पडिसुणित्ता विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं अवकमंति, अवक्क मित्ता देउटिवअसमुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोअणाइं दंड णिसिरंति, तं जहा-रयणाणं जाव रिट्ठाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाउँति, पडिसाढित्ता अहासुहुमे पुग्गले परिआदिअंति, परिआदिइत्ता दुचं पि वेउव्वियसमुग्घायेणं जाव समोहणंति समोहणित्ता बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं विउव्वं ति, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा० तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमि-भागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एग अभिसे अमंडवं विउव्वंति, अणेगखंभसयसण्णिविटुं जाव गंधवट्टिभूअं पेच्छाघरमंडववण्णगो त्ति, तस्स णं अभिसेअमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एग अभिसे अपेढं विउव्वंति अच्छं सह; तस्स णं अभिसेअपेढस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवए विउव्वंति, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमे आरूवे वण्णावासे पण्णत्तेजाव तोरणा, तस्स णं अभिसेअपेढस्स बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं सीहासणं विउव्वंति, तस्स णं सीहासणस्स अयमे आरूवे वण्णावासे पण्णते ०जाव दामवण्णगं समत्तं तितएणं ते देवा अभिसेअमंडवं विउव्वंति, विउव्वित्ता जेणेव भरहे रायाजाव पच्चप्पिणंति, तएणं से भरहे राया आभिओगाणं देवाणं अंतिए एअमटुं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ०जाव पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्ख-मित्ता कोडु बिअ-पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आमिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, पडिकप्पेता हयगय जाव सण्णाहेत्ता एअमाणत्तिअंपच्चप्पिणह०जाव पच्चप्पिणंति, तएणं से भरहे राया मजणघरं अणुपविसइ०जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दुरुढे, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आभिसेक हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठद्वमंगलगा, जो चेव गमो विणीअं पविसमाणस्स सो चेव णिक्खममाणस्स वि०जाव अप्पडिबुज्झमाणे विणीअंरायहाणिं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छत्ता जेणेव विणीआए रायहाणीए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अभिसे अमंडवे तेणेव उवागगच्छइ, उवागच्छित्ता अभिसे अमंडबदुवारे आमिसेकं हत्थिरयणं ठावेइ, ठावेत्ता आभिसेकाओ हत्थिरयणाओ पचोरुहइ, पच्चोरुहित्ता इत्थीरयणेणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धेहिं णाडगसहस्से हिं सद्धिं संपरिवुडे अभिसे अमंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव अभिसेअपेढे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभिसेअपेढे अणुप्पदाहिणीकरेमाणे अणुप्पदाहिणीकरेमाणे पुरच्छिमिल्लेणं तिसोवाणपडि-रूवएणं दुरूहइ, दुरू हित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे त्ति / तए णं तस्स मरहस्स रण्णो बत्तीसं रायसहस्सा जेणेव अभिसेअमंडवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता अभिसे अमंडवं अ Page #1479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1471 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह णुपविसं ति, अणुपविसित्ता अभिसे अपेढं अणुप्पयाहिणीकरेमाणा अणुप्पयाहिणीकरेमाणा उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल०जाव अंजलिं कटु भरहं रायाणं जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता भरहस्स रण्णो णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणाoजाव पज्जुवासंति, तएणं तस्स भरहस्स रण्णो सेणावइरयणे०जाव सत्थवाहप्पभिईओ तेऽवि तह चेव णवरं दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं०जाव पज्जुवासंति, तएणं से भरहे राया आभिओगे देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव मो देवाणुप्पिआ! ममं महत्थं महग्धं महरिहं महारायाअभिसेअं उवट्ठवे ह, तए णं ते आमि-ओगिआ देवा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्ताजाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्क मंति, अवक्कमित्ता वेउव्विअसमुग्घाएणं समोहणंति, एवं जहा विजयस्स तहा इत्थं पि० जाव पंडगवणे एगओ मिलायंति, एगओ मिलाइत्ता जेणेव दाहिणद्धभरहे वासे जेणेव विणीआ रायहाणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विणीअं रायहाणिं अणुप्पयाहिणीकरेमाणा अणुप्पयाहिणीकरेमाणा जेणेव अभिसे अमंडवे जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्तातं महत्थं महग्धं महरिहं महारायाभिसेअं उवट्ठवेंति, तएणं तं भरहं रायाणं बत्तीसं रायसहस्सा सोभणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहुत्तंसि उत्तरपोट्ठवयाविजयंसि तेहिं साभाविएहि अ उत्तरवे उविएहि अ वरकमलपइट्ठाणे हिं सुरभिवरवारिपडिपुण्णे हिंजाव महया महया रायामिसेएणं अभिसिंचंति, अमिसेओ जहा विजयस्स, अभिसिंचित्ता पत्तेअं पत्तेअंजाव अंजलिं कटु ताहिं इट्ठाहिं जहा पविसंतस्स भणिआ०जाव विहराहि त्ति कटु जयजयसई पउंजंति / तएणं तं भरहं रायाणं सेणावइरयणे०जाव पुरोहियरयणे तिण्णि अ सट्ठा सूअसया अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ अण्णे अ बहवे०जाव सत्थवाहप्पभिइओ एवं चेव अभिसिंचंति, तेहिं वरकमलपइहाणेहिं तहेव०जाव अमिथुणंति अ सोलस देवसहस्सा एवं चेव णवरं पम्हसुकुमालाए० जाव मउड पिणझै ति, तयणंतरं च णं दद्दरमलयसुगंधिएहिं गंधेहिं गायाई अब्भुक्खेंति, दिव्वं च सुमणोदामं पिणङ्केति किं बहुणा? गंठिमवेढिम जाव विभूसि करेंति, तए णं से भरहे राया महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचिए समाणे कोडंबिअपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! हत्थिखंधवरगया विणीयाए रायहाणीए सिंघाडातिगचउक्कचचर०जाव महापहपहेसु महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा उस्सुक उक्करं उक्किट्ठ अदिजं अमिजं अब्भडपवेसं अदंडकुदंडिमं०जाव सपुरजणवयं दुवालससंवच्छरिअं पमो घोसेह घोसेह, ममे अमाणत्तिअं पच्चप्पिणह ति / तए णं ते कोडुबिअपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठचित्तामाणंदिआ पीइमणा हरिसव-सविसप्पमाणहियया विणएणं वयणं पडिसुणे ति, पडिसुणेत्ता खिप्पामेव हत्थिखंधवरगया० जाव घोसंति, घोसित्ता एअमाणत्तिअंपच्चप्पिणंति। तएणं से भरहे-राया महया महया रायाभिसे एणं अभिसित्ते समाणे सीहासणाओ अब्भुढेइ, अन्मुट्ठित्ता इत्थिरयणेणंजाव णाहगसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे अभिसेअपेढाओ पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, पच्चारुहित्ता अमिसेअमंडवाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई जाव दूरूढे / तएणं तस्स भरहस्सरण्णो बत्तीसरायसहस्सा अभिसेअपेढाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरु-हंति / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो से णावइरयणे० जाव सत्थवाहप्पभिईओ अभिसेअपेढाओ दाहिणिलेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहंति। तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आभिसेक्वं हत्थिरयणं दूरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ०जाव संपत्थिआ, जोऽवि अ अइगच्छमाणस्स गमो पढमो कुबेरा-वसाणो सो चेव इहं पि कमो सक्कारजढो अव्वो ०जाव कुबेरोव्व देवराया केलासं सिहरि सिंगभूअंति।तएणं से भरहे राया मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जाव भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ, पारित्ता भोअणमंडवाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं०जाव मुंजमाणे विहरइ। तएणं से भरहे राया दुवालससंवच्छरिअंसि पमोअंसि णिवत्तंसि समाणंसि जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता०जाव मज्जणघराओपडिणिक्खमइ,पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला०जाव सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ, णिसीअइत्ता सोलस देवसहस्से सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जित्ता बत्तीसरायवरसहस्सा सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्माणित्ता सेणावइरयणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सम्माणित्तान्जाव पुरो Page #1480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1472 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह हियरयणं सकारेइ, सम्माणेइ, सम्माणित्ता एवं तिणि सट्टे | सूआरसए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सक्कारेइ, सम्माणेइ, / सम्माणित्ता अण्णे अ बहवे राईसरतलवर० जावसत्थवाहप्पभिइओ सकारेइ, सम्माणेइ, सम्माणित्तापडिविसजेति, पडिविसञ्जेत्ता उप्पि पासायवरगए०जाव विहरइ / (सूत्रम्-६८) 'तए ' इत्यादि, ततः स भरतो राजा मित्राणि-सुहृदः ज्ञातयःसजातीयाः निजकाः मातापितृभात्रादयः रवजनाः- पितृव्याऽऽदयः सम्बन्धिनः-श्वशुराऽऽदयः परिजनोदासाऽऽदिः,एकवद्भावे कृते द्वितीया, प्रत्युपेक्षते-कुशलप्रश्नाऽऽदिभिरापृच्छय आपृच्छय सम्भाषत इत्यर्थः, अथवा चिरमदृष्टत्वेन मित्राऽऽदीनुत्कण्ठुलतया पश्यति-स्नेहदृशा विलोकयति, प्रत्युपेक्ष्य च यत्रैव मज्जन-गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च, यावच्छब्दात् स्नानविधिः सर्वोऽपि वाच्यः, मज्जनगृहात् प्रतिनिष्का- 1 मतीत्यादि प्राग्वत् / अत्र च बाहुबल्यादिनवनवति भ्रातृराज्यानामात्मसातकरणपूर्वकं चक्ररत्नस्याऽऽयुधशालायां प्रवेशनमत्यत्र प्रसिद्धमपि सूत्रकारेण नोक्तमिति नोच्यते इति। एवं विहरतस्तस्य यदुदपद्यत तदाह'तएणं' इत्यादि, ततः तस्य भरतस्य राज्यधुरं चिन्तयतोऽन्यदा कदाचिदयमेतद्रूपः- उक्तविशेषणविशिष्टः सङ्कल्पः समुदपद्यत, स च का सङ्कल्प इत्याह- 'अभिजिएणं' इत्यादि अभिजितं मया निजकबलवीर्यपुरुषकारणपराक्रमेण क्षुलहिमवगिरिसागरमर्यादया केवलकल्पभरतं वर्ष तच्छ्रेयः खलु ममाऽऽल्मानं महाराज्याभिषेकेणाभिषेचयितुम- अभिषेक कारयितुम् इति कृत्वाभरतं जितमिति विचार्य एवं सम्प्रेक्षते-राज्याभिषेक विचारयति, अथैतद्विचारोत्तरकालीनकार्यमाह- 'संहिता' इत्यादि व्यक्तम् सिंहासने निषद्य यचक्रे तदाह- "निसीइत्ता' इत्यादि कण्ठ्यं, किमवादीदित्याह- 'अभिजिए ण-' इत्यादि, अभिजित मया देवानुप्रिया ! निजकबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण क्षुद्रहिमवगिरिसागरमर्यादया केवलकल्पं भरतं वर्ष तद्यूयं देवानुप्रिया ! मम महाराज्याभिषेक वितरत दत्त, कुरुतेत्यर्थः, आवश्यकचूादौ तु भक्त्या सुसरास्तं महाराज्याभि काय विज्ञपयामासुर्भरतश्च तदनुमेने, अस्ति हि अयं विधेयजनव्यवहारो यत्प्रभूणां समयसेवाविधौ ते स्वयमेवोपतिष्ठन्ते, सत्यप्येवंविधे कल्पे यदरतस्यात्रानुचरसुराऽऽदीनामभिषेकज्ञापनमुक्तं तद् गम्भीरार्थकत्वादस्मादृशामन्दमेधसामनाकलनीयमिति / अथ यथा ते अडीचकुस्तथाऽऽह- 'तएणं' इत्यादि, ततस्तेषोडश देवसहरमाः, यावत्- शब्दात् द्वात्रिंशद्राजसहरसाऽऽदिपरिग्रहः यावद्राजेश्वरतलवराऽऽदिसार्थवाहप्रभृतय इति, भरतेन राज्ञा इत्युक्ताः सन्तो 'हट्टतुट्ठत्ति' इहैकदेशदर्शनमपि पूर्णतदधिकारसूत्रदर्शकं, तेन हद्वतुडचित्तमाणंदिआ इत्यादिपदानि ज्ञेयानि, करतल परिगृहीतं दशनखं शिरस्यावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा भरतस्य राज्ञ एतम्-अनन्तरोदितमर्थं सम्यग्- विनयेन प्रतिशृण्वन्तिअङ्गीकुर्वन्ति, अथ 'जलालब्धाऽऽत्मलामा कृषिर्जलेनैव वर्द्धते' इति ज्ञातात्तपसाऽऽप्तं राज्यं तपसैवाभिनन्दतीति चेतसि चिन्तयन् भरतो यदुपचक्रमे तदाह- 'तएणं' इत्यादि प्रागवत् 'तएणं से भरहे' इत्यादि, ततः | स भरतो-ऽष्टमभक्ते परिणमति सति आभियोग्यान देवान् शब्दयति, शब्दयित्वा च एवमवादीत, किमवादीदित्याह- "खिप्पामेव त्ति क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया ! विनीताया राजधान्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे इत्यर्थः, तस्यात्यन्तप्रशस्तत्वात्, अभिषेकाय मण्डपः अभिषेकमण्डपस्तं विकुर्वत, विकुळ च मम एतामाज्ञप्तिं प्रत्यर्पयत, 'तएण' इत्यादि, ततस्ते आभियोग्या देवा भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो, हृष्टतुष्टाऽऽदिपदानि प्राग्वत्, एवं स्वामिन् ! यथैव यूयमादि शत आशयास्वामिपादानामनुसारेण कुर्म इत्येवरूपेण विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, 'पडिसुणित्ता' इत्यादि, प्रतिश्रुत्य च विनीताया राजधान्या उत्त-रपौरस्त्यं दिग्भागमपक्रामन्ति-गच्छन्ति, अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन- उत्तरवैक्रियकरणार्थक प्रयत्नविशेषेण समवघ्नन्ति-आत्मप्रदेशान् दूरतो विक्षिपन्ति, तत्स्वरूपमेव व्यनक्ति सङ्ख्येयानि योजनानि दण्ड इव दण्डः- ऊर्ध्वाधआयतः शरीरवाहल्यो जीवप्रदेशस्तं निसृजन्ति-शरीराबहिनिष्काशयन्ति, निसृज्य च तथाविधान् पुद्गलान् आददते इति, एतदेव दर्शयति, तद्यथा- रत्नानांकतनाऽऽदीनां, यावत्पदात् 'वइराण वेरुलिआणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगभाणं पुलयाणं सोगन्धिआणं जोईरसाणं अंजणाणं अंजणपुलयाण जायसवाणं अंकाणं फलिहाणं इति संग्रहः, रिट्ठाणमिति साक्षादुपत्तिम्, एतेषा सम्बोन्धना यथाबादरान्- असारान् पुद्गलान् परिशातयन्ति त्यजन्ति यथासूक्ष्मान्- सारान् पुद्गलान् पर्याददते-गृहणन्ति, पर्यादाय च चिकीर्षितनिर्माणार्थ द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति, समवहत्य च बहुसमरमणीयं भूमिभाग विकुर्वन्ति / तद्यथा- 'से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा' इत्यादि, सूत्रतोऽर्थतश्च प्राग्वत, ननु रत्नाऽऽदीनां पुद्गला आदारिकास्ते च वैक्रियसमुद्घाते कथं ग्रहणार्हाः, उच्यते- इह रत्नाऽऽदिग्रहणं पुद्गलानां सारतामात्रप्रतिपादनार्थ , न तु तदीयपुगलग्रहणार्थ, ततो रत्नाऽऽदीनाभिवेति द्रष्टव्यम्, अथवा औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैक्रियतया परिणमन्ते, पुद्गलानां तत्तत्सामग्रीवशात्तथातथापरिणमनभावादतो न कश्चिद्दोष इति, पूर्ववैक्रियसमुद्घातस्य जीवप्रयत्नरूपत्वेन क्रमक्रममन्दमन्दतरभावाऽऽपन्नत्वेन क्षीणशक्तिकत्वात् इष्टकार्यासिद्धेः, अथ समभूभागे ते यच्चक्रुस्तदाह- 'तस्सणं इत्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महान्तमेकमभिषेकमण्डपं विकुर्वन्ति, अनेकस्तम्भशतसन्नि-विष्टं, यावत्पदात् राजप्रश्रीयोपाङ्गगतसूर्याभदेवयानविमानवर्णको ग्राह्यः, स च कियत्पर्यन्तमित्याह-यावद् गन्धयतिभूतमिति विशेषणम्, अत एव सूत्रकृदेव साक्षादाह- प्रेक्षागृहमण्डपवर्णको ग्राह्य इति, एतत्सूत्रव्याख्ये सिद्धाऽऽयतनाऽऽदिवर्णके प्राग्दर्शिते इति नेहोच्यते। 'तस्सणं' इत्यादि तस्याभिषेकमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र-अस्मिन् देशे महान्तमेकमभिषेकपीठं विकुर्वन्ति अच्छम् अस्तरजस्कत्वात् लक्ष्णं सूक्ष्मपुगलनिर्मितत्वात्, 'तस्स णं' इत्यादि, वापीत्रिसोपानप्रतिरूपकवर्णकवदत्र वर्णव्यासो ज्ञेयः यावत्तोरणवर्णनम् / अथाभिषेकपी Page #1481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1473 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह ठभूमिवर्णनाऽऽदि प्रतिपदयन्नाह 'तस्स णं' इत्यादि, तस्याभिषेकपीठस्य बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य समभूभागस्य मध्ये एक महत् सिंहासनं विकुर्वन्ति, तस्य वर्णकव्यासो विजयदेवसिंहासनस्येव ज्ञेयः यावद्दाम्नां वर्णको यत्र तहमामवर्णकं सम्पूर्ण समस्तंसूत्रं वाच्यमिति शेषः, एनमेवार्थ निगमयन्नाह- 'तएणं' इत्यादि, ततोभरताऽऽज्ञानन्तरं ते देवा उक्तविशेषणविशिष्टमभिषेकमण्डपं विकुर्वन्ति, विकुर्य च यत्रैव भरतो राजा यावत्पदात् 'तेणेव' उवागच्छति उवागच्छित्ता एअमाणत्तिअं इति ग्राह्यं, 'तए णं' इत्यादि, व्यक्तम्, अथैतत्समयोचितं भरतकृत्यमाह- 'तए णं' इत्यादि प्राग्वत्, 'तएणं' इति, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञ आभिषेक्यं हस्तिरत्नमारूढस्य सत इमान्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि पुरतः सम्प्रस्थितानीति शेषः, अथग्रन्थलाघवार्थमतिदिशति- य एव गमो विनीतां प्रतिशतः स एव तस्य निष्क्रामतोऽपि भरतस्य, कियदन्तमित्याह-यावदप्रतिबुद्धयन् र विनीतांराजधानी मध्येमध्येन निर्गच्छति, शेष व्यक्त, ततः किं चक्रे इत्याह- 'पच्चोरहित्ता इत्थीरयणेणं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा स्त्रीरत्नेन सुभद्रयाद्वात्रिंशता ऋतुकल्याणिकासहौः द्वात्रिंशता जनपदकल्याणिकासहौःद्वात्रिंशता द्वात्रिंशद्रद्धर्नाटकसहसः सार्द्ध संपरिवृतोऽभिषेकमण्डपमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य च यत्रैयाभिषेकपीठं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चाभिषेकपीठमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् 2 स्वामिदृष्ट भक्तजनः प्रमोदतेतराम् इति आभियोगिकसुरमनस्तुष्ट्युत्पादनहेतोरित्थमेवसृष्टिक्रमाच्च पौरस्त्येन त्रिसोपानकप्रतिरूपकेण आरोहति, आरुह्य च यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः- सम्यग् यथौचित्येनोपविष्टः, अथानुचरा राजादयो यथोपचेरुस्तथाऽऽह- 'तएणं' इत्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञो द्वात्रिंशद्राजसहस्राणि यत्रैवाभिषेकमण्डपः- तत्रैवोपागच्छतीत्यादि व्यक्तं, नवरमभिषेकपीठम् अनुप्रदक्षिणी-कुर्वन्तः 2 उत्तरत आरोहता प्रदक्षिणाकरणे नैव सृष्टिक्रमस्य जायमानत्वात्, 'तए णं' इत्यादि पाठसिद्धं , 'तए णं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा आभियोग्यान देवान् शब्दयित्वा एवमयादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया! मम महान् अर्थोमणिकनकरत्नाऽऽदिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स तथा तं महान् अर्घः-पूजा यत्र स तथा तं महम् उत्सवमर्हत्तीति महार्हस्तंमहाराज्याभिषेकमुपस्थापयतसम्पादयत, आज्ञप्तास्ते यच्चक्रुस्त-दाह- 'तए णं' इत्यादि, तत आज्ञप्त्यनन्तरं ते आभियोग्या देवा भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो हृष्टतुष्टचित्तेत्यादिरानन्दाऽऽलापको ग्राह्यः,यावत्पदात्- 'करयलपरिगहिअंदसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटटु एवं देवो तह ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता' इति ग्राह्यं, व्याख्या च प्राग्वत्, अत्रातिदेशसूत्रमाह-एवम्- इत्थंपकारमभिषेकसूत्रं यथा विजयस्यजम्बूद्वीपविजयद्वाराधिपदेवस्य तृतीयोपाने उक्तं तथाऽत्रापि ज्ञेयमिति, अत्र च सर्वाभिषेकसामग्री वक्तव्या, सा चोत्तरत्र जिनजन्माधिकारे वक्ष्यते, तत्र तत्सूत्रस्य साक्षाद्दर्शितत्वात्तथापि स्थानाशून्यार्थ तथाशब्दसूचित संग्रहदर्शनार्थ किञ्चिल्लिख्यते, तदपिलाघवार्थ संस्कृतरूपमेव युक्तमिति तथैव दर्श्यते, अष्टसहस्र सौवर्णिककलशानां तथा रूप्यमयकलशानां तथा मणिमयकलशानामित्याद्यष्टजातीयकलशानाम् एवं भृङ्गाराणाम् आदर्शाना स्थालानां पात्रीणां सुप्रतिष्ठानां मनोगुलिकानां वातकरकाणा चित्ररत्नकरण्डकानां पुष्पचङ्गेरीणां यावल्लोमहस्तकचङ्गेरीणां पुष्पपटलकानां यावल्लोमहस्तपटलकानां सिंहासनाना छत्राणां चामराणां समुद्गकानां ध्वजाना धूपकडुच्छुकानां प्रत्येकमष्टसहसं विकुर्वन्ति, विकुऱ्याच स्वाभाविकान् वैक्रियाश्चैतान् पदार्थान् गृहीत्वा क्षीरोदे उदकमुत्पलाऽऽदीनि च गृह्णन्ति, पुष्करोदे तथैव, ततो भरतैरावतयोगिधाऽऽदितीर्थत्रये उदकं मृदं च ततस्तयोर्महानदीषूदकं मृदं च ततः क्षुल्लहिमाद्रौ सर्वतूवरसर्वपुष्पाऽऽदीनि, ततः पाद्रहपुण्डरीकद्रहयोरुदकमुत्पलाऽऽदीनि च एवं प्रतिवर्ष महानद्योरुदकं मृदं च प्रतिवर्षधरं च सर्वतूवरसर्वपुष्पाऽऽदीनिच द्रहेषु च उदकोत्पलाऽऽदीनि वृत्तवैताढ्येषु चसर्वतूवराऽऽदीनि विजयेषु तीर्थोदकं मृदं च वक्षस्कारगिरिषु सर्वतूवराऽऽदीन् तथा अन्तरनदीषु उदकं मृदंच, ततो मेरौ भद्रशालवने सर्वतूवराऽऽदीन्ततो नन्दनवने सर्वतूवराऽऽदीन् सरसंच गोशीर्षचन्दनं ततः सौमनसवने सर्वतूवराऽऽदीन् सरसंच गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च समुनोदाम ततः पण्डकवने सर्वतूवरपुष्पगन्धाऽऽदीन गृह्णन्ति, गृहीत्वा चैकतः एकत्र मिलन्ति, एकत्र मिलित्वा यत्रैव दक्षिणार्द्धभरतवर्ष यत्रैव च विनीता राजधानी तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च विनीता राजधानीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन्तः 2 यत्रैवाभिषेकमण्डपो यत्रैव च भरतो राजा तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च तत् पूर्वोक्त महार्थ महाघु महार्ह महाराज्याभिषेकोपयोगिक्षीरोदकाऽऽद्युपस्करमुपस्थापयन्ति- उपढौकयन्ति / अथोत्तरकृत्यमाह- 'तएणं' इत्यादि, ततस्तं भरतं राजानं द्वात्रिंशद्राजसहस्राणि शोभने निर्दोषगुणपोषे 'तिथिकरणदिवसनक्षत्रमुहूर्ते' तिथ्यादिपदानां समाहारद्वन्द्वः, तत सप्तम्येकवचनं तत्र तिथि:- रिक्तार्केन्दुदग्धाऽऽदिदुष्टतिथिभ्यो भिन्ना तिथिः, करणंविविष्टिदिवसो दुर्दिनग्रहणोत्पातदिनाऽऽदिभ्यो भिन्नदिवसः, नक्षत्रंराज्याभिषेकापयोगि श्रुत्यादित्रयोदशनक्षत्राणामन्यतरत्, यदाह- "अभिषिक्तो महीपालः, श्रुतिज्येष्ठलघुधुवैः / मृगानुराधापौष्णैश्च' चिरं शास्ति वसुन्धराम् // 1 // " इति, मुहूर्तः-अभिषेकोक्तनक्षत्रसमानदैवत इति, अत्रैव विशेषमाह- उत्तरप्रौष्ठपदा उत्तरभद्रपदा नक्षत्रं तस्य विजयो नाम मुहूर्तः-अभिजिदादयः क्षणस्तस्मिन्, अयं भायःमुहूर्तापरपर्यायः पञ्चदशक्षणाऽऽत्मकेदिवसेऽष्टमक्षणः तल्लक्षणंचेदंज्योतिः शास्त्रप्रसिद्ध- "द्वौ यामौ घटिकाहीनौ, द्वौ यामौ घटिकाधिको विजयो नाम योगोऽयं, सर्वकार्यप्रसाधकः॥१॥" ततस्तैः पूर्वोक्तैः स्वाभाविकैरुत्तरवैक्रियैश्च वरकमले आधारभूते प्रतिष्ठान स्थितिर्येषां तेतथातैः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णः, अत्र 'चंदणकयवच्चएहिं आविद्धकंठेगुणेपिउमुप्पलपिहाणेहिं करयलपरिगहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवण्णिअकलसाणंजाव अवसहस्सेणं भोमेजाणं इत्यादिको ग्रन्थो यावत्पदसंग्राहा उत्तरत्र जिन Page #1482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1474 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह जन्माभिषेकप्रकरणे व्याख्यास्यते तत्रास्य साक्षाद्दर्शितत्वात, वाक्यसङ्गत्यर्थ च करणक्रियाविभागो दय॑ते, उक्तविशेषण विशिष्टः कलशैः सर्वोदकसर्वमृत्सौषधिप्रभृतिवस्तुभिर्महता २-गरीयसी 2 राज्याभिषेकेणाभिषिञ्चन्ति, अभिषेको यथा विजयस्य जीवाभिगमोपाने उक्तस्तथाऽत्र बोद्धव्यः, अभिषिच्य च प्रत्येक 2 प्रतिनृपं, यावत्पदात् 'करयलपरिगहि सिरसावत्तं मत्थए' इति ग्राह्यं, अञ्जलिं कृत्वा ताभिरिष्टाभिः अत्रापि 'कंताहि०जाव वगूहिं अभिणंदंताय अभिथुणता य एवं वयासीजय जय णंदा जय जय भद्दा ! भद्द ते अजिअं जिणहि' इत्यादिको ग्रन्थस्तथा ग्राह्यो यथा विनीतां प्रविशतो भरतस्यार्थिप्रमुखयाचकजनैराशीरित्यर्थाद् गम्यं भणिता कियत्पर्यन्तमित्याह- यावद्विहरेति- / कृत्वा जयर शब्दं प्रयुञ्जन्ति, नन्वत्र सूत्रेऽभिषेकसूत्रं जीवाभिममगतविजयदेवाभिषेकसूत्रातिदेशेनोक्त, साम्प्रतीनतदीयाऽऽदर्शषु च' अट्ठसएणं सोवण्णिअकलसाणं इत्यादि दृश्यते, अत्र च वृत्तौ- 'अट्ठसहस्सेणं सोवण्णिअकलसाण' इत्यादि दर्शितं तत्कथमनयोन विरोधः? उच्यतेजीवभिगमवृत्तौ तानेव विभागतो दर्शयति, अष्टसहस्रेण सौवर्णिकानां कलशानामष्टसहस्रेण रूप्यमयानां कलशानाम् अष्टसहस्रेण मणिमयानाभित्यादिपाठाऽऽशयेनात्र लिखितत्वान्न दोषः, यदि चात्र कलशानामष्टोत्तरशतसङ्ख्या स्यात्तदा तत्रैव सर्वसङ्ख्या अष्टभिः सहस्ररित्युत्तरग्रन्थोऽपि नोपपद्येत, किं चदृश्यमानतत्सूत्रे विकुर्वणाधिकारे 'अट्टसहस्सं सोवपिणअकलसाणं०जाव भोमेज्जाणं' इत्यादि, अभिषेकक्षणे तु 'अहसएणंसोवण्णिअकलसाणं इत्यादीत्यपि विचार्यम्। अथ शेषपरिच्छदाभिषेकवक्तव्यतामाह- 'तएणं' इत्यादि, ततो- द्वात्रिंशद्राजसहस्राभिषेकानन्तरं भरतं राजान सेनापतिरत्न, यावत्पदात् 'गाहावइरयणे बड्डइरयणे इतिग्राह्य, गृहपतिवर्द्धकिपुरोहितरत्नानि त्रीणि च षष्टानिषष्ट्यधिकानि सूपशतानि अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणयः, अन्ये च बहवो यावच्छब्दात् राजेश्वराऽऽदिपरिग्रहः, ततो राजेश्वरतलवरमाडम्बियकौडुम्बिकेभ्यः श्रेष्ठिसेनापतिसार्थवाहप्रभृतय एवमेवराजान इवाभिषिशन्ति, तैर्वरकमलप्रतिष्ठानैस्तथैव कलशविशेषणाऽऽदिक ज्ञेयं, यावदभिनन्दन्ति अभिष्टुवन्ति च, ततः षोडश-देवसहस्रा एवमेव-उक्तन्यायेनाभिषिञ्चन्ति, यत्तु आभियोगिकसुराणां चरमोऽभिषेकः तदरतस्य मनुष्येन्द्रत्वेन मनुष्याधिकारान्मनुष्यकृताभिषेकानन्तरभावित्वेनेति बोध्यं, यद्वा-देवानां चिन्तितमात्रतदात्वसिद्धिकारकत्वेन पर्यन्ते तथाविधोत्कृष्टाभिषेक-विधानार्थमिति, ऋषभचरित्राऽऽदौ तु पूर्वमपि देवानामभिषेकोऽभिहित इति / अत्र यो विशेषस्तमाह- ‘णवरं, इति, अयं विशेषः- आभियोगिकसुराणा मपरेभ्योऽभिषेचकेभ्यः पक्ष्मलयापक्ष्मवत्या सुकुमारया च, अत्र यावत्पदग्राह्यमिदं गंधकासाइआए गायाई लूहॅति, सरसगौसीसचंदणेणं गायाईअणुलिपति, अणुलिंपित्ता नाणीसासवायवोज्झं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेगं धवलं कणगखइअंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्प अहयं दिव्वं देवदूसजुअलं णिअंसाति, णिसावेत्ता हारं पिणद्वेति, पिणवेत्ता एवं अरहारं एगावलिं मुत्तावलिं रयणावलिं पालम्ब अंगयाइं तुडिआई कडयाइंदसमुद्दिआणतगं कडिसुत्तगं वेअच्छासुत्तगं मुरवि कंठ मुरवि कुंडलाइंचूडामणिं चित्तरयणुकडं ति।" अत्र व्याख्यागन्धकाषायिक्या सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिकर्मितया लघुशाटिकया इति गम्य, गात्राणिभरतशरीरावयवान् रूक्षयन्ति, रूक्षयित्वा च सरसेन गोशीर्षचन्दनेन गात्राण्यनुलिम्पन्ति अनुलिप्य च देवदूष्ययुगल निवासयन्तिपरिधापयन्तीति योगः, कथम्भूतमित्याह- नासिकानिःश्वासवातेन बाह्यंदूरापनेयं श्लक्ष्णतरमित्यर्थः, अयमर्थः- आस्तां महावातः नासावातोऽपि स्वबलेन तद्वस्रयुगलम् अन्यत्र प्रापयति, चक्षुर्हर रूपातिशयत्वात्, अथवा चक्षुर्द्धरं चक्षुरोधकं घनत्वात्, अतिशायिना वर्णेन स्पर्शेन च युक्तं हयलालाअश्वमुखजलं तस्मादपि पेलवंकोमलमतिरकेण अतिशयेन अतिविशिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः, धवलं प्रतीत, कनकेन खचितानि विच्छुरितानि अन्तकर्माणि-अञ्चलयोनिलक्षणानि यस्य तत् तथा आकाशस्फटिको नाम अतिस्वच्छस्फटिकविशेषस्तत्सदृशप्रभम् अहतं दिव्यं निवास्य च हारं पिनह्यन्ति-ते देवाश्चक्रिणः कण्ठपीठे बध्नन्ति, 'एवं' इति एतेनाभिलापेनार्द्धहाराऽऽदीनि वाच्यानि यावन्मुकुटमिति, तत्र हारार्द्धहारौ प्रतीतो, एकावली प्राग्वत्, मुक्तावलीमुक्ताफलमयी कनकावलीकनकमणिमयी रत्नावलीरत्नमयी प्रासम्बः- तपनीयमयो विचित्रमणिरलभवितचित्र आत्मप्रमाण आभरणविशेषः, अङ्गदेबुटिके च प्राग्वत्, कटके प्रसिद्ध दशमुद्रिकानन्तरकंहस्ताङ्गुलिमुद्रादशकं कटिसूत्रक पुरुषकण्ठ्याऽऽभरणं वैकक्ष्यसूत्रकम् - उत्तरासङ्गं परिधानीयंशृद्धलकं मुरवी-मृदङ्गाऽऽकारमाभरण कण्ठमुरवीकण्ठाऽऽसन्नं तदेव कुण्डलेव्यक्ते चूडामणिः प्राग्वत्, चित्ररत्नोत्कटविचित्ररत्नोपेतं मुकुट व्यक्तम् / 'तयणंतरं चणं दद्दरमलय' इत्यादि, तदनन्तरं दर्दरमलयसम्बन्धिनो ये सुगन्धाः- शोभनवासास्तेषां गन्धः-शुभपरिमलो येषु ते तथा तैर्गन्धैःकाश्मीरकर्पूर कस्तूरीप्रभृतिगन्धवद्रव्यैः प्रकरणाद्रसभावमापादितैरभ्युक्षन्तिसिञ्चन्तिते देवा भरतं, कोऽर्थः? अनेकसुरभिद्रव्यमिश्रधुसृणरसच्छटकान् कुर्वन्ति, भरतवाससीति भावः / क्वचित्, 'सुगंधगंधिएहिं गंधेहिं भुकुडं ति' इति पाठस्तत्र भूकडन्तीति-उधूलयन्ति, गन्धैः सुरभिचूर्ण :- सुरभिचूर्ण भरतोपरि क्षिपन्ति दिव्यं, चः समुच्चये, सुमनोदामकुसुममालां पिनह्यन्ति, किंबहुना? उक्तेनेति गम्यं, 'गढिमवेढिम' यावत्पदात् 'पूरिमसंघाइमेणं चउव्यिहेणं मल्लेणं कप्परुक्खयं पिव समलंकिय त्ति' ग्राह्यम्, अत्र व्याख्या-ग्रन्थनं ग्रन्थस्तेन निवृत्तं ग्रन्थिम, भावादिमप्रत्ययः, यत्सूत्राऽऽदिना गृथ्यते तद्ग्रन्थिममिति भावः,ग्रथित सद्वेष्ट्यते यत्तद् वेष्टिमं, यथा पुष्पलम्बूसको गेन्दुकइत्यर्थः, पूरिम येन वंशशलाकाऽऽदिमयपञ्जराऽदि पूर्यतेसंघातिमयत्परस्परतोनालंसंघात्यते, एवंविधन चतुर्विधेन माल्येन कल्पवृक्षमिवालकृतविभूषितं भरतचक्रिण कुर्वन्ति ते देवाः। अथ कृताभिषेको यच्चक्रेतदाह-'तएणं' इत्यादि, ततः स भरतो राजा महता महता अतिशायिना राज्याभिषेकेणाभिषिक्तः सन् कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादीत्, तदेवाऽऽह क्षिप्रमेव Page #1483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1475 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह भो देवानुप्रिया ! यूयं हस्तिस्कन्धवरगताः विनीताया राजधान्याः शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वराऽऽदिषु प्राग्व्याख्यातेषु आस्पदेषु महता महता शब्देनोद्घोषयन्तोजल्पन्तोजल्पन्तः, अत्र शत्रन्तस्यापि अविवक्षणान्न कर्मनिर्देशः, आभीक्ष्ण्ये द्विवचनम् उच्छुल्कं यावद् द्वादश संवत्सराः कालोमानं यस्यास्तीतिद्वादश-संवत्सरिकस्त प्रमोदहेतुत्वात् प्रमोदः - उत्सवस्ते घोषयत, घोषयित्वा च ममैतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत, उच्छुल्काऽऽदिपदव्याख्या प्राग्वत्, अथ ते आज्ञप्ता यथा प्रवृत्तवन्तस्तथाऽऽह'तए णं' इति, ततस्ते कौटुम्बिकपुरषा भरतेन राज्ञा एवमुक्ताः सन्तो हृष्टतुष्ट-चित्ताऽऽनन्दिताः 'हरिसक्स त्ति' हर्षवशविसर्पद्धृदयाः विनयेन वचन प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य च क्षिप्रमेव हस्तिस्कंधवरगताः, यावत्पदात् ‘विणीआए रायहाणीए सिंघाडगतिग' वत्यादि ग्राहां, कियदन्तमित्याह-यावद्घोषयन्ति, घोषयित्वा च एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्ति। अथ भरतः किं चक्रे इत्याह- 'तएणं' इति, ततः स भरतो राजा महता महता राज्याभिषेकेणाभिषिक्तः सन् सिंहासनादभ्युतिष्ठति, अभ्युत्थाय च स्त्रीरत्नेन यावत् 'बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए जणबयकल्लाणिआसहस्सेहिं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धेहिं' इति ग्राह्य, द्वात्रिंशता द्वात्रिंशद्वद्वैर्नाटकसहौः सार्द्ध संपरिवृतोऽभिषेकपीठात् पौरस्त्येन त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य चाभिषेकमण्डपात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च यत्रैवाऽऽभिषेक्यं हस्तिरत्नं तत्रेवोपागच्छति, उपागत्य चाञ्जनगिरिकूटसन्निभं गजपति, यावच्छब्दात् 'नरवइत्ति' ग्राहां, नरपतिरारूढः, तदनु अनुचरजनो यथाऽनुवृत्तवांस्तथाऽऽह- 'तए णं' इत्यादि, व्यक्तम्, अथ यथा युक्त्या चक्री विनितां प्रतिवेश तामाह- 'तए णं' इत्यादि, ततस्तस्य भरतस्य राज्ञ आभिषेक्यं हस्तिरत्नमारूढस्य सत इमान्यष्टाष्टमङ्गलकानि पुरतो यावच्छब्दाद्यथानुपूर्व्या संप्रस्थितानि, अत्र ग्रन्थविस्तरभयादतिदेशमाह-योऽपि चातिगच्छतोविनीतां प्रविशतः क्रमः-परिपाटी प्रथमोऽधस्तनसूत्रोक्तो भरतविनीताप्रवेशवर्णकः कुबेरदृष्टान्तभाविसूत्रावसानः स एव क्रम इहापि सत्कारविरहितो नेतव्यः / अयं भावः- पूर्व प्रवेशे षोडशदेवसहस्रद्वात्रिंशद्राजसहस्राऽऽदीनां सत्कारो यथा विहितस्तथा नाति अस्य च द्वादशवार्षिकप्रमोदनिर्वर्तनोत्तरकाल एवावसरप्राप्तत्वात्।। अथ गृहाऽऽगमनानन्तरं यो विधिस्तमाह- 'तए णं से भरहे राया मजणघरं' इत्यादि, निगदसिद्धं प्राग बहुशो निगदितत्वात्, एवं च प्रतिदिन नवं नवं राज्याभिषेकमहोत्सव कारयतस्तस्य द्वादश वर्षाण्यतिक्रान्तानि, शत्रुञ्जयमाहात्म्याऽऽदौ तु राज्याभिषेकोत्सवस्थाने राज्याभिषेक एव द्वादशवार्षिकोऽभिहित इति, अथ तदुत्तरकाले यत्कृत्यं तदाह- 'तएण' इत्यादि प्राग्वत् / ननु सुभूमचक्रवर्तिनः पशुरामहतक्षत्रियदाढाभृतस्थालमेव चक्ररत्नतया परिणतमिति श्रुतेश्चक्ररत्नानामनियतोत्पत्तिस्थानकत्वं ज्ञायते तेन प्रस्तुतप्रकरणे तेषां क्वोत्पत्तिरित्याशड्क्याऽऽह अथ चतुर्दशरत्नाधिपतेर्भरतस्य यानि रत्नानि यत्रोदपद्यन्त तत्तथाऽऽह भरहस्स रण्णो चक्करयणे 1 दंडरयणे 2 असिरयणे ३छत्तरयणे 4 / एते णं चत्तारि एगिंदियरयणे आउहघरसालाए समुप्पण्णा, चम्मरयणे 1 मणिरयणे 2 कागणिरयणे 3 णव य महाणिहिओ। एए णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा, सेणावइरयणे 1 गाहावइरयणे 2 वद्धइरयणे 3 पुरोहिअरयणे 4 / एए णं चत्तारि मणुअरयणा विणीआए रायहाणीए समुप्पण्णा, आसरयणे 1 हत्थिरयणे 2, एए णं दुवे पंचिंदिअरयणा वेअडगिरिपायमूले समुप्पण्णा, सुभद्दा इत्थीरयणे उत्तरिल्लाए विजाहरसेढीए समुप्पण्णे। (सूत्रम्-६८) 'भरहस्स रण्णो' इत्यादि, भरतस्य राज्ञश्चक्राऽऽदीनि चत्वारि एकेन्द्रियरत्नानि आयुधशालायां समुत्पन्नानिलब्धसत्ताकानि जातानि / एवमुत्तरसूत्रेऽपि बोध्यं, तेन चर्मरत्नाऽऽदीनि नव महानिधयश्च एतानिश्रीगृहे-भाण्डागारे समुत्पन्नानिलब्धसत्ताकानि जातानीत्यर्थः / इत्थं च निधयः शाश्वतभावरूपाः कथमुत्पद्यन्ते इत्याशङ्का निरस्ता / ननु इदं सूत्र ‘पादाधः स्थितयस्तस्य, नवापि निधयोऽनिशम् / हेमाब्जानीव वृषभप्रभोर्विहरतोऽभवन्॥१॥ इति ऋषभचरित्रवचनेन अत्रेव पूर्वसूत्रेण च सह न विरुध्यते? उच्यते- राज्ञां यत्र तत्र स्थितमपि कोशद्रव्यं कोश एव कथ्यत इति लौकिकव्यवहारस्य सुप्रसिद्धत्वात्न दोषः, सेनापत्यादिमनुजरत्नानि चत्वारि विनीतायां समुत्पन्नानि, अश्वरत्नेहस्तिरत्ने एते द्वे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्रत्ने वैतान्यगिरेः पादमूलेमूलभूमौ समुत्पन्ने, समुद्रा नाम स्त्रीरत्नम् उत्तरस्या विद्याधरश्रेण्यां समुत्पन्नम्। अथ षट्रखण्डं पालयश्चक्री यथा प्रववृते तथाऽऽहतए णं से भरहे राया चउदसण्हं रयणाणं णवण्हं महाणिहीणं सोलसण्हं देवसाहस्सीणं बत्तीसाए रायसहस्साणं बत्तीसाए उडु कल्लाणिआसहस्साणं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिआसहस्साणं बत्तीसाए बत्तीसद्दवद्धाणं णाडगसहस्साणं तिण्हं सट्ठीणं सूयारसयाणं अट्ठारसण्हं सेणिप्पसेणीणं चउरासीइए आससयसहस्साणं चउरासीइए दंतिसयसहस्साणं चउरासीइए रहसयसहस्साणं छण्णउइए, मणुस्सकोडीणं बावत्तरीए पुरवरसहस्साणं बत्तीसाए जणवयसहस्साणं छण्णउइए गामकोडीणं णवणउइए दोणमुहसहस्साणं अडयालीसाए पट्टणसहस्साणं चउव्वीसाए कब्बडसहस्साणं चउव्वीसाएमडंबसहस्साणं वीसाए आगरसहस्साणं सोलसण्हं खेडसहस्साणं चउदसण्हं संवाहसहस्साणं छप्पण्णाए अंतरोदगाणं एगूणपण्णाए कुरज्जाणं विणीआए रायहाणीए चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेरागस्स केवलकप्पस्स भरहस्स वासस्स अण्णेसिं च बहूणं राईसरतलवर०जाव सत्थवा-हप्पभिईणं आहेवचं पोरेवचं भट्टित्तं सामित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे ओहयणिहएसुकटएसुउ Page #1484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह १४७६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह द्धिअमलिएसु सव्वसत्तुसु णिजिएसु भरहाहिदे णरिंदे वरचंदणचच्चिअंगे वरहाररइअवच्छे वरमउहविसिट्ठए वरत्थभूसणधरे सव्वोउअसुरहिकुसुमवरमल्लसोमिअसिरे वरणाहगनाडइज्जवरहत्थिगुम्म सद्धिं संपरिवुडे सव्वोसहिसव्वरयणसव्यसमिइसमग्गे संपुण्णमणोरहे हयामित्तमाणमहणे पुवकयतवप्पभावनिविट्ठसंचिअफले भुंजइ माणुस्सए सुहे भरहे णामधेजे त्ति। (सूत्रम्-६९) 'तए णं' इति, ततः - षट्खण्डभरतसाधनानन्तरं स भरतो राजा चतुर्दशरत्नाऽऽदीनां सार्थवाहप्रभृत्यन्तानामाधिपत्याऽऽदिकं कारयन् पालयन् मानुष्यकानि सुखानि भुक्ते इत्यन्वया, सर्व प्राग्वत् व्याख्यातार्थ, नवरं षट्पञ्चाशतोऽन्तरोदकानांजलान्तर्वर्तिसन्निवेशविशेषाण न तु समयप्रसिद्धयुग्मिमनुजाऽऽश्रयभूतानां षटपञ्चाशदन्तरद्वीपानां तेषु कस्याप्याधिपत्यस्यासम्भवात्, एकोनपञ्चाशतः कुराज्यानांभिल्लाsऽदिराज्यानामिति, केषु सत्सु सुखानि भुक्ते इत्याह- उपहतेषुविनाशितेषु निहतेषु च-अपहृतसर्वसमृद्धिषु कण्टकेषुगोत्रजवैरिषुउद्धृतेषुदेशान्निर्वासितेषु मर्दितेषु च-मानम्लानिं प्रापितेषु सर्वशत्रुषु-अगोत्रजवैरिषु, एतत्सर्व कुतो भवतीत्याह निर्जितेषुभग्नबलेषु सर्वशत्रुषु उक्तद्विप्रकारवैरिषु, अत्र सर्वशत्रुष्विति पदं देहलीप्रदीपन्यायेनोभयत्र योज्यं, कीदृशो भरत इत्याह- भरताधिपो नरेन्द्रः चन्द्रनेन चर्चितंसमण्डन कृतमङ्ग यस्य स तथा, वरहारेण रतिद द्रष्टृणां नयनसुखकारि वक्षो यस्य स तथा, वरमुकुटविशिष्टकः, चूर्णी तु 'वरमउडा-विद्धए' इति, तत्र आविद्धए इति आविद्धं परिहितं वरमुकुटम् अनेन स तथा, प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः, वरवस्त्रभूषणधरः सर्व कसुरभिकुसुमानां माल्यैःमालाभिःशोभितशिरस्कः वरनकानिपात्राऽदिसमुदायरूपाणि नाटकीयानि च-नाटकप्रतिबद्ध पात्राणि वरस्त्रीणां प्रधानस्त्रीणां गुल्मम्-अव्यकावयवविभागवृन्दं तेन तृतीयालोप आर्षत्वात् सार्द्ध सम्परिवृतःसर्वोषध्यः - पुनर्नवाऽऽद्याः सर्वरत्नानिकर्केतनाऽदीनि सर्वसमितयः - अभ्यन्तराऽऽदिपर्षदस्ताभिः समग्रः- सम्पूर्णः, अत एव सम्पूर्णमनोरथः हताना पुमर्थत्रयभ्रष्टत्वेन जीवन्मृतानाम् अमित्राणांशत्रूणां मानमथनः, कीदृशानि सुखानि भुक्ते इत्याह- पूर्वकृततपःप्रभावस्य निविष्टसंचितस्यनिकाचिततया संचितस्य तस्यैव ध्रुव फलत्वात्, परनिपातः पदस्याऽऽर्षत्वात्, फलानि-फलभूतानि, कीदृशो भरतो?भरते-अस्मिन् क्षेत्रे प्रथमभरताधिपत्वेन प्रसिद्ध नामधेवं नाम यस्व स तथा, विशेष्यपदं तु 'तएणं से भरहे राया' इत्यत्रेवोक्तम्, अनेनैकवाक्ये द्विर्विशेष्यपदं कथमित्याशङ्का निरस्ता। अथास्य नरदेवस्य धर्मदेवत्वप्राप्तिमूलमाहतए णं से भरहे राया अण्णया कयाइ जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ताजाव ससि व्व पिअदंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव आदंसधरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीअइ, जिंसीइत्ता आदंसघरंसि अत्ताणं देहमाणे 2 चिट्ठइ। तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं 2 ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स तयावरिजाणं कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकरं अपुव्वकरणं पविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे / तए णं से भरहे केवली सयमेवाऽऽभरणालंकारं ओमुअइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्टि लोअं करेइ, करेत्ता आयंसघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अंतेउरमज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता दसहिं रायवरसहस्सेहिं सद्धिं संपरिवुडे विणीअं रायबाणिं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता मज्झदेसे सुहंसुहेणं विहरइ, विहरित्ता जेणेव अट्ठावए पव्वते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अट्ठावयं पव्वयं सणि 2 दुरूहइ, दुरूहित्ता मेघघणसपिणकासं देवसपिणवायं पुढविसिलावट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहिता संलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडिआइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे 2 विहरइ / तए णं से भरहे केवली सत्तत्तरि पुव्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता एगं वाससहस्सं मंडलिअरायमज्झे वसित्ता छ पुव्वसयसहस्साई वाससहस्सूणगाइं महारायमज्झे वसित्ता तेसीइ पुव्वसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता एगं पुव्वसयसहस्सं देसूणगं केवलिपरिआयं पाउणित्ता तमेव बहुपडिपुण्णं सामनपरिआयं पाउणित्ता चउरासीइ पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउ पाउणित्ता मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं सवणेणं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं खीणे वेअणिज्जे आउए णामे गोए कालगए वीइक्कते समुजाए छिण्णजाइ-जरामरणबन्धणे, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिणिव्वुडे अंतगहे सव्वदुक्खप्पहीणे / इति भरतचक्किचरितं / (सूत्रम्-७०) 'तएण' इत्यादि, ततो-वर्षसहस्रोनषट्पूर्वलक्षावधिसाम्राज्यानुभवनानन्तरं स भरतो राजा अन्यदा कदाचिद्यत्रैव मज्जनगृह तत्रैवोपाग छति, उपागत्य च यावच्छशीव प्रियदर्शनो नरपतिर्मज्जनगृहात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य च स्ववेषसौन्दर्यदर्शनार्थ यत्रैवाऽऽदर्शगृहं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखोनिषीदति, निषद्य चाऽऽदर्शगृहे आत्मानं प्रेक्षमाणः २-तत्र प्रतिबिम्बित सर्वाङ्गस्वरूपं पश्यन् पश्यस्तिष्ठति-आस्ते, अत्र च व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिः इत्ययं सम्प्रदायो बोध्यः / तद्यथातव च प्रेक्षमाणस्य, स्वं वपुर्भरतेशिः। अड्गुल्या एकतमस्याः, निप्रपातागुलीयकम् / / 1 / / Page #1485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1477- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मरह तदगुल्या गलितम-प्यङ्गुलीयं महीपतिः। धिना शक्रेण केवलिन् ! द्रव्यलिङ्ग प्रपद्यख यथाऽहं वन्दे विदधे च नगज्ञासीदर्हिणो बर्ह -भारादहमिवैकम् / / 2 / / निष्क्रमणोत्सवमित्युक्तः सन् स्वयमेवाऽऽभरणभूतमलङ्कार वस्त्रमाल्यवपुः पश्यन् क्रमेणेक्षां-चक्रे तां चक्यनूमिकाम्। रूपमवमुञ्चतित्यजति, अत्र भूषणाऽलङ्कारस्य पूर्वं त्यक्तत्वात् केशालअडगुली गलितज्योत्स्नां, दिवा शशिकलामिव / / 3 / / द्वारस्य च तित्यक्ष्यमाणत्वात् परिशेषात् वस्वमाल्यालङ्कारयोरवग्रहः, अहो विशोभा किमसा-वड्गुलीति विचिन्तयन्। स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा च उपलक्षणात् सन्निददर्श पतितं भूमा वङ्गुलीयं नरेश्वरः / / 4 / / हितदेवतयाऽर्पितम् *साधुलिङ्गं गृहीत्वा चेति गम्यं, ततः शक्र-वन्दितः किमन्यान्यपि विशोभः न्यङ्गान्यामरणैर्विना। सन् आदर्शगृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रभ्यच अन्तः पुरमध्यमध्येन इति मोक्तु स आरेभे, भूषणान्यपराण्यपि।।५।।' निर्गच्छति, निर्गत्य च दशभी राजसहस्रैः सार्द्ध संपरिवृतो विनीताया इति, एवं प्रवृत्तस्य तस्य किमजनीत्याह-'तएणं' इत्यादि, ततोवपुर्य- राजधान्या भध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य मध्यदेशेकोशलदेशस्य मध्ये स्तभूषणमोचनानन्तरं तस्य भरतस्य राज्ञः शुभेन परिणामेन- "अन्तः सुखसुखेन विहरति / तदनु किं विधत्ते इत्याह- 'विहरित्ता जेणेव अट्ठावए' क्लिन्नस्य विष्टाऽऽद्यैर्मलैः स्रोतोभवैर्बहिः। इत्यादि, विहृत्य च यत्रैवाष्टापदः पर्वतस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चिन्त्यमानं किमप्यस्य, शरीरस्य न शोभनम् / / 1 / / चाष्टापदंपर्वतं शनैः 2 सुविहितगत्या दवदवरस नगच्छिता' इतिवचनात् इदं शरीरं कर्पूर-कन्तूरीप्रभृतान्यपि। आरोहति, आरुह्य च धनमेघसन्निकाशंसान्द्रजलदश्याम, पदव्यत्ययः दूषयत्येव पाथोद-पयांस्यूषरभूरिव / / 2 / / प्राकृतत्वात्, देवानां सन्निपातः- आगमनं रम्यत्वात् यत्र स तथा तं, यत्प्रातः संस्कृतं धान्य, तन्मध्याह्न विनश्यति। पृथिवीशिलापट्टकः-आसनविशेषस्तं प्रतिलेखयति, केवलित्वे सत्यपि तदीयरसनिष्पन्ने, काये का नाम सारता? // 3 // " व्यवहारप्रमाणीकरणार्थ दृष्ट्या निभालयति, प्रतिलिख्य च सिंहावलोकइति शरीरासारत्वभावनारूपया जीवपरिणत्या प्रशस्तैरध्यवसानैः नन्यायेनात्रापि आरोहतीति बोध्यं, संलिख्यतेकृशीक्रियते शरीरकषाउक्तस्वरूपैर्मनःपरिणामैः लेश्याभिःशुक्लाऽऽदिद्रव्योपहित जी- ऽऽयाद्यनयेति सॅल्लेखनातपोवि-शेषणलक्षणा तस्या जोषणा सेवना, तया वपरितिरूपाभिर्विशुद्धयन्तीभिः-उत्तरोत्तरविशुद्धिमापद्यमानाभिरापद्य जुष्टः - सेवितो झूषितो वाक्षपितः यः स तथा, प्रत्याख्याते भक्तपाने येन मानाभिर्निरावरणवपुर्वैरूप्यविषयकमीहापोहमार्गणागवेषणं कुर्वतस्त सतथा, क्तान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्, ‘पादोपगतः पादो-वृक्षस्य दावरणीयाना केवलज्ञानदर्शननिबन्धकानां चतुर्णा घातिकर्मणां क्षयेण भूगतो मूलभागस्तस्येवाप्रकम्पतयोपगतम् अवस्थानं यस्य स तथा, सर्वथा जीवप्रदेशेभ्यः तदीयपुद्गलपरिशाटनेन प्राग्व्याख्यातानुत्तराऽऽदि कालमरणमनवकाङ्गन्-अवाञ्छन्, उपलक्षणाज्जीवितमप्य-वाञ्छन्, विशेषणविशिष्ट केवलज्ञानदर्शनमुत्पन्नमिति, कीदृशमित्याह-कर्मरजसां अरक्तद्विष्टत्वाद विहरति। अथ स भरतोयस्मिन् पर्याय यावन्तं कालमविकिरणकरविक्षेपकर, कीदृशस्य भरतस्य ?अपूर्वकरणम्-अनादौ तिबाह्य निर्ववृते तथाऽऽह- 'तए णं' इत्यादि, ततः स भरतः केवली संसारेप्राप्तपूर्व ध्यानं शुक्लध्यानं प्रविष्टस्य प्राप्तस्येत्यर्थः, अत्र च सप्तसप्ततिं पूर्वशतसहस्राणि कुमारवासमध्येकुमारभावे उषित्वा भरतईहाऽऽदिपदेषु समाहारद्वन्द्वः, तत्रावग्रहपूर्वकत्वादीहाऽऽदीनां प्रथम प्रसवानन्तरमेतावन्तं कालम् ऋषभस्वामिनो राज्यपरिपालनात् एकं तदुल्लेखः, तथाहि- अये ! इह निरलकारे वपुषि शोभा न दृश्यते वर्षसहस्रं माण्डलिकराजा-एकदेशाधिपतिः भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य इत्यवग्रहः, यथा दूरस्थपुरोवर्त्तिनि वस्तुनि किमिदमिति भावः, अथ सा माण्डलिकत्वं तन्मध्ये उषित्वा षट् पूर्वसहस्राणि वर्षसहस्रोनानि शोभा औपाधिकी या नैसर्गिकी या इत्यवगृहीतार्थाभिमुखा मतिचेष्टा महाराजमध्येचक्रवर्तित्वे उषित्वा त्र्यशीति पूर्वशतसहस्राणि अगारवासपर्यालोचनरूपा ईहा, यथा तत्रैव स्थाणुर्वा पुरुषो वा, नन्वियं संशयाऽऽ मध्ये गृहित्वे इत्यर्थः, उषित्वा एकं पूर्वशतसहस्रम् अन्तर्मुहूर्तोनं कारतया संशय एव, स च कथमुत्तरकालभाविसम्यग्निश्चयापर्यायस्या केवलिपर्यायं प्राप्यपूरयित्वा गृहित्वे एव भावचारित्रप्रतिपत्त्यनन्तरमन्तपोहस्य हेतुर्भवति, विरुद्धकोट्यवगाहित्वादिति ? उच्यते- उत्कटकोटि मुहूर्तेन केवलोत्पत्तेः, तदेव पूर्वशतसहस्रं बहुप्रतिपूर्णसम्पूर्ण, तेनान्तर्मुहूकसंशयरूपत्वेनास्याः सम्भावनारूपाया निश्चयकारणत्वस्याविरुद्ध तेनाधिकमित्यर्थः, भावचारित्रस्यात्र विवक्षानतुद्रव्याचारित्रस्य, तस्य त्वात्, इयमौपाधिक्येव न नैसर्गिकी बाह्यवस्तुसंसर्गजन्यत्वस्य प्रत्यक्ष केवलानन्तरं प्रतिपत्तेः, श्रामण्यपर्यायंयतित्यं प्राप्य चतुरशीतिपूर्वशतसिद्धत्वात् इति ईहितविशेषनिर्णयरूपोऽपोहः, यथा तत्रैव स्थाणुरेवायं न पुरुष इति, अस्याः प्रकर्षापकर्षों बाह्यवस्तुप्रकर्षापकर्षानुविधायि सहस्राणि सर्वाऽऽयुः परिपूर्य मासिकेन भक्तेन मासोपवासेरिनावित्यन्वयधर्माऽऽलोचनं मार्गणा यथा स्थाणौ निश्चेतव्य इह वल्ल्युत्स त्यर्थ, अपानकेनपानकाऽऽहारवर्जितेन श्रवणेन नक्षत्रेण योगमुपापणाऽऽदयो धर्माः सम्भवन्ति, स्वामाविकत्वे उत्तानदृशां भारभूतस्याऽऽ गतेन चन्द्रेण सहेति गम्यं, क्षीणे वेदनीये आयुषि नानि गोत्रे च भरणस्य वपुषि धारणबुद्धिर्न स्यादिति गवेषणं, यथा तत्रैव इह शिरः भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयक्षये इत्यर्थः, 'कालमए' इत्यादि पदानि प्राग्वत्, कण्डूयनाऽऽदयः पुराषधर्मान दृश्यन्ते इति, अत्र चेहाऽऽदीनन्तरेण हानो इतिशब्दोऽधिकार परिसमाप्तिद्योतकः। स चायम्- ‘से केणलेणं भंते ! पादानबुद्धिर्न स्यादिति तद्ग्रहणम् / अथोत्पन्नकेवलः किं करोतीत्याह एवं वुच्चइ-भरहे वासे भरहे वासे' इति सूत्रेण नामान्वर्थ पृच्छतो 'तएणं' इत्यादि, ततः- केवलज्ञानानन्तरं स भरतः आसनप्रकम्पाव- | *'देवराया रओहरणपडिग्गहादि उवगरणमुबणीयं' आ०म०१ अ०। Page #1486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरह 1478 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह गौतमस्य प्रतिवचनाय 'तत्थ णं विणीआए रायहाणीए भरहे णामं राया ब्राह्मीसुन्दरीभ्यां पाणिग्रहणं कृतं, न वा? केचन कथयन्ति भरलेन चाउरंतचकवट्टी समुप्पञ्जित्था' इत्यादि सूत्रैर्भरतचरित्रं प्रपश्चितं, तच सुन्दरी, वाहुबलिना ब्राह्मी परिणीता, तर्हि बाहुबलेवर्षकायोत्सर्गान्ते परिसमाप्तमित्यर्थः, तेन भरतः स्वामित्वेनास्यास्तीत्यभाऽऽदित्वा- ताभ्यां भ्रातर्गजादुत्तरेत्युक्तं तत्कथमिति प्रश्ने, उत्तरम्-भरतबाहुबदप्रत्यय इति निरुक्तवशाद् भरतं क्षेत्रमिति तात्पर्यार्थः / लिभ्यां विपरीत तया पाणिग्रहणं कृतमित्यक्षराणि आवश्यकमलयगिरिअथ प्रकारान्तरेण नामान्वर्थमाह वृत्तौ सन्ति, यत्तु ताभ्यां भ्रातर्गजादुत्तरेत्युक्तं तत्प्राक्तनभ्रातृसंबन्धात् भरहे अ इत्थ देवे महिड्डीए महज्जुईए ०जाव पलिओव द्वाभ्यां समुदिताभ्यां कथनात् यतितया च युक्तिमदेवेति। 72 प्र० / महिईए परिवसइ, से एएणट्टेणं गोअमा! एवं वुच्चइ भरहे वासे सेन० 3 उल्ला० / चतुरशीतिलक्षपूर्वायुषां श्रीऋषभदेवेन सार्द्ध मोक्ष भरहे वासे इति। अदुत्तरं च णं गोयमा! भरहस्स वासस्स सासए गतानां भरतस्याष्टनवतिभ्रातृणामायुरपवर्तनं कथमिति प्रश्ने, उत्तरम्णामधिज्जे पण्णत्ते जंण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण बाहुबलेरिव यदि तेषामायुश्चतुरशीतिलक्षपूर्वप्रमाणं क्वापि ग्रन्थे प्रोक्तं कयाइण भविस्सइ, भुविंच, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे णिअए स्यात्तदा तदपवर्तनस्य हरिवंशकुलोत्पादयुगलिकाऽऽयुरपवर्तनाऽऽदिसासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे भरहे वासे। (सूत्रम्-७१) वदाश्चर्यान्तर्भावान्न दोष इति। 122 प्र०। सेन०३ उल्ला०। सार्द्धत्रिकोट्यः भरतश्चात्र देवो महर्द्धिको महाद्युतिको यावत्पदात् 'महायसे' इत्यादि पुत्रपौत्राः कृष्णस्य, भरतस्य तु सपादा कोटिः, तत्र कालस्तु पतनशीलो ऽस्ति, तत्कथमाधिक्यं संजाघटीति प्रश्ने, उत्तरम्-द्वारकानगाँ पदकदम्बकं ग्राह्य, पल्योपमस्थितिकः परिवसति तद् भरतेति नाम. सार्द्धत्रिकोट्यः कुमाराः प्रोक्तास्सन्ति, ते चानेकेषां यदुवंशीयानां पुत्रा एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते, भरतं वर्ष, भरतं वर्ष निरुक्तं तु प्राग्वत् / नत्येकस्यैव कृष्णस्य भरतस्य, तुसपादकोटिः पुत्रा इति न काऽप्यघटउक्तं यौगिकयुक्त्या नाम, अथ तदेव रूढ्या दर्शयति- 'अदुत्तर' इति, मानतेति / 376 प्र० सेन०३ उल्लाम अथापरं, चः समुच्चये, णं वाक्यालङ्कारे, गौतम! भरतस्य वर्षस्य शाश्वतं भरहकूड न०(भरतकूट) भरतदेवप्रासादावतंसकोपलक्षितं कूट भरतनामधेयं निर्निमित्तकमनादिसिद्धत्वाद्देवलोकाऽऽदिवत् प्रज्ञप्त, शाश्वत कूटम् / जम्बूमन्दरदक्षिणभरतस्थदीर्घवैताठ्यपर्वतस्थे स्वनामख्याते त्वमेव व्यक्त्या दर्शयति-यन्न कदाचिन्नासीदित्यादि प्राग्वत्, एतेन कूटे, स्था०६ ठा०। जम्बूद्वीपस्थक्षुद्रहिमवद्वर्षधरपर्वतस्थे कूटे, जं०४ भरतनाम्नश्चक्रिणो देवाच्च भरतवर्षनाम प्रवृत्तं, भरतवर्षाच्च तयो म वक्षः। जम्बूद्वीपस्थहिमवर्षधरपर्वतस्थे स्वनामख्याते कूटे च। स्था० भरतं स्वकीयेनास्यास्तीति निरुक्तवशेन प्रावर्त्ततेत्यन्योऽन्याऽऽश्रय 2 ठा०३ उ० दोषो दुर्निवार इति वचनीयता निरस्ता॥ ज०३वक्ष०ा (कालवक्तव्यता / भरहवास न०(भरतवर्ष) भारते वर्षे, वाच०। स्था० 10 ठा० / रा०। 'उस्सर्पिणी' द्वितीयभागे 1168 पृष्ठे गता) उत्तरभरतार्द्धविषयको "हिमवंतसागरंतं धीरा मोत्तूण भरहवासं।" प्रश्न०४ आश्र० द्वार। महोपाध्यायश्रीसुमतिविजयगणिशिष्यपण्डितगुणविजयगणिकृतप्रश्रो यथा- दक्षिणभरतार्द्ध श्रीऋषभ इव उत्तरभरतार्द्ध कोऽपि सकलव्यवहार मरहाहिवइ पुं०(भरताधिपति) भरताऽऽदिके चक्रवर्तिनि, प्रव० 208 द्वार। कर्ता समस्ति, न वा? आधे स नाम्ग्रहं प्रसाद्यः, अन्त्ये च कथं तत्र भरहेसर पुं०(भरतेश्वर) वैरस्वाभिगुरौ शालिभद्रशिष्येजै० इ०। तत्तद्व्यवहारप्रवृत्तिः इति प्रश्ने, उत्तरम् - दक्षिणभरतार्द्ध यथाऽऽदी भरिअ त्रि०(भृत) स्मृते, "भरिअंलढिअंसुमरि।'' पाइ० ना० 164 नीतिप्रणेता ऋषभदेवस्तथोत्तरभरताऽपि नीति प्रणेताऽस्ति, अत्रोत्त गाथा। रभरतार्द्धऽपि जातिस्मरणाऽऽदिभाग् क्षेत्राधिष्ठायकदेवो वा कश्चित्तन्न *भरिउल्लट्ट त्रि० / विकसिते "भरिउल्लटं च बोसट्ट।" पाइ० ना०१८५ नीतिप्रणेता, कालानुभावतः स्वतोऽपि वा कियत्नैपुण्य जायते इति।।१।। गाथा। ही०३ प्रका०ा भरतक्षेत्रसत्कषट्खण्डनामा-विषये पण्डितविष्णवर्षि- भरिम त्रि०(भरिम) भरणक्रियया निष्पादिते पूरिमे पित्तलाऽऽदिमयप्रतिगणिकृतप्रश्नो यथा-भरतक्षेत्रसत्कषट्-खण्डनामानि प्रसाधानीति? माऽऽदिके, अनु०। पृथ्व्याम्, है। तथा- "जइआय होइ पुच्छा, जिणाण मग्गम्मि उत्तरं तइया / इक्कस्स भरिय त्रि०(भृत) व्याप्ते, “निरंतरं जतियं भरिजंसु।" विशे०। पूरिते, निगोअस्स य, अणंतभागो उ सिद्धिगओ // 7 // अत्रोत्तरम्- भरतस्य परिपूर्णे ,रा०। प्रश्न० 1 जी० औ० न०। आव01 ध०। भरणेन पिण्डिते, दक्षिणार्द्ध गङ्गासिन्धुनद्योरन्तर्वर्त्तिनो देशस्य गङ्गानिष्कुटखण्डमित्य औ० भिधानं 2 गङ्गातः पूर्वदिग्वर्त्तिनो देशस्य गङ्गानिष्कुटखण्डमित्यभिधानं भरियकलस पुं०(भृतककलश) जलपूर्णे घटे, "भरिओ कलसोऽत्थ सिन्धुनदीतः पश्चिमदिग्वर्त्तिनो देशस्य सिन्धुनिष्कुटखण्डमित्य- | सुंदरा पुरिसा। ध०२ अधिक भिधानम् 3, एवम् उत्तरार्द्ध चैतान्येव त्रीणि नामानि ज्ञातव्यानि इति।७ | भरियमेहवण्ण पुं०(भृतमेघवर्ण) जलपूर्णमेघसमानवणे, (कालवणे) प्र०। ही०३ प्रका०ा भरतकूटस्थे स्वनामख्याते देवे, पुं०। स्था०६ तद्वति, त्रि०उपा०२ अग ठा० ज०दो भरहाहिं। स्या०२ ठा०३ उन भरिली स्त्री०(भरिली) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा० / Page #1487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव 1476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भव भरुयच्छन०(भरुकच्छ) जलस्थलनिर्गमप्रवेशंपत्तनभेदे, आचा०१ श्रु० 8 अ०६ उ० "भरुकच्छपुरेऽत्राऽऽसीद, भूप तिर्नरवाहनः।" आ०क० 4 अ० आव० / आ०म०। भरोच्छय (देशी) तालफले, देवना०६ वर्ग, 102 गाथा। भल धा०(स्मृ) चिन्तायाम् "स्मरेज्र्झरझूर-भर-भल-ल-ढविम्हर-सुमर-पयरपम्हाः " |8474 / इत्यादि प्राकृतसूत्रेण स्मरतेर्भलाऽऽदेशः / 'भलइ।' प्रा०४ पाद०। भलत (देशी) देवना० 6 वर्ग 102 गाथा। भलुका स्त्री०(भलुका) जन्तुविशेषे, "भलुंका उट्ठिया विझड्ति।" संथाका भल्ल धा०(भल्ल) दाने,वधे, निरूपणे च / भ्वादि०-पर०-सक०-सेट् / भल्लति / अमलीत् / वाच० / पुं० / न०ा वाच०। 'चोरो त्ति काऊण भल्लएणाऽऽहया।" आ०म० 1 अ० स्वार्थे कन् / भल्लके, पुं० / वा गौरा०-डीप्। तत्रैव स्वार्थ कन् / भल्लकाऽप्यत्र / भल्लाड पुं०(भल्लात) भल्लं भल्लास्वमिवातति स्पर्शिनम् / अत अच् / एकास्थिके वृक्षभेदे, स्वार्थे कन्। वाच०। भल्लातको यस्य भिल्लातकाभिधानानि फलानिलोकप्रसिद्धानि। प्रज्ञा०१ पद / गौ० डीए / भल्लातकाऽप्यत्र। वाचा भल्लाय न०(भालात) भिलावानान्मि औषधे, "बिंबवयं भल्लाय।" पाइ० ना०१४८ गाथा। भल्ली स्त्री०(भल्ली) कुन्ताऽऽख्ये शस्त्रविशेषे, त्रिशूलाऽऽख्ये शस्त्रविशेष च। उत्त० 16 अ०। रा०। नि० चू०। "अप्पणो अच्छी भल्लीए उक्खणिऊण।" निचू०१ उ०) भल्लुकी (देशी) शिवायाम्, दे०ना०६ वर्ग 101 गाथा। भव पुं०(भव) भवनं भवः / भू-भावे अप् / उत्पत्ती, स्था० 4 ठा० 2 उ०। प्रश्नाख्यापनायाम्, प्राप्तौ च / वाचा भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति। भवः। "तुदादिभ्यो णक्' - इत्यधिकारे अचित्तो वा इति अप्रत्ययः / आ०म० 1 अ०। नारकाऽऽदिजन्म 'पुन्नाम्नि०" / / 3 / 130 / इत्यधिकरणे घः / न०ा नारकाऽऽदिजन्मनि, आ०म० १अज्ञा०ा स्था०। संथा| पं०व०। चउविहे भवे पण्णत्ते / तं जहा- णेरइयभवेजाव देवभवे / स्था० 4 ठा०२ उ०। भवसूत्र कण्ठ्यं, केवलं भवनं भव उत्पत्तिनिरये भवो मनुष्येषु मनुष्याणां वा भवो मनुष्यभव एवमन्यावपि / स्था० 4 ठा०३ उ०। भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः इति भवः। संसारेपं०सू०१सूत्र ''भवभाव ओ यतारेइ।" भवसंसारस्तत्र भवनं भावस्तस्मादित्यर्थः / विशे०। उत्त० / स्था०। दर्श०। अष्ट।। स्या०। प्रश्न०। दश। पं०व०। आव आ०चू०। आतुला स्था०ा द्वा०ा "भवनि-क्षेपो यथा-" भवो चउव्विहो नामादि, दव्वभवो एगभवियादी भावभवो चउव्विहो संसारो। आ०० 110 भवोद्वेगश्चावश्यं मुमुक्षुणा विधेयः / अय भवोद्वेगाष्टकम्- कर्मविपाकोद्विनभावात् संसारात उद्विजति, अतः भवोद्वेगाष्टकं लिख्यते, तत्र नामभवः रुद्राऽऽदिः, अथवा- तन्नाम सर्वोल्लापरूपं स्थापनाभवः लोकाऽऽकाशः तदाकारो वा द्रव्यभवः भवभ्रमणे हेतुरूपधनस्वजनाऽऽदिः, भावभवश्वतुर्गतिरूपः जन्ममरणाऽऽदिलक्षणः, नयस्वरूपं च- द्रव्यनिक्षेपे यावत् नयचतुष्टय, भावनिक्षेपे शब्दाऽऽदिनयत्रयं ज्ञेयम् / अत्र च भवमग्नाना जीवानां न धर्मेच्छा, इन्द्रिय-सुखाऽऽस्वादलीना मत्ता इव निर्विवेका भ्रमन्ति, दुःखोद्विग्ना इ-तस्ततः दुःखापनोदार्थम् अनेकोपायचिन्तनव्याकुला भ्रमन्ति शूकरा इव, इति महामोधभवाम्भोधौ किमन्यत् सर्वसिद्धिकरं श्रीमद्वीतरागवन्दनाऽऽदिकं कुर्वन्ति, इन्द्रियसुखार्थं च तपउपवा-सनाऽऽदिकष्टानुष्ठानमाजन्मकृतं हारयन्ति निदानदोषेण, गणयन्ति मोहहेतुरूपजैनशासनदेवाऽऽदि सुख हेतुरूपं व्यामुान्ति ऐश्वर्याऽऽदिषु भवाब्धिमत्स्या इव मिथ्यावासिता जीवाः, तेन भवोद्वेग एव करणीयः। यत्राऽऽत्मसुखहानिः तस्य कोऽभिलाषः सतामिति? इत्येवोपदिशतियस्य गम्भीरमध्यस्याऽज्ञानवजमयं तलम्। रुद्धा व्यसनशैलौघैः, पन्यानो यत्र दुर्गमाः।।१।। पातालकलशा यत्र, भृताः तृष्णामहानिलैः। कषायश्चित्तसङ्कल्पवेलावृद्धिं वितन्वते ||2|| स्मरौर्वाग्निज्वलत्यन्तर्यत्र स्नेहेन्धनः सदा। यो घोररोगशोकाऽऽदिमत्स्यकच्छपसंकुलः।।३।। दुर्बुद्धिमत्सग्द्रोहैविद्युङ्कुतिगर्जितैः। यत्र सांयात्रिका लोकाः, एतन्त्युत्पातसंकटे / / 4 / / ज्ञानी तस्माद्भवाम्मोधेर्नित्योद्विग्नोऽतिदारुणात्। तस्य सन्तरणोपाय, सर्वयत्नेन काङ्क्षति // 5 // यस्येति 1 पातालेति 2 स्मरौर्वेति 3 दुर्बुद्धीति 4 ज्ञानीति 5 श्लोकपञ्चक व्याख्यायते / ज्ञानी तस्य भवसमुद्रस्य सन्तरणोपायं पोरगमनोपायं सर्वयल्नेन 'काङ्गति' इच्छति इत्यर्थः, तस्य कस्य? यस्य गम्भीरं मध्यं यस्य स गम्भीरमध्यस्तस्य अप्राप्तमध्यस्य भवार्णवस्य अज्ञानं जीवाजीवविवेकरहितं तत्त्वबोधशून्यं मिथ्याज्ञानं, तदेव वज्रमयं तलं दुर्भेदं यत्र भवाम्भोधौ, व्यसनशैलौधः कष्टपर्वतसमूहै: रुद्धाः पन्थान मार्गाः सद्गतिगमनप्रचाराः दुर्गमागन्तुमशक्या भवन्ति, इत्यनेन अज्ञानतलातिगम्भीरमध्यस्य संसारपारावोरस्य रोगशोकवियोगाऽऽदिकष्टपर्वतैः रुद्धमार्गस्य जन्तोः सह गमनमशक्यं भवति। पुनः यत्र भवसमुद्रे कषायाःक्रोधमानमायालोभरूपाः पातालकलशाः तृष्णा विषयपिपासा तद्रूपैः महानिलैः भृताः, चित्तं-मनः तस्य सङ्कल्पा अनेकजल-समूहाः तद्रूपा वेलाजलप्रवाहरूपा तस्याः वृद्धि वेलागमनं वितन्वते.' विस्तारयन्ति, इत्यनेन कषायोदयात् तृष्णावात-प्रेरणया विकल्पवेलां वर्द्धयन्ति, भवजलधौ संसाराम्बुधौ इति / / 2 / / यत्र जन्ममरणसमुद्रे स्मरः-कन्दर्पः तद्रूपः अन्तर्मध्ये और्वाग्निः-वाड-वानलः ज्वलति, यत्राग्नौः स्नेहन्धनः स्नेहो-रागः स एव इन्धनंज्वलनयोग्यकाष्ठसमूहः यस्मिन् अन्यत्र वडवाग्नौ जलेन्धनम् इति, किंभूतः रागः? यः रागः घोररोगशोकाऽऽदयो मत्स्यकच्छपाः तैः सङ्कलः व्याप्त इत्यनेन रागाग्नि Page #1488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव 1480 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भव प्रज्वलनरोगोकतापितप्राणिगण एवंरूपो भवाब्धिः पुनः यत्र गुप्तिकरणसप्ततिकरणरूपासु अनन्य चित्तः भवति, न अन्यत्र अपरभावे सांयात्रिका:- प्रवहणस्था लोकाः, अत्रापि व्रतनियमाऽऽदिपोतस्था चित्तं मनो यस्य स अनन्यचित्तः स्यात् एकाग्रमानसः भवति। उक्तं चजीवा उत्पातसंकटे कष्ट पतन्ति, कैः? दुष्टा बुद्धिः मत्सरः असहन- "गाइजति सुरसुंदरीहि, वाइजंतावि वीणमाईहिं। संयुक्ताहङ्कारः, द्रोहः कापट्यम् इत्यादय एव विद्युददुर्वातगर्जितानि तैः तह वि हु समसत्ता वा,चिट्ठति मुणी महाभागा / / 1 / / दुर्बुद्धिविद्युता मत्सरदुवतिन द्रोहगर्जितेन व्रताऽदिपोताः प्रवर्त्तमाना अपि पव्वयसिलायलगया, भावसिएहिं कडुअफासेहिं। पङ्कस्खलनाऽद्युत्पातान् लभन्ते, इत्यनेन महाभववारिधौ एते महाव्या उज्जलवेयणपत्ता, समचित्ता हुति निग्गंथा / / 2 / / घाताः सन्मार्गप्राप्तौ तस्मात् अतिदारुणात् महाभयात नित्योद्विग्नः आमिसलुद्धेण वणे, सीहेण यदाढवक्कसंगहिआ। सदोदासीनः तस्य सन्तरणोपाय सम्यग्ज्ञानदर्शनंचारित्ररूप काङ्क्षति तह वि हु समाहिपत्ता, संवरजुत्ता मुणिवरिंदा // 3 // 6 // अभिलषति, इति तीव्र भवभीत इव तिष्ठति, चिन्तयति च-मम शुद्धज्ञान कथमीदृगविपाके निर्भया निर्ग्रन्थाः? इत्युपदिशन्नाहमयस्य, परमतत्त्वरमणचारित्रपवित्रस्य, रागद्वेषक्षयसमुत्थपरमशम विषं विषस्य वनिश्च, वह्वेरेव यदौषधम्। शीतलस्य, अनन्ताऽऽनन्दसुखमग्नस्य, सर्वज्ञस्य, परमदक्षस्य, शरी तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भी७।। राऽऽहारसङ्ग मुक्तस्यामूर्तस्य, कथं शरीराऽऽदिव्यसनसमूहभारभुग्नता विष विषस्य इति यथा- कश्चित् विषयाऽऽतः विषस्य औषधं विषमेव भुनस्वशक्तिवत्त्व युज्यते? नाहं सशरीरासपुगलासकर्मा सजन्ममरणा करोति,यथा- सर्पदष्टः निम्बाऽऽदिचर्वणेन विषसति, अथवा- कश्चित् चेतना मम कथमयं महा मोहाऽवतः? इत्युद्विग्नाः स्वरूपभासनरमणै अग्निदग्धः पुनरपि अग्निदाहपीडावारणाय पुनः अग्नितापम् कत्वमनोहर, सम्यग्दर्शनप्रतिष्ठान क्षान्त्यादिधर्माष्टादशशीलाङ्गसहस्र अङ्गीकरोति, इति तत्सत्यं यत् यस्मात्लारणात् भव-भीतानां मुनीनाम् विचित्रफलकनिबिडघटनाविराजितं, सम्यगज्ञाननिर्यामकान्वितं, उपसर्गेऽपि भयं न। कर्मक्षपणोद्यतस्य उपसर्गे बहुकर्मक्षपणत्वं मन्वानः सुसाधुसंसर्गकाथसूत्रनिबिडबन्धनबद्ध, संवरकीलप्रभाननिः-शेषा साधुः तदुपचयं विदन्न भयवान् भवति, साध्यकार्यस्य निष्पद्यमानत्वात् ऽऽश्रवद्वारं, सूत्रितसामायिकच्छेदोपस्थापनीयभेदविभिन्नरम्यभूमि इति // 7 // काद्वयं, तदुपकल्पितसाधुसमाचारकरणमण्डपं, समन्ततो गुप्तित्रय स्थैर्य भवभयादेव, व्यवहारे मुनिव्रजेत्। प्रस्तरगुप्तम्, असंख्यशुभाध्यवसायसन्नद्धदुर्योधं, योधसहस्रदुरवलोकं, स्वाऽऽत्माऽऽरामसमाधौ तु, तदप्यन्तर्निमज्जति॥६ सर्वतो निवेशितसद्गुरूपदेशवल्लीनिकु रुम्बमध्यमवस्थापित - स्थैर्य भवेति- मुनिः तत्त्वज्ञानी 'भवभयात्' नरकनिगोददुःखोद्वेगात् स्थिरतरानिशलसद्बोधकूपस्तम्भतद्वित्यस्तप्रकृष्टशुभाध्यवसायसितपट, एव व्यवहारे एषणाऽऽदिक्रियाप्रवृत्तौ स्थैर्य व्रजेत् गच्छेत्, लभेत स्वाऽऽतदनसमारूढप्रौढदुपयोगपञ्जरदौवारिक, तदवबद्धाप्रमादनगरनिकर त्माऽऽरामसमाधौ स्वकीयाऽऽत्माऽऽरामः स्वचेतनः, तस्य समाधी समायुक्तसर्वाङ्ग संपूर्णतया प्रवहणं चारित्रयानपात्रं तेन चारित्र ज्ञानाऽऽनन्दाऽऽदिषु तद्भवभयम् अन्तर्मध्ये निमज्जति लयीभवती, स्य महायानपात्रेण संतरणोपायं कुर्वन्ति / / 5 / / एव विनश्यति आत्मध्यानलीलानानां सुखदुःखे समानावस्थानां तैलपात्रधरो यद्वत्, राधावेधोद्यतो यथा। भयाभाव एव भवति, इत्यनेन संसारोद्विग्नः प्रथमज्ञानदर्शनचारित्राक्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः।।६।। ऽऽचाराभ्यासतो दृढीकृत-योगोपयोगः स्वरूपानन्तस्याद्वादतत्त्चैकत्वतैलपात्रधर इति-यथा तैलपात्रधरः मरणभयभीतः अप्रमत्तः तिष्ठति, समाधिस्थः सर्वत्र समावस्थो भवति, "मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो तथा मुनिः स्वगुणघातभयभीतः संसारे अप्रमत्तस्तिष्ठति / यथा केनचित् मुनिसत्तमः।" इति / एवं स्वरूपलीनसमाधिमग्नानां निर्भयत्वम् इति राज्ञा कञ्चन पुरुष लक्षणोपेतं वधाय अनुज्ञापित, तदा सभाजनैः विज्ञप्तः वस्तुस्वरूपावधारणेन विभावोत्पन्नकर्मोदयलक्षणे संसारे परसंयोगस्वामिन्? क्षमध्यमपराध, मा मारय एनं, तेन सभ्योक्तेन राज्ञा निवेदितं, संभवे आत्मसत्ताभिन्ने निर्वेदः कार्यः॥८॥ इति व्याख्यातं भवोद्वेगाष्टकम् यदा महास्थालं तैलपूर्णं सर्वनगरचतुष्पथे अनेकनाटकवाद्यतूर्याऽकुले / / 22 / / अष्ट० 22 अष्ट। भवत्यस्मात् अपादाने अप / जलमूर्तिधरे तैलबिन्दुमपतन्तं सर्वतो भ्रामयित्वा आयाति तदा न मारयामि, यदिच महादेवे, जलस्य पृथिवीहेतुत्वेन तद्रूपस्य शिवस्य जन्महेतुत्वम्। वाच० तैलबिन्दुपातः तदाऽस्य तस्मिन्नक्सरे प्राणापहारः करणीयः इत्युक्तोऽपि ज्यो०। पुष्करवरद्वीपस्थमानु-षोत्तरपर्वतस्य कूटस्थे स्वनामख्याते स पुरुषस्तत्कार्यं स्वीचकार तथैवानेकजनसंकुले मार्गे तैलस्थाल शिर- नागसुवर्णे, द्वी०। कर्तरि अच्। भव्ये, वाचा विशेष वृक्षविशेषे, मङ्गले सि धृत्वा सापेक्षयोगः अपतिततैलबिन्दुः समागतः। तद्वन्मुनिः अनेक- च / वाचला शिवे, "सूली सिवो पिणाई,थाणू गिरिसो भवो संभू। 'पाइ० सुखदुःखव्याकुले भवेऽपि स्वसिध्यर्थं प्रमादरहितः प्रवर्तते, पुनः ना०२१ गाथा। दृष्टान्तयति, यथा- स्वयंवरे कन्यापरिणयनार्थ राधावेधोद्यतः स्थिरो- | भवं (त) त्रि०(भवत्) भा-डवतुः / युष्मदर्थे, सर्वनामता चास्य / पयोगतया लघुतालाघविकः स्थिरचित्तः भवति, तथा मुनिः भवभीतः भवान्, भवत्याः पुत्रो भवत्पुत्रः / वाच० प्रा०। ज्ञा०। 'कहिं संसारसंसरणगुणाऽऽवरणाऽऽदिमहादुःखाद् भीतः क्रियासु समिति- | भयं वसति / " अनु०। “भवद्भगवतोः" ||84265 / / Page #1489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवट्ठिइ 1551- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भवण इति सूत्रेण शौरसेन्यामनयोः सौ परे नस्य मः। "किं एत्थ भवं हिदएण दोण्हं भवट्ठिई पण्णत्ता, तं जहा- देवाणं चेव / नेरायियाणं चेव।। चिंतेदि।'' प्रा० 5 पाद / भूशतः / वर्तमानकालार्थे , भवनकर्तरि च। देवनारकाणां भवस्थितिरेव, देवाऽऽदेः पुनर्देवाऽऽदित्वेनानुत्पत्तिरिति / स्त्रियामुभयन्न डीम्। वाच०। शरन्तस्य नुम् / वाच०। स्था० २ठा०३उ०। भवंत पुं०(भवान्त) भवस्य संसारस्यान्तो भवान्तः / भवनाशे, जं०१ भवट्टिइकाल पुं०(भवस्थितिकाल) भवे एकस्मिन् स्थितिर्भवस्थितिवक्ष० / भवस्य संसारस्यान्तहेतुत्वाद् भवान्तः / भिक्षौ, ‘भवक्षयाद् स्तस्याः कालो भवस्थितिकालः / कालभेदे, पं०सं०२द्वार। भवान्तश्च।' भवक्षयात्संसारनाशात्। द्वा०२७ द्वा०। "नेरइयाइभवस्स भवद्विइणिरूवण न०(भवस्थितिनिरूपण) संसारस्थितिपालोचने, वि अंतोज तेणं सो भवंतो" स्था०३ ठा० १उ०। (भवं खिवंतो भवंतो | "भवट्टिइनिरूवणे वा" पञ्चा०१ विव०। य) भवं संसार क्षपयन् भवान्तो भवति। दश०१० अ०। नि००। भवण न०(भवन) भूभावे ल्युट्। भावे, जन्मनि, वाच०। भवनं जन्मोत्पादः / भवंतर न०(भवान्तर) जन्मान्तरे, सूत्र० १श्रु० 110130 / कल्प। अने० ३अधि०। सत्तायाम्, विशे०। आवासे, "भवणं घरमावासो निलयो "पच्छित्तं भवतरकडाणं।" जन्मान्तरोपात्तानामिति। पञ्चा०६ विव०। वसही निहेलणं अगारं।" पाइ० ना०४६ गाथा। आधारे ल्युट् / गृहे, 'वेएइ भवंतरे जीवो" पं०व०४ द्वार। आचा०२ श्रु०३ चू०। तं०रा०ा स्थाoशान्त्यादिविशेषिते चतुःशालाभवंतिय न०(भवान्तिक) मरणे, "अहवा उक्कसिते भवंतिए।'' सूत्र० ऽऽदिके गृहविशेषे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / स्था०। भवनप्रासादयोः को १श्रु०२अ० ३उ०। विशेषः? उच्यते- भवनमायामापेक्षया किञ्चिन्यूनोच्छायमानं भवति। प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छाय इति। ज्ञा०१ श्रु०१अ०। असुराऽऽदीनां भवकंतार न०(भक्कान्तार) संसारारण्ये, "भवकंतारं इय अगीतो।" / दशानां भवनपतिदेवविशेषाणां भवनभूमिकारूपे आवासविशेष, आव० पञ्चा० ११विव०। दर्श 4 अ०। भवनानामावासानां चायं विशेषः- भवनानि बहिर्वृत्तान्यन्तः भवकारण न०(भवकारण) संसारहेती, द्वा०१४ द्वा०। समचतुरस्राणि अधः कर्णिकासंस्था नानि। आवासास्तु कायमानभवक्खय पुं०(भवक्षय) भवनिबन्धनभूतानां कर्मणां गत्यादीनां निर्जरणे, स्थानीया महामण्डपा विचित्रमणिरत्नप्रभाभासितसकलदिक्चक्रा नि०१श्रु०५ वर्ग 1 अ० भ०ा औ०। विपा० / स्था०। कल्प०। इति / प्रव० 164 द्वार / भवनान्यसुराऽऽदीनां विमानानीति / स०३ भवगहण पुं०(भवगहन) जन्मनाऽतिदुस्तरे संसारे, चतुरशीतियोनिलक्ष- अङ्ग / भ०। प्रज्ञा० / दर्शा जंग। प्रमाणत्वात्। सूत्र० १श्रु० 12 अ०। भवनवासिनां भवनसंख्यामाहभवगुण पुं०(भवगुण) भवत्यापद्यते तेषु तेषु स्थानेष्विति नारका- सत्तेवय कोडीओ, हवंति वावत्तरी सयसहस्सा। ऽऽदिर्भवः, तत्र तस्य वा गुणौ भवगुणः / गुणभेदे, स च जीवविषयः / एसो भवणसमासो, भवणवईणं वियाणिज्जा।।११६१।। तद्यथा- नारकास्तीव्रतरवेदनासहिष्णवस्तिलशश्छिन्नसन्धानिनोऽ 'भवनवासिना' देवानां दशस्वपि निकायेषु सम्पिण्ड्य चिन्न्यमानानि वधिमन्तश्च भवगुणादेव भवन्ति, तिर्यञ्चश्च सदसद्विवेकविकला अपि सन्तो सर्वाण्यपि भवनानि सात कोट्यो द्वासप्ततिश्च शतसहस्राणि लक्षाः / एष गगनगमनलब्धिमन्तो गवादीनां च तृणाऽऽदिकमप्यशनं शुभानुभावेना भवनपतिनां भवनसमासो भवनसर्व-सङ्ख्या इति विजानीयात्, एतानि ऽऽपद्यते, मनुजानांवाऽशेषकर्मक्षयो, देवानां च सर्वशुभानुभावो भवगुणा च अशीतिसहस्राधिकलक्ष-योजन-बाहल्याया रत्नप्रभायाश्चाध उपरि देव! आचा० १श्रु०२अ० १उ। च प्रत्येकं योजनसहस्रमेकं मुक्त्या सर्वत्रापि यथासम्भवमावासा इति। भवग्गहण न०(भवग्रहण) भवस्य जन्मनो ग्रहणमुपादानं भवग्रहणम्। स० शेषेऽष्टसप्ततिसहस्राधिकलक्षयोजनप्रमाणे मध्यभागेऽवगन्तव्यानि / १सम० जन्मोपादाने, भ०२५श०६उ०। क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाणकालः अन्ये त्याहुर्नवयोजनसहस्राणामधस्ताद् भवनानि। अन्यत्र च उपरित'बन्धण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1226 पृष्ठे गाथाभिर्निरूपितः)? नमधस्तनं च। योजनसहस्रं मुक्त्वा सर्वत्रापि यथासम्भवमावासा इति। भवचक्कपुर न०(भवचक्रपुर) भवचतुर्गतिरूपचक्राऽऽत्मिकायामनादि सम्प्रति भवनवासिनामेव प्रतिनिकायं स्वकृतकर्मपरिणामनृपस्य राजधान्याम्, 'भवचक्रपुरस्थोऽपि, न मूढः भवनसङ्ख्यामाहप्रतिखिद्यते / " अनादिस्वकृतकर्मपरिणामनृपराजधानीरूपभवचतु- चउसट्ठी असुराणं, नागकुमाराण होइ चुलसीई। गतिरूपचक्रोडगतः। अष्ट० 4 अष्टा बावत्तरि कणगाणं, वाउकुमाराण छन्नउई॥११६२॥ भवजलहि पु०(भवजलधि) संसारसमुद्रे, ''भवजलहिपोयभूयं / ' दीवदिसाउदहीणं, बिज्जुकुमारिंदथणियअग्गीणं / संसारसमुद्रबोधिस्थकल्पम्। पं०व०१द्वार। छण्हं पि जुअलयाणं, छवत्तरिमो सयसहस्सा // 11633 // भवट्ठपुं०(भवार्थ) भव एवार्थो भवार्थः। भवरूपे प्रयोजने, भ०१३श०४ उ०| असुराणामसुरकु माराऽऽदीना दक्षिणोत्तरदिग भाविनां भवडिइ स्त्री०(भवस्थिति) भवे भवरूपा वा स्थितिर्भवस्थितिः। सर्व सड़ ख्यया भवनानि चतुःषष्टि शतसहस्राणि लक्षा भवकालाऽऽमके स्थितिभेदे, जी०२ प्रति०। भवन्ति / एवं नागकुमाराणां चतुरशीतिलक्षाः / कनकानां सुवर्ण Page #1490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवणवइ 1452- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भवत्थकेवलनाण कुमाराणां द्विसप्ततिलक्षाः,वायुकुमाराणा षण्णवतिर्लक्षाः, द्वीपकुमारदिकुमारोदधिकुमारविद्युत्कुमारस्तनितकुमाराग्निकुमाराणां षण्णामपि दक्षिणोत्तरदिगवर्तिलक्षणयुग्मरूपाणां प्रत्येक षड् सततिः षट्सप्ततिर्लक्षा भवन्ति भवनानाम् / एषां च सर्वेषामप्येकत्र मीलने प्रागुक्ताः सङ्क्या भवन्ति / प्रव० 165 द्वार। उक्तंचजोअणसहस्समेगं, ओगाहित्तूणा भवणनगराई। रयणप्पभाइ सव्वे, इक्कारस जोअणसहस्सा // 32 // अंतो चउरंसा खलु, अहियमणोहरसभावरमणिञ्जा। बाहिरओ वि य वट्टा, निम्मलवइरामया सव्वे // 33|| उक्किन्ननगरफलिहा, अभिंतरओ भवणवासीणं / भवणनगरा विरायंति कणगसुसिक्किलिट्ठपागारा॥३४॥ वरपउमकण्णियामंहियाहिँ हिट्ठा सहावलट्टेहिं / सोहिंति पइट्ठाणेहिं विविहमणिभत्तिचित्तेहिं॥३५।। चंदणपयट्टिएहि य, आसत्तोसत्तमल्लवासेहिं। दारेहिँ पुरवरा खलु, पडागमल्लाउरा रम्मा // 36 / / अद्वेव जोयणाई, उदिवद्धा हुति ते दुवारवरा / धूमघडियाउलाई, कंवणदामोवणिद्धाणि // 37 / / जहिं देवा भवणवई, वरतरुणीगीयवाइयरवेणं / निचसुहिया पमुइया, गयंपि कालं न जाणंति। 38 / द०प०। तन्निवासिनि देवविशेषे, पुं०। आव०४ अ० भवणगिह न०(भवनगृह) कुटुम्बिवसनगृहे, भ०३श०७ उ०। आचा०। भवनगृहं यत्र / कुटुम्बिनो वास्तव्या भवन्ति / स्था०५ ठा० 170 / भवणच्छिद्द न०( भवनच्छिद्र) भवनानामवकाशान्तरे, प्रज्ञा०२ पद। भवणणिक्खुड पुं०(भवननिष्कुट) गवाक्षाऽऽदिकल्पे कस्मिंश्चिद्भवन- प्रदेशे, प्रज्ञा०२पद। भवणपत्थड पुं०(भवनप्रस्तट) भवनपतिनिकायाऽऽवासस्थापान्तराले, प्रज्ञा०२पद। भवणवइ पुं०(भवनपति) भवनानां पतयःतन्निवासित्वात्स्वामिनो भवनपतयः / प्रव० 164 द्वार / असुराऽऽदिकेषु देवालयविशेषनाथेषु देवविशेषेषु, पञ्चा०२ विव० / स्था। तेच दश,तानेवाऽऽहअसुरा 1 नागा 2 विज्जू 3, सुवण्ण 4 अग्गी अ५ वाउ 6 थणिया य 7 / उदही दीव दिसा विय 10, दस भेया 11 भवणवासीणं / / 43 / / भवनवासिनामवान्तरजातिभेदमधिकृत्य दश भेदा भवन्ति। तद्यथा(असुरा इति) पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् असुरकुमाराः / एवं नागकुमारा इत्याद्यपि भावनीयम् / अथ कस्मादेते कुमारा इति व्यपदिश्यन्ते? उच्यते- कुमारवच्चेष्टनात्। तथाहि- सर्वे एवैते कुमारा इव शृङ्गाराभिप्रायकृतविशिष्टोत्तरोत्तररूपक्रियासमुद्धतरूपवेषभाषाऽऽभरणप्रहरणावरणयानवाहना अत्युल्वणरागाः क्रीडनपराश्च, ततः कुमारा इव कुमारा इति / गाथाऽनुबन्धाऽऽनुलोम्याऽऽदिकारणाच कुतश्चिदेते एवं पठिताः / प्रज्ञापनाऽऽदौत्वमुनैव क्रमेण पठ्यन्ते। तथाहि- "असुरा नागसुवण्णा, विज्जू अग्गी अ दीव उदही अ। दिसि पवणथणिअनामा, दसहा एए भवणवासी।।१।।" प्रव० 164 द्वार। "एएसिणं दसविहाणं भवणवासीणंदेवाणं दसचे इयरुक्खा पण्णत्ता / तं जहा- अस्सुट्ठसत्तिवण्णे, सामलिउंबरसिरीसदहिवणे / वंजुलपलासवप्पायए य कणियाररुक्खे य।।१।।" स्था० 10 ठा० अनेन क्रमेणाश्वत्थाऽऽदयश्चैत्यवृक्षाः ये सिद्धायतनाऽऽदिद्वारेषु श्रूयन्ते इति / स्था० 10 ठा। भवणवर न०(भवनवर) गृहश्रेष्ठे, "भवणवरवडिंसगपडि, दुवारे।' भवनवरेषु भवनश्रेष्ठेषु अवतंसक इव मुकुट इव भवनव-रावतंसकस्तस्य प्रतिद्वारम् / कल्प०१अधि० 3 क्षण / उत्त० भवणवासि(ण) पुं०(भवनवासिन्) भवनेषु अधोलोकदेवाऽऽवासविशेषेषु वस्तुं शीलमस्येति भवनवासी। असुराऽऽदिके देवभेदे, स्था० २ठा० ३उ०। (ते च 'भवणवई' शब्देऽनन्तरमेव दर्शिताः) (एतेषां भवनाऽऽदिवक्तव्यता 'ठाण' शब्देचतुर्थभागे 1702 पृष्ठे गता) (द्वीपकुमाराऽऽदयः सर्वे समाहारा इत्यादिव-क्तव्यता 'दीवकुमार' शब्दे चतुर्थभागे 2542 पृष्ठे उक्ता) भवणावास पुं०(भवनावास) भवनेषु भवनवास्यादिदेवानामावासस्थानेषु आवासो भवनाऽऽवासः। भवनवास्यादिभवनान्तर्वर्तिन्यावासे, स०३४ सम०। प्रज्ञा०। (भवनाऽऽवासयोर्विशेषो भवण शब्देऽत्रैव भागे 1476 पृष्ठे उक्तः ) भवणिटवेय पुं०(भवनिर्वेद) संसारविरागे, पशा० ४विव० ला न हि भवादनिर्विष्णो मोक्षाय यतते, अनिर्विण्णस्य तत्प्रतिबन्धात्। ''भयवं भवणिव्वेओ।" ध०२ अधिक भवण्णव पुं०(भवार्णव) संसारसागरे, “भवण्णवतरंडतुल्लाणि णियमेण / " पंचा० १विव०॥ भवतंतु पुं०(भवतन्तु) तन्यते भवोऽनेनेति भवतन्तुः / भवतृष्णायाम्, उत्त०१३ अ० भवत्थ त्रि०(भवस्थ) भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः भारकाऽऽदिजन्म / भवे तिष्ठतीति भवस्थः / "स्थाऽऽदिभ्यः०-" / 53 / 8 / इति कः / संसारस्थे, नं०। उत्त भवत्थकेवलनाण न०(भवस्थकेवलज्ञान) भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवो नारकाऽऽदिजन्म, तत्रेह भवो मनुष्यभव एव ग्राह्यः, अन्यत्र केवलोत्पादाभावात्। भवे तिष्ठतीति भवस्थः। "स्थादिभ्यःकः" / 5 / 3 / 8 / इति कः प्रत्ययः। तस्य केवलज्ञानं भवस्थकेवलज्ञानम् / केवलज्ञानभेदे, नं० (अस्यभेदाऽऽदि 'केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे 647 पृष्ठे गतम्) Page #1491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभंग 1493 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भवविभत्ति "भवत्थकेवलनाणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- सजोगिभवत्थ- भवभंग पुं०(भवभङ्ग) भवविलोपे, स्या०। केवलणाणे चेव, अजोगिभवत्थेकेवलणाणे चेव। स्था०२ ठा० भवभमण न०(भवभ्रमण) संसारभ्रमणे, दर्श०४ तत्त्व। 1 उ०। (व्याख्या स्वस्वस्थाने) भवभय न०(भवभय) संसारभीतौ, “णो विम्हओण भवभयं / ' पञ्चा० भवत्थजीव पु०(भवस्थजीव) भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति 3 विव० / अष्टा भवस्तत्र तिष्ठतीति भवस्थः, स चासौजीवश्चेति विशेषणसमासः। उत्त० भवभयहर पुं०(भवभयहर) स्तम्भनकतीर्थस्थे जिने, ती० 43 कल्प। 4 अ०॥ संसारिजीवे, "पाय बंधौ भवत्थजीवाणं।' पञ्चा०१६ विव०॥ भवभवविगमणिबंधण न०(भवभवविगमनिबन्धन) संसारमोक्षयोः करणे भवदंड पुं०(भवदण्ड) संसारभ्रमणे, जी०२० अधि० परभवे हस्तच्छे- "भवभवविगमनिबन्धनमालोच्य शान्तचेतोभिः।' षो०१६ विव०। दनाऽऽदिके दण्डे, यस्तीर्थकरगणधराऽऽदीनामाज्ञा भनक्ति तस्य परभवे भवभवविगमविभेय पुं०(भवभवविगमविभेद) संसारमोक्षयोर्भे दे, हस्तच्छेदनाऽऽदीनि भवन्तीति / व्य०६ उ०॥ ''भवभवविगमविभेदस्तदा कथं युज्यते मुख्यः? ' षो०१६ विव० / भवदिण्ण पु०(भवदत्त) स्वनामख्याते साधौ, स्था० १०ठा०। भवमंडल न०(भवमण्डल) संसारमण्डले, ''भवमंडलभमणदुक्खभवदेव पु०(भवेदव) जम्बूस्वामिनः पूर्वभवनामधेये, दर्श०३ तत्त्व। ध० | परिमुक्छ।" मण्ड 20 / स्वनामख्याते आचार्ये, (तत्कथा पुरिसोत्तम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे भवमग्ग पुं०(भवमार्ग) संसारपथे, "तिनि हुंति भवभग्गा।" दर्श०३ 1052 पृष्ठे गता। तत्त्व। भवधारणिज त्रि०(भवधारणीय) भवेधार्यते तदिति तं वा भवधारयतीति भवरोग पुं०(भवरोग) संसाराऽऽमये, "भवरोगसदौषधं यदनपायम्।" भवधारणीयम् / स्था० 4 ठा० 4 उ०। भवधारणं निजजन्मातिवाहनं षो०६ विव० प्रयोजनं यस्य तद्भवधारणीयम् / आजन्मधरणीये, भ० 1 श० 5 उ०। भवलोय पुं०(भवलोक) भव एव लोकः / लोकभेदे, आ० म०२ अ०। जन्मतो मरणावधि धारणीये, स्था० 4 ठा०४ उ० भवे नारकाऽऽदि अधुना (भाष्य) भवमभिधित्सुराहपर्यायलक्षणे आयुःसमाप्तिं यावद् ध्रियते या सा भवधारणीया सहशरीर नेरझ्यदेवमणुया, तिरिक्खजोणीगया य जे सत्ता। गता / अनु० / यया भवो धार्यते सा भवधारणीया बहुलवचनात् करणेऽनीयप्रत्ययः / शरीरावगाहनाभेदे। स्त्री०। डीप। जी०१ प्रति०। तम्मि भवे वटुंता, भवलोग तं वियाणाहि // 201 / / भवधारणिज्जसरीर न०(भवधारणीयशरीर) भवं जन्मापि यावद्धार्यते भवं नैरयिकदेवमनुष्यास्तिर्यग्योनिगताश्च ये सत्त्वाः प्राणिनस्तस्मिन् भवे वा धारयतीति भवधारणीयं, तच्च तच्छरीरं च भवधारणीयशरीरम् / वर्तमाना यदनुभावमनुभवन्ति तं भवलोकं जानीहि / आ०म०२ अ० शरीरभेदे, स्था० 3 ठा० 170 भववकंति स्त्री०(भवव्युत्क्रान्ति) जन्मत्यागे, कल्प०१ अधि०१क्षण। भवपचइय न०(भवप्रत्ययिक) भवन्ति कर्मवशर्तिनः प्राणिनोऽस्मि भववारि न०(भववारि) संसारसमुद्रे, "भववारि तर्तुमपटुः।' प्रति० / निति भवो नारकाऽऽदिजन्म। 'पुन्नामि"- 153 / 130 // इति अधि- भववाहि पुं०(भवव्याधि) संसाराऽऽमये, 'यस्मादेते महात्मानो, भवव्याकरणे घञ्प्रत्ययः / भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तद् भवप्रत्ययम् धिभिषग्वराः।" द्वा० 23 द्वा०। अवधिज्ञानभेदे, नं० / 'भवपच्चाइए त्ति।' क्षयोपशमस्यापि भवप्रत्य- भवविजय पुं०(भवविचय) प्रेत्य स्वकृतकर्मफलोपभोगार्थ पुनः पुनः यत्वेन तत्प्राधान्येन भवे प्रत्ययो यस्य तद्भयप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते। प्रार्दुभावो भवः, स चारघट्टघटीयन्त्रवत् मूत्रपुरीषान्त्र-तन्त्रनिबद्धस्था०२ ठा०१ उ०। दुर्गन्धजठरपुटकोटराऽऽदिष्वजसमावर्त्तनम्, तस्य विचयः पर्यालोचनम् भवपजाय पुं०(भवपर्याय) भवः संसारस्तस्य पर्यायो भवपर्यायः। संसार- भवविचयः। न चात्र किञ्चिजन्तोः स्वकृतकर्मफलमनुभवतश्चेतनमचेतनं भावे, “भवपर्यायतां विना।' द्रव्या० 5 अध्या०। वा सहायभूतं शरणता प्रतिपद्यते। इत्यादिभवसंक्रान्तिदोषपर्यालोचने, भवपडिबद्ध त्रि०(भवप्रतिबद्ध) संसारानुषक्ते, पञ्चा० 4 विव० सम्म० 3 काण्ड। भवपरंपरा स्त्री०(भवपरम्परा) संसारपरिपाट्याम्, "भवई भवपरंपरा।" भवविज पुं०(भववैद्य) संसाररोगभिषग्वरे, "चित्रा गीर्भववैद्यानाम्।" द्वा० ग०१ अधि०। 23 द्वा०। भवपल्ली स्त्री०(भवपल्ली) भवः संसारः बहुप्राण्युपमर्दो यत्र सा पल्ली भवविडवि(न्) पुं०(भवविटपिन्) संसारवृक्षे, "भवविडविनिबंधनेसु भवपल्ली। संसारपल्ल्याम्, नि० चू०१ उ०। विसएसु।" पं०व०१ द्वार। भवन्भंति स्त्री०(भवभ्रान्ति) दीर्घसंसारभ्रमणे, "भवभ्रान्तोन बाधकम्।" | भवविभत्ति स्त्री०(भवविभक्ति) विभक्तिभेदे, सा नारकतिर्य्यङ्मनुष्याद्वा०१४ द्वा०। मरभेदाचतुर्था। सूत्र १०श्रु 4 अ० 130 / Page #1492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवसिद्धिय 1484 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भवसिद्धिय भवविरत्तचित्त त्रि०(भवविरक्तचित्त) संसारविरक्तचित्ते, "पव्वजा भवविरत्तचित्ताणं।' पं०व०१द्वार। भवविरय न०(भवविरजस्) नरकाऽऽदिभवरूपे विरजसि, "भवविरयं अग्गीतो।" व्य०३उ०। भवविरह पुं०(भवविरह) संसारवियोगे मोक्षे, ''भावा भवविरहसिद्धिफलाः।" षो०१६विवा पञ्चा०।"भवविरहफलं जहा होइ।" पञ्चा० ६विव०। 'भवविरहवीयभूओ जायइ चारित्तपरिणामो।" पञ्चा० १विव०ा "भवविरह इच्छमाणस्स।" पञ्चा० ५विव०। भवविवाग पुं०(भवविपाक) भवे नारकाऽऽदिरुपे स्वस्वयोग्ये विपाकः फलदानाभिमुखता भवविपाकः / आयुष्कर्मणो नारकाऽऽदिभवे फलदा नाभिमुखतायाम्, कर्म०६ कर्मा पं०सं०। भवविवागि(ण) त्रि०(भवविपाकिन्) भवे नारकाऽऽदिरूपे स्वस्ययोग्ये विपाकः स विद्यते यस्य तत् भवविपाकि। आयुष-कर्मप्रकृतौ, निबद्धमप्यायुर्यावन्नाद्यापि सर्वभवक्षयेण स्वयोग्यो भवः प्रत्यासन्नो भवति तावन्नोदयमायाति ह्यतो भवविपाकीति / पं०सं० ३द्वार / (यथाऽऽयुकर्मप्रकृतीनामेव भवविपाकित्वं नान्यासां तथा विपाकतः कर्मप्रकृतीनां भेददर्शनावसरे 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 267 पृष्ठ निरूपितम्) भववीय न०(भववीज) संसारकारणे, "दिदृक्षा भववीजं वा / " द्वार० 12 द्वार। भववीरिय-न०(भववीर्य) वीर्यभेदे, नि० चू०१ उ०। (स्वरूपं वीरिय' शब्दे वक्ष्यते) भववुड्डि स्त्री०(भववृद्धि) संसारवर्द्धन, पञ्चा० १७विव०। भवसंकड न०(भवसंकट) भवगहने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। भवसंसरण न०(भवसंसरण) संसारसंसृतौ, "जइ भवसंसरणाओ, निस्विन्नो रे तुम जीव / " जी०१अधिन भवसमुद्दपुं०(भवसमुद्र) संसारार्णवे, दर्श०५ तत्त्व। 'दुलह-मणुअत्तणं भवसमुद्दे।" पं०व०१द्वार। भवसम्म न०(भवशर्मन) विषयसुखे, "भवाभिनन्दिना सा च, भवश मोत्कटेच्छया।" भवशर्मणो विषयसुखस्योत्कटेच्छया। द्वाo भवसागर पुं०(भवसागर) संसारसमुद्रे, “परीतिभवसागरमणंत।'' पं० व०२ द्वार।"भीमे भवसायरम्मि दुक्खत्त / " दर्श० 5 तत्त्व। भवसिद्धिय पुं०(भवसिद्धिक) भवे भवैर्वा सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिकः। आ०म०१ अ०। रा०ा भविष्यतीति भवा भाविनी सा सिद्धिर्निर्वृत्तिर्यस्य स भवसिद्धिकः। स्था० 1 ठा०। ज्ञा०ा विशेला भव्ये, नं० स०। "सम्मईसणलभं / भवसिद्धिया विन लहति।" आह- सर्वेषामेव भवे सति सिद्धिर्भवति, ततः किं भवग्रहणेन? सत्यमेतत्, केवलं भवग्रह णादिह तद्भवो गृह्यते इति। आ०म० अ० स्था० / भ०। 'सव्ये विण भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति" इत्यादि- ( ‘जयंती' शब्दे चतुर्थभागे 1416 पृष्ठे विस्तरतो गतम्।) भवसिद्धिए णं भंते ! नेरइए, नेरइए भवसिद्धिए? गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अनेरइए, नेरइए वि य सिय भवसिद्धिए, सिय अभवसिद्धिए, एवं दंडओ ०जाव वेमाणियाणं / म०शि०१०३० संतेगइया भवसिद्धिया जे जीवा ते एगेणं भवग्गहणेणं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति? सन्ति विद्यन्ते 'एगइया' एके केचन (भवसिद्धिय ति) भवा भाविनी सिद्धिर्मुक्तिर्येषां ते भवसिद्धिका भव्याः (भवग्गहणेण ति) भवस्य मनुष्यजन्मनो ग्रहणमुपादानं भवग्रहणं तेन सेत्स्यन्ति अष्टविधमहद्धिप्राप्त्या भोत्स्यन्ते केवलज्ञानेन तत्त्वं मोक्ष ते कर्मराशेः परिनिर्वास्यन्ति कर्मकृतविकाराच्छीतीभविष्यन्तिा किमुक्तं भवति? सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्तीति। स०१ सम०। एवं क्रमश आहअत्थे गइया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवग्गहणे हिं सिज्झिस्संति, मुचिस्संति, बुज्झिस्संति, परिनिवाइ-स्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति // 2 // (स० 2 सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणे हिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।।३(स०३ सम०) अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संतिजाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति // 4 / / (स०४ सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पंचहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करिस्संति // 5 / / (स०५ सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / / 6 / / (स०६ सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति० जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / 7 / / (स०७ सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठहिं भवग्गहणे हिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करिस्संति / / 8 / / (स० सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।।।। (स०६ सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवाजे दसहि भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति॥१०॥ (स०१० सम०) संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा एक्कारसहिं भवम्गहणेहिं सि Page #1493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवसिद्धिय 1485 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भवातिस ज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव-दुक्खाणमंतं करिस्संति // 24 // ) स० 24 सम०) सव्वदुक्खाणमंत् करिस्संति।।११।। (स०११ सम० संतेगइया संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पणवीसाए भवग्गहणे हिं भवसिद्धिआ जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति, सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुनिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्व- सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति / / 25 / / (सम० 25 सम०) दुक्खाणमंतं करिस्संति / / 12 / / (स० 12 सम०) संतेगइया संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छन्वसिंहिं भवग्गहणे हिं भवसिद्धिआ जीवा जे तेरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति, सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्व- सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति // 26 / / (स० 26 सम०) दुक्खाणमंतं करिस्संति // 13 // (स० 13 सम०) संतेगइआ संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गहणेहिं भवसिद्धिआ जीवा जे चउदसहिं भवग्गहणेहिं, सिज्झिस्संति, सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, बुज्झिस्सं ति मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्सं ति, सव्व- सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति // 27 / / (स० 27 सम०) दुक्खाणमंतं करिस्संति // 14 // (स०१४ सम०) संतेगइआ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीस भवग्गहणे हिं भवसिद्धिया जीवा जे पन्नरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति, सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिध्वाइस्संति, सव्वदु- सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति ||28|| (स० 28 सम०) क्खाणमंतं करिस्संति / / 15 / / (स० 15 सम०) संतेगइया संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगणतीसं भवग्गहणे हिं भवसिद्धिआ जीवा जे सोलसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति, सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्व- सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति ||26| (स० 26 सम०) दुक्खाणमंतं करिस्संति / / 16 / / (स०१६ सम०) संतेगइया संते गइया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए भवग्गहणे हिं भवसिद्धिआ जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति, सिज्झिस्संति, वुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खाण- सव्व-दुदुक्खाणमंतं करिस्संति / / 30 / / (स० 30 सम०) मंतं करिस्संति॥१७॥ (स०१७ सम०) संतेगइया भवसिद्धिया / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कतीसे हिं भवग्गहणे हिं जीवा जे अट्ठारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति / / 31 / / (स० 31 सम०) ||18|| (स० 18 सम०) संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भवग्गहणे हिं एगूणवीसाए भवग्गहणे हिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति // 32 / / (स० 32 सम०) // 16 // (स०१६ सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे वीसाए संते गइयां भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसं भवग्गहणे हिं भवग्गहणे हिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुचिस्संति, सव्वदुक्खाणमंतं परिनिव्वाइस्संति, सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति॥२०॥ (स० करिस्संति॥३३।। (स०३३ सम०) 20 सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीव जे एक्कवीसाए भवग्ग- भवाउय न०(भवायुष) सप्ताष्टभवमात्रं कालमुत्यर्षतोऽनुवर्तात इति, तथा हणेहिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वा- भवप्रधानमावुर्भवायुर्यद्भुवात्ययेऽपगच्छति एव भवान्तरमनुवाति यथा इस्संति, सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति // 21 // (सम० 21 देवाऽऽयुरिति / स्था० 2 ठा०३ उ०। सम०) संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बावीसं भवग्गहणे हिं "भवा उआ। दुविहा पन्नत्ता। तं जहा- देवाणं चेव नारयाणं चेव। सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, भवायुर्भवस्थितिः। आयुष्कर्मभेदे, स्था०२ ठा० 4 उ०। सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति / / 22 / / (स० 22 सम०) भवाणी स्वी०(भवानी) भवस्य पत्नी, भव डीप आनुक् च / वाच० / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेवीसाए भवग्गहणे हिं शिवपल्याम, "दक्खायणी भवाणी, सेलसुआ पव्वई उमा गौरी / अज्जा सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, दुग्गा काली, सिवा य कच्चायणी चंडी॥३॥' पाइन्ना० 3 गाथा। सव्व-दुक्खाणमंतं करिस्संति / / 23 / / (सम० 23 सम०) | भवातिस त्रि०(भवादृश) भवतस्तवे य संस्थानमस्य / भवत् संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउवीसाए भवग्गहणे हिं | - दृशक्लिप ठक् क्तः वा। "यादृशाऽऽदे१स्तिः " ||4|| सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वइस्संति, [.317 / / इति प्राकृ तसूत्रेण पैशाच्यां यादृताऽऽदेई हायस्य Page #1494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविय 1486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भविय स्थाने तिरादेशः / प्रा०४ पाद / "दृशेःक्विप्टक्सकः" ||8/1 / / 142 / इति प्राकृतसूत्रेण विप्टक्सक् इत्येतदन्तस्य दृशेऋतो रिरादेशः / प्रा०१ पाद / भवत्तुल्ये, वाचा भवादेस पुं०(भवादेश) भवप्रकारे, "भवादेसेणं दो भवग्ग हणाई।" भ० 23 श०१ उ० भवाभिणंदि(ण) पुं०(भवाभिनन्दिन) "असारोऽप्येष संसारः, सारवानिय लक्ष्यते दधिदुग्धाम्बुताम्बजपुण्यपण्याङ्ग नाऽऽदिभिः // 1 // " इत्यादिवचनैः संसाराभिनन्दनशीले द्वा० तथा च द्वात्रिंशिकायाम्क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः। अज्ञो भवाभिनन्दी स्यान्निष्फलाऽऽरम्भसंगतः।।५।। क्षुद्रः कृपणो, लोभरतिञ्चिाशीलः, दीनः सदैवादृष्टकल्याणो, मत्सरी परकल्याणदुःस्थितो भयवान्नित्यं भीतःशठो मायावी, अज्ञो मूखों भवाभिनन्दी- "असारोऽप्येष संसारः,सारबानिव लक्ष्यते। दधिदुग्धम्बुताम्बूलपुण्यपण्यांगताऽऽदिभिः // 1 // " इत्यादिवचनै संसाराभिनन्दनशीलः स्याब्रोन्निफल्लाऽऽरम्भसङ्गतःसर्वत्रातत्त्वाभिनिवेशाद्वन्ध्यक्रियासम्पन्नः। द्वा० 10 द्वारा पं०सूा यो०बि० // पं०व०। दर्शक भवाभिरय त्रि०(भवाभिरय) संसाराऽऽसक्ते, "कर्हिति धम्म भवाभि रया।" जीवा०। 24 अधिग भवामिस्संग पुं०(भवाभिष्वग) संसारसुखाभिलाषे, द्वा०१३ द्वा०। भवारिस त्रि०(भवादृश) "भवातिस'' शब्दार्थे , प्रा० 4 पाद। भवासंग पु०(भवासङ्ग) संसारप्रतिबन्धे "भवासङ्गो न हीयते।'' द्वा० १४द्वान भवाहम पुं०(भवाधम) भवाना मध्येऽधमो भवाधमः / मत्स्यबन्धलुब्ध काऽऽदीनां भवे सूत्र० 1 श्रु०५ अ०१ उ० भवित्ता अव्य०(भूत्वा) भूत्वा। भवनं कृत्वेत्यर्थे , स्था०८ ठा०। भविय त्रि०(भव्य) "स्याद्भव्यचैत्यचौर्य्यसमेषु यात्' / 8 / 2 / 107 / इति प्राकृतसूत्रेण स्यादादिषु संयुक्तस्य यत्पूर्व इद् भवति / प्रा० 2 पाद। भविष्यतीति भव्यः। भाविनि, वाच० "जो जीवो भविओ खलु।' यः कश्चित् प्राणधारणलक्षणो जीवो भविष्यतीति भव्यम् / भावकर्मणो प्राप्तयोः "भव्यगेव०" 1511 / 7 / इत्यादिनिपातनात्कर्तरि यत्। आव० 1 अा वर्तमानकाल-भाविनि कल्प०१ अधि०२ क्षण। विवक्षितपर्यायण भविष्यतीति भव्यः, विवक्षितपय्यर्हि तद्योग्ये, अनु०। स्था०। पञ्चालन विशेला भवति परमेपइयोरयतामासादयतीति भव्यः सिद्धिगमनयोग्यः / "भव्यगेयजन्यरम्यापात्याप्लाम्यंतवा' / 5 / 17 / इतिकर्तरि यत्प्रत्ययः। कर्म० 4 कर्मा तथारूपानादिपारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्ये, पं०सं०१ द्वार / कर्म नं० / यो०वि०। विशे० द्वा०। पं०सू० / जी०। प्रज्ञा०। ध०। “विवोहभवपुंडरीयाण।" भव्यपुण्डरीकाणां मुक्तियोग्यप्राणिनाम् / जीवा०। 27 अधि०। भव्यस्वरूपमाहभव्वा जिणेहिँ भणिया, इहखलु जे सिद्धिगमणजोग्गा उ।। ते पुण अणाइपरिणामभावओ हुंति नायव्वा // 66 // भव्या जिनैर्भणिता इह खलु ये सिद्धिगमनयोग्यास्त इह लोके य एष सिद्धिगमनयोग्याः, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् इहः शब्दाऽप्येवकारार्थः योग्या एव। न तु सर्वे सिद्धिगामिन एव। "भव्या विन सिज्झिस्संति केइ।" इत्यादि। भव्यत्वे निबन्धनमाह- ते पुनरनादि परिणामभावतो भवन्ति ज्ञातव्याः। अनादिपारिणामिकभव्यभावयोगाव्या इति। विवरीया उ अभव्वा, ण कयाइँ भवन्नवस्स ते पारं। गच्छिंसु जं ति व तहा, तत्तो वि य भावतो णवरं // 67 / / विपरीतास्त्वभव्यास्तदेव विपरीतत्वमाह- न कदाचिद्भवार्णवस्य संसारसमुद्रस्य ते पारं पर्यन्तं गतवन्तो याति वा वाशब्दस्य विकल्पार्थत्वात् यास्यन्ति वा तथैवेति / कुतो निमित्तादित्याह- तत एव भवात् तस्मादेव अना दिपरिणामिकादभव्यत्वभावादिति भावः / नवरमिति साभिप्रावकम अभिप्रायश्च नवमेतावता वैपरीत्यमिति। श्रा० / विशे०। ननु जीवत्वसाम्येऽप्ययं भाव्योऽयं चाभव्य इति किंकृतोऽयं विशेषो? न च वक्तव्यं यथा जीवत्वे समानेऽपि नारकतिर्यगादयो विशेषास्तथा भव्याऽभव्यत्वविशेषाऽपि भविष्यतीति, यतः कर्मजनिता एव नारकाऽऽदिविशेषाः, नतु स्वाभाविका भव्याभव्यत्वविशेषाः, तथा भव्याऽभव्यत्वविशेषोऽपि यदि कर्मजनितस्तदा भवतु, को निवारयिता? न चैवमिति। विशे०। ('बन्धमोक्खसिद्धि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1242 पृष्ठे वक्तव्यता गता) अवस्थिताऽऽत्मरूपस्याऽऽविर्भावाद्भव्यमिष्यते। सदा श्रयन्परं भावमभवन्नितरः स्वतः // 25 // अवस्थिताऽत्मभावस्य अनेककार्यकारणशक्तिक यदवस्थितद्रव्यं तस्यावस्थितद्रव्यस्य आविर्भावात् क्रमिकविशेषान्ताऽऽविर्भावात् अभिव्यङ्ग्यं भव्यस्वभावमिष्यते। अथसदा त्रिकालं परं भावं परद्रव्यानुगतित्वं श्रयन् परस्वभावेन परिणमन् यः स्यात् तत्स्वतः स्वभावतः, इतरः अभव्यस्वभाव इति कथ्यते। गाथा- "अन्नोन्नं पविसंता, दिता ओगासअण्णमण्णस्स। मेलंता विय णिच्चं, सगसगभावं ण विजहति // 1 // " इति भव्यस्वभावार्थो ज्ञेयः // 24 // शून्यत्वं कूटकार्येण, भव्यभावं विना भवेत्। अभव्यत्वं विना द्रव्यान्तरता द्रव्ययोगतः।।२५।। भव्यभाव विना भव्यस्वभावमन्तरेण कूटकार्येण असत्कार्येण योगशून्यत्वं भवेत्, किं तु परभावे भवेन्न हि स्वभावे च भवेत्तदा भव्यत्वं स्यात् इति / अथ पुनः अभव्यत्वं विना अभव्यस्वभावानङ्गीकारे द्रव्ययोगतः द्रव्यस्य संयोगात् द्रव्यान्तरता द्रव्यान्यत्वं जायते यस्मात् धर्माधर्माऽऽदीनां जीवपुगलयोः एकावगाहनाऽवगाढकारणेन कार्यसंकरः- अभव्यः स्वभावेनैव न भवेदिति तत्तद् द्रव्याणां तत्तत्कार्यहेतुताकल्पनमप्यभव्यत्वस्वभावगर्भितमेवाऽऽस्ते आत्माऽऽदेः स्ववृत्त्यनन्तकार्य - जननशक्त्या भव्यतत्तत्सहकारिसमवधानेन तत्तकार्यों पधायकताशक्तिश्च तथाभव्यतेति तथाभव्यतयैवानतिप्रसंग इति तु हरिभद्राऽऽचार्याः / 25 // द्रव्या० 11 अध्या०।"भवियजणणिव्युइकरेण।" भव्यजनस्य निवृतिकरो भव्यजननिवृतिकरस्तेन / आह- भव्यग्रहणमभ Page #1495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवियदव्वणेरझ्य 1487 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भवियदव्वणेरइय व्यव्यवच्छेदार्थमन्यथा तस्य नैरर्थक्यप्रसङ्गात्, तत इदमापतितं- / भव्यानामेव सम्यग्दर्शनाऽऽदिकं करोति नाभव्यानां न चैतदुभपन्नम्, | भगवतो वीतरागत्वेन पक्षपातासम्भवात्. नैतत्सारम्, सम्यग्वस्तुतत्यापरिज्ञानात्, भगवान् हि सवितेच प्रकाशमविशेषेण प्रवचनार्थमातनीति, केवलमभव्यानां तथास्वाभाव्यादेव तामसखगकुलानामिव सूर्यप्रकाशो न प्रवचनार्थ उपदिश्यमानोऽपि उपकाराय प्रभवति / तथा चाऽऽह वादिमुख्यः- "सद्धर्मबीजवपनानधकौशलस्य, यल्लोकबान्धय ! तवापि खिलान्यभूवन / तन्नाद्भुतं खगकुलेषु हि तामसेषु, सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः॥१॥"ततो भव्यानामेव भगवद्वचनादुपकारो जायते इति भव्य-जननिवृतिकरणेत्युक्तम्। प्रज्ञा०१पद। स्था०। (भव्यानां करणानि 'करण' शब्दे तृतीयभागे 371 पृष्ठे गतानि) अनेकगुणस-भावनीये चा "अज्जेण भव्वेण विजाणएण।"व्य० उ०१।"भव्वं भव्वजणाणुचरिय।" प्रश्न० 4 संव० द्वार। शुभे, सत्यफलभेदे, मगले च / न०| तद्वति, त्रि० / कर्मरङ्ग, गजपिप्पल्याम्, वाच०। रुचकवरद्वीपस्थरुचकचरपर्वतस्य पश्चिमदिशि स्थिते कूटे वर्तमानायां स्वनामख्या तायां दिक्कुमा- च। स्त्री० / द्वी भवियंगि(ण) पुं०(भव्याङ्गिन) आसन्नसिद्धिके प्राणिनि, "भव्याङ्गि नेत्रामृतम्।" प्रति०। भवियजण पुं०(भव्यजन) भव्यस्तथाविधानादिपरिणामिकत्वभावात् सिद्धिगमनयोग्यः, सचासौ जनश्च भव्यजनः, तथावि-धानादिपरिणामिकत्वभावात्। सिद्धिगमनयोग्येजने, प्रज्ञा०१पद। प्रश्नका भवियजणपयहिययाभिनंदियाणं / " भव्यजनानां भव्यप्राणिनां प्रजा लोको भव्यजनप्रजा, भव्यजनपदो वा, तस्या-स्तस्य वा हृदयश्चित्तैरभिनन्दितानाम्। स०५ अङ्ग। भवियदव्वणेरइय पुं०(भव्यद्रव्यनैरयिक) भाविनारकपर्याययोग्ये नैरियकभेदे, भा अत्थि णं मंते ! भवियदव्वणेरड्या भवियदव्वणेरइया? हंता अत्थि / से केणट्टेणं भंते ! एवं वुचइ-भवियदव्वणेरइया भवियदव्वणेरइया ? गोयमा ! जे भविएपंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा णेरइएसु उववज्जित्तए से तेणद्वेणं एवं जाव थणियकुमारा। (भवियदव्वनेरइय ति) द्रव्यभूता नारका द्रव्यनारकास्ते च भूतनारकपर्यायतयाऽपि भवन्तीति भव्यशब्देन विशेषिता भव्याश्च ते द्रव्यनारकाश्चेति विग्रहः। ते चैकभविकबद्धाऽऽयुष्काभिमुखनामगोत्रभेदा भवन्ति। अत्थि णं भंते ! भवियदव्वपुढविकाइया भवियदव्यपुढविकाइया? हंता अत्थि। से केणटेण भंते!? गोयमा! जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पुढवीकाइएसु उववजित्तए से तेणढे णं / आउकाइयवणस्सइकाइया णं एवं चेव। | तेऊवाऊवेइंदियचउरिदियाण य जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए णेग्गए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजित्तए, एवं मणुस्सा वि।वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहाणेरइयाणं / भवियदध्वणेरइयस्सणं भंते ! केवइयं काल ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। भवियदव्वअसुरकुमारस्सणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं एवं०जाव वण्णियकुमारस्स। भवियदव्वपुढवीकाइयस्सणं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सातिरेगाइं दो सागरोवमाइं। एवं आउकाइयस्स वि। तेऊवाऊ जहा णेरइयस्स। वणस्स-इकाइयस्स जहा पुढवीकाइयस्स। वेइंदियतेइंदियचउरिंघियस्स जहाणेरइयस्सा पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। एवं मणुस्सा वि। वाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स। [(भवियदव्वनेरइयस्सेत्यादि) अंतोमुहत्तं ति] संज्ञिनमसंज्ञिनं वा नरकगामिनमन्तर्मुहूर्ताऽऽयुषमपेक्ष्यान्तर्मुहूर्तस्थितिरुक्ता / (पुव्वकोडि त्ति) मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च चाऽऽश्चित्येति भव्यद्रव्यासुराऽऽदीनामपि जघन्या स्थितिरित्थमेवोत्कृष्टा तु- (तिण्णि पलिओवमाई ति) उत्तरकुर्वादिमिथुनकनराऽऽदीनाश्चित्योक्ता यतस्ते मृता देवेषूत्पद्यन्ते इति द्रव्यपृथ्वीकायिकस्य (साइरेगाइं दो सागरोवमाइं ति) ईशानदेवमाश्रित्योक्ता द्रव्यतेजसो द्रव्यावायोश्च। (जहा नेरइयस्सत्ति अन्तर्मुहूर्तमेकाऽन्या च पूर्वकोटी देवाऽऽदीनां मिथुनकानां च तत्रानुत्पादादिति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चः / (उकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइ त्ति) सप्तमनरकपृथिवीनारकापेक्षयोक्तम्। भ०१८ श०६ उI भव्यद्रव्यनैरविकाऽऽदीनां स्थितौ, पण्डितनगर्षिगणिकृतप्रश्नो यथा- "भवियदव्वनेरइयस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहूतं, उक्कोसेणं पुव्वकोडि ति।" तथा भविअदय्यअसुरकुमारस्सणं भंते ! केवतिय कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमाई ति। तत्कथं च जीवो जन्मभवनानन्तरमेवाऽयुर्वध्नाति, किं वाऽन्यभवान्तरितः? आयुर्पन्धेतु त्रिभागाऽऽदिशास्त्रप्रतिपादितं दृश्यते इति निर्णयः प्रसाद्य इति प्रश्ने, उत्तरम्- भवियदव्वनेरइयस्सणं भंते ! केवतिअंकालं ठिई पन्नत्ता ! गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुथ्वकोडि ति। अत्र एगभविए अबद्धा उए अ अभिमुहिअनामगोए अ। एए तिन्निवि देसा, दध्वंसिय पुंडरीअस्स॥१४६।। इति श्रीसूत्रकृताङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्यनियुक्तिवचनात् योऽनन्तरे आगामिभवे नारको भावी, स अवद्धाऽऽयुरपि पूर्वभवे द्रव्यानारकोऽभिधीयते / तथा च पूर्वकोटिरुल्कर्षतः सुतरां संभवतीति न कश्चिच्छङ्काऽवकाशः / एव Page #1496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवियसरीरदव्व 1455 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भव्व म्-" भवियदव्वअसुरकुमारस्सणं भंते ! केवतिअंकालं ठिई पन्नत्ता? भवियहिय त्रि०(भव्यहित) जीवविशेषपथ्ये, "भव्यहियट्ठाय पयडत्थं।" गोयमा! जहन्नेणं अतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओ-वमाई"। इत्यत्रापि जीवविशेषपथ्यप्रयोजनार्थम् / पञ्चा० 18 विव० "भव्यहियवाय भावनीयम्।१८ ही० 3 प्रकाश लेसेणं / ' भव्यानां मुक्तिगभनयोग्यानां हितं श्रेयः स एवार्थः प्रयोजनम् भवियदव्वदेव पुं०(भव्यद्रव्यदेव) भव्यो भाविदेवपर्याययोग्योऽत एव भव्यहितार्थस्तस्मै। पञ्चा०२ विव० द्रव्यभूतः, स चासो देवश्च भव्यद्रव्यदेवः / वैमानिकाऽऽदिके देवभेदे, स्था० | भवियालि पुं०(भव्यालि) भवाया: भव्यः, स एवालिर्भमरो भव्यालिः / 5 ठा०१उ। भव्यभ्रमरे, द्रव्या०। से केणद्वेणं मंते ! एवं वुच्चइ-भवियदव्वदेवा, भवियदव्व- 1 ज्ञानाऽख्यमेतन्मकरन्दमिष्ट, देवा? गोयमा! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से भव्यालयो वीतमया निपीय। वा देवेसु उववजित्तए से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ- भविय- अर्हत्क्रमाम्भोजभवं सुगन्धं, दव्वदेवा भवियदव्वदेवा। स्वभावसौहित्यमवाप्नुवन्ति / / 20 / / (भवियदव्वदेव त्ति) द्रव्यभूता देवा द्रव्यदेवाः, द्रव्यता चाप्राधान्याद् भव्यालयःभवाय अर्हा भव्यास्त एवालयो भ्रमरा एतदुत्कृष्ट ज्ञानाऽऽख्यं भूतभावित्वाभाविभावत्वाद्वा। तत्राप्राधान्यादेवगुणशून्या देवा द्रव्यदेवा मकरन्दं मरन्दं निपीय पीत्वा स्वभावसौहित्यं स्वस्य आत्मनो भावः यथा साध्वाभासा द्रव्यसाधवः भूतभावपक्षेतु भूतस्य देवत्वपर्यायस्य परमभावस्तद्रूपं सौदित्यं तृप्तिस्तदवाप्नुवन्ति प्राप्नुवन्ति / कीदृशा प्रतिपन्न कारणा भावादेवत्वात् च्युता द्रव्यदेवाः भाविभावपक्षे तु भाविनो भव्यालयः वीतभया वीतं गतं भयं येषां ते वीतभया दिवानिशमादेवत्वपर्यायस्य योग्या देवतयोत्पत्स्यमाना द्रव्यदेवास्तत्रभाविभावपक्ष- कस्मिकसाध्वसरहिताः कीदृङ् मकरन्दमिष्ट वल्लभं भवविषाकत्वेन परिग्रहार्थमाह- भव्याश्च ते द्रव्यदेवाश्चेति। भ० 12 श०६ उ० (जे भविए परमरुचिप्रदम्। पुनः कीदृङ्मकरन्दमहलमाम्भोजभवमर्हतां श्रीतीर्थङ्कइत्यादि) इह जातावेकवचनमतो बहुवचनार्थ व्याख्येयं, ततश्च ये भव्या राणां क्रमावरणास्त एवाम्भोजानि कमलानि तेभ्यो भव उत्पत्तिर्यस्य योग्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका वा मनुष्या वा देवेषूत्पत्तुं ते यस्मा तदर्हत्क्रमाम्भोजभवं जिनेश्वरचरणण्ङ्कजसम्भवम्। पुनः कीदक सुगन्ध द्भाविदेवभावा इति गम्यम् / अथ तेनार्थेन तेन कारणेन हे गौतम ! तान् शोभनो गन्ध आमोदो यस्य तत्सुगन्धमिति पद्यार्थः। यथाऽलयोऽम्भोजप्रत्येवमुच्यते-भव्यद्रव्यदेवा इति। भ०१२ श०६ उ०1 भवं सुगन्धमिष्ट मकरन्दं निपीय सौहित्यमव ! प्नुवन्ति / तथा भव्या भवियपुक्खरावट्टग पुं०(भव्यपुष्करावर्तक) वाराणस्यां दण्डखाततीर्थ एतद्ज्ञानाऽऽख्यं परमभावमिष्ट निपीय स्वभावमवाप्नुवन्ति / अन्यद्विस्थे देवे, वाराणास्यां दण्डखाते भव्यपुष्करावर्तकः। ती० 43 कल्प० / शेषणैस्तुल्यत्वं ज्ञेयम्। भव्यानामलिसादृश्यं ज्ञानस्य च मकरन्द-सादृश्यं चयुक्तोपगात्वं, जिनक्रमे कमलोपमानञ्चसाधर्म्यतया चेत्यपि बोध्यम्। भवियसत्त पुं०(भव्यसत्त्व) भव्यप्राणिनि, पं०व०५ द्वार। "स एव भव्व आसन्नसिद्धिकाः परमरुचिपरा इहामुत्रफलविरागा इन्द्रियमात्रविषयासत्ताणं।'' मोक्षगमनयोग्यजन्तूनाम् / ग० 1 अधि०। पं०व०॥ वशा नित्यसंवेगशान्तहृदया विपाकलब्धनिसर्गबोधोदयेन परमभावेन भवियसरीरदव्व न०(भव्यशरीरद्रव्य) विवक्षितपर्यायण भविष्यतीति ज्ञानेनाशेषाकलुषकर्मसन्ताननि शनप्रकटितशुद्धशुक्लध्याननैर्मल्यभव्यो विवक्षितपर्यायाहस्तद्योग्य इत्यर्थः / तस्य शरीरम् / अनु०। भव्यो विधूतशेषशुभकर्मप्रकृतितयाऽकर्माणो, निजभावमनन्तचतुष्टयाऽऽत्मयोग्यो यः शब्दार्थ ज्ञास्यति न तावद्विजानाति तस्य शरीरं भव्यशरीरम्, कसौहित्यसंपूरितमनन्तं शिवाऽऽवासमासादयन्तीति भावः / / 20 / / तदेव द्रव्यं शरीरद्रव्यम्। स्था० ३ठा० 1 30aa यो जीवः शब्दार्थमागामिनि द्रव्या०५ अध्या काले शिक्षिष्यते न तावच्छिक्षते। तज्जीवाधिष्ठिते शरीरद्रव्ये, अनु०॥ भविस्स पुं०(भविष्य(त) भू"ल्टटः सद्वा" / 3 / 4 / 14 / शतृस्य इट् च अथ किं तद्भव्यशरीरद्रव्याऽऽवश्यकमिति प्रश्ने सत्याह पृ० वा / ल्लोपः / भाविनि काले, वाच० "एष्यंश्व नाम स भवति, यः से किं तं भविअसरीरदव्वावस्सयं भविअसरीरदव्वावस्सयं? प्राप्स्यतिवर्तमानत्वम्।" पं०सू०५ सूत्र।तत्कालवर्तिनि पदार्थे , त्रि० / जे जीव जोणिजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव आत्तएणं सरीरसमु- वाच०। भविष्य आगामिकालभावी। कल्प०१अधि०२क्षण। अनागते, स्सएणं जिणोवदितुणं भावेणं आवस्सएत्तिपयं से अकाले विशे०। स्त्रियां डीप, नुम् च। “अव्याक्षेपो भविष्यन्त्याः / " इति रघुः / सिक्खिस्सति न ताव सिक्खइ,जहा को दिटुंतो? अयं महुकुंभे तलोपपक्षे क्लीवता। भविष्यमधिकृत्य कृते पुराणभेदे, न० / वाच०। भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सइ, सेत्तं भविअसरीरदब्व- भवोदहि पुं०(भवोदधि) संसारसमुद्रे, "योगचित्तं भवोदधौ / " द्वा० वास्सयं / अनु०। 21 द्वा०। (व्याख्या 'आवस्सय' शब्दे द्वितीयभागे 446 पृष्ठे गता) भव्व त्रि० (भाव्य) भू-ण्यत् / भावनाविषये, द्वा० 20 द्वा०। Page #1497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाउअ - - भविष्यति, विशे० / आ०म० / भाविकालभवे, कल्प०१ अधि० 6 क्षण। .. ज्येष्ठभगिनीपतौ, देवना० 6 वर्ग 102 गाथा। *भव्य त्रि० 'भविय' शब्दार्थे , प्रा० 4 पाद। भागिनेये, दे० ना०६वर्ग / भाइ पुं०(भ्रातृ) भाज-तृच् / पृ० / "उदृत्वादौ" ||1|131 // 100 गाथा। इतिप्राकृतसूत्रेण उत्वम् / प्रा०१पाद। एकपितृजाते, स्वस्रा सहो-क्तौ भव्वंगि(ण) पुं०(भव्याङ्गिन) भवियंगि (न्)' शब्दार्थे , प्रतिक भ्रातृभगिन्योरिव / वाच० / ध०२अधि०।' 'सहोदरः, सहाध्यायी, मित्रं भध्वजण पुं०(भव्यजन) भवियजण' शब्दार्थे, प्रज्ञा०१ पद। वा रोगपालकः / मार्गे वाक्यसहायस्तु, पीते भ्रातरः स्मृताः भव्वपुक्खरावट्टग पुं०(भव्यपुष्करावर्तक) 'भवियपुक् खरावट्टग' // 3 // ' भ्रातृभिश्वमिथो धर्मकार्यविषये स्मारणाऽऽदि सम्यक्कार्यम् / शब्दार्थे , ती० 43 कल्प वतः- ''भवगिहमज्झम्मिपमा-यजलण-जलिअम्मि मोहनिदाए। उहवइ भव्यसरीरदव्व न०(भव्यशरीरद्रव्य) 'भवियसरीरदव्य शब्दार्थे, अनु० / जो सुअंतं, सो तस्स जणो परम-बंधू / / 1 / / " ध०२ अधि०। जं०। प्रश्न० / उत्त० / औ० / सूत्र भव्वालि पुं०(भव्यालि) 'भवियालि' शब्दार्थे द्रव्या० ५अध्या०। भाइ(न) पुं०(भाजिन) शोभमाने, अष्ट० 26 अष्ट०। भस धा०(भुक्क) कुक्कुरशब्दे, भ्वादि०-पर०-सक० सेट् "भषे कः" भाइजाया स्त्री०(भ्रातृजाया) भ्रातुः पल्याम्, भ० १२श २उ०आ०म०॥ |8|4|186 / इति प्राकृतसूत्रेण भषे(क्काऽऽदेशः। 'भुक्कई। भसइ। प्रा० 4 पाद / भषति / अभषीत। अभाषीत् / वाच०। भाइणिज्ज पुं०(भागिनेय) भगिन्या अपत्थं ढक्। स्वसृपुत्रे, तत्कन्यायाम, स्त्री० डीप्। वाच० / नि० चू० 130 / आ०म०। दश01 भसग पुं०(भसक) वनवासिनगरवास्तव्ये वासुदेवज्येष्ठभ्रातुर्जरत्कुमारस्य भाइणेज पुं०(भागिनेय) भाइणिज' शब्दार्थे , नि०चू०१उ०। पौत्र जितशत्रोः पुत्रे स्वनामख्याते कुमारे, यस्य भगिनी सुकुमारिका ताभ्यां सह प्रव्रजिता। नि० चू०८ उ० (तत्कथा पलिस्सयण' शब्देऽ भाइय पुं०(भातृक) सहजे, आ०म० १अ०। आव० स्मिन्नेव भागे पृष्ठे 727 गता) *भाजित त्रि० / अर्पिते, "भाइयपुणाणियाणं' भाजिता ईश्वराऽऽदि गृहेषु वीननार्थमपिताः। आ०म०१आ० भसण न०(भषण) कुक्कुरस्य शब्दकरणे, प्रा० 4 पाद। शुनि, पुं० [सं० भाइयबीयापव्व कार्तिक शुक्ल द्वितीयायाम, (भ्रातृद्वितीयापर्व) प्रा०। "साणा भसणा इंदमहकामुआ मंडला कविला / " पाइ० ना० 'नंदिवद्धणनरिंदो सामिणो जिहभाया भयवंतं सिद्धिगयं सुओ अईवासोगं 41 गाथा। कुणतो पाडिवए य कच्चाववासो कत्तिअसुद्धबीयाए संबोहिता निअघरे भसणय पुं०(भषणक) शुनके, प्रा०४ पाद। आमंतित्ता सुदंसणाए भगिणीए भोइओ तंबो-लवत्थाऽऽदिइ एणं, भसल पुं०(भ्रमर) भ्रमरे "फुल्लंधुआ रसाऊ, भिंगा भसला य महुअरा तप्पभिइ भाइयबीयापव्वं रूढ़।' ती० २०कल्प। अलिणो। इंदिंदिरा दुरेहा, धुअगाया छप्पया भमरा |1||" पाइ० ना० भाइल्ल पुं०(भागवत्) भागो विद्यते यस्य स भागवान्, शुद्धचातुर्थिका११ गाथा। ऽऽदिके पुरुषभेदे, स्था०३ ठा०२उ०। (व्याख्या "पुरिस'' शब्देऽस्मिन्नेव भसुआ स्त्री०(भषिका) शृगाल्याम्, "भुल्लुंकि य भसुआ महा भागे 1015 पृष्ठे गता) हालिके, देवना०६ वर्ग 104 गाथा। सद्दा।" पाइ० ना०१२७ गाथा। भाइल्लग त्रि०(भागिक) अशंग्राहिणि, जं०२ वक्ष०। ज्ञा० / भागिको यः भसोल न०(भसोल) नाट्यविधिभेदे, ज० 5 वक्ष० / रा० षष्ठांशाऽऽदिलाभेन कृष्यादौ व्याप्रियते / दशा० 6 अ०। भागिका ये भस्टालिया स्त्री०(भट्टारिका) "दृष्टयोः स्टः" 184290 / इति लाभस्य चतुर्भागाऽऽदिक लभन्ते। प्रश्न०२ आश्र० द्वार। भागिको नाम प्राकृतसूत्रेण द्विरुक्तस्य टकारस्य मागध्यां सकाराऽऽक्रान्तः टकारः। द्वितीयांशस्य तृतीयांशस्य चतुर्थांशस्य ग्राहकः / जी० ३प्रति० / भ०। प्रा० 4 पाद। भट्टिन्याम्, प्रा० 4 पाद। जं० प्रा० भस्टिणी स्त्री०(भ्रष्टिनि) "दृष्टयोः स्टः" / / 4 / 260 / इतिप्रा- | भाइसमाण पुं०(भ्रातृसमान) अल्पतरप्रेमत्वात् तत्त्वविचाराऽऽदौ कृतसूत्रेण मागध्यां सकाराऽऽक्रान्तः टकारः / प्रा०४ पाद / भ्रष्टायाम्, निष्ठरवचनादप्रीतेः तथाविधप्रयोजनेष्वत्यन्तवत्सलत्वाच भ्रातृसमानः। प्रा०४ पाद। श्रमणोपासकभेदे, स्था० 4 ठा० 330 / भस्स न०(भस्मन्) 'भप्प' शब्दार्थे , प्रा०२ पाद। भाईरही स्त्री०(भागीरथी) भगीरथेन निर्वृता आनीता तत्संबन्धिनी वा भा धा०(भा) दीप्तौ, अदा०पर०अक०-अनिट् / भाति / अभा-सीत्।। अण् / गङ्गायाम, वाच० "गंगा भागरिही य जण्हुसुया।" पाइ० ना० वाच०। ''भा भाजो वा दित्ती।'' विशे०। स्था०। भी-धागा भये, जु० 31 गाथा। "तत्थ भागीरही महाणई पवित्तवारिपूरा परिवहइ'' ती० पर०अक० अनिद्र।"