________________ पंथग 64 - अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 5 पकप्प सामस्थिऊण एवं, पंथगसाहु ठवित्तु गुरुपासे। ध्यानम्। सनत्कुमारं गवेषयतो महेन्द्रसिंहस्येव ब्रह्मदत्तं वा घरधनस्व ते सव्वे विहु मुणिणो, अन्नत्थ सुहं पबिहरंसु॥२७।। दुनि, आतु०॥ पंथगमुणी वि गुराणो, वेयावचं जहोचियं कुणइ। पंथिय पुं०(पान्थिक) पन्धानं नित्यं गच्छत्तीति पान्थिकः / नित्यपथिके, असवत्तजोगजुत्तो, सया अणूण च नियकिरियं // 28 // ज्ञा०१ श्रु०८अ01 कत्तियचाउम्मासे, सूरी भुत्तूण निद्धमहुराई। पंथुच्छु हणी (देशी) श्वशुरकु ले प्रथमाऽऽनीतायांवध्वाम्, दे० ना० परिहरियसयलकिचो, सुत्तो नीसकसव्वंगो।।२६॥ ६वर्ग 35 गाथा। आवस्सग कुणतो, पथगसाहू वि खामणनिमित्तं / पंपुअ (देशी) दीर्घ,दे० ना०६ वर्ग 12 गाथा। सीसेण तस्स पाए. आघट्टइ विणयनयनिउणो // 30 // पंफुल्लिअ (देशी) गवेषिते, दे० ना० 5 वर्ग 17 गाथा। तो कुविओ रायरिसी, जंपइ को एस अज्ज निल्लजो। पंसण त्रि०(पांसन) पसि-ल्युट्-पृषो०।"मांसाऽऽदिष्वानुस्वारे" पाए आघट्टतो, निहाविग्घे मह पयट्टो ?||31|| // 170 / / इत्यालोऽत्। प्रा०१ पादादूपके, "कुलपासनः।" वाचा रुढ दटुं सूरि, महुरगिरं पंथगो इय भणेइ। पंसु पुं० (पाशु) "मांसाऽऽदेर्वा " 8/1 / 26 / / इति अनुस्वारस्यलुग्वा / चाउम्मासियखामणकए मए हम्मिया तुडभे // 32 // पासू। पंसू। प्रा०१ पाद। रेणौ, जं०३ वक्षाधूमाऽऽकारे अचित्तरजसि, ता एग अवराह, खमह न काहामि एरिस बीयं / आ०चू० 4 अ० ज०। आव०नि० चू०।'पंसू अचित्तरओ।" पांशवो हुति खमासील चिय, उत्तमपुरिसा जओ लोए / / 33 / / नाम धूमाऽऽकारमापाण्डुरमचित्तं रजः / व्य०७ उ०। पाइ० ना०। इय पंथगमुणिवयणं, आयनंतस्स तस्स सूरिस्स। पंसुपिसायभूय त्रि० (पांशुपिशाचभूत) धूल्यवगुण्डितशरीरत्वेन सूरुग्गमे तमं पिव, अन्नाणं दूरमोसरियं // 34 // मलिनवस्त्रत्वेन भूततुल्ये, उत्त० 12 अ०। बहुसो निदिय अप्पं, सविसेस जायसंजमुजोओ। पंसुमूलिय पुं० (पांशुमूलिक) पांशुमूलिकापत्ये वैताढ चपर्वर वासिविद्याधरमनुष्ये, आ०चू०१ अ01 खामेइ पंथगमुणिं, पुणोपुणो सुद्धपरिणामो // 35 // पंसुलिया स्त्री० (पांशुलिका) पाश्र्वास्नि, अणु० 3 वर्ग 1 अ० तः। बीयदिणे मडुगनिवमापुच्छिय दो वि रोलगपुराओ। "वारस पसुलिया करंडया इह'' इह शरीरे द्वादश पांशुलिकारूपाः निक्खंता पारद्धा, उग्गविहारेण विहरेउं // 36 // करण्डका वंशको भवति / प्रव० 253 द्वार / वारस पंसुलिया करडे श्रवगयतव्युत्तता, संपत्ता सेसमंतिमुणिणो वि। छप्पसुलिए कडाहे