________________ पत्थिव 434 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 पद्धर असिद्धकर्मोद्योगी 16 च, प्रवीणः शस्त्र 20 शास्त्रयोः 21 / चन्द्रादीनां दक्षिणमेव मेरुर्भवति यस्मिन्नावर्त्तमण्डलपरिभ्रमणरूपे स निग्रहा 22 ऽनुग्रहपरो 23, निलञ्चो दुष्टशिष्टयोः 24 / / 4 / / प्रदक्षिणः,प्रदक्षिण आवर्ती येषां मण्डलाना तानि प्रदक्षिणाऽऽवर्तानि। उपायार्जितराज्यश्री 25 -दनिशौण्डो 26 ध्रुवं जयी 27 / मेरुदक्षिणत आवर्ते,जी०३ प्रति० 4 अधिका न्यायप्रियो 28 न्यायवेत्ता 26, व्यसनानां व्यपासकः 30 // 5 // पदित्त त्रि० (प्रदीप्त) प्रकर्षेण दीप्तः प्रदीप्तः। अत्यन्तदीप्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अशार्यवीर्यो 31 गाम्भीर्यो ३२-दार्य 33 चातुर्यभूषितः 34 / / अ०। अन्त। प्रणामावधिकक्रोध 35 -स्तात्त्विकः सात्विको 36 नृपः // 6 // एते | पदिसा स्त्री० (प्रदीश्) प्रगता दिक् प्रदिक् / विदिशि, आचा०१ श्रु०१ पाठसिद्धार्थाः / जं० 3 वक्ष०1"नरनाहो पत्थिवो नियो राया।" पाइ० अ०६ उ०। ना० 100 गाथा। पदिस्स अव्य० (प्रदृश्य) प्रकर्षण दृष्ट्रेत्यर्थे, 'पदिस्सा य दिस्सा पत्थीण न० (देशी) स्थूलवस्त्रे, देना०६ वर्ग 11 गाथा। वयमाणा / " भ० 18 श० 8 उ०। पत्थुय त्रि० (प्रस्तुत) अधिकृते, पंञ्चा० 18 विव० / आव० / अनु०। | पदीव पुं० (प्रदीप) प्रदीपयतीति प्रदीपः / विशे० / ज्वलितो-ज्ज्वले. विशे०। सूत्र। प्रश्र०२ आश्र० द्वार। दीपे प्रकाशवत्यर्थे, विशे०। पत्थेमाण त्रि० (प्रार्थयमान) अभिलषति, "अन्नं पि य से नाम, कामा | पदीविय त्रि० (प्रदीपित) उज्ज्वालिते, को०। रोग त्ति पंडिया विति। कर्म पत्थेमाणे, रोगे पत्थेइ खलु जंतू // 1 // " | पदुक्खेव पुं० (प्रत्युत्क्षेप) मुरजकंसिकाघातोत्थानध्वनौ, स्था० 7 ठा०। दश०२ अ०। * प्रतिक्षेपपुं० मुरजकंसिकाघातोत्थानध्वनौ, स्था०७ ठा० / पद न० (पद) पद्यते इति पदम् / अर्थपरिसमाप्तियुक्ते शब्दे, पं०५०१ पदुट्ठ त्रि० (प्रदुष्ट) प्रद्वेषमापन्ने, बृ० 3 उ० / प्रद्वेष गते, उत्त० 32 अ०। कल्प।''अत्थुवलद्धी जत्थ तु, तं होति पदं ति।" प०भा०१ कल्प। पदुम्भेश्य न० (पदोद्भेदक) पदविभागपदार्थमात्रकथनपरे पारायणे, व्यक भ० / ('पय' प्रकरणे विस्तरं वक्ष्यामि)। 