भियो भाबीहौ" |84153 / इति प्राकृतसूत्रेण 15 कल्प। विभेतेरेतावादेशौ वा। भाइ बीहइ / प्रा०४ पाद। भाउ पुं०(भ्रातृ) 'भाइ' शब्दार्थे प्रा०१ पाद। भाअ पुं०(भाग) अंशे, "अंसो भाओ।" पाइ० ना०२३३ गाथा। | भाउअन०(देशी) आषाढीयगौर्युत्सवविशेष, दे० ना०६ वर्ग 103 गाथा। Page #1498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाण 1460 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भायल *भाउज्जा (देशी) भ्रातृजायायाम, देवना०६ वर्ग 103 गाथा। दनुजराजकुले जः सस्वरस्य न वा" / / 1 / 267 / इति प्राकृतसूत्रेणैषु भाउवीयापव्व न०(भ्रातृद्वितीयापर्व) 'भाइबीयापव्व' शब्दार्थ, ती०२० / सस्वरजकारस्यलुग वा। प्रा०१ पादापात्रे, पं०व०२द्वार / भ०। पिं०। कल्प। आचा०। ध०। प्रश्न / प्रव०। आवळा भाजनान्यमत्राणि सौवर्णाऽऽभाउय पुं०(भ्रातृक) 'भाइय' शब्दार्थ, आ०म० 110 / दीनि / प्रश्न० 1 आश्र0 द्वार। भाजनमिव भाजनम् / आधारे, विशे० भाग पुं०(भाग) भज-भावे घञ् / भजने, वाचला भज्यते भुज्यते सेव्यते ध० / प्रव० / भ०। योग्ये, वाच० "जो जत्तिअस्स अत्थस्स, भायणं इति भागः / भाज्ये, भ०११श०१२ उ०। कल्प० / सेवनीये, स्था०६ तस्रातत्तिअंहोइ। बुट्टे वि दोणगेहे, न डुंगरे पाणिअंटाइं॥४३॥" संघा० ठा०। अंशे, आ०चू०१ अ०औ०। अनु०। ज्ञा०। विभागे, झा०१श्रु० 1 अधि०१ प्रस्ता०। भजनाद्विश्वस्याऽऽश्रयणाद भाजनम् / आकाशे, 16 अ०1 भागा अविभागपलिच्छेदा इति चार्थान्तरम्। कर्म०५ कर्म० / भ०२० श०२ उादाने च। आ०म० अ०॥ इष्टवस्तुनोऽर्द्ध एकदेशे, वाच०।'अट्टालयचरियदारगो उरकवाडतोरण भाणदेस पुं०(भाजनदेश) भाजनाऽऽधारभूते देशे, यस्मिन् देशे भाजनानि पडिदुवारदेसभागा।" देशो भागश्चानेकार्थस्ततोऽन्योन्यमनयोर्विशे सन्ति। व्य०८ उ०। ष्यविशेषभावों दृश्यते। स०। आकाशे, सू० प्र० 10 पाहु०३ पाहु० भाणधरण न०(भाजनधरण) सपानभोजनानां भाजनानां धारणे, बृ० पाहु० / अवसरे, विशे० / पूज्ये, सूत्र०१ श्रु०८ अ० प्रभावे "वंदामि १उ० महाभागं / " भागः किलाचिन्त्या शक्तिः प्रभाव इति यावत्। विशे०। भाणियव्व त्रि०(भणितव्य) कथनीये, स्था० २ठा० 130 // भाष्ये, वाच०। प्रकारे, भागो भङ्गो विकल्पः प्रकारः। अनु०। "त्रिंशांश- भाणिया स्त्री०(भाणिका) अनन्तकायाऽऽत्मके वनस्पतिकायभेदे, कस्तथा राशेर्भाग इत्यभिधीयते / इति ज्योतिषोक्ते राशेस्त्रिंशांशके ___ आचा०१ श्रु०११०५ उ०। . च / वाच०। जम्बूमन्दरस्योत्तरस्यां दिशि स्थितायां रक्तवत्यां महानद्यां माणु पुं०(भानु) भा-नुः। सूर्य , अर्कवृक्षे, किरणे, प्रभो, राज-नि, वाचा सम्मिलितायां महानद्याम्, स्त्री०। डाप् / स्था०१० ठा०। धर्मनाथजिनस्य पितरि, प्रव०११ द्वार। सवा ती भगवत ऋषभस्यैभागवय त्रि०(भागयत) भगवतो भगवत्या इदम् सोऽस्य देवता अण। कोनपञ्चाशत्तमे पुत्रे, कल्प० 1 अधि०७ क्षण / अयोध्यानगरीस्यस्य भगवतो भगवत्या वा भक्ते परतीर्थिकभेदे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। धवल श्रावकस्य मित्रे स्वनामख्याते श्रावके, दर्श० 3 तत्त्व। आचा० / भगवतो वा भक्तिगृहोपास्थानात्। आचा०१श्रु०२अ०६उ०। भाणुमित्त न०(भानुमित्र) मल्लिजिनेन सार्द्ध प्रव्रजिते इक्ष्वाकुवंशोद्भवे भगवन्तो बुवते-पञ्चविंशतितत्वपरिज्ञानान्मोक्षः सर्वव्याप्यात्मा निष्क्रियो स्वनामख्याते राजकुमारे, ति०। महावीरनिर्वाणानन्तरं विक्रमाऽऽदिनिर्गुणश्वैतत्यलक्षणो निर्विशेषं सामान्य तत्त्वमिति / आचा० 1 श्रु०४ त्यात् प्रागुत्पन्ने स्वनामख्याते भारतवर्षस्य महाराजे, ती० 20 कल्प० / अ०२ उ०ा तत्सम्बन्धिनिच, तयोः संबन्धिनि गुणवर्णन पुराणे, उपपुराणे भाणुमई स्त्री०(भानुमती) विक्रमाऽऽदित्यनृपतेः पत्न्याम, बाच०। च। 'न यैः श्रुतं भागवत पुराणम्।" वाच०। सिंहपुरस्थस्य ऋषभश्रेष्ठिनः सुतायाम्, "उसभसेविसुया भाणुमई।" भागहेय न०(भागधेय) भाग्ये, "पुण्णं सुकयं च भागहेयं च।" पाइ० ना० दर्श०३ तत्त्व। 167 गाथा। भाणुसिरी स्त्री०(भानुश्री) बलभिलभिन्याम, नि०चू० 10 उ०। (पज्जुभागीरही स्त्री०(भागीरथी) गङ्गायाम्, 'मंदाइणी सुरणई, गंगा भागीरही सणाशब्दे 24 पृष्ठे कथा) य जण्हुसुआ।" पाइ० ना० 31 गाथा। भाम धा०(भ्रम) अनवस्थाने, "भ्रमेस्तालिअण्ट-तमाडौ" |8| भाडी स्त्री०(भाटी) भाटके "सोऽवदद् द्विगुणां भाटी, दास्येब्रूहि यथा 30 // इति प्राकृतसूत्रेण भ्रमेरेतावादेशौ वा। पक्षे 'भामेइ। प्रा० 4 पाद तथम्।" आ०क०१अ० भामर त्रि०(भ्रामर) मधुभेदे, न० आव०६ अ०। भाडीकम्म न०(भाटीकर्म) शकटवृषभकरभमहिषखरवेसराश्वाऽऽदे- भामा रवी०(भामा) एकदेशेन समुदायावगमात् सत्य भामायाम, प्रव०१ टिकनिमित्तं भारवाहनं भाटीकर्म / "शकटोक्षलुलायोष्ट्रखराश्वत- द्वार। आचा० आ० म० रवाजिनाम् / भारस्य वाहनाद् वृत्तिर्भवेद् भाटकजीविका // 1 // " भामिणी स्वी०(भागिनी) "पुन्नागभागिन्योों मः ||811 / 12 / / इत्युक्तलक्षणे काऽऽदानभेदे, ध०२अधि। भाटककर्म यत्स्वकीय- इत्यनयोगस्य मः। भागवत्याम्, प्रा० 1 पाद। गन्त्र्यादिना परकीयभाण्ड भाटकेन वहति अन्येषां वा क्लीवईशकटा- भामुडणा स्त्री०(भामुण्डना) चारित्रभ्रंशनायाम्, बृ०३ प्रक० 170 / ऽऽदीन भाटकेनेयार्पयति। यदाहुः- "नियएणुवगरणेणं, परकीयं भाण्डएण भाय धा०(भाज) पृथक्करणे, भाजयति / वाच० लब्धद्रव्यविभागान। जो वहइ। तं भाडकम्म-महवा, वसहाइसमप्पणेऽण्णेसि / / 1 / / " प्रव० कल्प०१अधि० 5 क्षण। 6 द्वार। आ०चूक उपा०। भायण न०(भाजन) पात्रे, "पत्ताई भायणाई।" पाइ० ना० 218 गाथा। भाण न०(भाजन) भाज्यतेऽनेन भाजनम्। भाज-ल्युट्। "लुगू भाजन- ! भायल पुं०(भाजल) जात्ये अश्वविशेषे, ज्ञा० 1 0 1 Page #1499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारवंत 1461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भारपच्चोरुहणया अ० "जच्चं तुरगं भायल।" पाइ० ना० 205 गाथा। जात्यतुर-ङ्गमे, दिभारेण वाऽऽक्रान्तः पराभग्नो भाराऽऽक्रान्तः / कुटुम्बाऽऽदिमारेण देना०६ वर्ग 104 गाथा। पराभग्ने, ''भारकंता अलसगा।" सूत्र०२ श्रु०२ अ०। भायलसामिगढ न०(भ्राजलस्वामिगृह) एकाशीतिजैनतीर्थेष्वन्यतमे / भारग पुं०(भारक) भारे, स्था०६0101 आव० भ० तीर्थे, यत्र देवाधिदेवो जिनः / ''भायलस्वामिगढे देवाधिदेवः।" ती० भारग्ग न०(भाराग्र) विंशत्या पलशतैरो भवति। अथवा पुरुषोत्क्षेपणी ४३कल्प। भारो भारक इति यःप्रसिद्धः अग्रं परिमाणं भार एवाग्रं भाराग्रम्। भारभाया पुं०(भात) भातरि, "सहोअरो भाया।" पाइन्ना० 253 गाथा। परिमाणे, स्था०६ ठा०1० भार पुं०(भार) भृ-धञ / गुरुत्वपरिमाणे, वाच०। गुरुताकारणत्वात्प भारणमिय त्रि०(भारनमित) भाराऽऽक्रान्ते, आव० 4 अ01 रिग्रहे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार / कर्मणि, "जहा कर्ड कम्म तहाऽसि भारद्दाय पुं०(भारद्वाज) भरद्वाजस्य गोत्रापत्यम् अण् / गौतममूलगोत्राभारे।' तथाविधं कर्म तादृगविधभूत एव तेषां तत्कर्मविपाकाऽऽदितो न्तर्गतस्य गोत्रभेदस्य प्रवर्तके मुनिभेदे, स्था० 7 ठा०। चं० प्र०। सू०प्र० / भारः। प्राचुर्ये, विशे०चये, ज्ञा०१ श्रु०१०। भरणं भारः। पूगफला ति०। कल्प०। तद्गोत्रोत्पन्ने, भ० 15 श०। आ०म०। द्रोणाचार्य, ऽऽदेः स्कन्धपृष्ठादिष्वारोपणे, आव०६ अ० "घटीभिर्दशभिस्ताभि अगस्त्यमुनौ, व्याघ्राटविहगे, बृहस्पतिपुत्रे, वाच०। श्वेताम्ब्यां रेको भारः प्रकीर्तितः।" इत्युक्त-लक्षणे उन्मानविशेषे, तं०। ज्यो० नगर्यामुत्पन्ने स्वनामख्याते ब्राह्मणे, आ०म०१ अ० आ०चू०। स च विंशत्या पलशतैर्भारो भवतीति। स्था०६ ठा०। नि०यू०। अनु०। भारक प्रथमभवे मरीचिनामा भरतपुत्रः, द्वादशे भवे श्वेताम्ब्यां नगा इति प्रसिद्धं पुरुषोत्क्षेपणीये च / स्था०६ ठा०। भारो भारकः पुरुषो भारद्वाजनामा ब्राह्मणो भूत्वाऽष्टादशे भये पोतनपुरे त्रिपृष्ठनामा वासुदेयो द्वहनीयो विंशतिपलशतप्रमाणो वा। भ०१५ शन भूत्या त्रयोविंशे भवे मूकाया राजधान्यां प्रियमित्रनामा चक्रवर्ती भूत्वा सप्तविंशे भवे वर्द्धमानस्तीर्थकरोऽभूदिति / कल्प०१ अधि०८ क्षण। भारई स्वी०(भारती) भृ-अतच् स्वार्थे प्रज्ञाऽऽद्यण् / वाक्ये, वाचा वनकाश्यिाम, स्त्री०। डी। पुं०। भारद्वाजीत्यप्यत्र / वाचा आव०५ अ०। तदधिष्ठातदेवतायां सरस्वत्याम, वाचा "वक वयणं च गिरा / सरस्सई भारई य गो वाणी।" दश०७ अ० द्वा०ा 'ऐन्द्रवृन्द भारपच्चोरुहणया स्त्री०(भारप्रत्यवरोहणता) भारो नाम गच्छभारस्तस्य प्रत्यारोहणता भारप्रत्यरोहणता शिष्याणामाचार्य्यस्य कर्तव्ये विनयविनतांहियामलं, यामलं जिनपतिं समाश्रिताम् / योगिनोऽपि विनमन्ति प्रतिपत्तिभेदे, दशान भारती, भारती मम ददातुसा सदा॥१॥" पक्षिभेदे, "भारती संस्कृत साम्प्रतं भारप्रत्यारोपणता पिपृच्छिषुरिदमाहप्रायो, वाग्व्यापारो नराश्रयः" इति। अलङ्कारोक्ते वृत्तिभेदे च / वाच०। "वाणी वाया भणिई, सरस्सई भारई गिरा भासा।" पाइ० ना०५१ से किं तं भारपच्चोरुहणता? भारपच्चोरुहणता चउ-विहा पण्णत्ता / तं जहा-असंगहियं परिजण संगाहिता भवति, सेहं गाथा। आयारगोचरं संगाहिता भवति, साहम्मियस्स गिलायमाणस्स भारंड पुं० भार(रु)ण्ड चर्मपक्षिभेदे, प्रश्न०१संव० द्वार। प्रज्ञा० औ०। अहाथामं वे यावच्चे अब्भुट्टिता भवति, साहम्मियाणं आ० म० जी०। 'भारंडपक्खी व चरेऽपमत्तो।" भार (रु) ण्डश्वासौ अधिकरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवसितो अपक्खग्गाही पक्षी च भार (रु) ण्डपक्षी। उत्त० पाई० 4 अ०भारण्डपक्षिणोः किलैक मज्झत्थभावभूते सम्म ववहरमाणे तस्स अधिकरणस्स शरीरं पृथग्रीवं त्रिपादं च भवति, तौ चात्यन्तमप्रमततयैव निर्वाहं लभेत खामणविउसमणताए सया समियं अब्भुढेत्ता भवति, कहं नु इति। स्था०६ ठा० / ज्ञा०। "एकोदराः पृथग्रीवाः, अन्योन्यपलभक्षिणः / साहम्मिया अप्पसद्दा अप्पदंडा अप्पकलहा अप्पतुमतुमा प्रमत्ता इव नश्यन्ति, यथा भारुण्डपक्षिणः // 1 // " ज्ञा०१ श्रु०५अ०॥ संजमबहुला संवरबहुला समाहिबहुला अप्पमत्ता संजमेणं तवसा जीव-द्वयरूपा भवन्ति, तेच सर्वदा चकितचित्ता भवन्तीति। "एकोदराः अप्पाणं भावेमाणाणं एवं च णं विहरेजा, सेत्तं भारपच्चोरुहणता। पृथा ग्रीवास्विपदा मर्त्यभाषिणः / भारुण्डपक्षिणस्तेषा, मृतिभिन्न (से किं तं इत्यादि) आचार्ये आह- भारप्रत्यारोहणता चतुर्विधा प्रज्ञप्ता। फलेच्छया / / 1 // " कल्प०१ अधि०६ क्षण / “गतस्य तव शैलोर्द्ध , तद्यथा- असंगृहीतं परिजनं संग्राहयिता भवति 1, शैक्षमाचारगोचर भारुण्डाः पञ्चशैलतः। द्विजीवास्त्र्यंहयो व्यास्याः, एष्यन्त्येकोदराः संग्राहयिता भवति 2, साधर्मिस्य ग्लायमानस्य यथास्थानं वैयावृत्ये खगाः।।१४।।" आ०क० 1 अ०। अभ्युत्थाताभवति 3. साधर्मिकाणां परस्परं कलहे उत्पन्ने उपशाम-कतया भारकाय पुं०(भारकाय) भारश्चासौ कायश्च भारकायः / कापो-त्याम् अभ्युत्थाता भवति४,असंगृहीतं नाम क्रोधाऽऽदिना गणाऽऽदेव-हिर्गच्छन्तं भारकायश्चात्र क्षीरभृतकुम्भद्वयोपेता कापोती भण्यते अन्ये तु भारकायः परिजन शिष्याऽऽदिकं संग्राहयिता मृदुवचनाऽऽदिना पुनः स्वशृङ्गाटके कापोत्येवोच्यते इति आव० 5 अ०।आ०५०। रक्षयिता भवति 1, शिष्यमव्युत्पन्नमभिनवदीक्षितंवा (आयार त्ति) आचारः भारकंत त्रि०(भाराऽऽक्रान्त) भारेण कुटुम्बाऽऽदिभारेण पोट्टलिकाऽऽ- | श्रुतज्ञानाऽऽदिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनाऽऽदि गोचरो भिक्षाऽटनम् / Page #1500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारह 1492- अभिधानराजेन्द्रः - भाग५ भाव एतयोः समहारद्वन्द्वः / तं संग्राहिता भवति 2 / साधर्मिकस्य समा- भारतरामायणयोर्वाचनं श्रवणं वा पूर्वाह्वापराहूयोरेव रूढं, विपर्यये नश्चद्धानसामाचारीकस्य ग्लायमानस्य गाढागाढकारणे समुत्पन्ने दोषदर्शनात् / भरतेन चिह्नितं तस्येदं वा अण् / “हिमा दक्षिणं वर्ष आहाराऽऽदिना विना सीदतः यथास्थाम यथाशक्तया वैयावृत्ये भरताय ददौ पिता। तस्माच्च भारतं वर्षम्' इत्युक्ते जम्बूद्वीपान्तर्गत उद्वर्त्तनभक्तपानाऽऽनयनदानैवद्योक्तौषधकरणसंस्तारकप्रस्तर- वर्षभदे, वाच०। भारतं भरतक्षेत्रम्। दश०६ अ०१ उ०। चं०प्र० / उत्त० / णप्रतिलेखनरूपे अभ्युत्थाता आदरपरो भवति 3, समानधार्मिकाणां विशे०। भरतेन मुनिना प्रोक्तम् / अणु०। भरतकृते नाटकशास्त्राऽऽदौ साधूनाम् (अहिगरणंसि त्ति) विरोधे उत्पन्ने, तत्र साधर्मिकेषु निश्रित च / तदधीते अण् / नटे, अग्नौ, भरतस्य गोत्रापत्यम्। भरतनृपस्य वंश्ये, रागः उपाश्रितं द्वेषः / अथवा- निश्रितमाहाराऽऽदिलिप्सा उपाश्रित वाचा भरतक्षेत्र प्रकाशकत्वाद् भारतः भरतवर्षस्थे सूर्ये च। पुं०। चं० शिष्यकुलाऽऽद्यपेक्षा, तद्वर्जितो यः सोऽनिश्रितोपश्रितः, न पक्षं शास्त्र- प्र०१ पाहु० / भरते जातः, भरतेवाऽस्य निवासः "तत्र जातः सोऽस्य बोधितं गृह्णातीत्यपक्षग्राही। अत एव मध्यस्थभावभूतः प्रयोज्यस्य तथा निवास'' इति वाऽण् / भरतवर्षोत्पन्ने, तन्निवासिनी च / त्रि०। अनु०। स भवेदितिशेषः। (सम्म त्ति) सम्यक् व्यवहारं श्रुताऽऽदिकंतत्र व्यवहरन् / स्था० प्रवृत्तिं विदधन्न्यायान्व्यवहरन्न्यायव्यवहारेवा व्यवहरन्तस्योत्पन्न- | भारहर पुं०(भारधर) भारंधरतीति भारधरः। भारधारके, उत्त०१२अ०॥ स्याधिकरणस्य विरोधस्य मर्षणव्युपशमनार्थतया सदा सर्वकालमभ्यु- भारिय पुं०(भारिक) भारं वहति। भार ठक् / भारवाहके, वाच०। भारवति, त्थाता भवति 4 / कथं केन प्रकारेणा, नु वितर्के साधर्मिकाः साधवोऽ- ज्ञा०१श्रु०५ अगदुर्निवहि, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। ल्पशब्दा विगतरागाऽऽदिकाः, अत्राल्पशब्दो भाववचनः, अल्पदण्डा ! भाल न०(भाल) ललाटे,"भालं अलिअंनिडालं।" पाइ० ना० 112 विगतदण्डातथाविधाशुभवचनाः, अल्पतुमतुमाः अविद्यमानत्वत्वमन्तः गाथा। स्वल्पापराधिनि अपित्वमेवं पुरा कृतवान् त्वमेक्ष सदाऽपि करोषीत्यादि भाव पुं०(भाव) सत्तास्वाभावाभिप्रायचेष्टाऽऽत्मजन्मसुक्रियालीलानपुनः पुनः प्रलपन येषां ते तथा वा, विगत-क्रोधकृतमनोविकारविशेषाः, पदार्थेषु विभूतिबन्धजन्तुषु, है०। (1) भावयति चिन्तयति पदार्थान। भविच्यन्तीति शेषः / इति भावयन्तो महामुनयः संयमबाहुल्याः भू अच् / नाट्योक्ती, नानापदार्थचिन्तके पण्डिते, भावयति ज्ञापयति संयमाऽऽश्रवविरमणाऽऽदिकं बह्निति बहुसंख्यं यथा भवत्येवं लान्ति हृदयगतम् / भू-णिच् अच् / हृद्तावस्थाऽ5-वेदके मानसविकारे गृह्णन्ति स्वाभिप्रायो विशुद्धशुद्धतरं पुनः पुनः संयम कुर्वन्तीति स्वेदकम्पाऽऽदौ व्यभिचारिभावे, वाच० / अभिप्राये, सूत्र०१ श्रु०१२ संयमबहुला, मयूरव्यंसकाऽऽदित्वात्समासः / यदि वा-बहुलः प्रभूतः अ० भावश्चित्ताभिप्रायः / आचा० 1 श्रु०२ अ०५ उ०। दश०। तं०। संयमो येषां ते बहुल-संयमाः, सूत्रे पूर्वापरनिपातस्यातन्त्रत्वादत एव अनु० "भावो वत्थु पयत्थो।" पाइ० ना० 155 गाथा / मानसिके संवर आश्रवनिरोधस्तेन बहुलाः बहुलसंवरा वा, तत एव समाधि- परिणामे, पिं०। भावोन्न्तःकरणस्य परिणतिविशेषः / सूत्र०१ श्रु०१५ श्चित्तस्वास्थ्य, तद्बहुलाः, बहुलसमाधयो वा, प्रमत्ता मदाऽऽदिप्रमाद- अ० प्रश्नाधाभावस्य मोक्षहेतुत्वेन मोक्षे व्यवस्थितम्। भावस्यान्तः युक्ताः , न प्रमत्ता अप्रमत्ताः (संजमेणं ति) संवरेण (तवस ति) तपसा परिणामस्येति। द्वा०१० द्वा०ा अन्तःकरणे, जी०१ अधिवा हृदये, षो० अन-शनाऽऽदिना, चशब्दः समुच्चयार्थो लुप्तोऽत्र द्रष्टव्यः 1 संयमतपोग्रहणं 16 विव०। आत्मनि, योनौ, भावाभिख्याः पञ्चस्वभावसत्ताऽऽचानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थः, प्रधानत्वं च संयमस्य नवकर्मानु- त्मयोन्यभिप्रायाः / अनु०। सच्छ्रद्धानाध्यवसाये, पञ्चा० 4 विव०॥ पादानहेतुत्वेन, तपसश्च पुराणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन भवति वाऽभिनव- धर्मश्रवणतच्छद्धानचारित्राऽऽचरणकर्मक्षयोपशमाऽऽहितविर - कर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणात् सक-लकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति / तिप्रतिपत्युत्साहलक्षणी भाव इति / सूत्र० 1 श्रु० 2 अ०। स्त्रीणां "अप्पाणं भावेमाणा।" आत्मानं वासयन्तः, एवं पूर्वोक्तप्रकारेण, चेष्टाविशेषे, भावचित्तसमुद्भवः / ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। प्रश्न। राणा द्रव्या० / विहरेयुरिति (सेत्तमित्यादि) व्यक्तम् / दशा० अ०। दशा घटपटाऽऽदिके वस्तुनि, विशे०। आव० भ०। रा०ा आ०म०॥ भारवह त्रि०(भारवह) भारं वहतीति भारवहः / पोट्टलिकावाहके, उत्त० षोशन। 12 अ० नि००। बृ०। भावानां सिद्धि प्रतिपिपादयिषुर्व्यक्तगणधरेण जिनस्य सम्बादमुपभारवाहग पुं०(भारवाहक) भारं वहति ण्वुल्। 'भारवाहिनि," "हिंडगा दर्शयन् प्रथम सर्वशून्यताशङ्किमतमाहभारवाहगा / (2)" / अनु०। जह किर न सओ परओ, नोभयाओ नावि अन्नओ सिद्धी। भारह न०(भारत) भरतान् भरतवंश्यानधिक्षत्य कृतो ग्रन्थः अण् / भारः भावाणमवेक्खाओ, वियत्त ! जह दीइहस्साणं / / 1662 / / वेदाऽऽदिशास्त्रेभ्योऽतिसारांशः अस्त्यस्य ते वा। वाचला वेदव्यासप्रणीते व्यक्त ! भवतोऽयमभिप्रायो-यथा किल न स्वतः न परतो, न चोभयतो, लक्षश्लोकाऽऽत्मकत्रन्थरूपे लौकिक श्रुतविशेषे, स्था० 6 ठा० / नाप्यन्यतो भावानां सिद्धिः सम्भाव्यते / कुतः? इत्याह- अपेक्षातःभारताऽऽदिष्विदानींतनपुरुषाणामशक्तावपि कस्यचित् पुरुषस्य कार्यकारणाऽऽदिभावस्यापेक्षिकत्वादित्यर्थः हस्वदीर्घव्यपदेशवद। तथाहिव्यासाऽऽदेः शक्तिः श्रूयते / नं०। "पुटवणे भारह अवरण्हे रामायणं / ' यत्किमपि भावजातमस्ति तेन सर्वेणापि कार्येण वा भवितव्यं, कारणेन वा। Page #1501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव तत्र कार्य कारणेन क्रियतइति कारणाऽऽयत्त एव तस्य कार्यत्व-व्यपदेशो, न तु कार्यस्य कार्यत्व स्वतः सिद्ध किमप्यस्ति / एवं कारणमपि कार्य करोतीति कार्याऽऽयत्त एव तस्य कारणत्वव्यपदेशौ, न तुतस्यकारणत्वं स्वतः सिद्ध किश्चदस्ति / तदेवं कार्याऽऽदिभावः स्वतो न सिध्यति। यच स्वतो न सिद्धं तस्य परतोऽपि सिद्धिर्नास्ति, यथा खरविषाणस्य। ततश्च न स्वतः कार्याऽऽदिभावो, नापि परतः स्वपरोभयतस्तर्हि तस्य सिद्धिरिति चेत् / तदयुक्तम्, व्यस्तादुभयतस्तत्सिद्धरभावात्तत्समुदायेऽपि तदयोगात्। न हि सिकताकणेषु प्रत्येकमसत्तैलं तत्समुदाये प्रादुर्भवति। अपि च- उभयतः सिद्धिपक्ष इतरेतराऽऽश्रयदोषः प्राप्नोति / यावद्धि कार्य न सिद्ध्यति न तावत्कारणसिद्धिरस्ति, यावच कारणं न सिध्यति न तावत्कार्य सिद्धिमासादयति। अत इतरेतराऽऽश्रयदोषः। तस्मान्नोभयतोऽपि कार्याऽऽदिभावसिद्धिः। नाप्यन्यतः-अनुभयत इत्यर्थः स्वपरोभयव्यतिरेकेणाऽन्यस्य वस्तुनोऽसत्वेन निर्हेतुकत्वप्रसाङ्गाद् एवं ह्रस्वदीर्घलक्षणे दृष्टान्तेऽपि अपेक्षात इत्यस्य ह्रस्वदीर्घत्वासिद्धिलक्षणेन साध्येनान्वयो भावनीयः / तथाहि-प्रदेशिन्या अड्गुष्ठमपेक्ष्य दीर्घत्वं प्रतीयते, मध्यमां त्वपेक्ष्य ह्रस्वत्वं, परमार्थेन त्वियं स्वतो न ह्रस्वा, नापि दीर्घा / तदेवं न स्वतो ह्रस्वदीर्घत्वयोः सिद्धिः ततः स्वतः परतः उभयत, अनुभयतश्चतत्सिद्ध्यभावो यथोक्तवद्भावनीयः तदुक्तम्"न दीर्घऽस्तीह दीर्घत्वं, न ह्रस्वे नापि च द्वये। तस्मादसिद्ध शून्यत्वा-त्सदिल्याख्यायते क्व हि ? ||1|| ह्रस्व प्रतीत्य सिद्ध, दीर्घ दीर्घ प्रतीत्य हृस्वमपि / न किश्चिदस्ति सिद्ध, व्यवहारवशाद्वदन्त्येवम् / / 2 / / " / / 1662 / / इतश्च सर्व जगच्छून्यता, कुतः? इत्याहअस्थित्तघडे आणेगया व सवे गयाइदोसाओ। सव्वेऽणमिलप्पावा, सुण्णा वा सव्वहा भावा / / 1663|| नन्वस्तित्वधटयोरेकत्वम्, अनेकत्वं वा ? यद्येकत्वं, तर्हि सर्वे कता प्राप्नोति-यो योऽस्ति स स घट इत्यस्ति त्वे घटस्य प्रवेशात्सर्वस्य घटत्वप्रसङ्गः स्यात्।नपटाऽऽदिपदार्थान्तरम्। घटोवा सर्वसत्वाव्यतिरेकात्सर्वाऽऽत्मकः स्याद्। अथवा-यो घटः स एवास्तीति घटमात्रेऽस्तित्वं प्रविष्ट, ततोऽन्यत्र सत्वाभावादघटस्य सर्वस्याप्यभावप्रसङ्गतो घट एवैकः स्यात् / सोऽपि वा न भवेद्, अघटव्यावृत्तो हि घटो भवति, यदा च तत्प्रतिपक्ष भूतोऽघट एव नास्ति, तदा किमपेक्षोऽसौ घटः स्यात्? इति सर्वशून्यत्वमिति। अथ घटसत्वयोरन्यत्वमिति द्वितीयो विकल्पः। तर्हि सत्वरहितत्यादसन् घटः, खरविषाणवदिति। अपि च सतो भावः सत्वमुच्यते, तस्य च स्वाऽऽधारभूतेभ्यो घटाऽऽदिभ्यः सदभ्योऽन्यत्वेऽसत्वमेव स्याद्, आधारादन्यत्वे आधेयस्याप्यनुपपत्तेः। तदेवमस्तित्वेन सह घटाऽऽदीनामेकत्वान्यत्वविकल्पाभ्यामुक्तन्यायेन सर्वेकताऽऽदिदोषप्रसङ्गात्सर्वेऽपि भावा अनभिलप्या वा भवेयुः, सर्वथा शून्या वा स्युः, सर्वथैव तेषामभावो वा भवेदित्यर्थः / अपियन्नोत्पद्यते तत्तावन्निर्विवादं खरविषाणवदसदेव, इति निवृत्ता तत्कथा यदप्युत्पत्तिमलोकेऽभ्युपगम्यते, तस्यापि जाताऽजाताऽऽदिविकल्पयुक्तिभिरुत्पादो न घटते, इति शून्यतैव युक्ता इति।।१६६३।। एतदेऽऽवाहजायाऽजाओभयओ, न जायमाणं व जायए जम्हा। अणवत्थाऽभावोभयदोसाओ सुन्नया तम्हा।।१६६४॥ इह तावन्न जातं जायते, जातत्वादेव, निष्पन्नघटवद् / अथ जातमपि जायते, तीनवस्था, जातत्याविशेषेण पुनः पुनर्जन्मप्रसङ्गात्। अथाजात जायते / तत्रोत्तरमाह- (आभव त्ति) सूचकत्वात्सूत्रस्य, तभावोऽपि खरविषाणलक्षणो जायताम्-अजातत्वाविशेषात् अथ जाताजातरूपं जायते। तदप्ययुक्तम्। कुत इत्याह- उभयदोषात्प्रत्ये कोभयपक्षोक्तदोषाऽऽपत्तेरित्यर्थः / किञ्च एतज्जाता-जातलक्षणमुभयमस्तिवा, नवा? यद्यस्ति तर्हि जातमेव तन्न पुनरुभयं, तत्र चोक्तो दोषः / अथ नास्ति तथाऽपि नोभयं तत् किं त्वजातमेव, तत्राप्यभिहितमेव दूषणम्। नापि जायमान जायते, सर्वोक्तविकल्पद्वयानतिवृत्तेः / तथाहि- तदपि जायमानमस्ति, न वा? यद्यस्ति, तर्हि जातेमव तत्, नास्ति चेत् तर्हि जावमेव / पक्षद्वयेऽपि चास्मिन्नभिहित एव दोषः / उक्तं च, गतं न गम्यते ताव-दगतं नैव गम्यते / गतागतविनिर्मुक्तं, गम्यमान न गम्यते / / 1 // " इत्यादि / यस्मादेव, तस्मादनवस्थाऽऽदिदोषप्रसङ्गे न वस्तूनामुत्पादायोगाजगतः शून्यतैव युक्तेति॥१६६४।। प्रकारान्तरेणापि वस्तूत्पत्ययोगतः शून्यतासाधनार्थमाहहेऊपचयसाम- ग्गिवीसु भावेसु नो व जं कजं / दीसइ सामग्गिमयं, सध्वाभावेण सामग्गी॥१६६५।। हेतव उपादानकारणानि, प्रत्ययास्तु निमित्तकारणानि, तेषां हेतुप्रत्ययानां या सामग्री तस्याविश्वग्भावेषु पृथगवस्थासु यक्तार्य न दृश्यते, दृश्यते च सामग्रीमयं संपूर्णसामग्र्यवस्थायां पुनर्दृश्यत इत्यर्थः / एवं च सति कार्यस्य सर्वाभाव एव युक्त इतिशेषः / सर्वाभावेचन सामग्री, नैव सामग्रीसद्धावः प्राप्नोतीत्यर्थः। ततः सर्वशून्यतैवेति भावः इदमत्र हृदयमहेतवश्व प्रत्ययाश्च स्वजन्यमर्थ किमेकैकशः कुर्वन्ति संभूय वा? न तावदैकैकशस्तथाऽनुपलब्धेः / तत एकैकस्माक्तार्यस्याभावात्सामग्रयामपि तदभाव एव स्याल्सिकताकणतैलवदिति / इत्थं च सर्वस्यापि कार्यस्योत्पत्यभावे सामग्रीसद्भावो न प्राप्नोति, अनुत्पन्नायाः सामग्र्या अप्ययोगात्। ततश्च सर्वशून्यतैव जगतः। उक्तंच"हेतुप्रत्ययसामग्री, पृथग्भावेष्वदर्शनात्। तेन तेनाभिलप्या हि, भावाः सर्वे स्वभावतः / / 1 / / लोके थावत्संज्ञा, सामग्र्यामेव दृश्यते यस्मात्। तस्मान्न सन्ति भावाः, भावे सति नास्ति सामग्री / / 2 / / " इत्यादि। अस्य च व्याख्या-पृथग्भावेष्वदर्शनाक्तार्यस्येति शेषः / तेन ते घटाऽऽदयो भावाः सर्वेऽपि स्वभावतः स्वरूपतो नाभिलाप्याः पृथगेकैकावस्थायां कार्यस्यानुत्पादात् उत्पत्तिमन्तरेण चघटाऽऽदिसंज्ञाऽप्रवृत्तेः संज्ञाऽभावे चाभिलप्तुमशक्यत्वादिति कुतः पुनः पृथगवस्थायां संज्ञाऽप्रवृत्तिः? इत्याह लोके यावदित्यादि / लोके यावत् संज्ञा घटोऽयमित्यादिसंज्ञाप्रवृत्तिस्तावत्संपूर्ण कार्य सम्पूर्णसामा यामेव यस्माद्दृश्यते पृथग Page #1502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1594 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव भावे च सामर यामप्यभावात्सिकतातैलवन्न सन्त्येव भावाः, भावसत्त्वे च | कुतः सामग्रीसद्भाव इति॥१६६५॥ प्रकारान्तरेणापि शून्यतासिद्ध्यर्थमाहपरभागादरिसणओ, सव्वाराभागसुहमयाओय। उभयाणुवलंभाओ, सव्वाणुवलद्धिओ सुण्णं / / 1666 / / इह यत् ताक्ददृश्यं, तदसदेव, अनुपलम्भात्खरविषाणवदिति निवृत्ता तद्वार्ता दृश्यस्यापि च स्तम्भकुम्भकुड्याऽऽदेः परमध्यभागयोरसत्त्वमेव अर्वाग्भागान्तरितत्वेन तयोरप्यदर्शनात, आराद्भागस्यापि च सावयत्वात्पुनरन्यः खल्वाराद्भागस्तस्याप्यन्यः पुनस्तस्याप्यन्य इत्येवं तावद्यावत्सारातीयभागस्य, परमाणुप्रतरमात्रत्वेनातिसौक्ष्म्यात्पूर्वेषां चाराद्भागानामन्यस्यान्येनान्तरितत्वेनानुपलब्धेः / ततश्वोक्तन्यायेन / परभागसर्वारातीयभागलक्षणोभयभागानुपलम्भात्सर्वस्यापि वस्तुजातस्यानुपलब्धेः शून्यं जगदिति। उक्तं च -"यावद्दृश्यं परस्तावद्भागः स च न दृश्यते / तेन तेनाभिलाप्या हि, भावाः सर्वे स्वभावतः / / 1 / / " तदेवमुक्तयुक्त्या सर्वस्यापि भूताऽऽदेरभावः प्राप्नोति, श्रूयते च श्रुतौ भूताऽऽदिसद्भावोऽपीति संशय इति पूर्वपक्षः। (3) अथ भगवान् प्रतिविधानमाहमा कुरु वियत्त ! संसयमसइन संसयसमुब्भवो जुत्तो। खकुसुमखरसिंगेसु व, जुत्तो सो थाणुपुरिसेसु / 1667 / आयुष्मन् व्यक्त मा कृथाः संशयं मा भूताभाव बुध्यस्व, यतोऽसति भूतकदम्बके संशयः खकुसुमखरविषाणयोरिव न युक्तः, अपित्वभावनिश्चय एव स्यात्, सत्स्वेव च भूतेषु स्थाणुपुरुषाऽऽदिष्विव संशयो युक्तः / यदि पुनरसत्यपि वस्तुनि सन्देहः स्यात्तदाऽविशेषेण खरविषाणाऽऽदिष्वपि स्यादिति भावः। एतदेव भावयतिको वा विसेसहेऊ, सव्वाभावे वि थाणुपुरिसेसु। संका न खपुप्फाइसु, विवज्जओ वा कहं न भवे? 11668 / / को वाऽत्र विशेषहेतुरुच्यतां यत्सर्वाभावे सर्वशून्यतायामविशिष्टायामपि स्थाण्वादिषु संशयो भवति, नखपुष्पाऽऽदिषु? ननु विशेषहेत्वभावादविशेषेण सर्वत्र संशयोऽस्तु, नियामकाभावात्। विपर्ययो वा भवेत्, खपुष्पाऽऽदिषुसंशयः स्याद्न स्थाण्वादिषु इति भावः। अपिचपच्चक्खओऽणुमाणादागमओ वा पसिद्धिरत्थाणं / सव्वप्पमाणविसयाभावे किह संसओ जुत्तो? 11666 / यदा हि प्रमाणैरर्थानां प्रसिद्धिर्जाता भवेत्तदा कथञ्चित्कचिद्वस्तुनि संशयो युज्येत / यदा च सर्वेषां प्रमाणानां सर्वेषां च तद्विषयाणामभावस्तदा कथं संशयोऽस्तु, संशयस्य ज्ञातृज्ञेयाऽऽद्यर्थसामग्रीजन्यत्वात्? सर्वशून्यत्वे च तदभावान्न संशयोद्भूतिः, निर्मूलत्वादिति भावः // 1666 एतदेव समर्थयतिजं संसयादओ नाणपज्जयातं च नेयसंबद्धं / सव्वन्नेयाभावे, न संसओ तेण ते जुत्तो।।१७००।। यस्मात्संशयविपर्ययानध्यवसायनिर्णया विज्ञानपर्ययाः, तच ज्ञेयनिबन्धनमेव, सर्वशून्यतायां न ज्ञेयमस्ति, तस्मान्न तव संशयो युक्तः 1 सति च संशयेऽनुमानसिद्धा एव भावाः॥१७००।। कथमित्याहसंति च्चिय ते भावा, संसयओ सोम्म! थाणुपुरिसु व्व। अहादिटुंतम सिद्धं, मण्णसि नणु संसयाभावो॥१७०१।। सौम्य ! सन्ति भवतोऽपि भावाः, संशयसमुत्थानाद्, इह यत्संशय्यते तदस्ति, यथा स्थाणुपुरुषो; यच्चासद् न तत्संशय्यते, यथा खपुष्पखरविषाणे। अथ स्थाणुपुरुषलक्षणं दृष्टान्तमसिद्ध मन्यसे त्वं, सर्वेषामपि स्थाणुपुरुषाऽऽदिभावानामविशेषेणैवासत्त्वाभ्युपगमात्, तदयुक्त, यतो ननु सर्वभावासत्त्वे सशयाभाव एव स्याद्, इत्युक्तमेवेति / / 1701 / / अथ परमतमाशक्य परिहरनाहसव्वाभावे विमई,संदेहो सिमिणए व्व नो तं च / जं सरणाइनिमित्तो, सिमिणो न उ सव्वहा भावो।१७०२ स्यान्मतिः परस्य सर्वाभावेऽपि स्वप्ने दृष्टः संशयो, यथा किल कश्चित्पामरो निजगृहागणे किमयं द्विपेन्द्रो महीध्रो वेति संशेते, न च तत्तत्र किञ्चिदप्यस्ति, एवमन्यत्र सर्वभावाभावेऽपि संशयो भविष्यति। तच्चन, यद्यस्मात्स्वप्नेऽपि पूर्वदृष्टानुभूतस्मरणाऽऽदिनिमित्तःसंदेहो, नतु सर्वथा भावाभावेऽसौ कापि प्रवर्तते / अन्यथा हि यत्षष्ठभूताऽऽदिकं वचिदपि नास्ति तत्रापि संशयः स्याद्विशेषाभावादिति। ननु किं स्वप्नोऽपि निमित्तमन्तरेण न प्रवर्तते ? एवमेतत्॥१७०२।। कानि पुनस्तन्निमित्तानीत्याहअणुभूयदिट्ठचिंतिय-सुयपयइवियारदेवयाऽणूया। सिमिणस्स निमित्ताई, पुण्णं पावं च नाभावो // 1703 / / स्नानभोजनविलेपनाऽऽदि कमन्वदाऽनुभूतं स्वप्ने दृश्यते, इत्यऽनुभूतोऽर्थःस्वप्नस्य निमित्तम् / अथवा-करितुरगाऽऽदिकोऽन्यदा दृष्टोऽर्थस्तन्निमित्तं विचिन्तितश्च प्रियतमालाभाऽऽदिः। श्रुतश्च स्वर्गनरकाऽऽदिः / तथा, वातपित्ताऽऽदिजनितः प्रकृतिविकारःस्वप्नस्य निमित्तम्। तथा, अनुकूला प्रतिकूला वा देवता तन्निमित्तम्। तथाऽनूपःसजलप्रदेशः / तथा पुण्यमिष्टस्वप्नस्य निमित्तं, पापं चानिष्टस्य तस्य निमित्तं, न पुनर्वस्त्वभावः / किं च-स्वप्नोऽपि तावद्भाव एव; ततस्तस्यापि सत्त्वे कथं शून्यं जगदिति भवता प्रतिज्ञायते ? // 1703 / / कथं पुनः स्वप्नस्य भावत्वम्? इत्याहविण्णाणमयत्तणओ, घडविण्णाणं व सुमिणओ भावो। अहवा विहियनिमित्तो, घडो व्व नेमित्तियत्ताओ।।१७०४|| भावःस्वप्न इति प्रतिज्ञा, विज्ञानमयत्वादिति हेतुः, घटविज्ञानवदिति दृष्टान्तः / अथवा-भावःस्वप्नो, नैमित्तिकत्वात्, निमित्तैर्निष्पन्नो नैमित्तिकस्तद्भावस्तत्त्वं, तस्मादित्यर्थः घटवदिति / कथं पुनः स्वप्नो नैमित्तिकः? इत्याह-यतो विहितनिमित्तः, विहितानि "अणुहूयदिट्ठचिंतिय'' इत्यादिना प्रतिपादितानि निमित्तानि यस्यासौ विहितनिमित्त इति॥१७०४॥ Page #1503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव सर्वशून्यतायां चेष्यमाणायां स्वप्नास्वप्नाऽऽदिव्यवहा राभावप्रसङ्ग एवेति दर्शयन्नाहसव्वाभावे च कओ, सुमिणोऽसुमिणो त्ति सच्चमलियं ति।। गंधव्वपुरं पाडलिपुत्तं तत्थोवयारो त्ति? ||1705 / / कजं ति कारणं ति य, सज्झमिणं साहणं ति कत्त त्ति। वत्ता वयणं वच्चं, परपक्खोऽयं सपक्खोऽयं ? ||1706 / / किं वेह थिरदवोसिणचलयाअरुवित्तणाइँ निययाई। सद्दादओ य गज्झा, सोत्ताईयाइँ गहणाइं?||१७०७।। समया विवजओ वा, सव्वागहणं व किं न सुण्णम्मि। किं सुन्नया व सम्मं, सग्गहो किं व मिच्छत्तं? ||1708|| किह सपरोभयबुद्धी, कहं च तेसिं परोप्परमसिद्धी। अह परमईऍ भण्णइ, सपरमइविसेसणं कत्तो? ||1706 // सर्वाभावेच सर्वशून्यतायां चाभ्युपगम्यमानायां स्वप्नोऽयम् अस्वप्नोऽयमिति कुतः किंकृतोऽयं विशेषः? इत्यर्थः / तथा सत्यमिदम् अलीक वा; तथा गन्धर्वपुरमेतत् पाटलीपुत्राऽऽदि चेदं; तथा- "तत्थोवयारो त्ति" अयं तथ्यो निरुपचरितो मुख्यश्चतुष्पदविशेषः सिंहः, अयंत्वौपाचारिके मनुष्यविशेषो माणवकः तथा कार्यमिदं घटाऽऽदि, कारणं चेदं मृत्पिण्डाऽऽदि, तथा। साध्यमिदमनित्यात्वाऽऽदि, साधनं कृतकत्याऽऽदि, कर्ता घटाऽऽदेः कुलालाऽऽदिः, तथा अयं वक्ता यादी, वचनं चेदं त्र्यवयवं पञ्चावयवा, इदंचवाच्यमभिधेयमस्य शब्दसन्दर्भस्य, तथाऽय स्वपक्षः, अयं च परपक्ष इति सर्वशून्यत्वे कुतोऽसौ विशेषो गम्यते ? 'किं वेह थिरेत्यादि।' पृथिव्याः स्थिरत्वम्, अपांद्रवत्वं, वह्रुष्णत्वं, वायोश्चलत्वम्, आकाशस्यारूपित्वमित्यादयो नियताः सर्वदैवकस्वभावा विशेषाः सर्वशून्यतायां कुतो गम्यन्ते ? तथा शब्दाऽऽदयो ग्राह्या एव इन्द्रियाणि च श्रोत्रादीनि ग्राहकाण्येवेति कुतो नियमसिद्धिः। (समयेत्यादि) ननु सर्वशून्यतायां स्वप्रास्वप्रसत्यालीकाऽऽदीनां विशेषनिबन्धना-भावात् समतैव कस्मान्न भवति यादृशः स्वप्रः, अस्वनोऽपि तादृश एव, यादृशश्चास्वप्रः स्वप्रोऽपि तादृश एवेत्यादि? अथवा- विपर्ययः कुतो न भवति-यः स्वप्रः सोऽस्वप्रो, यस्त्वस्वनः स स्वप्रः इत्यादि? यदि वा सर्वेषामपि स्वप्नास्वप्नाऽऽदीनां सर्वथा शून्यत्वेऽग्रहणमेव कस्मान्न भवति? भ्रान्तिवशादेव स्वप्नाऽस्वप्नाऽऽदिग्रहणमिति चेत् / तदयुक्त देशकालस्वभावाऽऽदिनयत्येन तद्ग्राहकज्ञानोत्पत्तेः / किं च - इयं भ्रान्तिः किं विद्यते, नवा? यदि विद्यते त_भ्युपगमविरोधः। अथ न विद्यते, तर्हि भ्रान्तेरसत्त्वाभावग्राहकज्ञानस्य निर्धान्तत्वात् सन्त्येव सर्वे भावाः, न पुनः शून्यतेति। अथवा अन्यत्पृच्छामो भवन्तंननु सर्वशून्यत्वे शून्यतैव सम्यक्त्वं सतां भावानां ग्रहणं सद्ग्रहो, भावसत्वग्रहणं पूनर्मिथ्यात्वमित्यत्र कस्ते विशेषहेतुः? यदुक्तंन स्वतो भावानां सिद्धिरित्यादि तत्प्रतिविधानार्थमाह- (किह सपरोभयेत्यादि) ननु कथं ह्रस्वदी?भयविषये इद ह्रस्वमिदं दीर्घम्, एतत्तु तदुभयमित्येवंभूता स्वपरोभयबुद्धियुगपदाश्रीयते भवता? कथं च तेषां ह्रस्वदी|भयानां परस्परमसिद्धिरुघुष्यते? पूर्वापरविरुद्धत्वान्नैतद्वक्तुं युज्यत इत्यर्थः / अयमत्र / भावार्थः- नखल्वापेक्षिकमेव वस्तूनां सत्त्वं, किंतुस्वविषयज्ञानजननाऽऽद्यर्थक्रियाकारित्वमपि / ततश्च ह्रसवदी?भयान्यात्मविषयं चेज्ज्ञानं जनयन्ति, तदा सन्त्येव तानि, कथं तेषामसिद्धिः? यदप्युक्तम्मध्यमाङ्गुलिमपेक्ष्य प्रदेशिन्यां ह्रस्वत्वमसदेयोच्यते इति। तदप्ययुक्तम्, यतो यदि मध्यमामपेक्ष्य प्रदेशिन्यां स्वतः सर्वथाऽसत्यामपि ह्रस्वत्वं भवति, तदा विशेषाभावात् खरविषाणेऽपि तद्भवेदतिदीर्धेष्विन्द्रयष्ट्यादिष्वपि च तत्स्यात्। अथवा प्रदेशिन्याः स्वापेक्षया स्वात्मन्यपि ह्रस्वत्वं स्यात्, सर्वत्रासत्त्वाविशेषात्। न चैवम् / तस्मात्स्वतः सत्यामेव, प्रदेशिन्या वस्तुतोऽनन्तधर्माऽत्मकत्वात् तत् सहकारिसन्निधौ तत्तद्रूपाभिव्यक्तेस्तत्तज्ज्ञानमुत्पद्यते, न पुनरसत्यामेव तस्यामपेक्षामात्रत एव ह्रस्वज्ञानमुघजायते / एवं दीर्घोभयाऽऽदिष्वपि वाच्यम्। अथेदं ह्रस्वमिदं दीर्घमेतचोभयमित्यादि स्वपरोभयबुद्धिः परमत्या पराभ्युपगमेनोच्यते, न पुनः स्वतः सिद्धं स्वविषयज्ञानजनकं ह्रस्वाऽऽदिकं किञ्चिदस्त्यतो न कश्चित् पूर्वापरविरोध इत्यत्राऽऽह- ननु सर्वशून्यत्वे इदं स्वमतम्, एतच परमतमित्येतदपि स्वपरभावेन विशेषणं कुतो ? न कुतश्चिदित्यर्थः, स्वपरभावेऽपि "समयाविजओ वा" इत्याद्ये-वावर्त्तत इति भावः / स्वपरभावाऽऽद्यभ्युपगमे च शून्यत्वाभ्युपगमहानिरिति / / 1705 / / 1706|| 1707 / / 1708 // 1706 / / अपि चजुगवं कमेण वा ते, विण्णाणं होज दीहहस्सेसु / जइ जुगवं काऽवेक्खा , कमेण पुय्वम्मि काऽवेक्खा ?||1710 / / आइमविण्णाण्णं वा, जं बालस्सेह तस्स काऽवेक्खा। तुल्लेसु व काऽवेक्खा , परोप्परं लोयणदुगे व्व? // 1711 / / ननु मध्यमा प्रदेशिन्यादिहस्वदीर्घयोस्तवाभिप्रायेण स्वाऽऽकारप्रतिभासि ज्ञानं किं युगपदेव भवेत्, क्रमेण वा? यदि युगपत्तर्हि परानपेक्षं द्वयोरपि युगपदेव स्वप्रतिभासिनि ज्ञाने प्रतिभासात्कस्य किल काऽपेक्षा? अथ क्रमेण, तदापि पूर्वमेव स्वप्रतिभासिना ज्ञानेन परानपेक्षमेव ह्रस्कस्य प्रदेशिन्यादेहीतत्वादुत्तरस्मिन् मध्यमाऽदीके। दीर्घकाऽपेक्षा? तस्माच्चक्षुरादिसामग्रीसद्भावे परानपेक्षमेव स्वकीयविविक्तरूपेण सर्वभावानां स्वज्ञाने प्रतिभासात्स्वत एव सिद्धिः / अथवा-बालस्य तत्क्षणमेव जातस्य शिशोर्यदिह नयनोन्मेषानन्तरमेवाऽऽदौ विज्ञानं, तत्किमपेक्ष्य प्रादुरस्ति? यदि वा-ये न ह्रस्वे नापि दीर्धे, किंतु परस्पर तुल्ये एव वस्तुनी, तयोर्युगपदेव स्वप्रतिभासिना ज्ञानेनैव गृह्यमाणयोः का अन्योन्यापेक्षा? नकाचित्, यथा तुल्यस्य लोचनयुग्मस्य।तस्मादगुल्यादिपदार्थानां नान्यापेक्षमेव रूपं, किं तु स्वप्रतिभासवता ज्ञानेनान्यनिरपेक्षा एव ते स्वरूपतोऽपि गृह्यन्ते। उत्तरकालं तु तत्तद्रूपजिज्ञासायां तत्तत्प्रतिपक्षस्मरणाऽऽदिसहकारिकारणान्तरवशादीर्घहस्वाऽऽदिव्यपदेशाः प्रवर्तन्ते, इति स्वतः सिद्धा एव सन्ति भावा इति // 1710 / / 1711 // अपिचकिं हस्साओ दीहे, दीहाओ चेव किं न दीहम्मि / कीसवन खपुप्फाओ, किं न पुखप्फे खपुप्फाओ ?||1712 / / Page #1504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव हन्त यदि सर्वशून्यता, ततः किमिति ह्रस्यादेव प्रदेशिनो प्रभृतिद्रव्याद्दीर्घ मध्यमाऽऽदिद्रव्ये दीर्घज्ञानाभिधानव्यवहारःप्रवर्तते। दीर्घापेक्ष एव दीर्घन ज्ञानाभिधानेन व्यवहारः किं न प्रवर्तते, असत्त्वाविशेषादिति भावः / एवं "किं दीहाओ हस्से, हस्साओ चेव किं न हस्सम्मि / / " इत्येतदपि द्रष्टव्यम् / तथा किमिति वा न खपुष्पाद्दी! ह्रस्वेवा तज्ज्ञानाभिधानव्यवहृतिर्विधीयते! तथाऽसत्त्वाविशेषत एव किमिति खपुष्पात्खपुष्प एव ह्रस्वदीर्घज्ञानाऽऽदिव्यवहारोन प्रवर्तते? न चैवं, तस्मात्सन्त्येव भावाः, न तु शून्यता जगत इति / / 1712 // अपिचकिं वाऽवेक्खाए चिय, होज मई वा सभाव एवायं / सो भावो त्ति सभावो, वंझापुत्ते न सो जुत्तो।।१७१३।। अथवा- सर्वस्यापि असत्त्वे ह्रस्वाऽऽदेर्दीर्घाऽऽद्यपेक्षयाऽपि किं कर्त्तव्यम्, शून्यताप्रतिकूलत्वात्तस्याः,घटाऽऽद्यर्थसत्ववद्? अथ परस्य मनिर्भवेत् स्वभावादेवापेक्षयैव हुस्वदीर्घाऽऽदिव्यवहारः प्रवर्तते / न च स्वभावः पर्यनुयोगमर्हति-तथा चोक्तम्-"अग्रिर्दहति नाऽऽकाशं, कोऽत्र पर्यनुयुज्यताम्।" इति। हन्त इत्थमपि हतोऽसि, यतः स्वो भावः स्वभावस्ततः स्वपरभावाभ्युपगमात् शून्यताऽभ्युपगमहानिः / न च वन्ध्यापुत्रकल्पानामर्थानां स्वभावपरिकल्पना युक्तेति / भवतु वाऽपेक्षा तथापि शून्यतासिद्धिः।।१७१३॥ कुतः? इत्याहहोजावेक्खाओ वा, विण्णाणं वाऽभिहाणमेत्तं वा। दीहं ति व हस्सं ति व, न उ सत्ता सेसधम्मा वा / / 1714 / / अथवा स्वतः सिद्धे वस्तुन्यपेक्षातो भवेत् किम्? इत्याह-विज्ञानमभिधानमात्रं वा। केनोल्लेखेन? इत्याह-दीर्घमिति वा, ह्रस्वमिति वेति / किं पुनर्न भवेदित्याह- न त्वन्यापेक्षया वस्तूनां सत्ता भवति, नाप्यापेक्षिकहस्वदीर्घत्वाऽऽदिधर्मेभ्यः शेषाः रूपरसाऽऽदयो धा अन्यापेक्षया सिध्यन्ति। उत्पद्यन्ते च वस्तुसत्ताग्राहकाणि, रूपाऽऽदिधर्मग्राहकाणि च ज्ञानानि / अतोऽन्यापेक्षा भावतः कथं स्वतः सिद्धस्य वस्तुसत्ताऽऽदेरभावः? तत्सद्भावे च कथं शून्यता जगत०? इति // 1714 // कथं पुनः सत्ताऽऽदयोऽन्यापेक्षा? इत्याहइहरा हस्साभावे, सय्वविणासो हवेजदीहस्स। न यसो तम्हा सत्तादयोऽणविक्खा घडाईणं // 1715 / / इतरथा यदि घटाऽऽदीनां सत्ताऽऽदयोऽप्यन्यापेक्षा भवेयुः, तदा ह्रस्वाभावे ह्रस्वस्य सर्वविनाशे दीर्घस्यापि वस्तुनःसर्वविनाशः स्यात्, ह्रस्वसत्तापेक्षित्वात् दीर्घसत्ताऽऽदीनाम न चैवमसौदीर्घस्य सर्वविनाशो दृश्यते, तस्मान्निश्चीयतेसन्त्यन्यानपेक्षा एव घटाऽऽदीनां सत्तारुपाऽऽदयो | धर्माः, तत्सत्वे चापास्ता शून्यतेति।।१७१५।। यदुक्तं न स्वतो नापि परतो नापि चोभयतो भावानां सिद्धिः, अपेक्षत | इत्यादि। अत्रापेक्षात इति विरुद्धो हेतुः, विपक्ष एव सत्त्वादिति दर्शयन्नाह- 1 जावि अविक्खाऽविक्खणमविक्खगोऽविक्खणिजविक्ख। सान मया सव्वेसु वि, संतेसु न सुन्नया नाम / / 1716|| याऽपीय ह्रस्वाऽऽदेर्दीर्घोऽऽद्यपेक्षा साऽप्यपेक्षणं क्रियारूप, तथा अपेक्षक करिमपेक्षणीयं च कर्मानपेक्ष्य न मता न वि दुषां सम्मता / ततः किमित्याह- एतेषु चापेक्षणापेक्षकापेक्षणीयेषु सर्वेषु वस्तुषु सत्सु न काचिच्छून्यता नाम, अतोऽपेक्षकाऽऽदिसत्त्वलक्षणे विपक्ष एवापेक्षालक्षणस्य हेतोवृत्तत्वाद्विरुद्धत्वमिति / / 1716 / / तस्मात्स्वतः, परत उभयतश्च भावानां सिद्धिरस्त्येव व्यवहारतो, निश्चयतस्तु स्वतः सिद्धा एव सर्वे भावा इति दर्शयतिकिंचि सओ तह परओ, तदुभयओ किंचि निचसिद्धं पि! जलओ घडओ पुरिसो, तह ववहारओ नेयं / / 1717 // निच्छयओ पुण बाहिरनिमित्तमेत्तोवओगओ सव्वं / होइ सओ जमभावो, न सिज्झइ निमित्तभावे वि 1718 इह किञ्चित्स्वत एव सिद्ध्यति, यथा कटनिरपेक्षस्तत्कारणद्रव्यसंघातविशिष्टपरिणामरूपोजलदः / किं चित्तु परतो, यथा कुलालकर्तृको घटः। किं चिदुभयतो, यथा मातापितृभ्यां स्वकृतकर्मतश्च पुरुषः। किं चिन्नित्यसिद्धमेव, यथा आकाशम् / एतय व्यवहारनयापेक्षया द्रष्टव्यम् निश्चयतस्तु बाह्य निमित्तमात्रमेवाऽऽश्रित्य सर्व वस्तु स्वत एव सिद्ध्यति, यद्यस्माद् बाह्यनिमित्तसद्भावेऽपि खरविषाणाऽऽदिरूपोऽभावः कदाचिदपि न सिद्धयति। उभयनयमतं च सम्यक्त्वमिति / / 1717 / 1718 / / अथ यदुक्तम्-"अत्थित्तघडेगाणेगया व'' इत्यादि, तत्प्रतिविधातुमाहअत्थित्तघडेगाणे-गया य पज्जायमेतचिंतेयं / अत्थि घडे पडिवन्ने, इहरा सा किं न खरसिंगे ?||1719 / / इहास्ति घटो न तु नास्तीत्येवं प्रतिपन्ने सति तदनन्तरमेवास्तित्वघटयोः किमेकताऽनेकता वेत्यादिना घटारितत्वयोरेकरवानेकत्वलक्षणपर्यायमात्रचिन्तैव भवता कृता भवति नतुतयोरभावः सिद्ध्यति। अन्यथा ह्यभावरूपा विशेषात् यथा घटास्तित्वयोः, एवं खरविषाणबन्ध्यापुत्रयोरप्येकत्वा-नेकत्वचिन्ता भवतः किंन प्रवर्तते इति॥१७१६।। कि च? यथा घटास्तित्वयोरेकत्वानेकत्वविकल्पौ त्वं विधत्से, तथा घटशून्यतयोरपि तौ विधातुं शक्यते। कथम्? इत्याहघडसुन्नयनयाए, वि सुम्नया का घडाहिया सोम्म!। एगत्ते घडओ चिय, न सुन्नया नाम घडधम्मो / 1720 // ननु घटशून्यतयोरप्यन्यताऽनन्यतावा? यद्यन्यता, तर्हि (सुन्नया का घडाहिया सोम्म त्ति) सौम्य व्यक्त ! शून्यता का घटाऽऽदिका नाम ? ननु घटमात्रमेव पश्यामो, नपुनः क्वचिच्छून्यता घटादधिका समीक्ष्यते। अथाऽनन्यता, तथाऽपि सति सघटशून्यत्वयोरेकत्वे घट एवासौ युज्यते, प्रत्यक्षत-एवोपलभ्यमानत्वात्, न तु शून्यत्वं नाम कश्चित्तद्धर्मः, सर्वप्रमाणैरनुपलब्धेरिति / / 1720 / / अपिचविण्णाणवयणवाईण-मेगया तो तदत्थिया सिद्धा। Page #1505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव अण्णत्ते अण्णाणी, निव्वयणो वा कहं वाई? ||1721| | शून्यं सर्वमेवविश्वत्रयमित्येवंभूतंयद्विज्ञानं वचनं च तेन सह शून्यवादिनो भवत एकत्वमनेकत्वंवा ! यद्येकत्वं ततस्तदस्तिता वस्त्वस्तिता सिद्धति कुतः शून्यता, वृक्षत्वशिंशपात्वयोरिवैकत्वस्य वस्तुत्वात्? अन्यत्वेतु विज्ञानवचनयोरज्ञानी निर्वचनश्च वादी कथं शून्यतां साधयेत्। शिलासंघातवदिति।।१७२१॥ यच घटसत्त्वयोरेकत्वविकल्पेऽभ्यधायि, योघटः स एवास्तीतिघटमात्रेऽस्तित्वस्य प्रवेशाद् घट एवास्ति / यदि वाप्रतिपक्षाभावात्सोऽपि नास्तीति तत्राऽऽहघडसत्ता घडधम्मो, तत्तोऽणण्णो, पडाइओ मिण्णो। अस्थि त्ति तेण भणिए, को घड एवेति नियमोऽयं / / 1722 / / घटास्तित्वलक्षणा घटसत्ता घटस्य धर्मः, सच ततो घटादनन्योऽभिन्नः घटाऽऽदिभ्यस्तु सर्वेभ्योऽपि भिन्नः। तेन ततो घटोऽस्तीति भणिते घट एवेति घट एवास्ति इति कोऽयं नियमः, निजनिजसत्तायाः पटाऽऽदिष्वऽपि भावात्, तेऽपि सन्त्येवेति भाव / / 1722 / / तथाऽस्मिन्नेव घटास्तित्वयोरेकत्वविकल्पे यदुक्त- यो योऽस्ति सस घट इति सर्वस्य घटत्वप्रसङ्ग, घटस्य वा सर्ववस्त्वात्मकत्वमिति। तदपि सर्व घटसत्ता घटधर्मः, इत्यादिनैव परिहृतम्, अतएवाऽऽहजंवा जदत्थितं तं-घडो त्ति सव्वघडयापसंगो को? भणिए घडोत्थि व कहं, सव्वत्थित्तावरोहो त्ति? ||1723 / / यद्वा प्रोक्तं 'यद्यदस्ति तत्तत्सर्वं घटः' इति, तत्र कोऽयं सर्वघटताप्रसङ्गः? तथा यो घटः स एवास्तीत्यप्युक्ते कथं सर्वास्तित्वावरोधःकथं घटस्य सर्वाऽऽत्मकत्वम्? इत्यर्थः / यदा हि घटसत्ताघट एवास्ति नान्यत्र, तदा यत्र यत्र घटास्तित्वं तत्र तत्र घट इति न कश्चित्सर्वेषां घटताप्रसङ्गः, 'तथा घटसत्त्वेन घट एवास्ति' इत्येतस्मिन्नप्युक्ते न किञ्चिद् घटस्य सर्वात्मकत्व प्रतीयत इति भावः / / 1723 / / तदेवं प्रस्तुतं परपक्षमपाकृत्य स्वपक्षस्य भावा र्थमाहअत्थि त्ति तेण भणिए, घडोऽघडो वा घडो उ अत्थेव। चूओ चूओ व दुमो, चूओ उ जहा दुमो नियमा।।१७२४।। येन कारणेन घटसत्ता घटधर्मत्वाद्घट एवास्ति पटाऽऽदिभ्यस्तु भिन्ना, तेन तस्मादस्तीत्युक्ते घटोऽघटो वा पटाऽऽदिर्गम्यते, निजनिजसत्वस्य सर्वेषु पटाऽऽदिष्वपि भावात् (घडो उ अत्थेव त्ति)-घट इति तु प्रोक्ते अस्त्येवेति गम्यते, निजसत्त्वस्य नियमेन घटे सद्भावात्। अत्र यथासंख्यमुदाहरणद्वयम् / यथा द्रुमः, इत्युक्ते चूतोऽचूता वा निम्बाऽऽदिर्गम्यते, द्रुमत्वस्य सर्वत्र भावात्। चूत इति तु निगदिते द्रुम एव गम्यते, अद्रुमस्य चूतत्वायोगादिति // 1724 // यदुक्तं- यदेतज्जातं न जायते, नाप्यजातं, न च जाताजातं, नापि जायमानमित्यादि / तत्रोत्तरमाहकिं तं जायं ति मई,जायाऽजाओभयं पि जदजायं। अह जायं पि न जायं, किं न खपुप्फे वियारोऽयं? / / 1725 / / | प्रष्टव्योऽत्र देवानांप्रियः कथय किं तद्वस्तुजातमिति प्रतिपद्यतेतव मतिः, यज्जाताऽजातोभयाऽऽदिप्रकारैरुजातं साध्यते।यस्य जाताजाताssदिप्रकारैर्जन्म त्वया निषिध्यते इत्यर्थः / यदि हि जात किमपि वस्तुतव सिद्ध, तर्हि तत्सत्त्वेनैव प्रतिहता शून्यता, अतः "किं तज्जातंजायते? किं तदजातं जायते? किं तज्जाताऽजातं वा जायते?" इत्यादयः शून्यतासिद्ध्यर्थमुपन्यस्यमाना निरर्थका एव विकल्पा इतिप्रच्छकाभिप्रायः / अथ तदपि जातं जाताऽजातादिविकल्पाऽऽश्रयभूतं जातत्वेन भवतो न सिद्धं, किं त्वजातमेव तत्, ननु स्ववचनविरुद्धमिदंजातमप्यजातमिति / किं च- जातस्यासत्त्वे निराश्रयत्वाज्जाताजाताऽऽदिविकल्पा निरर्थका एव / अथैतदाश्रयभूतं जाताऽऽख्ये वस्तुन्यसिद्धेऽपि 'न जातं जायते, इत्यादिविकल्पविचारः प्रवर्तते तर्हि खपुष्पेऽप्यसौ किं न विधीयते, असत्त्वाविशेषेण "समया विवज्जओ वा'' इत्यादिव्यक्तदोषप्रसङ्गात्? न च वक्तव्यं परेषा सिद्धं जातमुररीकृत्य विकल्पा विधीयन्ते, स्वपरभावाभ्युपगमे शून्यताहानिप्राप्तेरिति // 1725 / / अपि चजइ सव्वहा न जायं, किं जम्माणंतरं तदुबलंभो। पुव्वं वाऽणुवलंभो, पुणो वि कालंतरहयस्स // 1726|| यदि सर्वैरपि प्रकारैर्घटाऽऽदि कार्य न जातमिति शून्ययादिना प्रतिपाद्यते, तर्हि मृत्पिण्डाऽऽयवस्थायामनुपलब्धं कुलालाऽऽदिसामग्रीनिवर्तितजन्मान्तरं किमिति तस्मात्तदुपलभ्यते? पूर्व वा जन्मतः किमिति तस्यानुपलम्भः? पुनरपि कालान्तरे लगुडाऽऽदिना हतस्य किमिति तस्यानुपलम्भः? अजातस्य गगननलिनस्येव सर्वदैव घटाऽऽदेरनुपलम्भ एव स्थात्, यस्तुकदाचिदुपलम्भ, कदाचित्तु नोपलम्भोऽसौ जातस्यैवोपपद्यते इति भावः।।१७२६।। किंचजह सध्वहा न जायं, जायं सुण्णवयणं तहा भावा। अह जायं पिन जायं, पयासिया सुन्नया केण? ||1727 / / शून्यं सर्व जगदित्येवंभूतं यच्छून्यताविषयं विज्ञानं वचनं च तद्यथा जाताऽजाताऽऽदिप्रकारैः सर्वथा जातमप्यजातमपि सत्केनापि प्रकारेण तावज्जातं, तथा भावा अपि घटपटाऽऽदयो जाता एष्टव्याः, इत्यतो न शून्यं जगद् / अथं शून्यताविज्ञानवचनद्वयं जातमप्यजातमिष्यते, तर्हि तद्विज्ञानवचनाभ्या विना केनाऽसौ शून्यता प्रकाशिता? न केनचिदिति शून्यताऽनुपपत्तिरिति / / 1727|| यदप्युक्तं- 'नजातं जायते नाप्यजातम्।' इत्यादि तदप्ययुक्तं, यतो विवक्षया सर्वैरपि प्रकारैर्यथासम्भवं वस्तु ज्ञायते, किं चित्तु सर्वथा न जायते, इति दर्शयतिजायइ जायमजायं, जायाजायमह जायमाणं च / कजमिह विवक्खाए, न जायए सव्वहा किंचि // 1728|| रूवि त्ति जाइ जाओ, कुंभो संठाणओ पुणरजाओ। जायाजाओ दोहि वि, तस्समयं जायमाणो त्ति // 1726 / / पुव्वकओ उघडतया, परपज्जाएहिं तदुभएहिं च। जायंतो य पडतया, न जायए सय्वहा कुंभो / / 1730 // Page #1506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव १४९८-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव वोमाइ निच्चजायं, न जायए तेण सव्वहा सोम्म !" इय दव्वतया सव्वं, भयणिज्जं पजवगईए॥१७३१।। इह कार्य घटाऽऽदिकं विवक्षया किमपि जातं जायते, किञ्चिदजातं, किञ्चिज्जाताजातं, किञ्चिज्जायमानं, किञ्चित्तु सर्वथा न जायत इति, अथ यथाक्रममुदाहरणानि- (रूवीत्यादि) रूपितया घटो जातो जायते, मृद्रूपतायाः प्रागपि भावात्, तद्रूपतया जात एव घटो जायत इत्यर्थः / संस्थानतया आकारविशेषेण पुनः स एवा-जातो, जायते, मृत्पिण्डाऽऽद्यवस्थायामाकारस्यासम्भवात्, मृदूपतया, आकारविशेषेण चेति द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां जाताजातोजायते। तदनन्तरभूतत्वाद्घटस्य। तथा अतीतानागतकालयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वात् क्रियाऽनुपपत्तेर्वर्तमानसमय एव क्रियासद्भावात्तत्समयं वर्तमानसमयं जायमानो जायते / किञ्चित्तु सर्वथा जाताऽजाताऽऽदिप्रकारैर्न जायते। किं पुनस्तदित्याह(पुवकओउइत्यादि) पूर्वकृतस्तुपूर्वनिष्पन्नोघटोघटतयाजाताजाताऽऽदिविकल्पानां मध्यादेकेनापि प्रकारेण न जायते, पूर्वमेव जातत्वात्, किं घटतयैवनजायते? नेत्याह-(परपज्जाएहिं ति) तथा पटाऽऽदिगतैः परपर्यायैश्वघटोन जायते, स्वपर्यायाणां पूर्वमेव जातत्वात, परपर्यायैश्च कदाचित् कस्याप्यभवनात् / स्वपरपर्यायैः पूर्वकृत घटो न जायते, जाताऽजातपटखरविषाणवदिति भावः।त-था जायमानोऽपिवर्तमानक्रियाक्षणसमये पटतया घटोनजायते, पररूपतया कस्याऽप्यभवनात्। किं पूर्वकृतोघट एवेत्थं न जायते, आहोस्विदन्यदपि किञ्चिन्न जायते? इत्याह- (वोमाईत्यादि) न केवलं पूर्वकृतो घटोघटतया न जायते, तथा व्योमाऽऽदिंच तेन कारणे सौम्य ! सर्वथा जाताऽऽदिभिः सर्वैरफिप्रकारैर्न जायते, येन किमित्याह-येन नित्यजातं सर्वदाऽवस्थितं हेतुद्वारेणं विशेषणमिदं नित्यजातत्वान्न जायत इत्यर्थः / उक्तस्यैवार्थस्योपसंहारच्याजेन तात्पर्यमुपदर्शयन्नाह- (इयेत्यादि) इत्युक्तप्रकारेण सर्वमपि घटपटव्योमाऽऽदिकं वस्तु द्रव्यतया द्रव्यरूपेण 'न जायते' इतीहापि संवध्यते, तद्रूपतया सदाऽवस्थितत्वादितिभावः। पर्यायगत्या पर्यायचिन्तया पुनः सर्वं भजनीयं विकल्पनीयम् / पूर्वजातं घटाऽऽदिकं रूपाऽऽदिभिः स्वपर्यायैरपि न जायते, पूर्वजातत्वादेव, अजातं तु तत्स्वपर्यायैर्जायते, परपर्यायस्तुकिश्चिदपिनजायते,इत्येवं पर्यायचिन्तायां भजना / एतच्च प्रायोदर्शितमेवेति // 1728 // 1726 // 1730 // 1731 // अथ यदुक्तं- 'सर्व सामग्रीमयं दृश्यते, सर्वाभावे च कुतः सामग्री?' तत्र प्रतिविधानमाहदीसइ सामग्गिमयं, सव्वमिह थिनय सानणु विरुद्ध घेप्पइ वन पचक्खं, किं कच्छपरोमसामग्गी॥१७३२॥ . इह यदुक्तं-"सर्वमपि कार्य सामग्यात्मकं दृश्यते, सर्वाभावेचनास्ति सामग्री।" इति। तदेतद्विरुद्धमेव, प्रस्तुतार्थप्रतिपादकत्वात्, वचोजनककण्ठोष्ठताल्वादिसामन्याःप्रत्यक्षतएवोपलब्धेः। अथ ब्रूषे-अविद्योपप्लवादविद्यमानमपि दृश्यते / यत् उक्तम्- "कामस्वप्नभयौन्मादैरविद्यापेप्लवात्तथा। पश्यन्त्य-सन्तमप्यर्थ, जनाः केशेन्दुकाऽऽदिवत् ||1| इति / यद्येवं, तॉसत्वे सामान्येऽपि कच्छपरोमजनकसामग्री किमिति प्रत्यक्षत एव नोपलभ्यते? समताविपर्ययो वा कथंनस्यादिति वाच्यमिति? // 173 // किंचसामग्गिमओ वत्ता, वयणं चत्थि जइ तो कओ सुण्णं। अह नत्थि केण भणियं, वयणाभावे सुयं केण? ||1733|| सामग्री उरःशिरःकण्ठोष्ठतालुजिह्वाऽऽदिसमुदायाऽऽत्मिका तन्मयः सामग्यात्मको वक्ता, तद्वचनंचास्तिनवा? यद्यस्ति, तर्हि कुतोजगच्छून्यत्वं,तद्वक्तृवचनसत्त्वेनैव व्यभिचारात्? अथतद्वक्तृवचनेनस्तस्तर्हि वक्तृवचनाभावे केन भणितं शून्यं जगत्? न केनचित्। सर्वशून्यत्वे च प्रतिपाद्य स्याप्यभावात् केन तत् शून्यवचः श्रुतमिति? // 1733|| अत्र परभिप्रायमाशय परिहरन्नाहजेणं चेवन वत्ता, वयणं वा तो न संति वयणिया। भावा तो सुण्णमिदं, वयणमिदं सचमलियं वा ? ||1734|| जइ सचं नाभावो, अहालियं न प्पमाणमेयं ति। अब्भुवगयं ति, व मई, नाभावे जुत्तमेयं ति॥१७३५।। येनैव न वक्ता, नापि च वचनं, ततस्तेनैव न सन्ति वचनीया भावा इत्यतः शून्यमिदं जगदिति / अत्रोच्यते- यदेतद्वक्तृवचनवचनीयानां भावानामभावप्रतिपादकं वचनंतत्सत्यमलीकं वा? यदिसत्यं, तमुस्यैव सत्यवचनस्य सद्भावान्नाभावः सर्वभावानाम् / अथालीकमिदं वचनं, तप्रमाणमेतत् अतोनातःशून्यतासिद्धिः। अथ यथा तथा वाऽभ्युपगतमस्माभिः शून्यताप्रतिपादकं वचनम् अतोऽस्मद्वचनप्रामाण्यात् शून्यतासिद्धिरिति तव मतिः / नैवं यतः "सत्यम्, अलीकं वा त्वयेदमम्युपगतम्?" इत्यादिपुनस्वदेवाऽऽवर्त्तते। किंच- अभ्युपगन्ताऽभ्युपगमोऽभ्युपमनीयं चेत्येतत्त्रयस्य सद्भावेऽभ्युपगमोऽप्येष भवतोयुज्यते, नच सर्वभावानामभावे एतत्त्रयं युक्तमिति॥१७३४॥१७३५।। अपिचसिकयासु किन तेलं, सामग्गीओ तिलेसु वि किमत्थि? किं वनसध्वं सिज्झइ, सामग्गीओ खपुष्पाणां // 1736 / / सर्वभावानाभसत्त्वे सर्वोऽपि प्रतिनियतो लोकव्यवहारः समुच्छिद्यते। तथाहि- भावाभावस्य सर्वत्राविशिष्टत्वात्किमिति सिकताकणसामग्रीतस्तैलंन भवति, तिलाऽऽदिसामग्यां वातत्किमस्ति? किं वा खपुष्पसामग्रीतः सर्वमपि कार्यजातंन सिध्यति? नचैवं, तस्मात्प्रतिनियतकार्यकारणभावदर्शनान्नाभावसामग्रीतः किमप्युत्पद्यते, किंतु यथास्वभावसामग्रीतः, तथा च सतिन शून्यं जगदिति।।१७३६॥ किंचसव्वं सामग्गिमयं, नेगंतोऽयं जओऽणुरपएसो। अह सो वि सप्पएसो, जत्थावत्था स परमाणू / / 1737 / / सर्व सामग्रीमयं सामग्रीजन्यं वस्त्वित्ययमपि नैकान्तः, यतो व्यणुकाऽऽदयः स्कन्धाः सप्रदेशत्वाव्यादिपरमाणुजन्यत्याद्भवन्तु सामग्रीजन्याः परमाणुः पुनरप्रदेश इतिनकेनचिजन्यते, इतिकथमसौसामग्रीजन्यः स्यात्? अस्तिचासौ, कार्यलिङ्गगम्यत्वात्। उक्तंच-"मूर्तरणुरप्रदेशः, कारणमन्त्य Page #1507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव भवेत्तथा नित्यः / एकररावर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च / 1 / " अथायमपि सप्रदेशः, तह. तत्प्रदेशोऽणुर्भविष्यति, तस्यापि सप्रदेशत्वेतत्प्रदेशोऽणुरित्येवं तावद्यावद्यत्र क्वचिन्निः प्रदेशतया भवबुद्धेरवस्थानं भविष्यति, स एव परमाणः, तेनापि च सामग्रीजन्यत्वस्य व्यभिचार इति / / 1737 / / न सन्त्येव ते परमाणवः, सामग्रीजन्य त्वाभावादित्याशङ्कयाऽऽहदीसइ सामग्गिमयं, न याणवो संति नणु विरुद्धमिदं / किं वाणूणमभावे, निप्फण्णमिणं खपुप्फे हिं? ||1738 / / "सामग्रीमयं सर्वं दृश्यते' इति भवतैव प्रागुक्तम्। अणवश्चन सन्ति' इत्यधुना ब्रूषे, ननु विरुद्धमिदं, यथा सर्वमप्यनृतं वचनमिति बुवतः स्ववचनविरोधः, तथाऽत्रापीत्यर्थः / यदेव हि सामग्रीमयं किमपि दृश्यते भवता, तदेवाणुसङ्घाताऽऽत्मकम्, अतः स्ववचनेनैव प्रतिपादितत्वात्कथमणवो न सन्तीति भावः। किंच अणूनामभाव इदं सर्वमपिघटाऽऽदिकार्यजातं किं खपुष्पैर्निष्पन्नं, परमाण्वभावे तज्जनकमृत्पिण्डाऽऽदिसायभावात्? इति भावः। तस्माद्यस्मात्सामग्रीमयं दृश्यत इति प्रतिपद्यते भवता, तद्वदेव परमाणव इति।।१७३८|| यदुक्तम्-'परभागादरिसणओ, सव्वाराभागसुहुमयाओ य' इत्यादि / तत्र प्रतिविधानमाहदेसस्साराभागो, घेप्पइ न य सो त्ति नणु विरुद्धमिणं। सव्वाभावेऽपि न सो,घेप्पइ किं खरविसाणस्स?||१७३६।। यदुक्तम्- दृश्यस्यापि वस्तुनः परभागस्तावन्न दृश्यते, आराद्भागस्तु गृह्यते, परं सोऽप्यन्यान्यपरभागकल्पनया प्रागुक्तयुक्तितो नास्तीति। ननु विरुद्धमिदं-गृहाते असौ, नच समस्तीति। सर्वाभावाद्भ्रान्त्याऽसौ गृह्यत इति चेत / तदयुक्तम् / यतः- सर्वाभावे तुल्येऽपि किमिति खरविषाणस्य संबन्धी आराद्भागोन गृह्यते? समता विपर्ययो वा कथं न भवतीति // 1736 // किंचपरभागादरिसणओ, नाराभागो वि किमणुमाणं ति। आराभागग्गहणे, किं व न परभागसंसिद्धि? ||1740 / / "परभागमात्रादर्शनादाराद्भागोऽपि नास्ति'' इत्यत्र किमनुमा-नं | भवत? एतदुक्तं भवति-यत्प्रत्यक्षेण सकललोकप्रसिद्धं तदनेरौष्ण्यमिव कथमनुभानेन बाध्यते? आराद्भागस्य हि आपेक्षिकत्वात् तदन्यथाअनुपपत्तेः परभागानुमानंतावदद्यापियुज्यते। यस्तुवरभागादर्शनमात्रेणैव तन्निहवः सोऽसंबद्ध एव, सत्स्वपि देशाऽऽदिविप्रकृष्टषु मेरुपिशाचाऽऽदिष्वदर्शनसंभवात् / तस्मान्न परभागादर्शनमात्रेणाराद्भागोऽपह्रोतव्यः। किञ्चआराद्भागग्रहणे परभागानुमान युज्येतापीति भाष्यकारोऽप्याह(आराभागेत्यादि) आराद्धागग्रहणे कथं न परभागसंसिद्धिरिति? अपि तुतत्संसिद्धिरेव। तथाहि-दृश्यस्य वस्तुनःपरभागोऽस्ति, तत्संबन्धिभूतस्याऽऽराद्भागस्य ग्रहणाद्, इह यत्संबन्धिभूतो भागो गृह्यते तत्समस्ति, यथा नभसः पूर्वभागे ग्रहीते तत्संबन्ध्यपरभागः, गृह्यते च घटाऽऽदेराराद्भागोऽतस्तत्संबन्धिभूतः परभागोऽप्यस्ति। यच्चोक्तम् ''आराद्धा- | गस्याप्यन्य आराद्भागः कल्पनीयः, तस्याप्यन्य इत्यादि तावत् यावत्सवाऽऽरातीयभागः।" इति। अत्रापि परभागस्यासत्वे सर्वाऽऽरातीयभागपरिकल्पनमनुपपन्नमेव स्यात्। तस्मादस्ति परभाग इति / / 1710! अपिचसव्वाभावे विकओ आरापरमज्झभागनाणत्तं / अह परमईए भण्णइ, सपरमइविसेसणं कत्तो? / / 1741 / / आरपरमज्झभागा, पडिवण्णा जइ न सुण्णया नाम / अप्पडिवण्णेसु विका, विगप्पणा खरविसाणस्स?||१७४२।। सव्वाभावे वाऽऽराभागो, किं दीसए न परभागो। सव्वागहणं व न किं, किं वा न विवजओ होइ? ||1743 / / तिस्रोऽपि प्रतीतार्था एवेति // 17411 / 1742 // 1743 / / किं च यदि परभागादर्शनाद्भावानाम सत्वं प्रतिपाद्यते, तर्हि स्फटिकाऽऽदीना तन्न स्यादिति दर्शयन्नाहपरभागदरिसणं वा, फलिहाईणं ति ते धुवं संति। जइवा ते वि न संता, परभागादरिसणमहेऊ // 1744|| सव्वादरिसणओ चिय, न भण्णए कीस भणइ तन्नाम। पुव्वत्भुवगयहाणी, पच्चक्खविरोहओ चेव / / 1745 / / ननु येषां स्फटिकाभ्रपटलाऽऽदीना भावानां परभागदर्शनमस्ति ते तावद् ध्रुवं सन्त्येवेति 'परभागादर्शनात्' इत्यनेन हेतुना सर्वभावानामसत्वं न सिद्ध्यति / अथ स्फटिकाऽऽदयोऽपि न सन्ति तर्हि 'परभागादर्शनात्' इत्ययमहेतुः, त्वदभिप्रेतस्य सर्वभावासत्वस्यासाधकत्वाद्। अतोऽव्यापकममु हेतुं परित्यज्य 'सर्वादर्शनान्न सन्ति भावाः' इत्ययमेव व्यापको हेतुः कस्मान्न भण्यते? (भण्णइ तन्नामत्ति) अत्र पर उत्तरं भणति। किमित्याह- तन्नामास्तुसर्वादर्शनादित्ययं हेतुस्तर्हि भवत्वित्यर्थः, यथा तथा शून्यतैवास्माभिः साधयिव्या, सा च सर्वादर्शनादित्यनेनापि हेतुना सिध्यतु, किमनेनाऽऽग्रहेणाऽऽस्माकम्? इति भावः / अथ सूरिराह(पुव्वेत्यादि) नन्विदानी सर्वादर्शनादिति ब्रुवतो भवतः "परभागादरिसणओ' इति पूर्वाभ्युपगतस्य हानिः प्राप्नोति। किं च - ग्रामनगरसरित्समुद्रघटपटाऽऽदीनां प्रत्यक्षेणैव दर्शनात् सर्वादर्शनलक्षणस्य हेतोः प्रत्यक्षविरोधः। ततः प्रत्यक्षविरोधतश्च सर्वादर्शनादित्येतदयुक्तमिति। अत्र कश्चिदाह- ननु सपक्षस्य सर्वस्याव्यापकोऽपि विपक्षात्सर्वथा निवृत्तो हेतुरिष्यत एव, यथा ''अनित्यःशब्दः, प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्।" इति नह्यनित्योऽर्थः सर्वोऽपि प्रयत्नानन्तरीयकः विद्युद्घनकुसुमाऽऽदिभियभिचारात् तददिहापि यद्यपि सर्वेष्वपि भावेषु परभागादर्शनं नास्ति, यथाऽपि बहुषुतावदस्ति, अतस्तेषु शून्यतां साधयन्नसौ सम्यग हेतुर्भविष्यति / तदयुक्तम् / यतस्तत्र 'यदनित्यं न भवति तत्प्रयत्नान्तरीयकमपि न भवति' यथा "आकाशम्।' इत्येवं व्यतिरेकः सिध्यति। इह तु यत्र शून्यता नास्ति, किं तर्हि? वस्तुनः सत्त्वं परभागादर्शनमपि तत्र नास्ति,किंतुपरभागदर्शन यथाव? इति भवतः सर्वासद्वादिनोव्यतिरेक: वचिदपि न सिध्यति अतोऽहेतुरेवायमिति।।१७४४।। / / 1745 / / अत्र पराभिप्रायमाशक्य परिहरन्नाहनत्थि परमज्झभागा, अप्पचक्खत्तओ मई होजा। Page #1508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1500- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव नणु अक्खऽत्थावत्ती, अप्पचक्खत्तहाणी वा॥१७४६|| | अथ स्यान्मतिः- परमध्यभागौ न स्तः, अप्रत्यक्षत्वात्, खर-विषाणवत् / तदसत्त्वे च तदपेक्षया निर्दिश्यमान आराद्भागोऽपि नास्त्यतः सर्वशून्यतेत्यभिप्रायः / तदयुक्तम् ; यतोऽक्षमक्षमिन्द्रियमिन्द्रियं प्रति वर्त्तत इति प्रत्यक्षोऽर्थः, न प्रत्यक्षोऽप्रत्यक्षः, तद्भावोऽप्रत्यक्षत्वं, तस्मादप्रत्यक्षत्वादित्युच्यमाने नन्वक्षाणामर्थस्य चाऽऽपत्तिः सत्ता प्राप्नोति, तदापत्तौ च शून्यताऽभ्युपगमहानिः। शून्यतायां वाऽप्रत्यक्षत्वलक्षणस्य हेतोहानिः, अक्षार्थानामभावे प्रत्यक्षाप्रत्यक्षव्यपदेशानुपपत्तेरिति भावः |11746 // अपिच-अप्रत्यक्षत्वादित्यनैकान्तिको हेतरिति दर्शयन्नाहअस्थि अपचक्खं पिहु, जह भवओ संसयाइविन्नाणं। अह नत्थि सुण्णया का, कास व केणोवलद्धा वा ! / / 1747 / / नन्वप्रत्यक्षमप्यस्ति किश्चिद्वस्तु, यथा भवतः संशयाऽऽदिविज्ञानमन्येषामप्रत्यक्षमप्यस्ति, ततो यथैतत्तथा परमध्यभागावप्रत्यक्षो भविष्यत इत्यनैकान्तिको हेतुः। अथ भवत्संशयाऽऽदिविज्ञानमपि नास्ति तर्हि का नाम शून्यता? कस्य वाऽसौ? केन वोपलब्धा? भवत एवेह तत्र किल संशयः, सचेन्नास्ति, तर्हि कस्यान्यस्य ग्रामनगराऽऽदिसत्त्वे विप्रतिपत्तिः? इति भावः // 1747 // विशे०। (4) भवति भविष्यति भूतवांश्चेति भावः। अथवा-भवन्त्यस्मिन् स्वागता उत्पादविगमध्रौव्याऽऽख्याः परिणामविशेषा इति भावः। अस्तिकाये, दश० 1 अ०। वस्तुधर्म , विशे०। ज्ञा०। भावप्रत्ययक्ष यस्य गुणस्य हि भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने त्वतलाविति / सूत्र०१ श्रु० 12 अ० शुक्लाऽऽदिके वस्तुपाये, दर्श० 1 तत्त्व / विशे० / आव०॥ अनु० उत्ताकर्मस्था। आ०म०नि०चूा सम्मा द्रव्यस्य विशिष्टावस्था भाव इति। आचा०२ श्रु०१ चू० 4 अ० 1 उ०। भवन्ति विशिष्टहेतुभिः स्वतो वा जीवानां तत्तद्रूपतया भवनं भावः। भवन्त्येभिरुपशमाऽऽदिभिः पर्यायरिति भावः। कर्म०४ कर्म०। प्रव०तेन रूपेण भवनं भावः। अथवा- तेन तेन रूपेण भवतीति भावः / यद्वा-भवति तेभ्यः, तेषु वा भवतीति भावः। यद्वा-भवन्ति तेभ्यस्तेषु वा सत्सु प्राणिनस्तेन तेन रूपेणेति भावः / औदयिकाऽऽदिके वस्तुपरिणामविशेषे, अनु० दशाभावशब्दो बह्वर्थः / क्वचिद्रव्यवाचकः। तद्यथा- "णासओ भुवि भावस्स, सद्दो हवति केवलो।" भावस्य द्रव्यस्य वस्तुन इति गम्यते। क्वचिच्छुक्लाऽऽदिष्वपि वर्तते।"जंजजेजे भावे परिणमइः।" इत्यादि। यान् यान् शुक्लाऽऽदीन भावानिति गम्यते, क्वचिदौदयिकाऽऽदिष्वपि वर्त्तते यथा- "ओदयिए उवसमिए।" इत्याधुक्त्वा। "छव्विहो भावलोगो उ।" औदयिकाऽऽदय एव भावा लोक्यमानत्वाद्भावलोक इति, तदेवमनेकार्थवृत्तिः सन्नौ-दयिकाऽऽदिष्वेव वर्तमान इह गृहीत इति, भवने भावः, भवन्त्यस्मिन्निति वा भावः। दश०१ श्रुग (भावानां षड्डिधत्वम् आणुपुव्वी' शब्दे द्वितीयभागे 153 पृष्ठे गतम्) (5) भावद्वारं व्याचिख्यासुराहउवसमखयमीसोदयपरिणामा दुनवऽठार इगवीसा। तियमेय संनिवाइय, सम्मं चरणं पढमभावे // 6 // इह किल षड्भावा भवन्ति / विशिष्टहेतुभिः स्वतो वा जीवानां तत्तद्रूपतया भवनानि भवन्त्येभिरुपमशमाऽऽदिभिः पर्यायैरिति वा भावाः / किंनामानः पुनस्ते? इत्याह-(उवसमखयमीसोदयेत्यादि) अत्र सूचकत्वात् सूत्रस्यैवं प्रयोगः / (उवसमि त्ति) औपमशमिको भावः / (खय त्ति) क्षायिको भावः। (मीस त्ति) क्षायौपशमिको भावः। (उदय त्ति) औदयिको भावः। (परिणाम त्ति) पारिणामिको भावः / (64 गाथा) (कर्म० 4 कर्म०) द्विभेद औपशमिको भावः, नवभेदः क्षायिकः, अष्टादशभेदः क्षायोपशमिकः, एकविंशतिभेद औदयिकः, त्रिभेदः पारिणामिकः / सर्वेऽपि भावपञ्चकभेदास्त्रिपञ्चाशदिति // 66 // प्ररूपितं सप्रभेदं भावपञ्चकम् / अधुना सांनिपातिकाऽऽरख्यषभावभेदप्ररूपणायोपक्रम्यते तत्र च यद्यप्यौपशमिकाऽऽदिभावानां पञ्चानामिति द्विकाऽऽदिसंयोगभङ्गाः षड्विंशतिर्भवन्ति। तद्यथा-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकौदयिकपारिणामिक इति भावपञ्चकं पट्टकाऽऽदावालिख्यते, ततो दशद्विकसंयोगा अक्षसञ्चारणया लभ्यन्तेदशैव त्रिकसंयोगाः, पञ्च चतुष्कसंयोगाः, एकः पञ्चकसंयोग इति; तथापि षडेव संयोगा जीवेष्वविरुद्धाः सम्भवान्त, शेषास्तु विंशतिः संयोगभङ्गाः प्ररूपणामात्रभावित्वेनासम्भविन एव, अतः सम्भविषड्भेदद्वारेण गत्याश्रिता यावन्तः सान्निपातिकभावभेदाः सम्भवन्ति यावन्तश्च न सम्भवन्ति तदेतत्प्रकटयन्नाहचउ चउगईसु मीसगपरिणामुदएहिं चउसखइएहिं। उवसमजुएहिँ वा चउकेवलिपरिणामुदयखइए॥६७।। चत्वारो भङ्गाश्चतसृषु गतिषु चिन्त्यमानासु भवन्ति / कैःकृत्येत्याहमिश्रकपारिणामिकौदयिकादयिकैर्भावावर्णितस्वभावैः / इयमत्र भावनागतिचतुष्ट्यद्वारेण चिन्त्यमानः क्षयो-पशमिकपारिणामिकौदयिकलक्षण एकोऽप्यय त्रिकसंयोगरूपः सांनिपातिको भावश्चतुर्दा भवति। तथाहि- क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं जीवत्वाऽऽदि, औदयिकी नरकगतिः, इत्येको नरकगत्याश्रितस्त्रिकसंयोगः / एवं तिर्यड्मनुष्यदेवगत्यभिलापेन त्रयोभङ्गका अन्येऽपि वाच्याः / इत्येवं चतुर्विधां गतिं प्रतीत्य त्रिकसंयोगेन चत्वारो भेदा निरूपिताः। संप्रति चतुःसंयोगेन चतुरो भेदानाह-(चउसखइएहिं ति) चत्वारो भेदा भवन्ति, कैरित्याह- सह क्षायिकेण वर्तन्ते ये क्षायोपशभिकपारिणामिकौदयिकेलक्षणा भावास्ते सक्षायिकास्तैः सक्षायिकैः / अयमर्थः- गतिचतुष्टयद्वारेण चिन्त्यमानः क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकक्षायिकलक्षण एकोऽप्ययं चतुष्कसंयोगरूपः सान्निपातिका भावश्चतुर्दा भवति। तद्यथाक्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिक जीवत्वाऽऽदि, औदयिकी नरकगतिः, क्षायिक सम्यक्त्वमित्येको नरकगत्याश्रितः चतुष्कसंयोगः / एवं तिर्यड्मनुष्यदेवगत्यभिलापेन त्रयो भङ्गका अन्येऽपि वाच्याः। इत्येवं चतुर्विधां गतिं प्रतीत्यैकप्रकारेण चतुष्कसंयोगेन चत्वारो भेदा निरूपिताः। अधुना प्रकारान्तरेण चतुष्क संयोग एव चतुरो भेदानाह(उवसमजुएहिं वा चउ त्ति) वाशब्दोऽथवाशब्दार्थः / अथवा क्षायिक भावाभावे औपशमिके न प्रदर्शितस्वरूपेण Page #1509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1501 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भाव भावेन युतैः कलितैः पूर्वोक्तैः क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकैरेव निष्पन्नस्य सांनिपातिकभावस्य गतिचतुष्कं प्रतीत्य चत्वारश्वतुःसंख्या भेदा भवन्तीति शेषः / तद्यथा-क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वम्, औदयिकी नरकगतिः, औपशमिक सम्यक्त्वमित्येको नरकगत्याश्रितः चतुष्कसंयोगः / एवं तिर्यड्मनुष्यदेवगत्यभिलापेनत्रयो भङ्गा अन्येऽपि वाघ्याः / तदेवमभिहिता गतिचतुष्टयमाश्रित्यैकेन त्रिकसंयोगेन द्वाभ्यां चतु-ष्कसंयोगाभ्यां द्वादश विकल्पाः। संप्रतिशुद्धसंयोगत्रयस्वरूप शेष भेदत्रयं निरूपयिषुराह- (केवलिपरिणामुदय खइए त्ति) केवली मेवारलानी कामिणमिकौढयिकमायिके सानिपातिकभर्द त्रिकसोगरूप वर्तते / यतस्तस्य पारिणामिक जीवत्वाऽऽदि औदयिकी मनुजगतिः, क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तदेयमेकस्विकसंयोगः केवलिषु संभवतीति। खयपरिणामिसिद्धा, नराण पण जोगुवसमसेढीए। इय पन्नर संनिवाइयभेया वीसं असंभविणो॥६८।। सिद्धा निर्दिग्धसकलकर्मेन्धनाः क्षायिकपारिणामिके सांनिपातिकभेदे द्विकसंयोगरूपे वर्तन्ते / तथाहि- सिद्धानां क्षायिकं ज्ञानदर्शनाऽऽदि, पारणामिक जीवत्यमिति द्विकसंयोगो भवति / नराणां मनुष्याणां पञ्चकसंयोगः सांनिपातिकभेद उपशमश्रेण्यामेव प्राप्यते, यतो यः क्षायिकसम्यगदृष्टिर्मनुष्य उपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते तस्यौपशमिक चारित्रं, क्षायिक सम्यक्त्वं, क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, औदयिकी मनुजगतिः, पारिणामिक जीवत्वं, भव्यत्वं चेति / इत्यमुना दर्शितप्रकारेण गत्यादिषु संयोगषट्कचिन्तनलक्षणेन परस्परविरोधाभावेन संभविनः पञ्चदश सानिपातिकभेदाः षड्भावविकल्पाः प्ररूपिता इति शेषः। (वीस असभविणो त्ति) विंशतिसंख्याः संयोगाः असंभविनः प्ररूपणामात्रभावित्वेन नजीवेषु तेषां संभवोऽस्तीति। ननुषड्विंशतिभेदाः प्राक् प्रदर्शिताः, इह तु पञ्चदशानां विंशतेश्च मीलने पञ्चत्रिंशत्-संख्या भेदाः प्राप्नुवन्तीति कथं न विरोधः? अत्रोच्यते- ननु विस्मरणशीलो देवानांप्रियो यतोऽनन्तरमेवोदितं गत्यादिद्वारेणैव ते चिन्त्यमानाः पञ्चदश भवन्ति, मौला द्व्यादिसंयोगास्तु षडेव तथा होको द्विकसंयोगः द्वौ त्रिंकसंयोगौ, द्वौ चतुष्कसंयोगौ, एकः पञ्चकसंयोग इति षण्णां विंशत्या मीलने षड्विंशतिसंख्यैवोपजायते इति नात्र कश्चन विरोध इति॥६८ अभिहिताः सप्रभेदा जीवानामौपशमिकाऽऽदयो भावाः। (6) साम्प्रतमेतानेव कर्मविषये चिन्तयन्नाहमोहे व समो मीसो, चउघाइसु अट्ठकम्मसु य सेसा। घम्माइपारिणामियभावे खंधा उदइए वि॥६६॥ मोहे एव षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदाद् यथा वृक्षे शाखा वृक्षस्य शाखा, मोहनीयस्यैव कर्मणः शम उपशमोऽनुदयावस्था भस्मच्छन्नाग्नेरिव नतु / समस्तानां कर्मणां (मीसो चउघाइसु ति) मिश्रः क्षयोपसमस्तत्र क्षय उदयावस्थस्यात्यन्ताभावस्तेन सहोपशमोऽनुदयावस्था दरविध्यातवह्निवत् क्षयोपशमः, चतुषु चतुः संख्येषु घातिषु ज्ञानाऽऽदिगुणघातकेषु कर्मस्वित्युत्तरोक्तमत्रापि संबन्धनीयम्; ततः ज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽव रणमोहनीयान्तरायलक्षणानां धातिकर्मणामेव क्षयोपशमो भवति, न त्वाघातिकर्मणामिति। अष्टकर्मसु ज्ञानाऽऽवरणऽऽद्यन्तरायावसानेषु चः पुनरर्थे / अष्टसु-कर्मसु पुनः शेषा औदयिकक्षायिकपारिणामिकभावा भवन्ति / तत्रोदयो विपाकानुभवन, क्षयोऽत्यन्ताभावः, परिणामस्तेन तेन रूपेण परिणमनमित्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम् - मोहनीयकर्मणः पञ्चापि भावाः प्राप्यन्ते, मोहनीयवर्जितज्ञानाऽऽवरणदर्शनाऽऽवरणान्तसयलक्षणानां तु त्रयाणांघातिकर्मणामुदयक्षयक्षयोपश-मपरिणामस्वभावाश्चत्वार एव भावा भवन्ति न पुनरुपशमः। शेषाणां वेदनीयाऽऽयु - मगोत्रस्वरूपाणां चतुमिप्यघातिकर्मणामुदयक्षयपरिणामलक्षणास्वय एव भावा भवन्ति, न तु क्षयोपशमापशमावति प्रतिपादिता जावा तदाश्रितकर्मसु च पञ्चापि भावाः। अधुना तानजीवेषु विभणिषुराह(धम्माह इत्यादि) इह पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् धर्मस्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, पुद्रलास्तिकायः, कालद्रव्यं चेति परिग्रहः / (कर्म० 4 कर्म०) (धर्मास्तिकायव्याख्या 'धम्मत्थिकाय' शब्दे चतुर्थभागे 1718 पृष्ठे गता) (अधर्मास्तिकायव्याख्या अधम्मत्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे 567 पृष्ठे गता) (आकाशास्तिकायः 'आगासत्थिकाय' शब्दे द्वितीय भागे 18 पृष्ठे गतः) (पुगलास्तिकायः 'पोग्गलत्थिकाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1106 पृष्ठे गतः)(कालद्रव्यम्'कालदव्व' शब्दे तृतीय भागे 461 पृष्ठे निरूपितम्) ततो धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायाऽऽकाशास्ति कायपुद्गलास्तिकायकालद्रव्याणि पारिणामिके तेन तेन रूपेण परिणमनस्वभावे पर्यायविशेषे, वर्तन्त इति शेषः / तथाहि- धर्माधर्माऽऽकाशास्तिकायानामनादिकालादारभ्य जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थित्युपष्टाभावकाशदानपरिणामेन परिणतत्वादनादिपारिणाभिकभाववर्तित्वं, कालरूपसमयस्याप्यपरापरसमयोत्पत्ति तयाऽवलिकाऽऽदिपरिणामपरिणतत्वादनादिपारिणामिकभाववर्तित्वमेव, व्यणुकाऽऽदिस्कन्धानां सादिकालात्तेन तेन स्वभार्वन परिणामाद् सादिपारिणामिकत्वमेवानादिस्कन्धानांत्वनादिकालात्तेन तेन रूपेण परिणामादनादिपारिणामिकभाववर्तित्वं चेति। आह- किं सर्वेऽप्यजीवाः पारिणामिक एव भावे वर्तन्ते, आहो-स्वित् केचिदन्यस्मिन्नपीत्याह(खंधा उदये विति) स्कन्धा अनन्तपरमाण्वात्मका न तु केवलाणवः, तेषां जीवेनाग्रहणात्। औदयिकेऽप्योदयिकभावेऽपिन केवलं पारिणामिक इत्यपिशब्दार्थः। तथाहि-शरीरादिनामोदयजनित औदारिकाऽऽदिशरीरतयौदारिकाऽऽदीनां स्कन्धानामेवोदय इति भावः। उदय एवौदयिक इति व्युत्पत्तिपक्षे तु कर्मस्कन्धलक्षणेष्वजीवेष्वौदयिकभावो भवतीति भावः। तथाहि-क्रोधाऽऽद्युदये जीवस्य कर्मस्कन्धानामुदयस्तेषामेवीदयिकत्वमिति / नन्वेव कर्मस्कन्धाऽऽश्रिता औपशमिकाऽऽदयोऽपि भावाअजीवानां संभवन्त्यतः तेषामपि भणनं प्राप्नोति-सत्यं तेषामविवक्षितत्वात्, अत एव कैश्विदजीवानां पारिणामिक एव भावोऽभ्युपगम्यत इति। व्याख्याता अजीवाऽऽश्रिता अपि भावाः / कर्म० 4 कर्म०। प्रव०॥ (7) द्विविधभावमाहदुविहो य होइ भावो, लोइय लोउत्तरो समाणेणं / एक केको विय दुविहो, पसत्थओ अप्पसस्थो य / / 464|| Page #1510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव 1502 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावकप्प द्विविधो भवति भावः-लौकिको लोकोत्तरश्चेति। समासतः पुनः एकैको यथासा गृहस्थाहिरण्याऽऽदिपरिहीनासञ्जाता, दुःखभागिनि च द्विविधः- प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च।लौकिकः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्व, एवे लोको- जाता, एवं साधुरपित्रिकेण ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणेनहीनोदुःखस्य भागी त्तरोऽपि / तत्रोदाहरणमुच्यते- "एगम्मि सन्निवेसे दो भाउया वाणिया, भवति / उक्तो लोकोत्तरोऽप्रशस्तः। ते य परोप्परं विरिका / तत्थ एगो गामे गंतूण करिसणं करेइ, अन्नो वि इदानीं लोकोत्तरप्रशस्तभावप्रदर्शनायाऽऽहतहेव। तत्थ एकस्स सुमहिला, अन्नस्सय दुम्महिला। या सादुम्महिला आयरियगिलाणट्ठा, गिण्हइ ण महंति एव जो साहू। सा गोसे उट्ठिया मुहोदग-दंतपक्खालणअद्दागफलिहमाईहिं मंडती णो वण्णरूवहेठ, आहारे एस उपसत्थो / / 501|| अत्थइ, कम्मारगाईणंण किञ्चि विजोगक्खेमं बहति, कल्लेउयं च करेइ। आचार्याऽऽदीनामर्थाय गृह्णाति न ममेदं योग्यं कित्वाचार्याऽऽदेः, एवं अन्नस्स यजा सा सुमहिला कम्मारमाईणं जोगक्खेमं वहइ, अप्पणो य यः साधुर्गलाति, शेषं सुगमम्। उक्तो लोकोत्तरः प्रशस्तो भावः। ओघol सकज्ज मंडणादि करेइ। तत्थजा सा अप्पणो चेव मंडणे लग्गा अत्थइ, स्था०। सूत्र०ा अनु०॥ विशेला आ०म०। (भाव-प्ररूपणाय दृष्टान्ताऽऽतीए अचिरे णं कालेणं घरं परिक्खीणं, इयरीए घरं धणधन्नेण समिद्ध दिसूत्रद्वयम् 'पुरिसजाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1024 पृष्ठे गतम्) जायं। एवं च जो साहू वन्नहेउं रुवहेउं वा आहारं आहारेइ, ण चि आयरिए (गुणस्थानकेषु भावाः 'गुणट्टाण' शब्दे तृतीय-भागे 623 पृष्ठे गताः) णवि बालबुड्डगिलाणदुव्वले पडियग्गति, अप्पणो य गहाय पज्जत्तं (जीवस्थानकेषु भावाः 'जीवट्ठाण' शब्दे चतुर्थभागे 1552 पृष्ठे गताः) णियत्तति, एवं सो अप्पपोसओ, जहा सा चुक्का हिरण्णाईणं एवं सो वि भवनं भावः, भवन्त्यस्मिन्निति वा भावः। कर्मविपाके, दश०१ अ०। निजरालाभो तस्स चुक्किहिति; पसत्थो इमो-जो णो वन्नहेउ रूवहउं / परमार्थे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०॥"सुहवुष्टुिं भावओ गणंतेण" भावतः वा आहारं आहारेइ, बालादीणं दाउं पच्छा आहारेइ. सो णाणदंसण- परमार्थतः / पञ्चा०८ विव० स्वरूपे, आ०म०१ अ० नं० / आव०। चरित्ताण आभागी भवति। एवं पसत्येण भावेण आहारेयव्वो सो पिंडो।" स्वभावे, अनु०। सत्तायाम, विशे०। सूत्र० स० नं०। पञ्चा० / अने०। (8) इदानीमेनमेवार्थ गाथाभिरुपसंहरन्नाह आ०म०। सम्म०। विधौ, "भावाभावमणंता, पण्णत्ता एत्थमंगंसि।" सज्झिलगा दो वणिया, गामं गंतूण करिसणाऽऽरंभो। भावा विधयोऽभावा निषेधाः। भ०४१श०१६६ उ०। विज्ञाने, सम्म० एगस्स देहमंडणबाउसिआ भारिया अलसा / / 465|| 3 काण्ड। "णाणं ति वा संवेयणं ति वा अहि गमो त्ति वा वेयणि त्ति वा मुहधोवणं दंतवणं, अद्दागाईण कल्ल आवासं। भायो त्ति वा एगट्टा।" आ०चू० 10 // ज्ञानाऽऽत्मके निक्षेपभेदे च / उपयोगो भावनिक्षेप इति वचनात्। पिं० पुटवण्हकरणमप्पण, उक्कोसयरं च मज्झण्हे / / 466|| ''भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः। सर्व-हरिन्द्रातणकट्ठहारगाणं, न देह न य दासपेसवग्गस्स। ऽऽदिवदिहेन्दनाऽऽदिक्रियाऽनुभावात् // 1 // " इति। नय पेसणे निउंजइ, पलाणि हिय हाणि गेहस्स ||467|| अत्रायमर्थः- भवनं विवक्षितरूपेण परिणामनं भावः / अथवा- भवति बिइयस्स पेसवगं, वावारे अन्नपेसणे कम्मे। विवक्षितरूपेण संपद्यत इति भावः / कः पुनरयम्? इत्याह-वक्तुर्विवक्षिता काले देहाऽऽहारं, सयं च उवजीवई इड्डी // 498|| इन्दनज्वलनजीवनाऽऽदिकाया क्रिया तस्या अनुभूतिरनुभवनं तया सुगमाः, नवरं 'वाउसिआ' 'विहूसणसीला' / / 465 / / मुखधावनं युक्तो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तः, सर्वज्ञैः समाख्यातः। क इवेत्याहकरोति, तथा (कल्ल त्ति) कल्यपूपकम् आवश्यक पूर्वाण्हे करोत्यात्मना इन्द्राऽऽदिवत्स्वर्गाधिपाऽऽदिवत् / आदिशब्दात् ज्वलनजीवाऽऽदिपचोत्कृष्टतरंच घृतपूर्णाऽऽदि मध्याह्न भक्षयत्येकाकिनी।।४६६।। तृणकाष्ठ- रिग्रहः / सोऽपि कथं भाव इत्याह- इन्दनाऽऽदिक्रियाऽनुभवादिति, हारकाणां न किशिद्ददाति दासवर्गस्य तथा प्रेष्यो यः कश्चित्प्रेष्यते आदिशब्देन ज्वलनजीवनाऽऽदि-क्रियास्वीकारः। विवक्षितेन्दनाऽऽदितद्वर्गस्य च न किञ्चिद्ददाति, न च प्रेषणे कार्ये नियुक्ते कर्मकरान्, क्रियाऽन्वितो लोके प्रसिद्धः पारमार्थिकपदार्थो भाव उच्यते। विशे०। ततश्च भोजनाऽऽदिना विना (पलाणा) नष्टाः, हृतं च यत्किञ्चिद् गृहे __अनु०। आ०म०। (द्रव्याऽऽधारत्वं भावस्य 'अणुओग' शब्दे प्रथमभागे रिक्थमासित, एवं हानिर्जाता गेहस्य, तत्राऽयं लोकिकोऽप्रशस्तो भावः / / 343 पृष्ठे गतम्) ||467 / इदानीं लौकिकप्रशस्तभावप्रतिपादनायाऽऽह- द्वितीयस्य या भावविषयसूचीभार्या सा प्रेष्यवर्ग व्यापारयित्वा प्रेषणाकार्ये कर्मणि च विविधे काले च (1) भावनिर्वचनम्। तेषामाहारं ददाति, स्वयं च काले आहारमुपजीवति। अयं च लौकिकोऽत्र- (2) भावानां सिद्धिप्रतिपादने सर्वशून्यताशङ्किमतम्। प्रशस्तो भाव उक्तः॥४६८|| (3) तत्प्रतिविधानम्। इदानीं लोकोत्तराप्रशस्तभावप्रतिपादनायाऽऽह (4) प्रकारान्तरेण भावान्वाक्यानम् / वण्णबलरूवहेळं, आहारे जो उ लाभि लभंते। (5) भावद्वारम्। अइरेगं ण उ गिण्हइ, पाउग्गगिलाणमादीणं / / 466|| (6) औपशमिकभावानामेव कर्मविषये चिन्तनम्। वर्णबलरूपहेतुमाहारयति यश्च लाभे क्षीराऽऽदौ लभ्यमाने सति प्रायोग्य (7) लौकिकलोकोत्तरयोरपि प्रशस्ताप्रशस्तवर्णनम्। ग्लानाऽऽदीनामतिरिक्तं न गृह्णाति ||466il (8) तत्र वणिग्द्वयदृष्टान्तः। जह सा हिरण्णमाइसु, परिहीणा होइ दुक्खआभागी। भावइया (देशी) धर्मपत्न्याम्, देना०६ वर्ग 104 गाथा। एवं तिगपरिहीणो, साहू दुक्खस्स आभागी।।५००।। भावकप्प पुं० (भावकल्प) "दंसणणाणचरिते, तवपवयणपं Page #1511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकाल 1503 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावकाल चसमितिहिं गुतो। हतरागदोसणिम्ममसमदमणियमद्वितो णिच्च / / 1 / / "इत्युक्तलक्षणे कल्पभेदे, पं०भा०। पं० चू० भाकपअतोवोच्छं दसणणाणचरित्ते, तवपवयणपंचसमितिहिं गुत्तो। हतरागदोसनिम्ममसमदमणियमहिओ निचं।। अणगूहियबलविरिओ, परक्कमति जो जहुत्त साउत्तो। अत्तट्ठकरणजुत्तो, गुणभावणभावणिकंपो।। एयाओ दारगाहाओ। रिद्धीहि कुलिंगीणं,ण य देववतीहि जस्स तू भावो। दंसणविगले जायति, दंसणमाराहियं तेण / / णाणं दुवालसंगं, तं चेव य पवयणं तु संघो वा। गहणम्मि उज्जतो पारतो व्व तह वच्छलो याति // चरणे णिज्जुत्तो मूलगुणेसुं सउत्तरगुणेसुं। ण य अतियारं कुणती, पच्छित्तेणं व सोहिकतं / / तववारसंगजुत्तो, समितीसहितो तिगुत्तिगुत्तोय। रागद्दोसनिहंता, णिममो णियए सरीरे त्ति / / कोहं जिणति खमाए, मद्दवमादीहिँ सेसकलुसो वि। दमणियमा दो वेक्कं इंदिय णोइंदिया होति / / णाणाऽऽदिएहि अणगूहितो तु कम्मरस निज्जरवाए। उज्जमति परक्कमती, घडइत्तिय होति एगट्ठा।। जह सुत्ते णिद्दिट्ठो, तह कुव्वति, जो तु अप्पसाएंतो। सो तु जहुत्ताऽऽउत्तो, एवं मतिमं वियाणेज्जा / / (दाएं) अत्तट्ठा मोक्खट्ठा, ण तु इहलोगाऽऽदिहेतुगं कुणति। करणं जोगतिएणं, जयणाजुत्तो त्ति अववादे / / गुणमूलउत्तरे जा, भावणा पणुवीस णिच्चयादी य। मेत्तीपमोदकारुणमज्झत्थादीहिँ निकंपो।। (दार) एसो तु भावकप्पो, अहवा णाणादितो पुणो तिविहो। दंसणपढम भण्णति, णाणचरित्ता तदायत्ता / / पं०भा० 1 कल्प० / नि००। भावकम्म न०(भावकर्मन्) अवाधामुल्लड्ध्य स्योदयेनोदीरणाकरणेन चोदीः पुद्गलाः प्रदेशविपाकेभ्यो भवक्षेत्र पुद्गलजीवेष्वनुभावं ददतो भावकर्मशब्देनोच्यन्ते, इत्युक्तलक्षणे कर्मभेदे, आचा०१ श्रु०२ अ० 1 उ01 भावकाय पुं०(भावकाय) भावानां कायो भावकायः / कायभेदे, आव०॥ भावकायप्रतिपादनायाऽऽहदुग तिग चउरो पंचव, भावा बहुआ व जत्थ विजंति। सो होइ भावकाओ, जीवमजीवे विभासाओ॥१४४६|| द्वौ त्रयश्चत्वारः पञ्च वा भावा औदयिकाऽऽदयः प्रभूता वाऽन्येऽपि यत्र सचेतनाचेतने वस्तुनि विद्यन्ते स भवति भावकायः / भावानां कायो भावकाय इति / (जीवमजीवे विभासाओ) जीवाजीवयोर्विभाषा खल्वागमानुसारेण कार्येति गाथाऽर्थः / / 1446|| आव०५ अ०॥ भावकाल पु०(भावकाल) भावानामौदयिकाऽऽदीनां स्थितिः कालो भावकालः / कालभेदे, विशे। अथ भावकालमाहसाई सपज्जवसिओ, चउभंगविभागभावणा एत्थं। ओदइयाईयाणं, तं जाणसु भावकालं तु // 2075 / / इहौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावाना या स्थितिरसौ भावकालः। अत एवाऽऽह- सादिः सपर्यवसित इत्यादीनां वक्ष्यमाणस्वरूपाणां चतुर्णा भङ्गकानां याऽसौ विभागभावना कृ भावे को भगःसंभवति, कोवा न संभवति? इत्येवं विषयविभागेनस्थापना। केषामित्याह- औदयिकाऽऽदिभावानाम् तं चतुर्भङ्ग विभागभावनाविषय पुनर्भावकालं जानीहीति नियुक्तिगाथाऽर्थः / / 2075 / / अथ के ते औदयिकाऽऽदिभावानां प्रत्येकं चत्वारो भङ्गाः। का च तेषां विभागभावना? इत्याह भाष्यकार:साई संतोऽणतो, एवमणाई वि एस चउभंगो। ओदइयाईयाणं, होइ जहाजोगमाउजो // 2076|| सादिर्भावः सान्तः, तथा सादिरनन्तः। एवमनादिरपि सान्तोऽनन्तश्च वाच्य इति / एवमेते चत्वारो भगा औदयिकाऽऽदिभावानां यथायोगं यथासंभवमायोजनीयाः।यो यत्र भावो नरकाऽऽदिगतिमाश्रित्य संभवति स तत्र वाच्यः, शेषस्तु निषेधनीय इति / / 2076 // अत एवैतेषां भङ्गकानामौदयिकाऽऽदिभावेषु विभागभावानां विषयविभागस्थापना चिकीर्षुराहजो नारगाइभावो, तह मिच्छत्ताऽऽदओ वि भव्वाणं। ते चेवाभव्वाणं, ओदइओ वितियवज्जोऽयं / / 2077 / / औदयिको भावः सादिरपर्यवसितोन क्वचित्संभवत्यतएव द्वितीयभङ्गकवर्जा ऽयं द्रष्टव्यः / तत्र यो नारकाऽऽदिभावो नारकतिर्यग्नरामरगतिलक्षणोय औदयिको भाव इत्यर्थः, स सादिः सपर्यवसान इति द्रष्टव्यम्। नारकाऽऽदीनां प्रत्येकं सर्वेषामपिसादित्वात्सान्तत्यान्चेति सादिरपर्यवसान इति द्वितीयो भङ्गः शून्यः। तथा मिथ्यात्वाऽऽदयोऽपि भव्यानां तृतीयः, इदमुक्तं भवति-मिथ्यात्वं, कषायाः वेदत्रयम् अज्ञानासंयतत्वासिद्धत्वानि, लेश्याश्चेत्येवं यः सप्तदशविध औदयिको भावः स भव्यानाश्रित्य अनादिसपर्यवसानः अभव्यानाश्रित्य पुनः स एवानादिरपर्यवसानश्चेति // 2077 // औपशमिकाऽऽदीनाश्रित्याऽऽहसम्मत्तचरित्ताई, साई संतो य ओवसमिओऽयं / दाणाइलद्धिपणगं, चरणं पि य खाइओ भावो।।२०७८|| सम्मत्तनाणदंसणसिद्धत्ताइंतु साईओऽणंतो। नाणं केवलवजं, साई संतो खओवसमो // 2076 / / मइअन्नाणाईया, भव्वाभव्वाण तइयचरमोऽयं / सव्वो पोग्गलधम्मो, पढमो परिणामिओ होइ॥२०५०।। भव्वत्तं पुण तइओ, जीवाऽभव्वाइँ चरमभंगो उ। भावाणमयं कालो, भावावत्थाणओऽणण्णो / 2051 / / सम्वक्त्वचारित्रेसमाश्रित्य सादिः सपर्यवसान इतिप्रथमभङ्ग एवौपशमिको भावः संभवति, प्रथमसम्यक्त्वलाभकाले उपशमश्रेण्या चौपशमिकसम्यक्त्वस्योपशमश्रेण्यांतुचारित्रल्योपशमिकस्यलाभात्तयोश्वावश्यं सादिसपर्यवसितत्वात्। ततः शेषास्त्रयो भङ्गा इह शून्या एव। न केवलमौपशमिकतथा, Page #1512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावगुण 1504 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणय क्षायिकोऽपि भावः क्षीणमोहभवस्थकेवलावस्थायां दानलाभभोगो- भावग्ग न०(भावाय) भाव एवाग्रं भावाग्रम्। अग्रभेदे, तत्त्रिविधम्-प्रधानागं, पभोगवीर्यलब्धिपञ्चक चारित्रं चाऽऽश्रित्य सादिसपर्यवसितत्वलक्षणे __भूतागं, उपकाराग्रच। (तानिच 'अग्ग' शब्दे प्रथमभागे 164 पृष्ठेगतानि) प्रथमभङ्गे वर्तत इति / ननुचारित्रसिद्धस्याप्यस्तीति तदाश्रित्यापर्य- शब्दे, नि०चू० 1 उ०। आचाoभावयुतमग्रं भावाग्रम्। क्रमागभेदे नि०चू० वसान एवायं किमिति न भवति? इति चेत्, तदयुक्तम्, "सिद्धे नो / १उ०। चरित्ती नो अचरित्ती'' इति वचनादिति। क्षायिकसम्यक्त्वकेवलज्ञान- | भावचूला स्त्री०(भवाचूडा) चूडाभेदे, आचाराङ्ग चूलिकामधिकृत्यभावकेवलदर्शनसिद्धत्वानि पुनः सिद्धाऽवस्थायामपि भवन्त्यतस्तान्याश्रित्य चूडा त्वियमेव क्षायोपशमिकभाववर्तित्वात् / आचा०२ श्रु०१ चू०१ क्षायिको भावः सादिरपर्यवसान इति द्वितीयेऽपिभङ्गे वर्तते / शेषौ तु अ० 1 उ०। नि०चून द्वाविह शून्यावेव। अन्ये तु दानाऽऽदिलब्धिपञ्चकं चारित्रं च सिद्धस्या- | भावचंचलपुं०(भावचञ्चल) भावतश्चञ्चले, चञ्चलभेदे, बृ० १उ०। ('चंचल पीच्छन्ति, तदावरणस्य तत्राप्यभावात्, आवरणाभावेऽपि च तदसत्त्वे __ शब्दे तृतीयभागे 1061 पृष्ठे व्याख्या गता) क्षीणमोहाऽऽदिष्वपि तदसत्त्वप्रसङ्गात्. ततस्तन्मतेन चारित्राऽऽदीनां भावजण्ण पुं०(भावयज्ञ) परमार्थयागे, पञ्चा० 8 विव०। प्रति०। सिद्ध्यवस्थायामपिसद्भावेनापर्यवसितत्वादेकस्मिन् द्वितीय भङ्ग एव इत्थं चैषोऽधिकत्यागात्सदारम्भः फलान्वितः। क्षायिको भावो, न शेषेषु त्रिष्विति / केवलवर्जानि शेषाणि चत्वारि प्रत्यहं भाववृद्ध्याऽऽप्तैवियज्ञः प्रकीर्तितः ||6|| ज्ञानान्याश्रित्य क्षायोपशमिको भावःप्रथमे भड़े वर्तते। सादिरनन्त इति (इत्थमिति) इत्थं च यतनावत्त्वे च, एष प्रकृत आरम्भः, अधिकत्यागाद्वितीयभङ्गोऽत्रापि शून्यः / मतिश्रुताज्ञाने समाश्रित्य भव्यानामनादिः निष्फलाधिकाऽऽरम्भनिवृत्तेः। फलान्वितः श्रेयःफलयुक्तः सदारम्भः, सान्तश्चेति तृतीयभङ्गः। अभव्यानां तु ते एवाङ्गीकृत्यानादिरनन्त इति प्रत्यहं प्रतिदिवसं, भाववृद्ध्या कृताकृतप्रत्युपेक्षणाऽऽदिशुभाशयाचरमश्चतुर्थो भङ्ग इति / सर्वोऽपि पुद्गलधर्मो द्वयणुकाऽऽदिपरिणामः नुबन्धरूपया आप्तैः साधुभिः, भावयज्ञो भावपूजाऊपः प्रकीर्तितः / सादिः सान्तश्चेति प्रथमः परिणामिकभावभङ्गो भवति / सादिरनन्त तदाह-"एतदिह भावयज्ञः।" इति। न चैवं द्रव्यस्तवव्यपदेशानुपपत्तिः, इतीहापि द्वितीयो भङ्गः शून्यः। भव्यत्वमाश्रित्य पुनरनादिःसन्ति इति द्रव्यभावयोरन्योऽन्यसमनुवेधेऽपि द्रव्यप्राधान्येन तदुपपादनादिति तृतीयो भङ्गः।"सिद्धेनो भव्वे नो अभव्ये" इति वचनात्सिद्धावस्थायां द्रष्टव्यम्॥६॥ द्वा०५द्वा०। भव्याभव्यत्वनिवृत्तेः। जीवत्वमभव्यत्वं चानादिरनन्त इति चरमश्चतुर्थों भावजोगि(ण) पुं०(भावयोगिन्) तात्त्विकगुणशालिनि, "विशुद्ध भावभङ्गः। तदेवं वर्णितोऽयं भावानामौदयिकाऽऽदीनां कालः। ननु सादिसप योगिषु।'' द्वा० 21 द्वा० र्यवसानाऽऽदिकमवस्थानाऽऽदिकमेवेदं भावानां, कथं पुनरेयं कालः ? भावण न०(भावन) भू-णिच्- ल्यु / फलभेदे, भावे ल्युट् / चिन्ताभेदे इत्याह- भावावस्थानतोऽनन्योऽभिन्नः। यदेव हि जीवाजीवाऽऽदिभावा युच / चिन्तायाम्, अधिवासने, ध्याने, पर्यालोचनायाम्, वाचा नामवस्थानमयमेषकालो नान्य इत्यतस्तद्गणनेऽभिहित एव भावकाल अभ्यासे, द्वा० 25 द्वा०। वैद्यकोक्त औषधसंस्करभेदे, स्वी। वाचा इति // 2074|| 2076 / / 2080 / / 2081|| विशे० / आ०म०/ भावणज्झयण न०(भावनाऽध्ययन) बन्धदशानां सप्तमेऽध्ययने, स्था० भावकुसल पुं०(भावकुशल) भावबुद्धिमति, दर्श०। भावकुशलो बाह्य 10 ला०। पञ्चमहाव्रतभावनानां प्रतिपादके आचाराङ्गस्य द्वितीयाग्रश्रुतचेष्टया मनोभावमुपलभ्य तथा प्रवर्त्तते यथा अभिनवधर्मश्रद्धावतो भाव स्कन्धस्य पञ्चदशेऽध्ययने, आचा०२ श्रु०३ चू०। आव० बुद्धिरुपजायते। दर्श०३ तत्व। तीर्थकरे च। नि०चू० 1 उ०। भावणय पुं०(भावनय) नयभेदे, उत्त० 1 अ० भावनय आहभावकेउपुं०(भावकेतु) अष्टाशीतितमे महाग्रहे, "दोभावकेऊ।" स्था० "सम्यग्विवेच्यमानोऽत्र, भाव एवावशिष्यते / पूर्वापरविविक्तस्य, 2 ठा०३ उ०। चं०प्र० / सू०प्र०। यतस्तस्यैव दर्शनम् // 11 // " तथाहि- भावः पर्यायः, तदात्मकमेव च भावग पुं०(भावक) भावः स्वार्थेकन् / मानसविकारे, पदार्थचिन्तके च, | द्रव्यं, तदतिरिक्तमूर्तिकं हि तत् दृश्यमदृश्यं वा? यदि दृश्य, नास्ति उत्पादके, त्रि०ावाचा पाटलाऽऽदिके गन्धद्रव्ये, आ० चू० ३अ०॥ तद्व्यतिरेकेणानुपलभ्यमानत्वात्, खरविषाणवत्, न हि चलितमीलितभावगइस्त्री०(भावगति) भवन्ति भविष्यन्ति भूवन्तश्चेति भावाः। अथवा- पटीकृतत्रुटितसंघटिताऽऽदिविचित्रभवनबहिर्भूतमिह सूत्राऽऽदिद्रव्यमुपभवन्त्येतेषु स्वागता उत्पादविगमध्रौव्याऽऽख्याः परिणामविशेषा इति लभ्यमस्ति अदृश्यमपि नास्ति, तत्साधक-प्रमाणाभावात् षष्ठभूतवत्, भावा अस्तिकायास्तेषां गतिस्तथापरिणामवृत्तिविगतिः / अस्ति- ततः प्रतिसमयमुदयव्ययाऽऽत्मकं स्वयं भवनमेव भावाऽऽख्यमस्ति / कायानां गतिपरिणामवृत्तौ, दश०१ अ० उत्त०१अ० भावगुण पुं०(भावगुण) भावा औदयिकाऽऽदयस्तेषां गुणो भावगुणः / भावनयः प्राऽऽहगुणभेदे, सच द्विविधो जीवाजीवविषयभेदात्। आचा० 1 श्रु०२ अ०१ भावत्थंतरभूअं, किं दव्वं नाम भाव एवायं / उ०। (ते च 'गुण' शब्दे तृतीयभागे 606 पृष्ठे दर्शिताः) __ भवनं पइक्खणं चिय, भावावत्ती विवत्ती य॥६९।। Page #1513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणय 1505 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणय भावेभ्यः पयायेभ्योऽर्थान्तरभूतं भिन्नं किं नाम द्रव्यम्? येनोच्यते- / 'दव्वपरिणाममित्तमित्यादि ? ननुभाव एवाऽयं यदिदं दृश्यते त्रिभुवनेऽपि वस्तुनिकुरम्बमिति। यदि हि किञ्चिदनादिकालीनमवस्थितं सद् वस्तु वस्त्वन्तराऽऽरभ्भे व्यप्रियेत, तदा न्याय्या स्यादियं कल्पना, यावता प्रतिक्षणं भवनमेवाऽनुभूयते। किमुक्तं भवति? इत्याह- भावस्यैकस्य पर्यायस्याऽऽपत्तिरुद्भुत्तिः, अपरस्य तु विपत्तिर्विनाशः / 'ननिहाणगया भग्गा, पुजोनत्थि अणागए। निव्वुया नेय चिट्ठति, आरगे सरसवोवमा' / / 1 / / इति वचनात् पूर्वस्य क्षणस्य निवृत्तिः, अपरस्य तूत्पत्तिरित्यर्थः।। इति गाथाऽर्थः।।६।। आह-ननु ये भावस्याऽऽपत्ति- विपत्ती प्रोच्यते, ते तावद्धत्वन्तरमपेक्ष्य | भवतः, यच्च हेत्वन्तरमपेक्षते तदेवाऽवस्थितं कारणं, तदेव द्रव्यम्, अतो 'भावत्थंतरभूअं किं दव्वम्' इत्यादिनाऽऽयुक्तमेव द्रव्यमपाक्रियते ; इत्याशक्याऽऽहन य भावो भावंतरमवेक्खए किंतु हेउनिरवेक्खं / उप्पजइ तयणंतरमवेइ तमहेउअंचेव // 7 // न च भावो घटाऽऽदिरुत्पद्यमानो भावान्तरं मृत्पिण्डाऽऽदिकमपेक्षते, किन्तु निरपेक्ष एवोत्पद्यते / अपेक्षा हि विद्यमानस्यैव भवति / न च / मूत्पिण्डाऽऽदिकारणकाले घटाऽऽदि कार्यमस्ति, अविद्यमानस्य चाऽsपेक्षायां खरविषाणस्याऽपि तथा-भावप्रसङ्गात् / यदि चोत्पत्तिक्षणात् प्रागपि घटाऽऽदिरस्ति, तर्हि किं मृत्पिण्डाऽद्यापेक्षया? तस्य स्वत एव विद्यमानत्वात्। अथोत्पन्नः सन घटाऽऽदिः पश्चाद् मृत्पिण्डाऽऽदिकमपेक्षते। हन्त ! तदिदं मुण्डितशिरसो दिनशुद्धिपर्यालोचनम्, यदि हि स्वत एव कथमपि निष्पन्नो घटाऽऽदिः, किं तस्य पश्चाद् मृत्पिण्डाऽऽद्यपेक्षया? अथोल्पद्यमानताऽवस्थायामसौ तमपेक्षते, केयं नामोत्पद्यमानता? न तावदनिष्पन्नावयवता, खयमनिष्पन्नस्य खरविषाणस्येवाऽपेक्षाऽयोगात्। नापि निष्पन्नावयवता, स्वयं निष्पन्नस्य परापेक्षोवैयात् / नाप्यर्द्धनिष्पन्नाऽऽवयवता, वस्तुनः सांशताप्रसङ्गात्; तत्र चाऽवयविकल्पनाऽऽदावनेकदोषोपनिपातसम्भवात् / किञ्चसांशतायामपि किमनिष्पनोऽशः कारणमपेक्षते, निष्पन्नो वा, उभयं वा? न तावदाद्यपक्षद्वयम्, निष्पन्नाऽनिष्पन्नयोरपेक्षायाः प्रतिषिद्धत्वात्। उभयपक्षोऽपि न श्रेयान्, उभयपक्षोक्तदोषप्रसङ्गात् / तस्माद् मृत्पिण्डाऽऽद्युत्तरकालं भवनमेव घटाऽऽदेस्तदपेक्षा, मृत्पिण्डाऽऽदेरपि कार्यत्वाभिमताद् घटाऽऽदेः प्रागभावित्वमेव कारणत्वम्, न पुनर्घटाऽऽदिजन्मनि च्याप्रियमाणत्वम्। व्यापारो हि तद्वतो भिन्नः, अभिन्नो वा? यदि भिन्नः, तर्हि तस्य निर्व्यापारताप्रसङ्गः। अथाऽभिन्नः, तर्हि व्यापाराभावः / कारणव्यापारजन्य जन्माऽपि जन्मवतो भिन्नम्, अभिन्नं वा? भेदे जन्मवतोऽजन्मप्रसङ्गः / अभेदे तु जन्माभावः। तस्मात् पूर्वोत्तरकालभावित्वमात्रेणैवाऽयं कार्यकारणभावो वस्तूनां लोके प्रसिद्धः, न जन्यजनकभावेन / यदपि मृत्पिण्डघटाऽऽदीनां पूर्वात्तरकालभावित्वम्, तदप्यनादिकालात् तथाप्रवृत्तक्षणपरम्पराऽऽरूढम्. न पुनः कस्यचित् केनचिद् निर्वर्तितम्, इति नकस्यचित्भावस्य कस्यापि सम्बन्धिन्यपेक्षा। ततो हेत्वन्तरनिरपेक्ष एव सर्वो भावः समुत्पद्यत इति स्थितम्। विनश्यतितर्हि कथम् ? इत्याह'तयणंतरमित्यादि।' तदनन्तरमुत्पत्तिसमनन्तरमेवाऽपैति विनश्यति भावः / तदपि च विनशनमहेतुकमेव। मुद्रोपनिपाताऽऽदिसव्यपेक्षा एव घटाऽऽदयो विनाशमाविशन्तो दृश्यन्ते, न निर्हेतुकाः, इति चेद्। नैवम्, विनाशहेतोरयोगात्। तथाहिमुहूराऽऽदिना विनाशकाले किं घटाऽऽदिरेव क्रियते, आहोस्वित् कपालाऽऽदयः, उत तुच्छरूपोऽभावः? इति त्रयी गतिः। तत्र न तावद् घटाऽऽदिः, तस्य स्वहेतुभूतकुलालाऽऽदिसामग्रीत एवोत्पत्तेः / नापि कपालाऽऽदयः, तत्करणे घटाऽऽदेस्तदवस्थत्वप्रसङ्गात्, न ह्यन्यस्य करणेऽन्वस्य निवृत्तियुक्तिमती, एकनिवृत्तौ शेषभुवनत्रयस्याऽपि निवृत्तिप्रसङ्गात्, नापि तुच्छरूपोऽभावः खरशृङ्गस्येव नीरूपस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वाल, करणे वा घटाऽऽदेस्तदवस्थताप्रसङ्गात् अन्यकरणेऽन्यनिवृत्त्यसम्भवात्। घटाऽऽदिसम्बन्धेनाऽभावो विहितस्तेन घटाऽऽदेर्निवृत्तिः, इति चेत्। न, सम्बन्धस्यैवाऽनुपपत्तेः, तथाहि- किं पूर्व घट: पश्चादभावः, पथाद्वा घटः पूर्वमभावः, समकालं या घटाभावी? इति विकल्पत्रयम्।तत्राऽऽद्यविकल्पद्वयपक्षे सम्बन्धानुपपत्तेरिव, सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वेनभिन्नकालयोस्तदसम्भवात्, अन्यथा भविष्यच्छड्स चक्रवादीनामतीतैः सगराऽऽदिभिरपि सम्बन्धप्राप्तेः / तृतीयविकल्पपपक्षेऽपि घटाऽभावयोर्यदिक्षणमात्रमपि सहावस्थितिरभ्युपगम्यते, तह्यसिंसारमप्यसौ स्यात, विशेषाभावात, तथा चसति स एवघटाऽऽदेस्तादवस्थ्यप्रसङ्गः। घटाऽऽधुपमर्दनाऽभावो जायते, अतो घटाऽऽदिनिवृत्तिः, इति चेत् / ननु कोऽयमुपमर्दोनाम? न तावद् घटाऽऽदिः, तस्य स्वहेतुत एवोत्पत्तेः। नापि कपालाऽऽदयः, तद्भावे घटाऽऽदेस्तादवस्थ्यप्रसङ्गात्। नापि तुच्छरूपोऽभावः, एवं हिसति घटाऽऽद्यभावेनघटाऽऽद्यभावोजायत इत्युक्तं स्यात्, न चैतदुच्यमानं हास्यं न जनयति, आत्मनैवाऽऽत्मभवनानुपपतेः। तस्माद् मुद्राऽऽदिसहकारिकारणवैसदृश्यात् विसदृशः कपालाऽऽदिक्षण उत्पद्यते घटाऽऽदिस्तु क्षणिकत्वेन निर्हेतुकः स्वरसत एव निवर्तते, इत्येतायन्मात्रमेव शोभनम्। अतो हेतुव्यापारनिरपेक्षा एवसमुत्पन्ना भावाः क्षणिकत्वेन स्वरसत एव विनश्यन्ति, न हेतुच्यापारात, इति स्थितम्। तस्माजन्मविनाशयोकिञ्चित् केनचिदपेक्ष्यते, अपेक्षणीयाभावाच्च न किञ्चित् कस्यचित् कारणम् / तथा च सति न किञ्चित् द्रव्यम्, किन्तु पूर्वापरीभूताऽपरापरक्षणरूपाः पर्याया एव सन्त इति / अत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनतामयात्, सुगतशास्त्रेषु विस्तरेणोक्तत्याच इति गाथाऽर्थः // 70 / / यदपि द्रव्यवादिना 'पिंडो कारणमिट्ट, पयंच परिणामओ' इत्याधुक्तम्, तत्राऽस्माभिरप्येतद् वक्तुं शक्यत एवेति किम्? इत्याहपिंडो कजं पइसमयभावाउ जह दहिं तहा सव्वं / कजाभावाउ नत्थि, कारणं खरविसाणं व॥७१।। मृदादिपिण्डः कार्यमेव, न तु कारणम् / कुतः? इत्याह- प्रतिसमयमपरापरक्षणरूपेण भावात्, दध्यादिवदिति / प्रतिसमयमपरापरक्षणभवनमसिद्धमिति चेत्। न, वस्तूनां पुराणाऽऽदिभावाऽन्यथाऽनुपपत्तेः / उक्तंच'प्रतिसमयं यदि न भवे-दपरापररूपतेह वस्तूनाम् / न स्यात् पुराणभावो, न युवत्वं नापि वृद्धत्वम्॥१॥ जन्मानन्तरसमये, न स्याद् यद्यपररुपताऽर्थानाम्। तर्हि विशेषाभावाद्, न शेषकालेऽपि सा युक्ता // 2 // " किं पिण्ड एव कार्य म्? न, इत्याह- तथा सर्व , यथाप्रतिसमयं भावात् पिण्ड : कार्य तथा सर्वमपि घट पट15 Page #1514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा 1506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा दिकं वस्तुनिकुरम्बम्, ततएव हेतोः कार्यत्वमपि द्रष्टव्यमित्यर्थः। अनभिमतप्रतिषेधमाह- 'कजाभावाउ' इत्यादि पराभ्युपगतं कारणं कारणाऽऽख्यं वस्तु नास्ति। कुतः? इत्याह- कार्याभावात्तत्र कार्यत्वाऽभ्युपगमाभावात् प्रतिसमयभवनानभ्युपगमादित्यर्थः / इह यत् प्रतिसमयमपरापररूपेण नभवतितद्वस्तु नास्ति, यथा खरविषाणम्, प्रतिसमयमभवन्तश्चाऽभ्युपगम्यन्ते परैर्मृत्पिण्डाऽदयः, तस्माद् न सन्तीति भावः / इति गाथाऽर्थः // 71 / / विशे०। भावणा स्त्री०(भावना) परिकर्मणि, ब्र०ा परिकर्मेति वा भावनेति वा एकार्थमिति।बृ०१उ०२ प्रकला विशे० वासनायाम्, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०भावना वासनेत्यनर्थान्तरमिति। आव०४ अ०। विशे० आचा०। अध्यवसाये, आचा० १श्रु०८ अ०६ उ०1 आ०म० षो०। (1) भाव्यतेऽनयेति भावना / परिच्छेदे, आव० 4 अ० भाव्यत इति भावना। अभ्यासक्रियायाम, आव०४ अ० सम्यक्रियाऽभ्यासे, उत्त०१४ अ० द्वा०। पुनः पुनश्चिन्तने, संघा० 1 अधि०१प्रस्ता०। पं०व०। अव्यवच्छिन्नपूर्वपूर्वतरसंस्कारस्य पुनः पुनस्तदनुष्ठानरूपा भावनेति। अनु०॥ आलोचनायाम, प्रश्न०५ संव० द्वार / अनुप्रेक्षायाम्, ध०३ अधिol आत्मगुणभेदे, सम्म० / भावनासंज्ञः पुनरात्मगुणो ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च दृष्टानुभूतश्रुतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानकार्योन्नीयमानसद्भावः। सम्म०३ काण्ड। अन्तः करणवृत्तिभेदे च। सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। अध्यात्मानुवर्तने, द्वा०ा 'अभ्यासौ वृद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः। निवृत्तिरशुभाभ्यासाद्भाववृद्धिश्च तत्फलम्।।६॥ द्वा०१८ द्वा०। पौनः पुन्येनानित्यत्वाऽऽदिप्रकारतो भावनैर्गुण्यपरिभावनायाम, विशे० / भाव्यन्ते मुमुक्षुभिरभ्यस्यन्ते इति भावनाः / अनित्यत्वाऽऽदिके, ओघका प्रव०। धo| ग०। आव०। सूत्रा आचाo) (2) भावनायां नामाऽऽदिचतुर्विधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्यादनादृत्य द्रव्याऽऽदिनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहदव्वं गंधंगतिलाइएसु सीउण्हविसहणाईसु। भावम्मि होइ दुविहा, पसत्थ तह अप्पसत्था य॥३२७।। तत्र द्रव्यमिति द्रव्यभावना नोआगमतो व्यतिरिक्ता गन्धाङ्ग:- जातिकुसुमाऽऽदिभिर्द्रव्यैस्तिलाऽऽदिषु द्रव्येषु या वासना सा द्रव्यभावनेति। तथा शीतेन भावितः शीतसहिष्णुरुष्णेन वा उष्णसहिष्णुर्भवतीति। आदिग्रहणाद्व्यायामक्षुण्णदेही व्यायामसहिष्णुरित्याद्यन्येनापिद्रव्येण द्रव्यस्य या भावना साद्रव्यभावनेति। भावेतु-भावविषया प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विरूपा भावनेति। तत्राप्रशस्तां भावभावनामधिकृत्याऽऽहपाणिवहमुसावाए, अदत्त मेहुण परिग्गहे चेव। कोहे माणे माया, लोभे य हवंति अपसत्था / / 328|| प्राणिवधाऽऽद्यकार्येषु प्रथम प्रवर्त्तमानः साशङ्कः प्रवर्तते पश्चात्पौनः पुन्यकरणतया निःशङ्कः प्रवर्तते। तदुक्तम्कारोत्यादौ तावत्सघृणहृदयः किञ्चिदशुभं, द्वितीयं सापेक्षो विमृशति च कार्यं च कुरुते। तृतीयं निःशको विगतघृणमन्यत् प्रकुराते, ततः पापाभ्यासात्सततमशुभेषु प्ररमते।।१।। प्रशस्तभावनामाहदंसणणाणचरित्ते, तववेरग्गे य होइ उपसत्था। जाय जहा ता य तहा, लक्खण वोच्छं सलक्खणओ॥३२६।। दर्शनज्ञानचारित्रतपोवैराग्याऽऽदिषु या यथा च प्रशस्तभावना भवति तां प्रत्येक लक्षणतो वक्ष्ये इति। दर्शनभावनार्थमाहतित्थगराण भगवओ, पवयणपावयणिअईसइड्डीणं / अहिगमणनमणदरिसणकित्तणसंपूयणाथुणणा // 330 // तीर्थकृतां भगवतां प्रवचनस्य च द्वादशाङ्गस्य गणिपिटकस्य, तथा प्रावचनिनामाचार्याऽऽदीनां युगप्रधानानां, तथातिशायिनामृद्धिमतां केवलिमनःपर्यायावधिमच्चतुर्दशपूर्वविदां तथाऽऽमर्षोषध्यादिप्राप्तऋद्धीनां यदभिगमनं गत्वा च दर्शनं तथा गुणोत्कीर्तन सम्पूजनं गन्धाऽऽदिना स्तोत्रैः स्तवनमित्यादिका दर्शनभावना, अनया हि दर्शनभावनयाऽनवरतं भाव्यमानया दर्शनशुद्धिर्भवतीति। किंचजम्माभिसेयणिक्खमणचरणणाणुप्पया य णिव्वाणे। दिअलोअभवणमंदिरणंदीसरभोभणगरेसुं॥३३१॥ अट्ठावयमुग्जिंते, गयग्गपयए य धम्मचक्के य। पासरहावत्तणगं, चमरुप्पायं च वंदामि॥३३२॥ तीर्थकृतां जन्मभूमिषु तथा निष्क्रमणचरणज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणभूमिषु तथा देवलोकभवनेषु तथा मन्दिरेषु तथा नन्दीश्वरद्वीपाऽऽदौ भौमेषु च पातालभवनेषु यानि शाश्वतानि चैत्यानि तानि वन्देऽहमिति द्वितीयगाथायामन्ते क्रियेति। एवमष्टापदे, तथा श्रीमदुज्जयन्तगिरौ 'गजाग्रपदे' दशार्णकूटवर्तिनि तथा तक्षशिलायां धर्मचक्रे तथा अहिच्छत्रायां पार्थनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थाने, एवं रथावर्ते पर्वत वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतं यत्र च श्रीमद्-वर्द्धमानमाश्रित्य चमरेन्द्रेणोत्पतनं कृतम्, एतेषु चस्थानेषुयथा-सम्भवमभिगमनवन्दनपूजनगुणोत्कीर्तनाऽऽदिकाः क्रियाः कुर्वतो दर्शनशुद्धिभर्वतीति। किंचगणियं णिमित्त जुत्ती, संदिट्ठी अवितह इमं णाणं। इय एगंतमुवगया, गुणपत्रइया इमे अत्था / / 333 / / गुणमाहप्पं इसिणामकित्तणं सुरणरिंदपूया य। पोराणचेइयाणि य, इइ एसा दंसणे होइ॥३३४।। प्रवचनविदाममी गुणप्रत्ययिका अर्था भवन्ति / तद्यथा- गणितविषये वीजगणिताऽऽदौ परं पारमुपगतोऽयं, तथा अष्टाङ्गस्य निमित्तस्य पारगोऽयं, तथा दृष्टिपातोक्ता नानाविधा युक्तीर्द्रव्यसंयोगान् हेतून्वा वेत्ति, तथा सम्यगविपरीता दृष्टिदर्शनमस्य त्रिदशैरपि चालयितुमशक्या तथा अवितथमस्येदं ज्ञानं यथैवायमाह तत्तथैवेत्येवं प्रावचनिकस्याऽऽवार्याऽऽदेः प्रशंसां कुर्वतो दर्शनविशुद्धिर्भवतीति, एवमन्यद Page #1515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा 1507 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा पि गुणमाहात्म्यमाचार्याऽऽदेवर्णयतस्तथा पूर्वमहर्षीणां च नामोत्कीर्तनं कुर्वतस्तेषामेव च सुरनरेन्द्रपूजाऽऽदिकं कथयतस्तथा चिरंतनचैत्यानि पूजयत इत्येवमादिकां क्रिया कुर्वतस्तद्वासनावासितस्य दर्शनविशुद्धि- | र्भवतीत्येषा प्रशस्ता दर्शनविषयां भावनेति। ज्ञानभावनामधिकृत्याऽऽहतत्तं जीवाऽजीवा, वायव्वा जाणणा इहं दिट्ठा। इह कज्जकरणकारगसिद्धी इह बंधमोक्खो य // 335|| बद्धो य बंधहेऊ, बंधणबंधप्फलं सुकहियं तु / संसारपवंचो विय, इहवं कहिओ जिणवरेहिं / / 336 / / णाणं भविस्सई एवमाझ्या वायणाइयाओ य / सज्झाए आउत्तो, गुरुकुलवासो य इय णाणे // 337 / / तत्रज्ञानस्य भावनां ज्ञानभावना-एवंभूतं मौनीन्द्रज्ञानं प्रवचनं यथाऽवस्थिताशेषपदार्थाऽऽविर्भावकमित्येवंरूपेति, अनया च प्रधानमोक्षाङ्गं सम्यक्त्वमाधिगमिकमाविर्भवति। यतस्तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन, तत्त्वं च जीवाजीवाऽऽदयोनवपदार्थाः, ते चतत्त्वज्ञानार्थिना सम्यग्ज्ञातव्याः, तत्परिज्ञानमिहैवाऽऽर्हतप्रवचने दृष्टम् - उपलब्धमिति, तथेहैवाऽऽर्हत प्रवचने कार्य परमार्थरुपं मोक्षाऽऽख्यं तथा करणं क्रियासिद्धो प्रकृष्टोषकारकं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, कारकः साधुः सम्यग्दर्शनाऽऽद्यनुष्ठाता, क्रियासिद्धिश्चहैव मोक्षावाप्तिलक्षणा, तामेव दर्शयति-बन्धः कर्मबन्धनं तस्मान्मोक्षः कर्मविचटनलक्षणोऽसावपीहैव, नान्यत्र शाक्याऽऽदिकप्रवचने भवतीति, इत्येवंज्ञानं भावयतो ज्ञानभावना भवतीति / तथा बद्धोऽष्टप्रकारकर्मपुद्गलैः प्रतिप्रदेशमवष्टब्धो जीवः, तथा बन्धहेतवो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः, तथा बन्धनमष्टप्रकारकर्मवर्गणारूपं तत्फलं चतुर्गतिसंसारपर्यटनसातासाताऽऽद्यनुभवनरूपमिति, एतत्सर्वमत्रैव सुकथितम् अन्यद्वा वत्किञ्चित् सुभाषित्त तदिहैव प्रवचने अभिहितमिति ज्ञानभावना। तथा विचित्रसंसारप्रपञ्चोत्रैव जिनेन्द्रः कथित इति // तथा ज्ञानं मम विशिष्टतरं भविष्यतीति झानभावना विधेया, ज्ञानमभ्यसनीयवमित्यर्थः। आदिग्रहणादेकाग्रचित्तताऽऽदयो गुणा भवन्तीति, तथैतदपि ज्ञाने भावनीयं, यथा- "जं अन्नाणी कम्मवदेइ" इत्यादि, तथैभिश्च कारणैर्ज्ञानमभ्यसनीयं, तद्यथाज्ञानसंग्रहार्थ निर्जरार्थम् अव्यवच्छित्यर्थ स्वाध्यायार्थमित्वादि, तथा ज्ञानभावनया नित्यं गुरुकुलवासो भवति / तथा चोक्तम्- "णाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवास न मुंचंति / / 1 / / '' इत्यादिका ज्ञानविषया भावना भवतीति। चारित्रभावनामधिकृत्याऽऽहसाहुमहिंसाधम्मो, सचमदत्तबिरई य बंभं च। साहुपरिग्गहविरई, साहु तवो वारसंगो य॥३३८|| वेरग्गमप्पमाओ, एगत्ता भावणा य परिसंग। इय चरणमणुगताओ, भणिया एत्तो तवो वोच्छं // 336 / / साधु शोभनोऽहिंसाऽऽदिलक्षणो धर्म इति प्रथमव्रतभावना / तथा | सत्यमस्मिन्नेवाऽऽर्हते प्रवचने साधु शोभनं नान्यत्रेति। द्वितीयव्रतस्य, तथा अदत्तविरतिश्चात्रैव साध्वीति तृतीयस्य, एवं ब्रह्मचर्यमप्यत्रैव नवगुप्तिगुप्तं धार्यत इति। तथा परिग्रहविरतिश्चेहैव साध्वीति, एवं द्वादशाङ्ग तप इहैव शोभनं नान्यत्रेति, तथा वैरण्यभावना सांसारिकसुखजुगुप्सारूपा, एवमप्रमादभावना मद्याऽऽदिप्रमादानां कर्मबन्धोपादानरूपाणामनासेवनरूपा, तथैकान्नभावना- "एगो मे सासओ अप्पा, णाणदसणसजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा // 1 // " इत्यादिका भावनाश्वरणमुपगतावरणाऽऽश्रिताः इत क्रय तपोभावना वक्ष्ये अभिधास्य इति। किह मे हविज्जऽवंझो, दिवसो किं वा पहू तवं काउं? को इह दव्वे जोगो, खेत्ते काले समयभावे / / 340 / / कथं केन निर्विकृत्वादिना तपसा मम दिवसोऽबन्ध्यो भवेत्? कतरदा तपोऽहं विधातुं प्रभुःशक्तः? तय कतरत्तपःकस्मिन् द्रव्वाऽऽदौ मम निर्वहतीति भावनीयम् / तत्र द्रव्ये उत्सर्गतो वल्लचणकाऽऽदिके क्षेत्रे स्निग्धरूक्षाऽऽदौ काले शीतोष्णाऽऽदौ भावेऽग्लानोऽहमेवंभूतं तपः कर्तुमलमित्येवं द्रव्याऽऽदिकं पर्यालोच्य यथाशक्ति तपो विधेयम्। "शक्तितस्त्यागस्तपसी" (तत्त्वार्थे - ६अ०२३ सूत्र० दर्शन०) इति वचनादिति। किंचउच्छाहपालणाए, इति तवे संजमे य संघयणे। वेरग्गेऽणिणादि, होइ चरित्ते इह पगयं // 341 / / तथा अनशनाऽऽदिके तपस्यनिगूहितबलवीर्येणोत्साहः कर्तव्यो, गृहीतस्य च प्रतिपालनं कर्त्तव्वमिति। उक्तं च"तित्थयरो चउनाणी, सुरमहिओ सिज्झिवव्ववधुवम्मि। अणिगूहिवबलविरिओ, सवत्थामेसु उज्जमइ // 1 // किं पुण अवसेसेहिं, दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं। होइन उज्जमियव्वं, सपचवायम्मि माणुस्से'' |2|| इत्येयं तपसि भावना विधेया / एवं संयमे इन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहरूपे, तथा संहनने वजर्षभाऽऽदिके तपोनिर्वाहनासमर्थे भावना विधेयेति। वैराग्यभावना त्वनित्यत्वाऽऽदिभावनारूपा तदुक्तम्"भावयितव्यमनित्य त्वमशरणत्वं तथैकताऽन्वत्वे। अशुचित्य संसारः, कर्माऽऽश्रयसंवरविधिश्च // 1 // निर्जरणलोकविस्तरधर्मस्वाख्या ततत्त्वचिन्ता च। बोधेः सुदुर्णश्रत्वं च भावना द्वादश विशुद्धाः" ||2|| इत्यादिका अनेकप्रचारा भावना भवन्तीति। आचा०२ श्रु०३ चू०। (3) भावना परिसंख्यानम्पढममणिच 1 गणरणं 2, संसारो 3 गया व 4 नत्तं 5 / असुइत्तं 6 आसव 7 संवरोय तह निजराह नवमा |7 लोगसहावो १०बोहियदुलहा 11 धम्मसाहओ अरहा 12 / Page #1516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा 1508 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा एयाइँ हुति बारस, जहकम्मं भावणीयाओ॥५०॥ तत्र प्रथममनित्यभावना 1, द्वितीया अशरणभावना 2, तृतीया संसारभावना 3, चतुर्थी एकत्वभावना 4, पञ्चमी अन्यत्वभावना 5, षष्ठी अशुचित्वभावना 6, सप्तमी आश्रयभावना 7. अष्टमी संवरभावना 8, तथा नवमी निर्जराभावनाह, दशमी लोकस्वभावभावना 10, एकादशी बोधिदुर्लभत्वभावना 11, द्वादशी धर्मकथकोऽर्हन्निति 12 / एतास्तु भावना द्वादश भवन्ति,यथाक्रमं भणितक्रमेण भायनीया अहर्निशमभ्यसनीया इति, एतासां च स्वरूपं किञ्चिन्निरूपयामः / तत्रैवमनित्यभावना"ग्रस्यन्ते वजसाराङ्गास्तेऽप्यनित्यत्वरक्षसा। किं पुनः कदलीगर्भ, निःसारा नेह देहिनः / / 1 / / विषयसुखं दुग्धमिय, स्वादयति जनो त्रिडाल इव मुदितः। नोत्पाटितलकुटभिवोत्पश्यति यममहह किं कुर्मः?||सा धराधरधुनीनीरपूरपारिप्लवं वपुः। जन्तूनां जीवितं वातधूतध्वजपटोपमम्॥३॥ लावण्यं ललनालोकलोचनाञ्चलचञ्चलम् / यौवतं मत्तमातङ्गकर्णतालचलाचलम्॥४॥ स्वाम्यं स्वप्रावलीसाम्य, चपलाचपलाः श्रियः। प्रेम द्वित्रिक्षणस्थेम, स्थिरत्वविमुखं सुखम् / / 5 / / सर्वेषामपि भावानां, भावयन्नित्यनित्यताम् / प्राणप्रियेऽपि पुत्राऽऽदो, विपन्नेऽपि न शोचति // 6 // सर्ववस्तुषु नित्यत्वग्रहग्रस्तस्तु मूढधीः। जीर्णतार्णकूटीरेऽपि, भग्ने रोदित्यहर्निशम् / / 7 / / ततस्तृष्णाविनाशेन, निर्ममत्वविधायिनीम्। शुद्धधीवियेन्नित्यमित्यनित्यत्वभावनाम् // 8 // " ||1|| अथाशरणभावना"पितुर्मातुर्धातुस्तनयदयिताऽऽदेश्च पुरतः, प्रभूताधिव्याधिव्रजनिगडिताः कर्मचरटैः। रटन्तः क्षिप्यन्तेयममुखगुहान्तस्तनुभृतो, हहा कष्ट लोकः शरणरहितः स्थास्यति कथम्?||१|| ये जानन्ति विचित्रशास्त्रविसरं ये मन्त्रतन्त्रक्रियाप्रावीण्य प्रथयन्ति ये च दधति ज्योतिःकलाकौशलम्। तेऽपि प्रेतपतेरमुष्य सकलत्रैलोक्यबिद्धंसनव्याग्रस्य प्रतिकारकर्मणि न हि प्रागल्भ्यमाबिभ्रति // 2 // नानाशस्त्रपरिश्रमोद्भटभटेरावेष्टिताः सर्वतो, गत्युद्दाममदान्धसिन्धुरशतैः केनाप्यगम्याःक्कचित्। शक्र श्रीपतिचक्रिणोऽपि सहसा कीनासदासर्बलादाकृष्टा यमवेश्म यान्ति हह हा निस्त्राणता प्राणिनाम् // 3 // उद्दण्ड ननुदण्डसात्सुरगिरि पृथ्वी पृथुच्छरसात्, ये कर्तुं प्रभविष्णवः कृशमपि क्लेशं विनैवाऽऽत्मनः। निः सामान्यबलप्रपञ्चचतुरास्तीर्थरास्तेऽप्यहो, नैवाशेषजमौघघस्मरमपाकर्तुं कृतान्तं क्षमाः॥४॥ कलत्रमित्रपुत्राऽऽदिस्नेह्यहनिवृत्तये। इति शुद्धमतिः कुर्यादशरण्यत्वभावनाम् // 5 // "||2|| अथ संसारभावनासुमतिरमतिः श्रीमानश्रीः सुखी सुखवर्जितः, सुतनुरतनुः स्वाम्यस्वामी प्रियः स्फुटमप्रियः। नृपतिरनृपः स्वर्गी तिर्यग्नरोऽपि च नारकः, तदिति बहुधा नृत्यत्यस्मिन् भवी भवनाटके // 1 // बध्वा पापमनेककल्मषमहारम्भाऽऽदिभिः कारणैः, पत्वा नारकभूमिषूदटतमः सघट्टनष्टाध्वसु। अङ्गच्छेदनभेदनप्रदहनक्लेशाऽऽदिदुःखं महज्जीवो यल्लभते तदत्र गदितुं ब्रह्मापि जिह्माऽऽनन / / 2 / / मायाऽऽत्यादिनिबन्धनैर्बहुविधैः प्राप्तस्तिरश्चां गति, सिंहव्याघ्रमतङ्ग जैणवृषभच्छागाऽऽदिरूपस्पृशाम्। क्षुतृष्णावधबन्धताडनरुजा वाहाऽऽदिदुखं सदा। यज्जीवः सहते न तत्कथियितुं केनाप्यहो शक्यते॥३॥ खाद्याखाद्यविवेकशून्यमनसो निहीकताऽऽलिङ्गिताः, सेव्यासेव्यविधौ समीकृतधियो निःशूकतावल्लभाः। तत्राऽऽनार्यनरा निरन्तरमहाऽऽरम्भाऽऽदिभिर्दुस्सह, क्लेशं सङ्कलयन्ति कर्मच महादुःखप्रदं चिन्चते॥४॥ माः क्षत्रियवाडवप्रभृतयो येऽप्यार्यदेशोद्भवास्तेऽप्यज्ञानदरिद्रताव्यसनितादौर्भाव्यरोगाऽऽदिभिः / अन्यप्रेषणमानभजनजनावज्ञाऽऽदिभिश्वानिशं, दुःखं तद्विषहन्ति यत्कथयितुं शक्यं न कल्पैरपि // 5 // रम्भागर्भसमः सुखी शिखिशिखावर्णाभिरुच्चैरयं, सूचीभिः प्रतिरोमभेदितवपुस्तारुण्यपुण्यः पुमान्। यद् दुःखं लभते तदष्टगुणितं स्त्रीकुक्षिमध्यस्थितौ, सम्पद्येत तदप्यनन्तगुणितं जन्मक्षणे प्राणिनाम् / / 6 / / वाल्ये मूत्रपुरीषधूलिलुठनाऽऽज्ञानाऽऽदिभिर्निन्दिता, तारुण्ये विभवार्जनेष्टविरहानिष्टाऽगमाऽऽदिव्यथा। वृद्धत्वे तनुकम्पदृष्ट्यपटुता श्वासाऽऽधसुस्थाऽऽत्मता, तत्का नाम दशाऽस्ति सा सुखमिह प्राप्नोति यस्यां जन?||७|| सभ्यग्दर्शनपालनाऽऽदिभिरथ प्राप्ते भवे त्रैदशे, जीवाः शोकविषादमत्सरभयस्वल्पर्धिकत्वाऽऽदिभिः। ईर्ष्याकाममदक्षुधाप्रभृतिभिश्चात्यन्तपीडाऽर्दिताः, क्लेशेन क्षपयन्ति दीनमनसो दीर्घ निजं जीवितम् // 8 // इत्थं शिवफलाधायिभववैराग्यवीरुधः। सुधावृष्टिं सुधीः कुर्यादनां संसारभावनाम्॥६॥" ||3|| अथैकत्वभावना"उत्पद्यते जन्तुरिहैक एव, विपद्यते चैकक एव दुःखी। कर्मार्जयत्येकक एव चित्र मासेवते तत्फलमेक एव / / 1 / / यजीवेन धनं स्वयं बहुविधैःकष्टैरिहोपाय॑ते, तत्संभूय कलत्रमित्रतनयभ्रात्रादिभिर्भुज्यते। तत्तत्कर्मवशाच्च नारकनरस्वर्वासितिर्यग्भवेष्वेक सैष सुदुःसहानि सहते दुःखान्यसङ्ख्यान्यहो।।२।। जीवो यस्य कृते भ्रमत्यनुदिशं दैन्यं समालम्बते. धर्माद् भ्रस्यति वश्चयत्यतिहितात् न्यायादपक्रामति। देहः सोऽपि सहाऽऽत्मनान पदमप्येकं परस्मिन् भवेगच्छत्यस्य ततः कथं वदत भोः साहाय्यमाधास्यति? ||3|| स्वार्थकनिष्ठं स्वजनस्वदेहमुख्यं ततः सर्वमवेत्य सम्यग। सर्वत्र कल्याणनिमित्तमेकं धर्म सहायं विदधीत धीमान् // 4 // " अथान्यत्वभावना*"जीवः कायमपि व्यपास्य यदहो लोकान्तरे याति यदिन्नोऽसौ वपुषाऽपि कैव हि कथा द्रव्याऽऽदिवस्तुबजे। Page #1517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा 1506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा तस्माल्लिम्पति यस्तनुं मलयजैर्यो हन्ति दण्डाऽऽदिभिर्यः पुष्णाति धनाऽऽदियश्च हरते तत्राऽपि साम्यं श्रयेत् / / 1 / / अन्यत्वभवनामेवं, यः करोति महामतिः। तस्य सर्वस्वनाशेऽपि, न शोकांऽशोऽपि जायते // 2 // " ||5|| अथाशुचित्वभावना"लवणाऽऽकरे पदार्थाः, पतिता लवणं यथा भवन्तीह। काये तथा मलाः स्युस्तदसावशुचिः सदा कायः।।