________________ भरह 1402 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह अन्नं कहिज्जाहि न एत्थ खेत्ते / / 386 / / जीअंतए कि पि मए अजीयं, नो एत्थ अन्नो तुह कोइ मल्लो। मोत्तु ममं देव! नरीसमझ, दुएण सिट्टे पडियागरण // 360 / / सदेससंधीऍ झडि त्ति दो वि. ठिया ससेन्ना सबला सजोहा। जुज्झम्मि तो मल्लवरं तु गज्झे, सणक्खयं बाहुबली भणाइ॥३६१।। दलृ सयं भो किमिणा जणेण, निरावराहेण विणासिएण। जुज्झामु दो वी समगं तुरंगे, एयं पवण्णे पढमंतु जायं // 362|| दिट्ठीऍ जुज्झं तह वायवाह मुट्ठीहिँ दंडेहिं तओ य चक्की। सवत्थ हारेइ बलिस्स पासे, चितेइ तो एस किमेत्थ चक्की॥३६३॥ जस्संतिएऽहं तु बलप्पहीणो, तो देइ दंडाउह देवमेगो। तो धावई दंडमणस्सनेउं, इंत सगव्वं इह पासिऊण // 364 / / ता चिंतई बाहुबली सचिन्तो, पइन्नमुक्कस्स उवी न रत्तं / चूरेमि एवं अह मे न जुत्तं, धिरत्थु कामेण विसोधमाणे / / 365|| जेसिंकए जेट्टगभाउगस्स, चिंतिज्जई पावमचिंतणीयं / मणेण धी किंचिन अस्थि कज्ज, रजेण रट्टेण व भाउगेहिं // 366 // मे सुंदरं जंगहिया सुदिक्खा, कयंतु गिण्हामि अहं पिझ त्ति। तो गिहिउं दिक्ख मणे विचिंते, उप्पन्ननाणाइसया कणिट्टा // 367 / / चिट्ठति तेसिं छउमत्थदिही, कह कहं गत् करे पणाम। जेट्ठा भवित्ता नियभउगा वी, चिट्टामिता एत्थ ठिओ सुझाणे // 367|| खणं निरुस्सग्गगओ यजाव, उप्पज्जई नाणवरं विसालं। समत्थवत्थूणऽवभासगंज, सव्यण्णुभावज्झवसायजुत्तं // 366|| एवं पइन्नागयमाणहत्थि, सुमत्थयत्थो वरिसं अणूण। सीयाऽऽतवन्नीरपवाहपात वहिजमाणो वि न च प्पकंपे // 400 / / नाउं जिणो सुंदरिबंभनाम, अज्जाउ पेसेइ य वोहणत्य। वल्लीलयालीढतणुस्स तस्स, पुव्विं न सम्म पडिवज्जई हु॥४०१।। नगो व्व वल्लीलयलीढदेहे, दिह्रो सुई सत्तममत्तगेहे। वंदित्तु वत्ति क्किल हत्थिकंधे, रूढाण नो होइ हु दिव्वनाणं / / 402 / / विमुक्करज्जस्स सुचूजुयरस, विसुद्धलेसस्स असंगयस्स। कहंतु हत्थी रुहणं ममऽत्थि, न एत्थ अज्जा अलियं वयंति / / 403|| सकज्जमेयं वयणं चिराऊ, नायं जहा माणगयंदरूढो। को माणहेऊ गुणसायराणं, वंदामि पाए नियभाउगाणं // 404 / / एवं विचिंतित्तु महीतलाओ, जावेगपायं अह उक्खिवेइ। ता घाइकम्म सयलं दलित्तु, जाओ सयं केवलनाणधारी // 405 / / तो जाई पासे जिणनायगस्स, नमित्तु तित्थं परिसाएँ मज्झे। सुकेवलीणं विसई महप्पा, चक्की महिं भुंजइ एगछत्तं // 406|| अहऽन्नया चितइ माणसम्मि, मे भाउगा पव्वइया उ सव्वे ! न किंचि एयाऍसिरी' अस्थि, अद्धिं करेउं भरहे फलंति // 407 / / जओन पेच्छतिसुही पहिठ्ठा, सत्तूण वा जेन जणेइ दुक्खं / किं ताएँ रिद्धीए सुपावराए, तो देमि भोए नियभाउगाणं / / 408|| एवं च जा चिंतइ चक्कणाहो, सामी तहिं एइ सदेवसंघो। सीसाणुगो चामरछत्तजुत्तो, समागय नाउ जिणं नरीसो।।४०६।। सव्विविए गंतु जिणं नमित्ता, भोगेहिं तो छंडइ छेयबुद्धी। नेच्छति ते चत्तममत्तगेहा, चिंतेइतो नेच्छति चत्तसंगा॥४१०॥ किपाकभोगोवमभोगसंग, आहारदाणेण करेमि धम्म। सयाणि गड्डाण भरितु पंच, अन्नाऽऽइहारस्स गओ नरीसो।।४११॥ निमंतिउं वंदिउ भत्तिजुत्तो, कम्मतओ आहडरायपिंडं। न कप्पई सामिमिण भणेइ, चितेइ तो चत्तमहं जिणेणं / / 412|| झियायमाणो मणसा खणद्धो, जा चिट्ठई पुच्छइ ताव सको। कइविहो होइ अवम्गहो भो, - सामी ततो साहइ पंचभेओ।।४१३।। इंदस्सवक्कीसरमंडलिस्स,