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________________ पक्कमहुर 67 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पक्खाभास पक्कमहुर त्रि० (पक्कमधुर) पक्व इव मधुरे, पक्वे सति मधुरे च / स्था०४ पक्खग त्रि० (पक्षग) मासार्द्धभाविनि, 'पक्खगा संजलणा कसाया।" ठा०१ उ०। कर्म०१ कर्म०। पक्कल कि० (समर्थ) गोणाऽऽदित्वात् समर्थस्थाने पक्कलाऽऽदेशः / शक्ते, पक्खज्जमाण त्रि० (प्रखाद्यमान) भक्ष्यमाणे, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२ उ०। प्रा०२ पाद / ''पक्का सहा समत्था, य पक्कला पंचला पोढा" / पाइ० / पक्खर्पिड पुं० (पक्षपिण्ड) बाहुद्वयकायपिण्डे, उत्त०१ अ०। ना० 36 गाथा। जानुजसोपरिवस्त्रवेष्टनाऽऽत्मके योगपट्टाऽऽश्रयके, बाहुद्वयेनैव कायबन्धापक्कीलिय त्रि० (प्रक्रीडित) वसन्तोत्सवाऽऽदिना प्रक्रीडितुमारब्धे, ऽऽत्मके वाऽऽसनभेदे, 'नेव पल्हथिए कुज्जा, पक्खपिंडं च संचए।'' कल्प०१ अधि०५ क्षण। जं०। विपा० / अन्त० / ज्ञा० उत्त०१अ०। पक्केजघर न० (पक्वगृह) पक्वेष्टकागृहे, व्य०४ उ०। पक्खर पुं०(पक्षर) अश्वाऽऽदीनां तनुत्राणविशेषे, विपा०१ श्रु०२ अ०। पक्केल्लव त्रि० (पक्च) स्वार्थे इलप्रत्ययः। अग्निना कृतपाके, उत्त० 4 अ०। | पक्खरा (देशी) तुरगसंनाहे, दे० ना०६ वर्ग १०गा। पक्ख पुं० (पक्ष) पतत्यनेन पक्षः। उत्त० 4 अ०।तनूरुडे, "जायपक्खा पक्खलंत त्रि० (प्रस्खलत्) श्रवपाताऽऽदौ प्रपतति, " पवडते य से जहा हंसा।" उत्त० 11 अ० / पार्वे, स्था०४ वा० 3 उ० / तत्थ, पक्खलते वसंजए।" दश०५ अ०१ उ०। दक्षिणवामाऽऽदिपाश्चे, स्था०२ ठा०४ उ०। कस्यचिदेकदेशभूते, रा०। पक्खलण न० (प्रस्खलन) गत्या भूमिसंप्राप्तौ, "भूमिए असंपत्तं पत्तं वा ज०। पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणे (स्था० 2 ठा०४ उ०। विशे०) मासार्द्ध, हत्थजाणुमादीहिं पक्खलणं णायव्यं / " भूमावसंप्राप्त हस्तजानुकाऽऽ दिभिः प्राप्तं वा प्रस्खलनं ज्ञातव्यम् / वृ०६ उ० / स्था०। ज०१ वक्षः / पञ्चदशाहोरात्रप्रमाणे, स्था०२ ठा०४ उ०। विपा०। पक्खलमाणी स्त्री० (प्रस्खलन्ती) प्रकर्षेण स्खलन्त्याम्, गत्या कर्म०। "पण्णरस अंहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो।" भ०६ श०७ गच्छन्त्यां भूमावसंप्राप्तायाम, बृ०६ उ० / स्था०। उ० / त० अनु० / आ०म० / मंगा "एगमेगस्सणं भंते! कतिपक्खा ? / पक्खवंत त्रि० (पक्षवत्) नृपवर्गीयपक्षसमन्विते, व्य०१ उ०) गोयमा ! दो पक्खा पण्णत्ता। तं जहाबहुलपक्खे, सुक्कपक्खे य।" जी० पक्खवाइ त्रि० (पक्षपातिन्) पक्षमेकपक्षाभिनिवेशं पातयति तिरस्करो२ प्रति० : दर्श० / 'सिलाधयिषया शून्या, सिद्धिर्यत्र न विद्यते / तीति पक्षपाती। क्वचिद् द्विष्ट क्वचिदनुरक्तेनैकपक्षानुरागिणि, स्या०। सपक्षस्तत्र युत्तित्वज्ञानादनुमतिर्भवेत्।।