१।। कायः शोणितशुक्रमीलनभवो गर्भ जरावेष्टितो, मात्राऽऽस्वादितखाद्यपेयरसकैर्वद्धिं क्रमात्प्रापितः। क्लिद्यद्धातुसमाकुलः कृमिरुजागण्डूपदाऽऽद्यास्पदं, कैर्मन्येत सुबुद्धिभिः शुचितया सर्वैर्मलः कश्मलः?||२|| सुस्वाद शुभगन्धिमोदकदधिक्षीरेक्षुशाल्योदनद्राक्षापर्पटिकाऽमृताघृतपुरस्वर्गच्युताम्राऽऽदिकम्। भुक्तंसत्सहसैव यत्र मलसात्सम्पद्यते सर्वतस्तं कार्य सकलाशुचिं शुचिमहो मोहान्धिता मन्यते / / 3 / / अम्भःकुम्भशतैर्वपुर्ननु बहिर्मुग्धाः शुचित्वं कियत्काल लम्भयथोत्तमं परिमलं कस्तूरिकाऽऽद्यैस्तथा। विष्ठाकोष्टकमेतदङ्ग कमहो मध्ये तु शौचं कथंकारं नेष्यथ सूत्रयिष्यथ कथंकारं च तत्सौरभम् ?||4|| दिव्याऽऽमोदसमृद्धिवासितदिशः श्रीखण्डकस्तूरिकाकर्पूरागुरुकुड्कुमप्रभृतयो भावा यदाश्लेषतः। दौर्गन्ध्यं दधति क्षणेन मलतां चाऽऽविभ्रते सोऽप्यहो, देहः कैश्चन मन्यते शुचितया वैधेयतां पश्यत।।५।। इत्यशौचं शरीरस्य, विभाव्य परमार्थतः। सुमतिर्ममतां तत्र, न कुर्वीत कदाचन // 6|| अथाऽऽसवभावना'मनोवचोवपुर्योगः, कर्म येनाशुभं शुभम्। भविनामास्रवेन्त्येते प्रोक्तास्तेनाऽऽरवा जिनैः / / 1 / / मैत्र्या सर्वेषु सत्त्येषु, प्रमोदेन गुणाधिके। माध्यस्थ्येनाविनीतेषु, कृपया दुःखितेषु च / / 2 / / सततं वासितं स्वान्तं,कस्यचित्पुण्यशालिनः। वितनोति शुभं कर्म; द्विचत्वारिंशदात्मकम्॥३॥ रौद्राऽऽर्तध्यानमिथ्यात्व-कषायविषयैर्मनः / आक्रान्तमशुभं कर्म, विदधाति द्व्यशीतिधा ||4|| सर्वज्ञगुरुसिद्धान्तं, सङ्कासद्गुणवर्णकम्। ऋतं हितं च वचन, कर्म सञ्चिनुते शुभम्॥५॥ श्रीसतगुरुसर्वज्ञ-धर्मधार्मिकदूषकम्। उन्मार्गदेशिवचन-मशुभं कर्म पुष्पति॥६॥ देवार्चनगुरुपास्ति-साधुविश्रामणाऽऽदिकम्। वितन्वती सुगुप्ता च, तनुर्वितनुते शुभम् // 7 // मांसाशनसुरापान-जन्तुघातनचौरिकाः। पारदार्याऽऽदि कुर्वाण-मशुभं कुरुते वपुः॥८॥ एनामावभावनामविरतं यो भावयेद्भावतस्तस्यानर्थपरम्परैकजनकाद दुष्टाऽऽसयौघाऽऽत्मनः। व्यावृत्त्याऽखिलदुःखदावजलदे निःशेषशर्मावलीनिर्माणप्रवणे शुभाशुभगणे नित्यं रतिं पुष्यति // 6 // " ||7|| अथ संवरभावनाआस्रवाणां निरोधो यः, संवरः स प्रकीर्तितः। सर्वतो देशतश्चेति, द्विधा स तु विभज्यते॥१॥ अयोगिकेवलिष्वेव, सर्वतः संवरो मतः। देशतः पुनरेकद्वि-प्रभृत्यारनवरोधिषु / / 2 / / प्रत्यकमपि स द्वेधा, द्रव्यभावविभेदतः। यत्कर्मपद्गलाऽऽदान-मात्मन्यासयतो भवेत् // 3 // एतस्य सर्वदेशाभ्यां, छेदनं द्रव्यसंवरः। भवहेतुक्रियायास्तु, त्यागोऽसौ भावसंवरः / / 4 / / मिथ्यात्वकषायाऽऽदीना-मास्रयाणां मनीषिभिः / निरोधाय प्रयोक्तव्या, उपायाः प्रतिपन्धिनः ||5|| यथामिथ्यात्वमार्त्तरौद्राऽऽख्य-कुध्याने च सुधीर्जयेत्। दर्शननाकलड़ेन, शुभध्यानेन च क्रमात्॥६॥ क्षान्त्या क्रोधं मृदुत्वेन, मानं मायामृजुत्वतः। सन्तोषेण तथा लोभ, निरुन्धीत महामतिः // 7 // शब्दाऽऽदिविषयानिष्टा-निष्टांश्चापि विषोपमान। रागद्वेषप्रहाणेन, निराकुवर्ति कोविदः / / 8 / / य एतद्भावनासगी. सौभाग्यं भजते नरः। एति स्वर्गापवर्गश्री-रवश्यं तस्य वश्यताम् " ||8|| अथ निर्जराभावना"संसारहेतुभूतायाः,यःक्षयः कर्मसन्ततेः। निर्जरा सा पुनर्द्वधा, सकामाकामभेदतः।।१॥ श्रमणेषु सकामा स्या-दकामा शेषजन्तुषु। पाकः स्वत उपायाच, कर्मणां स्याद्यथाऽऽमवत्।।२।। कर्मणां न क्षयो भूया-दित्याशययतां सताम्। वितन्वतां तपस्याऽऽदि, सकामा शमिनां मता // 3 / / एकेन्द्रियाऽऽदिजन्तूनां, सदज्ञानरहिताऽऽत्मनाम्। शीतोष्णवृष्टिदहन-च्छेदभेदाऽऽदिभिः सदा।।४।। कष्ट वेदयमानानां यः शाट: कर्मणां भवेत। अकामनिर्जरामेना-मामनन्ति मनीषिणः / / 5 / / तपःप्रभृतिभिर्वृद्धि, व्रजन्ती निर्जरा यतः। ममत्वं कर्म संसार, हन्यात्तां भावयेत्ततः / / 6 / / " अथ लोकस्वभावभावना"वैशाखस्थानस्थित-कटिस्थकरयुगनराऽऽकृतिर्लोकः / भवति द्रव्यैः पूर्णः, स्थित्युत्पत्तिव्ययाऽऽक्रान्तैः / / 1 / / ऊर्द्धतिर्यगधोभेदैः, सत्रेधा जगदे जिनैः। रुचकादष्टप्रदेशा-न्मेरुमध्यव्यवस्थितात्॥२॥ नवयोजनशत्यूर्द्ध-मधोभागेऽपि सा तथा। एतत्प्रमाणकस्तिर्य-ग्लोकश्चित्रपदार्थभृत् // 3 // ऊर्दुलोकस्त दुपरि, सप्तरज्जुप्रमाणकः / एतत्प्रमाणसंयुक्त-श्वाधोलोकोऽपि कीर्तितः // 4 // रत्नप्रभाप्रभृतयः पृथिव्यः सप्त वेष्टिताः। धनोदधिधनवात-तनुवातैस्तमोघनाः // 5 // तृष्णाक्षुधावधाऽऽघात-भेदनच्छेदनाऽऽदिभिः। दुःखानिः नारकास्तत्र, वेदयन्ते निरन्तरम् / / 6 / / प्रथमा पृथिवी पिण्डे, योजनानां सहस्रकाः। अशीतिर्लक्षमेकं च, तत्रोपरि सहस्रकम् / / 7 / / अधश्च मुक्त्वा पिण्डस्य, शेषस्याभ्यन्तरे पुनः / भवनाधिपदेवानां, भवनानि जगुर्जिनाः / / 8 / / असुरा नागास्तडितः, सुपर्णा अग्नयोऽनिलाः। स्तनिताब्धिद्विपदिशः, कुमारान्ता दशेति ते // 6 // व्यवस्थिता पुनः सर्वे ,दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः / तत्रासुराणां चमरो, दक्षिणावासिनां विभुः।।१०।। उदीच्यानां बलिनाग-कुमाराऽऽदेर्यथाक्रमम्। धरणो भूतानन्दश्च, हरिर्हरिसहस्तथा।।११।। Page #1518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा १५१०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा वेणुदेवो वेणुदाली, चाग्निशिखाग्निमाणवौ / वेलम्बः प्रभजनश्च, सुघोषमहाघोषकौ / 12 / / जलकान्तो जलप्रभ-स्ततः पूर्णो विशिष्टकः। अमितो मितवाहन, इन्द्राऽऽग्नेया द्वयोर्दिशोः / / 13 / / अस्या एव पृथिव्या, उपरितने मुक्तयोजनसहरसम्। योजनशतमध उपरिच, मुक्त्वाऽष्टस योजनशतेषु / / 14 / / पिशाचाऽऽद्यष्टभेदानां, व्यन्तराणां तरस्विनाम्। नगराणि भवन्त्यत्र, दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः // 15 // पिशाचा भूता यक्षाश्च, राक्षसाः किन्नरास्तथा। किंपुरुषा महोरगा, गन्धर्वा इति तेऽष्टधा॥१६॥ दक्षिणोत्तरभागेन, तेषामपि च तस्थुषाम् / द्वौ द्वाविन्द्रौ समानातौ, यथासङ्ख्यं सुबुद्धिभिः / / 17 / / कालस्ततो महाकालः,सुरूपः प्रतिरूपकः। पूर्णभद्रो माणिभद्रो, भीमो भीमो महाऽऽदिकः / / 18|| किन्नर किंपुरुषौ स-त्पुरुषमहापुरुषनामको तदनु। अतिकायमहाकायौ, गीतरतिश्चैव गीतयशाः ||16|| अस्या एव पृथिव्या, उपरि च योजनशतं हि यन्मुक्तम्। तन्मध्यादध उपरिच, योजनदशकं परित्यज्य / / 20 / / मध्येऽशीताविह यो-जनेषु तिष्ठन्ति वनचरनिकायाः। अप्रज्ञप्तिकमुख्या अष्टावल्पर्धिकाः किश्चित् / / 21 / / अत्र प्रतिनिकायं च,द्वौ द्वाविन्द्रौ महाद्युती। दक्षिणोत्तरभागेन, विज्ञातव्यौ मनीषिभिः // 22 // योजनलक्षोन्नतिना, स्थितेन मध्ये सुवर्णमयवपुषा। मेरुगिरिणा विशिष्टे, जम्बूद्वीपे भवन्त्यत्र / / 23 // वर्षाणि भारताऽऽदीनि, सप्त वर्षधरास्तथा। पर्वता हिमवन्मुख्याः , षट् शाश्वतजिनाऽऽलयाः // 24 / / योजनलक्षप्रमिता-ज्जम्बूद्वीपात्परो द्विगुणमानः / लवणसमुद्रः परत-स्तद् द्विगुणद्विगुणविस्ताराः / / 25 / / बोधव्या धातकीखण्ड-कालोदाऽऽद्या असङ्ख्यकाः। स्वयम्भूरमणान्ताश्च, द्वीपवारिधयः क्रमात् // 26 // प्रत्येकरससम्पूर्णा-श्चत्वारस्तोयराशयः। त्रयो जलरसा अन्ये, सर्वेऽपीक्षुरसाः स्मृताः / / 27 / / सुजातपरमद्रव्य-हृद्यमद्यसमोदकः। वारुणीवरवाधिः स्यात्, क्षीरोदजलधिः पुनः॥२८॥ सम्यकथितखण्डाऽऽदि-मुग्धदुग्धसमोदकः। घृतवरः सुतापित-नव्यगव्यघृतोदकः / / 26 / / लवणाब्धिस्तु लवणा-ऽऽस्वादपानीयपूरितः / कालोदः पुष्करवरः, स्वयम्भूरमणस्तथा।।३०।। मेघोदकरसाः किन्तु, कालोदजलधेर्जलम्। कालं गुरुपरिणाम, पुष्करोदजलं पुनः॥३१॥ हित लघुपरिणाम, स्वच्छस्फटिकनिर्मलम्। स्वयम्भूरमणस्याऽपि, जलधेर्जलमीदृशम् // 32|| त्रिभागाऽऽवर्तसुचतु-जतिकेक्षुरसोपमम्। शेषाऽसङ्ख्यसमुद्राणां, नीरं निगदितं जिनैः / / 33 / / समभूमितलादूर्द्ध. योजनशतसप्तके। गते नवतिसंयुक्ते, ज्योतिषां स्यादधस्तलः / / 34 / / तस्योपरि च दशसु, योजनेषु दिवाकरः। तदुपर्यशीतिसङ्ख्य-योजनेषु निशाकरः / / 35 / / तस्योपरि च विंशत्यां, योजनेषु ग्रहाऽऽदयः / स्यादेवं योजनशतं, ज्योतिर्लोको दशोत्तरम्॥३६|| जम्बूद्वीपे भ्रमन्तौ च, द्वौ चन्द्रौ द्वौ च भास्करौ। चत्वारो लवणाम्भोधौ, चन्द्राः सूर्याश्च कीर्तिताः॥३७।। धातकीखण्डके चन्द्राः, सूर्याश्च द्वादशैव हि। कालोदे द्विचत्वारिंश चन्द्राः सूर्याश्च कीर्तिताः / / 38 // पुष्कराखें द्विसप्तति-श्चन्द्राः सूर्याश्च मानुषे। क्षेत्रे द्वींत्रिशभिन्दूना, सूर्याणां च शतं भवेत्।।३६।। मानुषोत्तरतः पञ्चा-शद्योजनसहस्त्रकैः / चन्द्ररन्तरिताः सूर्याः, सूर्यरन्तरिताश्च ते॥४०॥ मानुषक्षेत्रचन्द्रार्क-प्रमाणार्धप्रमाणकाः। तत्क्षेत्रपरिधर्वृद्ध्यो, बृद्धिमन्तश्च सङ्ख्यया।।४१।। स्वयम्भूरमणं व्याप्य, घण्टाकारा असंख्यकाः। शुभलेश्या मन्दलेश्या-स्तिद्वन्ति सततं स्थिराः॥४२॥ समभूमितलादूर्द्ध, सार्धरज्जौ व्यवस्थितौ। कल्पावनल्पसम्पत्ती, सौधर्मेशाननामकौ // 43 // सार्धरज्जुद्वये स्याता, समानौ दक्षिणोत्तरौ। सनत्कुमारमाहेन्द्रौ, देवलोकौ मनोहरौ।।४४|| ऊर्द्धलोकस्य मध्ये च, ब्रह्मलोकः प्रकीर्तितः। तदूर्द्ध लान्तकः कल्पो, महाशुक्रस्ततः परम् / / 45 / / देवलोकः सहस्रारो-ऽथाष्टमो रज्जुपञ्चके। एकेन्द्रौ चन्द्रववृत्ता-वानतप्राणतौ ततः॥४६॥ रज्जुषट्के ततः स्याता-मेकेन्द्रावारणाच्युतौ। चन्द्रवद्वर्तुलावेवं, कल्पा द्वादश कीर्तिताः।। 47 // ग्रैवेयकास्त्रयोऽधस्त्या-स्त्रयो मध्यमकास्तथा। त्रयश्वोपरितनाः स्यु-रिति ग्रैवेयका नव // 48 // अनुत्तरविमानानि, तदूर्द्ध पञ्च तत्र च। प्राच्यां विजयमपाच्यां, वैजयन्तं प्रचक्षते / / 46 / / प्रतीच्यां तु जयन्ताऽऽख्य-मुदीच्यामपराजितम्। सर्वार्थसिद्ध तन्मध्ये, सर्वोत्तममुदीरितम्॥५०॥ स्थितिप्रभावलेश्याभि-विशुद्ध्यवधिदीप्तिभिः / सुखाऽऽदिभिश्च सौधर्मा- द्यावत्सर्वार्थसिद्धिदम्॥५१।। पूर्वपूर्वत्रिदशेभ्यःस्तेऽधिका उत्तरोत्तरे। हीनहीनतरा देह-गतिगर्वपरिग्रहैः / / 5 / / घनोदधिप्रतिष्ठानाः, विमानाः कल्पयोर्द्वयोः। त्रिषु वायुप्रतिष्ठानाः-स्त्रिषु वायूदधिस्थिताः॥५३|| ते व्योमविहितस्थानाः, सर्वेऽप्युपरिवर्तिनः। इत्यूर्द्धलोकविमान-प्रतिष्ठानविधिः स्मृतः // 54 // सर्वार्थसिद्धाद्वादश, योजनेषु हिमोज्ज्वला। योजनपञ्चचत्वारि-शल्लक्षाऽऽयामविस्तरा // 55 / / मध्येऽष्टयोजनपिण्डाश्च, शुद्धस्फटिकनिर्मिताः / सिद्धशिलेषत्प्राग्भारा, प्रसिद्धा जिनशासने // 56 / / तस्या उपरि गव्यूत-त्रितयेऽतिगते सति। तुर्यगव्यूतिषड्भागे, स्थिताः सिद्धा निरामयाः / / 57 / / अनन्तसुखविज्ञान-वीर्यसद्दर्शनाः सदा। लोकान्तस्पर्धिनोऽन्योन्या-वगाढाः शाश्वताश्च ते॥५८|| एना भव्यजनस्य लोकविषयामभ्यस्यतो भावना, संसारैकनिबन्धने न विषयग्रामे मनो धावति। किन्त्वन्यान्यपदार्थभावनसमुन्मीलत्प्रबोधोद्धुरं, धर्मध्यानविधाविह स्थिरतरं तज्जायते सन्ततम् // 56 // (बोधिदुर्लभत्वभावना बोहिदुल्लहत्तभावणा शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1333 पृष्ट गता) Page #1519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा 1511- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा अथ धर्मकथकोऽर्हन्निति भावना''अर्हन्तःकेवलाऽऽलोका-ऽऽलोकिताऽऽलोकलोककाः / यथार्थ धर्ममाख्यातुं, पटिष्ठा न पुनः परे / / 1 / / वीतरागा हि सर्वत्र, परार्थकरणोद्यताः। न कुत्राप्यनृतं ब्यु-स्ततस्तद्धर्मेसत्यता॥२॥ क्षान्त्यादिभेदैधर्म च, दशधा जगदुर्जिनाः। यं कुर्वन् विधिना जन्तु-र्भवाब्धौ न निमञ्जति // 3 // पूर्वापरविरुद्धानि, हिंसाऽऽदेः कारकाणि च / वचासि चित्ररूपाणि, व्याकुर्वद्भिर्निजेच्छया।।४।। कुतीर्थिकैः प्रणीतस्य, सद्गतिप्रतिपन्थिनः / धर्मस्य सकलस्यापि, कथं स्वाख्यातता भवेत् ? / / 5 / / यच्च तत्समये क्वापि, दयासत्याऽऽदिपोषणम्। दृश्यते तद्वचोमात्र, बुधैज्ञेयं न तत्त्वतः॥६॥ यत्प्रोद्दाममदान्धसिन्धुरघट साम्राज्यमासाद्यते, यन्निःशेषजनप्रमोदजनकं सम्पद्यते वैभवम्। यत्पूर्णेन्दुसमद्युतिगुणगणः सम्प्राप्यते यत् परं, सौभाग्यं च विजृम्भते तदखिलं धर्मस्य लीलायितम् / / 7 / / यन्न प्लावयति क्षितिं जलनिधिः कल्लोलमालाऽऽकुलो, यत्पृथ्वीमखिलां धिनोति सलिलाऽऽसारेण धाराधरः। यच्चन्द्रोष्णरुची जगत्युदयतः सर्वान्धकारच्छिदे, तं निःशेषमपि ध्रुवं विजयते धर्मस्य विस्फूर्जितम्।।। अबन्धूनां बन्धुः सुहृदसुहृदां सम्यगगदो, गदार्त्तिक्लान्तानां धनमधनभावार्त्तमनसाम्। अनाथानां नाथो गुणविरहितानां गुणनिधिः, जयत्येको धर्मः परमिह हितवातजनकः / / 6 / / अर्हता कथितो धर्मः, सत्योऽयमिति भावयन्। सर्वसम्पत्करे धर्मे धीमान दृढतरो भवेत्॥१०॥" |12|| ''एकामप्यमलाभिमासु (?) सततं यो भावयेद्भावनां, भव्यः सोऽपि निहन्त्यशेषकलुषं दत्तासुखं देहिनाम्। यस्त्वभ्यस्तसमस्तजैनसमयस्ता द्वादशाप्यादरादभ्यस्येल्लभते स सौख्यमतुलं किं तत्र कौतूहलम् ? // 1 // " प्रव०६७ द्वार। (4) आत्मभावना द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च। तत्र द्रव्यतस्तावदाहसरवेहआसहत्थीपवगाईया उभावणा दव्वे। अब्भास भावण त्ति य, एगटुं तत्थिमा भावे ||462|| इह धानुष्को यदभ्यासविशेषात्प्रथम स्थूलद्रव्यं, ततो बालबद्धा कपर्दिका, ततः सुनिमां, ततः खरेणाऽपि लक्ष्यस्य बेधं करोति। यचाश्वः शीघ्रं शीघ्रतर धावमानः शिक्षावि शेषाद् महदपि गर्ताऽऽदिकं लड यति, हस्ती वा शिष्ययाणः प्रथमं काष्ठानि, ततः क्षुल्लकान् पाषाणान, ततो गोलिका, तदनु बादराणि, तदनन्तरं सिद्धार्थानप्यभ्यासातिशयाद् गृह्णातिाप्लवको वा प्रथमं वंशे विलग्नः सन्प्लवते, ततः पश्चादभ्यस्य नाकाशेऽपि तानि तानि कारणानि करोति / आदिशब्दाच्चित्रकराऽऽदिपरिग्रहः, एताः सर्वा अपि द्रव्यभावनाः। अभ्यास इति वा भावनेति वा एकार्थम् / तत्रैता वक्ष्यमाणलक्षणा भावना भाये मन्तव्याः / / 462 / / ता एवाऽऽहदुविहा उ भावणाओ, असंकिलिट्ठा य संकिलिट्ठाय। मुत्तूण संकिलिट्ठा, असंकिलिट्ठाएँ भावेति / / 463|| द्विविधा भावतो भावनाः- असंक्लिष्टाः शुभाः, संक्लिष्टाश्चाशुभाः / तत्र मुक्त्वा संक्लिष्टभावनाः असंक्लिष्टाभिर्भावनाभिर्भावयति जिनकल्पं प्रतिपित्सुरिति / / 463 / / अथ कास्ताः संक्लिष्टभावना इत्याशङ्काऽपनोदाय तत् स्वरूपमभिधित्सुराहसंखा य परूवणया, होइ विवेगो य अप्पसत्थासु / एमेव पसत्थासु वि, जत्थ विवेगो गुणा तत्थ / / 464|| अप्रशस्तभावनानां संख्या पञ्चेतिलक्षणा निरूपणीया, प्ररूपणा च तासां कर्त्तव्या, तासां चाऽप्रशस्तानां विवेकः परिहारो भवति / एवमेव प्रशस्तास्वपि तपःप्रभृतिभावनासु संख्या प्ररूपणा च वक्तव्या; नवरं (जत्थ विवेगोत्ति) यत्र विवेक इति पदं तत्राप्रशस्ता एव भावना द्रष्टव्यास्ता विवेक्तव्याः परित्याज्या इति भाव्याः (गुणा तत्थि त्ति) यासु प्रशस्ता भावनाः तासु भाव्यमानासुगुणाः खेदविनोदाऽऽदयः प्रागुक्ता भवन्तीति चूर्ण्यभिप्रायेण व्याख्यानम् / विशेषचूर्ण्यभिप्रायः पुनरयम्- यत्र च प्रशस्तेऽपि वस्तुनि विवेकपरित्यागोऽस्य घटते तत्र गुणा भवन्ति, यथाऽऽचार्याऽऽदीनामवर्णभाषणश्रावणे औदासीन्यमवलम्बमानस्याप्यस्य गुण एव भवति, न पुनः स्थविरकल्पिकस्येव यथाशक्ति तन्निवारणमकुर्वतो दोष इति / / 464 // अथाप्रशस्तभावनानां नामग्राहं गृहीत्वा सङ्ख्यामाहकंदप्पदेवकिदिवस-अभिओगा आसुरा य संमोहा। एसाय संकिलिहा, पंचविहा-भावणा भणिया।।बृ०|| एषाऽप्रशस्ता पञ्चविधा भावना तत्स्वभावाभ्यासरूपा भणिता॥४६५।। (5) अथासामेव फलमाहजो संजओ वि एआसु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ। सो तविहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो॥४९६|| यः संयतोऽपि व्यवहारतः साधुरप्येताभिरप्रशस्ताभिविनाभिः, गाथायां तृतीयाऽर्थे सप्तमी। भावनमात्मनो वसनं करोति, स तद्विषयेषु तादृशेषु कान्दर्पिकाऽऽदिषु सुरेषु गच्छति, यस्तु चरणरहितः सर्वथा चारित्रसत्ताविकलो द्रव्यचरणहीनोवा सभाज्यः तद्विधेषु वा देवेषूत्पद्यते, नरकतिर्यग्मनुष्येषु वा / / 466|| बृ०१ उ०२ प्रका अथाऽऽसां भावनानां सामान्यतः फलमाहएआओं भावणाओ, मावित्ता देवदुग्गई जंति। तत्तो वि चुया संता, पयरिंति भवसागरमणंतं / / 526 / / एता भावना भावयित्वा अभ्यस्य देवदुर्गति कान्दर्पिकाऽऽदिदेवगतिरूपां यान्ति संयता अपि, ततोऽपि देवदुर्गतश्चुताः सन्तः पर्यटन्ति भवसागरं संसारसमुद्रमनन्तमिति। उक्ता अप्रशस्ता भावना। Page #1520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा १५१२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा सम्प्रति प्रशस्तभावना अभिधित्सुराहतवेण सुत्तेण, एगत्तेणं बलणे य। तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवन्नओ।।५३०।। वृ० 1 उ० 2 प्रकला विशे०। व्या पं०व० ध०। (व्याख्या 'जिणकप्प' शब्दे 4 भागे 1466 पृष्ठे गता) (6) मैत्र्यादिकाश्चतुर्विधा अपि भावनाःइति चेष्टावत उच्चै-विशुद्धभावस्य सद्यतेः क्षिप्रम् / मैत्रीकरुणामुदितो-पेक्षाः किल सिद्धिमुपयान्ति॥७॥ इत्येवमुक्तप्रकारेण चेष्टावतः साधुचेष्टायुक्तत्त्य उचैरत्यर्थ विशुद्धभावस्थ विशुद्धाध्यवसायस्य सद्यतेः सत्साधोः क्षिप्रमचिरेणैव मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाः पूर्वोक्ताश्चतस्रो भावनाः किल सिद्धिमुपयान्ति, किलेत्यासाऽऽगमवादो, निष्पत्तिं प्रतिलभन्ते // 71 षो० 13 विव०। (7) अथ भवानः पञ्चविंशतिः। तद्यथाइरियासमिए 1 सया जए य, उदेहि मुंजेज व पाणभोयणं 2 / आयाणनिक्खेवदुगंछ 3 संजए, समाहिए 4 संजयए मणो वइं॥५।। 43 / / अहस्स सच्चे 6 अणुवीय भासए 7, जे कोह 8 लोह भयमेव 10 वजए। से दीहरायं समुपेहिया सया, मुणी हु मोसं परिवजए सिया।।११४४|| सयमेव ओग्गहजायणे घडे, मइमम्मि सम्मा 12 सइ भिक्खुउग्गहं 13 अणुन्नवि य भुंजीय पाणभोयणं 15, जाइत्तु साहम्मियाण भोयणं / / 15 / / / / 45|| आहारगुत्तो 16 अविभूसियप्पा 17, इत्थिं न निज्झाएँ 18 न संथवेज्जा 16 / बुद्धे मुणी खुड्डकहं न कुजा 20, धम्माणुप्पेही संधए बंभचेरं / / 46|| जे सद्द 21 व 22 गंध 23 मागए 24, फासे य संपप्प मणुण्णपावर 25 / गेहिप्पओसं न करेज्ज पंडिए, से होइ देतं विरए अकिंचणे !47 / / प्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्तिलक्षणमहाद्रतानां दायाऽऽपादनार्थ भाव्य- | न्तेऽभ्यस्यन्ते इति भावनाः, अनभ्यस्यमानाभिर्भावनाभिरनभ्यस्यमानविद्यावन्मलीमसीभवन्ति महाव्रतानीति। ताश्च प्रतिमहाव्रतं पञ्च पञ्च भवन्ति / तत्र प्रथममहाव्रतस्य ताः कथ्यन्ते- ईरणं ईर्या गमनं, तत्र समित उपयुक्तः, असमितो, हि प्राणिनो हिंस्यादिति प्रथमा भावना। तथा सदा सर्वकालं यतः सम्यगुपयुक्तः सन् 'उवेहि त्ति' अवलोक्य भुञ्जीत, वाशब्दाद् गृह्णीत वा, पानभोजनम्। अयमर्थः- प्रतिगृहं पात्रमध्यपतितः पिण्डश्चक्षुराद्युपयुक्तेन तत्समुत्थाऽऽगन्तुकसत्त्वरक्षणार्थं प्रत्यवेक्षणीयः, आगत्य च वसतौ पुनः प्रकाशवति प्रदेशे स्थित्वा सुप्रत्यवेक्षित पानभोजनं विधाय प्रकाशप्रदेशावस्थितेन भोक्तव्यम्, अनवलोक्य भुञ्जानस्य हि प्राणिहिंसा सम्भवतीति द्वितीया। तथा आदाननिक्षेपौ पात्राऽऽदेहणमोक्षावागमप्रतिबद्धौ जुगुप्सति न करोतीति आदाननिक्षेपजुगुप्सकः, आगमानुसारेण प्रत्यवेक्षणप्रमार्जनपूर्वमुपयुक्तः सन्नुपधेरादाननिक्षेपौ करोतीत्यर्थः। जुगुप्सको हि सत्त्वव्यापादनं विदध्यादिति तृतीया। तथा संयतः साधुः समाहितः समाधानपरः सन् संयततेप्रवर्तयत्यदुष्ट मनो, दुष्ट हि मनः क्रियमाणं कायसंलीनताऽऽदिकेऽपि सति कर्मबन्धाय सम्पद्यते। श्रुयते हि प्रसन्नचन्द्रो राजर्षिर्मनोगुप्त्यभाविताऽहिंसाव्रतो, हिंसामकुर्वन्नपि सप्तमनरकपृथ्वीयोग्यं कर्म निर्मितवानिति चतुर्थी। एवं वाचमप्यदुष्टां प्रवर्तयेत्, दुष्टां प्रवर्तयन् जीवान् विनाशयेदिति पञ्चमी / तत्त्वार्थे तु अस्याः स्थाने एषणासमितिलक्षणा भावना भंणिता। इति प्रथमव्रतभावनाः पञ्च। अथ द्वितीयमहाव्रतभावना भण्यन्ते-अत्र हास्यं परिहरति सत्यः सत्यवाक्, हास्येन ह्यनृतमपि ब्रूयादिति प्रथमा। तथा अनुविचिन्त्य सम्यग्ज्ञानपूर्वक पर्यालोच्य भाषको वक्ता, अनालोचितभाषी हि कदाचिन्मृषाऽप्यभिदधीत, ततश्वाऽत्मनोवैरपीडाऽऽदयः सत्त्वोपधातश्च भवेदिति द्वितीया / तथा यः क्रोध लोभ भयमेव वा वर्जयेत् परिहरेत् स एव मुनिर्दीर्घरात्रि मोक्षं समुपेक्षिता सामीप्येन मोक्षावलोकनशीलः सन् सदा सर्वकालं 'हु' निश्चयेन 'मोस' ति अनुस्वारस्यालाक्षणिकत्वान्मृषापरिवर्जकः 'सिया' स्यात् / अयमर्थः - क्रोधपरवशो हि वक्ता स्वपरनिरपेक्षो यत्किशन भाषी मृषाऽपि भाषते / अतः क्रोधस्य निवृत्तिरनुत्पादो वा श्रेयानिति तृतीया 3 तथा लोभाभिभूतचित्तोऽप्यत्यर्थकाङ्क्षया कूटसाक्षित्वाऽऽदिना वितथभाषी भवति, अत्र सत्यवतमनुपालयता लोभः प्रत्याख्येय इति चतुर्थी 4 / तथा भयार्त्तः प्राणाऽऽदिरक्षणेच्छया सत्यवादितां व्यभिचरति, ततो निर्भयवासनाऽऽधानमात्मनि विधेयमिति पञ्चमी 5 / इति द्वितीयमहाव्रतभावना। अथ तृतीयमहाव्रतभावना : प्रोच्यन्ते- तत्र स्वयमेवाऽऽत्मनेव, न तुपरमुखेन साधुः प्रभुंप्रभुसन्दिष्टवा सम्यक्परिज्ञाय अवग्रहस्य देवेन्द्रराजगृहपतिशय्यातरसाधर्मिकभेदभिन्नस्य याचने याञ्चायां प्रवर्तत, परमुखेन हि याचनेऽस्वामियाचने च परस्य विराधेन च अकाण्डघटनाऽऽदयोऽदत्तपरिभोगाऽऽदयश्च दोषा इति प्रथमा 1 / तथातत्रैवानुज्ञापितावग्रहे तृणाऽऽदिग्रहणार्थ मतिमान घटेत चेष्टेत निशम्याऽऽकविग्रहप्रदातुस्तृणाऽऽद्यनुज्ञावचनम्, अन्यथा तददत्तं स्यादिति द्वितीया शतथा रादा सर्वकालं भिक्षुरवग्रहस्पष्टमर्यादया याचेत् / अयमर्थसकृद्दत्तेऽपि स्वामिनाऽवग्रहे भूयो भूयोऽवग्रहयाचनं कर्त्तव्यम्। पूर्वलब्धेऽवग्रहे ग्लानाऽऽद्यवस्थायां मूत्रपुरीषोत्सर्गपात्रकरचरणप्रक्षालनस्थानानि दायकचित्तपीडापरिहारार्थ याचनीयानीति तृतीया 3 तथाऽनुज्ञाप्य गुरुमन्य वा भुजीत पानभोजनम्। अयमर्थः- सूत्रोक्तेन विधिना प्राशुकमेषणीय लब्धमानीयाऽऽलोचनापूर्वं गुरवे निवेद्य गुरुणाऽनुज्ञातो मण्ड Page #1521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा 1513 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा ल्यामेकको वाऽश्नीयात्, उपलक्षणमेतत्, अन्यदपि यत्किञ्चिदौधि- अत एवास्पृश्याऽऽदिधर्मका देवाश्च ते किल्विषाश्च ते देवाः किल्विषदेवाकोपग्रहिकभेदमुपकरण धर्मसाधनं तत्सर्व गुरुणाऽनुज्ञातमेव भोक्तव्यम्, स्तेषामिय किल्विषी। आसमन्तात् आभिमुख्येन युज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि अन्यथा दतमेव परिभुक्तं स्यादिति चतुर्थी 4 / तथा समानो धर्मः सधर्म- व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः किङ्करस्थानीया देवविशेषास्तेषाभियमाभिस्तेन चरन्तीति साधर्मिकाः प्रतिपन्नैकशासनाः संविग्नाः साधवः, तेषां योगी। असुरा भवनवासिदेवविशेषास्तेषामियमासुरी / सम्मुह्यन्तीति पूर्वपरिगृहीतक्षेत्राणामवग्रह मासाऽऽदिकालमाने पञ्चक्रोशाऽऽदिक्षेत्ररूप सम्मोहा मूढाऽऽत्मानो देवविशेषास्तेषामियं सम्मोही / एषा हु स्फुट याचित्वा स्थानाऽऽदि भोजनं वा कार्य, तदनुज्ञातं हि तत्र उपाश्रयाऽऽदि पञ्चविधा पञ्चप्रकारा अमशस्ता सक्लिष्टा भावना तत्तत्स्वभावाभ्याससमस्तं गृह्णीयात्, अन्यथा चौर्यं स्यादिति पञ्चमी 5 / एतास्तृतीयव्रतभा- रूपा, भणितेति शेषः / आसां च मध्ये संयतोऽपि सन्यो यस्यां भावनायां वनाः पञ्चा इदानीं चतुर्थव्रतभावनाःप्रतिपद्यन्ते तत्र आहारे गुप्तः स्यात्, वर्त्तते कथञ्चित्तद्भावमान्धात् स तद्विधेष्वेव कन्दर्पाऽऽदिप्रकारेषु देवेषु न पुनः स्निग्धमतिमात्रं भुञ्जीत, यतो निरन्तरदृब्धस्निग्धमधुररस- गच्छति, चारित्रलेशप्रभावात्। उक्तंच-"जो संजओ विएयासु अप्पसप्रीणितः प्रधानधातुपरिपोषणेन वेदोदयादब्रह्मापि सेवते, अतिमात्राऽऽ- त्थासु वट्टइ कहिं चि / सो तविहेसु गच्छइ, सुरेसु भइओ चरणहीणो हारस्य तु न केवल ब्रह्मव्रतविलोपविधयित्वागर्जनं, कायक्लेशकारि- ||1||" इति। यः पुनः सर्वथाऽपि चारित्ररहितः स भाज्यो विकल्पनीयः, स्वादपीति प्रथमा 1 / तथा अविभूषिताऽऽत्मा विभूषाविरहितः, देहस्ना- कदाचित्तद्विधेष्वप्य सुरेषूत्पद्यते, कदाचिचनारकतिर्यक्त्वभानुषेष्विति / नविलेपनाऽऽदिविविधविभूषानिरतो हि नित्यमुद्रिक्तचित्ततया ब्रह्मावि- एताश्च पञ्चापि भावनाः प्रत्येक पञ्चविधाः। राधकः स्यादिति द्वितीया 2 तथा स्त्रियं न निरीक्षेत, तदव्य तिरेकात्त- कंदप्पे 1 कुक्कुइए 2, दङ्गान्यपि वदनस्तनप्रभृतीनि सस्पृहं न प्रेक्षेत, निरन्तरमनुपमवनिताs- दुस्सीलत्ते य 3 हासकरणे 5 य। वयवविलोकने हि ब्रह्मबाधासम्भव इति तृतीया 3 / तथा स्त्रियं न संस्तु- परविम्हियजणणे वि य 5, वीत, स्त्रीभिः सह परिचयं न कुर्यात्, तत्संसक्तवसतितदुपभुक्तशयना- कंदप्पोऽणेगहा तह य॥४६॥ ऽऽसनाऽऽदिसेवनेन, अन्यथा ब्रह्मव्रतभङ्ग स्यादिति चतुर्थी 4 / तथा (प्रव०) (अस्या गाथायाः व्याख्या 'कंदप्पभावणा' शब्दे तृतीयभागे युद्धोऽवगततत्त्वो मुनिः क्षुद्रामप्रशस्यां ब्रह्मचर्यप्रस्तावात् स्त्रीविषयां कथा 177 पृष्ठे गता।) न कुर्यात, तत्कथाऽऽसक्तस्य हि मानसोन्मादः सम्पद्येत इति पञ्चमी (८)अथ दैवकिल्विषीं भावना पञ्चविधामाह५ / एताभिः पञ्चभिर्भावनाभिर्भावितान्तःकरणो धर्मानुप्रेक्षी धर्मसेवन सुयनाण 1 केवलीणं 2, तत्परः साधुः सन्धत्ते सम्यक्पुष्टिं नयति ब्रह्मचर्यमिति चतुर्थव्रतभावना धम्मायरियाण 3 संघ 4 साहूणं 5 / 4 / अथ पञ्चमव्रतभावना निगद्यन्ते-तत्र यः साधुः शब्दरूपरसगन्धान् माई अवण्णवाई, आगतान इन्द्रियविषयीभूतान, मकारोऽयमलाक्षणिकः स्पर्शाश्च सम्प्रा किदिवसिणं भावणं कुणइ // 50|| प्य समासाद्य मनोज्ञान् मनोहारिणः पापकान् विरूपान् इष्टानिष्टांश्वेत्यर्थः, गृद्धिमभिष्वङ्गलक्षणं, प्रद्वेषं चाप्रीतिलक्षणं यथाक्रमं न कुर्यात् श्रुतज्ञानस्य द्वादशाङ्गीरूपस्य, केवलिनां केवलज्ञानवता, धर्माऽऽ चार्याणां धर्मोपदेष्ट्रणां, सङ्घस्य साधुसाध्वीश्रावकश्राविकासमुदायपण्डितो विदिततत्त्वः सन्, सदान्तोजितेन्द्रियो विरतः सर्वसावधयोगेभ्यो भवत्थकिञ्चनः किशनबाह्याऽऽभ्यन्तरपरिग्रहभूतं नास्यास्तीति रूपस्य, साधूनां यतीनाम्, अवर्णवादी मायी च स्वशक्तिनिगूहनाऽऽ दिना मायावान, देवकिल्विषीं भावनां करोति। तत्र अवर्णः- अश्लाघा, व्युत्पत्त्या परिग्रहविरतिव्रतवानित्यर्थः / अन्यथा शब्दाऽऽदिषु मूर्छाऽऽ असद्दोषोद्घट्टनमिति यावत्। स चैवं श्रुतज्ञानस्यपृथिव्यादयः कायाः दिसद्भावात् पञ्चमव्रतविराधना स्यादिति पञ्चसु विषयेव्यभिष्वङ्ग प्रद्वेषव षड्जीवनिकायामपिव्यावर्ण्यन्ते, शास्त्रपरिज्ञाऽध्ययनाऽऽदिष्वपि वहुर्जनात् पञ्चमव्रतस्य पञ्च भावनाः, मिलितास्तु पञ्चविंशतिरिति / एताश्च शस्त एव। एवं व्रतान्यपि प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि तान्येव पुनः पुनस्तेषु समवायाङ्गतत्त्वार्थाऽऽदिषु किञ्चिदन्यथाऽपि दृश्यन्ते इति / / 471 / प्रव० सूत्रेषु प्रतिपोद्यन्ते। तथात एव प्रमादा भद्याऽऽदयः, अप्रमादाश्च तद्विपक्ष७२ द्वार। भूता भूयो भूयश्वतत्र तत्र कथ्यन्ते, नपुनरधिकं किञ्चिदपीति पुनरुक्तइदानीम् असुहाओ पणवीसं ति' त्रिसप्ततं द्वारमाह दोषान्, यच्च मोक्षार्थ घटयितव्यमिति कृत्वा किं सूत्रे सूर्यप्रज्ञकंदप्पदेव 1 किदिवस 2, प्त्यादिना ज्योतिःशास्त्रेण? तथा मोक्षार्थमभ्युद्यतानां यतीनां किं अमिओगा 3 आसुरी 4 य सम्मोह 5 योनिप्राभृतोपनिबन्धेन? भवहेतुत्वाज्ज्योतिषयोनिप्राभृतप्रभृतीनाएसा हु अप्पसत्था, मिति / उक्तं च- "काया वया य तच्चिय, ते चेव पमाय अप्पमाया पंचविहा भावणा तत्थ॥४८|| य। मोक्खाहिगारियाणं जोइसजोणीहि कि कजं?॥१॥" केवलिकन्दर्पः कामस्तत्प्रधाना निरन्तरं निर्मर्यादनिरन्तरतया विटप्राया नामवर्णवादो यथा-किगेषां ज्ञानदर्शनोपयोगी क्रमेण भवतः; उत युगपत्? देवविशेषाः कन्दपस्तेिषामियंकान्दपी एवं देवानांमध्ये किल्विषाः पापा / तत्र यदि क्रमेणेति पक्षः कक्षीक्रियते, तदा ज्ञानकाले न दर्शन, दर्शन Page #1522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा 1514 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावणा काले च न ज्ञानमिति परस्पराऽऽवरणतैव प्राप्ता / अथ युगपदिति द्वितीय पक्षः, सोऽप्ययुक्तः, यत एककालत्वाद्वयोरप्येकताऽऽपत्तिः प्राप्नोति / उक्तं च- "एगतरसमुप्पाए, अन्नोन्नाऽऽवरणया दुवेण्हं पि। केवलदसणणाणाणमेगकाले य एगत्तं / / 1 / / " धर्माऽऽचार्याणामवर्णवादो यथा-न शोभनेतेषां जातिः, नैते लोकव्यवहारकुशलाः, नचैते औचित्यं विदन्तीत्यादि विविधं गुरून् प्रतिभाषते, न चैतेषां विनयवृत्त्या वर्तते / तथा अहितश्छिद्राण्य-न्वेषयन् सर्वसमक्ष गुरूणामेवासतोऽपि दोषान् वदति, सर्वदैव च तेषां प्रतिकूलतामाचरतीति। उक्तंच-"जच्चाईहिँ अवण्णं, विभासइ वट्टइन वावि उववाए। अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवाई अणणुकूलो / / 1 / / ' सघस्यावर्णवादो यथा- बहवश्च पभुशृगालाऽऽदीनां सङ्घाः , तत्कोऽयमिह सधो भवतामाराध्य इत्यादि वदति। साधूनामवर्णवादो यथा-नामी साधवः परस्परमपि सहन्ते, अतएव देशान्तरंपरस्परस्पर्धया परिभ्रमन्ति, अन्यथा एकत्रैव संहत्या तिष्ठेयुः / मायावितया सर्वदैव लोकाऽऽवर्जनाय मन्दगामिनः, महतोऽपि च प्रकृत्यैव निष्ठुरोः, तदेव रुष्टास्तदैव तुष्टाश्च / तथा गृहिभ्यस्तैस्तैश्चाटुवचनैरात्मानं रोचयन्ति, सर्वदा सर्ववस्तु-सञ्चयपराश्व। उक्तंच"अविसहणाऽतुरियगई, अणाणुवित्तीय अवि गुरूणं पि। खणमित्तपीइरोसा, गिहिवच्छलगा य संजयगा / / 1 / / '' अन्यैरप्युक्तम्"अनित्यताशब्दमुदाहरन्ति, भग्नां च तुम्बी परिशोचयन्ति। यथा तथाऽन्यं च विकत्थयन्ति, हरीतकीं नैव परित्यजन्ति / / 1 / / अन्यत्र तु 'सव्वसाहूणं ति' पठित्वा 'मायीती भिन्नैव पञ्चमी भावना प्रतिपादिता। यथा- "गृहइ आइसहावं, छायइ य गुणे परस्स संतो वि। चोरो व्व सव्वसंकी, गूढाऽऽयारो हवई माई।।१।।" अथ आभियोगी भावना पञ्चभेदामाहकोउऐं 1 भूईकम्मे 2, पसिणेहिं 3 तह य पसिणपसिणेण / तह य निमित्तेणं 5 चिय, पंचवियप्पा भवे साय॥५१॥ अत्र सप्तमी तृतीयाऽर्थे, ततः कौतुकेन 1 'भूतिकर्मणा 2' प्रश्नेन 3, प्रश्नाप्रश्नेन 4, निमित्तेन 5 च पञ्चविकल्पा पञ्चभेदा भवेत् सा च आभियोगिकी भावना / तत्र बालाऽऽदीनां रक्षाऽऽदिकरणनिमित्तं स्नपनकरभ्रमणाऽऽभिमन्त्रणपृथक्करणधूपदानाऽऽदि यत्क्रियते तत्कौतुकम् / उक्तं च- "विन्हवणहोमसिरपरिरया य खारडहणाइँ धूवेइ / असरिसवेसागहणं, अवतासणउब्भमणबधो // 1 // " तथा च सति शरीरभाण्डकरक्षाऽर्थ भरमसूत्राऽऽदिना यत्परिवेष्टनकरणं तद् भूमिकर्म। उक्तंच- "भूईऍ मदियाए, इव सत्तेण व होइ भूइकमंतु। वसहीसरीरभंडयरक्खाअभिओग-माईया // 1 // " तथा यत्परस्य पार्वं लाभा लाभाऽऽदि पृच्छ्यते, स्वयं वा अड्गुष्ठदर्पणखड्ग तोयाऽऽदिषु दृश्यते स प्रश्नः / उक्तंच- "पण्हो य होइ पसिणं, ज पासइ वा सयं तुतं पसिणं। अंगुट्ठउच्चिट्ठपए, दप्पणअसितोयकुड्डाई॥१॥" तथा स्वप्ने स्वयं विद्यया कथितं, घण्टिकाऽऽद्यवतीर्णदेवतया वा कथितं सत्यदन्यस्मै शुभाशुभजीवितमरणाऽऽदि परिकथयति स प्रश्नाप्रश्नः / उक्तं च- ''पसिणापसिणं सुमिणे, विजासिद्धं कहेइ अन्नस्स / अहवा आइंखणियाघटियसिद्ध परिक्हेइ / / 1 // " तथा निमित्तमतीतानागतवर्तमानवस्तुपरिज्ञानहेतुर्ज्ञानविशेषः। उक्तंच-"तिविहं होइ निमित्तं, तीयपडुपण्णऽनायगं चेव / तेण विणा वि न नेयं, नजइ तेणं निमित्तं तु॥१॥" एतानि च कौतुकभूतिकर्माऽऽदीनि गौरवाऽऽदिनिमित्तं कुर्वाणः साधुरभियोगनिर्वृत्तं कर्मावबध्नाति, अपवादपदेन तु गौरवरहितः सन्नतिशयज्ञाने सति निःस्पृहवृत्त्या यदाऽसौ करोति तदाऽसौ आराधक एव, उच्चं च-गोत्रं बध्नातीति तीर्थोन्नतिकरणात्। उक्तंच- "एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आभिओगियं बंधे। बीयं गारवरहिओ, कुव्वइ आराहगुच्चं च // 1 // " __ अथ आसुरी भावनां पञ्चभेदामाहसइविग्गहसीलत्तं 1, संसत्ततवो 2 निमित्तकहणं च 3 / निक्किविया विय 4 अवरा, पंचमगं निरणुकंपत्तं 5, // 52 / / सदा विग्रहशीलत्वं १संसक्ततपः 2 निमित्तकथनं च 3 निष्कृफ्ताऽपि चापरा, पञ्चमंच निरनुकम्पत्वमिति। तत्र सदा सर्वकालं विग्रहशीलत्यं, पश्चादननुतापितया श्रमणाऽऽदावपि प्रसत्यप्राप्त्या च विरोधानुबन्धः। यदाह- "निच्चं विग्गहसीलो, काऊण य नाणुतप्पई पच्छा / न य खामिओ पसियइ, सपक्ख परपक्खिओवावि।।१||" तथा संसक्तस्य आहारोपधिशय्याऽऽदिषु सदा प्रतिबद्धभावस्य, आहाराऽऽद्यर्थमेव च तपोऽनशनाऽदितपश्चरणं संसक्ततपः / यदाह- "आहारउवहिसेजा, जस्स य भावओ उ निच्चसंसत्तो। भावोवहओ कुणइ, तवोवहाणं तु दिट्ठीए / / 1 / / ' तथा त्रैकालिकस्य लाभालाभसुखदुःखजीवितमरणविषयस्य निमित्तस्य कथनमभिमानाभिनिवेशाद् व्याकरणम् / यदाह"तिविहनिमित्तं एकेक-छविहं जंतु वन्नियं पुव्वं / अभिमाणा भिनिवेसा, वागरियं आसुरं कुणइ / / 1 / / " तथा स्थावराऽऽदिसत्त्वेष्वजीवप्रतिपत्त्या गतघृणः कार्यान्तरव्यासक्तः सन् गमनाऽऽसनाऽऽदि यः करोति, कृत्वा च नानुतप्यते केन चिदुक्तः सन् स निष्कृपः, तद्भावो निष्कृपतया / यदाहुः- "चंकमणाईजुत्तो, सुनिकिवो थावराइसत्तेसु / काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निकिवो होइ // 1 // " तथा यः कृपापात्रं कुतश्चिद्धेतोः कम्पमानमपि परं दृष्टा क्रूरतया कठिनभावः सन् नानुकम्पाभाग्भवति स निरनुकम्पः, तस्य भावो निरनुकम्पत्वम् / यदाह- "जो उ परं कंपंतं, दट्टण न कंपए कविणभावो। एसोय निरणुकंपो, पण्णत्तो वीयरागेहिं॥१॥" अथ सांमोहीं भावनां पञ्चविधामाहउम्मग्गदेसणा १मग्गदूसणं 2 मम्गविपडिवत्तीय 3 / Page #1523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावणा 1515 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावत्थव मोहो य 4 मोहजणणं 5, मनोवाकायेभ्योऽशुभेभ्यस्त्रुट्यति। यदिवा-अतीव सर्वबन्धनेभ्यस्त्रुएवं सा हवइपंचविहा / / 53|| ट्यति मुच्यते अतित्रुट्यति संसारादतिवर्तेत, मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः उन्मार्गदेशना 1 मार्गदूषण 2 मार्गविप्रतिपत्तिः 3 मोहः 4 मोहजननंच सदसद्विवेकी वाऽरिमन् लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके भूतग्रामलोके वा 5 / एवं सा सम्मोही भावना भवति पञ्चविधा / तत्र पारमार्थिकानि यत्किमपि पापकर्म सावद्यानुष्ठानरूपं तत्कार्य वा अष्टप्रकार कर्म तत् ज्ञानाऽऽदीन्यदूषयन्नेव तद्विपरीतं धर्ममार्ग यदुद्दिशति सा उन्मार्गदेशना। ज्ञपरिज्ञया जानन प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तदुपादानं परिहरन् ततस्त्रुआह च- "नाणाऽऽदि अदूसितो, तविवरीयंतु उवदिसइ मगं। उम्मग्ग- ट्यति, तस्यैव लोकं कर्म वा जानतो नवानि कर्माण्यकुर्वतो निरुद्धाऽऽश्रदेसगो ए-स आयअहिओ परेसिंच।।१।।" तथा पारमार्थिक ज्ञानदर्शन- वद्वारस्य विकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वसंचितानि कर्माणि त्रुट्यन्ति, निवर्तन्ते चारित्रलक्षणं भावमार्ग, तत्प्रतिपन्नांश्च साधुन् पण्डितमानी स्वमनीषा- वा, नवं च कर्माकुर्वतोऽशेषकर्मक्षयो भवतीति॥६॥ सूत्र०१ श्रु०१५ निर्मितैर्जातिदूषणैर्यद् दूषयति तन्मार्गदूषणम् / आह च- "नाणाइति- अातत्प्रतिपादके आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य पञ्चदशेऽध्ययने च। हामगं, दूसइ जो जे य मग्गपडिवन्ना। अखुहो जाईए खलु, भण्णइ सो आचा०१श्रु०१ अ०१ उ०। सा प्रश्र०) मग्गदूस त्ति // 1 // " तथा तमेव ज्ञानाऽऽदिमार्गमसद्दूषणैर्दूषयित्वा ___ भावनाविषयसूचीजमालिवद्देशत उन्मार्ग यत्प्रतिपद्यते सा मार्गविप्रतिपत्तिः / आह च- (1) भावनानिर्वचनम्। "जो पुण तदेव मग्गं, दूसित्ता अपंडिओ खतमाए। उम्मग्गं पडिवाइ, (2) भावनानिक्षेपचातुर्विध्यम्। विप्पडिवण्णे समग्गस्स॥१॥" तथा निकाममुपहतमतिः सन्नतिगहनेषु (3) भावनापरिसंख्यानम्। ज्ञानाऽऽदिविचारेषु यन्मुह्यति, तच्च परतीर्थिकसम्बन्धिनीं नानाविधां (4) आत्मभावनाया द्रव्यतो भावतश्च द्वैविध्यम्। समृद्धिमालोक्य मुह्यति स मोहः / आह च- "तह तह उवयमइओ, (5) भावनानां नामग्राहं फलप्ररूपणम्। मुज्झइनाणचरणंतरालेसु। इड्डीओय बहुविहा, दलुं जन्नो तओ मोहो // 1 // ' तथा स्वभावेन कपटेन वा दर्शनान्तरेषु परस्य मोहमुत्पादयति (6) मैत्र्यादिचातुर्विध्येन भावनानां निरूपणम्। तन्मोहजननम्। आह च-"जो पुण मोहेइपरं, सम्भावेणं कइतवेणं वा। (7) पञ्चविंशतिर्भावनाः। संमोहभावणं सो, पकरेइ अबोहिलाभाय।।१।।" एताश्च पञ्चविंशतिरपि (8) कन्दर्पदैवकिल्विषाभियोगिकाऽऽसुरीसांमोहीभेदतो भावनापञ्चभावनाः सम्यक् चारित्रविघ्नविधायित्वादशुभा इति यतिभिः परिहर्तव्याः। विधत्वम्। यदु-क्तम्- ''एयाउ विसेसेण, परिहरइ चरणविग्घभूयाओ / एयानि- (E) सद्भावनाभावितस्य यद्भवति तन्निदर्शनम्। रोहो उच्चिय, सम्म चरणं पि पावति // 1 // " इति। प्रव०७३ द्वार।। भावणाजोग पुं०(भावनायोग) योगभेदे, यो० वि०। अष्ट०। भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्म भावित्तु अप्पयं / / भावणाणाण न०(भावनाज्ञान) भावनामयं ज्ञानं भावनाज्ञानम्। ज्ञानभेदे, भावनाभिर्महाव्रतसम्बन्धिनीभिः पञ्चविंशति संख्याभिः, अथवा षो०११ विव०। (तद्वक्तव्यता 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1681 पृष्ठेगता) अनित्यत्वाऽऽदिभिर्द्वादशप्रकाराभिरिति। उत्त०१६ अा आचा०। आ० भावणाभाविय त्रि०(भावनाभावित) भावनाऽऽलोचना तया भावितो चू०। स०। प्रश्राधा आवा वासितः। प्रश्न०५ सम्ब० द्वार।आलोचनया वासिते, भावनयाऽभ्यास(६) सद्भावनाभावितस्य यद् भवति तदर्शयितुमाह रूपया भावितो वासितः / अभ्यासेन वासिते, "सासणे विगयमोहाणं, भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया। पुट्विं भावणभाविया। अचिरेणेव कालेण, दुक्खस्संतमुवागया।।५।।" नावा व तीरसंपन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ।।५।। उत्त०१४ अग भावनाभिर्योगः सम्यक्प्रणिधानलक्षणो भावनायोगस्तेन शुद्ध आत्मा- | *भावितभावन त्रि०ा भाविता भावना येनासौ भावितभावनः। पूर्वोत्तरअन्तरात्मा यस्य स तथा, सच भावनायोगशुद्धाऽऽत्मा सन् परित्यक्त निपातस्यातन्त्रत्वात्। वासिताभ्यासे, उत्त०१४ अ०। प्रवका अनु०॥ संसारस्वभावो नौरिव जलोपर्यवतिष्ठते संसारोदन्वत इति / नौरिव- भावणिसीह न०(भावनिशीथ) भवनं भावः, निशीथमप्रकाश, भाव एव यथा जले नौरनिमज्जनत्वेन प्रख्याता एवमसावपि संसारोदन्वति न निशीथं भावनिशीथम्। निशीथभेदे, नि०चू० 130 / / निमज्जतीति। यथा चासौ निर्यामिकाधिष्ठिताऽनुकूलवातेरिता समस्त- भावण्णु पुं०(भावा) भावश्चित्ताभिप्रायस्तंजानातीति भावज्ञः। चित्ताभिद्वन्द्वापगमात्तीरमास्कन्दत्येवमायतचारित्रवान् जीवपोतः सदागमकर्ण- प्रायज्ञातरि, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। धाराधिष्ठितस्तपोमारुतवशात् सर्वदुःखाऽऽत्मकात् संसारात्रुट्यत्य- | भावतित्थ न०(भावतीर्थ) संघे, विशे। (तस्य च यथा भावतीर्थत्वं तथा पगच्छति मोक्षाऽऽख्यं तीरं सर्वद्वन्द्वोपरमरूपमवाप्नोतीति / / 5 / / 'तित्थ' शब्दे चतुर्थभागे 2243 पृष्ठे उक्तम्) अपि च भावत्थ पुं०(भावार्थ) अभिप्रेतार्थे , श्रा०। तिउट्टई उ मेधावी, जाणं लोगंसि पावर्ग। भावत्थव पुं०(भावस्तव) भावः शुभपरिणामः प्रधान यत्र स्तवे सभावस्तवः / तुटुंति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ / / 6 / / यद्वा-भावेनान्तरप्रीत्या तथाविधकर्मक्षयोपशमापेक्षयासर्वविरतिदेशविरतिस हि भावनायोगशुद्धाऽऽत्मा नौरिव जले संसारे परिवर्तमानस्त्रिभ्यो / प्रतिपत्तिस्वभावेन स्तवो भावस्तवः। दर्श०३तत्व। शुभाध्यवसायेन स्तु Page #1524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्पमाण 1516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावलोग तौ, आ०म०२ अ०। संयमे, प्रतिका परमार्थपूजायाम, अध्यात्मपू- _ 'पमाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 472 पृष्ठे व्याख्यातम् ) जायाम्, चरणप्रतिपत्तौ च / " भावत्थवो चरणपडिवत्ती।' पञ्चा०६ भावप्पमाणनाम न०(भावप्रमाणनामन्) भावो युक्तार्थकत्वाऽऽदिको विव०।"भावत्थवाणुभावं, असेसभवभयक्खयकर गुणः, स एव तद्वारेण वस्तुनः परिच्छिद्यमानत्वात् प्रमाणम्, तेन निष्पन्नं नाउं।" महा०३ अ० तद्रूपे स्तवभेदे च / प्रतिक्षा दर्श०। पं०व०। तदाश्रवेण निवृत्तं नाम भावप्रमाणनाम / नामभेदे, अनु०। भावत्थसंगय त्रि०(भावार्थसंगत) भावस्तत्त्वमैदम्पर्य्य तेन तद्रूपो वाऽर्थो- से किं तं भावप्पकमाणे? भावप्पमाणे चउध्विहे पण्णत्ते / तं ऽभिधेयो भावार्थः / तेन संगतो युक्तः। भावार्थोपेते, पञ्चा० 1 विव०। जहा-सामासिए, तद्धियए, धाउए, निरुत्तिए। भावत्थिरकरण न०(भावस्थैर्याकरण) चित्तस्थिरतासम्पादने, ध० भावो युक्तार्थत्वाऽऽदिको गुणः स एव तद्द्वारेण वस्तुनःपरिच्छिद्यभावेन वा आशीर्वचनहेतुभूतेन प्रतिष्ठास्थैर्यकरणम् / भावहेतुक- मानत्वात् प्रमाणं तेन निष्पन्न तदाश्रयेण निवृत्त नाम सामासिकाऽऽदि प्रतिष्ठायाम्, ध०२ अधि। चतुर्विधं भवतीति परमार्थः / अनु०। . भावत्थेजकरण न०(भावस्थैर्यकरण) 'भावत्थिरकरण' शब्दार्थे, ध०२ | भावप्पडिवत्ति स्त्री०(भावप्रतिपत्ति) भावेनान्तःकरणेन प्रतिपत्तिरअधि। नुबन्धः। भावानुबन्धे, ध०१ अधिन भावदेव पुं०(भावदेव) भावेन देवगत्थादिकम्र्मोदयजातपर्यायेण देवो भावबंध पुं०(भावबन्ध) भावेन मिथ्यात्वाऽऽदिना भावस्य, चोपयोगभावभावदेवः / देवभेदे, भ० 12 श०६उला भावदेवादेवाऽऽयुष्कमनुभवन्तो / / व्यतिरेकाजीवस्य बन्धो भावबन्धः / बन्धभेदे, भ० 18 श०३उ०। वैमानिकाऽऽदयः / स्था०५ ठा० 130) पार्श्वनाथचरित्रकालिका55- | (भावबन्धः 'बंध' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1165 पृष्ठे गतः) चार्यकथानकयोः कर्तरिआचार्ये, जै० इ०। भावन्मास पुं०(भावाभ्यास) भावानां सम्यग्दर्शनाऽऽदीनां भवोद्वेगेन भूयो भावपणिहि पुं०(भावप्रणिधि) भावरूपप्रणिधौ, दश०८ अ०। भूयः परिशीलनम्। सम्यग्दर्शनाऽऽदीनां भूयो भूयः परिशीलने, ध०१ (अत्र विस्तरः 'पणिहि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 381 पृष्ट गतः) अधि। भावपण्णत्ति स्त्री०(भावप्रज्ञप्ति) प्रज्ञप्तिभेदे, जं०१ वक्ष०। (अस्याव भावभेय पुं०(भावभेद) परिणामविशेषे, पञ्चा०३ विव० क्तव्यता 'पण्णति' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 384 पृष्ठे गता) भावमल न०(भावमल) कर्मसम्बन्धयोग्यतायाम्, द्वा०१३ द्वा०। भावपय पुं०(भावपद) भावरूपे पदे दश०२ अ०। (भेदाः पय' शब्देऽ भावरहिय त्रि०(भावरहित) भावापेते, विशे० स्मिन्नेव भागे 502 पृष्ठे गताः) भावलेस्सा स्त्री०(भावलेश्या) अन्तरपरिणामे, भ० 12 श० 5 उ०। भावपवित्ति स्त्री०(भावप्रवृत्ति) सारक्रियायाम, पञ्चा० १८विव०। / भावलोग पुं०(भावलोक) औदयिकाऽऽदय एव भावा लोक्य मानत्वाद् भावपहाण त्रि०(भावप्रधान) परमार्थसारे, "बुधस्य भावप्रधानतु।' षो० भावलोकः। औदयिकाऽऽदिके, दश०१ अ० स०। 1 विव०॥ शुभाध्यवसायकारे, पञ्चा०१४ विव० संवेगसारे, पञ्चा०१५ भावलोकमुपदर्शयतिविव०ा भाव आत्मपरिणामः प्रधानः साधकतमोयस्मिन् सः / शुभभाव- ओदइए, उवसमिए,खइए यतहा खओवसमिए य। साध्ये, पञ्चा० 4 विवा परिणामें सन्निवाए, य छव्विहो भावलोगो उ।। भावपाण पुं०(भावप्राण) ज्ञानाऽऽदिषु, प्रज्ञा०१ पद / (अत्र विस्तरः कर्मण उदयेन निवृत्त औदयिकः, तथा उपशमेन, कर्मण इति गम्यते, 'पण्णवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 388 पृष्ठे गतः) निर्वृत्त औपशमिकः, क्षायेण निर्वृत्तः क्षायिकः, तथा क्षयिणः काशस्य भावपिंड पुं०(भावपिण्ड) भावरूपे द्विविधे पिण्डे, पिं० क्षयेण अनुदितस्योपशमेन निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः परिणाम एव पारिणा(व्याख्या 'पिंड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 618 पृष्ठ गता) मिकः, सन्निपातो द्वित्रिभावानां संयोगः, सन्निपाते भवः सान्निपातिकः, भावपुरिस पुं०(भावपुरुष) पूः शरीरम्।पुरि शरीरे शेते इति पुरुषः। भावतः सच ओघतोऽनेकभेदोऽवसेयः। अवरुद्धास्तु पञ्चदश भेदाः। पुरुषो भावपुरुषः। पारमार्थिकः पुरुषः / द्रव्याभिलाप-पुरुषाऽऽदिसर्वो उक्तंचपाधिरहिते शुद्धे जीवे, विशे० आ०म० "ओदइऍ खओवसमे, परिणाने केको गतिचउक्के वि। भावपूया स्त्री०(भावपूजा) पूजाभेदे,ध०२ अधिo (भावपूजाष्टकम् 'पूया' खयजोगेण वि चउरो, तदभावो उवसमेणं ति॥१॥ शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1073 पृष्ठे व्याख्यातम्) उवसमसेढी एक्को, केवलिणो वियतहेव सिद्धस्स। भावपोग्गलपरियट्ट पु०(भावपुद्गलपरावर्त) पुद्गलपरावर्त्तभेदे, प्रव० 162 अविरुद्धसन्निवाइएँ, भेदा एमेव पन्नरस॥२॥" द्वारा पं०सं०। कर्म०। (तद्वक्तव्यता 'पोग्गलपरियट्ट' शब्देऽस्मिन्नेव एवमनेन प्रकारेण षड्विधः षट्प्रकारो भावलोकः भाव एव लोको भागे 1113 पृष्ठे गता) भावलोकः। भावप्पमाणन०(भावप्रमाण) भवनं भावो वस्तुनः परिणामो ज्ञानाऽदिश्व, तिव्वो रागो य दोसो, य उदितो जस्स जंतुणो। प्रमितिः प्रमीयते अनेन प्रमीयते स इति वा प्रमाणम् / भाव एव प्रमाण जाणीहि भावलोगंतमणंतजिणदेसियं सम्म / / भावप्रमाणम्, भावसाधनपक्षे प्रमितिर्वस्तुपरि-च्छेदस्तद्धेतुत्वाभावस्य तीव्र उत्कटो रागोऽभिष्वगल क्षणो, द्वेषोऽप्रीतिलक्षणों प्रभाणता / प्रमाणभेदे, अनु०। ('से किं तं पमाणे?' इत्यादि सूत्रम् यस्य जन्तोः प्राणिन उदीर्ण स्तं प्राणिनं तेन भावेन लोक्य Page #1525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावसच 1517 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावसावग त्वात जानीहि भावलोकमनन्तजिनदेशितमेकवाक्यतया अनन्तजिन- भ० 17 श०३ उ०। प्रश्नका उत्त० भावलिङ्गशुद्धिरूपे अनगारगुणभेदे, कथित सम्यक् अदैपरीत्येन। आ०म०२ अ०॥ आव०४ अण भाववण पुं०(भावव्रण) चरणातिचाररूपे क्षते, "भाववणतिगिच्छाए।' भावसचेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? भावसच्चेणं भावविसोहिं पञ्चा० 16 विव०। जणयइ, भावविसोहीए वट्टमाणे अरहंत-पण्णत्तस्स धम्मस्स भावविजय पुं०(भावविजय) विमलहर्षवाचकस्य वंशपरम्परायां भवे आराहणयाए अन्भुट्टेइ, अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आराहणस्वनामख्याते आचार्य , कल्प०। तथा च कल्पसूत्रवृत्तौ याए अब्भुट्टित्ता परलोगधम्मस्स आराहए भवइ / / 50 / / "समशोधयंस्तथैना, पण्डितसंविग्नसहृदयवतंसाः। भावसत्येन शुद्धान्तराऽऽत्मतारूपेण पारमार्थिकावितथत्वेन भावविशु द्धिविशुद्धाध्यवसायाऽऽत्मिकां जनयति, भावविशुद्धौ वर्तमानो जीवोऽश्रीवमलहर्षवाचक-वंशे मुक्तामणिसमानाः / / 13 / / हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्याऽऽराधनयाऽनुष्ठानेनाभ्युत्तिष्ठते मुक्त्यर्थमुत्सहते। धिषणानिर्जितधिषणाः, सर्वत्र प्रसृतकीर्तिकर्पूराः। यदि वा आराधनायै-आवर्जनार्थमभ्युत्तिष्ठते, अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्याश्रीभावविजयवाचक-कोटीराःशास्त्रयसुनिकषाः॥१४॥" राधनयाऽऽराधनायै वाऽभ्युत्थाय परलोके भवान्तररूपे धर्मः परलोककल्प०३ अधि०६ क्षण। धर्मस्तस्य, पाठान्तरतः- परलोके वाऽऽराधको भवति, प्रेत्य जिनभावविज्ज पुं०(भाववैद्य) तात्त्विकवैद्ये, "तह वि पुण भावविजा, तेसि धर्मावाप्त्या विशिष्टभवान्तरप्राप्त्यावेति भावः 50 / उत्त० 26 अ01 अवणिति तं वाहिं।'' पं० व० 4 द्वार। भावभूयिष्ठेशुक्लाऽऽदिपायमाश्रित्य सत्यं भावसत्यम्। सत्यभेदे, यथा भावविणिवेस पुं०(भावविनिवेश) सदन्तःकरणविनिवेशे, षो०८ विव०॥ सत्यपि पञ्चवर्णसंभवेशुक्लवर्णस्योत्कटत्वाच्छुक्ला बलाकेति। स्था० भावविण्णत्ति स्वी०(भावविज्ञप्ति) भावः सत्ता तल्लक्षणं स्वं स्वमसाधारणं 10 ठा०ा भावतो वर्णाऽऽदिरूपात् सत्या भावसत्या, यत्र यो भावो स्वरूप तस्य विशेषेण ज्ञापना विज्ञप्तिर्विज्ञानं परिच्छेदः। भावपरिच्छेदे, वर्णाऽऽदिरुत्कटस्तेन सत्येति यावत् / भाषाभेदे, स्त्री०। यथा सत्यपि "भावविण्णत्तिकारणमनंत।" नं० आ०म०] पञ्चवर्णसम्भवेशुक्लवर्णस्योत्कटत्वाच्छङ्खः शुक्ल इत्यादि। ध०३ भावविभत्ति स्त्री०(भावविभक्ति) विभक्तिभेदे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ / अधि०। उ० (तद्भेदान् ‘विभत्ति' शब्दे वक्ष्ये) भावसम्मत्त न०(भावसम्यक्त्व) जीवाऽऽदिसकलतत्त्वपरिशो-धनरूपभावविसोहि स्त्री०(भावविशोधि) अरक्तद्विष्टबुद्धो, (भावशुद्ध्या प्रवर्त ज्ञानाऽऽत्मक भावसम्यक्त्वम्। सम्यक्त्वभेदे,ध०२ अधि। पं०व०। मानस्य न कर्मबन्ध इत्यस्य निराकरणं 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 331 भावसमोसरण न०(भायसमवसरण) भावानामौदयिकाऽदीनां समवसपृष्ठ द्रष्टव्यम्) "एवं भावविसोहीए, निव्वाण-मभिगच्छद।" सूत्र०१ श्रु० रणमेकत्र मेलको भावसमवसरणम् / औदयिकाऽऽदिभावनामेकत्र मेलके, 1 अ० ३उ०। परिणाम विशुद्धौ, "भावविसुद्धिसमेया।" पञ्चा०१२ "भावसमोसरणे पुण, णायव्वं छव्यिहम्मि भावम्मि।'' सूत्र०१ श्रु०१२ अ० विव०ा भावस्याऽऽत्मपरिणामस्य जलमिव वस्त्रस्य विशोधिकारणत्वाद् भावसल्ल न०(भावशल्य) "सम्म दुच्चरिअस्सापरसक्खिअमप्पगासणं भावविशोधिः। महाव्रतोचारणे, ध०३ अधिपा०। प्रत्याख्यानशुद्धि जंतु। एवं च भावसल्लं, पणत्तं वीयरागेहिं॥१॥' इत्युक्तलक्षणे स्वकृतभेदे च। आव०६ अ०। (तत्स्वरूपं भावसुद्धि' शब्दे वक्ष्यते) दुश्चरितस्य सम्यक् परसाक्षिकाप्रकाशनरूपे शल्यभेदे, ध०२ अधि०। भावसंथव पुं०(भावसंस्तव) संस्तवभेदे, नि०चू०५ उ०। (वक्तव्यता भावसागर पुं०(भावसागर) स्वनामख्याते आचार्ये, "तगच्छपुष्कर'संथव' शब्दे) दिवाकरभीषु (भीषुरिति चिन्त्यम्: अभीषुशब्दस्य किरणार्थकत्वाद्, भागुरिमतेऽवाप्योरेवोपसर्गयोरल्लोपविधानाच।)तुल्याः श्रीभावसागरमावसंधय पुं०(भावसंधक) भावो मोक्षस्तत्संधकः। आत्मनो मोक्षाऽऽस वुधप्रथिताभिधानाः।" द्रव्या०११ अध्या०। अञ्चलगच्छे श्रीसिद्धान्तनकारिणि दश०६ अ०४ उ०। सूरिशिष्ये, अयं वैक्रमीये 1510 वर्षे जातः, 1583 वर्षे च स्वर्गतः। भावसंवर पुं०(भावसम्वर) भावेन तत्त्ववृत्त्या सम्वरो भावसम्वरः। जै०३० तत्त्ववृत्त्या सम्यरे, बृ०॥ भावसार पुं०(भावसार) भावगर्भे, पञ्चा०६ विव०। पं०सू० अथ भावसम्बरमाह भावसावग पुं०(भावश्रावक) यथार्थाभिधानश्राद्धे,ध००। नाणेण सव्वभावा, नञ्जते जे जहिं जिणक्खाया। कयवयकम्मो तह सी-लवं च गुणवं च उज्जुववहारी। नाणी चरित्तगुत्तो, भावेण उ संवरो होइ॥ गुरुसुस्सूतो पवयण-कुसलो खलु सावगो मावे // 33 / / ज्ञानेन सर्वेऽप्यशेषा हिताहितरूपा भावा ज्ञायन्ते ये यत्रोपगिनो जिनैरा कृतमनुष्ठितंव्रतविषयं कर्मकृत्यं वक्ष्यमाणं येन स कृतव्रतकर्मा 1, तथा ख्याताः, अत एव ज्ञानी चारित्रगुप्तो भावेन तत्ववृत्त्या संवरो भवति, शीलवानपि व्याख्यास्यमानस्वरूपः 2, गुणवान् विवक्षितगुणोपेतः 3, गुणगुणिनोरभेदविवक्षणादेवं निर्देशः / बृ०१उ०२ प्रक० चकारः समुच्चये, भिन्नक्रमश्च / तत ऋजुव्यवहारी च सरलमनाश्च 4, भावसब न०(भावसत्य) शुद्धान्तराऽऽत्मतारूपे पारमार्थिकायितथत्ये, गुरुशुश्रूषो गुरुसेवाकारी५, प्रवचनकुशलो जिनमततत्त्वविताखलुरवधारणे Page #1526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावसावग 1518 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावसुद्ध एवंविधः श्रावको भवति भावे भावविषये भावश्रावक इति गाथाऽक्षरार्थः श्चैकविषयाणां भेदो नोपलभ्यते, तक्तथं न पुनरुक्तदोष इति? सत्यम्। // 33 / / ध०र० २अधि०१ लक्ष०ा देशविरतेश्चित्ररूपत्वादेकस्मिन्नपि विषये परिणामनानात्वमेकस्यापि एसो पवयणकुसलो, छन्भेओ मुणिवरेहि निद्दिट्ठो। परिणामस्य विषयभेदोऽपि संभवतीति सर्वभेदनिषेधार्थत्वात्प्रपञ्चस्यन किरियागयाइँ छ चिय, लिंगाई भावसङ्घस्स / / 55|| पौनरुक्त्यमिति व्याख्यानगाथाभिः प्रकाशितमेवातः सूक्ष्मधिएष उक्तस्वरूपःप्रवचनकुशलः षड्भेदः षट्प्रकारो मुनिवरैः पूर्वाss याऽऽलोच्य समाधानान्तरमपि विधेयमिति॥ध०२० 2 अधि० 6 लक्ष०। चार्य : निर्दिष्टस्ततश्चावसितं भावश्रावकलिङ्गषट्कप्रकरणमित्येत- भावसाहु पुं०(भावसाधु) परमार्थिकयतौ, पच्चा०६ विवा पं०व०। दर्शयन्नाह-क्रियागतानि क्रियोपलक्षणानि 'चिय' शब्दस्यावधारणार्थ तथा च भावश्रावकान् प्रतिपादयतित्यात् षडेव, लिङ्गानि लक्षणान्यग्ने मवद्धावश्राद्धस्य यथार्थाभिधान- इय सतरसगुणजुत्तो, जिणाऽऽगमे भावसावगो भणिओ। श्रावकस्येति। एस उण कुसलजोगा, लहइ लहुं भावसाहुत्तं // 77 // ननु किमन्यान्यपि लिङ्गानि, सन्ति, येनैवमुच्यते क्रियागतानि, इत्युक्तप्रकारेण सप्तदशगुणयुक्तो जिनाऽऽगमे भावश्रावको भणित इति सत्यं सन्त्येव। यत आह प्रकटार्थम् / एष एवंविधः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः किं विशिनष्टि भावगयाई सतरस, मुणिणो एयस्स विंति लिंगाई। द्रव्यसाधुस्तावदेष भणित एवाऽऽगमे। यदुक्तम्-"मिउपिंडो दव्वघडो, जाणियजिणमयसारा, पुव्वायरिया जओ आहु // 56 / / सुसावओ तह य दव्वसाहु त्ति। साहू य दव्वदेवो, सुद्धनयाणं तु सव्वेसिं भावगतानि भावविषयाणि सप्तदश मुनयः सूरय एतस्य प्रकृत-श्रावकस्य 111 // " एवंविधपरिणामोपार्जितकुशलयोगात्पुनर्लभतेऽवाप्नोति लघु ब्रुवते प्रतिपादयन्ति लिङ्गानि चिहानि ज्ञातजिनमतसारा इति व्यक्तं, श्रीघ्र भावसाधुत्वं यथा-वस्थितयतित्वमिति। ध० 202 अधि०६ लक्ष०। पूर्वाचार्या यतो यस्मदाहुःब्रुवते इत्यनेन स्वमनीषिकापरिहारमाह। कीदृशः पुनर्भावसाधुर्भवतीति? उच्यतेकिं तदाहुरित्याह "निर्वाणसाधकान् योगान्, यस्मात्साधयतेऽनिशम् / / इत्थिंदियत्थ संसार विसय आरंभ गेह दंसणओ। समश्च सर्वभूतेषु, तस्मात्साधुरुदाहृतः॥१॥ गडरिगाइपवाहे, पुरस्सरं आगमपवित्ती।।५७।। क्षान्त्यादिगुणसंपन्नो, मैत्र्यादिगुणभूषितः / / दाणाइँ जहासत्ती, पवत्तणं निहिर रत्तदुढे य। अप्रमादी समाचार, भावसाधुः प्रकीर्ततः।।२।।'' इति / मज्झत्थमसंबद्धे, परत्थकाभोवभोगी य // 58|| कथं पुनश्छद्मस्थैरयं ज्ञायते? लिङ्गः, कानि पुनस्तानीत्याहवेसा इव गिहयासं, पालइ सत्तरसपयनिबद्धं तु। एयस्स उ लिंगाइ, सपला मग्गाणुसारिणी किरिया। भावगय भावसावग-लक्खणमेयं समासेणं / / 5 / / सद्धा पवरा धम्मे, पन्नवणिज्जत्तमुजुभावा // 78|| स्त्री चेन्द्रियाणि चार्थश्चत्यादि द्वन्द्वः, ततः स्त्रीन्द्रियार्थसंसारवि किरियासु अप्पमाओ, आरंभो सक्कणिज्जऽणुट्ठाणे। षयाऽऽरम्भगेहदर्शनानि, तेष्विति, आद्यादिभ्य इत्याकृतिगणत्वात्तसि गुरुओ गुणाणुराओ, गुरुआणाऽऽराहणं परमं / / 7 / / कृते स्त्रीन्द्रियार्थसंसारविषायाऽऽरम्भगेहदर्शनत इति भवति। ततश्चैतेषु एतस्य पुनर्भावसाधोर्लिङ्गानि चिह्नानि सकला समस्ता मार्गानुसारिणी भावगतं भावश्चावकलक्षणं भवतीति तृतीयगाथायां संबन्धः / तथा मोक्षाध्वानुपातिनी क्रिया प्रत्युपेक्षणाऽऽदिका चेष्टा 1, तथा श्रद्धा गडरिकाऽऽदिप्रवाहविषये तथा पुरस्सरमागमप्रवृत्तिरिति, प्राकृतत्वा करणेच्छा प्रवरा प्रधाना धर्मे संयमविषये 2, तथा प्रज्ञापनीयत्वमच्छन्दोभङ्गभयाच पूर्वापरनिपातः / ततश्वाऽऽगमपुरस्सरं प्रवृत्तिर्वर्त्तनं, सदभिनिवेशत्यागित्वमृजुभावादकौटिल्येन 3, तथा क्रियासु विहिताधर्मकार्येष्विति गम्यते। प्रस्तुत लिङ्गमिति।तथादानाऽऽदि यथाशक्ति नुष्ठानेऽप्यप्रमादोऽशैथिल्यं 4, तथाऽऽरम्भः प्रवृत्तिःशकनीये शक्त्यनुरूपे प्रवर्तनमिति स्पष्ट, प्राकृतवाच्च दीर्घत्वं, तथा निहीको धर्मानुष्ठानं कुर्वन्न अनुष्ठाने तपश्चरणाऽऽदौ 5 तथा गुरुर्महान् गुणानुरागो गुणपक्षपातः 6, लज्जते, तथा-ऽरक्ताद्विष्टश्व सांसारिकभावेषु भवति, मध्यस्थो धर्म तथा गुर्वाज्ञाऽऽराधनं धर्माऽऽचार्याऽऽदेशवर्तित्यं, परमं सर्वगुणप्रधानविचारे न रागद्वेषाभ्यां बाध्यते,असंबद्धो धनस्वजनाऽऽदिभावप्रतिब मिति सप्तलक्षणानि भावसाधोः / ध०२०३ अधि०१ लक्ष०। न्धरहितः, परार्थकामोपभोगी परार्थ परोपरोधादेव कामाः शब्दरूपस्व भावसिणाण न०(भावस्नान) "ध्यानाम्भसातु बीजस्य, सदा यच्छुद्धिरूपा उपभोगा गन्धरसस्पर्शलक्षणा विद्यन्ते प्रवृत्तितया यस्य स परार्थ कारणम्। मलं कर्म समाश्रित्य, भावस्नानं तदुच्यते॥१॥" इत्युक्तकामोपभोगी, समासः प्राकृतत्वात् / वेश्येव पण्याङ्गनेव, कामिनमिति लक्षणे शुभध्यानरूपे स्नानभेदे, ध०२ अधिका गम्यते, गृहवास पालयत्यद्य श्वो वा परित्यजाम्येनमिति भावयन्निति / भावसुण्ण न०(भावशून्य) बहुमानशून्ये, पञ्चा०६ विव०। सप्तदशविधपदनिबद्धं, तुः पूरणे, भावगतं परिणामजनितरूपमिति, मावसुद्ध त्रि०(भावशुद्ध) भावेन सदन्तःकरणलक्षणेन शुद्ध भावशुद्धम्। जातावेकवचनमनुस्वारलोपश्च प्राकृतत्वात् भाव श्रावफलक्षणमेतत्स- अन्तःकरणेन शुद्धे, षो०७ विव०। प्रत्याख्यानभेदे, नका मासेन सूचामात्रेणेति गाथात्रयाक्षरार्थः / ध०र०२ अधि०६ लक्ष०। भावशुद्धमाहआह- स्वीन्द्रियविषयाणामरक्तद्विष्टमध्यस्थासंबद्धानां गेहगेहवासयो- रागेण व दोसेण व, परिणामेण व न ईसिजंतु। Page #1527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावसुद्धि 1516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावसुद्धि तं खलु पञ्चक्खाणं, भावविसुद्धं मुणेअव्वं / / 1 / / आव०६ अग 'पच्चक्खाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 101 पृष्ठे गता व्याख्या) 'भावसुद्धि स्वी०(भावशुद्धि) भावस्तदावरणक्षयोपशमसमुत्थ आत्मपरि णामविशेषस्तस्य शुद्धिः स्वच्छता प्रकर्षा, भावशुद्धिः। ध०३ अधि०। चित्तप्रसादे, आव०४ अ० सूत्र०। पञ्चा०ा यमनियमाऽऽदिषु मनसोऽसंक्लिश्यमानतायाम, द्वा०६द्वा० अथ विरुद्धदानाऽऽदावपि भावशुद्धधर्म एव, न तु तद्व्या घात इत्यत आहभावशुद्धिरपि ज्ञेया, यैषा मार्गानुसारिणी। प्रज्ञापनाप्रियाऽत्यर्थ, न पुनःस्वाऽऽग्रहाऽऽत्मिका।१। भावशुद्धिर्मनसोऽसंक्लिश्यमानता या परैर्विरुद्धदानाऽऽदौ धर्मव्याघातपरिहारनिबन्धनतया कल्पिता, साऽपि न केवलं धर्मव्याप्तात एव ज्ञेयम्, इत्यपिशब्दार्थः / ज्ञेया ज्ञातव्या, या एषा वक्ष्यमाणस्यरूपा नान्या। तामेवाऽऽह- मार्ग जिनोक्तं ज्ञानाऽऽदिक मोक्षपथमनुसरत्यनुगच्छतीत्येवंशीला मार्गानुसारिणी। अथ परो ब्रूयात् सैषा ममेत्यत्राऽऽह प्रज्ञापना आगमार्थोपदेशनं सा प्रिया वल्लभा यस्यां भावशुद्धौ सा प्रज्ञापनाप्रिया, अत्यर्थमतिशयेन / उक्तन्यैवार्थस्य व्यतिरेकमाह न नैव, पुनःशब्दः पूर्वोक्तार्थापेक्षया प्रकृतार्थविलक्षणताप्रतिपादनार्थः, स्वः स्वकीयो न तुशास्त्रीयः, स चासावाग्रहश्वार्थाभिनिवेशः स्वाऽऽग्रह एवाऽऽत्मा स्वभावो यस्याः सा स्वाऽऽग्रहाऽऽत्मिकेति // 1 // अथ कस्मात् स्वाऽऽग्रहाऽऽत्मिकाऽपि भावशुद्धिर्न भवतीति? अत्रोच्यते-भावशुद्धिविपर्ययभूतभावमालिन्यरूप___ त्वात्स्वाग्रहस्येत्येतत्श्लोकत्रयेण दर्शयन्नाहरागो द्वेषश्च मोहश्च, भावमालिन्यहेतवः। एतदुत्कर्षतो ज्ञेयो, हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्त्वतः / / 2 / / रागोऽभिष्वंग लक्षणो, द्वेषोऽप्रीतिरूपो, मोहश्चाज्ञानलक्षणः, चशब्दौ समुचयार्थी, ते त्रयोऽपि भावमालिन्यहेतवः, आत्मप-रिणामाशुद्धिनिबन्धनानिस्वाऽऽग्रहाऽऽदिभावकारणानीतिगर्भः। एतेषां रागाऽऽदीनामुत्कर्ष उपश्चय एतदुत्कर्षः, तत एतदुत्कर्षतो, ज्ञेयो ज्ञातव्यो, हन्तेति प्रत्ययधारणार्थः, कोमलाऽऽमन्त्रणार्थो वा, उत्कर्ष उपचयः, अस्य भावमालिन्यस्य स्वाऽऽग्रहाऽऽदिरूपस्य, तत्त्वतः परमार्थवृत्त्येति / / 2 / / ततः किमित्याहतथोत्कृष्ट च सत्यस्मिन, शुद्धिर्व शब्दमात्रकम् / स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिमितं नार्थवद्भवेत्॥३॥ तथा तेन प्रकारेण रागाऽऽद्युत्कर्षलक्षणेन उत्कृष्ट उत्कटे, चशब्दः पुनरर्थः, सति भवति, अस्मिन् रागाऽऽदिहेतुके स्वाऽऽग्रहाऽऽदिरूपे भावमालिन्ये, शुद्धिः शुद्धत्वं, भावस्येति गम्यते। वैशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः / शब्द एवाभिधानमेव शब्दमात्र, तदेव कुत्सितं शब्दमात्रक, निरभिधेयमित्यर्थः / मालिन्योत्कर्षे सति नास्ति भावशुद्धिर्मालिन्यस्य, तद्विरुद्धरूपत्वादग्निसद्भावे शीतवदिति भावना। अथ मालिन्ये सत्यपि शुद्धिरिष्यते, ततः कथं शव्दमात्रत्वमस्य इत्यत्राऽऽह स्वबुद्धया प्रमाणा- 1 परतन्त्रया मत्या कल्पना क्लिप्तिः, सैव शिल्पं चित्राऽऽदिकौशलं, तेन निम्मितं विरचितं, स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितं यच्छब्दरूपं तदिति गम्यं, न नैव, अर्थवत्साभिधेयं, भवेज्जायेतेति // 3 // अथ स्वाऽग्रहस्य भावमालिन्यरूपता स्पष्टयन्नाहन मोहोद्रिक्तताऽभावे, स्वाऽऽग्रहो जायते क्वचित्। गुणवतपारतन्त्रयं हि, तदनुत्कर्षसाधनम् ||4|| न नैव मोहस्याज्ञानस्य, उपलक्षणत्वात् रागद्वेषयोश्चोद्रिक्तता उद्रेकस्तस्या अभावः अविद्यमानता मोहोद्रिक्तता भावस्तत्र मोहोद्रिक्तताभावे, स्वाऽऽग्रहो नाऽऽगमिकार्थाभिनिवेशो भावशुद्धिविपर्ययलक्षणो, जायते भवति, क्वचित् कुत्रचिदपि वस्तुनि। इदमुक्तं भवति-मोहोत्कर्षजन्यत्वात् स्वाऽऽग्रहो भावमालिन्यं, मोहोत्कर्षजन्यत्वं चास्य रागो द्वेषश्चेत्यादिवचनप्रामाण्यात्, तदेवं स्वाऽऽग्रहस्य भावमालिन्यरूपत्याद्भावशुद्धिर्न तदात्मिकेति स्थितम्। अथ मोहहासस्य स्वाऽऽग्रहाभावहेतोः क उपायः? इत्याह- गुणवता विद्यमानसम्यग्ज्ञानक्रियागुणानां पारतन्त्र्यमधीनत्त्वं गुणवत् पारतन्त्र्यमधीनत्वं गुणवत्पारतन्त्र्यम्, हिशब्दः पुनरर्थः, गुणवत्पारतन्त्र्यं पुनस्तस्य मोहस्यानुत्कर्षोहासस्तस्य साधनं कारणं तदनुत्कर्षसाधनम्। दृश्यते ह्यागमस्याऽऽगमविदां वा पारतन्त्र्यान्मोहानुत्कर्ष इति // 4 // गुणवत्पारतन्त्र्यस्य मोहानुत्कर्षसाधकत्य मागमज्ञावसितेन समर्थयन्नाहअत एवाऽऽगमज्ञोऽपि, दीक्षादानाऽऽदिषु ध्रुवम्। क्षमाश्रमणहस्तेनेत्याह सर्वेषु कर्मसु / / 5 / / यत एव कारणात् गुणवत्पारतन्त्र्यं मोहानुत्कर्षस्य साधकमत एव एतस्मादेव कारणादागमज्ञोऽपि आत्मवचनवेद्यपि सन्नास्तामनागमज्ञः, दीक्षादानाऽऽदिषु प्रव्रज्यावितरणप्रभृतिषु, आदिशब्दादुद्देशसमुद्दशाऽऽदिषु, कर्मस्थितियोगः / ध्रुयं निश्चितं क्षमाश्रमणहस्तेन सगुरुकरण, न स्वातन्त्र्येण, इत्येवरूपमभिलापमाहब्रूते दीक्षाऽऽदिदाता मोहानुत्कमिव सर्वेषु समस्तेषुकर्मसुव्यापारेष्विति तस्मात् गुणवत्पारतन्त्र्यादेव मोहानुत्कर्षलक्षणा भावशुद्धिनान्यथेति॥५|| एतदेवाहइदं तु यस्य नास्त्येव, सनोपायेऽपि वर्तते / भावशुद्धः स्वपरयोर्गुणाऽऽद्यज्ञस्य सा कुतः ||6|| इदमनन्तरोदितं गुणवत्पारतन्त्र्यं, तुशब्दः पुनरर्थः, यस्य प्राणिनो, नास्त्येव न विद्यत एव, स प्राणी, न नैव, उपायेऽपि हेतावपि, आस्तां भावशुद्धौ, गुणवत्पारतन्त्र्यस्यैव तदुपायत्वात्, कस्या नोपायेऽपि वर्तत इत्याह- भावशुद्धेः परिणामशुद्धेः, कुतएतदित्याह-यस्मात् स्वपरयोरात्मेतरयोर्विषये, गुणाऽऽद्यज्ञस्य गुणदोषानभिज्ञस्य, सा भावशुद्धिः कुतो, न कुतोऽप्यस्तीत्यर्थः। अयमभिप्रायः-यो हि गुणवत्पारतन्त्र्ये न वर्तत स गुणवद्गुणान् स्वगतगुणदोषांश्च जानाति, कथमन्यथा गुणवत्पारतन्त्रो न भवति, यश्च तान्न जानाति तस्य मोहोपहतबुद्धित्वान्नास्ति भावशुद्धिः, तस्या मोहानुत्कर्षरूपत्वादिति // 6 // Page #1528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाविय 1520 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भावुग अथ यादृश्यां भावशुद्धौ धर्मव्याघातो न भवति ता इति। स्था० 10 ठा०। आ००1 विपा०। प्रश्र०ा आव०। उत्त० सूत्र०। लक्षयितुमाह अनुवा बृका भाविता द्विविधाः-सुरभिपाटलाकुसुमपटवासाऽऽदिप्रशस्ततस्मादासन्नभव्यस्य, प्रकृत्या शुद्धचेतसः। वस्तुभिर्भाविताः प्रशस्तभाविताः, सुरातैलाऽऽद्यप्रशस्तवस्तुभावितास्थानमानान्तग्ज्ञस्य, गुणवबहुमानिनः / / 7 / / स्त्वप्रशस्तभाविताः। प्रशस्तभाविताः पुनरपि द्विविधाः- तद्भाव वमयितुं औचित्येन प्रवृत्तस्य, कुग्रहत्यागतो भृशम् / शक्या वाम्याः, तद्विपरीतास्त्ववाम्याः / एवमेवाप्रशस्तभाविता अपि वाम्याऽवाम्यभेदद्वयादेव द्विविधाः। विशे०। रञ्जिते, "पुव्वं भावणभासर्वत्राऽऽगमनिष्ठस्य, भावशुद्धिर्यथोदिता।|| विया।" उत्त०१४ अा परिणतजिनवचने, बृ०१ उ०३ प्रक०। प्रसन्ने, यस्मात् गुणदोषानभिज्ञस्य स्वभावेशुद्धिर्न भवति तस्मात्कारणात्, दश०१० अ० प्राप्ते, शुद्धे, चिन्तिते मिश्रित, च। वाचा अथवा- तस्माद् गुणवत्पारतन्त्र्यादासन्नो मुक्तेर्निकटवर्ती , स चासो *भाविक न०। विमानभेदे, स०१७ सम०। भव्यश्च मुक्तिगमनयोग्य आसन्नभव्यस्तस्य, भावशुद्धिरिति संबन्धः / तथा प्रकृत्या सद्भावेनैव शुद्रचेतसोऽसंक्लिष्टमानसस्य रागाऽऽदीना- | भावियकुल न०(भावितकुल) शङ्काऽऽदिदोषरहिते कुले, बृ०१ उ०२ प्रक० मपचीयमानत्वात्, तथा स्थानं त्वाऽऽचार्योपाध्यायाऽऽदिकंगुणाऽस्पदं, मानश्चैतस्यैव पूजा, स्थानमानौ, तयोः स्वजात्यपेक्षया अन्तरं विशेषस्त भावियतर त्रि०(भाविततर) चरित्रधर्मे प्रसन्नतरे, दश० १०अ०॥ जानातीति तज्ज्ञस्तस्य स्थानमानान्तरज्ञस्य / इदमुक्तं भवति- | भावियत्था स्त्री०(भावितस्ता) जम्बूमन्दरदक्षिणस्यां दिशि स्थिताया आचार्योपाध्यायाऽऽदिकस्य स्थानस्य च तथा तद्विषये मानस्य च यो सिन्धुमहानद्यां समिलितायां स्वनामख्यातायां महानद्याम्, स्था०५ ठा० विशेष उत्तमोत्तमतरमहाफलमहाफलतराऽऽदिलक्षण इदमस्योचितमिदं | 30 // चास्येत्येवंरूपस्य तज्झस्य, अत एव गुणवद्वहुमानिनः सद्गुणपक्षपा- भावियप्पा पुं०(भाविताऽऽत्मन्) भाविता धर्मवासनया वसित आत्मा तिनः, तथा स्थानमानान्तरज्ञस्य गुणवद्वहुमानिनोऽपि सत औचित्येन यस्यासौ भाविताऽऽत्मा। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०) सद्-भावनाभावियथागुणं यथायोग्यमिति यावत्, प्रवृत्तस्य व्यापृतस्य, विधेयानुष्टानेषु तचित्ते, पञ्चा०१८ विव०। संयमभावनया वासितान्तः करण इति। भ० कुग्रहत्यागतो मिथ्यावासनाव्यपोहेन, भृशमत्यर्थ , सर्वत्र समस्तेषु 14 श० 6 उ० (अनगारस्य भाविताऽऽत्मनः कमलेश्यावच्छरीरज्ञानाद्रव्यक्षेत्रकालभावेषु विधिषु, आगमनिष्ठस्य आप्तवचनप्रमाणस्य, ऽऽदिवक्तव्यता 'अणगार' शब्दे प्रथमभागे 271 पृष्ठे गता) अहोरात्रभवे किमित्याह- भावशुद्धिः परिणामशुद्धता, यथोदिता पारमार्थिकी भवति, त्रयोदशे स्वनामख्याते मुहूर्ते, चं०प्र०१० पाहु०१४ पाहु० पाहुाज्यो०| यथा धर्मव्याघातो न भवति, उक्तविशेषणाभावे तु या सा पुनरयथोदि- स०। अष्टादशमे मुहूर्ते, स०३० सम०। अष्टादशमजिनस्य रक्षितापरनामतेति // 7 // 8 // हा० 22 अष्टा धेयायां स्वनामख्यातायां जनन्याम्,''भावियप्पा य रक्खी य।'' स०। भावाएस पुं०(भावाऽऽदेश)एकगुणकालकत्वाऽऽदिके भावप्रकारे, भ०५ भावियमइ त्रि०(भावितमति) सदागमवासितमनसि, पञ्चा० 16 विव०। श०८ उ01 भावियाभावियाणुओग पुं०(भाविताभावितानुयोग) भावित वासितं भावाभिग्गहचरय पुं०(भावाभिग्रहचरक) भावाभिग्रहस्तु गानहसना द्रव्यान्तरसंसर्गतोसभावितमन्यथैव यद्यथा जीवद्रव्यं भावितं किञ्चित्तच ऽऽदिप्रवृत्तपुरुषाऽऽदिविषयः, तेन चरति भिक्षामटति, भावाभिग्रह वा प्रशस्तभावितमितरभावितञ्च तत्र प्रशस्तभावित संविग्रभावितमचरत्यासेवते भावाभिग्रहचरकः / भिक्षुभेदे, औ०। राण प्रशस्तभावितं चेतरभावितं, तद्विविधमपि वामनीय मवामनीयं च। तत्र भावारोग्ग न०(भावाऽऽरोग्य) भावरूपमारोग्यं भावाऽऽरोग्यम्। सम्यक्त्वे, वामनीयं यत्संसर्गजं गुणं दोष वा संसर्गान्तरेण वमति, अवामनीय षो० 4 विवा त्वन्यथा, अभावितं त्वसंसर्गप्राप्त प्राप्तसंसर्ग वा वजतन्दुलकल्पं न वासयितुं शक्यमिति। एवं घटाऽऽदिद्रव्यमपि, ततश्च भावितं चाभावित भावावस्सय पुं०(भायावश्यक) आवश्यकभेदे, अनु० / (व्याख्या आव च भाविताभावितम् / भाविताभावितस्यानुयोगो भाविताभवितानुयोगः / स्सय' शब्दे द्वितीयभागे 451 पृष्ठे गता) द्रव्यानुयोगभेदे, स्था० 10 ठा०। भावि(न)भाविन् त्रि०(भू-णिनिः।) भविष्यक्तालवर्तिनि, स्त्रियां डीप।। भावुग त्रि०(भावुक) वासके, विशे। भाव्यते प्रतियोगिना स्वगुणैरात्मवाचला प्रव० 4 द्वारा आ०म०।ज्ञान भावो हृदयचेष्टाभेदोऽस्त्यस्या / भावमापाद्यते इति भावुकम्। अथवा- प्रतियोगिनि सति तद्गुणापेक्षया इति। स्त्रीभेदे, स्वीमात्रे च / वाचा तथा भवनशील भावुकम्। "लषपतपद०-" / 3 / 2 / 154 // इत्यादिना माविअ (देशी) गृहीते, देवना० 6 वर्ग० 103 गाथा। उकज - ताच्छीलिकत्वात्। वेल्लुकाऽऽदिके द्रव्यभेदे, पं०व०। भाविजंत त्रि०(भाव्यमान) पालोच्यमाने, पचा० 2 विवा भावुग अभावुगाणि अ,लोए दुविहाणि होति दव्याणि / भाविजिण पुं०(भाविजिन) भविष्यजिने, ती०२ कल्प०। वेरुलिओ तत्थ मणी, अभावुगो अन्नदव्वेहिं॥३४|| भाविय त्रि०(भावित) भू-णिच्-क्तः। वासिते, "किं पुण निंवतिलेहिं, भाव्यन्ते प्रतियो गिना स्वगुणैरात्मभावमापाद्यन्त इति भाविययाणं भवे खज।" व्य०१ उ०। भावितोद्र व्यान्तरसंसर्गतो वासित | भाव्यानि वेल्लुकाऽऽदीनि, प्राकृतशैल्या भावुकान्युच्यन्ते। अथ Page #1529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासग 1521 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासग दाप्रतियोगिनि सति तद्गुणापेक्षया तथाभवनशीलानि भावुकानि 'लवपतपदस्थाभूवृष०-" / 3 / 2 / 154 / (पा०) इत्यादिना उकञ् ताच्छीलिकत्वादिति / तद्विपरीतानि अभाव्यानि चलनाऽऽदीनि लोके द्विप्रकाराणि भवन्ति द्रव्याणि वस्तूनि, वैडूर्यस्तत्र मणिः अभाव्योऽन्यद्रव्यैः काचाऽऽदिभिरिति गाथार्थः / पं०व० 3 द्वार। आव०। मङ्गले, ना तद्वति, त्रिका 'मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः।" इति / वाचन भावुज्जुयया स्त्री०(भावर्जुकता) भावस्य मनस ऋजुकता भावर्जुकता मनसो। यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्थायां प्रवृत्तौ, तद्रूपे सत्यभेदे च। स्था० 4 ठा० 1 उ० भ० भावेऊण अव्य०(भावयित्वा) वासयित्वेत्यर्थे, पञ्चा० 10 विव०) भावेमाण त्रि०(भावयत्) वासयति, स्था०६ ठा०। भावोवक्कम पुं०(भावोपक्रम) भावस्य परकीयाभिप्रायस्योपक्रमण परिज्ञानं भावोपक्रमः1 उपक्रमभेदे, अनु०। निचू०। (तद्भेदाऽऽदिवक्तव्यता 'उवक्कम' शब्दे द्वितीयभागे 871 पृष्ठे गता) भावोवयार पुं०(भावोपकार) सम्यक्त्वाऽऽदिके,ध०२ अधिक। भावोवयमइ त्रि०(भावोपहतमति) भावेन शङ्काऽऽदिपरिणामेन हता दूषिता मतिर्यस्य स भावोपहतमतिकः / शङ्काऽऽदिकलुषिताध्यवसाये, बृ०१३०२ प्रक०। भास धा०(भिस) दीप्ती, भ्वादि०-आत्म० / अकo"भासेमिसः" 18 / 4 / 203 / इति प्राकृतसूत्रेण भासेर्भिसाऽऽदेशः। भिसइ। भासइ। प्रा० 4 पाद। भासते, अभासिष्ट। चङिवा ह्रस्वः। अवीभसत्। अवभासत्। वाचका *भास पुं० / भास-घञ् अच् वा। प्रकाशे, स०। गोष्ठ, कुक्करे, शुक्र, वाचला पक्षिविशेषे, ज्ञा०१श्रु०१७ अ० भासः शकुन्त इति / प्रश्न०१ आश्र० द्वार। *भस्मन न०। 'भप्प' शब्दार्थे प्रा०२ पाद। *भाषधा० वचने, भ्वादि०-आत्म-द्विक०-सेट् / भाषते। अभाषिष्ट / चडि ह्रस्वः।वाच० भाषते तु व्यक्तवचनैरिति / विपा०२ श्रु० 10 // एकोनत्रिशत्तमे महाग्रहे, "दो भासा।" स्था०२ ठा०३ उ०) *भाष्य न०। गाथानिबद्धे, सूत्रव्याख्यानरूपे बृहद्भाष्य-व्यवहारभाष्याऽऽदिके ग्रन्थविशेषे, सघा०१ अधि०१ प्रस्ता०। विशे० स्था०। परैः श्रुयमाणे जपभेदे, यस्तु परैः श्रूयते स भाष्य इति / ध०२ अधि०। / कथनीये, त्रि०ा वाचा भासंत त्रि०(भाषमाण) व्यक्तं कथयति, व्य० 1 उ०। सूत्र०ा विपा० औ०।दश। स्थान *भासमान त्रि०ा शोभमाने, भ०५ श०८ उ०। औ०॥ *भास्वत् पुं० : महोरगभेदे, प्रज्ञा०१ पद। भासग पुं०(भाषक) भाषत इति भाषकः। भाषणक्रियाविशिष्ट, आ०म०१ | अ०) वक्तरि, प्रव०७२ द्वार / सूत्र०। भाषालब्धिसम्पन्ने, आ०म०१ अ०। रथा०। विज्ञातविशेषरूपस्य सव्युत्पत्तिविशेषकनाममात्रकथनेन व्यक्तिमात्रकारके व्याख्यातृभेदे विशे०। साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तभाषाऽऽदिप्रतिपादनार्थं नियुक्तिकृदाह कट्ठ पोत्थे चित्ते, सिरिघरिए वोंड देसिए चेव। भासग विभासए वा, वत्तीकरए य आहरणा / / 135 // काष्ठ इति काष्ठविषयो दृष्टान्तः, यथा काष्ठे कश्चित् तद्रूपकारः रखल्याकारमात्रं करोति, कश्चित स्थूलावयवनिष्पत्ति,कश्चित्पुनरवशेषाङ्गोपाङ्गाऽऽद्यवयवनिष्पत्तिम्, एवं काष्ठकल्पं सामायिकाऽऽदिसूत्रम्, तत्र भाषकः परिम्थूरमर्थमात्रमभिधत्ते, यथा समभावः सामायिकमिति, विभाषकस्तु तस्यैवानेकधा अर्थमभिधत्ते, यथा समभावः सामायिकं, समानां वा ज्ञानदर्शनचारित्राणां य आयः स समायः, समाय एव सामायिकं, स्वार्थेकण् प्रत्यय इत्यादि / तथा व्यक्तीकरणशीलो व्यक्तिकरः, यः खलु निरवशेषव्युत्पत्तिरतिचारानतिचारफलाऽऽदिभेदभिन्नमर्थभाषतेसव्यक्तिकर इति भावः / स च निश्चयतः चतुर्दशपूर्वधर एव, इह भाषकाऽऽदिस्वरूपात व्याख्यानात् भाषाऽऽदय एव प्रतिपादिता द्रष्टव्याः, भाषाऽऽदीनां तत्प्रभवत्वात्। उक्तं च विशेषावश्यके "पढमो रूवाऽऽगारं, थूलावयवोपदेसणं वीओ। तइओ सव्वावयवो, निद्दोसो सव्वहा कुणइ / / 1426 / / कट्ठसमाण सुत्तं, तदत्थरूवेगभासणं भासा। थूलट्ठाणविभासा, सव्वेसिं वत्तियं नेयं / / 1427 // " संप्रति पुस्तविषयो दृष्टान्तः-यथा पुस्ते कश्चिदाकारमात्रं करोति, कश्चित्परिस्थूलावयवनिष्पत्ति, दार्शन्तिकयोजना पूर्ववत् / इदानी चित्रविषयो दृष्टान्तः- यथा चित्रकर्मणि कश्चिद्रर्तिकाभिरकारमात्रं करोति, कश्चित् हरितालाऽऽदिवर्णोद्धेदं, कश्चित्त्वशेषपर्यायैर्निष्पादयति / दार्टान्तिकयोजना पूर्ववत्। श्रीगृहिकोदाहरणम्- श्रीगृहं भाण्डागारं तदस्यास्तीति "अतोऽनेकस्वराद् / 72 / 6 / " इति इप्रत्ययः / तदृष्टान्तभावना इयम् - कश्चिद् रत्नानां भाजनमेव वेत्ति, इह भाजने रत्नानि सन्तीति, कश्चिद्धातिमात्रमेव अपि, कश्चित्पुनर्गुणानपि,एवं प्रथमद्वितीयतृतीयकल्पभाषकाऽऽदयो द्रष्टव्याः / तथा-वोडमिति पद्म, तद्यथाईषद्भिन्नमर्द्धभिन्नं, विकसितरूपमिति त्रिधा भवति, एवं भाषकाऽऽद्यपि क्रमेण योजनीयम् / इदानी देशिकविषयमुदाहरणम्-देशनं देशः, कथनमित्यर्थः, सोऽस्यास्तीति देशिकः- यथा कश्चिद्देशकः पन्थानं पृष्टः सन् दिग्मात्रमेव कथयति, कश्चित्तद्व्यवस्थितग्रामनगराऽऽदिभेदेन, कश्चित्पुनस्तदुत्थगुणदोषभेदेन कथयति। एवं भाषकाऽऽदयोऽपि क्रमेण योजनीयाः। तदेवं तावद्विभाग उक्तः।।१३५।। आ० म०१ अ०। अनुयोगाऽऽचार्येण यद्भणितंतस्मादूनं योऽन्यस्य भाषते स भाषक उच्यते। विशे०। “एगपगारं अत्थं बुवाणो भासगो त्ति।''आ०चू० 1 अ०। वृ०॥ भाषकः परिस्थूरमर्थमात्रमभिधत्त इति / आ०म० 10 // नैरयिकाऽऽदिजीवानां भाषकाऽभाषकत्वं दण्डकेन निरूप यन्नाहदुविहा नेरइया पन्नत्ता, तं जहा-मासगा चेव। अभासगा चेव एवं, एगिदियवज्जा सव्वे / / 10 / / भाषादण्डके भाषका भाषापर्याप्त्युदये, अभाषकास्तदपर्याप्तकावस्थायामिति। एकेन्द्रियाणां भाषापर्याप्तिनास्तीत्यत आह-एवमित्यादि। स्था०२ ठा०२ उ०॥ Page #1530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासज्जाय 1522 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा जीवाणं भंते ! किं भासगा, अभासगा? गोयमा ! जीवा भासगा वि, अभासगा वि। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवा भासगा वि, अभासगा वि? गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता / तं जहासंसारसमावन्नगा य, असंसारसमावन्नगा य / तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अभासगा। तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-सेलेसीपडिवनगा य, असेलेसीपडिवनगा या तत्थ णं जे ते सेलेसीपडिवन्नगा ते णं अभासगा। तत्थ णं जे ते असेलसी-पडिवन्नगा ते दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-एगिदिया य, अणेगिंदिया य / तत्थ णं जे ते एगिंदिया ते णं अभासगा। तत्थ णं जे ते अणेगिंदिया ते दुविहा पण्णत्तातं जहा-पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य / तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं अभासगा। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं भासगा। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जीवा भासगा वि, अभासगा वि। नेरझ्या णं भंते ! किं भासगा, अभासगा? गोयमा ! नेरइया भासगा वि अभासगा वि / से के गट्टेणं भंते ! एवं वुच्चति-नेरइया भासगा वि, अभासगावि? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पजत्तगाय, अपजत्तगा य। तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं अभासगा। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते गं भासगा। से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चइ- नेरइया भासगा वि, अभासगा वि। एवं एगिंदियवज्जाणं निरंतर भाणियव्वं। (16. सूत्र) प्रज्ञा०११पद। भासगर त्रि०(भाषाकर) वचनपटुत्वमाधुर्य्याऽऽदिगुणकारके, तं०। भासञ्जायन०(भाषाजात) जातमुत्पत्तिधर्मकं, तच व्यक्ति-वस्तु, अतो भाषाया जातम् / न०। व्यक्तिवस्तु भेदः प्रकारो भाषाजातम्। स्था०४ ठा०१उ०। चत्तारिभासजाया पण्णत्ता / तं जहा-सच्चमेगं भास-जायं, वीयं मोसं, तइयं सच्चमोसं, चउत्थं असच्चमोसं // 23 // तत्र सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा तेभ्यो हितं सत्यमेकं प्रथम सूत्रक्रमापेक्षया भाष्यते सा तया वा भाषणं वा भाषाकाययोगगृहीतवारयोगनिसृष्टभाषाद्रव्यसंहतिस्तस्या जात प्रकारो भाषाजातमस्त्यात्मेत्यादिवत्। द्वितीयं सूत्रक्रमादेव (मोसं ति) प्राकृतत्वात मृषा अनृतं नास्त्यात्मेत्यादिवत् / तृतीयं सत्यमृषा तदुभयस्वभावमात्माऽरत्यकर्तेत्यादिवत् / चतुर्थमसत्याभूषा अनुभयस्वभावं देहीत्यादिवदिति। भवतश्चात्र गाथे"सच्चा हिया सतामिह, संतो मुणओ गुणा पयत्था वा। तव्विवरीया, मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा / / 1 / / अणहिगया जातीसु वि, सद्दो च्चिय केवलो असचमुसा। एया सभेयलक्खण, सोदाहरणा जहा सुत्ते / / 2 / / '' इति / स्था० 4 ठा०१ उ०। प्रज्ञा० / आचाo! भासज्जायज्झयण न०(भाषाजाताध्ययन) आचाराङ्गद्वितीय- श्रुतस्कन्धस्य चतुर्थे अध्ययने, अस्य च भाषाजाताध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनगमे भाषाजातशब्दयोनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहजह वकं तह भासा, जाए छक्क च होइ नायव्यं / (313) यथा वाक्यशुद्धयध्ययने वाक्यस्य निक्षेपः कृतस्तथा भाषाया अपि कर्तव्यः, जातशब्दस्य तु षट्कनिक्षेपोऽयं ज्ञातव्यो नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपः / आचा०२ श्रु०१चू०४अ०१ उ०। इह त्वधिकारो द्रव्यभाषाजातेन, द्रव्यस्य प्राधान्यविवक्षया, द्रव्यस्य तु विशिष्टावस्था भाव इति कृत्वा भावभाषाजातेनाप्यधिकार इति / उद्देशार्थाधिकारार्थमाहसव्वेऽविय वयणविसो-हिकारगा तह वि अस्थि उ विसेसो / वयणविभत्ती पढमे, उप्पत्ती वजणा वीए॥३१४।। यद्यपि द्वावप्युद्देशको वचनविशुद्धिकारको तथाप्यस्ति विशेषः, स चायम्- प्रथमोद्देशके वचनस्य विभक्तिर्वचनविभक्तिरेकवचनाऽऽदिषोडशंविधवचनविभागस्तथैवंभूतं भाषणीयं नैवंभूतमिति व्यावयेते, द्वितीयोद्देशके तूत्पत्तिः क्रोद्याऽऽद्युत्पत्तिर्यथा न भवति तथा भाषितव्यम् / आचा०२ श्रु०१ चू० 4 अ०१ उ०। भासज्झयण न०(भाषाध्ययन) आचाराङ्ग द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य चतुर्थेऽध्ययने, स०१ अङ्गा आचाo! आवा (तद्वक्तव्यता भासजायज्झयण' शब्देऽनुपदमेव गता) भासण न०(भाषण) वागयोगेन-व्यक्तवचने, स्था०४ ठा०१ उ०। आचा। ज्ञान सूत्र०ा आ०म०॥ कल्प०। प्ररूपणे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०) प्रतिपादने, सूत्र० 1 श्रु०१४ अ० भासरासि पुं०(भासराशि) भासानां प्रकाशानां राशिभसिराशिः। आदित्ये, "भासरासिवण्णाभा।" सका *भस्मराशि पु० महाग्रहभेदे, कल्प०१अधि०६क्षण। ''भासरासिनाममहागहे स दोवाससहस्सहिई।“ भस्मराशिनामा त्रिंशत्तमो महाग्रहो भगवतो जन्मनक्षत्रं संक्रान्तः, किंभूतोऽसौ द्विसहस्रवर्षस्थितिः / स्था० २टा०३ उ०। भासल (देशी) दीप्तौ, दे०ना०६ वर्ग 103 गाथा। भासवं त्रि०(भाषायत्) शोभनभाषायुक्ते, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० भासवण्ण त्रि०(भस्मवर्ण) भस्माऽऽभे, ज्ञा०१ श्रु० 17 अ०) *भासवर्ण त्रि० भासः पक्षिविशेषः, तद्वद्वर्णा यस्य सः / भासाऽऽभे, ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ० भासा स्त्री०(भाषा) भाषणं भाषा / बृ० 1301 प्रक०ा दर्श०। कर्म० / उत्त० स्था० भाष्यते प्रोच्यते इति भाषा। वचने, 'भाष' व्यक्तायां वाचि इति वचनात् / भ० 13 श०४ उ० औ० स्था०। प्रव० श्रा०| वाण्याम, "वाणी वाया भणिई सरस्सई भारई गिरा भासा।" पाइ० ना०५१ गाथा। (दो भासा / स्था०२ ठा०३ उ०।) (1) तथा च वाक्यस्यैकार्थिकान्यधिकृत्यवक वयणं च गिरा, सरस्सई भारही य गो वाणी। भासा पन्नवणी देसणीय वयजोग जोगे य॥२७०।। Page #1531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा वाक्यं वचनं च गीः सरस्वती भारती च गौर्वाक् भाषा प्रज्ञापनी देशनी च वागयोगो योगश्च, एतानि निगदसिद्धान्येवेति गाथार्थः / दश०७ अ०२ उ०। संस्कृतप्राकृताऽऽदिके वाक्ये, उत्त०७ अ० "न चित्ता तायए भासा।" चित्राः प्राकृतसंस्कृताऽऽद्याः षट्भाषाः। अथवा- अन्या अपि देशविशेषात् नानारूपा भाषा इति / उत्त०६ अ०) वक्रशब्दतयोत्सृज्यमानायां द्रव्यसंततौ, नं० विशे० भाषानिक्षेपो वाक्यनिक्षेपवत्। आचाराङ्ग निर्युक्तौ 'जह चक तह भासा। (313)" यथा वाक्यशुद्ध्यध्ययने वाक्यस्य निक्षेपःकृत स्तथा भाषाया अपि कर्तव्यः। आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०१उ० (2) द्रव्याऽऽदिभाषामाहदवे तिविहा गहणे, य निसिरणे तह भवे पराघाए। भावे दव्वे य सुए, चरित्तमाराहणी चेव।।२७१।। द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यभाषा त्रिविधा-ग्रहणे च निसर्गे तथा भवेत् पराघाते / तत्र ग्रहणं भाषाद्रव्याणां काययोगेन यत् सा ग्रहणद्रव्यभाषा, निसर्गस्तेषामेव भाषाद्रव्याणां वाग्योगेनोत्सर्गक्रिया, पराघातस्तु निसृष्टभाषाद्रव्यैस्तदन्येषां तथापरिणामाऽऽपादनक्रियावत्प्रेरणम्, एषा त्रिप्रकाराऽपि क्रिया द्रव्ययोगस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वात् द्रव्यभाषेति। भाव इति द्वारपरामर्शः, भावभाषा त्रिविधैव, द्रव्ये च श्रुते चारित्र इति, द्रव्यभावभाषा, श्रुत-भावभाषा, चारित्रभावभाषा च, तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्तैर्या भाष्यते सा द्रव्यभावभाषा। एवं श्रुताऽऽदिष्वपि वाच्यम्, इय त्रिप्रकाराऽपि वक्त्रभिप्रायत्तद्रव्यभावप्राधान्यापेक्षया भावभाषा, इयं चौधत एवाऽऽराधनी चैवेति, द्रव्याऽऽद्याराधनात्, चशब्दाद्विराधना चौभयं चानुभयं च भवति, द्रव्याऽऽद्याराधनाऽऽदिभ्य इति। आह- इह द्रव्यभाववाक्यस्वरूपमभिधातव्यं, तस्य प्रस्तुतत्वात, तत् किमनया भाषयेति? उच्यते- वाक्यपर्यायत्वाद्भाषाया नदोषः, तत्त्वतस्तस्यैवाभिधानादिति गाथासमुदायार्थः। अवयवार्थ तु वक्ष्यति। (3) तत्र द्रव्यभावभाषामधिकृत्याऽऽराधन्यादिभेदयो जनामाहआराहणी उदव्वे, सच्चा मोसा विराहणी होइ। सचामोसा मीसा, असचमोसाय पडिसेहा // 272 / / आराध्यते परलोकाऽऽपीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनयेत्याराधनी तु 'द्रव्य' इति-द्रव्यविषया भावभाषा सत्या, तुशब्दात् द्रव्यतो विराधन्यपि काचित् सत्या, परपीडासंरक्षणफलभावाऽऽराधनादिति, मृषा विराधनी भवति, तद्रव्यान्यथाऽभिधानेन तद्विराधनादिति भावः / सत्यामृषा मिश्रा, मिश्रेत्याराधनी विराधनी च, असत्यामृषा च प्रतिषेध इति न आराधनी नापि विराधनी, तद्वाच्यद्रव्ये तथोभयाभावादिति / आसां च स्वरूपमुदाहरणैः स्पष्टीभविष्यतीति गाथाऽर्थः / तत्र सत्यामाहजणवयसम्मयठवणा, नामे रूवे पडुच सच्चे अ। ववहारभावजोगे, दसमे ओवम्मसचे य // 273 / / सत्यं तावद्वाक्यं दशप्रकारं भवति, जनपदसत्याऽऽदिभेदात्, तत्र | जनपदसत्यं नाम नानादेशभाषारूपमप्यविप्रतिपत्त्या यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसमर्थमिति, यथोदकार्थे कोङ्कणकाऽऽदिषु पयः पिचं नीरमुदकमित्याद्यदुष्टविवक्षाहेतुत्वात् नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात् व्यवहारप्रवृत्तेः सत्यामेतदिति, एवं शेषेष्वपि भावना कार्या। सम्मतसत्यं नाम कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समाने पङ्कसंभवे गोपाऽऽदीनामपि सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति। स्थापनासत्यं नामअक्षरमुद्राविन्यासाऽऽदिषु यथा मासकोऽयं कार्षापणोऽयं शतमिदंसहस्रमिदमिति, नामसत्य नामकुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्युच्यते, धनमव.. “यन्नपि धनवर्द्धन इत्युच्यते, अयक्षश्च यक्ष इति / रूपसत्यं नामश्रतद्गुणस्य तथा-रुपधारणं रूपसत्यं, यथा प्रपञ्चयतेः प्रव्रजितरूपधारणमिति प्रतीत्यसत्यं नाम-यथा अनामिकाया दीर्घत्वंहस्वत्वं चेति। तथाहि- अस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणसन्निधानेन तत्तद्रपमभिव्यज्यत इति सत्यता / व्यवहारसत्यं नामदह्यते गिरिगलति भाजनमनुदरा कन्या अलोमा एडकेति गिरिगततृणाऽऽदिदाहे व्यवहारः प्रवर्तते तथोदके च गलति सति तथा सम्भोगजवीजप्रभवोदराभावेच सति तथा लवनयोग्यलोमाभावेसति। भावसत्यं नामशुक्ला बलाका, सत्यपि पञ्चवर्णसम्भवे शुक्लवर्णोत्कटत्वात्। शुक्ला इति। योगसत्यं नाम- छत्रयोगात् छत्री,दण्डयोगात् दण्डी इत्येवमादि। दशममौपम्यसत्यं च, तत्रौपम्यसत्यं नाम-समुद्रवत्तडाग इति गाथाऽर्थः / उक्ता सत्या। अधुना मृषामाहकोहे माणे माया, लोभे पेजे तहेव दोसे य / हासभए अक्खाइय, उवघाए निस्सिया दसमा / / 274|| क्रोध इति क्रोधानिः सृता, यथा क्रोधाभिभूतः पिता पुत्रमहा- न त्वं ममपुत्रः यद्वा क्रोधाभिभूतो वक्तितदाशयविपत्तितः सर्वमेवासत्यमिति। एवं माननिः सृता मानाध्मातः क्वचित्केनचिदल्पधनोऽपि पृष्ट आहमहाधनोऽहमिति।मायानिःसृतामायाऽऽकारप्रभृतय आहुः- नष्टो गोलक इति, लोभनिः सृता-वणिक-प्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवत्थमिदं क्रीतम इत्यादि / प्रेमनिः सृता अतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादि। द्वेषनिः सृतामत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि। हास्यनिः सृता कान्दर्पिकानां किञ्चित् कस्यचित्संबन्धि गृहीत्वा पृष्टानां न दृष्टमित्यादि। भयनिः सृता तस्कराऽऽदिगृहीताना तथा तथा असमञ्जसाभिधानम्, आख्यायिकानिःसृता तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः / उपधातनिः सृता अचौरे चौर इत्यभ्याख्यानवचनमिति गाथार्थः / उक्ता मृषा। साम्प्रतं सत्यामृषामाहउप्पन्नविगयमीसग, जीवमजीवे यजीवअज्जीवे। तहऽणंतमीसगा खलु, परित्त अद्धाय अद्धद्धा / / 275 / / उत्पन्न विगतमिश्रकेति-उत्पन्नविषया सत्यामृषा यथैकं नगरमधिकृत्यास्मिन्नद्य दशदारका उत्पन्ना इत्यभिदधतस्तद्न्यूनाधिकभावे, व्यवहारतोऽस्याः सत्यामृषात्वात्, श्वस्तेशतं दास्यामीत्यभिधा पञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषात्वादर्शनात्, अनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेवच मृषात्वसिद्धेः, सर्वथा क्रियाभावेन सर्वथा व्यत्ययादित्येवं विगताऽऽदिष्वपि भावनीयमिति / Page #1532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1524 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा तथा च विगतविषया सत्यामृषा यथैकं ग्राममधिकृत्याऽस्मिन्नद्य दश वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिकभावे, एवं मिश्रका सत्यामृषा उत्पन्नविगतोभयसत्यामृषा, यथैक पत्तनमधिकृत्याऽऽहास्मिन्नद्य दश दारका जाता दश च वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तद्न्यूनाधिकभावे, जीवामिश्रा जीवविषया सत्यामृषा यथा जीवन्मृतकृमिराशौ जीवराशिरिति। अजीवमिश्रा च- अजीवविषया, सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव प्रभूतमृतकृमिराशावजीवराशिरिति / जीवाजीवमितिजीवाजीवविषया सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव जीवन्मृतकृमिराशौ प्रमाणनियमेनैतावन्तो जीवन्त्येतावन्तश्च मृता इत्यभिदधतस्तद्न्यूनाधिकभावे / तथाऽनन्तमिश्रा खल्विति अनन्तविषया सत्यामृषा यथा मूलकन्दाऽऽदौ परीतपत्राऽऽदिमत्यनन्तकायोऽयमित्यभिदधतः, परीतमिश्रापरीतविषया सत्यामृषायथाऽनन्तकायलेशवति परीतम्लानमूलाऽऽदौ परीतोऽयमभिदधतः / अद्धामिश्राकालविषया सत्यामृषा यथा कश्चित्कस्मिंश्चित्प्रयोजने सहायाँस्त्वरयन् परिणतप्राये वासर एष रजनी वर्तत इति ब्रवीति / अद्धद्धमिश्रा च दिवसरजन्येकदेशः अद्धद्धोच्यते, तद्विषया सत्यामृषा यथा कस्मिँश्चित्प्रयोजने त्वस्यन् प्रहरमात्र एव मध्याह्न इत्याह ! एवं मिश्रशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते इति गाथार्थः / उक्ता सत्यामृषा। साम्प्रतमसत्यामृषामाहआमंतणि आणवणी, जायणि तह पुच्छणी य पन्नवणी। पचक्खाणी भासा,भासा इच्छाणुलोमा य॥२७६।। आमन्त्रणी यथा हे देवदत्त ! इत्यादि, एषा किलाप्रवर्तकत्वात् सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतस्तथाविधदलोत्पत्तेरसत्याभूषेति एवमाज्ञापनी यथेदं कुरु, इयमपि तस्य करणाकरणभावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतः अदुष्टविवक्षाप्रसूतत्वादसत्यामृषेति। एवं स्वबुद्ध्याऽन्यत्रापि भावना कार्यति यावनी यथा- भिक्षां प्रयच्छति, तथा प्रच्छनी यथा कथमेतदिति, प्रज्ञापनी यथा हिंसाप्रवृत्तो दुःखिताऽऽदिर्भवति, प्रत्याख्यानी भाषा यथा अदित्सेति भाषा / इच्छानुलोमा च यथा केनचित् कश्चिदुक्तः साधुसकाशं गच्छाम इति।स आह-शोभनमिदमिति गाथाऽर्थः। अणमिग्गहिआ भासा, भासाय अभिग्गहम्मि बोधव्वा। संसयकरणी भासा, वायड अव्वायडा चेव / / 277 / / अनभिगृहीता भाषा अर्थमनभिगृह्य योच्यते डित्थाऽऽदिवत्, भाषा चाभिग्रहे बोधव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटाऽऽदिवत्, तथा च संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थसाधारणा योच्यते सैन्धवमित्यादिवत् / / व्याकृतास्पष्टा प्रकटा देवदत्तस्यैष भ्रातेत्यादिवत् / अव्याकृता चैवअस्पष्टा अप्रकटार्था बालकाऽऽदीना थपनिकेत्यादिवदिति गाथार्थः / उक्ता असत्यामृषा। (4) साम्प्रतमोघत एवास्याः प्रविभागमाहसव्वा वि असा दुविहा, पज्जत्ता खलु तहा अपज्जत्ता। पढमा दो पज्जत्ता, उवरिल्ला दो अपज्जत्ता ! // 278 // सर्वाऽपि च 'मा' सत्याऽऽदिभेदभिन्ना भावा द्विविधाऽपर्याप्ता खलु, तथा अपर्याप्ता / पर्याप्ता या एकपक्षे निक्षिप्यते सत्या वा मृषा वेति तद्व्यवहारसाधनी, तद्विपरीता पुनरपर्याप्ता, अत एवाऽऽह- प्रथमे द्वे भावे सत्यामृषे प्रर्याप्ते, तथा स्वविषयव्यवहारसाधनात्, तथा उपरितने द्वे सत्यामृषाऽसत्यामृषाभाषे अपर्याप्त, तथा स्वविषयव्यवहारासाधनादिति गाथार्थः। उक्ता द्रव्यभावभाषा। (5) साम्प्रतं श्रुतभावभाषामाहसुयधम्मे पुण तिविहा, सच्चा मोसा असचमोसाय। सम्मद्दिट्ठी उसुओ-वउत्तु सो भासई सच्चं // 276 / / श्रुतधर्म इति श्रुतधर्मविषया पुनस्विविधा भावभाषा भवति। तद्यथासत्या, मृषा, असत्यामृषा चेति / तत्र सम्यग्दृष्टिस्तु सम्यगदृष्टिरेव, श्रुतोपयुक्त इत्यागमे यथावदुपयुक्तोयः स भाषते, सत्यम् आगमानुसारेण वक्तीति गाथार्थः। सम्मट्ठिी उ सुयम्मि, अणुवउत्तो अहेउगं चेव। जं भासई सा मोसा, मिच्छादिट्ठी वि अतहेव // 280 / / सम्यगदृष्टिरेव सामान्येन श्रुते आगमे अनुपयुक्तः प्रमादात् यत्किश्चित् अहेतुकं चैव युक्तिविकलं चैव यद्भाषते तन्तुभ्यः पट एव भवतीत्येवमादि सा मृषा, विज्ञानाऽऽदेरपि तत एव भावादितिः मिथ्यादृष्टिरपि तथैवेत्युपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यद्भाषते सा मृषैव, घुणाक्षरन्यायसंवादेऽपि सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरान्मत्तवदिति गाथार्थः। हवइ उ असचमोसा, सुयम्भि उवरिलए तिनाणम्मि। जं उवउत्तो भासइ, उत्तो वोच्छं चरित्तम्मि॥३८१।। भवतितु असत्यामृषा श्रुते आगम एव परावर्तनाऽऽदि कुर्वतस्तस्याssमन्त्रण्यादिभाषारूपत्वात् तथा उपरितने अवधिमनः पर्याय-केवललक्षणे, त्रिज्ञान इति ज्ञानत्रये यदुपयुक्तो भाषते सा असत्यामृषा, आमन्त्रण्यादिवत् तथाविधाध्यवसायप्रवृत्तेः, इत्युक्ता श्रुतभावभाषा। अत ऊर्द्ध वक्ष्ये चारित्र इति-चारित्रविषया भाव-भाषामिति गाथार्थः। पढमविइआ चरित्ते, भासा दो चेव होंति नायव्वा। सचरित्तस्स उभासा, सच्चामोसा उइअरस्स।।२८२॥ प्रथमद्वितीय सत्यामृषे, चारित्र इति चारित्रविषये भाषे द्वे एव भवतो ज्ञातव्ये; स्वरूपमाह- सचरित्रस्य चारित्रपरिणामवतः, तुशब्दाद् तबृद्धिनिबन्धनभूता च भाषा द्रव्यतस्तथाऽन्यथाभावेऽपि सत्या, सतां हितत्वादिति। मृषातु इतरस्य अचारित्रस्य तद्वृद्धिनिबन्धनभूता चेति गाथार्थः / दश०७ अ०२ उ०। भ०। प्रव० संथा०। स०ा बृला आव० दर्श०। नं० प्रतिविभागोपदर्शन भाषाविशेषान भाषणीयत्वेन प्रदर्शयितुमाहअह भंते ! आसइस्सामो सइस्सामो चिहिस्सामो निसीइस्सामो तुयट्टिस्सामो। "आमंतणि आणवणी, जायणि तह पुच्छणीय पण्णवणी। पचक्खाणी भासा, भासा इच्छाणुलोमा य / / 1 / / अणभिग्गहिया भासा, भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धव्वा / संसयकरणी भासा, वोयडमव्वोयडा चेव / / 2 / / " पन्नवणी णं एसान एसा भासा मोसा? हंता ! गोयमा! Page #1533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1525 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा मा! आसइस्सामो तं चेव०जावन एसा भासा मोसा। (सूत्रम्४०३) 'अह भंते !' इत्यादि, अथेति परिप्रश्नार्थः ‘भंते ! ति भदन्त ! इत्येवं भगवन्ते महावीरमामन्त्र्य गौतमः पृच्छति-(आसइस्सामोत्ति) आश्रयिष्यामो वयमाश्रयणीयं वस्तु (सइस्सामो त्ति) शयिष्यामः 'चिट्टिस्सामो त्ति' ऊर्द्धस्थानेन स्थास्यामः, निसीइस्सामो ति' निषेत्स्याम उपवेक्ष्याम इत्यर्थः / 'तुयहिस्सामो त्ति' संस्तारके भविष्याम इत्यादिका भाषा किं प्रज्ञापनी? इति योगः।। अनेन चोपलक्षणपरवचनेन भाषाविशेषाणामेवंजातीयानां प्रज्ञापनीयत्वं पृष्टमथ भाषाजातीनां तत्पृच्छति'आमंतणि गाहा'-तत्र आमन्त्रणी-हे देवदत्त ! इत्यादिका, एषा च किल वस्तुनोऽविधायकत्वादनिषेधकत्वाच्च सत्याऽऽदिभाषात्रयलक्षणवियोगतश्चासत्यामृषेति प्रज्ञापनाऽऽदावुक्ता, एवमाज्ञापन्यादिकामपि 'आणवणि त्ति' आज्ञापनी कार्ये परस्य प्रवर्तनी यथा घटं कुरु 'जायणि त्ति' याचनी-वस्तुविशेषस्य देहीत्येवं मार्गणरूपा, तथेति समुच्चये 'पुच्छणी य त्ति' प्रच्छनी-अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थ तदभियुक्तप्रेरणरूपा, 'पण्णवणि त्ति' प्रज्ञापनी विनेयस्योपदेशदानरूपा यथा- "पाणवहाउ नियत्ता, भवंति दीहाउया अरोगा य / एमाई पन्नवणी, पन्नत्ता वीयरागेहिं // 1 // " पच्चक्खाणीभास त्ति प्रत्याख्यानी याचमानस्याऽदित्सा मे अतो भां मायाचस्वेत्यादिप्रत्याख्यानरूपा भाषा 'इच्छाणुलोम त्ति' प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनुलोमातदनुकूला इच्छानुलोमा यथा कार्ये प्रेरितस्य एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति वचः / 'अणभिग्गहिया भासा गाहा' अनभिगृहीता-अर्थानभिग्रहेण योच्यते डित्थाऽऽ-दिवत् 'भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धव्वा' भाषा चाभिग्रहे बोदव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटाऽऽदिवत्, 'संसयकरणीभास त्ति।' याऽनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा संशयकरणी यथा सैन्धवशब्दः पुरुषलवणवाजिषु वर्तमान इति 'वोयड त्ति' व्याकृता लोकप्रतीतशब्दार्था, 'अव्वोयड त्ति अव्याकृता-गम्भीरशब्दार्था मन्मनाक्षरप्रयुक्ता वाऽनाविर्भावितार्था, 'पन्नवणी णं ति' प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी अर्थकथनी वक्तव्येत्यर्थः, 'न एसा मोस त्ति नैषा मृषानार्थानभिधायिनी नावक्तव्येत्यर्थः, पृच्छतोऽयमभिप्रायः-आश्रयिष्याम इत्यादिका भाषा भविष्यक्तालविषया सा चान्तरायसम्भवेन व्यभिचारिण्यपि स्यात्, तथैकाऽर्थविषयाऽपि बहुवचनान्ततयोक्तेत्येवमयथार्था, तथा आमन्त्रणीप्रभृतिका विधिप्रतिषेधाभ्यां न सत्यभाषावद्वस्तुनि नियतेत्यतः किमियं वक्तव्या स्यात् ? इति, उत्तरंतु 'हंता' इत्यादि। इदमत्र हृदयम्आश्रयिष्याम इत्यादिकाऽनवधारणत्वाद्वर्त्तमानयोगेनेत्येतद्विकल्पगर्भत्वादात्मनि गुरौ चैकार्थत्वेऽपि बहुवचनस्याऽनुमतत्वात्प्रज्ञापन्येव तथाऽऽमन्त्रण्यादिकाऽपि वस्तुनो विधिप्रतिषेधाविधायकत्वेऽपि या निरवापुरुषार्थसाधनी सा प्रज्ञापन्येवेति। भ०१० श० 3 उ०। सत्याऽऽदिभाषासे नणं भंते ! मण्णामीति ओहारिणी भासा चिंतेमीति ओहारिणी मासा, अह मण्णमीति ओहारिणी भासा अह चिंतेमीति ओहारिणी भासा तह मण्णमीति ओहारिणी भासा तह चिंतेमीति ओहारिणी भासा? हंता ! गोयमा ! मण्णामीति ओहारिणी भासा चिंतेमीति ओहारिणी भासा अह मण्णामीति ओहारिणी भासा अह चिंतेमीति ओहारिणी भासा तह मण्णामीति ओधारिणी भासा तह चिंतेमीति ओधारणी भासा। ‘से णूणं भंते ! मण्णामि इति ओहारणी भासा' इत्यादि, से' शब्दोऽथशब्दार्थः, स च वाक्योपन्यासे, नूनमुपमानावधारणत प्रश्नहेतुषु इहावधारणे, भदन्त ! इत्यामन्त्रणे, मन्ये-अवबुध्ये इतिएवं, यदुत अबधारणी भाषा अवधार्यते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेत्यवधारणी-अवबोधबीजभूता इत्यर्थः, भाष्यते इति भाषा, तद्योग्यतया परिणामितनिसृज्यमानद्रव्यसंहतिः, एष पदार्थः वाक्यार्थः पुनरयम अथ भदन्त ! एवमहं मन्ये , यदुतावश्यमवधारिणी भाषेति, न चैतत् सकृदनालोच्यैव मन्ये, किंतु चिन्तयामि युक्तिद्वारेणाऽपि परिभावयामीति-एवं यदुत अवधारणीयं भाषेति. एवमात्मीयमभिप्रायं भगवते निवेद्याधिकृतार्थविनिश्चयनिमित्तमेवं भगवन्तं पृच्छति- (अह मण्णामी इइ ओहारिणी भासा इति) 'अथशब्दः प्रक्रियाप्रश्नाऽऽनन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमु-चयेषु,' इह प्रश्ने, काक्वा चास्य सूत्रस्य पाठस्ततोऽयमर्थः- अथ भगवन्नेवमहं मन्ये एवमहं मननं कुर्यां , यथा अवधारिणी भाषेति द्वितीयाभिप्रायनिवेदनमधिकृत्य प्रश्रमाह- (अह चिंतेमि ओहा-रिणी भासा इति) अथ भगवन् ! एवमहं चिन्तयामि एवमहं चिन्तनं कुर्या , यदुतावधारिणी भाषेति निरवद्यमेतदित्यभिप्रायः, सम्प्रति पृच्छासमयात् यथा पूर्व मननं चिन्तनं वा कृतवानिदानीमपि पृच्छासमये तथैव मनन चिन्तनं वा करोमि नान्यथेति भगवतो ज्ञानेन संवादयितुकामः पृच्छति- (तह मन्नामी इति ओहारिणी भासा तह चिंतेमीति ओहारिणी भासा इति) 'तथेति समुच्चयनिर्देशावधारणसादृश्यप्रश्रेषु' इह निर्देशे, काक्वा चास्यापि पाठः, ततः प्रश्रार्थत्वावगतिः, भगवन् ! यथा पूर्व मतवानिदानीमप्यहं तथा मन्ये इति-एवं यदुत अवधारिणी भाषेति / किमुक्तं भवति? नेदानीन्तनमननस्य पूर्वमननस्य च मदीयस्य कश्चिद्विशेषोऽस्त्येतत् भगवन्निति; तथा यथा पूर्व भगवन् ! चिन्तितवान् इदानीमप्यहं तथा चिन्तयामि इति-एवं यदुत अवधारणी भाषेति, अस्त्येत-दिति ? एवं गौतमेनाभिप्रायनिवेदने प्रश्रे चकृते भगवानाह- 'हंता गोयमा ! मन्नामी इति ओहारिणी भासाइति,' 'हन्तेति सम्प्रेषणप्रत्यवधारणविवादेषु' इह प्रत्यवधारणे, मन्नामी इत्यादीनि क्रियापदानि प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच युष्मदर्थेऽपि प्रयुज्यन्ते, ततोऽयमर्थः- हन्त गौतम ! मन्यसे त्वं यदुत अवधारणी भाषेती जानाम्यहं केवलज्ञानेनेदमित्यभिप्रायः, तथा चिन्तयसि त्वमित्येवं यदुतावधारिणी भाषेति इदमप्यहं वेधि केवलित्वात्, (अह मन्नामी इति ओहारिणी भासा इति)अथेत्यानन्तर्ये मत्संमतत्वात्ऊर्द्धनिःशङ्कमन्यस्व, इति एवं यदुतावधारिणी भाषेति। अथ इत ऊर्द्ध निःशङ्क चिन्तय इति एवं Page #1534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा यदुतावधारिणी भाषेति, अतीवेदं साध्वनवद्यमित्यभिप्रायः, तथा तथा अविकलं परिपूर्ण मन्यस्व इत्येवं यदुतावधारणी भाषेति यथा पूर्व मतवान् / किमुक्तं भवति? यथा त्वया पूर्व मननं कृतमिदानीमपि मत्संमतत्वात् सर्व तथैव मन्यस्व मा मनागपि शङ्का कार्षीरिति; तथा तथा अविकलं परिपूर्ण चिन्तय इति एवं यदुतावधारिणी भाषेति, यथा पूर्व चिन्तितवान्, मा मनागपि शनिष्ठा, इति, तदेवं भाषा अवधारिणीति निर्णीतम्। इदानीमियमवधारिणी भाषा सत्या उत मृषेत्यादिनिर्णयार्थ पृच्छतिओहारिणी णं भंते ! भासा किं सचा मोसा सच्चा मोसा असच्चामोसा ? गोयमा ! सिय सच्चा, सिय मोसा, सिय सच्चामोसा, सिय असच्चामोसा। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइओहारिणी णं भासा सिय सच्चा, सिय मोसा, सिय सच्चामोसा, सिय असच्चा-मोसा? गोयमा ! आराहिणी सच्चा विराहिणी मोसा आराहणविराहिणी सच्चामोसा जा णेव आराहणी णेव विराहिणी सच्चामोसा जा णेव आराहणी णेव विराहिणी णेवाऽऽराहाणविराहिणीसा असच्चामोसा नामंसा चउत्थी भासा, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- ओहारिणी णं भासा सिय सच्चा, सिय मोसा, सिय सच्चामोसा, सिय असचा-मोसा / (सूत्रम्-१६१) 'ओहारिणी णं भंते!' इत्यादि, अवधारिणी अवबोधबीजभूता, णमिति प्राग्वत्, भदन्त ! भाषा किं सत्या, मृषा, सत्यामृषा, असत्यामृषा ? इति / तत्र सन्तो मुनयस्तेषामेव भगवदाज्ञासम्यगाराधकतया परमशिष्टत्वात् सद्भ्यो हिताइहपरलोकाऽऽराधकत्वेन मुक्तिप्रापिका सत्या, युगाऽऽदिपाठाभ्युपगमात् यः प्रत्ययः, यद्वा-यो यस्मै हितः स तत्र साधुरिति सत्सु साध्वी सत्या। 'तत्र साधौ' / 7 / 1 / 15 / इति यः प्रत्ययः, यदिवा-सन्तो मूलोत्तरगुणास्तेषामेव जगति मुक्तिपदप्रापकतया परमशोभनत्वात्, अथवा सन्तो विद्यमानास्तेच भगवदुपदिष्टा एवजीवाऽऽदयः पदार्थाः, अन्येषां कल्पनामात्ररचितसत्ताकतया तत्त्वतोऽसत्त्वात् तेभ्यो हिता तेषु साध्वी वा यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणेन सत्या, विपरीतस्वरूपा मृषा, उभयस्वभावा सत्यामृषा, या पुनस्तिसृष्वपि भाषास्वनधिकृतातल्लक्षणायोगतस्तत्रानन्तर्भाविनी सा आमन्त्रणाऽऽज्ञापनाऽऽदिविषया असत्यामृषा। उक्तं च- "सचा हिया सयामिह, संतो मुणयो गुणा पयत्था वा / तद्विवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा // 1 // अणहिगया जा तीसु वि, सद्दो च्चिय केवलो असच्चमुसा ॥"इति / भगवानाह- ‘गौतम ! सिय सच्चा' इत्यादि, स्यात् सत्या सत्याऽपि भगवतीत्यर्थः, एवं स्यादसत्या स्यात्सत्यामृषा स्यादसत्यामृषेति। अत्रैवार्थे प्रश्रमाह- 'से केण-तुणं भते!' इत्यादि, सुगमम्। भगवानाह- | गौतम ! आराधनी सत्या, इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठापनबुद्ध्या या सर्वज्ञमतानुसारेण भाष्यते अस्त्यात्मा सदसन्नित्यानित्याऽऽद्यनेकधर्मकलापाऽऽलिङ्गित इत्यादि सा यथावस्थितवस्त्वभिधायिनी आराध्यते मोक्षमार्गोऽनयेत्याराधिनी, आराधिनीत्वात् सत्येति, विराधिनी मृषेति, विराध्यते मुक्तिमार्गोऽनयेति विराधिनी, विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशया सर्वज्ञमतप्रातिकूल्येन या भाष्यते यथा नास्त्यात्मा एकान्तनित्यो वेत्यादि तथा सत्याऽपि परपीडोत्पादिका सा विपरीतवस्त्वभिधानात् परपीडाहेतुत्वाद्वा मुक्तिविराधानाद्विराधिनी विराधिनीत्वाच्च मृषेति, या तु किञ्चन नगरं पत्तनं वाऽधिकृत्य पञ्चसु दारकेषु जातेष्वेवमभिधीयते, यथाऽस्मिन् अद्य दश दारका जाता इति सा परिस्थूरव्यवहारनयमतेन आराधनाविराधिनी, इयं हि पञ्चानां दारकाणा यजन्म तावताऽशेन संवादनसम्भवादाराधिनी, दश न पूर्यन्ते इत्येतावताऽशेन विसंवादसम्भवात् विराधिनी, आराधिनी चासौ विराधिनी च आराधनविराधिनी, कर्मधारयत्वात् पुम्वद्भावः, आराधनविराधिनीत्वाच्च सत्यामृषा, या तु नैवाऽऽराधनी तल्लक्षणविगमात् नापि विराधिनी विपरीतवस्त्वभिधानाभावात् परपीडाहेतुत्वाभावाच्च नाप्याराधनविराधिनी एकदेशसंवादविसंवादाभावात्, हे साधो ! प्रतिक्रमण कुरु स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षस्वेत्यादिव्यवहारपतिता आमत्रिण्यादिभेदभिन्ना सा असत्यामृषा नाम चतुर्थी भाषा, 'से एएणडेण' इत्याद्युपसंहारवाक्यम्॥ इह यथावस्थितवस्तुतत्त्वाभिधायिनी भाषा आराधिनीत्वात् सत्येत्युक्त, ततः संशयाऽऽपन्नस्तदपनोदाय पृच्छतिअह भंते ! गाओ मिया पसू पक्खी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! जाय गाओ मिया पसू पक्खी पण्णवणी णं एसा भासा, [पण्णवणी ] ण एसा भासा मोसा / अह भंते ! जा य इत्थीवऊ जा य पुरिसवऊ जा य णपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसाभासा ण एसा भासामोसा ! हंता गोयमा! जाय इत्थीवऊ जा य पुमवऊ जा य नपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासान एसा भासा मोसा। अह भंते ! जाय इत्थीआणमणी जा य पुमआणमणी जाय नपुंसगआणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! जाय इत्थीआणवणी जाय पुमआणवणी जा य नपुंसगआ-णवणी पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासामोसा। अह भंते!जाय इत्थिपण्णवणी जायपुमपण्णवणी जाय नपुंसगपण्णवणी पण्णवणीणं एसा भासा ण एसा भासामोसा? हंता गोयमा ! जा य इत्थिपण्णवणी जा य पुमपण्णवणी जा य नपुंसगपण्णवणी, पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा। अह मंते ! जा जायीति इत्थिवऊ जातीइ पुमवऊ जातीति णपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा? हंता! गोयमा ! जातीति इत्थिवऊ जाईति पुमवऊ जातीतिणपुंसगवऊ Page #1535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1527 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा। अह भंते ! जा स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते // 2 // जातीइ इत्थियाणवणी जाइत्ति पुमआणवणी जातीति स्तनाऽऽदिश्मश्रुकेशाऽऽदि-भावाभावसमन्वितम्। णपुंसगाणवणी पण्णवणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा? नपुंसकं बुधाः प्राहु-मोहानलसुदीपितम् // 3 // " हंता ! गोयमा ! जातीति इत्थिआणमणी जातीति पुमआणवणी तथाऽन्यत्राप्युक्तम्जातीति णपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा "स्तनकेशवती स्त्री स्या-ल्लोमशः पुरुषः स्मृतः। मोसा। अह भंते ! जातीति इत्थिपण्णवणी जातीति पुमपण्ण उभयोरन्तरं यच, तत्र भावे नपुंसकम् / / 1 / / " वणी जातीति णपुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा न चैवंरूपाणि स्क्यादिलक्षणानि खट्वाऽऽदिषूपलभ्यन्ते / तथाहिभासा मोसा? हंता! गोयमा ! जातीति इत्थिपण्णवणी जाईति यद्येकैकावयवपृथक्करणेन सम्यग निभालनं क्रियते तथापि न तेषां पुमपण्णवणी जाईति णपुंसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा स्त्र्यादिलक्षणानां तत्रोपलम्भोऽस्ति, ततः प्रज्ञापनीयं भाषा न वेति ण एसा भासा मोसा। (सूत्रम्-१६२) जातसंशयः तदपनोदाय पृच्छति। अत्र भगवानाह- 'हंता गोयमेत्यादि' 'अह भंते ! गाओ मिया' इत्यादि, अथ भदन्त ! गावः प्रतीताः, मृगा अक्षरगमनिका प्राग्वत् / भावार्थस्त्वयम्- नेह शब्दप्रवृत्तिचिन्तायां अपि प्रतिताः, पशवः-अजाः, पक्षिणोऽपि प्रतीताः, प्रज्ञापनी यथोक्तानि स्त्र्यादिलक्षणानि स्त्रीलिङ्गाऽऽदिशब्दाभिधेयानि, किन्त्वप्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी, किम् अर्थप्रतिपादनी? प्ररूपणीयेति भिधेयधर्मा इयमयमिदंशब्दव्यवस्थाहेतवः गुरूपदेशपारम्पर्यगम्याः यावत्, णमिति वाक्यालङ्कारे, एषा भाषा सत्या नैषा भाषा मृषेति / स्त्रीलिङ्गादिशब्दाभिधेयाः, नचैते कल्पनामात्रं, वस्तुतस्तत्तच्छब्दाइयमत्र भावनागाव इति भाषा गोजाति प्रतिपादयति, जातौ च त्रिलिङ्गा भिधेयतया परिणमनभावात्. तेषामभिधेयधर्माणां तत्त्वतस्तात्त्विकत्वात्। अप्य अभिधेयाः, लिङ्गत्रयस्याऽपि जातौ सम्भवात्. एवं मृगपशुप आह च शकटसूनुरपि- "अयमियमिदमितिशब्दव्यवस्थाहेतुरभिधेयधर्म क्षिष्वपि भावनीयम्, न चैते शब्दास्त्रिलिङ्गाभिधायिनस्तथाप्रतीतेर उपदेशगम्यः स्त्रीपुनपुंसकत्वानीति" व्यवस्थापितश्चायमर्थो विस्तरकेण भावात् किन्तु पुंलिङ्गगर्भास्ततः संशयः किमियं प्रज्ञापनी, किंवा नेति? स्वोपज्ञशब्दानुशासनविवरण इति, ततः शाब्दव्यवहारापेक्षया यथावस्थिभगवानाह- 'हंता गोयमा!' हन्तेत्यवधारणे गौतम ! इत्यामन्त्रणे, गाव तार्थप्रतिपादनात् प्रज्ञापनीयं भाषा, दुष्टविवक्षातः समुत्पत्तेरभावात् इत्यादिका भाषा प्रज्ञापनी, तदर्थकथनाय प्ररूपणीया, यथावस्थिता परपीडाहेतुत्वाभावाच वमृषेति। अहभंते!' इत्यादि, अथ भदन्त! याच र्थप्रतिपादकतया सत्यत्वात्, तथापि जात्यभिधायिनीयं भाषा, जातिश्च रत्र्याज्ञापनी आज्ञाप्यते-आज्ञासम्पादने प्रयुज्यतेऽऽनया सा आज्ञापनी त्रिलिङ्गार्थसमवायिनी, ततो जात्यभिधानेन त्रिलिङ्गाअपि यथा-सम्भवं रिखया आज्ञापनी स्त्र्याज्ञापनी, स्त्रिया आदेशदायिनीत्यर्थः / या च विशेषा अभिहिता भवन्तीति भवति यथावस्थितार्थाभिधानादियं पुमाज्ञापनी नपुंसकाऽऽज्ञापनी, प्रज्ञापनीयं भाषा नैषाभाषा मृषेति? अत्रेदं प्रज्ञापनी भाषेति / यदप्युक्तम्-किन्तु पुंलिङ्गगर्भा इति, तत्र शब्दे संशयकारणम्- किल सत्या भाषा प्रज्ञापनी भवति, इयं च भाषा आज्ञालिङ्ग व्यवस्था लक्षणवशात, लक्षणं च- 'स्त्रीपुंनपुंसक-सहोक्तौ परं' सम्पादनक्रियायुक्ताभिधायिनी, आज्ञाप्यमानश्च इत्यादिः तथा कुर्यान्न तथा 'ग्राम्याशिशुद्विखुरसड़े स्त्री प्रायः' इत्यादि, ततो भवेत् कचित् वा? ततः संशयमापन्नो विनिश्चयाथ पृच्छति / अत्र भगवानाह- 'हंता शब्दे लक्षणवशात् स्त्रीत्व, क्वचित् पुस्त्वं, क्वचित् नपुंसकत्वं वा / गोयमा !' इत्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा। भावार्थस्त्वयम्- आज्ञापनी परमार्थतः पुनः सर्वोऽपि जातिशब्दस्त्रिलिङ्गानप्यर्थान् तत्तद्देशकाल भाषा द्विधापरलोकाबाधिनी, इतराच। तत्र या स्वपरानुग्रहबुद्ध्या शाट्यप्रस्तावाऽऽदिसामर्थ्यवशादभिधत्ते इति न कश्चिद्दोषः, न चेयं परपीडा मन्तरेण आमुष्मिकफलसाधनायं प्रतिपन्नहि-काऽऽलम्बनप्रयोजना विवजनिका, नाऽपि विप्रतारणाऽऽदिदुष्टविवक्षासमुत्था ततो न मृषेति क्षितकार्यप्रसाधनसामर्थ्ययुक्ता विनीतस्त्र्यादिविनेयजनविषया सा प्रज्ञापनी। 'अह भंते ! जा य इत्थिवऊ' इत्यादि अथेति प्रवे भदन्त ! परलोकाबाधिनी, एषैव च साधूनां प्रज्ञापनी, परलोकाबाधनात्, इतरा इत्यान्त्रणे, या च स्त्रीवाक् स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिका भाषा स्वट्टा लतेत्यादि त्वितरविषया, सा च स्वपरसल्केशजननात, मृषेत्यप्रज्ञापनी साधुलक्षणा, या पुरुषवाक् घटः पट इत्यादिरूपा, या च नपुंसकवाक् कुड्यं वर्गस्य / उक्तं च- "अविणीयमाणवतो, किलिस्सई भासई मुसतह य। काण्डमित्यादिलक्षणा प्रज्ञापनीयं भाषा नैषा भाषा मृषेति? किमत्र संश घंटालोहं नाउ, को कडकरणे पवत्तेज्जा? ||1 // " क्रिया हि द्रव्यं विनमयति यकारणं येनेत्थं पृच्छति? इति चेत्, उच्यते- इह खटाघटकुज्याऽऽदयः नाद्रव्यमित्यभिप्रायः। अह भंते ! जाय इत्थि पण्णवणी' इत्यादि / अथ शब्दाः यथाक्रमं स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गाभिधायिनः / स्त्रीपुंन-पुंसकानां च भदन्त ! या च भाषा स्त्रीप्रज्ञापनास्त्रीलक्षणप्रतिपादिका, 'योनिमृदुत्वलक्षणमिदम् मस्थैर्य , मुग्धता' इत्यादिरूपा। या च पुंप्रज्ञापनीपुरुषलक्षणप्रतिपादिका'योनिमृदुत्वमस्थैर्य , मुग्धता क्लीवता स्तनौ। 'मेहनं खरता दाढ्य इत्यादिरूपा। याच नपुंसकप्रज्ञापनीनपुंसकलक्षणापुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते॥१॥ भिधायिनी स्तनाऽऽदिश्मश्रुसकप्रज्ञापनीनपुंसकलक्षणभिधायिनी स्तनामेहनं खरता दाळ शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता। ऽऽदिश्मश्रुकेशाऽऽदि भावाभावसमन्वितम्। इत्यादि लक्षणा, प्रज्ञापनीयं Page #1536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1528 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा भाषा नैषा भाषा मृषेति? कोऽत्राभिप्राय इति चेत्, उच्यते - इह ___जातिस्त्रीप्रज्ञापनी जातिमधिकृत्य स्त्रिया स्त्रीलक्षणस्य प्रतिपादिका, स्त्रीलिङ्गाऽऽदयः शब्दाः शाब्दव्यवहारबलादन्यत्रापि प्रवर्त्तन्ते, यथा | यथा स्वीः स्वभावात् तुच्छा भवति गौरवबहुला चलेन्द्रिया दुर्बला च खट्वाघटकुट्याऽऽदयः खट्रवाऽऽदिष्वर्थेषु न खलु तत्र यथोक्तानि ध्रत्येति / उक्तं च- "तुच्छा गारबबहुला, चलिंदिया दुब्बला य धीईए।" स्त्र्यादिलक्षणानि सन्ति यथोक्तं प्राक्, ततः किमियमव्यापकत्वात् इत्यादि। या च जातिमधिकृत्य पुम्प्रज्ञापनी पुरुषलक्षणस्य स्वरूपनिस्त्र्यादिलक्षणप्रतिपादिका भाषा न वक्तव्या, आहोस्वित् वक्तव्येति रूपिका, यथा पुरुषः स्वभावात् गम्भीराऽऽशयो भवति महत्यामपि संशयाऽऽपन्नः पृष्टवान् / अत्र भगवानाह- 'हंता गोयमेत्यादि।' चाऽऽपदिन क्लीबतां भजते इत्यादि। या च जातिमधिकृत्य नपुंसकअक्षरगमनिका सुप्रतीता। भावार्थस्त्वयम्- इह स्त्र्यादिलक्षणं द्विधा- प्रज्ञापनी नाम-नपुंसकजातिप्ररूपिका, यथा नपुंसकः स्वभावात् क्लीबो शाब्दव्यवहारानुगतं, वेदानुगतं च। तत्र यदा शाब्दव्यवहाराऽऽश्रितं भवति, प्रबलमोहानलज्वालाकलापज्वलितश्चेत्यादि प्रज्ञापन्येषा भाषा प्रतिपादयितुमिष्यते तदैवं नवक्तव्यमव्यापकत्वात्, यथा चाव्यापकता नैषा भासा मृषेति अत्रापीदं संशयकारण वर्ण्यते खलु जातिगुणाः एवंरूपाः तथा प्रागेव लेशतोदर्शिता, विस्तरतस्तु स्वोपज्ञशब्दानुशासनविवरणे / परं क्वचित् कदाचित् व्यभिचारोऽपि दृश्यते। तथाहि- रामाऽपि काचित् तत इयं तदधिकृत्य प्रज्ञापनी, यदा तु वेदानुगतं प्रतिपादयितुमिष्यते गम्भीराऽऽशया भवति धृत्या चातीव वलवती, पुरुषोऽपि च कश्चित्तुच्छतदा यथाऽवस्थितार्थाभिधानात् प्रज्ञापन्येव, न मृषेति। अह भंते ! जा प्रकृतिरूपो लभ्यते स्तोकायामपि चापदि क्लीयतां भजते, नपुंसकोऽपि जातीति इथिवऊ' इत्यादि / अथ भदन्त ! या जातिः स्त्रीवाक् जाती कश्चिन्मन्दमोहानलो दृढसत्त्वश्च, ततः संशयः- किमेषा प्रज्ञापनी, किं वा स्त्रीवचनं सत्तेति, या जातौ पुंवाक् पुवचनं भाव इति, या च जाती नेति? अत्र भगवानाह- 'हता ! गोयमा!' इत्यादि। अक्षरार्थः सुगमः, नपुंसकवाक् सामान्यमिति, प्रज्ञापनी एषा भाषा नैषा भाषा मृषेति? परं भावार्थस्त्वयम्- इह जातिगुणप्ररूपणं बाहुल्यमधिकृत्य भवति न कोऽत्राभिप्रायः? इति चेत्, उच्यते- जातिरिह सामान्यमुच्यते, समस्तव्यक्त्याक्षेपणात एव जातिगुणान् प्ररूपयन्तो विमलधियः प्रायः सामान्यस्य च न लिङ्गसंख्याभ्यां योगो, वस्तूनामेव लिङ्गसङ्ख्याभ्यां शब्द समुच्चारयन्ति, प्रायेणेदं दृष्टव्य, यत्रापि न प्रायः, शब्दश्रवणं तत्रापि योगस्य तीर्थान्तरीयैरभ्युपगमात्, ततो यदि परं जातावौत्सर्गिकमेक- स दृष्टव्यः प्रस्तावात्, ततः कचिक्तदाचिद् व्यभिचारेऽपि दोषाभावात् वचनं नपुंसकलिङ्ग चोपपद्यतन त्रिलिङ्गता, अथ च त्रिलिङ्गाभिधायि- प्रज्ञापन्येषा भाषा न मृषेति / इह भाषा द्विधा दृश्यते- एका सम्यगुपनोऽपि शब्दाः प्रवर्त्तन्ते यथोक्तमनन्तरं ततः संशयः- किम् एषा भाषा युक्तस्य द्वितीया त्वितरस्य, तत्र यः पूर्वापरानुसन्धानपाटवोपेतः प्रज्ञापनी, उत नेति? अथ भगवानाह- 'हता गोयमा !' इत्यादि। श्रुतज्ञानेन पर्यालोच्यार्थान् भाषते स सम्यगुपयुक्तः, स चैवं जानातिअक्षरार्थः सुगमः। भावार्थस्त्वयम्- जाति म सामान्यमुच्यते, सामान्य अहमेतद्भाषे इति, यस्तु करणापटिष्ठतया वाताऽऽदिनोपहतचैतन्यचन परिकल्पितमेकमनवयवमक्रियं, तस्य प्रमाणबाधितत्वात्, यथा च कतया वा पूर्वापरानुसन्धानविकलो यथाकथञ्चित् मनसा विकल्प्य प्रमाणबाधितत्वं तथा तत्त्वार्थटीकायां भावितमिति ततोऽवधार्यम्, भाषते स इतरः, स चैवमपि न जानाति- यथा अहमेतत् भाषे इति। किन्तु समानः परिणामो "वस्तुन एव समानः, परिणामो यः स एव बालाऽऽदयोऽपि च भाषामाणा दृश्यन्ते, ततः संशयःसामान्यम्।" इति वचनात, समानपरिणामश्चानेकधाऽऽत्मा, धर्माणां किमेते जानन्ति यद्वयमेतत् भाषामहे इति, परस्परं धर्मिणोऽपि च सहान्योऽन्यानुवेधाभ्युपगमात् तथा प्रमाणेनोपल किं वा न जानन्तीति पृच्छतिब्धः, ततो घटते जातेरपि त्रिलिङ्गतेति प्रज्ञापन्येषा भाषा, नैषा भाषा अह मंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति बुयमाणा मृषेति। अह भंते !' इत्यादि। अथ भदन्त ! या जातिस्त्र्या-ज्ञापनी- अहमेसे बुयामीति? गोयमा ! नो इणढे समढे, णण्णत्थ जातिमधिकृत्य स्त्रिया आज्ञापनी, यथा अमुका ब्राह्मणी क्षत्रिया वा एवं सण्णिणो / अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ कुर्यादिति। एवं जातिमधिकृत्य पुमाज्ञापनी नपुंसकाऽऽज्ञापनी, प्रज्ञापनी आहारं आहारेमाणे अहमेसे आहारमाहारेमि त्ति? गोयमा ! एषा भाषा नैषा भाषा मृषेति? अत्रापि संशयकारणमिदम्-आज्ञापनी हि नो इणट्टे समढे, णण्णत्थ सण्णिणो / अह भंते ! मंदकुमारए नाम आज्ञासम्पादनक्रियायुक्तस्त्र्याद्यभिधायिनी, स्त्र्यादिश्चाऽऽज्ञा- वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अम्मापियरो? गोयमा ! प्यमानस्तथा कुर्यान्नवेति संशयः, किमियं प्रज्ञापनी, किं वाऽन्येति? णो इणढे समढे णण्णत्थ सण्णिणो / अह भंते ! मंदकुमारए अत्र निर्वचनमाह- 'हंता गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थः सुगमः, वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अतिराउलो अयं मे भावार्थस्त्वयम्- आज्ञापनी हि नाम परलोकाबाधिनी सा प्रोच्यते या अइराउले त्ति ? गोयमा ! णो इणढे समढे णण्णत्थ सण्णिणो। स्वपरानुग्रहबुद्ध्या विवक्षितार्थसम्पादनसामोपेतविनीतस्त्र्यादि- अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे विनेयजनविषया, यथा अमुका ब्राह्मणी साध्वी शुभं नक्षत्रमद्येत्यमुकमङ्ग भट्टिदारए अयं मे भट्टिदारिय त्ति? गोयमा ! णो इणद्वे समढे श्रुतस्कन्धं च पठेत्यादि सा प्रज्ञापन्येव, दोषाभावात्, शेषा तु स्वपर- णण्णत्थ सणिणो। अह भंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए पीडाजननान्मृषेत्यप्रज्ञापनीति। अह भंते!' इत्यादि। अथ भदन्त ! या एलए जाणति बुयमाणे अहमेसे बुयामि? गोयमा ! णो इणढे Page #1537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा समढे, णऽण्णत्थ सणिणो। अह भंते ! उट्टे०जाव एलए जाणति आहारं आहारेमाणे अहमेसे आहारेमि ? गोयमा ! णो इणठे समद्वे०जाव णण्णत्थ सणिणो / अह भंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलए जाणति अयं मे अम्मापियरो? गोयमा ! णो इणढे समढे०जावणऽण्णत्थ सण्णिणो / अह भंते / उट्टे जाव एलए जाणति अयं मे अतिराउले त्ति? गोयमा! णो इणढे समढे० जावणऽण्णत्थ सण्णिणो / अह भंते ! उट्टे०जाव एलए जाणति अयं मे भट्टिदारए भट्टिदारिया ? गोयमा ! णो इणढे समढे० जाव णऽण्णत्थ सण्णिणो। (सूत्रम्-१६३) 'अह भंते ! मंदकुमारए वा' इत्यादि / अथ भदन्त ! मन्दकुमारकःउत्तानशयो बालको, मन्दकुमारिका-उत्तानशया बालिका, भाषमाणाभाषायोग्यान पुद्गलानादाय भाषात्वेन परिणमय्य विसृजती एवं जानाति-यथाऽहमेतद् ब्रवीमि इति ? भगवानाह- गौतम ! नायमर्थःसमर्थः- युक्त्युपपन्नो, यद्यपि मनःपर्याप्त्या पर्याप्तस्तथापि तस्याद्यापि मनःकरणमपटु अपटुत्वाच्च मनः करणस्य क्षयोपशमोऽपि मन्दः श्रुतज्ञानाऽऽवरणस्य हि क्षयोपशमः प्रायो मनः करणपटिष्ठतामवलम्थ्योपजायते, तथा लोके दर्शनात्, ततो न जानाति मन्दकुमारोमन्दकुमारिका वा भाषमाणा यथाऽहमेतत् ब्रवीमीति। किं सर्वोऽपि न जानातीत्यत आह-'नऽणत्थ सण्णिणो' इति, अन्यत्रशब्दोऽत्र परिवर्जनार्थः, दृष्टश्वान्यत्रापि परिवर्जनार्थो यथा-'अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां, सर्वे योधाः पराड्मुखाः।' इति, द्रोणभीष्मौ वर्जयित्वा इत्यर्थः / संज्ञी-अवधिज्ञानी जातिस्मरः सामान्यतो विशिष्टमनः पाटवोपेतो वा तस्मादन्यो न जानाति, संज्ञी तु यथोक्तस्वरूपो जानीते / एवमाहाराऽऽदिविषयाण्यपि चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, नवरमतिराउले इति देशी-पदं, एतत् स्वामिकुलमित्यर्थः। भट्टिदारए' इति भस्विामी तस्य दारकःपुत्रो भर्तृदारकः / एवमुष्ट्राऽऽदिविषयाण्यपि पञ्च सूत्राणि भावयितव्यानिनवरमुष्ट्राऽऽदयोऽप्यतिबालावस्थाः परिग्राह्याः न जरठाः, जरढावस्थायां हि परिज्ञानस्य सम्भवात्। ___ सम्प्रत्येकवचनाऽऽदिभाषाविषयसंशयापनोदार्थं पृच्छति अह भंते ! मणुस्से महिसे आसे हत्थी सीहे वग्घे विगें दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोकतिए ससए चित्तए चिल्ललए,जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा एमवऊ? हंता गोयमा ! मणुस्से० जाव चिल्ललए, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा एगवऊ ? अह भंते / मणुस्सा जाव चिल्ललगा, जे यावन्ने लहप्पगारा सव्वा सा बहुवऊ ? हंता गोयमा ! मणुस्सा० जाव चिल्ललगा सव्वा सा बहुवऊ / अह भंते ! मणुस्सी महिसी बलवा हस्थिणियासीही वग्धी विगीदीविया अच्छी तरच्छी परस्सरा रासभी सियाली विराली सुणिया कोलसुणिया कोवंतिया ससिया चित्तिया चिल्ललिया,जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा इत्थिवऊ? हंता गोयमा ! मणुस्सोजाव चिल्ललिगा,जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा इत्थिवऊ। अह भंते ! मणुस्से! ०जाव चिल्ललए जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा पुमवऊ? हंता गोयमा ! मणुस्से महिसे०जाव चिल्ललए, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वा सा पुमवऊ अह भंते ! कंसं कंसोयं परिमंडलं सेलं थूभं नालं थालं तारं रूवं अच्छिपध्वं कुंडं पउमं दुद्धं दहिं णवणीतं असणं सयणं भवणं विमाणं छत्तं चामरं भिंगारं अंगणं णिरंगणं आभरणं रयणं, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वं तं णपुंसगवऊ? हंता गोयमा ! कंसं०जाव रयणं जे यावन्ने तहप्पगारा तं सव्वं णपुंसगवऊ / अह भंते ! पुढवी इत्थिवऊ, आउ त्ति पुमवऊ, धण्णित्ति नपुंसगवउ, पन्नवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! पुढवित्ति इत्थिवऊ। आउ त्ति पुमवऊ, धणित्ति नपुंसगवऊ, पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा। अह भंते ! पुढवीति इत्थिआणमणी, आउत्ति पुमआणमणी, धण्णेत्ति नपुंसगाणमणी, पण्णवणी णं एसा मासा ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! पुढवि त्ति इत्थिआणमणी, आउ त्ति पुमआणमणी, धण्णे त्ति नपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा? अह भंते ! पुढवीति इत्थिपण्णवणी, आउ त्ति पुमपण्णवणी, धण्णेत्तिणपुंसग-पण्णवणी, आराहणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! पुढवीति इत्थिपण्णवणी, आउ त्ति पुमपण्णवणी, धण्णेति नपुंसगपण्णवणी, आराहणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा / इच्चेवं भंते ! इत्थिदयणं वा पुमवयणं वा नपुंसगवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! इत्थिवयणं वा पुमवयणं वा णपुंसगवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा।। पसूत्रम्-१६४ब अथ भदन्त ! मनुष्यो महिषोऽश्वो हस्ती सिंहो व्याघ्रो वृक एते प्रतीताः। द्वीपीचित्रकविशेषः, ऋक्षः अच्छभल्लः,तरक्षोव्याघ्रजातिविशेषः, परस्सरोगण्डः, शृगालो-गोमायुः, विडालोमार्जारः,शुनकोमृगदंशः, कोलशुनकोमृगयाकुशलःश्वा, शशकः- प्रतीतः,कोकंतिया लुकडी, चित्रकः-प्रतीतः, चिल्ललकः आरण्यः पशुविशेषः। 'जे यावन्नेतहप्यगारा' इति।येऽपि चान्ये तथा प्रकारा एकवचनान्ता इत्यर्थः, सर्वा सा एकवाक्- एकत्वप्रतिपा Page #1538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1530 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा दिका वाणी, अयमत्र प्रश्रहेतुरभिप्रायः-इह वस्तु धर्माधर्मिसमु- स्त्रीवाक्- स्त्रीलिङ्ग विशिष्टार्थप्रतिपादिका वाक् भवति? काक्वा पाठात् दायाऽऽत्मक धाश्च प्रतिवस्त्वनन्ताः, मनुष्य इत्याधुक्तौ च सकलं प्रश्नार्थत्वावगतिः / भगवानाह- 'हंता ! गोयमा !' इत्यादि, अक्षरार्थ वस्तुधर्मधर्मिसमुदायाऽऽत्मक परिपूर्ण प्रतीतये, तथा व्यवहारदर्शनात्, सुगमः, भावार्थस्त्वयम्- यद्यपि नाम शबलरूपं वस्तु तथाऽप्येष शाब्दो एकस्मिंश्वार्थे एकवचनं, बहुषु बहुवचनम्। अत्र बहवो धर्मा अभिधेयाः, न्यायः-येन धर्मेण विशिष्टः प्रतिपादयितुमिष्यते स तं प्रधानीकृत्य तेन ततः कथमेकवचनम्? अथ च दृश्यते लोके एकवचनेनापि व्यवहार इति विशिष्ट न्यग्भूतशेषधर्माणं धर्मिणं प्रतिपादयति, यथा पुरुषत्वे शास्त्रज्ञत्वे पृच्छति-सर्वा सा एकत्वप्रतिपादिका वाग् भवति? काक्वा चेदं पठ्यते दातृत्वे भोक्तृत्वे जनकत्वेऽध्यापयितृत्वे च युगपद् व्यवस्थितेऽपि पुत्रः ततः प्रश्नार्थत्वावगतिः। भगवानाह- 'हंता गोयमा!' इत्यादि, अक्षरार्थः समागच्छन्तमवलोक्य पिता आगच्छतीति ब्रूते, शिष्यस्तु उपाध्याय सुगमः, भावार्थस्त्वयम्- शब्दप्रवृत्तिरिह विवक्षाऽधीना, विवक्षा च इति, एवमिहापि यद्यपि मानुषीप्रभृतिकं सर्व त्रिलिङ्गाऽऽत्मकं तथापि तत्तत्प्रयोजनवशात् वक्तुःक्वचित् कदाचित् कथञ्चित् भवतीत्यनियता। योनिर्मूदुत्वमस्थैर्याऽऽदिलक्षणं स्त्रीत्वमत्र प्रतिपादयितुमिष्टमिति ततःतथाहि स एवैकः पुरुषो यदाऽयं मेजनक इति पुत्रेण विवक्ष्यते तदाजनक प्रधानीकृत्य तेन विशिष्ट न्याभूतशेषधर्माण धर्मिणं प्रतिपादयतीति इत्यभिधीयते, स एव यदा तेनैव मामध्यापयतीति विक्ष्यते तदा तूपाध्याय भवति सर्वा सा स्त्रीवाक्, एवं पुंवाग्नपुंसकवाचावपि भावनीये। अह इति, तत्र यदा उपसर्जनीभूतधर्माधर्मी प्राधान्येन विवक्ष्यते तदा धर्मिण भंते ! पुढवी' इत्यादि, सुगम,नवरं 'आउ' इति पुंलिङ्गता प्राकृतलक्षणएकत्वात् एकवचनं, धर्माश्च धर्मिण्यन्तर्गता इति परिपूर्णवस्तुप्रतीतिर्यथा वशात्, संस्कृते तु रखीत्वमेव / 'अह भंते ! पुढवीति इत्थीआणवणी' त्वमिति, यदा तूपसर्जनीभूतधर्मिणो धर्माः पाण्डित्यपरोपकारित्वमहा- इत्यादि, अथ भदन्त! पृथिवीं कुरु पृथवीमानयेत्येवं स्त्रियां-स्त्रीलिङ्गे दानदातृत्वाऽऽदयः प्राधान्येन विवक्ष्यन्ते तदा धर्माणां बहुत्वादेक पृथिव्या आज्ञापनी, एवमाऊ इति पुमाज्ञापनी, धान्यमिति नपुंसकास्मिन्नपि बहुवचनं यथा यूयमिति, ततइहापि मनुष्य इत्यादायुपसर्जनी- ज्ञापनी, प्रज्ञापन्येषा भाषा, नैषा भाषा मृषेति? भगवानाह- 'हंता कृतधर्माधी प्राधान्येन विवक्षित इति भवति, सर्वाऽप्येवंजातीया गोयमा !' इत्यादि, सुगमम् / अह भंते' इत्यादि, अथ भदन्त? पृथिवी एकत्वप्रतिपादिका वाक्। 'अह भंते ! मणुस्सा' इत्यादि, अक्षरगमनिका इति स्त्रीप्रज्ञापनीस्त्रीत्वस्वरूपस्य प्ररूपणी, एवं आऊ इति पुंप्रज्ञापनी, प्राग्वत्, अत्रापीदं संशयकारणं-मनुष्याऽऽदयः शब्दा जातिवाचकाः, धान्यमिति नपुंसकप्रज्ञापनी, आराधनीमुक्तिमार्गाप्रतिपन्थिनी एषा जातिश्च सामान्य, सामान्य चैकम् ‘एक नित्यं निरक्यवमक्रिय सर्वग च भाषा, नैषा भाषा मृषेति? किमुक्तं भवति? नैवं वदतो मिथ्या सामान्यम् ' इतिवचनात्, ततः कथमत्र बहुवचनम्? अथ च दृश्यते भाषित्वप्रसङ्गः / भगवानाह- आराधनी एषा भाषा, नैषा भाषा मृषेति, बहुवचनेनाऽपि व्यवहार इति पृच्छति- सर्वा सा बहुत्वप्रतिपादिका वाक् शाब्दव्यवहारापेक्षया यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणात्, इह कियत् भयति? काका पाठात् प्रश्रा-र्थत्वावगतिः। अत्र भगवानाह- 'हता प्रतिपदं प्रष्टुं शक्यते, ततोऽतिदेशेन पृच्छति- 'इच्चेवं भंते!' इत्यादि, गोयमा !' इत्यादि। अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थस्त्वयम्- यद्यपि नामैते इतिः- उपदर्शन, एवंशब्दः प्रकारे, उपदर्शितेन प्रकारेणान्यदपि स्त्रीवचनं जातिवाचकाः शब्दाः तथाऽपि जातिरभिधीयते समानपरिणामः, पुंवचनं नपुंसकवचनं वा वदति साधुस्तदा तस्मिन्नेव वदति या भाषा सा समानपरिणामश्वासमानपरिणामाविनाभावी, अन्यथैकत्वाऽऽपत्तितः प्रज्ञापनी भाषा, नैषा भाषा मृषेति? भगवानाह- प्रज्ञापनी एषा भाषा, समानत्वयोगात्, ततो यदा समानपरिणामोऽसमानपरिणामसंलुलितः शाब्दव्यवहारानुसरणतो दोषाभावात्, अन्यथा स्थिते हि वस्तुन्यन्यथा प्राधान्येन विवक्ष्यते तदाऽसमानपरिणामस्य प्रतिव्यक्ति भिन्नत्वात् भाषणं दोषः, यदा तु यद्वस्तुयथावस्थित तत्तथा भाषते, तदा को दोष तदभिधाने बहुवचनं, यथा घटा इति, यदातु स एव एकः समानपरिणामः इति? तदेवं भाषाप्रतिपादनविषयाये केचन सन्देहास्ते सर्वेऽप्यपनीताः। प्राधान्येन विवक्ष्यते इतरस्त्वसमानपरिणाम उपसर्जनीभूतस्तदा (6) सम्प्रति सामान्यतो भाषायाः कारणाऽदि पिपृच्छिषुराहसर्वत्राऽपि समानपरिणामस्य एकत्वात् तदभिधाने एकवचन, यद्वा भासा णं भंते ! किमादीया किंपवहा किंसंठिया किं पज्जवसर्वोऽपि घटः पृथबुध्नो, दराऽऽद्याकार इति, अत्राऽपि मनुष्या इत्यादी सिया? गोयमा? भासाणं जीवादीया सरीरप्पभवा वजसंठिया समानपरिणामोऽसमानपरिणामसंलुलितः प्राधान्येन विवक्षित इति, लोगंतपवज्जसिया पण्णत्ता तं जहावस्यानेकत्वभावात बहुवचनम्। अह भंते ! मणुस्सी' इत्यादि। अत्रेदं संशयकारणं-इह सर्व वस्तु त्रिलिङ्ग, तथाहि-मृद्रूपोऽयमिति पुंलिङ्गता "भासा कओ य पभवति, कतिहिं व समरहिं भासती भासं। मृत्परिणतिरियं घटाऽऽकारापरिणतिरियमिति स्त्रीलिङ्गता, इदं वस्त्विति भासा कतिप्पगारा, कति वा भासा अणुमया उ॥१।। नपुंसकलिङ्गता, तत्रवंशवलरूपे वस्तुनि व्यवस्थिते कथमेकलिङ्गमात्रा सरीरप्पभवा भासा, दोहि य समएहिँ भासती भासं। भिधायी शब्दस्तदभिधायी भवति, न खलु नरसिंहे सिंहशब्दो नरशब्दो भासा चउप्पगारा, दोण्णि य भासा अणुमता उश" वा केवलस्तदभिधायी भवति, अथ च दृश्यतेतदाभिधायितयाऽपि लोके कतिविहा णं भंते ! भासा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा व्यवहारस्ततः पृच्छति 'सव्वा सा इस्थिवउ' इति। सर्वा सा एवं प्रकारा | भासा पण्णत्ता / तं जहा- पज्जत्तिया य, अपज्जत्ति Page #1539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1531 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा या य / पञ्जत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा- सच्चा, मोसा य / सच्चा णं भंते ! भासा पज्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दसविहा पण्णत्ता। तं जहा- जणवयसच्चा 1 सम्मयसच्चा 2 ठवणसच्चा 3 नामसचा 4 रूवसच्चा 5 पडुच्चसच्चा 6 ववहारसच्चा 7 भावसचा जोगसच्चाह ओवम्मसच्चा 10 / "जणवय 1 संमत २ठवणा 3, नामे 4 रूवे 5 पडुच्चसच्चे ६य / ववहार 7 भाव 8 जोगे , दसमे ओवम्मसच्चे य 10||1||" मोसा णं भंते ! भासा पञ्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा! दसविहा पण्णत्ता। तं जहा-कोहणिस्सिया 1 माणनिस्सिया 2 मायानिस्सिया 3 लोहनिस्सिया 4 पेञ्जणिस्सिया 5 दोसनिस्सिया 6 हासणिस्सिया 7 भयणिस्सिया ८अक्खाइयाणिस्सिया 6 उवघाइयणिस्सिया 10- "कोहे माणे माया, लोभे पिज्जे तहेव दोसे य। हास भए अक्खाइय, उवघाइयणिस्सिया दसमा // 1 // " अपज्जत्तिया णं मंते ! कइविहा भासा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सच्चामोसा असच्चामोसा य / सच्चामोसा णं भंते ! भासा अपज्जत्तिया कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! | दसविहा पण्णत्ता। तं जहा-उप्पण्णमिस्सिया 1 विगतमिस्सिया 2 उप्पण्णविगतमिस्सिया 3 जीवमिस्सिया 4 अजीवमिस्सिया 5 जीवाजीवमिस्सिया 6 अणंतमिस्सिया 7 परित्तमिस्सिया 8 अद्धामिस्सिया अद्धद्धामिस्सिया 10 असच्चामोसाणं भंते! भासा अपजत्तिया कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! दुवालसविहा पण्णत्ता / तं जहा "आमंतणि 1 आणमणी 2" जायणि 3 तह पुच्छणी य 4 पण्णवणी 5 / पच्चक्खाणी 6 भासा, इच्छाणुलोमा ७य।।१।। अणभिग्गहिया भासाफ, भासाय अभिग्गहम्मि बोद्धव्वा / संसयकरणी भासा 10 वोगड 11 अध्योगडा चेव 12 // 2" (सूत्रम् - 165) 'भासा णं भंते ! किमाइया' इत्यादि। भासा अवबोधबीजभूता, णमिति वाक्यालङ्कारे, किमादिका-उपादानकारणव्यतिरेकेण किमादिः- मौल कारण यस्याः सा किमादिका। तथा किंप्रभवाकस्मात् प्रभव-उत्पादो यस्याः सा किम्प्रभवा, सत्यपि मौले कारणे पुनः कस्मात् कारणान्तरादुत्पद्यते इति भावः / तथा किंसंस्थितेति-केनाऽऽकारेण संस्थिता किसंस्थिता, कस्येवं संस्थानमस्या इति भावः / तथा किम्पर्यवसिता इति-कस्मिन् स्थाने पर्यवसिता-निष्ठांगता किम्पर्यवसिता? भगवानाहगौतम ! जीवाऽऽदिका' जीव आदिः- मौलं कारणं यस्याः सा जीवाऽऽ दिका जीवगततथाविधप्रयत्नमन्तरेणावबोधबीजभूतभाषाया असम्भवात्, आह च भगवान भद्रबाहुस्वामी- “तिविहम्मि सरीरम्मी, जीवप - एसा हवंति जीवस्स : जेहि उ गेण्हइ गहणं, तो भासइ भासओ भासं // 1 // ' 'किंपभवा' इत्यस्य निर्वचनमाह- 'शरीरप्रभया' औदारिकवैक्रियाऽऽहारकान्यतमशरीरसामर्थ्यादेव भाषाद्रव्यविनिर्गतः, तथा किं संस्थिता इत्यस्य निर्वचन- 'वजसंस्थिता' वज्रस्येव संस्थानं यस्याः सा वजसंस्थिता, भाषाद्रव्याणि हि तथा-विधप्रयत्ननिस्टानि सन्ति सकलमपि लोकमभिव्याप्नुवन्ति लोकश्च वजाऽऽकारसंस्थित इति साऽपि वजसंस्थिता, किं पर्यवसिता, इत्यत्र निर्वचनं लोकान्तपर्यवसिता,परतो भाषा, द्रव्याणां गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावतो गमनासम्भवात, प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः / / पुनरपि प्रश्नमाह'भासा कतो य पभवा' इत्यादि, भाषा कुतोयोगात् प्रभवति-उत्पद्यते काययोगाद्वाग्योगाद्वा? तथा कतिभिः समयैर्भाषा भाषते? किमुक्तं भवति? कतिभिः समयैर्निसृज्यमानद्रव्यसंहत्यात्मिका भाषा भवति, तथा भाषा कतिप्रकाराकतिप्रभेदा? कति वा भाषाः साधूनां वक्तुमनुमता-अनुज्ञाताः? अत्र निर्वचन- 'सरीरप्पभवा' इत्यादि, अत्र शरीरग्रहणेन शरीरयोगः परिग्रह्यते, शरीरमात्र प्रभवत्वस्य प्रागेव निर्णीतत्वात्, शरीरप्रभवा इति कोऽर्थः? - काययोगप्रभवा / तथाहिकाययोगेन भाषायोग्यान पुद्गलान गृहीत्वा भाषात्वेन परिणमय्य वाग्योगेन निसृजति. ततः काययोगवलाद्भाषा उत्पद्यते इति काययोगप्रभवेत्युक्तम्। आह च भगवान भद्रबाहुस्वामी- "गिण्हइ य काइएणं , निसरइ तह वाइएणजोगेण।" इति। 'कइहि वसमएहिं भासई भासं' इत्यस्य निर्वचन द्वाभ्यां समयाभ्यां भाषते भाषां, तथाहि- एकेन समयेन भाषायोग्यान् पुगलान गृह्णाति, द्वितीये समये भाषात्वेन परिणमय्य विसृजतीति। 'भासा कइप्पगारा' इत्यस्य निर्वचनं भाषा सत्याऽऽदिभेदाचतुःप्रकारा, ते च सत्याऽऽदयो भेदाः प्रागेव भाविता इति, कइ वा भासा अणुमया य' इत्यस्य निर्वचनं सत्याऽऽदी द्वे भाषे साधूनां वक्तुमनुमते, तद्यथा- सत्या, असत्यामृषा च, अर्थात् ये मृषासत्यामृषे तें नानुज्ञाते, तयोरयथावस्थितार्थप्रतिपादनपरतया मुक्तिप्रतिपन्थित्वात्। पुनः प्रश्नयति- 'कइविहा ण' इत्यादि, 'पजत्तिया अपज्जत्तिया' इति, पर्याप्ता नाम या प्रतिनियतरूपतया अवधारयितुं शक्यते सा पर्याप्ता, सा च सत्या मृषा वा दृष्टव्या, उभयोरपि प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यत्यात्, या तु मिश्रतया उभयप्रतिषेधाऽऽत्मकतया वा न प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यतेसा अपर्याप्ता, सा च सत्यामृषा असत्यामृषा वा दृष्टव्या, उभयोरपि प्रतिनियतेन रूपेणावधारयितुमशक्यत्वात्। 'पज्जत्तिया गंभंते!' इत्यादि, भावितं, नवरं सत्या मृषा चेत्युक्तमतः सत्याभेदावगमाय प्रश्नमाह- 'सच्चाणभंते ! भासा पञ्जत्तिया कइविहा-पण्णत्ता।' इति पाठसिद्धम् / भगवानाह'गोयमा !' इत्यादि 'जणवयसचा' इति तंतंजनपदमधिकृत्येष्टार्थप्रतिपत्तिज Page #1540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1532 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा नकतया व्यवहारहेतुत्वात्, सत्या जनपदसत्या तथा कोङ्कणाऽऽदिषु पयः तदाऽप्याशयदोषदुष्टमिति मृषेति१, माननिःसृता यत् पूर्वमननुभूतपिचमिथ्यादि 1, सम्मतसत्या या सकललोकसाम्मत्येन सत्यतया मप्यैश्वर्यमात्मोक्तर्षख्यापनायानुभूतमस्माभिस्तदानीमैश्वर्यमित्यादि प्रसिद्धा कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समानेऽपि पङ्कसंभवत्वे गोपाल- वदतः 2, मायानिः सृता यत् परवञ्चानाऽऽद्यभिप्रायेण सत्यमसत्यं वा जना अरविन्दमेव पङ्कजमन्यन्ते, नशेषमित्यरबिन्दे पङ्कजमिति सम्म- भाषते 3, लोभनिः सृता यल्लोभाभिभूतः कूटतुलाऽऽदि कृत्वा यथोक्ततसत्या 2, स्थापनासत्या या तथाविधमङ्काऽऽदिविन्यासं मुद्राविन्यास प्रमाणमिदं तुलाऽऽदीति वदतः४, प्रेमनिः सृता वदतिप्रेमवशाद्दासोऽहं चोपलभ्य प्रयुज्यते तथा एककं पुरतो बिन्दुद्वयसहितमुपलभ्यशतमि- तवेत्यादि वदतः५, द्वेषनिःसृता यत्प्रतिनिविष्टः तीर्थकराऽऽदीनामप्यवर्ण दमिति, बिन्दुत्रयसहितं सहसमिदमिति, तथा तथाविधं मुद्राविन्यासमु- भाषते 6. हास्यनिः भृता यत्केलिवशतोऽनृतभाषणं 7, भयनिःसृता पलभ्य मृत्तिकाऽऽदिषु माषोऽयं कार्षापणोऽयमिति, तथा नामतः सत्या तस्कराऽऽदिभयेनासमजसभाषणम् 8, आख्यायिकानिः सृता यक्तनामसत्या यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन इति, तथा रूपतः सत्या थास्वसम्भाव्याभिधानम् 6, उपघातनिः मृता चौरस्त्वमित्याद्यभ्यारूपसत्या, यथा दम्भतो गृहीतप्रव्रजितरूपः प्रव्रजितोऽयमिति, तथा ख्यान् 10 / अत्रापि सङ्ग्रहणिगाथामाह- 'कोहे माणे' इत्यादि प्रतीत्य-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्या प्रतीत्यसत्या तथा अनामिकाया भावितार्था। सत्यामृषा दशविधा। तद्यथा- 'उप्पण्णमिस्सिया' इत्यादि, कनिष्ठामधिकृत्य दीर्घत्वं मध्यमामधिकृत्य हस्वत्वं, न च वाच्यं कथमे- उत्पन्ना मिश्रिता अनुत्पन्नैः सह सङ्ख्यापूरणार्थ यत्र सा उत्पन्नमिश्रिता, कस्यां ह्रस्वत्वं दीर्घत्वं च तात्विकं? परस्परविरोधादिति, भिन्ननिमित्त- एवमन्यत्रापि यथायोगं भावनीयं, तत्रोत्पन्नमिश्रिता यथा करिमश्चित् ग्रामे त्वेन परस्परविरोधासम्भवात्। तथाहि- तामेव यदि कनिष्ठां मध्यमा वा नगरे वा ऊनेष्वधिकेषु वा दारकेषु जातेषु दश दारका अस्मिन्नध जाता एकामड्गुलिमङ्गीकृत्य-हस्वत्वं दीर्घत्वं च प्रतिपाद्येत ततो विरोधः इत्यादि 1, एवमेव मरणकथने विगतमिश्रिता २,तथा जन्मतो मरणस्य सम्भवेत्, एकनिमित्तपरस्परविरुद्धकार्यद्वयासम्भवात्, यदात्वेकामधि- च कृतपरिमाणस्याभिधाने विसंवादेन चोत्पन्नविगतमिश्रिता 3, तथा कृत्य ह्रस्वत्वमपरामधिकृत्य दीर्घत्वं तदा सत्त्वासत्त्वयोरिव भिन्ननिमित्त- प्रभूतानां जीवतां स्तोकानां च मृतानां शखशखनकाऽऽदी नामेकत्र त्यान्न परस्परं विरोधः, अथ यदि तात्त्विके ह्रस्वत्वदीर्घत्वे ततऋजुत्व- राशौ दृष्टे यदा कश्चिदेवं वदति-अहो महान् जीवराशिरयमिति तदा सा वकत्वे इव कस्मात्ते परनि-रपेक्षे न प्रतिभासेते? तस्मात् परोपाधि- जीवमिश्रिता, सत्यामृषात्वं चास्या जीवत्सु सत्यत्वात् मृतेषु मृषात्वात् कत्वात् काल्पनिके इमे इति, तदयुक्तं, द्विविधा हि वस्तुनो धर्मो:- 4, तथा यदा प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शखासहकारिव्यङ्ग्यरूपा इतरेच, तत्र ये सहकारिव्यङ्ग्यरूपास्ते सहकारि- ऽऽदिष्येवं वदति- अहो महानयं मृताजीवराशिरिति तदा सा अजीसम्पर्कवशात् प्रतीतिपथमायान्ति, यथा पृथिव्यां जलसम्पर्कतो गन्धः, वमिश्रिता, अस्यापि सत्या मृषात्वं सत्यत्वात् जीवत्सु मृषात्वात् 5, इतरे त्वेवमेवापि यथा कर्पूराऽऽदिगन्धः, ह्रस्वत्वदीर्घत्वे अपि च सह- तथा तस्मिन्नेव राशौ एतावन्तोऽत्र जीवन्त एतावन्तश्च मृता इति नियमे - कारिव्यङ्ग्यरूपे, ततस्ते तं सहकारिणमासाद्याभिव्यक्तिमायात नावधारणतो विसंवादेजीवाजीवमिश्रिता 6, तथा मूलकाऽऽदिकमनन्तइत्यदोषः / तथा व्यवहारोलोकविवक्षा, व्यवहारतः सत्या व्य-वहार- काय तस्यैव सत्कैः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचित्प्रत्येकवनस्पतिना सत्या, यथा गिरिदह्यते, गलति भाजनम्, अनुदरा कन्या, अलोमिका मिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति वदतोऽनन्तमिश्रिताः 7, एडका, लोका हि गिरिगततृणदाहेतृणाऽऽदिना सह गिरेरभेदं विवक्षित्वा- तथा प्रत्येकवनस्पतिसङ्घातमनन्तकाविकेन सह राशीकृतमवलोक्य गिरिदह्यते इति बुवन्ति, भाजनादुदके श्रवति उदकभाजनयोरभेदं प्रत्येकवनस्पतिरयं सर्वोऽपीतिवदतः प्रत्येकमिश्रिताः 8, तथाऽद्धा, विवक्षित्वा गलति भाजनमिति, संभोगबीजप्रभवोदराभावे अनुदरा कालः-स चेह प्रस्तावात् दिवसो, रात्रि परिगृह्यते,स मिश्रितो यथा इति,लवनयोग्यलोमाभावे अलोमिकेति / ततो लोकव्यवहारमपेक्ष्य साऽद्धामिश्रिता, यथा कश्चित् कञ्चन त्वरयन् दिवसे वर्तमान एव वदतिसाधोरपि तथा बुवतो भाषा व्यवहारसत्या भवति, तथा भावो वर्णाऽऽदि- उतिष्ठ रात्रिजतिति, रात्रौ वा वर्तमानायाभुत्तिष्ठोद्गतः सूर्य इति 6, तथा र्भावतः सत्या भावसत्या, किमुक्तं भवति?- यो भावो वर्णाऽऽदिर्यस्मि- दिवसस्य रात्रेर्वा एकदेशोऽद्वाद्धा, सा मिश्रिता यया सा अद्धाऽद्धा न्नुत्कटो भवति तेन या सत्या भाषा (सा) भावसत्या, यथा सत्यपि मिश्रिता यथा प्रथमपौरुष्यामेव वर्तमानायां कश्चित्कञ्चन त्वरयन् एवं पञ्चवर्णसम्भवे बलाका शुक्लेति, तथा योगः- सम्बन्धः तस्मात् सत्या वदति-चल मध्याहीभूतमिति / असत्या-मृषा द्वादशविधा, तद्यथायोगसत्या, तत्र छत्रयोगात् विवक्षितशब्दप्रयोगकाले छत्राभावेऽपि (आमतणि इति) तत्र आमन्त्रणी हे देवदत्त ! प्रयाहि इत्यादि एषा छत्रयोगस्य सम्भवात् छत्री, एवं दण्डयोगात् दण्डी, औपभ्यसत्या यथा प्रागुक्त-सत्याऽऽदिभाषात्रयलक्षणविकलत्वान्न सत्या नापि मृषा नापि समुद्रवत्तडागः / अत्रैवार्थे विनेयजनानुग्रहाय सङ्ग्रहणिगाथामाह- सत्या-मृषा, केवलं व्यवहारमात्र प्रवृत्तिहेतुरित्यसत्यामृषा१, एवं सर्वत्र जणवय सम्मयठवणा, इत्यादिभावितार्था / मृषाभाषा दशविधा। तद्यथा- भावना कार्या, आज्ञापनी कार्येषु परस्य प्रवर्तनम् यथेदं कुर्विति 2, कोहनिस्सिया इत्यादि क्रोधान्निः सृता क्रोधा-द्विनिर्गता इत्यर्थः, एवं याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीतिमार्गणम् 3, पृच्छनी-अविज्ञासर्वत्रापि भावनीयं, तत्र क्रोधाभिभूतो विसंवादनबुद्ध्या परप्रत्यायनाय तस्य संदिग्धस्य कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्थे चोदना४, यत्सत्यमसत्यं वा भाषते तत्सर्व मृषा, तस्य हि आशयोऽतीव दुष्टस्ततो प्रज्ञापनी विनीतविनेयस्य विनेयजनस्योपदेशदानं यथा प्राणिवयदपि घुणाक्षरन्यायेन सत्यमापतति शाठ्यबुद्ध्या वोपेत्य सत्यं भाषते | धान्निवृत्ता भवन्ति भवान्तरे प्राणिनो दीर्घाऽऽयुष इत्यादि / उक्त च Page #1541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1533 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा "पाणिवहाउ नियत्ता, हवंति दीहोउया अरोगा या एसमई पन्नत्ता, पन्नवणी वीयरागेहिं / / 1 / / ' 5, याचमानस्य प्रतिषेधवचनं प्रत्याख्यानी 6, इच्छानुलोमा नाम यथा कश्चिकिंचित् कार्यमारभमाणः कञ्चन पृच्छति, स प्राह- करोतु भवान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति 7 / अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा बहुषु कार्येष्यवस्थितेषु कश्चित्कञ्चन पृच्छति-किमिदानीं करोमि? स प्राह- यत्प्रतिभाषते तत्कुर्विति 8, अभिगृहीता प्रतिनियतार्थाऽवधारणं, यथा इदमिदानी कर्त्तव्यमिदं नेति 6, संशयकरणी या वाक् अनेकार्थाऽभिधायितया पररय संशयमुत्पादयति यथा सैन्धवमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दोऽलवणवस्त्रपु-रुषवाजिषु 10, व्याकृता या प्रगटार्था 11, अव्याकृता अतिगम्भीरशब्दार्था अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा अभावितार्थत्वात् 12 / शेषं सुगमम् / प्रज्ञा० 11 पद / (नैरयिकादीनां भाषकत्वाभाषकसूत्रम्-१६६, 'भासग' शब्देऽस्मिनेव भागे गतम्) जीवानां सत्यादिभाषा निरूपयन्नाहजीवा णं भंते ! किं सचं भासं भासंति मोसं भासं भासंति सामोसं भासं भासंति असचामोसं भासं भासंति? गोयमा ! जीवा सच्च पि भासं भासंति०जाव असच्चा मोसं पि भासं भासंति।नेरइया णं भंते? किं सच्चं भासंतिजाव असच्चामोसं भासं भासंति? गोयमा! नेरइया णं सच्चं पि भासं भासंतिजाव असच्चा मोसं पि भासं भासंति / एवं असुरकुमारा०जाव थणियकुमारा, वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय य नो सच्चं नो मोसं नो सच्चामोसं भासं भासंति, असचामोसं भासं भासंति। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! किं सच्चं भासं भासंतिक जाव किं असच्चामोसं भासं भासंति? गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णो सच्चं भासं भासंति, नो मोसं भासं भासंति नो सच्चामोसं भासं भासंति एगं असच्चा मोसं भासं भासंति णण्णत्थ सिक्खापुव्वगं उत्तरगुणलद्धिं वा पडुच्च सच्चं पि भासं भासंति मोसं पि भासं भासंति, सच्चामोसं पि भासं भासंति असचा मोसं पि भासं भासंति। मणुस्सा जाव वेमाणिया, एते जहा जीवा तहा भाणियव्वा / (सूत्रम्- 167) / 'जीवा णं भंते ! कि सच्चं भासभासं ति' इत्यादि, सुगम नवरं द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सत्यादिभाषात्रयप्रतिषेधः तेषां सम्यक् परिज्ञानपरवञ्चनाद्यभिप्रायासम्भवात् तिर्यक्रपञ्चेन्द्रिया अपि न सम्यक् यथावस्थितवस्तुप्रतिपादनाभिप्रायेण भाषन्ते नापि परविप्रतारणबुद्ध्या किं तु यदा भाषन्ते / तदा कुपिता अपि परं मारयितुकामा अप्येवमेव भाषन्ते ततस्तेषामपि भाषा असत्यामृषा, किं सर्वेषामपि तेषामसत्यामृषा? नेत्याह- "नन्नत्थेत्यादि'' सत्यादिकां भाषां न भाषन्ते शिक्षादेरन्यत्र, शिक्षापूर्वकं पुनः शुकसारिकादयः संस्कारविशेषास्तथा कुतश्चित्तथाविधक्षयोपशमविशेषाजातिस्मरणरूपां विशिष्टव्यवहारकौशलरूपां वा लब्धिप्रतीत्य सत्याऽऽदिकां चतुर्विधामपि भाषा भाषन्ते शेष / सुगमम्। प्रज्ञा०११ पद। (7) भाषाऽऽत्मस्वरूपाऽनात्मस्वरूपा वेतिनिरूपणमआया भंते ? भासा, अण्णा भासा? गोयमा! णो आया भासा, अण्णा भासा (आया भंते ! भास ति) षत्येकाक्वाऽध्येयम् / आत्मा जीवो भाषा, जीवस्वभावा भाषेत्यर्थः / यतोजीवेन व्यापार्यतेजीवस्य च बन्धमोक्षार्था भवति, ततो जीवधर्मत्वाजी च इति व्यपदेशाहाँ ज्ञानवदिति, अथान्या भाषा न जीवस्वरूपा श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वेन मूर्त्ततयाऽऽत्मनो विलक्षणत्वादिति शङ्का अतः प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-(नो आया भास ति।) आत्मरूपा नासो भवति, पुद्गलमयत्वादात्मना च निसृज्यमानत्वात्तथाविधलोष्ठाऽऽदिवत् अचेतनत्वाच्चाऽकाशवत् / यच्चोक्तम्- जीवेन व्यापार्यमाणत्वाजीवः स्याज्ज्ञानवत्तदनैकान्तिकं, जीवव्यापारस्य जीवादत्यन्तं भिन्नस्वरूपेऽपि तत्रादौ दर्शनादिति। रूविं भंते ! भासा, अरूवि भासा? गोयमा ! रूविं भासा, णो अरविं भासा।। (रूवि भंते ! भास ति) रूपिणी भदन्त ! भाषा श्रोत्रस्यानुग्रहो - पघातकारित्वात् तथाविधकर्णाऽऽभरणाऽऽदिवत्, अथाऽरूपिणी भाषा चक्षुषाऽनुपलभ्यमानत्वाद्ध स्तिकायाऽऽदिवदिति शङ्काऽतः प्रश्नः, उत्तरं तु रूपिणी भाषा / यच्च चक्षुरग्राह्यत्वमरूपित्वसाधनायोक्त तदनैकान्तिकं, परमाणुवायुपिशाचाऽऽदीनां रूपवतामपि चक्षुरग्राह्यत्वेनाभिमतत्वादिति। (8) अनात्मरूपाऽपि सचित्ताऽसौ भविष्यति जीवच्छरीरवदिति पृच्छन्नाहसचित्ता भंते ! भासा, अचित्ता भासा ! गोयमा ! णो सचित्ता भासा, अचित्ता भासा॥ (सचित्तेत्यादि) उत्तर तुनो सचित्ता जीवनिसृष्टपुद्गलसंहतिरूपत्वात्तथाविधलेष्ठुवत्। तथाजीवा भंते ! भासा, अजीवा भासा? गोयमा! णो जीवा भासा, अजीवा भासा।। (जीवा भते ! इत्यादि) जीवतीति जीवा प्राणधारणस्वरूपा भाषा, उतैतद्विलक्षणेति प्रश्नः / अत्रोत्तरम् - 'नोजीवा' उच्छासाऽऽदिप्राणानां तस्या अभावादिति। (E) इह कैश्चिदभ्युपगम्यते, अपौरुषेयी वेद भाषा, तन्मतं मनस्याधायाऽऽहजीवाणं भंते ! भासा, अजीवाणं भासा ? गोयमा ! जीवाणं भासा, णो अजीवाणं भासा।। (जीवाणमित्यादि) उत्तरं तु जीवानां भाषा, वर्णानां ताल्वादिव्यापारजन्यत्वात्ताल्वादिव्यापारस्य च जीवाऽऽश्रितत्वात्, यद्यपि चाजीवेभ्यः शब्द उत्पद्यते, तथापि नाऽसौ भाषा, भाषापर्याप्तिजन्यस्यैव शब्दस्य भाषात्वेनाभिमतत्वादिति। Page #1542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1534 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा तथापुटिव भंते ! भासा भासिज्जमाणी भासा, भासासमयवीइक्कता | भासा? गोयमा! णो पुव्वि भासा भासिज्जमाणी भासा, णो भासासगयवीइकता भासा। (पुब्विमित्यादि) अत्रोत्तरम् - नो पूर्व भाषणाद्वाषा भवति, मृत्पिण्डावस्थायां घट इव, भाष्यमाणा निसर्गावस्थायां वर्तमाना भाषा घटावस्थायां घटस्वरूपमिव, 'नो' नैव भाषासमयव्यति-क्रान्ता-भाषासमयेनिसृज्यमानावस्थातो यावद्भाषापरिणाम-समयस्तं व्यतिक्रान्ता या सा तथा भाषा भवति, घटसमयातिक्रान्तघटवत् कपात्रावस्थ इत्यर्थः। पुद्वि भंते ! भासा भिज्जइ, मासिज्जमाणी भासा भिज्जति, भासासमयवीइकता भासा भिज्जइ? गोयमा !णो पुटिव भासा मिजइ, भासिज्जमाणी भासा मिजइ णो भासासमयवीइक्कता भासा मिजइ। (पुवि भंते ! इत्यादि) अत्रोत्तरम् - नो नैव पूर्व निसर्गसमयानाषाद्रव्यभेदेन भाषा भिद्यते, भाष्यमाणा भाषा भिद्यते। अयमत्रा-भिप्रायःइह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति, स चाभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि निसृजति, तानि च निसृष्टान्यसङ्ख्ययाऽऽत्मकत्वात्परिस्थूरत्वाच्च विभिद्यन्ते, विभिद्यमानानि च सङ्ख्येयानियोजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्यागमेव कुर्वन्ति, कश्चित् तु महा-प्रयत्नो भवति, स खल्वादानविसर्गप्रयत्नाभ्यां भित्त्वैव निसृजति,तानिच सूक्ष्मत्वाद्वहुत्वाच्च अनन्तगुणवृद्ध्या वर्द्धमानानिषट्सु दिक्षुलोकान्तमाप्नुवन्ति; अत्र च यस्यामवस्थायां शब्दपरिणामस्तस्यां भाष्यमाणताऽवसे या इति / (नो भासासमयबीइकते त्ति) परित्यक्तभाषापरिणामेत्यर्थः, उत्कृष्टप्रयत्नस्य तदानी निवृत्तत्वादिति भावः / भ० 13 श०७ उ०। (10) आह-ननु "पुढे सुणेइ सद्द'' इत्युक्तं भवद्भिः, तत्र च किं शब्दप्रयोगोत्सृष्टान्येव केवलानि शब्दद्रव्याणि शृणोति, उतान्यान्येव तद्वासितान्याहोस्विन्मिश्राणि? इति / अत्रोच्यते-केवलानि तावन्न शृणोति, वासकरस्वभावत्वाच्छब्दद्रव्याणांतद्योग्यद्रव्याऽऽकुलत्वाच्च लोकस्य, मिश्राणि तु श्रूयेरन् वासितानि वाऽन्यानि। यत आहभासासमसेढीओ, सदं जं सुणइ मीसिअंसुणइ। वीसेढी पुण सद, सुणेइ नियमा पराधाए / / 351 / / भाष्यत इति भाषा, वक्त्रा शब्दत्रयोत्सृज्यमाना द्रव्यसंहतिरित्यर्थः, तस्याः समाः प्राञ्जलाः श्रेणयः आकाशप्रदेश, पक्तयो भाषासमश्रेणयः, समग्रहणं विश्रेणिव्यवच्छेदार्थ, भाषासमश्रेणिषु इतो गतः स्थित इत्यनन्तरं, भाषासमश्रेणितः। इदमुक्तं भवति- भाषकस्य, अन्यस्य वा भेदिः समश्रेणिव्यवस्थितः श्रोता यंशब्द, पुरुषश्च भेर्यादिसंबन्धिन ध्वनि शृणोति, तं मिश्रकशृणोतीत्यवगन्तव्यं,भाषकादुत्सृष्टशब्दद्रव्याणि, तद्वासिताऽपान्तरालस्थद्रव्याणि च, इत्येवं मिश्र शब्दद्रव्यराशिं शृणोति, नतुवारसकमेव, वास्यमेव वा केवलमित्यर्थः। (वीसेढी पुणेत्यादि) "मञ्चा | क्रोशन्ति'' इति न्यायाद्विश्रेणिव्यवस्थितः श्रोताऽपि विश्रेणिरुच्यते, सविश्रेणिः पुनः श्रोता शब्दं नियमान्नियमेन पराघाते वासनायां सत्यां शृणोति / इदमुक्तं भवति-यानि भाषकोत्सृष्टानि, मेर्यादिशब्दद्रव्याणि वा तैः पराघाते वासनाविशेषे सति यानि वासितानि समुत्पन्नशब्दपरिणामानि द्रव्याणि तान्येव विश्रेणिस्थः शृणोति, न तु भाषकाऽऽद्युत्सृष्टानि, तेषामनुश्रेणिगामित्वेन विदिग्गमनासंभवात्। न च कुड्याऽऽदिप्रतिघातस्तेषां विदिग्गतिनिमित्तं संभवति, लेष्वादिबादरद्रव्याणामेव तत्संभवात्, एषां च सूक्ष्मत्वात्। न च वक्तव्य-द्वितीयाऽऽदिसमयेषु तेषां स्व-यमपि विदिक्षु गमनसंभवात्तत्रस्थस्यापि मिश्रशब्दश्रवणसंभव इति; निसर्गसमयानन्तरं समयान्तरेषु तेषां भाषापरिणामेनानवस्थानात् "भाष्यमाणैव भाषा, भाषासमयानन्तरं भाषा अभाव" इति वचनात्। यदिप-"चउहिँ समएहि लोगो भासाएँ निरंतरं तु होइ फुडो।" इति वक्ष्यति, तत्रापि द्वितीयाऽऽदिसमयेषु भाषाद्रव्यैर्वासितत्वात्तेषां भाषात्वं दृष्टव्यम् / अत्राऽऽह- ननु यदि वक्तृनिसृष्टानि भाषाद्रव्याणि प्रथमसमये दिक्ष्वेव गच्छन्ति, समयानन्तरं च नावतिष्ठन्ते, तर्हि तद्वासितद्रव्याणि द्वितीयसमये विदिक्षु गच्छन्ति, ततश्च दिग्विदिग्व्यवस्थितयोः समयभेदेन शब्दश्रवणं प्राप्नोति, अविशेषणैव सर्वोऽपि शब्द शृण्वन्नुपलभ्यते। नैष दोषः, समयाऽऽदिकाल भेदस्याऽतिसूक्ष्मत्वेनालक्षणादिते / भवत्येवं, तथाऽपि ''भाष्यमाणैव भाषा" इति वचनाद् निसर्गसमयवर्तिन्येवभाषा, ततो विश्रेणिस्थो द्वितीयसमयेऽभाषां शृणोतीत्यायातम्। नैतदेवं, भाषाद्रव्यैर्वासितानामपि द्रव्याणां तद्विशेषत्वाद्भाषात्वं न विरुध्यते। अत एव- "वीसेढी पुण सई' इत्यत्र पुनरपि यच्छब्दग्रहणं तत्पराघातवासितद्रव्याणामपि तथाविधशब्दपरिणामख्यापनार्थं कृतमिति तावद्वयमवगच्छामः, तत्त्वं तु बहुश्रुताऽऽदयो विदन्तीति। घ्राणाऽऽदीन्यपीन्द्रियाणि गन्धाऽसदिद्गव्याणि मिश्राण्याददते, तेषां चानुश्रेणिगमननियमो नास्ति, बादरत्वात्, वातायनोपलभ्यमानरेणुवदिति वृद्धटीकाकारः / इति नियुक्तिगाथाऽर्थः // 351 // अत्र भाष्यम्सेढी पएसपंती, वदतो सव्वस्स छदिसिंताओ। जासु विमुक्का धावइ, भासा समयम्मि पढमम्मि॥३५२।। इह श्रेणिराकाशप्रदेशपक्तिरभिधीयते, लोकमध्ये च वदतो भाषमाणस्य सर्वस्य वक्तुः ताः पूर्वापरदक्षिणोत्तरोधिोरूपासु षट्स्वपि दिक्षु सन्त्येव / भाषकेण विमुक्ता निसृष्टा सती भाषा यासु प्रथमसमयेऽपि लोकान्तमनुधावति // 352 / / ततः किम्? इत्याहभासासमसेढि * ठिओ, तब्भासामीसियं सुणइ सदं / तद्दव्यभाविआई अण्णाइंसुणइ विदिसत्थो।।३५३|| भाषासमश्रेणीत इति, किमुक्तं भवति? इत्याह- भाषासमश्रेणिस्थितः। स किमित्याह- तस्य भाषकस्य शनभेदिर्वाभाषा तद्भाषा तद्रूपेणोत्सृष्टः पुद्गलसमूहस्तन्मिश्रितं शब्दं शृणोति विदिग्व्यवस्थितः पुनः श्रोता तद्रव्यभावितान्यपराण्येव द्रव्याणि शृणोति, न पुनस्तानि॥३५३।। * 'ढीओ' (353) इदमपि युक्तं प्रतिभाति। Page #1543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1535 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा कुतः? इत्याहअणुसेढीगमणाओ, पडिघायाभावओ निमित्ताओ। समयंतराणवत्थाणओ य मुक्काइँ न सुणेइ / / 354|| तेषामनुश्रेणिगमनात्, अनुश्रेणिगमने प्रवृत्तानामपि प्रतिघाताद्विश्रेणिगमनं भविष्यतीति चेदित्याह- प्रतिघातस्यस्खलनस्याभावाद्, एतदपि कुतः? इत्याह- अनिमित्तात्कुड्याऽऽदेस्तन्निमित्तस्यासंभवाद्, बादरद्रव्याणामेव तत्संभवात्, एषां च सूक्ष्मत्वादिति भावः / न च वक्तव्यद्वितीयाऽऽदिसमयेषु तेषां स्वयमपि विदिक्षु गमनात्तत्स्थस्यापि मिश्रशब्दश्रवणसंभव इति। कुतः? इत्याह- (समयंतरेत्यादि) निसर्गसमयानन्तरं द्वितीयाऽऽदौ समयान्तरे श्रवणसंस्कारजनकशक्तिसंपन्नतया तेषा भाषकाऽऽद्युत्सृष्टद्रव्याणामनवस्थानादिति प्रागुक्तमेव / इति मुक्तानि भाषकाऽऽद्युत्सृष्टानि द्रव्याणि विदिग्व्यवस्थितो न शृणोतीति गाथात्रयार्थः॥३५४॥ आह-केन पुनर्योगेनाऽमीषां वागद्रव्याणामादानमुत्सर्गो वा कथम्? इत्याहगिण्हइ य काइएणं, निसिरइ तह वाइएण जोएणं। एगंतरं च गिण्हइ, निसिरइ एगंतरं चेव // 355 / / कायेन निवृत्तः कायिकः, योजनं योगो व्यापारः, कर्म क्रियेत्यनान्तरम्। तत्र सर्व एव वक्ता कायिकेन योगेन शब्दद्रव्याणि ग्रह्णाति / चशब्दस्त्वेवकारार्थः, तस्य च व्यवहितसंबन्धात् कायिकनैवेति द्रष्टव्यम् / निसृजति, उत्सृजति, मुञ्चतीति पर्यायाः। तथेति ग्रहणानन्तरमित्यर्थः / उक्तिर्वाक तया निवृत्तोवाचिकस्तेन वाचिकेन योगेन निसृजति / किमनुसमय मेव गृह्णाति, निसृजति वा; उताऽन्यथेत्याशङ्कयाऽहएकान्तरमेव गृह्णाति, निसृजत्येकान्तरचैव। अयमत्र भावार्थः प्रतिसमयं गृह्णाति, मुञ्चति च / कथम्? यथा ग्रामादन्यो ग्रामो ग्रामान्तरं, पुरुषाद्वाऽन्यः पुरुषो निरन्तरोऽपि सन्पुरुषान्तरमेवमेकैकस्मात् समयादेकैक एवैकान्तरोऽनन्तरसमय एवेत्यर्थः / इति नियुक्तिगाथासंक्षेपाऽर्थः / विस्तरार्थस्तु भाष्यादवसेयः॥३५५|| तचेदम्गिण्हिज काइएणं, किं निसिरह वाइएण जोएणं / को वाऽयं जोगो किं, वाया कायस्स संरम्भो // 356 / / वाया न जीवजोगो, पोग्गलपरिणामओ रसाइ व्व / न यताए निसिरिज्जइ, स चित्र निसिरिजए जम्हा।।३५७।। अह सो तणुसरंभो, निसिरइ तो काइएण वत्तव्यं / तणुजोगविसेस चिय, मणवइजोग त्ति जमदोसो // 358|| अत्र परः प्राऽऽह-ननु 'गिण्हइ य काइएणं / '' इति यदुक्तं तद् | मन्यामहे, यतो गृह्णीयात् कायिकेन योगेन वागद्रव्याणि भाषकः, नेदमयुक्तम्, कायव्यापारमन्तरेण तद्ग्रहणाऽयोगात्। यत्पुनरुक्तम्"निसिरइ तह वाइएण जोएणं / '' इति तदेतन्नावगच्छामो, यतः कथं नाम निसृजति वाचिकेन योगेन? गृह्यमाणाया वाचो जीवव्यापाररूपयोगाभावान्नैतत् घटत इत्यर्थः। इति संक्षेपेणोक्त्या विस्तराऽभिधित्सयाप्राऽह- "को वाऽयमित्यादि" वेत्यथवा, किमनेन संक्षेपेण ? विस्तरेणापि पृच्छामः-कोऽयं नाम वाग्योगो, येन निसृजतीत्युक्तम्? मानभाषापुद्रलसमूहरूपो वागयोगः, किंवाकायसंरम्भः कायव्यापारस्तन्निसर्गहेतुर्वागयोगः? इति विकल्पद्यम् / तत्र प्रथमविकल्पपक्ष निराकुर्वनाह- "वाया न जीवजोगो।" इत्यादि। योगोऽत्र शरीरजीवव्यापारः प्रस्तुतः स च वाग्न भवति, पुद्गलपरिणामत्वात्तस्याः, रसगन्धाऽऽदिवत्, यस्तु जीवव्यापाररूपो योगः स पुद्गलपरिणामोऽपि न भवति यथा जीवाऽधिष्ठितकायव्यापारः। अपि च,- "न यताएत्ति'' न च तया वाचा किञ्चिन्निसृज्यते, तस्या एव निसृज्यमानत्वात्, नच कमैव भवति, अतो वागेव वाग्योग इति प्रथमविकल्पो न घटते / अथ द्वितीयमधिकृत्याऽऽह- (अहेत्यादि)अथासौ वाग्योगस्तनुसंरम्भः कायव्यापारस्ततः "कायिकेन निसृजति" इत्येवमेव वक्तव्यं स्यात्, अतः किमुक्तम्?"निसिरइ तह वाइएण जोएणं" इति ? अत्रोत्तरमाह- "तणु इत्यादि ननु द्वितीयविकल्प एवात्राङ्गीक्रियते, केवलमविशिष्टः काययोगो वागयोगतया नाऽस्माभिरिष्यते, किं तु तनुयोगविशेषावेव कायव्यापारविशेषावेव मनोवाग्योगाविष्येते यद्यस्मात; ततोऽयमदोषः / न हि कायिको योगः कस्याञ्चिदप्यवस्थायां शरीरिणां जन्तूनां निवर्तते, अशरीरिणां सिद्धानामेव तन्निवृत्ते रिति, अतो यागनिसर्गाऽऽदिकालेऽपि सोऽस्त्येवेति भावः // 356 / / 357 / / 358|| विशे०। अथ 'एगेतर च गिण्हइ'' इत्यादि व्याचिख्यासुराहजह गामाओ गामो, गामंतरमेवमेग एगाओ। एगंतरं ति भण्णइ, समयाओऽणंतरो समओ // 365 / / यथा एकस्मात्ग्रामादन्यो ग्रामोऽनन्तरितोऽपिलोकरूढ्या ग्रामान्तरमुच्यते पुरुषाद्वाऽन्यः पुरुषोऽनन्तरोपि पुरुषान्तरमभिधीयते, एवमिहापि एकस्मात् समयाद्योऽपमन्यः समयः सोऽयमनन्तरोऽपि सन्नेकान्तरमित्यभिधीयते। ततः किमुक्तं भवति? इत्याह-एकस्मात्समयादनन्तरः समय एकान्तरमिति. एवं चानुसमय एव गृह्णाति, मुञ्चति चेति पर्यवसितं भवति // 365|| अन्ये त्वेकान्तरमित्येकैकेन समयेनान्तरितं ग्रहणं, निसर्ग चेच्छन्तीति दर्शयतिकेई एगंतरियं, मण्णते गंतरं ति तेसिं च / विच्छिन्नावलिरूवो, होइ धणी सुयविरोहो य॥३६६।। इह केचि व्याख्यातारो मन्यन्ते ग्रहणं, निसर्जन चैकैकेन समयेनान्तरितमेकान्तरमुच्यते / एतचाऽयुक्तम्, यतस्तेषामेवं व्याख्यातृणामन्तरान्तरविच्छिनरत्नावलीरूपोध्वनिः प्रप्नोति अन्तरान्तरगृहणसमयेषु सर्वेष्वप्यश्रवणात्। तथा श्रुतविरोधश्च यते उक्तश्रतु-"अणुसमयमविरहियं निरंतरं गिण्हइ 'इति तथाहि- इदं सूत्रं प्रतिसमयग्रहणप्रतिपादक Page #1544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा त्वात् प्रतिसमयनिसर्गप्रतिपादकमपि दृष्टव्यं, गृहीतस्य द्वितीयसमयेऽवश्यं निसर्गादिति। अत्र परः प्राहआह सुए चिअ निसिरइ, संतरियं न उ निरंतरं भणिों। एगेण जओ गिण्हइ, समयेणेगेण सो मुयइ / / 367 / / ' ननु यथा स्वपक्षसमर्थक सूत्रं त्वया दर्शितं, तथा श्रुत एवारमत्पक्षसमर्थकमपि तद्भणितमेव / कि तत्? इत्याह- (निसिरइ इत्यादि) इदं प्रज्ञापनोक्तसूत्रं गाथायामुपनिबद्धम् / तच्चेदम्-"संतर निसिरइ, नो निरन्तर निसिरइ; एगेणं समएणं गेण्हइ, एगेणं समएणं निसिरइ।" इत्यादि / तदनेन सूत्रेण निसर्गस्य सान्तरस्योक्तत्वात् मद्व्याख्यानमुपपन्नमेवेति परस्याऽभिप्रायः // 367 / / अत्रोत्तरमाहअणुसमयमणंतरियं, गहणं भणियं जओ विमोक्खो वि। जुत्तो निरन्तरो चिय, भण्णइ कह संतरो भणिओ? ||368|| आचार्यः प्राह- हन्त ! तावद् ग्रहणमनुसमयमनन्तरितमव्यवहित प्राक्तनसूत्रेण भणित प्रतिपादितमिति भवतोऽपि प्रतीतम् / यत एवम्, अतो विमोक्षोऽपि निसर्गोऽपि निरन्तर एव युक्तः, गृहीत-स्याऽवश्य - मेवानन्तरसमये निसर्गादिति / प्रेरकः पुनरपि भणति / किम् इत्याह(कह संतरो भणिओ त्ति) इदमुक्तं भवति- अहमपि जानामि यतः सूत्रे ग्रहणं निरन्तरमुक्तं, पर यस्तत्रैव निसर्गः सान्तर उक्तः स कथं नीयते? इति भावानपि निवेदयतु। सत्यं, किंतु विषयविभागोऽत्र दृष्टव्यः // 368 / / कः पुनरयम्? इति गुरुराहगहणावेक्खाएँ तओ, निरंतरं जम्मि जाइँ गहिआई। न वि तम्मि चेव निसिरइ, जह पढमे निसिरणं नत्थि // 366 / / तकोऽसौ निसर्गा ग्रहणाऽपेक्षया भाषाद्रव्योपादानापेक्षया पूर्व पूर्व ग्रहणंमपेक्ष्येत्यर्थः, सान्तर उक्तः, इति शेषः / ननु समयाऽपेक्षया तस्य नैरन्तर्येणैव प्रवृत्तेः कथं पुनर्ग्रहणापेक्षया सान्तरत्वम् ? इत्याह'निरन्तरमित्यादि' यतो यस्मिन् प्रथमाऽऽदिसमये यानि भाषाद्रव्याणि गृहीतानि, न तानि तस्मिन् एव ग्रहणसमये नैरन्तर्येण निःसृजति किं तु ग्रहणसमया दनन्तरसमय निसृजति, यथा प्रथम-समयगृहीताना न तस्मिन्नेव समये निसर्जनं निसर्गः किं तु द्वितीय-समये ; एवं द्वितीयसमयगृहीतानां तृतीयसमये, तृतीयसमयगृहीतानां चतुर्थसमये निसर्ग इत्यादि सर्वसमयेष्वपि भावनीयम्। तदेवं ग्रहणाऽपेक्षया निसर्गः सान्तर 'स्व, अगृहीतानां निसर्गायोगात् / समयाऽपेक्षया त्वसौ निरन्तर एव द्वितीयाऽऽदिषु सर्वेष्वपि समयेषु निरन्तरं तद्भावादिति॥३६६॥ आह- यद्येवं, ग्रहणमपि निसर्गापेक्षया सान्तरमेवाऽस्तु, नैवं ग्रहणस्य स्वतन्त्रत्वात्, निसर्गस्य तु ग्रहणपरतन्त्रत्वात्। कुतः ? इत्याहनिसिरिजइ नागहियं, गहणंतरियं ति संतरं तेणं / न निरन्तरं न समगं, न जुगवमिह होति पज्जाया // 370 / / नागृहीतं कदापि निसृज्यत इति नियम एवायम्। (संतरं तेणं ति) तेन कारणेन निसर्जन प्रज्ञापनायां सान्तरमुक्तम्। कुत इत्याह- (ग्रहणतरियं ति) ग्रहणान्तरितमिति कृत्वा / 'नानिसृष्ट गृह्यते' इत्ययं तु नियमो नास्ति, प्रथमसमये निसर्गमन्तरेणापि ग्रहणसद्भावाद, अतः स्वतन्त्रं ग्रहणं, परतन्त्रस्तु निसर्गः, इत्ययमेव सान्तर उक्त इति भावः। तदेवम् - "संतरं निसिरइ।" इति प्रज्ञापनायाः सूत्रा-वयवो विषयविभागे व्यवस्थापितः। अथ 'नो निरन्तरं निसिरइ'' इति तदवयवस्यैव भावार्थमाह- 'न निरंतर त्ति।" इत्यादि। किमुक्तं भवति? न निरन्तरं निसृजति, न समक, न युगपदिति पर्यायाः। ततश्च किमिह तात्पर्यमिति? उच्यते- न ग्रहणसमकालं निसृजति। किं तर्हि?, पूर्व पूर्व गृहीतमुत्तरोत्तरसभयेषु निसृजतीति। "ननु एगेणं समएणं गिण्हइ.एगेणं समएणं निसिरइ।' इत्येतस्य भावार्थो नाद्याप्युक्तः। सत्यं, किं तूक्तानुसारेण स्वयमप्ययमवगन्तव्यः- ताऽऽद्येनेकैन समयेन गृह्णात्येव, न निसृजति, द्वितीयाऽऽदिसमयादारभ्यैव निसर्गस्य प्रवृत्तेः; पर्यन्त वर्तिनात्वेकेन समयेन निसृजत्येव, न तु गृह्णाति, भाषाऽभिप्रायोपरमादिति, मध्यमसमयेषु तु ग्रहणनिसर्गाविति / अथवा-एकेन पूर्वपूर्वसमयेन गृह्णाति, एकेनोत्तरोत्तरसमयेन निसृजति, इत्यादि स्वधिया भावनीयम् / तदेवं समस्तमपि सूत्रं व्यवस्थापितं विषये।।३७०।। (11) अथ ग्रहणाऽऽदेर्जधन्यमुत्कृष्टं च कालमानमाहगहणं मोक्खो भासा, समयं गहनिसिरणं च दो समया। होंति जहन्नंतरओ,तं तस्स च वीयसयम्मि॥३७१।। गहणं मोक्खो भासा, गहणविसग्गा य होंति उक्कोसं / अंतोमुहुत्तमित्तं, पयत्तभेदेण भेओ सिं // 372|| इह वागद्रव्याणां ग्रहणं तथा तेषामेव गृहीतानां मोक्षो निसर्ग एवोच्यते, भाष्यत इति भाषा, एतानि त्रीण्यपि जघन्यतः प्रत्येकमेव समय भवन्ति, ग्रहणनिसर्जनलक्षणं तूभयमनन्तरदर्शितन्यायेन ग्रहणसमयात द्वितीयसमये निसर्ग कृत्वा नियमाणस्य, तिष्ठतो वा वचनव्यापारादुपरतम्य जघन्यतो द्वौ समयौ भवतः। आह- ननु मोक्षो निसर्ग एवोच्यते, भाष्यत इति भाषाऽपि निसर्ग एवाऽभिधीयते, ततः किमिति मोक्षात् पृथक् भाषायाः कालमानाभिधानार्थमुपादानम्? सत्यं, किं त्वनेनैव भाषायाः पृथग्रहणेन ज्ञापयति, यदुत भाष्यमाणैव भाषा निसर्गमात्रमेव भाषेत्यर्थः तस्यैव जघन्यतः समयमानत्वाद्, न तूभयं भाषा. तस्य जघन्यतो द्विसमयमानत्वात्, ग्रहणमात्रं तु केवलं भाष्यत इति भाषा, इति व्युत्पत्त्यर्थस्यैवाघटनादाषा न भवत्येवेति। यदि चेह भाषा पृथक् न गृहीता स्यात्, तदोभयस्यापि कश्चिद्भ Page #1545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1537 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा षात्वं प्रतिपद्येत, ग्रहणेऽपि योग्यतया भाषात्वसद्भावात्, ततश्च ''भासिज्जमाणा भासा" इत्यागप्रविरोधः स्यात; तर्हि मोक्षग्रहणमपनीय ततस्थाने भाषैव चोपादीयता, भाषामोक्षयोरेकार्थत्वादिति चेत् / सत्य, किं तु निसर्गस्य कालमानं नोक्तम्, इति मन्दधीः प्रतिपद्योत, इति तदनुग्रहार्थमिह मोक्ष भाषयोः पृथग्रहणम् / इत्यलं विस्तरेण / इति ग्रहणं, मोक्षों, भाषा इत्येतानि त्रीणि, तथा ग्रहणनिसर्गोभयं च सर्वाण्यप्युत्कृष्टतः प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तमात्रं कालं भवन्ति, परतो योगान्तरमुपगच्छति, मियते वा इति भावः / एतेषां च ग्रहणाऽऽदीनामन्तर्मुहूर्तस्य प्रयत्नभेदेन भेदो भवतीति महाप्रयत्नस्य तदेवान्तर्मुहूर्त लघु भवति, अल्पप्रयत्नस्य तु तदेव बृहत् प्रमाणं भवतीति / / 371 / / 372 / / तदत्र प्रथमसमये यक्तेवलं ग्रहणमेव, पर्यन्तवर्त्तिनितुसमये यः केवलो निसर्गः पूर्वमुक्तः, स भवतु, मध्यमसमयेषु तु यौ ग्रहणनिसर्गा, तयोरयुक्तत्वमुत्पश्यन्नाह- पर:गहणविसग्गपयत्ता, परोप्परविरोहिणो कहं समए? समए दो उवओगा, न होञ्ज किरियाण को दोसो?।३७३३ निरन्तरग्रहणे, विसर्गे चेष्यमाणे द्वितीयसमयादारभ्योपान्तसमयं यावत् ग्रहणविसर्गप्रयत्नौ प्रतिसमयं युगपदापततः। एतौ च परस्परविरोधिनी कथमेकरिमन्समये युक्तौ? नैव युक्तावित्यर्थः। अत्रोच्यते-ग्रहणविसगयोर्विरोध एवात्र तावदसिद्धः। यदि हि येषामेव द्रव्याणां ग्रहणम्, तेषामेव तस्मिन्नेव ग्रहणसमये निसर्ग इष्येत, तदा स्यादसौ, एतच्च नास्ति, प्राक समयगृहीतानामेवाग्रेतनसमये निसर्गात्, तत्र चाऽपूर्वाणामेव ग्रहणाद् / अथाविरोध्यपि युगपदेकत्र समये उपयोगद्वयवत् क्रियाद्वय नेष्यते / तदाह- "समये दो" इत्यादि। एकस्मिन् समये द्वौ उपयोगौ न भवेतामिति युक्तम् / "जुगवं दो नत्थि उवओगा" इति वचनात् तयो रागभे निषेधात्। क्रियाणां बहीनामप्येकस्मिन् समये को दोषः? न कश्चिदित्यर्थः / तथा हि आगमे- 'भगियसुयं गणतो,वट्टइ तिविहे वि झाणम्मि / ' इत्यादिवचनात् वामनःकाय क्रियाणामेकत्र समये प्रवृत्तिरभ्युपगतैव। तथाऽङ्गुल्यादिसंयोगविभागक्रिययोः, सङ्घातपरिशाटक्रिययोः, उत्पादव्ययक्रिययोश्चैकत्र समयेऽनेकस्थानेषु तत्राऽनुज्ञाविहितैवेति को दोषः? तथा वामहस्तेन घण्टिकां चलयति, दक्षिणेन धूपमुद्ग्राहयति, दृशा तीर्थकरप्रतिमाऽऽदिवदनं वीक्षते, मुखेन वृत्तं पठति, इत्यादि बहीनामपि क्रियाणां युगपत् प्रवृत्तिरध्यक्षतोऽपि वीक्ष्यते। इति गाथानवकार्थः / / 373 // (12) "गृह्णाति कायिकेन" इत्युक्तं, तत्र यद्यप्यौदारिकाऽऽदिशरीरपञ्चकभेदाक्तायः पञ्चविधः, तथाऽपि त्रिविधेनैव कायेन वागद्रव्यग्रहणमवसेयम्, इति दर्शयन्नाहतिविहम्मि सरीरम्मी, जीवपएसा हवंति जीवस्स। जेहि उ गिण्हइ गहणं, तो भासइ भासओ भासं // 37 // औदारिकाऽऽदिशरीराणां मध्यात्त्रिविधे त्रिप्रकारे शरीरे जीव- / स्याऽऽत्मनः प्रदेशा जीवप्रदेशा भवन्ति, नान्यत्र / एता वति चोच्यमाने "भिक्षोः पात्रम्' इत्यादौ षष्ठ्या भेदेऽपि दर्शनान्मा भूज्जीवात्प्रदेशाना भेदसंप्रत्यय इत्यत आह-जीवस्येति, त्रिविधेऽपि शरीरे जीवप्रदेशा जीवस्याऽऽत्मभूता भवन्ति, नतु भेदिन इत्यर्थः। तदनेन निष्प्रदेशाऽऽत्मवादनिराकरणमाह- निष्प्रदेशत्वस्य युक्त्यऽनुपपत्तेः / तथाहिपादतलसंबद्धाना जीवप्रदेशानां शिरः संबद्धजीवदेशैः सह भेदोऽभेदो वा? इति वक्तव्यम् / यदि भेदस्तर्हि कथं न स प्रदेशो जीवः? अथाभेदस्तर्हि सर्वेषामपि शरीरावयचानामेकत्वप्रसङ्गः, अभिन्नैर्जीवप्रदेशैः संबन्धेनैकत्र क्रोडीकृतत्वादित्यादि तर्कशास्त्रेभ्योऽनुसरणीयम्।यैर्जीवप्रदेशः किं करोति? इत्याह- यैस्तु गृह्णाति / तुशब्दो विशेषणार्थः / किं विशिनष्टि? न सर्वदेव गृह्णाति, किं तु भाषणाभिप्रायाऽऽदिसामग्रीपरिणामे सति / किं पुनर्गृह्णाति? इत्याह- गृह्यत इति कर्मणि ल्यट्प्रत्यये ग्रहणं वाग्द्रव्यनिकुरम्बमित्यर्थः। ततो भषिको भाषां भाषते, न त्वभाषकोऽपर्याप्तावस्थायाम, इच्छाऽऽद्यभावतो वेति। 'भाषको भाषते' इत्यनेनैव गतार्थत्वात् “भाष्यमाणैव भाषा, न पूर्वं नापि पश्चाद्" इति ज्ञापनार्थमेव भाषाग्रहणमिति // 371 / / 374 / / आह-ननुकतमत्तत्त्रिविधं शरीरं,यद्गतैर्जीवप्रदेशैर्वाग्द्रव्याणि गृहीत्वा भाषको भाषते? इत्याह ओरालियवेउव्वियआहारओ गिण्हइ मुयइ भासं। सचं सच्चामोसं, मोसंच असच्चमोसं च / / 375 / / इहौदारिकशब्देन शरीरतद्वतोरभेदोपचारात्, मत्वर्थीयलोपाद्वा औदारिकशरीरवान जीव एव गृह्यते, एवं वैक्रियवान् वैक्रियः, आहारकवानाहारकः / तदयमेवौदारिकवैक्रियाऽऽहारकशरीरी जीवो गृह्णाति, मुञ्चति च भाषां पुद्गलसंहतिरूपाम्, भाषां कथंभूताम्? इत्याह- सत्यां, सत्यामृषाम, मृषां च, असत्यमृषां च / इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः / / 375 / / अत्र विषमपदव्याख्यानाय भाष्यम् - सच्चा हिया सयामिह, संतो मुणओ गुणा पयत्था वा। तव्विवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा / / 376|| अणहिगया जा तीसु वि, सहो चिय केवलो असचमुसा। एया सभेयलक्खणसोदाहरणा जहा सुत्ते / / 377 / / इह सद्भ्यो हिता आराधिका यथावस्थितवस्तुप्रत्यायनफला च सत्या भाषा प्रोच्यते। तत्र के सन्त उच्यन्ते येषां सा हिता? इत्याह- सन्त इह मुनयः साधव उच्यन्ते, तेभ्यो हिताइहपरलोकाऽऽराधकत्वेन मुक्तिप्रापिकेत्यर्थः / अथवा-सन्तो मूलोत्तरगुणरूपा गुणाः, पदार्था वा जीवाऽऽदयः प्रोच्यन्ते, तेभ्योऽसौ हिता-अविपरीतयथावस्थितस्वरूपप्ररूपणेन सत्या, विपरीतस्वरूपा तु मृषा भाषा अभिधीयते; मिश्रा तु सत्यामृषा / का? इत्याह-या तदुभयस्वभावा सत्यामृषाऽऽत्मिकेति। या पुनः सत्यामृषोभयाऽऽत्मकासु उक्तलक्षणासुतिसृष्वपि भाषास्वऽनधिकृता तल्लक्षणानन्तर्भाविनी, आमन्त्रणाऽऽज्ञापनाऽऽदिविषयो व्यवहारपतितः शब्द एव केवलः, सा असत्यमृषा चतुर्थी भाषा / एताश्चतसोऽपि भाषाः सभेदाः सलक्षणाः सोदाहरणाश्च यथा दशवैकालिकसूत्रनियुक्त्यादिकसूत्र आगमे भणित स्तथा तत्रैव बोद्धव्याः। इह तु भाषाद्रव्यग्रहणनिसर्गाऽऽदिविचारस्यैव प्रस्तुतत्वादिति गाथाद्वयार्थः / / 376 / / 377 // Page #1546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1538 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा (13) औदारिकाऽऽदिशरीरवान भाषां गृह्णाति, मुञ्चति चेत्युक्तम्। सा पुनर्मुक्ता सती कियत् क्षेत्र व्याप्नोति? इति वक्तव्यम्। उच्यते-समस्तमपि लोकम्। आह- यद्येवम्कइहिं समएहि लोगो, भासाएँ निरन्तरं तु होइ फुडो। लोकस्स य कइभाए, कइभाओ होइ भासाए // 375|| अथवा द्वादशभ्यो योजनेभ्यः परतो न शृणोतिशब्द मन्दपरिणामत्वाद् द्रव्याणामित्युक्तम्। तत्र किं परतोऽपिशब्दद्वव्याणामागतिरस्ति? यथा च विषयाभ्यन्तरे नैरन्तर्येण तद्वासनासामर्थ्यम्, एवं बहिरप्यस्ति, उत न? इति। उच्यते- अस्तिकेषाञ्चित्कृत्स्नलोकव्याप्तेः। आह-यद्येवम्, कइहिं० इत्येवं संबन्धद्वयसमायातेयं गाथा व्याख्यायते- लोक्यत इति लोक श्वतुर्दशरज्ज्वात्मकः क्षेत्रलोकोऽत्र परिगृह्यते / स कतिभिः कियत्संख्यैः समयैर्भाषया भाषाद्रव्यैर्निरन्तरमेव भवति, स्पृष्टोव्याप्तः? तस्य च लोकस्य कतिभागे कतिभागो भवति भाषाद्रव्याणामिति?||३७८॥ अत्रोच्यतेचउहिँ समएहिं लोगो, भासाएँ निरन्तरं तु होइ फुडो। लोगस्स य चरिमंते, होइ भासाए // 376 / / चतुर्भिः समयैर्लोको भाषया कस्यचित्संबन्धिन्या निरन्तरमेव पूर्णो भवति / लोकस्यच चरमान्तः पर्यन्तवर्ती भागोऽसंख्येयभाग इत्यर्थः / तस्मिश्चरमान्ते असंख्येयभागे भाषाया अपि समस्तलोकव्यापिन्याश्चरमान्तोऽसंख्येयभागो भवतीति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः / / 376 / / आह- किं सर्वस्या अपि भाषा लोकं व्याप्नोति? नैतदेवमिति दर्शयन्नाह भाष्यकार:कोई मंदपयत्तो, निसिरइ सयलाई सव्वदव्वाई। अन्नो तिघ्वपयत्तो, सो मुंबई मिंदिउं ताइं॥३०॥ कोऽप्युरःक्षताऽऽधुपेतत्वेन मन्दप्रयत्नो वक्ता सर्वाण्यपि भाषाद्रव्याणि प्रथमं सकलानि संपूर्णानि अखण्डान्यभिन्नानीति यावत्, निसृजति मुश्चति; अन्यस्तु नीरोगताऽऽदिगुणयुक्तस्तीव्रप्रयत्नो भवति, स पुनस्तान्यादाननिसर्गप्रयत्नाभ्यां भित्त्वैव खण्डशः कृत्या सूक्ष्मखण्डीकृत्य मुञ्चति। तत्रोभयेषामप्यग्रतो यद्भवति, तद्दर्शयन्नाहगंतुमसंखेज्जाओ, अवगाहणवग्गणा अभिन्नाई। भिज्जते धंसंति य, संखिले जोयणे गंतुं // 381|| मिन्नाइँ सुहुमयाए, अणंतगुणवड्डियाइँ लोगंतं / पावंति पूरयंति य, भासाऐं निरंतरं लोगं // 382 / / अवगाहोऽवगाहना एकैकस्य भाषाद्रव्यस्कन्धस्याऽऽधारभूताऽसंख्येयप्रदेशाऽऽत्मक क्षेत्रविभागरूपा तासामवगाहनानामनन्तभाषाद्रव्यस्कन्धाऽऽश्रयभूतक्षेत्रविशेषरूपाणां वर्गणासमुदायः ता अवगाहनावर्गणाः खल्वसंख्येया गत्वा ततो मन्दप्रयत्नवक्तृनिसृष्टान्यऽभिनानि भाषाद्रव्याणि भिद्यन्ते खण्डीभवन्ति। सङ्ख्येयानि च योजनानि गत्वा ध्वंसन्ते शब्दपरिणामं विजहतीत्यर्थः। उक्तं च प्रज्ञापनायां भाषापदे- "जाई अभिन्नाई निसिरइ, ताई असंखेचाओ ओगाहणाओ गता भेयमावति, संखेज्जाई जोयणाइं गत्ता विद्धसमागच्छति।'' यानि तु महाप्रयत्नो वक्ता प्रथमत एव भिन्नानि निसृजति तानि सूक्ष्मत्वाबहुत्वाचानन्तगुणवृद्ध्या वर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुयन्ति, शेषतु तत्पराघातवासना विशेषाद्वासितया भाषया उत्पन्नभाषापरिणामद्रव्यसंहतिरूपया सर्व लोकंनिरन्तरमापूरयन्ति "वक्ष्यमाणन्यायेन त्र्यादिभिः समथैः" इति वाक्यशेषः / उक्तं च- "जाइं भिन्नाई निसिरइ, ताई अणतगुणपरिवड्डीए परिवड्डमाणाई लोयंत फुसंति।" // 381 / 382 / / ('कैवलि समुग्घाय' शब्दे तृतीयभागे 663 पृष्ठेऽत्र विशेषः।) यद्येवम्, अचितमहास्कन्धिजीवयोगत्वाभावेऽपि कथं द्वितीय-समये कपाटमात्रस्यैव भावात प्रज्ञापनाऽऽदिषु चतुःसमयता प्रोक्ता, इत्याशयाऽऽहखंधो वि वीससाए, न पराघाओ य तेण चउसमओ। अह होज पराघाओ, हविज तो सो वि तिसमइओ // 36 // स्कन्धोऽचित्तमहास्कन्धः सोऽपि विश्रसया केवलेन विश्रसापरिणामेन भवति, न तु जीवप्रयोगेण। विश्रसापरिणामश्च विचित्रत्वान्न पर्यनुयोगमर्हति / किं च-न तत्र पराघातोऽस्तिनान्यद्रव्याणामात्मपरिणाममसौ जनयतीत्यर्थः, किं तु स निजपुद्गलैरेव लोकं पूरयति / ततोऽसौ चतुः समयो भवति। अथ तत्रापिपराघातो भवेत, ततः सोऽपि त्रिसामायिको भवेत- त्रिभिरेव समयैर्लोकमापूरयेदित्यर्थः / न चैवम्, सिद्धान्ते चतुःसमयत्वेन तस्योक्तत्वातातस्मान्नास्ति तत्र पराघातः अत्र त्वस्त्यसौ, इति वैषम्यमिति // 364 / / __ अथानादेशप्रस्तावादपरमपि मतमुपन्यस्य दूषयतिएगदिसमाइसमये, दंडं काऊण चऊहिँ पूरेइ। अन्ने भणंति तं पिय, नाऽऽगमजुत्तिक्खम होइ॥३६५|| अन्ये केचिद्भाषन्ते-आदिसमये एकदिकं दण्डं कृत्वा चतुर्भिः समयलॊकमापूरयति / एतदुक्तं भवति- प्रथमसमये तायदूर्ध्वदिशि दण्ड करोति, द्वितीयसमये तत्र मन्थानम्, अधोदिशि पुनर्दण्ड, तृतीयसमये ऊर्द्धदिश्यन्तरालपूरणमधोदिशि तु मन्थानं करोति, चतुर्थसमये तु तत्राप्यन्तरालपूरणात्समस्तमपि लोकं भाषाद्रव्यैः पूरयति / तदेतदपि नागमक्षम, क्वचिदप्यागम एवमश्रवणात् / नापि युक्तिक्षमम् / का ह्यत्र युक्तिः, यदनुश्रेणिगमनस्वभावानां पुद्र-लानामेकया दिशागमनं भवति, नान्यया ? वक्तृमुखताल्वादि-प्रयत्नप्रेरणमत्र युक्तिरिति चेत् / नैवं, यतो वक्ता कदाचिद्विश्रेण्याऽभिमुखस्तदभिमुखानपि भाषापुद्गलान् प्रेरयेत्, ततश्च विदिश्यपि तेषां गमनप्रसङ्गः। किं चैवं सति पटहाऽऽदिशब्दपुद्गलानां चतुः समयानियम एव स्याद्वक्तृप्रयत्नस्य तेष्वभावात्। तरमाधुक्त्यागमविरुद्धत्वादुपेक्षणीयमेवेदमिति // 365|| विशे०। आoमः | नंग सम्प्रति भाषाद्रव्यग्रहणाऽऽदिविषयसंशयाप नोदार्थमाहजीवे णं भंते ! जाइं दवाइं भासत्ताए गिण्हति, ताई किं ठियाइं गेण्हति, अट्ठियाई गेण्हति? गोयमा ! ठियाई गिण्हति,नो अट्टियाइंगिण्हति / जाई भंते ! ठियाई गिण्हति, ताइं किं दव्वतो गिण्हति, खेत्ततो गिण्हति, कालतो गिण्हति, भावतो गिण्हति? गोयमा ! दव्वओ वि गिण्हति, Page #1547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा खेत्तओ वि कालओ विभावओ वि गिण्हति / जाइं भंते ! दव्वओ किं एगफासाइं गेण्हइ०जाव अट्ठफासमंताई गिण्हति? गोथमा ! गेण्हति, ताइं किं एगपदेसियाई गिण्हति, दुपदेसियाई गिण्हइ० गहणदव्वाइं पडुच्च णो एगफासाइंगण्हति, दुफासाइंगिण्हइ० जाव अणंतपदेसियाइं गेण्हति? गोयमा ! नो एगपदेसियाई जाव चउफासाइं गेण्हति, णो पंचफासाइं गेण्हतिजाव नो गेण्हतिजाव नो असंखिज्जपदेसियाइंगिण्हइ, अणंतपदेसियाई अट्ठफासाई पि गेण्हति / सव्वगहणं पडुच्च नियमा चउफासाई गेण्हति। जाइं खेत्तओगेण्हति, ताइं किं एगपएसोगढाइंगेण्हति, गेण्हति / तं जहा-सीतफासाई गेण्हति, उसिणफासाई दुपएसोगाढाइं गेण्हतिजाव असंखेज्जपएसोगाढाइं गेण्हति? निद्धफासाइं लुक्खफासाइं गेण्हति / जाई फासतो सीताई गोयमा ! नो एगपएसोगाढाई गेण्हतिजाव नो संखेज्जपएसो- गिण्हति, ताई किं एगगुणसीताई मेण्हति०जाव अणंतगुणसीगाढाइं गेण्हति, असंखेज्जपएसोगाढाइं गेण्हति / जाइं कालतो ताइं गेण्हति ? गोयमा ! एगगुणसीताई पि गेण्हतिजाव गेण्हति, ताई कि एनसमयट्टिईयाई गेण्हति दुसमयट्ठिईयाई अणंतगुणसीताई पि गेण्हति / एवं उसिणणिद्धलुक्खाई जाव गिण्हति, जाव असंखिज्जसमवहिईयाइं गेण्हति? गोयमा ! अणंतगुणाई पि गिण्हति।जाई भंते! ०जाव अणंतगुणलुक्खाई एनसमयद्वितीयाई पि गेण्हति, दुसमयद्वितीयाई पि गेण्हति० गेण्हति, ताई किं पुट्ठाई गेण्हति, अपुट्ठाइ गेण्हति ? गोयमा ! जाव असंखेज्जसमयद्वितीयाइं गेण्हति जाइं। भावतो गेण्हति, पुट्ठाइं गेण्हति, नो अपुट्ठाइंगेण्हति। जाइं भंते ! पुट्ठाइं गेण्हति, ताई किं ओगाढाई गेण्हति, अणोगाढाइं गेण्हति ? गोयमा ! ताई किं वण्णमंताई गेण्हति, गंधमंताई रसमंताई फासमंताई गेण्हति? गोयमा ! वण्णमंताई गिण्हइ०जाव फासमंताई ओगाढाई गेण्हति, नो अणोगाढाइं गेण्हति। जाई भंते ! ओगागेण्हति / जाइं भावओ वण्णमंताइं गेण्हति,ताई किं एगवण्णाई ढाई गेण्हति, ताई किं अणंतरोगाढाइं गेण्हति, परंपरोगाडाई गेण्हति ! गोयमा ! अणंतरोगाढाइं गिण्हति, नो परंपरोगाढाई गेण्हतिजाव पंचवण्णाइं गेहति? गोयमा ! गहणदव्वाई पडुच्च गेण्हति / जाइं भंते ! अणंतरोगाढाइं गेहति, ताई भंते ! किं एगवण्णाई पिगेण्हति०जाव पंचवण्णाई पि गेण्हति, सव्वग्गहणं अणूइं गेण्हति, थायराइं गेण्हति? गोयमा ! अणूई पि गेण्हति, पडुच णियमा पंचवण्णाई गेण्हति / तं जहा-कालाई नीलाई वायराई पि गेण्हति / जाइं भंते ! अणूई पि गेण्हति, वायराई पि लोहियाइं हालिद्दाइंसुकिल्लाइं। जाइंवण्णतो कालाइंगेण्हर्ति, गिण्हइ ताई किं उठं गेण्हति, अधे गेण्हति, तिरियं गेण्हति? ताई किं एगगुणकालाई गेण्हति०जाव अणंतगुणका-लाइं गोयमा ! उड्ढं पि गेण्हति, अधे पि गेण्हति, तिरियं पि गेण्हति / गिण्हति? गोयमा ! एगगुणकालाई पि गिण्हति जाव अणंत जाई भंते ! उड्डे पि गेण्हति, अधे विगेण्हति, तिरियं पिगेण्हति, गुणकालाइंपि गेण्हति / एवं०जाव सुक्कि-लाई पि। जाइं भावतो ताई किं अदिं गेण्हति, मज्झे गेण्हति, पज्जवसाणे गेण्हति? गंधमंताई गिण्हति,ताई किं एगगंधाइं गिण्हति, दुगंधाई गोयमा ! आदि पि गेण्हति, मज्झे वि गेण्हति, पज्जवसाणे वि गिण्हइ? गोयमा ! गहण-दव्वाइंपडुच्चएगगंधाई पिगिण्हइ गेण्हति / जाइं भंते ! आदि पि गिण्हति, मज्झे वि गेण्हति, दुगंधाई पि गिण्हति। सव्वगहणं पडुच नियमा दुगंधाई गिण्हति / पजवसाणे वि गिण्हति, ताई किं सविसए गिण्हति अविसए जाइं गंधतो सुब्भिगंधाइं गिण्हति, ताई किं एगगुणसुडिभगंधाई गिण्डति? गोयमा ! सविसए गेण्हति, नो अविसए गेण्हति / जाई गिण्हतिजाव अणंतगुणसुभिगधाई गिण्हति? गोयमा ! मंते ! सविसए गेण्हति, ताई किं आणुपुटिव गेण्हति, अणाणुएगगुणसुब्भिगंधाई पि०जाव अणंतगुणसुब्भिगंधाई पि गेण्हइ। पुटिव गेण्हति? गोयमा ! आणुपुटिव गेण्हति, नो अणाणुपुटिव एवं दुब्भिगंधाई पि गेण्हइ / जाइं भावतो रस-मंताइ गेण्हति, गेण्हति। जाइं भंते ! आणुपुटिव गेण्हति, ताई किं तिदिसिं ताई किं एगरसाइं गेण्हतिजाव किं पंचरसाइं गेण्हति? गेण्हति०जाव छदिसिं गेण्हति ? गोयमा ! नियमा छद्दिसिं गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च एगरसाइं पि गेण्हतिजाव गेण्हति / पुट्ठोगाढ अणंतर, अणू य तह वायरे य उड्डमहे। आदिपंचरसाइं पि गेण्हति / सव्व-गहणं पडुच्च नियमा पंचरसाई विसयाणुपुटिव णियमा तह छद्दिसिं चेव / / 1 / / (सूत्रम् 168) गेहति / जाइं रसओ तित्तरसाइं गेण्हति, ताई किं एगगुण- जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं भासत्ताए गेण्हति ताई किं संतरं तित्तरसाइं गिण्हतिजाव अणंतगुणतित्ताई गिण्हति ? गोयमा ! गेण्हति, निरंतरं गेण्हति? गोयमा ! संतरं पि गेण्हति, निरंतरं पि एगगुणतित्ताई पि गिण्हइ०जाव अणंतगुणतित्ताई पि गिण्हति / गेण्हति, संतरंगिण्हमाणेजइण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं एवं जाव मधुरो रसो। जाइंभावतो फासमंताई गेण्हति, ताई | समयं अंतरं कट्ट गेण्हति, निरंतरं गेण्हमाणे त्रहणेणं दो समए, Page #1548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1540 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा उक्कोसेणं असंखेज्जसमए, अणुसमयं अविरहियं निरंतरं गेण्हति / जीवेणं भंते ! जाइंदव्वाई भासत्ताए गहियाई णिसिरइ, ताई किं संतरं निसरइ, निरंतरं निसरइ? गोयमा ! संतरं निसरइ, नो निरंतरं निसरइ, संतरं निसरमाणे एगेणं समएणं गेण्हति एगेणं समएणं निसरइ, एतेणं गहणनिसरणोवाएणं जहन्नेणं दुसमइयं उक्कोसेणं, असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तिगं गहणनिसरणोवायं करेति। जीवेणं भंते ! जाई दव्वाई भासत्ताए गहियाइं णिसिरति, ताई किं भिण्णाई णिसरति, अभिण्णाई णिसरति? गोयमा ! भिन्नाई पि निसरइ, अभिन्नाई पि निसरइ, जाई भिन्नाई णिसरति, ताई अणंतगुणपरिवुड्डीए णं परिवुड्डमाणाई 2 लोयंतं फुसन्ति; जाई अमिण्णाई निसरइ, ताई असंखेज्जाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता भेदमावजंति, संखेजााई जोअणाईगंता विद्धंसमागच्छंति। (सूत्रम्-१६९) 'जीवे ण भंते ! जाई दव्वाइं भासत्ताए गिण्हइ' इत्यादि, सुगम, नवरं 'ठियाई स्थितानि, नगमनक्रियावन्ति, द्रव्यतश्चिन्तायामनन्तप्रादेशिकानिअनन्तपरमाण्वात्मकानि गलाति, नैकपरमाण्वाद्यात्मकानि, तेषा स्वभावत एव जीवानां ग्रहणायोग्यत्वात्, क्षेत्रचिन्तायामसइख्यातप्रदेशावगाढानि, एकप्रदेशाऽऽद्यवगाढाना तथा स्वभावतया ग्रहणायोग्यत्वात्, कालतश्चिन्तायामकसमयस्थितिकान्यपि यावदसङ्ख्येयसमयस्थितिकान्यपि गृह्णाति, पुद्गलानामसङ्ख्येयमपि कालं यावदवस्थानसम्भवात् / तथा चोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तौ सैजनिरेजपुद्गलावस्थानचिन्तायाम्- 'अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे केवइकालं सेए ? गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं; निरेए जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं असंखेज्नं कालं ' इति / तेषां च गृहीतानां ग्रहणानन्तरसमये अवश्यं निसर्ग हाते स्वभावस्यानन्तरसमये ग्रहणं प्रतिपत्तव्यम् / अन्ये तु व्याचक्षते-एकसमयस्थितिकान्यपीति आदिभाषापरिणामापेक्षया द्रष्टव्यं, विचित्रो हि पुद्गलानां परिणामः, ततः एकप्रयत्नगृहीतमुक्ता अपि ते केचिदेक समयं भाषात्वेनावतिष्ठन्ते, केचिद् द्वौ समयौ, यावत् केचिदसङ्ख्येयानपि समयानिति।तथा 'गहणदव्वाई' / इति गृह्यन्ते इति ग्रहणानि, ग्रहणानि च तानि द्रव्याणि च ग्रहणद्रव्याणि। किमुक्तं भवति?- यानि ग्रहणयोग्यानि द्रव्याणि तानि कानिचित् वर्णपरिणामेन एकेन वर्णेनोपेतानि, कानिचित् द्वाभ्यां, कानिचित् त्रिभिः, कानिचित् चतुर्भिः, कानिचित्पञ्चभिः, यदा पुनरेकप्रयत्नगृहीतानामपि सर्वेषां द्रव्याणामपि समुदायो विवक्ष्यते तदा नियमात् पञ्चवर्णानि गृह्णाति, एवं गन्धरसेष्वपि भावनीयं, स्पर्शतः चिन्तायामेकस्पर्शप्रतिषेधः एकस्यापि परमाणोरवश्यं स्पर्शद्वयभावात् / तथा चोक्तम्- 'कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसगन्धवर्णो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च / / 1 / / द्विस्पर्शानिमृदुशीतानि मृदुष्णाचीत्यादि, '0 जाव चउफारसा' इति। यावच्छब्दकरणात् त्रिस्पर्शपरिग्रहः। ततः त्रिस्पर्शान्येवंकानिचित् द्रव्याणि किल मृदुशीतस्पानि, कानिचित् मृदुस्निग्धस्पर्शानि, तत्र मृदुस्पर्शा मृदुस्पर्श एवान्तर्भूत इत्येकस्पर्शः शीतस्निग्धरूपौतुद्वावन्यो स्पर्शाविति समुदायमधिकृत्य त्रिस्पर्शानि एवं स्पर्शान्तरयोगेऽपि त्रिस्पर्शानि भावनीयानि। कानिचिचतुःस्पर्शानि, तत्र चतुःस्पर्शेषु मृदुलघुरूपौ द्वौ स्पर्शावस्थितौ, सूक्ष्मस्कन्धेषु तयोरसम्भवात्, अन्यौ तु द्वौ स्पशी स्निग्धोष्णौ स्निग्धशीतौ रूक्षोष्णौ रूक्षशीती, सर्वसमुदायमपेक्ष्य नियमात्तानि चतुःस्पर्शानि गृह्णाति। तत्र यौ द्वौ मृदुलघुरुपौ स्पर्शाववस्थितौ ताववस्थितत्वादेव व्यभिचाराभावान गण्येते, ये त्वन्ये स्निग्धाऽऽदयश्च त्वारस्ते किल वैकल्पिका इति तानधिकृत्य सूत्रमाह। तद्यथा- 'सीयफासाइं गेण्हइ' इत्यादि सुगम, यावत ‘जाइं भंते ! अणंतगुणलुवखाई गेण्हइ / ' इह किल चरमं सूत्रमनन्तरमिदमुक्तम्'अणंतगुणलुक्खाई पि गिण्हइ ततः सूत्रसम्बन्धवशादिदमुक्तम्-'जाई भंते ! 0 जाव अणंतगुणलुक्खाइं गेण्हइ' इति / यावता- 'जाई भंते ! एगगुणकालवण्णाई' इत्याद्यपि द्रष्टव्यम्, 'ताइं भंते! किं पुट्ठाई' इत्यादि, तानि भदन्त ! किं स्पृष्टानि-आत्मप्रदेशसंस्पृष्टानि गृह्णाति, उतास्पृटानि? भगवानाह- गौतम ! स्पृष्टानि-आत्मप्रदेशःसह संस्पर्शमागतानि गृह्णाति, नास्पृष्टानि इहाऽऽत्मप्रदेशैःसंस्पर्शनमात्मप्रदेशावगाह-क्षेत्राद् बहिरपि सम्भवति ततः प्रश्रयति- 'जाई भंते ! इत्यादि। अवगाढा निआत्मप्रदेशः सह एकक्षेत्रावस्थितानि गृह्णाति, नानवगाढानि / जाई भंते !' इत्यादि, अनन्तरावगाढानि अव्यवधानेनावस्थितानि गृह्णाति, न परम्परावगाढानि। किं मुक्तं भवति?-येष्वात्मप्रदेशेषु यानि भाषाद्रव्याण्यवगाढानि तैरात्मप्रदेशैस्तान्येव गृह्णाति, न त्वेकद्वित्र्यात्मप्रदेशव्यवहितानि। 'जाई भंते ! अणंत-रोगाढाई' इत्यादि। अणून्यपिस्तोकप्रदेशान्यपि गृह्णाति, बादराण्यपिप्रभूतप्रदेशोपचितान्यपि, इहाणुत्वबादरत्वे तेषामेव भाषायोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोक बाहुल्यापेक्षया ख्याख्याते, मूलटीकाकारेण तथा व्याख्यानात्। 'जाई भंते ! अणूई पि गेण्हई' इत्यादि, ऊर्द्धमपि, अधोऽपि, तिर्यगपीति, इह जीवस्य यावति क्षेत्रे ग्रहणयोग्यानि भाषाद्रव्याण्यवस्थितानि तावत्येव क्षेत्रे ऊद्ध्वधिस्तिर्यक्त्वं द्रष्टव्यम्। 'जाई भंते! उड्ढपि गेण्हइ।' इत्यादि, यानि भाषाद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त यावत् ग्रहणोचितानि तानि ग्रहणोचितकालस्य उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्याऽऽदावपिप्रथमसमये गृह्णाति, मध्येऽपिद्वितीयाऽऽदिष्वपि समयेषु गृह्णाति, पर्यवसानेऽपिपर्यवसानसमयेऽपि गृह्णाति। जाइं भंते ! आई पि गेण्हइ' इत्यादि, स्वविषयान् स्वगोचरान स्पृष्टावगाढानन्तरावगाढाऽऽख्यान् गृह्णाति, न त्वविषयान् स्पृष्टाऽs - दिव्यतिरिक्तान्। 'जाई भंते ! सविसए गेण्हइ' इत्यादि। आनुपूर्वी नाम ग्रहणापेक्षया यथा-सन्नत्वं तद्विपरीता अनानुपूर्वी, तत्रानुपूर्व्या गृह्णाति, न त्वनानुपूा। 'जाइ भंते ! आणुपुट्विं गेण्हइ' इत्यादि तिदिसिं' ति। त्रिदिशि गृह्णाति, तिसृभ्यो दिग्भ्य आगतानि गृह्णाति। एवं चतुर्दिशिपञ्चदिशि Page #1549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1541 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा षड्दिशि च / एवमुक्ते भगवानाह- गौतम ! नियमात् षड्दिशि गृह्णातिषड्भ्यो दिग्भ्य आगतानि गृह्णाति, भाषको हि नियमात् त्रसनाड्यामन्यत्र सकायासम्भवात्, सनाड्यां च व्यवस्थितस्य नियमात्षदिगागतपुद्गलसम्भवात्। एतेषामेवार्थानां सङ्ग्रह णिगाथामाह- 'पुट्ठोगाढअणंतरं।' इत्यादि प्रथमतः स्पृष्टविषयं सूत्र, तदनन्तरमवगाढसूत्रम्, ततोऽनन्तरावगाढसूत्रम्, ततोऽणुबादरविषयं सूत्रम्, तदनन्तरमूधिःप्रभृतिविषय सूत्र, तत 'आई' इति / उपलक्षणमेतत् आदिमध्यावसानसूत्रं, ततो विषयसूत्र, तदनन्तरमानुपूर्वीसूत्र, ततो नियमात् षड्दिशीतिसूत्रम् / (168) 'जीवाणं भंते ! जाई दव्वाई' इत्यादि। जीवो 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! यानि द्रव्याणि भाषात्वेन गृह्णाति तानि किं सान्तर-- सव्यवधानं गृह्णाति, किं वा निरन्तर निर्व्यवधानम् ? भगवानाहसान्तरमपि गृह्णाति, निरन्तरमपि / उभयथाऽपि ग्रहणसम्भवात् / तत्र सान्तरनिरन्तरग्रहणयोः प्रत्येक कालमानं प्रतिपादयति- 'संतर गिण्हमाणे' इत्यादि / सान्तरं गृह्णन् जघन्यत एक समयमन्तर कृत्वा गृण्हाति, एतच जघन्यत एक समयमन्तरं सततं भाषाप्रवृत्तस्य भाषमाणस्यावसेयम् / तचैवम्- कश्चिदेकस्मिन् समये भाषापुद्गलान् गृहीत्वा तदनन्तरं मोक्षसमये अनुपादानं कृत्वापुनस्तृतीये समये गृह्णात्येव, न मुञ्चति, द्वितीये समये प्रथमसमयगृहीतान पुद्गलान् मुञ्चति, अन्यानादत्ते, अथान्येन प्रयत्नविशेषेण ग्रहणमन्येन च प्रयत्नविशेषेण च निसर्गः, तौ च परस्पर विरुद्धौ, परस्पराविरुद्धकार्यकरणात, ततः कथमेकस्मिन् समये तौ स्याता? तदयुक्तं, जीवस्य हि तथास्वाभाव्यात द्वावुपयोगावेकस्मिन् समये न स्याता, येतु क्रियाविशेषास्ते बहवोऽप्येकस्मिन् समये घटन्त एव, तथादर्शनात् / तथाहि- एकाऽपि नर्तकी भ्रमणाऽऽदि नृत्तं विदधाना एकस्मिन्नपि समये हस्तपादाऽऽदिगता विचित्राः क्रियाः कुर्वती दृश्यते,सर्वस्यापि वस्तुनः प्रत्येकमेकस्मिन् समये उत्पादव्ययावुपजायेते.एकस्मिन्नेव च समये सघातपरिशाटावपि, ततो न कश्चिद्दोषः। आह च भाष्यकृत्- "गहणनिसम्गपयत्ता, परोप्परविरोहिणो कह समये ? समए दो उवओगा, न होज किरियाण को दोसो ? // 1 // " इति / तृतीये पुनःसमये तानेव द्वितीयसमयोपात्तान् पुद्गलान् मुथति, न पुनरन्यानादत्ते, उक्तरेण त्वसङ्ख्येयान् थावन्निरन्तर गृह्णाति / तथा चाऽऽह- उत्कर्षेणासङ्ख्येयान् समयान् गृह्णाति इति योगः, कदाचित्परोऽसङ्ख्येयैःसमयैरेकं ग्रहणं मन्येत, तत आह'अनुसमय' प्रतिसमयं गृह्णाति। तदपि कदाचिद्विरहितमपि व्यवहारतोऽऽनुसमयमित्युच्येत, ततस्तदाशड्क्य व्यवच्छेदार्थमाह- अविरहितम्, एवं निरन्तरं गृह्णाति, तत्राऽऽद्ये समये ग्रहणमेव, न निसर्गः, अगृहीतस्य निसर्गाभावात्, पर्यन्तसमये चमोक्ष एव, भाषाऽभिप्रायोपर-- मतो ग्रहणासम्भवात् शेषेषु द्वितीयाऽऽदिषु समयेषु ग्रहणनिसर्गों युगपत्करोति। 'जीवा णं भंते ! जाइं दवाई भासत्ताए गहियाई निसरइ' इत्यादि प्रश्नसूत्रसुगमम्, निर्वचनमाह- सान्तरं निसृजति, नो निरन्तरम्, इयमत्र भावना- इह तावत् ग्रहण निरन्तरमुक्त, तथा चानन्तरसूत्रम् 'अणुसमयमविरहिय निरंतर गेण्हइ' इति. ततो निसर्गोऽपि प्रथमवर्जेषु शेषेषु समयेषु निरन्तरं प्रतिपत्तव्यो, गृहीतस्यावश्यमनन्तरसमये निसर्गात् / ततो यदुक्तम्- 'सान्तरं निसृजति नो निरन्तरमिति'. तत्र ग्रहणापेक्षया दृष्टव्यम्। तथाहि-यस्मिन् समये यानि भाषाद्रव्याणि गृह्णाति नतानि तस्मिन्नेव समये मुञ्चति, यथा प्रथमसमये गृहीतानि न तस्मिन्नेव प्रथमसमये मुशति, किन्तु पूर्वस्मिन् 2 समये गृहीतानि उत्तरस्मिन् 2 समये, ततो ग्रहणपूर्वो निसर्गोऽगृहीतस्य निसर्गायोगात् इति सान्तरं निसर्ग उक्तः, आह च भाष्यकृत"अणुसमयमणंतरिय, गहणं भणियं ततो विमोक्खोऽवि। जुत्तो निरन्तरो वि य, भणइ कहं संतरो भणिओ ?||1|| गहणावेक्खाऐं तओ, निरंतरं जम्मि जाइँ गहियाई। न उ तम्मि चेव निसरइ, जइ पढमे निसिरणं नत्थि।।२।। निसिरिजइ नागहियं, गहणतरिय ति संतर तेण।" इति। एतदेव सूत्रकृदपि स्पष्टयति- 'संतरं निसरमाणोएगेणं समएणं गेण्हइ.एगेण समएणं निसरइ' इति। एकेन-पूर्वपूर्वरूपेण समयेन गृह्णाति, एकेन-उत्तरोत्तररूपेण समयेन निसृजति। अथवा- ग्रहणापेक्ष निसर्गा-भावात् एकेन आद्ये न समयेन गृह्णात्येव न निसृजत्यगृहीतस्य निसर्गाभावात्, तथा एकेनपर्यवसानसमयेन निसृजत्येव, न गृह्णाति, भाषाऽभिप्रायोपरमतो ग्रहणासम्भवात, शेषेषु तु द्वितीयाऽऽदिषु समयेषु युगपद् ग्रहणनिसर्गा करोति, तौ च निरन्तरं जघन्यतो द्वौ समयौ, उत्कर्षतोऽसङ्ख्येयान समयान् / एतदेवाऽऽह- 'एतेणं गहणनिसरणोबाएणं जहण्णेणं दुसमइयं, उकोसेणं असंखेजसमइयं अंतोमुहुर्त गहणणिसिरणं करेइ' इति / 'जीवे णं जाई दव्वाई' इत्यादि प्रश्रसूत्रं सुगम' भगवानाह– गौतम ! भिन्नान्यपि निसृजति, अभिन्नान्यपि / इयमत्र भावना-इह द्विविधो-वक्तामन्दप्रयत्नस्तीव्रप्रयत्नश्च / तत्र यो व्याधिविशेषतोऽनादरतो वा मन्दप्रयत्नः स भाषाद्रव्याणि तथाभूतान्येव स्थूलखण्डाऽऽत्मकानि निसृजति, यस्तु नीरोगताऽऽदिगुणयुक्तस्तथाविधाऽऽदरभावतस्तीव्रप्रयत्नः स भाषाद्रव्याणि आदाननिसर्गप्रयत्नाभ्यां खण्डशः कृत्वा निसृजति। आह च भाष्यकृत्- 'कोई मंदपयत्तो, निसिरइ सकलाई सव्वदव्वाई। अन्नो तिटवपयत्तो, सो मुंइ भिंदिउताई॥१॥" तत उक्तम्'भिन्नाई पि निसिरइ, अभिन्नाइं पि निसिरइ, जाई भिन्नाई निसिरइ' इत्यादि। यानि तीव्रप्रयत्नो वक्ता प्रथमत एव भिन्नानि निसृजति तानि सूक्ष्मत्वात् बहुत्वाच्च प्रभूतान्यन्यानि द्रव्याणि वासयन्ति, तदन्यद्रव्यवासकत्वादेय चानन्तगुणवृझ्या परिवर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तं स्पृशन्ति, लोकान्तं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः / उक्तं च-"भिन्नाइँ सुहमयाए, अणंतगुणवड्डियाइँ लोगंतं / पार्वति पूरयति य, भासाऍ निरंतरं लोगं // 1 // " यानि पुनर्मन्दप्रयत्नो वक्ता यथाभूतान्येव प्राक् भाषाद्रप्याण्याण्यासीरन् तथाभूतान्येव सकलान्यभिन्नानि भाषात्वेन परिणमय्य निसृजति, तान्यसंख्येया अवगाहनावर्गणा गत्वा, अवगाहनाःएकैकस्य भाषाद्रव्यस्याऽऽधारभूता असंख्येयप्रदेशाऽऽत्मकक्षेत्रविभागरूपास्तासामवगाहनानां वर्गणाः-समुदायास्ता असंख्येया अतिक्रम्य Page #1550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1542 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा भेदमापद्यन्ते, विशरारुभावं विभ्रति इत्यर्थः / विशरारुभाव विभ्राणानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा विध्वंसमागच्छन्ति, शब्दपरिणाम विजहतीत्यर्थः / उक्तं च- "गंतुमसंखेजाओ, अवगाहणवग्गणा अभिनाई। भिज्जति धंसमेंति य, संखिज्जे जोयणे गंतु / / 1 / / ' भिन्नान्यपि निसृजतीत्युक्तम्। (14) तत्र कतिविधः शब्दद्रव्याणां भेद इति पृच्छति--- एतेसि णं भंते ! दव्वाणं कतिविहे भए पण्णत्ते ? गोयमा ! पञ्चविधे भेदे पण्णत्ते / तं जहा-खंडाभेदे, पयरभेदे, चुपिणयाभेदे, अणुतडियाभेदे, उक्करियाभेदे / से किं तं खंडाभेदे? खंडाभेदे जण्णं अयखंडाण वा तउखंडाण वा तवखंडाण वा सीसखंडाण वा रययखंडाण वा जातरूवखंडाण वा खंडएण भेदे भवति, से तं खंडाभेदे ||1|| से किं तं पयराभेदे ? पयराभेदे जण्णं वंसाण वा वेत्ताण वा नलाण वा कदलीथंभाण वा अब्भपडलाण वा पयरेणं मेदे भवति, से तं पयराभेदे / / 2 / / से किं तं चुण्णियाभेदे? चुन्नियाभेदे जण्णं तिलचुण्णाण वा मुग्गचुण्णाण वा मासचुण्णाण वा पिप्पलीचुण्णाण वा मरियचुण्णाण वा सिंगवेरचुण्णाण वा चुण्णियाए भेदे भवति से तं चुणियाभेदे / / 3 / / से किं तं अणुतडियाभेदे ? अणुतडियाभेदे जण्णं अगडाण वा तडागाण वा दहाण वा नदीण वा वावीण वा पुक्खरिणीण वा दीहियाण वा गुंजालियाण वा सराण वा सर-सराण वा सरपंतियाण वा सरसरपंतियाण वा अणुतडियाभेदे भवति, से तं अणुतडियाभेदे // 4 // से किं तं उक्करियाभेदे? उक्करियाभेदे जण्णं मूसाण वा मंडूसाण वा तिलसिंगाण वा मुग्गसिंगाण वा माससिंगाण वा एंरडवीयाण वा फुडिता उक्करियाभेदे भवति, से तं उक्करियाभेदे / / 5 / / एएसि णं भंते दव्वाणं खंडाभेएणं पयराभेदेणं चुण्णियाभेदेणं अणुतडियाभेदेणं उक्करियाभेदेण य मिज्जमाणाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवाइंदव्वाइं उक्करियाभेदेणं भिज्जमाणाई अणुतडियाभेएणं मिज्जमाणाई अणंतगुणाई, चुण्णियाभेदेणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई, पयराभेदेणं भिज्जमाणाइं अणंतगुणाई,खंडाभेदेणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई / / (सूत्रम्- 170) नेरइए णं भंते ! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गेण्हति ताई किं ठियाई गेण्हति, अट्ठियाइं गेण्हति? गोयमा ! एवं चेव, जहा जीवे वत्तव्वया भणिया, तहा ने रइयस्स वि०जाव | अप्पाबहुयं / एवं एगिदियवज्जो दंडओ० जाव वेमाणिया / / जीवा णं भंते ! जाइं दव्वाई भासत्ताए गेण्हति, ताई किं ठियाई गेण्हति, अद्वियाई गेण्हति? गोयमा ! एवं चेव पुहुत्तेण वि णे तव्वंजाव वे माणिया / जीवे णं भंते ! जाई दवाई सचभासत्ताए गेण्हति ताई किं ठियाइंगेण्हति अट्ठियाइंगेण्हति? गोयमा ! जहा ओहियदंडओ तहा एसोऽवि, णवरं विगलिंदिया ण पुच्छिज्जंति, एवं मोसाभासाए वि, सचामोसाभासाए वि, असचामोसाभासाए वि एवं चेव, नवरं असञ्चामोसाभासाए विगलिंदिया पुच्छिज्जंति इमेणं अभिलावेणंदिगलिदिए णं भंते ! जाइंदव्वाइं असच्चामोसाभासाए गिण्हइ, ताई किं ठियाई गेण्हइ, अट्ठियाई गेण्हइ? गोयमा ! जहा ओहियदंडओ, एवं एए एगत्तपुहुत्तेणं दस दंडगा भाणियव्वा / (सूत्रम्-१७१) जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइंसच्चभासत्ताए गिण्हति, ताई किं सच्चमासत्ताए निसिरइ, मोसभासत्ताए निसिरइ सच्चामोसमासत्ताए निसिरति, असच्चा-मोसभासत्ताए निसिरइ? गोयमा ! सच्चभासत्ताए निसिरइ, नो मोसभासत्ताए निसरिति, नो सच्चामोसभासत्ताए निसिरति, नो असच्चामोसभासत्ताए निसिरइ। एवं एगिदियविगलिंदियवज्जो दंडओ०जाव वेमाणिया, एवं पुहुत्तेण वि। जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं मोसभासत्ताए गिण्हति, ताई किं सच्चभासत्ताए निसिरति, मोसभासत्ताए सच्चामोसभासत्ताए असच्चामोसभासत्ताए निसिरइ? गोयमा ! नो सच्चभासत्ताए निसिरति, मोसभासत्ताए निसिरति, णो सच्चामोसमासत्ताए निसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए निसिरति। एवं सच्चामोसभासत्ताए वि, असच्चामोसभासत्ताए वि एवं चेव, नवरं असच्चामोसभासत्ताए विगलिंदिया तहेव पुच्छिज्जति, जाए चेव गिण्हति ताए चेव निसिरति, एवं एते एगत्तपुहुत्तिया अट्ठ दंडगा भाणि-- यव्वा / / (सूत्रम्-१७२) / / कतिविहे णं भंते ! वयणे पण्णत्ते? गोयमा ! सोलसविहे वयणे पण्णत्ते / तं जहा-एगवयणे दुवयणे बहुवयणे इत्थिवयणे पुमवयणे णपुंसगवयणे अज्झत्थवयणे उवणीयवयणे अवणीयवयणे उवणीयावणीयवणे अवणीयोवणीयवयणे अतीतवयणे पडुप्पन्नवयणे अणागयवयणे पच्च-- क्खवयणे परोक्खवयणे / इच्चेयं भंते ! एगवयणं वा जाव परोक्खवयणं वा वदमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा ? हंता! गोयमा ! इच्चेयं एगवयणं वाजाव परोक्खवयणं वा वदमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसा / / (सूत्रम्-१७३) 'एलेसि ण भंते ! दव्वाणं' इत्यादि, तत्र खण्डभेदो लोहखण्डाऽऽदिवत, प्रतरभेदोऽभ्रपटलभूर्यपत्राऽऽदिवत् चूर्णिकाभेदः क्षिप्तपिष्ट वत्, अनुतटिकाभेद इक्षुत्वगादिवत्, उत्कटि-- Page #1551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1543 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा काभेदः स्तुत्याघर्षवत्। एतानेव भेदान् व्याख्यातुकामः प्रश्न निर्वचनसूत्राण्याह- 'से कि त खंडभेदे?' इत्यादि पाठसिद्ध,नवरमनुतटि-काभेदे अवटाः कूपाः, तडागानिप्रतीतानि, हृदा अपि प्रतीताः, नद्योगिरिनद्यादयः, वाप्यः- चतुरखाऽऽकाराः, ता एव वृत्ताऽऽकाराः पुष्करिण्यःदीर्घिकाः-ऋज्व्यो नद्यः वक्रा नद्यो गुञ्जालिकाः बहूनि केवलकेवलानि पुष्पप्रकरवत् विप्रकीर्णानि सरांसि तान्येव एकैक पड्क्त्या व्यवस्थितानि सरः पड्क्तयः येषु सरस्सु पड्क्त्या व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया सञ्चरति सा सरः सरः पड्क्तिः , अप्रतीता भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः, अल्पबहुत्वं सूत्रप्रामाण्यात् तथेति प्रतिपत्तव्यं, युक्तेविषयत्वात्, शेषं सूत्रं,सर्वमपि पाठसिद्धं, 'जाव कतिविहे ण भंते ! वयणे पण्णत्ते' इति। तत्रैकवचनं पुरुष इति, द्विवचनं पुरुषाविति, बहुवचन पुरुषा इति, स्त्रीवचनमिय स्त्री, पुरुषवचनमयं पुमान्, नपुंसकवचनमिदं कुण्डम्, अध्यात्मवचनं यदन्यच्चेतसि निधाय विप्रतारकबुद्ध्याऽन्यद् विभणिषुरपि सहसा यचेतसि तदेव ब्रूते / उपनीतवचनंप्रशंसावचनं यथा रूपवतीय स्त्री, अपनीतवचनंनिन्दावचनं यथेयं कुरूपा स्त्री, उपनीतापनीतवचनयत्प्रशस्य निन्दति, यथा रूपवतीयं स्त्री परं दुःशीला, अपनीतोपनीतवचनंयन्निन्दित्वा प्रशंसति यथेयं कुरूया परं सुशीलेति, अतीतवचनमकरोदित्यादि, प्रत्युत्पन्नवचनंवर्तमानकालवचनं करोतीत्यादि, अनागतकालवचनंकरिष्यतीत्यादि, प्रत्यक्षवचनम्- अयमित्यादि, परोक्षवचन- स इत्यादि / एतानि च षोडशापि वचनानि यथावस्थितवस्तुविषयाणि, न काल्पनिकानि ततो यदैतानि सम्यगुपयुज्य वदति तदा सा भाषा प्रज्ञापनी द्रष्टव्या। तथा चाऽऽह- 'इच्चेयं भंते ! एगवयण दुवयणं' इत्यादि भावितार्थम्, अक्षरार्थः प्रतीत एव। सम्प्रति प्रागुक्तमेव सूत्रं सूत्रान्तरसम्बन्धनार्थ भूयः पठतिकति णं भंते ! भासजाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि भासजाया पण्णत्ता / तं जहा-सच्चमेगं भासज्जायं बितियं मोसं भासज्जातं तइयं सच्चामोसं भासज्जातं चउत्थं असच्चामोसं भासज्जातं, इच्चेइयाई भंते ! चत्तारि भासजायाइ भासमाणे किं आराहते विराहते ? गोयमा ! इच्चेइयाइं चत्तारि भासजायाई आउत्तं भासमाणे आराहते, नो विराहते, तेण परं असंजतअविरयअपडिहतअपच्चक्खायपावकम्मे सच्चं भासं भासंतो मोसं वा सच्चामोसं वा असच्चामोसं वा भासं भासमाणे नो आराहते, विराहते। (सूत्रम्-१७४)। 'कइ णं भंते ! भासजाया पण्णत्ता' इत्यादि सुगम, नवरं 'आउत्तं भासमाणे' इति सम्यक् प्रवचनमालिन्याऽऽदिरक्षणपरतया भाषमाणः / तथाहि-प्रवचनोडाहरक्षणाऽऽदिनिमित्तं गुरुलाघवपर्यालोचनेन मृषाऽपि भाषमाणः साधुराराधक एवेति / तेण परं' इत्यादि, तत आयुक्तं भाषमाणात्परोऽसंयतो-मनोवाक्कायसंयमविकलोऽविरतो विरमति स्म विरतो न विरतोऽविरतः सायद्यव्यापारादनिवृत्तमना इत्यर्थः, अत एव न प्रतिहतंमिथ्यादुष्कृतदानप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिनान नाशितमतीतं तथा न प्रत्याख्यातं भूयोऽकरणतया निषिद्धमनागतं पापकम येनासायप्रतिहताप्रत्याख्यातपापकर्मा, शेष पाठसिद्धम्। प्रज्ञा० 11 पद। गओ वा ठिओ वा केणइ पुट्ठो निउणं महुरं थोवं कावडियं अगब्वियमतुच्छं निहोस सयलजणमणाणंदकारयं इहपरलो--- गसुहावहं वयणं ण भासेज्जा, अवंदे जइ णं नाभिग्गहिओ सोलसदोसविरहियं पि स सावज्जं भासेज्जा,उवट्ठावणं बहु भासे उवट्ठावणं कसाए हिंसिज्जा, अवंदे कसाएहिं समुइत्तेहिं मुंजे रयणिं वा परिवसेज्जा मासं० जाव मुणव्वए, अवंदे य उवट्ठावणं च परस्स वा कस्सइ कसाएसु मुइरेज्जा, अकसायस्स वा कसायबुद्धिं करेज्जा, मम्मं वा किंचि वालेज्जा, एतेसु गच्छबज्झो फरुसं भासे दुवालसं कक्कसं भासे दुवालसं खरफरुसकक्कसनिठुरमणितुरं भासे उवट्ठावणं दुव्योलं देइ खामणं कलिकिंचं कलह झंझडमरं वा करेज्जा गच्छबज्झो, मगारं जगारं वा वोले खमणं वीयवाराए अवंदे वहंते संधबज्झो, हणंतो संघबज्झो / एवं खणंतो भंजंतो हसंतो लहितो जलिंतो जालायंतो पयंतो पेयावतो, एतेसु सव्वेसु पत्तेगं संघबज्झो / महा०१ चूल। (15) शिष्यस्य वाग्विनयमाहमुसं परिहरे भिक्खू, न य ओहारिणिं वए। भासादोसं परिहरे, मायं च वज्जए सया // 24 // मृषेत्यसत्यं भूतनिहवाऽऽदिपरिहरेत् सर्वप्रकारमपित्यजेत्, भिक्षुर्न च नैव, अवधारणीं गम्यमानत्वाद्वाचं गमिष्याम एव वक्ष्याम एवेत्येवमादि अवधारणाऽऽत्मिकां वदेदाषेत, किंबहुना? भाषादोषमशेषमपि वाग्दूषणं सावधानुमोदनाऽऽदिकं परिहरेत, न च कारणोच्छेदं विनाकार्योच्छेद इत्याह-माया, चशब्दात् क्रोधाऽऽदींश्च तद्धेतून वर्जयेत् सदा सर्वकालम्, इति सूत्रार्थः // 24 // किञ्चन लविज पुट्ठो सावजं, न निरटुं न मम्मयं / अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्संतरेण वा / / 25 / / नलपेन वदेत्, पृष्ठ इति पर्यनुयुक्तः, सावा सपापं, न निरर्थम् अर्थविरहितं दशदाडिमाऽऽदि, एष बन्ध्यासुतो यातीत्यादि वा. न नैव, म्रियते अनेन राजाऽऽदिविरुद्धेनोचारिते नेति मर्मतद्गच्छति वाचकतयेति मर्मग, वचनमिति सर्वत्र शेषः / अतिसंक्लेशोत्पादकत्वात्तस्याः। अत्राऽऽह च (दश०७अ०) "तहेव काणं काण त्ति, पंडगं पंडग त्ति वा। वाहिय वावि रोगि त्ति, तेणं चोरो त्ति नो वए / / 12 / / एएणऽन्नेण अट्ठणं, परो जेणुवहम्मई। आयारभावदोसण्णू, न तं भासेज पण्णवं // 13 // " Page #1552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1544 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा आत्मार्थमात्मप्रयोजनं, परार्थं वा परप्रयोजनम् (उभयस्स राि) आत्मनः परस्य च, प्रयोजनमिति गम्यते / (अंतरेण व त्ति) विना वा / प्रयोजनमित्युपस्कारः, भाषादोष परिहरेदित्यनेनैव गते पृष्टविषयत्वादस्याः पौनरुक्त्य, यद्वा-भाषादोषो जकारमकाराऽऽदिरेवतत्र गृह्यते इति न दोषः, सूत्रद्वयेन चानेन वाग्गुप्त्यभिधानतश्चारित्रविनय उक्त इति सूत्रार्थः / उत्त० पाई०१ अ०॥ (अन्यैर्भाषमाणोऽपि न कटुका भाषां वदेदिति 'धम्म' शब्द चतुर्थभागे 2704 पृष्ठे गतम्) चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं / दुहं तु विणयं सिक्खे, दो न भासिज्ज सव्वसो॥१॥ चतसृणां खलु भाषाणां, खलुशब्दोऽवधारणे, चतसृणामेव, नातोऽन्या भाषा विद्यत इति, भाषाणां सत्याऽऽदीनां परिसंख्याय सर्वः प्रकारैः ज्ञात्वा, स्वरूपमिति वाक्यशेषः / प्रज्ञावान् प्राज्ञो बुद्धिमान साधुः, किमित्याह- द्वाभ्यां सत्याऽसत्यामृषाभ्यां, तुरवधारणे, द्वाभ्यामे - वाभ्या, विनयं शुद्धप्रयोग, विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा, शिक्षेत् जानीयात्, द्वे असत्यासत्यामृषेन भाषेत, सर्वशः सर्वैः प्रकारैरिति सूत्रार्थः / / 1 / / विनयमेवाऽऽहजाय सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा य जा मुसा। जा य बुद्धेहिँ णाइन्ना, न तं भासेज पन्नवं / / 2 / / या च सत्या पदार्थतत्त्वमङ्गीकृत्य अवक्तव्या अनुच्चारणीवा सावद्यत्वेन, अमुत्र स्थिता पल्लीति कौशिकभाषावत्, सत्यामृषा वा यथा-दश दारका जाता इत्येवलक्षणा, मृषा च संपूर्णव, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, याच बुद्धस्तीर्थकरगणधरैरनाचरिता असत्यामृषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिलक्षणा अविधिपूर्वकं स्वराऽऽदिना प्रकारेण, नैना भाषेत नेत्थंभूतां वाचमुदाहरेत्, प्रज्ञावान् बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः / / 2 / / यथाभूता अवाच्या भाषा तथा भूतोक्ता। साम्प्रतं यथाभूता वाच्या तथाभूतामाहअसचमोसं सच्चं च, अणवज्जमकक्कसं। समुप्पेहमसंदिद्धं, गिरं भासिज्ज पन्नवं // 3 // असत्यामृषाम् उक्तलक्षणां, सत्यां चोक्तलक्षणामेव, इयं च सावद्याऽपि कर्कशाऽपि भवत्यत आह- असावद्यामपापाम्, अकर्कशामतिशयोक्त्या ह्यमत्सरपूर्वा संप्रेक्ष्य स्वपरोपकारिणीति बुद्धयाऽऽलोच्य असंदिरद्धां स्पृष्टामक्षेपेण प्रतिपत्तिहेतु गिरं वाचं भाषेत्ब्रूयात्, प्रज्ञावान बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः // 3 // साम्प्रतं सत्यासत्यामृषाप्रतिषेधार्थमाहएअंच अट्ठमन्नं वा, जंतु नामेइ सासयं / स भासं सच्चमोसं पि, तं पि धीरो विवजए / / 4 / / 'एअं च त्ति' सूत्रम् / एतं चार्थम् अनन्तरप्रतिषिद्ध सावधकर्कशविषयम् 'अन्य वा' एवंजातीयं, प्राकृतशैल्या 'यस्तु नामयति शाश्वतं' य एव कश्चिदर्थो नामयति-अननुगुणं करोति-शाश्वतमोक्षं तमाश्रित्य 'सः' साधुः पूर्वोक्तभाषाभाषकत्वेनाधिकृतो भाषा 'सत्यामृषामपि' | पूर्वोक्ताम, अपिशब्दात्सत्याऽपि या तथा भूता तामपि धीरो' बुद्धिमान् "विवर्जयेत्' न ब्रूयादिति भावः / आह-सत्यामृषाभाषाया ओघत एव प्रतिषेधात्तथाविधसत्यायाश्च सावद्यत्वेन गतार्थ सूत्रमिति / उच्यतेमोक्षपीडाकर सूक्ष्ममप्यर्थमङ्गीकृत्यान्यतरभाषाभाषणमपि न कर्तव्यमित्यतिशयप्रदर्शनपरमेतददुष्टमेवेति सूत्रार्थः / / 4 / / साम्प्रतं मृषाभाषासंरक्षणार्थमाहवितह पि तहामुत्तिं, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुणं जो मुसं वए?||५|| तम्हा गच्छामो वक्खामो, अमुगं वा णे भविस्सइ। अहं वाणं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सइ॥६॥ एवमाइ उ जा भासा, एस कालम्मि संकिआ। संपयाइअमटे वा, तं पि धीरो विवज्जए|७|| 'वितहं पित्ति' सूत्र, 'वितथम्' अतथ्यं 'तथामूर्त्यपि' कथञ्चितत्स्वरूपमपि वस्तु, अपिशब्दस्यव्यवहितः संबन्धः--एतदुक्तं भवतिपुरुषनेपथ्यस्थितवनिताऽऽद्यप्यङ्गीकृत्य यां गिरं भाषते नरः, इयं स्त्री आगच्छति गायति वेत्यादिरूपा, 'तस्माद्' भाषणादेवभूतात्पूर्वभवासौ वक्ता भाषणाभिसंधिकाले 'स्पृष्टः पापेन' बद्धः कर्मणा, किं पुनर्यो मृषा वक्ति भूतोपघातिनीं वाचं?.स सुतरांबद्धयत इति सूत्रार्थः / / 5 / / तम्ह त्ति सूत्र, यस्माद्वितथं तथा मूर्त्यपि वस्त्वगीकृत्य भाषमाणो बद्ध्यते, तस्मादमिष्याम एयश्व इतोऽन्यत्र, वक्ष्याम एव श्वस्तत्तदोषधनिमित्तमिति, अमुकं वा नः कार्य वसत्यादि भविष्यत्येव, अहं चेदं लोचाऽऽदि करिष्यामि नियमेन, एष वा साधुरस्माकं विश्रामणाऽऽदि करिष्यत्येवेति सूत्रार्थः / / 6 / / एवमाइ त्ति' सूत्रम्, एवमाद्या तुया भाषा आदिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्येवेत्येवमादिपरिग्रहः, एष्यत्काले भविष्यकालविषया, बहुविघ्नत्वात् मुहूर्ताऽऽदीनां 'शङ्किता' किमिदमित्थमेव भविष्यत्युतान्यथेत्यनिश्चितगोचरा, तथा साम्प्रतातीतार्थयोरपिया शङ्किता, साम्प्रतार्थ स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति, अतीतार्थे-- ऽप्येवमेव बलीवर्दतत्स्याद्यनिश्चयें तदाऽत्र गौरस्माभिर्दृष्ट इति / याऽप्येवंभूताभाषा शङ्किता तामपि धीरो विवर्जयेत्, तत्तथाभावनिश्वयाभावेन व्यभिचारतो मृषात्वोपपत्तेः, विघ्नतोऽगमनाऽऽदौ गृहस्थमध्ये लाघवाऽऽदिप्रसङ्गात्, सर्वभव सावसरं वक्तव्यम्, इति सूत्रार्थः / / 7 / / किंचअईअम्मि अ कालम्मि, पच्चुप्पण्णमणागए। भमटुं तु न जाणिज्जा, एवमेअंति नो वए|८|| अईअम्मि अकालम्मि, पच्चुप्पण्णमणागए। जत्थ संका भवे तंतु, एवमेअंतिनो वए||६ अईयम्मि अकालम्मि, पच्चुप्पण्णमणागए। निस्संकिअं भवे जंतु, एवमेअंतु निदिसे ||10|| 'अईयम्मित्ति' सूत्रम्, अतीतेच काले तथा 'प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽनागते च यमर्थतुनजानीयात् सम्यगेवमयमिति,तमड़ीकृत्य एवमेतदितिनबूयादिति सूत्रार्थः / अयमज्ञातभाषणप्रतिषेधः॥८॥ तथा-'अईयम्मित्ति' सूत्रम्, अतीते Page #1553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1545 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते यत्रार्थे शङ्का भवेदिति तमप्यर्थमाश्रित्यैवमेतदिति न ब्रूयादिति सूत्रार्थः, अयमपि विशेषतः शङ्कितभाषणप्रतिषेधः // 6 // तथा- 'अईयम्मि त्ति' सूत्रम्, अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते निःशङ्कितं भवेत्, यदर्थजातं तुशब्दादनवा, तदेवमेतदिति निर्दिशेत्। अन्ये पठन्ति- 'स्तोकस्तोकमिति,' तत्र परिमितया वाचा निर्दिशेदिति सूत्रार्थः // 10 // दश०७अ०२ उ०। (परुषवचनविषयकम्-'तहेव फरुसा भासा' (11) इत्यादिसूत्रम्- ‘फरुसवयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1143 पृष्ठे गतम्) (16) अवाच्याभाषामाहतहेव काणं काण त्ति, पंडगं पंडग त्ति वा। वाहिवाविरोगि त्ति, तेणं चोर त्ति नो वए॥१२॥ एएणऽन्नेण अटेणं, परो जेणुवहम्मइ। आयारभावदोसन्न, न तं भासिज्ज पन्नवं / / 13 / / तहेव होले गोलि त्ति, साणे वा वसुलि त्ति अ। दमए दुहए वावि, नेवं भासिज्ज पन्नवं // 14|| अजिए पजिए वावि, अम्मो माउसिअत्ति अ। पिउस्सिए भायणिज त्ति, धूए णत्तुणिअत्ति ||15|| हले हलि त्ति अनि, ति, भट्टे सामिणि गोमिणि। होले गोले वसुलि त्ति, इत्थिनेवमालवे // 16 // नामधिजेण णं बूआ, इत्थीगुत्तेण वा पुणो। जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज्ज वा / / 17 / / अज्जए पज्जए वावि, वप्पो चुल्लपिउत्ति अ। माउलो भाइणिज्ज त्ति, पुत्ते णत्तुणिअत्ति अ॥१८॥ हे भो हलि त्ति अन्नि त्ति, भट्टे सामिअ गोमिअ। होल गोल वसुलि त्ति, पुरिसं नेवमालवे ||16|| नामधि ण णं बूआ, पुरिसगुत्तेण वा पुणो। जहारिहमभिगिज्झ, आलविज्जलविज्ज वा / / 20 / / 'तहेव त्ति' सूत्रं, तथैवेति पूर्ववत्, ‘काणं ति' भिन्नाक्षं काण इति, तथा 'पण्डकं नपुंसकं पण्डक इति वा, व्याधिमन्तं वापि रोगीति, स्तेनं चौर इति नो वदेत, अप्रीतिलजानाशस्थिररोगबुद्धिविराधनाऽऽदिदोषप्रसङ्गादितिगाथासर्थः // 12 // 'एएण त्ति' सूत्रम्, एतेनान्येन वाऽर्थेनोक्तेन सता परोयेनोपहन्यते, येन केनचित्प्रकारेण। आचारभावदोषज्ञो यतिर्न तं भाषते प्रज्ञावांस्तर्थमिति सूत्रार्थः / / 13 / / 'तहेव त्ति' सूत्रं, तथैवेति पूर्ववत्, होलो गोल इति श्वा या वसुल इति वा द्रमको वा दुर्भगश्चापि नैव भाषेत प्रज्ञावान् / इह होलाऽऽदिशब्दास्तत्तद्देशप्रसिद्धितो नैष्ठुर्याऽऽदिवाचका अतस्तत्प्रतिषेध इति सूत्रार्थः॥१४॥ एवं स्त्रीपुरुषयोः सामान्येन भाषणप्रतिषेधं कृत्वाऽधुना स्त्रियमधिकृत्याऽऽह- 'अज्जिए त्ति' सूत्रम्, आर्जिके प्रार्जिके वाऽपि अम्ब, मातृष्वसः इति च, पितृष्वसः, भागिने यीति, दुहितः, नष्त्रीति च / एतान्यामन्त्रणवचनानि वर्तन्ते, तत्र मातुः पितुर्वा माताऽऽर्यिका, तस्या अपियाऽन्या माता सा प्रार्यिका, शेषाभिधानानि प्रकटार्थान्येवेति सूत्रार्थः / / 15 / / किं च-'हले हले त्ति' सूत्रम्, हले हले इत्येवमन्ने इत्येवं तथा भट्ट, स्वामिनि, गोमिनि / तथा होले, गोले, वसुले इति, एतान्यपि नानादेशापेक्षया आमन्त्रणवचनानि गौरवकुत्साऽऽदिगर्भाणि वर्तन्ते, यतश्चैवमतः स्त्रियं नैवं हलाऽऽदिशब्दैरालंपेदिति, दोषाश्चैवमालपनं कुर्वतः सङ्गगतित्प्रद्वेषप्रवचनलाघवाऽऽदय इति सूत्रार्थः 16 / यदि नैवमालपेत्, कथं तालपेदित्याह-'नामधिजेणं ति’ सूत्रं, 'नामधेयेनेति' नाम्नैव एनां ब्रूयात्स्वियं कचित्कारणे यथा देवदत्ते ! इत्येवमादि।नामास्मरणाऽऽदौ गोत्रेण वा पुनर्ब्रयात् स्त्रियं यथा काश्यपगोत्रे ! इत्येवमादि, 'यथार्ह' यथायथं वयोदेशैश्वर्याऽऽद्यपेक्षया 'अभिगृह्य' गुणदोषानालोच्य 'आलपेल्लपेद्वा' ईषत्सकृद्धा लपनमालपनमतोऽन्यथा लपनं,तत्र वयोवृद्धा मध्यदेशे ईश्वराधर्मप्रियाऽन्यत्रोच्यते धर्मशीले इत्यदिना, अन्यथा च यथा न लोकोपघात इति सूत्रार्थः / / 17 / / उक्तः स्त्रियमधिकृत्याऽऽलपनप्रतिषेधो विधिश्च। साम्प्रतं पुरुषमाश्रित्याऽऽह- 'अज्जए त्ति' सूत्रम् / "आर्यकः प्रार्यकञ्चापि, वप्पश्चुल्लपितेति च। तथा मातुल भागिनेयेति पुत्र नप्त इतिच, इह भावार्थः स्त्रियामिव द्रष्टव्यः,नवरं चुल्लवप्पः पितृव्योऽभिधीयत इति सूत्रार्थः // 18 // किं च 'हे भो त्ति' सूत्रं, हे भो हले ति। 'अन्ने त्ति' भर्तः ! स्वामिन् गोमिन् होल गोल वसुल इति पुरुषं नैवमालपेदिति। अत्रापि भावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः / / 16 / यदि नैवमालपेत्, कथं तालपेदित्याह- 'नामधिज्जेण ति' सूत्र, व्याख्या पूर्ववदेव,नवरं पुरुषाभिलापेन योजना कार्येति॥२०॥ पंचिंदिआण पाणाणं, एस इत्थी अयं पुमं। जावणं न विजाणिज्जा, ताव जाइ त्ति आलवे // 21 // तहेव माणुसं पसुं, पक्खि वावि सरीसवं। थूले पमेइले वज्झे, पायमि त्ति अनो वए।।२२।। परिवूढ त्तिणं बूआ, बूआ उवचिअत्ति अ। संजाए पीणिए वावि, महकाय त्ति आलवे // 23|| तहेव गाओ दुज्झाओ, दम्मा गोरहग त्ति अ। वाहिमा रहजोगि त्ति, नेवं भासिज्ज पन्नवं // 24 // जुवं गवि त्तिणं बूआ, धेणुं रसदय त्ति अ। रहस्से महलए वावि, वए संवहाणि त्ति अ॥२५॥ 'उक्तः पुरुषमप्याश्रित्याऽऽलपनप्रतिषेधो विधिश्च / अधुना पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतं वाग्विधिमाह- 'पंचिंदिआण त्ति' सूत्रं, 'पञ्चेन्द्रियाणां' गवादीनां प्राणिनां 'क्वचिद्' विप्रकृष्टदेशावस्थितानामेषा स्त्री गौरयं पुमान् बलीवर्दः, यावदेतद्विशेषेण न विजानीयात् तावन्मार्गप्रश्नाऽऽदौ प्रयोजने उत्पन्ने सति जातिमिति जातिमाश्रित्याऽऽलपेत्, अस्मानोरूपजातात्कियदूरणेत्येवमादि, अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसंभवान्मृषावादाऽऽपत्तिः, गोपालाऽऽदीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषाः, आक्षेपपरिहारौतुवृद्धविवरणादवसेयौ। तच्चेदम्-"जइलिंगवचए Page #1554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा दोसो ता कीस पुढवादि नपुंसगत्ते वि पुरिसिस्थिनिद्देसो पयट्टइ, जहा पत्थरो मट्टिआ करओ उस्सा मुम्मुरो जाला वाओ वाउली अबओ अंबिलिआ किमिओ जलूया मक्कोडओ कीडिआ भमरओ मच्छिआ इच्चेवमादि? आयरिओ आह- जणवयसच्चेण ववहारसच्चेण य एवं पयट्टइत्ति, ण एत्थ दोसो, पंचिंदिएसु पुण ण एयमंगीकीरइ, गोवालाऽऽदीण विण सुद्दिधम्म त्ति विपरिणामसंभवाओ, पुच्छिअसामायारिकहणे वा गुणसंभवादिति" इति सूत्राऽर्थः / / 21 / / किंच- 'तहेव त्ति' सूत्रं, 'तथैव यथोक्तं प्राक् 'मनुष्यम्' आर्याऽऽदिकम् पशुम्' अजाऽऽदिकम् 'पक्षिणं वापि' हंसाऽऽदिकम् 'सरीसृपम् अजगराऽऽदिकं स्थूलः' अत्यन्तमासलोऽयं मनुष्याऽऽदिः, तथा 'प्रमेदुरः' प्रकर्षण मेदः सम्पन्नः, तथा 'बध्यो व्यापादनीय पाक्य इति च नो वदेत्। 'पाक्यः पाकप्रायोग्यः, कालप्राप्त इत्यन्ये, 'नो वदेत्' नब्रूयात्, तदप्रीतितद्व्यापत्त्याशङ्काऽ5दिदोषप्रसङ्गादिति सूत्राऽर्थः ।।२सा कारणे पुनरुत्पन्न एवं वदेदित्याह'परिवूढ त्ति' सूत्रं, परिवृद्धइत्येनंस्थूलं मनुष्याऽऽदिं ब्रूयात्, तथा ब्रूयादुपचित इति च, संयातः प्रीणितश्चापि महाकाय इति चाऽऽलपेत, परिवृद्ध, पलोपचितं परिहरेदित्यादाविति सूत्राऽर्थः / / 23 / / किं च– 'तहेव त्ति' सूत्र,तथैव गावो 'दोह्या' दोहार्हा दोहसमय आसां वर्तत इत्यर्थ, 'दम्या' दमनीयाः, गोरथका इति च, गोरथका:-कल्होडाः, तथा बाह्याः सामान्येन ये क्वचित्तानाश्रित्य रथयोग्याश्चैत इति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, अधिकरणलाघवाऽऽदिदोषादिति // 24 // प्रयोजने तु क्वचिदेव भाषेतेत्याह- 'जुव ति' सूत्रं, युवा गौरितिदम्यो गौर्युवेति ब्रूयात,धेनुगा रसदेति ब्रूयात्, रसदा गौरिति, तथा ह्रस्व महल्लकं वापि गोरथकं हस्वं बाह्य महल्लकं वदेत्, संवहनमिति रथयोग्य संवहनं वदेत्, कृचिद्दिगुपलक्षणाऽऽदौ प्रयोजन इति सूत्रार्थः / / 25 / / तहेव गंतुमुज्जाणं, पव्वयाणि वणाणि अ। रुक्खा महल्ल पेहाए, नेवं भासिज्ज पन्नवं // 26 // अलं पासायखंभाणं, तोरणाण गिहाण अ। फलिहऽगलनावाणं, अलं उदगदोणिणं // 27 // पीढए चंगवेरे (रा) अ, नंगले मइयं सिआ। जंतलट्ठी व नाभी वा, गंडिआ व अलं सिआ।।२८|| आसणं सयणं जाणं, हुज्जा वा किंचुवस्सए। भूओवघाइणिं भासं, नेवं भासिज्ज पन्नवं / / 26 / / तहेव गंतुमुजाणं, पव्ययाणि वणाणि अ। रुक्खा महल पेहाए, एवं भासिज्ज पन्नवं / / 30 / / जाइमंता इमे रुक्खा, दीहवट्टा महालया। पयायसाला विडिमा, वए दरिसणि त्ति अ।३१।। तहा फलाइं पक्काइं, पायखजाइँ नो वए। वेलाइयाई टालाइं, वेहिमाइ त्ति नो वए॥३२॥ असंथडा इमे अंबा, बहुनिव्वडिमाफला। वइज्ज बहुसंभूआ, भूअरूव त्ति वा पुणो // 33 // तहेवोसहिओ पक्काओ, नीलिआओ छवीइ अ। लाइमा भज्जिमाउ त्ति, पिहुखज्ज त्ति नो वए / / 3 / / रूढा बहुसंभूआ, थिरा ओसढा वि अ। गम्भिआओ पसूआओ, संसाराउ त्ति आलवे // 35 / / 'तहेव त्ति' सूत्रं, तथैवेति पूर्ववत्, गत्वा 'उद्यानं' जनक्रीडास्थानं तथा पर्वतान् प्रतीतान गत्वा, तथा वनानि च, तत्र वृक्षान् 'महतो' म्हाप्रमाणान् 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा नैव भाषेत 'प्रज्ञावान्' साधुरितिसूत्रार्थः / / 26 / / किमित्याह'अल ति’ सूत्रम, 'अलं' पर्याप्ता एते वृक्षाः प्रासादस्तम्भयाः, अत्रैकस्तम्भः प्रासादः, स्तम्भस्तु स्तम्भ एव, तयोरलम्, तथा 'तोरणानां' नगरतोरणाऽऽदीनां 'गृहाणां च कुटीरकाऽऽदीनाम्. अलमिति योगः, तथा परिघाऽर्गलानावा वा तत्र नगरद्वारे परिधः, गोपुरकपाटाऽऽदिष्वर्गला, नौः प्रतीतेति, आसामलमेते, वृक्षाः, तथा उदकद्रोणीनाम् अलम, उदकद्रोण्योऽरहट्टजलधारिका इति सूत्रार्थः / / 27 // तथा पीढए त्ति सूत्रं, पीठकायालमेते वृक्षाः, पीठकं प्रतीतं तदर्थम्, 'सुपां सुपो भवन्तीति' चतुर्थ्यर्थ प्रथमा, एवं सर्वत्र योजनीय, तथा 'चङ्गवेरायेति' चङ्गवेराकाष्ठपात्री, तथा 'नंगले त्ति' लागलं-हलं, तथा अलं मयिकाय स्यात्, मयिकम्- उप्तबीजाऽऽच्छादन,तथा यन्त्रयष्टये वा, यन्त्रयष्टिः प्रतीता, तथा नाभये वा, नाभिः शकटरथाङ्गं, गण्डिकायै वाऽलं स्युरेते वृक्षा इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावानिति वर्तते, गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी (अहिंगरणी) स्थापनी भवतीति सूत्रार्थः // 28|| तथा 'आसणं ति' सूत्रम्, 'आसनम्' आसन्दकाऽऽदि 'शयन' पर्याऽऽदि 'यानं' युग्याऽऽदि भवेद्वा किश्चिदुपाश्रयेवसतावन्यद्-द्वारपात्राऽऽद्येतेषु वृक्षेष्विति 'भूतोपघातिनी' सत्त्वपीडाकारिणी भाषां नैव भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः / दोषाश्चात्र तद्वनस्वामी व्यन्तराऽऽदिः कुप्येत्, सलक्षणो वा वृक्ष इत्यभिगृह्णीयात, अनियमितभाषितो लाघवं चेत्येवमादयो योज्याः / / 26 / / अत्रैव विधिमाह-'तहेव त्ति' सूत्र, वस्तुतः पूर्व-वदेव, नवरमेव भाषेत |30|| 'जाइमंत त्ति' सूत्र, जातिमन्त' उत्तमजातयोऽशोकाऽऽदयः अनेकप्रकाराः 'एते' उपलभ्यमानस्वरूपा वृक्षा 'दीर्घवृत्ता' महालयाः दीर्घा नालिकेरीप्रभृतयः वृत्ता नन्दिवृक्षादयः महालया वटादयः प्रजातशाखा उत्पन्नडाला' 'विटपिनः प्रशाखवन्तो वदेदृर्शनीय। इति च / एतदपि प्रयोजन उत्पन्ने विश्रमणतदासन्नमार्गकथनादौ वदेन्नान्यदेति सूत्रार्थः // 31 / / 'तहा फलाणि' ति सूत्र तथा 'फलानि' आम्रफलादीनि पक्कानि' पाकप्राप्तानि तथा, पाकखाद्यानि बद्धास्थीनीति गर्तप्रक्षेपकोद्र-वपलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति नो वदेत् / तथा 'वेलो-चित्तानि' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः, 'टालानि' अबद्धास्थीनि कोमलानीति तदुक्तं भवति, तथा 'द्वैधिकानी' ति पेशीसम्पादनेन द्वै Page #1555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा १५४७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा धीभावकरणयोग्यानीति नो वदेत्। दोषाः पुनरत्रात ऊर्ध्वनाश एवामीषां नशोभनानि वा प्रकारान्तरभोगेनेत्यवधाय गृहिप्रवृत्तावधिकरणादय इति सूत्राऽर्थः // 32 // प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदेदित्याह-'असंथड' ते सूत्रम्, असमर्था ‘एते' आम्राः अतिभारेण न शक्नुवन्ति फलन्ति धारयितुमित्यर्थः, आम्रगहण प्रधानवृक्षोपलक्षणम्, एतेन पक्वार्थ उक्तः, तथा 'बहुनिवर्तितफलाः' बहूनि निर्वर्तितानिबद्धास्थीनि फलानि येषु ले तथा, अनेन पाकखाद्यार्थउक्तः, वदेद् 'बहुसम्भूताः, बहूनि सम्भूतानिपाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन लोविता (द्य) र्थ उक्तः , (दश०टी०) तथा भूतरूपा इति वा पुनर्वदत्, भूतानि रूपाणि-अबद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षित इति सूत्राऽर्थः / / 33 / / (दश० दी०) तहेव' त्ति सूत्र, तथा ओषधयः' शाल्यादिलक्षणाः, पक्वा इति, तथा नीलाश्छवय इति वा वल्लचवलकादि फललक्षणाः तथा 'लवनवत्यो ' लवनयोग्याः 'भर्जनवस्य' इति भर्जनयोग्याः तथा पृथुकभक्ष्या' इति पृथुकभक्षणयोग्याः नो वदेदिति सर्वत्राभिसम्बध्यते, पृथुका अर्धपक्क शाल्यादिषु क्रियन्ते, अभिधानदोषाः पूर्ववदिति सूत्राऽर्थः / / 34 // प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवमालपेदित्याह- 'रूढ' त्ति सूत्रं, 'रूढाः' प्रादुर्भूताः ‘बहुसम्भूता' निष्पन्नप्रायाः 'स्थिरा' निष्पन्नाः 'उत्सृता' इति उपघातेभ्यो निर्गता इति वा, तथा गर्भिता' अनिर्गतशीर्षकाः 'प्रसूता' निर्गतशीर्षकाः संसाराः सञ्जाततन्दुलादिसारा इत्येवमालपेत्,पक्वाद्यर्थयोजना स्वधिया कार्येति सूत्राऽर्थः / / 3 / / वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमान इदमपरमाहतहेव संखहिं नच्चा, किच्चं कज्जंति नो वए। तेणगं वाविवज्झि त्ति, सुतित्थि त्ति अ आवगा / / 36|| संखडिं संखडिं बूआ, पणिअहि त्ति तेणगं / बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं विआगरे।।३७।। 'तहेट' त्ति सूत्र, तथैव 'संखडि ज्ञात्वा' सखण्ड्यन्ते, प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा सखड़ी ता ज्ञात्वा, करणीये' ति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो वेदत्, मिथ्यात्वोपबृंहणदोषात्, तथा स्तेनक वापिबध्य इति नो वदेत् तदनुमतत्वेन निश्चयाऽऽदिदोषप्रसङ्गात्, सुतीर्था इति च, चशब्दाद् दुस्तीर्था इति वा 'आपगा' नद्यः केनचित्पृष्टः सन्नो वदेत्, अधिकरणविघाताऽऽदिदोषप्रसङ्गादिति सूत्राऽर्थः // 36|| प्रयोजने पुनरेव वदेदित्याह- 'संखडि ति' सूत्रम्, सखडिं सस्खडिं ब्रूयात्, साधुकथनाऽऽदी सङ्कीर्णा सङ्खडीत्येवमादि, पणितार्थ इति स्तेनकं वदेत, शैक्षकाऽऽदिकर्मविपाकदर्शनाऽऽदौ, पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थः, प्राणद्यूतप्रयोजन इत्यर्थः, तथा बहुसमानि तीर्थानि आपगाना' नदीनां व्यागृणीयात् साध्वादिविषय इति सूत्राऽर्थः / / 37 / / वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह तहा नईओ पुण्णाओ, कायतिज त्ति नो वए। नावाहिं तारिमाउ त्ति, पाणिपिज्ज त्ति नो वए॥