विहत्थियाकुच्छी।" तं० / विहरिय चिर सुविहिणा, आरुढा पुंडरीयगिरि // 37 / / पंसुलियाकड पुं० (पांशुलिकाकट) पावस्थ्निां कटके, अगु० 3 वर्ग दोमासकयाणसणो, सेलेसि काउ सेलगमहेसिं। १अ01 पंचसयसभणसहिओ, लोयग्गठियं पयं पत्तो // 38 // ' पंसुली स्त्री० (पांशुली) व्यभिचारिण्याम्, 'अहिसारिआ अडयणा य "एवं पन्थगसाधुवृत्तममलं श्रुत्वा चरित्रोज्ज्वलं, पंसुली टिंछई य दुरुसीला।" पाइन्ना०५६ गाथा। सज्झानाऽऽदिगुणान्वितं गुरुकुल रोवध्वमुच्चैस्तथा। पंसुवुट्ठि स्त्री० (पांशुवृष्टि) धूलिवर्षे , जी०३ अति०४ अधि०] भो भोः साधुजनाः ! गुरोरपि यथा सत्संयमे सीदतो, पांशुवृष्टि म यदवित्तं रजो निपतति। व्य०७ उ०। प्रव०। पांशुवृष्टरनिष्टफ निस्ताराय कदाचन प्रभवत स्फूर्जद्गुणश्रेणयः / / 36 / / " लदत्वचिन्तके शास्त्र, सूत्र०२ श्रु०२ अ० / पकं (ग) थप्रकथ-धा०' इति पन्थकसाधुकथानकम्। ध० 203 अधि०७ लक्ष० / चुरा० / निन्दायाम, "पलिय पकथे अदुवा पकथे।" प्रकथ्येज्जुगुप्स्येत। पंथघायग त्रि० (पन्थघातक) पथि लोकानां मारके, प्रश्न ३आश्र० द्वार। तद्यथा- भोःकौलिक प्रव्रजित! त्वमपि मया सार्द्धमेवं जल्पसि। अथवापंयच्छेयण न० (पथिच्छेदन) मार्गच्छेदने, मार्गातिक्रमणे, स्था०५ जकारचकाराऽऽदिभिरपरैः प्रकथ्य निन्दाप्रकारैर्विधत्ते। आचा०।१ श्रु० ठा०३ उ०। 6 अ०२ उ० / “पलियं पगथे अदुवा पगथे' प्रकथयेदेवभूतस्त्वपंथजाइ पुं०(पथियायिन) स्वसमयबोधविशिष्ट युग्याऽऽचार्ये स्था०४ मित्यन्यथा वा कुण्ठमण्ठाऽऽदिभिर्गुणैर्मुखविकाराऽऽदिभिर्वा प्रकथयेठा०३ उ०। दिति। आचा०१श्रु०६ अ०२ उ०। पंथज्झाणन०(पथिध्यान) अल्पकालगम्योऽध्या पन्थाः, तस्य तस्मिन् / पकंथय पुं०(प्रकन्थक) अश्वविशेषे, स्था०४ ठा०३ उ०। वा ध्यानं पथिध्यानम् / पोतनापुरमार्ग गवेषयतो वल्कलचारिण इव | पकंप पुं०(प्रकम्प) क्षोभे, आव० 4 अ01 विक्षेपे, आय० 4 अ०। दुध्यनि, आतु०। पंकपिय त्रि०(प्रकम्पित) विधूते, आव०२ अ०। पंथणिज्झाइ(ण) पु०(पथिणिया॑यिन) गुरोः क्वचिद् गतस्य पन्थान पकडण न० (प्रकर्षण) आकर्षणे, नि०चू० 20 उ०। निध्यातु शीलमस्येति पन्थनिायी। गुरुमार्गप्रतीच्छके, आचा० 1 | पकत्थन न० (प्रकत्थन) आत्मनः श्लाघायाम, सूत्र०१श्रु०४ अ०१ उ०। श्रु०५ अ०२ उ०। पकप्प पुं० (प्रकल्प) प्रकृष्टः कल्प आचारः / स्था० 4 ठा० पंथाग पुं० (पन्थान) महति विषमे चाध्वनि, आतु०। 3 उ० आचा०णि नि० चू० / निशीथाध्ययने, व्य०३ पंथाणंझाण न० (पन्थानध्यान) महान् विषमश्चाध्वा पन्थानस्तस्य | उ० / "इदार्णि पकप्पे ति दारं / प्रकर्षण कल्पः प्रक