________________ परिट्ठवणा 572 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 परिट्ठवणा भावार्थस्त्वयम्''बेइंदियाणं आयसमुत्थं जलोगा गंडाइसु कलेसु गहिया तल्थेव विगिविजइ, सत्तुया वा आलेवणनिमित्तं ऊरणियास सत्ता गहिया | विसोहित्ता आयरे विगिचंति, असइ आगरस्स सत्तुएहिं समं निब्बाधाए, संसत्तदेसे वा कत्थइ होज्ज अणाभोगगहणं तं देसं चेव न गतव्यं, असिवाईहिं पभेज्जा जत्थ सत्तुया तस्थ कूरं मग्गइ न लहइ तद्देवसिए सतुए भग्गइ, असईए बितिए जाव ततिए, असइ पडिलेहिय 2 गिण्टइ, देला वा अइकमइ, अद्धाणं वा, संकिया वा मत्ते घेप्पति बाहि उज्जाणं देउले पडिसयस्स वा बाहिं रयत्ताणं पत्थरिऊणं उपरि एक घणमसिणं पडलं तत्थ पल्लच्छिज्जति, तिन्निऊरणयपडिलेहणाओ, नत्थि जइ ताहे पुणो पडिलेहणाओ तिण्णि मुहिओ गहाय जइ सुद्धा परिभुजंति, एगम्मि दिढे पुणो वि मूलाओ पडिलेहिज्जति,जे जत्थ पाणा ते मल्लए सत्तुएहि समं ठविज्जति, आगराइसु विगिचइ, नत्थि बीयरहिएसु विगिंचइ. एवं जत्थ पाणयं पि बीयपाए पडिलेहिता उग्गाहिए छुटभइ, संसलं जायं रसएहिं ताहे सपडिग्गह वोसिरउ, नत्थि पाय ताहे अंबिलिं पाडिहारियं मग्गउ, णो लहेज्ज सुक्कयं अबिंलि उल्लेऊणं असइ अण्णमि वि अंबिलिबीयाणि छोणं विगिंधइ. नत्थि बीयराहएसु विगिचइ, पच्छा पडिस्सए पाडिहारिए वा अपाडिहारियं वा तिकालं पाडलेहेइ दिणे दिणे, जया परिणय तहा विगिचइ, भायण च पडिअप्पिज्जइ, नत्थि भायण ताहे अडवीए अणगमणपहे छाहीए जो विक्खल्लो तत्थ खड्डु खणिऊण निच्छिडु लिंपित्ता पत्त णालेणं जयणाए छुड़भइ, एक्कसि पाणएणं भमडिइ, तं पि तत्थेव छुडभइ, एवं तिन्नि वारे, पच्छा कप्पेइ सण्हकट्टेहि य मालं करेंति चिविख-ल्लेणं लिपई, कंटयछ याए य उच्छाएइ, तेण य भाणएणं सीयलपा-णयंण लयइ, अवसावणेण कूरेण य भाविजइ, एवं दो तिणि वा दिवसे, संसत्तगं च पाण 1 असंसत्तगं च एगो न धरे, गंधेण विसंखिज्जइ, संसत्तं च गहाय न हिडिजइ, विराहणा होज, संसत्तं गहाय न समुद्दिसिज्जइ, जइ परिस्संता जे ण हिडति ते लिंति, जे य पाणा दिट्ठा ते मया होजा, एगेण पडिलेहियं बीएण ततिएणं सुद्धं परिभुजति एवं चेव महियस्स वि गालियदहियस्स नवणीयस्स य का विही ? महीए एगा उट्ठी छुन्भइ, तत्थ तत्थ दीसंति, असइ महियस्स का विही? गोरसधोवणे, पच्छा उणहोदयं सियलावि-जइ, पच्छा महुरे चाउलोदए तेसु सुद्ध परिभुज्जइ, असुद्ध तहेव विवेगो दहियस्स, पच्छओ उयन्ता णियते पडिलेहिज्जइ, तीराए सुत्तेसु वि एस विही परो वि आभोगणाभोयाए ता णि दिल्जा। तेइंदियाण गहणं सत्तुयपाणाण पुव्वभणिओ विही तिलकीडिया वितहेव दहिए वारल्ला तहेव छगणकिमिओ वितहेव सधारगो वा गहिओ घुणाइणा णाएतहेब तारिसए कट्टे संकामिज्जइ, उद्देहियाहिं गहिए पेत्ति णत्थि तस्स विगिचणया, ताहे तेसि वि लोढाइज्जइ, तत्थ अइंति लोए, छप्पइयाउ विसामिजंति सत्तदिवसे, कारणगमणं ताहे सीयलए निव्वाघाए / एवमाईण तहेव आगरे निव्वाघाए विवेगो कीडियाहिं संसत्ते पाणाइ जइ जीवति खिप्पं