________________ पुरंदर 1006- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरवर साहम्मियवच्छल्लम्मी, उज्जुओ निजिओ न करणेहि। पालंतोय फ्याओ, पयाउ इव वसणवारणओ // 26 / / कइया वि सो नरिंदो, बंधुमईसंजुओ सपरिवारो। ओलोयणोवविठ्ठो जा पिच्छइ निययपुरसोहं / / 27 / / ता बहुयडिभनयरेहिं वेदिओ कोटिओ व्व मच्छीहिं। धूलीधूसरदहो, निम्मियअइबहुलबोलो // 28 // दंडी खंडनिवसणो, कुद्धोधावंतओ चउदिसासु। दिट्टो स मित्तविप्पो, जेणं नाराहिया विजा / / 26 / / तं उवलक्खिय सरिया, विजा देवी निवेण इय भणइ, जणउवहासपरो वि-ज्जाइ विराहगो य इमो।।३०।। तो कुवियाए विमए, तुह दक्खिन्नेण मारिओ न इमो। सिक्खामित्तमिणं पुण, अह राया विनवइ एवं / / 31 / / जइ वि इमो एरिसगो, तहा वि सज्ज करेसु तं देवि !! काऊण मह पसायं, खमेसु एवं तु अवराहं॥३२॥ तो देवी तं विप्पं, सजीकाउं अदंसणं पत्ता। सक्कारिय जहउचियं, रन्ना वि विसज्जिओ एसो॥३३॥ इत्तो य चिरं कालं, पालियअकलंकचरणकरणगुणो। सो विजयसणसमणो, अणंतसुक्खं गओ मुक्खं // 34 / / राया पुरंदरो विहु, सिरिगुत्तं नंदणं ठविय रजे। सिरिविमलबोहकेवलि–पयमूले गिण्हइ चरित्तं // 35 // जाओ कमेण गीओ, एगल्लविहारपडिमपडिवन्नो। कुरुदेसट्ठियगामस्स बाहि आयावणापरमो / / 36 / / संदविय रुक्खपुग्गल-दिट्ठी सुज्झाणलीणपरमप्पा। जा चिट्ठइस महप्पा, वज्जभुएणं तु ता दिवो // 37 // तो कुविओ पल्लिवई, रे रे तइया मलित्तु मह माण। गच्छिहिसि कत्थ इर्णिह, इय भणिय स निट्ठरं पावो॥३८॥ मुणिणो चउद्दिसि झ, ति खित्तु तणकट्ठपत्तक्के। पिंगलजालाभरभरिय-नहयलं जालए जलण।।३।। तो जह जह डझंत, संकुडइ कलेवरे न सा जाला तह तह मुणिणो वड्डइ, झाणमसंकुडियसुहभावं // 40 // तत्तो चिंतइ रेजिय! अणतवाराउ ते सहियपुव्वो। इत्तो अणंतगुणदा-हदायगो निरयदहणो वि॥४१।। वणदवदुसहहुयासे, तिरिएसु विऽणंतसो तुम जीव!। दड्डो पर अकाम त्तणेण न तए गुणो पत्तो।।४।। इण्हि सहतस्स विसुद्धझाणिणो नाणिणो सकामस्स। तत्तो अणंतगुणिया थोवेण वि निजरा तुज्झ / / 43 / / ता सहसु जीव! सम्म, खणमित्तं काउ केवलं मित्त। एयम्मि पल्लिनाहे, अणंत कम्मक्खयसहाए।।४४|| इय सुहभावानलदड्ढकम्मगहणो पलित्तबहिगत्तो। स पुरंदररायरिसी, अंतगडो केवली जाओ॥४५|| वज्जभुओ विहु अइगरु–यपावकारि त्ति परियणविमुक्को। एगागी नस्संतो, निसि पडिओ अंधकूवम्मि॥४६।। कलखुत्तसारखाइय-कीलयविद्धोयरो दुहवंतो। रुद्दज्झाणोवगओ, मरिउं पत्तो तमतमाए।।