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________________ परिट्ठवणा 584 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा इ णायव्वमिति अणुवहए, (बोसिरणं ति) संजयसरीरस्स परिवणं, अह कोइ पडियरइ तस्सेव उवरि छुडभइ, एवं विप्पजहणा, विगिंचणा 'अवलोयण' बिइयदिणे निरिक्खणं ति। (सुहासुहगतीविसेसो य त्ति) णामंजं तत्थ तस्स भंडोवगरणं तरस विवेगो, जइरुहिरंताहेन छड्डेज्जइ, सुहासुहगतिविसेसो वंतराइसु उववायभेया यत्ति भणिय होइ। एसा | एकहा वा विहा वा मग्गो नजिहि ति, ताहे वोलकरणविभा-सा। अचित्तसंजयपारिट्ठावणिया भणिया। अचित्तासंजयमणुयपारिट्ठावणिया गया। आव० 4 अ०। इयाणिं असंजयमणुस्साणं भण्णइ। तत्थ गाहा (24) भोजनजातं परिगृह्य सुरभिं भुङ्क्ते, दुरभिं परिष्ठापयति, तस्य अस्संजयमणुएहिं,जा सा दुविहाय आणुपुव्वीए। प्रायश्चित्तम्सचित्तेहिं सुविहिया ! अच्चित्तेहिं च नायव्वा॥६६।। जे मिक्खू अण्णयरं भोयणजायं पडिग्गहित्ता सुभिं भुंजइ, इयं निगदसिद्धैव। तत्थ सचित्तेहि भण्णइ। दुन्भिं परिट्ठवेइ, परिट्ठवंतं वा साइज्जइ // 43|| कह पुण तीए संभवो त्ति ? आह सुभं सुब्भी, असुभं दुब्भी, शेषं पूर्ववत्। कप्पट्ठगरूयस्स उ, वोसिरणं संजयाण वसहीए। वण्णण य गंधेण य, रसेण फासेण जंतु उववेतं / उदयपह बहुसमागम विपज्जहाऽऽलोयणं कुज्जा / / 67 / / तं भोयणं तु सुन्भिं, तव्विवरीतं भवे दुन्भिं // 322 / / काइ अविरझ्या संजयाण वसहीए कप्पट्टगरूवं साहरेज्जा, सा तिहिं जं भोयणं वण्णगंधरसफासेहिं उवयेतं तं सुभि भण्णति, इतरं दुभिं। कारणेहिं छुटभेजा, कि ?-एएसिं उड्डाहो भवउत्ति छुहेजा पडिणीययाए, अहवाकाइ साहम्मिणी लिंगत्थी एएहिं मम लिंग हरियं ति एएण पडिणिवेसेण रसालमवि दुग्गंधिं, भोयणं तु न पूजियं / कप्पट्टगरूवं पडियस्सयसमीवे साहरेज्जा। अहवाचरिया तव्वण्णिगिणी सुगंधिमरसालं पि, पूइयं तेण सुब्भि तु // 323 / / वोडिगिणी पाहुडिया वा मा अम्हाणं अजसो भविस्सइ, तओ संजओव- गसेण उववेयं पि भोयण दुढिभगंधे ण पूजितं, दुनिभमित्यर्थः / अरसालं स्सगसमीवे ठवेजा, एएसिं उड्डाहो होउ त्ति, अणुकंपाए काइ दुक्काले पि भोयणं सुभगंधजुतं पूजितमित्यर्थः / दारयरूवं छड्डिउंकामा चिंतेइ-एए भगवंतो सत्तहियट्ठाए उवट्ठिया, एतेसिं घेत्तूण भोयणदुर्ग, पत्तेयं अहव एकातो चेव। वसहीए साह-रामि, एए सिं भत्तं पाणं वा दाहिति / अहवा -कहिं वि जे सुभिं भुंजित्ता, दुब्भिं तु विगिचणं कुज्जा / / 324 / / सेज्जायरेसु वा इयरघरेसु वा छुभिस्संति, अओ साहुवस्सए परिट्ट- सुभि दुभिंच भोयणं एकतो पत्तेयं वा घेत्तु जो साहू सुब्भि भोचा दुर्भि वेज्जा,भएण काइय रंडा पउत्थवइया साहरेज्जा, एए अणुकपिइहिति; परिवेति, तस्स मासलहु। तत्थ का विही? दिवसे 2 वसही वसहेहिं चत्तारि वारा परियचियव्वा, इमे य