________________ पुरिसोत्तम 1052- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरिसोत्तम पुरुषत्तमो हि धर्मः सर्वतीर्थकत्संमताः। पञ्चा०१७विव०। गुणनुरागकथनपूर्वकं पुरुषोत्तमचरितम् - गुणलेसं पि पसंसइ, गुरुगुणबुद्धीइ परगयं एसो। दोसलवेण वि नियगं, गुणानिवहं निग्गुणं गणइ॥१२१|| (ध००) (अस्या व्याख्या गुणानुरागिशब्देतृतीय भागे६३२ पृष्ठे द्रष्टव्या) पुरुषोत्तमचरितमित्थम् - "अस्थि सुरट्टाविसए, वारवई नाम पुरवरी स्मा। कंधणमणिमयमंदिर-पाया राधणयणिम्मवया // 1 // तत्थ य हरिकुलनहयल-हरिणको अरिसमूहमयमयणो। महुमयणो नाम निवो, दाहिणभरहद्धरउधरो॥२२ तत्थ कया वि हु विहुणिय-अइघणघणधाइकम्मपन्भारो। दुरियददुमदलनेमी, अरिहनेमी समोसरिओ।।३।। सिरिरेवयगिरिसठिय-उजाणे नंदणम्मि रमणीए। सुररइयसमोसरणे, उवविट्टो देसणं काउं॥४।। तत्तो निउत्तपुरिसा, जिणआगमणं मुवि हिडमणो। चलिओ भरद्ददुवई, बंदणद्देउं जिणिंदस्स // 5 // चलिया तेण समा णं, दस वि दसारा समुद्दविजयाई। तह चेव महावीरा, पंच वि बलदेवपामुक्खा / / 6 / / सोलसरायसहस्सा,संचलिया उम्गसेणनिवपमुहा। इगवीस सहरसाई, वीरसेणमुहाण वीराणं // 7 // दुद्दतंकुमारणं, सद्विसहस्साण संबपमुहाणं। पज्जुन्नप्पमुहाओ, अद्भुकुमारकोडीओ // 8 // छप्पन्नं च सहस्सा, महसेणपमुहबलवगाणं पि। अन्नो वि सिट्टमाई, नागरलोगो अणेगविहो // 6 // इत्तो सोहम्मवई, विण्हु मण भोहिणा मुणेऊण। गाढ हरिसियहियओ, सहागओ भणइ नियअभरे / / 10 / / हहो पिच्छइ पिच्छइ, एए किर केसवा महाभागा। गुरुगुण बुद्धीइ नयं-ति परगयं गुणलवं पि सया॥११॥ सिसुणो इव खलु पहुणो, जह तह जपंति इय विचिंते उं। सिग्ध परिक्खणत्थं एगो अमरो इह पक्षो॥१२॥ ओसरणगमणमग्गे, गदजीयं परमदुर हिगंधड्ड। वियसियमुहसियदंतं, एणं साणं विउव्वेइ / / 13 / / तग्गधेणऽभिभूयं, सिन्नं सयलं पि अन्नओ हुत्त। दढपिहियवयणनासा-उड फुड गंतुमारई / / 14 / / कण्हो पुण वच्वंतो, तेणेवं पहेण दट्ठतं साणं। परगुणलेसग्गहण म्मि लालसो जंपए एवं॥१५॥ एयस्स कसिणसाण-स्स आणणे सेयदंतघणपंती। एसा मरगयथाले, मुत्तामालेव कह सहइ ? // 16 // इइ नाउं हरिचरियं, कह वि न दोस वयंति सप्पुरिसा। सो जायपचओ सुर-वइम्मि पयडेइ नियरुवं / / 17 / / परगुणगहणपहाण, बहुसो थुणिउंहरि सबहुभाणं / असियोवसमणभेरि, च दाउ अमरो गओ सगं // 18|| ततो कण्हो पत्तो, ओसरणे जिणवरं नमिय विहिणा। उचियहाणे निसियइ. इय सामी कहइ धम्मकह / / 16 / / भो भविया ! भवगहणे. दुलह कह कह विलहिय सम्मत्तं / तस्स विसुद्धिनिमित्तं, संतगुणपसंसणं कुणह॥