________________ पुरंदर 1006- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुरंदर पत्तस्स अभावाओ, विज़ एयं करेमि कहमिहि। न य विजाए दाणं, उचियमपत्तेजश्री भणियं // 37 / / मरिज सह विजाए, कासे पत्ते वरं विका अपत्त नेव वाइज्जा, पत्तं तु न विमाणए।३।। इय चिंतिरस्स मज्झ, निवेइओ तीइ चेव विजाए। गुणरागचंगगुणगण-कुलिओ तं चिय सुजोग त्ति। तो त दाउमह तुह, समागओ गिण्ह भो महाभागः। जेण भवामो सुहिया, ओहरियभरु व्व भारवहा / / 4 / / एसा य महाविना, विहिणा संसाहिया पइदिणं पि। ऊसीसयम्मि ठावइ, कणयसस्सं निवंगरुह! / / 4 / / पायमिमीइ पभावा, संगामपराजयाइ न हु होइ। इंदियविसाईयं, पि नज्जए वत्थुजायं च // 42|| उल्लसिरविणयभरनमिर - मउलिकममेण निवइतणएण। संजोडियकरजुयले–ण तयणु इय वयणमुल्लवियं / / 43 / / गंभीरा उवसंता, निम्मलगुणरयणरोहणसमाणा। बुद्धि समिति समेया, गुणि जणअणुरायपरिकलिया / / 44 / / परिभमिरभुवणकित्ती, परोवयारिकमाणसा धणिय। पह? तुम्हारिस चिय, जुग्गा एवं रहस्साणं / / 45|| बालाण सुतुच्छमई-ण सुद्धविन्नाणनाणरहियाण। के अम्ह गुणा का अ-म्ह जुग्गया इय सुविजाण? // 46|| किं तु गुरुहि विहिया, पुरओ लहुणो विहुति कञ्जकरा। रविणा अग्गे विहिओ, अरुणो वि हणोइ तिमिरभरं / / 47|| तथाशाखामृगस्य शाखायाः, शाखां गन्तुं पराक्रमः। यत्पुनस्तीर्यतेऽम्भोधिः, प्रभावः प्रभवो हि सः / / 4 / / "अह भणइ सिद्धपुरिसो, जुग्गु चिय तं सि इय रहस्साणं। गुणराओ जस्सित्तिय-मित्तो विप्फुरइ चित्तम्मि।।४६।। जं दूरे ते गुणिणो, गुणगणधवलियअसेसमहिबलया। जेसिं गुणाणुराओ, वि ते वि विरला जओ भणियं / / 50 / / नागुणी गुणिनं वेत्ति, गुणी गुणिषु मत्सरी। गुणी गुणानुरागी च, विरलः सरलो जनः / / 51 / / "इय वुत्तु सबहुमाणं, तं विजं दाउ तस्स पभणे।। भद्द! इहं अडवीए, इगमासं सुद्धबंभधरो।।५२!! अट्ठउववासपुवं, कसिणचउद्दसिनिसिंइमं विज। सम्म साहिज्जतओ, अइउग्गुवसग्गवग्गंते॥५३।। रणितमणिवलयरसणा, पयडियअइदित्तकंतनियरूवा। वरसु वरं ति भणंति, सिज्झिस्सइ तुह इमा विज्जा / / 54|| थिरकरणत्थं पच्छ वि,धरिज बंभभिगमासमिय वुत्तुं। जा गमिही सो सिद्धो, तो विनतो कुमारेण / / 5 / / मह मित्तस्स इमस्त वि, दियस्स दिजउ इमा महाविजा। कयजयभूयाणंदो, भूयाणंदो वि जपेइ // 56|| भो कुमर! एस विप्पो, मुहरो तुच्छो अवन्नवाई या गुणरागेण विमुक्को, विजाए नेव जुग्गु त्ति // 57 / / अगुणम्मि नरे गुणरा-गवज्जिए गुत्तिअवन्नवाइम्मि। विजादाणं सप्पे, दुद्धपयाणं व दोसकरं / / 58|| किं च अपत्ते निहिया, विजा तस्सेव कुणइ अवयार। विज़ादायगगुरुणो, गरुयं तह लाघवं जणइ // 56 // तथाहिजह आमघडे निहिय, नीरं लह होइ से विणासाय। तह अप्पाहारनर-स्स होइ विजा अणत्थाय॥