४७|| जत्थय पुरंदररिसी, सिद्धो अमरेहिँ तत्थ हिट्ठहिं। महिमा विहिया परमा, गंधोदगवरिसणाईहिं // 48|| बंधुमई विहु अइसुद्धवंधुरं संजमं निसेवित्ता। वरनाणदसणजुया, परमानंदं पयं पत्ता / / 46 / / इत्यवेत्य गुणरागसंभवं, श्रीपुरन्दरनृपस्य वैभवम्। तत्तमेव भविका गुणाकाराः धत्त चित्तनिलये कृताऽऽदाराः / / 50 / / इति पुरन्दरराज वरितम्। ध० 20 1 अधि० 12 गुण / सुरपतौ,। "अक्खंडलो सुरवई, पुरंदरो वासवो सुणासीरो।" पाइ० ना०२३ गाथा। पुरंदरजसा स्त्री० (पुरन्दरयशस्) चम्पानगरीराजस्कन्दकभगिन्याम, नि० चू०१६ उ०। पुरंधी स्त्री० (पुरन्ध्री) भार्यायाम, "जाया पत्ती दारा,घरिणी भज्जा पुरंधी या" पाइ० ना०५७ गाथा। पुरक्खड त्रि० (पुरस्कृत) अवश्यप्राप्तव्यतयाऽग्रे कृते, पञ्चा० 4 विव० चं० प्र०। प्रज्ञा० अभिमुखे कृते. आ०म०१ अ०॥ पुरक्खडभाव पुं० (पुरस्कृतभाव) भाविनो भावस्य योग्ये आभिमुख्ये, आव०५ अ०॥ पुरक्खाय त्रि० (पुराख्यात) पूर्वकथिते सूत्रा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। पुरक्खार पुं० (पुरस्कार) पुरस्करणं पुरस्कारः। सर्वकार्येष्वग्रतः स्थापने, आचा० 1 श्रु०५ अ०४ उ०। ध०। पुरच्छा अव्य० (पुरस्तात्) पूर्वस्मिन्, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। दश०। पुरच्छिम त्रि०(पौरस्त्य) अन्यभागे, चं०प्र० 20 पाहु०। भ०। स्था० / पूर्वस्यां दिशि, स्था० 8 ठा०। सू० प्र०) पुरच्छिमदाहिणा स्त्री० (पूर्वदक्षिणा) अग्निकोणे, स्था०१ ठा० पुरच्छिमद्ध न० (पौरस्त्यार्द्ध) पौरस्त्यं पूर्वम्। पूर्वार्द्ध, स्था०२टा०३ उ०। पुरच्छिमा स्त्री० (पूर्वा) प्राकृतशैल्या मागधदेशीभाषावृत्त्यावा साधुत्वम् / ऐन्द्रयां दिशि, आचा० 1 श्रु०१ अ०१ उ०। स्था०| पुरच्छिमिल्ल त्रि० (पौरस्त्य) पूर्वदिग्वर्तिनि पर्वते, "चत्तारि-अंजणगपव्वया पण्णता। तं जहा-पुरच्छिमिल्ले०" इत्यादि / स्था०४ ठा० २उन पुरतोवाहत न० (पुरतोव्याहत)"जहा जीवे भंते! नेरतिए जीवे ? गोयमा! जीव सिय नेरतिए सिय अनेरतिए नरेतिए पुण नियमा जीवे !" इति पूर्वोपातव्याप्तियुक्ते, आ० चू०१ अ०। पुररक्ख पुं० (पुररक्ष) ग्रामरक्षके, "आरक्खो पुररक्खो / " पाइ० ना० 166 गाथा। पुरव त्रि० (पूर्व)"पूर्वस्य पुरवः ||४२७०|पूर्वशब्दस्य शौरशेन्यां पुरवाऽऽदेशो वा। 'पुव्व' शब्देऽभिहितार्थ, प्रा० 4 पाद। पुरवइ पुं० (पुरपति) पुरस्य पतिपुरपतिः। ग्रामाधिपतौ, आ० म०१ अ० पुरवर न० (पुरवर) नगरे, प्रश्न०३ आश्र द्वार। नगरैकदेशभूते, प्रश्न० 5 आश्र० द्वार। "पुरवरकवाडोवमे से वच्छे।'' पुरवरकपाटोपमं (से) तस्य वक्ष उरस्थल, विस्तीर्णत्वादिति / उत्त०२ अ०। राजधानीरूपे प्रधाननगरे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार।"पुरवरपरिघवट्टे।"पुरवरपरिघवत् नगरार्गलावत्वर्तितौ वृत्तौ बाह्यवर्तितौ च बाहू यस्य स तथा / औ०।सं।