________________ पमायट्ठाण 460 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पमायट्ठाण न लिप्पई भवमझेऽवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं // 34 / / रूपे विरवतः, उपलक्षणत्वादद्विष्टश्च 'मनुजः' मनुष्यः 'विशोकः' शोकरहितः संस्तन्निबन्धनयो रागद्वेषयोरभावात् / एतेन' अनन्तरमुपदर्शितेन (दुक्खोहपरंपरेण ति) दुःखानाम् - असातानामेघाः ससातास्तेषां परम्परासन्ततिर्दुःखौघपरम्परा, तया, 'लिप्यते' न स्पृश्यते, भवमध्येऽपि सन्' भवन्, संसारान्तरवर्त्यपीत्यर्थः / दृष्टान्तमाह जलेनेव, वाशब्दस्योपमार्थत्वात्, पुष्करिणीपलासं पद्मिनीपत्रं, जलमध्येऽपि सदिति शेषः / / 34 / / इत्थं चक्षुराश्रित्य त्रयोदश सूत्राणि व्याख्यातानि / एतदनुसारेणैव शेषन्द्रियाणां मनसश्च स्वविषयप्रवृत्ती रागद्वेषानुद्धरणदोषाभिधा-यकानि त्रयोदश सूत्राणि व्याख्येयानि। सोयस्स सई गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो अजो तेसु स वीयरागो / / 3 / / सदस्स सोयं गहणं वयंति, सोयस्स सदं गहणं वयंति।। रागस्स हेउं तु मणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु // 36 सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइसे विणासं। रागाउरे हरिणमिउ व्व मुद्धे, सद्दे अतित्ते स वेइ मुच्चुं // 37 / / जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि वखणे से उ उवेइ दुक्खं / दुदंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि सई अवरज्झई से // 38 // एगतरत्ते रूइरंसि सहे, अतालिसे से कुणई पओसं। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो // 36 // सद्दाणुगाऽऽसाऽणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइडणेगरूवे। चित्तीहँ ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठ गुरु किलिट्टे / / 40|| सद्दाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तलाभे? ||11|| सद्दे अत्तिते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुह्रि। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाऽऽविले आययई अदत्तं / / 12 / / तण्हाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिगहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुबई से // 43 // मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥४४|| सदाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि? तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं // 45 // एमेव सद्दम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुद्दचित्तोय चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥४६|| सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेणं। न लिप्पई भवमज्ञ वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं // 47 // घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो।।४८|| गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति। रागस्स हेउं तु मणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ||46il गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते॥५०॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं / दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि गंधं अवरज्झई से / / 51|| एगतरत्ते रूइरंसि गंधे,