________________ पइदिणकिरिया 12- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पउत्तसंतसिद्धिजोग णं वा किं च घेतूणं विराइयं पउरियजणाणं जहुत्तयाल समणुढे ज्जा, झियाइ ? गोयमा ! नो पदीये झियाइ०जाव नो पदीवचपए से णं गोयमा ! महापायच्छित्ती भवेञ्जा महा० १चू० झियाइ, जोई झियाइ।। पइदिणपूयाविहाण न०(प्रतिदिनपूजाविधान) अनुदिवसार्चनकरणे, (पदीवस्सेत्यादि) (झियायमाणस्स ति) ध्यायतो ध्मायमानस्य था, पञ्चा०८ विव०॥ ज्वलत इत्यर्थः / (पदीवे ति) प्रदीयो दीपयट्यादिसमुदायः। (झियाइ पइदिद्धंगत्रि० (प्रतिदिग्धाङ्ग) क्षाराऽऽदिना प्रतिदिग्धशरीरे, सूत्र०१ त्ति) ध्यायति, ध्मायते वा ज्वलति। (लट्ठी ति ) दीर्घयष्टिः (वत्ती नि) श्रु०५ अ०१ उ01 दशा। (दीवचंपए त्ति) दीपस्थगनकम्। (जोइ त्ति) अग्रिः / भ०८ श०६ षइबिंब पुं०(प्रतिबिम्ब) प्रतिच्छायायाम, "पनमथ पनयपकुप्पित- उ०ाउद्दीप्तदीपे, नि० चू०१ उ०॥"तस्सलोगप्पईवस्स।" प्रकृष्टपदार्थगोलीचलनग्गपइबिंब / " प्रा०४ पाद। " प्रतिबिम्बाऽऽत्मको भागः, प्रकाशकारित्वात्प्रदीपः / स०१ सम०। उत्त०।"पईयो दीवो।' पाई० पुसि भेदागहादयम्। प्रतिबिम्ब्यमानच्छायासदृशच्छायान्तरोद्भवः॥ 1 // " ना०२४४ गाथा। तादृश एव प्रतिबिम्बशब्दे-नोच्यते। द्वा०११द्वा०। * प्रतीप त्रि० प्रत्यनीके, "पईवपञ्चस्थिणो वामा।" पाइन्ना० 154 पइभय पुं० (प्रतिभय) प्राणिनं प्राणिनं भयं यर गात्रा प्रतिभयः। | गाथा। प्रतिप्राणिन भयप्रदे, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। पईहर न० (पतिगृह) "दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ "||8 114 / / इति पइभास पुं०(प्रतिभास) शुक्तचादाविव रजताऽऽदिबुद्धी, अ- यथार्थज्ञाने, वृत्ताविकारस्येकारः। भर्तृभवने, प्रा० 1 पाद। सम्म०१ काण्ड। पउअन० (प्रयुत) चतुरशीतिलक्षगुणिते प्रयुताङ्गे, अनु० / स्था०ा दिने, पइमारिया स्त्री०(पतिमारिका) भर्तृघातिकायां स्त्रियाम्, 'य- थैका दे० ना०६ वर्ग 5 गाथा। नर्मदा तीर्वा, जारसङ्गता।" आव०४ अ०। आ०चू० पउअंग न० (प्रयुताडग) चतुरशीतिलक्षगुणिते अयुते, स्था०२ ठा०४ ('गरिहा' शब्दे तृतीयभागे 850 पृष्ठे उदाहृता) उ०। अनु० / स्था। पइरिक त्रि०(प्रतिरिक्त) स्यादिविरहितत्वे, उत्त०२ अ01 - पउच्छंत त्रि० (प्रोञ्छत्) अञ्जनेनाञ्जति,नि० चू०३ उ०। एकान्ते, मुत्कले, प्रचुरे, भक्तपाने, बृ०४ उ०। पउंजंत त्रि० (प्रयुञ्जत्)उचारयति, "हासिंता साविता पवेएता पइरिक या स्त्री०(प्रतिरिक्तता) अनेकान्तसेवितायाम् , दश० आलोयंता पउंजता।" औ०।। २चून पउंजिता त्रि० (प्रयोक्तृ) प्रवर्तनशीले, स्था० 5 ठा०२ उ० / पइरिक्कसुहविहार