दोसापच्चूसे पओसे अवरहे अड्डरत्ते, मा मा एए दोसा होहिंति, जइ विगिचंती सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तथा दुविधं / दिद्रा ताहे बोलो कीरड-एसा इत्थिया दारयरूवं छडुऊण पलाइया, पावति जम्हा तेणं, दुब्भिं पुवेतरं पच्छा / / 325 / / ताहे लोगो एइ, ऐच्छइ यतं, ताहे सो लोगो जं जाणउतं करेउ, अह न कंठा। दिट्ठा ताहे विगिंचिज्जइ, उदयपहे जणो वा जत्थ पएसे पए निग्गओ इमे य दोसाअत्थइ,तत्थ ठवेत्ता पडिचरइ. अण्णओमुहो जहा लोगो नजाणइ, जहा रसगेहि अधिकखाए, अविधिखइंगालुपक्कमे माया। किंचि पडिक्खंतो अत्थइ, जहा तं सुणएण कारण वा मज्जारेण वा न लोभे एसणवाधातो, दिटुंतो अजमंगूहिं॥३२६|| मारिज्जइ, जाहे केणइ दिट्ठ ताहे सो ओसरइ / सचित्तासंजयम- रसेसु गेही भवति, अण्णसाहूहिंतो अहिग खायति-भोयणपमाणातो णुयपरिट्ठावणिया गया। अहिंगं खायति, एगओ गहियस्स उव्वरितु सुभं खायति, इतरं छड्डुटि, इयाणिं अचित्तासंजयमणुयपरिट्ठावणिया भण्णइ कागसियालगखइयं / कारगगाहा / एवं अविही भवति, इंगालदोसो य पडिणीयसरीरछुहणे, वणीवगाईसु होइ अचित्ता। भवति, रसगिद्धो गच्छे अधिति अलभंतो गच्छा उपक्कमति, तोऽवेक्ख कालकरणं, विप्पजहविगिचणं कुज्जा !|6|| अपक्रमतीत्यर्थः / मायी मंडलीए रसालं अलभंतो भिक्खागओ रसालं पडिणीओ कोइ वणीमवसरीरं छुहेज जहा एएसिं उड्डाहो भवउ त्ति, भोत्तुमागच्छति, भद्दकं भदगंभोचा विवण्णं विरसभाहारेत्यादि रसभोयणे वणीवगो वा तत्थागतूण मओ, केणइ वा मारेऊण एत्थ निघोसं ति लद्धो। एसणं पि पेल्लेति / एत्थ दिट्टतो- "अज्जमंगू'। जहा अज्जमंगू छडिओ, अविरइयाए मणुस्सेण वा उक्कलंबियं होज्जा, तत्थ तहेव बोल आयरिया बहुस्सुया बहुपरिवारा मधुरं (पुर) आगता, तत्थ सड्वेहि करेंति, लोगस्स कहिज्जइ-एसो णडो ति, उक्कलंबिए निविणेण वारेताणं धरिज्जति,ता कालंतरेण ओसण्णा जाता, कालं काऊण भवणवासीसु रडताणं मारिओ अप्पा होज्जा ताहे दिट्टे ण कालक्खेवो कायव्वो, उववण्णो, सो बहु-पडिबोहणट्ठा आगओ सरीरमहिमाए अद्भुकंताए जीह पडिलेहिऊण जइ कोइ नत्थि ताहे तत्थ कस्सइ निवेसण न होइ तत्थ णिल्लालेति। पुच्छिओ-को भवं? भणाति-अज्जमंगूहं साधू सवा य विगिंचिज्जइ उपेक्खेज्ज वा, पओसो वट्टइ संचरइ लोगो ताहे निस्संचरे अणुसासिउ गतो / एते दोसा पडिपक्खे अज्जसमुद्दा, ते रसगेहीभीता विवेगो जहा एत्थ आएसे ण उवेक्खेयव्यो ताहे चेव विगिंचिजइ, अइपहाए / एकतो सव्वं मेलेउ भुंजति, तं च अरसं विरसं वावि सव्व भुंजे ण छड्डुए। संचिक्खावेत्ता अप्पसागारिए विगिंचिज्जइ, जइ नस्थि कोइ पडियरइ. | सूत्राभिहितं च कृतं भवति।
SR No.016147
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1636
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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