________________ पुरंदर 1005- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरंदर शक्रेन्द्र, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / भ० / प्रज्ञा० / आ०म० जी० / आ० चू०। सूत्र०। अनु०। स्वनामख्याते राजनि, ध०र०। गुणानुरागे पुरन्दरराजवक्तव्यता यथागुणरागी गुणवंते, बहु मन्नइ निग्गुणे उवेहेइ। गुणसंगहे पवत्तइ, संपत्तगुणं न मइलेइ / / 16 / / गुणेषु धार्मिकलोकभाविषु रज्यतीत्येवंशीलो गुणरागी गुणवतो गुरुगुणभाजो यतिश्रावकाऽऽदीन् बहु मन्यते मनः प्रीतिभाजनं करोति। यथा--अहो धन्या एते, सुलब्धमेतेषां मनुष्यजन्मेत्यादि। तर्हि निर्गुणानिन्दतीत्यापन्नम्, यथा देवदत्तो दक्षिणेन चक्षुषा पश्यतीत्युक्ते वामने न पश्यतीत्यवसीयते। तथा चाऽऽहुरेके-'शत्रोरपि गुणा ग्राह्याः, दोषा वाच्या गुरोरपि।" इति / न चैतदेवं धार्मिकोचितमित्याह-निर्गुणानुपेक्षते-असंक्लिष्टचित्ततया तेषामपि निन्दा न करोति। यतः स एवमालोचयति"सन्तोऽप्यसन्तोऽपि परस्य दोषाः, नोक्ताः श्रुता वा गुणमावहन्ति। वैराणि वक्तुः, परिवर्द्धयन्ति, श्रोतुश्च तन्वन्ति परां कुबुद्धिम्॥१॥" "कालम्मि अणाईए, अणाइदोसेहिँ. वासिए जीवे। ज पावियइ गुणो विहु, तं मन्नह भो महच्छरियं // 2 // भूरिगुणा विरल चिय, एकगुणो विहु जणो न सव्वत्थ। निघोसाण विभह, पसंसिमो थोवदोसे वि।।३।। इत्यादि संसारस्वरूपमालोचयन्नसौ निर्गुणानपि न निन्दति, किं तृपेक्षते, मध्यस्थभावेनाऽऽस्त इत्यर्थः। तथा गुणानां संग्रहे समुपादाने प्रवर्तते यतते, संप्राप्तमङ्गीकृतं गुणं सम्यगदर्शनविरत्यादिक न मलिनयति न सातिचारं करोति, पुरन्दरराजवत्। ''अस्थि सयलामरहिया, नयरी वाणारसी हरिपुरि व्व। निद्दलियसत्तुसेणो, तत्थ नरिंदो विजयसेणो / / 1 / / तस्सासि कमलमाला, सुकमलमाल व्व गुणजुया देवी। पुत्तो पुरंदरो तह, पुरंदरो इव सुरूवधरो।।२।। सो पगईए गुणरा-गसंगश्रो चंगश्रो सुसीलेण। अणवरयं सो गिज्जइ. पुररमणीहिं गुणप्पसरो / / 3 / / तस्स मइदाणपउरिस-वन्नणपउणो विमुक्कनियकियो। अभिरमइ विवुहमग्गण-सुहडजणो सयलनयरीए / / 4 / / तं च तहागुणभवणं, सुणिउ ददु चतम्मि अणुरत्ता। गाढं अन्ना निवइ-स्स पणइणी मालई नाम !|5|| पेसेइ निययधाई, उजाणगय भणेइ सा कुमरं। एणतं काउ खणं, मह वयणं सुणसु कारुणिय! // 6 // कुमरेण वि तह विहिए, सा जंपइ निवइणो हिययदइया। मालइनामा देवी, भवस्स गंगेव सुपसिद्धा / / 7 / / सा तुह दंसणगुण सव–णपउण मयणुग्गअग्गिसंतत्ता। सिचउ कुमर! वराए, तुमए नियसंगमजलेणं / / 8 / / तं सुणिय चिंतइ इमो, अहह अहो मोहमोहिया जीवा। इहपरलोयविरुद्धे, वितहमकले पयट्टति / / 6 / / इय सविसाओ चिंतिय, तं धाई भणइ नरवरंगरुहो। मज्झत्था होउणं, मह वयण सुणसु खणमेगं / / 10 / / परनरभित्ते वि कुलं-गणाण जुतो न होइ अणुराओ। जो पुण पुत्ते वि इमो, सो अइदूरं चिय विरुद्धो।।