________________ भरह 1394 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह नियर सयं गओ मज्नणगेहमज्झं।।१६४।। णहाणग्गिहाओ पडिणिक्खमित्ता, सामंतमाईहऽणुगम्ममाणे। पहाणमायंगसुखंवरूढो, पयाइ सिंधु सबलो बलिट्टो / / 165|| कमेण पत्तो रयणं पहाणं, __ चम्मं करेणं परिसंफुसेइ। जं नाम भूवं सलिले समुद्दे, अकयवित्थारविभूसियं तु॥१६६।। धन्नाण सव्वाण विठावियाणं, निप्फत्तिहेऊय दिणेसमज्झे। तो पक्खिये सिंधुतई मज्झे, तं वित्थरे वारस जोयणाई।।१६७।। सेन्नं समारोविय तत्थ सव्वं, सुहं सुहेणं तु नईतरि व्व। गामागरावासविहाररम्म, मडंवसंवाहसुकोट्टकिण्णं / / 168 / / सुसिंहले बद्ध मणीगणेहिं, सुअंचलोए परमं चरम्म। पहाणमण्णं जवणं व दीव, विचित्तनाणामणिहेमकोसं ||166|| सुयारवेलोमकएलसंडे, दीवाहिवासी वरनिक्खुडे य।। कलम्मुहे जोयणाए पयंडे, अन्ने य वेयड्डसि उत्तराउ॥२००|| मेच्छाण जाइं बहुयप्पयारं, चरेण जा सिंधुससागरंत। सव्वं च गच्छं अह ओयवेळ, सेणाहिणेयाऽखलियप्पयाओ।।२०१॥ मणोहरे तो य निउत्तिऊण, बहूसहे भूरमणिज्जभागे। तस्सेव गच्छस्स ठिओ पहिढे. __ताहे बहूदेसणगाण हिट्ठा / / 202 / / जयट्ठणाणं वरमंडलाणं, खेडाण दोणीमुहआगराणं। ते घेत्तु नाणामणि भूसणाई, दिव्वाइ अग्धाइ सुपाहुडाई॥२०३।। वत्थाइ नाणारयण इ चित्तं, रहाइ मायंगहयाइ सारं। रायारिहं जंच पवञ्जियव्यं, अन्नं च तं से उवणिंति तस्स // 204 / / कयंजलीओ पुण विन्नविंति, तुम्हेऽत्थ अम्हाण सुसामिय त्ति। नेया पहू देव इव प्पगिद्धा, तुम्हाण अम्हे विसओपभोगी / / 205 // एवं भणंता हियए पहिठ्ठा, सम्माणिउंसेन्नहिवेण सव्वे। सएसुगामेसु गयाउ मुक्का, ताहे सयं घेत्तु सपाहुडाई॥२०६।। अहीणआणेऽखलियप्पयारा, ठाणे तओ सेन्नसमत्थजुत्तो। सुहं सुहेणं नरनाहपासे, पच्चप्पिणाई सयलं तु रिद्धिं // 207|| पचंतियाणं नरनाहसेवा - पडिच्छणं साहइ भत्तिजुतो। बहुप्पयारं भरहाहिवेणं, विसजिओ पूइउ नेहसार।।२०८|| तओ सठाणे वरसेन्ननेया, गंतूण पासायवरोवरिम्मि। बत्तीसबद्धाइ सुनाडयाइ, लीलाए पेच्छं स सओवभुंजे // 206 / / ततो पुणो चक्किसुसेणनाम 'सेणावई सड्विउ आणावे। गच्छाहिं खिप्पं तिमिसगुहाए, चारुक्कवाडे य विहाडएह॥२१०।। तह त्ति आणं पडिवजिऊण, गतुंसयं पोसहमंदिरम्मि। निक्खित्तु सत्थेउ सुसंथरम्मि, ठाउं तओ कासि मुणि व्व संती॥२११॥ तयतिए पोसहमदिराओ ऽभिनिक्खमित्ता सुइहाणरत्तो। कप्पूरधूवागुरुगंधपुप्फ हत्थेसु चेडीगणगम्ममाणो।।२१।। जेणं कवाडे अह तेण गंतुं. महाविभूईए नरीसरो व्व। चकस्स वा कट्ट महामहं तु, दंडाभिहं तो रयणं पगिण्हे / / 213 / / जं वासतुल्लं वयरामयं ति, विणासणं सत्तुगणाण कंतं। सेन्नस्सुहो गंडदरीपवाय पब्भारडोलागसमीकर व / / 214|| सुहं च संति च हियं मणित्थं, मणोहराणं करणं पसत्थं। पच्चोसकिन्ना य पसत्थ सत्त, ओहाडएते य कवाडए उ॥२१५|| कुंचारवं चारुमहासरेण, सरस्सरासाररवं कुणते। सयाइँ ठाणाइँ ठिए कवाडे, एवं कहेई नरहाहिवस्स // 216|| चक्की च हत्थीवरखंधरूढो, मणिंच संगिहिउ आमुसेइ। रूवाहिए अंगुल तिणि माणं, अणग्घयत्तं सुबलं सयं च // 217 // अणोवमाभं मणिवेरुलीयं, दिव्यं सया सव्वजियाण क्त। मुद्धागय ज सयलं पि दुक्खं, हरेइ आरोगकरं सया वि॥२१८॥ तेरिच्छिया दिव्वमणुस्सया वि,