३८|| बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा। बहुवित्थडोदगा आवि, एवं भासिज्ज पन्नवं / / 3 / / तहेव सावज्जं जोगं, परस्सट्ठा अनिट्टि। कीरमाणं ति वा नच्चा, सावज्जं न लवे मुणी / / 4 / / 'तहा नईउ ति' सूत्र, तथा नद्यः ‘पूर्णा भृता इति नो वदेत् प्रवृत्तः श्रवणनिवर्तनाऽऽदिदोषात्, 'तथा कायतरणीयाः' शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत, साधुवचनतोऽविघ्नमिति प्रवर्तनाऽऽदिप्रसङ्गात् तथा नौभिः द्रोणीभिस्तरणीयाः तरणयोग्याइत्येवं नो वदेत्, अन्यथा विघ्नशङ्कया तत्प्रवर्त्तनात्, तथा 'प्राणिपेयाः तटस्थप्राणिपेया नो वदेदिति, तथैव प्रर्वत्तनाऽऽदिदोषादिति सूत्रार्थः / / 384aa प्रयोजनेतु साधुमार्गकथनाऽऽदावेवं भाषेतत्याह-बहु-वाहड त्ति' सूत्र, बहुभृताप्रायशो भृता इत्यर्थः, तथा 'अगाधा इति' बहगाधाः प्रायोगम्भीराः, तथा 'बहुसलिलोत्पीलोदकाः' प्रतिस्रोतोवाहितापरसरित इत्यर्थः, तथा विस्तीर्णोदकाश्च' स्वतीरप्लावनप्रवृत्तजलाश्च, एवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, नतुतदाऽऽगतपृष्टो न वेदम्यहमिति ब्रूयात्, प्रत्यक्षमृषावादित्वेन तत्प्रद्वेषाऽऽदिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः // 3 // वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह-'तहेव त्ति' सूत्र, तथैव 'सावध' सपापं 'योग' व्यापारमधिकरणं सभाऽऽदिविषय 'परस्यार्थाय' परनिमित्त निष्ठित निष्पन्नं तथा 'क्रियमाणं वा वर्तमानं, वाशब्दाद्भविष्यत्कालभाविनं वा ज्ञात्वा 'सावधं नाऽऽलपेत्,' सपापं न ब्रूयात् 'मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः // 40 // तत्र निष्ठितं नैवं ब्रूयादित्याहसुकडि त्ति सुपक्कि त्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे / सुनिट्ठिए सुलहित्ति, सावजं वजए मुणी॥४१।। पयत्तपक्क त्ति व पक्कमालवे, पयत्तछिन्न त्ति व छिन्नमालवे। पयत्तलट्ठित्ति व कम्महेउअं, पहारगाढ त्ति व गाढमालवे // 42 / / 'सुकडि त्ति' सूत्रं, 'सुकृत' मिति सुष्टु कृतं सभाऽऽदि 'सुपच मिति सुष्ठ पकं सहस्रपाकाऽऽदि, 'सुच्छिन्न' मिति सुष्ठ छिन्नं तद्नाऽऽदि' 'सुहृत' मिति सुष्छ हृतं क्षुद्रस्य वित्तं 'सुमृत' इति सुष्टु मृतः प्रत्यनीक इति, अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते, 'सुनिष्ठित' मिति सुष्ठु निष्ठित वित्ताभिमानिनो वित्त 'सुलहि त्ति' सुष्टु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं वर्जयेद् मुनिः, अनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात्, निरवातुन वर्जयेत्. यथा- 'सुकृत' मिति सुष्टु कृतं वैयावृत्यमनेन 'सुपक्व' मिति सुष्टु पक्वं ब्रह्मचर्य साधोः 'सुच्छिन्न' मिति सुष्टु छिन्नं स्नेहबन्धनमनेन, 'सुहृत' मिति सुष्टु हृतं शिक्षकोपकरणमुपसर्गे 'सुमृत' इति सुष्ठमृतः पण्डितमरणेन साधुरिति, अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते, 'सुनिष्ठित' मिति सुष्टु निष्ठितं कर्माप्रमत्तसयतस्य 'सुलट्ठित्ति सुष्टु सुन्दरा साधुक्रियेत्येवमादीतिसूत्रा Page #1556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1548 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा र्थः।। 41 / / उक्तानुक्तापवादविधिमाह- 'पयत्त त्ति सूत्र, 'प्रयत्नपक्च' मिति वा प्रयत्नपक्वमेतत् 'पक्व' सहस्रपाकाऽऽदिग्लानप्रयोजन एवमालपेत्, तथा प्रयत्नच्छिन्न' मिति वा प्रयत्नच्छिन्नमेतत् छिन्न वनाऽऽदि साधुनिवेदनाऽऽदौ एवमालपेत, तथा 'प्रयत्नलष्टे' ति वा प्रयत्नसुन्दरा कन्या दीक्षिता सती सम्यक् पालनीयेति कर्महतुक' मिति सर्वमेव वा कृताऽऽदि कर्मनिमित्तमालपेदिति योगः, तथा 'गाढप्रहार' मिति वा कञ्चन गाढमालपेत् गाढप्रहारं ब्रूयात् क्वचित्प्रयोजने, एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिहता भवन्तीति सूत्रार्थः / / 4 / / (17) कचिद् व्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं ब्रूयादित्याहसव्वुक्कसं परग्धं वा, अउलं नऽत्थि एरिसं। अविकिअमवत्तव्वं, अचिअत्तं चेव नो वए।।४३|| सव्वमेअं वइस्सामि, सव्वमेअंति नो वए। अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ, एवं भासिज्ज पन्नवं / / 44|| सुक्कीअंवा सुविक्कीअं, अकिजं किज्जमेव वा। इमं गिण्ह इमं मुंच, पणीअंनो विआगरे।।४।। अप्पग्धे वा महग्घे वा, कए वा विक्कए वि वा। पणिअढे समुप्पन्ने, अणवज्ज विआगरे // 46 / / 'सव्वुक्कसं तिसूत्रम्, एतन्मध्य इदं 'सर्वोत्कृष्ट' स्वभावेन सुन्दरमित्यर्थः, परार्घ वा उत्तमार्घ वा महाघ क्रीतमिति भावः / अतुलं नास्तीदृशमन्यत्रापि क्वचित, 'अविक्किअंति' असंस्कृतं सुलभमीदृशमन्यत्रापि, 'अवक्तव्य' मित्यनन्तगुणमेतत् अविअत्तं वा- अप्रीतिकरं चैतदिति नो वदेत्, अधिकरणान्तरायाऽऽदिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः / / 43 / / किं च- 'सव्वमेअंति' सूत्र, सर्वमेतद्वक्ष्यामी ति केनचित् कस्यचित् सदिष्ट सर्वमतत्त्वया वक्तव्यमिति सर्वमेतद्वक्ष्यामीति नो वदेत्. सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनाऽऽद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्, तथा सर्वमेतदिति नो वदेत्, कस्यचित्संदेशं प्रयच्छन् सर्वमेत दित्येव वक्तव्य इति नो वदेत्, सर्वस्य तथा स्वरव्यञ्जनाऽऽधुपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात् असंभवाभिधाने मृषावादः, यतश्चैवमतः- 'अनुचिन्त्य' आलोच्य सर्व वाच्य 'सर्वत्र' कार्येषु यथा असंभवाऽऽद्यभिधानाऽऽदिना मृषावादो न भवत्येवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः।।। 44 / / किं च - 'सुक्कीअं व त्ति' सूत्रं, सुक्रीतं वेति किश्चित् केनचित् क्रीतं दर्शितं सत्सुक्रीतमिति न व्यागृणीयात इति योगः, तथा सुविक्रीत' मिति किश्चिक्तेनचिद्विक्रीत दृष्ट्वा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति नव्यागृणीयात, तथा केनचित् क्रीते पृष्टः 'अक्रेय' क्रयाहमेव न भवतीति न व्यागृणीयात, तथैवमेव 'क्रेयमेव वा' क्रयाहमेवेति, तथा 'इदं' गुडाऽऽदि गृहाणाऽऽगामिनि काले महाघ भविष्यति, तथा 'इदं मुञ्चघृताऽऽद्यागामिनि काले समर्घ भविष्यतीतिकृत्वा 'पणितं पण्यं नैव व्यागृणीयात्, अप्रीत्यधिकरणाऽऽदिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः / / 45 / / अत्रैव विधिमाह-अप्पग्घे व त्ति सूत्रम्, अल्पार्प वा महार्ये वा, कस्मिन्नित्याह- क्रये वा विक्रयेऽपि वा 'पणितार्थे 'पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित् पृष्टः सन् 'अनवद्यम्' अपापं व्यागृणीयात् यथा नाधिकारोऽत्र तपस्विनां व्यापाराभावादिति सूत्रार्थः / / 46 / / किंचतहेवासंजय धीरो, आस एहि करेहि वा। सय चिट्ठ वयाहि त्ति, नेवं भासिज्ज पन्नवं // 47 // बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो। न लवे असाहु साहु त्ति, साहुं साहुत्ति आलवे / / 48|| नाणदंसणसंपन्न, संजमे अतवे रयं / एवंगुणसमाउत्तं, संजय साहुमालवे // 46|| 'तहेव त्ति' सूत्रम्, तथैव असंयतं' गृहस्थम् धीर' संयतः आस्वेहैव, एहीतोऽत्र, कुरु वेदसञ्चयाऽऽदि, तथा शेष्व निद्रया, तिष्ठोर्ध्वस्थानेन, व्रज ग्राममिति नैव भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्राऽर्थः / / 47|| किश'बहवे त्ति' सूत्रम्, बहवः एते' उपलभ्यमानस्वरूपा आजीवकाऽऽदयः असाधवः निर्वाणसाधकयोगापेक्षया 'लोके तु' प्राणिसधाते उच्यन्ते साधवः सामान्येन, तत्र नाऽऽलपेदसाधु साधु, मृषावादप्रसङ्गान्, अपि तु साधु साधुमित्यालपेत् न तु तमपि नाऽऽलपेत. उपबृहणातिचारदोषप्रसङ्गादिति सूत्राऽर्थः॥४८॥ किंविशिष्ट साधु साधुमित्यालपदित्यत आह- 'नाण त्ति सूत्रम, ज्ञानदर्शनसंपन्नं-समृद्ध संयमे तपसि च रत यथाशक्ति एवं-गुणसमायुक्त संयतं साधुमालपेत्, न तु द्रव्यलिङ्गधारिणमपीति सूत्रार्थः // 46 किञ्चदेवाणं मणुआणं च, तिरिआणं च बुग्गहे। अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउत्ति नो वए।।५।। वाओ वुटुं च सीउण्हं, खेमं धायं सिवं ति वा। कया णु हुन्ज एआणि,मा वा होउत्ति नो वए।॥५१।। तहेव मेहं व नहं व माणवं, न देवदेव त्ति गिरं वण्ज्जा। समुच्छिए उन्नए वापओए, वइज वा वुट्ठवलाहयति / / 5 / / अंतलिक्ख त्ति णंबूआ, गुज्झाणुचरिअ त्ति अ। रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतं ति आलवे / / 53 / / तहेव सावजऽणुमोअणी गिरा ओहारिणी जाय परोवघाइणी। से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणोऽवि गिरं वइज्जा / / 54|| 'देवाणं ति' सूत्रम्, 'देवानां देवासुराणां मनुजाना' नरेन्द्राऽऽदीना 'तिरश्वा' महिषाऽऽदीनां च 'विग्र हे' संग्रामे सति 'अमुकानां' देवाऽऽदीनां जयो भवतु मा वा भवत्विति नो वदेत्, अधिकरणतत्स्वाम्यादिद्वेषदोषप्रसङ्गादिति सूत्राऽर्थः / / 50 / / किञ्च- 'वाउ त्ति' सूत्रम्, 'वातो' मलयमारुताऽऽदिः, 'वृष्टं वा ' वर्षणं, शीतोष्णं प्रती Page #1557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा तं'क्षेग' राजविड्वरशून्यं ध्रातं सुभिक्षं. 'शिव' मिति चोपसर्गरहितं कदा नु भवेयुः एतानि, वाताऽऽदीनि, मा वा भवेयुरिति धर्माऽऽद्यभिभूतो नो वदेत्। अधिकरणाऽऽदिदोषप्रसङ्गात्, वाताऽऽदिषु सत्सु सत्त्वपीडाऽऽपत्तेः तद्वचनतरतेथाभवनेऽप्यार्त्तध्यानभावादिति सूत्राऽर्थः / / 51 / / 'तहेव त्ति' सूत्र, तथैव मेघवा नभो वा मानवं वाऽऽश्रित्य नो 'देवदेव त्ति' गिरं वदत, मेघमुन्नतं दृष्ट्वा उन्नतो देव इति नो वदेत्, एवं 'नभ' आकाशं / 'मानव' राजानं वा देवमिति नो वदेत्, मिथ्यावादलाघवाऽऽदिप्रसङ्गात् / कथाहि वदेदिल्याह-उन्नतं दृष्ट्वा संमूर्छित उन्नतो वा पयोद इति, वदेवा वृष्टो बलाहक इति सूत्रार्थः / / 5 / / नभ आश्रित्याऽऽह- 'अंतलिक्ख त्ति' सूत्रम्, इह नभोऽन्तरिक्षमिति ब्रूयाङ्गुह्यानुचरितमिति वा, सुरसेवितमि-त्यर्थः, एवं किल मेघोऽप्येतदुभयशब्दवाच्य एव / तथा'ऋग्लि-गन्तं' संपदुपेतं नरं दृष्ट्वा, किमित्याह- "रिद्धिमत' मिति / ऋद्धिमानयमित्येवमालपेत्, व्यवहारतो मृषावादाऽऽदिपरिहारार्थमिति सूत्रार्थः / / 53 / / किंच- 'तहेव त्ति' सूत्रं, तथैव सावधानुमोदिनी 'गी:' वाग यथा सुष्टु हतो ग्राम इति, तथा 'अवधारिणी' इदमित्थ-मेवेति, संशयकारिणी वा, या च परोपघातिनी यथा- मांसमदोषाय 'से' इति तामेवंभूता क्रोधाल्लोभायाद्धासाद्वा, मानप्रेमाऽऽदीनामुपलक्षणमेतत्, 'मानवः पुमान् साधुन हसन्नपि गिरं वदेत्, प्रभूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति सूत्रार्थः / / 54 // (18) वाक्यशुद्धिफलमाहसवक्कसुद्धिं समुपेहिआ मुणी, गिरं च दुटुं परिवञ्जए सया। मिअं अदु? (ह) अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं / / 55!! भासाइ दोसे अ गुणे अजाणिआ, तीसे अदुट्टे परिजए सया। छसु संजए सामणिए सया जाए, वइन बुद्धे हिअमाणुलोमिअं॥५६।। परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चउकसायावगए अणिस्सिए। से निधुणे धुन्नमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं / / 57 / / ति वेमि / 'सवक्क त्ति' सूत्र, सद्वाक्यशुद्धि, स्ववाक्यशुद्धि वा सवाक्यशुद्धि वा, सतीं शोभनां, स्वामात्मीयां, सइति वक्ता, वाक्यशुद्धिं संप्रेक्ष्य' सम्यग् दृष्ट्वा 'मुनिः साधुः गिरं तु 'दुष्टा' यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत् सदा, किं तुमितं' स्वरतः परिमाणतश्च, 'अदुष्ट' देशकालोपपन्नाऽऽदि अनुविचिन्त्य पर्यालोच्य भाषमाणः सन् ‘सता' साधूनां मध्ये 'लभते प्रशंसन' प्राप्नोति प्रशंसामिति सूत्रार्थः // 5|| यतश्चैवमतः- 'भासाइ त्ति' सूत्र, 'भाषाया' उक्तलक्षणाया दोषांश्च गुणांश्च 'ज्ञात्वा' यथा-वदवेत्य तस्याश्च / दुष्टायाः भाषायाः परिवर्जकः सदा. एवंभूतः सन् षड्जीवनिका-येषु संयतः, तथा 'श्रामण्ये' श्रमणभावे चरणपरिणामगर्भे चेष्टिते 'सदा यतः' सर्वकालमुद्युक्तः सन् वदेदबुद्धो 'हितानुलोमं हितं- परिणामसुन्दरम् अनुलोम-मनोहारीति सूत्रार्थः // 56|| उपसंहर-नाह– 'परिक्ख त्ति' सूत्र, 'परीक्ष्यभाषी' आलोचितवक्ता तथा सुसमाहितेन्द्रियः सुप्रणिहितेन्द्रिय इत्यर्थः, 'अपगतचतुष्कषायः क्रोधाऽऽदिनिरोधकर्तेति भावः, 'अनिश्रितो' द्रव्यभावनिश्रारहितः, प्रतिबन्धविमुक्त इति हृदयम् / स इत्थंभूतो 'निर्धूय' प्रस्फोट्य 'धूनमलं' पापमलं 'पुराकृतं' जन्मान्तरकृतं, किमिति?- 'आराधयति' प्रगुणीकरोति लोकम् 'एन' मनुष्यलोकं वाक्संयतत्वेन, तथा 'पर' मिति परलोकमाराधयति निर्वाणलोकं, यथा- संभवमनन्तरं पारम्पर्येण वेति गर्भः / ब्रवीमीति पूर्ववत, नयाः पूर्वरदेव 57) दश०७ अ०२ उता वाक्प्रणिधिमाहअपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्ठिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जए / / 47|| अप्पत्तिअंजेण सिआ, आसु कुप्पिज्ज वा परो। सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहिअगामिणिं // 48|| दिटुं मिअं असंदिद्धं, पडिपुन्नं विअंजिअं। अयंपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं / / 4 / / आयारन्नत्तिधरं, दिट्ठिवायमहिज्जगं। वायविक्खलिऑनचा, न तं उवहसे मुणी / / 50 / / 'अपुच्छिओ त्ति' सूत्रम्, अपृष्टो निष्कारणं न भाषेत, भाषमाणस्य चान्तरेण न भाषेत, नेदमित्थं किंतर्खेवमिति, तथा पृष्ठिमांसं' परोक्षदोषकीर्तनरूपं'न खादेत् ''नभाषेत्,' मायामृषां मायाप्रधाना मृषावाचं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः / / 47 // किंच- 'अप्पत्ति' तिसूत्रम्, अप्रीतिर्येन स्यादिति प्राकृतशैल्या ये नेति- यया भाषया भाषितया अप्रीतिरित्यप्रीतिमात्रं भवेत् तथा आशु' शीघ्र कुप्येद्वा परो' रोषकार्य दर्शयेत, 'सर्वशः' सर्वावस्थासु ताम् इत्थंभूतं न भाषेत भाषाम् 'अहितगामिनीम्' उभयलोकविरुद्धामिति सूत्रार्थः / / 48 / / भाषणोपायमाह- 'दिलु ति,' सूत्रं, "दिट्ठ ति,' सूत्र, 'दृष्टा' दृष्टार्थविषयां 'मितां' स्वरुपप्रयोजनाभ्याम् 'असंदिग्धाम्' निः शङ्किता प्रतिपूर्णा' स्वराऽsदिभिः 'व्यक्ताम् अलल्ला 'जिता' परिचिताम् 'अजल्पनशीला' नोचैर्लग्नविलग्नाम् 'अनुद्विग्रा' नोद्वेगकारीणीमवंभूतां भाषां निसृजेद्' ब्रूयाद् आत्मवान् सचेतन इति सूत्रार्थः // 46|| प्रस्तुतोपदेशाधिकार एवेदमाह-- 'आयार त्ति' सूत्रम्, आचारप्रज्ञप्तिधरमित्याचारधरः स्त्रीलिङ्गाऽऽदीनि जानाति प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवंभूतम् / तथा दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपाऽऽगमवर्णविकारकालकारकाऽऽदिवीदेनं 'वागविस्खलितं ज्ञात्वा' विविधम्- अनेकैः प्रकारैर्लिङ्ग भेदाऽऽदिभिः स्खलित विज्ञायन 'तम्' आचाराऽऽदिधरमुपहसेन्मुनिः, अहोनु खल्वा Page #1558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1550 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा चाराऽऽदिधरहा वावि कौशलमित्येवम् इह च दृष्टिवादमधीवानमित्युक्त- // 4 // से वेमिजे अतीता जे य पडुप्पण्णा जे अणा-गता अरहंता मत इदं गम्यते-नाधीतदृष्टिवाद, तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतः स्खलना- भगवंतो सव्वे ते एयाणि चेव चत्तारि भासज्जायाई भासितु वा, ऽसंभवाद, यचैवंभूतस्यापि स्खलितं संभवति न चैनमुण्हसेदित्युपदेशः, भासंति वा, भासिस्संति वा, पण्णविंसु वा, पण्णविंति वा, ततोऽन्यस्य सुतरां संभवति, नासौ हसितव्य इति सूत्रार्थः / / 5 / / पण्णविस्संतिवा, सव्वाई चणं एयाणि अचित्ताणि वण्णमंताणि किंच गंधमंताणि रसमंताणि फासमंताणि चओवचइयाई विप्परिणानक्खत्तं सुमिणं जोग, निमित्तं मंतभेसजं। मधम्माई भवंतीति समक्खायाई। (सूत्रम्-१३२) गिहिणो तं न आइक्खे, भूआहिगरणं पयं // 51 / / स भावभिक्षुरि मानित्यन्तःकरणनिष्पन्नान्, इदमः प्रत्यक्षाऽऽ'नक्खत्तं त्ति' सूत्र, गृहिणा पृष्टः सन्नक्षत्रम्- अश्विन्यादि 'स्पप्नं ' सन्नवाचित्वात् समनन्तरं वक्ष्यमाणान् वाचि आचारा वागाचाराः। शुभाशुभफलमनुभूताऽऽदि 'योग' वशीकरणाऽऽदि निमित्तम्' अतीता वाग्व्यापारास्तान् श्रुत्वा, तथा निशम्य ज्ञात्वा भाषासमित्या भाषां भाषेतोत्तरेण संबन्ध इति / तत्र यादृग्भूता भाषा न भाषितव्येति ऽऽदि मन्त्र' वृश्चिकमन्त्राऽऽदि भेषजम्' अतीसाराऽऽद्यौषधं 'गृहिणाम्' असंयताना तद् नाऽऽचक्षीत, किंविशिष्टमित्याह-भूताधिकरणं पदमिति तत्तावद्दर्शयति- इमान्वक्ष्यमाणान् अनाचारान् साधूनामभाषण-योग्यान पूर्वसाधुभिरनाचीर्णपूर्वान साधुजर्जानीयात्। तद्यथा-ये केचन क्रोधाद्वा भूतानि- एकेन्द्रियाऽऽदीनि संघट्टनाऽऽदिनाऽधिक्रियन्तेऽस्मिन्निति, वाचं वियुजन्ति विविधं व्यापारयन्ति भाषन्ते यथा चौरस्त्वं दासस्त्वततश्च तदप्रीतिपरिहारार्थमित्थं ब्रूयाद्-अनधिकारोऽत्रतपस्विनामिति मित्यादि, तथा मानेन भाषन्ते यथोत्तमजातिरह हीनस्त्वमित्यादि, तथा सूत्रार्थः / / 51 / / दश०८ अ०२ उ०| मायया यथा ग्लानोऽहमपरसंदेशक वा सावद्यकं के नचिदुपायेन (16) भाषावक्तव्यता कथयित्वा मिथ्यादुष्कृतं करोति, सहसा ममैतदायातमिति, तथा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा इमाइं वयावाराइं सोचा णिसम्म लोभेनाहमनेनोक्तेनातः किञ्चिल्लप्स्य इति, तथा कस्यचिद्दोष जानानाइमाइं अणायाराई अणायरियपुव्वाइं जाणेज्जा जे कोहा वा स्तहोषोदघटनेन पुरुष वदन्त्यजानाना, वा; सर्व चैतत्क्रोधाऽऽदिवचन वायं विगंजंति जे माणा वाजे मायाए वा० जे लोभा वा वायं सहावद्येन पापेन गोण वा वर्तते इति सावधं तद्वर्जयेद्विवेकमादायविउंजंति जाणओ वा फरुसं वयंति अजाणओ वा फरुसं वयंति विवेकिनाभूत्वा सावा वचनं वर्जनीयमित्यर्थः / तथा केनचित्सार्द्ध सव्वमेतं सावजं वज्जेज्जा विवेगमायाए, धुवं चेदं जाणेज्जा साधुना जल्पता नैव सावधारण वो वक्तव्यं यथा- ध्रुवमेतनिश्चित अधुवं चेदं जाणिज्जा असण्णं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंदा वृष्टयादिक भविष्यतीत्येवं जानीयादध्रुवं वा जानीयादिति / तथा लभिय णो लभिय मुंजिय णो भुंजिय अदुवा आगतो अदुवा णो कथञ्चित्साधु भिक्षार्थ प्रविष्ट ज्ञातिकुलं वा गतं चिरयन्तमुद्दिश्यापरे आगतो अदुवा एति अदुवा णो एति अदुवा एहिति अदुवा णो साधव एवं बुवीरन्, यथा- भुञ्जमहे वयं स तत्राऽऽसनाऽऽदिकं लब्धैव एहिति इत्थ वि आगते इत्थ विणो आगते इत्थ वि एति इत्थ वि समा-गमिष्यति,यदि वाघ्रियते तदर्थ किञ्चिन्नैवासौ तस्मालब्धलाभः णो एति इत्थ वि एहिति इत्थ वि णो एहिति / / अणुवीइ समागमिष्यति, एवं तत्रैव भुक्त्वा अभुक्त्वा वा समागमिष्यतीति णिट्ठाभासी समियाए संजयए मासं भासेज्जा / तं जहा- एग सावधारणं न वक्तव्यम्, अथ चैवंभूतां सावधारणां वाचं न ब्रूयात, यथावयणं 1, दुवयणं 2, बहुवयणं 3, इत्थिवयणं 4, पुरिसवयणं आगतः कश्चिद्राजाऽऽदिर्नो वा समागतः, तथा आगच्छति न वा समा५, णपुंसगवयणं 6, अज्झत्थवयणं 7, उवणीतवयणं 8, गच्छति, एवं समागमिष्यति न वेति। एवमत्र पत्तनमठाऽऽदावपि भूताऽऽअवणीयवयणं , उवणीयअवणीयवयणं 10, अवणीयउव- दिकालत्रयं योज्यं, यमर्थ सभ्यन्न जानीयात् तदेवमेवैतदिति न ब्रूयादिति णीयवयणं 11, तीयवयणं 12, पड़प्पण्णवयणं 13, अणा- भावार्थः / सामान्येन सर्वत्रगः साधो-रयमुपदेशो, यथा- अनुविचिन्त्य गतवयणं 14, पचक्खवयणं 15, परोक्खवयणं 16, से एगवयणं विचार्थ सम्यनिश्वित्यातिशयेन श्रुतोपदेशेन वा प्रयोजने सति निष्ठाभाषी वदिस्सामीति एगवयणं वएजाजाव परोक्खवयणं वइस्सामीति सावधारणभाषी सन् समित्या भाषासमित्या समतया वा रागद्वेषाकरणपरोक्खवयणं वदेजा, इत्थी वेस पुरिसो वेस णपुंसगं वेस एवं लक्षणया षोडश-वचनविधिज्ञो भाषा भाषेत / यादृगभूता च भाषा वा चेयं अण्णं वा चेयं अणुवीइ निट्ठाभासी समियाए संजए भासं भाषितव्या तां षोडशवचनविधिगतां दर्शयति तद्यथेत्ययमुप-प्रदर्शनार्थः, भासेजा, इचेयाइं आयतणाई उवातिकम्म / / अह भिक्खू एक वचनम्- वृक्षः, द्विवचनम्- वृक्षौ, बहुवचनम्- वृक्षा इति, स्त्रीवचजाणेजा चत्तारि भासज्जायाई / तं जहा-- सच-मेगं पढमं नम् वीणा कन्या इत्यादि, पुवचनम्-घटः पटइत्यादि, नपुसक्वचनम्-पीठ भासजायं 1, वीयं मोसं 2, तइयं सच्चामोसं 3, जेणेव सचं देवकुलमित्यादि, अध्यात्मवचनम् आत्मन्यधिअध्यात्महृदयगतंततारिहारेव मोसंणेव सच्चामोसं असच्चामोसंणाम तं चउत्थं भासज्जति / णान्यद्भणिष्यतस्तदेवसहसा पतितम्। उपनीतवचनं प्रशंसावचनं यथा-रू Page #1559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1551 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा पवती स्त्री, तद्विपर्ययणापनीतवचनम्-यथेय रूपहीने ति, उपनीतापनीतवचनम्-कश्चिद् गुणः प्रशस्यः कश्विन्निन्द्यो, यथा रुपवतीय स्त्री कि स्वसवृत्तेति अपनीतोपनीतवचनम्-अरूपवती स्त्री किं तु सद्वृत्तेति, अतीतवचनम्- कृतवान्, वर्तमानवचनम्- करोति, अनागतवचनम्करिष्यति, प्रत्यक्षवचनम्- एष देवदत्तः, परोक्षवचनम्- स देवदत्तः / इत्येतानि षोडश वचनानि अमीषा स भिक्षुरेकार्थविवक्षायामेकवचनमेव याद् यावत्परोक्षवचनविवक्षायां परोक्षवचनमेव ब्रूयात्, इति / तथा स्त्र्यादिके दृष्ट सति स्त्र्येवैषा पुरुषो वा नपुसकं वा, एवमेवैतदन्यद्वैतत, एवम् अनुविचिन्त्य निश्चित्य निष्ठाभाषी सन् समित्या समतया संयत एव भाषा भाषेत, तथा इत्येतानि पूर्वोक्तानि भाषागतानि वक्ष्यमाणानि वा आयतनानि दोषस्थानान्युपातिक्रम्यातिलड्घ्य भाषा भाषेत / अथ स भिक्षुर्जानीयाच्चत्वारि भाषाजातानिचतस्रो भाषाः। तद्यथा-सत्यमेकं प्रथमं भाषाजातं यथार्थम्-अवितथम्।तद्यथा-गौगरिवाश्वोऽश्व एवेति 1 एतद्विपरीता तु मृषा द्वितीया, यथा-गौरश्वोऽश्वोगौरिति शतृतीया भाषा सत्यामृषेति, यत्र किञ्चित्सत्यं किश्चिन्मृषेति, यथा-अश्वेन यान्तं देवदत्तमुष्ट्रेण यातीत्यभिदधाति 3 / चतुर्थी तु भाषा योच्यमानान सत्या, नापि मृषा, नापि सत्यामृषा आमन्त्रणाऽऽज्ञापनाऽऽदिका साऽत्राऽसत्यामृषति 4 / स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह- (से वेमी ति) सोऽहं यदेतद् ब्रवीमि तत्सर्वैरेव तीर्थकृ द्भिरतीतानागतवर्तमानैर्भाषितं भाष्यते भाविष्यते च / अपि चैतानि सर्वाण्यप्येतानि भाषाद्रव्याण्यचित्तानि च वर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति चयोपचयिकानि विविधपरिणामधर्माणि भवन्तीति, एवमाख्यातं तीर्थकृद्भिरिति / अत्र च वर्णाऽऽदिमत्त्वाऽऽविष्करणेन शब्दस्य मूर्त्तत्त्वमावेदितं, न ह्यमूर्तस्याऽऽकाशाऽऽदेवर्णाऽऽदयः संभवन्ति, तथा चयोपचयधर्माणीत्यनेन तु शब्दस्यानित्यत्वमाविष्कृतं, विचित्रपरिणामत्वाच्छब्दद्रव्याणामिति। (20) साम्प्रतं शब्दस्य कृतकत्वाऽऽविष्करणायाऽऽहजे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जापुटिव भासा अभासा भासिज्जमाणी भासा भासा भासासमयवितिकता चणं भासिया भासा अभासा॥ स भिक्षुरेवंभूतं शब्द जानीयात्, तद्यथा- भाषाद्रव्यवर्गणानां वाग-1 योगनिस्सरणात् पूर्व प्रागभाषा भाष्यमाणैव' वागयोगेन निसृज्यमानैव भाषा, भाषाद्रव्याणि भाषा भवति; तदनेन ताल्वोष्ठाऽऽदिव्यापारेण प्रागसतः शब्दस्य निष्पादनात्स्फुटमेव कृतकत्वमावेदितं, मुत्पिण्डे दण्डचक्राऽऽदिनेव घटस्येति, सा वोचरितप्रध्वंसित्वाच्दानां भाषणोत्तरकालमप्यभाषेव, यथा कपालावस्थायां घटोऽधट इति, तदनेन प्रागभावप्रध्वंसाभावौ शब्दस्याऽऽवेदिताविति // इदानीं चतसृणां भाषाणामभाषणीयामाह-- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा जा य भासा 1, जा य भासा मोसा 2, जा य भासा सच्चामोसा 3, जा य भासा असचामोसा 4, तहप्पगारं भासं सावजं सकिरियं कक्कसं कडुयं निठुरं फरुसं अण्हयकर छेदणकरि भेयणकरिं परितावणकरि उद्दवणकरि भृतोवघाइयं अभिकंख णो भासेज्जा / / स भिक्षुर्या पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा- सत्यां, मृषां, सत्यामृषाम, असत्यामृषाम्। तत्र मृषा सत्यामृषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्याऽपि या कळशाऽदिगुणोपेता सा न वाच्या, तां च दर्शयति- सहावद्येन वर्तत इति सावद्या. तां सत्यामपि न भाषेत, तथा सह क्रियया अनर्थदण्डप्रवृत्तिलक्षणया वर्त्तत इति सक्रिया तामिति, तथा कर्कशां चर्विताक्षरां, तथा कटुकां चित्तोद्वेगकारिणी, तथा निष्ठुरा हक्काप्रधानां परुषां मोद्घाटनपराम् (अलयकरि ति) काऽऽश्रवकरीम्।एवं छेदनभेदनकरीं यावदपद्रावणकरीमित्येवमादिकां भूतोपघातिनी प्राण्युपतापकारिणीमभिकाङ्गय मनसा पर्यालोच्य सत्यामपि न भाषेतेति। भाषणीयां त्वाहजे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा जा य भासा सच्चा सुहुमा, जा य भासा असच्चामोसा, तहप्पगारं भासं असावजं० जाव अभूतोवघाइयं अभिकंख भासं भासेज्जा / / (सूत्रम्- 133) स भिक्षुया पुनरेव जानीयात्, तद्यथा- या च भाषा सत्या सूक्ष्मेति कुशाग्रीयया बुद्धया पर्यालोच्यमाना मृषाऽपि सत्या भवति यथा सत्यपि मृगदर्शन लुब्धकाऽऽदेरपलाप इति ! उक्तञ्च- "अलियं न भासियव्वं, अस्थि हु सद्यं पि जं न वत्तव्यं / सच्चं पि होइ अलियं, जं परपीडाकर वयणं / / 1 / / " या चासत्यामृषा आमन्त्रणी आज्ञापनाऽदिका तां तथाप्रकारां भाषामसावद्यामक्रियां यावद् भूतोपघातिनीं मनसा पूर्वम् अधिकाक्ष्य पर्यालोच्य सर्वदा साधुर्भाषां भाषेतेति // 133 / / किञ्चसे मिक्खू वा भिक्खुणी वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिते वा अपडिसुणेमाणे णो एवं वदेज्जा-होलेति वा गोलेति वा वसुलेति वा कुपक्खेति वा घटदासेति वा साणेति वा तेणेति वा चारिएत्ति वा माईति वा मुसावादीति वा, इयाई तुमंते जणगावा, एतप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं०जाव भूओवधाइ अभिकंख णो भासेज्जा॥ स भिक्षुः पुमांसमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वा अशृण्वन्तं नैवं भाषेत, तद्यथाहोल इति वा गोल इतिवा एतौ च देशान्तरे अवज्ञासमूचकौ, तया वसुलेति वृषलः कुपक्षः कुत्सितान्वयः घटदास इति वा श्वेति वा स्तेन इति वा चारिक इति वा मायीति वा मृषावादीति वा, इत्येतानि अनन्तरोक्तानि त्वमसि तव जनको वा मातापितरावेतानीति, एवं प्रकारां भाषा यावन्न भापेतेति। Page #1560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1552 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा एतद्विपर्ययेण च भाषितव्यमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अप्पडिसुणेमाणे एवं वदेज्जा-अमुगे ति वा आउसो त्ति वा आउसंतारो त्ति वा सावको त्ति वा उपासगे त्ति वा धम्मिए त्ति वा धम्मपिए त्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं० जाव अभिकंख / भासेज्जा // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा इत्थिं आमंतेमाणे आमंतिते य अप्पडिसुणेमाणे णो एवं वदेज्जा- होलीति वा गोलीति वा इत्थीगमेण तव्वं / / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा इतिथं आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिसुणेमाणे एवं वदेज्जाआउसो त्ति वा भइणीति वा भोईति वा भगवतीति वा साविगेति वा उवासिए त्ति वा धम्मिए त्ति वा धम्मप्पिएत्ति वा, एतप्पगारं भासं असावजं० जाव अभिकंख भासेजा।। (सूत्रम्-१३४) स भिक्षुः पुमांसमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वा शृण्वन्तमेवं बूयात् / तद्यथाअमुक इति वा, आयुष्मन्निति वा, आयुष्मन्त इति वा तथा श्रावक धर्मप्रिय इति, एवमादिकां भाषां भाषेतेति / एवं रित्रयमधिकृत्य सूत्रद्वयमपि प्रतिषेधविधिभ्यां नेयमिति // 134 // पुनरप्यभाषणीयामाहसे मिक्खू वा भिक्खुणी वा णो एवं वदेज्जा-- णभोदेवेति वा गञ्जदेवेति वा विज्जुदेवेति वा पवुट्टदेवेति वा निबुट्ठदेवेति वा पडउवावासं मावा पडउ णिप्फजउवा सस्सं मा वा णिप्फजउ विभाउ वा रयणीमा वा विभाउ उदेउ वा सूरिएमा वा उदेउ सो वा राया जयउ वा मा जयउ वा, णो एतप्पगारं भासं भासेज्जा / पण्णवं से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अंतलिक्खेति वा गुज्झाणुचरिए त्ति वा संमुच्छिए वा णिवइए वा पओ वदेज्जावुठ्ठवलाहगेति वा,एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं / / (सूत्रम्--१३५) स भिक्षुरेवभूतामसंयत भाषा न वदेत् / तद्यथा- नभोदेव इति वा, गर्जति देव इति वा तथा विद्युद्देवः प्रवृष्टो देवः, निवृष्टो देवः, एवं पततु वर्षा मा वा निष्पद्यता शस्य मेति वा, विभातु रजनी मेति वा,उदेतु सूर्यो मा वा, जयत्वसौ राजा मा वेति एवंप्रकारां देवादिकां भाषां न भाषेत्। कारणजाते तु प्रज्ञावान् संयतभाषया अन्तरिक्षमित्यादिकाया भाषेत, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति। आचा०२ श्रु०१चू०४ अ०१उ० से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाइं पासेज्जा तहा वि ताई नो एवं वदेज्जा / तं जहा- गंडी गंडीति वा, कुट्ठी कुट्ठीति वा०जाव महुमेहुणि त्ति वा हत्थच्छिण्णं हत्थच्छिण्णेति वा, एवं पादछिण्णेत्ति वा णकछिण्णेत्ति वा कण्णछिण्णेति वा उद्दछिण्णेत्ति वा,जे यावण्णे तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं बुझ्या 2 कुप्पंति माणवा ते यावितहप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंख णो भासेजा। स भिक्षुर्यद्यपि (एगइयाई ति)कानिचित् रूपाणि गण्डीपदकुष्ठ्यादीनि पश्येत्तथाऽप्येतानि स्वनामग्राह तद्विशेषणविशिष्टानि नोच्चारयेदिति। तथेत्युदाहरणोपप्रदर्शनार्थः, गण्डी गण्डमस्यास्तीति गण्डी, यदि वोच्छूनगुलफपादः स गण्डीत्येवं न व्याहर्तव्यः, तथा कुष्ठयपिन कुष्ठी ति व्याहतप्यः, एवमपरव्याधिविशिष्टो न व्याहर्त्तव्यो, यावन् मधुमेहीति मधुवर्णमूत्रानवरतप्रश्रावीति / अत्र च धूनाध्ययने व्याधिविशेषाः प्रतिपादिताः, तदपेक्षया सूत्रे यावदित्युक्तम्, एवं छिन्नहस्तपादनासिकाकर्णाष्ठाऽऽदयस्तथाऽन्ये च तथाप्रकाराः काणकुण्टाऽऽदयस्तद्विशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिरुक्ता उक्ताः कुप्यन्ति मानवास्तांस्तथाप्रकारांस्तथाप्रकाराभिर्वाग्भिरभिकाडक्ष्य नो भाषेतेति / यथा च भाषेत तथाऽऽहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाइं पासेज्जा तहावि ताई एवं वदेज्जा / तं जहा- ओयंसी ओयंसीति वा तेयंसी तेयसीति वा जसंसीजसंसीति वा वच्चंसी वच्चंसीइवा अभिरूयंसि अभिरूयंसि अभिरूयंसीइ वा पडिरूवंसी पडिरूवंसीति वा पासादियं पासादिएइवा दरिसणिजं दरिसणीएति वा, जे यावण्णे तहप्पगारा तहप्पगाराहिं भासाहिं वुझ्या वुझ्या णो कुप्पंति माणवा ते यावितहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंख भासेजा। स भिक्षुर्यद्यपि गण्डीपदाऽऽदिव्याधिग्रस्तं पश्येत्तथाऽपि तस्य यः कश्चिद्विशिष्टो गुण ओजस्तेज इत्यादिकस्तमुद्दिश्यसति कारणे वदेदिति, केशववत् कृष्णश्वशुक्लदन्तगुणोद्धाटनवत् गुणग्राही भवेदित्यर्थः / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा। तं जहा- वप्पाणि वाजाव गिहाणि वा, तहा वि ताई नो एवं वइजा / तं जहा- सुक्कडेइ वा सुठुकडेइ वा साहुकडेइ वा कल्लाणेइ वा करणिज्जेइ वा, एयप्पगारं भासं सावज्जंजाव नो भासिजा / / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा। तं जहा-वप्याणिवा०जाव गिहाणिवा तहा विताइएवं वइजा / तं जहा-आरंभकडे वा सावज्जकडेइ वा पयत्तकडेइ वा पासाइयं पासाइए वादरिसणीयंदरिसणीयं तिवाअभिरूवं अभिरूवं ति वा पडिरूवं पडिरूवं ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जंजाव भासज्जिा।। (सूत्रम्-१३६) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणंवा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडियं पेहाए तहावि तं णो एवं वदेजा। तंजहा सुक्कडेतिवासुठुकडेतिवासाहुकडेति वा कल्लाणेति वा करणिज्जेति वा एयप्पगारं भासं सावजं०जाव णो भासेज्जा / / Page #1561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1553 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा 02 जाव उवक्खडियं पेहाए एवं वदेजा। तं जहा-आरंभकडेति वा सावज कडे ति वा पयत्तक डे ति वा भद्दयं भद्दएति वा ऊ सढं 2 रसियं 2 मणुण्णं 2 एयप्पगारं भासं असावजंजाव भासेज्जा / / (सूत्रम् 137) स भिक्षुर्यद्यप्येतानि रूपाणि पश्येत् / तद्यथा-- वप्राः प्राकारा यावद् गृहाणि, तथाऽप्येतानि नैवं वदेत्। तद्यथा-सुकृतमेतत्सुष्टु कृतमेतत्साधु शोभनं कल्याणम् एतत्, कर्तव्यमेवैतदेवंविधं भवद्विधानामिति, एवंप्रकारामन्यामपि भाषामधिकरणानुमोदनान्नो भाषेतेति / पुनर्भाष यामाह- स भिक्षुर्वप्राऽऽदिकं दृष्ट्वाऽपि तदुद्देशेन न किञ्चिद ब्रूयात्, प्रयोजने सत्येवं संयतभाषया ब्रूयात, तद्यथा-महारम्भकृतमेतत्सावयकृतमेत्तथा प्रयत्नकृतमेतत्, एवं प्रसादनीयदर्शनाऽऽदिका भाषामसावद्या भाषेतेति। एवमशनाऽऽदिगतप्रतिषेधसूत्रद्वयमपि नेयमिति, नवर {रूसद ति) उच्छ्रितं वर्णगन्धाऽऽद्युपेतमिति। पुनरभाषणीयामाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा मिगं वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसिवं वा जलयरं वा से तं परिवूढकायं पेहाए णो एवं वदेजा-थुल्लेति वा, पमेतिलेति वा, वट्टेति वा वज्झेति वा, पादिमेति वा, एयप्पगारंभासं सावज्जंजावणो भासिज्जा। स भिक्षुर्गवादिकं परिवृद्धकार्य पुष्टकाय प्रेक्ष्य नैतद्वदेत् / तद्यथास्थूलोऽयं प्रमेदुरोऽयं, तथा वृत्तस्तथा वध्यो वहनयोग्यों वा, एवं पचनयोग्यः देवताऽऽदेः पातनयोग्यो वेत्येवमादिकामन्यामप्येवंप्रकारां सावद्या भाषा नो भाषेतेति। (21) भाषणविधिमाह-- से भिक्खू वा मिक्खुणी वा मणुस्सं वा०जाव जलयरं वा सेत्तं परिवूढकायं पेहाए एवं वदेज्जा-परिवूढकाए त्ति वा उवचितकाए त्ति वा थिरसंघयणे त्ति वा चियमंससोणिए त्ति वा बहुपडिपुण्णंइंदिए त्ति वा, एयप्पगारं भासं असावजंजाव भासेज्जा। स भिक्षुर्गवादिकं परिवृद्धकार्य प्रेक्ष्यैवं वदेत् / तद्यथा- परिवृद्धकायोऽयमित्यादि सुगममिति। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा विरूवरूवाओ गाओ पेहाए णो एवं वदेज्जा / तं जहा-गाओ दोज्झाओ त्ति वा दम्मे त्ति वा गोरह त्ति वा वाहिम त्ति वा रहजोग्ग त्ति वा एयप्पगारं भासं सावज्जंजाव णो भासेज्जा। स भिक्षुर्विरूपरूपा नानाप्रकारा गाः समीक्ष्य नैतद्वदेत् / तद्यथादाहनयोग्या एता गावः, दोहनकालो वा वर्तते, तथा दम्यो दमनयोग्योऽयं गोरहकः कल्होटकः, एवं वाहनयोग्यो रथयोग्यो वेति, एवं-प्रकारां सावद्या भाषां नो भाषेतेति। (22) सति कारणे भाषणविधिमाह से मिक्खू वा भिक्खुणी वा विरूवरूवाओ गाओ पेहाए एवं वदेजा / तं जहा-जुवंगवे त्ति वा धेणु त्ति वा रसव त्ति वा हस्सेति वा महल्लएति वा महव्वए त्ति वा संवहणे त्ति वा, एयप्पगारं भासं असावजं० जाव अभिकंख भासेजा। स भिक्षुर्मानाप्रकारागाः प्रेक्ष्य प्रयोजने सत्येवं ब्रूयात्। तद्यथा- 'जुवंगवे त्ति।' युवाऽयं गौः धेनुरिति वा रसवतीति वा। ह्रस्वः, महान्, महाव्ययो वा, एवं संवहन इति, एवंप्रकारामसावद्यां भाषा भाषेतेति। किञ्चसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा तहेव गंतुमज्जाणाई पव्वयाई वणाणि वा रुक्खा महल्ले पेहाए णो एवं वदेजा / तं जहापासायजोग्गा ति वा तोरणजोग्गा ति वा गिहजोग्गा ति वा फलिहजोग्गा ति वा अग्गलाजोग्गाइ वा णावाजोग्गाइ वा उदगजोग्गाइ वा दोणजोग्गाइ वा पीढचंगवेरणंगलकुलियजंतलट्ठीणाभिगंडीआसणजोग्गाइ वा सयणजाणउवस्सयजोग्गाइ वा, एयप्पगारं भासं णो भासेज्जा। स भिक्षुरुद्यानाऽऽदिक गत्वा महतो वृक्षान् प्रेक्ष्य नैवं वदेत् / तद्यथाप्रासादाऽऽदियोग्या अमी वृक्षा इति / एवमादिकां सावधां भाषां नो भाषेतेति। यत्तु वदेत्तदाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा तहेव गंतुमुज्जाणाई वा पव्वयाणि वा वणाणि वा रुक्खा महल्ला पेहाए एवं वदेज्जा / तं जहाजातिमंताति वा दीहवट्टाति वा महालयाति वा पयायलासाति वा विडिमसालाइ वा पासाईयाइ वा० जाव पडिरूवाति वा, एयप्पगारं भासं असावज्जंजाव अभिकंख भासेज्जा।। स भिक्षुस्तथैवोद्यानाऽऽदिकंगत्वैवं वदेत्। तद्यथा-जातिमन्तः सुजातय इत्येवमादिका भाषामसावद्यां संयत एव भाषेतेति। किञ्चसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूता वणफला पेहाए तहावि तेणो एवं वदेजा। तं जहा-पक्काति वा पायखजाति वा वेलोचिताति वा टालाति वा वेहियाति वा, एयप्पगारं भासं सावज्जं० जाव णो भासेज्जा। स भिक्षुः बहुसंभूतानि वृक्षफलानि प्रेक्ष्य नैवं वदेत् / तद्यथा एतानि फलानि पक्कानि पाक प्राप्तानि तथा पाक खाद्यानि बद्धास्थीनि गप्रिक्षेपको द्रवपलालाऽऽदिना विपच्य भक्षणयोग्यानीति, तथा वेलोचितानि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं काल न विषहन्तीत्यर्थः / टालान्यनवबद्धास्थीनि कोमलास्थीनीति / यदुक्तं भवति-तथा द्वैधिकानीति पेशीसंपादनेन द्वैधीभावकरण-योग्यानि वेति, एवमादिकां भाषां फलगतां सावद्या नो भाषेत्। यदभिधानीय तदाहसे भिक्खू वा भिक्खु णी वा बहुसं भूया वणफ ला अंबापेहाए एवं वइज्जा / तं जहा-असंथडाइ वा बहुनिवट्टिम Page #1562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासा 1554 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासा फलाइ वा बहुसंभूयाइ वा भूयरुचि त्तिवा, एयप्पगारं भासं नो से मिक्खु वा भिक्खुणी वा वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं भासिज्जा असावज्ज। च अणुवीयि णिवाभासी निसम्मभासी अतुरियभासी विवेगभासी स भिक्षुर्वहुसभूतफलानाम्रान प्रेक्ष्यैवं वदेत् / तद्यथा- असमर्थाः समियाए संजते भासं भासेजा 5 / एयं खलु तस्स भिक्खुस्स अतिभारेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः, एतेन पक्कार्थ उक्तः, भिक्खुणीए वा सामग्गियं / / 140 // तथा बहुनिवर्तितफला बहूनि निर्वर्तितानि फलानि येषु ते तथा, एतेन स भिक्षुः क्रोधाऽऽदिकं वान्त्वैवंभूतो भवेत् / तद्यथा- अनुविचिन्त्य पाकखाद्यार्थ उक्तः, तथा बहुसंभूता बहूनि संभूतानि पाकातिशयतः निष्टाभा, षी निशम्यभाषी अत्वरितभाषी विवेकभाषी भाषासमित्युपेतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन वेलोचितार्थ उक्तः, माषा भाषेत, एतत्तस्य भिक्षोः सामरयम्। आचा०२श्रु०१चू०४अ०२ तथा भूतरूपा इति वा भूतानि रूपाण्यनव-बद्धास्थीनि कोमलफल- उ०। (वचनगुप्तिमाश्रित्य साध्वाचारः ‘अज्जा' शब्दे प्रथम-भागे 121 - रूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालाऽऽद्यर्थ उपलक्षितः, एवंभूता एते 122 पृष्ठे गतः) (अलोकाऽऽद्यवचनभाषणनिषेधः 'अवयण' शब्दे आम्राः,आम्रग्रहणं प्रधानोपलक्षणम्. एवंभूतामनवद्यां भाषा भाषेतेति। प्रथमभागे 765 पृष्ठे गतः) किञ्च अनुयोगस्यकार्थिकान्यधिकृत्य 'अणुयोगो य नियोगो, भास विभासा से भिक्खू या भिक्खुणी वा बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए य वत्तिय चेव।' इति भाषापर्यायशब्दैः स्वरूपकथनम् / आ०म०१ तहाविताओ णो एवं वदेजा। तं जहा-पक्काइ वा नीलीयाति वा अ०iआ०चू० छवीइयाइ वा लाइमाइ वा भज्जिमाइ वा बहुखजाइ वा, (23) सम्प्रति प्रतिश्रुतदृष्टान्तोपेतं भाषाद्वारमाहएयप्पगारं भासं सावजंजाव णो भासेञ्जा। पडिसद्दगस्स सरिसं, जो भासइ अत्थमेगु सुत्तस्स। स भिक्षुर्बहुसंभूता ओषधीर्वीक्ष्य तथाप्येता नैतद्वदेत् / तद्यथा-- पक्का सामइय बाल पंडिय, साहु जईमाइया भासा / / नीला आर्द्राः छविमत्यः लायिमाः लाजायोग्याः रोपणयोग्या वा, तथा यथा गिरिकुहरकन्दराऽऽदिषु यादृशः शब्दः क्रियते तादृशः प्रतिशब्द (भजिमाउ ति) पचनयोग्या भजनयोग्या वा (बहुसज्ज त्ति) बहुभक्ष्याः उत्तिष्ठत्ते, एवं यो यादृशं सूत्रं तस्य तादृशमर्थमकं भाषते, तस्य तद्भाषणं पृथुक्करणयोग्या वेति, एवंप्रकारां सावद्यां भाषां नो भाषेत। भाषा, यथा समभावः सामायिक, द्वाभ्यां बुभुक्षया तृषा वालगितो बालः, यथा च भाषेत तदाह पापात् डीनः पलायितः पण्डितः। अथवा-पण्डा बुद्धिः सा सजातासे भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए ऽस्यति पण्डितः,साधयति मोक्षमार्गमिति साधुः यतते सर्वाऽऽत्मना तहावि एवं वदेज्जा / तं जहा- रूढा ति वा बहुसंभूता ति वा संयमानुष्टानेष्विति, आदिशब्दात्तपतीति तपन इत्यादिपरिग्रहः / बृ० थिरा ति वा ऊसढा ति वा गम्भिया ति वां पभूता ति वा ससारा १उ०१प्रकला व्यवहारे प्रतिज्ञासूचकसवाक्ये, 'यदावेदयते राजे, तिवा, एयप्पगारं भासं असावजंजाव नो भासेज्जा // 138|| तद्भाषेत्यभिधीयते।" इति स्मृतिः। वाच० "सओवा पयरो भावा, विसं वा परिमत्तओ। भासयं बाहिया भासा, सपक्खगुणकारिया।।१।।" बृ० / स भिक्षुर्बहुसंभूता ओषधीः प्रेक्ष्यैतद्ब्रूयात् / तद्यथा-- रूढा इत्यादि प्रकाशे, "आलोओ उज्जोओ, दित्ती भासा पहा पयासो य ' पाइ० कामसावद्या भाषां भाषेत। ना०४८ गाथा। किञ्च विषयसूचीसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा तहप्पगाराइं सद्दाइं सुणेजा तहा (1) वाक्यस्यैकार्थिकानि। वि एयाइं णो एवं वदेज्जा / तं जहा-सुसद्दे त्ति वा दुसद्दे त्ति वा, एयप्पगारं भासं सावजं णो भासेजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी (2) द्रव्याऽऽदिभाषा। वा तहा वि ताई एवं वदेज्जा / तं जहा- सुसई सुसद्दे ति वा (3) द्रव्यभावभाषामधिकृत्याऽऽराधन्यादिभेदयोजना। दुसदं दुसद्दे ति वा, एयप्पगारं असावज्जंजाव भासेज्जा. एवं [ (4) साम्प्रतमोघतो भाषायाः प्रविभागनिरूपणम् / रूवाई किण्हे ति वा 5, गंधाइं सुरभिगंधे ति वार, रसाई (5) श्रुतभावभाषा। तित्ताणि वा 5, फासाइं कक्खडाणि वा 8 // 11 // (6) सामान्यतो भाषायाः कारणाऽऽदिनिर्देशः। स भिक्षुर्यद्यप्येतान् शब्दान शृणुयात्तथापि नैवं वदेत्। तद्यथा-शोभनः (7) भाषाऽऽत्मस्वरूपाऽनात्मस्वरूपा वेति निरूपणम्। शब्दोऽशोभनो वा, माङ्गलिकोऽमाङ्गलिको वेत्ययं नव्याहर्तव्यः। विपरीतं / () अनात्मरूपाऽपि सचित्ताऽसौ भविष्यति जीवच्छरीरवदिति प्रतित्वाह-यथावस्थितशब्दप्रज्ञापनाविषये एतद्वदेत् / तद्यथा-(सुरा ति) पादनम्। शोभनशब्द शोभनमेव ब्रूयाद्, अशोभनं त्वशोभनभिति। एवं रूपाऽऽदि- (E) इह कैश्विदभ्युपगम्यते अपौरुषेयी वेदभाषेति तन्मतनिराकरणम्। सूत्रमपि नेयम्। (10) वासकस्वभावत्वाच्छब्दद्रव्याणां, तद्योग्यद्रव्याऽऽकुलत्वाच लोककिञ्च स्य, मिश्राणि वासितानि वाऽन्यानि श्रृयेरन् इत्याण्यानम्। Page #1563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासापय 1555 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भासासमिइ (11) अथ ग्रहणाऽऽदेर्जघन्यमुत्कृष्ट च कालमानम्। भासापय न०(भाषापद) भाषावक्तव्यताप्रतिबद्ध प्रज्ञापनाया एकादशे (12) यद्यप्यौदारिकाऽऽदिशरीरपञ्चकभेदावतायः पञ्चविधः, तथाऽपि पदे,प्रज्ञा०१ पद०। त्रिविधेनैव कायेन वागद्रव्यग्रहणमिति समर्थनम्। भासारहस्स न०(भाषारहस्य) भाषावक्तव्यढाप्रतिबद्धे वन्थभेदे, प्रति०। (13) औदारिकाऽऽदिशरीरवता भाषां गृह्णता मुञ्चता वा मुक्ता सती भाषा धo कियत् क्षेत्र व्याप्नोति? इति प्ररूपणम्। भासारिय पुं०(भाषाऽऽर्य) भाषाऽऽर्ये, प्रज्ञा० 1 पद / (तेषां भेदाः (14) तत्र शब्दद्रव्याणां भेदः। 'आयरिय' शब्द द्वितीयभागे 336 पृष्ठे गताः) (15) शिष्यस्य वागविनयविधानम् / भासालद्धिय पुं०(भाषालब्धिक) भाषालब्धिमति, विशे०। (16 : अवाच्या भाषा। भासावग्गणा स्त्री०(भाषावर्गणा) भाषाप्रायोग्यवर्गणायाम, पं० सं० 5 द्वार। (57) कृचिद् व्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा कथं बूयात कथं वा नेति निरूपणम्। भासाविजय पुं०(भाषाविचय) भाषा सत्याऽऽदिका तस्या विचयो निर्णयो भाषाविचयः। भाषानिर्णय, भाषानिर्णयोपेते दृष्टिवादे च। स्था०१० ठा०। (18) वाक्यशुद्धिफलम्। * भाषाविजय पुं० भाषाया वाचो विजयः समृद्धिर्यस्मिन् सभाषाविजयः / (16) भाषावक्तव्यता षोडशवचनविधिगता च भाषा। दृष्टिवादे, स्था० 10 ठा० (20) शब्दस्य कृतकत्वाऽऽविष्करणम्। भासाविसारय पुं०(भाषाविशारद) संस्कृतप्राकृताऽऽदिभाषानि(२१) भाषणदिधिनिरूपणम्। पुणे, "अट्ठारसदेसीभासाविसारए।" औ०। (22) सति कारणे भाषणविधिः। भासासह पुं०(भाषाशब्द) भाषापर्याप्तिनामकर्मोदयाऽऽपादितो जीवः (23) प्रतिश्रुतदृष्टान्तोपेतं भाषाद्वारम्। शब्दः भाषाशब्दः / तस्मिन्, स्था०२ ठा०३ उ०॥ भासागुण पुं०(भाषागुण) हितमितदेशकालासंदिग्धभाषणाऽऽदिके, सूत्र० "भासासद्दे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- अक्खरसंबद्धे चेव, 2 श्रु०६ अ० नोअक्खरसंबद्धे चेव।" स्था०२ ठा०३ उ०। भासाचंचल पु०(भाषाचञ्चल) भाषातवाले चालभेदे, वृ० (स्वस्वस्थाने व्याख्या) "मितमहुरगीताऽऽदिभासासद्दे विलवियं ति 1 उ० 1 प्रक०। (चञ्चलव्याख्या 'चंचल' शब्दे तृतीयभागे 1032 पृष्ठे भण्णति।'' नि०चू० १उ० गता) भासासमय पुं०(भाषासमय) भाषाया निसृज्यमानावस्थातः परिणामाभासाजड पुं०(भाषाजड) भाषारहिते जडभेदे, "भासाजड्डो तिविहो जल वरथापर्यन्ते रागये,''भासासमयविइक्कता।' भ०१३ श०७ उ०। मम्मण एलमूओ य।" आव०४ अ०। ध०। भासासमिइ स्त्री०(भाषासमिति) भाषणं भाषा तद्विषया समितिर्भाषाभासाणुगमि(ण) त्रि०(भाषाऽनुगामिन्) भाषा आर्याना-मरयाचः, समितिः / आव० 4 अ० भाषणं भाषा तस्यां सम्यगितिर्भाषासमितिः / अनुगच्छत्यनुकरोति तद्भाषाभाषित्वात् स्वभाषायेव वा लब्धिविशेषात्त- ध०३अधि०। पा० निरवद्यवचनप्रवृत्तिरूपे समितिभेदे, स०५ सम० / थाविधप्रत्ययजननात् आर्यानााऽऽदिवागनुकरणशीले भाषाः स्था० / नि०चू० संस्कृतप्राकृतमागधाऽऽद्याः अनुगमयति व्याख्यातीति एवं शीलः / सम्प्रति भाषासमितिमाहसंस्कृतप्राकृताऽऽदिभाषाव्याख्यातरि, औ०। कोहे माणे य माया य,लोभे य उवउत्तया। भासाणिव्वत्ति स्वी०(भाषानिवृत्ति) भाषानिष्पत्ती, भ०। हासे भय मोहरिए, विगहासु तहेव य / / 6 / / कइविहाणं भंते ! भासाणिव्वत्ती पण्णत्ता। गोयमा ! चउव्विहा एयाइं अट्ठ ठाणाई, परिवज्जित्तु संजओ। भासाणिव्वत्ती पण्णत्ता।तं जहा-सच्चभासाणिव्वत्ती, मोसभासा- असावजं मितं काले, भासं भासेज पण्णवं / / 10 / / णिव्वत्ती, सच्चामोसमासाणिव्वत्ती, असच्चामोसभासाणिव्वत्ती, क्रोधे माने च मायायां लोभे चोपयुक्तता क्रोधाऽऽधुपयोगपरता, एवं एगिदियवजं जस्स जा भासाजाव वेमाणियाणं / म०१६ तदेकाऽऽयतनेति यावत, हास (भय त्ति) भये मौखर्ये विकथासु तथैवोपश०८ उ० युक्ततेति संबन्धः / तत्र क्रोधे यथा कश्चिदतिकुपितः पिता प्राह-"न त्वं भासादोसा पुं०(भाषादोष) सावधानुमोदनाऽऽदिके, उत्त० 1 अ० मम पुत्रः, पार्श्ववर्तिनो वा प्रति प्राह-बध्नीत बध्नीत एनमित्यादि, माने असत्यसत्यमृषाकर्कशासभ्यशब्दोच्चारणाऽऽदिके च / ''भासादोसं च यथा-कश्चिदभिमाना-ऽऽध्मातचेता न कश्चिद् मम जात्यादिभिस्तुल्य तारिस / " सूत्र०१ श्रु०८ अ०। इति वक्ति। मायाया यथा--परव्यवनार्थमपरिचितस्थानवी सुताऽऽदौ भासापज्जत्ति स्त्री०(भाषापर्याप्ति) यया भाषाप्रायोग्यवर्गणादलिका- भणतिनायं मम पुत्रो, न चाहमस्य पितेत्यादि। लोभे यथा कश्चिद्वणिक नादाय भाषात्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिरित्यु- / परकीयमपि भाण्डाऽऽदिकमात्मीयमभिधत्ते ! हास्ये यथा केलीकिलतया क्तलक्षणे पर्याप्तिभेदे,नं०। प्रव०। प्रज्ञा०। कर्म०। पं० सं० करन तथाविधंकुलीनमप्यकुलीनमित्युल्लपति भये यथा तथाविधभकार्य Page #1564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिइ 1556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिउर जहा माचर्य स त्वं येन तत्तदाचरितमिति पृष्टः प्राह-- नाहं तदाऽस्मिन् देशे भइ स्त्री०(भृति) भृ-क्तिन् / उदृत्वादौ" ||8/1 / / 131 / / इति एवाभूवमित्यादि, मौखये यथा-मुखरतया यत्तत्परपरिवादादि वदन्नास्ते। प्राकृतसूत्रेणेत्वम्। प्रा०१पाद। भरणे, पोषणे चा वाचक स्था०ा करणे विकथासु स्त्र्यादिकथासु-अहो कटाक्षविक्षेपास्तस्या इत्यादिकमाह। क्तिन्। वेतने, मूल्ये च। वाचला भृतिः पदात्यादीनां वृत्तिरिति। अनु०॥ पठ्यते च- "कोहे य माणे य माया, य लोभे य तहेव या हासभयमोहरीए भिउ पुं०(भृगु) भ्रस्ज-कु०पृ०। लोकप्रसिद्धेस्वनामख्याते ऋषि-विशेषे, विकहा य तहेव य / / 1 / / " गतार्थमेव / एतान्यनन्तरमुक्तरूपाण्यशै औ०। शिवे, शुकग्रहे, पर्वतसानौ, जमदग्रौ, उच्चप्रदेशे च / भृगुः स्थानानि परिवर्त्य परिहत्य संयतः, किमित्याह- असावद्यां निर्दोषां प्रणतस्थानम् / जी०३ प्रति०४ अधि०। भृगोर्गोत्रापत्यम् अण्। 'बहुषु तामपि मितां स्तोकां यावत्युपयुज्यते तावतीमेव काले प्रस्तावे भाषा लुक" / / 1 / / भृगोर्वश्ये च। वाच० / श्लक्ष्णायां राजौ, बृ०१उ०१ प्रक० वाचं भाषेत वदेत प्रज्ञा बुद्धिस्तद्वान् इति सूत्रद्वयार्थः // 6-10|| उत्त० शलक्ष्णभूरेस्वा जलशोषानन्तरं जलकेदाराऽऽदिषु स्फुटितायां दालो, २४अ० कल्प०३ अधि०६ क्षण। अत्राप्युदाहरणम् भिउकच्छ पुं०(भृगुकच्छ) लाटदेशस्थेस्वनामख्यातेपुरे, ती० 45 कल्प। कोई साहू भिक्खट्टा नगरे रोइए निग्गतुं बाहिरकडए हिंडतो केणइ पुट्ठो, विशे० आ०का मिउच्च पुं०(भार्गव) भृगुर्लोकप्रसिद्ध ऋषिविशेषस्तस्य शिष्यो भार्गवः। "केवइय आसहत्थी, तह निचओ दारुधन्नमाईणं / परिव्राजकभेदे, औ०। निम्विन्नाऽनिम्विन्ना,नागरगा बेहि मं समिओ / / 1 / / भिउडि भु(भू) (भृकुटि-स्त्री० भूवः कुटिर्भङ्गिः-पृ० वा हस्वः बेइ न जाणामोत्ती, सज्झायज्झाण जोगवक्खित्ता। संप्रसारणं वा डीए / वाच०। "इभृकुटौ" ||8/1/110 / / इति इति हिंडता न विपेच्छइ, न वि सुणइ य किह णु तो बेइ / / 2 / / प्राकृतसूत्रेण भुकुटावादेरत इः / प्रा० 1 पाद। भूविकारे, ज्ञा०१ श्रु०८ बहुं सुणेहि कण्णेहि, बहु अच्छीहिं पेच्छई। अ०। भुकुटिः कोपकृतभूविकारः / ज्ञा० 1 0 ८अ०। "करेति भिउर्डि न य दिह सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहई।३।।'' पा० मुहे।' भूकुटिरावेशवशकृत भूविक्षेपः / उत्त० 27 अालोचनविकारभासासमिय पुं०(भाषासमित) भाषासमितिमति, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। विशेषे, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। विपा० / आव०। त्रिवलीतरङ्गितेललाटे औ०। च। 'भिउडीविडविय-मुहा।" त्रिवलीतरङ्गितललाटरूपया भूकुट्या भासिज्जमाण त्रि०(भाष्यमाण) अभिधीयमाने, स०३४ सम०। वाग- विडम्बित विकृतं मुखं यस्य सः।अनु०। भुकुटिर्नयनललाटविकारविशेषः / योगेन निसृज्यमाने, आचा०२श्रु०१चू०४ अ०१उ० प्रश्न०४ आश्र0 द्वार / श्रीचन्द्रप्रभजिनस्य स्वनामख्यातायां देव्याम्, भासिण (देशी) दत्ते, दे०ना०६वर्ग 104 गाथा। प्रव०। श्रीचन्द्रप्रभस्य ज्वाला, मतान्तरेण–भृकुटिर्देवी पीतवर्णा वरालभासित्तए अव्य०(भाषितुम) वक्तुमित्यर्थे, भ०१६ श० 5 उ०। काऽऽख्यजीवविशेषवाहना चतुर्भुजा खङ्गमुद्रभूषितदक्षिणकरद्वया भासित्ता अव्य०(भाषित्वा) भाषणं कृत्वेत्यर्थे , स्था० ३ठा०२ उ०। फलकपरशुयुतवामपाणिद्वया च / प्रव० 27 द्वार० / श्रीनमिजिनस्य भासिय त्रि०(भाषित) भाष–क्तः। प्रतिपादिते, स०१० अङ्गा आतु०। स्वनामख्याते यक्षे, पुं० / प्रव०। श्रीनमिजिनस्यभृकुटिर्यक्षश्चतुर्मुखभ० सूत्र०ा प्रज्ञापिते, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०ा भावे क्तः। भाषणे, स्त्रिनेत्रः सुवर्णवर्णो वृषभवाहनोऽष्टभुजो बीजपूरकशक्तिमुद्राभययुक्तन०।आ०म० 10 // दक्षिणकरचतुष्टयो नकुलपरशुवज्राक्षसूत्रयुक्तवामकरचतुष्टयश्च। प्रव० 26 द्वार। भासियव्व त्रि०(भाषितव्य) प्रतिपादनीये, भ० १२श०६ उ०। भासुंडी (देशी) निःसरणे, देना० 6 वर्ग 103 गाथा। मिउडिदोस भू(भू) पुं०(भृकुटिदोष) कायोत्सर्गदोषभेदे, व्यापारान्तर निरूपणार्थ भुवौ चालयन्कायोत्सर्गे तिष्ठति भृकुटिदोषः / प्रव० 4 द्वार। भासुज्जुयया स्त्री०(भाषर्जुकता) भाषाऽऽर्जब, भ०८ श०६ उ०ा वाचो यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्थाय प्रवृत्ती, स्था०४ ठा० 1 उ०। भिउडिय त्रि०(भृकुटित) कृतभृकुटिके, ज्ञा०३ श्रु० 5 अ०। भासुर त्रि०(भासुर) भारवरे, दीप्तिमिति, "भासुरवरवोंदिधरो, देवो भिउपक्खंदण न०(भृगुप्रस्कन्दन) भृगुप्रपतने, नि०चू० ४उ०। वेमाणिओ जाओ" आ०क० अ० स्था०रा०ा आ०म० / नि० चू। | भिउपुर न०(भृगुपुर) लाटदेशस्थे स्वनामख्याते पुरे, "आस्ते भृगुपुरं उपा० जी०। घोरे, "घोरा दारुण-भासुर-भइरय-लल्लम-भीम | तत्र, लाटदेशललाटिका।' आ०क०१ अ०। भीसणया / '' पाइ० ना० 65 गाथा। ''भासुरवोदीपलंबवण- | भिउर त्रि०(भिदुर) भिद-कुरच् / वजे,वाचल। स्वयमेव भिद्यते इति मालधरा" प्रज्ञा०२ पद / स्फटिके च / धीरे, पुं० / कुष्ठौषधी, न०। भिदुरम् / प्रतिक्षण विशरारौ, आचा० 1 श्रु० 8 अ० 6 उ०। "भिदुरेसुण वाचल। स्वनामख्याते विमाने च / स०७ समला कल्पना रज्जेजा।" भेदनशीला भिदुराः / आचा०१ श्रु०८ अ०८ (30) Page #1565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिउरधम्म 1557 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खा भउरधम्म पुं०(भिदुरधर्म) स्वत एव भिद्यते इति भिदुरम्, स एव धर्मः __ औ० भृङ्ग इव ऋच्छति ऋ-अच् भृङ्गराजे,लवणे, सुवर्णे च। न०। स्वभावो यस्य स भिदुरधर्मः / आचा०१ श्रु० 2 अ०४ उ० प्रतिक्षण "झिल्लीनाम के कीटे, रवी० / गौरा०डीए। स्वार्थे कन्। तत्रैवार्थे, वाच०। विशरारुशीले, आचा० 1 श्रु० 8 अ०६ उ०। "भिउरधम्म ] भिंगारी स्त्री०(भृङ्गारी) "भिंगारी झिलिआ चीरी।" पाइ० ना० 124 विद्धसणधम्म।" आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। स्था। गाथा। चीर्यायाम. मशक इत्यन्ये, दे० ना०६ वर्ग 105 गाथा। मिंग पुं०(भृङ्ग) भृ-गन् कित् नुट् च / चतुरिन्द्रिये नीलवर्णे पक्षमले | भिंगुलेण न०(भृगुलयन) भृगुः शुष्कभूरेखा जलशोषानन्तरं जलकपक्षिविशेषे, प्रज्ञा० 17 पद / आ०म० / जी० / तं०। रा०। प्रश्न / दाराऽऽदिषु स्फुटिता दालिरित्यर्थः / तदेव लयनं भृगुलयनम्। लयनभेदे, अष्ट० / ज्ञा० / अङ्गारविशेष, औ०। भृङ्गो भृङ्गाभिधानः कीटविशेषः, / कल्प०३ अधि०६क्षण। वेदलिताङ्गारो वा / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। कल्पवृक्षभेदे, संज्ञाशब्दत्वात् भिंडिमाल पु०(भिन्दिपाल) 'भिदि विदारणे इन्। भिन्दि भेदनं पालयति, भृङ्गाराऽऽदिविविधभाजनसम्पादका भृङ्गाः / स्था० ७टा० / कलिङ्ग- पाल अण। हस्तक्षेप्ये नालिकास्वे, हस्तप्रमाणेऽस्त्रे च / वाच०। विहगे, भृङ्गराजे, जारे, भृङ्गरोले च / अभ्रके, गुडत्वचि, न०। वाच०। *मिन्दिमाल पुं० शस्त्रजातिविशेषे, जी० / भिन्दिमालः शस्त्रजातिभ्रमरे, "फुल्लधुआ रसाऊ, भिंगा भसला य महुअरा अलिणो। इंदिहिरा विशेषः / जी० 3 प्रति० 1 अधि०२ उ०। प्रश्न०। दुरेहा, घुअंगया छप्पया भमरा // 11 // " पाइ० ना० 11 गाथा। *भिण्डिमाल पुं० प्रहरणविशेषे, जी० / भिण्डिमालः प्रहरणविशेषः। *भृताङ्ग पुं० भृतं भरणं तत्राङ्गं कारणं भृताङ्गम्। भाजने, तत्सम्पादके | जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। प्रश्न० / भिण्डिमालं रूढिगम्यम्। औ० / कल्पवृक्षभेदे, 'मतंगया य भिंगा।" भृतं भरणं पूरण तत्रागानि | भिंडया स्त्री०(भिण्डिका) पोत्कारे, "भिंडिआ उन्कोडिओ पोक्काओ ति कारणानि भृताङ्गानि भाजनानि, न हि भरणक्रिया भरणीयं भाजनं विना वुत्तं भवति।" नि०चू०१ उ०। भवतीति तत्सम्पादकत्वात् वृक्षा अपि भृताङ्गाः, प्राकृतत्वाच 'भिंगा' | भिंदइत्ता अव्य०(भित्त्वा) ऊर्द्धपाटनेन शाटकाऽऽदिकमिव विदार्येत्यर्थे, उच्यन्ते। स्था० 10 ठा०। प्रव० ज०। आ०म०। कृष्णे, देवना०६ वर्ग "भिदिय भिंदिया चणं वा पक्खिवेजा।" भ०१४ श०८ उ० प्रश्नः। 104 गाथा। *भिंदिय अव्य० / स्फोटयित्वेत्यर्थे, भ० 150 / विपा०ा रा० भिंगंगय पुं०(भृताङ्गक) स्वनामख्याते द्रुमे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। भिंभा मिम्भा(म्भी) स्वी० भैय्याम, दशा० 10 अ० / ढक्कायाम्, स्था० भिंगणिभा स्त्री०(भृङ्गनिभा) जम्बूसुदर्शनाया अपरदक्षिणस्यां दिशि 6 ठा० स्थितायां स्वनामख्यातायां नन्दापुष्करिण्याम, जी०३ प्रति० 4 अधिका भिंभासार पुं०(भिम्भासार) राजगृहनगरस्थे श्रेणिकराजे, भिम्भा भेरी भिंगपत्त न०(भृङ्गपत्र) भृङ्गस्य पक्षिविशेषस्य पत्रं पक्ष्म भृङ्गपत्रम्। भृङ्ग- सैव सारा प्रधाना यस्यासौ भिम्भासारः। दशा० 10 अ० "भिभि त्ति पक्ष्मणि, प्रज्ञा०१७ पद 4 उ०। आव० स० जी० / राण ढक्का' सा सारो यस्य स भिम्भीसारः। राजगृहनगरस्थे श्रेणिके राजनि, भिंगप्पभा स्त्री०(भृङ्गप्रभा) जम्बूसुदर्शनाया अपरदक्षिणस्यां दिशि स्था० / तेन किल कुमारत्वे प्रदीपनके जयढक्का गेहान्निष्काशिता ततः स्थितायां स्वनामख्यातायां नन्दापुष्करिण्याम, जं० 4 वक्ष०! पित्रा भिभिसार उक्त इति। स्था०६ टा०। आव01 "जया य रायगिहे भिंगा स्त्री०(भृङ्गा) जम्बूसुदर्शनाया अपरदक्षिणस्यां दिशि स्थिताया अग्गी उडिओ, ततो कुमारा जं जस्स पियं-आसो, हत्थीतं तेणणीयं, स्वनामख्यातायां पुष्करिण्यान, जं० 4 वक्ष० / जी०। सेणियेण भिंभाणीता, राया पुच्छइ-केण कं णीणियं ति, अन्नो भणइभिंगाइजीव पुं०(भृङ्गाऽऽदिजीव) जीवविशेषे, राजप्रश्नीये सूर्याभ मए हत्थी आसो एवमादी। सेणिओ भणति-भिंभा / ताहे राया भणइ भवनेऽनेकपक्षिणः, तथा भृङ्गाऽऽदिजीवा उक्ताः, स्थानपदे च ते सेणिय, एस तय सारो भिंभि त्ति सो भणति-आमं / सो य रन्नो निषिद्धाः, तत्र कि तत्त्वमिति प्रश्ने, उत्तरम्-राजप्रश्नीयोक्ता भृङ्गाऽऽदि अचंतपिओ, तेण से नाम कयं भिंभिसारो।" आव० 4 अादशा० जीवाः पृथ्वीपरिणामरूपा ज्ञेयाः, ये तु स्थानपदे निषिद्धास्ते त्रसरूपा भिक्ख धा०(भिक्ष) भिक्षाया लाभेऽलाभे च / भ्वादि०। आत्म० / सेट् / इति / / 121 / / प्र० / सेन०१ उल्ला०। भिक्षते / अभिक्षिष्ट / वाच०। भिंगार पुं०(भृङ्गगार) विभर्ति जलं भू-आरक् / "इत्कृपाऽऽदौ" *भैक्ष न० / भिक्षेव तत्समूहो वा अण्। भिक्षायाम्, भिक्षासमूहे च। वाच०। 118111128|| इतीत्वम् / प्रा०१ पाद / स्वर्णमयजलपात्रे, भृङ्गारः प्रश्न०५ संव० द्वार। कनकालुका। जं० 2 वक्ष०। जलभाजनविशेषे, आ०म० 1 अ०। औ०। / मिक्खग्गहण न०(भिक्षाग्रहण) उपविष्टस्य सतः भिक्षाया आनयने, बृ० ज०जी०। रा०ा "अप्पेगइया भिंगारकलसहत्थगया।'' जी०३ प्रतिक १उ०२ प्रक०। 4 अधि०। पक्षिविशेषे च / जी०३ प्रति०४ अधि० / ज्ञा० / प्रश्न०। / मिक्खा स्त्री० (भिक्षा) भिक्षणं भिक्षा / भिक्ष-अः / याच Page #1566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खा 1558 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खाग नायाम्। वाच० / कवले, पञ्चा० 16 विव० / विधिना पिण्डाऽऽनयने, ___ अपि भिक्षां दातुं प्रवृत्ता इति भावः। आ०म० अ०। म०२ अधि०। मिक्खाग त्रि०(भिक्षाक) भिक्ष-षाकन। भिक्षाकारके, वाच० / भिक्षणभिक्षाशब्दार्थमुपदर्शयन्नाह शीलो भिक्षणधर्मा भिक्षणे साधुर्वा भिक्षाकः / स्था० 4 ठा० 1 उ०/ भिक्खासद्दो चेवं, अणियतलाभविसउत्ति एमादी। आचा०। भिक्षणवृत्तिके साधौ, स्था०। सव्वं चिय उववण्णं,किरियावंतम्मि उजतिम्मि।।३३।। ते चतुर्विधाःभिक्षाशब्दोऽपि भिक्षेति ध्वनिरपि / एवमिति पिण्डशब्द इव विशे-- चत्तारि घुणा पण्णत्ता / तं जहा-तयक्खाए, छल्लिक्खाए, कट्ठषविषय इत्यर्थः / विशेषविषयत्वमेवाऽऽह-अनियतलाभविषयोऽप्रति- क्खाए, सारक्खाए। एवामेव चत्तारि मिक्खागा पण्णत्ता / तं नियतभक्ताऽऽदिप्राप्तिगोचरः / यतो गुणवद्यतेरेवानियतो लाभः स्यात् / जहा तयक्खायसमाणे० जाव सारक्खायसमाणे / तयक्खायइतिरुपप्रदर्शन। एवमादि एवं प्रभृतिक (सव्वं चियत्ति) "संपत्ते भिक्खु समाणस्स णं भिक्खागस्स सारक्खायसमाणे तवे पन्नत्ते / सारकालम्मि'' इत्यादि सूत्रेषु योभिक्षाशब्दोऽनियतलाभार्थो व्याख्यातः, क्खायसमाणस्सणं भिक्खागस्स तयक्खायसमाणे तवे पन्नत्ते। आदिशब्दाचान्य-दप्येवंप्रायमुक्तं, तत्सर्वमेव समस्तमेव / उपपन्नं छल्लिक्खायसमाणस्सणं भिक्खागस्स कट्ठक्खायसमाणे तवे युक्तम्। वेत्याह-क्रियावति सुसाधुक्रियायुक्त एव; यती साधौ, तदन्यत्र पण्णत्ते / कढक्खायसमाणस्सणं भिक्खागस्स छल्लिक्खायह्यनियतलाभाऽऽदेरर्थस्यानवश्यंभावित्वादिति गाथाऽर्थः / / 33 / / पञ्चा० समाणे तवे पन्नत्ते (सूत्रम्-२४३) 10 विव० / (भिक्षायाः सर्वसम्पत्कर्याद्या भेदाः 'गोयरचरिया' शब्दे त्वचं बाह्यबल्कं खादतीति त्वक्खादः, एवं शेषा अपि, नवरम् (छल्लि तृतीयभागे 1006 पृष्ठे गताः) (भिक्षायाः सर्वोऽधिकारः ‘गोयरचरिया' त्ति) अभ्यन्तरं वल्क, काष्ठ प्रतीत, सारः काष्ठमध्यमिति दृष्टान्तः, शब्दे तृतीयभागे 667 पृष्ठादारभ्यावलोकनीयः) भिक्षा च नवकोटि- एवमेवेत्याधुपनयसूत्रं, भिक्षणशीला भिक्षणधर्माणो भिक्षणे साधवो वा परिशुद्धा ग्राह्या / स्था०। भिक्षाकाः, त्वक्खादेनघुणेन समानोऽत्यन्तसन्तोषितया आयामाम्लातथा च ऽऽदिप्रान्ताऽऽहारभक्षकत्वात् त्वक्खादसमानः। एवं छल्लीखादसमानोसमणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं नवकोडिप उलेपाऽऽहारकत्वात्, काष्ठखादसमानो निर्विकृतिकाऽऽहारतया साररिसुद्धे भिक्खे पन्नत्ते / तं जहा- ण हणइ, ग हणावेइ, हणंतं खादसमानः, सर्वकामगुणाऽऽहारत्वादिति / एतेषां चतुर्णामपि भिक्षानानुजाणइन पयइ, ण पयावेइ, पयंतं नाणुजाणइ; न किणइ, काणां तपोविशेषाभिधानसूत्रम्- "तयक्खाए'' इत्यादि सुगम, न किणावेइ, किणंतं नाणुजाणइ ! केवलमयं भावार्थ:- त्वक् कल्पासाराभ्यवहर्तुर्निरभिष्वङ्गत्वात्कर्म भेदमड्गीकृत्य वज्रसारं तपो भवतीत्यतोऽपदिश्यते-(सारक्खायसमाणे नवभिः कोटिभिः विभागैः परिशुद्धं निर्दोषं नवकोटिपरिशुद्ध, भिक्षाणां तवे त्ति) सारखादघुणस्य सारखादत्वादेव समर्थत्वात् वज्रतुण्डत्वाचेति, समूहो भैक्ष प्रज्ञप्तम् / तद्यथा- न हन्ति साधुः स्वयमेव गोधूमाऽऽदि सारखादसमानस्योक्तलक्षणस्य साभिष्वङ्ग तया त्वक्खादसमानं कर्मदलनेन, न घातयति परेण गृहस्थाऽऽदिना, घ्नन्तं नानुजानाति अनुमो सारभेद प्रत्यसमर्थ तपः स्यात्, त्वक्खादकघुणस्य हि त्वक्खादत्वादेव दनेन तस्य वा दीयमानस्याऽप्रतिषेधनेन 'अप्रतिषिद्धमनुमतम्।' इति सारभेदन प्रत्यसमर्थत्वादिति, तथा छल्लीखादधुणसमानस्य भिक्षाकस्य वचनात्, हननप्रसङ्गजननाचेति / आह च- "कामं सयं न कुब्वइ, त्वक्खादधुणसमानापेक्षया किञ्चिविशिष्टभोजित्वेन किश्चित्साभिजाणतो पुण तहावि तग्गाही। वट्टेइ तप्पसंग, अगिण्हमाणो उ वारेइ ष्वङ्गत्वात् सारखादकाष्ठखादघुणसमानापेक्षया त्वसार-भोजित्वेन / / 1 / / " इति / तथा हतं पिष्टं सत् गोधूमाऽऽदि मुद्गाऽऽदि वा, अहतमपि निरभिष्वङ्गित्वाच्च कर्मभेदं प्रति काष्ठखादघुण समानं तपः प्रज्ञप्त, सन्न पचति स्वय, शेषं प्राग्वत् सुगमं च / इह चाऽऽद्याः षट् कोट्योऽ नातितीव्र, सारखादघुणवन्नाप्यतिमन्दाऽऽदि, त्वक्छलीखादधुणवदिति विशोधिकोट्यामवतरन्ति, आधाकर्माऽऽदिरूपत्वात्। अन्यारतु तिम्रो भावः / तथा काष्ठखादघुणसमानस्य साधोः सारखादघुणसमानापेक्षया विशोधिकोट्यामिति / उक्तं च-''सा नवहा दुह कीरइ, उग्गमकोडी त्वसारभोजित्वेन निरभिष्वगत्वात त्वकछल्लिखादघुणसमानापेक्षया विसोहिकोडी य। छसु पढमा ओयरइ, कीयतीयम्मी विसोधीओ।।१।।" सारतरभोजित्वेन साभिष्वङ्गत्वाच्च छल्लीखादघुणसमानं तपः प्रज्ञप्त इति / स्था०६ ठा०। कर्मभेदं प्रति न सारखादकाष्ठखादघुणवदतिसमर्थाऽऽदिनाऽपि त्वभिक्षा च ऋषभस्वामिसमय एव प्रवृत्ता-- क्खादधुणवदतिमन्दमिति भावः। प्रथमविकल्पे प्रधानतरं तपो, द्वितीये दत्तिं व दाणमुसभं, दिन्नं दखें जणम्मि वि पयत्तं / अप्रधानतरं, तृतीये प्रधान, चतुर्थे अप्रधानमिति। स्था०४ ठा० 1 उ०। जिणभिक्खादाणं पि य, दलु भिक्खा पयत्ता उ।। चत्तारि पक्खी पण्णत्ता / तं जहा-णिवइत्ता णाममे गे णो अथवा-दत्तिर्नाम दानं, तच्च भगवन्तम् ऋषभस्वामिनं सांवत्सरिक | परि-वइत्ता, परिवइत्ता णाममे गे णो णिवत्ता, एगे दानं ददतं दृष्ट्वा लोके अपि प्रवृतम् / यदि वादत्तिर्गम भिक्षादानं, तच्च णिवइत्ता वि परिवइत्ता वि एगे णो णिवइत्ता णो परिवइत्ता जिनस्य भिक्षादानं प्रपौत्रेण कृतं दृष्ट्वा लोकेऽपि भिक्षा प्रवृत्ता, लोका 37 / एवामेव चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता / तं जहा-णिवइत्ता Page #1567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खाग 1556 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खायरिया णाममेगे णो परिवइत्ता, परिवइत्ता णाममेगे णो णिवइत्ता, एगे | णिवइत्ता विपरिवइत्ता वि, एगे णो णिवइत्ता णो परिवइत्ता।३८/ (सूत्रम् 351) निपतिता नीडादवतरीता अवतरीतुं शक्तो नामैकः पक्षी धृष्टत्वादज्ञत्वाद्वा. न तु परिवाजिता न परिव्रजितुं शक्तो बालत्वादित्येकः, एवगन्यः परिव्रजितुं शक्तः पुष्टत्वान्न तु निपतितुंभीरुत्वादन्यस्तूभयथा चतुर्थस्तुभयप्रतिषेधवानतिबालत्वादिति।३७। निपतिता भिक्षाचर्यायामवतरीता भोजनाऽऽद्यर्थित्वान्न तुपरिव्रजिता परिभ्रमको ग्लानत्वादलसत्वालजालुत्वाद्वेत्येकः, अन्यः परिव्रजिता परिभ्रमणशील आश्रयानिर्गतः सन्न तु निपतिता भिक्षार्थमवतरीतुमशक्तः सूत्रार्थाशक्तत्वाऽऽदिना, शेषो स्पष्टौ // 38 // (351) / स्था० 4 ठा० 4 उ०। चत्तारि भिक्खागा पण्णत्ता।तं जहा-अणुसोयचारी, पडिसोयचारी, अंतचारी, मज्झचारी॥२३|| भिक्षाकः साधुर्यो ह्यभिग्रहविशेषादुपाश्रयसमीपात् क्रमेण कुलेषु भिक्षते सोऽनुश्रोतश्चारी मत्स्यवदनुश्रोतश्चारी प्रथमः, यस्तूतक्रमेण गृहेषु भिक्षमाण उपाश्रयमायाति स द्वितीयः, यस्तु क्षेत्रान्तरेषु भिक्षतेस तृतीयः, क्षेत्रमध्ये चतुर्थः / / 23 / / स्था० 4 ठा० 4 उ०॥ पंच मच्छा पण्णत्ता / तं जहा- अणुसोयचारी पडिसोयचारी अंतचारी मज्झचारी सव्वचारी। एवमेवपंच भिक्खागा पण्णत्ता। तं जहा-अणुसोयचारी० जाव सव्वचारी।। तत्र मत्स्यः प्राग्वत् भिक्षाकस्तु अनुश्रोतवारी प्रतिश्रयादारभ्य भिक्षाचारी स च प्रथमः प्रतिश्रोतश्चारी दूरादारभ्य प्रतिश्रयाभिमुखचारीत्यर्थः, स च द्वितीयः अन्तचारीपार्श्वचारीतितृतीयः, शेषो प्रतीती। स्था०५ ठा०३ उ०। भिक्खागकुल न०(भिक्षाककुल) भिक्षणवृत्तिके कुले, स्था० 8 ठा०। "भिक्खागकुलेसुवा।' भिक्षाकास्तालचाराः। तेषु. कल्प०१ अधि० २क्षण। मिक्खाड पुं०(भिक्षाट) भिक्षामटतीति भिक्षाटः भिक्षणशीले साधी, आचा०२ श्रु०१चू०१अ०११ उ०। भिक्षाटोभिक्षाभोजीति। ज्ञा०१ श्रु०१४ अग भिक्खादोस पुं०(भिक्षादोष) आधाकर्मादिके, ते च षोडशोद्गमदोषाः षोडशोत्पादनादोषाः दशैषणादोषाः। आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। भिक्खाभायण न०(भिक्षाभाजन) भिक्षापात्रे भिक्षाभाजनमिव भिक्षाभाजनम्। भिक्षोर्निहिकरणे च1"जोव्वणगमणुप्पत्ते, तव मम भिक्खा भायणे भविस्सइ" ज्ञा०१ श्रु०१४ अ01 मिक्खामत्तवित्ति त्रि०(भिक्षामात्रवृत्ति) भिक्षामात्रेण सर्वोपाधिशुद्धेन वृत्तिरस्य। भिक्षामात्रेण वृत्तिं कुर्वति, दश० 10 अ०। भिक्खायर पुं०(भिक्षाचार) भिक्षुके, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०३ उ०। द०प० भिक्खायरिया स्त्री०(भिक्षाचा) भिक्षार्थ चर्या चरणमटन भिक्षाचा। स्था०६ ठा०ा आचा०। आव० भिक्षाटने सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। / भिक्षाच- भिक्षानिमित्तं विचरणमिति। ज्ञा०१ श्रु०१४ अ०। ग० / वृत्तिसंक्षेपे, स्था०६ ठा० / तद्रूपे अनशनभेदे, भिक्षाचर्या तपो निर्जराङ्गत्वादनशनवत्। स्था०६ठा विपा०। तभेदाःसे किं तं भिक्खायरिया? भिक्खायरिया अणे गविहा पण्णत्ता / तं जहा-दव्वामिग्गहचरए खेत्ताभिग्गहचरए, कालाभिग्गहचरए, भावाभिग्गहचरए, उक्खित्तचरए, णिक्खित्तचरए, उक्खित्तणिक्खित्तचरए, णिक्खित्तउक्खित्तचरए, वट्टिजमाणचरए, साहरिजमाणचरए, उवणीअचरए, अवणीअचरए, उवणीअअवणीअचरए, अवणीयउवणी-अचरए संसठ्ठचरए, असंसहचरए तजातसंसट्टचरए, अण्णाय-चरए, मोणचरए, दिट्ठलाभिए, अदिठ्ठलाभिए, पुट्ठलाभिए, अपुट्ठलाभिए, भिक्खालामिए, अमिक्खालाभिए, अण्णगिलायए, ओवणिहिए, परिमितपिंडवाइए, सुद्धेसणिए, संखायतिए। से तं भिक्खाय(द)रिया (सूत्र-१६) (दत्वाभिग्गहचरए त्ति) द्रव्याऽऽश्रिताभिग्रहेण चरति भिक्षामटति द्रव्याऽऽश्रिताभिग्रहं वा चरन्यासेवते यः स द्रव्याभिग्रहचरकः इह च भिक्षाचर्यायां प्रक्रान्तायां यद् द्रव्याभिग्रहचरक इत्युक्तं तद्धर्मधमिणोरभेदविवक्षणात् / द्रव्याभिग्रहश्च लेपकृताऽऽदिद्रव्यविषयः / क्षेत्राभिग्रहः स्वग्रामपरग्रामाऽऽदिविषयः / कालाभिग्रहः पूर्वाह्नाऽऽदिविषयः भाषाभिग्रहस्तु गानहसनाऽऽदिप्रवृत्तपुरुषाऽऽदिविषयः। भिग्रहतश्वरति तगवेषणाय गच्छतीत्युत्क्षिप्तचरकः / एवमुत्तरत्रापि / (निक्खित्तचरए त्ति) निक्षिप्त पाकभाजनादनुधृतम् (उक्खित्तनिक्खितचरए त्ति) पाकभाजनादुत्क्षिप्य निक्षिप्तं तत्रैवान्यत्र वा स्थाने यत्तदुत्क्षिसनिक्षिप्तम्। अथवोत्क्षिप्तं च निक्षिप्तं च यश्चरति स तथोच्यते (निक्खित्तउक्खित्तचरए त्ति) निक्षिप्त भोजनपात्र्यामुविज्ञप्तं च स्वार्थ तत एव निक्षिप्तोत्क्षिप्तम्, (वट्टिजमाणचरए त्ति) परिवेष्यमाणचरकः (साहरिज्जमाणचरएत्ति) यत् कूराऽऽदिकं शीतलीकरणार्थ पटाऽऽदिषु विस्तारित तत्पुनर्भाजने क्षिप्यमाणं संहियमाणमुच्यते, (उवणीयचरए त्ति) उपनीत केनचित्कस्यचिदुपढौकितं प्रहेणकाऽऽदि. (अवणीयचरए त्ति) अपनीत देयद्रव्यमध्यादपसारितमन्यत्र स्थापितमित्यर्थः / (उवणीयावणीयचरएत्ति) उपनीतं विनीतं ढौकितं सत्प्रहेणकाऽऽद्यपनीतं स्थानान्तरस्थापितम्; अथवोपनीतं चापनीतं च यश्चरति स तथा / अथवाउपनीतं दायकेन वर्णितगुणम्; अपनीतं निराकृतगुणम्, उपनीतापनीत यदेकेन गुणेन वर्णितं गुणान्तरापेक्षया तु दूषितं यथाऽहो शीतलं जलं केवल क्षारमिति, यत्तु क्षारं किं तु-शीतलं तदपनीतोपनीतमुच्यते इति / अत आह- (अवणीयउवणीयचरए त्ति) (संसठ्ठचरए त्ति) संसृष्टेन खरण्टितेन हस्तादिना दीयमानं संसृष्टमुच्यते, तच्चरति यः स तथा। (असंसट्टचरए त्ति) उक्तविपरीतः (तज्जायसंसट्टचरए ति) तज्जातेन देयद्रव्याविरोधिना यत् संसृष्ट हस्ताऽऽदि तेन दीयमानं यश्वरति स तथा / (अण्णायचरए त्ति) अज्ञातः अनुपदर्शितसौजन्याऽऽदि Page #1568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खायरिया 1560- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खू भावः संश्वरति यः स तथा (मोणचरए त्ति) व्यक्तम् (दिट्ठलाभिय ति) | कायपालके, ध० 3 अधि० / पा० / दृष्टस्यैव भक्ताऽऽदेर्दृष्टाद्वा पूर्वोपलब्धाद् दायकालाभो यस्यास्ति स | भिक्खाविसोहि स्त्री०(भिक्षाविशोधि) भिक्षाया विशोधिर्भिक्षाविदृष्टलाभिकः, (अदिहलाभिए त्ति) तत्रादृष्टस्यापि अपवारकाऽऽदि- | शोधिः। भिक्षासम्बन्धिसावद्यपरिहारे, दश० 1 अ०। मध्यान्निर्गतस्य श्रोत्राऽऽदिभिः कृतोपयोगस्य भक्ताऽऽदेरदृष्टाद्वा पूर्वमनु- भिक्खु पुं०(भिक्षु) भिक्ष-उः। भिक्षया याञ्चयाम्। यमनियमव्यव-स्थितः पलब्धाद् दायकालाभो यस्यास्ति स तथा (पुट्ठलाभिए त्ति) पष्टस्यैव हे कृतकारितानुमोदितपरिहारेण भिक्षते इत्येवंशीलो भिक्षुः / '' सन् साधो ! कि ते दीयत इत्यादि प्रश्रितस्य यो लाभः स यस्यास्ति स तथा भिक्षाशंसे" / 5 / 2 / 33 / इत्युप्रत्ययः। यदि वा नैरुक्ता च शब्दव्युत्पत्तिः, (अपुट्ठलाभिए ति) उक्तविपर्ययादिति (भिवखा-लाभिए त्ति) भिक्षेव क्षुधबुभुक्षायाम्, क्षुध्यति बुभुक्षते भोक्तुमिच्छति चतुर्गतिकमपि संसारभिक्षा तुच्छमविज्ञातं वा तल्लाभो ग्राह्यतया यस्यास्ति स भिक्षा- मस्मादिति सम्पदादित्वात् अष्टप्रकार कर्म, तद् ज्ञानदर्शनचारित्रतया लाभिकः / (अभिक्खालाभिए त्ति) उक्तविपर्ययात् (अण्ण-गिलायए भिनत्तीति भिक्षुः, "पृषोदराऽऽदयः''।३।२।१५५। इति रूपनिष्पत्तिः। ति) अन्नं भोजनं विना ग्लायति अन्नग्लायकः, स चाभिग्रहविशेषात् व्य० 1 उ०। आचा०। सूत्र०। नि० चू० / दश०। भिक्षणं शील प्रातरेव दोषान्नभुगिति / (ओवणिहिए त्ति) उपनिहितं यथाकथञ्चित् धर्मस्तत्साधुकारिता वा यस्य स भिक्षुर्भिनत्ति वा क्षुधमिति भिक्षुः / प्रत्यासन्नीभूतं तेन चरति यः स औपनिहितिकः, उपनिधिना वा स्था० 3 ठा० 3 उ०। भिक्षाभोगी वा भिक्षुः / नि० चू०२० उ० चरतीत्यौपनिधिकः / (परिमिय-पिंडवाइए त्ति) परिमितपिण्डपातः आरम्भत्यागाद्धर्मकायपरिपालनाय भिक्षणशीलो भिक्षुः / दश०४ अ० अर्द्धपोषाऽऽदिलाभो यस्यास्ति स तथा। (सुद्धेसणिए त्ति) शुद्धषणा पा०। पचनपाचनसावद्यानुष्ठानरहिततया निर्दोषाऽऽहारभोजिनि साधौ. शङ्काऽऽदिदोषरहितता शुद्धस्य वा निर्व्यञ्जनस्य कूराऽऽदेरेषणा यरया सूत्र०२ श्रु०१०। उत्तका आव०। स्ति स तथा। (संखायत्तिए ति) सङ्ख्याप्रधाना दत्तयो यस्य स तथा साम्प्रतं भिक्षुशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमधिकृत्याहदत्तिश्च एकक्षेपभिक्षालक्षणा। औ० भ०। एत्थ वि भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दंते सुद्धप्पा सुद्धदविए भिक्षाचर्यामाह वोसट्ठकाए य संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोवस मे अज्झप्पअट्ठविहं गोयरग्गं तु, तहा सत्तेव एसणा। जोगसुद्धाऽऽदाणे समुट्ठाणेण उवट्ठिए ठिअप्पा संखाए परदत्तभोई अभिग्गहाय जे अन्ने, भिक्खायरियमाहिया।।२५।। भिक्षु त्ति वच्चे / / 3 / / भिक्षाचर्या वृत्तिसंक्षेपापरनामिका बाह्या तपस्या आख्याता अष्टविधो / अत्रापीति ये ते पूर्वमुक्ताः पापकर्मविरत्यादयो माहतशब्दप्रवृत्तिगोचरागः प्राकृतत्वादष्टविधोऽग्रगोचर इतिपाठः / अग्रप्रधानो गोचरः, हेतवोऽत्रापि भिक्षुशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्ते त एवावगन्तव्याः, अमी चान्ये अष्टविधश्चासौ अग्रगोचरश्च अष्टविधाग्गोचरः, अष्टौ अग्रगोचरगा भेदा तद्यथा- न उन्नतोऽनुन्नतः, तत्र द्रव्योन्नतः शरीरेणोच्छ्रितः, भावोन्नइत्यर्थः / पेटा 1, अर्द्धपेटा 2 गोमूत्रिका३, पतङ्गवीथिका 4, अभ्यन्तर- तस्त्वभिमानग्रहास्तः, तत्प्रतिषेधात्तपोनिर्जरामदमपि न विधत्ते / शम्बूकावर्त्ता 5, बाह्यशम्बूकावर्ता ६च, आयतगन्तुप्रत्यागमा 7, ऋजु- विनिताऽऽत्मतया प्रश्रयवान् यतः, एतदेवाऽऽह-विनयालङ्कृतो गुर्वागतिः८ एवमष्टी भेदा ऋजुगतिवक्रगतिक्षेपणात् ज्ञेयाः / सप्त एषणाः दावादेश दानोद्यतेऽन्यदा वाऽऽत्मानं नामयतीति नामकः-सदा गुर्वादी ससृष्टाऽऽदयः-. "संसट्ठा 1, असंसट्ठा 2, उद्धड३, अप्पलेपिका 4, प्रह्रो भवति, विनयेन वाऽष्टप्रकारं कर्म नामयति, वैयावृत्योद्यतोऽशेष उग्गहीता 5. पग्गहीता 6, उज्झियधम्मा" एषा सप्तविधा एषणा ज्ञेया, पापमपनयतीत्यर्थः / तथा 'दान्तः' इन्द्रिय नोइन्द्रियाभ्या, तथा 'शुद्धाचः-- पुनरन्ये ये अभिग्रहाः सन्ति अभिग्रहा यथा द्रव्यक्षेत्रकालभावाऽऽ- ऽऽत्मा' शुद्धद्रव्यभूतो निष्प्रति कर्मतया 'व्युत्सृष्टकायश्च परित्यक्तदेहश्च दिचिन्तनेन भिक्षाग्रहण रूपाः द्रव्यतो मण्डकाऽऽदिक क्षेत्रतो गृहाऽऽदी यत्करोति तद्दर्शयति- सम्यक् 'विधूय' अपनीय विरूपरूपान नानादेहलिकातो मध्ये बहिर्वा कालतो भिक्षाचरेषु निर्वर्तितषु, भावतो रुदन रूपाननुकूलप्रतिकूलान् उच्चावचान द्वाविंशति परीषहान् तथा दिव्याssहसन् वा दास्यति तदाहारो ग्राह्य इति चिन्तनेन भिक्षाग्रहणम् / एवं दिकानुपसश्चिति, तद्विधूननं तु यत्तेषां सम्यक् सहनंतैरपराजितता भिक्षाचर्यया भेदास्तीर्थकरैराख्याताः कथिता इत्यर्थः / / 25 / / उत्त०३० परीषहोपसर्गाश्च विधूयाध्यात्मयोगेन-सुप्रणिहितान्तः करणतया धर्मअ० "जिणसासणस्स मूलंभिक्खायरिया जिणेहिं पन्नत्ता। इत्थपरति- ध्यानेन शुद्धम् अवदातमादान-चारित्रं यस्य स शुद्धाऽऽदानो भवति। प्पमाणं, तं जाणसु मंदसद्धीय ।।१।।"ध०र०३ अधि०७ लक्ष०। तथा सम्यगुत्थानेन- सच्चारित्रोद्यमेनोत्थितः तथा। स्थितोमोक्षाध्वनि भिक्खालस्सिय पु०(भिक्षाऽऽलस्यिक) भिक्षायामालस्यिकआलस्य- व्यवस्थितः परीषहोपसर्गरप्यधृष्य आत्मा यस्य स स्थिताऽऽत्मा, तथा वान भिक्षाऽऽलस्यिकः / उत्त० 27 अ० भिक्षायामालस्ययुक्ते, 'संख्याय' परिज्ञायासारतां संसारस्य, दुष्प्रापतां कर्मभूमेर्बोधेः सुदुर्ल"भिक्खालस्सिए एगे।" उत्त० 27 अ01 भत्वं चावाप्य च सकला संसारोत्तरण सामग्री, सत्संयमकरणोद्यतः परैः-- मिक्खालामिय पुं०(भिक्षालाभिक) भिक्षेव भिक्षा तुच्छमवज्ञातं वा / गृहस्थैरात्मार्थ निर्वर्तितमाहारजातं, तैर्दत्तं भोक्तु शीलमस्य परदत्त तल्लाभो ग्राह्यतया यस्यास्ति स भिक्षालाभिकः / भिक्षाचरकभेदे, औ०। भोजी, स एवंगुणकलितो भिक्षुरिति वाच्यः / / 3 / / सूत्र० 1 श्रु०१६ अ०। भिक्खावित्तिय पुं०(भिक्षावृत्तिक) भिक्षया भक्ताऽऽदेः परतो याचनेन इदानी भिक्षुमभिधातुकाम आहवृत्तिवनं धर्मसाधक कायपालनं यत्रासौ भिक्षावृत्तिकः भिक्षया भिक्खुस्स य निक्खेवो, निरुत्त एगट्ठिआणि लिंगाई। Page #1569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु अगुणट्टिओ न भिक्खु अवयवा पंच दाराई / / 332 / / / भिक्षोर्निक्षेपो नामाऽऽदिलक्षणः कार्यः, तथा निरुक्त वक्तव्यं भिक्षोरेव, तथा एकार्थिकानि पर्यायशब्दरूपाणि वक्तव्यानि, तथा लिङ्गानि संवेगाऽऽदीनि, तथा अगुणस्थितो न भिक्षुरपि तु गुणस्थित एवेत्येतदपि वाच्यम्, अत्र चावयवाः पञ्च प्रतिज्ञाऽऽदयो वक्ष्यमाणा इति, द्वाराण्येतानीति गाथासमासार्थः॥३३॥ दश०१० अ०। यथाक्रम (भाष्य-५ गाथां) व्यासार्थमाहनामंठवणाभिक्खू, दवभिक्खू य भावभिक्खू य / दव्वे सरीर भवितो, भावेणय संजतो भिक्खू / / 5 / / भिक्षुशब्दस्य निक्षेपश्चतुष्कः (नामं ति) भिक्षुशब्दस्यात्रापि संबन्धात् नामभिक्षुः, स्थापनाभिक्षुः, द्रव्यभिक्षुः भावभिक्षुश्च चशब्दौ स्वस्वगतानेकभेदसूचकौ, तत्र यस्य पुरुषस्य भिक्षुरिति नाम स नाम्ना भिक्षुर्नामभिक्षुः, यदि वा- 'नामनामवतोरभेदोपचारात्' नाम चासौ भिक्षुश्व नामभिक्षुरिति व्युत्पत्तेर्नामभिक्षुः स्थापनया आकारमात्रेण असत्कल्पनया भिक्षुः स्थापनाभिक्षुः चित्रकर्माऽऽदिलिखितो बुद्धिकल्पिता वाऽक्षाऽऽदिः / द्रव्यभिक्षुर्द्विधाआगमतो, नोआगमतश्च / तत्राऽऽगमतो ज्ञाता, तरच "अनुपयुक्तोऽनुपयोगो द्रव्यमिति'' वचनात्।नोआगमतश्च त्रिविधः तद्यथा-ज्ञशरीरं, भव्यशरीरं, तद्व्यतिरिक्तश्च / तत्र भिक्षुपदार्थज्ञस्ययत् शरीर व्यपगतजीवितं तत्ज्ञशरीर द्रव्यभिक्षुर्भूतभावत्वात्। यस्तु बालको नेदानी भिक्षुशब्दार्थमवबुध्यते, अथवा आयत्या अन्तेनैव शरीरेण भोत्स्यते, तस्य यत् शरीरं तत् भव्यशरीर द्रव्यभिक्षुः भाविभा चत्वात् / तद्व्यतिरिक्तस्विधा / तद्यथा- एकभविक, बद्धाऽऽयुष्कः, अभिमुखनामागोत्रश्वा तत्रएकभविको नाम योनेरयिकस्तिर्यड्मनुष्यो, देवो वा अनन्तरभवे भिक्षुर्भावी बवाऽऽयुष्को नामयेन भिक्षुपर्यायनिमित्तमायुर्बद्धम् / अभिमुखनामगोत्रीयस्य भिक्षुपर्यायप्रवर्तनाभिमुखे नामगोत्रकर्मणी, स चाऽऽर्यक्षेत्रे मनुष्यभवेभाविभिक्षुपर्याये समुत्पद्यमानः। यदि वा स्वजनधना-ऽऽदि परित्यज्य गुरुसमीपे प्रव्रज्याप्रतिपत्त्यर्थ स्वगृहात बहिर्गच्छन्। तथा चाऽऽह-(दव्ये सरीरभवितो त्ति) द्रव्ये इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यभिक्षु।आयमतो इति गम्यते इति / (सरीर त्ति) शरीरग्रहणेनज्ञशरीरं, 'भव्यशरीरं च परिगृहीतम्। (भविय त्ति) भव्यो, भावीत्यनर्थान्तरं, भावी च त्रिविधपर्याय इति तद्ग्रहणे एकभविकाऽऽदित्रिभेदपरिग्रहः०। व्य०१ उ०] भेयओ भेयणं चेव, मिंदिअव्वं तहेव य। एएसिं तिण्हं पि अ, पत्तेयपरूवणं वोच्छं॥३३४॥ भेदकः पुरुषः, भेदनं चैव परश्वादि, भेत्तव्यं तथैव च काष्ठाऽऽदीति भावः / एतेषां त्रयाणामपि भेदकाऽऽदीनां प्रत्येकं पृथक् पृथक् प्ररूपणां वक्ष्ये इति गाथाऽर्थः / / 334 / / एतदेवाऽऽहजह दारुकम्मगारो, मेअणमित्तव्वसंजुओ भिक्खू। अन्ने विदव्वभिक्खू, जे जायणगा अविरया य॥३३५।। यथा दारुकर्मकरो वर्द्धक्यादिः भेदनभेत्तव्यसंयुक्तः सन् क्रिया- विशिष्टविदारणाऽऽदिदारुसमन्वितो द्रव्यभिक्षुः, द्रव्यं भिनत्तीति कृत्वा, तथा अन्येऽपि द्रव्यभिक्षवः-अपारमार्थिकाः / क इत्याह-ये याचनका भिक्षणशीला अविरताश्च अनिवृताश्च पापस्थानेभ्य इति गाथाऽर्थः / / 335 / / एते च द्विविधाः-गृहस्थाः, लिङ्गिनश्चेति, तदाहगिहिणो ऽवि सयारंभगउज्जुप्पन्नं जणं विमग्गंता। जीवणिअदीणकिविणा, ते विज्जा दव्वभिक्खु त्ति / / 336|| गृहिणोऽपि सकलत्रा अपि सदारम्भकाः नित्यमारम्भकाःषण्णां जीवनिकायानामृजुप्रज्ञ जनमनालोचक विमृगयन्तः अनेकप्रकारं द्विपदाऽऽदि भूमिदेवा वयं लोकहितायावतीर्णा इत्यभिधाय याचमाना द्रव्यभिक्षणशीलत्वाद् द्रव्यभिक्षवः, एते च धिग्वर्णाः / तथा ये च 'जीवनिकायै' जीवनिकानिमित्त दीनकृपणाः कार्पटिकाऽऽदयो भिक्षामटन्ति तान्विद्यात विजानीयात द्रव्यभिक्षूनिति, द्रव्यार्थ भिक्षणशीलत्वादिति गाथाऽर्थः // 336|| उपता गृहस्थद्रव्यभिक्षवः। लिङ्गिनोऽधिकृत्याऽऽहमिच्छट्ठिी तसथा-वराण पुढवाइविंदिआईणं। निचं वहकरणरया, अबंभयारी असंचइया / / 337 / / शाक्यभिक्षुप्रभृतयो हि मिथ्यादृष्टयः-अतत्त्वाभिनिवेशिनः प्रशमाऽऽदिलिङ्गशून्याः, बसस्थावराणां प्राणिनां पृथिव्यादीनां द्वीन्द्रियाऽऽदीनां च। अत्र पृथिव्यादयः स्थावरा द्वीन्द्रियाऽऽदयः त्रसाः, नित्यं वधकरणरताः सदा एतदतिपाते सक्ताः कथमित्यत्राऽऽह-अब्रह्मचारिणः सञ्चयिनश्च यतः, अतोऽप्रधानत्वाद् द्रव्यभिक्षवः,चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथाऽर्थः // 337 // एते चाऽब्रह्मचारिणः संचयादेवेति। सञ्चयमाहदुपयचउप्पयधणधन्नकुविअतिअतिअपरिगहे निरया। सचित्तभोह पयमाणगा य उद्दिट्ठभोई अ॥३३८|| द्विपदं दास्यादि, चतुष्पदं गवादि, धनं हिरण्याऽऽदि, धान्यं शाल्याऽऽदि, कुप्यमलिजराऽऽदि, एतेषु द्विपदाऽऽदिषु क्रमेण मनोलक्षणाऽऽदिना करणत्रिकेण त्रिकपरिग्रहे कृतकारितानुमतपरिप्रहे निरताः सक्ताः , न चैतदनार्षम्- "विहारान कारयेद्रम्यान्, वासयेच्च बहुश्रुतान्।" इति वचनात्। सद्भूतगुणानुष्ठायिनो नेत्थंभूता इत्याशङ्कयाऽऽह-सचित्तभोजिनः तेऽपि मांसापकायादिभोजिनः, तदप्रतिषेधात्, पचन्तश्च स्वयं पचास्तापसाऽऽदयः उद्दिष्टभोजिनश्च सर्व एव शाक्याऽऽदयः, तत्प्रसिद्ध्या तपस्विनः अपि पिण्डविशुद्ध्यपरिज्ञानाद्। इतिगाथाऽर्थः // 338 / / त्रिकत्रिकपरिग्रहे निरता इत्येतद्व्याचि ख्यासुराहकरणतिए जोअतिए, सावजे आयहेउपरउभये / अट्ठाणट्ठपवत्ते, ते विजा दवभिक्खु त्ति॥३३६।। करणत्रिक इति- "सुपा सुपो भवन्तीति'' करणत्रिकेण मनोवाक्कायलक्षणेन, योगत्रितय इति-कृतकारितानुमतिरूपे, सावद्ये सपापे, आत्महेलो:-- आत्मनिमित्तदेहाऽऽधुपच्याय, एवं परनिमित्तमित्राऽऽद्युपभोगसाधनाय एवमुभयनिमित्तमुभयसाधनार्थम्, एवमर्थाय आत्माद्यर्थम्, अ Page #1570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु नर्थाय वा विना प्रयोजनेनाऽऽर्तध्यानचिन्तनखराऽऽदिभावणलक्ष्येवधनाऽऽदिभिः प्राणातिपाताऽऽदौ प्रवृत्तान तत्परान् तानेवंभूतान् विद्याद्विजानीयात् द्रव्यभिक्षून इति, प्रवृत्ताश्चैवं शाक्याऽऽदयः, तद्रव्यभिक्षव इति गाथार्थः / / 336 / / एवं स्त्र्यादिसंयोगात् विशुद्धतपोनुष्ठानभावाच्चाबहाचारिण एते इत्याहइत्थीपरिग्गहाओ,आणादाणाइभावसंगाओ। सुद्धतवाभावाओ, कुतित्थियाऽवंभचारित्ति॥३४०|| स्त्रीपरिग्रहादिति दास्यादिपरिग्रहात्, आज्ञादानाऽऽदिभावसङ्गाच्च परिणामाशुद्धेरित्यर्थः, न च शाक्या भिक्षवः, शुद्धतपोऽभावादिति शुद्धस्य तपसोऽऽभावात्, तापसाऽदयः कुतीर्थिका अब्रह्मचारिण इति, ब्रह्मशब्देन शुद्धं तपोऽभिधीयते, तदचारिण इति गाथाऽर्थः / उक्तो द्रव्यभिक्षुः / दश० 10 अ०। भावभिक्षुर्द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च / आगमतो भिक्षुशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, "उपयोगो भावनिक्षेपः" इतिवचनात्। नोआगमतः संयतः। तथा चाऽऽह-''भावेण उ संजतो भिक्खू।"भावेन भिक्षुः, तुशब्दो विशेषणार्थः, स चामु विशेष द्योतयति-नोआगमतः संयतः सम्यक् त्रिविधं त्रिविधेन समस्तसावद्यादुपरतः / (5 गा०टी०) अत्रैव नोआगमतो भावभिक्षुः भिक्षणशीलो भिक्षुरिति व्युत्पत्तिमधिकृत्याऽऽक्षेपपरिहारावभिधित्सुराह भाष्ययकार:भिक्खणसीलो मिक्खू, अण्णे विनते अणण्णवित्तिता। निप्पिसिएणं नायं, पिसियालंभेण सेसाओ।।६।। ननुयदेतत्त्वयोक्तम् भिक्षणशीलो भिक्षुः, इति तदसमीचीनम्, अतिव्याप्तिदोषप्रसङ्गात्। तथाहि-भिक्षणशीलो भिक्षुरित्युच्यमानेऽन्येऽपि रक्तपटाऽऽदयो, नोआगमतो भावभिक्षवः प्राप्नुवन्ति तेषामपि भिक्षाजीवितया भिक्षणशीलत्वात्, न चैतदिष्यते, तस्मादतिव्याप्तिःभाव भिक्षुलक्षणस्य दोषः / अत्र सूरिराह-नते शेषा रक्तपटप्रभृतयो भिक्षवः / कुतः? इत्याह-अनयवृत्तित्वात्, न विद्यते अन्या भिक्षामात्रत्वात्व्यतिरिक्ता वृत्तिर्वर्तन येषां ते अनन्यवृत्तयस्तद्धावस्तत्वं तस्मात्, अनन्यगतिकत्वादित्यर्थः / किमुक्तं भवति?यदा आधाकर्मिकमौद्देशिकमध्याहृतं वा न लभन्ते तदा अनन्यगतिकतया भिक्षापरिभ्रमणशीलास्ततो न ते भिक्षवः / इयमत्र भावनाद्वे शब्दस्य निमित्ते। तद्यथा-व्युत्पत्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं च। यथा गोशब्दस्य तथाहि-गोशब्दस्याव्युत्पत्तिनिमित्त गमनक्रिया, गच्छतीति गौरिति व्युत्पादनात् तेन च गमनेनैकार्थिसमवायितया यदुपलक्षितं सारूस्नाऽदिमत्त्वं तत्प्रवृत्तिनिमित्तं तेन च गच्छति वाऽगच्छति वा गोपिण्डे गोशब्दः प्रवर्तते, उभय्यामप्यवस्थायां प्रवृत्तिनिमित्तभावात्, अश्वाऽऽदौ तु न प्रवर्तते। यथोक्तरूपस्य प्रवृत्तिनिमितस्य तत्राभावात् / एवमत्रापि भिक्षुशब्दस्य द्वे निमित्तेव्युत्पत्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं च / तत्र भिक्षणं व्युत्पत्तिनिमित्त भिक्षते इत्येवं शीलो भिक्षुरिति व्युत्पत्तेः, तेन च भिक्षणेनैकार्थेसमवायितया यदुपलक्षितमिहपरलोकाऽऽशंसाविप्रमुक्तया यमनियमेषु व्यवस्थितत्वं तत्प्रवृत्तिनिमित्तं, तेन भिक्षमाणे अभिक्षमाणे वा भिक्षौ भिक्षुशब्दः प्रवर्तते, उभय्यामपि अवस्थाया प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात्रक्तपटाऽऽदौ तु न प्रवर्तते, नवकोट्यपरिशुद्धाऽऽहारभोजितया तेषु यथोक्तरूपस्य प्रवृत्तिनिमित्तस्याभावात्, अत्रार्थे ज्ञातम्- उदाहरणं कर्त्तव्यं, पिशिताऽलाभेन | यो निष्पिशितस्तेन, यथा कोऽपि ब्रूयात् यावद् मांस न लभे, तावदह निष्पिशितः पिशितव्रती। अविहिंस बंभयारी, पोसहिय अमज्जमंसिया चोरा। सति लंभे परिचाई, हुंति तदक्खा न सेसा उ / / 7 / / कोऽपि भाषेत- अहमहिंसावृत्तिःयावत् मृगाऽदीनपश्यामि / अन्यः कोऽप्येव ब्रूयात--अहं ब्रह्मचारी यावन्मम स्त्री न संपद्यते / अथवाकोऽप्येवमाह-अहमाहारपौषधीयावन्मम आहारोनसंपद्यते। यथा वा कोऽपि वदेत्-अहमद्यमांसवृत्तिः यावन्मद्यमांसे न लभे यथा वा कोऽपि नियमं प्रतिपद्यते अचौरवृत्तिरहं यावत् परस्य छिद्रं न पश्यामीति / एते यथा पिशिताद्यऽऽलाभेन निःपिशिताऽऽदयो नामपिशितवृत्त्याऽदयः / व्रतंच सति असति वा वस्तुनितदिच्छापरित्यागतस्तन्निवृत्तिः निष्पिशिताऽदीनां तु पिशिताऽऽदिष्विच्छासततानुबन्धिनी ततो न ते पिशितव्रत्यादयः व्रतिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तभावात् / तथा चाह- (सति लभे इत्यादि) सति विवक्षितस्य पिशिताऽदेर्वस्तुनो लाभेऽपि तत्परित्यागिनस्ते तदाख्यापिशितव्रत्याख्या भवन्ति / सत्यपि वस्तुनो लाभे तत्परित्यागतः, सतिअसतिवा वस्तुनि तद्विषयेच्छापरित्यागात, शेषास्त्वनन्त रोदिता निष्पिशितऽऽदयो न तदाख्याः पिशिताद्यलाभेऽपि तद्विषयेच्छानिवृत्त्यभावात्। एवं रक्तपटाऽऽदयोऽपि न भिक्षवः पचनपाचनाऽऽदिनवकोटीविषयेच्छानिवृत्त्यभावात्तदभावश्चाधार्मिकाऽऽदिष्वपि प्रवृत्तेः तदेवं निष्पिशिताऽऽदिदृष्टान्तोपन्यासेन रक्तपटाऽऽदिषु यथोक्तरूपप्रवृत्तिनिमित्ताऽभावतो भिक्षुशब्दप्रवृत्यभाव उक्तः। अथवाकि मेतेरुपन्यस्त दृष्टान्तैर्भिक्षुवृत्तेः जगत्प्रसिद्धायास्तेषु साक्षादभावः दर्शनत एव भिक्षुशब्दप्रवृत्त्यभावस्य सिद्धत्वात्। तथा चाऽऽहअहवा एसणासुद्धं, जहा गेण्हंति साहुणो। भिक्खं नेव कुलिंगत्था, भिक्खजीवि वि ते जदि।।८।। अथवेति-प्रकारान्तरद्योतने, तच्च प्रकारान्तरं पातनिकायामेव भावित, यद्यपि ते रक्तपटाऽऽदयो भिक्षाजीविनस्तथापि यथा साधवः एषणाशुद्धाम् एषणादोषेः-शङ्किताऽऽदिभिः, उपलक्षणमेतत्-उद्गमदोषैःआधाकर्मादिभिः उत्पादनादोषैः- धात्रीदूत्यादिभिः परिशुद्धां भिक्षा गृह्णन्ति, नैवम्-अमुना प्रकारेण कुलिङ्गस्थाः - कुत्सितलिङ्गधारिणो रक्तपटाऽऽदयः ततो भिक्षुवृत्तेर्जगत्प्रसिद्धायास्तेष्वभावतो न ते भिक्षवः। तथा चाऽऽहदगमुद्देसिय चेव, कंदमूलफलाणि य। सयं गाहा परतो य, गेण्हंता कहं भिक्खुणो दकम्- उदकं सचित्तं तडागाऽऽदिगतम्, उद्देशिकम्- उद्दिष्टकृत-- कर्मभेदम् उपलक्षणमेतत् आधाकाऽऽदि च तथा कन्दमूलफलानि च स्वयम-आत्मना गृह्णन्तीति स्वयं ग्राहाः। "वा ज्वलाऽऽदिदुनीभूग्रहास्रोर्णः" / 5 / 16 / इति वैकल्पिको णप्रत्ययः / स्वयं गृह्णन्त इत्यर्थः / परतश्च गृह्णन्तः कथं भिक्षवः, भिक्षावृत्तेरभावात्। अथका सा जगत्प्रसिद्धा भिक्षुवृत्तिर्यदभावान्न ते भिक्षव इति भिक्षुवृत्तिमुपदर्शयति-- अचित्ता एसणिज्जा य, मिया काले परिक्खिया। Page #1571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1563 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु जहा लद्धा विसुद्धा य, एसा बित्तीय भिक्खुणी॥१०॥ / अचित्ताप्रासुका न तु सचित्ता, मिश्रा वा एषणीया आधाकम्मदिदोषरहिता, मिता एकत्रिंशदादिकवलप्रमाणतः परिमिता, कालेदिवा, अथवा-तृतीयस्यां पौरुष्या परीक्षदायकाऽऽदिदोषविशुद्धा यथा लब्धा संयोजनाऽऽदिदोषरहिताविशुद्धापरिभोगकाले रागद्वेषाऽकरणतोऽड्गाराऽऽदिदोषरहिता, एवं रूपा या सदा भिक्षा एषा भिषणां वृत्तिः, सा च रक्तपटाऽऽदिषु सर्वथा नाऽस्तीति, तेषु भिक्षुत्वाभावतो नातिप्रसङ्गः तदेवं भिक्षणशीलो भिक्षुरिति व्युत्पत्तौ यदतिप्रसङ्गाऽऽपादनं परेण कृतं. तत् अपाकृतम क्षुधं भिनत्ति इति भिक्षुरिति निर्वचने तु परस्याऽनवकाश एव, केवलं किश्चिद्वक्तव्यमस्तीति। तद्विवक्षुराहदव्वे य भाव मेयग, भेयण भेत्तव्वयं च तिविहं तु / नाणाऽऽइ भावभेयणकम्मखुहेगट्ठयं भेज / / 11 / / क्षुधं भिनत्तीति भिक्षुरिति व्युत्पत्त्याभिक्षुर्भदक उक्तो भेदकोनाम भिदि क्रियाकर्ता, भिदिक्रिया च सकर्मिमका, सकर्मिमकायाश्च क्रियायाः कर्तृ करणकर्मव्यतिरेकेण न भवतीति तद्रहणेन भेदन, भेत्तव्यमिति च द्वयं सूचितम् / एतच भेदकभेदनभेत्तव्यरूपं वस्तुनिकुरम्ब त्रिविधमपि, तुशब्दोऽपिशब्दार्थः, त्रिभेदमपि प्रत्येक द्विधा / तद्यथा-(दव्वे य भावे त्ति) चशब्दो भिन्नक्रमः द्रव्यतो, भावतश्चेत्यर्थः / तथाहि भेदको द्विधाद्रव्यस्य भावस्य च / भेदनमपि द्विधा-द्रव्यस्य भावस्य च, भेत्तव्यमपि द्विधाद्रव्यरूपं, भावरूपं च। तत्र भेदकोरथकाराऽऽदिः, भेदन परश्वादिद्रव्यं, भेत्तव्यं काष्ठम् भावस्य भेदको भिक्षुर्भावस्य भेदनानि ज्ञानाऽऽदीनि, भावभेत्तव्यं कर्म / तथा चाऽऽह- (नाणादीत्यादि) ज्ञानाऽऽदि आदिशब्दात्दर्शनचारित्रपरिग्रहः। भावभेदनं भेद्यं भावत इति च संबध्यते, कर्मकर्मक्षुध इत्येकार्थम् / तथा चोक्तम्-"कम्मं ति वा खुह ति वा / कलुसं ति वा वजंति वा वेरति वा पंको त्ति वा मलोत्तिए एएगडिया" इति / व्य०१ उ०। नि०चू०। उत्त०। जो भिंदेइ खुहं खलु, सो भिक्खू भावतो होइ / / 375 / / यो 'भिनत्ति विदारयति क्षुधं, खलुः अवधारणे, भिन्नक्रमश्न, ततः स एव भिक्षुर्भावतो भवतीति। 'इह च भिनत्तीत्युक्तमतः कर्तृकरणकर्मभिः प्रयोजनं, सकर्मकत्वाद्भिदेः अत आहभेत्ता य भेयणं वा, नायव्वं भिदियव्वयं चेव। एकिकं पिय दुविहं, दव्वे भावे य नायव्वं / / 376 / / रहगारपरसुमाइ, दारुगमाई य दव्वओ हुंति। साहू कम्मऽट्ठविहं, तवो य भावम्मि नायव्वो॥३७७।। रागद्दोसा दंडा, जोगा तह गारवा य सल्ला य। विकहाओ सन्नाओ, खुहं कसाया पमाया य / / 378 / / भेत्ता च कर्ता यो भिनत्ति, भेदनं करणं येन भिनत्ति वा समुचये, ज्ञातव्यंबोद्धव्यं भेत्तव्यमेव भेत्तव्यकं कर्म यद्भिद्यते, चः- समुच्चये, एवेति पूरणे, एकैकमपि चेति भेत्ता भेदनं भेत्तव्यकं च द्विविध-द्विभेदं द्रव्ये भावे च। विचार्यभाणे ज्ञातव्यम्-अवगन्तव्यम्। तत्र द्रव्ये-(रहकारपरसुमाइ त्ति) आदिशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धाद्रथाकालः तक्षकस्तदादिव्यतो भेत्ता आदिशब्दादयस्कारादिपरिग्रहः परशुः-कुठारस्तदादिर्द्रव्यतो भेदनम्, आदिशब्दाधनाऽऽदयो गृह्यन्ते। (दारुगमाई यत्ति) दासकं काष्ठं तदादि च द्रव्यतो भेद्यम, आदिशब्दालोहाऽऽदिपरिग्रहः, भवन्तीति सर्वापक्ष बहुवचनम्। साधुः-तपस्वी कर्मज्ञानाऽऽवरणाद्यष्टविधम् अष्टप्रकार तपश्च-अनशनाऽऽदिभावे विचार्ये भेत्ता, भेत्तव्यं भेदनं चक्रमेण ज्ञातव्यम् / "इत्थं जो भिंदई सुहं खलु' इति ग्रहणकवाक्यं गतं. भिनत्तीति व्याख्याय क्षुधं व्याख्यातुमाह-रागद्वेषौ उक्तरूपौ, दण्डाभनोदण्डाऽऽदयो, योगाः करणकारणानुमति रूपाः / पठन्ति च- "रागद्दोसा छुहं दंडा।" अत्रच 'छुहं ति' क्षुध बुभुक्षा उच्यते- तथा गौरवाणि च ऋद्धिगौरवाऽऽदीनि, शल्यानि च-मायाशल्याऽऽदीनि, विकथाः- स्वीकथाऽऽदयः, संज्ञाःआहारसंज्ञाऽऽदय(खुहं ति) एतद्भावभावित्वादष्टविधकर्मरूपायाः क्षुध एतान्यपि क्षुदित्युच्यन्ते, प्राकृतत्वाच्च तथानिर्देशः, कषायाः-क्रोधाऽऽदयः, प्रमादाश्चः-- मद्याऽऽदयः, क्षुदिति सम्बन्धनीयमिति गाथात्रयार्थः / उपसंहर्तुमाहएयाइं तु खुहाइं, जे खलु भिंदंति सुव्वया रिसओ। ते भिन्नकम्मगंठी, उवेंति अयरामरं ठाणं // 376 / / एतानि रागाऽऽदीनि (खुहाई ति) क्षुच्छब्दवाच्यानिये खलु भिन्दन्ति, विदारयन्ति, खलुशब्द एवकारार्थो भिन्दन्त्येवेति शोभनान्यतिचारतया व्रतानि प्राणातिपातविरत्यादीनि येषां ते सुव्रताः ऋषयो मुनयः, ते किमित्याह-भिन्न कम्मैवातिदुर्भेदतया ग्रन्थिः कर्मग्रन्थियैस्ते तथाविधा उपयान्ति प्राप्नुवन्ति, अजरामरं स्थानमुक्तिपदमिति गाथार्थः। उत्त० पाई०१५ अ०1 स भावमिक्षुर्भेत्तृत्वा-दागमस्योपयोगतः। भेदनेनोग्रतपसा, भेद्यस्याशुभकर्मणः // 17 // सइति--सभावभिक्षु ण्यते। उग्रतपसा भेदनेनाऽशुभकर्मणो भेद्यस्यऽऽगमोपयोगतो भेत्तृत्वात् / तदुक्तम्- "भेत्ता गमोवउत्तो, दुविहतवो भेअण च भेत्तव्यं / अट्ठविह कम्मखुह, तेण निरुत्तं स भिक्खु ति / / 1 / / " / / 17 / / "भिक्षामात्रण वा भिक्षुः।"(१८) भिक्षामात्रेण वा सर्वोपधिशुद्धभिक्षावृत्तिलक्षणेन भिक्षुः / द्वा० 27 द्वा०। भेत्ताऽऽगमोवउत्तो, दुविह तवो भेअणं च भेत्तव्वं / अट्ठविहं कम्मखुहं, तेण निरुत्तं स भिक्खु त्ति / / 342 / / भेत्ता भेदकोऽत्राऽऽगमोपयुक्तः साधुः। तथा द्विविधं बाह्याऽऽभ्यन्तरभेदेन तपो भेदन वर्तते / तथा–भेत्तव्यं विदारणीयं चाष्टविधं कर्म चअष्टप्रकार ज्ञानाऽऽवरणीयाऽऽदि कर्म, तब क्षुदादिदुः खहेतुत्वात् क्षुधशब्दवाच्य, यतश्चैवं तेन निरुक्तं यः शास्त्रानीत्या तपसा कर्म भिनक्ति स भिक्षुरिति गाथाऽऽर्थः // 342 / / किंचमिंदतो य जह खुहं, भिक्खू जयमाणओ जई होइ। संजमचरओ चरओ, भवं खिवंतो भवंतो उ॥३४३।। भिन्दै च विदारय श्च यथा क्षुधं कर्म भिक्षुर्भवति, भावतः यतमानस्तथा तथा गुणेषु स एव यतिर्भवति नान्यथा, Page #1572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1564 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मिक्खु क्षुधम् अष्टप्रकारं कर्म भिन्दानो भिक्षुः, यते प्रयत्ने संयमयोगेषु यतमानः प्रयत्नवान् यतिः, तपःसंयमे-तपःप्रधानसंयमे वर्तमानस्तपरची, तपोऽस्यास्तीति तपस्वीति व्युत्पत्तेः / भवनारकाऽऽदिभव क्षपयन् भवान्तः, भवमन्तयति भवस्याऽन्तं करोतीती इति व्युत्पत्तेः / व्य०१ उन इदानीं लिङ्गद्वारं व्याचिख्यासुराहसंवेगो निव्वेगो, विसयविवेगो सुसीलसंसग्गो। आराहणा तवो नाणदंसणचरित्तविणओ अ॥३४८|| संवेगो मोक्षसुखाभिलाषः, निर्वेदः संसारविषयः, विषयविवेको विषयपरित्यागः, सुशीलसंसर्गः शीलवद्भिः सम्बन्धः, तथा-आराधना चरमकाले निर्यापणरूपा, तपो यथाशक्त्यनशनाऽऽद्यासेवन, ज्ञानं यथावस्थितपदार्थविषयमित्यादि, दर्शन नैसर्गिकाऽऽदि, चारित्रं सामायिकाऽऽदि, विनयश्च ज्ञानाऽऽदिविनय इति गाथाऽर्थः / / 348 / / तथा एवं संयमचरकः सप्तदशप्रकारसंयमानुष्ठायी चरकः एवं भवं संसारं क्षपयन् परीत कुर्वन् स एव भवान्तो भवति, नान्यथेति गाथाऽर्थः / / 343 / / प्रकारान्तरेण निरुक्तमेवाऽऽहजं भिक्खमत्तवित्ती, तेण व भिक्खू खवेति जं व अणं। तवसंजमे तवस्सि,त्ति वावि अन्नो विपजाओ॥३४४॥ यद्यस्मादिक्षामात्रवृत्तिर्भिक्षामात्रेण सर्वोपधाशुद्धेन वृत्तिरस्येति समासः, तेन वा भिक्षुः भिक्षणशीलो भिक्षुरिति कृत्वा, अनेनैव प्रसङ्गेन अन्येषामपि तत्पर्यायाणां निरुक्तमाह-क्षपयति यद्यस्मात् वा ऋण कर्म तस्मात् क्षपणः, क्षपयतीति क्षपण इति कृत्वा, तथा संयमतपसीति संयमप्रधानं तपः संयमतपः, तस्मिन् विद्यमाने तपस्वीति वाऽपि भवति। तपोऽस्यास्तीति कृत्वा अन्योऽपि पर्यायः इत्यन्योऽपि भेदोऽर्थतो भिक्षुशब्दनिरुक्तस्येति गाथाऽर्थः // 344 / / उक्तं निरुक्तद्वारम् / अधुनैकार्थिकद्वारमाहतिन्ने ताई दविए, वई य खंते य दंतविरए अ। मुणितावसपन्नवगुजु-भिक्खू बुद्धे जइ विऊ य / / 345 / / तीर्णवत्तीर्णःविशुद्धसम्यग्दर्शनादिलाभाद्भवार्णवमितिगम्यते। तायोऽस्यास्तीति तायी, तायः सुदृष्टभार्गोक्तिः, सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः / द्रव्यं रागद्वेषरहितः, व्रती च हिंसाऽऽदिविरताश्च क्षान्तश्व क्षाम्यति क्षमा करोतीति क्षान्तः, बहुलवचनात् कर्तरि निष्ठा। एवं दाम्यतीन्द्रियाऽऽदि दम करोतीति दान्तः विरतश्च विषयसुखनिवृत्तश्च, मुनिमन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः, तपःप्रधानः तापसः प्रज्ञापकः अपवर्गमार्गस्य प्ररूपकः, ऋजुर्मायारहितः संयमवान् वा, भिक्षुः पूर्ववत्, बुद्धोऽवगततत्त्वो, यतिरुत्तमाऽऽश्रमी प्रयत्नवान् वा, विद्वाँश्च पण्डितश्चेति गाथाऽर्थः // 34 // तथापव्वइए अणगारे, पासंडी चरग बंभणे चेव। परिवायगे य समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते / / 346 / / प्रवजितः पापान्निष्क्रान्तः, अनगारो द्रव्यभावागारशून्यः, पाखण्डी पाशाहीनः, चरकः पूर्ववत्, ब्राह्मणश्चैव विशुद्धब्रह्मचारी, चैव, परिव्राजकश्च पापवर्जकश्च, श्रमणः पूर्ववत्, निर्गन्थः संयतो मुक्त इत्येतदपि पूर्ववदेवेति गाथार्थः॥३४६|| खंतीय मद्दवऽज्जव, विमुत्तया तह अदीणय तितिक्खा। आवस्सगपरिसुद्धी, य होंति भिक्खुस्स लिंगाई / / 346 / / क्षान्तिवाऽऽक्रोशाऽऽदिश्रवणेऽपि क्रोधत्यागश्च माईवाऽऽर्जवविमुक्ततेति जात्यादिभावेऽपि मानत्यागान्माईवं, परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्याग आर्जवं, धर्मोपकरणेष्वप्यमूर्छा विमुक्तता, तथा अशनाऽऽऽऽद्यलाभेऽपि अदीनता, क्षुदादिपरीषहोपनिपातेऽपि तितिक्षा, तथा आवश्यकपरिशुद्धिश्वाऽऽवश्यककरणीययोगनिरतिचारता च, भवन्ति भिक्षोविसाधोलिङ्गान्यनन्तरोदितानि संवेगाऽऽदीनीति गाथाऽर्थः // 346 / / व्याख्यातं लिङ्गद्वारम्। अवयवद्वारमाहअज्झयणगुणी भिक्खू, न सेस इइ णो पइन्न को हेऊ? अगुणत्ता इइ हेऊ, को दिटुंतो? सुवण्णमिव / / 350|| 'अध्ययनगुणी' प्रक्रान्ताध्ययनोक्तगुणवान् 'भिक्षुः' भावसाधुर्भवतीति, तत्स्वरूपमेतत्, 'न शेषः तद्गुणरहित इति / 'नःप्रतिज्ञा' अस्माकं पक्षः, 'को हेतुः?' कोऽत्रपक्षधर्म इत्याशङ्-क्याऽऽह- 'अगुणत्वादिति हेतुः' अविद्यमानगुणोऽगुणस्तद्धावस्तत्त्वं तस्मादित्ययं हेतुः, अध्ययनगुणशून्यस्य भिक्षुत्वप्रतिषेधः साध्य इति, 'को दृष्टान्तः?' किं पुनरत्र निदर्शनमित्याशझ्याऽऽह-'सुवर्णमिव' यथा सवुर्ण स्वगुणरहितं सुवर्ण न भवति तद्वदिति गाथाऽर्थः / / सुवर्णगुणानाहविसघाइरसायण मंगलत्थ विणिऍ पयाहिणावत्ते। गुरुए अडज्झऽकुत्थे, अट्ठ सुवण्णे गुणा भणिआ।१३५१।। 'विषघाति' विषधातनसमर्थ, 'रसायनं' वयस्तम्भनकर्तृ, 'मङ्गलार्थ' मङ्गगलप्रयोजन, 'विनीत' यथेष्टकटकाऽऽदिप्रकारसम्पादनेन प्रदक्षिणाऽऽवर्त्त, तप्यमान प्रादक्षिण्येनाऽऽवर्त्तते, 'गुरु' सारोपेतम् 'अदाह्य' नाग्निना दह्यते, 'अकुथनीयं न कदाचिदपि कुथतीत्येतेऽष्टावनन्तरोदिताः सुवर्णे' सुवर्णविषया गुणा भणितास्तत्स्वरूपज्ञैरिति गाथाऽर्थः / उक्ताः सुवर्णगुणाः साम्प्रतमुपनयमाहचउकारणपरिसुद्धं, कसछेअणतावतालणाए / तथा साहू लूहे अ तहा, तीरट्ठी होइ चेव नायव्वो। नामाणि एवमाई-णि हों ति तवसंयमरयाणं // 347 / / साधुः रूक्षक्ष तथेति निर्वाणसाधकयोगसाधनात्साधुः, स्वजनाऽऽदिषु स्नेहविरहादूक्षः, तीरार्थी चैव भवति ज्ञातव्य इति तीरार्थी भवार्णवस्य, नामान्येकार्थिकानि पर्यायाभिधानान्येवमादीनि यथोक्तलक्षणानि भवन्ति / केषामित्याह- तपःसंयमरतानां भावसाधुनामिति गाथाऽर्थः // 347 // दश० 10 अ०। प्रतिपादितमेकार्थिकद्वारम्। भिक्षोरपिशक्रपुरन्दरवदशून्यकार्थिकानि भिक्षुः यतिः तपस्वी भवान्त इति। तथा चैतेषां व्युत्पत्तिमाहभिंदेतो यावि खुहं, मिक्खू जयमाणगो जई होइ। तवसंजमे तवस्सी, भवं खिवंतो भवंतो य॥१२॥ Page #1573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु जंतं विसघाइरसायणाइगुणसंजुअंहोइ॥३५२।। यत्र वचन पृथिव्याधुपमईकः, गृहं करोति संभवत्येवैषणीयालये मूर्छया 'चतुष्कारणपरिशुद्ध चतुः परीक्षायुक्तमित्यर्थः, कथमित्याह- वसतिं भाटकगृहं वा, तथा प्रत्यक्षं च उपलक्ष्यमान एव 'जलगतान्' कषच्छेदतापताडनया चेति कषेण छेदेन तापेन ताडनया च, यदेव-विध अप्कायाऽऽदीन् यः पिबति तत्त्वतो विनाऽऽलम्बनेन, कथं त्वसौ भिक्षुः, तद्विषघातिरसायनाऽऽदिगुणसंयुक्तं भवति, भावसुवर्ण स्वकार्यसाधक- नैव भावभिक्षुरिति गाथाऽर्थः।।। मिति गाथाऽर्थः / / ___ उक्त उपनयः, साम्प्रतं निगमनमाहएतदेव स्पष्टयन्नाह तम्हा जे अज्झयणे, भिक्खुगुणा ते हिँ होइ सो भिक्खू / तं कसिणगुणोवेअं, होइ सुवण्णं न सेसयं जुत्ती। तेहि असउत्तरगुणेहि होइ सो भाविअतरो उ॥३५८।। नहि नामरूवमेत्तेण एवमगुणो हवइ भिक्खू // 353 / / यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्माद्येऽध्ययने प्रस्तुत एव 'भिक्षुगुणा' 'तद' अनन्तरोदितं कृत्स्नगुणोपेतं' सम्पूर्णगुणरामन्वितं भवति सुवर्ण मूलगुणरूपा उक्तास्तैः करणभूतैः सद्धिर्भवत्य सौ भिक्षुः, तैश्च सोत्तरयथोक्त, न ‘शेष' कषाऽऽधशुद्ध, युक्तिरिति वर्णाऽऽदिगुणसाम्येऽपि गुणेः पिण्डविशुद्ध्याद्युत्तरगुणसमन्वितैर्भवत्यसौ 'भाविततरः' चारित्रयुक्तिसुवर्णमित्यर्थः, प्रकृते योजयति यथैतत्सुवर्ण न भवति, एवं न हि धर्मे तु प्रसन्नतर इति गाथाऽर्थः / / उक्तो नाम-निष्पन्नो निक्षेपः / नागरूपमात्रेणरजोहरणाऽऽदिसन्धारणाऽऽदिना'अगुणः' अविद्यमान साम्प्रतं सूत्राऽऽलापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः प्रस्तुताध्ययनोक्तगुणो भवति भिक्षुः भिक्षामटन्नपि न भवतीतिगाथाऽर्थः / / पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलिताऽऽदिगुणोपेतं एतदेव स्पष्टयन्नाह सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम्जुत्तीसुवण्णगं पुण, सुवण्णवण्णं तु जइ वि कीरिज्जा। निक्खम्ममाणाइ अबुद्धवयणे, न हु होइ तं सुवण्णं, सेसेहि गुणेहिँ संतेहिं / / 354 // निच्चं चित्तसमाहिओ हविजा। युक्तिसुवर्ण कृत्रिमसुवर्णमिह लोके सुवर्णवर्ण तु जात्यसुवर्ण-वर्णमपि इत्थीण वसं न आवि गच्छे, यद्यपि क्रियेत पुरुषनैपुण्येन तथाऽपि नैव भवति तत् सुवर्ण परमार्थेन ' वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू ||1|| शेषैर्गुणः कषाऽऽदिभिः 'असद्भिः' अविद्यमानैरिति गाथाऽर्थः / / पुढविं न खणे न खणावए, एवमेव किमित्याह सीओदगं न पिए न पिआवए। जे अज्झयणे भणिआ, भिक्खुगुणा तेहि होइ सो भिक्खु / अगणिसत्थं जहा सुनिसि, वण्णेण जच्चसुवण्णगं व संते गुणनिहिम्मि // 355|| तं न जले न जलावए जे स भिक्खू // 2 // येऽध्ययने भणिता भिक्षुगुणा अस्मिन्नेव प्रक्रान्ते जिनवचने चित्त- अनिलेण न वीएन वीयावए, समाध्यादयः तैः करणभूतैः सद्भिर्भवत्यसौ भिक्षुनामस्थापनाद्रव्य- हरियाणि न छिंदे न छिंदावए। भिक्षुव्यपोहेन भावभिक्षुः, परिशुद्धभिक्षावुतत्वात्। किमिवेत्याह. 'वर्णेन' बीआणि सया विवजयंतो, पीतलक्षणेन 'जात्यसुवर्णमिव' परमार्थसुवर्णमिव 'सति गुणनिधौ' सचित्तं नाहारए जे स भिक्खू ||3|| विद्यमानेऽन्यस्मिन् कषाऽऽदौ गुणसंघाते, एतदुक्तं भवति-यथाऽन्य वहणं तसथावराण होइ, गुणयुक्तं शोभनवर्ण सुवर्ण भवति तथा चित्तसमाध्यादिगुणयुक्तो पुढवीतणकट्ठनिस्सिआणं / भिक्षणशीलो भिक्षुर्भक्तीति गाथाऽर्थः // तम्हा उद्देसिअंन मुंजे, व्यतिरेकतः स्पष्टयति नोऽवि पए न पयावए जे स भिक्खू // 4|| जो भिक्खू गुणरहिओ, भिक्खं गिण्हइ न होइ सो भिक्खू / रोइअनायपुत्तवयणे, वण्णेण जुत्तिसुवण्णगं व असई गुणनिहिम्मि॥३५६।। अत्तसमे मन्निज छप्पि काए। यो भिक्षुः 'गुणरहितः' चित्तसमाध्यादिशून्यः सन् भिक्षामटति न पंच य फासे महव्वयाई, भवत्यसौ भिक्षुर्भिक्षाटनमात्रेणैव, अपरिशुद्धभिक्षावृत्तित्वात् / किमि पंचाऽऽसवसंवरे जे स भिक्खू / / 5 / / वेत्याह- वर्णन युक्तिसुणमिव,यथा तद्वर्णमात्रेण सुवर्ण न भवत्यसति "निष्क्रम्य' द्रव्यभावगृहात प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थः 'आज्ञया' तीर्थकर'गुणनिधौ' कषाऽऽदिक इति गाथाऽर्थः / / गणधरोपदेशेन योग्यतायां सत्या, निष्क्रम्य किमित्याह- 'बुद्धवचने' किं च - अवगततत्त्वतीर्थकरगणधरवचने 'नित्य' सर्वकालं 'चित्तसमाहितः' उद्दिट्ठकयं मुंजइ, छक्कायपमद्दओ घरं कुणइ। चित्तेनातिप्रसन्नो भवेत्, प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः / व्यतिरेकतः पचक्खं च जलगए, जो पियइ कह नु सो मिक्खू?||३५७।। समाधानोपायमाह-'स्त्रीणां सर्वासत्कार्यनिबन्धनभूतानां वशं तदायत्तउद्दिश्य कृतं भुक्त इत्यौद्देशिकमित्यर्थः, षट्कायप्रमर्दकः- | तापरूपनचापिगच्छेत्तद्वशगोहि नियमतोवान्तं प्रत्यापिवति, अतोबुद्ध Page #1574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु वचनचित्तसमाधानतः सर्वथा स्त्रीवशत्यागाद, अनेनैवोपायेनान्यापायासंभवात्, 'वान्त' परित्यक्तं सद्विषयजम्बाल 'न प्रत्यापिबति' न | मनागप्याभोगतोऽनाभोगतश्च तत्सेवते यः स 'भिक्षुः'- भावाभिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 1 / / तथा- 'पृथिवी' सचेतनाऽऽदिरूपां न खनति स्वयं, न खानयति परैः, एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति खनन्तमप्यन्यं न समनुजानाति, एवं सर्वत्र वेदितव्यम्। शीतोदकं' सचित्तं पानीयंन पिबति स्वयं, न पाययति परानिति, अग्निः षड्जीवघातकः, किंवदित्याह'शस्त्र' खड्गाऽऽदि यथा 'सुनिशितम्' उज्ज्वालितं तद्वम्, तनज्वालयति स्वयं, नज्वालयति परैः; य इत्थंभूतः स भिक्षुः। आह-षड्जीवनिकायाऽऽदिषु सर्वाध्ययनेष्वयमर्थोऽभिहितः किमर्थ पुनरुक्त इति? उच्यते, तदुक्तार्थानुष्ठानपर एव भिक्षुरिति ज्ञापनार्थ, ततश्च न दोष इति सूत्रार्थः // 2 // तथा अनिलेन' अनिलहेतुना चेलकर्णाऽऽदिनान वीजयत्यात्माऽऽदि स्वयं, न वीजयति परैः / 'हरितानि' शस्याऽऽदीनि न छिनत्ति स्वयं, न छेदय ति परैः 'बीजानि' हरितफलरूपाणि ब्रीह्यादीनि, "सदा सर्वकालं विवर्जयन संघट्टनाऽऽदिक्रियया, सचित्तं नाऽऽहारयति यः कदाचिदप्यपुष्टाऽऽलम्बनःस भिक्षुरितिसूत्रार्थः // 3 // औद्देशिकाऽऽदिपरिहारेण त्रसस्थावरपरिहारमाह- 'बंधन' हननं 'बसस्थावराणां' द्वीन्द्रियाऽऽदिपृथिव्यादीनां भवति कृतौद्देशिके, किं विशिष्टानाम्? 'पृथिवीतृणकाष्ठनिश्रिताना' तथासमारम्भात्, यस्मादेवं तस्मादौदेशिक कृताऽऽद्यन्यच सावद्यं न भुक्ते, न केवलमेतत्, किं तु? नापि पचति एस्वयं, न पाचयति अन्यैर्न पचन्तमनुजानाति, यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः // 4 // किंच- 'रोचयित्वा' विधिग्रहणभावनाभ्यां प्रियं कृत्वा किं तदित्याह-'ज्ञातपुत्रवचनं भगवन्महावीरवर्धमानवचनम् आत्मसमान्' आत्मतुल्यान् मन्यते 'षडपि' कायान् पृथिव्यादीन्, 'पञ्च चे ति' चशब्दोऽप्यर्थः पञ्चापि, 'स्पृशति' सेवते महाव्रतानि ‘पञ्चाऽऽश्रवसंवृतश्च' द्रव्यतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंवृतश्च यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः // 5 // चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी हविज्ज बुद्धवयणे। अहणे निज्जायरूवरयए, गिहिजोगं परिवजए जे स भिक्खू // 6 // सम्मविट्ठी सया अमूढे, अत्थि हु नाणे तवे संजमे अ। तवसा धुणइ पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू / / 7 / / तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। होही अट्ठो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू / / 8 / / तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लमित्ता। छंदिअ साहम्मिआण भुंजे, भुचा सज्झायरए जे स भिक्खू / / / न य वुग्गहिअं कहं कहिज्जा, ___ न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते। संजमे धुवं जोगेण जुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स मिक्खू // 10|| किंच-चतुरः क्रोधाऽऽदीन्वमति तत्प्रतिपक्षाभ्यासेन 'सदा' सर्वकालं कषायान, धुवयोगी च उचितनित्ययोगवांश्च भवति, बुद्धवचन इति तृतीयार्थ सप्तमी, तीर्थकरवचनेन करणभूतेना, ध्रुवयोगी भवति यथागममेवेति भावः, 'अधनः' चतुष्पदाऽऽदिरहितः 'निर्जातरूपरजतो' निर्गतसुवर्णरूप्य इति भावः, 'गृहियोग' मूर्च्छया गृहस्थसंबन्धं परिवर्जयति' सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 6 / / तथा'सम्यग्दृष्टि' भावसम्यग्दर्शनी सदा अमूढः अविप्लुतः सन्नेवं मन्यतेअस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेष्वपि तपश्च बाह्याऽऽभ्यन्तरकर्ममलापनयनजलकल्पं संयमश्च नवकर्मानुपादानरूपः, इत्थं च दृढभावस्तपसा धुनोति पुराणपापं भावसारया प्रवृत्त्या 'मनोवाक्कायसंवृतः' तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 7 / / तथैवे ति पूर्वर्षिविधानेन 'अशनं पानं च' प्रागुक्तस्वरूपं तथा 'विविधम्' अनेकप्रकार 'खाद्यं स्वाद्यं च प्रागुक्तस्वरूपमेव 'लब्ध्वा' प्राप्य, किमित्याह-- भविष्यति 'अर्थः' प्रयोजनमनेन श्वः परश्यो वेति 'तद्' अशनाऽऽदि 'न निधत्ते' न स्थापयति स्वयं, तथा 'न निधापयति' न स्थापयत्यन्यैः, स्थापयन्तमन्यं नानु-जानाति, यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 8 / / किं च-तथैवाशनं पानं च विविध खाद्यं स्वाद्य चलब्ध्वेति पूर्वक्त, लब्ध्या किमित्याह- 'छन्दित्वा' निमन्त्र्य 'समानधार्मिकान्' साधून भूक्ते, स्वाऽऽत्मतुल्यतया तद्वात्सल्यसिद्धेः, तथा भुक्त्वा स्वाध्यायरतश्च यः, चशब्दाच्छेषानुष्ठानपरश्च यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 6 / / भिक्षुलक्षणाधिकार एवाऽऽह- न च 'वैग़ाहिकी' कलहप्रतिबद्धां कथा कथयति, सद्वादकथाऽऽदिष्वपि न च कुप्यति परस्य, अपितु 'निभृतेन्द्रियः' अनुद्धतेन्द्रियः 'प्रशान्तो' रागाऽऽदिरहित एवाऽऽस्ते, तथा 'संयमे पूर्वोक्ते 'ध्रुवं' सर्वकालं 'योगेन' कायवाड्मनः कर्मलक्षणेन युक्ते योगयुक्तः, प्रतिभेदमौचित्येन प्रवृत्तेः, तथा 'उपशान्तः' अनाकुलः कायचापलाऽऽदिरहितः 'अविहेटकः नमचिदुचितेऽनादरवान्, क्रोधाऽऽदीनां विश्लेषक इत्यन्ये, य इत्थंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 10 / / जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जणाओ अ। भयमेरवसहसप्पहासे, समसुहदुक्खसहे अजेस भिक्खू // 11 // एतदेव स्पष्टयतिपडिमं पडिवजिआ मसाणे, नो भीयए भयभेरवाइंदिस्स। Page #1575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1567 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु विविहगुणतवोरए अनिचं, न सरीरं चाभिकंखए जे स भिक्खू / / 12 / / असई वोसट्ठचत्तदेहे, अकुठे व हए लूसिए वा। पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनिआणे अकोउहल्ले जे स भिक्खू // 13 // अभिभूअकारण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं / विइत्तु जाईमरणं महब्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू // 14 // हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए। अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा, सुत्तत्थं च बिआणइ जे स भिक्खू / / 15 / / 'प्रतिमा' मासाऽऽदिरूपां 'प्रतिपद्य' विधिनाऽङ्गीकृत्य 'श्मशाने' पितृवने 'न बिभेति' न भयं याति 'भैरवभयानि दृष्ट्वा' रौद्रभयहेतूनुपलभ्य वैतालाऽऽदिरूपशब्दाऽऽदीनि विविधगुणतपोरतश्च नित्यं' 'मूलगुणाऽऽद्यनशनाऽऽदिसक्तश्च सर्वकालं, न शरीरमभिकाते निःस्पृहतया वार्त्तमानिक भावि च, य इत्थम्भूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 12 / / न सकृदसकृत्सर्वदेत्यर्थः, किमित्याह 'व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः' व्युत्सृष्टो भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः- 'शरीर येन स तथाविधः, आकृष्टो वा यकाराऽऽदिना हतो वा दण्डाऽऽदिना लूषितो वा खङ्गाऽऽदिना भक्षितो वा श्वशृङ्गालाऽऽदिना 'पृथिवीसमः' सर्वसहो मुनिर्भवति, न च रागाऽऽदिना पीड्यते तथा अनिदानो' भाविफलाsऽशंसारहितः, अकुतूहलश्च नटाऽऽदिषु, य एवम्भूतः स भिक्षुरिति सूत्राऽर्थः // 13 // भिक्षुस्वरूपाभिधानाधिकार एवाऽह- 'अभिभूय' पराजित्य 'कायेन' शरीरेणापि, न भिक्षुसिद्धान्तनीत्या मनोवाग्भ्यामेव, कायेनानभिभवे तत्त्वतस्तदनभिभवात्, ‘परीषहान्' क्षुदादीन्, 'समुद्धरति उत्तारयति 'जातिपथात् संसारमार्गादात्मानं, कथमित्याह-- 'विदित्वा' विज्ञाय जातिमरणं संसारमूलं 'महामयं' महाभयकारण, 'तपसि रतः' तपसि सक्तः, किम्भूत इत्याह- 'श्रामण्ये' श्रमणाना सम्बन्धिनि, शुद्ध इति भावः, य एवम्भूतः स भिक्षुरिति सूत्राऽर्थः / / 14 / / तथा हस्तसंयतः पादसंयत इति कारणं विना कूर्मवल्लीन आस्ते, कारणे च सम्यग्गच्छति, तथा वाक्यसंयतः अकुशलवाग्निरोधकुशलवागुदीरणेन, संयतेन्द्रियो निवृत्त विषयप्रसरः, अध्यात्मरतः प्रशस्तध्यानाऽऽसक्तः, सुसमाहिताऽऽत्मा ध्यानाऽऽपादकगुणेषु, तथा सूत्रार्थ च यथावस्थितं विधिग्रहणशुद्ध विजानाति यः सम्यग्यथाविषयं स भिक्षुरिति सूत्रार्थः॥