________________ पंताहार 63 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पंथग नत्योपमालिका साधवर्णनाधिकारे 'पंताहारे' इत्य१२-११ यती पर्यपि बल्लवासाद तिच्या या मारिता तथा चपर्यापितप पिकामक्षाणा राह खाच टोना सद्धिपम्दापदिघन करा युक्तिमाति? अत्र निय यथानसमाई. अतं तं च होई वावण।" इति वृहाच्य मिलियकारिकारे / तदवृत्तीच-बावन्न" शब्देन विनसमिति याला मनसि लय तु तत्वविद्वद्यम्, आत्मनापयुषितस्याग्रहमजिनपदपर-प-राऽऽराधन, संसकिसदादतटोपवर्जनं च गुणार्थवति टायर ही०. प्रका। आ००। पंति स्त्रो० (नडेक्स) "डञणनो व्यञ्जने" ||1 / 25 / / इति इत्यानानुन्धारा प्रा०१ पाद: पद्धता, ज्ञा० 1 श्रु०१० / 'ओली माला गई, रिजाली जयली पती।" पाइ० ना०६३ गाथा रिया० / अनु० जी०। ज्यातिकाणां पडियः 'जोइसिय' शब्दचतुर्थभागे २५३७उत्ता: पंती (दशी) येशम, दे० ना० 6 वर्ग 2 गाया। पंथ पुं० (पथिन) गार्गे, भ०१० 202 उ०। स्या०। उन०। नि००। अध्यन, आरम्। 'दुविहाय हाइपंथी, छिन्नहाणत अछिन्नं च। छिन्नम्भि नचिकिची, अछिन्नपल्लीहि वइगाहिं 6013 / / " इति "विहार'' शध्ये व्याख्यार मले०१३०३ प्रकाव्या भावतः सम्यवावे. सूत्र० 15.11%3 / 'मम्मी पंथा सरणी, अद्धाणं वगिणी पहा पसी!" पाइ ना०५: गाथा। पान्थ 90 पथिके, 'सा तेसिं पंथ गुण कहेइ, एगो पंथो उजुगो, एमः बंका "आम०१०खण्ड। पंथकोहुन० (पन्थकोष्ठ) सार्थघाते, विपा०१ श्रु०१ अ०! पंथग मुं० (पान्थक) ब्रह्मदत्तचक्रिभार्याया नागयशसो जनके. (उरा० 13 अ) स्थ पत्यापुत्रराहप्रवजिते, झा०१ श्रु०५ अ०। "बच्छवालीपुनरस पंथगन्स भत्त नेऊ!" आव०४ अ०। धन्यस्य सार्थवाहरय स्वनामख्या दासचेटक,जा०१श्रु०५ अ०। पत्तो सुसीससद्दो, एवं कुणतेण पंथगेणाऽवि! गाढप्पमाइणो वि हु, सेलगसूरिस्स सीसेण // 132 / / प्रानो गन्ध: "सुशिष्यः" इति शब्दो विशेषणम्, एवं गुरोर्भूयोऽपि चारित्रे प्रकृति कारयता पन्थकमय-थकनाम्ना सचिवपङ्ग वसाधुना, अपिशव्दादम्परपि तथाविधः। यतोऽभाणि"सील कयावि गुरू तपसुसीसा सुनिउणमहुरे हैं। मार लिघुणरवि,जह से लगभगो नायं / / 1 / " तमेव चिमिनसिाटप्रमादिनोऽप्यतिशयशथिल्यवतोऽपि, शैलकसूरेः शिष्येणेति व्यक्तमेवेति गाथाक्षरार्थः / भावार्थः कथानकादवरोयः। कथानकाचेदम'कविकुलकलाविकलिग, सेलगपुरमत्थि सल सिहरं का तस्थप्पावसियकित्ति, सेलउच्व सेलओ राया / / 1 / / सम्मकामवज्जिय-छउमा पउभावई पिया तस्स! सन्नीइनागवल्ली-इ मंडवा मडगो पुत्ता / / 2 / / चउसुद्धबुद्धिसंसिद्धपंथगा पंथगाइणो आसि। रचभरधरणलक्षा, सुगंतिणां पंचसरासंरखा / / 3 / / थावचासुधगणहर..