गलिजइ, अहे पडिया लबाडेणेव हत्थेण / उद्धरेयव्वा, अलेवडयं चेव पाणय होइ, एवं मक्खिया वि, संघाडएण पुण एगो भत्तं गेण्हइ, मा चेव छुडभइ बीआ पाणय, हत्था अलेगडओ चेव, जइ वि कीडिमाउ मइयाउ तह वि गालिजति इहरहा मेहं उवहणंति, मच्छिगहि वमी हवइ जइ तं दुलोयगमाइसु पूयरओ ताहे पगासे भायणे युहित्ता पोत्तेण दद्दरओ कीरइ, ताहे कोसएणं खोरएण वा उक्कडिजइ, थोवएण पाणएण समं विगिविज्जइ, आउक्कायं गमित्ता कट्टेण गहाय उदयस्स ढोइज्जइ, ताहे अप्पणा चेव तत्थ पडइ, एवमाइ तेइंदियाण, पूयलिया कीडियाहिं संसत्तिया होजा, सुक्कओ वा कूरो, ताहे झुसिरे विक्खिरिजइ तहव तत्थ ताओ पविसंति, मुहत्तयं च रक्खिजइ जाव विप्पसरियाओ। चउरिदियाणं आसमक्खिया अक्खिाम्म अक्खरा उकड्डिज्जइ तिघेप्पइ, परहत्थे भत्ते पाणएवा जइ मच्छिया त अणेसणिज्ज संजयहत्थे उद्धरिजइ, नेहँ पडिया छारेण गुंडिजइ, कोत्थलगारिया वा वच्छेत्थे पाए वा घरं करेजा सव्वविवेगो, असइ छिदित्ता अह अन्नम्मिय घरए संकामिजंति, संथारए मकुणाणं पुव्वगहिएतहवघेप्पमाणे पायपुछाो वा जइ तिनि वेलाउपडिलेहिज्जतो दिवसे 2 संसज्जइ, ताहे तारिसएहि चेव कट्ठहिं संकमिजंति, दंडए एवं चेव, भमरस्स वितहेव विवेगो, सअंडए सकट्ठस्स विवेगो, पूतरयस्स पुव्वभणिओ विदगो, एवमाइ जहासंभव विभासा कायव्या।' गता विकलेन्द्रियत्रसपरिस्थापनिका / आव० 4 अ०। (अशुद्धस्य गृहीतस्याऽऽहारस्य परिष्ठाप्यत्व गोयरचरिया शब्दे तृतीयभागे 666 पृष्ठे उक्तम्) (2) उदकंससक्तस्याऽऽहारस्य परिष्ठापनिका। तत्र सूत्रम्निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतो पडिग्गहंसि दगे वादगरए वा दगफुसिए वा परियावएज्जा, से य उसिणे भोयणजाते भोत्तव्ये सिया, से य सीए भोयणजाते, तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अन्नेसिं अणुप्पदेजा, एगंते बहुफालुए थंडिले पडिलेहित्ता,पमज्जित्ता परिट्टवेयच्येसिया।।१२। अस्य संबन्धमाहआहारविही वुत्तो, अयमण्णो पाणगस्स आरंभो। कायचउक्काऽऽहारे, कायचउक्कं च पाणम्मि।।२१७।। आहारविधिः पूर्वसूत्रे उक्तः / अयं पुनरन्यः पानकस्य विधि-प्रतिपादनाय सूत्राऽऽरम्भः क्रियते। तथा आहारोऽनन्तरसूत्रे प्राणग्रहणन त्रसाः बीजग्रहणेन वनस्पतिकायो, रजोग्रहणेन पृथिव्यशिकायाविति कायचतुकमुक्तम् / इहापि पानककायचतुष्कमुच्यते-तत्र शीतोदकमप्कायः, उष्णोदकमनिकायो, नालिकेरपानकाऽऽदि वनस्पतिकायो दुग्धं त्रसकायः, एवं चत्वारोऽपिकाया अत्राऽपि संभवन्तीति। अनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य व्याख्यानिन्थस्य गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टस्यान्तः प्रतिग्रहे भक्तपानमध्योदकं वा प्रभूताष्कायसूपं, दरकजो वा, उदके बिन्दुकस्य शतं वा, उदकशीकराः पर्यापतेयुः, तोष्ण भोजनजातं ततो भोक्तव्यम् / अथ शीतं तत् भोजनजातं ततस्तन्नाऽऽत्मना भुञ्जीत, नान्येषां प्रदद्यात् / एकान्ते बहुप्राशुके प्रदेशे परिष्ठापयितव्यं स्यादिति सूत्रार्थः।