१५॥ तथाउवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए। कयविक्कयसंनिहिओ विरए, सव्वसंगावगए अजे स भिक्खू // 16|| अलोल भिक्खू न रसेसु गिज्झे, ___ उंछं चरे जीविअ नाभिकंखे / इति च सक्कारणपूअणं च, चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू // 17 / / न परं वइजासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज्जन तं वइज्जा। जाणिअ पत्तेअं पुण्णपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू // 18 // न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते। . मयाणि सव्वाणि विवजइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू / / 16 / / पवेअए अजपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि। निक्खम्म वज्जिज्ज कुसीललिंग। न आवि हासंकुहए जे स भिक्खू // 20 // तं देहवासं असुइं असासयं / सया चए निचहिअट्ठिअप्पा। छिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागम गई / / 21 / / ति बेमि // 'उपधौ' वस्त्रादिलक्षणे 'अमूञ्छित' तद्विषयमोहत्यागेन 'अगृद्धः' प्रतिबन्धाभावेन, अज्ञातोञ्छं चरति भावपरिशुद्धं, स्तोकं स्तोकमित्यर्थः, 'पुलाकनिष्पुलाक' इति संयमासारताऽऽपादकदोषरहितः, 'क्रयविक्रयसन्निधिभ्यो विरतः' द्रव्भावभेदभिन्नक्रयविक्रयपर्युषितस्थापनेभ्यो निवृत्तः 'सर्वसङ्गापगतश्चयः,' अपगतद्रव्यभावसङ्गश्चयः, स भिक्षुरिति सूत्रार्थः।।१६।। किंच-अलोलोनाम नाप्राप्तप्रार्थनपरो 'भिक्षुः' साधुः न रसेषु गृद्धः, प्राप्तेष्वप्यप्रतिबद्ध इति भावः, उञ्छ चरति भावोज्छमेवेति पूर्ववत्, नवरं तत्रोपधिमाश्रित्योक्तमिहत्वाहारमित्यपौनरुक्त्य, तथा जीवितं नाभिका क्षते, असंयमजीवितं, तथा 'ऋद्धिच' आमाँ षध्यादि-रूपां सत्कारं वस्त्राऽऽदिभिः पूजनं च स्तवाऽऽदिना त्यजति, नैतदर्थमेव यतते, स्थिताऽऽत्मा ज्ञानाऽऽदिषु, 'अनिभइत्यमायो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 17 / / तथा न 'पर' स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तं वदति अयं कुशीलः, तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात्, स्वपक्षविनेयं तु शिक्षाग्रहणबुझ्या वदत्यपि, सर्वथा येनान्यः कश्चितकुप्यति नतद्ब्रवीति दोषसद्भावेऽपि, किमित्यत आह-ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं. नान्यसंबन्ध्यन्यस्य भवति अग्निदाहवेदनावत्, एवं सत्स्वपिगुणेषुनाऽऽत्मानं समुत्कर्षति-नस्वगुणैर्गर्वमायाति यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः॥१८|| मदप्रतिषेधार्थमाह-नजातिमत्तो यथाऽहं ब्रह्मणः, क्षत्रियो वा, न च रूपमत्तो यथाऽहं रूपवानादेयः, नलाभमत्तो यथाऽहं लाभवान,न श्रुतमत्तो यथाऽहं पण्डितः, Page #1576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु - अनेन कुलमदाऽऽदिपरिग्रहः, अत एवाऽऽह-मदान् सर्वान कुलाऽऽदिविषयानपि 'परिवर्य' परित्यज्य 'धर्मध्यानरतो 'यो यथाऽऽगमं तत्र सक्तः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / 16 / किं च- 'प्रवेदयति' कथयति 'आर्यपद' शुद्धधर्मपदं परोपकाराय महामुनिः शीलवान् ज्ञाता एवंभूत एव वस्तुतो नान्यः, किमित्येतदेवमित्यत आह-धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि श्रोतार, तत्राऽऽदेयभावप्रवृत्तेः, तथा निष्क्रम्य वर्जयति कुशीललिङ्गम्, आरम्भाऽऽदि कुशीलचेष्टितं, तथा 'न चापि हास्यकुहको' न हास्यकारिकुहकयुक्तो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः // 20 // भिक्षुभावफलमाह- 'तं देहवासं' इत्येवं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं चारकरूपं शरीराऽऽवासम् अशुचिं शुक्रशोणितोद्भवत्वाऽऽदिना अशाश्वतं प्रतिक्षणपरिणत्था सदा त्यजति ममत्वानुबन्धत्यागेन, क इत्याह- 'नित्यहिते' मोक्षसाधने सम्यग्दर्शनाऽऽदौ स्थिताऽऽत्मा' अत्यन्तसुस्थितः स चैवंभूतश्छित्त्वा 'जातिभरणस्य संसारस्य 'बन्धन' कारणम् 'उपैति' सामीप्येन गच्छति "भिक्षुः यतिः 'अपुनरागमा पुनर्जन्माऽऽदिरहितामित्यर्थः, गतिमितिसिद्धिगति ब्रवीमिति पूर्ववदिति सूत्रार्थः / / 21 / उक्तोऽनुगमो नयाः पूर्ववत् इति। दश०१० अ०। मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्म, सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने! संथवं जहिज्ज अकामकामे, अन्नायएसी परिव्वए स भिक्खू / / 1 / / मुनेः कर्म मौनं, तच्च सम्यक् चारित्रं, 'चरिस्सामो ति' सूत्रत्वात् चरिष्यामि आसेविष्ये इत्यभिप्रायेणेत्युपस्कारः, 'समेत्य' प्राप्य एवं 'धर्म' श्रुतचारित्रभेदं दीक्षामित्युक्तं भवति, सहितः सम्यग्दर्शनाऽऽदिभिरन्यसाधुभिर्वेति गम्यते, स्वस्मै हितः स्वहितोवा सदनुष्ठानकरणतः, कश्चैवम्?- ऋजुः-संयमस्तत्प्रधानं ऋजुवा– मायात्यागतः कृतम - अनुष्ठानं यस्येति ऋजुकृतः, ईदृक्क इत्याह-निदानंविषयाभिष्वङ्गाऽऽत्मक, यदि वा- "निदान बन्धने' ततश्च करणे ल्युट्, निदानं प्राणातिपाताऽऽदिकर्मबन्धकारणं छिन्नम्- अपनीतं येन स तथा, क्लान्तस्य परनिपातः प्राग्वत्प्राकृतत्वात्, छिन्ननिदानो वा अप्रमत्तसंयत इत्यर्थः, 'संस्तव' पूर्वसंस्तुतैर्मात्रादिभिः पश्चात्संस्तुतैश्च श्वश्वादिभिः परिचयं 'जह्यात्' त्यजेत्, 'शकि च लिड् (शकि लिङ् चपा-३-३-१७३) इत्यनेन शक्यार्थेलिङ्, ततः संस्तव हातुं शक्तो य इति, एवं लिड्थभावना सर्वत्र कार्या, तथा कामान्- इच्छाकाममदनकामभेदान् कामयते- प्रार्थयते यः स कामकामो न तथा अकामकामः, यद्वाऽकामोमोक्षस्तत्र सकलाभिलाष-निवृत्तेस्तं कामयते यः स तथा, अत एव अज्ञातः-तपस्विताऽऽदिभिर्गुणैरनवगतः, एषयते ग्रासाऽऽदिक गवेषयतीत्येवशीलोऽज्ञातैषी 'परिव्रजेद्' अनियतविहारितया विहरेत् ‘स भिक्खु त्ति' यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धाद् य एवंविधः स भिक्षुः, अनेन सिंहतयैव विहरणं भिक्षुत्वनिबन्धनमुक्तमिति सूत्रार्थः।। तच्च सिंहतया विहरण यथा स्या तथा विशेषत आहराओवरयं चरिज लाढे, विरए वेद वियाऽऽय रक्खिए। पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, जे कम्हि विन मुच्छिए स भिक्खू / / 2 / / रागः--अभिष्वङ्गः, उपरतो-निवृत्तो यस्मिस्तद्रागोपरतं यथा भवत्येवं 'चरेद्' विहरेत्, क्लान्तस्य परनिपातः प्राग्वत्, अनेन मैथुननिवृत्तियक्ताः, रागाविनाभावित्वान्मैथुनस्य, यद्वाऽऽवृत्तिन्यायेन ‘रातोवरयं ति' रात्र्युपरत 'चरेत्' भक्षयेदित्यनेनैव रात्रिभोजननिवृत्तिरप्युक्ता, 'लाढे त्ति' सदनुष्ठानतया प्रधानो विरतः- असंयमान्निवृत्तः, अनेन च संयमस्याऽऽक्षेपात्प्राणातिपातनिवृत्तिः सावधवचननिवृत्ति - रूपत्वाद् वाक्संयमस्य मृषावादनिवृत्तिश्चाभिहि-तावेदितव्या, वेद्यतेऽनेन तत्त्वमिति वेदः-सिद्धान्तस्तस्य वेदनं वित्तया आत्मा रक्षितोदुर्गतिपतनात्तातोऽनेनेति वेदविदात्मरक्षितः, यद्वा-वेदं वेत्तीति वेदवित्, तथा रक्षिता आयाः- सम्यग्दर्शनाऽऽदिलाभा येनेति रक्षिताऽऽयः, रक्षितशब्दस्य परनिपातः प्राग्वत्, 'प्राज्ञः हेयोपादेयबुद्धिमान् 'अभिभूय' पराजित्य परीषहोपसर्गानिति गम्यते, 'सर्वे समस्तंगम्यमानत्वात्प्राणिगण पश्यति-आत्मवत्प्रेक्षत इत्यवंशीलः, अथवा- अभिभूय रागद्वेषौ सर्व वस्तु समतया पश्यतीत्येवंशीलः सर्वदर्शी, यदि वा-सर्व दशति-भक्षयतीत्येवंशीलः सर्वदशी। उक्त हि- 'पडिग्गहं संलिहिता णं, लेवमायाएँ सजए। दुग्गंधं वा सुगंधवा, सव्वं भुंजे ण छडए / / 1 / / ' अत एव यः कस्मि-श्चित्सचित्ताऽऽदिवस्तुनि न मूर्छितः-प्रतिबद्धः, एतेन परिग्रहे निवृत्तेरभिधानमप्रतिबद्धश्च कथमदत्तमाददीत? इत्यदत्ताऽऽदाननिवृत्तेश्च, तथा च य एवं मूलगुणान्वितः स भिक्षुरित्युक्त भवतीति सूत्रार्थः। अन्यचअक्कोसवहं विदित्तु धीरे, मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते / अश्वग्गमणे असंपहिढे, जो कसिणं अहिआसए स भिक्खू / / 3 / / आक्रोशनमाक्रोशः-असभ्याऽऽलापो वधो- घातस्ताडनं वा, अनयोः समाहारद्वन्द्वे आक्रोशवध, तद्विदित्वा स्वकृतकर्मफलमेतदिति मत्वा धीर' अक्षोभ्यः सम्यक् सोढेतियावत् 'मुनिः' यतिः 'चरेत् पर्यटद्, अनियतिवहारतयेति गम्यते, ततश्चानेनाऽऽक्रोशवधचर्यापरीषहसहनमुक्तं, 'लाढे त्ति प्राग्वत् 'नित्यम्' इति सदा 'आत्मा' शरीरम, आत्मशब्दस्य शरीरवचनस्यापि दर्शनात्, उक्तं हि- 'धर्मधृत्यग्निधीन्द्वर्क त्वक्तत्वस्वार्थदेहिषु / शीलानिलमनोयत्नैकवीर्येष्वात्मनः स्मृतिः / / 1 / / ' इति, तेन गुप्त आत्मगुप्तो-- न यतस्ततः करणवरणाऽऽदिविक्षेपकृत् , यद्धा-गुप्तो रक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य आत्मा येन स तथा, अव्यग्रम्-- अनाकुलमसमञ्जसचिन्तोपरमतो मनः-- चित्तमस्येत्यव्यग्रमना न संप्रहृष्टः असम्प्रहृष्टः-आकाशाऽऽदिषुन प्रहर्षवान, यथा कश्चिदाह- 'कश्चित् पुमान् क्षिपति मां परिक्षवाक्यैः, श्रीमत्क्षमाऽऽभरणमेत्य मुदं व्रजामि।' इत्यादि। प्रकृतोपसंहारमाहयः 'कृत्स्नम्' उत्कृष्टाऽऽदिभेदतः समस्तमाक्रोशवधम् 'अध्यास्ते' सहते समतयेति गम्यते, स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / Page #1577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु किंचपंतं सयणाऽऽसणं भइत्ता, सीउण्हं विविहं च दंसमसगं / अव्वग्गमणे अपहिडे, जो कसिणं अद्दिआसए स भिक्खू / / 4 / / 'प्रान्तम्' अवमं शयनंच संस्तारकाऽऽदि आसनं च पीटकाऽऽदि शयनाऽऽसनम, उपलक्षणत्वाद्भोजनाऽऽच्छादनाऽऽदि च 'भुक्त्वा ' सेवित्वा शीतं चोष्णं च शीतोष्णम्-उक्तरूपं, चस्य गम्यमानत्वा-तच्च सवित्वा 'विविध च' नानाप्रकारं दंशाश्च मशकाश्च दंशमशकं, प्राग व्याख्यातमेव, प्राप्येति शेषः, मत्कुणाऽऽद्युपलक्षण चैतत्, अव्यग्रमना असंप्रहृष्टो यः कृत्स्नमध्योस्त स भिक्षुरिति प्राग्वत् / इह च प्रान्त शयनाऽऽसनं भुक्त्वेति अतिसात्विकतादर्शनार्थ , प्रान्तशयनाऽऽदितायां हि सुदुः सहाः शीताऽऽदयः, अनेन शीतोष्णदंशमशकपरीषहसहनमुक्तमिति सूत्रार्थः / / अपरं चनो सक्कियमिच्छई न पूअं, __ नो वि य वंदणगं कुओ पसंसं? से संजए सुव्वएतवस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू // 5 / / 'नो' निषेधे 'सत्कृतं' सत्कारमभ्युत्थानानुगमाऽऽदिरूपम् इच्छति' अभिलषति, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे दीर्घनिर्देशः, न पूजा' वस्त्रपात्राऽऽदिभिः सपाँ, ‘नो अपि च' इति नैव च 'वन्दनकं' द्वादशाऽऽवर्ताऽऽदिरूपं, कुतः 'प्रशंसां निजगुणोत्कीर्तनरूपां? नैवेच्छतीत्यभिप्रायः, 'सः' एवंविधः सम्यग् यतते सदनुष्ठानं प्रतीति संयतोऽत एव च सुव्रतः, सुव्रतत्वाच्च 'तपस्वी' प्रशस्यतपाः, तथा च सहितः सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्या, यद्वा-सह हितेन-आयतिपथ्येन अर्थादनुष्ठानेन वर्तत इति सहितः, तत एव चाऽऽत्मानम्- कर्मविगमाच्छुद्धस्वरूपं गवेषयतिकथमयमित्थम्भूतो भवेदित्यन्वेषयतेयः स आत्मगवेषकः, यता-आय:सम्यग्दर्शनाऽऽदिलाभः सूत्रत्वादायतो वा-मोक्षस्तं गवेषयतीत्यायगवेषकः, आयतगवेषको वा यः स भिक्षुरिति, सूत्रार्थः / / अनेन सत्कारपुरस्कारपरीषहसहनमुक्तं. सम्प्रति स्त्रीप रीषहसहनमाहजेण पुणो जहाइ जीवियं, मोह वा कसिणं नियच्छई। नरनारिं पयहे सया तवस्सी, न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू / / 6 / / येन हेतुना, पुनःशब्दोऽऽस्य सर्वथा संयमघातित्वविशेषद्योतकः, 'जहाति' त्यजति जीवितं' संयमजीवितं 'मोह वा मोहनीयवा कषायनोकषायाऽऽदिरूपं कृत्स्नं समस्तं कृष्णं वा शुद्धाऽऽशयविनाशकतया 'नियच्छति' बध्नाति तदेवंविधं नरश्वनारी च नरनारि 'प्रजह्यात्' प्रकर्षण त्यजेत् यः सदा सर्वकालं तपस्वी, नच कुतूहलम्' अभुक्तभोगताया स्त्र्यादिविषयं कौतुकम्, उपलक्षणत्वाद्भुक्तभोगतायाः स्मृति च, 'उपैति' गच्छति स भिक्षुरिति सूत्रार्थः।। इत्थं परीषहसहनेन भिक्षुत्वसमर्थनात् सिंहविऽऽहा रित्वमुक्त्वा तदेव पिण्डविशुद्धिद्वारेणाऽऽहछिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं, सुविणं लक्खणं दंड वत्थुविजं / अंगविगार सरस्सविजयं, ___ जो विजाहिं न जीवई स भिक्खू / / 7 / / छेदनं छिन्न वसनदशनदार्वादीना, तद्विषयशुमाशुभनिरूपिका विद्याऽपि छिन्नमित्युक्ता एवं सर्वत्र / "देवेसु उत्तमो लाभो" इत्यादि, तथा 'सर ति' स्वरस्वरूपाभिधानं, "खजं रवइ मयूरो, कुक्कुडो रिसभं सरं। हंसो रवति गंधारं, मज्झिमं तु गवेलए / / 1 / / " इत्यादि / तथा- "खजेण लहइ वितिं. कय च न विणस्सई / गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीणं होइ वल्लहो।।१।। रिसहेण उईसरियं, सेणावचं धणाणि य।'' इत्यादि। तथा भूमिः-पृथ्वी भूमी भवं भौमभूकम्पाऽऽदिलक्षणं, यथा- 'शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते। सेनापतिरमात्यश्च, राजा राष्ट्रं च पीड्यते॥१॥" इत्यादि। तथा अन्तरिक्षम्-आकाशं तत्र भवम् आन्तरिक्ष- गन्धर्वनगराऽऽदिलक्षणं, यथा-- "कपिल शस्य धाताय माञ्जिष्टे हरणं गवाम्। अध्यक्तवर्ण कुरुते, बलक्षोभ न संशयः।।१।। गन्धर्वनगरं स्निग्धं, सप्राकारं सतोरणम्। सौम्या दिशं समाश्रित्य, राज्ञस्तद्विजयङ्करम्।।२।।" इत्यादि-तथा'स्वप्न' स्वप्नगत शुभाशुभकथनं, यथा- ''गायने रोदनं ब्रूयान्नलने वधबन्धनम् / हसने शोचनं ब्रूयात्पठने कलहं तथा // 1 // " इत्यादि। तथा 'लक्षणं' स्त्रीपुरुषयोर्यथा- "चक्खुसिणेहे सुहितो, दंतसिणेहे य भोयण मिट्ठ। तयणेहेण य सोक्खं,णहणेहे होइ परमधणं॥१॥" इत्यादि। गजाऽऽदीनां च यथायथं बालुकाप्यादिविहितम् / तथा 'दंड त्ति' दण्डः यष्टिस्तत्स्वरूपकथनम्, "एकपव्वं पसंसंति दुपव्वा कलहकारिया इति, इत्यादि। तथा 'वास्तुविद्या प्रासादाऽऽदिलक्षणाभिधायिशास्त्रा-ऽत्मिका ''कुटिला भूमिजाश्चैव, वैनीका द्वन्द्वजास्तथा। लतिनो नागराशैव, प्रासादाः क्षितिमण्डनाः / / 1 / / सूक्ताः पदविभागेन, कर्ममार्गेण सुन्दराः। फलावाप्तिकरा लोके, भङ्ग भेदयुता विभोः / / 2 / / अण्डकैस्तु विविक्तास्ते, निर्गमैश्चारुरूपकैः। चित्रपत्रैर्विचित्रैश्च, विविधाऽऽकाररूपकैः // 33 // ' इत्यादि / तथा 'अङ्गविकारः' शिरः स्फुरणाऽऽदिस्तच्छुभाशुभसूचकं शास्त्रमप्यड्रविकारो यथा- 'दक्षिणाक्षिस्पन्दने प्रियं भविष्यति' इत्यादि / तथा रवरः पोदकीशिवाऽऽदिरुतरूपस्तस्य विषयः-तत्सम्बन्धी शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः, यथा- "गतिस्तारा स्वरो वामः, पोदक्याः शुभदः स्मृतः / विपरीतः प्रवेशे तु, स एवाभीष्टदायकः / / 1 / / " तथा- "दुर्गास्व-रत्रय स्याज्ज्ञातव्यं शाकुनेन नैपुण्यात्। चिलिचिलिशब्दः सफलः, सुसुमध्यश्चलचलो विफलः // 1 // " इत्यादि। ततो य एताभिर्विद्याभिर्न जीवति नैता एव जीविकाः शुभाशुभाः प्रकल्प्य प्राणान् धारयति स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / Page #1578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1570 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खु अनेन निमित्तलक्षणोत्पादनादोषपरिहार उक्तः, सम्प्रति मन्त्राऽऽदिरूपतद्दोषपरिहारायाऽऽहमंतं मूलं विविहं विजचिंतं, __ वमणविरेयणधूमनित्तसिणाणं / आउरे सरणं तिगिच्छियं च, तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू // 8 // 'मन्त्रम' ॐ काराऽऽदिस्वाहापर्यन्तो हीङ्काराऽऽदिवर्णविन्यासाऽऽत्मकस्तं, 'मूलं' सहदेवीमूलिकाकल्पाऽऽदितत्तच्छास्त्रविहितं मूलकर्म -- वा 'विविध नानाप्रकारं 'वैद्यचिन्ता वैद्यसम्बन्धिनी नानाविधौषधपथ्याऽऽदिव्यापाराऽऽत्मिकां, विविधाभित्यत्रापि डमरुकमणिन्यायेन योज्यते, वमनम्-उद्गिरण विरेचन कोष्ठशुद्धिरूपंधर्म–मनः शिलाऽऽदिसम्बन्धि 'नेत्तति'नेत्रशब्देन नेत्रसंस्कारकमिह समीराजनाऽऽदि परिगृह्यते, स्नानम् अपत्यार्थ मन्त्रौषधिसंस्कृतजलाभिषेचनं, वमनाऽऽदीनां च स्नानावसानानामिह कृतसमाहाराणां निर्देशः, 'आउरे सरण' ति, सुव्यत्ययाद् 'आतुरस्य रोगाऽऽदिपीडितस्य 'शरणं' स्मरण हातात ! हा मातः ! इत्यादिरूपं 'चिकित्सितंच' आत्मनो रोगप्रतीकाररूपं तद्' इति यदनन्तरमुक्तं परिन्नाय त्ति ज्ञपारज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्याय 'परिव्रजेत् सर्वप्रकारं संयमाध्वनि यायाद्यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः। अपरं चखत्तियगणउग्गरायपुत्ता, माहणभोई य विविहा य सिप्पिणो। नो तेसिं वयइ सिलोगपूअं तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ||6| क्षत्रियाः-हेहेयाऽऽद्यवयजा गणाः- मल्लाऽऽदिसमूहाः उग्राः आरक्षकाऽऽदयः राजपुत्राः-नृपसुताः एषां द्वन्द्वः, 'माहनभोगिकाः तत्र माहना ब्राह्यणाः, तथा भोगेनविशिष्टनेपथ्याऽऽदिना चरन्ति भोगिकाः-नृपतिमान्याः प्रधानपुरुषाः, विविधाश्च' नानाप्रकाराः 'शिल्पिनः' स्थपतिप्रभृतयः पठन्ति च-'सिप्पिणोऽण्णे' तत्र चान्ये इति शिल्पिविशेषणमुभयत्र च य इति शेषः, 'नो' नैव तेषां क्षत्रियाऽऽदीनां वदति' प्रतिपादयति, के?- श्लोकपूजे श्लोकं श्लाघां यथैते शोभना इति, पूजा च-- यथैतान पूजयतेति, उभयत्र पापानुमत्यादिमहादोषसम्भवात्, किंतु तदिति श्लोकपूजाऽऽदिक द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञाय परिव्रजेद्यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः। अनेन वनीपकत्वस्य परिहार उक्तः, साम्प्रतं संस्तवपरिहारमाहगिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा, अप्पव्वईएण व संथुया हविज्जा। तेसिं इहलोयफलट्ठयाए, जो संथवं न करेइ स भिक्खू // 10 // 'गृहिण' गृहस्था ये 'प्रव्रजितेन' गृहीतदीक्षण दृष्टाउपलक्षणत्वात्परि विताश्च अप्रव्रजितेन वा गृहस्थावस्थेन सह संस्तुताः' परिचिता भवेयुगृहिणी य इति सम्बन्धः। 'तेसिं ति' तैः उभयावस्थयोः परिचितैहिभिः 'इहलौकिकफलार्थ' वस्त्रपात्राऽऽदिलभनिमित्तं यः 'संस्तव' परिचयं न करोति स भिक्षुरिति सूत्रार्थः। तथासयणासणपाणभोयणं, विविहं खाइमसाइमं परेसिं। अदए पडिसेहिए नियंठे, जे तत्थ ण पओसई स भिक्खू / / 11 / / शयनाऽऽसनपानभोजनमिति शयनाऽऽदीनि प्रतीतानि, 'विविधम्' अनेकप्रकार 'खादिमस्वादिममिति खादिम पिण्डखजूराऽऽदि, स्यादिमम्-एलालवङ्गाऽऽदि, उभयत्र स माहारः, 'परेसि ति' 'परेभ्यः' गृहस्थाऽऽदिभ्यः अदइ त्ति अदभ्यः 'प्रतिषिद्धः क्वचित् कारणान्तरे याचमानो निराकृतः सः 'निग्रन्थः' मुक्तद्रव्यभावग्रन्थो यः 'तत्र' इत्यदाने 'न प्रदुष्यति' न प्रद्वेषं याति पुनर्दास्यतीत्यभिधायकक्षपकर्षिवत्स भिक्षुरिति सूत्रार्थः।। अनेन क्रोधपिण्डपरिहार उक्तः, उपलक्षणं चैतदशेषभिक्षादोषपरिहारस्य, इदानी ग्रासैषणादोषपरिहारमाहजं किंचाऽऽहारपाणगं विविहं, खाइमसाइमं परेसिं लड़े। जो तं तिविहेण जाणुकंपे, मणवयकायसुसंवुडे जे स मिक्खू // 12 / / 'यत् किञ्चित्' अल्पमपि 'आहारपानम्' अशनपानीयं विविध खाइमसाइम ति' चस्य गम्यमानत्वात् खादिमस्वादिमं च उक्तरूपं 'परेसिं ति' परेभ्यः गृहस्थेभ्यः 'लदधुति 'लब्ध्वा प्राप्य यः 'तति' सुब्ब्यत्ययात्तेनाऽऽहाराऽऽदिना 'त्रिविधेन' मनोवाक्कायलक्षणेन प्रकारत्रयेण नानुकम्पते, कोऽर्थ? ग्लानबालाऽऽदीन्नोपकुरुते न स भिक्षुरिति वाक्यशेषः, यस्तु मनोवाक्कायैः सुष्टु-संवृतो निरुद्धतथाविधाऽऽहाराऽऽद्यभिलापः सुसंवृता वा मनोवाकाया यस्येति सुसंवृतमनोवाक्कायः, तत एव ग्लानाऽऽदीननुकम्पत इति गम्यते, स भिक्षुः, यदि वा- 'नानुकम्पते' इत्यत्र 'ना' पुरुषोऽनुकम्ते [नानुरूपो न कम्पते] मनोवाक्कायसुसंवृतः सन् स भिक्षुरिति सूत्राऽर्थः॥ अनेनार्थतो गृद्ध्यभावाभिधानादगारदोषपरिहार उक्तः, सम्प्रति धूमपरिहारमाहआयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरजवोदगं च। नो हीलए पिंडं नीरसं तु. पंतकुलाणि परिव्वएस मिक्खू // 13|| आयाममेव आयामकम्- अवश्रावणं, चशब्द उत्तरापेक्षया-समुचये स्वगतानेकभेदख्यापको वा, 'एव' इति प्राग्वत् 'यवोदनंच' यवभक्तसीयं ति शीतं शीतलमन्तप्रान्तोपलक्षणं चैतत्, सोवीरम्-आचाम्लं, यवोदक च- यवप्रक्षालनं पानीयं सोवीरयवोदकं, तच 'नो हीलयेत्' धिगिर्द Page #1579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खु 1571 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खुपडिमा किमनेनामनोज्ञेनेति न निन्देत् पिण्ड्यते सङ्गात्यते, कोऽर्थः? गृहिभ्य अणवः-रवल्पाः सज्वलननामान इतिवावत्, कषायाः--क्रोधाऽऽदयो उपलभ्य सम्मील्यत इति पिण्डस्तमायामकाऽऽद्येव नीरसं, विगता- यस्येति सर्वधनाऽऽदित्वाद् इति प्रत्ययेऽणुकषायी, प्राकृतत्वात्सूत्रे ऽस्वाद 'तुः' अप्यर्थः, ततो नीरसमपि, अतएव प्रान्तकुलानि' तुच्छा- ककारस्य द्वित्वं, यद्वा- उत्कषायीप्रबलकषायी न तथाऽनुत्कषायी ऽऽशयगृहाणि दरिद्रकुलानि वा यः परिव्रजेत्स भिक्षुरिति सूत्राऽर्थः / / अल्पानिस्तोकानि लघूनि-निःसाराणि निष्पावाऽऽदीनि भक्षयितुं शीलमस्येति अल्पलघुभक्षी, सूत्रे तिड्व्यत्ययः प्राग्वत् / 'त्यक्त्वा' अन्यच्चसद्दा विविहा भवंति लोए, अपहाय गृह द्रव्यभावभेदभिन्नम्, एकोरागद्वेषविरहितः तथाविधयोग्यता वाप्तावसहायो वा चरति विहरत्येकचरो यः स भिक्षुः अनेनैकाकिविहार दिव्वा माणुसया तहा तिरिच्छा। उपलक्षित इति सूत्रार्थः / / 'इति' परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववदेव, नया भीमा भयभेरवा उराला, अपि पूर्ववदेव / / उत्त० पाई० 15 अ०। जो सच्चा ण विहिजई स भिक्खू / / 14 / / भिक्खुंड पुं०(भिक्षोण्ड) परतीर्थिक श्रवणभेदे, सुगतशासनस्थे श्रमणे 'शब्दाः' ध्वनयः 'विविधा' विमर्शप्रद्वेषाऽऽदिना विधीयमानतया च। ये भिक्षामेव भुजतेन तु स्वपरिग्रहीतगोदुग्धाऽऽदिकं ते भिक्षोण्डाः, नानाप्रकाराः भवन्ति' जायन्ते 'लोके जगति 'दिव्याः' देवसम्बन्धिनः सुगतशासनस्था इत्यन्ये / ग०२ अधि०। अनु०। 'मानुष्यकाः' मनुष्यसम्बन्धिनस्तथा 'तैरश्वाः' तिर्यक्रसम्बन्धिनः मिक्खुग पुं०(भिक्षुक) भिक्ष-उक्। भिक्षोपजीविनि, वाच० / सूत्र०। 'भीमाः' रौद्राः भयेन भैरवाः- अत्यन्तसाध्वसोत्पादका भयभैरवाः आ०म०। परतीर्थिक श्रमणभेदे च / आ०क० १अ० / विपा० / भिक्षुका 'उदाराः' महान्तो यः श्रुत्वा' आकर्ण्य प्रक्रमादुक्तविशेषणविशिष्टानेव रक्तपटा इति। नि०चू० 1 उ०। भिक्षुकाः शौद्धोदनीया इति। व्य०१ शब्दान 'न व्यथते' न बिभेति धर्मध्यानता न चलति वा स भिक्षुरिति उ०। भिक्षुकः सौगत इति। बृ०१ उ०३ प्रक०। सूत्रार्थः॥ भिक्खुचरिया स्त्री०(भिक्षुचा) भिक्षूणां साधूनां चर्या सामाचारी अनेनोपसर्गसहिष्णुत्वं सिंहविहारितायां निमित्तमुक्त भिक्षुचा / साधुसामाचार्याम्, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० २उ०। सम्प्रति समस्तधर्माऽऽचारमूलं सम्यक्त्वस्थैर्यमाह- भिक्खुणी स्त्री०(भिक्षुकी) साध्व्याम, दश० 4 अ०। आचा०ा पा०। वायं विविहं समिच्च लोए, भिक्खुधम्म पुं०(भिक्षुधर्म) क्षान्त्यादिके साधुधर्मे , उत्त० 210 / सहिए खेयाणुगए अकोवियप्पा। 'भिक्खुधम्म विचिंतए।" उत्त०२ अ०। (भिक्षुधर्माः 'भिक्खुपडिमा' पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, शब्देऽग्रे दृष्टव्याः ) उवसंते अविहेडए स भिक्खू // 15|| भिक्खुपडिमज्झयण न०(भिक्षुप्रतिमाध्ययन) द्वादश भिक्षूणां प्रतिमाः 'वाद' च स्वस्वदर्शनाभिप्रायवचनविज्ञानाऽऽत्मकं 'विविधम्' अनेक ___ अभिग्रहाः मासिकीद्विमासिकीप्रभृतयो यत्राऽभिधीयन्ते तत्तथा। आचाप्रकार, धर्मविषयेऽपि ह्यनेकधा विवदन्ते। यथोक्तम्- ''सेतुकरणेऽपि रदशानां सप्तमाऽध्ययने, स्था० 10 ठा! धर्मों , भवत्यसेतुकरणेऽपि किल धर्मः / गृहवासेऽपि च धर्मों, वनेऽपि भिक्खुपडिमा स्त्री०(भिक्षुप्रतिमा) भिक्षूणां प्रतिमा अभिग्रहविशेषा वसतां भवति धर्मः।।१।।" मुण्डस्य भवति धर्मस्तथा जटाभिः सवाससां भिक्षुप्रतिमाः / साधुप्रतिज्ञाविशेषे, आव० 4 अ०। स्था० / ज्ञा० / धर्मः / / इत्यादिरूपं 'समेत्य' ज्ञात्वा लोके सहितः स्वहितो वा प्राग्वत् अन्त०। धा आ०चू० / भ०। स०। औ०। खेदयत्यनेन कर्मेति खेदः-संयमस्तेनानुगतोयुक्तः खेदानुगतः- 'चः" सुयं मे आउसंतेणं भगवया महावीरेणं एवमक्खायं-इह खलु पूरणे, कोविदः- लब्धशास्त्रपरमार्थ आत्माऽस्येति कोविदाऽऽत्मा, थेरेहिं भगवंतेहिं बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ। कतरातो 'पण्णे अभिभूय सव्वदंसी उवसंतेत्ति' प्राग्वत्, 'अविहेठकः न कस्य खलु ताओ? इमातो ताओ / तं जहा- भासिया भिक्खुपडिमा चिद्विबाधको यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / / १,दोमासिया भिक्खुपडिमा 2, तेमासिया भिक्खुपडिमा 3, चउमासियां भिक्खुपडिमा 4, पंचमासिया भिक्खुपडिमा 5, तथा छम्मासिया भिक्खुपडिमा 6, सत्तभासिया भिक्खुपडिमा 7, असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, पढमा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा 8, दोचा सत्तरातिंदिया जिइंदिओ सव्वओ विप्पमुक्के / भिक्खुपडिमा ६,तचा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा 10, अहोअणुक्कसाई लहु अप्पभक्खी, रातिदिया भिक्खुपडिमा 11, एगरातिंदिया भिक्खुपडिमा 12 / चिया गिह एगचरे स भिक्खू ||16|| ति वेमि।। (बारस भिख्खुपडिमाओ त्ति) द्वादशसङ्ख्या उद्गमोत्पादनैषणाऽऽदिशिल्पेनचित्रपत्रच्छेदाऽऽदिविज्ञानेन जीवितुं शीलमस्येति शिल्पजीवी | शुद्धभिक्षाशिनो भिक्षवः साधवः, तेषां प्रतिमाः प्रतिज्ञा भिक्षुप्रतिमाः; न तथाऽशिल्पजीवी, 'अगृहः' गृहविरहितः तथा अविद्यमानानि ताश्चमाः। तद्यथा-मासिकी भिक्षुप्रतिमा 1, एवं द्विरत्रि३ चतुः ४पञ्च५ षट् मित्राणि-अभिष्वङ्गहतवा वयस्या यस्यासावमित्रः, जितानिवशीकृतानि ६सप्त७ मासिकीः भिक्षुप्रतिमाः / प्रथमा सप्तरात्रिन्दिवा सप्ताऽहो'इन्द्रियाणि' श्रोत्राऽऽदीनि येन स तथा, 'सर्वतः बाह्यादभ्यन्तराच रात्रमाना 1, एवं द्वितिया 2, तृतीया 3, एतासां चाष्टमाऽऽदिसड्ग्रन्थादिति गम्यते, विविधैः प्रकारैः प्रकर्षण मुक्तो विप्रमुक्तः, तथा ख्यात्वे प्रसिद्धऽपि प्रथमात्वं तिसृणां सप्तदिवससङ्ख्यात्वेनोक्तत्व, तेन Page #1580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1572 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खुपडिमा न पूर्वसङ्ख्याविरोधः, एवं दश 10, एकादशी अहोरात्रप्रमाणा अहोरात्रिकी 11, एकरात्रिन्दिवा एकरात्रिप्रमाणा, अत्र रात्रिन्दिवाशब्दादपि रात्रिरेव ग्राह्या, अन्यथा एकरात्रिकी इत्यस्याऽविरोधात. पूर्वं तु अहोरात्रिका इत्यस्याऽभिधानात् / / 12 // इति संक्षेपतो द्वादशभिक्षुप्रतिमाणां स्वरूपमभिधाय सम्प्रति प्रत्येकमाचारविधिमभिधित्सुराहमासियं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स, निचं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे, जे केई उवसग्गा उप्पजंति। तं जहा- दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पण्णे सम्म सहति, खमति, तितिक्खति अहियासेति। मासिकी भिक्षुप्रतिमा प्रतिपन्नस्य भिक्षोः, अयमाचारो भवति इति शेषः / तद्यथा-(निचं वोसट्ठकाए त्ति) नित्यमनवरतं व्युत्सृष्टकायः परिकर्मवर्जनात्, प्रीतः प्रीतिकारीति, उक्ताऽनेकपरीषहसहनादिह येन स त्यक्तप्रीतदेहः; व्यत्ययः प्राकृतत्वात् / ये केचन उपसर्गा उत्पद्यन्ते। तद्यथा-दैवा देवकृताः, मानुष्या मनुष्यकृताः तिर्यग्योनिकास्तिर्यककृताः। (ते इति) तान् परीषहान् उत्पन्नान् सम्यग्यथा भवति मुखाऽऽद्यविकारकरणेन सहते सभयाभावेन, (खमति त्ति) क्षमति क्रोधाऽभावेन, तितिक्षते दैन्यानवलम्बनेन अचलकायतया। मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पति एगा दत्ती भोयणस्स पडिग्गाहित्तए, एगा पाणस्स, अण्णाउत्थं सुद्धं उवहडं णिज्जूहित्ता बहवे दुपयचउप्पयसमणमाहण अतिहिकिवणवणीमए कप्पति से एगस्स भुंजमाणस्स पडिग्गाहेत्तए, णोदोण्हं, णो चउण्हं, णो पंचण्हं, नो गुव्विणीए, नो बालवच्चाए, णो दारगं पेजमाणीए, णो अंतो एलु यस्य दो वि पाए साहल दलमाणीए, णो बाहिं एलुयस्स दोवि पाए साहट्ट दलमाणीए, एगं पादं अंतो किच्चा एगं पादं बाहिं किच्चा एलुयं विक्खंभइत्ता एवं दलयति, एवं से कप्पति पडिग्गाहित्तए, एवं से नो दलयति, एवं णो कप्पति पडिग्गाहित्तए। (अणगाररस त्ति) द्रव्यभावभेदभिन्नागारद्वयवर्जितस्य कल्पते युज्यते एका दत्तिर्भोजनस्याशनस्य प्रतिग्रहीतु केवलं कामतया। अत्र पानीयस्य दत्तिप्रमाणम्- ('दति' शब्दे चतुर्थभागे 2446 पृष्ट 106-110 गाथाभ्या निरूपितः )(अण्णाउत्थंति) अज्ञातोत्थपरिचयाकरणेनाज्ञातः सन उत्थं द्रव्यगृहस्थप्रग्रहोद्वरितं भावतोऽन्यभिक्षुकवत्तथाविधप्रतिपत्तिं विना दत्तं न तु ज्ञात तद् बहुमतमिति, एतदपि शुद्धम् उद्गमाऽऽदिदोषरहितं न तु तद्विपरीतम्। अथवा शुद्धं मलापहृतं (उवहडमिति) अन्यस्य भोक्तुकामस्य कृते उपनीतं, भिक्षाचरस्य वा कृते उपनीतं, तेन च नेप्सितं दत्तशेष वा (पिज्जू-हिता इति) निर्वर्त्य बहून् द्विपदचतुष्पद श्रमण - बाह्यातिथिकृपणवनीपकान् यथतेषामन्तायदोषो न भवति तथैव ते परिहर्त्तव्याः / तत्र द्विपदा मनुष्यपक्षिणः, चतुष्पदा गोमहिष्यादयः, श्रमणाः निर्ग्रन्थशाक्यतापसगिरिकाऽऽजीविका इति, ब्राहाणा भोजनकालोपस्थायिनः, अतिथयस्त्वेवम्- ('अइहि 'शब्दे प्रथमभागे 33 पृष्ठे दर्शिताः) कृपणा दरिद्राः, (ते च कियण' शब्द तृतीयभागे 561 पृष्ठे दर्शिताः) वनीपका वन्दिप्रायाः, एकस्य भुजानस्योपनीतं प्रतिग्रहीतुं कल्पते, न द्वयोः, न त्रयाणां,न चतुर्णा न पञ्चानाम् / उपलक्षणं चैतद् बहूनामेतेषामप्रीतिर्भवदिति / नोगुर्वेिण्या गर्भवत्याः, यतस्तस्या हस्ते आहारग्रहणे गर्भस्य पीडा भवति, जिनकल्पिकप्रतिमाप्रतिपन्नास्तु गर्भवती ज्ञात्वा परिहरन्ति, गच्छवासिनस्तु अष्टमनवममासयोः परिहरन्ति / नो बालवत्साया हस्ते आहारो ग्रहीतुं कल्पते, नोदारकं बालकं पाययन्त्याः , क्षीरमिति गम्यम् / (णो अंतो ति) नोऽन्तमध्ये एलुकरयापवरकस्य द्वावपि पादौ संहत्य ददत्याः / एवं बहिरेलुकस्य। कथ तर्हि कल्पते? इत्याह-(एगमित्यादि) एकंपादम्, अन्तर्मध्ये एकंच बहिरपवरकस्य (एलुयं विक्खंभयित्ता) विष्कम्भ्य ददाति, एवं अमुनेव विधिना (से) तस्य साधोः कल्पते प्रतिग्रहीतु एवं चेव ददाति तदा न कल्पते। मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स तओ गोयरकाला पण्णत्ता / तं जहा-आदि, मज्झे, चरिमे / आदि चरेजा णो मज्झे णो चरिमे चरेज्जा, मज्झे चरेजा नो आदि चरेजा णो चरिमे चरेज्जा, चरिमं चरेजा णो आदि चरेज्जा णो मज्झे चरेजा। (मासियं णमित्यादि) मासिकी भिक्षुप्रतिमा प्रतिपन्नस्यान-गारस्य ज्यविसङ्ख्या गोचरकालाः गोरिव चरस्तस्य कालाः प्रस्तावाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथा-आद्यो, मध्यः, चरमः। तेषु एवम् अनन्तरोक्तविभागेन चेरत, यथावत्, स क? रूपवत्याः स्त्रियो रूपाऽऽदिषु अमूर्छितो विचरति, किंतु तदानीताऽऽहाराऽऽदिष्वेव निविष्टचेताः तथा-ऽयमपि भगवान् श्रद्धाऽऽदिष्वमूर्छितः तृतीयपौरुष्यामटति। पूर्वमाद्यभङ्गकस्वरूपं यथायत्र भिक्षावेलायां भिक्षाचरानायान्ति भिक्षार्थ तत्र साधुः पूर्वमेव चरति भिक्षार्थम्, अयमाद्यः, द्वितीयस्तु यत्र भिक्षावेलातः पश्चादायान्ति भिक्षुकाः पूर्वमप्यायान्ति तत्र साधुना मध्यकाले गन्तव्यं, यत्रच पूर्वकाले मध्ये च भिक्षवो यान्ति भिक्षायै तत्र साधुना चरमकाले गन्तव्यम् / तथा चोक्तम्"पुव्वं व चरति तेसिं, निययवारेसुवा अडतिपच्छा। जत्थ दोण्णि भवे काला, चरता तत्थ अतिथिए।।१॥" अण्णारट्टे व, अण्णेसु मझे चरति संजतो। गेण्हत देंतयाणं तु, वज्जेय नो अपत्तियं / / 2 / / "जति अण्णे भिक्खायरा मज्झे अडति तो सो पुव्व भिक्ख अडति। अहवा सणियमुसु भिक्खायरेसुपच्छा अडति, जत्थ दो भिक्खवेलाओ तत्थ पढमभिक्खवेले अतिक्कते वितिए भिक्खवेले अप्पत्ते हिंडति।" एवं (दो मासि यंण ति) इत्यादि व्यक्तम्। मासियं भिक्खुपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स छविधा गोयर-चरिया पण्णत्ता / तं जहा- पेला, अद्धपेला, गोमुत्तिया, पयंगविधिया, संबूकाऽऽवट्टा, गंतुं पचागता / मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स जत्थ णं केइ जाणइ कप्पति से तत्थेगराइयं वसित्तए, एत्थ णं के इन जाणति कप्पति से तत्थ एगरातियं वा दुराइयं वा वत्थए, णो Page #1581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1573 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खुपडिमा सकप्पति एगरातो वा दुरातो वा परं वत्थए, जंतत्थ एगरातातो वा परिवसति सेसंतरा छेदे वा परिहारे वा।मासियं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति चत्तारि भासाओ भासित्तए, तं जहा- जायणी, पुच्छणी, अणुण्णमणी, पुट्ठस्स वागरणी / मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति तओ उवस्सया पडिलेहित्तए। तं जहा-अहे आरामगिहंसि वा, अधे वियडगिहंसिवा, अहे रुक्खमूलगिहंसि वा। मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति तओ उवस्सया अणुण्णवित्तए / तं जहा-अधे आरामंसि वा अधे वियडगिहंसि वा अधे रुक्खमूलगिहंसि वा / मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति तओ उवस्सया उवाइणा-वित्तए, सेसं तं चेव। मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पति तओ संथारगा पडिले हित्तएपुढविसिलं वा, कट्ठसिलं वा, अधे संवुडमेव / मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पंति, तओ संथारगा अणुण्णावित्तए, सेसं तं चेव / मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स कप्पंति तओ संथारगा उवाइणावित्तए, सेसं तं चेव / मासियं णं मिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स इस्थिउवस्सयं हव्वं उवागच्छेजा, से इथिए व पुरिसे णो कप्पति तं पडुच्च निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा / मासियं णं भिक्खु-पडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स उवस्सयं अगणिकाएण झामेज्जा, णो से कप्पति तं पडुच्च निक्खमेत्तए वा पविसित्तए वा। (गोचरचर्यायाः प्रकारः 'गोयरभूमि' शब्देतृतीयभागे 1010 पृष्ठे गतः) (जत्थ णं केइ जाणइ इत्यादि) यत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, कोऽपि गृहस्थाऽऽदिको जानाति प्रत्यभिजानाति यथाऽयं प्रतिमा प्रतिपन्नः / क्वेत्याह- (गामंसि वा) ग्रसति बुद्ध्यादीन गुणनिति ग्रामः। यदि वागम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति तस्मिन। यावत्करणात् नकराऽऽदिपदकदम्बकपरिग्रहः / नात्र करोऽष्टादशप्रकारोऽस्तीति नकर, तस्मिन, निगमः प्रभूततरवणिग्वर्गावासः तस्मिन्, तथा पाशुप्राकारवेष्टित खेट क्षुल्लप्राकारवेष्टितं कर्वट कुत्सितनगरंवा। पट्टनं, पत्तनं वा, उभयत्रापि प्राकृतत्वेन निर्देशस्य समानत्वात्। तत्र यन्नौभिरेव गम्यं तत्पत्तनं, यथा सिंहलः। यत्पुनः शकटोटकैनौमिर्वा गम्यतेतत् पट्टन, यथा भरुकच्छम् / उक्तं च- "पट्टनं शर्कटैगम्य, घोटकैनौभिरेव च / नौभिरेव नु यद्गम्य, पत्तनं तत्प्रचक्षते।।१।।" द्रोणमुखं बाहूल्येन जलनिर्गमप्रवेशम्, आकरो हिरण्याऽऽकराऽऽदिः। आश्रमस्तापसावसथोपलक्षित आश्रयः, संवाधो यात्राऽऽगतप्रभूतजननिवेशः, राजानो धीयन्तेऽस्याम् इति राजधानी, राज्ञः पीठिकास्थानमित्यर्थः / अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामान्तररहितं मडम्बं, तस्मिन् इति सर्वत्र योज्यम् / (तत्थ त्ति) तत्र (एगराइ त्ति) रात्रिग्रहणात् दिवसमपि उषितुं (जत्थं ति) यत्र नकोऽपि प्रत्यभिजानीते तत्रैकरात्रि वा द्विरात्रि वा उषितुं ततः पर न (से) तस्य कल्पते, शेष व्यक्तम। (सेसंतरा छदे वत्ति) कियत्कालान्तरे पुनस्तत्रोषितुं कल्पते। (परिहार व त्ति) यत्र स्थितास्तत्स्थानिपरिहारे वा त्यागे तत्र कल्पते (चत्तारिभासाउति) वतस्रो भाषा भाषयितुं कल्पन्त। तद्यथा-याचनीकस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीतिमार्गणं पृच्छनीअविज्ञातस्य संदिग्धस्य करयचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्थे। अनुज्ञापनी-उच्चारपरिठापनतृणडगलभश्मप्रभृतीनाम् / पृष्टस्य व्याकरणी-यथा करत्वं कौतस्कुत्यः, किमर्थमागमः, प्रतिभाप्रतिपन्नोऽन्यो वा इत्यादिपृष्टस्य व्याकरणी प्रत्युत्तरप्रदानरूपा इति / (उपस्सया इति) उपाश्रया वसतय इत्यर्थः / प्रतिलेखयितुमारामस्याध इति अध आरामम, आरामं च तद् गृह चेति कर्मधारयः, तस्मिन् तथा; एवं विकटगृह, विकटगृहं नामग्रामादहिवृक्षानामधो, वृक्षमूले इति वृक्षनिकटतरप्रदेशे इति। (अणुण्णावित्तए इति) अनुज्ञापयितुं प्रतिलेखनानन्तरमनुज्ञा मार्गयितुं (उवायणा वित्तए त्ति) उपग्रहीतुं स्थायित्वेनाङ्गीकर्तुम् इति / संस्तारकः प्राग्व्याख्यातस्वरूपः पृथिवीशिला शिलारूपं काष्ठशिलेति बृहत्तरकाष्ठपिण्डरूपा यथा संस्कृतं चतुष्किकाऽऽदि, एतदूर्द्ध शेष प्राग्वत्। (इत्थि ति) स्त्री या पुरुषो वा परिचारणार्थ वसत्यन्तर वोद्दिश्योपाश्रयं प्रति (हव्वं ति) शीघ्रम् उपा गच्छेत (तं पडुच्च त्ति) तं स्त्रीपुंयुगलं प्रतीत्य आश्रित्य नैव कल्पते निष्क्रमितु वसतेर्वहिः, प्रवेष्टु बहिर्भूतप्रदेशादन्तरमिति। (केइ ति) कोऽपि उपाश्रयमग्रिकायेनाग्निना ध्मायेत् तथापि (नो से कप्पइ त्ति) व्यक्तम् / इति स्थानविधिरुक्तः। साम्प्रतं गमनस्थानविधिमाहतत्थ णं केइ वधाए गहाय आगच्छे० जाव णो से कप्पति / तं जहा- अवलंबित्तए वा पडिलंबित्तए वा, कप्पति से आहारियं रीयत्तए मीसियं वा कप्पति से आहारियं रियत्तए। मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नं भिक्खायरियं पायंसि खाणुं वा कंटए वा हीरए वा सक्कराए वा अणुप्पवेसेज्जा, णो से कप्पति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, कप्पति से आहरियं रीयत्तए / मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नं भिक्खायरियं अच्छिसि पाणाणि वा वीयाणि वा रए वा परियावज्जेजा, णो से कप्पति नीहरित्तए वा विसो हित्तए दा, कप्पति से आहारियं रीइत्तए / मासियं भिक्खुपडिम पडिवन्नं मिक्खायरियं जत्थेव सूरिए अत्थमज्जा तत्थेव जलंसि वा थलंसि वा दुग्गंसि वा णिण्णंसि वा विसमंसि वा पव्वतंसि वा पव्वतदुग्गंसि वा गड्डा ए वा दरीए वा कप्पति से तं रयणिंतत्थेव उवातिणावित्तए, नोसेकप्पतिपदमविगमित्तए, कप्पति से कल्लं पाउप्पभायाए०जाव तेजसा जलते पाईणाभिमुहस्स वा पडीणाभिमुहस्स वा दाहिणाभिमुहस्स वा उत्तराभिमुहस्स वा आहारियं रीइत्तए। मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवन्नं मिक्खाय Page #1582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1574 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खुपडिमा रियं णो से कप्पति अणंतरिहिताए पुढवीए निद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, केवली बूया आदाणमेयं, से तत्थ निहायमाणे वा पयलायमाणे वा हत्थेहिं भूमिं परामुसेज्जा अधाविधिमेव ठाणं ठाइत्तए वा निक्खमित्तए वा उच्चारपासवणेणं उव्याहिज्जा, णो से कप्पति ओगिम्हित्तए वा परिठ्ठावित्तए वा कप्पति से पुवपडिलेहिते थंडिले उच्चारं पासवणं वा परिट्ठवित्तए, तं से उवस्सयं आगम्म ठाणं ठाइत्तए, मासियं णं भिक्खुपडिमं पडि वन्नं भिक्खायरियं णो कप्पति ससरक्खे ण काएणं गाहावतिकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, अध पुणरेवं जाणिजा ससरक्खे सेअत्ताए वा जल्लत्ताए वा मल्लत्ताए वा पंकत्ताए वा विद्धत्थे, से कप्पति गाहावतिकुलं भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, मासियं भिक्खुपडिमं पडिवन्नं भिक्खायरियं नो कप्पति सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा हत्थाणि वा पादाणि वा दंताणि वा अच्छीणि वा मुहं वा अच्छोलित्तएवा, पधोवित्तए वा, णण्णत्थ लेवालेवेण वा भत्तामासेण वा / मासियं भिक्खुपडिमं पडिवन्नं भिक्खायरियं णो कप्पति आसस्स वा हत्थिस्स वा महिसस्स वा कोलसुणगस्स दुट्ठस्स आपदमाणस्स पदमवि पचोसकित्तए अदुवस्स आवदमाणस्स कप्पति जुगमित्तं पच्चोसकित्तए।मासियं भिक्खुपडिम पडिवनं भिक्खारियं णो कप्पति छायातो सीयं ति नो उण्हं एत्तए उपहातो उण्हति नो छायं एत्तए, जं जत्थ जयासि वा तं तत्थ अधियासए। एवं खलु एसा मासिया भिक्खुपडिमा, अधासुत्तं अधाकप्पं अधामग्गं अधातचं अधासमं कारण फासिता पालिता सोहिता तीरिता पूरिता किट्टिता आराधिता आणाए अणुपालेत्ता भवति। (तत्थ णं ति) तत्र मार्गे वसत्यादौ वा कश्चिद्वधार्थ वधनिमित्तं (गहाय त्ति) गृहीत्वा, खङ्गाऽ ऽदिकमिति शेषः / आगच्छेत् (अवलंबित्तए वा) अवलम्बयितुम् आकर्षयितु, प्रत्यवलम्बयितुं पुनः पुनरवलम्बयितुं. यथेर्याम् ईमिनतिक्रम्य गच्छेत, एतावता छिद्यमानोऽपि यं नातिशीघ्र प्रयायादिति / (पायसि त्ति) पादे,उपलक्षणत्वादुपधिहस्ताऽऽदी वा, स्थाणु मठुण्ठ उच्यते, कण्टकः प्रतीतः, हीरको नाम सकोणः कर्करिकाविशेषः, शर्करा वा न प्रविशेयुः (नीहरित्तए त्ति) निष्कासयितु विशोधयितुं शेषावयवाऽद्यपने तुं, शेष प्राग्वत्। (अच्छिसि वत्ति) अक्ष्णोनेत्रयोः (पाणाणि व त्ति) प्राणा लघुतरका मशकाऽऽदयः, नपुंसकत्वं प्राकृतत्वात् / बीजानि तिलाऽऽदीनि, रज: सूक्ष्म धूलीरूपम् / (परियावज्जेज त्ति) पर्यापतेत् लगेत, तथापीत्यध्याहार्यम् (णो सि त्ति) प्राग्वत्, (नीहरितए त्ति) निष्कासयितुमुद्धर्तु, विशोधयितु जलाऽऽदिधावनेनापनेतु, शेष प्राग्वत्। (जत्थेव सूरिए त्ति) यत्रैव, एवकारोऽवधारणे, नान्यत्रेत्यर्थः / वसतिप्रदेशे अरण्याऽऽदौ वा सूर्योऽस्तमेति अस्तं प्राप्नोति | (तत्थेव त्ति) तत्रैव वसेदित्याह-(जलसि वा इत्यादि) जले जलविषये, न तु जले एव, कथमस्तसमये (कप्पति) उपयोगवत्त्वात्तेषाम, उच्यते अत्र जलशब्देन नद्यादिजलं न गृह्यते, कि तु यत्र तृतीयो यामो दिवसस्य संपूर्णो भवति तत्र तेषां जलमेवोच्यते इति समयरीतिः, विशिष्टाभिग्रहवत्त्वात्तेषाम / स्थविरकल्पिकानां तु न तथेति, अत्रावकासिक स्थलंजलमेव भवति यत्रावश्यायः पतति / तथा चोक्तं पञ्चमाणे"अस्थि ण भते! सदासमितं सुहमे सिणेहकाए पवडति? हता! अत्थि। से भंते ! किं उद्धे पवडति, अहे पवडति, तिरिए पवडति? गोयमा ! उड्डे वि पवडति, अहे विपवडति, तिरिए वि पवडति, जहा से बादरतेआउआए अण्णजणसमाउत्ते चिर पि दीहकालं चिट्ठइतहा ण से वि। णो इणढे समट्टे से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छद। " सूक्ष्मस्नेहकाय इति अप्कायविशेषः, तत्रापि चाल्पस्य स्निग्धेतरभागमपेक्ष्य बहुत्वमल्पत्वं चावसेयम् / यदाह- "पढमचरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्भुतुतासि वजेत्ता, पायं वा वि सिणेहाइरक्खणट्ठा पवेसे वा।।१।।" लेपितपात्रमपि न बहिः स्थापयेत्, तत्स्ने हाऽऽदिरक्षणायेति / अत उक्तम्- 'जलं सि'' न तु नद्यादिपानीये, वाशब्दोऽपरापरभेदसंग्रहार्थम्। (थलंसि त्ति) स्थलं नाम अटवी, तत्र (दुग्गसि त्ति) दुर्गशब्देन ग्रहणं, निम्नं गर्ताऽऽदिक, विषम निम्नोन्नतं, पर्वतः प्रसिद्धः, पर्वतदुर्गः पर्वतनिकटगहनं नितम्बा का, गर्ता खड्डा, दरी गुहा, पर्वतकन्दरेति यावत् / तत्र कल्पते ता रजनीम(उवातिणावित्तए त्ति) तत्रैवातिक्रमितु, पर (नो) नैव (से) तस्य प्रतिमावतः राधोः, कल्पते पदमपि गन्तुं, ततः अग्रे इत्यध्याहारः, अपिग्रहणात् अर्द्धपदमपि। (कप्पति से इति) तस्य (कल्लं पाउप्पभायाए त्ति) श्वः प्रादुः प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्या. यावत्करणात् 'फुल्लुप्पलकमल-कोमल'' इत्यादिपदकदम्बकं संग्रहात् द्रष्टव्यम्। तत्रफुल्लोत्पल-कमलकोमलोन्मीलिते, फुल्लं विकसित, तच्च तदुत्पलं, च फुलोत्पलं, तच कमलश्च हरिणविशेषः, फुल्लोत्पलकमलौ, तयोः कोमलकठोरमुन्मीलितदलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा तस्मिन, अथेति रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे प्रभाते रक्ताशोकप्रकाशेन किंसुकमुखस्य गुजार्द्धस्य रागेण सदृशयोःस तथा तस्मिन्, तथा कमलाकरा हृदाऽऽदयस्तेषु खण्डानि नलिनीखण्डानि तेषां बोधको यः स कमलाकरखण्डबोधकस्तस्मिन्, उत्थिते अभ्युद्गते, कस्मिन्नित्याह- सूरे / पुनः कथभूते? इत्याह- (सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे) सहस्ररश्मौ दिनकरे, तेजसा ज्वलति देदीप्यमाने (पायीणेत्यादि) प्राची नाम पूर्वा, तदभिमुखस्य, प्रतीचिनाम पश्चिमा तरयां पश्चिमायामित्यर्थः, निद्रायितु शयन कर्तुं, प्रचला, निद्रा, तां कर्तुम्, उलङ्घयितुं वा यतः केवली ब्रूयात्, केवल्येव तद्दोषान्ज्ञातुंवक्तुंवा, समर्थः आदानंदोषाणाम् / अथवाकर्मबन्धहेतुत्वादादानमेतत्कर्मोपादानमेतदिति / कथं कर्मोपादानमिति दर्शयति-स प्रतिमाधारकः साधुस्तत्र निद्रां कुर्वाणः प्रचलायमानो वा हस्ताभ्यां भूमिपरामशेत, तर्हि किंकुर्यादित्याह (अधाविधिमिति) यथाविधिमेव स्थानं विधिमनतिक्रम्य यथाविधि, निष्क्रमितुम उच्चारप्ररत्रवणा Page #1583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1575 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खुपडिमा भ्यामुगावते कदाचिनथा (से) तस्य यत्र तत्रावग्रहीतु परिष्ठापयितु च प्रस्रवणाऽऽदिकं, किं तु कल्पते (से) तस्य पूर्वानुज्ञाते पूर्वप्रतिलिखिते स्थण्डिले उच्चारं प्रसृवणं वा परिष्ठापयितुं, रजः स्वेदतया जल्लतया मल्लतया पङ्कतया (विद्धत्थे ति) विध्वस्तो विनाशं प्राप्तोऽपि परिणतोऽचित्तीजात इति यावत्, तदा (से) तस्य कल्पते गृहपतिकुलं भक्ताय वा पानाय वा निष्क्रमितु प्रवेशयितुमिति / तत्र स्वेदो नाम प्रस्वेदः, जल्लो नाम मलः कठिनीभूतः, मल्लो हस्ताऽऽदिघर्षितः स एव मलो यदा स्वेदेनाऽऽो भवति तदा पङ्कइत्युच्यते इति। (सीओदगवियडेणं ति) शीतं च तदुदकं च शीतोदकं तदेव विकटं विगतजीवमेवमुष्णोदकविकट, वाशब्दो विकल्पसूचकः (हत्थाणि व त्ति) हस्तौ च, बहुत्वं नपुसंकत्वं च प्राकृतत्वात्, एवं पादौ,दन्ताः, अक्षिणी, मुखं वा उच्छोलनया अयतनया धावयितु प्रकर्षेण यतनयाऽपि धावयितु प्रधावयितु, नाऽन्यत्र वक्ष्यमाणादन्यत्रेत्यर्थः / "लेवालेवेण वा लेपस्य उदकेन पात्रादिधावनरूपस्य आसमन्तात् लेपेन आर्द्रतालक्षणेन शरीरे वा शुच्यादिलेपेन / अथवा-शकुनकाऽऽदिना मुखेन वा नयनेन वा (?) हस्ताऽऽदिस्पर्श कृते हस्ताऽऽदिव्याधाते, एतस्मादन्यत्र तथाविधकारणमन्तरा न धावये (?) दाहाराऽऽदिकम् (आसस्सेत्यादि) सुबोध, दुष्टस्याऽऽपतत आगच्छतोवधाऽऽद्यर्थं न कल्पते पदमपि प्रत्यवसर्पितुम, अपिगृह-णादर्द्धपदमपि, इति अदुष्टस्याश्वाऽऽदेः स्वभावत एवा55 - गच्छतः कल्पते युगमानं प्रत्युपसर्पितु, माऽयमुन्मार्गो गत्या हरिताऽऽदिमर्दनं करिष्यतीति कृत्वा स्वयमेव प्रत्यवसप्त। (छायातो त्ति) छायातः शीतकाले शीतमिति कृत्वा, उष्णे शीतपे स्थानं गन्तुम् आगन्तुम्, एवमुष्णकाले उष्णमिति कृत्वा शीतमिति / यद्येव न करोति तदा कि कुर्यादित्याह- 'जं जत्थ' इत्यादि। यद्यत्र यदा शीतादितत्ततः शीताऽऽदिक तत्र तरिमन्नेव स्थाने तदा तस्मिन्नेव शीताऽऽद्यवसरे अध्यासते। एवमित्यादि एवमनन्तरोक्तप्रकारेण, खुरवधारणे, सा एषाऽन्तरोक्ता मासिकी भिक्षुप्रतिमा। (अहासुत्त ति) सामान्यसूत्रानतिक्रमेण (अहाकप्पं ति) प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण तत्कल्पवस्त्वनतिक्रमेणवा (अहामग्गं ति) ज्ञानाऽऽदिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षयोपशमकभावानतिक्रमेण वा (अहातचं ति) यथातत्त्वं तत्त्वानतिक्रमेण मासिकी भिक्षुप्रतिमेति शब्दार्थानतिलङ्घनेनेत्यर्थः / (जहासम्म ति) यथासमं समभावानतिक्रमेण (कारणं फासिय त्ति) कायेन शरीरेण न पुनर्मनोरथमात्रेण स्पृष्ट उचितकाले विधिना ग्रहणात्, (पालिय त्ति) पालितः, असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात् (सोहिया इति) पारणकदिने गुर्वादिदत्तशेषभोजनकरणात्, शोधिता वा अतीचारपङ्कक्षालनात् (तीरिय इति) तीरिता पूर्णेऽपि तदवधौ स्तोककालावस्थानात् (पूरिय ति) सम्पूर्णेऽपि तदवधौतत् कृत्यपरिमाणपूरणात् (किट्टिय त्ति) कीर्तिता पारणकदिने इदं च दिने कृत्यं तच मया कृतमित्येवं कीर्तनात् (अणुपालेत त्ति) तत्समाप्तौ | तदनुमोदनात् / किमुक्तं भवतीत्याह आज्ञया आराधिता आज्ञया अनुपालिता भवति। इत्युक्तं प्रथमप्रतिमास्वरूपम्। साम्प्रतं क्रमप्राप्त द्वितीयाऽऽदिप्रतिमास्वरूपमुच्यते-- दोमासियं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्सानगारस्स निच्चं बोसट्टकायं चेव ०जाव दो दत्तीओ, तिमासियं तिन्नि दत्तीओ, चतमासियं चत्तारिदत्तीओ, पंचमासियं पंच दत्तीओ, छम्मासियं छ दत्तीओ, जति मासिया तति दत्तीओ। पढमा सत्तरातिदियाणि भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स निचं वोसट्टकाए जाव अधियासेति, कप्पति से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामंसि वा०जाव राजहाणीए वा उत्ताणगस्स वा पासेल्लगस्स वा नेसञ्जियस्स वा ठाणं ठाइत्तए, तत्थ णं दिव्वमाणुस्सतिरिक्खजोणिया उवसग्गा उप्पज्जेज्जा, ते णं उवस्सगा पयलिज वा पवजिज्ज वा, णो से कप्पति पयलित्तए वा, पवडित्तए वा, तत्थ से उच्चारपासवणं ओघाविजा, णो से कप्पति उच्चारपासवणं ओगिण्हित्तर वा, कप्पति से पुव्वपडिलेहियंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिट्ठवित्तए, अधावि धम्मेऽवट्ठाणं ठाइत्तए, एवं खलु पदमा सत्तराइंदिया भिक्खुपडिमा अहासुत्तं०जाव आणाए अणुपालित्ता भवति। एवं दोचा सत्तरातिंदिया वि, नवरं दंडातियस्स वालगंडसाइयस्स वा उकुडयस्स वा ठाणं ठाइत्तए, सेसं तं चेव जाव अणुपालित्ता भवति। एवं तच्चा सत्तरातिंदिया वि भवति, नवरं गोदोहियाए वा वीरासणियस्स वा अंबखुजस्स वा ठाणं ठाइत्तए, सेसं तं चेव०जाव अणुपालित्ता भवति, एवं अहोरातिया वि, णवरं छटेण भत्तेण अपाणएणं बहिया गामस्स वाजाव रायहाणिस्स वाइसिं दो वि पाए साहट्ट वग्धारियपाणिस्स ठाणं ठावित्तए, सेसं तं चेव०जाव अणुपालित्ता यावि भवति / एगरातियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स निच्चं वोसट्ठकाण्णंजाव अधियासेति, कप्पति से अट्टमेणं भत्तेणं अप्पाणएणं बहिया गामस्स वा०जाव रायहाणी ईसिपब्भार गतेणं कारणं एगपोग्गलट्ठिताए दिट्ठीए अणिमिसनयणे अहापणिहितेहि गातेहि सविहिएहिं गुत्ते दो विपाए साहट वग्धारियपाणिस्स ठाणं ठाइत्तए० जाव अधाविधिमेव ठाइत्तु एगरातियं णं भिक्खुपडिमं अणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा अहियाए असुहाए अक्खमाए अणिस्सेसाए अणाणुगामियत्ताए भवंति, उम्मायं वालभिजा, दीहकालियं वा रोगायंक पाउणेजा, केवलिपण्णत्ताओ धम्मातो भंसिज्जा, एगरातिदियं णं भिक्खुपडिमं सम्म अणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओठाणा हिताएजाव आणुगामियत्ताए भवति। तं जहा-- ओहिनाणे वा से समुप्पजेजा, मणपञ्जवनाणे वा से समुप्पजेजा, केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा, एवं ख-- Page #1584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खुपडिमा लु एसा एगराइया भिक्खुपडिमा अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं अहासमं कारणं फासिता सोहिता तीरिता किट्टिता आराहिता आणाए अणुपालिता यावि भवति, एताओ खलु तातो थेरेहिं भगवंतेहिं बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ। (दोमासियमित्यादि) शेषं प्राग्वत, नवरं द्वेदत्ती भोजनय, द्वे पानकस्य, एवमेकैकदत्तिवृद्ध्या यावत्सप्तमासिकी सप्तभोजनपानरूपा प्रत्येकम (पढमा सत्तराइदिय त्ति) प्रथमा सप्तरात्रिन्दिवानि अहोरात्राणि यस्यां सा सप्तरात्रिन्दिवा, शेषं पूर्ववत्। (से चउत्थेणं भत्तेणमित्यादि) चतुर्थभक्तेन अपानकेन पानीयपरिवर्जनेन बहिः ग्रामस्येत्यादि, यावक्तरणानगराऽऽदिपदकदम्बकपरिग्रहः। (उत्ताणयस्स त्ति) उत्तानिकस्योत्तानशायिनः (पासेल्लयस्य) पार्श्वशायिनः,(णेसज्जियस्स त्ति) विष्ठाविकलस्य स्थान स्थातुं (तत्थेत्यादि) प्राग्वत् (तेणं ति) ते णमिति-वाक्यालङ्कारे (पयालेज त्ति) प्रचलेयुः, स्थानात् प्रपतेयुरधः पातनेन एवं पूर्ववत्, यावदाराधिता भवति एवं द्वितीया सप्तरात्रिन्दिवा, नवरं षष्ठेन तपसा पानकेन दण्डायति कस्य लगण्डशायिन उक्तुटुकस्य संस्थातुं, शेष तथैव / एवं तृतीयाऽपि नवरमष्टमेन तपसा पानकेन गोदोहिकाऽऽसनिकस्य वीराऽऽसनिकस्य आम्रकुब्जस्य स्थानं स्थातुम, एवमहोरात्रिन्दिवाऽपि भवति, नवरं षष्ठेन भक्तेन, अपानकेन (ईसिमिति) ईषत् द्वावपि पादौ (साहटुटु त्ति) संहृत्य संहृतौ कृत्वा, जिनमुद्रयेत्यर्थः (वग्धारितपाणिस्स त्ति) प्रलम्बितभुजस्य स्थान कायोत्सर्गलक्षणं स्थातुम (एगरा इयं ति) एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमामित्यादि, शेष कण्ठ्यम् (ईसिं पड़भारगएणं कारण ति) ईषत्प्राग्भारः अग्रतो मुखमवनतत्वम(एगपोग्गलेत्यादि) एक एव पुद्गल एकपुद्गलस्तत्र स्थिता दृष्टिर्यस्यासावेकपुद्गलस्थितदृष्टिः, तस्यैक पुद्गलस्थितदृष्टः (अहापणिहितेहिं गातेहिं ति) यथाप्रणिहितैर्यथास्थितैगत्रिः सर्वेन्द्रियैर्गुप्तः, शेष कण्ठ्यम्। (अणुपालेमाणस्स त्ति) अनुपालयतः अनगारस्याऽगाररहितस्य इमानि त्रीणि स्थानानिपुंस्त्वं प्राकृतत्वात्। (अहियाए त्ति) अहिताय, भावप्रधानोऽयं निर्देशः, अहितत्वाय परिणामासुन्दरताय, असुखायाशर्मणे, अक्षमाय भावप्रधानो निर्देशः असङ्गतत्वाय अनिः- श्रेयसाय अनिश्चितकल्याणाय, अनानुगामिकतायै परम्पराऽशुभानुबन्धासुखाय भवन्ति / तद्यथा- उन्माद वाऽऽप्नुयात्, आहारविषयाऽऽद्यभिल्लाषातिरेकतस्तथाविधचित्तविप्लवसंभवात्, वाशब्दाः अपरापरभेदसूचकाः। (दीहकालियं ति) दीर्घकालिकं स्यात् सामर्थ्यात् अन्यथा ब्रह्मणा मनसैव प्रजनने निषेकाऽऽदिकमपि कल्पेत स्मृतिरपि केवलेन हि गौर्यो गावः खगा मृगाः, अन्ये वा दीर्घकाल प्रभूतकालभावि रोगश्च दाहज्वराऽऽदिः आतङ्कश्चाशुधातिशूलाऽऽदिरोगान्तङ्कः भवेत्स्यात्, संभवति हि अतिबाधया अशनाऽऽदिरूपया आहारविषयाऽऽद्यभिलाषाऽतिरेकतो रोचकत्वं ततश्च ज्वराssदीति केवलिप्रज्ञप्ताद्वा धर्मात् श्रुतचारित्ररूपात्समास्तात् भ्रस्येदधः प्रतिपतेत्, कस्यचिदिति निकृष्टकर्मोदयात्सर्वथा धर्मपरित्यागसंभवादिति। एवं त्रीणि स्थानानि हितायेत्यादि पदव्याख्या प्रग्वात्। अवधिज्ञानं वा [ से ] तस्य समुत्पद्यते एवं मनः पर्यायकेवले अपि, शेष व्यक्तम्। दश०७० ''चउभत्तेहिं जइउं,छट्टहिं अट्टमेहिँ दसमेहिं। बारस चोद्दसमेहि य, धीरा वि इमं तुलितप्पं / / 1 / / एकताव तवं, करेइ जह तेण कीरमाणेणं। हाणी न होइ जइया, वि होइ छम्मासुवस्सग्गे।।२॥" सत्त्वतुलना तु पञ्चभिः प्रतिमाभिर्भवति, कायोत्सर्गेरित्यर्थः / ताश्चैवम्पढमा उवस्सयम्मी, बीया बाहिं तइय चउक्कम्मि। सुण्णहरम्मि चउत्थी, तह पंचमिया मसाणम्मि / / 1 / / आसु थावं थोव ; पुव्वपवत्तं जिणेइ सो नि। भूसगफासाइ तहा, भयं च सद्द सुब्भव अजिय / / 2 / / '' सूत्रतुलना तु यत्सूत्राण्यतिपरिचितानि करोति। उक्तंच"अह सुत्तभावणं सो, एगणमणो अणाउलो भयवं। कालपरिमाणहेउं, सव्वत्थं सव्वहा कुणइ / / 1 / / मेहाइच्छन्नेसु, उभओ कालमहव उवसगे। पेहाइ भिक्खपथे, जाणइ काल विणा छायं / / 2 / / एकत्वतुलना त्वेवम्"एगत्तभावणं तह, गुरुमाइसु दिट्टिमाइपरिहारा। भावइ छिण्ण ममत्तो, तत्तं हिययम्मि काऊणं // 1 // एगो आया संजो-गियं तु सेसं इमस्स पाएण। दुक्खनिमित्तं सव्वं, हिओ य मज्झत्थभावो सोसा" बलतुलना तु द्विविधा-शरीरमानसबलभेदात्। तत्र शारीरबलं कायोत्सर्गकरणसामर्थ्य , मानसबल तुधृतिरिति। आह च-"इह एगत्तसमेओ, सारीरं मानसं च दुविह पि / भावइ बलं महप्पा, उस्सग्गठिइसरूवं तु / / 1 / / " इदं चाभ्यासाद्भवपि / आह च- "एमेव य देहबलं, अभिक्खआसेवणाएँ त होइ। लखगमल्लेउवमा आसकिसोरे व जोगविए।।१।।" इति। कथं भाविताऽऽत्मेत्याह-सम्यग्यथाऽऽगमम्. अनुज्ञात इत्येतस्य चेद विशेषणम् / तथा गुरुणाऽऽचार्येण, अनुज्ञातोऽनुमतः, अथ गुरुरेव प्रतिपत्ता तदा व्यवस्थापिताऽऽचार्येण गच्छेन वेति / / 4 / / गच्छे च्चिय णिम्माओ, जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा। णवमस्स तइयवत्थू, होइ जहण्णो सुयाहिगमो ||5|| गच्छ एव साधुसमुदायमध्य एव तिष्ठन्, निर्मातः प्रतिमाकल्पपरिकर्मणि आहाराऽऽदिविषये परिनिष्ठितः। आह च- "पडिमाकप्पियतुल्लो, गच्छे च्चिय कुणइ दुविह परिकम्म। आहारोवहिमाइसु, तहेव पडिवजए कप्प // 1 // " आहाराऽऽदिप्रतिकर्म दर्शयिष्यते / परिकर्मपरिमाणं चैवम्आसामाद्यासु सप्तसु या यावत्परिमाणा तस्यास्तत्प्रमाणमेव प्रतिकर्म। तथा वर्षासुनैताः प्रतिपद्यते।नच प्रतिकर्म करोति / तथा-आद्यद्वयमेकत्रैव वर्षे , तृतीयचतुर्थ्यां चैकैकस्मिन् वर्षे, अन्यासां तु तिसृणामन्यत्र वर्षे प्रतिकर्म, अन्यत्र च प्रतिपत्तिः। तदेव नवभिर्वराद्याः सप्त समाप्यन्ते इति / अथ तस्य कियान् श्रुताधिगमो भवतीत्याह-यावत्पूर्वाणि दशेति प्रतीतम्। असम्पूर्णानि किश्चिदूनानि। संपूर्णदशपूर्वधरो हि अमोघवचनत्वाद्धर्मदेशनया भव्योपकारित्वेन तीर्थवृद्धिकारित्वात् प्रतिमाऽऽदिकल्पं न Page #1585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1577 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मिक्खुपडिमा प्रतिपद्यत, भवेत्स्यात् श्रुताधिगम इति योगः / उत्कृष्टश्वाय, जघन्यस्य वक्ष्यमाणत्वात् / अथ जघन्यमेवाऽऽह-नवमस्य पूर्वस्य प्रत्याख्याननामधेयस्य, तृतीयवस्तु आचाराऽऽख्यं, तद्भागविशेष यावदिति वर्तते। भवति स्यात्, जघन्योऽल्पीयान्, श्रुताधिगमः श्रुतज्ञानं, सूत्रतोऽर्थतश्च, एवच्छतविकलो हि निरतिशयज्ञानत्वाक्तालाऽऽदिन जानातीति / / 5 / / वोसट्ठचत्तदेहो, उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी। एसण अभिग्गहीया, भत्तं च अलेवडं तस्स / / 6 / / व्युत्सृष्टः परिकर्माभावेन, त्यक्तो ममत्वत्यागेन, देहः कायो येन स तथा यत:''अण्णो दे हाउ अहं. नाणत्तं जस्स एवमुवलद्धं / सो किंचि आहिरिक, न कुणइ देहस्स भने वि॥१॥" 'आहिरिकं ति' प्रतीकारम्। उपसर्गसहो दिव्याऽऽधुपद्रवसोढा / यथैव यद्गदेवा जिनकल्पी जिनकल्पिकः, तद्वदुपससर्गसह इत्यर्थः / (पञ्चा० 18 विव०1) भक्तं चान्नं पुनः अलेपकृतमलेपकारकं वल्लचाकाऽऽदि, तस्य प्रतिमाप्रतिपत्तुकामस्य परिकर्म कुर्वतः. चशब्दादुपधिश्च अस्य स्वकीयॆषणाद्वयलब्ध एव, तदभावे यथाकृतोऽप्युचितप्राप्तिं यावत् स्यात्, जाते तूचिते तंव्युत्सृजति। उक्तंच"उवगरण सुद्धेसण-माणजुयं जमुचियं सकप्पस्स। त गिण्हइ तयभावे, अहागडं जाव उचियं तु॥१॥ जोए उचिए य तयं, वोसिरइ अहागडं विहाणेणं / इय श्राणाविरयस्सिह, विण्णेयं तं पि तेण समं / / 2 / / '' कल्पोचित चोपधिमुत्पादयति स्वकीयेनेषणाद्वयेन / एतचैषणाचतुष्टयेऽन्तिममेषणाचतुष्टयं पुनरिद कासिकाऽऽद्युद्दिष्टमेव वस्त्र ग्रहीष्यामि, प्रेक्षितमेव, परिभक्तप्रायमेवोत्तरीयाऽऽदि, तदप्यु-ज्झितधर्मकमेव / इति गाथात्रयार्थः / पञ्चा० 18 विव० इहैव प्रतिमाकल्पे परमतमुपदर्शयन् गाथाचतुष्टयमाहआह ण पडिमाकप्पे, सम्म गुरुलाघवाइचिंत त्ति। गच्छाउ विणिक्खमणाइ ण खलु उवगारगं जेण // 21 // आह--ब्रूते परः / किं तदित्याह-(न) नैव / प्रतिमाकल्पे प्रागुक्तरूपे सम्यग्यथावत्, गुरुलाघवाऽऽदिचिन्ता "गच्छवासो गुरुः, स्वपरोपकारहेतुत्वात्, निर्गमस्तु लघुः, स्वोपकारमात्रहेतुत्वात्' इत्यादि विचारः / आदिशब्दात्तपः- प्रभृत्युभयत्राऽपि तुल्यमित्येतद्गृहः, अस्तीति गम्यते / इतिः प्रतिज्ञार्थसमाप्तौ। अत्रोपपत्तिमाह- गच्छात्साधुसमूहात्, विनिष्क्रमणाऽऽदिनिर्गमप्रभृति, आदिशब्दाद्धर्मानुपदेशनाऽऽदिग्रहः, न खलु नैव, उपकारकं गुणावहम, येन यस्माद्धेतोरिति॥२१।। कथं नोपकारकमित्याहतत्थ गुरुपारतंतं, विणओ सज्झाय सारणा चेव। वेयावचं गुणवुढि तह य णिप्पत्ति संताणो॥२२॥ तत्र गच्छे, गुरुपारतन्त्र्यमाचार्याऽऽयत्तत्ता निखिलानर्थनिबन्धनस्वैरताप्रतिपन्थिनी, विनयस्तदुचितविषये विनीतत्वं मानगिरिकुलकुलिशकल्पम्।तथा स्वाध्यायो वाचनाऽऽदिपञ्चप्रकारो मतिनयननिर्मल ताजनोपमानः, स्मारणा विस्मृतार्थाऽनुस्मारणं, विस्मृतशस्त्रशत्रुप्रार धपुरुषामोघशस्त्रस्मारणकल्पा। अथवा-स्वाध्यायसारणा स्वाध्यायनिर्वाहणेत्येकमेव / चैवेति समुच्चये। तथा वैयावृत्त्य व्यावृत्तभावस्तत्कर्म वा भक्ताऽऽदिभिरुपष्टम्भनं तीर्थकरत्वाऽऽदि सत्फलनिमित्त विशिष्ट - पुण्यमहातरुनिरुपहतबीजकल्पम् / तथा गुणवृद्धिः स्वगतज्ञानाऽऽदिगुणवर्द्धनमनुपमानन्दरसदानदक्षेक्षुयष्टिपुष्टिप्रायम्। तथा चेति समुच्चये। निष्पत्तिः सहुणत्वेन शिष्यसंसिद्धिः फलसन्तानसाधनसमर्थधान्यनिष्पत्तितुल्यः। ततः सन्तानः शिष्यप्रशिष्याऽऽदिवंशः संसारगर्तगताङ्गिवर्गस्य निर्गमनसोपानपरम्परारूपः। न चैते गुणा गच्छनिर्गम इति // 22 // दत्तेगाइगहो वि हु, तह सज्झायावभावओ ण सुहो। अंताइणो विपीडा,ण धम्मकायस्स सुसिलिटुं / / 23 / / (दत्तेगाइ ति) प्राकृते पूर्वापरनिपातोऽतन्त्रमिति कृत्वा एकाऽऽदिदत्तिग्रहोऽपि एकट्यादिभिक्षाविशेषग्रहणमपि उक्तन्यायेनाभिग्रह रूपम्। न शुभ इति योगः। अपिः समुच्चये। हुर्वाक्यालङ्कारे। कुत इत्याह- तथा स्वाध्यायाऽऽद्यभावतस्तथाप्रकारस्य निरन्तरस्य स्वाध्यायध्यानाऽऽ-- देरसद्भावात्। स्वाध्यायाऽऽदयश्च निराबाधा गच्छावास एव अनेकदत्यादि ग्रहणेन सावष्टम्भकायतया सम्यग्भवन्तीति हृदयम्।न शुभो न श्रेयान्, तथाऽन्ते भवमन्त्यं जघन्यं वल्लचणकाऽऽदि, तदत्तुं भोक्तुं शीलमस्येत्यन्त्यादी तस्यान्त्यादिनोऽपि सतः प्रतिमास्थस्य, पीडा बाधा धर्मकायस्य धर्मसाधनशरीरस्य, भवतीति शेषः। धर्मकायपीडाभवनं भवनं न च नैव, सुश्लिष्ट सङ्गतं, वर्जनीयत्वात् / यदाह- "भावियजिणवयणाणं, ममत्तरहियाण णत्थि उ विसेसो। अप्पाणम्मि परम्म य, तो वजे पीउ मुभओ वि॥१॥" इति॥२३॥ ततश्चएवं पडिमाकप्पो, चिंतिज्जंतो उनिउणदिट्ठीए। अंतरभावविहूणो, कह होइ विसिट्ठगुणहेऊ? ||24|| एवमुक्तन्यायेन, प्रतिमाकल्पोऽनन्तरोक्तः, चिन्त्यमानो विचार्यमाणः, तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्व, निपुणदृष्ट्या तु सूक्ष्मबुद्ध्यैव, आन्तरभावविहीनः परमार्थवियुक्त एव, कथं? न कथञ्चिदित्यर्थः। भवति स्यात्, विशिष्टगुणहेतुः पारमार्थिकोपकारनिमित्तम् / प्रयोगश्वात्रयदान्तरभाववियुक्तं तद्विशिष्टगुणहेतुर्न भवति, यथा पश्चाग्नितपःप्रभृति, आन्तरभाववियुक्तश्चायम्। इति गाथाचतुष्कार्थः / / 24 // अत्रोत्तरमाहभण्णइ विसेसविसओ, एसो ण उ ओहओ मुणेयव्वो। दसपुव्वधराईणं,जम्हा एयस्स पडिसेहो // 25|| भण्यते अभिधीयते, समाधिः विशेषविषयः पुरुषविशेषगोचरः, एष प्रतिमाकल्पः, नतुन पुनः, ओघतः सामान्यतः (मुणेयव्वो त्ति) ज्ञातव्यः। कुत एतदेवमित्याह-दशपूर्वधराऽऽदीनां दशैकादशाऽऽदिपूर्वधराणाम, यस्माद्यतः एतस्य प्रतिमाकल्पस्य, प्रतिषेधोऽस्ति। तन्निषेधश्च- ''गच्छे चिय निम्माओ, जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा'' इति वचनात्। दशपूर्वधराऽऽदयो हि गच्छ एव वसन्तः उपकारकारकाः, अतः प्रतिमाकल्पे गुरुलाघवाऽऽदिचिन्ता नास्तीत्ययुक्तम् / इति गाथाऽर्थः // 25|| Page #1586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1578- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खुपडिमा एतदेव स्पष्टयन्नाहपत्थुयरोगचिगिच्छा-वत्थंतरतव्विसेससमतुल्लो। तह गुरुलाघवचिंता-सहिओ तकालवेक्खाए।।२६।। प्रस्तुताऽधिकृता या रोगचिकित्सा व्याधिप्रतिक्रिया, तस्यां यदवस्थान्तरं रोगिणो रोगान्तरकृतः कष्टतरपर्यायविशेषः, तत्र यस्तद्विशेषश्विकित्सान्तरं, तेन समतुल्योऽत्यन्तसदृशो यः प्रस्तुतरोगचिकित्सावस्थान्तरतद्विशेषसमतुल्यः, अथवा-तुल्यशब्दपर्यायो वा समतुल्यशब्दोऽस्ति, यथा "समतुल्यं पराक्रमैः / " इति / अथवा- प्रस्तुतरोगचिकित्साया यदव-स्थान्तरमधिकृतरोगस्येषच्छमरूपं, तत्र यस्तद्विशेषो रोगान्तरं यस्यः सः, तस्य यः शमः शमनोपायश्चिकित्सेत्यर्थः / तत्तुल्यो यः स तथा। प्रतिमाकल्प इति प्रकृतम्।तथा तेन प्रकारेण उक्तदृष्टान्तसाधर्म्यरूपेण, गुरुलाघवचिन्ता सारेतराऽऽलोचनं, तया सहितोयुक्तो यः स तथा। कथमित्याह- तत्कालाऽपेक्षया प्रतिपत्त्यवसरमालम्ब्य, विहितसमस्तस्थविरकल्पकार्यस्य हि समाश्रयणीयतर एव प्रतिमाकल्पोऽतस्तदा गुरुकोऽसौ, इतरस्तुलघुः। अन्यदा तु स्थविरकल्प एव गुरुतर इति सुळूक्तं तत्कालापेक्षया गुरुलाघवचिन्तासहित इति गाथाऽर्थः / / 26 / / उक्तमेवार्थ स्पष्टयन्नाहणिवकरलूयाकिरिया-जयणाए हंदि जुत्तरूवाए। अहिदट्ठाइसु छेया-इ वजयंतीह तह सेसं // 27|| नृपकरे राजहस्ते लूतावातिको रोगविशेषो नृपकरलूता, तस्या / उपशमाय क्रिया चिकित्सा मन्त्रापमार्जनाऽऽदिका, तस्यां या यतना / प्रयत्नः सा तथा तस्यां नृपकरलूताक्रियायतनायाम्। हन्दीत्युपप्रदर्शने / किंविधायामित्याह- युक्तरूपायां सङ्गताया, प्रस्तुतायामिति शेषः / अहिदष्टाऽऽदिषु सर्पदशनप्रभृतिषु अधिकृत-क्रियाया असाध्येषु सद्योघातिषु सत्सु, आदिशब्दाद्विशूचिकाऽऽदिग्रहः; नृपस्येति गम्यम्। छेदाऽऽदि अहिदंशप्रदेशे कर्त्तनदहनप्रभृति तज्ज्यन्यानर्थनिवर्तनक्षम विचिकित्साविशेषम्, कुर्वन्तीति शेषः। वर्जयन्ति परिहरन्ति वैद्याः। इह सर्पदष्टाऽऽदौ। तथेति समुच्चये, शेषां मन्त्रप्रमार्जनाऽऽदिकां लूताक्रियामधिकृतामपीति गाथाऽर्थः // 27 // ___ कुतस्तामधिकृतां वर्जयन्तीत्याहएवं चिय कल्लाणं, जायइ एयस्स इहरहा ण भवे। सव्वत्थावत्थोचिय-मिह कुसलं होइऽणुट्ठाणं // 28 // एवमेवाधिकृतक्रियावर्जनेनैव छेदाऽऽदिक्रियाविशेषकरणेनैव च / कल्याण श्रेय आरोग्यमित्यर्थः, जायते स्यात्, एतस्य नृपस्य, छेदाऽऽद्यकरणे मन्त्रापमार्जनामात्रात्, न भवेन्न स्यात् कल्याणम्, अहिदष्टतया मरणप्राप्तेः / अथाऽधिकृतक्रियात एव कस्मात्कल्याणं न स्यादित्यत आह–सर्वत्र देशे काले पुरुषे वा, अवस्थोचितं भूमिकाऽनुरूप, इह लोके, कुशलं कल्याणहेतुः, भवति स्यात्, अनुष्ठानं कर्तव्यम्, अतः सर्पदष्टाऽऽदौ छेदाऽऽदिविधानमेव कल्याणहेतुः। इति गाथाऽर्थः / / 28|| अथ "अहिगयरोगचिगिच्छ'' इत्यादिप्रथमव्याख्याऽनुसारेण दाग-1 न्तिकयोजनायाऽऽह इय कम्मवाहिकिरियं, पव्वजं भावओ पव्वण्णस्स। सइ कुणमाणस्स तहा, एयमवत्यंतरंणेयं / / 26 / / इत्येवं लूताऽऽदिक्रियावत्, कर्मट्याधिक्रियां कर्मरोगचिकित्सां, कामित्याह-प्रव्रज्या दीक्षा लूताऽऽदिक्रियाकल्पाम्, भावतो भावेन, प्रपन्नस्याभ्युपगतवतः, सकृत् सदा, कुर्वाणस्य तामेव विदधतः, तथेति समुच्चये, तेन चा प्रकारेण स्थविरकल्पोचितत्वलक्षणेन, एतदिदम्, अवस्थान्तरं पर्यायान्तर मन्त्रापमार्जनाऽऽदिकल्पस्थविरकल्पासाध्यमहिदष्टाऽऽदिकल्प तीव्रतरकर्मविपाकरूपं छेददाहाऽऽदिचिकित्साविशेषतुल्यप्रतिमाकल्पस्यैव साध्यम, ज्ञेयं ज्ञातव्यम्। इतिगाथाऽर्थः॥२६।। पुनरपि गुरुलाधवचिन्तासहितत्वमस्य दर्शयन्नाहतह सुत्तवुड्विभावे, गच्छे सुत्थम्मि दिक्खभावे य। पडिवजइ एयं खलु, ण अण्णहा कप्पमवि एवं // 30 / / तथेति युक्त्यन्तरसमुच्चये, सूत्रवृद्धिभावे सूत्रार्थवृद्धौ सत्याम, क? गच्छे साधुगणे बहुश्रुतसाध्वधिष्ठितत्वात् / अथवा- अकारप्रश्लेषात् सूत्रावृद्धिभावे किश्चिदूनदशपूर्वाधिकतरश्रुतग्रहणशक्त्यभावे इत्यर्थः / तथा गच्छे साधुगणे, सुस्थेऽनाबाधे सति बालवृद्धग्लानाऽऽद्यभावात्तत्प्रतिचारकभावाद्गच्छपालनोद्यताऽऽचार्याऽदिसद्भावाच्च, तथा दीक्ष्यस्य प्रव्राज्यस्याभावो दीक्ष्याभावस्तत्र / चशब्दः समुच्चये / प्रतिपद्यतेऽभ्युपगच्छति, एतं प्रतिमाकल्पम्, खलुरवधारणे, ततश्च न नैव, अन्यथोक्तवस्तुत्रयाभावे, कल्पमप्युचितमपि / कथमित्याह- एवं प्रागुवतसंहननवृत्त्या-दियोगेन। अथवा-कल्पमपि जिनकल्पमपि, एवं पूर्वोक्तवस्तुत्रयसद्भावे प्रतिपद्यते, नान्यथेत्यर्थः / अतः कथमयं गुरुलाघवचिन्तारहितः / इति गाथाऽर्थः।।३०।। विपर्यये दोषमाहइहरा ण सुत्तगुरुया, तयभावे ण दसपुट्विपडिसेहो। एत्थं सुजुत्तिजुतो, गुरुलाधवचिंतवज्झम्मि॥३१।। इतरथा गच्छरय सूत्रवृद्ध्यभावे स्वस्य वा श्रुतवृद्धिसम्भवे सति प्रतिमाप्रतिपत्तावित्यर्थः / (न) नैव, सूत्रगुरुता श्रुतगौरवं कृतं स्यात्। अथवागौरव्यमेव तदित्यत्राऽऽह- तदभावे श्रुतगौरव्यत्वावाभावे, (न) नैव, दशपूर्विप्रतिषेधो दशाऽऽदिपूर्वधरस्य प्रतिषेधो निषेधः / अत्र प्रतिमाकल्पे प्रतिपत्तव्ये, सुयुक्तियुक्तः सन्न्यायसङ्गतः। तस्य हि श्रुतनि!हणाऽऽदिसमर्थतया प्रवचनोपकारित्वात्प्रतिमाकल्पप्रतिपत्तिनिषेधोऽस्तीति। किंविधे तत्रेत्याह- गुरुलाघवचिन्ताबाह्ये परमतेन सारततरविभागाऽऽलोचनविरहिते, ततोऽसौ न गुरुलाघवचिन्तारहितः / इति गाथाऽर्थः // 31 // अप्पपरिचाएणं, बहुतरगुणसाहणं जहिं होइ। सा गुरुलाघवचिंता, जम्हाणाओववण्ण त्ति||३२|| अल्पपरित्यागेन स्वल्पतरगुणपरिहारेण, बहुतरगुणसाधनमनल्पतरगुणनिष्पादनम्, यत्र चिन्तायाम, भवति स्यात्, सा चिन्ता, गुरुलाघवचिन्ता सारेतरपर्यालोचना, यस्माद्धेतोः, न्यायोपपन्ना नीतिसङ्गता, तस्मात्तत्सहितोऽयं कल्प इति प्रकृतम् / इतिशब्दः समाप्ती, इति गाथाऽर्थः // 32 // Page #1587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिक्खुपडिमा सूत्रवृद्धिभावे एवायं कल्पः कृत्य इत्युक्तमथ गच्छे सुस्थ एवेति दर्शयन्नाहवेयावच्चुचियाणं, करणणिसेहेणमंतरायं ति। तं पिहु परिहरियव्वं, अइसुहुमो होउ एसो त्ति / / 33 / / वैयावृत्त्योचिताना भक्ताऽऽधुपष्टम्भयोग्यानां गच्छाऽऽश्रितबालग्लानाऽऽदीनाम, अन्तराय इतियोगः कथं? करणनिषेधेन वैयावृत्त्यकरणसमर्थसाधूनां प्रतिमाकल्पप्रतिपत्तितो वैयावृत्त्यकरणप्रतिषेधेन, प्रतिपन्ना हि वैयावृत्त्यं न कुर्वन्ति, अन्तरायो वैयावृत्त्यव्याघातः स्यात्। प्राकृतत्वाच नपुंसकनिर्देशः / इतिकृत्वा बालाऽऽदिसौस्थ्येन गच्छसुस्थत्व एवासौ विधेयः, स्यादिति प्रकृतम्। अथ भवत्वन्तराय इति चेन्न, यतः (तं पित्ति) सोऽपि बालाऽऽदिवैयावृत्त्यान्तरायः, अपिशब्दात्तदन्योऽपि, परिहर्तव्यः परिहरणीयः कुत एतदेवमित्याह-अतिसूक्ष्मोऽतिनिपुणोऽतिसूक्ष्मदोषपरिहारात्, भवतु जायताम्, एष प्रतिमाकल्पः, इति कृत्वा, अतिसूक्ष्म एव ह्ययमन्तरायदोषो मनोदोषरहितत्वात् प्रतिमाप्रतिपत्नुः, इति गाथाऽर्थः॥३३॥ ता तीए किरियाए, जोग्गयं उवगयाण णो गच्छे। हंदि उविक्खा णेया, अहिगयरगुणे असंतम्मि // 34 // यस्माद् गच्छगतग्लानाऽऽद्यन्तरायः परिहर्त्तव्यस्तत्तस्मात् / तस्याः सूत्रदानार्थदानग्लानप्रतिचरणाऽऽदिकायाः, क्रियाया गच्छसुस्थताहेतोरनुष्ठानस्य, योग्यता सम्पादनसमर्थताम्। 'उवगयाणं ति' षष्ठ्याः सप्तम्यर्थत्वादुपगतेषु गच्छसाधुषु सत्सु (नो) नैव, गच्छे साधुगणविषया, हन्दीत्युपप्रदर्शने / उपेक्षाऽवधीरणा, ज्ञेया ज्ञातव्या / प्रतिमाप्रतिपत्तृसाधोः / अनुपेक्षक एवासावित्यर्थः / किं सर्वथैव? नेत्याह-अधिकतरगुणे प्रकृष्टतरगुणे, असत्यविद्यमाने, साधनीयतया। यदि हि विशिष्टतरगुणे सुसाध्ये सम्भवति सति (तं) गच्छस्यासम्पाद्यप्रतिमाः प्रतिपद्यते, तदोपेक्षैव गच्छस्य कृता स्यात्, तत्परिहाराच्च कल्पप्रतिपत्तौ गुरुलाघवचिन्तासहित एव कल्पः / इति गाथाऽर्थः // 34 / / अथ दीक्षणीयाभाव एव कल्पं प्रतिपद्यत इति दर्शयन्नाहपरमो दिक्खुवयारो, जम्हा कप्पोचियाण वि णिसेहो। सइ एयम्मि उ भणिओ, पयडो च्चिय पुध्वसूरीहिं / / 35|| परमः प्रकृष्टः उपकारान्तरापेक्षया / दीक्षोपकारो भव्यसत्त्वस्य दीक्षादानेनानुग्रहो, निर्वाणसुखहेतुत्वात् तस्य, तदन्यस्य पुनरन्य-- थाभूतत्वादपि, कस्मादेवमित्याह- यस्माद्यतः, कल्पोचितानामपि संहननश्रुताऽऽदिसंपदुपेतत्वेन प्रतिमाकल्पप्रतिपत्तियोग्यानामपि, आस्तामितरेषाम् निषेधो निवारणा प्रतिमाकल्पप्रतिपत्तेरिति गम्यते। सति विद्यमाने, एतस्मिन् दीक्षोपकारे, तुशब्दः पूरणे। भणित उक्तः, प्रकट एव स्फुट एव, तदभिधायकगाथायाः प्रकटत्वात्, पूर्वसूरिभिः पूर्वाऽऽचार्य द्रबाहुस्वाभ्यादिभिः किल प्रतिपन्ने कल्पे, दीक्षा नदीयते, ततः कल्पप्रतिपत्त्यवसरे समुपस्थितस्य तां विमुच्याऽपि दीक्षा दीयते, कल्पप्रतिपत्तेः सकाशाद्दीक्षादानस्य गुरुतरत्वात्, परमोपकारकं हितदिति भावेन / इति गाथार्थः // 35 // कथं प्रकट इत्याह-- अब्भुजियमेगयरं, पडिवजिउकामों सो वि पव्वावे। गणिगुणसलद्धिओ खलु, एमेव अलद्धिजुत्तो वि॥३६|| अभ्युद्यत प्रयतम्, एकतरं द्वयोरन्यतरत् मरण वा विहारं वा, तत्राभ्युद्यतमरण पादपोपगमनाऽऽदिकम, अभ्युद्यतविहारश्च प्रतिमाकल्पजिनकल्पाऽऽदिरिति / प्रतिपत्तुकामोऽभ्युपगन्तुमना यः साधुः, सोऽप्यसावपि, आस्तातमितरः, प्रव्राजयति दीक्षयति, कल्पाssदिप्रतिपत्त्यवसरे दीक्षोपस्थितं योग्यम् / किंभूतः सन्नित्याह- गणिनो गुणा यस्य, स्वा च स्वकीया चलब्धिर्यस्य स गणिगुणस्वलब्धिकः यः प्रवाजितुमुपग्रहीतुं शक्नोतीत्यर्थः / खलुक्यालङ्कारे, इतरस्य का वातेंत्याह-एवमेवेत्थमेवे प्रव्राजयत्येवेत्यर्थः। अलब्धियुक्तोऽपिस्वकीयलामविहीनोऽपि लब्धिमदाचार्यनिश्रितो यः / इति गाथार्थः // 36 // तदेवं गुरुलाघवचिन्तासहितोऽसाविति समर्थितम्, अथ यक्तर्मव्याधिक्रियां प्रव्रज्यां प्रतिपन्नस्यावस्थान्त रमुक्त तत्कुतः स्यादिति दर्शयन्नाहतं चावत्थंतरमिह, जायइ तह संकिलिट्टकम्माओ। पत्थुयनिवाहि दवा-इजह तहा सम्ममवसेयं / / 37 / / (तं च त्ति) यस्यावस्थान्तरस्य चिकित्साविशेषतुल्यः कल्प उक्त--- स्तत्पुनरवस्थान्तरमवस्थाविशेषः साधोरिह प्रव्रज्यायामधिकृतायां, जायते स्यात्, तथेति तथाप्रकारात् प्रतिमाकल्पलक्षणविशिष्टक्रियात एव क्षपणीयस्वभावात् संक्लिष्टकर्मणोऽशुभकर्मतः सकाशात् / किंवदित्याह-प्रस्तुऽतोधिकृतो दृष्टान्ततया प्राग्गाथायां लूतागृहीतो यो नृपाऽऽदिर्नरपत्यमात्यप्रभृतिस्तस्य यदृशऽऽदि सर्पदंशाग्निदाह-प्रभृतितत्प्रस्तुतनृपाऽऽदिदष्टाऽऽदि, पाठान्तरें- प्रस्तुतनृपस्य यदहिदष्टाऽऽदि तत्तथा। यथा यद्वत् तथा तद्वत्, सम्यग्यथावत्, अवसेयं ज्ञेयम् / इति गाथार्थः / / 37|| अथावस्थान्तरस्य तजनककर्मणो वा स्वरूपोपदर्श नद्वारेण तस्यैव प्रतिमाकल्पक्षपणीयतामाहअहिगयसुंदरभाव-स्स विग्घजणगं(गम) ति संकिलिहूं च। तह चेव तं खविज्जइ, एत्तो चिय गम्मए एयं // 38|| अधिकृतसुन्दरभावस्य प्रस्तुतशोभनपरिणामस्य सामान्यप्रव्रज्यानुपालनस्येत्यर्थः / विघ्नजनकं व्याघातकारकम्, इतिशब्दो हेत्वर्थोभिन्नक्रमश्व, संक्लिष्टमशुभं सुन्दरभावव्याघातकत्वात्। अतिसंक्लिष्टमिति पाठान्तरम् / चशब्दः समुचये इति कृत्वा, तथैव प्रतिमाकल्पप्रतिपत्त्यैव, तद्वयस्थान्तरं तजनकं वा कर्म, क्षप्यते निराक्रियते, प्रतिमाकल्पस्य महावीर्योल्लासत्वात् क्षपणीयत्वाच्च तवयस्येति। अथ कथमिदमवगम्यते- यदुत प्रव्रज्यां परिपालयतोऽवस्थान्तरं भवति तजनक वा क्लिष्ट कर्मास्ति, तच्चप्रतिमाकल्पादेव क्षप्यत इत्यत आह(एत्तो चिय त्ति) इत एवाऽऽप्तोपदिष्टप्रतिमाकल्पात्, गम्यतेऽवसीयते। एतदिदमवस्थान्तरं तज्जनकक्लिष्टकर्मवा कल्पाच्च तत्क्षपणम्।नह्याप्ता निरर्थक किञ्चिदुपदिशन्ति, आप्तताहानिप्रसङ्गात्। इति गाथार्थः // 38 // Page #1588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा 1580- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मिक्खुपडिमा तदेवं गच्छविनिष्क्रमाऽऽदि नोपकारकमित्यादि यदुक्तं दूषणं तत्सर्व परिहतमवगन्तव्यम्। यच्चोक्तम्-आअन्त्यादिनोऽपि धर्मकायपीडान सुश्लिष्टति तत्परिहरन्नाहएत्तो अईव णेया, सुसिलिट्ठा धम्मकायपीडा वि। अंताइणो सकामा, तह तस्स अदीणचित्तस्स // 36 / / (एत्तो त्ति) यतोऽयमवस्थान्तरहेतोः क्लिष्टकर्मणः क्षपणहेतुः प्रतिमाकल्पोऽतो हेतोः, अतीवातिशयेन, ज्ञेया अवसेया, सुश्लिष्टाऽत्यन्तसङ्गता। काऽसावित्याह-धर्मकायपीडाऽपि धर्मसाधनशरीरवेदनाऽपि, अपीडा तावत्सङ्गतैवेत्यभिधानार्थोऽपिशब्दः। किभूतस्य सतोया स्यादित्याहअन्ते भवमान्तं भुक्तावशेषम्, उपलक्षणत्वाच्चास्य प्रान्ताऽऽदिग्रहः / तत्र प्रान्तं तदेव पर्युषिताऽदि। तदाऽन्तमत्तीत्येवंशील आन्ताऽऽदि तस्य, कुतः सा सुश्लिष्टत्याह-सकामा समनोरथा, यतः स्वकामाद्वा स्वाभिलाषात्, तथेति हेत्वन्तरसमुच्चये, तस्य प्रतिमाप्रतिपन्नस्य, अदीनचित्तस्यादैन्यवन्मानसस्य, अदीनमानसत्वादित्यर्थः। इतिगाथार्थः / / 36 // | अथ कथमदीनचित्ततेत्याहन हु पडइ तस्स भावो, संजमठाणाउ अवि य वड्डेइ। ण य कायपायओ वि हु, तयभावे कोइ दोसो त्ति // 40 // 'न हु' नैव, पतति भ्रस्यति, तस्य प्रतिमाप्रतिपन्नस्य साधोः, भावोऽध्यवसायः, संयमस्थानादाश्रितचरणशुद्धिविशेषात् पीडासद्भावे, अपि चेत्यभ्युच्चये, वर्धते वृद्धि याति। ननु यद्यपि भावपातो न पीडासद्भावे भवति तस्य, तथापि कायपातो भविष्यतीत्यत आह-नचनैव, कायपाततोऽपि शरीरपातादीप, हुर्वाक्यालङ्कारे। तदभावे भावपाताभावे, कोऽपि कश्चिदपि, दोषो दूषणम्, इतिशब्दः समाप्तौ। इति गाथार्थः / अथोपायान्तरेणापि कर्मक्षपणसंभवे किं कायपीडावप्रतिमाकल्पेनेत्यत आहचित्ताणं कम्माणं, चित्तो चिय होइ खवणुवाओ वि। अणुबंधछेयणाई, सो उण एवं ति णायव्वो // 41 // चित्राणामक्लिष्टक्लिष्टतरक्लिष्टतमतया विचित्ररूपाणां, कर्मणां ज्ञानावरणाऽऽदीनाम् / चित्र एव स्थविरकल्पप्रतिमाकल्पाऽऽदिरूपतया विचित्र एव, भवति स्यात्, क्षपणोपायोऽपि निर्जरणहेतुरपि, कर्माणितावच्चित्राण्येवेत्यपिशब्दार्थः। कथमित्याह-अनुबन्धच्छेदनाऽऽदेर्निरनुबन्धताऽऽपादनाऽऽदेः, आदिशब्दात् क्रियतोऽपि सर्वथा क्षण्णग्रहः / लुप्तपञ्चम्येकवचनं चैतत्। अथवाऽनुबन्धं छिनत्तीत्यनुबन्धछेदनस्तदादिः। स पुनर्विचित्रकर्मक्षपणोपाय एव कायपीडाऽऽदिसहनरूपप्रतिमाकल्पाऽऽदिविधानेन भवति / इतिः समाप्तौ भिन्नक्रमश्च / ज्ञातव्योऽवसेय इति। अतः कायपीडा सुश्लिष्टा। इति गाथाऽर्थः / / 41 / / अथ कथमिदमवसितमिति चेदत आहइहरा उणाभिहाणं, जुज्जइ सुत्तम्मि हंदि एयस्स। एयम्मि अवसरम्मी, एसा खलु तंतजुत्तित्ति।।२।। इतरथा त्वन्यथा पुनरधिकृतकल्पं विनैव विचित्रकर्मक्षपणे सतीत्यर्थः / (न) नैव, अभिधानं भणनम्, युज्यते संगच्छते, सूत्रे प्रवचने, हंदीत्युपप्रदर्शने। एतस्य प्रतिमाकल्पस्य, एतस्मिन्ननन्तरोक्तेऽवसरे स्थविरकल्पानुष्ठान निष्ठाप्राप्तिरूपप्रस्तावे, अतोऽत्रावसरे आप्तोपदिष्टत्वादस्य कर्मक्षपणहेतुत्वमवसितमिति / एषाऽनन्तरोक्ता, खलुरलङ्कारे, तन्त्रयुक्तिः शास्त्रीयोपपत्तिः प्रतिमाकल्पानवद्यतानिर्णय इति। अत आन्तरभावविहीनप्रतिमाकल्प इत्यपि परिहतम्। इति गाथाऽर्थः / / 4 / / मतान्तरेणप्रतिमाकल्पस्याऽऽन्तरभावविहीनतां परिहरन्नाहअण्णे भणंति एसो, विहियाणुट्ठाणमागमे भणिओ। पडिमाकप्पो सिट्ठो, दुक्करकरणेण विण्णेओ / / 13 / / अन्येऽपरे सूरयः, भणन्ति अभिदधति प्रतिमाकल्पदूषणपरिहारम्। यदुत एषोऽनन्तरोक्तो विहितानुष्ठानमुचित क्रिया, आगमे सिद्धान्ते, भणित उक्तः, प्रतिमाकल्पः प्रतीतः। श्रेष्ठोऽतिशयेन प्रशस्यः। कथं? दुष्करकरणेन स्थविरकल्पापेक्षया दुष्कराऽऽसेवनेन हेतुना। विज्ञेयो ज्ञातव्यः / इति गाथाऽर्थः // 43 // अनेनोत्तरेणारञ्जितः सूरिराहविहियाणुट्ठाणं पि य,सदागमा एस जुञ्जई एवं / जम्हा ण जुत्तिवाहिय-विसओ वि सदागमो होई॥४४।। विहितानुष्ठानमपि चोचितकृत्यरूपोऽपि च। अपि चेत्यभ्यु-पगमार्थः, कुत इत्याह- सदागमादाप्तोपदेशात्, एषप्रतिमाकल्पो, युज्यते घटते। एवमस्मदुक्तन्यायेन 'पत्थुयरोगचिगिच्छावत्थतरतव्विसेससमतुल्लो' इत्यादिना।कस्मादेवमित्याह-यस्माद्यतो, न चैव, युक्तिबाधितविषयोऽपि उपपत्तिनिराकृतगोचरोऽपि सन्। युक्त्यबाधितार्थ एव सदागमो भवतीति प्रदर्शनार्थोऽपिशब्दः / सदागमः शोभनसिद्धान्तः, भवति स्यात् / युक्तिबाधितार्थस्य दुरागमत्वात् / युक्त्युपपन्नता त्वस्माभिरागमोक्तस्य कल्पानुष्ठानस्याऽऽवेदिता नागमोक्तत्वमात्रमेवेति सुन्दरतरः प्राक्तनः परिहारः / इति गाथार्थः // 44 // नाऽऽगममात्रमेवार्थप्रतिपत्तिहेतुर्भवतीति दर्शयन्नाहजुत्तीए अविरुद्धो, सदागमो सा वितयविरुद्ध त्ति। इय अण्णोण्णाणुगंयं, उभयं पडिवत्तिहेउ ति / / 45|| युक्त्योपपत्त्या, अविरुद्धोऽबाधितः, सदागमः सत्सिद्धान्तो भवति, साऽपि युक्तिरपि, तदविरुद्धासिद्धान्ताविरुद्धा, स्यात्तदन्या त्वयुक्तिरेव। इतिर्वाक्यार्थसमाप्तौ। इत्येवम्, अन्योऽन्यानुगतं परस्परानुयायि, उभयं युक्तिसदागमरूपं द्वयम्,प्रतिपत्तिहेतुरर्थप्रतिपत्तिकारणम्, इतिशब्दः समाप्तौ / इति गाथार्थः / / 45 // अथ प्रतिमाकल्पशेषप्रतिपादनायाऽऽहकथमेत्थ पसंगेणं, झाणं पुण णिचमेव एयस्स। सुत्तत्थाणुसरणामो, रागाइविणासणं परमं // 46|| कृतं पर्याप्तम्, अत्र प्रतिमाकल्पदूषणपरिहारे, प्रसङ्गे Page #1589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्खुपडिमा १५८१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिज्जमाण नानुषङ्गि कभणनेन, ध्यानमेकाग्रचित्ततालक्षणम. पुनरिति विशेषणार्थः / आदेशेन न स्वमत्या, कस्येत्याह--[भगवओ त्ति ] आप्तस्य [पकुव्वन्त नित्यमेव सर्वदेव, एतस्य प्रतिमाप्रतिपन्नस्य साधोः सूत्रार्थानुस्मरणं त्ति ] प्रकुर्वाणाः। कथमित्याह-(सयसामत्थणुरूवं ति) निजशक्त्यनुसूत्रार्थयोरनुचिन्तनम्। ओकारः पूरणार्थः / सूत्रार्थानुस्मरणत इति क्वचित् सारेण / (अइर त्ति) शीघ्रम्, (काहिति ति) विधास्यन्ति, (भवविरह पाठः, स च व्यक्त एव / रागाऽऽदिविनाशनं रागद्वेषमोहापहम् / परम ति) संसारक्षयम् / इति गाथार्थः / / 50 // पञ्चा०१८ विव०स्था०। प्रधान मोक्षहेतुत्वात् / तच्च धर्म्य शुक्लं वा / क्वचिद्रम्यमिति पाठो (सप्तसप्तमिक्यष्टाष्टमिकीनवनमिकीदशदशमिक्यादीनाम् भद्रासुभद्राव्यक्तश्च / इति गाथार्थः // 46 / / महाभद्रारार्वतोभद्राभद्रोत्तराणां च भिक्षुप्रतिमाणां वक्तव्यता तत्तच्छब्दे।) अथ प्रतिमागतमेवोपदिशन्नाऽऽह भिक्खुपडिया स्त्री०(भिक्षुप्रतिज्ञा) साधुमुद्दिश्येत्यर्थे , आचा०१श्रु० एया पवजियव्वा, एयासिंजोग्गयं उवगएणं। १चू०५अ०१उ०। सेसेण विकायव्वा, केइ पइण्णाविसेस त्ति // 47 // भिक्खुप्पिय न०(भिक्षुप्रिय) पलाण्डुनि, बृ०५उ०। ('पुलागभत्त' शब्देऽ[एय त्ति ] अनन्तरोक्तभिक्षुप्रतिमाः[पवजियध्व त्ति] प्रतिपत्त-व्याः / स्मिन्नेव भागे 1061 पृष्ठे विस्तरो गतः) [एयासिं ति ] एतासां प्रतिमानाम्, [जोग्गयं ति ] योग्यताम्। [उवगएणं भिक्खुभाव पुं०(भिक्षुभाव) भिक्षोर्यथावस्थितस्य भावो भिक्षुभावः। ति] प्राप्तेन साधुना, तदन्यस्य को विधिरित्याह- [ सेसेण वि त्ति ] ज्ञानदर्शनचारित्रेषु, तृतीयव्रताऽऽदिके च / भिक्षुभावो ज्ञानदर्शनचारितदन्येनापि [ कायव्व त्ति ] विधेयाः [ केइ ति] केचित् [पइन्नाविसेस त्राणि तृतीयव्रताऽऽदिकं वा, तत्रैव भिक्षुशब्दस्य परमार्थत्वेन रूढत्वात्। त्ति ] अभिग्रहविशेषाः। इतिः समाप्तौ / इति गाथार्थः / / 47 // बृ०३ उ०। व्य०। 'चरणं तु भिक्खुभावो।" व्य०६ उ०॥ सारणावारणा प्रतिचोदनासु, व्या तानेवाऽऽह भिक्खुभावो सारणवारणपरिचोयणा जहा पुट्वि / जे जम्मि जम्मि काल-म्मि बहुमया पवयणुण्णइकरा य / भिक्षुभावो नामसारणावारणाप्रतिचोदनाः, एताभिर्यथावस्थितो भिक्षुउभओ जोगविसुद्धा, आयावणठाणमाईया।।४८|| भाव उपजायते, ततः कारणे कार्योपचारादेता एव भिक्षुभावः। व्य० 4 [जे त्ति ] ये प्रतिज्ञाविशेषाः / [जम्मि जम्मि त्ति ] यस्मिन् यस्मिन् उ०। प्रव्रज्यायां च / सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० २उ०। [कालम्भि त्ति ] अवसरे। [बहुमय ति] बहुमता गीतार्थानाम्। (पवयणुन भिक्खुवासअन०(भिक्षूपासक) दृष्टान्तभेदे, पिं०॥ इकरा य त्ति) शासनप्रभावना-हेतवोऽद्भुतभूतत्वेन श्लाघानिबन्धन मिक्खुसमय पुं०(भिक्षुसमय) शाक्याऽऽगमे सूत्र०२ श्रु०२अ०। त्वात्। [उभओ त्ति ] उभाभ्यां प्रकाराभ्या, क्रियाया भावतश्वेत्यर्थः / मिक्खेसणासुद्धि स्त्री०(भिक्षैषणाशुद्धि) उगमाऽऽदिके, दश० 510 [जोगविसुद्ध ति] विशुद्धयोगा निरवद्यव्यापाराः। [आयावणठाणमाईय 20 नि] आतापना शीताऽऽदिसहनं, स्थानमुक्तटुकाऽऽदिकम् / आदिशब्दाद् विविधद्रव्याऽऽद्यभिग्रहः / इति गाथार्थः / / 4 / / मिच पुं०(भृत्य) भृ-क्यप् तुकचा दासे, वाचा भृत्यः सेवक इति। ग०१ अधि०ा पक्षा० / प्रेष्ये, "भृत्यानुपरोधतो महादानम्।' षो०५ विव०। एतदकरणे दोषमाह दर्शा "तुल्यार्थ तुल्यसंबन्ध, मर्मज्ञ व्यवसायिनम्। अर्द्धराज्यहरं भृत्य एएसिं सइ विरिए, जमकरणं मयप्पमायओ सो उ। यो न हन्यात्स हन्यते // 1 / / " दर्श०५ तत्त्व / "अणुजीवी सेवओ हो अइयारो सो पुण, आलोएयव्वओ गुरुणो॥४६।। भिच्चो।" पाइन्ना० 102 गाथा। [ एएसिं ति] एतेषां प्रतिज्ञाविशेषाणाम् / [ सइ ति ] विद्यमाने *भर्त्तव्य त्रि०। प्रश्र०२ आश्र० द्वार / भृतौ पोषणे साधुम॒त्यः / पोषणे, [विरिए त्ति ] वीर्ये [ जमकरणं ति यदविधानम् / कथम्? [ मयप्प साधौ च / विपा० 1 श्रु०७ अ०। भावे क्यपू / भरणे, स्त्री०। डीप मायओ त्ति ] गर्वाऽऽलस्याभ्याम्। [सो उत्ति ] सपुनः [होयइयारो त्ति ] "कुमारभृत्याकुशलैः।" इति रघुः / वाचा जायतेऽतिक्रमश्चरणस्य। [सो पुण त्ति ] सोऽतिचारः पुनः। [आलोएयव्वओ मिचोवयार पु०(भृत्योपचार) स्त्रीणां चतुष्षष्टिकलाऽन्तर्गते कलाभेदे, त्ति ] निवेदनीयः शुद्ध्यर्थम्। [गुरुणो त्ति ] आलोचनाऽऽचार्यस्य। इति कल्प०१अधि०७क्षण। गाथार्थः // 46 // मिज त्रि०(भेद्य) भिद्- ण्यत् / विदायें , विशेष्ये च। "त्रिष्वेषां भेद्यगामि उक्तार्थफलभणनेन प्रकरणमुपसंहरनाह यत्।" वाचा प्रश्र०२ आश्र० द्वार / पुरुषमारणाऽऽद्यपराधमाश्रित्य इय सव्वमेवमवितहमाणाए भगवओ पकुव्वन्ता। कौटुम्बिकान् प्रति भेदेनोद्ग्राह्यमाणे ग्रामाऽऽदिषु निपतिते दण्डद्रव्ये च। सयसामत्थणुरूवं, अइरा काहिंति भवविरहं / / 50 / / यानि पुरुषमारणाऽऽद्यपराधनाऽऽदिषु दण्डद्रव्याणि निपतन्ति कौटु[इय ति] एतदभिग्रहजातम्. [ सव्वं ति] समस्तम्, [ एवं ति] | म्बिकान् प्रति च भेदेनोग्राह्यन्ते तानि भेद्यानि। विपा०१ श्रु०१अ०॥ एवमुक्तन्यायेन, [ अवितहं ति] अविपरीतम् / कथम्? [ आणाए ति] | मिजमाण त्रि०(भिद्यमान) वियुज्यमाने, स्था० 2 ठा०३ उ०। Page #1590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिण्णगंठि 1552 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भित्तिय भिज्जा स्त्री०(भिध्या) अभिध्यानमभिध्या, अभिव्याप्त्या विषयाणां ध्यान अथ ग्रन्थिभेदमेव व्याचष्टतदेकाग्रत्वमभिध्या, पिधानाऽऽदिवदकारलोपः।लोभे, स०५२ सम०। भेदोऽपि चास्य विज्ञेयो, न भूयो भवनं तथा। स्था० भ०। तीव्रसंक्लेशविगमात्, सदा निःश्रेयसाऽऽवहः / / 282 / / भिजानियाणकरण न०(भिध्यानिदानकरण) भिध्या लोभी गृद्धिस्तेन भेदोऽपि च न केवलं भेद आनन्द इत्यपिचशब्दार्थः / अस्य भिन्ननिदानकरणमेतस्मात्तपः प्रभृतेश्चक्रवादित्वं मे भूयादिति निकाचन- ग्रन्थेविज्ञेयः / किमित्याह-- न भूयः पुनर्भवनं भावस्तथा यथा प्राक् करणे, स्था०४ ठा०४ उ०।"भिजाणिदाणकरणे, मोक्खमणस्स पलि- कुतः? इत्याह-तीव्रसंक्लेशविगमात् अतिदृढकषायोदयविरहात्, सदा मथू।" [ भिज्ज त्ति ] लोभस्तेन यन्निदानकरण चक्रवर्तीन्द्राऽऽदि- सर्वकालं, निश्रेयसावहो निर्वाणहेतुः।।२८२॥ यो०वि०। ऋद्धिप्रार्थनम्। स्था०६ठा०। मिण्णदेह पुं०(भिन्नदेह) भिन्नो देहो यस्य सः / चूर्णिताङ्गोपाङ्ग्रे , सूत्र० मिज्जिय त्रि०(भिध्यित) भिध्या लोभः संजाता यत्र स भिध्यितः / लोभ- | १श्रु०५ अ०२ उ०। वति, भ०६ श०३ उ० मिण्णपिंडवाइय पुं०(भिन्नपिण्डपातिक) भिन्नस्य स्फोटितस्य पिण्डस्य भिणिमिणिमणंतकायकलि त्रि०(भिणिभिणिभणक्ताककलि) भिणि- सक्तुकाऽऽदिसंबन्धिनः पातो लाभो यस्यास्ति स भिन्नपिण्डपातिकः / भिणि त्ति शब्द [ भणंत त्ति] भणनं भृशं कथयन् काककलिर्वायसग्रामो स्फोटितपिण्डलाभवति, स्था०५ ठा०१ उ०। यत्र सः। भिणिभिणि त्ति शब्द भणता काकसमूहेनोपेते, तं०। भिण्णमास पु०(भिन्नमास) मासभेदे, इह समयभाषया दिनपञ्चविंशतिमिणिमिणिभणंतसद्द त्रि०(भिणिभिणिभणच्छब्द) भिणिभिणि त्ति रूपो भिन्नमासोऽभिधीयते / जीता [भणत ति] धातूनामनेकार्थत्वात् उत्पद्यमानः शब्दो यत्र स भिणि- मिण्णमुहुत्त न० (भिन्नमुहूर्त) अन्तर्मुहूर्ते, आव० 4 अ०॥"भिण्णमुहुत्तो भिणिभणच्छब्दः। मक्षिकाऽऽदिभिर्गणगणायमाने, तं०। नाम-ऊणो मुहत्तो त्ति वुत्तं भवति।" आ०चू०१ अ०। भिण्ण त्रि०(भिन्न) भिद्-क्तः विदारिते, उत्त० 32 अ०। संथा०। अन्ये, भिण्णरहस्स त्रि०(भिन्नरहस्य) भिन्न रहस्यं येन सः। रहस्यभेदके, वाचा परस्परासंकीर्णे, विशेला [क्रमकालभेदाऽऽदिभिर्विसदृशोऽ "भिन्नरहस्सो रहस्सं न धारयति।" नि०चू०१उ० व्य० नुयोगः अणुओग शब्दे प्र०भा०३४३ पृष्ठे दर्शितः] विसदृशे, स्था०१० / भिण्णसण्ण त्रि०(भिण्णसंज्ञ) भिन्ना नष्टा संज्ञाऽऽन्तःकरणवृत्तिर्यस्य सः। ठा०ाखण्डिते, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। चूर्णिते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। नष्टसंज्ञे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। नि०चू। स्फुटिते, स्था० 4 ठा०४ उ०। स्फोटिते, स्था० 5 ठा०१उ०॥ नष्ट, भिण्णसद्द पुं०(भिन्नशब्द) शब्दविशेषे, स च क्रष्टाऽऽद्युपहतशब्दवत्। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। उज्झिते, "भिन्न त्ति वा जज्झिय त्ति वा स्था० 10 ठा० एगट्ट।" आव०४ अ० नि०चू० / आ०चू० प्रश्न०। भिण्णागार न०(भिन्नागार) देशतः पतितशटिते गृहे, नि० चू० 8 उ० अथ भिन्नपदनिक्षेपव्याचिख्यासयाऽऽह भिण्णुत्तमंग त्रि०(भिन्नोत्तमाङ्ग) चूर्णितशिरसि, सूत्र० १श्रु०५ अ० १उ०। नाम ठवणा भिन्नं, दवे भावे य होइ नायव्वं / मित्त न०(भित्त) भिद-क्तः / खण्डे, वाचा 'अंबभित्तगं वा / ' दव्वम्मि घडपडाई, जीवजढं भावतो भिन्नं / / 51 / / आम्रार्द्धम् / आचा०२ श्रु०१ चू०७ अ०२ उ०| नामभिन्नं, स्थापनाभिन्नं, द्रव्यभिन्नं, भावभिन्नं च भवति बोद्धव्यं, / भित्तर (देशी) द्वारे, दे०ना०६ वर्ग 105 गाथा। नामस्थापने क्षुण्णे द्रव्यभिन्नं घटपटाऽऽदिकं वस्तु यदिन्नं विदारितं, मित्ति स्त्री०(भित्ति) भिद-क्तिन् / गृहाऽऽदीनां कुड्ये, वाच० / दर्श०३ भावतो भिन्नं तु यजीवेन [ जढं] परित्यक्तं तन्मन्तव्यम् / बृ० 1 उ० तत्त्व। विशे०। उत्तका अनु०॥ नद्यादितट्याम्, दर्श० ८अाकुड्यभित्योः २प्रक०। नि०चून कः प्रतिविशेषः? उच्यते- इष्टकाऽऽदिरचिता भित्तिः, मृत्पिण्डाऽऽदिभिण्णकहा स्त्री०(भिन्नकथा) रहस्याऽऽलापे,'आणवयंति भिन्न- रचित्तं कुड्यम्। बृ०२ उ०। उत्ता कहाहिं।' भिन्नकथामी रहस्याऽऽलापैमैथुनसंबद्ध वचोभिः / सूत्र०१ | मित्तिकड त्रि०(भित्तिकृत) भित्तिसंश्रिते, स च भित्तिनिश्रया स्थापित श्रु० 4 अ०१ उ०॥ इति। बृ०२ उ०। भिण्णगंठि पुं०(भिन्नग्रन्थि) सम्यगदृष्टी,द्वा०६ द्वा०। मोक्षे, "भिन्नग्रन्थेस्तु | मित्तिगुलिया स्त्री०(भित्तिगुलिका) भित्तिसम्बद्धा गुगलका पाठाका भावतः / " भिन्नग्रन्थेविदारितातितीव्ररागद्वेषपरिणामस्य / द्वा०१४ भित्तिगुलिका / भित्तिसम्बद्धगुलिकायाम्, जी०३ प्रति४ अधि०। राधा द्वा० यो०वि०। भिन्नग्रन्थेः अपूर्वकरणबलेन कृतग्रन्थिभेदस्य। षो०३ | मित्तिमूल न०(भित्तिमूल) कुड्यैकदेशे, दर्श०३ तत्व। विव०॥ भित्तिय पुं०(भित्तिक) म्लेच्छजातिभेदे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। Page #1591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलिंगावंत 1583 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भिसोल मित्तिरूव (देशी) टवच्छिन्ने, देना०६ वर्ग 105 गाथा। मिलिंजण न०(अभ्यजन) उद्भर्तने, आचा० २श्रु०२ चू०६ अ० "तेल्लं भित्तिल न०(भित्तिमत्) विमानविशेषे, स०२ सम०। मुहभिलिंजाए भिलिंजए ति।" अभ्यङ्गाय ढोकयस्व। सूत्र० 1 श्रु०४ भित्तुं अव्य०(भेत्तुम्) द्विधा कर्तुमित्यर्थे, कल्प०१ अधि०३क्षण। “जो अ०२ उ० पव्वयं सिरसा भित्तुमिच्छे।" दश०६ अ०१ उ०। मिलुगा स्त्री०(भिलुका) स्फुटितकृष्णभूराज्याम्, आचा०२श्रु० 1 चू० भिन्द धा०(भिद) द्विधाकरणे, विशेषकरणे च। राधा-उभ०-सक० 1 अ०५ उ01 सुषिरभूमिराज्याम, दश० अ०२ उ० भिलुगाणि श्लक्ष्णभूमिराजय इति। आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ01 अनिट् "छिदिभिदोन्दः" |841216 / / इति प्राकृतसूत्रेण भिदेरन्त्यस्य नकाराऽऽक्रान्तो दकारः / 'भिन्दइ / ' प्रा०४ पाद / भिनत्ति मिल्ल पुं०(भिल्ल) भिल-लक् / म्लेच्छदेशभेदे, तन्निवासिनि म्लेच्छ जातिभेदे च / वाच०। सूत्र०२ श्रु०१ अ० प्रव०। भिन्ते। अभिदत् / अभेत्सीत्। अभित्त / वाच०। मिस न०[ विस(श) ] पद्मिनीकन्दे, आव० 6 अ० ज०। रा०ा जी०। भिन्दंत त्रि०(भिन्दत्) भेदन कुर्वति, "भिंदंतोजो वि खुह।" व्य० 170 / आचा०ा आ०म०। 'एगो जीवो भिसमुणाले।' प्रज्ञा०१पद। विसानि भिन्न त्रि०(भिन्न) पृथकृते, "सीरिओ भिन्नो।" पाइना० 262 गाथा। पद्मिनीमूलानि। ज्ञा० 1 श्रु० 4 अ० विशं पद्मकन्दमूलमिति। आचा०२ मिफपुं०(भीष्म) "भीष्मे ष्मः" ||8 / 2 / 54 / / इति प्राकृतसूत्रेण ष्मरय श्रु०१चू०१अ०८ उ01 फः / प्रा०२ पाद। भयानकरसे, भयहेती, त्रि०। गङ्गागर्भज शन्तनुसुते *भास दीप्तौ, भ्वादि०-आत्म-अक०-सेटा वाच०।"भासेमिसः" स्वनामख्याते कुरुवंशीये क्षत्रिये, पुं० / वाच०। / / 4 / 203 / इति प्राकृतसूत्रेण भासेर्भिसः इत्यादेशो वा / 'भिसइ, मिप्फय पुं०(भीष्मक) कौण्डिन्यपुरस्थे रुक्मिणः पितरि स्वनामख्याते भासइ।"प्रा०४ पादा भासते अभासिष्ट। चडि वा ह्रस्वः। अवीभसत्। नृपे, "कोडिण्णणगरे तत्थ णं तुरुमिणिं भिप्फयसुयं करयलका ज्ञा० अवभासत्।वाचा 12016 अ० *भृश न० भृश--कः / अतिशये, तदति, त्रि०ा वाच०। भृशमत्यर्थमिति। भिन्भल त्रि०(विहल) विठ्ठल-अच। "वा विहले वौ वश्च" ||22581 विशे०। सूत्र०। इति प्राकृतसूत्रेण विह्वले ह्रस्य भो वा, तत्सन्नियोगेन च विशब्दे वा वस्य / भिसअपुं०(भिषज) भिषति चिकित्सते। भिष-अजिक्।"शरदादेरत्" भः। प्रा०२ पाद / भयाऽऽदिना व्याकुले, विलीने च / वाचा 1८1१1१८इति प्राकृत सूत्रेणान्त्यव्यञ्जनस्याऽत्।। प्रा०१ पाद। वैद्ये, भिभिसमाण त्रि०(विभासमान) अतिशयेन दीप्यमाने, भ० ६श० 33 रोगप्रतीकारे च / वाच०। नि०चू० / मल्लिजिनेन्द्रस्य प्रथमे गणधरे च। प्रव० 8 द्वार। ज्ञा०ा तिला उ० ज०। रा०। मिमोर न०(हिमोरस्) हिमस्योरो मध्यं हिमोरः / "गोणाऽऽदयः" मिसंत त्रि०(भासमान) दीप्यमाने, आ०म० अ० भ०। औ० / राo) ज्ञा०ा जं०। अनघे, देखना०६ वर्ग 105 गाथा। बा२।१७४। इति प्राकृतसूत्रेण निपातनाद हस्य भः / हिममध्यभागे, मिसमाण त्रि०(भासमान) दीप्यमाने, आ०म० अ०। प्रा०२ पाद। भिय त्रि०(भृत) पूरणे, आव०४ अ०। सूत्र० / भावे क्तः / पूरणे, न०। मिसर पुं०(अभिसर) मत्स्यबन्धनविशेषे, विपा० 1 श्रु०८ अ०॥ मिसिआ (देशी) वृष्याम, दे०ना० 6 वर्ग 105 गाथा। स्था० 10 ठा। भिसिणी स्त्री०(विसिनी) "बिसिन्यां भः" ||1 / 238 / इति प्राकृतमियग त्रि०(भृतक) भृ-क्तः। स्वार्थे कन् / वेतनेन कर्मकरे वाच०। सूत्रेण बस्य भः / प्रा०१ पाद / पद्मिन्याम, 'भिसिणीपत्ते "भियगाणइसंधाणं / " दर्श०१ तत्त्व। पञ्चा० / अनु०॥ हियरे।" आ०म०१०। भिसिणीपुक्खलपलाससरिसो वा / बृ०१ मिलिंग पुं०(भिलिङ्ग) मसूरे, पञ्चा० 10 विव०। कल्प० उ०२प्रक० / 'भिसिणीपत्तम्मि रेहई वलाआ।" प्रा०२ पाद / मिलिंगंत त्रि०(अभ्यजत्) अभ्यङ्गं कुर्वति, "भिलिङ्गेज वा भिलिंगतं "भिसिणी नलिणी कमलिणी य।" पाइ० ना० 146 गाथा / वा साइजइ'' (सूत्र 18) नि०चू०१७ उ०। "मंखेज वा भिलिगेज वा णो भिसी स्त्री०[(षी)सी ] आसनविशेष, स्वार्थ कन्। स्त्रियां टाप, अत तं सातिए आयं जयंत वा' तथा लोध्राऽऽदिनोद्वर्तनाऽऽदि कुर्वन्तमिति / इत्वम् / बृ(षि) सिका। भ०२ श०१ उ०। ज्ञा०ा आचा०ा "भिसिगं आचा०२ श्रु०२ चू०६अ। वा।" वृषीमासनमिति। सूत्र०२ श्रु०२ अग (भिसियाओ ति) वृषिका भिलिंगसूव पुं०(भिलिङ्गसूप) मसूराऽऽख्यद्विदलधान्यपाकविशेष, पश्चा० उपवेशनपट्टि के ति / औ० / 'अट्ठसोवपिणआओ भिसि - 10 विवका भिलिङ्गसूपो मसूरदालिरिति कल्प०३अधि०६क्षण। आओ।" (भिसिआओ त्ति) आसनविशेषान् / भ०११ श०११ उ०। मिलिंगावंत त्रि०(अभ्यजयत्) अभ्यङ्गं कारयति, "भिलिंगावेज वा, "भिसी सारी।" पाइ० ना० 215 गाथा। भिलिंगावंतं वा साइज्जइ।" नि०चू०१७ उ०। | मिसोल न०(भिसोल) नाट्यभेदे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। Page #1592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार 1584 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भीमकुमार भी धा०(भी) भये, जु०-पर०-अक०-अनिट् / बिभेति / अवैभीत् / विभयामास / विभाय। वाच० "भियो भा–बीहौ" |8/4153 / इति प्राकृतसूत्रेण बिभेतेरेतावादेशौ वा / भाइ / बीहइ / बाहुलकाधिकारात्क्वचिन्न। भीतः। प्रा०४ पाद। *भी स्त्री०। भी-सम्प० क्वि / भये, वाच० / भीती, स्त्री०। एका भीअ त्रि०(भीत) अस्वस्थे, "भीओ हित्थो।" पाइना०२६० गाथा। भीइ स्वी०(भीति) भी-क्तिन। भये, कम्पे च / आचा० 1 श्रु०३ अ०४ उका स्था०। भय भीतिर्नुपचौराऽऽदिभ्य इति / स्था०१० ठा भीइयव्व न०(भेतव्य) विधेये, भये, प्रश्न०२ सम्ब० द्वार। भीम त्रि०(भीम) बिभेत्यस्मात् / भी-मक् / भयहेती, वाच० ! रौद्रे, नि० १श्रु०१ वर्ग 3 अ०। प्रश्न०।"भीमे उत्ता सणए।" भ०६ श०५ उ०। संथा। ज्ञा० / आवळा "मए सोढानि भीमाणि, जम्माणि मरणाणि य।" भीमानि भयदानि / उत्त० 16 अ०। ''भीमगम्भीरलोमहरिसहरिसणेसु / " प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / भयानकरसे, महादेवे, भीमसेने, आचा०१श्रु०४ अ० १उ०आ०म०। नि००। राक्षसभेदे, प्रज्ञा०१ पद। स्वनामख्याते राक्षसाणामिन्द्रे। दो रक्खसिन्दापण्णत्ता-भीमेचेव, महाभीमे चेव।स्था० २ठा० ३उ० / प्रज्ञा० / भीमे तहा महाभीमे / प्रज्ञा०२ पद। भ०। हस्तिनागपुररस्थे स्वनामख्याते कूटग्राहे, (तद्ववतव्यता 'गोत्तास' शब्दे तृतीयभागे 654 पृष्ठे गता) अयोध्यानगरीस्थे धवल श्रावस्य मित्रे स्वनामख्याते श्रावके, दर्श०३ तत्त्व / तद्वक्तव्यता- "इहेव भारहे वासे अउज्झाए नयरीए चंदकेऊ नाम राया। तत्थ य नयरीए तिणि भायरो धवलभीमभाणनामाणो अवरोप्पर बद्धाणुराया समायव्बया सहसंबवहारिणो परिवसंति वयधम्मं परिवालिंति। अन्नया साहुविहारण विहरन्ता सभागया अजियसेणनाम सूरिणो, समोसढा नंदणुजाणे, जाओ नयरीए पवाओ-एयारिसा सूरिणी समागया, निगओ राया सह नायरलोएण बंदणपडियाए, चेव धवलभीमभाणुनामाणो विनिग्गया, वंदिय निविट्टा सट्टाणे सव्वे वि,पत्थुया देसणा।" दर्श०३ तत्त्व। भाविनि स्वनामख्याते प्रतिवासुदेवे, तिलाती। अम्लवेतसे च। पुं०। दुर्गायाम्, स्त्री०।"भीमादेवीति विख्यातं, तन्मे नाम भविष्यति।"वाच०।"घोरादारुण-भासुरभइरव लल्लक-भीम-भीसणया।" पाइ० ना०६५ गाथा। भीमकम्म पुं०(भीमकर्मन्) भीमं कर्म क्रिया यस्य / कर्मशब्दः क्रियावचकः "गन्धर्वा रञ्जिताः सर्वे ,सङ्ग्रामे भीम-कर्मणा।' इति वचनात्। रौद्रक्रियाकर्तरि, आव० 3 अ०॥ भीमकुमार पुं०(भीमकुमार) कमलपुरवास्तव्यस्य हरिवाहनस्य राज्ञः सुते स्वनामख्याते राजकुमारे, ध०२०। तत्कथा"कपिशीर्षकदलकलितं, जिनभुवनसुकेशरं श्रिया श्लिष्टम्। किंतु जडसंगमुक्क, इहऽत्थि कमलं व कमलपुरं / / 1 / / तत्राभवदरिपार्थिव-करटिघटाविघटनप्रकटवीर्यः / णयकाणणकयवासो, हरि व्व हरिवाहणो राया // 2 // प्राणेशा तस्य बभू-व मालती मालतीसुरभिशीला। निस्सीमअभीमपरो-वयारसारो सुओ भीमो // 3 // अतिशुद्धबुद्धिबुद्धिल-मन्त्रिसुतः प्रेमवारिवारिनिधिः / भीमकुमरस्स जाओ, वरमित्तो बुद्धिमयरहरी॥४॥ अन्येद्युः सवयस्यः, प्रशस्यविनयो नयोज्ज्वलः स्वगृहात्। कुमरो पभायसमए, संपत्तो रायपयमूले // 5 // अनमन्नृपपदकमलं, तेन निजाड्के क्षणं परिष्वज्य। संठविओ पच्छा पुण, उवविट्ठो उचिय ठाणम्मि।।६।। नरनाथ चरणयुगलं, सप्रणयं निजकमकमारोप्य। संवाहइ गयवाह, नीलुप्पलकोमलकरहिं / / 7 / / भक्तिभरनिर्भराङ्गः, शृणोति जनकस्य शासन यावत्। उजाणपालगेणं, ता विन्नत्तो निवो एवं / / 8 / / देव ! नृपदेववन्दित-पदारविन्दोऽरविन्दमुनिराजः। भूरिविणेयसमेओ, पत्तो कुसुमाकरुज्जाणे // 6|| तत् श्रुत्वा भूभा, दत्त्वा दानं महन् मुदा तस्मै / बहुमंतिकुमारजुओ, पत्तो गुरुचरणनमणत्थं // 10 // विधिना प्रतिततिसहितं.यतिपतिमभिवन्द्य नृपतिरासीनः। दुंदुभिउद्दामसर, गुरू वि एवं कहइ धम्म / / 11 / / विफलं पशोरिवाऽऽयु-नरस्य नित्यं त्रिवर्गशून्यस्य। तत्रापि वरो धर्मो , यत्तमृते स्तो न कामार्थो // 12 // स रजः कनकस्थाले, क्षिपति स कुरुतेऽमृतेन पदशौचम्। गण्हाति काचशकलं, चिन्तारत्नं स विक्रीय // 13 // वाहयति जम्भशुम्भन कुम्भिनमिन्धनभरं स मूढाऽऽत्मा। स्थूलामलमुक्ताफल-मालांविदलयति सूत्रार्थम् / / 14 / / उन्मूल्य स कल्पतरूं, धत्तूरं वपति निजगृहेऽल्पमतिः। नावं स जलधिमध्ये, भिनत्ति किल लोहकीलाय // 15 // भस्मकृते सदहति चा-रुचन्दनं यो मनुष्यजन्मेदम्। कामार्थाथै नयते, सततं सद्धर्मपरिमुक्तः।।१६।। (चतुभिः कलापकम्) सत्संगत्या जिनपति-नत्या गुरुसेवया सदा दयया। तपसा दानेन तथा, तत् सफलं तद् बुधैः कार्यम्॥१७॥ यतःपुष्णाति गुणं मुष्णा-ति दूषणं सन्मत प्रबोधयति। शोधयते पापरजः, सत्सङ्गतिरङ्गिना सततम्॥१८|| सद्यः फलन्ति कामाः, वामाः कामा भयाय न यतन्ते। न भवति भवभीतितति-र्जिनपतिनतिमतिमतः पुंसः / / 16 / / गुरुसेवाकरणपरो, नरो न रोगैरभिद्रुतो भवति। ज्ञानसुदर्शनचरण-राद्रियते सद्गुणगुणैश्च / / 20 / / प्रौढस्फूर्तिनिरुपम-मूर्तिः शरदिन्दुकुन्दसमकीर्त्तिः / भवति शिवसौख्यभागी, सदा दयाऽलड् कृतः पुरुषः / / 21 / / जलमिव दहनं स्थलमिव, जलधिमंग इव मृगाधिपस्तस्य। इह भवति येन सततं, निजशक्त्या तप्यते सुतपः॥२२॥ तं परिहरति भवार्त्तिः, स्पृहयति सुगतिर्विमुञ्चते कुगतिः। यः पात्रशाच कुरुते, निजक न्यायार्जितं वित्तम् // 23 // इति गुरुवचनं श्रुत्वा, नरनाथः प्रमुदितः सुताऽऽदियुतः। गिण्हइ गिहत्थधम्म, सम्मं संमत्तसंजुत्तं // 24 // Page #1593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार 1585 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भीमकुमार शामिनां स्वामिनमान-म्य मेदिनीशो जगाम निजधाम / भवियजणबोहणत्थं गुरू वि अन्नत्थ विहरेइ॥२५॥ आसन्नाऽऽसीनसखं, निजभवनस्थं कुमारमन्येद्युः। सूरिगुणे वनंत, नमिउ विन्नवइ इय वित्ती॥२६|| देव ! नररुण्डमाला-कलितः कापालिको बलिष्ठाङ्गः। तुह दसणं समीहइ, तो कुमरेणं मुंच इय भणिए॥२७।। तेनासौ परिमुक्तो, दत्त्वाऽऽशीर्वादमुचितमासीनः। पत्थावं लहिय भणे-इ देहि मह कुमर ! झ त्ति रहं // 28 // तनुभूक्षेपवशाद, दूरस्थे परिजने जगौ योगी। भुटनक्खोहिणीनामा, कुमार ! मह अस्थि वरविजा // 26 // तस्याश्च पूर्वसेवां, द्वादश वर्षाण्यकार्षमधुना तु। त कसिणचसदसिदिणे, साहिउमिच्छामि पेयवणे।।३०।। उतरसाधकभावं, त्वं देहि विधेहि मे श्रमं सफलम्। आम ति भणइ कुमरो, परोवयारिक्करसियमणो॥३१॥ अद्यदिनाद्दशमदिने, सा रजनी भाविनी ततो भद्र!। गच्छ तुम संठाणं, इय भणिओ सो कुमारेण // 32 // योग्यूचे तव पार्चे, स्थास्यामि कुमार ! आख्यदित्यस्तु। तो अणुदिणं स कुमर -स्स अंतिए कुणइ सयणाई॥३३॥ तीक्ष्य सचिवसूनुः,प्रोचे पाषण्डिसंस्तववशेन। मित्त ! नियं संमत्तं, करेसि किं साइयारं ति?||३४|| तत आह नृपतितनय-स्त्वयेदमावेदिसत्यमेव सखे!। कि तुमए दक्खिन्ना, एरिसमेयस्स पडिवन्नं / / 35 / / प्रतिपन्ने निर्वहणं, सत्पुरुषाणां महाव्रतं ह्येतत्। किंमयइससी ससयं नियदेहकलड़कारि पि॥३६॥ किं कुरुतेहि कुसङ्गो, नरस्य निजधर्मकर्मसुदृढस्य? विसहरसिरे विवसिओ, किं न मणी हरइ विसमविसं // 37 / / इतरः रमाऽऽह यदि भवान्, प्रतिपन्न निर्वहति। निव्वहउतओ पुर्व-गीकयसुविसुद्धसंमत्तं॥३८॥ अहिमणिरभावुकं द्र-व्यमत्र जीवस्तु भावुकं तस्मात्। चिंतिज्जतो संम, दिवतो एस जं किंचि // 36 // एवं सुयुक्तयुक्तिभि-रुक्तोऽपिच तेन नृपतितनुजन्मा। तं लिङ्गिं आलिङ्गिय-हियओ माणेण न चएइ // 40 // प्राप्ते च तत्र दिवसे, वञ्चित्वा परिजनं गृहीताऽसिः। काबालिएण सह निसि, पत्तो कुमरो सुसाणम्मि॥४१। आलिख्यमण्डलमसा-वर्चित्वा मन्त्रदेवतां सम्यक्। अह काउंसिहबंध,कुमरस्स समुट्ठिओ जाव।। 42 // तावदुवाच कुमारः, सत्वं निजमेव मे शिखाबन्धः। नियकज चिय पकुणसु, माधरसु मणे भयं तितओ॥४३॥ तस्थावुद्यतखङ्ग-स्तत्पाश्र्वेऽसौ कपाल्यथो दध्यौ। कुमरसिरगहणसिहब-न्धबहुलिया विहलिया ताव॥४४|| तदमुष्य शिरो ग्राहां, स्वविक्रमेणैव मनसि कृत्वैवम्। गरुयगिरिसिहरलंघण-पवणं काउंनिय रुवं // 45 // कूपसमकर्णकुहर-स्तमालदलकालकर्तिकाहस्तः। दिकरडिरडियपडिम,लग्गो धडहडिउमइवियड / / 46|| तद् दुर्बिलसितमिति वी-क्ष्य नृपसुतः केसरीव करियूथम्। अक्खुहियमणो जा मं–डलग्गमुग सपउणेइ॥४७॥ तावदुवाच स पापो, रे बालक! तव शिरः सरोजेन। पूइत्तु अज्ज नियगु-त्तदेवयं होमि सुकयत्थो॥४८॥ तत आख्यत् क्षितिपसुतो, रेरे पापण्डिपाश ! पापिष्ठ ! चंडालडुबचिडिय-निट्टियकल्लाण ! अन्नाण! ||46 / / विश्वसितानां येषां त्वया कपालैर्विनिर्ममे माला। ताण विवइरं वाले-मि अज गहिउं तुह कवालं॥५०|| मुक्तोऽथ कर्तिकायाः, घातः कुपितेन तेन भीमोऽथि। तं खालिय खग्गदंडे-ण खिप्पमारुहइ तक्खंध / / 51 / / दध्यौ च कमललावं, लुनामि किं मौलिमस्य खड्नेन। सेवमिमं पडिवन्नं, हणेमि–कह कइयवेणऽहवा?॥५२॥ यदि कथमपि जिनधर्म , बहुशक्तियुतः प्रपद्यते चायम्। तो पवयणं पभावइ, इय हणइ सिरंसि मुट्ठीहिं / / 53 // यावत्तं हन्तुमना.दोर्दण्डाभ्यां ग्रहीष्यते योगी। तावऽस्स वणरसंतो, पविसइ करकलियकरवालो॥५४॥ तं प्रजहार कुमारः,खरनखरैः पौत्रवन महीपीठम्। सो सुंडादंडपवि-कुसरडकरडिव्व कडुरडइ।।५५।। कृच्छेण कर्णकुहरात्, करेण निःसार्थ नृपसुतं योगी। धरिउंचरणे कंदु, व्व दूरमुच्छालए गयणे // 56|| सतु निपतन गगनतलाद्, दैववशात् प्रापि यक्षिणीदेव्या। करसररुहसंपुडए, काउंनीओय नियभवणे॥५७|| वीक्ष्य च तत्राऽऽत्मानं, मणिमयसिंहासने समासीनम्। अहियं विम्हियहियओ,जाव किमेयं ति चिंतेइ।५८||तावद्योजितहस्ता, तस्य पुरोभूय यक्षिणी प्राऽऽह। भद्द! इमो विंझगिरी, तन्नामेणं इमा अडवी॥५६॥ विन्ध्याद्रिकन्दराऽन्तर्गतमतिसंगतमिदं त्रिदशसद्य। अहमित्थ सामिणी ज-क्खिणी य नामेण कमलक्खा // 6 // अद्याष्टापदवलिता, कपालिभोत्क्षिप्तमन्तरिक्षतलात्। तं निवडतं पिक्खि-तु घित्तु पत्ता इह हिट्ठा // 61 / / संप्रति दुर्मथमन्मथ-शितशरनिकरप्रहारविधुरागी। तह सरणमहं पत्ता, सुपूरिस! मंरक्ख रक्ख तओ।।६२|| तदनु विहस्य सऊचे, हे विबुधे ! विबुधनिन्दितानेतान्। वंतासवेय पित्ता--सवे य तुच्छे अणिचेय॥६३।।। नरकपुरसरलसरणि-प्रायानायासनिवहसंसाध्यान्। अंते कयरणरणए, जणए बहुदुक्खलक्खाणं॥६॥ आपातमात्रमधुरान, विषवत् परिणामदारुणान् विषयान्। भवतरुमूलसमाणे, माणेइ सचेयणो को णु?||६५|| शाम्यन्ति नैव विषयाः, हि सेवया प्रत्युत प्रवर्द्धन्ते। कररुहकंडुयणेणं, पामा इव पामरजियाणं / / 66 / / उक्तच न जातु कामः कामाना-मुपभोगेन शाभ्यति। हविषा कृष्णवर्मेव, भूय एवाभिवर्द्धते॥६७|| तद् दुःखलक्षहेतुं. गद्धिं विषयेषु मुञ्च भवभीरु। सिरिजिणनाहे तद्धे-सयम्मि भत्तिं सया कुणसु // 6 // इति तद्वचनामृतमा प्य यक्षिणी शान्तविषयसंतापा। संजोडियकरकमला, कमलक्खा जंपए कुमरं // 66 // स्वामिस्तव प्रसादात्, सुलभं खलु मे परत्र विशदपदम्। नीसेसदुहाभोए, भोए समं चयंतीए||७|| त्वयि सुदृढो भक्तिभरो, राग इव सुपाशिर्तेऽशुके मेऽस्तु। जो पुजो तुह वि सया, सो मह देवो जिणो होउ।।७१।। इति यावद् गुरुभक्तिः, साऽन्यदपि भणिष्यति स्फुट किञ्चित्। ता सुणिउं महुरझणिं, कुमरो पुच्छइ तयं देविं / / 72 / / अतिबन्धुरबन्धसम-द्धशुद्धसिद्धान्तसारवचनेन। Page #1594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार 1586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भीमकुमार के इह कुणति सज्झा -यमसरिसं सा तओ भणइ // 73 // सन्तीह गिरौ मुनयो, मासचतुष्काच पायन्ति विभो ! तेसिं सिज्झायपरा-ण एस सुव्बइ महुरसद्दो।।७४।। अथ नृपतिसूनुरुचे, हिभे शिखी शेषतमसि मणिदीपः / ज इत्थ वि पुन्नेहि, सुसाहुसंगो महं जाओ / / 7 / / तदहमिदानी रजनी-शेषममीषां समीपमुपगम्य। गमिहिं ति तओ नीओ, सो देवीए मुणीणते / / 76 / / प्रातः सपरिजनाऽहं, मुनीन् प्रणंस्यामि सेति जल्पित्वा / सट्ठाणं संपत्ता, सुमरती कुमरउवएसं॥७७॥ इतरोऽपि गुहाद्वार-प्रत्यासन्नस्थितं ननाम गुरुम्। उक्लद्धधम्मलाहो, उवविसए सुद्धमहिपीढ़े॥७॥ विस्मितहृदयोऽपृच्छत्, भगवन् ! कथमिह सुभीषणे देशे। तुब्भे चिट्ठइ अभया, असहाया निरसणा तिसिया // 7 // एवं कुमारपृष्टो, यावत् प्रतिभणति किश्चन मुनीशः। ता नियइ निवइतणओ, गयणे इंत भुयं एगं / / 8 / / दीर्घतरा गवलरुचिः, साऽवतरन्ती नभोगणाच्छुशुभे। नहलच्छीए वेणि-व्वलंबिरा लडहलावन्ना / / 81 / / तरलतरभीषणाऽऽकृति-रतिकठिना रक्तचन्दनोलिप्ता। भूमीए पडिलम्पा,जमस्स जीह व्व सा सहइ।।२।। अथ विस्मयभयजननी, समागता झगिति तत्प्रदेशे सा। भयरहियाण ताणं, मुणिकुमराणं नियंताणं // 83 // आगम्य तदनु सहसा, क्षितिपतितनयस्य मण्डलाग्रं सा। मुट्ठीइ गहिय सुदिद, वलिया पच्छामुहं झ त्ति / / 4 / / कस्य भुजेयं किं वा, करिष्यतेऽनेन मम कृपाणेन। पिच्छामि सयं गंतुं, इय कुमरो उडिओ संहसा / / 8 / / प्रणिपत्य सूरिचरणे, पञ्चास्य इवातिकौतुकवशेन। उच्छलिउंछेयवरो, आरूढो तीइ बाहाए।।८६|| हरगलगबलसुनीलिम- भुजाधिरूढो व्रजन् गगनमार्गे / कालियपुट्ठाऽऽरूढो विण्हु व्व विरायए कुमरो॥८७।। स्थूरस्थिरभुजफलको-परि स्थितो विपुलगगनजलराशिम्। वणिओ व्व भिन्नपोओ, तरमाणो सहइ निवइसुओ।।५५|| बहुतरतरुवरगिरिगण-गिरिसरितो याति यावदभिपश्यन्। भीमो अइसयभीम, ता पिच्छइ कालियाभवणं / / 86 // तद्गर्भगृहाऽऽसीना, प्रहरणयुक् महिषवाहनाऽऽसीना। तेणं दिट्ठो नररू-डमडिया कालियापडिमा // 60|| तस्याश्वाग्रे ददृशे, स पूर्वकापालिकस्तथा तेन। वामकरण एगो, पुरिसो केसेसु परिगहिओ।।१।। यस्यां किल बाहाया-मागच्छति नृपसुतः समारूढः। सा तस्स दुट्ठजोगि-स्स संतिया दाहिणी वाहा।।१२।। तं केशेषु गृहीत. दृष्ट्वा परिचिन्तितं कुमारेण / किं एस कुपासंडी, काही एयरस पुरिसस्स?॥६३|| तत् प्रच्छन्नो भूत्वा, तावत् पश्यामि चेष्टितममुष्य। पच्छा जं कायव्वं, तं काहं इय विचिंतेउं / / 6 / / तस्थावुत्तीर्य भुजा-निभृतस्तस्यैव योगिनः पश्चात्। अप्पित्तु कुमरखग्ग, सट्टाणं सा भुया लग्गा // 65|| तं नरमथ योग्यूचे, स्मरेष्टदेव कुरुष्व भोः शरणम्। तुह सिरमिमिणा असिणा, जं छित्तुं पूइहं देविं / / 6 / / स प्राह परमकरुणा-रसनीरनिधिर्जिनेश्वरो देवः। सव्वावत्थगएण वि, सरियव्यो मज्झन हु अन्नो // 67|| दृढजिनधर्मधुरीणो, भीमाऽऽख्यो निजसखः कुलस्वामी / केण वि कत्थ विनाओ, कुलिङ्गिणा सो उ मे सरणं / / 18 / / योग्यूचे रे पूर्व,सतव स्वामी भयेन मे नष्टः। अन्नह सिरेण तस्से-वकालियं देविमच्चिंतो // 66 // तद्भावे तत्पूजा, तव शिरसाऽपि हि मयाऽद्य कर्तव्या। ता तुज्झ कह सरणं, सो होही मूढ ! कापुरिसो? / / 100 / / रे रे स तव स्वामी, ममाधुनाऽशंसि कालिकादेव्या। विंझगुहाआसन्ने, पासे किर सेयभिक्खूणं / / 101 / / करवालोऽयं तस्यै-व निशित आनायितो मया पश्य। इमिण चिय तुह सीस, छिजिहिई इण्हि निब्भंतं / / 102 / / उभयाऽऽलापान श्रुत्वा, दध्यौ भीमः सुदुःखसामर्षम्। हा कह पावो वि नडइ, मह मित्तं बुद्धिमयरहरं / / 103 / / हक्कयति स्म ततस्तं. रे योगि ब्रुव ! भवाधुना पुरुषः। गिण्हित्तु तुज्झ मउलिं, मिउलेमि जयस्स वि दुहाई।।१०४।। तं नरमपास्य योगी, कुमारमभिधावितस्ततस्तेन। दारकवाडपहारे-ण पाडिओ से कराउ असी।।१०।। धृत्वा कचेषु भूमौ, निपात्य दत्त्वोरसि क्रम भीमः। जा लुणिही से सीस, ता काली अंतरे होउं / / 106 / / प्रीताऽऽह वार ! मैनं, बधीहि मम वत्सलं छलितलोकम्। जो नरसिरकमलेहिं , करेइ मह पूयमइभत्तो।।१०७।। भो अष्टशतं पूर्ण, मौलीनां मोलिनाऽमुनाऽद्य स्यात्। पायडियनिययरूवा, अहं च एयस्स सिज्झंती॥१०८|| तावत् त्वमसमकरुणा-पण्याऽऽपणआगम क्षितिपतनय। तुह पउरपउरिसेणं, तुट्ठा मग्गसु वरं रुइयं / / 106 / / परहितमतिः स ऊचे, तुष्टा यदि मम ददासि वरमिष्टम्। तो तिगरणपरिसुद्ध, जीववह लहु विवजेहि / / 110 / / तव सुतपःशीलाभ्या, विकलायाः का हि धर्मसंप्राप्तिः / एसेव तुज्झधम्मो, चएसु तसजीववहमेयं / / 111 / / यदिह नाऽऽत्मलाभ, लभते किल पादपो विना मूलम्। तह धम्मो वि जियाणं, न होइ नूणं दयाइ विणा // 112|| मा भद्रे ! स्वस्य पुरो, जीववधमचीकरः कदाचिदपि। तह मा तूससु भवदुह-पयाणसओण मजेण / / 113|| कारुण्यमय सम्यक्, यद्यकरिष्यः पुरा हि जिनधर्मम्। तो नेवं पार्वती, कुदेवजोणीइ देवत्तं / / 114|| तत्त्यज जीववधं त्वं, त्वद्भक्ता अपि भवंतु करुणाऽऽर्द्राः। पूयसु जिणपडिमाओ,धरसु जिणुत्तं च सम्मत्तं // 115 / / जिनमार्गसंस्थिताना, कुरु सान्निध्यं च सर्वकार्येषु / जलहिउँ नरजम्म, तं भद्दे ! लहिसि लहु सिद्धिं / / 116 / / अद्यप्रभृति समस्तान, जीवान्निजजीववद् निरीक्षिष्ये। अहयं ति भणिय काली, सहसेव अदसणं पत्ता / / 117|| अथ मन्त्रिसुतो भीम, प्रणनामाऽऽलिङ्गय सोऽपि तं प्राह। कह मित्त ! मुणतो विह, गओ वसमिमस्स पावस्स // 11 // सचिवतनूजोऽप्यूचे, मित्र ! प्रथमेऽद्य यामिनीयामे। वासगिहे तुह भज्जा, पत्ता अनिएवितं तत्थ // 11 // संभ्रान्तनयनयुगला, साऽपृच्छद्यामिकांस्ततस्तेऽपि / पभणति अहो छलिया, जग्गंतो विहु कहं अम्हे / / 120 / / सर्वत्र मार्गितोऽपि च, यदा न दृष्टोऽसि तदनु भूभर्तुः / कहियं केण वि हरिओ, कुमरो निसि पढमजामम्मि // 121 / / श्रुत्वेदं तय जनको, जननी लोकश्च विलपितुंलग्नः। अह ओयरिउ पत्ते, जंपइ कुलदेवया एवं / / 122 // Page #1595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार 1587- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भीमकुमार नृप ! सुस्था भव तव सू नुरपहृतो योगिनाऽधमेन निशि। उत्तरसाहगमिसओ, कुमरस्स सिरं गहिस्स त्ति / / 123 / / यक्षिण्या निजगेहे, नीतश्चेत्यादि सरफुटं प्रोच्य। भणियं थोवदिणेहि, इह एही गुरुविभूईए॥