६०|| परिपूणगसमपत्ते, दितो बिज्जं गुरू वि पावे।। बहुविहकिलेसभारं, जणाववायाइदोसे य॥६१॥ भत्तिभरनिब्भरेणं, कुमरेणं पुण वि पभणिए सिद्धो। दाऊण माहणस्स वि, विजं पत्तो सए ठाणे॥६२।। तो पुव्वोइयविहिणा, कुमरेण पसाहिया महाविज्जा। पयडीहोउपभणइ, सिद्धाऽहं तुह सया भद्द! / / 63 / / किं तु दिओ कत्थ गओ, इचाइ तए न चिंतियव्वं पि। कालेण फुड होही, इय भणिय तिरोहिया देवी॥६४।। हा हा किं से जाय, ति चिंतिरो काउ तीऍ विजाए। पच्छा सेवं कुमरो, पत्तो नंदिउरमज्झम्मि॥६५।। विजाविइन्नचामी-यरेण बहुभोगदाणकलियस्सा मंतिसुएणं सिरिन-दणेण जाया य से पीई॥६६|| अह तत्थ पुरे सिरिसूर-राइणो मंदिरोवरि रमंती। बंधुमइनामधूया, हरिया केण वि अदिट्टण // 67 / / तो तव्विरहे राया, मुह मुहं मुच्छए रुयइ बहुसो। सयलोऽपि रायलोओ, सपुरजणो आउलो जाओ।।६८|| तं दट्ट तिलयमंती, भणेइ सिरिनंदणं नियं पुत्तं। वच्छ ! नरनाहतणया-ऽऽणयणोवायं विचिंतेसु / / 66 / / न हि तुह बुद्धितरीए, विणा इमो वसणसागरोगुरुओ। नित्थरि पारिजइ, तत्तो सिरिनंदणो भणइ / / 7 / / ताय! तुमम्मि वि संते, मह सिसुणो को णु बुद्धिअवयासो ? / उइए सहस्सकिरणे, रेहइ फुरियं नदीवस्स।।७१।। तिलयसचिवो वि जंपइ, न य एगतो इमो अहं वच्छ ! / जं पिउणो तणएहिं, गुणहिएहिं न होयव्यं / / 72 / / जओजड़सभवो वि चंदा, पिच्छह उल्लोयए तिहुयणं पि। पंकुब्भवं ति कमलं, वहंति अमरा वि सीसेणं / / 73 // सिरिनंदणो य जंपइ, जइ एयं तो तुह प्पभावेण। नाओ मए उवाओ, एगो तीए समाणयणे।।७४।। मेरु व्व थिरो चंदु,व्व सोम्मओ कुंजरो व्व सोंडीरो। भाणुव्व गुरुपयावो, गंभीरो नीरनाहु व्व / 75|| निवविजयसेणतणओ, पुरंदरो देसदसणवसेण। बाणारसीपुरीओ, भमिरो पत्तो इहं अस्थि // 76 / / मह मित्तं सो नजइ, विचिट्ठिएहिं व सिद्धवरविजो। बंधुमईआणयणे, सत्तो जइ ताव सो चेव / / 77 // तोऽणनाओ पिउणा, पत्तो सिरिनंदणो कमरपास। अन्मस्थिऊण निउण, कुमरं आणेइ निवमूले / / 75|| विहिओचियपडिवत्तिं, तं भणइ निवो अहो पमाओ मे। नियमित्तविजयसेणस्स नंदणो जमिह पत्तो वि॥७६।। नहु विनाओ संमाणिओ य न वि तो भणेइ वरकुमरो। देव! न वुत्तं जुत्तं, एवं तुम्हंजओ भणियं / / 8 / / गरुयाणं संमाणो, सु चिय जो माणसो पसाउत्ति। बहिपडिवत्तीओ पुण, मायावीण पि दीसति॥१|| तत्तो भूसन्नाए, रन्ना सिरिनंदणो समाइहो। तं वुत्ततं कहिउं, कुमरं पइ जंपए एवं // 8 // घीरवर! चिंतिऊणं, इत्थ उवायं करेसुतं किं पि। जं अम्हे सयलजणा, देवो य सुनिव्वुओ होइ।।३।। परकञ्जकरणसउज्जो, कुमरो वि पवज्जिऊण तं कन्न। पत्तो नियम्मि भवणे, विहिणा सुमरेह तं विजं / / 84 / /