________________ भत्तपरिण्णा 1364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भत्तपाणपडियाइक्खिय सो कायमणिकएणं, वेरुलियमणिं पणासेइ॥१३॥ दुक्खखयं कम्मखयं, समाहिमरणं च बोहिलाभो य। एवं पत्थेयव्वं, न पत्थणिज्जं तओ अन्नं / / 136 // उज्झिय नियाणसल्लो, निसिभत्तनिवित्तसमिइगुत्तीहिं। पंचमहव्वयरक्खं, कयसिवसुक्खं पसाहेइ।।१४०।। इंदियविसयपसत्ता, पडंति संसारसायरे जीवा। पक्खि व्व छिन्नपक्खा, सुसीलगुणपेहुणविहूणा / / 141 / / न लहइ जहा लिहतो, सुहिल्लियं अट्ठियं रसं सुणओ। सोसइ तालुयरसियं, विलिहंतो मन्नए सोक्खं / / 142 / / महिलापसंगसेवी, न लहइ किंचि वि सुहं तहा पुरिमो। सो मण्णए वराओ, सयकायपरिस्सम सुक्खं // 143 / / सुट्ट विमग्गिजंतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो। इंदियविसएसु तहा, नत्थि सुहं सुद्ध विगविट्ठ / / 144|| सोएण पवसियपिया, चक्खूराएण माहुरो वणिओ। घाणेण रायपुत्तो, निहओ जीहाइ सोदाओ / / 145 / / फासिंदिएण दुट्ठो, नट्ठो सोमालियामहीपालो। एकिकेण वि निहया, किं पुण जे पंचसु पसत्ता / / 146 / / विसयाविक्खो निवडइ, निरविक्खो तरइ दुत्तरभवोहं / देवीदीवसमागय-* भाउअगा दुन्नि दिटुंता / / 147 / / छलिया अवयक्खंता, निरावयक्खा गया अविग्घेणं / तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण होयव्वं / / 148|| विसए अवयक्खंता,पडंति संसारसायरे घोरे। विसएसु निराविक्खा, तरंति संसारकंतारं / / 146 / / ता धीर धिइबलेणं, दुईते दमसु इंदियगइंदे / तेणुक्खपडिवक्खो, हराहि आराहणपडागं / / 150 / / कोहाईण विबाग, नाऊण य तेसि निग्गहेण गुणं / निग्गिण्ह तेण सुपुरिस ! कसायकलिणो पयत्तेण / / 15 / / जं अइतिक्खं दुक्खं, जं च सुहं उत्तिमं तिलोईए। तं जाण कसायाणं, वुड्डिक्खयहेउयं सव्वं // 152 / / कोहेण नंदमाई, निहया माणेण फरसरामाई। मायाए पंडरज्जा, लोहेणं लोहणंदाई ||153|| इयउवएसामयपा-णएण पल्हाइयम्मि चित्तम्मि। जाओ सुनिव्वुओ सो, पाऊण व पाणियं तिसिओ॥१५४|| इच्छामो अणुसहि, भंते! भवपंकतरणदढलडिं / जं जह उत्तं तं तह, करेमि विणयाऽणओ भणइ / / 155 / / जइ कह वि असुहकम्मो-दएण देहम्मि संभवे वियणा। अहवा तण्हाईया, परीसहा से उदीरिजा॥१५६|| निद्धं महुरं पल्हा-यणिज्ज हिययंगम अणलियं च / तो सेहावेयव्वो, सो खवओ पण्णवंतेण / / 157|| संभरसु सुयण ! जंतं, मज्झम्मि चउव्विहस्स संघस्स। छूढा महापइण्णा, अहयं आराहइस्सामि / / 15.8 / / अरहंतसिद्धकेवलि-पचक्खं सव्वसंघसक्खिस्स। पचक्खाणस्स कय-स्स मंजणं नाम को कुणइ ? ||156 / / भालुकीए करुणं, खतोतो धोरवेयणातो वि / आराहणं पडिवन्नो, झाणेण अवंतिसुकुमालो // 16 // मुग्गिल्लग्गिरिम्मि सुको-सलो वि सिद्धत्थदइयओ भवयं / वग्घीए खजंतो, पडिवन्नो उत्तम अटुं / / 161 // गोटे पाओवगओ, सुवंधुणा गोमए पलिवियम्मि। डज्झंतो चाणक्को, पडिवण्णो उत्तम अटुं / / 16 / / अवलंविऊण सत्तं, सुमं पिता धीर ! धीरयं कुणतु। भावेसु य नेगुण्णं, संसारमहासमुदस्स / / 163 / / जम्मजरामरणजलो, अणाइमं वसणसावयाइण्णो। जीवाण दुक्खहेऊ कह रुद्दो भवसमुद्दो // 164 / / धबोऽहं जेण मए, अणोरपारम्मि भवसमुद्दम्मि। भवसयसहस्सदुलह, लद्धं सद्धम्मजाणमिणं // 165 / / एयस्स पभावेणं, पालिज्जंतस्स सइपयत्तेणं / जम्मंतरे वि जीवा, पावंति व दुक्खदोगचं / / 166 / चिंतामणी अउव्वो, एयमउव्वो य कप्परुक्ख त्ति। एसो परमो मंतो, एयं परमामयं अत्थ / / 167 / / अह मणिमंदिरसुंदर-फुरंतजिणगुणनिरंजणुज्जोओ। पंचनमुक्कारसमे, पाणे पणओ विसजेइ॥१६८|| परिणामविसुद्धीए, सोहम्मे सुरवरी महिड्डीए। आराहिऊण जायइ, भत्तपरिण्णं जहण्णं सो॥१६६|| उक्कोसेण गिहत्थो, अचुयकप्पम्मि जायए अमरो। निव्वाणसुहं पावइ, साहू सव्वट्ठसिद्धिं वा / / 170|| इय जोईसरजिणवी-रभद्द भणियाणुसारिणीमिणमो। भत्तपरिणं धन्ना, पढ़ति भावंति सेवंति।।१७१।। सत्तरिसयं जिणाणं, वगाहाण समयक्खित्तपण्णत्तं। आराहतो विहिणा, सासयसोक्खं लहइ मोक्खं / / 172 / / इति श्री भत्तपरिन्ना सम्मत्ता। भत्तपाणपडियाइक्खिय पु० (भक्तपानप्रत्याख्यात) भक्तं च पानं च भक्तपाने प्रत्याख्यायेते येन स तथा। क्तान्तस्य परनिपातः, सुखाऽऽदिदर्शनात्। भक्तप्रत्याख्यानवति, व्य०१ उ० भ०।०। अनशनिनि, कल्प०३ अधि०२क्षण। भत्तपाणपडियाइक्खियं निग्गंथिं निग्गंथे गिण्हमाणे नाइकमइ॥१२॥ अस्य संबन्धमाहपच्छित्तं इत्तरिओ, होइ तवो वण्णिओ य जो एस। आवकथितो पुण तवो, होति परिण्णा अणसणं तु // 204|| प्रायश्चितरूपं यदेतत् तपोऽनन्तरसूत्रो वर्णितमेतत्तप इत्वरू * ''भाउअजुयलं च भणियं च" इति पाठान्तरम्।