१।।" इत्युक्तलक्षणे हेतुसाध्या पक्खवाय पुं० (पक्षपात) अनुमोदनधर्मे आचारे, "जइ वि भणामि न धिकरणे अनुमानवाक्ये पक्षप्रयोगः / रत्ना० 3 परि० / "ज्ञातव्ये भत्ती, न पक्खवाओ अमग्गअगुणेसु / ' ध०२ अधिo। न ''श्रद्धयैव पक्षधर्मत्वे पक्षो धर्म्यभिधीयते / व्याप्तिकाले भवेद्धर्मः, साध्यसिद्धौ त्वयि पक्षपातः, न द्वेषमात्रदरुचिः परेषु / यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु, त्वामेव पुनर्द्वयम् // " रत्ना० 3 परि० / 'अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे 402 पृष्ठे वीरं प्रभुमाश्रयामः।।१।।" अष्ट 17 अष्ट। पक्षस्वरूपमुक्तम् ) पक्खवाह पुं० (पक्षवाह) वेदिकैकदेशविशेषे, जं०१ यक्ष० / जी०। पक्खआ अव्य० (पक्षतस्) दक्षिणाऽऽदिपक्षमाश्रित्येत्यर्थे, उत्त०१अ०। पक्षकदेशविशेषे, रा०। जी०। दशः / पार्श्वत इत्यर्थे, दश०८ अ०। पक्खाइपुं० (पक्षादि) अर्द्धमासप्रभृतौ, आदिशब्दाचतुर्मासाऽऽदिग्रहः / पक्खंत न० (पक्षान्त) अन्यतरस्मिन्निन्द्रियजाते, "अन्नतरं इदियजायं पञ्चा०१५ विव०। पक्खत भण्णइ।' नि० चू०६ उ०। प्रख्याति स्त्री०। यशसि, औ०। पक्खंतर न० (पक्षान्तर) पक्षविशेषे, आ० म०१ अ०२ खण्ड। पक्खाभास पुं० (पक्षाऽऽभास) पक्षदोषविशिष्टे, रत्ना०। पक्खंद शा०(प्रस्कन्द) प्र-स्कन्द आक्रमणे, "अगणिं व पक्खंद पक्षाऽऽभासांस्तावदाहुःपयंगसेणा।" अग्निं प्रस्कन्दथ वाऽऽक्रमथा उत्त०११ अ०। "पक्खंदे तत्र प्रतीतनिराकृ तानभीप्सितसाध्यधर्मविशेषणास्त्रयः जलिय जोई, धूमकेदुरासय।' प्रस्कन्दन्ति अध्यवस्यन्तिप्रस्कन्देत, पक्षाऽऽभासाः॥३५॥ प्राकृत्तवात् प्रस्कन्देयुः / उत्त०१२ अ०। दश०। प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणः, निराकृतसाध्यधर्मविशेषणः, अनभीप्सितपक्खंदण न० (प्रस्कन्दन) धावित्वा पतने, “पडणं तु उप्पतित्ता, साध्यधर्मविशेषणश्चेति त्रयः पक्षाऽऽभासा भवन्ति। अप्रतीतानिराकृतापक्रखंदण धाविऊण जं पडति, जं पुण अदूरओ आधाविता पडइ तं भीप्सितसाध्यधर्मविशिष्टधर्मिणां सम्यक्पक्षत्वेन प्रागुपवर्णितत्वादे तेषां पक्खदण / अहवा-उप्पाइय पक्खंदणं, तं पुण गिरिम्मि जुजइ, च तद्विपरीतत्वात् // 38 // रुखवियस्स जं उप्पइत्ता पडणं तं पक्खंदणं, हत्थेहिं वा लंविउ जं तत्राऽऽयं पक्षाऽऽभासमुदाहरन्तिअंदोलइत्ता पडइ. तं वा पक्खंदणं मरणं।'' नि०पू०११ उ० / प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणो यथा-आर्हतान् प्रत्यवधारणवर्ज पक्खंदोलग पुं० (पक्षयान्दोलक) यत्र पक्षिण आगत्याऽऽत्मानमान्दो- परेण प्रयुज्यमानः समस्ति जीव इत्यादिः॥३६। लयन्ति तस्मिन्, जी०३ प्रति० 4 अधि०। अवधारण वर्जयित्वा परोपन्यस्तः समस्तोऽपि वाक् प्रयोग
SR No.016147
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1636
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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