________________ भरह 1386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह अणूहवंतो मणसा विचिंते, पूजारिहा दो वि ममेऽत्थ अस्थि / / 7 / / न नजई कस्स पुणोऽत्थ कज्जा, पूया जिणिंदस्स व चक्कदाइणो। नायं जहा चक्कफलं इहेव, दाही जिणो समगऽपवग्दाया / / 73 // एवं विचिंतित्तु पवित्तगत्तो, पहाओ सुई सव्वविलित्तअंगो। हारऽद्धहारक्कडयंगयाई, किरीडलोलचलकुंडलंगो / / 74|| सिंदूरपूरारुणकुंडकूड दाणदगंडस्थलभिभलस्स। पेट्टाइँघंटाजुयसोहियस्स, आरोद कंधे जइ वारणस्स।।७५।। दिक्खापवण्णे जिण्णायगम्मि, झूरेइ देवी मरुदेविनामा। सिणेहभावा भरह भणाइ, पुत्तो ममं हिंडइ चत्तसंगो // 76|| तुमं तु राया भरहे नरीसो, सुहं सुहेणं पकरेह रजें। तण्हाछुहाओ उसहो सहेई, दिणे दिणे झूरइ एवमेव।।७।। अम्मो ! जिणो सव्वज (ग) यस्सनेया, का एसॉ रिद्धी मह रज्जमेत्ता। चक्खूसु तो झूरइ नीलि जाया, नसद्दहेई वयणं तयस्स।।७८॥ सामिस्स रिद्धिं पभणेइ एहिं. दंसेइ अम्मो! जइ कोडिअंसं। अपघाइ रिद्धी जह काचखंड, अतम्मईया वयरामणिस्स / / 7 / / एवं भणित्ता पुणओ करित्तु, अउव्व आणद मण्णे वहति। देविंदरहिं अणुगम्ममाणे, ___ मयप्पवायद्धकवोलएहिं / / 8 / / एएहिं चिंद्धद्धयआउलेहि, सुतूररावभरियंवरेहि। घंटाटणकारमणोहरेहिं. सुचक्कचिक्कारपरंपरेहिं।।१।। लुरक्खुरीखुण्णमहीतलेहिं, वगंतवग्गावसकंधरहि। आवद्धबेगवसदुद्धरेहि, हएहिँ हसाभारियचरेहि / / 82|| पहाणनानावरगिल्लिथिल्लि - सुहासणासंदगजाणगेहिं।। मयंगतुगत्तुरगप्पहाण - सुदसणारूढमणोणुगेहिं।।८।। मंभाइमेरीरवपूरियासो, मंगल्लगीयजयरावरम्मो। चिंधद्धयाडोयपडायपति, लेलिज्जआयासतलावभाऊ // 84|| मज्झण्हे मज्झण्हे व नीहरित्तु, रम्भा अउज्झाएँ अहक्कमेण। जेणेव सामी सयलुज्जएइ, सव्वायरेण अह जाइ राया |8|| छत्ताइछत्तं जिणनायगस्स, पासित्तु देविं भरहो भणाइ। पेच्छामि अम्मो ! नयपुत्तरिद्धिं. न एरिसा कस्स वि अत्थि लोए॥८६॥ एवं सुणित्ता हरिसुचरंत रोमंचकंचुचयचारुगत्ता। फारेइ चक्खूजुयमूससित्तु, ता नीलि नट्ठा तिमिरं व सूरा // 87|| सुणेइ सई सुहमागहाणं, भेरीण रावं सुरताडियाणं / उकिट्टिनायं निवयं तु जंतरा, सुरासुरं जाणविमाणमूढ // 88|| माणिकहेमजुणतारफार - निप्फन्नसालत्तणचिंधरम्म विमाणमालाहिँ नहं पकिन्नं, निसाएँ तारागणसंकुलं व॥८६॥ पासित्तु देवी मनसा विचिंते, अहो अहं मोहवसा उ खित्ता। जिणो सयं एरिसरिद्धिमंतो, पिहुं पिहुं कम्ममिणं जियाण ||6|| जतोऽत्थजुतो कुसलो णुधम्मो, एवं सुहज्झाणवसाणुगासा। अउव्वजीवचिर उल्लसा उ, आरोद से दिखयगं कमेण // 1 // संजायणाणाइसया महप्पा, खावतुकासव खवित्तु कम्मं सयलं झडि ति। पत्ता सिवंसेयसओक्खरम्म, समागया देवऽसुराण संघा॥६२|| कयं ति पूयं पढमो त्ति काउं, सिद्धो इहं तस्स सरीरंग तु। सक्कारिउ खीरसमुद्दमज्झे, खिवंति खिप्पं भरहाहिवो वि॥६३|| गतुं जिणं पूयइ भत्तिजुत्तो, सामी वि देवासुरकिंनराणं। नराण नारीण य खेयराणं, कहेइ धम्म सिवसंगपावगं ||14|| भवण्णवे पोयसमाणमेवं, अन्नाणघंपावतरूकुठारं। निसम्म धम्म जिणनायगस्स, पासे पवज्जित्तु सुसावगत्तं / / 6 / / अट्ठाहिय काह अहायरेण, समागओ चक्किवरो सठाणे। गंतुं सठाणे भरहोऽवि राया, सिंहासणे पुव्यमुहोवविट्ठो॥६६॥