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________________ प्राउ ११४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 प्रिय * "अन्ने ते दीहर लोअण, अन्नु तं भुअ जुअलु / अन्नु सधणथणहारु तं अन्नु जि मुहकमलु // 1 // अन्नु जि केसकलाषु, सु अन्नु जि प्राउ विहि। जेण णिअम्बिणि घडिअ, स गुणलावण्णणिहि / / 2 / / प्राइब मुणिहिंवि भंतडी, ते मणिअणा गणंति। अखइ निरामइ परमपइ, अज्ज विलउन लहंति // 3 // असुजले प्राइम्ब गोरिअ-हे सहि! उव्वत्ता नयणस। तें सम्मुह संपेसिआ, दिति तिरिच्छी घत्त पर / / 4 / / एसी पिउ रुसेसुहउँ, रुट्ठी मइँ अणुणेइ। पग्गिम्ब एइ मणोरह, दुक्करु दइउ करेइ / / 5 / / '' प्रा० 4 पाद। प्रिय त्रि० (प्रिय)"वाऽधो रो लुक्|| 8 / 4 / 398||" इति रलुग्वा अपभ्रंश। 'जइ भग्गा पारक्कडा, तो सहि मज्झु प्रियेण / ' प्रा० 4 पाद। इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुANDA श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमदविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे' पकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / / * अन्ने ते दीर्घलोचने, अन्यत्तद् भुजयुगलम्। अन्यः स धनस्तनभार--स्तदन्यदेव मुखकमलम्॥१॥ अन्य एव केशकलापः, स अन्य एव प्रायो विधिः / वेन नितम्बिनी घटिता 'सा गुणलावण्यनिधिः / / 2 / / प्राणो मुनीनामपि भ्रान्ति-स्तेन मणिकान् गणयन्ति। अक्षये निरामये परम-पदेऽद्यापि लयं न लभन्ते / / 3 / / अश्रुजलेन प्रायो गौर्याः, सखि! उद्वृत्ते नयनसरसी। तेन (अपरेण) संमुखे सपोषिते दत्तस्तिर्यग्घातं केवलम् / / 4 / / एष्यति प्रियो रुषिष्या - म्यहं रुष्टां मामनुनयति। प्राय दतान्मनोरथान्, दुष्कारन् दयिता करोति / / 5 / /
SR No.016147
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1636
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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