3 उ०। पदअ धा० (गम) गतौ, "गमेरई-अइच्छाणुवज्जावजसोक्कु -साकु- 1 पदूमिय त्रि० (प्रदून) प्रकर्षेण क्लेशिते, बृ०३ 301 स-पच्चड्डु-पच्छंद णिम्मह-णी-णीण-णीलुक-पद-अ-रम्भ- | पदेस पुं० (प्रदेश) धर्मास्तिकायाऽऽदीनां परमनिकृष्टंऽशे, उत्त०१ अ०। परिअल्ल-वोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहाव-हराः" पदेसयंत त्रि० (प्रदेशयत्) प्ररूपयति, विशे० / / / 8 / 4 / 162 / / इति सूत्रेण गमधातोः 'पदआ' आदेशः। पदअइ। पदेससंजोग पुं० (प्रदेशसंयोग) प्रदेशानामितरेतरसंयोगाऽऽख्ये गच्छति / प्रा०४ पाद। संयोगभेदे, उत्त० 1 अ०। ('संजोग' शब्दे विवृतिः) पदग पुं० (पदक) पिशाचभेदे, प्रज्ञा०१ पद। पदोस पुं० (प्रद्वेष) अतिमाने, नि०चू०१ उ०। "पदोसेण पडिसेवमाणस्स पदग्ग न० (पदाग्र) पदानामग्रं पदाग्रम्। पदपरिमाणे, नि०चू० 1 उ०।। __ असुद्धो भवति।" नि०चू०१ उ०। सूत्र०। स० ! पदप्रमाणे, आचा०१ श्रु०१०१ उ०। * प्रदोष पुं० दिवसाऽवसाने, पञ्चा०२ विव०। पदट्ठवणा स्त्री० (पदस्थापना) गणिवाचनाऽऽचार्याऽऽदिपद-प्रतिष्ठापने, | पद न० (पद्र) लघुग्रामे, ''गामहडं खेडयं पह।" पाइ० ना० 152 गाथा / ध०२ अधि०। ग्रामस्थाने, दे०ना०६ वर्ग 1 गाथा। पदबद्ध न० (पदबद्ध) गेयपदैर्निबद्धे, स्था०७ ठा०। पद्धइ स्त्री० (पद्धति) प्रक्रियायाम, प्रति०। पङ्क्ती , स्था० 2 ठा० 4 पदमग्ग पुं० (पदमार्ग) पदानां मार्गे सोपाने, पदमार्ग संक्रामति, "जे भिक्खू उ०। परिपाट्याम्, आ०म० अ०। पदमग्गं वा संकम वा अवलंवणं वा अन्नउथिएण वा गारथिएण वा | पद्धंसाभाव पुं० (प्रध्वंसाभाव) नाशाऽपरपर्यायसंसर्गाभावे, रत्ना० कारेति, कारत वा साइजई"।११। नि००१ उ०। ('अण्णउत्थिय' प्रध्वंसाभावं प्राऽऽहु:शब्दे प्रथमभागे 488 पृष्ठे व्याख्यातमिदम्-११ सूत्रम्) यदुत्पत्तौ कार्यस्यावश्यं विपत्तिः सोऽस्य प्रध्वंसाभावः // 61 / / पदविग्गह पुं० (पदविग्रह) पदपृथक्करणे, आ०म०१ अ०। यस्य पदार्थस्योत्पत्तौ सत्यां प्रागुत्पन्नकार्यस्यावश्यं नियमेन, पदसम न० (पदसम) पदं गेयपदं नासिकाऽऽदिकमन्यतरबन्धनेन बद्धं / अन्यथाऽतिप्रसङ्गाद, विपत्तिर्विघटनम्, सोऽस्य कार्यस्य प्रध्वंसाऽयत्र स्वरेऽनुयाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीत गीयते तादृशे गेयगुणे, स्था० भावोऽभिधीयते // 61 // ७ठा०॥ उदाहरन्तिपदाण न० (प्रदान) वितरणे, आव० 4 अ०॥ यथा कपालकदम्बकोत्पत्ती नियमतो विपद्यमानस्य कलशस्य पदाहिण पुं० (प्रदक्षिण) प्रकर्षेण दक्षिणे, जी०३ प्रति०४ अधिo, कपालकदम्बकम् // 62 // रत्ना० 3 परि० / पदाहिणावट्टपुं० (प्रदक्षिणावर्त) प्रकर्षेण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमता पद्धर (देशी) ऋजौ, दे०ना०६ वर्ग 10 गाथा।