११।। सुकुलुब्भवनारीओ, परपुरिस चित्तमित्तिलिहियं पि। रविमंडलं व ढुं दिट्टि पडिसंहरंति लहुं / / 12 / / विच्छिन्नकनकरचर-णनासमवि वाससयपरिमाणं। परपुरिसं कुलनारी, आलवणईहिं वजेइ / / 13 / / इय भणिय तेण धाई, विसज्जिया तीइ कहइसा सव्वं / तह विहु अढायमाणी, सा पेसइ दूइमन्नुन्नं / / 14 / / तत्तो विसन्नचित्तो, चिंतइ कुमरो हणेमि किं अप्पं?। अहवा परघाओ विव, पडिसिद्धो अप्पघाओ वि।।१५।। जइ य कहिजइ रन्नो, इमा वराई तओ विणस्सेइ। ता देसंतरगमण, जुत्तं मे सयलदोसहरं / / 16 / / इय वीमंसिय हियए, करकालयकरालकालकरवालो। नयरीओ निक्खंतो, कुमरो जा जाइ कि पि भुवं / / 17 // ता मिलिओ तस्सेगो, दिओ भणइ कुमरऽहं गमिस्सामि। सिरिसंडिभाविसइक्क-मंडणे नंदिपुरनयरे||१८|| कुमरो विआह अहमवि, तत्थेव गमी अहो ससत्थ त्ति। इय वत्तु दोवि चलिया, अग्गे अग्गे अणुव्विग्गा / / 16 / / अह उच्छुरिओ बहुस-ल्लभल्ल दुल्लल्लियभिल्ल संघजुओ। पल्लिवई वजभुओ, इय भणिओ तेण निवतणओ॥२०॥ मा भणसि जं न कहियं, रे रे एसऽम्हि तुभ पिउसत्तू। तो खलभलियं विप्पं, संठविउं भणइ कुमरो वि।।२१।। जं पिउरिउणो उचिय, तं बालो विहु इमो जणो कुणउ। करुणारसो जइ परं, किं पिखण नणु निवारेइ / / 22 / / इय सवियद्ध कुमर-स्स भणिय भायन्निऊण पल्लिवई। फुरियगुरुकोवविज्जू, वरिसइ सरविसरधाराहिं // 23 // खरमारुयलहरी इव, विहलावि य असिलयाइ ताउ लहुँ। कमरो किरणपओगा.चडिऊण रहम्मिचरडस्स // 24 // दाउंहियए पायं, करं करेणं गहित्तु अह भणइ। रे कत्थ हणामि तुम,स आह सरणागया जत्थ / / 25 / / चिंतइ कुमरो इमिणा, वयणेण निवारए पहारमिमो। सरणागयाण गरुया, जेण न पहरति भणियं च / / 26 / / नयणहीणहं दीणवयणहं करचरणपरिवजिहं, बालवुडवहुखंतिमंतहं विससियहं बाहिहयं / रमणि समणवणिसरण-पत्तहं दीणहं दुहियं दुत्थियहं। जे निइया पहरति, आसत्त विकुलसत्तमइ फुड पायालि नयंति इय भाविय सो मुक्को, पल्लिवई विन्नवेइ कुमरवरं। तुह अम्हि किंकरोऽहं, तुह आयत्तं सिरं मज्झ // 28|| इय सप्पणयं भणिउं, वज्जभुओ इच्छियं गओ देस। कुमरो वि दिएण सम, कमेण नंदिउरमणुपत्तो / / 26 / / तत्थ य बहिरुज्जाणे, वीसमइ इमो समाहणो जाव। ताव वरलक्खणजुयं, ससहरकरधवलसिचयधरं / / 30 / / गुणगप्पजुत्तं इंतं, कं पि नरं दक्ष चिंतए कुमरो। एयारिसा स्पुरिसा, नूण अरिहंति पडिवत्तिं // 31 / / तो अब्भुट्ठिय दूरा -- उ पायमवधारह त्ति जपेइ। उववेसिउं संठाणे, कयंजली विन्नवइ एवं // 32 / / सामि! तुह दंसणेणं, जायं सफलं ममागमणमित्थ। जइ नाइरहस्सं ता, पहुचरियं सोउमिच्छामि // 33 // अह सो निवसुयविणया-वज्जियहियओ इमं पसाहेछ। गुरुयं पि रहस्सं तुह,कहियव्वं किं पुण इमं ति ?|34 / / इह नाइसुदूरे सिद्धकूडसेलम्मि सिद्धबहुविजो। भूयाणंदो नामेण कुमार! निवसामि हं सिद्धो|३५|| मह अस्थि सारभूया, इक्का विज्जा अहाउयं थोवं। नाऊण अप्पणोऽहं, चिंतिउमेवं समारद्धो // 36||