________________ भरह 1386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह भरहेसरचरिय"नाभेयनाहस्स फुडं पवित्तं, वत्तव्वमेत्थं चरियं विचित्तं। अइप्पसिद्धं ति विगप्पिऊणं, भव्वाण निव्वाणसुहावहं ति।।१।। मोत्तूण लेसेण भणामि कि पि, जम्माउ तम्मज्झगयं इमं पि। नाणापगार भरहाहिवस्स, सव्यं पि नेयं चरियं इमाउ॥२॥ पायं तहा विऽत्थ सुमज्झभाए, खित्तस्स एयस्स पुरी विसाला। दीहा उ सा वारसजोयणाई. वित्थारएणं नवजोयणाई॥३॥ सामिस्स रजस्सऽभिसेयकाले, गया मणूसा जलआणणत्थं सुरेसुरो आसणकंपबुद्धो, समागओ झ त्ति जिणेसरम्मि॥४॥ किरीडमाईभरणाभिराम, काऊण कप्पावणिजे च चिट्ठइ। सक्को जिणिंदस्सतडोवविठ्ठो, तावाऽऽगया घित्तु जलं घडेहिं / / 5 / / दुटुं जिणं भूसियलित्तगत्त, चितंति किं काउचियं इयाणिं। चिंचित्तु चित्तेण चिरं विणीया, सिंचंति सामि चलणोवरिम्मि / / 6 / / साहू विणीया पुरिस त्ति काउं, विणीयनामेण पुरी पहाणा। पुट्विं कया जा जिणरज्जकजे, तुट्टेण सक्केण तु देवरम्मा।।७।। रजं तहिं पालइ नाहिजाओ, नरिंददेविंदकयचणो य। सयं च सामी उसभो जिणिंदो, सद्धिं सजायाएं सुमंगलाए|८|| तहा सुनंदाभरहाऽऽइएहिं, सुएहिँ ऽणेगेहि य मुत्तमेहि। सद्दाइए कामगुणे विसाले, गमेइ कालं उवभुंजमाणो / / 6 / / तिसट्ठिलक्खंहिँ सुहं सुहेणं, पुव्वाण काऊण मणोभिरामं। रजिं सुरिंदो व्व वियाणिऊण, पव्वजकालं अह देइ दाण // 10 // संवच्छरं जाव किमिच्छियंतु, वंछाए निव्वाण पयाभिलासी। दाऊण भूमिं सयलं सुयाणं, पहाणरायं भरहं तु काउं / / 11 / / अन्नाण राईण सहस्सएहिं चक्कीहिँ सद्धिं अह लेइ दिक्खं। गामाऽऽगराऽऽरामविहारगेसु. पवण्णमोणो विहरेइ सामी // 12 // किंचं अकिचंच अपुच्छिऊण, पुब्बिं जहा सामि तहा वयं पि। काहामों किं वात्थ वियारिऊण, . काऊण लोयं तु वयं पवण्णा / / 13 / / नाणत्तयालोइयकिनभायो, सामी सयं ते वि अयाणमाणा। पुच्छिति सामिं न कहेइ किं यि, समाउला तण्हछुहाभिभूया।॥१४॥ जिणस्स हिंडितु कमाणुलग्गा, केई दिणे मूढमणा उताहे। चिति वि अम्हं किमियाणि कज्जे, कजं महाकिच्छमिण भणंति // 15 // भणंति ते मूढमणा जहा भो, सामि न पुच्छित्थकिम पिपुट्ठो। तण्हाछुहावाहियसब्दगत्ता, गच्छामों गेहं भरहाहिवंतो॥१६|| सामि पमोत्तूण कहं इहाया, पयण्णभंगो विन होइ रन्नो। फलासिणो होमाँ तणेसुसत्थे, पवत्तई जाव जिणो सुतित्थं / / 17 / / एवं विचिंतितु गया उ सव्वे, गंगानईए तडसंठिएसु। वणेसु ते वक्कलचीरधारी, कंदाइ मूलाइ फलाइ खंति // 18|| गया नमी वा विणमी कह पि. जिणस्स दिक्खासमए वि दो वि। समागया तं पियरं भणंति, कत्थं महाकत्थमिणं सुवक्कं / / 16 / / रजंच रटुंच पुरं च चित्तं, काउं विभागी सयणाइ दिन्नं। ताताय अम्हाण वि किं विदेहि, ___ भणंति ते नत्थि हु किंचि अम्ह // 20 // देवाण जक्खाण य किन्नराणं नराण नारीण य खेयराणं। सुहाण सव्वाण जिणं पमोत्तुं, नो अस्थि दाया भवुणेऽखिले वि।२१।। ताजाह तुब्भे तुरियं जिणस्स, पासे तिसंझं विणयावनम्मा। भत्तीऍ राहेहऽचिरेण देही, रजं च रटुं च पहाणलोए।।२२। गया तओ दो वि जिणस्स पासे, पासंति सामि ठियओवविलु। वीरासणाई करणोवउत्तं, भिक्खाएँ गेहंसु य रीयमाणं / / 23 / / सराण आणीय घडेहिं नीरं, सिंचंति भूमीऍतलं तिसझं। आजाणुमाणं कुसुमोक्यारं, काउंगमसंतिथुणंति एवं // 24 // तं माणदाया भुवणेऽखिले वि, नटे