समीवपडिवन्नसुद्ध गिहिधम्मो। सेलगराया रज, तिबग्गसार चिरं कुणइ // 4 // अणियान-सुगपहुपयवत्तिसुयगुरुसमीये। पति मतिसहि, पथगपमुहेहि परियरिओ।।५।। ममप लाऊण निराहए वयं राया। कारस अंगाई, अहिझिओवाया बो॥६॥ खमपमुहाग राओ, पंचमुणिसाण नायगो ठविओ। शुभिवरोग से नग- रामरिसी जिणसमयविहिणा / / 7 / / सुयी उगहप्पा, समए आहारवण काउं। सिरिजमलसिंहरिसिहरे, सहस्ससहिओ सिवं पत्तो / / 8 / / हरालगराय रिसी, अणुचियभत्ताइभोगदोसेणं / दास्राइतविआ, सभागओ सेलगपुरम्मि।।६।। उम्मि पसता सुभभिभागम्मितं समोसरियं / सोऊण पाहिदमणा, विणिमओ मङ्गो राया // 10 // करवंदामाइकियो, सरीरवतं वियाणिउं गुरुणो। विन्नवइ एह भंते ! मम गेहे जाणसालासु // 11 // भत्तासहाइएहि, अहापवत्तेहिं तत्थ तुम्हाणं। कारमिजेण किरिय, धम्मसरीरस्स रक्खट्टा // 1 // " तथा चोक्तम्शरीरं धर्मरायुक्ती, रक्षणीयं प्रयत्नतः। शरी पछुनो धर्मः, पर्वता-सलिलं यथा / / 13 / / ' "पडिबन्नमिण गुरुणा, पारद्धा तत्थ उत्तमा किरिया। निमहुराइंएहि, आहारहिं सुविजेहिं // 14 // विज़ाण कुसलवाए, पत्थोराहपाणगाइधुवलाभां / थोबदियहहिँ एसो, जाओ निरुओ य बलवं च / / 15 / / नवरं सिणिर्पेसल-आहाराईसु मुच्छिओ धणियं। सुहसीलयं पवन्नो, नेच्छइ गामंतरविहारं / / 16 / / बहुगा वि भणिज्जता, विरमइ नो जाव सो पमायाओ। साह पशगवला, मुणिणो मतति एगत्थ / / 17 / / कामाई नण घणचि-मणाई कुडिलाइँ वजसाराई। नागड्डयं पिरिसं, पंथाओ उप्पहं निति // 18 // नाऊण सुयवलेणं, करयलमुत्ताहलं व भुवणयलं। अहह निवडति केवि हु. पिच्छह कम्मरस बलियत्तं // 16 // मुत्तण रायरिद्धि, मुक्खत्थी ताव एस पव्वइओ। संपइ अइप्पभाया. विम्हरियपओयणो जाओ // 20 // कालेनदेह सुतं, अत्थं न कहेइ पुच्छमाणाणं / आवरसगाइभत्ति, मुत्तुं बह मन्नए निई // 21 // सारणवारणपडिचोयणाइन मणं पिदेइ गच्छस्स। नय सारणाइरहिए, गच्छे वासो खणं पि खगो।।२२।।" तथा चाऽऽगमः"जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा गच्छम्मि। साउ अगच्छो गच्छो, संजमकामीहिँ मुत्तव्यो / // 23 // "उदगारी यदढमिमो, अम्हाणं धम्मचरणहेउत्ता। मुनु धित्तुं च इग, जुत त्ति फुडं न याणामा / / 24 / / अहला कि अम्हाण, कारणरहिएण नीयवासेण / गुरुणा वेयावच्चे, पंथगसाहुं निउंजित्ता / / 25 / / एय चिय पुच्छित्ता, विहरागो उज्जया वयं सव्ये। कालहरण पि कीरइ, जो वेयइ एस अप्पाणं / / 26 / /