त्रि० (प्रतिरिक्तसुखविहार) प्रतिरिक्ते एकान्ते / __ अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद् वा प्रयोजयितरि, स्था०५ ठा०१ उ०। सुखविहारोऽवस्थानशयनाऽऽदिरूपो यत्र स प्रतिरिक्तसुखविहारः। स्त्रीत्वं पउट्टपरिहार पुं० (प्रवृत्तपरिहार) परिवृत्य परिवृत्य मृत्या तत्रैवोत्पादे, प्राकृतत्वात्। एकान्ते विहारयोग्ये,जी०३ प्रति० 4 अधि०।भ०।। आ० म०१ अ० / "वणस्सइकाइयाओ पउट्टपरिहारं परिहरति / " पइरित्तु अव्य० (प्रकीर्य) वाप्येत्यर्थे , "पइरितु छल्लियं पुणो।' नि०चू० / परिवृत्य परिवृत्य मृत्वा यस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहारः परिवर्तितः 10 परिवर्तवाद इत्यर्थः / भ०१५ श०। पइलाइया स्त्री० (प्रतिलादिका) भुजपरिसर्पभदे, प्रज्ञा०१ पद। पउट्ठपु० (प्रकोष्ठ) कूर्परागेतनभागे, भ०११श०११ उ०। कत्नाविव देशे, पइल्ल पुं० (पदिक) चतुःपञ्चाशत्तमे महाग्रहे, "दो पइल्ला / ' स्था० प्रश्न 0 4 आश्र० द्वार / तं० पहुँचा' इति लोक-प्रसिद्ध हस्तावयवे, 2 ठा०३ उ०। कल्प०१ अधि०२क्षण। पइव पुं०(प्रतिव) स्वनागख्याते यादवे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। * प्रवृष त्रि० "उदृत्वादौ" // 6/1 / 131 // इति ऋत उत्वम्। कृतवर्षे, पइव्वया स्त्री० (पतिव्रता) पति भर्तारं व्रतयति तमेवाभिगच्छामि इत्येव / प्रा०१ पाद। नियम करोतीति पतिव्रता / ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० / आ०चू०। पउढ (देशी) गृहे, देना०६वर्ग: गाथा। पइसमय अव्य०(प्रतिसमय) प्रतिक्षणे, द्रव्या०१ अध्याला पउण पुं० (प्रगुण) प्रकृतो गुणो येन, प्रकृष्टो गुणो यस्य वा। ऋजुतावति, पईइणिराकय त्रि० (प्रतीतिनिराकृत) प्रतीतेरेव विरुद्ध वस्तु-दोषभेदे, दक्षे चा वाच०। 'पउणीकयं होमकुंड।" दर्श०३तत्त्व। यथाऽचन्द्रः शशी। स्था० 10 ठा०। पउत्त त्रि० (प्रयोक्त) कर्तरि, प्रयोगकर्तरि, "उवयारसयबंधणपपईव पुं० (प्रदीप) प्रदीप्यते इति प्रदीपः / 'पो वः / 831 // उत्ताओ।'' का प्रयुक्ताः, प्रयोकत्र्यो वा कर्व्यः / तं०। 231 / / इति पस्यवः। प्रा०१पादादीपकलिकायाम्, पिं०।दीपयट्या- / * प्रयुक्त न० प्रयोगे, व्यापारे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। दिसमुदाय, भ०८ श०६ उ०1 तैलदशाभाजने, भ०७ श०८ उ०।। पउत्तसंतसिद्धिजोग पुं० (प्रयुक्तसत्सिद्धियोग) प्रयुक्तः प्रदर्तितः पईवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाइ, लट्ठी सत्सिद्धियोगः सत्साधनव्यापारो येन स तथा। सत्सिद्धियोगप्रवर्तके, झियाइ, वत्ती झियाइ, तेल्ले झियाइ, पदीवचंपए झियाइ, जोई। षो०६ विव०।