२०॥ जह संयलतत्तविसया, अरुई सम्मत्तनासिया भणिया: तह संतगुणाणुववू-हणा वि अइयारसंजणणी।।२१।। जइ संता वि नहुगुणा, पसंसणं पाउणति सत्ताणं / तो बहुकिले ससज्झ–ण को ताण आयर कुजा / / 22 / तो नाणाईविसए, गुणलेसं जत्थ जत्तियं पासे: संमत्तंग अवग-म्म तत्थ संसिजुतावइय!|२३|| जो पुण मच्छरवसओ, पमाइओ वा गुणे न संसिज / संते वि सो दुहाई, पावइ भवदेवसूरि व्व // 24 // पुच्छेइ हरी भययं ! भवदेवो नाम एस को सूरी ? | भणइ पह इह भरहे, आसि पुरा एस मुणिनाही // 25 // बुद्धीइ सुरगुरुसमो, नवरं चरणम्मि ईसिसिढिलमणो। तस्स य एगो सीसो, नामेणं बंधुदत्तु त्ति // 26 // सो पुण निम्मलचरणो, सुहममई वायलद्धिसंपन्नो। तक्कागमे य कुसलो, श्रमच्छिरिल्लो बिणीओ य / / 27 / तो तरस पायमूले, जिपसमयवियक्खणा समणसंघा। सत्थवियड्डा सड्डा-विणयप्पवणा कयंजलिणा // 28 // मिसुणति जिणिंदागम-मुवउत्तमणा तह त्ति जंपत्ता। पकुणति य बहुमाणं, पवित्तचारित्तजुत्तु त्ति // 26 // तो भवदेवो सूरी, मच्छरभरिओ विचिंतए हियए। म सुत्तु इमे मुद्धा, किं एयं पञ्जुवासंति // 30 // अहवा मुद्धा मुणिणो, गिहिणो व इमे कुणंतु जं किं पि। एस उण कीस सीसो, तहा मए दिक्खिओ वि कुड? // 31 // तह बहुसुओ मइ चिय, कओ वि तह गुरुगुणेसु ठविओ वि। में अवगाणिउं एवं, वट्टइ परिसाइ भेयम्मि।।३।। नरनाहम्मि जियंते,न छत्तभगो हवेइ एसो वि। एएण अणजेणं, मण्णेन सुओ जणपवाओ॥३३॥ जइ संपइ वारिजइ, इमो मए धम्मकहणमाईयं / तो मच्छरि त्ति लोगो, सुद्धो मं मन्नए एस / / 34 / / ता काउ उवेह चिय, इमम्मि मूढम्मि इण्हि मह उचिया। इय जा मच्छरपुन्नो, सो सूरी गमइ कइवि दिणे // 3 // ता पाडलिपुरनयरा-संघाएसेण तस्सपासम्मि। पत्तो मुणिसंघाड़ो, मुणी वि अब्भुट्टिओ सो वि॥३६।। अथ तस्य यतिपेतर्यति-जनस्य कृत्वा यथोचित सर्वम् / मुनिशङ्गा (संघा)टक एवं, संघादेशंन्यवीवदत्॥३७।। प्रज्ञाऽवज्ञातगुरु-र्विदुराऽऽख्योऽव्यत्कलिङ्गिक स्तत्रः स्वैरं विजहार चिरं,षड्दर्शनविप्लुतिं कुर्वन्॥३८|| तथाहिकाणादानमदान प्रनष्ठधिषणाऽऽधिक्यानवाक्यान् बहन, शक्याँ स्तर्कवचोविचाराबिमुखान् सारख्यानसंख्यामपि। कौलान् भ्रष्टबलान् निरस्तयशसो मीमांसकान व्यसकान कुर्वन् बारणवद्विशङ्कमचरत्सर्वा गर्वोद्धरः॥३६॥ संप्रति जैनमुनीन्द्रः सार्द्ध स्पर्धा चिकीर्षते दुष्टः। तदर्शनकृत्य मिदं, कर्तु तत्रौत लघु यूयम्॥४०॥ "इय साउंसो सूरी, जा चलिओ पाडलीपुराभिमुहं /