________________ भरह 1388 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह हणेइ सिन्नं सयलं रिऊणं, परोप्परं साहिउ लद्धिईओ। तयत्थयं ते उ अयाणमाणा, गया सठाणं सुमिणाइँ ते उ॥४६॥ सुहं कुमारस्स परं तु अत्थि, मेरु व्व सामी वि हु निप्पकंपो। गंभीरमातोलियनीरनाहो, अमूच्छिओ चत्तममत्तसंगो॥५०॥ गेहाणुगेहं अह रीयमाणो, समागओ रायपहे विसाले। गवक्खचक्खू गयदेहमाहो, निरिक्खिओ सामि झड ति चित्तो॥५१॥ दिट्ठो कया वेरिसरूवधारी, अबोहईहाऐं गवेसणाय। एवं करंतस्स सुझाण जोगा, जाईए जायं सरणं तहा उ॥५२।। निमीलिअच्छो अह मुच्छ्याए, खणं तह चिट्टियओ परित्ता। चिंतेइ देवो जइ एज एत्थ, तो देमि भिक्खं अह एसणिज्जं // 53 // जिणस्स भत्तिभर णिब्भरंगो, नागिंददेविंदनरिंदचंद। सोक्खाण ठाणं सयलाण आसी, करेमि लोयाण तहा पवित्तिं // 54 // दंसेमि अन्नाणविमोहियाणं, विगप्पकल्लोलसमाउलस्स। सेयंससुद्धासयलोयणस्स, नरो अहिक्खूयरसस्स कुंभं // 55|| घेत्तुं समीपे पगहेइ जाव, तिगुत्तिगुत्तो इरियोवउत्तो। गिह गिहेण अह रीयमाणो, अमुच्छियप्पा सयणे धणे य॥५६।। समागओ सामि कम कमेण, दर्दू जिणं किण्हिरिसं नरम्मि। विवड्माणोसियरोमकूवो, आणंदबिंदूजलकिन्नदिट्ठी॥५७॥ सग्गं च मत्तं च अयाणमाणे, वंदितु भूमीकयपंचमंगो। भणाइ सामी! रसमेसणीय, गिहाहि तारेहि भवन्नवाओ // 58|| तओ पसारेइ जिणे सुपाणी, विसुद्धलेसे सुविसुद्धबुद्धी। पसत्थझाणोऽथ झड त्ति देइ, आणंदसंदोहमुवागओ सो // 56 / / धन्नातिधन्नं कय किच्चयं ति, जयम्मि अप्याण वि मन्नामाणो। सामी वि संवच्छरपारणम्मि, पारित्तु तं इक्खुरसं मणुन्नं / / 60 / / सुससत्थदेहो सुहपीणियंगो, अहा जहिच्छ विहरेइपच्छा। सेमागया तत्थ मराऽसुरा वि, नरा वि नारी हरिसं वहंता // 61 / / * अहो अहो दाणामण भणंति, मुचंति गंधोदयपुप्फमिस्स। उक्किट्वधारं दविणस्स झ त्ति, चेलोउखेवंतचुन्नवासं // 62 // सयं च राया य पहाणसिट्टी, समागओ सेसजणो वि तत्थ। भणंति एसो सुमिणुस्स अत्थो. पाराविओ सामि सबच्छराओ॥६३॥ तओ जणो विम्हियमाणसो उ, पुच्छेइ नायं कहमेयमेत्थ। कहेइ सव्वं भवमाइकिचं, एयम्मि लोए पुण जाव जाओ॥६४॥ जाइस्सराओ सयलं पि नायं, धम्म अधम्म जिणभिक्खदाणं। एवं जणा भत्तिभरावनम्मा. दिजाहि भिक्खं जिणनायगस्स // 6 // करेइ पीढ रयणामयं तु भिक्खालया जत्थ ठिएण तत्थ। सेयंसणामो कुमरो महप्पा, रम्म जिणाणं गयमोहएणं / / 66|| अचित्तु तं भत्तिभरो वरेहि, पुप्फेहिं गंधेहि य उत्तमेहि। दिणे दिणे भुजइ काउमेयं, पुच्छेइ लोओ किमियं कहेह॥६७।। जिणो मए जत्थ विओ रसेण, पाराविओ भत्तिसुनिन्भरेण / मा अक्कमही तु जणो जिणस्स. पाए पर पीढमिणं कयं मे॥६८|| एवं जिणो पारइ जत्थ जत्थ, लोगो वि पीढं पगरेइ तत्थ। आइचपीढं ति परंपराए, खयं गयं कालवेसण पच्छा।।६।। जहासुहं हिंडउ गामदेसे, सहस्समेवं वरिसाण पुन्न। अओ परं घाइकम खवेइ, पावेइ नाणं जिण केवलं तु // 70 / / नरेहिं सामिस्स पउतिहेउं, निउत्तएहिं भरहाहिवस्स। नाणं पहाणं कहियं च जायं, आऊहपालेण वि चक्कवत्ती।।७१।। उग्घोसमाइण्णिय इट्टसिद्धी. अद्धच्चुयं किं पि हि संतरंतो। * सुदुंदुहीओगगणंगणम्मि, समा कुणंती हरिसं वहता // 61 //