१२४॥ अथ सा स्वस्थानमगात, संवादयितुं वचस्त्वहं तस्याः। अवसो इ जोयणत्थं, विणिग्गओ निययभवणाओ॥१२५।। तावत् सहसा केनाऽ--प्युक्तं पुरुषेण मुदितचित्तेन। मणचिंतियत्थसिद्धी, तुह भद्द ! इमा हवउ सिग्छ / / 126|| इत्येवं शुभशब्देन रज्जितो यावदस्मि चलितमनाः। तो गयणपएणिमिणा, उक्खिविओ इत्थ आणीओ।।१२७।। पुण्यभरप्राप्याणां, भवताममुनैव मेलितोऽस्मि ततः। परमुवयारिस्स इम-स्स धम्ममुवइससु वरमित्त ! / / 128|| प्रीतः प्राह स योग्यपि, यः काल्या शिश्रिये प्रवरधर्मः। सो मह सरणं तद्धे-सओ य देवो तह जिणु त्ति / / 126 / / किंचअपकार्युपकारपर-स्य बुद्धिमकरगृह ! तव नतोऽस्मि पदौ। गुणरयणरोहणगिरि, सामि ! कुमारं च पडिवन्नो / / 130 / / इति यावत्ते मुदिता, जल्पन्ति हितावदुद्गते सूर्ये / पत्तो तत्थ जवक्खो, हत्थी अइथोरथिरहत्थो / / 131 / / कृत्वा करेण भीम, सचिवं चाऽऽस्थाप्य निजकपृष्ठेऽसौ। कालीभवणाउ तओ,लह नहमग्गे समुप्पइओ।।१३।। अथ विस्मितः कुमारः,प्रोचे हे मित्र ! मनुजलोकेऽत्र! करियणमेरिसं किं, दीसइ किं वा समुप्पइ य? // 133 // जिनवचनभावितमतिः, स्पष्टमभाषिष्ट मन्त्रिसमित्रम्। तनत्थि संविहाण, संसारे जन संभवइ॥१३४॥ किन्तु तव पुण्यभार-प्रणोदितः कोऽपि सुर वरो ह्येषः / ता जाउ जत्थ तत्थ व, इत्तो न मणंऽपि भयमत्थि॥१३॥ इति जल्पतोस्तयोः स. क्षणेन नभसोऽवतीर्य शून्यपुरे। एक्कम्मि मउलिदारे, ते मुत्तु करी कहिं विगओ।।१३६|| भीमो मित्रं मुक्त्वा, नगरस्य बहिः स्वयं विवेशकः। पुरमज्झे ता पिच्छइ, नरसिंहसमागिइं जीवं // 137 // तेन च मुखे गृहीतः, सुरूप एको नरो रसन् विरसम्। मा मम हरेसु पाणे, पुणो पुणो इय पयपंतो।।१३८|| तं दृष्ट्वा क्षितिपतिभू-रहो इदं किमपि दारुणं कर्म। इय चिंतिय तं सविणय-मिय पत्थइ मुंच पुरिसमिमं / / 136 // उन्मीलिताक्षियुगले-न तेन संवीक्ष्य नृपतिसुतवदनम्। स नरो मुहाउ मुत्तुं, संठविओ सुटु पयहिट्ठ॥१४०।। स्मित्वेति वाचमूचे, मुञ्चे कथमेतकं प्रसन्नमुख! जं अज्ज भए एसो, लद्धो छुहिएण भक्खं ति॥१४१।। आह कुमारस्त्वं कृत-वैक्रियरूप इव लक्ष्यसे भद्र! तो कह तुह भक्खमिणं, जमकवलाहारिणो अमरा // 14 // अबुधो यद्वा तद्वा, करोति युक्तं हि न पुनरेतत्ते। सदुह पलवंताण, सत्ताणं घायण विबुह!|१४३|| यः खलु यथा तथा वा, देहभृतो हन्ति विरसमारसतः। सो दुक्खलक्खरिछोलि-कवलिओ भमइ भीमभवे // 144 / / स प्राह सत्यमेतत, किं त्वमुनाऽदर्शि मम पुरा दुःखम्। तह जह सयसोहणिए, विमम्मि नहु समइ मह कोहो॥१४५।। अत एव बहुकदर्थन-पूर्वमिमं पूर्वशत्रुमति दुःखम्। मारिस्सामि अहं अह, निवतणओ भणइ भो भद्द!||१४६|| अपकारिणि यदि कोपः, कोपं कोपे ततो न किं कुरुषे? सयलपुरिसत्थहणए, जणए नीसेसदुक्खाणं / / 147 / / तन्मुञ्च दीनमेन, करुणारसकारणं कुरु सुधर्मम्। मुक्खं दुक्खविमुक्खं,लहेसि जं अन्नजम्मे वि॥१४॥ इति बहु भणितोऽपि यदा, न मुञ्चते तं नरं स दुष्टात्मा। चिंतेइ कुमारवरो, न सामसज्झो इमुत्ति तओ॥१४६।। कोपाऽऽविष्ट धृष्ट, तं सहसा प्रेर्य नृपतितनुजन्मा। नियपट्टीएठावडतं पुरिसंतं परिसं सोतओ कुविओ।।१५०।। भीमं स भीममूर्ति-निगरीतुमधावत प्रसृतवदनः। तं धरिय खुरे कुमरो, लग्गो भामेउ सिर उवरि / / 151 / / तदनुस सूक्ष्मो भूत्वा, निर्गत्य कुमारहस्तमध्यतलात्। कुमरगुणरंजियमणो, अद्दिस्सो ठाइ तत्थेव / / 152 / / तस्मिन्नदश्यमाने, नपतनयस्तस्य नागरनरस्य। बाहुविलग्गो कोउग-भरेण पविसेइ नियभवणे // 153 / / तत्र च सप्तमभूमि-स्तम्भाऽऽश्रितसालभञ्जिकाभिरिदम्। जोडियकराहि भणियं, सागयमिह भीमकुमरस्स // 154|| त्वरितंत्वरित च ततः,स्तम्भोपरिभागतः समवतीर्य। ताहिं बहुमाणेणं, दिन्नं कणगाऽऽसणं तस्स // 155 / / तेन पुरुषेण सार्द्ध , नृपाऽऽत्मजस्तत्र यावदासीनः। ता मज्जणसामग्गी, सव्वा पत्ता नहाउ तहिं / / 156 // पञ्चालिकाः प्रमुदिताः, प्रोचुः परिधाय पोतिकामेनाम्। अम्होवरि पसिऊणं, करेउ न्हाणं कुमारवरो॥१५७।। धरणीधवभव ऊचे, मम मित्रं नगरपरिसरोद्याने। चिट्ठइ तं हकारह, आणीओ ताहिं लहु सो वि।।१५८।। ताभिर्मित्रसमेती, भीमः संस्नाप्य भोजितो भक्त्या। जा पल्लंके पल्ल-कविम्हओ चिट्ठइ सुहेण / / 156 / / तावदुवाच समक्षं, कृताञ्जलिर्निर्जरः कुमारवरम्। तुह असमविक्कमेणं, परितुट्ठोऽहं वरेसुवरं / / 160 / / जगदे जगतीशभुवा, यदि तुष्टस्त्वमसि मम ततः कथय। को तं को उवयारो, किं पुरमिणमुव्वसंजायं? // 161 / / प्रोचे सुरः पुरमिदं, कनकपुरं कनकरथनृपोऽत्राभूत्। जो रक्खिओतए सो, अहमासि पुरोहिओ चंडो॥१६२।। सर्वस्य जनस्योपरि, सदाऽपि चास्थात् क्रुधा ज्वलँस्तदनु। सव्वो विजणो जाओ, मह वइरी कोऽवि न हु सुयणो।।१६३।। अयमपि नृपःप्रकृत्या, कूरमनाः कर्णदुर्बलः प्रायः। संकाइ वि अवराह-स्स कारए दंडमइचंड।।१६४।। केनचिदपरेधर्मयि. मत्सरभरपूरितेन नपपुरतः। अलियं कहियमिण जह, सह डुबीए इमो वुत्थो॥१६५|| काल च मार्गयन-प्यविचार्य शणेन वेष्टयित्वाऽहम्। छंटावेउ तिल्ले-ण जालिओऽणेण विरसंतो॥१६६।। तदनुस दुःखं मृत्वा, जातोऽहमकामनिर्जरावशतः। नामेणं सव्यगिलु, त्ति रक्खसो सरिय अह वइरं / / 167 / / इह च समेत्य मया भोः, सर्वोऽपि तिरोहितो नगरलोकः / एस निवो संगहिओ, निम्मियनरसिंघरूवेण॥१६॥ करुणाऽलड्कृतपौरुष-गुणमणिरत्नाऽऽकरेण मोचयता। एवं तुमए सुमए, चमक्कियं मह मणं गाढ॥१६६।। एष समग्रोऽपि मया, तवोपचारो ह्यदृश्यरूपेण। मजणमाई विहिओ, भत्तीए दिव्वसत्तीए॥१७०।। तव चरितमुदिमनसा, प्रकटीचक्रे मयैष पुरलोकः। अह नियइ वलियदिही, कुमरो सयलं नयरलोयं / / 171 / / Page #1596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार 1588 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भीमकुमार अत्रान्तरे कुमारः, प्रैक्षिष्ट विशिष्टविबुधपरिवारम्। इतं गयणपहेणं, मोयरिउं चारणमुणिंद।।१७२।। यत्र किल मन्त्रिपुत्रः, कुमारमुक्तः स्थितोऽभवत्तत्र। सुररइयकणगकमले, ठिओ गुरू कहइ धम्मकह / / 173 / / अथ भीमप्रेरणया, सर्वगिलो मन्त्रिसूनुकनकरथौ। सव्वो वि नयरलोओ, पत्तो गुरुपायनमणस्थ / / 174 / / क्षितितलविनिहितशिरसः, प्रमुदितमनसः प्रनष्टहत्तमसः। पणमेउं मुणिनाहं, सुणति ते देसणं एयं / / 17 / / क्रोधः सुखतरुपरशुः, क्रोधो वैरानुबन्धकन्दघनः। संतावकरो कोहो, कोहो तवनियमवणदहणो॥१७६।। कोपाऽऽटोपविसंस्थुल-देहो देही करोति विविधानि। वहमारणअब्भक्खा-णदाणमाईणि पावाणि ||177 // तत ऊर्जस्वलमतिबह, सुदारुणं कर्भजालमर्जित्वा। भमइ भवभीमरन्ने, निस्सामन्ने दुहर्कतो॥१७८|| तद्भो भव्या भव्यं, पदमिच्छन्तो विहाय कोपभरम्। पयडियसिवपयसम्मे, जिणधम्मे उज्जम कुणह॥१७६ / / श्रुत्वैव सर्वगिलो, नत्वा मुनिपतिपदोजगादेति। का वो कणगरहनिवे, अजप्पभिई मए मुक्को।।१८०।। अत्र च भीमकुभारे, धर्मगुराविव ममास्तु दृढभक्तिः / अह तत्थ गडगडतो, समागओ करिवरो एगो॥१८१।। तद्दर्शने च सहसा, सा पर्षद् भृशमुपागमत् क्षोभम्। तो कुमरो त करिणं, वप्पुक्कारेउ धीरविओ / / 182 / / अविहस्तो निजहस्तं, हस्ती संकोच्य तदनु शान्तमनाः। काउंपयाहिणं ए-रिसस्स गुरुणो तओ नमइ।।१८३॥ अथ पतिपतिना जगदे, मतङ्ग जो स्मावहो महायक्ष। भीम अणुसरिय इह; तमागओ करिवरो होउं / / 184|| काली भवनाद्भवता, पूर्वमसौ क्षितिपतनय आनिन्ये। इहयं नियपडिपुत्तय-कणगरहनरिंदरक्खाए॥१८॥ संग्रति निजनगरं प्रति, नेतुं भीमं भृशं त्वमुत्सहसे। तं आयन्नियकरिवर-रूवं तो झ त्ति संहरइ॥१८६।। भास्वदलङ् कृतियुक्तं, प्रत्यक्षं यक्षरूपमाधाय। पभणई नाणमहोदहि ! मुणिंद ! एवं चिय इमं ति। 187|| विज्ञाप्यं किं त्वेतत्, पूर्वं कक्षीकृतेऽपि सम्यक्त्वे। मह ! मणभवणे लग्गा, कुलिंगिसंसम्गओ अग्गी॥१५॥ तेनाशु दारूदाह, साऽदाहि विशुद्धदर्शनसमृद्धिः। तो हद्धी अप्पिद्धी-वणेसु जक्खो अहं जाओ / / 186 / / तस्मात् प्रसद्य भगव-नारोपय मम विशुद्धसम्यक्त्वम्। कणगरहरक्खसाई-हि भणियमम्हं पि इय होउ।।१६।। अथ गुरुणा सम्यक्त्वं, दत्तं नृपयक्षराक्षसाऽऽदीनाम्। कुमरो कुलिंगिसंगा--इयारमालोयए गुरुओ / / 161 / / अतिनिर्मलसम्यक्त्वो, भीमो मुनिपुङ्गवं नमस्कृत्य। कणगरहरावभवणे, रक्खसमाईहिं सह पत्तो।१६। कनकरथोऽपि नरेन्द्रः, प्रभूतसामन्तमन्त्रिपरिकलितः। नमिउं भणेइ कुमर, सव्वमिणं तुह पसाउति / / 163|| यजीव्यते यदेतत्, राज्यं प्राज्यं यदेष पुरलोकः। जएयस्स अतुच्छा, लच्छी किर जंच संमत्तं / / 164|| तदयं लोकस्तव ना-थ ! किङ्करः समुचिते ततः कार्ये / तह वावारेयव्वो, जह होइ भिसं अणुग्गहिओ।।१६५|| स प्राह जननमरणे, अन्योन्यनिबन्धने यथाऽसुमताम्। तह संपयाऽऽवयाओ, य के इह हेउणो अन्नो॥१६६|| एष पुनर्व्यापारो, भव्याणां सुकुलसम्भवानां वः। जिणधम्भे अइदुलहे, न हु कायव्वो पमाओ ति / / 167 / / सोदरभावः साध-मिकेषु सेवा सुसाधुवर्गस्य। परहियकरणे जत्तो, तुब्भेहि सया विहेयव्वो // 168 / / अथ विहिताञ्जलस्ते, बभाषिरे नाथ ! कतिपयान दिवसान। इह चिट्ठसु जेण मह वि, जिणधम्मे होइ कोसल्लं / / 166 / / इति तद्वचनं श्रुत्या, यावत् प्रतिवक्ति किञ्चिदपि भीमः / ता डमडमंतडमरुय-सद्दसमुत्तसियनियलोया।।२००। विंशतिबाहा काली, सा कापालिकयुताऽगमत्तत्र / रायसुयं नमिऊणं, उवविठ्ठा कुमरनिद्दिट्ठा / / 201 / / अभणच्च कुमार ! तदा, त्वयि करिणा नीयमान इह ससखे। ओहीइ नाउ तुह हिय-मिमं न चलिया य एवं पि॥२०२॥ तव जनकः पुरलोकः, स्मृत्वा तव गुणगणं रुदन्नधुना। कज्जवसेण तहियं, गयाइ मे कह वि संठविउं / / 203 / / विदधे पुरतस्तेषां, मया प्रतिज्ञा यथा दिनयुगान्ते। इह मे आणेयव्वो, भीमकुमारोस भित्तजुओ।।२०४|| कथितं च यथा भीमो, ह्यतिष्ठिपद् बहुजनं जिनेन्द्रमते। रक्खित्था बहुलोय, मारिजंतं च गुरुकरुणो // 20 // अतिहितनिजसखसहित स्तिष्ठति कुशलेन कनकपुरनगरे। ता भो पमोयटाणे, मा हु विसायं कुणह तुडभे / / 206 / / श्रुत्वैवमुत्सुकमना, यावत् प्रस्थास्यते वरकुमारः। ता गयणयले भेरी-भंभाइरवो समुच्छलिओ॥२०७।। चञ्चद्विमानमाला-मध्यविमानस्थिता कमलवदना। दिट्ठा एगा देवी, दसदिसि निन्नासियतमोहा।।२०८|| अथ किमिति भणन् रजनी-धरः करे मुद्गरं दधद्यक्षः / करकलियदित्तकत्ती, झ त्ति समुढेइ काली वि / / 206 / / भीमो भीमवदभयो, यावत्तिष्ठति च तावदित्युच्चैः। जय जीव नंद नंदण, हरिवाहणनिवइणो कुमर ! // 210 / / इति जल्पन्तो देवा, देव्यश्चायुः कुमारवरपार्श्वे / साहति जक्खिणीए, कमलक्खाए य आगमणं / / 211 // अथ साऽपि वरविमानं, मुक्त्या मुदिता कुमारपदकमलम्। नमिऊण उचियठाणे, उवविट्ठा विन्नवइएवं // 212 / / सम्यक्त्वं मम दत्त्वा, विन्ध्यगुहायां तदा सुमुनिसविधे। तं सि ठिओ निसि, गोसे, सपरियणा तत्थऽहं पत्ता // 213|| प्रणता मुनयो यूयं, नतत्र दृष्टास्ततो मयाऽवधिना। कारिजंता मज्जण-विहिमिह दिट्ठा सुहिट्ठाए॥२१४।। अथ बलिताऽहं स्खलिता, स्तोकं कालंच गुरुककार्येण। संपइ तुमं महायस!,दिट्ठोऽसि सुपुनजोएण॥२१५|| यक्षेण विमानमथो, विरचय्य क्षितिपसूनुरित्युक्तः। आरुहह नाह ! सिग्छ, गंतव्वं कमलपुरनयरे॥२१६।। तत उत्तस्थौ भीमः, पीतं संबोध्य कनकरथराजम्। आरूढो य विमाण, सह बुद्धिलमंतिपुत्तेण / / 217 / / तस्य ब्रजतो देवा, गायन्तः केपि केऽपि नृत्यन्तः। गयगजिं हयहेसिं, तप्पुरओ केऽवि कुव्वंता।।२१८|| भेरीभम्भाऽऽदिरवैः समस्तमम्बरतलं बधिरयन्तः। कुमरेण समं पत्ता; कमलपुराऽऽसन्नगामम्मि // 216 // तत्र च भीमश्चैत्येऽ-गमत्ततो यक्षराक्षसप्रमुखैः। पणमेवि जिणवरिद, हिट्टो दावेइ स महत्थं / / 220 / / Page #1597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमकुमार 1586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भीय अथ पटहभेरिझलरि-कंसालकमुख्यतूर्यशब्दौघः। कमलपुरे अत्थाण-ट्ठिएण सुणिओ नरिदेण // 221 / / तदनु नृपो मन्त्रिजन, पप्रच्छ किमद्य कस्य जिनसुमुनेः / वरनाणं उप्पन्नं, जं सुव्वइ अमरतूररवो।।२२२|| यावद् विमृश्य सम्यक्, मन्त्रिजनः प्रतिवचः किमपि दत्ते। तग्गामसामिणेवं, राया वद्धाविओ ताव / / 223 // बहुदेवीदेवयुतः, प्राप कुमारः प्रभो मम ग्रामे। तेणं जिणिंदभवणे, महूसवो एस पारद्धो // 224 // दत्त्वा निजाङ्गलग्ना-मलड्कृति मुकुटवर्जिता तस्मै। वुत्तो वित्ती रन्ना, भणेसु सामंतमाइजण // 225 / / संवहति येन सर्वः, प्रगे कुमारस्य सम्मुखं गन्तुम्। कारेसु हट्ठसोह, चसो वितह कारए सव्वं / / 226|| प्रातश्च प्रीतमनाः, सपरिजनः सम्मुखं ययौ राजा। आगच्छतो कुमरो, दिट्ठो गणयम्मि इंदु व्व / / 227|| उत्तीर्य वरविमाना-ननाम भीमो नृपस्य पदकमलम्। जणणीपमुहजणस्सय, अन्नाण वि कुणइ जहजुरगं // 228 / / जनकाऽऽदेशात् करिवर-मध्याऽऽरूढोऽथ बुद्धिलसुतोऽपि। निवनियपिउपभिईणं, जहोचियं कुणइ सव्वेसिं / / 226 / / हृष्टन सचिवसूनु-(मोऽश्वस्य पृष्ठतोऽध्यासि। अह सह पिउणा पत्तो, धवलहरे भीमवरकुमरो॥२३०।। भुक्तोत्तरं च राजा, भीमस्याप्रच्छि चरितमतिरुचिरम् / जंजह वित्तं तं तह, साहइ सव्वं पि मंतिसुओ॥२३१।। अत्रान्तरे च कथितं, हरिवाहननरपतेः कृताञ्जलिभिः / उजाणपालएहि, अरविंदमुणिंदआगमणं // 232 // अथ सपरिकरो राजा, तत्र ययौ प्रमुदितो गुरुन्नत्वा। निसियइ उचियट्ठाणे, तो धम्म परिकहइ सूरी // 233 / / भो भव्या एष भवः, श्मशानतुल्यः सदाऽप्यशुचिरूपः। विलसिरमोहपिसाओ, परिभमिरकसायगिद्धउलो // 234 / / दुर्जयविभवपिपासा-परिसर्पत्सततशाकिनीसंघः। अइउग्गरागपावग-डज्झंतपभूयजणदेहो।।२३५।। दुर्द्धरमारविकार-ज्वालामालाकरालदिक्चक्रः / पइसमयपसप्पिरगुरु-पओसधूमेण दुप्पिच्छो।।२३६।। मिथ्यात्वभुजगसंस्थिति-रशुभाध्यवसायभीषणकरङ्कः। निहियबहुनेहथंभो, भमंतसुमहंतभूयगणो॥२३७|| सर्वत्र लोककलह-स्फुटदुच्चैःस्थालिकासमूहश्च / सुट्वंतविविहउब्वे-यजणगकारुन्नरुन्नसरो॥२३८॥ स्थानस्थाननिवेशित-धनसंचयभरमकूटसंछन्नः। किण्हाइअसुहलेसो, सुहगिद्धिसियालिविकरालो / / 236 / / अतिदुस्सहविविधाऽऽप-निपतबहुशकुनिकानिकरौद्रः। निजकरगरंतदुजण-रिद्धो अन्नाणमायगो // 240 / / विषयविषपङ्कमग्नः, प्राणिगणस्त भयश्मशानेऽत्र। पडियाण जीवाण, कत्तो सुमिणे वि अस्थि सुहं॥२४१॥ यदितु सुचरित्रसुतपो, ज्ञानसुदर्शनमहाभटांश्चतुरः। उत्तरसाहगरूवे-ण ठाविउंचउदिसि कमसो॥२४२।। धृत्वा सुसाधुमुद्रां, जिनशासनमण्डले समुपविश्य। दाउ पयत्तेण दढं दुर्भयसिक्खासिहाबंध // 243|| मोहपिशाचप्रभृती-नपास्य सर्वानभीष्टविघ्नकृतः। अक्खुहियमाणसे हिं, निरुदइंदियपयारेहिं // 244 / / अव्यग्रं द्रव्यगः, सामाचारीविचित्रकुसुमभरैः। सिद्धतमंतजावो, कीरइ विहिणा तहेव तओ // 24 // मनईहितान्यसुमता, संपद्यन्ते समस्तसौख्यानि। पगरिसपत्ते य जसे, सा लब्भइ निव्वुई परमा।।२४६॥ इति हरिवाहननृपति-र्भावार्थयुतं विबुध्य गुरुवचनम्। भीसणसंसारमुसा-णवासओ सुबहु वीहतो।।२४७।। साम्राज्य भीमसुते, विन्यस्यानेकलोकसंयुक्तः। भवपेयवणुलंघण-पवणं दिक्खं पवजेइ // 248 // एकादशाङ्गधारी, सुचिरं परिपालितामलचरित्रः / सो रायरिसी पत्तो, तिहुणसिहरष्टियं ठाणं // 246 / / भीमनरेन्द्रेऽपि चिरं, कुर्वन् जिनशासनोन्नतीः शतशः। परहियकरणिकरई, नीईइ पसाहए रज्जं // 250 / / अन्येधुर्भवकारा-गारादुद्विग्नमानसः पुत्रम्। रखे ठवित्तु गिण्हिय, दिक्खं भीगो गओ मुक्खं / / 251 // " "इति हि भीमकुमारसुवृत्तक, मनसिकृत्य चमत्कृतिकारकम्। परहितार्थकृतः कृतिनो मुदा, भवत भावितजैनमताः सदा / / 252 // " ध० 20 १अधि०२० गुण / मीमट्टहास पुं०(भीमाट्टहास) रौद्रे अट्टहासे, आ० क० 110 / भीमदरिसणिज्ज त्रि०(भीमदर्शनीय) भीमं यथा भवतीत्येवं दृश्यते यः स भीमदर्शनीयः / रौद्रं यथा भवति तथा दृष्टव्ये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। भीमदेव पुं०(भीमदेव) चालुक्यवंशोद्भवे अणहिलपाटनपत्तनस्थे स्वनामख्याते गुर्जरधरित्रीनाथे, तदाज्यकाल एव मालवराजेन पार्श्वनाथप्रतिमा भना, ततो रामदेवश्रावकेण पुनरुद्धृत्य स्थापिता कोकापार्श्वनाथ इति प्रसिद्धि गता। ती०३६ कल्प। भीममुक्कट्टहास पुं०(भीममुक्ताट्टहास) भयावहकृताट्टहासे, उपा० २अ०) भीमरुव त्रि०(भीमरूप) रौद्राऽऽकारे, 'भीमरुवेहिं अक्कमित्ता।" प्रश्न 1 आश्रद्वार। भीमसेण पुं०(भीमसेन) युधिष्टिरानुजे पाण्डुसुते, आचा०१७०४ अ०१ उला आ०म०। अतीतायामुत्सर्पिण्यां जम्बूद्वीपभारतवर्षभवे स्वनामख्याते कुलकरे, स्था०१०टा०1 साभाविनिस्वनामख्याते प्रतिवासुदेवेसा वैयाकरणभेदेच!कल्प०१अधि०१क्षण। कर्पूरभेदेचा वाचा भीमसोम पुं०(भीमसोम) द्विबामणिमन्दिरनगरस्थयोः स्वनामख्या तयोः कुमारयोः ध०र० (भीमसोमयोः कथा 'अक्खुद्द' शब्दे प्रथमभागे 150 पृष्ठे गता।) भीमागार त्रि०(भीमाकार) भयजनकाकृती, भ०३ श०२ उ०। भीमासुर न०(भीमासुर) लौकिकश्रुतभेदे, अनु०। भीय त्रि०(भीत) भी-क्तः। जातभये, भ०३ श०१ उ०। प्रव०। जं०। प्रश्नः। भीतो भयाऽऽतः। प्रश्न०२ सम्ब० द्वार। 'निचं भीएण तत्थेण! उत्त०१६ अ०। ज्ञा०।०। Page #1598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीय 1560 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 मुकुंडण भीतस्य च यद्भवति तचतुर्थभावनामधिकृत्याऽऽह इह लोकापायानाजनिगृहप्रभृतीन, परलोकापायान् नरकगमनाऽ5न भाइयव्वं, भीयं खु भया अइंति लहुयं, भीओ अवितिजओ दीन् संभावयन भाविनो मन्यमानो वर्ततेन प्रवर्तते, पापे हिंसाऽनृताऽऽदौ, मणूसो, भीओ भूतेहिं विघेप्पेज्जा, भीओ अण्णं पि हु भेसेजा, तथा विभेत्युत्त्रस्यत्ययशः कलङ्कान्निजकुलमालिन्यहेतोरतोऽपि कार - भीओ तवसंजमं पिहु मुएज्जा, भीओ य भरं न नित्थरेजा, सप्पु- णात् पापेन वर्तते, ततस्तस्मात्कारणात, खलुरवधारणेस चोपरिष्टारिसनिसेवियं च मग्गं भीतो न समत्थो अणुचरिउं, तम्हा न त्संभत्स्यते, ततो धर्मा) धर्मयोग्यो भीरुरेव, विमलयत् / ध० 20 / भातियव्वं, भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चु- (तत्कथा 'विमल' शब्दे) शतावर्याम्, शपतदिकायाम्, छायायाम, स्स वा अन्नस्स वा एवमादियस्स एवं घेजेण भावितो भवति योषिति च / स्त्री०। भययुक्तायां योषिति, वाच०। अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो॥४।। | भीरुय त्री० (भीरुक) भयशीले, "एगे ओमाणभीरुए।" उत्त० 27 अ०। न भेत्तव्यं न भयं विधेयमिति, यतः भीतं भयार्त्त प्राणिनं खुरिति "संगामम्मि व भीरुया।' सूत्र० १श्रु०३ अ० 130 / वाक्यालङ्कारे, भयानि विविधा भीतयः (अइंति त्ति) आगच्छन्ति, किंभूतं भीसणय त्रि०(भीषणक) भयकारके वस्तुनि, 'घोरा दारुण-भासुरभीतम? (लहुयं ति) लघुकं सत्त्वसारवर्जित्वेन तुच्छ, क्रियाविशेषण भइरव-भीलुक-भीम-भीसणया।" पाइ० ना० 65 गाथा। चेदं, तेन लघुकं शीघ्रं, तथा भतोऽद्वितीयः,सहायो न भवतीत्यर्थः / भीसय पु०(भीष्मक) 'भिप्फय' शब्दार्थे , ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। मनुष्यो नरः, तथा भीतो भूतैर्वा प्रतैर्गृह्यते अधिष्ठीयते, तथा भीतोऽन्यमपि भेषयेत्, तथा भीतः तपः प्रधानः संयमस्तपरसंयमस्तमपि, मुंजण न०(भोजन) समुद्देशने, बृ० 1303 प्रक०। हुरलङ्कारे, मुश्चेत् त्यजेत्, अलीकमपि ब्रूयादिति हृदयम्। अहिंसाऽऽदि मुंजमाण त्रि०(भुजान) भोजनं कुर्वति, प्रा०४ पाद / आचा०। सूत्र०। रूपत्वात् संयमस्य, तथा भीतश्च भरं न निस्तरेत, तथा सत्पुरुषनिषेवित पिं०। प्रज्ञा०। अनुभवति च। ज०१ वक्ष०ा स्था०। च मार्ग धर्माऽऽदि-पुरुषार्थोपायं भीतो न समर्थोऽनुचरितुमासेवितुं, यत *भुञ्जत् त्रि। पालयति, दश०५ अ०१ उ०। एवं तस्मात्, (न भाइयव्व ति) न भेत्तव्यं (भयस्स वत्ति) भयहेतो ह्यात् मुंजिऊण अव्य०(भुक्त्वा) भोजनं कृत्वेत्यर्थे , प्रश्न०५ आश्र० द्वार। दुष्टतिर्यन्मनुष्यदेवाऽऽदेः, तथा आत्मोद्भवादपि, नेत्याह-(वाहिस्सव __ससागरं भुंजिऊण वसुहं / '' प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। त्ति) व्याधेः क्रमेण प्राणापहारिणः कुष्टाऽऽदेः रोगाद्वाशीघ्रतरप्राणाप- मुंजित्ता अव्य०(भुत्का) भुत्केत्यर्थ, स्था० 3 ठा० 2 उ०) "भुंजित्ता हारकाच, ज्वराऽऽदेः जराया वा मृत्योर्वा अन्यस्माद्वा तादृशाद्भयोत्पाद- खलु तहा अभुजित्ता।" स्था०३ ठा०२ उ०। कत्वेन व्याध्यादिसदृशादिष्टवियोगादेकस्मादिति / वाचनान्तरे मुंजिय अव्य०(भुक्त्वा) भोजनं कृत्वेत्यर्थे , स्था० 3 ठा०२ उ०। इदमधीतम्-अन्यस्मादा। एवमादीति। एतन्निगमनायाऽऽह-एवं धैर्येण भुंजियध्व त्रि०(भोक्तव्य) भोजनीये वस्तुनि, "एवं भुंजियव्व।" भ०२ सत्त्वेन भावितो भवत्यन्तरात्मा जीवः / किम्विध इत्याह-(संययेत्यादि) श०१उ०। पूर्ववत् / / 4 / / प्रश्न० 2 संव० द्वार / भीतमुत्त्रस्तमानसं यद् गीयते तद् मुंड (देशी) शूकरे, देवना० 6 वर्ग 106 गाथा। भीतम्। गेयदोषभेदे, अनु०। किमुक्तं भवति-यदुत्त्रस्तेन मनसा गीयते *मुंडीर (देशी) शूकरे, दे०ना०६ वर्ग 106 गाथा। तद्रीतपुरुषनिबन्धनात् तद्धर्मानुवृत्तत्वाद् भीतमित्युच्यते / जी०३ प्रति०४ अधि०। जंग भुंभल न०(भुम्भल) मद्यस्थाने, कर्म०१ कर्म० / भीयपरिस त्रि०(भीतपर्षत्) भीता चकिता पर्षद्यस्य स भीतपर्षद्। वृ० भुंभलय पुं०(भुम्भलक) शेखरके, उपा०२ अ०। 1302 प्रक० / उग्रदण्डे, व्य० 1 उ०। आजैकसारतया यस्य भृकुटि भुअ पुं०(भुज) बाहौ, "भुआ बाहू।' पाइना० 251 गाथा। मात्रमपि दृष्टा परिवारः सर्वोऽपि भयेन कम्पमानस्तिष्ठति न च क्वचि- भुअंग पुं०(भुजङ्ग) सर्प, पाइना० 31 गाथा। दन्याये प्रवृत्तिं करोति। बृ० 1302 प्रक०। भुअंगम पुं०(भुजङ्गम) नागे, पाइ०ना०३१ गाथा। भीरु त्रि०(भीरु) भी-क्रुः / भयशीले, स्था०४ ठा०२ उ०। आचा०। ध०। | मुअमूल न०(भुजमूल) हस्तमूले, "कक्खा भुअमूलं / '' पाई० ना० बृ० / दर्शक। सूत्र०। ऐहिकाऽऽमुष्मिकापायेभ्यस्त्रसनशीले च, स हि / 251 गाथा। कारणेऽपि सति न निश्शकमधर्मे प्रवर्त्तते। प्रव० 236 द्वार। ध०।। भुअय पु०(भुजग) नागे, "उरओ अही भुअंगो, भुअंगमो पन्नओ फणी भीरुगुणा धर्मरत्ने यथा भुअयो।" पाइ०ना०३१ गाथा। इहपरलोयावाए, संभावंतो न वट्टए पावे / मुकुंडण न०(भुकुण्डन) उर्दूलने, "गायाइं भुकुंडेति।'' उर्दूलयति। बीहइ अजसकलंकातो खलु धम्मारिहो मीरू / / 13 / / भ०६ श०३३ उ०। Page #1599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुक्कण 1561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भुयगा भुक्कण (देशी) मद्यादिभानयोः, देवना०६ वर्ग 110 गाथा। मुत्तसेस त्रि०(भुक्तशेष) भुक्तोद्भुते, "भुत्तरसेसं पडिच्छए!" दश०५ भुक्किअन०(बुकित) श्वाऽऽदिशब्दे, "उन्नुइ भुक्किअं जाण।'' पाइ० / अ०१ उ०॥ ना०१८२ गाथा। भुत्ति स्त्री०(भुक्ति) भुज-क्तिन / भोजने, मागे च।''आगमा निष्फलभुक्खा (देशी) क्षुधि, दे०ना०६ वर्ग 106 गाथा। स्तत्र, भुक्तिः स्तोकाऽपि यत्र नो।" इति स्मृतिः / वाच० / ध०१ मुक्खिअत्रि०(बुभुक्षित) बुभुक्षा संजाता अस्य तार०इतच् / क्षुधायुक्ते, | अधि०। द्वा०। "बुमुक्षितः किं द्विकरेण भुक्ते।" इत्युगटः / वाच०। विपा० 1 श्रु० मुत्तुत्तर त्रि०(भुक्तोत्तर) भोजनानन्तरे, विपा० 1 श्रु०३ अ०। रा०| २अ०। नि० ज्ञा० "भुत्तुत्तरागए वि यणं / " भुक्तोत्तरं भोजनोत्तरकालम्। भ०३ श०१ *बुभुक्षाऽऽर्त त्रि०। क्षुधा पीडिते. नि०चू०११ उ०ा क्षुधाऽऽर्ते, "छुहा उ०। कल्पका विपा०। इअंभुक्खिअंछायं / ' पाइ०ना०१८३ गाथा। *भुत्तूण (देशी) भृत्ये देखना०६ वर्ग 106 गाथा। मुग्ग त्रि०(भुग्न) भुज-मोटने, क्तः। रोगाऽऽदिना कुटिलीकृते, वाचा भुमया स्त्री०(भू) भ्रमतीति-भ्रूः। भ्रम-डः। अकारमकारयोर्लोपः। अनु० / प्रश्न०१ आश्र० द्वार। वक्रे उपा०२ अ०। भने च। ज्ञा०१ श्रु०८ अका "भ्रूवो मया डमया" / / 2 / 167 / इति प्राकृतसूत्रेण भूशब्दात्स्वार्थे भुग्गभग्ग त्रि०(भुग्नभग्न) अतीव वक्रे, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ० मया डमया इत्येतौ प्रत्ययौ। प्रा०२ पाद / उ<हनूमत्कण्डूयवाभुज्ज त्रि०(भोज्य) भुज-ण्यत् / भक्षणार्थत्वान्न कुत्वम् / भुज्यत इति तूले" / / 1 / 121 / इति प्राकृतसूत्रेणोकार-स्योत्वम् / प्रा० 1 पाद। भोज्यम्। शाल्योदनाऽऽदिके, प्रव०१द्वार। खण्डखाद्याऽऽदिके, ज्ञा० नेत्रयोरूर्द्धस्थायां रोमराजौ, वाच० उपा०ा "भुमया भमुहा।" पाई० १श्रु०१ अ० भक्षणीये द्रव्यमात्रे, वाच०। संखड्याम्, आह चूर्णिकृत ना० 251 गाथा। "भुज त्ति वा संखडि त्ति वा एगट्ठ। “बृ०१ उ०३ प्रकला स्त्रीणां चतुःषष्टि- भुय पुंकास्त्री (भुज) भुज्यतेऽनेन / भुज-घञर्थे कः / बाही, उपा० कलान्तर्गत कलाभेदे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। 2 अ०। प्रज्ञा०ा "भुयाहिं तिण्णं।" भुजाभ्यां बाहुभ्याम् / स्था० 10 भुज्जयर त्रि०(भूयस्तर) प्रभूततरे, "अप्पतरो भुज्जतरोवा।" आचा० ठा। रा०। करे, त्रिकोणचतुष्क्रो णाऽऽदिक्षेत्रस्य लीलावत्यादौ प्रसिद्ध 2 श्रु०१चू० 3 अ० 1 उ०। सूत्र०। रेखाविशेषे, वाच०। भुजरुक्ख पुं०(भूर्जवृक्ष) भूर्जतरी, भ०८ श०३ उ०। 'भुजपत्ते लेहो भुयंग पुं०(भुजङ्ग) भुग्नः सन् गच्छति / गम-खच्-डिच्च। सर्प, आचा० लिहिऊण छूढो।''आ०म०१ अ०। आव० २श्रु०४ चू०। ज्ञा०। स०ा उत्तका''जहा पमोई तणुयं भुयंगो।' भुजङ्गः भुज्जविहि पुं०(भोज्यविधि) भोज्यप्रकारे, आव०६ अ०। सर्पः / उत्त०१४ अ०। "उरओ अही भुयङ्गो।" पाइ० ना०२६ गाथा। जारे, वाच०। विशेला श्लेषानक्षत्रे च / वाच०। भुज्जाभुज्ज त्रि०(भोज्याभोज्य) द्वि०व० / भक्षणीयाभक्षणीययोः, भुयंगम पुं०(भुजङ्गम) भुजः कुटिलीभवन् सन् गच्छति। गम-खच-मुम् / सं०नि०। सर्प, वाच० "भुयंगमो पन्नओ फणीभुयंगो।" पाइ०ना०२६ गाथा। यथा च संसक्तनियुक्ती "भुयगमो जुण्णतयं जहा जहे।'' आचा०ा तं०) समणाए संजमट्ठा, णाणादेसेसु विहरमाणाणं / भुयग पुं०(भुजग) भुजः कुटिलीभवन् सन् गच्छति सर्प, प्रज्ञा०२ पद। भुज्जाभुज्जं निचं,नायव्वं सव्वदेसेसु // 3 // षो०। आ०म० औ०। ज्ञा० / पाइ० ना०। महोरगभेदे, प्रज्ञा० १पद। असणाणि य चउसट्ठी, कूरे जाणेह एगतीसं तु। औ०ा श्लेषानक्षत्रे च / वाचा तह चेव पाणगाई, तीसं पुण खज्जगा हुंति // 4|| सं०नि०। *भोजक पुं० अर्चक, ज्ञा०१ श्रु०१० ('अकप्पिय' शब्दे प्रथमभागे 118 पृष्ठे विस्तरः) भुयगकंचुय न०(भुजगकञ्चुक) भुजगत्वचि, षो०१ विव०॥ *भुज्जो अव्य०(भूयस्) भुवे भावाय वा यस्यति। यस्- भावे क्विप् / भुयगवइ पुं०(भुजगपति) महोरगाधिपे, औ० जी०। पुनरर्थे, याच०। सूत्र० १श्रु०३ अ०३ उ०ा आ०म० अन्त०ा आचा० भुयगवई स्त्री०(भुजगवती) अतिकायस्य व्यन्तरेन्द्रस्य स्वनामख्याताकल्प०। प्रश्न / स्था०। 'भुज्जो भुज्जो त्ति वा पुणो पुणो त्ति वा यामग्रमहिष्याम्, भ० 10 श०५ उ०। (भवान्तरकथा 'अग्गमहिसी' एगटुं / '' नि०चू० 20 उ०। स्था०। सूत्र०।। शब्दे प्रथमभागे 171 पृष्ठे गता) भुत्त त्रि०(भुक्) भुजेः कर्मणि क्तः। भक्षिते, वाच०। सेविते, उत्त०१४ भुयगवर पुं०(भुजगवर) स्वनामख्याते द्वीपे, स्था०३ ठा०४ उ०। स च अ०। प्रा० / कल्प० भागे, उत्त० 16 अ०। 'भुत्तासिपाणिय / ' रुचकवराद् द्वीपादसंख्येयान द्वीपसमुद्रान गत्वा भुजगवरो नाम द्वीपः / भुक्तभोग इति। उत्त० 16 अ० भोजने च / उत्त०१६ अायच्च भुक्तं अनु०॥ सत् पीडयति तद् भुक्तम्। स्थावरे विषभेदे, स्था० 6 ठा०। भुयगा स्त्री०(भुजगा) अतिकायस्य व्यन्तरेन्द्रस्य स्वनामख्यातायाममुत्तभोग पुं०(भुक्तभोग) भोगान् भुक्त्वा प्रव्रजिते, "जेइथिभोगा भुजिउं ग्रमहिष्याम, भ० 10 105 उ०। (भवान्तरकथा ‘अग्गमहिसी' शब्दे पव्वइया ते भुत्तभोगा।" नि०चू०१ उ०। प्रथमभागे 171 पृष्ठे गता) Page #1600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुयगावई 1562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भुवणतिलय भुयगावई स्त्री०(भुजगवती) भुयगवई' शब्दार्थे, भ०१० श०५उ०। भुवण न०(भुवन) भवत्यत्र / भू–क्युन् / जगति, जने, आकाशे, चतुर्दशभुयगीसर पु०(भुजगेश्वर) नागराजे, ता"भुयगीसरविपुलभोगआदाण- संख्यायां च / वाच० जलतत्त्वे, गा०। फलिहउच्छूढदीहवाह।" औ०। जी०। भुवणगुरु पुं०(भुवनगुरु) त्रिभुवननायके, पञ्चा० 2 विव० / त्रिभुवनभुयगेसर पुं०(भुजगेश्वर) 'भुयगीसर' शब्दार्थे, औ०। बान्धवे, पञ्चा०२ विवा जगज्ज्येष्ठे, पञ्चा०६ विव०ा त्रिभुवनानुशासके, भुयपरिसप्प पुं०(भुजपरिसर्प) भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिसर्पाः। / दर्श०३ तत्त्व। “भुवणगुरूण जिणाणं, विसेसओएयमेव दट्ठव्वं।" पञ्चा० अहिनकुलाऽऽदिके, अनु० / स्था०। जी०। प्रज्ञा०। 4 विव०। तीर्थकर, "भुवणगुरुणोवगारा, पमाययं नावगच्छति।" पंव० अधुना भुजपरिसर्पानभिधित्सुराह 5 द्वार। 'भुवणगुरुजिणिंदगुणापरिणाए।'' पञ्चा०७ विव०) से किं तं भुयपरिसप्पा? भुयपरिसप्पा अणेगविहा पण्णत्ता। भूवणचंद पुं०(भुवनचन्द्र) चैत्रगच्छभवे स्वनामख्याते आचार्य, तं जहा- णउला, सेहा, सरडा, सल्ला, सरंट्ठा, सारा, खोरा, "श्रीभुवनचन्द्रसूरिर्गुरुरुदियाय प्रवरतेजाः।" ध०र०३ अधि० घरोइला, विस्संभरा, मूसा, मंगुसा, पइलाइया, छीरविरालिया, ७लक्षण जहा चउप्पाइया, जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा भुवणच्छेरग त्रि०(भुवनाऽऽश्वर्य) भुवनाद्भुते, ''भुवणच्छेरयभूया, पण्णत्ता। तं जहा-समुच्छिमा य, गब्भवक्कं तिआ या तत्थ णं भुवनाऽऽश्वर्य्यभूता भुवनाद्भुतभूतः / पञ्चा०६ विव०॥ जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे नपुंसगा, तत्थ णं जे ते गब्भवक्कं तिया, | मुवणणाण न०(भुवनज्ञान) सप्तलोकज्ञाने, “सूर्ये च भुवनज्ञानम्।" तेणं तिविहा पण्णत्ता तंजहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा। एएसि सूर्ये च प्रकाशमये संयमा भुवनानां सप्तानां लोकानां ज्ञानम्। तदुक्तम्णं एवमाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं भयपरिसप्पाणं नव जाइकुल- "भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्।" द्वा०२६ द्वा०। कोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / सेत्तं भुवणणाह पुं०(भुवननाथ) त्रिजगत्त्रातरि, दर्श०१ तत्त्व। भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया / (सूत्र-३५) भुवणतिलय पुं०(भुवनतिलक) कुसुमपुरस्थस्यधनदनृपतेः पुत्रे स्वनामप्रज्ञा०१पदा जी०। ख्याते राजकुमारे, ध०२०। भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय पुं०(भुजपरिसर्पस्थल तत्कथानकम्चरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक) भुजाभ्यां परिसर्पतीति भुजपरिसर्पः, स चासो स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकश्व भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रिय ''सुइवाणियं सुपत्तं, कुसुमं व समत्थि इत्थ कुसुमपुरं। तिर्यग्योनिकः / भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिगयोनिकभेदे, प्रज्ञा० धणओ विव भूरिधणो, धणओ नामेण तत्थ निवो॥१॥ १पद। सूत्र०ा जी01 आसि पउमेसयस्सव, पउमा पउमावई पिया तस्स। भुयपरिसप्पिणी स्त्री०(भुजपरिसर्पिणी) गोधिकानकुल्यादिके, जी०। पुत्तो य भुवणतिलओ, तिलओ इव सेसपुरिसाणं // 22 // से किं तं भुयपरिसप्पिणीओ? भुयपरिसप्पिणीओ अणेगवि- तस्सय रूवाइगुणा-ण जइ वि उवमापय इमे हुज्जा। धाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-गोहीओ, णउल्लीओ, सेधाओ, मयणाइणो पसिद्धा, विणयगुणो अणुवमो तह वि।।३।। सेलाओ, सेरडीओ, सेरिंधीओ, सावाओ,खाराओ, पंचलोइ-- सो कालम्भि सुहेणं, उवज्झायमहन्नवाउ गिण्हेइ। याओ, चतुप्पझ्याओ, मूसियाओ, सुंसुसियाओ, घरोलियाओ, विणओ णओ कलाओ, जलपडलीओ जलहरु व्य / / 4 / / गोव्हियाओ, जेव्हियाओ, विरचिरालियाओ। सेत्तं भुयपरिस तेण य विणयगुणणं, जणिओ विजागुणो उसो तस्स। प्पिणीओ। जी०२ प्रति जो अमरसुंदरीण वि, मुहाइँ मुहलाई कासी य॥५।। भुयमोयग पुं०(भुजमोचक) नीलवर्णे रत्नविशेष, भ०१ श०१ उ०। अन्नदिणे सो राया, अत्थाणसभाइ जाव आसीणो। "भुयमोयगइंदनीले य।" प्रज्ञा०१ पद० जी०। ता औ०। प्रश्न चिट्टेइ ताव हिट्ठाण वित्तिणा एव विन्नतो // 6|| *भुरुकुडिअ (देशी) उद्धूलिते, दे०ना०६ वर्ग 106 गाथा। *भुरुहुंडिअ (देशी) उद्धूलिते, देना०६ वर्ग 106 गाथा। सामिय ! रयणस्थलपुर-पहुणो सिरिअमरचंदनरवइणो। भुल्ल धा०(भ्रंश) अधः पतने, प्रा०।"भ्रंशेः फिडफिट्टफुरफुडफुट्ट चिट्ठइ पहाणपुरिसो, बाहिं को तस्स आएसो?||७|| चुक्कभुल्लाः" |841177 / इति प्राकृतसूत्रेण भंशेर्भुल्लाऽऽदेशः। लहु मुंचसु इय रन्ना, वुत्तो सो वित्तिणा समाणीओ। भुलइ। भंसइ। प्रा०४ पाद। नमिय निवं उवविट्ठो, समए इय भणिउमारद्धो // 8 // मुल्लुंकी स्त्री०(भल्लुकी) शृगाल्याम्, "भुल्लंकी य भसुआ महा देव ! सिरिघणय ! नरवर! तुम्ह पइजंपए अमरचंदो। सद्दा।" पाइ०ना० 127 गाथा। अम्ह पहू ! अस्थि महं, वरधूया जसमई नाम॥६॥ भुव अव्य०(भुवर्) भू-अरु वुन् किच / भुवोक, तिर्यग्लोके, गा०। सा तुह सुयरस विमल, गुणनिवह खेयरीहिँ गिज्जत। वाचा आयन्निऊण सुइरं, अच्चतं तम्मि अणुरत्ता // 10 // Page #1601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवणतिलय 1563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भुवणतिलय किं च तयं चिय मित्त, व कमलिणी निच्चमेव झायंती। परिचत्तकुसुमतंवो-लमाइ कह कह विगमइ दिणे॥११॥ जा अज्ज वि सा बाला, तणं वन हुचयइ जीवियं निययं / ता तुडभेहिं नरवर!, पुव्वसिणेहाभिवुड्डिकए।।१२।। सहला किज्जउ अम्हा-ण पत्थणा पेसिनियं तयणं / तीए गिण्हाविज्जउ, वरलखणलक्खिओ पाणी॥१३॥ अह मइविलासवरम--तिवदणमवलोयए निवो सो वि। विणएण भणइ सामिय!, जुत्तमिणं कीरउ पमाणं // 14 // जं भणह तयं कुणिमु, त्ति निवइणा जंपिए पहाणनरो। सो पत्तो निवदिन्ने, आवासे फुरियगुरुहरिसो।।१५।। तो न्नाऽणुन्नाओ, अणेयसामंतमंतिमाइजुओ। सो कुमरो संचलिओ, अखलियचउरङ्गबलकलिओ।।१६।। संपत्तो अइदूर, पहम्मि सिद्धउरनयरबाहिम्मि। मुच्छामीलीयनयणो, सो पड़िओ रहवरुच्छंगे॥१७॥ अह मज्झिमखंधारे, सहसा कोलाहले समुच्छलिए। मिलिओ अम्गिमपच्छिम-खंधारजणो तहिं सव्वो // 18|| तो मंतिमाइणोतं, महुरालावेहि आलवंति भिसं। कट्ठ व विगयचिट्ठो, न कि पि पडिजपए कुमरो // 16 // आदन्ना ते सध्ये, विविहोसहमततंतमणिपमुहे। पकुणंति बहुवयारे, न य से जायइ गुणो को वि।।२०।। किं तु पवट्टइ अहिथं, वियणा विलयंति सयलअंगाई। तो मतिमाइलोओ, करुणसरं पलवए एवं // 21 // हा गुणरयणमहोदहि! हा निरुवमविणयकणयकणयगिरे! हा पणयकप्पपायव ! कुमार ! पत्तोऽसि किमवत्थं ?||22|| सुयवच्छलस्स देव-स्स किं तु गंतु वयं कहिस्सामो? इय जा पलवेइ जणो, सिद्धपुरवहिहिउज्जाणे // 23 // ता सुरकिन्नरसेवि-ज्जमाणचरणो अणेगसमणजुओ। नामेण सरयभाण, वरनाणी आगओ तत्थ ||24|| अमरकयकणयकमला-55सीणो धम्मकहेड अह तत्थ। सो मंतिप्पमुहजणो, गओ गुरु नमियं उवविठ्ठो |25|| अह कंठीरवसामं-तपुच्छिओ कुमरदुक्खवुत्तंत। तेसिं आउलभावा, समासओ कहइ इय सूरी।।२६।। धायइसंडे दीवे, भरहे भवणागरम्मि नयरम्मि। विहरतो संपत्तो, इको गच्छो सुगुरुकलिओ॥२७॥ तत्थय एगो साहू, वासवनामा सुवासणारहिओ। गुरुगच्छपचणीओ, अइअविणिओ किलिट्ठमणो॥२८॥ सो कइया वि गुरूहि, भणिओ भो भद्द! होसु विणयपरो। जम्हा विणएण चिय,कल्लाणपरंपरा होइ॥२६॥ उक्तंच"विनयफलं शुश्रूषां, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम्। ज्ञानस्य फलं विरति-र्विरतिफलं चाऽऽश्रवनिरोधः // 30 // संवरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम्। तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् // 31 // योगनिरोधादवस-न्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः। तस्मात् कल्याणानां, सर्वेषां भाजनं विनयः // 3 // " तथामूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा। साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, तओ सि पुष्पं च फलं रसोय॥३३॥ एवं धम्मस्स विणओ, मूलं से परम सुखं / जेण कितिं सुयं सिग्घ, नीसेस चाभिगच्छई॥३४॥ इय गुरुवयणं पवणं, व वणदवो पप्प सप्प इव कूरो। कोवेण धगधगतो, सो अहिययरं समुज्जलिओ॥३५॥ सो अन्नया अकज्ज-म्मि कत्थई चोईओ मुणिहिं पि। जाओ भिस पउट्ठो, इह परलोए य निरविक्खो॥३६।। सव्वेसि घायणत्थं, तालउडविसं खिवित्तु-जलमज्झे। सो एगदिसाहुत्तो, सयं पणट्टो उभयभीओ // 37 // गच्छाणुकंपियाए,यदेवयाए तयं कहेऊण। तप्परिभोगपवत्ता, निवारिया साहुणो सब्वे // 38|| सो वच्चंतोऽरन्ने, कत्थ विवणदवपलित्तसव्वंगो। मरिऊण समुप्पन्नो,परमाऊ अप्पइहाणे॥३६॥ तो मच्छेसुं पुणरवि, नरए तिरिए पुणो विनरयम्मि। सव्वत्थ दहणछिदण-भिंदणवियणाहिं संतत्तो।।४।। भमिओ भूरि भवेसु, अन्नाणतवं करित्तुं किं पि पुरा। जाओधणयनरिद-स्स एस अइबल्लहो पुत्तो।।४१॥ रिसिघायपरिणएणं, जं च तया अज्जियं असुहकम्म। तस्सेस वसा इम्हि, एयमवत्थं गओ कुमरो।।४२|| तो भीएणं कंठी-रवेण पणमित्तु पभणियं नाह! कह होइ पुणो एसो? पउणो पडिभणइ मुणिनाहो // 43 // खीणप्पायं कम्म, इमस्स संपइ विमुच्चमाणो य, चिट्ठइ वियणाहि इहा-ऽऽगओ विमुच्चिहिइ सव्वत्तो / / 44 / / इय सोउ मंतिपमुहा, लोया हरिसियमणा कुमरपासं। संपत्ता अहदिट्ठो, पउणप्पाओतओ तेहिं।।४।। कहिओ केवलिकहिओ, पुव्वभवाई य वइयरो तस्स। तो सो भीओ पमुइय-मणो य पत्तो सुगुरुपासे / / 46 / / नमिउं सूरि कंठी-रवाइबहुलोय संजुओ कुमरो। निस्सीमभीमभवभय भीओ दिक्खं पवज्जेइ॥४७॥ इय सुणिय जसमई विहु, तत्थाऽऽगंतूण गिण्हए दिक्खं। सेसजणो पुण वलिउ,धणयनिवस्साऽऽह तं चरियं / / 48|| पुवकयअविणयफलं, सुमिरन्तो माणसे कुमरसाहू। अइसयविणयपहाणो, जाओ अचिरेण गीयत्थो / / 4 / / विणए वेयावच्चे, सो तह दढऽभिग्गहो समुप्पन्नो। जह तग्गुणतुट्टेहि, अमरेहि वि संथुओ बहुसो।।५०।। तं उवहति गुरू, अभिक्खणं महुरनिउणवयणेहिं। धन्नोऽसि भो महायस!,तुह सहलं जम्म जीयं च // 51 // परिचत्तरायरिसिणा, दमगमुणीसु विपउत्तविणएण। वेयावच्चपरेण य, सच्चवियं ते इमं वयणं // 52 / / पणमति य पुटबयरं, कुलया न नमंति अकुलया पुरिसा। पणओ पुट्विं इहजई-जणस्स जह चक्कवट्टिमुणी।।५३।। इय उववूहिज्जतो, सो केयलिणा वि फुरियमज्झत्थो। पालइ वयमकलकं, वावत्तरिपुव्वलक्खाई // 54 / / सव्वाउ पुव्वलक्खे, असिइंपरिपालिऊण पजते। पडिवन्नपायवगमो, अज्झीणज्झाणलीणमणो / / 5 / / उम्पन्नविमलनाणो, विलीणनीसेसकम्मसंताणो। सो भुवणतिलयसाहू, भुवणोवरिमं पयं पत्तो // 56 // " Page #1602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुवणतिलय 1564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भूगोल "इति विनयगुणेन प्राप्तनिःशेषसिद्धेर्धनदनृपतिसूनोवृत्तमुच्चैर्निशम्य। सकलगुणगरिष्ठ लब्धविश्वप्रतिष्ठे, सुगुण इह विधत्त स्वान्तमश्रान्तभावाः / / 57 // " ध०र० 1 अधि० 18 गुण। भुवणत्तियवंधु पुं०(भुवनत्रिकबन्धु) जगत्त्रयबान्धवे, जीवा० १अधि०। भुवणमल्ल पुं०(भुवनमल) कुसुमपुरनृपस्य हेमप्रभस्य सुते स्वनामख्याते राजकुमारे, सडा०। (भुवनमल्लनरेन्द्रकथा 'चेइयवंदण' शब्दे तृतीयभागे 1266 पृष्ठ गता।) भुवणवइ पुं०(भुवनपति) भुवनाधिपे, सेन० / सौधर्मसुरत्वपदव्यपेक्षया यथा ईशानसुरत्वपदवी अधिका, तथा भुवनपतिज्योतिष्कव्यन्तराणामप्यन्योन्य का पदवी न्यूना, का च अधिकेति प्रश्ने, उत्तरम्व्यन्तरज्योतिष्कभवनपतीनां यथोत्तरं बाहुल्येन महर्धिकत्वमिति पदव्यधिकताऽपि तथैवेति / 263 प्र०ा सेन०३ उल्ला०। भुवनपतीनां भवनानिकुत्र सन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्-रत्नप्रभाया उपरिअधश्चैकं योजनसहसं मुक्त्वा विचाले सर्वत्र भवनानि सन्तीति ज्ञायते, यतोऽनुयोगद्वारसूत्रवृत्तिमध्ये भुवनपतिभवनानि नरकावासकपाश्वें कथितानीति बोध्यम् / 143 प्र० सेन० 4 उल्ला०। भुवणसुंदर पुं०(भुवनसुन्दर) तपागच्छभवे सोमसुन्दरसूरेः शिष्ये स्वनाम ख्याते आचार्य, ग० 3 अधि० / भुवणिंदसूरि पुं०(भुवनेन्द्रसूरि) चैत्रगच्छभवे स्वनामख्याते आचार्य, "तत्र | श्रीभुवनेन्द्रसूरिसुगुरुः।” बृ०६ उ०॥ भुस न०[बुष(स) ]बुस्यते उत्सुज्यते 'बुस' उत्सर्ग, कः / पृ०वा षत्वम्। तुच्छधान्ये, फलरहितधान्ये, वाच०। आ०म०२ अ०) भुसगर पुं०(बुसकर) करभेदे, आ०म०२० भुसडाहट्ठाण न०(बुसदाहस्थान) बुसदाहाऽऽधारे गृहे, "जत्थ भुसडहति तं भुसडाहट्टाणं।'' नि०चू० ३उ०। भुसुंढ न०(भृशुण्ड) शस्त्रभेदे; आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०ा स्त्रियां डीम्।। भुशुण्डी। तत्रैवार्थे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। भू स्त्री०(भू) भूसम्प०-क्विप्। पृथिव्याम् / गा०ा कल्प०। अष्टा कर्मा दश०। एकसङ्ख्यायाम, वाच०। भूअ पुं०(भूत) पिशाचे, "ढयरा पुणाइणो पि-प्पया परेया पिसल्लया / भूआ।" पाइ०ना० 30 गाथा / जन्तुसामान्ये, “जन्तू सत्ता भूआ य" पाइ०ना० 152 गाथा। यन्त्रवाहे, देना०६ वर्ग 107 गाथा। भूअण्ण (देशी) कृष्टखलयज्ञे, देना०६ वर्ग 107 गाथा। भूइ स्त्री०(भूति) भू-क्तिन्। भवने, भस्मनि, बृ०४ उ०ा विभूती, संथा०। पं०व०। रा०ा वृद्धौ, मङ्गले, रक्षायाम्, सूत्र०१ श्रु०६ अ० अणिमाऽऽद्यष्टविधैश्वर्ये, शिवाङ्गभस्मनि, भूतृणे, सम्पत्ती, जात्याम, वृद्धिनामौषधे च / वाचन भूइंद पुं०(भूतेन्द्र) सुरूपाऽऽख्ये भूतानामिन्द्रे, स्था० 4 ठा० 170 / भूइकम्म न(भूतिकर्मन्) भूत्या भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा सूत्रेण कर्म रक्षार्थ वसत्यादिपरिवेष्टनं भूतिकर्म / ग०२ अधि० / वसति-शरीरभाण्डकरक्षार्थ भस्मसूत्राऽऽदिना परिवेष्टनकरणे, प्रव०७३ द्वारा तद्रूपे आभियोगिकभावनाभेदे च।ध० ३अधि०।ज्ञा०।भूति-कर्म नाम यत् ज्वरिताऽऽदीनामभिमन्त्रितेन क्षारेण रक्षाकरणम्। 'जरियाइभूइदाणं, भूईकम्म विणिदिव।" इति वचनात्।व्य० 1 उ०। आव०। स्था० ___ अथभूतिकर्मव्याचष्टेभूईएँ मट्टियाए, सुत्तेण व होइ भूइकम्मं तु / वसहीसरीरभंडगरक्खा अभियोगमाईया।।५१२॥ भूत्या भस्मभूतया विद्याभिमन्त्रितया मृदा वा पांशुलक्षणया सूत्रेण वा तन्तुना यत्परिवेष्टनं तद्भुतिकर्मोच्यते / किमर्थमवं करोतित्याहवसतिशरीरभाण्डकानां स्तेनाऽऽधुपद्रवेभ्यो रक्षा तन्निमित्तम्। अभियोगो वशीकरणम्, आदिशब्दात् ज्वराऽऽदिस्तम्भनपरिग्रहः / बृ०१ उ०२ प्रका तत्र प्रायश्चित्तं यथा- "भूतीकम्मे लहुओ (261 गाथा)।' भूतिकर्मकरे प्रायश्चित्तं मासलघु। व्य०१ उज्वराऽऽदिरक्षानिमित्तं भूतिदानं भूतिकर्म तत्रनिपुणस्तथा। निपुणपुरुषभेदे, पुं०। स्था० 6 ठा०। भूइकम्मिय पुं०(भूतिकम्मिक) भूतिकर्मज्वरितानामुपद्रवरक्षार्थमस्ति यस्य सः। भूतिकर्मकारके, औ०। भूइग्गहण न०(भूतिग्रहण) विभूतिलाभे, भस्माऽऽदाने च / संथा०। मूइपण्ण त्रि०(भूतिप्रज्ञ) भूतिः सर्वजीवरक्षा, तत्र प्रज्ञा यस्य। सर्वजीवरक्षाज्ञे, उत्त०१२ अ०। प्रवृद्धप्रज्ञे, अनन्तज्ञानवति, मङ्गलप्रज्ञ, भूतिशब्दो वृद्धौ मङ्गले, रक्षायांचवर्तते। भूतिप्रज्ञः प्रवृद्धप्रज्ञः। अनन्तज्ञानवान्। तथा भूतिप्रज्ञो जगद्रक्षाभूतिज्ञः। एवं सर्वमङ्गलभूतिप्रज्ञः। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। 'नाणेण सीलेणय भूइपण्णे।" सूत्र०१ श्रु०६ अ०। प्रज्ञया श्रेष्ठ च। सूत्र०१ श्रु०६ अग भूइल पुं०(भूतिल) तोसलिग्रामस्थे स्वनामख्याते इन्द्रजालिके, येन तत्रस्थदेवेन क्षुद्रकरूपं विकुऱ्या संधिच्छेदे कृते गृहीतेन देवेन निवेदितः स्वामी बद्धो मोचितः। 'मोएइ इंदजालिय, तत्थ महाभूतिलो नाम / " आ०चू० 10 // भूउत्तम पुं०(भूतोत्तम) भूतभेदे, प्रज्ञा० १पद। भूगोल पुं०(भूगोल) भूगोल इव। गोलाऽऽकारे भूमण्डले, "मध्ये समन्तादण्डस्य, भूगोलो व्योम्नि तिष्ठति / विभ्राणः परमा शक्तिं, ब्रह्मणो धारणाऽऽत्मिकाम् / / 1 / / '' इति सूर्यसिद्धान्तः। वाचा . भूगोलस्य चलाचलत्वमाचाराङ्गे यथाइहमे गेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणओ यावि समणुजाणमाणा, अदुवा अदिनमाययंति, अदुवा वायाउ विउज्जंति तं जहा-अस्थि लोए 1, नत्थि लोए 2, धुवे लोए Page #1603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूगोल 1565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भूगोल 3, अधुवे लोए४, साइए लोए५, अणाइए लोए 6, सपज्जवसिए लोए७, अपञ्जवसिए लोए८, सुकडे त्ति वा दुक्कडे त्ति वा कल्लाणे त्ति वा पावे त्ति वा साहु त्ति वा असाहुत्ति वा सिद्धि त्ति वा असिद्धि त्ति वा निरए त्ति वा अनिरए त्ति वा जमिणं विप्पडिवन्ना मामगं धम्म पन्नवेमाणा इत्थ वि जाणह अकस्मात् / / 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'एकेषा' पुरस्कृताशुभकार्मविपाकानाभाचरणमाचारो मोक्षार्थमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरो विषयः, नो सुष्टु निशान्तः परिचितो भवति, ते चापरिणताऽऽचारगोचरा यथाभूताः स्युः तथा दर्शयितुमाह-'ते' अनधीताऽऽचार गोचरा भिक्षाचरिऽया स्नानस्वेदमलपरिषह-वर्जिताः सुखविहारिभिः शाक्याऽऽदिभिरात्मसात्परिणामिताः 'इह' मनुष्यलोके आरम्भार्थिनो भवन्ति, ते वा शाक्याऽऽदयोऽन्ये वा कुशीलाः सावद्याऽऽरम्भार्थिनः, तथा विहाराऽऽरामतडागकूपकरणौद्देशिभोजनाऽऽदिभिर्धर्म वदन्तोऽनुवदन्तः, तथा जहि प्राणिन इत्येवमपरैतियन्तो, घ्नतश्चापि समनुजानन्तः, अथवा अदत्त परकीयं द्रव्यमगणितविपाकास्तिरोहित-शुभाध्यवसायाः आददति' गृह्णन्तीति। किं च-तत्र प्रथम-तृतीयव्रते अल्पवक्तव्यत्वात् पूर्व / प्रतिपाद्य ततो बहुतरवक्त-व्यत्वात् द्वितीयव्रतोपन्यास इति, अथवेति' पूर्वस्मात् पक्षान्तरोपक्षेपकः, तद्यथा-अदत्तं गृह्णन्ति, अथवा-वाचो विविधनानाप्रकारा युञ्जन्ति, तद्यथेत्युपक्षेपार्थः। अस्ति 'लोकः' स्थावरजङ्गमाऽऽत्मकः, तत्र नव खण्डा पृथ्वी सप्तद्वीपा वसुन्धरेतिवा। अपरेषां तु ब्रह्माण्डान्तर्वर्ती, अपरेषां तु प्रभूतान्येवम्भूतानि ब्रह्माण्डान्युदकमध्ये प्लवमानानि सतिष्ठन्ते, तथा सन्तिजीवाः स्वकृतङ्गलभुजः, अस्ति परलोकः, स्तो बन्धमोक्षौ, सन्ति पञ्चमहाभूतानि, इत्यादि 1 / तथाऽपरे चार्वाका आहुः- नास्ति लोको, मायेन्द्रजालस्वप्नकल्पमेवैतत्सर्व, तथा ह्यविचारितरमणीयतया भूताभ्युपगमोऽपि तेषामतो नास्ति परलोकानुयायी जीवो, नस्तः शुभाशुभे, किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् भूतेभ्य एव चैतन्यमित्यादिना सर्व मायाऽऽकारगन्धर्वनगरतुल्यम्, उपपत्त्यक्षमत्वादिति। उक्तं च'यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा। यद्येतत्स्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र क वयम् ?||1|| भौतिकानि शरीराणि, विषयाः करणानि च। तथापि मन्दैरन्यस्य, तत्त्वं समुपदिश्यते // 2 // " इत्यादि। तथा साङ्ख्याऽऽदय आहु-'ध्रुवो' नित्यो लोकः, आवि- / र्भावतिरोभावमात्रत्वादुत्पादविनाशयोः, असतोऽनुत्पादात् सतश्चाविनाशात्, यदि वा-ध्रुवः निश्चलः, सरित्समुद्रभूभूधराभ्राणां निश्चलत्वात् 3 / शाक्याऽदयस्त्याहुः-अधुवो लोकोऽनित्यः, प्रतिक्षणं विशरारुस्वभावत्वात्, विनाशहेतोरभावात् नित्यस्य च क्रमयोगपद्याभ्याम् अर्थक्रियायामसामर्थ्यात्। यदि वा "अध्रुवः चलः, तथाहि-भूगोलः केषाश्चिन्मतेन नित्यं चलन्नेवाऽऽस्ते, आदित्यस्तु व्यवस्थित एव, तत्राऽऽदित्यमण्डल दूरत्वाद्ये पूर्वतः पश्यन्ति तेषामादित्योदयः, आदित्यमण्डलाधोव्यवस्थिताना मध्याह्नः ये तु दूरातिक्रान्तत्वान्न पश्यन्ति तेषामस्तमित इति / ('दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे दिविभागप्ररूपणाऽवसरे "जस्स जओ आइचो उदेइ सा भवति तस्स पुष्वदिस्सा" (47, इत्यादिगाथाभिः भद्रबाहुस्वामिभिरपीत्थं सिद्धान्ति तत्वात्) 5 / अन्ये पुनः सादिको लोक इति प्रतिपन्ना; तथा चाऽऽहुः"आसीदिदं तमोभूत-मप्रज्ञातमलक्षणम्। अप्रतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः।।१।। तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गेमे। नष्टामरनरे चैव, प्रनष्टोरगराक्षसे / / 2 / / केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते। अचिन्त्याऽऽत्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः॥३॥ तस्य तत्र शयानस्य, नाभेः पद्यं विनिर्गतम्। तरुणरविमण्डलनिभं, हृद्यं काञ्चनकर्णिकम् // 4 // तस्मिन् पोतु भगवान्, दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः। ब्रह्मा तत्रोत्पन्न-स्तेन जगन्मातरः सृष्टाः / / 5 / / अदितिः सुरससानां, दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम्। विनता विहङ्गमानां, माता विश्वप्रकाराणाम् // 6 // कद्रूः सरीसृपाणां, सुलसा माता तु नागजातीनाम्। सुरभिश्चतुष्पादना-मिला पुनस्सर्वबीजानाम् / / 7 / / इत्यादि 6 / अपरे तु पुनरनादिको लोक इत्येवं प्रतिपन्नाः, यथा शाक्या एवमाहुःअनवदग्रोऽयं भिक्षवः ! संसारः, पूर्वा च कोटी न प्रज्ञायते, अविद्या निरावरणाना सत्त्वानां न विद्यते न च सत्त्वोत्पाद इति, तथा सपर्यवसितो लोको, जगत्प्रलये सर्वस्य विनाशसद्भावात्७। तथाऽपर्यावसितो लोकः, सतः आत्यन्तिकविनाशासंभवात्, "न कदाचिदनीदृशं, जगद्" इति वचनात्, तत्र येषां सादिकस्तेषां सपर्यवसितो, येषां त्वनादिकस्तेषामपर्यवसित इति, केषाशितूभयमपीति, तथा चोक्तम्-"द्वावेव पुरुषो लोके, क्षरश्चाक्षर एव च / क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते / / 1 / / '' इत्यादि / तदेव परमार्थमजानाना अस्तीत्याद्यभ्युपगमेन लोकं विवदमानाः नानाभूता वाचो नियुञ्जन्ति, तथाऽऽत्मानमपि प्रति विवदन्ते, तद्यथा-सुष्टु कृतं सुकृतमिति वा दुष्कृतमिति वेव्येवं क्रियावादिनः सम्प्रतिपद्यन्ते, तथा सुष्टु कृतं यत्सर्वसङ्गपरित्यागतो महाव्रतमग्राहिः, तथाऽपरे दुष्कृतं भवता यदसौ मुग्धमृगलोचना पुत्रमनुत्पाद्योज्झितेति, तथा य एव कश्चित्प्रव्रज्योद्यतः कल्याण इत्येवमभिहितः स एवापरेण पाखण्डिकविप्रलब्धः क्लीवोऽयं गृहाऽऽश्रमपालनासमर्थोऽनपत्यः पाप इत्येवमभिधीयते, तथा साधुरिति वा असाधुरिति वा स्वमतिविकल्पितरुचिभिरभिधीयते, तथा सिद्धिरिति वा असिद्धिरितिया नरक इति वा, अनरक इति वा, एवमन्यदप्याश्रित्य स्वाग्रहग्रहिणो विवदन्त इति दर्शयति, 'यदिदं विप्रतिपन्ना' यत्पूर्वाक्तं लोकाऽऽदिकं तदिदमाश्रित्य विविध प्रतिपन्ना विप्रतिपन्नाः, तथा चोक्तम्"इच्छन्ति कृत्रिम सृ–ष्टिवादिनः सर्वमेवमितिलिङ्गम्। कृरनं लोक माहे-श्वराऽऽदयः सादिपर्यन्तम् / / 1 / / नारीश्वरजं केचित्, केचित्सोमाग्निसम्भवं लोकम्। द्रव्याऽऽदिषड्विकल्प, जगदेतक्तेचिदिच्छन्ति।।२।। Page #1604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूगोल 1566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भूमिघर ईश्वरप्रेरित केचि-क्तेचिद् ब्रह्मकृतं जगत्। च- "सदेव सर्व को नेच्छेत्, स्वरूपाऽऽदि चतुष्टयात्? असदेव विपर्याअव्यक्तप्रभवं सर्व , विश्वमिच्छन्ति कापिलाः॥३॥ सान्न चेन्न व्यवतिष्ठते / / 1 / / '' इत्यादि, अलमतिप्रसङ्गेनाक्षरगमनिकार्थयादृच्छिकमिदं सर्व, केचिद् भूतविकारजम्। त्वात् प्रयासस्य, एवं धुवाध्रुवाऽऽदिष्वपि पञ्चावयवेन दशावयवेन केचिचानेकरूपं तु, बहुधा संप्रधावितः॥४॥'' इत्यादि। वाऽन्यथा वैकान्तपक्षं विक्षिप्य स्याद्वादपक्षोऽभ्यूह्याऽऽयोज्य इति / तदेवमनवगाहितस्याद्वादोदन्वतामेकशावलम्बिनां मतिभेदाः प्रादु आचा० 1 श्रु०८ अ०१ उ०। (चन्द्रादिगोलविमानानां व्याख्या स्वस्व स्थाने) (अत्र विस्तरः 'णिगोय' शब्दे चतुर्थभागे गतः।) ('लोय' शब्दे च ष्यन्ति / तदुक्तम्- "लोकक्रियाऽऽत्मतत्त्वे,विवदन्तेवादिनो विभिन्ना वृद्धोक्त गाथाभिर्दशयिष्यते) र्थम्। अविदितपूर्व येषां, स्याद्वादविनिश्चितं तत्त्वम् / / 1 / / '' येषां तु पुनः स्याद्वादमतं निश्चितं तेषामस्तित्वनास्तित्वाऽऽदेरर्थस्य नयाभिप्रायेण भूण पुं०(भूण) स्त्रीणां गर्भे, बालके च।वाच०। बृ० 1 उ०३ प्रका कथञ्चिदाश्रयणात् विवादाभाव एवेति, अत्र च बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, भूणग्ध त्रि० (भूणघ्न) भूणं गर्भ हन्ति हन्- कः गर्भघातके, बालधातके ग्रन्थविस्तरभयाद्, अन्यत्र च सूत्रकृताऽऽदौ विस्तरेण सुविहितत्वादिति। च।वाच०।०१ उ०३ प्रका ते च विवदन्तः परस्परतो विप्रतिपन्नाः 'मामकम्' इत्यात्मीयं धर्म भूतणग न०(भूतृणक) शष्पसधाते, विशेश हरितेवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० प्रज्ञापयन्तः स्वतो नष्टाः परानपि नाशयन्ति / तथाहि- केचित्सुखेन १पद। धर्ममिच्छन्ति, अपरे दुःखेन, अन्ये स्नानाऽऽदिनेति, तथा मामक एवैको भूदाण न०(भूदान) भूमिदाने, आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०। (भूदानस्य धर्मो मोक्षायानिर्वाच्यश्च नापर इत्येवं वदन्तोऽपुष्टधर्माणोऽविदित शुभफलोदयजनकत्वनिराकरणम् 'पुढवीकाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे परमार्थान प्रतारयन्ति, तेषामुत्तरं दर्शयति- 'अत्रापि अस्ति लोको 678 पृष्ट गतः) नास्ति वेत्यादौ जानीत यूयम्, 'अकरमादिति' मागधदेशे आगोपाला- भूवाल पु०(भूपाल) भुवं पालयति। पाल-अण। भूपतौ, वाच०। स्था० ङ्गाऽऽदिना संस्कृतस्यैवोचारणादिहापि तथैवोच्चारित इति, कस्मादिति 6 ठा० हेतुर्न कस्मादकस्माद् हेतोरभावादित्यर्थः, तत्रास्ति लोक इत्युक्तेऽ भूमिय पुं०(भूभृत्) भुवं विभर्ति धारयति पालयति वा / भूक्विप् / पर्वते; त्राप्येवं जानीत यथा न भवत्येवमकस्माद्, हेतोरभावादिति / तथाहि- भूपाले च / वाचा आ०क०१ अof यद्येकान्तेनैव लोकोऽस्तिः ततोऽस्तिना सह समानधिकरण्याद्यदस्ति भूभूय पुं०(भूभूज) भुवं भुक्ते भुनक्ति पालयति वा / भुजविप् / तल्लोकः स्यात्, एवं च तत्प्रतिपक्षोऽप्यलोकोऽस्तीति कृत्वा लोक- _भूपाले,वाचला आ०० 1 अ० एवालोकः स्याद्, व्याप्यसद्भावे व्यापकस्यापि सद्भावादलोकाभावः, / *भूमणया (देशी) स्थगने, "भूमणयापलिउंचणं।" भूमणयेति, देशीतदभावे च तत्प्रतिपक्षभूतस्य लोकस्य प्रागेवाभावः सर्वगतत्वं वा पदमेतत्, स्थगनमित्यर्थः। व्य०१ उ०) लोकस्य स्यादिति, अथवा लोकोऽस्ति। न च लोको भवति, लोकोऽपि भूमह पुं०(भूमह) अहोरात्रभवेषु त्रिंशन्मुहूर्तेषु स्वनामख्याते सप्तविंनामास्ति, न चलोकोऽलोकाभाव इत्येवं स्याद्, अनिष्ट चैतत्, किंच- | शतितमे मुहूर्ते, स०३० सम० अस्तेयापकत्वे लोकस्य घटपटाऽऽदेरपि लोकत्वप्राप्तिः, व्याप्यस्य भूमि स्त्री०(भूमि) भवन्त्यस्मिन् भूतानि। भू-मिक्, वा डीप्। पृथिव्याम्. व्यापकसद्भावनान्तरीयकत्वात्, किं च -- अस्ति लोकः, इत्येषाऽपि वाच० / राका क्षेत्रे, ध०२ अधि०) पञ्चा०ा स्थण्डिले, उपा०१ अ० प्रतिज्ञा लोक इति कृत्वा हेतोरप्यस्तित्वात, प्रतिज्ञाहेत्वोरेकत्यावाप्तिः, पदव्याम्, स्था० 3 ठा०२ उ०। काले, स्था०३ ठा०४ उ० स्थानमात्रे, तदेकत्वे हेत्वभावः, तदभावे किं केन सिद्ध्यतीति? उतास्तित्वादन्यो जिह्वायाम्. योगशास्त्रोक्ते योगिनां चित्तस्यावस्थाभेदे, एकसङ्ख्यायां लोक इत्येवं च प्रतिज्ञाहानिः स्यात्, तदेवमेकान्तेनैव लोकास्तित्वेऽ- च / वाचा "थलिं भूमि।" पाइ० ना०२६४ गाथा। भ्युपगम्यमाने हेत्वभावः प्रदर्शितः, एवं नास्तित्वप्रतिज्ञायामपि वाच्यम भूमिउदय न०(भूम्युदक) भूम्या उदकं भूम्युदकम्। नद्यादिजले, नि०चू० तथाहि- नास्ति लोक इति बुवन् वाच्यः- किं भवानस्त्युत नेति? 10 यद्यस्ति किं लोकान्तर्वी , नवेति, यदि लोकान्तर्गतः कथं नास्ति लोक भूमिकंप पुं०(भूमिकम्प) "शब्देन महता भूमिर्यदा रसति कम्पते / इति ब्रवीषि ? अथ बहिर्भूतस्ततः खरविषाणवदसद्भूत एवेति कस्य सेनापतिरमात्यश्च, राजा राज्यं च पीड्यते // 1 // " इत्युक्तलक्षणे मयोत्तरं दातव्यम्, दत्यनया दिनैकान्तवादिनः स्वयमभ्यूह्य प्रतिक्षेप्तव्या महानिभित्तभेदे, स्था० 8 ठा०। (भूमिकम्पन हेतुः 'पुढवी' शब्देऽस्मिन्नेव इति, एवमिति यथाऽस्तित्वनास्तित्ववादस्तेषामाकस्मिकोनियुक्तितः. / भागे 672 पृष्ठे गतः) एवं धुवा-धुवाऽऽदयोऽपि वादा नियुक्तिका एवेति। भूमिकम्मन०(भूमिकर्मन) समविषमाया भूमेः परिकर्मणे, बृ०१ उ०२ अस्माकं तु स्याद्वादवादिनां कथशिदभ्युपगमान्न यथोक्तदोषानुषङ्गः प्रका गला व्या आव० "भूमीए समविसमाए परिकम्मणं भूमीयतः स्वपरसत्ताव्युदासोपादानाऽऽपाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम्, अतः कम्म।'' नि०० 5 उ०। स्वद्रव्यक्षेत्रकालस्वभावतोऽस्ति परद्रव्याऽऽदिचतुष्टयान्नास्तीति। उम्तं भूमिधर न०(भूमिगृह) गृहभेदे, आव०६ अ०। प्रश्न। स्था० Page #1605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिट्ठ 1597 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भूय भूमिट्ट वि०(भूमिष्ठ) भूमौ तिष्ठति / स्था–कः / अम्वषत्वम् / भूपृष्ठस्थे, सिंहव्याघ्रछगलाः प्रतीताः, द्वीपी-चित्रकः एतेषां प्रत्येकं चर्म अनेकैः वाच० / नि०चू० 130 शकुप्रमाणैः कीलकसहस्रैर्यतो महद्भिः कीलकैस्ताडितं प्रायो मध्ये भूमितुंडय पुं०(भूमितुण्डक) वैताढ्यपर्वतस्थे विद्याधरभेदे, भूमितुड- क्षामं भवति न समतलं, तथारूपताडासाभवात्, अतः शकुग्रहण, गविजाहिपतयो भूमितुण्डकाः / आ०चू० 1 अ०। विततविततीकृतं ताडितमिति भावः, यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति तथा भूमित्थ त्रि०(भूमिष्ठ) 'भूमिट्ठ'शब्दार्थे नि०चू०१ उ०। तस्यापि वनखण्डस्यान्तर्बहुसमो भूमिभागः / पुनः कथंभूत इत्याहभूमिदेव पुं०(भूमिदेव) ब्राह्मणे, पिं० "लोयाणुग्गहकारिसु भूमीदेवेसु "णाणाविहपंचवण्णेहि मणीहिं तणेहिं (मणितणेहिं) उवसोभिए' इति बहुफलं दाणं / अवि नाम बंभबंधुसु. किं पुण छक्कम्मनिरयाणं / / 1 / / " योगः / नानाविधाजातिभेदा नानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तृणानि च स्था०५ ठा०३३० तैरुपशोभितः, कथंभूतैर्मणिभिरित्याह- आवर्ताऽऽदीनिमणीनां भूमिपिसाअ पुं०(भूमिपिशाच) भूमौ पिशाच इव / तालवृक्षे, वाचा लक्षणानि तत्र आवर्तः प्रतीतः, एकरयाऽऽवतस्य प्रत्यभिमुखः आवर्तः प्रत्यावर्तः श्रेणिः तथाविधबिन्दुजाताऽऽदेः पक्तिः तस्याश्च श्रेणेर्या दे०ना०६ वर्ग 107 गाथा। विनिर्गताऽन्या श्रेणिः सा प्रश्रेणिः, स्वस्तिकः-प्रतीतः, सौवस्तिकपुष्पभूमिपहेण न०(भूमिप्रेक्षण) भूमेर्भुवः प्रेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणम्। भुवश्चक्षुषा माणवौ च लक्षणविशेषौ लोकात् प्रत्येतव्यौ, वर्द्धमानक शरावसंपुटं, निरीक्षणे, पञ्चा० 4 विव० मत्स्याण्डकमकराण्डके जलचरविशेषाण्डके प्रसिद्धे, 'जारमारे ति' भूमिभाग पुं०(भूमिभाग) भूमिदेशे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। जी०। दशा लक्षणविशेषौ सम्यग्मणिलक्षणवेदिनोलोकाद्वेदितव्यौ, पुष्पावलिपद्मपत्रतस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। सागरतरङ्गवासन्तीलतापद्मलताः प्रतीताः, तासां भक्त्याविच्छित्या से जहा णाम ए आलिंगपुक्खेरइ वा जाव णाणाविह चित्रम्- आले खो येषु ते तथा, किमुक्तं भवति? आवर्ताऽऽदिलपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहिं उवसोमिए। क्षणोपेतैः, तथा सती शोभनाछायाशोभा येषां ते तथा तैः, 'सप्पभेहिं' तस्य, णमिति पूर्ववत्, वनखण्डस्यान्तः-मध्ये बहु अन्त्यन्तं समो इत्यादि विशेषणत्रयं प्राग्वत् / एवं भूतैः नानावणैः पञ्चवर्णैः मणिभिबहुसमः, स चासौ रमणीयश्चस तथा, भूमिभागः प्रज्ञप्तः / कीदृश इत्याह स्तृणैश्चोपशोभितः। जं०१ वक्ष। 'से' इति, तत् सकललोकप्रसिद्धम्, यथेति दृष्टान्तोपदर्शने, नामेति | भूमियर पुं०(भूमिचर) सरीसृपाऽऽदिके तिरश्चि,सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। शिष्याऽऽमन्त्रणे, 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, आलिङ्गोमुरजो वाद्यविशेषः, भूमिरुह पुं०(भूमिरह) भूम्यां भूमौ वा रोहति / रुह-कः / वृक्षे, वाच०। तस्य पुष्कर चर्मपुटकं, तत्किलात्यन्तसममिति, तेनोपमा क्रियते, छत्राके, भूमीरुहाणि छत्राकाणि वर्षाकाल भावीनि भूमिस्फोटकानीति इतिशब्दाः सर्वेऽपि स्वस्वोपमाभूतवस्तुसमाप्तिद्योतकाः / वा शब्दाः प्रसिद्धानि / ध०२ अधि०। प्रव०भूरुहाऽऽदयोऽप्यत्र / वाच०। समुचये, यावच्छब्देन बहुसमत्ववर्णको मणिलक्षणवर्णकश्च ग्राह्य इति। भूमिलिहण न०(भूमिलिखन) भूमौ पदाऽऽदिनाऽक्षरबिलेखने 'भूमिलिस चायम्-"मुइंगपुवखरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा चंदमंडलेइ वा हणविलिहणेहिं ।''तं सूरमंडलेइवा आयंसमंडलेइ वा उरभचम्मेइ वा वसहचम्मेइ वा वराह भूमिसिरि पुं०(भूमिश्री) भारतवर्षभवे भाविनि स्वनामख्याते चक्रचम्मेइ वा सीहचम्मेइवा वग्धचम्मेइ वा छगलचम्मेइ वा दीवियचम्मेइ वा वर्तिनि, तिन अणेगसकुकीलगसहस्सवितते आवत्तपच्चावत्तसेढिपरोढिसोत्थियसो भूमिसेज्जा स्त्री०(भूमिशय्या) श्रमणधभिदे, स्था०६ ठा०। वत्थियपूसमाणवाद्धमाणगमच्छंडकमगरंडकजारमारफुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवासंतीपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं भूमुउड न०(भूमुकुट) स्वनामख्याते नगरे, 'पुरं भूमुकुटं नाम, भूदेव्याः समरीइएहिं सउज्जोएहिं" इति। अत्र व्याख्या-मृदङ्गो लोकप्रतीतो __मुकुटोपम्" आ०क० १अण मर्दलः, तस्य पुष्कर मृदङ्ग पुष्करं तथा परिपूर्णपानीयेन भृतं तडागं- | भूय न०(भूत) न्याय्ये, उचिते, वाच०। अभूवन् भवन्ति भविष्यन्तीति सरस्तस्य तलम्- उपरितनो भागः सरस्तलम्, 'अत्र व्याख्यानतो विशेष भूतानि / पृथिव्यायेकेन्द्रियेषु, "जम्हा भुव भवति भविस्संति य तम्हा प्रतिपत्तिः' इति निर्वातं जलपूर्ण सरो ग्राह्यम्, अन्यथा वातोद्भूयमान भूतेति वत्तव्या।" आ०चू० 4 अ०॥ सर्वदा भवनाद्भूतः। सूत्र०१ श्रु०८ तयोचावचजलत्वेन विवक्षितः समभावो नस्यादित्यर्थः, करतलं प्रतीतं, अ०। आचा०ा भूतानि पृथिवीजलज्वलनपवन-वनस्पतयः / पा०। चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलं च यद्यपि वस्तुगत्या उत्तानीकृतार्धकपित्था आव०। सूत्र०ा विशे०। दश। ऽऽकारपीटप्रासादापेक्षया वृत्तालेख्यमिति तद्गतो दृश्यमानो भागो न किं मन्ने पंच भूया, अत्थी नत्थि त्ति संसओ तुज्झ। समतलस्तथापि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम्, आदर्शमण्डल वेयपयाण य अत्थं, नयाणसी तेसिमो अत्थो॥१६८६।। सुप्रसिद्धम् 'उरख्भचम्मेइ वा इत्यादि / अत्र सर्वत्रापि, 'अणेगसंकु- किं पञ्च भूतानि पृथिव्यादीनि सन्ति, किं वा न सन्तीति कीलगसहस्सवितते' इति पदं योजनीयम्। उरभ्र ऊरणः, वृषभवराह- मन्यसे , व्याख्यान्तरं पूर्ववत् / अयं च संशयः तव विरुद्धवे Page #1606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूय 1568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भूय दपदश्रुतिनिबन्धनः, तानि चाऽमूनि वेदपदानि-"स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरजसा विज्ञेय' इत्यादि / तथा "द्यावापृथिवी'' इत्यादि। तथा 'पृथिवी देवता आपो देवता'' इत्यादि तेषां च वेदपदानामयमर्थः तव प्रतिभासतेस्वप्नोपमं स्वप्नसदृश, वै निपातोऽवधारणे, सकलमशेष जगदित्येष ब्रह्मविधिः परमार्थप्रकारः, अञ्जसा प्रगुणेन न्यायेन विज्ञेयो ज्ञातव्यः, एवमादीनि वेदपदानि भूतनिह्नवपराणि / "द्यावापृथिवी'' इत्यादीनितु सत्ताप्रतिपादकानि। ततः संशयः / तथा एवं ते चित्तविभ्रमो यथा भूताभाव एव समीचीनः, तेषां प्रमाणेनाग्रहणात् / तथाहि- चक्षुरादिविज्ञानस्याऽऽलम्बने परमाणवो वा स्युः, परमाणुसमूहो वा, अवयवी वा / तत्र न तावत्परमाणवः, तेषामिन्द्रियविज्ञाने प्रतिभासाभावात् न खलु चाक्षुषे विज्ञाने परस्परविशकलिताः परमाणवः प्रतिभासन्ते; नापि समूहः, समूहो हि नाम द्विवाऽऽदिपरमाणूना संयोगः, स चानुपपन्न एव, विकल्पद्वयानतिक्रमात्। तथाहि-परमाणूना संयोगो देशतो वा स्यात्, सर्वाऽऽत्मना वा। तत्र न तावद्देशेन, परमाणोईशाभावादन्य था परमाणुत्वक्षतेः, परमोऽणुः परमाणुरिति व्युत्पत्तेः / अथ सर्वाऽऽत्मनेति पक्षः, तर्हि परमाणौ प्रवेशादणुमात्रप्रसक्तिः / तथा च पठन्ति- "संजोगो वि य तेसिं, देसेणं सव्वहा व होजाहि / देसेण कहमणुत्तं, अणुमित्तं सव्वहा भवणे।।" अथ ब्रूषे-परस्परं प्रत्यासन्नत्वमात्रमेवात्र संयोगः समूहो, नदेशेन,नसाऽऽत्मना वा, ततोन कश्चिद्दोषः। तथा च सम्यक् प्रत्येकमिव समुदितानामपितेषामग्रहणप्रसङ्गात्स्वस्वरूपावस्थितानां तेषामिन्द्रियगम्यत्वाभावात्, न च परस्परप्रत्यासन्नत्वमप्युपपन्नम्, तत्यवश्यं दिग्भेदतो भवति, दिग्भेदे च देशभेदसंभवादणुत्वव्याधातः / आह च- "हाणी अणुयत्तस्स उ, दिसिभेदातो न अन्नहा चेव। तेसिमहो पच्चासन्नय त्ति परिफग्गुमेयं ति।।१।।" अथ वाऽवयवीति पक्षः, सोऽप्ययुक्तः, अवयविनएवासंभवात्, तस्यावयवेषु व्यत्यययोगात्। तथाहि सोऽवयवी देशेन वा प्रत्येकमवयवेषु वर्तते, सर्वात्मना वा? न तत्र तावद्देशेन, अवयविनो देशाभावात्, अन्यथा तेष्वपि देशेषु देशेन वर्तते, तत्रापि स एव प्रसङ्गः इत्यनवस्था। अथ सर्वात्मना, तर्हि यावन्तोऽवयवास्तावन्तोऽवयविन इत्यवयविबहुत्वप्रसङ्गः। अथ न बमो देशेन वर्तते, सर्वात्मना वा, किन्तु वर्तते इत्येवम्,तत उक्तदोषाप्रसङ्गः / तदप्यश्लीलम्, उक्तरूपप्रकारद्वयव्यतिरेकेणान्यस्य वृत्तिप्रकारस्या सम्भवात्। अथ समवायलक्षणेन सम्बन्धेन वर्त्तते इति मन्येथाः, तदप्ययुक्तम्, समवायस्य वासिद्धत्वात्, न खलु वस्तुद्वयापान्तरालवर्ती तत्सम्बन्धनिबन्धनभूतो जन्तुकल्पः कश्चित् समवायो नाम पदार्थः प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणविषयोऽस्ति, ततः कथं तमस्तित्वेन मन्यामहे? अन्यचसोऽपि समवायिषु कथं वर्तते इति वाच्यं, तदन्यसमवायबलादिति चेत; तत्तु तत्रापि स एव प्रसङ्ग इत्यनवस्थाप्रसक्तिः / अथ स्वपरोभयसम्बन्धनस्वभावः समवायो, यथा स्वपरप्रकाशधर्माप्रदीपः, तेनाऽऽत्मानं स्वसमवायिभिः सह सम्बन्धयति, स्वसमवायिनश्च परस्परमिति। तदप्यमनोरमम, विकल्पयुगलानतिक्रमात्। तौ हि स्वभावौ समवायादिन्नौ वा स्यातामभिन्नौ वा? यद्याद्यः पक्षः, ततो न समवायस्य तौ, सम्बन्धाभावात् वस्त्वन्तरधर्मवत्। अथाभिन्नौ, ततः समवाय एव तौ / तदव्यतिरिक्तत्वात, तत्स्वरूपवत्, ततः कुतः स्वभावद्वयकल्पनेति भूतविषयप्रमाणाभावः। एवं विभ्रमे स्फुटीकृते भगवानुत्तरमाह-वेदपदानामर्थ न जानासि, चशब्दात् युक्तिभावार्थ च। तत्र तव संशयनिबन्धनानां वेदपदानामयमर्थः- "स्वप्नोपमं वै सकलम्" इत्यादीनि अध्यात्मचिन्तायां मणिकनकाङ्गनाऽऽदिसंयोगस्यानियतत्वात्, अस्थिरत्वात्, विपाककटुकत्वात् आस्थानिवृत्तिपराणि, न तु तदत्यन्ताभावप्रतिपादकानि / द्यावापृथिवीन्यादीनि तु भूतसत्ताप्रतिपादकानि भवतोऽपि प्रतीतानि, ततो वेदसिद्धा भूतानां सत्ता / यदयुक्तम्- भूताभाव एव समीचीनः, तेषां प्रमाणेनाग्रहणादित्यादि। तदप्यसम्यक्। भूतानां प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणसिद्धत्वात्। तथाहि-द्विविधं परमाणूना रूपंसाधारणमसाधारण च। तत्र यदसाधारणं रूपं, तेन (न) चाक्षुषे विज्ञाने प्रतिभासन्ते, साधारणेन तु रूपेण प्रतिभासन्ते एव। न च वाच्यं साधरणं रूपं नास्त्येव, तदभावे खल्वेकपरमाणुव्यतिरेकेणान्येषामपरमाणुत्वप्रसङ्गात्। परमाणुत्वेनापि तुल्यरूपत्वाभावात् / अन्यथाऽस्मदभ्युपगमप्रसक्तेः / अथ यदेतत्परमाणुत्वेन तुल्यरूपत्वम् / तत्तदन्यव्यावृत्तिमात्रपरिकल्पितसताक, यथाऽयमपिपरमाणुर-परमाणोावृत्तोऽयमथ परमाणोव्यावृत्त इति / न तु पारमार्थिकम् / तदेतदयुक्तम् / स्वतस्तुल्यरूपत्वाभावे तदन्यथावृत्तेरपि साधारणाया असंभवात्। न खलु यथाऽघटात्व्यावृत्तिस्तथा पटस्यापि घटेन सह, पटस्य तुल्यरूपत्वाभावात् / अथ सर्व स्वलक्षण सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्तिस्वभाव, ततः समानरूपत्वाभावेऽपि विजातीयव्यावृत्तेः समानता। तदपि न युक्तिक्षमम्। विजातीयेभ्यो व्यावृत्तौ परमाणुत्वस्येव सजातीयभ्योव्यावृत्तापरमाणुत्वप्रसङ्गात्, न्यायस्यसमानत्वात्; भवन्मतेन सजातीयव्यावृत्तताऽपि वस्तुन उपपद्यते, अनेक स्वभावेन सर्वेभ्यो व्यावृत्तिः, तेषां सर्वेषामपि व्यावृत्तिविषयाणामेकरूपताग्रसक्तेः। तथाहि- घटाव्यावर्तते पटो, घटव्यावृत्तिस्वभावतयैव व्यावर्त्तते, तर्हि बलात् स्तम्भस्य घटरूपतानुषक्तिः, अन्यथा ततस्तत्स्वभावतया व्यावृत्त्यायोगात्, तस्मादवश्य परमाणूनां द्वे रूपे प्रतिपत्तव्ये-तुल्यमतुल्यं च / तत्र तुल्यरूपेण चाक्षुषे विज्ञाने समुदिताः परमाणवः प्रतिभासन्त इति भूतानां प्रत्यक्षविषयता यदपि / समूह-पक्षेऽभिहितम्-परमाणूना संयोगो देशतो वा स्यात्, सर्वात्मनावा इत्यादि। तत्र पक्षद्वयेऽप्यदोषः। परमाणूनां विचित्रपरिणमनशक्तिसमन्विततया कदाचिद्देशतः, कदाचित्सर्वात्मना सम्बन्धभावात्। न च वाच्यम्- देशाभ्युपगमे परमाणोरपरमाणुप्रसङ्गः / परमाणुर्हि स उच्यते, यतो नान्यदल्पतरं, परमोऽणुः परमाणुरिति व्युत्पत्तेः / न च विवक्षितात् परमाणोरन्य-दल्पतरमस्ति, नापरमाणुत्वाव्याघातः। तथा च सति देशकालाऽऽदिसामग्रीविशेषसंपादितपरिणामविशेषपरिकल्पितानां परमाणूनां परस्परं यत् प्रत्यासन्नत्वमेव परमाणुसमूह एषएव च देशतः परमाणूना सम्बन्धः। तथा चोक्तम्जं चेव खलु अणूण, पच्चासन्नत्तणं मिहो एत्थ। तं चेव उ संबंधो, विसिट्टपरिणामभावेण / / देसेण तु संबंधो, इह देसे सति कहमणुतं पि। Page #1607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्य 1566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भूयग्गाम अप्पतरभावातो. न अप्पतरायं ततो अस्थि॥" सूत्र० / स्था०। ज्ञा०। उपमार्थे , आतु०। रा०ा ज्ञा०। स्थाo। तादयें, अथ दिग्भेदतो यो भेदः, स एवान्यदल्पतरमस्तीति कथं न परमाणु-- प्रकृत्यर्थे, स्था० 5 ठा०१ उ०। "उम्मत्तगभूए।" उन्मत्तक इवोन्मत्तत्वव्याधातः / तदप्ययुक्तम् / सम्यक्तत्त्वापरिज्ञानात् / परमोऽणुर्हि स कभूतो, भूतशब्दस्योपमानार्थत्वात् / उन्मत्तक एव वा उन्मत्तकभूतः उच्यते, यो द्रव्यतोऽशक्यभेदः / न च विवक्षितस्य परमाणोद्रव्येण भूतशब्दस्य प्रकृत्यर्थत्वात्। स्था० 5 ठा०५ उ०।"ओवम्मे तादत्थेव शस्वाऽऽदिना भेद आपादयितुं शक्यते। तथा चोक्तम्- "सत्थेण सुति- होज एसित्थ भूयसद्दो त्ति।" (124) श्राo"ओवम्मे देसो खलु, एसो क्खेण वि, छेत्तुं भेत्तुं वजं किर न सका।तंपररमाणु सिद्ध, वयंति आइ- सुरलोयभूय मो एत्थ" (125) औपम्ये, उपमानार्थभूतशब्दप्रयोगो प्पमाणाणं॥ ततोऽन्यस्य पृथगद्रव्यरूपस्याल्पतरस्याभावाद् व्याहृतं यथा- देशः खल्वेष लाटदेशाऽऽदिकृष्णाऽऽदिगुणोपेतत्वात्सुरलोकोषदिग्भेदेऽपि परमाणुत्वम्। उक्तं च- "दिसि भेदातो च्चिय, सव्व पमः। श्रा०। 'तादत्थे पुण एसो, सीयीभूयमुदगंति निविट्टो।" (127) भेदतो कह न अप्पतरग ति / दव्वेण सव्वभेयं, विवक्खियं ता कुतो तादयें पुनस्तदर्थभावे पुनरेष भूतशब्दप्रयोगः,शीतीभूतमुदकमुष्णं तमिह ? ||1||" योऽपि सर्वात्मपक्षे दोष उक्तो यथा परमाणुत्वमात्र सत्पर्यायान्तरमापन्नमिति निर्दिष्टः / श्रा०। सूत्रकान्याय्ये, उचिते. वृत्ते, प्रसङ्ग इति। सोऽप्ययुक्तः। यतो न परमाणोः परमाणुर्विनाशकः, सतः सत्ये, यथार्थे, वास्तविके च / त्रि०।"भूतमप्यनुपन्यस्त, हीयतेव्यवहासर्वथा विनाशायोगात्, ततो द्वावपि परमाणू तथाविधपरिणामविशेषतः रतः।'' इति स्मृतिः। वाचला आव० 4 अ०। सूत्रा स्था०ा सर्वाऽऽत्मना सम्बन्धमापद्यमानौ सत्तोपचयविशेषात् स्थूलद्वयणुकरूप भूयक्कार पुं०(भूयस्कार) प्रकृतीनां बन्धभेदे, तत्रैकविधाऽऽद्यल्पततामेव प्राप्नुतो, न परमाणुमात्रमित्यदोषः / उक्तं च- 'न य अणुभेत्तं रबन्धको भूत्वा यत्र पुनरपि षड्विधाऽऽदिबहुबन्धको भवति स प्रथमसमये जतं, सत्तातो सव्वहा वि संभागे। वायरनुत्तत्ताणा, सभावतो उववयवि भूयस्कारबन्धः / कर्म०५ कर्म०।' 'एगादहिगे भूओ।" एकाऽऽदिभिरेसेसो // 1 // " अवयविपक्षोक्तदूषणमनवकाशपृथग्द्रव्यान्तररूपस्या कद्वित्र्यादिभिः प्रकृति भिरधिके बन्धे (भूय त्ति) भूयस्कारनामयन्धो वयविनोऽस्माभिरनभ्युपगमात्। य एव हि परमाणनां तथाविधदेशकाला भवति, यथैकां बध्वा षड् बध्नाति, षट् बध्वा सप्त बध्नाति, सप्त यध्वा ऽदियसामग्रीविशेषसापेक्षाणां विवक्षितजलधारणाऽऽदिक्रियासमर्थः अष्टौ बध्नातीति। कर्म०५ कर्म०। क०प्र०ा पं०सं०। समानः परिणामविशेषः सोऽवयवी, ततः कुतो देशकालवृत्तिविकल्प- | भूयगवई स्त्री०(भूजगवती) स्था० 4 ठा०१ उ०। (व्याख्या 'भुजगा' दोषावकाशः, शेषं तु समवायपक्षोक्तमनभ्युपरमान्न ततः क्षतिमावहति / शब्देऽन्तरं दृष्टव्या।) आ०म० अ० वनस्पती, उत्त० 1 अ० औ०। 'भूतास्तु तरवः भूयगा स्त्री०(भूजगा) अतिकायस्य महोरगेन्द्रस्यागमहिष्याम, स्था० 4 स्मृताः।" आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ०। ज्ञा० स्था०। जी०। प्राणिनि, ठा० १उ०। आचा०१ श्रु०२ अ०३उ० आव० प्रश्नका उत्त। सूत्र०ा जीवे, आतु०। भूयगुह न०(भूतगुह) अन्तरञ्जिकानगरीस्थे स्वनामख्याते व्यन्तरउत्ता आव० सूत्र०। जन्तुषु, सूत्र०२ श्रु०६ अगएकार्थिकानि चैतानि चैत्ये, “अंतरंजिया नयरी, तत्थ भूतगुहं नाम चेइयं / " उत्त० ३अ०। 'पाणाणं भूया णं जीवा णं सत्ता णं'एकार्थिकानि चैतानि। आचा०१ कल्प० / स्था०। आ०म० / आ०चू०। श्रु०६ अ०५ उ०। जो वो जन्तुरसुमान् प्राणी सत्त्वो भूत इति पर्यायाः। भूयगुहा स्त्री०(भूतगुहा) मथुरानगरीस्थे स्वनामख्याते व्यन्तरगृहे. विशे०। आवास०। सूत्रका स्था०। चतुर्दशभूतग्रामे, आचा०१ श्रु०३० विशे० / आ०म०। - २उ०। 'भूतानां जगई ठाणं / " भूतानां स्थावरजङ्गमानाम् / सूत्र० भूयगुहोजाण न०(भूतगुहोद्यान) अन्तरञ्जिकानगरीस्थे उद्याने, "तत्र 1 श्रु०११ अ०॥ तत्त्वानुसंधाने, 'छलं निरस्य भूतेन।" इति स्मृतिः। / __ भूतगुहोद्याने, तस्थुः श्रीगुप्तसूरयः।" आ० क० 10 // वाचा अवस्थायां च / 'जोणिन्भूए वीए।" योन्यवस्थे बीज इति। भूयग्गह पुं०(भूतग्रह) ग्रहभेदे, जी०३ प्रति० 4 अधिक। आचा० 1 श्रु०१ अ० 530 / व्यन्तरभेदे, औ०। जंग। स्था०। अनु०। भूयग्गाम पुं०(भूतग्राम) भूतानि जीवास्तेषां ग्रामः समूहो भूतग्रामः / ज्ञा०। प्रवला जी०। भूता नवविधाः / तद्यथा-सुरूपाः 1, प्रतिरूपाः 2, जीवसमूहे, स० अतिरूपाः 3, भूतोत्तमाः 4, स्कन्धाः 5, महास्कन्धाः 6, महावेगाः७. चउद्दस भूयग्गामा पण्णत्ता।तं जहा-सुहुमा अपज्जत्तया, सुहुमा प्रतिच्छन्नाः 8, आकाशगाः / प्रज्ञा०१ पद / प्रेते, प्रश्न०२ सम्य० पज्जत्तया, बादरा अपजत्तया, बादरापजत्तया, वेइंदिया अपञ्जत्तया, द्वार / पिशाचे, स्या०। (ते च 'पिसाअ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 636 पृष्ठे वेइंदिया पज्जत्तया, तेइंदिया अपज्जत्तया, तेइंदिया पज्जत्तया, दर्शिताः) कुमारे, योगीन्द्रे, कृष्णपक्षे, वाचा यक्षसमुद्रानन्तरभवे स्वना- चउरिदिया अपज्जत्तया, चउरिदिया पज्जत्तया, पंचिंदिआ असन्नि मख्याते द्वीपे, भूतदीपानन्तरभवे स्वनामख्याते समुद्रे च। पुं०। प्रज्ञा० अपजत्तया, पंचिंदिआ असन्नि पञ्जत्तया, पंचिंदिया सन्नि अप१५ पद / यत्र भूतवरमहाभूतवरौ देवी, सू०प्र० 16 पाहु०। अतीते, जत्तया, पंचिंदिया सन्निपज्जत्तया। पश्चात्कृते, विशे० / आ०म०। कल्प० / जाते, विपा० 1 श्रु०६ अ०। तत्र चतुर्दश भूतग्रामाः- भूतानि जीवाः, तेषां गामाः उत्पन्ने, आ०म०१ अ० विद्यमाने, विशे०। प्राप्ते, नि० 1 श्रु०३ वर्ग। [ समूहाः भूतग्रामाः, तत्र सूक्ष्माः सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तित्वात्, Page #1608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूयग्गाम 1600 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भूयहिय पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः। किं भूता? अपर्याप्तकाः तत्कर्मोदयादपरिपूर्ण- अ०। दर्श० / भूतानां सत्त्वानां भावना वासना भूतभावना / सत्त्वानां स्वकीयपर्याप्तय इत्येको ग्रामः / एवमेते एव पर्याप्तकास्तथैव परिपूर्ण- वासनायाम्. दर्श० 4 तत्व। आवा स्वकीयपर्याप्तय इति द्वितीयः / एवं बादरावादरनामकर्मोदयात् पृथि- | भूयमंडलपविभत्ति न०(भूतमण्डलप्रविभक्ति) नाट्यविधिभेदे, रा० व्यादय एव, तेऽपि पर्याप्ततरभेदाद् द्विधा, एवं द्वीन्द्रियाऽऽदयोऽपि, नवरं भूयरूव त्रि०(भूतरूप) कोमलरूपे, "भूयरूवि त्ति वा पुणो।" भूतानि पञ्चेन्द्रियाः संज्ञिनो मनः पर्याप्त्युपेता इतरे त्वसंज्ञिन इति। स०१४ रूपाण्यबद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा / दर्श० 4 तत्त्व। सम०। ध०। सूत्र० / अथवा चतुर्दशभूतग्रामाः चतुर्दश गुणस्थानकानि। ''भूतरूवाणि वा।'' आचा०२ श्रु०१चू० 4 अ० २उ०। आ०चू०४ अ०। भूयलया स्त्री०(भूतलता) लताभेदे, रा०। भूयणिण्हव पुं०(भूतनिहव) असत्यभेदे, भूतनिह्नवो यथानास्त्यात्मा, भूयवडिं सिया स्त्री०(भूतावतंसिका) रतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि नास्ति पुण्यं, नास्ति पापमित्यादि। ध०२ अधि०। स्थिताया शक्ररय देवेन्द्रस्याग्रमहिष्याम्, अप्सरसः स्वनामख्यातायां भूयदिण्ण पुं०(भूतदत्त) नागार्जुनमहर्षेः शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, राजधान्याम, जी०३ प्रति० 4 अधि०।"भूया भूयवडिंसा, एया, पुटवेण ना दक्खिणेण भवइ / " द्वी०। भूयहियप्पगब्भे, वंदेऽहं भूयदिन्नमायरिए। भूयवर पुं०(भूतवर) भूतोदसमुद्रस्थे देवे, चं०प्र०२०पाहु०। सूत्र। भवभयवुच्छेयकरे , सीसे नागज्जुणरिसीणं // 36 / / भूयवाइय पुं०(भूतवादिक) व्यन्तरनिकायभेदे, तन्निवासिनि व्यन्तरभूतहितप्रगल्भान् अनेकधा सकलसत्त्वहितोपदेशदानसमर्थान जातिभेदे च / प्रव० 164 द्वार / गन्धर्वभदे, प्रज्ञा०१ पद / प्रश्न० / भवभयव्यवच्छेदकरान् सदुपदेशाऽऽदिना संसारभयव्यवच्छेदकरण - औ०। बार्हस्पत्यमतानुसारिणि चार्वाक, तैर्हि भूतव्यतिरिक्त नाऽऽत्माशीलान् नागार्जुनऋषीणां नागार्जुनमहर्षिसूरीणां शिष्यान भूतदिन्ननाम- ऽऽदि किश्चिन्मन्यत इति। सूत्र०१ श्रु०१अ०१उ०। कानाचार्यान् अहं वन्दे / सूत्रे च भूतदिन्नशब्दान्मकारोऽलाक्षणिकः भूयवाय पुं०(भूतवाद) भूताः सद्भूताः पदार्थास्तेषां वादो भूतवादः। स्था० // 36 // नं० 10 ठा०। अशेषविशेषान्वितस्य समग्रवस्तुस्तोमस्य भूतस्य सद्भूतस्य भूयदिण्णा स्त्री०(भूतदत्ता) आचार्यसंभूतविजयस्य शिष्यायां नवमनन्द- वादो भणन यत्राऽसौ भूतवादः। अथवा-अनुगतव्यावत्ताऽपरिशेषधर्म स्य महापद्मपतेरमात्यस्य शकटालस्य दुहितरि स्थूलभद्रस्य भगिन्या कलापान्विताना सभेदप्रभेदानां भूतानां प्राणिनां वादो यत्राऽसौ रस्वनामख्यातायां श्राविकायाम, आ०चू० 4 अ०) आव०। कल्प। भूतवादः / विशे० / दृष्टिवादे, कर्म०६ कर्म०। ('थूलभद्द' शब्दे चतुर्थभागे 2415 पृष्ठे कथोक्ता) राजगृहनगरस्थस्य भूयविगम पुं०(भूतविगम) भूतानां पृथिव्यादीनां विगम आत्यन्तिको श्रेणिकस्य राज्ञः स्वनामख्यातायां भार्यायाम, तद्वक्तव्यता नन्दावत्। वियोगो भूतविगमः। पृथिव्यादीनामात्यन्तिके वियोगे, षो०१६ विव०॥ अन्तम भूयविज्जा स्त्री०(भूतविद्या) भूताऽदीनां निग्रहार्थं विद्या तन्त्रं भूतविद्या। भूयपडिमा स्त्री०(भूतप्रतिमा)भूतप्रतिकृती, जी०३ प्रति० ४अधि०। आयुर्वेदभेदे, सा हि देवासुरगन्धर्वयक्षराक्षसपितृपिशाचनागग्रहाऽऽभूयपुव्व त्रि०(भूतपूर्व) वृत्तपूर्वे , आ०म० अ०। द्युपसृष्टचेतसां शान्तिकर्मवलिकरणाऽऽदिग्रहोपसमनार्थमिति। स्था० भूयवलि पुं०(भूतबलि) पत्रपुष्पफलाक्षताऽढयेसुरभिगन्धोदकोन्मिश्रे 8 ठा० / विपा। सिद्धान्नप्रक्षेपरूपे प्रेतोपहारे, ध०२ अधिवा पञ्चा०। भूयसग्ग पुं०(भूतसर्ग) भूताना सृष्टौ, स्या० / ब्राह्यप्राजापत्यसौम्येभूयभद्द पुं०(भूतभद्र) भूतद्वीपस्थे देवे, चं०प्र०२०पाहु०। न्द्रगान्धर्वयक्षराक्षसपिशाचभेदादष्टविधो दैवः सर्गः / पशुमृगपक्षिभूयभाव त्रि०(भूतभाव) पश्चात्कृतो भावः पायो यस्य। 'अनुभूतपर्याये सरीसृपस्थावरभेदात्पञ्चविधस्तैर्यम्योनः। ब्राह्मणत्वाऽद्यवान्तरभेदाविद्रव्ये, भूतभावं द्रव्यम्। अनुभूतघृताऽधारत्वपर्यायातिरिक्तघृतघटवत्। वक्षया चैकविधो मानुषः / इति चतुर्दशधा भूतसर्गः / स्या०। विशे भूयसिरी स्त्री०(भूतश्री) चम्पानगरीस्थस्य सौमदत्तेना॑ह्मणस्य भार्यायाम्, भूयभावण त्रि०(भूतभावण) भूतं सत्यं भाव्यतेऽनेनेति / सत्यसाधने, ज्ञा० 1 श्रु० 15 अ०। (तद्वक्तव्यता 'दुवई' शब्दे चतुर्थभागे 2577 पृष्ठे आव०४ अ० दर्श०। भूतानि पृथिव्यादीनि भावयति जनयति, भूणिच् / ल्युट्। भूता सत्या यथार्था भावना यस्य वा। विष्णौ, बटुकभैरवे च। पुं०। | भूयसिहा स्त्री०(भूतशिखा) विराटविषयस्थसिंहपुरनगरस्थस्य धर्मनामवाचा कग्रामेयकस्य भार्यायाम,दर्श०२ तत्त्व। भूयभावणा स्त्री०(भूतभावना) भूतस्य यथावस्थितवस्तुनो भावनाऽ- / भूयहिय त्रि०(भूतहित) भूताः प्राणिनस्तेषां हितः पथ्यो भूतहितः / नेकान्तपरिच्छेदः / यथाऽवस्थितवस्तुनोऽनेकान्तपरिच्छेदे, आव०४ / प्राणिनां पथ्ये, दर्श० 4 तत्त्व। Page #1609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूया १६०१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भेय भूया सजी०(भूता) आर्यसंभूतविजयस्य शिष्यायां महापद्मपतेर्नवमन- | भूसण न०(भूषण) भूष्यतेऽनेन भूषः / करणे, ल्युट् / आभरणे, आं०। न्दस्य मन्त्रिणः शकटालस्य दुहितरि स्थूलभद्रस्य भगिन्याम्, आ००४ जीका "आहरणं भूसणं अलंकारो।" पाइ० ना० 116 गाथा / प्रज्ञा०। अ०। आ०क० / ति०। आव०। कल्प०। रतिकरपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि नू पुराऽऽदिके, स्था०२ ठा०३उ०ा आभरणान्यङ्गपरिधेयानि भूषणान्युस्थिताया शक्रस्य देवेन्द्रस्थामलाया अग्रमहिष्याः स्वनामख्याताया पाङ्गपरिधेयानीति। कल्प०१ अधि०२क्षण / भावे ल्यट् / शोभाकरणे, राजधान्याम, जी०३ प्रति०४ अधिo द्वी०। राजगृहनगरस्थस्य उत्त०१६ अ०। मण्डनाऽऽदिना विभूषाकरणे, प्रश्न ४सम्ब० द्वार। सुदर्शनस्य गृहपतेः प्रियायां भाव्यामुत्पन्नायां स्वनामख्यातायां भूसिय त्रि०(भूषित) भूषक्तः। अलड्कृते, वाच०। अन्त 1703 वर्ग दारिकायाम, नि० / (तद्वक्तव्यता 'सिरिदेवी' शब्देऽन्तिमभागे 8 अ०॥ भविष्यति) मे त्रि०(युष्मत) भवति, "भे तुब्भे।'' पाइ० ना०२३१ गाथा।"भे तुब्भे भूयाणंद पुं०(भूतानन्द) स्वनामख्याते नागकुमारेन्द्र, स्था० 6 ठा०। तुज्झ तुम्ह तुरहे उरहे जसा''।८३१६१। प्रा० 3 पाद। स० आCचून जीवा०। प्रज्ञा० भ०। राजगृहनगरस्थस्य कू णिक भेइल्ल त्रि०(भेदवत्) मत्त्वर्थे इल्लप्रत्ययः प्राकृतलक्षणवशात् / भिन्न, राजस्य स्वनामख्याते हस्तिनि, भ०१७ श०१। पं०सं०४ द्वार। भूयाणंदे णं भंते ! हत्थिराया कओहिंतो अणंतरं उव्वद्वित्ता? | भेग पं०(भेक) भी कन, कस्य नेत्यम्। जन्तुभेदे, मेघे / स्त्रियां ङीप् / भूयाणंदे एव जहेव उदायी०जाव अंतं काहिति / भ० 17 श० "भेकी पादेन घातिता।" आ०क०१ अ० मण्डकपया च / वाचका 1 उ०) भेज (देशी) भीरी, देवना० 6 वर्ग 107 गाथा / भूयाणंदप्पह पुं०(भूतानन्दप्रभ) अरुणोदसमुद्रस्थे स्वनामख्याते भेजलअ (देशी) भीरौ, दे०ना०६ वर्ग 107 गाथा। भूतानन्दस्योत्पातपर्वते, स्था० 10 ठा०। भेंडी स्वी०(भिण्डी) गुच्छभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। भूयाभिसंक त्रि०(भूताभिशङ्क) भूतान्यभिशङ्कन्ते बिभ्यति यस्मात्स | डियालिंग न०(भिण्डिकालिङ्ग) अग्नेराश्रयविशेषे, जी०३ प्रतिक तथा / भूतानां भयङ्करे, स्था०७ ठा०॥ १अधि०२ उ० भूयाभिसंका स्त्री०(भूताभिशङ्का) भूतेषु जन्तुषूपमईशङ्काभूताभिशङ्का। / भेड पुं०(भेर) "किरिभरे रो डः" 1811251 / इति प्राकृतसूत्रेणास्य सूत्र० 1 श्रु० 14 अ० जीवोपमोऽत्र भविष्यतीत्येवं बुद्धौ, सूत्र०२ डः / प्रा०१ पाद / मिश्रीकरणे, स्था०६ ठा० भीरौ, देवना०६ वर्ग श्रु०६ अ० 107 गाथा। भूयावाय पुं०(भूतावाद) भूयवाय' शब्दार्थे, विशे०। भेत्तव्व त्रि०(भेत्तव्य) भेदनीये, नि०चू०२० अ०॥ भूयोवघाय त्रि०(भूतोपघात) भूतानां सत्त्वानामुपधातो यस्मिन् सः। / रोना भेत्ता त्रि०(भेत्तृ) शूलाऽऽदिना भेदनकर्तरि, सूत्र०१ श्रु०६ अ आचा०) सत्त्वोपघातके, 'भूयोवघायाइवयणपणिहाण / ' भूतोपघातंछिन्धि, भेत्तुं अव्य०(भित्त्वा) भेदनं कृत्वेत्यर्थे , व्य० / प्रा०२ पाद। भिन्धि, व्यापादयेत्यादि / आव० 4 अ०। भेत्तुआण अव्य०(भित्त्वा) 'भेत्तुं' शब्दार्थे, व्य०। प्रा०२ पाद / भूयोवघाइय त्रि०(भूतोपघातिक) भूतान्येकेन्द्रियाः, ताननर्थत उपह भेय पुं०(भेद) भिद्-घञ्। पृथक्करणे,"भेदो वियोजनमिति।" प्रश्न०३ न्तीति भूतोपघातिकः / स०२० सम०। भूतानामुपहन्तरि, आ०चू०४ आश्र० द्वार / नि०चू०। भेदो विघटनमिति / आ०म०१ अ०। विशे०| अ० आचा०। भूतोपघातिकाः प्रयोजनमन्तरेण ऋद्धिरससातागौरवैर्वा सम्म०। छे दे, रा०। ज्ञा०। विदारणे, आव० 4 अ०। अनु० / भूषा निमित्तं वा आधाकर्माऽऽदिकं वा पुष्टाऽऽलम्बनेऽपि समाददानः द्वैधीभावोत्पादने, दर्श०४तत्त्व। स्फोटने, स्था०५ ठा०१ उठा चूर्णने, अन्यद्वा तादृशं किञ्चित् भाषते वा करोति येन भूतोपघातो भवति। दशा० सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ० नाशे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। स० / भिद्यते 1 अ॥ परस्परमिति भेदः / विशे०। श्रा० / विशेषो भेदो व्यक्तिरित्यनर्थान्तरम्। भूयोवरोह पुं०(भूतोपरोध) भूतानि पृथिव्यादीनि तेषामुपरोधस्तत्सङ्घट्ट स्था०२ ठा० १उ०। विशेला आ०म०। विशेषाः भेदाः पर्यायाः। विशे०| नाऽऽदिलक्षणो भूतोपरोधः 1 पृथिव्यादीनां सङ्घट्टनाऽऽदिके, "भूयोव भड़े, भ०२ श० उ० / भङ्गः प्रकारो भेद इति / अनु० / "भेदो त्ति रोहरहिओ, सो देसो झायमाणस्स।" आव०४ अ०। वा, विकप्पो ति वा, पगारो त्ति वा एगट्ठा।" आ०चू० १अ०। भेदा भूर अव्य०(भूर) भूलोके, गा० विकल्पा अंशा इति। नं०। प्रकृतिरंशो भेद इति पर्यायाः। आव०४ भूरि पुं०(भूरि) भू-क्तिन्। विष्णौ, शिवे, इन्द्रे च / स्वर्णे , न०। प्रचुरे, अ०। 'पयडीओ त्ति वा, पज्जाओ त्ति वा, भेद त्ति वा एगट्ठा।" आ०चू० त्रि०ावाचा अष्ट०१७ अष्टाधा सूत्रा 10 / दर्श० आव०। सूत्र० / स्था०। उत्त०। प्रव०। विजिगीषितभूरुडिया (देशी) शृगाल्याम्, देवना०६ वर्ग० 101 गाथा। शत्रुपरिवारस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनाऽऽदिके नीतिभेदे, ज्ञा०१ श्रु० भूरिवण्ण त्रि०(भूरिवर्ण) अनेकवर्णे, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। १अ आ०म०ानायकसेवकयोश्चित्तभेदकरणं भेद इति। विपा०१ श्रु०४ Page #1610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेये 1602- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भेसय अ०। स्वामिनः पदातिषु, पदातीनां च स्वामिन्यविश्वासोत्पादनं भेद कल्पका भयानके, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ01 आ० म०। सूत्र० 101 इति / विपा० 1 श्रु० 3 अ०॥ तदूपे अर्थयोनिभेदे च / स्था० भैरवा अत्यन्तसाध्वसोत्पादकाः / उत्त०१५अ० "भैरवं भयानक, तं 3 ठा०३ उ०। उक्तं च- "स्नेहरागापनयनं, संघर्षोत्पादन तथा। दुविधं-जीविआओ, चारित्ताओ वा ववरोवेइ / " नि० चू० १६उ०। संतर्जनश्च भैदर्भेदस्तु त्रिविधः स्मृतः // 4 // " संघर्षः स्पर्द्धा, संतर्जन भयसाधने च। त्रि० / नाट्याऽऽदिप्रसिद्धे भयानके रसे, शङ्करे, तदवचास्यास्मन्मित्रविग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यतीत्यादिरूपमिति / तारभेदे, रागभेदे च / वाचा स्था०३ ठा०३ उ०ान्यायमतोक्ते अन्योन्याभावे च / यथा घटात् पटस्य भेरि स्त्री०(भेरि) ढक्कायाम्, जं०३ वक्ष रा०जी० आ०म०। कल्प० भेदः तादात्म्येनाभावः / वाचा भेदा नाम गृहीतचापाऽऽदिका रात्री च आचा०। आ० चू० / महाढक्कायाम्, भ०५ श० 4 उ०। ढकाऽऽकृतिके जीवहिंसाऽऽदिपरा म्लेच्छविशेषाः। विशे०। वाद्यविशेष, रा०। महाकाहलायाम्, औ०। दुन्दुभ्याम्, दर्श० 1 तत्त्व / भेयइत्ता अव्य०(भेदयित्वा) भेदं कारयित्वेत्यर्थः / स्था०। 6 ठा०1 प्रश्न० / पटहे, "रवः प्रगल्भाऽऽहतभेरिसम्भवः।" "ततः शङ्खाश्च भेयकर त्रि०(भेदकर) भेदनकारिणि, औ०। आचा०।येन कृतेन गच्छस्य भेर्यश्च" / वाचा भेदो भवति तत्तदातिष्ठत इति। दशा०१ अ०॥ मेरी रत्री०(भेरी) भेरि' शब्दार्थे , जं०३ वक्षः। भेयग त्रि०(भेदक) भिद्- ण्वुल् / रेचके, विदारके, भेदकारके, विशेषणे भेरुंड पुं०(भेरुण्ड) निर्विष सर्पभेदे, उत्त० "भद्दए नेव होयव्यं, पावइ च।वाच०। व्य०१उ०ा नि०चू०। ('भिक्खु' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1564 भद्दाणि भद्दओ। सविसो हम्मई सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुचई।।१।" उत्त० पृष्ठे व्याख्या गता) 12 अ०। चित्रके,देवना० 6 वर्ग 108 गाथा भारुण्डपक्षिणि, देवना०६ भेयण त्रि०(भेदन) भेदयति / भिद्-णिच्– ल्युः / विरेचने, विशेषणे | वर्ग 106 गाथा। च। हिडौ, अम्लवेतसेच। पुंगनाभिभावे-ल्युट्। विदारणे, वाचा / मेरुताल पुं०(भेरुताल) वृक्षविशेषे, "तत्थ तत्थ बहवे भेरुतालव्य० १उ०। द्वैधीभावोत्पादने, दश० 8 अ०। नि०चू० / प्रश्न०। वणाई।" जं०२ वक्षा अनु०। 'एगे भेयणे / " भेदनं कुन्ताऽऽदिना, अथवा-भेदनं रसघात | भेलइत्ता अव्य०(भेलित्वा) स्वपातिभिर्मिश्रान् कारणिकान् कृत्वेत्यर्थे , इत्येकता च विशेषाऽविवक्षणादिति / स्था०१ ठा० / ज्ञा० / स्फोटने, स्था०६ ठा० स्था० 5 ठा० 1 उ०। 'कुवणयमादी भेदो।' 'कुवणओ।' लगुडस्तेन, *भेली (देशी) आज्ञाबेडाचेटीषु, देना०६ वर्ग 110 गाथा। आदिशब्दादुपलभेदकाऽदिभिर्वा घटाऽऽदिभेदो भेदनम्। बृ० ४उ०। चूर्णने भेसज्ज न०(भैषज्य) भेषजमेव, भिषजः कर्म वा, ष्यञ् / औषधे, ग०२ चान०। सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०] अधि० / व्या पथ्ये, आहारविशेष, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० रा०। उपा०। भेयपरिणाम पुं०(भेदपरिणाम) परिणामभेदे, सूत्र०। भेदपरिणामः खण्ड "ओसहभेसञ्जभत्तपाणएण पडियारं करेमाणो विहरइ।" ज्ञा०१ श्रु० प्रतरचूर्णकाऽनुतटिकोत्करिकाभेदेन पञ्चचैव / सूत्र० 1 श्रु०१ अ०१ 13 अ०। औषधमेकद्रव्यरूपं, भेषजं द्रव्यसंयोगरूपम् / अथवाउ०ा स्था०। (खण्डाऽऽदिस्वरूपप्रतिपादकं गाथाद्वयम् 'पोग्गलपरिणाम' औषधमेकानेकद्रव्यरूपं, भेषजं तु पथ्यम् / ज्ञा० 1 श्रु० 13 अ०॥ शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1108 पृष्ठे गतम्) आ०म० / औषधमेकद्रव्याऽऽयं, भैषज्य तुद्रव्यसमुदायरूपम्।अथवाभेयविमुत्तिकारग पुं०(भेदविमूर्तिकारक) भेदश्चारित्रभेदो, विमूर्तिश्च औषधं तृफलाऽऽदि, भैषज्यं पथ्यम् / औला दशा०। विपा०ा औषधानि विकृतनयनवदनाऽऽदित्वेन विकृतशरीराऽऽकृतिः, तयोः कारकः केवलद्रव्यरूपाणि बहिरुपयोगीनि वा, भैषज्यानि सांयोगिकानि चारित्रभेदः / विकृतशरीराऽऽकृत्योः कर्तरि, प्रश्न० २सम्ब० द्वार।। अन्त ग्यानि वा / ग०१ अधि०। ज्ञा०। *भेदविमुक्तिकारक त्रि० विमुक्तेर्मोक्षमार्गस्य भेदकारकः / विमु- मेसज्जगण पुं०(भैषज्यगण) औषधसमूहे "किं पुण भेसज्जगणो, घेत्तव्यो क्तिभेदकारक इति वाच्ये राजदन्ताऽऽदिषु दर्शनाद् भेदविमुक्ति- | गिलाणरक्खट्ठा।" व्य०५ उ०। कारकः / मोक्षमार्गस्य भेदकारके, प्रश्न० 2 सम्ब० द्वार। मेसजदाण न०(भैषज्यदान) पथ्यविश्राणने, औषधदाने च / पञ्चा०४ मेयसमावण्ण त्रि०(भेदसमापन) मतेद्वैधीभावं प्राप्ते, ज्ञा० १श्रु० 10 // विव स्था०। उपा०। भेसण न०(भीषण) वित्रासने, बृ०३ उ०) "तुरियं से भेसणवाए।" भेरंड पुं०(भेरण्ड) देशभेदे,जी०३प्रति०४ अधिक भीषणार्थम् / आ०म०१० भेरंडिक्खु पुं०(भेरण्डेक्षु) भेरण्डदेशोद्भवे इक्षुभेदे, जी०३ प्रति० | मेसणग त्रि०(भीषणक) भयजनके, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। ४अधि) भेसय न० (भेषज) भेष-घञ् / भेष रोगभयं जनयति / औषधे, वाचा मेरव न०(भैरव) भीरोरिदम् अण्। सिंहाऽऽदिसमुत्थे भवे, जं०२वक्ष०। | नि०चू० 1 उ०। विशे०। Page #1611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेसिय 1603 - अभिधान राजेन्द्रः - भाग 5 भोग भेसिय त्रि०(भेषित) भयं प्रापिते, आव०६ अ०। भो अव्य०(भोस्) सम्बोधने, वाचला 'इति भो इति भो त्ति ते : एण-- मण्णरस किचाई करणिजाई पच्चणुभवमाणा विहरइ / '' इत्येतत्कार्यमस्ति / भोशब्दश्चाऽऽमन्त्रणे इति / भो इति भो त्ति ति परस्पराऽऽलापानुकरणम् / भ०३ श०१ उ०। आचा०। आ०चू० / व्य०। सूत्रका ल० दश०। रा०) ध०। उत्त०। ज्ञा०। भोरित्यामन्त्रण इति / आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०प्रश्ने, विषादे च / वाच०। भोअ पुं०(भोग) सर्पफणायाम्, "भोओ फणा फणत्थे।' पाई० ना० 151 गाथा। भाटौ, दे०ना०६ वर्ग 106 गाथा। भोइअ पुं०(भोगिक) ग्रामप्रधाने, "गामणी भोइओ य गामवई।" पाइ० ना० 104 गाथा। देना। भोइ(ण) पुं०(भोगिन्) भोग अस्त्यर्थे इनिः। सर्प, नृपे, ग्रामाध्यक्षे, नापिते च / भोगयुक्ते, त्रि० / भोगवदहयः / सर्प, भोगयुक्ते,त्रि० / वाचा कामिनि, द्वा० 15 द्वा०। यो०वि० *भोजिन् पुं० / भुक्ते, इत्येवंशीलो भोजी / भ०२ श० 1 उ०। भोक्तरि, आव०४ अ०। राजनि, व्य०५ उ०ा ग्रामस्वामिनि, व्य०७ उ०। भोइकुल न०(भोजिकुल) राजकुले, व्य०५ उ०। भोइंग पुं०(भोगिक) भोगेन विशिष्टनेपथ्याऽऽदिना चरति भोगिकः / नृपतिमान्ये प्रधानपुरुषे, उत्त०१५ अ० ग्रामस्वामिनि, बृ०१ उ०२ प्रक०ा नि००। भोग इन् कः / भोगवंशोद्भवे च। विषयभोक्तरि, त्रिक उत्त०१५ अ०। बृ०॥ भोइणी स्त्री०(भोगिनी) स्वामिन्याम, नि०चू० 10 उ०) भोइत्ता अव्य०(भोजयित्वा) भोजन कारयित्वेत्यर्थे , उत्त० 6 अ० | स्थाग भोइया स्त्री०(भोजिका) भोजयति भरिमिति भोजिका / बृ० 1 उ०२ प्रकला भाव्याम्, ग०२ अधि० व्यावृला महिलायां च / बृ० 1 उ०३ प्रक०। *भोज्या स्त्री० वेश्यायाम, व्य० 7 उ०। भोई स्त्री०(भवती) भा-डवतुः / डीप। युष्मदर्थे, "जहा य भोई तणुय भुयंगो।" उत्त०१४ अ०। भोऊण अव्य०(भुक्त्वा) भोजन कृत्वेत्यर्थे ,"त्व-थ्व-द्वध्वां चछजझाः क्वचित्" 215 // इति प्राकृतसूत्रेण तस्य वाचः। प्रा० २पाद। "रुदभुजमुचां तोऽन्त्यस्य' |8/4 / 212 / इति प्राकृतसूत्रेणैषामन्त्यस्य तः त्क्वातुम्तव्येषु / प्रा० 4 पाद / उत्त० / सूत्र०। पञ्चा भोग पुं०(भोग) भावे-घञ्। भोजने, स्था०३ ठा०३ उ०। विपाके, पश्चाता | विषयेषु भोगक्रियायाम, स्था० 10 ठा०। भोगस्तदुपयोगेन सफलीकरणमिति / सूत्र०१ श्रु० 3 अ०२ उ०। भोग इन्द्रियार्थसन्बन्ध इति। द्वा० 24 द्वा०ा मदनकामे, कामा इच्छारूपा मदनकामास्तु भोगा / सूत्र०२ श्रु०१ अ० शब्दाऽऽदिविषयाभिलाषे, आचा०१श्रु०२ अ०४ उ सुखे, सुखदुःखाऽऽद्यनुभवे, पण्यस्त्रीणां भाटकाऽऽदिरूपे वेतने, पाने, ज्योतिषोत्ते ग्रहाणां तत्तद्राशिस्थितौ भूम्यादिषूत्पन्नद्रव्यविनियोगे. यथेष्टविनियोगे च / 'बन्धूनामविगक्तानां, भोग नैव प्रदापयेत्।इति स्मृतिः।वाचा योगशास्त्रोक्ते सत्त्वपुरुषयोरभेदाध्यवसाये च। तदुक्तम्- ''सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तासङ्कीर्णयोः प्रत्ययाविशेषो भोगः परार्थः स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानमिति।" द्वा०२६ द्वा०। भुज्यते इति भोगः / इन्द्रियमनोऽनुकूले शब्दाऽऽदिके विषये, यो०वि० / सूत्र० / उत्त०। पञ्चा० / चं०प्र० / स्था०। धo जंग विपा० दशला प्रज्ञा कल्प० भ० आ०म०। स० / स्पर्शाऽऽदिके विषये, उत्त०५ अ०) आव० जी० / कामौ शब्दरूपे, भोगा गन्धरसस्पर्शाः / स्था०४ ठा० १उ०। अव०। औसा तं०ा "भोगेहिं संवुडे।" भोगा गन्धरसस्पर्शाः, तेषु मध्ये संवृद्धो वृद्धिमुपगतः / भ०६ श०३३ उ०। आतु०। आऽ चू०। क इविहा णं भंते ! भोगा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा भोगा पण्णत्ता। तं जहा-गंधा, रसा, फासा। भुज्यते सकृदुपयुज्यत इति भोगः। सकृदुपभोग्ये पुष्पाऽऽहाराऽऽदिके विषये, भ०७ श०७ उ० रूवी भंते ! भोगा अरूवी भोगा? गोयमा ! रूवी भोगा नो अरूवी भोगा / सचित्ता भंते ! भोगा, अचित्ता भोगा? गोयमा! सचित्ता वि भोगा, अचित्ता वि भोगा / जीवा णं भंते ! भोगा पुच्छा? गोयमा ! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा। जीवाणं भंते ! भोगा, अजीवाणं भोगा? गोयमा ! जीवाणं भोगा, नो अजीवाणं भोगा। (रूविमित्यादि) भुज्यते शरीरेण उपभुज्यन्ते इति भोगाः विशिष्टगन्धरसस्पर्शद्रव्याणि, (रूविं भोग ति) रूणिणो भोगा नो अरूपिणः, पुद्गलधर्मत्वेन तेषां मूर्तत्वादिति / (सचित्तेत्यादि) सचित्ता अपि भोगा भवन्ति गन्धाऽऽदिप्रधानजीवशरीराणां केषाञ्चित्समनस्कत्वात् / तथा अचित्ता अपि भोगा भवन्ति, केषाञ्चिद्गन्धाऽऽदिविशिष्टजीवशरीराणाममनस्कत्वात्, (जीवा वि भोग त्ति) जीवशरीराणां विशिष्टगन्धाऽऽदिगुणयुक्तत्वात्,(अजीवा वि भोग त्ति) अजीवद्रव्याणां विशिष्टगन्धाऽऽदिगुणोपेतत्वादिति। भ०७ श०७ उ०। उक्तं हि-"सति भुजति त्ति भोगो, सो पुण आहारपुप्फमाईओ।" उत्त०३३ अाकर्म०। पं०सं०। श्रा० / प्रज्ञा०। भोगाः स्रक्चन्दनवादित्राऽऽदयः। सूत्र०२ श्रु० १अ०। भोगोऽत्रमाल्यताम्बूलविलेपनोद्वर्तनस्नानपानाऽऽदिः। ध०२ अधि०ा भुज्यन्ते शरीरेणोपभुज्यन्ते इति भोगाः। विशिष्टान्धरसस्पर्शद्रव्येषु, भ०७ श०७ उ०ा आधारे घञ्। भोगाऽऽधारभूते वस्तुनि, स्त्रीला शरीराऽऽदौ, ज्ञा० १श्रु०१अाजका छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से जे भविए अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, से णूणं भंते! से खीणभोगीणोपभूउट्ठाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरित्तए। से पूर्ण भंते ! एयम8 एवं वयह? गोयमा ! नो इणटेसमटे, पभू णं उट्ठाणेण वि कम्मेण वि बलेण वि वीरिएण Page #1612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग 1604 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोगपुर वि पुरिसक्कारपरक्कमेण वि अण्णयराइं विउलाई भोगभोगाई सिद्धिमार्ग सम्यग दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं विज्ञाय विनिवर्तेत भोगेभ्यो भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी भोगे परिचयमाणे महानिजरे बन्धैकहेतुभ्यः, तथा ध्रुवमप्यायुः परिमितं संवच्छरशताऽऽदिमानेन महापज्जवसाणे भवइ / आहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए / विज्ञायाऽऽत्मनो विनिवर्तेत भोगेभ्य इति सूत्रार्थः। दश०८ अ०२ उ०। अण्णयरेसु देवलोएसु एवं चेव जहा छउमत्थे० जाव महापज्ज- धने, देहे, वाच०। भोगः शरीरमिति। जं०२ वक्ष०। तं०1 औ०। ज्ञा०। वसाणे भवइ / परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए तेणेव सर्पफणे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० अर्श आद्यच्। सप्पे, वाचा भोगार्हत्वाद् भवग्गहणेणं सिज्झित्तए० जाव अंतं करित्तए? से णूणं भंते ! से भोगः / कल्प०१ अधि०७ क्षण / आदि-राजेन ऋषभदेवेन गुरुत्वेन खीणभोगी सेसं जहा छउमत्थस्स वि। केवली णं भंते ! मणुस्से व्यवस्थापिते कुलाऽऽर्यभदे, तद्वंशजे च। अनु०। स्था०। भोगा भगवतो जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं एवं जहा परमाहोहिएजाव नाभेयस्य राज्यकाले ये गुरव आसन् तद्वंशजा अपि तद्व्यपदेश्याः / महापज्जवसाणे भवइ / (सूत्र-२६१) स्था०३ टा०१ उ०। ''भोगकुलाणि वा।" भोगा राज्ञः पूज्यस्थानीया "छउमत्थेण" इत्यादि सूत्रचतुष्कं, तत्रच-(सेणूण भते! से णीणभोगि | इति। आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०२ उ०। ज्ञा०ा आ० म०। प्रश्न० भ० त्ति) (से ति) असौ मनुष्यो नूनं निश्चितं भदन्त ! (से त्ति) अयमर्थः, प्रज्ञा० / कल्प०। बृ०। औ०। उपयोगे, बृ० 1302 प्रक०। अथशब्दश्च परिप्रश्नार्थः / (खीणभोगि त्ति) भोगा जीवस्य यत्रास्ति भोगअइरियत्ता स्त्री०(भोगातिरिक्तता) भोगाऽऽधिक्ये, ध० २अधिका तद्भोगि शरीर तत्क्षीणं तपोरोगाऽऽदिभिः यस्य स क्षीणभोगी क्षीणतनु- भोगंकरा स्त्री०(भोगङ्करा) अधोलोकवास्तव्यायां स्वनामख्याताया र्दुर्बल इति यावत्। (णो पभु त्ति) न समर्थः (उहाणेणं ति) ऊभवनेन दिक्कुमार्याम्, आ०म० अ० / ति० / जंग। आ०क० / स्था० / (कम्मेणं ति) गमनाऽऽदिना (वलेणं ति) देहप्रमाणेन (वीरिएणं ति) आ०चूल। जीवबलेन पुरिसकारपरक्कमेणं ति) पुरुषाऽभिमानेन, तेनैव च साधित- भोगंग न०(भोगाङ्ग) रूपाऽऽदिके, "अङ्गाभावे यथा भोगोऽतात्विको स्वप्रयोजनेनेत्यर्थः। (भोगभोगाई ति) मनोज्ञशब्दाऽऽदीन (से णूणं भंते ! मानहानितः।" अङ्गानां भोगानां रूपवयोवित्ताऽऽढ्यत्वाऽऽदीनां एयमट्ट एवं वयह) अथ निश्चितं भदन्त एतमनन्तरोक्तमर्थम् एवममुनैव वात्स्यायनोक्तानामभावे सति यथो भोगोऽतात्त्विकोऽपारमार्थिकः। द्वा० प्रकारेण वदथ यूयमिति प्रश्नः / पृच्छतोऽयमभिप्रायः यद्यसो न 14 द्वा०। यथोक्तम्- "रूपवयोवैचक्षण्यसौभाग्यमाधुय्ये श्वाणि प्रभुस्तदाऽसौ भोगभोजनासमर्थत्वान्न भोगी, अत एव नो भोगत्यागीत्यतः भोगसाधनम्।' यो०वि०पं०सं०] कथ निर्जरावान् / कथं वा देवलोकगमनपर्यवसानोऽस्तु ? उत्तरं तु भोगंतराय न०(भोगान्तराय) यदुदयवशात्सत्यपि विशिष्टाऽऽहारा(नो इणट्टे सम8 त्ति) कस्मात्?यतः (पभूणं से त्ति) स क्षीणभोगी मनुष्यः ऽऽदिसंभवे असति च प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा केवलकार्पण्या(अन्नतराई ति) एकतरान् कांश्चित्क्षीणशरीरसाधूचितान्, एवं चोचित नोत्सहते भोक्तुं तद्भोगान्तरायमित्युक्तलक्षणे अन्तरायकर्मभदे, भोगभुक्तिसमर्थत्वादोगित्वं तत्प्रत्याख्यानाच्च तत्त्यागित्वं ततो प्रज्ञा० 23 पद। कर्म०। पं०सं० / स०। निर्जरा, ततोऽपि च देवलोकगतिरिति। (आहोहिएणं ति) आधोऽवधिकः भोगकामि पुं०(भोगकामिन) भोगाभिलाषिणि, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ० नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी (परमाहोहिएणं ति) परमाधोवधिक ज्ञानी, अयं च चरम-शरीर एव भवतीत्यत आह-(तेणेव भवग्गहणेण सिज्झित्तए भोगकिरिया स्त्री०(भोगक्रिया) भोगकरणे, "भोगकिरियासु रुवाइकप्पं / ' इत्यादि) भ०७ श०७ उम पं०सू० 4 सूत्र भोगापेक्षा दुःखाय भवति / तथा चोक्तम् भोगकुल न०(भोगकुल) राज्ञः पूज्यस्थानीय कुले, आचा०२ श्रु०१चू० "भोगे अवयक्खंता, पडति संसारसागरे घोरे। १अ०२उ०। भोगेहिं निरवयक्खा , तरंति संसारकंतारं // 1 // " इति। भोगत्थ न०(भोगार्थ) भोगकृते, "भोगत्थाए जेऽभियावन्ना।" सूत्र० 1 सूत्र०१श्रु०६अ। श्रु०२ अ० ३उ०। उक्तंच भोगट्टि(न) त्रि०(भोगार्थिन्) मनोज्ञगन्धरसस्पर्शार्थिनि, नि०चू०१६ "धर्मादपि भवन भोगः, प्रायोऽनर्थाय देहिनाम्। उ०औ० / ज्ञा०) चन्दनादपि संभूतो, दहत्येव हुताशनः // 6 // " द्वा०२३ द्वा० भोगपव्वइय पुं०(भोगप्रवजित) भोगो य आदिदेवेन गुरुत्वेन-व्यवहत(व्याख्या 'थिरा' शब्दे चतुर्थभागे 2411 पृष्ठे गता) स्तवंशजश्य भोगः, भोगः सन् प्रव्रजितो भोगप्रव्रजितः / भोगवंशजे भोगेभ्यो निवृत्तिश्वावश्यं कार्या। तथा च सूत्रम् प्रव्रजिते, औ०। अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया। भोगपाय पुं०(भोगपात) भोगनाशे, स्था०५ ठा०२ उ०। विणियट्टिज भोगेसु, आउं परिमियऽप्पणो // 34 // भोगपुत्त पु०(भोगपुत्र) आदिदेवस्थापितगुरुवंशजे कुमारे, औ०। अध्रुवम् अनित्यं मरणाऽऽशङ्कि, जीवितं सर्वभावनिबन्धनं ज्ञात्वा, तथा भोगपुर न०(भोगपुर) स्वनामख्याते पुरे, यत्रस्थेन महेन्द्रण २उ। Page #1613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगपुर 1605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोगभोग क्षत्रियेण, महावीर स्वामिन उपद्रवे कृते सनत्कुमारो देवेन्द्रः प्रादुर्भूय त सके तहा ईसाणे वि निरवसेसं, एवं सणंकुमारे वि, नवरं निर्धाटितवानिति / आ०म०१ अ०। आ० चू०। ध०र० / पासायवडेंसओ छ जोयणसयाइं उड्ढे उच्चत्तेणं तिनि जोयणभोगपुरिस पुं०(भोगपुरुष) भोगप्रधानः पुरुषो भोगपुरुषः / सूत्र० सयाई विक्खंभेणं मणिपेढिया तहेव अट्ठजोयणिया, तीसे णं 1 श्रु० 4 अ०१ उ०। ('पुरिस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1012 पृष्ठे व्याख्या) मणिपेढियाए उवरिं एत्थ णं महेगं सीहासणं विउव्वइ सपरिवार भोगपुरुषः संप्राप्तसमग्रविषयसुखभोगोपभोगसमर्थश्चक्रवर्तिवत्। आ०म०१ भाणियव्वं, तत्थ णं सणंकुमारे देविंदे देवराया बावत्तरीए अ। अन्यरुपार्जितानामर्थानां भोगकारिणि नरे, भ०१२श०७ उ०! सामाणिय साहस्सीहिं०जाव चउहिं बावत्तरीहिं आयरक्खभोगभूमि स्त्री०(भोगभूमि) भोगस्यैव भूमिः स्थानम्। देवकुर्वादिकायाम देवसाहस्सीहि य बहूहिं सणंकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं कर्मभूमौ, स्था०३ ठा० 1 उगा आचा देवेहि य देवीहि य सद्धिं सपंरिखुडे महया ०जाव विहरइ / एवं जहा सणंकुमारे तहा जाव पाणओ अच्चुओ, नवरं जो जस्स भोगभूरिया स्त्री०(भोगभूरिता) स्नानपानभोजनचन्दनकुडकुमकस्तूरीकावस्त्राऽऽभरणाऽऽदेः स्वकीयकुटुम्बव्यापारणापेक्षयाऽधिकत्वे, ध० परिवारो सो तस्स भाणियव्वो, पासायउच्चत्तं जं सएसु सएसु कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं अद्धद्धं वित्थारो ०जाव अच्चुयस्स 2 अधिo नव जोयणसयाई उर्ल्ड उच्चत्तेणं अद्धपंचमाई जोयणसयाई भोगभोग पुं०(भोगभोग) भुज्यन्त इति भोगाः स्पर्शाऽऽदयः, भोगार्हा विक्खंभेणं, तत्थ णं गोयमा ! अच्चुए देविंदे देवराया दसहिं भोगा भोगभोगाः / भ० 25 श०७ उ०। विपा०। प्रज्ञा०।जी०। आ०म० सामाणियसाहस्सीहिं०जाव विहरइ। (सूत्र-५२०) रा०ा स्था०ा कल्पका मनोज्ञेषु शब्दाऽऽदिविषयेषु, स०३० सम० भ०। (जाहे णमित्यादि) (जाहे त्ति) यदा. "भोगभोगाई ति" भुज्यन्त इति चं०प्र०ा जं० अथवा भोगेभ्य औदारिक-कायभावेभ्योऽऽतिशायिनो भोगाः- स्पर्शाऽऽदयः भोगार्हा भोगा भोगभोगाः मनोज्ञस्पर्शाऽऽदय भोगा भोगाभोगाः / जं० 1 वक्ष० / अतिशयवत्सु शब्दाऽऽदिविषयेषु, इत्यर्थः, तान् "से कहमियाणिं पकरेइ ति." अथ कथं' केन प्रकारेण नि०१ श्रु०१वर्ग 1 अ०॥ सूत्र०। स्त्रीभोगे सत्यवश्यं शब्दाऽऽदयो भोगा तदानीं प्रकरोति? प्रवर्तत इत्यर्थः, 'नेमिपडिरूवगं ति' नेमिः- चक्रभोगभोगाः / स्त्रीभोगाऽऽधुपयोगिषु शब्दाऽऽदिविषयेषु, सूत्र०२ श्रु० धारा, तद्योगाचक्रमपि नेमिः- तत्प्रतिरूपकं-वृत्त-तया तत्सदृशं, 2 अं०1 स्थानमिति शेषः / 'तिन्नि जोयणेत्यादौ' यावत्करणादिदं दृश्यम्जाहे णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजि 'सोलस य जोयणसहस्साइं दो य सयाई सत्तावी-साहियाई कोसलियं उकामे भवति से कहमियाणिं पकरेंति? गोयमा ! ताहे चेव णं अट्ठावीसाहियं धणुसयं तेरस य अंगुलाई ति।" उवरि ति उपरिष्टात् से सक्के देविंदे देवराया एगं महं नेमिपडिरूवर्ग विउव्वति, एग 'बहुसमरमणिज्जे त्ति' अत्यन्तसमो रम्यश्चेत्यर्थः। 'जाव मणीणं फासो जोयणसयसहस्सं आयामविक्खं भेण तिन्नि जोयणसय त्ति' भूमिभागवर्णकस्तावद्वाच्यो यावन्मणीनां स्पर्शवर्णकः इत्यर्थः, स सहस्साई० जाव अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं, चायम्- “से जहा नाम ए आलिंगपोक्खरेइ या, मुइंगपोक्खरेइ वा।" तस्स णं नेमिपडिरूवस्स उवरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे इत्यादि, आलिङ्गपुष्कर मुरजमुखपुटं मईलमुखपुटं तद्वत्सम इत्यर्थः / पन्नत्ते जाव मणीणं फासे, तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुम तथा- "सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीईहिं सउज्जोएहिं नाणाविहपंचवन्नेहि ज्झदेसभागे तत्थ णं महं एग पासायवडेंसगं विउव्वति, पंच मणीहि उवसोहिएतं जहा किण्हेहिं 5 / " इत्यादि, वर्णगन्धरसस्पर्शवर्णजोयणसयाई उद्धं उच्चतेणं अढाइजाइंजोयणसयाई विक्खंभेणं को मणीनां वाच्य इति ।"अब्भुग्गय-मूसियवन्नओ त्ति।" अभ्युद्गअब्भुग्गयमुसियवन्नओ ०जाव पडिरूवं, तस्स पासायवडिं- तोच्छ्रिताऽऽदिः प्रासादवर्णको वाच्य इत्यर्थः, स च पूर्ववत्, 'उल्लोए सगस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्तेजाव पडिरूवे, तस्स णं त्ति' उल्लोकः उल्लोचो वा-उपरितलं 'पउमलयाभत्तिचित्ते त्ति' पद्मानि पासायवर्डेसगस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे०जाव मणीणं लताश्च पद्मलताः, तद्रूपाभिक्तिभिः विच्छित्तिभिश्चित्रो यः स तथा, फासो मणिपेढिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणं, तीसे णं यावत्करणादिदं दृश्यम्- 'पासाइए दरिसणिज्जे अभिरूवे त्ति' 'मणि - मणिपेढियाए उवरिं महं एगे देवसयणिज्जे विउव्वइ सयणिज्ज- | पेढिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणंति' मणिपीठिका वाच्या। सा वन्नओ जाव पडिरूवे, तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अट्ठहिं चाऽऽयामविष्कम्भाभ्यामष्टयोजनिका यथा वैमानिकानां सम्बन्धिनी, अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहि य अणिएहिं नट्टाणिएण य / न तु व्यन्तराऽऽदिसत्केव, तस्यान्यथा स्वरूपत्वात् / सा पुनरेवम्गंधव्वाणिएण यसद्धिं महया हयनट्ट०जाव दिव्वाइं भोगभोगाई "तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ ण मुंजमाणे विहरइ / / जाहे ईसाणे देविंदे देवराया दिव्वाई जहा | ___महं एग मणिपेदियं विउव्वइ, सा णं मणिपेढिया अट्ठ जोयणाई Page #1614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगभोग 1606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोगसुह आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता चत्तारि जोयणाई बाहलेणं सव्वरयणामई ___ "भोगरएणं नोऽवलिप्पहि त्ति।'' औ० / भ०] अच्छा० जाव पडिरूव त्ति।" (सयणिज्जवन्नओ ति) शयनीयवर्णको | *भोगरत न० भोगानुरागे, भ० 6 श०३३ उका वाच्यः / स चैवम्-- 'तस्स णं देवसयणिज्जस्स इमेयारूवे वन्नावास | भोगराय पुं०(भोगराज) भोगवंश्ये नृपे, "अहं च भोगरायस्स, तच अंधगपण्णते।' वर्णकव्यासः- वर्णकविस्तर, 'तं जहा-नाणामणिमया वण्हिणो।" दश०२ अ०। उत्त०। पडिपाया सोवन्निया पाया जाणामणिमयाई पायसीसगाई।' इत्या- भोगलक्खण न०(भोगलक्षण) भोगसूचकं लक्षणं भोगलक्षणम्। भागसूचके दिरिति / 'दोहि य अणिएहि ति' अनीकं सैन्यं 'नट्टाणीएण य त्ति' स्वस्तिकाऽऽदिके लक्षणे, "भोगुत्तना भोगलक्खणधरा।'' भोगसूचनाट्यम्-नृत्यं तत्कारकमनीक-जनसमूहो नाट्यानीकम्, एवं गन्ध- कानि लक्षणानि स्वस्तिकाऽऽदीनि धारयन्तीति भोगलक्षणधराः। वनीक, नवरं गन्धर्व -गीतं, 'महयेत्यादि।' यावत्करणादेवं दृश्यम्- प्रश्न०४ आश्रद्वार। तंग 'महया हयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुड़ियघण-मुइंगपडुप्पवाइयरवेणं भोगवइ स्त्री०(भोगवती) भोगः सर्पशरीरं भूम्नाऽस्त्यस्यांमतुप् / मस्य ति। व्याख्या चास्य प्राग्वत्, इह च यत् शक्रस्य सुधम्मसभालक्षणभोग- वः। पातालगङ्गायाम, वाच०। अधोलोकवास्तव्यायां स्वनामख्यातायां स्थानसद्भावेऽपि भोगार्थनेमिप्रतिरूपकाऽऽदिविकुर्वणं तज्जिनारथ्ना- दिकुमा-म, जं०५ वक्ष०ा आ०का तिला आ०म०। स्था०। आ०चू० माशातनापरिहारार्थ, सुधर्मसभायां हि माणवके स्तम्भे जिनाऽऽस्थीनि दक्षिणरुचकवास्तव्यायां स्वनामख्यातायां दिक्कुमार्याम्, चं०प्र०१८ समुद्केषु सन्ति, तत्प्रत्यासत्तौ च भोगानुभवने तद्बहुमानः कृतः स्यात्, पाहु०। तिका आवश्यकचूर्णिस्थानागावश्यककथादौ तु शेषवतीति स चाऽऽशाभवतनेति / 'सिंहासणं विउव्वइ ति।' सनत्कुभारदेवेन्द्रः दृश्यते। राजगृहनगरस्थधनसार्थवाह-सुतस्य धनदेवस्य स्वनामख्यासिंहासनं विकुरुते, न तु शक्रेशानाविव देवशयनीयं, स्पर्शमात्रेण तरय तायां भार्थ्यायाम, ज्ञा० 1 श्रु०७ अ० पक्षस्य पञ्चदशसु रात्रिषु परिचारकत्वान्न शयनीयेन प्रयोजनमिति भावः / सपरिवार ति।' द्वितीयायां सप्तम्या द्वादश्यां च रात्रौ, भोगवती भद्रातिथिरात्रिरिति / स्वकीयपरिवारयोग्याऽऽसनपरिकरितमित्यर्थः, 'नवरं जो जस्स ज०७ वक्ष०ा चं०प्र०ा सू०प्र० ज्यो। परिवारो सो तस्स भाणियव्यो ति। तत्र सनत्कुमारस्य परिवार उक्तः, | भोगवइया स्त्री०(भोगवतिका) ब्राह्मयालिपेर्लेख्यविधानभेदे, प्रज्ञा० एवं माहेन्द्रस्य तु सप्ततिः समानिकसहयाणि चतसञ्चाङ्गरक्षसहस्राणां १पद / सा सप्ततयः, ब्रह्मणः षष्टिः सामानिकसहस्राणां, लान्तकस्य पञ्चाशत, भोगविगम पुं०(भोगविगम) भोगवियोगे, पञ्चा०५ विव०। शुक्रस्य चत्वारिंशत्, सहस्रारस्य त्रिंशत्, प्राणतस्य विंशति, अच्युतस्य भोगविस पुं०(भोगविष) भोगः शरीरं तत्र विषं यस्य सः। प्रज्ञा० 1 पद। तु दश सामानिकसहस्राणि / सर्वत्रापि च सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षा भोगः शरीरं स एव विषं यस्य सः। ज्ञा०१ श्रु० अ०। सर्पभेदे, वाच०। इति। 'पासायउच्चत्तं ज' इत्यादि।तत्र सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षड्योजन- भोगसमत्थ पुं०(भोगसमर्थ) भोगाः शब्दाऽऽदयस्तेषु समर्थो भोगसमर्थः / शतानि प्रासादस्योच्चत्वं, ब्रह्मलान्तकयोः सप्त, शुक्रसहस्रारयोरष्टी, आ०म० 1 अ०1 भोगानुसमर्थे, औ०॥ प्राणतेन्द्रस्याच्युतेन्द्रस्य च नवेति / इह च सनत्कुमाराऽऽदयः सामा- भोगसस्सिरीय त्रि०(भोगसश्रीक) भोगैः सश्रीकः / भोगैः शोभे, प्रश्न० निकाऽऽदिपरिवारसहितास्तत्र नेमिप्रतिरूपके गच्छन्ति, तत्समक्षमपि 4 आश्र० द्वार। स्पर्शाऽऽदिप्रतिचारणाया अविरुद्धत्वात्, शक्रेशानौतुन तथा सामानि- भोगसालि(ण) पुं०(भोगशालिन्) महोरगभेदे, प्रज्ञा० १पदका काऽऽदिपरिवारसमक्ष कायप्रतिचारणाया लजनीयत्वेन विरुद्धत्वादिति // भोगसाहण न०(भोगसाधन) रूपाऽऽदिके भोगाङ्गे, पं० सू० ४सूत्र०। भ०१४ श०६ उ० यो०वि० *भोग्यभोग पुं० भोग्या ये भोगास्ते भोग्यभोगाः / भोगार्हेषु शब्दाऽऽदि- भोगसुह न०(भोगसुख) शब्दाऽऽदिविषयसेवायाम्, द्वा०१४ द्वा०ा विषयेषु, उत्त०१४ अग यो०वि० भोगमालिणी स्त्री०(भोगमालिनी) अधोलोकवास्तव्यायां स्वनामख्या - तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पजंति, जेहिं वा सद्धिं संवतायां दिक्कुमा-म्, आ०क० 1 अ० ज०। आ०म०। ति०। आ०चू०। सति ते व णं एगया णियगा पुट्विं परिवयंति, सो वा ते णियगे सा च जम्बूद्वीपमाल्यवत्पर्वतरजतकूटस्थादेवी। स्था०६ ठा०ा जम्यूद्वीप- पच्छा परिवएजा, णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि माल्यवत्पर्वतस्थकूटानधिकृत्य रजतकूट षष्ठम्, अत्र भोगमालिनी | तेसिंणालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, दिकुमारी सुरी। जं० 4 वक्षा भोगा मे व अणुसोयंति इहमेगेसिं माणवाणं / / (सूत्र-८२) मोगरइ स्त्री०(भोगरति) भोगाः शब्दाऽऽदयस्तेषु रतिराशक्तिः / शब्दाऽऽ- तत इति- कामानुषङ्गाक्तो पचय स्ततोऽपि पहात्वं, दिविषयाऽऽशक्तौ, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। तस्मादपि नरक भवो, नरकान्निषेककललावुर्दपेसीव्यूहगर्भमोगरय न०(भोगरजस्) भोगलक्षणं रजो भोगरजः। भोगाऽऽत्मके रजसि, प्रसवाऽऽदितिस्य च रोगाः प्रादुष्वन्ति। (से) तस्य कामानु Page #1615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगसुह 1607 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोगसुह षक्तमनस एकदेत्यसातावेदनीयविपाकोदये ‘रोगसमुत्पादा' इतिरोगाणां शिरोऽर्तिशूलाऽऽदीनां समुत्पादाः प्रादुर्भावाः समुत्पद्यन्ते आविर्भवन्ति, तरयां च रोगावस्थायां किंभूतो भवत्यसावित्यत आह(जेहिं इत्यादि) यैर्वा सार्द्धमसौ संवसति, त एव एकदा निजाः पूर्व परिवदन्ति, स था तान्निजान पश्चात्परिवदेन्नाल (ते) तब त्राणाय वा शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा इति ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येक सातं च स्वकृतकर्मफलभुजः सर्वेऽपि प्राणिन इति मत्वा रोगोत्पत्तौ न दौमनस्यं भावनीयम्, न भोगाः शोचनीया इति। आह च(भोगामे इत्यादि) भोगाः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शविषया-भिलाषास्तानेवानुशोचयन्ति-कथमस्यामप्यवस्थायाम् वयंभोगान् भुक्ष्महे ? एवं भूतान् वाऽस्माकं दशाऽभूद्येन मनोज्ञा अपि विषया उपनता नोपभोगायेति / ईदृक्षश्वाध्यवसायः केषाश्चिदेव भवतीत्याह- इहैव संसार एकेषामनवगतविषयविपाकाना ब्रह्मदत्ताऽऽदीनां मानथानामेवंभूतोऽध्यवसायो भवति, नसर्वेषां, सनत्कुमाराऽऽदिना व्यभिचारात्। तथाहिब्रह्मदत्तो मारणान्तिकरोगवेदनाऽभिभूतः सन्तापातिशयात् स्पृशन्ती प्रणयिनीमिव विश्वासभूमि मूर्छा बहुमन्यमानः तथा हस्तीकृतो विहस्ततया विषयीकृतो वैषम्येण गोचरीकृतो ग्लान्या दृष्टो दुःखासिकया क्रोडीकृतः कालेन पीडितः पीडाभिर्निरूपितो नियत्या आदित्सितो दैवेन अन्तिके अन्त्योच्छ्रासस्य मुखे महाप्रवासस्य द्वारि दर्धिनिद्राया जिह्वाग्रेजीवितेशस्य वर्तमानः विरलो वाचि विह्वलो वपुषि प्रचुरः प्रलापे जितो जृम्भिकाभिरित्येवंभूतामवस्थामनुभवन्नपि महामोहोदयादोगांश्चिकाइक्षिषुः पाश्वोपविष्टा भामिनवरतवेदनावेशविगलदश्रुरक्तनयनां कुरुमति ! कुसमतीत्येवं तां व्याहरन्नधस्सप्तमी नरकपृथिवीमगमत्तत्राऽपि तीव्रतरवेदनाऽऽभिभूतोऽप्यविगणय्य वेदनां तामेव कुरुमती व्याहरतीत्येवंभूतो भोगाभिष्वङ्गो दुस्त्यजो भवति केषांचित्, नपुनरन्येषा महापुरुषाणामुदारसत्त्वानाम्, आत्मनोऽन्यच्छरीरमित्येवमवगततत्त्वानां सनत्कुमाराऽऽदीनामिव यथोक्तरोगवेदनासद्धावे सत्यपि मयैवैतत कृतं सोढव्यमपि मर्यवेत्येवं जातनिश्चयानां कर्मक्षपणोद्यतानां न मनसः पीडोत्पद्यते इति। उक्तंच "उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्माऽऽलवालोऽशुभो, रागद्वेषकषायसन्ततिमहानिर्विघ्नवीजस्त्वया। रोगैरङ्कुरितो विपतकुसुमितः कम्मर्दुभः साम्प्रतं, सोदा नो यदि सम्यगेष फलितो दुःखैरधोगामिभिः / / 1 / / पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्त्वयाऽयं, न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चितानाम्। इति सह गणयित्वा यद्यदायाति सम्यग्, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्त्यः ?|2||" अपि च- भोगानां प्रधानं कारणमर्थोऽतस्तत् स्वरूपमेव निर्दिदिक्षुराह तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता भवति, अप्पा वा बहुगा वा, से तत्थ गड्डिए चिट्ठति, भोयणाए, तओ से एगया विपरिसिटुं संभूयं महोवगरणं भवति, तं पिसे एगया दायादा विभयंति, अदत्तहारो वा से हरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारहाहेण वा से डज्झति इति, से परस्स अट्ठाए कूराणि कम्माणि वाले पकुय्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति (सूत्र-८३) (तिविहणेत्यादि) त्रिविधेन याऽपि तस्य तत्रार्थमात्रा भवति अल्पा वा बडी वा, (से) तस्यामर्थमात्रायां गृद्धस्तिष्ठति, सा च भोजनाय किल भविष्यति, ततस्तस्यैकदा विपरिशिष्ट सम्भूतं महोपकरणं भवति, तदपि तस्यैकदा दायादा विभजन्ते, अदत्तहारो वा तस्य हरति, राजानो वा विलुम्पन्ति, नश्यति वा विनश्यति वा, अगारदाहेन वा दह्यते इति, स परस्मै अर्थाय क्रूराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणस्तेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति, एतच्च प्रागेव व्याख्यातमिति, नेह प्रतायते। तदेवं दुःखविपाकान् भोगान् प्रतिपाद्य यत्कर्तव्यं तदुपदिशतीत्याह आसं च छंदं च विगिंच धीरे!, तुमं चेव तं सल्लमाह?, जेण सिया तेण णो सिया, इणमेव णावबुज्झंति जे जणा मोहपाउडा, थीभि लोए पव्वहिए, ते भो ! वयंति एयाई आयतणाई से दुक्खाए मोहाए माराएणरगाए णरगतिरिक्खाए, सततं मूढे धम्म णाभिजाणति, उदाहु वीरे, अप्पमादो महामोहे, अलं कुस लस्स पमाएणं, संतिमरणं संपेहाए भेउरधम्म संपेहाए, णालं पास अलं ते एएहिं / (सूत्र०-८४) आशा भोगाऽऽकाक्षा, चः समुच्चये, छन्दनं छन्दः परानुवृत्त्या भोगाभिप्रायस्तं च, चशब्दः पूर्वापेक्षया समुच्चयार्थः, तावाशाछन्दौ, 'विश्व' पृथक्कुरुत्यज धीर ! धीर्बुद्धिस्तया राजत इति, भोगाशाछन्दापरित्यागे च दुःखमेव केवलं, न तत्प्राप्तिरिति / आह च-(तुमं चेव इत्यादि) विनेय उपदेशगोचराऽऽपन्न आत्मा या उपदिश्यतेत्वमेव तद्भोगाऽशाऽदिकं शल्यमाहृत्य स्वीकृत्य परमशुभमादत्से, न तु पुनरुपभोग, यतो भोगोपभोगो यैरेवार्थाऽऽधुपायैर्भवति, तैरेवनभवतीत्याह-"जेण सिया तेणणो सिया।" येनैवार्थोपार्जनाऽऽदिना भोगोपभोगः स्यात्, तेनैव विचित्रत्वात्कर्मपरिणतेः नस्याद् अथवा येन केनचिद्धेतुनाकर्मबन्धः स्यात्तन्न कुर्यात्तत्रनवर्ततेत्यर्थः, यदि वा-येनैव राज्योपभोगाऽऽदिना कर्मबन्धो येन वा निम्रन्थत्वाऽऽदिना मोक्षः स्याद्भवेत्ते नैव तथाभूतपरिणामवशान्न स्यादिति / एतच्चानुभवावधारितमपि मोहाभिभूता नावगच्छन्तीत्याह-(इणमेव इत्यादि) इदमेव हेतुवैचित्र्यं न बुध्यन्ने न संजानते, के ? ये जना मौनीन्द्रो-पदेशविकला मोहेनाऽज्ञानेन मिथ्यात्वोदयेन वा प्रावृताः छादितास्तत्त्वविपर्य-स्तमतयो मोहनीयोदयाद् भवन्ति / मोहनीयस्य च तद्भेदकामानां च स्त्रियो गरीयः कारणमिति दर्शयति- (थीभिइत्यादि) स्त्रीभिरङ्गनाभिः भ्रूक्षेपाऽऽदिविभ्रमैरसौलोक आशाछन्दाभिभूताऽऽत्मा क्रूरकर्मविधायीनरकविपाकपलं Page #1616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगसुह 1608 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोगामिस्संग शल्यमाहत्य तत्फलमबुध्यमानो मोहाऽऽच्छादितान्तराऽऽत्मा प्रकर्षण तदेवं भोगलिप्सूनां तत् प्राप्तावप्राप्तौ च दुःखमेवेति दर्शयतिव्यथितः प्रय्याथितः पराजितो वशीकृत इति यावत् / न केवलं स्वतो एयं पस्स मुणी ! महब्भयं, नाइवाइज कंचणं, एस वीरे विनष्टा अपशनपि असकृदुपदेशदानेन विनाशयन्तीत्याह-(ते भो पसंसिए, जे न निव्विज्जइ आयाणाए, न मे देइन कुप्पिज्जा थोवं इत्यादि) ते स्त्रीभिः प्रव्यथिता 'भो' इत्यामन्त्रणे, एतद्वदान्ति-यथैतानि- लद्धं न खिंसए, पडि से हिओ परिणमिजा, एयं मोणं स्त्र्यादीन्यायतनानि उपभोगाऽऽस्पदभूतानि वर्तन्ते, एतैश्च विना शरीर- समणुवासिज्जासि (सूत्र-८५)त्ति बेमि।। स्थितिरेव न भवतीति / एतच्च प्रव्यथानमुपदेशदानं वा तेषामपायाय (एवं पस्सेत्यादि) एतत्प्रत्यक्षमेव भोगाऽऽशामहाज्वरगृहीतानां स्यादित्याह-(से इत्यादि) तेषां से इत्येतत् स्त्रीप्रव्यथनमायतनभणनं कामदशाऽवस्थाऽऽत्मकं महद्यं भयहेतुत्वाद् दुःखमेव महाभयं तच वा दुःखाय भवति-शारीरमानसाऽसातवेदनीयोदयाय जायते। किंच मरणकारणमिति महदित्युच्यते, एतन्मुनेः पश्य सम्यगैहिका-ऽऽमुष्मि(मोहाए) मोहनीयकर्मबन्धनाय, अज्ञानाय वेति / तथा- (माराए) कापायाऽऽपादकत्वेन जानीहीत्युक्तं भवति यद्येवंतक्ति कुर्यादित्याहमरणाय, ततोऽपि-(नरगाए) नरकाय नरकगम्मनार्थम् पुनरपि-(नरग (णाइवाएज इत्यादि) यतो भोगाभिलषण महद्यमतस्तदर्थ नातिपाततिरिक्खाए) ततोऽपि नरकादुःद्धृत्य तिरश्चेतत्प्रभवति तिर्यग्योन्यर्थ येन्नव्यथयेत् कञ्चन कमपि जीवमिति, अस्य च शेषव्रतोपलक्षणार्थत्वान्न तत्स्वीप्रव्यथनं भोगाऽऽयतनवदनं या सर्वत्र सम्बन्धनीयम् / स प्रतारयेत् कश्चनेत्याधप्यायोज्यम्, भोगनिरीहः प्राणातिपाताऽऽदिव्रताएवमङ्गनाऽपाङ्गाविलोकनाऽऽक्षिप्तस्तासु तासु योनिषु पर्यटनात्महितन ऽऽरूढश्व कं गुणमवाप्नोतीत्याह-(एस इत्यादि) एष इति भोगाऽऽशाजाना तीत्याह-(सययमित्यादि) सततमनवरतंदुःखाभिभूतो मूढो धर्म छन्दविवेचकोऽप्रमादी पञ्चमहाव्रतभाराऽऽरोहणोन्नामितस्कन्धो वीरः क्षान्त्यादिलक्षण दुर्गतिप्रसृतनिषेधकं न जानाति न वेत्ति / एतच्च कर्मविदारणात् प्रशंसितः स्तुतो देवराजाऽऽदिभिः, क एष वीरो नाम तीर्थकृदाहेति दर्शयति- (उदाहु इत्यादि) उत्प्राबल्येनाऽऽह उदाह / योऽभिष्ट्रयत इत्यत आह-(जे इत्यादि) यो न निर्विद्यते न खाद्यते न उक्तवान, कोऽसौ ? वीरः अ पगतासंसारभयस्तीर्थकृदित्यर्थः / जुगुप्सते, कस्मै? आदानाय आदीयते गृह्यतेऽवाप्यते आत्मस्वतत्त्वमकिमुक्तवान् ? तदेव पूर्वोक्तं वाचा दर्शयति-अप्रमादः कर्त्तव्यः, कृ? शेषाऽऽवारकर्मक्षयाऽऽविर्भूतसमस्तवस्तुग्राहिज्ञानावाधसुखरूपं येन महामोहे अङ्ग नाभिष्वङ्ग एव, महामोहकारणत्वान्महामोहः, तत्र प्रमाद तदादानं संयमानुष्ठानं तस्मै न जुगुप्सते, तद्वा कुर्वन् सिकताकेवलवता न भाव्यम्। आह च-(अलमित्यादि) अलं पर्याप्त, कस्य ? कुशलस्य चर्वण-देशीय क्वचिदलाभाऽऽदौ न खेदमुपयातीति, आह- (न मे निपुणस्य सूक्ष्मेक्षिणः, केनालं? मा वेषयकषायनिद्राविकथारूपेण इत्यादि) ममायं गृहस्थः संभृतसंभारोऽप्युपस्थिते अपि दानावसरे न पञ्चविधेनापि प्रमादेन, यतः प्रमादो दुःखाऽऽद्यभिगमनायोक्त इति / ददातीति कृत्वा न कृप्येन्न क्रोधवशगो भूयाद्भावनीयं च ममैवैषा कर्मस्यात् किमालम्ब्य प्रमादेनालमिति? उच्यते- 'सन्ति' इत्यादि,शमनं परिणतिरित्यलाभोदयोऽयम्, अनेनचालाभेन कर्मक्षया-योद्यतस्य मे शान्तिर-शेषाकर्मापगमोऽतो मोक्ष एव शान्तिरिति, नियन्ते प्राणिनः पौनः तत् क्षपणसमर्थं तपो भावीति न किञ्चित् क्ष्यते / अथाऽपि कथञ्चित् पुन्येन यत्र चतुर्गतिके संसारे स मरणः संसारः शान्तिश्च मरण च स्तोक प्रान्त वा लभेत, तदपि न निन्देदित्याह- (थोवं इत्यादि) शान्तिमरणं, समाहारद्वन्द्वः तत्संप्रेक्ष्य पर्यालोच्य, प्रमादवतः संसारानु स्तोकम, अपर्याप्त, लब्ध्वा न निन्देत् दातार दत्तं वा, तथाहि-कतिचित् परमस्तत्परित्यागाच्च मोक्ष इत्येतद्विचार्येति हृदयम्, सवा कुशलः प्रेक्ष्य शिक्थाऽऽनयने ब्रवीति सिद्ध ओदनो भिक्षामानय लवणाऽऽहारो वा विषयकषायप्रमादन विदध्याद्, अथवा शान्त्या उपशमेन मरणं मरणा अस्माकं नास्तीत्यन्नंददस्वेत्येवम् अत्युवृत्तछात्रवन्न विदध्यात् किं चवधि यावत्तिष्ठतो यत् फलं भवति तत्पर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति। किं (पडिसेहिओ इत्यादि) प्रतिषिद्धोऽदित्सितस्तस्मादेव प्रदेशात्परिणमेच-(भिउर इत्यादि) प्रमादो हि विषयकषायाभिष्वङ्गरूपः शरीराधिष्ठानः निवर्त्तत, क्षणमपि न तिष्ठेन्न दौर्मनस्यं विदध्यान्न रुण्टन्नपगच्छेन्न तां तच्च शरीरं भिदुरधर्म, स्वत एव भिद्यत इति भिदुरं, स एव धर्मः स्वभावो सीमन्तनीमपवदेत् धिक्ते गृहवासमिति। उक्तं च "दिट्ठासि कसेरुमति, यस्य तद्भिदुरधर्मम् / एतत्समीक्ष्यपर्यालोच्य प्रमादं न कुर्यादिति अणुभूयासि कसेरुमइ ! पीयचियते पाणिययं, वरि तुहनाम न दंसणं सम्बन्धः। एते च भोगा भुज्यमाना अपि न तृप्तये भवन्तीत्याह // 2 // " इत्यादि। पठ्यते च (पडिलाभिओ परि-णामेजा) प्रतिलाभितः (णालमित्यादि)नालन समर्था अभिलाषोच्छित्तये यथेष्टावाप्तावपि भोगा प्राप्तभिक्षाऽऽदिलाभः सन् परिणमेत, नोच्चावचाऽलापैस्तत्रैव संस्तवं एतत्पश्य जानीहि, अतोऽलं तव कुशल! एभिः प्रमादमयैर्दुः खकारणस्व विदध्यात्, वैतालिकवद्दातारं नोत्प्रासयेदिति / उपसहरनाह- (एयं भावैर्विषयैरुपभोगैरिति, न चैते बहुशोऽष्युपभुज्यमाना उपशमं विदध इत्यादि) एतत्प्रव्रज्यानिर्वेदरूपम्- अदानाकोपनं स्तोकाऽजुगुप्सान तीति। उक्तं च प्रतिषिद्धनिवर्तनं मुनेरिदं मौनं मुनिभिर्मुमुक्षुभिराचरित त्वमप्यवाप्तानेक ''यलोके व्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः। भवकोटिदुरापसंयमः सन् समनुवासयेः सम्यग् विधत्स्वानुपालयेति नालमेकस्य तत्सर्व-मिति मत्वा शमं कुरु / / 1 / / " विनेयोपदेश आत्मानुशासनं वा। आचा०१ श्रु०२ अ०४ उ०। तथा भोगा स्त्री०(भोगा) जम्बूद्वीपमाल्यवत्पर्वतसिद्धकूटस्थायां स्वनाम"उपभोगोपायपरो, वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम्। ख्यातायां देव्याम्, स्था०६ ठा। धावत्याक्रमितुमसौ, पुरोऽपराह्ने निजच्छायाम् // 2 // " | भोगाभिस्संग पु० (भोगाभिष्वङ्ग) भोगाऽऽसक्ती, आचा०१ Page #1617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगाभिस्संग 1606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोत्ता श्रु०२ अ०४ उ० उत्तमभोगसूचकस्वस्तिकाऽऽदिलक्षणोपेते च / त्रिका जी०३ प्रति० 4 भोगामिस न०(भोगाऽऽमिष) भुज्यन्ते इति भोगाः मनोज्ञशब्दाऽऽदयः, अधि० ते च ते आमिष चात्यन्तगृद्धिहेतुतया भोगाऽऽमिषम् / शब्दाऽऽदियि- भोगोपभोगपरिमाण न०(भोगोपभोगपरिमाण) सकृद् भुज्यत इति षयाऽऽत्मके आमिषे, उत्त०। भोगः- अन्नमाल्यताम्बूलविलेपनोद्वर्तनस्नानपानाऽऽदि। मुहु-र्मुहुर्भुभोगामिसदोसविसन्ने हिअणिस्सेयसबुद्धिवोचत्थे। ज्यतइत्युपभोगः-वनितावस्त्रालङ्कारगृहशयनाऽऽसनवाहनाऽऽदि / वाले य मंदिए मूढे वज्झइ मच्छिया व खेलम्मि ||5|| भोगश्चोपभोगश्च भोगोपभोगों, तयो गोपभोगयोः परिमाणं संख्याविधानं भुज्यन्त इति भोगा मनोज्ञाः शब्दाऽऽदयः, तेच ते आमिषं चात्यन्त यत्तथा। द्वितीये गुणव्रते, ध०। गृद्धिहेतुतया भोगामिषं, तदेव दूषयत्यात्मानं दुःखलक्षणविकारकरणेन मोगोपभोगयोः संख्याऽभिधानं यत्स्वशक्तितः। भोगाऽऽमिषदोषस्तस्मिन् विशेषेण सन्नो नि मग्नो भोगाऽऽमिषदोषवि- भोगोपभोगमानाऽऽख्यं, तद् द्वितीयं गुणव्रतम् // 31 / / षण्णः, यद्वा-भोगाऽमिषस्य दोषा भोगाऽऽमिष-दोषास्ते च तदासक्तस्य सकृदभुज्यत इति भोगः-अन्नमाल्यताम्बूलविलेपनोद्वर्तनस्नानपानाविचित्रक्लेशा अपत्योत्पत्तौ च तत्पालनोपायपरतया व्याकुलत्वाऽऽद- ऽऽदि,पुनः पुनर्भुज्यत इति उपभोगः- वनितावस्वालङ्कारगृहशयनायस्तैर्विषण्णो विषादं गतो भोगाऽऽमिषदोषविषण्णः। आह च ऽऽसनवाहनाऽऽदि. (30) भोगश्चोपभोगश्व भोगोपभोगौ, तयोर्भोगोप"जया य कुकुडुबस्सा, कुतत्तीहिं विहम्मइ। भोगयोः यत् संख्याविधान परिमाणकरणं भवति, कुतः ? स्वशक्तितः हत्थीव बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पति॥१॥ निजशक्त्यनुसारेण तद्भोगोपभोगमानाऽऽख्य भोगोपभोगपरिमाणनामकं पुत्तदारपरिक्किन्नो, मोहसंताणसंतओ। द्वितीय गुणव्रत ज्ञेयम्। आवश्यक त्येतद्रव्रतस्योपभोगपरिभोग व्रतमिति पंकोसन्नो जहा नागो, स पच्छा परितप्पइ // 2 // " नामोच्यते / तथा च सूत्रम्- "उवभोगपरिभोगवए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-भोअणतो कम्मओ अत्ति।" एतद्-वृत्तिर्यथा-उपभुज्यत इत्युप(हीअनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थ त्ति) हित एकान्तपथ्यो निःश्रेयसो भोगः, उपशब्दः सकृदर्थे वर्तते, सकृद्धोग उपभोगः, अशनपानाऽऽदेः, मोक्षोऽनयोः कर्मधारये हितनिःश्रेयसः / यद्वा-हितो यथाभिल अथवा-अन्तर्भाग उपभोगः आहाराऽऽदेः, उपशब्दोऽत्रान्तर्वचनः / परिषितविषयावाप्त्याऽभ्युदयो निश्रेयसः स एव तयोर्द्वन्द्वः, ततश्च तत्र तयोर्वा भुज्यत इति परिभोगः / परिशब्दोऽसकृतद्गृत्तौ वर्तते, पुनः पुनर्भोगः बुद्धिस्तत प्राप्त्युपायविषया मतिस्तस्यां विपर्यस्तो विपर्ययवान सा वा परिभोगो वस्त्राऽऽदेः, बहिर्मोंगो वा परिभोगो वसनालङ्काराऽऽदेः, अत्र विपर्यस्ता यस्य सहितनिःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः विपर्यस्तहितनिः परिशब्दो बहिर्वाचक इति / एताद्विषयं व्रतम् उपभोगपरिभोगवतम्। तथा श्रेयसबुद्धि, विपर्यस्तशब्दस्य तु परनिपातः प्राग्वत्। यद्वा विपर्यस्ता च प्रकृते निपातानामनेकार्थत्वात् उपभोगशब्दः परिभोगार्थस्तत्समभि हिते निःशेषा बुद्धिर्यस्य स तथा, बालश्चाज्ञः (मंदिए त्ति) सूत्रत्वान्मन्दो व्याहारेण च भोगशब्दस्योपभोगे निरूढलक्षणेति न कश्चिद्विरोध इति धर्मकार्यकरणं प्रत्यनुद्यतो मूढो मोहाऽऽकुलितमानसः स एवंविधः / ध्येयम्। इदं च द्विविध-भोजनतः, कर्मतश्च / उपभोगपरिभोगयोरासेवां किमित्याह-बध्यते श्लिष्यतेऽर्थात् ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मणा मक्षिकेव खेले श्लेष्मणि, रजसेति गम्यते, इदमुक्तं भवति यथाऽसौ तस्निग्ध विषययोर्वस्तुविशेषयोरुपार्जनोपायभूतकर्मणां चोपचारादुपभोगा ऽऽदिशब्दवाच्यानां व्रत मुपभोगपरिभोगव्रतमिति व्युत्पत्तेः / ध०२ तागन्धाऽऽदिभिराकृष्यमाणा तत्र मज्जति मग्नाच रेवादिना बध्यते, एवं अधिन जन्तुरपि भोगाऽऽमिषे मग्नः कर्मणेति सूत्रार्थः / उत्त० 8 अ०॥ (तदतिचारा 'उवभोगपरिभोग' शब्दे द्वितीयभागे 602 पृष्ठे गताः।) भोगासंसप्पओग पुं०(भोगाऽऽशंसाप्रयोग) भोगा गन्धरसस्पर्शास्तेषु मनोज्ञा मे भूयासुरिति भोगाऽऽशंसाप्रयोगः।स्था० 10 ठा०। जन्मान्तरे अथतान्येवं नामतः श्लोकद्वयेनाऽऽहचक्रवर्ती स्यां वासुदेवो महामाण्डलिकस्सुभगो रूपवानित्यादि भोगाऽऽ वृत्तयोऽङ्गारविपिनानोभाटीस्फोटकर्मभिः। शंसाप्रयोगः। आशंसाप्रयोगभेदे, आव०६अ। वणिज्याका दन्तलाक्षारसकेशविषाऽऽश्रिताः।।५२|| भोगासा स्त्री०(भोगाऽऽशा) गन्धाऽऽदिप्राप्तिसंभावनायाम्, भ० 120 यन्त्रपीडनकं निलञ्छिनं दानं दवस्य च / 5 उ० स०। सरःशोषोऽसतीपोषश्चेति पञ्चदश त्यजेत्॥५३॥ भोगिडि स्वी०(भोगड़ि) "सा भोगिड्डी गिज्झइ, शरीरभोगम्मि जाइ कर्मशब्दः प्रत्येक संबद्ध्यते; अङ्गारकर्म विपिनकर्म अनः-कर्म उवभोगो।" इत्युक्तलक्षणे ऋद्धिभेदे, ध०२ अधि०। भाटीकर्म स्फोटकर्मेति, तैर्वृत्तय आजीविका अङ्गारकर्माऽऽदिवृत्तयः, भोगुत्तम पुं०(भोगोत्तम) भोगैरुत्तमो भोगोत्तमः / प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। तत्र कर्मक्रिया करणमिति यावत्। ध०२ अधिक। सर्वोत्तमभोगभोक्तरि, तं०। भोचा अव्य०(भुक्त्वा) 'भोऊण' शब्दार्थ , प्रा०२ पाद। भोगुत्तमगयलक्खणन०(उत्तमभोगगतलक्षण) उत्तमाश्च ते भोगाः चोत्तम- भोत्तए अव्य०(भोक्तम्) भोजनं कर्तुमित्यर्थे , प्रा० 4 पाद। भोगाः, उत्तमशब्दस्य विशेषणस्याऽपि परनिपातः प्राकृतत्वात् / तद्गत भोत्तव्व त्रि०(भोक्तव्य) भोजनीये, प्रा० 4 पाद। तत्संसूचकं लक्षणं तथा / उत्तमभोगसूचके स्वस्तिकाऽऽदिके लक्षणे, | भोत्ता त्रि०(भोक्तृ) भोजनकर्तरि, आव० 4 अ०। Page #1618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोत्तूण 1610 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण भोत्तूण अव्य०(भुक्त्या) 'भोऊण' शब्दार्थे, प्रा० 2 पाद। भोदूण अव्य०(भुक्त्वा) 'भोऊण' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद। भोम न०(भौम) भूमौ भवं भौमम्। भूमिसंबन्धिनि विशिष्ट स्थाने, जी०३ प्रति०४ अधि० / रा०। नगराऽऽकारे विशिष्ट स्थाने, स०३३ सम० भौमानि विशिष्ट स्थानानि नगराऽऽकाराणीत्यन्ये, भ०२ श०८ उ०। पातालभवने, आचा०२ श्रु०३ चू। निर्घातभूकर्माऽऽदिके, सूत्र०२ शु०२ अ० उत्त० भूमिकम्पाऽऽदिविज्ञाने, कल्प०१ अधि०३ क्षण। भूमिकम्पाऽऽदिभिर्विकारैः शुभाशुभं यद् ज्ञायते तद्भौमम्। निमित्तभेदे, प्रव०२५७ द्वार / कल्पका उत्त०ा भौम भूमिविकारदर्शनादेव स्यादिदमित्यादिविषयमिति / आव०४ अ०। भौम भूमिविकारफलाभिधानप्रधानम्। भूमिविकारफलप्रतिपादकनिमित्तशास्त्राऽऽत्मके पापश्रुतभेदे, स्था० 8 ठा०। स०। सूत्रा भोमे तिविहे पण्णत्ते / सुत्ते, वित्ती, वत्तिए। स०२६ सम०। अहोरात्रभवे सप्तविंशतितमे मुहूर्ते , ज्यो०२ पाहु०। कल्प०। च०प्र० ज०। भूमेरपत्यं तस्या इदं वा अण् / (न) अरकासुरे, "त्वयि भौमं गते जेतुम्।" इति माघः। मङ्गलग्रहे च / पुं० / भूमिभवे, त्रि० / वाचक। भूमिविकारे घटाऽऽदी च / "अकृसयं भोमेजाणं कलसाणं / ' भ०६ श० 33 उगा भौमाना पार्थिवानामित्यर्थः। ज्ञा०१ श्रु०१अ० "अंगारो य भोमो।" पाइ० ना०६६ गाथा। औ० भीमानां मृण्मयानामिति। भ०६ श०३३ उ०। प्रज्ञा०। रा०ा भूमिसम्बन्धिनि च / त्रि०। भौम इव भूदेश इव / सूत्र०१ श्रु०६ अ० जी०। भोमालीय न०(भौमालीक) भूमिसम्बन्ध्यलीकाऽऽत्मके स्थूलमृषावादभेदे, स्थूलमृषावादविरमणव्रतस्य तृतीयेऽतिचारे च। प्रश्न० 2 आश्र० द्वार / भूम्यलीकं परसत्कामप्यात्मसत्कामात्मादिसत्कामपि परसत्काम, ऊपरं वा क्षेत्रमनूषरम्, अनूषरं चोषरमित्यादिवदतः / इद चाशेषाऽपद्रव्यविषयाऽऽलोकस्योपलक्षणम्। ध०२ अधि०। एतदेव प्रमादसहसाकारानाभोगैरभिधीयमानमतिचार आकुट्या च भङ्गः / उपा०१ अधo भोमेज न०(भौम) भोम' शब्दार्थे, जी०३ प्रति०४ अधि० भोयपुं०(भोज) भुज-अच्। स्वनामख्याते देशभेदे, धारापुरस्य नृपभेदे च / 'धन्यः श्रीभोजराजस्त्रिभुवनविजयी०। इत्युद्भटः / वाच०। द्रव्यानुयोगतर्कणारचयितरि स्वनामख्याते आचार्य , द्रव्या० 11 अध्या०। योगसूत्रवृत्तिकारके आचार्य च। द्वा०६ द्वा०। *भोत पुं० / परतीर्थिकभेदे, "अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेझ्याणि वंदित्ता।" यथा भौतपरिगृहीतानि वीरभद्रमहाकाल्यादीनि वोटिकपरिगृहीतानि वा / आव०६ अ० भोयग त्रि०(भोजक) भर्तरि, बृ० 130 3 प्रक०। भोयडा स्त्री०(भोयडा) नेपथ्यभेदे, ‘‘णेवत्थं भोयडादीयं / '' णेवत्थ भोयडादीयं भवति / भोयडा णाम-जा लाडाणं कच्छा सा मरहट्टाण भोयडा भणति। नि०चू० १उ०। इयाणिं देसकहाछंदं विधी विकप्पं, णेवत्थं बहुविहं जणवयाणं / एता कधा कधिंते, चतजमला सुकिला चउरो।।१२५।। गाहा पच्छद्धं तदेव, अग्गद्धस्स इमा वक्खाछंदो गम्माऽगंमा, विधि रयणा भुजते य जं पुव्यिं / सारणिकूवविकप्पो, णेवत्थं भोयडादीयं / / 126 / / छंदो आयारो गम्मा-जहा लाडाणं माउलदुहिया, माउसस्स धूया अगम्मा विही नाम वित्थरो, रयणा णाम जहा कोसलाविसए आहारभूमीहरितोवलित्ता कजति, पउमिणिपत्ताइएहि भूमी अछरिजति ततो पुणोवयारो कजति, तओ पती ठविति, ततो पासेहि करोडगा कट्टोरगार्म कुयासिप्पीओ य ठविज्जति, भुज्जते य जं पुव्वं' जहा कोंकणे पेया, उत्तरावहें सत्तुया, अन्नेसु वा विसएसुजंदाऊण पच्छा अणेगभक्खुप्पगारा दिजति। सारणीकूवाइओ विकप्पो भण्णति।णेवत्थं भोयडादीयं भवति / भोयडा णाम-जा लाडाणं कच्छा, सामरहट्ठाणं भोयडा भण्णति, तंच बालप्पभितिं इत्थिया ताव बंधंति जाव परिणीया जाव य आवण्णसत्ता जाया तओ भोयणं कज्जति सयण मेलेऊण पडओ दिज्जइ तप्पभिई फिट्टइ भोयडा। नि०चू०१ उ०। भोयण न०(भोजन) भुज-ल्युट अभ्यवहारे, दर्श०१सत्त्व। ध०। कठिनद्रय्यस्य गलविलाधः संयोजने, वाच०। उपभोगे, आचा० 1 श्रु०२ अ०५ उ०। भुज्यत इति भोजनम् "कृद्वहुलम्" इति वचनात् कर्मण्यनट् / बृ०४ उ०ा ओदनाऽऽदिके आहारविशेषे, आव०४अ० स्था०। प्रश्नका उत्त०। भोजनं तन्दुलदाल्यादि। उत्त०१५ अ० स्था०। सूत्र०। उपा० श्रावकस्य कृतप्रत्याख्यानिनो भोजनम्विहिणा पडिपुण्णम्मी, भोगो विगए य थेवकाले उ। सुहधाउजोगभावे, चित्तेणमणाकुलेण तहा।।३६|| विधिना-विधानेन-प्रतिपत्तिसमनन्तरं सततमुपयोगतः प्रतिचरणलक्षणेन / प्रतिपूर्णपौरुष्याद्यवधिके प्रत्याख्यान इति प्रक्रमो, भोगो भोजनं भवति कार्यः / अनेनाऽस्य पालितत्वमुक्तम् / उपलक्षणत्वाचास्य स्पृष्टत्वमप्यस्योक्तमवगन्तव्यम् / लक्षणं चेदमनयोः- "उचिते काले विहिणा, पत्तं जं फासियं त यं भणियं / तह पालियं तु असई, सम्म उवओगपडियरियं / / 1 / / " इति / किं पूर्णमात्र एव? नेत्याह- विगते चातिक्रान्ते च पौरुष्याद्यवधेरुपरि। स्तोककाले तु अल्पवेलायामेव / अनेन च तीरितत्वमस्योपदिष्टम् / तल्लक्षणं चेदम्- 'पुण्णे विथेयकालावस्थाणा तीरिय होइ।' तथा शुभानां सुन्दराणां धातूना वातपित्तकफानां योगानां कायाऽऽदिव्यापाराणां भावः सत्ता शुभधातुयोगभावस्तस्मिन् / धातूनां च शुभत्वं स्तोककालातिक्रमेण भिक्षाऽटनाऽऽदिजन्यश्रमविनोदनेन समत्वमत एव योगानामपीति।तथा-चित्तेन मनसा अनाकुलेनाव्याक्षिप्तेन / व्याकुलचित्तेन हि भोजने दोषसंभवात्। यदाह"ईभियक्रोधपरिष्कृतेन, लुब्धेन तृड्दैन्यविपीडितेन। प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न सम्यक् परिणाममेति॥१॥" तथेति समुच्चये / इति गाथाऽर्थः // 36 // भोगविधिमेव विशेषणायाऽऽहकाऊण कुसलजोगं, उचियं तक्कालगोयरं णियमा। गुरुपडिवत्तिप्पमुहं, मंगलपाठाइयं चेव // 37 / / कृत्वा- विधाय कुशलयो गं शोभनव्यापारम्, भुञ्जते धर्मरता इति योगः / उचित स्वभूमिकाहम्, तत्कालगोचरं भो Page #1619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1611 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण जनावसरविषयम्। नियमादवश्यन्तया। किंभूतमित्याह-गुरूणां मातापितृधाऽऽचार्यदेवतालक्षणानां, प्रतिपत्तिरुचितपूजाप्रमुखाद्या यस्य परिवारग्लानप्रतिचारणाऽऽदेः, स तथा तम्। अनेन च शोभितत्वं प्रत्याख्यानस्योक्तम् / यदाह-- "गुरुदाणसेस-भोयणसेवणयाए उ सोहियं जाण। तथा-मङ्गलपाठाऽऽदिकं चैव पञ्चनमस्कारपठनप्रभृतिकमेव च, आदिशब्दाशर्ममङ्गलाऽऽदिप्रशस्तश्रुतपरिग्रहः / इति गाथाऽर्थः / / 37 / / तथासरिऊण विसेसेणं, पच्चक्खायं इमं मए पच्छा। तह संदिसाविऊणं, विहिणा मुंजंति धम्मरया / / 38|| स्मृत्वा-- अनुचिन्त्य, विशेषेण भोजनकालात्प्राचीन-सामान्यस्मरणापेक्षया विशेषतः / कि तदित्याह- प्रत्याख्यातमभ्युपगतम्, इदं नमस्कारसहिताऽऽदिकम्, मयेत्यात्मनिर्देश / कदा प्रत्याख्यातमित्याह - पश्चात्पूर्वकाले भोजनकालापेक्षया, अनेन चास्य कीर्तितत्वमुक्तम्। आह च- "भोयणकाले अमुगं,पच्चक्खायति भुंज किट्टिययं / ' तथेति क्रियान्तरसमुच्चये / संदेश्य संदिशन्तमनुजानन्तमाचार्यमनु प्रयुज्य संदिशत यूयं मां येन पारयामीत्येवमनुज्ञाप्येत्यर्थः / विधिनाऽनेनैवोक्तरूपेण भोजनविधिना वा स्थानविशेषाऽऽश्रयणाऽऽदिना / ताशा.. "ठाण दिसिं पगासणया, भायण पक्खेवणा य गुरु भावे / सतविही आलोओ, सया वि जयणा सुविहियाणं / / 1 // " भुञ्जतेऽश्रन्ति, धर्मरताश्चारित्रधर्माऽऽसक्तचित्ता इति गाथाऽर्थः / / 38|| उक्त भोगद्वाम् / पञ्चा० 5 विव०तथा-काले बुभुक्षोदयावसरलक्षणे सात्म्यात् 'पानाऽऽहाराऽऽदेथा यस्याऽविरुद्धाः प्रकृतेरपि / सुखित्वाय च कल्प्यन्ते तत्सात्म्यमिति गीयते॥१॥" इत्येवं लक्षणादलौल्यतश्च, चकारो गम्यः, आकाङ्क्षातिरेकादधिकभोजनलक्षणलौल्यत्यागात् भुक्ति जनम् / अयमभिप्रायः-आजन्मसात्म्येन भुक्तं विषमपि पथ्यं भवति, परमासाम्यमपि पथ्यं सेवेतन पुनः सात्म्यप्राप्तमप्यपथ्यं, सर्व बलवतः पथ्यमिति मन्वानः कालकूट खादन् सुशिलितो हि विषतन्त्रज्ञो मियत एव कदाचिद्विषात, सात्म्यमपि च लौल्यपरिहारेण यथाग्निबलमेव भुजीत, अतिरिक्तभोजनं हि वमनविरेचनमरणादिना न साधु भवति, "यो हि मितं भुक्ते स बहु भुक्त।" अक्षुधितेन ह्यमृतमपि भुक्तं भवति विष, तथा क्षुत्कालातिक्रमादन्नद्वेषो देहसादश्च भवति, वि ध्यातेऽग्नौ किं नामेन्धनं कुर्यादिति।।१७।। (10 श्लोक) ध०१ अधिवा (आहारग्रहणस्य संपूर्णोऽधिकारः 'गोयरचरिया, शब्दे तृतीयभागे 1003 पृष्ठे गतः) इह तत आगतस्य भोजनविधिः / इदानीं स्थानविशोधि व्याख्यानयन्नाहउवरि हेवा य पमजिऊण लढेि ठवेज्ज सट्ठाणे। पट्ट उवहिस्सुवरिं, भायणवत्थाइँ भाणेसु // 264 / / उपरि कुड्यस्थाने अधस्ताच भुवं प्रमृज्य पुनश्च स्वस्थाने यष्टिं स्थापयेत्, पुनश्च पट्टकं चोलपट्टकम् उपधेरुपरि स्थापयेत्, मुञ्चति भाजनवस्त्राणि च, पटलानि भाजनेषु पात्रोपरि स्थापयति जइ पुंण पासवणं से, हवेज तो उग्गहं सपच्छागं। दाउं अन्नस्स स चोलपट्टओ काइयं णिसिरे।।२३५|| यदि पुनस्तस्य साधोः प्रश्रवण कायिकाऽऽदिर्भवति ततश्च अवग्रह पतद्ग्रह संपच्छागं सपटलं दातुं समर्च अन्यस्य साधोः पुनश्च सह चोलपट्टकेन चोलपट्टकद्वितीयः कायिकां व्युत्सृजति, कायिका व्युत्सृज्य कायोत्सर्ग करोति। तत्र च को विधिरित्यत आहचउरंगुलमुहपोत्ती, उज्जुयए वामहत्थिरयहरणं / वोसट्ठचत्तदेहो, काउंस्सगं करेज्जाहि।।५१०॥ चतुर्भिरड्गुलर्जानुनोरुपरि चोलपट्टकं करोति नाभेश्व अधश्चतुर्भिरगुलैः पादयोश्चान्तरं चतुरङ्गुलं कर्तव्यं, तथा मुखवस्त्रिकामुज्जुगे दक्षिणहस्तेन गृह्णाति वामहस्तेन च रजोहरण गृह्णाति, पुनरसी व्युत्सृष्टदेहः प्रलम्बितबाहुस्त्यक्तदेहः सर्पाऽऽद्युपद्रवेऽपि नोत्सारयति कायोत्सगम्, अथवा-- व्युत्सृष्टदेहः दिव्योपसर्गेष्वपि न कायोत्सर्गभङ्गं करोति, त्यक्तदेहः अक्षिमलदूषिकामपि नाऽपनयति, स एवं-विधः कायोत्सर्ग कुर्यात्। इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाहचउरंगुलमप्पत्तं, जाणुगहेट्ठा छिवोवरिं णाभिं। उमओ कोप्परधरियं, करेन्ज पट्टं च पडलं वा // 266|| चतुर्भिरगुलैरधोजानुनी अप्राप्तः चोलपट्टको यथा भवति तथा नाभि च उपरि च तुर्भिरङ्गुलैर्यथा न स्पृशति, उभयतो बाहुकूपराभ्यां धृतं करोति, पट्टकंचोलपट्टकं पडलं वा उभयकूर्परधृतं करोति, यदा चोलपट्टकः सच्छिद्रो भवति तदा पटलं गृह्णाति। पुवुद्दिष्टे ठाणे, ठाउं चउरंगुलंतरं काउं। मुहपोत्ति उज्जुहत्थे, वामम्मि य पादपुंछणयं / / 511 / / पूर्वोद्दिष्टमेव कायोत्सर्गस्थानं तस्मिन् स्थित्वा तथा पादस्य चान्तरं चतुरडगुलं कृत्वा मुखवस्त्रिका च दक्षिणहस्ते कृत्वा वामहस्ते पादपुञ्छनकरजोहरणं कृत्वा कायोत्सर्गेण तिष्ठति। काउस्सग्गम्मि ठिओ, चिंते समुयाणिए अईयारे। जा णिग्गमप्पवेसो, तत्थ उ दोसे मणे कुजा॥५१२॥ पुनश्च कायोत्सर्गेण व्यवस्थितः चिन्तयेत् 'सामुदानिकानतीचारान' भिक्षातिचारानित्यर्थः / कस्मादारभ्य चिन्तयत्य-तिचारान्? निर्गमादारभ्य यावत्प्रवेशो वसतौ जातः, अस्मिन्नन्तराले तत्र दोषा ये जातास्तान मनसि करोति स्थापयति चेतसि। ते उ पडिसेवणाए, अणुलोमा होति वियडगाए य। पडिसेववियडणाए, एत्थनु चउरो भवे भंगा / / 513 / / तांश्वातिचारान् प्रतिसेवनाऽनुलोम्येन यथैव प्रतिसेविता स्तेनै - वानुक्रमेण कदाचिचिन्तयति, तथा (वियडणाए त्ति) विकटना आलोचना तस्यां चानुलोमानेव चिन्तयति। एतदुक्तं भवति- “पढम लहुओ दोसो पडिसेविओ पुणो वड्डो वड्डुतरो, चिंतेइ एवमेव" ततश्च प्रतिसेवनाया अनुकूलम्, आलोचनायामपि अनुकूलमेव, यतः प्रथम लघुको दोषः आलोच्यते पुनर्बहत्तरः पुनर्बहत्तम इति एष Page #1620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1612 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण प्रथमो भङ्गकः। "अन्नो पडिसेवणाए अनुकूलो न उण वियडणाए।' एतदुक्तं भवति- "आसेवियं पढम बडु, पुणो लहुयं पुणो वड्डे पुणो वड्डयर चिंतेइ।' एवमेव, ततश्च प्रतिसेवनाया अनुकूलम्, न त्वालोचनायाः, यतस्तत्र प्रथम लघुतर आलोच्यते, पुनर्बहत्तरः, पुनर्बहत्तमः, इति एष द्वितीयो भङ्गः। "अन्नो पडिसेवणाए णाणुकूलो आलोयणाए पुण अणुकू लो।" एतदुक्तं भवति-“अडवियड्डा' पडिसेविया चितेइ पुण आलोयणाणुकूलेण, एस तइओ भंगो, अण्णे उण पडिसेवणाए वि अणणुकूलो आलोयणाए विअणणुकूलो। एतदुक्तं भवति-"पढम वड्डो पडिसविओ पुणो लहुओ पुणो वड्डो वड्डयरो,चिंतेति पुण जं जहा संभरइ, पढम वड्डो पुणो लहुओ पुणो वड्डो पुणो वड्डयरो, एवं अड्डवियर्ल्ड चिंतंतस्स ण पडिसेवणाणुकूलोणालोयणाणुकूलो, एस चउत्थो, एसोय वजेयव्यो।" इदानीममुमेवार्थ गाथार्द्धनोपसंहरन्नाह– 'पडिसेववियडणाए, होति एत्थं पि चउभड़ा।" इदं व्याख्यातमेवेति। इदानीं सामुदानिकानतीचारानालोचयति, यदि व्याक्षेपाऽऽदिरहितो गुरुर्भवति, अथ व्याक्षिप्तो गुरुर्भवति तदाऽनालोचयति, एतदेवाऽऽहवक्खित्तपराहुत्ते, पमत्ते मा कयाइ आलोए। आहारं च करेंतो, णीहारं वा जइ करेइ / / 514|| व्याक्षिप्तो धर्मकथाऽऽदिना स्वाध्यायेन (पराहुत्तो त्ति) पराङ्मुखः अन्यतोऽभिमुखः, प्रमत्त इति विकथयति, एवंविधे गुरौ न कदाचिदालोचयेत, तथा आहारं कुर्वति सति,तथा नीहारं वा यदि करोति ततोऽनालोचयति। ___ इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकारो व्याख्यानयन्नाहकहणाईवक्खित्ते, विगहाइ पमत्त अन्नओ व मुहे। अंतरमकारए वा, णीहारे संक मरणं वा / / 267 / / धर्मकथाऽऽदिना वा व्याक्षिप्तः कदाचिदगुरुर्भवति, विकथाऽऽदिना वा प्रभत्तोऽन्यतोऽभिमुखो वा भवति, भुञ्जतोऽपि नाऽऽलोचनीय, किं कारणम्? (अंतरं ति) अंतराय वा भवति यावदालोचनां शृणोति, अकारकं वा शीतलं भवति यावदालोचनां शृणोति तथा नीहारमपि कुर्वतो नाऽऽलोचनीयं, किं कारणम्? यत आशङ्ख्या साधुजनितया न कायिकाऽऽदिनिर्गच्छति, अथ धारयति ततो मरण वा भवति; यस्मादेते दोषास्तस्मात् - अवक्खित्ताउत्तं, उवसंतमुवट्ठियं च नाऊणं / अणुण्णवेत्तु मेहावी, आलोएज्जासुसंजए।।५१५।। धर्मकथाऽऽदिनाऽव्याक्षिप्ते गुरौ आलोचयेत्, आयुक्तमुपयोगतत्परम्, उपशान्तम्- अनाकुलं गुरुं दृष्ट्वा उपस्थितम् उद्यतं च ज्ञात्वा, एवंविधं गुरुमनुज्ञाप्य मेधावी आलोचयेत् सुसंयतः-साधुः / इदानीमेनामेव गाथा व्याख्यानयन भाष्यकृदाहकहणाइ अवक्खित्ते, कोहाई अणाउले तदुवउत्ते। संदिसह त्ति अणुन्नं, काऊण विदिन्नमालोए॥२६८।। धर्मकथाऽऽदिना व्याक्षिप्ते क्रोधाऽऽदिभिरनाकुले तदुपयुक्ते भिक्षाऽऽलोचनोपयुक्ते च (संदिसह त्ति) 'अणुन्नं काऊण संदिसत" आलोचयामीत्येवमनुज्ञां कृत्वा मार्गयित्वेत्यर्थः (विदिण्णे त्ति) आचार्येण विदि नायामनुज्ञायां भणत इत्येवं लक्षणायां तत आलोचयेत्। तेन च साधुना आलोचयता एतानि वर्जनीयानि। . दारगाथाणटुं बलं चलं भासं, मूयं तह ढरं च वज्जेज्जा। आलोएज सुविहिओ, हत्थं मत्तं च बावारं / / 516 / / नृत्यन्नालोचयति बलन्नालोचयति अङ्गानि चलयन्नालोचयति, तथा भाषमाणो गृहस्थभाषया नालोचयति, किं तर्हि? संयतभाषया आलोचयति, तद्यथा- "सुयारियाओ" इत्येवमादि, तथा आलोचयन मूकेन स्वरेण नालोचयति मिणिमिणत, तथा ढकुरेण च स्वरेण उच्चैन्नालोचयति, एवंविधं स्वरं वर्जयेत्। किं पुनरसावालोचयतीत्येतदाह-आलोचयेत सुविहितः हस्तमुदकस्निग्धं, तथा मात्रकं गृहस्थसत्कं कडुच्छुकाsऽदि उदकाऽऽर्दाऽऽदि, तथा-गृहस्थया कतम व्यापारं कुर्वत्या भिक्षा दत्तेत्यालोचयति। इदानीमेतामेव गाथां व्याख्यानयत्राहकरपायभमुहसीसऽच्छिउट्ठमाईहि णट्टियं णाम। वलणं हत्थसरीरे, चलणं काए य भावे य॥२६६।। करस्य तथा पादस्य भुवः शिरसः अक्ष्णः ओष्ठस्य च,एवमादीनामङ्गाना सविकारं चलनं नर्तन नाम, एतत् कुर्वन्नालोचयति, बलनं हस्तस्य शरीरस्य कुर्वन्नालोचयति, तथा चलनं कायस्य करोति, मोटनं तत्कुर्वनालोचयति, तथा भावतश्चलनमन्यथा गृहीतमन्यथाऽऽलोचयति "अइवियडु"आलोचयन्। गारत्थियभासाओ, य वज्जए मूय ढकुरं च सरं। आलोए वावार, संसट्ठियरे व करमत्ते // 270 / / गृहस्थभाषया न आलोचयति, यथा "सुग्गीवो लंगणीओ लद्धाओ मण्डया लद्धा" इत्येवमादि, किंतु-संयतभाषया आलोचनीयं "सुयारियाओ' इत्येवमादि, मूकस्वरे मनाक्ढकुरं च महान्तं स्वर वर्जयित्वा आलोचयति, किमालोचयति? व्यापार गृहस्थयोः संबन्धिनं, तथा'संसृष्टम्' उदकाःऽऽदि, इतरम् असंसृष्ट, किं तत्? कर संसृष्टमसंसृष्ट च उदकेन, तथा--मात्रक गृहस्थसत्कं कुण्डलिकाऽऽदिउदकसंसृष्टमसंसृष्टं चेति, एतदालोचयेत्। एयदोसविमुक्कं , गुरुणा गुरुसम्मयस्स वाऽऽलोए। जं जह गहियं तु भवे, पढमाओ जा भवे चरिमा / / 517|| एभिषेर्विप्रमुक्तमनन्तरोक्तैर्मक्षमालोचयेत् गुरोः समीपे वा यो गुरोः समतो बहुमतरतस्य समीपे आलोचयेत्, कथमालोचनीय? यद्यथा गृहीतं भवेत् येन क्रमेण यत् गृहीतं प्रथमभिक्षाया आरभ्य यावच्चरमा पश्चिमा भिक्षा तावदालोचयेदिति। एष तावदुत्सर्गेणाऽऽलोचनविधिः। यदा तु पुनरेतानि कारणानि भवन्ति तदा ओघत आलोचयतीत्येतदेवाऽऽहकाले अपहुप्पंते, उच्चाओ वाऽवि ओहमालोए। वेला गिलाणगस्स व, अइच्छइ गुरू व उच्चाओ॥५१८।। यदा तु पुनः काल एव न पर्याप्यते यावदने न क्र मेणाऽs - लोचयति तावदस्तं गच्छत्यादित्यस्तदा तस्मिन् काले ओघत आलोचयति; यदि वा-श्रान्तःकदाचिद्भवति तदाऽपि ओघत Page #1621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1613- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण एवाऽऽलोचयति, वेला वा ग्लानस्यातिक्रामति यावक्रमेणाऽऽलोचयति अत ओघत आलोचयति, अथवा-गुरुः 'उच्चातो' श्रान्तः, कुलाऽऽदिकायेण केनचित तत आंघत आलोचयत्येव कारणेरिति / का चासावाघाऽऽलोचना ? पुरकम्मपच्छकम्मे, अप्पेऽसुद्धे, य ओहमालोए। तुरियकरणम्मि जं से, न सुज्झई तत्तिअं कहए / / 516 // आकुलत्वे आपन्ने सत्येवमोघाऽऽलोचनयाऽऽलोचयतिपुरः कर्म पश्चात्कर्मच अल्पंनास्ति किचिदित्यर्थः, असुद्धेय त्ति' अशुद्धं चाल्पम्, अशुद्धमाधाकर्माऽऽद्यभिधीयते तदल्पनास्तीति, एवमोघतः- सक्षेपेणाऽऽलोचयेत् / 'तुरियकरणम्मि त्ति' त्वरिते कायें जाते सति यन्न शुद्ध्यति उक्तेन प्रकारेण तावन्मात्रमेव कथयति. एषा ओघाऽऽलोचनेति। आलोइत्ता सव्वं, सीसं सपडिग्गहं पमजित्ता। उद्यमहो तिरियम्मि, पडिलेहे सव्वओ सव्वं // 520 // एवमेषा मानसी आलोचना वाचिकी वाऽऽलोचनोक्ता, इदानीं कायिकी आलोचना भण्यते-आचार्यस्य भिक्षा दयते, एवं मनसा वाचा वाऽऽलोचयित्वा 'सर्वं निरवशेष, तथा मुखवस्त्रिकया शिरः प्रमृज्य पतद्गहं च सपटलं प्रमृज्य 'ऊर्द्ध पीठीः 'अधो' भुवि तिर्यक् तिरश्चीनं प्रत्युपेक्षेत' / निरुपयेत् सर्वतः समन्ताच्चतसृष्वपि दिक्षु सर्वनरन्तर्येण, ततः पतद्ग्रह हस्ते कृत्वा भक्ताऽऽदि गुरोर्दर्शयतीति वक्ष्यति भाष्यकृत्।। इदानीमेतामेव गाथा भाष्यकृदाह, तत्र गुरुदोषत्वात्प्रथमूर्द्धाऽऽदीनि त्रीणि पदानि व्याख्यानयन्नाह भाष्यकार:उड्ढ पुप्फफलाई, तिरियं मजारिसाणडिभाई। खीलगदारुगआवडणरक्खणट्ठा अहो पेहे!॥२७१।। उद्यानाऽऽदौ आवासिताना सतां पुष्पफलाऽऽदिपातमूर्द्ध निरूप्य ततो गुरोर्दर्शयति, तिर्यङ् मार्जारश्वडिम्भानालोक्याऽऽलोचयति, मा भूते आगच्छन्तस्तत्पात्रमुत्प्रेयं पातायिष्यन्ति आदिशब्दात्काण्डं वा केनचिद्विक्षिप्तमायाति, अतस्तिर्यग निरूप्यते, तथाऽधो निरूपयति, किमर्थ ? कदाचित्कीलको भवति, तत्राऽऽपतनम्- आरखलनं मा भूदति, अतोऽधो निरूप्य ततो भक्ताऽऽदि दर्शयति / इदानीं 'सीसं सपाडग्गहं पमज्जेत्त त्ति व्याख्यानयतिओणमओ पवडेजा, सिरओ पाणा सिरं पमज्जेज्जा। एमेव उग्गहम्मि वि, मा संकुडणे तसविणासो // 272 / / हस्तस्थे पतद्ग्रहेऽवनमतः शिरसः प्रपतेयुः प्राणिनः कदाचिदतः, शिर:-प्रथममेव प्रमार्जयेत्, एवमेव पतद्ग्रहे प्रमार्जनं कृत्वा प्रदर्शयेद्वक्ताऽऽदि, कि कारणं? 'मा संकुडणे तसविणासो त्ति / ' मा भूत्सकोचने सति पटलाना साऽऽदिविनाशा भविष्यत्यतः प्रमृज्य पतद्ग्रह भक्तं प्रदर्शयतीति। काउं पडिग्गहं करयलम्मि, अद्ध च ओणमित्ताणं / भत्तं वा पाणं वा पडिदंसिजा गुरुसगासे // 273 / कृत्वा पतद्ग्रह करतले अर्धं च शरीरस्यावनम्य पुनर्भक्तं वा प्रदर्शयेत् गुरुसकासे इति! ताहे य दुरालोइय, भत्तपाण एसणमणेसणाए उ। अठुस्सार्स अहवा, अणुग्गहादी उझाएज्जा / / 274 / / ततः कदाचिद् दुरालोचितं भक्तपानं भवति, 'नटुं बलं चलं' इत्येवमादिना प्रकारेण, तथैषणादोषः कदाचित् सूक्ष्मः कृतो भवति. अनेषणादोषो वा कश्चिदजानता, ततश्चैतेषां विशुद्धयर्थमष्टोच्छासं नमस्कार ध्यायेत, अथवा-'अनुग्रहादीति' अथवाऽनुग्रहाऽऽदिध्यायेत्, "जइ मे अणुग्गहं कुजा, साहू हुजामि तारिओ।" इत्येवमादि गाथाद्वयं कायोत्सर्गस्थो विशुद्ध्यर्थ ध्यायेत्, उत्सार्य च कायोत्सर्ग ततः स्वाध्याय प्रस्थापयत्। एतदेवाऽऽहविणएण पट्ठवित्ता, सज्झायं कुणइ तो मुहुत्तागं। पुव्वभणिया य दोसा, परिस्सगाई जढा एवं / / 521 / / विनयेन प्रस्थाप्य स्वाध्याय योगविधाविव ततः स्वाध्याय मुहूर्तमात्र करोति, जघन्यतो गाथात्रयं पठति, उत्कृष्टतश्चतुर्दशापिसूक्ष्माणप्राणलब्धिसंपन्नोऽन्तर्मुहूर्तेन परावर्त्तयति, एवं च कुर्वता पूर्वभणिता दोषा धातुक्षोभे मरणमित्येवमादयः तथा परिश्रमाऽऽदयश्च दोषाः 'जढाः' त्यक्ता भवन्तीति। दुविहो य होइ साहू, मंडलिउवजीवओ य इयरो य। मंडलिमुवजीवंतो, अच्छइ जा पिंडिया सव्वे // 522 / / सच साधुर्द्विप्रकारो मण्डल्युपजीवकः, इतरश्च अमण्डल्युपजीवकः, तत्र यो मण्डल्युपजीवकः साधुः सो हिण्डित्वा भिक्षांतावत्प्रतिपालयति यावत् पिण्डिताः एकीभूताः सर्वेऽपि साधवो भवन्ति, पुनश्च स तैः सह भुङ्क्ते। इयरोऽवि गुरुसगासं, गंतूण भणइ संदिसह भंते ! / पाहुणगखवग अतरंतबालवुड्डाणसेहाण / / 523 / / इतरोऽपि अमण्डल्युपजीवकः, तत्र यो मण्डल्युपजीवकः स साधुः गुरुसकाशं गत्वा तमेव-गुरुं भणति-यदुत हे आचार्याः ! संदिशत ददत यूयमिदं भोजनं प्राघूर्णकक्षपकाऽतरन्तबालवृद्धशिक्षकेभ्यः साधुभ्य इति। पुनश्चदिन्ने गुरुहिं तेसिं, सेसं भुजेज गुरुअणुनायं / गुरुणा संदिट्ठो वा,दाउं सेसं तओ मुंजे / / 524 / / एवमुक्तेन सता गुरुणा दत्ते सति तेभ्यः- प्राधूर्णिकाऽऽदिभ्यः यच्छेषं तद्भुञ्जीत गुरुणा अनुज्ञाते सति, यदि वा-गुरुणा संदिष्ट उक्तः, यदुत त्वमेव प्राघूर्णकाऽऽदिराः प्रयत्छ, एवमसौ साधुर्भणितः सन् दत्त्वा प्राघूर्णकाऽऽदिभ्यः ततः शेष यद् भक्तं तद् भुड्क्ते, एवं न केवलमसौ प्राघूर्णकाऽऽदिभ्यो ददाति अन्यानपि साधून्निमन्त्रयति, तत्र याद ते गृह्णन्ति ततो निर्जरा / अथ न गृह्णन्ति तथाऽपि विशुद्धपरिणामस्य निर्जरैवेति। एतदेवाऽऽहइच्छिजन इच्छिज्ज व, तह यि य पयओ नियंतए साहू। Page #1622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1614 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण पाप परिणामविसुद्धीए, अनिन्जरा होअगइहिए वि॥५२५।। इच्छेत् कश्चित् साधुर्नेच्छेद् वा तथाऽपि प्रयत्नेन सद्भावेन निमन्त्रयेत् साधून एवं सद्भावेन निमन्त्रयतः परिणामविशुद्ध्या चित्तनर्मल्याद् निर्जरा भवति कर्मक्षयलक्षणा अगृहीते अपि भुक्ते। अथावज्ञया निमन्त्रयति ततश्चायं दोषःभरहेरवयविदेहे, पन्नरस वि कम्मभूमिगा साहू। इक्कम्मि हीलियम्मि, य, सव्वे ते हीलिया होंति // 526 / / सुगमम् / यदा पुनरादरण निमन्त्रयति तदाऽयं महान गुणःभरहेरवयविदेहे, पन्नरस वि कम्मभूभिया साहू। इकम्मि पूइयम्मि य, सव्वे ते पूइया हुंति // 527 / / सुगमा। अत्राऽऽह परःअह को पुणाइ नियमो, एक्कम्मि विहीलियम्मि ते सव्वे / होंति अवमाणिया पूइए य संपूइया सव्वे / / 528|| अथ कः पुनरयं नियमः? यदुत एकस्मिन्नवमानिते सति सर्व एवापमानिताभवन्ति, तथा एकस्मिन् संपूजिते सति सर्व एव संपूजिता भवन्ति, न चकस्मिन् संपूजिते सर्वे संपूजिता भवन्ति, न हि यज्ञदत्ते भुक्ते देवदत्तो भुक्तो भवतीति। आचार्य आहनाणं व दंसणं वा, तवो य तह संयमो य साहुगुणा / इक्के सव्वेसु वि हीलिएसु ते हीलिया हुंति / / 526 // ज्ञानं दर्शनं च तपः तथा संयमश्च, एते साधुगुणा वर्तन्ते, एते च गुणा यथैकस्मिन् साधौ व्यवस्थिता एवं सर्वेष्वपि, एकरूपत्वात्तेषा, यतश्चैवमत एकस्मिन् साधौ हीलिते-अपमानित सर्वेषु वा साधुषु हीलितेषु ते ज्ञानाऽऽदयो गुणा हीलिता अपमानिता भवन्ति। एवमेव पूईयम्मि वि, एक्कम्मि वि पूईया जइगुणा उ! थोवं बहूनिवेसं, इति णचा पूयए मइमं // 530 / / एवमेकस्मिन् पूजितेपूजितायतिगुणाः सर्वे भवन्ति, यस्मादेवंतस्मात् स्तोकमेतद्भक्तपानाऽऽदि बहुनिवेसं बहायमित्यर्थः, निर्जराहेतुरिति, तस्मादेवं ज्ञात्वा पूजयेत् साधून्मतिमानिति, यतश्चैवमत एवमेव कर्तव्यम। एतदेवाऽऽहतम्हा जइ एस गुणो, एक्कम्मि वि पूइयम्मि ते सव्वे / भत्तं वा पाणं वा, सव्वपयत्तेण दायव्वं / / 531 / / सुगमा। वेयावचं निययं, करेह उत्तरगुणे धरिताणं / सव्वं किल पडिवाई, वेयावचं अपडिवाई / / 532 / / वैयावृत्त्य नियतं सततं कुरुत, केषाम्? उत्तरगुणान् धार यतां साधूनां | कुरुत, शेष सुगमम्। किंचपडिभग्गस्स मयस्स व, नासइ चरणं सुयं अगुणणाए। नहु वेयावचचियं, सुहोदयं नासए कम्मं / / 533 / / प्रतिभग्नस्य उन्निष्क्रान्तस्य मृतस्य वा नश्यति चरणं श्रुतमगुणनया न तु वैयावृत्यचित्तं वद्धं शुभोदयं नश्यति कर्म। किंचलाभण जोजयंतो, जइणो लाभंतराइयं हणइ। कुणमाणो य समाहिं, सव्वसमाहिं लहइ साहू // 534|| लाभेन प्राप्त्या घृताऽऽदेः योजयन् घृताऽऽदिलाभेन योजयन, कान्? यतीन् लाभान्तरायं कर्म हन्ति / तथा पादप्रक्षालनाऽऽदिना कुर्वन् समाधिं सर्वसमाधि मनसः स्वस्थतां वचो माधुर्याऽऽदिकं कायस्य निरुपद्रवताम्, एवं कुर्वन् त्रिरूपमपि सर्वसमाधि लभते। भरहो बाहुबली वि य, दसारकुलनंदणो य बसुदेवो। वेयावचाहरणा, तम्हा पडितप्पह जईणं // 535 / / सुगमा, नवरम् (पडितप्पह त्ति) वैयावृत्यं कुरुत। किंचहोज्ज व ण होज लंभो, फासुयआहारउवहिमाईणं। लंभो य निजराए, नियमेण अओ उ कायव्वं // 536 / / भवेद् वा न वा लाभः, केषां प्रासुकानाम् आहारोपध्यादीनां तथाऽपि तस्य वैयावृत्त्यर्थमभ्युद्यतस्य साधोर्विशुद्धपरिणामस्य लाभ एव निर्जराया अवश्यम्, अलाभेऽपि सति निर्जरा भवति, यस्मादेवं तस्मात्कर्त्तव्यं वैयावृत्यम्। वेयावच्चे अन्भुट्ठियस्स सद्धाएँ काउकामस्स। लाभो चेव तवसिस्स होइ अद्दीणमणसस्स / / 537 / / सुगमा, नवरं वैयावृत्ये अभ्युत्थितस्य उद्यतस्य श्रद्धया कर्तुकामस्य लाभ एव / ओघ०। (ग्रासैषणा 'एसणा' शब्दे तृतीयभागे 70 पृष्ठे प्रतिपादिता) उवजीवि अणुवजीवि, मंडलिं पुव्ववण्णिओ साहू। मंडलिअसमुद्दिसगाण ताण इणमो विहिं वोच्छं / / 547 / / तत्र मण्डल्युपजीवी साधुरनुपजीवी च पूर्वमेव द्विविधो व्यावर्णितः साधुरेकः, इदानी बहूनां मण्डल्यामसमुद्दिशकानां यो विधिः भवति तं वक्ष्ये। ते च कथं मण्डल्यामसमुद्देशका भवन्ति? अत आहआगाढजोगवाही, णिज्जूठत्तट्ठिया व पाहुणगा। सेहा सपायछित्ता, बाला बुड्ढेवमादीया।।५४८|| आगाढयोगोगणियोगः तत्स्थाये ते मण्डली नोपजीवन्ति, (निज्जूढ त्ति) अमनोज्ञाः कारणान्तरेण तिष्ठन्तितेपृथक् भुञ्जते,तथा आत्मार्थिकाश्च पृथक भुञ्जते, प्राघूर्णकाच, यतस्तेषां प्रथममेव प्रायोग्य पर्याप्त्या दीयते, ततस्तेऽपि एकाकिनो भवन्ति, शिक्षका अपि सागारिकत्वात् पृथक् भोज्यन्ते, सप्रायश्चित्ताश्च पृथक् भोज्यन्ते, यतस्तेषां शवलं चारित्रं, शवलचरित्रैः सह न भुज्यते, बालवृद्धा अप्यसहिष्णुत्वात् प्रथममेव भुञ्जते, अतस्तेऽप्येकाकिन इति, एवमाद्या मण्डल्यामसमुद्दिशका भवन्ति, आदिग्रहणात् कुष्ठव्याध्याधुपद्रुता इति। Page #1623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1615 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण ते च भुञ्जानाः सन्त आलोके भुञ्जते। स चाऽऽ लोको द्विविधो भवतीत्याहदुविहो खलु आलोगो, दव्वे भावे य दवि दीवाई। सचविहो पुण भावे आलोगं तं परिकहेह // 546 / / द्विविध आलोकः- द्रव्याऽऽलोको भावाऽऽलोकश्च। तत्र द्रव्याऽऽलोकः प्रदीपाऽऽदि, भावे भावविषयः पुनरालोकः सप्तविधः, च कथयाम्यहम्, तत्र भावाऽऽलोकस्येयं व्युत्पत्तिः- आलोक्यत इत्यालोकः स्थानदिगादिनिरूपणमित्यर्थः। तं च सप्तविधमपि प्रतिपादयन्नाहठाणदिसिपगासणया, भायणपक्खेवणे य गुरुभावे / सत्तविहो आलोओ, सया विजयणा सुविहियाणं / / 550 / / तैश्च अमण्डलिसमुद्दिशकैः निष्क्रमणप्रवेशवर्जिते स्थाने भोक्तव्यं, तथा कस्यां दिशि आचार्यस्योपवेष्टव्यमित्येतद्वक्ष्यति, तथा सप्रकाशे स्थाने भोक्तव्यम, भाजने च विस्तीर्णमुखे भोक्तव्यं, प्रक्षेपणं च कवलाना कुक्कुट्यण्डकमात्राणां कर्त्तव्यं, तथा गुरोश्चक्षुः पथे भोक्तव्यं, तथा भावो ज्ञानाऽऽदिः तत् संवहनार्थ भोक्तव्यमित्येतद्वक्ष्यति, एवमयं सप्तविध आलोकः सदाऽपि च यतना तस्मिन सप्तविधेऽप्यालोके यतना सुविहितानाम्। इदानी भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्राऽऽद्यावयवव्याचिख्यासुराहनिक्खमपवेसमंडलिसागारियठाणपरिहियट्ठाइ। माहक्कासणभंगो, अहिगरणं अंतरायं वा / / 275 / / निष्क्रमप्रवेशौ वर्जयित्वा भोजनार्थमुपविशन्ति, तथा मण्डलीप्रवेशं च वर्जयन्ति, तथा सागारिकस्थानं च परिहत्य भुञ्जते माभूत्सागारिके प्राप्ते सति एकाशनभङ्गः स्यादिति, अधिकरणं राटियं भवति अन्येन प्रव्रजितेन सह अस्थाने उपविष्टस्य भुजतोऽन्तरायं च भवति, कथं? स साधुरन्यस्य सत्के स्थान भुड्क्ते उपविष्टः, सोऽपि साधुरागतः प्रतीक्षमाण आस्ते, एवं च अन्तरायं कर्म बध्यते। इदानीं दिशाद्वारप्रतिपादनायाऽऽहपच्चुरसि-परंमुहप-द्विपक्खि एया दिसा विवजित्ता। ईसाणग्गेईय व, ठाएज गुरुस्स गुणकलिओ // 276|| उरसोऽभिमुखं प्रत्युरसं गुरोरभिमुखं वर्जयित्वेत्यर्थः / पराङ्मुखश्च नोपविशति गुरोः, तथा पृष्ठतश्च गुरोनोपविशति, पक्षके च नोपविशति, एवमेता दिशो वर्जयित्वा ईशान्यां दिशि गुरोः आग्नेय्यां दिशि वा तिष्ठेत् उपविशेद् भोजनार्थं गुणकलितः साधुर्यः / इदानीं 'पगासणय त्ति'' व्याख्यायतेमक्खियकंटगठाईण जाणणट्ठा पगास जणया। अट्ठियलग्गणदोसा, दग्गुलिदोसा जहा एवं / / 277 / / कथं नु नाम मक्षिका ज्ञायते-दृश्यते तथा कण्टको वा कथं तु नाम दृश्येत, अस्थिया उपलभ्येत? एवमर्थं प्रकाशे' सोद्योतस्थाने भुज्यते, आदिग्रहणाद्वालाऽऽदिपरिग्रहः, तच्च दृश्यते, एवं च प्रकाशे भुज्जानेन योऽसौ गलकाऽऽदौ अस्थिलगनदोषः, तथा कण्टकलनदोषश्च गलका - ऽऽदौ स परिहतो भवति, तथा अन्धकारे मक्षिकाभक्षणजनितो योवल्गुलिव्याधिदोषः स परिहृतो भवति। इदानीं 'भायणं ति" द्वारमुच्यतेजे चेव अंधयारे, दोसा ते चेव संकडमुहम्मि। परिसाडी बहुलेवाडणं च तम्हा पगासमुहे // 278|| य एव अन्धकारे भुजानस्य 'दोषाः मक्षिकाऽऽदिजनिता भवन्तित एव दोषाः सङ्कटमुखे भाजने कमठाऽऽदौ भुजतः, अयमपरोऽधिको दोषः (परिसाडी) परिसाडी भवति पार्श्वे निपतति, तथा (बहुलेवाडणं च) "वडु विच खरडिज्जति हत्थस्स उवरि पि भुजंतस्स संकडे" तस्मात् 'प्रकाशमुखे' विपुलमुखे भाजने भुज्यत इति। पक्खेवणाविही भण्णइकुकुडिअंडगमित्तं, अविगियवयणो उ पक्खिवे कवलं / अइखद्धकारगं वा, जंच अणालोइयं होज्जा // 276 / / कुक्कुट्या अण्डकं कुक्कुट्यण्डकं तत्प्रमाणं कयलं प्रक्षिपेत् वदने, मुखे, किं विशिष्टः सन्? अविकृतवदनः नात्यन्तनिर्घाटितमुखः प्रक्षिपेत् कवलम्। दारम्- 'गुरु त्ति' व्याख्यायते-(अतिखद्ध ति) गुरोरालोके भोक्तव्यं यदि पुनर्गुरोर्दर्शनपथे न भुङ्क्ते ततः कदाचित्साधुः अति-खद्ध अतिप्रचुरं भक्षयेत् निःशङ्कः सन्, सच सव्याजशरीरः कदाचिद्गुरोरदर्शनपथे अकारम् अपथ्यमपि भुञ्जीत निशङ्कः सन् कदाचिद्वा भिक्षामटताऽनेन स्निग्धद्रव्यं लब्धं भवेत्, तच्चाऽनालोच्यैव भक्षये देकान्ते, मा भून्नामाऽऽचार्यो निवारयिष्यति। अतःएएसि जाणणट्ठा, गुरु आलोए तओ उ भुजेजा। नाणाइसंधणट्ठा, ण वण्णवलरूवविसयड्डा।।२८०।। एतेषां प्रचुरभक्षिताऽऽदीनां दोषाणां ज्ञानार्थं गुरोरालोके चक्षुर्दर्शनपथे भुजीत, येन गुरुः समीपस्थः भुञ्जानं दृष्ट्वा प्रचुर भक्षयन्तं निवारयति, तथा अकारकं भक्षयन्तं निवारयति, तथा अनालोचितं चोरितं खादन्तं निवारयति, मा भूदवारणे अपाटवजनिताः दोषाः स्युः। इदानीं 'भावे त्ति' व्याख्यायते-(णाणाऽऽदि) ज्ञानाऽऽदिर्भावः ज्ञानं दर्शनं चारित्रं च एतद्ज्ञानाऽऽदिभावत्रयमभुज्यमाने त्रुट्यति व्युच्छिद्यते, अत एतेषां ज्ञानाऽऽदीनां त्रुट्यतां संधानार्थम् अविच्छिन्नप्रवाहार्थ भुज्यते, न वर्णार्थ भुज्यते, न वर्णो मम गौरः स्यादित्येवमर्थ, तथा बलं मम भूयादित्येवमर्थमपि न भुज्यते, रूपं मम भूयात् बुभुक्षया क्षीणेक्षणगण्डपार्श्वः सन् मासोपचयेन पूरितगण्डपार्श्वः रूपवान् भविष्यामीति, नैवमर्थ भुङ्क्ते नापि विषयार्थ मैथुनाऽऽद्यासेवनार्थ भुक्ते। सो आलोइयभोई, जो एए जुंजए पए सव्वे। गविसणगहणग्घासेसणाइ तिविहाइ वि विसुद्धं / / 551 / / स साधुगुरो रालो चितं भुङ्क्ते , य एतानि पदान्यनन्तरोद्वितानि 'युनक्ति प्रयुङ्क्ते करोति स्थानाऽऽदीनि, सच गवेषण षणया ग्रहण षणया ग्रासै षणया, अनया त्रिविधया Page #1624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1616- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण प्येषणया शुद्ध भुक्ते य एतानि पदानि प्रायुड्वत इति। एवं एगस्स विही, भोत्तव्वे वन्निओ समासेणं। एमेव अणेगाण वि, जं नाणत्तं तयं वोच्छं / / 552 / / एवमेकस्य साधोः भोक्तव्ये विधिर्वर्णितः समासेन संक्षेपेण, एवमेव अनेकेषामपि साधूनां भोजने विधिः, यत्तु पुनर्नानात्वं भवति यो भेदो यदतिरिक्तं भवति तदहं वक्ष्ये। आह-किं पुनः कारणं मण्डली क्रियते? उच्यतेअतरंतबालवुड्डा, सेहाएसा गुरू असहुवग्गो। साहारणोग्गहाऽलद्धिकारणा मण्डली होइ॥५५३।। अतरन्तः अतिग्लानः तत्कारणात्तन्निमित्तं मण्डली भवति, यतस्तस्य ग्लानस्य यद्येकः साधुः वैयावृत्यं करोति ततस्तस्य तत्रैवाक्षणिकस्य सूत्रार्थहानिर्भवति, मण्डलीबघे तु कश्चित्किञ्चित्करोति, एतदर्थ मण्डली क्रियते येन बहवः प्रतिजागरका भवन्तीति। बालोऽपि भिक्षामटितुमसमर्थः, स च बहूना मध्ये सुखेनैव कथं नु नाम वर्तेत?, ततो मण्डली भवति, वृद्धोऽप्येवमेव, सेहः शैक्षकः, स चैकः सन् भिक्षाविशुद्धि नजानाति, ततस्तस्याऽऽनीय दीयते, 'आएसो' प्राघूर्णकस्तस्य चाऽऽगतस्य सर्व एवोपकुर्वन्ति, स चोपकारः सर्वैरव मिलितैः कर्तुं शक्यते न त्वेकेन, गुरोश्व सर्वेरेवोपकर्तुं शक्यते, न त्वेकेन, सूत्रार्थपरिहानेः तथा (असहुवग्ग त्ति) असमर्थो राजपुत्राऽऽदिः, सच भिक्षामटितुसुकुमारत्वान्न शक्नोति, ततश्च सर्व एव मिलिता उपकुर्वन्ति, तस्मात् 'सावारणोग्गहो' साधारणश्वासावुपग्रहश्व साधारणोपग्रहः, तस्मात्साधारणोपग्रहात्कारणात् मण्डली कर्तव्या, अथवा-- मण्डलीविशेषणमेतद्, उपगृह्णाति इति उपग्रहः भक्ताऽऽदिस्स साधारणस्तुल्यो यस्यां सा साधारणोपग्रहा मण्डली भवति (अलद्धिकारणा मण्डली होइ त्ति) कदाचित्कश्चित्साधुरलब्धिमान भवति, ततश्च ते अन्ये साधवः तस्मै आनीय प्रयच्छन्ति, अत एतत्कारणात् मण्डली भवति। इदानी भिक्षागतानां साधूना यो वसतिरक्षपालस्तेन किं कर्त्तव्यमित्यत आहगाउ णियट्टणकालं, वसहीपालो उ भायणुग्गाहे। परिसंठिअच्छदवगेण्हणट्ठया गच्छमासज्जा // 554 // ज्ञात्वा भिक्षागतानां निवर्तनकालं वसतिपालः भाजनं नन्दीपात्रं | तत्प्रत्युपेक्ष्योद्ग्राहयति, संघट्टितेन आस्ते इत्यर्थः, किमर्थः? परिसंस्थिताऽच्छद्रवग्रहणार्थम, एतदुक्तं भवति-तत्राऽऽनीयसाधवः पानके पक्षिपन्ति, पुनश्च तत्र परिसस्थितंस्वच्छीभूतं सत् तस्मादन्यत्र पात्रके क्रियते येन तत् स्वच्छमार्यादीनां योग्यं भवति, पात्रकाऽऽदिप्रक्षालनं च क्रियते, (गच्छमासज्ज त्ति) गच्छमासृत्य गच्छस्य प्रमाणं ज्ञात्वा पात्रकमुद्ग्राहयन्ति, एतदुक्तं भवति यदि महान् गच्छस्ततः पानकगलनार्थ महाप्रमाणं पात्रकमुदग्राहयति, तथा द्वे त्रीणि चत्वारिपञ्चाऽऽदीनि यावत्। असई य णियत्तेसुं, एक चउरंगूलूणभाणेसुं। पक्खिविय पडिग्गहगं, तत्थऽच्छदवं तु गालेज्जा / / 555 / / अथ तत्र रजपालः समर्थो नास्ति यः पात्रमुद्ग्राहयति, अथवा-- (असती यत्ति) यदि नन्दीपात्रं नास्ति यत्रोदकमानीतं स्वच्छीकरणार्थ क्रियते . ततः असति तस्मिन् नन्दीपात्रे तदेक पतद्ग्रह प्रक्षिप्य, व? अत आह-(चउरंगुलूणभाणेसुं) चतुर्भिरड्गुलैरूनानि यानि भाजनानि, तेषु प्रक्षिप्य पतद्ग्रहं पुनस्तस्मिन् क्षणीभूते स्वच्छं द्रवं गालयेत्, अत्र चायं नियमो द्रष्टव्यः-यदुत भिक्षा तावत् साधवः पर्यटन्ति यावत्पात्रकं चतुभिरड्गुलैरूनमास्ते, इति। ___ आह-किं पुनः कारणं तद्वगलनं क्रियते ? उच्यतेआयरियअभावियपाणगट्ठया पायपोसधुवणट्ठा। होइ य सुहं विवेगो, सुह आयमणं च सागरिए॥५५६|| आचार्यपानार्थमभावितसेहाऽऽदिपानार्थ च गलनं क्रियते / तथा पादधावनार्थ (पोस त्ति) अधिष्ठान, तत्प्रक्षालनार्थ, तथा भवति च सुखेन विवेकः त्यागोऽतिरिक्तस्य तस्य पानकस्य, तथा सुखेन वा आचमनं सागारिकस्याग्रतः क्रियते , एवमर्थ गलनं क्रियत इति / कियन्ति पुनः पात्रकाणि गलितद्रव स्य भियन्ते? इत्यत आहएक व दो व तिन्नि व, पाए गच्छप्पमाणमासज्ज। अच्छदवस्स भरेज्जा, कसट्टवीए विगिंचिजा।।५५७।। एक द्वे त्रीणि वा पात्रकाणि भियन्ते, गच्छप्रमाणं ज्ञात्वा चतुष्प्रभृतीन्यपि नियन्ते स्वच्छद्रवस्य, तत्र च गलिते सति कसट्टे कचवरं बीजानि च गोधूमाऽऽदीनि विगिश्चेत् परित्यजेत्, एवं तावत्पात्रकर्णेनापि उदकमपवृत्य पानकगलनं क्रियते। अथ पुनस्तत्र कीटिकामर्कोटिकाऽऽदयः प्लवमाना दृश्यन्ते, ततस्तत्र गलिते को विधिरित्यत आहमूइंगाईमक्कोडयेहिं संसत्तगं च नाऊणं / गालेज छव्वएणं, सउणीधएण व दवं तु / / 558|| मुइङ्गा कीटिका मर्कोटकाव तैः संसक्तं ज्ञात्वा गालयेत् (छव्वएणं) वंशपिटकेन शकुनिगृहकेण वा गालयेत् तद्द्वम्। इय आलोइयपट्टवियगालिए मंडलीइ सट्ठाणे। सज्झायमंगलं कुणइ जाव सवे पडिनियत्ता / / 556 / / (इय ति) पूर्वोक्तविधिना आलोचिते सति प्रस्थापिते स्वाध्या ये गलिते चपानके पुनश्च मण्डल्यां स्वस्वस्थाने उपविश्य स्वध्यायमङ्गलं करोति, स्वाध्याय एव मङ्गलं स्वाध्यायमङ्गलं तत्करोति यावत्सर्वे साधवः प्रतिनिवृत्ता भवन्तीति। एवं यदि सहिष्णवः ततो यौगपद्येन भुञ्जते, अथासहिष्णवस्तत्र केचिद्भवन्ति ततः को विधिरित्यत आहकालपुरिसे व आसज्ज मत्तए पक्खिवित्तु तो पढमा। अहवा विपडिग्गहणं, मुयंति गच्छं समासज्ज / / 560 / / स चासहिष्णु : ग्रीष्मकालाऽऽद्यङ्गीकृत्य भवति, तत एव वा पुरुषः कदाचित् क्षुधाऽऽता भवति, लमाश्रित्य मात्र के Page #1625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोयण 1617 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण प्रक्षिप्य भक्तं प्रथमालिका तावद्दीयते, अथ बहवो क्षुधालवः ततः पतद्गहकं मुच्यते, तेभ्यो रक्षणार्थ गच्छ (समासज्जत्ति) गच्छमल्पं बहु वा ज्ञात्वा तदनुरूपं पतद्गह मुञ्चति / पुनश्च मिलितेषु साधुषु मण्डलीस्थविरः प्रविशति। किं कृत्वेत्यत आह-- चित्तं बासाऽऽईणं, गहाय आपुच्छिऊण आयरियं / जमलजणणीसरिच्छो, निवेसई मंडलीथेरो।।५६१।। चित्त बालाऽऽदीनां गृहीत्वा पृष्ट्वा आचार्य मण्डलीस्थविरः प्रविशति, किंविशिष्टः? इत्यत आह- (जमलजणणीसरिच्छो णिवेसइ त्ति) उपविशति मण्डलीस्थविर इति, सच मण्डलीस्थविरः गीतार्थः रत्नाधिकः अलुब्धश्च भवतिः अनेन च पदत्रयेण अष्टौ भङ्गाः सूचिता भवन्ति, तत्र तेषां मध्ये ये शुद्धा अशुद्धाश्च तान् प्रदर्शयन्नाहजइ लुद्धो राइणिओ, होइ अलुद्धो वि जो वि गीयत्थो। ओमो वि हु गीयत्थो, मंडलिराइणि अलद्धो उ१५६२ यद्यसौ मण्डलीस्थविरः लुब्धः रत्नाधिकश्च ततस्तिष्ठतिन प्रविशति, अनेन च लुब्धपदेन द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमा भङ्गका अशुद्धाः प्रदर्शिता भवन्ति (अलुब्धो वि जो वि गीयत्थो ओमो वि हुत्ति) अलुब्धोऽपि यदि | गीतार्थ ओमः लघुपर्यायः स मण्डल्यां परिविशति, अनेन च ग्रन्थेन | तृतीयभङ्गकः कथितो भवति / अयश्च प्रथमभङ्गकाभावे भवति, अत्र व भङ्ग के गीतार्थपदग्रहणेन यत्र यत्र भङ्गके अ-गीतार्थपदं स सर्वो दुष्टो ज्ञातव्यः / (गीयत्थो मंडलिराइणि अलुद्धो त्ति) यस्तु पुनः गीतार्थो रत्नाधिकोऽलुब्धश्च स मण्डल्यामुपविशति, अनेन ग्रन्थेन च प्रथमो भङ्गकः शुद्धः प्रदर्शितो भवति, सर्वथा यत्र यत्र लुब्धपदमगीतार्थपदं च स परिहार्यः, "ओमराइणिओ' पदं च यदि अगीतार्थः लुब्धपदं च न भवति ततः अपवादे शुद्धं भवति, प्रथमं तु शुद्धमेव। इदानीं ते मिलिताः सन्त आलोके भुजते, स चाऽऽलोको द्विविधःद्रव्यतो, गावतश्च / तत्र द्रव्यतः प्रदीपाऽऽदिः / भावतः सप्तप्रकारः, तं दर्शयन्नाहठाणदिसिपगासणया, भायणपक्खेवणा य भावगुरू। सो चेव य आलोगो, नाणत्तं तद्दिसाठाणे // 563|| स्थान वक्तव्यम् उपविशने दिग् वक्तव्या। प्रकाशमुखे भाजने भोक्तव्यं, भाजनक्रमो वक्ष्यमाणः, प्रक्षेपणं वदने वक्तव्यं भावाऽsलोकोवक्तव्यः, गुरुर्वक्तव्यः, स एवाऽऽलोकः पूर्वोक्तो नानात्वं त्वत्र यदि पर दिशः स्थानस्य च, अत्र दिकपदमन्यथा वक्ष्यति स्थानं च। इदानी (भाष्यकारः) स्थाननानात्वं दर्शयति, तत्र स्थानव्याख्यानायाऽऽह-- निक्खमपवेस मोत्तुं, पढमसमुद्धिस्सगाण ठायंति। सज्झाएपरिहाणी, भावासन्नेवमाईया।।२८१।। प्रथमसमुद्दिष्टानां ग्लानाऽऽदीनां निर्गमप्रवेशी मुक्त्वा उपविशन्ति | किमर्थम् !, तत्र यदि ते मार्ग रुद्धा मण्डल्यां तिष्ठन्ति ततः पूर्वोक्तानां स्वाध्यायपरिहाणिर्भवति, तथा भावाऽऽसन्नस्य संज्ञाऽऽदिवेगधारणाऽसहिष्णोः पीडा भवति / एवमादयोऽन्येऽपि दोषाः। दिग्द्वारप्रतिपादनायाऽऽह भाष्यकारःपुवमुहो राइणिओ, एक्को य गुरुस्स अभिमुहो ठाइ। गिण्हइ व पणामेई, व अभिमुहो इहरहाऽऽवन्ना // 22 // पूर्वाभिमुखो रत्नाधिक उपविशति मण्डल्या, तस्यां च मण्डल्यामेकः साधुर्मुरारभिमुख उपविशति, किमर्थ? कदाचित्किश्चिद् गुरोरतिरिक्त भवति तद् गृह्णाति, दातव्यं वा किञ्चिद्भवति तद्ददाति मण्डलीस्थविरेणार्पितम् . एवमर्थमभिमुख उपविशति, इतरथा- यद्यभिमुखो नोपविशतिततोऽवज्ञापरिभवः कृतो भवति, पृष्ठयादि दत्त्वोपविशति ततोऽप्यवज्ञाऽऽदिकृता दोषा भवन्ति / नियुक्तिःजो पुण हवेज्ज खमओ, अतिउच्चाओ व सो बहिं ठाइ। पढमसमुछिट्टो वा, सागारियरक्खणट्ठाए।।५६४।। यस्तु पुनः क्षपकोऽर्द्धमासाऽऽदिना भवेद् अतिश्रान्तो वा प्राघूर्णकाऽऽदिः स बहिर्मण्डल्यास्तिष्ठति, प्रथमसमुद्दिष्टो वा साधुः-शीघ्रतरेण येन भुक्तं स सागारिकरक्षणार्थ बहिस्तावन्मण्डल्यास्तिष्ठति। एक्के कस्स य पासम्मि मल्लयं तत्थ खेलमुग्गाले। कट्टट्ठिए व छुब्भइ, मा लेवकडा भवे वसही // 565 / / तत्र च साधूनां भुजानानामेकैकस्य साधोः पार्थे मल्लकं भवति, तत्र खेलश्लेष्म उद्गालयेत्-तस्मिन् मल्लके श्लेष्मनिष्ठीवनं कुर्वन्ति, तथा तत्रभुञ्जतः कदाचित्कण्टकोऽस्थिखण्ड वा भवति स तत्र क्षिप्यते, अथ तु भुवि क्षिप्यतेऽस्थिकण्टकाऽऽदि ततो वसतिर्लेप कृता-अनायुक्ता भवति, अतस्तत्परिहारार्थ मल्लकेषु क्षिप्यते। तथाऽमुभपरं भुजानानां विधि प्रतिपादयन्नाहमंडलिभायणभोयण, गहणं सोही य कारणुव्वरिते। भोयणविही उएसो, भणिओ तेल्लुक्कदंसीहिं // 566 / / मण्डली यथारत्नाधिकतया कर्तव्या, भाजनानि च पूर्वम् 'अहाकडाई भुजति' भोजनं च स्निग्धमधुरं पूर्वं भोक्तव्यं, ग्रहणं च पात्रकात् कुक्कुट्यण्डकमात्र कवलं गृह्णाति, तथा ग्रहणस्यैव शुद्धिर्वक्तव्या, अथवा-- शुद्धिर्भुञ्जानस्य यथा भवति तथा वक्तव्यं, कारणे भोक्तव्यं, तथा 'उव्वरिए त्ति' अतिरिक्ते विधिर्वक्तव्यः / अयं भोजनविधिः सुगमः / इदानीं भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयति। तत्राऽऽद्यावयवव्याचिख्यासयाऽऽह भाष्यकार:मंडलि अह राइणिआ, सामायारी य एस जा भणिआ। पुव्वं तु अहाकडगा, मुच्चंति तओ कमेणियरे / / 283 / / मण्डली कथमुपविशति? अत आह-यथारत्नाधिकतया सामाचारी चात्र कार्या, एषायोक्ताभणिता कतमा?"ठाणदिसिपगासणया' इत्येवमादिका, साऽत्रापि तथैव द्रष्टव्या / उक्तंमण्डलीद्वारम्। इदानीं भाजनद्वारप्रतिपादना Page #1626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1618 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण याऽऽह- 'पुव्वं तु अहाकडगा' पूर्व प्रथम यथाकृता ति प्रतिकर्मरहितानि लब्धानि यानि तानि समुद्देशनार्थ मुच्यन्ते, एतदुक्तं भवति-- प्रथममप्रतिकर्मा प्रतिग्रहको भ्राम्यते, ततः क्रमेणः 'इतरे' अल्पपरिकर्मबहुपरिकर्माणि च मुच्यन्ते। भोयण त्ति' गयम्। इदानीं 'भोयण' ति व्याख्यायतेनिद्धमहुराणि पुव्वं, पित्ताईपसमणट्ठया भुंजे। बुद्धिबलवडणड्डा, दुक्खं खु विगिंचिउं निद्धं / / 284 // प्रथमार्द्ध सुगम, किमर्थ स्निग्धमधुराणि पूर्व भक्ष्यन्ते? यतो बुद्धेर्बलस्य च वर्द्धन भवति, तथा चाऽऽह-- "घृतेन वर्द्धते मेधा'' इत्यादि, बलवर्द्धन च प्रसिद्धमेव, बलेन च वृद्धेन वैयावृत्याऽऽदि शक्यते कर्तु, दुःखं परिस्थापयितु स्निग्धं धृताऽऽदि भवति यतोऽसंयमो भवतीति / / अह होज निद्धमहुराणि अप्पपरिकम्मसपरिकम्मे हिं। भोत्तूण निद्धमहुरे, फुसिय करे मुंचऽहागडए / / 285 / / अथ भवेत् स्निग्धानि मधुराणि च द्रव्याणि अल्पपरिकर्मसु बहुपरिकर्म जनितेषु च पात्रकेषु ततः को विधिरित्यत आह-तान्येव भुक्त्वा स्निग्धमधुराणि ततः करान् प्रोञ्छ्यति, प्रोञ्छयित्वा च करान् (मुच अहागडए त्ति) यथाकृतानि-अपरिकम्माणि पात्रकाणि समुद्दिशनार्थ मुच्यन्ते / 'भायण त्ति गये। इदानीं ग्रहणद्वारप्रतिपादनायाऽऽहकुक्कुडिअंडगमेत्तं, अहवा खुड्डागलंवणासिस्स। लंवणतुल्ले गेण्हइ, अविगियवयणो य राइणिओ // 26 // ततः पतद्गहकात्कबलं गृह्णन् कुकुट्यण्डकमात्रं गृह्णाति / अथवा(खुड्डागलबणासिस्स) क्षुल्लकेन लम्बनकेन हस्तेन अलितुं शीलं यस्य क्षुल्लकलम्बनाशी तत्तुल्यान कवलान् गृह्णाति / स्वभावेनैव लघुकवलाशिनस्तुल्यान् कवलान् गृह्णाति / (अविगियवयणो य राइणिओ) आविकृतवदनो रत्नाधिकः, न भावदोषेण मुखमत्यर्थ बृहत्कवलप्रक्षेपार्थम् निर्वादयति, किं तर्हि? स्वभावस्थेनैव मुखेनेति। अथवाऽयं ग्रहणविधिःगहणे पक्खेवम्मि अ, सामायारी पुणो भवे दुविहा। गहणं पायम्मि भवे, वयणे पक्खेवणा होइ॥२८७।। 'ग्रहणे' कवलाऽऽदाने प्रक्षेपेच सामाचारी पुनरिय भवति द्विविधा, तत्र ग्रहणं पात्रकविषये भवेत् पात्रकात्कवलोत्क्षेपः, वदनविषयं च प्रक्षेपणं कवलस्य भवति। तत्र पात्रकात्कथं भक्षयद्भिगृह्यते? इत्येतत्प्रदर्शयन्नाहकडपयरच्छेएणं, भोत्तव्वं अहव सीहखइएणं / एगेहि अणेगेहि वि, वज्जेजा धूमइंगालं // 28 // तत्र कटकच्छेदेन भोक्तव्यं यथा कलिञ्जस्य खण्डलकं छित्त्वाऽपनीयते, एवमसावपि भुक्ते, तथा प्रतरच्छेदेन वा भोक्तव्यं तरिकाछेदेनेत्यर्थः, अथवा-सिंहभक्षितेन, सिंहो हि किल एकदेशादारभ्य तावद्भुड्क्ते यावत्सर्व भोजनं मिष्ठितं तच्चैकेन बहुभिर्वा भोक्तव्यं, वर्जयित्वा धूमाङ्गारकं, द्वेषरागौ वर्जयित्वेत्यर्थः / इदानीं वन्दनप्रक्षेपणशोधिं दर्शयन्नाहअसुरसुरं अचवचवं, अदुयमविलंविअं अपरिसाडिं। मणवयणकायगुत्तो, भुंजइ अह पक्खिवणसोहिं / / 286 / / असुरसुर भुडवते 'सरडसरड अकरितो' 'अचवचवं' वल्कलभिव चर्वयन न चबचबावेइ, तथा अद्रुतम्' अत्वरितं तथा 'अविलम्बितम्' अमन्थरम् अपरिशाटि मनोवाक्कायगुप्तो भुञ्जति, न मनसा विरूपमिति चिन्तयति, वाचा नैवं वक्ति, यदुत-"को इमं भक्खेइ? जो अम्हारिसो न होइ, कारण उदोसहे मुहेणं ण देह।" एवं त्रिगुप्तस्य भुजानस्य प्रक्षेपणशोधिर्भवति। नियुक्तिःउग्गमउप्पायणासुद्धं, एसणादोसवज्जियं। साहारणं अजाणतो, साहू होइ असारओ।।५६७।। उद्गमशुद्धम् उत्पादनाशुद्धम् एषणादोषवर्जित 'साधारण सामान्य गुडाऽऽदिअजानानः-अतिमात्रंदुष्टेन भावेन आददानः योऽसौ पतद्ग्रहो भ्रमति तस्मात् साधुः 'असारकः' अप्रधानज्ञानदर्शनचारित्राण्यङ्गाकृत्यासारः स भवति। तथाउग्गमउप्पायणासुद्ध, एसणादोसवनियं। साहारणं वियाणंतो, साहू होइ ससारओ // 568|| उद्गमोत्पादनाशुद्धमेषणादोषवर्जितं साधारणमेतद्रव्यमित्येवं जानानोऽदुष्टनान्तराऽऽत्मना कवलं गुडाऽऽदेराददानः साधुर्भवति ससारः ज्ञानदर्शनचारित्रसास्वान् भवति। कथं पुनरसारः साधुर्भवति? अत आहउग्गमउप्पायणासुद्धं, एसणादोसवज्जियं। साहारणं अयाणंतो, साहू कुणइ तेणियं / / 566 / / उद्गमोत्पादनाशुद्धमेषणादोषवर्जितम्, साधारणमेतद् गुडाऽऽदिद्रव्यमित्येवमजानानो दुष्टेन भावेनाऽऽददानः साधुस्तैन्य करोति ततोऽसारोऽसौ। स कथं पुनः ससारो भवति? उग्गमउप्पायणासुद्ध, एसणादोसवज्जियं / साहारणं वियाणंतो, साहू पावइ निजरं / / 570 / / उद्गमोत्पादनाशुद्धम्, एषणादोषवर्जितं साधारणं तुल्यमेतत्सर्वेषां गुडाऽऽदीत्येव जानानोऽदुष्टान्तराऽऽत्मा स्वल्पमाददानः साधुर्निजरां करोति अतः ससारः ज्ञानदर्शनचारित्रैरिति। इदानीं ससारः कद चित् भोजनार्थमुपविशन भवति कदाचिदुपविष्टः कदाचिदुत्थितः, एतत्प्रदशनायाऽऽहअंतंतं भोक्खामित्ति वेसए मुंजए य तह चेव। एस ससारनिविट्ठो, ससारओ उहिओ साहू।।५७१।। अन्त्यं प्रत्यवरं वल्लचणकाऽऽद तदपि अन्त्य पर्युषितं चणकाऽऽदि अन्त्यमप्यन्त्यमन्त्यान्त्यं भक्षयिष्यामि / एवंविधेन परिणामेनोपविष्टो मण्डल्यामुपभुङ्क्ते यस्तथैवैष साधुः शुभपरिणामत्वात् ससार उपविष्टः ससारश्वोत्थितः, तस्य शुभपरिणामस्याप्रतिपतित्वात् / Page #1627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण एमेव य भंगतियं, जोएयव्यं तु सारणाणाई। तेण सहिओ ससारो, समुद्दवणिएण दिटुंतो।।५७२।। एवमेव भङ्गत्रितयं योजनीय, तत्र प्रथमो भङ्गः "ससारो निविट्ठोससारो उडिओ 1, ससारो णिविठ्ठो असारो उडिओ विइओ भङ्गो 2 / असारो / णिविट्ठो ससारो उडिओतइओ 3, असारो निविट्ठो असारो उट्टिओएस चउत्थो 4 / " सारश्चात्र ज्ञानादिः आदिग्रहणाद्-दर्शनं चारित्रं चेति, तेन ज्ञानादिना सहितो यः साधुः स ससारो भण्यते, अत्र च समुद्रवणिजा दृष्टान्तः। 'एगो समुद्दवणिओ वोहित्थं भंडस्स भरि ससारो गओ, ससारो य पउरं हिरण्णाइ विढवेऊण आगओ। अन्नो पुण ससारो भंडं गहेऊण गओ णिस्सारो आगओ कवडियाए वि रहिओ, तं पि पुव्वेलय हारेऊण आगओ। अन्नो असारो अंगवितिओ णिहिरण्णो गओ ससारो आगओ बहुयं विढवेऊण। अन्नो पुण असारो हिरण्णरहिओ गओ असारो चेव आगओ कवडियाए विरहिओ।' एवं साधोरपि साराऽसारयोजना कर्तव्या वणिग्न्यायेन। एवं तेषां भुजानाना यदि पतद्ग्रहको भ्रमन्नेवार्द्धपथे निष्ठां याति तदा को विधिरित्यत आहजत्थ पुण पडिग्गहगो, होज्ज कडो तत्थ छुन्भए अन्नं / मत्तगगहिउव्वरियं, पडिग्गहे जं असंसर्ट।५७३|| यत्र पुनः भुञ्जतां पतद्ग्रहकः भवेत् (कडो त्ति) निष्ठितभक्तो जातः साधुपर्यन्तमप्राप्त एव, तत्र किं कर्त्तव्यमित्यत आह-तत्र तस्मिन्नि-- ठितभक्ते पतद्ग्रहके अन्यत् भक्त प्रक्षिप्यते, ततश्च यस्मिन् साधौ स निष्टितः पतद्ग्रहः तस्मादारभ्य तेनैव क्रमेण पुनः भ्राम्यते, मात्रके वा यद्बालाऽऽदीनां प्रायोग्यं गृहीतमासीत् तदिदानीमुद्ररितं तदसंसृष्ट पतद्ग्रहे छिप्त्वा पतद्ग्रहो यस्मिन् साधौ निष्ठितः तस्मादारभ्य पुनओम्यते। जं पुण गुरुस्स सेसं, तं छुडभइ मंडलीपडिग्गहणे। बालाईण व दिज्जइ, ण छुब्भई सेसगाणहियं / / 574 / / यत् पुनः गुरोः शेष भुञानस्य जातं तत्संसृष्टमपि प्रक्षिप्यते मण्डलीपतद्ग्रहके,बालाऽऽदीनां वा दीयते तदाचार्योदरितं यत्पुनराचार्यव्यतिरिक्तानामुदरितम्- अधिकं जातं तन्न प्रक्षिप्यते मण्डलीपतद्ग्रहे संसृष्टं सत्। किंचसुक्कोल्लपडिग्गहगे, विजाणिया पक्खिवे दवं सुक्के / अभत्तट्ठियाण अट्ठा, बहुलंभे जं असंसहूं / / 575 / / (सुक्क त्ति) एकः शुष्केण भक्तेन पतद्ग्रहकः, अपरः (उल्ल त्ति) आर्द्रण भक्तेन पतद्ग्रहः, एवं विज्ञाय ततः प्रक्षिपेद्द्वं शुष्कभक्तपतद्गृहे, येन तोयप्रक्षेपेण सञ्जातबन्धं तद्भक्तं सुखेनैव कवलैगृह्यते, अथ वहुलाभः सञ्जातः प्रचुरं लब्धं गुडाऽऽदि ततोऽसंसृष्टमेव ध्रियते, किमर्थम्? अभक्तार्थिकानामथे येन मनोज्ञं भवेत् / उक्ता ग्रहण-शोधिः / इदानीं भुञानस्य शोधिराच्यते, सा च चतुर्दा। एतदेवाऽऽह सोही चउक्कभावे, विगइंगालं च विगयधूमं च / रागेण सइंगालं, दोसेण सधूमगं होइ // 576 / / शुद्धौ चतुष्ककं भवति नामस्थापनांद्रव्यभावरूपम, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यशोधिः पूर्ववत्, भावविषया पुनः शोधिः विगताङ्गारं विगतधूम च भुञ्जानस्य भावशोधिर्भवति, कथं सागारं कथंवा सधूम भवतीत्येतदेवाऽऽह- "रागेण'' इत्यादि सुगमम्। जत्तासाहणहेलं, आहरेंति जमणट्ठया जइणो। छायालीसं दोसेहि सुपरिसुद्धं विगयरागा / / 577|| चारित्रयात्रासाधनार्थधर्मसाधननिमित्तमाहात्यन्तियापनार्थ शरीरसंधारणार्थ मुनयः षट्चत्वारिंशद्दोषैः सुपरिशुद्धमाहारयन्ति, के च ते? षोडशोद्गमदोषाः षोडशोत्पादना दोषाः, दशैषणादोषाः, 'संजोयणापमाणं सइंगालं सधूमगं च'' इत्येवे षट्चत्वारिंशद्, एभिर्विशुद्धं सद् विगतरागा आहारयन्ति। हियाऽऽहारा मियाऽऽहारा, अप्पाऽऽहारा य जे नरा। ण ते विजा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।॥५७८|| श्लोकः सुगमः / उक्तो भुञ्जनविधिः। ओघ० / पं०व० / दश०। व्य०। धo भोजनसमये हनुसंचालंन कुर्यात्से मिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेजा आसाएमाणे, दाहिणाओ हणुयाओ वामं हणुयं णो संचारेजा आसाएमाणे, से असायमाणे लावियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेवं अभिसमिच्चा सव्वतो सव्वत्ताएसम्मत्तमेव समभिजाणिया।।२२०|| 'स' पूर्वव्यावर्णितो "भिक्षुः साधुः साध्वी वा अशनाऽऽदिकमाहारमुद्गमोत्पादनैषणाशुद्धं प्रत्युत्पन्नं ग्रहणैषणाशुद्धं च गृहीतं सदाङ्गारिताभिधूमितवर्जमाहारयेत्, तयोश्वाङ्गारिताभिधूमितयो रागद्वेषौ निमित्तं, तयोरपि सरसनीरसोपलब्धिः करणाभावे च कार्याभाव इति कृत्वा रसोपलब्धिनिमित्तपरिहारं दर्शयति-स भिक्षुराहारमा--हारयन्नो वामतो हनुतो दक्षिणां हनुं रसोपलब्धये सञ्चारयेदास्वादयन्नशनाऽऽदिके, नापि दक्षिणतो बामा सञ्चारयेदास्वादयन्, तत्सञ्चाराऽस्वादनेन हि रसोपलब्धौ रागद्वेषनिमित्ते अङ्गारितत्वाभिधूमितत्वे स्यातामतो यत्किञ्चिदप्यास्वादनीयं नाऽऽस्वादयेत्, पाठान्तर वा- 'आढायमाणे' आदरवानाहारे मूर्छितो गृद्धो न सञ्चारयेदिति, हन्वन्तरसङ्क्रमवदन्यत्रापि नाऽस्वादयेदिति दर्शयतिस ह्याहारं चतुर्विधमप्याहारयन रागद्वेषौ परिहरन्नास्वादयेदिति, तथा कुतश्विनिमित्ताद्धन्वन्तरं सवारयन्नप्यनास्वादयन् सञ्चारयेदिति / कि मिति? यत आह- आहारलाघवमागयमयन् आपादयन् नो आस्वादयेदित्यारवादनिषेधेन चान्तप्रान्ताऽऽहाराभ्युपगमोऽभिहितो भवति, एवं च तपः 'से' तस्य भिक्षोरभिसमन्वागत भवतीत्यादिगतार्थ यावत् से' सम्मत्तमेव समभिजाणिय त्ति आचा०१०८ अ०६उ०। Page #1628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1620 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण पाहुडियं आलोइत्ता सज्झायं पट्ठावित्तु तिसण्हं धम्मो मंगलाई कड्डेजा चउत्थधम्मो मंगलगेहिं च णं अपयट्ठिएहिं चेइयं साहूहिं अवंदिएहिं पारावेज्जा पुरिमढं / महा० 10 // (तत्र विधिः 'उग्गाल' शब्दे द्वितीयभागे 730 पृष्ठे उक्तः) (संसक्तग्रहणं, संसक्तभोजनं च संसत्त' शब्दे) (पात्रे उदकविन्दुः पतेत्तत्र भोजन 'परिहवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 572 पृष्ठे उक्तम् ) (पर्युषितान्नभोजननिषेधो 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 667 पृष्ठेगतः)(उदकतीरे भोजननिषेधः 'दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे 2442 पृष्ठे गतः) (कालातिक्रान्तक्षेत्रातिकान्तपानभोजने गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 977 पृष्टगते) भोजनगृद्धो न चरेत्न य भोयणम्मि गिद्धे, चरे उंछं अयंपिरो। अफासुयं न भुजिजा, कीयमुद्देसियाऽऽहडं / / 23 / / न च भोजने गृद्धः सन् विशिष्टवस्तुलाभायेश्वराऽऽदिकुलेषु मुखम- | ङ्गलिकया चरेत्, अपि तु-उञ्छं भावतो ज्ञाताज्ञातमजल्पनशीलो धर्मलाभमात्राभिधायी चरेत्, तत्राप्यप्रासुकं सचित्तं सन्मिश्राऽऽदि कथञ्चिद् गृहीतमपि न भुञ्जीत, तथा क्रीतमौद्देशिकाऽऽदिहृतं प्राशुकमपि न भुञ्जीत, एतद्विशोध्य विशोधिकोट्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः। दश० 8 अ०२ उ०। (भोजनाभोजनकारणानि 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 516 पृष्ठे उक्तानि) (भोजनप्रमाणं तदोषाश्चापि 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 521 पृष्ठे उक्ताः )(रात्रिभोजनं 'राइभोयण' शब्दे वक्ष्यते) (दुरभि परिस्थाप्य सुरभिं भुङ्क्ते इति परिदुवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 584 पृष्ठे गतम्) (उपभोगपरिभोगः 'वय' शब्दे वक्ष्यते) श्रावकस्याभोज्यानि द्वाविंशतिःचतुर्विकृतयो निन्द्या, उदुम्बरकपञ्चकम् / हिमं विषं च करका, मृजाती रात्रिभोजनम् / / 3 / / बहुबीजाज्ञातफले, संधानानन्तकायिके। वृन्ताकं चलितरसं,तुच्छं पुष्पफलाऽऽदि च / / 33 / / आमगोरससंपृक्तद्विदलं च विवर्जयेत् / द्वाविंशतिमभक्ष्याणि, जैनधर्माधिवासितः॥३४|| त्रिभिः विशेषकम् / जैनधर्मेणाऽऽर्हतधर्मेणाऽधिवासिप्तो भाविताऽऽत्मा पुमान् / ध० 2 अधि० / (उदुम्बरपञ्चकाऽऽदीनि च स्वस्वस्थाने व्याख्यातानि) अशनाऽऽदिगुणसंपदुपेतः पिण्डो विशुद्धः शुद्धिकारक इत्युक्तम्, सच शुद्धिकारकः प्रकटभोजने न संभवतीति प्रच्छन्न भोजन यतिना विधेयमित्युपदिशन्नाहसर्वाऽऽरम्भनिवृत्तस्य, मुमुक्षोभाविताऽऽत्मनः। पुण्याऽऽदिपरिहाराय, मतं प्रच्छन्नभोजनम् // 1 // मुमुक्षोर्मतं प्रच्छन्नभोजनम् इति क्रिया, किंविधस्येत्याह-सर्वे निर्विशेषा मनोवाक्कायकृतकारितानुमतिभेदा ये आरम्भाः पृथिव्यादिजीवसंघट्टपरितापातिपातरूपास्तेभ्यो निवृत्तो यः स तथा तस्य, एतस्य हि प्रकट भुजानस्य दीनाऽऽदिकाय याचमानाय तद्दाने तत्पोषणत आरभिप्रवृत्तिहेतुत्वेन सर्वाऽऽरम्भनिवृत्तिक्षतिर्भवतीति तत्परिहारार्थमेतेन प्रच्छन्नमेव भोक्तव्यमित्युपदेष्टु सर्वाऽरम्भनिवृत्तस्येत्युक्तम्, अनेन चेह तदन्यस्य व्यवच्छेदः, तस्य हि प्रकटभोजनेऽपि न सर्वाऽरम्भनिवृत्तेः क्षतिः, तदभावादिति। कस्यैवंभूतस्येत्याह-भोक्तुंन मोचयितुं कर्मबन्धनादात्मानमिच्छतीति मुमुक्षुर्दीक्षितस्तस्य, अनेन चामुमुक्षोळवच्छेदः, तस्य हि पुण्यबन्धस्यानुज्ञातत्यादिति / पुनः किंभूतस्य ? भावितो वासितः स्वपरोपकारकरणधर्मया प्रशमवाहितया जिनाऽऽज्ञया वा आत्मा अन्तःकरणं येन स तथा तस्य, एतेन हि साधुसामाचार्यां यत् प्रकटभोजनं तज्जन्यो यः प्रवचनोपघातः स्वपरानर्थनिबन्धनभूतोऽप्रशमाऽऽवहो जिनाऽऽज्ञाभङ्गरूपः, सोऽवश्य परिहार्य इत्यावेदितं भवति, निषिद्धं च जिनाऽऽगमे प्रकटभोजनम् / यदाह- "छक्काय-दयावंतो, विसंजओ दुलह कुणइबोहिं। आहारे नीहारे, दुगुछिए पिंडगहणे य॥१॥" किमर्थमित्याह-पुण्यं शुभकर्म, आदिशब्दाद्याचकाप्रीत्यादिदोषः, पादमसंयतपोषणद्वाराऽऽयाताऽऽरम्भप्रवर्तन, प्रवचनोपघातश्च पस्मिह्यते, अतः पुण्याऽऽदीनां परिहारो वर्जन पुण्याऽऽदिपरिहारस्तस्मै पुण्याऽऽदिपरिहाराय मत सम्मतं विदुषां प्रच्छन्नभोजनम्--अप्रकटजेमनमिति / / 1 / / ___ कथमप्रच्छन्नभोजने पुण्यबन्ध इत्याहमुजानं वीक्ष्य दीनाऽऽदिर्याचते, क्षुत्पपीडितः। तस्यानुकम्पया दाने, पुण्यबन्धः प्रकीर्तितः।।२।। भुञ्जानमभ्यवहरन्तं, मुमुक्षुमिति गम्यते। वीक्ष्य दृष्ट्वा, क इत्याहदीनाऽऽदिर्दीनो दैन्यवान्, आदिशब्दादनाथक्नीपकाऽऽदिपरिग्रहः / याचते मृगयते, किंविधः सन्? क्षुत्पपीडितः बुभुक्षाऽत्यन्तबाधितः, अपीडितस्य हि याचनेन तथाविधानुकम्पोत्पाद इत्यसौ विशेषितः तस्येत्थंभूतस्य दीनाऽऽदेरिह च संप्रदानेऽपि षष्ठी, संबन्धस्यैव विवक्षितत्वादिति / अनुकम्पया करुणया दाने भोजनस्य वितरणे पुण्यबन्धः शुभकर्मोपादानं प्रकीर्तित आगमेऽभिहितः, यदाह- "भूयाणुकंपवयजो-- गउज्जओ खंतिदाणगुरुभत्तो। बंधइ भूओ साय, विवरीयं बंधए इयरो॥१॥” इति कथं प्रकट मुमुक्षुर्भुजीतेति // 2 // __भवतु पुण्यबन्धः, का नो हानिरिति चेदत आहभवहेतुत्वतश्चाऽयं, नेष्यते मुक्तिवादिनाम्। पुण्यापुण्यक्षयान्मुक्तिरिति शास्त्रव्यवस्थितेः||३|| भवहेतुत्वतः संसारकारणत्वात्, चशब्दः पुनरर्थः अयमनन्तरोद्दिष्टः पुण्यबन्धो नेष्यते, आश्रयणीयतया नानुमन्यते, प्रवचनप्रणेतृभिः, केषामित्याह- मुक्तिं सकलकर्मनिर्मोक्षं स्वकीयस्यानुष्ठानविशेषस्य फलतया वदितुं शीलं येषां ते मुक्तिवादिनस्तेषां, मोक्षार्थिनामिति हृदयम् / अथवा- मुक्तिवादिनामित्येतत्पदं शास्त्रव्यवस्थितेरित्यनेन संबन्धनीयं नेष्यते इति कुतोऽवसितमिति चेदत आह- पुण्याऽपुण्यक्षयात् शुभाशुभकर्माऽऽत्यन्तिकप्रलयादेव मुक्तिर्मोक्षो जीवस्य स्वरूपेऽवस्थानं, भवतीति गम्यते, इत्येवंप्रकारायाः शास्त्रव्यवस्थितेरामप्रणीताऽऽगमव्यवस्थाया हेतोरिति // 3 // Page #1629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1621 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण अथ दीनाऽऽदेर्याचमानस्याऽपि न दास्यत इति कुतः पुण्यबन्धो भविष्यतीत्याशङ्कयाऽऽहप्रायो न चानुकम्पावांस्तस्यादत्त्वा कदाचन / तथाविधस्वभावत्वाच्छक्नोति सुखमासितुम्॥४| यदि न ददाति तदा न भवति पुण्यबन्धो, न च न पुनरनुकम्पावान् करुणापरायणान्तः करणः प्रायो बाहुल्येन तस्य याचमानस्या दीनाऽऽदेरदत्त्वा दानमकृत्वा कदाचन कस्मिंश्चिदपि काले शक्नोति समर्थो भवति सुखममनः पीड़ यथा भवतीत्येवमासितुं स्थातुं कुत एतदेव-- मित्याह-तथाविधस्तत्प्रकारोयाचमानदीनदाननिबन्धनभूतः स्वभावः / स्वरूपं यस्यानुकम्पावतः स तथा, तस्य भावस्तत्त्वं तस्मानथाविधस्वभावत्वादि ति। हेतुप्रयोगश्चैवम्-यद्वस्तु यत्करणस्वभावंतत्तदकृत्वा नाऽऽसितुं शक्नोति, यथा मद्यं पुरुषस्य वृत्ताऽऽदिक विकारं, दीनदानस्वभावश्चानुकम्पावांस्तस्माददत्त्वा सुखमासितुं न शक्नोतीति / / 4 / / अथ पुण्यबन्धभीरुतया दृढचित्ततां विधाय न दास्यतीति कथं पुण्यबन्धः? इत्याशङ्कयाऽऽह / अथवा पुण्याऽऽदिपरिहारार्थमिहाऽऽदिशब्दोपात्ता याचकाऽप्रीत्यादिदोषप्रतिपादनायाऽऽहअदानेऽपि च दीनाऽऽदेरप्रीतिर्जायते ध्रुवम्। ततोऽपि शासनद्वेषस्ततः कुगतिसंततिः।। अपि चेति पुनःशब्दार्थः, ततो दाने पुण्यबन्धो भवत्यदाने ओदनाऽऽद्यवितरणे पुनींनाऽऽदेर्दीनानाथाऽऽदेरर्थिनोऽप्रीतिश्चित्तोद्वेगो जायते-भवति, तस्यैव ध्रुवमवश्यंभावेन, भवतु सा को दोष? इति चेदत आह- ततोऽपि, अपिशब्दः पुनः शब्दार्थः, ततस्तस्याः पुनरप्रीतेः सकाशाच्छासनद्वेषः आप्तवचनं प्रतिमत्सरस्तस्यैव, ततोऽपि किमित्याह- ततः शासनप्रद्वेषात् कुगतीनां नारकतिर्यानरकुदेवत्वलक्षणदुर्गतीना संततिः सन्तानः प्रवाहः कुगतिसन्ततिर्जायते, दीनाऽऽदेरिति प्रक्रम इति / यदि नाम मिथ्यात्वोपहतबुद्धेस्तस्य स्वदोषादप्रीत्यादयः सञ्जायन्ते ततः किमस्माकमसंक्लेशवन्मानसानामित्याशङ्कयाऽऽह / अथवा पुण्याऽऽदिपरिहारार्थमिहाऽऽदिशब्दोपात्तपा पबन्धप्रदर्शनायाऽऽहनिमित्तभावतस्तस्य, सत्युपाये प्रमादतः। शास्त्रार्थबाधनेनेह, पापबन्ध उदाहृतः॥६॥ शास्त्रार्थबाधनेन पापन्धस्तस्योदाहृत इति संबन्धः। शास्त्रार्थबाधमेव कुतः? इत्याह-निमित्तभावतो दीनाऽऽद्यप्रीतिशासनद्वेषकुगतिसन्ततीनां कारणत्वेन परेषामप्रीत्यादिवर्जन हि शास्त्रार्थस्तस्येति प्रकटभोजकयतेः / नन्वेवं महामुनीनामपि पापबन्धप्रसङ्गः, तेषामपि महामिथ्यात्वोपहतेष्वप्रीत्यादिनिमित्तत्वादित्याशक्याऽऽह-सति विद्यमाने उपाये प्रच्छन्नभोजनलक्षणे दीनाऽऽद्यप्रीत्याद्युत्पत्तिपरिहारस्य हेतौ महामुनीनां तु पराप्रीतिपरिहारोपायाभावे तत्परिहारार्थं च प्रयत्ने सति परिणामविशुद्धेः पापबन्धाभाव इति / नन्वेवं हठाद्दीना- | ऽऽदिना भुञ्जानस्य साधोदर्शन उक्तदोषप्रसङ्ग इत्यत आह-प्रमादतः प्रमादेनाऽऽलस्योपहततया, अप्रमत्तस्य पुनरप्रीत्यादिहेतुत्वेऽपि | शास्त्रार्थाबाधनान्नास्ति पापबन्धोऽहिंसकस्येव / यदाह- "आया चेव अहिंसा, आया हिंस त्ति निच्छओ एस / जो होइ अप्पमत्ता, अहिंसओ हिसओ इयरो।।१।।" शास्त्रार्थस्याऽऽप्ताऽऽगमार्थस्य बाधनमन्यथाकरण शास्त्रार्थवाधन तेन हेतुना; महानर्थनिबन्धन हि शास्त्रार्थबाधनम् / यदाह-''यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्त्तते कामचारतः। न स सिद्धिमयाप्नोति, न सुख नपरां गतिम्॥१॥"शास्त्रं च पराप्रीतिपरिहारप्रयत्नप्रतिपादनपरमेव व्यवस्थितम्। तद्यथा''अणुमित्तो वि न करसइ, बंधो परवत्थुपचया भणिओ। तह वि हु जयति जइणो,परिणामविसोहिमिच्छंता // 1 // " तथा"इय सवेण विसव्वं, सक्क अप्पत्तियं जइजणस्स। नियमा परिहरियव्वं, इयरम्मि सतत्तचिंताओ // 2 // " इहेति प्रकटभोजने पापबन्धो अशुभकर्मोपादानमुदाहृतोऽभिहितस्तत्त्ववेदिभिरिति // 6 // भवतु शास्त्रार्थबाधेति चेन्नेत्याहशास्त्रार्थश्च प्रयत्नेन, यथाशक्ति मुमुक्षुणा। अन्यव्यापारशून्येन, कर्तव्यः सर्वदैव हि // 7 // शास्त्रस्य दृष्टष्टाभ्यामविरुद्धाऽऽगमस्यार्थोऽभिधेयं शास्त्रार्थः, चशब्दः पुनरर्थ एवकारार्थो वा, तेन शास्त्रार्थः पुनः कर्तव्यः शास्त्रार्थ एव वा कर्तव्यः। कथं? प्रयत्नेन महता आदरेण, अनादरकरणे हि विवक्षितफलासिद्धेः कृषीबलानामिव / ननु शास्त्रार्थस्य संहननाऽदिहीनेन समग्रस्य दुष्करत्वादशक्यानुष्ठानोऽयमुपदेश इत्याह-यथाशक्ति शक्तेः शरीरबलस्यानतिक्रमो यथाशक्ति तेन, एवं ह्या-राधनोक्ता। यदाह"अनिगृहितो विरिय, न विराहेइचरणं तव-सुएसु। जइ संजमे वि विरियं, न निगहिजा न हाविज्जा // 1 // ' चरणं न हापयेदित्यर्थः, केनेत्याहमुमुक्षुणा मोक्षेप्सुना, अनन्यो-पायत्वान्मोक्षस्य / यदाह- "जम्हा न मोक्खमग्गे, मुत्तूण आगमं इह पमाणं / विजइ छउमत्थाणं, तम्हा तत्थेव जइयव्व।।१।।'' किंभूते-नान्यव्यापारशून्येन शास्त्रार्थकरणव्यतिरिक्तलोकयात्राऽऽदिकर्त्तव्यविरहितेन, व्यापारान्तरेण हि शास्त्रार्थकरणबाधा भवतीति कर्त्तव्यो विधेयः, किं प्रतिनियतं कालं, नेत्याह- सर्वदैव सदैवाऽऽजन्मापीत्यर्थः, हिशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, यस्मादर्थो वा, ततश्च यस्माच्छास्त्रार्थ एव कर्त्तव्यस्तस्मात् प्रच्छन्नमेव भोजनं विधेयमिति प्रक्रम इति ||7|| प्रकरणार्थमुपसंहरन्नाहएवं [भयथाऽप्येतद्, दुष्टं प्रकटभोजनम् / यस्मान्निदर्शितं शास्त्रे, ततस्त्यागोऽस्य युक्तिमान् / / 8 / / एवं हि अनेनैवानन्तरोक्तेन प्रकारेण, उभयथा दीनाऽऽदेर्दानादानलक्षणाभ्यां वर्णितस्वरूपाभ्यां प्रकाराभ्या, न केवलमेकेनैव प्रकारेण, अपि तुभयथाऽपीत्यपिशब्दार्थः / अथवा- इहलोकापेक्षया, तत्र परलोकापेक्षया प्रकटभोजनस्य दुष्टत्वमुपदर्शितमनन्तरमेव। इहलोकापेक्षया त्यमुतो नीतिश्लोकादवगन्तव्यम्- 'प्रच्छन्नं किल भोक्तव्यं, दरिद्रेण विशेषतः। पश्य भोजनदौर्बल्यान, घटः सिंहेन नाशितः।।१।।" Page #1630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1622- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण एतदनन्तरोक्तं प्रकटभोजनं दुष्ट दोषवत् यस्माद्यतो हेतोर्निदर्शितं प्रतिपादितं शास्त्रे-आगमे ततस्तस्मात्त्यागः परिहारोऽस्य प्रकटभोजनस्य युक्तिमान् उपपत्तियुक्तः, अतो हे कुतीर्थिका यदि यूयं मुमुक्षवस्तदा भवतामपि प्रच्छन्नमेव भोजनं कर्तुं युज्यत इति गतार्थ इति। हा०७ अष्ट उपस्थापिताय भोजनं दत्वा भुञ्जीतनिग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविटेणं अन्नयरे अचित्ते अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिग्गाहिए सिया, अत्थि आई व केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पइ से तस्स दाउंवा अणुप्पदाउं वा, नऽत्थि आइंइत्थ केइसेहतराए अणुवट्ठावियए, ता नो अप्पणा मुंजेज्जा, नो अन्नेसिं दावए, एगते बहुफासुए पएसे पडिलेहित्तापमज्जित्ता परिहावियव्वे सिया।।१३।। अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहआहार एव पगतो, तस्स उगहणम्मि वण्णिया सोही। आहेच पुण असुद्धे, अचित्तगहिए इमं सुत्तं / / 430 / / आहार एवानन्तरसूत्रे प्रकृतस्तस्य चाऽऽहारस्य ग्रहणे शोधिर्वर्णिता, यथा शुद्ध आहारो ग्रहीतव्यस्तथा भणितमिति भावः / 'आहच' कदाचित्पुनरशुद्धोऽचित्ताऽहारो गृहीतो भवेत्, तत्र को विधिरित्वस्यां जिज्ञासायामिदं सूत्रमारभ्यते। अहव ण सचित्तदव्वं, पडिसिद्धं दव्वमादिपडिसेहा। इह पुण सचित्तदव्वं, वारेति अणेसियं एसो॥४३१।। अथवा पूर्वतरसूत्रेषु तत्र "नो कप्पति पव्वावित्तए।" इत्यादि तु सचित्तद्रव्यं द्रव्याऽऽदिप्रतिषेधेन- द्रव्यं मण्डलाऽऽदिकं तदाश्रित्य प्रतिषेधो द्रव्यप्रतिषेधस्तेन, आदिशब्दात् "दुट्टे मूढे'' इत्यादिषु च भावाप्रतिषेधेन प्रतिषिद्धम् / इह पुनः प्रकृतसूत्रे सचित्तद्रव्यमनेषणीय वारयति एषः॥४३१।। अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य (सूत्रस्य-१३) व्याख्यानिर्ग्रन्थेन गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टन (अन्नतरे त्ति) उद्गमोत्पादनैषणादोषाणामन्यतरेण दोषेणादुष्टमनेषणीयमशुद्धमचित्तं निर्जीव पानभोजनमनाभोगेन प्रतिगृहीतं स्यात्. तचोत्कृष्ट नयतस्ततः परित्यक्तंन शक्यते, अस्ति चात्र कश्चित् शैक्षतरको लघुतरोऽनुपस्थापितकः अनारोपितमहाव्रतः, कल्पते. (से) तस्य निर्ग्रन्थस्य तस्मै शैक्षाय दातुमनुप्रदातुंवा, तत्र दातुं प्रथमतः, अनुप्रदातुं तेनान्यस्मिन्नेषणीये दत्ते सति पश्चात्प्रदातुम्। अथ नास्त्यत्र कोऽपि शैक्षतरकोऽनुपस्थापितकस्ततो नैवाऽऽत्मना भुञ्जीत, न वा अन्येषां दद्यात्, किं तु एकान्ते बहुप्राशुके प्रदेशे प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च परिष्ठापयितव्यं स्यादिति सूत्रार्थः // 13 // अथ नियुक्तिविस्तरःअन्नतरऽणेसणिचं, आउट्ठिय गिण्हणे तु जं जत्थ। अणभोगगहितें जयणा, अजतणदोसा इमे होंति // 432 / / / अन्यतरं दुग्धाऽऽदीनामेकतरदोषदुष्टमनेषणीयमाकुट्टिकया यो गृह्णाति / आकुट्टिका नाम-स्वयमेव भोक्ष्ये, शैक्षस्य वा दास्यामि, यमुपेत्य ग्रहणे येन दोषेणाशुद्ध तमापद्यते / यच यत्र दोषे प्रायश्चित्तं तत्तस्य भवति, अथानाभोगेन गृहीत ततो यतनया शैक्षस्य दातव्यम्। यद्यतनया ददाति तत इमे दोषा भवन्तिमा सव्वमेयं मम देहमण्णं, उक्कोसएणंच अलाहि मज्झं। किं वा ममं दिज्जति सव्वमेयं, ___ इव वुत्ते तु भणाति कोइ / / 433|| तेनानेषणीयमिति कृत्वा शैक्षो ब्रूयात्-मा सर्वमेतदन्नं भक्तं मम दत्त, अथोत्कृष्टमिति कृत्वा मे दीयते, तत्र उत्कृष्टेन भक्तेन ममालं, किंवा सर्वमेतत् मम दीयते इति? एवं शैक्षणोक्ते कश्चिद्भणतिएयं तुभ अम्हं, ण कप्पती चउगुरुंच अणादी। संका व आमिउग्गे, एगेण व इच्छियं होजा / / 434 / / एतत्तव कल्पते, अस्माकं तुन कल्पते, एवं भणतश्चतुर्गुरुकम्, आज्ञाऽऽदयश्च दोषाः, शङ्का वा, तस्य शैक्षस्याभियोगः कार्मणः, तद्विषया भवति, एकेन वा केनचिद् दीयमानमीप्सितं भवेत्, तस्य च ग्लानत्वे यथाभावेन ज्ञाते सति द्वितीयशैक्ष उड्डाहं कुर्यात्। इदमेव भावयतिकम्मोदएँ गेलण्णे, दळूण गतो करेज उड्डाहं। एगस्स वाऽवि, दिण्णे, गिलाण वमिऊण उड्डाहो।।४३५।। कोदयाद्यथाभावेनैव ग्लानत्वे जाते सति स चिन्तयेत्-एतैर्मे व्रतदेयं प्रतिभुञ्जतामिति कृत्वा ममाभियोग्यं दत्तम, एवं दृष्ट्वा ज्ञात्वा स भूयो गृहवासं गत उड्डाहं कुयदितैः कार्मण मम दत्तमिति, एकस्य वा दत्ते सति यदा ग्लानत्वं जातं तदा द्वितीयशैक्षः व्रतं वमित्वा प्रभूतजनसमक्षमुड्डाह कुर्यात्। कि पुनश्चिन्तयित्वास व्रतं वमतीत्याहमा पडिगच्छति दिण्णं, से कम्मण तेण एस आगल्ले / / 436 / / जाव ण दिज्जति अम्हा, वि हु दाणि पलामि ता तुरियं / / मा प्रतिगमिष्यतीति बुद्ध्या कार्मणमस्य दत्तं, तेनायमागल्लो ग्लानः सञ्जातः, अतो यावदस्माकमपि कार्मणं न दीयते तावत्त्वरितिमिदानीमहमपि पलाये। अथवा कश्चिदिदं ब्रूयात्भत्तेण मे ण कजं, कल्लं मिक्खं गतो व मोक्खामि। अण्णं व देहमण्णं, इय अजते उज्झिमगदोसा / / 437 / / भक्तेन (म) ममन कार्य , कल्यं वा भिक्षांगतो वा भोक्ष्येअन्यद्वा भक्तं मह्यं प्रयच्छत (इय) एवमयतनया दीयमाने उज्झनिका पारिष्ठापनिका भवेत् तस्यां च दोषाः कीटिकामक्षिकाऽऽदिविराधनारूपा मन्तव्याः। अथवा एकस्य ग्लानत्वे जाते अपरश्चिन्तयेत्ह णु ताव असंदेह, एस मओऽहं तु ताव जीवामि। वग्घा हु चरंति इमे, मिगचम्मगसंवुता पावा / / 438|| Page #1631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1623 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण (ह णु त्ति) ह इति खेदे, नुरिति वितर्के, एष तावदसन्देहं मृतोऽहं तु ताबदिदानी जीवामि, इमे च पापाः श्रमणका मृगचर्मसंवृता व्याघ्राश्चरन्ति, बहिः साधुवेषच्छन्ना हिंसका अमी इति भावः। अतो याव-देते संजीवितान्न व्यपरोपयन्ति, तावत्प्रतिगच्छामीति। किंचअभिओगपरज्झस्स हु, को धम्मो किं च तेण नियमेणं? अधियकरग्गाहीण व, अमिजोयंताण को धम्मो?।।४३६।। अभियोगेन कार्मणेन (परज्झस्स त्ति) परवशीकृतस्य मम को नाम धर्मो भविष्यति, किं वा तेन नियमेन-मम कार्य , तथा अधिककरग्राहिणामिवामीषामप्येवमभियोजयतां धर्मो, न कश्चिदित्यर्थः। एवं विचिन्त्य गृहवासं भूयोऽपि कुर्यात, यो ग्लानीभूय प्रव्रजितः स प्रव्रजन्तमित्थं विपरिणमयेत्किच्छा हि जीवितोऽहं, जति मरणं इच्छसी तहिं वच्च / एस तु भणामि भाउग!, विसकुंभा ते महुपिहाणा / / 440 // कृच्छादतिदुःखेनाह तावज्जीवितः, अतो यदि त्वमपि मर्तुमिच्छसि तदा तत्र तेषां साधूनामन्तिकं व्रज, येन भवतोऽप्येवं संपद्यत इति भावः / अपि च-हे भ्रातरेषोऽहमेकान्तहितो भूत्वा भवन्तं भणामि, ते साधवो विषकुम्भा मधुपिधानाः सन्ति, मुखेन जीवदयाऽऽद्युपदेशक मधुरं च जल्पन्ति, चेतसा तु विषवत् परव्यपरोपकारिदारुणपरिणामा इति हृदयम् / एवं विपरिणामितोऽसौ प्रव्रज्यामप्यनिष्पद्यमानः षट्कायविराधनाऽऽदिकं करोति, तन्निष्पन्नमयतनादायिनः प्रायश्चित्तम् / किंचवातादीणं खोभे, जहण्णकालुत्थिए विसाऽऽसंका। अवि हुजति अन्नविसे, णेव य संकाविसे किरिया / / 441 / / तस्याऽशुद्धाऽऽहारदानानन्तरं वाताऽऽदीनां क्षोभे जघन्यकालात्तक्षणादेवोत्थित विषाऽऽशङ्का भवति- किं विषममीभिर्मम दत्तं येनैव सहसैव धातुक्षोभः समजनि, एवं चिन्तयतस्तस्याचिरादेव मरणं भवेत्। कुत इत्याह-(अवि इत्यादि) अपिः संभावनायां, संभाव्यते-ऽयमर्थःयदन्यस्य सर्वस्यापि विषमन्त्राऽऽदिक्रिया युज्यते, शङ्का, विषस्य तु क्रिया चिकित्सा नैव भवति, मानसिकत्वेन तस्य प्रतिकर्तुमशक्यत्वात / यत एते दोषा अतो नायतनया दातव्यम्। अत्र परमतमुपन्यस्य दूषयतिकेइ पुण साहियव्वं, अस्समणोऽहं ति पडिगमो होजा। दायव्वं जतणाए, अणुलोभणा ण उड्डाहो // 442|| केचित्पुनराचार्या ब्रुवते-स्फुटमेव तस्य कथयितव्यं भवतएवेदकल्पते, एतच्च न युज्यते, यत एवमुक्ते कदाचिदसौ ब्रूयात् यत् श्रमणानां न कल्पते तन्मम यदि कल्पते तत एवमहमश्रमणो-न श्रमणो भवामि, अश्रमणस्य च निरर्थकं तुण्डमुण्डनमिति विचिन्त्य प्रतिगमनं कुर्यात्, यत एवमतो यतनया दातव्यम्, यतनया च दीयमानं यदि ज्ञातं भवति तदा वक्ष्यमाणैव वा तैरनुलोभना प्रज्ञापना तथा कर्तव्या यथा तस्य चेतसि समाधान भवति उड्डाहो न स्यात्। प्रज्ञापनाविधिश्वायम्अभिनवधम्मोऽसि अभावितोऽसि बालोऽसि तं अणूकंपो। तव चेवट्ठा गहितं, मुंजेज्जा तो परं छंदा // 443|| कप्पो चिय सेहाणं, पुच्छतु अण्णे वि एस हु जिणाऽऽणा। सामाइयकप्पठिती, एसा सुत्तं चिमं वेंति।।४४४।। अभिनवधर्मा अधुनैव गृहीतप्रव्रज्योऽसि, अत एवाभावितोऽसि, नाद्यापि भैक्ष्यभोजनेन भावितः, बालश्च त्वमसि, अत एवानुकम्प्योऽनुकम्पनीयः, तत इदमुत्कृष्टद्रव्यमशुद्धमपि तवैवार्थाय गृहीतम्, अतः परं छन्दात् स्वच्छन्देन भुञ्जीथाः / / अपि च-कल्प एवैष शैक्षाणां यदनेषणीयमपि भोक्तुं कल्पते, यदिभवतो न प्रत्ययस्ततः पृच्छान्यानपि गीतार्थसाधून, तेऽपि तेन पृष्टाः सन्तो बुवते-एषा, हुनिश्चित, जिनाऽऽज्ञातीर्थकृतामुपदेशः, सामायिककल्पस्य चैषैव स्थितिः, सूत्रं च ते साधव इदं प्रस्तुतम्- 'अस्थियाइं च केइ सेहतराए'' इत्यादिरूपं बुवते इत्यादीति भावः। कदाचन कुट्टिकयाऽपि दद्यात्कथमित्याह-- परतित्थियपूयाओ, पासिय विविहाउसंखडीओ य। विप्परिणमेज सेहे, कक्खडचरियापरिस्संतो।।४४५।। क्वापि क्षेत्रे परतीथिकानां पूजाः सादरस्निग्धमधुरभोजनाऽऽदिरूपास्तदुपासकैर्विधीयमाना दृष्टा, विविधाश्च सङ्घडीरवलोक्य शैक्षः कर्कशचपिरिश्रान्तः सन् विपरिणमेत।। नाऊण तस्स भावं, कप्पति जतणाएँ ताहे दाउंजे। संथरमाणादेंती, लग्गइसहाणपच्छित्तं / / 446|| ज्ञात्वा तस्य शैक्षस्य भाव स्निग्धमधुरभोजनविषयमभिप्रायमेषणीयालाभे यतनया तस्याऽनेषणीयमपि दातुं कल्पते, अथ संस्तरन्तोऽपि ददति ततः स्वस्थानप्रायश्चित्तं लगति, येन दोषेणाशुद्धं तन्निष्पन्न प्रायश्चित्तमापद्यत इति भावः। सेहस्स व संबंधी, तारिसमिच्छंतें वारणा णऽत्थि। कक्खडें व महिड्डीए, वितियं अद्धाणमादीसु / / 447 / / शैक्षस्य वा संबन्धिनः केऽपि स्नेहातिरेकत उत्कृष्ट भक्तमानीय दद्युः, तस्य च तादृशं भोक्तुमिच्छतो वारणा प्रतिषेधो नास्ति, (कक्खडे व त्ति) कर्कशो मदस्योदयः, तत्रासंस्तरणा, अशुद्धं शैक्षस्य दातव्यं, शुद्धमात्मनो भोक्तव्यम्, (महिड्डीए त्ति) महर्द्धिको राजाऽऽदिः प्रव्रजितः स यावन्नाद्यापि भावितस्तत्रैतत्प्रायोग्यमनेषणीयं दीयते, (विइयं अद्धाणमादीसु त्ति) अध्वादिकारणेषु द्वितीयपद भवति, स्वयमप्यनेषणीय भुजानः शुद्ध इति भावः / एषा पुरातनी गाथा। साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिनीया व केई तु विरूवरूवं, आणेज भत्तं अणुवट्टियस्स। __ सेहाऽऽदि पुच्छेज्ज जदा तु थेरे, Page #1632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1624 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण तदा ण वारेंति णमागुरूगा 11440 // विरूपं मोदकशाकवर्तिशाल्योदनप्रभृतिकमुत्कृष्ट भक्तमनुपस्थितस्य / शैक्षस्यार्थायाऽऽनयेयुः, स च तैर्निमन्त्रितो यदा स्थविरानाचार्यान् पृच्छत्- गृह्णाम्यहमिदं, न वेति, तदा गुरवो (णमिति) तं शैक्षनवारयन्ति / कुत इत्याह चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तं भवेत्। किमर्थं पुनर्भयायान्त इत्याहलोलुव सिणेहतो वा, अण्णहभावो व तस्स वा तेसिं। गिण्हह तुज्झ वि बहुं, पुरिमडी णिव्विगितिए मो॥४४६॥ लोलुपतया, स्वज्ञातिस्नेहतो वा तद् भक्तं भोक्तुमभिलषेत्, ततो यदि वार्यते तदा तस्य शैक्षस्य तेषां च स्वज्ञातिकानामन्यथाभावो विपरिणमनं भवेत्। प्रज्ञातकश्च यदि साधूनां मन्त्रयते बहेतद्भक्तमतो यूयमपि गृह्णीत, ततो वक्तव्यम्- (मो इति) वयं पूर्वार्द्धप्रत्याख्या-यिनो निर्विकृतिकाश्च। अथ ते स्वज्ञातिका ब्रवीरन्मंदक्खेण ण इच्छति, तुज्झे से देह वेह वा तुज्झे। किं वा वारेमु वयं, गिण्हतु छंदेण तो विंति।।४५०।। एष युष्माभिरननुज्ञातो मन्दाक्षेण लज्जया न ग्रहीतुमिच्छति, ततो यूयं तस्य प्रयच्छत, बूत वा यूयं गृहाणेति। तत्र बुवते- किं वयं वारयामो, गृह्णातु स्वयमेव छन्देन यदि रोचते। अथ कक्खडे व महड्डीए त्ति 'पदद्वयं व्याख्यातिवीसु वोमे घेत्तुं, दिति व से संथरे व उज्झंति। भावितों विद्धिमतो, दलंति जा भावितोऽणेसिं ||451 / / अवमे दुर्भिक्षे यदन्नकाऽऽदिकमनेषणीयं विष्वक् पृथग् गृहीत्वा शैक्षस्यायिनीतंतत्तस्यैव प्रयच्छन्ति, संस्तरन्तो वा उज्झन्ति वा, ऋद्धिमान् प्रव्रजितः, तं भावयन्तो भैक्षभोजनभावनां ग्राहयन्तो यावद्भावितो न भवति तावदायेन, तेन वा दोषेणानेषणीय प्रायोग्यं लब्ध्वा ददति, यद्येवं गृद्धिस्तत्प्रव्रजितं नानुवर्त्तयति ततश्चतुर्गुरुकम्। कुतः नानुवर्त्तयति, ततश्चतुर्गुरुकं च कुत इति चेदुच्यतेतित्थविवड्डी य पभावणा य ओभावण कुलिंगीणं / एमादी तत्थ गुणा, अकुव्वतो भारिया चतुरो / / 452|| ऋद्धिमति प्रव्रजिते तीर्थविवृद्धिर्भवति- यदीदृशा अप्येतेषां सकाशे प्रव्रजन्ति, ततो वयं द्रमकप्रायाः किम्? एवं भूयांसः प्रव्रजन्ति, ततो वयं द्रमकप्रायाः किमेवं गृहवासमधिक्साम इति बुद्ध्या भूयांसः प्रव्रजन्तीति भावः / प्रभावना च प्रवचनस्यभवति कुलिङ्गिना चापभ्राजना भवति, तेषां मध्ये ईदृशामृद्धिमतामभावात्, एवमादयस्तत्र राजाऽऽदिप्रव्रजिते यतो गुणा भवन्ति अतस्तस्यानुवर्तन कुर्वतश्चत्वारो भारिका मासाः प्रायश्चित्तम्। अथ द्वितीयपदमाहअद्धाणासिवओमे, रायद्दढे असंथरंता उ। सयमवि अ मुंजमाणा, विसुद्धभावा अपच्छित्ता॥४५३।। अध्याशिवावसे राजद्विष्टऽप्यसंस्तरन्तः स्वयमप्यनेषणीयं विशुद्धभावाद् भुञ्जाना अप्रायश्चित्ता मन्तव्याः / बृ० 4 उ०। इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकृत्प्रतिपदं व्याख्यानयति, तत्राऽऽद्यावयवं व्याचिख्यासुराह-- णऽस्थि छुहाएँ सरिसया, वियणा भुजेज तप्पसमणट्ठा। छाओ वेयावच्चं, ण तरइ काउं अओ भुंजे / / 576 / / नास्ति क्षुधः सदृशी वेदना, अतो भुञ्जीत तत्प्रशमनार्थ, भुक्षितः वैयावृत्यं कर्तुं न शक्नोत्यतः भुक्ते। इरियं ण वि सोहेई, पेहाईयं च संजम काउं। थामो वा परिहायइ, गुणणुप्पेहासु य असत्तो।।६८०।। ईर्यापथिकां बुभुक्षितो न शोधयति यतोऽतस्तच्छोधनार्थ भुङ्क्ते, तथा (पेहाईयव ति) पेहपमजण' इत्यादिक संयम बुभुक्षितः कर्तुं न शक्नोति यतोऽतो भुङ्क्ते, 'थामोवा' प्राणस्तस्य परिहाणिर्भवति, यदिन भुङ्क्ते अतस्तदर्थ भुक्ते। तथा गुणनं पूर्वपठितस्य, अनुपेक्षा चिन्तनं ग्रन्थार्थयोः एतदसौ कर्तुमसमर्थः सन् भुङ्क्ते। अहव ण कुजाऽऽहारं, छहिं ठाणेहिं संजए। पच्छा पच्छिमकालम्मि, काउ अप्पक्खमं खमं // 481 / / अथवा न कुर्यादेवाऽऽहारमेभिः षभिः स्थानैर्वक्ष्यमाणलक्षणैः / तत्र नियुक्तिकार एव षष्ठ पदं व्याख्यानयन्नाह-(पच्छा पच्छिमकालम्मि) पश्चिमकाले संलेखनाकाले आत्मक्षमाम्-आत्महिता, क्षमा शान्तिमुपशमं कृत्वा ततः पश्चात् शरीरपरिकनिन्तरं साऽऽहारं मुञ्चतीति / इदानी भाष्यकार एवैतानि षट् स्थानानि प्रदर्शयन्नाहआयंके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीए। पाणिदया तवहेउ,सरीरवोच्छेयणट्ठाए।।२५२शा आतङ्कोज्वराऽऽदिर्वक्ष्यते, तथा उपसर्गः राजाऽऽदिजनितः, एतेषां तितिक्षार्थ सहनार्थ न भोक्तव्यं, तथा ब्रह्मचर्यगुप्त्यर्थं च न भोक्तव्यं, तथा प्राणिदयार्थ, तपोऽर्थं शरीरव्यवच्छेदार्थ च न भोक्तव्यमिति। इदानी भाष्यकृत् प्रतिपदं व्याख्यानयति / तत्राऽऽद्यावयव व्याचिख्यासयाऽऽहआयंको जरमाई, राया सन्नायगा व उवसग्गा। बंभवयपालणट्ठा, पाणदया वासमहियाई॥२६३।। आतङ्को ज्वराऽदिः, आदिग्रहणादन्यो व्याधिर्यत्र भोजन न पथ्य, तदर्थ न भुङ्क्ते / दारं / राज्ञा राजकुलधारणाऽऽदिरूपो यधुपसर्गः कृतः, (सण्णायगा वा) स्वजनो यदि उन्निष्क्रमणार्थमुपसर्ग करोति ततो भुक्ते / दार। ब्रह्मव्रतपालनार्थं न भुङ्क्ते, यतो बुभुक्षितस्योन्मादो न भवति। दारं। तथा प्राणदयाथन भुङ्क्ते, यदि वर्षति महिका वा निपतति। तवहेउचउत्थाई,जाव छम्मासिओ तवो होइ। छटुं सरीरवोच्छेयणट्ठया होइ अणहारो // 264|| तपोऽर्थ न भुक्ते, तपश्चतुर्थाऽऽदियावत् षण्मासाः तावत्तपो भवति, तदर्थ न भुक्ते। दार। षष्ठं शरीरस्य व्यवच्छेदार्थमनाहारः साधुर्भवतीति। Page #1633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1625 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण एएहिं छहिं ठाणेहि, अणाहारो उ जो भवे। धम्म नाइक्कमे भिक्खू, झाणजोगरओ भवे // 582 // एभिः पूर्वोक्तैः षड्भिः स्थानैरनाहारो यो भवति स धर्म नातिक्रामति भिक्षुरतो ध्यानयोगरतेन भवितव्यमिति। अथेदमुक्तंषभिः कारणैराहार आहारयितव्यः, षभिश्व कारणै हारयितव्यः, ततः किमेतत् भोजनमपवादपदम्? उच्यते- अपवादपदमेवैतत्। यतःमुजतो आहारं, गुणोवयारं सरीरसाहारं / विहिणा जहोवइ8, संजमजोगाण वहणट्ठा / / 583|| भुज्जन आहारं, किंविशिष्ट ? गुणोपकार ज्ञानदर्शनचारित्रगुणानामुपकारक, तथा शरीरस्य साधारकमाहारं भुञ्जन विधिना ग्रासैषणाविशुद्ध 'यथोपदिष्टम्' आधाकाऽऽदिरहितं संयमयोगानां संयमव्यापाराणां वहनार्थ भुञ्जन् अपवादपदस्थ एव भुङ्क्ते, नान्यथा। इदानीं समुद्देष्टे सति संलि (ख) हनकल्पः कर्त्तव्यः भिक्षाभक्तविलिप्तानां पात्रकाणां संलि(ख) हनं कर्त्तव्यमित्यर्थः / तथा चाऽऽहभत्तद्वियावसेसो, तिलंबणा होइ संलिहणकप्पो। अपहुप्पत्ते अन्नं, छो, ता लंबणे ठवए / / 584 / / भुक्तानामवशेषो यः स संलिखनकल्पः कर्तव्यः, स चावशेषो न ज्ञायते कियत्प्रमाणः? अत आह- त्रिलम्बनः त्रिकवलः कवलत्रयप्रमाणो भुक्तावशेषः संलिखनकल्पः कर्त्तव्यः, यदा तु त्रिकवलप्रमाणः संलिखनकल्पो न भवति, तदा अपर्याप्यमाणे अन्यदपि तस्मिन् पात्रके भक्त प्रक्षिप्य ततः त्रीन् कवलान् स्थापयति। संदिट्ठा संलिहिलं, पढमं कप्पं करेति कलुसेणं। तं पाउं मुहमासे, विइअच्छदवस्स गिण्हति // 585 / / संदिष्टाः भुक्ताः सन्तः सलिह्य पात्रकाणि पुनश्च प्रथम कल्पं ददति कलुषोदकेन, पुनश्च तत्पीत्वा (मुहमासो ति) मुखस्य परामर्शः प्रमार्जन कुर्वन्तीति, पुनश्च द्वितीयकल्पार्थमच्छस्य द्रवस्य ग्रहणं कुर्वन्तीति / गृहीत्वा च कल्पार्थभच्छद्रवं मण्डल्या उत्थाय बहिः पात्रकप्रक्षालनार्थ गच्छन्ति। दाऊण बितियकप्पं बहिया मज्झट्ठिओ उ दवहारी। तो देइ तइयकप्पं, दोण्हं दोण्हं तु आयमणं / / 586|| तत्र दत्त्वा द्वितीयकल्पं बाह्यतः पात्रकप्रक्षालनभूमी, ते च मण्डल्याकारेण तत्रोपविशन्ति, तेषां मध्ये स्थितो द्रवधारी भवति, स च पात्रकप्रक्षालनं सर्वेषामेव प्रयच्छतीति, ततो ददति ते साधवः पात्रकाणां तृतीय कल्पं, पुनश्च पात्रकप्रक्षालनानन्तरम्- (दोण्हं दोण्हं तु आयमणं ति) द्वयोर्द्वयोः साध्वोः मात्रकेषु आचमनार्थ निपनार्थम्, उदकं प्रयच्छतीति। एष तावदनदरिते भक्ते विधिरुक्तः। यदा तु पुनरुद्वरित भक्तं तदा को विधिरित्यत आह-- होज सिया उव्वरिय, तत्थ य आयंबिलाइणो होज्जा। पडिदंसि य संदिहो, वाहरइ तओ चउत्थाई / / 587 / / भवेत् स्यात् कदाचिदुद्वरितं तत्र च साधूनां मध्ये कदाचित्कचिदाचाम्लाऽऽदयो भवन्ति / आदिग्रहणादभक्तार्थिको वा कश्चिद्भवेत्ततस्तदुद्वरितं भक्तं रत्नाधिक आचार्याय दर्शयति, पुनश्च प्रदर्शिते भक्ते गुरुणा च संदिष्ट उक्तः यदुत-आहृयाचाम्लाऽऽदीन् साधून येन तेभ्यो दीयते, पुनश्चाऽसौ रत्नाधिकः सन्दिष्टः सन् चतुर्थाऽऽदीन साधून व्याहरति। सच व्याहरन्नेतान्न व्याहरतिमोहचिगिच्छ, विगिट्ट, गिलाण अत्तट्ठियं च मोत्तूण। सेसे गंतु भणई, आयरिआ वाहरंति तुमं // 588|| मोहचिकित्सार्थं य उपवासिकः स्थितस्तं नव्याहरति, तथा विकृष्टतपस साधुन व्याहरति, विकृष्टतपश्च अष्टमादारभ्य भवति, तस्य च कदाचिदेवता प्रातिहार्य करोति, अतस्तस्य न दीयते, ग्लानस्य ज्वराऽऽदिना तं च न ध्याहरति, आत्मलब्धिकं च न व्याहरति, एताननन्तरोदितान् साधून मुक्त्वा शेषान् गत्वा भणति, यदुत-आचार्या व्याहरन्ति युष्मान्। तेषां च मध्ये यश्चतुर्थादिक आकारितः, स आकर्ण्य किं करोति? इत्याहअपडिहणतो आगं-तु-वंदिउं भणइ सो उ आयरिए। संदिसह भुंज जं सर-इ तत्तियं सेस तस्सेव / / 586 / / अनतिलक यन् गुरोराज्ञाम् आगत्य वन्दित्वा भणति तमाचार्य ,यदुतसन्दिशत यूयम् / आचार्योऽपि भणति, भुञ्जीत, सोऽपि भणति-"ज सरइ तत्तियं भुंजामि" शेष यदुद्वरितं तत्तस्यैव यस्य सत्कः प्रतिग्रहकः, पुनश्च स एव परिष्ठापयतीति। अभणंतस्स उ तस्सेव सेसओ होइ सो विवेगो उ। मणिओ तस्स उगुरुणा, एसुवएसो पवयणस्स / / 560 / / अथाऽसौ साधुरेवं न भणति- यदुत "जं सरति तत्तिय' ततस्तस्य एवमभणतः तस्यैव यत् शेषं भक्तमुद्वरितं तद्भवति, स एव विवेचकः परिष्ठापक इत्यर्थः, भणिते तु एवं "यावइयं सरइ तावइयं सरामि त्ति।" ततस्तस्यैव साधोर्यस्य सत्कः पतदग्रहकस्तस्यैव गुरुणा। पतद्ग्रहकः समर्पयितव्यः पुनः स एव कल्पं ददाति। अयं प्रवचनस्य पूर्वोक्त उपदेशः। भुत्तम्मि पढमकप्पे, करेमि तस्सेव देंति तं पायं / जावतियंतिय भणिए, तस्सेव विगिचणे सेसं // 561 / / अथ यदुद्वरितं तत्सर्व भुक्ते, ततस्तस्मिन् भुक्ते सति तस्य पात्रकस्य प्रथमकल्पं ददाति / कृते च तस्मिन् प्रथमकल्पे तस्यैव साधोर्यस्य सत्कः पतद्ग्रहकस्यैव तत्पात्रकंददातिसमर्पयतीत्यर्थः। अथैतन्नबूते, यदुत-"जावइयं Page #1634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण सरइ तावइयं सारेमि त्ति।" ततः "जावतियं ति" अभणिते सति तस्यैव करेति, जाव संजयाण ण भोयणवेला ताव न भुंजामो ति ओसक्कणा, साधार्यः परिष्ठापनिकभोक्ता तस्यैव यदुद्वरित शेषं तत्परित्याज्यं भवति / भुत्तेसु संजएसु भुजीहामो त्ति पुणो णिमजणाणिमज्जणोव्वट्टणायमाणेसु इदं च पूर्वोक्तस्यैव व्याख्यानं द्रष्टव्यं, न तु पुनरुक्तमिति। छक्कायविराहणा, आणिजंतं णिजतं वा भिज्जेज्जा, अवहंत अन्नं पवहावेजा, किंविधं पुनः चतुर्थोपवासिकाऽऽदेः परिष्ठापनिक कल्पते ? साधूण वा दरभुत्ते मज्जति। तत्थ अदेंतस्स अंतरायदोसा, देंतस्स सकजअत आह हाणी, साधूहिं वा अणीतं हीरेन, पच्छा जा तणफलएसु अवहडेसु विहिगहियं विहिभुत्तं, अइरेगं भत्तपाण भोत्तव्वं / विराधणा वुत्ता सा इह गेहिमत्ते भाणियव्या। सकज्जहाणीए रुट्ठो भणेज्जविहिगहिए विहिभुत्ते, एत्थ य चउरो भवे भंगा / / 562|| मा पुणो संजयाणं देह त्ति वोच्छेदो, जम्हा एए दोसा तम्हा मिहिमत्ते ण विधिना उद्गमदोषाऽऽदिरहितं सारासारविभागेन च यन्न कृतं पात्रके , भुंजियव्वं। तद्विधिगृहीतं, तथा विधिभुक्तं कटकच्छेदेन प्रतरच्छेदाऽऽदिना वा कारणे भुंजति / गाहायद्भुक्तं तद्विधिभुक्तमुच्यते, तदेवंविधं विधिगृहीतं विधिभुक्तं च बितियपदं गेलन्ने, असती य अभाविते व खेत्तम्मि। यद्यदतिरिक्त सञ्जातंभक्तंपानकं वा तद्भोक्तव्यं परिष्ठापनकं कल्पते / असिवादी परलिंगे, परिक्खणट्ठा व जतणाए।।८०|| अत आह-प्रकारान्तरेण-अत्र च विधिगृहीते विधिभुक्ते च अस्मिन् सुवेज्जट्टा गिलाणट्ठा वा गिहिमत्ताघेप्पंति, भायणस्सवा असतीराया पदद्वये चत्वारो भङ्गका भवन्ति / तद्यथा- "विहिगहियं विहिभुत्तं एगो दिक्खितो, अभावियस्सट्टा वा सगच्छेवा उवग्गहट्टा, असिवे वा सपक्खभंगवो, विहिगहियं अविहिभुत्तं वीओ भंगो, अविहिगहियं विहिभुत्तं तइओ पंताए, परलिंगकरणे घेप्पति, सेहो सद्दहति ण व त्ति तप्परिक्खणट्टा भंगओ, अविहिगहियं अविहिभुत्तं चउत्थो भंगओ। घेप्पति, जयणाए त्ति जहा पुटवभणिया पच्छाकम्मादिया दोसा ण भवति इदानीं भाष्यकृद्विधिगृहीताविधिगृहीतयोः स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह तहा घेप्पति। नि०चू० 12 उ०। तथोद्वाहाऽऽदिजेमनवारगृहे यथा यतीना उग्गमदोसाइजढं, अहवा बीयं जहिं जहापडियं / विहर्तु न कल्पते, तथैव पौषधिकसत्कजेमनवारगृहे, अन्यथा वेति प्रश्ने, इइ एसो गहणविही, असुद्धपच्छायणे अविही / / 26 / / उत्तरम्-विवाहजेमनवारवत्पौषधिकजेमनवारगृहेऽपि मुनीनां विहर्जुन उद्गमदोषाऽदिभिः (ज)त्यक्तं यत्तद् विधिगृहीतम्, अथवा यद्वस्तु कल्पते इति।।२०।। तथा रात्रिराद्ध पूपिकाऽदि केषाश्चिद्रात्रिभोजनमण्डकाऽऽदि यथैव यस्मिन् स्थाने पतितं भवति तत्तथैवाऽऽस्ते, नतुस विरतिमतां गृहिणामत्तुं न कल्पते, तथा यतिजनानां तदत्तुं कल्पते, न मारयति, इत्येष ग्रहणविधिः / ओघ०। वेति, प्रश्ने, उत्तरम्-तेषां रात्रिराद्धान्नाऽऽद्यग्रहणं तु बहुजीवविराधनागृह्यमत्रे भोजनं न कर्त्तव्यम् सम्भवाद्रातिप्रथमप्रहरद्वयराद्धपूपलिकाद्विदलाऽऽदिषु पर्युषितत्वशङ्काजे भिक्खू गिहिमत्ते भुंजइ, भुजंतं वा साइजइ / / 14 / / सम्भवाच्च, न तु रात्रिराद्धान्नग्रहणे रात्रिभोजनविरतिभङ्ग इति, यतिमिहिमत्तो घंटिकरगादि, तत्थ जो असणादी भुजति तस्स चउलहुँ। भिस्तु पर्युषितत्वसम्भावनायां तन्न ग्राह्यम्, अन्यथा तु यथावसरं गाहा ग्रहणीयं, तेषां परार्थकृतान्नग्राहित्येन विराधनाया अभावादिति।।२०५।। जे भिक्खू गिहिमत्ते, तसथावरजीवदेहणिप्फण्णे। प्र०ा सेन०२ उल्ला० भुंजेज्जा असणादी, सो पावति आणमादीणि॥७७।। भोयणओ अव्य०(भोजनतस्) भोजनीयवस्त्वाश्रित्येत्यर्थे , उत्त०१ अ० सो गिहमत्तो दविधो-थावरजीवदेहनिप्फन्नो वा, तसजीवदेह-निप्फन्नो | भोजणकहा स्त्री०(भोजनकथा) भक्तकथायाम, ध०र०। वा।सेस कंठ। तत्कथातेय इमे "अहो क्षीरस्यान्नं मधुरमधुरमावज्यखण्डान्वितं चेत् सव्वे विलोहपाया, दंते सिंगे य पक्कभोमे य। रसः श्रेष्ठो दघ्नो मुखसुखकर व्यञ्जनेभ्यः किमन्यत्। एते तसणिप्फण्णा, दारुगतुंवाइया इतरे // 78|| न पक्वान्नादन्यद्रमयति मनः स्वादुताम्बूलमेकंसुवन्नरयततंबकंसादिया सव्वे लोहपाया हत्थिदंतमया महिसादि- परित्याज्याः प्राज्ञैरशनविषयाः सर्वदैवेति वार्ता // 34 // " सिंगेहिं वा कयं कवेल्लियादि वा पक्कभोमं, एतं सव्वं तसणिप्फण्णं, (इतर | ___ध०० 1 अधि० 13 गुण। त्ति) थावरणिप्फण्णं तं दारुयतुंबघडियं भन्नइ. मणिमयं वा, एतेहिं जो भोयणपडिकूलया स्त्री०(भोजनप्रतिकूलता) प्रकृत्यनुचित-भोजनभुजति तस्स चउलहुँ, आणादिया इमे दोसा। तायाम, स्था०६ ठा०। गाहा भोयणपरिणाम पुं०(भोजनपरिणाम) बुभुक्षायाम्, स्था० 5 ठा० 2 उ०। पुट्विं पच्छा कम्मे, ओसक्कऽहिसक्कणे य उक्काया। आहारविशेषस्य स्वभावे, स्था०। आणणणयणपवाहण, दरभुत्ते हरिय वोच्छेदो 76 / / छव्विहे भोयणपरिणामे पण्णत्ते / तं जहा-मणुन्ने, रसिए, पीणजे भद्दया गिही ते पुव्वं चेव संजयट्टा धोवेत्तु ठएज्जा,पतो पच्छाकम्म | णिज्जे, विंहणिजे, दीवणिज्जे, दप्पणिज्जे / / Page #1635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयण 1627 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भोयण भोजनस्येत्याहारविशेषस्य परिणाम: पर्यायः स्वभावो धर्म इति यावत् / विपाकः, सच मनोज्ञः शुभत्वान्मनोज्ञभोजनसम्बन्धित्वाद्वत्येवमन्येतत्र [मणुण्णे त्ति मनोज्ञमभिलषणीय भोजनमित्येकस्तत्परिणामः, ऽपि। स्था०६ ठान परिणामवता सहाभेदोपचारात्, तथा-रसिकं माधुर्याऽऽधुपेतं, तथा भोयणविहि पुं०(भोजनविधि) भोजनप्रकारे, उपा० 1 अ०। ('आणद' शब्दे द्वितीयभागे 106 पृष्ठे सूत्रम्) प्रीणनीयं रसाऽऽदिधातुसमताकारि, बृंहणीयं धातूपचयकारि, दीप भोयय पुं०(भोजक) भोक्तरि, भर्तरि च / बृ० 1 उ० 3 प्रक०। नीयम् अग्निबल जनकम् / पाठान्तरे तु-मदनीय मदनोदयकारि, दर्पणीयं भोल (देशी) सरलचित्ते, “वासुपुज्जस्सय तित्थे, भोला कालगलुच्छवी। बलकरमुत्साहवृद्धिकरमित्यन्य इति / अथवा-भोजनस्य परिणामो | मेघमालिजिया आसी, गोयमा ! मणदुव्वला // 1 // " महा०६ अ०) इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुश्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' / भकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्॥ तत्समाप्तौ च || समाप्तश्चायं पञ्चमो भागः॥ Page #1636 -------------------------------------------------------------------------- _